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बुद्ध महापरिनिर्वाणाद 2850
पालि-हिन्दी
शब्दकोश
(प्रथम भाग, प्रथम खण्ड)
जलद
महायात
महाविहार, नासन्या (बिहार)
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पालि-हिन्दी शब्दकोश
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पालि-हिन्दी शब्दकोश
[प्रथम भाग, प्रथम खण्ड]
[अ - अहोसि]
प्रधान सम्पादक डॉ. रवीन्द्र पंथ
सम्पादक-मण्डल डॉ. उमा शंकर व्यास
डॉ. सुकोमल चौधुरी डॉ. ब्रज मोहन पाण्डेय 'नलिन'
(9999
नवनालन्दा महाविहारस्स
नव नालन्दा महाविहार, नालन्दा (बिहार)
बुद्धमहापरिनिर्वाणाब्द 2550
2007 ई.
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मूल्य 2550.00 रुपये
© 2007, नव नालन्दा महाविहार, नालन्दा ( बिहार )
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इस पुस्तक का कोई भी अंश प्रकाशक की पूर्वानुमति के बिना किसी भी रूप में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है.
आइ. एस. बी. एन. 81 88242-14-4
प्रकाशक
निदेशक, नव नालन्दा महाविहार, नालन्दा 803111, बिहार ( भारत ) (संस्कृति विभाग, भारत सरकार के अधीन एक स्वायतशासी संस्थान)
फोन 1:
फैक्स
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मुद्रक
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Pāli-Hindi Dictionary
[Vol. 1, Part 1 ] [a-ahosi ]
Chief Editor
Ravindra Panth
Board of Editors
Dr. Uma Shankar Vyas Dr. Sukomal Chaudhuri
Dr. Braj Mohan Pandey 'Nalin'
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नव नालन्दा महाविहारस्स
Nava Nalanda Mahavihara, Nalanda (Bihar)
2550 Mahāparinirvana year of the Buddha
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2007
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Price: Rs. 2550.00
© 2007, Nava Nalanda Mahavihara, Nalanda (Bihar)
No part of this dictionary be reproduced without the prior permission of the publisher.
ISBN 81-88242-14-4
Published by The Director, Nava Nalanda Mahavihara, Nalanda 803111, Bihar, India An autonomous institute under the Ministry of Culture, Government of India Phone : 06112-281672 Fax : 06112-281505
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राजभवन, पटना RAJ BHAVAN PATNA-800022
पुरोवाक्
पचास वर्ष पहले डा. भीमराव अम्बेडकर जी ने भगवान् गौतम बुद्ध का 'धम्म' अपनाया और महाराष्ट्र में लाखों लोगों ने बौद्ध-धर्म को स्वीकार किया।
तबसे पालि-भाषा में बौद्ध धर्म का साहित्य पढ़ने हेतु लोगों की रुचि जागने लगी। पचास वर्ष बाद अब उत्तर प्रदेश, बिहार एवं मध्य प्रदेश, इन हिन्दी-भाषी प्रदेशों में बौद्ध धर्म की लहर दौड़ने लगी है।
पालि-भाषा के ग्रन्थ पढ़ने, समझने के लिए पालि-हिन्दी शब्दकोश की बहुत आवश्यकता प्रतीत होते देख नव नालन्दा महाविहार के निदेशक डॉ. रवीन्द्र पंथ के नेतृत्व में पालि-हिन्दी शब्दकोश का कार्य शुरू हुआ और अब भगवान् गौतम बुद्ध के 2550वें महापरिनिर्वाण वर्ष दुनिया भर में गंभीरता के साथ मनाने के ऐतिहासिक क्षण पर पालि-हिन्दी शब्दकोश, खंड-1 का प्रकाशित होना मेरे लिए हर्ष की बात है।
इस शब्दकोष के प्रकाशन से पालि-भाषा के सामान्य पाठक, शोध-कर्ता, प्राध्यापकगण, विद्यार्थी एवं बौद्ध-धर्म के अनुयायियों को पालि-भाषा पढ़ने-समझने में बड़ी सुलभता होगी, ऐसा मेरा विश्वास है।
नव नालन्दा महाविहार की स्थापना 1951 ई. में हुई। पालि एवं बौद्ध अध्ययन के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान के कारण इस संस्थान ने अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित की है। 1955-56 ई. में 2500वें बुद्धमहापरिनिर्वाण-जयन्ती के पुनीत अवसर पर संस्थान के निदेशक पूज्य भिक्खु जगदीश कश्यप जी ने पहली बार देवनागरी लिपि में समस्त पालि-तिपिटक के प्रकाशन का ऐतिहासिक कार्य किया। यह संस्करण समूचे बौद्धजगत् में तथा बौद्धविद्यावेत्ताओं के बीच अत्यधिक लोकप्रिय है। आज भी विश्व के विभिन्न क्षेत्रों के ज्ञानी, तिटिपक के इसी संस्करण के उपयोग के प्रबल पक्षधर हैं। पूज्य कश्यप जी की भी यह अभिलाषा थी कि छात्रों, विद्वानों
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viii
एवं बुद्धवचनों के पठन में रुचि रखने वाले सामान्य हिन्दी भाषी पाठकों के लिए एक प्रामाणिक पालि-हिन्दी शब्दकोश की रचना की जाए। दुर्भाग्यवश उनके असामयिक देहावसान के कारण उनका यह स्वप्न पूरा न हो सका।
मेरी यह कामना है कि नव नालन्दा महाविहार के निदेशक डॉ. रवीन्द्र पंथ द्वारा निर्मित यह पालि-हिन्दी शब्दकोश निःसंदेह रूप से वंदनीय भदन्त कश्यप जी के स्वप्न को पूरा करेगा तथा छात्रों, शोधार्थियों, शिक्षकों एवं पालि तथा बौद्धधर्म के अध्ययन में रुचि रखने वाले सामान्यजनों के लिए समानरूप से उपयोगी एवं लाभप्रद सिद्ध होगा।
"चिरं तिट्ठतु सद्धम्मो"
(आर. एस. गवई) बिहार के राज्यपाल
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नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स
प्रस्तावना
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भगवान् बुद्ध ने उरुवेला के बोधि-मण्डप में अनुत्तर-धर्म का ज्ञान दर्शन प्राप्त कर जम्बुद्वीप के नगरों, निगमों एवं जनपदों में बहुजनहिताय, बहुजनसुखाय विनेय-जनों को धर्मामृत का पान कराया। उनके मौखिक लोकमाङ्गलिक धर्मोपदेश देवों एवं मानवमात्र के लिये कल्याणकारी थे। उनके जीवनकाल में ही उनके शिष्यों ने उनके वचनों का मौखिक संग्रह एवं प्रचार-प्रसार विभिन्न जनपदीय भाषाओं में किया। दुर्भाग्यवश इन संग्रहों में से अधिकतर संग्रह विलुप्त हो गये अथवा आंशिक रूप में ही वर्तमान काल में उपलब्ध हैं परन्तु बुद्ध वचनों का एकमात्र संग्रह पालिभाषा में स्थविरवादी परम्परा की सुदृढ़ निष्ठा के कारण इस शताब्दी के पाठकों के पठनार्थ उपलब्ध है ।
भारत में पालि-भाषा के अध्ययन-अध्यापन की विलुप्त परम्परा उन्नीसवीं सदी में अनेक लोगों के सत्प्रयासों पुनरुज्जीवित हुई। विद्यालयों, महाविद्यालयों एवं अनेक विश्वविद्यालयों में पालि भाषा तथा इसके समृद्ध साहित्य के पठन-पाठन हेतु स्वतन्त्र विभागों की स्थापना के साथ-साथ उत्तम एवं उदात्त मानव मूल्यों के सन्देशवाहक पालिसाहित्य के अध्ययन के प्रति सामान्य पाठकों का उत्साह भी उत्तरोत्तर बढ़ रहा है। सद्धर्म की वैज्ञानिक एवं तर्कसङ्गत प्रकृति के कारण आधुनिक अध्येता की अभिरुचि पालि भाषा एवं साहित्य के प्रति दृढ़तर हो रही है। परन्तु प्राचीन भाषा होने के कारण वर्तमान काल के अध्येताओं एवं जिज्ञासु जनों के लिये पालि भाषा का ज्ञान सहज एवं सरल नहीं है। उन्हें आधुनिक भारतीय एवं विदेशी भाषाओं में किये गये पालि-ग्रन्थों एवं संग्रहों के अनुवादों का सहारा लेना आवश्यक हो जाता है साथ ही इन भाषाओं में पालि भाषा के शब्दकोशों की उपादेयता एवं स्वीकार्यता भी स्वतः स्पष्ट हो जाती है।
अभी तक कोई प्रामाणिक पालि-हिन्दी शब्दकोश उपलब्ध न होने से भारत के बहुत बड़े भू-भाग के हिन्दीभाषा-भाषी अध्येताओं एवं जिज्ञासु जनों को पालिभाषा को ठीक से समझने में अत्यधिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। स्व. भिक्षु आनन्द कौशल्यायन द्वारा रचित पालि-हिन्दी शब्दकोश जैसे एक दो कोश ही इस समय उपलब्ध हैं, उनमें बहुत थोड़े शब्दों को ही स्थान दिया जा सका है तथा शब्दों के सन्दर्भसङ्गत अर्थों को न देकर सामान्य अर्थमात्र दिये गये हैं। इनसे विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर कक्षाओं के छात्रों, शोधार्थियों एवं धर्म-जिज्ञासु सामान्य पाठकों की आवश्यकताएं पूर्ण नहीं हो पाती थीं। इन सभी दृष्टियों से एक मानक पालि-हिन्दी शब्दकोश के प्रणयन की अनिवार्य आवश्यकता थी । उपयुक्त पालि-हिन्दी शब्दकोश का अभाव बहुत दिनों से अनुभव किया जा रहा था। प्रस्तुत शब्दकोश इस अभाव की पूर्ति हेतु किया जा रहा एक प्रयास है।
नव नालन्दा महाविहार की स्थापना के प्रमुख उद्देश्यों में से एक उद्देश्य देवनागरी लिपि में सम्पूर्ण बुद्धवचनों ( तिपिटक) का प्रकाशन तथा मानक पालि-हिन्दी शब्दकोश का प्रणयन भी था । इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु नव नालन्दा महाविहार ने भगवान् बुद्ध के महापरिनिर्वाण के 2500 वें वर्ष के पुनीत अवसर पर 1955-56 ई. में लिये गये निर्णय के आलोक में सम्पूर्ण पालितिपिटक ग्रन्थों का प्रथम बार देवनागरी लिपि में प्रकाशन कर भारतीय जनमानस के लिये बुद्धवचनामृत के पान का सुअवसर प्रदान किया। कालान्तर में पालि- तिपिटक के ग्रन्थों पर लिखी
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गयीं अट्ठकथाओं के प्रकाशन की महत्वाकांक्षी योजना को नव नालन्दा महाविहार ने अपने हाथ में लिया। इसी क्रम में कुछ अट्ठकथाओं के अतिरिक्त सासनवंस और महावंसटीका का भी देवनागरी लिपि में प्रकाशन पूर्ण किया गया। परन्तु उस समय एक मानक पालि-हिन्दी शब्दकोश के प्रणयन की योजना पूर्ण नहीं हो सकी।
नव नालन्दा महाविहार के संस्थापक निदेशक स्व. भदन्त जगदीश कश्यप ने बुद्धवचनों को सर्वग्राह्य बनाने हेतु तिपिटक के देवनागरी संस्करण तैयार करने तथा अनुवाद-कार्य में एकरूपता एवं प्रामाणिकता लाने हेतु एक पालि-हिन्दी शब्दकोश की संरचना को महाविहार की भावी प्रकाशन-योजनाओं में सम्मिलित किया था। उनका यह स्वप्न प्रस्तुत शब्दकोश के प्रणयन के रूप में यथार्थता का स्वरूप ग्रहण कर रहा है तथा भगवान् बुद्ध के महापरिनिर्वाण के 2550वें वर्ष में तथागत एवं सद्धर्म के प्रति महाविहार के श्रद्धाकुसुम के रूप में अर्पित किया जा रहा है।
___ नव नालन्दा महाविहार को एक अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के बौद्ध-केन्द्र के रूप में विकसित करने के उद्देश्य से भारत सरकार के संस्कृति विभाग ने वर्ष 1994 में एक स्वायत्तशासी संस्थान के रूप में महाविहार का अधिग्रहण सम्पूर्ण परिसंपत्तियों एवं देयताओं के साथ किया । केन्द्र सरकार ने इसके उपरान्त महाविहार के बहुमुखी विकासहेतु अनेक कदम उठाए। एक मानक पालि-हिन्दी शब्दकोश की रचना की महत्वाकांक्षी योजना भी केन्द्रीय अधिग्रहण के उपरान्त लिये गये निर्णयों में से एक महत्वपूर्ण निर्णय है। प्रस्तुत शब्दकोश के प्रणयन के प्रमुख प्रेरणास्रोतों में स्व. भदन्त जगदीश कश्यप एवं पूज्य सत्यनारायण जी गोयन्का का प्रेरणाप्रद व्यक्तित्व एवं उनकी धर्मचर्या है। विपश्यना-विशोधन-विन्यास (वि. वि. वि.) की इगतपुरी (महाराष्ट्र) में स्थापना कर तथा विपश्यना-ध्यानपद्धति के शिविरों द्वारा पटिपत्ति को सुदृढ़ कर पूज्य गोयन्का जी ने तथागत के धर्म को सभी के बीच प्रकाशित कर मानवता एवं मानवमूल्यों को जागृत किया है। वि. वि. वि. द्वारा देवनागरी लिपि में समस्त पालि-तिपिटक. समस्त अट्ठकथाएं, मूलटीकाएं एवं अनेक अनुटीकाएं जनसामान्य के लिये सुलभ करायी गयीं। प्रस्तुत शब्दकोश में वि. वि. वि. द्वारा प्रकाशित पालि-वाङ्मय के विभिन्न खण्डों को ही प्रकाशन की समग्रता के कारण प्रमुख आधार बनाया गया है। हिन्दी-भाषा में धर्म के वास्तविक तत्त्व को प्रकाशित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य भी पूज्य गोयन्का जी की प्रेरणा से ही पुष्पित एवं पल्लवित हुआ है। प्रस्तुत शब्दकोश की संरचना के संकल्प की पृष्ठभूमि में पूज्य गोयन्का जी की इस सदिच्छा की बहुत बड़ी भूमिका है कि हिन्दी-भाषाभाषी जन-जन तक धर्म का सन्देश पहुंचाने में पालि-हिन्दी शब्दकोश की महती महत्ता होने से इस प्रकार के शब्दकोश की रचना अत्यन्त आवश्यक है।
जनसाधारण के सम्मुख प्रस्तुत पालि-हिन्दी शब्दकोश एक ओर छात्रों एवं शोधार्थियों की चिर-प्रतीक्षित आवश्यकताओं को पूर्ण करने हेतु है तो दूसरी ओर पालि-भाषा में सुरक्षित सद्धर्मामृत के पिपासु सामान्य-जनों की पिपासा के उपशमन में भी सहायक है। शब्दकोश के प्रयोगकर्ताओं के इन समूहों की अपरिहार्य अपेक्षाओं को दृष्टि में रखते हुए हमने पालिभाषा में निबद्ध पिटक एवं अनुपिटक साहित्य में प्रयुक्त अधिकतर महत्त्वपूर्ण शब्दों का चयन इस शब्दकोश में अर्थप्रकाशन हेतु किया है। पालि-साहित्य में प्रयुक्त समग्र शब्दराशि को शब्दकोश के अन्तर्गत निविष्ट कर सकना अशक्य है फिर भी प्रयास यही किया गया है कि कोई भी महत्त्वपूर्ण शब्द छूटने न पाये।
इस शब्दकोश में गृहीत शब्द-व्याख्यान-योजना के विषय में यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि इस शब्दकोश में शब्दों के विभिन्न विशिष्ट अर्थों पर प्रकाश डालने वाले उद्धरण या सन्दर्भ मुख्य रूप से तिपिटक, अट्ठकथाओं एवं मूलटीकाओं से लिये गये हैं तथा शब्दों के अर्थों का निर्धारण शब्दों की व्युत्पत्ति पर ही आधारित
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न होकर अट्ठकथाओं में दिये गए निर्वचनों के आलोक में भी हुआ है। इन व्याख्यानों के अनुशीलन से पालि के अध्येता को उपयुक्त पर्यायवाचक शब्द ढूंढ़ने में तथा बुद्धधर्म के विशेष सन्दर्भ में उस शब्द के विशिष्ट अर्थ का निर्धारण करने में निश्चय ही उचित मार्गदर्शन प्राप्त हो सकेगा। शब्दों के अर्थ-निर्धारण हेतु पालिभाषा के एकमात्र परम्परा-प्राप्त पर्यायकोश अभिधानप्पदीपिका' तथा इसकी सूची से पर्याप्त सहायता ली गयी है। शब्दों की व्युत्पत्तियां मुख्य रूप से पालिभाषा की कच्चायन, मोग्गल्लान एवं सद्दनीति नामक व्याकरण-परम्पराओं के आलोक में दी गयी हैं।
इस शब्दकोश में अत्यन्त आवश्यक तकनीकी शब्दों, विशेष रूप से विनय, अभिधम्म एवं विपस्सना से सम्बन्धित शब्दों की संक्षिप्त व्याख्या लघु-टिप्पणियों के रूप में यथास्थान दी गयी है। इस कोश को और अधिक उपयोगी बनाने हेतु शब्दकोश के अन्तिम खण्ड में कुछ परिशिष्टों के जोड़े जाने की योजना भी बनाई गई है। इन परिशिष्टों में पालिगाथाओं के छन्दों, अलङ्कारों, उपाख्यानों, भौगोलिक एवं सांस्कृतिक महत्त्व के शब्दों आदि को जोड़ा जाना है। शब्द-निर्वचन-हेतु अपनायी गयी पद्धति आदि के सम्बन्ध में विशेष बातें “शब्दकोश देखने के लिये आवश्यक निर्देश" शीर्षक में बतला दी गयी हैं।
इस कोश के प्रणयन में तथा इसे परिसंस्कृत स्वरूप प्रदान करने में हमें पालि-तिपिटक के यशस्वी अट्ठकथाकार आचार्य बुद्धघोष, आचार्य बुद्धदत्त एवं आचार्य धम्मपाल के शब्द-निर्वचनों से विशेष सहायता मिली है। स्थविरवादी-परम्परा ने पालि-भाषा के विभिन्न शब्दों के जो विशिष्ट अभिप्राय सुनिश्चित किये थे उनके ज्ञान के एक-मात्र साधन पालि-अट्ठकथाएं ही हैं। पुनश्च जो शब्द अट्ठकथाओं में सुस्पष्ट रूप से व्याख्यात नहीं हो सके थे उन्हें उत्तरकाल में रचित मुल-टीकाओं एवं अनटीकाओं में स्पष्ट किया गया है। प्रस्तत शब्दकोश का शब्दार्थ
रम्परिक व्याख्यानों पर ही आधारित है। अतः हम इन ग्रन्थों के यशस्वी रचनाकारों के प्रति कृतज्ञता का भाव व्यक्त करते हैं। इनके अतिरिक्त पालि-इंग्लिश डिक्शनरी (प्रो. रिस डेविड्स, पा. टे. सो., लन्दन), ए डिक्शनरी ऑफ दी पालि लैंगवेज (आर. सी. चाइल्डर्स, लन्दन), ए क्रिटिकल पालि डिक्शनरी (वी. ट्रेकनर, रॉयल डेनिश अकादमी, कोपेनहेगेन), पालि-इंग्लिश डिक्शनरी (ए. पी. बुद्धदत्त महाथेर, कोलम्बो), बुद्धिस्ट हाइब्रिड संस्कृत ग्रामर एण्ड डिक्शनरी (एफ. एजर्टन, न्यू हावेन), डिक्शनरी ऑफ पालि प्रोपर नेम्स (2 खण्डों में, जी. पी. मलालशेखर, लन्दन) तथा डिक्शनरी ऑफ अर्ली बुद्धिस्ट मोनैस्टिक टम्स (प्रो. सी. एस. उपासक, नालन्दा) जैसे आधुनिक शब्दकोश भी इस कोश की संरचना में अत्यधिक उपयोगी सिद्ध हुए हैं। अतः इन कोशों के विद्वान् सम्पादकों के प्रति हम हृदय से आभार व्यक्त करते हैं।
__ महाविहार की नियन्त्री परिषद् के अध्यक्ष बिहार के महामहिम राज्यपाल महोदय ने संस्थान के चतुर्मुख विकास तथा इसके शैक्षणिक क्रिया-कलापों के उत्थान हेतु सदा मार्गदर्शक की महती भूमिका का निर्वहण कर हमें प्रोत्साहित किया है। प्रस्तुत शब्दकोश के प्रकाशन की परियोजना की सफल परिणति में महामहिम मुख्य प्रेरणा स्रोत रहे हैं। महामहिम के इस उदात्त दृष्टिकोण एवं विद्यानुराग के लिए हम विनत कृतज्ञताभाव व्यक्त करते हैं। भारत सरकार के संस्कृति विभाग के सम्माननीय मन्त्री, सचिव, संयुक्त सचिव तथा अन्य पदाधिकारियों ने इस शब्दकोश की परियोजना के कार्यान्वयन-हेतु उदारतापूर्वक आर्थिक अनुदान देकर इसे सफल परिणति की अवस्था तक पहुंचाया है। हम उनके प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करते हैं।
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शब्दकोश-संरचना की आधुनिक प्रक्रिया में दिनानुदिन नई-नई पद्धतियों का समावेश हो रहा है। प्रस्तुत शब्दकोश के संकलन एवं निर्वचनों को सुव्यवस्थित स्वरूप प्रदान करने हेतु बौद्ध-विद्या के अनुभवी विद्वानों की एक परामर्शदात्री समिति का गठन किया गया था। प्रो. एन. एच. सन्तानी, श्री एस. एन. टण्डन, प्रो. सुनीति कुमार पाठक, डा. सत्यप्रकाश शर्मा, प्रो. महेश देवकर, प्रो. देव प्रसाद गुहा तथा डा. जे. एस. नेगी ने समिति की बैठकों में उपस्थित होकर शब्दकोश के प्रणयन में अमूल्य दिशानिर्देश प्रदान किए। प्रो. एम. जी. धड़फले, प्रो. संघसेन सिंह तथा प्रो. विश्वनाथ बनर्जी जैसे मूर्धन्य सुधीजनों ने भी इस शब्दकोश की संरचना में अपने अमूल्य परामर्श देकर कार्य को सफल परिणति की स्थिति तक पहुंचाया है। प्रो. सुनीति कुमार पाठक इस परियोजना के प्रणयन में मूल प्रेरणास्रोत हैं तथा शब्दकोश - संरचना-प्रक्रिया के प्रत्येक चरण में इनका सृजनात्मक सहयोग हमें सदा प्राप्त होता रहा है। इन सभी सुधीजनों के प्रति हम विनत कृतज्ञताभाव व्यक्त करते हैं।
इस चिरकांक्षित पालि-हिन्दी शब्दकोश की पाण्डुलिपि तैयार करने में शोध - सहायक श्री मुरारी मोहन कुमार सिन्हा, डॉ. चिरंजीव कुमार आर्य, डॉ. विश्वजीत प्रसाद सिंह, श्री सच्चिदानन्द सिंह का अप्रतिम योगदान रहा है, अतः ये साधुवाद के पात्र हैं। बिहार विधान परिषद् के पुस्तकालय के पूर्व पुस्तकाध्यक्ष श्री श्याम देव द्विवेदी
इस शब्दकोश की भाषा को संशोधित करने तथा विषयवस्तु को व्यवस्थित स्वरूप प्रदान करने में अपना अमूल्य योगदान दिया है। इसके लिए हम उन्हें हार्दिक धन्यवाद देते हैं। इस शब्दकोश की पाण्डुलिपि के कम्प्यूटर-टंकणकार्य में श्री राजेश कुमार जायसवाल ने पूर्ण मनोयोग एवं अध्यवसाय के साथ लगकर इसकी सफल परिणति में अमूल्य योगदान दिया है। इसके लिए हम उनके प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करते है ।
हम इस विश्वास के साथ यह शब्दकोश प्रयोग के रूप में जन-सामान्य के समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं कि यह शब्दकोश केवल छात्रों एवं शोधकर्ताओं के लिये ही नहीं, अपितु सद्धर्म-रस के पान को उत्सुक सभी विनेयजनों के लिये हितकर एवं उपयोगी सिद्ध होगा । कोई भी कृति कितनी ही सावधानी से क्यों न लिखी गयी हो, सर्वथा दोषमुक्त नहीं हो सकती । प्रस्तुत शब्दकोश भी इसका कथमपि अपवाद नहीं हो सकता । अतः विज्ञजनों से यह निवेदन है कि जहां कहीं भी वे इस कोश में किसी प्रकार की त्रुटियां अथवा अशुद्धियां देखें तो उन्हें सुधारने हेतु अपने अमूल्य परामर्श देकर अनुगृहीत करने की अहैतुकी कृपा करें ताकि आने वाले खण्डों का संकलन इन मूल्यवान् परामर्शो के आलोक में अधिक परिपूर्ण रूप में प्रस्तुत किया जा सके।
आ-परितोसा विदूनं साधु न मञ्ञे पयोगविञ्ञाणं । बलवापि सिक्खितानं अत्तनि अप्पच्चयं चेतो //
नव नालन्दा महाविहार, नालन्दा बुद्ध जयन्ती बुद्धपरिनिर्वाणाब्द 2550
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रवीन्द्र पंथ
निदेशक और प्रधान सम्पादक
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Namo Tassa Bhagavato Arahato Sammāsambuddhassa
Preface
The Perfectly Enlightened One, the Buddha, himself realised the supreme knowledge (= Bodhijñāna) under the Bodhi tree at Uruvela (known as Buddha-Gaya) and travelled through villages, cities and Janapadas of Jambudvipa to propagate his Dhamma-ambrosia for the good and welfare of the many and liberated thousands and thousands of people from suffering through repeated existences (= samsära). What he taught and preached verbally, was beneficial to both the gods and men. Immediately after his Mahāparinibbāna his disciples collected his teachings at the Council of Rajagaha and verbally propagated the same in different colloquial dialects of north and central India. Unfortunately, a great part of this collection was lost and only a part was somehow preserved. It is a good news for the entire Buddhist world that the Theravada tradition has preserved and maintained the teachings in Päli in its pristine purity in a chain of teacher and taught and they are available even today due to enthusiastic zeal and faithful allegiance of the Theravädin Buddhists of Myan-mar, Srilanka, Thailand, Laos, Cambodia and Bangladesh etc.
In the nineteenth century, the lost Pāli tradition of India was revived by the utmost efforts of some dedicated scholars of modern India. The study of Pali language and literature started in full swing in schools, colleges and universities. In some institutions separate departments for the study of Pali have been established. Among the general readers too interest for the study of Pali and Buddhism grew up to a great extent. Due to its scientific and logical approach, tendency for the study of the Pali literature carrying the messages of ancient India has been increasing day by day among the common people. But as Päli is the ancient classical language, it is not easy to learn it by the students and general readers. They have to depend on the Indian and foreign translations of the Päli texts. Side by side necessity arose to have Päli dictionaries in these languages.
Owing to the non-availability of a standard Päli-Hindi dictionary Hindi-speaking people of a greater part of India, students and researchers of Päli and general public, have to face difficulties to study Päli and collect data for various purposes from Pāli literature. The late Pandit Bhadant Ananda Kausalyāyan compiled a small Päli-Hindi dictionary. This is undoubtedly a pioneer work but it does not contain sufficient Pāli words and general meaning of the words have been given there without discussing their literal meanings. Therefore this is not so much helpful to the post-graduate students and researchers of the universities as well as to the general public interested in theoretical and practical aspects of Buddha's teachings, specially their technical and philosophical vocabularies. From these points of view an authentic Pali-Hindi dictionary had been a long desideratum. The present Pali-Hindi dictionary is just an attempt to fulfil the needs of the day.
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xiv
Among the principal aims and objective of establishing the Nava Nālandā Mahāvihāra by the late Bhikshu Jagadīsh Kashyap was to publish the entire Pāli-Tipitaka texts and their commentaries and to compile an authentic Pāli-Hindi dictionary. To materialise the objectives, the Nava Nālandā Mahāvihāra published for the first time the entire Pāli-Tipitaka texts in Devanāgari script in 1955-56 during the 2500th year of Buddha-Jayanti which was observed in pomp and grandeur in India and abroad. This publication gave a golden opportunity to the people in general to know about the Buddha and his teachings lost in India several centuries ago. Thereafter, the Nava Nālandā Mahāvihāra took up the project of publishing the PāliAtthakathās or the commentaries written on the Tipitaka texts. As a result in due course many volumes of the Pāli-Atthakathās were published. Side by side Sāsanavamsa and Mahāvamsaţikā also have been published. All these had been possible by the noble and generous attitude and sincere dedication of the late Ven. Jagadish Kashyap, the founder and Director of the Nava Nālandā Mahāvihāra and also by the dedicated co-operation of his teamcolleagues. Unfortunately, in his life time, Ven. Kashyapji could not materialise his noble dream of compiling an authentic Pāli-Hindi dictionary. The present dictionary is an attempt to fulfil his dream and mission.
To make this institute, an international centre for the study of Pali and Buddhist Studies, the Ministry of Culture, Govt. of India, came forward in 1994 and took up the Mahāvihāra along with its assets and liabilities and gave it a status of an autonomous institution. This apart, the Central Govt. has already taken various measures for the overall development of the Mahāvihāra. One of them is to compile an authentic Pāli-Hindi dictionary. Ven. Jagadish Kashyap had been the main source of inspiration for this dictionary project. Dr. Achārya Satyanārāyan Goenka also has always been inspiring this centre by his noble blessings and advice to see this Dictionary project a great success. Dr. Goenkaji established Vipassanā Research Institute (V.R.I.) at Igatpuri (Nasik, Maharastra) wherefrom entire Pāli-T'ipitaka texts, their Atthakathās and Tikās of Chatthasangāyana edition were published in Devanāgari script and CD Rom for the good and welfare of the people in general as well as for the meditators, Pāli students of all categories, the Pāli teachers and the researchers of Indology, As the Tipitaka texts, their Athakathās, Mūlatīkās and Țikās are available in their entirety in the Igatpuri edition, the present dictionary has been utilising the V.R.I. Igatpuri edition of Pāli texts only in its Pāli-Hindi dictionary. To propagate the real nature of Dhamma in Hindi is the glorious task which has been flourished by the noble inspiration and blessings of Dr. Goenkaji. Behind the compilation of the present dictionary Goenkaji's heartfelt desire actively worked as he knew it well that to propagate the noble message of Dhamma among the Hindi-speaking people, the Pāli-Hindi dictionary would be an inevitable medium.
The present Päli-Hindi dictionary will serve two purposes: (i) it will fulfil the longcherished desires of the students and the researchers; (ii) it will quench the thirst of the common people interested in knowing the ambrosia-like Dhamma of the Buddha. Keeping all these in mind and considering the necessity and expectations of those, who will use this dictionary, very useful and choicest words have been collected from the Pāli-Tipitaka and Anupitaka literature and included in the dictionary with their proper meanings and real interpretations.
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XV
It is not possible to include all the Pāli words in a dictionary which have been used in the entire Päli literature. Nevertheless the compilers of this dictionary had been cautious enough and vigilant in every step so that any useful word must not slip or be omitted.
This is necessary to make it clear as regards the meanings and explanations of the words adopted in this dictionary that to understand the real meaning of a word suitable quotations and examples are given especially from the Pali-Tipitaka, Atthakathās, Mūlaṭikās and while giving meaning of a word the compilers did not depend only on the etymology of the word but also on the explanations of the word given in the Apphakathās, Tikäs and Anuțikās. This will help the readers to know the synonyms of the word as well as to ascertain the doctrinal meaning implied in a particular word. The only available dictionary in Pali language i.e. the Abhidhanappadipika with its Suci has been immensely utilised here to ascertain the proper meaning of a particular word. For the derivations of the words the Pali grammatical works like Kaccāyana-vyākaraṇa, Moggallāna-vyākaraṇa and Saddaniti have been consulted wherever necessary.
In this dictionary the technical words, especially Abhidhammic and Vinayic terms and also the words connected with Vipassana meditation have been briefly explained and given in the proper place in the form of note (= f.). To make this dictionary more useful to the readers of all categories some appendices will be given in the last and concluding volume of this dictionary. In these appendices we propose to explain metres of the Päli-Gathas, rhetorics, narratives and the words of geographical and cultural importance. Instructions for the use of the dictionary are given in a separate para titled "Necessary guidance for the use of the dictionary” (शब्दकोश देखने के लिये आवश्यक निर्देश ).
The writings of the great Päli commentators like Acharya Buddhaghosa, Acharya Buddhadatta and Acharya Dhammapala were very much helpful, while compiling this dictionary as well as giving it a purified form. What the Theravada tradition ascertained the main purport of the different words of the Pali language, its sources of knowledge had been the Pāli Atthakathas. Again while the explanation of a word seemed not clear in the Athakathas, in later period were further clearly explained in the Mulațīkās and the Anuțikäs. In the present dictionary meanings of the entry-words are based on these traditional explanations. We, therefore, express our heartiest gratitude to those famous commentators and exegetists. Apart from these, the Pali-Hindi dictionary (Rhys Davids and W. Stede, P.T.S., London), A Dictionary of the Pali Language (R.C. Childers, London), A Critical Pali Dictionary (V. Trenckner, Royal Danish Academy, Copenhagen), Pali-Hindi dictionary (A.P. Buddhadatta Mahathera, Colombo), Buddhist Hybrid Sanskrit Grammar and Dictionary (F. Edgerton, New Haven), Dictionary of Pali Proper Names (2 Vols. G.P. Malalasekera, London) and Dictionary of Early Buddhist Monastic Terms (C.S. Upasaka, Nalanda) also have been very much helpful for the compilers of this dictionary. We, therefore express our heartiest thanks to the learned editors of these dictionaries.
His Excellency the Governor of Bihar, who is also the Chairman of the Board of Management of the Nava Nalanda Mahāvihāra, took keen interest in the alround development of the institute and encouraged us for making the institute an ideal centre of education. His
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Xvi
Excellency was the most prominent source of the inspiration for the present dictionary project. We express humble thankfulness to His Excellency. The implimentation of the project was improbable without financial support. We are specially thankful to the Honourable Minister and officials of the Department of Culture, Government of India who, promptly approved this project and financed it.
An advisory committee consisting of eminent scholars of Buddhism was formed in order to make this compilation work perfect, systematic and in accordance to the modern methodology. Prof. N.H. Samtani, Sri S.N. Tandon, Prof. S.K. Pathak, Dr. S.P. Sharma, Prof. Mahesh Deokar, Prof. D.P. Guha and Prof. J.S. Negi, took so much pain in attending the meetings of this committee and gave valuable guidelines for the compilation of this dictionary. We express our humble thankfulness to them.
We are also thankful to Prof. M.G. Dhadphale, Prof. Sanghasen Singh and Prof. Biswanath Banarjee for their valuable suggestions. Prof. S.K. Pathak has been the most prominent source of inspiration for the compilation of this dictionary. He took personal interest in the project. He deservers special thanks for his unique contribution.
While preparing the manuscript of this long-cherished dictionary research assistants Sri Murari Mohan Kumar Sinha, Dr. Chiranjeev Kumar Arya, Dr. Vishwajit Prasad Singh, Sri Sacchidananda Singh, extended their unparalleled help for which we are highly thankful to them. We are also thankful to Sri S.D. Dwivedi, former librarian, Bihar Vidhan Parishad library for extending his valuable help. We express thankfulness to Mr. Rajesh Kumar Jaiswal for his dedication in preparing computerized type-setting of the manuscript.
With our full confidence we dedicate this dictionary to the people of India in general. Most confidently we may assure that this dictionary will be useful and helpful not only to the students and researchers, but also to those who are desirous to taste the Dhammarasa of the Buddha. Whatever precaution might be taken for the publication of any research work, it can not be free from mistakes. The present dictionary also can not be free from lapses and mistakes. It is, therefore, our humble submission to the learned readers and scholars to be kind enough not to overlook the lapses and mistakes they will come across in our dictionary, but to inform us with suggestions which will help us in preparing the forthcoming volumes of the dictionary free from errors.
A-paritosā vidūnam sādhu na maññe payogaviññāņam.
Balavāpi sikkhitānam attani appaccayam ceto.
Nava Nalanda Mahavihara, Nalanda Buddha-Jayanti 2550h Year of the Mahāparinibbāna of the Buddha
Dr. R. Panth Director and Chief Editor
Members of the Editorial Board
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शब्दकोश देखने के लिए आवश्यक निर्देश
1. शब्दों का क्रम विन्यसन पालि-व्याकरणों में उल्लिखित देवनागरी वर्णमाला के अकारादि वर्णों के क्रम के अनुरूप किया गया है।
2. ह्रस्व-स्वर-परवर्ती अनुस्वार - (निग्गहीत) युक्त शब्द का विन्यसन ह्रस्व स्वर से प्रारम्भ होने वाले शब्दों के तुरन्त बाद में किया गया है, जैसे कि अकारादि शब्दों का प्रारम्भ 'अ' शब्द के साथ किया गया है तथा इनके उपरान्त परवर्ती अनुस्वारयुक्त 'अंस' आदि का विन्यसन हुआ है।
3. संज्ञा-शब्दों का प्रातिपदिक-रूप रख कर उसके आगे पु० या स्त्री. या नपुं. लिखकर उसके विशिष्ट लिंग को दर्शाया गया है, जैसे कि अंस के तुरन्त बाद पु० लिखकर आगे उसके अंस, अंसेन एवं अंसे आदि रूप उल्लिखित किये गये हैं ।
4. विशेषण - शब्दों का प्रातिपदिक-रूप रखकर उसके आगे त्रि. लिख दिया गया है, जैसे कि अंसव, अकक्कस, अक्खात, त्रि. आदि ।
5. क्रियाविशेषण के रूप में व्यवहृत निपातों के आगे क्रि. वि. लिखा गया है तथा संज्ञा अथवा विशेषणों से व्युत्पन्न क्रियाविशेषणों को उस संज्ञा अथवा विशेषण के ही अन्तर्गत दर्शाया गया है जैसे, 'पर' के अन्तर्गत परं या परेन अथवा 'समीप' के अन्तर्गत समीपं या समीपे को रखकर क्रि. वि. लिख दिया गया है।
6. किसी भी एक शब्द के अलग-अलग अर्थों को अरबिक क्रमांक देकर दर्शाया गया है तथा उद्धरणों के उल्लेख में भी अरबिक अंकों का ही प्रयोग किया गया है। जैसे- 'अधिवत्थ' में ( पृ० 175 ) 1.क., 1.ख. इत्यादि और दी. नि. 2.76; म. नि. 2.251 इत्यादि । 7. उद्धरणों के लिए विपश्यना-विशोधन- विन्यास, इगतपुरी के वर्ष 1993 से 1998 तक मुद्रित संस्करण को ही प्रमुख आधार बनाया गया है क्योंकि इसी संस्करण में पालि- तिपिटक, अट्ठकथाएँ तथा अधिकतर मूलटीकाएँ एवं अनुटीकाएँ उपलब्ध हैं। इसी संस्करण के सन्दर्भ का अंकन सम्बद्ध उद्धरण के तुरन्त बाद किया गया है। जैसे 'अधिवृत्थं खो मे अम्बपालिया गणिकाय भत्तं, दी. नि. 2.76 1 8. वि. वि. वि. इगतपुरी के संस्करण में सन्दर्भ उपलब्ध न रहने की स्थिति में केवल रोमन, नालन्दा अथवा अन्य उपलब्ध संस्करण के सन्दर्भ का ही अंकन उद्धरण के उपरान्त कर दिया गया है। उदाहरणार्थ महावंस, दीपवंस, चूळवंस, दाठावंस, गन्धवंस, सासनवंस, सद्धम्मोपायन, मोग्गल्लान-व्याकरण, कच्चायन-व्याकरण, सद्दनीति, अभिधानप्पदीपिका आदि ग्रन्थों के उद्धरण अन्य उपलब्ध संस्करणों से दिये गये हैं।
9. वि. वि. वि. एवं रोमन संस्करणों के बीच उपलब्ध पाठान्तर को संकेताक्षर पाठा. लिखकर सूचित किया गया जैसे कि 'अञ्जन' के अन्तर्गत 'अञ्जनारहो' का पाठा. अच्चनारहो।
10. गद्यभाग से गृहीत उद्धरणों के सन्दर्भाङ्कों में सम्बद्ध संस्करणों की पृष्ठ संख्या दी गयी है परन्तु थेरगाथा, थेरीगाथा, धम्मपद, सुत्तनिपात, दीपवंस, महावंस, खुद्दकपाठ, उदान, चूळवंस, सद्धम्मोपायन, अभिधानप्पदीपिका, सद्धम्मसंगहो, अभिधम्मावतार, नामरूपपरिच्छेद, परमत्थ-विनिच्छय, सच्चसङ्क्षेप, खुद्द - सिक्खा, विनयविनिच्छय, उत्तरविनिच्छय, गंधवंस, जिनचरित, जिनालंकार, अनागतवंस, तेलकटाहगाथा, थूपवंस, दाठावंस, कुत्तोदय, सुबोधालंकार, सच्चसंगहो जैसे गाथा-संग्रहों के उद्धरणों के सन्दर्भाङ्कों में गाथा
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संख्या का उल्लेख हुआ है। सुत्तनिपात के गद्यभाग के सन्दर्भो का सङ्केत पृ. का उल्लेख कर तथा गाथाओं
का संकेत गाथा-संख्या द्वारा किया गया है। 11. जातक की गाथाओं एवं अट्ठकथा दोनों से गृहीत उद्धरणों के सन्दर्भ जातक अट्ठकथा की पृष्ठ-संख्या द्वारा
सङ्केतित किये गये हैं। 12. विनय एवं अभिधम्म के विशिष्ट पारिभाषिक शब्दों के निहितार्थ के स्पष्टीकरण हेतु संक्षिप्त टिप्पणियाँ दी
गयीं हैं। 13. पालि-शब्दों के संस्कृत-समानान्तर कोष्ठक [ ] के अन्तर्गत सङ्केतित कर दिये गये हैं। 14. प्रायः मूल-शब्दों की संक्षिप्त व्युत्पत्ति शब्द के उपरान्त ही दे दी गयी है। 15. मूल-शब्द से व्युत्पन्न उस शब्द के विविध प्रयोगों को प्रायः (क) उसी मूलशब्द के अन्तर्गत पड़ी रेखा - के
पश्चात् रखा गया है, जैसे कि भगवन्तु के भगवा, भगवता, भगवति आदि विभिन्न विभक्तियों के पदों को मूल प्रातिपदिक भगवन्तु के ही अन्तर्गत रखा गया है. (ख) समस्त पदों को मूल-शब्द के ही अन्तर्गत पड़ी
रेखा -के पश्चात् रखा गया है, जैसे कि बोधि के अन्तर्गत - रुक्ख, 'बोधिरुक्ख' का सूचक है। 16. विभिन्न धातुओं से निष्पन्न क्रियारूपों को सम्बद्ध धातु के वर्तमान काल के प्रथम पुरुष एकवचन के रूप के
ही अन्तर्गत रखा गया है, जैसे कि गिम् (जाना) धातु से व्युत्पन्न विविध कालों, भावों एवं कृत्प्रत्ययान्त रूपों को 'गच्छति' शीर्षक के अन्तर्गत रखा गया है। यत्र-तत्र कुछ क्रिया-रूपों को स्वतन्त्र प्रविष्टि के अन्तर्गत
भी रखा गया है। 17. उपसर्गयुक्त धातुओं के रूप पृथक्रूप से उपसर्ग के आदिवर्ण की क्रम-स्थिति के अनुरूप विन्यस्त किये गये
हैं।
18. उद्धरणों को तिरछे (Italics) टंकण में प्रस्तुत किया गया है। 19. संकेतसूची 'क' के अन्तर्गत व्याकरण आदि के विशिष्ट पारिभाषिक शब्दों के सङ्केताक्षर उल्लिखित हैं जबकि
संकेत-सूची 'ख' में सन्दर्भ-ग्रन्थों के नामों के सङ्केतक प्रस्तुत किये गये है। 20. पालि-साहित्य में उल्लिखित उपाख्यानों, प्रयुक्त छन्दों, अलङ्कारों, विशिष्ट पारिभाषिक शब्दों एवं भौगोलिक
शब्दों आदि के सामान्य व्याख्यानों को शब्दकोश के अन्त में विभिन्न परिशिष्टों के रूप में जोड़ दिये जाने
की योजना है। 21. शब्दकोश के शब्द-व्युत्पत्तिपरक संक्षिप्त निर्देशों में हिन्दी-भाषी पाठकों की सुविधा को ध्यान में रखते हुए
व्याकरणों में गृहीत पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग किया गया है। जैसे कि बुद्धो के व्युत्पत्ति-परक निर्वचन में प्र. वि., ए. व. तथा गच्छति के लिए वर्त., प्र. पु.. ए. व. लिखा गया है। पारिभाषिक शब्दों की
संकेताक्षर-सूची में व्याकरण के इन पारिभाषिक शब्दों के पालि-समानान्तर भी दे दिए गए है। 22. यद्यपि आधुनिक हिन्दी-लेखन में परसवर्ण के स्थान पर प्रायः अनुस्वार का ही प्रयोग होने की प्रवृत्ति बनती
है परन्तु शब्दकोश के हिन्दी-निर्वचनों में दोनों का प्रयोग हुआ है। 23. चन्द्रविन्दु के स्थान पर अनुस्वार का ही प्रयोग हुआ है।
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शब्दकोश में प्रयुक्त संकेतक-चिह्न
एक से अधिक सम्बद्ध उद्धरणों के बीच पूर्ण समानता का सूचक चिह्न समास के पूर्वपद में व्याख्येय शब्द की स्थिति को सूचित करने वाला तथा प्रत्येक उद्धरण के पूर्व में दिया हुआ चिह्न सम्बद्ध उद्धरण की अपरिसमाप्ति का सङ्केतक चिह्न धातु का चिह्न
योग-सूचक चिह्न. () लघु-कोष्टक का चिह्न, जिसमें सम्बद्ध शब्द की व्युत्पत्ति, समानान्तर अथवा पाठान्तर आदि
अन्तर्निविष्ट किये गये हैं. [] बृहत्-कोष्टक का चिह्न जिसमें व्याख्येय पालि-शब्द के समानान्तर संस्कृत अथवा बौद्धसंस्कृत
शब्द अन्तर्निविष्ट कर प्रस्तुत किये गये हैं. विवेच्य शब्द के विवेचन के अन्त में प्रयुक्त पूर्ण-विराम-चिह्न.
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शब्दकोश में पालि-शब्दों के लिए प्रयुक्त देवनागरी वर्णमाला का स्वरूप
स्वर:व्यञ्जन :(अ-सहित)
अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ओ क, ख, ग, घ, ङ च, छ, ज, झ, ञ ट, ठ, ड, ढ, ण
म
य, र, ल, व, स, ह, ळ,i
प्रस्तुत कोश में प्रयुक्त वर्ण-क्रम
कच्चायन-व्याकरण में 8 स्वरों एवं 33 व्यञ्जनों सहित कुल 41 वर्गों का उल्लेख हैं। शब्दकोश में इसी प्रक्रिया का अनुसरण किया गया है।
शब्दों का वर्णानुरूप क्रम-विन्यास निम्नलिखित रूप में किया गया है
अ, अं, आ, इ, ई, ई, उ, उं, ऊ, ए, ओ
यही क्रम स्वर-सहित व्यञ्जनों के विन्यसन में भी ग्रहण किया गया है। किसी भी संयुक्त व्यञ्जनयुक्त शब्द को सस्वर व्यञ्जन वाले शब्दों के बाद में रखा गया है। जैसे कि अकक्कस (पृ. 2) से लेकर अकोसल्ल (पृ. 14) तक अस्वरयुक्त विसंयुक्त ककार वाले शब्दों की प्रविष्टि के उपरान्त ही संयुक्त कव्यञ्जनयुक्त "अक्क" आदि का उपन्यसन किया गया है।
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अ.
अनि.
संकेत-सूची
क. व्याकरण संबंधी पारिभाषिक शब्द संकेत सूची सं. पारिभाषिक शब्द पालि पारिभाषिक शब्द रोमन (अंग्रेजी) पारिभाषिक शब्द अव्यय अव्यय
Indeclinable अक. क्रि. अकर्मक क्रिया
अकम्मक क्रिया
Intransitive Verb अद्य. अद्यतन भूत अज्जतनी विभत्ति
Aorist अन्त. अन्तर्गत
Included अनद्य. अनद्यतन-भूत हीयत्तनी विभत्ति
Imperfect अनियमित
Irregular अनु. अनुज्ञा (लो) पञ्चमी विभत्ति
Imperative mood अप. अपपाठ अपपाठो
Corrupt reading अव्ययी. स. अव्ययीभाव-समास
अव्ययीभाव-समासो
Adverbial compound अ. मा. अर्धमागधी अट्डमागधी
Ardha-māgadhi अल. स. अलूक-समास अलुत्त-समासो
Non-obsolete compound आग. आगम आगमो
Augmentation आत्मने. आत्मनेपद अत्तनोपद
Middle Conjugation आलं. प्र. आलंकारिक प्रयोग
Figurative use आ. श. आदत्त शब्द
Borrowed Word इच्छा . इच्छार्थक (सनन्त) इच्छित
Desiderative इत.. इतरेतर द्वन्द्व इतरीतर द्वन्द्व
Individual Copulative or
Aggregative Compound उत्त. प. उत्तर-पद उत्तर पद
Later Member (of a compound) उ. पु. उत्तम पुरुष उत्तम-पुरिस
First Person उप. उपसर्ग उपसग्ग
Prefix उप. स. उपपद-समास
उपपद-समास ऊ. द्रष्ट. ऊपर द्रष्टव्य
See above ए.व. एक-वचन एकवचन
Singular Number औप. औपचारिक
Formal क.
Agent, Nominative case क. ना. कर्तृनाम कत्तरि नाम
Agent noun कर्तृ. वा. कर्तृ-वाच्य
कत्तुकारक
Active Voice कर्म. वा. कर्म-वाच्य कम्मकारक
Passive Voice कर्म, स. कर्मधारय समास कम्मधारय-समास
Adjectival compound कार. कारक कारक
Case काला. कालातिपत्ति कालातिपत्ति
Conditional क्रि. प. क्रिया-पद आख्यातपद
Verbal formation क्रि. ना. क्रिया-नाम
आख्यातपद
Verbal noun क्रि. रू. क्रिया-रूप क्रिया-रूप
Verbal form क्रि. वि. क्रिया-विशेषण
क्रिया-विसेसन
Adverb कृदन्त कितकनाम
Primary derivative गाथा गाथा
Verse च. वि. चतुर्थी-विभक्ति चतुत्थी विभत्ति
Dative छ. सं. छट्ठसंगायन छट्ट-संगायन
6th Council of Myanmar जॅ. पा. टे. सो. जर्नल ऑफ पालि टेक्स्ट सोसाइटी
Journal of Pali Text Society
कर्ता
कत्तुकारक
कृद.
गा.
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xxii
as
टीका तद्धित तदेव तप्पुरिस
18
तत्पु.
टिप्पणी टीका तद्धित तदेव तत्पुरुष तद्भव तत्सम तुलनीय तुलनात्मक विशेषण तृतीया-विभक्ति त्रिलिङ्ग द्वन्द्व-समास
त. भ. त. स. तुल. तुल. वि. तृ. वि. त्रि. द्व. स.
तुलनीय
ततिया-विभत्ति तिलिङ्गक द्वन्द-समास
द्रष्ट. द्वि.व. द्वि. वि. द्वि. स. न. तत्पु. न. ब.
नपुं.
ना. धा. ना. प. ना. रू.
Foot Note Commentary Secondary Derivative Ibid., As above Determinative Compound Derived from Sanskrit Similar to Sanskrit To be compared Adjectives of Comparison Instrumental case Adjective Couplative compound co-ordinate compound See Dual number Accusative Numerical compound Negative Negative adjectival compound Neuter Gender Denominative Substantive noun Declension Nalanda Edition Particle Dative Infinitives Negative Below Derived form Active Form Ablative Perfect Tense Pali Text Society, London Variant reading Technical Masculine Gender Absolutive Ordinals Prefix Page Third Person Nominative Old Indo-Aryan Language
ना.
निपा. निमि. कृ. निषे.
द्रष्टव्य
दट्ठब द्विवचन द्वितीया-विभक्ति
दुतिया-विभत्ति द्विगु-समास
दिगु-समास नज-तत्पुरुष-समास न-तप्पुरिस न-बहुव्रीहि
न बहुब्बीहि नपुंसक-लिङ्ग
नपुंसकलिङ्ग नामधातु
नामधातु नामपद
नामपद नामरूप
नामरूप नालन्दा-संस्करण निपात
निपात निमित्तार्थक कृदन्त निमित्तत्थक कितक निषेधार्थक
निसेधपरिदीपक नीचे पद
पद परस्मैपद
परस्सपद पञ्चमी-विभत्ति
पञ्चमी-विभत्ति परोक्ष
परोक्खा-विभत्ति पालि टेक्स्ट सोसाइटी, लन्दन पाठान्तर
पाठन्तर पारिभाषिक
पारिभासिक पुंलिङ्ग
पुल्लिङ्ग पूर्व-कालिक कृदन्त पुब्बकालिक-कितक पूरणार्थक संख्या
पूरणत्थक पूर्व-सर्ग पृष्ठ
पिट्ठ प्रथम-पुरुष
पठम-पुरिस प्रथमा-विभक्ति
पठमा-विभत्ति प्राचीन भारतीय आर्य-भाषा प्रादि-समास प्रेरणार्थक
कारित बहुब्रीहि-समास
बहुब्बीहि-समास बहुवचन
अनेकवचन बौद्ध-संस्कृत
प. पर. प. प. वि. परो. पा. टे. सो. पाठा. पारि.
पू. का. कृ. पूर. सं. पू. स.
प्र. पु. प्र. वि. प्रा. भा. आ. भा. प्रा. स.
प्रेर.
ब. स. ब. व. बौ. सं.
Causative Relative or Attributive Compound Plural Number Buddhist Hybrid Sanskrit
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भवि.
भाव. भा. वा. भूत. भू. क. भू. ग. म. पु. म. भा. आ. भा. मा. मि. सा. रा. ए. सो. ब.
ला. अ.
वर्त. कृ. वि. वि. अ. विधि. विप. वि. प्र. विलो. विशे. वि. वि. वि.
भविष्यत्काल
अनागता विभत्ति, भविस्सन्ती Future Tense
विभत्ति भाववाचक संज्ञा भाववाचक सञआ
Abstract Noun भाववाच्य भावकारक
Passive Voice (Intransitive Verbs) भूतकाल अतीतकाल
Past Tense भूतकालिक कर्मणि कृदन्त
Past Passive Participle भ्वादिगण भूवादिगण
First Conjugation मध्यम-पुरुष मज्झिमपुरिस
Second Person मध्य-भारतीय आर्यभाषा
Middle Indo-Aryan Language मात्रिका मतिका
Matrix मिथ्या-सादृश्य
False analogy रॉयल एशियाटिक सोसाइटी,
Royal Asiyatice Society, Bangal बंगाल रोमन (पालि टेक्स्ट सोसाइटी, लन्दन संस्करण)
Roman लाक्षणिक अर्थ
Secondary Meaning लाक्षणिक प्रयोग
Secondary Usage लिङ्ग लिङ्ग
Gender लुप्त लुत्त
Elided वचन वचन
Number वर्तमान-काल पच्चुप्पन्ना विभत्ति
Present Tense वर्तमानकालिक कृदन्त वत्तमानकालिक कत्तरि कितक Present Participle (Active) विभक्ति विभत्ति
Case-affixes विशेष, अर्थ
Special meaning विधिलिङ् सत्तमी-विभत्ति
Optative or Potential mood विपरीतार्थक
Antonym विविध-प्रयोग
Different Usages विलोम
Opposite विशेषण विसेसन
Adjective विपश्यना-विशोधन-विन्यास
Vipassana Visodhan Vinyasa (इगतपुरी संस्करण)
(Igatpuri Edition) व्यक्तिवाचक संज्ञा
Personal Name व्युत्पन्न/व्युत्पत्ति निप्फन्न
Derived व्युत्पत्तिपरक अर्थ
Etymological meaning व्युत्पन्न रूप
Derived form वैदिक वेदिक
Vedic शब्दशः सद्दसो
Literally शाब्दिक अर्थ
Literal meaning षष्ठी-विभक्ति छट्ठी-विभत्ति
Genitive Case संस्कृत सक्कत
Sanskrit संभाव्य कृदन्त
Potential Passive Participle संपादित संसोधित
Edited संबोधन आलपन
Vocative Case संस्करण
Edition संक्षिप्त-रूप सवित्त-रूप
Abbreviated Form समास समास
Compound सकर्मक क्रिया सकम्मक क्रिया
Transitive Verb सत्त्वनाम
Substantive noun
33
शा. अ. ष. वि. सं.
सं. कृ.
संपा. संबो. संस्क. सं. रू.
स.
सक. क्रि. सत्त्व .
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सत्तमी-विभत्ति
Locative case Parallel
सप्त. वि. समा. समाना. समा. द्व. स. उ. प. स. प. स. पू. प.
सप्तमी-विभक्ति समानान्तर समानार्थक समाहार-द्वन्द्व-समास समास-उत्तर-पद समस्त-पद समास-पूर्वपद सर्वनाम सिआमी संस्करण सिंहली संस्करण स्त्रीलिङ्ग स्थानापन्न
तुल्लत्थक समाहारद्वन्द-समास समासुत्तरपद समासपद समासपुब्बपद सब्बनाम
Aggregative Co-ordinate compound Later member of a compound Compound-word First member of a compound Pronoun
सर्व.
सि.
सिं. स्त्री. स्था .
इथिलिङ्ग
Feminine gender Substitute
सन
संकेत सूची अ. नि.
ख. सन्दर्भ-ग्रन्थ-सूची प्रकाशन वि. वि. वि., इगतपुरी ज. पा. टे. सो.लन्दन
1998
अट्ठ.
ग्रन्थों के नाम अङ्गुत्तर-निकाय अट्ठकथा अनागत वंस अनुटीका अपदान अभिधम्मावतार
अना. वं. अनु. टी.
1886
अप.
अभि. अव.
1998 1987
1998
अभि.टी.
वि. वि. वि., इगतपुरी पालि परिवेण, पटपड़गंज, दिल्ली वि. वि. वि., इगतपुरी वि. वि. वि., इगतपुरी वि. वि. वि., इगतपुरी वि. वि. वि., इगतपुरी बौद्धभारती, वाराणसी बौद्धभारती, वाराणसी
1998 1998 1998 1981 1981
2001
अभि. ध. वि. अभि. ध. स. अभि. प. अभि. प. सू. अभि. पि. अमर. अर्थ. वि. अव. श. अष्टा. इतिवु. उत्त. वि. उदा. उप. प. एकक्ख.
चौखम्भा संस्कृत संस्थान, वाराणसी काशी प्रसाद जायसवाल शोध संस्थान, पटना मिथिला शोध संस्थान, दरभंगा मोतीलाल बनारसीदास, वाराणसी, भाग 1, 2 वि. वि. वि., इगतपुरी वि. वि. वि., इगतपुरी वि. वि. वि., इगतपुरी वि. वि. वि., इगतपुरी बौद्धभारती, वाराणसी
1971 1958 1962 1998
अभिनवटीका अभिधम्मत्थविभाविनी अभिधम्मत्थसग्रहो अभिधानप्पदीपिका अभिधानप्पदीपिका सूची अभिधम्म पिटक अमरकोष अर्थविनिश्चय सूत्र अवदानशतक अष्टाध्यायी इतिवृत्तक उत्तरविनिच्छय उदान उपरिपण्णास एकक्खरकोस (अभिधानप्पदीपिका) कहावितरणी-टीका (पातिमोक्ख-टीका) कथावत्थु कच्चायन-वण्णना कच्चायन-वृत्ति कच्चायन-व्याकरण खुद्दकपाठ खुद्दसिक्खा
1998
1998 1998
1981
कला. टी.
वि. वि. वि., इगतपुरी
1998
कथा.
|
T। ਓ
वि. वि. वि., इगतपुरी रा. ए. सो. ऑफ बंगाल, कलकत्ता रा. ए. सो. ऑफ बंगाल, कलकत्ता, पृ. 1 से 339 तारा पब्लिकेशन्स, कमच्छा, वाराणसी वि. वि. वि., इगतपुरी वि. वि. वि., इगतपुरी
1998 1910-12 1871 1981 1998 1998
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XXV
ग. वं. चरिया.
1896 1998 1998
चूळनि. चूळव.
1998
चू. वं.
जा. जि. च. जिना. ति. प. तेल.
थू. वं.
1980 1998 1904-05 1894 1996 1884 1948 1935 1945 1998 1998 1874 1959 1998
थेरगा.
थेरीगा.
1996
दा. वं. दिव्या. दी. नि. दी. वं. ध. प. ध. स. धातु. धा. पा. धा. मं. ना. रू. प.
गन्धवंस
सो., लन्दन चरियापिटक
वि. वि. वि., इगतपुरी चूळनिद्देस
वि., इगतपुरी चूळवग्ग
वि. वि., इगतपुरी चूलवंस
पा.टे. सो., लन्दन जातक
• वि., इगतपुरी जिनचरित
जॅ. पा. टे. सो., लन्दन जिनालंकार
जॅ. पा. टे. सो., लन्दन तिकपट्टान
पा. टे. सो., लन्दन तेलकटाहगाथा
जॅ. पा. टे. सो., लन्दन
महाबोधि सभा, सारनाथ थूपवंस
पा. टे. सो., लन्दन
रा. ए. सो. ऑफ बंगाल, कलकत्ता थेरगाथा
वि. वि. वि., इगतपुरी थेरीगाथा
वि. वि. वि., इगतपुरी दाठावंस
टरुम्बनर एण्ड कम्पनी, लुड्गेट हिल, लन्दन दिव्यावदान
मिथिला शोध संस्थान, दरभंगा दीघनिकाय
वि. वि. वि., इगतपुरी दीपवंस
काशी विद्यापीठ, वाराणसी धम्मपद
वि. वि. वि., इगतपुरी धम्मसङ्गणि
वि. वि. वि., इगतपुरी धातुकथा
वि. वि. वि., इगतपुरी धातुपाठ (पालि-महाव्याकरण) मोतीलाल बनारसीदास, वाराणसी धातुमजूसा (क. व्या.) तारा पब्लिकेशन्स, वाराणसी नामरूप-परिच्छेद
पा. टे. सो., लन्दन
पालि परिवेण, पटपड़गंज, दिल्ली नेत्तिप्पकरण
वि. वि. वि., इगतपुरी पञ्चप्पकरण अट्ठकथा वि. वि. वि., इगतपुरी पज्जमधु
जॅ. पा. टे. सो., लन्दन पटिसम्भिदामग्ग
वि. वि. वि., इगतपुरी पट्टान
वि. वि. वि., इगतपुरी परमत्थ-विनिच्छय पालि परिवेण, पटपड़गंज, दिल्ली
वि. वि. वि., इगतपुरी परिवार
वि. वि. वि., इगतपुरी पालि-इंग्लिश डिक्शनरी मुंशीराम मनोहरलाल, दिल्ली पाचित्तिय
वि. वि. वि., इगतपुरी पातिमोक्ख पाराजिक
वि. वि. वि., इगतपुरी पुराणटीका (अभि. अव.) वि., इगतपुरी पुग्गलपत्ति
वि. वि. वि., इगतपुरी पेतवत्थु
वि. वि. वि., इगतपुरी पेटकोपदेस
वि. वि. वि., इगतपुरी बालावतार
बौद्धभारती, वाराणसी बुद्धवंस
वि. वि. वि., इगतपुरी मज्झिमनिकाय
वि. वि. वि., इगतपुरी मज्झिमपण्णास (म. नि.) वि. वि. वि., इगतपुरी महाबोधिवंस महाभाष्य, भाग 1-2 डेक्कन एज्युकेशन सोसाइटी, पुणे
1998 1998 1998 2000 1962 1913-14 1988 1998 1998 1887 1998 1998 1992
नेत्ति.
प. प. अट्ठ. प. म. पटि. म.
पट्टा.
पर. वि.
1998
परि. पा. इ.डि. पाचि.
1998 2001 1998
पाति. पारा.
पु. टी. पु. प.
1998 1998 1998 1998 1998
पेटको
बाला.
1996
बु. वं. म.नि.
(भ. नि.)
1998 1998 1998 1891 1952
म. बो. वं.
पा.टे. सो.. लान सोसाइट
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म. व.
म. वं.
म. वं. टी.
महाटी.
महानि,
महाभा.
महाव.
मि.
प.
मू. टी.
मू. प. मू. सि.
मो. प. प.
मो. वु.
मो. व्या यम. रू. सि. रूपा. वि.
ललित.
वि. पि.
वि. व. वि. वि. टी.
वि. सङ्ग अट्ठ
विन, वि.
विन. वि. टी.
विभ.
विसुद्धि.
तो.
स. नि. सच्च.
सद्द.
लीन. (दी० नि० टी०) लीनत्थप्पकासना
बजिर. टी.
सद्धम्म. सद्धम्मो.
सद्धर्म.
सा. वं.
सा. सं.
महावस्तु
महावंस महावंसटीका
महाटीका (विसुद्धि.) महानिदेस
महाभारत, भाग 1-19
महावग्ग
मिलिन्दपञ्ह
मूलटीका
मूलपण्णास (म. नि.) मूलसिक्खा
मोग्गल्लान- पञ्जिकापदीप (पालि-महाव्याकरण) मोग्गल्लान-वृत्ति
सारत्थ. टी. सार. प. टी. सु. नि. सु. पि. सुबोधा.
(पालि- महाव्याकरण)
मोग्गल्लान व्याकरण
यमक
रूपसिद्धि
रूपारूपविभाग
ललितविस्तर
वजिरबुद्धि- टीका विनय-पिटक
विमानवत्थु विमति-विनोदनी-टीका
विनय-सङ्ग्रह - अट्ठकथा विनयविनिच्छय विनयविनिच्छय-टीका
विभङ्ग
विसुद्धिमग्गो
वुत्तोदय
(रिसर्च वोल्यूम भाग 1 )
संयुत्तनिकाय सच्चसङ्केप
सद्दनीति
भाग 1, 2, 3, 4 (रो.) सद्धम्मसमूहो
सद्धम्मोपायन
सदर्भपुण्डरीक-सूत्र
सासनवंस
सारसङ्ग्रहो
सारत्थदीपनी टीका सारत्थपकासनी- टीका सुत्तनिपात
सुत्तपिटक
सुबोधालङ्कार (बौद्धाला शास्त्र नाम से)
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xxvi
पेरिस,
मिथिला शोध संस्थान, दरभंगा काशी विद्यापीठ, वाराणसी
नव नालन्दा महाविहार, नालन्दा
वि. वि. वि., इगतपुरी
वि. वि. वि. इगतपुरी
भण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पुणे
वि. वि. वि. इगतपुरी वि. वि. वि. इगतपुरी वि. वि. वि., इगतपुरी वि. वि. वि., इगतपुरी वि. वि. वि., इगतपुरी
मोतीलाल बनारसीदास, वाराणसी
मोतीलाल बनारसीदास, वाराणसी
विश्वेश्वरानन्द वैदिक शोध संस्थान, होशियारपुर
वि. वि. वि. इगतपुरी कोलम्बो (सिं)
पालि परिवेण पटपड़गंज, दिल्ली मिथिला विद्यापीठ, दरभंगा
वि. वि. वि. इगतपुरी
वि. वि. वि. इगतपुरी वि. वि. वि. इगतपुरी वि. वि. वि. इगतपुरी
वि. वि. वि. इगतपुरी
वि. वि. वि., इगतपुरी
वि. वि. वि. इगतपुरी वि. वि. वि. इगतपुरी वि. वि. वि. इगतपुरी
वि. वि. वि., इगतपुरी
नव नालन्दा महाविहार, नालन्दा
वि. वि. वि., इगतपुरी
पा. टे. सो., लन्दन, पृ० 1-25 तक ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय, लन्दन
नव नालन्दा महाविहार, नालन्दा
सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी
मिथिला शोध संस्थान, दरभंगा नव नालन्दा महाविहार, नालन्दा कोलम्बो (सि)
वि. वि. वि. इगतपुरी वि. वि. वि. इगतपुरी वि. वि. वि. इगतपुरी
वि. दि. वि. इगतपुरी
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1882-97
1970
1996
1971
1998
1998
1958
1998
1998
1998
1998
1998
2000
2000
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1960
1998 1917-19
1928
1981
1983
1960
1961
1914
1998
1998
1998
1998
लाल बहादुर शास्त्री केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ, दिल्ली 1973
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अंस
अ' नागरी वर्णमाला में प्रयुक्त प्रथम स्वर-वर्ण, उच्चारण की सुविधा हेतु समस्त व्यञ्जनों में अनिवार्य रूप में समाहित ध्वनि, व्याकरण ग्रन्थों में 'अ' तथा 'आ' (अवर्ण) के सङ्केतनहेतु अन्त में 'कार' प्रत्यय जोड़ कर 'अकार' के रूप में भी प्रयुक्त तथा व्याकरण ग्रन्थों में ही अवण्ण' (अवणी रूप में भी प्राप्त अ. क. पालि-शब्दावली में संस्कृत भाषा के उप. आङ् (आ) का संयुक्त-व्यञ्जनों से पूर्व इस्वीकृत रूपान्तरण - अक्कोसति [आक्रोशते], अक्खाति [आचक्षते]; ख. असंयुक्त अन्तःस्थों (य, र, ल, द) तथा सानुनासिक वर्गीय व्यञ्जन-ध्वनियों (ङ्, ज, ण, न, म्) से पूर्व संस्कृत-भाषा के उप. आङ् (आ) का हुस्वीकृत स्था. - अमज्जप [आमद्यप], अत्यधिक मद्यपायी - अमज्जपाति एत्थ अ-कारो निपातमत्तं, जा. अट्ठ. 7.225; - अपस्सतो आ + दिस, वर्त. कृ. [आपश्यतः], भलीभांति देखते हुए - अपस्सतोति अ-कारो निपातमत्तो, जा. अट्ठ. 7.324. अ. क. अद्य., अनद्य. एवं काला. नामक आख्यात-प्रयोगों में धातु से पूर्व यादृच्छिक रूप से पूर्वागम-रूप में प्रयुक्त; (संस्कृत-प्रयोगों में इन्हीं स्थलों पर यह पूर्वागम अनिवार्य है जब कि पालि-गद्य में इसका प्रयोग यादृच्छिक है) - अगमा खो त्वं, महाराज, यथापेमन्ति ..., दी. नि. 1.45; अहुदेव भयं, अहु छम्भितत्तं अहु लोमहंसो, दी. नि. 1.44; एतदवोच, दी. नि. 1.47; ख. कतिपय सर्वनामों से निष्पन्न शब्दरूपों एवं अव्ययों के मूलाधार के रूप में 'अ' रूप में प्रयुक्त, परन्तु अर्थ-विशेष का द्योतक नहीं - अज्ज [अद्य], अस्स [अस्य], अस्मिं [अस्मिन्], अतो [अतः], अत्त [अत्र]. अ* क. निषे., तत्पु. स. एवं ब. स. में व्यञ्जनादि उत्त. प. रहने पर निषे. निपा. 'न' के स्था.-रूप में प्रयुक्त, आगे द्रष्ट; - टि. उत्त. प. स्वरादि रहने पर निषे. निपा. 'न' का स्था. 'अन्' हो जाता है - अनन्तो (ने + अन्तो), वह जिसका अन्त न हो- अनन्तो अयं लोको अपरियन्तो, दी. नि. 1.20; ख. कुछ कृत्प्रत्ययान्त शब्द-रूपों में निषे. पू. स. के रूप में प्रयुक्त - अजानं ञा के वर्त. कृ. का निषे.. नहीं जानते हुए - सो अजानं वा आह, म. नि. 1.361; - टि. संस्कृत भाषा में जहाँ कृत्प्रत्ययान्त नामपद के आदि में कोई भी व्यञ्जन रकार के साथ संयुक्त रूप में प्रयुक्त था वहाँ पालि में पूर्वसर्गीभूत 'अ' के प्रयोग के फलस्वरूप समीकरण की प्रवृत्ति के प्रभाव से व्यञ्जन का द्वित्वभाव हो गया है - अप्पटिबलो [अप्रतिबलः], अप्पटिहत [अप्रतिहतः]. अं केवल व्याकरण-ग्रन्थों में निम्न रूप में प्रयुक्त - क.
निग्गहीत (अनुस्वार) को सूचित करने हेतु प्रयुक्त एक पारिभाषिक शब्द - अं इति निग्गहीतं, क. व्या. 8; (नासिका नामक करण का निग्रहण कर खुले हुए मुख द्वारा जिसका उच्चारण किया जाता है, उसे 'निग्गहीत' कहते हैं, यह स्वर के पीछे लगने वाला 'बिन्दु' है); ख. नामपदों में लगने वाली द्वि. वि., ए. व. का विभक्तिप्रत्यय - सियो अंयो ...., क. व्या. 55; - वचन नपुं.. द्वि. वि., ए. व., (केवल व्याकरणों में ही प्रयुक्त) - अंवचनस्स यं होति, क. व्या. 223. अंस' पू., क. [अंश], भाग, विभाग, हिस्सा - पटिविंसो... अंसो भागो, अभि. प. 485; एकेन अंसेन ..., अ. नि. 1(1).78%; उभयेन अंसेन, दी. नि. 2.165; ख. संख्याबोधक शब्दों के साथ समस्त होने पर उ. प. के रूप में प्रयुक्त - पच्चसेन, अ. नि. 2(1).33; चतुरंसं, छळस, अट्ठस, सोळसंस.... ध. स. 6183; उपसङ्कमितुं पुटसेनाति, दी. नि. 1.103; अ. नि. 1(2).212, पाठा. पुटोसेन; निम्न प्रयोगों में स. उ. प. के रूप में प्राप्त - अनागतंस, थिरंस, दीर्घस, पच्चुप्पन्नंस, पापियंस, मेत्तंस, सिरंस, सुक्कंस, सेय्यंस. अंस' पु., [अंस, अंस्यते समाहन्यते इति अंसः अमति, अम्यते वा भारादिना इति अंसः], कंधा - अंसो नित्थि भुजसिरो खन्धो, अभि. प. 264; अंसेन अंसं. जा. अट्ठ. 4.88; अंसे कत्वा , जा. अट्ठ. 1.12; उ. प. के रूप में अन्तरंस, एकंस आदि के अन्त. द्रष्ट; - कासाव पु.. [अंसकाषाय], कन्धे पर अवलम्बित भिक्षु का विशेष चीवरप्रकार - चतुत्थं वत्तमानं अंसकासावमेव वट्टति, विसुद्धि. 1.63; - कूट पु., तत्पु. स. [अंसकूट], कंधे का किनारा, कन्धे का जोड़ - पत्तं अंसकूटे लग्गेत्वा ..., जा. अट्ठ. 1.65; पत्तं अंसे आलग्गेत्वा, सु. नि. अट्ठ. 1.44; - बन्धक पु., [असंवन्धक], सामान्यतया भिक्षापात्र को लटकाने हेतु भिक्षु द्वारा प्रयुक्त कंधे के सहारे लटकाने वाली पट्टिका; बुद्ध द्वारा भिक्षु के लिए अनुमत चार परिक्खारों में से एक के रूप में इसी अर्थ में प्रयुक्त - अनुजानामि, भिक्खवे ... अंसबद्धकं बन्धनसुत्तकन्ति, महाव. 279, पाठा.. असंबद्धक. अंस पु., [अश्रः, अश् + रक्], किनारा, कोना, प्रायः स. उ. प. के रूप में ही प्रयुक्त; संख्याबोधक शब्दों के साथ भी स. उ. प. रूप में अटुंस, चतुरंस, छळंस, ति अंस, आदि के अन्त. द्रष्ट; - भाग पु., तत्पु. स. [अश्रभाग], किनारा अथवा किनारे का भाग - अट्टसेसु थम्भेसु एकमेकस्मि
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अंसा
अकट
अंसभागे, वि. व. अट्ठ. 257; - वन्तु त्रि., [अस्रवत], किनारों वाला - अट्ठसोळसद्धतिंसादिअंसवन्तो वि. व. अट्ट, 288. अंसा व्यु., अनिश्चित, संभवतः पु., अंस का प्र. वि. के ब. व. का शब्दरूप, परन्तु - अंसाय ... पिळकाय ... भगन्दलेन, महानि. 272 में स्त्री. रूप में उल्लिखित [अर्शस], अर्श, बवासीर, भगन्दर - अंसा पिळका भगन्दला, अ. नि. 3(2).91, तुल. अरिस. अंसि स्त्री., [अश्रि], कोना, किनारा, कोण - एकमेकाय
अंसिया, रतना सत्त निम्मिता, वि. व. 1135; तत्थ पन एकमेकाय अंसियाति अट्ठसेसु, वि. व. अट्ठ. 257. अंसिक त्रि., कन्धा अर्थ वाले, 'अंस' शब्द से व्युत्पन्न [अंसिक], अपने कन्धों पर भार ढोकर ले जाने वाला व्यक्ति - एवं अंसिको, क. व्या. 352; मो. व्या. 4.30. अंसु पु., [अंशु] क. धागा, सूत, सूत्र का सूक्ष्म अंश -
वत्थादिलोमेप्यंसुकरे अभि. प. 1121, ... अंसु अभन्तरगतम्पि निस्सेसं मलं पवाहेत्वा, ध. स. अट्ठ. 284; ख. पु. [अंशु]. सूर्य की किरण, रश्मि - मरीचि द्वीसु भान्वंसु, अभि. प. 64; - क नपुं., [अंशुक, अंशु + क, अंशवः सूत्राणि विषया यस्य तत्], वस्त्र, कपड़ा, सामान्यतया पहना जाने वाला वस्त्र - चेलमच्छादनं वत्थं वासो वसनमंसकं, अभि. प. 290; - माली पु.. [अंशुमालिन्], सूर्य, किरण रूपी मालाओं वाला भानु - अंसुमाली दिनपति तपनो रवि भानुमा, अभि. प. 63. अकक्कस त्रि., कक्कस का निषे. स. [अकर्कश], चिकना, विशुद्ध, कोमल - अकक्क्सं विज्ञापनि, गिरं सच्चमुदीरये, ध. प. 408; अकक्क्स न्ति ... अफरुसं अगळितं.... जा. अट्ठ. 5.196; - संग त्रि., ब. स. [अकर्कशाङ्ग], कोमल, मृदु अथवा चिकने अङ्गों वाला - अकक्कसङ्गो न च दीघलोमो ..., जा. अट्ठ. 5.194. अकक्खळ त्रि., कक्खल का निषे., तत्पु. स. [अकक्खट], वह, जो कठोर नहीं हो - ता स्त्री. भाव. [अकक्खटता]. चिकनापन, कोमलता - अकक्खळताति अकक्खळभावो, ध. स. अट्ठ. 194, ध. स. 44, 45; - वाचता स्त्री., [अकक्खटवाचिता], वाणी की कोमलता - अफरुसवाचताति
अकक्खळवाचता, ध. स. अट्ठ. 418. अकंख त्रि., कंख का निषे., तत्पु. स. [अकाङ्क्ष], इच्छा से रहित, तृष्णारहित, आकांक्षाओं से मुक्त - स वे अनेजो अखिलो अकङ्को, सु. नि. 481; स्वाहं अकङ्घो असितो अनूपयो, स. नि. 1(1).211. अकच्छ त्रि., कच्छ का निषे., तत्पु. स. [अकथ्य]. न कहने
योग्य, उपदेश न देने योग्य, संलाप में प्रयोग के लिए अनुपयुक्त - पुग्गलो वेदितब्बो यदि वा कच्छो यदि वा अकच्छोति, अ. नि. 1(1).227, अकच्छोति कथेतुं न युत्तो, अ. नि. अट्ठ. 2.178. अकट/अकत त्रि., कट का निषे. स. [अकृत], अनिर्मित, हेतुओं एवं प्रत्ययों से अनुत्पन्न - सत्तिमे, महाराज, काया अकटा अकटविधा, अनिम्मिता, अनिम्माता, दी. नि. 1.49, म. नि. 2.195; स. नि. 2(1)197; - टि. बुद्धकालीन छ: बौद्धेतर श्रमण धर्माचार्यों में से कुछ ने तत्त्वों को अकृत अथवा हेतु-प्रत्ययों से उत्पन्न नहीं माना था। बौद्धेतरसम्प्रदायों एवं विनय में 'अकत' रूप में प्रयुक्त; - टानुधम्म त्रि., [अकृतानुधर्म], ऐसा भिक्षु, जिसके लिये भिक्षुसंघ ने
ओसारण (संघ में पुनर्वास) नामक अनुधर्म का अनुमोदन नहीं दिया है - छब्बग्गिया भिक्खू ... अरिटेन भिक्खुना अकटानुधम्मेन ... सद्धिं सम्भुजिस्सन्तिपि ..., पाचि. 182; सो ओसारणसङ्घातो अनुधम्मो यस्स न कतो, अयं अकटानुधम्मो नाम, पाचि. अट्ठ. 126; द्रष्ट. अनुधम्म एवं ओसारण, (आगे); - पब्मार पु., [अकृतप्राग्भार], पर्वत का प्राकृतिक ऊंचा क्षेत्र, निवास स्थान के रूप में प्रयुक्त प्राकृतिक पर्वत-गुफा - एकस्मिं अकटपब्भारे ससीसं पारुपित्वा, ध. प. अट्ठ. 1.296; - भूमिभाग पु., कर्म. स. [अकृतभूमिभाग], परती भूमि, नहीं जोता हुआ खेत - अकतभूमिभागो वत्थु, दी. नि. अट्ठ. 1.72; - यूस पु. नपुं., कर्म. स. [अकृतयूष]. पूरी तरह से तैयार न किया हुआ तथा मूंग से बनाया गया एक प्रकार का तरल पेय, जो भिक्षुओं के लिए बुद्ध द्वारा अनुज्ञात पेयों में से एक है - अनुजानामि, भिक्खवे, अकटयूसन्ति, महाव. 283; अकटयूसन्ति असिनिद्धो मुग्गपचितपानीयो, महाव. अट्ठ. 353; - विज्ञत्ति स्त्री., कर्म. स., केवल तृ. वि., ए. व. में क्रि. वि. के रूप में 'अकटवित्तिया' रूप में प्रयुक्त [अकृतविज्ञप्ति], सामान्य परिस्थिति में अनुमोदित न किये गये अथवा अकस्मात् सामने आए हुए विषयों पर संघ द्वारा जारी की गई विज्ञप्ति अथवा अनुमोदन - गिलानस्सत्थाय अप्पवारितट्ठानतोपि वित्तिया अनुआतत्ता कतापि अकता वियाति अकतवित्ति , सारत्थ. टी. 2.243; - विध त्रि., ब. स. [अकृतविध], ऐसे धर्म जिनकी संरचना अथवा निर्माण का विधान किसी के द्वारा न किया गया हो - अकटा अकटविधा अनिम्मिता अनिम्माता वझा कूटट्ठा, दी. नि. 1. 49; अकटविधाति अकतविधाना, दी. नि. अट्ठ. 1.138.
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अकत
अकट्ठ अकट्ठ त्रि., [अकृष्ट], बिना जोती हुई भूमि; - पाक त्रि., ब. स. [अकृष्टपाक], प्राकृतिक रूप से उत्पन्न अथवा बिना जोती हुई भूमि में उत्पन्न और परिपक्व धान आदि - अकट्ठपाको सालि पातुरहोसि, दी. नि. 3.65; सालि अकट्ठपाको च, जा. अट्ठ. 7.308; अकट्ठपाकोति अकट्ठयेव भूमिभागे उप्पन्नो, दी. नि. अट्ठ. 3.47; - पाकिम त्रि. उपरिवत् - अकट्ठपाकिम सालिं, परिभञ्जन्ति मानसा, दी. नि. 3.151; अकट्ठपाकिमन्ति अकट्ठे भूमिभागे अरओ सयमेव
जातं, दी. नि. अट्ठ. 3.133. अकठिनता/अकथिनता स्त्री॰, भाव. [अकठिनता]. कोमलता, कर्कशता का अभाव - ... अकथिनता ... मुदुता होति, ध. स. 44; अकथिनता ति अकथिनभावो, ध. स. अट्ठ. 194. अकण त्रि., निषे., ब. स. [अकण], बिना कण वाला चावल
या धान, कण-रहित - सालि पातुरहोसि अकणो अथुसो, दी. नि. 3.65; अकणोति निक्कुण्डको, दी. नि. अट्ठ. 3.47. अकणिक त्रि., निषे. स. [अकणिक], तिलों या मस्सों से रहित (मुख)- अकणिकं वा अकणिकन्ति जानेय्य, दी. नि. 1.71; म. नि. 2.221, सकणिक का विलो... अकण्टक त्रि., निषे०, ब. स. [अकण्टक], शा. अ. कण्टकरहित, ला. अ. विपत्तियों से मुक्त, सुखदायक, राग आदि से मुक्त - खेमट्टिता जनपदा अकण्टका, दी. नि. 1.1203; अकण्टके ... गुम्बे, जा. अट्ठ. 2.98; मग्गो ... अकण्टको अगहणो, वि. व. 164; रागकण्टकादीनं अभावेन अकण्टको, वि. व. अट्ठ. 76; अकण्टका, भिक्खवे, विहरथ निक्कण्टका, भिक्खवे, विहरथ, अ. नि. 3(2).112. अकण्ह त्रि., निषे., तत्पु. स. [अकृष्ण], शा. अ. वह, जो कृष्ण वर्ण का नहीं है, ला. अ. वह, जो अधम अथवा दुष्ट प्रकृति का नहीं है, निर्मल, पवित्र स्वभाव वाला - अकण्हअसुक्कं अकण्हअसुक्कविपाक, अ. नि. 1(2).265%; अकण्ह असुक्कं निब्बानं, दी. नि. 3.198; अकण्हं असुक्कं निब्बानं अभिजायति, अ. नि. 2(2).94; - टि. लोकोत्तरधर्म होने के कारण निर्वाण कृष्ण, शुक्ल आदि प्रपञ्चों का विषय नहीं है। इसी कारण थेरवादियों ने अकण्ह, असुक्क आदि पदों का प्रयोग प्रत्यात्मवेद्य निर्वाण के लिए किया है; - असुक्क-विपाक त्रि., ब. स., [अकृष्णाशुक्लविपाक], ऐसा कर्म, जिसका विपाक न बुरा हो न अच्छा हो - कम्म अकण्हं असुक्कं अकण्हअसुक्कविपाकं .... म. नि. 2.59; अ. नि. 1(2).265; - नेत्त त्रि. ब. स. [अकृष्णनेत्र], वह,
जिसके नेत्र कृष्ण वर्ण के नहीं हों, जिसके नेत्र पिङ्गलवर्ण
के हों - अकण्हनेत्तोति पिङ्गलनेत्तो, जा. अट्ठ. 2.202. अकत' त्रि., [अकृत], क. किसी के द्वारा न किया गया, स्वतः उत्पन्न, अहेतुक - अकतं दुक्कट सेय्यो, पच्छा तप्पति दुक्कट ध. प. 314; स.नि. 1(1).58; अत्तना अकतं पापं, अत्तनाव विसुज्झति, ध. प. 165; पाठा. अकट; ख. न जोती हुई कृषि भूमि, अशिक्षित व्यक्ति, शील आदि से रहित व्यक्ति - अकतं भूमिमागते, जा. अट्ठ. 7.106, अकतबुद्धिनो असिक्खितका, जा. अट्ठ. 3.49; - ताभिनिवेस त्रि., ब. स. [अकृताभिनिवेश], सांसारिक आसक्ति से मुक्त व्यक्ति, लगावरहित - आरद्धवीरियस्स ... अकताभिनिवेसस्स विपस्सकस्स, जा. अट्ठ. 1.117; - तूपसेवन त्रि., ब. स., असत्कृत, उपेक्षित, जिसे सत्कार या सेवा प्राप्त न हुई हो - गिज्झपत्तादीहि अकतूपसेवनेन, जा. अट्ठ. 2.230; - तूपासन त्रि., ब. स. [अकृतोपासन], किसी की सेवाशुश्रूषा या देख-भाल न करने वाला व्यक्ति, विनय, शिल्पों एवं शास्त्रों में अशिक्षित व्यक्ति- अथ आगच्छेय्य खत्तियकुमारो असिक्खितो ... अकतूपासनो, स. नि. 1(1).1173; अकतूपासनोति राजराजमहामत्तानं अदस्सितसरक्खेपो, स. नि. अट्ठ. 1.145; - तोकास त्रि., ब. स. [अकृतावकाश], वह, जिसके सम्बन्ध में कोई अनुमति अथवा अनुमोदन प्राप्त नहीं है- ओयेव अत्थाय अकतं अकतोकासं भूमि समागते ....., जा. अट्ठ. 7.106; - कप्प त्रि., ब. स. [अकृतकल्प], वह वस्तु, जिसके उपयोग की अनुमति भिक्षु-संघ द्वारा प्रदान न की गई हो, संघ द्वारा अनुमोदित न की गई वस्तु या कार्य - अनुजानामि, भिक्खवे, अबीजं निब्बत्तबीजं अकतकप्पं फलं परिभुजितुन्ति, महाव. 291; - कम्म त्रि., ब. स. [अकृतकर्मन], वह, जिसने अपने लिए निर्धारित कर्म को निष्पादित नहीं किया हो, निर्धारित या उचित कर्म को न करने वाला - माणवेहि समागच्छेय्यं कतकम्मेहि वा अकतकम्मेहि वा, अ. नि. 2(1).95; चोरिकं कातुं गच्छन्ता अकतकम्मा नाम, अ. नि. अट्ठ. 3.36; - कल्याण त्रि., ब. स. [अकृतकल्याण], वह, जिसने कल्याणकारी कर्म नहीं किया है, पापकारी - अकतकल्याणा अकतकुसला अकतभीरुत्ताणा, अ. नि. 1(1).181; अकतकल्याणानं अकतकुसलानं अकतभीरुत्ताणानं म. नि. 3.204; - किब्बिस त्रि., ब. स. [अकृतकिल्विष], वह, जिसने कलुषित कर्म अथवा पापकर्म नहीं किए हों, कल्याणकारी कर्मो को करने वाला - कतकल्याणो ... अकतपापो अकतलुद्दो
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अकत
अकत
अकतकिब्बिसो, पारा. 84; - कुसल त्रि., ब. स. [अकृतकुशल], वह, जिसने कुशल कर्मों को नहीं किया है, प्राणि-हत्या से विरति आदि कुशल कर्मों को न करने वाला - अकतकल्याणा अकतकुसला अकतभीरुत्ताणा, अ. नि. 1(1),181; - परिग्गह त्रि.. ब. स. [अकृतपरिग्रह], वह, जिसने किसी प्रकार का परिग्रह अथवा गृह-पत्नी आदि का संग्रह न किया हो, अविवाहित - अनापादा, अहि अकतपरिग्गहा, जा. अट्ठ. 4.160; - परित्त त्रि., ब. स. [अकृतपरित्त], वह, जिसने अपने लिए निर्धारित अथवा अभीप्सित परित्तपाठ को नहीं पढ़ा है - अकतपरित्तस्स तं येव दिवसं पासं उपनेसीति, मि. प. 152;-टि. स्थविरवादी बौद्ध-परम्परा में विशेष कर श्रीलङ्का एवं म्या-मां में बौद्ध गृहस्थों के बीच ‘परित्त' अत्यन्त लोकप्रिय है। उन लघु वचन-खण्डों को परित्त अथवा परित्ता कहते हैं, जिनका पाठ व्यक्तिगत अथवा सामूहिक रूप से रोग एवं प्राकृतिक विपदाओं से पूर्ण त्राण दिलाने हेतु किए जाने की परम्परा प्रचलित रही है। 'परित्त' पालि-त्रिपिटक में परित्त नाम से स्वतन्त्र रूप में संगृहीत न होकर खु. पा., अ. नि., म. नि. तथा सु. नि. में संगृहीत खण्डों के समुच्चय हैं। मि. प. में छ: प्रमुख परित्त-पाठों की सूची दी गई है। 'परित्त' का शाब्दिक अर्थ परित्राण एवं सुरक्षा है। विशेष अर्थ के लिए द्रष्ट. 'परित्त' (आगे); - पाप त्रि., ब. स. [अकृतपाप], वह, जिसने पाप कर्म नहीं किए हैं, कल्याणकर्म अथवा पुण्यकर्म करने वाला - कतकल्याणो ... अकतपापो अकतलुद्दो अकतकिब्बिसो, पारा. 84; - पुञ त्रि., ब. स. [अकृतपुण्य]. वह, जिसने अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य आदि पुण्यकर्म नहीं किए हैं- ये केचि निबिसेसा अकतपुआ बुद्धिपरिहीना, मि. प. 234; - बहुमान त्रि. ब. स. [अकृतबहुमान], वह, जिसे बहुत सम्मान नहीं मिला है - अबहुकतो अहोसिं । धम्मेन अबहुकतो सङ्घन, स. नि. 3(1).110; अबहुकतोति अकतबहुमानो, स. नि. अट्ठ. 3.187; - बुद्धि त्रि., ब. स. [अकृतबुद्धि]. वह, जिसके पास बुद्धि अथवा समझने की क्षमता नहीं है, जिसे बौद्धिक क्षमता प्राप्त नहीं है, अशिक्षित - अकतबुद्धिनो असिक्खितका च. जा. अट्ठ. 3.49; - भीरुत्ताण त्रि., ब. स., वह, जिसने भयों, विपत्तियों एवं संकटों से सुरक्षित रखने का कोई उपाय नहीं किया है, सुरक्षित शरणस्थल में अप्राप्त व्यक्ति- ते चम्हा अकतकल्याणा अकतकुसला अकतभीरुत्ताणा, अ. नि.1(1).181; अकतभीरुत्ताणाति अकतभयपरित्ताणा, अ. नि. अट्ठ.
2.138; - मल्लक पुं, साधारण प्रकार की चिकनाई से रहित खुरचनी अथवा त्वचा को रगड़ने वाला वह उपकरण, जिसके प्रयोग की अनुमति बुद्ध ने खुजली से पीड़ित भिक्षुओं के लिए दी थी- अनुजानामि, भिक्खवे, गिलानस्स अकतमल्लकन्ति, चूळव. 223; अकतमल्लकं नाम दन्ते अच्छिन्दित्वा कतं, चूळव. अट्ठ. 45; - योग्य त्रि., ब. स. [अकृतयोग्य], वह, जिसे कामों में नहीं लगाया गया हो, जो व्यावहारिक जीवन में कुशल न हुआ हो, अप्रशिक्षित - अथ आगच्छेय्य खत्तियकुमारो असिक्खितो अकतहत्थो अकतयोग्गो अकतूपासनो भीरु छम्भी उत्रासी पलायी, स. नि. 1(1).117; अकतयोग्गोति तिणपुञ्जमत्तिका-पुजादीसु अकतपरिचयो, स. नि. अट्ठ. 1.145; - रस्स त्रि, ब. स. [अकृतहूस्व]. केवल व्याकरण-ग्रन्थों में ही प्रयुक्त शब्द-रूप, अहस्वीकृत स्वर, वह स्वर, जिसे ह्रस्व नहीं किया गया है, इस्वता को अप्राप्त - अकतरस्सा लतो वालपनस्स वे वो, क. व्या. 116; - लुद्द त्रि., ब. स. [अकृतलुब्ध], वह, जो क्रूरता से मुक्त है, पाप न करने वाला, कल्याणकारी, दयालु - त्वं खोसि.... अकतपापो अकतलुद्दो अकतकिब्बिसो, पारा. 84; - वेदी त्रि., [अकृतवेदिन], अकृतज्ञ, कृतघ्न, उपकार न मानने वाला, असज्जन पुरुष - असप्पुरिसो, भिक्खवे, अकतञ्यू होति अकतवेदी, अ. नि. 1(1).78; - वेदिता स्त्री., भाव. [अकृतवेदित्व], कृतघ्नता, अकृतज्ञता, उपकार को न मानने की दुष्टता-भरी मनोवृत्ति - केवला एसा, भिक्खवे, असप्पुरिसभूमि यदिदं अकतञ्जता अकतवेदिता. अ. नि. 1(1).78; - संविधान नपुं.. [अकृतसंविधान]. वस्त्रों एवं परिधानों का अपूर्ण-निर्माण - चीवरत्थाय उप्पन्नवत्थानं विचारणसिब्बनादीहि ... अकतं संविधानं पि वट्टति, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.115, 'कतपरिभण्ड' का विप., पाठा. अकतं संविधानं; - संसग्ग त्रि., ब. स. [अकृतसंसर्ग], अपरिचित, अप्रसिद्ध - तत्थ असन्थुतन्ति अकतसंसग्गं, जा. अट्ठ. 3.53; - संकेत त्रि.. ब. स. [अकृतसंकेत]. वह, जिसके बारे में कोई संकेत अथवा अनुमोदन प्राप्त नहीं हुआ है, अननुमोदित - पठममेव कतसङ्केता वा हुत्वा अकतसङ्केता वापि. जा. अट्ठ. 5.433; - सहाय त्रि., ब. स. [अकृतसहाय], वह, जिसके साथ समान संवास वाला कोई भिक्षु न हो - या पन भिक्खुणी ... भिक्खं ... अकतसहायं तमनुवत्तेय्य .... पाचि. 293; समानसंवासका भिक्खू वुच्चन्ति सहाया, सो तेहि सद्धि नत्थि, तेन वुच्चति अकतसहायोति, पाचि. अट्ठ. 166; -
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अकत
हत्थ त्रि०, ब० स० [अकृतहस्त], अप्रशिक्षित, व्यावहारिकजीवन से अपरिचित अथ आगच्छेय्य खत्तियकुमारो असिक्खितो अकतहत्थो अकतयोग्गो अकतूपासनो भीरु छम्भी उन्नासी पलायी. स. नि. 1 (1)117. अकत' नपुं., निषे, तत्पु० स० [ अकृत], हेतु-प्रत्यय-सामग्री से अनुत्पन्न लोकोत्तर परमार्थ-धर्म निर्वाण, निर्वाण की पर्यायवाची संज्ञा के रूप में सूचीबद्ध अनासवं - धुवमनिदरसनाकतापलोकितं अभि. प. 7 टि. असंस्कृतधर्म निर्वाण लोक के समस्त संस्कृत धर्मों से सर्वथा भिन्न अकृत रूप में प्रतिपादित है,
अकतञ्जू' त्रि. कतञ्जू का निषे [ अकृतज्ञ ] हेतु प्रत्ययों द्वारा अनुत्पादित असंस्कृत (= अकृत) धर्म निर्वाण को जानने वाला अस्सद्धो अकत च... स वे उत्तमपोरिसो ध. प. 97 सङ्कारानं खयं गत्वा, अकतज्ञ्जसि ब्राह्मण ध.प. 383 अकतं निब्बानं जानातीति अकतञ्जू घ. प. अड्ड. 1.
353.
अकतञ्जू त्रि, निषे, तत्पु० स० [अ + कृतज्ञ ], दूसरे द्वारा किए गए उपकार को न मानने वाला, आभार न मानने वाला व्यक्ति - अकतञ्ञू होति अकतवेदी, अ. नि. 1 ( 1 ) .78; अक्तरस पोसरस जा. अट्ठ. 3.475, अकतञ्जू मित्तदुखी, जा. अड. 4.34: अकतस्स करियरस, मि. प. 176 - जातक नपुं. जातक संख्या 90 का शीर्षक, जा. अ. 1.360-362; - ता स्त्री०, भाव. [ अकृतज्ञता ], कृतज्ञ न होने की मनोवृत्ति, कृतघ्नता, अकृतज्ञता -- उपञातं यदिदं अकतज्ञ्जता अकतवेदिता अ. नि. 1 (1) 78 रूप त्रि.. कर्म. स. [ अकृतज्ञरूप] कृतघ्न स्वभाव वाला, प्रकृति से ही अकृतज्ञ तथा हि बाला अकतञ्जुरूया, जा. अट्ठ. 4.88. अकतत्त त्रि. ब. स. [अकृतात्मन् ] वह जो असभ्य या अशिष्ट स्वभाव का हो, अशिष्ट प्रकृति का व्यक्ति, अशोभन स्वभाव का पुरुष, मित्रद्रोही नहेव अकतत्तस्स, नयो एतादिसो सिया जा. अड्ड. 5.347; अकतत्तस्साति असम्पादित अत्तभावस्स मित्तदुभिस्स, तदे... अकत्तब्ब त्रि.. निषे, तत्पु. स. [ अकर्तव्य] नहीं करने योग्य कर्म, ऐसा कर्म, जिसे पूरा न किया जा सके- अकरणीयं वा करणीयं वापीति अकत्तब्ब, जा. अट्ठ. 5.225; पटिकम्म / परिकम्म त्रि. कर्म. स. उपचार न करने योग्य, असाध्य, जिसका उपाय द्वारा निराकरण सम्भव न हो - अतेकिच्छाति अकत्तनपरिकम्मा, अ. नि. अ. 3.47रूप त्रि.. कर्म. स. [अकर्तव्यरूप], ऐसा रूप, जिसे बनाने
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अकनि
संवारने की आवश्यकता नहीं हो अकिरियरूपोति अकत्तब्बरूपो, जा० अट्ठ 3.468; अकत्तब्बरूपोयेव, ध. प. अट्ठ. 2.57.
अकत्तब्बत्त नपुं, भाव. [ अकर्तव्यत्व], नहीं करने योग्य होना अरियेहि अकत्तब्बत्ता अनरियेहि च कत्तब्बत्ता अट्ठ. 1.228.
जा.
अकत्ता पु०, निषे, तत्पु. स. [ अकर्तृ], प्रत्युपकार न करने वाला, अकृतज्ञ, कृतघ्न अकत्तारन्ति यकिञ्चि अकरोन्तं जा. अट्ठ. 3.23.
अकत्ति / अकित्ति पु० [ अगस्त्य, पाणिनि 2, 4, 70]. एक ऋषि का नाम अकिति नाम तापसो चरिया 371 समुदो माघो भरतोच. इसि कालपुरक्खतो अङ्गीरसो कस्सपो च किसवच्छो अकत्ति चा ति, जा० अट्ठ. 6.120 - चरिया स्त्री०, चरिया के एक सुत्त का शीर्षक, चरिया 371 वग्ग पु.. चरिया के प्रथम वग्ग का शीर्षक, चरिया. 371-384; द्रष्ट. अकित्ति.
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अकत्थमान त्रि [अकथ्यमान] आत्म-प्रशंसा अथवा आत्मश्लाघा न करने वाला व्यक्ति इतिहन्ति सीलेसु अकत्थमानो सु. नि. 789; अकत्थमानो... अनूपनायिक वाचं अभासमानोति... सु. नि. अड. 2.216. अकथं कथी त्रि, निषे, तत्पु. स. [ अकथङ्कथी] संशयों से रहित, सन्देहों से मुक्त तिष्णो पारङ्गतो झायी, अनेजो अकथंकधी सु. नि. 643: घ. प. 414 अकथंकधी कुसलेसु धम्मेसु दी. नि. 1.185.
अकथना स्त्री, निषे, तत्पु० स० [ अकथना ], नहीं कहना, उपदेश न देना नाचिक्खणा होतीति अकथना अप्पसन्नस्स होति, पे. व. अट्ठ. 193. अकथित त्रि. कथ के भू० क० कृ० का निषे . [ अकथित ]. अनुद्घोषित अघोषित नहीं कहा गया, अव्यक्त, अप्रदर्शित - अब्याकतमेतन्ति सस्सतादिभावेन अकथितत्ता प. प. अट्ठ. 241.
अकदम त्रि. ब. स. [अकर्दम] कीचड़ -रहित, पंक-रहितकतमो रहदो अकद्दमो, धम्मो रहदो अकद्दमो, जा. अड. 3.253 - मोदक, ब. स. [ अकर्दमोदक ]. पडिल जल से रहित, निर्मल जल वाला - अकदमोदके सकटानि नप्पवत्तिंसु, थेरगा. अड. 1.48. अकनिट्ठ' पु.. [अकनिष्ठ ] उच्चतम देवताओं का एक वर्गविशेष - येन अकनिट्ठा देवा तेनुपसङ्कमि, दी. नि. 2.40; अकनिद्वानं देवानं, म. नि. 1.364.
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अकनिट्ठ
अकम्मच
अकनिट्ठ नपुं., अकनिष्ठ नामक देवों का लोक - अकनिहुँ अकम्प त्रि. [अकम्प्य], वह, जो कांपता न हो, अविचलनीय, गच्छन्तो, ध. प. अट्ठ. 2.169; यामतो याव अकनिहुँ खु. पा. अटल - अकम्पो कम्पयित्वान महिं ठानेसु अट्ठसु. म. वं. अट्ठ. 133; - गामी त्रि., [अकनिष्ठ-गामी], उत्कृष्ट-वर्ग के 15.175. देवों के पास जाने वाला, उत्तम तत्त्वों के समीप जाने वाला अकम्पनीय त्रि., ।कम्प के सं. कृ. का निषे. [अकम्पनीय], - संयोजनानं परिक्खया उद्धंसोतो अकनिट्ठगामी, अ. नि. जिसे हिलाया न जा सके, अविचल, अटल - लोकधम्मेहि 1(1).265; स. नि. 3(2).277; - देवता स्त्री., कर्म स., अकम्पनीयतो ठितत्तो, सु. नि. अट्ठ. 2.124; तुल. अकम्पिय. उत्तम-वर्ग का देव-प्राणी- एतेनुपायेन याव सुदस्सीदेवतानं अकम्पित त्रि., ।कम्प + इत का निषे. [अकम्पित], अविचल, अकनिट्ठदेवता मित्ता होन्ति, खु. पा. अट्ठ. 96; - ब्रह्मलोक, अटल - अचलितन्ति किलेसेहि अकम्पितं, जा. अट्ठ. पु., कर्मस., अकनिष्ठ ब्रह्माओं का लोक - एतेनेव 5.453; अकम्पितं असञ्चलितं ससण्ठितं, मि. प. 211; - उपायेन याव अकनिटब्रह्मभवनं, ताव महासक्कारविसेसो चित्त त्रि., ब. स. [अकम्पितचित्त], दृढ़ चित्त वाला - निब्बत्ति, खु. पा. अट्ठ. 156.
अट्ठलोकधम्मेहि अकम्पितचित्तं, असोकचित्तं, विरजचित्तं, अकन्त त्रि., कन्त का निषे., तत्पु. स. [अकान्त], असुन्दर, खेमचित्तन्ति, खु. पा. अट्ठ. 124. अप्रिय - अकामं राज कामेसि, अकन्तं कन्तुमिच्छसी ति, अकम्पिय त्रि., कम्पिय का निषे. [अकम्प्य] उपरिवत् - जा. अट्ठ. 5.284; विज्जति यं मनोदुच्चरितस्स अनिट्ठो अकम्पियं अतुलियं, अपुथुज्जनसेवितं, थेरीगा. 201, तुल० अकन्तो अमनापो, अ. नि. 1(1).40.
अकम्पनीय. अकन्तिक/अकन्तिय त्रि., कन्तिक/कन्तिय का निषे.. अकम्पी त्रि., कम्पी का निषे०, तत्पु. स. [अकम्पिन्], न तत्पु. स. [अकान्तिक], अप्रिय - गन्धञ्च ... घत्वा असुचिं कांपने वाला, भयभीत न होने वाला - अच्छम्भी अकम्पी अकन्तियं. स. नि. 2(2).76; गूथं असुचिं अकन्तं परिभुञ्जसि. अवेधी अपरितस्सी विगतलोमहंसो, म. नि. 2.346. पे. व. अट्ठ. 167; अकन्तन्ति अमनापं जेगुच्छं तदे... अकम्म' नपुं., निषे., तत्पु. स. [अकर्मन], नहीं किया गया अकप्पकत त्रि., कप्पकत का निषे॰ [अकल्प्यकृत], वह, जो कर्म, नहीं किये जाने योग्य कर्म, अनुचित कर्म - अकम्म विनय-नियमों के विपरीत तैयार किया गया हो, अनैतिक - हेतं. महाराज, जिनपुत्तानं यदिदं पूजा, मि. प. 173; वग्गकम्म अकप्पकतेन अत्थतं होति, महाव. 331.
अकम्मं न च करणीय, महाव. 411. अकप्पिय' त्रि., कप्पिय का निषे०, तत्पु. स. [अकल्प्य], अकम्म नपुं., निषे., कर्म. स. [अकर्मन]. अकर्मण्यता, अनुपयुक्त, प्रतिष्ठा के विपरीत, विनय-विरुद्ध ऐसा कर्म, निष्क्रियता, अनुचित कार्य - मा अकम्माय रन्धयि, जा. अट्ठ. जिसके लिए भिक्षुसङ्घ ने 'अत्तिचतुत्थकम्म' द्वारा अनुमति न 5.117. दी हो - अकप्पियं अनुलोमेति, कप्पियं पटिबाहति, महाव. अकम्मक' त्रि., [अकर्मक], कर्म न करने वाला, कर्म के 327; अकप्पियं अकरणीयं, पारा. 21; - यद्वेन तृ. वि. में साथ नहीं जुड़ा हुआ - अकम्मकेन हेतुना .... मि. प. प्रयोग; अननुज्ञात अर्थ में प्रयोग - यागुया सद्धिं अकप्पियतुन 139. तेलं अत्थीति होति, ध. स. अठ्ठ. 252; - कत त्रि., विनय अकम्मक केवल व्याकरण के ही संदर्भ में [अकर्मक]. अक. के विरुद्ध किया गया - अनतिरित्तं नाम अकप्पियकतं होति, क्रि०, वह क्रिया, जिसका कोई कर्म न हो - पाचि. 113; - भण्ड नपुं., विनय-नियमों द्वारा अननुमोदित गमनत्थाकम्मकाधारे च, मो. व्या. 5.59. वस्तु - सङ्घस्स बहु अकप्पियभण्डं उप्पन्नं होति, चूळव. अकम्मकाम त्रि., ब. स. [अकर्मकाम], कर्महीन, कर्म न 299; - मंस नपूं, अवैध मांस, विनय-नियमों द्वारा अननुमोदित करने की कामना करने वाला - अकम्मकामा अलसा मांस - अकप्पियमंसं पन अजानित्वा भुत्तेन पच्छा ञत्वापि महग्घसा, अ. नि. 2(2).230; जा. अट्ठ. 2.288. आपत्ति देसेतब्बा, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.35; - सयनानि अकम्मज त्रि., कम्मज का निषे., तत्पु. स. [अकर्मज], कर्म खु. सि. के 25वें अध्याय का शीर्षक: स. उ. प. में द्रष्ट. से उत्पन्न या उद्भूत न होने वाला - यं लोके अकम्मर्ज कप्पिया. के अन्त..
अहेतुजं अनुतुजं .... मि. प. 250. अकप्पिय त्रि., [अकल्प्य], वह, जिसकी संख्या की कल्पना अकम्मञ त्रि., कम्मञ का निषे., तत्पु. स. [अकर्मण्य], न की जा सके, अगण्य - कप्पं नेति अकप्पियो, सु. नि. 866. कार्य करने के लिए अनुपयुक्त, अक्षम - तस्स मे कायो
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अकम्मनिय
गरुको अकम्मज्ञ मासाचितं मझे अ. नि. 3 (1).153: - ता स्त्री. भाव. निषे [ अकर्मण्यता ], कर्म न करने की मनोदशा, आलस्य भरे मन की स्थिति दुब्बल्यं मन्दता अकम्मज्ञता कायस्स. मि. प. 276: अकम्मञ्जताति चित्तगेलज्जसातोव अकम्मज्ञताकारो ध. स. अड. 402. अकम्मनिय त्रि., कम्मनिय का निषे, तत्पु, स० [अकर्मणीय], अयोग्य, कर्म न करने योग्य वित्तं भिक्खवे, अभावितं अकम्पनीयं होतीति, अ. नि. 1 ( 1 ). 7; तुल० कम्मञ्ञ एवं अकम्मनेय्य; - वग्ग त्रि. अ. नि. प्रथम भाग के प्रथम निपात के एक वग्ग का नाम, अ. नि. 1 ( 1 ). 7-8 ता स्त्री. भाव. [ अकर्मण्यता ] अकल्लता अकम्मनियता नेति
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72.
अक्रम्मनेय्य त्रि, कम्मनेय्य का निषे, तत्पु, स. [ अकर्मण्य ]. जो कर्म करने में सक्षम न हो, काम न करने योग्य बाहु पसारेति अक्रम्मनेय्यं, जा. अट्ट. 4.346. अकम्मास त्रि, कम्मास का निषे, तत्पु० स० [अकल्माष], निष्कलङ्क कलङ्क-रहित, विशुद्ध सीलानि अखण्डानि अच्छिदान असबलानि अकम्मासानि भुजिस्सानि. म. नि. 1.404; अच्छिदेहि असबलेहि अकम्मासेहि, स. नि. 2 (2). 266 कारी त्रि [अकल्माषकारिन्] अनवरत कार्य करने वाला, सतत कार्य करनेवाला दीघरतं खो अयमायस्मा अखण्डकारी अच्छिदकारी असबलकारी अकम्मासकारी सन्ततकारी सन्ततवृत्ति, अ. नि. 1 (2) 217. अकरं √कर के वर्त. कृ. का निषे., प्र. पु. ए. व. [अकुर्वन्], नहीं करता हुआ रसेसु गेधं अकरं अलोलो, सु. नि. 65. अकरणीय त्रि., करणीय का निषे [ अकरणीय, अ + √कृञ् + अनीयर]. शा. अ. न करने योग्य कर्म, भिक्षु के लिए बुद्ध द्वारा वर्जित किये गए हिंसा आदि पापकर्म अकामा अकरणीयं वा करणीयं वापि कुब्बति, जा. अड. 5.225; चत्तारि च अकरणीयानि तं ते यावजीवं अकरणीयं महाव. 123; ला. अ. क. वह, जिसके पास कुछ भी करने को नहीं है सो तदहेव अकरणीयो पक्कमति, महाव. 203 ख. अजेय, नहीं जीतने योग्य अकरणीयाव.. वज्जी रज्ञा - मागधेन, दी. नि. 2.59.
O
अकराणि त्रि. [अकरणि, स्त्री.] नहीं करने योग्य कत्तब्बं अकराणि ते जम्मकम्मं, क. व्या. 647. अकळु / अकलु / अगळु नपुं., [अगरु, अगुरु], सुगन्धित द्रव्य, अगर की सुगन्धित लकड़ी, सुगन्धित पदार्थ के रूप व्यवहूत पेड़ - लोहं त्वगरु चागलु, अभि. प. 302;
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7
न
अकसिरलामी
अहञ्च खो अगळु चन्दनञ्च सिलाय पिंसामि पमत्तरूपा, जा. अड. 4.399; अगलु तगरतालीसकलोहितचन्दनानुलितगत्तो. मि. प. 307. अगलु-चन्दन-विलित्त त्रि, अगर और चन्दन के लेप से युक्त कुण्डलिनो अगलुचन्दनविलित्ता, जा. अट्ठ. 7.96. अकल्य त्रि, निषे. स० [ अकल्य], अप्रसन्न, असंतुष्ट अकल्यरूपो गळयति अस्सुकानि सु. नि. 696: ता स्त्री.. भाव. अस्वस्थता, अप्रसन्नता, अनीरोगता, द्रष्ट. अकल्लता (आगे); - रूप त्रि०, ब० स० [अकल्यरूप], असंतुष्ट स्वभाव वाला, अप्रसन्न रूप वाला अकल्यरूपो गळयति अस्सुकानि सु. नि. 696.
अकल्याण त्रि. निषे, तत्पु. स. [ अकल्याण ] असुन्दर, असुखकर, अशोभन इधलोकपरलो कत्थभञ्जक अकल्याणमित्तसंसग्गं खु. पा. अट्ठ. 100; - करण नपुं०, कुत्सितकर्म, असुखकर एवं अरुचिकर कर्म अकल्याणकरणकल्याणाकरणपच्चयानञ्च खु. पा. अ.
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127.
अकल्ल' क्रि, निषे. स. [ अकल्य], अनुपयुक्त, अप्रतिरूप, असत्य अन्धोवट्टो अकल्लो, थेरीगा. 443. अकल्ल नपुं. [आकल्य] संभवत: 'आकल्ल' का भ्रष्ट पाठ, रोग, बाधा - गेलञ्ञकल्लमाबाधो, अभि. प. 323. अकल्लक त्रि. कल्लक का निषे [ अकल्यक], बीमार, रुग्ण, अस्वस्थ आहर मे भन्ते भण्डिक, नाहं अकल्लको, पारा 73, भवं अकल्लकोति भवन्तं पटिजग्गितुं आगतोम्हीति
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Gill. 31. 3.409.
अकल्लता स्त्री. भाव. [ अकल्यता ]. चित्त, वेदना संज्ञा एवं संस्कार स्कन्धों की अस्वस्थता, शिथिलता, अकर्मण्यताया चित्तस्स अकल्लता अकम्मज्ञता... इदं वुच्चति थिनं, ध. स. 1162; अकल्लताति चित्तस्स गिलानभावो ध. स.
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अट्ठ. 402.
"
अकवाटक त्रि., कवाटक का निषे, ब० स० [अकपाटक], द्वाररहित, बिना किवाड़ वाला ते विहारा अकवाटका होन्ति, चूळव. 273.
अकसाव त्रि. कसाव का निषे, ब. स. [अकाषाय]. काषायरहित, मलरहित, पवित्र अदोसा असावा, अ. नि. 1 (1) 135 त नपुं भाव तं नेमियापि अवङ्गत्ता अदोसत्ता अकसावत्ता अ. नि. 1 (1).135. अकसिरलामी, [अकृच्छ्रलाभी] बिना कठिनाई या दुख के प्राप्त करने वाला, सहज या सुलभ रूप से प्राप्त करने
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अकाच
अकाल
वाला - निकामलाभी होति अकिच्छलाभी अकसिरलाभी, म. नि. 2.19; दिट्ठधम्मसुखविहारानं निकामलाभी... अकसिरलाभी. अ. नि. 2(1).125. अकाच त्रि., निषे०, ब. स. [अकाच], कलङ्करहित, निर्मल - अयं मणि वेळुरियो, अकाचो विमलो सुभो, जा. अट्ठ. 2.344; सुद्धो निदोसो विमलो अकाचो, सु. नि. 480. अकाची त्रि., [अकाचिन्], पवित्र, निर्दोष - अकाचिनन्ति निदोसं... वि. व. अट्ठ. 212. अकातून निपा., कर के पू. का. कृ. का निषे. [अकृत्वा]. न करके - अकातून पुञ्ज किलमिस्सन्ति सत्ता, क. व्या. 566. अकापुरिससेवित त्रि., तत्पु. स. [अकापुरुष-सेवित], दुष्ट मनुष्यों के द्वारा असेवित, सज्जनों द्वारा सेवित - ब्रह्मविहारं भावेमि, अकापुरिससेवितं, थेरगा. 649; पटिविझिं पदं सन्तं, अकापुरिससेवितं, थेरीगा. 189. अकाम त्रि., ब. स. [अकाम], राग, प्रेम या कामनाओं से मुक्त, अनभिलाषी, राग से अप्रभावित - ओघातिगं पुदमकाममागम, सु. नि. 1102; जेट्ठस्स च भातुनो अकामरस ...., जा. अट्ठ, 5.176; - क त्रि., निषे. ब. स., कामनारहित, प्रबल इच्छा से मुक्त - मरणेनपि ते मयं अकामका विना भविस्साम, म. नि. 2.256; तात, त्वं किर अम्हे अकामके पहाय पब्बजामी ति वदसि, जा. अट्ठ. 5.176; - करणीय त्रि., कर्म. स., बिना कामना के ही किया जाने वाला - अकामकरणीयम्हि, विवध पापेन लिप्पति, जा. अट्ठ. 5.225; न हि, भन्ते, अकामकरणीया... मातापितूनं मि. प. 226; - कामी त्रि., कामनाओं अथवा तृष्णा से मुक्त - सुत्वानहं वीरमकामकामि सु. नि. 1102; - ता स्त्री., भाव. [अकामता], स्वतः, अन्तः-स्फूर्त, अनचाहापन, अपने-आप, अपरिहार्य रूप से - यथा पन पक्के गण्डे गण्डभेदेन पुब्बलोहितं अकामताय निक्खमति, म. नि. अट्ठ. 1.278; - रूप त्रि., अनिच्छु, अनभिलाषी, निराकांक्षी- अजे अकामरूपा नाम नत्थि , जा. अट्ठ. 4.30. अकामा निपा., अ., क्रि. वि. [अकामं], किसी की इच्छा के विरुद्ध, अनिच्छा से, अनजाने या मनमाने रूप से - अकामा अकरणीयं वा, करणीयं वापि कुब्बति, जा. अट्ठ. 5.225; यंवदा तक्करा रओ, अकामा पियभाणिनो, जा. अट्ठ. 6.226; अकामा भागं नो ददे, चूळव. 313. अकामित त्रि., निषे. स., जो प्रिय न हो, अप्रिय, अवांछित - अकन्तन्ति अकामितं, निस्सिरिकं वा, विभ. अट्ठ. 8.
अकार पु., [अकार], नागरी वर्णमाला का प्रथम स्वर अक्षर, किसी वर्ण या अक्षर के बाद में उच्चारण की सुविधा के लिए 'कार' प्रत्यय जोड़ा जाता है, अकार कहने से अ-वर्ण (अ एवं आ) का बोध होता है - अ कारो निपातमत्तो, जा. अट्ठ. 1.480; अकारो निपातमत्तं, स. नि. अट्ठ. 1.164. अकारक त्रि., 1. निषे., तत्पु. स. [अकारक], वह, जिसने कुछ भी नहीं किया या जिसने कोई गलत काम नहीं किया है, निर्दोष - ... किं सम्म कारकोसी ति पुच्छित्वा अकारकोम्ही ति वुत्ते अत्तनो मनोपदोसं रक्खितुं सक्खि, नासक्खी ति पुच्छि , जा. अट्ठ. 4.27; मि. प. 180; ध. प. अट्ठ. 2.16; 2. वह, जिसने शोभन कार्य नहीं किया है, अयोग्य, निकम्मा - अहं खो, भन्ते, भिक्खूनं अकारको, तेन में भिक्खू न उपद्वेन्तीति, महाव. 393. अकारण' त्रि., निषे., ब. स. [अकारण], कारणरहित, स्वतःस्फूर्त - नत्थि बुद्धानं... अकारणमहेतुकं गिरमुदीरणं, मि. प. 146. अकारण क. नपुं.. [अकारण], कारण का अभाव, ख. क्रि. वि., बिना कारण के, अप्रत्याशित रूप में, व्यर्थ - किं इम अकारणेन नासेमि, जा. अट्ठ. 1.405; अयं ब्राह्मणो न अकारणेन इमं ब्रहारचं आगतो, जा. अट्ठ. 7.312. अकारण नपुं., अनैतिक कार्य, अनर्थ से भरे हिंसा आदि दुष्कर्म - अनयं नयतीति अकारणं कारणन्ति गण्हाति, जा. अट्ठ 4.217. अकारण' नपुं.. असंभव स्थल, अनुपयुक्त विषय - अट्ठानं तं,
अकारणं तन्ति वुत्तं होति, सु. नि. अट्ठ. 1.83. अकारितपुब्ब त्रि., [अकारितपूर्व], पूर्व काल में नहीं किया गया - यथा तं अकारितपुब्बं कारणं कारियमानस्स, म. नि. 2.118. अकारिय त्रि., निषे., तत्पु. स. [अकार्य], न करने योग्य, अकरणीय - वितिण्णपरलोकस्स, नत्थि पापं अकारियं ध. प. 176; इतिवु. 15. अकारुञता स्त्री., निषे., भाव. [अकारुण्यता], निष्ठुरता, कठोरता, असौम्यता - तेन हि तस्स अकारुञ्जता सम्भवति, मि. प. 199. अकाल पु., निषे०, तत्पु. स. [अकाल], अनुपयुक्त समय, असमय - राजा थेरस्स पत्तं गाहापेत्वा भत्तस्स अकालो ति पत्तपूरं चतुमधुरं दापेसि. जा. अट्ठ. 1.231; कालं वा अकालं वा एस कुक्कुटो न जानाति, जा. अट्ठ. 1.418; अकालो, भो, अयं रो दस्सनाय, मि. प. 154; अकालो खो ताव
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अकाल
अकासिय
भगवन्तं दस्सनाय, पटिसल्लीनो भगवा, म. नि. 2.224; - अनत्थवादी... अविनयवादी, म. नि. 1.360; म. नि. 3.96%; चारी त्रि., [अकालचारिन्], अनुपयुक्त समय में पिण्डपात अकालवादीति आदीसु अकाले वदतीति अकालवादी, अ. के लिए जाने वाला, असमय में भिक्षा के लिए गमन करने नि. अट्ठ. 2.258; - विज्जुलता स्त्री., [अकालविद्युल्लता], वाला - अकालचारिहि सजन्ति सङ्गा.... सु. नि. 388; - असामयिक बिजली की चमक अथवा आकाश में बिना ऋतु चीवर नपुं., कर्म. स. [अकालचीवर], अनिर्धारित काल में के चमकने वाली बिजली - अकालविज्जुलता हिमवन्तपदेसे प्राप्त चीवर, चीवरकाल के लिए निर्धारित काल से भिन्न समन्ता निच्छरिंसु, जा. अट्ठ. 7.345; - समय पु., कर्म. स. काल में प्राप्त चीवर, पवारणा' के पश्चात् सामान्यतया एक [अकालसमय], अप्रत्याशित क्षण - अथेकदिवसं अकालसमये माह के उपरान्त प्राप्त होने वाला चीवर - अकालचीवरं .... जा. अट्ठ. 1.480(रो.), पाठा. निदाघसमये. नाम अनत्थते कथिने एकादसमासे उप्पन्न, अत्थते कथिने अकालिक त्रि., [अकालिक]. 1. कादाचित्क, कभी-कभी ही सत्तमासे उप्पन्न, कालेपि आदिस्स दिन्नं, एतं अकालचीवरं उत्पन्न होने वाला, काल-निरपेक्ष- अकालिकं कदाचुप्पत्तिक, नाम, पारा. 313; पाचि. 333; - त्रि., [अकालज्ञ], मि. प. 121; 2. तात्कालिक रूप में प्राप्त, वह, जिसके प्राप्त उचित समय को न जाननेवाला, उपयुक्त समय का ज्ञान होने में समय की अपेक्षा नहीं हो, इसी जन्म में प्राप्त होने न रखने वाला - अकालभू च, अमत्तञ्चू च, अ. नि. वाला - ब्रह्मचरियचरणं नाम दुतिये वा ततिये वा अत्तभावे 3(1).7; - पुष्फ नपुं., कर्म. स. [अकालपुष्प]. बेमौसमी विपाकदानतो कालिकं नाम, रज्ज पन इमस्मियेव अत्तभावे फूल, असमय पर खिलनेवाला फूल - तेन खो पन समयेन कामगुणसुखुप्पादनतो अकालिकं, जा. अट्ठ. 3.348; धम्मो यमकसाला सब्बफालिफुल्ला होन्ति अकालपुप्फेहि, दी. नि. सन्दिछिको अकालिको एहिपस्सिको .... म. नि. 1.48; 2.104; अकालपुप्फानि सुट्ट पुप्फापेन्तो, जा. अट्ठ. 2.86; - धम्मेन दिढेन विदितेन अकालिकेन पत्तेन परियोगाळ्हेन, फल नपुं.. कर्म. स. [अकालफल], बेमौसमी फल, असमय स. नि. 1(2).50. पर फलने वाला फल - अकालफलानि गण्हापेन्तो, जा. ___अकालुस्सिय नपुं., भाव., निषे., केवल स. पू. प. के रूप अट्ठ. 2.86; - मच्चु पु., कर्म. स. [अकालमृत्यु], असमय में ही उपलब्ध [अकालुष्य], कालुष्य एवं मलिनता से मुक्ति पर मृत्यु - अत्थि अरहतो अकालमच्चु, क. व्या. 640; - की अवस्था, पवित्रता; - पच्चु पट्ठान त्रि., मरण नपुं.. कर्म. स. [अकालमरण]. अकालमृत्यु - अन्तरा [अकालुष्यप्रत्युपस्थान], अकालुष्य द्वारा उत्पादित, विशुद्धि अकालमरणं नाम नो नत्थीति अत्थो, जा. अट्ठ. 4.48; के फलस्वरूप उत्पन्न - तत्थ ... सद्धा अकालमरणं कम्मुपच्छेदककम्मवसेन, विसुद्धि. 1.220; - अकालुस्सियपच्चुपवाना वा ..., सु. नि. अट्ठ. 1.114; ध. मेघ पु., कर्म. स. [अकालमेघ], असमय में उत्पन्न होने स. अट्ठ. 165. वाला बादल - अकालमेघो वस्सि, जा. अट्ट, 1.62; अकाले अ., क्रि. वि., सप्त. वि. के अर्थ वाला निपा., अकालमेघोत्वेव सङ्घगच्छति, मि. प. 121; महा अकालमेघोति अनुपयुक्त समय में, अनिर्दिष्ट काल में - अक्खित्थियो असम्पत्ते वस्सकाले उप्पन्नमहामेघो, उदा. अट्ठ. 79; - वारुणी नच्चगीतं, दिवा सोप्पं पारिचरिया अकाले, दी. नि. रावी स्त्री., [अकालरावी]. असमय में ध्वनि करने वाला, 3.140; अकाले अत्तनो वसनट्ठानतो न निक्खमितब्बं जा. असमय में कोलाहल करनेवाला - इदं सत्था जेतवने अट्ठ. 2.175. विहरन्तो एक अकालराविं भिक्खं आरभ कथेसि, जा. अट्ठ. अकालेन अ.. तृ. वि. के अर्थ वाला निपा., असमय में, 1.417; - रावीकुक्कुट पु., कर्म. स., असमय में या बिना अनुपयुक्त अवसर पर - अकालेन हि निक्खम्म, एककम्पि पि ऋतु में चिल्लाने वाला कुक्कुट - अकालरावी कुक्कुटो बहुज्जनो, न किञ्चि अत्थं जोतेति, जा. अट्ठ. 2175; यो त्वं अम्हहि घातितो, जा. अट्ठ. 1.418; - रूप त्रि., कर्म. मतालयं कत्वा, अकालेन विपेक्खसीति, जा. अट्ठ. 3.471. स., असुविधाजनक, अवसर के लिए अननुकूल - यो अकासिक त्रि., निषे. स. [अकाशिक]. शा. अ. जो काशी अत्तनो दुक्खमननुपुट्ठो, पवेदये जन्तु अकालरूपे, आनन्दिनो क्षेत्र का नहीं है, ला. अ. उत्तम गुणों से विहीन - न खो तस्स भवन्ति मित्ता, जा. अट्ठ. 4.202; - वादी त्रि. पनस्साहं भिक्खवे, अकासिकं चन्दनं धारेमि अ. नि. 1.170. [अकालवादिन]. अनुचित अवसर पर बोलने वाला, अवसर अकासिय त्रि. [आकाशीय/आकर्षिक?], राजस्व एकत्रित के अनुरूप नहीं बोलनेवाला - अकालवादी अभूतवादी करने वाला सरकारी अधिकारी- अकासिया राजूहिवानसिट्ठा
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अकिच्च
जा. अट्ठ. 7.57; - टि. संभवतः यह शब्द सं. आकर्षिक (मुद्रानियन्त्रक) शब्द से सम्बद्ध हो सकता है तथा बलपूर्वक राजस्व ले जाने वाले अधिकारी के आशय को प्रकट करने वाला माना जा सकता है.
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अकिच्च नपुं निषे, तत्पु, स. [ अकृत्य], नहीं करने योग्य, अकरणीय अकिच्चं करोति किच्चं अपराधेति, अ. नि. 1 (2). 77; यहि किच्चं अपविद्ध, अकिच्चं पन कयिरति, ध. प. 292; अकिच्वं ते न सेवन्ति, किच्चे सातच्चकारिनो, ध. प. 293 - कर त्रि., [ अकृत्यकर], व्यर्थ, निरर्थक, बेकार - सम्पत्ते काले वायामो अकिच्चकरो भवति. मि. प. 69; भेसज्जानि... खीणायुकस्स अकिच्चकरानि भवन्ति मि. प. 151 कारी त्रि., [अकृत्यकारिन्] अकरणीय को करने वाला, जो करने योग्य नहीं है उसे करने वाला भवं खो पन राजा एवं सकण्टके जनपदे सउपपीळे बलिमुद्धरेय्य, अकिच्चकारी अस्स तेन भवं राजा दी. नि. 1.120; हनामि तं मित्तदुब्भिं अकिच्चकारि, यो तादिसं कम्मकतं न जाने ति जा. अट्ठ. 4.233; अकिच्चकारी दुम्मेधो, रट्ठा पवनमागतो.
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जा. अट्ठ. 7.290.
अकिच्छलाभी त्रि, निषे, तत्पु० स० [अकृच्छ्रलाभी], बिना कठिनाई के ही या सरलता एवं सहजता से लाभ पाने वाला अकिच्छलाभी अकसिरलाभी, अ. नि. 2 ( 1 ) 125. अकिञ्चन त्रि, निषे, ब. स. [अकिञ्चन ], जिसके पास अपना कुछ न हो, दरिद्र, महत्त्वहीन, इच्छा से मुक्त अकिञ्चनो जीविकत्थाय पाणं हनति, मि. प. 207; सकिञ्चनस्सेव भयं नाकिञ्चनस्स, जा. अ. 6.52; अकिञ्चनं अनादानं, तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं, ध. प. 396.
अकिञ्चि नपुं,, निषे, तत्पु० स० [ अकिञ्चित्], कुछ भी नहीं - न ब्राह्मणस्सेतदकिञ्चि सेप्यो, घ. प. 390 - टि. जहांतहां 'अकिञ्चन' का समानार्थक भी है तथा श्रेय अर्थात् निर्वाण की स्थिति का प्रत्यायक है.
अकितव पु०, निषे, तत्पु० स० [ अकितव], वह, जो जुआड़ी न हो, जुआ न खेलने वाला अनक्खाकितवे तात, असोण्डे अविनासके, जा. अट्ठ. 5.111; अनक्खाकितवेति अनक्खे अकितवे अजुतकरे चेद, जा. अड. 5.113. अकित्ति स्त्री. निषे, तत्पु, स. [ अकीर्ति], अपयश, बदनामी - या एतिस्सा अकिति मव्हेसा अकिति पाचि. 291 - सञ्जननी स्त्री [अकीर्तिसञ्जननी] अपयश-निर्मात्री, अपयश को उत्पन्न करने वाली सन्दिद्विका धनजानि अकित्तिसज्जननी, दी. नि. 3.138 प. स. अनु. 404.
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अकिरिय
अकित्ति' पु. [ अगस्त्य ऋषि], एक ब्राह्मण का नाम, भारतीय ऋषियों की परम्परा में आने वाले एक ऋषि का नाम - अकित्ती तिस्स नाम करिसु जा. अड. 4.212, अकितिपण्डितो पन अहमेव अहोसिन्ति, जा. अट्ठ 4.218; - जातक नपुं०, जातक संख्या 480 का शीर्षक कित्तिजातकादीहि चायमत्थो दीपेतब्बो, जा. अट्ठ. 5.230; - तित्थ नपुं., कर्म. स., ऋषि अकित्ति के नाम पर वाराणसी के एक घाट का नाम येन तित्थेन नदिं ओतिष्णो, तम्पि अकित्तितित्थं नाम जात जा. अड. 4.212: द्वार नपुं. कर्म. स. एक द्वार का नाम भगिनिं गत्वा बाराणसितो येन द्वारेन निक्खमि तं अकित्तिद्वारं नाम जातं, जा. अट्ठ 4.212. अकित्तिम त्रि, निषे तत्पु, स. [ अकृत्रिम ] स्वाभाविक, नैसर्गिक सो पन अपोरिसताय अकित्तिमो सयंजातो. वि. व. अ. 231.
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अकिरिय क्रि, निषे, ब. स. [ अक्रिय ] निष्क्रिय, अकर्मण्य, आलसी ये केचि पापका असंयुता अहिरिका अकिरिया
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दुज्जना मनुस्सा, मि. प. 234 पुरिसं विवर्ट पाकट अकिरियं अरहरस मि. प. 276: यस्मा कायदुच्चरितादीनं अकिरियं वदति तस्मा, पारा. अट्ठ. 1.98; - दिट्ठि स्त्री०, तत्पु. स. [ अक्रियादृष्टि ] कुशल तथा अकुशल कर्मों के विपाक के असद्भाव का सिद्धान्त अक्रियावाद अकिरियादिविज्य पजहति विभ. अड. 189: रूप त्रि.. कर्म. स. [ अक्रियरूप] अकरणीय न करने योग्य, अनुचित - अकिरियरूपो पमदाहि सन्धवो, जा. अट्ठ. 3.467; - वाद' त्रि. निषे. ब. स. [ अक्रियावाद] कर्मों के विपाक के असद्भाव के मत या सिद्धान्त को मानने वाला, अक्रियावादी
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- अकिरियवादो समणो गोतमोति अ. नि. 3 ( 1 ) 21 गोतमो अकिरियवादो अकिरियाय धम्मं देसेति महाव. 309: सब्बेपेते अत्थतो अहेतुकवादा अकिरियवादा च नत्थिकवादा च सन्ति, दी. नि. अट्ठ. 1.137: - वाद' पु०, कर्मों के विपाक के असद्भाव का मत या सिद्धान्त नत्धिकवादो अहेतुकवादो अकिरियावादो, म० नि० अट्ठ. (उप. प.) 3.89, द्रष्ट. अकिरियदिट्टि ऊपर वादी [अक्रियावादी], वह, जो कर्मों के विपाक के सिद्धान्त को नहीं मानता है, अक्रियावादी -किरियवादी चाह, ब्राह्मण, अकिरियवादी चा 'ति, अ. नि. 1 ( 1 ). 79 सुद्धि स्त्री तत्पु. स. [ अक्रियाशुद्धि]. अक्रिया के द्वारा शुद्धि या पवित्रता, क्रिया के बिना ही शुद्धि अच्यन्तसुद्धिं संसारसुद्धिं अकिरियसुद्धिं सरसतवाद न वदन्ति न कथेन्ति न भणन्ति, महानि० 70 ( रो.).
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अकिरिया
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अकिरिया 1. स्त्री निषे, तत्पु, स. [अक्रिया] वह चेतना, जो उत्पन्न होकर अकुशल कर्मों के क्रियापथ का उपच्छेदन कर देती है, समस्त अकुशल कर्मों से चित्त की विरति उप्पज्जित्वा तं किरियं कातुं न देति, किरियापथं पच्छिन्दतीति अकिरिया, ध. स. अ. 262 अकुसलानं धम्मानं अकिरिया, अ. नि. 3(1).21; अनेकविहितानं पापकानं अकुसलानं धम्मानं अकिरियं वदामि, पारा. 3; अकिरियाय धम्मं देखेति महाव. 309 टि. यहां अक्रिया' का विशेष अर्थ इस रूप में अभिव्यक्त है शारीरिक, वाचिक एवं मानसिक आदि सभी प्रकार के पापकर्मों से विरत रहना ही बुद्ध अभिप्रेत अक्रिया है - कायदुच्चरितस्स वचीदुच्चरितस्स मनोदुच्चरितस्स, अनेकविहितानं पापकानं अकुसलानं धम्मानं अकिरियं वदामि अ. नि. 1(1).79; 2. स्त्री.. [ अक्रिया ], कर्त्तव्यविमुखता, अनुचित क्रिया, अकरणीय क्रिया
रोन हि महाराज, भगवता किरिया देव कता, नो अकिरिया मि. प. 168 3. स्त्री. अक्रिया का सिद्धान्त बुद्धकालीन छः धर्माचार्यों में से एक पूरणकस्सप के मत के रूप में कुशल तथा अकुशल कर्मों के किसी भी प्रकार के विपाक के न प्राप्त होने के मत को अक्रिया की संज्ञा दी गयी है। कुछ विद्वानों ने इसकी सङ्गति गीताप्रतिपादित निष्काम कर्मयोग के साथ स्थापित करने का प्रयास भी किया है- पूरणो कस्सपो सन्दिहिकं सामञ्ञफलं पुट्ठो समानो अकिरिय व्याकासि दी. नि. 147 अकिरियाय सण्ठहन्ति, अ. नि. 1 (1).202, द्रष्ट, अकिरियदिट्ठि एवं अकिरियवाद ऊपर, अकिलन्त त्रि, निषे, तत्पु० स० [ अक्लान्त], न थकने वाला, अश्रान्त, अनिद्रालु जागरूक - किलन्तरूपो कायेन, अकिलन्तोव चेतसा, वि. व 1152 काय त्रि. ब. स. [अक्लान्तकाय], थकान-रहित शरीर वाला, तरोताजा शरीर वाला सुखिनो बोधिसत्तमाता होति अकिलन्तकाया. दी. नि. 2.10.
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अकिलासु त्रि. तत्पु. स. [अग्लास्नु + स्नु]. थकावटरहित, नहीं थकने वाला, उद्योगी- निक्कोसज्जो अकिलासु, अभि. प. 516, अकिलासु विन्दे हृदयस्स सन्तिन्ति, जा. अड. 1.116: अकिलासुनोति निकोसज्जा आरद्ववीरिया, तदे अकिलासुनो अहेसु... धम्मं देसेतु, पारा. 9; करणीयमेत ब्राह्मणेन पधानं अकिलासुना ,स. नि. 1 (1).56; योगिना
धम्मदेसनासु अकिलासुना भवितब्ब. मि. प. 350. अकिलिट्ठ त्रि, निषे, तत्पु० स० [ अक्लिष्ट], पवित्र, अघृणित, मलरहित वसनक्रि. ब. स.. शुद्ध वस्त्र या स्वच्छ वस्त्र
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धारण करने वाला नि. अड. 2.184. अकिस्सव त्रि, निषे, तत्पु, स. (व्यु, संदिग्ध ) प्रज्ञाविहीन, ज्ञानविहीन प्रमादी अप्पमेय्यं पमादिनं नियुतं तं म अकिस्सवन्ति, स. नि. 1 ( 1 ). 175; नेत्ति. 109; अकिस्सवंति किस्सवा वुच्चति पञ्ञ, निप्पञ्ञति अत्थो, स. नि. अट्ठ
1.189.
सुचिवसनेति अकिलिट्ठवसने
अकुतो / अकुतोचि
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अकुक्कु-कत त्रि.. निषे, तत्पु, स, केवल किसी निर्धारित समय-विशेष के लिए न तैयार किया गया अकुक्कुकतेन अत्थतं होति कठिन, महाव. 333. अकुक्कुच्च त्रि., कुक्कुच्च का निषे.. तत्पु, स. [ अकौकृत्य ]. ], मानसिक अनुताप से रहित पश्चात्ताप के मनोभाव से मुक्त, दुष्कृत्यों को न करने वाला अकुकतभावो अकुक्कुच्च अकुच्छितकिरियाय वा चेतसो अविप्पटिसारो अमनोविलेखो महानि, 158; अकुक्कुच्चोति हत्थकुक्कुच्चादिविरहितो महानि, अट्ठ. 256; यस्सेतं कुक्कुच्चं पहीनं समुच्छिन्नं.. आणग्गिना दङ्कं सो दुच्चति अकुक्कुच्चोति महानि, 159: द्रष्ट. कुक्कुच्च (आगे) क. त्रि.. कुक्कुच्चक का निषे.. ब. स॰ [अकौकृत्यक], 1. संदेह से रहित, अशंकालु, दुष्कृत्यों, कदाचारों या अनुतापों से मुक्त कोसज्जबहुला अञ्ञमज्ञ न चोदेन्ति न सारेन्ति अकुक्कुच्चका होन्ति, अ. नि. अड 1.71; 2. केवल स. पू. प. में ही प्रयुक्त, जात त्रि. दोष या अशुद्धि के बिना ही उत्पन्न सो तत्थ पस्तेय्य महतिं साललट्ठि उजुं नवं अकुक्कुच्चकजातं, अ. नि. 1 (2).230. अकुटिल त्रि. कुटिल का निषे, तत्पु. स. [ अकुटिल ]. शा. अ. अवक्र, सरल, सीधा दहरा रुक्खा च वुद्धा च, अकुटिला चेत्थ पुष्पिता, जा. अट्ठ. 7.302; अवङ्कस्स अकुटिलस्स दहचापसमारुळहस्स मि. प. 115; ला. अ. निष्कपट, ईमानदार उजुकेसु अकुटिलेसु जा. अट्ठ 39- ता स्त्री. भाव. [अकुटिलता ]. निष्कपटता, सरलता, सीधापन अज्जवता अजिम्हता अवडता अकुटिलता अयं वुच्चति अज्जवो, ध. स. 1346. अकुतूहल त्रि.. कुतूहल का निषे [ अकुतूहल] कौतूहल से रहित, आश्चर्य से रहित, स्वाभाविक, स्थिर ਚਲਾਈ सूरमिच्छन्ति मन्तीसु अकुतूहलं जा. अड. 1.389, अकुतूहलो अविकिण्णवाचो. जा. अड्ड. 1.370. अकुतो / अकुतोचि निपा०, स० पू० प० के रूप में ही प्राप्त [ अकुतः ], कहीं से भी नहीं उपदव त्रि. सभी तरह से उपद्रव रहित कच्चि रटुं अनुपपीछे अकुतोचिउपदवं. जा.
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सु.
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अकुत्तिम अट्ठ. 5.374; - भय त्रि., ब. स. [अकुतोभय], वह, जिसे कहीं से भय न हो, सभी तरह से भयरहित - निब्बुते अकुतोभये, ध. प. 196; सब्बामित्ते वसीकत्वा, मोदामि । अकुतोभयो, सु. नि. 566; अकुतोभयोति कुतोचि अभयो, सु. नि. अट्ठ. 2.158; अकुतोभयाति तोचिपि असञ्जातभया पे. व. अट्ठ. 66. अकुत्तिम त्रि., द्रष्ट, अकित्तिम. अकुद्ध त्रि., द्रष्ट., अक्कुद्ध. अकुप्प त्रि., कुप्प का निषे. [अकोप्य, अकम्प्य], क्रोध-रहित, अचल, सुदृढ़, शान्त - अकुप्पा मे विमुत्ति, म. नि. 1.226; अकुप्पा मे विमुत्तीति, भवसंयोजनक्खया, इतिवु. 39; - द्वान नपुं., कर्म. स. [अकम्प्यस्थान], ध्रुवस्थान, अच्युत-स्थान, दृढ़ स्थिति - अकुप्पट्टानं धुवट्ठानं ध. प. अट्ठ. 2.186; - ता स्त्री., भाव. [अकोप्यता, अकम्प्यता], क्रोध-रहितता, दृढ़ता, शान्तता, चित्त की अडिग स्थिति अर्थात निर्वाण - सो पत्वा परमं सन्ति, सच्छिकत्वा अकुप्पतं, थेरगा. 434; - धम्म त्रि०, ब. स. [अकम्प्यधर्म], अचल एवं अडिग निर्वाण-धर्म से युक्त, क्षीणास्रव अर्हत् - पापभिक्खूति अपि अकुप्पधम्मोपि, अ. नि. 2(1).120; अकुप्पधम्मोपीति अपि अकुप्पधम्मो खीणासवो समानोपि परेहि पापभिक्खुहि उस्सद्धित-परिसङ्कितो होतीति अत्थो, अ. नि. अट्ठ. 3.43; परि. 243. अकुब्बतो त्रि., कर के वर्त. कृ. का च. वि., ए. व. का। निषे., [अकुर्वतः], न करते हुए, अक्रियाशील - एवं सुभासिता वाचा, अफला होति अकुब्बतो. ध. प. 51; नाब्बणं विसमन्वेति, नत्थि पापं अकुब्बतो, ध, प. 124. अकुब्बमानो त्रि., Vकर के वर्त. कृ. का प्र. वि., ए. व.. [अकुर्वाणः], न करते हुए - यदत्तगरही तदकुब्बमानो, न लिप्पती दिवसुतेसुधीरो, सु. नि. 784. अकुल नपुं.. निषे., ब. स. [अकुल], भ्रष्ट कुल, बिगड़ा हुआ कुल - अकुलं काहति खिप्पमत्तनो, दी. नि. 3.140; - ता स्त्री., भाव., कुल के भ्रष्ट होने की अवस्था - कुला अकुलतं गता, जा. अट्ठ. 5.112; - पुत्त पु., तत्पु. स. [अकुलपुत्र], अशोभन परिवार या कुल का व्यक्ति या पुत्र, अच्छे कुल में उत्पन्न न होने वाला व्यक्ति -
दुक्कुलीनोति दुज्जातिको अकुलपुत्तो, जा. अट्ठ 2.187. अकुलीन त्रि., कुलीन का निषे०, तत्पु. स. [अकुलीन], नीच कुल में उत्पन्न व्यक्ति - तासं कुलधीतानं अकुलीनेहि सद्धिं संवासो, जा. अट्ठ. 1.323; एवं इत्थियो नाम ... कुलीनम्पि अकुलीनम्पि ... भजन्ति .... जा. अट्ठ. 5.362.
अकुसल अकुसल त्रि., कुसल का निषे., तत्पु. स. [अकुशल], शा. अ. अनिपुण, अचतुर, मूर्ख - एळमूगो तु वत्तुञ्च सोतुञ्चाकुसलो भवे, अभि. प. 734; बालो परो अक्कुसलोति चाहु, सु. नि. 885; बालो अव्यत्तो अकुसलो, स. नि. 3(1).227; ला. अ. क. लोभ, द्वेष एवं मोह, इन तीन अकुशल-मूलों में से किसी एक से भरा हुआ, पापमय, कलुषित - कुसलं, अकुसलं, अव्याकतं, चूळव. 199; अकुसलकम्मपथाति, ध. स. अट्ठ. 126; अकुसलरस कम्मरस बलवताय, मि. प. 112; अकुसलं भयभेरवं, म. नि. 1.22; ला. अ. ख. नपुं., पापकर्म, दुष्कर्म, अपुण्यकर्म - अकुसलं पजहति, कुसलं भावेति, मि. प. 34; तथागतो सब्बं अकुसलं झापेत्वा सब्बञ्जतं पत्तो, मि. प. 137; चतुबिध अकुसलं, खु. पा. अट्ठ. 115; - क. त्रि., [अकुशलक], अनाड़ी, अनुभवहीन - तेन अकुसलकेन चिता वङ्का भित्ति परिपति, चूळव. 288; - कम्म नपुं.. कर्म. स. [अकुशलकर्मन्], पापकर्म, बुरा कर्म, लोभ, द्वेष और मोह नामक तीन अकुशलमूलों से सम्प्रयुक्त चित्त द्वारा अभिसंस्कृत कर्म - अकुसलकम्मं अकासि, जा. अट्ठ. 6.216; अकुसलकम्म विनासनत्थेन, ध. प. अट्ठ. 2.202; - कम्मपथ पु., तत्पु. स. [अकुसलकर्मपथ], निम्नलिखित दस प्रकार के पापकर्म सुगत-परम्परा में अकुसलकर्मपथ में परिगणित हैं तथा ये कायिक, वाचिक तथा मानसिक द्वारों से प्रवर्तित होते हैं; 1. कायिक अकुसलकम्मपथ-प्राणातिपात, अदत्तादान, अब्रह्मचर्य, 2. वाचिक अकुसलकम्मपथ- असत्यभाषण, चुगली करनेवाली वाणी, कठोरवचन, निरर्थक वार्तालाप, 3. मानसिक अकुसलकम्मपथ-लोभ, द्वेष तथा मोह- दस अकुसलकम्मपथा, अ. नि. 3(2).234; एवमस्स दस अकुसलकम्मपथा पारिपूरि गच्छन्ति, ध, प. अट्ठ. 1.15; - कम्मपथकथा स्त्री., तत्पु. स. [अकुशलकर्मपथकथा], ध. स. अट्ठ के पांचवें परिच्छेद का शीर्षक, ध. स. अट्ठ. 148; - कारी त्रि., [अकुशलकारिन्], पापकों को करने वाला - कुसलकारिस्सपि अकुसलकारिस्सपि विपाको समसमो, मि. प. 191; - चित्त नपुं., कर्म स. [अकुशलचित्त], 1. लोभ, द्वेष, मोह से संप्रयुक्त बारह चित्तों को अकुशल-चित्त कहा गया है, इनमें आठ लोभ-संप्रयुक्त, चित, दो द्वेष-संप्रयुक्त चित्त तथा दो मोहमूलक चित्त परिगणित हैं - अट्ठधा लोभमूलानि, दोसमूलानि च द्विधा । मोहमूलानि च द्वेति द्वादसाकुसला सियु, अभि. ध. स. 2; 2. ध. स. के एक खण्ड का शीर्षक, ध. स. 402-430; 3. विभ. (पृ.) 186-190 का शीर्षक: -
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184.
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अकुसल
अकुसल
चेतना स्त्री., कर्म. स. [अकुशलचेतना], अकुशल-चैतसिकों या चित्तधर्मों का नेतृत्व करने वाला चेतना नामक प्रमुख चैतसिक जो कर्मो के अभिसंस्करण में मुख्य भूमिका निभाता है, इसे अपुण्याभिसंस्कार-चेतना भी कहा जाता है - एवमेव अकसलचेतनाय अभावेन .... ध. प. अट्ठ. 2.16; म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).209; - चेतसिक नपुं, कर्म स. [अकुशलचैतसिक]. बारह अकुशल चित्तों के साथ संप्रयुक्त चौदह अकुशल चित्तवृत्तियां, मोह, अहीक, अनपत्राप्य, औद्धत्य, लोभ, दृष्टि, मान, द्वेष, ईर्ष्या, मात्सर्य, कौकृत्य, स्त्यान, मृद्ध तथा विचिकित्सा - चुद्दसिमे चेतसिका अकुसला नाम, अभि. ध. स. (पृ.) 8; - धम्म पु., कर्म. स. [अकुशलधर्म]. लोभ, द्वेष एवं मोह से संप्रयुक्त चित्त तथा चैतसिक - कुसला धम्मा अकुसला धम्मा, अव्याकता धम्मा, ध. स. 1; असब्मा चाति अकुसलधम्मा च निवारेय्य, ध. प. अट्ठ. 1.311; - धम्मसुत्त नपुं, एक सुत्त का नाम, स. नि. 3(1).17; - धातु स्त्री., कर्मस. [अकुशलधातु], ऐसे मूल-तत्त्व जिनकी प्रकृति पापमयी हो - तत्थ कतमा तिस्सो अकुसलधातुयो? कामधातु, ब्यापादधातु, विहिंसाधातु, विभ. 420-21, तुल. अकुसलत्तिक तथा अकुसल-सङ्कप्प; - परिच्चाग पु., तत्पु. स. [अकुशलपरित्याग], अकुशल पापधर्मो का पूर्णपरित्याग - अकुसलपरिच्चागो कुसलवीमंसाय च समाधिन्द्रियस्स च साधारणं पदहानं, नेत्ति. 42; - पुच्छा स्त्री., तत्पु. स. [अकुशलपृच्छा], पापमय धर्मों से सम्बद्ध प्रश्न - अपरापि तिस्सो पुच्छा-कुसलपुच्छा, अकुसलपुच्छा, अब्याकतपुच्छा, महानि. 251; - मूल नपुं, कर्म स. [अकुशलमूल], दुष्कर्मों के लोभ, द्वेष एवं मोह नामक तीन मूल उत्प्रेरक या प्रयोजक - तीणि अकुसलमूलानि-लोभो, दोसो, मोहो, विभ. 233; 234; 396; तीणि ... अकुसलमूलानि ... लोभो अकुसलमूलं, दोसो अकुसलमूलं, मोहो अकुसलमूलं, । अ. नि. 1(1).231; म. नि. 1.59; - रासि पु., तत्पु. स. [अकुशलराशि], पाप-कर्मों की राशि, पापकर्मो का संचय -- केवलो हायं, भिक्खवे, अकुसलरासि यदिदं पञ्च नीवरणा, अ. नि. 2(1).60; अकुसलरासी ति, भिक्खवे, वदमानो पञ्च नीवरणे वदमानो वदेय्य. स. नि. 3(1).224; ध. स. अट्ठ. 406; - टि. कामच्छन्द, व्यापाद, स्त्यान-मृद्ध औद्धत्यकौकृत्य तथा विचिकित्सा, ये पांच नीवरण हैं; इन्हीं के समुच्चय को अकुशल-राशि कहा गया है; - वितक्क पु., कर्म. स. [अकुशलवितर्क], पाप से परिपूर्ण चिन्तन का प्रारम्भिक भाग - तयोमे, भिक्खवे, अकुसलवितक्का, इतिवु.
53; तयोमे ... अकुसलवितक्का-कामवितको ब्यापादवितक्को विहिंसावितक्को, स. नि. 2(1).86; नेत्ति. 103; सु. नि. अट्ठ. 2.36; - टि. कामवितर्क, व्यापादवितर्क तथा विहिंसावितर्क इन तीनों को अकुशलवितर्क कहा गया है, तुल. अकुसलधातु तथा अकुसल-सङ्कप्प; - विपाक (= पाक) पु., तत्पु. स. [अकुशलविपाक], काम भूमि के अहेतुक एवं अव्याकत चित्तों में परिगणित बारह अकुशल कर्मों के कुल सात प्रकार के अकुशलविपाक - सत्ताकुसलपाकानि, अभि. ध. स. 3; - विपाकअब्याकतं ध. स. के एक खण्डविशेष का शीर्षक, ध. स. 146; - विपाकाहेतुकचित्त नपुं, कामावचरभूमि में बारह अकुशल चित्तों के सात प्रकार के अकुशलविपाक जो अहेतुक बतलाये गए हैं - इमानि सत्तपि अकुसलविपाक (अहेतुक) चित्तानि, अभि. ध. स. 3; - विपाकुपेक्खा स्त्री., तत्पु. स. [अकुशलविपाकोपेक्षा], अकुशल कर्मों के विपाकों से सम्बद्ध उपेक्षामयी मनोवृत्तिसेसा छ अकुसलविपाकुपेक्खा अब्बोहारिका, जा. अट्ठ. 5.264; - वेर नपुं., कर्मस. [अकुशलवैर], वैर की पापमयी मनोवृत्ति - वेरबहुलोति पुग्गलवेरेनपि अकुसलवेरेनपि बहुवेरो, अ. नि. अट्ठ. 3.82; - सङ्घात त्रि., कर्म स. [अकुशलसङ्ख्यात], अकुशलरूप में पहचाने गये धर्म - अकुसलसङ्घाता ये धम्मा..., अ. नि. 3(1).181; - सङ्गह पु., तत्पु. स. [अकुशलसंग्रह], अकुशल धर्मों का संग्रह, अभि. ध. स. नामक पुस्तक के समुच्चयपरिच्छेद नामक सातवें अध्याय के प्रथम खण्ड का शीर्षक, अभि. ध. स. 49; - सञ्चेतनिक त्रि., [अकुशलसञ्चेतनिक], अकुशल कायकर्म द्वारा अभिसंस्कृत तीन प्रकार के दुःखमय विपाक, वाणी के चार प्रकार के दुःखमय विपाक तथा ऐसे ही मनोकर्मों के तीन प्रकार के दुःखमय विपाक अकुशलसञ्चेतनिक हैं - तत्र, भिक्खवे, तिविधा कायकम्मन्तसन्दोसब्यापत्ति ... चतुबिधा वचीकम्मन्तसन्दो सब्यापत्ति ... तिविधा मनोकम्मन्तसन्दोसब्यापत्ति अकुसलसञ्चेतनिका दुक्खुद्रया दुक्खविपाका होति, अ. नि. 3(2).260; - सज्ञा स्त्री., कर्म. स. [अकुशलसंज्ञा], पापपूर्ण या पापमयी चेतना, पाप से भरा विचार, कामसंज्ञा, व्यापादसंज्ञा और विहिंसासंज्ञा, ये तीन प्रकार की अकुशल संज्ञाएं हैं - तिस्सो अकुसलसाकामसआ ब्यापादसा विहिंसासा, नेत्ति. 103; - सील पु., [अकुशलशील], पाप से परिपूर्ण व्यक्ति अथवा पापमय व्यवहार - इमे अकुसला सीला, तमहं, थपति, वेदितब्बन्ति वदामि, म. नि. 2.226; पाठा. अकुसला सीला; - हेतु पु.,
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अकुसीत
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अक्कमति कर्म. स. [अकुशलहेतु], अकुशल धर्मो के तीन हेतु लोभ, अकोतूहलमङ्गलिक त्रि., निषे. [अकौतूहल-माङ्गलिक], द्वेष तथा मोह - तत्थ कतमो तयो अकुसलहेतू ? लोभो अन्धविश्वासपूर्ण विचारों अथवा बाहरी कर्मकाण्डों एवं उत्सवों दोसो मोहो- तयो अकुसलहेतू, ध. स. 1059; विभ. 4703; आदि में मन को न लगाने वाला - सद्धो होति, सीलवा 472; 476; 482; 500.
होति, अकोतूहलमङ्गलिको होति, अ. नि. 2(1).192. अकुसीत त्रि., कुसीत का निषे. [अकुसीद], आलस्यरहित, अकोप त्रि., ब. स. [अकोप], क्रोध-रहित, कोपरहित - उद्योगी, परिश्रमी - अकुसीते अतन्दिते कल्याणमित्ते भजस्सु, समिताविनो वीतरागा अकोपा, सु. नि. 504. ध. प. अट्ठ. 2.346; अकुसीता अनुद्धता, थेरीगा. 113; - अकोविद त्रि., कोविद का निषे. [अकोविद], मूर्ख, अज्ञानी, दुत्ति त्रि., ब. स. [अकुसीदवृत्ति], आलस्यरहित, धर्म के सम्यक् ज्ञान से रहित व्यक्ति - जना मञ्जन्ति अध्यवसायी पुरुष - आरद्धवीरियो परमत्थपत्तिया, अलीनचित्तो बालोति, ये धम्मस्स अकोविदा ति, स. नि. 1(1).189; धीर अकुसीतयुत्ति, सु. नि. 68; चूळनि. 266, 268; अकुसीतकुत्तीत्ति मञ्जन्ति बालोति, ये धम्मस्स अकोविदा ति, जा. अट्ठ. एतेन ठानआसनचङ्कमनादीसु कायस्स अनवसीदनं सु. नि. 3.49; अकोविदा गामधम्मस्स सेग्ग, जा. अट्ठ. 2.150. अट्ठ. 1.97.
अकोसल्ल नपुं.. भाव., निषे., तत्पु. स. [अकौशल्य], अकुह त्रि., ब. स. [अकुह], छल-प्रपंच से रहित, सरल, अचतुरता, अनिपुणता, स. पू. प. के रूप में - पवत्ति स्त्री., ईमानदार - तं बुद्ध ... अकुहं गणिमागतं. सु. नि. 963; [अकौशल्यप्रवृत्ति], अकुशलता की प्रवृत्ति - इसिसत्तमस्स अकुहस्स ... भगवतो, म. नि. 2.55; - क. अकोसल्लप्पवत्तिया अकुसलं वेदितब्बं, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) त्रि.. [अकुहक], ईमानदार, निष्कपट, वञ्चनारहित - __1(1).205; - सम्भूत त्रि., अकुशलता से उत्पन्न, अनैपुण्य पतिलीनो अकुहको, अपिहालु अमच्छरी, सु. नि. 858; से उत्पन्न - पापकानं अकोसल्लसम्भूततुन अकुसलानं अकुहको निपको अपिहालु, थेरगा. 1227; अकुहकोति धम्मानं समापत्ति, पारा. अट्ठ. 1.99. कोहरहितो असठो अमायावी, थेरगा. अट्ठ. 2.440. अक्क पु., [अर्क]. 1. सूर्य - भानु अक्को सहस्सरंसि च, अभि. अकूजन त्रि., कूजन का निषे. [अकूजन], शकट की कर्कश प. 63; 2. आक का पौधा - त्वळक्को सेतपुप्फके, अभि. प. ध्वनि से रहित - वाचासचमकूजनो, जा. अट्ठ. 7.142; 581; - दुस्स नपुं, आक के पौधे से बना वस्त्र - उजुको नाम सो मग्गो, अभया नाम सा दिसा-रथो अकूजनो अक्कदुस्सकदलिदुस्सएरकदुस्सानि पन पोत्थकगतिकानेव, नाम, धम्मचक्केहि संयुतो, स. नि. 1(1).37.
महाव. अट्ठ. 391; - नाळ नपुं, आक के पौधे की छड़ीअकेतवी त्रि. [अकैतव], ढोंग से मुक्त, छल-मुक्त, चालबाजी भिक्खु अक्कनाळ निवासेत्वा .... महाव. 398; महाव. अट्ठ. से रहित - अमायाविनो अकेतविनो अनुद्धता अनुन्नळा 391. अचपला अमुखरा अविकिण्णवाचा, म. नि. 1.39 = अ. नि.. अक्कन्त त्रि., आ + कम का भू. क. कृ. [आक्रान्त], किसी 2(1).184; पाठा. अकेटुभिनो.
के द्वारा रौंदा हुआ, कुचला हुआ, अभिभूत - अक्कन्तोपि पासो अकेराटिक त्रि. केराटिक का निषे. [अकैरातिक], समस्त न संवरति, मि. प. 152; हत्थेन वा पादेन वा अक्वन्तं हत्थं प्रपञ्चों से रहित, छल-छद्म-मुक्त - अनक्खाकितवेति अनक्खे वा पादं वा भेच्छति, अ. नि. 1(6).11; अथस्स गहितसाखापि अकितवे अजुतकरे चेव अकेराटिके च, जा. अट्ठ. 5.113, अक्कन्तसाखापि भिजिंसु.ध. प. अट्ठ. 1.37. द्रष्ट. केराटिक.
अक्कन्तसञक पु., एक थेर का नाम - आयस्मा अकेवल त्रि., केवल का निषे. [अकेवल], जो पूर्ण नहीं है, अक्कन्तसञको थेरो इमा गाथायो अभासित्थाति, अप. अपूर्ण, सदोष, दोषपूर्ण - अकेवलंयेव समानं केवलन्ति 1.221. वक्खति, म. नि. 1.409, द्रष्ट. केवल.
अक्कन्दति आ + कन्द का वर्त., प्र. पु., ए. व. [आक्रन्दति], अकेवली त्रि., [अकेवलिन्], हीन, अधूरा - इदं चिल्लाता है, जोर से रोता है - अक्कन्दति परोदति, दुब्बलो पटिक्कोसमकेवली सो. सु. नि. 884; अपरद्धा विरद्धा सुद्धिमग्गं, अप्पथामको, स. नि. 2(2).204. अकेवलिनो च, सु. नि. अट्ठ. 2.249.
अक्कपण्ण नपुं., तत्पु. स. [अर्कपर्ण], आक के पौधे का पत्ता, अकोटिगत त्रि. [अकोटिगत], अपने अन्त तक न पहुंचा हुआ, मन्दारपर्ण - अक्कपण्णेन वेठेत्वा ... जा. अट्ठ. 1.404. फल-अवस्था को अप्राप्त व्यक्ति - आगन्तुकेन ... अगदेन अक्कमति आ + ।कमु का वर्त, प्र. पु., ए. व. [आक्राम्यति], पटिपीलितं विसं अकोटिगतं येव विगतन्ति, मि. प. 281. कदम-कदम चलकर थोड़ी दूर चलता है, रौंदता है,
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अक्कमन
अक्कोसति
कुचलता है - जलितम्पि जातवेदं अक्कमति, मि. प. 208. अक्कमन नपुं.. [आक्रमण], कदम-कदम चलकर थोड़ी दूर पर जाना, पग धरना, डग भरना, - अक्कमनअक्कमनपदवारे हत्थतलानि उपनामेसु. जा. अट्ठ. 1.72; तीरप्पदेसेसु द्विपदचतुप्पदानं अक्कमनहाने ..., जा. अट्ठ. 1.324; तुल. अक्कन्त. अक्कवाक पु./नपुं. तत्पु. स. [अर्कवल्क], आक के पौधे की छाल - ... अक्कवाके गहेत्वा जियं करोन्ति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 3.102; रत्तिं भुञ्जन्तापि केससण्ठानं अक्कवाकं वा ... जिगुच्छन्ति, विभ. अट्ट, 222. अक्कुट्ट त्रि., आ + कुस के भू. क. कृ. का निषे०, बुरी तरह से डांटा-फटकारा गया अथवा निन्दा किया गया व्यक्ति - असमाहि फरुसाहि वाचाहि अक्कट्ठो परिभासितो, मि. प. 209; अक्कुट्ठोति दसहि अक्कोसवत्थूहि अभिसत्तो, सु. नि. अट्ठ. 2.87. अक्कुद्ध त्रि., कुद्ध का निषे. [अक्रुद्ध], जो क्रुद्ध न हो या क्रोधाभिभूत न हो - अकुद्धस्स मुखं पस्स, कथं कुद्धो करिस्सती ति, जा. अट्ठ. 2.292; सो अप्पमत्तो अक्कुद्धो, तात किच्चानि कारय, जा. अट्ठ. 5.108, पाठा. अकुद्ध; - मानस त्रि., ब. स., क्रोध से मुक्त मन वाला - यो अकुद्धमानसो हुत्वा अधिवासेति, ध. प. अट्ट. 2.377. अक्कुल पु., आश्चर्य या विस्मयातिरेक में अथवा किसी को आतंकित करने या दहलाने के लिए 'अक्कुलो पक्कुलो' के अन्दर प्रयुक्त चीत्कार, कोलाहल या चीख को सूचित करने वाला व्याकुलता-सूचक शब्द - अक्कुलो पक्कुलो ति अक्कुलपक्कुलिकं अकासि, उदा. 74; 'अक्कुलो पक्कुलोति भिंसापेतुकामताय एवरूपं सदं अकासि, उदा. अट्ट. 53; तुल. आकुल व्याकुल. अक्कोध/अकोध पु.. कोध का निषे. [अक्रोध], क्रोध का अभाव, सौम्यता, सदयता - अक्कोधेन जिने कोधं ध. प. 223; मि. प. 123; जा. अट्ठ. 3.240; स. नि. 1(1).277. अक्कोधन/अकोधन त्रि., कोधन का निषे. [अक्रोधन], क्रोध से मुक्त, क्रोधरहित - अक्कोधनं वतवन्तं, सीलवन्तं अनुस्सद, ध. प. 400; सु. नि. 629; अक्कोधनो विगतखिलोहमस्मि. सु. नि. 19; सत्त कप्पे ब्रह्मलोके, तस्मा अक्कोधनो अहन्ति, जा. अट्ठ. 2.163; मनुस्सभूतो समानो अक्कोधनो अहोसि.दी. नि. 3.119; स. नि. 1(1).278; - ना स्त्री., क्रोध न करने वाली नारी - अक्कोधना पुजवती,
पण्डिता अत्थदस्सिनी, जा. अट्ठ. 6.304; -- मनुग्घाती त्रि., वह मनुष्य, जो क्रोध से मुक्त होकर किसी भी प्राणी को चोट नहीं पहुंचाता है - अक्कोधनमनुग्घाती, धम्मपण्डरछत्तको,
जा. अट्ठ. 7.142. अक्कोधसुत्त नपुं., स. नि. के एक सुत्त-विशेष का शीर्षक, स.
नि. 1(1).277. अक्कोधनसुत्त नपुं., स. नि. के एक सुत्त-विशेष का शीर्षक,
स. नि. 2(2).238. अक्कोधूपायास पु.. तत्पु. स., क्रोध के दुःख से मुक्ति, क्रोधजनित विपत्ति का अभाव - अक्कोधूपायासं निस्साय
कोधूपायासो पहातब्बो ति, म. नि. 2.27. अक्कोस पु.. [आक्रोश], दुर्वचन, निन्दा, अपशब्द अथवा अपशब्दों का प्रयोग, डांटना-फटकारना - परिभासनमक्कोसे. अभि. प. 899; अक्कोसं बधबन्धञ्च, अदुट्ठो यो तितिक्खति, ध. प. 399; सु. नि. 628; अक्कोसं तितिक्खति.... अञदत्थ अक्कोसमेव अलत्थ म. नि. 2.260; अञमज अक्कोसा होन्ति, अ. नि. 2(1).62; अथ खो अक्कोस व परिभास व पटिलभति, मि. प. 8. अक्कोसक त्रि., [आक्रोशक, आङ् + क्रुश, आक्रोशे], भर्त्सना करने वाला, गाली देने वाला, केवल स. प. में 'अक्कोसकपरिभासक' रूप में प्राप्त - अक्कोसकपरिभासको समणब्राह्मणानं, अ. नि. 1(2).66; 2(1).232; 3(1).6; 3(2).144; अक्कोसिकपरिभासिका समणब्राह्मणानं. अ. नि. 1(2).67; अक्कोसकपरिभासकानि ... कुलानि, विभ. 277; विभ. अट्ठ, 323; - भारद्वाजो पु., एक ब्राह्मण का नाम - अक्कोसकभारद्वाजो ब्राह्मणो, स. नि. 1(1).188; - वग्ग पु.. अ. नि. के एक वग्ग का शीर्षक, अ. नि. 2(1).232. अक्कोसकभारद्वाजवत्थु नपुं.. ध. प. अट्टकी एक कथा
का शीर्षक, ध. प. अट्ठ. 2.376-78. अक्कोसति आ + Vकुस का वर्त.. प्र. पु., ए. व. [आक्रोशति]. निन्दा करता है, गाली देता है, अपशब्द बोलता है - यस्मिं ते, तात, ठाने ठितो नन्दो अक्कोसति, जा. अट्ठ. 1.221; भिक्खु गिही अक्कोसति परिभासति, महाव. 433; - न्ति ब. व. - सब्बे अम्हेयेव अक्कोसन्तीति, जा. अट्ठ. 5.103; तथागतं अक्कोसन्ति परिभासन्ति रोसेन्ति विहेसेन्ति, म. नि. 1.194; - न्तं वर्त. कृ., वि. वि., ए. व. - यं खीणासवस्स अक्कोसन्तं वा अपच्चक्कोसनं, ध. प. अट्ठ. 2.368; - न्ते ब. व. -- परेसं पुत्ते अक्कोसन्ते वा पहरन्ते वा. मि. प. 1533; - थ अनु., म. पु.. ब. व. - एत्थ ... कल्याणधम्मे
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अक्कोसन
16
अक्खक्खायिकछातक अक्कोसथ परिभासथ रोसेथ विहेसेथ म. नि. 1.418; - चलता है - रथङ्गेक्खो, अभि. प. 893; अक्खो रथो ति, मि. सेय्य विधि., प्र. पु., ए. व. - अक्कोसेय्यपि मं परिभासेय्यपि प. 23; ... भिक्खवे. ... सेय्यथा वा पन अक्खं अब्भजेय्य मं, पु. प. 144;- सिस्सन्ति भवि., प्र. पु., ब. व. - सचे ...... स. नि. 2(2).180; अक्खे न अक्खं ... पटिवद्देसि, दी. ने भन्ते, सुनापरन्तका मनुस्सा अक्कोसिस्सन्ति परिभासिस्सन्ति नि. 2.75; अक्खयुगादीनि, जा. अट्ठ. 1.116. ..., स. नि. 2(2).67; - सि/च्छि अद्य., प्र. पु., ए. व. - अक्ख' पु., [अक्ष], 1. पासा - अक्खो तु पासको भवे, अभि. चतुहाकारेहि थेरं अक्कोसि, ध. प. अट्ठ 1.279; अक्कोच्छि में प. 532; सुवण्णस्मिं पासके अक्खमिन्द्रिये, अभि. प. 893; ध. प. 3; तत्थ अक्कोच्छीति अक्कोसि, ध. प. अट्ठ. 1.29; अक्खं मुखे पक्खिपित्वा, जा. अट्ट, 1.363; अक्खेनपि द्रष्ट. क. व्या. 500; - सितब्ब सं. कृ. - न ... कीळन्ति, चूळव. 22; अक्खा जिता संयमो अब्भतीतो, जा. भिक्खुनिया भिक्खु अक्कोसितब्बो परिभासितब्बो, अ. नि. अट्ठ. 3.477; अक्खेसु धनपराजयो, सु. नि. 664; यो अक्खेसु 3(1).106.
धनपराजयो, स. नि. 1(1).176; अ. नि. 1(2).4; अ. नि. अक्कोसन नपुं., कुस से व्यु. [आक्रोशन], गाली, निन्दा, 3(2).146; विमट्ठा तुम्हं सुस्सोणी अक्खस्स फलकं यथा, डांट-फटकार, अभिशाप, दुर्वचन - अक्कोसनमभिस्सङ्गो, जा. अट्ठ. 5.150; 2. पासे या गोली का एक प्रकार का खेल अभि. प. 759; एवं छसु पि ठानेसु अक्कोसनं बोधिसत्तस्सेव -... घटिकं सलाकहत्थं अक्खं ..., दी. नि. 1.6; अक्खन्ति आनुभावेन अहोसि, जा. अट्ठ. 5.103; - ना स्त्री., उपरिवत् गुळकीळा, दी. नि. अट्ठ. 1.78; 3. एक वृक्ष का नाम, बहेड़ा, - या परेसं अक्कोसना वम्भना गरहणा उक्खेपना समक्खेपना जिसका बीज पासा के रूप में प्रयुक्त होता था - अक्खो ...., विभ. 405.
विभीटको, अभि. प. 569; 4. तौल, दो अक्ष पांच मासा के अक्कोसप्पहार पु., द्व. स. [आक्रोशप्रहार], गाली-गलौज बराबर और आठ अक्ष एक धरण के बराबर होता है -द्वे
और धक्का-मुक्की - वेतनं अदेन्तेहि सद्धि कलहं करोन्तो अक्खा मासका पञ्चक्खानं धरणमट्ठकं अभि. प. 479. अक्कोसप्पहारेयेव बहू लभति, जा. अट्ठ. 3.201.
अक्ख नपुं.. [अक्ष], ज्ञानेन्द्रिय - विसयी त्वक्खमिन्द्रियं, अक्कोसवग्ग पु., अ. नि. के एक वर्ग का शीर्षक, अ. नि. 3(2).64.
अक्ख' पु., केवल ब. स. में ही प्रयुक्त, स. उ. प. के रूप अक्कोसवचन नपुं, कर्म. स. [आक्रोशवचन], आक्रोश से में अक्खि का ही अक्ख रूप में परिवर्तन [अक्षि], चक्षु, नेत्र, भरा वचन या कथन, निन्दावचन, दुर्वचन- अक्कोसवचनेहि, आंख - अनञ्जित., अलार., आविल., उत्तम., काल., म. वं. 37.154.
लोहित., गव., चतुर., तम्ब०, तिरो., नील., अपच्च., परो., अक्कोसवत्थु नपुं॰ [आक्रोशवस्तु], शरीर वाणी और मन के भद्द, मत्त., मन्द., रत्त, विरुप., विसाल., सदिस., समान., द्वारों से प्रकट दस अकुशल कर्म, दुर्व्यवहार, गाली, निन्दा सहस्स., सुन्दर, के अन्त. द्रष्ट.. - दसहि अक्कोसवत्थूहि अक्कोसन्ति, जा. अट्ट, 1.190; ध. प. अक्खक' द्रष्ट. मोरक्खक के अन्त. आगे. अट्ठ. 2.377; विभ. अट्ठ, 323; दसहि अक्कोसवत्थूहि अक्कोसन्ते अक्खक पु., [अक्षक], गिरेवान की हड्डी, गले की हड्डी - वधबन्धादीहि वा विहेसन्ते, खु. पा. अट्ठ. 119; अक्कोसवत्थूहि गलन्तट्टितु अक्खको, अभि. प. 278; -ट्ठि नपुं. [अक्षकास्थि], अभिसत्तो, सु. नि. अट्ठ. 2.87.
उपरिवत्-द्वे अक्खकट्ठीनि .... विसुद्धि. 1.244; अक्खकट्ठीनि अक्कोससुत्त नपुं., स. नि. के एक सुत्त का शीर्षक, स. नि. खुद्दकलोहवासि-दण्डसण्ठानानि, खु. पा. अट्ठ. 38; विभ. 1(1).188.
अट्ठ. 226; स. उ. प. के रूप में द्रष्ट. अधक्खक, उभक्खक अक्कोसीयति आ + कुस भा. वा., वर्तः, प्र. पु., ए. व. दक्षिणक्खक के अन्त.. गाली दी जा रही है, निन्दा की जा रही है; - सियमान , अक्खकण्ड नपुं., जातक संख्या 546 के एक वर्ग का त्रि., वर्त. कृ., किसी के द्वारा निन्दित - अप्पेव नाम तुम्हेहि शीर्षक; जा. अट्ठ. 7.172-79. अक्कोसियमानानं परिभासियमानानं रोसियमानानं विहेसियमानानं अक्खक्खायिकछातक नपुं, कर्म. स., ऐसा दुर्भिक्ष, जिसमें सिया चित्तस्स अञथत्तं, म. नि. 1.418.
बिना पके बहेड़ा फल को उबालकर खाया जाता था --- अक्ख' पु., [अक्ष, अक्ष + अच], धुरी, धुरा, गाड़ी के बीच कोट्टनामम्हि मलये अक्खखायिकछातके, म. वं. 32.29; में प्रयुक्त लकड़ी या लोहे का वह धड़ जिस पर पहिया
पालाक फा पहचड़ जिस पर पाहया तुल. पासाण-छातक.
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अक्खग्गकील
17
अक्खमद
अक्खग्गकील पु.. [अक्षाग्रकील], धुरे के अग्रभाग में लगी
हुयी कील, अक्षकील-अक्खग्गकीले आणीस्थि अभि. प. 374. अक्खच्छिन्न त्रि., कर्म. स. [अक्षछिन्न], भग्न धुरा, टूटा हुआ धुरा - यथा साकटिको मट्ठ समं हित्वा महापथं, विसमं मग्गमारुरह, अक्खच्छिन्नोव झायति, स. नि. 1(1).70; मि. प.70. अक्खण पु., खण का निषे०, तत्पु. स. [अक्षण], अनुचित क्षण, गलत क्षण, अनुपयुक्त समय, असंगत समय, दुर्भाग्यपूर्ण क्षण - अथक्खणे दस्सयसे विलापं, जा. अट्ठ. 4.16; अढिमे, भिक्खवे, अक्खणा असमया ब्रह्मचरियवासाय, अ. नि. 3(1). 59; अक्खणो असमयो ब्रह्मचरियवासाय, दी. नि. 3.211 (कहीं-कहीं आठ की जगह नौ अनुपयुक्त क्षणों की संख्या मिलती है) - नव अक्खणा असमया ब्रह्मचरियवासाय, दी. नि. 3.210; - दीपनगाथा स्त्री., सद्धम्मो. में गाथा संख्या 4 से 52 तक के खण्ड का शीर्षक; -सम्मत त्रि., असमयानुकूल - अनोकासभावेन एते अक्खणसम्मतं, सद्धम्मो. 15. अक्खणवेधी त्रि. [अक्षणवेधिन], अमोघ आघात करने वाला, अचूक निशानेबाज जो क्षण में वेध करता है, समय चूके बिना लक्ष्यवेध करने वाला - योधाजीवो दूरे पाती च होति अक्खणवेधी च महतो च कायस्स पदालेता, अ. नि. 1(1). 320; अक्खणवेधीवालवेधिधनुग्गहे, जा. अट्ठ. 1.68. - टि. यह चार प्रकार के धनुर्धरों में से एक है - अक्खणवेधिवालवेधिसरवेधिसद्दवेधिनो, जा. अट्ठ. 5.125; इसकी व्यु. अनिश्चित है, अट्ठकथाओं में 'अक्खणा वुच्चति विज्जु' रूप में इसका व्याख्यान संदेहास्पद है, क्योंकि पालि-निकायों में उस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग नहीं मिलता है। पालि-अंग्रेजी शब्दकोष में इसका निर्वचन संस्कृत अक्षन् से बताया गया है, जो लक्ष्य के रूप में बैल की आँख का द्योतक है; - वेधिता स्त्री॰, भाव., अचूक लक्ष्यवेध करने की स्थिति - सिप्पञ्च सील अक्खणवेधिताय, नेत्ति. 47. अक्खणा स्त्री./नपुं.. [अक्षणा], बिजली, विद्युत - अक्खणा विज्जु, अभि. प. 48; अक्खणा वुच्चति विज्जु, जा. अट्ठ. 2.75; अ. नि. 1(1).320. अक्खण्ड द्रष्ट. अखण्ड (आगे). अक्खत' त्रि., खत का निषे., तत्पु. स. [अक्षत], सुरक्षित, अदूषित, स्वस्थ, सकुशल - अक्खतं अनुपहतं अत्तानं परिहरति, अ. नि. 1(1).331; अक्खतो पण्डितो सदाति, अ. नि. 2(2).84; अ. नि. अट्ठ. 3.124.
अक्खत नपुं.. [अक्षत]. छिलका न निकाला हुआ या भूसी न निकाला हुआ यव (जौ) का दाना, यवान्न, भूजा हुआ जौ - लाजो सियाक्खतं, अभि. प. 463; लाजासु चक्खतं. अभि. प. 1133. अक्खदस्स पु.. [अक्षदर्शक अथवा अक्षदृक्], न्यायाधीश, विवादों को हल करने वाला व्यक्ति - न्यासादीनं
विवादानमक्खदस्सो पदहरि अभि. प. 341; राजानो नाम .... अन्तरभोगिका अक्खदस्सा महामत्ता, पारा. 53. अक्खदायिकपेतवत्थु नपुं., पे. व. के चौथे वर्ग की तेरहवीं कथा का शीर्षक: पे. व. 158; पे. व. अट्ठ. 241-42. अक्खदेवी पु., [अक्षदेविन्, अक्षयू], जुआड़ी, धूर्त, अक्षधूर्त, जुए के खेल में लगा रहने वाला - धुत्तो अक्खधुत्तो कितवो जूतकारक्खदेविनो, अभि. प. 531. अक्खधुत्त पु., [अक्षधूर्त], जुआड़ी, द्यूतकार, जुआ के खेलने में धूर्त - धुत्तो अक्खधुत्तो कितवो, अभि. प. 531; इत्थिधुत्तो सुराधुत्तो, अक्खधुत्तो च यो नरो, सु. नि. 106; जा. अट्ठ. 3.227; अक्खधुत्ता अक्खेहि दिब्बिसु, दी. नि. 2.257. अक्खन्ति/अखन्ति स्त्री., खन्ति का निषे. [अक्षान्ति], क्षान्ति का अभाव, व्याकुलता, असहिष्णुता, असन्तोष - अहुदेव अक्खन्ति अहु अप्पच्चयो, अ. नि. 1(1).269. अक्खपराजित त्रि., [अक्षपराजित], जुए के खेल में हारा हुआ, द्यूतक्रीड़ा में पराजित - जूते अक्खपराजितो, जा. अट्ठ. 3.171. अक्खबन्धनयोत्त नपुं.. तत्पु. स., रथ की धुरी की रस्सी
अक्खबन्धनयोत्तेन एकतो बन्धित्वा .... जा. अट्ठ. 1.191. अक्खभग्ग त्रि., ब. स. [अक्षभग्न], टूटी धुरी के साथ, टूटी धुरी वाला - पारं नावा अक्खभग्गञ्च यानं, जा. अट्ठ. 5.430. अक्खभञ्जन नपुं., [अक्षभञ्जन], धुरी का टूटना - अयं
वाणिजो अक्खभञ्जनेन अटवियं किलमति, पे. व अट्ठ. 242. अक्खम त्रि., खम का निषे. [अक्षम], अक्षम, असमर्थ, सहन करने में असमर्थ, बिना सहनशक्ति वाला, क्षमता-विहीन - ऊनवीसतिवरसो, ... पुग्गलो अक्खमो होति सीतस्स उण्हस्स .... महाव. 98; अक्खमो अप्पदक्खिणग्गाही अनुसासनि. पारा. 278; अक्खमा पटिपदा, दी. नि. 3.182; अक्खमादीस पधानकरणकाले सीतादीनि न खमतीति अक्खमा, दी. नि. अट्ठ. 3.186. अक्खमद पु., [अक्षमद]. जुए का मद, द्यूत की उत्तेजना - ते पाविसु अक्खमदेन मत्ता, जा. अट्ठ. 7.175.
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अक्खमन
18
अक्खर
अक्खमन नपुं., खमन का निषे. [अक्षमन], सहनशक्ति अथवा क्षान्ति का अभाव, असहिष्णुता, दूसरों की सम्पत्ति को देखकर ईर्ष्या करना - परसम्पत्तिखीयनलक्खणा इस्सा, तस्सा अक्खमनलक्खणा वा. म. नि. अट्ठ (मू.प.) 1(1).114. अक्खम्भिय त्रि., [अक्षोभ्य], खम्भिय का निषे०, अकम्प्य, अविक्षुब्ध, अचल - अक्खम्भियो होति अगारमावसं.दी. नि. 3.109; अक्खम्भियोति अविक्खम्भनीयो, न नं कोचि ठानतो चाले सक्कोति, दी. नि. अट्ठ. 3.94. अक्खय त्रि., खय का निषे. [अक्षय]. क्षय का अभाव, लगातारपन; - पटिमान त्रि., प्रश्नों के उत्तर देने की कभी क्षीण न होने वाली क्षमता - एत्थन्तरे ... अयं गङ्गाऊमिवेगो विय अक्खयपटिभानो..., मि. प. 3; - विचित्रपटिमान त्रि०, प्रश्नों के उत्तर देने की कभी समाप्त न होने वाली अद्भुत क्षमता - आयस्मा नागसेनो ... अक्खयविचित्रपटिभानो मि. प. 18. अक्खयित त्रि., द्रष्ट. अक्खायित. अक्खयुद्ध नपुं.. तत्पु. स., पासा का खेल - ... एते राजानो
असठेन अक्खयुद्धं पस्सन्तु, जा. अट्ठ. 7.173. अक्खर पु., नपुं.. [अक्षर], 1.क, ध्वनि, वर्ण, वर्णमाला में आया हुआ अक्षर, अभिलेख, लिपि - वण्णो त अक्खरोप्यथ, अभि. प. 348; एकेकमेव अक्खरं वत्वा, जा. अट्ठ. 3.403; लिपिया... इमस्स अक्खरस्स अनन्तरं इमं अक्खरं मि. प. 87; अपरिमाणा पदा, अपरिमाणा अक्खरा .... नेत्ति. 10; अक्खरानि दिस्वा निटुं गच्छेय्याथाति वेदेय्याथ, जा. अट्ठ. 6.235; - टि. क. व्या. के अनुसार 8 स्वर-ध्वनियों और 33 व्यञ्जन-ध्वनियों अर्थात् कुल 41 तरह की अर्थ-ज्ञान में सहायक वर्णो को ही अक्खर कहते हैं- अत्थो अक्खरसातो. अक्खरापादयो एकचत्तालीसं.क. व्या. 1-2; परन्तु मोग्गल्लान के अनुसार 43 वर्ण हैं जिसमें ए (हस्व) और ओ (ह्रस्व) ये दो वर्ण अधिक हैं; 1.ख. पद अथवा शब्द किसी एक शब्द के विप के रूप में - अपि च अञमओहि ... अक्खरेहि अञमजेहि ... वुत्ता भगवता, नेत्ति. 33; 1.ग. गाथा के एक पाद अथवा एक चौथाई भाग के विप. के रूप मेंभगवन्तं गाथाय अज्झभासीति भगवन्त अक्खरपदनियमितगन्थितेन वचनेन अभासीति अत्थो, खु. पा. अट्ठ. 94; 2. नपुं. लोक कहावत, अक्षर की लकीरमात्र, आशय को ध्यान में न रखकर केवल अक्षरमात्र - तदेव पोराणं अग्गज अक्खरं अनुसरन्ति, न त्वेवस्स अत्थं आजानन्ति, दी. नि. 3.64; अग्गझं अक्खरन्ति
लोकुप्पत्तिवंसकथं दी. नि. अट्ठ. 3.47; 3. कभी नष्ट न होने वाला निर्वाण का पद - अपलोकितं निपुणमनन्तमक्खरं अभि. प. 7; अक्खरं लिपि मोक्खेसु, अभि. प. 1063; - रत्थ पु., तत्पु. स. [अक्षरार्थ], शब्दों का शाब्दिक अर्थ - .... चतूहि मट्ठस्स सुद्धस्साति अक्खरत्थो, जा. अट्ठ. 2.88; विप. अधिप्पाय; - कोस पु., व्याकरण से सम्बद्ध एक रचना का शीर्षक, सद्धर्मकीर्ति-रचित 'एकक्खरकोस' - एकक्खरकोसं नाम सद्दप्पकरणं, एकक्ख. 184; - कोसल्ल नपुं.. तत्पु. स. [अक्षरकौशल्य], अक्षरों या वर्गों के प्रयोग में प्रवीणता, अक्षरचातुर्य, लिपियों के ज्ञान में कुशलता - तस्मा अक्खरकोसल्लं बहूपकारं सुत्तन्तेसु, क. व्या. 1; - चिन्तक पु.. तत्पु. स., अक्षरों पर चिंतन करने वाला, व्याकरण का ज्ञाता - ... अक्खरचिन्तका इच्छन्ति, खु. पा. अट्ठ. 9; अतीतकालिकानम्पि हि छन्दसि वत्तमानवचनं अक्खरचिन्तका इच्छन्ति, सु. नि. अट्ठ. 1.15; यं छन्दोनमत्तेन अक्खरचिन्तका सोत्तियं वण्णयन्ति, सु. नि. अट्ठ. 2.141; - जाननकीळा स्त्री., कर्म. स. [अक्षरजाननक्रीड़ा], अक्षरों या वर्णों को जानने की क्रीड़ा, आकाश में लिखित या किसी की पीठ पर लिखित अक्षरों को जानने की क्रीड़ा - अक्खरिका वुच्चति आकासे वा पिडियं वा अक्खरजाननकीळा, दी. नि. अट्ठ. 1.78; अक्खरि कायपि कीळन्ति, चूळव. 22; - पट्टिका स्त्री./नपुं. [अक्षरपट्टिका], अभिलेख-युक्त पट्टिका, अक्षरपट्टी- तत्थ तं अक्खरपट्टकं खु. पा. अट्ठ. 128, पाठा. पट्टक; - पदनियमित त्रि., पद्यात्मक रूप से व्यवस्थित, छन्दःशास्त्रीय नियमों द्वारा नियमित - अक्खरपदनियमितगन्थितेन वचनेन अभासीति, खु. पा. अट्ठ.94; - प्पभेद पु., तत्पु. स., शिक्षा और निरुक्ति, ध्वनिविज्ञान और व्युत्पत्तिविज्ञान - अक्खरप्पभेदोति सिक्खा च निरुत्ति च. सु. नि. अट्ठ.2. 153; - पिण्ड पु., तत्पु. स.. एक दूसरे के साथ मिले हुए अक्षरों का समूह - अक्खरानं सन्निपातसङ्घातं अक्खरपिण्डञ्च जानाति, ध. प. अट्ठ. 2.321; - विपत्ति स्त्री., तत्पु. स. [अक्षरविपत्ति], अक्षरों के प्रयोग में हेर-फेर - अक्खरविपत्तियं हि सति अत्थस्स दुन्नयता होति, क. व्या. 1; - विसोधनी पञासामी-विरचित एक व्याकरण-ग्रन्थ का नाम - सो येवाहं अक्खरविसोधनि नाम गन्धं ..., सा. वं. 141; - सञात त्रि., तत्पु. स. [अक्षरसंज्ञात], अक्षरों के द्वारा अच्छी तरह से ज्ञात (अर्थ) - अत्थो अक्खरसातो, क. व्या. 1; - सन्निपात पु., तत्पु. स., संज्ञा, अक्षरों का
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अक्खर
अक्खान
समूह, वर्णमाला, अक्षरसमाम्नाय, रू. सि. 1; - समय पु., अक्खाता पु. [आख्याता], क. कहने वाला, मिथ्यावाद या तत्पु. स. [अक्षरसमय], वर्णों का परम्परा-प्राप्त अर्थ, वर्गों झूठी निन्दा करने वाला - अमुत्र वा सुत्वा न इमेसं की परम्परागत पाठ-पद्धति - अक्खरसमयं न जानाति, अक्खाता, दी. नि. 1.4; अ. नि. 3(2).233, 235, 252. पु. ध, प. अट्ठ. 1.104; - समवाय पु., तत्पु. स. [अक्षरसमवाय], प. 168; ख. उपदेष्टा, शास्ता, शिक्षक - अनक्खातरस ध्वनियों का सम्मिश्रण, वर्गों की सन्धि, वर्णों का अव्यवहित मग्गरस अक्खाता, स. नि. 1(1).221; अक्खातारं पवत्तार सामीप्य या सन्निकर्ष, संहिता - अक्खरसमवायो सु. नि. 169; तुम्हेहि किच्चमातप्पं अक्खातारो तथागता, व्यञ्जनसिलिट्ठता पदानुपुब्बतामेतन्ति, सु. नि. अट्ठ. 1.24; ध. प. 276; ग. अनुभव सिद्ध व्यक्ति - अक्खेय्यञ्च परिञाय, - सम्मोहच्छेदनी स्त्री., व्याकरण के एक ग्रन्थ का नाम, अक्खातारं न मञति, स. नि. 1(1).13. पालि लिट्रेचर ऑफ बर्मा, पृ. 106; स. उ. प. में द्रष्ट. अक्खाति आ + Vख्या का वर्त.. प्र. पु., ए. व., समझाता है, अन्त., अन्व., अपर., अव्यत्त (पद).. आदि., चतुर., चतुवीसत., घोषणा करता है, कहता है - ... अक्खाति विभजते चित्त, पमित., पुब्ब०, बट्ट, साक्खर, सञ्ज., सोळस. के इधेव धम्म, सु. नि. 87; गुरहञ्च तस्स नक्खाति, तस्स गुरह अन्त., तुल. अक्खरा..
न गृहति, जा. अट्ठ. 4.176, (वैकल्पिक रूप, आचिक्खति); अक्खर-उत्तरिक-यमक जिना. 105-8 में उदाहृत एक - सि म. पु., ए. व. - यं मे त्वं सम्म अक्खासि, जा. अट्ठ. प्रकार के अन्त्यानुप्रास का विशिष्ट रूप.
4.37; 7.264; - मि उ. पु., ए. व. - एतं वो अहमक्खामि, अक्खरा स्त्री., [वै. अक्षरा, सर्वथा भिन्न अर्थ में]. अक्षर, सु. नि. 174; - म उ. पु., ब. व. - ते मयमक्खाम, जा. वाक्य एवं पद से भिन्न केवल अक्षर-मात्र - अक्खराय अट्ठ. 7.277; - यन्तस्स वर्त. कृ., ष. वि., ए. व. - वाचेति, अक्खरक्खराय आपत्ति पाचित्तियस्स, पाचि. 26, राजकुलं गन्त्वा अक्खायन्तस्स, जा. अट्ठ. 3.91; - हि तुल. अक्खर.
अनु., म. पु., ए. व. - अक्खाहि मे भगवा दक्खिणेय्ये, सु. अक्खरिका स्त्री., [अक्षरिका], एक प्रकार के खेल का नाम, नि. 493; जातिं अक्खाहि पुच्छितो, सु. नि. 423; -थ अनु., आकाश या पीठ पर लिखे अक्षर को जानने का खेल - म. पु., ब. व. - अक्खाथ नो ब्राह्मणा के नु तुम्हे, जा. अट्ठ. अक्खरिका वच्चति आकासे वा पिद्वियं वा अक्खरजाननकीळा, 5.386; - क्खेय्य विधि., प्र. पु., ए. व. - अक्खेय्य तिब्बानि दी. नि. अट्ठ. 1.78; अक्खरिकायपि कीळन्ति, चूळव. 22. परस्स धीरो, जा. अट्ठ. 4.202; पाठा. आचिक्खेय्य; - अक्खरुक्खपेतवत्थु पे. व. के एक खण्ड का शीर्षक - क्खिस्सं भवि., उ. प., ए. व. - एहि ते अहमक्खिस्सं, जा. अक्खरुक्खपेतवत्थु तेरसम, पे. व. 158.
अट्ठ. 7.284; - क्खा अद्य., प्र./म. पु.. ए. व. - उदाहु अक्खलित त्रि., द्रष्ट. अखलित.
ते कोचि नं एतदक्खा , जा. अट्ठ. 4.242; यमेतमक्खा अक्खवाट पु. [अक्षवाट या अक्षपाट], अखाड़ा, कुश्ती खेलने उदधिं महन्तं, जा. अट्ठ. 6.187; - क्खिं अद्य., उ. पु., ए. का स्थान, एक खेल का घेरा - अक्खवाट कारेत्वा... जा. व. - तस्साहं अक्खिं विवरिं गुरहमत्थं, जा. अट्ठ. 5.73; - अट्ठ. 4.73.
क्खंसु अद्य०, प्र. पु., ब. व. - पुब्बेवमेतमक्खंसु, जा. अट्ठ. अक्खा अक्खाति का अनद्य. द्रष्ट. अक्खाति के अन्त. 3.424; - सि अद्य., प्र. पु., ए. व. - अक्खासि नं वेदयि (आगे).
मन्तपारगू सु. नि. 254; 509; 1137; जा. अट्ठ. 4.231; जा. अक्खात त्रि. अ + Vख्या का भू. क. कृ. [आख्यात], कहा अट्ठ. 6.119; 128; - तु निमि. कृ. - ... सक्का निब्बानस्स गया, व्याख्या किया गया, उदघोषित, उपदिष्ट, घोषणा सच्छिकिरियाय मग्गो अक्खातुं .... मि. प. 251. किया हुआ - अक्खातं वो यथातथं, सु. नि. 174; अक्खातो अक्खान नपुं. [आख्यान], क. घोषणा, विज्ञप्ति, कथन - वो मया मग्गो, ध, प. 275; इतिवु. 14; अक्खातं नून तं तेन, नेन तृ. वि., ए. व. - न सुकरा अक्खानेन पापुणितुं याव यो तं साखमकम्पथि, जा. अट्ठ. 3.372; तुल. आख्यात स. दुक्खा निरया, म. नि. 3.206; ख. कहानियों और मिथकों उ. प. में द्रष्ट, अन., दुर०, सम्मद., स्वा. के अन्तः; - रूप पर आधारित रङ्गमञ्चीय प्रदर्शन, जन-मनोरञ्जन की श्रृंखला त्रि, ब. स. [आख्यातरूप], पूर्णतः प्रसिद्ध, ठीक से जाना की एक कड़ी - नं प्र. वि., ए. व. - नच्चं गीतं वादितं हुआ, सुपरिचित - अक्खातरूपं तव सब्बमित्ता, जा. अट्ठ. पेक्खं अक्खानं पाणिस्सरं वेताळं... दी. नि. 1.6; अक्खानन्ति 5.17; अक्खातरूपन्ति सभावतो अक्खातं, जा. अट्ठ. 5.18. भारतयुज्झनादिकं दी. नि. अट्ठ. 1.77; - पञ्चम त्रि.. ब.
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अक्खायति
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स० [आख्यानपञ्चम], चार वेदों के साथ अतिरिक्त पांचवे के रूप में प्राचीन महाकाव्य या इतिहास मं नपुं. प्र. वि. ए. व. वेदमक्खानपञ्चमन्ति इतिहासपञ्चमं वेदचतुक्कं जा. अड. 5.449.
अक्खायति आ + √ख्या का कर्म वा वर्त. प्र. पु. ए. व. [आख्यायति], उद्घोषित किया जाता है, कहा जाता है - एवमक्खायति एवमनुसूयति, जा. अड. 5.411 सो नेस अग्गमक्खायति दी. नि. 3.61. अक्खायिक त्रि. [आख्यापक].
कथक, कहने
वाला, वर्णन करने वाला का स्त्री. प्र. वि., ए. व. पियक्खानं अक्खायिका मय्हं तुट्टिदानं देहि, जा. अ
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3.471.
अक्खायिका स्त्री. [आख्यायिका] सुसंगत कहानी, कथा, केवल समास के स. उ. प. में ही प्राप्त, लोक, समुद्द, के
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अन्त. द्रष्ट.. अक्खायित त्रि., खायित का निषे . [ अखादित], नहीं खाया गया, अभक्षित (भोजन आदि) - सिवथिकं गन्त्वा अक्खायितं सरीरं परिसत्वा, पारा 42; परि. 56. अक्खायी त्रि., [आख्यायिन् आख्या + णिनि ], कहने वाला सूचना देने वालायिनो पु. प्र. वि. ब. व. पुब्बमेव राजकुलं गन्त्वा अक्खायन्तस्स पुब्बमक्खायिनो
जा. अट्ठ. 3.91.
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अक्खिम्हा क्खीनि
अक्खाहत त्रि धुरे पर दृढ़रूप से रखा हुआ चक अक्खाहतं म अट्ठासीति, अ. नि. 1 ( 1 ) . 135; अक्खे पवेसेत्या ठपितमिव अ. नि. अड. 1.82. अक्खि नपुं., [अक्षि ], आंख, नेत्र नयनं त्ववि नेत्तं च लोचनं चाच्छि चक्षु च अभि. प. 149 सूकेनक्खीव घट्टित जा. अड. 7.188 म्हा पू. वि. ए. व. अक्खिगूथको कम्णम्हा कण्णगूथको सु. नि. 199 प्र. / द्वि. वि. ब. व. अक्खीनि वाता विज्झन्ति ध. प. अट्ठ. 1.6; अक्खीनि उम्मीलेत्वा, ध. प. अट्ठ. 2.113; क्खीहि प. वि. व. व. अक्खीहि अस्सूनि पग्घरन्ते, ध प. अ. 1.6; अक्खीहि अस्सुना पग्घरन्तेन, जा० अ० 1.219: क्खीनं प. वि. व. द. अक्खीनं अनिमिसताय, जा. अ. 6.163: सुल. अक्ख, अच्छि अक्खिक अञ्जन नपुं० तत्पु० स०, आँखा का अञ्जन पण्डुकासावपारूपनअक्खिअञ्जनसीसमक्खनादीहि अत्तभावं
मण्डेत्वा ध. प. अट्ठ. 2.205; आवाटक पु०, तत्पु० स० [अक्षि आवर्तक], आंख की गर्तिका, आंख का कोटर,
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20
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अक्खिगण्ड
अक्षिकूप का प्र. वि. व. व. अविखआवाटका मत्थल आहच्च अहंसु, म. नि. अट्ठ (मू०प.) 1 ( 1 ).362. अक्खिक' त्रि., [अक्षिक ], आंखवाला, केवल स. उ. प. के रूप में ही प्रयुक्त अन, अञ्जन, अण्ड, तम्ब, मणि, मण्डल के अन्त. द्रष्ट..
अविखक' पु. / नपुं., [अक्षिक]. स. पू. प. के रूप में प्रयुक्त, जाल का छिद्र, जाल में आंख की आकृति का छिद्र हारक त्रि, जाल को ले जानेवाला पुरिसो अक्खिकहारको गन्त्वा उभतेहि अक्खीहि आगच्छेय्य, म. नि. 2.52, द्रष्ट. जालक्खिक के अन्त..
O,
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अक्खिक' [आक्षिक] जुए से जीता हुआ, जुआड़ी, द्यूतकार, पासों से जुआ खेलने वाला अक्खन दिखती ति अक्खिको क. व्या. 353 मो. व्या. 4.29. अक्खिकूट नपुं., [अक्षिकूट], आंख का कोर या कोना टानि प्र. वि. ब. व. उभयतो च अक्खिकुटानि भगवतो लोहितकानि होन्ति महानि 261: अक्खिकुटादीनि लुञ्चित्वा म. नि. अड. (मू.प.) 1 (1). 283 टेहि तृ. वि., व.व. सेतेहि अक्खिकुटेहि समन्नागता.... जा. अट्ट 7.309 अक्खिकूप पु०, [अक्षिकूप], आंख का कोटर या अक्षि- विवर तो प. वि. ए. व. अक्खि अक्खिकूपतो मुनि जा. अड. 4.365: अक्खि ओसधबलेन परिब्भमित्वा अक्खिकूपतो निक्खमित्वा न्हारुसुत्तकेन ओलम्बमानं अट्ठासि, जा. अट्ठ 4.365; पेसु सप्त वि. ब. व. - अक्षिकूपेसु अक्खितारका, म. नि. 1.115; तुल, अक्खि आवाटक - पट्ठि नपुं, तत्पु॰ स॰ [अक्षिकूपस्थि], आंख के भीतर की हड्डियों में से एक ना तृ. वि. ए. व. अक्षिकूपद्विना हेडा, अभि. अब 641 क पु. तत्पु. स. [अक्षिकूपक]. आंख का कोटर, आंख का विवर या कोटरिका - केसु सप्त. वि. ब. व. ओकासतो अक्खिकूपकेसु वितन्ति, खु पा. अड. 49: - कट्टिक नपुं, आंख के गड्ढे की हड्डी - तत्थ यो अक्खिपके पतिद्वितो हेवा अक्षिकूपकहिकेन, ध. स. अट्ठ. 341.
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अक्खिकोटि स्त्री०, तत्पु० स० [अक्षिकोटि ], आंख का कोना, आंख का किनारा या तु. वि. ए. व. अक्खिकोटिया ओलोकेत्वा जा. अनु. 3.363 तो प. वि. ए. व. - अक्खिकोटितो अञ्जनसलाकाय नीहारित्वा जा. अड. 3371:टिं द्वि. वि. ए. व. अक्खिकोटिं पहरि, ध. प. अट्ठ. 1.380. अक्खिगण्ड पु. कर्म. स. [ अक्षिगण्ड], बरौनियों तथा पलकों के साथ दिखने वाला आंख का गोलक, अक्षिगोलक ण्डा
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अक्खोब्म
अक्खिगूथ प्र. वि., ब. व. - आळारपम्हाति विसालक्खिगण्डा, जा. अट्ठ. 7.260. अक्खिगूथ पु./न.. [अक्षिगूथः], आंख का कीचड़ या मल - अक्खिमलन्ति अक्खिगूथं, पे. व. अट्ठ. 171; -- क पु.. उपरिवत् - अक्खिम्हा अक्खिगूथको, सु. नि. 199; पीळकोळिकाति अक्खिगूथको, थेरीगा. अट्ठ. 281. अक्खिछिद्द नपुं॰ [अक्षिछिद्र], आंख का छिद्र - द्वीहि
अक्खिच्छिद्देहि अपनीततचमंससदिसो अक्खिगूथको, सु. नि. अट्ठ. 1.209. अक्खिज त्रि., [अक्षिज], आंख पर विद्यमान बरौनी -- पम्हं पखुममक्खिज, अभि. प. 259. अक्खितारका स्त्री., तत्पु. स. [अक्षितारका], आंख की पुतली - तेनस्स एवरूपा अक्खितारका अहेसुं. म. नि. अट्ट (मू.प.) 1(1).362; ... केसे वा पित्ते वा अक्खितारकाय वा करोति, ध, स. अट्ठ. 235. अक्खित्त' त्रि., खित्त का निषे. [अक्षिप्त], अनुपेक्षित, अनिन्दित, अतिरस्कृत - ... याव सत्तमा पितामहयुगा अक्खित्तो । अनुपक्कुट्ठो जातिवादेन .... सु. नि. (पृ.) 173 = दी. नि. 1.99. अक्खित्त त्रि., [आक्षिप्त], दूर तक खींचकर ले जाया गया, दूर ले जाकर फेंक दिया गया - अक्खित्ता वातवेगेन, जा. अट्ठ. 3.223. अक्खिदल नपुं., तत्पु. स. [अक्षिदल], आंख की पलक, नेत्रच्छद - हेविमं अक्खिदलं अधो सीदति, उपरिमं उद्धं लड्डेति, दी. नि. अट्ठ. 1.158. अक्खिपटल नपुं.. तत्पु. स. [अक्षिपटल], आंख की झिल्ली या झिल्लिका - सत्तक्खिपटलानि व्यापेत्वा, ध. स. अट्ठ. 342. अक्खिपात पु., तत्पु. स. [अक्षिपात], दृष्टिपात, नज़र का गिरना, स. उ. प. में ही प्रयुक्त, द्रष्ट. मन्द, के अन्त... अक्खिपूजा त्रि., तत्पु. स. [अक्षिपूजा], एक महोत्सव का नाम; सम्राट अशोक द्वारा प्रार्थित होकर चार बुद्धों के दर्शनकारी ऋद्धिसम्पन्न महाकालरूप नागराज ने सम्राट को सम्यक-सम्बुद्ध का निर्मित रूप प्रदर्शित करवाया. बुद्ध के मनमोहक रूप को देखकर सम्राट अतिविस्मित हो उठे. इस रूपदर्शन से प्रभावित होकर महान् सम्राट ने सप्ताहपर्यन्त निरन्तर अक्षिपूजा नामक महोत्सव करवाये थे - अक्खिपूजं ति सञआतं तं सत्ताहं निरन्तरं महामहं महाराजा कारापेसि महिद्धिको, म. वं. 5.94.
अक्खिपूर त्रि., आंखों में पूरी तरह से भरा हुआ, आंखों को पूर्णरूप से भर देने वाला - सो अक्खिपूरानि अस्सूनि गहेत्वा, जा. अट्ठ. 7.36. अक्खिमण्डल नपुं, तत्पु. स. [अक्षिमण्डल], आंख का गोल घेरा - एतस्मिं अक्खिमण्डले उभोसु कोटीसु विसगन्धं वायन्तो निब्बत्तति, थेरीगा. अट्ठ. 281; अक्खिमल नपुं, तत्पु. स. [अक्षिमल], आंख से निकलने वाला कीचड़ या मैल - अक्खिमलन्ति अक्खिगूथं, पे. व. अट्ठ. 171.. अक्खिरोग पु., तत्पु. स. [अक्षिरोग], आंख का रोग -
मज्झिममासे सम्पत्ते अक्खिरोगो उप्पज्जि, ध. प. अट्ठ. 1.6. अक्खिलोम नपुं, तत्पु. स. [अक्षिलोमन्], आंख का रोयां, बरौनी - अक्खिलोमानि च भगवतो ... उमापुप्फसमान, महानि. 261. अक्खुद्दावकास त्रि., ब. स., पर्याप्त आकार-प्रकार से सम्पन्न, दिखने में सुस्पष्ट - अखुद्दावकासोति एत्थ भगवतो अपरिमाणोयेव दरसनाय ओकासोति वेदितब्बो, दी. नि. अट्ठ. 1.229. अक्खेतुं आ + Vखी का निमि. कृ. [आक्षेतु?], विनाश करने के लिए, अन्त करने के लिए - अक्खेतुं खेपेतु विनासेतुं उलति पवत्तेतीति अक्खुलो, उदा. अट्ठ. 54. अक्खेम/अखेम त्रि., खेम का निषे०, ब. स. [अक्षेम], असुरक्षित, अमंगलमय - अकुसलन्ति सावज्जं अक्खेमञ्च, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).121; - ता स्त्री॰, भाव., असुरक्षित स्थिति, अमंगलमय अवस्था - तन्निस्सितस्स च अखेमतं चिन्तेत्वा .... ध. स. अट्ट. 255; -- भाव पु.. तत्पु. स., अमंगल का भाव - तेसं द्विन्नम्पि अखेमभावं चिन्तेत्वा ...., ध. स. अट्ठ. 255. अक्खेय्य त्रि., अक्खाति का सं. कृ. [आख्येय], अच्छी तरह कहे जाने योग्य, शब्दों द्वारा बतलाये जाने योग्य - नामयेवावसिस्सति, अक्खेय्यं पेतस्स जन्तुनो, सु. नि. 814; अक्खेय्यञ्च अपरिञाय, अक्खातारं न मञति, स. नि. 1(1).13; - सञी त्रि., धर्मों के विषय में केवल लौकिक संज्ञा अथवा व्यावहारिक ज्ञान रखने वाला व्यक्ति- जिनो पु., ष. वि., ए. व. - अक्खेय्यसचिनो सत्ता, अक्खेय्यस्मि पतिद्विता, स. नि. 1(1).13; - सम्पन्न त्रि., लौकिक ज्ञान द्वारा जानने योग्य विषयों की समझ रखने वाला - स वे
अक्खेय्यसम्पन्नो, सन्तो सन्तिपदे रतो. इतिवु. 40. अक्खोख्म त्रि., खोब्भ का निषे. [अक्षोभ्य], स्थिर, धीर, क्षोभरहित - सागरो विय अक्खोमो, मि. प. 18.
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अक्खोभणी 22
अखिल अक्खोमणी स्त्री. अक्खोभण से व्यु., अविचलित, शान्त - करने की मनोवृत्ति या अवस्था - तत्थ या संवरसीले अक्खोमणी अपरियन्ता, सागरस्सेव ऊमियो, जा. अट्ठ. अखण्डकारिता, नेत्ति. 38; - पञ्चसील त्रि., कर्म. स., 5.314; अक्खोभणीति खोभेतुं न सक्का, जा. अट्ठ. 5.315. पांच शीलों का पूर्णरूप से पालन या अनुल्लङ्घन करने अक्खोभित त्रि., खोभित का निषे. [अक्षुब्ध], स्थिर, शान्त - वाला - अखण्डपञ्चसीलायेव होति, जा. अट्ठ. 1.60; - अघट्टितो ति अक्खोभो, महानि. अट्ठ. 304.
फुल्ल त्रि., अखण्ड, अटूट, अभग्न, अक्षुण्ण, अक्षत - तथेव अक्खोभिय/अखोभिय त्रि., खोभिय का निषे. [अक्षोभ्य]. सिक्खापदानि पञ्च अखण्डफुल्लानि समादियस्सु. ध. प. अप्रकम्प्य, किसी के द्वारा न कंपाये जाने योग्य, - सागरोव।
:- सागराव अट्ठ. 1.22. अखोभियाति अहि अखोभियो अनालुळितो ... कम्पेतुं अखर त्रि., खर का निषे. [अखर], जो कड़ा न हो, कोमल, असक्कुणेय्या ..., अप. अट्ठ. 1.229.
मृदुल - ... खरेन पासाणेन धोतत्ता .... जा. अट्ठ. 3.247; अक्खोहिणी स्त्री. [अक्षौहिणी, अक्ष + ऊहिणी, अक्ष + ऊह संभवतः यहां अखरेन की जगह खरेन का जो पाठ मिलता + णिनि + ङीप्], 1. एक पूरी चतुरंगिणी सेना जिसमें है, वह अशुद्ध है. 21,870 रथों, 21,870 हांथियों, 65,610 घोड़ों तथा 109,350 अखलित त्रि., खलित का निषे. [अस्खलित], अटल, पैदलों की सेना हो; किन्तु अभि. प. 475 और क. वु. 397 स्खलन से रहित, निष्पाप - अखलितमभयं निरुपतापं. के अनुसार एक संख्या के बाद 42 शून्य देने से अक्षौहिणी थेरीगा. 514; खलितसङ्घातानं दुच्चरितानं अभावेन अखलितं. की संख्या मिलती है (कोटि-पकोटि-कोटिप्पकोटि-नहुत- थेरीगा. अट्ठ. 316... निन्न्हुत अक्खोहिणी); चाईल्डर्स का भी वही मत है, चाईल्डर्स, अखात त्रि., खात का निषे. [अखात], नहीं खोदा हुआ, पृ. 25; तुल. अभि. प. 384; (सद्विवंसकलापेसु पच्चेक नैसर्गिक सरोवर, स्वाभाविक जलाशय- अखातं तु देवखातक सद्विदण्डिसु, धूलिकतेसु सेनाय यन्तियाक्खोहिणीत्थिय), और अभि. प. 680. म. वं. टी. 451 (.. चतुद्दसकोटिसहस्सानि कोटिसतं च अखादन्त त्रि., खाद का वर्त. कृ., निषे. [अखादत्], नहीं एकादसकोटियो चा ति एवं अक्खोहिणीसेनाय पमाणं खा रहा, भोजन नहीं कर रहा -न्तियो स्त्री., प्र. वि., ब. जानितब्ब) - महासेनाघात पु., तत्पु. स., एक अक्षौहिणी व. - यथा ता तिणं अखादन्तियो पानीयं अपिबन्तियो महासेना का विनाश - येन में अक्खोहिणीमहासेनाघातो सयन्ति, जा. अट्ठ. 5.18. कारापितो इति, म. वं. 25.108; - परिवार पु., एक अखादितपुब्ब त्रि., ब. स. [अखादितपूर्व], जो पहले न अक्षौहिणी सेना का समूह - चतुवीसतिअक्खोभणिपरिवारेन खाया गया हो - तुम्हे किञ्चि अखादितपुब्बं खादन्ता ..., सद्धि एकसतराजानो गहेत्वा .... जा. अट्ठ. 5.311; - जा. अट्ठ. 3.173; अखादितपुब्बानि च तिणानि खादेय्यं अ. सङ्ख त्रि., ब. स., अक्षौहिणी संख्या वाली सेना - नि. 3(1).225. अट्ठारस अक्खोभणिसङ्काय सेनाय परिखता, जा. अट्ठ. 6.224; अखारिक क्रि. खारिक का निषे [अक्षारिक], तीखेपन अथवा तुल. चतुरंगिणी; 2. बहुत बड़ी संख्या की संज्ञा; अभि. प. खट्टापन से रहित - अखारिकम्पि विजानाति... स. नि. 2(1)81. 475; निन्नहतसतसहस्सानं सतं अक्खोहिणी, क. व्या. 397. अखिल त्रि., खिल का निषे., 1.क. खिल अथवा क्लेशों से अखण्ड त्रि., खण्ड का निषे., ब. स. [अखण्ड], जो टूटा रहित, चित्त की अनुर्वरता से रहित, क्लेशरहित, पवित्र - नहीं हो, पूर्ण, निर्दोष - ... बीजानि पतिट्टपेय्य अखण्डानि । अखिलमनिमित्तमकण्टकं इद्धं फीतं खेमं सिवं...दी. नि. अपूतीनि अवातातपहतानि सारदानि सुखसयितानि, दी. नि. 3.108; 1.ख राग, द्वेष एवं मोह नामक तीन अकुशलमूलों 2260; यानि तानि सीलानि अखण्डानि अच्छिद्दानि असबलानि एवं पांच नीवरणों से जनित चित्त की रूक्षता एवं कर्कशता अकम्मासानि ..., म. नि. 1.404; पञ्चसीलानि अखण्डादीनि से रहित अथवा मुक्त - सगा पमुत्तं अखिलं अनासवं ..., कत्वा रक्खाही ति, ध. प. अट्ठ. 1.157; - कारी त्रि. सु. नि. 214; पञ्चचेतोखिलचतुआसवाभावेन अखिलं ..., [अखण्डकारिन्]. पूर्ण रूप से करने वाला, सही ढंग से सु. नि. अट्ट, 1.219; 2. अन्तराल-रहित, जो त्रुटिपूर्ण न हो, कार्य करने वाला - अयमायस्मा अखण्डकारी अच्छिद्दकारी निर्दोष, कुल मिलाकर, समूचे तौर पर - सब् समत्तमखिलं ..., अ. नि. 1(2).217; 278; अखण्डकारिना भवितब्बं .... निखिलं सकलं तथा, अभि. प. 702; ... इति अट्ठारसाखिला, मि. प. 105; - रिता स्त्री., भाव., सम्पूर्ण रूप से कार्य म. वं. 5.10; 23.13.
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अखीण
अखीण त्रि. खीण का निषे. [अक्षीण], वह, जिसे कोई क्षति
अथवा हानि नहीं हुई है, हानिरहित खीणम्पि अखीणम्पि न तं जहन्ति, जा० अट्ठ. 3.435; वचन त्रि. ब. स. [अक्षीणवचन ], कर्कश वचन न बोलने वाला, मृदुभाषी न अखीणवचनोति अत्यो सु. नि. अड. 1.178 - ब्यप्पथ त्रि. ब. स. उपरिवत् न खीणव्यप्पथो ति (पाठा. नाखीणव्यप्यथो तिपि पाठो) न फरुसवाची सु. नि. अट्ठ. 1.176; णासव त्रि०, ब० स०, वह, जिसके चित्त के आस्रव क्षीण नहीं हुए हैं भिक्खु अखीणासवो कालङ्करोति ग. नि. 3.177. अप, अखील,
अखीलक त्रि. ब. स. [अकीलक], कांटा रहित, कण्टकमुक्त अखीलकानि च अवष्टकानि. किंरुक्खफलानि तानि जा. अट्ठ. 5.193.
अखेत्तत्र खेत का निषे.. ब. स. [अक्षेत्र]. शा. अ. भूमिरहित क्षेत्र-रहित अखेत्तबन्धू अममो निरासो, जा. अट्ठ 4.269; तत्थ अखेत्तबन्धूति अक्खेत्तो अबन्धु, खेत्तवत्थुगामनिगमपरिग्गहेन ... रहितो, जा. अट्ठ 4.270; ला. अ. अविषय, अपात्र, अनुपयुक्त स्थल अखेत्तञ्ञूसि दानस्स. जा. अट्ट, 4.334 ज्ञ त्रि. खेत्ताञ्ञ का निषे. [अक्षेत्रज्ञ ], जो क्षेत्र या भूमि को ठीक से नहीं जानता है अखेतज्ञाय ते महि भविस्सते महब्भय, जा. अड. 7.263 अखेतज्ञायाति अरज्ञभूमिअकुसलताय, जा. अड. 7.264 - ज्जू त्रि. खेत्तञ्जू का निषे [अक्षेत्रज्ञ]. शा. अ. खेत को न जानने वाला गावी पब्बतेय्या बाला अन्यत्ता अखेत्त अकुसला विसमे पब्बते चरितुं, अ. नि. 3 (1). 226; ला. अ. अनुपयुक्त पात्र, उचित अवसर अथवा कुशल कर्मों को करने के लिए उपयुक्त भूमि को न जानने वाला, मूर्ख, अज्ञानी अखेत्तञ्जूसी दानस्स, कोयं धम्मो नमत्थु ते, जा. अड. 4.334 बन्धु त्रि. ब. स. [अक्षेत्रबन्धु] खेतों एवं जाति-बन्धुओं से विहीन, ममता-रहित अखेत्तबन्धू अममो निरासो, जा. अ. 4.269 भाव पु. [अक्षेत्रभाव]. दान आदि शोभन कर्मों के लिए अनुपयुक्त भूमि या पात्र - अधना अभिज्ञालाभीनं पुग्गलानं अखेत्तभावेन.... सा. वं 69. (ना.) अग पु० [अग], शा. अ. अचल, अडिग, ला. अ. वृक्ष एवं पर्वत पादपो विटपी रुक्खो अगो सानो महीरुहो अभि. प.
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539.
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अगणित त्रि. गणित का निषे [ अगणित ]. वह जो गणना के अन्दर न आये, अनन्तर्भूत अगणितं अद्वहि हेतूहि मि. प. 121; 148.
23
अगथित / अगधित
अगण्हन नपुं०, गण्हन का निषे [ अग्रहण ], न पकड़ना, समझ में न आना, अस्वीकरण उण्हस्स डाहभयेन अगण्हनं दिय अपायभयेन पापरस अकरणं वेदितव्यं ध. स. अड.
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171.
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अगत त्रि. गत का निषे [ अगत] अप्राप्त, वह जिसे प्राप्त नहीं किया गया है नहि एतेहि यानेहि, गच्छेय्य अगतं दिसं, ध० प० 323; - ता स्त्री०, प्र. वि., ए. व. अगता दिसा दुच्यति अमतं निब्बानं महानि, 355 पुब्ब त्रि.. ब. स. [ अगतपूर्व], वह स्थान जहां पहले कोई न गया हो ब्बाय स्त्री०, सप्त. वि., ए. व. अगतपुब्बाय वा दिसाय अस्सुतपुब्वाय या नामपञ्ञत्तिया सम्मुव्हेय्याति. मि. प. 41: -ब्बं स्त्री. द्वि. वि. ए. व. सचित्तमनुरक्खे, पत्थयानों दिसं अगतपुब्बं जा. अड. 1.382 जा. अ. 3.206. अगति स्त्री, गति का निषे. [अगति]. शा. अ. अनागमन, अप्रवेश अगति यत्थ मारस्स, तत्थ मे निरतो मनोति, स. नि. 1 ( 1 ) .157: समुद्र अज्झगाहासि, अगती यत्थ पक्खिन, जा. अट्ठ. 5.245; ला. अ. प्रायः यह चार प्रकार की दुःखद गतियों या पुनर्जन्मों के अर्थ में तथा कुशलकर्मों की अवहेलना करने के अर्थ में भी प्रयुक्त वतस्सो अगतियो वज्जेत्वा, जा. अट्ठ. 1.252; छन्दा दोसा मोहा भया अगतिं गन्तु पारा. अ. 1.7; खु. पा. अट्ठ. 75; छन्दादिवसेन अगतिं गच्छन्ता, जा. अट्ठ. 1.324; किलेस पु०, चार प्रकार की दुःखद गतियों की ओर ले जाने वाले क्लेश छन्दादीहि अगतिकिलेसेहि अमुच्छितो जा. अड. 3.391; गत त्रि, दुःखद गतियों की ओर ले जाने वाला, भ्रामक या संदेहास्पद स्थिति में पहुंचा हुआ कोसलराजा एक अगतिगत दुब्बिनिच्छयं अहं विनिच्छिनित्वा जा. अट्ठ. 2.1 गमन नपुं तत्पु, स. [ अगतिगमन] चार दुःखद गतियों की ओर ले जाने वाले अशोभन मार्ग का अनुगमन, जीवन में पापकर्मों का आचरण - पञ्चालो नाम राजा अगतिगमने ठितो अधम्मेन पमत्तो रज्जं कारेसि, जा. अट्ठ 5.93; अगतिगमनं पहाय जा. अड. 3.240 घ. प. अ. 2. 104; छन्दागमनन्ति छन्दादिचतुब्बिधम्पि अगतिगमनं, जा. अड. 5.266; चत्तारिमानि भिक्खवे, अगतिगमनानि., अ. नि. 1 (2).21; स० उ० प० में द्रष्ट छन्दा, छन्दादि, दोसा., भया०, मोहा..
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अगथित / अगधित त्रि. गथित या गधित का निषे [ अग्रथित], शा. अ. जो आपस में बंधा न हो, जो फंसा न हो, ला. अ. लोभ-लालच की जकड़न से मुक्त, सभी तरह के लगावों से
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अगद
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अगरु
रहित - अगथितो अमुच्छितो अनज्झोपन्नो आदीनवदस्सावी अगब्मिनी स्त्री., गब्भिनी का निषे. [अगर्भिणी], गर्भ धारण निस्सरणपो परिभुञ्जति, म. नि. 2.36; दी. नि. 3.179; न करने वाली स्त्री, बांझ स्त्री - निया ष. वि., ए. व. - अगधितोति विगतलोभगिद्धो, दी. नि. अट्ठ. 3.178.
अगभिनिया गमिनिसा , आपत्ति दुक्कटस्स, पाचि. 433; अगद पु. [अगद], औषधि, प्रतिरोधक औषधि, भैषज्य - - सज्ञा स्त्री., तत्पु. स., प्र. वि., ए. व., गर्भवती न होने भेसज्जमगदो चेव भेसजं चोसधं प्यथ, अभि. प. 330; अगदे का ज्ञान या समझ - गमिनिया अगभिनिसा वट्ठापेति किमि न सण्ठाति, अप. 1.43; अगदे विय अगदो, दी. नि. ....... पाचि. 433. अट्ठ. 1.63; हलाहलं खणेन अगदं भवति, मि. प. 1263B अगमन नपुं, गमन का निषे. [अगमन], न जाना, गमनक्रिया ओसधन्ति तदा आयतिञ्च आरोग्यावह अगद, पे. व. अट्ठ. का अभाव - पदसा अद्धानं अगमनेन अनद्धगनं ... देवतानं 171; अगदेन किर दाठा धोवित्वा एकं सप्पं पेसेतुति,ध. प. इद्धि, जा. अट्ठ. 5.15. अट्ठ. 1.123; - दङ्गार पु./नपुं., व्रण के लिए प्रयुक्त एक अगमनीय त्रि., गमनीय का निषे. [अगमनीय], शा. अ.
औषधीय चूर्ण, हर्रे अथवा आंवला से बनाया गया चूर्ण - गमन न करने योग्य, ला. अ. परस्पर व्यवहार न करने तस्स सो भिसक्को सल्लकत्तो अगदङ्गारं वणमुखे ओदहेय्य, के लिए अनुपयुक्त या समागम (मैथुन) के लिए अनुपयुक्त, म. नि. 3.4; अगदङ्गारन्ति झामहरीतकस्स वा आमलकस्स - हान नपुं., कर्म. स. [अगमनीयस्थान], न जाने योग्य वा चुण्णं, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.2; - दामलक पु./नपुं.. स्थान - रत्तिभागे अन्धकारे सति पुरिसस्स अगमनीयवानं कर्म. स., औषधि के रूप में प्रयुक्त आंवला का फल - नाम नत्थि जा. अट्ठ. 1.476. अगदामलकञ्चेव तथागदहरीतकं म. वं. 5.26; - सम त्रि.. अगमानि स्त्री., जहां गमन या आगमन न हो - न गमितब्ब तत्पु. स., औषधि जैसा, दवा के समान हितकारी - ... अगमानि ते जम्मदेसं न कत्तब्बं अकराणि ते जम्म कम्म, सीलवा, महाराज, सीलसम्पन्नो अगदसमो सत्तानं क. व्या. 647, (द्रष्ट. अकराणि). किलेसविनासने, मि. प. 188; - हरीतक पु./नपुं. अगम्भीर त्रि., गम्भीर का निषे. [अगम्भीर], जो गहरा न हो, औषधि के रूप में प्रयुक्त हरी की जड़ी-बूटी - अगदामलकं अगाध न हो, छिछला - अनिगाधकूलाति अगम्भीरतीरा, जा. चेव तथागदहरीतकं म. वं. 5.26; पाठा. हरितक.
अट्ठ. 6.132. अगन्तु पु., गम के कर्तृ. कृ. का निषे. [अगन्तु], नहीं जाने अगव्ह त्रि., गव्ह का निषे. [अगृह्य], वह, जिसका ग्रहण वाला व्यक्ति - अगन्ता निरयं.... स. नि. 3(2).440. संभव न हो, वह, जिसको कसकर पकड़ना संभव न हो, वह, अगन्थनिय त्रि., गन्ध के सं. कृ. का निषे., एक जुट न जिसको समझना संभव न हो, - यहूपग त्रि., कर्म. स., करने योग्य, आपस में बांधकर नहीं रखने योग्य, नहीं गूंथने पास जाकर ग्रहण न करने योग्य - ... अगरहूपगस्स योग्य - अपरियापन्ना मग्गा च, मग्गफलानि च, असङ्घता च तिणस्स च अनादानं, जा. अट्ठ. 3.101; - यहूपगट्ठान नपुं., धातु-इमे धम्मा अगन्थनिया, ध. स. 1147; द्रष्ट, गन्थनिय कर्म. स., वह भाग जो उपयुक्त न हो, अनुपयुक्त-स्थल - (आगे).
यं यं चम्मस्स अगरहूपगट्ठानं होति, तं तं चजित्वा उपाहनं अगन्धक त्रि., गन्धक का निषे. [अगन्धक], गन्धरहित, कत्वा , जा. अट्ठ. 4.155. निर्गन्ध - यथापि रुचिरं पुष्फ, वण्णवन्तं अगन्धकं ध. प. अगरहित त्रि., गरहित का निषे. [अगर्हित], वह, जो दोषयुक्त 51; अगन्धकन्ति गन्धविरहितं .... ध. प. अट्ठ. 1.215; - न हो, गर्हारहित, अनिन्दित - न आवज्जानि अनवज्जानि, न्धिका स्त्री. - माला सेरेय्यकस्सेव, वण्णवन्ता अगन्धिका, अनिन्दितानि अगरहितानीति .... खु. पा. अट्ठ. 112. जा. अट्ठ. 3.221.
अगरहिय त्रि., गरहिय का निषे. [अगह], अनिन्दनीय, अगन्धता स्त्री॰, भाव., गन्धरहितता - अगन्धताय गन्धेन न निन्दा न करने योग्य - अगरहियं मा गरहित्थ, स. नि. तप्पेति, जा. अट्ठ. 3.221.
1(1).277. अगमसेय्यक त्रि., गब्भसेय्यक का निषे०, ब. स. अगरु' नपुं.. [अगरु], अगर की सुगन्धित लकड़ी और पेड़, [अगर्भशयानक], जो गर्भ में नहीं आया है, जिसने गर्भ में गूगुल का पेड़ - काळागरु तु कालस्मि, तुरुक्खो तु च शयन नहीं किया है, जिसने मातृकुक्षि में प्रवेश या अवतरण पिण्डको, अभि. प. 302; यथा, महाराज, पथवी इट्ठानिहानि नहीं किया है - अगब्भसेय्यका सत्ता येव, मि. प. 132. कप्पूरागरुतगरचन्दन - कुडमादीनि आकिरन्तेपि .... मि.
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अगरु
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अगारव प. 350; गन्धकेन विलिम्पित्वा, अगरुचन्दनेन च, जा. अट्ट नादिन्नदण्डस्साति अग्गहितदण्डस्स निक्खित्तदण्डस्स 7.268; उद्दालका सोमरुक्खा, अगरुफल्लिया बहू, जा. ..... जा. अट्ठ. 2.195. अट्ठ. 7.294; द्रष्ट. एवं तुल. अकलु, अगलु.
अगाध त्रि., ब. स. [अगाध], बहुत गहरा, अतिगंभीर - अगरु त्रि., गरु का निषे. [अगुरु], शा. अ. हल्का, जो अगाधं त्वतलम्परसं, अभि. प. 669; महासमदं गम्भीरं वित्थतं भारी न हो - सीघम्हि लहु तं इट्ठनिस्सारा गरुसुत्तिसु, अभि. अगाधमपारं दिस्वा, मि. प. 114. प. 929; ला. अ. 1. महत्त्वहीन, तुच्छ, अनादृत, अप्रिय, अगाम पु., गाम का निषे., तत्पु. स. [अग्राम], जो गांव न अमनाप - ... भिक्खु सब्रह्मचारीनं अप्पियो च होति अमनापो हो, ग्रामेतर निवास-स्थल, उजड़ चुका गांव - गामापि च अगरु च अभावनीयो च, अ. नि. 3(1).6; ला. अ. 2. अगामा होन्ति, अ. नि. 1(1).187; - क. त्रि., ब. स., ग्रामसरल, सहज, सुविधाजनक - ... सचे ते, अगरु, भासस्सू रहित जनपद, निर्जन स्थान - एकूपचारो नाम अगामके ति, दी. नि. 1.46; अगलति... अफासुकभावो..., दी. नि. अरजे समन्ता सत्तभन्तरा एकूपचारा, पारा. 311; अगामके अट्ठ. 1.132; सचे ते, कस्सप, अगरु, वसेय्याम एकरतं अरओ दुतियिकाय भिक्खुनिया दस्सनूपचार ... विजहन्तिया अग्यागारे, महाव. 28; सचे ते, आचरिय अगरु, मयञ्चेत्थ आपत्ति थुल्लच्चयस्स, पाचि. 307. एकरत्तिं वसेय्यामा ति याचि, ध. प. अट्ठ. 1.26; - कत अगार/आगार नपुं., [अगार, आगार], घर, आवास, गृहस्थ त्रि., अगरु + Vकर का भू. क. कृ., सरलीकृत, जीवन - मन्दिरं सदनागारं निकायो निलयालयो, अभि. प. सुविधाजनक अथवा सहज बना दिया गया - अचित्तीकतन्ति । 205; यथा अगारं दुच्छन्नं वुट्ठी समतिविज्झति, ध. प. 13; अगरुकतं, पाचि. अट्ठ. 5, पाठा. न गरुकतं.
नागारमावसे, सु. नि. 811; तुल. अगारक, अगारी, अगारिक; अगरुकुलवासिक त्रि., [अगुरुकुलवासिक], वह, जिसने स. उ. प. के रूप में द्रष्ट., अग्या., अन., अना., आगन्तुका., गुरु या आचार्य के कुल में निवास न किया हो - आवसथा., कूटा., कोट्ठा., कोसकोट्ठा., चित्ता., झाना., तिणा., अगरुकुलवासिको ... पुग्गलो .... मि. प. 267.
दाना०, धज्ञा०, नळा., निवासा., परिया., पाना., बन्धना., अगळु/अगलु पु., अगरु/अकळु का अप. [अगरु, अगुरु], भण्डा., भुसा., महा०, यजा., राजा.. वासा., वाहना.. सन्था., अगरु नामक पेड़ और उसकी लकड़ी - लोहं त्वगरु सलळा., सुझा. इत्यादि के अन्त.; - क. नपुं.. [अगारक], चागल, अभि. प. 302; अगरुचन्दनादीहि हत्थसतब्बेध छोटा घर, झोपड़ी, कुटी - एकं अगारकं ओलुग्गविलुग्गं चितकमकंसु, वि. व. अट्ठ. 130; द्रष्ट. कालागलु /कालागरु काकातिदायिं नपरमरूपं ..., म. नि. 2.123; - मज्झे सप्त. आगे.
वि., ए. व., घर के भीतर, गृहस्थजीवन की सुरक्षा के बीच अगहन त्रि., गहन का निषे., तत्पु. स. [अगहन], उलझन- - इमस्स अगारमज्झे ठानकारणं नत्थि, जा. अट्ठ. 1.66; - रहित, निष्कण्टक, जटिलता से रहित - अकण्डकं अगहनं. मुनि पु.. प्र. वि., ए. व. [आगारमुनि]. गृहस्थ मुनि, घरेलू पटिपन्नो महापथं जा. अट्ठ. 5.251; गहनं अगहनं कतं. मि. जीवन यापन करने वाला मुनि - नो ब. व. - ये ते प. 112; 125.
अगारिका दिट्ठपदा विज्ञातसासना - इमे अगारमुनिनो, अग्गळित त्रि, निषे. स., धाराप्रवाह वचन बोलने वाला, महानि. 41; - वास पु., तत्पु. स. [आगारवास]. गृही सुस्पष्ट, अनुकूल, सुन्दर अकर्कश, कोमल - अकक्कसं जीवन - अगारवासेन अलं नु ते इद, थेरगा. 1110. अग्गळितं मुहं मदं उM अनुद्धतं अचपलमस्स भासितं, जा. अगारयह त्रि., गारव्ह का निषे. [अगह], अनिन्दनीय, अट्ठ. 5.193, पाठा. अगलित.
दोषारोपण करने के लिए अयोग्य, निर्दुष्ट - हं पु., वि. अग्गहित त्रि., गहित का निषे. [अगृहीत], वह, जिसे छीना- वि., ए. व. - तस्मा अगारव्हं ब्राह्मणं विनिन्दमानो ...
झपटा न गया हो, जिसे कसकर पकड़ा न गया हो, धम्मञ्च जहाति, जा. अट्ठ. 7.47. जिसका आश्रय नहीं किया गया हो - अग्गहितमेव होति । अगारव त्रि., गारव का निषे. [अगौरव]. अश्रद्धेय, सम्मान के सरणं, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).142; - दण्ड त्रि., ब. स. अयोग्य - वो पु.. प्र. वि., ए. व. - भिक्खु अगारवो [अगृहीतदण्ड], शा. अ. वह, जिसका दण्ड ऊपर की अप्पतिस्सो चवति, अ. नि. 2(1).7; - वा प. वि., ए. व. - ओर न उठा हुआ हो; ला. अ. वह, जो हिंसालु, कड़ा, ते अञ्जमञ्ज अगारवा अपतिस्सा असभागवुत्तिनो अहेसु. कर्कश या कठोर न हो, हिंसा से विरत - जा. अट्ठ. 1.215; - ता स्त्री., भाव., प्र. वि., ए. व. -
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अगारिक
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अगेधलक्खण सहधम्मिके वुच्चमाने ... अनादरियता अगारवता तृष्णा का अभाव - अगिद्धिलोमं निस्साय गिद्धिलोभो पहातब्बो. अप्पतिस्सवता-अयं वुच्चति दोवचस्सता, पु. प. 126. म. नि. 2.25. अगारिक/अगारिय पु., [आगारिक], गृहपति, गृहस्वामी, अगिलान त्रि., गिलान का निषे. [अग्लान], वह, जो रोगी गृहस्थ - गहट्ठागारिका गिही, अभि. प. 446; मयं ... न हो, जो रुग्ण न हो, नीरोग, स्वस्थ - नस्स पु., ष. वि., आगारिका नाम उपजानामेतस्स संयमस्स, महाव. 360; ए. व. - न छत्तपाणिस्स अगिलानस्स धम्म देसेस्सामीति तत्थ मुनिनन्ति अगारिकानगारिकसेक्खासेक्खपच्चेकमनीस सिक्खा करणीया, पाचि. 271. पच्चेकमुनि जा. अट्ठ. 3.400; ननु सो अगारिको कामभोगी अगिह /अगह त्रि०, ब. स. [अगृह], शा. अ. घर-रहित, होती ति एवञ्च पन वत्वा, सु. नि. अट्ठ. 2.23; - पटिपत्ति बिना घर-बार का, ला. अ. तृष्णा-रहित, आसक्ति-रहित - सुगति स्त्री., गृहस्थ जीवन में अपनाए गये अच्छे कर्म या हो पु., प्र. वि., ए. व. - सङ्घाटिवासी अगहो चरामि, सु. नि. पद्धतियां - पटिपत्तिसुगतिपि अगारियपटिपत्तिसुगतीति दुवि 4583; - हा ब. व. - ये कामे हित्वा अगहा चरन्ति, सु. नि. ॥ होति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).177. - भूत त्रि, 502; अगहोति अगेहो, नित्तण्होति अधिप्पायो, सु. नि. अट्ठ. [आगारिकभूत], गृहस्थ जीवन में रहने वाला, गृही - 2.118; कासायवासिं अगहं चरन्तं. सु. नि. 491. अहम्हि, भन्ते, पुब्बे अगारिकभूतो समानो अबहुकतो अहोसिं. अगुण' त्रि.. ब. स. [अगुण], डोरीरहित धनुष - अगुणं धनु स. नि. 3(1).110, सेय्यथापि पुब्बे अगारिकभूतो, महाव. 21; आतिकुले च भरिया, जा. अट्ठ. 5.430. तुल अगारियभूत; - मुनि पु., गृहस्थ-मुनि - सो पनेस अगुण पु., गुण का निषे. [अगुण]. दोष, दुर्गुण - इदानि अगारियमुनि ... मुनिमुनीति अनेकविधो, जा. अट्ट, 1.116- मया अत्तनो अगुणं परियेसितुं वट्टति, जा. अट्ठ. 2.2; - 117; - रतन नपुं, तत्पु. स., गृहस्थों के बीच रत्न, स्वच्छ गवेसक त्रि.. तत्पु. स., केवल दोषों को खोजनेवाला - निष्कलंक एवं उत्तम गृहस्वामी - पुरिसरतनम्पि दुविध राजा अत्तनो अगुणगवेसको हुत्वा .... जा. अट्ट. 4.332; -
अगारिकरतनं अनगारिकरतनञ्च पु. प. अट्ठ. 141; - वादी त्रि., [वादिन], अपने दुर्गुणों को कहनेवाला - अस्थि विभूसा स्त्री०, तत्पु. स. [आगारिकविभूषा], सामान्यजनों नु खो मे कोचि अगुणवादीति परिग्गण्हन्तो ..., जा. अट्ठ. या गृहस्थों की वेश-भूषा या अलंकार - तत्थ विभूसा 2.2. दुविधा अगारिकविभूसा अनगारिकविभूसा च, सु. नि. अट्ठ. अगुत्त त्रि., गुत्त का निषे. [अगुप्त], अरक्षित, असुरक्षित, 1.89; तुल. अगारियरस विभूसा, महानि. 279.
अनियन्त्रित, असंयमित - त्ता पु.. प्र. वि., ए. व. - विहारा अगारी त्रि., [आगारिन्]. उपासक, गृहपति, गृहस्वामी, अगुत्ता होन्ति, चूळव. 273; - त्तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - सामान्यजन, गृहस्थ - रिनो पु., प्र. वि.. ब. व. - अगारिनो चित्तं, भिक्खवे, अगुत्तं ..., अ. नि. 1(1).9; - द्वार त्रि., ब. वा पनुपासकासे, सु. नि. 378; अगारिनो अन्नदपानवत्थदा, स., वह, जिसके इन्द्रियद्वार असुरक्षित हैं, संवररहित, जा. अट्ठ. 3.205; अगारिनोति गहठ्ठा, तदे. 3.205; - रिनी आत्मनियन्त्रण-रहित, आत्मसंयम-रहित - रेहि पु.. तृ. वि., स्त्री., प्र. वि., ए. व., घरनी, गृहिणी, गृहस्वामिनी - ब. व. - इमेहि नवेहि भिक्खूहि इन्द्रियेसु अगुत्तद्वारेहि ... अगारिनी सबकुलस्स इस्सरा, पे. व. 449; अगारिनीति सद्धि चारिक चरसि. स. नि. 1(2).197; - द्वारता स्त्री., गेहसामिनी, पे. व. अट्ठ. 168; वि. व. अट्ठ. 190.
भाव., प्र. वि., ए. व. - इन्द्रियेस अगुत्तद्वारता, दी. नि. 3.170. अगिद्ध त्रि., गिद्ध का निषे. [अगृध्र], जो लोभी न हो, लोभ- अगुत्ति स्त्री., गुत्ति का निषे. [अगुप्ति], असुरक्षा, अनियन्त्रण, मुक्त, निर्लोभ, आसक्ति से रहित-द्धो पु., प्र. वि., ए. व. असंवर - इन्द्रियानं अगुत्ति अगोपना अनारक्खो असंवरो - स वे मुनी वीतगेधो अगिद्धो, सु. नि. 212; एवं मुनी ... अगुत्तद्वारता, ध. स. 1352. सन्तिवादो अगिद्धो, सु. नि. 851; - द्धा ब. व. - इसयो अगेधता स्त्री., गेधता का निषे०, भाव॰ [अगृध्रता], आसक्ति जिव्हाविद्येय्यरसे अगिद्धा, जा. अट्ठ. 6.123; - ता स्त्री., या लोभ से मुक्त मन की स्थिति, निर्लोभिता - अगेधता भाव. [अगृध्रता], तृष्णा से मुक्ति की अवस्था, लोभरहितता, निरालयता चागो पहानं ... असदिसता बुद्धधम्मस्स ..., निराकाङ्क्षता, तृष्णाविमुक्तता - तस्मा मत्तता साधु मि. प. 257. भोजनस्मिं अगिद्धता, जा. अट्ठ. 2.244.
अगेधलक्खण त्रि., ब. स. [अगृध्रलक्षण], लोभरहित अगिद्धि-लोभ पु., [अगृध्रिलोभ], लोभ तथा तृष्णा का संयमन, प्रकृति या लक्षणों वाला -- णो पु., प्र. वि., ए. व. - तेसु
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अगेह
अग्गग्ग अलोभो आरम्मणे चित्तस्स अगेध-लक्खणो, ध. स. अट्ठ. विशुद्धि की सर्वोच्च स्थिति, अर्हत्वफल की अवस्था - इति 172.
खो, आनन्द, कुसलानि सीलानि अनुपुब्बेन अग्गाय परेन्तीति, अगेह त्रि., गेह का निषे०, ब. स., बिना घर-बार का, अ. नि. 3(2).3; अग्गाय परेन्तीति अरहत्तत्थाय गच्छन्ति, अ. गृहरहित, लगाव-रहित - हो पु.. प्र. वि., ए. व. - अगहोति नि. अट्ठ. 3.285; स. उ. प. के रूप में द्रष्ट. अक्ख.. अगेहो, नित्तण्होति अधिप्पायो, सु. नि. अट्ठ. 2.118. अग्ग., अग्गम., अङ्गुल., अध., अन., अनमत.. अनीक., अगोचर पु.. गोचर का निषे. [अगोचर]. शा. अ. चरने या अन्न., अम्बिल., अयो., अरुण., आयत., आर., अच्छ., विचरने का अनुपयुक्त स्थल, ला. अ. इन्द्रियों का अनुपयुक्त उद., उद्ध., एक., एतद., एत्तावत., कटूक., कनक., आलम्बन - रो प्र. वि., ए. व. - अयुत्तो गोचरो अगोचरो कणय., कर., कलाप. इत्यादि के अन्त.; - अरियवंसिक सो वेसियादिभेदतो पञ्चविधो, म. नि. अट्ठ. 1(1).87; - रे त्रि., उत्तम आचरण वाला भिक्षु - अयमायस्मा सप्त. वि., ए. व. - यथारूपे अगोचरे चरन्तं....म.नि. अग्गअरियवंसिको समानोपि एवमाह, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 1.15; - ये मयं अगोचरे चरिम्ह परविसये, स. नि. 2.210; - उपासक पु.. कर्म. स. [अग्रोउपासक]. उपासको 3(1).225; - रेसु ब. व. - छसु च अगोचरेसु चरति, ध. स. में श्रेष्ठ, श्रेष्ठ उपासक - हत्थको आळवकोति द्वे अट्ठ. 195; - रस्स ष. वि., ए. व. - छबिधस्स अग्गउपासका, ध. प. अट्ठ. 1.193; - उपासिका स्त्री., अगोचरस्स सेवनं इध अयोनिसोमनसिकारो नाम, ध. प. बुद्ध की धर्मानुगामिनी उपासिकाओं में श्रेष्ठ - उपासिकासु अट्ठ. 2.160.
वेळुकण्ठकी नन्दमाता, खुज्जुत्तराति वे अग्गउपासिका, ध. अगोपना स्त्री., गोपना का निषे.. [अगोपना], असंवर, प. अट्ठ. 1.193; - कटच्छु पु., चम्मच का अग्रभाग - ना अनियन्त्रण, असुरक्षा - या इमेसं छन्नं इन्द्रियानं अगत्ति तृ. वि., ए. व. - ... अग्गकटच्छुना गण्हाति, ध. स. अट्ठ. अगोपना अनारक्खो असंवरो - अयं वच्चति इन्द्रियेस 401; - कारिका स्त्री., परोसे गये भोजन का प्रथम या अगुत्तद्वारता, पु. प. 127.
सर्वोत्तम भाग - कं द्वि. वि., ए. व. - ... भिक्खूनं अग्गकारिक अगोपित त्रि., गुप के भू. क. कृ. का निषे. [अगुप्त]. अदासि, पारा. 96; -किरिया स्त्री., उत्तम क्रिया, उत्तम अरक्षित, अनियन्त्रित, असंवृत - ता पु.. प्र. वि., ब. व. - एवं स्वादिष्ट भिक्षा-भोजन - यं द्वि. वि., ए. व. - अगुत्ता ति अगोपिता, स. नि. अट्ठ. 3.27.
अग्गकारिकन्ति अग्गकिरिय: पठम लद्धपिण्डपातं अग्गग्गं अग्ग' त्रि.. [अग्र/अग्र्य]. क. प्रथम, सर्वोपरि, मुख्य, सर्वोत्तम, वा पणीतपणीतं पिण्डपातन्ति, पारा. अट्ठ. 2.56; - कुलिक सर्वप्रमुख - ग्गो पु., प्र. वि., ए. व. - आदि कोट्ठासकोटीसु त्रि०, अग्रकुल का या श्रेष्ठकुल का व्यक्ति, प्रधान व्यक्ति - पुरतो अग्गं वरे तिसु, अभि. प. 843; अग्गो च सेट्ठो च । को पु., प्र. वि., ए. व. - अयं कुमारो नगरस्सिमरस, पामोक्खो च उत्तमो च पवरो च, पु. प. 181; अग्गोहमस्मि अग्गकुलिको भविस्सति भोगतो च, पे. व. 458; अग्गलिको लोकस्स, दी. नि. 2.12; म. नि. 3.165; तेस उरुवेलकस्सपो सेट्ठकुलिको भविस्सतीति अत्थो, पे. व. अट्ठ. 172; -- जटिलो... नायको होति.... अग्गो पमुखो पामोक्खो, महाव. गन्धब्ब पु.. कर्म. स. [अग्रगन्धर्व], श्रेष्ठ गन्धर्व, गन्धों में 28; - ग्गानि नपुं.. वि. वि., ब. व. - ... इमानि पञ्च अग्रगण्य या श्रेष्ठ - गुत्तिलगन्धब्बो नाम सकलजम्बुदीपे अग्गानि देति, सु. नि. अट्ठ. 1.224; ख. पु./नपुं, अंश, अग्गगन्धब्बो अहोसि, जा. अट्ठ. 2.208; - गिम्ह पु., कर्म. स्थल, बिन्दु, नोक, अग्रभाग, सिरा, वृक्ष का शिखर, पर्वत स. [अग्रग्रीष्म]. ग्रीष्म का प्रारम्भ, वसन्तकाल - म्हे सप्त. की चोटी - सिरो अग्गं सिखरो, अभि. प. 542; - ग्गा पु.. वि., ए. व. - वनं यथा अग्गगिम्हे सुफुल्ल, जा. अट्ठ. प. वि., ए. व. - याव चग्गा याव च मूला .... म. नि. 3. 5.193; अग्गगिम्हति वसन्तसमये, जा. अट्ठ. 5.196. 137; - ग्गानि नपुं. प्र. वि., ब. व. - फुस्सितानि अग्गानि । अग्गग्ग 1. त्रि., परमश्रेष्ठ, सर्वोत्तम - ग्गं नपुं.. वि. वि., ए. अस्साति फुस्सितग्गो, खु. पा. अट्ठ. 152; ग. नपुं., उत्तम व. - सब्बसूपब्यञ्जनेहि अग्गग्गं आदाय भाजने पक्खिपित्वा, अथवा प्रमुख वस्तु या पुरुष - ... सदेवके, भिक्खवे, लोके ध. स. अट्ठ. 155; तुल. अग्गमग्ग; 2 नपुं. सबसे बाहरवाला समारके ... तथागतो अग्गमक्खायति, अ. नि. 1(2).203; किनारा, बाह्यतम सिरा - ग्गेसु सप्त. वि., ब. व. - दिस्वा अभिहट अग्गं, कासिराजेन पेसितं, जा. अट्ठ. 5.373; इतरानि अग्गग्गेसु परिमिलातानि, ध. प. अट्ठ. 2.244-45%3B तं बहु अग्गपानभोजनं दिस्वा, जा. अट्ठ. 5.375; घ. चित्त- - नेमिवट्टि स्त्री. [अग्राग्रनेमिवर्ति], पहिये का बाहरी घेरा,
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अग्गङ्कुरक
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हाल यो प्र. वि. ब. व. चक्रानं अग्गग्गनेमिवडियो नेव तेमिंसु ध. प. अ. 1.318.
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अग्गङ्कुरक नपुं. [ अग्राङ्कुरक]. अगला अङ्कुर, प्रथम अङ्कुर - अग्गङ्करकं में उदर छुपति, चूळव. 290.
अग्गङ्गुलि स्त्री. कर्म. स. [ अग्राङ्गुलि] अङ्गुलियों का अग्रभाग, अङ्गुलियों का सिरालीसु सप्त. वि., ए. व. पसारितहत्थस्स अङ्गुलीसु, जा. अड. 6.10. अग्गज' त्रि., [ अग्रज ], एक प्रकार के पुष्प का नाम, वृक्ष का अंखुआ जं नपुं द्वि. वि. ए. व. अग्गज पुष्फमादाय, उपागच्छं नरुत्तमं अप. 1.243, अग्गज पुप्फमादायाति अग्गजनामक पुष्कं गहेत्वा अप. अड. 2184.
अग्गज' पु० [अग्रज] बड़ा भाई, अग्रज, ज्येष्ठभ्राता
व॰
अग्गजो पुब्बजो जेट्ठो, अभि. प. 254. अग्गजिव्हा स्त्री [अग्रजिह्वा] जिह्वा का अगला भाग या सिरा - य तृ. वि., ए. व. - अग्गजिव्हाय चेस तनुको होति, विभ. अ. 234 विलो. मूल- जिव्हा. अग्गञ्ञ त्रि. 1. आदिम, अथवा पुरातन के रूप में जाना गया उजे पु. सप्त, वि. ए. व. भिक्खु पोराणे अग्गज्जे अरियवंसे ठितो, दी. नि. 3. 179; - ञ्ञ पु०, प्र. वि., ब. व. ते खो पनेते अग्गज अग्गाति जानितब्बा दी. नि. अट्ट. 3.174; अग्गाति जानितब्बा सब्बवंसेहि सेदुभावतो, लीन. ( दी. नि. टी.) 3.198; चत्तारोमे, भिक्खवे, अरियवंसा अग्गञ्ञा रतज्ञ सञ पोराणा अ. नि. 1 (2).32; ते खो पनेते अग्गज्ञा अग्गाति जानितबा... अ. नि. अड्ड. 2269 2. प्रधान, प्रमुख - परमग्गज्ञमुत्तरं अभि. प. 695 - टि. सम्भवतः यह अग्गञ्ञु अथवा बौ. सं. अग्रण्य का समानान्तर शब्द है, जो पोराणो अग्गज्ञो जैसे मुहावरों में प्रयुक्त है. अग्गज्ञसुत्त नपुं., दी. नि. के पाथिकवग्ग के चौथे सुत्त का शीर्षक, दी. नि. 3.59-72.
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"
अग्गद्वान नपुं. कर्म, स. [ अग्रस्थान] सर्वोच्चस्थान ने सप्त, वि. ए. व. अग्गद्वाने उपेति मं अप. 1.28; तुल. अग्ग-निक्खित्त,
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अग्गता स्त्री. अग्ग का भाव [अग्रता ], वरिष्ठता, श्रेष्ठता, उच्चता सु सप्त वि. ब. व. दक्खग्गतासु कथने अभि. प. 1168 तं द्वि. वि. ए. व. यमाहुनेय्यानं अग्गतं गतो, कथा, 449.
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"
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28
अग्गतो अग्ग का प. वि. प्रति निपा. [अग्रतः ] 1. प्रारम्भ से, आगे से - यदग्गतो मज्झतो सेसतो वा, सु. नि. 219; यं कुम्भितो पठममेव गहितत्ता अग्गतो सु. नि. अ. 1. 126
अग्गधनुग्गह
2 उपस्थिति में, सम्मुख अभिमुख पुरेग्गतो तु पुरतो, अभि. प. 1148; 3. शिखर से चोटी से यदग्गतो मज्झतो सेसतो वा. सु. नि. 219 कत त्रि. [ अग्रतः कृत], आंखों के सामने लाया हुआ, परिकल्पित, मन में कल्पित, विसपत्रोरिव अग्गतो कतो, थेरीगा. 388; मायं विय अग्गतो कत, थेरीगा. 396; द्रष्ट, यदग्गतो.
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अग्गत्त नपुं. भाव. [ अग्रत्व] उत्तम अथवा श्रेष्ठ होने की स्थिति उत्तमता, अगुआपन प्रमुखता ता प्र. वि., ए. व. दसहि ठानेहि सुद्ध अग्गत्ता.... पे. व. अड. 8. अग्गदक्खिणेय्य त्रि. कर्म. स. दक्षिणा देने योग्य लोगों के बीच सर्वप्रथम थ्यो पु. प्र. वि. ए. व. अयं अग्गदविखणेय्यो सत्था ति भगवतो पच्चयं दत्वा मि. प. 211: य्यं द्वि. कि. ए. व. एवं उळारगुणं अग्गदविखय्यं सम्मासम्बुद्ध अभूतेन अक्कोसित्वा, ध. प. अट्ठ. 2.103; - त्त नपुं., भाव. [अग्रदक्षिणेयत्व], दान पाने योग्यों के बीच सर्वोत्तमता ताप. वि. ए. व. - अग्गदविखणेप्यता च चीवरादिपच्चये अरहति पूजाविसेसञ्च, पारा. अनु. 1.81; - भाव पु.. भाव, उपरिवत्- इमं विसेसं हत्थगतमेव कत्वा अग्गदक्खिणेय्यभावं लभति, ध. प. अ. 1.164. अग्गदन्त पु.. कर्म. स. [ अग्रदन्त] 1. दांत का अग्रभाग, सामने वाला दांत अग्गदन्ते विवरित्वा हसितं अकासि जा. अ. 1.415; सोद्वेपि अग्गदन्ते छिन्दि जा. अड्ड. 1.307 2. त्रि. [अग्रदान्त] आत्मसंयमन करने वालों में अत्युत्तम, अत्युत्कृष्ट सम्बुद्ध अग्गदन्तं समाहितं थेरगा. 354. अग्गदान नपुं., तत्पु० स० [ अग्रदान ], श्रेष्ठ वस्तु का दान, उत्तम दान एवं एकसस्से नव वारे अग्गदानं अदासि, ध. प. अट्ठ 1.57; मम अग्गदानं अग्गधम्मस्स सब्बपठमं पटिवेधाय संवत्ततूति, तदे.; इमानि पञ्च अग्गदानानि देति, ध. प. अट्ठ. 2.338.
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अग्गद्वारेन अस्समं
अग्गदायी त्रि. [अग्रदायिन्] उत्तम दान देने वाला यो अग्गदायी वरदायी, सेट्ठदायी च यो नरो, अ. नि. 2 (1).47. अग्गद्वार नपुं. तृ. वि. ए. व. में अग्गद्वारेन रूप में ही प्रयुक्त [ अग्रद्वार], द्वार के ऊपरी भाग से होकर, मुख्य द्वार में से होकर वेपचिति असुरिन्दो पविसित्वा, स. नि. 1 (1).261; हत्थसारं गत्वा अग्गद्वारेन निक्खमित्वा... जा. अड. 1.121; अग्गद्वारेन पलायित्वा अञ्ञस्स रञ्ञो विजितं अगमंसु, जा. अट्ठ. 3.297. अग्गधनुग्गह पु. कर्म. स. [ अग्रधनुग्रहिन्] धनुष धारण करने वालों में सर्वोत्तम, अत्युत्कृष्ट धनुर्धर, सर्वोत्तम
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अग्गधम्म
धनुषधारी उम्मादफुस्सदेवो सो दीपे अग्गधनुग्गहो म. वं. 25.82; सा हि पुब्बे सकलजम्बुदीपे अग्गधनुग्गहपण्डित पहाय.... ध. प. अड्ड. 2.318.
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अग्गधम्म पु.. कर्म. स. [ अग्रधर्म] 1. क. सर्वोत्तम अवस्था, अर्हत्व - फल की प्राप्ति की अवस्था म्मं द्वि. वि., ए. व. पापुण बोधिञ्च अग्गधम्मञ्च, थेरीगा. 434; अग्गधम्मं पन अरहत्तं सब्बपठमं पटिविहितुं पत्थत्वा अदासि ध. प. अड. 1.56 1.ख. सर्वोत्तम धर्म म्मो प्र. वि. ए. क. - अग्गधम्मो सुदेसितो, थेरगा. 94 2. त्रि. ब. स. [ अग्रधर्मन् ]. वह, जिसका धर्म सर्वोत्तम है या प्रथम है - मा.प्र.वि., ए.व. अग्गधम्मा तथागता, दी. वं. 4.13. अग्गधम्मालङ्कार पु. बर्मा के एक विद्वान का नाम एम. बोडे, बर्मा का पालि साहित्य, पृ. 53. अग्गनख पु. कर्म. स. (अग्रनख नख का अग्रभाग, नखशीर्षखा प्र. वि. द. द. हत्थग्गहणं वा सादियेय्याति हत्थो नाम कप्परं उपादाय याव अग्गनखा, पाचि. 297; खेहि तृ. वि., ब. व. - अग्गनखेहि वीणं वादेन्ती मधुरसरेन गायत्वा तं पलोभेसि, जा. अट्ठ. 4.426.
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अग्गनगर नपुं. कर्म. स. [ अग्रनगर] प्रमुख नगर, प्रधान नगर, नगरों में भव्य नगर रं प्र. वि., ए. व. - इदं अग्गनगरं भविस्सति पाटलिपुत्तं पुटभेदनं महाव. 304; महाराज, तव नगरं सकलजम्बुदीपे अग्गनगरं जा. अड. 4.220. अग्गनङ्गुट्ठ नपुं०, पूंछ का शीर्षभाग, पूंछ का अगला सिरा
पुन सा... गिलनकाले अग्गनमुट्ठ चालेसि ध. प. अ. 1.156. अग्गनिक्खित्त त्रि., [ अग्रनिक्षिप्त], विशेषज्ञ या प्रमुख के रूप में उद्घोषित या मान्यता को प्राप्त सर्वाधिक प्रशंसित, प्रसिद्ध, 'एतदग्गवग्ग' में बुद्ध के द्वारा विशेषज्ञ के रूप में उद्घोषित व्यक्ति द्रष्ट, अ. नि. 1 ( 1 ) 31-37 तो पु. प्र. वि. ए. व. धुतगुणे अग्गनिक्खित्तो . वं. 1.58:त्ता ब. व. ये पन ते... भिक्खू धुतङ्गगुणे अग्गनिक्खित्ता मि. प. 311 क त्रि. ब. स. उपरिवत् का पु.. ब० प्र. वि., ब. व. - अञ्ञे पि अत्थि महाथेरा अग्गनिक्खित्तिका बहु दी. वं. 4.5. अग्गपकतिमन्तु त्रि. ब. स. [ अग्रप्रकृतिमत्]. सर्वोत्तम प्रकृति से युक्त मा पु. प्र. वि. ए. व. एवं अग्गपकतिमा एवं उत्तमसत्तवो, जा. अट्ठ. 5.347.
अग्गपञ्ञत्ति स्त्री. कर्म. स. [ अग्रप्रज्ञप्ति ] प्रधानतासूचक पद महत्तापरिदीपक उपाधि यो प्र. वि. ब. व. - चतस्सो अग्गपञ्ञत्तियो, अ. नि. 1 (2). 20; अग्गपञ्ञत्तियोति
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अग्गपुष्फ
उत्तमपञ्ञतियो अ. नि. अड्ड. 2.253 टि. राहु, मान्धाता, मार, तथागत, इन लोगों की सूची को ही अग्रप्रज्ञप्ति ( अग्गपञ्ञत्ति) कहते हैं. अग्गपण्डित लोकुप्पत्तिप्पकरण नामक ग्रन्थ के लेखक, जम्बुद्वीप में उत्पन्न तथा म्यां मां के अरिमद्दननगर के निवासी एक वैयाकरण का नाम, ग. वं. 64, 67 (रो.).
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अग्गपत्त द्रष्ट. अग्गप्पत्त.
अग्गपद नपुं, कर्म, स. [ अग्रपद] सर्वोच्य शब्द अति उत्तम - वचन, सर्वोच्च -दशा, अत्युत्कृष्ट अवस्था दं प्र० वि. ए. व. देसना हि इध अग्गपदन्ति पि अधिप्पेता स. नि. अट्ठ. 3.151.
अग्गपरिसा स्त्री०, चार परिषदों में से प्रथम - संद्वि. वि., ए. व. अग्गपरिसं सो उपगतो. मि. प. 161. अग्गपवाल नपुं. [अग्रप्रवाल]. पौधे के अग्रभाग की कोपल या अङ्कुर - अल्लसिङ्गन्ति मालुवलताय अग्गपवाल, जा. अट्ठ. 3.344.
अग्गपाद पु.. [अग्रपाद], पाद का अग्रभाग, पैर का अगला भाग- दा प्र० वि०, ब० व. उभो अग्गपादा छिज्जिंसु, ध. प. अड. 2.103.
अग्गपि नपुं. अङ्गुलिशीर्ष का ऊपरी किनारा द्वेसु सप्त. वि., ब.व. ओकासतो अमुलीनं अग्गपिधेसु पतिहिता, विसुद्धि. 1.241. अग्गपिण्ड पु. कर्म. स. [ अग्रपिण्ड ] प्रथम या सर्वोत्तम भोजन, अग्रभोजन नं द्वि. वि. ए. व. अहो वत अहमेव लभेय्यं भत्तग्गे अग्गासनं अग्गोदकं अग्गपिण्डं म. नि. 1.35: भिक्खाचारमग्गे पन अग्गासनअग्गोदकअग्गपिण्डत्थं वुड्डानं पुरतो पुरतो याति खु. पा. अड. 196. अग्गपिण्डिक पु. वह जो सर्वोत्तम देय वस्तुओं को ग्रहण करता है, सर्वोत्तम भोजनपानादि को ग्रहण करने वाला का प्र. वि., ब. व. अथग्गपिण्डिकापीति अथ ते अग्गोदकं अग्गपिण्डं लभन्ता अग्गपिण्डिकापि होन्ति, जा. अट्ठ. 7.79. अग्गपुग्गल पु.. कर्म. स. [ अग्रपुद्गल]. सर्वोत्तम, पुरुषों में उत्तम लो प्र. वि. ए. व. सो सब्बसत्तुत्तमो अग्गपुग्गलो सु. नि. 689; लोके अग्गपुग्गलो बुद्धो जातो. ध. प. अह. 2.63 - लं द्वि. वि., ए. व. - इमेहि अट्ठीहि तमग्गपुग्गलं मि. प. 119.
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अग्गपुप्फ नपुं. कर्म. स. [ अग्रपुष्प ], उत्तम पुष्प, श्रेष्ठ पुष्प अग्गमालं अग्गपुप्फ, जा. अट्ठ. 1.138.
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अग्गयान
अग्गपुफिय अग्गपुप्फिय पु., एक थेर का नाम - आयस्मा अग्गपुफियो
थेरो इमा गाथायो अभासित्थाति, अप. 1.243. अग्गपुरोहित पु., कर्म. स. [अग्रपुरोहित], पुरोहितों में श्रेष्ठ या प्रथम - अहञ्च अग्गपुरोहितो भविस्सामीति, जा. अट्ठ. 6.221. अग्गप्पत्त त्रि., तत्पु. स., पूर्णता या श्रेष्ठता को प्राप्त व्यक्ति - त्ता पु., प्र. वि., ब. व. - न खो, निग्रोध, एत्तावता तपोजिगुच्छा अग्गप्पत्ता च होति सारप्पत्ता च, दी. नि. 3.35; - त्तेन तृ. वि., ए. व. - तेनायं अग्गप्पत्तेन,
अग्गधम्मो सुदेसितो, थेरगा. 94. अग्गप्पसाद पु., कर्म. स. [अग्रप्रसाद], सर्वोत्तम श्रद्धा का विषय या आलम्बन, वह, जिसके प्रति उत्तम श्रद्धा का भाव रखा जाए - दा प्र. वि., ब. व. - इमे खो, भिक्खवे, चत्तारो अग्गप्पसादा, अ. नि. 1(2).41; - टि. बुद्ध, अष्टाङ्गिक-मार्ग, धर्म और सङ्घ इन चारों को चार अग्गप्पसाद कहा गया है, द्रष्ट. अग्गप्पसादसुत्त. अग्गफल नपुं, कर्म. स. [अग्रफल], सर्वोत्तम फल, अर्हत्वफल -- लं द्वि. वि., ए. व. - सूलावुतो अग्गफलं अफस्सयि, पे. व. 603; इमानि अग्गफलं अरहत्तं पापुणन्तस्स निरुज्झन्ति, नेत्ति. 15. अग्गबाहु स्त्री. कर्म. स., प्रकोष्ठ, प्रबाहु, पहुंचा, भुजा का अग्रभाग - द्वि नपुं., भुजा के अग्रभाग की हड्डी-ट्ठीनि प्र. वि., ब. क. - द्वे बाहुट्ठीनि, द्वे द्वे अग्गबाहुटीनि विसुद्धि. 1.244. अग्गबीज नपुं., कर्मस. [अग्रबीज], वह पौधा, जिसे काटकर या टुकड़े-टुकड़े कर रोप कर बढ़ाया जाय, काटकर रोपा गया या बढ़ाया गया पौधा, दी. नि. में वर्णित पांच प्रकार के पौधों में से एक प्रकार का पौधा - सेय्यथिदं - मूलबीजं खन्धबीजं, फळुबीजं अग्गबीजं बीजबीजमेव पञ्चम, दी. नि. 1.57; अग्गबीजं नाम अज्जकं, फणिज्जक, हिरिवेरन्ति एवमादि, दी. नि. अट्ठ. 1.75; तुल. बीजग्ग. अग्गबोधि पु., क. 564-596 ईस्वी में वर्तमान सिंहल के राजा का नाम - अहोसि पुत्तो सीवस्स अग्गबोधि सनामको, चू. वं. 41.70; ख. राजा उदय के अधीन मलय के राज्यपाल का नाम - कतं मलयराजेन अमच्चन अग्गबोधिना, चू. वं. 53.36; - पब्बत त्रि., ब. स., एक तालाब का नाम - मण्डवाटकवापी च कित्तग्गबोधिपब्बता, चू. वं. 60.49. अग्गभक्ख पु., कर्म. स. [अग्रभक्ष्य], उत्तम भोजन, मुख्य भोजन - क्खं द्वि. वि., ए. व. - यस्मा पनाहं एवरूपं
अग्गभक्खं दिस्वापि ... पापं न करोमि, जा. अट्ठ. 7.148. अग्गभत्त नपुं०, कर्म, स., प्रथम भोजन, उत्तम या चुनिन्दा भोजन - त्तं द्वि. वि., ए. व. - भिक्खुना अग्गभत्तं अदत्वा, ध. प. अट्ठ. 1.382; जा. अट्ठ. 1.138; तुल. भत्तग्ग. अग्गभाव पु., कर्म. स. [अग्रभाव], श्रेष्ठता, उत्तमभाव -स्स ष. वि., ए. व. - ... तेरसधुतङ्गधरानं अग्गभावस्स सच्चकारो होतूति, अ. नि. अट्ठ. 1.131; तुल. अनेकग्गभाव. अग्गभिक्खा स्त्री., कर्म. स. [अग्रभिक्षा]. भिक्षा में प्राप्त अभीष्टतम भोजन या यथेच्छित भोजन -क्खं द्वि. वि., ए. व. - यत्थ अग्गभिक्खं पक्खिपित्वा ठपेन्ति .... म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).357. अग्गमग्ग 1. त्रि., [अग्राग्र], हर तरह से उत्तम या श्रेष्ठ - ग्गानि नपुं., वि. वि., ब. व. - ... अग्गमग्गानि भोजनानि देन्ति, पाचि. 311, 313; 2. पु., [अग्रमार्ग], सर्वोत्तम मार्ग, अब तक गृहीत मार्गों की तुलना में अधिक उत्तम - ग्गो पु., प्र. वि., ए. व. - अनागामिनो हि यथा अग्गमग्गो उप्पज्जति, थेरीगा. अट्ठ. 21; - समङ्गी त्रि., बुद्ध के मार्ग की उच्चतम अवस्था अर्थात् अर्हत्व को प्राप्त - अग्गमग्गसमङ्गी वेदनाक्खन्धं न परिजानिस्सति, यम. 1.105. अग्गमहेसी स्त्री., कर्म. स. [अग्रमहिषी], पटरानी, प्रमुख पत्नी, प्रधान रानी - सी प्र. वि.. ए. व. - एसा ... इत्थी कलिङ्गस्स रो अग्गमहेसी अहोसि, स. नि. 1(2).236; - सिया त. वि., ए. व. - सा ... धनञ्जयसेट्टिनो अग्गमहेसिया सुमनदेविया कुच्छिम्हि निब्बत्ति, ध. प. अट्ठ. 1.216; ... बोधिसत्तो रुओ अग्गमहसिया कुच्छिम्हि निब्बत्तो, जा. अट्ठ. 1.254; - सिट्ठान नपुं.. तत्पु. स., प्रधान पत्नी अथवा रानी के रूप में स्थान या पद - पञ्च ते इत्थिसतानि परिवार दत्वा अग्गमहेसिट्टानं दस्सामी ति, ध. प. अट्ठ. 1.113; - सित्त नपुं., भाव. [अग्रमहेषित्व], प्रधान पत्नी अथवा रानी होने की अवस्था - ... रुओ चन्दपज्जोतस्स अग्गमहिसित्तं पत्ता, मि. प. 269, (पाठा. अग्गमहेसिट्ठान); - भाव पु.. उपरिवत् - स्स ष. वि., ए. व. - सा एकदिवसं द्विन्न राजूनं अग्गमहेसिभावस्स सपिने निमित्तं दिस्वा.... जा. अट्ठ. 5.440. अग्गमाला स्त्री., कर्म. स. [अग्रमाला], उत्कृष्ट माला, श्रेष्ठ माला -लं द्वि. वि., ए. व. - यथा सो अग्गमाल अग्गपुष्फ
अग्गभत्तञ्च लभति ..., जा. अट्ठ. 1.138. अग्गयान नपुं, कर्म. स. [अग्रयान], प्रधान यान, प्रधान
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अग्गयोध
वाहन, शाही हाथी, प्रधान-कुञ्जर अग्गयानं राजवाहि
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ब्राह्मणानं अदा गज, जा. अट्ठ. 7.239; 274. अग्गयोध पु. कर्म. स. [ अग्रयोद्धा ] प्रधान-योद्धा, मुख्य सैनिक या सिपाही स्सष. वि., ए. व. योधानं अग्गयोधस्स सीसच्छिन्नासिधोवन, म. दं. 22.44. अग्गरतन नपुं., कर्म. स. [ अग्ररत्न ], बहुमूल्य रत्न, महार्घ रत्न. त्रिरत्न नं हि. वि. ए. व. अग्गरतनं पयच्छेति असोकं मम सहायक दी. वं. 11.28. अग्गरम्ह त्रि. गरव्ह का निषे [ अगर्ह्य] 1. अनिन्दनीय, प्रशंसनीय, श्लाघ्य तदग्गरम्हहि विनिन्दमानो, जा. अड. 7.46; 2. यह शब्द संभवतः अग्ग + अरम्ह (= अर्ह्य) रूप में भी निष्पन्न कहा जा सकता है तथा अत्यन्त पूजनीय या अग्रगण्य अर्थ का प्रकाशक है.
अग्गरस पु.. कर्म. स. [ अग्ररस] प्रणीत रस उत्तम या श्रेष्ठरस, निर्वाणरस - संद्वि. वि., ए. व. - धोरम्हसीली च कुलम्हि जातो, न मज्जती अग्गरसं पियित्वा जा. अड. 2.80 घ. प. अ. 1,334 परिचित्त त्रि. [परितृप्त ], उत्तम रस या निर्वाणरस से छका हुआ या परितृप्त - तो पु०, प्र वि. ए. व. पुरिसो अग्गरसपरितित्तो न अज्ञेस हीनानं रसानं पिहेति, अ. नि. 2 ( 1 ) 218 - टि. भोज्य पदार्थों में खीर, तरल पदार्थों में गोघृत, कसैले पदार्थों में क्षुद्रक मधु मीठे पदार्थों में शर्करा अग्ररस माने गये हैं- भोजनरसेसु पायासों स्नेहसेसु गोसष्टि कसावररोसु खुदकमधु अनेलक मधुररसेसु सक्कराति एवमादयो अग्गरसा नाम, अ. नि. अड. 3.71. अग्गराज पु०, कर्म. स. [ अग्रराजन् ], सर्वोपरि राजा, अधिराज, अधीश्वर, मूर्द्धाभिषिक्त राजाज्ञो ष. वि. ए. व. हंसान अभिहारेसु अग्गरज पवासितन्ति जा. अड. 5373 - जाप्र. वि. ए. व. त्वंसि महाराज, सकलजम्बुदीपे अग्गराजा, मि. प. 24.
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अग्गरूप नपुं., कर्म, स. [ अग्ररूप] अतीव सुन्दर वस्तु अतिशय शोभन पदार्थ, द्रष्ट. स. उ. प. के रूप में, सुत्त. के अन्त..
अग्गल / अग्गळ नपुं० [अर्गल, अर्गला, अर्गली, बौ. सं. अगड] 1. अगड़ी, किल्ली दरवाजे को बन्द करने वाली लकड़ी, सिटकिनी, - महत्लक... बिहार कारयमानेन यावद्वारकोसा अग्गलड़पनाय..... पाचि 69: - ळानि प्र. वि. ब. व. एसिका परिखायो च पलिखं अग्गळानि च जा. अ. 7.167; 2. कपड़ों पर लगा पैबन्द, थिगली, धकती लंद्वि. वि. ए. व. अब खो सो भिक्खु अग्गलं
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अग्गल
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अच्छुपेसि, महाव. 380, अग्गळं अच्छुपेय्यन्ति छिट्टाने पिलोतिकखण्डं लग्गापेय्य, महाव. अट्ठ. 385; उद्धरित्वा अल्लीयापनखण्ड अग्गळं तदे लन्तरिका स्त्री किवाड की दरार - अग्गळन्तरिकाय च अच्चि निक्खमित्वा तिणानि झापेसि, स. नि. 2 ( 2 ) 282 लादिदान नपुं चिगली या पैबन्द आदि जोड़कर मरम्मत करना अग्गळादिदाने हिस्स तं पलिबोधकर होति. म. नि. अड. (मू.प.) 1(1). 275; - गुत्ति स्त्री.. [अर्गलगुप्ति ] अर्गला या चटखनी के द्वारा की गई सुरक्षा अग्गळगुत्तिविहारोति... अग्गळगुत्तियेव पमाणं, महाव. अट्ठ. 386; गुत्तिविहार पु.. अर्गला, सिटकिनी या चटखनी के प्रयोग द्वारा सुरक्षित विहार अग्गलगुत्तिविहारो वा होति... महाव. 390: झपन नपुं. [ अगडस्थापन ] द्वार की अर्गला या सिटकिनी का स्थापन या नियोजन नाय च. वि. ए. व. अग्गलद्वपनायाति द्वारद्वपनाय, पाचि. 70; थम्म पु० [ अर्ग स्तम्भ, अर्गलास्तम्भ ], किवाड़ के पीछे लगा हुआ काठ, द्वार में नियोजित अर्गला का खम्भा या खूंटा कपिसीसो अग्गलत्थम्भो, अभि. प. 217 थम्भक पु.. खिड़की, खिड़की में लगाया जाने वाला अर्गला का खूंटा या खम्मा - अम्हाकं गज्झे अग्गळत्थम्भको ठितो. खु. पा. अनु. 41; - दान नपुं. पैवन्द को लगाना, अर्गला को बैठाना जिण्णस्स हि तुन्नं वा अग्गलदान वा कातब्बं होति. जा. अड. 1.11 पासक [अर्द्धमा अग्गलपासग], दरवाजे को बन्द करने के लिए लगायी गयी अगड़ी, अर्गला का चतुर्भुजीय छोर कपिसीसके नाम द्वारवाहं विज्ञिात्वा तत्थ पवेसितो अग्गळपासको वुच्चति चूळव, अड्ड. 51 पुर नपुं. एक नगर का नाम आयस्मा रेवतो उदुम्बरा अग्गळपुरं अगमासि, चूळव. 469: फलक नपुं०, द्वार का फलक, दरवाजे की पट्टी या तख्ता के सप्त. वि. ए. व.
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पुरिसो लहुकं सुत्तगुळं सब्बसारमये अग्गळफलके पक्खिपेय्य, म. नि. 3.139; रुक्ख पु. दरवाजे की सिटकिनी या चटखनी क्खं द्वि. वि. ए. व. कपिसीसन्ति द्वारबाहकोटियं ठितं अग्गळरुक्खं दी. नि. अ. 2.157 - ट्टि स्त्री. [ अर्गलिवर्त्तिका] अर्गला के लिए खम्भा या खूटा - अनुजानामि, भिक्खदे, कवाट - उत्तरपासक अग्गळवट्टिक चूळव. 238; - वट्टिकरण नपुं., अर्गला के रूप में प्रयुक्त खूंटे का निर्माण - अग्गळवट्टिकरणमत्तेनपि नवकम्णं देन्ति, चूळव 303 सीस नपुं. दरवाजे की अर्गला का चतुर्भुजीय छोर भगवति परिनिब्वायन्ते
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अग्गवती
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अग्गलसीसमोलुव्ह ठत्वा आनन्दस्स रोदिताधिकारं व. म. वं. टी. 506; - सूचि स्त्री०, द्वार की सिटकिनी की सुरक्षा के लिए लगायी गयी कील या खूंटी या कुञ्जी - चिं द्वि० वि. ए. व. अग्गळसूचि गहेत्वा सीसे पहारं अदासि, म. नि. 1.178. अग्गवती स्त्री. [अग्रवती ]. प्रथम वर्ग की श्रेष्ठ, उत्तम मनुष्यों वाली कतमा च भिक्खने, अग्गवती परिसा, अ. नि. 1 (1).87; अग्गवतीति उत्तमपुग्गलवती, अग्गाय वा उत्तमाय वा पटिपत्तिया समन्नागता, अ. नि. अट्ठ. 2.44; विलो. अनग्गवती.
अग्गवंस पु०, सद्द, के लेखक, 1154 ईस्वी में वर्तमान प्रख्यात बर्मी वैयाकरण का नाम ततिय-अग्गपण्डितो पन अग्गवंसो ति पि वोहारीयति, सा. वं. 71; अग्गवंसो नाम थेरो सद्दनीतिपकरणं अकासि, सा. वं. 70-71. अग्गवन्दन नपुं. [अग्रवन्दन] प्रातःकालिक प्रथम अभिवादन या नमस्क्रिया प्रातःकालिक प्रथम नमन नं द्वि. वि. ए. व.- जेतवनसमीपे तित्थियारामे वसित्वा पातोव अग्गवन्दनं वन्दिस्साम जा. अड्ड. 4.167, स्त्री अग्गवन्दना. अग्गवर त्रि, श्रेष्ठतम अग्रतम, सर्वोत्तम गच्छन्तु अग्गवरं सहदस्सन, दी. वं. 6.68.
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32
अग्गवाद पु., [अग्रवाद ], मूल सिद्धान्त, उत्तम - सिद्धान्त (थेरवाद के विशे. के रूप में प्रयुक्त)- सब्बोपि सो थेरवादो अग्गवादोति वुच्चति, दी. वं. 4.13, 5.14; तुल० 5.52. अग्गवादी त्रि, उत्तम वाद को कहने वाला, परमार्थसत्य का प्रकाशक- दिनो दायादको हेहिसि ..... अग्गवादिनो, थेरगा० 1145. अग्गसन्तिके अ० श्रेष्ठ व्यक्ति से अग्गसन्तिके गहेत्वा
अग्गधम्मा तथागता, दी. वं. 4.13. अग्गसभाव त्रि.. ब. स. [ अग्रस्वभाव] उत्तम प्रकृति वाला, श्रेष्ठ स्वभाव वाला अग्गपकतिमाति अग्गसभावो, जा.
अट्ठ. 5.347.
अग्गसस्स नपुं, कर्म. स. [ अग्रशस्य ] उत्तम फसल अच्छी कृषि या पैदावार - अग्गसस्स अभिनिप्फन्न मि. प. 8: • दान नपुं, तत्पु० स., उत्तम कृषि उत्पादों अथवा खाद्यान्नों का दान गामवासीहि सद्धिं अग्गसस्सदानं नाम अदासि, ध. प. अट्ठ. 1.57. अग्गसाखा स्त्री. तत्पु. स. [ अग्रशाखा ] वृक्ष अथवा पौधे का शीर्ष भाग, सब से ऊपर वाली शाखा - तस्मिं समये मूलतो पट्ठाय याव अग्गसाखा सब्बं एकपालिफुल्लं अहोसि जा. अट्ठ. 1.63.
अग्गाळव
अग्गसावक पु. कर्म. स. [ अग्रश्रावक]. बुद्ध के प्रधान शिष्य, परम्परा में सभी बुद्धों के दो प्रधान शिष्य बतलाये गये हैं, गौतम बुद्ध के दो अग्रश्रावक के रूप में सारिपुत्त एवं मोग्गल्लान के नाम उल्लिखित एते भिक्खवे द्वे सहायका आगच्छन्ति कोलितो च उपतिस्सो च एतं मे सावकयुगं भविस्सति अग्गं महयुगन्तिं थ. प. अड्ड. 1.56 अग्गसावको उपतिस्सो नाम थेरो, दुतियसायको कोलितो नाम, जा. अड. 1.19 द्वान नपुं, कर्म, स., प्रधान शिष्य के रूप में स्थान द्विन्नं थेरानं अग्गसावकट्ठानं दत्वा पातिमोक्ख उदिसि प. प. अनु. 1.56 - वत्थु ध. प. अड. की एक कथा का शीर्षक थ. प. अड्ड. 1.49-66 तुल सावकरण एवं सावकयुग.
·
अग्गसाविका स्त्री. [अग्रश्राविका] बुद्ध की प्रथम या प्रधान स्त्री-शिष्याएं - खेमा उप्पलवण्णाति द्वे अग्गसाविका, ध. प. अड. 1. 193 अग्गसाविका खेमा नाम थेरी दुतियसाविका उप्पलवण्णा नाम थेरी भविस्सति, जा. अट्ठ. 1. 19-20. अग्गसिस्स पु. कर्म. स. [ अग्रशिष्य ] प्रथम या ज्येष्ठतम शिष्य, प्रधान शिष्य अहं पोक्खरसातिस्स जेद्वन्तेवासी अग्गसिस्सो. सु. नि. अ. 2.167.
अग्गसुञ्ञ नपुं., कर्म, स. [ अग्रशून्य], निर्वाण, अमृतपद अग्गमेतं पदं सेट्ठमेतं पदं ... यदिदं ... तण्हक्खयो विरागो निरोधो निब्बानं इदं अग्गसुज्ञ पटि. म. 354. अग्गसेडि पु. कर्म. स. [ अग्रश्रेष्ठिन् ] प्रधान व्यापारी, प्रमुख श्रेष्ठी इमरिगंयेव नगरे अग्गसेहि अभविस्स. ध. प. अ.
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2.72.
अग्गहित / अग्गहीत त्रि. गह (गण्ड) के भू. क. कृ. का निषे [ अगृहीत ], वह जिसे ग्रहण नहीं किया गया है, पकड़ा नहीं गया है तो पु. प्र. वि. ए. व. असि कोसिया पक्खित्तो अग्गहितो हत्थेन उस्सहति छेज्जं छिन्दितुं मि. प. 92.
अग्गा अ अग्ग का प. वि. प्रतिरू, निपा, छोर तक अन्त तक, अग्रभाग तक तानि याव चग्गा याव च मूला सीतेन वारिना अभिसन्नानि..., दी. नि. 1.66. अग्गामा स्त्री. तत्पु. स. [ अग्न्याभा] अग्नि की आभा, अग्नि का प्रकाश, आग की चमक- चन्दाभा, सूरियाभा, अग्गाभा, इमा खो, भिक्खवे, चतस्सो आभा, अ. नि.
पञ्ञाभा 1(2).160. अग्गाळव पु० / स्त्री० / नपुं अग्ग + आळवी, अग्ग + आळवक, आलवी - जनपद में विद्यमान एक प्रमुख चैत्य, जो कालान्तर में विहार के रूप में परिणत हो गया वे नपुं०, सप्त, वि०,
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अग्गि
अग्गालोक ए. व. - अग्गाळवे चेतियेति आळवियं अग्गचेतिये. स. नि. अट्ठ. 2.71; स. नि. अट्ठ. 1.236; ... आळवियं विहरति अग्गाळवे चेतिये, स. नि. 1(1).215; ... आळविनगरं उपनिस्साय अग्गाळवे चेतिये .... जा. अट्ठ. 1.163; 2.235; इमं धम्मदेसनं सत्था अग्गाळवे चेतिये विहरन्तो एक पेसकारधीतरं आरब्भ कथेसि.ध. प. अट्ठ.2.97; - विहार पु., आळवी-जनपद में स्थित उत्तम विहार अथवा अग्गाळव नामक विहार -रं वि. वि., ए. व. - अनुपुब्बेन अग्गाळवविहारं अगमासि, ध. प. अट्ठ. 2.98. अग्गालोक पु., तत्पु. स. [अग्न्यालोक]. अग्नि का प्रकाश, अग्नि की दीप्ति या कान्ति, आग की चमक - को प्र. वि., ए. व. - चन्दालोको, सूरियालोको, अग्गालोको, पञआलोको - इमे खो, भिक्खवे, चत्तारो आलोका, अ. नि. 1(2).160. अग्गासन नपुं.. कर्म. स. [अग्रासन], सम्मान का आसन, संघस्थविर का आसन, उत्तम आसन, श्रेष्ठ आसन - नं द्वि. वि., ए. व. - ... न अओ भिक्खु लभेय्य भत्तग्गे अग्गासनं अग्गोदकं अग्गपिण्डं ..., म. नि. 1.35; अग्गासनन्ति सङ्घत्थेरासन, म. नि. अट्ठ. 1(1).155. अग्गासनिय त्रि., श्रेष्ठ या प्रधान आसन पाने योग्य, सम्माननीय -स्स पु.. ष. वि., ए. व. - .. सावत्थियं महाकोसलरओ अग्गासनियस्स ब्राह्मणस्स पुत्तो हत्वा निब्बत्ति ..., थेरगा. अट्ठ. 1.75. अग्गि पु., प्र. वि., ए. व. [अग्नि], शा. अ. अग्नि, आग । - हुतावहो अच्चिमा धूमकेत्वग्गि गिनि भानुमा, अभि. प. 34; जायेय्य सो अग्गी ति, मि. प.54; अग्गीव दड्ड अनिवत्तमानो, सु. नि. 62; - ग्गिं द्वि. वि., ए. व. - दारूनि मे आहरित्वा अग्गिं करोही ति वदेय्यासि, जा. अट्ठ. 2.84; पर्याय के लिये द्रष्ट. अभि. प. 33-34; ला. अ. 1. चिता की अग्नि - अहं तुम्हे ठपेत्वा ... अग्गिं पविसित्वा तुम्हे सद्दहापेस्सामी ति, जा. अट्ठ. 1.283; ला. अ. 2. अग्नि के समान चित्त को जलाने वाले क्लेश, अनुशय, राग, द्वेष आदि - नत्थि रागसमो अग्गि, ध. प. 202, 251; रागग्गि, दोसग्गि, मोहग्गि इमे खो, भिक्खवे, तयो अग्गी ति, इतिवु. 663 ला. अ. 3. यज्ञ की अग्नि, यज्ञाग्नि - अग्गिकभारद्वाजस्स ब्राह्मणस्स निवेसने अग्गि पज्जलितो होति, सु. नि. 103; गाहपच्चावहणीयो दक्खिणग्गि तयोग्गयो, अभि. प. 419; ला. अ. 4. देवता के रूप में आराध्य-अग्नि - त्वं अग्गिं आदाय ... अग्गिं भगवन्तं नमस्समानो ब्रह्मलोकपरायणो होहि, जा. अट्ठ. 1.275; स. उ. प. में द्रष्ट. अति., अन.,
अन्तो., अवीचि., असनि., अहापित., आहवनीय., आहनेय्य., आहुट., इन्द., उदर, इत्यादि के अन्तः; - उट्ठानकाल पु., वह क्षण, जब कोई वस्तु आग पकड़ती है, आग लगने का समय - लो प्र. वि., ए. व. - पक्खसन्धीसु अग्गिउट्ठानकालो विय अहोसि, जा. अट्ठ. 4.191; - क' त्रि., [अग्निक], अग्नि की पूजा करने वाला, ('जटिल' के विशे के रूप में प्रयुक्त) - को पु., प्र. वि., ए. व. - अथ
खो सो अग्गिको जटिलो कालस्सेव वुट्ठाय येन सो सत्थवासो तेनुपसङ्कमि, दी. नि. 2.252; अग्गिकोति अग्गिपरिचारको, दी. नि. अट्ठ. 2.361; - क. पु., व्य. सं. - अग्गिकभारद्वाज ब्राह्मणं एतदवोच, सु. नि. 103; - कसुत्त नपुं., स. नि. के एक सुत्त का शीर्षक, स. नि. 1(1).1933; - कपल्ल नपुं.. अग्नि-कटाह, आग की कड़ाही - ल्लानि प्र. वि., ब. व. - अथस्स हेट्ठामञ्चके अग्गिकपल्लानि उपयिंस, जा. अट्ठ. 6.9; - क-भारद्वाज पु., श्रावस्ती के एक ब्राह्मण का नाम, जिसको भगवान् बुद्ध ने बुद्धधर्म में दीक्षित किया था - अग्गिं जहति परिचरतीति कत्वा अग्गिकोति नामेन पाकटो अहोसि, भारद्वाजोति गोत्तेन, सु. नि. अट्ठ. 1.139]; - कभारद्वाज-जातक नपुं.. जा. अट्ट की एक कथा का शीर्षक, जा. अट्ठ. 1.441; - क-सुत्त नपुं.. सु. नि. के प्रथम वग्ग (उरगवग्ग) के सातवें सुत्त का शीर्षक, इसका दूसरा नाम वसलसुत्त भी है, सु. नि. 103-106; - करणीय नपुं.. अग्नि के द्वारा करने योग्य ठण्ड हटाने एवं गर्मी उत्पन्न करने के काम - यं द्वि. वि., ए. व. - तेन च सक्का अग्गिना अग्गिकरणीयं कातुं, म. नि. 2.367; अग्गिकरणीयन्ति सीतविनोदनअन्धकारविधमनभत्तपचनादिअग्गिकिच्चं, म.नि. अट्ठ. (म.प.) 2.288; - खन्ध पु.. [अग्निस्कन्ध], आग की धधकती लपटों का समूह, अग्निज्वालाप्रचय - न्धो प्र. वि., ए. व. - महाअग्गिक्खन्धो तदाहारो तदुपादानो चिरं दीघमद्धानं जलेय्य, स. नि. 1(2).76; - न्धं द्वि. वि., ए. व. - अहसा खो भगवा ... महन्तं अग्गिक्खन्धं आदित्तं सम्पज्जलितं सजोतिभूतं, अ. नि. 2(2).258; - खन्धुपम त्रि., जलती या दहकती हुई अग्निराशि के समान, प्रज्वलित अग्निस्कन्ध के समान - मा पु.. प्र. वि., ब. व. - कामा अग्गिक्खन्धूपमा दुखा, थेरीगा. 353; - मे द्वि. वि., ब. व. - अग्गिक्खन्धूपमे धम्मपरियाये, मि. प. 162; - खन्धोपमसुत्त नपुं., अ. नि. के एक सुत्त का शीर्षक, अ. नि. 2(2).258; - गत त्रि., [अग्निगत], आग के ऊपर विन्यस्त या रखा हुआ, आग में गिरा हुआ - तं नपुं., प्र.
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अग्गि
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अग्गि
वि., ए. व. - किस्स पन अग्गिगतं चलति खब्मति लुळति आविलति ऊमिजातं होति, मि. प. 243; - तो पु., प्र. वि., ए. व. - अकाले मरति, अग्गिगतो, मि. प. 278; - गवेसी त्रि., [अग्निगवेषिन्], अग्नि का गवेषक, आग की गवेषणा या खोज करने वाला, अग्निपर्येषक - सी पु., प्र. वि., ए. व. - सेय्यथापि, भूमिज, पुरिसो अग्गित्थिको अग्गिगवेसी अग्गिपरियेसनं चरमानो ..., म. नि. 3.181; - ज त्रि., [अग्निज]. अग्नि से उत्पन्न आग की लपटें - काळा निदाघेरिव अग्गिजारिव, जा. अट्ठ. 5.399; अग्गिजारिवाति अग्गिजाला इव, तदे; - जालन नपुं., अग्नि का जलाना या सुलगाना, अग्नि को उत्तेजित करना, आग के द्वारा तापन- तथा जन्ताघरे बुड्ढे चेत्थ अनापच्छा अग्गिजालनादीनि करोति, खु. पा. अट्ठ. 196; - जाला स्त्री., [अग्निज्वाला]. 1. एक पौधे का नाम, घातकीवृक्ष - अग्गिजाला तु घातकी, अभि. प.589; 2. अग्निशिखा, ज्वाला, लपट, आग की लौ - लं द्वि. वि., ए. व. - अग्गिजालं विय लोहितधारं उग्गिरमानं तस्स मुखं दिस्वापि ... जा. अट्ठ. 1.41; - हि तृ. वि., ब. व. - वेदनाहि अग्गिजालाहि विय परिडरहमानस्स. ध. प. अट्ठ. 1.266; - जुहन नपं., अग्निहोम, अग्नि में हवि प्रदान, अग्नि में आहुति अर्पण - नं द्वि. वि., ए. व. - इदं सत्था जेतवने विहरन्तो अग्गिजुहनं आरम कथेसि, जा. अट्ठ. 2.35; - जुहनकटच्छु पु., अग्नि में आहुति डालने की डोई - अग्गिहत्तन्ति अग्गिजुहनकटच्छु जा. अट्ठ. 7.288; - झापनतल नपुं., म्यां-मां के एक स्थान का नाम - तं पिठानं यावज्जतना, अग्गिझापनतलं ति पाकटं सा. वं. 57; -ट्ठ नपुं, स्त्री॰ [अग्निस्थ], अग्निस्थान, अग्निकुण्ड, अग्निशाला - अग्गिटुं परिमज्जन्तं, ... अग्गिट्ठन्ति अग्गिसालं, जा. अट्ठ. 5.149;-द्वान [अग्निस्थान], उपरिवत् - तेन खो पन समयेन भिक्खू खुद्दके जन्ताघरे मज्झे अग्गिवानं करोन्ति, चूळव. 239; - त्थिक त्रि., [अग्न्यर्थिक]. अग्नि की इच्छा रखने वाला, अग्निगवेषी, अग्निपर्येषक - को पु.. प्र. वि., ए. व. - पुरिसो अग्गित्थिको अग्गिगवेसी अगिपरियेसनं चरमानो, म. नि. 3.181; - दड्ड त्रि., [अग्निदग्ध], आग से जला हुआ - ड्ढो पु., प्र. वि., ए. व. - अग्गिदड्डोव तप्पति,ध, प. 136; अग्गिदडोव आतपे, जा. अट्ट, 6.263; - दत्त पु., [अग्निदत्त], 1. ककुसन्ध-बुद्ध के एक ब्राह्मण-पिता का नाम - ककुसन्धस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स अग्गिदत्तो नाम ब्राह्मणो पिता अहोसि. दी. नि. 2.6; 2. एक भिक्षु का नाम, जिसको थेरगा. के
गहवरतीरियत्थेरगाथा का रचयिता कवि माना गया है - ब्राह्मणकुले निब्बत्तित्वा अग्गिदत्तो ति लद्धनामो .... थेरगा. अट्ठ. 1.95; 3. वाराणसी के एक ब्राह्मण का नाम - अतीते किर वाराणसियं अग्गिदतस्स नाम ब्राह्मणस्स, ध. प. अट्ठ. 2.68; 4. कोशल के राजा के पुरोहित का नाम - सो किर महाकोसलस्स पुरोहितो अहोसि, ध. प. अ. 2.139; - दत्तब्राह्मणवत्थु नपुं, ध. प. अठ्ठ. की एक कथा का शीर्षक,ध. प. अट्ठ.2.139-142; - दाह/डाह पु.. अग्नि का प्रकोप, अग्निदाह, अग्नि के प्रज्वलन की उत्तेजना, प्रज्वलन वाली आग, अग्निकाण्ड - होति सो, भिक्खवे, समयो यं महाअग्गिडाहो वुढाति, अ. नि. 1(1).206; - देव पु., 1. उत्तरमधुरा के राजा उपसागर से उत्पन्न देवगर्भा के पांचवें पुत्र का नाम, एक राजकुमार का नाम - देवगब्भाय .... पञ्चमो अग्गिदेवो ... अहोसि, जा. अट्ठ. 4.72; पे. व. अट्ठ. 82; 2. अग्निदेव, अग्निदेवता - वरतोति वरस्स अग्गिदेवस्स यजित्वा, जा. अट्ठ. 7.48; 3. एक चक्रवर्ती राजा का नाम- इतो एकादसे कप्पे, अग्गिदेवोति विस्सुतो, अप. 1.222; - नि पु., क. व्या. के अनुसार केवल प्र. पु.. ए. व. में प्रयुक्त [अग्नि]. आग - पुरतो अग्गिनि पच्छतो अग्गिनि, क. व्या. 95, तुल. गिनिः; - निकासी त्रि., अग्नि अथवा ऊष्मा के कारण देदीप्यमान अर्थात् सूर्य - सिना पु.. त. वि., ए. व.- अग्गिनिकासिफालिमन्ति अग्गिनिकासिना सूरियेन फालितं विकसितन्ति अत्थो, जा. अट्ठ. 3.281; - निकासि-फालिम त्रि., सूर्योदगमन के समय खिलनेवाला, धूप में प्रस्फुटित होनेवाला - मं नपुं., प्र. वि., ए. व. - पदुमं यथा अग्गिनिकासिफालिम, जा. अट्ठ. 3.281; - निब्बान नपुं.. आग को बुझाना, आग को शान्त करना - नं प्र. वि., ए. व. - दहनं अग्गिनिब्बानं तत्थ सक्कारमेव च, म. वं. 30.86; - निब्बापन प., एक चक्रवर्ती का नाम - अग्गिनिब्बापनो नाम ... चक्कवत्ती महब्बलो, अप. 1.160%; -निसम त्रि., अग्नि के समान प्रज्वलित - मासु स्त्री., सप्त. वि., ब. व. - पच्चन्ति हितास चिररत्तं अग्गिनिसमास समुप्पिलवाते, सु. नि. 675; अग्गिनिसमासूति अग्गिसमासु, सु. नि. अट्ठ. 2.181; - पक्किक त्रि., तत्पु. स. [अग्निपक्वक], अग्नि के द्वारा पकाये हुए पर आश्रित रहने वाला - का पु., प्र. वि., ब. व. -- अग्गिपक्केन जीवन्तीति अग्गिपक्किका, लीन. (दी.नि.टी.) 1.271; - पज्जोत पु.. [अग्निप्रद्योत], आग का प्रकाश - ... अग्गिपज्जोतो, पञआपज्जोतो, अ. नि. 1(2).161; - पदित्त त्रि.,
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अग्गि
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[अग्निप्रदीप्त ], अग्नि के द्वारा प्रदीप्त, आग के द्वारा ऊष्णीकृत या दहकाया गया तानि नपुं. प्र. वि., ए. व. महाराज, तेन हि किलेसकण्डेन हदये विद्धकालतो पट्ठाय मम अग्गिपदित्तानिव सब्धानि अङ्गानि म्हन्तीति दस्सेति, जा. अड. 2.230; - पपटिका स्त्री० [अग्निपर्परीका ], आग की चिनगारी, अग्निस्फुलिङ्ग आग की पपड़ी के द्वि. वि. ए. व. खज्जोपनकमतं अग्गिपपटिक, अ. नि. अड. 1. 38 (रो.), खज्जूपनकमत्ता अग्गिपपटिका, म. नि. अह 2 139 (रो० ); परिचरक / परिचरणक त्रि.. [अग्निपरिचारक ], यज्ञीय अग्नि का रक्षक या पहरेदार, अग्नि की परिचर्या या सेवा करने वाला णका पु. प्र. वि. ब. व. - अग्गिकाति अग्गिपरिचरणका, महाव. अट्ठ. 263; परिचरणट्ठान नपुं. अग्नि की परिचर्या का स्थान अत्तनो पत्तचीवरमादाय तस्स बहिनिगमे अग्गिपरिचरणद्वानं अगमासि ध. प. अ. 1.115 परिचारिक त्रि. वह, जो यज्ञाग्नि की परिचर्या या पूजा करता है, अग्निपूजक का फु. प्र. वि. व. क. ब्राह्मणा, भन्ते पच्छाभूमका कामण्डलुका अग्गिपरिवारका स. नि. 2 ( 2 ) 200 परिचित त्रि. [ अग्निपरिचित], आग से जला हुआ, आग से अभिभूत, अग्निदग्ध - तं पु०, द्वि. वि., ए. व. - अनुजानामि, भिक्खवे, पञ्चहि समणकप्पेहि फल परिभुज्जितुं अग्गिपरिचितं
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चूळव. 226 परियेसन नपुं. [अग्निपर्येषण] आग की खोज, आग की गवेषणानं द्वि. वि. ए. व. - सेय्यथापि, भूमिज, पुरिसो अग्गित्धिको अग्गिगवेसी अग्निपरियेसनं चरमानो म. नि. 3.181; पाक त्रि. ब. स. [अग्निपाक], अग्नि के द्वारा पकाया हुआ को प्र. कि.. ए. व. एत्थ मधुकपुप्फरसो अग्गिपाको वा होतु आदिव्यपाको वा महाव. अड. 361 पाकी त्रि, तापसों का एक वर्ग अग्गिपाकी अनग्गी च दन्तोदुक्खलिकापि च अप. 1.15 पारिचरिया स्त्री [अग्निपरिचर्या ], अग्नि की परिचर्या या सेवा यज्ञीय अग्नि की परिचर्या ब्राह्मण वस्ससतम्पि एवं अग्गिं परिचरन्तस्स तव अग्गिपारिवरिया गम सावकरस तङ्गणमत्तं पूजम्पि न पापुणाति घ. प. अड. 1.375; यं द्वि. वि. ए. व. अग्गिपारिचरियञ्च अनभिसम्भुणमानो दी. नि. 1.89 पूजोपकरण नपुं.. अग्निपूजा के उपकरण, अग्निपूजा की सामग्री, यज्ञ के समस्त उपकरण, द्रष्ट, अग्गिहुत्तमिस्स ब्रह्मा पु. व्य. सं. [अग्निब्रह्मन्], अशोक के भाञ्जे का नाम, जो सङ्घमित्ता (सङ्घमित्रा ) का पति था तस्सा च सामिको अग्गिब्रह्मा नाम
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अग्गि
कुमारों पारा अट्ठ. 1.37; भागिनेय्यो नरिन्दस्स अग्गिब्रह्माति विस्सुतो म. वं. 5.169,201 भय नपुं. अग्गिभयं, [ अग्निभय] अग्नि का भय, आग का डर उदकभयं राजभयं, चोरभयं इमानि खो, भिक्खये चत्तारि भयानि, अ० नि० 1 (2). 138; अग्गिभयन्ति अग्गिं पटिच्च उप्पज्जनकभयं अ. नि. अट्ठ. 2.326 - भाजन नपुं.. [अग्निभाजन), अग्नि कुण्ड, अग्नि रखने का पात्र, आग वाली अंगीठी नानि प्र. वि. ब. व. मन्दामुखियोति अग्गिभाजनानि युच्चन्ति महाव, अट्ठ 242 मन्थ पु.. [अग्निमन्ध] कणिका नामक वह वृक्ष, जिसकी लकड़ी को रगड़ कर आग पैदा की जाती है अग्गिमन्धो कणिका भवे अभि. प. 574 माली पु.. एक पौराणिक या कल्पित समुद्र का नाम लिं द्वि. वि. ए. व. नावा तं समुद्द अतिक्कमित्वा पुरतो अग्गिमालिं नाम गता, जा. अड्ड. 4. 127; - मित्ता स्त्री०, व्य. सं. [अग्निमित्रा ] एक भिक्षुणी का नाम, जो सङ्घमित्ता के साथ श्रीलंका (सिंहल ) गयी थी हेमा व मासगल्ला व अग्गिमित्ता मितावदा दी. नं. 15.78; 18.11 - मुख नपुं. प्रायः केवल सप्त. वि., ए. व. में ही प्रयुक्त, आग की भट्टी में तेजोधातुष्पकोपेन, होति अग्गिमुखेव सोति सु. नि. अनु. 2.162: ध. स. अड्ड. 336; मुख' पु. एक प्रकार का विषधर सांप खेन तृ. वि. ए. व. संततो भवति कायो, दट्टो अग्गिमुखेन वा ध. स. अड. 336 - यायन नपुं. [ अग्न्यायतन ] यज्ञाग्नि के रखने का गृह, अग्निशाला, अटसासि हरितरुक्खे, समन्ता अग्गियायनं, जा. अट्ठ. 5.153; अग्गियायनसङ्घातं अग्गिसालं समन्ता परिवारेत्वा जा. अ. 5.154 वच्छगोत्तसुत्त नपुं. म. नि. के 62वें सुत्त का शीर्षक, म. नि. 2.160, 166; वडमानक त्रि श्रीलंका के एक सरोवर का नाम अग्गिवड्डूमानकञ्च इच्चेकादसवापियो, म. वं. 35.95; वण्ण त्रि.. [अग्निवर्ण] आग की तरह गरम या उष्ण
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धातुयोव धातुसमूहं गण्हन्ति सण्डासेन अग्गिवण्णपत्तग्गहने वियाति, म.नि. अ. (मू०प.) 1(1).276; आदित्तन्ति अग्गिवण्णं दी. नि. अ. 1.213 वत नपुं. [अग्निव्रत] अग्नियज्ञ, आग की उपासना अग्गिवतं वा नागवतं वा सुपण्णवतं वा यक्खवतं वा, महानि. 66 - वतिक त्रि., [अग्निव्रतिक ]. अग्नि का उपासक, अग्नि की उपासना करने वाला - का पु., प्र. वि., ब. व. -अग्गिवतिका वा होन्ति, नागवतिका वा होन्ति महानि. 63 वीजनक नपुं, आग को लहकाने या उद्दीप्त करने का एक उपकरण, पंखा, व्यंजनकेन तृ.
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अग्गि
वि. ए. व. विधूपनेनाति अग्गिवीजनकेन, म. नि. अड. ( मू.प.) 1 (2).127 वेस्स पु. एलेय्य नामक राजा के अङ्गरक्षकों या प्रहरियों में से एक का नाम - इमेपि रज्ञ एळेय्यस्स परिहारका बाला-यमको मोग्गल्लो उग्गो गन्धब्बो अग्गिवेस्सो अ. नि. 1 (2)208 वेस्सन पु.. [अग्निवेश्यायन, अर्द्धमा, अग्गिवेस्सायण] 1. निगण्ठनाटपुत्त का उपनाम - निगण्ठं नाटपुतं एतदवोचं यथा नु खो इमानि भो अग्गिवेस्सन दी. नि. 1.50; 2. सच्चक निगण्ठपुत्त का नाम सच्चको निगण्ठपुत्तो वेसालियं पटिवसति, म. नि. 1.293 अपिस्सु मं अग्गिवेस्सन तिस्सो उपमायो पटिभंसु क. व्या. 308 3. दीघनख परिव्राजक का नाम - यापि खो ते एसा, अग्गिवेस्सन, दिट्ठि... म.नि. 2.176; 4. अचिरवत का नाम एकमन्तं निसिन्नो खो जयसेनो राजकुमारो अधिरवतं समणुदेतं एतदवोच-सुतं मेत भो अग्गिवेस्सन म. नि. 3.170 - टि. पालि के वैयाकरणों ने 'णायन या 'णान' प्रत्ययों के आधार पर अग्गिवेस्स + णायन = अग्गिवेस्सायनो तथा अग्गिवेस्स + णान, अग्गिवेरसानो रूप दिए हैं णायनणान वच्छादितो, क. व्या. 347; वच्छादितो णानणायना, मो० व्या० 4.21; सज्जित पु. अग्नि के आधार पर रखा गया नाम चित्तकोत्वग्गिसञ्ञितो, अभि. प. 580; संताप पु. [ अग्निसन्ताप] अग्नि का ताप, अग्नि का प्रदाह, जलन, गरमी अपि च महाराज, अग्गिसन्तापवेगस्स महन्तताय उदकं चिच्चिटायति चिटिचिटायति मि. प. 242 अग्निसन्तापो सूरियसन्तापो अयं वुच्चति बाहिरा तेजोधातु विम. 93: सम' त्रि. अग्नि के समान मासु स्त्री. सप्त, वि. ब. क. अग्गिनिसमासूति अग्गिसमासु, सु. नि. अड. 2.181; मा प्र० वि०, ब० व. भेस्मा अग्गिसमा जाला, जा. अड. 6.66, पाठा. अग्गिनिसम सम' त्रि, सोलह चक्रवर्तियों का नाम मा प्र. वि., ए. व. चत्तालीससहस्सम्हि कप्पे सोळस खत्तिया नामेनग्गिसमा नाम, चकवत्ती महब्बला, अप. 1.158 समूदक त्रि.. अग्नि के समान गर्म जल वाला लोहकुम्भि पवज्जन्ति, तत्तं अग्गिसमूदकं जा. अह. 5.262 - सम्फस्स पु.. [अग्निसंस्पर्श ], अग्नि के साथ सम्पर्क - अग्गिसम्फस्सो दण्डसम्फस्सो सत्थसम्फस्सो अ. नि. 3(2).100; साला स्त्री० [अग्निशाला], अग्निगृह, यज्ञाग्नि के रखने का घर, तप्त जल से स्नान करने का प्रकोष्ठ जन्ताघरं त्वग्गिसाला, अभि. प. 214 - लम्हि / लायं सप्त. कि. ए.
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अग्गि
व. सचे ते कस्सप अगरु, विहरेमु अज्जण्हो अग्गि सालम्ही 'ति, महाव. 29; अग्गिसालायं अङ्गारकपल्लदारु आदिनीति जा. अड. 1.11 सिख पु.. 1. बुद्ध के द्वारा दीक्षित अनेक प्राणियों के नामों में से एक, एक नागराज का नाम धूळोदरो महोदरी, अग्गिसिखो धूमसिखो ... एवमादयो दमिता सीलेसु च पतिद्वापिता, पारा. अ. 1.87 2 तीन चक्रवर्तियों का नाम इतो अट्टमके कप्पे तयो अग्गिसिखा अहु अप. 1.128 सिखा स्त्री० [ अग्निशिखा ], आग की लपट, आग की ज्वाला का दिस्सति अग्गिसिखाव दूरे जा. अड. 5.202 तस्स अग्गिसिखा काया, निच्छरन्ति पभस्सरा, जा. अट्ठ. 5.260;
सिखूपम त्रि. ब. स. आग की जलती हुई लपटों की तरह चञ्चल, अस्थिर या जलाने वाला / वाली - मा स्त्री०, प्र. वि. ब. व. उच्चावचा निच्छरन्ति दाये अग्गिसिखूपमा सु. नि. 708 मो पु. प्र. वि. ए. व. सेथ्यो अयोगुळो - भुत्तो तत्तो अग्गिसिखूपमो ध. प. 308 सुत्त नपुं. स. नि. के एक सुत्त का नाम, स. नि. 3 ( 1 ) . 131 135: हुत्त 1. नपुं. [ अग्निहोत्र ], अग्नि में हवि का अर्पण, अग्नि में आहुति डालना अग्गिहुत्तंव ब्राह्मणो ध. ए. 392; चरतो च ते ब्रह्मचरिय अग्गिहुत्तञ्च जूहतो, सु. नि. 430 2. नपुं. अग्नि की पूजा का एक उपकरण - अग्गिहुत्तं कमण्डलु, जा. अ. 7.287; अग्गिहुत्तन्ति अग्गिजुहनकटच्छु, जा. अट्ठ. 7.288; - हुत्तक नपुं, अग्नि में हवन या आहुति का अर्पण दुयिद्वं ते नवमियं, अकतं अग्गिहुत्तकं, जा. अट्ठ 7.282; - हुत्तमिस्स नपुं०, अग्नि की पूजा के विविध अग्गिहुतमिस्सं उदके पवाहेत्या. महाव, 37 हुत्तमुख त्रि.. अग्निहोत्र की प्रमुखता वाला -खा पु. प्र. वि. ब. व. अग्गिहुत्तमुखा यज्ञा सु. नि. 573; - हुत्तसाला स्त्री० [अग्निहोत्रशाला ], यज्ञीय-अग्नि का गृह, अग्निहोत्र का स्थान, वह स्थान जहां पवित्र अग्नि रखी जाय लं द्वि. वि. ए. व. - अत्तनो अग्गिहुत्तसालं आहरि, जा. अड्ड. 5.4 - हुत्तसे त्रि. ब. स. [अग्निहोत्र श्रेष्ठ ]. अग्निहोत्र की प्रधानता वाला द्वा पु.. प्र. वि. ब. अग्गिहुत्तसेवा अग्गिहुत्तपधाना ति अत्थो सु. नि. अड. 2.160 होम नपुं. [ अग्निहोम, पु.]. अग्नि में कष्टों से बचने के लिए हवन या आहुति डालना - मं प्र. वि. ए. व. अग्गिहोमन्ति एवरूयेन दारुना एवं हुते इदं नाम होतीति अग्गिजुनं दी. नि. अट्ठ 1.82-83; - स प. वि. ए. व. अग्गिहोमस्स भावो अग्गिहोमक क. व्या 364.
उपकरण या साधन
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अग्गुपट्ठाक
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अग्घापनियकम्म अग्गुपट्ठाक पु., [अग्रोपस्थापक], प्रथम या प्रधान परिचारक, किं अग्घति तण्डुलनाकिकाति पुच्छि, जा. अट्ठ. 1.131; ला. प्रमुख सेवक, प्रधान अनुवर्ती - को प्र. वि., ए. व. - मय्ह, अ. सत्पात्र होता है, सुयोग्य है, किसी कार्य के लिए सक्षम भिक्खवे, एतरहि आनन्दो नाम भिक्खु उपट्ठाको अहोसि या समर्थ होता है - किमग्घति तण्डुलनाळिकायं, अस्सान अग्गुपट्ठाको, दी. नि. 2.5; सम्मासम्बद्धस्स उपट्ठाको अहोसि मूलाय वदेहि राज, जा. अट्ठ. 1.131; - ग्घापेन्तो प्रेर., अग्गुपट्ठाको, म. नि. 2.248.
वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व., मूल्य लगवा रहा, मूल्यअग्गुपट्ठायिका स्त्री., [अग्रोपस्थापिका], प्रधान स्त्री- निर्धारित करवा रहा- अयं अग्घापनिको एवं अग्घापेन्तो न परिचारिका - तस्स अग्गउपट्ठायिका एका उपासिका, ध. चिरस्सेव मम गेहे धनं परिक्खयं गमेस्सति, जा. अट्ठ. 1. प. अठ्ठ. 1.234; पाठा. अग्गउपट्ठायिका.
130; गोणे अग्घापेन्तो विय तत्थेव ठितो कुमारे अग्घापति, अग्गे सप्त. वि. का प्रतिरू. काल और देशवाचक निपा. जा. अट्ठ. 7.316; - ग्घापेसि प्रेर.. अद्य, प्र. पु., ए. व., [अग्रे], सामने, पहले, आगे, - अग्गे च छेत्वा मज्झे च, -विसाखा तं अपिलन्धित्वाव कम्मारे पक्कोसापेत्वा अग्घापेसि. पच्छा मूलम्हि छिन्दथ, जा. अट्ठ. 4.140; अग्गे चाति ध. प. अट्ठ. 1.231; - ग्घापेतुं प्रेर., निमि. कृ. - न सक्का अवकन्तन्ता पन पठम अग्गे, जा. अट्ठ. 4.141.
केनचि अग्घापेतुं तुलेतुं परिमेतुं, मि. प. 185; - ग्घापेत्वा अग्गेन तृ. वि., प्रतिरू. निपा. [अग्रेण]. सन्दर्भानुसार केवल प्रेर., पू. का. कृ. - अग्घापेत्वा वातजवं. सिन्धवं सीघवाहनं. स. उ. प. के रूप में प्रयुक्त, द्रष्ट. परिवेण., भिक्ख., यद., अप. 1.105. विहार., सेय्य. के अन्त..
अग्घनक त्रि., केवल स. उ. प. के रूप में ही प्रयुक्त, अग्गोदक नपुं॰ [अग्रोदक], प्रथम जल, सर्वोत्तम जल, [अर्घनक], मूल्यवाला, द्रष्ट. सद्धपाद., कहापण., सतसहस्स. सम्मान में दिया गया जल - अहो वत अहमेव लभेय्यं के आदि के अन्तः; - भाव पु., मूल्यवान होने की अवस्था, भत्तग्गे अग्गासनं अग्गोदकं अग्गपिण्डं म. नि. 1.35%; मूल्यवत्ता, अर्घता - वं द्वि. वि., ए. व. - पञ्चन्नं अस्ससतानं अग्गोदकन्ति दक्खिणोदक, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).155; एक तण्डुळनाळि अग्घनकभावं जानाम, जा. अट्ट, 1.131. भिक्खाचारमग्गे पन अग्गासनअग्गोदक अग्गपिण्डत्थं वड्डानं अग्घनीय द्रष्ट. अनग्धनीय के अन्त.. पुरतो पुरतो याति, खु. पा. अट्ठ. 196.
अग्घसमोधान पु., समोधान-परिवास का एक विशिष्ट रूप, अग्घ पु., [अर्घ], 1. कीमत, मूल्य, दाम, - अग्घो मूले च परिवास के अनेक प्रकारों में से एक - अग्घसमोधानो नाम पूजने, अभि. प. 1048; यतो तया, अय्यपुत्त, अग्घो कतो, .... सम्बहुला वा आपत्तियो सब्बचिरपटिच्छनायो, तासं अग्घेन गहितो आरामो, चूळव. 287. - घेन तृ. वि., ए. व. - समोधाय तास रत्तिपरिच्छे दवसेन अवसे सानं अग्घेन अग्घं कयं हापयन्ति , जा. अट्ठ. 6.135; स. उ. प. ऊनतरपटिच्छन्नानं आपत्तीनं परिवासो दिय्यति, अयं वुच्चति के रूप में द्रष्ट. अनग्घ, अप्प., कोटि-कोटि-धन, ठपित., अग्घसमोधानो, चूळव. अट्ठ. 27, - टि. जो भिक्षु एक से मह., महतिमह., सम., सहस्स. के अन्त. तुल. पच्चग्ग; 2. अधिक सङ्घादिसेस नामक आपत्तियों में आपतित है तथा नपुं., [अर्घ्य, अर्घ + यत् अर्घमर्हति], पूजा, सत्कार, किसी लम्बी अवधि तक सङ्घ के सामने इन आपत्तियों को छिपाता व्यक्ति या अतिथि का सम्मान या स्वागत - अग्घो मूले च है, उसके लिए अग्घसमोधान परिवास का दण्ड-विधान बुद्ध पूजने, अभि. प. 1048; अग्घे भवन्तं पुच्छाम, अग्घं कुरुतु के द्वारा प्रज्ञप्त है. नो भवन्ति, जा. अट्ट. 4.354; - क त्रि., अग्घ से व्यु. अग्घापनक/अग्घापनिक त्रि., मूल्य-निर्धारण करने वाला, [अर्घ्य, अर्घ + यत् अर्घमर्हति], मूल्य, मूल्यवान्, मूल्यवाला, मूल्याङ्कन करने वाला, मूल्याङ्कक - कं पु., प्र. वि., ए. व. केवल स. उ. प. में ही प्रयुक्त - कोटिधनग्घकं एव पञत्तं - अज अग्घापनिकं करिस्सामी ति, जा. अट्ठ. 1.130; - सयनं अहु, म. वं. 30.77; - टुपन नपुं.. [अर्ध्यस्थपन], स्स ष. वि., ए. व. - अहो अग्घापनिकस्स आणसम्पदा, जा. मूल्य-निर्धारण, मूल्य-विनिश्चय - अग्घट्टपनं नाम मनुस्सानं अट्ठ. 1.131; - छान नपुं., मूल्यनिर्धारक का कार्यालय, जीविता वोरोपनसदिसं. जा. अट्ठ. 1.108.
मूल्याङ्कक का पद - बोधिसत्तस्सेव अग्घापनिकट्टानं अदासि. अग्घति अग्घ का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अर्घति, अर्हति], जा. अट्ठ. 1.131.
शा. अ. मूल्यवान् होता है, मूल्य लगाता है, मूल्य के योग्य अग्घापनियकम्म नपुं., मूल्याङ्कन या मूल्य-निर्धारक का होता है - नव कोटियो अग्घति, ध. प. अट्ठ. 1.231; सा पन काम या मूल्याङ्कक का अधिकार - म्मे सप्त. वि., ए.
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अग्घिय
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अध
व. - अथ नं राजा अग्घापनियकम्मे ठपेसि, जा. अट्ठ. 4.125. अग्घिय 1. त्रि. [अर्घ्य], मूल्यवान्, बहुमूल्य, कीमती, पूजनीय, महत्त्वपूर्ण - सकलपब्बतं मणिअग्घियं विय अलङ्करित्वा, जा. अट्ठ. 7.155; 2. नपुं, समादर, सम्मान, महान् पुरुष या अतिथि का पाद अर्घ्य एवं जल भोजनादि के द्वारा सत्कार - अथाग्यमग्घियं अभि. प. 424; - यं प्र. वि., ए. व. - तुम्हेहि महं अग्घियं निवेदनं कतं, जा. अट्ठ. 7.275; 3. नपुं., सम्मानसूचक पुष्पालङ्करणादि का प्रचय, राशि, ढेर, समूह - यं प्र. वि., ए. व. - अग्घियं कारयित्वान, जातिपुफेहि छादयिं, अप. 1,100; - यानि ब. व. - अग्घियानि च तिट्ठन्तु, येन मग्गेन एहिति, जा. अट्ठ. 7.363; स. उ. प. में कुसुम., पुप्फ०, मणि., रतन, तोरण, सुवण्ण. के अन्त.
द्रष्ट..
अग्यन्तराय पु., अग्गि + अन्तराय, [अग्न्यन्तराय], आग के कारण उत्पन्न बाधा या भय - यो प्र. वि., ए. व. - तत्रिमे अन्तराया - राजन्तरायो, चोरन्तरायो, अग्यन्तरायो ..., महाव. 141; दवदाहो वा आगच्छति, आवासे वा अग्गि
उद्वहति, अयं अग्यन्तरायो, महाव. अट्ठ. 320.. अग्यागार नपुं., अग्गि + आगार [अग्न्यागार], आग के रखने का घर, अग्निशाला, अग्निहोत्रशाला - रं द्वि. वि. ए. व. - अथ खो भगवा अग्यागारं पविसित्वा ..., महाव. 29; - रे सप्त. वि., ए. व. - ... भारद्वाजगोत्तस्स ब्राह्मणस्स अग्यागारे तिणसन्थारकं म. नि. 2.180; अग्यागारेति अग्गिहोमसालायं, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.151. अग्याधान नपुं., अग्गि + आधान [अग्न्याधान], अग्नि का अधिष्ठापन, यज्ञीय-अग्नि का प्रतिष्ठापन - नं द्वि. वि., ए. व. - ... अरञायतने अग्गिहुतसालायं अग्याधान, कत्वा ..., थेरगा. अट्ठ. 1.370 अप. अग्यागार. अग्यायतन नपुं., तत्पु. स., अग्गि + आयतन [अग्न्यायतन], अग्निहोत्रशाला, यज्ञीय-अग्नि को रखने के लिए बनाया गया घर - नं प्र. वि., ए. व. - अग्गिहुत्तं परिचरतीति अग्यायतनं सम्मज्जनूपलेपनबलिकम्मादिना पयिरुपासति, सु. नि. अट्ठ. 2.116-17. अघ' नपुं० [अघ], कुकृत्य, अपराध, पाप, अकुशल कर्म, विपत्ति दुख - पापं च किब्बिसं बेराघं दुच्चरितदुक्कतं अपुञाकुसलं कण्हं कलुसं दुरिताग च, अभि. प. 843; दुक्खं च कसिरं किच्छंनीघो च व्यसनं अघं, अभि. प. 89; पापस्मिं गगने दुक्खे व्यसने चाघमुच्चते, अभि. प. 940;
छन्दजं अघं छन्दजं दुक्खं स. नि. 1(1).26; अघन्ति पञ्चक्खन्धदुक्खं, स. नि. अट्ट, 1.57; - कर त्रि., [अघकर], पापकर, हानिकर, अकुशल-कर्म करने वाला, दुःखदायी - अघम्मिगाति अघकरा मिगा, दुक्खावहा मिगाति अत्थो, जा. अट्ठ. 7.264; - गत नपुं., राग आदि क्लेश, दुःखजनक चित्तवृत्तियां - अब्बुळ्हं अघगतं विजितं, थेरगा. 321; विबाधनसभावताय अघा नाम रागादयो, अघानि एव अघगतं. थेरगा. अट्ठ. 2.37; - जात त्रि., दुःखी, विपन्न, विपद्ग्रस्त, दुःखाभिभूत - अघजातस्स वे नन्दी, नन्दीजातस्स वे अघ, स. नि. 1(1).66; अघजातस्साति दुक्खजातस्स, वट्टदुक्खे ठितस्साति अत्थो, स. नि. अट्ठ. 1.101; - भूत त्रि., [अघभूत], पापमय, दुःखमय, रोगों से भरपूर - अयं खो पन, मागण्डिय, कायो रोगभूतो गण्डभूतो सल्लभूतो अघभूतो आबाधभूतो. म. नि. 2.188; - मूल नपुं.. [अघमूल], पाप की जड़, बुराई का मूल, दुष्टता का मूल, दुःख का कारण - अघमूलं वमित्वान, पत्तो मे आसवक्खयो, थेरगा. 116; अघस्स वट्टदुक्खस्स मूलभूतं अविज्जाभवतण्हासङ्घातं दोसं. सब्बं वा किलेसदोसं, थेरगा. अट्ठ. 1.252; यायं तण्हा ... कामतण्हा, भवतण्हा, विभवतण्हा, इदं वच्चति, भिक्खवे, अघमूलन्ति, स. नि. 2(1).31; - विनय पु., घृणा का दूरीकरण, पाप का अपनयन, दोष का निराकरण, विद्वेष-निवारण - छन्दविनया अघविनयो, अघविनया दुक्खविनयोति, स. नि. 1(1).26; अघविनयोति तहाविनयेन पञ्चक्खन्धविनयो, स. नि. अट्ठ. 1.57; - सुत्त नपुं., स. नि. के खन्धसंयुत्त के एक सुत्त का नाम, स. नि. 2(1).30-31. ... अघ क. नपुं., [बौ. सं. अघ पु.], आकाश, वायुमण्डल, वातावरण, पर्यावरण - देवो वेहायसो तारापथो सुरपथो अघ, अभि. प. 46; न हञ्जतीति अघं, अघट्टनीयन्ति अत्थो, ध. स. अट्ठ. 358; अघेति अप्पटिघे ठाने, जा. अट्ठ. 4.287. ख. त्रि., आकाशीय, निराश्रय, निरावरण, उन्मुक्त - घा स्त्री., प्र. वि., ब. व. - यापि ता लोकन्तरिका अघा असंवुता अन्धकारा अन्धकारतिमिसा, दी. नि. 29; अघा ति निच्चविवटा, दी. नि. अट्ठ. 2.23, तुल. नभसि; - गत नपुं., आकाशतत्त्व - यो आकासो आकासगतं अघं अघगतं, ध. स. 637; अघमेव अघगतं, ध. स. अट्ठ. 358; - गामी त्रि., आकाश में गमन करने वाला, दिव्यमार्ग में जानेवाला - मिनं पु.. ष. वि., ब. व. - अघगामिनन्ति आकासगामीनं, स. नि. अट्ठ. 1.114.
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अघट्टनीय
अघट्टनीय त्रि. घट्ट के सं. कृ. का निषे संघर्षण रहित, संघट्टन के अयोग्य यं नपुं. प्र. वि., ए. व. न हज्जतीति अर्थ अघट्टनीयन्ति अत्थो ध. स. अ. 358; ता स्त्री भाव घात-प्रतिघात से रहित यं प्र. वि., ए. व. -
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अघट्टनीयताय अघं, विभ. अ. 66.
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अघट्टित त्रि. घट्टित का निषे, घात-प्रतिघात रहित, स्थिर, शान्त तो पु. प्र. वि. ए. व. अनेरितो अघट्टितो
अचलितो अकुळितो... समुदोति, महानि, 260. अघम्मिग पु०, भयङ्कर जङ्गली - जीव, भीषण वन्य पशु - गेहि तृ. वि., ब. व. - लुद्देहि वाळेहि अघम्मिगेहि च, जा. अ. 7.136 अघम्मिगेहीति अघावहेहि मिगेहि दुक्खावहेहि सुनखेहीति अत्थो, जा० अ० 7.136.
अघर त्रि.. घर का निषे, ब. स. गृहविहीन रा पु.. प्र. वि. ब. व. गेहं विक्किणित्वा अघरा हुत्वा, जा. अट्ठ. 6.84. अघसिगम त्रि. आकाशचारी, आकाश में गमन करने वाला मा पु. प्र. वि. ब. व. अधोमुखा अघसिगमा बली जवा, वि. व. 13; अघसिगमाति वेहासंगमा, वि. व. अट्ठ. 63.
अघापह त्रि. [ अघापह] पापों या द्वेषों का नाश करने वाला तरिंसु तं धम्ममघप्पहं यह अभि. प. मङ्गलगाथा 2: पाठा. अघप्पहं.
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अघावह त्रि.. दुःख या कष्ट को लानेवाला हेहि पु.. तृ. वि., ब.व. अघावहेहि मिगेहि, दुक्खावहेहि सुनखेहीति अत्थो, जा० अट्ठ 7.136.
अघावी त्रि.. दुःखपूर्ण दुःखाभिभूत, व्यथित, विपद्ग्रस्त, संकटापन्न वी पु०, प्र. वि., ए. व. नम्हि अट्ट व्यसनंगतो अधावी. सु. नि. 699; अधावीति दुक्खितो तेन च सो चेतसिकअयभूतेन अघावी, सु. नि. अड. 2.189; विनो ब.व. मल्लपजापतियो च अघाविनो दुम्मना चेतदुक्खसमपिता दी. नि. 2111; अघाविनोति उप्पन्नदुक्खा, दी. नि. अट्ठ. 2.160.
अघोस त्रिघोस का निषे [ अघोष ] वे व्यञ्जन, जिनके उच्चारण में ध्वनि अव्यक्त रहती है, ध्वनिहीन निःशब्द, प्रत्येक व्यञ्जनवर्ग के प्रथम दो अक्षर तथा स एत्थ पञ्चसु वग्गेसु वग्गानं पठमा परा, वग्गानं दुतिया पिच सकारो च तथा परो, अव्यत्तनादयुत्तत्ता अघोसो ति पकासिता, क. व्या. (पृ.) 9. टि. यह पालि-व्याकरण का एक 9; महत्त्वपूर्ण पारिभाषिक पद है, परसमञ्ञा पयोगे, क. व्या. 9; क, ख, च, छ, ट, ठ, त, थ, प, फ, तथा स, ये ग्यारह
अड्डरवत्थु
व्यञ्जन अघोषसञ्ज्ञक हैं, अव्यक्त नाद से युक्त होने के कारण ये अघोष कहे जाते हैं.
अङ्क पु., [अङ्क], शा. अ. गोद, बैठने के समय जांघ और नितम्ब के मिलने से बननेवाला एक कोण - विशेष, छाती, वक्षस्थल उच्छङ्गङ्गा तुभो पुगे, अभि. प. 276 हूं द्वि. वि., ए. व. इत्थियो नाम एकदिवसम्पि अङ्कं अवत्थरित्वा निपन्नसामिकम्हि हृदयं भिन्दितुं न सकोन्ति, जा. अट्ठ. 5.288; - सप्त, वि. ए. व. न. भिक्ख पत्तो अड्डे निक्खिपितब्बो चूळव, 232 ट्रेन सप्त वि. ए. व. दारके अङ्केनादाय वाणिजे उपसङ्कमन्ति, जा० अट्ठ. 2.105; ला. अ. लक्षण, चिह्न, अभिज्ञान कलो लग्ने लक्खे अङ्कोभिञाण-लक्खणं, चिह्न चापि, अभि. प. 55; उच्छ लक्खणे चाडो अभि. प. 1043.
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अङ्कित त्रि, अङ्केति का भू० क० कृ० [अङ्कित ], चिह्नित, अभिलक्षित, संकेतित, हस्ताक्षरित प्रतीकित, - नमकरानमन्तानं नियुत्ततम्हि क. व्या. 619; साहित्य में केवल स. उ. प. में ही प्राप्त कण्णक त्रि [अडितकर्णक] वह जिसका कान चिह्नित हो, कटे हुए या बिधे हुए कान वाला अथो अङ्कितकण्णकोति अथ स्वेव विद्धकण्णो छिद्दकण्णोति लम्बकण्णतं सन्धायाह, जा. अट्ठ. 2.154.
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अङ्कुर' पु० / नपुं., [अङ्कुर], जीवाणु, अंखुआ, अङ्कुर, बीज से निकली हुई पहली पत्ती रो प्र. वि. ए. क. ततो अङ्कुरो - उद्वहित्वा फलं ददेय्य, मि. प. 50, यं यदेव अवसिट्ठ होति अङ्कुरो वा पत्तं वा तथो वा थ. प. अ. 1.161 तं खणं येव बीजम्हा तुम्हा निक्खम्म अङ्कुरो, म. व 15.43; निब्बत्तनट्ठान नपुं, अङ्कुर या अंखुआ के बढ़ने या विकसित होने का स्थान नं प.वि., ए. व. अङ्कुरनिब्बत्तनद्वान मण्डूककण्टकेन विज्झित्वा पेसेसि जा. अड. 2.86 - वण्ण त्रि.. [अङ्कुरवर्ण] अङ्कुर जैसा रंग, अंबुआ जैसा वर्ण अम्बङ्कुरवण्णन्ति अम्बङ्कुरेन समानवण्णं, ध. स. अट्ठ 350. अड्ड पु. [ अक्रूर] उपसागर तथा देवगब्भा (देवगर्भा) से उत्पन्न दसवें पुत्र का नाम, एक राजकुमार का नाम देवगब्भाय... दसमो अटुरो नाम अहोसि, जा. अड. 4.72 अङ्कुरो इदमब्रवि, पे. व. 323; देसनावसाने अङ्कुरो च इन्दको थ सोतापत्तिफले पतिद्वहिंस, ध. प. अ. 2.127. अङ्कुरपेतवत्थु नपुं. पे. व. के उरगवग्ग के अन्त, एक खण्ड का शीर्षक, पे. व. 114-119. अङ्कुरवत्थु नपुं, ध. प. की अट्ठ की एक कथा का शीर्षक,
ध. प. अट्ठ. 2.327-28.
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अङ्ग
अङ्कस अङ्कुस पु., [अङ्कुश], अङ्कुश, 1. शा. अ. हाथी को हांकने तथा काबू रखने वाला दो मुंहा भाला, हाथी को निर्देश देने में व्यवहृत एक नियन्त्रक-यन्त्र या उपकरण - मत्थकम्हि तु असो, अभि. प. 367; - सेहि तृ. वि., ब. व. - दण्डेनेके दमयन्ति, असेहि कसाहि च, चूळव. 335; - से द्वि. वि., ब. व. - हत्थिनो तस्मिं काले अङ्कसे वा कुन्ततोमरे वा न गणेन्ति, चण्डा भवन्ति, ध. प. अट्ठ. 2.289; 2. फल तोड़ने के लिए लग्गी के सिरे पर बंधी छोटी लकड़ी या हुक, ब्राह्मण तापस के अनेक उपकरणों में से एक - किमसञ्च पत्तञ्च, जा. अट्ठ. 5.219; ... पच्छिखणित्ति अङ्कसहत्था अरज पविसित्वा, जा. अट्ठ. 7.281; 3. ला. अ. कर से व्यु., क्रि. रू. के साथ प्रयुक्त, सचेष्ट करना, नियन्त्रित करना, नियंत्रण में रखना - सो तयेव अङ्कसं कत्वा ..., म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).245; अत्तनो वचनं अङ्कसं कत्वा, थेरीगा. अट्ठ. 195; 4. नेत्ति. के पांचवें नय का नाम - पञ्चमो अङसो नाम, सब्बे पञ्च नया गताति, नेत्ति. 3; - यट्ठि स्त्री., [अङ्कशयष्टि], अङ्कश लगाने की छड़ी, चुभोने की छड़ी-डिं वि. वि., ए. क. - अङ्कसयटिञ्च गहेत्वा, जा. अट्ठ 256; - गव्ह नपुं, अडसगह का भाव, हाथी को नियन्त्रित करने अथवा अपने वश में रखने की कला - रहे सप्त. वि., ए. व. - कुसलो अहं हत्थारुळ्हे असगरहे सिप्पेति, म. नि. 2304; - ग्गह पु. [अनुशग्रह], एक कुशल महावत, पीलवान, हाथीवान- हत्थिप्पमिन्नं विय अडसग्गहोध. प. 326; थेरगा. 77. अङ्केत्वा अङ्क का पू. का. कृ., चिह्नित करके, निशान लगा करके, पहचान करके - बन्धित्वालक्खणेन अङ्केत्वा दासपरिभोगेनपि परिभुजिस्सन्ति, जा. अट्ठ. 1.432; इमस्मि पन रुक्खे अम्बानि अङ्केत्वा गहितानि, जा. अट्ठ. 2.328. अकोल पु.. [अङ्कोल, अर्द्धमा. अकोल्ल], एक वृक्ष का नाम, पिस्ते का वृक्ष - लिकोचको तथाङ्कोलो, अभि. प. 557; अङ्कोला कच्छिकारा च पारिजञा च पुप्फिता, जा. अट्ट. 7.302; - कानपुं., पिस्ते के वृक्ष का फूल - अङ्कोलकादीनि पुप्फानि ओचिनामि, जा. अट्ठ. 4.400; - क पु., एक स्थविर का नाम - इत्थं सुदं आयस्मा अबोलको थेरो इमा गाथायो अभासित्थाति, अप. 1.206. अङ्कय पु.. [अङ्कय, अङ्की], एक प्रकार की खंजरी, वाद्यविशेष,
मृदङ्गविशेष - आलिङ्गयङ्कयोद्धका भेदा, अभि. प. 143. अङ्ग' निपा., व्यङ्ग्योक्ति-पूर्ण कथनों में प्रयुक्त सम्बोधन, कटाक्षपरक अभिव्यक्तियों में प्रयुक्त - अव्हाने भो अरे अम्भो हम्भो रे जेङ्ग आवुसो, हे हरे थ, अभि. प. 1139.
अङ्ग नपुं॰ [अङ्ग]. शा. अ. शरीर का अवयव - अङ्गं त्ववयवो वुत्तो, अभि. प. 278; अङ्गमेतं मनुस्सानं, भाता लोके पवुच्चति, अङ्गस्स सदिसी वाचा, अङ्गं सम्म ददामि ते, जा. अट्ठ. 3.42; ला. अ. 1. किसी सम्पूर्ण वस्तु का एक अविभाज्य हिस्सा अथवा उसका गौण खण्ड - ओ अङ्गन्तेव सङ्घयं गच्छति, अ. नि. 1(1).277; अज्झत्तिकं, भिक्खवे, अङ्गन्ति करित्वा नाज एकङ्गम्पि समनुपस्सामि, अ. नि. 1(1).22; ला. अ. 2. बुद्ध के वचनों के नौ प्रकार के विभाजनों के लिए प्रयुक्त - नवङ्ग सत्थुसासनं, दी. वं. 4.15; - ङ्गानि प्र. वि., ए. व. - अङ्गतो नव अङ्गानि, ध. स. अट्ठ. 20; सत्तं गेय्यं वेय्याकरणं गाथुदानितिवुत्तक, जातकब्भुतवेदल्लं नवङ्ग सत्थुसासनं, दी. वं. 4.15; ला. अ. 3. कड़ी, योजक, जोड़, निदान, हेतु, कारण - अङ्गा देसे बहुम्हॉ तथावयवहेतुस, अभि. प. 955%; तत्थ तयो अद्धा द्वादसङ्गानि ..., अभि. ध. स. 56; अङ्गतोति एत्थ च पाणातिपातस्स पञ्च अङ्गानि भवन्ति, खु. पा. अट्ठ. 21; ला. अ. 4. गुण, विशेषता, अभिलक्षण, चिह्न, मापदण्ड, (प्रायः संख्याओं के साथ प्रयुक्त) - झेहि तृ. वि., ए. व:चतूहि, भिक्खवे, अङ्गेहि समन्नागता वाचा सुभासिता होति, न दुब्भासिता, सु. नि.(पृ.) 148; चतूहि अङ्गेहीति चतूहि कारणेहि अवयवेहि वा, सु. नि. अट्ठ. 2.112; ला. अ.5. शरीर के अंगों के विशिष्ट फल बतलाने वाली एक विद्या - सेय्यथिदं-अङ्गं निमित्तं ..., दी. नि. 1.8; अङ्गन्ति हत्थपादादीसु येन केनचि एवरूपेन अङ्गेन समन्नागतो दीघायु यसवा होतीतिआदिनयप्पवत्तं अङ्गसत्थं, दी. नि. अट्ट, 1.82; - घंसन नपुं., [अङ्गघर्षण], अङ्गों को रगड़ना या घिसना, अङ्ग-संघर्षण - अङ्गघंसनत्थाय चतुरस्से वा अट्ठसे वा थम्भे निखाते ... अङ्गं घंसन्ति, सु. नि. अट्ठ. 1.221; - जात नपुं.. एक विशेष प्रकार का शरीरावयव, स्त्रियों एवं पुरुषों की जननेन्द्रिय, - अङ्गजातं रहस्सङ्ग, अभि. प. 272; तस्मिञ्च सरीरे अङ्गजातसामन्ता वणो होति, पारा. 41; पञ्चहाकारेहि अङ्गजातं कम्मनियं होति, पारा. 45. अङ्ग पु., व्य. सं. [अङ्ग], 1. एक प्रत्येकबुद्ध का नाम - अङ्गो
च पङ्गो च गुत्तिजितो च, म. नि. 3.1163; 2. एक स्थविर (थेर) का नाम - तत्थ लोमसकङ्गियोति अङ्गथेरो किर नामेस, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.182; 3. अनेक राजाओं के नाम - ... अङ्गो नाम लोमपादो वाराणसिराजा, जा. अट्ठ. 7.49; 4. देश का नाम, सदा ब. व. में ही बिहार--प्रदेश के भागलपुर-क्षेत्र के निवासियों के लिए प्रयुक्त शब्द - वङ्गा विदेहकम्बोजा मद्दा भग्गाङ्गसीहळा, अभि. प. 185; एक समयं
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अङ्गकूट
अङ्गपावुरण/अङ्गपापुरण भगवा अङ्गेसु चारिकं चरमानो महता भिक्खुसङ्घन सद्धिं, दी. अङ्गद नपुं., एक आभूषण का नाम, केयूर, बाजूबन्द - नि. 1.97; एकं समयं भगवा अङ्गेसु विहरति अस्सपुरं नाम केयूरमङ्गदं चेव बाहुमूलविभूसनं, अभि. प. 287; ततो हेमञ्च अङ्गानं निगमो, म. नि. 1.343; - क पु., सोणदण्ड नामक कायूरं अगदं मणिमेखलं, जा. अट्ठ. 7.376; स. उ. प. में ब्राह्मण की बहिन के पुत्र का नाम - सोणदण्डस्स ब्राह्मणस्स द्रष्ट. चित्त., दिब्ब०, पाद, के अन्त.. भागिनेय्यो अङ्गको नाम माणवको, दी. नि. 1.107; - रट्ठ अङ्गदी त्रि., अङ्गद धारण करने वाला, बाजूबन्द पहनने वाला नपुं, अङ्ग का जनपद - अतीते अङ्गरढे अङ्गे च मगधरडे - अङ्गदीति दिब्बङ्गदसमन्नागतो, जा. अट्ठ. 5.10. मगधे च .... जा. अट्ठ. 4.411; - राजा पु., अङ्ग देश का अङ्गदुब्बल त्रि., ब. स., शा. अ. दुर्बल, कृश, ला. अ. राजा - किं पन ते, ब्राह्मण, अङ्गराजा देवसिकं निच्चभिक्खं दुर्बल ध्यान अङ्गों वाला, ध्यान-भावना के समय किसी एक ददातीति, म. नि. 2.382.
आलम्बन पर चित्त को स्थिर रखने में अक्षम - ला प्र. वि., अङ्गकूट नपुं.. माप-तौल में ठगी या धोखाधड़ी का एक ब. व. - वितक्कविचारानं ओळारिकत्ता अङ्गदुब्बला ति च प्रकार - अङ्गकूटं नाम गण्हन्तो पच्छाभागे हत्थेन तुलं तत्थ दोसं दिस्वा, विसुद्धि. 1.149; एवं सुखस्स थूलत्ता, अक्कमति, दी. नि. अट्ठ. 1.73.
होतायं अङ्गदुब्बला, अभि. अव. 962. अङ्गगामव्हय त्रि., अङ्गगाम नाम वाला (श्रीलङ्का का एक अङ्गना स्त्री., [अङ्गना], स्त्री, नारी- इत्थी सीमन्तिनी नारी सरोवर)- अङ्गगामव्हयं पि च, चू. वं. 79.37.
थी वधू वनिताङ्गना, पमदा सुन्दरी कन्ता रमणी दयिताबला, अङ्गण' नपुं.. [अङ्गन], खुली जगह, खुला स्थान, चौक, मातुगामो च महिला, अभि. प. 230. नगर में घर के सामने का वृक्ष-रहित मैदान या जंगल का अङ्गपच्चङ्ग नपुं., [अङ्गप्रत्यङ्ग]. 1. एक अङ्ग के पश्चात् दूसरा पेड़-रहित क्षेत्र-णे सप्त. वि., ए. व. - अजिरं चच्चराङ्गणं, अङ्ग या अवयव, प्रत्येक अङ्ग, सम्पूर्ण अङ्ग या शरीर का भाग अभि. प. 218; न पटिवाते अङ्गणे सेनासनं पप्फोटेतब्ब -ङ्गं प्र. वि., ब. व. - अञ्जतरं वा अङ्गपच्चङ्ग दहेय्य, म. चूळव. 362; - द्वान नपुं., आंगन का स्थान - उय्याने । नि. 2.30; एवमेव धनं वा यसं वा पुत्रं वा दारं वा अङ्गपच्चङ्ग विचरन्ता एक अङ्गट्ठानं दिस्वा उय्यानपालं पुच्छिसु. जा. वा अनोलोकेत्वा, जा. अट्ठ. 1.26; - नि ब. व. - अङ्गपच्चङ्गानि अट्ठ. 1.243; - ने सप्त. वि., ए. व. - फासुके अङ्गणवाने छिन्दिवा पातेसुंजा. अट्ठ. 4.290; 2. त्रि.. ब. स., सुसंगठितखन्धावारं निवेसयि, म. वं. 25.20; - परियन्त पु., खुले अङ्गों वाला, सुन्दर-अङ्गों वाला - ङ्गा स्त्री, प्र. वि., ए. व. हुए निर्वृक्ष क्षेत्र का छोर - न्ते सप्त. वि., ए. व. - - ततो त्वं अङ्गपच्चङ्गा, सुचारु पियदस्सना, पे. व. 358; - अङ्गणपरियन्ते ठितं निग्रोधरुक्खं दिस्वा ..., जा. अट्ठ. ङ्गी उपरिवत् - अङ्गपच्चङ्गीति परिपुण्णसब्बङ्गपच्चङ्गवती, पे. 2.168; स. उ. प. के रूप में उद., एक., अन्तोनिवेसन.. व. अठ्ठ. 137; - सम्पन्न त्रि., [अङ्गप्रत्यङ्गसम्पन्न], सभी अम्ब., इसिभूम., चेतिय., राज., विवट. इत्यादि के अन्त. द्रष्ट.. अङ्गों में परिपूर्ण- न्नो पु., प्र. वि., ए. व. - अङ्गपच्चङ्गसम्पन्नो, अङ्गण नपुं.. शा. अ. धूलि, गंदगी, रज, ला. अ. क्लेश, आरोहपरिणाहवा, जा. अट्ठ. 6.24; स. उ. प. में किस. राग, द्वेष, मोह - भूमिभागे किलेसे च मले चाङ्गणमुच्चते, फरुस. काळ., दस्सनीय., सब्ब. के अन्त. द्रष्ट.. अभि. प. 859; अत्थि मे अज्झतं अङ्गणन्ति यथाभूतं नष्पजानाति, अङ्गपच्चङ्गी त्रि., स. उ. प. के रूप में, सब्बङ्गपच्चङ्गी, म. नि. 1.31; रागो अङ्गणं, दोसो अङ्गणं, मोहो अङ्गणं .... सोभनसब्बङ्गपच्चङ्गी के अन्त. द्रष्ट... विभ. 426.
अङ्गपरिच्चाग पु., [अङ्गपरित्याग], अङ्ग का परित्याग, शरीर अङ्गणसालक पु., एक गांव का नाम - कं द्वि. वि., ए. व. के अङ्गों का दान - अङ्गपरिच्चागो दानउपपारमी नाम, जा. - विहारस्सभयस्सादा गामं अङ्गणसालक, चू. वं. 42.63. अट्ट, 1.34; विलो. जीवितपरिच्चाग. अङ्गणिक भारद्वाज पु., थेरगा. के तिकनिपात की 219-221 अङ्गपरिणाम पु., धर्मों, उपादानों या उपकरणों का रूपान्तरण
गाथाओं के रचयिता थेर (स्थविर) का नाम, थेरगा. (पृ.) 203. या परिवर्तन, अङ्गों की जीर्णता - अङ्गपरिणामो यथा होति अङ्गति पु., मिथिला के एक राजा का नाम, - ततो रत्या विवसाने, उपट्टानम्हि अङ्गति, जा. अट्ठ.7.114; इच्चेवं पितरं अङ्गपावुरण/अङ्गपापुरण नपुं., माता द्वारा अपनी सन्तान का , रुचा तोसेसि अङ्गति, जा. अट्ठ. 7.130; जम्बुदीपं को हाथ की थपकी देकर उसे शान्त कराना या सुरक्षित अवेक्खन्तो, अद्दा राजानमङ्गति, जा. अट्ठ. 7.131.
अनुभव कराना - णेन तृ. वि., ए. व. - थनखीरेन गीतेन,
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अङ्गसंकन्ति
अङ्गपुत्तपिन अङ्गपावरणेन च, रोदन्तं पुत्तं तोसेति, तोसेन्ती तेन वच्चति, जा. अट्ठ. 5.323; अङ्गपारणेन चाति थनन्तरे निपज्जापेत्वा सरीरसम्फस्सं फरापेन्ती अङ्गसङ्घातेनेव पावुरणेन जा. अट्ठ 5.325. अङ्गपुत्तपिन नपुं., कर्म. स., अपने अङ्गों के समान प्रिय स्थूल या मोटा पुत्र - नेन तृ. वि., ए. व. - नाङ्गपुत्तपिनेन वाति अङ्गसरिक्खकेन वा पुत्तपिनेनपि न पमोचितो, जा. अट्ठ. 3.191, पाठा. अङ्गपुत्त-सिर. अङ्गमंस नपुं, शरीर के अङ्ग का मांस - सं द्वि. वि., ए. व. - अङ्गमंसं उक्खिपित्वा अदासि, जा. अट्ठ. 3.43. अङ्गमगध पु.. ब. व. में ही प्रयुक्त, अङ्ग तथा मगध के जनपद या उन जनपदों के निवासी - धानं ष. वि., ब. क. - लाभा वत, भो, अङ्गमगधानं, म. नि. 2.205; सो तेहि सद्धि अङ्गमगधानञ्च कुरुरट्ठस्स च अन्तरे वासं कप्पेत्वा इमं
ओवादं देति, ध. प. अट्ठ. 2.139; -धेसु सप्त. वि., ब. व. - अहं ते अङ्गमगधेसु, याविच्छसि, ताव ददाभि भोगे, जा. अट्ठ. 2.102. अङ्गमगधवासी पु./नपुं.. ब. व. में ही प्रयुक्त, अङ्ग तथा । मगध के निवासी या रहने वाले - नं पु., ष. वि., ब. व. - अङ्गमगधवासीनं कुलपुत्तानं दसहि सहस्सेहि, जा. अट्ठ. 1.95; अङ्गमगधवासीनं तस्स सक्कारं गहेत्वा .... ध. प. अट्ठ. 1.284; 2.139. अङ्गमङ्ग नपुं., केवल ब. व. में ही प्रयुक्त, प्रत्येक अङ्ग, एकएक अङ्ग- ततो ते, कण्णमुण्डो सुनखो अङ्गमङ्गानि खादति, पे. व. 121; तस्स अङ्गमङ्गानि वातूपत्थद्धानि होन्ति, पारा. 44; - ङ्गानुसारी त्रि, प्रत्येक अङ्ग का अनुसरण या संस्पर्श करने वाला - रिनो पु.. प्र. वि., ब. व. - अङ्गमङ्गानुसारिनो वाता. म. नि. 1.249; अङ्गमङ्गानुसारिनो वाता सत्थकवाता
खुरकवाता ... अयं वुच्चति अज्झत्तिका वायोधातु विभ. 94. अङ्गमागधिक पु., अङ्ग और मगध का निवासी मनुष्य -
अङ्गमगधेहि आगतो अङ्गमागधिको, क. व्या. 407. अङ्गमु पु.. एक स्थान विशेष का नाम- सम्पत्तविजयो गन्त्वा
ठाने अङ्गमुनामके, चू. वं. 70.130. अङ्गराग पु., [अङ्गराग], सुगन्धित-लेप, शरीर पर सुगन्धित उबटन का लेप, सुगन्धित उबटन - गं द्वि. वि., ए. व. - अङ्गराग... मुखरागं करोन्ति, अङ्गरागमुखरागं करोन्ति, चूळव.. 224; न अङ्गरागमुखरागो कातब्बो, चूळव. 225. अङ्गलट्ठि स्त्री., [अङ्गयष्टि], सुकुमार शरीर, पतला, इकहरा या छरहरा कद - एवं नो अङ्गलट्टि सुसण्ठिता भविस्सति, ध. स. अट्ठ. 422.
अङ्गवन्तु त्रि., अङ्ग वाला, शरीर वाला - वा पु., प्र. वि., ए.
व. - एकेकलोमपचितङ्गवा अह, दी. नि. 3.129. अङ्गववत्थापन नपुं॰ [अङ्गव्यवस्थापन]. ध्यानाङ्गों की संख्या का व्यवस्थापन - तो प. वि., ए. व. - अङ्गववत्थापनतो, आरम्मणववत्थापनतोति, विसुद्धि. 2.2. अङ्गवात पु., [अङ्गवात], सन्धिवात, गठिया का रोग, गठिया - आयस्मतो पिलिन्दवच्छस्स अङ्गवातो होति, महाव. 281; तुल. पब्बवात. अङ्गविकल त्रि., ब. स. [अङ्गविकल]. अङ्गवञ्चित, विकलाङ्ग -लं पु., द्वि. वि., ए. व. - अङ्गविकलं मातुगाम जिगुच्छन्ता निट्टभित्वा गच्छन्ति, अ. नि. अट्ठ. 1.302. अङ्गविकार पु.. [अङ्गविकारं], शारीरिक दोष, अङ्गों का दोष - येनङ्गविकारो, क. व्या. 293. अङ्गविक्खेप पु., [अङ्गविक्षेप] अङ्गसञ्चालन, शारीरिक चेष्टा, नृत्य, अङ्गसंकेत, शारीरिक हावभाव - अङ्गहारो अङ्गविक्खेपो, अभि. प. 101. अङ्गविज्ज त्रि., ब. स. [अङ्गविद्य], अङ्गविद्या को जानने वाला, अङ्गविद्या में दक्ष या निपुण - निमित्तं अवेच्च अधीते ति नेमित्तो एवं अङ्गविज्जो, वेय्याकरणो, क. व्या. 354. अङ्गविज्जा स्त्री., [अङ्गविद्या], मनुष्यों के अङ्गों को देखकर उनके चरित्रों और भविष्यों को बतानेवाली विद्या - अङ्गविज्जा वत्थुविज्जा खत्तविज्जा सिवविज्जा भूतविज्जा ..., दी. नि. 1.8; अङ्गविज्जाति ... अङ्गुलडिं दिस्वा विज्जं परिजप्पित्वा अयं कुलपुत्तो वा नो वा... आदिव्याकरणवसेन अङ्गविज्जा वुत्ता, दी. नि. अठ्ठ. 1.83; - य सप्त. वि., ए. व. - सो च अङ्गविज्जाय छेको होति, जा. अट्ठ. 1.279; - पाठक पु.. अङ्गविद्या में पूर्णतः निपुण या दक्ष - इतो किर सत्तमे दिवसे पुत्तं विजायिस्सतीति अङ्गविज्जापाठका आहंसु, जा. अट्ठ. 2.17; - पाठकत्त नपुं. भाव., अङ्ग-विद्या में दक्षता, निपुणता, कुशलता-त्ता प. वि., ए. व. - बोधिसत्तोपि अनविज्जापाठकत्ता .... एवं ओवदित्वा उय्योजेसि. जा. अट्ठ. 5.456. अङ्गवेकल्ल नपुं.. [अङ्गवैकल्य], शारीरिक विरूपता, विकलांगता, कुरूपता - ल्लेन तृ. वि., ए. व. - सो एवरूपेन अङ्गवेकल्लेन समन्नागतो पंसुपिसाचको विय
अतिविरूपो अहोसि, ध. प. अट्ठ. 1.265; तुल. अङ्गविकल. अङ्गसंकन्ति स्त्री. [अङ्गसंक्रान्ति], ध्यान में उच्चतर नवीन अङ्ग के ग्रहण हेतु आगे बढ़ना, नवीन ध्यानाङ्ग का अधिग्रहण - तो प. वि., ए. व. - अङ्गसङ्कन्तितो, आरम्मणसङ्कन्तितो, विसुद्धि. 2.2.
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अङ्गसत्थ
अङ्गसत्थ नपुं. (अङ्गशास्त्र] अड्डों के आधार पर भविष्यवाणी बतानेवाला विज्ञान या शास्त्र अनेन यसवा होतीति आदिनयप्पवत्तं अङ्गसत्थं दी. नि. अड्ड
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1.82.
अङ्गसदिस त्रि.. [अङ्गसदृश ]. शरीर के अङ्गों के समान या अनुरूप सी स्त्री. प्र. वि., ए. व. - अङ्गसदिसी वाचाति, जा. अ. 3.43 त नपुं. भाव. [ अङ्गसदृशत्व], शरीर के अड्डों जैसा प्रिय होने की स्थिति त्ता प. वि. ए. क. - इमस्मिं लोके मनुस्सानं अङ्गसदिसत्ता अङ्गमेतं यदिदं भाता भगिनीति जा. अड. 3.43.
अङ्गसन्तता स्त्री, अङ्गों के शान्त होने की अवस्था, - य तृ. वि. ए. व. आरम्मणसन्ततायपि अङ्गसन्ततायपि सन्ता, अ नि. अड. 3.287.
अङ्गसम त्रि.. [ अङ्गसम] अपने अड्डों के समान प्रिय, अपने शरीर के अङ्गों के समान, अपने से विलग न करने योग्य • मा पु०, प्र. वि., ब. व. भातरो नाम असमा होन्ति जा. अड. 5.318: मो पु. प्र. वि. ए. व. अङ्गसमो नाम कम्मायतनं .... खु. पा. अट्ठ. 174. अङ्गसम्पन्न त्रि. स्वस्थ अङ्गों वाला, सभी अङ्गों से युक्त नो पु. प्र. वि. ए. व. - जातिमा अङ्गसम्पन्नो, पञ्ञवा बुद्धसम्मतो, अप. 1.345. अङ्गसम्भार पु॰ [अङ्गसम्भार] अङ्गों का समुच्चय, अ अवयवों की एकत्रित राशि रा प. वि. ए. व. यथा हि अङ्गसम्भारा, होति सद्दो रथो इति, स. नि. 1 ( 1 ). 160; यथा हि अङ्गसम्भारा ..... मि. प. 24. अङ्गसरिक्खक त्रि. [अङ्गसदृक्ष] अपने शरीर के समान प्रियतर केन पु. तू. वि. ए. व. अङ्गसरिक्खकेन वा पुत्तपिनेनपि, जा. अड. 3.191. अङ्गसुत्त नपुं०, स० नि० के अनेक सुत्तों का शीर्षक, स. नि. 2(2).242; 3(1).122; 3(2).468.
अङ्गहार पु. अड्डों के हावभाव या सङ्केत, नृत्य अङ्गहारो
अङ्गविक्खेपो, अभि. प. 101.
अङ्गहीन त्रि., [अङ्गहीन ], अपाहिज विकलांग, विकृत अङ्ग वाला नो पु. प्र. वि. ए. व. पञ्च पुग्गला न उपसम्पादेतब्बा अङ्गहीनो .... परि. 253. अङ्गहेतुक पु. एक विशेष पक्षी का नाम, जंगली पक्षियों की एक जातिविशेष का प्र. वि. व. व. चेलावका पिङ्गलायो, गोटका अङ्गहेतुका, जा. अड. 7.306. अङ्गातिकम पु. [ अङ्गातिक्रम] ध्यानाङ्गों का अतिक्रमण मं
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अङ्गार
द्वि. वि. ए. व. अह्नातिक्कमं पन एतासं न इच्छन्ति पण्डिता, ध. स. अट्ठ. 253; विसुद्धि. 1.328.
"
अङ्गानुसारी त्रि., अङ्गों में परिव्याप्त या शरीर में रहनेवाली छह हवाओं में से एक का नाम - नो पु०, प्र० वि०, ब० व. वायुभेदा इमे शुद्धङ्गमो चाधोगमो तथा कुछिट्टो च कोद्वासयो अस्सासानुसारिनो अभि. प. 38-39≠ म. नि.
1.249.
अङ्गार पु. / नपुं, [ अङ्गार] 1. दहकता हुआ कोयला, कण्डा या अच्छी तरह जलती हुई लकड़ी का टुकड़ा, धूमरहित अग्नि अङ्गारो अलातमुम्मुक अभि. प. 36 इतो अङ्गारं हरथाति दी. नि. 2.125 रे पु.. द्वि. वि. ब. व. अत्तनो सीसे अङ्गारे पुणन्ति, जा. अट्ठ 6.130 स. उ. प. के रूप में अगद, कुल, खदिर, झाम, नरक, निब्बुत के अन्त इष्ट. 2. मङ्गलग्रहः द्वष्ट. अङ्गारवार, अङ्गारक: क पु० ; मङ्गलग्रह, रक्तवर्ण का ग्रह अङ्गारकादिगाहसमापयोगोपि नक्खत्तगाहोयेव दी. नि. अट्ट, 1.84 - कटाह नपुं. [अङ्गारकटाह ]. एक पात्र जलते हुए कोयले वाली कड़ाही, अंगीठी, हेन तृ. वि. ए. व. सपत्तिं अङ्गारकटाहेन ओकिरि स. नि. 1 (2).236 हे सप्त. वि. ए. व. अङ्गारकटाहे अग्गिं करवा दी. नि. अड. 1211; सु. नि. अ. 2.80 कपल्ल नपुं एक बर्तन या जलते हुए कोयले वाली कड़ाही या अंगीठी - ल्ले उपरिवत् अङ्गारकपल्ले तापेत्वा. प. प. अ. 1.163 ल्लं द्वि. वि. ए. व. - दारूनि आहरित्वा अङ्गारकपल्लं सज्जेत्वा ..... प. अ. 1. 148 अङ्गारकपल्ले उसुं तापेत्वा जा. अ. 6. 79; -कम्मकर पु.. कोयला जलानेवाला, लकड़ी को जलाकर कोयला बनानेवाला रा प्र. वि. ब. व. अङ्गारिकाति अङ्गारकम्मकरा, जा. अड्ड. 7.55: तुल. अङ्गारिक, अङ्गारीय
ध ू
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जा. अट्ठ.
- कासु 1. स्त्री, जलते हुए कोयले का गड्ढा - सुं द्वि. वि., ए. व. अङ्गारकासुं भिन्दित्वा घ. प. अट्ठ. 1.249 भवं थेरगा. 420; 2. स्त्री०, अङ्गारकासुव आनेन अनुपस्सनो जलते हुए कोयले की राशि जलितङ्गारकासुं वा दिवस तत्तं फलं वा पटिच्च यं दुक्खं उप्पज्जति 4. 107; - कासूपम त्रि.. जलते हुए कोयले के गड्ढे जैसा - मा पु. प्र. वि. ब. व. अङ्गारकासूपमा कामा. स. नि. 2(2).189, मं द्वि. कि. ए. व. अङ्गारकासूपमं देसेसि. म. नि. अट्ठ. ( मू.प.) 1 ( 1 ) 220 - गब्मक त्रि., अपने अन्दर जलते हुए अंगारों को रखने वाला कं नपुं. द्वि. वि. ए.
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व.
महन्तं अकासि चितकं, कत्वा अङ्गारगब्भकं चरिया.
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अङ्गार
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अङ्गीरस/अङ्गिरस
अङ्गारम्मणववत्थापन नपुं., तत्पु. स., ध्यान के क्रम में नवीन ध्यानाङ्गों का व्यवस्थापन, ध्यान के सन्दर्भ में नवीन आलम्बन पर चित्त का स्थिरीकरण - नं द्वि. वि., ए. व. - अङ्गारम्मणववत्थापनम्पि एके इच्छन्ति, विसुद्धि. 2.4. अङ्गारम्मणसंकन्ति स्त्री., ध्यान के सन्दर्भ में नवीन आलम्बनों की ओर आगे बढ़ना - एकन्तरिकवसेन अङ्गानञ्च आरम्मणानञ्च सङ्कमनं अङ्गारम्मणसङ्कन्तिकं नाम, विसुद्धि.
2.4.
383; - चितक नपुं.. [अङ्गारचिता स्त्री.], जलते हुए कोयले की चिता, मृतक को जलाने के लिए जलते हुए कोयले का ढेर - कं द्वि. वि., ए. व. - अङ्गारचितकं मञ्च सूलं तच्छन्तं पस्सति, जा. अट्ठ. 5.485; - जात त्रि., जलते हुए कोयले के समान संतप्त या उद्दीप्त-ता स्त्री... प्र. वि., ए. व. - अङ्गारजाता पठवी, जा. अट्ठ. 3.395; - थूप पु., [अङ्गारस्तूप], चिता की आग पर निर्मित स्तूप - इति अट्ठ सरीरथूपा नवमो तुम्बथूपो दसमो अङ्गारथूपो, दी. नि. 2.126; - पक्क त्रि., [अङ्गारपक्व], जलते हुए कोयले पर भुना हुआ - क्कं पु., द्वि. वि., ए. व. - अङ्गारपक्कं तितिरमंसं. स. नि. अट्ठ. 3.86(रो.); वाराणसिराजापि अङ्गारपक्कमंसं खादिस्सामी ति देविं आदाय अरझं पविट्ठो, विभ, अट्ठ. 445; - पच्छी स्त्री., कोयले की आग का पात्र -च्छियं सप्त. वि., ए. व. - सो सत्थ सन्तिके अङ्गारपछियं काको विय अहोसि, ध. प. अट्ट, 2.393; - पब्बत पु., [अङ्गारपर्वत], जलते हुए कोयले का पहाड़ - तं द्वि. वि., ए. व. - तमेनं, भिक्खवे, निरयपाला महन्तं अङ्गारपब्बतं आदित्तं ... आरोपेन्तिपि, अ. नि. 1(1).165-166; - तेन त. वि., ए. व. - अङ्गारपब्बतेनेव अङ्गारपब्बतं यमविसयेनेव यमविसयं मि. प. 279; - पिण्ड पु., जलते हुए कोयले का पिण्ड, लोंदा - अलातखण्ड वा अङ्गारपिण्डो वा धरिका वा धूमो वा उपट्ठाति, विसुद्धि. 1.164; - पुण्णकूप पु., जलते हुए कोयले से भरा हुआ कूप या गड्डा - पे सप्त. वि., ए. व. - अङ्गारकासुयाति अङ्गारपुण्णकूपे, पारा, अट्ठ. 1.170; - भाव पु., जलते हुए कोयले की अवस्था - वं द्वि. वि., ए. व. - आपज्जति सुवण्णं अङ्गारभावं, ध. प. अट्ठ. 2.40; - भूत पु.. जलते हुए कोयले के समान दुःख देने वाला - ता प्र. वि., ब. व. - नयिमे अम्हाकं पुत्ता, दुज्जाता एते कुलस्स अङ्गारभूता, सु. नि. अट्ठ. 1.153; - मंस पु., जलते या लहकते हुए कोयले पर भुना हुआ मांस - सं द्वि. वि., ए. व. - तत्थ अङ्गारमंसञ्च खादिस्ससि तुवं इति, म. वं. 10.16; - मसि पु., स्त्री., काजल, कालिख - सिं द्वि. वि., ए. व. - छारिकाय ओकिण्णं अङ्गारमसिमक्खितं. ध. प. अट्ठ. 2.180; - रासि पु., अङ्गारों का ढेर - म्हि सप्त. वि., ए. व. - अङ्गारकासुयाति अङ्गारपुण्णकूपे, अङ्गाररासिम्हि वा, पारा. अट्ट, 1.170; - वस्स पु./नपुं.. अङ्गारों की वर्षा -स्सं वि. वि., ए. व. - ततो अङ्गारवस्सं समुठ्ठापेसि. सु. नि. अट्ठ. 1.191; मारेन अङ्गारवस्से पवत्तिते, विसुद्धि 2.5.
अङ्गारवार पु.. मङ्गल-ग्रह के नाम पर सप्ताह के एक दिन
का नाम, मङ्गलवार, द्रष्ट. अङ्गार (2). अङ्गारिक पु., लकड़ी का कोयला जलाने वाला, कोयले का काम करने वाला - का प्र. वि., ब. व. - अङ्गारिका लोणकरा च सूदा, जा. अट्ठ. 7.52; अङ्गारिकाति अङ्गारकम्मकारा, जा. अट्ठ. 7.55. अङ्गारी त्रि., [अङ्गारिन्], लाल, रक्तिम, अरुण, गहरे लाल रंग वाला - रिनो पु., प्र. वि., ब. व. - अङ्गारिनो दानि दुमा भदन्ते, थेरगा. 527. अङ्गिक त्रि., [अङ्गिक]. अङ्गों वाला, शरीरधारी, स. उ. प. में अट्ठ., एक., चतुर, दङ्गिक, पञ्च. के अन्त. द्रष्ट., तुल. अङ्गिय. अङ्गिनी स्त्री., [अङ्गिनी], सुन्दर अङ्गों वाली नारी - निं द्वि. वि., ए. व. - अङ्गिनिन्ति अङ्गलट्ठिसम्पन्न, थेरीगा. अट्ठ. 251. अङ्गी त्रि.. [अङ्गिन]. अङ्गों वाला, शरीर-धारी - गिनो पु., ष. वि., ए. व. येन व्याधिमता अङ्गेन अङ्गिनो विकारो लक्खीयते, क. व्या. 293; स. उ. प. में चतुर०, सम. आदि के अन्त. द्रष्ट., तुल. अङ्गपच्चङ्गी. अङ्गीरस/अङ्गिरस पु., 1. बुद्ध का एक नाम - मुनिन्दो भगवा नाथो चक्खुमा ङ्गिरसो मुनि, अभि. प. 1; - स्स ष. वि., ए. व. - बुद्धस्स पुत्तोम्हि असय्हसाहिनो, अङ्गीरसस्सप्पटिमस्स तादिनो, थेरगा. 536; - सं द्वि. वि., ए. व. - अङ्गीरस पस्स विरोचमान, तपन्तमादिच्चमिवन्तलिक्खेति, अ. नि. 2(1).220; अङ्गीरसन्ति भगवतो अङ्गमङ्गेहि रस्मियो निच्छरन्ति, तस्मा अङ्गीरसोति वुच्चति, अ. नि. अट्ठ. 3.72; 2. वेदप्रणेता दस ऋषियों में से एक का नाम - अट्ठको वामको वामदेवो चाङ्गीरसो भगु, अभि. प. 109; अट्ठको वामको वामदेवो वेस्सामित्तो यमतग्गि अङ्गीरसो ..., दी. नि. 1.91; 3. एक चिकित्सक या वैद्य का नाम - ये ते अहेसु तिकिच्छकानं पुब्बका आचरिया सेय्यथिदं, नारदो धम्मन्तरी अङ्गीरसो कपिलो .... मि. प.
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अङ्गीरसी
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253; 4. असह्य श्रेष्ठी का नाम - नाहं पजानामि
असव्हसाहिनो, अङ्गीरसस्स गतिं आगतिं वा, पे. व. 279. अङ्गीरसी स्त्री., [आङ्गिरसी], अङ्गिरस गोत्र की एक नारी का नाम - सिं द्वि. वि., ए. व. - अङ्गीरसिं पियामेसि, धम्मो
अरहतामिव, दी. नि. 2.195. अङ्गीस पु., एक चक्रवर्ती राजा का नाम - सागरदेवो, भरतो
च, अङ्गीसो नाम खत्तियो, दी. वं. 3.6. अङ्गुट्ठ पु., [अङ्गुष्ठ], अंगूठा, हाथ का अंगूठा, पैर का अंगूठा - ता तु पञ्चाङ्गुट्टो च तज्जनी, अभि. प. 266; भमुकाय वा अङ्गद्वेन वा विज्ञापेति, मि. प. 216; - क पु., उपरिवत् -- तो प. वि., ए. व. - अङ्गुट्ठकतो चस्स खीरं निब्बत्ति, खु. पा. अट्ठ. 128; - गणना स्त्री., अंगूठा से गणना - नं द्वि. वि., ए. व. - अहं अडट्ठगणनं नाम जानामि, जा. अट्ठ. 1. 441; - पद नपुं., अंगूठे का चिह्न, निशान या ठप्पा - दानि द्वि. वि., ब. व. - अङ्गुलिपदानि दिस्सति अङ्गट्ठपदं, स. नि. 2(1).138; - स्नेह पु., अंगूठे की आर्द्रता, नमी, गीलापन, तरी - हेन तृ. वि., ए. व. - अङ्गुट्ठस्नेहेन यापेति रत्ति, पे. व. 454; अडट्ठस्नेहेनाति अङ्गुठ्ठतो पवत्तस्नेहेन, देवताय अङ्गहतो पग्धरितखीरेनाति अत्थो, पे. व. अट्ठ. 171. अङ्गुट्ठिगणना स्त्री., द्रष्ट. अट्ठगणना(ऊपर). अङ्गुत्तर त्रि., ब. स. अङ्ग + उत्तर, [अङ्गोत्तर], वह संग्रह या रचना, जिसमें क्रमशः ऊपर की ओर बढ़ रही अङ्कों की संख्या के आधार पर विषय रखे गये हों, केवल स. पू. प. के रूप के ही प्रयुक्त; - ट्ठकथा स्त्री., अ. नि. की अट्ठ. या व्याख्या - यं सप्त. वि., ए. व. - अङ्गुत्तरट्ठकथायं पन पठमं वेरिपुग्गलो करुणायितब्बो, विसुद्धि. 1.305; - एकक पु., अ. नि. के 20 वग्गो वाले प्रथम निपा. का नाम, अ. नि. 1(1).1-61, सा. सं. 21; 49; - तिकनिपात-वण्णना स्त्री., अ. नि. के तीसरे निपा. की अट्ठ, अ. नि. अट्ठ. 2.71-240; सा. सं. 50; - दुकनिपात-वण्णना स्त्री., अ. नि. के दूसरे निपात की अट्ठ., अ. नि. अट्ठ.2.1-70; सा. सं. 32; -निकाय सु. पि. के चौथे संग्रह का नाम, विषयवस्तु का स्वरूप सङ्ख्यात्मक पद्धति पर आधारित, यह संग्रह 11 निपात में विभक्त है, इसमें 9,557 सुत्त संगृहीत - नव सुत्तसहस्सानि, पञ्च सुत्तसतानि च, सत्तपास सुत्तानि, सङ्ख्या अङ्गुत्तरे अयं पारा. अट्ठ. 1.21; अनुपिटकीय ग्रन्थों में इसका उल्लेख एकङ्गुत्तरनिकाय अथवा केवल अङ्गुत्तर के रूप में - भासितम्पेतं, महाराज, भगवता देवातिदेवेन एकङ्गुत्तरनिकायवरलञ्छके..... मि. प. 326; सम्पत्तपरिसाय
अङ्गुलि/ अङ्गुली धम्म देसेन्तानं देसना संयुत्तअङ्गुत्तरिकद्वेमहानिकायप्पमाणाव होति, ध. स. अट्ठ. 17; अ. नि. अट्ट का नाम मनोरथपूरणी, इसके लेखक आचार्य बुद्धघोष हैं, अ. नि. के मूल ग्रन्थ को परम्परा अत्तरनिकायपालि कहती है - लज्जी पेसलो अङ्गुत्तरनिकायपालिया तदट्ठकथायञ्च अत्थयोजनं मरम्मभासाय अकासि, सा. वं. 136. अङ्गुत्तरिकनिकाय पु., अ. नि. का दूसरा नाम -
दीघमज्झिमसंयुत्त, अङ्गुत्तरिकखुद्दका, खु. पा. अट्ठ. 2. अङ्गुल' नपुं., [अङ्गुल]. अङ्गुली, अंगूठा, केवल, स. उ. प. में, अङ्गुली का स्था., मो. व्या. 3.52; अट्ठङ्गुल, चतुरङ्गुल, एकङ्गुल, एकद्वगुल इत्यादि के अन्त. द्रष्ट.. अङ्गुल नपुं.. [अङ्गुल], सात धान्यमाष वाली एक माप, अङ्कल भर की माप, लगभग एक इंच के बराबर वाली माप - ता धञमासो ति सत्त, सत्ताङ्गुलं, अभि. प. 195; सत्ता ञिमासप्पमाणं एक अङ्गुलं विभ. अट्ठ. 325; एकङ्गुलबकुलादिवसेनेव यथाक्कम, अभि. अव. 10643; - काल पु., वह क्षण विशेष, जब छाया एक अङ्गुल की लम्बाई वाली रह जाती है, दोपहर का समय - ले सप्त. वि., ए. व. - भत्तं गहेत्वा अङ्गुलकाले भुञ्जति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).129; तुल. द्वॉलकाल, द्वॉलकाले; - ग्ग नपुं.. [अङ्गुल्यग्र], अङ्गुली का अगला भाग, अङ्गुली की नोक या सिरा- ग्गेन तृ. वि., ए. व. - तेनेव अङ्गुलग्गेन तं अलग्गं परामसेय्य, अ. नि. अट्ठ. 1.101; - ट्ठि नपुं.. [अमुल्यस्थि], अङ्गुली की हड्डी, अङ्गुली का पोर या जोड़ - हिं द्वि. वि., ए. व. - इध अङ्गुलडिं दिस्वा.... दी. नि. अट्ठ. 1.83; - न्तर नपुं.. [अङ्गुल्यन्तर], अंगूठों का अन्तराल या मध्यवर्ती भाग-रं द्वि. वि., ए. व. - अक्कन्तस्साति छत्तदण्डके अङ्गुलन्तरं अप्पवेसेत्वा केवलं पादुकं अक्कमित्वा ठितस्स, पाचि. अट्ठ. 157; - न्तरिका स्त्री., अङ्गुलियों के बीच की जगह, अङ्गुलियों के बीच में विद्यमान अन्तराल - हि प. वि., ब. व. - उदकं पाणिना गहितं अडुलन्तरिकाहि पग्घरति, मि. प. 175; तस्स हि अत्तभावो उब्बेधेन चत्तारि योजनसहस्सानि ... तथा अङ्गुलन्तरिका .... खु. पा. अट्ठ. 199; - काय च. वि., ए. व. - एहि, भन्ते, अङ्गुलन्तरिकाय घटेहि, पारा. 469; - मत्त नपुं, क्रि. वि. के रूप में प्रयुक्त, केवल एक अङ्गुल की चौड़ाई, केवल एक अङ्गुल भर - अङ्गुलमत्तम्पि अपरापरं न सङ्कमति, ध, स. अट्ठ. 129. अङ्गुलि/अङ्गुली स्त्री., [अङ्गुली], अङ्गुली, उंगली - करसाखाङ्गुली, अभि. प. 266; अङ्गुलि चेत्थ छिज्जथ, थेरगा.
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अङ्गुलि/अङ्गुली 1058; अङ्गुलिं जालेत्वा ..., ध, प. अट्ट, 2.187; - क त्रि., [अङ्गुलिक], अङ्गुलियों द्वारा कार्य करने वाला - को पु., प्र. वि., ए. व. - एवं अंसिको, खन्धिको, हत्थिको, अङ्गलिको, क. व्या. 352; तुल. मो. व्या. 4.30; - का स्त्री., अङ्गलियों की माप, फैलाव, विस्तार - उण्णिगण्डा नाम होन्ति गोथना विय अङ्गुलिका विय च तत्थ तत्थ लम्बन्ति, महाव. अट्ठ. 264; - कोटिमंस नपुं.. [अङ्गुलिकोटिमांस], अङ्गुलियों के सिरे का मांस - सेहि तृ. वि., ब. व. - परिच्छेदतो द्वीसु दिसासु अङ्गुलिकोटिमंसेहि, विभ. अट्ठ. 223; - कोस पु., गोह के चमड़े का बना अङ्गुलित्राण या दस्ताना - पटिग्गहो नाम अङ्गुलिकोसो, वजिर. टी. 477: -च्छिन्न त्रि., ब. स. [अङ्गुलिछिन्न], कटी उंगलियों वाला - अङ्गुलिच्छिन्नं पब्बाजेन्ति, महाव. 155; 420; अङ्गुलिछिन्नोति यस्स नखसेसं अदस्सेत्वा एका वा बहु वा अङ्गुलियो छिन्ना होन्ति, महाव. अट्ठ. 292; - पतोदक पु., नपुं॰ [अङ्गुलिप्रतोदक], अङ्गुलियों द्वारा उत्पन्न की गयी गुदगुदाहट या गुदगुदी - भिक्खं अङ्गुलिपतोदकेन हासेसुं पाचि. 150; अङ्गुलिपतोदकेनाति अङ्गुलीहि उपकच्छकादिघट्टनं वुच्चति, पाचि. अट्ठ. 115; अञमचं अङ्गुलिपतोदकेन सजग्घन्ति सङ्कीळन्ति, अ. नि. 3(1).162; - पद नपुं.. [अङ्गुलिपद], अङ्गुलि का चिह्न या छाप, अंगूठे का ठप्पा - दिस्सन्तेव वासिजटे अङ्गलिपदानि, दिस्सति अङ्गुट्ठपदं, अ. नि. 2(2).257; स. नि. 2(1).138; - पब्ब नपुं.. [अङ्गुलिपर्व], अङ्गुलियों अथवा अंगूठों के पोर या गांठ - अङ्गुलिपब्बेहि पन परिवत्तेत्वा ..., विभ. अठ्ठ. 85; - पब्बतेमनमत्त त्रि., शा. अ. अंगूठे के पोर तक भिगोने वाला, ला. अ. बहुत कम मात्रा वाला - अङ्गलिपब्बतेमनमत्तम्पि उदकं न होति, म. नि. 1.248; - पिट्ठमंस नपुं., उंगलियों के ऊपरी भाग का मांस - ... अन्तो अंगुलिपिट्ठिमसेन विभ. अट्ठ. 223; विसुद्धि. 1.241; पाठा. अङ्गुलिपिट्ठिमंस; - पोट पु., उंगलियों को चटकाना। अथवा फोड़ना, चुटकी बजाना - चेलुक्खेपे च अङ्गुलिफोटे च पवत्तेसि, जा. अट्ठ. 5.61; ... साधु साधूति साधुकारेसु अङ्गुलिफोटनेसु चेलुक्खेपेसु च पवत्तमानेसु ..., जा. अट्ठ. 1.377: ... अच्छराघटितमत्तम्पि खणं अङ्गुलिफोटनमत्तम्पि कालन्ति अत्थो, थेरीगा. अट्ठ, 85; - मत्त नपुं., एक अंगुल की माप, एक अंगुल की चौड़ाई - अङ्गलिमत्तम्पि ऊनं नाहोसि, ध. प. अट्ठ. 2.404; - मान त्रि., एक अंगुल माप वाला - विदत्थुक्कट्ठमानानि अङ्गुलिमानानि हेद्वतो, म. वं. 28.14; - मुद्दा स्त्री॰ [अङ्गुलिमुद्रा], उंगलियों में पहने जाने
अङ्गुलिमाल वाली अंगूठी, मणिरत्न आदि का ठप्पा, जो मोहर लगाने के लिए प्रयुक्त होता था - मुद्दिकाङ्गुलिमुद्दाथ, अभि. प. 287; - मुद्दिका स्त्री., [अङ्गुलिमुद्रिका], उपरिवत् - न अङ्गुलिमुद्दिका धारेतब्बा, चूळव. 224; एक अङ्गुलिमुद्दिक नाविकस्स सच्चकारं दत्वा, जा. अट्ठ. 1.128; 2.368; - विक्खेप पु., उंगलियों की चेष्टाएं या गतिविधियां - मनापेन च हत्थपादङ्गुलिभमुकविक्खेपेन, ध. स. अट्ठ. 335; - विनामन नपुं.. उंगलियों का अवनमन या झुकाव - उपासनसालायं चापभेदचापारोपनग्गहणमुट्टिप्पटिपीळनअङ्गुलिविनामनपादठपनसरग्गहणसन्नहनआकडनसद्धारणलक्खनियमनखिपने, मि. प. 319; - वेधकसण्ठान त्रि., अंगूठी की आकृति वाला - अङ्गुलिवेधकसण्ठाने पदेसे. ध. स. अट्ठ. 344; अभि. अव. 84, पाठा. वेठनक खण्डन; - सचट्टन नपुं., उंगलियों का संघर्षण - संकीळन्ताति हसितमत्तकरणअङ्गुलिसट्टनपाणिप्पहारदानादीनि करोन्ता, दी. नि. अट्ठ. 1.207. अङ्गुलिमाल पु., एक दुर्दान्त दस्यु का नाम - ... चोरो अङ्गुलिमालो नाम लुद्दो लोहितपाणि ... अदयापन्नो पाणभूतेसु, म. नि. 2.308; वास्तविक नाम अहिंसक - अहिंसको ति मे नाम, हिंसकस्स पुरे सतो, थेरगा. 879; काटी हुई उगलियों की माला धारण करने के कारण, अंगुलिमाल नाम को प्राप्त - सो मनुस्से वधित्वा वधित्वा अंगुलीनं मालं धारेति, म. नि. 2.3083; पिता का नाम गर्ग और माता का नाम मन्त्राणी - गग्गो, खो, महाराज, पिता, मन्ताणी माताति, जा. अट्ठ. 2.311; जीवनचरित्र म. नि. के अङ्गुलिमालसुत्त की अट्ठ. में वर्णित, म. नि. अट्ट. (म.प.) 2.234-244; बुद्ध के प्रभाव से भिक्षुसङ्घ में प्रव्रजित - चोरो अङ्गुलिमालो भिक्खूसु पब्बज्जितो होति, महाव. 93; बुद्ध के मार्ग में प्रतिष्ठित हो अर्हत्व-पद को प्राप्त - आयस्मा अङ्गुलिमालो रहोगतो पटिसल्लीनो विमुत्ति-सुखपटिसंवेदी, ध. प. अट्ठ. 2.97; थेरगा. की कुछ गाथाओं के रचयिता के रूप में भी प्रसिद्ध, थेरगा. 866-891; - क पु., अङ्गुलिमाल के लिए ही प्रयुक्त - देवदत्ते च वधके, चोरे अङ्गुलिमालके, अप. 1.45; - त्थेर पु., स्थविर अङ्गुलिमाल - इदं सत्था जेतवने विहरन्तो अङ्गुलिमालत्थेरदमनं आरब्भ कथेसि, जा. अट्ठ. 5.454; - त्थेरवत्थु नपुं.. ध. प. अट्ठ. की एक कथा का शीर्षक, ध. प. अट्ठ. 2.96-97; - परित्त म. नि. के अङ्गुलिमालसुत्त में गर्भवती स्त्री के गर्भरक्षण हेतु अङ्गुलिमाल द्वारा उच्चारित रक्षाकवच - सेय्यथिदं, रतनसुत्तं मेतसुतं खन्धपरितं मोरपरितं धजग्गपरितं
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अङ्गुलीयक
अचल आटानाटियपरितं अङ्गुलिमालपरित्तं मि. प. 151; म. नि. के विहिंसा का अभाव - या खन्ति खमनता अधिवासनता एक सुत्त का शीर्षक, म. नि. 2.308-315; - पिटक नपुं.. अचण्डिक्कं अनसुरोपो अत्तमनता चित्तस्स, ध. स. 1348; - परियत्ति-सद्धम्मपटिरूपकों में से एक - वण्णपिटक लक्खण त्रि., ब. स., क्षान्ति-युक्त प्रकृति वाला, उग्रता या अङ्गुलिमालपिटकं रट्ठपालगज्जितं आळवकगज्जितं । हिंसा से रहित - णो पु., प्र. वि., ए. व. - अदोसो वेदल्लपिटकन्ति अबुद्धवचनं परियत्तिसद्धम्मप्पतिरूपकं नाम, अचण्डिक्कलक्खणो, अविरोधलक्खणो वा अनुकूलमित्तो विय, स. नि. अट्ठ. 2.177; - टि. वर्णपिटक आदि पांच खण्ड ध. स. अट्ठ. 172. बुद्ध-वचन न होते हुए भी सद्धर्म के प्रतिरूप माने गये हैं। अचपल त्रि., चपल का निषे. [अचपल], चञ्चलता से इन्हीं में से एक अङ्गुलिमालपिटक भी है.
रहित, शान्त - ला पु.. प्र. वि., ब. क. - अनुद्धता अनुन्नळा अङ्गुलीयक नपुं॰ [अङ्गुलीयक], अंगूठी, उंगली का आभरण अचपला अमुखरा अविकिण्णवाचा, म. नि. 1.39; - लं - अङ्गुलीयकमङ्गुल्याभरणं, अभि. प. 286.
नपुं, प्र. वि., ए. व. - उजु अनुद्धतं अचपलमस्स भासितं. अनोळारिकता स्त्री., भाव. अङ्ग + ओळारिक से व्यु., जा. अट्ठ. 5.193; - लेन तृ. वि., ए. व. - अचपलेन सुट्ट कतिपय ध्यानाङ्गों में स्थूलता - अङ्गोळारिकता पनेत्थ नत्थि, ठपितेन चित्तेन समन्नागतो, जा. अट्ठ. 7.188; पतिट्टितताय विसुद्धि. 1.317.
अचपलं, जा. अट्ठ. 5.196. अचक्खुक त्रि., चक्खुक का निषे., ब. स. [अचक्षुष्क], अचरिम त्रि., चरिम का निषे०, प्रायः अपुब्ब के साथ प्रयुक्त अन्धा, प्रज्ञाविहीन, ज्ञानहीन, अज्ञानी, अज्ञ - का पु., प्र. [अचरिम], वह, जो अन्तिम नहीं है, एक साथ विद्यमान - वि., ब. व. - सब्बेव खो एते, पोट्ठपाद, परिब्बाजका अन्धा बं नपुं., द्वि. वि., ए. व. - यं एकिस्सा लोकधातुया द्वे अचक्खका, त्वंयेव नेसं एको चक्खमा, दी. नि. 1.169; अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा अपुब्बं अचरिमं उप्पज्जेय्यु, अ. नि. अन्धाति पञआचक्खुनो नत्थिताय अन्धा, तस्सेव अभावेन 1(1).39; अपुबं अचरिमन्ति अपुरे अपच्छा, एकतो न अचक्खुका, दी. नि. अट्ठ. 1.282; - कं पु.. द्वि. वि., ए. व. उप्पज्जन्ति, अ. नि. अट्ठ. 1.343; अपुब्बं अचरिमं विय - तमहं, भिक्खवे, बालं पुथुज्जनं अन्धं अचक्खुकं अजानन्तं सन्दहति, मि. प. 40; अपुब्ब के साथ युगपद के अर्थ में अपस्सन्तं किन्ति करोमि, स. नि. 2(1).126.
प्रयुक्त. अचक्खुकरण त्रि., अन्धा कर देने वाला, प्रज्ञाचक्षु से विरहित अचल' त्रि., [अचल], अडिग, अटल, स्थिर, ध्रुव - ला स्त्री., कर देनेवाला, मूढ़ बना देने वाला, मोहग्रस्त कर देने वाला प्र. वि., ए. व. - अञा दिसा अचला तितसेला, जा. अट्ठ. - णा पु., प्र. वि., ब. व. - तयोमे, भिक्खवे, अकुसलवितक्का 7.57; जो पच्चन्तिमे नगरे एसिका होति गम्भीरनेमा अन्धकरणा अचक्खुकरणा अञआणकरणा पञआनिरोधिका, सुनिखाता अचला असम्पवेधी, अ. नि. 2(2).243; - लं नपुं.. इतिवु. 60; पञ्चिमे, भिक्खवे, नीवरणा अन्धकरणा वि. वि., ए. व. - पत्ता ते अचलं सुखं, थेरीगा. 352; - पत्तो अचक्खुकरणा ..., स. नि. 3(1).118.
पु.. प्र. वि., ए. व. [अचलत्वप्राप्त], अचलता की स्थिति को अचक्खुस्स त्रि., नेत्रों के लिए अहितकर, चक्षुविशुद्धि के प्राप्त - रुओ खत्तियस्स ... मुद्धावसित्तस्स पुत्तभावेन चेव लिए अनुपयोगी - स्सं नपुं, प्र. वि., ए. व. - पञ्चिमे, पुत्तेसु जेट्टकभावेन च न ताव अभिसित्तभावेन च भिक्खवे, आदीनवा दन्तकट्ठस्स अखादने... अचक्खुस्स अभिसेकप्पत्तिअत्थाय अचलप्पत्तो निच्चलप्पत्तो, अ. नि. अट्ठ. ..., अ. नि. 2(1).230; अचक्खुस्सन्ति न चक्खूनं हितं, 2.316; - प्पसाद पु., कर्म. स. [अचलप्रसाद], अडिग चक्टुं विसुद्ध न करोति, अ. नि. अट्ठ. 3.79; - स्सा पु., श्रद्धा, अचल श्रद्धा - अवेच्चप्पसन्नाति अचलप्पसादेन प्र. वि., ब. व. - तेन खो पन समयेन विहारा अवातपानका सम्पन्ना, अ. नि. अट्ठ. 3.315; - बुद्धि त्रि., [अचलबुद्धि], होन्ति अचक्खुस्सा दुग्गन्धा, चूळव. 274.
निश्चल बुद्धि वाला, चित्त की साम्यावस्था वाला, एकाग्रचित्त अचङ्कम पु., चङ्कम का निषे. [बौ. सं. अचंक्रम], चंक्रमण के - यथा.... कोचि यतचारी समाहितचित्तो ठितधम्मो अचलबुद्धि लिए अनुपयुक्त स्थान - मं द्वि. वि., ए. व. - अचङ्कम पहीनकोतूहलसह वनमज्झोगाहित्वा सक्षम अत्थं चिन्तयति, जिम्हपथं, कुम्मग्गमनुधावति, थेरगा. 1183.
मि. प. 276; - सभाव त्रि., ब. स. [अचलस्वभाव], स्थिर अचण्डिक्क नपुं., चण्डिक्क का निषे. भाव. [अचाण्डिक्य]. स्वभाव वाला, सभी स्थितियों में समभाव रखने वाला - चण्डता से रहित मन की दशा, क्षान्ति, कठोरता का अभाव, नियतोति यसादीनि निस्साय अचलसभावो, जा. अट्ठ. 7.191.
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अचल
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अचिरं
अचल पु.. [अचल], पर्वत - गिरि सेलोद्दी नगाचल सिलच्चया, अनदायितत्तं असील्यं अचित्तीकारो-इदं वच्चति अनादरियं, अभि. प. 605.
विभ. 432; अचित्तीकारोति गरुचित्तीकारस्स अकरणं, विभ. अचल पु., [अचल], एक स्थविर का नाम - मित्तसेनो अट्ठ. 471; - कत त्रि., अवज्ञात, अनादृत, अपमानित, जयसेनो अचलेन च द्वादस, दी. वं. 19.8.
विगर्हित, तिरस्कृत - तो पु०, प्र. वि., ए. व. - इधेकच्चो अचलधिति स्त्री., [अचलधृति], एक छन्द का नाम, वुत्तो. 37. सङ्घगतो अचित्तीकारकतो थेरे भिक्खू घट्टयन्तोपि तिकृति, अचलित त्रि., चलित का निषे., निर्वाण के विशे. के रूप महानि. 166. में प्रयुक्त [अचलित], अकम्पित, स्थिर, दृढ़ - तं नपुं.. प्र. अचिन्तनीय त्रि., चिन्तनीय का निषे.. [अचिन्तनीय], विचार, वि., ए. व. - अच्चन्तमचलितं असङ्घतं, जा. अट्ठ. 5.452; बुद्धि एवं तर्क की पकड़ से बाहर, अकल्पनीय - यं नपुं., अचलितन्ति किलेसेहि अकम्पितं. जा. अट्ठ. 5.453; - तो प्र. वि., ए. व. - अचिन्तनीयं वा एत्थ कारणं, बुद्धविसयो पु., प्र. वि., ए. व. - अनेरितो अघट्टितो अचलितो ... ठितो एसो ति, सु. नि. अट्ट, 1.121. होति समुद्दो, महानि. 260..
अचिन्तित त्रि., चिन्तित का निषे. [अचिन्तित], जिसका अचवनधम्म त्रि., ब. स. [अच्यवनधर्म]. वह, जिसका पुनर्जन्म चिन्तन पूर्व में कभी नहीं किया गया है, अविचारित - नहीं होना है, वह, जो पुनर्जन्म का विषय नहीं है - म्म अब्भक्खानन्ति अदिट्ठअसुतअचिन्तितपुब्ब, ध. प. अट्ठ नपुं., प्र. वि., ए. व. - इदं निच्च, इदं धुवं, ... इदं । 2.40. अचवनधम्म स. नि. 1(1).168; म. नि. 1,409; जा. अठ्ठ, 3.316. अचिन्तिय त्रि., चिन्तिय का निषे. [अचिन्त्य], अचिन्तनीय, अचित्तक त्रि.. चित्तक का निषे०, ब. स. [अचित्तक]. विचार न करने योग्य, अविचारणीय - या पु., प्र. वि., ब. बोधरहित, ज्ञानरहित, निश्चेतन, चेतनाहीन - को पु., प्र. व. - इद्धिमतो इद्धिविसयोपि कम्मविपाकोपि द्वे अचिन्तिया, वि., ए. व. - त्वं महाराज, तस्मिं समये अचित्तको अहोसी ति, मि. प. 182; - यानुभाव त्रि., अकल्पनीय महिमा वाला, मि. प. 85; - कानि नपुं., प्र. वि., ब. व. - सचे अकल्पनीय वैभव वाला - वो पु.. प्र. वि., ए. व. - अचित्तकानि कडकलिङ्गानि गहेत्वा चक्कादीनि करोन्ति ..... अचिन्तियोति अचिन्तियानुभावो, वि. व. अट्ठ. 289, पाठा. ध. प. अट्ठ. 1.327; - कं द्वि. वि., ए. व. - इमं अचित्तक । अचिन्तेय्यानुभावो. कलिङ्गरकण्डम्पि ताव तव गुणं जानाति, जा. अट्ठ. अचिन्तेय्य त्रि., चिन्तेय्य का निषे., चिन्तन करने के अयोग्य, 3.239-40.
अचिन्तनीय - व्यानि नपुं., प्र. वि., ब. व. - चत्तारिमानि, अचित्तकाय त्रि., चित्तकाय का निषे., ब. स. [अचित्तकाय], भिक्खवे, अचिन्तेय्यानि, न चिन्तेतब्बानि, अ. नि. 1(2).93;
चेतनारहित शरीर वाला, चेतनाशून्य शरीर वाला - यं पु... अचिन्तेय्यानीति चिन्तेतुं अयुत्तानि, अ. नि. अट्ट. 2.312; - द्वि. वि., ए. व. - असञकायन्ति अनिन्द्रियबद्ध त्त नपुं., भाव., चिन्तन के अयोग्य होने की स्थिति - त्ता अचित्तकायञ्च समानं, जा. अट्ठ. 7.55.
प. वि., ए. व. - न चिन्तेतब्बानीति अचिन्तेय्यत्तायेव, न अचित्तविक्खित्तक त्रि., चिन्तनरहित, विक्षिप्त, व्यग्र - को चिन्तेतब्बानि, अ. नि. अट्ठ. 2.312. पु., प्र. वि., ए. व. - अचित्तविक्खित्तकोपि, भन्ते, नागसेन अचिरं क्रि. वि., निपा. [अचिर], शीघ्र ही, हाल ही में, तुरन्त मनुजो एकमेकेनपि ताव ओपम्मेन निटुं गच्छेय्य अत्थि ही, अविलम्ब - अचिरं वत ते ततो, पिता तं दहमेस्सती ति, अकाले मरणन्ति , मि. प. 283.
जा. अट्ट. 7.352; अचिरं वतयं कायो, पठविं अधिसेस्सति, अचित्तीकत त्रि., अवज्ञात, अनादृत, तुच्छ, नगण्य, तिरस्कृत, ध. प. 41; - अरहत्तप्पत्त त्रि., शीघ्र ही अर्हत्व अवस्था को गर्हित, महत्त्वहीन - तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - ओञातं प्राप्त - त्तो पु०, प्र. वि., ए. व. - आयस्मा वङ्गीसो अवजातं हीलितं परिभूतं अचित्तीकतं, पाचि. 8-9; - ता अचिरअरहत्तप्पत्तो हुत्वा विमुत्तिसुखं पटिसंवेदी..., स. नि. स्त्री., प्र. वि., ए. व. - इत्थी, महाराज, विधवा लोकस्मि 1(1).227; - कारित त्रि., शीघ्र ही बनवाया गया, शीघ्र ही ओआता अवजाता हीळिता खीळिता गरहिता परिभूता विनिर्मित, नवनिर्मित - तं प्र. वि., ए. व. - नवं सन्थागारं अचित्तीकता, मि. प. 266-267.
अचिरकारितं होति, स. नि. 2(2).184; तुल. अचिरा, अचिरेन अचित्तीकार पु., अवमानना, अपमान, तिरस्कार - यं अनादरियं - पक्कन्त त्रि., अभी हाल में ही गया हुआ - स्स पु., ष. अनादरता अगारवता अप्पतिस्सवता अनद्दा अनदायना वि., ए. व. - अचिरप्पक्कन्तस्स च कोकालिकस्स भिक्खुनो
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अचिरवत
अचेलक
सासपमत्तीहि पिळकाहि सब्बो कायो फुटो अहोसि, सु. नि. (पृ.) 181; - न्ते सप्त. वि., ए. व. - ... अचिरपक्कन्ते देवदत्ते, स. नि. 1(1).180; - पब्बजित त्रि., नवदीक्षित, शीघ्र प्रव्रजित, हाल ही में प्रव्रजित - तो पु.. प्र. वि., ए. व. - आयस्मा वङ्गीसो नवको होति अचिरपब्बजितो ओहिय्यको विहारपालो, स. नि. 1(1).215; नवो अचिरपब्बजितो, अधुनागतो इमं धम्मविनयं महाव. 45; - परिनिब्बुत त्रि., शीघ्र निर्वाण प्राप्त - तो उपरिवत् - निग्रोधकप्पो नाम थेरो अग्गाळवे चेतिये अचिरपरिनिबुतो होति, सु. नि. (पृ.) 135; - तेसु सप्त. वि., ब. व. - ... महता भिक्खुसङ्घन सद्धिं अचिरपरिनिबुतेसु सारिपुत्तमोग्गल्लानेसु, स. नि. 3(2). 239; - प्पमा स्त्री., [अचिरप्रभा], बिजली, चपला, विद्युत् - सतेरिताक्खणा विज्जु विज्जुता चाचिरप्पभा, अभि. प. 48. अचिरवत पु., एक श्रामणेर का नाम - तेन खो पन समयेन
अचिरवतो समणुद्देसो अरञकुटिकायं विहरति, म. नि. 3.170. अचिरवती स्त्री., [अजिरवती], एक नदी का नाम, संभवतः राप्ती नदी का नाम - गङ्गाचिरवती चेव यमुना सरभू मही, अभि. प. 682; यह पांच महानदियों में एक है, अचिर अथवा शीघ्रगमन के कारण यह अचिरवती कहलायी- सेय्यथापि, भिक्खवे, यत्थिमा महानदियो संसन्दन्ति समेन्ति, सेय्यथिदं - गङ्गा यमुना अचिरवती सरभू मही, स. नि. 1(2).120;
अचिरवतिया नदिया तीरे अम्बवने, दी. नि. 1.214 अचिरविब्भन्त त्रि., कुछ ही समय पूर्व बुद्ध धर्म को छोड़ चुका, वह, जिसने अभी हाल में ही सङ्घ को छोड़ा है - न्ता स्त्री., प्र. वि., ए. व.-सुन्दरीनन्दा खो, अय्ये, अचिरविब्भन्ता विजाता, पाचि. 291. अचिरवुद्वित त्रि., वह, जिसने अभी हाल ही में मुक्ति पायी है या आरोग्य-लाभ प्राप्त किया है -- तो पु., प्र. वि., ए. व. - अथ खो भगवा गिलाना वुट्टितो अचिखुट्टितो गेला , दी. नि. 2.77; - तं पु., द्वि. वि., ए. व. - अथ खलु, भो, कुणालो सकुणो तं पुण्णमुखं .... अचिरहितं गेला एतदवोच, जा. अट्ठ. 5.420. अचिरा प. वि., प्रतिरू. निपा. [अचिरात], शीघ्र ही, हाल ही में - अचिरा चक्खूनि जीयरेति निच्चरोदनेन न चिरस्सेव चक्खूनि जीयिस्सन्ति, जा. अट्ट, 7.291. अचिरूपसम्पन्न त्रि., [अचिरोपसम्पन्न]. कुछ समय पहले ही उपसम्पदा को पाया हुआ - न्नो पु., प्र. वि., ए. व. - अचिरूपसम्पन्नो खो पनायस्मा भारद्वाजो.... सु. नि. (पृ.)
98; - न्ने पु., सप्त. वि., ए. व. - अथ खो, आनन्द, कस्सपो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो अचिरूपसम्पन्ने जोतिपाले माणवे, म. नि. 2.250. अचिरेण/अचिरेन तृ. वि., प्रतिरू. निपा. [अचिरेण], शीघ्र ही, हाल ही में - तव माता च पिता च अचिरेनेव तं पस्सितुकामो हुत्वा इधागमिस्सति, जा. अट्ठ. 7.352. अचीवरक त्रि., चीवरक का निषे., ब. स., चीवररहित, वह, जिसके पास चीवर नहीं है- को पु., प्र. वि., ए. व. - न, भिक्खवे, अचीवरको उपसम्पादेतब्बो, महाव. 114. अचेतन त्रि., चेतन का निषे., ब. स. [अचेतन], चेतनाविहीन, संज्ञाविहीन, जड़ - नं नपुं०, प्र. वि., ए. व. - यथा कटुं अचेतनन्ति , म. नि. 1.376; - नो पु., प्र. वि., ए. व. - कि पन निबुतो उपसन्तो अचेतनो सादियति, मि. प. 108. अचेत(स) त्रि., [अचेतस्]. उपरिवत् - सा पु., प्र. वि., ब.
व. - मित्तरूपेनिधेकच्चे, साखल्येन अचेतसा, जा. अट्ठ. 4.51. अचेतस त्रि., चेतस का निषे., ब. स., उपरिवत् - सो पु.. प्र. वि., ए. व. - यथा मूळ्हो अचेतसो, जा. अट्ठ. 5.60; - सं द्वि. वि., ए. व. - गिरिदुग्गचरं छेतं, अप्पपझं अचेतसं. स. नि. 1(1).230; अचेतसन्ति कारणजाननसमत्थेन चित्तेन
रहितं. स. नि. अट्ठ. 1.255. अचेतसिक त्रि., चेतसिक का निषे०, ब. स. [अचैतसिक],
शा. अ. चेतना-विहीन, स्वतःस्फूर्त, ला. अ. वह धर्म अथवा स्कन्ध, जो चैतसिक के अन्तर्गत परिगणित नहीं है - का पु., प्र. वि., ब. व. - तयो खन्धा चेतसिका, द्वे खन्धा अचेतसिका, विभ. 73; सब्बं रूपं न हेतु ... अचेतसिक चित्तविप्पयुत्तं, ध. स. 584; कतमे धम्मा अचेतसिका? चित्तञ्च सब्बञ्च रूपं, असङ्घता च धातु - इमे धम्मा अचेतसिका, ध. स. 1196; चित्तञ्च, रूपञ्च, निब्बानञ्च - इमे धम्मा
अचेतसिका, ध. स. 1530. अचेल त्रि., चेल का निषे., ब. स. [अचेल], निर्वस्त्र, नग्न, नग्न-तापस - लो पु., प्र. वि., ए. व. - यं वे पिवित्वा अचेलो नग्गो, चरेय्य गामे विसिखन्तरानि, जा. अट्ठ. 5.15; अथ खो अचेलो कस्सपो येन भगवा तेनुपसङ्कमि, दी. नि. 1.146. अचेलक पु., उपरिवत् - को पु., प्र. वि., ए. व. - अचेलको निग्गण्ठो च, जटिलो तु जटाधरो, अभि. प. 440; अचेलको नाम यो कोचि परिब्बाजकसमापन्नो नग्गो, पाचि. 1263; एकच्चो अचेलको होति मुत्ताचारो हत्थापलेखनो, म. नि. 1.389; - वग्ग पु., अ. नि. के एक वर्ग का नाम, अ. नि.
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अचेलकस्सप
50
अच्चन्त
1(1),333-335; पाचि. के एक खण्ड का नाम, पाचि. 125-147; परि. के एक खण्ड का नाम, परि. 30-32, 67-683; - वाद पु.. नग्न-तापसों का सिद्धान्त - दं द्वि. वि., ए. व. - ते उच्छेदवादं विस्सज्जेत्वा अचेलकवादं गहिसु, जा. अट्ठ. 3.215; - सावक पु.. नग्न या निर्वस्त्र रहनेवाले तापसों का श्रावक या शिष्य - का प्र. वि., ब. व. - गिही
ओदातवसना अचेलकसावका, अ. नि. 2(2).93; - सिक्खापद नपुं.. 41वें पाचित्तिय से सम्बद्ध विनय-शिक्षापद, पाचि. 125-127. अचेलकस्सप पु., एक तापस का नाम, जिसे भगवान् बुद्ध ने अपने सङ्ग में दीक्षित किया था, दी. नि. में एक 'वत्थु
का शीर्षक, दी. नि. 1.146. अचेलसुत्त नपुं.. स. नि. के एक सुत्त का नाम, स. नि.
1(2).18-21; 2(2).290-291. अचोर पु., चोर का निषे. [अचोर], वह, जो चोर नहीं है, वह, जो चौर्यकर्म में प्रवृत्त नहीं है - रा प्र. वि., ब. व. - ते पञ्चपि अचोरा, जा. अट्ठ. 1.369; - भाव पु., भाव., अचौर्यत्व - तेसं तथतो अचोरभावं अत्वा, जा. अट्ठ. 1.369; -राहरण त्रि., चोरों के द्वारा न ले जा सकने योग्य, चोरों के द्वारा हरण न करने योग्य - णं नपुं., प्र. वि., ए. व. - यथा, महाराज, आकासो न जायति, ... अनन्तो, एवमेव
खो, महाराज, निब्बानं न जायति, ... अचोराहरणं, मि. प. 292; - णो पु.. प्र. वि., ए. व. - असाधारणम सं.
अचोराहरणो निधि, खु. पा. 10. अच्चगमा, अच्चगा, अच्चगु अति + गम धातु का अद्य.. प्र. पु., ए. व., अतिगच्छति के अन्त. द्रष्ट.. अच्चकस त्रि., ब. स. [अत्यङ्कुश], अङ्कुश के द्वारा अदम्य, निरङ्कुश, अनियंत्रित- सो पु., प्र. वि., ए. व. - अच्चसोव नागो, वजितं मे तुत्ततोमर, दी. नि. 2.196. अच्चङ्गुल नपुं.. [अत्यङ्गुल]. एक अङ्गुल से अधिक - असंख्यहि
चाङ्गुल्या नआसंख्यत्थेसु अच्चङ्गुलं, मो. व्या. 3.44. अच्चति ।अच्च का वर्त, प्र. पु.. ए. व. [अर्चति], पूजा करता है, प्रशंसा करता है - च्चितुं निमि. कृ. - यो इमं
सेलं सुट्ट उपचरितुं अच्चितुं... जानाति .... जा. अट्ठ. 7.23... अच्चना स्त्री., [अर्चना], पूजा, समादर, सत्कार -
अपचित्यच्चना पूजा पहारो बलि मानना, अभि. प. 425. अच्चन्त त्रि., [अत्यन्त]. 1. पूर्ण, सम्पूर्ण, परम, अन्त का अतिक्रमण करने वाला, अविनाशधर्मा निर्वाण (नपुं. नाम के रूप में) -- न्तं नपुं, प्र. वि., ए. व. - सब्बदुक्खसमत्तिक्कम
सिवं, अच्चन्तमचलितं असङ्घतं. जा. अट्ठ. 5.452; अच्चन्तन्ति अन्तातीतं अविनासधम्म, जा. अट्ठ. 5.453; अन्तं अतीतत्ता अच्चन्तसङ्घातं अविनासधम्म निब्बानं .... अ. नि. अट्ठ. 3.342; 2. - अच्चन्तं क्रि. वि., प्रतिरू. निपा. क. सम्यक रूप से, अत्यधिक रूप से, पूर्ण रूप से - अस्स इन्दसमो राज, अच्चन्तं अजरामरो, जा. अट्ठ. 3.454; ख. लौकिक सन्दर्भ में, हमेशा, सदैव, लगातार, सतत रूप से - अपारनेय्यमच्चन्तं.... जा. अट्ठ. 6.44; नाच्चन्तं निकतिप्पओ, निकत्या सुखमेधति, जा. अट्ठ. 1.219; न अच्चन्तं सुखमेधति, निच्चकाले सुखस्मियेव पतिट्ठातुं न सक्कोति, जा. अट्ठ. 1.220; - कामानुगत त्रि., कर्म. स., कामभोगों अथवा इन्द्रियजनित सुखों के साथ अत्यधिक बंधा हुआ - स्स पु., प्र. वि., ए. व. - अच्चन्तकामानुगतस्साति अच्चन्तं कामं अनुगतस्स, जा. अट्ठ. 5.441; - कोधन त्रि., अत्यधिक क्रोधी स्वभाववाला - नो पु., ष. वि., ए. व. - चण्डो त्वच्चन्तकोधनो, अभि. प. 732; - क्खय पु., कर्म. स., पूर्ण विनाश - खयाति लोकुत्तरमग्गेन अच्चन्तक्खया, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).59; - खार त्रि., अत्यधिक नमकीन, बहुत अधिक खारा - रे नपुं.. सप्त. वि., ए. व. - अच्चन्तखारे उदके, अ. नि. अठ्ठ 2.433(रो.); - दालिद्दिय नपुं., कर्म. स. [अत्यन्त-दारिद्र्य], अत्यधिक दरिद्रता - यं द्वि. वि., ए. व. - ... अच्चन्तदालिदियं पापुणाति, जा. अट्ठ. 4.58; - दुस्सील्य नपुं., कर्म. स. [अत्यन्त-दौश्शील्य], अत्यधिक दुराचारमय व्यवहार अथवा मनोभाव - यस्स अच्चन्तदुस्सील्यं, ध. प. 162; अच्चन्तदुस्सील्यन्ति एकन्तदुस्सीलभावो, ध. प. अट्ठ. 2.85; - निट्ठ त्रि.. पूर्ण दृढ़ता वाला, हर तरह से परिपूर्ण - 8ो पु., प्र. वि., ए. व. - भिक्खु संखित्तेन ... होति अच्चन्तनिट्ठो ..., म. नि. 1.320; - नियामकथा स्त्री., कथा. के उन्नीसवें वग्ग की सातवीं कथा का शीर्षक, कथा. 472-74; - नियामता स्त्री., अन्तिम समाश्वासन, निश्चित प्रकृति की निर्भरता - अत्थि पुथुज्जनस्स अच्चन्तनियामता, कथा. 477; - निरोध पु., पूर्ण रूप से क्षय, समूचे तौर पर उन्मूलन - निरोधोपि हि खयनिरोधो च अच्चन्तनिरोधो चाति दुविधोयेव, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).194; - पेमानुगत त्रि., असीम प्रेमभाव से भरपूर - स्स पु.. ष. वि., ए. व. - अच्चन्तपेमानुगतस्स भरिया .... जा. अट्ठ. 5.445; - वण्ण त्रि., ब. स., अत्यधिक सुन्दर रूप वाला - ण्णा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - नच्चन्तवण्णा न बहून कन्ता ..., जा. अट्ठ.
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अच्चय
51
अच्चायत
5.443; नच्चन्तवण्णाति अभिरूपवती, जा. अट्ठ. 5.444; - अभि. प. 404; - येन तृ. वि., ए. व. - एतरहि वा मम वा विराग पु., कर्म. स., राग का पूर्णरूप से अभाव - अच्चयेन..., दी. नि. 2.78; ... पितु अच्चयेन नियामकजेट्टको विरागानुपस्सीति एत्थ द्वे विरागा खयविरागो च अच्चन्तविरागो हुत्वा .... जा. अट्ठ. 4.125; ला. अ. 2. अतिक्रमण, नियमों च, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).194; - वोदान नपुं.. कर्म. का उल्लंघन, अतिचार, दोष, अपराध - अच्चयो अतिक्कमे स., पूर्ण रूप से विशुद्धि- सुचिन्ति किलेसमलसमुच्छेदकरणतो दोसे, अभि. प. 1117; - यं द्वि. वि., ए. व. - .... भगवा अच्चन्तवोदानं, खु. पा. अट्ठ. 144; - संयोग पु., कर्म. स., अच्चयं अच्चयतो पटिग्गण्हात .... दी. नि. 1.75; तत्थ अव्यवहित सातत्य, व्यवधान से रहित निरन्तरता, लगातारपन अच्चयोति अपराधो, दी. नि. अट्ठ. 1.191; अच्चयं देसयन्तीनं - गे सप्त. वि., ए. व. - कालद्धानमच्चन्तसंयोगे दुतिया यो चे न पटिगण्हाति, स. नि. 1(1).29; स. उ. प. के रूप विभत्ति होति, क. व्या. 300; सद्द. 3.581, तुल. पाणिनि, में अत्थ., थुल्ल., दुर०, नान., पाण., फल., वस्सान., हिम. 2.3.5; अच्चन्तसंयोगे चेतं उपयोगवचनं, वि. व. अट्ठ. 57%3; के अन्त. द्रष्ट.; - पटिग्गहण नपुं.. [अत्ययप्रतिग्रहण], एवंजातिके सत्तन्तपाठे अच्चन्तसंयोगत्थो सम्भवति, ख. पा. पापस्वीकरण पर क्षमा-प्रदान, पाप-निर्मोचन, क्षमादान - अट्ठ. 86; - सन्त त्रि., कर्म. स. [अत्यन्तशान्त], पूर्ण रूप स्स ष. वि., ए. व. - ... अच्चयपटिग्गहणस्स कतत्तापि त्वं से शान्ति-भाव से युक्त - न्ता स्त्री., प्र. वि., ए. व. - अम्हाकं आचरियोव, जा. अट्ठ. 5.380; - सुत्त नपुं., स. नि. अच्चन्तसन्ता पन या अयं निब्बानसम्पदा, विसुद्धि. 1.56; - के एक सुत्त का शीर्षक, स. नि. 1(1).276-77. सन्ति स्त्री.. [अत्यन्तशान्ति], पूर्णशान्ति, निर्वाण की अवस्था अच्चरुचि अति + रुच का अद्य, प्र. पु., ए. व., - अच्चन्तसन्ति वुच्चति अमतं निब्बानं, महानि. 52; - सील ___अत्यधिक प्रकाशित या सुशोभित हुआ, अतिरोचति के अन्त. त्रि., ब. स., अनैतिक, सदाचार-विहीन, शील का अतिक्रमण द्रष्ट.. करने वाला - लासु स्त्री., सप्त. वि., ब. व. - ... अच्चसरा/अच्चसा/अच्चसारि अति + /सर का अद्य., अच्चन्तसीलासु असञ्जतासु, जा. अट्ट. 5.445; प्र. पु., ए. व., बहुत तेजी के साथ आगे को बढ़ा, अतिसरति अच्चन्तसीलासूति अतिक्कन्तसीलासु, जा. अट्ठ. 5.447; - के अन्त. द्रष्ट.. सुख नपुं. [अत्यन्तसुख], अत्यधिक सुख- न पापजनसंसेवी अच्चहासि द्रष्ट. अतिहरति के अन्त.. अच्चन्तसुखमेधति, जा. अट्ठ. 1.466; अच्चन्तसुखं एकन्तसुखं अच्चादर पु., कर्म. स. [अत्यादर], अत्यधिक सम्मानभाव, निरन्तरसुखं नाम न एधति, तदे; - सुखुमाल त्रि., अच्छी देखभाल - रेन तृ. वि., ए. व. - भगवतो ब्रह्मसमत्तं अत्यन्त सुकोमल - लो पु., प्र. वि., ए. व. - त्वं खोसि, आरब्भ अच्चादरेन सपथं करोति, सु. नि. अट्ठ. 2.130. महाराज, खत्तियसुखुमालो, मि. प. 23; - सुञता स्त्री., अच्चाधाय अति + आ +vधा का पू. का. कृ. [अत्याधाय], परम या चरम शून्यता - मग्गेन विपस्सनं निवत्तेत्वा अनपब्बेन एक के ऊपर दूसरे को रखकर, एक पर एक रूप में अच्चन्तसुञता नाम दस्सिता होति, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) विन्यस्तकर, थोड़े से तिरछे रूप में ऊपर की ओर चढ़ा कर 3.113; - सुद्धि स्त्री., [अत्यन्तशुद्धि]. पूर्ण विशुद्धि - ... - अथ खो भगवा ... दक्खिणेन परसेन सीहसेय्यं कप्पेति अच्चन्तसुद्धीति न ते वदन्ति, सु. नि. 800; - सेट्ठ त्रि., पादे पादं अच्चाधाय ..., स. नि. 1(1).32; अच्चाधायाति [अत्यन्तश्रेष्ठ], सबसे श्रेष्ठ, उत्तम - हाय स्त्री., च. वि., अतिआधाय, ईसकं अतिक्कम्म ठपेत्वा, स. नि. अट्ठ. ए. व.- अथो अच्चन्तसेट्ठाय परत्थपटिपत्तिया, सद्धम्मो. 293; 1.71-72; दी. नि. 2.102; दी. नि. अट्ठ. 2.149. - ताधम्मबहुल त्रि., अधार्मिक कार्यों में अत्यधिक लिप्त - अच्चाभिक्खणं अ., क्रि. वि. [अत्यभीक्ष्णं], बहुधा, प्रायः, स.
अच्चन्ता-धम्मबहुले मुनिन्दसुतवज्जिते .... सद्धम्मो. 11. पू. प. के रूप में ही प्रयुक्त; - संसग्ग पु. [अत्यभीक्ष्णसंसर्ग]. अच्चय पु.. [अत्यय], शा. अ. (समय का) निकल जाना, प्रायः होने वाला मिलन या संसर्ग - ग्गा प. वि., ए. व. - बीत जाना- येन तृ. वि., ए. व. तस्सा रत्तिया अच्चयेन, अच्चाभिक्खणसंसग्गा, असमोसरणेन च जा. अट्ठ. 5.221; सु. नि. (पृ.) 169; अथ खो आयस्मा नागसेनो तस्सा रत्तिया अच्चाभिक्खणसंसग्गाति अतिविय अभिण्हसं- सग्गेन, जा. अच्चयेन .... मि. प. 100; - ये सप्त. वि., ए. व. - अट्ठ. 5.222. अहोरत्तानमच्चये, स. नि. 1(1).35; ला. अ. 1. मृत्यु, अन्त, अच्चायत त्रि., [अत्यायत], अत्यधिक फैला हुआ, मरण, देहान्त - मरणं कालकिरिया पलयो मच्चु चाच्चयो. अतिशय खिंचा हुआ या तना हुआ - ता स्त्री.. प्र. वि., ब.
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अच्चायिक
52
अच्चि/अच्ची
व. - वीणाय तन्तियो नेव अच्चायता होन्ति, महाव. वि., ए. व. - यं अस्स गामतो नेव अविदूरे न अच्चासन्ने, 254.
महाव. 44. अच्चायिक त्रि., [आत्ययिक], 1. अपरिहार्य, शीघ्र करणीय, अच्चासरति अति + आ + /सर का वर्त, प्र. पु., ए. व., बिना विलम्ब के तुरन्त सम्पादनीय - कं नपुं.. प्र. वि., ए. शा. अ. बहुत आगे या दूर तक चला जाता है, ला. अ. व. - सचे पनस्स अच्चायिकं करणीयं, महाव. 183; - निर्धारित सीमा अथवा नियमों का अतिक्रमण करता है - कानि ब. व. - तीणिमानि, भिक्खवे, कस्सकस्स गहपतिस्स अच्चारद्धवीरियेन हि उद्धच्चे पतन्तो अच्चासरति .... सु. अच्चायिकानि करणीयानि, अ. नि. 1(1).273; अच्चायिकानीति नि. अट्ठ. 1.19. अतिपातिकानि अ. नि. अट्ठ. 2.213; 2 असामान्य, अत्यधिक, _ अच्चासरा स्त्री., अच्चासरति से व्यु., वञ्चना, ठगी, प्रचुर - केन पु./नपुं, तृ. वि., ए. व. - अच्चायिकेन लुद्देन, कूटसंरचना, छल-प्रपञ्च, माया - या एवरूपा माया मायाविता यो नो गावोव सुम्भति, जा. अट्ठ. 7.319.
अच्चासरा वञ्चना निकति ... अयं वुच्चति माया, विभ. 413; अच्चारद्ध त्रि., [अत्यारब्ध], अत्यन्त कष्ट-साध्य, सुदृढ़, कत्वा पापं पुन पटिच्छादनतो अतिच्च आसरन्ति एताय कठोर, प्रबल - म्हि नपुं., सप्त. वि., ए. व. - अच्चारद्धम्हि सत्ताति अच्चासरा, विभ. अट्ठ. 465. वीरियम्हि ..., थेरगा. 638; - द्धन तृ. वि., ए. व. - अच्चाहित त्रि., [अत्यहित], अत्यधिक अहितकारक - तं अच्चारद्धेन वीरियेन तेमासं कम्मट्ठानं भावेत्वा .... जा. अट्ठ. नपुं., प्र. वि., ए. व. - अच्चाहितं कम्मं करोसि लई, जा. 4.119; - विरिय नपुं., अत्यन्त प्रबल पराक्रम, दृढ़ उत्साह अट्ठ. 4.42; अच्चाहितन्ति हितातिक्कन्तं, अतिअहितं वा, - अच्चारद्धविरियं उद्धच्चाय संवत्तति, महाव. 2543; - जा. अट्ठ. 7.204. विरियता स्त्री., भाव. [अत्यारब्धवीर्यत्व], अत्यधिक वीर्यता, अच्चि/अच्ची स्त्री./पु., [अर्चिष], लपट, आग की लौ या प्रबल पराक्रम से युक्त होने की दशा, प्रयास में अशिथिलता चिनगारी, ज्वाला की शिखा, प्रकाशकिरण - अथ सिखा - यस्मि समये अच्चारद्धवीरियतादीहि उद्धतं चित्तं होति जाला अच्चि वा पुमे, अभि. प. 35; जालंसुस्वच्चि नो पुमे, ..., म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).308.
अभि. प. 1102; अच्ची यथा वातवेगेन खित्ता, सु. नि. 1080; अच्चावदति अति + आ + Vवद, वर्त. प्र. पु.. ए. व.. 1. अच्चीति अनलजालक्खन्धो, जा. अट्ठ. 5.202; - जाला चापलूसी करके वश में कर लेता है, मन्त्रमुग्ध कर देता है, स्त्री.. [अर्चिज्वाला], देदीप्यमान आग की लौ, चमकती हुई मीठी बोली बोलकर बहका देता है या ठग लेता है - ... प्रकाश-किरण - अच्चिजालामालके ... पच्चति ..., मि. प. चत्तालीसाय... ठानेहि इत्थी परिसं अच्चावदति ..., ध. प. 322; - बद्ध/अच्छिबद्ध त्रि., [अर्चिबद्ध]. शा. अ. किरणों अट्ठ. 2.396; 2. विवाद में अत्यधिक बोलता है, विवाद में मे बंधा हुआ, ला. अ. लड़ियों या पंक्तियों में विभक्त, हल्ला करते हुए दूसरे को पीछे छोड़ देता है - दन्ते वर्त. चौकोर आकृति के टुकड़ों में विभक्त, मर्यादाओं में बंधा हुआ कृ., पु., द्वि. वि.. ब. व. - ... अञ्जमझं सुतेन अच्चावदन्ते - अद्दसा खो भगवा मगधखेतं अच्छिबद्धं पालिबद्धं मरियादबद्धं ...., स. नि. 1(2).182; अच्चावदन्ते ति अतिक्कम्म वदन्ते, ..., महाव. 378; अच्छिबद्धन्ति चतुरस्सकेदारकबद्धं, महाव. सुतपरियत्तिं निस्साय अतिविय वादं करोन्तेति अत्थो, स. अट्ठ. 384; - मन्तु 1. त्रि., [अर्चिष्मत], चमकदार, प्रभास्वर, नि. अट्ठ. 2.154; 3. हंसी या खिल्ली उड़ाया - थ अद्य.. लपटों से युक्त, देदीप्यमान - मा पु.. प्र. वि., ए. व. -. प्र. पु., ए. व. - भिक्खुनियो अच्चावदथा ति, पाचि. 300. .. अग्गि अच्चिमा चेव वण्णवा च पभस्सरो .... म. नि. 2. अच्चासन नपुं.. [अत्यशन], अधिक रूप में ग्रहण किया गया 367; - न्तं द्वि. वि., ए. व. - एवं सब्बङ्गसम्पन्न, अच्चिमन्तं भोजन - स्स ष. वि., ए. व. - अच्चासनस्स पुरिसो, पभस्सरं जा. अट्ठ. 7.172; - न्तो ब. व. - अच्चिमन्तो पायासस्सापि तप्पतीति, जा. अट्ठ. 1.184; अच्चासनस्साति महब्भया, जा. अट्ठ. 5.258; 2. अग्नि - हुतावहोच्चिमा, करणत्थे सामिवचनं, अतिअसनेन अतिभत्तेनाति अत्थो, तदे. अभि. प. 34; - मतो ष. वि., ए. व. - अच्चि अच्चिमतो 1.184.
लोके, ध. स. अट्ठ. 335; 3. पु.. एक पौराणिक राजा का अच्चासन्न त्रि., [अत्यासन्न], अत्यधिक समीप, बहुत नाम - एकसतं च राजानो अच्चिमस्सासि अत्रजा, दी. वं. अधिक निकट - नं नपुं, प्र. वि., ए. व. - सेनासनं 3.14; - मती स्त्री., वेस्सवण की एक पुत्री का नाम - नातिदूर होति नाच्चासन्नं..., अ. नि. 3(2).13; - न्ने सप्त. ... अच्चिमती राजवरस्स सिरीमतो, सुता च रुजो वेस्सवणरस
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अच्चित
53
अच्चुपसेवतो
धीता..., वि. व. 316; - माली त्रि., [अर्चिमाली], ज्वालाओं की माला को धारण करने वाला (अग्नि)- यथापि पावको ब्रह्मे, अच्चिमाली यसस्सिमा, जा. अट्ठ, 5.57; अच्चिमाली ति अच्चीहि युत्तो, जा, अट्ठ. 5.58; - वेग पु., ज्वालाओं अथवा आग की लपटों का वेग - ... समन्ता सतयोजनानुफरणच्चिवेगा ..., मि. प. 149; - सङ्घ पु.. ज्वालाओं या आग की लपटों की राशि, बहुत सारी आग की ज्वालाएं - अच्चिसङ्घपरेतो सो, दुक्खं वेदेति वेदनं, जा. अट्ठ. 5.260. अच्चित त्रि., अच्च का भू. क. कृ., [अर्चित], पूजित, सम्मानित, सत्कृत, सम्मानित - अपचायितो च महितो पूजितारहिताच्चिता, अभि. प. 750; - तो पु., प्र. वि., ए. व. - सूपचिण्णो अयं सेलो, अच्चितो मानितो सदा, जा. अट्ठ. 7.23. अच्चुक्कट्ठ त्रि. [अत्युत्कृष्ट], शा. अ. ऊपर की ओर अत्यधिक खींचा गया या ले जाया गया, ला. अ. अत्यधिक समुन्नत, बहुत अधिक उत्तम - टुं नपुं., प्र. वि., ए. व. - ... न च तस्स भोतो गोतमस्स काये चीवरं अच्चुक्कद्वं होति न च अच्चोक्कट्ठ ..., म. नि. 2.347; यो हि याव हनुकद्वितो उक्खिपित्वा पारूपति, तस्स अच्चुक्कट्ठ नाम होति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.277. अच्चुग्गत त्रि., [अत्युद्गत], शा. अ. अत्यधिक ऊपर की
ओर गया हुआ, ला. अ. बहुत ऊंचा, लम्बा, उन्नत, बहुत अधिक ऊपर तक व्याप्त - तं पु.. वि. वि., ए. व. - नभे अच्चुग्गतं धीरं, चन्दवं गगने यथा, बु. वं. 291; अनुमानेन जानन्ति, दिस्वा अच्चुग्गतं गिरि मि. प. 314; - तो पु., प्र. वि., ए. व. - सिनेरु, भिक्खवे, पब्बतराजा ... महासमुद्दा अच्चुग्गतो, अ. नि. 2(2).237; -धज पु., दूसरों से अधिक ऊपर उठी हुई ध्वजा - केतु वुच्चति बहूसु धजेसु अच्चुग्गतधजो, ध. स. अट्ठ. 397; - सरीर त्रि., ब. स., बहुत लम्बे शरीर वाला - को नु असि त्वं एवं
अच्चुग्गतसरीरोति, जा. अट्ठ. 4.99. अच्चुग्गम्म अति + उ + गम का पू. का. कृ. [अत्युद्गम्य]. अधिक ऊपर उठकर - उदकं अच्चुग्गम्म ठितानि अनुपलित्तानि उदकेन, म. नि. 1.228; ... उप्पलं वा पदुमं वा पुण्डरीकं वा उदके जातं उदके संवद्धं उदका अच्चुग्गम्म तिट्ठति ..., अ. नि. 1(2).44. अच्चुण्ह त्रि., [अत्युष्ण], अत्यधिक गर्म, बहुत उष्ण - ... तस्सा अच्चुण्हअतिसीतअतिअम्बिलादिपरिभोगं वज्जेत्वा सुखेन
गों परिहरियमानाय .... ध. प. अट्ठ. 1.297; - ण्हं पु./नपुं., द्वि. वि., ए. व. - ततो पट्ठाय यागु ददमाना अच्चुण्हं वा अतिसीतलं वा अतिलोणं वा अलोणं वा देति,
जा. अट्ट. 3.374. अच्चुत 1. त्रि., [अच्युत, चिरस्थायी, अपने स्वरूप में स्थिर, अपरिणामधर्मा, अचल, ध्रुव - तो पु., प्र. वि., ए. व. --- अच्चुतो च सद्धम्मा, अ. नि. 3(1).121; 149; - तं' पु., वि. वि., ए. व. - अच्चुतन्ति संवण्णितं पदमज्झगाति ..., सु. नि. अट्ट, 1.212; - तं' नपुं., प्र. वि., ए. व. - अच्चुतन्ति सस्सतं, ध. प. अट्ठ. 2.186; 2. नपुं., निर्वाण - अपवग्गो विरागो च पणीतं अच्चुतं पदं, अभि. प. 83; अज्झगा अमतं सन्तिं, निब्बानं पदमच्चुतं, सु. नि. 2063; एवरूपा हि अच्चुतं अमतं महानिब्बानमेव पापुणन्ति, ध. प. अट्ठ. 2.186; - गत/पत्त त्रि., निर्वाण की अच्युत अवस्था में पहुंचा हुआ, निर्वाण का साक्षात्कार किया हुआ - सो अभिज्ञापारगू ... अच्चुतगतो अच्चुतप्पत्तो अमतगतो अमतप्पत्तो निब्बानगतो निब्बानप्पत्तो, महानि. 15%; अच्चुतगतोति चुतिविरहितं निब्बानं मग्गेन गतो, महानि. अट्ट. 65; 3.क. पु.. एक व्यापारी का नाम - ... ककुसन्धस्स भगवतो काले अच्चुतो नाम सेट्टि .... जा. अट्ठ. 1.103; 3.ख. एक ऋषि का नाम - अच्चुतोति एवंनामको इसि तत्थ वसति, जा. अट्ट, 7.297; 3.ग. एक प्रत्येकबुद्ध का नाम - अथच्चुतो अच्चुतगामव्यामको, म. नि. 3.116; 3.घ. देवों के एक वर्ग-विशेष का नाम - वरुणा सहधम्मा च, अच्चुता च अनेजका, दी. नि. 2.191; --- गामी पु., विजय के साथियों में से एक का नाम - अच्चुतगामी उपतिस्सो पठमं तो इधागतो, दी. वं. 9.32; - वाद पु., निर्वाण से सम्बन्धित अथवा निर्वाण-विषयक वाद, शान्तिवाद - सन्तिवादोति सन्तिवादो... अभयवादो अच्चुतवादो अमतवादो
अच्चुति स्त्री., चुति का निषे. [अच्युति], अच्यवन, अस्खलन, अपुनर्भव, पुनर्जन्म में प्रवेश न करना - तहि सयं अचवनधम्मत्ता अधिगतानं अच्चुतिहेतुभावतो च नत्थि एत्थ चुतीति अच्चुतं, थेरगा. अट्ठ. 1.15. अच्चद्धमातभाव पु., भाव., आत्मदर्प अथवा अहङ्कार से भरी हुई मनोदशा, अतिमान - अतिमानो, अतिविय अहङ्काररसो, अच्चु मातभावपच्चुपट्टानो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).114; पाठा. अच्चुद्धमताभाव. अच्चुपसेवतो त्रि., अति + उप + vसेव का वर्त. कृ., पु.,
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अच्चुळार 54
अच्छ ष. वि., ए. व. [अत्युपसेवतः], अत्यधिक साथ संग करने ख. अच्च का वर्त.. प्र. पु., ए. व., [अर्चयति], तुल. वाले का - अनत्था तात ववन्ति, बालं अच्चुपसेवतो, जा. अच्चति, द्रष्ट. अच्चति के अन्त.. अट्ठ. 3.463.
अच्चेन्ति-सुत्त नपुं., स. नि. के देवतासंयुत्त के चौथे सुत्त अच्चुळार त्रि., [अत्युदार], अत्यधिक प्रभावशाली - राहि का नाम, स. नि. 1(1).3-4.
स्त्री., तृ. वि., ब. व. - अच्चुळाराहि पूजाहि देवा नागा नरा अच्चोक्कट्ठ त्रि.. [अत्यवकृष्ट], नीचे की ओर अत्यधिक पिच. म. वं. 19.7.
खींचा गया अथवा ले जाया गया - ... न च तस्स भोतो अच्चेक त्रि., अतिरिक्त, असाधारण, असामान्य, प्रदान की जा गोतमस्स काये चीवरं अच्चुक्कट्ठे होति न च अच्चोक्कट्ठ, रही वस्तु-विशेष की समय आदि की दृष्टि से असामान्यता म. नि. 2.347. - अच्चेकं मञ्जमानेन भिक्खुना पटिग्गहेतब्बं ..., पारा. अच्चोगाळ्ह त्रि., [अत्यवगाढ़], अमर्यादित, असंयत, 388; -- चीवर नपुं, कर्म, स., भिक्षु द्वारा असामान्य __अत्यधिक अपव्यययुक्त - ... समं जीविकं कप्पेति नाच्चोगाळ्हं परिस्थिति में प्राप्त चीवर - अच्चेकं मञ्जमानेन ... नातिहीनं अ. नि. 3(1).110. पटिग्गहेतब्ब पटिग्गहेत्वा याव चीवरकालसमयं अच्चोदक नपुं, कर्म. स. [अत्युदक]. अत्यधिक जल - निक्खिपितब्बन्ति सञआणं कत्वा निक्खिपितब्ब, इदं । सेसजनेहि कतसस्सं अच्चोदकेन वा अनोदकेन वा नस्सति, अच्चेकचीवर न्ति, पारा. 389; - चीवर-सिक्खापद नपुं, ध. प. अट्ट, 1.33; - टि. अच्चोदर (अति + उदर) एवं निस्सग्गिय 28 का शीर्षक, पारा. 387-90; - टि. सेनाक्षेत्र पच्चोदर आदि के सादृश्य पर अच्चुदक के स्थान पर की ओर जा रहे, लम्बी यात्रा पर निकल रहे अथवा गम्भीर अच्चोदक रूप, द्रष्ट, मो. व्या. 1.29. रूप से रुग्ण व्यक्ति द्वारा दान दिया गया तथा पूर्णिमा के अच्चोदर नपुं., कर्म. स., बहुत बड़ा उदर, विशाल पेट - दिन भिक्षु के द्वारा प्राप्त चीवर अच्चेक-चीवर कहलाता उदरं नून अजेसं सुव अच्चोदरं तव, जा. अट्ठ. 4.248.
अच्चोदात/अतिओदात त्रि., [अत्यवदात], अत्यधिक अच्चेति क. अति + Vइ का वर्त, प्र. पु., ए. व., [अत्येति], उजला, अत्यधिक गोरी त्वचा वाला - ता स्त्री., प्र. वि., ए. 1. पार कर जाता है, अतिक्रमण करता है, उल्लंघन करता व.- ... अभिरूपा दस्सनीया ... नातिकाळिका नाच्चोदाता है - वेलं न अच्चेति महासमुद्दो, जा. अट्ठ. 6.187; ... न ...., दी. नि. 2.131; अतिओदाताय खीरं अतिउण्ह होति. अच्चेतीति ... वेलं अतिक्कमितुं न सक्कोति, जा. अट्ठ. 6. जा. अट्ठ. 6.3. 188; 2. एक ओर होकर निकल जाता है, खो जाता है, अच्छ 1. पु.. [ऋक्ष], भालू - अच्छो इक्को च इस्सो त. अदृश्य हो जाता है - अत्था अच्चेन्ति माणवे, दी. नि. अभि. प. 612; - छं द्वि. वि., ए. व. - तेन खो पन 3.140; - न्ति ब. व. ... माणवेति एवरूपे पुग्गले अत्था समयेन लुद्दका ... अच्छं हन्त्वा ... विहरन्ति, महाव. 2963B अतिक्कमन्ति, तेसु न तिट्ठन्ति, दी. नि. अट्ठ. 3.118; 3. -स्स च. वि, ए. व. - यो च हत्थिस्स भायति ... अच्छस्स उपेक्षा करता है, खो देता है - ... अत्तनो अत्थं न अच्चेति ... भायति, मि. प. 149; - चम्म नपुं, तत्पु. स., [ऋक्षचर्मन]. नातिवत्तति, न हापेतीति अत्थो, जा. अट्ठ. 4.149; 4. गुजर भालू की खाल - तेन खो पन समयेन सङ्घस्स अच्छचम्म जाता है, बीत जाता है - च्चयन्ति वर्त., प्र. पु.. ब. व. - उप्पन्न होति, चूळव. 307; - फन्दन नपुं.. द्व. स., शा. अच्चयन्ति अहोरत्ता, जीवितं उपरुज्झति, थेरगा. 145; अ. भालू एवं फन्दन नामक एक वृक्ष, ला. अ. स्वाभाविक अच्चयन्तीति अतिक्कमन्ति, लह लहं अपगच्छन्तीति अत्थो, वैर-भाव - नानं ष. वि., ब. व. - ... अच्छफन्दनानं विय थेरगा. अट्ठ. 1.289; 5. मर जाता है, कालकवलित हो काकोलूकानं विय च कप्पट्ठितिकं वो वेरं अभविस्स, ध. प. जाता है - मच्चो एकोव अच्चेति, एकोव जायते कुले, जा. अट्ठ. 1.32; - मंस नपुं.. [ऋक्षमांस], भालू का मांस - अट्ठ. 4.116; 6. किसी दूसरे की तुलना में अधिक श्रेष्ठ अच्छमंसं सूकरमंसन्ति ... खादति, ध, स. अट्ठ. 406-7;होता या बढ-चढ़कर होता है - पञ्जन अच्चेति सिरी वसा स्त्री., तत्पु. स. [ऋक्षवसा]. 1. भालू की चर्वी - सं कदाचि, जा. अट्ठ. 6.191; 7. अभिभूत कर लेता है, 'वशवर्ती द्वि. वि., ए. व. - अनुजानामि भिक्खवे, वसानि भेसज्जानि बना लेता है, नियन्त्रित कर लेता है - कथं स दुक्खमच्चेति, - अच्छवसं, मच्छवसं, सुसुकावसं. महाव. 275; परि. 253; सु. नि. 185-86; पुरायं अम्हे अच्चेति.... जा. अट्ठ. 5.147; 2. केवल गवच्छ, सेतच्छ जैसे स. उ. प. में अच्छि के
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अच्छकजी/अच्छकञ्जिका
55
अच्छर
परिवर्तित अच्छ रूप में प्राप्त, तत्रैव द्रष्ट.; 3. त्रि., [अच्छ], स्वच्छ, निर्मल, विमल, साफ-सुथरा - च्छो पु., प्र. वि., ए. व. - ... अच्छो पसन्नो विमलो गभीरप्पभुती तिसु, अभि. प. 670; अयं खो मणि वेळुरियो सभो ... अच्छो विप्पसन्नो अनाविलो ..., दी. नि. 1.67; - च्छं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अच्छं भवेय्य उदकं विप्पसन्नं अनाविलं, मि. प. 32. अच्छकजी/अच्छकञ्जिका स्त्री., साफ-सुथरा दलिया, स्वच्छ खिचड़ी अथवा तरल पेय, स्वच्छ मांड़ - जिं द्वि. वि., ए. व. - अनुजानामि, भिक्खवे, अच्छकञ्जिन्ति, महाव. 283; अच्छकञ्जियन्ति तण्डुलोदकमण्डो, महाव. अट्ठ, 353. अच्छगल्ल/अच्छगल्लक पु., श्रीलङ्का के एक प्राचीन बौद्ध-विहार का नाम - अरिद्वपादे मकुलक, पुरिमायच्छगल्लक, म. वं. 21.6. अच्छति अस/आस का वर्तः, प्र. पु., ए. व., किसी स्थान पर है, विद्यमान है, बैठता है, आसीन है - ... अग्गिं परिचरन्तो अच्छति, दी. नि. 1.89; कायं बलाका रुचिरा, काकनीळस्मिमच्छति, जा. अट्ठ. 2.303; - सि, म. पु., ए. व. - ... अग्यागारं करित्वा अग्गिं परिचरन्तो अच्छसि साचरियको, दी. नि. 1.90; सिब्बमच्छसीति सिब्बन्तो अच्छसि. जा. अट्ठ. 4.23; - च्छामि, उ. पु., ए. व. - ... बहिमुखो येव पन अच्छामि, मि. प. 99; -न्ति, प्र. पु.. ब. व. - ... छब्बग्गिया भिक्खू थेरेसु भिक्खूसु उक्कुटिकं निसिन्नेसु ... आसनेसु अच्छन्ति, महाव. 212; - रे, प्र. पु.. ब. व., आत्मने. - दहरा बुद्धा च अच्छरे, जा. अट्ठ. 6.53; अच्छरेति वसन्ति, तदे.; - च्छाम अनु., उ. पु., ब. व. - एवं सन्ते किं निक्कम्मा अच्छाम, जा. अट्ठ. 3.187; - स्सु अनु., म. पु., ए. व. - अच्छस्सु तावाति आह, ध. प. अट्ठ. 1.106; इधेव ताव अच्छस्सु ..., जा. अट्ठ. 6.22; - थ। अनु., म. पु.. ब. व. - तुम्हे इधेव समणधम्म करोन्ता अच्छथ, जा. अट्ठ. 4.273; - च्छे विधि., प्र. पु., ए. व. - यतं चरे यतं तितु, यतं अच्छे यतं सये, इतिवु. 84; - च्छि अद्य०, प्र. पु., ए. व. - अथेकं विटपं अभिरुहित्वा निलीनो अच्छि, जा. अट्ठ. 3.24; - च्छिं, उ. पु., ए. व. - अच्छाहन्ति अछि अहं अवसिन्ति अत्थो, जा. अट्ठ. 6.20; - च्छि, प्र. पु., ब. व. - ... इमिना उपायेन अवमासमत्तं भूमियमेव अच्छिसु. ध. प. अट्ठ. 1.179; - स्सति भवि., प्र. पु., ए. व. - ... न खो पनायं एत्तक कालं निक्कम्मकोव अच्छिरसति, जा. अट्ठ. 6.265-6; - स्सन्ति , प्र. पु., ब. व. - इमायपिमे आयस्मन्तो रतिया अच्छिस्सन्तीति,
पारा. 251; - तुं निमि. कृ. - ... सीसं मे रुज्जति, पिट्टि मे रुज्जतीति वत्वा अच्छितुं लभन्तियेव, ध. प. अट्ठ. 1. 252; - तब् सं. कृ. - ... अतिसम्बाधे ओकासे चतुकोटेन चतुसङ्कटितेनेव हुत्वा अच्छितब्ब, जा. अट्ठ. 3.213. अच्छत्त/अछत्त नपुं., छत्र का निषे. [अछत्र], वह वस्तु, जो छत्र नहीं है, छाता से इतर वस्तु - अछत्तं छत्तमिव
आचरति छत्तीयति, क. व्या. 438. अच्छन्दक नपुं., केवल भत्तच्छन्दक शब्द में स. उ. प. के रूप में ही प्रयुक्त, इच्छा का अभाव, अनिच्छा, अकामना, द्रष्ट, अच्छन्दिक आगे. अच्छन्दिक/अच्छन्दक त्रि., आर्यमार्ग पर चलने की इच्छा से रहित - को पु., प्र. वि., ए. व. - अस्सद्धो च होति, अच्छन्दिको च, दुप्पओ च, अ. नि. 2(2).136; - का ब. व. - ये ते पुग्गला कम्मावरणेन समन्नागता ... अस्सद्धा अच्छन्दिका दुप्पा एळा ..., पु. प. 119; अच्छन्दिकाति अपच्चनीक - पटिपदायं छन्दविरहिता, विसुद्धि. 1.169. अच्छन्न 1. त्रि., छन्न का निषे. [अछन्न], न ढका हुआ, नहीं छाया हुआ, बिना छत वाला, आवरणरहित, खुला हुआ - छादेती ति छन्नो, सुच्छन्नो, अच्छन्नो, क. व्या. 584; - तल त्रि., बिना छत वाली (कुटी) - लाय स्त्री., ष. वि., ए. व. - उपरिवेहासकुटियाति उपरि अच्छन्नतलाय द्विभूमिककुटिया वा .... पाचि. अट्ठ. 42; 2. त्रि., [आच्छन्न], अच्छी तरह से ढका हुआ, भलीभांति आवृत, चारों ओर से आच्छादित - न्नो पु.. प्र. वि., ए. व. - क्याहं तेन अच्छन्नोपि करिस्सामि याहं न परिभुञ्जिस्सामी ति, पारा. 327; - न्नं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अच्छन्नन्ति निमुग्गं, जा. अट्ठ. 3.284. अच्छम्भी त्रि., छम्भी का निषे., निर्भय, निडर, भयरहित - परिस्सयानं सहिता अछम्भी, सु. नि. 42; थद्धभावकरभयाभावेन अछम्भी, सु. नि. अट्ठ. 1.70; यदि समणपरिसं. विसारदो उपसङ्कमति अमडुभूतो अभीरू अच्छम्भी ... परिसं उपसङ्कमति, मि. प. 307; पाठा. अछम्भी; - ता स्त्री॰, भाव॰ [अच्छम्भितत्व], निर्भयता, भयरहित होने की स्थिति - अभेज्जपरिसता अच्छम्भिता दुप्पधंसिता, खु. पा. अट्ठ. 23; अच्छम्भितडेन उसभसदिसताय उसमें ध. प. अट्ठ. 2.416. अच्छर नपुं. अद्भुत, आश्चर्य - आभुसो चरितब्बन्ति अच्छरियं, एवं अच्छर, अच्छेरं, क. व्या. 633; - रे सप्त. वि., ए. व. - भये कोधे पसंसायं, तुरिते कोतूहलच्छरे, सु. नि. अट्ठ. 1. 122, द्रष्ट. अच्छरिय (आगे).
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अच्छरा
56
अच्छरिय
अच्छरा' स्त्री., [बौ. सं. अच्छटा, अ. मा. अच्छरा], शा. अ. उंगलियों के अग्रभाग को आपस में मिला देना, उंगलियों को चटकाना, चुटकी बजाना - रं द्वि. वि., ए. व. - बोधिसत्तो अच्छा पहरित्वा .... जा. अट्ठ. 2.371; अत्तनो पमाणं न जानाथ, अपगच्छथाति अच्छर पहरि ध. प. अट्ठ. 1.238; ला. अ. 1. चुटकी बजाने में लगने वाला एक क्षण का समय, अल्प-समय - ... द्वे च तुम्बा एकच्छराक्खणे पवत्तचित्तस्स ..., मि. प. 112; ला. अ. 2. माप के सन्दर्भ में एक चुटकी भर, बहुत थोड़ा सा - ... मय्ह पन पत्थं तण्डुलानं चतुभागं खरीस्स अच्छरं सक्खराय करण्डक .... देहि, जा. अट्ठ. 5.382; अच्छरगहणमत्ते सिद्धत्थके लद्धं वट्टतीति, ध, प. अट्ठ. 1.396; ला. अ. 3. आज्ञा, डांट-फटकार अथवा तिरस्कारसूचक उंगली की चेष्टा - ... अच्छर पहरित्वा मोरिं वस्सापेसि. जा. अट्ठ. 4.299; - गहणमत्त त्रि., चुटकी भर में आने योग्य, अतिस्वल्प मात्रा वाला - अच्छरग्गहणमत्ते सिद्धत्थके लद्धं वट्टतीति, ध. प. अट्ठ. 1.396; - घातकालिक त्रि., चुटकी बजाने की अतिस्वल्प समयावधि वाला - ... अनिच्चसञ्जन्तु अच्छराघातकालिक, सद्धम्मो. 490; - योग्ग त्रि., उंगली द्वारा प्रहार किये जाने योग्य, थप्पड़ मारने योग्य, तिरस्करणीय - अयं पन अट्ठकथानयो - अच्छरायोग्गन्ति अच्छरियं, अच्छर पहरितुं युत्तन्ति अत्थो, दी. नि. अट्ठ. 1.42; - सङ्घातमत्त पु., शा. अ. चुटकी का बजाना, ला. अ. अत्यन्त कम अवधि का काल, क्षणमात्र की कालावधि - अच्छरासङ्घातमत्तम्पि, चेतोसन्तिमनज्झग, थेरगा. 405; अच्छरासङ्घातमत्तम्पि चे, भिक्खवे, भिक्खु मेत्ताचित्तं आसेवति ..., अ. नि. 1(1).13; अच्छरासङ्घातमत्तम्पीति अच्छराघटितमत्तम्पि खणं अङ्गुलिफोटनमत्तम्पि कालन्ति अत्थो, थेरीगा. अट्ठ, 85; - सङ्घातवग्ग पु., अ. नि. के एकक निपात का पांचवां वर्ग, अ. नि. 1(1).13-14; - सद्द पु.. उंगलियों के चटकाने का शब्द, चुटकी का शब्द - इन तृ. वि., ए.व.-..यथा अच्छरसन वस्सति...जा. अठ्ठ 3108; टि. व्यु. पूरी तरह से संदिग्ध, संभवतः इसका सम्बन्ध अक्षर,
आ + Vत्सर अथवा ऋच्छटा में देखा जा सकता है. अच्छरा' स्त्री., [अप्सरस्, अप्सरा, आप + /सर् से व्यु.], देवकन्याएं, स्वर्गलोक में नृत्य करने वाली अप्सरा - यो प्र. वि., ब. व. - अच्छरायो त्थियं वुत्ता रम्भा चालम्बुसादयो, देवित्थियो, अभि. प. 24-25; - रा प्र. वि., ए. व. - विचरसि चित्तलतेव अच्छरा, थेरीगा. 375; तिदिवोकचराव अच्छरा,
जा. अट्ठ. 7.161; तस्सा मे पस्स विमान, अच्छरा कामवणिनीहमस्मि, वि. व. 334; - गण पु., [अप्सरागण], अप्सराओं का समूह या मण्डली - णं द्वि. वि., ए. व. - नन्दस्स सक्यपुत्तस्स अच्छरागणं दस्सेत्वा अरहत्तं अदासि, जा. अट्ठ. 4.201; - गणसंघुट्ठ त्रि., अप्सरागणों द्वारा अनुगुञ्जायमान, अप्सराओं के संगीत से गूंज रहा - अच्छरागणसङ्घलु, पिसाचगणसेवितं, स. नि. 1(1).37; - सङ्गण पु., देवकन्याओं या अप्सराओं का समूह - णं द्वि. वि., ए. व. - तथेव त्वं अच्छरासङ्गणं इम, वि. व. 152; - सङ्घ पु.. उपरिवत्-ई द्वि. वि., ए. व. - महन्तं अच्छरासङ्घ वण्णेन अतिरोचसि, वि. व. 35; - वो प्र. वि., ए. व. - अच्छरासको पि नंदिस्वा पासादतो ओरोहित्वा आह, ध. प. अट्ठ. 2.171; - सङ्घपरिवुत त्रि०, अप्सराओं के समूह के साथ - त्तो पु., प्र. वि., ए. व. - बोधिसत्तो देवो विय अच्छरासङ्घपरिवुतो, जा. अट्ठ. 1.68; - सहस्सपरिवार त्रि., हज़ारों अप्सराओं से घिरा हुआ - अच्छृरासहस्सपरिवारो भविस्सति ..., ध, प. अट्ठ. 1.16; - सुत्त नपुं.. स. नि. के एक सुत्त का शीर्षक, स. नि. 1(1).37. अच्छरिका स्त्री., अच्छरा से व्यु., चुटकी की आवाज़ - य त. वि., ए. व. - थेरो तस्स सह निक्खमनाव अरहत्तं पत्वा अच्छरिकाय सञ्ज अदासि, विसुद्धि. 1.45; - सद्द पु., चुटकी बजाने का शब्द - अच्छरिकासई करोन्तो विय विचरति, खु. पा. अट्ठ. 51. अच्छरिय 1. त्रि., [आश्चर्य], अद्भुत, अनुपम, भव्य,
आश्चर्यमय, सुन्दर - विम्हयेच्छरियाभुता, अभि. प. 736; - यानं नपुं.. ष. वि., ब. व. - यथाबलं ... गिलानुपट्टानेन अच्छरियानं रसानं संविभागेन .... दी. नि. 3.145; - ये सप्त. वि., ए. व. - ... अच्छरिये मधुररसे लभित्वा सयमेव अखादित्वा .... दी. नि. अट्ठ. 3.126; 2.क. नपुं.. आश्चर्य - अतेव मे अच्छरियं, हीङ्कारो पटिभाति म जा. अट्ठ. 7.293; ... अच्छरियन्ति अतिविय मे अच्छरियं, जा. अट्ठ. 7.295; तं दिस्वा मद्दी अच्छरियं पवेदेसि, जा. अट्ठ. 7.272; 2.ख. भगवान् बुद्ध के उपदेशों से हर्षित व्यक्तियों द्वारा अभिनन्दक वचनों के रूप में अद्भुत आश्चर्य, कौतुक या चमत्कारसूचक निपा. - अच्छरिय, भन्ते अब्भुतं, भन्ते, याव परिसुद्धो, भन्ते तथागतस्स छविवण्णो परियोदातो, दी. नि. अट्ठ. 2. 101; अच्छरियं, भन्ते, नागसेन, बुद्धानं, अब्भुतं, भन्ते, नागसेन, बुद्धानं .... मि. प. 125; - यमुत-सुत्त नपुं.. म. नि. के एक सुत्त का शीर्षक, म. नि. 3.161-66; - कथा स्त्री., सा.
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अच्छरूपम
57
अच्छिद्द
सं. के दूसरे, सातवें तथा आठवें संग्रहों की कथाओं का शीर्षक, सा. सं. 2.21; 7.44; 8.60; - गामी त्रि., मग्ग के विशे के रूप में ही प्रयुक्त, आश्चर्य की ओर ले जाने वाला (मार्ग) - मिं पु., वि. वि., ए. व. - अच्छरियञ्च वो, भिक्खवे, देसेस्सामि अच्छरियगामिञ्च मग्गं, स. नि. 2(2).342; - जातिक/जात त्रि., आश्चर्यमय, आश्चर्यभरी प्रकृतिवाला - तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - यञ्च त्वं आकासे गच्छसि तिट्ठसि च, इदं अच्छरियजातं, जा. अट्ठ. 7.133; - धम्म पु., कर्म. स., [आश्चर्यधर्म], आश्चर्यजनक बातें अथवा अद्भुत गुण या धर्म - म्मेहि तृ. वि., ब. क. - चतूहि अच्छरियधम्मेहि सङ्गहवत्थूहि च लोकं रञ्जनतो राजा, सु. नि. अट्ठ. 2.154; - यमुतचित्तजात त्रि., आश्चर्य एवं कुतूहल से भरपूर - ता पु.. प्र. वि., ब. व. - देवा च तावतिंसा अच्छरियड्भुतचित्तजाता अहेसुं .... म. नि. 1. 322; - यब्भुतजात त्रि., उपरिवत् - तो पु., प्र. वि., ए. व. - ... अच्छरियभुतजातो अमच्चे एवमाह, मि. प. 127; - यब्भुत-धम्म-सुत्त नपुं.. म. नि. के एक सुत्त का शीर्षक, म. नि. 3.161-166; - मनुस्स पु., अद्भुत मनुष्य, आश्चर्यमय पुरुष - एकपुग्गलो ... लोके उप्पज्जमानो उप्पज्जति अच्छरियमनुस्सो, अ. नि. 1(1).29; ... अनेकेहि अच्छरियब्भुतधम्मेहि समन्नागत-त्तापि अच्छरियमनुस्सो, अ. नि. अट्ठ. 1.92; - रूप त्रि., ब. स., आश्चर्यजनक स्वरूप वाला - पं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अच्छरियरूपं किर पाटिहारियं भविस्सति, जा. अट्ठ. 4.236; - टि. व्यु. के लिये द्रष्ट, दी. नि. अट्ठ. 1.42; यहां इस शब्द को अच्छरा से व्यु. कहा गया है - अच्छरायोग्गन्ति अच्छरियं, अच्छरं पहरितुं युत्तन्ति, तुल. पाणिनि 6.1.147 तथा क. व्या. 633, जहां इसे आ + /चर धातु से व्यु. बतलाया गया है. अच्छरूपम त्रि., [अप्सरोपम], अप्सराओं के समान - मा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - देवी विय अच्छरूपमा, मज्झे नारिगणस्स सोभसि, जा. अट्ठ. 3.366. अच्छलाखारसवण्ण त्रि., स्वच्छ तरल लाह के समान वर्ण वाला - तत्थ सन्निचितलोहितं ... संसरणलोहितं अच्छलाखारसवण्णं, विभ. अठ्ठ. 232. अच्छविहार पु., श्रीलङ्का के एक विहार का नाम - अयं हि दक्खिणदिसाय मरुचियतिस्सेन रुञा कारापितं अच्छविहारं पटिच्च .... म. वं. टी. 383. अच्छादन नपुं.. [आच्छादन], आवरण, ढकने वाली चादर, सुरक्षा कवच, संरक्षण, वस्त्र - छदनेच्छादनं वत्थे, अभि.
प. 1104; चेलमच्छादनं वत्थं वासो वसनमंसुकं अभि. प. 290%; इत्थिया हि सामिको अच्छादनं नाम, जा. अट्ट, 1.294; - नानि द्वि. वि., ब. व. - तिसभिक्खुसहस्सस्स अदा अच्छादनानि च, म. वं. 34.6; - ना/छादना स्त्री., शा. अ. आवरण-क्रिया, छिपा कर रखना, गुप्त करके रखना, ला. अ. धोखाधड़ी-तिणपण्णेहि विय गूथं कायवचीकम्मेहि पापं छादेतीति अच्छादना, विभ. अ. 465. अच्छादेति आ + Vछद का वर्तः, प्र. पु., ए. व., [आच्छादयति], वस्त्र धारण कराता है, कपड़े पहनाता है, ढक देता है, आच्छादित कर देता है - ... एकेन भगवन्तं अच्छादेति, एकेन आयस्मन्तं आनन्द, दी. नि. 2.101; - हि अनु०, म. पु., ए. व. - एकेन मं अच्छादेहि, एकेन आनन्द, दी. नि. 2.101; - सि अद्य., प्र. पु., ए. व. - एकमेकञ्च भिक्खं ... दुस्सयुगेन अच्छादेसि, म. नि. 2.17; - सुं अद्य.. प्र. पु., ब. व. - निवासनं उत्तरीयन्ति द्वीहि वत्थेहि अच्छादेसं. पे. व. अट्ठ. 43; - स्सामि भवि., उ. पु., ए. व. - ... इत्थन्नाम भिक्खं चीवरेन अच्छादेस्सामि, पारा. 327; - स्ससि भवि., म. पु., ए. व. -- न चत्तारि वत्थयुगानि अच्छादेस्ससि, जा. अट्ठ. 4.153; - त्वा पू. का. कृ. - दिब्बवत्थेहि अच्छादेत्वा, जा. अट्ठ. 3.161; अथ खो महापजापती गोतमी केसे छेदापेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा ..., चूळव. 415; - दितो भू. क. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - तेन अच्छादितो सत्था, हेमवण्णो असोभथाति, दी. नि. 2.102; - दापेत्वा प्रेर., पू. का. कृ.- कासायानि वत्थानि अच्छादापेत्वा...., महाव. 26. अच्छि नपुं.. [अक्षि], आंख, नेत्र, नयन, जालरन्ध्र, जाल का डोरा - नयनं त्वक्खि नेतं च लोचनं चाच्छि चक्खु च, अभि. प. 149. अच्छिद्द त्रि., छिद्द का निषे., ब. स. [अच्छिद्र]. अव्यथित, दोषरहित, परिशुद्ध, अखण्ड, सघन, ठोस - द्दानि नपुं॰, प्र. वि., ब. व. - तानि सीलानि अखण्डानि अच्छिद्दानि, म. नि. 1.404; अच्छिद्देन अप्पटिमसेन, चूळव. 409; - दो पु., प्र. वि., ए. व.- यथा सेलो पब्बतो अच्छिद्दो अससिरो एकग्घनो, महाव. 256; - कगणना स्त्री., अटूट-क्रम से संख्या की गणना, क्रमबद्ध गणना, अबाधित गणना - गणना उच्चति अच्छिद्दकगणना, दी. नि. अट्ठ. 1.84; - कारी त्रि., पूर्णता से करने वाला, बिना व्यवधान के करने वाला, क्रमबद्धता के साथ कार्य करने वाला - अयमायस्मा अखण्डकारी अच्छिद्दकारी असबलकारी..., अ. नि. 1(2).217; - पाठक त्रि., क्रमबद्ध रूप से संख्या की गणना करने वाला,
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अच्छिन्दति
58
अच्छिव
अखण्ड-गणक या पाठक, बिना तोड़े ही संख्या गिनने वाला - का पु., प्र. वि., ब. व. - गणकाति अच्छिद्दकपाठका, दी. नि. अट्ठ. 1.131; - वचन त्रि., ब. स., विश्वस्तवाक व्यक्ति, विश्वसनीय या निर्दोष वचन बोलने वाला, भरोसा करने योग्य बात करने वाला - ना पु., प्र. वि., ब. व. - अच्छिद्दवचना तिपि पाठो, तस्स निद्दोसवचनाति अत्थो, बु. वं. अट्ठ. 118; - वुत्ति त्रि., निर्दोष या उत्तम जीवन पद्धति का अनुसरण करने वाला - त्तिं पु., द्वि. वि., ए. व. - अच्छिद्दवृत्तिं मेधाविं, ध. प. 229; अच्छिद्दाय वा सिक्खाय अच्छिद्दाय वा जीवितवुत्तिया समन्नागतत्ता अच्छिद्दवुत्तिं ..., ध. प. अट्ठ. 2.191. अच्छिन्दति आ + छिद का वर्त.. प्र. पु., ए. व., [आछिनत्ति], विदीर्ण करता है, फाड़ता है, चिथड़े-चिथड़े करता है, बलपूर्वक अपहरण करता है, लूटता है - ... चीवरं परिवत्तेत्वा अच्छिन्दति वा अच्छिन्दापति वा, निस्सग्गियं पाचित्तियं, पाचि. 335; - न्देय्य विधि., प्र. पु., ए. व. - अच्छिन्देय्याति सयं अच्छिन्दति, पाचि. 335; - न्दिस्सति भवि., प्र. पु., ए. व. - थुल्लनन्दा भिक्खुनिया सद्धिं चीवरं परिवत्तेत्वा अच्छिन्दिस्सति, पाचि. 334; कथहि नाम अय्या थुल्लनन्दा .... चीवरं परिवत्तेत्वा अच्छिन्दिस्सती ति, पाचि. 334; - न्दिंसु अद्य., प्र. पु., ब. व. - ... चोरा निक्खमित्वा एकच्चे भिक्खू अच्छिन्दिसु, महाव. 110; - न्दित्वा पू. का. कृ. - इमे, मं, अय्यपुत्त, आतका त्वं अच्छिन्दित्वा अञ्जस्स दातुकामा, म. नि. 2.319; अच्छिन्दित्वा गहणस्स भायामि, जा. अट्ठ. 7.314; - च्छेज्ज उपरिवत् - अच्छेज्ज तण्हं गणसङ्घचारी, स. नि. 1(1).149; - न्दापेय्य प्रेर., विधि. प्र. पु., ए. व. - अच्छिन्दापेय्याति अझं आणापेति .... पाचि. 335. अच्छिन्दन त्रि., प्रवञ्चन, विनाशन - यसविलोपसेनापतिद्वानादिअच्छिन्दनादिकं राजतो उपसग्गं वा, ध. प. अट्ठ. 2.40. अच्छिन्न' त्रि., छिन्न का निषे. [अछिन्न], शा. अ. अखण्ड, पूर्ण, वह जो कटा हुआ नहीं है - न्नं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अत्थि रुक्खस्स अच्छिन्नं, जा. अट्ठ. 2.64; - न्ने सप्त. वि., ए. व. - न च अच्छिन्ने थेवे पक्कमितब्बं महाव. 55; ला. अ. जो जीर्ण-शीर्ण न हो, जो फटा हुआ न हो, द्रष्ट. अच्छिन्नक, आगे; - क त्रि., अच्छिन्न' से व्यु., अविदारित, अविदीर्ण, नहीं काटा हुआ, अपृथक्कृत - कानि नपुं., द्वि. वि., ब. व. - न, भिक्खवे, अच्छिन्नकानि चीवरानि
धारेतब्बानि, महाव. 377:- केस त्रि., ब. स., [अच्छिन्नकेश]. अमुण्डित केश वाला, न मुंड़े हुए केश वाला व्यक्ति - सो पु., प्र. वि., ए. व. - सचे अच्छिन्नकेसो आगच्छति, सङ्घो अपलोकेतब्बो भण्डुकम्माय, महाव. 90; - चीवर त्रि., ब. स., वह भिक्षु, जिसका चीवर राजा अथवा चोरों आदि द्वारा नहीं छीन लिया गया है - रो उपरिवत् - अच्छिन्नचीवरो नाम भिक्खुस्स चीवरं अच्छिन्नं होति राजूहि वा चोरेहि वा धुत्तेहि वा, पारा. 323; - चीवरक/चीवरिका त्रि., ब. स., उपरिवत् - काय स्त्री., च. वि., ए. व. - अनापत्ति अच्छिन्नचीवरिकाय वा, पाचि. 381; - तट त्रि., वह जलाशय या नदी, जिसका तट भग्न नहीं है अथवा कटा-छंटा या दुरारोह नहीं है, समतल तट वाला - टा पु., प्र. वि., ब. व. - अपमाराति अच्छिन्नतटा समतित्था, जा. अट्ठ, 5.402; - दस त्रि., ब. स., बिना कटे-फटे किनारों या झालरों वाला - सानि नपुं., द्वि. वि., ब. व. - अच्छिन्नदसानि चीवरानि धारेन्ति, महाव. 399; - धार त्रि., ब. स. [अच्छिन्नधार], अविच्छिन्न जलधारा वाला, लगातार जलप्रवाह से युक्त - रे पु., सप्त. वि., ए. व. - वस्सारत्तसमये अच्छिन्नधारे देवे वस्सन्ते, जा. अट्ठ. 2.225; -धारा स्त्री., जल की लगातार बह रही धारा-रं द्वि.वि., ए. व. - देवो अच्छिन्नधारं वस्सन्तो मुहुत्तेनेव जेतवनपोक्खरणिं पूरेसि, जा. अट्ठ. 1.315. अच्छिन्न त्रि., आ + छिद का भू. क. कृ., [आच्छिन्न], पूर्ण रूप से लूटा हुआ, परिलुण्ठित - न्नं नपुं, प्र. वि., ए. व. - अम्हाकं बलञ्च वाहनञ्च जनपदो च कोसो च कोट्ठागारञ्च अच्छिन्नं, महाव, 464; - रट्ट त्रि., वह, जिसका अपना राष्ट्र छीन लिया गया है, जिसका राज्य छिन चुका है - हा पु., प्र. वि., ब. व. - अच्छिन्नरट्ठा व्यथिता पञ्चालियं वसंगता, जा. अट्ठ.6.225; अच्छिन्नरद्वाति चूलनिब्रह्मदत्तेन अच्छिन्दित्वा गहितरक्षा, जा. अट्ठ. 6.2283; - लज्जिता स्त्री., भाव., निर्लज्जता, बेशर्मी, लज्जाशीलता का अभाव - य तृ. वि., ए. व. - महाभोगकुलस्स धीता विपत्तिया अच्छिन्नलज्जिताय अलज्जमाना.... ध. प. अट्ठ. 1.109; - सद्द पु., लुटे हुए व्यक्ति का शब्द, उस व्यक्ति का शब्द, जिसके सर्वस्व का अपहरण कर लिया गया है - चोरेहि अच्छिन्नसई कत्वा, जा. अट्ठ. 4.41. अच्छिव पु., [अक्षीव], एक वृक्ष-विशेष का नाम - अच्छिवा सल्लवा रुक्खा, जा. अट्ठ. 7.302; अच्छिवातिआदयोपि रुक्खायेव, जा. अट्ठ. 7.303.
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अच्छुपियन्ति
59
अज
अच्छपियन्ति अच्छुपेति का कर्म. वा., वर्त. प्र. पु., ब. व., सन्निविष्ट किये जाते हैं, किसी में रख दिये जाते हैं - बहलानि मण्डलानि न अच्छुपियन्ति, चूळव. 230; - पेसि अद्य., प्र. पु., ए. व. - अथ खो सो भिक्खु अग्गळं अच्छुपेसि, महाव. 380; - पेय्यं विधि., उ. पु., ए. व. - यंनूनाहं अग्गळं अच्छुपेय्यं महाव. 380. अच्छेदसत्री त्रि., लूटे जाने की शंका से आक्रान्त - विनो पु., प्र. वि., ब. व. - अच्छेदसंकिनोपि फन्दन्ति, महानि. 363; अच्छेदसंकिनोपि फन्दन्तीति अच्छिन्दित्वा पसरह बलक्कारेन गहिस्सन्तीति उप्पन्नसकिनोपि चलन्ति, महानि. अट्ठ. 127. अच्छेर त्रि., अद्भुत आश्चर्यकर - रो पु., प्र. वि., ए. व. - नायं अज्जतनो धम्मो, नच्छेरो नपि अभुतो, थेरगा. 552; - रं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अच्छेरं वत बुद्धानं, गम्भीरो गोचरो सको, थेरगा. 1088; अच्छेरं वत लोकस्मि, अब्भुतं लोमहसनं, जा. अट्ठ. 7.272; पाठा. अच्छरिय, तुल. आचेर, मच्छेर; - क त्रि., अच्छेर से व्य., आश्चर्यजनक-कं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अच्छेरकं मं पटिभाति, एककम्पि रहोगतं. जा. अट्ठ. 6.30; - कं द्वि. वि., ए. व. - इदं अच्छेरकं दिस्वा, अब्भुतं लोमहसनं, जा. अट्ट. 7.272; - तर त्रि., अच्छेर का तुल. वि., दूसरों की तुलना में अधिक आश्चर्यजनक - इतोपि अच्छेरतरं वि. व. 966(रो.); - रूप त्रि., ब. स., आश्चर्यजनक, चमत्कारपूर्ण, अत्यद्भुत - पं नपुं॰, प्र. वि., ए. व. - अच्छेररूपं पटिभाति मं इदं, स. नि. 1(1).210; अच्छेररूपं सुगतस्स आणं, पे. व. 453; तत्थ अच्छेररूपन्ति अच्छरियसभावं, पे. व. अट्ठ. 170. अच्छोदक त्रि., अच्छ + उदक [अच्छोदक], स्वच्छ जल वाला, निर्मल जल से युक्त - का स्त्री.. प्र. वि., ए. व. - पोक्खरणी अच्छोदका सातोदका सीतोदका सेतका सुपतित्था रमणीया, म. नि. 1.110; स. नि. 1(1).108; अच्छोदकाति तनुपसन्नसलिला, उदा. अट्ठ. 326. अच्छोदिक त्रि., अच्छोदक का ही अप. [अच्छोदक], उपरिवत् - का स्त्री॰, प्र. वि., ए. व. - अच्छोदिका पुथुसिला, गोनङ्गुलमिगायुता, थेरगा. 601; अच्छोदका ति वत्तब्बे लिङ्गविपल्लासेन अच्छोदिका ति वृत्तं, थेरगा. अट्ठ. 1.243. अज पु.. [अज], बकरा - जा प्र. वि., ब. व. - इमे ... अजा पसू मनुस्सा, मि. प. 111; - क पु., अज से व्यु., [अजक]. छोटा बकरा - का प्र. वि., ब. व. - अजकापि पसुकापि उपरोपे विहेठेन्ति, चूळव. 281; - करणी स्त्री., एक नदी । का नाम - तदा नदी अजकरणी रमेति मं, थेरगा. 307; -
कलापक पु.. 1. झुंड में बकरों की बलि स्वीकार करने वाले एक यक्ष का नाम - सो किर यक्खो अजे कलापे कत्वा, बन्धनेन अजकोट्ठासेन सद्धिं बलिं पटिच्छति, न अजथा, तस्मा अजकलापको ति पञआयित्थ, उदा. अट्ठ. 52; 2. एक चैत्य का नाम - एक समयं भगवा पावायं विहरति अजकलापके चेतिये, उदा. 74; - कोट्ठास पु.. बलि के अंश के रूप में बकरे - सेन त. वि., ए. व. - अजकोट्ठासेन सद्धिं बलिं पटिच्छति, उदा. अट्ठ. 52; - चम्म नपुं.. [अजचर्म], बकरे का चमड़ा - एळकचम्म अजचम्म मिगचम्म, महाव. 270; - पथ पु., बकरों के जाने योग्य मार्ग-थं द्वि. वि., ए. व. - अजपथन्ति अजेहि गन्तब्बमग्ग, महानि. अट्ट, 222; अजपथं सङ्कपथं वेत्तपथं गच्छति, मि. प. 260; - पद त्रि., ब. स. [अजपद], अजपादसदृश, बकरे के पैरों के समान - देन पु.. प्र. वि., ए. व. - अजपदेन दण्डेन सुनिग्गहितं निग्गण्हेय्य, म. नि. 1.187; अजपदेन दण्डेन उप्पीळेन्तो दुब्बलं कत्वा सीसं दळ्हं गहेत्वा निप्पीलि, जा. अट्ठ. 4.413; - पददण्ड पु., बकरे के खुर के समान फटी छड़ी, बकरे के फटे खुर के समान फटी आकृतिवाली छड़ी - ण्डं द्वि. वि., ए. व. - यथा हि पुरिसस्स सायं गेहं पविट्ठ सप्पं अजपददण्डं गहेत्वा परियेसमानस्स, ध. स. अट्ठ. 218; - पदसण्ठान त्रि., ब. स., बकरे के खुर के समान आकृतिवाला - ने पु., सप्त. वि., ए. व. - तं ससम्भारघानबिलस्स अन्तो अजपदसण्ठाने पदे से यथावुत्तप्पकारा हुत्वा तिट्ठति, अभि. अव. 84; - पाल पु.. एक पुरोहित के पुत्र का नाम - चतुत्थस्स जातकाले अजपालो ति नाम करिंसु, जा. अट्ठ. 4.432; - पालक' पु.. [अजपालक], गड़रिया, अजों का पालन करने वाला - अथेको अजपालको अनेकसहस्सा अजा गोचरं नेन्तो सुसानपस्सेन गच्छति, ध. प. अट्ठ. 1.102; - पालक नपुं.. एक प्रकार के पादप-विशेष का नाम - कुटुंतु अजपालक अभि. प. 303; कुटुं रोगेअजपालके, अभि. प. 1120; - पालकथा स्त्री., महाव. के अन्तर्गत आयी हुई एक कथा का शीर्षक, महाव. 3; - पालतरु पु.. [अजपालतरु], अजपाल नामक वटवृक्ष, बरगद का पेड़, निरञ्जना नदी के तट पर उरुवेला के समीप का वह वटवृक्ष जहां भगवान् बुद्ध ने बोधिलाभ के पश्चात्, पंचम सप्ताह तथा अष्टम सप्ताह व्यतीत किया था - पञ्चमे सत्ताहे ... अजपालनिग्रोधो तेनुपसङ्कमि .... जा. अट्ठ. 1.87; 89; अट्ठमे सत्ताहे अजपालनिग्रोधमूले निसिन्नो, ध, प. अट्ठ. 1.51; -
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अज
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अजटाकास पालसञी पु., अजपाल की संज्ञा वाला, अजपाल नाम से रुप्पपातउकुटिकप्पधानकण्टकापस्सयादिभेदं सु. नि. अठ्ठ. जाना गया - जिनो प्र. वि., ब. व. - वटस्स मूले 2.217. अजपालसञिनो, दा. वं. 1.55; - पालिका स्त्री., छाग या अजगर पु., [अजगर]. एक बड़ा सांप, जो बकरे को निगल बकरा पालने वाली - अञ्जतरा अजपालिका पस्सित्वा, जाता है (इसे पाषाण-सर्प भी कहते हैं)- वाहसोजगरो भवे. पारा. 44; - भूत त्रि., छाग के रूप में जन्मग्रहण करने अभि. प. 651; - रा प्र. वि., ब. व. - सप्पा अजगरा नाम, वाला - तानं पु., ष. वि., ब. व. - अजानं सतं अजभूतानं अविसा ते महब्बला ..., जा. अट्ठ. 7.263; - स्स ष. वि., ..... स. नि. 1(2).169; - युद्ध नपुं.. [अजयुद्ध], बकरों का ए. व. - अजगरस्स एक अङ्ग गहेतब्बं मि. प. 329; - युद्ध, बकरों की लड़ाई - अजयुद्ध मेण्डयुद्धं..., दी. नि. परिवारित त्रि., अजगरों से घिरा हुआ - तो पु., प्र. वि., 1.6; महानि. 270; - यूथ नपुं० [अजयूथ], बकरों का ए.व. - अजगरपरिवारितो विय कोत्थुको, मि. प. 20; - समूह, बकरों का झुण्ड -थं द्वि. वि., ब. क. - अजपालब्राह्मणोपेत पु., अजगर के रूप में प्रेत - अजगरपेतं नाम अद्दस, महन्तं अजयूथं गहेत्वा ... अजयूथं पटिजग्गन्तो, जा. अट्ठ. ध. प. अट्ठ. 2.35; - पेतवत्थु नपुं., ध, प. अट्ठ. के एक 3.355; -थेन तृ. वि., ए. व. - ब्राह्मणो अजयूथेन, पहूतेजो कथानक का शीर्षक, ध. प. अट्ठ. 2.35-37; - मुख नपुं.. वने वसं जा. अट्ठ. 3.355; - रथ पु., [अजरथ], बकरों अजगर का मुंह - अजगरमुखेनेव अजगरमुखं ... परिवत्तित्वा, के द्वारा खींचा जानेवाला रथ - थे सप्त. वि., ए. व. - मि. प. 279; - मेदा स्त्री., अजगर की चरबी या वसा - दं कदाहं अजरथे च, सन्नद्धे उस्सितद्धजे ... पहाय द्वि. वि., ए. व. - तेसं अजगरमेदं अच्चहासि बहुत्तसो, जा. पब्बजिस्सामि, जा. अट्ठ. 6.57-58; अजरथमेण्डरथमिगरथे अट्ठ. 3.427; अजगरमेदन्ति अजगरानं मेदं, जा. अट्ठ. 3.428. सोभनत्थाय योजेन्ति, जा. अट्ठ. 6.64; - राज पु. [अजराज], अजच्च त्रि., जच्च का निषे., [अजात्य], हीन जन्म वाला, बकरों का राजा या स्वामी- यं नु सम्म अहं बालो, अजराज नीच जन्म में उत्पन्न - च्चं पु.. वि. वि., ए. व. - विजानहि, जा. अट्ठ. 3.245; -- लक्ख ण नपुं, तत्पु. स., जातिमन्तं अजच्चञ्च, अहं उजुगतं नरं जा. अट्ठ. 6.121, बकरों के लक्षण या इन लक्षणों को बतलाने वाली विद्या - अजज्जर त्रि., जज्जर का निषे०, [अजर्जर], शा. अ. वह, गोलक्खणं अजलक्खणं मेण्डलक्खणं ..., दी. नि. 1.9; जो जर्जर या जीर्ण नहीं है, अविनाशी, ला. अ. निर्वाण, महानि. 281; - लण्डिका स्त्री., तत्पु. स., बकरों की लेंडी जो कभी जर्जर नहीं होता - रं नपुं., द्वि. वि., ए. व. - का पिण्ड, बकरे की लेंडी - नाळिमत्ता सुक्खा अजलण्डिका, अजज्जरञ्च वो, भिक्खवे, देसेस्सामि अजज्जरगामिञ्च जा. अट्ठ. 1.401; सक्खिस्ससि तस्स मुखे नाळिमत्ता मग्गं, स. नि. 2(2).341-42; अजज्जरं धुवं अपलोकितं. अजलण्डिका खिपितु न्ति, ध. प. अट्ठ. 1.289; - वत त्रि., अनिदस्सनं निप्पपञ्चं सन्तं, नेत्ति. 46; उप्पादजराहि कतिपय तापसों की बकरों के समान जीवन-यापन करने अनब्भाहतत्ता अजज्जर, नेत्ति. अट्ठ. 245. की प्रवृत्ति - अजवतगोवता हुत्वा पुत्तं अलभित्वा उय्यानं अजज्जित नपुं., जज्जित का निषे०, भोजन से अपने को दूर अगमंसु, जा. अट्ठ. 4.283; - विसाण-बद्धिक त्रि., बकरे रखने का अभ्यास, भोजन का परिवर्जन, निराहार की दशा के शृंग की तरह कोनों वाला जूता - का स्त्री., द्वि. वि., - अहञ्चेव खो पन सब्बसो अजज्जितं पटिजानेय्यं, म. नि. ब. व. - अजविसाणबद्धिका उपाहनायो धारेन्ति, महाव. 1.313; अजज्जितान्ति अभोजनं, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 259; - वीथि स्त्री., [अजवीथि], शा. अ. बकरों के चलने 1(2).186; पाठा. अजद्धकं. योग्य मार्ग, ला. अ. मूल-नक्षत्र से लेकर उत्तरासाळ्ह तक __ अजञ त्रि., जञ का निषे. [अजन्य], 1. मनुष्यों के लिए सूर्य तथा चन्द्रमा के मार्ग का भाग, ग्रीष्म ऋतु का काल अयोग्य, भयावह, प्रतिकूल - अं द्वि. वि., ए. व. - अजज - सा वीथि उदकाभावेन अजानुरूपताय अजवीथीति समा जञ्जसवातं, असुचिं सुचिसम्मतं, जा. अट्ठ. 2.361; अजञ्ज गता, सारत्थ. टी. 1.230; - सद्द पु., [अजशब्द], बकरों की जञ्जससातन्ति पटिकूलं अमनापमेव, तदे.; 2. नपुं.. अनहोनी, चिल्लाहट, बकरों की चीख, - यदा अजसदं कत्वा बलि अपशकुन, दुर्लक्षण - इति वित्थि अजयं च उपसग्गो उपहरन्ति, तदा सो तुस्सति, उदा. अट्ठ. 52; - सील नपुं.. उपद्दवो, अभि. प. 401. बकरों के समान तापसों के रहने की प्रवृत्ति, आदत या अजटाकास पु., कर्म. स., खुला स्थान, खुली जगह - सं साधना का प्रकार - अजसीलगोसीलकुक्कुरसीलपञ्चातपम- वि. वि., ए. व. - चत्तारो च आरुप्पे विनिविज्झित्वा
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अजनपद
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अजानन
अजटाकासं पक्खन्दिसु, ध. स. अट्ठ. 16; विलो. कण्णच्छिद्दाकास. अजनपद पु., जनपद का निषे०, उजाड़ या निर्जन प्रदेश - दा
प्र. वि., ब. व. -- जनपदापि अजनपदा कता, म. नि. 2.308. अजनयमान त्रि., Vजन, प्रेर., वर्त. कृ. का निषे., अनुप्पादक, अनुर्वर -- नो पु.. प्र. वि., ए. व. - छन्दं पेमं रागं खन्तिं अकुब्बमानो अजनयमानो असञ्जनयमानो, महानि. 36%; अजनयमानोति पोनोभविकतण्हावसेन अजनयमानो, महानि. अट्ठ. 128. अजप त्रि., जप का निषे., मंत्र न जपने वाला, मंत्र पाठ न करने वाला - पा पु., प्र. वि., ब. व. - न जपन्तीति अजपा, मन्तानं अनज्झायकाति अत्थो, उदा. अट्ठ. 42. अजमोद पु., [सिंहली में अजमोजक = अजमोदक], अजमोदा, एक पौधा, वनस्पति, एक औषधीय पादप - तिकटुकअजमोदहिङ्गुजीरकलसुणादीहि कटुकभण्डेहि, वि.
व. अट्ठ. 155. अजर त्रि., ब. स. [अजर], जरा-रहित, निर्जर, वह, जिसे कभी बुढ़ापा न आये, जीर्णता-रहित, अविनश्वर - रो पु... प्र. वि., ए. व. - सब्बेन तेन कुसलेन, अजरो अमरो भवाति, जा. अट्ट. 7.375; - रं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अजरं अनुत्तरं योगक्खेमं निब्बानं, अ. नि. 1(2).284. अजरामर त्रि., [अजरामर], जरा-जीर्णता-रहित, अमर्त्य, मरणरहित, कभी न मरने वाला - रो पु., प्र. वि., ए. व. - अस्स इन्दसमो राज, अच्चन्तं अजरामरो, जा. अट्ठ. 3. 454. अजळ त्रि., जळ का निषे. [अजड़], वह, जो मूर्ख नहीं है, प्रज्ञावान, ज्ञानवान् - ळो पु., प्र. वि., ए. व. - पञवा अजळो अनेळमूगो, दी. नि. 3.211; - ळा ब. व. - पञ्जवन्तो अजळा अनेळमूगा, अ. नि. 1(1).48; - ता स्त्री., भाव., जळता का निषे॰ [अजड़ता], जड़ता का सर्वथा अभाव, सुविज्ञता - अजळता अनेळमूगता दुल्लभा लोकस्मि अ. नि. 2(2).141. अजहित त्रि., Vहा का भू. क. कृ. का निषे., अपरित्यक्त, न छोड़ा हुआ, वह, जिसका त्याग न किया गया हो- तो पृ., प्र. वि., ए. व. - सिरिया अजहितो होति, यो मित्तानं न दुब्भति, जा. अट्ठ. 6.16. अजा स्त्री॰ [अजा], बकरी, छागी - तत्थ अजा ठपेत्वा .... जा. अट्ठ. 3.355; आगच्छन्ती वजन्ती वा, तस्स ता विनसुं अजा, तदे. अजा च विभवं गता, तदे..
अजात त्रि., [अजात], शा. अ. जो कारणों द्वारा उत्पन्न न किया गया हो, पैदा न किया गया हो, अनुत्पन्न, अभूत, ला. अ. निर्वाण - तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अजातं अभूतं अकतं असङ्घतं, उदा. 165; - ते सप्त. वि., ए. व. - अजाते साधु पस्सति, जा. अट्ठ. 4.24; कारणसामग्गिया न जातं न निब्बत्तन्ति अजातं, उदा. अट्ठ. 320; - पक्ख त्रि., ब. स. [अजातपक्ष], पक्षियों के वे शिशु, जिनके पंख अभी तक उत्पन्न नहीं हुए हैं - क्खा पु., प्र. वि., ब. व. - अजातपक्खा तरुणा, पुत्तका मय्ह कोसिय, जा. अट्ठ. 4.249; - बुद्धि त्रि., ब. स., वह, जो अपने विवेक या स्वनिर्णय तक नहीं पहुंच पाया है, अविकसित बुद्धि वाला - अजातबुद्धिदारको, कहापणानं चित्तविचित्तदीघचतुरस्सपरि मण्डलभावमत्तमेव जानाति, विसुद्धि. 2.64. अजातसत्तु पु., [अजातशत्रु]. मगध का सम्राट, बिम्बिसार का पुत्र, बुद्ध का समकालीन - राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो, दी. नि. 1.42; - ना तृ. वि., ए. व. - पसेनदि राजा अजातसत्तुना पितरि मारिते तं गाम अच्छिन्दि, जा. अट्ठ. 4.304; - तुं द्वि. वि., ए. व. - केन नु खो उपायेन अजातसत्तुं गण्हेय्यामा ति, तदे.. अजाति त्रि., ब. स. [अजाति], शा. अ. जन्मरहित स्थिति या अवस्था, ला. अ. निर्वाण - एवमेव जाति विज्जन्ते, अजातिपिच्छितब्बकं, बु. वं. 294; अजातिपीति जातिखेपनं
अजातिनिब्बानम्पि इच्छितब्ब, बु. वं. अट्ठ. 82. अजातिमन्तु त्रि., [अजातिमत्], नीच कुल में उत्पन्न, अधमकुलोत्पन्न, जारज, दोगला - मस्स पु., ष. वि., ए. व.- सुजातिमन्तोपि अजातिमस्स, यसस्सिनो पेसकरा भवन्ति,
जा. अट्ठ. 6.184, विलो. सुजातिमन्तु. अजानक द्रष्ट., अयानक. अजानं/अजानन्त जानाति के वर्त. कृ. का निषे०, न
जानते हुए, द्रष्ट. जानाति. के अन्त.. अजानन नपुं.. [अजानन], अनभिज्ञता, अज्ञान - नेन तृ. वि., ए. व. - ते द्वीहि कारणेहि आपज्जन्ति अनादरियेन वा अजाननेन वा ति. मि. प. 248; - क त्रि., नहीं जानने वाला - का पु., प्र. वि., ब. व. - तदाहि सुपण्णा नागं गहेतुं अजाननकायेव, जा. अट्ठ. 7.20-21; - ता स्त्री॰, भाव., जानकारी का अभाव - य तृ. वि., ए. व. - अजाननताय अचेतनं, जा. अट्ठ. 3.79; - भाव पु., भाव., उपरिवत् -- वेन तृ. वि., ए. व. - मेथुनधम्मस्स च अजाननभावेन, जा. अट्ठ. 5.190.
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अजानितब्ब
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अजिनचम्म अजानितब्ब त्रि., [अज्ञातव्य], न जानने योग्य - ब नपुं... समय विद्यमान एक ब्राह्मण का नाम - अजितो नाम
प्र. वि., ए. व. - अथो अविज्ञातमजानितब्ब, महानि. 265. नामेन, अहोसिं ब्राह्मणो तदा, अप. 1.260; 8. एक प्रत्येकबुद्ध अजामिग पु.. [अजामृग]. अज, बकरा, छाग - वामेन सूकरो का नाम - अजितो नाम सम्बुद्धो, हिमवन्ते वसी तदा होति, दक्खिणेन अजामिगो, विभ. अट्ठ. 466.
थेरगा. अट्ठ. 1.71; - पह पु., अजित द्वारा पूछा गया अजिका स्त्री., [अजिका]. बकरी - कं द्वि. वि., ए. व. - प्रश्न, स. नि 1(2).42; द्रष्ट. आगे; - माणवपुच्छा स्त्री., अल्पवयस्का अजा, बकरी छागी-तं अजिकं कत्वा अत्तना अजितमाणव के द्वारा किया गया प्रश्न, सु. नि. के एक सुत्त अजो हुत्वा, जा. अट्ठ. 3.244; अजिकञ्च अजञ्च हन्त्वा का नाम, सु. नि. 231-32; चूळनि. 5-6; सु. नि. अट्ठ. 2. येनकामं पलेति, जा. अट्ठ. 5.232; - का प्र. वि., ए. व. - 276-277; - सुत्त नपुं., अजितमाणवपुच्छा के लिये सु. नि. अजिका चरमाना चोरा हरन्ति, जा. अट्ठ. 1.235; - क्खायित अट्ठ. में प्रयुक्त शीर्षक सु. नि. अट्ठ. 2.276-277. त्रि., बकरियों के द्वारा खाया हुआ, कुतरा हुआ, नष्ट किया अजिन' नपुं.. [अजिन], मृग का चमड़ा, मृगचर्म, कुरंगमृग हुआ - अपरानिपि पञ्च पंसुकूलानि - गोखायिक का चर्म, सामान्यतः अजिन मृगचर्म का प्रयोग तापसों के अजक्खायिक परि. 253, पाठा. अजिकाक्खायित; - खीर द्वारा किया जाता है - चम्मं तु अजिनं प्यथ, अभि. प. 442; नपुं., बकरी का दूध - खीरं नाम गोखीरं वा अजिकाखीरं अजिनं दन्तभण्डञ्च, जा. अट्ठ. 5.377; अजिनन्ति वा महिंसखीरं वा, पाचि. 122; - गोपक पु., बकरी पालने अजिनमिगचम्म, तदे... वाला - का प्र.वि., ए.व.- अजिकगोपका चोरे गहिस्सामाति अजिन पु., एक स्थविर का नाम, थेरगा. की 129-30 एकमन्तं निलीना अट्ठसु, जा. अट्ट, 1.235; पाठा. गाथाओं का प्रणेता. अजिकागोपका; - सप्पि नपुं., बकरी के दूध से बना हुआ अजिनं जिनाति के वर्त. कृ. का निषे. जिनाति के अन्त. घी - सप्पि नाम गोसप्पि वा अजिकासप्पि वा महिंससप्पि वा, द्रष्ट.. पारा. 376.
अजिनक्खिप पु./नपुं.. केवल द्वि. वि., ए. व. में प्राप्त, अजिण्ण त्रि., जिण्ण का निषे. [अजीर्ण], नहीं पचा हुआ तापसों द्वारा परिधान के रूप में प्रयुक्त कृष्णमृग का चर्म, भोजन, समास के पू. प. के रूप में ही प्रयुक्त; - ण्णसङ्का जो अखण्डित, परन्तु बीच में फटा रहता है - अजिनम्पि स्त्री., अपच हो जाने की आशंका - तुम्हे गच्छथ, मह रेति, अजिनक्खिपम्पि धारेति, दी. नि. 1.150; अजिनन्ति अजिण्णासङ्का अत्थी ति, जा. अट्ठ. 2.301.
अजिनमिगचम्म, अजिनक्खिपन्ति तदेव मज्झे फालितक अजित पु., [अजित], 1. बुद्ध के समकालीन छ: धर्माचार्यों दी. नि. अट्ठ. 1.265; - निवत्थ त्रि., बीच से फटे हुए में से एक का नाम, जिसका उपनाम या कुलनाम केसकम्बल अजिनमृगचर्म को धारण करने वाला - त्थो पु., प्र. वि., या केसकम्बली था - अयं देव, अजितो केसकम्बलो सङ्घी ए. व.- महन्तेन जटण्डुवेन अजिनक्खिपनिवत्थो जिण्णो चेव गणी च गणाचरियो च, दी. नि. 1.43; अजितोति तस्स .... येन ते भिक्खू तेनुपसङ्कमि, स. नि. 1(1).139; नाम, केसकम्बलं धारेतीति केसकम्बलो, इति नामद्वयं अजिनक्खिपनिवत्थोति सखुरं अजिनचम्म एकं निवत्थो एक संसन्दित्वा अजितो केसकम्बलोति वुच्चति, दी. नि. अट्ठ. पारुतो, स. नि. अट्ट, 1.160; - टि. यह बौद्ध भिक्षुओं के 1.121; 2. बावरी के बहिन के पुत्र का नाम - अजितो पठमं लिये अनुज्ञात नहीं था. अन्य सम्प्रदाय के तापसों के द्वारा पहं, तत्थ पुच्छि तथागतं, सु. नि. 1037; 3. द्वितीय इसे धारण किया जाता था, अतः इसे तित्थियधज भी कहा बौद्धसङ्गीतिकालीन एक भिक्षु का नाम - अजितो नाम जाता था, महाव. 398. भिक्खु दसवस्सो सङ्घस्स पातिमोक्खुद्देसको होति, चूळव. अजिनचम्म नपुं.. [अजिनचर्म], कृष्णमृग का चर्म - म्मं द्वि. 475; म. वं. 4.51; 4. लिच्छवियों के एक सेनापति का नाम वि., ए. व. - अत्तनो निसीदनं अजिनचम्म महन्तं कत्वा - अजितोपि नाम लिच्छवीनं सेनापति, दी. नि. 3.10; 5. पसारेत्वा, जा. अट्ठ. 5.307; - म्मेन तृ. वि., ए. व. - कि एक परिव्राजक या तापस का नाम - अजितो परिब्बाजको, सखुरेन अजिनचम्मेन, ध. प. अट्ठ. 2.372; - धर त्रि., अ. नि. 3(2).196; 6. बुद्ध-सोभित के समय के एक ब्राह्मण- मृगचर्म को धारण करनेवाला - चम्मवासीति बोधिसत्त्व का नाम - तदा बोधिसत्तो अजितो नाम अजिनचम्मधरो, जा. अट्ठ. 7.293; - परिक्खट त्रि., ब्राह्मणो हुत्वा .... जा. अट्ट.1.45; 7. सिखि-बुद्ध के अजिनचर्म से समलंकृत, अजिनचर्म से विभूषित,
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अजीरण
अजिनदायक अजिनचर्मवस्त्र से आवृत - टा स्त्री., द्वि. वि.. ब. व. - अजिनचम्मपरिक्खटा उपाहनायो धारेन्ति, महाव. 259; - सद्द पु.. अजिनचर्म का शब्द या कोलाहल - इन तृ. वि., ए. व.- अजिनचम्मसद्देन, मुदिता होन्ति देवता, अप. 1.15; - साटिका अजिन-चर्म से निर्मित वस्त्र या परिधान - य तृ. वि., ए. व. - इमाय अजिनचम्मसाटिकाय च किमत्थोति. ध. प. अट्ठ. 2.373, तुल. अजिनसाटी. अजिनदायक पु. एक थेर की उपाधि-आयस्मा अजिनदायको
थेरो, अप. 1.224. अजिनपत्ता स्त्री., [अजिनपत्रा], चमगादड़, गादुर, चर्मचटका, चमड़े के पंखों वाला एक स्तनपायी जन्तु, जो रात में ही बाहर निकलता है - जतुकाजिनपत्ताथ, अभि. प. 646. अजिनप्पवेणी स्त्री.. [अजिनप्रवेणी]. अजिन-मृग के चमड़े को एक साथ सिलकर बनाया गया चादर - णिं द्वि. वि.. ए. व. - अस्सत्थरं रथत्थरं अजिनप्पवेणिं.... दी. नि. 1.7;- णी प्र. वि., ए.व.- अजिनप्पवेणीति अजिनचम्मेहि मञ्चप्पमाणेन सिब्बित्वा कता पवेणी, दी. नि. अट्ठ. 1.79; - णिया तृ. वि., ए. व. - सुखसम्फरसाय अजिनप्पवेणिया
गहिसु, जा. अट्ठ. 1.63. अजिनमिगचम्म नपुं.. [अजिनमृगचर्म]. एक प्रकार के मृग का चमड़ा जिसका प्रयोग व्यवहार में शयनासन के लिये किया जाता है - म्म प्र. वि., ए. व. - अजिनन्ति
अजिनमिगचम्म जा. अट्ठ. 5.377. अजिनयोनि पु. [अजिनयोनि]. मृगों का एक प्रकार-विशेष - हरिणो मिगसारङ्गा मगो अजिनयोनि च, अभि. प.617; तुल. मृगे कुरङ्गवातायुहरिणाजिनयोनयः अमर. 2.5.8. अजिनसाटी स्त्री., अजिन मृग के चमड़े से बना वस्त्र - टिया तृ. वि., ए. व. - किं ते अजिनसाटिया, ध. प. 394 इमाहि जटाहि सखुराय निवत्थायपि इमाय अजिनचम्मसाटिकाय च किमत्थो, ध. प. अट्ठ. 2.373; जा. अट्ठ. 1.459. अजिनुत्तरवासी त्रि.. अजिनचर्म से निर्मित उत्तरासङ्ग धारण करनेवाला - ते जटाखारिभरिता, अजिनुत्तरवासना, अप. 1.16; अजिनुत्तरवासोहं वसामि पब्बतन्तरे अप. 1.129; जटाभारेन भरितो, अजिनुत्तरनिवासनो, अप. 1.21. अजिनुपसेवित त्रि., [अजिनोपसेवित]. अजिनचर्म को धारण करनेवाला - तं नपुं.. प्र./द्वि. वि., ए. व. सुचिं सुगन्धं अजिनूपसेवितं. जा. अट्ठ. 5.402; अजिनूपसेवितं उपरिअत्थतेन अजिनचम्मेन उपसेवितं. जा. अट्ठ. 5.403.
अजिम्ह त्रि., जिम्ह का निषे. [अजिह्म], सरल, ऋजु, अकुटिल - म्हो पु., प्र. वि., ए. व. - अजिम्हो पगुणो उजु, अभि. प. 708; - ता भाव.. सरलता, आर्जवता ऋजुता - या तस्मि समये ... साक्खन्धस्स ... उजुता उजुकता अजिम्हता अवता अकुटिलता-अयं तस्मिं समये कायुजुकता होति,ध. स. 50-51. अजिय त्रि., ब. स. [अज्या]. डोरी-रहित, प्रत्यञ्चारहित -
अजियधनुदण्डको विय ओणता नेमिप्पदेसा, वि. व. अट्ठ. 232 अजिर नपुं.. [अजिर]. आंगन, अहाता, प्रांगण - अजिरं
चच्चराङ्गणं अभि. प. 218; स. उ. प. के रूप में कुच्छिआजिर, घराजिर के अन्त. द्रष्ट... अजिव्हता स्त्री., भाव. [अजिह्वता], जीभ-रहित होने की अवस्था, गूंगापन - नाहं अजिव्हता मूगो, जा. अट्ठ. 6.19; अजिव्हताति सम्परिवत्तनजिव्हाय अभावेन मूगो अहं न भवामि. जा. अट्ठ.6.20. अजिव्हवन्तु त्रि., ब. स. [अजिह्ववत्]. जीभ-रहित, जिह्वारहित, जीभ-विहीन - वा पु.. प्र. वि.. ए. व. - अजिव्हवाति यथा मच्छो अजिव्हताय न कथेति, तथा सेवको मन्दकथताय
अजिव्हवा भवेय्य, जा. अट्ठ. 7.190. अजी स्त्री., [अजा, अजिका]. बकरी, अजा, छागी - उरणी तु अजी अजा, अभि. प. 502: हन्वा उरणिं अजिकं अजञ्च, उत्तासयित्वा येनकामं पलेति, जा. अट्ठ. 5.230; अजिया पादमोलम्ब मित्तको विय सोचतीति, जा. अट्ठ. 1.235. अजीरक' त्रि., जो बूढ़ा नहीं होता, जीर्णता से मुक्त,क्षय या अपक्षय से मुक्त - सत्ता पन अजीरका नाम नत्थि.ध. प. अट्ठ. 267. अजीरक' पु.. अपच, अजीर्ण, बदहजमी, अपाचन की प्रक्रिया - को प्र. वि., ए. व. - काकानं अजीरको नाम नत्थि. जा. अट्ठ. 2.301; - केन तृ. वि., ए. व. - अजीरकेन मरिस्सति. जा. अट्ठ. 2.151; अजीरकेन कालमकासि, जा. अट्ठ. 3.186; अजीरकेन निपन्नोम्हि जा. अट्ठ. 3.197. अजीरण नपुं.. जीरण का निषे., क. वृद्धावस्था का अभाव, क्षय या अपक्षय का अभाव, ख. अपच, बदहज़मी-णेन त. वि., ए. व. - अजरसाति अजीरणेन, अविपत्तियाति अत्थो. स. नि. अट्ट, 1.83: - धम्मो पु., प्र. वि., ए. व., अपाच्य, न पचने योग्य - तं पायासं ठपेत्वा तथागतं तथागतसावकञ्च अञस्स अजीरणधम्मोति जत्वा .... सु. नि. अट्ठ. 1.1213; खीणासवस्स हि अजीरणधम्मोपि अस्थि स. नि. अट्ठ. 1.122.
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अजीवक
64
अज्जता
अजीवक पु., कल्पित, काल्पनिक, अवास्तविक, वह, जिसमें अज्ज अ. [अद्य], आज, अब, इसी दिन में - अज्ज अत्राहे, वास्तविक जीवन नहीं है - को प्र. वि., ए. व. - जीवकोपि । अभि. प. 1155; इमस्मिं काले अज्ज, क. व्या. 573; अज्ज मरति, अजीवकोपि मरति, जा. अट्ठ. 1.385.
पन्नरसो उपोसथो, सु. नि. 153; तदज्जहं निग्गहेस्सामि अजुट्ठमारी/अजुट्ठमारिका स्त्री., प्र. वि., ए. व., भूख के योनिसो, ध. प. 326; - अज्जापि अ., [अद्यापि], अब भी कारण मरण, आहार के उपच्छेद के कारण मृत्यु - अजुङमारीव - अज्जापि मूसिका दासी न पुनागच्छति, जा. अट्ठ. 3.1903; खुदाय मिय्ये जा. अट्ठ. 6.77; अजुट्ठमारीवाति अनाथमरणमेव, मोरो अज्जापि ताव मे बलं न पस्सतीति .... ध. प. अट्ठ. तदे.; पाठा. अजद्भुमारी.
1.223; - अज्जेव अ., [अौव], आज ही, इस समय ही अजुतकर पु.. [अयूतकर, जुआ न खेलने वाला, अयूतकर - अज्जेव मे इमं रत्तिं ... पातो दक्खिसि नो मतं, जा. अट्ठ. -रे वि. वि., ब. व. - अनक्खाकितवेति अनक्खे अकितवे 7.336. अजुतकरे चेव अकेराटिके च, जा. अट्ठ. 5.113.
अज्जक/अज्जुक पु./नपुं. [अर्जक], एक प्रकार का अजेगुच्छ त्रि., जेगुच्छ का निषे॰ [अजिगुप्स्य], 1. वह, पौधा - अज्जुको सितपन्नासे समीरणो फणिज्झको, अभि. जिसमें दूसरों के प्रति घृणा या जुगुप्सा का भाव न हो- प. 579; अग्गबीजं नाम - अज्जुकं पाचि. 53. च्छो पु., प्र. वि., ए. व. - अप्पगभो अजेगुच्छो पेसुणेय्ये च अज्जतग्गे/अज्जदग्गे निपा., [अद्यत अग्रे], इस समय नो युतो, सु. नि. 858; इध भिक्खु सीलवा होति... समादाय से प्रारंभ कर, आज से आगे, वर्तमान से आगे- अज्जतग्गे सिक्खति सिक्खापदेसु- अयं वुच्चति पुग्गलो अजेगुच्छो, पाणुपेतं सरणं गतं. पारा. 6; अज्जतग्गेति अज्जतं आदिकत्वा, महानि. 169; 2. प्रातिमोक्षसंवर से युक्त शीलवान् भिक्षु - पारा. अट्ट, 1.131; दी. नि. 1.75. इध भिक्खु सीलवा होति पातिमोक्खसंवरसंवुतो विहरति अज्जतन त्रि., [अद्यतन], आज से सम्बन्ध रखने वाला, ... अयं वुच्चति पुग्गलो अजेगुच्छो, महानि. 169; 3. वर्तमानकालविषयक, आधुनिक - नो पु., प्र. वि., ए. व. - क्रोधरहित, प्रतिहिंसाभाव-विरहित - ... अक्कोधनो होति . नायं अज्जतनो धम्मो, थेरगा. 552; - ना ब. व. - नेतं ..न कोपञ्च दोसञ्च अप्पच्चयञ्च पातुकरोति अयं वुच्चति । अज्जतनामिव, ध. प. 227; ततो पट्ठाय किर यावज्जतना, पुग्गलो अजेगुच्छो, महानि. 169; 4. आठ प्रकार के जा. अट्ठ. 2.335, स. उ. प. के प्रयोग के लिये द्रष्ट, आर्यपुद्गल - च्छा पु., प्र. वि., ब. व. - पुथुज्जनकल्याणकं अनज्जतन. उपादाय अट्ठ अरियपुग्गला अजेगुच्छाति, महानि. 169. अज्जतनाय अज्जतन से व्यु., च. वि., प्रतिरू. निपा., आज अजेय्य त्रि., जिनाति के सं. कृ. का निषे., [अजेय], के लिये - अधिवासेतु मे, भन्ते, भगवा अज्जतनाय भत्तं, अपराजेय, नष्ट न किये जाने योग्य, अनभिभवनीय - महाव. 22; ध. प. अट्ठ. 1.22, तुल. स्वातनाय. अजेय्यमेसा तव होतु मेत्ति, जा. अट्ठ. 7.221; - य्यो पु., अज्जतनी स्त्री., [अद्यतनी], एक प्रकार के भूतकाल को प्र. वि., ए. व. - एसो निधि सुनिहितो, अजेय्यो अनुगामिको सूचित करने वाली आख्यात-विभक्ति, अद्य. (लङ् लकार)खु. पा. 10; अवज्झा ब्राह्मणा आसु, अजेय्या धम्मरक्खिता, समीपेज्जतनी, क. व्या. 421; 430, मो. व्या. 6.4, सद्द. 3. सु. नि. 290; न सो राजा यो अजेय्यं जिनाति, जा. अट्ठ. 887, रू. सि. 452; - विभत्ति स्त्री., क्रि. रू. के अनेक 5.501.
प्रयोगों में से एक, अद्य. (लङ् लकार), आज से लेकर, अजेळक पु./न.. द्व. स. [अजैडकम] 1. बकरे और भेड़ वर्तमान क्षण से पहले वाले समीपवर्ती अतीतकाल में चाहे - का प्र. वि., ब. व. - अजेळका कुक्कुटसूकरा सोणसिङ्गाला, वह प्रत्यक्ष हो या अप्रत्यक्ष, अज्जतनी विभक्ति होती है - दी. नि. 3.53; इतिवु. 27; - कं प्र. वि., ए. व. - अजो च अज्जप्पभुति अतीते काले, पच्चक्खे वा अप्पच्चक्खे वा एळको च अजेळकं अजेळका वा क. व्या. 325; अजेळकं समीपे अज्जतनीविभत्ति होति, क. व्या. 421. जातिधम्म म. नि. 1.220; 2. स. नि. के एक सुत्त का अज्जता स्त्री., अज्ज से व्यु. भाव., अज्जतग्गे शब्द की शीर्षक, स. नि. 3(2).530; - पटिग्गहण नपुं., बकरियों व्याख्या के सन्दर्भ में प्रयुक्त एक कृत्रिम शब्द, आज का और भेड़ों का दान के रूप में स्वीकरण - णा प. वि., ए. समय - तं द्वि. वि., ए. व. - अज्जतग्गेति अज्जतं आदि व. - अजेळकपटिग्गहणा पटिविरतो समणो गोतमो, दी. कत्वा ति ... अज्जतन्ति अज्जभावन्ति वुत्तं होति, पारा. नि. 1.5.
अट्ठ. 1.131.
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65
98.
अज्जति
अज्जुन अज्जति अज्ज (भूवादि) का वर्त. प्र. पु., ए. व., कमाता अज्जित त्रि., अज्ज का भू. क. कृ., [अर्जित], अर्जन है, अर्जित करता है, - अज्ज सज्ज अज्जने, अज्जनं किया हुआ, कमाया हुआ - ता पु., प्र. वि., ब. व. - अज्जनकिरिया, अज्जति, सज्जति, सद्द. 2.345; धा. पा. अज्जनादीनि दुक्खानि अनुभोत्वापि अज्जिता, सद्धम्मो. 61; धा. मं. 16. अज्जतो प. वि., प्रतिरू. निपा. [अद्यतः], आज से लेकर अज्जितब्ब त्रि., अज्ज का सं. कृ., [अर्जितव्य], कमाने आगे - अनणो सो ममज्जतो, चू. वं. 47.28.
योग्य, अर्जन करने योग्य - ब्बो पु., प्र. वि., ए. व. -- तस्स अज्जदग्गे निपा., द्रष्ट. अज्जतग्गे.
अज्जितब्बो अच्चनारहो हितसुखत्थिकेन उपचितब्बोति अत्थो, अज्जदिवस पु.. [अद्यदिवस], वर्तमान दिन, आज का दिन खु. पा. अट्ठ. 179, पाठा. अच्चितब्बो. - सं द्वि. वि., ए. व. - हिय्यो पवत्तम्पि अज्जदिवसं न अज्जुक पु., वैशाली के एक भिक्षु का नाम - अथ खो सो पापुणि, जा. अट्ठ. 4.97.
गहपति आयस्मन्तं अज्जुकं एतदवोच, पारा. 79. अज्जन नपुं., [अर्जन], अर्जन, प्राप्त करना, अधिग्रहण, अज्जुकण्ण पु.. [अर्जकर्ण], एक वृक्ष का नाम - ण्णा प्र. धन की कमाई - अज्जनादीनि दुक्खानि अनुभोत्वापि अज्जिता. वि., ब. क. - अज्जुना अज्जुकण्णा च, महानामा च पुप्फिता, सद्धम्मो. 98; - नारह त्रि., [अर्जनाह], अर्जनयोग्य, कमाने जा. अट्ठ. 7.302. योग्य, अधिग्रहण करने योग्य - हो पु., प्र. वि., ए. व. - अज्जुण्ह/अज्जण्ह निपा., [अद्य + अहन], केवल आज अजेय्योति ... अज्जनारहो हितसुखत्थिकेन उपचितब्बोति के दिन, आज के दिन और रात के बचे हुए समय में - अत्थो, खु. पा. अट्ठ. 179, पाठा. अच्चनारहो.
विहरेम अज्जण्हो अग्गिसालम्हि, महाव. 29; अज्जण्हो, अज्जप्पभुति निपा., [अद्यप्रभृति], आज से लेकर - भन्ते, आगमेहि अज्ज नेगमस्स समयो, पारा. 334. अज्जप्पभुति अतीते काले पच्चक्खे वा अपच्चक्खे वा समीपे अज्जुन' पु.. [अर्जुन], एक गुणकारी छाल वाला वृक्ष, अर्जुन अज्जतनी विभत्ति होति, क. व्या. 421.
वृक्ष - अज्जुनो ककुधो भवे, अभि. प. 562, अज्जुना अज्जरत्ति स्त्री., आज की रात - त्तिं द्वि. वि., ए. व. - मम अज्जुकण्णा च महानामा च पुफिता, जा. अट्ठ. 7.302, अनच्छरियं अज्जरत्तिं हटभण्डं आहरित जा. अट्ट. 3.447; अज्जुना च पियङ्गुका, अप. 1.362, - रुक्ख पु.. [अर्जुनवृक्ष], अम्म, अज्जरत्तिं... तयोपि ... एकचितकस्मिं झायन्ति, ध. अर्जुन वृक्ष, अनोमदर्शी-बुद्ध के बोधिवृक्ष के रूप निर्धारित प. अट्ठ. 1.392.
वृक्ष का नाम - बोधि तस्स भगवतो, अज्जुनोति पवुच्चति, अज्जव पु./नपुं॰ [आर्जव], सरलता, सच्चाई, ईमानदारी - बु. वं. 323; अनोमदस्सिस्स पन भगवतो ... अज्जुनरुक्खो
अज्जवो च मद्दवो च, ध. स. 19; अज्जपञ्च च मद्दवञ्च बोधि, जा. अट्ठ. 1.46. .... खन्ती च सोरच्चञ्च, अ. नि. 1(1).114, स. उ. प. में अज्जुन पु., देवगब्भा के सातवें पुत्र का नाम - देवगभाय द्रष्ट, अनज्जव -- ता स्त्री॰, भाव., सरलता, अजिह्मता - जेट्टपुत्तो वासुदेवो नाम अहोसि ... सत्तमो अज्जुनो ... नाम या अज्जवता अजिम्हता अवङ्कता अकुटिलता-अयं वुच्चति अहोसि, जा. अट्ठ. 4.72. अज्जवो, ध. स. 286; - मद्दव नपुं., सरलता एवं दयालुता अज्जुन पु., राजा पाण्डु के एक पुत्र का नाम - अथज्जुनो या मृदुता - वे सप्त. वि., ए. व. - धम्मे ठितो अज्जवमद्दवे नकुलो भीमसेनो युधिहिलो सहदेवो च राजा, जा. अट्ठ. रतो. सु. नि. 253; - लक्खण त्रि., ब. स. [आर्जवलक्षण], 5.420... सरलता के लक्षण से युक्त, अवक्रता के लक्षण से युक्त - अज्जुन' पु., केकय क्षेत्र के एक राजा का नाम, महाभारत णा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - कायचित्तानं अज्जवलक्खणा के सहस्रबाहु कार्तवीर्य अर्जुन का संक्षिप्त नाम - सहस्सबाहु वा, अभि. अव. 22.
अज्जुनो च अङ्गीरसे अपरज्झित्वा, जा. अट्ट. 5.130. अज्जसटिं निपा., आज से छः दिन पूर्व से - अज्जसदिन अज्जुन पु., थेरगा. की अट्ठाइसवीं कविता के रचयिता एक दिस्सन्ति, तेनायं समणो सुखी, स. नि. 1(1).198 (अज्ज स्थविर का नाम - थेरो समितिगुत्तो च ... नीतो सुनगो
छदिवसमत्तका पट्ठाय न दिस्सन्ति, स. नि. अठ्ठ. 1.210). नागितो, पविट्ठो अज्जुनो इसि, थेरगा. 90. अज्जसुवे निपा., अज्ज + सुवे, आज अथवा कल - अज्जुन पु., एक बुद्ध का नाम - अज्जुनो नाम सम्बुद्धो, अज्जसुवे ति पुरिसो, सदत्थं नावबुज्झति, जा. अट्ठ. 3.227. हिमवन्ते वसी तदा, अप. 2.89.
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अज्झत्त
अज्जुनपुष्फिय
66 अज्जुनपुफिय पु., एक स्थविर का नाम - आयस्मा
अज्जुनपुफियो थेरो इमा गाथायो अभासित्थ, अप. 2.95. अज्जेकदिवसं निपा., केवल आज के ही दिन - त्वं पन अज्जेकदिवसं यत्थ कत्थचि वसाहीति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).170. अज्जेकरत्तिं निपा., केवल आज रात भर के लिए - पाटिभोग मे उपासका गहेत्वा अज्जेकरत्तिं जीवितं देथाति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).243. अज्जेतरहि निपा., आजकल, इस समय - अज्जेतरहिपि तं
लोके क्त्ततीति, मि. प. 152. अज्जेति अज्ज (चुरादि) वर्त. प्र. पु.. ए. व.. 1. साफ करता है, धा. पा. 464; सद्द. 1.2: 2. अर्जित करता है, धा. मं. 125. अज्झक्ख पु.. [अध्यक्ष], प्रमुख, प्रधान, मुखिया - अज्झक्खो
अधिकतो चेव, अभि. प. 343. अज्झत्तं निपा., क्रि. वि. [अध्यात्म], आन्तरिक रूप में, भीतरी तौर पर, प्रायः इसका प्रयोग सत्त्व के विशे के रूप में प्राप्त, विसुद्धि. में इसका व्याख्यान अव्ययी. स. से निष्पन्न अधित्थि जैसे स. प. के समान, अट्ठ में प्रायः विशे. के रूप में व्याख्यात; 1. सत्त्व के विशे. के रूप में - अलमिदं अज्झत्तं नहानं भविस्सति, यदिदं भगवति पसादोति. स. नि. 3(2).453; यं अज्झत्तं पच्चत्तं कक्खळं खरिंगतं उपादिन्नं .... म. नि. 1.245; 2. अव्ययी. स. के अधि जैसे अव्ययपदों के समान क्रि. वि. के रूप में प्रयुक्त - चोदकेन, भिक्खवे, भिक्खुना ... पञ्च धम्मे अज्झत्तं उपट्टापेत्वा परो चोदेतब्बो, अ. नि. 3(2).65, अज्झत्तञ्च बहिद्धा च, काये छन्दं विराजये. सु. नि. 205. अज्झत्त' त्रि., अज्झत्तं के स्थान पर तथा उसी के अर्थ में कहीं कहीं प्रयुक्त, [अध्यात्म]. आन्तरिक, भीतरी, चित्त से सम्बद्ध - ता' पु.. प्र. वि., ब. व. - अज्झत्ता धम्मा, बहिद्धा धम्मा, अज्झत्तबहिद्धा धम्मा, ध, स. (प्र.)4; अत्तानं अधिकार कत्वा पवत्ताति अज्झत्ता, अज्झत्तसद्दो पनायं गोचरज्झत्ते नियकज्झत्ते अज्झत्तज्झत्ते विसयज्झत्तेति चतूसु अत्थेसु दिस्सति, ध. स. अट्ठ. 93; - त्ता' स्त्री., प्र. वि., ब. व. -
सब्बाव पञा सिया अज्झत्ता .... विभ. 374. अज्झत्त अभि. प. में इसका व्याख्यान सत्त्व. के रूप में प्राप्त, आन्तरिक धर्म - ससन्ताने च विसये गोचरेज्झत्तमुच्चते. अभि. प. 1040; -चिन्ती त्रि., [अध्यात्मचिन्ती]. आन्तरिक धर्मों को आलम्बन बनाने वाला - न्ती पु., प्र. वि., ए. व.
- अज्झत्तचिन्ती सतिमा, ओघं तरति दुत्तरं सु. नि. 176, अज्झत्तचिन्ती न मनो बहिद्धा, निच्छारये सङ्गहितत्तभावो. सु. नि. 390, - तज्झत्त त्रि., अत्यन्त दृढ़ता के साथ आन्तरिक धर्मों को चित्त का आलम्बन बनाने वाला - अज्झत्त सद्दो पनायं गोचरज्झते नियकज्झत्ते अज्झत्तज्झत्ते विसयज्झत्तेति चतूसु अत्थेसु दिस्सति, ध, स. अट्ठ. 93, विलो. गोचरज्झत्त; -तिक नपुं.. अज्झत्त से प्रारम्भ होने वाली ध. स. की एक तिकमातिका - अज्झत्तत्तिके एवं पवत्तमाना मयं अत्ताति गहणं, ध. स. अट्ठ. 92; - पुच्छा स्त्री., [अध्यात्मपृच्छा]. अध्यात्मविषयक प्रश्न, आन्तरिक आलम्बनों से सम्बद्ध प्रश्न - अपरापि तिस्सो पुच्छा अज्झत्तपुच्छा बहिद्धापुच्छा अज्झत्तबहिद्धापुच्छा, महानि. 251; - बन्धन त्रि.. [अध्यात्मबन्धन], आन्तरिक बन्धन अर्थात् दसविध चित्तबन्धन - नो पु.. प्र. वि., ए. व. - अज्झत्तसंयोजनोति अज्झत्तबन्धनो, पु. प. अट्ठ. 53; - बहिद्ध त्रि०, अंशतः भीतरी और अंशतः बाहरी - अस्थि अज्झत्तो, अस्थि बहिद्धो, अत्थि अज्झत्तबहिद्धो, विभ. 18; - बहिद्धारम्मण त्रि., चित्त के आभ्यन्तरिक आलम्बन एवं बाह्यालम्बन - अस्थि अज्झत्तबहिद्धारम्मणो, विभ. 18; - बहिद्धापुच्छा स्त्री., आन्तरिक एवं बाह्य धर्मों से सम्बद्ध प्रश्न - अपरापि तिस्सो पुच्छा- अज्झत्तपुच्छा बहिद्धापुच्छा अज्झत्तबहिद्धा पुच्छा, महानि. 251; - बहिद्धारूप नपुं.. आध्यात्मिक एवं बाह्य रूप - अज्झत्तबहिद्धारूपे ति तदुभये, पारा. 150, - बहिद्धावत्थुक त्रि., आन्तरिक एवं बाह्य धर्मों को मन के चिन्तन का आधार बनाने वाला- केसु नपुं.. सप्त. वि.. ब. क. - इमिना अज्झत्तबहिद्धावत्थुकेसु कसिणेसु झानपटिलाभो दस्सितो, ध. स. अट्ठ. 235; - बाहिर त्रि.. भीतर और बाहर - रा पु.. प्र. वि., ब. व. - अनिच्चं दुक्खं अनत्ता च, तयो अज्झत्तबाहिरा, स. नि. 2(2).6; - भातिक पु.. सहोदर भ्राता, अपना सगा भाई- अयं पन थेरस्स अज्झतभातिको, अ. नि. अट्ठ. 1.176; - रत त्रि., [अध्यात्मरत]. अन्तर्मुख होकर आध्यात्मिक साधनापरायण, समाधिस्थ, समाधि में संलीन - तो पु., प्र. वि., ए. व. - अज्झत्तरतो समाहितो. उदा. 143; अज्झत्तरतो समाहितो, एको सन्तुसितो तमाहु भिक्खं ध. प. 362; अज्झत्तरतोति गोचरज्झत्तसङ्घाताय कम्मट्ठानभावनाय रतो. ध. प. अट्ठ. 2.333; - ववत्थान नपुं.. [अध्यात्मव्यवस्थान]. आत्मिक धर्मो पर अनुचिन्तन, आभ्यन्तरिक धर्मविषयक विवेक-ने सप्त. वि., ए. व. - कथं अज्झत्तववत्थाने पञ्जा वत्थनानते जाणं पटि. म. 69;
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अज्झपत्त
- विमोक्ख पु.. [अध्यात्मविमोक्ष), फलक्षणस्थ अर्हत्- पुद्गल द्वारा साक्षात्कृत विमुक्ति - खेन तृ. वि., ए. व. - अज्झत्तं विमोक्खाति अज्झत्तविमोक्खेन, अज्झत्तसङ्घारे परिग्गहेत्वा पत्तअरहत्तेनाति अत्थो, स. नि. अट्ठ. 2.56; - बुवान पु. (लिङ्गविपर्यय)- चार प्रकार के नीवरणों जैसे आन्तरिक धर्मों के अपनयन से प्राप्त होने वाले चार ध्यान - चत्तारि झानानि अज्झत्तं नीवरणादीहि वुढानतो अज्झत्तवुट्ठानो, पटि. म. अट्ठ. 2.139; - संयोजन 1. त्रि., अपने चित्त के अन्दर विद्यमान दस प्रकार के क्लेशों से युक्त - नो पु.. प्र. वि., ए. व. - कतमो चासो, अज्झत्तसंयोजनो पुग्गलो, अ. नि. 1(1).80; पु. प. 128; 2. न', चित्त में विद्यमान दस संयोजनों में अन्तिम पांच संयोजन - पञ्चोरम्भागियानि संयोजनानि अज्झत्तसंयोजनं. विम. 418; - सन्ति स्त्री., आध्यात्मिक शान्ति, भीतरी रागों अर्थात् द्वेष, मोह, क्रोध, उपनाह तथा म्रक्ष आदि की शान्ति - अज्झत्तसन्तिं अज्झत्तं रागरस सन्तिं, दोसस्स सन्ति, मोहस्स सन्तिं, कोधस्स ... सन्ति, महानि. 135-136, - समुट्ठान त्रि., [अध्यात्मसमुत्थान]. भीतर से समुत्थित या उत्पन्न - ना स्त्री., प्र. वि., ए. व. - इमस्स नेव अज्झत्तसमुठ्ठवाना हिरी अस्थि, न बहिद्धासमुहानं ओतप्पं जा. अट्ठ. 1.205, - सम्भव त्रि., भीतर में उत्पन्न, भीतर में उद्भूत-वो पु., प्र. वि., ए. व. - अज्झत्तसम्भवो कतञ्जताय ते, दुक्खे चिरं संसरितं तया कते, थेरगा. 1129, अज्झत्तसम्भवो अत्तनि सम्भूतो हुत्वापि तव अकतञ्जताय. थेरगा. अट्ठ. 2. 400; - सुञ नपुं., आन्तरिक रूप में धर्मों की स्वभावशून्यता - कतमं अज्झत्तसुझं? अज्झत्तं चक्खं सुझं अत्तेन वा अत्तनियेन वा निच्चेन वा ... इदं अज्झत्तसुझं पटि. म. 355-356; - त्तारम्मण त्रि., आध्यात्मिक धर्मों को आलम्बन बनाकर उत्पन्न होने वाले - णा पु., प्र. वि., ब. व. - कतमे धम्मा अज्झत्तारम्मणा? अज्झत्ते धम्मे आरब्भ ये उप्पज्जन्ति चित्तचेतसिका धम्मा-इमे धम्मा अज्झत्तारम्मणा, ध. स. 1053; चत्तारो खन्धा सिया अज्झत्तारम्मणा, सिया बहिद्धारम्मणा, विभ. 69. अज्झत्तिक त्रि., अज्झत्त से व्यु. [आध्यात्मिक]. अपने से सम्बद्ध, अपने से सम्बन्ध रखनेवाला-कं नपुं, प्र. वि., ए. व. - तत्थ चक्खादिपञ्चविध अत्तभावं अधिकिच्च पवत्तत्ता अज्झत्तिक, सेसं ततो बाहिरत्ता बाहिरं विसुद्धि. 2.77; - का पु., प्र. वि., ब. व. - बाहिरा हेसा रक्खा, नेसा रक्खा अज्झत्तिका, तस्मा तेसं अरक्खितो अत्ता, स. नि. 1(1).89%;
विविध तात्पर्यों में प्रयुक्त 1. अपने व्यक्तित्व अथवा शरीर से सम्बन्धित - अट्ठारस खो पनिमानि, भिक्खवे. तण्हाविचरितानि अज्झत्तिकस्स उपादाय, अ. नि. 1(2).241; विज्ञआणक्खन्धो अज्झत्तिको, विभ. 74; 2 अपरिहार्य अविभाज्य, अपृथक्करणीय - अज्झत्तिकं भिक्खवे, अङ्गन्ति करित्वा ..., स. नि. 3(1).122; इति. दु. 9; 3. अपने स्वयं के घर या बन्धुजनों से सम्बद्ध आत्मीय जन, आत्मीय परिग्रह - एवं, महाराज, यो सकं पोराणं अज्झत्तिकं जनं नीहरित्वा ... आगन्तुकंपियं करोति, जा. अट्ठ. 3.356, नियकोति अज्झत्तिको एकपितरा जातो, जा. अट्ठ. 6.274; - कम्मट्ठान नपुं.. [आध्यात्मिक कर्मस्थान]. ध्यान-प्रक्रिया में चित्त को स्थिर करने के लिए बतलाए गये 40 प्रकार के भीतरी आलम्बन - तथारूप वनसण्डं अनुपविसित्वा अज्झत्तिककम्मद्वानं सम्मसन्तो. ध. प, अट्ठ. 1.210; - दान नपुं., आध्यात्मिक दान, स्वकीय अङ्गों का दान - अहं अज्झत्तिकदानं दातुकामो, जा. अट्ट. 4.360, - बाहिर त्रि., भीतरी और बाहरी - रे नपुं., द्वि. वि., ब. क. - अज्झत्तिकबाहिरे आयतने अभिनन्दन्ति, मि. प. 72, - वत्थुक त्रि., आध्यात्मिक वस्तु वाला, ज्ञान की प्रक्रिया में इन्द्रियों को आधार बनाने वाला - का पु., प्र. वि., ब. व. - अज्झत्तिकवत्थुका बाहिरारम्मणा, विभ. 348, - सङ्गह पु., [आध्यात्मिक संग्रह], आन्तरिक अथवा चित्त के कुशल धर्मों का संग्रह - हं द्वि. वि., ए. व. - ततो पट्ठाय च अज्झत्तिकसङ्गहमेव करोन्तो दानादीनि पुआनि कत्वा सग्गपरायणो अहोसि, जा. अट्ठ. 3.356; - सन्तति स्त्री., चित्त एवं चैत्तसिक जैसे भीतरी धर्मों का निरन्तर प्रवाह - या तृ. वि., ए. व. - वुच्चते, अज्झत्तिकसन्ततिया विसेसपच्चयत्ता, म.नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).217; - सुत्त नपुं.. स. नि. के एक सुत्त का नाम, स. नि. 2(1).165. अज्झपत्त त्रि., अधिपतति का भू. क. कृ. [अभ्यापतित].1. अकस्मात् झपट्टा मारनेवाला, अपने पास अचानक पहुंचा हुआ, उड़कर अचानक टूट पड़ने वाला, आक्रमण करने वाला - त्ता प्र. वि., ब. क. - उभो पक्खे सन्नयह लापं सकुणं सहसा अज्झप्पत्ता, स. नि. 3(1).225; - त्तो पु.. प्र. वि., ए. व. - भुजङ्गमो कक्कटमज्झपत्तो, जा. अट्ठ. 3.259; महोदधिं हंसोरिव अज्झपत्तो, सु. नि. 1140; 2. सम्मूछित, बेहोश - तं स्त्री., वि. वि., ए. व. - तमज्झपत्तं राजपुत्तिं, उदकेनाभिसिञ्चथ, जा. अट्ठ. 7.343; तत्थ अज्झपत्तन्ति अत्तनो सन्तिकं पत्तं, पादमूले पतित्वा विसचिभूतन्ति अत्थो, तदे..
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अज्झपत्वा
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अज्झापन्न अज्झपत्वा अज्झ + /पत का पू. का. कृ., अचानक आकर,
विनेति, पारा. अट्ठ. 1.15, संयमवेल अतिभवित्वा पवत्तो अकस्मात् उपस्थित होकर - तमज्झपत्वा उपनिसीदि, आचारो अज्झाचारो वीतिक्कमो, सारत्थ. टी. 1.61; ला. अ. महासोणस्स हेट्टतो, बु. वं. 11.3.
कायसंसर्ग-विषयक दुराचार के विशेष अर्थ में भी प्रयुक्त - अज्झभवि अधि + अव + vभू का अद्य०, प्र. पु.. ए. व. यस्मा पनेतं समापज्जन्तस्स यो सो कायसंसग्गो नाम सो [अभ्यभूत्], अभिभूत किया, प्रभाव में ले लिया, पराभूत कर अत्थतो अज्झाचारो होति, पारा. अट्ठ. 2.109. दिया, विनाश को प्राप्त करा दिया - तं मं पङ्को अज्झभवि, अज्झाचारे सप्त. वि., प्रतिरू. निपा., दुःशील्यादि पापकर्मों जा. अट्ठ. 2.66; अज्झभवीति अधिअभवि विनासं पापेसि, के विषय में - अधिसीले सीलविपन्नो होति, अज्झाचारे तदे..
आचारविपन्नो होति.... महाव. 82; - टि. पाराजिक एवं अज्झभासि अधि + भास अद्य. प्र. पु., ए. व., बोला, कहा सङ्घादिशेष इन आपत्तियों को छोड़कर शेष पांच आपत्तियों - अथ खो कसिभारद्वाजो ब्राह्मणो भगवन्तं गाथाय अज्झभासि. में परिगणित पापकर्मों को अज्झाचार कहते हैं - इतरे सु. नि. (पृ.) 96; एवं वुत्ते मारो पापिमा भगवन्तं गाथाय पञ्चापत्तिकक्खन्धे आपन्नो अज्झाचारे आचारविपन्नो नाम, अज्झभासि, ध. प. अट्ठ. 1.243.
महाव. अट्ठ. 258. अज्झभासित्थ अधि + Vभास अद्य., प्र. पु., ए. व. आत्मने, अज्झाचिण्ण त्रि., अधि + आ + /चर का भू. क. कृ., उपरिवत् - राजानं कालिङ्ग तरमानो अज्झभासित्थ जा. [अध्याचीर्ण], नियमों का उल्लंघन करके अथवा अनुचित अट्ठ. 4.210.
रूप में आचरित, व्यवहृत या प्रयुक्त - ण्णं नपुं०. प्र. वि., अज्झयन नपुं. [अध्ययन], वेदों का अध्ययन, कण्ठस्थीकरण, ए. व. - बहु अस्सामणकं अज्झाचिण्णं होति, चूळव. 183, स्वाध्याय, पठन, शिक्षण - ब्राह्मणो नाम अज्झयनअज्झापन- म. नि. 3.33, इदं मे आचरियेन अज्झाचिण्णं, चूळव. 470. दानप्पटिग्गहणदमसंयमनियमपुब्बमनुसद्धिपवेणिवंसधरणो, मि. अज्झाजीवे सप्त. वि., प्रतिरू. निपा., जीविकोपार्जन के प. 212, तुल. अज्झान, अज्झायन, अज्झेन,
विषय में - अप्पमत्तको सो, आनन्द, विवादो यदिदं अज्झाजीवे अज्झवोदहि अज्झ + अव + दह अद्य., प्र. पु., ए. व., वा अधिपातिमोक्खे वा, म. नि. 3.31; अज्झाजीवेति आजीवहेतु बन्द कर दिया - उभो हत्थेहि संगय्ह पञ्जरे अज्झवोदहि. आजीवकारणा, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.24. जा. अट्ठ. 5.360.
अज्झापज्जति अधि + आ + vपद का वर्त., प्र. पु., ए. व., अज्झागारे सप्त. वि., प्रतिरू. निपा., अपने घर में - [अध्यापद्यते], अपराध करता है, अत्यधिक दूर पहुंच जाता मातापितरो अज्झागारे पूजिता होन्ति, अ. नि. 1(1).156%3; है, अतिक्रमण करता है, भिक्षुसंघ के लिये निर्धारित आपत्तियों इतिवु. 78.
में आपन्न होता है - चतुबिधं वचीदुच्चरितं भासमानो अज्झाचरति अधि + आ + Vचर वर्त., प्र. पु., ए. व., अज्झापज्जति नाम, ध. स. अट्ठ. 262 - न्तो वर्त. कृ., पु., दुःशील्यादि अकरणीय पापकर्मों का आचरण करता है, प्र. वि., ए. व. - अदिट्ठस्स होति पाराजिक धम्म अकुशल कर्मों को करता है - इध, विसाखे, मातुगामो यं अज्झापज्जन्तो, पारा. 256. भत्तु अमनापसङ्घातं तं जीवितहेतुपि न अज्झाचरति, अ. नि. अज्झापन' नपुं.. अधि + (इ के प्रेर. से व्यु. [अध्यापन]. 3(1).99, यं पन मनेन दुस्सील्यं अज्झाचरति, ध. स. अट्ठ. प्रशिक्षण, अध्यापन - ब्राह्मणो नाम अज्झयन अज्झापन
..... पवेणिवंसधरणो, मि. प. 212. अज्झाचरिय अधि + आ + Vचर का सं. कृ. [अध्याचर्य], अज्झापन नपुं, Vझा के प्रेर. का निषे०, अप्रज्वलन, नहीं नियमों का अतिक्रमण करके किये गये दुःशील्यादि पापकर्म: बुझाना, दाहसंस्कार नहीं करना - इति अल्लहत्थस्स - वत्थु नपुं, पापकर्मो की आधारभूत वस्तु - अब्रह्मचरियस्स अज्झापनं नाम अयं दुतियो साधुनरधम्मो, जा. अट्ठ. 7.208. पन चत्तारि अङ्गानि भवन्ति अज्झाचरियवत्थु च होति, तत्थ । अज्झापन्न त्रि., अधि + आ + Vपद का भू. क. कृ., च सेवनचित्तं पच्चपट्टितं होति.... खु. पा. अट्ठ. 21. [अध्यापन्न], 1. कर्तृ. वा. में - अपराध किया हुआ, अज्झाचार पु.. [अध्याचार], शा. अ. व्यतिक्रम, उल्लंघन, अपराध में आपतित - न्नाय पु.. च. वि., ए. व. - पापकर्म - वीतिक्कमोज्झाचारो, अभि. प. 430, गरुधम्म अज्झापन्नाय भिक्खुनिया, चूळव. 418; - न्नो पु.. कायिकवाचसिकअज्झाचारनिसेधनतो चेस कायं वाचञ्च प्र. वि., ए. व. - पाराजिकं धम्म अज्झापन्नोसि, पारा. 256,
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अज्झापित
69
अज्झावसति
2. कर्म. वा. में - किया गया अपराध - न्ना स्त्री., प्र. वि., अज्झायति अधि + vs का वर्त., प्र. पु., ए. व., [अध्येति], ए. व. -- आपत्ति अज्झापन्ना वा होति, महाव. 131, स. उ. कण्ठस्थ करता है, अध्ययन करता है, पढ़ता है, स्मरण प. के रूप में अनज्झा., अत्तज्झा. के अन्त. द्रष्ट; - क करता है - तं अज्झायतीति अज्झायको, दी. नि. अट्ट. त्रि., अज्झापन्न से व्यु., उपरिवत् - को पु., प्र. वि., ए. व. 1.200; तुल. अज्झेति, अधीयति, अधीते, सज्झायति.. -- अन्तिमवत्थु अज्झापन्नको पटिजानाति, महाव. 151. अज्झाराम निपा., अधि + आरामे, आराम के भीतर, आराम अज्झापित त्रि., झापित का निषे., भस्म नहीं किया। अर्थात् बौद्धविहार के अन्तःपरिसर में - न च, भिक्खवे, गया, नहीं जलाया गया - ते नपुं., सप्त. वि., ए. व. - न । अज्झारामे उपाहना धारेतब्बा, महाव. 261, हि मतसरीरे अज्झापिते तं सुसानं नाम होति, विसुद्धि. अज्झारुळ्ह त्रि., अज्झारुहति का भू. क. कृ., 1. अधिक 1.75.
ऊपर उठा हुआ, उन्नत, समुन्नत - ळ्हा पु.. प्र. वि., ब. अज्झापीळित त्रि०, अधि + आ + /पीळ का भू. क. कृ., व. - येहि रुक्खा अज्झारुळ्हा ओभग्गविभग्गा विपतिता अत्यन्त उत्पीड़ित, अतिशय संतप्त, अत्यंत कृशता को प्राप्त । सेन्ति , स. नि. 3(1).117. - ता पु., प्र. वि., ब. व. - खुप्पिपासाय अज्झापीलिता, पे. अज्झारुह त्रि., [अध्यारुह], शा. अ. भीतर से बाहर की व. अट्ठ. 157; पाठा. अट्टा पीळिता.
ओर या बाहर से भीतर की ओर उठते हुए उत्पन्न होने अज्झापेक्खिंसु अज्झ + अप + Vइक्ख का अद्य०, प्र. पु... वाला, ला. अ. 1. पराश्रयी, परजीवी- हा पु., प्र. वि., ए. ब. व., लापरवाही किया, परित्याग किया, अवहेलना की, व. - भिक्खवे, महारुक्खा अणुबीजा, महाकाया रुक्खान तिरस्कार किया - येन किच्चेन सम्पत्ता, अज्झापेक्खिंस अज्झारुहा, स. नि. 3(1).117, जा. अठ्ठ. 3.353; तावदे, अप. 1.185, तुल. अज्झुपेक्खिंसु.
निग्रोधादयो रुक्खा अज्झारुहा हुत्वा महन्तम्पि अझं वनप्पति अज्झाभव पु.. अधि+ आ + भू से व्यु., आधिपत्य पराभव, अतिक्कम्म ववन्तीति, तदे.; 2. अभिभूत करने वाला, दबाने परस्पर व्यवहार, समागम - पुब्बेवज्झाभवं तस्स, रक्खे वाला - पञ्चिमे भिक्खवे आवरणा नीवरणा चेतसो अज्झारुहा अक्खीव पण्डितो, जा. अट्ठ. 2.296.
पञआय दुब्बलीकरणा, स. नि. 3(1).117. अज्झाभवति अधि + आ + vभू का वर्त, प्र. पु., ए. व., अज्झारुहति अधि + आ + रुह का वर्त, प्र. पु., ए. व., अत्यधिक अभिभूत करता है, विशेष रूप से पराभूत करता परोपजीवी लता की तरह किसी को चारों तरफ से लपेट है - यथा नं सो न अज्झाभवति .... जा. अट्ठ. 2.297. लेता है, भयभीत करता है, अत्याचार करता है - अज्झारुहति अज्झाय पु.. [अध्याय]. खण्ड, किसी ग्रन्थ का एक भाग, दुम्मेधो, गोव भिय्यो पलायिनान्ति, स. नि. 1(1),256; पाठा. सर्ग - सग्गोज्झाये दिवेप्यथ, अभि. प. 911.
अज्झोसहति. अज्झायक' पु., अज्झायति से व्यु. [आध्यायिक, अध्यायिन]. अज्झारोह पु०, विशाल पांच सौ योजन लम्बी एक बड़ी अध्ययन करने वाला, अध्ययनशील, वेदों को पढ़नेवाला, मछली - आनन्दो च तिमिन्दो च अज्झारोहो महातिमि, वेदपाठी, वेदों के पाठ में पारङ्गत, वेदज्ञ - अन्तेवासी होति अभि. प. 673, अतीतस्मिहि काले महासमुद्दे छ महामच्छा अज्झायको मन्तधरो तिण्णं वेदानं पारगू, दी. नि. 1.76; अहे . तेसु आनन्दो तिमिनन्दो अज्झारोहोति इमे तयो अज्झायकोपि चे अस्स, तिण्णं वेदानं पारगू, थेरगा. 1180; मच्छा पञ्चयोजनसतिका, जा. अट्ठ. 5.459. अज्झायको याचयोगी, आहुतग्गि च ब्राह्मणो, जा. अट्ठ. अज्झावर पु., सहचर, साथी, समवाय, समूह - रं द्वि. वि., 7.45; - कुल नपुं.. वेदमन्त्रपाठी ब्राह्मणों का परिवार या ए. व. - भवन्तं अज्झावरं कत्वा, सोणं याचेमु संवर जा. वंश - अज्झायककुले जाता, ब्राह्मणा मन्तबन्धवा, सु. नि. अट्ठ. 5.309, संभवतः अज्झाचार के स्थान में प्रयुक्त अप.. 140; अज्झायककुले जाता ति मन्तज्झायके ब्राह्मणकुले अज्झावसति अधि + आ + Vवस का वर्त, प्र. पु., ए. व. जाता, सु. नि. अट्ट, 1.153.
[अध्यावसति]. शासक या अधिपति के रूप में निवास अज्झायक पु., झायक का निषे., ध्यान-विरहित, ध्यानविपन्न, करता है, विशिष्ट प्रकार की जीवनपद्धति में आनन्द लेता ध्यान न करने वाला - का प्र. वि., ब. व. - न दानिमे है - सचे अगारं अज्झावसति राजा होति चक्कवत्ति, सु. नि. झायन्तीति खो, वासेट्ट, अज्झायका ... झानविरहितानं (पृ.) 166; एसो अरियसावको विजितसङ्गामो तमेव सङ्गामसीसं ब्राह्मणानं गरहवचनं, दी. नि. अट्ठ. 1.200.
अभिविजिय अज्झावसतीति, इतिवु. 55; - सि म. पु., ए.
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अज्झावसथे
70
अज्झिट्ठ
व.- तं किं मञ्जसि, महाराज, फीतं कुरु अज्झावससीति, अदान., अदोस., अनेक., अमोह., अलोभ., अहित.. आकास., म. नि.2.268; - सामि उ. पु., ए. व. - एवं भो रखपाल, उपादिन्नक., उलार, एक., एवं., कल्याण., जान., गाम.. फीतं कुरु अज्झावसामी ति, म. नि. 2.268; - न्तो वर्त. दान., नान., निस्सरण., नेक्खम्म., पणीत., पर., पविवेक., कृ., पु.. प्र. वि., ए. व. - यदि, भन्ते नागसेन, गिही पुग्गल., पुरिस., मह., यथा., विसम., वेनेय्य., हित., हीन.
ओदातवसनो कामभोगी पुत्तदारसम्बाधसयनं अज्झावसन्तो के अन्त. द्रष्ट; - गहण नपुं.. [अध्याशयग्रहण], मनोदशाओं ... आराधको होति. मि. प. 228; - सता तृ. वि., ए. व. - का ग्रहण, दूसरे के मन के विचारों को पकड़ना या समझना नयिदं सुकर अगारं अज्झावसता ... ब्रह्मचरियं चरितुं, म. - अथेको सकुणो सब्बेसं अज्झासयग्गहणत्थं तिक्खत्तुं सावेसि. नि. 2.255; - सन्तेहि तृ. वि., ब. व. - सक्का गेहं जा. अट्ठ. 2.291; - पूरण नपुं.. अपने अभिप्राय की पूर्णता अज्झावसन्तेहेव पुञानि कातुंध. प. अट्ठ. 1.5; - सतं ष. - पुण्णपत्तन्ति तव अज्झासयपूरणं पुण्णपत्तं ददामीति, जा. वि.. ए. व. - यञ्च गिहीनं अगारं अज्झावसतं ... पधानं, अट्ठ. 7.291; - फल नपुं.. अपने अभिप्राय के अनुरूप फल अ. नि. 1(1).65; - सेय्याम विधि.. उ. पु.. ब. व. - तम्पि - सोळसवस्सेहि कतवायामस्स समिद्धं अज्झासयफलंदस्सेतु मयं, भो रखपाल, अभिविजिय अज्झावसेय्यामाति, म. नि. एवमाह, जा. अट्ठ. 6.19; - सम्पन्न त्रि., उत्तम मनोवृत्ति 2.268; - सि अद्य., प्र. पु., ए. व. - सा वयप्पत्ता पतिकुलं से सम्पन्न व्यक्ति, उदार अभिप्राय वाला - न्नं नपुं.. द्वि. गन्त्वा अगारं ... अज्झावसि, जा. अट्ठ. 1.150; - सिंसु वि., ए. व. - एक अज्झासयसम्पन्न उपट्ठाककुलं दिस्वा, अद्य.. प्र. पु.. ब. व. - ततो पट्ठाय यावजीवं समग्गा ध. प. अट्ठ. 2.54; - यानुरूप त्रि., 1. अपने मानसिक सम्मोदमाना फीतं धरणिं अज्झावसिंसूति, जा. अट्ठ. 5.303; अभिप्रायों के अनुरूप, स्वकीय मानसिक वृत्तियों के अनुकूल -सिस्सति भवि., प्र. पु., ए. व. - कूटागारवरूपेतं, ब्यम्हं - पं नपुं., वि. वि., ए. व. - अथायस्मा संकिच्चो तस्स अज्झावसिस्सति, अप. 1.92; - सित्वा पू. का. कृ.- तं यूपं अज्झासयानुरूपं कम्मट्ठानं आचिक्खि, पे. व. अट्ठ. 52; उस्सापेत्वा अज्झावसित्वा ... अगारस्मा अनगारियं सब्बेन वित्तं पटिपादये तुवन्ति ... भोगेन तुम्ह अज्झासयानुरूपं पब्बजिस्सति, दी. नि. 3.56.
पे. व. अट्ठ, 94; 2. किसी की इच्छा के अनुसार - अत्तनो अज्झावसथे सप्त. वि., प्रतिरू. निपा., घर में, आवास के अज्झासयानुरूपं दुतियगाथाय वुत्ताय सुलसा ठानुप्पत्तिकारणं अन्दर, निवास में - अनापत्ति अज्झारामे वा अज्झावसथे वा पटिलभित्वा, जा. अट्ठ. 3.387; यथामतिं ते ति इदानि तव उग्गहेत्वा वा उग्गहापेत्वा वा निक्खिपति, पारा. 358. अज्झासयानुरूपं करोमाति वदति, जा. अट्ठ. 7.198; - अज्झावुट्ठ/अज्झावुत्थ त्रि., अज्झावसति का भू. क. कृ.. यानुसन्धि पु., श्रोताओं के मानसिक अभिप्राय के अनुरूप [अध्युषित], किसी के द्वारा अधिग्रहण किया हुआ या आबाद भगवान् बुद्ध द्वारा दिये गये उपदेश को ध्यान में रखकर किया हुआ - टुं नपुं. द्वि. वि., ए. व. - अज्झावुटुं सुत्तों में उपदेशों का क्रम-विन्यास, सुत्तों की तीन अनज्झावुटुं वा आचिक्खितब्बचूळव. 353; - पासाद पु.. अनुसन्धियों में से एक - तयो हि सुत्तस्स अनुसन्धीआबाद किया हुआ महल - दो प्र. वि., ए. व. - भद्दजि, पुच्छानुसन्धि, अज्झासयानुसन्धि, यथानुसन्धीति, दी. नि. तया महापनादराजकाले अज्झावुत्थपासादो, जा. अट्ठ. अट्ठ. 1.104; परेसं अज्झासयं विदित्वा भगवता वृत्तसुत्तवसेन 2.276; - घर नपुं.. आबाद किया हुआ घर - रं प्र. वि.. अज्झासयानुसन्धि वेदितब्बो, जा. अट्ठ. 1.105. ए. व. - सकघरं नाम पुब्बञातिघरम्पि अत्तना सामिभावेन अज्झासयं सप्त. वि., प्रतिरू. निपा., मानसिक अभिप्राय के अज्झावुत्थघरम्पि, पे. व. अट्ठ. 21.
सम्बन्ध में, मानसिक अभिप्राय को दृष्टि में रखकर - सो अज्झासय पु.. अधि + आ + Vसी से व्यु. [अध्याशय], शा. भगवा विगतकथङ्कथो परियोसितसङ्कप्पो अज्झासयं अ. विश्राम करने का स्थल, किसी वस्तु को रखने का आदिब्रह्मचरियं.... दी. नि. 2.165. आश्रय स्थल या पात्र, आसन, ला. अ. मानसिक अभिप्राय, अज्झाहार पु.. [अध्याहार], आपूर्ति, संभरण अविद्यमान श्रोताओं की मनोदशा - यं द्वि. वि., ए. व.- भगवा तेसं वस्तु को कहीं अन्यत्र से लाकर रख देना - अत्रापि अज्झासयं ओलोकेत्वा .... जा. अट्ठ. 1.96; - तो प. वि., उष्पन्नन्ति अज्झाहारवसेन ततोति.... सद्द. 3.727. ए. व. - द्वीहाकारेहि होति अज्झासयतो वा विसयाधिमत्ततो अज्झिट्ट त्रि., अज्झेसति का भू. क. कृ. [अध्येष्ट], इच्छित, वा, ध. स. अट्ठ. 365; स. उ. प. के रूप में अत्तज्झा.. निवेदित, प्रार्थित, आमन्त्रित, धर्मदेशना-हेतु अभ्यर्थित -हो
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अज्जुपगच्छति
पु०, प्र. वि., ए. व. - परिचारकसोळसानं ब्राह्मणानं अज्झिट्टो पुट्ठो पञ्हें व्याकासि सु. नि. (पृ.) 246; अडिट्टो न विकम्पेय्य स राजवसतिं वसे जा. अड. 7.187 महिन्दत्पेरेन अज्झिट्ठो .. धम्मासने निसीदि पारा. अ. 70 तुल. अज्झसित.
अज्झुपगच्छति वर्त, प्र. पु. ए. व., अधि-उप + गम् [ अभ्युपगच्छति] अनुमोदन देता है, सहमति प्रदान करता है, किसी निष्कर्ष पर पहुंचता है च्छे विधि. प्र. पु. ए. द. [ अभ्युपगच्छेत्] अनुमोदन दें, सहमति प्रदान करें. किसी निष्कर्ष पर पहुंचे अच्युपगच्छे घातं, यो विञायेव सत्थुनो वचनं थेरीगा 476; अज्युपगच्छेति सम्पटिच्छेय्य थेरीगा. अट्ठ. 309; - पागमि अद्य., प्र. पु. ए. व. - धनुं कण्डं निक्खिप्प, संयमं अज्जुपागम जा. अ. 2.331 - पागमुं प्र. पु. ब. व.. सब्बे पञ्जलिका हुत्वा इसीनं अज्झुपागमुन्ति, जा. अट्ठ. 5.315; गतो भू. क. कृ. पु.. प्र. वि. ए. व. वेवण्णियं हि अज्युपगतोति पब्बजितेन अभिष्टं पच्यवेक्खित अ. नि. 3(2). 72: पब्बजितो पि भण्डुकासाववत्थवसनो परपिण्डमज्जुपगतो... आयं धम्मं कुसलं. मि. ए. 228.
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अज्झुपगमन नपुं., [ अभ्युपगमन ] स्वीकरण, सहमति, अनुमोदन, उपगमन या तिणवत्थारकरस कम्मस्स किरिया करणं उपगमनं अज्जुपगमनं अधिवासना अप्पटिक्कोसना चूळव. 220.
अज्जुपावेक्खि अधि + अव उप + √विस अय., प्र. पु.. ए. व., आसन पर बैठा सुमुखो अज्जुपावेक्खि
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धतरट्ठस्सनन्तरा, जा. अट्ठ. 5.373.
अज्युपेक्खकता स्त्री, अज्जुपेक्खक का भाव. [अध्युपेक्षकता ]. मध्यस्थता, तटस्थता, चित्तसमता, निरपेक्षता - ततो परं पन कत्तब्बाभावतो अज्युपेक्खकतासङ्घातेन मज्झत्ताकारेन पटिपज्जितब्ब, ध. स. अट्ठ. 240. अज्नुपेक्खति अधि + उप इक्ख का वर्त. प्र. पु. ए. व. [बौ. सं. अध्युपेक्षति] उपेक्षा करता है, निरपेक्ष दृष्टि से देखता है, तटस्थभाव से अनुचिन्तन करता है, सहता है कालेन काल अज्युपेक्खति अ. नि. 1 (1) 290, अज्युपेक्खति कालेन, सो योगी कालकोविदो, महानि, 385 - सि वर्त., म.पु. ए. व. अम्हे दब्बेन मल्लपुतेन विहेठियमाने अज्जुपेक्खसि चूळव. 180 क्खथ वर्त, म. पु. ब. व. भन्ते, तुम्हे राजगेहे भुञ्जमाना... लोकं विनासेन्ते कस्मा अज्झुपेक्खथ, जा. अट्ठ. 5.217; - क्खेय्य विधि., प्र. पु०,
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71
अज्येति
ए.व. समाहितचित्तमज्ञाय, अज्युपेक्खेय्य तावदे महानि, 385; - क्खेय्याम विधि, उ. पु. ब. व. - यंनूनं मयं चतुत्थे मिगजाते अज्युपेक्खेय्यामाति. म. नि. 1.213: विख अद्य. प्र. पु. ए. व. पिये पुते लताय बन्धित्वा तेन ब्राह्मणेन लताय अनुमज्जीयन्ते दिवा अज्जुपेक्खि. मि. प. 256 - क्खिंसु अद्य., प्र. पु. ब. व. - यंनूनं मयं चतुत्थे मिगजाते अज्जुपेक्खेय्यामा ति अज्युपेक्खिसु म.नि. 1.213: क्खिस्सथ भवि. म. पु. ब. द. अस्थि नाम, आनन्द, थेर भिक्खु विहेसियमानं अज्जुपेक्खिरसथ अ. नि. 2 (1).181; - क्खिय पू. का. कृ. - उक्कासितञ्च खिपित, अज्जुपेक्खिय सुब्बता बु. वं. 291 क्खितब्बो सं. कृ. पु. प्र. वि. ए. व. अस्थि भिक्खदे पुग्गलो अज्जुपेक्खितब्बो न सेवितब्बो न भजितब्बो न पयिरुपासितब्बो, अ० नि० 1 (1). 149 क्खिता क्रि. ना. प्र. वि. ए. व. यस्मिं समये, भिक्खवे, भिक्खु तथासमाहितं चित्तं साधुकं अज्जुपेक्खिता होति, स. नि. 3 (1). 86.
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अज्झपेक्खन नपुं., अधि + उप + √इक्ख से व्यु., क्रि. ना. [ अध्युपेक्षण] निष्पक्षता, निरपेक्षता, तटस्थता, समभाव चित्तचेतसिकानं अज्युपेक्खनवरोन समप्पक्त्तानं आजानेय्यानं अज्जुपेक्खनसारथि विय दट्ठब्बा, ध. स. अट्ठ 178. अज्झपेक्खना स्त्री. निरपेक्षता, उपेक्षा, मध्यस्थता, तटस्थता - या उपेक्खा उपेक्खना अच्युपेखना मज्झत्तता चित्तस्स उपेक्खासम्बोजा अयं दुष्यति उपेक्खासम्बोडारे विभ
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260.
अज्जुपेत त्रि. अज्नुपेति का भू. क. कृ. [ अभ्युपेत]. पूर्णतया युक्त, पूर्णतया अन्वित तो पु०, प्र. वि., ए. व. - सुचिरं अवनिपालो सञ्ञमं अज्झुपेतो, दा. वं. 4.5. अज्जुपेति वर्त. प्र. पु. ए. व. (अधि-उप + √इ) [ अभ्युप + इ) समीप में जाता है, किसी स्थान में विश्राम के लिए पहुंचता है, आशय या मनोभाव को ग्रहण करता है पेय्य विधि. प्र. पु. ए. व. समीप में जाए किसी स्थान में विश्राम के लिये पहुंचे, आशय या मनोभाव को ग्रहण करे - तमेव आसयं अज्जुपेय्य, दी. नि. 3.16 - सि अद्य, प्र. पु. ए. व. सो वरं वरं मिगसट्टे वघित्वा मुदुमंसानि मुदुमंसानि भक्खयित्वा तमेवं आसयं अज्जुपेसि, दी. नि. 3. 17; - स्सं अद्य., उ. पु. ए. व. - अहञ्च नं मालिनी अच्युपेस्सं जा. अट्ठ. 4.398.
अज्झेति' अधि + √इ. वर्त, प्र. पु. अध्ययन करता है, स्वाध्याय करता है.
ए. व.. पढ़ता है, व्याकरणं अज्झेति
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अज्झेति
72
अज्झोत्थरति
वेदेति च, सु. नि. अट्ठ. 2.153; विविध प्रयोगों के लिये अज्झेतब्ब, अज्झेय्य, अज्झपितब्ब, अज्झापनीय आदि के अन्त. द्रष्ट.. अज्झेति अधि + Vइ, वर्त, प्र. पु., ए. व., शोक करता है, विलाप करता है, शोकपर्याकुल होता है - न सो सोचति
नाज्झति, महानि. 323. अज्झेन नपुं.. [अध्ययन], पढ़ना, वेदपाठ, स्वाध्याय, अE ययन - नं द्वि. वि., ए. व. - अज्झेनं खो, भो गोतम, ब्राह्मणा चतुत्थं धम्म पञ्जपेन्ति, पुञ्जस्स किरियाय, म. नि. 2.423; - नेन तृ. वि., ए. व. - इधेकच्चो जातिया वा गोत्तेन वा ... अज्झेनेन वा ... मानं जप्पेति, विभ. 405, अज्झेनमरिया पथविं जनिन्दा, जा. अट्ट. 7.53, तुल. अज्झयन, अज्झायन, अज्झान परियज्झेन, स. उ. में छन्द०, झान., मन्त. के अन्त. द्रष्ट.; - कुत्त नपुं, अनेक ग्रन्थों का निरर्थक सैद्धान्तिक ज्ञान - अज्झेनकुत्तं परदारसेवना, सु. नि. 245; अज्झेनकुत्तन्ति निरत्थकमनेकगन्थपरियापुणनं. सु. नि. अट्ट, 1.263; पाठा. अज्झेनकुटुं, अज्झेनकुज्ज. अज्झे सति अधि + एस का वर्त., प्र. पु., ए. व. [अध्येषति], कहता है, अनुरोध करता है, विशेष रूप से धर्मोपदेश के लिये प्रेरित करता है - सामं वा धम्म भासति परं वा अज्झेसति, अ. नि. 3(1).6; - न्ति प्र. पु., ब. व. - एतेनेव उपायेन याव सङ्घनवकं अज्झेसन्ति, महाव. 145; - सि अद्य., प्र. पु., ए. व. - अथ खो देवदत्तो ... सारिपुत्तं अज्झोसि, चूळव. 339; - सितुं निमि. कृ. - अनुजानामि, भिक्खवे, थेरेन भिक्खुना सामं वा धम्म भासितुं परं वा अज्झसितुं, महाव. 141; - त त्रि., भू. क. कृ. [अध्येषित], याचित, प्रार्थित, निवेदित, अभ्यर्थित - तो पु., प्र. वि., ए. व. - याचितो याचितो अज्झेसितो अज्झसितो, चूळनि. 177%; एक अज्झसितोपि अप्पं याचितो बहुदायको उळारपुरिसो विय एकाय गाथाय तीणि मङ्गलानि वत्वा, खु. पा. अट्ट, 105. अज्झेसना स्त्री., [अध्येषणा], सत्क्रिया, याचना, निवेदन, आयाचन, अभ्यर्थना, धर्मोपदेशहेतु अनुरोध - अज्झेसना तु सक्कारपुब्बङ्गमनियोजन, अभि. प. 427; - नं द्वि. वि., ए. व. - अज्झेसनं बुद्धसिरिव्हयस्स, थेरस्स सम्मा समनुस्सरन्तो, पारा. अट्ठ. 1.3; अज्झेसनन्ति गरुडानियं पयिरुपासित्वा गरुतरं पयोजनं उद्दिस्स अभिपत्थना अज्झेसना, तं अज्झेसनं,
आयाचनन्ति, सारत्थ. टी. 1.19. अज्झोकास पु., अधि + ओकास, केवल सप्त. वि., ए. व. में ही प्रयुक्त, खुले आकाश के नीचे, खुली जगह में - भगवा
..... अज्झोकासे चङ्कमति, महाव. 20; अज्झोकासे ठपितहि विवटमुखं भाजनं देवे वस्सन्ते किञ्चापि एकबिन्दुना न पूरति, ध. प. अट्ठ. 2.10; अज्झोकासे पटिच्छन्नेन वरहादिना उदकट्ठाने ... गच्छ, जा. अट्ठ. 5.186, - गत त्रि., खुली जगह पर या बाहर गया हुआ - तो पु., प्र. वि., ए. व. - न अज्झोकासगतो रमति, स. नि. 1(2).209. अज्झोकिरन्ति अधि + अव + किर का वर्त, प्र. पु., ब. व. [अभ्यवकिरन्ति], आच्छादित करते हैं, ढकते हैं, विखेरते हैं, चारों ओर विखेरते या फैलाते हैं - अकालपुप्फेहि ...
तथागतस्स सरीरं ओकिरन्ति अज्झोकिरन्ति, दी. नि. 2.104. अज्झोगाळ्ह त्रि., अधि + अव + /गाह, भू, क. कृ. [अध्यवगाढ], अत्यधिक गहरा, अत्यधिक निमग्न, डूबा हुआ, बहुत भीतर तक प्रविष्ट, गम्भीर रूप में निविष्ट - हो पु., प्र. वि., ए. व. - चतुरासीति-योजनसहस्सानि महासमुद्दो अज्झोगाळहो, अ. नि. 2(2).237; - ळहे सप्त. वि., ए. व. - अज्झोगाळहे धुते गुणे, मि. प. 316; - पत्त त्रि., [अध्यवगाढप्राप्त], अत्यधिक भीतर तक प्रविष्ट, बहुत गहराई तक गया हुआ - अञ्जतरस्मिं कुले अतिवेलं अज्झोगाळ्हपत्तो विहरति, स. नि. 1(1).233. अज्झोगाहति अधि + अव + /गाह का वर्त., प्र. पु., ए. व., बहुत गहराई तक प्रवेश करता है, गहरी छान-बीन करता है, गहरी डुबकी लगाता है - खारिविधमादाय अरुञायतनं अज्झोगाहति, दी. नि. 1.88; मोसवज्ज पगाहति ओगाहति अज्झोगाहति पविसतीति, महानि. 111; - गहिं अद्य., उ. पु., ए. व. - खारिभारं गहेत्वान, वनं अज्झोगहिं अहं अप. 1.16; - हितुं निमि. कृ. - न सक्का अप्पेसक्खेहि अज्झोगाहितुन्ति वुत्तं होति, म. नि. अट्ठ (मू.प.) 1(1).119; - हेत्वा पू. का. कृ. - पुरिसो नावाय महासमुई अज्झोगाहेत्वा, मि. प. 97; नदि वा तळाकं वा अज्झोगाहेत्वा न्हायेय्य, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).200. अज्झोत्थरति अधि + अव + Vथर का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अध्यवस्तृणाति], ऊपर तक ढक देता है, भरपूर कर देता है, व्याप्त हो जाता है, पराभूत या अभिभूत कर देता है (जलमग्न कर देता है, प्लावित कर देता है) - बहुकत्ता कुसलं सदेवकं लोकं अज्झोत्थरति, मि. प. 273; - रि अद्य., प्र. पु., ए. व. - सकलं राजगहनगरं गन्धेन अज्झोत्थरि ध. प. अट्ठ. 1.239; - रित्वा पू. का. कृ. - उदकेन नं अज्झोत्थरित्वा मारेस्सामि, जा. अट्ट, 1.82; गहितग्गहितानि तूरियानि अज्झोत्थरित्वा निपजिंसु, जा. अट्ठ. 1.71.
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अज्झोत्थट
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अज्झोसित
अज्झोत्थट त्रि., भू. क. कृ., आच्छादित, अत्यधिक अभिभूत, - यदनिच्चं तं नालं अभिनन्दितुं नालं अभिवदितुं, नालं चारों ओर से भरा हुआ, बुरी तरह से प्रभावित - तो पु., प्र. अज्झोसितुं, म. नि. 3.47. वि., ए. व. - सो च तेन आसीनो अतिनिविट्ठो अज्झोत्थटो, अज्झोसान नपुं., [अध्यवसान], सांसारिक वस्तुओं के प्रति जा. अट्ठ. 1.347; चतुसहस्सयोजनपरिमाणो पदेसो उदकेन ___ आसक्ति, चित्त का उपादान, छन्द और राग पर आधारित अज्झोत्थटो..... सु. नि. अट्ठ. 2.145; - टं नपुं., प्र. वि., परिग्रहभाव - नं प्र. वि., ए. व. - यो इमेसु पञ्चसु ए. व. - एत्तकं ठानं बुद्धरस्मीहियेव अज्झोत्थटं अहोसि, उपादानक्खन्धेसु छन्दो आलयो अनुनयो अज्झोसानं सो ध. स. अट्ठ. 16; - टस्स ष. वि., ए. व. - अट्ठहि दुक्खसमुदयो, म. नि. 1.251; यो रागो सारागो अनुनयो लोकधम्मेहि फुडस्स अज्झोत्थटस्स चित्तं न कम्पति, खु. ... इच्छा मुच्छा अज्झोसानं ... अयं वुच्चति लोभो, ध. स. पा. अट्ठ. 123; - हदय त्रि., ब. स., भरपूर हृदयवाला - 1065; - नं द्वि. वि., ए. व. - छन्दरागं पटिच्च अज्झोसानं या पु., प्र. वि., ब. व. - पेमेन महोघेनेव अज्झोत्थटहदया अज्झोसानं पटिच्च परिग्गहो, अ. नि. 3(1).210; - लक्खण हुत्वा , ध. प. अट्ठ. 1.157.
क. नपुं., सांसारिक वस्तुओं के प्रति लगाव युक्त रहने का अज्झोपन्न त्रि., अधि + अव/पद का भू. क. कृ., लक्षण या स्वभाव - णेन तृ. वि., ए. व. - सब्बा हि तण्हा अत्यधिक संलग्न, दृढ़ता के साथ आसक्त - न्नो पु., प्र. अज्झोसानलक्खणेन एकलक्खणा, नेत्ति. 22; ख. त्रि., वि., ए. व. - भोगे गधितो मुच्छितो अज्झोपन्नो, स. नि. लगाव युक्त रहने के लक्षण वाला - णा स्त्री., प्र. वि., ए. 2(2).315; - न्ना ब. व. - इमे खो वासेट्ट, पञ्च कामगुणे व. - अज्झोसानलक्खणा तण्हा, नेत्ति. 26; स. उ. प. में तेविज्जा ब्राह्मणा गधिता मुच्छिता अज्झोपन्ना ... परिभञ्जन्ति, अन., एकन्त०, काम., दिट्ठि, भव. के अन्त. द्रष्ट.. दी. नि. 1.222; इत्थिरूपे ... रत्ता गिद्धा गथिता मुच्छिता अज्झोसाय/अज्झोस अज्झोसति का पू. का. कृ. अज्झोपन्ना, अ. नि. 2(1).63; कामगुणेसु... गथिता मुच्छिता [अध्यवसाय, अध्यवस्य], सुनिश्चित करके, सुग्रहीत करके, अज्झोपन्ना, दी. नि. अट्ट, 1.56; स. उ. प. में अनज्झोपन ठीक से विनिश्चय करके - तस्स तं वेदनं अभिनन्दितो के अन्त. द्रष्ट..
अभिवदतो अज्झोसाय तिढतो उप्पज्जति नन्दी, म. नि. अज्झोमद्दति अधि + अव + मद्द का वर्त, प्र. पु., ए. व. 1.338; अज्झोसाय तिकृतीति तण्हाअज्झोसानगहणेन गिलित्वा [अध्यवमर्दति], कुचल देता है, मर्दन करता है, चूर्ण- परिनिट्टपेत्वा गण्हाति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.2063; विचूर्ण कर देता है - तो पु., प्र. वि., ए. व. - सत्थिं नाभिनन्दति नाभिवदति नाज्झोसाय तिट्ठति, स. नि. उस्सज्जित्वा रथीसंयेव अज्झोमद्दति, अ. नि. 3(1).34. 2(2).164; मि. प. 72; सारत्तचित्तो वेदेति, तञ्च अज्झोस अज्झोमुच्छित त्रि०, अधि + अव + मुच्छ का भू. क. कृ. तिट्ठति, थेरगा. 98; विरत्तचित्तो वेदेति, तञ्च नाज्झोस [अध्यवमूर्च्छित]. पूर्णतया सज्ञाहीन, बेहोश, मूर्च्छित, । तिट्ठति, स. नि. 2(2).81. शोकसंतप्त, शोकाकुल - रत्तिन्दिवं भद्दाय देविया सरीरे अज्झोसित त्रि., अज्झोसति का भू. क. कृ. [अध्यवसित], अज्झोमुच्छितो, अ. नि. 2(1).53.
क. कर्तृ. वा. में - किसी धर्म का अच्छी तरह ग्रहण कर अज्झोलम्बन्ति अधि + अव/लम्ब का वर्त, प्र. पु., ब. व. चुका अथवा विनिश्चय कर चुका, किसी के प्रति सुदृढ़ किसी के ऊपर जाकर लटकते है, अवलम्बित होते आसक्ति रखने वाला, पूर्णतया तल्लीन - ता पु., प्र. वि., या आ पड़ते हैं - महतं पब्बतकूटानं छाया ब. व. - अज्झोसिता असारे कळेवरे अहिन्हारुसङ्घाते. थेरीगा. सायन्हसमयं पथविया ओलम्बन्ति अज्झोलम्बन्ति, म. नि. 472; - तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - यं किञ्चि दिळव सुतं 3.204.
मुतं वा, अज्झोसितं सच्चमुतं परेसं. अ. नि. 1(2).30; अज्झोसति/अज्झोसेति अधि + अप + /सो का वर्त, प्र. अस्सुतवतो पुथुज्जनस्स अज्झोसितं ममायितं परामर्ल्ड, स. पु., ए. व. [अध्यवस्यति], विनिश्चित करता है, ग्रहण नि. 1(2).84; ख. कर्म. वा. में - वह आलम्बन या धर्म, करता है, ध्यान-प्रक्रिया में विनिश्चित करता है;-सिस्ससि जिसके प्रति चित्त में दृढ़ आसक्ति है, आसक्ति के साथ भवि०, म. पु.. ए. व., विनिश्चित करोगे, ग्रहण करोगे, ग्रहण किया गया - तं उपरिवत् - अस्सुतवतो पुथुज्जनस्स ध्यान-प्रक्रिया विनिश्चित करोगे - सचे खो त्वं भिक्खु अज्झोसितं ममायितं परामटुं स. नि. 1(2).84; अज्झोसितंयेव पठविं अज्झोसिस्ससि. म. नि. 1.411; - सितुं निमि. कृ. अद्दसं, अनज्झोसितं नाद्दसं. महानि. 304.
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अज्झोहट
अञ्जन अज्झोहट त्रि., अधि + अव + हर का भू. क. कृ. क.- कुक्कुटो पथविं खणित्वा खणित्वा अज्झोहारं अज्झोहरति. [अभ्यवहत], गले के नीचे उतारा हुआ, निगला हुआ, मि. प. 333. निगीर्ण - टा पु., प्र. वि., ब. व. - गिलितो खादितो भुत्तो. अञ्चति ।अञ्च का वर्तः, प्र. पु.. ए. व. [अञ्चति], 1. भक्खिताज्झोहटासिता, अभि. प. 757; - टं नपुं., प्र. वि., खींचता है, अपनी ओर घसीटता है - अञ्छामि नं न ए. व. - तहि मूलफलादि ओदनकुम्मासादि वा अज्झोहट मुञ्चामि, थेरगा. 750; पाठा. अञ्छामि; उदकं अञ्चन्ति कुच्छि वित्थम्भेति,ध. स. अट्ठ. 361; -टो पु., प्र. वि., ए. एतायाति उदञ्चनी, जा. अट्ट, 1.399; 2. सिकोड़ता है, व. - अज्झोहटो व बळिसं मच्छो आमिसतण्हया, सद्धम्मो. संकुचित करता है - याचके दिस्वा कटुकभावेन चित्तं 610.
अञ्चति सङ्कोचेतीति, ध. स. अट्ठ. 401. अज्झोहरण नपुं.. अज्झोहरति से व्यु. [अभ्यवहरण], प्रयोग, अञ्छति ।अञ्छ का वर्त.. प्र. पु., ए. व. [अञ्छति], खींचता समाचरण, भोजन-ग्रहण, भोजन का निगलना - णं द्वि. है, अपनी ओर घसीटता है - दक्खो भमकारो वा वि., ए. व. - अस्साजानीयो .... पतोदस्स अज्झोहरणं भमकारन्तेवासी वा दीर्घ वा अञ्छन्तो दीर्घ अछामीति पजानाति. समनुपस्सति, अ. नि. 3(2)291; अत्तनो अभिमुखस्स पतोदस्स दी. नि. 2.215; म. नि. 1.72. अज्झोहरणसङ्घातं पतनं विपस्सतोति अत्थो, अ. नि. अट्ठ. अञ्चित त्रि., अञ्च का भू. क. कृ.. गति करने वाला, जाने 3.342; द्वत्तिक्खत्तुं अज्झोहरणमतेनेव कम्मजतेजो उपादिन्नकं वाला - ता पु., प्र. वि., ब. व. - उद्धं अनुगेन्वा तिरियं मुञ्चित्वा अनुपादिन्नकं गण्हाति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) अञ्चिताति तिरच्छाना, विभ. अट्ठ. 428. 1(1).267; स. उ. प. में ब्राह्मणज्झोहरण के अन्त. द्रष्ट.. अञ्जति अञ्ज से व्यु., वर्त. प्र. पु., ए. व., व्यक्त करता अज्झोहरणीय त्रि., अज्झोहरति का सं. कृ. [अभ्यवहरणीय]. है, अञ्जन लगाता है, मालिश करता है, चमकाता है, निगलने योग्य, भोजन में ग्रहण करने योग्य - अहं एते सम्मानित करता है, लीपता है, स्पष्ट करता है, तैयार मनुस्से निस्साय अज्झोहरणीयमत्तं आहारं लभामि लूखे वा करता है -न्ति ब. व. - भिक्खु अङ्गलिया अञ्जन्ति, महाव. पणीते वा, ध. प. अट्ठ. 1.160; तत्थ अज्झोहरणीयाहारो 279; - जापेसि अद्य., प्रेर., म. पु., ए. व. - इमं भेसज्ज मंसविभूसा नाम, जा. अट्ठ.7.149; स. उ. प. में गलज्झोहरणीय अजेही ति अजापेसिध. प. अट्ठ. 1.13; - जेय्यासि के अन्त. द्रष्ट., तुल. अज्झोहरितब्बो.
विधि., म. पु., ए. व. - अक्खीनि च अजेय्यासि. स. नि. अज्झोहरति अधि + अव + Vहर का वर्त, प्र. पु., ए. व. 1(2).2543; - जेत्वा पू. का. कृ. - अक्खीनि अञ्जत्वा [अभ्यवहरति], निगलता है, गले के नीचे उतारता है, नीचे अच्छं पत्तं गहेत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमि, स. नि. 1(2).254. की ओर खींचता है - येन च असितपीतखायितसयितं अञ्जन' नपुं.. [अञ्जन]. काजल, विलेपन, आंजन, चूर्ण - अज्झोहरति, म. नि. 2.93; - हारेय्यु विधि., प्र. पु.. ब. व., अञ्जनं तु कज्जलं, अभि. प. 306; - नानि प्र. वि.. ब. व. प्रेर. - इमा च मे देवता दिबं ओज लोमकूपेहि अज्झोहारेय्यु - तेन खो पन समयेन भिक्खू पिट्ठानि अञ्जनानि चरुकेसुपि म. नि. 1.313; - हरेस्साम भवि.. उ. पु.. ब. व. - तस्स सरावकेसुपि निक्खिपन्ति, महाव, 278; - नानं ष. वि., ब. ते मयं दिब्बं ओजं लोमकूपेहि अज्झोहरेस्साम, म. नि. व. - अञ्जनानं खयं दिस्वा, ध. प. अट्ठ. 1.264; स. उ. 1.313; - हरी अद्य, प्र. पु., ए. व. - को मं अज्झोहरी भूतो, प. में अक्ख., अलङ्कार., कण्ह., काळ., खार., तेल., रस.,
ओगाळ्हं यमुन नदि, जा. अट्ठ. 7.43; - रितब्बं सं. कृ., सोत. के अन्त. द्रष्ट; - टि. पांच प्रकार के अञ्जनों का नपुं.द्वि. वि., ए. क. - पच्चवेक्खित्वा अज्झोहारं अज्झोहरितब उल्लेख - अनुजानामि, भिक्खवे, अञ्जनं - काळञ्जनं. मि. प. 333; - रित्वा पू. का. कृ. - सिङ्गालो सब्बपच्छिम रसञ्जनं, सोतञ्जनं, गेरूकं, कपल्लन्ति, महाव. 278; - मूसिकं गहेत्वा मंसं खादित्वा अज्झोहरित्वा मुखं पुञ्छित्वा कम्मनाथ पु.. एक प्रमुख व्यक्ति का नाम - अजनकम्मनाथं तिट्ठति, जा. अट्ठ. 1.440; - रीयति कर्म. वा., वर्त. प्र. पु., सो धातुरक्खाय योजयि, चू. वं. 74.168; - क्खिक त्रि., ब. ए. व. - कवळं कत्वा अज्झोहरीयतीति अत्थोध. स. अट्ठ. 361. स. [अञ्जनाक्षिक]. अञ्जन से रंगी हुई आंखों वाला या अज्झोहार पु.. [अभ्यवहार]. भोजन निगलने का कृत्य, वाली - का स्त्री., प्र. वि., ए. व. - चपला अजनक्खिका, भोजन-ग्रहण, भोजन - रे सप्त. वि., ए. व. - अज्झोहारे थेरगा. 960; - गिरि पु., अञ्जन की तरह काले रंग वाले अज्झोहारे आपत्ति दुक्कटस्स, पाचि. 312; - रं द्वि. वि., ए. एक पर्वत का नाम - काळपब्बतं नाम अजनगिरि गन्तवा,
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अञ्जन
75
अञ्जलि
जा. अट्ठ. 7.155; तुल. अञ्जनपब्बत; - चुण्ण नपुं., तत्पु. तृ. वि.. ब. व. - अञ्जनसदिसेहि लोमेहि समन्नागता, जा. स. [अञ्जनचूर्ण]. अञ्जन का चूर्ण या चूरा - गगनतलं । अट्ठ, 5.196; - सन्निभ त्रि., अञ्जन जैसा - मो पु.. प्र. अञ्जनचुण्णसमोकिण्णं विय, ध. स. अट्ठ. 15; - देवी वि., ए. व. - महासत्तस्स पन अञ्जनसन्निभो नाम मङ्गलहत्थी स्त्री., देवगम्भा की एक पुत्री का नाम - भातरो सुत्वा महापुओ. ध. प. अट्ट, 2.332. हट्टतुट्ठा तस्सा अञ्जनदेवी ति नाम करिंसु. जा. अट्ठ. 4.72; अञ्जन' पु.. [अञ्जन], आठ दिग्गजों में से एक, पश्चिमी - नालिका स्त्री., अञ्जन रखनेवाली छोटी डिबिया - दिशा के एक हाथी का नाम - एरावणो पुण्डरीको वामनो अञ्जनीति अञ्जननालिका, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.214; कुमुदोजनो, पुष्पदन्तो सब्बभुम्मो सुप्पतीको दिसागजा, - पब्बत पु.. अञ्जन के रंग वाले काले पहाड़ का नाम - अभि. प. 30. महाअटवियं अञ्जनपब्बतो नाम अत्थि जा. अट्ठ. 5.128; अञ्जन' पु.. देवदह के एक शाक्यप्रमुख देवदहसक्क के पुत्र नीला अञ्जनपब्बता, जा. अट्ठ. 7.292; - नाळी स्त्री.. का नाम - अञ्जनो चाथ कच्चाना आसुं तस्स सुता दुवे, म. अञ्जन रखने का डिब्बा - ओसधजननाली च, सलाका वं. 2.17. धम्मकुत्तरा, अप. 1.333; - पुञ्ज पु., अञ्जन का ढेर, अञ्जनिथविका स्त्री., अञ्जन रखने का छोटा डिब्बा - कं अञ्जन की राशि - अज्जनपुञ्जसमानवण्णेन इमिना तव द्वि. वि., ए. व. - अनजानामि, भिक्खवे, अञ्जनित्थविकन्ति, नागेन, जा. अट्ट. 2.306; लुद्दे अञ्जनपुञ्जाभे उग्गदण्डे महाव. 279. सुदारुणे, सद्धम्मो. 286; - मक्खित त्रि., अञ्जन द्वारा अञ्जनिसलाका स्त्री., अञ्जन लगाने वाली सलाका - तेन विलिप्त - त्ता नपुं.. प्र. वि., ब. व. - नेत्ता अञ्जनमक्खिता, खो पन समयेन अञ्जनिसलाका भूमियं पतिता फरुसा थेरगा. 772: म. नि. 2.262; - मय त्रि., अञ्जन से भरा होति, महाव. 279; - कं द्वि. वि., ए. व. - अनुजानामि, हुआ - यं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - काळकूट अञ्जनमयं, भिक्खवे, अञ्जनिं अञ्जनिसलाकं चूळव. 256. उदा. अट्ठ. 244; - मूल पु.. एक प्रकार की मणि - अञ्जनी स्त्री.. क. अञ्जन रखने का पात्र - नि द्वि. वि., अञ्जनमूलो, राजपट्टो, अमतंसको, पियको, ब्राह्मणी चाति ए. व. - अनुजानामि, भिक्खवे, अञ्जनिन्ति, महाव. 2783; चतुब्बीसति मणि नाम. उदा. अट्ठ.81; - रुक्ख पु.. एक अजनीव नवा चित्ता, थेरगा. 773, न, भिक्खवे, उच्चावचा प्रकार का वृक्ष - अञ्जनरुक्खसारघटिकवण्णो महामच्छो अञ्जनी धारेतब्बा, महाव. 278; ख. एक पौधे का नाम, एक .... आकासं उल्लोकेत्वा, जा. अट्ठ. 1.316; - लोमसादिस औषधीय पौधा - केतका अञ्जनी चेव गोधुका तिणसूलिका, त्रि., सुरमे जैसे काले रङ्ग के बालों वाला/वाली - सा अप. 1.12. पाठा. कन्दली. स्त्री., प्र. वि., ए. व. - बाहा मुद् अञ्जनलोमसादिसा, जा. अञ्जलि पु., [अञ्जलि]. 1. करपुट, हथेली- ना तृ. वि., अट्ठ. 5.194: - वण्ण त्रि.. अंजन अथवा सुरमे जैसे काले ए. व. - सचाहं अञ्जलिना वा पिविस्सामि. अ. नि. रंग वाला - ण्णानं पु.. प. वि., ब. व. - रुओ अञ्जनवण्णानं 2(1).1763; - स्मिं सप्त. वि., ए. व. - पलितानि साधक केसानं अन्तरे एकमेव पलितं दिस्वा. जा. अट्ठ. 1.142; - सण्डासेन उद्धरित्वा मम अञ्जलिस्मिं पतिट्ठापेहि, म. नि. ण्णा पु.. प्र. वि., ब. व. - एकच्चे काळा अजनवण्णायेव, 2272; 2. सम्मान प्रकट करने हेतु सिर तक ले जाये गये सु. नि. अट्ठ. 109; - ण्णेन तृ. वि., ए. व. - वण्णं दोनों जुड़े हुए करतल - करपुटोञ्जलि, अभि. प. 2683; येन अञ्जनवण्णेन. ध. प. अट्ठ. 2.332; - वन नपुं.. साकेत के भगवा तेनञ्जलिं पणामेत्वा, सु. नि. (पृ.) 148; चूळव. 325; निकटवर्ती मृगोद्यान का नाम - नं द्वि. वि., ए. व. - राजा मागधो अजातसत ... भिक्खुसङ्घस्स अञ्जलिंपणामेत्वा, अञ्जनवनं ओभासेत्वा, स. नि. 1(1).65; - ने सप्त. वि., ए. दी. नि. 1.45; स. उ. प. में द्रष्ट. उदक., एक., कत., व. - साकेतं निस्साय अञ्जनवने विहरन्तो. जा. अट्ठ. पग्गहित.. पग्गहित-तुच्छ.. सुक्ख., प. के अन्त.; - क त्रि.. 1.296; ध. प. अट्ठ.2.184; - वनिय पु.. एक भिक्षु का नाम हाथ जोड़कर खड़ा हुआ व्यक्ति, सम्मान प्रकट करने हेतु - कतं बुद्धस्स सासनन्ति ... अञ्जनवनियो थेरो, थेरगा. खड़ा व्यक्ति - को पु.. प्र. वि., ए. व. - भगवतो पुरतो 55; - सक्क पु.. महाप्रजापती गौतमी के पिता का नाम - अट्टासि अजलिको भगवन्तं नमस्समानो, महाव.4; पाठा. पिता अञ्जनसको मे, माता मम सुलक्षणा, अप. 2.207; पञ्जलिको; स. उ. प. में द्रष्ट एक., ठित०, निपन्न. के - सदिस त्रि.. अञ्जन के समान, आंजन जैसा - सेहि पु.. अन्त:-कम्म नपुं० [अञ्जलिकर्मन]. हाथ जोड़कर प्रकट
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अञ्जली
76
अञ
किया गया सम्मान का भाव, सादर अभिवादन या नमस्कार - स्स ष. वि., ए. व. - अञ्जलिकम्मस्स अयमीदिसो विपाको, ध. प. अट्ठ. 1.21; - म्मं द्वि. वि., ए. व. - उभो हत्थे सिरस्मिं पतिद्वापेत्वा सब्बलोकेन कपिरमानं अञ्जलिकम्म अरहति, विसुद्धि. 1.212; ब्राह्मणमहासालानं ... अञ्जलिकम्म सादियेय्य, अ. नि. 2(2).260; - करणीय त्रि., [अञ्जलिकरणीय], हाथ जोड़कर सम्मान दिये जाने योग्य - यो पु., प्र. वि., ए. व. - भगवतो सावकसङ्घो आहुनेय्यो .... अञ्जलिकरणीयो, दी. नि. 2.74; म. नि. 1.48; अ. नि. 1(2).41, इतिवु. 64; अञ्जलिकम्म अरहतीति अञ्जलिकरणीयो, विसुद्धि. 1.212; - या ब. व. - सत्तिमे ... पुग्गला आहुनेय्या ... अञ्जलिकरणीया, अ. नि. 2(2).164; - का स्त्री., करतल, सम्मान में जुड़े हुए हाथ, करपुट, करसम्पुट - कं द्वि. वि., ए. व. - अभिवादयिं अञ्जलिकं अकासिं, वि. व.5; द्रष्ट. पञ्जलिका; - पग्गह त्रि., सम्मान प्रकट करने हेतु करसम्पुट को बांधने वाला, हाथ जोड़कर सम्मान को प्रकाशित करने वाला - हा पु., प्र. वि., ब. व. - अञ्जलिपग्गहा देवा पुप्फपुण्णघटा ततो, म. वं. 30.90; - पणाम पु., सम्मानपूर्वक प्रणति, सादर नमन, आदरयुक्त नमन - एको मनोपसादो,
सरणगमनमञ्जलिपणामो वा, मि. प. 228. अञ्जली स्त्री., एक भिक्षुणी का नाम, जो सङ्घमित्ता के साथ श्रीलङ्का गयी थी- महादेवी च पदुमा हेमासा च यसस्सिनी उन्नला अञ्जली सुमा, एता तदा भिक्खुनियो छळभिज्ञा महिद्धिका, दी. वं. 18.25(रो.). अञ्जस' त्रि., [अञ्जस], अकुटिल, सीधा, सरल, ईमानदार, सत्यवादी-संपु., द्वि. वि., ए. व. - यो अरियमनिकमञ्जसं उजु भावेति मग्गं अमतस्स पत्तिया, थेरगा. 35; सिक्खमाना अहं सन्ती, भावेन्ती मग्गमञ्जसं. थेरीगा. 99, असङ्घतं दुक्खनिरोधसस्सतं, मग्गञ्चिमं अकुटिलमञ्जसं सिवं, वि. व. 143; अञ्जसो निब्बानगामिनिपटिपदाभावतो अमतोगधो मग्गो अरियसच्चन्ति मं अवोचाति सम्बन्धो, वि. व. अट्ठ. 181. अञ्जस पु., [अञ्जस], सरल मार्ग, अकुटिल पथ - मग्गो पज्जो पथो पन्थो अजसं वटुमायनं, सु. नि. अट्ठ. 1.29; सुत्वान पटिपज्जिस्सं, अञ्जसं अमतोगधं, थेरगा. 179; असं ख्वाह, भिक्खवे, पुराणं मग्गं पुराणं अजसं पुब्बकेहि सम्मासम्बुद्धेहि अनुयातान्ति, मि. प. 205; - सा क्रि. वि. [अञ्जसा], ठीक तरह से, उचित रूप से, सरल मार्ग से - उजुमग्गस्सेतं वेवचनं अञ्जसा वा उजुकमेव एतेन
आयन्ति आगच्छन्तीति अञ्जसायनो, दी. नि. अट्ठ. 1.300; - सापरद्ध त्रि., सीधे मार्ग से लुप्त, सरल-पथ से भ्रष्ट -- द्धो पु., प्र. वि., ए. व. - विपथपक्खन्दो लोकसन्निवासो अञ्जसापरद्धो, पटि. म. 117; विपथपक्खन्दो अञ्जसापरद्धो महोघपक्खन्दो, उदा. अट्ठ. 114; - सायन पु., सीधा मार्ग, सरल पथ - नो प्र. वि., ए. व. - अञ्जसा वा उजुकमेव एतेन
आयन्ति आगच्छन्तीति अञ्जसायनो, दी. नि. अट्ट, 1.300. अञ्जस पु., एक चक्रवर्ती राजा का नाम - अञ्जसो नाम
खत्तियो, अप. 1.42. अञ्जापेसि अञ्ज, प्रेर. अद्य, प्र. पु., ए. व., अभ्यञ्जन
करवाया, किसी के द्वारा लेप करवाया - भद्दे, इमं भेसज्ज अजेही ति अज्जापेसिध. प. अट्ठ. 1.13. अजित त्रि०, अञ्जति का भू. क. कृ. [अक्त], अञ्जन से पोता हुआ, अञ्जन से लिप्त, अञ्जन लगाया हुआ - तानि नपुं.. वि. वि., ब. व. - सुअज्जितानि अक्खीनि हदयमसञ्च उब्बटेवा दिन्नं, जा. अट्ठ. 1.86; अजितक्खा मनोरमा,
जा. अट्ठ. 4.378. अञ' त्रि., [अन्य], 1. दूसरा, भिन्न, और, कोई और दूसरा, अपेक्षाकृत दूसरा, किसी एक से भिन्न, किसी अन्य की अपेक्षा असाधारण या नया - अं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - इदमेव सच्चं मोघमझं, अ. नि. 3(2).164; अञदेव कायदण्डं, अझं वचीदण्ड, अझं मनोदण्डान्ति, म. नि. 2.39; अज्ञदेव उप्पज्जति अझं निरुज्झति, स. नि. 1(2).84; - जे पु.. प्र. वि., ब. व. - ये च सन्ति पाणिनो, सु. नि. 203; 2. वाक्य में पुनरावृत्ति होने पर विपरीत अर्थ का सूचक - अझं जीवं अझं सरीरं म. नि. 2.97; - ञा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - अञआव सा भविस्सति अओ अत्ता, दी. नि. 1.166; - जो पु., प्र. वि., ए. व. - अज्ञो हि तिण्णस्स मनो, अओ होति पारेसिनो, जा. अट्ठ. 3.202; - खन्तिक त्रि., दूसरों की दृष्टियों या मतों पर मौन सहमति देने वाला, मतान्तरों के प्रति सहिष्णु - केन पु., तृ. वि., ए. व. - दुज्जानं खो एतं, पोट्टपाद, तया अज्ञदिद्विकेन अञखन्तिकेन ... अञत्राचरियकेन सञआपुरिसस्स अत्ताति, दी. नि. 1.166; - गतिक त्रि., दूसरों का आश्रय लेने वाला, परावलम्बी, पराश्रयी - का पु., प्र. वि., ब. व. - अत्तगतिकाव होथ, मा अजगतिका, स. नि. अट्ट. 3.235; - गोचर त्रि., [अन्यगोचर], अन्य आलम्बन को ज्ञान का विषय बनाने वाला, अन्यत्र विचरण करने वाला - रा पु., प्र. वि., ब. क. - मयं खो, काक,
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अच
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अञतो
अगोचरा त्वम्पि अञगोचरो, जा. अट्ठ. 2.300; - जन देव., वेदना., सिप्प के अन्त. द्रष्ट.; - त्थेर पु., विभिन्न पु.. [अन्यजन]. पृथक्जन, साधारण लोग, दूसरे लोग, स्थविर - छ कनिट्ठभातरो अञ्जतरत्थेरा अहेसुजा. अट्ठ, अज्ञजन, अशिष्टजन, अभद्र लोग - नेन तृ. वि., ए. व. - 2.8; - त्थेरित्थिवत्थु नपुं.. ध. प. अट्ठ. की एक कथा का मिस्सो अञजनेन वेदगू उदा. 176; (अत्तनो हिताहितं न शीर्षक, ध. प. अट्ठ. 1.359-60; -- त्थेरुपासकवत्थु नपुं., जानातीति अजओ ... तेन अऊन जनेन मिस्सो उपरिवत्, ध. प. अट्ठ. 2.151-53, - कुटुम्बिकावत्थु सहचरणमत्तेन मिस्सो) उदा. अट्ठ. 345; - जाति स्त्री., नपुं.. उपरिवत्, ध. प. अट्ठ. 2.161-62; - कुलदारिकवत्थु कर्म. स. [अन्यजाति], दूसरी योनि, दूसरा जन्म - जातो नपुं.. उपरिवत्, ध. प. अट्ठ. 2.150-151; - कुलपुत्तवत्थु वा अञजातिया, अप. 2.21; - जातिक त्रि., [अन्यजातिक], नपुं, उपरिवत्, ध. प. अट्ठ. 2.202-3; - पुरिसवत्थु नपुं.. दूसरे प्रकार की योनि में जन्म लेने वाला, दूसरे प्रकार की उपरिवत्, ध. प. अट्ठ. 1.251-60; - ब्राह्मणवत्थु नपुं.. मानसिक प्रकृति अथवा स्वभाव वाला - का पु., प्र. वि., ब. उपरिवत्, ध. प. अट्ठ. 2.166-67; 2.196-97; - मिक्खुवत्थु व. - ये ते किलेसा अञजातिका अञविहितका, महानि. नपुं.. उपरिवत्, ध. प. अट्ठ. 1.159-160, 1.164-169; - 193; अञजातिकाति अञसभावा, महानि. अट्ठ.283; - मनुस्सवत्थु नपुं.. उपरिवत्, र. वा. 1.31-32. जोज क्रि. वि., [अन्यान्यं], आपस में, परस्पर में, एक अञ त्रि., [अज्ञ], अज्ञ, मूर्ख - ओ पु.. प्र. वि., ए. व. दूसरे को- अञोज़ मुसला हन्वा सम्पत्ता यमसाधनं जा. - अत्तनो हिताहितं न जानातीति अओ, अविद्वा बालोति अट्ठ. 5.259; - तत्था निपा., अञ + तत्था, दूसरे प्रकार अत्थो, उदा. अट्ठ. 345, द्रष्ट, अञ-जन. से, दूसरी तरह से - एवं यतत्था अञतत्था.... सद्द. अञतित्थिय 1. त्रि., [बौ. सं. अन्यतीर्थिक], बौद्धेतर 3.805; तुल. क. व्या. 400; - तम त्रि., ष./सप्त. वि. धार्मिक सम्प्रदायों से सम्बद्ध, विमुक्ति के बौद्धेतर मार्ग का वाले नामपदों के साथ प्रयुक्त, [अन्यतम], अनेकों के बीच अनुयायी - या पु., प्र. वि., ब. व. - अतिथिया में कोई एक - अञतर अञतमसद्दा अनियमत्था, सद्द. समणब्राह्मणपरिब्बाजका, स. नि. 2(2).303; अतित्थिया 1.266; तुल. रू. सि. 207; क. व्या. 180; - तर त्रि., सर्व परिबाजका अत्तनि समनुपरसेप्युं दी. नि. 3.85, अञतित्थिया, की तरह शब्दरूप, ष. वि. या सप्त. वि. वाले नाम के साथ भिक्खवे, परिब्बाजका अन्धा अचक्खुका; अत्थं न जानन्ति, प्रयुक्त, [अन्यतर], 1. दो में से कोई एक व्यक्ति या वस्तु उदा. 146; 2. सत्त्व., बौद्धेतर धर्माचार्य - महि, भन्ते, - रं नपुं., द्वि. वि., ए. व. - द्विन्नमञ्जतरं ञत्वा, मुत्तो अतित्थिया सावकं लभित्वा केवलकप्पं वेसालिं पटाक गच्छेय्य पब्बतं. जा. अट्ठ. 4.226; - स्स पु., ष. वि., ए. व. परिहरेय्यु, अ. नि. 3(1).30; - यानं पु., ष. वि., ब. क. - - जयो, महाराज, पराजयो च, आयूहतं अञ्जतरस्स होति. समणो हि, भन्ते, गोतमो मायावी आवट्टनिं मायं जानाति जा. अट्ठ. 7.175; 2. बहुत से लोगों के बीच में कोई एक याय अअतिथियानं सावके आवद्देतीति, म. नि. 2.43; सुनिश्चित व्यक्ति या वस्तु, क. प. वि. में अन्त होने वाले तुल. तित्थिय, नानातित्थिया, पुथुतित्थिया; - पुब्ब त्रि., ब. पदों के साथ - अविहेठयं अञतरम्पि तेसं. सु. नि. 35; स., वह, जो बौद्धधर्म में दीक्षित होने से पूर्व अन्य धर्मों का अनिकामयं अञतरम्प तेसं. सु. नि. 212; - रो पु.. प्र. अनुयायी था और जिसके लिए उपसम्पदा से पूर्व परिवास वि., ए. व. - सोहं सतं अञतरोस्मि हंस, जा. अट्ठ. 3.435; का नियम प्रज्ञप्त था - ब्बो पु., प्र. वि., ए. व. - तेन खो ख. सत्त्व के विशे के रूप में - स्मिं सप्त. वि., ए. व. पन समयेन यो सो अतिथियपुब्बो ... तंयेव तित्थायतनं - अञ्जतरस्मिं रुक्खमूले ससीसं पारुतं निसिन्न, सु. नि. सङ्कमि, महाव. 87; यो खो, सभिय, अञतिथियपुब्बो इमस्मि (पृ.) 149; अथ खो अञतरो हुहुङ्कजातिको ब्राह्मणो येन । धम्मविनये आकङ्क्षति पब्बज्जं. सु. नि. (पृ.) 164; - पुब्बकथा भगवा तेनुपसङ्कमि, महाव. 3; इमस्साहं अञ्जतरं सामअङ्गन्ति स्त्री., महाव. की एक कथा का शीर्षक, महाव. 87-90; - वदामि, इतिवु. 74; 3. अन्य, सर्वथा भिन्न, कोई दूसरा - सरण नपुं.. बौद्धेतर धार्मिक-सम्प्रदायों का आश्रयग्रहण - इतरोतरा एको अओ, अभि. प. 717; अथ खो अञ्जतरो णं द्वि. वि., ए. व. - अतिथियसरणं भिन्दित्वा बुद्ध भिक्खु येन तरो भिक्खु तेनुपसङ्कमि स. नि. 2(2).191; सरणं अगमंसु. जा. अट्ठ. 1.104. अथ खो अञतरो सत्तो ... सझं ब्रह्मविमानं उपपज्जति, अञतो प. वि., प्रतिरू. निपा. [अन्यतः], क. किसी अन्य दी. नि. 1.15; स. उ. प. में आमिस., काय., आत., थेरगा., कारण से, किसी भी दूसरे तरीके से - न ब्राह्मणो अञतो
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अज्ञत्थ
सुद्धिमाह सु. नि. 796: न अञ्ञतो भिक्खु सन्तिरोच्य सु. नि. 925: ख. दूसरी दिशा की ओर दूसरे स्थान की तरफ अञ्ञतो ओलोकेन्तो अपरं निष्फलं अम्बरुक्खं दिखा जा. अ. 3.333; ग. दूसरे प्रकार से, अन्यथा रूप से, अन्य दृष्टिकोण से सब्बं धम्मं परिज्ञाय सब्बनिमित्तानि अञ्ञतो परसति, स. नि. 2 ( 2 ).56.
अज्ञत्थ' सप्त वि. प्रति निपा., [अन्यत्र] 1. किसी दूसरे स्थान पर, अन्य स्थान में, किसी भी दूसरी जगह में किं तया अज्ञतथापि एवरूपो पासादो कतपुब्बा ध. प. अ. 2.74, अञ्ञत्थ पन उपसग्गवसेन संभावना परिभावना विभावनाति एवं अज्ञथापि अत्थो होति. ध. स. अड. 207. अञ्ञत्थ वसि सो देसो तेन तन्नामको अहु म. व. 22.14; 2. किसी अन्य स्थान की ओर - त्वं अत्तनो पुत्तके गहेत्वा अञ्ञत्थ याहि जा. अड. 2.128 इतो अञ्ञत्थ गच्छामा ति ध. प. अट्ठ. 1.122.
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अथ त्रि.. [अन्यार्थ अन्यार्थप्रधान] 1. स. प. से भिन्न पदों के अर्थ की प्रधानता वाला ब. स. त्थेसु सप्त. वि. ब. व. - अञ्ञपदत्थेसु बहुब्बीहि, क. व्या. 330; 2. कोई दूसरा पदार्थ, कोई अन्य अभीप्सित वस्तु या प्रयोजन त्थाय पु.. च. वि., ए. व. - या सति पच्चुपट्ठिता होति, सा न अञ्ञत्थाय म. नि. अ. (मृ. प.) 1 (1) 261. अञ्ञत्र निपा. [ अन्यत्र] 1. क्रि. वि. और जगह दूसरे स्थान पर - किं पन त्वं, आवुसो उपनन्द, अञ्ञत्र वस्संवुट्ठो, अञ्ञत्र चीवरभागं सादियी ति, महाव. 392, ये च अञ्ञत्र पटिसन्धि देन्ति, सो अद्धा अस्थि, मि. प. 49. यदा बोधिसत्तो दुक्करकारिकं अकासि नेतादिसो अञ्ञत्र आरम्भो अहोसि. मि. प. 230 2. क्रि. वि., सिवाय, के अतिरिक्त, के बिना अञ्ञत्रापि धम्मा कम्मं करोन्ति, अञ्ञत्रापि विनया कम्मं करोन्ति, अञ्ञत्रापि सत्थुसासना कम्मं करोन्ति महाव. 412; यस्मा च खो, कस्सप, अञ्ञत्रेव इमाय मत्ताय अञ्ञत्र इमिना तपोपक्कमेन सामञ्ञ वा होति ब्रह्मञ्ञ वा दुकरं सुदुकर दी. नि. 1.152 आवुसो, आनन्द, अज्ञत्रेव भगवता, अञ्ञत्र, भिक्खुसङ्घा उपोसथं करिस्सामि, ध.प. अ. 1.82 3. अन्यथा, दूसरी अवस्था में या स्थिति में
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एवरूपो. भिक्खवे, पुग्गलो पयिरुपासितब्बो अञ्ञत्र अनुदया अञ्ञत्र अनुकम्पा, अ. नि. 1 ( 1 ).148; किमञ्ञत्र भिक्खने, नन्दो इन्द्रियेसु गुत्तद्वारो, भोजने मत्तज्जु जागरिय अनुयुत्तो, अ. नि. 3(1). 15. तुल. अञ्ञत्थ गति स्त्री.. [ अन्यत्रगति] दूसरे जन्म में संक्रमण, दूसरे अस्तित्व में
अज्ञथा
गमन, विवश होकर दूसरे जन्म में संक्रमण - पकतियापि च परलोकं गता नाम अञ्जन्त्रगतिवसा पुन वेनेव सरीरेन नागच्छन्ति जा. अ. 2.203. पाठा, अञ्ञत्थ - योग / त्रायोग त्रि.. दूसरे धार्मिक सम्प्रदाय का आचरण करने वाला, अन्य धार्मिक सम्प्रदाय के मन्तव्यों का आसेवन करने वाला - गेन पु., प्र. वि., ए. व. सो तथा दुज्जानो अञ्ञदिद्विकेन अञ्ञखन्तिकेन अञ्ञरुचिकेन अञ्ञत्रयोगेन, म. नि. 2.164, सज्जा पुरिसस्स अत्ताति वा, अञ्ञाव सज्ञा अञ्ञो अत्ताति वा ति ? दुज्जानं खो एतं, पोट्टपाद, तया अञ्ञदिद्विकेन अञ्ञत्रयोगेन दी. नि. 1.166 पाठा. अज्ञत्थ-योग, अज्ञत्त-पयोग,
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अञ्ञथत्त नपुं., अञ्ञथा का भाव [ अन्यथात्व]. शा. अ. भिन्नता, विशिष्टता, परिवर्तन, रूपान्तरण, अन्यथाभाव, विपरिणाम तं द्वि. वि. ए. व. न खो पन मयं पस्साम - आयस्मतो उपसेनस्स कायस्स वा अञ्ञथत्तं इन्द्रियानं वा विपरिणाम स. नि. 2(2).44 अञ्ञयत्तन्ति अज्ञधाभावं स. नि. अ. 3.15: कुमारिया विपरिणामञ्ञथाभावा जीवितस्सपि सिया अज्ञयत्तं म. नि. 2319 ला. अ. चित्त का सम्मोह विषाद, ग्लानि, दुःख, अनुताप, पश्चाताप आदि में या दूसरे रूप में परिवर्तन - तत्थ अप्पसन्ना चेव नप्यसीदन्ति पसन्नानञ्च एकच्चानं अज्ञधत्तं होति. अ. नि. 2 (1) 61 त्ताय नपुं. च. वि. ए. व. अथ वेत्, भिक्खवे, अप्पसन्नानञ्चेव अप्पसादाय, पसन्नानञ्च एकच्चान अञ्ञथत्तायाति महाव. 51 स. उ. प. में चित्त पसाद, भाव, लक्खण., विपरिणाम के अन्त द्रष्ट.. अज्ञथा निपा., [अन्यथा] 1. नहीं तो वरना, भिन्न रूप से, भिन्न ढंग से - येन येन हि मञ्ञन्ति, ततो तं होति अञ्ञथा, सु. नि. 583; 762 तस्स तं रूपं विपरिणमति अञ्ञथा होति. स. नि. 2 (1).16; अहोसि पुब्बे ततो मे अञ्ञथा, इच्चेव मे विमति एत्थ जाता, जा. अड. 3.460 2 अननुकूल, अप्रिय, अरुचिकर या विपरीत रूप में यञ्च मे अय्यपुत्तस्स, मनो हेस्सति अञ्ञथा, जा. अड. 5.86; चित्तस्स अञ्ञथा नथि एसा मे वीरियपारमी, जा. अड. 1.57 3. यथार्थता से विपरीत भाव में अयथार्थ रूप में सब्बं तं तथेव होति नो अञ्ञथा, तस्मा तथागतोति सुब्बति, इतिवु. 85 यो जानं पुच्छितो पहे अञ्ञथा नं वियाकरे जा. अनु. 3.402 थावरियक त्रि. दूसरे धार्मिक मतवाद के अनुसार आचरण करने वाला, बौद्धेतर धार्मिक सम्प्रदायों के आचार्यों के समीप रहने वाला केन पु०, तृ. वि. ए. व. सो तया
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अञदत्तिक
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अञपुरिससारत्त दुज्जानो ... अत्रयोगेन अञथाचरियकेन, म. नि. भासितं सुस्सूसन्ति, दी. नि. 3.38; ग. (विप. निपा. के रूप 2.164; दी. नि. 1.166; पाठा. अञत्राचरियकेन; - धम्म में), अन्यथा, इससे विपरीत - अञदत्थु समणयेव गोतम त्रि., भिन्न प्रकृति या स्वभाव वाला - म्मो पु., प्र. वि., ए. ओकासं याचन्ति अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जाय, म. नि. व. - कोलियानं लम्बचूळका भटा, अञ्जथाधम्मोहमस्मीति, 1.238; न सोभति ... अज्ञदत्थु गरहं लभति, ध. प. अट्ठ. स. नि. 2(2).321; - भाव पु., [अन्यथाभाव], रूपान्तरण, 1.218; -- जय पु., पूर्ण विजय, निश्चित विजय - निय्यन्ति स्वरूप-परिवर्तन, विपरिणमन, दुसरे रूप में बदलाव, पांच धीरा लोकम्हा, अञदत्थुजयं जयं, स. नि. 3.6; - दस त्रि., प्रकार के विपर्यासों में से एक - वो प्र. वि., ए. व. - सब लोगों को तुरन्त देख लेने वाला, प्रत्येक वस्तु को विपल्लासो अञ्जथाभावो व्यत्तयो च विपरिययो विपरियासो देखने वाला, पूर्ण द्रष्टा - सो पु.. प्र. वि., ए. व. - ..., अभि. प. 776; - वं द्वि. वि., ए. व. - इत्थभावजथाभावं अहमस्मि ब्रह्मा महाब्रह्मा ... अञदत्थदसो वसवत्ती इस्सरो संसारं नातिवत्तति, इतिकु. 77; इत्थभावञ्जथाभावं, अविज्जायेव कत्ता, दी. नि. 1.16; सदेवमनुस्साय तथागतो अभिभू अनभिभूतो सा गति, सु. नि. 734; स. उ. प. में द्रष्ट. पसादञ्जथाभाव अञदत्थुदसो वसवत्ती, अ. नि. 1(2).28; इतिवु. 85; के अन्त; - भावी त्रि., [अन्यथाभावी], रूपान्तरण को अञ्जदत्थूति एकसत्थे निपातो ... सब्बं तं हत्थतले आमलक प्राप्त, विपर्यस्त, दूसरे स्वरूप में विपरिवर्तित, दूसरी तरह विय पस्सतीति दस्सो, इतिवु. अट्ठ. 321; तुल. रामायण से बदल जाने वाला - चक्खं भिक्खवे, अनिच्च विपरिणामि 7.35; - हर त्रि., बिना दिये हुए केवल लेने ही वाला, अञ्जथाभावी, स. नि. 2(1).218; अअथाभावी भवसत्तो लोको, पूर्णतः हरण करने वाला - रो पु०, प्र. वि., ए. व. - भवमेवाभिनन्दति, स. नि. 2(2).21; उदा. 105; स. उ. प. अज्ञदत्थहरो अमित्तो मित्तपतिरूपको वेदितब्बो. दी. नि. में द्रष्ट. अनाथाभावी; - सञी त्रि., [अन्यथासङ्घी], 3.141; - रा ब. व. - अञदत्थहरा सन्ता, ते वे राज पिया विपरीत-रूप में विचार या दृष्टिकोण रखने वाला, विपरीत- होन्ति, जा. अट्ठ. 6.208. मतवादी, अन्यमतवादी - चिनो पु.. प्र. वि., ब. व. - अञदा निपा., [अन्यदा, अ. मा. अण्णया], शा. अ. किसी अअथासञिनोपि हेत्थ, चुन्द, सन्त्येके सत्ता, दी. नि. 3.103. दूसरे समय में, प्रयोगगत अर्थ क. पूर्वकाल में, प्राचीन अञदत्तिक त्रि., [अन्यदत्तक], किसी अन्य के द्वारा प्रदत्त, समय में- न हि मे अञदा ताय नत्थिपूवा नाम पक्कपुब्बाति,
दूसरे के द्वारा दिया हुआ - कं नपुं., प्र./द्वि. वि., ए. व. ध. प. अट्ठ. 2.354; उदरवातो मे समुट्टितो ति; अञदापि - पटिसवानरहितो पच्चयं अअदत्तिक, सद्धम्मो. 394. समुद्वितपुब्बो, भन्ते ति, ध. प. अट्ठ. 2.357; ख. एक बार अञदत्थ पु., [अन्यार्थ], दूसरा प्रयोजन, अन्य लक्ष्य, फिर, पुनः एक बार - यदा अञदापि एवरूपो पज्हो दूसरा लाभ - एतम्पि दिस्वा विरमे कथोज्ज, न आगच्छेय्य, स. नि. 2(2).278; पाठा. अञथापि, हञदत्थत्थिपसंसलामा, सु. नि. 834.
अदिद्विक त्रि., ब. स. [अन्यदृष्टिक], बुद्धधर्म से भिन्न अञदत्थिक त्रि., [अन्यार्थिक], किसी अन्य के लिये धर्म में श्रद्धा रखने वाला - केन पु., तृ. वि., ए. व. - तया निर्धारित, किसी दूसरों को दी जानी वाली - केन पु., तृ. अदिद्विकेन अञ्जखन्तिकेन अरुचिकेन अञ्जयोगेन वि., ए. व. - भिक्खुनियो अञदत्थिकेन परिक्खारेन ... ..., दी. नि. 1.166; म. नि. 2.164. अझं चेतापेय्य, निस्सग्गियं पाचित्तियन्ति, पाचि. 340. अञपदत्थ पु., ब. स. [अन्यपदार्थ], ब. स. के व्याख्यान् अञदत्थु/अञदत्थु निपा., [अन्यमस्तु, आस्तां तावत्, के सन्दर्भ में प्रयुक्त एक पारिभाषिक शब्द, ऐसा समास,
शा. अ. रहने भी दो, प्रयोगगत अर्थ - क. (नियमतः जिसमें समास से बाहर के अथवा अन्य पदों के अर्थ 'एव' एवं 'व' के साथ ही प्रयुक्त), केवल, पूर्णरूप से, प्रधान रहते हैं - त्थेसु सप्त. वि., ब. व. - अञपदत्थेसु निश्चित रूप से - अञदत्थु तु तगघेकसे ससक्कं चाद्धा बहुब्बीहि, क. व्या. 330; मो. व्या. 2.188-189; 3.86; तुल. कामं जातुचे हवे, अभि. प. 1140; अञदत्थु मम व मजे कातन्त्र 2.5; - पधान त्रि., [अन्यपदार्थप्रधान], ब. स., अनुजग्घन्ता, न मं कोचि आसनेनपि निमन्तेसि, दी. नि. जिसमें अन्य पदों के अर्थों की प्रधानता रहती है, रू. सि. 337. 1.79; ख. ('एव' के प्रयोग के बिना ही वाक्यों में प्रायः 'खो' अञपुरिससारत्त त्रि., अन्य पुरुष के प्रति आकृष्ट - त्ता के तात्पर्य में प्रयुक्त), कम से कम, निश्चित रूप से - पु., प्र. वि., ब. व. - कुद्धा वा अञ्जपुरिससारत्ता वा हुत्वा अञदत्थु खो दानिमे अतिथिया परिब्बाजका भगवतो सब्बमेतं हननादि करेय्यु, जा. अट्ठ. 5.447.
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अञभागीय
80
अञ्जवादक
अञभागीय त्रि., [अन्यभागीय], दूसरे व्यक्ति या वस्तु से सम्बन्धित - स्स ष. वि., ए. व. - आयस्मन्तं दब्बं मल्लपुत्तं अञभागियस्स अधिकरणस्स ... उपादाय पाराजिकेन धम्मेन अनुद्धसेथा ति, पारा. 262. अञमञ त्रि., [अन्योन्य]. 1. एक दूसरे को, आपस में, परस्पर में क. कर्म के रूप में - चंद्वि . वि., ए. व. - ते न सक्कोम सापेतुं अञमचं मयं उभो, सु. नि. 602; भिक्खू अञमझं आवुसोवादेन समुदाचरन्ति, दी. नि. 2.115; ख. क्रि. रू. एवं ना. रू. से पूर्व क्रि. वि. के रूप में - तुम्हे अज्ञमचं किं होथा ति पुट्ठा.... जा. अट्ठ. 4.103; अञमझं अच्चयं देसेत्वा .... ध प. अट्ठ. 1.36; 2. एक के बाद एक करके, विविध रूप से, भिन्न प्रकार से - अञमझं कायसमाचारं ... वचीसमाचारं ... मनोसमाचार ... तञ्च अञ्जमझं अत्तभावपटिलाभान्ति, म. नि. 3.94; तुल. अओञ; - पत्थम्म पु., [अन्योन्योपस्तम्भ], पारस्परिक सहारा - म्भेन तृ. वि., ए. व. - अरओ जातरुक्खापि सम्बहुला अञमञ्जूपत्थम्भेन ठिता साधुयेव, जा. अट्ट, 1.314; - पत्थम्भक त्रि., [अन्योन्योपस्तम्भक], परस्पर में एक दूसरे को सहारा देने वाला - कं द्वि. वि., ए. व. - अञमञ्जूपत्थम्भकं तिदण्डकं विय, विसुद्धि. 2.164; - उपनिस्सित त्रि., एक दूसरे पर निर्भर, परस्पर एक दूसरे पर आश्रित - त्ता प्र. वि., ब. व. - यञ्चेव तत्थ नाम, यञ्चेव रूपं, उभोपेते अञमञ्जूपनिस्सिता, मि. प. 48; - खादिका स्त्री., परस्पर में एक दूसरे का भक्षण - अञमञ्जखादिका एत्थ, भिक्खवे, वत्तति दुब्बलखादिका, म. नि. 3.208; अञमञखादिका ति अञमञखादनं. म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.156; - गुत्त त्रि., [अन्योन्यगुप्त अन्योन्यगुप्ता], परस्पर में संरक्षित, पारस्परिक रूप से रक्षित, अन्योन्याश्रय रूप से रक्षित - एवं मयं अञमचं गुत्ता अञ्जमज़ रक्खिता सिप्पानि चेव दस्सेस्साम, स. नि. 3(1).244; - चतुक्क नपुं., विभ. के एक खण्डविशेष का एक शीर्षक, विभ. 177-186; - चित्त त्रि., चञ्चल-चित्त, ढुलमुल चित्त, लघुचित्त, चलचित्त - तानं ष. वि., ब. व. - नहि अञचित्तानन्ति अञ्जनओन चित्तेन समन्नागतानं, लहुचित्तानन्ति अत्थो, जा. अट्ट, 4.51-52; - पच्चय 1. त्रि. [अन्योन्यप्रत्यय], परस्पर में एक दूसरे के साथ कार्यकारण-भाव से जुड़े हुए - या प्र. वि., ब. व. - भावनाय चत्तारिन्द्रियानि तदन्वया होन्ति, सहजातपच्चया होन्ति अञमञ्जपच्चया होन्ति, पटि. म. 235; 2. पु., परस्पर
निर्भरता - अज्ञमञ्ज उप्पादनुपत्थम्भनभावेन उपकारको धम्मो अञमञ्जपच्चयो, विसुद्धि. 2.164; 3. पट्ठान-प्रकरण में प्रतिपादित चौबीस प्रत्ययों के बीच सातवां पच्चय, द्रष्ट. पच्चय के अन्त.; - पच्चयता स्त्री. भाव., परस्पर-सापेक्षता -- सङ्घारपच्चयापि अविज्जाति अञमञ्जपच्चयता दस्सिता, विभ. अट्ठ. 197; - भोजन त्रि., ब. स. [अन्योन्यभोजन], परस्पर में एक दूसरों को खाने वाले - नानं पु., ष. वि., ब. व. - तेसं अञमञभोजनानं वीतिहरणं सखिक अत्तनो पच्चक्खं कत्वा अद्दस, जा. अट्ठ. 6.183; - लग्ग त्रि., [अन्योन्यलग्न], एक दूसरे के साथ संलग्न या जुड़ा हुआ - परम्परासंसत्ताति अञ्जमझं लग्गा, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.298; पाठा. अञमझं लग्गा; - वचन नपुं.. [अन्योन्यवचन], एक दूसरे के लिए हितकारक वचन - नेन तृ. वि., ए. व. - एवं संवद्धा हि तस्स भगवतो परिसा यदिदं अञमञवचनेन अञ्जमजवुठ्ठापनेनाति, पारा. 278; - वुट्ठापन नपुं., [अन्योन्योत्थापन], परस्पर में एक दूसरे को प्रबोधन या उद्बोधन - नेन तृ. वि., ए. व. - यदिदं अञमञवचनेन अञमजवुद्धापनेनाति, पारा. 278; - वेवचन नपुं., आपस में पर्यायवाची - आरा दूरे ति अञमञवेवचनं. जा. अट्ठ. 4.32; कुहिं गता कत्थ गताति अञमञ्जवेवचनानि, जा. अट्ठ. 3.190. अञ्जमोक्ख त्रि., [अन्यमोक्ष], किसी अन्य की सहायता द्वारा मुक्ति प्राप्त करने वाला - क्खा पु., प्र. वि., ब. व. - ते दुप्पमुञ्चा न हि अञ्जमोक्खा, सु. नि. 779; न हि अञ्जमोक्खाति अञ्जेन च मोचेतुं न सक्कोन्ति, सू. नि. अट्ठ 2.211. अञरुचिक त्रि., [अन्यरुचिक], भिन्न रुचियों वाला, भिन्न मनोवृत्ति वाला - केन पु., तृ. वि., ए. व. - दुज्जानं अञदिटिकेन अञखन्तिकेन अञरुचिकेन अञत्रायोगेन अञत्राचरियकेन ..., दी. नि. 1.166. अञवादक त्रि., पूछे गये प्रश्न से बचकर कोई अन्य बात करने वाला, सङ्घ में उठाये मूल मुद्दे से हटकर इधर-उधर की बात करने वाला - को पु., प्र. वि., ए. व. - अञ्जवादको नाम सङ्घमज्झे वत्थुस्मिं वा आपत्तिया वा अनुयुञ्जीयमानो तं न कथेतुकामो तं न उगघाटेतुकामो अजेनझं पटिचरति - को आपन्नो, कि आपन्नो किस्मि आपन्नो, कथं आपन्नो, के भणथ, कि भनथाति, एसो अञ्जवादको, पाचि. 56; - पद नपुं., पाचि. के एक खण्ड का शीर्षक, पाचि. 54-57.
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अञ्ञवादी
अज्ञवादी त्रि. [अन्यवादिन्] बौद्धेतर सिद्धान्त का प्रतिपादक -दिनं पु.. द्वि. वि. ए. व. इतो बहिद्धा पुथु अज्ञवादिन, थेरगा. 86.
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अञ्ञविहित / अञ्ञाविहित त्रि., [ अन्यविहित], दूसरे विचारों में जूबा हुआ, दूसरे के विचारों में निमग्न, दूसरी चीजों के बारे में विचार करने वाला अन्यमनस्क स पु०, ष. वि., ए. व. तस्स अञ्ञविहितस्स एको सुनखो ते आदाय पलायि, जा. अट्ठ 6.76; ता स्त्री. प्र. वि., ए. व. अञ्ञविहिता सन्तिट्ठति वा सल्लपति वा, उम्मत्तिकाय, आदिकम्मिकायाति पाचि 367.
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अज्ञसत्थारुद्देस पु०, अन्य शास्ता का ग्रहण या स्वीकरण, छः प्रकार के गम्भीर अपराधों में से एक सेन तृ. वि., ए. व. अज्ञसत्थारुडेसेन सह छ ठानानि न करोति. खु. पा. अट्ट, 150 ≠ अपगतकोतुहलमङ्गलिको जीवितहेतुपि न अज्ञ सत्थारं उद्दिसति, मि. प. 106.
अञ्ञसत्थु पु०, कर्म. स. [ अन्यशास्तृ], दूसरा शास्ता या मार्गदर्शक रहि. वि. ए. व. भवन्तरेपि हि अरियसावको
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1
अज्ञसत्धारं उद्दिसतीति म. नि. अड. (मू.प.) 1 (1).144. अञ्ञसमान त्रि. [अन्यसमान]. शा. अ. दूसरे के समान, ला. अ. भिन्न-भिन्न प्रकार के चित्तों में समान रूप से प्राप्त स्पर्श आदि तेरह चैतसिक, जिनमें सात सब्बचित्तसाधारण तथा शेष छः प्रकीर्णक हैं ना पु०, प्र. वि., ब.व.
तेरसञ्ञसमाना च, चुद्दसाकुसला तथा अभि. ध. स. 9. अज्ञसित त्र [अन्याश्रित] किसी अन्य पर निर्भर या आश्रित, किसी दूसरे पर अवलम्बित तं पु. द्वि. वि. ए. व. वदन्ति ते अज्ञसितं कथज्जं सु. नि. 831 ता पु.. प्र. वि०, ब० व अञ्ञसिता कथोज्जन्ति ते अञ्ञमञ सत्धारादि निस्सिता कलहं वदन्ति, सु, नि, अड. 2.332. अज्ञा स्त्री. [आज्ञा] अर्हत्वफल के क्षण में प्राप्य सम्यकज्ञान अञ्ञा तु अरहत्तं च, अभि. प. 436; ञाय तृ. बि. ए. व. अञ्ञाय निब्बुता धीरा तिष्णा लोके विसत्तिक, स० नि० 1 (1).28; - ञ्ञा प्र. वि., ए. व. - दिट्ठेव धम्मे अञ्ञा, सु. नि. (पृ.) 190; दिद्वेव धम्मे अञ्ञाति अरिमयेव अत्तभावे अरहतं सु. नि. अड. 2.200 तुल.
आणा.
81
अज्ञाकोण्डज्ञ / अज्ञातकोण्डज्ञ पु.. [बौ. स. आज्ञातकौण्डिन्य] 1. सर्वप्रथम अर्हत्व प्राप्त करने वाले एक स्थविर - शिष्य का नाम पञ्चवर्गीय भिक्षुओं में से एक, पूर्वकाल में कौण्डिन्य के नाम से विख्यात रस ष. वि.,
अञ्ञाण
ए. व. - इति हिदं आयस्मतो कोण्डञ्ञस्स अञ्ञासिकोण्डञ त्वेव नामं अहोसि महाव, 16 स.नि. 3 ( 2 ) 487 2 केवल कोण्ड नाम से भी प्रसिद्ध कोण्डञहं भगवा, कोण्डञहं, सुगता ति स. नि. 1 ( 1 ) 224 3(2).487: थेरगा. की गाथा संख्या 673-688 गाथाओं का रचयिता ते सु अञ्ञासिकोण्डञ्ञत्थेरो अट्ठारसहि ब्रह्मकोटीहि सद्धिं सोतापसिफले पतिद्वासि जा. अट्ट. 1.90 अप. 1.45: घ. स.
अट्ठ. 82; द्रष्ट, अञ्ञासिकोण्डञ्ञ. अज्ञचित्त नपुं. [आज्ञाचित्त] अर्हत्वफललक्षण में प्राप्त सम्यक् ज्ञान के लिये तत्पर चित्तत्तं द्वि. वि. ए. व. अञ्ञाचित्तं उपटुपेन्तीति अञ्ञाय आजाननत्थाय चित्तं न उपहन्ति दी. नि. अड. 1.298 पाठा. अञ्ञ चित्तं अञ्ञाण' त्रि, निषे०, ब० स० [ अज्ञान], न जानने वाला, अज्ञानी, मूर्ख, अविद्याग्रस्त णेन पु. तृ. वि. ए. व. - बालिसेन अञ्ञाणेन पुरिसेन न सका जानितुं जा. अड. 3. 236 णो पु. प्र. वि. ए. व.
-
बालो अहोसि अञ्ञाणो, जा. अ. 3.200, मनुस्स पु.. [ अज्ञानमनुष्य ] अज्ञानी मनुष्य स्सा प्र. वि. ब. व. - इमे अञ्ञाणमनुस्सा पाणातिपातं करोन्ता नन्दन्ति तुस्सन्ति, जा. अट्ठ. 3.255. अञ्ञाण नपुं., ञाण का निषे, तत्पु० स० [अज्ञान ], अविद्या, मोह, ज्ञान का अभाव, ज्ञानाभाव - मोहोविज्जा तथाञ्ञाणं, अभि. प. 168 यं अजाणं अदस्सनं अनभिसमयो अननुबोधो असम्बोधो अप्पटिवेधो... पु. ए. 127 - णाभिभूत त्रि.. [अज्ञानाभिभूत], अज्ञान से ग्रस्त प्रमादग्रस्त प्रमादापन्न
तो पु. प्र. वि., ए. व. सो अज्ञाणाभिभूतो नेव बुद्ध उपहहि न असीति महाथेरे ध. प. अ. 2.151 णुपेक्खा स्त्री. [अज्ञानोपेक्षा], अज्ञानता के कारण उत्पन्न उपेक्षाभाव
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उप्पज्जति उपेक्खा ति एत्थ उपेक्खा नाम अञ्ञाणुपेक्खा, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.196 - क नपुं०, अज्ञान, मूर्खता, मोह केन तृ. वि. ए. व. अञ्ञाणकेन आपन्नोति,
,
पाचि. 194; न च तस्स भिक्खुनो अञ्ञाणकेन मुत्ति अत्थि, पाचि 193: करण त्रि. [ अज्ञानकरण] अज्ञान उत्पन्न करने वाले, अविद्याजनक णा पु. प्र. वि. ब. क. पञ्चिमे, भिक्खवे, नीवरणा अन्धकरणा अचक्खुकरणा अञ्ञाणकरण, स. नि. 3(1)118: एवं अञ्ञाणकरणा किलेसा नाम, जा. अट्ठ. 1.293; चरिया स्त्री॰ [अज्ञानचर्या ], राग द्वेष एवं मोह भरे चित्त वाली जीवनवृत्ति, पटि म में वर्णित 28 प्रकार की चर्यायों में से एक अञ्ञाणचरिया ति केनट्टेन अञ्ञाणचरिया? सरागा चरतीति अञ्ञाणचरिया,
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अज्ञाण
82
अञातावी
सदोसा चरतीति-अज्ञाणचरिया .... पटि. म. 75-76; - जातिक त्रि., अज्ञानमयी प्रकृति वाला व्यक्ति, अविद्याग्रस्त व्यक्ति - इधेकच्चो अजाणजातिको पोसो यावतासीसती .... जा. अट्ठ. 3.342; - ता स्त्री॰, भाव॰ [अज्ञानता], मूढ़ता, अज्ञानता - य तृ. वि., ए. व. - महासेट्टि, त्वं अञआणताय कामगिद्धो हुत्वा घरावासस्स गुणं, पब्बज्जाय च अगुणं कथेसि, जा. अट्ठ. 2.195; - दुक्ख त्रि., [अज्ञानदुःख], मूढ़ता के कारण उत्पन्न दुःख वाला - क्खा स्त्री, प्र. वि., ए. व. - अदुक्खमसुखावेदना आणसुखा अञआणदुक्खा, म. नि. 1.384; - धम्म पु., अज्ञान से भरी हुई प्रकृति या स्वभाव, अज्ञानियों का धर्म - मोमूहधम्मो अयं ... अञआणधम्मो, महानि. 141; - पकत त्रि., [अज्ञानप्रकृतिक], अज्ञानता के कारण प्रवृत्त - तो पु., प्र. वि., ए. व. - अञआणपकतो पाणं हनेय्य, अदिन्नं आदियेय्य, कथा. 149; - पक्ख त्रि., [अज्ञानपक्ष], अज्ञानता या मूढ़ता के कारण पापधर्म का पक्ष लेने वाला - क्खा पु., प्र. वि., ब. व. - ये केचि गन्था इध मोहमग्गा, अजाणपक्खा ... तथागतं पत्वा न ते भवन्ति, सु. नि. 349; - भावकर त्रि. [अज्ञानभावकर], अज्ञान या मोह की अवस्था को लाने वाला - रा पु., प्र. वि., ब. व. - एवं उत्तमबुद्धीनं नाम विसुद्धचित्तानं बोधिसत्तानं अजाणभावकरा किलेसा तयि किं लज्जिस्सन्ति, जा. अट्ठ. 1.291; - मूलप्पभव त्रि., [अज्ञानमूलकप्रभव], अज्ञान के मूल से उत्पन्न होने वाला - वा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - या काचि कवा ... अआणमूलप्पभवा ... सब्बा मया व्यन्तिकता समूलिका, स. नि. 1(1).211; - लक्खण त्रि., [अज्ञानलक्षण]. अज्ञान के लक्षण से युक्त, अज्ञान की प्रकृतिवाला - णा स्त्री॰, प्र. वि., ए. व. - अञआणलक्खणा अविज्जा, विभ. अट्ट, 128; - णो पु., प्र. वि., ए. व. - मोहो चित्तस्स अन्धभावलक्षणो अञआणलक्खणो वा, ध. स. अट्ठ. 289; - सुत्त नपुं०. स. नि. के पांच सुत्तों के समूह का शीर्षक, स. नि. 2(1).255-257. अजाण नपुं.. [आज्ञान], सुस्पष्ट ज्ञान, अर्हत्वफल के चित्तक्षण का ज्ञान - हन्द मयं अञआणत्थम्पि समणे गोतमे ब्रह्मचरियं चराम, दी. नि. 3.41; - कथा स्त्री., कथा. की एक वस्तु का शीर्षक, कथा. 148-154. अञआणी त्रि.. [अज्ञानी], मूर्ख, अज्ञानी, उद्विग्न - सो अञआणी हुत्वा भत्तं भुजितुं असक्कोन्तो ... निपज्जि, वि. व. अट्ठ. 60; ध. प. अट्ठ. 2.59.
अज्ञात' त्रि., [अज्ञात], क. नहीं जाना हुआ, नहीं समझा हुआ - तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - बुद्धानम्हि अञातं नाम नत्थि, जा. अट्ठ. 3.320; अातं आपनत्थाय आतं अनुग्गहणत्थाय, ध. प. अट्ट, 1.309-310; - पुब्ब त्रि., [अज्ञातपूर्व]. पूर्वकाल में अज्ञात -ब्बेसु सप्त. वि., ब. क. - अातपुब्बेसु वा, महाराज, सिप्पट्ठानेसु. मि. प. 41; ख. अपरिचित व्यक्ति -- तानं पु., ष. वि., ए. व. - अातानं निवारेता जातानं पवेसेता, दी. नि. 2.65; स. नि. 2(2).193; अ. नि. 2(2).242; ग. अप्रसिद्ध व्यक्ति, अविख्यात व्यक्ति - तो पु., प्र. वि., ए. व. - अआतो लभते यसं. जा. अट्ठ. 7.186; अज्ञातोति अपाकटगुणो अविदित- कम्मावदानो, तदे.; - क त्रि., [अज्ञातक], क. अपरिचित व्यक्ति, वस्तु अथवा विषय - कं द्वि. वि., ए. व. - अञआतकं सामिकेही पदिन्नं जा. अट्ठ. 5.207; इध पन भिक्खवे. आवासिका भिक्खू पस्सन्ति आगन्तुकानं भिक्खून ... अञआतकं पत्तं, अज्ञातकं चीवरं महाव. 173-174; ख. वह व्यक्ति, जो सगोत्रीय या सगा-सम्बन्धी न हो, अपने कुल या परिवार का न हो, अबान्धव - को पु., प्र. वि., ए. व. - अज्ञातको, मोघपुरिस, अजातिकाय न जानाति पतिरूपं वा अप्पतिरूपं वा, पारा. 315; - का ब. व. - तं दिस्वा तस्सा अञआतकापि लज दत्वा... आगच्छिसु, ध. प. अट्ठ. 1.127; - वेस पु., [अज्ञातकवेश], छद्मवेश, कपटवेश - सेन तृ. वि., ए. व. - अञआतकवेसेन परिब्बाजकच्छन्नेन पटिवसन्तं दिस्वान .... कासिराजानं एतदवोच, महाव. 465; अज्ञातकवेसेन वसन्तस्स पितुनो ..., ध. प. अट्ठ. 1.35; - सञी त्रि., [अज्ञातकसंज्ञिन], किसी परिचित को देखकर उसे अनजान मानने वाला - जी पु.. प्र. वि., ए. व. - ञातके
अञातकसञ्जी, आपत्ति दुक्कटस्स, पारा. 329. अज्ञात त्रि., आ + Vा, भू. क. कृ. [आज्ञात], अच्छी तरह
से जाना या समझा हुआ, सुविज्ञात- तं नपुं, प्र. वि., ए. व. - अजातमेतं वचनं असितस्स यथातथं, सु. नि. 704; अज्ञातं भगवा, अातं सुगताति, चूळव. 286; - मानी त्रि., [आज्ञातमानिन्], अपने को अधिक ज्ञानी मानने वाला, घमण्ड करने वाला - नी पु., प्र. वि., ए. व. - अनाते अआतमानी होति, अ. नि. 2(1).164; अज्ञातमानिनो धम्मे,
थेरगा. 953. अञातावी त्रि., [बौ. सं. आज्ञातावी], सम्यक्-ज्ञान प्राप्त कर चुका व्यक्ति अर्थात् अर्हत् - वीनं पु., ष. वि., ब. क. - या तेसं अज्ञातावीनं धम्मानं अञआ पञआ पजानना
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अजाति
83
अझाविमोक्ख ..., ध. स. 145; - विन्द्रिय नपुं.. [बौ. सं. आज्ञातावीन्द्रिय], अञआधिकारवचनारम्भ पु., किसी नए विषय की व्याख्या
सम्यक् ज्ञान प्राप्त अर्हत् की इन्द्रिय, अभिधर्म-परिगणित का आरम्भ, नई बात को कहने का प्रारम्भ - म्भे सप्त. वि., बाईस प्रकार की इन्द्रियों के बीच बीसवीं इन्द्रिय - यं प्र. ए. व. - अथ इति निपातो अाधिकारवचनारम्भे, सु. नि. वि., ए.व.- तीणिन्द्रियानि-अनजातञ्जस्सामीतिन्द्रियं, अट्ठ. 1.110. अअिन्द्रियं, अञाताविन्द्रियं दी. नि. 3.175; स. नि. अापटिवेध पु., [बौ. सं. आज्ञाप्रतिवेध]. पूर्ण-ज्ञान अथवा 3(2).280; इतिवु. 39; पु. प. 104; ध. स. 553; नेत्ति. 45. अर्हत्व के ज्ञान का प्रतिलाभ, अर्हत्व फल की प्राप्ति - धो अजाति पु., जाति का निषे. [अज्ञाति], वह, जो अपना प्र. वि., ए. व. - इमस्मिं धम्मविनये अनुपुब्बसिक्खा कुटुम्बीजन नहीं है, अपना भाई-बन्धु नहीं है, अकुटुम्ब, अनुपुब्बकिरिया अनुपुब्बपटिपदा न आयतकेनेव अबन्धु - तीहि तृ. वि., ब. व. - भिक्खुना नाम आतीहिपि अञआपटिवेधो, चूळव. 395; इति खो, भिक्खवे, यावता अज्ञातीहिपि दिन्नके चत्तारो पच्चये पच्चवेक्खित्वाव परिभोगो सम्मासमापत्ति तावता अञआपटिवेधो, अ. नि. 3(1).233. कातब्बो, जा. अट्ठ. 1.370; - का स्त्री., आतिका का निषे. अञापदेस पु., कर्म. स. अञ + अपदेस [अन्यापदेश], [अज्ञातिका], वह, जिसके पास कुटुम्बजन के रूप में कोई दूसरा बहाना, दूसरी पद्धति, अन्य उपदेश-प्रकार - सेन त. नारी न हो, द्रष्ट. अातक के अन्त..
वि., ए. व. - धनियं अतुट्ठब्बेन तुस्समानं अञआपदेसेनेव अातु पु.. [आज्ञात], वह, जिसने यथार्थ को अथवा धर्मों परिभासति, ओवदति, अनुसासति, सु. नि. अट्ठ. 1.27. की धर्मता को ठीक से जान लिया है, गम्भीर रूप से ज्ञान अज्ञापेक्ख त्रि., ब. स. अआ + अपेक्ख, [आज्ञापेक्ष], पा लेने वाला - ता प्र. वि., ए. व. - अजाता विहरिस्सामि, सुस्पष्ट ज्ञान पाने की इच्छा रखने वाला, ज्ञानार्थी - क्खो दी. नि. 2.211; - तारो ब. व. - के च धम्मस्स अञआतारो, पु., प्र. वि., ए. व. - यं किञ्चि मं सुभद्दो पुच्छिस्सति, सब्ब म. नि. 2.394; देसस्सु भगवा धम्म अातारो भविस्सन्तीति, तं अञआपेक्खोव पुच्छिस्सति, नो विहेसापेक्खो, दी. नि. दी. नि. 2.31; अ. नि. 1(1).158; - काम त्रि., [बौ. सं. 2.113; - क्खा ब. व. - ये केचि अञआपेक्खा चतुसच्चं आज्ञातुकाम], अच्छी तरह से या पूर्ण रूप से जानने की । धम्म सुणन्ति, ते जातिया परिमुच्चन्ति, मि. प. 304. इच्छा रखने वाला - मो पु.. प्र. वि., ए. व. - अआतुकामो अाफल त्रि., ब. स. [आज्ञाफल]. पूर्ण-ज्ञान की प्राप्ति परं पहं पुच्छति, अ. नि. 2(1),178; अआतुकामो परिपुच्छिता कराने वाला या वाली, सम्यक ज्ञान की प्राप्ति का फल अहु, दी. नि. 3.118.
दिलाने वाला या वाली - लो पु०, प्र. वि., ए. व. - अञातुञ्छ पु., अजाति + उञ्छ [अज्ञात्युञ्छ]. अपरिचित समाधि अञआफलो वुत्तो भगवता, अ.नि. 3(1).235. अथवा अकुटुम्बी-जनों से प्राप्त भिक्षा, पिण्डपात अथवा अाराधना स्त्री., अञा + आराधना [आज्ञाराधना], आहार - उछेन तृ. वि., ए. व. - अातुञ्छेन यापेन्तं, अर्हत्वफल का साक्षात्कार, सम्यक-ज्ञान अथवा अर्हत्व-फलकामेसु अनपेक्खिनं, स. नि. 1(2).255.
चित्त की प्राप्ति - नं द्वि. वि., ए. व. - नाहं, भिक्खवे, अञादि त्रि., [अन्यादृश], दूसरों के समान, भिन्न प्रकृति आदिकेनेव अाराधनं वदामि, अपि च, भिक्खवे अनुपुबसिक्खा वाला - दि पु., प्र. वि., ए. व. - अओ विय दिस्सतीति अनुपुब्बकिरिया अनुपुब्बपटिपदा अआराधना होति. म. नि. अादि, अादिक्खो, अआदिसो, मो. व्या. 5.44; तुल. 2.155; अञआराधनं अरहत्ते पतिट्टानं ..., म. नि. अट्ठ. क. व्या. 644.
(उप.प.) 3.137. अञआदिस त्रि., [अन्यादृश], अन्य सदृश, दूसरे जैसा, भिन्न अञआविमुत्त त्रि., [आज्ञाविमुक्त], सम्यक-ज्ञान अथवा अर्हत्व प्रकृति वाला, कुछ अलग ढङ्ग का - सो पु., प्र. वि., ए. व. फल के क्षण में प्राप्य ज्ञान द्वारा विमुक्ति को प्राप्त व्यक्ति - - तादिसोव सो भवं गोतमो, नो अादिसो, म. नि. 2.343; स्स पु, ष. वि., ए. व. - ततो अञआविमुत्तस्स, आणं वे दी. नि. 1.93; अयं सीहो वण्णादीहि अम्हेहि समानो, सद्दो होति तादिनो, इतिवु. 39; 75; तुल. सम्मद आविमुत्त. पनस्स अआदिसो, जा. अट्ठ. 2.89; - ता स्त्री., अन्यादृशता, अजाविमोक्ख पु.. [आज्ञाविमोक्ष], अर्हत्व की स्थिति में भिन्नता, परिवर्तित स्वरूपता - तं द्वि. वि., ए. व. - आस्रवक्षयज्ञान द्वारा प्राप्त विमोक्ष - क्खं द्वि. वि., ए. व. - तस्स पुरिमभावतो अादिसतं दस्सेतुं वुत्तं, पे. व. अट्ठ. अञआविमोक्खं पहि, अविज्जाय पभेदनं. स. नि. 210.
1111; 1113.
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अञ्ञाब्याकरण
अज्ञब्याकरण नपुं. पांच प्रकार के व्याकरण (व्याख्यान). स्वयं द्वारा प्राप्त अर्हत्वावस्था की घोषणा या व्याख्यान णानि प्र. वि. ब. व. पञ्चिमानि भिक्खये अञ्ञाव्याकरणानि अ. नि. 2 (1).111: अज्ञाव्याकरणानीति अरहत्तव्याकरणानि अ. नि. अड. 3.41. अज्ञासिकोण्डज्ञ पु. अञ्ञाकोण्डञ्ञ के अन्त दृष्ट.. अञ्ञिन्द्रिय नपुं. कर्म. स. [बौ. सं. आज्ञेन्द्रिय], अर्हतअवस्था के ज्ञान द्वारा प्राप्त इन्द्रिय, अभिधर्म में निर्दिष्ट 22 इन्द्रियों में से एक यं प्र. वि., ए. व. तीणिन्द्रियानि अनञ्ञातञ्ञस्सामीतिन्द्रियं अञ्ञिन्द्रियं, अञ्ञतावीन्द्रियं दी. नि. 3.175; स. नि. 3 ( 2 ) . 280; इतिवु. 39; पु० प० 104; विभ. 137; नेत्ति 15; ध. स. 362. अञ्जुहिसिक त्रि [अन्योद्देश्यक]. दूसरों को उद्देश्य में रखकर प्रदत्त (वस्तु परिष्कार) केन पु. तृ. वि. ए. व. - अज्ञदत्धिकेन परिक्वारेन अञ्जुहिसिकेन सहिकेन अज्ञ चेतापेय्य निस्सग्गियं पाचित्तियं पाचि 340. अज्ञेय्य त्रि. आ + √ञ का सं. कृ. [आज्ञेय], अच्छी तरह से जानने योग्य, अर्हत के ज्ञान द्वारा साक्षात्करणीयय्यो
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पु. प्र. वि. ए. व. कथं कथं नामायं भगवता धम्मो देसितो अय्यो अ. नि. 2(2) 62 : अज्ञेय्योति आजानितब्बो 31. f. 3. 3.116. अज्ञज्ञ त्रि. [ अन्योन्य], पारस्परिक परस्पर सापेक्ष उ नपुं. द्वि. वि. ए. व. न एक वदन्ति नाना वदन्ति विविधं वदन्ति अञ्ञञ्ञ वदन्ति, महानि० 214; पच्चयता अज्ञज्ञ पटिच्च यस्मा समं सह च धम्मे विसुद्धि. 2.150 निस्सित त्रि. [अन्योन्याश्रित] परस्पर एक दूसरे पर निर्भर - ता पु०, प्र. वि., ब. व. - सागारा अनगारा च, उभो अञ्ञञ्ञनिस्सिता, इतिवु. 79. अञ्हमान / अस्नमान त्रिअस का वर्त. कृ. आत्मने. भोजन कर रहा, उपभोग कर रहा, खा रहा - नो पु०, प्र० वि. ब. व. यदस्नमानो सुकतं सुनिद्वितं परेहि दिन्नं पयतं पणीत, सु. नि. 243; - ना प्र. वि., ए. व. धम्मेन लद्ध सतमस्नमाना, न कामकामा अलिकं भणन्ति सु नि.
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242.
अटट' नपुं., संख्या- विशेष, एक करोड़ की बारह गुनी अथवा दस लाख की बीस गुनी संख्या - अहह अबब वाटट सोगन्धिकुप्पलं अभि. प. 475; क. व्या. 397 रू. सि. 401, सद्द 3.833; 801; सेय्यथापि, भिक्खु, वीसति अटटा निरया एवमेको कुमुदो निरयो सु. नि. (पृ.) 182.
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अटवी
अटट' पु०, एक नरक का नाम टो प्र. वि. ए. व. सेय्यथापि, भिक्खु, वीसति अबबा निरया, एवमेको अटटो निरयो, स. नि. 1 (1). 178; अ. नि. 3(2).147.
अटन नपुं, अट से व्यु. क्रि. ना. [अटन] घूमना, भ्रमण करना, धा. म. 525 का स्त्री. प्र. वि. ए. व. [अटनक]. इधर-उधर घूमने वाली / वाली घुमक्कड़, भगोड़ी चण्डा अटनका गावी ये पुरे न दुहामसे जा. अड. 5.100; अटनकाति पलायनसीला, तदे...
अटनि स्त्री० [अनि ], मञ्च या पर्यङ्क का एक अङ्ग मञ्चावयव मञ्चङ्गे त्वटनित्थियं अभि. प. 309 निं द्वि. वि., ए. व. मञ्चकअटनि गहेत्वा निपज्जि, जा. अह. 2. 279 नियं सप्त वि. ए. व. तिखिणेन सत्येन तस्स मञ्चवाणं हेद्वाअटनियं तहं तहं छिन्दि, ध. प. अ. 1.133; नियो प्र. वि. ब. व. तथा चतस्सो अटनियो, ध. प.
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अट्ठ. 2.211.
अटली स्त्री. एक प्रकार के जूते लियो प्र. वि. ब. व. अटलियो उपाहना आरुहित्वा म. नि. 2.369. पाठा. पटलियो अटलियोति गणणुपाहना म. नि. अट्ठ. (उप. प.)
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3.289.
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अटवी स्त्री. [अटवी]. क. बड़ा जङ्गल, बीहड़ जङ्गल, महारण्य अटवीत्थि महारज्ञ अभि. प. 536: अन्तरामणे च अमनुस्सपरिग्गहिता अटवी अत्थि, ध. प. अट्ठ. 1.9; - वियं सप्त वि., ए. व. अन्तो अटवियं चोरा मनुस्से विलुम्पित्वा पलायिंसु जा. अड्ड. 1.294 ख. ब. व. में वनदस्यु या जंगली डाकू के अर्थ में प्रयुक्त वियो प्र. वि., ब. य. अटदियो समुप्यन्ना रट्ठ विद्वंसयन्ति तं. जा. अह. 6.67, तत्थ अटवियोति अटविचोरा, जा. अट्ट. 6.68. - हि तृ. वि., ब.व. कुपितो अहु पच्चन्तो अटवीहि परन्तिहि चरिया 396: विगत त्रि.. [अटविगत ] वन में गया हुआ, वन में प्राप्त अटविगतं पोथेत्वा पठवियं पातनपच्चामित्तसदिसा जरा ध. स. अड्ड. 361 - विआरक्खिक पु. वनरक्षक अटविआरक्खकेसु सब्बजेको हुत्वा जा. अट्ठ. 2.278; चोर पु. [अटविचार]. वनदस्यु, वन का चोर, अटवी (ख) के अन्त, इष्ट विजनपद पु०, [अटविजनपद ], वन्य प्रदेश, जङ्गली जनपद या क्षेत्र दं द्वि. वि. ए. व. एक अटविजनपदं निस्साय अनेकसहस्सइसिपरिवारो वस्ति जा. अनु. 3.408 विमज्झ नपुं०, वन का मध्यभाग ज्झे सप्त वि. ए. व. अटविमज्झे पञ्चसता चोरा उट्ठहिंसु, जा० अट्ठ 2.278;
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अट्ट
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अट्टित
यानकं आरोपेत्वा आदाय गच्छन्तो अटविमज्झं पत्तकाले अट्ट' त्रि., [आर्त], संपीड़ित, उपहत, उत्पीड़ित, कष्ट को .... ध. प. अट्ठ. 2.39; - मुख नपुं.. [अटविमुख], जङ्गल प्राप्त - हो पु., प्र. वि., ए. व. - तेनम्हि अट्टो ब्यसनंगतो का प्रान्तभाग - खं द्वि. वि., ए. व. - भरियं गहेत्वा अघावी, सु. नि. 699; - ट्टा ब. व. - मम च पुत्ता अट्टा अटविमुखं अभिरुहि, जा. अट्ठ. 3.192; - खे सप्त. वि., ए. आतुरा, जा. अट्ठ. 4.262; स्वाहं अट्टोम्हि दुक्खेन, वि. व. व. - अटविमुखे ठत्वा सब्बे मनुस्से सन्निपातापेत्वा, जा. 1167; स. उ. प. में इण., छात., भय., वेदन., सीत., सोक. अट्ट, 1.261; - बिवासी त्रि., [अटविवासिन्], वनवासी, के अन्त. द्रष्ट., तुल. अट्टित, अद्दित; - स्सर पु., [आर्तस्वर], अरण्यवासी, जङ्गल में रहने वाला - सिनो पु., प्र. वि., ब. अत्यन्त कारुणिक स्वर, पीड़ा से आर्त व्यक्ति का स्वर -रं व. - अटवीति चेत्थ अटविवासिनो चोरा वेदितब्बा, अ. नि. द्वि. वि., ए. व. - सा सुदं अदृस्सरं करोति, पारा. 140; स. अट्ठ. 2.161; - सङ्कोप पु., अरण्यजनपद में विद्रोह, जङ्गली नि. 1(2).232; सिङ्गाला तस्स तं अट्टस्सरं सुत्वा .... जा. जातियों के द्वारा उत्पन्न किया गया उपद्रव - होति सो अट्ठ. 1.256. समयो यं भयं होति अटविसङ्कोपो, अ. नि. 1(1).207. अट्टहास पु., [अट्टहास], ठहाका मारकर हंसना, महाहास, अट्ट' पु.. [अट्ट], ऊंची अटारी, कंगूरा, विशाल भवन, मीनार, उच्च-स्वर से युक्त हास - अट्टहासो महाहासो, अभि. प. जिस पर खड़ा होकर निरीक्षण किया जाता है, अट्टालिका 175; यक्खानं हिकारसइं, भूतानं अट्टहासं, असुरानं - अट्टो त्वट्टालको भवे, अभि. प. 204; एककुलस्स अट्टो अप्फोटनघोसं, उदा. अट्ठ. 53. होति, पारा. 309; उपासकेन अत्तनो अत्थाय ... अट्टो । अट्टान/अट्ठान नपुं., [आस्थान]नदी या सरोवर के कारापितो होति, महाव. 185; - क पु., [अट्टक], पेड़ के स्नानघाट पर गाड़ा हुआ फलक, जिस पर अष्टपदाकार ऊपर निर्मित मञ्च, मचान, चिता - कं द्वि. वि., ए. व. -- अथवा चौकोर लकीरें उकेरी हुयी रहती हैं, (स्नान करते उपरिरुक्खे अट्टकं बन्धित्वा, जा. अट्ठ. 1.174; सरीर समय इसी पर स्नानीय सुगन्धित चूर्ण आकीर्ण कर उनसे आमकसुसाने अट्टकं आरोपेत्वा, जा. अट्ठ. 2.342; - कलुद्दक अङ्गविलेपन करते हैं) - अट्टानं नाम रुक्खं फलक विय पु., [अट्टकलुब्धक], मचान पर बैठने वाला शिकारी - का तच्छेत्वा अट्ठपदाकारेन राजियो छिन्दित्वा न्हानतित्थे प्र. वि., ब. व. - कदाचि अट्टकलुद्दका रुक्खेसु अट्टकं निखणन्ति, तत्थ चुण्णानि आकिरित्वा मनुस्सा कायं घंसन्ति, बन्धन्ति, जा. अट्ठ. 1.174.
चूळव. अट्ठ. 45; - ने सप्त. वि., ए. व. - छब्बग्गिया अट्ट' पु., मुकदमा, अभियोग, विवाद विषय - भिक्खू अट्टाने नहायन्ति, चूळव. 222.
युत्त्यट्टालट्टितेस्वट्टो, अभि. प. 1126; अट्टो उप्पन्नो तं अट्टाल पु., [अट्टाल], मीनार, बुर्ज, भवन के मुख्य द्वार पर विनिच्छिनाथ, ध. प. अट्ठ. 2.175; -8 द्वि. वि., ए. व. - निर्मित निरीक्षण-कक्ष - युत्यट्टालट्टितेस्वट्टो, अभि. प. 11263; सक्का मया इमं अट्ट विनिच्छिनितुं, जा. अट्ठ. 3.225, पाठा. - लो प्र. वि., ए. व. - यदा मकसपादानं, अट्टालो सुकतो अड्डु, स. उ. प. में कूट. विमान के अन्त. द्रष्ट; - करण सिया, जा. अट्ठ. 3.420; दळहमालकोट्टके, थेरगा. 863; नपुं.. क. अभियोजन, अभियोगकरण, मुकदमा दायर करना, मि. प. 2; - क पु., [अट्टालक], अटारी, महल, भव्यभवन, नालिश करना - एतेसं अत्थाय अट्टकरणं नत्थि, म. नि. बालाखाना, चौबारा - अट्टो त्वट्टालको भवे, अभि. प. 2043 अट्ठ. (म.प.) 2.196; ख. न्यायासन, धर्मासन, न्यायाधिकारी - तो प. वि., ए. व. - अथस्स अट्टालकतो एको यक्खो का आसन - णे सप्त. वि., ए. व. - राजा अट्टकरणे आगन्त्वा दक्खिणक्खिं उप्पाटेत्वा अगमासि, जा. अट्ठ. निसिन्नो विपस्सिं कुमारं अङ्के निसीदापेत्वा, दी. नि. 2.16, 3.138; स. उ. प. में अन्तर०, गोपुर., द्वार०, वीरिय. के पाठा. अत्थकरणे; इधाहं ... भन्ते, अट्टकरणे निसिन्नो अन्त. द्रष्ट.. पस्सामि खत्तियमहासालेपि, स. नि. 1(1).91, पाठा. अट्टि स्त्री., [आति], आतुरता, विपत्ति - अट्टीति आतुरता अत्थकरण, अड्डकरण; - कारक पु./स्त्री., वादी अथवा व्याधिरोगो, पारा. अट्ठ. 132. प्रतिवादी, अभियोजक, अभियुक्त - राजा अत्तनो अञआणेन अट्टित त्रि., [आदित], आतुर, व्याधिग्रस्त, व्याकुल, विपन्न, अट्टकारकमनुस्से तस्स परिवारा' ति मञ्जमानो, जा. अट्ठ. संपीड़ित, रोगी - युत्त्यालट्टितेस्वट्टो, अभि. प. 11263; 5.218; - रिका स्त्री॰, प्र. वि., ए. व. - उस्सयवादिका नाम कामरागेन अट्टितो, थेरगा. 157; पण्ड्रोगेन अट्टितो, जा. अट्टकारिका वुच्चति, पाचि. 300.
अट्ठ. 2.360; स. उ. प. में अतिभय., दुक्ख., पिपासावेदन.,
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अट्टीयति / अट्टियति
भय, भूत, मकस., वेदन, हिमसिसिर के अन्त. द्रष्ट., पाठा. अद्दित, अद्धित, अट्ठित.
अट्टीयति/ अट्टियति अट्ट का ना० धा०, वर्त., प्र. पु. ए. व., (सामान्यतया हरायति, जिगुच्छति के पूर्व में प्रयुक्त) पीड़ित होता है, दुःखित होता है, व्याकुल होता है न च तेन पथवी अट्टीयति वा हरायति वा म. नि. 2.93 - यामि उ. पु. ए. व. इद्विपाटिहारिये आदीनवं सम्पस्समानो इद्धिपाटिहारियेन अट्टीयामि हरायामि जिगुच्छामि दी. नि. 1.197; अट्टीयामि हरायामि, नग्गा निक्खमितुं बहि, पे. व. 59 यथ अनु., म. पु. ब. व. इति किर तुम्हे भिक्खवे, दिब्बेन आयुना अट्टीयथ हरायथ जिगुच्छथ, अ.नि. 1 (1) 137 येय्याथ विधि. म. पु. ब. क. ननु तुम्हे भिक्खवे एवं पुद्रा अट्टीयेय्याथ हरायेय्याथ तदेव, तुम्हेहि कायदुच्चरितेन अद्वीयितव्यं हरायितव्यं तदे. मानो वर्त कृ. पु. प्र. वि. ए. व. छन्नो ब्रह्मदण्डेन अट्टीयमानो चूळव. 461; भिक्खुभावं अट्टीयमानो ... गिहिभावं पत्थयमानो, पारा. 26, पाठा. अट्ठीयति, अड्डीयति, तुल. अद्दीयति. अट्टीयन नपुं., अट्टीयति से व्यु., क्रि० ना०, त्रास, व्याकुलाहट, बेचैनी अहिकुणपादीहि विय अत्तनो कार्यन अहीयनं ध.
1
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प. अट्ठ. 1.348.
अट्ठ' त्रि.. [अष्टन्, अष्टौ] आठ ये पुग्गला असतं पसल्या सु. नि. 229: अट्ठ कहापणे दापेसि, जा. अड. 4. 125 अद्ध नाम किं? सङ्घस्स अट्ठसलाकभतं दापेति वि. व. अट्ठ. 60; स. उ. प. में अड्ड, सत्त के अन्त. द्रष्ट.; उसम त्रि, आठ उसभ (1 उसभ = 140 हाथ) लम्बाई वाला भा स्त्री. प्र. वि., ए. व. सा दीघतो अट्ठउसभा अहोसि, जा० अट्ठ. 4. 19 - हंस त्रि०, ब० स० [ अष्टास्र ], आठ पहलों वाला, आठ कोनों वाला, अष्टभुजसो पु. प्र. कि. ए. व. मणि वेळुरियो सुभो जातिमा अहंसो सुपरिकम्मकर्ताो दी. नि. 167; म. नि. 2.218 साब. व.
अहंसा सुकता थम्भा, जा. अट्ठ. 6.152; रूपं चतुन्नं महाभूतानं उपादाय ... चतुरंसं छळस अहंस, सोळसंस, ध. स. 177 क पु. / नपुं. [ अष्टक]. आठ का वर्ग, आठ का समूह का प्र. वि., ब. व. अट्ठ अटुका, नव नवका, दस दसका, म. नि. 3.50 कवग्गिक क्र. सु. नि. के अट्ठकवग्ग के अन्तर्गत् आने वाला कानि नपुं. प्र. वि., ब. व. सब्वानेव अनुकवग्गिकानि सरेन अभासि महाद 270; उदा. 136 भत्त नपुं, आठ के समूह में रहने वालों का भाजन - तं द्वि. वि., ए. व. - सङ्घस्स अट्ठकभत्तं निबद्ध
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अट्ठकथा
दापेसि, ध. प. अ. 2.58; स. उ. प. में द्रष्ट, अड्ड, अन्तर, अहेतुक, इन्द्रिय, कुसदायक, गुह, दुत, परम, सब्ब., सुद्ध; - कर पु., [ अष्टक], क. वेदमन्त्रद्रष्टा, दस ऋषियों में एक ऋषि का नाम अट्ठको वामको वामदेवो चाङ्गीरसो भगु... वेस्सामितो ति मन्तानं कत्तारो इसयो इमे अभि. प. 109 अह्नको वामको ... कस्सपो भगु दी. नि. 1. 91; म. नि. 2.388; ख. पु०, एक प्राचीन राजा का नाम कालिङ्गो, अट्ठको, भीमरथोति तयो राजानो, जा. अट्ठ 5.130; वेस्सामित्तो अट्टको सिवीति छ राजानो, जा. 31.7.141.
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अ' पु०, अत्थ की ही दूसरी वर्तनी, प्रायः स. प. के अन्त प्रयुक्त [अर्थ], अर्थ, तात्पर्य प्रयोजन अविज्जाय सङ्घारानं पच्चयट्ठो, म. नि. अट्ठ (मू०प.) 1 (1).54, द्रष्ट. अत्थ द्वेन तु. वि., ए. व. तात्पर्य के रूप में, अर्थ के रूप में अयं असभावो नाम भिज्जनकक्षेन अथावरट्रेन कुलालभाजनसदिसो ध. प. अड्ड. 1.180 धुतगुणं विसुद्धिकामानं पतिद्वानहेन मि. प. 320 स. उ. प. में अत्त, अप्प, इन्द, एक. कह, नान, परम, पीळन, मह, सङ्घत, सच्छिक के अन्त द्रष्ट तुल. अट्ठकथा, अट्टिक, अद्वि..
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अट्ठकथा स्त्री॰ [अर्थकथा], शा. अ. अर्थवाद, अर्थकथन अर्थात् व्याख्या, ला. अ. पालि-त्रिपिटक पर बुद्धदत्त, बुद्धघोष और धम्मपाल के द्वारा लिखी गई व्याख्याएं - थं द्वि. वि., ए. व. - अट्टकथिका अट्ठकथं ... साकच्छन्ति, खु. पा. अड. 122; उसभाति आदीनि तीणि पदानि अट्ठकथं आरोपेत्वा ...... जा. अ. 1.330; - यं सप्त. वि., ए. व. तं व्यञ्जनं अट्ठकथायं नत्थि, जा० अट्ठ. 1.466; स. उ. प. में अन्ध (क), आगम, कुरुन्दी., खन्धक, पञ्चप्पकरण., परित महा., महापच्चरी सङ्क्षेप, सीहल., साइ, के अन्त द्रष्ट, तुल, अत्थवण्णना टि. पालि-त्रिपिटक पर लिखी गयी व्याख्याओं के लिए सामान्य नाम परम्परानुसार इनका संगायन प्रथम सङ्गीति में तथा अनुगायन द्वितीय एवं तृतीय सङ्गीतियों में हुआ; महेन्द्र द्वारा श्रीलङ्का ले जायी गयी तथा प्राचीन सिहंली भाषा में रूपान्तरण किया गया; बुद्धदत्त, बुद्धघोष तथा धम्मपाल द्वारा श्रीलङ्का की महाविहारीयपरम्परा का अनुसरण करते हुए तथा महाअट्ठकथा एवं कुरुन्दी, पच्चरी, अन्धकट्ठकथा, पण्णवार एवं सीहलगकथा जैसी सिंहली भाषा की अट्ठकथाओं के आधार पर पालि में रूपान्तरण किया गया थाचरिय पु. [ अर्थकथाचार्य],
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अट्ठकथिक
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अट्ठक्खुर अट्ठकथा लिखने वाले आचार्य - या प्र. वि., ए. व. - अट्ठकनिग्गहपेय्याला सन्धावनिया उपादाय .... कथा. अट्ठकथाचरिया पन ... वण्णयन्ति, सु. नि. अट्ठ. 1.20; 67. अट्ठकथाचरिया पनाहु, ध. स. अट्ठ. 168; विसुद्धि. 1.101; अट्ठकनिद्देस पु., पु. प. के आठवें परिच्छेद का शीर्षक, पु. म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).235; - कण्ड नपुं.. सारिपुत्र प. 185. द्वारा उपदिष्ट अर्थोद्धारपरक ध. स. के एक खण्ड का अट्ठकनिपात पु., अ. नि. के आठवें खण्ड या ग्रन्थ का शीर्षक, ध. स. 1384-1616; - ण्डं प्र. वि., ए. व. - कस्मा शीर्षक, अ. नि. 3(1).1-169. पनेतं अट्ठकथाकण्डं नाम जातन्ति? तेपिटकस्स बुद्धवचनस्स अट्ठकभत्त नपुं., आठ सलाकाओं द्वारा प्राप्त पिण्डपात या अत्थं उद्धरित्वा ठपितत्ता, ध, स. अट्ठ. 428; - ण्डेन तृ. भोजन - त्तं प्र. वि., ए. व. - सङ्घस्स अट्ठकभत्तं निबद्ध वि., ए. व. - तीसुपि हि पिटकेसु धम्मन्तरं आगतं दापेसि,ध. प. अट्ठ. 2.58; सिरिमाय अट्ठकभत्तं मे भुत्तं, वि. अट्ठकथाकण्डेनेव परिच्छिन्दित्वा .... ध. स. अट्ठ. 428; - व. अट्ठ. 60. कण्डवण्णना स्त्री., ध. स. के ऊपर निर्दिष्ट खण्ड का अट्ठकवग्ग पु., सु. नि. के चतुर्थ संग्रह का शीर्षक, सु. नि. वर्णन - अट्ठकथाकण्डवण्णना निहिता, ध. स. अट्ठ. 428- 772-981. 443; - गन्ध पु.. [अर्थकथा-ग्रन्थ], अट्ठकथाओं की पुस्तकें अट्ठकवग्गिक/अट्ठकवग्गिय त्रि., सु. नि. के अट्ठकवग्ग - न्धे द्वि. वि., ब. व. - बुद्धघोसो नाम थेरो सीहळदीपं नाम वाले चतुर्थ निपात के अन्त. आनेवाला - कानि नपुं., गन्त्वा सीहळभासाय लिखिते अट्ठकथागन्धे मागधभासाय द्वि. वि., ब. व. - आयस्मा सोणो भगवतो पटिस्सुणित्वा परिवत्तित्वा लिखि, सा. वं. 26; - नय पु.. [अर्थकथा-नय], सब्बानेव अट्ठकवग्गिकानि सरेन अभासि, महाव. 270; सोळस अट्ठकथाओं द्वारा अपनाई गई निर्वचन-पद्धति या व्याख्या- अट्ठकवग्गिकानि सब्बानेव सरभञ्जन अभणि ध. प. अट्ठ. प्रकार - येन तृ. वि., ए. व. - अट्ठकथानयेन यथानुरूप 2.340; - ये सप्त. वि., ए. व. - वुत्तमिद, भन्ते, भगवता वीमंसित्वा वेदितब्बा, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).42; अट्ठकवग्गिये मागण्डियपहे ..., स. नि. 2(1).9. पालिमुत्तकेन पन अट्ठकथानयेन अपरा पिछ पञत्तियो, पु. अट्ठकसिण नपुं, ध्यानभावना में सहायक पठवी, तेजो, आपो, प. अट्ठ. 26; - पाठ पु., अट्ठकथा में गृहीत या स्वीकृत एक वायो आदि दस कर्मस्थानों में आठ - णं प्र. वि., ए. व. - पाठ - ठो प्र. वि., ए. व. - पाळियं पन 'अगिद्धिमा ति ___अट्ठकसिणं सोळसक्खत्तुकं ध. स. 203. लिखितं, ततो अयं अट्ठकथापाठोव सुन्दरतरो, जा. अट्ठ. 2. अट्ठकहापण त्रि., ब. स. [अष्टकार्षापण], आठ कार्षापण 245; - मुत्तक त्रि., अट्ठकथाओं से सर्वथा स्वतन्त्र अन्य मूल्य वाला - अट्ठकहापणा दण्डोति, वि. व. अट्ठ. 61. आचार्यों द्वारा गृहीत व्याख्यानपद्धति - केन पु., तृ. वि., अट्ठकुटिक त्रि., ब. स. [अष्टकुटिक], आठ झोपड़ियों वाला ए. व. - अट्ठकथामुत्तकेन पन आचरियनयेन अपरा पि छ गांव - को पु., प्र. वि., ए. व. - अट्ठकटिको गामो, दी. नि. पञत्तियो, पु. प. अट्ठ. 27; - को पु., प्र. वि., ए. व. - अट्ठ. 1.252, पाठा. अट्ठङ्गिको. अयमेत्थ अट्ठकथामुत्तको एकस्स आचरियस्स मतिविनिच्छयो, अट्ठकोण त्रि., ब. स. [अष्टकोण], आठ कोनों वाला, ध. स. अट्ठ. 267.
अठपहल, अठकोना - णं द्वि. वि., ए. व. - गण्ठिकपट्टकञ्च अट्ठकथिक पु., अट्ठकथाओं का अध्ययन करने वाला अथवा पासक - पट्टञ्च अट्ठकोणम्पि सोळसकोणम्पि करोन्ति, पारा. उनमें रुचि रखने वाला, (प्रायः प्र. वि., ब. व. में प्रयुक्त) अट्ठ. 1.232. - जातकमाणका जातकं अट्ठकथिका अट्ठकथं ... साकच्छन्ति, अट्ठक्खणविनिम्मुत्त त्रि., आठ प्रकार के अक्षणों अथवा खु. पा. अट्ठ. 122.
दुर्गतियों से सर्वथा विमुक्त - त्तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अट्ठकनागर पु., अट्ठक-नगर-निवासी, दसम-नामक गृहपति अट्ठक्खणविनिम्मुत्तं खणं परमदुल्लभं, सद्धम्मो. 4. का उपनाम - दसमो गहपति अट्ठकनागरो पाटलिपुत्तं अट्ठक्खत्तुं निपा., [अष्टकृत्वः], आठ बार - अट्ठक्खत्तुं अनुप्पत्तो, म. नि. 2.12; अ. नि. 3(2).308; - सुत्त नपुं.. नवक्खत्तुं दसक्खत्तुं एवमादयो अञपि सद्दा एवं योजेतब्बा, म. नि. के एक सुत का शीर्षक, म. नि. 2.12; अ. नि. 3(2).308. क. व्या. 648. अट्ठकनिग्गहपेय्याल पु., अठगुने खण्डनपरक सूत्रों का अट्ठक्खुर त्रि., ब. स. [अष्टखुर]. आठ खुरों वाला मृग, पुनरावृत्ति-परक समुच्चय या समूह - ला प्र. वि., ब. व. - एक-एक पैर में दो-दो खुरों वाला पशु - रं पु., वि. वि.,
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अट्ठगुण
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अट्ठट्ठक ए. व. - अट्ठक्खुरं खरादिये, मिगं वङ्कातिवङ्किन, जा. अट्ठ समणब्राह्मणेसु दानं दिन्नं न महप्फलं होति, अ. नि. 1.162; अट्ठक्खुरन्ति एकेकस्मि पादे द्विन्नं द्विन्नं वसेन3(1).70; - सुसमागत त्रि., आठ शीलाङ्गों से भरपूर - तं अट्ठक्खुरं तदे...
नपुं.. प्र. वि., ए. व. - पाटिहारियपक्खञ्च, अङ्गसुसमागतं अट्टगण त्रि., [अष्टगण], आठगुना अधिक - णं नपं., द्वि. थेरीगा. 31;ध. प. अट्ट, 2.292; वि. व. 129; - ता स्त्री., वि., ए. व., क्रि. वि. - यत्तकं तुलिता एसा ... ततो अट्ठगुणं प्र. वि., ए. व. - अट्ठङ्गसुसमागता... सीलवती उपासिका, दस्सं. थेरीगा. 153.
अ. नि. 3(1).100, पाठा. अट्ठङ्गसुसमाहित. अट्ठगोपानसी पु., व्यक्तिविशेष का नाम - अट्ठगोपानसी अट्ठङ्गिक त्रि., ब. स. [अष्टाङ्गिक], आठ अङ्गों वाला क. बुद्ध नाम, तव पुत्तो महामुनि, अप. 1.285.
का आठ अङ्गों वाला मध्यम-मार्ग (मज्झिमापटिपदा) - को अट्ठा त्रि., ब. स. [अष्टाङ्ग], आठ अङ्गों वाला (मार्ग एवं पु., प्र. वि., ए. व. - अयमेव अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो, उपोसथ)-) पु., सप्त. वि., ए. व. - उपवासे च अट्ठों महाव. 13; स. नि. 3(2).484; अ. नि. 1(1).206; भावितो उपोसथदिने सिया, अभि. प. 780; द्रष्ट, अट्ठनिक के अन्त.; अट्ठङ्गिको मग्गो, थेरीगा. 1583; ख. बुद्ध के मध्यम-मार्ग से - छुपागत त्रि., आठ गुणों से युक्त - ङ्गे नपुं., सप्त. वि., भिन्न आठ अङ्गों वाला मिथ्यामार्ग - स्स पु., ष. वि., ए. व. ए. व. - सुझे ओकासे पविवित्ते अरओ अट्ठङ्गुपागते - मग्गो तिखो ... अट्टङ्गिकस्सेतं मिच्छामग्गस्स अधिवचनं. समणसारुप्पे, मि. प. 102; - पेत त्रि., आठ अङ्गों से युक्त स. नि. 2(1).99; ग, शील के प्रथम आठ अङ्गों के समादान - तं पु., प्र. वि., ए. व. - उपोसथं ... अट्ठकपेतं सुसमत्तरूपं. से युक्त (उपोसथ) - कं पु., द्वि. वि., ए. व. - सु. नि. 404; - स्स ष. वि., ए. व. - अट्ठङ्गुपेतस्स अट्ठङ्गिकमाहुपोसथं, सु. नि. 403; अ. नि. 1(1).244; घ. उपोसथस्स, अ. नि. 1(1).244; - तं स्त्री., द्वि. वि., ए. व. आठ अङ्गों से युक्त (असत्य-भाषण) - अट्ठङ्गिको मुसावादो, - अट्ठङ्गुपेतं गिरमभुदीरयि, दी. नि. अट्ठ. 1.58; - गुपोसथ परि. 265; - यानयायी त्रि., [अष्टाझिकयानयायिन्], बुद्ध पु., [अष्टाङ्गिकोपोसथ], ऐसा उपोसथ, जिसमें आठ शीलों के आठ अङ्गों वाले मार्ग-रूपी वाहन पर चलने वाला, का ग्रहण आवश्यक है - स्स ष. वि., ए. व. - सत्था अष्टाङ्गिक मार्ग का अनुसरण करने वाला - साहं सुगतस्स अट्टॉपोसथस्स गुणं कथेसि, अ. नि. अट्ठ, 3.310; द्रष्ट. अ. साविका मग्गट्ठङ्गिकयानयायिनी, थेरीगा. 391... नि. 1(1).244; 3(2).69; - गुपोसथी त्रि., आठ शिक्षापदों अट्ठङ्गुल त्रि., ब. स., अट्ठ + अङ्गुल [अष्टाङ्गुल], आठ अङ्गुलों के समादान-सहित उपोसथ करने वाला/वाली - राजा . की लम्बाई या चौड़ाई वाला - लं द्वि. वि., ए. व. - .. एकोपवासगब्भम्हि हुत्वा अट्ठङ्गपोसथी, म. वं. 36.84; - अनुजानामि, भिक्खवे, आयामेन अट्ठङ्गुलं सुगतङ्गुलेन ..., वचनसम्पन्न त्रि., [अष्टाङ्गवचनसम्पन्न], आठ गुणों से महाव. 388; अट्ठङ्गुलं बहलतो लोहपट्ट सिलोपरि म. वं. युक्त वचन बोलने वाला (बुद्ध) - न्नो पु., प्र. वि., ए. व. 29.11; - परम त्रि., [अष्टाङ्गुलपरम], अधिक से अधिक - अट्ठङ्गवचनसम्पन्नो, अच्छिद्दानि निरन्तरं बु. वं. 24.26, आठ अङ्गुल माप वाला - मं पु., द्वि. वि., ए. व. - (पृ.) 357; अट्ठङ्गवचनसम्पन्नोति अट्ठङ्गसमन्नागतसरो सत्था, अनुजानामि, भिक्खवे, अट्ठलपरमं दन्तकट्ठ, चूळव. 2593; बु. वं. अट्ठ. 295; - विनिम्मुत्त त्रि., [अष्टाङ्गविनिर्मुक्त], अट्ठलपरमं मञ्चपटिपादकं चूळव. 276; - बहल त्रि., आठ मार्ग के आठ अङ्गों से रहित - त्तो पु.. प्र. वि., ए. व. - अङ्गुल मोटा - अहङ्गुलबहलं उदुम्बरपदरं जा. अट्ठ. 2.75. अट्ठङ्गविनिम्मुत्तो मग्गो नाम नत्थि, खु. पा. अट्ठ. 68; - अट्ठचत्तारीस/अट्ठचत्ताळीस संख्यावाचक विशे. समन्नागत त्रि., क. आठ शीलाङ्गों से युक्त - तं पु., प्र. [अष्टचत्वारिंशत्], अड़तालीस, अड़तालीस की संख्या - वि., ए. व. - अट्ठङ्गसमन्नागतं उपोसथं उपवसथ, अ. नि. अट्ठचत्ताळीसं वस्सानि ब्रह्मचरियं चरिंसु ते. सु. नि. 291; 3(2).69; ख. आठ शुभ-गुणों से युक्त - तं पु., द्वि. वि., ए. अट्ठचत्ताळीसं वस्सानि तपचरणं करिंसु, ध. प. अट्ठ. व. - अट्ठङ्गसमन्नागतं ... आहारं आहारेति, म. नि. 2.347; 1.377: अहोरत्तेन अट्टचत्ताळीसयोजनसहस्सानि भस्समाना, - ते नपुं., सप्त. वि., ए. व. - अट्ठासमन्नागते ... खेत्ते । मि. प.90. बीजं वुत्तं महप्फलं होति, अ. नि. 3(1).70; ग. आठ अशुभ- अट्ठट्ठक त्रि., [अष्टाष्टक], प्रत्येक आठ दिन पर मिलने गुणों से युक्त - तेसु पु., सप्त. वि., ए. व. - अट्ठङ्गसमन्नागते वाला - के नपुं.. द्वि. वि., ए. व. - पूजेमि चतुरो .... खेत्ते बीजं वुत्तं न महप्फलं होति ... अहङ्गसमन्नागतेसु सतसहस्सरूपियं अट्ठट्ठकं निच्चभत्तं च थेरं, दी. वं. 6.56.
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अट्ठट्ठान
अद्वान त्रि.. [अष्टस्थान] आठ विषयों अथवा वस्तुओं से सम्बन्धित नाय स्त्री०, ष. वि., ए. व. चेतोखिलानञ्च अद्वानाय कङ्क्षाय च अभावा अको सु. नि. अड. 2.124. अट्ठतिंस / अट्ठतिंसा संख्यावाचक विशे. [अष्टत्रिंशत्], अड़तीस ( 38 ) स नपुं. द्वि. वि. ब. व. अट्ठतिंस महामङ्गलानि कथेत्वा सु. पा. अड्ड. 124 सा स्त्री.. प्र./ वि.वि., ब.व. अद्वतिंसा च राजपरिसा, मि. प. 323; - य नपुं., सप्त. वि., ब. व. - अट्ठतिंसाय आरम्मणेसु, ध. प. अट्ठ. 2.241.
अट्ठत्थम्भ त्रि. ब. स. [अष्टस्तम्भ ], आठ खम्भों वाला अद्वत्थम्भो क. व्या. 385.
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अदन्तक त्रि., ब० स० [ अष्टदन्तक], आठ दांतों वाला / वाली
केन तृ. वि. ए. व. थलवप्ये विसमपतितानं वा बीजानं समकरणत्थाय पुन अद्वदन्तकेन समीकतं पारा, अह 2123. अट्ठदसिक त्रि, अट्ठ + दस से व्यु, संभवतः अठारह वर्ष वाला को पु. प्र. वि. ए. व सङ्ख्याने ति किमत्थं? अट्टादसिको, क. व्या. 384, पाठा. अड्डादसिको. अद्वदोण त्रि.. ब. स. [अष्टद्रोण]. आठ
द्रोणों की माप-तौल वाला ण नपुं. प्र. वि. ए. व. अट्ठदोणं चक्खुमतो अट्ठदोणं चक्खुमतो सरीरं, सत्तदोणं जम्बुदीपे महेन्ति, दी. नि. 2.126. अट्ठदोससमाकिण्ण त्रि. [अष्टदोषसमाकीर्ण]. आठ प्रकार के दोषों से भरपूर अट्ठदोससमाकिण्णं पजहिं पण्णसालक बु. वं. 2.31. अधम्मसमोधान नपुं, आठ प्रकार के धर्मों का संग्रह या समुच्चय - अट्ठधम्मसमोधाना, अभिनीहारो समिज्झति, जा. अट्ठ. 1.18; बु. वं. (पू.) 298; दीपङ्गरस्स हि भगवतो पादमूले अदुधम्मसमोधानेन अभिनीहारसमिद्धितो पभुति म. नि. अड. (म.प.) 1(1).120.
अया प्रकारार्थक निपा. [ अष्टधा ]. आठ भागों या प्रकारों में. आठ तरह से त्वज्ञेव भगवतो सरीरानि अद्वधा सम सुविभत्तं विभजाही ति, दी. नि. 2.125. अट्ठनखत्रि, ब. स. [अष्टनख] आठ खुरोंवाला, प्रत्येक पैर में दो-दो खुरों वाला - मेण्डो अट्ठनखो अदिस्समानो, जा० अ. 6.182; अनखोति एकेकस्मिं पादे द्विन्नं द्विन्नं खुरान वसेनेतं वृत्तं, तदे..
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अट्ठनवुति / अद्वानवृति त्रि. संख्यावाचक विशे, अंठानवे की संख्या तयो रोगा अद्वानवृतिमागमुं सु. नि. 313:
इमे अडनवृति रोगा कार्य निब्बत्तन्तृति मि. प. 111.
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पञ्चन्नं अखिलो
अट्ठपना / आठपना
अट्ठनिपात पु. क. थेरगा. के एक निपात का शीर्षक जिसमें प्रत्येक स्थविर की आठ-आठ गाथाएं निहित हैं, थेरगा. 494-517; ख. थेरीगा के एक खण्ड का शीर्षक, थेरीगा. 196-203; ग. जा. अट्ठ के एक खण्ड का शीर्षक जिसके अन्त, दस जातक ( 417426) और पंचानवे गाथाएं हैं। अट्ठपञ्ञासा स्त्री० [अष्टपञ्चाशत् ], अट्ठावन रतनानद्वपञ्ञासं, उग्गतोव महामुनि, अप. 2.243 - क्खत्तुं अट्ठावन बार अट्ठपञ्ञासक्खत्तुञ्च, देवरज्जमकारयिं,
अप. 2.13.
अट्ठपद नपुं [ अष्टापद]. शा. अ. प्रत्येक पंक्ति में आठ-आठ खानों वाला, ला. अ. चौपड़ का खेल या इसे खेली जाने वाली पट्टिका अथवा शतरंज का खेल अद्वपदं दसपदं आकासं परिहारपथ, दी. नि. 1.6; एकेकाय पन्तिया अट्ट अट्ट पदानि अस्साति अनुपद, दी. नि. अड. 1.78; दाकारेन पु.. तू. वि. ए. व. क्रि. वि. के रूप में प्रयुक्त, आड़े तिरछे रूप में, चौसर (चौपड़) की खेलपट्टिका की आड़ी तिरछी पंक्तियों के अनुरूप अनुपदाकारेन राजियो छिन्दित्वा न्हानतित्थे निखणन्ति चूळव, अनु. 45; तुल अद्वपाद, अट्ठापद
अट्ठपदक नपुं०, अट्ठपद से व्यु [ अष्टापदक ], चौसर की खेपट्टिका के समान विधि अनुजानामि, भिक्खवे, अट्ठपदकं कातुन्ति, महाव, 389; च्छन्न त्रि, चौसर की खेल पट्टी के समान आड़े-तिरछे रूप वाली विधि द्वारा आच्छादित अद्वपदकच्छन्नेन पत्तमुखं सिब्बितुं महाव. अट्ठ. 386.
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अट्ठपदपन नपुं, तत्पु. स. [ अष्टापदस्थापन ], केशालंकरण की एक विशेष पद्धति, केशों को संवारने की विधि जिसमें केशों को आठ पंक्तियों में रखकर सजाया जाता है। मस्सुकरणकेससण्ठपन अट्ठपदद्वपनादीनि सब्बकिच्चानि करोति जा. अड्ड. 2.5.
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अट्ठपदफलक नपुं., [अष्टापदफलक], चौसर अथवा शतरंज की खेलपट्टिका अनुपदेपि कीळन्तीति अट्ठपदफलके जूत कीळन्ति, पारा. अट्ठ. 2.185.
अट्ठपना / आठपना स्त्री० [आस्थापना], विन्यसन, व्यवस्थापन, व्यवस्थित रूप में रखना पापिच्छस्स इच्छापकतस्स इरियापथस्स वा अट्ठपना उपना
विभ. 404; यो एवरूपो उपनाहो.. अनुपना उपना सण्ठपना
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दऴहीकम्मं कोधस्स, विभ. 412; अट्ठपना ति पठममुप्पन्नस्स अनन्तरट्टपना मरियादनुपना वा विभ. अड. 464.
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अट्ठपरिक्खारधर
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अट्ठपरिक्खारघर त्रि., आठ प्रकार के परिष्कारों अर्थात् मूलभूत जीवनसाधनों से सम्पन्न, परिक्खार के अन्त. द्रष्ट. - तावदेवस्स गिहिलिङ्ग अन्तरधायि अद्वपरिक्खारधरो
सद्विवस्सिकमहाथेरो विय अहोसि, ध. प. अट्ठ. 1.284. अट्ठपरिवट्ट त्रि., [अष्टपरिवर्त], आठ प्रकार के परिवों से युक्त, आठ प्रकार के विशिष्ट लक्षणों से अन्वित - यावकीवं च मे, भिक्खवे, एवं अट्ठपरिवर्ल्ड अधिदेवाणदस्सनं न सुविसुद्ध अहोसि, अ. नि. 3(1).128; - टि. दिव्यचक्षुज्ञान आदि आठ प्रकार के विशिष्ट ज्ञान ही अट्ठपरिवट्ट शब्द द्वारा संसूचित हैं, द्रष्ट., अ. नि. अट्ठ. 3.241-242. अट्ठपाद त्रि., ब. स. [अष्टपाद]. 1. न., आठ पैरों वाला। जीव-जन्तु - पीठञ्च सब्बसोवण्णं, अट्ठपादं मनोरम, जा. अट्ठ. 5.373; 2. पु., मृग की एक जातिविशेष, शरभमृग - अट्ठपादा च मोरा च, भस्सरा च कुकुत्थका, जा. अट्ठ. 7.306; अट्ठपादाति सरभा मिगा, जा. अट्ठ. 7.307; 3. पु., एक विशेष प्रकार की मकड़ी, अट्ठापद के अन्त. द्रष्ट.. अट्ठपितधुर त्रि., ब. स. [आस्थापितधुर], वह, जिसने भारवहन करना अस्वीकार न किया हो, वह, जिसने अभी तक भार न उतार फेंका हो, सुदृढ़ वीर्यवाला - अनिक्खित्तधुरोति
अट्ठपितधुरो पग्गहितवीरियो, अ. नि. अट्ठ. 3.141. अट्ठम त्रि., [अष्टम], आठवां, अष्टम - एवं छट्ठमो सत्तमो अट्ठमो नवमो दसमो, क. व्या. 375; इति हेतं विजानाम, अट्ठमो सो पराभवो, सु. नि. 107; - क पु.. [अष्टमक], विशुद्धि की आठवीं अवस्था में प्रविष्ट व्यक्ति, आठ प्रकार के आर्यपुद्गलों में अधम स्थिति में आपन्न व्यक्ति - यानि अट्ठमकस्स इन्द्रियानि, इमे उप्पन्ना कुसला धम्मा, नेत्ति. 18; अट्ठमकस्स सोतापन्नस्स च कामरागब्यापादा साधारणा ..., नेत्ति. 42; अट्ठमक स्साति सोतापत्तिफलसच्छिकिरियाय पटिपन्नस्स, नेत्ति. अट्ठ. 239; - कथा स्त्री., कथा. की एक कथा का शीर्षक, कथा. 204-207; - स्स इन्द्रिय-कथा स्त्री., कथा. के तीसरे वर्ग की एक कथा का शीर्षक, कथा. 207-210. अट्ठमङ्गल नपुं.. [अष्टमङ्गल], आठ माङ्गलिक वस्तुएं, आठ प्रकार के मंगल - कञ्चनचित्तसन्निभन्ति, कञ्चनमयेन सत्तरतनविचित्तेन अट्ठमङ्गलेन समन्नागतं, जा. अट्ठ. 5.405. अट्ठमास नपुं.. [अष्टमास], आठ महीने - अट्ठमासे असम्पत्ते, अरहत्तमपापुणिं, अप. 2.192, पाठा. अडमास.
अट्ठवत्थुक अट्ठमासिक त्रि., [अष्टमासिक], आठ महीना पुराना, आठ महीने वाला - मासिको पि चवति मरति अन्तरधायति ... अट्ठमासिको पि..., महानि. 86.. अट्ठमी स्त्री., [अष्टमी], 1. किसी भी संख्या में आठवीं - अनिच्चतायेव अट्ठमीति, स. नि. 2(2).309; 2. चान्द्रमास के प्रत्येक पक्ष की आठवीं तिथि - ततो च पक्खस्सुपवस्सुपोसथं, चातुद्दसिं पञ्चदसिञ्च अट्ठमि, सु. नि. 404; चातुद्दसिं पञ्चदसिं, या च पक्खस्स अट्ठमी, थेरीगा. 31; 3. आलपन-विभक्ति के रूप में निरुत्तिपिटक की निर्वचन-परम्परा के अनुसार आठवीं विभक्ति - आमन्तणवचने अट्ठमी विभत्ति भवति, सद्द. 1.60... अट्ठमुख त्रि., ब. स. [अष्टमुख], शा. अ. आठमुखों वाला, ला. अ. आठ मुख्य बिन्दुओं से युक्त वादपद्धति - चतूसु पहेसु द्विन्न पञ्चकानं वसेन अट्ठमुखा वादयुत्ति, ध. स. अट्ठ. 5. अट्ठयोजन त्रि., [अष्टयोजन], आठयोजन की दूरी तक फैला हुआ, द्रष्ट. योजन के अन्त.. अद्वरतन त्रि., ब. स. [अष्टरत्न], आठ हाथों की लम्बाई की मापवाला - मुखवट्टितो पट्ठाय अट्टरतनं, अ. नि. अट्ठ. 3.268; - निक त्रि., उपरिवत् - तिवित्थतं दसपरिणाहं अट्ठरतनिकं सकट्ठानमुपगतं दिस्वा, मि. प. 286; - नुब्बेध त्रि., [अष्टरत्नोद्वेध], आठ हाथों की ऊंचाई वाला - यथा, महाराज, तिधा पभिन्नो सब्बसेतो.... अट्ठरतनब्बेधो ... पासादिको दस्सनीयो उपोसथो नागराजा, मि. प. 262. अट्ठलोकधम्म पु.. (सामान्यतया ब. व. में प्राप्त), लाभ, सत्कार आदि आठ प्रकार की सांसारिक उपलब्धियां - अट्ठलोकधम्मपदन्तिपि वदन्तियेव, जा. अट्ठ. 3.146; - वात पु., लौकिक उपलब्धियों रूपी आठ प्रकार के झञ्झावात - गिरिराजवरसम, महाराज, धुतगुणं विसुद्धिकामानं अट्ठलोकधम्मवातेहि अकम्पियढेन, मि. प. 321; - म्मातिक्कम पु., आठ प्रकार की लौकिक उपलब्धियों का अतिक्रमण - अट्ठलोकधम्मातिक्कमा, उदा. अट्ठ. 273. अट्ठवङ्क त्रि., [अष्टावक्र], शा. अ. आठ स्थानों से वक्र, ला. अ. अष्टकोणीय (विशेष रूप से वैरोचननामक रत्न के लक्षण के रूप में प्रयुक्त) - अट्ठव मणिरतनं उळार, सक्को ते अददा पितामहस्स, जा. अट्ठ 6.217. अट्ठवत्थुक त्रि., ब. स. [अष्टवस्तुक], आठ वस्तुओं पर आधारित अथवा उनसे सम्बद्ध - अट्टवत्थुकाय कवाय अवितिण्णभावेन अवितिण्णकल मच्चं सोधेन्तीति, ध. प.
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अट्ठवस्सिक
अट्ठान अट्ठ. 2.44; अट्ठवत्थुकेन हि अविज्जान्धकारेन ओनद्धा, ध. धम्मपरियायं देसेस्सामि. स. नि. 2(2).225; - परियायवग्ग प. अट्ठ. 2.57; अयम्पि पाराजिका होति असंवासा पु., स. नि. के एक वर्ग का शीर्षक, स. नि. 2(2).224-232; अट्ठवत्थुका ति, पाचि. 297; - हेतु पु., आठ प्रकार की - भेद त्रि., ब. स., एक सौ आठ उपविभागों वाला - वस्तुओं का कारण - अपराधकारकस्स अट्ठवत्थुकहेतु अद्वेव, अट्ठसतभेदेन तोहानिस्सयेन द्वासट्ठिभेदेन दिद्विनिस्सयेन च जा. अट्ठ. 3.391.
.... सु. नि. अट्ठ. 2.87; - सहस्सविभव त्रि., वह, जिसके अद्ववस्सिक त्रि.. [अष्टवार्षिक]. आठ वर्षों वाला, अष्टवर्षीय पास आठ लाख तक की सम्पत्ति हो - सावत्थियं किरेको - अद्ववस्सिकोपि ... चवति मरति अन्तरधायति ब्राह्मणो अट्ठसतसहस्सविभवो, ध. प. अट्ठ. 2.286; - सुत्त विप्पलुज्जतीति, महानि. 87.
नपुं., स. नि. के एक सुत्त का शीर्षक, स. नि. 2(2).225-26. अट्ठवाचिक त्रि., [अष्टवाचिक], शा. अ. आठ प्रकार की अट्ठसत्ततिवस्स त्रि., ब. स. [अष्टसप्ततिवर्ष], अठहत्तर वचन-विज्ञप्तियों से युक्त, ला. अ. भिक्षुणियों की उपसम्पदा वर्षों की आयुवाला - अट्ठसत्ततिवस्साहं, पच्छिमो वत्तते वयो, - अट्ठवाचिका उपसम्पदा, परि. 265; अट्ठवाचिका भिक्खुनीनं अप. 2.254. उपसम्पदा उभतोअत्तिचतुत्थत्ता, वजिर. टी. 513; - टि. अट्ठसद्द-जातक नपुं., जा. कथानकों में से एक जातक का भिक्षुणियों की उपसम्पदा में दो बार ज्ञप्तिचतुर्थकर्म निर्धारित शीर्षक, जा. अट्ठ. 3.379-85. है, अतः भिक्षुणियों की उपसम्पदा को अट्ठवाचिका उपसम्पदा अट्ठसमापत्तियान नपुं., आठ प्रकार की आध्यात्मिक कहा गया है.
उपलब्धियों को प्राप्त कराने वाला वाहन या साधन - अट्ठविध त्रि., [अष्टविध], आठ प्रकार का, आठ तरह का, देवलोकयानसञ्जितं अट्ठसमापत्तियानं अभिरुव्ह, सु. नि. अष्टविध, आठ तरह वाला - लाभो अलाभो यसो अयसो अट्ठ 1.148. निन्दा पसंसा सुखं दुक्खन्ति अयहि अट्ठविधो लोकधम्मो. अट्ठसहस्स नपुं.. [अष्टसहस्र], 1. आठ हजार - ततो जा. अट्ठ. 2.159; अट्ठविधेन रूपक्खन्धो, विभ. 163; अट्ठसहस्सनागासरं ओतरित्वा .... जा. अट्ठ. 5.35;2. नपुं.. अट्ठविधेन रूपसङ्गहो, ध. स. 590.
श्रीलङ्का के एक क्षेत्र विशेष का नाम - देसं अट्ठसहस्सव्हं अट्ठवीसति स्त्री., [अष्टाविंशति], अट्ठाईस - कतमे दत्वान वसितुं तहिं, म. वं. 61-24; - पाद त्रि., ब. स. अट्ठवीसति? मि. प. 141; अट्ठवीसति वस्सानि रज्जं कारेसि [अष्ठसहस्रपाद], आठ हजार पैरों, जटाओं या प्रशाखाओं खत्तियो, म. वं. 34.37; नक्खत्तपदकोविदोति अट्ठवीसतिया (बरोहों) से युक्त (वटवृक्ष) - तत्थहसा मेघसमानवण्णं, नक्खत्तकोट्ठासेसु छेको, जा. अट्ठ. 6.308; -- क्खत्तुं निपा., निग्रोधराजं अट्ठसहस्सपाद, जा. अट्ठ. 5.42. क्रि. वि. अट्ठाईस बार - अट्ठवीसतिक्खत्तुञ्च, चक्कवत्ती अट्ठहत्थ त्रि., ब. स. [अष्टहस्त], आठ हाथ की लम्बाई अहोसहं, अप. 1.33.
वाला - एकं सत्तहत्थं एक अट्ठहत्थान्ति द्वे वस्सावासिकसाटके अट्ठवीससत नपुं.. [अष्टाविंशतिशत], एक सौ अट्ठाईस - लभित्वा .... ध. प. अट्ठ. 1.171. अट्ठावीससतं पदानि सा. सं. 13.
अट्ठान नपुं., ठान का निषे. [अस्थान], 1. अनुपयुक्त विषय अट्ठसट्ठि स्त्री., [अष्टाषष्टि], अड़सठ - सटिकम्हि निपातम्हि, अथवा क्षेत्र, अनुपयुक्त स्थल, अनुपयुक्त काल - अट्ठाने मोग्गल्लानो महिद्धिको, एकोव थेरगाथायो, अट्ठसट्टि भवन्ति पदेसे मता मद्दी, जा. अट्ठ. 7.343; 2. असंभाव्यता, असम्भव ताति, थेरगा. (पृ.) 295; महाभिक्खुसङ्को पटिवसति होना (यदि उत्तरवर्ती उपवाक्य में 'य' तथा 'विधि' के अट्ठसद्धिभिक्खुसतसहस्सं दी. नि. 2.35; कम्मानि आरभाषेत्वा क्रियारूप हों) - अट्टानं तं सङ्गणिकारितस्स, यं फस्सये लेणानि अट्ठसट्टियो, म. वं. 16-12.
सामयिक विमुत्तिं सु. नि. 54; अट्ठानमेतं, आनन्द, अनवकासो अट्ठसत नपुं., [अष्टाशत]. 1. एक सौ आठ - अट्ठसतम्पि यं तथागतो ... पाराजिकं सिक्खापदं पञ्जत्तं समूहनेय्याति, मया वेदना वुत्ता परियायेन, स. नि. 2(2).226; ये पुग्गला पारा. 25; अट्ठानमेतं अनवकासोति उभयम्पेत अट्ठसतं पसत्था, सु. नि. 229; 2 आठ सौ - वेदानं पारङ्गते कारणपटिक्खेपवचनं, पारा. अट्ठ. 1.178; 3. (केवल सप्त. अट्ठसतब्राह्मणे निमन्तेत्वा, जा. अट्ठ. 1.66; - परियाय पु., वि., ए. व. में 'अट्ठाने' रूप में), अनुपयुक्त व्यक्ति के बारे [पर्याय], एक सौ आठ संख्या तक विस्तृत वेदनाओं से में - ... अट्ठाने कोपं बन्धित्वा .... जा. अट्ठ. 4.185; 4. सम्बन्धित धर्मोपदेश की पद्धति - अट्ठसतपरियायं वो, भिक्खवे. (अट्ठानेन रूप में), बिना किसी उपयुक्त कारण के, अकारण,
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अट्टानियकथा
92
अट्ठि
अहेतुकरूप में - कुद्धो हि अढवत्थुकं सोळसवत्थुक कत्वा के अनुकरण पर विरचित - अट्ठापदकता केसा, नेत्ता अट्ठानेन अकारणेन अत्तनो राजभावस्स अननुरूपं .... अञ्जनमक्खिता, म. नि. 2.262; अट्ठापदकताति रसोदकेन बलवदुक्खानि उदीरये, जा. अट्ठ. 3.391; - नारह त्रि०, मक्खित्वा नलाटपरियन्ते आवत्तनपरिवत्ते कत्वा स्थित न रहने योग्य, न टिकने योग्य, टिकने या जारी न अद्वपदकरचनाय रचिता, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.214. रखने योग्य - तेसं तं कम्म अधम्मिकं कुप्पं अट्ठानारह । अट्ठारस संख्यावाचक विशे. [अष्टदश], 1. अठारह - महाव. 139; ठानारहेन वा अट्ठानारहेन वा. तदे. 408 - अट्ठारसअक्खोभणिसङ्काय सेनाय सद्धिं निक्खमि, जा. अट्ठ. कुसलता स्त्री॰, भाव., अनुपयुक्तताओं, अपराधों अथवा 6.224; अट्ठारससु कोटीस एकोपि पुरिसो वा इत्थी वा भिक्खं असंभाव्यताओं को ठीक से समझने की क्षमता, दी. नि. तथा गहेत्वा अनिक्खन्तो नाम नत्थि, ध. प. अट्ट, 1.274; 2. इसकी अट्ठ. में इस शब्द के निम्नलिखित दो प्रकार के अठारहवां - अट्ठारसकप्पसते, यं दानमददिं तदा, अप. व्याख्यान उपलब्ध 1. कौन सा धर्म किस आपत्ति का कारण 1.144; - क्खत्तुं निपा., अठारह बार - अट्ठारसञ्च खत्तुं नहीं हो सकता, यह विनिश्चित करने की क्षमता - ... सह सो, देवराजा भविस्सति, अप. 1.91; तुल, अट्ठक्खत्तुं - म कम्मवाचाय आपत्तीहि वुढानपरिच्छेदजानना पा, दी. नि. त्रि., अठारस से व्यु., [अष्टादशम], अठारहवां- मलवग्गो अट्ठ. 3.146 तथा ध. स. 1337; 2. किसी एक धर्म की किसी अट्ठारसमो निहितो, ध. प. (पृ.) 45; - मनोपविचार त्रि., अन्य धर्म के उदय में अकारणता - ... एवं वह, जो अठारह प्रकार से वस्तुओं या धर्मों का अनुचिन्तन ठानपरिच्छिन्दनसमत्था पञ्जा ..... दी. नि. अट्ठ, 3.147; करता है - ... पुरिसो छ फस्सायतनो अट्ठारसमनोपविचारो तथा म. नि. 3.127; ठानकुसलता च अट्ठानकुसलता च. चतुराधिट्टानो ..., म. नि. 3.288; - रतनुब्बेध त्रि., दी. नि. 3.169; तुल. ठानाट्ठानकुसलता, ध. स. अट्ठ. 416; अट्ठारह हाथों की ऊंचाई वाला - ... अट्ठारसरतनुब्बेधं - गाथा स्त्री., [-गाथा]. सु. नि. के खग्गविसाणसुत्त की व्यामप्पभापरिक्खेपं ..., म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).314; - 54वीं गाथा जिसमें सांसारिक आसक्तियों में लिप्त व्यक्ति के वस्स त्रि., ब. स., अठारह वर्षों की आयुवाला, अष्टादशवर्षीय लिए सामयिक विमुक्ति का स्पर्शमात्र तक असम्भव कहा - सोहं अट्ठारसवस्सो पब्बजिं अनगारियं अप. 1.56; - गया है - अट्ठान तं सङ्गणिकारतस्स, यं फस्सये सामयिक विध त्रि.. 1. अठारह प्रकारों वाला - अट्ठारसविधं खज्जक विमुत्तिं, सु. नि. 54; - जातक नपुं., चार सौ पच्चीसवें जा. अट्ठ. 1.185; 2. अठारह प्रकार के विभाजनों अथवा जातक का शीर्षक, जा. अट्ठ. 3.418-422; - परिकप्प पु., प्रत्ययों से युक्त - इमिना इमस्स अट्ठारसविधेन असम्भव स्थितियों या धर्मों की परिकल्पना, अनुपयुक्त कायानुपस्सनासतिपट्टानभावकस्स भिक्खुनो इरियापथो कथितो परिकल्पना - इति महासत्तो इमिना अट्ठानपरिकप्पेन एकादस होति, अ. नि. अट्ठ. 1.370; - हत्थुब्बेध त्रि., अठारह हाथों गाथा अभासि, जा. अट्ठ. 3.422; - पाळि स्त्री., अ. नि. के की ऊंचाई वाला - अट्ठारसहत्थुब्बेधेन यन्तयुत्तद्वारेन एक सुत्त का नाम, अ. नि. 1(1).38-39; - मनवकासता समन्नागतं. जा. अट्ठ. 6.258. स्त्री॰, भाव., अहेतुकता असम्भाव्यता - किं कारणं? अट्ठाह नपुं.. [अष्टाह], आठ दिनों का समुच्चय - सालिं अट्ठानमनवकासताय, मि. प. 199; - वग्ग पु.. [-वर्ग]. अ. आहासि सकिदेव अट्टाहाय, दी. नि. 3.66; - पटिच्छन्न नि. के अट्ठानपाळि-नामक खण्ड का ही दूसरा नाम, अ. नि. त्रि., आठ दिनों तक छिपाया हुआ - एका आपत्ति 1(1).38-39; - सो निपा., अहेतुकता के कारण, अनुपयुक्तता अट्ठाहप्पटिच्छन्ना, चूळव. 127. के कारण, अप्रतिरूपता के कारण - अट्ठानसो अप्पतिरूपमत्तनो, अट्ठि' स्त्री., [अष्टि], समवृत्त छन्द का एक भेद - न-ज-भपरस्स दुक्खानि भुसं उदीरये, जा. अट्ठ. 3.390.
ज-रा यदा भवति वाणिनी गयत्ता, वुत्तो. 96; - टि. इसमें अट्ठानियकथा स्त्री., कभी पूरी न होने वाली बात, निरर्थक सोलह वर्ण होते हैं। इसके उसभगतिविलसिता, ललना, प्रलाप, बकवास - पियपक्खे पठमवाचा अट्ठानियकथा नाम, चन्दलेखा, चन्दनिका (वाणिनी) तथा चित्तभागा (नाराच, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.80.
पश्चचामर) आदि पांच भेद हैं. अट्ठापद नपुं.. [अष्टपद], द्यूतक्रीड़ा या चौसर आदि की अट्ठिः नपुं.. [अस्थि], 1. हड्डी - पण्डके अद्वि धात्वत्थी, अभि. खेलपट्टिका, कृमिविशेष, मकड़ी, अट्ठपद एवं अट्ठपाद के प. 278; सीहस्स ... अट्टि गले लग्गि, जा. अट्ठ. 3.22; अन्त. ऊपर द्रष्ट; - कत त्रि., [अष्टपदीकृत], खेलपट्टिका कामं तचो च न्हारु च अट्टि च अवसिस्सतु, म. नि. 2.1563;
" स्त्रीला चल पाया
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अट्टि 93
अद्वित स. नि. 1(2).27; अ. नि. 1(1)66; अट्ठीति ... द्वतिस अट्टिकच्छक पु., एक विशाल वृक्ष का नाम, अंजीर वृक्ष का दन्तट्ठीनि अवसेसानि, विसुद्धि. 1.244; 2. आंठी, गुठली - एक भेद - कच्छकोति अष्टिकच्छको, स. नि. अट्ठ. 3.188. तेसं अम्बं खादित्वा अट्टि रोपितं न सम्पज्जति, जा. अट्ठ. अट्टिकच्छप पु., कछुआ, कच्छप, कूर्म, - महाकुम्मकुलन्ति 2.86; कोचिदेव परिसो पक्कं अम्बं खादित्वा अलुि रोपेय्य, मि. महन्तं अद्विकच्छपकुलं, स. नि. अट्ठ. 2.181. प. 84; - क नपुं [अस्थिक], हड्डी - अडिकानि विपकिण्णानि अडिंकत्वा/अद्विकत्वा/अद्विकत्वान अट्ठि + Vकर का होन्ति, पारा. 43; अद्विकानेव सेसानि, दी. नि. 2.254; स. पू. का. कृ., किसी वस्तु के विचारणीय होने की प्रकृति का उ. प. में द्रष्ट., अम्बल., ताल., मधुकफल., कदल. अनुभव करके, अत्यवहित होकर, ध्यान लगाकर, मन में इत्यादि के अन्त.; - कङ्कल पु., [अस्थिकङ्काल], हड्डियों का धारण कर - यो कोचिमा अट्टिकत्वा सुणेय्य, लभेथ पुब्बापरिय ढांचा, अस्थिपञ्जर - अपि नु खो सो कुक्कुरो अमुं अडिकङ्कलं विसेसं. जा. अट्ठ. 5.144; अट्टिकत्वाति अत्तनो अत्थिकभावं ... पलेहन्तो जिघच्छादुब्बल्यं पटिविनेय्या ति, म. नि. 2.29; कत्वा अत्थिको हत्वा सक्कच्चं सणेय्य, जा. अट्ठ. 5.145; कप्पं सन्धावतो संसरतो सिया एवं महाअट्टिकङ्कलो अद्विपुञ्जो विहायाय विक्खपमलं अटिकत्वान साधुकं सद्धम्मो. 220; यं अद्विरासि यथायं वेपुल्लो पब्बतो, स. नि. 1(2).167; - तथागतप्पवेदिते धम्मविनये देसियमाने अद्विंकत्वा मनसिकत्वा कङ्कलकुटि स्त्री., अस्थिकङ्काल से निर्मित शरीर, अस्थिपञ्जर सब्बचेतसा समन्नाहरित्वा ओहितसोतो धम्म सुणाति, म. से निर्मित शरीर - अट्ठिकङ्कलकुटि चे सा, मक्कटावसथो नि. 1.407; साधुकं सुणोमाति अहिँ कत्वा मनसि कत्वा इति, सु. नि. अट्ठ. 1.27; - कङ्कलकुटिका स्त्री., उपरिवत् सब्बचेतसा समन्नाहराम, महाव. 131. - अट्ठिकङ्कलकुटिके, मंसन्हारुपसिब्बिते, थेरगा. 1153; - अट्ठिकसुत्त नपुं., स. नि. के बोज्झङ्ग-संयुत्त के सातवें वर्ग कल्याण नपुं., दांतों की अस्थियों का सौन्दर्य - केसकल्याणं के प्रथम सुत्त का नाम, कुछ संस्करणों में अद्विकमहप्फल मंसकल्याणं, अडिकल्याणं, छविकल्याणं, वयकल्याणन्ति, नाम से भी उल्लिखित, स. नि. 3(1).150. ध. प. अट्ट, 1.217; - कङ्कलसन्निम त्रि., अस्थिकङ्काल के अढिकुम्म पु., कछुआ - कुम्मोति अढिकुम्मो, कच्छपोति समान - अडिकलसन्निभा अप्पस्सादढेन, थेरीगा अट्ठ तस्सेव वेवचनं, स. नि. अट्ठ. 3.72, द्रष्ट. अट्टिकच्छप, 311; - कदली स्त्री., बीजयुक्त फलवाला केला का पेड़ - (ऊपर). मोचाति अट्ठिककदलियो, जा. अट्ठ. 5.402; - कीळन नपुं., अद्वित' त्रि., ठित का निषे., [अस्थित], अस्थिर, अविच्छिन्न, अस्थियों की क्रीड़ा, हड्डियों का खेल, अस्थियों को लेकर निरन्तर, असुदृढ़, चञ्चल, स्पन्दनशील; - सभाव त्रि., क्रीडाप्रदर्शन - अद्विकीळनसदिसं नच्चं दिस्वा..., सु. नि. अस्थिर प्रकृतिवाला, शिथिल स्वभाववाला - अद्वितधम्माति अट्ठ. 1.90; - कोटि त्रि., हड्डी का किनारा या छोर - नहितसभावा, दी. नि. अट्ठ. 3.87; द्रष्ट. 'अहितकारी', अडिकोटिं तुण्डेन पहरि जा. अट्ठ. 3.22; - चम्म नपुं.. द्व. 'अद्वितधम्म' तथा 'अद्वितपधान' के अन्त. (आगे) विलो. स., अस्थि एवं चर्म, हड्डी एवं चमड़ा - पुन किसिके ति अनट्टित. वचनं अविचम्मन्हारुमत्तसरीरताय अतिविय किसभावदस्सनत्थं अद्वितः त्रि., आ + Vठा का भू. क. कृ. [आस्थित]. वुत्तं, पे. व. अट्ठ. 58; - चम्ममत्त त्रि., वह, जिसके शरीर अधिष्ठित, अभिप्रेत, सुदृढीकृत प्रतिज्ञात - अद्वितं मे मनस्मि में केवल हड्डी और चमड़ा मात्र शेष है - न उदकं पिवि. मे, अथो मे हदये कतं, जा. अट्ठ. 2.207; - कारी त्रि., परिसुस्सित्वा किसा अट्ठिचम्ममत्ता अहोसि, जा. अट्ठ. अप्रमादी, सदैव क्रियाशील, निरन्तर कार्य करने वाला, 2.280; - चम्मावसेस त्रि., वह, जिसकी हड्डी और चमड़ी शान्त मन से काम करने वाला - सक्कच्चकारी सातच्चकारी शेष है - सा खुदापीळिता अद्विचम्मावसेसा किसा अहोसि. अद्वितकारी ..., महानि. 42; - किरियता स्त्री., भाव., जा. अट्ठ. 2.168; - परिकिण्ण त्रि., अस्थियों से परिपूर्ण, अप्रमाद-पूर्वक क्रिया की स्थिति, दृढ़कर्मपरायणता - या ' हड्डियों से भरा हुआ - निवेसनं अट्ठि(क)परिकिण्णं दिस्वा कुसलानं धम्मानं भावनाय सक्कच्चकिरियता सातच्चकिरियता ..... जा. अट्ठ. 1.381; पाठा. अहि(क)-परिपुण्ण - सहगत अद्वितकिरियता ..., ध. स. 1379; -धम्म त्रि., वह, जो त्रि., अस्थि की संज्ञा से युक्त, अस्थि की संज्ञा को रखने धर्म में सुदृढ़ रूप से अवस्थित है, स्थिर स्वभाव वाला - वाला - अष्टि(क)सञ्जासहगतं धम्मविचयसम्बोज्झङ्गभावेति. अद्वितधम्मा समणा सक्यपुत्तिया विहरन्तीति, दी. नि. 3.99; स. नि. 3(1).150.
अद्वितधम्माति नद्वितसभावा, दी. नि. अट्ठ. 3.87; - वत
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अद्वितं
अद्विसङ्घात नपुं.. कर्म. स. [आस्थितव्रत], अप्रमत्त अथवा वीर्यवान् अट्ठिमय त्रि., [अस्थिमय], हड्डियों से विनिर्मित, हड्डियों से व्यक्ति का तप या व्यायाम - अद्वितवतं भोतो गोतमस्स बना हुआ - अद्विमयं, दन्तमयं, विसाणमयं नळमयं, वेळुमयं पधानं अहोसि. म. नि. 2.444; अद्वितवतन्ति अद्विततपं. ...., महाव. 278; अट्ठिमयेन वा सल्लेन दन्तमयेन वा .... अस्स पधानपदेन सद्धि सम्बन्धो, म. नि. अट्ट (म.प.) महानि. 4. 2.319.
अद्विमिञा स्त्री., नपुं., [अस्थिमज्जा, अ. मा. अद्विमिजा], अद्वितं निपा., सदा, सदैव, निरन्तर, अनवरत - ये त्वं मुनि हड्डियों की मज्जा - अद्विमिजं आहच्च तिट्ठति, महाव.
अद्वितं ओवदेय्य, सु. नि. 1064; तत्थ अद्वितन्ति सक्कच्चं 105; पेम छवियादीनि छिन्दित्वा अष्टिमिज आहच्च ठितं. सदा वा, सु. नि. अट्ठ. 2.282.
ध. प. अट्ठ. 1.105. अट्ठिति स्त्री., ठिति का निषे [अस्थिति], चित्त की चंचलता, अट्ठिरासि पु., [अस्थिराशि], हड्डियों का ढेर, अस्थिपुञ्ज, स्थिर प्रकृति का सर्वथा अभाव, चित्त की प्रशान्तावस्था का हड्डियों का समूह, अस्थिकङ्काल - एकपुग्गलस्स, भिक्खवे, अभाव - या च इञ्जना या च चित्तस्स अद्विति, नेत्ति. कप्पं संधावतो संसरतो सिया एवं महा अडिकङ्कलो अद्विपञ्जो 73.
अद्विरासि ..., स. नि. 1(2).167. अद्वित्तच 1. नपुं., द्व. स., अस्थियां एवं त्वचा, हड्डियां और अडिल्ल पु./नपुं. [आष्ठीला, स्त्री.]. गाय की जङ्घा की वह त्वचा - अट्टि त्तचेन ओनद्ध, सह वत्थेभि सोभति, म. नि. हड्डी, जिसका प्रयोग रगड़ने आदि के कार्य में होता था - 2.262; 2. त्रि., ब. स., वह, जिसके लिये अस्थि ही त्वचा अढिल्लेन जघनं घसापेन्ति ... गोहनुकेन जघनं कोट्टापेन्ति है - अद्विमेव तचो अस्साति अद्वित्तचो, जा. अट्ठ. 3.258. ___ ..., चूळव. 430. अट्ठिन्हारुसंयुत्त त्रि., हड्डी और नसों से युक्त, अस्थि तथा अद्विवेधविद्ध त्रि., हड्डियों के वेधे जाने से पीड़ित - नापि स्नायुओं से समुपेत - अद्विनहारुसंयुत्तो, तचमंसावलेपनो, लोमवेधविद्धो संविज्जति ... अपि च खो अद्विवेधविद्धो सु. नि. 196; तीहि अद्विसतेहि नवहि न्हारुसतेहि च संयुत्तत्ता संविज्जति .... अ. नि. 1(2).131; अद्विवेधविद्धोति अहिं अट्ठिनहारुसंयुत्तो, सु. नि. अट्ठ. 1.208.
भिन्दन्तेन वेधेन विद्धो, अ. नि. अट्ठ. 2.324. अद्विपक्ख त्रि., ब. स. [अस्थिपक्ष), हड्डियों के पंखों वाला अट्ठिवेधी त्रि., [अस्थिवेधी], अस्थि को वेधने वाला, वेध कर - पक्खिनोति ये केचि अद्विपक्खा वा चम्मपक्खा वा लोमपक्खा हड्डियों तक प्रभाव डालने वाला - वच्छदन्तमुखा सेता, वा. दी. नि. अट्ठ. 2.78.
तिक्खग्गा अद्विवेधिनो, जा. अट्ठ. 6.277. अट्ठिपाकार पु., [अस्थिप्राकार], हड्डियों का प्राकार, हड्डियों अट्ठिसङ्घलिका स्त्री., [अस्थिश्रृङ्खला], अस्थिपञ्जर से निर्मित शरीर-रूपी महल - सोसितो मया अस्ससमद्दो, अस्थिकङ्काल, हड्डियों का ढांचा-मात्र - पस्सेय्य सरीरं भिन्नो अद्विपाकारो, जा. अट्ठ. 3.333.
सिवथिकाय छड्डितं अद्विकसङ्घलिक, दी. नि. 2.219; म. नि. अद्विपुञ्ज पु.. [अस्थिपुञ्ज]. हड्डियों का समूह, अस्थिपुज 1.75; - पेत पु.. [अस्थिश्रृङ्खलाप्रेत], नरकङ्काल के रूप में - कप्पं सन्धावतो संसरतो सिया एवं महा अडिकङ्कलो प्रेत - तथागतस्स सन्तिके थेरेन पट्ठो अद्विसङ्घलिकपेतादीनं अद्विपुञ्जो अद्विरासि यथायं वेपुल्लो पब्बतो, स. नि. दिवभावं आचिक्खित्वा, ध. प. अट्ठ. 2.273; - कमत्त त्रि., 1(2).167; इतिवु. 14.
वह, जिसका अस्थिकङ्काल-मात्र शेष है- अतिसयजिघच्छाभिभूतो अट्ठिपुट त्रि., [अस्थिपुट], हड्डियों का पुट, हड्डियों का विवर विय पसरह खादन्तो अद्विसङ्कलिकमत्तं कत्वा ..., पे. व. - अद्विपुटे अद्विपुटो, निब्बत्तो पूतिनि पूतिकायम्हि, खु. पा. अट्ठ. 132. अट्ठ. 39.
अद्विसङ्घात पु., [अस्थिसङ्घात], हड्डियों का ढेर, अस्थिकङ्काल, अद्विभाग पु., [अस्थिभाग], अस्थिकङ्काल, शरीर की अस्थिपञ्जर - किमविद सरीरं ... रुहिरपुण्णं हड्डियों का हिस्सा - अद्विकङ्कलोति अद्विभागो, इतिवु. अट्ठ. अद्विसङ्घातन्हारुसम्बन्धं ..., महानि. 133; तुम्हाकं एवरूप 74.
अट्ठिसङ्घातं दिस्वा .... ध. प. अट्ठ. 2.62; - जटित त्रि., अट्ठिमत्तावसेस त्रि., ब. स. [अस्थिमात्रावशेष], वह, जिसमें [-जटित], हड्डियों के ढेर से भरपूर - पेताहि अप्पमंसलोहितत्ता हड्डियांमात्र शेष बची हों - अत्तनो सामिकं लुजित्वा खादन्ता अविसङ्घातजटिता एकेन परसेन सयितुं न सक्कोन्ति, सा. सं. अद्धिमत्तावसेस करिंसु, ध, प. अट्ठ. 2.19.
14; - मत्तावसेस त्रि., [अस्थिसङ्घातमात्रावशेष], वह, जिसका
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अट्ठिसञ्चय
95
अड्ड
हाच
अस्थिकङ्काल मात्र ही शेष है, हड्डियों का ढेर - दिवसभागे महन्ता सुनखा उपधावित्वा अद्विसङ्घातमत्तावसेसं सरीरं करोन्ति, पे. व. अट्ठ. 179. अट्ठिसञ्चय पु.. [अस्थिसञ्चय], अस्थिसमुच्चय, अस्थियों का समूह, हड्डियों का ढेर - एकरसेकेन कप्पेन, पुग्गलस्सटिसञ्चयो, इतिवु. 14. अट्ठिसञा स्त्री॰ [अस्थिसञ्ज्ञा], अशुभ अनुस्मृतियों के अन्तर्गत शरीर को अस्थिपञ्जर के रूप में देखना या समझना - केवलं अडिसआय, अफरी पथविं इम, थेरगा. 18. अट्ठिसन्धि पु., [अस्थिसन्धि], हड्डियों का जोड़, अस्थिसन्धि - कटकटाति विरवन्तेहि अद्विसन्धीहि स... तो, जा. अट्ठ. 7.320. अट्ठिसमूह पु., [अस्थिसमूह], हड्डियों का समूह, अस्थिपुञ्ज, हड्डियों की राशि- अद्विपुञ्जोति अट्ठिसमूहो, इतिवु. अट्ठ. 74. अट्ठिसीस त्रि., ब. स. [अस्थिशीर्ष], हड्डियों से भरा सिर, वह, जिसका सिर हड्डियों का ढांचा-मात्र प्रतीत हो - अडिसीसाति मंसस्स अभावतो अतिविय अद्विताय पतनुभावतो वा तचोनद्धअद्विमत्तसीसा, लीन. (दी.नि. टी.) 2.37. अद्विसेन पु.. [अस्थिसेन], ब्राह्मण कुलोत्पन्न एक बोधिसत्त्व का नाम - बोधिसत्तो एकस्मिं निगमे ब्राह्मणकुले निब्बत्ति, अट्ठिसेनकुमारोतिस्स नाम करिंसु, जा. अट्ठ. 3.310; - जातक नपुं., [जातक], जातक संख्या 403 का नाम, जा. अट्ठ. 3.309-313. अद्विसेस त्रि., [अस्थिशेष], वह, जिसमें हड्डी के अतिरिक्त कुछ भी शेष नहीं हो, केवल हड्डी मात्र - सेसभागानि डव्हिसु, अट्ठीसेसानि सब्बसो, अप. 2.211. अद्विस्सर पु.. एक प्रत्येकबुद्ध का नाम - पञ्च कोट्ठासे निरये पच्चित्वा, ततो मुच्चित्वा अद्विस्सरो नाम पच्चेकबुद्धो भविस्सति, मि. प. 119; ध. प. अट्ठ. 1.86. अद्भुत्तरसत नपुं., [अष्टोत्तरशत], एक-सौ-आठ की संख्या - उपरिमञ्चे राजधीतरं ठपेत्वा गन्धोदकघटानं अद्वत्तरसतेन न्हापेत्वा काळकण्णि पवाहेस्सामी ति, जा. अट्ठ. 1.436. अगुप्पत्ति/अत्थुप्पत्ति स्त्री., [अर्थोत्पत्ति], धर्मदेशना के लिये सर्वथा उपयुक्त अवसर की उत्पत्ति - अट्टप्पत्तिञ्च दीपेत्वा, करिस्सामत्थवण्णनं खु. पा. अट्ठ. 173; सुत्तदेसनाय वत्थुभूतस्स अत्थस्स उप्पत्ति अत्थुप्पत्ति, अत्थुप्पत्ति एव अट्टप्पति, उदा. अट्ठ. 25; - क त्रि., वह धर्मदेशना, जो किसी अवसर-विशेष के कारण प्रकाशित की गयी हो, अर्थ
विशेष को ध्यान में रखकर दिया गया (उपदेश) - सा एतस्स अत्थीति अटुप्पत्तिको, उदा. अट्ठ. 25; चत्तारो हि सुत्तनिक्खेपा अत्थज्झासयो, परज्झासयो, पुच्छावसिको, अट्टप्पत्तिकोति, दी. नि. अट्ठ. 1.48; - काल पु., धर्मदेशना की सप्रयोजन उत्पत्ति का अवसर - अपि च चतूहि कारणेहि बुद्धा भगवन्तो चारिक चरन्ति, जङ्घविहारवसेन सरीरफासुकत्थाय, अत्थुप्पत्तिकालाभिकङ्घनत्थाय, भिक्खून ...., दी. नि. अट्ठ. 1.196. अट्ठसभमत्त त्रि., ब. स., आठ उसभ माप वाला - अनुसभमत्तं ठानं पक्खन्दित्वा, जा. अट्ठ, 4.130; - टि. एक उसभ 140 हाथ का होता है. अद्वसभवित्थत त्रि., आठ उसभ माप तक फैला हुआ -
अवसभवित्थतं मग्गं, जा. अट्ठ. 5.311. अद्वसभवित्थार त्रि., ब. स., उपरिवत् - अद्वसभवित्थाराय नदिया ..., जा. अट्ठ. 1.74; अवसभवित्थारं आगमनमग्गं
समतलं कत्वा , जा. अट्ठ. 7.362. अड्ड' त्रि., [आढ्य], धनी, धनवान, धनाढ्य - अड्डो त्वनित्थियं भागे धनिस्मिं वाच्चलिंगिको, अभि. प. 1039; इब्भो त्वड्डो तथा धनी, अभि. प. 725; भवहि सोणदण्डो अड्डो महद्धनो महाभोगो, दी. नि. 1.99; अढा दलिद्दा च फुसन्ति फस्सं. बालो च धीरो च तथेव फुट्ठो, थेरगा. 783; - क त्रि., [आढ्यक], धनी, समृद्ध, धनाढ्य - बाराणसीनगरं दूरघुटुं, तत्थाह गहपति अडको अहु दीनो, पे. व. 247; अड्डकोति अड्डो महाविभवो, पे. व. अट्ठ. 94; न खत्तियोति न च ब्राह्मणोति, न अडका बलवा तेजवापि, जा. अट्ठ. 4.448. अड्डः/अद्ध 1. पु./नपुं.. [अर्ध], आधा, समान भाग - अड्वो त्वद्धो उपवो च, अभि. प. 53; अद्ध वृत्तं समे भागे, अभि. प. 54; तं कत्वा नेगमो अग्धं, अड्डेनग्घं ठपेसि मं. थेरीगा. 25; 2. किसी भी मुद्रा या माप की 1/2वीं इकाई - अड्डो पादो, चत्तारो मासका, जा. अट्ठ. 3.396; अड्ढ वा पादं वा कहापणं वा पेसेन्ति, ध. प. अट्ठ. 1.145, स. उ. प. में द्रष्ट. अपर., मज्झिम., पुब्ब.. पुरिम., उप., दसड्ढ., दि., दुव-; - करीसमत्त त्रि., केवल आधे करीष की माप वाला - पुण्णोपि अड्डकरीसमत्तं ठानं कसित्वा ..., वि. व. अट्ठ. 51; - कहापण नपुं. [अर्द्धकार्षापण], आधा कार्षापण - अकुसलं दिवस अड्डकहापणं निबिसेय्य, अ. नि. 3(2).69; अपरे अन्तरवीथिचतुक्क राजद्वारादीसु निसीदित्वा कहापणअडकहापणपादमासकरूपादीनिपि निस्साय देसेस्सन्ति, जा. अट्ठ. 1.325; - कायिक त्रि.. [अर्द्धकायिक].
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अड्ढ
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अड्ड
मानवशरीर की लम्बाई से आधी लम्बाई वाला - न, भिक्खवे, अड्डकायिकानि बिब्बोहनानि धारेतब्बानि, चूळव. 276; अद्धकायिकानीति उपड्डकायप्पमाणानि, येसु कटितो पट्ठाय याव सीसं उपदहन्ति, चूळव. अट्ठ. 60; - काल पु.. धनवान होने का समय - अवस्साति अडकाले अड्डा हुत्वा सामिकमेव अनुवत्तति, जा. अट्ठ, 3.59; - कासिक/कासिय त्रि., शा. अ. काशी में निर्मित कौशेयवस्त्र का आधा भाग, ला. अ. क. काशी की आधी आबादी के लिये पर्याप्त कम्बल - तेन खो पन समयेन कासिराजा जीवकस्स कोमारभच्चस्स अड्डकासिकं कम्बलं पाहेसि, महाव. 370; ख. पांच सौ मुद्राओं के मूल्य योग्य - अडकासियन्ति एत्थ कासीति सहस्सं वुच्चति, तं अग्घनको कासियो, अयं पन पञ्चसतानि अग्घति तस्मा, अड्डकासियो ति वृत्तो, महाव. अट्ठ. 378; - कासी/कासि स्त्री., काशी जनपद की एक गणिका का नाम, थेरीगा. की 25-26 गाथाओं की कवयित्री - अडकासि भिक्खुनी इमा गाथायो अभासित्थाति, अप. 2.281; - टि. संभवतः काशी जनपद से प्राप्त समस्त राजस्व का आधा भाग देने के फलस्वरूप इसका नाम 'अडकासि' किया गया - अड्डकासिगणिका विय बहूनं पिया मनापा, जा. अट्ठ. 5.444; - कुडक/कुट्टक नपुं., [अर्थकुड्यक], आधी दीवार, आधी भित्ति - अनुजानामि, भिक्खवे, अड्डकुट्टकन्ति, चूळव. 278; - कुम्भूपम त्रि., [अर्धकुम्भोपम], अधजल गगरी जैसा - अडकुम्भूपमो बालो, रहदो पूरोव पण्डितो, सु. नि. 726; - कुल नपुं. [आढ्यकुल], समृद्ध कुल, समृद्ध वंश - समणो खलु भो गोतमो अड्डा कुला पब्बजितो महद्धना महाभोगा, दी. नि. 1.101; चोरा उदकनिद्धमनेन नगरं पविसित्वा एकस्मि अडकुले उमङ्ग भिन्दित्वा .... ध. प. अट्ठ. 1.271; - कुसि स्त्री., भिक्षुचीवर पर बीच बीच में की गयी आड़ी-तिरछी सिलाई - अडकुसिम्पि नाम करिस्सति, महाव. 378; अडकुसीति अन्तरन्तरा रस्सपत्तानं नाम, महाव. अट्ठ. 384; - कोस पु... [अर्धक्रोश], आधा कोस - इतो गन्वा अडकोसं तत्थ नेसं अगारक, जा. अट्ठ. 6.97; - कोसकाहार त्रि., भोजनपात्र में से आधा आहार ग्रहण करने वाला- सावका कोसकाहारापि अड्डकोसकाहारापि बेळुवाहारापि अड्डबेळुवाहारापि, म. नि. 2.209; - क्खि नपुं.. [अर्द्धाक्षि], आधी खुली तथा आधी बन्द आंख - अपलोकत्वाति सिनेहरसविफारसंसूचकेन अवक्खिना आबन्धन्ती विय ओलोकत्वा, उदा. अट्ठ. 138; सत्थारं अवक्खिकेन ओलोकेसि, ध. प. अट्ठ. 2.338; -
खादित त्रि., आधा खाया हुआ, अर्द्धभक्षित - येहि अड्डखादितानि, तेसं वमनविरेचनं दत्वा .... जा. अट्ठ 3.173; - गाथा स्त्री.. [अर्द्धगाथा], आधी गाथा - इमं अड्डगाथं वत्वा सो पच्चेकबुद्धो आह, सु. नि. अट्ठ.1.58; - गावुत नपुं.. [अर्द्धगव्यूति], आधे गावुत की लम्बाई (एक चौथाई योजन अस्सी उसभों के बराबर माप वाला माना जाता है) - सो अवगावुतमत्तं गतकाले निवत्तित्वा .... जा. अट्ठ. 6.68; - चन्द नपुं.. [अर्द्धचन्द्र], एक प्रकार के पादपविशेष का नाम - अडचन्दं मया दिन्न, धरणीरुहपादपे, अप. 1.245; - चन्दक पु.. [अर्द्धचन्द्रक], आधे चन्द्रमा की लघु आकृति - मालाकम्मलताकम्ममकरदन्तकगोमुत्तक अड्डचन्दकादिभेद वा विकाररूपं न वट्टति, पारा. अट्ठ. 1.233; - चन्दिय पु.. एक थेर का नाम - इत्थं सुदं आयस्मा अड्ढचन्दियो थेरो इमा गाथायो अभासित्थाति, अप. 1.245; - चूळ नपुं.. अर्थ अनिश्चित, कुछ के अनुसार साढ़े तेरह (अड्डचुद्दस), कुछ के अनुसार साढ़े तीन (अड्ढचतुत्थ), अन्यों के अनुसार असम्पूर्ण अर्द्धभाग (अड्डचूळ) - वाहसतानं खो, महाराज, वीहीनं अड्डचूळञ्च वाहा वीहिसत्तम्बणानि ..., अ. नि. अट्ट, 1.47; मि. प. 112; अडचूळन्ति थोकेन ऊनं उपड्ड कस्स पन उपङ्घन्ति? अधिकारतो वाहस्साति विज्ञायति, अडचुद्दसन्ति केचि, अडचतुत्थान्ति अपरे, साधिक दियडसतं वाहाति दळुहं कत्वा वदन्ति, वीमंसितब्बं, अ. नि. टी. 1.90; - चेळक पु., व्य. सं., एक स्थविर का नाम - इत्थं सुदं आयस्मा अड्वचेळको थेरो इमा गाथायो अभासित्थाति, अप. 1.134; - छक्क त्रि., [अर्धषष्ठ], साढ़े पांच - अड्डछक्केसु जातकसतेसु .... ध. स. अट्ठ. 33; - ज्झामक त्रि., आधा भुना हुआ, अर्धदग्ध - थोकेनम्हि झामो, अवज्झामकोव मुत्तोति, जा. अट्ट, 1.387; - दुपाद त्रि., [अर्धाष्टपाद]. आठ पादों से आधे अर्थात् चार पैरोंवाला, चतुष्पद, चौपाया - अट्ठवपदो चतुप्पदस्स, मेण्डो अट्ठनखो अदिस्समानो, जा. अट्ठ. 6.182; - ठुमक त्रि., साढ़े सात - अडट्ठमकधातुयो अरूपपरिग्गहोति रूपारूपपरिग्गहोव कथितो, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.74; - द्वरतन त्रि., ब. स., साढ़े सात रतनों की ऊंचाई वाला - सत्तरतनं वा ... नागं अट्ठमरतनं वा, स. नि. 1(2).196; हत्थिनागो सत्तरतनो वा अड्डद्वरतनो वा, अ. नि. 3(2).171; - तिय त्रि., [अर्द्धतृतीय], ढाई - ततियोडतियो तथा, अभि. प. 477; अड्डेन ततियो अड्डतियो, मो. व्या. 3.105; क. व्या. 389; एवं अवतियेसु मासेसु वीतिवत्तेसु अत्तनो सन्तिके ठिते परिचारिके पुच्छि,
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वि. व. अट्ठ. 52; तेय्य त्रि. [ अर्द्धतृतीय], ढाई अड्ढतेय्यो दियड्ढडो तु दिवड्डो दुतियो भवे, अभि. प. 478; राजगहे पटिवसति महतिया परिब्बाजकपरिसाय सद्धिं अड्ढतेय्येहि परिब्बाजकसतेहि, महाव. 45; सो तं देवनगरं आनेत्या अनुय्यानं नाटिकाकोटीन जेहिकं कत्वा यावतायुकं ठत्वा यथाकम्मं गतो, जा. अट्ठ. 1.203; - अड्ढतेय्यकोटिसङ्घानं परिचारिकानं मज्झे एक अलम्बुसं नाम अच्छरं ठपेत्वा .... जा. अड. 5.146; अङ्गुतेय्यसते मनुस्से वधित्वा खादिसु जा. अड. 2.106 परिजनकम्मकारेहि सह कम्मन्तं ओसटपरिसा अङ्गुते व्यसहस्सा अहोसि सु. नि. अड्ड. 1.110 तेरस / वेळस [अर्धत्रयोदश] साढ़े बारह महता भिक्खुसङ्खेन सद्धिं अङ्कतेलसेहि भिक्खुसतेहि दी. नि. 1.42; स. नि. 1 ( 1 ).222; महाव. 296; दण्डक पु., [ अर्धदण्डक], छोटे आकार का डण्डा या छड़ी अङ्गुदण्डकेहिपि ताळेन्ति म. नि. 1.121 हत्थेन वा पादेन वा कसाय वा वेतेन वा अङ्कदण्डकेन वा छेज्जाय वा हनेय्यु पारा. 53: दुस्ख नपुं. [ अर्धदुष्य] आधा वस्त्र, वस्त्रखण्ड
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अनुदुस्सस्सिदं फलं, अप. 2.76 नवम त्रि. [अर्धनवम] साढ़े आठ एवं हि अङ्कनवमराहस्सानि जुतिधरो कारयित्वाभिसमयं म. वं..15.201 नाळिकमत्त त्रि., [अर्धनालिकामात्र ], केवल आधी नालिका की माप या तौल वाला भद्दे अनालिकतण्डुले गहेत्वा ततो मरहं यागुञ्च पूवञ्च भत्तञ्च पचाही ति, जा० अ० 6.194; नाळिमत्त त्रि, उपरिवत् अहञ्हि अड्डनाळिमत्तं वरकचोरकं कुण्ठकुदालञ्च निस्साय छ वारे पब्बजित्वा, ध. प. अ. 1.176: - पक्कफल त्रि. ब. स. [ अर्द्धपक्वफल ], आधे पके फलों से युक्त तस्मिं अम्बदने अम्बरुक्खा पक्कफला च अड्डपकफला व तरुणफला च फुल्लितायेवाति अत्थो, जा. अड. 5.162: पल्लङ्क पु. [ अर्थपर्यङ्क] अर्धपर्यङ्कासन अनुजानामि, भिक्खवे, भिक्खुनिया अड्डपल्लङ्क न्ति चूळव 446; अड्डपल्लङ्कमाभुज्ज, निसीदि परमासने, अप. 2.209;पोरिस त्रि०, ब० स० [अर्धपौरुष], आधा पोरसा की ऊंचाई वाला - होति खो सो, आवुसो, समयो यं महासमुद्दे अड्डपोरिसम्प उदकं सण्ठाति म. नि. 1.248; बेलुव नपुं. [अर्धविल्व], बेल का आधा फल तावन्तो गण्ड जायेथ, अद्धवेलुवसादिसा. जा. अट्ठ. 5.67 बेलुवपक्क नपुं.. [अर्धविल्वपक्व], पके बेल का आधा फल अथस्स तावदेव उदकविन्दुगणनाय अङ्कबेलुवपकप्यमाणा गण्डा उद्द्वहिंसु जा. अड. 5.70 बेलुवाहार त्रि. ब. स. आधे बेल फल का
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आहार ग्रहण करने वाला सन्ति खो पन में, उदायि सावका कोसकाहारापि अङ्ककोराकाहारापि बेलुवाहारापि अड्डुबेलुवाहारापि म. नि. 2.209 भाग पु.. [ अर्द्धमाग]. आधा हिस्सा, आधा भाग, अर्द्धभाग - भागड्डभागं दत्वान, मोदामि नन्दने बने वि. व. 113 भागभागन्ति अत्तना लद्वपटिवीसतो उपड्डूभागं, वि. व. अट्ठ 48; - भुत्तत्रि [अर्धमुक्त] आधा खाया हुआ, अर्धभक्षित, वह जिसने या जिसमें से आधा ही भोजन किया गया है अनुभुत भोजनपाति आदाय सत्धु सन्तिकं गन्त्वा... घ. प. अड्ड. 2.339 मण्डल नपुं. [ अर्द्धमण्डल], छोटा मण्डल, आधा मण्डल - अड्डूमण्डलम्पि नाम करिस्सति, महाव. 378; अड्डमण्डलन्ति खुद्दकमण्डलं, महाव. अट्ठ. 384 - टि. पांच खण्डों वाले चीवर के प्रत्येक खण्ड को पुनः दो भागों में विभक्त किया जाता है, छोटे टुकड़े को अनुमण्डल या खुद्दक मण्डल कहते हैं और दूसरे वस्त्रखण्ड को मण्डल कहते है, द्रष्ट, तदे मत / अद्धमत त्रि. [ अर्धमृत]. आधा मरा हुआ, मृतप्राय, मरणासन्न आमतो होतीति अद्धमतो मरितु आरद्धो होति दी. नि. अनु. 2.361; मान नपुं॰ [अर्द्धमान], आधा मान, प्राचीन काल की एक माप, माप की एक इकाई - तस्मा हरामि भुसे अनुमान, मा मे मित्ति जीवित्थ सरसतायन्ति जा. अ. 1.446; गानन्ति हि अहन्नं नाळीनं नाम, चतुन्ने अनुमान जा. अड. 1.447 - मास' पु०, [अर्धमास], आधा महीना, एक पक्ष एक मासं
अड्ढमासं ... तिद्रुतु, भिक्खवे, अड्ढमासो, दी. नि. 2.236; म. नि. 1.92: इच्छामहं भिक्खवे, अनुमास पटिसल्लीयितुं स. नि. 3(2).390; - मासमत्त नपुं, केवल एक पखवारामात्र, आधा महीना सो पुन अड्ढमासमत्तं अतिक्कमित्वा राजानं दब्बिया पहरित्वा... जा० अट्ठ. 3.190; - मासन्तरिक त्रि.. [ अर्धमासान्तरिक ] आधे महीने के अन्तराल वाला - अद्धमासिकन्ति अद्धमासन्तरिक, म. नि. अड्ड (यू.प.) 1 ( 1 ) . 357 ; - मासिक' त्रि. [ अर्धमासिक], एक पखवारे वाला, आधे महीने से सम्बद्ध इति एवरूपं अद्धमासिकम्पि परियायभत्तभोजनानुयोगमनुयुत्तों विहरामि म. नि. 1.111 दी. नि. 1.150; मासूपसम्पन्न त्रि. [ अर्धमासोपसम्पन्न], एक पखवारे अथवा आधा महीना पूर्व उपसम्पदा प्राप्त करने वाला - अचिरूपसम्पन्ने जोतिपाले माणवे अड्ढमासुपसम्पन्ने, म. नि. 2.250 मास पु.. [ अर्धभाषा] आधा मासा, माष नामक मुद्रा-विशेष का आधा अलद्वपुब्बं लद्धान, अड्डमासं कण्टको, जा० अट्ट 6.175; अयं किं अग्घति,
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अडमासकोपिस्सा मूलं न होती ति भूमियं खिपित्वा जा.. अह. 1.119; इति तव अड्डमासको मम अनुमासकोति मासकोव होति, जा. अट्ठ. 3.394; त्वं अम्हाकं सतसहस्सग्घनिकं सुवण्णपातिं अड्ढमासग्घनिकम्पि न अकासि जा. अट्ठ. 1.119; मासिक' त्रि [अर्धमासिक ] आधे मासे की तौल वाला, रू. सि. 360; द्रष्ट. मो० व्या. 4.41; मुण्डक त्रि.. [ अर्धमुण्डक], दासता अथवा पराधीनतासूचक चिह्न के रूप में आधे मुड़े हुये सिर वाला, आधा मुड़ा हुआ - सत्त सतानि पुरिसे कारेत्वा अडमुण्डके, म. वं. 6.42:- योजन नपुं., [अर्द्धयोजन] आधे योजन की दूरी, आधा योजन आरक्खं वड्ढेत्वा सब्बदिसासु अड्ढयोजने अड्ढयोजने ठपेसि, जा. अ. 1.69: सकट तकेसि योजन तक्केसि अद्वयोजनं तक्केसीति, ध. स. अट्ठ 187, तत्थ गावुतप्यमाणा एका अनुयोजनप्यमाणा जा. अड्ड. 1.64 सेसजन आदाय गच्चा अनुयोजनमते ठाने ठत्वा आगताम्हाति सासनं पहिणि ध. प. अड. 1.220 योजनिक त्रि.. [अर्द्धयोजनिक ], अर्द्धयोजन विस्तार वाला - तेसु सङ्को गावुतिको, एलो अड्ढयोजनिको, उप्पलो तिगावुतिको पुण्डरीको योजनिको, दी. नि. अड्ड. 1.229 - रतनिक त्रि.. [अर्द्धरत्निक] आधा रत्न माप वाला अतिसम्बाधे चह्नमे वित्थारतो रतनिके वा अङ्करतनिके वा चङ्कमन्तस्स ... जा. अ. 1.10 रत पु.. [ अर्धरात्र]. आधी रात, अर्द्धनिशा, महानिशा निसीथो मज्झिमा रत्ति अड्ढरत्तो महानिसा, अभि. प. 70. एतेनुपायेन बद्धं बद्धं विज्झापेन्तस्सेवस्स अङ्करतो जातो, जा. अनु. 4.260 न त्वं राध विजानासि अङ्गरते अनागते, जा. अट्ठ 1.473 - स्त्तसमय पु०, [अर्द्धरात्रसमय], आधी रात का समय यो वा तदहुपोसथे पन्नरसे विद्वे विगतबलाहके देवे अभिदो अङ्करत्तसमयं म. नि. 2.235 सिद्धत्थकुमारो अज्ज अडरतसमये महाभिनिक्खमन निक्खमिस्सति जा. अनु. 1.70 रत्ति स्त्री. [ अर्धरात्रि ]. आधी रात समये आधी रात में अथेकदिवस कतञ्जताय चोदियमानो अनुरत्तिसमये एकमन्तं अद्वासि, वि. व. अ. 214 लाबुसम त्रि. [ अर्धलाबुसम]. आधी लौकी या कद्दू के समान पयोधरा अपतिता, अड्ढलाबुसमा थना, जा. अड. 5.150 विवट त्रि.. [ अर्धविवृत] आधा खुला हुआ सा द्वारं अड्ढविवटं कत्वा, जा० अट्ठ. 5.283; - सार त्रि. ब. स. [ अर्धसार] वह सिक्का, जो आधे मूल्य का हो
अयं छेको, अयं कूटो, अयं अद्धसारो ति इमं पन विभागं न जानाति, विसुद्धि. 2.64 - सोळस त्रि., [अर्धषोडश ],
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अड्डुसुत्त
साढ़े पन्द्रह ततो अडतेलसानं भिक्खुसतानं पटियत्तं अङ्कुसोळसन्नं पापुणिरसतीति सु. नि. अ. 2.152: द्वाहकमत्त त्रि. [अर्धाढकमात्र ]. केवल आधे आढक की माप वाला अड्डाहकमतं वीहिं लभित्वा कोट्टेत्या एक तण्डुलनाळिं गहेत्वा भूमिय निक्खणित्वा ठपेसि ध ू प. अट्ठ. 2.212; ड्डाळहकोदन नपुं०, [अर्धाढकोदन] आधे आढक माप वाला (चावल या भात) उक्कट्ठो नाम पत्तो अड्डाळ्हकोदनं गण्हाति चतुभागं खादनं तदुषियं व्यञ्जनं पारा 365.
अढता हि
अद्भुता स्त्री भाव [आयता ]. समृद्धता अनन्ता मे परलोके भविस्सति, सद्धम्मो 316. अड्डदुक / अङ्कुरुक पु. नपुं. व्यु, अनिश्चित, उदर पर केशों की कुछ कतारों को कतरने के बाद छोड़े गये केश - न अड्डदुकं कारापेतव्यं, चूळव. 256: अङ्खदुकन्ति उदरे लोमराजिठपनं, चूळव. अट्ठ. 54. अड्डमासकराजा पु०, गङ्गमाल जातक के नायक एक राजा का नाम सो अड्डमासकराजा नाम अहोसि जा. अह.
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3.396.
अनुयोग पु. [ अर्धयोग]. शा. अ. आधा अधूरा निर्माण, ला. अ. केवल एक ओर से ही छाया गया भवन, विहार का एक प्रकार, गरुड़ के वक्र पंखों की आकृति के अनुकरण पर वक्राकृति में बना भवन, भिक्षुओं का ऐसा आवासीय भवन जिसकी छत एक ओर ढाल वाली हो, और जिसके दोनों ओर भित्तियां न हों सुपण्णवसदनमयोगो, अभि. प. 209, एकपस्से येव छदनतो अड्डेव योगो अड्डयोगो, गरुलस्स पक्खेन सदिसछदनगेहं अभि. प. सूची अतिरेकलाभो विहारो अनुयोगो पासादो हम्मियं गुहा महाव. 66: अनुयोगोति सुपण्णवङ्कगेह, चूळव. अड. 58.
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अड्डवग्ग पु. पाँच जातकों वाले पञ्चक निपात के अन्तिम वर्ग का शीर्षक, जा. अट्ठ. 3.184-199. अनुवाद पु. अपने धनी होने के विषय में बढ़-चढ़कर डींग हांकना दलिदोव अयमायस्मा समानो अनुवाद वदेति, अ. नि. 3 ( 2 ) . 37; अड्डवादं वदेय्याति अड्ढोहमस्मीति वादं वदेय्य, 31. f. 31. 3.298.
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अद्धसमवृत्त त्रि. [ अर्धसमवृत्त], छन्दों के ऐसे उपवर्ग का नाम जिनमें गाथा का प्रथम एवं तृतीय पाद तथा द्वितीय एवं चतुर्थ पाद सममात्रिक होते है, वुत्तो. 106 116. अड्ढसुत्त नपुं., स. नि. के दो सुत्तों का शीर्षक, स. नि. 3.465-466, पाठा. महद्धनसुत्त
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अड्डड्ड
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अण्ड
अड्डड्ड त्रि., [अर्धचतुर्थ], साढ़े तीन - चतुत्थोड्डेन अड्डड्डो, अभि. प. 477; अड्वेन चतुत्थो अवतो, क. व्या. 389; अडवानि इत्थिसहस्सानि परिचारिका दिजकञआयो, जा. अट्ठ. 5.412. अड्डम्मत्त त्रि., [अर्धोन्मत्त], आधा पागल, अर्धविक्षित - अङ्गम्मत्तो उदीरेसि, यो सेय्या मासित्थियो, जा. अट्ठ. 5.361; अडम्मत्तोति अङ्कम्मत्तको मञ्ज हुत्वा, जा. अट्ठ.5.362. अड्डल्लिखित त्रि., [अर्थोल्लिखित]. आधे अधूरे रूप में अलंकृत या विन्यस्त - सा उदकबिन्दूहि पग्घरन्तेहेव अडल्लिखितेहि केसेहि वेगेन गन्त्वा , ध. प. अट्ठ. 1.67; उदा. अट्ठ. 136%; पाठा. उपड्डल्लिखित. अड्डेकादस त्रि., [अर्धेकादश], साढ़े दस - अट्ठारससु धातूसु अड्डेकादसधातुयो रूपपरिग्गहो, अड्डट्ठमकधातुयो, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.74. अड्डोचितक त्रि., [अर्धविचितक]. वह, जिसमें से आधे पुष्प चुने गये हैं - तस्स तं दिवसं मालाकारा अड्वोचितके पुष्फगच्छे दत्वा अगमंसु, जा. अट्ठ. 1.127. अणति ।अण का वर्तः, प्र. पु., ए. व., (केवल ब्राह्मण शब्द के निर्वचन के सन्दर्भ में प्रयुक्त) स्वाध्याय करता है - ब्रह्म अणतीति ब्राह्मणो, मन्ते सज्झायतीति अत्थो, इदमेव हि जातिब्राह्मणानं निरुत्तिवचनं, दी. नि. अट्ट, 1.197; म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).117. अणिम स्त्री., [अणिमन्], सूक्ष्मता, अणुता, अणु जैसा छोटा, योगी की आठ सिद्धियों में से एक ऐसी दैवी-शक्ति-जिसके बल से मनुष्य 'अणु' जैसा छोटा बन सकता है; द्रष्ट. अण्वादित्विनो मो. व्या. 4.62; - लघिमादिक त्रि., अणिमा एवं लघिमादि दैवी शक्तियों वाला, लघिमादि दैवी शक्तियों से सम्पन्न व्यक्ति - अणिमालघिमादिकं वा लोकियसम्मतं सब्बाकारपरिपूरं अस्थि खु. पा. अट्ठ. 88; विसुद्धि. 1.203. अणु त्रि., [अणु]. 1. सूक्ष्म, लघु, नन्हा, परमाणु से सम्बद्ध - परित्तं सुखुमं खुद थोकं अप्पं किसं तनु चुल्लं मत्तेत्थियं लेसं लवाणु हि कणो पुमे, अभि. प. 704-705; अणुं वा थूलं वा, यं तुम्हे नाधिवासेय्याथा ति, म. नि. 1.182; मि. प. 252; 2. पु., नपुं.. क. मापने की एक इकाई, छत्तीस परमाणुओं के बराबर की माप वाली एक इकाई - छत्तिस परमाणूनमेको'णु, अभि. प. 194; एतेसु पन छत्तिस परमाणवो एकस्स अणुनो पमाण, विभ. अट्ठ. 325; ख. वैशेषिक-दर्शन में मान्य एक पदार्थ-विशेष - तिथियान अणुपकतिपुरिसादिकस्स वा पापनापि अविज्जमान
पत्तियेव, पु. प. अट्ठ. 26; - क त्रि., [अणुक], अत्यन्त सूक्ष्म आकार वाला, सूक्ष्मतम, सूक्ष्मातिसूक्ष्म - दीघा वा ये व महन्ता, मज्झिमा रस्सका अणुकथूला, सु. नि. 1463B अणुकं वा महन्तं वा, तं सब्बं पूरितं मया, अप. पृ. 2.201; - धम्म पु., निन्दित धार्मिक आचरण, तुच्छ एवं गर्हित धार्मिक प्रक्रिया, जुगुप्सित आचरण - एवमेसो अणुधम्मो, पोराणो वि गरहितो, सु. नि. 315; एवमेसो अणधम्मोति एवं एसो लामकधम्मो हीनधम्मो अधम्मोति वुत्तं होति, सु. नि. अट्ठ. 2.53; - परिमितकाय त्रि., [अणुपरिमितकाय], अणु के समान अत्यन्त सूक्ष्म शरीर वाला - यथा वा पन, महाराज, आतुरो किसो अणुपरिमितकायो सालककिमि हत्थिनागं ... दिस्वा गिलितुं परिकड्ढय्य, मि. प. 286; - प्पमाण त्रि., ब. स. [अणुप्रमाण], अत्यन्त सूक्ष्म आकार वाला - बुद्धानं पन अणुप्पमाणम्पि सङ्घारगतं आणेन अदिट्ठ .... नत्थि, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).57; - बीज त्रि., ब. स., अत्यन्त सूक्ष्म बीजों से युक्त - इमे खो ते, भिक्खवे, महारुक्खा अणुबीजा महाकाया ..., स. नि. 3(1).117; - भेद पु.. [अणुभेद], अणुओं के रूप में विभाजन, अत्यन्त सूक्ष्म खण्डों में विभाजन - चुण्णितो अणुभेदेन, कोटिसतसहस्ससो, अप. 1.18; - मज्झिमा स्त्री., ब. स., क्षीण कटि वाली, पतली कमर वाली - सुजाता भुजलठ्ठीव, वेदीव तनुमज्झिमा, जा. अट्ठ. 6.287; - मत्त त्रि., ब. स. [अणुमात्र], अत्यन्त सूक्ष्म आकार वाला, अत्यन्त सूक्ष्म, सबसे कम, तनिक भी - अणुमत्तोपि पुञ्जन, अत्थो महं न विज्जति, सु. नि. 433; याव हि वनथो न छिज्जति, अणुमत्तोपि नरस्स नारिसु, ध, प. 284; अणुमत्तेसु वज्जेसु भयदस्सावी, विभ. 274; - सहगत त्रि., [अणुसहगत], अत्यन्त सूक्ष्म, सूक्ष्मातिसूक्ष्म - अणुसहगतो कामरागो पहीनो ... अणुसहगतो ब्यापादो पहीनो, कथा. 78; अणुसहगतस्स अनागामिमग्गेन, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).299. अण्ड नपुं॰ [अण्ड], 1. पक्षिबीज, अण्डा, डिम्ब - अण्डं तु पक्खिबीजेथ, अभि. प. 627; भूत्वा अण्डञ्च पोतञ्च ..., जा. अट्ठ. 3.236; सेय्यथापि, ब्राह्मण, कुक्कुटिया अण्डानि अट्ठ वा दस वा द्वादस वा, पारा. 4; 2. पु., अण्डकोष - कोसे खगादिवीजे ण्डं, अभि. प. 1092; सो गच्छन्तोपि तेव अण्डे खन्धे आरोपेत्वा गच्छति, पारा. 142; स. उ. प. में कुम्भ., चम्म., फल., मोर., वात. के अन्त. द्रष्ट.; - क 1. नपुं, पक्षियों, मधुमक्खियों आदि का अण्डा - एतेसं अण्डकानि चेव छापके च वरं वरं खादितुं वट्टती ति, जा. अट्ठ. 3.2353;
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अण्ड
100
अतक्क-गाह
अण्डकानि दिस्वा तानि सणिकं अपनेत्वा पुन अदासि, ध. मातकच्छितो अनिक्खन्तकालेयेव आभता आनीता, भताति प. अट्ठ. 1.37; 2. नपुं., वृक्ष में होनेवाली अपवृद्धि, वृक्ष पर वा पुट्ठाति अत्थो, जा. अट्ठ. 1.282; - जातक जातक उभरी हुई बंझा या गांठ - अण्डकाति यथा सदोसे रुक्खे संख्या 62 का शीर्षक, जा. अट्ठ. 1.279-284; - बुड्डि/वुद्धि अण्डकानि उट्ठहन्ति, एवं सदोसताय खुसनवम्भनादिवचनेहि स्त्री., [अण्डवृद्धि], अण्डकोषों का फूलना या बढ़ना, अण्डका जाता, ध. स. अट्ठ. 417; सदोसवणे रुक्खे वातण्डकरोग, जिसमें अण्डकोष फूल जाते हैं - अण्डवुद्धिरोगेपि निय्यासपिण्डियो, अहिच्छत्तकानि वा उहितानि अण्डकानी ति सत्थकम्मं न वट्टति, महाव. अट्ठ. 354; - सम्भव पु.. वदन्ति, फेग्गुरुक्खस्स पन कुथितस्स अण्डानि विय उहिता [अण्डसम्भव], अण्डे से उत्पत्ति या जन्म - अपण्डरो चुण्णपिण्डियो गण्ठियो वा अण्डकानी ति वेदितब्बा, ध, स. अण्डसम्भवो, सीवथिकाय निकेतचारिको, थेरगा. 599; - मू. टी. 177; - कपाल नपुं., [अण्डकपाल], अण्डे का हारक त्रि., [अण्डहारक], अण्डों की खोज में निकला हुआ खोल, अण्डविवर, अण्डे का आच्छादन - अण्डकपालानं मनुष्य, अण्डों को ढोनेवाला - सेय्यथापि, गहपति, पुरिसो तनुभावो विय बोधिसत्तभूतस्स भगवतो तिविधानुपस्सनासम्पादनेन अण्डहारको गन्त्वा उभतेहि अण्डेहि आगच्छेय्य, म. नि. 2.52. अविज्जण्डकोसस्स तनुभावो, पारा. अट्ठ. 1.102; - कोस अण्डुक नपुं, बालों से बना जूड़ा अथवा उसी तरह की कोई पु., [अण्डकोष], अण्डकोष, फोता - मुखतुण्डकेन वा गेंडुरी, नेठुआ, गेंडुआ, बालों की लट - केवल स. उ. प. अण्डकोसं पदालेत्वा सोत्थिना अभिनिभिज्जेय्य, पारा. 4; ये मे द्रष्ट, चेन., वाल. के अन्त.. खो ते, सारिपुत्त, सत्ता अण्डकोसं अभिनिभिज्ज जायन्ति, अण्डुपक नपुं.. कपड़े का बना गोलाकार घटाधार, गेंडुआ, अयं वुच्चति, सारिपुत्त, अण्डजा योनि, म. नि. 1.106; - नेठुआ, गेंडुरी - अण्डुपकं चुम्बुटकं, अभि. प. 458. च्छेद पु., बधिया बनाने के लिए पशुओं के अण्डकोषों का अण्ण' पु.. [अर्णस्], जल की बाढ़, जल-प्रवाह, जलौध - छेदन - अण्डच्छेदा निलछकाति भतिं गहेत्वा बलिवद्दानं अण्णो नीरं वनं वालं तोयमम्बू दकं च के अभि. प. 661; अण्डच्छेदका चेव, जा. अट्ठ. 4.329; - ज त्रि.. [अण्डज], मो. व्या. 499. क. चार प्रकार की योनियों में से एक योनि का नाम, अण्डे अण्ण नपुं.. [अन्न], अन्न, खाद्य, आहार, स. उ. प. में से उत्पन्न प्राणी- अण्डजा योनि, जलाबजा योनि, संसेदजा अपरण्ण, पुब्बण्ण के अन्त. द्रष्ट.. योनि, ओपपातिका योनि, म. नि. 1.106; ख. चार प्रकार की अण्णव पु., [अर्णव]. 1. शा. अ. समुद्र, सागर - अण्णवो नागयोनियों में से एक - अण्डजा नागा, जलाबुजा नागा, सागरो सिन्धु समुद्दो रतनाकरो, जलनिध्युदधी, अभि. प. संसेदजा नागा, ओपपातिका नागा - इमा खो, भिक्खवे, 659; कथंसु तरति ओघ, कथंसु तरति अण्णवं स. नि. चतस्सो नागयोनियों, स. नि. 2(1).238; ग. पु., पक्षी - 1(1).2483; 2. ला. अ. क. संसार - को सुध तरति ओघं, विहङ्गो विहगो पक्खि विहङ्गमखगाण्डजा, अभि. प. 624; कोध तरति अण्णवं सु. नि. 175; 185; ये तरन्ति अण्णवं अण्डजा मीनपक्खिसु, तदे. 1079; - मारी त्रि., [अण्डहारी], सरं महाव. 306; ख. सरोवर - किं अण्णवे कानि फलानि अपने अण्डकोष को कन्धे पर रखकर ढोनेवाला - अण्डभारि भुजे, जा. अट्ठ. 3.459; न अण्णवे सन्ति फलानि धङ्क, मंसं अह गामकूटकोति, स. नि. 1(2).235; - भारितवत्थु नपुं.. कुतो खादितुं चक्कवाके, जा. अट्ठ. 3.460. स. उ. प. में पारा. की एक कथा का शीर्षक - अण्डभारितवत्थुस्मि द्रष्ट., उदक-, खीर-., भव-., मह-., व्यसन-., इत्यादि; - गामकूटोति विनिच्छयामच्चो, पारा. अट्ठ. 2.90; - सुत्त कुच्छि स्त्री., समुद्र की तलहटी - भूरिदत्तनिवेसनं नपुं., स. नि. के एक सुत्त का शीर्षक, स. नि. अण्णवकुच्छि विय एकस अहोसि, जा. अट्ठ. 7.34; 1(2).234-235; - भूत त्रि., [अण्डभूत], क. अण्डे के छब्बण्णबुद्धरस्मियो विस्सज्जेन्तो अण्णवकुच्छि ओभासयमानो अन्तर्गत विद्यमान, चारों ओर ढका, परतन्त्र, अनुभव- युगन्धरमत्थके बालसूरियो विय आसनमज्झे निसीदि, जा. विहीन, बाह्यजगत के प्रभाव से विरहित - अविज्जागताय ।
भावज्जागताय अट्ठ.1.126. पजाय अण्डभूताय परियोनद्धाय अविज्जण्डकोसं पदालेत्वा, अण्ह पु., [अहन्], दिन, केवल, स. उ. प. में ही प्रयुक्त, पारा. 4; ख. कभी-कभी आतुर के बाद भी प्रयुक्त - आतुरो द्रष्ट. पुब्ब-., साय-, अपर. के अन्त.. हाय, गहपति, कायो अण्डभूतो परियोनद्धो, स. नि. 2(1).2; अतक्क-गाह पु., [अतर्कग्राह], बिना तर्क के ही किसी वाद अण्डभूताभता भरियाति अण्डं वुच्चति बीजं, बीजभूता या प्रतिज्ञा का ग्रहण, अतार्किक ग्रहण - अपण्णके चेव
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अतक्कावचर
101
अतलम्फस्स सपण्णके चाति द्वीसु अतक्कग्गाह-तक्कग्गाहसलातेसु ठानेसु देवा ... सुदस्सा देवा .... म. नि. 3.145; न कञ्चि सत्तं गुणदोसं बुद्धिहानि अत्थानत्थं ञत्वाति अत्थो, जा. अट्ठ. तप्पन्तीति अतप्पा, विभ. अट्ठ. 494. 1.113.
अतप्पक त्रि., [अतर्पक], वह, जिससे तृप्ति न हो, जिससे मन न अतक्कावचर त्रि.. [अतर्कावचर], शा. अ. तर्क से परे, भरे- सन्तोति निबुतो पणीतोति अतप्पको इदं द्वयं लोकुत्तरमेव सन् तर्क की पहुंच के बाहर, ला. अ. विशुद्ध ज्ञान या निर्वाण य कुतं म. नि. अठ्ठ (मूप.) 1(2).77, तुल. अटप्पिय. की अवस्था - तस्स निस्सरणं सन्तं, अतक्कावचरं धुवं, अतप्पनीय/अतप्पनेय्य त्रि., तप्पनीय का निषे. [अतर्पणीय], इतिवु. 28; अननुभूतपुब्बं परमगम्भीरं अतिदुद्दसं सण्हसुखुमं वह, जो तृप्त या संतुष्ट कराने योग्य नहीं हो, असन्तोषी - अतक्कावचरं अच्चन्तसन्तं पण्डितवेदनीयं अतिपणीतं अमतं एवं अतप्पनीयं ... को ... सुहीतं कयिरा, जा. अट्ठ. 7.54; निब्बानं. उदा. अट्ठ. 318; अधिगतो खो म्यायं धम्मो गम्भीरो अतप्पनेय्यरूपेन, हासभावसमन्विता, अप. 2.217; सोळस हि दुद्दसो दुरनुबोधो सन्तो पणीतो अतक्कावचरो निपुणो अतप्पनीयवत्थूनि नाम, जा. अट्ठ. 3.302. पण्डितवेदनीयो, दी. नि. 2.28; म. नि. 1.226.
अतप्पय/अतप्पिय त्रि., तप्पय का निषे. [अतर्प्य], अतृप्ति अतक्किक त्रि., तक्किक का निषे. [अतार्किक], कुतर्क से को उत्पन्न करने वाला, वह, जिससे कभी भी मन न भरे मुक्त, तर्क की प्रक्रिया को ग्रहण न करने वाला - - यथापि सागरो नाम, दस्सनेन अतप्पियो, तथैव तस्स सभावइसिभत्तिको सुतमन्तपदधरो अतक्किको रोगप्पत्तिकुसलो पावचनं सवणेन अतप्पियं बु. वं. 8.26; अतप्पियोति अतित्तिकरो, अमोघधुवसिद्धकम्मो भिसक्को सल्लकत्तो, मि. प. 233. अतित्तिजननो वा, बु. वं. अट्ठ. 195. अतच्छ त्रि., तच्छ का निषे॰ [अतथ्य], मिथ्या, अवास्तविक अतम्मय त्रि., तम्मय का निषे. [अतन्मय], तृष्णा से मुक्त, - इतिपेतं अभूतं, इतिपेतं अतच्छ, दी. नि. 1.3; होति अभूतं सांसारिक वस्तुओं में अनासक्त, लगाव-रहित - सो तादिसो अतच्छं अनत्थसंहितं, दी. नि. 3.100.
लोकविदू सुमेधो, सब्बेसु धम्मेसु अतम्मयो मुनी ति, अ. नि. अतण्डुल त्रि., तण्डुल का निषे०, ब. स., [अतण्डुल], 1(1).174; अतम्मयो मुनीति सब्बे तेभूमकधम्मे तण्हासङ्घाताय तण्डुल से रहित, चावल के दानों से रहित - थुसरासिंव तम्मयताय अभावेन अतम्मयो खीणासवमुनि, अ. नि. अट्ठ. अतण्डुलं, चरिया. 3.2.4.
2.129; सब्बलोके च अतम्मयो भविस्सामि. अ. नि. अतथ त्रि., तथा का निषे. [अतथा], मिथ्या, तथ्यरहित, 2(2).143; - ता स्त्री., भाव. [अतन्मयता], सांसारिक अयथार्थ- अतथं वा पन सन्तं तथत्ताय उपकप्पेस्सामी ति वस्तुओं में अनासक्त होने की अवस्था, विगततृष्णता, निस्पृहता इति वा पनस्स होति, दी. नि. 2.50; एवंमानि अस्स अतथं - पठमज्झानसमापत्तियापि खो अतम्मयता वुत्ता भगवता, समानं, म. नि. 3.41.
म. नि. 3.91; तेधातुकेसु कुसलेसु धम्मेसु अतम्मयता इच्छितब्बा, अतन्दित त्रि., तन्दित का निषे. [अतन्द्रित], अक्लान्त, महानि. 138; - तापज्जन नपुं.. लगाव-रहित चित्त की परिश्रमी, मेहनती, आलस्य से रहित - एवं विहारि आतापिं. अवस्था की प्राप्ति, वीततृष्णता की अवस्था में प्रवेश - अहोरत्तमतन्दितं, म. नि. 3.227; अप. 2.157; मातरं पितरं पच्छिमे अदिद्विआदिभेदे सुक्कपक्खिये अतम्मयतापज्जनेन पुब्बे, रतिन्दिवमतन्दितो, अ. नि. 3(1).76; अतन्दितोति अनुग्गहाय, सु. नि. अट्ठ. 2.237. अनलसो हुत्वा, जा. अट्ठ. 3.355.
अतरमान त्रि., तर के वर्त. कृ. का निषे. [अत्वरमान], अतपनीय त्रि., तपनीय का निषे., [अतपनीय], शोक या तीव्र गति से न चलता हुआ, जल्दबाजी न करता हुआ, पश्चात्ताप न करने योग्य - द्वेमे, भिक्खवे, धम्मा अतपनीया, सावधानी के साथ काम कर रहा - तेन अप्पसद्दो उपसङ्कमित्वा अ. नि. 1(1).66; इतिवु. 20; कतमे धम्मा अतपनीया? अतरमानो आळिन्दं पविसित्वा .... दी. नि. 1.78; म. नि. कायसुचरितं, वचीसुचरितं, मनोसुचरितं - इमे धम्मा 2.329; अ. नि. 3(2).54; महाव. 324; अपि अतरमानानं,
अतपनीया, सब्बेपि कुसला धम्मा अतपनीया, ध. स. 1312. फलासाव समिज्झति, जा. अट्ठ. 1.141; अतरमानानन्ति अतप्प पु., [बौ. सं. अतप], ऐसा देवलोक या ऐसे देवता, पण्डितानं ओवादे ठत्वा अतरित्वा ... कम्मं करोन्तानं, तदे.. जो शोक या दुःख का अनुभव नहीं करते हैं - अविहहि । अतलम्फस्स त्रि., [अतलस्पर्शिन], अगाध, बहुत गहरा - देवेहि सद्धि येन अतप्पा देवा तेनुपसङ्कमि, दी. नि. 2.40; अगाधं त्वतलम्पस्सं, अभि. प. 669; न हेट्ठिमतलं फुसति तस्स सुतं होति- वेहप्फला देवा ... अविहा देवा ... अतप्पा यत्र तं अतलम्फस्सं, अभि. प. 669 पर सूची.
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अतसिताय 102
अति अतसिताय त्रि., [अत्रास्य], नहीं डरने योग्य, भय न करने वुत्तं होति, पारा. अट्ठ. 1.128; दी. नि. अट्ठ. 1.184; - योग्य - इध, ... पुथुज्जनो अतसिताये ठाने तासं आपज्जति. उग्गत त्रि., [अत्युद्गत], अत्यधिक ऊपर उठा हुआ - स. नि. 2(1).52; अतसितायेति अतसितब्बे, अभायितब्बे तत्थ अच्चुग्गताति अतिउग्गता, जा. अट्ठ. 1.414, द्रष्ट. ठानम्हि, स. नि. अट्ठ. 2.244, पाठा. अत्तसिताय,
अच्चुग्गत के अन्त; - उच्चं निपा., क्रि. वि. [अत्युच्चैः]. अतसी स्त्री., [अतसी]. तीसी, अलसी - उम्मा तु अतसी अत्यधिक ऊंचाई में - सो अजेसं गिज्झानं सीमं अतिक्कमित्वा भवे, अभि. प. 452; - पुष्फवण्ण त्रि., तीसी के फूलों जैसे अतिउच्च उप्पति, जा. अट्ठ. 3.223; चतुरङ्गिनिया सेनाय वर्ण वाला - सचे काळो होतुकामो, नीलुप्पलवण्णो वा नातिउच्च नातिनीचं उच्चरुक्खानं हेट्ठाभागेन .... खु. पा. अञ्जनवण्णो वा अतसीपुप्फवण्णो वा सियन्ति पत्थेति, म. अट्ठ. 140; - उण्ह त्रि., [अत्युष्ण]. बहुत अधिक गरम - नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.53.
अतिसीतं अतिउण्हं अतिसायमिदं अहु, थेरगा. 231; दी. नि. अति निपा., विशे., क्रि. वि., क्रि. तथा ना. प. से पूर्व में 3.140, विलो. अतिसीत; - उत्तम त्रि.. [अत्युत्तम], सर्वश्रेष्ठ, प्रयुक्त उप. [अति], अत्यधिक, बहुत अधिक, अतिशय, अतिशय श्रेष्ठ - अनधिवराति अधिका विसिट्ठा अञआ एतिस्सा प्रमुख, पूज्य, अधिक श्रेष्ठ - अतीति अच्चन्तत्थे निपातो, नत्थीति अनधिवरा, अतिउत्तमाति अत्थो, वि. व. अट्ठ. 64; उदा. अट्ठ. 181; बलवं सुट्ट चातीवातिसये किमुत स्व अति, - उदक नपुं., अत्यधिक जल या वर्षा - सेसजनेहि अभि. प. 1138; अन्तोभावभुसत्थातिसयपूजास्वतिक्कमे, भूतभावे कतसस्सं अतिउदकेन वा अनोदकेन वा नस्सति, ध. प. पसंसायं दळहत्थादो सिया अति, अभि. प. 1182; - अग्गता अट्ठ. 1.33; तुल. अच्चोदक; - उदर नपुं.. उन्नत या उठा स्त्री., भाव. [अत्यग्रता], सर्वोत्तमता, सर्वश्रेष्ठता, अनुत्तरता हुआ पेट - तव उदरं पन अतिउदरं जा. अट्ठ. 4.249; - बुद्धो अतिअग्गताय अनुपमो, मि. प. 259; - अग्गि पु., द्रष्ट. अच्चोदर ऊपर, - उपरि निपा., [अत्युपरि], बहुत अत्यधिक उष्ण अग्नि - अति अग्गिना ओदनं उत्तरति, मि. अधिक ऊपर - द्वारं किर अतिउपरि अमनुस्सा ... कोटेन्ति, प. 258; - अच्छेरक त्रि., [अत्याश्चर्यकर], अध्यधिक दी. नि. अट्ठ. 1.204; - उस्सूरे निपा. क्रि. वि. [अत्युत्सूर्य], आश्चर्यजनक - इमिना वानरिन्देन अतिअच्छेरकं कतान्ति प्रातः काल देर करके या सूर्य के बहुत ऊपर उठ जाने पर चिन्तेत्वा, जा. अट्ठ. 1.269; - अञ्छितं/अच्छितुं अति + - अतिउस्सूरे लद्धभत्तताय अक्खीनि भमन्तीति, वि. व. अञ्ज/अञ्च्छ का निमि. कृ., ऊंची कीमत मांगने के अट्ठ. 51; - कड्ढय्यासि अति + कड्ड का विधि. म. पु., निमित्त या ठगने के निमित्त - अति अञ्छितुं न वट्टति, अ. ए. व. [अतिकर्षे:], आपत्ति उपस्थित करे, बहुत अधिक नि. अट्ठ. 1.189; - रसभेसज्ज नपुं., केवल समृद्ध खींचातानी करे, अत्यधिक कष्ट दे - वदेय्याम खो तं, व्यक्तियों के द्वारा ही खरीदने योग्य दवा - भद्दे इदं गहपति, सचे त्वं नातिकड्ढय्यासी 'ति, पारा. 18%; अतिरसभेसज्ज, कुतो लभिस्सामी ति वत्वा चिन्तेसि, जा. नातिकड्ढय्यासीति यं ते मयि पेमं पतिद्वितं, तं कोधवसेन न अट्ठ. 5.439; - अम्बिल त्रि., [अत्यमल], बहुत खट्टा, अतिकड्डय्यासि, सचे न कुज्झेय्यासीति वुत्तं होति, पारा. अधिक खट्टा- तस्सा अच्चुण्हअतिसीतअतिअम्बिलादिपरिभोगं अट्ठ. 1.162; - कण्ह त्रि., [अतिकृष्ण], अत्यधिक काला - वज्जेत्वा सुखेन गभं परिहरियमानाय एवरूपो दोहळो अतिदीघं, अतिरस्सं, अतिकण्हं, अच्चोदातं, एतं हीनं नाम उप्पज्जि , ध. प. अट्ठ. 1.297; - अरहन्त पु.. अर्हत् से लिङ्ग पाचि. 9; - करुण त्रि., [अतिकरुण]. अत्यधिक अत्यधिक ऊपर - अरहन्तानं अतिअरहा भवेय्या ति. मि. प. करुण या दुर्दशा से ग्रस्त - अतिकरुणं परिदेवमाना राजानं 258; - असन नपुं.. [अत्यसन], अधिक भोजन करना, अनुबन्धि, जा. अट्ठ. 6.65; - कस्स अति + ।कस का पू. अधिक खाना - अतिअसनेन अति भुत्तेनाति अत्थो, जा. का. कृ. [अतिकृष्य], अत्यधिक खींचकर, अतिकर्षण करके अट्ठ.1.184; - अहित त्रि., अत्यन्त द्वेषी, अत्यधिक अपकारी, - भेत्वान नासं अतिकस्स रज्जु नयिंसु मं सम्परिगयह लुद्दा, अत्यधिक अहित करने वाला - नाच्चाहितन्ति न अतिअहितं. जा. अट्ठ. 5.166; - काय त्रि., ब. स. [अतिकाय], भारी जा. अट्ठ 5.141, द्रष्ट., अच्चाहित; - आयत त्रि., डील डौल वाला, बहुत बड़े शरीर वाला, महाकाय - अत्यधिक चौड़ा - द्रष्ट. अच्चायत के अन्त- इट्ठ त्रि., अतिकायो महिस्सासो, अज्जुनो केककाधिपो, जा. अट्ठ. [अतीष्ट], अत्यधिक वाञ्छित, अत्यधिक अभीष्ट, अत्यधिक 5.259; - कर पु., [अतिकार], अत्यधिक करना, आवश्यकता काम्यमान - अभिक्कन्तन्ति अतिइट्ठ अतिमनापं अतिसुन्दरन्ति से कहीं बहुत अधिक काम करना - अतिकरमकराचरिय,
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अतिक्कन्त
मय्हम्पेतं न रुच्चति, जा. अट्ठ. 1.413; अतिकरमकराचरियाति आचरिय अज्ज त्वं अतिकरं अकरि अतनो करणतो अतिरेक करणं अकरीति अत्थो, तदे.; - कालेन क्रि. वि. [अतिकालं ], बहुत सवेरे, प्रातः काल, तड़के, भोरे भोरे इध, भिक्खवे, अञ्ञतित्थियपुत्रो अतिकालेन गामं पविसति अतिदिवा पटिक्कमति, महाव. 88-89; तेन खो पन समयेन आयस्मा नागदत्तो अतिकालेन गामं पविसति स. नि. 1 (1).232: अतिकालेनाति सब्बरत्तिं निद्दायित्वा बलवपच्चू से कोटिसम्मुज्जनिया थोकं सम्मज्जित्वा मुखं धोवित्वा यागुभिक्खाय पातोव पविसति स. नि. अड. 1.258 - किलमामि अति + √किलम का वर्त, उ० पु०, ए. व., अत्यन्त क्लान्त या श्रान्त होता हूं नितम्मामीति अतिकिलमामि जा० अट्ठ. 4.253; - किलिन्न त्रि, अति + कलम का भू. क. कृ. [ अतिक्लिन्न ], अत्यधिक गीला, अत्यधिक उबाला हुआ (भात या चावल)
एकदिवस थोकं जा. अड. 3.338;
किलिन्नं ... एक दिवस अतिकिलिन्नं
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किस त्रि., [अतिकृश ], अत्यधिक दुबला-पतला सेय्यथापि ... खत्तियकज्ञा नातिकिसा नातिथूला म. नि. 1.122, अतिथूल' (अतिस्थूल) का विलो.; कुद्ध त्रि. [अतिक्रुद्ध], अत्यधिक क्रोधित अच्चुग्गताति अतिकुद्धा जा. अ. 7.276: कुसल त्रि.. [अतिकुशल]. अत्यधिक दक्ष, उच्च-रूप में दक्ष तत्थ अतिसये अतिकुसलो. सद्द 3.881 कोध पु.. [ अतिक्रोध] अत्यधिक क्रोध तत्थ भुसत्थे अतिकोधो, सद्द० 3.881.
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अतिक्कन्त त्रि. अति + √कमु का भू क. कृ.. [अतिक्रान्त], 1. बीता हुआ, पार किया हुआ तीणि संवच्छरानि अतिक्कन्तानि जा. अड. 2.105: अनुमासे अतिक्कन्ते तथैव कुत्ते पुन सत्ताहं आगमेहीति आह पे. व. अह. 47. 2. अतिक्रमण कर चुका, आगे बढ़ चुका या पार कर चुका - एवं इमेपि तयो वये अतिक्कन्ता... मरणं उपगमिस्सन्ति ध. प. अट्ठ. 2.73; 3. पराभूत कर चुका, अभिभूत कर चुका - अरहा सब्बभयमतिक्कन्तोति मि. प. 147 अतिक्कन्ता भया सब्बे, थेरगा. 707 स. उ. प. में अन०, काला०, पमाण०, मासा०, यामा०, लोका०, वेला०, सत्ताहा०, हिता० के अन्त० इष्ट० रथ त्रि. ब. स. अपने हित की हानि पहुंचा चुका व्यक्ति अतीतमत्थोति अतीतत्थो अतिक्कन्तत्थो, जा. अड्ड. 5.74 मानुसक त्रि. ब. स. अतिमानवीय, लोकोत्तर, दिव्य, देवी सो दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिकान्तमानुसकेन सत्ते परसामि चवमाने ....
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पारा. 5;
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अतिक्कमति
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मानुस वा मंसचक्खुं अतिकान्तत्ता अतिकान्तमानुसकन्ति वेदितब्ब, पारा. अट्ठ. 1.122; वनथ त्रि०, ब० स०, तृष्णा पर विजय प्राप्त कर चुका व्यक्ति अतिक्कन्तवनथा धीरा, नमो तेसं महेसिन जा. अड. 6.53: तत्थ अतिकन्तवनथाति पहीनतण्हा, तदे。; वर त्रि०, ब० स०, वरदान आदि लौकिक अवस्थाओं से ऊपर उठ चुका व्यक्ति अतिकान्तवरा खो, गोतम, तथागता ति महाव. 105; - वेल त्रि०, ब० स०, सीमा का उल्लङ्घन करने वाला अतिवेलं पभासिताति अतिठान्तवेला पमाणातिक्रमेन भासिता, जा. अड. 1.414सञ्ञी त्रि., [अतिक्रान्तसंज्ञिन्], जो बीत चुका है, उसका ज्ञान रखनेवाला, जो अतिक्रान्त हो चुका है उसका बोध रखनेवाला सत्ताहातिकन्ते अतिकन्तसज्ञी निस्सग्गिय पाचित्तियं, पारा 376; - सत्थुक त्रि., वह जिसका शास्ता दिवंगत हो चुका है नयिदं अतीतसत्थुकं पावचनं खु. पा. अह 89 सील त्रि. ब. स. शील का उल्लङ्घन कर चुका व्यक्ति अच्यन्तसीलासूति अतिकान्तसीलासु जा. अट्ठ. 5.447.
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अतिक्कन्तिका स्त्री. सदाचार का अतिक्रमण करने वाली नारी, छिनार, कुलटा किं ते सच्चबलं अस्थि चोरिया हिरिअतिक्कन्तिकाय अन्धजनपलोभिकाया 'ति, मि. प.
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128.
अतिक्कम पु०, [अतिक्रम], अतिक्रमण, सीमोल्लङ्घन, निरोध, अन्त, अभिभवन, पराभवन अतिक्रमो त्वतिपातो उपच्चयो अभि. प. 776; अन्तोभावभुसत्या तिसयपूजास्वतिक्कमे अभि. प. 1182 पज्जोतकरो अतिविज्झ सब्बद्वितीन अतिकममदस स. नि. 1 ( 1 ) 224 अतिकममहसाति अतिक्रमभूतं निब्बानमइस स. नि. अड. 1.246; दुक्ख दुक्खसमुप्पाद, दुक्खस्स च अतिक्कम, ध. प. 191; स. उ. प. के रूप में अङ्गा०, लोकधम्मा, अपगमा, आकासा, आरम्मणा, उपचारा, काला, रूपनिमित्ता, वस्साना., विज्ञाणा, हिमपाता. के अन्त द्रष्ट अतिक्कमति अति + √कम का वर्त० प्र० पु०, ए. व., [ अतिक्रामति/ अतिक्रमते / अतिक्राम्यति], 1. शा. अ. आगे निकल जाता है पार कर जाता है उल्लंघन करता है. कतराकर निकल जाता है गामस्स द्वारसमीपेन मग्गेन अतिक्कमति पे. व. अड. 57; मन्दोति सो अञ्ञाणपुग्गलो मातुकुच्छियं वासं नातिक्कमति, जा. अट्ठ 3.213; - मिंसु अद्य. प्र. पु. ब. व. पञ्चमत्तानि सकटसतानि आळारं कालाम निस्साय निस्साय अतिक्कमिंसु दी. नि. 2.99 -
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अतिकमन
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क्कमुं अद्य. प्र. पु. ब. व. तिसवस्ससहस्सानि विपिने मे अतिक्कमुं, अप. 1.65; 2. ला. अ. क. अभिभूत कर लेता है, जीत लेता है, किसी अन्य से अधिक श्रेष्ठ हो जाता है; मेय्य विधि, प्र. पु. ए. व. कोघं जहे विप्यजहेय्य मानं, संयोजनं सब्बमतिक्कमेय्य, ध. प. 221; क्कम्म / म्भित्वा पू. का. कृ. अतिक्रम्म भवं समेच्च धम्मं सम्मा सो लोके परिब्बजेय्य सु. नि. 383; आचरियं निस्साय भातिकसतं अतिक्कमित्वा इदं महारज्जे पत्तोस्मीति उदानं उदानेसि, जा. अट्ट. 1.141; 2. ला. अ. ख. निर्धारित नियमों के विपरीत जाता है, पत्नी के प्रति निष्ठावान नहीं होता है, परदारा का सेवन करता है म्मन्तो वर्त. कृ.. पु. प्र. वि. ए. व. भगवतोपि महाराज, सासनवरे आणं अतिक्रमन्तो अलज्जी मि. प. 214क्कमितुं निमि. तस्सा वचनं अतिक्रमितुं असकोन्तो जा, अड
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कृ 1.419.
अतिकमन नपुं [अतिक्रमण]. सीमोल्लंघन पराभवन, अभिभवन नियमोल्लंघन तस्सातिकमनत्थाय अरूपं पटिपज्जति अभि. अब 983 कत्रि अतिक्रमण या सीमोल्लंघन करने वाला, आगे निकल जानेवाला, सीमा के पार चला जाने वाला ततो पद्वाय पण्णसज्ञ अतिकमनकमिंगो नाम नत्थि, जा. अ. 1. 156, पाठा. अतिक्कमनमिगो; चित्त नपुं०, अतिक्रमण विषयक चित्त, सीमोल्लंघनविषयक चित्त अतिकम्पनचित्तञ्च तथैवातिक्रमो पि च, सद्धम्मो . 64.
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अतिक्कामेहि अति + √ कम का प्रेर, अनु. प्र. पु. ए. व., अतिक्रमण कराओ मतं वारं अतिकामेहीति आह जा. अ. 1.155 मेय्य विधि. प्र. पु. ए. व. प्रमाण वा अतिक्रामेय्य, पारा 229; मेत्वा प्रेर० पू० का. कृ., अतिक्रमण करवा कर छोड़वा कर आयामतो वा वित्यास्तो अन्तमसो केसग्गमत्तम्पि अतिक्रामेत्वा करोति वा कारापेति
वा, पारा. 232.
अतिक्खय पु० [ अतिक्षय], अतिविनाश, क्रमिक विनाश - सच्चे ठत्वा पमोचेसिं, आतीनं तं अतिक्खयं, चरिया.
3.10.4.
अतिखणथ अति + √खन का अनु, म. पु. ब. व., बहुत गहराई तक खोदें - एत्तकेनेव सन्तुट्ठा होथ, मा अतिखणथाति, जा. अड. 2.246 खणे विधि, प्र. पु. ए. व. बहुत गहराई तक खोदे - तस्मा खणे नातिखणे, अतिखातञ्हि पापक, जा. अट्ठ. 2.247.
अतिगच्छति
अतिखण नपुं., [अतिखनन] अत्यधिक गहराई तक उत्खनन अतिखातेन नासितन्ति, अतिखणेन तञ्च धनं जीवितञ्च नासित, जा. अट्ठ. 2.247.
अतिखर त्रि.. [अतिखर] अत्यन्त तीक्ष्ण, बहुत तेज अत्यन्त तीखा यदि हि अमुत्तस्स उप्पज्जिस्सा अतिखरो अभविस्सा उदा. अट्ठ 325; अतिखरं कत्वा वादेमि मञ्ञे 'ति मज्झिममुच्छनाय मुछित्वा मज्झिमसरेन वादेसि, जा. अड्ड
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2.209.
अतिखात नपुं. [अतिखात] अत्यधिक गहराई तक खनन, गहरा गड्डा - अतिखातहि पापकं जा० अट्ठ 2.247. अतिखिण नपुं,, तिखिण का निषे [अतीक्ष्ण]. मृदु, कोमल
कोमलातिखिणे मुदु, अभि. प. 1067.
अतिखिप्यं निपा क्रि. वि. [अतिक्षिप्र ], अत्यधिक शीघ्र निकट भविष्य में, बहुत जल्द ही अतिखिप्पं सुगतो परिनिब्बाविस्सति अतिखिष्यं चक्धुं लोके अन्तरवाविस्सतीति दी. नि. 2.105.
अतिखीण त्रि.. [अतिक्षीण] अत्यधिक दुर्बल, अतिकृश, बहुत कमजोर सेन्ति चापातिखीणाव पुराणानि अनुत्थुनं
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ध. प. 156.
अतिखुद्दक त्रि. [ अतिक्षुद्रक], बहुत छोटा, अत्यधिक लघु स्वरूप अथवा महत्त्व वाला, बहुत हल्का भगवता भिक्खून अतिखुद्दकं निसीदनं अनुञ्ञातं, पाचि. 225; अतिमाहन्ति अतिखुद्दक चूळव, अड्ड. 56. अतिगच्छति अति + √गम से व्यु० क्रि० रू. (केवल अच्चगमा या अच्चगा के रूप में अद्य. में ही प्रयुक्त) 1. शा. अ. जीत लिया, लांघ कर पार कर लिया सब्बं अच्चगमा इमं पपञ्च सु. नि. 8; तिविधं पपञ्चे अच्चगमा अतिक्कन्तो, समतिक्कन्तोति अत्यो सु. नि. अड. 1.19 2. प्रायः अच्चयो मं अच्चगमा के मुहावरे के रूप का अत्यधिक प्रयोग अच्चयो में, भन्ते, अध्यगमा दी. नि. 1.75: योमं पलिपथ दुग्गं, संसारं मोहमच्चगा, ध. प. 414 - च्चगुं अद्य., प्र. पु०, ब० व. असेसं परिनिब्बन्ति, असेसे दुक्खमच्चगुं इतिवु. 67; 2. ला. अ. मर जाना, दिवङ्गत हो जाना, इस लोक का अतिक्रमण करना, कालकवलित होना तिगा अद्य. प्र. पु. ए. व.. दिवंगत हो गया नवमे हायने तिगा, म. वं. 41.3गत भू क. कृ. [ अतिगत ]. अधिक दूर चला गया हुआ, पार गया हुआ, अतिक्रमण कर चुका या जीत चुका नासक्खातिगतो पोसो, पुनदेव निवत्तितुं जा. अट्ठ. 3.427.
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अतिगतत्त
अतिगतत्त नपुं., भाव. [ अतिगतत्व], बहुत दूर चले जाने अथवा समाप्त या व्यतीत हो जाने की अवस्था तं अहं रागादीनं ... अतिगतत्ता सङ्गातिगं.... वदामीति अत्थो, ध. प. अट्ठ. 2.375. अतिगम्भीर त्रि., कर्म, स० [अतिगम्भीर ], अत्यन्त गम्भीर, बहुत अधिक गहरा महानामो सबको भगवन्तं अतिगम्भीरं पञ्हं पुच्छति, अ. नि. 1(1). 250; अत्तनो पन भिक्खुसङ्घस्स च अतिगम्भीरवित्थतं संसारमहण्णवं तरित्वा ... उदा. अ.
343.
अतिगरु त्रि. [ अतिगुरु ] अत्यधिक सम्माननीय, परमपूज्य - अतिगरुनो सम्मासम्बुद्धस्स सन्तिकं उद्धतवेसेन गन्तुं न युत्तं, म. नि. अट्ठ. (उप. प.) 3.250-251. अतिगाळ्हयति अति + √गाह का वर्त० प्र० पु०, ए. व., धीरेधीरे नष्ट कराता है, विध्वंस कराता है - न्ति ब. व. वेदेहि वित्तं अतिगाळ्हयन्ति, जा. अट्ठ. 7.57; अतिगाळ्हयन्तीति
वेदेहि तस्स सन्तकं वित्तं अतिगायन्ति विनासेन्ति, विद्धसेन्ति, जा. अट्ठ. 7.59. अतिगाह त्रि. अति + √गाह का भू. क. कृ. [अतिगाढ़]. अत्यधिक प्रगाढ़ बहुत अधिक तीव्र बहुत गहरा, मर्मछेदक अयं कप्पना अतिगाढहा, जा. अड. 1.72; अगाळलेनाति अतिगाढ हेन मम्मच्छेदकेन थद्धवचनेन पु. प.
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अट्ठ. 63.
अतिगाहित त्रि, अतिगाळह से व्यु, अत्यधिक पीड़ित, कठोरतापूर्वक दबोच दिया गया ते भतुरत्या अतिगाहिता पुन, दिसा पनस्सन्ति अलद्ध किञ्चनं जा, अड्ड, 5.397; अतिगाहिताति विद्धस्तसेनवाहना हुत्वा तदे.. अतिगुणकारक त्रि. [अतिगुणकारक ]. अत्यधिक हितकारक, अपरिमेय कल्याण करने वाला माता नाम अतिगुणकारिका
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जा. अट्ठ. 5.322.
अतिगुणता स्त्री. भाव [अतिगुणता], असाधारण गुणसम्पन्नता मणि अतिगुणताय कामददो, मि. प. 258. अतिघंसति अति + उस का वर्त, प्र. पु. ए. व. अत्यधिक रगड़ता है, घिसता है, अतिक्रमण करता है बुद्धआणं देवमनुस्सानं पञ्ञ फरित्वा अतिघंसित्वा तिष्ठति, पटि० म० 369.
अतिचण्ड त्रि. [अतिचण्ड ], अत्यधिक खूंखार, अत्यधिक भयानक सो पन अतिचण्डो येव, ध. प. अट्ठ. 2.289. अतिचरण नपुं., [अतिचरण], नियम विपरीत आचरण, नियम का उल्लंघन, नियम का अतिक्रमण सकारे वह्नितेपि पुन
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अतिचित्र
अतिचरणं विय पित्तादीसु एकस्स भेसज्जे करियमाने सेसानं प्रकोपवसेन पुन साबाधता. म. नि. अड. (उप.प.) 3.8. अतिचरति अति + √चर का वर्त., प्र. पु. ए. व. [ अतिचरति ],
शा. अ. सीमा के उस पार चला जाता है, अत्यधिक चारा चरता है; ला. अ. नियमों का उल्लंघन करता है, विशेषरूप से स्त्री-संसर्ग के क्षेत्र में निर्धारित सीमाओं का अतिक्रमण करता है, व्यभिचार करता है - बाराणसिरज्ञो अग्गमहेसिया सद्धि अतिचरति जा. अड. 3.265 इतिपरतनं राजानं चक्रवत्तिं मनसापि नो अतिचरति, कुतो पन कायेन, म. नि. 3.213-14: सि वर्त. म. पु. ए. व. नेतं छन्नं पतिरूपं यं त्वं अतिचरसि मं, पे. व. 361; - रामि उ० पु०, ए. व. नाह तं अतिचरामि, कायेन उद चेतसा, पे. व. 362; - न्ति प्र. पु. ब. व. रविखता अतिचरन्ति सामिकं जा. अड्ड 5.450; - मानाय स्त्री०, वर्त. कृ., च. वि., ए. व. सो मं अतिचरमानाय सामिको एतदब्रवि, पे. व. 361; - रे विधि., प्र. पु. ए. व. कं वापि इत्थी नातिचरे तदअन्ति, जा. अड. 5.441 रितुं निमि कृ. तस्स पन गतदिवसतो पद्वाय ब्राह्मणी अतिचरितुं आरद्धा जा. अड्ड 1473; रित्वा पू. का. कृ. - पुरिसा हि परस्स दारेसु अतिचरित्वा कालं करवा.... इतियभावं आपज्जन्ति ध. प. अट्ट. 1.186
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रिता पु. क. ना. प्र. वि. ए. व. [ अतिचरितृ]. व्यभिचारी, व्यभिचारिणी - नाभिजानामि नकुलपितरं गहपतानिं मनसापि अतिचरिता, कुतो पन कार्यन अ. नि. 1 ( 2 ) 71 नाभिजानामि सामिकं मनसापि अतिचरिता, अ. नि. 2(2).209.
अतिचारी पु.. [अतिचारी] व्यभिचारी, दुष्कर्म करने वाला, निर्धारित मर्यादा का अतिक्रमण करने वाला - अतिचारी च दुस्सीलो अप्पस्सुतो च कुसीतो स. नि. 2 (2). 238: रिनी स्त्री. व्यभिचारिणी स्त्री जारी चेवातिचारिणी, अभि. प. 238; सा आनीतदिवसतो पट्ठाय अतिचारिनी अहोसि, घ. ए. अड्ड. 2.202 तस्साहं भरिया आसिं, दुस्सीला अतिचारिनी, पे. व. 360.
अतिचिण्ण त्रि. भू. क. कृ. [अतिचीर्ण] अतिक्रान्त, उल्लंघित, मर्यादाओं के बाहर जाकर दुराचार के रूप में किया गया अतिथिष्णो मया धम्मो, तं मे अक्खाहि पुच्छितोति, जा. अट्ठ. 5.256.
अतिचित्र [अतिचित्र ] अत्यन्त असाधारण प्रकृति वाला, चित्र-विचित्र अतिचित्रानि पञ्हपटिभानानि विसज्जितानीति मि. प. 25.
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106
अतिण्ण
अतिचिरं अतिचिरं निपा. क्रि. वि. [अतिचिरं], बहुत देरी करके, अधिक विलम्ब करके - अतिचिरं सम्म, सत्तमासा, चूळव.
318.
अतिचिरनिवास पु., बहुत अधिक अवधि वाला निवास, लम्बे समय तक एक साथ रहना - तस्स ते अतिचिरनिवासेन सा सति पमुट्ठा, म. नि. 1.412; पाठा. अतिचिरनिवास. अतिचिरायति अतिचिरं से व्यु.. ना. धा.. वर्त, प्र. पु.. ए.. व. [अतिचिरायति], अत्यधिक विलम्ब करता है, अतिशय देरी करता है - अतिचिरायति मे पियसामिको, जा. अट्ठ. 4.414; - यन्ते पु., वर्त. कृ., सप्त. वि., ए. व. - तस्मिं अतिचिरायन्ते सरं विचिनापेत्वा दीपालोकेन परिसम्भन्तरानिपि ओलोकेत्वा अदिस्वा गतो भविस्सतीति पक्कामि, ध. प. अट्ठ. 1.202. अतिच्च निपा. अति + Vइ का पू. का. कृ. [अतीत्य]. 1. पार करके, सीमा का अतिक्रमण करके, विजय प्राप्त करके, आरूढ़ होकर - संसारमतिच्च ... केवली, सो, सु. नि. अट्ठ. 2.137; तं सङ्गमतिच्च अरूपसञी, चतुयोगातिगतो न जातु मेती ति, उदा. 153; 2. और भी आगे जाकर, और भी अधिक - यो चेपि अतिच्च जीवति, अथ खो सो जरसापि मिय्यति, सु. नि. 810; कत्वा पापं पुन पटिच्छादनतो अतिच्च आसरन्ति एताय सत्ताति अच्चासरा, विभ. अट्ठ 465. अतिच्छता/अत्रिच्छता अति + इच्छा का भाव., स्त्री. [अतीच्छता, अत्यधिक इच्छापरायणता, प्रबल आसक्तिमयी मनोवृत्ति - इतरीतरचीवरपिण्डपातसेना-सनगिलानप्पच्चयभेसज्जपरिक्खारेहि पञ्चहि वा कामगुणेहि असन्तुस्स भिय्योकम्यता ... अयं वुच्चति अत्रिच्छता, विभ. 401-2; अत्तनो लाभं अतिच्च इच्छनभावो अतिच्छता, विभ. अट्ठ. 444. अतिच्छत्त नपुं.. [अतिच्छत्र], विशिष्ट रङ्गरूप अथवा अतिरिक्त प्रमाण वाला छाता, विशेष प्रकार का छत्र - बहूसु छत्तेसु चेव धजेसु च यं अतिरेकप्पमाणं विसेसवण्णसण्ठानञ्च छत्तं तं अतिच्छत्तन्ति वुच्चति, ध. स. अट्ठ. 4; स. उ. प. में द्रष्ट. छत्तातिच्छत्त के अन्त.. अतिच्छा स्त्री., तिच्छा का निषे. अथवा अति + इच्छा = [अतीच्छा, अतृप्स्या, अतृप्त्या], अत्यधिक तृष्णा, दृढ़ आसक्ति और अधिक पाने की लालसा, असन्तुष्टि - अथ त्वं यथालद्धेन असन्तट्ठो, अत्र उत्तरितरं लभिस्सामी ति एवं लद्धं लद्ध अतिक्कमनलोभसङ्घाताय अतिच्छाय समन्नागतत्ता अतिच्छो
जा. अट्ठ. 4.5
अतिच्छापेहि अतिच्छति का प्रेर., अनु., म. पु., ए. व., आगे कदम बढ़ाने अथवा आगे बढ़ने को उत्प्रेरित करो - वन्दित्वा अतिच्छापेही ति, जा. अट्ठ. 3.407. अतिछात त्रि., बहुत अधिक भूखा - अतिछातोस्मीति कम्म
न करोति, दी. नि. 3.139. अतिछेक त्रि., [अतिछेक], अधिक निपुण, अतीव प्रवीण, अतीव दक्ष, अतिशय चतुर - यथा हि अतिछेको मधुकरो असुकस्मिं रुक्खे पुष्फ पुष्फितन्ति ञत्वा..., विसुद्धि 1.132; तेसे तेसु वादेसु च अतिछेको, सा. वं. 28. अतिजगती स्त्री., एक विशेष छन्द का नाम, जिसके अन्तर्गत प्रहर्षिणी तथा रुचिरा आदि प्रभेद आते है - अतिजगति म्ना ज-रा गो तिदसयतिप्पहासिनी सा .... वुत्तो. 87-88. अतिजच्चता स्त्री॰, भाव. [अतिजातिता], अत्यधिक उच्चगुणसम्पन्नता, अत्यधिक कल्याणकारी होने की दशा - अगदो अतिजच्चताय पीळाय समुग्घातको रोगानं अन्तकरो, मि. प. 258. अतिजव त्रि., [अतिजवन], अत्यधिक वेग वाला, महान् वेग वाला, शीघ्रगामी - महाजवन्ति अतिजवं सीघगामि, वि. क. अट्ठ. 212. अतिजात त्रि., [अतिजात], बुद्ध, धर्म एवं संघ के प्रति श्रद्धा रखने में अपने माता-पिता से आगे रहने वाला, उच्चकुलोत्पन्न व्यक्ति से भी अधिक उत्तम, अपने पूर्वजों की तुलना में अधिक आगे बढ़ा हुआ - तयो मे, भिक्खवे, पुत्ता ... अतिजातो अनुजातो अवजातोति, इतिवु. 47; अभिजातोति अतिजातो सुद्धजातो, जा. अट्ठ. 4.287, विलो. अनुजात, अवजात. अतिजातिता स्त्री., भाव., उत्तम प्रकृति से युक्त होने की
अवस्था - सीहो अतिजातिताय विगतभयो, मि. प. 258. अतिजिघच्छपीळित त्रि., [अतिजिघत्सापीळित], अत्यधिक भूखा - आहारहेतूति अतिजिघच्छपिलितोपि यो पापं लामककम्मं न करोति, जा. अट्ठ. 7.148. अतिजोतिता स्त्री., अतिजोति का भाव., अत्यधिक गरमी -
अग्गि अतिजोतिताय डहति, मि. प. 258. अतिण्ण त्रि., तिण्ण का निषे. [अतीर्ण], वह, जिसने अभी तक भवसागर पार नहीं किया है - अतिण्णंयेव याचस्स अपारं तात नाविक, जा. अट्ठ. 3.202; - पुब्ब त्रि., ब. स., वह, जिसे पहले पार नहीं किया गया है - ये दुत्तरं ओघमिमं तरन्ति, अतिण्णपुब्बं अपुनभवाया ति, सु. नि. 275;
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अतितण्ह
107
अतिथि
अतिण्णपुब्बन्ति इमिना दीघेन अद्भुना सुपिन्तेनपि अवीतिक्कन्तपुब्बं, सु. नि. अट्ठ. 2.37.. अतितह त्रि., ब. स. [अतितृष्ण], अत्यधिक लोलुप, प्रबल
आसक्ति से भरा - अतितण्हो तु लोलुपो, अभि. प. 729. अतितरिय अति + Vतर का पू. का. कृ. [अतितीर्य], पार करके, अतिक्रमण करके, लांघ करके - ओघं समुदं अतितरिय तादि, सु. नि. 221; अतितरिय अतितरित्वा अतिक्कमित्वा मग्गभावनाय, सु. नि. अट्ठ. 1.228. अतितरुण त्रि., [अतितरुण], अत्यधिक युवा, अपरिपक्व अनुभव वाला - तत्थ कोचि तरुणोपि युवा न होति यथा अतितरुणो, म. नि. अट्ठ (मू.प.) 1(1).162; कुटुम्ब विचारेतुं अप्पटिबलपनं अतितरुणिज्ञव समानं, जा. अट्ट, 4.32. अतितिक्ख त्रि., [अतितीक्ष्ण], अत्यधिक तेज, अतीव सक्षम, अत्यधिक अप्रिय - परिभूतो मुद् होति, अतितिक्खो च वेरवा, जा. अट्ठ. 4.171; - भाव पु., [अतितीक्ष्णभाव], अत्यधिक तीक्ष्णता - संवेगस्स च नातितिक्खभावतो तूपसमि, उदा. अट्ठ. 252. अतितिखिण त्रि., [अतितीक्ष्ण], अत्यधिक तेज, अतीव तीक्ष्ण, अतीव सक्षम - अतितिखिणेन असिना ..., अ. नि. अट्ट. 3.180; - ता [अतितीक्ष्णता], अत्यधिक तीखापन, अत्यधिक तीक्ष्णता - वजिरं अतितिखिणताय विज्झति, मि. प. 258. अतितित्तक त्रि., [अतितिक्तक], अत्यधिक तीता -
अतितित्तकन्ति अतिक्कन्ततित्तकं महानि. 2.129... अतितुच्छ त्रि., [अतितुच्छ], अत्यधिक क्षुद्र, अतीव शून्य, साररहित, अतीव घटिया - अतितुच्छे पि दिस्सन्ति देसे उच्चाचलूपमा, सद्धम्मो. 430. अतितुट्ठ त्रि., [अतितुष्ट]. अतीव सन्तुष्ट, पूर्णतः सन्तुष्ट -
ततो राजा अतिविय तुट्ठपहठ्ठो महासत्तस्स गुणं वण्णेन्तो ...., जा. अट्ठ. 6.295. अतितुट्ठि स्त्री॰ [अतितुष्टि], अत्यधिक तुष्टि या संतोष -
अतितुडिया हिरोत्तप्पं भिन्दित्वा ..., जा. अठ्ठ. 1.204. अतितुरित त्रि., [अतित्वरित], अधिक जल्दबाजी वाला - आगमेथ तावा ति वुत्तेपि अतितुरिता निक्खमित्थ, जा. अट्ठ. 6.170. अतितुल त्रि., अतुलनीय, वह, जिसकी तुलना न की जा सके, निरुपम, अनुपम - ब्रह्मभूतं अतितुलं, मारसेनप्पमद्दनं. सु. नि. 568; अतितुलोति तुलं अतीतो उपमं अतीतो, निरुपमोति अत्थो, सु. नि. अट्ठ. 2.158.
अतित्त त्रि., तित्त का निषे. [अतृप्त], वह, जो तृप्त नहीं है, असन्तुष्ट, वह, जिसकी इच्छाएं कभी पूरी न हों - अतित्तो कालङ्कतो, न चस्स परिपूरिता इच्छा, थेरीगा. 488; अतित्त व कामेसु, अन्तको कुरुते वसं,ध. प. 48; ऊनो लोको अतित्तो तण्हादासो, म. नि. 2.265; - रूप त्रि., ब. स., असन्तोषी, तृष्णालु - ओरं समुद्दस्स अतित्तरूपो, पारं समुद्दस्सपि पत्थयेथ, जा. अट्ठ. 4.153. अतित्ति स्त्री., सन्तुष्टि न होना, असन्तोष - कर त्रि., सन्तुष्टि न देने वाला - अयं पातोव पस्सन्तानं अतित्तिकरो फलभारभरितो सोभमानो अट्ठासि, जा. अट्ठ. 3.333; - करण नपुं.. असन्तोष, असन्तुष्टिकरण - दस्सनीयतराति दिवसम्पि पस्सन्तानं अतित्तिकरणद्वेन पस्सितब्बतरा, उदा. अट्ठ. 1383; - जनक त्रि., [अतृप्तिजनक], असन्तोष को पैदा करने वाला - चारुदस्सनोति सुचिरम्पि पस्सन्तानं अतित्तिजनक सु. नि. अट्ठ. 2.156. अतित्थ नपुं., तित्थ का निषे., शा. अ. अप्रयुक्त मार्ग, नदी में उतरने या उतारने के लिये अनुपयुक्त मार्ग - अतित्थेनेव गावो पतारेसि उत्तरं तीरं सुविदेहानं, म. नि. 1.290; ला. अ. बुद्ध द्वारा अननुमोदित आचार या मार्ग, बौद्धेतर धर्माचार्यों की मिथ्या दृष्टियां - अतित्थेतिद्वासद्विदिहिसलाते अतित्थे नप्पतारेय्य न ओतारेय्य जा. अट्ठ. 5.61; अतित्थेन पक्खन्दो धम्मकथिकोति न सक्का वत्तुं, दी. नि. अट्ठ. 1.38; - पक्खन्द नपुं.. अनिर्धारित मार्ग पर चलकर, इधर उधर हो जाना - ता गावो अतित्थपक्खन्दनादिना वा परेसं सालिखेत्तादीनि ओतरित्वा खादनवसेन विनासं आपज्जन्ति, ध. प. अट्ठ. 2.201. अतित्थुत त्रि., [अतिस्तुत], अति-प्रशंसित, प्रशस्त, अतिसंस्तुत, अधिक खुशामद किया हुआ, द्रष्ट, मो. व्या. 3.13, पाठा. अभित्थुतं. अतिथद्ध त्रि., [अतिस्तब्ध], अत्यधिक दर्पशील, घमंडी, गर्वीला - अतिथद्धो अनिसेधनताय, मि. प. 175. अतिथि पु., [अतिथि], अतिथि, मेहमान, पाहुन - पुमे अतिथि आगन्तु पाहुनावेसिकाप्यथ, अभि. प. 424; अतिथि खो पनम्हेहि सक्कातब्बो गरुकातब्बो मानेतब्बो पूजेतब्बो अपचेतब्बो, दी. नि. 1.103; म. नि. 2.386; सब्बातिथीयाचयोगो भवित्वाति सब्बेसं अतिथीनं आगतानं आगन्तुकानं यं यं ते याचन्ति .... जा. अट्ठ. 3.268; - करणीय नपुं.. [अतिथिकरणीय], अतिथि जनों के लिये किया जानेवाला सत्कार या आतिथ्य - अतिथीनं अतिथिकरणीयं कातब्ब, म.
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अतिथूल 108
अतिदेव नि. 2.403; - बलि पु.. [अतिथिबलि], अतिथियों के लिये -स अनु., म. पु., ए. व. - इज त्वं तत्थ कारणं अतिदिसा दिया जाने वाला उपहार - ... अरियसावको ... पञ्चबलिं ति, मि. प. 279. कत्ता होति-आतिबलिं, अतिथिबलिं, पुब्बपेतबलिं .... अ. अतिदीघ त्रि., [अतिदीर्घ], बहुत लम्बा - नातिदीघा नातिरस्सा नि. 1(2).79; अतिथिबलिन्ति आगन्तुकानं बलिं, अ. नि. ...... दी. नि. 2.131; म. नि. 1.122; नातिदीघातिआदीहि अट्ठ.2.306.
छदोसविरहितं सरीरसम्पत्ति दीपेति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) अतिथूल त्रि., कर्म. स. [अतिस्थूल], अत्यधिक मोटा - 1(1).372. .... महासुदस्सनस्स इस्थिरतनं पातुरहोसि अभिरूपा ... अतिदीन त्रि., [अतिदीन], बहुत अधिक दुर्गतिग्रस्त -
नातिकिसा नातिथूला.... दी. नि. 2.131, विलो. अतिकिसा. सोकेन चातिदीनो व, अप. 2.209. अतिथोक त्रि., [अतिस्तोक], बहुत कम, अत्यल्प - सो अतिदुक्कर त्रि., [अतिदुष्कर], बहुत कठिन, दुष्कर, बहुत
पत्तोदकं पटिग्गण्हाति नातिथोकं नातिबहु, म. नि. 2.346. कठिनाई से करने योग्य - बहुञ्च दुक्कर कम्म, कतं में अतिदप्पित त्रि., [अतिदर्पित], अत्यधिक अन्धकारग्रस्त, अतिदुक्कर, अप. 2.220, थेरीगा. अट्ठ. 216; इदं मया बहुत अधिक घमंडी - अतिदप्पितो वतायमायस्मा, म. नि. सतसहस्सकप्पाधिकानि चत्तारि असङ्घयेय्यानि अतिदुक्करानि अट्ठ. 2.514(रो.).
आचरित्वा पारमियो पूरेत्वा .... उदा. अट्ठ. 170. अलिदयित त्रि., [अतिदयित], बहुत प्यारा - तस्सा तिदयिता अतिदुक्ख त्रि., [अतिदुःख], अत्यधिक दुःख देने वाला, आसु .... अप. 2.250; थेरीगा. अट्ठ. 78.
बहुत अधिक कष्टकारक - अक्खमो अतिदुक्खो ति अपायो अतिदहरत नपुं.. भाव., अत्यधिक कम आयु अथवा अपरिपक्व भायितब्बको, सद्धम्मो. 95; - परेत त्रि., अत्यधिक दुःखों से अवस्था - किं यक्खो कुमारं अतिदहरत्ता न इच्छतीति भीता अभिभूत, बहुत अधिक दुःखों से व्यथित - अतिदुक्खपरेतो पुच्छिसु. सु. नि. अट्ठ. 1.202.
विरवन्तो पच्चति, जा. अट्ट, 5.267; - वाच त्रि., अत्यधिक अतिदान नपुं., [अतिदान], अत्यधिक दान, प्रबल । कठोर वचन बोलने वाला - अतिदुक्खवाचो ति वा पाठो, दानपरायणता - तुम्हेहि ब्रह्मो पकतो, अतिदानेन खत्तियो, अतिविय फरुसवचनो मुसावादपेसुआदिवचीदुच्चरितनिरतो, जा. अट्ठ. 7.287; अतिदानं, महाराज, लोके विदूहि वणितं । पे. व. अट्ठ. 13; पाठा. अतिदुट्ठवाचो.. थुतं पसत्थं मि. प. 258; - दायी त्रि., अत्यधिक दान देने अतिदुद्दस त्रि., [अतिदुर्दर्श], वह, जिसे खोज पाना, समझना, वाला, अत्यधिक उदार - अतिदानदायी लोके कित्तिं पापुणाति, जानना अथवा देख सकना बहुत कठिन है - ... परमगम्भीर मि. प. 258.
अतिदुद्दसं सहसुखुमं... अमतं निब्बानं .... उदा. अट्ठ. 318. अतिदारुण त्रि., [अतिदारुण], बहुत निष्ठुर, निर्दय, कठोर, अतिदुब्मिक्खछातक त्रि., अत्यधिक भूख एवं दुर्भिक्ष से भयंकर - विचरि अतिदारुणो सदा, परहिंसाय रतो असञ्जतो, पीड़ित अथवा परिपूर्ण - नातिसीतं नातिउण्ह, पे. व. 480; कारेन्तो कम्मकरणं निरये अतिदारुणं सद्धम्मो. नातिदुभिक्खछातक, जा. अट्ठ. 1.95. 7; त्वहि अतिदारुणरस कम्मस्स कतत्ता अतिसरो, जा. अतिदूर त्रि., [अतिदूर, बहुत दूर, अत्यधिक दूर में स्थित अट्ठ. 4.6; तदा मे कम्मजा वाता उप्पन्ना अतिदारुणा, अप. - सेनासनं नातिदूर होति नाच्चासन्नं, अ. नि. 3(2).13; 2.227.
थामसम्पन्नता पन अतिदूरं उप्पतति, जा. अट्ठ. 3.426; अतिदिद्विया क्रि. वि., सप्त. वि., प्रतिरू. निपा., उत्तम ज्ञान नातिदूरे गन्तब्बं, महाव. 52; - ता स्त्री., भाव., बहुत या दृष्टिसम्पन्नता के कारण - अतिदिट्ठिया दिद्विविपन्नो अधिक दूरी में होना - विहारानं पन नगरतो नातिदूरताय होति, महाव. 82; चूळव. 9.
नाच्चासन्नताय
गमनागमनसम्पत्तिया अतिदिवा सप्त. वि. प्रतिरू. निपा., दिन बहुत ढल जाने अनाकिण्णविहारट्ठानताय छायूदकसम्पत्तिया ... च रमणीयता पर, दिन में बहुत देरी करके; विकाल में, अपराह्न में - दट्टब्बा, उदा. अट्ठ. 264. अतिदिवा पटिक्कमति, महाव. 89; स. नि. 1(1).232; अ. अतिदेव' पु., बुद्ध के गुणों का सूचक विशे., देवों के भी नि. 2(1).108.
अधिष्ठाता देव, भगवान् - देवानं अतिदेवो भवेय्य, मि. प. अतिदिसति अति + दिस का वर्त.. प्र. पु., ए. व., 258; - प्पत्त त्रि., देवों से भी अधिक उत्तम स्थिति को प्राप्त विस्तृतरूप में व्याख्या करता है, स्पष्ट रूप से कहता है; करने वाला - निरुपधिको अतिदेवपत्तो, स. नि. 1(1).167;
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अतिदेव
109
अतिनिज्झायितत्त अतिदेवपत्तोति देवानं अतिदेवभावं ब्रह्मानं अतिब्रह्मभावं पत्तो, नानत्तनयस्सपि गहणेन तत्थ तत्थेव धावन्ति, इतिवु. अट्ठ. स. नि. अट्ठ. 1.182; - भाव पु., देवों से अधिक उत्तम 155; - न्तो वर्त. कृ., पु.. प्र. वि., ए. व. - अभिधम्मे अवस्था - ... देवानं अतिदेवभावं ..., स. नि. अट्ठ. 1.182. दुप्पटिपन्नो धम्मचिन्तं अतिधावन्तो अचिन्तेय्यानिपि चिन्तेति, अतिदेव' पु.. रेवत नामक बुद्ध के समय में ब्राह्मणकुलोत्पन्न ध. स. अट्ठ. 26; - वेय्य विधि., प्र. पु., ए. व. - समझें बोधिसत्त्व का नाम - तदा बोधिसत्तो अतिदेवो नाम ब्राह्मणो नातिधावेय्य, म. नि. 3.279; - वि अद्य., प्र. पु.. ए. व. - हुत्वा .... जा. अट्ठ. 1.45.
यो नाच्चसारीति यो नातिधावि, सु. नि. अट्ठ. 1.19; - वित्वा अतिदेस पु.. [अतिदेश], 1. हस्तान्तरण, समर्पण, सुपुर्दगी, पू. का. कृ. - चित्तुप्पादमत्तेनेव कुसलं होतीति अतिधावित्वा एक वस्तु के धर्म का दूसरी वस्तु पर आरोपण, 2. व्याकरण । दानादीनि अकरोन्तो .... म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).301; शास्त्र में एक स्थान पर निर्दिष्ट नियम का अपने स्थल के - वितब्ब सं. कृ. - इधेकच्चो मोघपुरिसो अविद्वा अतिरिक्त अन्यत्र भी लागू होने वाली प्रक्रिया - अञदीय- अविज्जागतो तण्हाधिपतेय्येन चेतसा सत्थुसासनं अतिधावितब्ब धम्मानं अञ्जत्थ पापनं अतिदेसो, क. व्या. 272 पर रू. सि. मजेय्य, स. नि. 2(1).95.. 120.
अतिधुति स्त्री., [अतिधृति], छन्दों के एक वर्ग का नाम, अतिदोस पु., [अतिद्वेष], अत्यधिक दृढ़ द्वेषभाव - अतिदोसेन जिसके अन्त. मेघ-विप्फुज्जिता तथा सर्दूलविक्कीळित जैसे वज्झो होति, मि. प. 258.
अनेक छन्द आते हैं, वुत्तो. 101-102. अतिधञ त्रि०, [अतिधन्य], अत्यधिक कृतकृत्य, अत्यन्त अतिधोनचारी त्रि., बुद्धि का अतिक्रमण कर, स्वच्छन्द धन्य - अतिधा वत धरणी .... या ते अलत्थ ..... अथवा उच्छृङ्खल होकर काम करने वाला - एवं पादतलसम्फस्सं. म. बो. वं. 16(रो.).
अतिधोनचारिनं, सानि कम्मानि नयन्ति दुग्गति, ध. प. 240%; अतिधन्त नपुं., अति + Vधम का भू. क. कृ., [अतिध्मात]. अतिधोनचारिनन्ति धोना वुच्चति चत्तारो पच्चये "इदमत्थं भेरी (ढोल) पर लगातार की जा रही बहुत जोरदार एतेति पच्चवेक्खित्वा परिभुञ्जनपञआ, तं अतिक्कमित्वा थपथपाहट, ढोल पर जोरदार प्रहार - अतिधन्तहि पापक चरन्तो अतिधोनचारी नाम, ध. प. अट्ठ. 2.199. .
जा. अट्ठ. 1.273; अतिधन्तहि ... निरन्तरं भेरिवादनं..., तदे... अतिनट्ठ त्रि., [अतिनष्ट], अत्यधिक क्षति को प्राप्त, बहुत अतिधमे अति + vधम का विधि., प्र. पु., ए. व., अत्यधिक अधिक हानि को प्राप्त - अनस्ससन्ति नट्ठो, पनस्ससन्ति प्रहार कर बजाए, अत्यधिक फूंक मार कर बजाए - अतिनट्ठो, स. नि. अट्ट. 3.16. नातिधमेति अतिक्कमित्वा पन निरन्तरमेव कत्वा न वादेय्य अतिनामेति अति + vनम का प्रेर., वर्त., प्र. पु., ए. व. [बौ. .... जा. अट्ठ. 1.273.
सं. अतिनामयति], 1. शा. अ. समय व्यतीत करा देता है, अतिधम्मभार पु., धर्म का अत्यधिक प्रभाव, धर्म की प्रबल बिता देता है, पार करा देता है - सो तेन अभिज्झासहगतेन
शक्ति - अतिधम्मभारेन पथवी चलति, मि. प. 224. चेतसा दिवसं अतिनामेति, अ. नि. 1(1).235; न च अतिधात त्रि., अत्यधिक तृप्त, बहुत अधिक सन्तुष्ट - अनुमोदनस्स कालमतिनामेति, म. नि. 2.347; - मि वर्त.. अतिधातोस्मीति कम्म न करोति, दी. नि. 3.139; - ता उ. पु., ए. व. - नमस्समानोव रत्तिं अतिनामेमि, सु. नि. स्त्री. भाव., अत्यधिक तृप्तिभाव, बहुत अधिक भोजन ले लेने अट्ठ. 2.297; - न्ति वर्तः, प्र. पु., ब. व. - अतिनामेन्ति ते की स्थिति - ... अतिधातताय किलन्तकायो निद्दायाभिभूतो खणं, अ. नि. 3(1).61; - मयि अद्य., प्र. पु.. ब. व. - .... जा. अट्ठ. 2.243, विलो. अतिछात.
अब्भोकासेतिनामयि, थेरगा. 366; 2. ला. अ. क. भोजन अतिधावन्ति अति + Vधाव का वर्त. प्र. पु., ब. व. को गले के नीचे पहुंचाता है - न च ब्यञ्जनेन आलोपं [अतिधावन्ति, शा. अ. अतिक्रमण करते हैं, उल्लंघन अतिनामेति, म.नि. 2.347; 2. ख. किसी को ले जाता करते हैं, अत्यधिक दूर चले जाते हैं, बहुत तेजी से दौड़कर है - मेत्वा पू. का. कृ. - सम्बुद्ध ... अस्सम अतिनामेत्वा आगे निकल जाते हैं, ला. अ. निरर्थक कल्पनाओं में भागते ...... अप. 1.273; तुल. अतिनेति. दौड़ते हैं - ब. व. - ओलीयन्ति एके अतिधावन्ति एके..... अतिनिज्झायितत्त नपुं. भाव. [अतिनिध्यायितत्व], इतिवु. 31; अतिधावन्तीति परमत्थतो भिन्नसभावानम्पि अत्यधिक सूक्ष्मता अथवा ध्यान के साथ सोचने विचारने की सभावधम्मानं वायं हेतुफलभावेन सम्बन्धो, तं अग्गहेत्वा अवस्था - न अतिनिज्झायितत्तं रूपानन्ति, म. नि. 3.199%;
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अतिनिपात
110
अतिपातेति अतिनिज्झायितत्तन्ति मह नानाविधानि रूपानि अतिपण्डितमानिताय परेहि वुत्तं कप्पियम्पि "अकप्पियन्ति मनसिकरोन्तस्स नानत्तसञआ उदपादि, इढ वा अनिट्ठ वा वदेति, ध. प. अट्ठ. 2.301. एकजातिकमेव मनसि करिस्सामीति ..., म. नि. अट्ट. अतिपण्डितः पु., एक प्राचीन सौदागर का नाम - तस्स (उप.प.) 3.154.
अतिपण्डितो ति नाम अहोसि, जा. अट्ठ. 1.387. अतिनिपात पु.. [अतिनिपात], दृढ़ आत्म-अवमानना, हीनता अतिपदाना नपुं., अति + प + दान, द्रष्ट. अतिप्पदान की बलवती मनोवृत्ति - मान, ओमान, अतिमानं, अधिमान, (आगे). थम्भं अतिनिपातं ..., अ. नि. 2(2).131; अतिनिपातन्ति अतिपपञ्च पु., कर्म. स. [अतिप्रपञ्च], अत्यधिक विस्तार, हीनस्स हीनोहमस्मी ति मानं, अ. नि. अट्ठ. 3.140. अत्यधिक सांसारिक उलझन - सरीरं आकडित्वा गन्धमालाजट अतिनिवास पु., [अतिनिवास], किसी स्थान पर बहुत छिन्दन्तस्स अतिप्पपञ्चो अहोसि, जा. अट्ठ. 1.74; इमस्मि अधिक समय तक निवास - पश्चिमे, भिक्खवे, आदीनवा पनेत्थ वित्थारीयमाने अतिपपञ्चो होति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) अतिनिवासे, अ. नि. 2(1).238.
1(1).206. अतिनीच त्रि., [अतिनीच], बहुत अधिक निचला, अत्यधिक अतिपभाते अ., प्रातःकाल होने के बहुत बाद में - सो निम्न, बहुत घटिया - ... भवग्गं अतिनीचं तव दोसो अतिरत्तिं वा वस्सति अतिपभाते वा, जा. अट्ठ. 2.254. अतिमहन्तो..., जा. अट्ठ. 4.405; ... चतुरङ्गिनिया सेनाय अतिपरिच्चाग पु., अत्यधिक दान या परित्याग - नातिउच्च नातिनीचं उच्चरुक्खानं हेट्ठाभागेन ..., खु. पा. अतिपरिच्चागतो ओरमित्वा कम्मन्ते पयोजेन्तो कुटुम्ब अट्ठ. 140; - क त्रि., बहुत नीचा - ब्रह्मलोको अतिनीचकोति सण्ठापेहीति, ध. प. अट्ठ. 2.8. ओकासो नेसं न भवेय्य, ध. प. अट्ठ. 1.176; चक्कवाळ अतिपरिप्फन्दनभाव पु., मन में अत्यधिक चंचलता का अतिसम्बाधं, ब्रह्मलोको अतिनीचको, वि. व. अट्ठ. 53. भाव, चित्त की अशान्त वृत्ति -- सन्तवृत्ति विचारो अतिन्द्रिय त्रि., [अतीन्द्रिय], इन्द्रियों की पहुंच से बाहर नातिपरिप्फन्दनभावो चित्तस्स, ध. स. अट्ठ. 160. वाला, अप्रत्यक्ष - अपच्चक्खं मनिन्द्रियं, अभि. प. 716. अतिपरिसुद्धता स्त्री., भाव. [अतिपरिशुद्धता], अत्यधिक अतिपक्खित्तमज्ज त्रि., ब. स. [अतिप्रक्षिप्तमद्य], वह, जिसमें परिशुद्धि, अत्यधिक निर्मलता - पदुम अतिपरिसुद्धताय न अत्यधिक मादक-वस्तुएं डाली गयी हों - तेन खो पन उपलिम्पति वारिकद्दमेन, मि. प. 258. समयेन छब्बग्गिया भिक्खू अतिपक्खित्तमज्जानि तेलानि अतिपवरता स्त्री॰, भाव. [अतिप्रवरता], अत्यधिक सूक्ष्मता, पचन्ति, महाव. 280.
उच्च गुण-सम्पन्नता - अतिपवरताय दिबं वनमूलं गहितम्पि अतिपग्गहित त्रि., [अतिप्रगृहीत], अत्यधिक दृढ़, दृढ़ प्रयास हत्थपासे ठितानं परजनानं न दस्सयति, मि. प. 258. से युक्त - इति मे वीरियं न च अतिलीनं भविस्सति, न च । अतिपस्सित्वा अति + vदिस का पू. का. कृ., यथार्थ रूप अतिपग्गहितं भविस्सति, स. नि. 3(2).337.
में देख कर - रो नागं अभिरुहित्वा नागवनं पविसित्वा अतिपच्छा निपा., बहुत अधिक पीछे - अतिपच्छा निसिन्नो आरञ्जकं नागं अतिपस्सित्वा ओ नागस्स गीवायं सचे दबुकामो होति .... पारा. अट्ट, 1.94.
उपनिबन्धति, म. नि. 3.173. अतिपणीत त्रि., [अतिप्रणीत], बहुत उत्तम, अत्यन्त उत्कृष्ट अतिपातेति अति + /पत का प्रेर., वर्त, प्र. पु., ए. व. - अच्चन्तसन्तं पण्डितवेदनीयं अतिपणीतं अमतं निब्बानं अतिपातयति], शा. अ. हिंसा करता है, प्राण विनष्ट विभावेन्तो, उदा. अट्ठ. 318.
करता है - यो पाणमतिपातेति, मुसावादञ्च भासति, ध. प. अतिपण्डित' त्रि., व्यङ्ग्यात्मकरूप में प्रयुक्त [अतिपण्डित], 246; ला. अ. आड़े-तिरछे उड़वाता है, किसी वस्तु के बीच बहुत पटु, चालाक - तुम्हे खो, भन्ते नागसेन, अतिपण्डिता. में से वाण को आर-पार कराता अथवा वाण गिरवाता है - मि. प. 89; तुम्हे च खो, महाराज, अतिपण्डिता, मि. प. 903; तेय्य विधि., प्र. पु., ए. व. - दळहधम्मा धनुग्गहो सिक्खितो - ता स्त्री॰, भाव, अत्यधिक पटुता - त्वं अतिपण्डितताय कतहत्थो ... तिरियं तालच्छायं अतिपातेय्य, म. नि. 1.1163; अत्तनो गेहे पाकभत्तमूलम्पि न निष्फादेसी ति आह, ध. प. स. नि. 1(1).76; अ. नि. 1(2).55; - तेस्सन्ति भवि., प्र. अट्ठ. 1.266; - मानिता स्त्री., [अतिपण्डितमानित्व], पु., ब. व. - यत्र हि नाम दूरतोव सुखुमेन ताळच्छिग्गळेन अपने को महान पण्डित मानने की मनोवृत्ति - सो ..... असनं अतिपातेस्सन्ति, स. नि. 3(2).513; - तेन्ते वर्त. कृ.,
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अतिपातो
111
अतिबहल
सप्त. वि., ए. व. - दूरतोव ... असनं अतिपातेन्ते, स. नि. 3(2).513. अतिपातो निपा., [अतिप्रातः], बहुत सवेरे, अपेक्षाकृत बहुत । पहले - अतिपातोति कम्मं न करोति, दी. नि. 3.139, विलो. अतिसायं. अतिपासादिक त्रि.. [अतिप्रासादिकः], अत्यन्त प्रसन्न करनेवाला, अधिक श्रद्धा भर देनेवाला - पासादिको वतायं, भन्ते, धम्मपरियायो, अतिपासादिको ... धम्मपरियायो, दी. नि. 3.105; पाठा. सुपासादिको. अतिपीणित त्रि., [अतिप्रीण], अत्यधिक संतुष्ट, अत्यन्त प्रसन्न, अत्यन्त सुन्दर - अतिपीणितमेतं रूपं .... ध. प. अट्ठ. 1.42. अतिपीळित त्रि., [अतिपीड़ित], अत्यधिक पीड़ा से ग्रस्त, गंभीर रूप से कष्ट को प्राप्त - अतिगाळिताति पच्चत्थिकेहि अतिपीळिता विलुत्तसापतेय्या .... जा. अट्ठ. 5.397. अतिपुञता स्त्री॰, भाव. [अतिपुण्यता], पुण्यफलों की अधिकता, प्रचुरता या कुशलकर्मों को करने की मनोवृत्ति - राजा अतिपुञताय अधिपति .... मि. प. 259. अतिपुण्णत्त नपुं., भाव. [अतिपूर्णत्व], अत्यधिक परिपूर्णता, ऊपर तक भरपूर होने की स्थिति - पलिस्सुताहीति अतिपुण्णत्ता पग्घरमानेहि .... जा. अट्ठ. 7.225. अतिपूर पु.. [अतिपूर], अत्यन्त पूर्ण, अत्यधिक भरापन -
अतिपूरेन नदी उत्तरति, मि. प. 258. अतिप्पगेव निपा., [अतिप्रागेव], बहुत जल्दी, भिनसारे, सबेरे-सबेरे - अतिप्पगेव आगतोसी ति आह, जा. अट्ठ 1.321; तुल. अतिप्पगो, पगेव तथा अतिप्पगा, पाठा. अतिप्पगोव. अतिप्पगो निपा., [बौ. सं. अतिप्रागः], सुबह, बहुत जल्दी, भिनसारे - अतिप्पगो खो ताव सावत्थियं पिण्डाय चरितुं दी. नि. 1.160; क. व्या. 36. अतिप्पदान नपुं.. [अतिप्रदान], अत्यधिक व्यय, फिजूलखर्ची, अपव्यय - तस्मा हि दाना धनमेव सेय्यो, अतिप्पदानेन कुला न होन्ति, पे. व. 300. अतिप्पमता स्त्री॰, भाव. [अतिप्रभात्व], अत्यधिक प्रभामयता, अतिशय प्रभास्वरता - सूरियो अतिप्पभताय तिमिरं घातेति. मि. प. 258. अतिप्पभेदगत त्रि., [अतिप्रभेदगत], अनेक भेदों-उपभेदों में प्रविभक्त - तिक्खस्स अतिप्पभेदगतं धम्मानुपस्सनासतिपट्टानं. म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).250.
अतिप्पमाण त्रि., ब. स. [अतिप्रमाण], अतिशय विशाल -
सब्बायसं कूटमतिप्पमाणं, जा. अट्ठ. 3.125. अतिप्पसङ्ग पु.. [अतिप्रसङ्ग], केवल व्याकरण के पारिभाषिक शब्द के रूप में ही प्रयुक्त, किसी व्याकरणीय विधान का अत्यन्त विस्तृत विनियोग - न चाति प्पसङ्गो योगविभागा इट्ठप्पसिद्धीति, मो. व्या. 1.55; 1.58. अतिप्पसत्थ त्रि., [अतिप्रशस्त], अत्यन्त प्रशंसनीय, अत्यन्त उत्तम, अतीव श्रेष्ठ - मासे जेट्ठोतिवुद्धातिप्पसत्थेसु च तीसु
सो, अभि. प. 918. अतिप्पिय त्रि., [अतिप्रिय], अत्यधिक प्रिय, अधिक प्यारा - अयहि मेत्ता अप्पियपुग्गले, अतिप्पियसहायके, मज्झत्ते, वेरीपुग्गलेति इमेसु चतूसु पठमं न भावेतब्बा, विसुद्धि. 1.284. अतिफरुस त्रि., [अतिपरुष], अत्यन्त कर्कश, अतीव कठोर - त्वं मं कुण्ठसत्थकेन मुण्डेन्तो विय अतिफरुसं कथेसी ति, जा. अट्ठ. 3.325; - वचन नपुं., अत्यन्त कर्कश वचन, अत्यन्त कठोर वचन, अतिरुक्खवाचके के अन्त. द्रष्ट.. अतिफीत त्रि., [अतिस्फीत], अत्यन्त समृद्ध, अत्यन्त धनवान, अतीव धनाढ्य - पसूता नातिफीतम्हि, सालिं गोपेमहं तदा, अप. 2.223. अतिबद्ध त्रि., [अतिबद्ध], दृढ़ता के साथ बंधा हुआ, पंक्तिबद्ध - मय्हं बलिबद्दो अतिबद्धं सकटसतं पवट्टेतीति वत्वा ..., जा. अट्ट. 1.190; पाचि. 7. अतिबन्धित्वा अति + Vबन्ध का पू. का. कृ., पंक्ति में एक साथ बांधकर, दृढ़ता से बांधकर - सो ब्राह्मणो सकटसतं
अतिबन्धित्वा .... पाचि. 7. अतिबल त्रि., ब. स. [अतिबल], अत्यन्त बलवान, अत्यन्त सुदृढ़ - मग्गेनेव अतिबलो सच्चनिक्कमो, जा. अट्ठ. 4.92; तं एतं अतिसाहसं अतिबलं नावारियं यो नरो, म. वं. 20.58; - ता स्त्री., अतिबल का भाव. [अतिबलता], अत्यधिक दृढ़ता, अतिशय शक्ति-सम्पन्नता - अच्चुग्गतातिबलता, अतिवेलं पभासिता .... जा. अट्ठ. 1.414. अतिबलवता स्त्री., [अतिबलवन्तता], अत्यधिक शक्तिसम्पन्नता - मल्लो अतिबलवताय पटिमल्लं खिप्पं उक्खिपति. मि. प. 258-259. अतिबहल त्रि., [अतिबहल]. अत्यन्त प्रगाढ़, बहुत गाढ़ा, अतीव सघन - कि भद्दे, अतिबहला यागूति, जा. अट्ट. 6.193; - लोट्ठकपोल त्रि., ब. स., अत्यन्त मोटे होठों और गालों वाला - अरे खुज्जे अतिबहलोडकपोलं ते मुखं, एवं नाम वदेही ति आह, ध. प. अट्ठ. 1.113.
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अतिबहु
112
अतिभेरवत्त अतिबहु त्रि., [अतिबहु], आवश्यकता से अधिक - महाराज, अतिमरित त्रि., [अतिभरित], परिपूर्ण, अत्यधिक परिपूर्ण,
अतिबहुभोजनं एवं दुक्खं होती ति वत्वा .... ध. प. अट्ठ. ऊपर तक छलकता हुआ - अयमिति कप्पटो कप्पटकुरो, 2.290; - क त्रि., ब. स., बहुसङ्ख्यक, अत्यधिक संख्यावाला अच्छाय अतिभरिताय, थेरगा. 199; यथा च अतिभरिता - तत्थ सुबहूपीति अतिबहुकेपि, जा. अट्ठ. 3.457; - भण्ड उदकभाजना उदकं अकामताय निक्खमति, दी. नि. अट्ठ. त्रि.. ब. स.[अतिबहुभाण्ड], अत्यधिक सामग्री या सामानों 1.164. वाला - भन्ते, अयं भिक्खु अतिबहभण्डोति आरोचेसुंध. प. अतिभायति अति + vभी का वर्तः, प्र. पु., ए. व., अधिक अट्ठ.2.41.
डरता है, अधिक भयभीत होता है - यिस्सति भवि., प्र. पु., अतिबाहेति अति + Vबह का प्रेर., वर्त., प्र. पु., ए. व., मार्ग ए. व. - थेरो बहूसु दिद्वेसु अतिभायिस्सतीति सो, म. वं. प्रदर्शन करता है, मार्ग रक्षण करता है, रक्षार्थ साथ जाता 14.6. है - न्ति ब. व. - सत्थे चोराटविं अतिबाहेन्ति, जा. अट्ठ. अतिभार पु., [अतिभार], बहुत भारी बोझ, अपेक्षा से अधिक 4.329.
बोझ- आजओ ... मथितो अतिभारेन संयुगं नातिवत्तति, अतिबाळ्हं निपा., [अतिवाढ], अत्यधिक, तीव्रता के साथ, थेरगा. 659; - ता स्त्री. भाव., अधिक बोझिलपन - दृढ़ता के साथ, प्रचुर मात्रा में - अतिबाळ्हं खो अयं यक्खो अतिभारताय किलन्तकायो निद्दायाभिभूतो, जा. अट्ठ 2.243; पमत्तो विहरति, म. नि. 1.322; अतिबाळ्हं खो अयं अम्बट्टो सिनेरु अतिभारताय अचलो, मि. प. 258; - भरित त्रि., माणवो सक्येसु इब्भवादेन निम्मादेति, दी. नि. 1.80. अधिक भार से लदा हुआ - सकटस्स अतिभारभरितस्स अतिबुद्धि त्रि., ब. स. [अतिबुद्धि], कुशाग्र बुद्धिवाला, तीक्ष्ण नाभियो च नेमियो च फलन्ति अक्खो भिज्जति, मि. प. 123. बुद्धिवाला - भस्सप्पवादो वेतण्डी, अतिबद्धि विचक्षणो, मि. अतिभारिय त्रि., [अतिभार्य], अत्यन्त गंभीर पापकर्म - प. 101.
भातिको मे अतिभारियं कम्मं करोती ति चिन्तेति, ध. प. अट्ठ. अतिब्रहा त्रि., [अतिवृहत्], अत्यन्त विशाल आकार वाला - 1.42. दहरो युवा नातिब्रहा, जा. अट्ठ. 6.102.
अतिभिंसन त्रि., [अतिभीषण], अत्यधिक भयंकर - अभिद्दवन्तं अतिब्रह्मभाव पु., [अतिब्रह्मभाव, ब्रह्मा से अधिक उत्तम अतिभिंसनेन दमेसि यो आलवकम्पि यक्खं दा. वं. 3.47. अवस्था - अतिदेवपत्तोति देवानं अतिदेवभावं ब्रह्मानं अतिभीत त्रि., [अतिभीत], अत्यधिक भयग्रस्त - अतिभीतो अतिब्रह्मभावं पत्तो, स. नि. अठ्ठ. 1.182.
अहू राजा, तं अस्सासेतुमागमा, म. वं. 4.39. अतिब्रह्मा पु., [अतिब्रह्मन्], भगवान् बुद्ध की एक उपाधि, अतिभीरुक त्रि., [अतिभीरुक], बहुत अधिक डरपोक - ब्रह्मा से अधिक बढ़ा-चढ़ा हुआ, ब्रह्मा से भी अधिक श्रेष्ठ - किम्पुरिसा नाम अतिभीरुका होन्ति, जा. अट्ठ. 6.94. ब्रह्मानं अतिब्रह्मा भवेय्य, मि. प. 258; अहम्हि ब्रह्मनापि अतिभुञ्जति अति + ।भुज का प्र. पु., ए. व., अधिक भोजन अतिब्रह्मा ति, ध. प. अट्ठ. 1.283; देवो सो अतिदेवोति करता है, अधिक खाता है - जित्वा पू. का. कृ. -- एकच्चे वुच्चति, तथारूपो ब्रह्मापि अतिब्रह्माति वुच्चति,ध. स. अट्ट. 4. तं येव भोजनं अतिभुजित्वा विसूचिकाय मरन्तीति, मि. प. अतिब्राह्मण पु., [अतिब्राह्मण], सभी ब्राह्मणों के बीच अतीव 153.
श्रेष्ठ, बुद्ध - ब्राह्मणानं अतिब्राह्मणो भवेय्य, मि. प. 258. अतिभुत्त त्रि, अति + (भुज का भू. क. कृ. [अतिभुक्त], अतिब्रूहयि अति + ब्रह का अद्य., प्र. पु., ए. व., सुदृढ़ अत्यधिक खाया गया, निर्धारित मात्रा से अधिक मात्रा में किया, प्रोत्साहित किया, ध्वनि को बढ़ाया, जोर से चिल्लाया लिया गया - कुप्पमानो दसविधेन कुप्पति सीतेन उण्हेन - तमापतन्तं दिस्वान, सुमुखो अतिब्रूहयि, जा. अट्ठ. 5.356; ... अतिभुत्तेन .... मि. प. 138; अतिभुत्तेन भोजनं विसमं अतिबृहयीति अनन्तरगाथाय आगतं मा भायीति वचनं वदन्तो परिणमति, मि. प. 258. अतिब्रूहेसि महासदं निच्छारेसि, जा. अट्ट, 5.356. अतिभूमि सप्त. वि., प्रतिरू. निपा. [अतिभूमि], निर्धारित अतिभय नपुं., [अतिभय], अत्यधिक भय, अधिक डर - सीमा के बाहर - सो ... अतिभूमि गन्वा वेरम्भवातमुखं अतिलोभेन चोरग्गहणमुपगच्छति, अतिभयेन निरुज्झति, मि. पत्वा चुण्णविचुण्णभावं पापुणि, जा. अट्ठ. 3.427. प. 258; - ट्टित त्रि., अत्यधिक भयग्रस्त, अधिक भय से अतिभेरवत्त नपुं., भाव. [अतिभैरवत्व], अत्यधिक भयानक संत्रस्त - जिनो अभयदो आड यक्खे ते अतिभयट्टिते म. वं 125. होने की स्थिति - अतिभेरवत्ता कम्मट्ठानस्स, विसुद्धि. 1.179.
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अतिभोजन
113
अतिमान
अतिभोजन नपुं., [अतिभोजन, आवश्यकता से अधिक भोजन, निर्धारित मात्रा से अधिक भोजन - छ धम्मा थिनमिद्धस्स पहानाय संवत्तन्ति, अतिभोजने निमित्तग्गाहो ..., म. नि. अट्ट (मू.प.) 1(1).294. अतिमञ्च त्रि., वह, जिसे मञ्च या पलङ्ग की कोई आवश्यकता नहीं है - अतिक्कन्तो मञ्चं अतिमञ्चो, मो. व्या. 3.132, द्रष्ट. मञ्चातिमञ्च के अन्त... अतिमञति अति + /मन का वर्त, प्र. पु., ए. व., अपमानित करता है, उपेक्षा करता है, तिरस्कृत करता है - अप्पलाभोपि चे भिक्खु, सलाभं नातिमति, ध. प. 366; बहुस्सुतो अप्पस्सुतं, यो सुतेनातिमति , थेरगा. 1029; - सि म. पु.. ए. व. - कल्याणं वत भो सक्खि, अत्तानं अतिमञ्जसि, अ.
च, अतान आतमआस, अ. नि. 1(1).174; - जामि उ. पु., ए. व. - न किञ्चि अतिमामि, धम्मे मे निरतो मनो, जा. अट्ट, 4.122; - न्ति प्र. पु., ब. व. - ते दुब्बण्णे सत्ते अतिमञ्जन्ति, दी. नि. 3.63; - न्तो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - अतिहीळयानोति अतिमअन्तो निन्दन्तो गरहन्तो, जा. अट्ठ. 4.295; - ओय्य विधिः, प्र. पु., ए. व. - सलाभं नातिम य्य, ध, प. 365; - ञत्थो अनु., म. पु., ब. व. - दाठिनि मातिमञ्जित्थो, सिङ्गालो मम पाणदो, जा. अट्ठ. 2.23; - ञिसं अद्य., उ. पु., ए. व. - साहं पुत्तबलूपेता, सामिक अतिमञ्जिसं, पे. व. 40; - ञिसु अद्य., प्र. पु.. ब. व. - न मं ते अतिमञ्चिसुं जा. अट्ठ. 4.139; - ञिस्सति भवि०, प्र. पु., ए. व. - पच्छिमा जनता सालिमंसोदनं अतिमञिस्सती ति, पारा. 7; - जितब्बा सं. कृ. - एवरूपे, भिक्खवे, पुग्गले उपेक्खा नातिमञ्जितब्बा, म. नि. 3.28; - ते आत्मने. वर्तः, प्र. पु., ए. व. - पदुद्धचित्ता अहितानुकम्पिनी, अजेसु रत्ता अतिमझते पति, जा. अट्ठ. 2.288; - नेति वर्त., प्र. पु., ए. व. - यो नरो सातिं अतिम ति, तं पराभवतो मुखं सु. नि. 104. अतिमञ्जना स्त्री., अति + vमन से व्यु. [अवमन्यना], अवमान, तिरस्कार, घमण्ड, अहंकार - खत्तियो ति विसेसो नत्थि, सुद्दो ति अतिमञ्जना नत्थि, मि. प. 128. अतिमटाहक त्रि., बहुत छोटा - न, भिक्खवे, अतिमटाहक दन्तकट्ठ खादितब्ब, चूळव. 259; अतिमटाहकन्ति अतिखुद्दक चूळव. अट्ठ. 56. अतिमत्त' त्रि., [अतिमत्त], अत्यधिक उन्मत्त, अतिशय अहंकारी - अतिमत्तोसि सिप्पेन, उरगं नापचायसीति, जा. अट्ठ. 7.39. अतिमत्त त्रि., ब. स. [अतिमात्र]. मात्रा में अत्यधिक -
भुसमतिसयो च दळहं तिब्बे कन्तातिमत्तबाळहानि, अभि. प. 41. अतिमधुर त्रि.. [अतिमधुर], बहुत स्वादिष्ट, बहुत मीठा -
अतिमधुरं गण्हथ अतिसादं गण्हथ, ध. स. अट्ठ. 248. अतिमनाप त्रि., [अतिमनाप], अतीव सुन्दर, मन को अत्यन्त प्रिय लगनेवाला- अभिक्कन्तन्ति अभिकन्तं अतिइटुं अतिमनापं अतिसुन्दरन्ति ति वुत्तं होति, सु. नि. अट्ठ. 1.122; उदा. अट्ठ. 233; म. नि. अठ्ठ. (मू.प.) 1(1).138; अयं अम्हाक सन्तिके अतिमनापा सुरा, जा. अट्ट, 1.260. अतिमनोरम त्रि., [अतिमनोरम], मन को अत्यधिक सुन्दर लगनेवाला, अतीव सुन्दर - बोधिसत्तोपि खो स्थवरं आरुयह महन्तेन यसेन अतिमनोरमेन सिरिसोभग्गेन नगरं पाविसि, जा. अट्ठ 1.70. अतिमनोहर त्रि., [अतिमनोहर], मन को अपनी ओर अत्यधिक खींचने वाला, अतिशय सुन्दर - दस्सनीया पासादिका परमाय वण्णपोक्खारताय समन्नागता अतिमनोहरकेसकलापी अहोसि, पे. व. अट्ठ. 40. अतिमन्द त्रि., [अतिमन्द], अत्यधिक आलसी, अतिशय कोमल, अतीव सुस्त - अतिमन्दो पि अग्गीव वत्तमानो सकासयं, सद्धम्मो. 488. अतिमन्दक त्रि., [अतिमन्दक], उपरिवत् - सन्दिट्ठिकं फलं बीजा अङ्गुर वातिमन्दक, सद्धम्मो. 273. अतिमहन्त त्रि., [अतिमहत्], बहुत बड़ा, अत्यधिक विशाल, महान् - तदा अञतरस्मिं नातिमहन्ते सरे निदाघसमये उदकं मन्दं अहोसि, जा. अट्ट, 1.218; किमिदं देवी ति च पट्ठा अतिमहति ते, देव, सम्पत्ति, पे. व. अट्ठ. 64; - ता अतिमहन्त का भाव., स्त्री॰ [अतिमहत्ता], अत्यधिक विशालता -- पथवि अतिमहन्तताय नरोरगमिगपक्खिजलसेलपब्बतदुमे । धारेति, मि. प. 258. अतिमहासावज्ज त्रि., [अतिमहासावद्य], अत्यन्त पापमय, अतीव निन्दनीय - तत्थ अहमेव लभेय्यन्ति इच्छा नातिमहासावज्जा , म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).155. अतिमान पु., [अतिमान], अत्यधिक अभिमान, प्रबल दर्पभाव - सातियेसु अनस्सावी, अतिमाने च नो युतो, सु. नि. 859%; इधेकच्चो पर अतिमञ्जति जातिया वा गोत्तेन वा ... पे ... अञ्जतरुञ्जतरेन वा वत्थुना, यो एवरूपो मानो मञ्जना मञ्जितत्तं उन्नति उन्नमो धजो सम्पग्गाहो केतुम्यता चित्तस्सअयं वच्चति अतिमानो, महानि. 170; कदरियता अतिमानो उसूया, दी. नि. 2.177; अतिमानो च ओमानो, पहीना सुसमूहता, थेरगा. 428; - हत त्रि., [हत], अत्यधिक
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अतिमानी
114
अतिरच्छानकथिक घमण्ड से विनष्ट या पीड़ित - अतिमानहतो बालोति बालो अतिमुत्तक पु., संकिच्च के एक अन्तेवासी सामणेर का नाम .... पत्थरो उस्सितद्धजो, थेरगा. अट्ठ. 2.93.
___ - सो पन तस्सेव भागिनेय्यो अतिमुत्तकसामणेरो नाम, ध. अतिमानी त्रि., [अतिमानी], दूसरे से स्वयं को अधिक श्रेष्ठ प. अट्ठ. 1.385, पाठा. अधिमुत्तसामणेरो. समझकर अभिमान करने वाला व्यक्ति, अहंकारी, घमण्डी- अतिमुत्तकसुसान नपुं., कर्म. स., वाराणसी के समीप में सक्को उजू च सुहुजू च, सूवचो चस्स मुदु अनतिमानी, सु. स्थित एक श्मशान का नाम - ते तत्थ तीणि चत्तारि नि. 143; थद्धो होति अतिमानी, दी. नि. 3.32; अतिमानीति वस्सानि वसित्वा ... बाराणसिं पत्वा अतिमुत्तकसुसाने .... अतिक्कमित्वा मञ्जनलक्खणेन अतिमानेन च समन्नागतो वसिंसु, जा. अट्ठ. 4.26. होति, दी. नि. अट्ठ. 3.21.
अतिमुदुक त्रि., [अतिमृदुक], अतीव कोमल, हल्का, दुर्बल अतिमायावी त्रि., [अतिमायाविना अत्यधिक ___ - राजा अतिमुदुको, जा. अट्ठ. 1.254; इमे द्वेपि अतिमुदुका, धोखेबाज, कूटयुक्ति का प्रयोग करने वाला, अत्यधिक ध. प. अट्ठ. 2.237. जालसाज - ततं मायाविनोति अतिमायाविनो, जा. अठ्ठ अतिमोदति अति + ।मुद का वर्त.. प्र. पु., ए. व. 6.53.
[अतिमोदति], और भी अधिक आनन्दित होता है - अतिमीळ्हज त्रि., अति + मिह का भू. का. कृ. इधलोकेपि मोदति, कालं कत्वा इदानि परलोकपि [अतिमीढज], मल-मूत्र के ढेर से जन्म लेने वाला शिशु. अतिमोदतियेवाति, ध. प. अट्ठ. 1.77. - सचे, दोण, ब्राह्मणो गभिनि गच्छति अतिमीळहजो नाम __ अतिमोह पु., [अतिमोह], प्रबल अज्ञान, घनीभूत व्यामोह सो होति माणवको वा माणविका वा, अ. नि. 2(1).210; - तस्सेसा अतिमोहजालबलता जानम्पि संमुव्हतीति, म. अतिमीळ्हजोति अतिमीळहे महागथरासिम्हि जातो, अ. नि. वं. 20.58; अतिमोहेन अनयं आपज्जति, मि. प. अट्ठ. 3.68.
258. अतिमुखर त्रि., [अतिमुखर], अत्यधिक वाचाल, बातूनी - अतियक्ख पु.. [अतियक्ष], यक्ष का अतिक्रमण कर उनसे भी तस्मिं काले रो पुरोहितो अतिमुखरो होति बहुभाणी, जा. बढ़-चढ़कर मायावी - अतियक्खा वस्सवरा, इत्थागारा च अट्ठ. 1.400; मय्ह पुरोहितो अतिमुखरो आप्पमत्तकेपि वुत्ते राजिनो, जा. अट्ठ. 7.257. बहु भणन्तो मं उपद्दवेति, ध. प. अट्ठ. 1.289; - ता स्त्री.. अतियाचक त्रि., [अतियाचक], अधिक याचना करने वाला अतिमुखर का भाव. [अतिमुखरता], अत्यधिक वाचालता, - तं ते न दस्सं अतियाचकोसि, पारा. 226; जा. अट्ट, 2237. बातूनीपन - आचरिय, तुम्हे अतिमुखरताय नाळिमत्ता अतियाचना स्त्री., [अतियाचना], अधिक मांगना, अत्यधिक अजलण्डिका गिलन्ता किञ्चि न जानित्थ, जा. अट्ठ. याचना - विदेस्सो होति अतियाचनाय, पारा. 227. 1.401.
अतियाति अति + Vया का वर्त, प्र. पु., ए. व., बगल से अतिमुत्त पु.. [अतिमुक्त], अजमोथा, एक प्रकार की लता, होकर निकल जाता है, अतिक्रमण करके या चुपके से वासन्ती-लता, जो आम की प्रिया के रूप में आमवृक्ष से बाहर निकल जाता है - यन्ति ब. व. - अतिक्कमन्तीति लिपटी रहती है - वासन्ति त्थि अतिमुत्तो, अभि. प. 577; भगवतो सवनविसये तं तं मुखारुळ्हं वदन्ता अतियन्ति, अतिमुत्ता असोका च, भगिनीमाला च पुप्फिता, अप. 1.12; उदा. अट्ठ. 260; - तुं निमि. कृ., - ब्राह्मणगहपतिकानम्पि अज्जुना अतिमुत्ता च, महानामा च पुफिता, अप. 1.380; - तस्मिं समये न फासु होति अतियातुं वा निय्यातुं वा, अ. नि. क पु.. [अतिमुक्तक]. उपरिवत्, तिनेश वृक्ष का नाम - 1(1).84; अतियातुन्ति बहिद्धा जनपदचारिक चरित्वा अहञ्च अङ्कोलकमोचिनामि, अतिमुत्तकं सत्तलियोथिकञ्च, इच्छितिच्छितक्खणे अन्तोनगरं पविसितं. अ. नि. अट्ठ. जा. अट्ठ. 4.398; तिनोसो त्वतिमुत्तको, अभि. प. 555; 2.42-43. अतिमुत्तकादिलतामण्डपो, उदा. अट्ठ. 163; - कमाला अतिरच्छानकथिक त्रि., [अतिरश्चीनकथिक], निरर्थक अथवा स्त्री., [अतिमुक्तकमाला], माधवी-लता के फूलों से बनी सांसारिक विषयों से सम्बन्धित बातें न करने वाला - माला - इत्थी वा पुरिसो वा दहरो, युवा ... वस्सिकमालं सङ्घगतो खो पन अनानाकथिको होति अतिरच्छानकथिको, वा अतिमुत्तकमालं वा लभित्वा ... उत्तमङ्गे सिरस्मिं पतिट्ठापेय्य, अ.नि. 3(1).4; अनानाकथिकेन भवितब्बं अतिरच्छानकथिकेन, चूळव. 419.
परि. 311, तिरच्छानकथिक का विलो..
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अतिरच्छानगामी
अतिरेक अतिरच्छानगामी त्रि., [अतिरश्चीनगामी], तिर्यक योनि में मानना - अनतिरिते अतिरित्तसञआया ति, मि. प. 248; - पुनर्जन्म ग्रहण न करने वाला प्राणी- सब्बे सोतसमापन्ना, सञी त्रि., अनतिरिक्त भोजन को अतिरिक्त भोजन अतिरच्छानगामिनो, स. नि. 1(1).181.
माननेवाला - अनतिरिते अतिरित्तसञ्जी खादनीयं वा भोजनीयं अतिरतनमार पु., [अतिरत्नभार], रत्नों का अत्यधिक भार वा खादति वा भुञ्जति वा, आपत्ति पाचित्तियरस, पाचि. या वज़न - किं नु खो, महाराज, अतिरतनभारेन सकट । 114; स. उ. प. के रूप में अकता., अन., कता., गिलाना. भिज्जतीति, मि. प. 224.
एवं सुगता. के अन्त. द्रष्ट; - टि. भोजन के साथ प्रयुक्त अतिरत त्रि., [अतिरात्र], बीती हुई रात का परवर्ती समय होने पर यह विनय का एक पारिभाषिक शब्द बन जाता है. - अतिक्कन्तो रत्तिं अतिरत्तो, मो. व्या. 345.
भिक्षसङ्ग को प्राप्त भोजन के अवशिष्ट भाग को अतिरिक्तभोजन अतिरत्तिं सप्त. वि., प्रतिरू. निपा., बहुत रात ढल जाने पर, कहा गया है, अनुमोदित अवस्थाओं में पवारित भिक्षु इस प्रातःकाल से कुछ पूर्व - अयं अतिरत्तिं वा वस्सति अतिपभाते भोजन को ग्रहण कर सकता है, ऐसा भिक्षु अनतिरिक्त वा, जा. अट्ठ. 1.418; 2.254.
भोजन ग्रहण नहीं कर सकता है, पाचि. संख्या 35. अतिरमणीय त्रि., [अतिरमणीय], अत्यन्त सुन्दर - खं खयं अतिरुचिर त्रि., [अतिरुचिर], अत्यन्त दर्शनीय, अतीव अतिरमणीयं राजक्खयं सद्द. 2.327.
सुन्दर, अतिशय प्रासादिक - अतिरुचिरसुवग्गु दस्सनेय्यं अतिरसकपूव पु., कर्म, स. [अतिरसकपूप], अत्यन्त रस पटिलभति दहरो सुसु कुमारो, दी. नि. 3.114. भरा पुआ - अथेकदिवसं तस्मिं घरे अतिरसकपूवे पचिंस, अतिरूपिनी स्त्री., अत्यन्त सुन्दरी, अधिक लावण्यमयी - जा. अट्ठ. 5.279.
दिस्वा तमेवं चिन्तेसिं अहोयमभिरूपिनी, अप. 2.217, पाठा. अतिरस्स त्रि., कर्म. स. [अतिहस्व], अत्यन्त छोटा - अभिरूपिनी. नातिदीघा नातिरस्सा, नालोमा नातिलोमसा, जा. अट्ठ. अतिरेक त्रि., [अतिरेक], अधिक, और भी अधिक, विशिष्ट, 6.287; हीनं नाम लिङ्ग अतिदीघं, अतिरस्स, पाचि. 9. अन्य की अपेक्षा अधिक, परित्यक्त, छोड़ा हुआ - नात्तनो अतिराग पु.. [अतिराग]. अत्यधिक आसक्ति, सुदृढ़ लगाव समकं कञ्चि, अतिरेकं च मञ्जिसं, थेरगा. 424; अहि -- अतिरागेन उम्मत्तको होति, मि. प. 258.
ब्राह्मणेहि अतिरेकं कत्वा पस्सति, जा. अठ्ठ. 3.166; यथा हि अतिराज पु.. [अतिराजन्], राजाधिराज, बहुत बड़ा राजा - तुलं गहेत्वा ठितो अतिरेकं चे होति, हरति, ऊनं चे होति, राजूनं अतिराजा भवेय्य, मि. प. 258; आम, जम्बुक, पक्खिपति, ध. प. अट्ठ. 2.228; - कद्धमास पु., आधे महीने महाराजूनम्पि अतिराजा ति, ध. प. अट्ठ. 1.283; - कुमार से भी अधिक वाला समय - अतिरेकद्धमासे सेसे गिम्हाने पु., राजाधिराज का पुत्र, विशिष्ट शक्ति एवं महिमा से कत्वा परिदहितं निस्सग्गियं, पारा. 378; - करण नपुं., सम्पन्न राजकुमार - अतिरेकतरो चेव विसेसवन्ततरो च [अतिरेककरण], अतिरिक्त कर देना, अतिशय या विशिष्ट राजकुमारो सो अतिराजकुमारो ति वुच्चति, ध. स. अट्ठ.4. कर देना - अत्तनो करणतो अतिरेक करणं अकरीति अत्थो, अतिरिच्चति अति + रिच का वर्तः, प्र. पु., ए. व., दूसरे जा. अट्ट, 1.413; - चतुमासनिविट्ठ त्रि., चार महीनों से की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ होता है, दूसरे को पारकर आगे बढ़ भी अधिक समय के लिये बसा हुआ - योपि सत्थो जाता है - इच्छाविघातं दुक्खं कि नरकं नातिरिच्चति, अतिरेकचतुमासनिविट्ठो सोपि वुच्चति गामो, पारा. 52; - सद्धम्मो. 126; - च्वेय्य विधि., प्र. पु., ए. व. - किं नु खो चीवर अननुमोदित या अननुज्ञात चीवर - अतिरेकचीवरं नातिरिच्चेय्य मनुस्से जम्बुदीपके, सद्धम्मो. 23.
नाम अनधिद्वितं अविकप्पितं, पारा. 303; - तर त्रि., अतिरित्त त्रि., अति + रिच का भू. क. कृ. [अतिरिक्त], अतिशयार्थ-वाचक पञ्चम्यन्त के साथ प्रयुक्त विशे. अवशिष्ट, शेष, बचा हुआ, बाकी, अधिक - अतिरित्तो [अतिरेकतर], और भी अधिक विशिष्ट अथवा उत्तम - तथाधिको, अभि. प. 712; अनुजानामि, भिक्खवे, गिलानस्स दानतो अतिरेकतरं पुअन्ति, जा. अट्ठ. 7.215; चतूहि च अगिलानस्स च अतिरित्तं भुजितुं, पाचि. 113; - भत्त । समुद्देहि अतिरेकतरेन अस्सुना भवितब्बन्ति इदं, ध. प. अट्ठ. नपुं., भिक्षुसङ्घ को प्राप्त भोजन का अतिरिक्त भाग - अस्थि 1.304; - तरपञ त्रि., ब. स. [अतिरेकतरप्रज्ञ], अन्य की किञ्चि भिक्खुसङ्घस्स अतिरित्तभत्तान्ति, ध. प. अट्ठ. 2.152; प्रज्ञा की अपेक्षा अधिक उत्तम प्रज्ञा वाला - तेहि किर - सज्ञा स्त्री., किसी भी भोजन को अतिरिक्त भोजन पण्डितेहि अतिरेकतरपा पञ्चालरओ माता, जा. अट्ठ.
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अतिरेक
6.227 तरवण्ण त्रि. ब. स. [अतिरेकतरवर्ण] दूसरों की अपेक्षा अत्यधिक सुन्दर रूप वाला भिय्यो वण्णवती सियाति अतिरेकतरवण्णा भवेष्यासीति, जा. अड. 4.98 - ता स्त्री०, अतिरेक का भाव, श्रेष्ठता, उत्तमता, उत्कृष्टता
अस्थि बुद्धानं बुद्धेहि हीनातिरेकताति, कथा. 489; दसवग्ग त्रि.. [अतिरेकदशवर्ग]. ऐसा वर्ग (समूह), जिसमें दस से अधिक की संख्या वाले सदस्य या अवयव (भाग) हों - अनुजानाभि, भिक्खवे, दसवग्गेन वा अतिरेकदसवग्गेन वा गणेन उपसम्पादेतुन्ति, महाव. 66: धम्म त्रि. ६. स. छोड़ने योग्य अथवा त्यागने योग्य बातें या धर्म - सिया च में पिण्डपातो अतिरेकधम्मो छडनीयधम्मो म. नि. 1.17: अतिरेकोव अतिरेकधम्मो म. नि. अड. (मू.प.) 1 ( 1 ). 101: पञ्चक त्रि.. ऐसा समूह जिसमें पांच से अधिक लोग हों
न अञ्ञत्र पञ्चकेन वा अतिरेकपञ्चकेन वा तदहेव सञ्छिन्नेन - अत्थतं होति कथिनं, महाव. 331-332; पञ्चमासक त्रि, पांच माशा से अधिक वजन वाला या मूल्य वाला चोरो नाम यो पञ्चमासकं वा अतिरेकपञ्चमासकं वा आदियति पारा 53; - पज्ञावेय्यत्तिय नपुं. आवश्यकता से अधिक बुद्धिमत्ता चक्करतने उप्पन्नमत्ते अतिरेकपञ्ञवेय्यत्तियेन समन्नागतो होति. खु. पा. अड्ड. 139 पण्णास / पञ्ञास क्रि पचास से अधिक की संख्या वाला कूटतास तत्थ अतिरेकपण्णासवस्सानि वसि, जा. अट्ठ. 2.314; - पत्त पु०, [अतिरेकपात्र], अतिरिक्त भिक्षापात्र - अनुजानामि, भिक्खवे, दसाहपरमं अतिरेकपत्तं धारेतुं पारा 365 - पदसत नपुं०, एक सौ से अधिक गाथापद महाकाळनागराजा अतिरेकपदसतेन वण्णं वदन्तो अद्वासि, जा. अड. 1.81 - पाद त्रि०, ब० स०, एक पाद से अधिक मूल्य वाला यथारूपं नाम पादं वा पादारहं वा अतिरेकपादं वा पारा 53: - प्पमाण त्रि. ब. स. [ अतिरेकप्रमाण], असाधारण आकार प्रकार वाला अतिरेकप्पमाणं भासति जा. अनु. 3.89पूजा स्त्री०, विशिष्ट प्रकार की पूजा ते न अतिरेकपूजाय पूजेता होति. म. नि. 1.284 भाग पु उचित भाग से अधिक अञ्जतरो भिक्खु अतिरेकभागेन उत्तरितुकामो होति. महाव, 376; लाभ पु. अतिरिक्त लाभ, अनुमोदित वस्तुओं के अतिरिक्त अन्य का लाभ अतिरेकलाभो सङ्घभत्तं, उद्देसभतं, निमन्तनं महाव. 65; - वीसतिवग्ग त्रि. बीस से अधिक संख्या वाला वर्ग या मण्डली - अतिरेकवीसतिवग्गो भिक्खुसहो महाव. 416 वीसतिवस्स
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अतिवत्त
त्रि, बीस वर्ष से अधिक आयुवाला वीसतिवस्सो वा होति अतिरेकवीसतिवस्सो वा अ. नि. 3 (1)108: सञ्जी त्रि.. [अतिरेकसञ्ज्ञी] अधिक की संज्ञा रखनेवाला, किसी धर्म के अत्यधिक होने की अवस्था के प्रति सचेष्ट अतिरेकद्धमासे सेसे गिम्हाने अतिरेकसञ्जी कत्वा निवासेति पारा. 378; विलो. ऊनकसञ्ञी; - सत्त [ सप्त], सात से अधिक संख्या वाला मग कनिस्स अतिरेकसत्तमाससत्तदिवसाधि कानि सत्तवस्सानि निक्खन्तस्सा ति... जा. अट्ठ. 5.311. अतिरोचति अति + √रुच का वर्त प्र. पु. ए. व. [अतिरोचति] दूसरों की तुलना में अधिक प्रकाशित होता है, विशिष्ट गुणों के कारण बहुतों के बीच प्रमुख होता है
अतिरोचति पञ्ञाय, सम्मासम्बुद्धसायको ध. प. 59: भिक्खु दिसन्धि अनुदिसम्पि उद्धम्पि अघोधि तिरियम्पि विरोचति अतिरोचति मि. प. 305: सब्बे तारागणे लोके, आभाय अतिरोचति जा. अड. 5.56.
अतिलहु तृ. वि. प्रतिरू, निपा क्रि. वि. बहुत हल्केपन से, अत्यन्त शीघ्रता के साथ बिना सोचे-विचारे ही अतिलहं खो त्वं मोघपुरिस, बाहुल्लाय आवत्तो यदिदं गणबन्धिक, महाव, 66 क अ उपरिवत् अतिचिरम्पि तिद्वन्ति, अतिलहुकम्पि तिट्ठन्ति चूळव. 358, पाठा. अतिलम्पि
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अतिलीन त्रि.. अत्यन्त दुर्बल, अत्यन्त क्षीण, अतीव कृश - इति मे वीरियं न च अतिलीनं भविस्सति न च अतिप्यग्गहितं भविस्सति स. नि. 3 ( 2 ) 337 वीरिय नपुं अत्यन्त शिथिल पराक्रम, अत्यन्त मन्द प्रयास न अच्चारद्धवीरियं, न अतिलीनवीरियं म. नि. 3.199. अतिलूख त्रि. [ अतिरुक्ष] अधिक रूखा, अत्यन्त कड़ा, अतिशय कठोर - सचित्तं परिदूसेन्ति अतिलूखे पि पच्चये, सद्धम्मो . 409.
अतिलोण त्रि, [ अतिलवण] अत्यधिक नमकीन रातो पट्ठाय यागुं ददमाना अच्चुण्डं वा अतिसीतलं वा अतिलोणं वा अलोणं वा देति, जा. अट्ठ. 3.374.
अतिवक त्रि. [अतिवक्र], अत्यधिक टेढ़ा अग्गे अतिवङ्कानीति वातिवानि, जा. अड. 1.162. अतिवत्तत्र अति + वत का भू. क. कृ. [अतिवृत्त], हो चुका, पीछे जा चुका, बीत चुका पार किया जा चुका अतिवत्ता लोकधम्मा, तस्मा अरहा न तसति सब्बभयेहि, मि. प. 147, मुत्तो अज्ज त्वं इतो पहाय सब्बभयानि अतिवत्तो
जा. अट्ठ. 5.79.
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अतिवत्तति
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अतिविष्फारिक
अतिवत्तति अति + Vवत का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अतिवर्तते], अतिक्रमण करता है, अभिभूत करता है, जीत लेता है, किसी से छिपने की चेष्टा करता है - अथ एतं पिसाचञ्च पक्कुलञ्चातिवत्ततीति, उदा. 74, पक्कुलञ्चातिवत्ततीति ... अक्कुलपक्कुलिकञ्च अतिवत्तति, अतिक्कमति, अभिभवति, तं न भायतीति अत्थो, उदा. अट्ठ. 56; - न्ति प्र. पु., ब. व. - केन तं नातिवत्तन्ति आतिसङ्घा समागता, जा. अट्ठ. 4.121; - त्तरे प्र. पु., ब. व., आत्मने. - पापञ्चेपि बहुं कत्वा, तं खणं नातिवत्तरे, जा. अट्ठ. 7.110; - अच्चवत्तथ अद्य, प्र. पु.. ए. व. - तञ्च सो समतिकम्म, परमेवच्चवत्तथ, । जा. अट्ठ. 3.427; - तिंसु ब. व. - पुथुयझं यजित्वान, पेतत्तं नातिवत्तिसुं, जा. अट्ठ. 6.120; -त्तितब्बा पु.प्र. वि., ब. व., सं. कृ. - सुखेन अतिवत्तितब्बा न होन्ति, सु. नि. अट्ठ. 2.216; - त्तेय्य विधि०, प्र. पु., ए. व. - तं तादिसं नातिवत्तेय्य चक्क न्ति, जा. अट्ठ. 4.4. अतिवत्तन नपुं, अति + Vवत से व्यु. [अतिवर्त्तन], अतिक्रमण, उल्लंघन, पराभवन, अभिभवन, किसी से परित्राण - संसारतो अतिवत्तनानतिवत्तनदीपकं इमं उदानं उदानेसीति, उदा. अट्ठ. 282. अतिवद्ध त्रि., [अतिवृद्ध], पूर्ण विकसित, अतीव वृद्ध -
नातिवद्धव कुञ्जर, जा. अट्ठ. 7.377. अतिवस त्रि., ब. स. [अतिवश], पूर्णतः पराधीन रहनेवाला - ममवातिवसा अस्स किच्चाकिच्चेस किस्मिचि,ध. प. 74. अतिवस्स नपुं.. [अतिवर्ष], अधिक वृष्टि, अधिक वर्षा -
अतिवस्सेन धज विनस्सति, मि. प. 258. अतिवस्सति अति + Vवस का वर्त. , प्र. पु., ए. व., अत्यधिक वर्षा करता है - तस्मा छन्नं विवरेथ, एवं तं नातिवस्सति, थेरगा. 447; चूळव. 397. अतिवस्सित नपुं., पक्षियों की बहुत जोर की चहचहाहट - वाचा हनति दुम्मेधं, तित्तिरं वातिवस्सितं. जा. अट्ठ. 1.414. अतिवहति अति + Vवह का वर्त, प्र. पु., ए. व., शा. अ. ढोकर ले जाता है, ला. अ. बहकाता है, ठगता है, फुसलाता है, वञ्चित करता है; ब. व. - मरीचिधम्म असमेक्खितत्ता, मायागुणा नातिवहन्ति पञ्ज जा. अट्ठ 7.52. अतिवाक्य नपुं.. [अतिवाक्य], अनार्य-वचन, कठोर वाणी, निन्दापरक वचन, गाली-गलौज़ - अट्ठानरियवोहारवसेन या पवत्तिता, अतिवाक्यं सिया वाचा सा वीतिक्कमदीपनी, अभि. प. 122; अतिवाक्यं तितिक्खिस्सं. दुस्सीलो हि बहुज्जनो,
ध. प. 320; नेवातिवाक्यं न लभे, भातूहि सखिनीहिपि, जा. अट्ठ. 7.265. अतिवात 1. पु.. [अतिवात], प्रचण्ड झञ्झावात, तूफानी हवा - यथा वा पन, महाराज, गगनं ... अतिवातेन फुटितत्ता नदति रवति गळगळायति.... मि. प. 123; विसमं सभयं अतिवातो, पटिच्छन्नं देवनिस्सितं, मि. प. 103; अतिवाते सद्दो अविभूतो होति, मि. प. 102; - छान नपुं.. प्रचण्ड वायु का स्थान, प्रचण्ड झज्झावात का स्थान - अतिवातद्वानं परिवज्जनीयं, मि. प. 102. अतिवायति अति + Vवा का वर्त., प्र. पु., ए. व., आगे की
ओर बहता है, विशेष रूप से हवा चलती है, इधर-उधर बहता है -न्ति ब. व. - दिसम्पि अनुदिसम्पि अनुवातम्पि पटिवातम्पि वायन्ति अतिवायन्ति, फरित्वा तिट्ठन्ति, मि. प. 303. अतिवाह पु., अति + Vवहति से व्यु. 1. निर्देशक, सञ्चालक, परिवहन, वहन, सवारी, वाहन - सीलं सेट्ठो अतिवाहो, येन याति दिसोदिसं. थेरगा. 616; 2. हांक, संचालन, प्रेरकबल अधिक भार का वहन - अतिवाहेन हनन्ति पुङ्गवं, जा. अट्ठ. 5.430. अतिविकाल पु., अधिक देर, अधिक विलम्ब या असमय -
अतिविकालो खो, भो, अज्ज समणं गोतम दस्सनाय उपसमितुं, दी. नि. 1.94; अतिविकालोति सुट्ट विकालो, दी. नि. अट्ठ. 1.223; भद्दे, अहं अज्जेव अतिविकालो जातो, तस्मा गेहं अगन्त्वा मनुस्से उय्योजेत्वा एककोव पविट्ठोस्मि, जा. अट्ठ. 3.419, तुल. अतिप्पगो. अतिविज्झति अति + Vव्यध का वर्त.. प्र. पु., ए. व., अधिक वेधन करता है, विशेष रूप से छेदन या भेदन करता है, भोंकता है, अधिक चुभाता है, पार करता है, मर्माहत करता है - एवं अभावितं चित्तं रागो समतिविज्झति, ध. प. 13. अतिवित्थार पु. [अतिविस्तार], अत्यधिक विस्तार, अधिक फैलाव - भय पु., तृ. वि., ए. व., अधिक विस्तार का भय - अतिवित्थारभयेन तु संखित्तं, खु. पा. अट्ठ. 183; - ता स्त्री., भाव. सं. [अतिविस्तारता], विस्तार की अधिकता - आकासो अतिवित्थारताय अनन्तो, मि. प. 258. अतिवित्थारित त्रि., [अतिविस्तारित], अत्यधिक विस्तृत किया हुआ, विशेष रूप से फैलाया हुआ - पोराणेहि कतोपेसो
अतिवित्थारतो क्वचि, म. वं. 1.2. अतिविप्फारिक त्रि., [अतिविस्फारिक], अत्यधिक आभास्वर विस्तार वाला, अत्यन्त तेजोमय या ओजस्वी - कायो च पन तेसं अतिविफारिकोव होति, अ. नि. अट्ठ. 3.165.
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अतिविम्हितमानस
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अतिसक्क अतिविम्हितमानस त्रि., [अतिविस्मितमानस].. अत्यधिक अमच्चो अब्भन्तरिको अतिविस्सासिको ... सहायो, जा. आश्चर्यचकित मन वाला, विशेष रूप से आश्चर्यान्वित मन अट्ट, 1.94. वाला-चीवरं पारुपन्ते ते अतिविम्हितमानसो, म. वं अतिविस्सुत त्रि., [अतिविश्रुत], अत्यधिक विख्यात, बहुत 14.49.
अधिक प्रसिद्ध - पुण्णो सुनापरन्तो व खन्तिया अतिविस्सुतो, अतिविय निपा., [अतीव, अत्यधिक, अतिशय रूप में, सद्धम्मो. 473. अतिरेक रूप में - अतिरोचति अम्हेहीति अत्तना मादिसेहि अतिवीरिय नपुं.. [अतिवीर्य], अत्यधिक दृढ़ पराक्रम, अतिविय विरोचति, पे. व. अट्ठ. 122; न केवलं रागोव अत्यधिक शौर्य - बोधिसत्तो अतिवीरियं करोन्तो निरवसेसतो दोसमोहमानादयो सब्बकिलेसा तथारूपं चित्तं अतिविय आहारं उपरुन्धि, मि. प. 230. विज्झन्तियेव, ध. प. अट्ठ. 1.71, पाठा. अतिरिव, अतीव; क. अतिदुट्ठि स्त्री., [अतिवृष्टि], अत्यधिक वर्षा - तत्थ क्रियारूपों के पूर्व में प्रयुक्त - सूरियस्स तापो अतिविय अतिवुट्टिकाले थले सस्सं सम्पज्जति, जा. अट्ठ. 4.342. तपति, मि. प. 255; ख. विशे से पूर्व में प्रयुक्त - तदा अतिवुद्ध त्रि., [अतिवृद्ध], अत्यधिक बूढ़ा, अत्यधिक वृद्ध - कोसलराजा अतिविय धम्मिको राजा ति अत्वा .... जा. मासे जेट्ठोतिवुद्धातिप्पसत्थेसु च तीसु सो, अभि. प. 918. अट्ठ. 1.255; अयं मे अतिविय उपकारो ति तं पटिबाहितुं अतिवेग पु., [अतिवेग], अत्यधिक वेग, अतिशय वेग, विशेष असक्कोन्तो ..., ध. प. अट्ठ. 1.290; ग. तुळनासूचक विशे. तेजी - यथा, महाराज, पुरिसो अद्धानं अतिवेगेन गच्छेय्य, से पूर्व आए हुए, तृतीयान्त एवं पञ्चम्यन्त नामपदों से पूर्व मि. प. 230. में प्रयुक्त - इमे द्वे पिण्डपाता समसमफला ... अतिविय अतिवेठयन्ति अति + Vवेठ का वर्त., प्र. पु., ब. व. अओहि पिण्डपातेहि महप्फलतरा, मि. प. 110; दी. नि. [अतिवेष्टयन्ति], बदले में लपेट लेते हैं, प्रतिकार के रूप 2.103.
में दांव में बांध लेते हैं - रत्तचित्तमतिवेठयन्ति नं. अतिविरोचित्थ अति + वि + रुच का अद्य. म. पु., ब. सालमालुवलताव कानने, जा. अट्ठ. 5.450, व., अत्यधिक मात्रा में संशोभित हुआ - स्त्तकम्बलेन पलिवेठेत्वा अतिवेलं निपा., क्रि. वि. [अतिवेल]. निर्धारित सीमा का पीठे ठपिता रत्तसुवण्णघनपटिमा विय अतिविरोचित्थ, उदा. उल्लंघन करके, असामयिक रूप में, अनुपयुक्त समय में, अट्ठ. 336.
आवश्यकता से अधिक रूप में- ते अतिवेलं हस्सखिड्डारतिअतिविस स्त्री., [अतिविष], एक औषधीय जड़ी-बूटी का धम्मसमापन्ना विहरन्ति, दी. नि. 1.17; भिक्खनीहि नाम, सोंठ - मूलबीजं नाम ... अतिविसा, दी. नि. अट्ठ. सद्धि अतिवेलं संसट्टो विहरति, म. नि. 1.174; यो वे काले 1.75; अनुजानामि, भिक्खवे, मूलानि भेसज्जानि- हलिदि, असम्पत्ते, अतिवेलं पभासति, जा. अट्ठ. 3.88; - चारी त्रि., सिङ्गिवेरं वचं, वचत्थं, अतिविसं.... महाव. 276; पाचि. 53. [अतिवेलचारिन्], निर्धारित समय के बाद भी विचरने वाला अतिविसाल त्रि.. [अतिविशाल, अत्यधिक चौड़ा, बहुत - काले पविस्स नागदत्त, दिवा च आगन्वा अतिवेलचारी, फैला हुआ, अतिविस्तृत - अतिविसाले चङ्कमे चङ्कमन्तस्स स. नि. 1(1).232; - भाणी त्रि., असमय में बोलने वाला चित्तं विधावति, जा. अट्ट, 1.10; - ता स्त्री॰, भाव. - तक्कारिये सोममिमं पतामि, न किरेव साधु अतिवेलभाणी, [अतिविशालता], अतीव विशाल होने की स्थिति - एकग्गतं जा. अट्ठ. 4.222; - सायी त्रि.. [अतिवेलशायिन]. प्रातःकाल न लभतीति अतिविसालता पञ्चमो दोसो, जा. अट्ठ. 1.10. में बहुत देर तक सोने वाला - सम्मूळहचित्तो अतिवेलसायी, अतिविसट्ठवाक्य त्रि., ब. स., प्रवाहमय वचनों को बोलनेवाला तस्सा पुण्णं कुम्भमिमं किणाथ, जा. अट्ठ. 5.15; - लानुरक्खी - बिन्दुस्सरो नातिविसट्ठवाक्यो, जा. अट्ठ. 5.194; पाठा. त्रि., [अतिवेलानुरक्षी], अत्यधिक सावधान, विशेष रूप से नातिविस्सट्ट...
सचेष्ट - न च अतिवेलानुरक्खी पत्तस्मिं, म. नि. 2.347. अतिविस्सत्थ त्रि., [अतिविश्वस्त], बहुत भरोसेमन्द, अत्यन्त अतिस पु., एक व्यक्ति का नाम - अतिसो च भारद्वाजो च विश्वसनीय - मातापितूसु विय अतिविस्सत्था मनुस्सा अहेसु अतिसभारद्वाज, मो. व्या. 3.23. सु. नि. अट्ठ. 2.46.
अतिसक्क पु०. [अतिशक्र], शक्र से अधिक श्रेष्ठ (भगवान अतिविस्सासिक त्रि., [अतिविश्वासिक], अत्यधिक निकटवर्ती, बुद्ध)-सक्कानं अतिसक्को, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).56; अ. अतिशय विश्वासी - सो किर रओ सब्बत्थसाधको नि. अट्ठ. 1.90.
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अतिसक्करी
119
अतिसल्लेख
अतिसक्करी स्त्री., [अतिशक्वरी/अतिशक्करी], वह छन्द, अतिसयेन अलङ्कता, पे. व. अट्ठ. 75; अतिसयेन महद्धनोति जिस के प्रत्येक चरण में पन्द्रह मात्राएं होती हैं तथा जिसके महद्धनतरो, उदा. अट्ठ. 81; - टि. अट्ठ. के व्याख्यानों में ससिकला, मणिगुणनिकर, मालिनी और पभद्दक ये चार तुलनात्मक श्रेष्ठता का बोधक; - तो प. वि. के अर्थ में प्रभेद होते हैं, वुत्तो. 92-95.
निपा., क्रि. वि. [अतिशयतः], अतिशय अथवा अधिक मात्रा अतिसङ्केप पु. [अतिसंक्षेप], अत्यधिक संक्षेप - एत्थ अतिसङ्केपेन में - अतिसयतो वा सीलं अस्स अत्थीति सीलवा.... उदा. वुत्तं .... सु. नि. अट्ठ. 2.62.
अट्ठ. 180; - यत्थ पु., कर्म स., [अतिशयार्थ], महत्त्वपूर्ण अतिसज्जन नपुं.. [अतिसर्जन], दिशानिर्देश, अनुशासन, विषय, महत्त्व की बात - मा नो इमं अतिसयत्थं अजे शिक्षण, उपदेश - दिसअतिसज्जने, अतिसज्जनं पवोधनं जानिसूति, ध, प, अट्ठ. 2.227; - निरोध पु., कर्म. स., भवनेन, सद्द. 2.453.
[अतिशयनिरोध], पूरी तरह से समाप्ति या उच्छेद - अतिसञ्चार पु., [अतिसञ्चार], इधर-उधर अधिक घूमना अतिसयनिरोधो हि नेसं पठमज्झानादिसु ..., विसुद्धि. या चक्कर लगाना - अतिसञ्चारेन न चिरं जीवति, मि. प. 1.159; - निरोधत्त नपुं., भाव., [अतिशयनिरोधत्व]. 258, पाठा. अतिसञ्चरणेन.
अत्यधिक निरोध-प्राप्ति की अवस्था - ... एवं झानेस्वेव अतिसणिकं निपा., क्रि. वि., अत्यन्त मन्द गति से, अत्यन्त निरोधो वुत्तोति? अतिसयनिरोधत्ता, विसुद्धि. 1.159; - भरित मन्थर गति से - नातिसणिकं गच्छति, म. नि. 2.346. त्रि., [अतिशयभरित], अत्यधिक भरा हुआ - अतिसयभरिता अतिसण्ह त्रि., [अतिश्लक्षण]. अतीव सूक्ष्म, अत्यन्त बारीक उदकभाजना, म. नि. अट्ट (मू.प.) 1(1).278, पाठा. - सोपि नो अतिसण्हं बहु अभिधम्ममेव कथेसि.ध. प. अट्ठ. अतिभरिता; - विसुद्ध त्रि., कर्म. स., [अतिशयविशुद्ध]. 2.189.
अत्यधिक स्वच्छ, बहुत अधिक साफ-सुथरा - अतिसन्त त्रि., [अतिशान्त], अत्यधिक शान्त - नास्मसे अतिसयविसुद्धाहि विज्जाहि, सु. नि. अट्ठ. 2.148.
अत्तत्थपञम्हि, अतिसन्तेपि नास्मसे, जा. अट्ठ. 4.50. अतिसयति अति + /सी का वर्त, प्र. पु., ए. व., [अतिशेते, अतिसन्तिके निपा., क्रि. वि., अत्यन्त समीप में अत्यन्त अतिसेति के अन्त. द्रष्ट... पास में - महामेघवनुय्यानं नातिदूरातिसन्तिके, म. वं. अतिसरति अति + सर का वर्त., प्र. पु., ए. व., [अतिसरति], 15.8.
शा. अ. अत्यधिक दूर चला जाता है, पार कर जाता है, अतिसमण पु., [अतिश्रमण], श्रमणों के बीच सर्वश्रेष्ठ (बुद्ध) तेजी से दौड़ता है; ला. अ. उल्लंघन करता है, उपेक्षा - समणानं अतिसमणो भवेय्य, मि. प. 258.
करता है, पापकर्म करता है, विनय-विपरीत आचरण करता अतिसम्बाध त्रि., [अतिसम्बाध], बहुत संकुचित, अत्यधिक है - अच्चसारी/अच्चसरा अद्य.. प्र. पु., ए. व. - यो नियन्त्रित - चक्कवाळ अतिसम्बाधं, ध. प. अट्ठ. 1.176; वि. नाच्चसारी न पच्चसारी, सु. नि. 8-13; एत्थ यो नाच्चसारीति व. अट्ठ. 53. अतिसम्बाधे ओकासे चतुकोटेन चतुसङ्कटितेनेव यो नातिधावि, सु. नि. अट्ठ. 1.19; - तत्रेको भिक्खु अच्चसरा, हुत्वा अच्छितब्ब, जा. अट्ठ. 3.213.
स. नि. 1(1).276; - रो अद्य., म. पु., ए. व. - तत्थ अतिसम्मुखं/अतिसम्मुखा अ., क्रि. वि., [अतिसम्मुखं], अतिसरोति अतिसरीतिपि अतिसरो, जा. अट्ठ. 4.6; - अत्यन्त समीप में, एकदम आमने-सामने - छ निसज्जदोसे अच्चसरिं अद्य., उ. पु., ए. व. - मूळ्हो अच्चसरि वने, वज्जेत्वा सेय्यथिदं- अतिदूर ... अतिसम्मुखं अतिपच्छाति, जा. अट्ठ. 5.64; अच्चसरिन्ति ... अतिक्कमित्वा ... पाविसिं, पारा. अट्ठ. 1.94; अतिसम्मुखा निसिन्नो सचे दवकामो जा. अट्ठ. 5.68; - रिस्सति भवि०, प्र. पु., ए. व. - होति, पारा. अट्ट, 1.94; विलो. अतिपच्छा.
अतिसरिस्सतीतिपि अतिसरो, जा. अट्ठ. 4.6; - सित्वा पू. अतिसम्मूळ्ह त्रि., अति + सं + (मुह का भू. क. कृ. का. कृ. - अतिसित्वा अञ्जुन वदन्ति सुद्धि, सु. नि. [अतिसम्मूढ], अत्यधिक मोहग्रस्त, प्रगाढ़, अज्ञान से भरा 914. - मोमूहोति अतिसम्मूळ्हो, दी. नि. अट्ठ. 1.100. अतिसल्लेख पु., अति + सं+लिख से व्यु., [-संलेख?], अतिसय पु., [अतिशय], अधिकता, उत्कर्ष, उन्नति - अत्यन्त कठोर तप, प्रबल अनासक्तिभाव, कठोर ब्रह्मचर्यउक्कसो त्वतिसयोथ, अभि. प. 761; विसेसमज्झगाति अाहि वास - अमोहेन ... धुतङ्गेसु अतिसल्लेख-मुखेन पवत्तं.. अ. अतिसयं अधिगता, वि. व. अट्ठ. 111; समलङ्कततराति सम्मानि . अट्ठ. 1.130; - वुत्ति स्त्री., कर्म. स., अत्यन्त कठोर तप
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120
अतिसल्लेखति
अतिसूर वाली स्थिति, प्रबल त्यागभाव की अवस्था - ... अतिसल्लेखवुत्तिया अतिसीघं अ., क्रि. वि., [अतिशीघ्र], अत्यधिक शीघ्रतापूर्वक, जीविते अनपेक्खो .... उदा. अट्ठ. 65.
बहुत तेजी से - सो नातिसीघं गच्छति, म. नि. 2.346; अतिसल्लेखति अतिसल्लेख का ना. धा., वर्त., प्र. पु., ए. नातिसीघं पक्कमति, उदा. अट्ठ. 335,अतिसीत त्रि., कर्म. व. - अत्यधिक उग्र तप करता है, दृढ़ अनासक्तिभाव से स. [अतिशीत], अत्यधिक शीतल, बहुत अधिक ठण्डा - युक्त है, कठोर प्रयास करता है - अयं समणो .... अतिसीतन्ति कम्मं न करोति, दी. नि. 3.139; अतिसीतं अतिसल्लेखति, अतिवायामं करोति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) अतिउण्ह, अतिसायमिदं अह, थेरगा. 231; दी. नि. 3.140; 2.118; तुल. अधिसल्लिखतेति अतिविय सल्लिखति, अ. - ता स्त्री., अतिसीत का भाव., [अतिशीतता], अत्यधिक नि. अट्ठ. 2.212; सद्द. 2.330.
शीतलता अथवा ठण्डक - उदकं अतिसीतताय निब्बापेति, अतिसहसा निपा., [अतिसहसा], अकस्मात् रूप में, बहुत मि. प. 258, विलो. अतिउण्ह अथवा अच्चुण्ह. तेजी के साथ, शीघ्रता के साथ, अचानक - अतिसहसा पि अतिसीतल त्रि०, कर्म. स. [अतिशीतल], उपरिवत् - तया पविसन्ति, चूळव. 358..
कतो अग्गि अतिसीतलो, जा. अट्ठ. 3.47. अतिसायं अ., [अतिसायं], बहुत देर से, बहुत विलम्ब अतिसीमचर त्रि., सीमा अथवा निर्धारित क्षेत्र के बाहर करके - अतिसायन्ति कम्मं न करोति, दी. नि. 3.139; विचरण करने वाला, सीमा का उल्लंघन करने वाला - अतिसायमिदं अहु, दी. नि. 3.140; अज्ज अतिसायं अतिसीमचरो दित्तो, जा. अट्ठ. 3.224. आगतासीति ..., जा. अट्ठ. 5.89.
अतिसीलवन्तता स्त्री., भाव. [अतिशीलवत्ता], अच्छे आचरण अतिसायन्ह पु., सायंकाल, ढलती हुई शाम - अज्ज से युक्त अथवा उत्तम शील से सम्पन्न रहने की स्थिति,
अतिसायन्हो, जा. अट्ठ. 7.309; द्रष्ट. अह के अन्त., पाठा. सदाचार-परायणता - भिक्ख अतिसीलवन्तताय ... अतिसायन.
नमस्सनीयो, मि. प. 259. अतिसार/अतीसार पु., [अतिसार], 1. पेचिश, तरल रूप अतिसुक्ख त्रि., कर्म स. [अतिशुष्क], अत्यधिक सूखा - में मल का अत्यधिक निकलना - सोको ... कुच्छिडाहं आमकमत्तेति आमके नातिसुक्खे भाजने, म. नि. अट्ठ.(उप.प.) उप्पादेत्वा अतिसारं जनेसि, ध. प. अट्ठ. 1.1063; 2. अतिक्रमण, 3.122. दिशान्तरण - समाय च अतिसारो, म. नि. 3.283; 3. अतिसुखुम त्रि., कर्म. स. [अतिसूक्ष्म], अत्यधिक सूक्ष्म, निर्धारित मापदण्डों या नियमों का उल्लंघन, पापमय आचरण बहुत अधिक सूक्ष्म - अतिसुखुमतिरोहित - विदूरदेसेसुपि - अतिसारं न बुज्झन्ति, स. नि. 1(1).90; अत्थि मे तं रूपधम्मेसु, उदा. अट्ठ. 107; - मोदक त्रि., ब. स. अतिसार, जा. अट्ठ. 5.376.
[अतिसूक्ष्मोदक], अत्यधिक तेज प्रवाहयुक्त जल वाला/वाली अतिसाहस त्रि., ब. स., [अतिसाहस], अत्यधिक साहस - सा हि अतिसुखुमोदका, सुखुमत्ता उदकस्स अन्तमसो वाला, दुस्साहसी, अधिक उग्र - तं एतं अतिसाहसं अतिबलं । मोरपिञ्छमत्तम्पि तत्थ पतितं नं सण्ठाति, जा. अट्ठ. 6.121. ..., म. वं. 20.58.
अतिसुण पु.. कर्म. स. [अतिश्वन], पागल कुत्ता - अतिसिगण पु.. ऋषियों का बहुत बड़ा समूह - अति उन्मत्तादितमापन्नो अळक्को तिसणो मतो. अभि. प. इसिगणो, अतिसिगणो, क. व्या. 47; ति वुत्तरूपो न होति । 519. वा अतिसिगणो, सद्द. 3.619.
अतिसुन्दर त्रि., ब. स. [अतिसुन्दर], अत्यधिक सुन्दर अतिसिथिल त्रि., कर्म. स. [अतिशिथिल], बहुत अधिक स्वरूप वाला - अतिसुन्दरा इमे कम्बला, म. नि. अट्ठ. ढीला-ढाला, अत्यन्त दुर्बल अथवा शिथिल - वीणाय तन्तियो (उप.प.) 3.206; अभिक्कन्तन्ति ... अतिमनापं अतिसुन्दरन्ति अतिसिथिला, अ. नि. 2(2).86; महाव. 254; अतिसिथिलाति वुत्तं होति, सु. नि. अट्ठ. 1.122. मन्दमुच्छना, अ. नि. अट्ठ. 3.126; - विरियता स्त्री., कर्म. अतिसूर त्रि., कर्म. स. [अतिशूर], अत्यधिक वीर, प्रबल स., अत्यन्त दुर्बल प्रयास वाली मनःस्थिति, क्षीण संकल्प साहसी; (पोरिसाद नामक व्यक्ति विशेष के लिये प्रयुक्त का भाव - यस्मिं समये अतिसिथिलवीरियतादीहि लीनं चित्तं विशे.) - पोरिसादो ... अतिसूरो अहोसि, जा. अट्ठ. 5.469; होति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).308, विलो. अच्चारद्ध- - ता स्त्री॰, भाव॰ [अतिशूरता], अत्यधिक वीरता, अनुपम विरियता.
बहादुरी - विक्कमो त्वतिसूरता, अभि. प. 398.
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अतिसेति
"
अतिसेति अति + √सी का वर्त. प्र. पु. ए. व. [ अतिशेते]. अतिशय भाव को प्राप्त कर लेता है, अन्यों की तुलना में उत्कृष्ट रहता है, दूसरों से आगे निकल जाता हैअधिगण्हातीति अधिभवित्वा गण्हाति अज्झोत्थरति अतिसेति, अ. नि. अ. 3.16 सयित्वा पू. का. कृ. सब्बरतनानि अतिक्कमित्या अतिसयित्वा अज्झोत्थरित्वा तिद्वति. मि. प. 305 पाठा. अभिभवित्वा अतिसेवन्तस्स अति + √सेव का वर्त० कृ०, पु०, च० / ष० वि., ए. व., [ अतिसेवन्तस्य ], अत्यधिक सेवन करने वाले का या के लिये अत्यन्त लिप्त व्यक्ति का या के लिये बाल अच्चुपसेवतोति वाल अप्पज्ञ अतिसेवन्तस्स जा. अट्ठ. 3.464.
अतिस्सर त्र कर्म. स. [ अतीश्वर] अत्यधिक सक्षम, बहुत अधिक सशक्त अथवा समर्थ, स्वेच्छाचारी, दबंग एते
"
अतिस्सरा भविस्सन्ति, जा. अट्ठ. 4.432. अतिहट त्रि, अति + √हर का भू० क० कृ० [ अतिहृत], अत्यधिक दूर तक ले जाया गया या पहुंचाया गया नासक्खतिहटो पोसो जा. अड. 3.427 पाठा. अतिगतो. अतिहट्ट त्रि, अति + √हस का भू० क० कृ० [अतिसृष्ट], अत्यधिक प्रसन्न, बहुत अधिक आनन्दित - तं सुत्वा अतिहट्टो सो... म. वं. 15.17; सद्धम्मो 323. अतिहत्थयति अति + हत्थि का ना. धा., वर्त. प्र. पु. ए. व [ अतिहस्तीयति], हाथी द्वारा पार करता है, लांघता है, हाथी से आक्रमण करता है हत्थिना अतिक्कमति मग्गं अतिहत्थयति क. व्या. 3.2.8: मो. व्या. 5.12; सद. 3.823. अतिहरति अति + √हर का वर्त. प्र. पु. ए. व. एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर पहुंचाते हैं, ले जाते हैं या प्राप्त कराते हैं न्ति ब. व नगरं अतिहरन्ति द्वारट्टाने, पाचि. 360; - रि अद्य., प्र. पु. ए. व. माणविकाय सन्तिकं अतिहरि जा. अड. 1.281 पाठा, अभिहरि रित्वा पू का कृ • अभिहरित्वा दस्सेसि जा. अनु. 5.342, पाठा, अभिहरित्वा - रापेय्य प्रेर, विधि - सीघं सीघं अतिहरापेय्य, अ. नि. 1 (1) 275: रापेय्यासि म.फु. ए. व... धञ्ञ अतिहरापेय्यासि, मि. प. 69; - य्याथ ब. व. अट्टालकं कारापेय्याथ, धञ्ञ अतिहरापेव्याधाति. मि. प. 89 रापेसुं प्रेर, अद्य., प्र. पु. ब. क. मानो अपुत्तकं सापतेय्यं.. अतिहरापेसु पारा. 18: पाठा. अतिहारापेसुं - रापेत्वा प्रेर०, पू. का. कृ. - अतिहरापेत्वा आयतिम्पि वस्सं एवमेव कातब्बं... चूळव. 317; सीघं सीघं, अतिहरापेत्वा अ. नि. 1 ( 1 ) 275 पाठा. अतिहारापेत्वा
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121
अतीत
अतिहित अति +धा का भू. क. कृ.. [ अतिहित], कहीं से लाकर रख दिया गया अतिहिता वीहि, थेरगा. 381; अतिहिता वीहीति वीहयो कोट्टागारं अतिनेत्वा ठपिता थेरगा. अट्ठ. 2.75.
"
अतिहीन त्रि., कर्म. स. [ अतिहीन ], अत्यधिक तुच्छ, घटिया, धोखेबाज समं जीविकं कप्पेति नाच्चोगाळ्हं नातिहीनं अ. नि. 3 (1).110.
अतिहीळयानो अति + √हील का वर्त. कृ. आत्मने. [रहेड़,
.सं.], अत्यधिक अवज्ञा, निन्दा अथवा तिरस्कार कर रहा सके निकेतं अतिहीळयानो, जा. अड्ड. 4. 295; अतिहीळयानोति अतिमञ्ञन्तो निन्दन्तो गरहन्तो, जा. अट्ठ.
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4.295.
अतिहेद्वा निपा. क्रि. वि., अत्यधिक नीचे की ओर द्वारं अतिहेड्डा दीघजातिका कोटेन्ति दी. नि. अ. 1.204, विलो. अतिउपरि.
अतीत त्रि. / नपुं. अति + √इ का भू. क. कृ.. [ अतीत ] 1. क. क्रि. प्रचलित शा. अ. वह, जो बीत चुका है या पीछे जा चुका है, इस समय विद्यमान नहीं है- खणातीता हि सोचन्ति ध प 315; अतीतयोब्बनो पोसो, सु. नि. 110; एवं रूपो अहोसिं अतीमद्धानन्ति, स. नि. 2 (1).80; 1.ख. नपुं. भूतकाल, व्यतीत हो चुका कालखण्ड या क्षण, भूतकाल से सम्बन्धित कोई बात अतीतं नानुसोचन्ति स. नि. 1 (1).6; अतीतं नानुसोचामि जा० अट्ठ 6.31; 1.ग. भूतकाल के अर्थ में प्रायः अनागत अथवा पच्चुप्पन्न के साथ विप. के रूप में प्रयुक्त अतीतेसु अनागतेसु चापि सु. नि. 375; प्रायः तीनों का प्रयोग स. प. में अतीतानागतपच्चुप्पन्न के निर्धारित क्रम में प्राप्त अतीतानागतपच्चुप्पन्ने अत्थे चिन्तेतुं दी. नि. 1. 122; कभी-कभी अतीत पच्चुप्पन्न और अनागत
"
परिवर्तित क्रम में भी प्रयोग अतीतं पच्चुप्यन्न अनागतञ्च अत्तनो पवत्तिं दस्सेन्तो..., पे. व. अट्ठ. 89; 2. क. ला. अ. त्रि., पूरी तरह से मुक्त हो चुका, अभिभूत कर चुका, पार कर चुका - सङ्गा जातिजराभयातीतं, थेरगा. 413; 2. ख. त्रि वह जिसका अतिक्रमण कर लिया गया है या जिसे पार कर लिया गया है अतीतेसूति पवत्तिं पत्वा अतिक्कन्तेसु पञ्चक्खन्धेसु सु. नि. अड. 2.88 3. मुहावरे के रूप में उल्लंघक या अतिक्रामक के आशय में प्रयुक्त एक धम्मं अतीतस्स, घ. प. 176 तंस पु. कर्म. स. [अतीतांश ]. ता हुआ भाग अथवा खण्ड, वह विशिष्ट भाग, जो पहले ही व्यतीत हो चुका है - अतीतंसेन सङ्ग्रहिता, ध. स. 1044;
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अतीत
122
अतीतारम्मण
- कप्प पु., कर्म. स., [अतीतकल्प], बीता हुआ कल्प, विषय में पूछताछ, अथवा प्रश्न - अपरापि तिस्सो पुच्छा : व्यतीत हो चुके अनेक कल्प - अतीतकप्पे चरितं, चरिया. अतीतपुच्छा ..., महानि. 251; अतीतपुच्छाति अतीते धम्मे 1.1.2; - कालिक त्रि., [अतीतकालिक], बीत चुके काल आरब्भ पुच्छा, महानि. अट्ठ. 302; - भव पु., कर्म. स. से सम्बद्ध - पुराणं अतीतकालिकं कम्म, खु. पा. अट्ठ. 154; । [अतीतभव], बीता हुआ जन्म, पूर्व-जन्म - मया अतीतभवे, अतीतकालिकानम्पि हि छन्दसि वत्तमानवचनं ... इच्छन्ति, जा. अट्ठ. 5.380; - योब्बन त्रि., ब. स. [अतीतयौवन], सु. नि. अट्ठ. 1.15; परोक्खाहिय्यत्तनअज्जतनीविभत्तियो वह, जिसकी युवावस्था समाप्त है, वृद्ध - अतीतयोब्बनोति अतीतकालिका, सद्द. 1.49; - कालिकता स्त्री., योब्बनमतिच्च आसीतिको वा नावुतिको वा हुत्वा, सु. नि. अतीतकालिक का भाव., बीते हुए काल में विद्यमान होने अट्ठ. 1.137; अतीतयोब्बनो पोसो, आनेति तिम्बरुत्थनिं सु. की स्थिति - ये भूय्येन अतीतप्पवत्ति सन्धाय नि. 110; - वचन नपुं., कर्म. स. [अतीतवचन], भूतकाल कालातिपत्तिविभत्तिया अतीतकालिकता वुत्ता ति, सद्द. 1.52; का कथन, जो व्यतीत हो चुका है, उसके विषय में कथन - कोट्ठास पु., [अतीतकोष्ठांश]. काल का बीता हुआ भाग - संयमिस्सन्ति अनागतवचनञ्च अतीतवचनञ्च, सद्द. अथवा खण्ड - अतीतकोट्ठासेन गणनं गता, ध. स. अट्ठ. 2.590; - वत्थु नपुं.. कर्म. स. [अतीतवस्तु], भूतकाल 388; - गत-सत्थु त्रि., ब. स., वह, जिसका शास्ता या अथवा पूर्वजन्मों से सम्बद्ध कथानक - अतीतवत्थु दसकनिपाते मार्गदर्शक गुरु बहुत पहले ही दिवङ्गत हो चुका है - आवि भविस्सति, जा. अट्ठ. 3.80; - टि. अपने वर्तमान रूप अब्मतीतसहायस्स, अतीतगतसत्थुनो, थेरगा. 1038; - में जातक-कथानक में पांच अङ्ग सन्निविष्ट हैं :- 1. खन्धा ति-कथा स्त्री., कथा. के सातवें अध्याय का शीर्षक, पच्चुप्पन्नवत्थु 2. अतीतवत्थु 3. गाथा 4. वेय्याकरण 5. कथा. 127; - जाति स्त्री., कर्म, स., [अतीतजाति], समोधान, इनमें अतीत-वत्थु नामक दूसरे अङ्ग में गौतम बुद्ध पिछला जन्म - त्वं पुब्बे अतीतजातियं, पे. व. अट्ठ.9; - के पूर्वजन्मों में से किसी एक जन्म का कथानक रहता है;
आति पु., कर्म. स. [अतीतज्ञातृ], दिवङ्गत हो चुके या मृत - वेल त्रि. ब. स., वह, जिसका समय समाप्त है, बेमौसमी हो चुके सम्बन्धी अथवा कुटुम्बीजन - पुब्बपेतकथाति - अतिवेल पन वाचं कालवेलञ्च सीलवेलञ्च अतिक्कन्तं अतीतजातिकथा, दी. नि. अट्ठ. 1.81; - त्त नपुं. भाव. ...सु. नि. अट्ट. 2.266. [अतीतत्व], पार कर जाने अथवा पूरी तरह मुक्त हो जाने अतीताधिवचन नपुं, तत्पु. स. [अतीताधिवचन], अतीत की स्थिति - किलेससीमानं अतीतत्ता सीमातिगो, स. नि. अथवा भूतकाल के अर्थ वाला शब्द, अतीत अर्थ का वाचक अट्ठ. 2.221; अन्तं अतीतत्ता, अ. नि. अट्ठ. 3.342; - त्तिक शब्द; - कुसल त्रि., अतीतार्थक शब्द के प्रयोग में कुशल, पु., नपुं., ध. स. की त्रिकमातृकाओं में से एक, जिसमें भूतार्थक शब्द के व्यावहारिक प्रयोग में कुशल - अतीत, अनागत एवं प्रत्युत्पन्न के त्रिक निर्दिष्ट हैं, ध. स. अतीताधिवचनकुसलोति अतीतपत्तिकसलो, नेत्ति. अट्ठ. (पृ.) 4; - त्थ त्रि., ब. स. [अतीतार्थ], वह, जो लाभ को 227.
खो चुका है अथवा प्रयोजन की हानि को प्राप्त हो चुका है, अतीतानागत त्रि., अतीत + अनागत [अतीतानागत], भूत प्रयोजन को हानि पहुंचा चुका - वाणिजोव, अतीतत्थो, अ. एवं भविष्य काल से सम्बन्धित - रूपं, भिक्खवे, अनिच्चं नि. 3(1).62; अतीतत्थोति हापित्थो, अ. नि. अट्ठ. 3.223; - अतीतानागतं, स. नि. 2(1).18; - ते सप्त. वि., ए. व., क्रि. द्ध पु., कर्म. स., [अतीताध्वन्]. बीता हुआ अथवा पारवि . - मग्गजाणधम्मेन वा सक्का अतीतानागते नेतुं स. नि. किया हुआ मार्ग, अर्थात् पूर्वजन्म - अतीतद्धादिभेदं अट्ठ. 2.59; - पच्चुप्पन्न त्रि., द्व. स., भूत, भविष्य एवं पुबन्तमनिस्सितो, सु. नि. अट्ठ. 2.240; - टि. भगवान वर्तमान से संबन्धित - अतीतानागतपच्चुप्पन्ने अत्थे चिन्तेतुं बुद्ध ने प्रतीत्यसमुत्पाद के नय द्वारा अस्तित्व को गोलाकार दी. नि. 1.122. चक्र के रूप में प्रकाशित करते हुए प्राणी के जन्म-मरण- अतीतारम्मण त्रि., ब. स., [अतीतालम्बन], अतीत अथवा क्रम को एक सतत प्रवर्तनशील यात्रा के रूप में समझाया. भूत को आलम्बन बनाने वाला - इमे धम्मा अतीतारम्मणा, इस यात्रा में प्राणी के पिछले जन्म को वर्तमान जन्म की ध. स. 1047; 1432; तस्मा अतीतारम्मणं होति, विसुद्धि. 2. अपेक्षा से ही अतीतद्ध अथवा पार किया हुआ मार्ग कहा 57; अतीतारम्मणाय चुतिया अनन्तरा अतीतारम्मणा गया; - पुच्छा स्त्री., तत्पु. स.. [अतीतपृच्छा], भूतकाल के पटिसन्धि, विभ. अट्ठ. 149; - कथा स्त्री., कथा. के नवम
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अतीरक 123
अतुरित वर्ग की छठी कथा का नाम; - त्तिक पु., अतीतारम्मण से संभवतः अतीसरं अति + vसर का वर्त. कृ. का रूप है। प्रारम्भ होने वाली ध. स. की एक त्रिकमातिका, ध. स. (पृ.) 4. अतीसार के समान इसमें भी 'इ' के स्थान पर 'ई' का प्रयोग अतीरक त्रि., ब. स., [अतीरक], सीमारहित, असीम, अनुमानित है। अपरिमित - अतीरकं आणदस्सनं, दी. नि. 3.100; अतीरकन्ति अतुच्वं/अतिउच्वं निपा., क्रि. वि., [अत्युच्चैः]. बहुत अतीरं अपरिच्छेदं महन्तं, दी. नि. अट्ठ. 3.87.
अधिक ऊपर - अतुच्चं तात पतसीति ... अतिउच्च अतीरणेय्य त्रि., तीर +vनी के सं. कृ. का निषे. [अतीरनेय], गच्छसि, जा. अट्ठ. 3.223. तीर न ले जाने योग्य, पूरा न कर सकने योग्य, ला. अ. अतुच्छ त्रि., तुच्छ का निषे॰ [अतुच्छ], वह, जो रिक्त, पार न किये जाने योग्य - अतीरणेय्य यमिदन्ति इदं खोखला अथवा घटिया नहीं है, उत्तम, महत्त्वपूर्ण - अतुच्छो किलेसजातं नाम न एतकेन तीरेतब्ब, जा. अट्ठ. 6.70. झानमञ्चोम्हि अप. 1.346; द्रष्ट. उज्झानमञ्च के अन्त.. अतीरदक्खी त्रि., वह, जिसने तट अथवा किनारे को नहीं अतुज अत्रज का अपपाठ, अत्रज के अन्त. द्रष्ट.. देखा है - अतीरदक्खिनिया नावाय, दी. नि. 1.203; तुल. अतुट्ठ त्रि., तुट्ठ का निषे., तत्पु. स. [अतुष्ट], असन्तुष्ट, अ. नि. 2(2).80, अतीर-दस्सी शब्द का समाना.,
अप्रसन्न - अतुद्वा सिवयो आसं. जा. अट्ठ. 7.277; दी. नि. अतीरदस्सी त्रि., [अतीरदर्शी], वह व्यक्ति, जिसने तीर अट्ठ. 1.49; - मानस त्रि., ब. स., असन्तुष्ट मन वाला - अथवा दूसरे तट को नहीं देखा है, निर्वाण का साक्षात्कार अतुट्ठमानसो हुत्वा, पे. व. अट्ठ. 112; - वाचा स्त्री., कर्म, न कर सकने वाला व्यक्ति - अतीरदस्सी अपारदस्सी, स. स., असन्तोष से भरी वाणी - अनत्तमनवाचन्ति अतुट्ठवाचं नि. 2(1).148; अतीरदस्सीति तीरं वुच्चति वटुं, ... पारं अ. नि. अट्ट. 2.11; - हाकार पु., असन्तोष अथवा वुच्चति निब्बानं, तं न पस्सति, स. नि. अट्ठ. 2.293; तत्थ अप्रसन्नता की मानसिक अवस्था - अप्पच्चयोति अतट्ठाकारो, अतीरदस्सीति ... तीरं अपस्सन्तो, जा. अट्ठ. 6.267. अ. नि. अट्ठ. 2.50. अतीरित त्रि., Vतीर के भू. क. कृ. का निषे., अपरीक्षित, अतुट्ठि स्त्री.. तुट्ठि का निषे., तत्पु. स. [अतुष्टि], असन्तोष, अनुत्तीर्ण, नहीं परखा हुआ, नहीं पार किया हुआ - अदिट्ठ अप्रसन्नता - अनभिरद्धीति अतुद्धि, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) अतुलितं अतीरितं. महानि. 250.
1(2).23. अतीतसत्थुक त्रि., ब. स., अतीत + सत्थु + क, बिना अतुरित त्रि., तुरित का निषे. [अत्वरित], जल्दबाजी न शास्ता वाला, भगवान् बुद्ध के बिना - अतीतसत्थुकं पावचनं, करने वाला, मन्द, शिथिल - अतरमानोति अतुरितो, दी. नस्थि नो सत्थाति, दी. नि. 2.115; मि. प. 110; अतीतसत्थुकं नि. अट्ठ. 1.204; अ. नि. अट्ठ. 3.304; - गमन नपुं., कर्म. पावचनन्ति मञ्जमाना, पारा. अट्ठ. 1.5; दी. नि. अठ्ठ. 1.4; स. [अत्वरितगमन], मन्द गति से गमन, धीमी चाल, स्थिर खु. पा. अट्ठ. 73.
गति - अतुरितगमनेन चारिकं निक्खमि. अ. नि. अट्ठ. 1. अतीतसासन त्रि., ब. स., [अतीतशासन], शिक्षाओं अथवा 230; - चारिका स्त्री., कर्म. स., शान्त चाल-ढाल, स्थिर निर्देशों का उल्लंघन करने वाला - गिज्झोवातीतसासनो, गति, (विशेष रूप से बुद्ध के चलने के स्वरूप के लिये जा. अट्ठ. 3.224.
प्रयुक्त)- अतुरितचारिक पक्कामि, जा. अट्ठ. 1.95; दी. नि. अतीव निपा., [अतीव], अत्यधिक, बहुत अधिक, - अतीव अट्ठ. 1.194, 1.197; यं पन गामनिगमपटिपाटिया देवसिक हदयं निब्बाति, जा. अट्ठ. 2.197; अतीव भासन्ति, सु. नि. योजनद्वियोजनवसेन पिण्डपातचरियादीहि लोक अट्ठ. 2.121; अतीव सुद्धिपओ, सु. नि. अट्ट, 2.88; तुल. अनुग्गण्हन्तस्स गमनं, अयं अतुरितचारिका नाम, दी. नि. अतिविय.
अट्ठ. 1.195; - टि. भगवान् बुद्ध के गमन के दो प्रकार, अतीसरंदिट्ठि/अतिसारदिहि स्त्री., कर्म. स. [अतिसार- बतलाए गए हैं, 1. तुरित-चारिका तथा 2. अतुरित-चारिका ।' दृष्टि], अन्य धर्माचार्यों के मत, मिथ्या दृष्टियां, ब्रह्मजाल- जब भगवान् बुद्ध किसी सुपात्र को शीघ्र धर्मोपदेश देने हेतु सुत्त में निर्दिष्ट 62 दृष्टियों में से कोई एक - अतीसरदिडियाव तेजी से उसके पास जाते हैं तब उनका गमन तुरितचारिका सो समत्तो, सु. नि. 895; अतिसारदिडियो वच्चन्ति द्वासद्धि कहलाता है परन्तु प्रतिदिन के भिक्षाटन के क्रम में लोक दिद्विगतानि? सब्बा ता दिद्वियो कारणातिक्कन्ता का अनुग्रह करने हेतु गांवों, निगमों आदि में एक अथवा दो लक्खणातिक्कन्ता ठानातिक्कन्ता, महानि. 218: - टि. योजन तक का उनका गमन अतुरितचारिका कहलाता है।
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अतुल
124
अतो
311.
यह दो प्रकार की है 1. अनिबद्धचारिका तथा 2. अतुल्य' त्रि., [अतुल्य], तुलना न करने योग्य, अनुपम, निबद्धचारिका.
सबसे ऊपर, परमश्रेष्ठ - मग्गक्खायी कथं अतुल्यो होति, अतुल' त्रि., निषे०, ब. स. [अतुल], अनुपम, बेजोड़, अद्वितीय, सु. नि. 85; सो बोधिसत्तो रतनवरो अतुल्यो, सु. नि. 688; अतुलनीय, अमोघ - कस्मा समुद्दो अतुलो अपेय्यो, जा. बु. वं. में 'अतुलियो' रूप में भी प्राप्त - अप्पमाणो अतुलियो अट्ठ. 7.58; दानं सहत्था अतुलं ददित्वा सङ्घ, पे. व. 254; ..... बु. वं. 14.32; तुल. अतुलिय, अतुल्ल; - ल्याकार अतुलन्ति अप्पमाणं उळारं पणीतं, पे. व. अट्ठ. 96; पसन्नचित्ता त्रि०, ब. स., [अतुल्याकार], आकार अथवा स्वरूप में अतुलाय पीतिया, वि. व. 299; अतुलायाति अनुपमाय, अनुपम - अनुलोमञाणानं अतुल्याकारतो. उदा. अट्ठ. 29; अप्पमाणाय, वि. व. अट्ठ. 104; - लानुभाव त्रि., ब. स., - दस्सन त्रि., [अतुल्यदर्शन], अनुपम सुन्दरता वाला - अतुलनीय प्रभाव अथवा महिमा वाला - हन्द च ठानं सङ्कपमं सेतमतुल्यदस्सनं, जा. अट्ठ. 5.392. अतुलानुभावं, मया सह दक्खसि एहि कत्ते, जा. अट्ठ. अतुल्य व्य. सं., पु., सात चक्रवर्तियों का नाम - अतुल्या 7.210; - तेज त्रि., ब. स., [अतुलतेज], अतुलनीय सत्त आसु ते, अप. 1.275; पाठा. अतुला. अथवा अनुपम तेज वाला - भिक्खू ... अतुलतेजा .... मि. अतुल्ल त्रि., [अतुल्य]. उपरिवत्, - अमितयसो अतुल्यो, प. 311; - बल त्रि., ब. स. [अतुलबल]. अतुलनीय बल जा. अट्ठ. 4.91, तुल. अतुल्य, अतुलिय. वाला - अतुलबला ... ; मि. प. 311; - यस त्रि., ब. स., अतेकिच्छ त्रि., तेकिच्छ का निषे. [अचिकित्स्य]. 1. [अतुलयश], अनुपम कीर्तिवाला - अतुलयसा, मि. प. चिकित्सा न करने योग्य, उपचार द्वारा स्वस्थ न होने
योग्य, असाध्य रोगी- त्वं मूलोसधादीहि अतेकिच्छो, जा. अतुल' व्य. सं., 1. एक पुराने चिकित्सक का नाम - अतुलो अट्ठ. 2.180; अत्तनो वा परेसं वा परिसकारेन अतेकिच्छ पुब्बकच्चायनो, मि. प. 253; 2. श्रावस्ती के एक उपासक जानेय्य, जा. अट्ठ. 4.203; 2. नहीं बच सकने योग्य, का नाम- अतुलं नाम उपासक आरब्भ कथेसि,ध. प. अट्ठ. अनिवर्त्य, पूर्णरूप से पापमग्न - देवदत्तो आपायिको नेरयिको 2.189; 3. दो भिन्न-भिन्न बोधिसत्त्व नागराजाओं का नाम - कप्पट्ठो अतेकिच्छो, चूळव. 342; पञ्च आपायिका नेरयिका अतुलो नाम नागराजा अहोसि, जा. अट्ट, 1.44; 4. आम्र के परिकुप्पा अतेकिच्छा, अ. नि. 2(1).138; अतेकिच्छाति एक वृक्ष का नाम - अतुलं नाम अम्बं मापेत्वा, जा. अट्ठ. अकत्तब्बपरिकम्मा, अ. नि. अट्ठ. 3.47. 4.289-90; 5. एक अथवा अनेक थेरों का नाम - सो पन अतेजवन्तु त्रि., तेजवा का निषे. [अतेजवान अथवा ... अतुलवंसथेरस्स सिको, सा. वं. 100; 6. एक विहार का अतेजस्विन्], वह जो तेजस्वी नहीं है, दुर्बल, मन्द - नाम - चतुभूमिकअतुलविहारं कारापेत्वा .... सा. वं. 104; तेजस्सिनं हन्ति अतेजवन्तो, जा. अट्ठ. 5.165... - भूमिवास एक विहार का नाम -- ... कारापितं अतुलभूमिवासं अतेल त्रि. तेल का निषे., ब. स. [अतैल], तेल से रहित, नाम विहारं .... सा. वं. 122.
बिना तेल का - पवना आभतं पण्णं, अतेलञ्च अलोणिक, अतुलित त्रि., तुलित का निषे. [अतुलित], वह, जिसे तौला । चरिया. 372; अलोणं अतेलं अफाणितं कुम्मासं, जा. अट्ठ. न गया हो, परीक्षित न किया गया हो, जांचा न गया हो - 3.360; पाठा. अस्नेहं; - त्त नपुं॰, भाव. [अतैलत्त्व], अतुलितन्ति तुलाय तुलितं विय न तुलितं, महानि. अट्ट. तेलरहित होने की अवस्था - न पन ... सिनेहस्स अतेलत्तं 301;
वदाम, सद्द. 2.563. अतुलिय त्रि., तुल्य का निषे॰ [अतुल्य], नहीं तौले जाने अतेव अ०, निपा. क्रि. वि., [अतीव], अत्यधिक, बहुत अथवा मापे जाने योग्य, अमूल्य, अनुपम, बेजोड़ - अकम्पियं अधिक, प्रचुरता से - अतेव मे ... अच्छरियन्ति अतिविय मे अतुलियं, ... धम्म, थेरीगा. 201; गुणतो एत्तको ति तुलेतुं । अच्छरियं, जा. अट्ठ. 7.295; प्रायः तृ. वि. के साथ अधिक असक्कुणेय्यताय अत्तना सदिसस्स अभावतो च अतुलियं, प्रयोग -- अतेवजेहि मासेहि, जा. अट्ठ. 5.56; अतेव , मो. थेरीगा. अट्ठ. 191; भिक्खुभावो ... अतुलियो अप्पमाणो व्या. 1.29. अनग्घियो, मि. प. 185; - गुण त्रि०, ब. स., अतुलनीय अतो इम का प. वि., प्रतिरू. निपा. [अतः], क. इसलिए, गुणों वाला - यो खो ते, महाराज, भिक्खू ... अतुलगुणा यहां से, इस स्थान से, इस बात से, इस कारण से, इससे अतुलयसामि. प. 311, पाठा. अतुल्य अथवा अतुल्ल. - अतो सरा निवत्तन्ति, स.नि. 1(1).18; अतो मता देववरेन
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अतोहब्म 125
अत्तकाम पेसिता, जा. अट्ट, 5.394; ख. प्रायः तुल. विशे. से पूर्व में व. [आत्मना] - अत्तनाहि कतं पापं, अत्तना संकिलिस्सति, इससे अथवा उससे अधिक अर्थ में प्रयुक्त - अतो दुल्लभतराहं ध. प. 165, 379; - अत्तनो च./ष. वि., ए. व. [आत्मनः] म. नि. 3.208.
- आकङ्घन्त विरागमत्तनो, ध. प. 343; मच्छो मरणमत्तनो, अतोहब्म त्रि., तोट्टब्भ का निषे. [अतोष्टव्य], न सन्तुष्टि जा. अट्ठ. 6.242; - अत्तनि सप्त. वि., ए. व. [आत्मनि देने योग्य, सन्तुष्ट न कराये जाने योग्य, प्रसन्न न कराने - अत्तनि वा, ... सति अत्तनियं मे ति अस्सा ति, म. नि. 1. योग्य - धनियं अतोडभेन तस्समानं अञआपदेसेनेव परिभासति. 191; ग. बुद्ध के समय में उपनिषदों आदि द्वारा परिकल्पित सु. नि. अट्ठ. 1.27, पाठा. अतुट्ठब्बेन..
नित्य, शुद्ध, बुद्ध एवं अविनाशी आत्मतत्त्व - रूपी अत्ता अत्त' पु.. [अर्थ], अत्थ के स्थान पर अप., आगे द्रष्ट... होति अरोगो परं मरणा असञी ति...., दी. नि. 1.27; अयं अत्त त्रि., [आत्त, आ + दा + क्त अथवा आप्त, आप् + अत्ता रूपी ... कायस्स भेदा उच्छिज्जति, दी. नि. 1.29; क्त], प्राप्त किया हुआ, गृहीत - अत्ता निरत्ता न हि तस्स मनोमयं ... अत्तानं पच्चेमि सब्बङ्गपच्चङ्गिं अहीनिन्द्रियन्ति, अत्थि, सु. नि. 793; अत्तं पहाय अनुपादियानो, सु. नि. 806%; दी. नि. 1.166; घ. अन्तरात्मा की आवाज, अपनी अन्तरात्मा अत्ता वापि निरत्ता वा, न तस्मिं उपलब्भति, स. नि. 864%; अथवा मन की आवाज - अत्तापि अत्तानं उपवदति, अ. नि. निरत्त का विलो.; - टि. सु. नि. अट्ठ. तथा महानि. ने अत्त 1(1).74; तं. ... अत्ता सीलतो उपवदति, स. नि. 2(1).109; (आप्त, गृहीत, प्राप्त) एवं अत्त (आत्मा) के मध्य विद्यमान अत्ता ते पुरिस जानाति, सच्चं वा यदि वा मुसा, अ. नि. श्लेष पर आधारित इस शब्द की विविध व्याख्या की है। 1(1).174; ङ. अपना प्रतिबिम्ब - ... जायेय्य अत्ता, मि. प. सम्भव है कुछ स्थलों में प्राप्त एवं गृहीत अर्थ वाले 'अत्त' 54; अत्ता च मे सो सरणं गती च, जा. अट्ठ. 7.176; - कत तथा आत्मार्थक 'अत्त' के मध्य परस्पर-व्यामिश्रण की स्थिति त्रि, तत्पु. स. [आत्मकृत], 1. स्वयं अपने द्वारा किया हुआ उत्पन्न हो गई हो. अत्तञ्जह, अत्तदण्ड एवं अत्तदान जैसे - मजे अत्तकतं वेर, जा. अट्ठ. 7.27; अत्तकतं वेरन्ति समस्त पदों में इस प्रकार के संभ्रम की स्थिति सुस्पष्ट है. अत्तना कतं पापं, तदे. 2. नपुं., अपने द्वारा किया हुआ - अत्त' त्रि., [आप्त, आप् + क्त], परिपूर्ण, भरपूर, भरा हुआ अत्तकतेन पन ते, ... पतन्ति, मि. प. 164, परकत का विप.; - अत्ताहिपि परिपुण्णाहि परिभासाहि .... दी. नि. 3.154; - कम्मफलूपग त्रि., [आत्मकर्म-फलोपग], अपने कर्मों के अत्तभावं उपनेत्वा कुत्ताहि परिपुण्णब्यञ्जनाहि.... दी. नि.. फलों को भोगने वाला - अत्तकम्मफलूपगोति अत्तनो कम्मफलेन अट्ठ. 3.136.
उपगतो जा. अट्ठ. 5.267; - म्मापराध पु.. तत्पु. स. अत्त' नपुं.. [अत्त, अद् + क्त अथवा अत्र], भोजन, अन्न, [आत्मकर्मापराध], अपने कर्मों का अपराध अथवा दोष - वह, जो खाया जाए - इदादीहि तत्रण, क. व्या. 658. अत्तकम्मापराधोति अत्तनो कम्मदोसो, जा. अट्ठ. 4.401. अत्त नपुं॰, भाव., [अत्त्व, अ + त्वल ], अकार-वर्ण या स्वर अत्तकाम' त्रि., ब. स. [अर्थ-काम], अपने हित अथवा
की अवस्था, अकारत्व - पञ्चादीनमत्तं, क. व्या. 90. कल्याण की कामना करने वाला, परमार्थ-धर्म या निर्वाण की अत्त' त्रि., [आत्म्य], अपने से स्वयं से या आत्मा कामना करने वाला - यत्थ अत्तकामा कुलपुत्ता सिक्खन्ति, से सम्बन्धित, अपना, आत्मीय - अत्तरूपायाति अत्तनो अ. नि. 1(1).263; ... अत्तकामाति अत्तनो हितकामा, अ. नि. अनुरूपाय .... दी. नि. अट्ठ. 3.41.
अट्ठ. 2.208; अत्तकामा हि कुलपुत्ता सासने पब्बजित्वा, म. अत्त' पु. [आत्मन्], आत्मा, विविध अर्थ क. स्वयं, जीव, नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).268. स्वभाव, शरीर, पुरुष, व्यु. रू.; - अत्ता प्र. वि., ए. व. अत्तकाम- पु., तत्पु. स. [आत्म-काम]. अपने भीतर की [आत्मा] - जीवो तु पुरिसो अत्ता, अभि. प. 92; चित्ते काये अथवा चित्त की कामवृत्ति अथवा काम भावना, अपना अभिप्राय, सभावे च सो अत्ता परमत्तनि, अभि. प. 861; ख. स्वयं, अपना प्रयोजन - अत्तकामन्ति अत्तनो कामं अत्तनो हेतू आप, निज, इस अर्थ में संकेतवाचक सर्व के रूप में तीनों अत्तनो अधिप्पायं, पारा. 197; - ता भाव., स्त्री. पुरुषों का संकेतक तथा केवल पु. के ए. व. में ही प्रयुक्त; [आत्मकामता], अपने चित्त में कामवृत्ति की अवस्था - - अत्तानं/अत्तं द्वि. वि., ए. व. [आत्मानं] - अत्तन्ति विग्गहं उत्तरिञ्चेव, दुवल्लं अत्तकामता, उत्त. वि. 299; - अत्तानं, जा. अट्ठ. 6.243; यं वा तुम्हे इत्थिं गवेसेय्याथ, यं पारिचरिया स्त्री., तत्पु. [आत्मकाम-परिचर्या], अपने लिये वा अत्तानं .... महाव. 28; - अत्तना/अत्तेन तृ. वि., ए. कामभोगों का सेवन, कामभोगों में लिप्त रहते हुए जीवन
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126
अत्तकार
अत्तजिगुच्छना यापन की दशा, मैथुन धर्म का सेवन - अत्तकामपारिचरियाय अत्तगुत्त त्रि., [आत्मगुप्त], स्वयं अपने द्वारा रक्षित, अपनी वण्णं भासतीति, पारा. 196; अत्तकामपारिचरियायाति, रक्षा अपने आप करने वाला, उपस्थित अथवा जागरूक मेथुनधम्मसङ्घातेन कामेन पारिचरिया कामपारिचरिया, अत्तनो स्मृति के द्वारा स्वयं को रक्षित किया हुआ - सो अत्तगुत्तो अत्थाय कामपारिचरिया ..., पारा. अट्ट. 2.125; - रूप सतिमा, ध. प. 379; अत्तनाव गुत्तताय अत्तगुत्तो, ध. प. त्रि., ब. स., द्रष्ट, अत्तकाम 1- तयो कुलपुत्ता अत्तकामरूपा अट्ठ. 2.349; अत्तगुत्तोति अत्तनाव गुत्तो रक्खितो, अ. नि. विहरन्ति, म. नि. 1.269.
अट्ठ. 3.3. अत्तकार पु., द्वि. वि., ब. व. में, नपुं. में भी [आत्मकार], अत्तगुत्ति स्त्री., तत्पु. स. [आत्मगुप्ति], अपनी स्वयं की 1. अपना स्वयं का पुरुषार्थ, स्वयं का प्रयास - नत्थि सुरक्षा, आत्मरक्षा, अपना परित्राण अथवा संरक्षण - अत्तगुत्तिया अत्तकारो, नत्थि परकारोति, अ. नि. 2(2).53; 2. अपना अत्तरक्खाय, अत्तपरित्तायाति, अ. नि. 1(2).84; अत्तगुत्तियाति कठोर अथवा दृढ़ प्रयास - अथत्तकारानि करोन्ति भत्तुसु. अत्तनो ... रक्खणत्थाय, अ. नि. अट्ठ. 2.308. जा. अट्ठ. 5.397; - टि. अन्य धर्माचार्यों के मतों के अत्तघञ/अत्तघञा नपुं.. स्त्री॰ [आत्महन], अपनी हत्या, उल्लेखों में प्र. वि., ए. व. में निय. अत्तकारो के स्थान पर __ आत्मविनाश- अत्तघञाय फल्लतिध. प. 164; पाठा. अत्तघाताय, मागधी प्रभावचिह्न के रूप में 'अत्तकारे रूप में भी प्राप्त - अत्तघात पु., [आत्मघात], अपना हनन, अपना विनाश, नत्थि अत्तकारे, नत्थि परकारे, दी. नि. 1.47.
अपनी हानि-अत्तनो घातत्थमेव फलति, एवं सोपि अत्तघाताय अत्तकिच्च नपुं. [आत्म-कृत्य], अपना निजी काम - फल्लतीति, ध. प. अट्ठ. 2.87. परकिच्चत्तकिच्चानि, अप. 1.355.
अत्तचतुत्थ त्रि.. ब. स., [आत्मचतुर्थ], अन्य तीन व्यक्तियों अत्तकिलमथ पु., तत्पु. स. [आत्म-क्लमथ], आत्म-उत्पीड़न, के साथ स्वयं चौथे व्यक्ति के रूप में, वह समूह, जिसमें स्वयं को कष्ट देना, पीड़ा देना या थका देना, - भवोति । तीन दूसरे हैं चतुर्थ के रूप में स्वयं है - अधिवासेतु मे, कम्मसुखं, अभवोति अत्तकिलमथो, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2. भन्ते, भगवा स्वातनाय अत्तचतुत्थो भत्तन्ति, म. नि. 2.63; 161, कामसुख का विलो.; - थानुयोग पु., अ. नि. 2(1).32. [आत्मक्लमथानुयोग], आत्म-उत्पीड़न का अभ्यास, स्वयं अत्तंजह त्रि., [आत्मजह], आत्मदृष्टि के कारण मिथ्या-रूप को कष्ट देने वाली चर्या में लगाव - न च अत्तकिलमथानुयोगं से गृहीत धारणाओं को त्यागने वाला, आत्मग्राह से मुक्त, अनुयुत्तो, दी. नि. 3.84; अत्तकिलमथानुयोगं अनुयुञ्जय्य, आत्मदृष्टि से मुक्त - अत्तञ्जहो नयिध पकुब्बमानो, सु. नि. म. नि. 3.280; कामसुखल्लिकानुयोगो का विप...
796; अत्तदिहिया यस्स कस्सचि वा गहणस्स पहीनत्ता अत्तगतिक त्रि., [आत्मगतिक], स्वयं अपने पर ही निर्भर अत्तञ्जहो, सु. नि. अट्ठ. 2.220; अट्ठ. में 'अत्तदिट्ठि-जहो' रहने वाला, अपने को ही अपना आश्रय अथवा अपनी शरण तथा 'अत्तगाह-जहो' अर्थो में भी प्राप्त - अत्तञ्जहोति एतं बनाने वाला - अत्तसरणाति अत्तगतिकाव होथ, मा ममाति ..., महानि. अट्ठ. 172. अञगतिका, स. नि. अट्ठ. 3.235.
अत्तज त्रि.. [आत्मज], क. अपने प्रयास से उत्पन्न - अत्तजं अत्तगरही त्रि., [आत्मगहीं], क. केवल अपनी निन्दा करने अत्तसंभवं ध. प. 161; एवमेव अत्तना कतं अत्तनि जातं वाला - अत्तगरहिनोयेव होन्ति अन गरहिनो, म. नि. 2. अत्तसम्भवं....ध. प. अट्ठ. 2.84; अत्तजेन वायामेन .... मि. 207; अत्तगरहिनो मयं, भन्ते आनन्द, अनगरहिनो, पारा. प. 110; ख. पु., अपना पुत्र, अपनी निजी सन्तान - तत्थ 24; ख. व्यक्ति को निन्दनीय बनाने वाला तत्त्व या ऐसे पुत्ता अत्रजादयो चत्तारो, सु. नि. अट्ठ. 2.242; महेसिं अत्तजं काम जो स्वयं को निन्दायोग्य बना दें - यदत्तगरही कत्वा ..... म. वं. 54.69. तदकुब्बमानो, सु. नि. 784.
अत्तजन पु.. [आत्मजन], अपने लोग, अपने आदमी, प्रिय अत्तगरु त्रि., ब. स. [आत्मगुरु], स्वयं अपने प्रति गौरवभाव लोग, समीपी लोग - कथहि वि ... न वायमे अत्तजनस्स रखने वाला - अत्तगरुना अत्तनिगारवेन पवत्तितं विसुद्धि. 1.14. गुत्तियाति, जा. अट्ठ. 4.263. अत्तगारव नपुं.. [आत्मगौरव], आत्मसम्मान का भाव - अत्तजिगुच्छना स्त्री., [आत्मजिगुप्सना], स्वयं अपने प्रति उभोपि पापानं अकरणरसा ... अत्तगारवपर - अरुचि अथवा घृणा का भाव - हीळनाति जातिआदीहि गारवपदट्ठानाति, अभि. अव. 240.
अत्तजिगुच्छना, विभ, अट्ठ. 458.
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अत्तजेट्टक 127
अत्तदत्थ अत्तजेट्ठक त्रि., ब. स. [आत्मज्येष्ठक], स्वयं को अथवा आत्मप्रकृति वाले रूप में, - रुपं अत्ततो समनुपस्सति, म. अपनी आन्तरिक चेतना को ही श्रेष्ठ अथवा महत्त्वपूर्ण नि. 1.381; स. नि. 2(1).3; फस्सपरेतो रोगं वदति अत्ततो, मानने वाला - अत्तानं जेट्टकं कत्वा निब्बत्तितं गुणजातं उदा. 105; सङ्घारे परतो पस्स, दुक्खतो मा च अत्ततो, स. अत्ताधिपतेय्यं, अ. नि. अट्ठ. 2.128.
नि. 1(1).218. अत्तज्झासय पु., तत्पु. स., [आत्माध्याशय] 1. अपना स्वयं अत्तत्तनियगाह पु., [आत्मात्मीयग्राह], 'मैं' और 'मेरे' जैसी का दृढ़ निश्चय, अपना संकल्प, अपनी इच्छा, अपना मिथ्या-धारणाओं में विश्वास, आत्मा एवं आत्मीय दृष्टियों के मानसिक अभिप्राय - अपुच्छितेन अत्तज्झासयवसेन कथिता प्रति मन का अभिनिवेश - सब्बसवतसभागेकसङ्गहतो अपुच्छितगाथा, खु. पा. अट्ठ. 100; द्वयतानुपस्सनादीनहि अत्तत्तनियगाहवत्थुस्स ..., विसुद्धि. 2.106. अत्तज्झासयतो उप्पत्ति, ..., सु. नि. अट्ठ. 1.39; 2. त्रि., अत्तत्थ पु., तत्पु. स., [आत्मार्थ], अपना हित, अपना अपने दृढ़ निश्चय अथवा अपनी इच्छा के कारण उद्भूत कल्याण, अपना स्वार्थ, अपना प्रयोजन - सो वत भिक्खु - एत्थ च अत्तज्झासयो परज्झासयो पुच्छावसिको, आविलेन चित्तेन अत्तत्थं वा अस्सति परत्थं वा अस्सति अट्टप्पत्तिकोति चत्तारो सुत्तनिक्खेपा वेदितब्बा, उदा. अट्ठ. उभयत्थं वा अस्सति, अ. नि. 1(1).12; अत्तत्थं वा ... 24, परज्झासय का विलो..
अलमेव अप्पमादेन सम्पादेतुं, स. नि. 1(2).27; परत्थ तथा अत्त त्रि., [आत्मज्ञ], स्वयं अपने आप को जानने उभयत्थ के साथ प्रयुक्त; - काम त्रि., आत्मकल्याण की वाला/वाली - एत्तकोम्हि सीलेन, समाधिना, पञआया ति कामना वाला - तस्मा अओपि अत्तत्थकामो कुलपुत्तो, एवं अत्तानं जानातीति अत्तञ्च दी. नि. अट्ठ. 3.202; विसुद्धि 1.37; - पटिपत्ति स्त्री., आत्मकल्याण की प्राप्ति धम्मञ्जू च होति अत्थञ्चू च अत्तञ्चू च, अ. नि. 2(2).2463; - अच्चन्तलामकायापि अत्तत्थपटिपत्तिया, सद्धम्मो. 28; - - ञ्जता स्त्री॰, भाव. [आत्मज्ञता] - अत्तत्रुता परिपुच्छा स्त्री., आत्महित-विषयक प्रश्न, द्रष्ट. पटिपुच्छा पुब्बेकतपुञ्जताय पदहानं, नेत्ति. 26.
के अन्त.. अत्तट्ठपञ/अत्तत्थपञ त्रि., ब. स. [आत्मार्थप्रज्ञ], स्वार्थी अत्तत्थिय त्रि., अत्तत्थ से व्यु. [आत्मार्थिक], स्वार्थी मनोवृत्ति मनोवृत्ति वाला, केवल अपने हित पर ध्यान रखने वाला, वाला, केवल अपने हित के विषय में ही सोचने वाला - दूसरों के कल्याण के बारे न सोचने वाला - अत्तनि ठिता अत्तत्थियं तं न कदा भविस्सति, थेरगा. 1100, पाठा. एतेसं पञ्जा, अत्तानं येव ओलोकेन्ति, न अञन्ति अत्तट्ठप, अत्यत्थियं. सु. नि. अट्ठ 1.104; अत्तनो अत्थाय पा, परं अनोलोकेत्वा अत्तदण्ड 1. त्रि., अत्त + दण्ड का ब. स. [आत्मदण्ड], अत्तनियेव वा ठिता एतेसं पाति अत्तत्थपञ्जा, जा. अट्ठ. दण्ड को धारण किया हुआ, दण्ड को ग्रहण करने वाला 3.438; अट्ठ. में दो रूपों में व्याख्यातः - 1. अत्त + अत्थ हिंसक प्रकृति का व्यक्ति, दण्डधारी - अत्तदण्डेसु निब्बुतं, (अट्ठ) अपने हित के लिए, 2. अत्त + ट्ठ (ठित), अपने में ध. प. 406; स. नि. 1(1).273; अत्तदण्डेसु निब्बुताति ही स्थित.
परविहेठनत्थं गहितदण्डेसु सत्तेसु. स. नि. अट्ठ. 1.308; 2. अत्तट्ठम त्रि., ब. स. [आत्माष्टम], अन्य सात लोगों के साथ पु./नपुं., कर्म. स., धारण किया गया दण्ड, व्यक्ति की स्वयं आठवें के रूप में विद्यमान, वह समूह अथवा वर्ग, हिंसक अथवा द्वेषपरक आत्मचेतना - अत्तदण्डा भयं जातं. जिसमें स्वयं आठवें के रूप में हो - रेवतत्थेरं अत्तट्ठमं सु. नि. 941; अत्तदण्डा भयं जातन्ति ... अत्तनो दुच्चरितकारणा निमन्तेसि. वि. व. अट्ठ. 123; - क त्रि., ऊपर के ही अर्थ जातं, महानि. अट्ठ. 344. में - अत्तट्ठमकस्स पिण्डपातं दत्वा, मि. प. 269. अत्तदत्थ' पु.. [आत्मार्थ], अपना स्वयं का हित, अपना अत्तता स्त्री॰, भाव. [आत्मता], अपनापन, अपने समान ही कल्याण, अपनी मुक्ति - पञ्च कामगुणे हित्वा, दूसरों को मानने की मनोवृत्ति, आत्मसमता - सब्बत्ततायाति अत्तदत्थमचारिसुंसु. नि. 286; मन्तज्झनब्रह्मविहार - भावनादिं सब्बेसु ... अत्तताय, विसुद्धि. 1.298.
अत्तनो अत्थं अकंसु, सु. नि. अट्ठ. 2.45; अत्तदत्थं परत्थेन, अत्ततो 'अत्त' से व्यु., प. वि., प्रतिरू. निपा., प्रायः अनुपस्सति, बहुनापि न हापये, ध. प. 166; न सो पस्सति अत्तदत्थं माति, अनुविलोकेति, चिन्तेति जैसे क्रि. स. के साथ परत्थं जा. अट्ठ. 2.83;; (अट्ठ. में अत्तदत्थं के लिए "अत्तत्थं'). प्रयुक्त [आत्मतः]. आत्मा के रूप में, आत्मा के समान, - टि. यह अत्तत्थ का भ्रष्ट रूप तथा मदत्थ, एतदत्थ के
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अत्तदत्थ
128
अत्तनोपद
मि. सा. के आधार पर विरचित शब्दरूप है, द्रष्ट. क. व. अत्तदुक्ख नपुं.. तत्पु. स., [आत्मदुःख], अपना दुख - यो 35.
अत्तदुक्खेन परस्स दुक्खं ... दहाति, जा. अट्ठ. 5.208; अत्तदत्थ पु., एक स्थविर की व्य. सं. - अत्तदत्थथेरं आरब्भ सत्तमे अत्तब्याबाधायाति अत्तदुक्खाय, अ. नि. अट्ठ. 2.86. कथेसि, ध. प. अट्ठ. 2.89; - थेरवत्थु ध. प. में वर्णित ___ अत्तदुतिय त्रि., ब. स., [आत्म-द्वितीय], स्वयं और साथ में अत्तदत्थ नामक एक स्थविर की कथा का शीर्षक, ध. प. एक दूसरा व्यक्ति - ... आयस्मा आनन्दो ... अत्तदतियो अट्ठ. 2.89
कुसिनारंपाविसि, दी. नि. 2.111; आयस्मा सारिपुत्तो गमनकाले अत्तदन्त त्रि., [आत्मदान्त], आत्मसंयमी, आत्मनियन्त्रित, अत्तदुतियो गतो. ध, प. अट्ट, 1.83, तुल. अत्तचतुत्थ. अपने ऊपर नियन्त्रण रखने वाला - अत्तदन्तस्स पोसस्स, अत्तनगलुविहारवंस पु., हत्थवनगल्ल-विहारवंस नामक एक निच्च सञ्जतचारिनो..., ध. प. 104; मनुस्सभूतं सम्बुद्ध अप्रसिद्ध पालि-रचना का सिंहली भाषा का, गद्य एवं गाथाओं अत्तदन्तं समाहित थेरगा. 689; अ. नि. 2(2)60; अत्तदन्तन्ति में निबद्ध संस्क. 1. प्रा. अनु. सहित डी. एल्विस द्वारा संपा. अत्तनायेव दन्तं न अओहि दमथं उपनीतं अ. नि. अट्ठ 3.113. कोलम्बो संस्क., 1887 2. कोलम्बो, 1909, द्रष्ट. जे. पा. अत्तदम पु., नपुं [आत्मदमन], आत्म-संयम, स्वयं अपने टे. सो. 1882, पृ. 145. द्वारा अपनी चित्तवृत्तियों पर नियन्त्रण - अत्तदमत्थाय, अत्तनिपातनपञ्ह पु., मि. प. के एक खण्डविशेष का नाम, अत्तसमत्थाय ..., महानि. 174; अत्तदमत्थायाति मि. प. 187--189. विपस्सनासम्पयुत्ताय पञआय अत्तनो दमनत्थाय महानि. अत्तनिमित्त नपुं., [आत्मनिमित्त], आत्मा से सम्बन्धित चिह्न अट्ठ. 274; तुल. अत्तसमथ, अत्तपरिनिब्बापन.
अथवा लक्षण - विपस्सना हि निच्चनिमित्तं ... अत्तनिमित्तञ्च अत्तदमन नपुं.. [आत्मदमन], उपरिवत् - अत्तदमनसतातो उग्घाटेति, ध. स. अट्ठ. 266; पाठा. अत्थनिमित्त. दमो, जा. अट्ठ. 3.6.
अत्तनिय त्रि., अत्ता से व्यु. [आत्मन्य, बौ. सं. आत्मनीय], अत्तदस्स पु., ब. स., [आत्मदर्श]. दर्पण, जिसमें स्वयं को आत्मीय, निजी, अपना, स्वयं का, आत्मा से सम्बद्ध, आत्मा देखा जाता है.
से युक्त, आत्मा की प्रकृति वाला, आत्मा के स्वभाव से अत्तदिट्ठि स्त्री., कर्म. स. [आत्म-दृष्टि], उच्छेदवाद की समन्वित कोई भी धर्म - निजो सको अत्तनियो, अभि. प. मिथ्यादृष्टि से विप. आत्मा को शाश्वतरूप में ग्रहण करने 736; अत्तनिये सो तिलिङ्गिसो, अभि. प. 808; अत्तनि वा की मिथ्या धारणा - अत्तं पहायाति अत्तदिदि पहाय, महानि. .... सति अत्तनियति अस्सा ति, अत्तनीये वा ... सति अत्ता 77; ... तस्स हि अत्तदिट्टि वा उच्छेददिहि वा नत्थि .... सु. मेति अस्सा ति, म. नि. 1.191; सुमिदं अत्तेन वा नि. अट्ठ. 2.217.
अत्तनियेन वाति, म. नि. 3.47; लोकोति ममकारवत्थु यं अत्तदिट्ठिञ्जह त्रि., [आत्मदृष्टिजह], आत्मदृष्टि से मुक्त अत्तनियन्ति वुच्चति, उदा. अट्ठ. 280; - गाह पु., हो चुका व्यक्ति - अत्तञ्जहोति अत्तदिट्ठिजहो, महानि. 64; [आत्मन्यग्राह], किसी भी धर्मविशेष को आत्मा से सम्बद्ध अत्तदिष्विजहोति 'एसो मे अत्ताति गहितदिद्धिं जहो, महानि. मानने का भ्रमात्मक विचार - ... अत्तत्तनियगाहवसेन च अट्ठ. 172, पाठा. अत्तदिट्ठिजह, द्रष्ट, अत्तदिट्टि के अन्त.. अभिरता, उदा अट्ठ. 173; - भाव पु., [आत्मन्यभाव]. अत्तदीप त्रि., ब. स. [आत्मदीप], स्वयं को ही अपने लिये धर्मविशेष को आत्मा से सम्बद्ध मानने वाली मिथ्या मनोवृत्ति प्रकाश बनाने वाला व्यक्ति, अपना मार्ग स्वयं निर्धारित करने - अत्तभावेन वा अत्तनियभावेन वाति अत्थो, खु. पा. अट्ठ. वाला, आत्मनिर्भर - ये अत्तदीपा विचरन्ति लोके, सु. नि. 142; - सुञता स्त्री॰ [आत्मन्यशून्यता]. आत्म-स्वभाव से 506; अत्तदीपा विहरथ अत्तसरणा, अनञसरणा, दी. नि.. शून्य होने की दशा - केसे ताव अत्तसुञता, अत्तनियसुझता, 2.78; अत्तदीपाति महासमुद्दगतदीपं विय अत्तानं दीपं पतिद्वं निच्चभावसुअताति तिस्सो सुञता होन्ति, विभ. अट्ठ. 247. कत्वा विहरथ, दी. नि. अट्ठ. 2.124; अत्तदीपाति अत्तानं दीपं अत्तनोपद नपुं॰ [आत्मनेपद], धातुओं में जोड़े जाने वाले ताणं लेणं गतिं परायणं पतिट्ठ कत्वा विहरथाति, स. नि. काल-भाव-बोधक दो प्रकार के प्रत्ययों में से, ते, अन्ते, से, अट्ठ. 2.237; - वग्ग स. नि. के एक वग्ग का नाम, स. व्हे, ए. म्हे, इत्यादि - परान्यत्तनोपदानि, कच्चा. व्या. 409, नि. 2(1).39-48; - सुत्त स. नि. के एक सुत्त का नाम, स. रू. सि. 423; भावे च कम्मनि च अत्तनोपदानि होन्ति, क. नि. 2(1).39-41.
व्या. 456, रू. सि. 424; अत्तनोपदानि वज्जेत्वा, सद्द. 2.318.
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अत्तन्तप
129
अत्तप्पयोग
अत्तन्तप त्रि., [आत्मतप], आत्म-उत्पीड़क, स्वयं को कष्ट देने वाला, उत्पीड़ित करने वाला - इधावुसो, एकच्चो पुग्गलो अत्तन्तपो होति अत्तपरितापना - नुयोगमनुयुत्तो, दी. नि. 3.185; म. नि. 2.4; अ. नि. 1(2).235; पु. प. 165, परन्तप का विलो... अत्तपक्खिय त्रि., [आत्मपक्षीय], अपने पक्ष वाला, अपने समर्थन में रहने वाला - अत्तपक्खियेस असारत्तो, सु. नि. अट्ठ. 2.192; परपक्खिय का विलो... अत्तपच्चक्ख त्रि., ब. स. [आत्मप्रत्यक्ष], स्वयं अपने द्वारा देखा गया, अनुभव किया गया, अपने द्वारा सुनिश्चित किया गया - न सद्धोति सामं सयं अभिजातं अत्तपच्चक्खं धम्म ..., महानि. 171; अत्तपच्चक्खं धम्मन्ति अत्तना पटिविज्झितं पच्चवेक्खितं धम्म, महानि. अट्ठ. 273; सब्बानि किच्चानि अत्तपच्चक्खेनेव कातब्बानि, जा. अट्ठ. 5.108; - तो प. वि. के अर्थ में क्रि. वि. - सामं विदू अत्तपच्चक्खतोव जानित्वा .... जा. अट्ठ. 5.121; अत्तपच्चक्खतो व ञत्वाव, ध. प. अट्ठ. 2.232; - ता स्त्री॰, भाव., अपने द्वारा प्रत्यक्ष किये जाने की दशा, निर्वाण की साक्षात् क्रिया - निब्बानस्स सच्छिकिरियायाति ... अत्तपच्चक्खतायाति वुत्तं होति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).247; - वचन नपुं.. स्वयं अपने निजी वचन - इदहि बुद्धस्स भगवतो अत्तपच्चक्खवचनं न होति, पारा. अट्ठ. 14. अत्तपच्चत्थिक त्रि., [आत्मप्रत्यर्थिक], आत्मपक्ष एवं विरोधी पक्ष - उभिन्नं अत्तपच्चत्थिकानं कथं सुत्वा, जा. अट्ठ. 5.114. अत्तपञ्चदसम त्रि., ब. स. [आत्मपञ्चदशम], चौदह दूसरे लोगों के साथ पन्द्रहवें के रूप में विद्यमान स्वयं, पन्द्रह लोगों का ऐसा समूह, जिसमें चौदह दूसरे लोग हों तथा पन्द्रहवां सदस्य स्वयं हो - देसनावसाने कुक्कुटमित्तो ...
अत्तपञ्चदसमो सोतापत्तिफले पतिद्वहि, ध. प. अट्ठ. 2.16. अत्तपटिलाम पु., तत्पु. स. [आत्मप्रतिलाभ]. अपने लौकिक अस्तित्व की प्राप्ति, व्यक्तिगत अस्तित्व का एक स्वरूप - तयो खो मे पोट्टपाद, अत्तपटिलाभा - ओळारिको ...... मनोमयो ... अरूपो ..., दी. नि. 1.173; - टि. भगवान् बुद्ध ने अपने समय में प्रचलित तीन प्रकार की आत्मासम्बन्धी धारणाओं (अत्त-पटिलाभ) अथवा स्वरूपों का उल्लेख किया है, 1. ओळारिक अथवा स्थूल भौतिक शरीर को ही व्यक्तित्व मानने वाला विचार, 2. मनोमय अर्थात् सम्पूर्ण इन्द्रिय-संपन्न मानसिक शरीर को ही तथा 3. अरूप संज्ञा
को ही, उन्होंने इन तीनों के प्रहाण का उपाय भी कहा है। द्रष्ट. दी. नि. 1, पोट्ठपादसुत्त. अत्तपरिच्चागी त्रि., [आत्मपरित्यागिन्], स्वयं अपने को त्याग कर देने वाला, शरीर और जीवन के प्रति पूरी तरह से निरपेक्ष - अत्तपरिच्चागीति काये च जीविते च निरपेक्खो हुत्वा ... अत्तानं परिच्चजन्तो, जा. अट्ठ. 2.327. अत्तपरितापन नपुं. [आत्मपरितापन], आत्म-उत्पीड़न, अपने को अत्यधिक कष्ट देने का मार्ग अथवा कर्म - इधावुसो, एकच्चो पुग्गलो अत्तन्तपो होति अत्तपरितापनानुयोगमनुयुत्तो, दी. नि. 3.185; तुल. अत्तन्तपो. अत्तपरित्ता स्त्री., [आत्मपरित्राण], अपना परित्राण, अपनी सुरक्षा, एक प्रकार का मन्त्र - अत्तगुत्तिया अत्तरक्खाय अत्तपरित्ताय ..., अ.नि. 1(2).84; अत्तगुत्तिया अत्तरक्खाय अत्तपरित्तं कातुं ..., चूळव. 227. अत्तपरित्ताण नपुं.. [आत्मपरित्राण, जीवन का परित्राण अथवा रक्षा - अत्तपरियायन्ति अत्तनो परित्ताणम्पि च कातुं ...., जा. अट्ठ. 5.364. अत्तपरिनिब्बापन नपुं.. [आत्मपरिनिर्वापन], पूर्णरूप से आत्म-विमुक्ति, अपनी पूर्ण मुक्ति - अत्तपरिनिब्बापनत्थाय सुत्तन्तं ... विनयं ... अभिधम्म परियापुणाति, महानि. 174; - नत्थ पु., [आत्मपरिनिर्वापनार्थ]. अपनी विमुक्ति का प्रयोजन - अत्तपरिनिब्बापनत्थो यथत्थो, पटि. म. 166. अत्तपरिभव पु., [आत्मपरिभव], आत्म-तिरस्कार, आत्मअवमानना, अपने प्रति हीनता का भाव - यो एवरूपो ओमानो, ओमञना-अत्तपरिभवो- अयं वुच्चति.हीनोहमस्मीति मानो, विभ. 406; अत्तपरिभवोति ... अत्तानं परिभवित्वा मञ्जना, विभ. अट्ठ. 458. अत्तपरियाय पु.. [आत्मपर्याय], अपना परित्राण, अपना रक्षण - अत्तपरियायन्ति अत्तनो परित्ताणम्पि च कातुं
सक्कोतीति, जा. अट्ठ. 5.364. अत्तपीतिरत त्रि., ब. स. [आत्मप्रीतिरत], अपने आनन्दों मे डूबा हुआ, अपने लिये आमोद-प्रमोद जुटा रहा- अत्तपीतिरतो राजा, मिगो कूटेव ओहितो, जा. अट्ठ. 6.264; अत्तपीतिरतोति अत्तनो किलेसपीतिया अभिरतो हुत्वा, तदे.. अत्तप्पयोग पु., [आत्मप्रयोग], अपना स्वयं का प्रयोग, अपने द्वारा उठाया गया कदम - सचे अत्तप्पयोगेन, ओहितो हंसपक्खिनं, जा. अट्ठ. 5.359; ... अत्तनो पयोगेन अत्तनो अत्थाय ..., तदे..
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अत्तप्पसंसक
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अत्तप्यसंसक त्रि. [आत्मप्रशंसक अपनी प्रशंसा स्वयं करने वाला, डींग हांकने वाला, अपने बारे में बहुत बढ़चढ़कर बोलने वाला अत्तप्पसंसकोति अत्तानं पसंसनसीलो अत्तुक्कंसको पोसो, जा. अड. 2. 126.
अत्तब्याबाध पु. तत्पु, स. [ आत्मब्याबाध], अपनी बाधा, अपनी दुर्दशा अथवा अपना कष्ट, क. चेतेति, के साथ प्रयुक्त नेव तरिंम समये अत्तव्याबाधायपि चेतेति न परव्यावाधायपि चेतेति न उभयव्याबाधायपि चेतेति म.नि. 1.124; स. नि. 2 (2).320; अ० नि० 1 ( 1 ). 183 184; 186; ख. संवत्तति के साथ तयोमे भिक्खवे, धम्मा अत्तब्याबाधायपि
परब्याबाधायति उभयव्याबाधायपि संवत्तन्ति अ. नि. 1 (1). 137; सो च खो अत्तब्याबाधायपि संवत्तति, म.नि. 1.163; - टि. सदा च. वि., ए. व. में ही तथा परब्या. एवं उभयब्या के साथ ही प्रयुक्त.
अत्तभर [आत्मभर ] केवल अपना ही भरण-पोषण करने वाला, अपनी ही आवश्यकताओं को पूरा करने वाला, दूसरे का पोषण न करने वाला - पिण्डपातिकस्स भिक्खुनो अत्तभरस्स अनज्ञपोसिनो उदा. 101: अत्तभरस्साति
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चतूहि पच्चयेहि अत्तानमेव भरन्तस्स, उदा. अट्ठ. 162. अत्तभाव पु. भाव. [आत्मभाव] 1. शरीर का लाभ अस्तित्व
अत्तभावेन वा अत्तनियभावेन वाति अत्थो खु. पा. अड. 142 2. शरीर व्यक्ति की विशिष्ट एवं यथार्थ प्रकृति का अस्तित्व, प्राणी, जीव, जीव का शारीरिक स्वरूप, आत्मा के लोकसम्मत विविध स्वरूप सरीरं वपु गतं था तभावो, वोन्दि, विग्गहो अभि. प. 151; सतं दब्बात्तभावेसु अभि. प. 816, सुखुमत्ता, भिक्खवे, अत्तभावस्स.., स. नि. 3 ( 2 ).504
पटिलाभ पु०, [आत्मप्रतिलाभ], प्राणी के रूप में या शरीर- ग्रहण के रूप में पुनर्जन्म की प्राप्ति, नूतन शरीर का प्रतिलाभ तरस एवरूपो अत्तभावप्यटिलाभो होति चूळव 321; चत्तारो मे,... अत्तभावपटिलाभा, अ. नि. 1 (2). 184; तथाभूतो अयं अत्तभावपटिलाभो अ. नि. 1 ( 2 ) . 218 परम्परा स्त्री० [आत्मभावपरम्परा ]. पुनर्जन्मों में शरीर- ग्रहण करने की परम्परा, बार बार शरीर धारण करना, पुनर्जन्म-परम्परा
परम्पि गन्त्याति आचरियपरम्परा अत्तभावपरम्पराति अ. नि. अड. 2.153 - परियापन्न त्रि [आत्मभावपर्यापन्न ], शरीर के एक भाग के रूप में विद्यमान, शरीर की स्थिति को प्राप्त यं सोतं चतुन्नं महाभूतान. अत्तभावपरिया पन्नो... विभ. 78 : -- परियाय पु., [आत्मभावपर्याय] आत्मभाव, शरीर अत्तभावपरियाये अत्तनि सम्भूता
अत्तमन
सु. नि. अड. 2.36 वत्थु नपुं. आत्मभाव या शरीर के रूप में मिथ्या रूप में गृहीत पांच स्कन्धों में कोई एक चतूसु अत्तभाववत्थूसु, रूपं अत्ततो समनुपस्सति, रूपवन्तं वा अत्तानं, अत्तनि वा रूपं, रूपस्मिं वा अत्तानं, नेत्ति. 71; टि. रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार एवं विज्ञान, इन पांच स्कन्धों में चार प्रकार से आत्मभाव का विपर्यस्त दर्शन अत्तभाव वत्थु में विपरीतग्राह है। वस्तुतः पांच उपादान स्कन्ध ही अत्तभाव - वत्थु हैं - अत्तभाववत्थूसूति पञ्चसु उपादानक्खन्धे ते हि आहितो अहं मानो एत्थाति अत्ता, अत्ताति भवति एत्थ बुद्धि योहारो चाति अत्तभावो, सो एव सुभादीनं विपल्लासस्स च अधिद्वानभावतो वत्थु चाति, अत्तभाववत्थति दुच्चति नेत्ति, अड. 266-67 सन्निस्सय त्रि.. [आत्मभाव सन्निश्रय] आत्मा की मिथ्या धारणा पर आधारित रहने वाला तत्थेते पापका अकुसला धम्मा उप्पज्जन्ति अतभावसन्निस्सया महानि. 10 वामिनिब्बत्ति स्त्री. [आत्मभाव अभिनिर्वृ शि] पुनर्जन्म पुनप्पु नअत्तभावाभिनिब्बत्तिया महानि. 78; अत्तभावाभिनिब्बत्तियाति अतभावानं अभिनिव्यत्तिया महानि अट्ठ. 125.
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अत्तमावी, अत्तभाव से व्यु [आत्म-भाविन्] आत्मभाव से युक्त, शरीर वाला, शरीरधारी एतदग्गं भिक्खदे अतभावीन यदिदं राहु असुरिन्दों, अ. नि. 1 ( 2 ) 20 अत्तभावीनन्ति अत्तभाववन्तान, अ. नि. अड. 2.253.
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अत्तमज्झा स्त्री. ब. स. [आप्तमध्या ]. क्षीण कटिप्रदेश वाली नारी सबत्तमज्याति सब्बा अत्तमज्झा, पाणिना गहितप्यमाणमज्झति अत्थो, अट्ठकथायं पन सुमज्झाति पाठो, जा० अट्ट 5.164.
अत्तमन त्रि. व्य. अनिश्चित [आप्तमनस् दौ. सं. आत्तमनस्]. आनन्द युक्त मन वाला, संतुष्ट मन वाला उत्साही, मंगलकारी - अत्तमनो पमुदितो उदग्गो पीतिसोमनस्सजातो. सु. नि. (पृ.) 159; अत्तमना ते भिक्खू भगवतो भासितं अभिनन्दुन्ति, दी. नि. 1.41 अतमना ते भिक्खुति अत्तमना सकमना, बुद्धगताय पीतिया उदग्गचित्ता हुत्वाति, दी. नि. अ 1.110 ता स्त्री अत्तमन से व्यू. भाव प्रसन्नता, आनन्दमयता, मन की नियंत्रित या संयमित अवस्था हासों समनता पीति वित्ति तुट्टि च नारियं अभि. प. 87 लभेथेव अत्तमनतं, लभेथ चेतो पसाद, म. नि. 1.162; अ० नि. 2 (1) 218; अनभिरद्धस्स हि मनो दुक्खपदद्वानत्ता अत्तनो मनो नाम न होति अभिरद्धस्स पन सुखपदट्ठानत्ता अत्तनो
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अत्तमानी
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अत्तसञ्जत मनो नाम होति। इति अत्तनो मनता अत्तमनता, सकमनता, अत्तलाभे उप्पन्नं आणं, सद्द. 3.881; पच्चुप्पन्नेसु च ध. स. अट्ठ. 188; - भाव पु., तत्पु. स., मन की प्रसन्नता, अत्तभावपटिलाभेसु, स. नि. 1(2).256. आनन्दमयता - अत्तमनभावस्स वा युत्तं वाचं निच्छारेसि अत्तवग्ग पु, ध. प. के बारहवें वर्ग का शीर्षक, ध, प. 157-166. उदीरयि, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).161; - वाचा स्त्री., अत्तावञा स्त्री., तत्पु. स. [आत्मावज्ञा], आत्मअवमानना, प्रसन्न अथवा सन्तुष्ट मन से युक्त वाणी, मन के उल्लास अपना तिरस्कार अथवा अवमूल्यन - यो एवरूपो ओमानो को प्रकट कर रही वाणी- अत्तमनो अत्तमनवाचं निच्छारेसि. .... अत्तावना अत्तपरिभवो- अयं वच्चति, हीनोहमस्मीति मानो, म. नि. 1.39.
विभ. 406; अत्तावाति अत्तानं अवजानना, विभ. अट्ठ. 458. अत्तमानी त्रि., [आत्ममानी], आत्मा की सत्ता को वास्तविक अत्तवण्ण पु., आत्मप्रशंसा - न चत्तवण्णं परिसासु व्याहरे, अथवा यथार्थ मानने वाला, नाम और रूप-धर्मों को आत्मा थेरगा. 209. मानने वाला - अनत्तनि अत्तमानि, पस्स लोकं सदेवक, अत्तवध पु.. [आत्मवध], आत्महत्या, अपना विनाश - सु. नि. 761; अनत्तनि नामरूपे अत्तमानिं, स. नि. अट्ठ. अत्तवधाय देवदत्तस्स लाभसक्कारसिलोको उदपादि, चूळव. 2.205.
324-25; स. नि. 1(2).217. अत्तमारणीय त्रि., अपनी मृत्यु स्वयं उत्पन्न करने वाला, अत्तवाद पु.. [आत्मवाद], आत्मा से सम्बन्धित सिद्धान्त - स्वयं अपना हत्यारा, आत्महत्या करने वाला - भूनहच्चानि रूपं अत्ततो समनुपस्सतीतिआदिनयप्पवत्तेन अत्तवादेन कम्मानि, अत्तमारणियानि च, करोन्ता नावबज्झन्ति, अ.नि. पटिसंयुत्ता, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).190; अत्तवादपटिसंयुत्ता 2(2).235.
दिद्धि, पटि. म. 127; - दुपादान नपुं.. तत्पु. स., अत्तमोक्ख पु.. [आत्ममोक्ष], अपना निर्वाण, अपनी पूर्ण [आत्मवादोपादान], चार उपादानों में से एक - चत्तारिमानि, विमुक्ति - बुद्धसासनस्स निय्यानिकत्ते सति मिलक्खो आवुसो, उपादानानि - कामुपादानं दिट्टपादानं, अत्तमोक्खं करिस्सति, सा. सं. 54.
सीलब्बतुपादानं, अत्तवादुपादानं, म. नि. 1.64; ... अत्तनो अत्तरक्खा स्त्री., तत्पु. स. [आत्मरक्षा], अपनी रक्षा - वादुपादानं अत्तवादुपादानं विभ. अट्ठ. 173; - टि. उपादान अत्तगुत्तिया अत्तरक्खाय अत्तपरितं कातुं चूळव. व. 227; चार है, काम-उपा., दृष्टि-उपा., शीलव्रत-उपा. तथा आत्मवादवेस्सन्तरस्स अत्तरक्खा पहीना .... मि. प. 123, विलो. उपा., विशेष द्रष्ट. उपादान के अन्त.. पररक्खा .
अत्तविपत्ति स्त्री., तत्पु. स. [आत्मविपत्ति], अपने ऊपर आ अत्तरक्खित त्रि., तत्पु. स. [आत्मरक्षित], स्वयं अपने द्वारा पड़ी विपत्ति अथवा संकट - भिक्खु कालेन कालं .... रक्षित - एवं मयं अत्तगुत्ता अत्तरक्खिता ... दस्सेस्साम, स. अत्तविपत्तिं पच्चवेक्खिता होति, अ. नि. 3(1).10; विलो. नि. 3(1).244.
परविपत्ति. अत्तरूप' त्रि., [आत्मरूप], अपने लिये अनुरूप, अपने लिये अत्तवेतनभत त्रि., [आत्मवेतनभृत]. अपनी आजीविका स्वयं शुभ, अपने लिए मङ्गलकारी अथवा हितकारी, अपना हितकामी ___ अर्जित करने वाला, आत्मनिर्भर, दूसरे की सेवा में नहीं - चतूसु, भिक्खवे, ठानेसु अत्तरूपेन अप्पमादो सति, चेतसो लगा हुआ - अत्तवेतनभतोहमस्मि, सु. नि. 24; अत्तवेतनभतोति आरक्खो करणीयो, अ. नि. 1(2).137; अत्तरूपेनाति अत्तनो अत्तनियेनेव घासच्छादनेन भतो, अत्तनोयेव कम्म कत्वा अनुरूपेन, अनुच्छविकेन, हितकामेनाति अत्थो, अ. नि. अट्ठ. जीवामि, सु. नि. अट्ठ. 1.32. 2.325.
अत्तसञ्चेतना स्त्री., तत्पु. स. [आत्मसञ्चेतना], अपने अत्तरूप त्रि., [आप्तरूप], पूर्ण स्वरूप वाला, किसी धर्म- प्रति अपनी चेतना, अपनी स्वयं की चेतना, अपने द्वारा विशेष से समन्वित स्वरूप वाला - अत्तरूपाय परिभासाय, प्रकल्पित चेतना - अत्थि, भिक्खवे, अत्तभावपटिलाभो, यस्मि परिपुण्णाय, दी. नि. 3.59.
अत्तभावपटिलाभे अत्तसञ्चेतना कमति नो परसञ्चेतना, अ. अत्तलाभ पु., तत्पु. स. [आत्मलाभ], जन्म, जन्म की प्राप्ति, । नि. 1(2).184; दी. नि. 3.184. पुनर्जन्म में प्राप्त नवीन अस्तित्व अथवा शरीर - अत्तसञत त्रि., [आत्मसंयत], अपने ऊपर संयम अथवा उद्धजमवियोगत्तलाभतित्तिसमिद्धिसु पातुभा- वच्चयाभाव, अभि. नियन्त्रण रखने वाला - सेय्यो सो मनि अत्तसञतो. स. प. 1168; सरूपकथने चेव अत्तलाभे च सत्तियं, सद्द. 3.881; नि. 1(1).126; तुल. सञतत्त.
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अत्तसञ्ञा
अत्तसज्ञा स्त्री० [आत्मसंज्ञा], अज्ञान के कारण धर्मों में अनित्यता की अनुपश्यना न होने के कारण धर्मों को आत्मा के रूप में जानना या देखना, वास्तविक सत्ता के विषय में मिथ्या धारणा अनिच्चस- दुक्खसअसमनुपस्सनलक्खणा अत्तसज्ञा नेति. 25. अत्तसन्निय्यातन नपुं [आत्मसन्निर्यातन] अपने को पूरी तरह से लगा देना या समर्पित कर देना, आत्मपरित्याग - तत्थ अत्तसन्निय्यातनं नाम अज्जादि कत्वा अहं अत्तानं बुद्धस्स निय्यादेमि, धम्मस्स सङ्घस्साति एवं बुद्धादीनं अत्तपरिव्यजनं दी. नि. अ. 1.187 म. नि. अट्ट (मू.प.) 1 (1). 141, तुल. अत्तनिय्यातन. अत्तसन्निस्सित त्रि.. [आत्मसम्मिश्रित] अपने से सम्बन्धित अपने पर आश्रित अत्तसन्निस्सिता अतिथ तथैव परनिस्सिता, उत्स. वि. 483 विलो. परनिस्सित. अत्तसम त्रि. [आत्मसम], अपने समान, अपने जैसा, अत्यन्त घनिष्ठ साथी, जो अपने जैसा प्रिय होनत्थि अत्तसमं पेमं स.नि. 1 (1). 8; ततुत्तरं अत्तसमोंपि होति, जा० अट्ठ. 1.349; अत्तना समे निन्नानाकरणेपि पुग्गलेति, जा. अनु. 3.89. अत्तसमानता स्त्री. [आत्मसमानता] अपने से समानता, अपना ही जैसा मानना अत्तसमानताय तेसु विरोधं विनेन्तो f. 31.2.192. अत्तसमुद्वान त्रि.. [आत्मसमुत्थान] अपने से उत्पन्न, अपने भीतर से ऊपर उठकर आने वाला सल्लं अत्तसमुद्वानं भवनेत्तिप्पभावित थेरगा. 767. अत्तसम्पत्ति स्त्री० [आत्मसम्पत्ति], अपनी सम्पत्ति, निजी धन-दौलत अत्तसम्पत्तिनिगूहन लक्खणता अत्तसम्पत्तिग्गहणलक्खणता वा वेदितब्बा, ध. स. अट्ठ
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401.
अत्तसम्पदा त्रि.. [आत्मसम्पदा ] अपने आप में परिपूर्णता चित्त की सम्पूर्णता अरियरस अद्वह्निकस्स मग्गस्स उप्पादाय एवं पुब्बङ्गम यदिदं - अत्तसम्पदा स. नि. 3 (1).28. अत्तसम्भव त्रि. [आत्मसम्भव], अपने से उत्पन्न, अपना स्वयं का अस्तित्व, आत्मभाव - अत्तनाहि कतं पापं, अत्तजं अत्तसम्भवं ध. प. 161 तं विदित्वा महमत्तसम्भव, थेरगा. 260, अत्तसम्भवं अत्तनि सम्भूतं अत्तायत्तं ... थेरगा. अड. 1.409; अभिन्दि कवचमिवत्त- सम्भवन्ति, उदा. 143. अत्तसम्भूतत्र [आत्मसम्भूत] अपने आप से उत्पन्न, अपने से उत्पन्न, अपने व्यक्तित्व के अन्दर में उदितस्नेहजा अत्तसम्भूता निग्रोधस्सेव खन्धजा, सु. नि. 274.
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अत्तहेतु
अत्तसम्मापणिधान नपुं. अपना किया हुआ सम्यक् संकल्प, अपने द्वारा किया गया पक्का शुभ इरादा अत्तसम्मापणिधानं सीलानं पदद्वान् नेति 26: अत्तसम्मापणिधानं हिरिया च विपस्सनाय च साधारणं पदद्वानं, नेति. 42. अत्तसम्मापणिधि स्त्री, उपरिवत पतिरूपदेसवासो च.. अत्तसम्मापणिधि च एतं मङ्गलमुत्तमं सु. नि. 283: इक कच्चो अत्तानं दुस्सील सीले पतिद्वापेति, अस्सद्ध सद्धासम्पदाय, पतिद्वापेति, अयं वुच्चति अतसम्मापणिधी ति सु. नि. अड. 2.15.
"
अत्तसरण त्रि. ब. स. [आत्मशरण] अपने लिये स्वयं अपने को शरणस्थल बनाने वाला, दूसरे का आश्रय न लेने वाला - अत्तदीपा, भिक्खवे, विहरथ अत्तसरणा अनज्ञसरणा, दी.
नि.
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3.42.
अत्तसारसार पु०, आत्मसार नामक तथाकथित सार-तत्त्व निरयलोको असारो निस्सारो सारापगतो ... अत्तसारसारेन वा निच्चेन वा महानि. 303. अत्तसिनेह पु.. [आत्मस्नेह]. स्वार्थपरता, अपने से स्नेह, स्वार्थी मनोवृत्ति - यस्मा सन्तासो अत्तसिनेहेन होति, अत्तसिनेहो च तण्हालेपो सु. नि. अड. 1.100. अत्तसुख नपुं तत्पु. स. [आत्मसुख] अपना सुख, अपने द्वारा अनुभूत सुख अत्तसुखरस हेतु जा. अ. 1.348; न पण्डिता अतसुखस्स हेतु पापानि कम्मानि समाचरन्ति जा.
"
अट्ठ. 6.204.
"
अत्त-सुज्ञता स्त्री अत्त-सुज्ञ का भाव [आत्मशून्यता ]. तीन शून्यताओं में से एक, किसी भी वस्तु में आत्मा जैसे धर्म का न पाया जाना, आत्मा के स्वभाव की केसे शून्यता ताव अत्तसुञता अत्तनिय सुञ्ञता, निव्यभावसुज्ञताति तिस्सो सुञ्ञता होन्ति विभ. अड्ड. 247, अत्तसुद्धि स्त्री तत्पु स [आत्मशुद्धि] अपनी शुद्धि, आत्मशुद्धि - अत्तसुद्धिअभिलासेन सीलब्बतपरामासदिट्ठि गण्हापेन्ति, उदा. अड. 287.
अत्तहित नपुं. [आत्महित] अपना हित अपना कल्याणअत्तहिताय पटिपन्नो होति नो परहिताय दी. नि. 3.185; अत्तहितपरहितसब्बलोकउभयहितमेव चिन्तयमानो चिन्तेति, अ. नि. 1 (2).207.
अत्तहेतु अ. [आत्महेतु] स्वयं अपने लिये अपनी भलाई के लिये - न अत्तहेतु न परस्स हेतु, ध. प. 84; अत्तहेतु परहेतु, धन हेतु च यो नरो. सु. नि. 122; इति अतहेतु वा परहेतु वा भासिता होति., अ. नि. 1 (1).151.
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अत्ताण/अताण
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अत्तायनता
अत्ताण/अताण 1. त्रि., ब. स., [अत्राण]. वह, जिसके अत्तानुगतमेवाति दस्सेन्तो .... पे. व. अट्ठ. 91, पाठा. लिये कोई शरण स्थल, कोई आश्रय अथवा कोई भी सहारा अत्थानुगत. या सुरक्षा-साधन न हो, बेसहारा - हति निच्चमत्ताणो, अत्तानुदिट्ठि स्त्री., कर्म. स. [आत्मानुष्टि], 'नित्य, शाश्वत
थेरगा. 449; अत्ताणो लोको अनभिस्सरोति, म. नि. 2.265; आत्मा है', इस प्रकार की मिथ्या अवधारणा, अपने अस्तित्व ३. पटि. म. 115; अताणोम्हि असरणो, जा. अट्ठ. 1.210; ... के स्वरूप के विषय में भ्रमात्मक ज्ञान, सत्काय-दृष्टि -
अत्ताणा असरणा असरणीभूता ..., मि. प. 149; 2. नपुं.. अत्तानुदिहिँ ऊहच्च, सु. नि. 1125; अत्तानुदिष्टिं ऊहच्चाति कर्म. स., अरक्षण, असुरक्षा - देवेसुपि अत्ताणं, निब्बानसुखा सक्कायदिलुि उद्धरित्वा, सु. नि. अट्ठ. 2.294; अत्तानुदिट्ठिया परं नत्थि, थेरीगा. 478; - तो अ., प. वि., प्रतिरू. निपा., पहानाय अनत्तसा भावेतब्बा, अ. नि. 2(2).146; [अत्राणतः], अशरण रूप में, असुरक्षित रूप में - ... अत्तानुदिट्ठीति अत्तानं अनुगता वीसतिवत्थुका सक्कायदिद्धि, अताणतो अलेणतो असरणतो.... महानि. 38; अताणतो अ. नि. अट्ठ. 3.145; - सुत्त नपुं.. स. नि. के दिट्ठि-वग्ग .... उपासितब्ब, मि. प. 392.
का सातवां सुत्त, स. नि. 2(1).170-171. अत्तादान नपुं, अत्त + आदान, [आत्मादान], अपनी इच्छा अत्तानुपेक्खी त्रि., अत्त + अनुपेक्खी, [आत्मानुपेक्षी], अपनी से किसी भिक्षु द्वारा संघ के समक्ष अधिकरण-विषय को स्वयं उपेक्षा न करने वाला, अपने आप पर नियन्त्रण रखने वाला, प्रस्तुत करना - अत्तादानं आदातुकामेन, भन्ते, भिक्खुना अपने कृत एवं अकृत को ठीक से जानने वाला- अत्तानुपेक्खी कतमङ्गसमन्नागतं अत्तादानं आदातब्बन्ति, चूळव. 407; च होति, नो परानुपेक्खी, अ. नि. 2(1).124; अत्तानुपेक्खीति ... यं अधिकरणं अत्तना आदियति, तं अत्तादानन्ति वुच्चति, अत्तनोव कताकतं जाननवसेन अत्तानं अनुपेक्खिता, अ. नि. चूळव. अट्ठ. 124; - वग्ग पु., वि. पि. के उपालिपञ्चक अट्ठ. 3.44. के पांचवें अध्याय का शीर्षक, परि. 351-358; - टि. संघ अत्तानुयोग/अत्तानुयोगी 1.पु., [आत्मानुयोग], अपने की शुद्धि के लिये भिक्षु स्वयं से सम्बद्ध अधिकरण-विषय को । प्रति लगाव; 2. त्रि., [आत्मानुयोगिन], अपने पर मन की संघ के समक्ष प्रस्तुत करता है। इसी को विनय (प्रातिमोक्ष- एकाग्रता रखने वाला, अपने पर मन को लगा देने वाला विधान) में 'अत्तादान' कहा गया है। भगवान् बुद्ध ने पांच - अत्थं हित्वा पियग्गाही, पिहेतत्तानुयोगिनं, ध. प. 209; परिस्थितियों में ही 'अत्तादान' के लिये अनुमोदन दिया है, ..... पच्छा ये अत्तानुयोग अनुयुत्ता सीलादीनि सम्पादेत्वा द्रष्ट. चूळव. 408-409; तुल. परि. 354-355.
.... सक्कारं लभन्ति, ध. प. अट्ठ. 2.160. अत्ताधिपतेय्य त्रि., अत्त + आधिपतेय्य, [आत्माधिपत्य], अत्तानुरक्खी त्रि., [आत्मानुरक्षिन], अपनी रक्षा या देखभाल क. अपने को अपना स्वयं का स्वामी बनाने वाला, अपनी स्वयं करने वाला - अत्तानुरक्खी भव मा अडव्हि, जा. अट्ठ. आन्तरिक चेतना से नियन्त्रित होकर पाप न करने वाला, 4.261. स्वयं के नियन्त्रण में रहने वाला - अत्ताधिपतेय्या हिरी, जा. अत्तानुवाद पु., तत्पु. स., [आत्मानुवाद]. आत्म-निन्दा, अट्ठ. 1.134, ख. भाव., नपु., अपनी आधिपत्यता, अपना आत्म-पश्चात्ताप; - भय नपुं., आत्मनिन्दा का भय, अपनी प्रभुत्व - ... अत्ताधिपतेय्यं, लोकाधिपतेय्यं, धम्माधिपतेय्यं निन्दा होने का भय - चत्तारिमानि, भिक्खवे, भयानि, .... ..., दी. नि. 3.176; अत्तानं अधिपत्तिं, जेट्टकं कत्वा पापस्स अत्तानुवादभयं, परानुवादभयं दण्डभयं दुग्गतिभयं, अ. नि. अकरणं अत्ताधिपतेय्यं नाम, दी. नि. अट्ठ. 3.170; इदं 1(2).139; अत्तानुवादभयं, परानुवादभयं, दण्डभयं, दुग्गतिभयं वुच्चति, भिक्खवे, अत्ताधिपतेय्यं, अ. नि. 1(1).172. इमानि चत्तारि भयानि, विभ. 440; अत्तानुवादभयादिकस्स अत्ताधीन त्रि., तत्पु. स., [आत्माधीन], क. स्वतन्त्र, केवल .... जा. अट्ठ. 3.211. अपने ही अधीन, अपराधीन - अत्ताधीनो अपराधीनो भुजिस्सो, अत्तायत्त त्रि., तत्पु. स., [आत्मायत्त], स्वयं अपने ऊपर येनकामंगमो, दी. नि. 1.64; म. नि. 1.348; ख. अधीन निर्भर, अन्य पर निर्भर न रहने वाला - अत्तसम्भवं अत्तनि रहने वाला, अधीनस्थ, वशवर्ती - ... अनुगामिकं अत्ताधीनं सम्भूतं अत्तायत्तं इस्सरादिवसेन अपरायत्तं, थेरगा. अट्ठ. राजादीनं असाधारणं, सु. नि. अट्ठ. 2.40.
1.409. अत्तानुगत त्रि., [आत्मानुगत], अपने से सम्बद्ध, अपने अत्तायनता स्त्री॰, भाव. [अत्राणता], सुरक्षा अथवा सहायता साथ जुड़ा हुआ, अपना - तयिदं नामं तदा मय्ह न दे सकने वाली अवस्था - अत्तायनताय चेव
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अत्ताळहिधातुसेन
अलब्धनेप्यखेमताय च अताणतो, महानि, अड. 132, पाठा. अतायनता.
अत्ताळहिधातुसेन (विहार) पु.. श्रीलङ्का में एक विहार का नाम अट्टाळहिधातुसेनो च कस्सिपिडिकपुब्बको, चू. वं.
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38.49.
अत्तिच्छा स्त्री० तत्पु० स० [आत्मेच्छा], अपने लिये इच्छा अथवा अपनी इच्छा - नामम्हात्तिच्छत्थो, क. व्या. 439. अत्तुक्कंसक क्र. [आत्मोत्कर्षक] अपनी प्रशंसा करने वाला, अपने को बढ़-चढ़कर बताने वाला ये खो केचि समणा वा ब्राह्मणा वा अत्तुक्कसका परवम्भी, म. नि. 1.24; अत्तप्पसंसकोति अत्तानं पसंसनसीलो अत्तुक्कंसको पोसो,
जा. अड. 2.126.
अत्तुक्कंसना स्त्री, तत्पु० स० [आत्मोत्कर्षणा ], अपनी प्रशंसा, अपने को बढ़-चढ़कर बताना अयञ्च मिच्छादिट्टि अरियानं पच्चनीकता अत्तुक्कंसना, परवम्भना, म. नि. 2.72. एवं अनुक्कंसनपरबम्भनादीहि उपक्किलितुं वा हीनं विसुद्धि. 1.14 नकम्यता स्त्री आत्मप्रशंसा करने की इच्छा या कामना, अपने को सबसे ऊपर समझने का घमण्ड सद्धम्मबहुमानेन नातुक्कंसनकम्यता, खु. पा. अ. 2. नमान पु.. आत्मप्रशंसा में विद्यमान, अहङ्कार - दुविधेन मानो अतुक्कंसनमानो परवम्मनमानो महानि. 56; अतुक्कंसनमानोति अत्तानं उपरि उपनमानो महानि, अड.
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...
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134
162.
अत्तुज्ञा स्त्री, अत्त + उञ्ञा [आत्मावज्ञा], अपना तिरस्कार, अपना अवमूल्यन, अपने को हीन या तुच्छ मानना यो एवरूपो ओमानो ओमञ्ञना अनुज्ञा... अयं युच्चति हीनोहमस्मीति मानो, विभ. 406; अतुञ्ञति अत्तानं हीनं कत्वा जानना, विभ० अट्ठ. 458.
***
अत्तुस त्रि. ब. स. केवल अपने उद्देश्य को ध्यान में रखने वाला, केवल अपने ही लिये, (क्रि. वि.), अपने काम में आने वाला अनुसन्ति अत्तनो अत्थाय पारा. 229; गव्हं एसाति एवं अत्ता उद्देसो अस्साति अतुहेसा, तं अनुदेस पारा. अड. 2. 139 - सिक त्रि. [आत्मोद्देश्यक], अपने को उद्देश्य में रखकर किया गया कार्य तेन समयेन... भिक्खू ... कुटियो कारापेन्ति अस्सामिकायो, अनुदेसिकायो पारा. 224 अनुदेसिकायोति अत्तानं उहिस्स अत्तनो अत्थाय आरद्धायोति
पारा. अट्ठ. 2.134.
अत्तुपक्कम नपुं,, कर्म, स., स्वयं अपने द्वारा अथवा अपने कारण उत्पन्न किया गया (दुःख) - अत्तूपक्कमं दुक्खं,
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अत्थ
महानि. 13; यं पन अत्तनाव अत्तानं वर्धन्तस्स अचेलकयतादिवसेन ... कोधवसेन अभुञ्जन्तस्स उब्बन्धन्तरस च दुक्खं होति, इदं अत्तूपक्कमूलकं दुक्खं, महानि. अ.
56.
अत्तुपलद्धि स्त्री. [आत्मोपलब्धि] परमार्थ-धर्म के रूप में आत्मा-विषयक विचार यथार्थ-धर्म के रूप में आत्मा की उपलब्धि - अत्तुपलद्धिं न पजहन्ति, म. नि. अट्ठ. ( मू०प.) 1(1),324.
अत्तूपघात पु०, अत्त + उपघात का तत्पु० [आत्मोपधात], स्वयं अपनी हानि, अपना अहित, अपना विनाश मज्जपानसंयमेन अत्तूपघातञ्च विवज्जेत्या... खु. पा. अट्ठ. 126.
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गाथा
अत्तूपनायिक त्रि. अपने चित्त में कुशल धर्मो को लाने वाला, कुशल धर्मों तक स्वयं को ले जाने वाला, आत्मा से सम्बन्धित, स्वयं से सम्बन्धित, आत्म-विषयक अत्तूपनायिका, थेरगा. निदानगाथा 1 इमा अनुपनायिका चतस्सो गाथा अभासि, सु० नि० अट्ठ 1.214; उत्तरिमनुस्सधम्मं अनुपनायिकं पारा 110: अनुपनायिकन्ति ते वा कुसले धम्मे अत्तनि उपनेति अत्तानं वा तेसु कुसलेसु धम्मेसु उपनेति पारा 112: टि. अपने में कुशल धर्मों का संग्रह करने वाला अथवा कुशल धर्मों को अपने में ले आने वाला ही यहां अत्तूपनायिक है। अपने में भावना करने योग्य अहिंसा, शील आदि कुशल धर्म भी अत्तूपनायिक हैं.
U
अत्तूपम त्रि. [आत्मोपम] अपने समान अपने को उदाहरण बनाने वाला, आत्महित को ही सोचने वाला अत्तूपमा हि ते सत्ता अत्ता हि परमो थियो, अ. नि. 2 (2). 235. अत्तेय्य पु. [आत्रेय] अत्रि के एक वंशज का वंशोपाधिगत नाम, क. व्या. 348, तुल. पाणिनि 4.1.122. अत्थ ( याचने) क [अर्थ] याचना करना, मांगना अत्थ पत्थ याचनायं, सद्द॰ 2.541; तुल० मो. धा. 497; धा० मं०
815.
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अत्थ' अ स्थानसूचक निपा. [ अत्र] सन्निकटवर्ती स्थल एवं सन्दर्भ का सङ्केतक, यहां, इस विषय में, इस सन्दर्भ में, इस स्थान में, इस सिलसिले में इहेपात्र तु एत्थात्थ अभि प. 1161, व्यु。 के लिये द्रष्ट, क. व्या. 231, 274, यत्र-तत्र एत्थ तथा तत्थ के अप. के रूप में भी प्रयुक्त एतदेव ख्वेत्थ, अ. नि. 3(1). 223, द्रष्ट. अत्र के अन्त.. अत्थ पु. / नपुं. [अर्थ] अट्ठ में विविध व्युत्पत्तियां, क. अर से व्यु अत्यो... संखेपतो हेतुफलं तंहि हेतुवसेन
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अत्थ
135
अत्थकरण
अरणीयं गन्तब ... तस्मा अत्थोति वुच्चति, विभ. अट्ट पदं महन्तं अत्थं दीपेति, ध. प. अट्ट, 1.130; 2.ग. पु., 365; ख. अस से व्यु. - सत्थं वत्थं, अत्थो, क. व्या. 662; धम्म अर्थात् व्यावहारिक आचरण के विप. के रूप में धर्म नपुं. में अतिसीमित प्रयोग - किं किच्चं अत्थं जा. अट्ठ. का सैद्धान्तिक अर्थ या अभिप्राय - अत्थन्ति भासितत्थं, 3.476; शा. अ. 1.क. तात्पर्य, किसी शब्द का मूल धम्मन्ति पाळिधम्म, सु. नि. अट्ठ. 2.61; अत्थमआयाति अभिप्राय - पयोजने सद्दाभिधेय्ये वुद्धियं धने वत्थुम्हि कारणे पाळिअत्थमआय, धम्ममआयाति पाळिमआय, सु. नि. नासे हिते, अभि. प. 785; तत्थ अप्पमादोति पदं महन्तं अत्थं अट्ठ. 2.296. दीपेति, ध. प. अट्ठ. 1.130; 1.ख. पु., किसी विशिष्ट शब्द, अत्थ' पु., [अस्त, अस्यन्ते सूर्यकिरणा यत्र अस् + क्त, वाक्य, कथन अथवा अनुच्छेद के यथार्थ अभिप्राय के 1. शा. अ. पश्चिमी पर्वत अथवा वह स्थान, जहां सूर्य डूब स्पष्टीकरण हेतु प्रायः ति अत्थो', रूप में शब्द अथवा वाक्य जाता है या अस्त हो जाता है - मंदारो परसेलोत्थो, अभि. के अन्त में प्रयुक्त, अट्ठ, में 'इति अत्थो' के अन्त. आए वचन प. 6063; अत्थो ... पच्छिमपब्बते, अभि. प. 785; क. में व्याख्येय अंश की सुस्पष्ट व्याख्या तथा नैरुक्तिक अधिकतर ग्रन्थों में एति, गच्छति जैसे क्रि. रू. के साथ द्वि. निर्वचन जैसे नए तथ्य रहते हैं - यदिमे सक्याति यं इमे वि. में 'अत्यं' रूप में ही प्रयुक्त - पभङ्करो यत्थ च अत्थमेति, सक्या न ब्राह्मणे सक्करोन्ति ... .तं तेसं ... सब् न युत्तं, अ. नि. 1(2).58; ... अत्थङ्गते सूरिये ओतरन्तानं अन्धकारो नानुलोमन्ति अत्थो, दी. नि. अट्ठ. 1.207; तत्थ कुसलूपदेसेति अहोसि, जा. अट्ठ. 3.383; ख. ला. अ. विनाश, उपशमन, कुसलानं उपदेसे, पच्चेकबुद्धानं ओवदेति अत्थो, जा. अट्ठ. निरोध, अभाव, नास्तित्त्व, निर्वाण - अत्थो ... नासे हिते 1.449; 1.ग. पु., प्रयोजन, उद्देश्य, अभीप्सित, फल, लक्ष्य पच्छिमपब्बते, अभि. प. 785; अत्थं अदस्सने, अभि. प. - अत्थं समेच्चाति अत्थं... पापुणित्वा, स. नि. अट्ठ. 1.156; ____1154; अत्थं पलेतीति ... परिनिब्बायति, चूळनि. 98; ... तस्स ... अत्थो परिपूरतीति, जा. अट्ठ. 3.121; अत्थो भतिया अत्थङ्गतस्स अनुपादिसेसाय निब्बानधातुया परिनिबुतस्स न विज्जति, सु. नि. 25; को अत्थो सुपितेन वो, सु. नि. .... चूळनि. 99; अत्थं गच्छन्तीति ... अत्थं विनासं 333; 1.घ. पु., कल्याण, लाभ, हित, समृद्धि, सर्वोत्तम, नत्थभावं गच्छन्तीति अत्थो, ध. प. अट्ठ. 2.188. भलाई - अत्थं जहिस्सति, जा. अट्ठ. 3.288; यत्थ लभेथ अत्थ नपुं., [अस्त्र, अस् + ष्ट्रन], फेंक कर चलाया जाने अत्थं, जा. अट्ठ. 3.177; अत्थं विन्दति पण्डितो, जा. अट्ठ. वाला हथियार, अस्त्र, वह आयुध, जिसका प्रक्षेपण होता हो, 5.116; ... अत्थं विन्दति, वुद्धिं पापुणाति, जा. अट्ठ. 5.117- केवल स. प. में इस्सत्थक आदि रूपों में प्राप्त तथा वहीं 18; अत्थाय वत मे बुद्धो, सु. नि. 193; 1.ङ. पु., बात, द्रष्ट.. वस्तु, पदार्थ, प्रश्न में आया हुआ विषय, विवादविषय, अत्थ [स्थ], क्रि. रू. अस्, वर्त., म. पु., ब. व. 'अत्थि के अवसर, काम, व्यापार, कारण - इममत्थं धनियो अभासथ, अन्त. द्रष्ट.. सु. नि. 30; पुच्छामि तं, कस्सप, एतमत्थं, महाव. 41; अथ अत्थ त्रि., [आर्थ], किसी वस्तु, पदार्थ अथवा धन से खो ते भिक्खू भगवतो एतमत्थं आरोचेसु, महाव. 60; 1.च. सम्बन्ध रखने वाला, अर्थ से सम्बन्धित, अर्थ पर आश्रित, पु., धन, समृद्धि, सम्पदा, सुखद भौतिक वस्तु - अत्था नु धनी, समृद्ध, निपुण, दक्ष - किं किच्चमत्थं इधमत्थि तुम्ह, ते सम्पचुरा न सन्ति, स. नि. 1(1).131; सद्द. 1.71; 1.छ. जा. अट्ठ. 3.476. पु., जटिल मामला, आवश्यक काम, उलझा हुआ प्रश्न - अत्थकथा त्रि., ष. तत्पु. [अर्थकथा], अर्थयुक्त कथन, यो च अत्थेसु जातेसु, सहायो होति सो सखा, दी. नि. 3. उद्देश्य युक्त बातचीत, व्याख्या - अत्यन्तरो अत्थकथं निसामयि, 139; अत्थेसु जातेसूति तथारूपेसु किच्चेसु समुप्पन्नेसु. दी. दी. नि. 3.118; अत्थन्तरोति ... अत्थयुत्तं कथं निसामयि, नि. अट्ठ. 3.118; कस्स त्वं, महाराज, अटुं धारेय्यासि, मि. दी. नि. अट्ठ. 3.104. प. 46, पाठा. अटुं; 2.ला. अ. क. पु., व्यञ्जन अथवा अत्थकर त्रि., [अर्थकर], हितकारक, उपयोगी, उद्देश्य विस्तृत व्याख्यान का विप., संक्षिप्त या सारगर्भित कथन- प्राप्ति में सहायक, स. उ. प. के रूप में द्रष्ट.. ... अत्थं येव मे ब्रूहि, अत्थेनेव मे अत्थो, किं काहसि व्यञ्जनं अत्थकरण नपुं., अत्थ + करण, हितसाधन, भलाई या सेवा बहु, महाव. 45; 2.ख. पु., सत्य एवं यथार्थ से भरी बात या करना - यञ्चेतं सामिकस्स अत्थकरणं नाम, जा. अट्ठ.7. तथ्य - मन्ता अत्थं च भासति, सु. नि. 159; तत्थ अप्पमादोति 182; - णिक त्रि., अर्थसिद्धि अथवा कार्य करने में निपुण,
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अत्थकवि
किसी लक्ष्य की प्राप्ति में कुशल - एको पुरिसो अत्थकरणिको मि. प. 246.
...
अत्थकवि पु०, अत्थ' + कवि [ अर्थकवि], नीतिपरक कविता का रचयिता कवि, किसी एक उद्देश्य से युक्त कविता को रचने वाला कवि - चत्तारो मे, भिक्खवे, कवी, चिन्ताकवि, सुतकवि, अत्थकवि, पटिभानकवि... अ. नि. 1 (2). 264; यो एक अत्थं निस्साय करोति, अयं अत्थकवि नाम, अ. नि. अट्ठ. 2.387.
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अत्थकाम त्रि. ब. स. [ अर्थकाम] हित. कल्याण एवं योगक्षेम की कामना करने वाला, शुभचिन्तक, हितेच्छीअत्थकामस्स गिलानुपट्टाकस्स... नाविकत्ता होति. महाव, 394 बहुजनस्स अत्थकामो अहोसि हितकामो फासुकामो... दी. नि. 3.123... कोचिदेव पुरिसो उप्पज्जेय्य अत्थकामो हितकामो योगक्खेमकामो, म. नि. 1.167; सदेवकस्स लोकरस अत्थमेव कामेतीति अत्थकामो उदा. अट्ठ. 166, तुल, अत्तकाम, अत्तत्थकाम, अत्तत्थिय ता स्त्री. भाव. [आत्मकामता ]. हितकामता हित करने की मनोदशा अत्थसहितेनाति अत्थकामताय हितकामताय उपेतेन दी. नि. अट्ठ. 3. 193 वग्ग पु. जातक संग्रह के एक खण्ड - विशेष का नाम, जा. अट्ठ 1.230-253. अत्थकामिनी स्त्री० [अर्थकामिनी], हित करने की इच्छा रखने वाली हितैषिणी, भला चाहने वाली देवता अत्थकामिनी, सु. नि. 992. अत्थकारण नपुं. [ अर्थकारण] लाभ प्राप्ति या स्वार्थ के कारण- अत्थवसन्ति अत्थानिसंसं अत्थकारणं, स० नि० अ० 1.235; सेवति अत्थकारणा दी. नि. 3.141. अत्थकाले सप्त. वि. प्रतिरू निपा. [ अर्थकाले] आवश्यकता
के समय में, जरूरत आ पड़ने पर किसी प्रयोजन - विशेष के उत्पन्न होने पर अत्यकालेति कस्सचिदेव अत्थस्स कारणस्स उप्पन्नकाले, जा. अड. 4.69. अत्यकित्त्व नपुं, कर्म. स. [ अर्थकृत्य]. सार्थक कार्य, उद्देश्यपूर्ण काम, कर्तव्य कर्म अत्थेनाति अत्यकिच्चेन वि. व. अ. 121; तुल०, किं किच्चमत्थं इधमत्थि तुम्ह, जा. अट्ठ. 3.476.
***
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अत्थकुसल क्रि सप्त तत्पु, [ अर्थकुशल]. क. अपने कल्याण- साधन में प्रवीण, दक्ष, कुशल करणीयं अत्यकुरालेन् सु. नि. 143 यो अत्तानं सम्मा पयोजेति पातिमोक्खसंवरं
इन्द्रियसंवर.... प्रेरेति यो वा पातिमोक्खसंवरं सम्पजज्ञञ्च सोघेति, अयम्पि अत्थकुसलो....सु. नि.
***
...
अत्थङ्गम / अत्थङ्गमन
अट्ठ. 1.158; सेट्ठिनो पुत्तो जातिया सत्तवस्सो पञ्ञवा अत्थकुसलो, जा, अड. 1.350; ख. त्रिपिटक के वचनों का अर्थ करने में कुशल व्याख्या में प्रवीण भिक्खु अत्थकुसलो च होति. धम्मकुसलो. च व्यञ्जनकुशलो छ निरुत्तिकुसलो च पुब्बापरकुसलो च, अ. नि. 2 ( 1 ). 186 अयं - दुच्चति अत्थकुसलो धम्मकुसलो नेत्ति. 19. अत्थक्खायी त्रि. अत्थ' + अक्खायी, [अर्थाख्यायी] हित एवं कल्याण को बतलाने वाला अच्छा मित्र हितकारक बात कहने वाला साथी कल्याणमित्र- अत्थक्खायी मित्तो सुहदो वेदितब्बो, दी. नि. 3.142; अत्थक्खायी च यो मित्तो, दी. नि. 3.143; अत्थक्खायी च या नारी, अप. 2.265. अत्थगत / अत्थंगत त्रि., [ अस्तङ्गत], नष्ट हो चुका, अदृश्य हो चुका, डूब चुका (सूर्य आदि) सूरियोपि अत्थङ्गतो, अन्धकारो जातो जा. अड. 1.284 अत्यन्ते सूरियेति पाचि. 79; पे. व. अट्ठ. 47; ... विधूपिता अत्थगता न सन्ति, सु. नि. 476, 479; अत्थगताति अत्यङ्गता, सु. नि. अट्ट. 2.123; राजधीतापि अत्थङ्गते, सुरिये जा. अड. 5.87; ख. ला. अ. अदृश्य हो चुका, समाप्त हो चुका, विनष्टअत्थङ्गतो सो न प्रमाणमेति इतिवु, 43 ... इनम्हि लोके विनीता होन्ति पटिविनीता सन्ता... अत्यता विभ. 219
1
- तं नपुं. भाव. अत्थंगत से व्यु [ अस्तङ्गतत्व] विलुप्त, अदृश्य अथवा विनष्ट हो जाने की अवस्था तेस निरुद्धत्ता अत्यङ्गतत्ता... खु. पा. अड. 148 सिक्खापद नपुं., कर्म, स., 22वें पाचित्तिय का शीर्षक, पाचि. 78-80;
टि. सूर्यास्त के उपरान्त भी भिक्षुणियों को शिक्षापद प्रदान करने वाले भिक्षु को लगने वाले एक पाचित्तिय अपराध को अत्थङ्गतसिक्खापद कहा गया है. अत्थगवेसक त्रि., अत्थर + गवेसक [अर्थगवेषक ], अर्थ या तात्पर्य की खोज करने वाला, किसी शब्द, कथन अथवा वचन के अर्थ को खोजने वाला तुम्हे पन नो अत्थगवेसका व्यञ्जन गवेसका गच्छथ म. नि. अड. 3.442 (रो.). अत्थगहण नपुं., अत्थर + गहण [ अर्थग्रहण ], अर्थ की समझ या ज्ञान-विजूनं अत्थगहणे कोसल्लूप्पादनत्थं
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सद्द. 2.318.
अत्थङ्ग पु०, अत्थ + ग [ अस्तङ्गम], समाप्ति, निरोध, विनाश - उप्पादे दारुणे विस्वा, सासनत्थाङ्गसूचके, अप. 2.121. अत्थङ्गम / अत्थङ्गमन पु०, [ अस्तगमन ], क. शा. अ. डूब जाना, अदृश्य हो जाना, नष्ट हो जाना ओक्कमनन्ति अत्यङ्गमनं दी. नि. अड. 1.84 ते याव सूरियत्यङ्गमना
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अत्थंगमित
अत्थट/अत्थत गन्त्वा, जा. अट्ठ. 1.109; ... सोपि याव सूरियत्थङ्गमना अत्थच्छायाकारे नाति परमत्थधम्मस्स छायाकारेन जालमेव मोचेन्तो .... जा. अट्ठ. 1.206; ख. ला. अ. पटिभागाकारेन, अभि. ध. वि. 221. निरोध, उपशम, विनाश - ... दुक्खदोमनस्सानं अत्थङ्गमाय, अत्थच्छेक त्रि., तत्पु. स. [अर्थछेक], अर्थकुशल, लाभकारक अ. नि. 2(2).32; यो आपधातुया ... निरोधो वूपसमो अथवा हितकारक, शुभ के निर्णय में चतुर, बुद्धिमान - अत्थङ्गमो, स. नि. 1(2).159.
अत्थकुसलेन अत्थछेकेनाति, खु. पा. अट्ठ. 191. अत्थंगमित त्रि., अत्थ + गमित [अस्तङ्गमित], अस्त कर । अत्थजात' त्रि., अत्थ + जात ब. स., वह, जिसे कुछ काम दिया गया, क्षीण कर दिया गया, डूब चुका - सूरियो अथवा आवश्यकता आ गई हो, जरूरतमन्द, अर्थी, दीन - अत्थङ्गतो, जा. अट्ठ. 5.368; सुरियो अत्थङ्गतो, चन्दो उग्गतो, किं मित्तं अत्थजातस्स, स. नि. 1(1).42; अत्थजातस्साति जा. अट्ठ. 5.471.
उप्पन्नकिच्चस्स. स. नि. अट्ठ. 1.84; सब्बे सत्ता अत्थजाता, अत्थचर त्रि., अत्थ + चर [अर्थचर], परिचारक, उपयोगी, स. नि. 1(1).261; अत्थजाताति किच्चजाता, स. नि. अट्ठ. पूर्णतया अनुरक्त, हितकर, सेवारत - महाजनस्सत्थचरोध 1.301. पण्डितो, महाव. 484; नरुत्तमं अत्थचरं नरानं, स. नि. अत्थजात नपुं. [अर्थजात], विशेष प्रकार का धन, उपकरण 1(1).27; - क त्रि., उपरिवत् - एवरूपेन किर, भो, पुरिसो अथवा वस्तुएं, अर्थ से परिपूर्ण - केन वा अत्थजातेन, अत्तानं अत्थचरकेन .... दी. नि. 1.93; कोसलरओ अत्थचरकं परिमोचयि, जा. अट्ठ. 6.294. अमच्चं आरब्भ कथेसि, जा. अट्ठ. 4.175.
अत्थजापिक त्रि., अत्थः + जापिक, वस्तुओं अथवा कार्यों अत्थचरिया स्त्री., अत्थः + चरिया [अर्थचर्या], हितकारी पर आधिपत्य रखने वाला, संपत्ति जीतने वाला, धन-संपत्ति व्यवहार, मित्रतापूर्ण व्यवहार, सहायतापूर्ण दृष्टिकोण, मित्रता उत्पन्न करने वाला, फल विपाक आदि अर्थों को सक्रिय भरी मनोवृत्ति, हितसाधक काम - दानेन ... अत्थचरियाय करने वाला - कतमा अत्थजापिका पञआ, विभ. 369; समानत्तताय, दी. नि. 3.114; प्रत्तो पित चरति अत्थचरियं, अत्तनो अत्तनो भूमिपरियापन्नं विपाकसङ्घातं अत्थं जापति जा. अठ्ठ. 4.262.
जनेति पवत्तेतीति अत्थजापिका, विभ. अट्ठ. 386. अत्थचारिका अत्थचरक का स्त्री.. [अर्थचारिका], सहायिका, अत्थजाल पु., ब्रह्मजालसुत्त (दी.नि.1) के अनेक अन्य नामों सेविका, कल्याणकारिणी स्त्री - ... अत्तनो अत्थचारिक में से एक - अत्थजालन्तिपि... धम्मजालन्तिपि ... ब्रह्मजालं धातिं आह, जा. अट्ठ. 4.34; अत्थचारिकाय दासिया अदासि. .... दिविजालन्तिपि .... दी. नि. 1.41; यस्मा इमस्मि जा. अट्ठ. 6.214
धम्मपरियाये इधत्थोपि परत्थोपि विभत्तो, तस्मातिह त्वं इमं अत्थचिन्तक त्रि., [अर्थचिन्तक], उचित और अनुचित पर धम्मपरियायं अत्थजाल न्तिपि नं धारेहि, दी. नि. अट्ठ. विचार करने वाला, हित-चिन्तक, पण्डित, निपुण, बुद्धिमान
1.109. - ... निपुणा चत्थचिन्तका, जा. अट्ठ.5.369; धीरा निपका अत्थजोतक त्रि., [अर्थद्योतक], अर्थ को प्रकाशित करने निपुणा अत्थचिन्तका, विभ. 499.
वाला, वस्तु को उचित स्थान पर विन्यस्त करने वाला - अत्थचिन्तावसानुग त्रि., हितचिन्तन में लगा हुआ - अत्थजोतको धम्मो, जा. अट्ठ. 5.225; विलो. भासितत्थो. अत्थचिन्तावसानुगा, थेरगा. 926; अत्थचिन्ता - अत्थज्झोगाहन नपुं, अत्थ + अज्झोगाहन, ष. तत्पु. स. वसानगाति हितचिन्तावसानुगा हितचिन्तावसिका, थेरगा. [अर्थाध्यवगाहन], अर्थ सम्बन्धी गम्भीर अनुचिन्तन - इमस्स अट्ठ. 2.298.
सुत्तस्स अत्थज्झोगाहणं दस्सेतुं .... खु. पा. अट्ठ. 127. अत्थच्चय पु., तत्पु. स. [अर्थात्यय], धन का विनाश, संपत्ति अत्थ त्रि., अत्थ + ञा से व्यु. [अर्थज्ञ], अर्थ का ज्ञाता, की हानि - अत्थच्चये मा अहु सम्पमूळहो, जा. अट्ठ. 3.137; ठीक-ठीक अर्थ को जानने वाला - अत्थच अत्तसूच, अत्थच्चयेति ... इस्सरिये विगते, तदे..
दी. नि. 3.199; तस्स तस्सेव भासितस्स अत्थं जानातीति अत्थच्छाया स्त्री., तत्पु. स. [अर्थछाया], परमार्थधर्म की अत्थञ्जू दी. नि. अट्ठ. 3.202; अत्थञ्चू च होति, धम्मश्रू छाया, किसी वास्तविक वस्तु की छाया, अवास्तविक वस्तु च, मत्तसूच, कालघू च, परिसञ्जू च, अ. नि. 2(१).140. - ... परमत्थतो अविज्जमानापि अत्थच्छायाकारेन अत्थट/ अत्थत त्रि., [आस्तृत, आङ् + स्तृि + क्त], चित्तुप्पादानमारम्मणभूता .... अभि. ध. स. टी. 60; अच्छी तरह फैलाया हुआ, - अत्थतं होति कथिनं,
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अत्थतो
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अत्थधम्म
महाव. 331; अत्ति एवत्थतञ्चेव, महाव. 353; उपरिअत्थतेन अजिनचम्मेन .... जा. अट्ठ. 5.403; सन्थतेति ... कप्पियत्थरणेहि अत्थते, सु. नि. अट्ठ. 2.98; - कथिन त्रि. ब. स., कठिन-चीवर नामक विधान पूरा कर चुका व्यक्ति, - अत्थतकथिनानं वो, भिक्खवे, इमानि पञ्च कप्पिस्सन्ति, महाव. 331, द्रष्ट. कठिन(कथिन) के अन्त... अत्थतो प. वि., प्रतिरू. निपा. [अर्थतः], वास्तविक अभिप्राय की दृष्टि से, आशय के अनुसार अर्थ की दृष्टि से - ... आयस्मन्तानं अत्थतो चेव नानं व्यञ्जनतो च नानं, म. नि. 3.25; इमम्पि... कारणं अत्थतो सम्पटिच्छ..., मि. प. 118. अत्थत्तिक पु., समा. द्व., स. [अर्थत्रिक]. अर्थ त्रितय, तिहरा अर्थ - यो इमं अत्थतिक सुविभत्तं, सद्द. 1.313; - विभाग पु. सद्द. के 14वें अध्याय का नाम - विझून कोसल्लत्थाय कते सहनीतिप्पकरणे अत्थत्तिविभागो, सद्द. 1.314. अत्थत्थ पु., अत्थ + अत्थ- [अर्थार्थ], क. उपयोगी अथवा हितकारक वस्तु - अत्थत्थमेवानुविचिन्तयन्तो, जा. अट्ठ. 7.183; ख. अत्थत्थाय रूप में, लाभ अथवा हित के निमित्त - या तत्थ तस्स परिसपरियेसना, सा अत्थत्थाय, मि. प. 246; - पटिपुच्छा/परिपुच्छा स्त्री., [अर्थार्थप्रतिपृच्छा], स्वयं के हित अथवा कल्याण के विषय में प्रश्न - अत्थत्थपरिपुच्छासम्पदा, तित्थवाससम्पदा, ... इमाहि सत्तहि । सम्पदाहि समन्नागतो.... जा. अट्ठ. 4.86; पाठा. अत्तत्थ०. अत्थत्थिकभाव पु.. [अर्थार्थीभाव], अर्थार्थी होने की दशा, हित-कल्याण को चाहने की अवस्था अथवा मनोवृत्ति - अत्थेन अस्थिको तस्स अत्थत्थिकभावस्स अनुरूप.... सु. नि. अट्ठ. 2.120. अत्थदस्स/अत्थदस त्रि., अत्थः + दस्स, [अर्थदर्श], हितकारक बात को देखने अथवा समझने वाला, अपने लिए कल्याणकारक अथवा शुभ को खोजने वाला - ये पण्डिता अत्थदसा भवन्ति, जा. अट्ठ. 7.150; ... अत्थदसाति अत्थदस्सनसमत्था, तदे.; अत्थदसोति हितानपस्सी, सु. नि. अट्ठ. 2.94, समाना. अत्थदस्सी. अत्थदस्सिमा त्रि., अत्थ + दस्सी + मन्तु, सुस्पष्ट दृष्टि वाला, प्रत्युत्पन्नमति - तं तत्थ गतिमा धितिमा, मतिमा
अत्थदस्सिमा, जा. अट्ठ. 7.180, तुल. अत्थदस्सी. अत्थदस्सी' त्रि., अत्थदस्स से व्यु. [अर्थदर्शी], उपरिवत् - ततो च मघवा सक्को अत्थदस्सी, जा. अट्ठ. 5.135; पण्डिता अत्थदस्सिनी, जा. अट्ठ. 6.300; अत्थदस्सिनन्ति अनागतं अत्थं पस्सन्तानं, जा. अट्ठ. 3.284; विलो. अनत्थदस्सी.
अत्थदस्सी पु., व्य. सं. क. चौदहवें बुद्ध का नाम - तत्थेव मण्डकप्पम्हि, अत्थदस्सी महायसो, बु. वं. 16; एकस्मि कप्पे पियदस्सी, अत्थदस्सी, धम्मदस्सीति तयो बुद्धा निब्बत्तिंस जा. अट्ठ. 1.48; अत्थदस्सी तु भगवा, सयम्भू अपराजितो, अप. 1.85, 97, 171; ख. वाराणसी के एक प्राचीन राजा का नाम - रामो, बिलारथो नाम चित्तदस्सी अत्थदस्सी, दी. वं. 3.41; ग. श्रीलङ्का के एक स्थविर का नाम - थेरेन
अत्थदस्सिना, जा. अट्ठ. 1.2. अत्थदीपक त्रि., [अर्थदीपक], अर्थ को प्रकाशित करने वाला, अर्थ को स्पष्ट करने वाला - निरुद्धन्ति
अत्थदीपकापदवतीति, सद्द, 1.178. अत्थद्वय नपुं. समा. द्व. स. [अर्थद्वय], भिन्न-भिन्न प्रकार के
दो अर्थ- इध पन ... अत्थद्वये युज्जति, खु. पा. अट्ठ. 82. अत्थद्ध त्रि., थद्ध का निषे. [अस्तब्ध], घमण्ड-रहित, अहंभाव से मुक्त, हठ न करने वाला - अत्थद्धो होति अनतिमानी, दी. नि. 3.34; म. नि. 1.137; अत्थद्धोति थद्धमच्छरियविरहितो, जा. अट्ठ. 7.181, पाठा. अथद्ध; - ता स्त्री., भाव., अहंकार रहित चित्तवृत्ति, निरहंकारता - अवित्थनताति ... अथद्धता, ध. स. अट्ठ. 194; अथद्धताय अनतईसो, जा. अट्ठ. 7.143, पाठा. अथद्धता. अत्थधम्म पु., द्व. स. [अर्थधर्म], अर्थ और धर्म का प्रतिसंवित ज्ञान - अत्थधम्मस्स कोविदो, जा. अट्ठ. 3.299; पाठा. अत्थं धम्मस्स; - निरुत्ति स्त्री., समा. द्व. स., [अर्थधर्मनिरुक्ति], प्रथम तीन प्रतिसंवित् ज्ञान - अत्थधम्मनिरुत्तीस. पटिभाने तथेव च अप. 2.212; - टि. अर्हत्व की अवस्था की प्राप्ति होने पर प्राप्त होने वाले चार प्रकार के विशिष्ट ज्ञान प्रतिसंवित् (पटिसंभिदा अथवा पटिसंविहित) हैं। ये विशिष्ट आन्तरिक ज्ञान, अत्थपटिसंभिदा या अर्थों का सुस्पष्ट ज्ञान, धम्म-पटि. या हेतुओं, प्रत्ययों तथा हेतु-प्रत्ययसम्बन्धों का ज्ञान, निरुत्तिपटि. या निर्वचनात्मक व्याख्याओं का ज्ञान तथा पटिभानपटि. या वह बुद्धि जिसके द्वारा प्रथम तीन प्रतिसंवित् ज्ञानों की प्राप्ति का अनुभव होता है, द्रष्ट. अ. नि. 1(2).185; अ. नि. 2(1).105; पटि. म. 81; 109; - पटिसंवेदी त्रि., [अर्थधर्मप्रतिसंवेदी]. अर्थ एवं धर्म की गम्भीर समझ रखने वाला - अत्थधम्मप्पटिसंवेदी हुत्वा ..., उदा. अट्ठ. 253; - विदू त्रि., [अर्थधर्मवित], अर्थ एवं धर्म को जानने वाला - अत्थधम्मविदूति पाळिअत्थञ्चेव, पाळिधम्मञ्च जानन्तो, जा. अट्ठ. 7.105; - म्मानुसत्थि/ म्मानुसिट्ठि स्त्री., तत्पु. स., [अर्थधर्मानुशिष्टि], अर्थ एवं
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अत्थनय
धर्म की शिक्षा अत्यधम्मानुसिद्धिया जा. अड्ड. 5.52:म्मानुसासक त्रि, अर्थ एवं धर्म की शिक्षा देने वाला अत्थधम्मानुसासको अमच्चो अहोसि, जा. अट्ठ. 4. 175; बोधिसत्तो तस्स अत्यधम्मानुसासको अहोसि जा. अह 281; जा. अट्ठ. 3.354.
अत्थनय पु.. अत्थर + नय ष तत्पु, स. [ अर्थनय], अर्थ स्पष्ट करने की पद्धति एतस्स अत्थनयो वृत्तो, म.नि. अट्ठ. (मू०प.) 1(1).31.
अत्थना स्त्री अथ + अन + आ [अर्थना], अनुरोध, याचना, प्रार्थना, भिक्षा की याचना भिक्खा तु याचनात्थना, अभि. प. 759.
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अत्थनानता स्त्री [अर्थनानात्व] अर्थों में अन्तर अर्थों की
विविधता- विनापि अत्थनानतं, सद्द. 2.340. अत्थनिगमन नपुं. [ अर्थनिगमन] तर्कवाक्य का उपसंहारात्मक वचन - एत्थ ... पदयोजनाय अत्थनिगमनं करिस्साम, म. नि. अड. ( मु.प.) 1(1).59. अत्थनिष्पत्ति स्त्री. [ अर्थनिष्पत्ति ] उद्देश्यपूर्ति फलप्राप्ति, परिणाम किञ्चि अथनिष्यति अपस्सन्तो म. नि. अड. 3. 51 (रो.).
अत्थनिस्सित त्रि., [अर्थनिश्रित] अर्थ या हित से भरा हुआ, लाभप्रद, हितकारक, उपयोगी अत्थनिस्सितं कथेन्तेनपि जा. अ. 3.325; अत्थसहितन्ति अत्यनिस्सितं दी. नि. अट्ठ. 2.278.
अत्थन्तर' त्रि. क. अर्थ के अनुकूल रहने वाला, अर्थ के अन्दर रहने वाला, अर्थ से सङ्गति रखने वाला अत्थञ्च यो जानाति भासितस्स अत्थञ्च अत्वान तथा करोति अत्यन्तरो नाम स होति पण्डितो, थेरगा. 374 ख. हित करने में लगा हुआ या परहितानुरागी चित्त वाला अत्यो परहितं अन्तरे चित्ते यस्स सो, अत्थन्तरो अत्थकथं निसामयि दी. नि. 3.118; द्रष्ट. दी. नि. अट्ठ. 3.104.
अत्थन्तर' नपुं., कर्म. स. [ अर्थान्तर ], दूसरा अर्थ, अर्थ में भिन्नता तत्थ अत्थन्तरं अत्थि, मि. प. 157; नं अत्थन्तरविज्ञापनत्थञ्च .... सद्द. 1.38, 266. अत्थपकासिका स्त्री. तत्पु, स. [ अर्थप्रकाशिका ], अर्थ को स्पष्ट करने वाली अत्थसन्दस्सनीति अत्थष्पकासिका, Gl. 31. 5.246.
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अत्थपच्चत्थिक पु.. छ. स. [ अर्थप्रत्यर्थिक ] अर्थी और
प्रत्यर्थी, न्यायाधिकरण में विचारणीय विवाद में वादी और प्रतिवादी उभो अत्थपच्चत्विका सम्मुखीभूता होन्ति, चूळव.
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अत्थपरिक्खा
204... उभो अत्थपञ्चत्धिक सञ्ञपेतुं अ. नि. 3(2).59: अत्थपच्चत्थिकानं .... जा. अट्ठ० 5.114, पाठा. अत्तपच्चत्तिकानं. अत्थपञ्ञत्ति स्त्री, तत्पु० स० [अर्थप्रज्ञप्ति ], अर्थविषयिणी अवधारणा, अर्थविषयक विचार.... सम्मुतिसच्चभूता उपादापञ्ञत्तिसाता अत्थपञ्ञति वृत्ता अभि. ध. वि. 220. अत्थपटिवेध पु०, तत्पु० स० [अर्थप्रतिवेध], अर्थ का गम्भीर ज्ञान, अर्थ की तह तक जाकर प्राप्त किया हुआ ज्ञान, बौद्धपरम्परा में उल्लिखित 3 प्रकार के ज्ञानों में सबसे गम्भीर स्तर वाला ज्ञान, धर्म की धर्मता का साक्षात्कार कराने वाला
गम्भीर ज्ञान- सतिपुब्बङ्गमाय पञ्ञाय अत्थपटिवेधसमत्थता,
म. नि. अट्ठ. ( मू०प.) 1 ( 1 ). 8. अत्थपटिसंवेदी त्रि. [ अर्थप्रतिसंवेदी], अर्थ का ज्ञाता, धर्म गम्भीर एवं सूक्ष्म अर्थ का ज्ञाता, बुद्ध वचनों के अर्थो का ज्ञाता तस्मिं धम्मे अत्थपटिसंवेदी च होति धम्मपटिसंवेदी दी. नि. 3.191; अत्थपटिसंवेदिनोति पाळिअत्थं जानन्तस्स, दी. नि. अड. 3.196: अत्थप्पटिसंवेदीति अट्ठकथं आणेन पटिसंवेदी अ. नि. अड्ड 2.134 दिता स्त्री, पूर्व से व्यु. भाव. [ अर्थप्रतिसंवेदित्व] अर्थ के गम्भीर आन्तरिक ज्ञान की प्राप्ति की अवस्था यस्मा अत्यपटिसंवेदितादीनं गुणानं पदट्ठानं, खु. पा. अट्ठ. 113. अत्थपटिसम्मिदा स्त्री, तत्पु, स. [ अर्थप्रति सवित्]. अर्हत् के चार प्रकार के प्रतिसंवित् आन्तरिक ज्ञानों में से प्रथम, धर्म के पांच अर्थों के विषय में सुस्पष्ट प्रभेदगत ज्ञान
अत्थपटिसम्भिदा सच्छिकता अ. नि. 1 (2) 185 अत्यपटिसम्भिदाति पञ्चसु अत्थेसु पभेदगतं आणं. अ. नि. अड. 2.348; अत्यपटिसम्भिदाति अत्थे पटिसम्मिदा अत्यप्पभेदस्स पभेदगतं आणन्ति अत्यो विभ. अड. 365 - पत्त त्रि, प्रथम प्रतिसंवित्-ज्ञान अर्थात् अर्थ-प्रतिसंवित् ज्ञान को प्राप्त किया हुआ व्यक्ति अत्यपटिसम्भिदापत्तो होति...... अ. नि. 2 (1).105.
अत्थपद नपुं तत्पु. स. [ अर्थपद], त्रिपिटक में आया हुआ हितकारी वचन, कल्याणमय शब्द, गम्भीर अर्थ वाला बुद्धवचन एक अत्थपदं सेय्यो, ध. प॰ 100; अयमायस्मा न चेव गम्भीरं अत्थपदं उदाहरति अ. नि. 1 (2). 218, यस्स पदस्स अत्थो दुविज्ञेय्यो तं गण्ठिपदं, यस्स अधिप्पायो सुविज्ञेय्यो तं अत्थपदं विसुद्धि महाटी. 2.79. अत्थपरिक्खा स्त्री. तत्पु. स. [ अर्थपरीक्षा] अर्थ के सम्बन्ध में छानबीन या जांच-पड़ताल गहणेन विना अत्थपरिक्खा नोपजायति सद्धम्मो 532.
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अत्थपरिग्गहन
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अत्थपरिग्गहन नपुं.. तत्पु. स. [अर्थपरिग्रहण], हितकारक, उपयोगी अथवा शुभ का पूर्णतया ग्रहण अथवा ज्ञान, अर्थ (तात्पर्य) पर अच्छी पकड़, अर्थ का पूर्ण ज्ञान - ... चित्ते उप्पन्ने चित्तवसेनेव ... अत्थपरिग्गहणं सात्थकसम्पजनं म. नि. अट्ठ (मू.प.) 1(1).272.. अत्थपरिच्छेद पु., ष. तत्पु. स., [अर्थपरिच्छेद], अर्थ की परिभाषा, अर्थ का लक्षण, अर्थ का विनिश्चय - ... वा अत्थपरिच्छेदो वा ..., सद्द. 2.602. अत्थपरिदीपना स्त्री., [अर्थपरिदीपन], अर्थ का पूर्ण प्रकाशन, अर्थ की व्याख्या - गहेत्वाति इमस्स पन पदरस अयं
अत्थपरिदीपना, विसुद्धि. 1.112, पाठा. अत्थदीपना. अत्थपुच्छन नपुं, अर्थ के विषय में प्रश्न, वास्तविक महत्त्व
के विषय में प्रश्न - अत्थपुच्छनं पदक्खिणकम्म, थेरगा. 36. अत्थपुरेक्खार त्रि., अर्थ-व्याख्यान को उत्तम रूप से निष्पादित करने मे कुशल, अर्थ-व्याख्याताओं में अग्रगण्य, अट्ठ. का स्वाध्याय करने वाला - अनापत्ति अत्थपुरेक्खारस्स, ..., पारा. 192; अत्थपुरेक्खारस्साति अनिमित्तातिआदीनं पदानं अत्थं कथेन्तस्स, अट्ठकथं वा सज्झायं करोन्तस्स, पारा. अट्ठ. 2.123. अत्थप्पभेद पु., तत्पु. स. [अर्थप्रभेद], पदार्थों का वर्गीकरण, अर्थों या तात्पर्यो में विभिन्नता -- पुप्फ नपुं., विविध अर्थ- रूपी पुष्प - ... नानप्पकारेहि अत्थप्पभेदपप्फेहि अतिविय, खु. पा. अट्ठ. 152; - पुच्छा स्त्री., अर्थों में विभिन्नताविषयक प्रश्न - कतीति अत्थप्पभेदपुच्छा, सु. नि. अट्ठ. 1.128. अत्थबद्ध त्रि., [अर्थबद्ध], किसी बात को अथवा विषय को समझने के लिए अत्यन्त आतुर, किसी बात अथवा प्रयोजन विशेष के साथ जुड़ा हुआ - सब्बे तयि अत्थबद्धा भवन्ति, सु.. नि. 384; अत्थबद्धाति अपि नु खो इमं पहं ब्याकरेय्य, इमं कडं छिन्देय्याति एवं अत्थबद्धा भवन्ति, सु. नि. अट्ठ. 2.93. अत्थमञ्जक त्रि., [अर्थभञ्जक], कल्याण अथवा हित को नष्ट करने वाला, हानि पहुंचाने वाला - इधलोकपरलोकत्थभञ्जकं अकल्याणमित्तसंसग्ग, खु. पा. अट्ठ. 100; परेसं अत्थभञ्जकं मुसावादञ्च भासति, ध. प. अट्ठ.2.206. अत्थभजनक उपरिवत् - अत्थभञ्जनकडेन अति किलेसा
वुच्चन्ति, सु. नि. अट्ठ. 1.94. अत्थभूत त्रि., [अर्थभूत], हितकारक बात, लाभदायक या कल्याणमय धर्म - अत्थत्थमेवाति अत्थभूतमेव अत्थं जा. अट्ठ. 7.183.
अत्थरति अत्थमि त्रि., [अस्तमित], डूबने की स्थिति वाला, लगभग अस्त होने वाला, (सूर्य)- परिनिब्बायि सम्बुद्धो, उळुराजाव अत्थमि, बु. वं. 6.31; अस्थमीति अत्थङ्गतो, केचि अत्थं गतो ति पठन्ति, बु. वं. अट्ठ. 182. अत्थयुत्त त्रि., तत्पु. स., [अर्थयुक्त], उपयुक्त, महत्त्वपूर्ण, सार्थक - अत्थं अब्भन्तरं कत्वा अत्थयुत्तं कथं निसामयि, दी. नि. अट्ठ. 3.104; सहितं मेति मह वचनं सहितं सिलिट्ठ
अत्थयुत्तं कारणयुत्तन्ति अत्थो, म. नि. अठ्ठ. (म.प.) 2.169. अत्थयुत्ति स्त्री., [अर्थयुक्ति], किसी भी बात की तार्किक सङ्गति, कथन की युक्ति-युक्तता - दिस्सतीति विजानेय्य, सद्धिमेवत्थयुत्तिया, सद्द. 1.44; - पुच्छा स्त्री., [अर्थयुक्ति पृच्छा], तर्क-संगत और सार्थक प्रश्न, युक्तिपूर्ण कथन के विषय में प्रश्न, तार्किकता के विषय में प्रश्न - तत्थ कथं
सूति सब्बत्थेव अत्थयुत्तिपुच्छा होति, सु. नि. अट्ठ. 1.199. अत्थ-योजना स्त्री., ष. तत्पु. स., [अर्थयोजना], अर्थसङ्गति, व्याख्यान, अर्थ की सङ्गति का प्रदर्शन - तत्रायं भूतमत्थं कत्वा सङ्घपतो अत्थयोजना, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).220; ... गाथाद्वयस्स वत्तविपरियायेन अत्थयोजना वेदितब्बा, पे. व. अट्ठ. 122; पालि ग्रन्थों के कतिपय व्याख्यानों के शीर्षक के रूप में भी प्रयुक्त. अत्थरक पु., [आस्तरक], गलीचा, बिछावन, चादर - पटलिकाति घनपुप्फो उण्णामयत्थरको, अ. नि. अट्ठ. 2.167; ... चित्तत्थरकादीहि नानावण्णेहि अत्थरकेहि, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.13, पाठा. अत्थरणेहि. अत्थरण नपुं./पु., [आस्तरण], क. आच्छादन, फैलाव, आस्तरण, बिछावन, ओढ़ने वाला चादर - चित्तकन्ति वानविचित्तं उण्णामयत्थरणं पटिकाति उण्णामयो सेतत्थरणो, दी. नि. अट्ठ. 1.78; ख, गलीचा - रतनपतिसिब्बितमत्थरणं कमा, अभि. प. 315; पाठा. अत्थरणक; - पापुरण/पावुरण [आस्तरण-प्रावरण], नपुं., द्वन्द्व स., गलीचा एवं चादर - .... केचि अत्थरणपाचरणं ... देन्ति, मि. प. 259; ... मञ्च वा पीठं वा अत्थरणपापुरणं वा परिभुञ्जित्वा .... ध. स. अट्ठ. 119; एकत्थरणपावुरणापि तुवमुन्ति, चूळव. 22. अत्थरति आ +vथर से व्यु., वर्त., प्र. पु., ए. व., [आस्तृणाति, आङ् + स्तृज आच्छादने क्रयादि], बिछाता है, फैलाता है, ढकता है, आच्छादित करता है - सङ्घो कथिनं अत्थरति, गणो कथिनं अत्थरति, परि. 333; - न्ति ब. व. - सेतुं अत्थरन्ति, जा. अट्ठ. 1.198; -- त्थत भू. क. कृ., फैलाया हुआ, बिछाया हुआ - ... अत्थतं होति कथिनं ..., महाव.
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अत्थरस
141
अत्थविचारणा
331; - रापेसि प्रेर., अद्य०, प्र. पु., ए. व. - सब्बथा 360; अत्थववत्थानतोति यथावुत्तस्स पञ्चविधस्स अत्थस्स मण्डयित्वा तं अत्थरापेसि तत्थ सो, म. वं. 3.20; - रस्सु ववत्थापनवसेन, पटि. म. अट्ठ. 2.230. अनु. म. पु., ए. व., आत्मने. - ... अत्थरस्सु पलासानि, जा. अत्थवस नपुं, अर्थ, तात्पर्य अथवा अभिप्राय का कारण, अट्ठ. 3.159; - रितुं निमि. कृ. - कथिनं अत्थरितुं ..... विशिष्ट कारण, विशेष अभिप्राय, तार्किक आधार - कथञ्च, महाव. 331; - रित्वा पू. का. कृ. - ... चङ्कोटके कप्पासपिचुं भिक्खवे, भिक्खु अत्थवसं पटिच्च .... चूळव. 342; दस अत्थरित्वा, जा. अट्ठ. 5.105; - रितब्बं सं. कृ. - ... कठिनं अत्थवसे पटिच्च, पारा. 22; इमे खो, भिक्खवे, तयो अत्थरितब्ब.... महाव. 331; - रीयति कर्म. वा., वर्त, प्र. अत्थवसे सम्पस्समानेन, अ. नि. 1(1).176. पु., ए. व., फैलाया जाता है, बिछाया जाता है - सक्कस्स अत्थवसवग्ग पु., परि. के एक वर्ग का नाम, परि. देवरओ आसनं अत्थरीयति, अ. नि. अट्ठ. 3.230(रो.), 411-412. अत्थरस पु., तत्पु. स. [अर्थरस], मूल आशय, अर्थ का रस, अत्थवसिक त्रि., [अर्थवशिक], सही एवं यथार्थ अभिप्राय पर अर्थ का वास्तविक अथवा मूल आशय, अर्थ की मधुरता निर्भर रहने वाला, तर्कसङ्गत दृष्टिकोण वाला, कारण के अथवा प्रायोगिक स्वरूप - भागी वा भगवा अत्थरसस्स आधार पर विचारने वाला - ... कुलपत्ता उपेन्ति अत्थवसिका, धम्मरसस्स विमुत्तिरसस्स, महानि. 104; अत्थरसस्साति अत्थवसं पटिच्च, इतिवु. 64; ... अत्थवसिका कारणवसिका हेतुफलसम्पत्तिसङ्घातस्स अत्थरसस्स, महानि. अट्ठ.212; हुत्वा, इतिवु. अट्ठ. 256. .... बुद्धवचनं उग्गण्हित्वा अत्थरसं विदित्वा वत्तब् होति. म. अत्थवसी त्रि., [अर्थवशी], किसी विशेष लक्ष्य अथवा उद्देश्य नि. अट्ठ. (मू. प.) 1(2).258; पच्चेकबुद्धा ... अत्थरसमेव के प्रति समर्पित, विशिष्ट उद्देश्य की प्राप्ति में लगा हुआ, पटिविज्झन्ति, न धम्मरस सु. नि. अट्ठ. 1.43.
श्रमण-धर्म की प्राप्ति में पूरी तरह रत - एको अत्थवसी अत्थलाभ पु.. ष. तत्पु. स. [अर्थलाभ], धन-संपत्ति की खिप्पं पविसिस्सामि काननं, थेरगा. 539; अत्थवसीति इध प्राप्ति - अहासो अत्थलाभेसु जा. अट्ठ. 3.411; अत्थलाभेसूति अत्थोति समणधम्मो अधिप्पेतो, थेरगा. अट्ठ. 2.149, पाठा. महन्ते इस्सरिये उप्पन्ने ..., तदे..
अत्तवसी. अत्थवटि स्त्री., [अर्थवृद्धि], धन-सम्पत्ति की वृद्धि, कल्याण अत्थवसपकरणं नपुं., परि. के एक भाग का नाम, परि. अथवा हित की वृद्धि - अहं भोगवडिं, अत्थवडिं, धम्मवड्डि 274-75. नाम ते कथेस्सामि, जा. अट्ठ. 3.202.
अत्थवाचक त्रि., [अर्थवाचक], अर्थ को कहने वाला, अर्थ अत्थवन्तु त्रि., [अर्थवत्], क. सार्थक, महत्त्वपूर्ण, उपयोगी, स्पष्ट करने वाला - अत्थवाचक-निपातो..., सद्द. 1.43, 159. हितसाधक, लाभप्रद, तर्कसंगत - यथा, महाराज, पितुवचनं अत्थवादी त्रि., [अर्थवादी], हितकारक एवं कल्याणकारक पुत्तानं अत्थवन्तं होति ... एवमेव ... तथागतरस वाचा बात कहने वाला, ऐहलौकिक एवं पारलौकिक कल्याण अत्थवती, मि. प. 168; भासेमत्थवतिं वाचं, जा. अट्ठ. 5.3693; प्राप्त करने के लिए सदा सार्थक, मङ्गलकारी एवं गम्भीर ख. बुद्धिमान, अर्थ का ज्ञाता - सो अथवा सो धम्मट्ठो, बातें बोलने वाला, (सदैव कालवादी, भूतवादी एवं धम्मवादी थेरगा. 740; 746.
शब्दों के साथ-साथ प्रयुक्त)- द्विट्ठधम्मिकसम्परायिकत्थअत्थवण्णना स्त्री., तत्पु. स. [अर्थवर्णना], ऐसी व्याख्या, सन्निस्सितमेव कत्वा वदतीति अत्थवादी, दी. नि. अट्ठ. जिसमें प्रत्येक पद के अर्थ को स्पष्ट किया गया हो - 1.71; महानि. अट्ठ. 261, स्त्री. अत्थवादिनी. जातकस्स अत्थवण्णना दूरेनिदानं. .., जा. अट्ठ. 1.3; ... अत्थविकप्प पु., कर्म./तत्पु. स. [अर्थविकल्प]. वैकल्पिक पच्छा अथवण्णनं करिस्सामि, खु. पा. अट्ठ. 2; .... अर्थ, अर्थ-सम्बन्धी विकल्प - दुतिये अत्थविकप्पे, जा. अट्ठ. मङ्गलसुत्तस्स अत्थवण्णनाक्कमो अनुप्पत्तो, खु. पा. अट्ठ. 3.459; ... इमस्मि अत्थविकप्पे .... सु. नि. अट्ठ. 2.141. 72; - टि. यह पदवण्णना के पश्चात रहती है तथा अत्थविचारणा स्त्री., ष. तत्पु. स. [अर्थविचारणा], अर्थ के अधिपेतत्थवण्णना से भी इसका स्वरूप भिन्न रहता है. विषय में विचार, अर्थ-विषयक विवेचन, नौ अङ्गों वाले अत्थववत्थान नपुं.. तत्पु. स. [अर्थव्यवस्थान], पदार्थ- बुद्धशासन के अर्थ का विचार - सासनस्स परियेट्ठीति विशेष का निर्धारण, अर्थ का विनिश्चय - तस्सा सासनस्स अत्थपरियेसना, ... सासनस्स अत्थविचारणाति अत्थववत्थानतो अत्थपटिसम्भिदा अधिगता होति.... पटि.म. अत्थो, नेत्ति. अट्ठ. 143.
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अत्थविज्ञापन
142
अत्थसन्धि
अत्थविज्ञापन नपुं., तत्पु. स. [अर्थविज्ञापन], अभिप्राय सम्पन्न त्रि., अर्थों एवं व्यञ्जनों से भरपूर - ...
अथवा मन की बात का प्रकाशन, तथ्य का प्रकाशन - अत्थब्यञ्जनसम्पन्नस्स धम्मकोसस्स ..., म. नि. अट्ठ. निज्जीवालपनं अप्पं अत्थविज्ञआपने सिया, सद्द. 1.172; - (मू.प.) 1(1).8; - नापगत त्रि., [अर्थव्यञ्जनापगत], अर्थ नी स्त्री., अर्थ को स्पष्ट करने वाली या सूचित करने वाली एवं व्यञ्जनों से रहित - ... अत्थब्यञ्जनापगतं भणितन्ति - विज्ञापनिन्ति अत्थविज्ञापनि, ध. प. अट्ठ. 2.388; सु. अत्थव्यञ्जनतो अपहरन्ति .... महानि. 121; - टि. संक्षिप्त नि. अट्ठ. 2.171.
और सारगर्भित बात को अर्थ तथा किसी बात के विस्तृत अत्थविनिच्छय पु., तत्पु. स. [अर्थविनिश्चय], विवाद- रूप से प्रस्तुत करने की पद्धति को व्यञ्जन कहा गया है. विषय का निर्णय, तात्पर्य का निश्चयात्मक अवधारण- अत्थव्याख्यान नपुं., ष. तत्पु. स. [अर्थव्याख्यान], पालि ... तस्स अत्थविनिच्छयस्स ओकासाकरणेन .... उदा. के एक ग्रन्थ का नाम, जो चूलबुद्धथेर द्वारा लिखित माना अट्ठ. 127; - जू त्रि., [अर्थविनिश्चयज्ञ], अर्थ-निर्धारण जाता है - अत्थव्याख्यानं चूळबुद्धथेरो, सा. वं. 32. का ज्ञाता, किसी विषय पर निर्णय करने में कुशल - अत्थब्यापत्ति स्त्री., ष. तत्पु. स. [अर्थब्यापत्ति], धन-संपत्ति अत्थविनिच्छयसूति तस्स तस्स अत्थस्स विनिच्छयकुसलो. का क्षय, धनहानि, - अत्थब्यापत्तीति यदा पन अत्तनो जा. अट्ठ. 3.178; न वेधती अत्थविनिच्छयञ्जू अ. नि. 2(1). अत्थब्यापत्ति यसविनासो होति, तदा अब्यथो अकिलमनं 52; अत्थविनिच्छ - यञ्जूति कारणत्थविनिच्छये कुसलो, अ. ..... जा. अट्ठ. 3.411. नि. अट्ठ. 3.24.
अत्थसंबड्डनकथा स्त्री., कर्म. स. [अर्थसंवर्धन - कथा], अत्थविभाग पु., तत्पु. स. [अर्थविभाग], पदार्थों या अर्थों का अर्थचर्या, हितकारक अथवा लाभदायक कथन - वर्गीकरण - तेसं अयं अत्थविभागो, विभ. अट्ठ. 172. अत्थचरियायाति अत्थसंवड्डनकथाय, दी. नि. अट्ठ.3.99. अत्थविभावना स्त्री., तत्पु. स. [अर्थविभावना]. अर्थ- अत्थसंहित त्रि., [अर्थसंहित], कल्याण से परिपूर्ण, सम्बन्धी विस्तृत व्याख्यान - तत्रायं अत्थविभावना, उदा. हितकारक, उपयोगी, मङ्गल-कारक, कारण-प्रकाशक - यं अट्ठ. 317.
समणो बहुभासति, उपेतं अस्थसंहितं. स. नि. 727; अत्थसंहितं अत्थविभावी त्रि., अर्थ-सम्बन्धी विस्तृत व्याख्यान करने अत्थुपेतं धम्मुपेतञ्च हितेन च संहितं. सु. नि. अट्ठ. 2.197; वाला, अर्थों की विभावना करने वाला(चित्त) - अत्थविभावी अत्थसंहितं तथागता पुच्छन्ति, नो अनत्थसंहितं, महाव. 66%; ति, अत्थस्स विभावनसीलं चित्तं .... सद्द. 1.86; 233. अत्थसंहितानि, भिक्खवे, धम्मचेतियानि आदिब्रह्मचरियकानि, अत्थविवरण नपुं., तत्पु. स. [अर्थविवरण], अर्थ का विवेचन, म. नि. 2.333. व्याख्यान - साधारणे विहअन्तीति इदं सब्बं परवसं दुक्खन्ति अत्थसद्दचिन्ता स्त्री., तत्पु. स. [शब्दार्थचिन्ता], शब्द एवं इमस्स पदस्स अत्थविवरणं, उदा. अट्ठ. 128.
अर्थ के बीच पाए जाने वाले सम्बन्ध पर विचार - अत्थविसेस पु., तत्पु. स. [अर्थविशेष], अर्थ में अन्तर अत्थसद्दचिन्तायं पन एवं उपलक्खेतब्ब, सद्द. 1.34. अथवा विशिष्टता - यत्थ ... लमति अत्थविसेसो च ..... अत्थसन्दस्सक पु., एक स्थविर का नाम - इत्थं सुदं सद्द. 1.38.
आयस्मा अत्थसन्दस्सको थेरो इमा गाथायो अभासित्थाति, अत्थव्यञ्जन नपुं., द्व. स., [अत्थ + व्यञ्जन], अर्थ एवं अप. 1.171. व्यञ्जन - अत्थव्यञ्जनतो अपहरन्ति, महानि. 121; - अत्थसन्दस्सन नपुं.. परमार्थ का संदर्शन या स्पष्ट रूप से ग्गहण नपुं, अर्थों एवं व्यञ्जनों की उपलब्धि - ... ज्ञान - कथं नानाधम्मप्पकासनता पा अत्थसन्दस्सने नानत्थव्यञ्जनग्गहणं होति ..., म. नि. अट्ठ. (मू.प.) आणं, पटि. म. 96. 1(1).9; - परिपुण्ण त्रि., अर्थों एवं व्यञ्जनों से परिपूर्ण - अत्थसन्दस्सनी स्त्री., [अर्थसन्दर्शिनी], अर्थ अथवा तात्पर्य अत्थब्यञ्जनपरिपुण्णहि धम्म आदरेन अस्सुणन्तो महता को दरसाने वाली या सुस्पष्ट कराने वाली, अर्थप्रकाशिका हिता परिबाहिरो होतीति ..., म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).9; - एसा ते उपमा राज, अत्थसन्दस्सनी कता, जा. अट्ठ. 5.245. - पारिपूरी स्त्री०, अर्थों एवं व्यञ्जनों के मामले में परिपूर्णता अत्थसन्धि पु., अर्थ के सम्बन्ध में सन्धि, पहले कही हुई बात - तदुभयेनपि अत्थब्यञ्जनपारिपूर्ति दीपेन्तो सवने आदरं को बाद में कही गई बात के साथ जोड़ने वाली चार जनेति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).9; खु. पा. अट्ठ. 84; - सन्धियों में से एक - सो चायं पुब्बापरो सन्धि चतुबिधो
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अत्थसभाग
अत्यसन्धि व्यञ्जनसन्धि देसनासन्धि निदेससन्धीति नेत्ति.
33; तुल० महाव. अदु. 127. अत्थसमाग त्रि. मूल आशय की दृष्टि से समान, समान तात्पर्य वाला इमं पटिगार्थ अभासि व्यञ्जनसभाग नो अत्थसभाग, सु. नि. अड. 1.25 विलो. व्यञ्जनसभाग. अत्थसम्पत्ति स्त्री. तत्पु स. [ अर्थसम्पत्ति ] अर्थ की सम्पूर्णता, सार्थकता, अर्थ-समृद्धि अत्यसम्पत्तिया सात्थं सु. नि.
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अट्ठ. 2.151.
अत्थसम्बन्ध पु.. [ अर्थसम्बन्ध]. अर्थज्ञान में सहायक शब्दों का परस्पर सम्बन्ध, अर्थज्ञान में उपयोगी शब्दों का उपन्यसनक्रम, अर्थों की सुसंगत योजना एवंमत्थसम्बन्धो वेदितब्बो, जा. अट्ठ. 7.366.
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अत्थसिद्धि स्त्री०, ष० तत्पु० स० [अर्थसिद्धि], अपने उद्देश्य, लक्ष्य अथवा अभीप्सित की प्राप्ति इच्छापूर्ति सफलताधुवत्थसिद्धिं पप्पोन्ति, अप. 2.5; मयं अनन्तरायेन अत्थसिद्धिं पत्चा, जा. अ. 1.170: अत्थसिद्धि उपगता. मि. प. 131. कर त्रि.. अर्थयुक्त, प्रयोजन की सिद्धि करने वाला, उद्देश्य-युक्त पटिच्चसद्दो च पनायं समाने कत्तरि
143
म.
अत्थसम्भव पु.. [अर्थसंभव], किसी एक निश्चित अर्थ सम्भावना द्वीसु तिकेसु अत्यसम्भवतो. खु. पा. अड. 198. अत्थसल्लापिका स्त्री० [अर्थसंलापिका], अर्थ को स्पष्ट कर देने वाली तत्थायं अत्यसल्लापिका उपमा नि. अड. ( मू.ए.) 1 (1) 325 (पृथ्वी एवं आकाश के संवाद के रूप में प्रयुक्त एक उपमा के लिए प्रयुक्त शब्द). अत्थसाधक त्रि. [ अर्थसाधक], अपने हित को सिद्ध करने वाला, कल्याणकारी, लाभदायक - तं अत्थसाधक निब्बानष्पटिसंयुक्त्तं ...एकम्पि पदं सेय्योयेवाति ध० प० अट्ट. 1.364; ... उभयलोकत्थसाधकञ्च कल्याणगित्तसंसगं पसंसन्तेन भगवता ... खु. पा. अट्ठ. 100; विलो. अत्थभञ्जक अत्थसाधनता स्त्री, अत्थसाधन का भाव. [ अर्थसाधनता ]. अर्थोपार्जन या धनार्जन का साधन होना आयूहितो अत्थसाधनताय अपचितिं न करोति मि. प. 175. अत्थसालिनी (बर्मी पाण्डुलिपि में सर्वत्र अट्ठसालिनी), स्त्री०, आचार्य बुद्धघोष द्वारा रचित धम्मसङ्गणि-नामक एक अभिधम्म- प्रकरण की अद्ध, सम्भवतः श्रीलंका जाने के पूर्व में ही विरचित धम्मसाणिया कासि कच्छ सो अनुसालिनिं म. वं. 37.225; बुद्धघोसो च आयस्मतो रेवतस्स सन्तिके निसीदन्तो आणोदयं नाम गन्धं अत्थसालिनिञ्च गन्धं अकासि, सा. वं. 29.
अत्थानत्थ
पुब्बकाले पयुज्जमानो अत्यसिद्धिकरो होति. विसुद्धि 2.
148-149.
अत्थसो अ. [अर्थश] विभिन्न उद्देश्यों, अभीप्सितों अथवा तात्पयों की दृष्टि से, अर्थों के अनुसार विसयग्गाहो च उपनिस्सयमत्थसोति, ध. स. अट्ठ. 315. अत्थस्सद्वारजातक नपुं, एक जातक का शीर्षक अथवा नाम, जा. अट्ठ. 1.350-351.
अत्थहेतु अ. [ अर्थहेतु] लाभ अथवा स्वार्थ के कारण बहुज्जनो भजति अत्थहेतु जा. अड. 6.186 सु. नि. अड.
1.201.
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अत्थाचल पु.. अत्थ+अचल, कर्म, स. [अस्ताचल]. वह पर्वत, जहां सूर्य अस्त होता है रणदस्सनभीतो व लीनो अत्थचले रवि, चू. वं. 72.113. अत्थातिसययोग पु. तत्पु० स० [अर्थातिशययोग], अतिरिक्त अथवा विशिष्ट अर्थ के साथ शब्द का सम्बन्ध या प्रयोग - अत्थातिसययोगे एवं उपलक्खेतब, सद. 1.45. अत्थाधिगम पु. तत्पु, स. [ अर्थाधिगम] अर्थ की पकड़ समझ या ज्ञान अत्थपरिग्गाहकानं अत्थाधिगमो अकिच्छो होति. सह. 1.37. अत्थानतिवति स्त्री तत्पु, स. [ अर्थानतिवृत्ति ]. विचाराधीन अथवा प्रसङ्ग प्राप्त विषय का अनुल्लंघन, अर्थ का अनतिक्रमण - अत्थानतिवत्तियं यथासत्ति, मो. व्या. 3.3. तुल. काशिका
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2.1.6.
अत्थानुसिद्धि स्त्री. [ अर्थानुशिष्टि ] अर्थ सम्बन्धी अनुशासन या अर्थों का नियमसंगत निर्धारण अत्थानुसिद्धीसु परिग्गहेसु घ. दी. नि. 3.118 अत्थानुसिद्वीसु परिग्गहेसु चाति ये अत्थानुसासने परिग्गहा अत्थानत्थं परिग्गाहकानि आणानि, तेसूति अत्थो, दी. नि. अट्ठ. 3.104.
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अत्थानत्थ पु०, द्व. स. [ अर्थानर्थ], लाभ एवं हानि, हित एवं अहित ठानेसु गुणदोषं बुद्धिहानि अत्थानत्थं प्रत्याति
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जा. अ. 1.113 सुभासितदुब्भासितं अत्थानत्थं हिताहितं जानितुं जा. अड. 3.206: किं नु मे एत्थ गतेन अत्थो अतिथ नत्थीति अत्थानत्थं परिग्गहित्वा अत्थपरिग्गहणं..... म. नि. अट्ठ. ( मू०प०) 1 (1).264; कुसलता स्त्री०, [अर्थानर्थकुशलता ], हित एवं अहित वृद्धि एवं हानि के ज्ञान के विषय में कुशलता पण्डितता अत्थानत्धकुशलताति एवमादीनि फलानि खु. पा. अड. 24 परिग्गण्हन नपुं., [अर्थानर्थपरिग्रहण], लाभ एवं हानि या हित-अहित का यथार्थ ज्ञान एवं अत्थानत्थपरिग्गहणं
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अत्थानिसंस
144
अस्थि
वेदितब्ब, म. नि. अट्ठ. 1(1).274; - विचक्खण त्रि., [अर्थानर्थविचक्षण], अर्थ एवं अनर्थ के निर्णय में अतिकुशल -- भूमिया थिरभावत्थं अत्थानत्थविचक्खणो, म. वं. 29.4. अत्थानिसंस पु., ष, तत्पु. स. [अर्थानृशंस्य], वस्तु या पदार्थ के अच्छे गुण, वस्तु या पदार्थ में विद्यमान, प्रशंसनीय तत्त्व - अत्थवसन्ति अस्थानिसंसं अत्थकारणं, स. नि. अट्ठ. 1.235. अत्थानुसारी त्रि., [अर्थानुसारी], अर्थ या यथार्थ सत्य का अनुसरण करने वाला, अर्थ की प्राप्ति में लगा हुआ - सद्धम्म सुणमानस्स यो हि अत्थानुसारिनो, सद्धम्मो.
528.
अत्थानुसासन नपुं. अत्थः + अनुसासन, [अर्थानुशासन], अर्थो या प्रशासनिक विषयों का प्रबंधन - ... ये अत्थानुसासनेसु परिग्गहा .... दी. नि. अट्ठ. 3.104; - सन्थागारसाला स्त्री., प्रशासकीय भवन, सभागार - सन्थागारेति राजकुलानं अत्थानुसासनसन्था - गारसालायं, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).169, तुल. अत्थानुसिट्टि. अत्थापगत त्रि., तृ. तत्पु. स. [अर्थापगत], अर्थ से हटा हुआ, अर्थ से रहित, निरर्थक - अत्थापगतं भणितान्ति अस्थतो अपहरन्ति .... महानि. 121; अत्थापगतन्ति अत्थतो अपगतं, अत्थो नत्थीति, महानि. अट्ठ. 226. अत्थापत्ति स्त्री., तत्पु. स. [अर्थापत्ति], स्त्री. सङ्केतित अर्थ, तात्पर्य के आधार पर गृहीत अर्थ, भगवान बुद्ध के जीवनकाल में तथा उनके परिनिर्वाण के पश्चात् भिक्षुओं के अपराध - अत्थतो आपादेत्वा, सु. नि. अट्ठ.2.169; अत्थापत्ति दिवा आपज्जति, नो रत्ति, पारा. अट्ठ. 1.224; परि. 242. अत्थापाय पु.. अत्थ+ अपाय तत्पु. स. [अर्थापाय]. कल्याण, हित अथवा लाभ की क्षति - अत्थापाये जहन्ति नं. जा. अट्ठ. 3.342; अत्थापाये वड्डिया अपगमने परिहीनकाले. तदे... अत्थापेति/अत्थापयति [अर्थायति], अत्थ का ना. धा., वर्त, प्र. पु., ए. व., हितकारक या कल्याणकारक धर्म के विषय में शिक्षा देता है - अत्थं आचिक्खति, अत्थापयति, मो. व्या. 5.13, द्रष्ट, सच्चादीहापि. अत्थाभिसमय पु., अत्थ + अभिसमय, [अर्थाभिसमय], हित का लाभ, इस लोक और परलोक दोनों लोकों से सम्बन्धि त हितों का लाभ या साक्षात्कार - अत्थाभिसमया धीरो, पण्डितोति पवुच्चतीति, इतिवु. 14; अत्थाभिसमया ति दुविष्ट स्सिपि अत्थस्स हितस्स पटिलाभा, इतिवु, अट्ठ. 71, द्रष्ट. अभिसमय.
अत्थार पु., [आस्तार, आ + Vस्तु + घञ्], बिछावन, गलीचा, दरी - न अञत्र पुग्गलस्स अत्थारा अत्थतं होति कथिनं, महाव. 332, तुल. अत्थरण; - क त्रि., अत्थार + क, [आस्तारक], बिछाने वाला, फैलाने वाला - द्विन्न पुग्गलानं अत्थतं होति कथिनं अत्थारकस्स च अनुमोदकस्स च, परि. 326; - मूलक त्रि., [आस्तारमूलक], संघ द्वारा अनुमोदित एवं प्रशंसित कथिन चीवर - आनिसंसो महा होति, यस्स अत्थारमूलको, विन. वि. 2243; अत्थारमूलको ... ति यो च... अनुज्ञातो तस्मिं विहारे उप्पज्जनकचीवर
वत्थानिसंसो, विन. वि. टी. 2.69. अत्थावह त्रि., [अर्थावह], कल्याणकारी, लाभ, हित या भलाई को लाने वाला, उपयोगी - ... यत्थ अत्थावह सुतन्ति, जा. अट्ठ. 3.191. अत्थि क्रि. रू., Vअस का वर्त., प्र. पु., ए. व., [अस्ति],
शा. अ. अस्तित्व में रहता है, पाया जाता है, संभव होता है आदि, ला. अ. विविध प्रकार के अर्थ; क. प्रायः ष. वि. के साथ स्वामित्व-सङ्केतक - इदं ब्राह्मण, मे अस्थि, जा. अट्ठ. 3.45; ख. निमि. कृ. के साथ - गन्तं न हि तीरमपत्थि. सु. नि. 677; ग. प्र. वि. के संज्ञापद के साथ संयोजक क्रि. प. के रूप में भी - असि म. पु., ए. व. - बालोसि, जा. अट्ठ. 2.132; घ. तप्रत्ययान्त अथवा तब्ब-प्रत्ययान्त के साथ सहायक क्रिया के रूप में - वञ्चितो मेसि, जा. अट्ठ. 2.132; - सिया सप्त./प. वि., ए. व. - ... पेसकारसालन्ति वत्तब्बं सिया, ध, प. अट्ठ. 2.99; ङ. यदा-कदा उपवाक्यों में सुनिश्चित अर्थवाली अन्य क्रिया के साथ वाक्य के आरम्भ में प्रयुक्त - अत्थि, भिक्खवे, भिक्ख उम्मत्तको सरतिपि उपोसथं नपि सरति, महाव. 154; - अस्मि वर्त. उ. पु., ए. व. - पञ्चसु उपादानक्खन्धेस अस्मीति अधिगतं, स. नि. 2(1).117; रूपं अस्मीति वदेसि, तदे. अस्मीति, भिक्ख मञितमेतं, म. नि. 3.295; - असि वर्त., म. पु., ए. व. - युवा च दहरो चासि, सु. नि. 422; त्वञ्चासि आगन्तुको, चूळव. 285; केनासि एवं जलितानुभावा .... वि. व. 3; ... सेतकेतु चण्डालेनासि पादन्तरेन गमितो, जा. अट्ठ. 3.204; - अस्म/अस्मु/अस्मा वर्त, उ. पु., ब. व. - ते मे न वज्झा मयमस्म वज्झा, जा. अट्ठ. 1.177; तेविज्जा मयमस्मुभो, सु. नि. 599; आरोहपरिणाहेन, तुल्यास्मा वयसा उभो, जा. अट्ठ. 5.338; - अत्थ वर्तः, म. पु., ब. व. - भातिक, तरुणायेव तावत्थ, ध. प. अट्ट, 1.5; खेमं पत्तत्थ भिक्खवो, म. नि. 1.292; - सन्ति वर्त, प्र. पु.. ब. व. - सन्ति सत्ता
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अस्थि 145
अत्थिक अप्परजक्खजातिका ... महाव.6; सन्तेत्थ तयो कुलपुत्ता मि. प. 24; स. पू. प. में प्रयोग; - क्ख ण पु., अत्थि + अत्तकामरूपा विहरन्ति, म. नि. 1.269; -- अत्थु अनु., प्र. क्खण [अस्तिक्षण], भगक्षण से पूर्ववर्ती तथा उत्पत्तिक्षण से पु.. ए. व. - भवमत्थु भवन्तं जोतिपालं .... दी. नि. परवर्ती धर्म की विद्यमानता का विशेष क्षण - ... अस्थिक्खणेयेव 2.170; धि तवत्थु जरे जम्मे, थेरीगा. 106; - सिया'/अस्स तं ते धम्मे अनुपालेति ..., अभि. अव. 21; -- खीर त्रि०, विधिः, प्र. पु., ए. व. - वुड्डापचायी अनुसूयको सिया, सु. [अस्तिक्षीर], दूध रखने वाला - अत्थिखीरा ब्राह्मणी ति नि. 327; जितञ्च रक्खे अनिवेसनो सिया, ध. प. 40; सिया आदिसु ..., सद्द. 1.299, तुल. पाणिनि 2.2.24 पर वार्तिक चस्स काये बलमत्ता .... दी. नि. 1.64; नो चस्स नो च 21; - ता स्त्री., भाव., [अस्तिता], विद्यमानता, अस्तिभाव, मे सिया, उदा. 161; ख. - सिया विधि., म. पु., ए. व.. वास्तविकता - द्वयनिस्सितो ... लोको, ... अत्थितञ्चेव - एवं मच्चुतरो सिया, सु. नि. 1125; - अस्ससि विधि., म. नत्थितञ्च, स. नि. 1(2).17; ... एतस्मिं कुलावके करसचि पु., ए. व. - ... याय त्वं अरहा वा अस्ससि ..., महाव. 37; अत्थितं वा नत्थितं वा जानाहीति, जा. अट्ठ. 5.104; ... - सियं विधि., उ. पु., ए. व. - सदारपसुतो सियं, जा. तस्मिंयेव समये वुट्ठानकपआय अत्थिताय, ध. स. अट्ठ. अट्ठ. 7.351; - सियु/सियंसु/अस्सु विधि., प्र. पु., ब. 416; विलो. नत्थिता;-धम्म पु./नपुं॰ [अस्तिधर्म], वस्तुतः व., -- आपा चे सब्बदा सियु, उदा. 162; ... सियंसु द्वे भिक्खू अस्तित्व में रहने वाला धर्म (निर्वाण), परमार्थ धर्म निर्वाण - अभिधम्मे नानावादा, म. नि. 3.25; ममेवातिवसा अस्सु.ध. अस्थिधम्म ओपम्मेहि आदीपनीयन्ति, मि. प. 252; ... यकिञ्चि प.74; छदनं अस्सु सत्थुनो, अप. 1.96; - अस्सथ विधि., नेय्यं नाम अत्थिधम्मान्ति - आदीसु. म. नि. अट्ठ. (मू.प.) म. पु., ब. व. -- ... एवं पस्सन्ता एतरहि वा पच्चप्पन्नमद्धानं 1(2).241; - पच्चय पु., अत्थि + पच्चय, वास्तविक .... कथंकथी अस्सथ, म. नि. 1.336; -- अस्साम विधि., उ. कारणता, दो वास्तविक धर्मों के बीच एक का दूसरे के प्रति पु., ब. व. - ... मयम्पि एतिस्सा कथाय भागिनो अस्साम कारण होना, चौबीस प्रकार के प्रत्ययों के बीच 21वां प्रत्यय सवनाय, म. नि. 1.321; -- आसि अद्य., म. पु., ए. व. - - कुसलं धम्म पटिच्च कुसलो धम्मो उप्पज्जति अस्थिपच्चया यं नेसं पकतं आसि, सु. नि. 288; ... इतिह आस, इतिह ...., पट्ठा. 1.30; पच्चुप्पन्नलक्खणेन अस्थिभावेन तादिसरसेव आसाति .... दी. नि. अट्ठ. 1.200; मित्तो ममासी विसज्जामहं धम्मस्स उपत्थम्भकत्तेन उपकारको धम्मो अस्थिपच्चयो विसुद्धि. तं, जा. अट्ठ. 7.209; - आसिं अद्य., उ. पु., ए. व. - 2.169; - टि. जिस धर्म की उपस्थिति या विद्यमानता पर तत्रपासिं एवंनामो एवंगोत्तो .... म. नि. 1.28; - दूसरे धर्म की उत्पत्ति निर्भर रहती है, उन दोनों के बीच आसुं/आसिंसु अद्य., प्र. पु.. ब. व. - इसयो पुब्बका वाला सम्बन्ध अत्थिपच्चय कहलाता है; - पच्चयधम्म पु., आसुं. .... सु. नि. 286; पितरो च मे आसु पितामहा च, जा. किसी अन्य धर्म का कारणभूत धर्म - अस्थिपच्चयधम्मा एव अट्ठ. 4.31; अट्ठट्ठासिंसु खत्तिया, अप. 1.283; - च अविगतभावेन उपकारकत्ता अविगतपच्चयोति .... विसुद्धि. आसि/आसित्थ अद्य., म. पु., ब. व. - अज्जतनीया पन 2.169; विलो. नत्थिपच्चयधम्म; - भाव पु., [अस्तिभाव]. आसि ... आसित्थ ... आदीनि भवन्ति, सद्द. 2.451; - अस्तित्व, विद्यमानता - धुतङ्गसमादानस्स अत्तनि अस्थिभावं आसिम्ह अद्य., उ. पु., ब. व. - तेन कालेन आसिम्ह सब्बा न जानापेतुकामो ..., म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).44; प्रायः ब्राह्मणसम्भवा, अप. 2.264; पाठा. आहुम्ह, अहेसुम्ह; - 'जानाति तथा दूसरी समानार्थक धातुओं के साथ प्रयुक्त - सन्तो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - पहु सन्तो न भरति, सचे पन सरस्स अस्थिभावं मय्ह न सहथ, जा. अट्ठ. सु. नि. 98; - सन्ता ब. व. - ... इमे धम्मा नाना सन्ता 1.218; गेहे सूकरानं अत्थिभावं ञत्वा ..., जा. अट्ठ. 3.251; ..... मि. प. 37; - सती/सन्ते सप्त. वि., ए. व. - धम्मे विलो. नत्थिभाव; - सुख नपुं.. अस्थि + सुख [अस्तिसुख],
सती ब्राह्मण वृत्तिरेसा, सु. नि. 81; को न हासो किमानन्दो, मेरे पास कुछ है, इस विचार से उत्पन्न सुख - कतमानि निच्चं पज्जलिते सति, ध. प. 146; एवं सन्ते ... मातातिपि चत्तारि? अस्थिसुखं भोगसुखं..., अ. नि. 1(2).80; अत्थीति न भविस्सति, मि. प. 39; - सन्तेसु ब. व. - एवं खन्धेसु उप्पज्जनकसुखं अत्थिसुखं नाम, अ. नि. अट्ठ. 2.306. सन्तेसु, ..., स. नि. 1(1).160; - समानो वर्त. कृ., पु., प. अत्थिक' क. त्रि., अत्थ + इक [अर्थिक], इच्छुक, अभिलाषी, वि., ए. व., आत्मने. - एकच्चो पुग्गलो साङ्गणोव समानो जरूरतमन्द, उद्देश्यविशेष अथवा वस्तुविशेष को पाने की ...., म. नि. 1.31; ... इतिवुत्तो समानो रथं न सम्पादेति, इच्छा वाला - ... अत्थो, एतस्स अत्थीति अत्थिक दी. नि.
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अत्थिक 146
अत्थुपेत अट्ठ 1.206: सोतमोधेसिमस्थिको, थेरगा. 995; ... एको खो, अत्थिराग(सुत्त) नपुं., स. नि. 1(2) के एक सुत्त का नाम, महाराज, अत्थिको, एको अनस्थिको, मि. प. 83; पहन जिसमें अस्तित्व के प्रति चित्त के लगाव का विवेचन है, स. अत्थिको आगतोम्हि, पहं पुच्छितकामो आगतोम्हि, महानि. नि. 1(2).89-91. 349; पाठा. अट्ठिक, अत्थि; ख. पु. - अस्थिकेहि उपञातं अत्थी क. त्रि., [अर्थी], इच्छुक, अभिलाषी - यावतत्थीति मग्गन्ति, महाव. 45; अत्थिको विय आयाति, अतिथी नो वुच्चति, सु. नि. 764; अस्थिपञ्हेन आगम, सु. नि. भविस्सति, जा. अट्ठ. 7.311; पाठा. अद्धिको; - जन पु.. 1049; 1111; ख. पु., भिखारी, याचक - अथ याचनको अत्थिक' + जन कर्म. स. [आर्थिकजन], दरिद्र-जन, अत्थी याचको च वणिब्बको, अभि. प. 740; स. उ. प. के निर्धन लोग, याचक - अत्थिकजनेहि पविवित्तं विरळ दानग्गं रूप में आमिस., चित्तसमाध., भोजन., वाद., सुख. के अहोसि, पे. व. अट्ट, 112; - भाव पु., अत्थिक' + भाव अन्त. द्रष्ट.. [अर्थिकभाव), क. इच्छा, अभीष्टता - अत्तनो अत्थिकभावं अत्थुच्चारणविसेस पु., कर्म. स. [अर्थोच्चारणविशेष], अर्थों .... सुणेय्य, जा. अट्ठ. 5.145; अहिं कत्वाति अत्थिकभावं एवं उच्चारणों में विशिष्टता या अन्तर, विशेष प्रकार के अर्थ कत्वा, अत्थिको हुत्वाति अत्थो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) और उच्चारण - एवं पदविभागाविभागवसेन समानसुतिकानं 1(2).296; ख. उपयोगिता, लाभदायकता - ... इमिना वा अत्युच्चारण - विसेसो वेदितब्बो, सद्द. 1.38. पिण्डपातमत्तेन अस्थिकभावं, पु. प. अट्ठ. 95; ग. आवश्यकता अत्थुति स्त्री., त्थुति का निषे. [अस्तुति], निन्दा, अकीर्ति, की स्थिति, दुर्दशा की स्थिति, दयनीय अवस्था - ... अत्तनो स्तुति का अभाव - असिलोको अकित्ती च असिलाधा च अत्थिकभावं पवेदेन्ता विचरन्ति, पे. व. अट्ठ. 106; - अत्थुति, सद्द. 2.380. वत/वन्तु त्रि., संभवतः अत्थवन्तु के मिथ्या सादृश्य पर अत्थुद्धार पु., ष. तत्पु. स. [अर्थोद्धार], क.ध. स., अट्ठ. व्यु., जरूरतमन्द, जिसे कुछ पाने की अभिलाषा है, चाह के चौथे अध्याय का नाम, जिसमें पुस्तक की विषयवस्तु का करने वाला - अत्थिकवतो खो पन ते अम्बट्ट, इधागमनं संक्षेप है - तदनन्तरं पन तेपिटकस्स बुद्धवचनस्स अत्थुद्धारभूतं अहोसि, दी. नि. 1.79; अत्थिकमस्स अत्थीति अत्थिकवा, ... अट्ठकथाकण्ड नाम, ध. स. अट्ठ.8; 428; 443; दी. वं. दी. नि. अट्ठ. 1(1).206.
5.37; ख. अर्थ अथवा विषयवस्तु का सारांश, संक्षेपण, अत्थिक त्रि., अस्थि से व्यु. [आस्तिक], नैतिक मूल्यों, विशेषरूप में किसी एक शब्द अथवा समानार्थक शब्दों के परलोक, पुनर्जन्म आदि के अस्तित्व में विश्वास रखने अट्ठ. में प्राप्त अर्थों का संक्षेप-सार, अनेक अर्थों के बीच वाला, अत्थिकवाद आदि के स. पू. प. के रूप में ही प्रयुक्त; शब्द के किसी एक अर्थ का विनिश्चायन - ... एकमेकं पदं - वाद पु., अत्थिक + वाद [आस्तिकवाद], क. परलोक अत्थुद्धारपदुद्धारवण्णना - नयेहि विभजित्वा वेदितब्बा, सु. या ऊंची नैतिकता आदि मूल्यों पर विश्वास रखने वाला नि. अट्ठ. 1.201; इति सहस्स अत्थुद्धारो एवं सद्देन सिद्धान्त - तेसं तुच्छं मुसा विलापो ये केचि अत्थिकवादं समानत्थताय ‘एवं मे सुतान्ति एत्थ विय, उदा. अट्ठ. 38; वदन्ति, दी. नि. 1.49; अत्थिकवादन्ति अस्थि दिन्न । स्वायमिधापि अरियसच्चे वत्ततीति एवमेत्थ अत्थुद्धारतो पि दिन्नफलन्ति इमं अत्थिकवादयेव..., म. नि. अट्ठ. (म.प.) विनिच्छयो वेदितब्बो, विभ. अट्ठ. 80. 2.163; ख. त्रि., आस्तिकवाद का प्रतिपादक - सीलवा अत्थुद्धारण पु., तत्पु. स. [अर्थोद्धारण], शब्दार्थों के संक्षेपपुरिसपुग्गलो, सम्मादिट्ठि अत्थिकवादो, म. नि. 2.74. सार अथवा शब्द के अनेक अर्थों मे किसी एक अर्थ के अत्थिय त्रि., [अर्थ्य], अभिलाषी, प्रयोजन वाला, हितकारक, निर्धारण की पद्धति - नय पु., अर्थ निर्धारित पद्धति - लाभकारक, इच्छुक, केवल स. उ. प. में ही प्रयुक्त०, लोकसङ्घातत्ता वा तेसं धम्मानं अत्थुद्धारणनयेनेतं वुत्तं, म. अत्थत्थिय, किमत्थिय, सुखत्थिय के अन्त. द्रष्ट; - त्थिया नि. अट्ठ (मू.प.) 1(1).254. अत्थिय का स्त्री., के निमित्त, के लिए - किमत्थिया, भन्ते अत्थुद्धारभूत त्रि., [अर्थोद्धारभूत], विषयवस्तुओं अथवा नागसेन, तुम्हाकं पब्बज्जा, मि. प. 29; उपमं ते करिस्सामि, शब्दों के अर्थों का संक्षेप-सार - अत्थुद्धारभूतं अट्ठकथाकण्ड महाराज तवत्थिया, जा. अट्ठ. 7.120.
ध. स. अट्ठ. 8; तुल. दी. वं. 5.37.. अस्थिरत्त नपुं., थिर के भाव. का निषे. [अस्थिरत्व], अस्थिरता अत्थुपेत त्रि., तत्पु. स. [अर्थोपेत], त्रिपिटक के वास्तविक - अस्थिरतं कतस्सापि नेकधा सम्पकासयु, चू. वं. 68.18. तात्पर्य निर्णय में निष्णात, अर्थ के सारतत्व को जानने वाला
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अत्थूपपरिक्खा
एवं अत्युपेतं व्यञ्जनुपेतन्ति दी. नि. 3.96: अत्युपेतन्ति अत्थेन उपेतं अत्थरस विज्ञातारं दी. नि. अह. 3.86. अत्थूपपरिक्खा स्त्री अत्थ उप परिक्खा, तत्पु. स. [ अर्थोपपरीक्षा], अर्थ, अनर्थ, हित, अहित, कारण एवं अकारण का परीक्षण, अर्थ की जांच पड़ताल, अर्थ का परीक्षण, किसी वस्तु के महत्व पर अनुचिन्तन अत्थूपपरिक्खा बहुकारा, म. नि. 2.392. ... कालेन धम्मस्सवने कालेन अत्थुपपरिक्खाय, अ. नि. 2 (2) 91: अत्युपपरिक्खायाति अत्थानत्वं कारणाकारणं उपपरिक्खने, अ. नि. अड्ड. 3.128. अत्थूपपरिक्खी त्रि. तत्पु, स. [ अर्थोपपरीक्षिन् ] हितअहित, अच्छे-बुरे की परीक्षा करने वाला अर्थ का परीक्षण करने वाला धातानं धम्मानं अत्थूपपरिक्खी होति... अ.. नि. 1 ( 2 ) 112: अत्धूपपरिक्खीति अत्थं उपपरिक्खको अ. नि. अड. 2.320. अत्थूपसंहित त्रि, तत्पु० स० [ अर्थोपसंहित], इस लोक एवं परलोक के कल्याण के साथ जुड़ा हुआ / हुई, मङ्गलमय, हितसाधक- तथागतो ... पुब्बे मनुस्सभूतो समानो अत्थूपसंहितं ... वाचं भासिता अहोसि, दी. नि. 3. 115; धम्मो नाम बुद्धभासितो ... अत्थूपसंहितो. पाचि. 26 अत्यूपसंहितं धम्मूपसंहितं वाचं मुञ्चेय्य महानि. 382. अत्थेत / अर्थात त्रि., थेत का निषे, अविश्वसनीय, अस्थिर, धूर्त अर्थात सब्बघातिनं जा. अनु. 4.51 अचेतन्ति अथिरं अप्पटिद्वितवचनं, जा. अट्ठ. 4.52.
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अत्थेति अथ का वर्त, प्र. पु. ए. व. [ अर्थयति] अनुरोध करता है, प्रार्थना करता है, मांगता है, प्रायः 'प' उपसर्ग के साथ प्रयुक्त, पत्थेति, पत्थयति के अन्त. द्रष्ट.. अत्थेन त्रि., थेन का निषे, [अस्त्येन], वह जो चोर नहीं है; द्रष्ट. अथेन.
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अत्यहि स्त्री [अत्यष्टि], छन्दों के उस एक वर्ग-विशेष का नाम जिसके अन्त शिखरिणी, हरिणी तथा मन्दाक्रान्ता नामक छन्द परिगणित हैं, वुत्तो० 97-99, पाठा. अच्चट्ठि अत्र' अ०, स्थान- बोधक अथवा विषयबोधक निपा० [अत्र ], यहां इस स्थान में, इस सन्दर्भ में, इस विषय में इहेघात्र तु एत्थात्थ अभि. प. 1161; इदमासनं अत्र भयं निसीदतु, जा. अनु. 5,163 अत्र पत्तं निक्खिपाहि अत्र धीवरं निक्खिपाहि चूळव. 353, समाना, इह, इध, अत्थ, एत्थ.
अन् नपुं. अद का उणादिप्रत्यय से व्यु रूप [ अत्त]. भोजन, वह जो खाया गया हो छदादीहि तत्रण, क. व्या.
658; तेस मते छत्रं चित्रं.
अत्रं
इच्चेवमादि, सद्द 3.870.
...
147
अत्रिच्छ
अत्रज पु. [आत्मज] पुत्र, बेटा परोसहस्सं न भवन्ति अत्रजा दी. नि. 3.121: पुत्तो च नागेस अत्रजो खेत्तजो अन्तेवासिको, दिन्नकोति चतुब्बिधो, तत्थ अत्तानं पटिच्च जातो अत्रजो नाम, जा. अट्ठ. 1.140; गतो मे अत्रजो पुत्तो, जा. अ. 4.85 पुत्ताति चत्तारो पुत्ता अत्तजो पुत्तो, खेत्तजोपुत्तो, दिन्नको पुत्तो अन्तेवासिको पुत्तो, महानि 181; टि. यह सं. आत्मज के नियमित पालि-रूपान्तरण अत्तज का सं. क्षेत्रज के पालि रूपा. खेत्रज के मि. सा. पर निर्मित अनि० शब्द है । 'त्त' के स्थान पर 'त्र' के प्रयोग के लिए द्रष्ट, क. व्या. 5.20; सद्द 3.622; त्त के स्थान त्र के अशुद्ध प्रयोग के उदाहरण के रूप में द्रष्ट, अत्रजो, खेत्रजो वत्रभू तथा गोत्रभू, स. उ. प. में काकण्डकद्विज.. जिन, ब्राह्मण, साकिय. आदि के अन्त. द्रष्ट.. अत्रजा स्त्री० [आत्मजा] पुत्री, बेटी धीता मज्झत्स अत्रजा, थेरीगा 151; वेदेहस्सत्रजा पिया, जा. अड. 7.115. अत्रभवं [अत्रभवत् ] परमादरणीय व्यक्ति का सङ्केतक सर्व. - इदमासनं अत्र भयं निसीदतु जा. अड. 5.163. अत्रहे अ., अत्र + अह, स. वि., ए. व. का अव्ययीकृत रूप, क्रि. वि., आज के दिन में, आज अज्ज अत्राहे, अभि. प.
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1155.
अत्रिच्च व्यु अनिश्चित, संभवतः अथर का पू. का. कृ. [आस्तृत्य, बौ. सं. अत्रित्य आङ् + √स्तृ + ल्यप्], फैलाकर, बिछाकर व्यवस्थित कर तैयार कर अत्रिच्च कोच्छं, जा. अट्ठ. 5.402; अत्रिच्च कोच्छन्ति एवरूपं कोच्छासनं पण्णसालद्वारे अत्थरित्वा, जा. अट्ठ. 5.403; पाठा. अत्रिच्छ. अत्रिच्छ त्रि. व्यु. अनिश्चित, [ अत्यृच्छ या अतृप्स]. अत्यधिक इच्छा रखने वाला, अत्यधिक लोभी अयं पन
समुद्दे खित्तो अनिच्छो हुत्वा जा. अट्ठ. 3.179; अञ्ञतरोपि अत्रिच्छो अमच्चो विभ. अट्ठ. 446, पाठा. अतिच्छ (अति इच्छा वाला), अनिच्छ, (अति ईप्सा वाला), तथा अनिच्छा, (अति + ईप्सा, अति + इच्छा); - अत्रिच्छन्तिपि पाठो, अत्र अत्र इच्छमानोति अत्थो, अनिच्छा तिपि पाठो अत्रिच्छायाति अत्थो, जा. अट्ठ. 4.5; - टि. पालि के अत्रिच्छ, अत्रिच्छा एवं अत्रिच्छता शब्दों की व्यु लगभग अनिश्चित प्रकृति की है। संभवतः इनमें सं. अति + इच्छति, अति + ऋच्छति अथवा अति + ईप्सति में से किसी एक का अथवा सभी का पालि ध्वन्यन्तरण संभव है; - ता स्त्री०, अत्रिच्छ अथवा अतिच्छ की भाव० [अतीच्छता, अतृप्सता, अत्यर्हता?] अत्यधिक इच्छापरायणता, अत्यधिक
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अत्रिच्छा
अनिच्छतामहिच्छतापापिच्छतादीनं पापधम्मानं
आसक्ति पहानाधिगमहेतुतो खु. पा. अट्ठ. 118; अत्रिच्छतं पजहन्तो खु. पा. अट्ठ 195; अतिच्च इच्छतीति अतिच्चिच्छो, तस्स भावो अतिच्चिच्छताति वत्तब्बे च्चिकारलोप कत्वा अतिच्छता ति वृत्तं अतिच्छताति च सा एव युच्चतीति तत्रापि नेरुत्तिकविधानेन पदसिद्धि वेदितव्या यथालयं वा अतिक्कमित्या अत्र अत्र इच्छानं अत्रिच्छता, सा एवं कारस्स तकारे कत्वा अतिच्छताति बुत्ता विभ. अड्ड मू. टी. 218-219; - टि. म. भा. आ. भा. के ध्वनिपरिवर्तन की अनिश्चित प्रवृत्तियों के आलोक में यह निश्चय करना कठिन है कि सं. के अतीच्छ, अतृच्छ अथवा अतृप्स में से किसका समीपतम पालिरूपान्तरण अत्रिच्छ है; - हत त्रि.. तू. तत्पु, स.. इच्छा की अधिकता द्वारा पीड़ित तं अनिच्छताहतं रोदमानं दिस्वा... जा. अड. 3.194,
...
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पाठा. अतिच्छता. अत्रिच्छा त्रि. [अतीच्छा, अतृप्सा, अत्यृच्छा?], अत्यधिक लोभ, प्रबल इच्छा, लालच, तृष्णा अत्रिच्छं अतिलोभेन, जा. अट्ट. 2.193 तुल. अतिच्छा निग्गह पु. लोभ अथवा प्रबल इच्छा का नियंत्रण अत्रिच्छानिग्गहाय उपोसथं समादियित्वा एकमन्तं निपज्जि जा. अड. 4. 292 च्छाभिभूतत्र अत्यधिक इच्छाओं द्वारा पीड़ित अनिच्छाभिभूतो मल्लरद्वे पच्चन्तगामं गतो, तदे.. अथ निपा. अ., [अथ] सातत्य निरन्तरता, संयोग, अधिकार, निश्चय, बिलगाव एवं प्रश्न आदि का सूचक निपा., गाथाओं में केवल पादपूरणार्थ अथोथानन्तरारम्भ हे पदपूरणे, अभि. प. 1190 अधाति अविच्छेदत्थे खु. पा. अड. 91; अथ इति निपातो अञ्ञाधिकारवचनारम्भे, सु० नि. अ. 1.110; क. और इससे आगे अथदसासिं सम्बुद्ध सु. नि. 1151; ख. और उससे पूर्व अप्पवारितो व सङ्घो भविस्सति, अथायं रत्ति विभायिस्सतीति, महाव. 238; अपरियादिन्नाव... अस्सु, अब... परियादानं गच्छेय्य. स. नि. 1 ( 2 ). 161; ग. अन्य निपा के साथ, और इसके आगे, और इसके बाद अथ परतो महासमुद्द गम्भीरं वित्थतं मि. प॰ 114; घ. तब, ठीक तभी, परिणामस्वरूप, फलस्वरूप, तदनन्तर अथस्स नवहि सोतेहि सु. नि. 199 अथ तत्तअयोगुळसन्निभं सु. नि. 672, ख. प्रश्नपूरक उपवाक्यों में, तब भला, अब यदि, तब कौन, तब क्यों, तब क्या अथ को चरहि जानाति सु. नि. 996: अथ त्वं गज्जसि, जा. अट्ठ. 4.391; अथ त्वन्ति ननु त्वं ... तदे;
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अथुस
अथ
च. अथ खो तेन खो पन समयेन के बाद में प्रयुक्त होने पर, ठीक तभी उसी क्षण में, तदनन्तर, उसके बाद, तब तेन समयेन बुद्धो भगवा उरुवेलायं विहरति खो भगवा बोधिरुक्खमूले सत्ताहं एकपल्लङ्केन निसीदि, महाव. 1; छ. क्रि.वि. के रूप में किन्तु परन्तु इससे विपरीत, कम से कम, तो भी होतु, ... सेलेहि पासाणो सम्पटिच्छितो, अथ पपटिकायपि अपचिति कातब्बा ..... मि प. 175; ज. वियोजक निपात के रूप में अथवा कल्याणमध पापकं जा. अड्ड. 1.35: देवतं अथ मानुसं अप. 1.55 झ. वादहेतुसूचक क्योंकि चूंकि, यस्मात् अथ पापजनं कोधो, पब्बतोवाभिमद्दति, स. नि. 1(1). 277. अथकन नपुं. थकन का निषे, अनाच्छादान, आच्छादित करके न रखना, छिपाकर न रखना, अनियन्त्रण, असुरक्षा
या अगुत्ति या अगोपना यो अनारक्खो यो असंवरो, अथकन अधिदहनन्ति अत्यो ध. स. अड्ड. 421. अथब्बणवेद / आधब्बणवेद पु. कर्म. स. [ अथर्ववेद, अथर्वन्वेद], चतुर्थ वेद, अथर्व वेद - आथब्बणवेदं चतुत्थं कत्वा, दी. नि. अड. 1.200 ... ब्राह्मणमाणवकानं इरुवेदं यजुवेदं सामवेद अथव्वणवेदं लक्खणं... मि. ए. 173-74. अथवा अ. विकल्पार्थसूचक निपा. [ अथवा ]. अथवा, या पिछले कथन में संशोधन का सूचक अथवास्स अगारानि अग्गि डहति पावको ध. प. 140 अथवा समाधिलाभेन ध. प. 271 वापि अ निपा. [ अथवापि] अथवा भी नीचेय्यो अथवापि सरिक्खो सु. नि. 924 पिता च माता अथवापि जातका, पे. व. 98.
अथावर त्रि, थावर का निषे [अस्थावर], अस्थिर, चलायमान, कम्पनशील, हिलता डुलता, वह जो सुदृढ़ नहीं है पुथुज्जनस्स हि सद्धा अधावरा... अ. नि. अड्ड. 2.130; अयं अत्तभावो नाम भिज्जनकट्ठेन, अथावरद्वेन कुलालभाजनसदिसो ध. प. अ. 1.180. अथिर त्रि. थिर का निषे [ अस्थिर ], परिवर्तनशील, अविश्वसनीय, अस्थिर अथेतन्ति अथिरं अप्पतिद्वितवचनं, जा. अट्ठ. 4.52; - त्त नपुं., अथिर का भाव., [अस्थिरत्व], अस्थिरता, परिवर्तनशीलता; चित त्रि. ब. स. [ अस्थिरचित्त], अस्थिर अथवा चञ्चल मन वाला - हलिद्दिरागन्ति हलिद्दिरागसदिसं अथिरचित्तं, जा. अट्ठ. 3.127. अथुस त्रि थुस का निषे, ब. स. [ अतुष] भूसीरहित कणरहित अनुपाको सालि पातुरहोसि अकणो अणुसो, सुद्धो, दी. नि. 3.65.
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अथेन
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अदन्त
अथेन त्रि. थेन का निषे. [अस्तेन], वह, जो चोर नहीं है, चोरी न करने वाला - अथेनेन सुचिभूत्तेन अत्तना विहरति, दी. नि. 1.4; थेनेतीति थेनो, न थेनेन अथेनेन, दी. नि. अट्ठ. 1.67; - त्त नपुं., अथेन का भाव. [अस्तेनत्त्व], अचौर्य, चोरी के कर्म से विरति की स्थिति- अथेनत्तायेव सुचिभूतेन. म. नि. अट्ठ. (मू. प.) 1(2).107; दी. नि. अट्ठ. 1.67; - नी अथेन का स्त्री., चोरी के कर्म से युक्त नारी, चोरी न करने वाली स्त्री - ... तत्थ च भविस्साम ... अथेनी असोण्डी अविनासिकायोति, अ. नि. 2(1).33; अथेनीति अथेनियो अचोरियो, अ. नि. अट्ठ. 3.19. अथो अ., निपा. [अथ], अब, तब, इसके बाद, और, इसी से, इसी से तो, इसी भाति; क. पदपूरणार्थक - स्वागत ते महाराज, अथो ते अदुरागतं, जा. अट्ठ. 4.492; ख. अवधारण या निश्चय - अथो गहट्ठा घरमावसन्ता, सु.. नि.43; अथो इट्टे अनिटे च, सु. नि. 155; अथो जातिक्खयं पत्तो, ध. प. 423; थेरीगा. 64; अथोति निपातमत्तं, अवधारणत्थे वा पे. व. अट्ठ. 218, तुल. अथ, व्यु. एवं अर्थनिर्धारणार्थ, द्रष्ट, अभि. प. 1190, रू. सि. 89; - पि अ, संयोजक तथा निरन्तरता का सूचक, निपा., [अथच], और इसके बाद भी, फिर भी - अथोपि खादितानि पुत्तमंसानि । थेरीगा. 221; अथोपि त्वं चित्त न मय्ह तुस्ससि, थेरगा. 1112; ग. कच्चि ... कच्चि (क्या-क्या) प्रश्न के उत्तर के रूप में दुहराते हुए प्रयोग - अथोपि मे अमच्चेसु. दोसो कोचि न विज्जति, अथोपि ते ममत्थेस नावकवन्ति
जीवितं, जा. अट्ट, 5.344. अद त्रि., [अद], खाने वाला, केवल स. उ. प. के रूप में ही प्रयुक्त, किट्ठा., कुणपा., गूथा. के अन्त. द्रष्ट.; - अदी त्रि., खाने वाला, केवल स. उ. प. के रूप में ही प्रयुक्त, पुरिसा., रसा., वन्ता., विघासा., विसा. के अन्त. द्रष्ट.. अदक्खिणेय्यता स्त्री., अदक्खिनेय्य का भाव. [अदक्षिणेयता]. दक्षिणा प्राप्त होने के लिए अयोग्य होने की स्थिति, अनुत्कृष्टता, अपात्रता - तंपन न अत्तनो पतिमानतस्स अविपाकताय न अदक्खिणेय्यताय .... मि. प. 226. अदट्ठ/अदट्ठा दिस का पू. का. कृ. का निषे., [अदृष्ट्वा], बिना देखे हुए, न देखकर - नादट्ठा परतो दोसं जा. अट्ठ. 4.170; नादट्ठाति न अदिस्वा, जा. अट्ठ. 4.171; तुल. अदिट्ठा. अदट्ठहि/अदड्डहि ।दह का अनद्य., प्र. पु.. ए. व., जला दिया, दग्ध कर दिया - किच्छाकतं पण्णकुटिं अदट्टहि जा. अट्ठ. 2.35; पाठा. अदरिह; तुल. अलद्ध, अलत्थ.
अदड्ड दह का भू. क. कृ. का निषे. [अदग्ध], नहीं जलाया हुआ -- अदड्डे दवसी , निस्सग्गियं पाचित्तियं, पारा. 376%;
अदवा पि वुच्चति जाता पथवी, पाचि. 50. अदण्ड त्रि., दण्ड का निषे., ब. स. [अदण्ड], क. बिना दण्ड वाला, हिंसक मनोवृत्ति से रहित, अहिंसक, दयालु क्षीणास्रव अर्हत्, वैरभाव से रहित - ... अवेरा अदण्डा असपत्ता अव्यापज्जा .., दी. नि. 2.203; अदण्डाति आवुधदण्डधनुदण्डविमुत्ता, दी. नि. अट्ठ. 2.278; अदण्डेसूति कायदण्डादिरहितेसु खीणासवेसु, ध. प. अट्ठ. 2.40; क्रि. वि. रूप में तृ. वि. - अदण्डेन असत्थेन, धम्मेनमनुसासति, स. नि. 1008; दण्डेनेके दमयन्ति, थेरगा. 878; - डारह त्रि., दण्डारह का निषे. [अदण्डाह], दण्ड नहीं पाने योग्य, अदण्डनीय - यत्थ परो ... अदण्डारहो ... होति, ध. स. अट्ठ. 143; - डावचर त्रि., दण्डावचर का निषे. [अदण्डावचर], क. शा. अ. दण्ड की पकड़ अथवा पहुंच के बाहर, बलप्रयोग का अविषय, दण्ड न देने योग्य - ता च खो अदण्डावचरा, असत्थावचरा, स. नि. 1(1).259; अदण्डावचरं मग्ग, जा. अट्ठ. 4.322; ख. ला. अ. अहिंसक व्यक्तियों द्वारा ग्रहण किया जाने वाला (अष्टाङ्गिक मार्ग)अदण्डावचरन्ति अदण्डेहि निक्खित्तदण्डहत्थेहि अवचरितब्बं ... अहङ्गिक मग्गं, स. नि. अट्ठ. 4.322; - ण्डिय त्रि., दण्डिय का निषे. [अदण्ड्य], अदण्डनीय, दण्ड नहीं देने योग्य - अदण्डियं दण्डयति ..., जा. अट्ठ. 4.170;
अदण्डियन्ति यो अदण्डपणेतब्बं ..., तदे.. अदति/अदेति ।अद का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अत्ति], खाता है, अनुभव करता है - सुखदुक्खं अदति अनुभवतीति अत्ता ति च .... सद्द. 2.360; - अदन नपुं.. Vअद से व्यु. [अदन], क. भोजन, खाना, भक्षण - पहूतं चादनं तत्थ, जा. अट्ठ. 5.370; ... चादनन्ति पहू तञ्च पदुमपुप्फसालिआदिकं अदनं तदे.; ख. आदानानि का अप., इन्द्रियों के विषय - अदनानि उपासतो, जा. अट्ठ. 5.367; अदनानीति आदानानि, गोचरग्गहणट्ठानानीति, ..., तदे.. अदनेसना स्त्री., अदन + एसना, [अदनैषणा], भोजन की
खोज - चरतो अदनेसनं, जा. अट्ट, 5.367. अदन्त त्रि. दन्त का निषे. [अदान्त], असंयमी, अनियन्त्रित, वह, जिस का नियन्त्रण नहीं किया गया है - अदन्तानं दमेतार थेरीगा. 135: अदन्तं को दमिस्सति, जा. अट्ठ. 7.108; - दमक त्रि., अनियन्त्रित या उच्छृखल को
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अदन्ध
150
अदस्सावी
नियन्त्रित करने वाला - एत्थ सो वसते बुद्धो, अदन्तदमको यत्थ नत्थि आयतिं जातिजरामरणं असोक तं, भिक्खवे, मुनि, अप. 1.353; - दमन त्रि./नपुं, उच्छृखल का अदरं, अनुपायासन्ति वदामि, स. नि. 1(2).90. नियन्त्रण या नियन्त्रक - अदन्तदमनं तादि, महावादिं अदलिद्द/अदळिद्द त्रि., दलिद्द का निषे. [अदरिद्र], वह, महामति, अप. 1.78; - वग्ग पु., अ. नि. के एककनिपात जो दरिद्र नहीं है, संघ के प्रति श्रद्धावान, सरल दृष्टि वाला का चौथा वर्ग, अ. नि. 1.9-10.
- सट्टे पसादो यस्सत्थि, उजुभूतञ्च दस्सनं अदलिद्दोति तं अदन्ध त्रि., दन्ध का निषे. [अतन्द्र?], अशिथिल, आलस्यरहित आहे, अमोघं तस्स जीवितं. स. नि. 1(1).268. एवं तन्द्रा-रहित, तीव्र - लहुञ्च वताति अदन्धञ्च वत अदळहदिहि त्रि., ब. स. [अदृढ़दृष्टि], दृढ़ ग्राह से मुक्त ..., जा. अट्ठ. 3.388, द्रष्ट. दन्ध; - जातिक त्रि.. दृष्टिवाला, अनुद्धत, हठ न करने वाला, अड़ियल दृष्टिकोण अशिथिल स्वभाववाला, आलसी प्रकृति से रहित - से मुक्त, सरलता से समझाने बुझाने योग्य - परो हि पुग्गलो अदन्धजातिको विशुजातिको सततमिध, सद्द. 1.142; - ता अक्कोधनो अनुपनाही अदळहदिट्ठी ..., म. नि. 3.27. स्त्री. भाव., निरालस्यता, विज्ञता, शरीर एवं मन का हलकापन अदसक/अदस त्रि., ब. स., [अदशाक], वस्त्र के छोर पर - कायचित्तानं अदन्धतापच्चुपट्टाना .... ध. स. अट्ठ. 175; लगी गोट, झालर अथवा मगजी से रहित बैठने के लिए - नता स्त्री., दन्धनता का निषे. भाव., निरालस्यता, प्रयुक्त चटाई, किनारे पर लगे झालर रहित चटाई - विज्ञता, तीव्रता, पांच स्कन्धों की लघुता या स्कन्धों में हलकापन, कप्पति अदसकं निसीदनं, चूळव. 463. भारीपन का अभाव - या ... वेदनाक्खन्धस्स ... लहुता ... अदसगव नपुं., दसगव का निषे. [अदशगु], दस बैलों से अदन्धनता ... अयं... कायलहुता होति, ध. स. मा. 42, पृ. कम बैलों वाला झुण्ड - न दसगवं अदसगवं, क. व्या. 328. 28; अदन्धनताति गरुभावपटिक्खेपवचनमेतं, अभारियताति अदस्सन नपुं.. दस्सन का निषे. [अदर्शन]. 1. क. नहीं अत्थो, ध. स. अट्ठ. 194; - धायना स्त्री., दन्धायना का देखना, दिखलाई न पड़ना - अदस्सनं आनन्दाति, दी. निषे०, दक्षता, निपुणता, मन्दता का अभाव, तीव्रता - अथापरेन नि. 2.106; अदस्सनेन बालानं, ध, प. 206; अदस्सनं गतो समयेन ... अदन्धायना भवति, मि. प. 59, द्रष्ट., विप. मन्तबलेन, मि. प. 152; 1. ख. अज्ञान, अन्धत्व, मिथ्यादन्धायना.
दर्शन, मोह, मूढ़ता - अरियसच्चानं यथाभूतं अदस्सना, दी. अदब्ब नपुं., दब्ब का निषे. [अद्रव्य], अद्रव्य, वह, जो द्रव्य नि. 2.71; 2. क. विनाश, अन्त - विनासो तु अदस्सनं, अथवा वस्तुभूत नहीं है, अवस्तु - केचि अदब्बभूतस्स अभि. प. 770; ... निष्फत्तियं चेवावसानस्मि अदस्सने, अभि. भावस्सेकत्थितो ब्रवं, सद्द. 1.9; - वाचकत्त त्रि. प. 912; 2 ख. किसी की दृष्टि से ओझल हो जाना, ष. [अद्रव्यवाचकत्व], अवस्तुभूत को कहने वाला - यथा हि वि. में अन्त होने वाले पद के साथ - अदस्सनं वीसति इच्चादीनं संख्यासदानं सरूपतो अदब्बवाचकत्तेपि मच्चुराजस्स गच्छे, ध. प. 463; अदस्सनं भोजपुत्तान गच्छ, ...., सद्द. 1.300; अदब्बवाचकत्ता विसेसितब्बपदान, सद्द. जा. अट्ठ. 5.160; - काम त्रि., ब. स. [अदर्शन-काम], 1.306; - वुत्ति त्रि., ब. स. [अद्रव्यवृत्ति], भावात्मक धर्म देखने की इच्छा न रखने वाला, समझने या ज्ञान प्राप्त से असम्बद्ध, वस्तुभूत धर्म से नहीं जुड़ा हुआ - अदब्बत्तिनो करने की इच्छा से रहित - रूपानं अदस्सनकामो अस्स, म. भावस्स, सद्द. 2.593.
नि. 1.170; - परियोसान त्रि., [अदर्शन-पर्यवसान], अदर्शन अदमित त्रि., दमित का निषे० [अदमायित, अदन्त]. द्वारा समाप्ति करने वाला, अदृश्य होकर अन्त करने वाला, अनियंत्रित, वश में न किया हुआ - तत्थ वसाति अन्त में अदृश्य हो जाने वाला - चोरा पन ... अदमितवुड्डवच्छका, सु. नि. अट्ठ. 1.32, द्रष्ट. दमेति. अदस्सनपरियोसाना, अ. नि. 3.76. अदयापन्न त्रि., दयापन्न का निषे. [अदयापन्न, निर्दयी, अदस्सनीय त्रि., दस्सनीय का निषे. [अदर्शनीय], न दयारहित, क्रूर, हिंसालु - ... अदयापन्नो पाणभूतेसु. म. नि. देखने योग्य, न दिखलाने योग्य - यथा ... भिसक्कस्स 1.359; अङ्गुलिमालो नाम होति लदो ... अदयापन्नो पाणभूतेस. ___ अदस्सनीयं गुरहं दस्सेति, मि. प. 166. म. नि. 2.308.
अदस्सावी त्रि., अज्ञानी, न देखने वाला, उपेक्षा करने वाला, अदर त्रि., दर का निषे. [अदर, दृणाति दरयतिवा इति दरः, धर्म में उचित समझ न रखने वाला, सत्पुरुषों अथवा अर्हतों न दरः, यस्मिन् सः], भयरहित, निडर, निर्भीक, अशोक - की उपेक्षा करने वाला, उनकी ओर दृष्टि न डालने वाला,
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अदस्सी
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अदिट्ठ/आद्दिट्ट नासमझ - अरियानं अदरसावी, म. नि. 1.1; 3.66; ... - दस दानानि लोके अदानसम्मतानि, मि. प. 259; - अनिच्चादिलक्खणं अपस्सन्तो ... अरियभावस्स च अदिद्वत्ता सील त्रि., ब. स. [अदानशील], स्वभाव से ही अनुदार, ... अदस्सावी ति..., म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).25; ... यो कृपण अथवा संग्रह करने के स्वभाव वाला, त्याग की तेसं अरियानं अदस्सनसीलो, न च दस्सने साधुकारी, सो मनोवृत्ति से रहित - अदानसीला न च देन्ति कस्सचि, सु. अरियानं अदस्सावीति वेदितब्बो, ध. स. अट्ठ. 380, द्रष्ट. नि. 247; अदानसीला न च सद्दहन्ति, पे. व. 248; अदानसीलो दस्सावी.
मच्छरी तिणग्गेन तेलविन्दुम्पि अदाता अहोसि, जा. अट्ठ.5. अदस्सी त्रि., [अदर्शी], क. नहीं देखने वाला, न समझने 380; अदानसीला मच्छरिनी हुत्वा, पे. व. अट्ठ. 58; - वाला, गहरा ज्ञान न रखने वाला - यथाभूतं अदस्सिनो, सीलता स्त्री॰, भाव. [अदानशीलता], कृपणता - ताय च थेरगा. 662; ख. उपेक्षा करने वाला - इधलोकदस्सी पन अदानसीलताय याचितापि ..., सु. नि. अट्ठ. 1.264. परलोकमदस्सी , जा. अट्ट, 6.185.
अदायक त्रि., दायक का निषे. [अदायक], अनुदार, अदातु पु., दातु का निषे. [अदात]. दान न करने वाला, अदानशील, कृपण, दान न देने वाला - ... एको दायको कृपण, कंजूस - अदाता गेधितमनो आमिसस्मि, पे. व. 247; एको अदायको, अ. नि. 2(1).28; ... अदायकोति एको दीनोति निहीनचित्तो अदानज्झासयो, तेनाह अदाता ति, पे. अत्तना लद्धं परस्स अदत्वा परिभुञ्जनको ..., अ. नि. व. अट्ठ, 94; - काम त्रि. [अदातृकाम], दूसरों को कुछ अट्ठ. 3.16; मच्छरिनोति अजेसं अदायका, जा. अट्ठ. 6. भी न देने की इच्छा करने वाला - ... अप्पसन्न अदातुकामं 129; - यिका स्त्री., कृपण या अनुदार नारी - अदायिका ब्राह्मणं ... दातुकामं कत्वा, सु. नि. अट्ठ. 1.120; - कामता मच्छरिनी कदरिया, पे. व 56; - वंस पु., दान न देने वालों स्त्री., भाव., कृपणता भरी मनोदशा - ... अत्तनो सन्तकं या कृपणों का वंश - अदायकवंसो एस भविस्सती ति, जा. अदातुकामताय .... ध. स. अट्ठ. 144; नेव मे अदातुकामतं अट्ठ. 3.103. पस्सेय्या ति..., जा. अट्ठ. 3.47.
अदायाद त्रि., दायाद का निषे., ब. स. [अदायाद], वह, अदान नपुं., दान का निषे. [अदान], त्याग करने अथवा जिसका कोई उत्तराधिकारी नहीं है, निःसन्तान - अनपच्चा दान देने की मनोदशा का अभाव, नहीं देना, उदारता का अदायादा तालावत्थू भवन्ति ते, स. नि. 1(1).86; इदानि अभाव, कृपणभाव, कृपणता - अदानमतिदानञ्च, नप्पसंसन्ति दायादानं अभावतो अदायादो, जा. अट्ठ. 3.21. पण्डिता, पे. व. 301; ... तथापि यदिदं अदानञ्च असीलञ्च अदारभरण त्रि., ब. स., वह, जिसे पत्नी का भरण-पोषण अरियेहि अकत्तब्बत्ता .... जा. अट्ठ. 1.228, द्रष्ट., विप नहीं करना है, अविवाहित व्यक्ति - कनिट्ठो अदारभरणो भात दान; - नज्झासय त्रि., ब. स. [अदानाध्याशय], दान सन्तिकेयेव वसि, जा. अट्ठ.5.279. न देने, त्याग न करने, सभी कुछ अपने पास बनाये रखने अदास पु., दास का निषे॰ [अदास], वह, जो अब किसी का की मानसिक वृत्ति वाला, कृपणता एवं आसक्ति भरी मनोदशा दास नहीं है, स्वतन्त्र, अपने अधीन, पराधीनता से मुक्त - से युक्त प्राणी- दीनोति निहीनचित्तो अदानज्झासयो, पे. अदासो तु भुजिस्सोथ ..., अभि. प. 516; - सी स्त्री.. व. अट्ठ. 94; द्रष्ट. अज्झासय; - नाधिमुत्त त्रि., ब. स., [अदासी], दासता से मुक्त नारी - सचे, जे, सच्चं भणसि, कृपण अधिमुक्ति अथवा मानसिक अभिप्राय वाला, दान न अदासिं तं करोमि. म. नि. 2.260. देने अथवा त्याग न करने की मनोवृत्ति वाला, अदानशील अदिट्ठ/आद्दिट्ट त्रि., दिट्ठ का निषे., [अदृष्ट], वह, जो - अदानसीलाति अदानपकतिका अदानाधिमुत्ता .... सु. नि. देखा नहीं गया है, अज्ञात, अनिर्दिष्ट - न तुव्ह अदिट्ठ अट्ठ. 1.264; - पकतिक त्रि., ब. स. [अदानप्रकृतिक], असुतं अमुतं. सु. नि. 1128; अदिट्ठ दक्खितब्ब, महानि. कृपणता अथवा अत्यधिक आसक्ति से भरे हुए स्वभाव वाला, 269; अदिटुं अस्सुतं अपरिसङ्कितं, महाव. 314; - जोतन तृष्णाल, जोड़ने बटोरने वाला, स्वभाव से ही कृपण - त्रि., [अदृष्टद्योतन], शा. अ. अज्ञात का प्रकाशन करने अदानसीलाति अदानपकतिका, अदानाधिमुत्ता..., सु. नि. वाला, जो ज्ञात नहीं है, उसका स्पष्टीकरण करने वाला; अट्ठ. 1.264; - सम्मत त्रि., स. [अदानसम्मत], देय वस्तु ला. अ. तीन अथवा पांच प्रकार की पृच्छाओं (प्रश्नों) में से के रूप में अननुमोदित, ऐसी वस्तु का दान, जो बुद्ध द्वारा एक - तिस्सो पुच्छा-अदिट्ठजोतना पुच्छा, दिट्ठसंसन्दना अनुमोदित नहीं है, दान देने हेतु अननुमोदित दस वस्तुएं पुच्छा, विमतिच्छेदना पुच्छा, महानि. 250; ... एत्थ अदिट्ठ
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अदिट्ठ/आद्दिट्ठ 152
अदीन जोतनादिवसेन पुच्छा विभजिता, सु. नि. अट्ठ. 2.254; तत्थ अहोसि, जा. अट्ठ. 1.360; - सहायक पु., तत्पु. स. पुच्छा नाम अदिट्ठजोतना पुच्छा..., दी. नि. अट्ठ. 1.64; - [अदृष्टसहायक, उपरिवत्-.. भद्दवतियसेटि नाम घोसकसेटिनो टि. तीन प्रकार की पृच्छा (प्रश्न) हैं:- 1. अदृष्टद्योतन । अदिट्ठपुब्बसहायको अहोसि,ध. प. अट्ठ. 1.109. प्रश्न, 2. दृष्टसंसन्दन प्रश्न, 3. विमतिच्छेदन प्रश्न, जिस अदिट्ठि स्त्री., दिट्ठि का निषे. [अदृष्टि], सम्यक्-दृष्टि का धर्म की प्रकृति का लक्षण अज्ञात, अदृष्ट एवं अस्पष्ट आदि अभाव - अदिहिया अस्सुतिया अजाणा, सु. नि. 845. है, उसके ज्ञान के लिए पूछा गया प्रश्न अदिट्ठजोतना कहा अदिति स्त्री., [अदिति], देवताओं की माता, जिनके पुत्र गया है, द्रष्ट. दी. नि. अट्ठ. 1.64; - त नपुं., भाव. आदित्य अथवा सूर्य भी हैं - देवमाता पनादिति, अभि. प. [अदृष्टत्व], अज्ञात अथवा अदृष्ट होने की अवस्था - 83, आदिच्चोति अदितिया पुत्तो..., दी. नि. अट्ठ. 3.132. अदिट्टत्ता, भिक्खवे, चतुन्न अरियसच्चानं, स. नि. 3.5163B अदिन्न ।दा के भू. क. कृ. का निषे. [अदत्त], नहीं दिया यथा ते भातरो ... किसुकस्स अदिट्टत्ता कहिंसु .... जा. हुआ, बिना अनुमोदन के ही ले लिया गया, चोरी-छिपे अट्ठ. 2.222; - न्तराय पु., तत्पु. कर्म. स. [अदृष्टान्तराय], ग्रहण किया गया - यो पन भिक्ख अदिन्नं थेय्यसवातं अनिर्दिष्ट या असंकेतित व्यक्ति के दान देने में उत्पन्न । आदियेय्य, पारा. 51; महाव. 123; ... थेय्या अदिन्नमादेति, विघ्न, अनिर्दिष्ट या अदृष्ट विघ्न-बाधा - चत्तारो खो सु. नि. 119; लोके अदिन्नमादीयति, ध. प. 246; - पुब्ब महाराज, अन्तराया अदिट्ठन्तरायो.... मि. प. 155; - टि. त्रि., [अदत्तपूर्व], वह जिसे पहले नहीं दिया गया है - अन्तराय चार प्रकार के हैं 1. अदिट्ट (अदृष्ट) अन्तराय, 2. अज्जाहं अदिन्नपुब्बं दानं दस्सामि, जा. अट्ठ. 3.46; - किसी को ध्यान में रखकर तैयार किये भोजन देने में विघ्न, पुब्बक पु., एक ब्राह्मण का नाम जिसने कभी भी किसी को 3. जो भोजन अप्रतिगृहीत है, उसकी प्राप्ति में विघ्न तथा कुछ भी नहीं दिया - सावत्थियं किर अदिन्नपुब्बको नाम 4. जो कुछ परिभोग है उसमें अन्तराय; द्रष्ट. मि. प. 155; ब्राह्मणो अहोसि. ध. प. अट्ठ. 1.16; - पुब्बककुल नपुं.. - पुब्ब त्रि., ब. स. [अदृष्टपूर्व], वह, जिसे पहले नहीं देखा कभी भी दान न करने वाला कुल - अदिन्नपुब्बककुले गया है, पूर्वकाल में न देखा गया - येहि ... भिक्खूहि देवा ___... होन्ति, सु. नि. अट्ठ. 1.264. तावतिंसा अदिठ्ठपुब्बा .... महाव. 308; ये ते चक्खुविधेय्या अदिन्नादान नपुं. तत्पु. स. अदिन्न + आदान [अदत्तादान], रूपा अदिट्ठा अदिठ्ठपुब्बा .... स. नि. 2(2).78; ... तस्सा न दी हुई वस्तु को ले लेना, चोरी, डकैती, घूसखोरी आदि वेळुवनं अदिठ्ठपुब्बं ... विय च अहोसि, ध, प. अट्ठ. 2.312; जिनमें स्वामी के अनुमोदन एवं सहमति के बिना उसके - वादी त्रि., [अदृष्टवादी], वस्तुओं या धर्मों को अज्ञात स्वत्व को ले लिया जाता है - अदिन्नादानं भिक्खवे बतलाने वाला, सब कुछ अज्ञात है, इस विचार का प्रतिपादक, आसेवितं ..., अ. नि. 3(1),78; अदिन्नादानं पहातब्बं ..., अदृष्ट तथ्यों, भाग्य या ईश्वर का प्रतिपादक - अदिढे म. नि. 2.26; अदिन्नादानं पहाय अदिन्नादाना पटिविरतो अदिट्ठवादी होति.... अ. नि. 1(2).259; - वादिता स्त्री., होति, दी. नि. 1.4; - टि. बुद्ध द्वारा प्रज्ञप्त पांच शिक्षापदों भाव., अदृष्टवादी मनोवृत्ति - दिढे अदिट्ठवादिता ..., अ. अथवा पञ्चसीलों में 'अदिन्नादान से पटिविरति' दूसरा नि. 3(1).131; - टि. यह आठ प्रकार के अनार्य-व्यवहारों शील कहा गया है. में से एक है, द्रष्ट. अनरियवोहार; - सच्च त्रि., ब. स. अदिन्नादायी त्रि., दिन्नादायी का निषे. [बौ. सं. [अदृष्टसत्य], सत्य को न देखने वाला, वह, जिसने सत्य अदत्तादायी], जो कुछ इच्छा और खुशी के साथ न दिया का ज्ञान नहीं पाया है - अदिवसच्चस्स पन गया हो उसे चोरी, लूट, बेईमानी आदि से ले लेने वाला पटिसन्धि नाम भारियाति .... ध. प. अट्ठ. 2.18; ... एतं - अहं ... अदिन्नादायी अस्सं .... म. नि. 2.26; ... अदिट्ठसच्चानं तासनीयवानं. मि. प. 149; - सहाय पु., अदिन्नादायी होति अब्रह्मचारी होति, महाव. 108.8; इध तत्पु. स. [अदृष्टसहाय], अपरिचित सहायक, जिसे पहले .... अदिन्नादायिनो, मि. प. 268. नहीं देखा है ऐसे व्यक्ति का साथी, अज्ञात, अपरिचित का अदीन त्रि., दीन का निषे. [अदीन]. वह जो दीन नहीं हैं साथी, अपरिचितों को साथ देने वाला - ... अवन्तिया अथवा जो पीड़ित अथवा निराश नहीं है - भद्दो आजओ इसिदत्तो नाम कुलपुत्तो अम्हाकं अदिट्ठसहायो ..., स. नि. .... अदीनो वहते धुरं थेरगा. 173; - मनस त्रि., दैन्यरहित 2(2).280; तस्स किरेको पच्चन्तवासिको सेट्ठि अदिवसहायो मन वाला - अदीनमनसो नरो, थेरगा. 243; अदीनमानसो,
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अदुं/अदु
153
अदूभ/अदुब्म/अम अव्यापन्नचेतसो, स. नि. 3.90; - सत्त त्रि., ब. स. रहित भिक्षु के अपराध, हलके-फुलके अपराध - अदुदुल्लं [अदीनसत्त्व], मनस्वी, उदात्त चित्त वाला - ... अलीनसत्ते आपत्तिं दुदुल्ला आपत्तीति दीपेति, महाव. 476; चूळव. 345; मम भातुके.... जा. अट्ठ.5.27, पाठा. अलीनसत्त; - सत्तु अ. नि. 1(1).27; - टि. थुल्लच्चय, पाचित्तिय, दुक्कट, पु.. एक राजकुमार का नाम - तत्थ अलीनसत्तुन्ति एवंनामकं पाटिदेसनीय तथा दुब्भासित भिक्षुओं की इन पांच लघु कुमार जा. अट्ठ. 5.24.
आपत्तियों या अनुचित आचरणों को अदुवल्ल-आपत्ति कहा अदुं/अदु सङ्केतवाचक सर्व. अदु का नपुं., प्र. पु., ए. व. गया है, इन्हें लहुका-आपत्ति अथवा देसनागामिनी आपत्ति
वह - अदु चस्स होति तपस्सिताय, दी. नि. 3.35; अदुहि भी कहा गया है; - ल्लापत्तिसञी त्रि., अपराध को गुरु .... अल्लं, कटुं..., म. नि. 1.309; दुस्स अमुस्साति अत्थो, गम्भीर प्रकृति का न मानने वाला - दुवल्लाय आपत्तिया जा. अट्ठ. 3.46; सद्द. 1.278.
अदुदुल्लापत्तिसञ्जी ... आरोचेति .... पाचि. 49. अदुक्ख त्रि., दुक्ख का निषे., ब. स. [अदुःख], दुख से अदुतिय त्रि., दुतिय का निषे. ब. स. [अद्वितीय], अकेला, मुक्त - अदुक्खो एसो धम्मो अनुपघातो, अनुपायासो, अपरिळाहो. वह जिसके साथ दूसरा नहीं है, असहाय, वह जिसके जैसा म. नि. 3.279-80; - मसुखा स्त्री., सुख एवं दुख दोनों कोई दूसरा नहीं है, अप्रतिम, अनुपम, बेजोड़ - एकाकियो से मुक्त उपेक्षा-वेदना, जिसमें चित्त अनुकूल अथवा प्रतिकूल, अदुतियो, थेरगा. 541; अदुतियो, असहायो, अप्पटिमो, दोनों में से किसी का संवेदन करने की स्थिति में नहीं रहता अप्पटिसमो ... अप्पटिपुग्गलो, असमो, असमसमो, द्विपदानं है, उपेक्षावेदना का सङ्केतक - तुपेक्खा च अदुक्खमसुखा अग्गो, अ. नि. 1(1).29; एकोति ... अदुतियटेन एको, सु. सिया, अभि. प. 159; न दुक्खा न सुखाति अदुक्खमसुखा, नि. अट्ठ. 1.52. ध. स. अट्ठ. 89; तिस्सो ... वेदना ... सुखावेदना, अदुप्पयुत्त त्रि०, दुप्पयुत्त का निषे॰ [अदुष्प्रयुक्त], वह जिसे दुक्खावेदना, अदुक्खमसुखा वेदना, इतिवु. 34; - मसुखं शुद्ध रूप में प्रयुक्त किया गया है, वह, जिसका दोषयुक्त नपुं.. संज्ञा के रूप में चतुर्थ रूपध्यानके चित्त की अवस्था प्रयोग नहीं हुआ है - अदुप्पयुत्तं येव दुप्पयुत्तोति, म. नि. - अदुक्खमसुखं उपेक्खासतिपारिसुद्धि, दी. नि. 1.67; अट्ठ. 3.105(रो.). अदुक्खमसुखं ..., ध. स. पृ. 50; अदुक्खमसुखं सन्तं, अदुब्बन नपुं., दुब्बन का निषे. [अद्रोहन], अप्रवञ्चना, इतिवु. 35; अदुक्खमसुखन्तिपि विजानाति, म. नि. 1.371.; - विश्वसनीयता, वफादारी, पूर्ण निष्ठा- एवं मित्तेसु अदुब्भनं टी. यहां अदुक्खं के निग्गहीत के स्थान पर सन्धि के नाम ..., जा. अट्ठ. 7.208; पाठा. अदुमन. कारण 'मदासरे' नियम के आलोक में मकार होने से उक्त अदुरागत त्रि., दुरागत का निषे., वह जिसका आगमन शब्दरूप प्रयुक्त है - मकारो पदसन्धिवसेन वुत्तो, ध. स. सुखद या मङ्गलकारक हो (अभिवादन में स्वागत के साथ अट्ठ. 89; - मसुख-वेदनीय त्रि., दुख अथवा सुख के प्रयुक्त) - स्वागतं ते. महाराज, अथो ते अदुरागतं, जा. अट्ठ. अनुभव से रहित, उपेक्षा-वृत्तियुक्त - अदुक्खमसुख वेदनियं 4.318; तस्सा ते स्वागतं भद्दे ततो ते अदुरागतं, थेरीगा. 338. फस्सं पटिच्च उप्पज्जति अदुक्खमसुखवेदना, स. नि. अदुस्सना स्त्री., [बौ. सं. अदूषणा], द्वेष-वृत्ति का अभाव, 1(2).86; अयं अदुक्खमसुखवेदनीयो फस्सो, महानि. 37. मैत्री भावना; - नाकार पु., मैत्री भावना से भरा व्यवहार - अदुट्ठ त्रि., दुट्ठ का निषे. [अदुष्ट], द्वेष या प्रतिहिंसाभाव से अदुस्सनाति अदुस्सनाकारो, ध. स. अट्ठ. 194. रहित, अदूषित, निर्मल मन वाला - अदुट्ठस्स हि यो दुब्भे, अदुस्सितत्त नपुं., दुस्सित के निषे. का भाव., द्वेषरहितता, इतिवु. 62; अदुट्ठो यो तितिक्खति, सु. नि. 628; यथा तं द्वेषभाव से मुक्त मन की अवस्था - अदुस्सितस्स भावो अदुवस्स, म. नि. 2.390; - चित्त त्रि., ब. स. [अदुष्टचित्त], अदुस्सितत्तं, ध. स. अट्ठ. 194. क्रोध अथवा द्वेष से रहित चित्त वाला - अदुट्ठचित्ता विवदन्ति, अभ/अदुब्म/अद्भ पु., दूभ का निषे. [अद्रोह], अद्रोह, चूळव. 197; एकम्पि चे पाणमदुट्ठचित्तो, अ. नि. 3(1).2; द्रोह अथवा विश्वासघात का अभाव, अहानिकरता - सपथं अट्ठचित्तोति मेत्ताबलेन सह विक्खम्भितब्यापादताय ब्यापादेन च अकंसु अद्भाय, महाव. 469; सपस्सु च मे ... अदुभाय, अदूसितचित्तो, इतिवु. अट्ठ. 81.
स. नि. 1(1).260; अदुब्भाय सपथं कारेत्वा, जा. अट्ठ. अदुवल्ल त्रि., केवल स्त्री. में अदुवल्ला रूप में प्राप्त, 1.180; - पाणि पु., कर्म. स./ब. स., दोषरहित एवं दुट्ठल्ल का निषे. [बौ. सं. अदौष्ठुल्य], गम्भीर दूषण से हितकारी हाथ, प्रवञ्चित न करने वाला मित्र, सच्चा मित्र
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154
अदूर
अदोस - अदुब्भपाणी दहते मित्तदुभिं, पे, व. 264; अदुब्भपाणीति हो - धनुं अद्वेज्झ कत्वान, जा. अट्ठ. 4.231; अद्वेज्झं अहिंसकहत्थो, पे. व. अट्ठ. 102; अदुभपाणिं दहते मित्तदुभो, कत्वानाति जियाय च सरेन च सद्धि एकमेव कत्वा, तदे.. जा. अट्ठ. 7.207; अदुब्भपाणिन्ति अदुब्भक अत्तनो । अदेति ।अद से व्यु., क्रि. रू., [अत्ति], खाता है; - सि भुञ्जनहत्थमेव दहन्तो हि मित्तदुब्भी नाम होति, जा. अट्ठ. वर्त., म. पु., ए. व. - मं छादयमानो अदेसीति, जा. अट्ठ. 7.208.
5.30; न तादिसे भूमिपती अदेसि, जा. अट्ठ. 5.490; - मि अदूर त्रि., [अदूर], पास में विद्यमान, दूर न रहने वाला, वर्त., उ. पु., ए. व. - न तादिसे भूमिपती अदेमि, जा. अट्ठ. समीपवर्ती - तत्थेव सा पोक्खरणी अदूरे, जा. अट्ठ. 5.40; 5.49; - दन्ति वर्त, प्र. पु., ब. व. - तेमे जने काकोलसंघा तुल. अविदूरे; - गत त्रि., बहुत दूर तक न गया हुआ, अदन्ति, जा. अट्ठ. 6.129; न सुनखरस ते अदेन्ति मंसं जा. बहुत कम दूरी तक ही गया हुआ, समीप गया हुआ - सद्दे अट्ठ. 6.181; - तु अनु., प्र. पु., ए. व. - एतू भवं अस्समिमं अदूरगते, मि. प. 281; - 8 त्रि, [अदूरस्थ], समीप में अदेतु, जा. अट्ठ. 5.188; - य्य विधि., प्र. पु., ए. व., खा सके, स्थित, बहुत दूर में नहीं स्थित - नाद्दसामि अदूरद्धं, अप. खा ले, खाइये - घासत्थिको कक्कटको अदेय्य, जा. अट्ठ. 2.2183; थेरीगा. अट्ठ. 148.
3.259; - य्युं विधिः, प्र. पु.. ब. व. - यं तादिसं जीवमदेय्यु अदूसक पु., दूसक का निषे. [अदोषक], निर्दोष, धकाति, जा. अट्ठ. 5.102; अदेय्युन्ति खादेय्युं तदे... निरपराध, दोष-रहित, दूषित न करने वाला - अभाचिक्खिं अदेय्य त्रि., देय्य का निषे. [अदेय], क. नहीं देने योग्य अदूसकं, अप. 1.328; अदूसकेति निद्दोसे निरपराधे, जा. वस्तु - अदेय्यो कस्सचि बुद्धो, अप. 1.334; न चापि मे अट्ठ. 3.475; अदूसके हिंसति पापधम्मो, जा. अट्ठ. 4.43. किञ्चिमदेय्यमत्थि, जा. अट्ठ. 5.388; ख. दानप्राप्ति के अदूसिका स्त्री., दोष-हित नारी - असिकं सीलसम्पन्न लिए अयोग्य, दान न पाने योग्य व्यक्ति - अदेय्येसु ददं थेरीगा. 423; अदूसिकायो हन्ति , सु. नि. 314.
दानंजा. अट्ठ. 3.9; अदेय्येसूति पुब्बे अकतूपकारेसु, तदे.. अदूसितचित्त त्रि., दूसितचित्त का निषे०, ब. स. अदेवसत्त त्रि., देवसत्त का निषे., [अदेवसत्त्व], ऐसा प्राणी [अदूषितचित्त], प्रदूषण रहित, शुद्ध एवं स्वच्छ चित्त वाला, जो देवयोनि के यक्षों, भूतों आदि द्वारा गृहीत या अभिभूत न क्लेशों से रहित एवं निष्पापचित्त वाला - अदुट्ठचित्तोति हो, वह, जिस पर यक्षों, भूतों आदि का प्रभाव न हो गया हो किलेसेहि अदूसितचित्तो हुत्वा ..., जा. अट्ठ. 2.144. - नादेवसत्तो पुरिसो थीनं सद्धातुमरहति, जा. अट्ठ. 5.442; अदूहल व्यु. अनि., पु./नपुं.. संभवतः फंसाने वाला एक नादेवसत्तोति ... देवेन अनासत्तो, अयक्खगहितको, अभूतविट्ठो उपकरण, बंसी, चोरगढ़ा, फन्दा- अदूहलादीनि विसङ्घरित्वा, पुरिसो, जा. अट्ठ. 5.443. अ. नि. अट्ठ. 1.28; अदूहलं सज्जेन्तो, पारा. अट्ठ. 2.51; अदेस पु., देस का निषे॰ [अदेश], अनुपयुक्त स्थान, अनुचित अदूहलसतं सण्ठपेत्वा ..., अ. नि. अट्ठ. 1.28; सज्जेन्तस्स क्षेत्र - सो पत्तो न अदेसे निक्खिपितब्बो, पारा. 370; अदेसे अदूहल, विन. वि. 303; सूलसतञ्च, पाससतञ्च, वत नो वुटुं, जा. अट्ठ. 6.270. अदूहलसतञ्च योजेत्वा, सा. सं. 53; - पाद पु., फंसाने अदेसनागामी त्रि., [बौ. सं. अदेशनागामी], अदेसनागामिनी वाला खूटा - अदूहलपादे च पासयट्टियं पारा. अट्ठ. 2.51; आपत्ति, केवल पाप-स्वीकरण द्वारा परिमार्जित न होने वाला - पासाण पु., शिकार को फंसाने वाला पत्थर - भिक्षु-अपराध - अदेसनागामिनिया आपत्तिया कतं होति, अदूहलपासाणा विय मिगं मारेसुं. पारा. अट्ठ. 2.63; - मञ्च चूळव. 4; अदेसनागामिनियाति पाराजिकापत्तिया वा सवादि पु., फंसाने के लिए बनाया गया मञ्च - अदूहलमञ्च सेसापत्तिया वा, चूळव. अट्ठ. 2; - टि. भिक्षु द्वारा किया ठपेत्वा .... पारा. अट्ठ. 2.51.
गया वह अपराध, जिसका प्रायश्चित पाप-स्वीकरण मात्र से अदेज्झ'/अद्वेज्झ/अभेज्झ त्रि., [अद्वैध्य/अद्वैध/अभेद्य], न हो, अदेसनागामी आपत्ति कहलाता है, सभी पाराजिक दो भागों में विभाजित न किया हुआ, दूसरे द्वारा नहीं एवं संघादिसेस, इसी के अन्त. आते है. बहलाया गया, समग्र, एकाग्र, दुविधा से रहित - समाधि अदोस' त्रि., दोस का निषे. [अदोष], क, निर्दोष, निरपराध, मनसो अभेज्झो , जा. अट्ठ. 3.6.
दोषरहित, शुद्ध, ठीक-ठाक - तस्स अरापि अवङ्का अदोसा अदेज्झ' त्रि. [अधिज्य], प्रत्यञ्चा चढ़ा हुआ धनुष, ऐसा ..., अ. नि. 1(1).135; ख. पु., दोष का अभाव, हल्का -फुल्का धनुष जिसमें बाण को प्रत्यञ्चा या डोरी पर चढ़ा दिया गया मामला - अदोसं दोसमआय किमेवं करि भातिक, म. वं.
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अदोस
155
अद्दसिंगिवेर/अल्लसिंगिवेर 25.96; - त्त नपुं., भाव. [अदोषत्व], दोष-रहित होने की अद्द/अल्ल त्रि., [आर्द्र], गीला, भीगा हुआ - दशा - अरानम्पि अवङ्कत्ता अदोसत्ता ..., अ. नि. 1(1).135. तिन्तोल्लाद्दकिलिन्नोन्ना, अभि. प. 753; अदं च पाणिं अदोस' पु., दोस का निषे. [अद्वेष], द्वेष, वैर या प्रतिहिंसा परिवज्जयस्सु. जा. अट्ठ. 7.207; अल्लं तिन्तं पाणिं मा दहि, का अभाव, मैत्री-भावना, तीन कुशलमूलों में एक - तं कि मा झापयि, जा. अट्ठ. 7.207. मञथ ... अस्थि अदोसो? अ. नि. 1(1).225; यदपि ... अद्दक नपुं.. [आर्द्रक], हरा अथवा बिना सुखाया हुआ अदोसो तदपि कुसलमूलं, अ. नि. 1(1).233; अदोसामोहेसुपि अदरख - सिङ्गिवेरं तु अद्दक, अभि. प. 459; ... एसेव नयो, ध. स अट्ठ. 172; - टि. हिंसा, चोरी आदि पाप- अल्लसिङ्गीवेरलोणजीरकादयो कोढेत्वा .... जा. अट्ठ. 1.238, कर्मों से मन के विलग रहने के तीन मूल कारण, अलोभ, समाना. अद्द, अल्ल, सिङ्गिवेर. अद्वेष एवं अमोह बतलाए गए हैं। अदोस इन्हीं तीन कुशल- अद्दन नपुं.. [अर्दन], उत्पीड़न, विध्वंस, विघ्न-बाधा, हिंसा - मूलों में एक है। यह पचीस शोभन चैतसिक धर्मों में एक अद्दनं परिप्लुता, सद्द. 2.547; अद्दनं हिंसा, सद्द. 2.554; अद्दनं है; - ज त्रि., [अद्वेषज], अद्वेष अथवा मैत्री भावना से गन्धपिंसनन्ति वदन्ति, सद्द. 2.565. उत्पन्न - यं ... अदोसपकतं कम्मं अदोसजं.... अ. नि. अद्दभाव पु.. [आर्द्रभाव], गीलापन, नमी, आर्द्रता - अद्दभावो 1(1).160; - सज्झासय त्रि., ब. स. [अद्वेषाध्याशय], तिन्तभावो, सद्द. 2.362. अद्वेष से युक्त मनोवृत्ति वाला - अदोसज्झासया च अद्दस/अद्दसा दिस अद्य., प्र. पु., ए. व., [अद्रशत्], क. बोधिसत्ता दोसे दोसदस्साविनो, विसुद्धि. 1.113; - सुस्सद उसने देखा - अद्दसा भगवा आदि, सु. नि. 360; तमद्दसा त्रि., अद्वेष से परिपूर्ण - इमे सत्ता ... अलोभुस्सदा विम्बिसारो, सु. नि. 411; अजितो अद्दस बुद्ध, सु. नि. 1022; अदोसुस्सदा अमोहुस्सदा च होन्ति, विसुद्धि. 1.101; - तापसो तेसं किरियं सब्बं अद्दस, जा. अट्ट. 3.425; - निदान त्रि., ब. स. [अद्वेषनिदान]. अद्वेषभाव से उत्पन्न सुं/संसु अद्य, प्र. पु.. ब. व. - असुभं असुभतद्दसु. अ. किया गया - यं ... कम्म ... अदोस-निदानं ..., अ. नि. नि. 1(2).60; अद्दसंसु खो कुणालस्स सकुणस्स परिचारिका 1(1),160; - निद्देस पु.. [अद्वेषनिर्देश], अद्वेष का संक्षिप्त .... जा. अट्ठ. 5.417; - इस अद्य., म. पु., ए. व. - अम्भो रूप में व्याख्यान या कथन - अदोसनिइसे अदुस्सनकवसेन परिस, न त्वं अद्दस मनुस्सेस पठमं देवदूतं पातुभूतन्ति, म. अदोसो, ध. स. अट्ठ. 194; - निस्सन्दता स्त्री., तत्पु. नि. 3.218; - स्सथ अद्य., म. पु.. ब. व. - अपि मे मातरं [अद्वेषनिष्यन्दता], अद्वेष के फल या परिणाम होने की अद्दस्सथ, अपि मे मातरं अद्दस्सथाति, म. नि. 2.3183; पाठा. अवस्था - ... अदोसनिस्सन्दताय उळारं .... वि. व. अट्ट. अद्दसथ; - सं/स्स अद्य., उ. पु., ए. व., - अगारस्मि 11; -- पकत त्रि., [अद्वेषप्रकृत], अद्वेष में उत्पन्न होने वसन्तीहं ... अद्दसं विरजं बुद्ध, थेरीगा. 108; अहसाहं पति वाला, वह जिसके मूल में अद्वेष है - यं अदोसपकतं कम्म, मतं, थेरीगा. 218; अज्झत्तसन्तिं पचिनं अदस्सं सु. नि. अ. नि. 1(1).160; - पच्चय त्रि., [अद्वेषप्रत्यय], अद्वेष 843, पाठा. अद्दसं; - साम/सम्ह अद्य., उ. पु.. ब. व. - द्वारा उत्पन्न किया गया - अदोसपच्चया अनेके कुसला अहसाम खो मयं, भो, तं भवन्तं गोतम गच्छन्तं .... म. नि. धम्मा सम्भवन्ति, अ. नि. 1(1).233; - समुदय त्रि., ब. स. 2.348; आम, अद्दसामाति, जा. अह. 3.265; पाठा. अद्दसम्ह; [अद्वेषसमुदय], वह जिसकी उत्पत्ति अद्वेष में हो - यं अद्दसम्ह तदारओ, अप. 2.121; - स्सासि अद्य.. प्र. पु., ए. ... कम्मं ... अदोससमुदयं, अ. नि. 1(1).160.
व. - अहस्सासि हरितरुक्खे, जा. अट्ठ. 5.153; - संसु अद्द' क. गति एवं याचना अर्थ वाली एक धातु - अद्द गतियं, अद्य., प्र. पु.. ब. व. - नेव खो, भिक्खवे, अद्दसंखें नेवापिको याचने च सद्द. 2.377; ख. याचना एवं यात्रा आदि अर्थों च ..., म. नि. 1.213; - सासि अद्य., म. पु., ए. व. - छ वाली एक धातु - अद्द याचनयात्रादिस्वथो, धा. म. 40; ग. जने येव अहसासीति, मि. प. 269; - सासिम्हि अद्य., उ. हिंसा अर्थ वाली एक धातु - अद्द हिंसायं, सद्द. 2.544. पु., ए. व. - पथे अद्दसासिम्हि भोजपुत्ते, जा. अट्ठ. अद्द/अद्दा दिस का. अद्य.. प्र. पु., ए. व. [अद्राक], देखा 5.159. - यो सुखं दुक्खतो अद्द ..., म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).257; अद्दसिंगिवेर/अल्लसिंगिवेर नपुं.. कर्म. स. [आश्रृङ्गवेर]. थेरगा. 986; इतिवु. 35; अद्दा राजानमङ्गति, जा. अट्ठ. गीला अदरख - ... अल्लसिङ्गीवेरलोणजीरकादयो..., जा. 7.131; तुल. अदक्खि , अद्दस, अद्दसा.
अट्ठ. 1.238.
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अद्दा
अद्दा' स्त्री० [आर्द्रा], नक्षत्रों के बीच छट्ठा नक्षत्र मिगसिरमदा च पुनब्बसु अभि. प. 58 अदा पुनब्बसु फुस्सो सद्द. 2.359.
अद्दा' √दा का अद्य。, प्र० पु०, ए. व., द्रष्ट. अद्द के अन्त.. अद्दायते / अल्लायते अद्द' का ना. धा., वर्त., प्र. पु. ए. व., आत्मने. [आर्द्रयति], गीला जैसा प्रतीत होता है, भीगा सा लगता है - अल्लायते अयं रुक्खो, जा. अट्ठ. 4.313; अल्लायतेति उदकभरितो विय अल्लो हुत्वा पञ्ञायति, जा. अट्ठ. 4.314. अद्दारिक, कर्म, स. [आर्द्रारिष्टक] अरिष्टक का ताजा बीज वण्ण त्रि. अरिष्टक के ताजे बीज जैसे काले रङ्ग या रूप बाला केसा... कालका अद्दारिद्वकवण्णा, विभ. अट्ठ. 221 विसुद्धि. 1.240; अद्दारिद्वकवण्णाति अभिनवारिट्ठफलवण्णा, विसुद्धि. महाटी 1.288; - समान त्रि ताजे अरिष्टक के फल जैसा काले रंग वालामज्झेकण्ड होति...अदारिकसमानं.... महानि. 261. अद्दावलेपन त्रि., अद्द' + अवलेप ब० स० [आर्द्रावलेपन ], नवीन या ताजे अवलेपन वाला अद्दावलेपना उपकारियो म. नि. 1.121; कूटागारं साला वा बहलमत्तिका अद्दावलेपना, स. नि. 2 ( 2 ). 187, पाठा. अद्दावलिम्पना.
"
अदि पु.. [अद्रि ]. चट्टान, पर्वत, शिलाखण्ड पब्बतो गिरि सेलोडी अभि. प. 605, अहि सिलुच्चयो चा ति गिरिषण्णतियों इमा, सद्द. 429.
अत्रि, [अदृष्ट], वह, जो देखा नहीं गया है - दिट्ठा वा येव अदिट्ठा, सु. नि. 147; यदा ते चिरवासिमाता अदिट्ठा, स.नि. 2 ( 2 ) 313; - टि. सुद्धि (सुदिह) तथा दुद्दिट्ठ (दुदि) की भांति यहां भी दकार का द्वित्वभाव है. अदित/ अति अ + इ + त [अर्दित], दुष्प्रभावित, पीड़ित, उत्पीड़ित, वह जिसे कष्ट, पीड़ा दी गई हो कामरागेन अट्टितो, थेरगा. 406; बन्धुसोकेन अद्दितो, सद्धम्मो 281; तं सुत्वा काळकण्णी अद्दिता हुत्वा, जा. अड. 3.228. अद्दियति/अट्टीयति √अद्द' का वर्त., प्र. पु. ए. व., उद्विग्न, व्यग्र, अथवा खिन्न होता है अहियामि हरायामि, थेरीगा 140; एवमयं अट्टीयती ति.... थेरीगा. अट्ठ. 246. अदिलर नपुं. एक राष्ट्र का नाम अल्लकप्परहे पन दुभिक्खे ध प अड्ड 1.98 पाठा, अल्लकप्पर. अद्दुव व्यु० संदिग्ध, घुटना न च अद्दुवेन सङ्घट्टेन्तो गच्छति, म. नि. 2346; अटुवेन अटुवन्ति जण्णुकेन जण्णुक. म. नि. अ. (म.प.) 2.274.
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KIR
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अद्ध
अद्ध' पु० / नपुं,, [अर्ध], आधा, द्रष्ट. अड्ड के अन्त अद्ध' / अड्डत्रि [आढ्य], धनी, सम्पन्न समृद्ध अड्डा दलिहा व फुसन्ति फस्स थेरगा. 783.
अब पु. [अध्वन्, पु. अध्यान नपुं.] शा. अ. स्थान एवं काल का क्षेत्र विस्तार, कालावधि समय या स्थानविषयक क्षेत्र - विस्तार - अद्धो भागे पथे काले, अभि. प. 994, मग्गो पन्थो पथो चाद्धा, अभि. प. 190; ला. अ. मार्ग अथवा भवचक्र में संसरण कर रहे प्राणियों के जीवनकाल की विशिष्ट अवधि अतीत प्रत्युत्पन्न एवं अनागत, इन तीन खण्डों में प्राणियों के संसरण की स्थिति का द्योतक - अतीतो महाराज अद्धा, अनागतो अद्धा, पच्चुपन्नो अद्धा 'ति, मि. ए. 49. द्धा प्र. वि., ए. व. एवं ब. व. - दीघो चद्धा सुदुग्गम जा. अह 7.285 द्वानं द्वि. कि.. ए. व. एत्तकं अद्धानं... उदा. अट्ठ. 68; अद्धानं पटिपन्नस्स ... अप. 1.84; स. उ. प. के रूप में अतीतद्वान, अनागतमद्धान, कान्तारद्धान, कालद्धान, गतद्वान आदि के अन्त. द्रष्ट; टि. भगवान बुद्ध ने प्रतीत्य-समुत्पाद नय की 12 अनुलोम कड़ियों द्वारा चक्राकार अस्तित्व (भव-चक्र) में प्राणी के संसरण को प्रकाशित करते हुए यह सङ्केत भी दिया है कि प्राणी के संसरण का एक लम्बा मार्ग है जिसे 'दीघ अद्धा' कहा गया है। अतः अद्धा का विशिष्ट पारिभाषिक तात्पर्य प्रतीत्यसमुत्पाद के आलोक में अवधेय है ग त्रि.. [अध्वग]. शा. अ. मार्ग प चला हुआ ला. अ. अधिक आयु वाला, वृद्ध बुड्डो हेस्सति अद्धगो, म. सं. 40.7; तुल. अद्धगू: गत त्रि. [अध्यगत) शा. अ. अधिक आयु को प्राप्त, भवचक्र के पर्याप्त मार्ग को पार कर चुका, अनुभवी, लम्बे समय को बिता चुका अद्धगतोति तयो अद्धे अतिक्कन्तो, महानि, अट्ठ 15 अद्धगता ति अद्ध, चिरकालं अतिक्कन्ता, स. नि. अट्ठ 1.144; चिरपब्बजितो अद्धगतो वयो अनुष्पतो... दी. नि. 1.42 अद्धगतोति अद्धानं गतो, द्वे तयो राजपरिवट्टे अतीतो दी. नि. अह. 1.120... जिण्णो, वुड्डो, महत्वको अद्धगतो, वयो अनुष्पत्तो. दी. नि. 1.99 ला. अ. व्रतों एवं चर्याओं आदि की मर्यादा का अनुल्लंघन करते हुए आचरण करने वाला, अच्छे आचरण के मार्ग में पहुंचा हुआ अद्धगतोति मग्गपटिपन्नो ब्राह्मणानं वतचरियादिमरियाद अवीतिक्कम्मचरणसीलो दी. नि. अड. 1.228; - गू पु., [अध्वग], यात्री, भवचक्र द्वारा सङ्केतित जन्म-मरण के यात्रा-पथ का पथिक पथावी पथिकोद्धगु अभि. प. 347; तस्मा न चद्धगू सिया, ध. प. 302; न हेव
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अद्धचन्द(क) 157
अद्धान ठित, नासीनं, न सयानं, न पद्धगुं, जा. अट्ठ. 3.81, द्रष्ट. यज्ञ-पुरोहित - अद्धरो नाम यअविसेसो, तदुपयोगभावतो अष्टा. 6.4.40-41 पर काशिका, तुल. अद्धग,
'अद्धरिया' त्वेव वुच्चन्ति यजूनि, तानि सज्झायन्तीति अद्धचन्द(क) पु.. [चांदवाला] वड्डचन्दक क. आधे चन्द्रमा 'अद्धरिया' यजुब्बेदिनो, लीन. (दी.नि.टी.) 1.355. के आकार वाला एक प्रकार का आभूषण - तथा कलम्बकं अद्धवग्ग पु., स. नि. के देवतासंयुत्त के एक वर्ग का नाम, कातुं अद्धचन्दकमेव वा, विन. वि. 471; 3030; छत्तपण्णकेसु स. नि. 1.45-48. मकरदन्तकं वा अद्धचन्दकं वा छिन्दितुं न वट्टति, पारा. अद्धविहीन त्रि., नाबालिग, अपरिपक्व आयु वाला - अट्ठ 1.232, पाठा. अड्ढचन्दक.
अद्धविहीनो अंगविहीनो, उ. वि. 435, समाना. अद्धानहीन. अद्धत्तय नपुं.. समा., द्व. स., [अध्वत्रय], अतीत, प्रत्युत्पन्न अद्धा अ., निश्चयार्थक निपा. [अद्धा], सचमुच, बिल्कुल, (वर्तमान) एवं अनागत (भविष्य), इन तीन कालों का अवश्य, निस्सन्देह, प्रकटतः, स्पष्ट रूप से - एकसेद्धा समुच्चय, तीन काल - किं अतिक्कमित्वा? अद्धत्तयं, स. व्ययन्तरे, अभि. प. 994; ... अद्धा कामं जातुचे हवे, अभि. नि. अट्ठ. 2.89.
प. 1140; अद्धा, पसंसाम सहायसम्पदं, सु. नि. 47; अद्धाति अद्धद्धमास पु.. [अर्धार्धमास], महीने का आधा-भाग, महीनों एकंसवचनं निस्संसयवचनं निक्कवावचनं अद्वेज्झवचनं
का प्रत्येक पक्ष - अद्धद्धमासे पन्नरसे, चरिया. 379, पाठा. अवेळहकवचनं नियोगवचनं अपण्णकवचनं अवत्थापनवचनं. अन्वद्धमासे.
महानि. 2; अद्धा पटिआतमेतं तदाहु .... पे. व. 528; अद्धनख त्रि., ब. स. [अर्धनख], प्रदूषित अथवा सड़ा गला अद्धाति एकसेन, पे. व. अट्ठ. 193; अन्य निपा. के साथ नाखून - अन्धनखोति पूतिनखो, जा. अट्ठ. 7.320, अपपा. भी प्रयुक्त क. 'खो' के साथ - अद्धा खो, भन्ते, एवं अन्धनख.
सन्ते .... दी. नि. 1.53; अद्धाति एकंसवचनमेतं, दी. नि. अद्धनिय त्रि., अद्ध से व्यु., [बौ. सं. अध्वानीय], शा. अ. अट्ठ. 1.140; ख. 'हवे' के साथ - अद्धा हवे सेवितब्बा यात्रा करने के लिए उपयुक्त (मार्ग) यात्रा करने योग्य - सपा , जा. अट्ठ. 3.268; ग. 'हि' के साथ - अद्धा हि सुखा उतु अद्धनिया .... थेरगा. 529; अद्धनियाति भगवा तथैव एतं, सु. नि. 377; घ. भवि. के क्रि. रू. के अद्धानगमनयोग्गा उतु, थेरगा. अट्ठ. 2.145; ला. अ. साथ - अद्धा गमिस्सामि न मेत्थ कंखा, सु. नि. 1155%; टिकाऊ, देर तक ठहरने योग्य, दीर्घकालिक, चिरस्थितिक अद्धा चरिस्सन्ति बहू च सद्धा, स. नि. 1(1).149. - यथयिदं ब्रह्मचरियं अद्धनियं अस्स चिरहितिक, पारा. 8; अद्धा-कथा स्त्री, कथा., के 15वें अध्याय के तीसरे खण्ड तत्थ अद्धनियन्ति अद्धानक्खमं दीघकालिकं पारा. अट्ठ. का नाम, कथा. 413-15. 1.1463; ... यथयिदं सासनं अद्धनियं अस्स चिरद्वितिकं, खु. अद्धान नपं.. [अध्वन], शा. अ. दीर्घकाल की अवधि अथवा पा. अट्ठ. 73.
लम्बा मार्ग - काले, दीघजसेद्धानं अभि. प. 1100, अद्धानं अद्धभूत त्रि., [अध्वभूत], क. पर-निर्भर, परतन्त्र, अस्वतन्त्र, दीघमञ्जसं, अभि. प. 192, द्रष्ट, अद्धन, ला. अ. प्राणी के
बन्धन में बंधा हुआ, अभिभूत - सब्बं अद्धभूतं... चक्खु द्वारा तीनों कालों में किये जा रहे संसरण का मार्गखण्ड, .... अद्धभूतं ... जातिया जराय ... अद्धभूतं. स. नि. 2(2). प्रतीत्यसमुत्पाद द्वारा वर्णित संसरण की कभी अन्त न होने 19; अद्धभूतन्ति अधिभूतं अज्झोत्थटं उपद्रुतं .... स. नि. वाली यात्रा के तीन खण्ड - एवमिदं दीघमद्धानं सन्धावितं अट्ठ. 3.10; ख. अधिभूत, ग्रस्त - अधिभवीयते सो ति संसरितं, दी. नि. 2.71; एवमेतं दीघमद्धानं सन्धावितं. मि. अधिभूतो, एवं अद्धभूतो, सद्द. 1.79, पाठा. अण्डभूत एवं प. 48; - अतीतस्स अद्धानस्स किं मूलं .... मि. प. 50; अद्दभूत.
- अतीतद्धानन्ति अतीते अद्धाने, जा. अट्ठ. 3.37; - इरियापथ अद्धर पु., [अध्वर], एक प्रकार का यज्ञ-विशेष, सोमयज्ञ, पु., लम्बे समय से चल रही शारीरिक क्रिया; दीर्घकालीन अहिंसकयज्ञ - अद्धरो नाम यज्ञविसेसो, लीन. (दी.नि.टी.) गमन, जाने, खड़े होने, बैठने एवं लेटने की चार शारीरिक 1.355.
चेष्टाएं - अद्धानइरियापथा चिरप्पवत्तिका दीघकालिका अद्धरिया पु., [आध्वरिक, अध्वर्यु], पुरोहित, यज्ञ में होता, इरियापथा, म. नि. टी. (मू.प.) 1(1).323; ... इमस्मिहि उद्गाता एवं ब्रह्मा के अतिरिक्त चौथा पुरोहित, यज्ञ का ठाने अद्धानइरियापथा कथिता, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) सञ्चालक करने वाले ब्राह्मणों का एक वर्गविशेष, यजुर्वेदी 1(1).279; तुल. मज्झिमा-इरियापथ तथा चुण्णिक इरियापथ,
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अद्धान
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अद्भूननव द्रष्ट. म. नि. अट्ट (मू.प.) 1(1).279, म. नि. टी. (मू.प.) अट्ठ. 30; - मग्गपटिपन्न त्रि., राजमार्ग पर जाता हुआ - 1(1).323; -किलमथ पु., लम्बी यात्रा के कारण उत्पन्न ... अज्ञतरो भिक्खु कोसलेसु जनपदे अद्धानमग्गप्पटिपन्नो शारीरिक थकान - सो अद्धानकिलमथं विनोदित्वा .... खु. होति, महाव. 116; ... भगवा अन्तरा च राजगह अन्तरा च पा. अट्ठ. 157; - कोविद त्रि., तत्पु. स., मार्ग को जानने नाळन्दं अद्धानमग्गप्पटिपन्नो होति, दी. नि. 1.1; - वेमत्तता वाला - नाहं दुक्खक्खमा राज, नाहं अद्धानकोविदा, जा. स्त्री., तत्पु. स., कालावधि-विषयक विषमता, समय की अट्ठ. 5.185; - क्खम त्रि., लम्बे समय तक टिकाऊ, लम्बी अवधि का अन्तर, बोधिसत्त्व द्वारा पारमिताओं के परिपाचन दूरी को सहन करने में सक्षम - ... एवहि सो रथो . हेतु अपेक्षित कालावधि से सम्बन्धित अन्तर - अयं नेस अद्धानक्खमो होति ..., जा. अट्ठ. 7.143; अद्धानक्खमो अद्धानवेमत्तता, सु. नि. अट्ठ. 2.122. होति, अ.नि. 2(1).25; अद्धानक्खमो होतीति दूरं अद्धानमग्गं अद्धापच्चुप्पन्न त्रि., कालावधि अथवा क्षण-विशेष की दृष्टि गच्छन्तो खमति, अधिवासेतुं सक्कोति, अ. नि. अट्ठ. 3.12; से वर्तमान, समय की सन्तति में विद्यमान - पच्चुप्पन्नञ्च - गमन नपुं., तत्पु. स., मार्ग पर गमन, यात्रा में गमन - नामेतं तिविध - खणपच्चुप्पन्नं सन्ततिपच्चुप्पन्न चारिक चरमानोति अद्धानगमनं गच्छन्तो, उदा. अट्ठ. 148; अद्धापच्चुप्पन्नञ्च, ध. स. अट्ठ. 435. एकस्सद्धानगमनं, ध. प. अट्ठ. 1.373; - दरथ पु., यात्रा अद्धाभवति क्रि. रू., अधि + भू अथवा अभि + भू का से उत्पन्न कष्ट या व्यथा - ... सब्ब अद्धानदरथं वपसमेन्तो स्था., अभिभूत करता है, ऊंचे स्तर पर होता है, प्राधानता विय .... दी. नि. अट्ठ. 1.231; - नन्तरता स्त्री., अद्धान में होता है, प्रमुख होता है - न्तो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. + अनन्तर का भाव., कालविस्तार-विषयिणी व्यवधान-रहित व., अभिभूत करते हुए - अथप्पियं वा पन अप्पियं वा समीपता, काल की अनन्तरता - अद्धानन्तरताय अद्धाभवन्तो अभिसम्भवेय्य सु. नि. 974; अद्धाभवन्तो ... ति अनन्तरपच्चयो...., पट्ठा. अट्ठ. 345; द्रष्ट. कालन्तरता; - एवं पियप्पियं अभिभवन्तो .... सु. नि. अट्ठ. 2.265; - पञ्ह पु., [अध्व-प्रश्न], मि. प. के दूसरे वग्ग अद्धान-वग्ग द्धभवि अद्य०, प्र. पु., ए. व. - किसु सब्बं अद्धभवि. स. नि. के एक खण्ड का नाम, मि. प. 48-49; - परिच्छेद पु.. 1(1).45; अद्धभवीति नामं सब्बं अभिभवति अनुपतति, स. तत्पु. स. [अध्वपरिछेद], क काल का तीन कालों में नि. अट्ठ. 1.85; - द्धभावेति प्रेर., प्र. पु., ए. व. - ... न बटवारा, समय का समुचित विभाजन - नो च खो हेव अनद्धभूतं अत्तानं दुक्खेन अद्धभावेति, म. नि. 3.9... अद्धानपरिच्छेदे कुसलो होति. म. नि. अट्ट. (मू.प.) 1(1). अद्धिक त्रि., [बौ. सं. अधिवक], यात्री, पथिक, राहगीर, 128; ख. कालविषयक निर्धारण, जीवनावधि का निर्धारण - घुमक्कड़ - ... कन्तारपटिपन्नो याव इच्छितवानं न पापुणाति, ... एवं अरिया ... अद्धानपरिच्छेदं कत्वा ...., उदा. अट्ठ. ताव अद्धिकोयेव, ध, प. अट्ठ. 1.341; ... एक अद्धिकं दिस्वा 28; अद्धानपरिच्छेदोति जीवितद्धानस्स परिच्छेदो, विसुद्धि. ...... ध. प. अट्ठ. 1.252; अद्धिकेति अद्धानं आगते, जा. अट्ठ. 2.348; - परिज्ञा स्त्री., तत्पु. स., निर्वाण, निर्वाण के मार्ग 4.87. का परिज्ञान - अद्धानपरिआत्थं खो, आवुसो, भगवति ब्रह्मचरियं अद्धव त्रि., धुव का निषे. [अध्रुव], अस्थिर, चलनशील, वुस्सती ति .... स. नि. 3(1).26; अद्धानपरिञत्थन्ति अनिश्चित, अशाश्वत, वह जो स्थिर, टिकाऊ अथवा सदा संसारद्धानं निब्बानं पत्वा परिञातं नाम होति, तस्मा निब्बानं बना रहने वाला न हो - ... ते मयं अनिच्चा अद्धवा अद्धानपरिआति वुच्चति, स. नि. अट्ठ. 3.168-169; - अप्पायुका.... दी. नि. 1.16; अनिच्चा वत सङ्घारा, अद्धवा, परियायपथ पु., अद्धान नामक लम्बा गमनपथ, लम्बी दूरी तावकालिका, अना. वं. 135; अनिच्चा अद्धवा कामा, थेरीगा. वाला रास्ता - ... मा नं कुणालं सकुणं अद्धानपरियायपथे 491; ... एवं अद्धवा, भिक्खवे, सङ्घारा ..., स. नि. 1(2). किलमथो उब्बाहेत्था ति, जा. अट्ट, 5.412; - परिस्सम पु.. 171; - सील त्रि., ब. स., अनिश्चित आचार वाला, स्वभाव तत्पु. स., मार्ग पर चलने से होने वाला परिश्रम - ... से ही विनश्वर, अनिश्चित प्रकृति का, अनैतिक - निच्चं अद्धानपरिस्सम पटिविनोदेत्वा .... वि. व. अट्ठ. 259; - अद्धवसीलस्स सुखभावो न विज्जति, जा. अट्ठ. 3.63. मग्ग पु., कर्म. स. [बौ. सं. अध्वमार्ग, अध्वानमार्ग], यात्रा अद्भूननव त्रि., अद्ध' + ऊन + नव [अङ्खननव], साढ़े करने के लिए प्रयुक्त मार्ग, ऊंचा राजमार्ग, राजपथ - ... आठ, नौ में आधा कम, 8.5 - अद्भूननवमत्ता भाणवारा, सावत्थि उद्दिस्स गिम्हसमये अद्धानमग्गं पटिपन्ना, वि. व. उदा. अट्ठ. 4, पाठा. अड्ढूननव.
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308.
अद्धोट्ट 159
अधम्म अद्घोट्ट त्रि., ब. स. [अर्थोष्ठ], कटे हुए होठ वाला, खण्डित अद्वेव्हक त्रि., वेळहक का निषे. [अद्वैधक अथवा अद्वैढक], होठ वाला, खण्डोष्ठ; - ता, स्त्री. भाव., खण्डित होठ होने दुविधा न रखने वाला, संशय से मुक्त - वचन नपुं.. की अवस्था - ओहद्धोति अद्धोडताय एवंलद्धनामो, दी. नि. [अवेज्झवचन], सुनिश्चित अर्थ का वाचक - अद्धाति अट्ठ. 1.249.
..... अवेळहकवचनं .... महानि. 2; अवेळहकवचनन्ति अद्वय त्रि., [अद्वय], एक, द्वित्वरहित, विभेद रहित, अकेला, द्विहदयाभावेन अद्वेळहक महानि. अट्ठ. 15, तुल. दो भागों में अविभक्त - रूपञ्च अत्तानञ्च अद्वयं समनुपरसति, अद्वेज्झ. ध. स. अट्ठ. 382; पठवीकसिणमेको सञ्जानाति उद्धमधो अधंसिय त्रि., अ+ vध्वंस + य [अध्वंस्य], ध्वंस न करने तिरियं अद्वयं अप्पमाणं म. नि. 2.217.
योग्य, विनाश न करने योग्य - दुद्वेहि च असियो, सद्धम्मो. अद्वारिक त्रि, द्वारिक का निषे. [अद्वारिक], क. बिना द्वार वाला, दरवाजा रहित - अद्वारिकं घरं पविट्ठो विय चरति, अधक्खक नपुं.. तत्पु. स. [अधो-अक्ष], हंसुली के नीचे का उदा. अट्ठ. 271; ख. पांच इन्द्रिय-द्वारों में से किसी एक से भाग - अधक्खकन्ति अक्खकतो पट्ठाय अधो, पारा. अट्ठ. 2. उदित न होने वाली वेदना - अद्वारिकानञ्च 122; अधक्खकन्ति हेट्ठक्खक, पाचि. 287; अधक्खकन्ति पटिसन्धिभवङ्गचुतिवेदनानं, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).230. अक्खकानं अधो, पाचि. अट्ठ. 163; द्रष्ट. अक्खक, पाठा. अद्वित्त नपुं., द्वित्त का निषे. [अद्वित्व], किसी भी वर्ण-विशेष अधक्खक अ... के द्वित्व का अभाव - दास्स दं वा मिमेस्वद्वित्ते, मो. व्या. अधग्ग त्रि., ब. स., वह ऊपरी दांत जिसका अग्रभाग नीचे 4.22.
की ओर हो - अधग्गाति उपरिमदन्ता, जा. अट्ठ. 5.151. अद्वेज्झ त्रि., द्वेज्झ का निषे. [अद्वैध्य], द्विधाभाव अथवा दो अधञ त्रि., धञ का निषे॰ [अधन्य], अप्रसन्न, दुखी - भागों में विभक्त होने की स्थिति से रहित, असंदिग्ध, अधओ वतस्मिं .... सु. नि. अट्ठ. 1.120. दुविधा-रहित, सुस्पष्ट, केवल स. प. के पू. प. के रूप में अधन त्रि., धन का निषे., ब. स. [अधन], धनविहीन, दरिद्र ही प्रयुक्त; तुल. अदेज्झ' एवं अद्वेज्झक; - कथा स्त्री., - ... विजिते अधना अस्सु ..., दी. नि. 3.44; अधनस्स कर्म. स. [अद्वैध्यकथा], दुविधा से रहित सच्चा कथन, अकिञ्चनस्स, जा. अट्ठ. 5.242. सुस्पष्ट कथन - अद्वे ज्झकथाय परिसुद्धकथाय अधम त्रि., [अधम], निकृष्टतम, हीनतम, सब से तुच्छ, कथितभावमस्स, दी. नि. अट्ठ. 3.109; - गामी त्रि., अत्यधिक घटिया - अधमोमकगारव्हा, अभि. प. 700; अधमो दुविधा-रहित अथवा सुनिश्चित स्थिति की ओर ले जाने कुच्छिते ऊने, अभि. प. 1070; ... सचे अत्तनो उत्तम वाला - अविरद्धो अद्वेज्झगामी एकसगाहिको, म. नि. अधमञ्च न जानाथाति, जा. अट्ठ. 5.390; - मङ्ग नपुं, कर्म. अट्ठ.(म.प.) 2.84; - ता स्त्री., भाव., दुविधा-रहित स्थिति, स. [अधमाङ्ग], शरीर का सबसे नीचे का अङ्ग, पैर; - जन स्पष्ट स्थिति - अद्वेज्झता सुहदयं ममन्ति, जा. अट्ठ. 4.68; पु., कर्म. स. [अधमजन], निम्न या बुरी प्रकृति वाला - भाव पु.. दुविधा-रहित अवस्था, सुस्पष्ट स्थिति - एवं मनुष्य, तुच्छ जन - अधमजनूपसेवीति अधमजनं उपसेवी अद्वेज्झभावेन यं जानाति, जा. अट्ठ. 4.70; - मानस त्रि., ....., जा. अट्ठ. 3.284; यो उत्तमो अधमजनूपसेवी.... तदे. ब. स. [अद्वैध्यमानस], दुविधा-रहित मन वाला, स्थिर पस्सुत्तमं अधमजनूपसेवितं, तदे.. मनोवृत्ति वाला - तत्थ अद्वेज्झमानसो, सम्बोधिं पापुणिस्सति, अधमण्ण पु.. [अधमर्ण], ऋण लेने वाला कर्जदार - जा. अट्ठ. 1.30; - वचन त्रि., ब. स. [अवैध्यवचन], क. अधमण्णो तु इणायिको, अभि. प. 470; विप. उत्तमण्ण. दो तरह की बातें न बोलने वाला, अमोघ वचन बोलने अधम्म' पु., धम्म का निषे. [अधर्म], 1. अकुशल शारीरिक, वाला, - अद्वेज्झवचना बुद्धा, अमोघवचना जिना, बु. वं. 2. वाचिक एवं मानसिक कर्म, अनैतिक आचरण, अननुमोदित 109; अमोघवचना बुद्धा भगवन्तो तथवचना अद्वेज्झवचना, वाक्कर्म, पापकर्म, अपुण्य, अनर्थ - अधम्मो निरय नेति, मि. प. 142; ख. नपुं.. सुनिश्चितता-द्योतक वचन, थेरगा. 304; धम्म भणे नाधम्म सु. नि. 452; धम्मो हवे एकांशवचन - अद्धाति एकसवचनं .... अद्वेज्झवचनं ..., पातुरहोसि पुब्बे, पच्छा अधम्मो उदपादि लोके, जा. अट्ठ. महानि. 2; - वाच त्रि., अद्वेज्झवचनं का ही समाना. -- 4.91; 2. अस्वभाव, अलक्षण, तत्थ - धम्मन्ति सभावं, अद्वेज्झवाचो अलिक विवज्जयि, दी. नि. 3.128. ... अधम्मो नाम असभावो ..., जा. अट्ठ. 3.325; - टि.
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अधम्म
160
अधम्म
पालि-त्रिपिटक तथा अट्ठ आदि में 'धम्म' शब्द का प्रयोग अत्यन्त व्यापक अर्थ में हुआ है (द्रष्ट. धम्म, आगे) यद्यपि शब्द-संरचना की दृष्टि से अधम्म पद 'धम्म' का विलोम है परन्तु यह धम्म के सभी सङ्केतित तात्पर्यों का निषे. नहीं है। स्कन्धों, आयतनों आदि के सूचक 'धम्म' के निषे. रू. में अधम्म का प्रयोग साहित्य में नहीं दिखता। यहां 'अधम्म' का तात्पर्य उन अकुशल कर्मों से है जो लोभ, मोह एवं द्वेष नामक तीन अकुशलमूलों से सहगत होकर उत्पन्न होते रहते हैं तथा जिनके एक प्रकार के विपाक के प्रभाव से प्राणी को चार प्रकार की अपायभूमियों में से किसी एक में पुनर्जन्म लेकर दुख भोगने को विवश होना पड़ता है; - कम्म नपुं.. कर्म. स. [अधर्मकर्म], धर्म-विपरीत कर्म, अकुशल कर्म, पापकर्म - न, भिक्खवे, अधम्मकम्म कातब्बं. महाव. 143; अधम्मकम्मे धम्मकम्मसी , पाचि. 56; ... यस्सं परिसायं अधम्मकम्मानि नप्पवत्तन्ति, अ. नि. 1(1).903; - कार पु., [अधर्मकार], धर्म-विपरीत क्रिया, अधार्मिक आचरण - अधम्मकारोति ... ठपितं विनिच्छयधम्म भिन्दित्वा पवत्ता अधम्मकिरिया, जा. अट्ठ. 4.358; - कारक त्रि., [अधर्मकारक], धर्म-विपरीत काम करने वाला, प्राणिहिंसादि अकुशल कर्म करने वाला - ... ते ते अधम्मकारके पक्खन्दित्वा खादितुकामतं विय कत्वा दस्सेति, जा. अट्ठ. 4.165; - किरिया स्त्री., ष. तत्पु. [अधर्मक्रिया], अधर्म की क्रिया, अन्याय - अधम्मकारोति ... पवत्ता अधम्मकिरिया, जा. अठ्ठ. 4.358, अधम्मकारो का समाना.; - गारव त्रि., बहु. स. [अधर्मगौरवक], अधर्म में गौरव अनुभव करने वाला - ये केचि कामेसु असञता जना, अधम्मिका होन्ति अधम्मगारवा, अ. नि. 1(2).22; - चरण नपुं.. तत्पु. [अधर्मचरण], धर्म-विपरीत आचरण, कपटपूर्ण व्यवहार - धिरत्थु तं यसलाभ, धनलाभञ्च ब्राह्मण, या वृत्ति विनिपातेन, अधम्मचरणेन वा, जा. अट्ठ. 2.348; अधम्मकिरिया एवं अधम्मकारो का समाना; - चरिया स्त्री., तत्पु. [अधर्मचर्या], विसमचर्या, पापाचार, धर्म-विपरीत अनुचित आचरण - न च सप्पुरिसो कायदुच्चरितादिवसेन अधम्मचरिय चरेय्य, जा. अट्ट, 2.348; अधम्मचरियाविसमचरियाहेतु खो, गहपतयो, ... निरयं उपपज्जन्ति, म. नि. 1.359; - चारी त्रि., [अधर्मचारी], दस प्रकार के अकुशल कर्म करने वाला, पाप अथवा अधर्म का आचरण करने वाला - तिविधं खो, गहपतयो, कायेन अधम्मचारी ... चतुबिधं वाचाय अधम्मचारी ... तिविधं मनसा अधम्मचारी विसमचारी होति.
म. नि. 1.366; - टि. प्राणिहिंसा, अदत्त का आदान एवं अब्रह्मचर्य, ये तीन कायिक पाप कर्म हैं, असत्य-भाषण, चुगली, कठोर वाणी एवं निरर्थक वार्तालाप, ये चार वाणी के पापकर्म हैं तथा लोभ, द्वेष एवं मिथ्या-दृष्टि, ये तीन मानसिक पाप-कर्म हैं. दस प्रकार के इन्हीं पापकर्मों को करने वाला ही 'अधम्मचारी' कहलाता है; - चुदित त्रि., तत्पु. [अधर्मचुदित], अनुचित-रूप से प्रेरित किया गया - अधम्मचुदितस्स, आवुसो, भिक्खुनो पञ्चहाकारेहि अविष्पटिसारो उपदहातब्बो, अ. नि. 2(1).182; - चोदक त्रि., ब. स. [अधर्मचोदक], विनय द्वारा निर्धारित मापदण्डों का पालन किए बिना ही दूसरे भिक्षु को विनय की शिक्षा पर चलने हेतु प्रेरित करने वाला - अधम्मचोदकस्स, आवुसो, भिक्खुनो पञ्चहाकारेहि विप्पटिसारो उपदहातब्बो, अ. नि. 2(1).183; चूळव. 411; - टि. विनय की शिक्षाओं के अनुसार यदि कोई वरिष्ठ भिक्षु किसी कनिष्ठ भिक्षु को विनय शिक्षापदों के अनुरूप आचरण करने को प्रेरित करना चाहता है तो उसे पहले अपने अन्दर पांच धर्मों का प्रत्यवेक्षण करने के उपरान्त ही दूसरे भिक्षु को शुद्ध आचरण हेतु प्रेरित करना चाहिए। उसे निम्नलिखित पांच बातों के बारे में अच्छी तरह स्वयं आत्म-मन्थन कर लेना चाहिए: - 1. क्या मेरे शारीरिक कर्म परिशुद्ध हैं? 2. क्या मेरे वाणी के कर्म परिशुद्ध हैं? 3. क्या मेरे चित्त में साथी भिक्षुओं के प्रति मैत्रीभावना जागृत है ? 4. क्या मैं बहुश्रुत हूं एवं सूत्रान्तों का अच्छा ज्ञान पा चुका हूँ? 5. क्या मुझे प्रातिमोक्ष-सूत्रों का सुस्पष्ट ज्ञान है? इसके अतिरिक्त उसे अपने अन्दर कालवादी, भूतवादी, मृदुवादी, अर्थवादी एवं मैत्रीचित्त-सहित वादी, इन पांच धर्मों को जागरूक करके ही अन्यों को मार्ग-दर्शन देना चाहिए, जो भिक्षु ऊपर उल्लिखित पूर्वाधारों के बिना ही दूसरों का विनय के विषय में मार्गदर्शन करता है, वही अधम्मचोदक है; - टु त्रि., [अधर्मस्थ], अधर्म में स्थित, पापमय जीवन बितानेवाला - खत्तियो च अधम्मट्ठो, वेस्सो चाधम्मनिस्सितो, ते परिच्चज्जुभो लोके, उपपज्जन्ति दुग्गतिं. जा. अट्ठ. 3.167; - त्त नपुं.. भाव. [अधर्मत्व], धर्मप्रतिकूलता, धर्म आचरण से वैपरीत्य, दुष्टता, पाप-परायणता - ... इद, भिक्खवे, कम्म अधम्मत्ता वग्गत्ता कुप्पं अट्ठानारह, महाव, 412; तुल. वग्गत्त अथवा वग्गत्ता; - दिहि त्रि., ब. स. [अधर्मदृष्टि]. विनय-निर्दिष्ट पांच आपत्तियों या अपराधों में आपतित ऐसा भिक्षु जो धर्मानुकूल आचरण में भी अधर्म की मिथ्या धारणा बनाता है - पञ्च आपत्तियो
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अधम्म
161
अधर
... कते वा पन कम्मे अधम्मदिष्टि होति, परि. 253; - निविट्ट त्रि., तत्पु. स. [अधर्मनिविष्ट], अधर्म में पूरी तरह से डूबे हुये चित्त वाला, अज्ञानी - पुथुज्जनताय अधम्मा निविट्ठा, थेरगा. 1226; पुथु जनताय अधम्मा निविट्ठा, स. नि. 1(1).217; -- निस्सित त्रि., [अधर्मनिश्रित], अधर्म में पूरी तरह से डूबे हुये चित्त वाला, अज्ञानी, पृथग्जन - वेस्सो चाधम्मनिस्सितो, जा. अट्ठ. 3.167; - बलि पु., तत्पु. [अधर्मबलि], अधर्मपूर्वक लिया गया कर या राजस्व - अरक्खिता जानपदा, अधम्मबलिना हता, जा. अट्ठ, 5.97; - राग पु., कर्म. स. [अधर्मराग], अधर्म से भरा हुआ राग, अनुचित लोभ अथवा अधर्म-प्रेरित आसक्तिभाव, अनुपयुक्त स्थलों के प्रति आसक्तिभाव - मिच्छादिट्ठिया वेपुल्लं गताय तयो धम्मा वेपुल्लमगमंसु, अधम्मरागो विसमलोभो मिच्छाधम्मो, दी. नि. 3.52; अधम्मरागोति माता मातुच्छा पितुच्छा मातुलानीति आदिके अयुत्तट्ठाने रागो, दी. नि. अट्ठ. 3.33; - रागरत्त त्रि., तत्पु. स. [अधर्मरागरक्त]. अनुपयुक्त लगावों में आसक्त - एतरहि, ब्राह्मण, मनुस्सा अधम्मरागरत्ता विसमलोभाभिभूता मिच्छाधम्मपरेता, अ. नि. 1(1).187; - रूप त्रि., ब. स. [अधर्मरूप], दुष्ट, पापी, अधर्म भरे स्वभाव वाला - अधम्मरूपो वत ब्रह्मचारी, जा. अट्ठ. 5.103; अधम्मरूपो वत राजसेट्ठो, जा. अट्ठ. 7.178; - लद्ध त्रि., तत्पु. स. [अधर्मलब्ध], जो न्यायपूर्वक प्राप्त नहीं किया गया है, अधर्म अथवा अनुचित उपायों से प्राप्त - अधम्मलद्धं पन सहस्सग्धनकम्पि जिगुच्छनीयमेवाति, जा. अट्ठ. 6.77; - वादी त्रि., [अधर्मवादी], धर्म की त्रुटिपूर्ण व्याख्या करने वाला, धर्म विपरीत बातों को कहने वाला, संभिन्न प्रलाप में अन्तर्भूत अकुशल वाक्यप्रयोग को करने वाला - सम्पप्पलापी खो पन होति, अकालवादी अभूतवादी अनत्थवादी अधम्मवादी अविनयवादी .... म. नि. 1.360; अञ्जतरो अधम्मवादी भिक्खु भगवन्तं एतदवोच, महाव. 462; - वितक्क पु., [अधर्मवितर्क], अधर्म से भरा हुआ अथवा पापमय चिन्तन, कामभोग-विषयक चिन्तन - धम्मवितक्क व वितक्केति नो अधम्मवितक्क, इतिवु. 59; - सञी त्रि., ब. स. [अधर्मसंज्ञी], धर्म में भी अधर्म देखने वाला, किसी वस्तुविशेष या कार्यविशेष को धर्म के विपरीत मानने वाला - द्वेमे, भिक्खवे, बाला ... यो च धम्मे अधम्मसञी, अ. नि. 1(1).102; - सम्मत त्रि., कर्म. स. [अधर्मसम्मत], धर्म के रूप में अननुमोदित, धर्म द्वारा अस्वीकृत - अधम्मसम्मतं खो, पन, वासेट्ट, तेन समयेन
होति, तदेतरहि धम्मसम्मतं, दी. नि. 3.66; - हास पु., [अधर्महास], द्वेषपूर्ण हंसी अथवा द्वेष भरी प्रसन्नता का भाव - ततियं अधम्महासं वज्जेत्वा, जा. अट्ट, 5.109; - मादिवग्ग पु., अ. नि. के एक वग्गविशेष का नाम, अ. नि. 1(1). 19-25 में पमादादिवग्ग नाम से, रो. सं. में अधम्मादिवग्ग पा. टे. सो. 1.16-19; - माभिरत त्रि., तत्पु. स. [अधर्माभिरत], अधर्म में पूरी तरह से डूबा हुआ, पाप कर्म में आनन्द लेने वाला - अधम्माभिरता विसमचारिनो जा. अट्ठ, 4.163. अधम्म त्रि., [अधार्मिक], धर्म-विपरीत आचरण करने वाला, मिथ्या वितर्क वाला, धर्म से रहित - पुथुज्जनताय अधम्मा निविट्ठा, थेरगा. 1226; ते पन मिच्छावितक्का ... अधम्मा, धम्मतो अपेता पुथुज्जनतायं अन्धबाले निविट्ठा..., थेरगा. अट्ठ. 2.440. अधम्म' पु., व्यक्तिसूचक, यक्ष के रूप में उत्पन्न देवदत्त के पूर्वजन्म का नाम - ... देवदत्तो अधम्मो नाम, जा. अट्ठ. 4.90; मि. प. 194. अधम्मिक त्रि., धम्मिक का निषे. [अधार्मिक, धर्म में निषिद्ध, धर्म-विरुद्ध, पापी, अधार्मिक, विनय-शिक्षापदों का उल्लंघन करने वाला भिक्षु - धम्मेन च अलाभो यो, यो च लाभो अधम्मिको, थेरगा. 666; मा राज अधम्मिको अहु, जा. अट्ठ. 3.365; कम्मं अधम्मिकं कुप्पं अट्ठानारह, महाव. 139, तुल. अधम्मक; - कपणराज पु., [अधार्मिक-कृपणराजन्], अधार्मिक एवं कृपण स्वभाव का राजा - अधम्मिककपणराजानो ..... यसं न दस्सन्ति, जा. अट्ठ. 1.322; - ता स्त्री॰, भाव. [अधार्मिकता], अधार्मिकता, पाप भरी मनोवृत्ति अथवा जीवनवृत्ति, अनागत. 35(रो.); - त्त नपुं.. भाव. [अधार्मिकत्व], अधार्मिक मनोवृत्ति पापमयी जीवनवृत्ति, अधार्मिक भाव - ... तुम्हाक मजे अधम्मिकत्तेन तं एतरहि उप्पन्नन्ति , खु. पा. अट्ठ 130; - भाव पु., कर्म. स. [अधार्मिकभाव], उपरिवत् - मय्ह अधम्मिकभावं विचिनथाति
आह, खु. पा. अट्ठ. 130. अधम्मिय त्रि., धम्मिय का निषे० [अधर्म्य], अधार्मिक, धर्मप्रतिकूल - अधम्मियं पटिपदं पटिपन्नो, पे. व. अट्ठ. 208; - यायमान त्रि., अधम्मिय के ना. धा. से व्यु., वर्त. कृ., आत्मने., निषे. [अधर्मीयमान], धर्म के अनुसार आचरण न करने वाली प्रकृति वाला - भिन्ने, ... सङ्के अधम्मियायमाने, महाव. 462. अधर त्रि., अधो का तुल. वि. [अधर], 1. निचला, अधिक तुच्छ, हीनतर - अधरो तिस्वधो हीने पुमे दन्तच्छदेप्यथ,
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अधारणता
162
अधिकरण
अभि. प. 930; अधरसद्दो पि हेडिमत्थवाचको बवत्थावचनो येव, सद्द. 1.267. 2. पु., नीचे वाला होठ - दन्तावरणमोट्ठो चाप्यधरो दसनच्छदो, अभि. प. 262; - काय पु., कर्म. स. [अधरकाय], शरीर के निचले भागों के अङ्ग, शरीर का निचला भाग - तस्स भोतो गोतमस्स अधरकायोव इञ्जति. म. नि. 2.346; - रारणी स्त्री., अधर + अरणी [अधरारणि], जिन्हें रगड़कर अग्नि उत्पन्न की जाती है उन अरणी नामक दो लकड़ियों में से नीचे वाली लकड़ी - अयं उत्तरारणी अयं अधरारणीति आवज्जेन्तेन अज्ञविहितकेन भवितब्बं, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).404, द्रष्ट. अरणी; - रुत्तर/रोत्तर त्रि., द्व. स. [अधरोत्तर], नीचे का एवं ऊपर का - पुब्बापरानं अधरुत्तरानं सद्द. 1.272; अधरो च उत्तरो च अधरुत्तरानं, क. व्या. 166; - रोट्ठ पु.. अधर + ओट्ट कर्म. स. [अधरोष्ठ], निचला होठ - तथा तस्स अधरोटे च उत्तरोटे च दण्डकं ठपेत्वा, जा. अट्ठ. 3.22. अधारणता स्त्री., धारण के भाव. का निषे. [अधारणता]. अस्मृति, चित्त में धारण करने में असमर्थता, स्मृति की। शिथिलता - या असति, अननुस्सति ... अधारणता ... इदं वुच्चति मुट्ठसच्च, ध. स. मा. 1356. अधारित त्रि., धारित का निषे. [अधारित], नहीं धारण किया हुआ - एत्थन्तरे न जानामि, सेतच्छत्तं अधारितं, अप. 1.406. अधि अ. उप. [अधि], क नामों से पूर्व में प्रयुक्त, पू. स. के रूप में धातुओं से पूर्व में प्रयुक्त, उप. के रूप में, ख. यदा कदा समाना. अति एवं अभि उप. के परस्पर-विनिमय या व्यामिश्रण के कारण प्रयुक्त, ग. स्वरों से पूर्व प्रायः 'अज्झ' रूप में दृष्टिगत, घ. अन्य उपसर्गों के साथ भी प्रयुक्त यथाः 1. अधि + ओ = अज्झो , 2. अधि + आ = अज्झा , 3. अधि + उप = अज्झुप, 4. अधि + प = अधिप्प, 5. अधि + सं = अधिसं, ङ. आवृत्यर्थक समासों के मध्य मे अन्तर्निवेशित, (छत्ताधिछत्त), च. विविध अर्थ - तक, पर, की ओर, अतिरेक, आधिक्य, उत्कर्ष - अधिकिस्सरपाठाधिट्ठानपापुणनेस्वधि, निच्छये, चोपरित्ताधिभवने च विसेसने, अभि. प. 11773; पठवियं अधिसेस्सति, ध. प., 41; भोगक्खन्धं अधिगच्छति, दी. नि. 2.67; छ. सप्त. वि. के अर्थ में प्रयुक्त उप. के रूप में - अधि ब्रह्मदत्ते पाञ्चाला, सद्द. 3.730; क. व्या. 316. अधिक त्रि., [अधिक], संख्या, मात्रा, गुणवत्ता आदि में बढ़ा हुआ, अभि उपस. के अर्थ में - अभिमुख्यसिविट्ठद्धकम्मसारूप्पवुद्धिसु. अभि. प. 1176;
अधिकिस्सिरपाठाधिट्ठानपापुणनेस्वधि, अभि. प. 1177; उप एवं अधि के तात्पर्य में - उपाध्यधिकिस्सरवचने, क. व्या. 316, उपाधियोगे अधिक इस्सरवचने सद्द. 3.729; - कार पु., परित्याग - अधिकारोति अधिककारो, परिच्चागोति अत्थो, सु. नि. अट्ठ. 1.41, द्रष्ट, अधिकार के अन्त.; - क्क नपुं.. एक पवित्र स्नान-स्थल का नाम - बाहुकं अधिकक्कञ्च, गयं सुन्दरिक अपि, म. नि. 1.49; अधिकक्कन्ति न्हानसम्भारवसेन लद्धवोहारं एक तित्थं वुच्चति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).187; - गुणता स्त्री., श्रेष्ठता, उत्तमता - नक्खत्तेहि अधिकगुणताय नक्खत्तराजा ति ..., वि. व. अट्ठ. 70; - च्छेदन नपुं., कर्म. स., [अधिकछेदन], अत्यधिक काटना, बहुत अधिक काट-छांट - अधिकच्छेदनं तस्स, पाचित्तियमुदीरितं. विन. वि. 574; - तर त्रि., अधिक का तुल. वि. 1. और भी अधिक, अधिक विख्यात,
और भी अधिक संख्या में, तृ. वि. अथवा प. वि. के योग में प्रयुक्त - ... देवदत्तो ... बोधिसत्तेन ... अधिकतरो, मि. प. 192; इतो अधिकतरं दस्सामि, ध. प. अट्ठ. 1.357; 2. क्रि. वि., अत्यधिक मात्रा में और अधिक रूप में - अधिमत्तन्ति अधिकतरं पे. व. अट्ठ. 75; - त्त नपुं.. अधिक + त्त, भाव. [अधिकत्व], अधिकता, प्रचुरता, उत्तमत्व - सब्बचित्तानं अधिकत्ता उत्तमत्ता, उदा. अट्ठ. 206 - प्पयोग पु., कर्म. स. [अधिकप्रयोग], दिशान्तरण, अपसरण - को अधिप्पयासोति को अधिकप्पयोगो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).322; - मान पु., कर्म स॰ [अधिकमान], अहङ्कार, घमण्ड - अधिमानेनाति ... अधिकमानेन वा थद्धमानेनाति अत्थो, पारा. अट्ठ. 2.72; - मानस त्रि., ब. स. [अधिकमानस], किसी कार्य के निष्पादन में अत्यधिक सन्नद्ध मन वाला, उन्नत मन वाला - चागेन अधिकमानसो, जा. अट्ठ. 7.237. अधिकत त्रि., अधि + Vकर का भू. क. कृ. [अधिकृत], 1. प्रमुख अथवा प्रधानरूप में स्थापित, नियुक्त, कार्य निष्पादन हेतु प्राधिकृत, अध्यक्ष - अज्झक्खो धिकतो चेव, अभि. प. 343; ... दानाधिकारे अधिकतो, पे. व. अट्ठ. 109; 2. वशीभूत, असुरक्षित, अधीर, अधिकार में ले लिया गया - जनो सम्मूळ्हो विमतिजातो अधिकतो संसयपक्खन्दो, मि. प. 145. अधिकरण नपुं., [अधिकरण]. 1. महत्त्वपूर्ण स्थान पर स्थापन अथवा नियुक्ति, प्रबन्धन क्षेत्र, अधीक्षण, प्रसार, प्रबन्धन, प्रशासन-पद - अधिकरणे नियुत्तकपुरिसो, पे. व.
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अधिकरण
163
अधिकार
अट्ठ. 182; सग्गं अधिकरणं कत्वा .... जा. अट्ठ. 6.121, पाठा. अधिकारं; 2. न्यायिक विवाद, विवाद-विषय, विनयविषयक वस्तुओं के सम्बन्ध में भिक्षुसंघ द्वारा विचारणीय प्रश्न अथवा विषय, कथा-वस्तु - विवादादो धिकरणं सिया, अभि. प. 868; ... अञभागियस्स अधिकरणस्स किञ्चिदेसं लेसमत्तं उपादाय .... पारा. 263; ... इमं अधिकरणं विनिच्छितुं वट्टतीति, जा. अट्ट, 1.152; विवादाधिकरणं, अनुवादाकरणं आपत्ताधिकरणं, किच्चाधिकरणं - इमानि खो, आनन्द, चत्तारि अधिकरणानि, म. नि. 3.32; 3. कारण, आधार - आधारे च कारणे, अभि. प. 868; ... दुक्खस्सेवाधिकरणं होति, ..., म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).221; 4. विषय में, फलस्वरूप, के हेतु से, कारण से - ... न च मं धम्माधिकरणं विहेसेसि. म. नि. 2.354; ... विचिकिच्छाधिकरणञ्च पन मे समाधि, म. नि. 3.197; 5. आधार तथा संश्लिष्ट-सम्बन्ध का सूचक, अधिष्ठान, स्थान, अधिकरण-कारक - अधिकरणत्थो भावेनभावलक्खणत्थो च सम्भवति ... अधिकरणं हि कालत्थो समूहत्थो च समयो, खु. पा. अट्ठ. 86; ... अधिकरणत्थे भुम्मवचनं, सु. नि. अट्ठ 1.180; - कारक/कारिका पु./स्त्री., वह भिक्षु जो प्रायः विवादों का विषय खड़ा कर देता है या उपस्थित कराता है, कलह उत्पन्न कराने वाला - यो सो, भिक्खवे, भिक्खु ... सङ्के अधिकरणकारको..., अ. नि. 2(1).232; महाव. 429; अधिकरणकारकाति विनिच्छयपापुणनविसेसकारणं करोन्ता ... महानि. अट्ठ. 208; - जात त्रि., विवादों या कलहों में लगा हुआ, विवादप्रिय प्रकृति वाला - भण्डनजातानं कलहजातानं विवादापन्नानन्ति अधिकरणजातानं, पाचि. 201; -निरोध पु., तत्पु., विवादों की समाप्ति अथवा उपशमन - अधिकरणनिरोधं जानाति, अ. नि. 3(2).59; - पच्चयवार नपुं., वि. पि. के परिवार नामक संग्रह के एक अध्याय का नाम, परि. 203-205; - भूत त्रि., अधिकरण कारक (सप्त. वि.) में विद्यमान - ... यम्हि चक्खुम्हीति यम्हि अधिकरणभूते चक्खुम्हि, ध. स. अट्ठ. 343; - वूपसम पु.. तत्पु. [अधिकरणोपशम], विवादों का शमन - .... अधिकरणवूपसमादिके वा ... किच्चे उप्पन्ने.... ध. प.
अट्ठ. 2.299; - समथ पु.. [बौ. सं. अधिकरणशमथ], भिक्षुसंघ के चार प्रकार के विवादग्रस्त मसलों का उपशमन, विवादों को हल करने वाले सात धर्म - ... न अधिकरणिको होति, अधिकरणसमथस्स वण्णवादी, अ. नि. 3(2).142; सत्त अधिकरणसमथा धम्मा, पाचि. 283; - टि. विवादों के विषयों
के उपशमन हेतु निम्नलिखित सात बातें उल्लिखित - 1. सम्मुख-विनयो, 2. सति-विनयो, 3. अमूळ्ह-विनयो 4. पटिञात-करण 5. येभुय्यसिका, 6. तस्सपापियसिका, 7. तिणवत्थारक, परि. 296; तुल. अ. नि. 1(1),193; दी. नि. 3.201; दी. नि. अट्ठ. 3.204; - समुट्ठान नपुं., तत्पु. [बौ. सं. अधिकरणसमुत्थान], संघ में विवाद-विषयों या कलह के मसलों का उदय अथवा उत्पत्ति - अधिकरणं न जानाति अधिकरणसमुट्ठानं न जानाति, परि. 344; - समुदय पु.. तत्पु. [बौ. सं. अधिकरणसमुदय], उपरिवत् - ... अधिकरणसमुदयं न जानाति, अ. नि. 3(2).59; - समुप्पाद पु., तत्पु. [बौ. सं. अधिकरणसमुत्पाद], भिक्षुसंघ में विवाद के मामले की उत्पत्ति - अधिकरणसमुप्पादयूपसमकुसलो होति, अ. नि. 3(2).59. अधिकरणिक त्रि., [बौ. सं. अधिकरणिक], विवाद के विषय से जुड़ा हुआ, विवादी, अदालती - अधिकरणिको होति, अधिकरणसमथस्स न वण्णवादी, अ. नि. 3(2).140. अधिकरणी स्त्री., [अधिकरणी], सोनार अथवा लोहार की निहाई, जिस पर धातु-खण्ड रख कर वे काम करते हैं - मुख्याधिकरणीत्थियं, अभि. प. 527; ... अधिकरणिं उक्खिपापेत्वा, अधिकरणिया हेट्ठा उदकपातिं ठपापेत्वा, जा. अट्ठ. 3.250; ... चतुन्नं अधिकरणीनं उपरि .... ध. स. अट्ठ. 301. अधिकरणीय अधि करोति का सं. कृ., द्रष्ट., करणीय के
अन्त.. अधिकराज पु., रतनपुर के दो राजाओं की उपाधि - रतनपुरनगरे येव अधिकओ काले.... सा. वं. 89 (ना.); एक समय अधिकराजा विहारं गन्त्वा .... सा. वं. 93 (ना.). अधिकरोति अधि + Vकर का वर्त. , प्र. पु., ए. व., [अधिकरोति], किसी को किसी के विषय में अधिकृत करता है, किसी वस्तुविशेष को अपना प्रमुख अभीप्सित बनाता है - अधिकरोतीति अधिकरणं, कारणस्सेतं नाम, दी. नि. अट्ठ. 2.80; - कत्वा/किच्च पू. का. कृ. - अधिकत्वा वाहीयति, अभिमुखं वा बाहीयतीति, सु. नि. अट्ठ. 1.118; ... पञ्चविध अत्तभावं अधिकिच्च पवत्तत्ता अज्झत्तिक विसुद्धि. 2.77. अधिकार पु.. [अधिकार], क, कार्य, रोजगार, आयोजन, कार्यविशेष के साथ स्वयं का या किसी का लगाव - युगोधिकारो, अभि. प. 1004; कोचिदेव पुरिसो रओ अधिकारं करेय्य, मि. प. 47; ख. पुण्य, कुशल कर्म, परित्याग - बुद्धो लोके समुप्पन्नो, अधिकारो च नत्थि मे,
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अधिकारिक
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अप. 1.294; अधिकार महा मयहं धम्मराज सुणोहि मे अप. 2.258; अहं खो, भन्ते, तस्स ब्राह्मणस्स अधिकारं सरामि महाव, 62: ग. सम्मान, अभिनन्दन, त्याग असादियन्तरस कतो अधिकारो वझो भवति अफलो, मि. प. 108 किं नु खो सत्धु अधिकारं करोमी ति चिन्तेत्वा... ध. प. अड. 1.273; तुल, अभिकार घ. ऐसा नियन्त्रक पद जिसकी अनुवृत्ति आने वाले पदों एवं सूत्र- नियमों आदि में की जाए अत्थाति अधिकारत्थे निपातो. उदा. अड. 30 पुब्बेवाति अधिकारी सु. नि. अ. 1.95, तुल. अधिकार सूत्र, पाणिनीय अष्टाध्यायी; - कत त्रि. ब. स. अपने कर्त्तव्यों को पूरा कर चुका व्यक्ति, पहले उपकार कर चुका व्यक्ति अधिकारकतो पुब्बे कतूपकारो होति, जा० अट्ठ. 7.141, तुल कताधिकार; रन्तर नपुं. अधिकार + अन्तर [ अधिकारान्तर] नवीन विषय नूतन परिस्थिति, नया क्षेत्र खोति अधिकारन्तरनिदरसनत्थे निपातो खु. पा. अड्ड. 91 खो पनाति इदं पनेत्थ निपातद्वयं पदपूरणमतं अधिकारन्तरदरसनत्थं वाति सु. नि. अट्ठ. 1.109 सुत्त नपुं, व्याकरणों में ही विशेष रूप में प्रयुक्त, कर्म. [ अधिकारसूत्र ], व्याकरण के छः प्रकार के सूत्रों में से एक, वह सूत्र जिसकी अनुवृत्ति परवर्ती अनेक सूत्रों में की जाती
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है सञ्ञाधिकारपरिभासाविधिसत्तेसु अधिकारसुत्तन्ति वेदितं क. व्या. 52 पर क. व., निपच्चते इच्चेतं अधिकारत्थं वेदितब्ब, सद्द. 3.806.
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अधिकारिक त्रि. [आधिकारिक]. किसी विषय विशेष से सम्बद्ध के रूप में कार्यरत अधिकार क्षेत्र में आया हुआ - तक्षणिकन्ति अचिरकालाधि कारिक पारा. अनु. 2.127. अधिकारी पु.. [ अधिकारिन्] अधिकार प्राप्त व्यक्ति, प्रशासक,
अध्यक्ष- आनपेत्वा ततो मञ्जुअधिकारि नराधिपो म० कं 74-129. अधिकिस्सरवचन नपुं. अधिकत्व और ईश्वरत्व का अर्थउप-अघि इच्छेतेस पयोगे अधिकिस्सरवचनेसु सत्तमी विभत्ति होति. क. व्या. 316.
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164
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अधिकुट्टन नपुं अघि कुट्ट से व्यु [ अधिकुट्टन ], काटना, छेदना, कूटना, पीसना, चूर्ण करना असिसूनूपमा काम अधिकुहनÈन, थेरीगा. अड. 311 म. नि. अड. (मू.प.) 1(2).10. अधिकुट्टना स्त्री. कसाई द्वारा प्रयुक्त वह काष्ठफलक या लकड़ी का तख्ता जिस पर वह पशुओं के सिर काटता है, काष्ठमयी वध्यशिला सत्तिसूलूपमा कामा खन्धासं अधिकुट्टना, स. नि. 1.152.
अधिगच्छति
अधिकुमारि अ.. अव्ययी. स. [ अधिकुमारि] कुमारी के सम्बन्ध में कुमारं अधिकिच्च कथा वत्ततीति, अधिकुमारि,
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क. व्या. 322.
"
अधिकुसल त्रि., [अधिकुशल], अत्यधिक पुण्यवान, उच्चरूप में पुण्यमय, अञ्जतरञतरेसु च अधिकुसलेसु धम्मेसु दी. नि. 3.108; अरतीति अधिकुसलेसु धम्मेसु उक्कण्ठा, म. नि. अट्ठ. ( मू०प.) 1(1). 169. अधिकूनक क्रि ब. स. [ अधिकोनक] कुछ अधिकता तथा कुछ न्यूनता से युक्त अधिकूनकतो एकक्खरतो च इतो पर, सद्द० 1.235. अधिकोट्टन नपुं. वध हेतु प्रयुक्त काष्ठपीठ आघातनं वधट्ठानं, सूणा तु अधिकोट्टनं अभि. प. 521; तुल० अधिकुट्टना.
अधिकोपित त्रि [अधिकोपित] अत्यधिक क्रुद्ध कराया गया, बहुत अधिक उत्तेजित किया गया मा ते अधिसरे मुञ्च, सुबाळ्हमधिकोपित जा. अड. 5.112. अधिगच्छति अधि + √गम, वर्त, प्र. पु. ए. व. [ अधिगच्छति] प्राप्त करता है, समझ जाता है, ठीक से जान लेता है भोगक्खन्धं अधिगच्छति दी. नि. 2.67; रतिं सो नाधिगच्छति ध. प. 187: समाधिं नाधिगच्छति ध. प. 365; सन्तिमेवाधिगच्छति इतिवु, 59 समिज्झतीति- लभति पटिलभति अधिगच्छति विन्दतीति, महानि. 2 - च्छामि वर्त, उ. पु. ए. व. निबुतिं नाधिगच्छामि पे व 38:न्ति वर्त० प्र० पु०, ब० व. एवरूपं उळारं विसेसं अधिगच्छन्ति दी. नि. 1.208 च्छ अनु. म. पु. ए. व. अत्तानं अधिगच्छ उब्बिरि, थेरीगा. 51; - च्छे विधि., प्र. पु. ए. व. अधिगको पदं सन्तं थेरगा. 11: झगा / झगमा / गछि अय., प्र. पु. ए. व. तहानं खयमज्झगा, ध. प. 154; यो नाज्झगमा भवेसु सारं. सु. नि. उळारं विसेसं अधिगञ्छि, उदा. अट्ठ 239, पाठा. अधिगच्छि जागू / जागमिंसु अद्य.. प्र. पु. ब. क. सुतस्स पज्ञाय च सारमज्झगू, सु. नि. 332; पच्चे कर्म वज्झगमं सु बोधि, म.नि. 3.115; छिस्सामि / छिस्स अद्य. प्र. पु. ए. व. भवि., उ. पु.. ए. व. अरियधम्म आहरिस्सामि अधिगच्छिस्सामि, महानि. 48; ओताएं नाधिगच्छिस्सं सु. नि. 448; त्वा पू कुसलं धम्मं अधिगन्त्वा, दी. नि. 1.205; सज्ञवेदयितनिरोधे आनिसंस अधिगम्म अ. नि. 3(1). 250 न्तब्बं / मनीय सं. कृ. - निब्बानं अधिगन्तब्ब
"
5;
STEP
का. कृ.
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अधिगण्हाति/अधिग्गण्हाति
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अधिगम
इतिवु. 75; ... सुखानि अधिगमनीयानि गिहिना कामभोगिना, अ. नि. 1(2).80. अधिगण्हाति/अधिग्गण्हाति क्रि. रू., अधि+ गह, वर्त, प्र. पु., ए. व. [अधिगृह्णाति], अभिभूत कर देता है, आधिपत्य स्थापित कर लेता है, बढ़ा चढ़ा हुआ होता है - दायको ... अदायकं ... पञ्चहि ठानेहि अधिगण्हाति, अ. नि. 2(1).28; अधिगण्हातीति अधिभवित्वा गण्हाति अज्झोत्थरति अतिसेति, अ. नि. अट्ठ. 3.16; सो तत्थ अञ देवे .... अधिग्गण्हाति, दी. नि. 3.108; अधिग्गण्हातीति अधिभवति, अजेहि देवेहि अतिरेकं लभतीति..., दी. नि. अट्ठ. 3.93; - यह/नण्हत्वा पू. का. कृ. - तथेवाधिपतेय्येन,
अधिगयह विरोचहं अप.2.206; ससी अधिग्गरह यथा विरोचति, वि. व. 152; चन्दपभायेव ता अधिग्गहेत्वा ..., इतिवु. 16;
अम्हाकं पहं सुख अधिगण्हित्वा ..., जा. अट्ठ, 7.152. अधिगत त्रि., अधि + गम का भू. क. कृ. [अधिगत], 1. कर्म. वा. में, प्राप्त किया हुआ, उपलब्ध, ज्ञात - अधिगतो खो म्याय .... महाव. 5; अधिगतो खो म्यायं मग्गो सम्बोधाय, दी. नि. 2.27; धनञ्च मे अधिगतं, जा. अठ्ठ. 3.289; 2 कर्तृवा. में - पहुंच चुका, प्राप्त कर चुका, समझ चुका, ज्ञात कर चुका - अआहि अतिसयं अधिगता. वि. व. अट्ठ. 111; तं निरासं विसेसेन अगा अधिगतोति व्यगा, उदा. अट्ठ. 295; - त्त नपुं., अधिगत का भाव., [अधिगतत्व], ज्ञान प्राप्त हो जाने की अवस्था - अग्गमग्गस्स अधिगतत्ता, उदा. अट्ठ. 295; - पटिसम्भिद त्रि., ब. स. [अधिगतप्रतिसंवित्], वह, जिसे प्रतिसंवित ज्ञान प्राप्त है - .... अधिगतपटिसम्भिदो, महानि. 130; - फल त्रि., ब. स. [अधिगतफल], वह, जो स्रोतापत्ति, सकृदागामी, अनागामी एवं अर्हत् फलों के क्षण में पहुंच चुका है, चार फलों में से किसी एक में पहुंच चुका पुद्गल - कामरूपारूपभवेसु अधिगतफला तयो सकदागामिनो, खु. पा. अट्ठ. 145; - मान पु., तत्पु. स. [अधिगतमान], ज्ञान पा लेने का अहंकार - अधिमानेनाति अधिगतमानेन, अधिगता मयन्ति एवं उप्पन्नमानेनाति अत्थो, अधिकमानेन वा थद्धमानेनाति अत्थो, पारा. अट्ठ. 2.72; - रूपदस्सन त्रि., ब. स. [अधिगतरूपदर्शन], वह, जिसने बुद्ध के रूप का दर्शन किया है - अधिगतरूपदस्सनं कप्पायुकं काळं नाम नागराजानं आनयित्वा .... पारा. अट्ठ. 1.32; - वन्तु त्रि., अधि + गम + तवन्तु [अधिगतवत्], प्राप्त कर चुका, उपलब्ध किया हुआ - निब्बानमेव वा उपगते, अधिगतवन्तेति अत्थो, वि. व.
अट्ठ. 249; - सजी त्रि., [अधिगतसंज्ञिन्], किसी अप्राप्त या अज्ञात-वस्तु विशेष को प्राप्त अथवा पूरी तरह से ज्ञात मानने वाला - अनधिगते अधिगतसचिनो, पारा. 111. अधिगन्तुकाम त्रि., [अधिगन्तुकाम], शा. अ. किसी की प्राप्ति करने या उसका ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा रखने वाला - तं सम्बोधिं बुज्झितुकामस्स ... अधिगन्तुकामस्स, महानि. 363. अधिगन्तुमन त्रि., [अधिगन्तुमनस्क], मन में कुछ प्राप्त करने की बात सोचने वाला - सग्गाधिमनाति सग्गं अधिगन्तुमना, जा. अट्ठ. 5.397. अधिगम पु.. [अधिगम], शा. अ. प्राप्ति, उपलब्धि, अनुभूति, ज्ञान, आध्यात्मिक उपलब्धि, अर्हत्व-प्राप्ति - ... एवमेव ... अरियसावकस्स ... अधिगमं उपनिधाय, स. नि. 1(2).1243; तत्थ अधिगमोति चत्तारो मग्गा, चत्तारि फलानि, चतस्सो पटिसम्भिदा, तिस्सो विज्जा, छ अभिजाति, अ. नि. अट्ठ. 1.71; ला. अ. क. चार मार्गों (स्रोतापत्ति, सकृदागामी, अनागामी एवं अर्हत्), चार फलों, चार प्रतिसंवित् ज्ञानों, तीन विद्याओं एवं छ: अभिज्ञाओं की प्राप्ति - तत्थ अधिगमो नाम अरहत्तं, तम्हि पत्तस्स पटिसम्भिदा विसदा होन्ति, विभ. अट्ठ. 367; ला. अ. ख. अर्हत्व, क्योंकि इसी की प्राप्ति होने पर प्रतिसंवित ज्ञान अधिक प्रभावित होते है - अप्पमादव्हि .... विसेसानं ... अधिगमो होतीति, ध. प. अट्ठ. 1.158; तथारूप पुग्गलं आगमेनपि अधिगमेनपि हित्वा याति, ध. प. अट्ठ. 1.149; तञ्च पन बाहिरानं ... अधिगमानं ... विज्जमानतं सन्धाय भासितं, मि. प. 204; - कारण नपुं.. ष. तत्पु. स. [अधिगमकारण], आध्यात्मिक उपलिब्ध के साधन अथवा उत्प्रेरक - अमतपदन्ति अमतस्स निब्बानस्स पदं अधिगमकारणं, जा. अट्ठ. 5.95; - निदान नपुं. दीपंकर बुद्ध द्वारा सुमेध तापस के भावी बुद्ध होने की भविष्यवाणी से लेकर सिद्धार्थ गौतम की बोधि-प्राप्ति तक विस्तृत जातक-निदान-कथा के खण्ड का नाम - तत्थ अधिगमनिदानं ... दीपङ्करदसबलतो पट्ठाय याव महाबोधिपल्लङ्का वेदितब्बं, ध, स. अट्ठ. 33; - नीयता स्त्री., भाव, प्राप्यता, उपलभ्यता - निब्बानस्स किच्छेन अधिगमनीयतं दस्सेति, उदा. अट्ठ, 319; - न्तरधान नपुं., अधिगम + अन्तरधान [अधिगमान्तर्धान], आध्यात्मिक उपलब्धि का अदृश्य हो जाना, क. तीन प्रकार के अन्तर्धानों में से एक - तीणिमानि, महाराज, सासनन्तरधानानि ... अधिगमन्तरधानं पटिपत्तन्तरधानं
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अधिगम
लिङ्गन्तरधान, मि. प. 136; अधिगमे, महाराज, अन्तरहिते सुप्पटिपन्नस्सापि धम्माभिसमयो न होति. मि० प० 136; ख. पांच प्रकार के अन्तर्धानों में एक पञ्च अन्तरधानानि नाम, अधिगम अन्तरधानं, पटिपत्ति अन्तरधानं परियत्ति अन्तरधानं, लिङ्गअन्तरधानं, धातु अन्तरधानन्ति, अ. नि. अड. 1.70-71 पटिमानवा त्रि. [ अधिगमप्रतिभानवत्]. प्रतिभान या प्रतिसंवित्ज्ञान को पा चुका, तीन प्रकार के पटिभानों में से एक से युक्त तयो पटिभानवन्तो परियत्तिपटिभानवा, परिपृच्छापटिभानवा, अधिगमपटिभानवा, महानि. 171; द्रष्ट, पटिमान टि. जिसे चार स्मृतिप्रस्थानों, चार सम्यक्-प्रधानों, चार ऋद्धि-पादों, पांच इन्द्रियों, पांच बलों, बोधि के सात अङ्गों, मार्ग के आठ अङ्गों, चार आर्यमार्गों, श्रमण - जीवन के चार फलों, चार प्रतिसंवित्ज्ञानों एवं छः अभिज्ञाओं का ज्ञान हो, उसे अर्थ, धर्म एवं निरुक्ति का ज्ञान हो जाता है, उसे ही अधिगमपटिभानवा कहते हैं, द्रष्ट. महानि, पृ. 171; - प्पिच्छ त्रि, अधिगम + अप्पिच्छ, [ अधिगमाल्पिच्छ], ब० स०, अपनी विशिष्ट आध्यात्मिक उपलब्धि दूसरों को विज्ञापित करने हेतु अत्यल्प इच्छा रखने वाला यो पन सोतापन्नादीसु अज्ञतरो हुत्वा सोतापन्नाविभावं जानापेतुं न इच्छति, अयं अधिगमअपिच्छो नाम. म. नि. अट्ट (मू.प.) 1 (2) .45: द्रष्ट. अप्पिच्छ विपुल - वर-सम्पत्ति स्त्री, कर्म, स. सर्वोत्कृष्ट आध्यात्मिक अवस्था या च लोके अधिगमविपुलवरसम्पत्तियो, मि. प. 326 - ब्यत्ति स्त्री, तत्पु स. [ अधिगमव्यक्ति] अधिगम या आध्यात्मिक उपलब्धि का सुस्पष्ट प्रकाशन, अधिगम की अभिव्यक्ति - ताय च आसयसुखिया अधिगमव्यत्तिं.... खु. पा. अड. 84 तञ्च पटिपत्तिया अधिगमव्यत्तितो सत्यं सु. नि. अट्ठ. 2.152; सद्धम्म-पटिरूपक नपुं. शा. अ. सद्धर्म के अधिगम या उच्च आध्यात्मिक अवस्था का प्रतिरूप
द्वे सद्धम्मप्पत्तिरूपकानि अधिगमसद्धम्मपटिरूपकञ्च परियत्तिसद्धम्मप्यतिरूपकञ्च स. नि. अट्ठ. 2.176; ला. अ. विपश्यना-ज्ञान में उपक्लेशों के आ जाने से उदित सद्धर्म का प्रतिरूपक या मिथ्या स्वरूप इदं विपस्सनाआणस्स उपक्किलेसजातं अधिगमसद्धम्मप्पतिरूपकं स.नि. अट्ट. 2.117 सद्धा स्त्री, तत्पु, स. [बौ. सं. अधिगमश्रद्धा ], चार प्रकार की श्रद्धाओं में से वह श्रद्धा जो स्रोतापन्न, सकृदागामी एवं अनागामी फलों में स्थित आर्यपुद्गलों के चित्त में उदित होती है अधिगमसद्धा अरियपुग्गलान दी. नि. अड्ड. 2.107- सम्पदा स्त्री०,
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अधिचित्त
तत्पु. स. [ अधिगमसम्पत्] स्रोतापन्न आदि आर्य-फल की अवस्थाओं की प्राप्ति, आध्यात्मिक अवस्था-विशेष की पूर्णता, भिक्षु द्वारा प्राप्त सात प्रकार की सम्पदाओं में से एक सो आगमसम्पदा, अधिगमसम्पदा, पुब्बहेतु सम्पदा, अतत्थपरिपुच्छासम्पदा, तिरथवाससम्पदा, योनिसोमनसिकारसम्पदा बुद्धपनिस्सयसम्पदाति इमाहि सतहि समन्नागतो, जा. अट्ठ. 4.86 - सम्पन्न त्रि, तत्पु० स० [ अधिगमसम्पन्न ], अधिगम सम्पदा को प्राप्त, आध्यात्मिक अवस्था विशेष की पूर्णता तक पहुंचा हुआ अधिगमसम्पन्नस्सेव अधिगमपिच्छता, सु. नि. अह. 2.193, द्रष्ट अधिगमसम्पदा. अधिगमेतब्ब त्रि. अधिगम का प्रेर, सं. कृ. किसी अन्य के द्वारा प्राप्त कराये जाने योग्य, न अज्ञेन केनचि अधिगमेतब्बन्ति अनज्ञनेय्यं महाव. अड्ड. 243. अधिग्गहीत / अधिग्गहित त्रि, अधि + √गह का भू० क० कृ. [ अधिगृहीत ] पूरी तरह से ग्रहण किया हुआ, पूर्णरूप से अभिभूत पूर्णतया अपने अधीन लिया हुआ ये चरस धम्मा अक्खाता, अधिग्गहिता अ. नि. 1 (2) 32. अधिग्गहिता तुट्ठस्स, इतिवु, 74; देवानमिन्देन अधिग्गहीता, जा. अट्ठ. 3.378; बोधिसत्तेन अधिग्गहितोव, जा० अट्ठ. 5.97. अधिचिण्ण त्रि, अधि + √चर का भू. का. कृ., व्यवहृत, अनुष्ठित, पालित किया हुआ आचरित अधिचिणं विपरावत्तं, दी. नि. 1.7; यं तं अधिचिण्णं चिरकालसेवनवसेन पगुणं. महानि, अट्ट. 229 पाठा. अविचिण्ण अधिचित्त नपुं०, अव्ययी, [ अधिचित्त], उच्च स्तर की चेतना भागी वा भगवा अत्थरसस्स अधिचित्तस्स अधिपञ्ञायाति भगवा, महानि. 104; क. 1. चित्त का प्रणीततम स्तर कामावचरचित्तं पन चित्तं नाम तं उपादाय रूपावचरं अधिचित्तं नाम, तम्पि उपादाय अरूपावचर अधिचित्तं नाम । अपि च सब्बम्पि लोकियचित्तं चित्तमेव, लोकुत्तरं अधिचित्त अ. नि. अड. 2.206: क. 2. समाधि का उच्चतर स्तर, लोकुत्तर चित्त अधिचित्तन्ति चित्तसीसेन निद्दिट्ठो अधिको समाधि, पटि. म. अट्ठ. 2.68; अधिचित्तन्ति विपस्सनापादक समाधि पटि म. अ. 2.70: क.3. समय एवं विपश्यना ध्यान वाला शुद्ध चित्त अधिचित्तं समम्धविपस्सनाचित्तमेद, अ. नि. अड. 2.220 क.4. विपश्यना का संपादक आठ प्रकार का समापत्ति चित्त अथवा चार मार्गों एवं चार फलों में स्थित आर्य पुद्गलों का चित्त विपस्सनापादक असमापत्तिचित्त पन अधिचित्तन्ति
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अधिचेत
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अधिट्ठान
ततोपि च मग्गफलचित्तमेव अधिचित्तं, महानि. अट्ठ. 94; बिना ही उत्पन्न, आकस्मिक रूप से अथवा संयोगवश ख. अधिचित्तं अ., अव्ययी., चित्त में, चित्त से सम्बन्धित, उत्पन्न - असयंकारो अपरंकारो अधिच्चसमुप्पन्नो अत्ता च चित्त के विषय में - चित्तं अधिकिच्च धम्मा वत्तन्ती ति। लोको च, उदा. 149; अधिच्चसमुप्पन्नोति यदिच्छाय समुप्पन्नो अधिचित्तं, क. व्या. 321; अधिचित्तसिक्खासमादानं, अ. नि. केनचि कारणेन विना उप्पन्नोति .... उदा. अट्ठ. 281; 1(1).261; अधिचित्तमनुयुत्तेनाति दसकुसलकम्मपथवेसन असयंकारं अपरंकारं अधिच्चसमुप्पन्नं सुखदुक्खं, दी. नि. उप्पन्नं चित्तं चित्तमेव, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).401; ग. 3.103; - टि. बुद्धकालीन भारतीय चिन्तन में उत्पत्ति के अधिचित्ते अ., चित्त-विषयक, चित्त में - ... भिक्खं ... विषय में प्रतिपादित स्वतः उत्पत्ति, परतः उत्पत्ति एवं सीताय छायाय निसिन्नं अधिचित्ते यत्तं, म. नि. 2.1233; अहेतुक उत्पत्ति के सिद्धान्तों में अहेतुक उत्पत्ति बतलाने अधिसीले, अधिचित्ते, अधिपआय, महाव. 89; अधिचित्ते च वाला सिद्धान्त ही अधिच्चसमुप्पाद है, तुल०, पटिच्च-समुप्पन्न; आयोगो, एतं बुद्धान सासनं, ध. प. 185; घ. अधि उप. का - समुप्पन्निक पु., ऐसे विचारक जो धर्मों की अहेतुकसमाना.; - प्पवत्ति स्त्री०, कर्म. स. [अधिचित्तप्रवृत्ति], उत्पत्ति के सिद्धान्त का प्रतिपादन करते है; अहेतुकध्यान अथवा समाधि से सम्बन्धित प्रवृत्ति - अरिया हि उत्पत्तिवादी - एके समणब्राह्मणा अधिच्चसमुष्पन्निका, दी. अधिचित्तप्पवत्तिकालेपि .... उदा. अट्ठ. 154; - सिक्खा नि. 1.24; द्वे अधिच्चसमुप्पन्निका, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) स्त्री., कर्म. स. [बौ. सं. अधिचित्तशिक्षा], चित्त से 1(1).317; - च्चापत्तिक त्रि., अधि'च्च + आपत्तिक, यदा सम्बन्धित शिक्षा - अधिसीलसिक्खाय अधिचित्तसिक्खाय, कदा अपराध करने वाला, जब तब विनय-विरुद्ध आचरण म. नि. 1.407; अधिचित्तसिक्खासमादानं, अ. नि. 1(1).261. करने वाला भिक्षु - अधिच्चापत्तिको ... अनापत्तिबहुलो, म. अधिचेत त्रि., ब. स. [अधिचेतस], जागरूक चित्त वाला, नि. (म.प.) 2.115; अधिच्चापत्तिकोति कदाचि कदाचि आपत्ति
चैतन्य, प्रत्युत्पन्नमति - अधिचेतसो अप्पमज्जतो, उदा. आपज्जति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.111; - च्चुप्पत्ति त्रि., 117; पाचि. 79; थेरगा. 68.
कर्म. स., अत्यल्प प्रयोग, आकस्मिक उत्पत्ति वाला - अधिच्च' क्रि. वि., अकस्मात्, संयोगवश, बिना कारण के, अयञ्च बुद्धो उप्पन्नो, अधिच्चुप्पत्तिको मुनि, अप. 1.332. दुर्लभ रूप में (प्रायः स. प. के पू. प. में ही प्रयुक्त); - एवं अधिच्चका स्त्री., [अधित्यका], पहाड़ के ऊपर की समतल अधिच्चमिदं, भिक्खवे, यं तथागतो लोके उप्पज्जति अरहं भूमि, गिरिप्रस्थ - उद्धमधिच्चका सेलस्सा, अभि. प. 610, सम्मासम्बुद्धो, स. नि. 3(2).516; - दस्सावी त्रि., कभी- तुल. पाणिनि 5.2.34. कभी ही अथवा बहुत कम अवसरों पर देखने वाला - अधिछिन्दन नपुं.. [अधिछेदन], टुकड़ों में काट देना, अधिच्चदस्सावी खो पनाह, भन्ते, भगवतो, स. नि. 2(1).2; खण्डीकरण - असिसूनूपमा अधिछिन्दनटेन ..., म. नि. पाठा. अनिच्चदस्सावी; - लद्ध त्रि., कर्म. स. [अधीत्यलब्ध], अट्ठ. (मू.प.) 1(2).10; पाठा. अधिकुट्ठनत्थेन, आकस्मिक-रूप में प्राप्त, संयोगवश उपलब्ध, बिना कारण अधिजेगुच्छे अ., अधि + जेगुच्छ का सप्त. वि., ए. व., उत्पन्न, बिना हेतु मिला हुआ - अधिच्चलद्धं परिणामजं ते. घृणास्पद अथवा जुगुप्सित के विषय में - अधिजेगुच्छे पञ्हं जा. अट्ठ. 5.164; अधिच्चलद्धन्ति अधिच्चसमुप्पत्तिक, पुट्ठो ब्याकासिं, दी. नि. 1.158; अधिजेगुच्छति ... यदिच्छकं लद्धन्ति अत्थो, वि. व. अट्ठ. 289; सयंकतं किन्नु पापजिगुच्छनाधिकारे पऽहं पुच्छि, दी. नि. अट्ठ. 1.269. अधिच्चलद्धं, जिना. 13; - समुप्पत्ति स्त्री., कर्म. स., अधिट्ठान नपुं., [अधिष्ठान], शा. अ. वह जिस के ऊपर [अधीत्यसमुत्पत्ति], आकस्मिक उत्पत्ति, अपने आप से अथवा स्थित हुआ जाए, आधार, पास में स्थित होना, ला. अ. क. बिना कारणों के उत्पत्ति - सस्सताकारञ्च अधिच्च- प्रतिस्थापना-स्थल, आधार, आवास, आसन अवलम्ब, सहारा, समुप्पत्तिआकारञ्च निस्साय अतीते ... कङ्घति, म. नि. दृष्टिकोण - अधिद्वितियमाधारे ठानेधिट्ठानमुच्चते, अभि. प. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).74; - समुप्पत्तिक त्रि., ब. स. 1032, अधिट्ठानपापुनेस्वधि .... अभि. प. 11773 [अधीत्यसमुत्पत्तिक], आकस्मिक अथवा अकारण उत्पत्ति अधिट्टाने धिभवने तथा, सद्द. 3.882; ख, दृढ़ संकल्प, किसी वाला - तत्थ अधिच्चलद्धन्ति अधिच्चसमुप्पत्तिक वि. व. आलम्बन या विषय पर चित्त का निर्धारण, दृढ़ इच्छाशक्ति अट्ठ. 289; - समुप्पन्न त्रि., [अधीत्यसमुत्पन्न], स्वतः - भगवतो पञ्च महाअधिट्ठानानि कथेसि, पारा. अट्ठ. 1.64; उत्पन्न, हेतुओं एवं प्रत्ययों की सामग्री का आश्रय लिये चेतसो अधिष्टानं अभिनिवेसानसयं न उपेति, स. नि.
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अधिद्वान 168
अधिट्ठित 1(2).17; चेतसो अधिट्ठानन्ति चित्तस्स पतिद्वानभूतं. स. नि. 2.32; - वसिता स्त्री., [बौ. सं. अधिष्ठानवशिता], प्रथम अट्ठ. 2.30; अधिप्पायञ्च उपविचारञ्च अधिट्टानं, अ. नि. ध्यान आदि ध्यानों की अवस्था को नियन्त्रित करने वाली 2(2).76; दिद्विवानाधिट्टानपरियुट्ठानाभिनिवेसानुसयानं.... म. पांच प्रकार की मानसिक शक्तियों में से एक, वह शक्ति नि. 1.190; ग. चार प्रकार के दृढ़ संकल्प - चत्तारि जिसके द्वारा भवङ्ग-चित्त के प्रवाह के वेग को रोक कर एक अधिवानानि - पञआधिट्टानं, सच्चाधिद्वानं, चागाधिट्टानं. निर्धारित कालावधि के लिये चित्त को ध्यानस्थ रखने की उपसमाधिवानं, दी. नि. 3.183; - निद्धि स्त्री., [अधिष्ठान- क्षमता उत्पन्न कर दी जाती है तथा भवङ्ग-पात से चित्त का ऋद्धि], सुदृढ़-संकल्प की अलौकिक शक्ति, अपनी इच्छा से रक्षण करा दिया जाता है - ... भवङ्गवेगं उपच्छिन्दित्वा अपने शरीर के बाहर मनोमय-काय के निर्माण करने की यथापरिच्छिन्नकालं झानं ठपेतुं समत्थता भवङ्गपाततो शक्ति - अयञ्च नेव बुद्धानं अधिट्ठानिद्धि, न भावनामयिद्धि, रक्खणयोग्यता अधिट्ठानवसिता नाम, अभि. ध. वि. टी. ध. स. अट्ठ. 16; - नुपोसथ पु.. [बौ. सं. अधिष्ठानुपोसथ], 229; - टि. पांच वशिताएं निम्नलिखित हैं : - 1. उपोसथ का वह प्रकार जिसमें परिस्थिति वश किसी भिक्षु आवज्जनवसिता 2. समापज्जनव. 3. अधिट्ठानव., 4. को अकेले ही अपना स्वयं का संकल्प कर उपोसथ करना वुट्ठानव., 5. पच्चवेक्खणव. ; - विधान नपुं. तत्पु. होता है - अपरेपि तयो उपोसथा ... अधिट्ठानुपोसथो, परि. [अधिष्ठानविधान], अधिष्ठान विषयक नियम - तत्रिदं 246, तुल. पुग्गलुपोसथ; - चित्त नपु., [अधिष्ठानचित्त]. अधिट्ठानविधानं, विसुद्धि. 2.346; - सुञ नपुं.. तत्पु. स. अधिष्ठान से भरा हुआ चित्त, दृढ़ संकल्प वाला मन - .... [अधिष्ठानशून्य], विभिन्न अधिष्ठानों में प्राप्त धर्मों की अधिछानचित्तेन सहेव सतं होति, विसुद्धि. 2.14; किं तस्स शून्यता या अभाव - नेक्खम्माधिट्टानं कामच्छन्देन सुझं अधिट्ठानचित्तस्स उप्पादक्खणे गच्छति .... विसुद्धि. 2.32; .... अरहत्तमग्गाधिट्टानं सब्बकिलेसेहि सञ्ज इदं अधिट्ठानसञ्ज - जवन नपुं., [अधिष्ठानजवन], चित्त द्वारा वस्तु के पटि. म. 358; - हार पु., कर्म. स., नेत्ति. के 16 हारों, स्वरूप-निर्धारण की प्रक्रिया का एक विशेष क्षण, द्रष्ट, अथवा निर्वचन-प्रकारों में से एक; नेत्ति. 2; नेत्ति. 5; - हारजवन के अन्तः; - पवारणा स्त्री..[बौ. स. अधिष्ठानप्रवारणा], सम्पातो पु., नेत्ति के एक खण्डविशेष का नाम, नेत्ति. संकल्पित उपोसथ की परिसमाप्ति, विशेष परिस्थिति के 88-89. कारण किसी अकेले भिक्षु के द्वारा किये गये उपोसथ की अधिट्ठायक त्रि., [बौ. सं. अधिष्ठायिक/ अधिष्ठायक], परिसमाप्ति - अधिट्ठानुपोसथो च अधिट्टानपवारणा च पर्यवेक्षक, अधीक्षक, निदेशक, स. प. के उ. प. में पुग्गलस्सेव कप्पति, परि. अट्ठ. 165; द्रष्ट. अधिट्ठानुपोसथ; कम्माधि. कम्मन्ताधि०, नवकम्माधि. के अन्त. द्रष्ट... - पारमी स्त्री., कर्म. स. [अधिष्ठानपारमिता], सुदृढ़- अधिद्वित त्रि., अधि+ Vठा का भू. क. कृ. [अधिष्ठित], क. संकल्प सम्बन्धी पारमिता, दस पारमिताओं में आठवीं पारमिता कर्म. वा., किसी के द्वारा अधिकृत, किसी के द्वारा सम्पन्न - मम सीलन भिन्दिस्सामी ति अधिट्ठानं अधिट्ठानपारमी, कर दिया गया था, सञ्चालित, परिरक्षित, अभिभूत, जा. अट्ठ. 5.167; सीलनेक्खम्मपञआवीरियखन्तिसच्च- अधिगृहीत - चोरेहि अधिट्टितो मग्गो चोरकन्तारं नाम, जा. अधिवानमेत्ताउँपक्खापारमीति इमा दस पारमियो, उदा. अट्ठ. 1.108; अधिट्टितं रजनाय रतं. परि. 403; तं मया अट्ठ. 101, द्रष्ट. पारमी के अन्त.; - बल नपुं.. तत्पु. स. अधिट्टितमेव, जा. अट्ठ. 2.207; अनुहिताति अधिहिता, उदा. [बौ. सं. अधिष्ठानबल]. सुदृढ़ संकल्प लेने का बल - तत्थ अट्ठ. 264; ख. कर्तृ. वा., अवस्थित, स्थित, आ धमका हुआ, किञ्चि अनवसेसेन्तो अधिट्ठानबलेन झापेत्वा निब्बायि, उदा. सन्निविष्ट, अपने को लगाया हुआ, विद्यमान; ऊपर स्थित अट्ठ. 350; सब्बकिलेसे पजहन्तो अरहत्तमग्गवसेन चित्तं - न तं धम्म अधिद्वितो, जा. अट्ठ. 3.236; एकचरियं अधिट्ठातीति अधिट्ठानबलं, पटि. म. 346; - भाव पु., तत्पु. अधिद्वितो, सु. नि. 826; ग. नपुं., निमि. कृ. के आशय में स. [बौ. सं. अधिष्ठानभाव], प्रमुख आधार होने की स्थिति प्रयुक्त - किं गिहीनं कम्मन्तं अधिट्टितेन, पारा. 107; - ट्ठान - सीलस्स अधिट्ठानभावतो, उदा. अट्ठ. 339; खन्धापि नपुं. कर्म. स. [अधिष्ठितस्थान], किसी के द्वारा गृहीत या खन्धमूलकदुक्खस्स अधिट्टानभावतो, सु. नि. अट्ठ. 1.37; - अधिकृत पद या स्थान - ... तेन पदवळजस्स अधिद्वितहानं मन नपुं., सुदृढ़ संकल्प की शक्ति से भरा हुआ मन - पत्वा .... जा. अट्ठ. 4.346; - पत्त नपुं., कर्म. स. मनोमयन्ति अधिद्वानमनेन निम्मितत्ता मनोमयं विसुद्धि. [अधिष्ठितपात्र], भिक्षु के लिये निर्धारित भिक्षापात्र - सब्बेहेव
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अधिद्विति
169
अधिपञ्जा
शासक, अधिपति - इस्सरो नायको सामि पतीसाधिपति पभ अय्याधिपाधिभू नेता .... अभि. प. 725, कोसलरट्ठा., खमा., गणा., गरुड़ा., जना., तारका., दिजा., धम्मा., नरा., भूता., मनुजा., मिगा., यक्खा., रट्टा., लोका., विहगा., सुरा. आदि के अन्त. द्रष्ट... अधिपच्च नपुं., अधिपति का भाव. [आधिपत्य], ईश्वरत्व, अधिपति होने की अवस्था - रज्जञ्च पटिपन्नास्म,
आधिपच्चं सुचीरत, जा. अट्ठ. 5.50; तुल. अधिपतिय, अधिपज्जति अधि + पद का वर्त., प्र. पु., ए. व. [अधिपद्यते]. प्राप्त करता है, आकर गिर जाता है, आपतित होता है - अथो अत्थं गहेत्वान, अनत्थं अधिपज्जति, अ. नि. 2(2).233. अधिपत्ति अव्ययी. अ. [अधिप्रज्ञप्ति], क. निर्वचन अथवा व्याख्या के विषय में, व्याख्यान-विषयक - अथ खो अहमेव तत्थ भिय्यो यदिदं अधिपत्ति , दी. नि. 3.103; ख. स्त्री., उत्कृष्टतम व्याख्यान - ... अधिपत्ति नाम खन्धपत्ति, धातुपञ्जत्ति, आयतनपत्ति, इन्द्रियपत्ति, सच्चपञत्ति, पुग्गलपञत्तीति एवं वुत्ता छ पञत्तियो, दी. नि. अट्ठ.
3.90.
अधिद्वितपत्तं गहेत्वा सन्निपतितब्बं पारा. 369; - सजी त्रि., [अधिष्ठितसंज्ञी], किसी भी अनिश्चित को सुनिश्चित होने की समझ रखने वाला, अगृहीत को गृहीत मानने वाला - ... अनधिट्टिते अधिट्टितसञ्जी, पारा. 376. अधिट्ठिति स्त्री., [बौ. सं. अधिस्थिति], निर्धारण, दृढ़ संकल्प, आधार, स्थान - अधिट्ठितियमाधारे ठानेधिट्ठानमुच्चते, अभि. प. 1032. अधितिद्वति/अधिट्ठाति अधि + Vठा, वर्त. प्र. पु., ए. व. [अधितिष्ठति], क. व्यावहारिक प्रयोग में लाता है, निष्पादित करता है, हाथ में लेता है, देखभाल करता है - चेतसो अधिट्टानं अभिनिवेसानुसयं न उपेति ... नाधिट्ठाति, स. नि. 1(2).17; न सक्कच्चं कम्मन्तं अधिट्टाति, अ. नि. 1(1).138; ख. आग्रह करता है, किसी बात पर बल देता है, डटा रहता है, जमा रहता है - हाय पू. का. कृ. - महाजनो मा पस्सतूति अधिट्ठाय, जा. अट्ठ. 3.244; ग. ध्यान केन्द्रित करता है, किसी पर अपना ध्यान एकाग्र करता है, निश्चय करता है, किसी ओर विचारों को ले जाता है, इच्छा अथवा संकल्प करता है - हासि अद्य., प्र. पु. ए. व. - एवमेवं एता खण्डदन्ता पलितकेसा होन्तुति अधिवासी ति, जा. अट्ट, 1.88. अधित्थि अ., अव्ययी. स. [अधिस्त्रि], स्त्री के विषय में, नारी से सम्बन्धित - ... यथा लोके इत्थीसु कथा अधित्थीति वुच्चति ..., विसुद्धि. 1.340; क. व्या. 345, इत्थीसु एक अधिकिच्च तथा पवत्तति सा कथा अधित्थि, सद्द... 3.749. अधिदेव पु., देवों के मध्य अधिपति, देवों में ऊंचे स्थान वाला देव - अतिरेको देवो अतिदेवो, एवं अधिदेवो, अधिसील, सद्द. 3.752; - आणदस्सन नपुं, देवों से सम्बन्धित विषयों का ग्रहण करने वाला ज्ञान - अट्ठपरिवर्ल्ड अधिदेवत्राणदस्सनं, अ. नि. 3(1).128; - त्तकर पु., अधिदैवत्व की ओर जाने वाला धर्म या कारण - अत्तनो च। परस्स च अधिदेवत्तकरं सब धम्मजातं वेदीति, सु. नि. अट्ठ. 2.298, तुल. अधिदेवकर; - देवे अव्ययी. अ. अधि + देव का सप्त. वि., ए. व. अथवा द्वि. वि., ए. व., देवताओं के विषय में, देव बनाने वाले धर्मों के विषय में - अधिदेवे अभिआय .... सु. नि. 1154; अधिदेवे अभिआयाति अधिदेवकरे धम्मे अत्वा .... सु. नि. अट्ठ. 2.298; अधिदेवे मयं ... भगवन्तं अपच्छिम्ह, अधिदेवे भगवा ब्याकासि. म. नि. 2.340. अधिप पु., केवल स. उ. प. में ही प्रयुक्त [अधिप], राजा,
अधिपज्ञा स्त्री., [अधिप्रज्ञा], उच्चस्तरीय प्रज्ञा, प्रज्ञा का उत्तम स्तर, उत्कृष्टतम् प्रज्ञा, प्रज्ञा के विषय में शिक्षा, शिक्षा के तीन प्रकारों में एक- अधिसील अधिचित्तं अधिपा , पटि. म. 411; किं सिक्खति? अधिसीलं अधिचित्तं अधिपअञ्च ..., उदा. अट्ठ. 295; तुल. अधिचित्तं; - अथ खो अहमेव तत्थ भिय्यो, यदिदं अधिपज दी. नि. 1.157; अट्ठ. की दृष्टि में अधिपज वस्तुतः अधिपा का लिङ्ग-विपर्यास है - अधिपञ्जन्ति एत्थ लिङ्गविपल्लासो वेदितब्बो, दी. नि. अट्ठ. 1.267; इध, भिक्खवे, भिक्खु आसवानं खया अनासवं चेतोविमत्तिं, पञआविमुत्तिं दिद्वेव धम्मे सयं अभिआ सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरति, अयं वुच्चति, भिक्खवे, अधिपा सिक्खा , अ. नि. 1(1). 268; - अधिसीले, अधिचित्ते, अधिपआय, महाव. 89; तेपि न सक्खिस्सन्ति विनेतुं अधिसीले अधिचित्ते अधिपाय, अ. नि. 2(1).99; ममं सावका अधिपआय सम्भावेन्ति, म. नि. 2.212; - धम्मविपस्सना स्त्री., कर्म. स., [अधिप्रज्ञधर्मविपश्यना], प्रज्ञा के आलोक में, धर्मों में अनित्य, दुख एवं अनात्म की अनुपश्यना - न लाभी अधिपआधम्मविपस्सनाय, अ. नि. 1(2).107; अधिपाधम्मविपस्सनायाति सङ्घारपरिग्गाहकविपस्स
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अधिपतति
नात्राणस्स, तहि अधिपज्ञासङ्घातञ्च पञ्चक्बन्धसङ्घातेसु च धम्मेसु विपस्सनाभूतं तस्मा अधिपञ्चाधम्मविपस्सना ति दुच्चतीति अ. नि. अट्ट 2.318: अनिच्चदुक्खादिवसेन सब्बधम्मतीरणं अधिपञ्ञा धम्मविपस्सना, अ. नि. टी. 2.250; - सिक्खा स्त्री, कर्म. स. [बौ. सं. अधिप्रज्ञाशिक्षा ], तीन शिक्षाओं में से एक अभिधर्म की अमला प्रज्ञा विषयिणी शिक्षा तिस्सो सिक्खा अधिसीलसिक्खा, अधिचित्तसिक्खा,
अधिपञ्ञासिक्खा, दी. नि. 3.175; म० नि० 1.407. अधिपतति अधि + पत का वर्त. प्र. पु. ए. व. [अधिपतति ]. क. तेजी से पार कर जाता है, अदृश्य हो जाता है- अतिपतति वयो खणो तथेव, जा. अट्ठ. 4.100; अतिविय पतति सीधे अतिक्कमति, तदे: ख. मर्दन करता है, अभिभूत कर देता है, आक्रमण करता है, किसी के विपरीत आ धमकता है; चढ़ बैठता है: - तित्वा पू. का. कृ. गावी तरुणवच्छा अधिपतित्वा जीविता वोरोपेसि उदा. 78; अधिपतित्वा ति अभिभवित्वा महित्वा उदा. अड
-
170
76.
अधिपतत्त नपुं, 'विदितत्त' के मि. सा. पर अधि + पति से निर्मित भाव. [ अधिपतित्व] अधिपति होने की अवस्था; प्रभुत्व, स्वामित्व, मालिकी, अधिपति-भाव से प्रवृत्त होने की अवस्था नेक्खम्माधिपतत्ता पञ्ञ, पटि म 99; नेक्खम्माधिपतत्ता पज्ञाति नेक्खम्मं अधिकं कत्वा नेक्खम्माधिकभावेन पवत्ता पञ्ञ, पटि. म. अट्ठ. 1.273. अधिपतन नपुं., [ अधिपतन ], किसी का विपरीत दिशा की ओर से उड़ते हुए आ गिरना दीपसिखं अधिपतनतो अधिपातका ति अधिप्पेता, उदा. अट्ठ. 290. अधिपति पु.. [ अधिपति] क शासक, स्वामी, प्रभु इस्सरो - नायको सामि पतीसाधिपति पभु, अभि. प. 725; अधिपति के योग मे ष. वि. अथवा सप्त वि. का प्रयोग - गोणानं अधिपति गोणेसु अधिपति क. व्या. 305 सह. 3.724; गन्धब्बानं अधिपति, ... कुम्भण्डानं अधिपति.... नागानञ्च अधिपति... यक्खानञ्च अधिपति, महाराजा यसस्सिसो दी. नि. 2.188-189; ख. ला. अ. नियन्त्रक, प्रधान तथ्य, महत्त्वपूर्ण तत्त्व सो अत्तानंयेव अधिपति करित्या अकुसलं पजहति अ. नि. 1 (1) 172: एवं अत्ताधिपति हरी नाम होति, ध. स. अट्ठ. 170; अधिपतिवसेन पन मनो सेट्टो एतेसन्ति मनोसेडो, ध. प. अ. 1.14: पच्चय पु.. कर्म. स. [बौ. सं. अधिपतिप्रत्यय ] अभिधर्म का पारिभाषिक शब्द, चौबीस प्रकार के प्रत्ययों में से एक, चित्त एवं चेतसिकों की उत्पत्ति
अधिपात
के लिए प्रमुख अथवा जेष्ठ बनाया हुआ छन्द, वीर्य, चित्त एवं विमर्श में से कोई एक धर्म- जेट्ठकट्ठेन उपकारको धम्मो अधिपतिपच्चयो विसुद्धि. 2.163; छन्दाधिपति... अधिपतिपच्चयेन पच्चयो .... वीमंसाधिपति ...... अधिपतिपच्चयेन पच्चयो, पट्टा. 1.2; अभि. अव., 175 यं नपुं. अधिपति का भाव [आधिपत्य] अधिपति या स्वामी या प्रमुख होने की अवस्था अधिपतिनो भावो अधिपतियं मो. व्या. 4.80; स. उ. प. के रूप में द्रष्ट, अत्ताधि, आरम्भणाधि, उळाराधि चित्ताधि., छद्वाराधि., छन्दाधि०, तारकाधि., तावतिंसा०, तिदसा., दिपदा, धम्माधि.. नागाधि.. मग्गाधि, मग्गाधि, मनुजाधि०, यक्खाधि, रद्वाधि, आदि के अन्त द्रष्ट. आधिपच्च. अधिप्पत्थित त्रि.. [अधिप्रार्थित), इच्छित अभीप्सित, वह जिसकी कामना की गई हो, याचितयं वत नो अहोसि इच्छितं .... यं अभिपत्थितं ... दी. नि. 1.105; 2.173; पाठा. अभिप्पत्थित.
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अधिप्पन्न त्रि. अधि + पद का भू क. कृ. [अधिपन्न ]. क. आपतित आ पड़ा हुआ, अनुचित कार्य किया हुआ, आपत्ति या अपराध में फंसा हुआ - अस्माकं अधिपन्नानं, खमस्सु राजकुञ्जराति जा. अड. 5.376: अधिपन्नानन्ति दोसेन अपराधेन अज्झोत्थटानं तदे ख. त्रि. किसी के आधिपत्य को प्राप्त किया हुआ, अधिगृहीत अन्तकेनाधिपन्नस्स ध. प. 288 अप. 2.228 स. नि. 1.88; अन्तकेनाधिपन्नस्साति मरणेन अज्झोत्थटस्स स. नि. अड्ड 1.23; जीवितन्तकरेन मच्चुना अभिभूतस्स जा. अड. 4.356 ग. नपुं. त्रुटि, भ्रम - यो च अत्तना अधिपन्नं अतिक्कन्तं अञ्ञस्मिं कतदोसं जानाति, जा. अट्ठ. 3.33. अधिपा स्त्री. [ अधिपा] नारी स्वामिनी, अध्यक्षा श्रेष्ठउद्वाय नारियो पमदाधिपा, जा. अड. 5.389: पमदाधिपाति पमदानं उत्तमा तदे..
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अधिपात' पु. अधि + √पत + घञ [ अधिपात], विभाजन, विखण्डन, केवल स. उ. प. के रूप में ही प्रयुक्त, द्रष्ट. मुद्धातिपात के अन्त
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अधिपात' पु० [अधिपतन्ती ति अधिपाता], शलभ, उड़कर प्रकाश पर आ पड़ने वाला कीट-पतंग पतन्ति पज्जोतमिवाधिपातका, उदा. 155; डंसाधिपातानं सरीसपानं, सु. नि. 970; ततो ततो अधिपतित्वा खादन्ति, तस्मा अधिपाताति युध्यन्ति, सु. नि. अड. 2.264 क पु.. पूर्ववत् तेन खो पन समयेन सम्बहुला अघिपातका तेसु आपातपरिपातं अनयं आपज्जन्ति, उदा. 154; दीपसिखं
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अधिपातयिस्सं
171
अधिभवति/अधिभोति
अधिपतनतो अधिपातका ति अधिप्पेता, उदा. अट्ठ. 290, पाठा. अधिपातिक. अधिपातयिस्सं अधि + (पत, प्रेर. भवि., उ. पु., ए. व., तुड़वा दूंगा, छिन्न-भिन्न करा दूंगा, टुकड़े-टकड़े करा दूंगा - पासञ्च त्याहं अधिपातयिस्सं, जा. अट्ठ. 4.300; तत्थ
अधिपातयिस्सन्ति छिन्दयिस्सं, जा. अट्ठ. 4.300. अधिपातिमोक्खे अ. अव्ययी., प्रातिमोक्ष के विषय में - तेपि ... सङ्घ विवादं जनेय्यु अज्झाजीवे वा अधिपातिमोक्खे, म. नि. 3.31; - मोक्खं नपु., प्रातिमोक्ष से संबंधित - किं तत्थ पातिमोक्खं किं तत्थ अधिपातिमोक्खन्ति? पञत्ति पातिमोक्खं विभत्ति अधिपातिमोक्खं परि. 2. अधिप्पग्घरति अधि + प + Vघर का वर्त., प्र. पु., ए. व. [अतिप्रघरति], पिघल कर बहता है, ऊपर होकर बहता है - रन्तं वर्त. कृ., नपुं., वि. वि., ए. व. - असकिं सब्बकालं
अधिपग्घरन्तं मम इदन्ति, थेरीगा. अट्ठ. 308. अधिप्पसन्नतर त्रि., तुल. विशे. [अधिप्रसन्न], अत्यधिक शान्त, अत्यधिक प्रसन्न - महामुखं अभिप्पसन्नतरं कत्वा, उदा. अट्ठ. 291; पाठा. अभिप्पसन्न. अधिप्पागा अधि + प + /गम का अद्य., प्र. पु., ए. व., उसने अपने कदम या पद-निक्षेप किसी की ओर मोड़े, किसी ओर गया - स्वाधिप्पागा भारद्वाजो, विधुरस्स उपन्तिकं
जा. अट्ठ. 5.52; अधिप्पागा, गतोति अत्थो, तदे.. अधिप्पाय पु., [अभिप्राय], मन में विद्यमान आशय या विचार, अभिप्राय - अपि च खो पन मारस्स यो अधिप्पायो, मि. प. 155; - नय पु., [अभिप्रायनय], एक प्रकार का अर्थ-व्याख्यान, व्याख्यान की एक पद्धति - देसनानयो अधिप्पायनयेन नीयति, सद्द, 2.396; - निदस्सन नपुं.. [अभिप्रायनिदर्शन], अपने मन के अभिप्राय की सूचना, अभिव्यक्ति या प्रकाशन, तात्पर्य का प्रकाशन - तेन हीति तस्साधिप्पायनिदस्सनं, सु. नि. अट्ठ. 1.141; - फल नपुं, ष. तत्पु., [अभिप्रायफल], अपने मन के अभिप्राय अथवा इच्छा का पूरा होना, अभिप्राय का फल - अधिप्पायफलन्ति अत्तनो अधिप्पायफलं सम्पस्समाना, जा. अट्ठ. 6.44; - योजना स्त्री., [अभिप्राययोजना], शब्द के अभिप्राय की दृष्टि से उसके अर्थ की योजना, पदार्थ की दृष्टि से नहीं, वास्तविक तात्पर्य की योजना - अयं पनेत्थ अधिप्पाययोजना, सु. नि. अट्ठ. 1.81; 122; - विदू त्रि., [अभिप्रायवित्], दूसरे लोगों के अभिप्रायों को जानने वाला - अधिप्पायविदू जातो, सुगतरस महामते, अप. 2.112; बहस्सुतो महाजाणी,
अधिप्पायविद् मने, तदे; तस्सा ञत्वा अधिप्पायं अधिप्पायविद् विदू, म. वं. 19.81; - यानुरूपं अ., अव्ययी. [अभिप्रायानुरूपं], मन के अभिप्राय के अनुरूप - यथाधिप्पायन्ति अधिप्पायानुरूपं उदा. अट्ठ. 127; - यानुसन्धि स्त्री., द्व. स. [अभिप्रायानुसन्धि], अभिप्राय एवं उसका प्रयोग अथवा अर्थ-वर्णना - अधिप्पायानुसन्धितो पन एवं वेदितब्बा, सु. नि. अट्ठ. 1.53. अधिप्पेत त्रि., [अभिप्रेत], क. अभिप्रेत, मन द्वारा चाहा गया, चिन्तित - ... अयं इमस्मिं अत्थे अधिप्पेतो भिक्खूति, पारा. 68; अयं इमस्मि अत्थे अधिप्पेता भिक्खुनी ति, पाचि. 297; .... इमस्मिं ठाने बुड्डो ति अधिप्पेतो, जा. अट्ठ. 1.216; ख. इच्छित, अभीप्सित, चाहा गया, चाहने योग्य - यं वत नो अहोसि इच्छितं, यं आकडितं, यं अधिप्पेतं, यं अभिपत्थितं. दी. नि. 1.105; - तत्थदीपना स्त्री., [अभिप्रेतार्थदीपना, वास्तविक तात्पर्य की दृष्टि से अर्थ का निर्धारण - अयं अनुपदतो अत्थवण्णना. अयं पनेत्थ अधिप्पेतत्थदीपना, खु. पा. अट्ठ. 201; अनुपदतो अत्थवण्णना का विप.. अधिबन्ध पु.. [अधिबन्ध], बन्धन, कारागार का बन्धन -
उत्तरिपि अधिबन्धं निगच्छेय्य, म. नि. 3.209; अधिबन्धं निगच्छेय्याति ... अत्तना पि बन्धं निगच्छेय्य, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.157. अधिब्रह्मानं अ., अव्ययी. स., [अधिब्रह्माणं], ब्रह्मा के विषय में
- अधिब्रह्माणं मयं भन्ते, भगवन्तं अपच्छिम्हा, म. नि. 2.340. अधिभवति/अधिभोति अधि + Vभू का वर्त., प्र. पु., ए. व., अभिभूत करता है, वशीभूत करता है, अतिशय की स्थिति में रहता है - मानं नाधिभोति ... मानं अधिभोति, अ. नि. 3(2).216; 3(2)250; - न्ति वर्तः, प्र. पु., ब. व. - समुदाचरन्तीति अभिभवन्ति अज्झोत्थरित्वा वत्तन्ति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.120; - भोसि अद्य., प्र. पु.. ए. व. - न भिक्खु रूपे... सद्दे ... गन्धे ... रसे ... फोडब्बे ... धम्मे अधिभोसि. स. नि. 2(2).186; - भोसिं अद्य., उ. पु., ए. व. - अभिभोसिं तहिं अञ, अप. 2.214; पाठा. अभिभोमि; - भोसु अद्य., उ. पु., ब. व. - अधिभोसु ति रूप पि यस्मा दिस्सति पालियं, सद्द. 1.29; - ज्झमवि अद्य, प्र. पु., ए. व. - अज्झभवीति अधि अभवि विनासं पापेसि, जा. अठ्ठ. 2.66; मा वो कोधो अज्झभवि, स. नि. 1.277; -- ज्झभविं अद्य., उ. पु., ए. व. - सो वेदजातो अज्झभविं अमित्ते, जा. अट्ठ. 2.279; - ज्झभू अद्य., म. पु., ए. व. - यो त्वं दुज्जयमज्झभू, इतिवु. 55; - भंसु अद्य.. प्र. पु., ब. व. -
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अधिभवन
172
अधिमानस/अधिमनस भिक्खं रूपा अधिभंसु, स. नि. 2(2).186; - विस्सन्ति भवि., .... ध. स. अट्ठ. 17; अधिमत्तधितिमन्तो एवं परमेन प्र. पु.. ब. व. - सुद्धतरं वो एते अधिभविस्सन्ती ति..... जा. पञआवेय्यत्तियेन समन्नागता, म. नि. 1.117; - परित्तता अट्ठ. 2.318; - वित्वा/भुय्य पू. का. कृ. - में स्त्री., भाव., अधिक अल्पमात्रा में होने की स्थिति- अपि च अधिभवित्वा अतिक्कमित्वा, जा. अट्ठ. 5.27; देवमारब्रह्मनो कोधस्स अधिमत्तपरित्तता वेदितब्बा, महानि. 157; - भाव सिरिया च तेजसा अभिभुय्य, खु. पा. अट्ठ. 124; अजे पु., बहुतायत, अधिकता - अधिमत्तभावो परित्तभावो च, महानि. देवेधिभवित्वा, अप. 1.357; पाठा. अभिभवित्वा.
अट्ठ. 257; वेदनानं अधिमत्तभावं विदित्वा, उदा. अट्ठ. 327; अधिभवन नपुं., अधि + vभू का क्रि. ना., [अभिभवन], - वेदनाप्पत्त त्रि., अत्यधिक पीड़ा से ग्रस्त - अधीनता, अभिभूत हो जाना, अभिभव, पराभव, पराजय - अधिमत्तवेदनाप्पत्तो हुत्वा, पे. व. अट्ठ. 246; - सतिमन्तु अभिभवनन्ति परिभुञ्जनं भवन्ति अज्झोत्थरणं सद्द. 1.86%3; त्रि., अत्यधिक बुद्धि एवं स्मृति वाला - एवं अधिमत्तसतिमा पाठा. अभिभवन.
अधिमत्तगतिमा अधिमत्तधितिमा सावको .... ध. स. अट्ठ. अधिभासति अधि + vभास का वर्त, प्र. पु., ए. व., अधिक 17; एवं अधिमत्तसतिमन्तो ... समन्नागता, म. नि. 1.1173; चमकता है, प्रभासित होता है - न चाधिभासति, न च - सिनेह पु., अत्यधिक स्नेह - सत्थरि अधिमत्तसिनेहेन
अभिभासति, न चापि भासति, उदा. 156; पाठा. अभिभासति. पहं न पुच्छति, ध. प. अट्ट, 1.4; पाठा. अभिमत्तं. अधिभू पु., [अधिभू], स्वामी, राजा, अधिपति, प्रभु - अधिमत्तं क्रि. वि., अ., क. अत्यधिक मात्रा में, बहुत बढ़अय्याधिपाधिभू नेता..., अभि. प. 725; भिक्खु रूपाधिभू... चढकर - अधिमत्तं वायति, मि. प. 255; ख. सर्वोत्कृष्ट रूप अधिभू .....अधिभोसि, स. नि. 2(2).187; स. प. के उ. प. में, उच्चतम मात्रा में, अधिकतर रूपों में - द्वीसु येव के रूप में द्रष्ट., आगे, अनधि., जनाधि., तिदिवा., दिवसेसु अधिमत्तं, मि. प. 172; अहञ्च खो अधिमत्तं मारधेय्या. के अन्त...
समलङ्कततरा तया, पे. व. 139; स. उ. प. के रूप में अधिभूत त्रि., [अभिभूत], अधीन में किया हुआ, वश में किया विसयाधिमत्त के अन्त., द्रष्ट... हुआ, विजित - भिक्खु रूपाधिभूतो... अधिभूतो, अनधिभू, अधिमन त्रि., [अभिमनस्], किसी पर मन बना चुका, वह स. नि. 2(2).186; पाठा. अभिभूत, स. उ. प. के रूप में जिसका अभिप्रेत कुछ बन चुका है, प्रसन्न चित्त, ऊपर उठे अविज्जा., तण्हा., दोमनस्सा., धम्मा., फोट्टब्बा., रसा., मन वाला, प्रसन्न अथवा आनन्द भरे मन वाला - विविध रूपा., सद्दा. के अन्त...
अधिमना सुणोमहन्ति ... अधिमना पसन्नचित्ता हुत्वा ..., अधिमत्त त्रि., [अधिमात्र], क. अधिक मात्रा वाला, अत्यधिक, जा. अठ्ठ, 4.401. बहुत अधिक - अधिमत्तं राहुले, महाव. 105; अधिमत्तो दाहो, अधिमनस त्रि., दृढ़ अभिप्राय वाले मन वाला, निश्चिन्त म. नि. 1.313; अधिमत्ता सीसे सीसवेदना, म. नि. 1.312; मानसिक प्रकृति वाला, मनस्वी - अधिमानसा भवाथ, सु. ख. अधिक बलवान, अधिक श्रेष्ठ, अधिक शक्तिसम्पन्न - नि. 697, तुल. अधिमानस एवं अधिचेतस. सब्बे सं अधिमत्तञ्च पोरिसं, अप. 1.75; तस्सिमानि अधिमान/अभिमान पु., अहंकार, घमण्ड, दर्प, मिथ्या-भ्रम, पञ्चिन्द्रियानि अधिमत्तानि, अ. नि. 1(2).173; अधिमत्ता । छल-प्रपञ्च - नो प्र. वि., ए. व. - येसं अप्पत्ते पतसआय होन्ति बलवतियो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).271; - कसिम अधिमानो उप्पज्जति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).192; ... त्रि., अत्यधिक मात्रा में कृश, बहुत अधिक दुर्बल - अरहत्ताधिमानो उप्पज्जतीति, उदा. अट्ठ. 66; - नं द्वि. अधिमत्तकसिमानं पत्तो, म. नि. 1.114; अधिमत्तकसिमानन्ति वि., ए. व. - मान, ओमानं, अतिमानं, अधिमानं, अ. नि. अतिविय किसभावं, म. नि. अट्ठ (मू.प.) 1(1).362; - 2(2).131; - नेन तृ. वि., ए. व. - अधिमानेन अझं गतिमन्तु त्रि., अत्यधिक मात्रा में गति से सम्पन्न - एवं ब्याकरिंस, पारा. 111; स. उ. प. के रूप में अरहत्ताधि. अधिमत्तसतिमा अधिमत्तगतिमा अधिमत्तधितिमा सावको ..., सग्गाधि. के अन्त. द्रष्ट.. ध. स. अट्ठ. 17; - गिलान त्रि., अत्यधिक रुग्ण, गम्भीर- अधिमानस/अधिमनस त्रि., दृढ़ अभिप्राय वाला, पूरी तरह रूप में अस्वस्थ - अधिमत्तगिलानोति बाळहगिलानो, दी. मन लगाया हुआ, आनन्दित अथवा प्रफुल्लित मन वाला - नि. अट्ठ. 1.172; -- धितिमन्तु त्रि., अत्यधिक धैर्य वाला - राजा चागाधिमानसो, जा. अट्ठ. 7.237; चागेन अधिकमानसो, एवं अधिमत्तसतिमा अधिमत्तगतिमा अधिमत्तधितिमा सावको
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अधिमान-सच्च
173
अधिमुत्ति अधिमान-सच्च त्रि., भ्रमात्मक-ज्ञान को अथवा प्रतीति को - अधिमुच्चिता होति, अ. नि. 2(1).155; अधिमुच्चिता होतीति सत्य समझने वाला - अधिमानिको खो अयमायस्मा सद्धाता होति, पु. प. अट्ठ. 93. अधिमानसच्चो , अ. नि. 3(2).137.
अधिमुच्छित त्रि., अधि + (मूर्छ का भू. का. कृ.. अधिमानिक त्रि., [अभिमानिक], अभिमानी, घमण्डी, भ्रमजाल [अधिमूच्छित], लोभ अथवा शोक में डूबा हुआ, क्लेशों के में फंसा हुआ - अनधिगते अधिगतमानेन समन्नागतो प्रभाव से संज्ञा शून्य - गन्धेसु अधिमुच्छितो, थेरगा. 732; अधिमानिको ति, अ. नि. अट्ठ. 3.322; सद्धम्मेसु वा अगिद्धा नाधिमुच्छिता, थेरगा. 923; एत्थ लोकोधिमुच्छितो, अधिमानिको होति, अ. नि. 3(2).144; न हि अधिमानिकस्स विमुच्छितो, स. नि. 1(1).135; पाठा. विमुच्छितो; भिक्षुनो झानं ... वा होति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) अधिमुच्छिताति किलेसमुच्छाय अतिविय मुच्छिता, जा. अट्ठ. 1(1).194.
2.362. अधिमुच्चति अधि + vमुच, कर्म. वा. का वर्त., प्र. पु., ए. अधिमुत्त' त्रि., अधि + (मुच् का भू. क. कृ. [बौ. सं. व., [बौ. सं. अधिमुच्यते], क. छुटकारा दिया जाता है, अधिमुक्त], स्वयं को किसी ओर अथवा किसी में पूरी तरह ढीला किया जाता है, स्वतन्त्र या मुक्त हो जाता है - लगाया हुआ, कठोर प्रयास कर रहा, किसी को अपना
आणेन अधिमुच्चति, अप. 1.163; ख. किसी के प्रति दृढ़ अभिप्रेत अथवा अध्याशय बनाया हुआ, दृढ़ विश्वास वाला, विश्वास रखता है अथवा उसके बारे मे पूर्णतया सुनिश्चित अधिमुक्ति-युक्त-निब्बानं अधिमत्तानं, अत्थं गच्छन्ति आसवा, होता है - द्वीसु महापुरिसलक्खणेसु ... नाधिमुच्चति, सु. ध. प. 226; अधिमुत्तानन्ति निब्बानज्झासयानं, ध. प. अट्ठ. नि. (पृ.) 167; अधिमुच्यतीति अधिमोक्खं लभति, म. नि. 2.188; सो छ ठानानि अधिमत्तो होति, अ. नि. 2(2)87; अट्ठ. (मू.प.) 1(2).125; ग. किसी में आनन्द लेता है, किसी अधिमुत्तो होतीति पटिविज्झित्वा पच्चक्खं कत्वा ठितो, अ. की ओर प्रवृत्त होता है, किसी के प्रति लोभी होता है - त्तो नि. अट्ठ. 3.126; स. उ. प. के रूप में अव्यापज्झा ., भू. क. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - किलेसवसेन अधिमत्तो असम्मोहा., आकिञ्चज्ञा., आणञ्जा., उपादानक्खया., गिद्धो होति, स. नि. अट्ठ, 3.43; - च्चिस्सति भवि., प्र. पु... करुणा., कामा., तण्हक्खया., दाना०, निब्बाना., नेक्खम्मा., ए. व. - लोको ओनमिस्सति, ओकप्पेस्सति, अधिमच्चिस्सतीति. पणीता., पविवेका., ब्रह्मलोका., सद्धा., हीना. के अन्त. मि. प. 219-220; - च्चित्वा पू. का. कृ. - सत्ता द्रष्ट.; - चित्त त्रि., अधिमुक्तचित्त], वह जिसका चित्त दृढ़ अधिमुच्चित्वा, उदा. अट्ठ. 171; घ. धारणा बनाता है, अथवा श्रद्धा से भरा हो, दृढ़ निश्चयी चित्त वाला - एवं में अनुभव करता है, दृढ़ संकल्प लेता है -च्चि अद्य.. प्र. पु.. धारेहि अधिमुत्तचित्तन्ति, सु. नि. 1155. ए. व. - विम्बिसारस्स पासादं सुवण्णन्ति अधिमुच्चि, सो अधिमुत्त पु.. थेरगा., 114; तथा 705-725; गीतियों के अहोसि सब्बसोवण्णमयो, महाव. 285; ङ, बोधिसत्व, मार लेखक दो थेरों का नाम, थेरगा. के 114वें तथा 705-725 आदि की काया में प्रवेश करता है अर्थात् अभिव्याप्त कर तक की गाथाओं के रचयिता स्थविर. देता या भर देता है - च्चि उपरिवत् - तस्सेव कुमारस्स अधिमुत्ति स्त्री., अधि + मुच् से व्यु. [अधिमुक्ति], दृढ़ मातु सरीरे अधिमुच्चि, जा. अट्ठ. 5.426; अञतरस्स धारणा अथवा दृढ़ विश्वास, अभिप्राय, आशय, अभिप्रेत, ब्रह्मपारिसज्जस्स सरीरे अधिमच्चिम. नि. अट्ठ. (म.प.) संकल्प, अभिरुचि - अज्झासयो अधिप्पायो आसयो 2.3083; - च्चित्वा पू. का. कृ. - अधिमुच्चित्वा तत्थ तत्थ चाभिसन्धि च, भावो धिमुत्ति छन्दोथ .... अभि. प. 766, उप्पन्ना उच्छिज्जन्ति, उदा. अट्ठ. 171; सहस्सो ब्रह्मा ... अज्झासयसभावो अधिप्पेतो, यो अधिमुत्तीतिपि वुच्चति, इतिवु. अधिमुच्चित्वा विहरति, म. नि. 3.143.
अट्ठ. 215; तथागतो सत्तानं आसयं, अनुसयं, चरितं, अधिमुच्चन नपुं.. अधि + मुच से व्यु., क्रि. ना., दृढ़ अधिमुत्तिं जानाति, पटि. म. 112; नेसा बुद्धानं विश्वास, सुदृढ़ धारणा, दृढ़ संकल्प - को अयं अधिमुच्चनढो? अधिमुत्ति, मि. प. 159; - पच्चुपट्ठान त्रि., [बौ. सं. ध. स. अट्ठ. 234; अधिमुच्चनं अधिमोक्खो , विसुद्धि. 2.93; अधिमुक्तिप्रत्युपस्थान], अधिमुक्ति के द्वारा अभिव्यक्त, साक्षात् यो चित्तरस अधिमोक्खो अधिमुच्चना, विभ. 187.
रूप में प्रकाशित या उत्पन्न - सद्धा ... अधिमुत्तिपच्चुपट्टाना, अधिमुच्चितु पु.. अधि + (मुच से व्यु. क. ना. सु. नि. अट्ठ 1.114; ओकप्पनलक्खणा सद्धा [अधिमोक्त], श्रद्धावान्, विश्वासी, दृढ़ संकल्प करने वाला अभिमुत्तिपच्चुपट्टाना च, नेत्ति. 25.
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अधिमोक्ख
174
अधिवचन अधिमोक्ख पु., अधि + 'मुच् से व्यु. [अधिमोक्ष], पक्का अधिरोहति अधि + रुह का वर्तः, प्र. पु., ए. व. विश्वास, सुदृढ़ धारणा, संकल्प, निर्णय - अधिमोक्खो तु [अधिरोहति]. आरोहण करता या ऊपर चढ़ता है, सवार निच्छयो, अभि. प. 159, निच्छये अधिमोक्खो ..., सद्द होता है - उपरिभावे अधिरोहति, सद्द. 3.882... 3.882, अधिमुच्चनं अधिमोक्खो, विसुद्धि. 2.93; विचिकिच्छाय अधिवचन नपं. [अधिवचन], नाम, उपाधि, क. एक धर्मअभावेन पन एत्थ अधिमोक्खो उप्पज्जति, विसुद्धि. 2.99; पर्याय का नाम - तस्मा इमस्स धम्मपरियायरस पारायनन्तेव अभि. अव. 28, स. उ. प. में अलद्धा., लद्धा के अन्त. अधिवचनं, सु. नि. पृ. 246; तस्मा इमस्स वेय्याकरणस्स द्रष्ट; -किच्च नपुं., [बौ. सं. अधिमोक्षकृत्य], अधिमोक्ष । सम्पसादनीयं त्वेव अधिवचनन्ति, दी. नि. 3.86; ख. व्युत्पत्तिया सुदृढ़ विश्वास के लिये आवश्यक कृत्य, दृढ़ विश्वास परक निर्वचन से रहित शब्द-विशेष - एत्तावत्ता अधिवचनपथो से भरा काम - अथ नेव सद्धिन्द्रियं अधिमोक्खकिच्चं कातं ....., दी. नि. 2.49; सिरिबड्डको ... आदयो हि वचनमत्तमेव सक्कोति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).301; - चरिया स्त्री., अधिकारं कत्वा पवत्ता अधिवचना नाम, ध. स. अट्ठ. 98; ग. तत्पु. स. [बौ. सं. अधिमोक्षचर्या], सुदृढ़-विश्वास से भरा प्रतीकात्मक अथवा रूपकात्मक नाम, प्रतीकात्मक अथवा आचरण अथवा चर्या - अधिमोक्खचरियाय वेसारज्जं .... आलङ्कारिक नाम - सुखस्सेतं ... अधिवचनं ... यदिदं पटि. म. 197; - बहुलता स्त्री., भाव., सुदृढ़-विश्वास से पुआनि, इतिवु. 12; रागस्सेतं अधिवचनं रजोति, जा. अट्ठ. भरपूर होने की दशा - अपिच छ धम्मा विचिकिच्छाय 1.124; पापकानं ... अकुसलानं ... अधिवचनं, यदिदं पहानाय संवत्तन्ति बहुस्सुतता ... अधिमोक्खबहुलता, म. अङ्गण न्ति, म. नि. 1.33; घ. सर्वाधिक उपयुक्त पर्यायवाचक नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).296; - मण्ड पु., अधिमोक्ष का सार- शब्द - वीरियस्सेतं अधिवचनं. उदा. अट्ठ. 248; अम्बुचारी, तत्त्व, श्रद्धा-इन्द्रिय - अधिमोक्खमण्डो सद्धिन्द्रियं पटि. म. मच्छस्सेतं अधिवचनं. सु. नि. अट्ठ. 1.91; मुनातीति मनो, 268; - मनसिकार पु.. व. स., अधिमोक्ष एवं मनसिकार चित्तरसेतं अधिवचनं, सु. नि. अट्ठ. 1.116; स. उ. प. के - अधिमोक्खमनसिकारा द्वे येवापनका .... विसुद्धि. 2.99; रूप में द्रष्ट., अनुक्कण्ठिताधि०, खन्धाधिः, गारवाधि., अभि. अव. 28; - लक्खण त्रि., ब. स. [अधिमोक्षलक्षण]. अतीताधि., कुसलाधि. के अन्त., तुल. अधिवुत्ति, अधिमुत्ति, अधिमोक्ष के विशिष्ट लक्षणों वाला - अधिमोक्खलक्षणे विप. वेवचन; - दुक नपुं.. [अधिवचनद्विक], अधिवचनों इन्द8 कारेतीति, ध, स. अट्ठ. 189; उदा. अट्ठ. 248; - अथवा पर्यायों का युग्म दुक्का, द्विकमातिका में अधिवचन सद्धा स्त्री., सुदृढ़ श्रद्धा - ... अधिमोक्खसद्धा बलवत्तरा का उल्लेख - अधिवचनदुकादयो तयो अत्थतो निन्नानाकरणा निबत्तति, विसुद्धि. 2.306; - सम्पसाद पु., अधिमोक्ष में ...., ध. स. अट्ठ. 98; - पथ पु.. [अधिवचनपथ], उक्ति प्राप्त प्रसन्नता या सन्तोष - दुविधो सम्पसादो, अथवा कथन के प्रकार, अभिव्यक्ति की विधाएं, वचन-प्रकार अधिमोक्खसम्पसादो च पटिलाभसम्पसादो च, म. नि. अट्ट. - एत्तावता अधिवचनपथो, दी. नि. 2.49; तयो ... मे, (उप.प.) 3.39; - सम्भव पु., अधिमोक्ष का स्वभाव, निरुत्तिपथा अधिवचनपथा पञ्जत्तिपथा, स. नि. 2(1).66%; अधिमोक्ष का उदय अथवा उत्पत्ति - अधिमोक्खसम्भवतो सब्बेव धम्मा अधिवचनपथा निरुत्तिपथपञ्जत्तिपथा, ध. स. समाधि बलवा होति, अभि. अव. 283; पाठा. अधिमोक्खसंभाव, अट्ठ. 13-16; तुल. ध. स. अट्ठ. 413; व्याख्या के लिए अधिमोक्खसम्भाव.
द्रष्ट. ध. स. अट्ठ. 98; - पद नपुं.. [अधिवचनपद], कथन अधिमोचेहि अधि + vमुच के प्रेर., अनु., म. पु., ए. व., क. वाले पद, अभिव्यक्ति-प्रकाशक शब्द - अधिमुत्तिपदानीति अन्य को किसी उद्देश्य-विशेष में पूरी तरह से लगवा अधिवचनपदानि, दी. नि. अट्ट, 1.90; अधिवचनपदानीति दो, रखवा दो या स्थापित करा दो - चित्तं अधिमोचेही, पञत्तिपदानि. लीन. (दी.नि.टी.) 1.125; समाना. स. नि. 3(2).472; अधिमोचेहीति ठपहि, स. नि. अट्ठ. अधिमुत्तिपद; - सम्फस्स पु., नाम अथवा वचन-प्रकार के 3.321.
साथ सम्पर्क, संस्पर्श का एक प्रभेद-विशेष - तेसु निमित्तेसु अधिरोह त्रि., स. उ. प. के रूप में ही प्रयुक्त [अधिरोह], ... असति अपि नु खो रूपकाये अधिवचनसम्फस्सो चढ़ाई - गिरिसिखरं दुरधिरोह, मि. प. 294.
पञआयेथा ति, दी. नि. 2.48; फस्सो ति चक्खुसम्फस्सो अधिरोहणी स्त्री., सीढ़ी, नसेनी - सोपानो वारोहणं च ... अधिवचनसम्फस्सो ..., महानि. 37; - सम्फस्सज त्रि., निस्सेणी साधिरोहणी, अभि. प. 216.
अधिवचन अथवा नामप्रयोग के व्यवहार से उत्पन्न सूक्ष्म
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अधिवचनीय
175
अधिवासेति
संज्ञाओं का एक प्रभेद-विशेष - अधिवचनसम्फस्सजा सा सुखुमा, विभ. 7; तयो हि अरूपिनो खन्धा सयं पिडिवट्टका हुत्वा अत्तना सहजाताय सआय अधिवचनसम्फस्सजा सतिपि नामं करोन्ति, विभ. अट्ठ. 18. अधिवचनीय त्रि., [अधिवचनीय], बढ़ा-चढ़ाकर कहने योग्य, प्रशंसनीय - वचनीयाधिवचनीयेस. अ. नि. 1(2).2083; वचनीयाधिवचनीयेसूति वत्तब्बेसु च अतिरेकवत्तब्बेसु च, अ. नि. अट्ठ. 2.359. अधिवत्तति अधि + Vवत का वर्त., प्र. पु., ए. व., समीप में पहुंच जाता है, नियति अथवा भाग्य के वश में हो जाता है, अभिभूत हो जाता है या कर लेता है - अधिवत्तति खोतं. .... जरामरणं स. नि. 1(1).120; अधिवत्ततीति अज्झोत्थरति, स. नि. अट्ठ. 1.147; धनं.सुखञ्चेतधिवत्तति, अ. नि. 1(2).38; अधिवत्तमाने ... जरामरणे, स. नि. 1(1).120. अधिवत्थ/अधिवुत्थ(8) अधि + Vवस का भू. क. कृ. अथवा क. ना., 1.क. शासक, अभिभूत करने वाला देवता अथवा भटकते भूत या प्रेतात्मा के रूप में निवास करने वाला, बलपूर्वक वास कर रहा, स्थान विशेष में निवास करने वाला, कब्जा किया हुआ - तस्मिञ्च सरीरे पेतो अधिवत्थो होति, पारा. 68; अधिवत्थोति साटकतण्हाय तरिमयेव सरीरे निब्बत्तो, पारा, अट्ठ. 1.301; अथ खो कधे अधिवत्था देवता, महाव. 34; 1.ख, किसी के द्वारा आबाद किया हुआ - आकिण्णनेलमण्डलमहावराहनागकुलकरेणुसङ्घाधिवुद्धे, जा. अट्ठ. 5.411; विज्जाधरसिद्धसमणतापसगणाधिवढे, जा. अट्ठ. 5.415; 2.क. अधिवासेति से व्यु.. वह जिसने भोजन ग्रहण करने का निमन्त्रण स्वीकार कर लिया है - अधिवुट्ठोम्हि ... अम्बपालिया गणिकाय भत्तं, महाव. 308; पाठा. अधिवुत्थ; तुल. दी. नि. 2.76; 2.ख. कर्म. वा., वह, जिसके द्वारा वास पूरा कर लिया गया है - अधिवुत्थो मे वस्सावासो, म. नि. 2.251. अधिवसति अधि + Vवस् का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अधिवसति], निवास करता है, आबाद करता है, विराजता है - विहारं अधिवसति, रू. सि. 287, सद्द. 3.717. अधिवास' पु., [अधिवास], स्वीकरण, दृढ़तापूर्वक ग्रहण,
सम्यक रूप से ग्रहण - अधिवासो सम्पटिच्छने अभि. प. 958. अधिवास पु.. [अधिवास], सुगन्धि - वासे धूपादिसङ्घारेधिवासो, अभि. प. 958; - क त्रि., 'अधिवासेति' से व्यु. [अधिवासक], सहनशील, सहिष्णु - परेहि वुत्तानं दुद्ववचनानं अधिवासको, जा. अट्ठ. 4.69.
अधिवासन नपुं.. सहन करने की मनोवृत्ति, सहनशीलता, स्वीकृति, अनुमोदन, क्षमा - अधिवासनन्ति इदं अधिवासनं तस्स सोत्थानं निरपराधमङ्गलं पण्डिता वदन्ति, जा. अट्ठ. 4.69, तुल. अधिवासना; - खन्ति स्त्री., शान्ति से भरी सहिष्णुता, शान्ति के साथ सहन करने की क्षमता - अधिवासनखन्तिया ... समन्नागतो, जा. अट्ठ.2.199; अक्कोधनोति अधिवासनखन्तिया समन्नागतो, जा. अट्ठ. 3.230; - ता स्त्री., भाव, सहिष्णुता, अनुमोदन करने की अवस्था, क्षमावृत्ति - या खन्ति खमनता अधिवासनता अचण्डिक अनसुरोपो अत्तमनता चित्तस्स - अयं वच्चति खन्ति, ध. स. 1348; अधिवासेन्ति एताय, अत्तनो उपरि आरोपेत्वा वासेन्ति, न पटिबाहेन्ति, न पच्चनीकताय तिट्ठन्तीति अधिवासनता, ध. स. अट्ठ. 417; - विरिय/वीरिय नपुं.. उत्साह से भरी सहनशीलता, सहनशीलता का उत्साह, वीर्यपारमिता - अधिवासनवीरियं वीरियपारमी, जा. अट्ठ. 5.167. अधिवासना स्त्री., अधिवासेति से व्यु.. [बौ. सं. अधिवासना]. क. सहमति, स्वीकरण, अनुमोदन - कम्मस्स किरिया करणं उपगमनं अज्झूपगमनं अधिवासना, चूळव. 220; अधिवासनमाय, सब्बस्स महेसिनो, अप. 1.36; भगवतो अधिवासन विदित्वा, म. नि. 1.302; ख. सहनशीलता, सहिष्णुता - अधिवासनं सोत्थानं तदाहु, जा. अट्ठ. 4.68;
अत्थि आसवा अधिवासना पहातब्बा, म. नि. 1.10; कतमे .... आसवा अधिवासना पहातब्बा? इध ... भिक्ख ... खमो होति सीतस्स उण्हस्स ... सारीरिकानं वेदनानं, दुक्खानं, म. नि. 1.14. अधिवासेति अधि + Vवस का प्रेर., वर्त., प्र. पु., ए. व., क. धीरज रखना, सहन करना, क्षमा कर देना, आत्मसमर्पण कर देना - सा दुक्खाहि ... वेदनाहि फुट्ठा तीहि वितक्केहि अधिवासेति, उदा. 85; दन्तो वत, भो, समणो गोतमो ... समुप्पन्ना सारीरिका वेदना ... अधिवासेति अविहमानो, स. नि. 1(1).33; - सयन्तो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - खुदं पिपासं अधिवासयन्तो, जा. अट्ठ. 4.294; - सये/सयेय्य विधि., प्र. पु., ए. व. - अधिवासये भिक्खु अदुट्ठचित्तो, उदा. 120; असोचमानो अधिवासयेय्य, जा. अट्ठ. 3.177; - सेय्याथ विधि., म. पु., ब. व. - पस्सथ नो तुम्हे ... अणुं वा थूलं वा, यं तुम्हे नाधिवासेय्याथ, म. नि. 1.182; - सेत्वा पू. का. कृ. - सा द्वे तयो पहारे अधिवासेत्वा, जा. अट्ठ, 3.246; - सेतब्बं सं. कृ. - छिदं
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अधिवाहन
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दिस्वा अधिवासेतब्ब, मि. प. 105 ख सहमति प्रदान करना, स्वीकृति प्रदान करना, किसी के निमन्त्रण को स्वीकार करना सि अय., प्र. पु. ए. व. अधिवासेसि भगवा तुम्हीभावेन, दी. नि. 2.66; मम सङ्कप्पमञ्ञय, अधिवासेसि नायको, अप. 1.36 - सेतु अनु. प्र. पु. ए. व. अधिवासेतु नो भन्ते, भगवा आवसथागार, तदेव भो गोतम, अधिवासेहि अज्जतनाय भत्तं सद्धिं भिक्खुसङ्गेनाति, ध. प. अट्ठ. 1.22; सेन्तु अनु. प्र. पु. ब. व. अधिवासेन्तु मे, भन्ते थेरा, स्वातनाय गोकुले भत्तन्ति, स. नि. 2 ( 2 ) 281; न्ति वर्त. कृ. प्र. पु. ब. क. अधिवासेति एताय अत्तनो उपरि आरोपेत्वा वासेन्ति न पटिबाहन्ति, न पच्चनीकताय तिद्वन्तीति अधिवासन्ता, ध. स. अड. 417 सितं भू. क. कृ.. नपुं. प्र. वि. ए. व. सक्को देवराजा सत्धारा सुभद्दाय निमन्तनं अधिवासितन्ति ञत्वा, ध. प. अट्ठ. 2.268, तुल. अधिवत्थ, अधिवुत्थ; ग. प्रतीक्षा करना; सेहि अनु, म. पु. ए. व. सत्या अधिवासेहि ताव, सारिपुत्तोति गन्तुं न अदासि, ध. प. अड. 1.354; अधिवासेहि ताव सामि जा. अड. 3.243 - सेथ अनु. म. पु. ब. व. यदि वो धनेनत्थो, अधिवासेथ, जा. अट्ठ. 1.247; 'थोकं अधिवासेथा ति वत्वा पण्णसालं पविसित्वा, जा. अट्ठ. 7.373; - सापेसि प्रेर, अद्य., प्र. पु. ए. व.,
अम्भो दुब्राह्मण, अज्ञेस इदानेव धनं वस्सापेत्वा अम्हे अयं संवच्छर अधिवासापेसि, जा. अड. 1.247 - सापेतुं निमि. कृ. प्रेर. तं सुत्वा तापसो याव पितु आगमना अधिवासापेतुं गाधमाह, जा, अड. 5.191. अधिवाहन नपुं. ढोने वाला ले जाना वाला, वाहन, सवारी
वीरियं... योगक्खेमाधिवाहन सु. नि. 79; योगक्खेमन्ति निब्बानं दुष्यति तं अधिकत्वा वाहीयति अभिमुखं वा वाहीयतीति अधिवाहन सु. नि. अड. 1.118. अधिविमुत्ति अ. अव्ययी. स. क्रि. वि. [ अधिविमुक्ति ]. विमुक्ति के विषय में विमुक्ति के सम्बन्ध में विमुक्ति को लेकर अथ खो अहमेव तत्थ भिय्यो, यदिदं अधिविमुत्ति दी. नि. 1.157; सिक्खितब्ब ता स्त्री. भाव केवल स. उ. प. के रूप में कामाधिविमुत्तिता के अन्त दृष्ट.. अधिवृत्तिपद नपुं. रूपक गर्भित वचन, अधिवृत्ति अथवा
सत्य को अभिभूत करके कहे गये मिथ्यादृष्टि को प्रकाशित करने वाले वचन अनेकविहितानि अधिवृत्तिपदानि अभिवदन्ति दी. नि. 1.11 म नि. 3.17; तेस तेसं अधिवृत्तिपदानं सच्छिकिरियाय, अ. नि. 3(2).32; अथ वा
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अघिसेति
भूतं अत्थं अभिभवित्वा पक्तनतो अधिमुत्तियोति दिद्वियो दुष्यन्ति अधिमुत्तीन पदानि अधिमुतिपदानि दिठ्ठिदीपकानि वचनानीति अत्थो दी. नि. अ. 1.90 पाठा. अधिमुत्ति अधिसयन त्रि. [ अधिशयन] मञ्च पलंग अथवा वह स्थान, जिस पर सोया अथवा लेटा जाये अथ वा नीलाति सुसानभूमि तंयेव मञ्च विय अधिसयनाति अत्यो, पे,
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व. अट्ठ. 68.
अधिसयित त्रि., अधि + √सी का भू० क० कृ०, कर्तृ. वा. एवं
कर्म. वा. क. कर्तृ. वा. में किसी पर लेटा हुआ, किसी पर सो रहा अधिसयितो खटोपिकं भवं मो. व्या. 5.59: मगरस पन अबद्धस्स पासरासिं अधिसवितकालो विय. म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1 (2).95; ख. कर्म. वा. में - व्यक्ति द्वारा अधिगृहीत, मुर्गी द्वारा सेवित अधिसयिता खटोपिका भोता, मो. व्या. 5.58 ताय जनेतिया कुक्कुटिया पक्खे पसारेत्वा तेसं उपरि सयन्तिया सम्मा अधिसयितानि, पारा. अट्ठ. 1.101; म. नि. 1.149; स. नि. 2 (1).137, अ० नि० 2 (2). 256; नागो ते अधिसयितं धनं दस्सति म. नि. अड. (गू.प.) 1(2).33. अधिसरति अधि + √ सर से व्यु, क्रि० रू., अभिभूत कर लेता है. दबोच लेता है, काबू में कर लेता है रे विधि, प्र. पु.. ए. व. मा ते अधिसरे मुञ्च, सुबाळ्हमधिकोपित जा. अट्ट 5.112; - रित्वा पू० का. कृ. तव हृदयं कुसले अधिसरित्वा अतिक्कमित्वा परेसं अकुसलकम्मे कुच्झापितं हुत्वा मा पतिद्वायतू ति जा. अड. 5.114. अधिसीलं अ., अव्ययी. स. विषय में शील को लेकर यदिदं अधिसील दी. नि. होति. महाव. 82. अधिसील' नपुं [अधिशील]. उच्च स्तर का शील, उत्तमशील अधिसीलसिक्खाति अधिकं उत्तमं सीलन्ति अधिसीलं पारा अड. 1.192 सिक्खा स्त्री. [अधिशील शिक्षा ]. शील से सम्बन्धित बुद्ध के वचन अथवा शिक्षापद एवं तिब्बछन्दो नो भविस्सति अधिसीलसिक्खासमादाने, अ. नि. 1 ( 1 ) 261 कतमा च भिक्खवे, अधिसीलसिक्खा ?, अ० नि० 1 (1).268. अधिसेति अधि + √सी [अधि + शी] का वर्त. प्र. पु. ए. व., आश्रय लेता है, सहारा लेता है, शरण में जाता है - यं यं दिसके अधिसेति, सु. नि. 676; अधिसेतीति गच्छति अभिसेती तिपि पाठो तत्थ यं यं दिसं अत्लीयति अपस्सयतीति
शील से सम्बन्धित, शील के अथ खो अहमेव तत्थ भिय्यो, 1.157; न अधिसीले सीलविपन्नो
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अधिस्सर
अत्यो सु. नि. अड. 2.182 सयेय्य विधि, प्र. पु. ए. व. - आरञ्ञको मगो बद्धो पासरासिं अधिसयेय्य, म. नि. 1.233 सेस्सति भवि., प्र. पु. ए. व. पथवि अधिसेस्सति ध. प. 41.
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अधिस्सर पु०, [अधीश्वर ], अत्यधिक प्रभावशाली, प्रधान, प्रमुख स्वामी राजा चतुवीसतिया योधसहस्सानं
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अधिरसरो, चू. पं. 80.59. अधीत त्रि. अधि + √इ का भू. क. कृ. [अधीत ], पढ़ा हुआ, पढ़ लिया गया. सीखा हुआ सीख लिया गया परिवत्तोति अधीतो, उग्गहितोति अत्यो, सारत्थ. टी. 1.45; अधिता वेदगू सब्बे, अप. 2.44.
...
अधीन त्रि. [ अधीन ] वशवर्ती, किसी अन्य पर निर्भर, दूसरे पर आश्रित - पराधीनो परायत्तो, आयत्तो तु च सन्तको, परिग्गहो अधीनो च अभि. प. 728 पराधीनोति परेसु अधीनो परस्सेव रुचिया वत्तति दी. नि. अ. 1.172; यं खलु धम्ममाधीन, यसो वसति किञ्चनं जा. अड. 5.346. अधीयति अधि + √इ का वर्त., प्र. पु. ए. व., [ अध्येति ], शा. अ. जा पहुंचता है, प्राप्त करता है, ला. अ. बाचता है, पढ़ता है, अध्ययन करता है, कण्ठस्थ करता है - यो च मन्तं अधीयतीति जा. अह. 3.24; यो चायं मन्तं वाचेति, यो चाधम्मेनधीयति पाचि. 278 राजकुमारो पुरोहितरस सन्तिके विज्जं अधीयति, मि० प० 162 - यसि म० पु०, ए. कस्मातुवं नाधीयसि भिक्खूहि संवसन्तो, स. नि. 1 (1) 234 यामि उ. पु. ए. व. तत्थ मन्ते अघीयामि
व.
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छळ नाम लक्खणं, अप. 1.377 न्तस्स वर्त. कृ. पु. ष. वि. ए. व. सत्त च मे वस्सानि अधीयन्तस्स, नयिमस्स सिप्परस अन्तो पञ्चायति महाव. 368: मानो वर्त. कृ.. पु. प्र. वि., ए. व. सो कोमारब्रह्मचरियं चरति अधीयमानो अ. नि. 2 (1). 200 यस्सु अनु., म. पु. ए. व. तस्स सन्तिकं गन्त्वा अधीयस्सु ध. प. अ. 2.254: -यितुं निमि. कृ. - तयोपि वेदा न सक्का एकदिवसेनेव अधीयितुं, म. नि. अड्ड. (उप. प.) 3.46 भोतो सोणदण्डस्स सन्तिके मन्ते अधियितुकामा दी. नि. 1.90यित्वा पू. का. कृ. सो... ब्रह्ममन्ते अधीयित्वा राजानं धीतरं याचि दी. नि. 1.83: कोमारब्रह्मचरियं चरित्वा मन्ते अधीयित्वा, अ. नि. 2 (1).209; - यितब्बं सं. कृ., नपुं. प्र. वि., ए. व. - सब्बं अधीयितब्बमेवाति दीपेति, जा० अट्ठ 3.192. अधीर त्रि. धीर का निषे, [अधीर], बेचैन, दब्बू, धीरज से रहित कातर अधीरो कातरो चाथ, अभि. प. 731.
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अघो
अधीरित त्रि. अधि + √ईर का भू. का. कृ. कहा गया, उच्चारण किया हुआ - अभिज्झितं, अधीरितं, क. व्या० 46; अभिच्छितं अधीरितं, सद्द. 3.619, तुल. अब्भीरित.
अघुत्ती स्त्री. धुत्ती का निषे [अधूर्ता] घोरी या लालच आदि द्वारा धननाश न करने वाली नारी अधूर्त नारी यं भत्तु आहरति धनं वा घञ्ञ वा तत्थ च होति अधुत्ती अथेनी असोण्डी अविनासिका, अ. नि. 3 (1).94. अधुना निपा., [अधुना], ठीक अभी इस समय, नए नए रूप में तुरन्त पहले तत्थ इदानीति अधुना, अम्हाक आगमनवेलायामेवाति अत्यो, उदा. अड. 308 ये अधुना आगन्त्वा न वदन्ति.... जा. अट्ठ. 3.155, तुल. इदानि, दानि कालकत / कालङ्कत त्रि. अभी अभी मृत, कुछ ही समय पूर्व मरने वाला तेन खो पन समयेन निगण्ठो नाटतो पावायं अधुनाकालङ्कतो होति दी. नि. 3.87ककुधो नाम कोलियपुत्तो अधुनाकालङ्कतो, अ. नि. 2 (1).114; चूळव, 321 नागत त्रि. अभी अभी ही आया हुआ, तुरन्त प्रव्रजित अथवा भिक्षुसंघ में प्रविष्ट भन्ते, सन्तेत्थ भिक्खू नवा अचिरपब्बजिता अधुनागता इमं धम्मविनय, म. नि. 2.130; - नामिसित्त त्रि, राज्यपद पर अभी अभी अभिषिक्त खत्तियो... अधुनाभिसित्तो रज्जेन, दी. नि. 2. 155; - नुट्ठित त्रि, अभी अभी उठा हुआ या उत्पन्न अधुनुट्ठितेन मारेन पापिमता... मि. प. 154 - नूपपन्न त्रि अभी अभी पुनर्जन्म ग्रहण किया हुआ ये ते भन्ते, देवा... अधुनूपपन्ना तावतिंसकाय, दी. नि. 2. 153. अधुरा त्रि, धुरा का निषे [ अधुर्या], अप्रधान अथवा असम्मानजनक स्थिति वाला, तुच्छ अथवा अलाभप्रद अनयं नयति दुग्गेचो, अधुरायं नियुज्ञ्जति जा. अड. 4.216 खु. पा. अट्ठ. 101. अधूपन, धूपन का निषे, असुगन्धीकरण अथवा धूपबत्ती द्वारा सुवासित न किया हुआ अथस्स कप्पो अलोणकेन अधूपनेन उदकमत्तसितपण्णेन सद्धि... जा. अड. 3.123; तुल. विधूपन
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अघो अ.. निपा. [ अधः] 1. नीचे नीचे की ओर हेडा तु च अधो समा, अभि. प. 1156: ... नेव सक्कोति उद्धं कातुं न पन अधो, उदा. 84. संसीद, भो सपितेल, अधो गच्छ भो. स. नि. 2 (2).301, उद्धं का विप; 2. दस दिशाओं में से एक दिशा, उद्ध (ऊपर) एवं तिरियं (बगल में) का दिप. दिसा चतस्सो विदिसा चतस्सो, उद्ध अधो दस दिसा इमायो सु. नि. 1128, सचे, भिक्खवे, नन्दस्स पच्छिमा
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अधो-ओरोहन
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अधोपुफिय ... उद्धं, अधो ... अनुदिसा आलोकेतब्बा होति.... उदा. म.नि. 1.249; अधोगमा वाताति उच्चारपस्सावादिनीहरणका अट्ठ. 144.
अधो ओरोहनवाता, विभ, अट्ठ. 65-66; तस्स यानि चेव अधो-ओरोहन त्रि., [अधः अवरोहण], नीचे की ओर उतर मूलानि अधोगमानि ..., स. नि. 1(2).78. रहा, अधोगामी - अधोगमा वाताति अधो ओरोहनवाता, म. अधोगमनिय त्रि., नीचे की ओर गमन कर रहा, अधःपतन नि. अट्ठ. (म.प.) 1(2).127; अधोगमा वाताति कराने वाला, दुखद जन्मों में पुनर्जन्म देने वाला - सो तेन उच्चारपस्सावादिनीहरणका अधो-ओरोहनवाता, विभ. अट्ठ. अधोगमनियेन कम्मेन अधोनिरयमेव गच्छति, जा. अट्ठ. 65-66.
5.266. अधोकत त्रि., अधोकरोति का भू. का. कृ., नीचे की ओर अधोगलं अ., गले के नीचे -- ... उदकं तस्स पेतस्स किया गया, नीचे की ओर पलट दिया गया, अपमानित - पापबलेन अधोगळं न ओतिण्णं.... पे. व. अट्ठ. 93. यथापि कुम्भो सम्पुण्णो, यस्स कस्सचि अधोकतो वमते अधोगामी त्रि., क. नीचे की ओर बहते हुए जा रहा - यो वुदकं निस्सेसं, बु. वं. 2.118; जा. अट्ठ. 1.27.
पन भिक्खु ... एक नावं अभिरुहेय्य, उद्धंगामिनि वा अधोकूरं त्रि., श्रीलङ्का के एक गांव का नाम, 'उद्धाधोकूर' अधोगामिनि वा, पाचि. 91; ख. डूबने वाला, निमग्नप्राय - समास के उ. प. के रूप में प्रयुक्त - उद्धाधोकुरंगामेसु दुवे तत्र यास्स सक्खरा वा कठला वा सा अधोगामी अस्स, स. दुग्गानि अग्गहि, म. वं. 70.171.
नि. 2(2).300. अधोकोटिक त्रि., नीचे की ओर झुके हये किनारों वाला अधोचारी त्रि., नीचे की ओर अथवा निम्नक्षेत्रों में विचरण (विशेष रूप से ऊपर वाले दांतो के लिये प्रयुक्त) - करने वाला - ओचरको ति अधोचारी, सद्द, 2.423.
ओकासतो उपरिमा उपरिमहनुकट्टिके अधोकोटिका, खु. पा. अधोजाणुमण्डलं अ., घुटनों के नीचे तक - भिक्खु च नं अट्ठ. 33; विलो. उद्धकोटिक.
इत्थिया ... अधोजाणुमण्डलं आदिस्स वण्णम्पि भणति अधोक्खन्ध त्रि., ब. स. [अधस्कन्ध], नीचे की ओर सिर अवण्णम्पि भणति, पारा. 191; एतस्स असद्धम्मस्स वाला, अधःशीर्षक - ते पतन्ति अधोक्खन्धा, जा. अट्ठ.. पटिसेवनत्थाय... अधोजाणुमण्डलं गहणं सादियति, पाचि. 297. 5.262.
अधोत त्रि., धोत का निषे॰ [अधौत], नहीं धुला हुआ, स्वच्छ अव्ययी. स., गङ्गा में नीचे की ओर - उभोपि न किया हुआ - अधोतेहि पादेहि कथिनं अक्कमन्ति, चूळव. .... अधोगङ्ग गन्त्वा ... वासं कप्पयिंस, जा. अट्ठ. 2.273; ... 234. पुन मच्छे गण्हन्तो अधोगङ्ग गच्छि, जा. अट्ठ. 3.45; - अधोदिसा स्त्री., [अधोदिक, नीचे के क्षेत्र की दिशा पाताल गङ्गाय अ., उपरिवत् - तेसु जेट्टस्स उपरिगङ्गाय पण्णसाला आदि, अधोभाग, निचले स्थल - अधो तिरियन्ति अधोदिसम्पि अहोसि, कनिट्ठस्स अधोगङ्गाय, जा. अट्ठ. 2.236, विलो., तिरियंदिसम्पि, विसुद्धि. 1.298. उद्ध गङ्गाय.
अधोनाभि अ., नाभि से नीचे और घुटनों के ऊपर - यस्स अधोगत त्रि., बीत चुका, पीछे की ओर जा चुका - सुपिनं अधोनाभि उभजाणुमण्डलं कण्ड वा ... आबाधो..... पाचि. तात अद्दक्खिं , इतो मासं अधोगतं, जा. अट्ठ. 7.32; 226; ... अधोनाभि ... ति नाभिया हेट्ठा जाणुमण्डलानं पुत्तं तेय्ये न जानाम, इतो मासं अधोगतं, जा. अट्ठ उपरि पाचि. अट्ठ. 143. 7.33.
अधोनीहरण नपुं., द्रष्ट. अधो-विरेचन के अन्त.. अधोगति स्त्री., नरक, तिरच्छान, प्रेतयोनि एवं असुरकाय अधोपतन नपुं.. [अधःपतन], नीचे की ओर गिरना, अवनति, इन चार दुखदायक योनियों में से किसी एक में पुनर्जन्म, विनाश की ओर गमन, धा. पा. 455, तुल. अधोपात नीचे की ओर प्राणी का गमन - तिर अधोगतियं, सद्द. द्रष्ट. आगे. 2431.
अधोपत्त त्रि., ब. स. [अधःपत्र], नीचे की ओर मुड़े ये पत्रों अधोगम त्रि., शा. अ. नीचे की ओर जा रहा, ला. अ. वाला - उद्धवण्टा अधोपत्ता, छायं कुब्बन्ति सत्थुनो, अप. शरीर में विद्यमान छ: वायु-प्रभेदों में से एक- वायुभेदा इमे 2.83. छद्धङ्गमो चाधोगमो तथा..., अभि. प. 38; ... उद्धङ्गमा वाता, __ अधोपुफिय पु., एक स्थविर का नाम - अधोपुफिय अधोगमा वाता ... अयं वुच्चतावुसो, अज्झत्तिका वायोधातु, थेरअपदानं, अप. 1.129.
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अधोभाग
अधोभाग पु. 1. शरीर का नीचे का भाग, घड़ तं तेसं सकलसरीरं झापेत्वा अधोभागेन निक्खमति, जा. अह 6.132; तं कुच्छिं पविसित्वा ... अधोभागेन निक्खमति, ध. प. अ. 1.73 मत्थकं भिन्दित्वा अधोभागेन निक्खमित्वा घ. प. अ. 1.86 2. भीतरी भाग, अन्तर्भाग दस्सनोसाननिक्खन्ताधोभागेरववधारणे... अभि. प. 1166. अधोभागङ्गमनीय त्रि, अधम अथवा दुख दायक नरक जैसी गतियों पर ले जाने वाला ये केचि अकुसला धम्मा सब्बे ते अधोभागङ्गमनीया, म. नि. 156; विलो. उपरिभागङ्गमनीया. अधोभागिय त्रि. निचले भाग से सम्बन्धित, निम्न कोटिवाला इमे पञ्च अधोभागियसंयोजनानि नाम, अभि. अव.
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212
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169.
अघोभाव पु. नीचे के भाग में होने की स्थिति निम्नश्रेणी में होने की अवस्था वियोगे जानने चाधो भावानिच्छयसुद्धिसु ईसदत्थे परिभवे देसव्यापनहानिसु अभि. प. 1173; ततियत्थाघोभावे स्वनुगते हिते अनु, अभि. प. 1174. अधोमुवन नपुं. नागलोक, पृथ्वी के नीचे स्थित पाताल लोक - अधोभुवन-पातालं, नागलोको रसातलं, अभि. प.
...
649.
अधोमग्ग पु०, [अधोमार्ग], शरीर के अधोभाग में स्थित गुदा आदिद्वार, मलद्वार अधोमग्गादीहि पन पविसित्वा मुखादीहि निक्खमन्ति जा. अ. 5.267.
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अधोमुख त्रि०, ब० स० नीचे की ओर मुखवाला तुम्हीभूतो ... अधोमुखो पज्झायन्तो... स. नि. 1 ( 1 ). 148; निग्रोधो परिब्याजको अधोमुखो निसीदि, दी. नि.
179
3.38.
अधोमुखं अ. नीचे की ओर अधोमुखं ठपित उदकघटा, ध. स. अड. 16, पाठा. अधोमुखठपितउदकघटा. अघोवातं अ.. हवा बहने की दिशा की ओर, वायु-प्रवाह के अनुरूप नस्स चण्डाल, काळकण्णी, अघोवातं याही ति जा. अट्ठ. 3.204.
वत्वा ..... अधोवातपस्स नपुं०, हवा बहने वाली दिशा का पार्श्व या क्षेत्र - महासुभद्दा अधोवातपस्से ठिता.... जा. अट्ठ. 5.34. अघोवाते अ. हवा बहने वाली दिशा की ओर अधोवाते ठत्वा सरीरगन्धं घायित्वा, जा. अट्ट. 3.72: सुपुष्पितपदुमं दिवा अधोवाते ठत्वा उपसिट्टि जा. अड. 269 पब्बतस्स उपरिवाते चोरगामको... अधोवाते अस्समो, जा. अट्ठ. 4.389. अधोविम त्रि, धोविम का निषे, पानी से न धोने योग्य
.... अधोविमं दुस्सयुगं . पारा. अट्ठ. 1.53; अधोविमं
अनक्कमनभाव
वत्थकोटियं दी. वं. 12.2, व्यु के लिए द्रष्ट. स६०
10
3.866.
अघोविरेचन नपुं. गुदा मार्ग से विरेचन, जुलाब, विरेचकऔषधि, वस्तिकर्म - उद्धविरेचनं अधोविरेचनं सीसविरेचनं दी. नि. 1.10 म. नि. 2.189; अधोविरेचनन्ति पन सुद्धिवत्धिकसावत्धिआदिवत्धिकिरियापि अधो दोसानं नीहरणन्ति वुत्तत्ता लीन. (दी.नि.टी.) 1.116 उद्धविरेचनअधोविरेचनादीहि किलमति, ध. स. अट्ठ. 423. अधोसाखं त्रि०, ब० स०, नीचे की ओर लटक रही शाखाओं वाला समूलकम्पितं रुक्खं उप्पाटेत्वा, उद्धंमूलं अधोसाखं कत्वा गच्छति ध. प. अ. 1.45. अधोसिर त्रि. ब. स. [ अधरिशरस् ] नीचे लटक रहे सिर वाला, नीचे की ओर सिर किया हुआ तमेनं निरयपाला उद्धपाद अधोसिर गहेत्वा वासीहि तच्छन्ति म. नि. 3.206 अधोसिरं धारयि कातियानो, जा० अट्ठ. 7.203; यं बलवा पुरिसो उद्धपाद अधोसिरं गत्वा ... अ० नि० 2 (2).262; पादे धोवन्तोपि अघोसिर कत्वा हेद्वामुखोव धोवेच्य न रज्ञो मुखं उल्लोकेय्याति अत्थो, जा. अड. 7.193, अघोसिरं अ०, शिर नीचे करते हुए - धोवे पादे अधोसिरं,
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जा. अट्ठ. 7.193. अघोसीस त्रि. ब. स. सिर को नीचे की ओर रखने वाला, वह, जिसका सिर नीचे की ओर लटका हुआ है - पन्नगं सो गहेत्वान, अधोसीसं विहेठयं, अप. 1.39; ... अहं अधोसीसो पतमानोपि न निवत्तिस्सामि जा. अड्ड. 1.228 क क्रि उपरिवत् ते पुन निरयपालेहि विहता. हुत्वा ... अधोसीसका पतन्ति जा. अड्ड 5.268; सो निसिन्नं ब्राह्मणं पादे गहेत्वा पिट्ठियं अधोसीसकं ओलम्बेत्वा पायासि जा. अड. 5.468. अन' स्वरादि पद से पूर्व लगने वाला निषेधार्थसूचक पू. स. अनक्कोसस्सिर्व फलं, अप. 1.284 यदा कदा इसके स्थान पर 'न' का प्रयोग, नेक (नैक).
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Care
अन धातु श्वांस लेना, प्राण धारण करना अन पाणने, सद्द. 2.399; मान पूजाय वन-सन सम्भमे अन पाणने धा. मं. 144.
अनकामरूप त्रि., अनिच्छा नहीं करने वाला
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अञ्ञत्र
कण्हा अनकामरूपा, जा. अट्ठ. 4.30, पाठा. नत्थाकामरूपा.
अनक्कमनभाव नपुं..., अनुल्लंघन, ऊपर चढ़कर किसी को रौंदने अथवा कुचलने की स्थिति का अभाव - थेरो वत्थानं अनक्कमनभावं ञत्वा ध. प. अट्ठ. 2.75.
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अनक्कोस
180
अनग्गिपक्क
अनक्कोस पु., अक्कोस का निषे. [अनाक्रोश], आक्रोश का अनगारिय/अनागारिय 1. नपुं.. [अनागारिक], प्रव्रजित
अभाव, अनिन्दा - अनक्कोसस्सिदं फलं, अप. 1.284. या गृहहीन, अनासक्त जीवन - अगारस्मा अनगारियं अनक्ख त्रि., अक्ख का निषे०, ब. स. [अनक्ष], जुआ न पब्बजन्ति, सु. नि. पृ. 98; पब्बजितोपि चे होति, अगारा खेलने वाला, पासों से न खेलने वाला - अनक्खाकितवे अनगारियं सु. नि. 276; ... अगारस्मा अनगारियं पब्बजितानं. तात, असोण्डे अविनासके, जा. अट्ठ. 5.111; अनक्खाकितवेति उदा. 80; 2. त्रि., बिना घर वाला, बेघर - अनगारियोपि अनक्खे अकितवे अजुतकरे चेव अकेराटिके च, जा. अट्ठ. इमस्मि सासने पब्बजित्वा ..., म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 5.113.
1(1).177; - पटिपत्ति-दुग्गति स्त्री, गृहविहीन या प्रव्रजितअनक्खात 1. त्रि., अक्खात का निषे. [अनाख्यात], नहीं जीवन में आया हुआ संकट या कष्ट - पटिपत्तिदुग्गतिपि कहा गया, अवर्णित, अनुद्घोषित - अनक्खातं कुसलं, म. अगारियपटिपत्ति-दुग्गति, अनगारियपटिपत्तिदुग्गतीति नि. 1.414; अनक्खातस्स मग्गस्स अक्खाता, स. नि. दुविधा होति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).177; - भाव पु., 1(1).221; अनक्खातञ्च अक्खासि, अप. 2.240; 2. नपुं, गृहत्यागी प्रव्रजित-जीवन की अवस्था - घरावासं पहाय अनिर्वचनीय अवस्था अर्थात् निर्वाण - छन्दजातो अनक्खाते, अनागारियभावं पत्तस्स, जा. अट्ठ. 5.242; - मुनि पु.. ध. प. 218; अनक्खातेति निब्बाने, तहि ... अवत्तब्बताय गृहत्यागी या प्रव्रजित मुनि - अनगारियमुनीति तथारूपोव अनक्खातं नाम, ध. प. अट्ठ.2.169.
पब्बजितो, जा. अठ्ठ. 1.116, विलो. आगारियमुनि. अनगर पु./नपुं., नगर का निषे., ऐसा स्थान, जो नगर । अनगारियुपेत त्रि., गृहविहीन, प्रव्रजित जीवन-दशा को नहीं है, उजड़ा हुआ अथवा निर्जन स्थान - ... नगरं अनगरं प्राप्त किया हुआ भिक्षु या मुनि - अनगारियुपेतस्स, भिक्खाचरियं करिस्सामि, ध, प. अट्ठ. 2.371; ... नगरापि अनगरा होन्ति, जिगीसतो, सु. नि. 705; ... अनगारियु - पेतस्स, तुट्ठि अ. नि. 1(1).187.
होति सुखावहा, स. नि. 1(1).57; अनगारियुपेतस्स, अनगार/अनागार क. त्रि., ब. स., बेघर, बिना घर वाला विष्पमुत्तस्स ते सतो, जा. अट्ठ. 3.344. (परिव्राजक या मुनि का एक लक्षण) - योध कामे पहन्त्वान, अनगारी/अनागारी त्रि., उपरिवत् - अगारा अभिनिक्खम्म, अनागारो परिब्बजे, सु. नि. 644-645; ध. प. 415; अनागारा अनागारी भविस्सति, अप. 2.62. तपस्सिनो, जा. अठ्ठ. 6.119; असंसटुं गहडेहि, अनागारेहि अनगारूपनिस्सय पु., तत्पु. स., प्रव्रजित जीवन की मूलभूत चूभयं, सु. नि. 633; अलेणा अनगारा च, पे. व. 120; ख. आवश्यकताएं- उत्तिद्वपिण्डो उञ्छो च, पंसकूलञ्च चीवरं, नपुं., बेघर जीवर, गृहत्यागी जीवन - यो वा अगारा एतं खो मम सारुप्पं, अनगारूपनिस्सयो, थेरीगा. 351, अनगारमेति, सु. नि. 378; - मुनि पु., गृहत्यागी यति, द्रष्ट. उपनिस्सय, आगे. परिव्राजक - ... छ मुनिनो- अगारमुनिनो, अनगारमुनिनो, अनग्ग त्रि., ब. स. [अनग्र], 1. अनुत्तम, तुच्छ, 2. अपरिमित, सेखमुनिनो ..., महानि. 41.
वह, जिसका न आदि हो, न अन्त हो- तस्मिं ... अधिकरणे अनगारिक/अनागारिक त्रि., बेघर, प्रव्रजित, भिक्षुभाव को विनिच्छयमाने अनग्गानि चेव भस्सानि जायन्ति .... चूळव. प्राप्त, परिव्राजक -... आगारिकेनापि अनागारिकेनापि दीपेतब्ब 474; - पाक पु., एक मुनि या परिव्राजक का नाम - ध. स. अट्ठ, 398; ... अनगारिकस्स वेज्जकम्मदूतकम्मादीनि तस्सपि तेनेव कारणेन अनग्गपाकोति नामं जातं, वज्जेत्वा धम्मेन समेन भिक्खाचरियाय जीविकं कप्पेन्तस्स, अप्पमाणपाकोति अत्थो, अ. नि. अट्ठ. 1.195; - वती स्त्री., ध. प. अट्ठ. 1.136; - मित्त पु., गृहत्यागी मित्र, प्रव्रजित अनुत्तम प्रकार की या तुच्छ-प्रकृति के लोगों वाली सभा - मित्र - मित्ताति द्वे मित्ता- अगारिकमित्तो च अनागारिकमित्तो कतमा च, भिक्खवे, अनग्गवती परिसा?, अ. नि. 1(1).86. च, चूळनि. 218; - रतन नपुं., रत्न के समान गृहत्यागी अनग्गहीत त्रि., अग्गहीत का निषे., अपेक्षित चित्तवृत्ति के या प्रव्रजित - पुरिसरतनम्पि दुविध, अगारिकरतनं, साथ अगृहीत - चत्तञ्च मुत्तञ्च अनग्गहीत, अ. नि. अनगारिकरतनञ्च, खु. पा. अट्ठ. 141; - विभूसा स्त्री., 2(1).46, पाठा. अनुग्गहीतं. गृहत्यागी अथवा प्रवजित मुनि की साज-सज्जा या उपकरण अनग्गिपक्क त्रि., अग्गिपक्क का निषे. [अनग्निपक्व], - तत्थ विभूसा दुविधा, अगारिकविभूसा, अनगारिकविभूसा आग में न पका हुआ या कच्चा - दन्तमूसलिको हुत्वा च, सु. नि. अट्ट, 1.89.
अनग्गिपक्कमेव खादति, जा. अट्ठ. 4.8.
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अनग्गिपक्किक
181
अनज्झत्तिकभूत अनग्गिपक्किक पु., तापसों या मुनियों का वह वर्ग, जो अनच्छ त्रि., अच्छ का निषे, मलिन, कलुषित, गन्दा, अस्वच्छ - आग में पकाये बिना कच्चा भोजन खाता है - तत्थ अनच्छो कलु साविला, अभि. प. 669, द्रष्ट अच्छ, अट्ठविधा तापसा - सपुत्तभरिया ... अनग्गिपक्किकाति, सु. अनच्छरिय त्रि०, अच्छरिय का निषे., ब. स., [अनाश्चर्य], नि. अट्ट, 1.269.
1. शा. अ. वह, जो आश्चर्यजनक नहीं है अर्थात् पूरी तरह अनग्गी पु., अग्गी का निषे., ब. स., उन तापसों का एक से स्वाभाविक है - अनच्छरियं, भिक्खवे, मल्लिकाय ... वर्ग, जो आग में न पका कर कच्चा अन्न आदि खाते हैं कोसलरओ अग्गमहेसिभावाधिगमो, जा. अट्ठ. 3.360; ... - अग्गिपाकी अनग्गी च ..., अप. 1.15; एकच्चे अनग्गी इस्सरिये ठितस्स इत्थियो नाम होन्तियेव, अनच्छरियमेव अग्गीहि अपचित्वा आमकमेव खादन्ति ..., अप. अट्ठ. एतन्ति, जा. अठ्ठ. 3.59; 2. - यं अ., क्रि. वि., बिना किसी 1.227.
आश्चर्य के ही - ... अनच्छरियं ते जयसेनो राजकुमारो अनग्घ त्रि., अग्घ का निषे. [अनर्घ, अनर्घ्य], बहुमूल्य, पसीदेय्य, म. नि. 3.173; 3. 'अनच्छरिया ... अस्सुतपुब्बा', अमूल्य - मयं पुब्बे पथविञ्च रज्जञ्च अनग्घन्ति सचिनो जैसे अनेक स्थलों में कुछ विद्वानों ने 'अनच्छरिय' को अहुम्ह, जा. अट्ठ. 1.131; सो किर मन्तो, अनग्घो महारहो, 'अनाचरिय' अथवा अनाचरियक (स्वतःस्फूर्त, गुरुजनों से जा. अट्ठ. 1.246; - कारण नपुं., मूल्यवान न होने का अप्राप्त) का प्राचीन अपपाठ माना है, जब कि कुछ दूसरों कारण - अथ नं अनग्घकारणं पुच्छन्तो..., जा. अट्ठ. 4.60. ने इसे 'अच्छरा' (अक्षर संविधान) के साथ जोड़कर अनच्छरिया अनग्घिय त्रि., मूल्य न दिये जाने योग्य, बहुमूल्य, मोल-भाव का तात्पर्य अक्षर-विन्यास के प्रयास से मुक्त अर्थात् स्वतःस्फूर्त न करने योग्य - भिक्खुभावो ... लोके अतलियो अप्पमाणो अर्थ में लिया है. समन्तपासादिका में 'अनु अच्छरिया' तथा अनग्घियो, मि. प. 185, पाठा. अनग्घनिय.
सारस्थ. टी. में 'अनच्छरिया' का अर्थ 'वृद्धि को प्राप्त किया अनघ त्रि., ब. स. [अनघ], पापरहित, विशुद्ध, पुण्यात्मा - गया है - बुद्धिप्पत्ता अच्छरिया वा अनच्छरिया, सारत्थ. टी. कच्चि त्वं अनघो भिक्खु, कच्चि नन्दी न विज्जति, स. नि. 3.138; महाव. अट्ठ. 233; अपिस्सु भगवन्तं इमा अनच्छरिया 1(1).66, द्रष्ट. नीचे अनिघ.
गाथायो पटिभंसु ..., महाव. 5. अनङ्गण त्रि., अङ्गण का निषे. [अनङ्गण], दागरहित, कलङ्करहित, अनज्जतन त्रि., अज्जतन का निषे., तत्पु. [अनद्यतन]. निष्पाप, विशुद्ध - मग्गं विरजं अनङ्गणं, महाव. 385%; वह, जो आज से सम्बद्ध नहीं है, आज के दिन घटित न विगतरजमनङ्गणं विसुद्ध, सु. नि. 522; निद्धन्तमलो अनङ्गणो, होने वाला, व्याकरण के सन्दर्भ में, भूत. का एक प्रभेद - ध. प. 236, 238; अनङ्गणस्स पोसस्स, निच्चं सुचिगवेसिनो, अनज्जतने आ ऊ, ओ त्थ, अम्हा, त्थ त्थं से व्ह इंम्हसे, थेरगा. 652, 1000; समापत्तिसुखं अनङ्गणं, जा. अट्ठ. 1.451; मोग्ग. 6.5; - टि. क. व्या. 429, में इसको हीयत्तनी नाम एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे, पारा. 5. से तथा पाणिनीय व्याकरण में अनद्यतन (लङ् लकार) कहा अनङ्गण-सुत्त नपुं., म. नि. के मू. प. के पांचवें सुत्त का गया है. नाम, म. नि. 1.31-40.
अनज्जव पु., अज्जव का निषे., तत्पु., [अनार्जव, नपुं.]. अनङ्गभङ्ग पु., अनङ्ग अर्थात् मार पर विजय - अनङ्गभङ्ग । असारल्य, कुटिलता - यो अनज्जवो ... वङ्कता कुटिलता समचिन्तयत्थ, जिना. 52.
- अयं वुच्चति अनज्जवो, विभ. 415; अनज्जवोति अनङ्गव नपुं.. ऐसे सगे-सम्बन्धी अथवा छोटे या बड़े भाई, जो अनुजुताकारो, विभ. अट्ठ. 466; - ता स्त्री. भाव., अपने नहीं हैं अथवा अपने अङ्ग जैसे नहीं हैं, - अनङ्गवा हि [अनार्जवता], कुटिलता, वक्रता - यो अनज्जवो अनज्जवता ते बाला, जा. अट्ठ. 7.192, अनङ्गवा हि ते बालाति ...... विभ. 415; अनज्जवभावो अनज्जवता, विभ. अट्ठ. 4663B जेट्टकनिट्ठभातरो अङ्गसमानताय अङ्गन्ति वुत्ता, इमे पन द्रष्ट, अज्जव. दुस्सीला, तस्मा अङ्गसमाना न होन्ति, जा. अट्ठ. 7.1933; अनज्झत्तिकभूत त्रि., अज्झत्तिकभूत का निषे. [अनाध्यात्मिक पाठा. अनङ्गाव.
भूत], वह, जो अपने साथ जुड़ा हुआ नहीं है, आत्मीय अनङ्गुट्ट त्रि., अङ्गुट्ठ का निषे०, बिना पूछ का, पूछरहित - नहीं है, अपरिचित, पराया - चर पिरेति अपेहि असीसकं अनङ्गट्ठ, सिङ्गालो हरति रोहितं, जा. अट्ठ. 3.295, अम्हाकं परे, अनज्झत्तिकभूतेति अत्थो, म. नि. अट्ठ. (म.प.) द्रष्ट. अङ्गुट्ठ
2.245.
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अनज्झाचार
182
अनञ
अनज्झाचार पु., अज्झाचार का निषे०, पापमय दुराचार का अभाव, सदाचार, अनतिक्रमण- इमेसं अट्ठन्न मिच्छत्तानं या अकिरिया ... अनज्झाचारो, इदं वुच्चति सब्बपापस्स अकरणं नेत्ति. 38; एवमेव ... अनज्झाचारेपि परामसनेन गभावक्कन्ति होति, मि. प. 132; तस्मिं अनज्झाचारो अचलो असम्पवेधी, दी. नि. अट्ठ. 3.87. अनज्झापत्ति स्त्री., अकरणीय अथवा वर्जित कामों का न करना, अनतिचार - या तस्मिं समये चतहि वचीदुच्चरितेहि ... विरति ... अनज्झापत्ति ... अयं ... सम्मावाचा .... ध. स. 299; पाणातिपाता विरमन्तस्स, या ... पाणातिपाता ... विरति ... अनज्झापत्ति ... इदं वुच्चति पाणातिपाता वेरमणी सिक्खापदं, विभ. 323, द्रष्ट. अज्झापत्ति एवं आपत्ति. अनज्झापन्न त्रि., अज्झापन्न का निषे., 1. (कर्त. वा. में द्वि. वि. के साथ प्रयुक्त) अपराध अथवा अकरणीय कर्म न करनेवाला, अनुचित कर्मों में नहीं आपतित - सुद्धो होति पुग्गलो ... पाराजिक धम्म अनज्झापन्नो, पारा. 260; 2. कर्म. वा., वह, जिसे किया न गया हो, जिस पर पहुंचा न गया हो, अप्राप्त - अनज्झापन्ना वा होति, आपज्जित्वा वा बुट्टिता, महाव. 131. अनज्झायक त्रि., अज्झायक का निषे. [अनध्यायक], अध्ययन न करने वाला, वेदों में अपारङ्गत - यो सो ... माणवको अनज्झायको अनुपनीतो, म. नि. 2.368. अनज्झारुळ्ह त्रि., अज्झारुळह का निषे. [अनध्यारूढ़], दूसरों द्वारा अभिभूत नहीं किया हुआ, ऊपर न चढ़ा हुआ एवं अभिभूत न करने वाला, न अत्यधिक फैला हुआ न ही बढ़ा हुआ - सत्तिमे ... बोज्झङ्गा अनावरणा ... चेतसो अनज्झारुळ्हा भाविता, स. नि. 3(1).118. अनज्झावुत्थ त्रि., अज्झावुत्थ का निषे., आबाद न किया हुआ, नहीं बसा हुआ, अधिगृहीत न किया हुआ - अज्झावुलु वा अनज्झावुटुं वा आचिक्खितब्ब, चूळव. 353; तेन खो पन समयेन ... राजकुमारस्स कोकनदो नाम पासादो .... अनज्झावुट्ठो समणेन वा ब्राह्मणेन वा .... म. नि. 2.287; - क त्रि., आबाद न किया हुआ, अनधिगृहीत - ... अनज्झावुत्थकं दानि इदन्ति ... गण्हतोपि.... पारा. अट्ठ. 1.280, पाठा. अनज्झावुट्ठ. अनज्झिट्ठ त्रि., अज्झिट्ट का निषे. [अनध्येष्ट, न + अधि+ Vइष + क्त], अयाचित, अप्रार्थित, अनिवेदित, वह, जिसे कुछ करने हेतु कहा नहीं गया है - सङ्घमज्झे अनज्झिट्ठा धम्म भासन्ति, महाव, 141; अनज्झिट्ठो वा आरामगतानं
भिक्खून धम्म भणति, महानि. 167; अनग्झिट्टो वाति थेरेहि ... अनाणत्तो अनायाचितो च महानि. अट्ठ. 270. अनज्झेसित त्रि., उपरिवत् - अनानुपुट्ठोति अपुट्ठो ...
अयाचितो अनज्झसितो..., महानि. 48. अनज्झोत्थरण नपुं./त्रि., अज्झोत्थरण का निषे०, अभिभूत न करना, अपराभव, अप्रसहन, अभिभूत न करना - पुन अनज्झोत्थरणभावेन किलेसन्धकारं विद्धसेत असमत्थताय ..., ध. स. अट्ठ. 97. अनज्झोपन्न त्रि., अज्झोपन्न का निषे, अविषयीभूत, सरोकाररहित, निरपराध, शिकार न बनने वाला - यं पनस्स खमति, तं अगधितो ... अनज्झापन्नो ... परिभुञ्जति, दी. नि. 3.33, द्रष्ट. अज्झोपन्न, अज्झापन्न. अनज्झोसान नपुं., अज्झोसान का निषे., अलोभ, अनुपादान,
अनासक्ति, रागयुक्त न होना - ... तेसमयं दिट्टि असारागाय ... अनज्झोसानाय सन्तिके ..., म. नि. 2.81. अनज्झोसित त्रि., अज्झोसित का निषे., वह, जिसके प्रति लोभ, आसक्ति अथवा राग उत्पन्न नहीं हुआ है - सा अनिच्च ... अनज्झोसिताति ... अनभिनन्दिताति पजानाति, म. नि. 3.293; अनज्झोसिताति गिलित्वा परिनिट्ठापेत्वा गहेतुं न युत्ताति, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.223. अनञ्जित त्रि., अञ्ज के भू. क. कृ. का निषे०, अपरिमार्जित, अभूषित, मलिन, अपरिष्कृत - दुम्मक्खरूपाति अनजितामण्डितलूखनिवासनपारुपना ... किलिट्टरूपाति, जा. अट्ठ. 3.206; रम्मरूपन्ति अनञ्जितं अमण्डितं, जा. अट्ठ. 7.367; परूळहकच्छलोमो सो अनजितअमण्डितो ..... मि. प. 161; - क्ख त्रि., मलिन नेत्रों वाला, धुंधली आंखो वाला - दुम्मक्खरूपाति अनजितक्खा अमण्डितरूपा लूखसङ्घाटिधरा, जा. अट्ठ. 4.267, तुल. अक्ख. अनञ त्रि., अञ का निषे., तत्पु. स., पहचान-सूचक सर्व अथवा अदुतियो या एको जैसे संख्या-सर्व. का स्था. [अनन्य], 1. दूसरा नहीं, अभिन्न, समान, केवल एक, अद्वितीय, - ... येहि समन्नागतस्स ...द्वेयेव गतियो भवन्ति अना , दी. नि. 1.77; एतदेव पच्चयं करित्वा अनजं. पाचित्तियन्ति, पाचि. 63; द्वेव तस्स गतियो भवन्ति अनआ ..... मि. प. 162; 2. ब. स. - (न विज्जति अञो यस्स सो), वह, जिसके लिये कोई दूसरा सेव्य या उपास्य न हो, केवल एक में ही अनुरक्त - न च अनञ्जस्स राजिनो, जा. अट्ठ. 7.191; पाठा. न च अञस्स; - गरही त्रि., [अनन्यगी], किसी दूसरे की निन्दा न करने वाला -
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अनञ
183
अनजात
अत्तगरहिनोयेव होन्ति अनगरहिनो, म. नि. 2.207; - त्त नपुं.. भाव. [अनन्यत्व], एक ही होना, अभिन्नता - चेतनाय अनञत्ता, अभि. अव. 107; - थ त्रि., अञथा का निषे०, तत्पु., दूसरे रूप में नहीं, यथार्थ रूप में, वास्तविक रूप में - चत्तारिमानि ... तथानि अवितथानि अनअथानि, स. नि. 3(2).493; इदं दुक्खान्ति, भिक्खवे, तथमेतं अवितथमेतं अनञथमेतं, पटि. म. 283; तानि ... भगवतो आणानि तस्मिं तस्मिं विसये ... अविसंवादनतो ... अनञथानि, उदा. अट्ठ. 111; - थता स्त्री., अनाथ का भाव., यथार्थ रूप में रहने की अवस्था - या तत्र तथता अवितथता अनञथता इदम्पच्चयता - अयं वुच्चति, भिक्खवे, पटिच्चसमुप्पादो, स. नि. 1(2).24; - था अ., निपा. [अनन्यथा], दूसरे अथवा विपरीत रूप में नहीं, यथार्थ रूप में- तञ्च होति भूतं तच्छ अनजथा, म. नि. 2.389, विप. मुसा; - थाभावी त्रि., [अनन्यथाभावी]. दूसरी दशा में अथवा दूसरे रूप में परिवर्तित नहीं होने वाला - अनजथाभाविमनञ्जनेय्यं ..., महाव. 41; - धेय्य/थेय्य त्रि., [अनन्यधेय, अनन्यस्तेय], शा. अ. दूसरों द्वारा न चुराये जाने योग्य, दूसरों के पास न रखने योग्य ला. अ. पत्नी के समान दूसरे राजाओं के अधिकार में न सौपें न जाने योग्य पृथ्वी - एकस्सेव सिया अनअधेय्या, जा. अट्ठ. 4.100; या सीलवती अनञ्जथेय्या .... जा. अट्ठ. 6.209; अनजथेय्याति किलेसवसेन अञ्जन न थेनितब्बा, तदे. पाठा. अनाथेय्य; - नेय्य त्रि., [अनन्यनेय], 1. दूसरों द्वारा न ले जाने अथवा मार्ग दर्शन न कराने योग्य, अपना मार्ग स्वयं खोजने वाला - ... उप्पन्नाणोम्हि अनञ्जनेय्यो .... सु. नि. 55 (अओहि इदं सच्च, इदं सच्चान्ति न नेतब्बो, सु. नि. अट्ठ. 1.84): नेतारमओसमनञ्जनेय्यं सु. नि. 215; अत्तनो पन अञ्जन केनचि मग्गं दस्सेत्वा अनेतब्बत्ता अनञ्जनेय्यं सु. नि. अट्ठ. 1.220; 2. निर्वाण, ऐसा पद, जो दूसरों द्वारा पहुंचाये जाने योग्य नहीं है - अनञ्जथाभाविमनञ्जनेय्यं..., महाव. 41; अत्तना भावितेन मग्गेनेव अधिगन्तब्ब, न अञ्जन केनचि अधिगमेतब्बन्ति अनञ्जनेय्यं महाव. अट्ठ. 243; - नेय्यता स्त्री., अनञ्जनेय्य से व्यु. भाव., स्वयं मार्ग प्राप्त करने की स्थिति - अनञ्जनेय्यताय बुद्धो, महानि. 344; - पाचित्तिय नपुं., (ब. स. में ही), पाचित्तिय के अन्त. परिगणित उन चार आपत्तियों (भिक्षु के पापकर्मों) का नाम, जिन में 'एतदेव पच्चयं करित्वा अनञ्च का वचन कहा जाए, पाचि. संख्या
16, 42, 77 तथा 78 इसी नाम के अन्त. आते हैं - चत्तारि अनञपाचित्तियानि, परि. 251; एतदेव पच्चयं करित्वा अननं पाचित्तियन्ति एवं वुत्तानि ... इमानि चत्तारि परि. अट्ठ. 172; - पोसी त्रि., [अनन्यपोषी], क. वह, जो दूसरों अर्थात् पुत्र, पत्नी आदि का पालन-पोषण न करता हो, गृहत्यागी भिक्षु या मुनि; ख. वह, जो अन्यों द्वारा पोषित न हो, अल्प इच्छाओं वाला हो, वीतराग मुनि - रसेसु गेधं अकरं अलोलो, अनञ्जपोसी सपदानचारी, स. नि. 65; अनञ्जपोसीति पोसेतब्बकसद्धिविहारिकादिविरहितो, कायसन्धारणमत्तेन सन्तुट्ठोति, सु. नि. अट्ठ. 1.93-94; अकिञ्चनो भिक्खु अनञपोसी, स. नि. 1(1).167; - वाद त्रि., अन्य लोगों के मतों के साथ नहीं जुड़ा हुआ, मिथ्यादृष्टि से पूर्ण सिद्धान्तों से मुक्त - अनञवादो सारत्थो सद्धम्ममनुरक्खनो, दी. वं. 4.24; - सत्थुक त्रि., किसी भी अन्य को शास्ता अथवा शिक्षक न बनाने वाला, दूसरे शिक्षक से रहित - अनञ्जसत्थुकं तीहि सरणगमनेहि सरणं गतं, उदा. अट्ठ. 235; पारा. अट्ठ. 1.131; - साधारण त्रि., [अनन्यसाधारण], वह, जिसमें दूसरों की साधारण बातें न पाई जाएं, विशिष्ट प्रकार का - ... अनञसाधारणं ... भगवतो यमकपाटिहारियाणं, उदा. अट्ठ. 112; यस्मा पनेतं सद्धावित्तं अनुगामिकं अन साधारणं..., सु. नि. अट्ठ. 1.196; - सरण त्रि., ब. स. [अनन्यशरण]. वह, जो किसी दूसरे की शरण नहीं लेता, आत्मदीप, आत्मप्रकाश, आत्मनिर्भर - ... भिक्खु अत्तदीपो विहरति अत्तसरणो अनअसरणो, दी. नि. 2.78; अत्तदीपो ... अत्तसरणो अनञसरणो एव भवेय्य, उदा. अट्ठ. 272. अनआत त्रि., अज्ञात का निषे. [अनाज्ञात], अज्ञात, नहीं जाना हुआ - अनिमित्तमनञआतं, मच्चानं इध जीवितं. सु. नि. 579; अनातं मया नत्थि अप. 1.40; धम्मानं अनजातानं ध. स. 296; तुल. अात; - अस्सामीतिन्द्रिय नपुं., अनञआत + अस्सामि + इति + इन्द्रिय, [बौ. सं. अनाज्ञातं आज्ञास्यामीन्द्रिय], किसी अज्ञात धर्म को जानने हेतु संकल्प लेने वाली इन्द्रिय, स्रोतापत्ति-मार्ग की प्रज्ञातीणिमानि, ... इन्द्रियानि ... अनञआतञस्सामीतिन्द्रिय अञिन्द्रिय, अञआतावीन्द्रिय, इतिवु. 39, द्रष्ट. अज्ञातावीन्द्रिय तथा अभिन्द्रिय; - टि. आर्यमार्ग पर चल रहे आर्यश्रावक की प्रज्ञाइन्द्रिय के क्रमशः सूक्ष्मतर हो रहे स्वरूप का विभाजन अभिधम्म की शैली में अनातज्ञस्सामीतिन्द्रियं, अभिन्द्रियं तथा अआतावीन्द्रिय,
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अनट
184
अनतिचरिया
इन तीन नामों से विवेचन हआ है. इनमें "मैं अज्ञात क्लेशादि से मुक्त होने से उत्पन्न सुख - चत्तारिमानि, ... अमृतपद निर्वाण को जानूंगा” इस प्रकार की चेतना वाले सुखानि अधिगमनीयानि ... अस्थिसुखं भोग-सुखं आनण्यसुखं स्रोतापत्तिमार्ग-क्षण में प्राप्त आर्यपुदगल की प्रज्ञा को अनवज्जसुखं, अ. नि. 1(2).80; अनणो स्मीति 'अनञआतअस्सामीतिन्द्रिय' कहा गया है - अनातं उप्पज्जनकसुखं आनण्यसुखं नाम, अ. नि. अट्ठ. 2.3063B अनधिगतं अमतपदं ... जानिस्सामी ति पटिपन्नस्स ... पाठा. आनण्यसुख. इन्द्रिय, सोतापत्तिमग्गपञआयेतं अधिवचनं, इतिवु. अट्ठ. अनटिक त्रि., अट्ठिक का निषे., ब. स. [अनस्थिक], बिना 183; अभि. ध. वि. टी. 197; यस्मिं समये .... अस्थियों वाला, बिना गुठली या आंठी वाला - मोचपानन्ति अनजातञ्जस्सामीतिन्द्रियं होति- इमे धम्मा कुसला, ध.. अनटिकेहि कदलिफलेहि कतपानं, महानि. अट्ठ. 321. स. 277; या तेसं धम्मानं अनातानं ... पञआ ... अनहित-किरियता स्त्री., स्थिरतापूर्वक क्रिया न करने की सम्पजज ... पाओभासो ... इदं तस्मि समये स्थिति, प्रमाद का एक लक्षण, निरन्तर क्रिया न करना - अनआतञस्सामीतिन्द्रियं होति, ध. स. 296.
.... कुसलानं वा धम्मानं भावनाय असक्कच्चकिरियता ... अनट त्रि., अकपटी, पाखण्डरहित, छलरहित, निष्कपट - अनट्टितकिरियता... अयं वुच्चति पमादो, विभ. 401; ... यो .... नानटो नाकुतूहलो, जा. अट्ठ.2.347; लाभं उप्पादेन्तेन पुग्गलो एकदिवसं दानं वा दत्वा... न निरन्तरं पवत्तेति, तस्स नटेन विय भवितब्बं यथा नटो हिरोत्तप्पं पहाय ... धनं सा किरिया, अनहितकिरियताति वच्चति, विभ. अट्ठ. 443. संहरति, एवमेव लाभत्थिकेन ... नानप्पकारं कोळि करोन्तेन अनत त्रि., नत का निषे०, [अनत, 1. नहीं झुका हुआ, विचरितब्बं यो एवं अनटो ..., तदे...
किसी के प्रति झुकाव, अभिरुचि अथवा प्रवृत्ति से रहित, अनजाधीन त्रि., अाधीन का निषे॰ [अनन्याधीन]. तृष्णारहित निब्बान - दुद्दसं अनतं नाम, न हि सच्चं अपराधीन, स्वाधीन, स्वतन्त्र - तस्मि एकस्मिंयेव सुदस्सन, उदा. 164, पाठा. अवनथं; अनतन्ति अनाधीना अस्स, जा. अट्ठ. 4.101.
रूपादिआरम्मणेसु. ... नमनतो तण्हा नता नाम, नत्थि एत्थ अनञपेक्खत्त नपुं., भाव., [अनन्यपेक्षत्व], किसी भी अन्य नताति अनतं, निब्बानन्ति अत्थो, उदा. अट्ठ. 319; 2. नपुं., की अपेक्षा न करने की स्थिति-... लिङ्गविपल्लासो इच्छितब्बो (अनृत) असत्य - भासन नपुं.. [अनृतभाषण], असत्य अनअपेक्खत्ता पुत्तधम्मसद्दादीनं, सद्द. 1.229-30; तत्थ भाषण, झूठ बोलना - कुदि अनतभासने, सद्द. 2.542. अट्टिसत्थिआदीनि पधानलिङ्गानि अनअपेक्खत्ता, सद्द. अनतिक्कन्त त्रि., अतिक्कन्त का निषे., [अनतिक्रान्त], नहीं 1.233, पाठा. अनअपेक्खकत्त.
पार किया हुआ क्षेत्र अथवा काल, पार नहीं करने वाला या अनाय न + आ + vञा, पू. का. कृ. [अनाज्ञाय], नहीं पार न किया हुआ - ... सूरिये नभमज्झं अनतिक्कन्तेयेव, जान कर - सच्चं किर ... थुल्लनन्दा भिक्खुनी ... जा. अट्ठ. 4.191; ... अनोघतिण्णेति कामोघं भवोघं ... कारकसङ्घ अनआय गणस्स छन्दं ओसारेतीति?, पाचि. अतिण्णे अनतिक्कन्ते, चूळनि. 107. 309; द्रष्ट. अज्ञआय, तुल. अजानित्वा.
अनतिक्कमन नपुं., अतिक्कमन का निषे. [अनतिक्रमण]. अनट्ठ त्रि., नट्ठ का निषे. [अनष्ट], वह, जो नष्ट नहीं हुआ। अनुल्लंघन, ऊपर होकर न बहना - ... आणा अनतिक्कमनाय है - अनढे नट्ठसञी, पारा. 376.
..., मि. प. 322; ... पुरिसो महतो तळाकस्स ... आळि अनड्ढ त्रि., अड्ड का निषे., तत्पु. [अनाढ्य], निर्धन, दरिद्र । बन्धेय्य, यावदेव उदकस्स अनतिक्कमनाय, चूळव. 420. - दुग्गते अधने नड्डे, अप. 2.235; पाठा. नटे.
अनतिक्कमनीय त्रि., अतिक्कमनीय का निषे. अनण त्रि., [अनृण], शा. अ. ऋण से मुक्त, ला. अ. पाप [अनतिक्रमणीय], अतिक्रमण न करने योग्य, उल्लंघन से मुक्त, भार से मुक्त, स्वतन्त्र - अनणा दानि ते मयं, थेरगा. नहीं करने योग्य - ... सिक्खापदं... यावजीवं अनतिक्कमनीयं 138; इदानि अग्गमग्गपत्तितो पट्ठाय इणभावकराय पहीनत्ता मि. प. 81; अट्ठ गरुधम्मा ... यावजीवं अनतिक्कमनीया, काम ते अनणा मयं, थेरगा. अट्ठ. 1.278; अनणो भुजामि चूळव. 420. भोजनं, थेरगा. 789, 882; किलेसइणं पहाय अनणा हत्वा अनतिचरिया स्त्री., अतिचरिया का निषे. [अनतिचर्या], ..., थेरीगा. अट्ठ.8; ... अनणा निदोसा अपगतकिलेसा हुत्वा परस्त्रीगमन से विरति, अनुचित आचरणों से विरति, ..., थेरीगा. अट्ठ. 120; - सुख नपुं., ऋणमुक्त होने अथवा अननुमोदित आचरण न करने की अवस्था, पत्नी के प्रति
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अनतिचारी
185
अनत्त
आचरणीय पांच आचरणों में से एक - पञ्चहि ... ठानेहि सामिकेन पच्छिमा दिसा भरिया पच्चुपट्ठातब्बा- सम्माननाय अनवमाननाय अनतिचरियाय ..., दी. नि. 3.144; अनतिचरियायाति तं अतिक्कमित्वा बहि अआय इत्थिया सद्धिं परिचरन्तो तं अतिचरति नाम, तथा अकरणेन, दी. नि. अट्ठ. 3.125; द्रष्ट. अतिचरिया. अनतिचारी त्रि., [अनतिचारी], खोट-रहित, अनुचित या अप्रिय आचरण न करने वाला, वफादार, सदाचारी, व्यभिचार न करने वाला - ... अनतिचारी च होति..., स. नि. 2(2).239; ... सङ्गहितपरिजना च, अनतिचारिनी च, दी. नि. 3.144. अनतिमान पु., तत्पु. स., अत्यधिक घमण्ड अथवा अहंकार का अभाव, विनम्रभाव - अनतिमानं निस्साय अतिमानो पहातब्बो..., म. नि. 2.28. अनतिमानी त्रि.. [अनतिमानी], अभिमान अथवा अत्यधिक अहंकार से मुक्त, विनम्र - ... अनतिमानिस्स एवंस ते आसवा विधातपरिळाहा न होन्ति, म. नि. 2.28; सूवचो चस्स मुदु अनतिमानी, सु. नि. 143; खु. पा. पृ. 11; अत्थद्धो होति अनतिमानी, दी. नि. 3.34; महोसधो, ... अक्कोधनो, अनतिमानी .... मि. प. 197. अनतिरित्त त्रि., अतिरित्त का निषे. [अनतिरिक्त], भिक्षु द्वारा पूर्वकाल में प्राप्त भोजन के अतिरिक्त नूतन रूप में प्राप्त अन्य भोजन- अनुजानामि, भिक्खवे ... भुत्ताविना पवारितेन अनतिरित्तं परिभुजितुन्ति, महाव. 290-91; अट्ठ अनतिरित्ता, परि. 265; अनतिरित्ते अतिरित्तसआयाति .... मि. प. 248; - टि. वि. पि. के अनुसार पवारित (अपने भोजन ग्रहण की घोषणा कर चुका) भिक्षु भोजन के बचे हुए भाग। (अतिरिक्त भत्त) को कुछ शर्ते पूरी कर लेने पर पुनः ग्रहण कर सकता है, परन्तु वह ताजा भोजन (अनतिरित्त भत्त) का ग्रहण नहीं कर सकता, द्रष्ट. पाचि. आपत्ति 35; पाचि. प. 116; - पच्चया अ., क्रि. वि., अनतिरिक्त अर्थात ताजे भोजन के कारण से - अनतिरित्तभोजनापत्तिया दूरभावो, विसुद्धि. 1.69, पाठा. अनतिरित्तभोजनपच्चया; - भोजन नपुं., पूर्व में प्राप्त भोजन का अवशिष्ट भाग न होकर ताजा भोजन - गामन्तरंगमिस्सामी ति पवारितेन अनतिरित्तभोजनं भुजितुं कप्पतीति अत्थो, सारत्थ. टी. 1.100; - सञी त्रि., अनतिरिक्त भोजन को अनतिरिक्त भी मानने वाला - अनतिरित्ते अनतिरित्तसञी खादनीयं वा भोजनीयं वा खादति ... आपत्ति पाचित्तियस्स, पाचि. 114.
अनतिरेकता स्त्री., अनतिरेक से व्यु. भाव., सुनिश्चित माप-तौल से अधिक अथवा उससे अतिरिक्त न होने की स्थिति-... केवलपरिपुण्णं परिसद्ध ब्रह्मचरियन्ति एवमादीस अनतिरेकता अत्थो, खु. पा. अट्ठ. 93, पाठा. अनवसेसता. अनतिवत्तन नपुं.. [अनतिवर्तन], रोग आदि से : अभिभूत न करते हुए रहना, अनुल्लंघन - जातिआदिदुक्खस्स अनतिक्त्तनतो च दुक्खं दुक्खसभावमेवाति अत्थो, उदा. अट्ठ. 170; युगनद्धस्स अनतिवत्तनट्ठो अभिओय्यो, पटि. म. 15; अनतिसार पु., अतिसार का निषे., तत्पु. स., विनय-नियमों का अनुल्लंघन, अपराध का न रहना, दोष से मुक्ति - ... अप्पणामेन्तो अनतिसारो होति, महाव. 62. विलो., सातिसार, द्रष्ट. आगे. अनतीत त्रि., अतीत का निषे. तत्पु., [अनतीत], वह जिसे पार नहीं किया जा सका है, वह, जिसका विषयीभूत है, वह, जिसे अभी तक पार नहीं किया गया, (द्वितीयान्त के साथ प्रयुक्त तथा 'धम्मो' का निषे. अनुपूरक)- जराधम्मो, जरं अनतीतो, दी. नि. 2.17; सब्बे सत्ता मरणधम्मा, मरणपरियोसाना मरणं अनतीता, स. नि. 1(1).116; - सत्थुक त्रि., अतीतसत्थुक का निषे., शास्ता अथवा भगवान बुद्ध की विद्यमानता वाला, शास्ता के निर्वाण से पूर्व वाला - याव च धम्मविनयो तिट्ठति ताव अनतीतसत्थुकमेव पावचनं होति, पारा. अट्ट, 1.5; खु. पा. अट्ठ. 73. अनत्त पु., अत्त का निषे., ब. स. [अनात्म], वह सभी कुछ, जिसमें आत्मा नहीं होती है अथवा वह, जो अपने आप में आत्मा का स्वरूप नहीं है, जो अपने वश में नहीं है - नत्थि एतेसं अत्ता कारकवेदकसभावो, सयं वा न अत्ताति अनत्ता, नेत्ति. अट्ठ. 176; यदनत्ता, तं नेतं मम, नेसोहमस्मि न मेसो अत्ताति... दट्ठब्बं स. नि. 2(2).2; सब्बे धम्मा अनत्ता, ध. प. 279; - त्तानं द्वि. वि., ए. व. - अत्तनाव अनत्तानं सञ्जानामी ति वा अस्स सच्चतो ... दिट्टि उप्पज्जति, अनत्तनाव अत्तानं .... म. नि. 1.11-12; - तो प. वि., ए. व. - अनत्ततो अनुपस्सन्तो अत्तसञ्ज पजहति, पटि. म., 400; - नि सप्त. वि., ए. व. - अनत्तनि अत्तमानि पस्स लोकं सदेवकं सु. नि. 761; - कत त्रि., अत्तकत का निषे. [अनात्मकृत], स्वयं अपने द्वारा नहीं किया गया, दूसरे द्वारा किया गया - ... अनत्तकतानि कम्मानि कमत्तानं फुसिस्सन्तीति, म. नि. 3.67; - गरही त्रि., उपपद. स. [अनात्मगहीं], आत्मनिन्दा न करने वाला - ... न लिम्पति
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अनत्त
186
अनत्त
लोके अनत्तगरही, सु. नि. 919; अनत्तगरहीति कताकतवसेन अत्तानं अगरहन्तो, सु. नि. अट्ठ. 2.253; - धम्म पु., कर्म. स. [अनात्मधर्म], वह धर्म, जो आत्मा नहीं है, रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान नामक पांच स्कन्ध, जिनमें आत्मा जैसा कोई भी धर्म प्राप्त नहीं होता है, अनात्म-स्वभाव वाले धर्म - रूपं ... अनत्तधम्मो, वेदना अनत्तधम्मो, सा अनत्तधम्मो, सवारा अनत्तधम्मो, विज्ञआणं अनत्तधम्मो, स. नि. 2(1).182; - निय त्रि., अत्तनिय का निषे., तत्पु., [अनात्मीय], वह रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार एवं विज्ञान धर्म, जो आत्मा के साथ जुड़ा हुआ न हो- रूपं ... वेदना ... सञआ ... सङ्घारा ... विज्ञआणं अनत्तनियं, तत्र ते मे छन्दो पहातब्बो, स. नि. 2(1).73; अनत्तनियन्ति न अत्तनो । सन्तकं, अत्तनो परिक्खारभावेन सञतन्ति अत्थो, स. नि. अट्ठ. 2.249; - न्तप त्रि., अत्तन्तप का निषे., स्वयं को पीड़ित न करने वाला- सो अनत्तन्तपो अपरन्तपो दिद्वेव धम्मे ... निब्बुतो..., म. नि. 2.3; 2.81; अ. नि. 1(2).237; - मन त्रि., ब. स. [अनाप्तमनस/अनात्तमनस्], असन्तुष्ट, अप्रसन्न मन वाला, क्रोधित, तिरस्कृत - तत्र चे तुम्हे अस्सथ कुपिता वा अनत्तमना वा..., दी. नि. 1.3; कुपितो अनत्तमनो भगवन्तं अभिवादेत्वा .... चूळव. 326; ... कुपिता अनत्तमना भाकुटि अकासिं.म. नि. 1.177; - मनता स्त्री.. अनत्तमन से व्यु. भाव., अप्रसन्न मन की दशा, दौर्मनस्यता - ... तस्मिं समये अनत्तमनता होति दोमनस्सं..., स. नि. 3(2).415; न च तेन देवताय अनत्तमनता वा अनभिनन्दि वा करणीया, अ. नि. 2(2).82; यो तस्मिं समये दोसो ... विरोधो ... अनत्तमनता चित्तस्स- अयं ... दोसो होति, ध. स. 418; - मनधातुक त्रि., असन्तुष्ट अथवा अप्रसन्न । प्रकृति वाला, चिन्तातुर - ... इदानि अनत्तमनधातुकोसि ...., ध. प. अट्ठ. 1.52; - मनवाचा स्त्री., मन की अप्रसन्नता
को प्रकट कर रही वाणी - ... अनत्तमनवाचं अनिच्छारेत्वा ..... दी. नि. 1.47; म. नि. 1.178; अनत्तमनो समानो
अनत्तमनवाचं मं सो भिक्खु अवच, अ. नि. 1(1).71; पाठा. अनत्तमनवचनं; - लक्खण नपुं.. कर्म. स. [अनात्मलक्षण], धर्मों के अनात्म होने का लक्षण, तीन लक्षणों में से एक लक्षण - अवसवत्तनतो अनत्ताति अनत्तलक्खणं आरोपेति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).79; अनिच्चलक्ख णे हि दिद्वे अनत्तलक्खणं दिट्ठमेव होति, उदा. अट्ठ. 191; ... अत्तपटिक्खेपेन भणन्तो अत्तसआधनपटिच्छन्नं अनत्तलक्षणं दीपेति, सु. नि. अट्ठ. 1.208; - लक्खणवत्थु नपुं.. अनात्म-
लक्षण पर प्रकाश डालने वाला बुद्धवचन, एक सुत्त का शीर्षक, ध. प. अट्ठ. 2.234; - लक्खणसुत्तन्त पु., अनात्मलक्षण से सम्बन्धित सूत्र या धर्मोपदेश, महाव. के एक उपदेश अनत्तपरियाय का दूसरा नाम, महाव. 17-19; स. नि. 2(1).61-63; अनत्तलक्खणसुत्तं कथेत्वा, जा. अट्ठ. 4.161; अनत्तलक्खणसुत्तन्तं देसेसि, जा. अट्ट, 1.91; - सा स्त्री., [अनात्मसंज्ञा], सारहीन, शून्य एवं तुच्छ धर्मों में अनात्म की अनुपश्यना - भावेय्य च अनिच्चन्ति, अनत्तसञ्ज असुभसञञ्च, थेरगा. 594; अनिच्चसजिनो हि, मेघिय, अनत्तसा सण्ठाति, उदा. 110; असारकतो अवसवत्तनतो परतो रित्ततो तुच्छतो सुञतो च सब्बे धम्मा अनत्ताति एवं पवत्ता अनत्तानुपस्सनासङ्घाता अनत्तसञआ, उदा. अट्ठ. 191; - सजी त्रि., तुच्छ, शून्य एवं सारहीन रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार एवं विज्ञान धर्मों में अनात्म की अनुपश्यना करने वाला-... अनत्तसजी अस्मिमानसमुग्घातं पापुणाति दिद्वेव धम्मे निब्बानन्ति, उदा. 110; ... दुक्खे अनत्तसञ्जी पहानसञी विरागसञी निरोधसञी, स. नि. 3(2)413; - सुत्त नपुं.. महाव. तथा स. नि. में संगृहीत अनात्मलक्षणसम्बन्धी एक उपदेश का शीर्षक, द्रष्ट. 'अनत्तलक्खणसुत्तन्त' (ऊपर); - त्ताकार पु., [अनात्माकार], अनात्मलक्षण का आकार अथवा स्वरूप, स्वयं अपने वश में न होने का लक्षण, विपश्यना-ध्यान का एक निमित्त - ... अत्तनो आणचरितस्स भगवा ... आचिक्खति विपस्सनानिमित्तं, अनिच्चाकारं दुक्खाकारं, अनत्ताकारं महानि. 264; अनत्ताकारन्ति अवसवत्तनाकारं महानि. अट्ठ. 312; - त्ताधीन त्रि., अत्ताधीन का निषे. [अनात्माधीन]. दूसरों के अधीन, परतन्त्र, दास - ... दासो अस्स अनत्ताधीनो पराधीनो न येनकामंगमो, दी. नि. 1.64; अनत्ताधीनोति न अत्तनि अधीनो, अत्तनो रुचिया किञ्चि कातं न लभति, दी. नि. अट्ठ. 1.172; - त्तानत्तनीय त्रि., अनत्ता + अनत्तनीय [अनात्मा अनात्मीय]. न ही आत्मा, न आत्मीय, (पांच स्कन्ध जिनमें से किसी में भी आत्मा एवं आत्मीय जैसा कोई भी सत्य नहीं रहता) - तं ... वत्थुभूतं खन्धपञ्चकं अञ्जथा अनत्तानत्तनियमेव होति, उदा. अट्ठ. 169; - त्तानुपस्सना स्त्री., अनत्त + अनुपस्सना [अनात्मानुपश्यना], पांच स्कन्धों आदि सभी धर्मों में अनात्मभाव की अनुपश्यना - ... असारकतो, अवसवत्तनतो ... सुजतो च सब्बे धम्मा अनत्ताति एवं पवत्ता अनत्तानुपस्सनासङ्घाता अनत्तसआ चित्ते सण्ठहति, उदा. अट्ठ. 191; अनत्तानुपस्सना अभिनेय्या, पटि. म. 19;
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अनत्थ
187
अनत्थ
अनिच्चानुपस्सनातिआदीहि चतुन्नं मग्गानं पुब्बभागविपस्सना वुत्ता, पटि. म. अट्ठ. 2.140; सु. नि. 1.143, द्रष्ट. अनुपस्सना एवं अनत्त; - त्तानुपस्सी त्रि., [अनात्मानुपश्यी], पांच स्कन्धों आदि में अनात्म की अनुपश्यना करने वाला - सब्बेसु धम्मेसु अनत्तानुपस्सी विहरति, अ. नि. 2(2).165; अनत्तानुपस्सीति अवसवत्तनाकारं अनत्ताति अनुपस्सन्तो, अ. नि. अट्ठ. 3.152; - तुक्कंसक त्रि., [अनात्मुत्कर्षक]. अपनी स्वयं की प्रशंसा न करने वाला, अपने विषय में बहुत बढ़-चढ़कर न बोलने वाला - न खो पनाहं अत्तुक्कसको ... अनत्तुक्कंसको, अपरवम्भीहमस्मि, म. नि. 1.25%;
अनत्तुक्कसका सब्बे, न ते वम्भेन्ति कस्सचि, अप. 1.16; - त्तुक्कंसना स्त्री., अपनी प्रशंसा न करना, अपने बारे में बढ-चढ़ कर न बोलना - अयञ्च सम्मादिट्टि .....
अनत्तुक्कंसना, अपरवम्भना, म. नि. 2.73. अनत्थ पु.. [अनर्थ], अलाभ, दुर्भाग्य, अकल्याण, विपत्ति, अवास्तविक, अनुपयोग, अहित, दुःख - यो अत्थं पुच्छितो सन्तो, अनत्थमनुसासति, सु. नि. 126; अनत्थमनुसासतीति तस्स अहितमेव आचिक्खति, सु. नि. अट्ठ. 1.43; बहुनो जनस्स अनत्थाय, अहिताय, दुक्खाय देवमनुस्सानं, चूळव.. 197; - क त्रि., ब. स. [अनर्थक], निरर्थक, बेकार, अनुपयोगी, हानिकर, विपत्ति लाने वाला - अनत्थपदसंहिता ... अनत्थकेहि पदेहि संहिता याव बहुका होति.... ध. प. अट्ठ. 1.363-64; - कारक त्रि., [अनर्थकारक], हानिकारक, अनर्थ करनेवाला, द्वेषभाव से परिपूर्ण, विद्वेषी - उपनाहीति परस्स अपराधं हदये ठपेत्वा सुचिरेनपि तस्स अनत्थकारको, जा. अट्ठ. 3.227; भिक्खवे, भण्डनकलहविग्गहविवादा नामेते अनत्थकारका, ध. प. अट्ठ. 1.35; - कारिता स्त्री., भाव. [अनर्थकारिता]. हानि करने की स्थिति या अवस्था - अनत्थताति अनत्थकारिता, दी. नि. अट्ठ. 3.118; - कुसल त्रि०, अत्थकुशल का निषे. [अनर्थकुशल]. कुशल कर्म करने में अनिपुण, हितसाधक कार्यों के सम्पादन में अकुशल, - अस्थि अनत्थकुसलो ... उपासिकानं तथारूपानि कुलानि सेवति भजति पयिरुपासति, अयं अनत्थकुसलो, खु. पा. अट्ठ. 192; -- लेन तृ. वि., ए. व. - ने वे अनत्थकुसलेन, अत्थचरिया सुखावहा, जा. अट्ठ. 1.244; अनत्थकुसलेनाति अनत्थे अनायतने कुसलेन, अत्थे आयतने कारणे असलेन वाति अत्थो, जा. अट्ठ. 1.244; - गहण नपुं.. [अनर्थग्रहण], अनर्थकारी धर्मों का ग्रहण या स्वीकरण - अविसेसतो पन ... अनत्थग्गहणतो ... आसीविससदिसता वेदितब्बा, स.
नि. अट्ठ. 3.58; - त्थङ्गते त्रि., सप्त. वि., ए. व. [अनस्तङ्गते], नहीं डूबा हुआ सूर्य, चन्द्र आदि, नहीं अस्त हो चुका सूर्य, चन्द्र - विसाखापुण्णमाय अनत्थङ्गतेयेव सूरिये..., उदा. अट्ठ, 26; - अनत्थङ्गतसूरिय त्रि., ब. स., वह, जहां अथवा जिस पर सूर्य अस्त नहीं हुआ है - अनावसूरन्ति न अवसूरं अनत्थङ्गतसूरियन्ति अत्थो, जा. अट्ठ. 5.49, तुल. अत्थ ;चर त्रि., [अनर्थचर], हित न करने वाला, अहितकारी, अनर्थसम्पादक - अनत्थचरो त्वं मझेति, मि. प. 131; योपि सुहदयो ... वा यो अनत्थवा अनत्थचरो, सोपि गुरह वेदित नारहते ति, जा. अट्ठ. 5.73; चत्तारिमानि, ... यानि वत्थूनि किच्चे जाते अनत्थचरानि भवन्ति, जा. अट्ठ. 5.429; - चरिया स्त्री., [अनर्थचर्या], अनुचित कार्य, असङ्गत या असमीचीन आचरण - तथागतस्स, ... कतेन ... अनत्थचरियाय वा असमानत्तताय वा .... मि. प. 159; - जनन त्रि., हानिप्रद, अनर्थोत्पादक, निरर्थक - अनत्थजननो लोभो, ... दोसो, ... मोहो..., इतिवु. 61; अ. नि. 2(2).234; - जाननक त्रि., [अनर्थज्ञ], अनर्थ, हानि अथवा अहित को जाननेवाला, अनर्थज्ञ - एवं खो, ब्राह्मण, अत्थानत्थजाननको नाम मया सदिसो नत्थी ति, ध. प. अट्ठ. 1.373; - ता स्त्री., अनत्थ का भाव. [अनर्थता], अनर्थमय स्थिति, बुरी अवस्था - उस्सूरसेय्या परदारसेवना, वेरप्पसवो, च अनत्थता च, दी. नि. 3.139; अनत्थताति अनत्थकारिता, दी. नि. अट्ठ. 3.118; - द त्रि., [अनर्थद], अकल्याणकारी, अहितकारी, अनर्थ को देनेवाला - अनत्थतो ति अनत्थदो, महाव. अट्ठ. 407; - दस्सी त्रि., [अनर्थदर्शी], अहितकारी परामर्श देने वाला, अहित की ओर ले जानेवाला, अकल्याणकारी सुझाव देनेवाला - पापं सहायं परिवज्जयेथ, अनत्थदस्सिं विसमे निविट्ठ सु. नि. 57; परेसम्पि अनत्थं दस्सेतीति अनत्थदस्सी, चूळनि. अट्ठ. 118; - निस्सित त्रि., [अनर्थनिश्रित]. अनर्थयुक्त, निरर्थक विषय से सम्बद्ध, वितण्डावाद अथवा लोकायतिकवाद - लोकायतिकन्ति अनत्थनिस्सितं सग्गमग्गानं अदायक अनिय्यानिक वितण्डसल्लापं लोकायतिकवादं न सेवेय्य, जा. अट्ठ. 7.181; - पदसंहित त्रि., [अनर्थपदसंहित], केवल निरर्थक शब्दों से युक्त, अर्थरहित पदों वाला - सहस्समपि चे वाचा, अनत्थपदसंहिता, ध. प. 100; -टि. आकाशवर्णन, वनवर्णन आदि के प्रकाशक या अभिव्यञ्जक पद मुक्ति या निर्वाण में सहायक न होने से अनर्थपद कहलाते है, अतः ऐसे पदों से युक्त वाणी को बुद्धवचनों में 'अनत्थपदसंहिता' कहा गया है, द्रष्ट.ध. प.
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अनत्थ
188
अनद्धनीय/अनद्धनिक
अट्ठ. 1.363-364; - पुच्छक त्रि., [अनर्थपृच्छक], निरर्थक अनत्थुप्पादनं, पे. व. अट्ठ. 100. अथवा अनुपयोगी धर्मों या बातों को पूछने वाला - इमं अनत्थङ्गमित त्रि., अत्थङ्गमित का निषे. [अनस्तमित], नहीं धम्मदेसनं सत्था ... अनत्थपुच्छकं ब्राह्मणं आरभ कथेसि. डूबा हुआ, अस्त नहीं हो चुका, वह, जिसका अस्तङ्गमन न ध. प. अट्ठ. 1.372; - पुच्छकब्राह्मणवत्थु नपुं.. ध. प. हुआ हो - सूरिये अनत्थङ्गमितेयेव ..... ध. प. अट्ठ. 1.51; अट्ठ. के सहस्सवग्ग के चतुर्थ सुत्त का शीर्षक, ध. प. अट्ठ. पाठा. अनत्थङ्गत, अनत्थभित. 1.372-374; - युत्त त्रि., [अनर्थयुक्त], अनर्थ से भरा हुआ, अनत्थट/अनत्थत त्रि. [अनास्तृत], नहीं बिछाया हुआ, निरर्थक, अकल्याणकारक - अनत्थसहितन्ति अनत्थसंयुत्तं अनाच्छन्न, नहीं ढका हुआ, अनाच्छादित - एवं खो, भिक्खवे. दी. नि. अट्ठ. 3.72, तुल. अनत्थसंहित; - वा त्रि., प्र. वि., अत्थतं होति कथिनं, एवं अनत्थतं, महाव. 331; ए. व. [अनर्थवान्], निरर्थक, मूल्यहीन, विद्वेषी, हानिप्रद - अनन्तरहितायाति केनचि अत्थरणेन अनत्थताय म. नि. सुमित्तो च असम्बुद्ध, सम्बुद्ध वा अनत्थवा, जा. अट्ठ, 5.73; अट्ठ. (म.प.) 2.207. - वस त्रि., [अनर्थवश], अनर्थ अथवा पाप के प्रभाव से अनत्थारक त्रि., [अनास्तारक]. नहीं फैलानेवाला, नहीं प्रभावित, अनर्थ के अधीन - अनत्थवसमागतन्ति ... बिछानेवाला, वह भिक्षु, जिसने कठिन चीवर का ग्रहण अनत्थकारकानं किलेसानं वसं आगतं... जा. अट्ठ. 6.304; विनय-नियमों के अनुरूप नहीं किया है, - द्विन्न पुग्गलानं - वादी त्रि., [अनर्थवादिन], निरर्थक बातों को कहनेवाला अनत्थतं होति कथिनं- अनत्थारकस्स च अननुमोदकस्स - अकालवादी अभूतवादी अनत्थवादी अधम्मवादी च, परि. 326; द्रष्ट. आगे कठिन अत्थरण के अन्त; - टि.
अविनयवादी, म. नि. 1.360; अ. नि. 3(2).233; - संहित कठिनविधान के अवसर पर भिक्षु को अपने तीन चीवरों में त्रि., [अनर्थसंहित], अनर्थ से युक्त, अलाभकारी, निरर्थक, से कोई एक चीवर को फैलाने की घोषणा विधिवत करनी अनुपयोगी - यो चायं कामेसु कामसुखल्लिकानयोगो हीनो पड़ती है जिसे विनय में कठिनत्थरण कहते हैं, इस विधान .... अनरियो अनत्थसंहितो, महाव. 13; अनत्थसंहितोति न के अनुरूप सङ्घाटी आदि को ग्रहण न करने वाले भिक्षु को
अत्थसंहितो, हितसुखावहकारणं अनिस्सितोति अत्थो, स. 'अनत्थारक' कहलाता है. नि. अट्ठ. 3.327; अत्थसंहितं तथागता पुच्छन्ति, नो अनदी स्त्री., तत्पु. [अनदी], नदी से भिन्न, वह, जो नदी अनत्थसंहितं, महाव. 66; - सन्तान पु., [अनर्थसन्तान]. नहीं है - न तेन अनदी होति, जा. अट्ठ. 2.104. अहितकारी धर्मों की निरन्तरता; अकल्याणकारी धर्मों का अनद्दा-अनदायना-अनदायितत्तं स्त्री., तथा नपुं.. [तुल. सातत्य या अविच्छिन्नता - ताव तेन तेन आणेन तस्स अनादर], अनादर, असम्मान, तिरस्कार, अवमानना - यं तस्स अनत्थसन्तानस्स पहानं सु. नि. अट्ठ. 1.8; - त्थावह अनादरियं अनादरता अगारवता ... अनद्दा अनदायना त्रि, [अनर्थावह], हानि को लाने वाला, अपने हित अथवा अनदायितत्तं असील्यं अचित्तीकारो-इदं वुच्चति अनादरिय, कल्याण के लिये अनुपयोगी, अनर्थकारी, अकल्याणकारी - विभ. 432; अनद्दाति अनादियना, अनदायनाति .... पापं ... असुन्दरं अत्तनो परेसञ्च अनत्थावहं.... उदा. अनादियनाकारो, अनद्दाय अयितस्स भावो अनदायितत्तं विभ. अट्ठ. 259; - त्थावहनता स्त्री., भाव. [अनर्थावहनता]. अट्ठ. 471. अनर्थकारी या अनुपयोगी स्थिति में प्राप्त कराने की अवस्था अनद्धगू त्रि., [अनध्वग]. स्थलमार्ग पर न चलने वाला, या स्वभाव, अनर्थ को ले आने वाली वृत्ति - अनत्थावहनताय __ वायुमार्ग से गमन करने वाले अर्थात् देवगण - अनद्धगूनं वेरानुबन्धसपत्तसदिसत्ता सपत्ता, थेरीगा. अट्ठ. 267; - त्थिक अपि देवतानं, जा. अट्ठ. 5.14; या पदसा अद्धानं अगमनेन त्रि., [अनार्थिक], निराकार, कोई सरोकार या इच्छा नहीं अनद्धगूनं देवतानं इद्धि, जा. अट्ठ. 5.15. रखनेवाला, बहुत बड़ी मांग नहीं करनेवाला - भवेनम्हि अनद्धनीय/अनद्धनिक त्रि., [अनध्वनीय], वह, जो टिकाऊ अनत्थिको, थेरगा. 122; दुब्बला ते भविस्सन्ति, हिरीमना न हो, जो चिरकालिक न हो, क्षणिक, अध्रुव प्रभङ्गुर, - अनस्थिका, थेरगा. 956; न च अनत्थिको पत्तेन होति, म. सब्बेपि सङ्घारा ... तत्थ तत्थेव निरुज्झन्ति, तस्मा सब्बेपिमे नि. 2.347; तुल. अत्थिक'; - त्शुप्पादन नपुं., अनिच्चा ... अनद्धनिया ... निस्सारा, जा. अट्ट, 1.375; [अनर्थोत्पादन], अनर्थ, अहित तथा संकट का उत्पादन, तत्थ कुम्भूपमन्ति अबलदुब्बलटेन अनद्धनियतावकालिकट्ठन संकटमयी अवस्था - मित्तदुब्भोति मित्तेस दुब्भनं तेसं ..... ध. प. अट्ठ. 1.180.
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अनद्धनेय्य
189
अनधिवासक
अनद्धनेय्य त्रि., [अनध्वनेय्य], उपरिवत् - थले यथा वारि जनिन्द वर्ल्डअनद्धनेय्यं न चिरद्वितीक, जा. अट्ठ. 5.500%;
अनद्धनेय्यन्ति न अद्धानक्खम, तदे.. अनद्धभूत त्रि., अद्धभूत का निषे. [अनर्धभूत], स्वतन्त्र, अविभाजित, अखण्डित, मुक्त, वह, जिसका हिस्सा न बांटा । जा सके, अनभिभूत - अनद्धभूतं अत्तानं दुक्खेन अद्धभावेति म. नि. 3.9; तत्थ अनद्धभूतन्ति अनधिभूतं म. नि. अट्ठ (उप.प.) 36. अनधिक त्रि., अधिक का निषे०, तत्पु. [अनधिक], वह, जो आवश्यकता से अधिक नहीं है अर्थात् संतुलित, सर्वाकारसम्पन्न, असीम, पूर्ण - सब्बाकारसम्पन्न सब्बाकारपरिपूरं अनूनमनधिकं स्वाक्खातं केवलं परिपूर ब्रह्मचरियं सुप्पकासितं, दी. नि. 3.93; तञ्च खो अत्थतो वा ब्यजनतो वा अनूनमनधिक उदा. अट्ठ. 10; तस्मा पञ्चपमाणानि अनूनानि अनधिकानि, पञ्चनङ्गलसतानीति वुत्तं होति, सु. नि. अट्ट, 1.109, विलो. अनून, अन्यून. अनधिकरण त्रि., अधिकरण का निषे., ब. स. [अनधिकरण], विवाद-विषय में रुचि न रखने वाला - अनधिकरणेन भवितब्बं अनवसेसकारिना, मि. प. 351. अनधिगत त्रि., अधिगत का निषे०, तत्पु. [अनधिगत, अप्राप्त, वह, जो प्राप्त नहीं है, अज्ञात, असाक्षात्कृत - अदिढे दिवसचिनो अपत्ते पत्तसझिनो अनधिगते अधिगतसञ्जिनो असच्छिकते सच्छिकतसचिनो अधिमानेन अजं ब्याकरिंस. पारा. 111; योगं करोति अप्पत्तस्स पत्तिया अनधिगतस्स अधिगमाय असच्छिकतस्स सच्छिकिरियाय, मि. प. 33; दी. नि. 3.203; - त्त नपुं., भाव. [अनधिगतत्व], अप्राप्ति की स्थिति, प्राप्त न होना - पटिपत्तिया अधिगन्तब्बस्स अनधिगतत्ता नेव अधिगमो अत्थि, ध. स. अट्ठ. 378; - निद्वत्त त्रि., ब. स. [अनधिगतनिष्ठात्मन], वह, जिसमें चित्तस्थैर्य नहीं है, वह, जिसके चित्त में स्थिरता नहीं है - अब्योसितत्ता हीति अनधिगतनिद्वत्ता, थेरगा. अट्ठ. 2.253; - तारहत्त त्रि., वह, जिसने अर्हत्व को प्राप्त नहीं किया है, अर्हत्व की अवस्था में न पहुंचा हुआ, शैक्ष्य --
अप्पत्तमानसन्ति अनधिगतारहत्तं, स. नि. अट्ठ. 2.182. अनधिगम पु., [अनधिगम], अप्राप्ति, अलाभ, असाक्षात्कार -
इमिस्सायेव अरियाय पञआय अनधिगमा..., म. नि. 1.115. अनधिट्ठान नपुं.. अधिट्ठान का निषे., तत्पु. [अनधिष्ठान], किसी एक आलम्बन पर चित्त की अनवस्थिति, दृढ़ निश्चय या संकल्प का अभाव, चित्त की एकतानता का अभाव - पञ्चसु वा कामगुणेसु चित्तस्स वोसग्गो ... अनहितकिरियता
... अनधिद्वानं अननुयोगो ... अयं वुच्चति पमादो, विभ. 401; अनधिट्ठानन्ति कुसलकरणे पतिट्ठाभावो, विभ. अट्ठ. 443. अनधिहित त्रि., [अनधिष्ठित], 1. अनिर्धारित, वह, जिसका निर्धारण न किया गया हो अथवा जिसके विषय में विकल्पना न की गयी है - अतिरेकचीवरं नाम अनधिद्वितं
अविकप्पितं, पारा. 303; 2. वह, जिसके विषय में दृढ़ निश्चय न किया गया हो, असंकल्पित, अविकल्पित - तस्स चे, भिक्खवे, भिक्खुनो तं चीवरं अनधिष्कृिते अओ भिक्खु आगच्छति, समको दातब्बो भागो, महाव. 391. अनधिमू पु., अधिभू का निषे०, तत्पु. [अनधिभू]. अप्रभु, अस्वामी, अश्रेष्ठ, अप्रधान, अभिभूत न कर सकने वाला - अधिभूतो, अनधिभू अधिभंसु नं पापका अकुसला धम्मा, स. नि. 2(2).186. अनधिभूत त्रि., अधिभूत का निषे., तत्पु. [अनधिभूत], अपराजित, अविजित, अपराभूत - अयं वुच्चतावुसो, भिक्खु रूपाधिभू सद्दाधिभू गन्धाधिभू ... अधिभू अनधिभूतो, स. नि. 2(2).187. अनधिमन त्रि., ब. स. [अनधिमनस्], वह, जिसका मन किसी के प्रति रागयुक्त नहीं है, अन्यमनस्क, उदास मनवाला, अनुत्फुल्ल मन वाला - यस्मा च मे अनधिमनोसि सामि, न चापि मे मनसा अप्पियोसि, जा. अट्ठ. 5.26; यस्मा त्वं अनधिमनोसि, मं अभिभवित्वा अतिक्कमित्वा अझं मनेन न पत्थेसि, जा. अट्ठ. 5.27. अनधिमुच्छित त्रि., अधिमुच्छित का निषे०, तत्पु. [अनभिमूर्छित], अनासक्त, किसी के प्रति रागयुक्त न रहने वाला, क्लेशरहित - तस्मिञ्च सुखे अनधिमुच्छितो होति. म. नि. 3.9. अनधिवर त्रि., ब. स. [अनधिवर], वह, जिससे अधिक अभ्युत्कृष्ट कोई अन्य नहीं है, अतुल, अप्रमेय - इधागता अनधिवरं नमस्सितुं, वि. व. 139; इद्धी च ते अनधिवरा विहङ्गमा वि. व. 140; इध अनधिवरा बुद्धा, अभिसम्बुद्धा विरोचन्ति, जा. अट्ठ. 4.208; अनधिवराति अतुल्या अप्पमेय्या,
जा. अट्ठ. 4.209. अनधिवासक त्रि०, अधिवासक का निषे. [अनधिवासक]. धैर्यहीन, सहनशक्ति से विरहित, कष्टों को सहने में अक्षम, केवल स. प. के पू. प. के रूप में ही प्राप्त; - जातिक त्रि., [अनधिवासकजातिक], धैर्यहीन प्रकृति वाला, कष्ट सहने में अक्षम स्वभाव वाला- ऊनवीसतिवस्सो, भिक्खवे.
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अनधिवासनता
190
अननुभूत पुग्गलो अक्खमो होति ... अमनापानं पाणहरानं अननुज्ञात त्रि., [अननुज्ञात], आज्ञा को अप्राप्त, अनुमोदन अनधिवासकजातिको होति, महाव. 98; - जातिकता स्त्री. न पाया हुआ, अप्राप्त स्वीकृति वाला, वह, जिसे करने की भाव., धैर्यच्युत होने की अवस्था, असहनशीलता - अहं अनुमति न हो- किं नु खो भगवता पासादपरिभोगो अनुआतो अनधिवासकजातिकताय तुम्हेहि सद्धि कथेसिं, जा. अट्ठ. कि अननुज्ञातो ति, चूळव, 299; अयाचितो ततागच्छि, 3.327; पाठा. अनधिवासन..
नानुआतो इतो गतो, थेरीगा. 129; न खो, सङ्गामजि, अनधिवासनता स्त्री॰, भाव. [अनधिवासनता], अक्षमता, तथागता मातापितुहि अननुज्ञातं पुत्तं पब्बाजेन्तीति, उदा. अक्षान्ति, अक्षान्ति की अवस्था, धैर्यहीनता, व्याकुलता - या अट्ठ. 57; - समुट्ठान पु., वि. पि. के अन्त. परि. नामक अक्खन्ति अक्खमनता अनधिवासनता चण्डिक्कं असुरोपो एक ग्रन्थ के एक समुट्ठान का शीर्षक, परि. 187. अनत्तमनता चित्तस्स- अयं वच्चति अक्खन्ति, विभ. 416. अननुतप्प त्रि., [अननुताप्य], अनुताप अर्थात् पश्चाताप के अनधिवासना स्त्री., [अनधिवासना], असहनशीलता, अक्षान्ति, अयोग्य, पश्चाताप न करने योग्य - एवरूपो ... सत्था असहिष्णुता - अहुदेव अक्खन्तीति अहोसियेव अनधिवासना, सावकानं कालङ्कतो अननुतप्पो, दी. नि. 3.91. अ. नि. अट्ठ. 2.212.
अननुतापिय त्रि., अनुतापिय का निषे. [अननुताप्य], अशोच्य, अनधोमुखता स्त्री., भाव., नीचे की ओर मुख न करने की शोक न करने योग्य अशोचनीय - सो मे अत्थो अनुप्पत्तो, स्थिति, पतनशीलता का अभाव - अपतितक्खन्धता __कतं अननुतापियं अ. नि. 1(2).79. अनधोमुखता इत्थिपुरिसानं, खु. पा. अट्ट. 24.
अननुनीत त्रि., अनुनीत का निषे. [अननुनीत], अनाकृष्ट, अननुकूल त्रि०, अनुकूल का निषे. [अननुकूल]. विपरीत, वह, जिसको घसीट कर दूर न ले जाया गया है, प्रतिकूल, अननुरूप, विरुद्ध - अननुकूलानं च अप्पसिद्धानं अप्रतिहत, मध्यस्थ - अननुनीतो अप्पटिहतो मज्झत्तोयेव छडुनं, सद्द, 527; - ता स्त्री. भाव., विपरीतता, प्रतिकूलता, हुत्वा गच्छति, सु. नि. अट्ठ. 2.195. विरुद्धता - विरोधो ति अननुकूलता पतिविरोधो ति पुनप्पुन अननुप्पत्त त्रि., अनुप्पत्त का निषे. [अननुप्राप्त], वह, जो अननुकूलता, सद्द. 470.
प्राप्त नहीं है, अप्राप्त, नहीं पाया हुआ - अननुप्पत्तञ्च अननुगत त्रि., [अननुगत]. 1. पालन या आचरण न किया अनुत्तरं योगक्खेमं नानुपापुणाति, म. नि. 1.150. गया, वह, जिसका अनुगमन नहीं किया गया है, 2. वह, जो __ अननुबुज्झन नपुं., अनुबुज्झन का निषे. [अननुबोधन], दूसरों से मार्गदर्शन प्राप्त नहीं करता है, दूसरों का अनुगमन अननुबोध, अज्ञान, ज्ञान का सर्वथा अभाव - अननुबोधाति न करने वाला - अनन्वयन्ति यं अत्थं दस्सामि, करिस्सामीति आतपरिआवसेन अननुबुज्झना, दी. नि. अट्ठ. 2.76. च भासति, तेन अननुगतं. सु. नि. अट्ठ. 1.271; अननुबोध' पु., [अननुबोध], अनुबोध का अभाव, नासमझी, अननुगतन्तरस्साति किलेसे अननगतचित्तस्स, म. नि. अट्ठ. ज्ञानाभाव, अप्रतिवेध, प्रतिवेध-ज्ञान का अभाव - दुक्खस्स, (म.प.) 2.70.
भिक्खवे, अरियसच्चस्स अननबोधा अप्पटिवेधा एवमिदं अननुच्छविक / अननुच्छविय त्रि., [अननुच्छविक]. दीघमद्धानं सन्धावितं. दी. नि. 2.71; अननुबोधाति अबुज्झनेन अनुपयुक्त, अहितकर, प्रतिकूल, अप्रतिरूप, अकरणीय - अजाननेन, दी. नि. अट्ठ. 2.119. अननुच्छविकं ... अननुलोमिक अप्पतिरूपं, अस्सामणक __ अननुबोध' त्रि., ब. स. [अननुबोध], वह, जिसे आर्यसत्यों अकप्पियं अकरणीयं, महाव. 50; 66; अननुच्छविकं ते के ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई है, प्रतिवेधक-ज्ञान से रहित, कतन्ति सत्थु सन्तिकं नेत्वा, जा. अट्ठ. 1.400; अननुच्छविकं अज्ञानी - पुथुज्जनो अननुबोधोहमस्मि वि. व. 1203; तत्थापि
खो नागसेन परिवितकं वितक्कसि. मि. प. 12; - त्त नपुं... सच्चानं अनुबोधमत्तस्सापि अभावेन अननुबधो वि. व. अट्ट, 274. भाव., अप्रतिरूपता, अनुपयुक्तता, प्रतिकूलता, अकरणीयता अननुभूत त्रि., अनुभूत का निषे. [अननुभूत], वह, जो - अननुच्छविकत्ता एव च अननुलोमिक, पारा. अट्ठ. 1.169. अनुभव में नहीं आया है, अप्राप्त, असाक्षात्कृत, वह, जो अननुज्ञा स्त्री., [अननुज्ञा], अनुज्ञा या आज्ञा का अभाव, अनुभवगम्य नहीं है - पथविं ... पथवितो अभिआय यावता अनुमति का न होना; असमर्थन, अस्वीकरण, अननुमोदन - .... अननुभूतं तदभिआय पथविं नापहोसिं. म. नि. 1.412; तस्मा अननुआयं ठत्वा अनुम्पि पटिक्खिपन्तो, म. नि. अननुभूतन्ति पथविया पथविसभावेन अननुभूतं अप्पत्तं, म. अट्ठ. (म.प.) 2.139.
नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).305; - तारम्मण नपुं..
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अननुमत
191
अननुसोचिय [अननुभूतालम्बन], पूर्व में अनुभव नहीं किया गया इन्द्रिय - अननुच्छविक, मोघपुरिस, अननुलोमिक अप्पतिरूपं एवं अतीन्द्रिय ज्ञान का आलम्बन - सो पनेस असमुदाचारवसेन अस्सामणकं ..., महाव. 66; ... भिक्खु बालो होति अब्यत्तो वा अननुभूतारम्मणवसेन वा अनुप्पन्नो उप्पज्जतीति वेदितब्बो. ... विहरति अननुलोमिकेहि गिहिसंसग्गेहि, महाव. 419; अ. नि. अट्ठ. 1.24; - पुब्ब त्रि.. [अननुभूतपूर्व], पूर्व काल पारा. 21; - त्त नपुं.. [अननुलोमिकत्व], अयोग्यता, अनुचित में अनुभव नहीं किया गया - सुपिनन्तेपि अननुभूतपुब्बं होने की अवस्था - अननुलोमिकत्ता एव च अप्पतिरूपं परमगम्भीर ... अमतं निब्बानं, उदा. अट्ठ. 318.
पारा. अट्ठ. 1.169. अननुमत त्रि., [अननुमत], वह, जिसके लिये अनुमति या अननुवज्ज त्रि., [अननवद्य], अनिन्दनीय, अगर्हय, अनुमोदन प्राप्त नहीं हैं या जो अनुज्ञात नहीं है - नानुजातोति प्रशंसनीय, निन्दामुक्त, प्रशंसा के योग्य - चतूहि, ... अङ्गेहि अननुमतो, पे. व. अट्ठ. 54; तुल. थेरीगा. 129.
समन्नागता वाचा सुभासिता होति, ... अनवज्जा च अननुवज्जा अननुमोदक त्रि., [अननुमोदक], सङ्घकर्म का अनुमोदन न च विझूनं. सु. नि. पृ. 148; अननुवज्जा चाति अनुवादविमुत्ता, करने वाला भिक्ष, धन्यवाद ज्ञापन न करने वाला - द्विन्नं सु. नि. अट्ठ. 2.112; ... अनवज्जो च होति अननुवज्जो च पुग्गलानं अनत्थतं होति कथिनं - अनत्थारकस्स च विझूनं, अ. नि. 1(1).331. अननुमोदकस्स, परि. 326.
अननुवाद त्रि., अनुवाद का निषे. [अननुवाद], उपरिवत् - अननुयुञन नपुं.. [अननुयुञ्जन], किसी में लगाव का न अननुवादो चुदितो भिक्खूति अलं वचनाय, महाव. 243; एवं होना, किसी के साथ जुड़ा हुआ न रहना - अननुयोगेति ओवदन्तो अननुपवादो, ध. प. अट्ठ.2.217, पाठा. अननुपवाद. योगस्स अननुयुञ्जने, अ. नि. अट्ठ. 3.168.
अननुविच्च अ., पू. का. कृ. [अननुविच्य], परीक्षा न करके, अननुयुत्त त्रि., [अननुयुक्त], अव्यात, किसी कार्यविशेष में विवेचन के बिना, बिना विनिश्चय किये हुए, पर्यवगाहन न न जुटा या लगा हुआ - ... अयमायस्मा जागरियं अननुयुत्तोति, करके - ये ते, भन्ते, बाला अब्यत्ता अननुविच्च अपरियोगाहेत्वा म. नि. 2.145; ... ये ते पुग्गला अस्सद्धा ... भोजने परेसं वण्णं वा अवण्णं वा भासन्ति, म. नि. 2.323; अननुविच्च अमत्तञ्जुनो, जागरियं अननयुत्ता .... म. नि. 1.39.
अपरियोगाहेत्वा अवण्णारहस्स वण्णं भासति ..., अ. नि. अननुयोग पु., [अननुयोग], धर्मों के प्रत्यवेक्षण में न 1(2).98. लगना, अलगाव, धर्मविषयक परिपन्थ, धर्मों की धर्मता के अननुवेज्ज त्रि., अनु + विद के सं. कृ. का निषे., न विषय में प्रमाद - पमादे अननुयोगे अपच्चवेक्षणाय तिब्बा खोजने योग्य, न पाए जाने योग्य - तथागतं अननुविज्जोति भयसआ पच्चुपट्टिता होति. अ. नि. 2(2).199; कुसलानं वा वदामि. म. नि. 1.194; अननुविज्जोति असंविज्जमानो वा धम्मानं भावनाय... अनधिट्टानं अननुयोगो पमादो, विभ. 401. अविन्देय्यो वा, म. नि. अट्ठ (मू.प.) 1(1).22. अननुयोगक्खम त्रि.. [अननुयोगक्षम]. प्रश्नों का सामना अननुसन्धिक त्रि., [अननुसन्धिक]. अनुसन्धियों अर्थात् करने में अक्षम, अनुयोग के अयोग्य, सङ्घ के किसी कर्म में जोड़ों से रहित, संयोजक तत्वों से रहित, असम्बद्ध - न लगाये जाने के लिये असमर्थ रुग्ण भिक्षु आदि-गिलानो बुद्धानं अननुसन्धिका नाम कथा अस्थि, सु. नि. अट्ठ. 1.113. च अननुयोगक्खमो वुत्तो भगवता, महाव. 247.
अननुसन्धिकगाथा स्त्री., कर्म. स. [अननुसन्धिकगाथा]. अननुरुद्ध त्रि., अनु + /रुध के भू. क. कृ. का निषे. पूर्वापर क्रम-सम्बन्धों से रहित गाथा, वह गाथा, जिसमें [अननुरुद्ध], अनियन्त्रित, अप्रतिविरुद्ध, अनवरुद्ध, अवरोध- पूर्वापरक्रमसम्बन्ध न हो, - यस्मा चतुबिधा गाथा पुच्छितगाथा, रहित - सा पनातुसो, निट्ठा अनुरुद्धप्पटिविरुद्धस्स उदाहु ... सानुसन्धिकगाथा अननुसन्धिकगाथाति, खु. पा. अट्ठ. 99. अननुरुद्धअप्पटिविरुद्धस्साति? म. नि. 1.95.
अननुसय पु.. अनुसेति से व्यु., अनुसय का निषे. [अननुशय]. अननुरूप त्रि., [अननुरूप], अनुपयुक्त, प्रतिष्ठा के विरुद्ध, अनुशय का अभाव - सो कामनन्दियापि अननुसया ..., अ. अनुचित, अयोग्य, अप्रतिरूप, अस्थानिक - अट्ठानेन अकारणेन नि. 2(1).226. अत्तनो राजभावस्स अननुरूप.... जा. अट्ठ. 3.391; अत्तनो अननुसोचिय त्रि.. [अननुशोच्य], शोक न करने योग्य - अननुरूपमेव मरणं पत्तो, ध. प. अट्ठ. 2.39.
भूतं सेसं दयितब्ब, वीतं अननुसोचियन्ति, जा. अट्ठ. 3.81; अननुलोमिक त्रि., अनुलोमिक का निषे. [अननुलोमिक]. अननुसोचियं न अनुसोचितब्बन्ति, जा. अट्ठ. 3.82; - जातक अनुपयुक्त, प्रतिष्ठा के विरुद्ध, अनुचित, अयोग्य, अप्रतिरूप नपुं.. 328वें जा. का नाम, जा. अट्ठ. 3.79-83.
निनुसन्धिका
कर्म. स.
गाथा, |
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अननुस्सति 192
अनन्त अननुस्सति स्त्री०, अनुस्सति का निषे०, तत्पु., [अननुस्मृति], अपरियन्तगोचरं ध. प. अट्ठ. 2.114; इच्छा हि अनन्तगोचरा, अनुस्मृति की अनुपस्थिति या अभाव, स्मृति-विप्रमोष - या विगतिच्छान नमो करोमसेति जा. अट्ठ. 2.216; इच्छा हि अस्सति अननुस्सति अप्पटिस्सति अस्सति अस्सरणता अनन्तगोचराति लद्धं हीळेत्वा अञमज आरम्मणं इच्छनतो अधारणता पिलापनता सम्मुसनता- इदं वुच्चति मुट्ठस्सच्चं. अयं इच्छा नाम तण्हा अनन्तगोचरा, तदे.; - जालि पु., विभ. 417; ध. स. 1356.
भाजनपालक थेर के पूर्ववर्ती जन्म का नाम - तेपासे अननुस्सुत त्रि., [अननुश्रुत], परम्परा में अप्राप्त, वह, जिसे इतो कप्पे, अनन्तजालिनामको, सत्तरतनसम्पन्नो, चक्कवत्ती पहले कभी नहीं सुना गया है - पुब्बे अननुस्सुतेसु धम्मेसु.. महब्बलो, अप. 1.229; - जिन पु.. [अनन्तजिन], अनन्त दी. नि. 2.25; ये ते समणब्राह्मणा पुब्बे अननुस्सुतेसु धम्मसु अर्थात् निर्वाण पर विजय प्राप्त करने वाला, अनन्त विजेता, सामंयेव धम्म अभिआय, म. नि. 2.434; पुब्बे अननुस्सुतेसु अनन्तजयी अर्हत् अथवा बुद्ध के लिये आजीवक उपक धम्मेसु सामं सच्चानि अभिसम्बुज्झि, महानि. 344; - धम्म द्वारा प्रयुक्त शब्द - यथा खो त्वं आवसो, पटिजानासि, पु., [अननुश्रुतधर्म], पहले, कभी नहीं जाना गया धर्म - अरहसि अनन्तजिनोति, महाव. 12; सो तं असहन्तो भद्दे, अननुस्सुतधम्मेसु, पुब्बे दुक्खादिकेसु च, अप. 2.284; - अहं अनन्तजिनस्स सन्तिकं गच्छामी ति, मज्झिमदेसाभिमुखो वग्ग स. नि. के एक वर्ग का शीर्षक, स. नि. 3(1). पक्कामि, सु. नि. अट्ठ. 1.218; - ञाण त्रि०, ब. स. 253-259.
[अनन्तज्ञान], अनन्तज्ञान से युक्त, अनन्तज्ञानान्वित अनन्त' त्रि., अन्त का निषे., तत्पु. [अनन्त], सीमारहित, (प्रधानतः बुद्ध के विशेषण के रूप में प्रयुक्त)- अनन्तत्राणं असीम, निस्सीम, अन्तरहित - विआणं अनिदस्सनं, अनन्तं सम्बुद्ध को दिस्वा नप्पसीदति, अप. 1.170; सो हि भगवा सब्बतोपभं, दी. नि. 1.203; उप्पादन्तो वा वयन्तो वा ठितस्स महापओ ... अनन्तञाणो अनन्ततेजो..., महानि. 130; अञथत्तन्तो वा एतस्स नत्थीति अनन्तं, दी. नि. अट्ठ. - ता स्त्री॰, भाव. [अनन्तता], निस्सीमता, असीमता, 1.294; आकासो अतिवित्थारताय अनन्तो, मि. प. 2583; सीमाराहित्य - अयं आकासो अनन्तो अनन्तोति वदन्ति, चत्तारि हि अनन्तानि - आकासो अनन्तो, चक्कवाळांनि कुतस्स अनन्तता, दी. नि. अट्ठ. 2.69; - तेज त्रि., ब. स. अनन्तानि, सत्तनिकायो अनन्तो, बुद्धआणं अनन्तं, ध. स. [अनन्ततेजस्], अनन्त तेज से युक्त, अनन्त तेजवान्, अट्ठ. 205; अच्चन्तमनन्तं सन्तं, अमतं अपलोकितं, अभि. असीम तेज वाला - अनन्ततेजो अमितयसो, अप्पमेय्यो अव. 104; अपलोकितं निपुणमनन्तमक्खरं, अभि. प.7;- दुरासदो, बु. वं. 309; अनन्ततेजो अमितयसो, भूमिपालो क त्रि., ब. स. [अनन्तक], सीमारहित, असीम, निस्सीम, महद्धनो, अप. 1,42; अनन्ततेजो अनन्तवीरियो अनन्तबलो अन्तरहित - अनन्तको च आकासो, एवं बुद्धा अखोभिया, बुद्धबलपारमिं गतो .... मि. प. 302; - दस्सी त्रि., अप. 1.43; - काय पु., राजा मिलिन्द के एक मन्त्री का [अनन्तदर्शिन], अनन्त प्रज्ञा वाला, अनन्तदर्शन से सम्पन्न नाम - अथ खो देवमन्तियो च अनन्तकायो च मङरो च - अनन्तदस्सी भगवाहमस्मि, जातिजरं सोकमपातिवत्तो, स. येनायस्मा नागसेनो तेनुपसङ्कमिंसु, मि. प. 27; - गुण त्रि., नि. 1(1).169; जा. अट्ठ. 3.318; अनन्तदस्सी भगवा, गोतमो ब. स. [अनन्तगुण], अनन्त गुणों से युक्त - सो भगवा सक्यपुङ्गवो, अप. 1.93; - दोसुप्पद्दव पु., तत्पु. स. विचित्तपुप्फरासि विय अनन्तगुणो अप्पमेय्यगुणो, मि. प. [अनन्तदोषोपद्रव], अनन्त दोषों, संकटों तथा हानियों का 315; - गुणसञ्चय त्रि., तत्पु. स., अनन्त या निस्सीम उपद्रव, अनन्त दोषों या विपत्तियों का उत्पात - गुणों का संकलन या संग्रह रखने वाली - देसेति पवरं अनन्तदोसूपद्दवतोति आसीविसे निस्साय उप्पज्जनकानव्हि धम्म, अनन्तगुणसञ्चयो, अप. 2.151; - गुणसागर त्रि., दोसूपद्दवानं पमाणं नत्थि, स. नि. अट्ठ. 3.61; - धिति अनन्त या निस्सीम गुणों का समुद्र, अनेक गुणों से परिपूर्ण स्त्री., [अनन्तधृति], अनन्त धैर्य, कभी न अन्त होने वाला - तिस्सं बुद्धं समुद्दिस्स, अनन्तगुणसागरं, अप. 1.128; - धैर्य, निस्सीम धृति - सो भगवा असमो असमसमो ... गोचर त्रि., [अनन्तगोचर], वह, जिसके ज्ञानप्रसार का । अनन्तधिति अनन्ततेजो... धम्मनगरं मापेसि, मि. प. 302; क्षेत्र अनन्त है, अपर्यन्तगोचर, अनन्त गोचरवाला - तं -- नय त्रि., [अनन्तनय], अनन्त नयों वाला, अनन्त बुद्धमनन्तगोचर अपदं केन पदेन नेस्सथ, जा. अट्ठ. 1.88; पद्धतियों से युक्त - अनन्तनयं समन्तपट्टानं विचिनन्तो अनन्तगोचरन्ति अनन्तारम्मणस्स सब्बतआणस्स वसेन सत्ताहं वीतिनामेसि, जा. अट्ठ. 1.87; - पञ त्रि., ब. स.
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अनन्त
193
अनन्तर
[अनन्तप्रज्ञ], अनन्त प्रज्ञा वाला, अपरिमित प्रज्ञा वाला - तथागतो होति अनन्तपओ, सु. नि. 472; - पटिभानवन्तु त्रि., ब. स. [अनन्तप्रतिभानवत्], अनन्त प्रतिभा से सम्पन्न, अपरिमित प्रतिभा वाला- तदा अवोच भगवा, अनन्तपटिभानवा, अप. 2.147; - परिमाण त्रि., ब. स. [अनन्तपरिमाण]. अनन्त मात्रा वाला, अनन्त विस्तार वाला, अपरिमित विस्तार वाला - अनञ्जसाधारणे अनन्तापरिमाणे बुद्धगणे, उदा. अट्ठ. 226; - परिवारता स्त्री॰, भाव. [अनन्तपरिवारता]. अनन्त समूह में होने की अवस्था, अनन्त विस्तार में होने की स्थिति - अनन्तपरिवारता सुरूपता सुसण्ठानता ... एवमादीनि फलानि, खु. पा. अट्ठ. 23; - प्पभा स्त्री., [अनन्तप्रभा], अनन्त प्रभा, व्याम, अशीति और अनन्त नामक तीन प्रभाओं में से एक - ब्यामासीतिअनन्तपभायुत्ता होन्ति, सु. नि. अट्ठ. 2.122; - पोरिस त्रि.. ब. स. [अनन्तपौरुष], असंख्य सेनाओं वाला, वह, जिसके पास विपुल सेना हो - पहूतयोग्गो धनिमा, अनन्तबलपोरिसो, जा. अट्ठ. 7.102; - बल त्रि., ब. स. [अनन्तबल]. असीमित शक्ति से सम्पन्न, अत्यधिक बल वाला, अपरिमित बलोपपन्न - ... सो भगवा असमो असमसमो ... अनन्तबलो बुद्धबलपारमिं गतो, मि. प. 302; - बलवाहन त्रि., [अनन्तबलवाहन], असीमित सेना वाला - सकलजम्बूदीपे मिलिन्देन रुञा समो कोचि नाहोसि ... महाभोगो अनन्तबलवाहनो, मि. प. 4; - बुद्धवण्णनागाथा स्त्री., [अनन्तबुद्धवर्णनागाथा], एक गाथा का शीर्षक, ग. वं. 66; - भोगता स्त्री., भाव. [अनन्तभोगता], भोगसाधनों की परिपूर्णता, भोगसाधनों की प्रचुरता- अदिन्नादाना वेरमणिया महद्धनता ... अनन्तभोगता, खु. पा. अट्ठ. 23; - यस त्रि०, ब. स. [अनन्तयश], 1. अनन्त यश वाला, अपरिमित कीर्ति से विभूषित या अलंकृत - अनन्तञाणो अनन्ततेजो अनन्तयसो. महानि. 130; 2. पु., एक चक्रवर्ती राजा का नाम -
असीतिकप्पेनन्तयसो, चक्कवत्ती अहोसहं, अप. 1.111. अनन्त पु., एक नागराज का विशेष नाम, शेषनाग का एक अभिधान - अनन्तो नागराजा, अभि. प. 651; अनन्तभोगसंकाससंनिवेससिलायुता, चू. वं. 73.120. अनन्तर त्रि., [अनन्तर]. 1. तुरन्त आगे या पीछे विद्यमान, अगला, अग्रवर्ती - सुखस्सानन्तरं दुक्खं, दुक्खस्सानन्तरं सुखं, जा. अट्ठ. 3.409; इमरस अक्खरस्स अनन्तरं इमं । अक्खरं कातब्बन्ति, मि. प. 87; 2. एकदम तैयार, तुरन्त प्रकट होने वाला - पञ्जवतो कथेन्तस्स पटिभानं अनन्तरं
होति, स. नि. अट्ट, 1.132; 3. वह, जो बहुत अधिक आन्तरिक नहीं है, जो भीतरी नहीं है, अगूढ़ - देसितो ... मया धम्मो अनन्तरं अबाहिरं करित्वा, दी. नि. 2.78; - रं निपा., क्रि. वि. [अनन्तरं], तुरन्त बाद में, बिना किसी व्यवधान के बाद में आने वाला (षष्ठ्यन्त अथवा पञ्चम्यन्त के साथ प्रायः प्रयुक्त)- अनन्तरं हि जातस्स, जीविता मरणं धुवं, थेरगा. 553; मय्हं अग्गसावको ... ममानन्तरं सेनासनं ल« अरहति, जा. अठ्ठ. 1.215; मनोद्वारेपि सब्बेस, जवनानमनन्तरं, अभि. अव. 71; - रातीत त्रि., [अनन्तरातीत], सद्यः-व्यतीत, तुरन्त बीता हुआ, अभी अभी बीता हुआ - सो किर अनन्तरातीते अत्तभावे..., जा. अट्ठ. 2.204; -- रूपनिस्सय पृ., चौबीस प्रत्ययों में से अनन्तर नाम का एक प्रत्यय - अनन्तरूपनिस्सयो पन अनन्तरपच्चयोव, अभि. अव. 175; - क त्रि., ब. स. [अनन्तरक], तुरन्त फल देनेवाला, सद्यः-फलदायी - पञ्च कम्मानि आनन्तरिकानि, ध. स. 1035; मिच्छत्तत्तिके आनन्तरिकानीति अनन्तराये न फलदायकानि, मातुघातककम्मादीनमेतं अधिवचनं, ध. स. अट्ठ. 386; - गब्म पु., [अनन्तरगर्भ], अत्यधिक निकटवर्ती प्रकोष्ठ, पास वाला कमरा - अयम्पि मिगारसेट्टि अनन्तरगमे निसिन्नो धनञ्जयसेडिनो ओवादं अस्सोसिध. प. अट्ठ. 1.222; - गाथा स्त्री., [अनन्तरगाथा], तुरन्त बाद में आयी हुई गाथा - महासत्तोपि तेसं अनन्तरगाथाय कथेसि, जा. अट्ठ. 4.127; - गेहवासी त्रि., [अनन्तरगेहवासिन्], पड़ोसी, प्रतिवेशी, बहुत समीप में स्थित घर में रहने वाला - अनन्तरगेहवासीनं आरोचेत्वा मग्गं पटिपज्जि, जा. अट्ठ. 1.121; ध. प. अट्ठ. 1.137; - ट्ठपना स्त्री०, [अनन्तरस्थापना], क्रमसंगत पद्धति में रखना, क्रमबद्ध पद्धति में विन्यसन, क्रमानुबद्ध संस्थापना - अट्ठपनाति पठमुप्पन्नस्स अनन्तरछपना मरियादढपना वा, विभ. अट्ठ. 464; -- त्तभाव पु., [अनन्तरत्वभाव]. इस जन्म के तुरन्त पूर्व वाला जन्म - अनन्तरत्तभावे पनस्स माता यक्खिनी हत्वा निब्बत्ता, ध. प. अट्ठ. 2.291; -त्तिक नपुं.. [अनन्तरत्रिक], अभिधम्म में प्रयुक्त मातृकाओं के बीच अगली त्रिकमातृका - अनन्तरत्तिके
अतीतं आरम्मणं एतेसन्ति अतीतारम्मणा, ध. स. अट्ठ. 92; -- त्थ पु., तत्पु. [अनन्तरार्थ], बाद में आने वाला अर्थ, उत्तरकाल का अर्थ- एत्थापि ततोति पदपूरणमते निपातो, अनन्तरत्थे वा, सु. नि. अट्ठ. 2.98; - निरुद्ध त्रि, [अनन्तरनिरुद्ध], सद्यःनिरुद्ध, क्षण के व्यवधान के बिना
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अनन्तरधान
ही निरोध को प्राप्त
अनन्तरपच्चयोति अनन्तरनिरुद्धा
चित्तचेतसिका धम्मा, अभि. अव 175; पच्चय पु.. [ अनन्तरप्रत्यय ] अत्यासन्न कारण, चौबीस प्रत्ययों में से एक अनन्तरपच्चयोति अनन्तरनिरुद्धा चित्तचेतसिका धम्मा, अभि. अव. 175; पच्चयकथा स्त्री०, [अनन्तरप्रत्ययकथा] कथा के चौदहवें वर्ग की तीसरी कथा का एक शीर्षक कथा. 399-402: पटिविस्सकघर नपुं. [ अनन्तरप्रतिवेशिकगृह], बिल्कुल बगल वाले पड़ोसी का घर, निकटतम प्रतिवेशीगृह घरा निक्खमित्वा अनन्तरं पटिविस्सकघर गन्या जा. अड. 3.444 पाठा. अनन्तरं पटिविस्सकधर पेय्याल पु०, नपुं० [बौ० सं० अनन्तरपरियाय] किसी स्थल- विशेष की पुनरावृत्ति, किसी अनुच्छेद या परिच्छेद की पुनरावृत्ति अनन्तरपेप्यालं निद्वित् परि. 205 पाठा, अन्तरपेय्याल निहितं परि. 205 - मण्डक नपुं महाबालुकगङ्गा के एक घाट का नामरक्खणत्थं ठितो तित्थे नामे नन्तरभण्डके, चू. वं. 72.16; वत्थु नपुं. [ अनन्तरवस्तु] ठीक पहले आयी कथा सेस अनन्तरवत्थुसदिसमेद पे व अट्ठ. 81 विमोक्ख त्रि.. [ अनन्तरविमोक्ष] सद्यः प्राप्त होने वाली विमुक्ति, सदयःप्राप्य विमोक्ष अद्वपि विमोक्खा अनन्तरविमोक्खा नाम न होन्ति, थेरीगा. अ. 110 सामन्त पु.. [अनन्तरसामन्त ]. पड़ोस का राजा, प्रतिवेशी राजा तुच्छ किर रज्जन्ति अनन्तरसामन्तकोसलराजा महतिया सेनाय आगन्त्वा नगरं परिवारेसि, जा. अट्ठ. 2.17 - सुत्त नपुं० [ अनन्तरसूत्र ], पूर्ववर्ती सूत्र अनन्तरसुत्ते वुत्तत्थमेव उदा. अड 352. अनन्तरधान नपुं, अन्तरधान का निषे, तत्पु [ अनन्तर्धान] अदृश्य न होना, अन्तर्हित न होना, विलुप्त न होना, अलोप, स्थिति, विद्यमानता सद्धम्मस्स ठितिया असम्मोसाय अनन्तरधानाय संवत्तति, अ. नि. 1 (1).23. अनन्तरहित [अनन्तरहित] अतिरोहित, अनाच्छादित, उन्मुक्त, खुला हुआ एसो सुदिन्नो अनन्तरहिताय भूमिया निपन्नो पारा 15: न च अनन्तरहिताय भूमिया पत्तो निक्खिपितब्बो महाव. 52.
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अनन्तरा निपा [ अनन्तरा] 1. क्रि. वि. तुरन्त बाद में, आगे खयरिगं पठमं आणं, ततो अञ्ञा अनन्तरा, इतिवु. 39. अ.नि. 1(1).263; अनन्तराति ततो चतुत्थमग्गजाणतो अनन्तरा अञ्ञा उप्पज्जति, अ. नि. अट्ठ. 2.208 2. षष्ठ्यन्त तथा पञ्चम्यन्त के साथ उप के रूप में प्रयुक्त; अगला, इसके अतिरिक्त तुरन्त बाद में - सुमुखो
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अनन्तरे
अज्जुपावेक्खि धतरद्वस्सनन्तरा, जा. अड. 5.373; कुसलो खत्तधम्मानं ततो पुच्छि अनन्तरा, तदे, मनोधातुसम्पटिच्छन पन चक्खुविज्ञाणादीनं अनन्तरा रूपादिविजानन लक्खणं, अभि. अव. 11; - विमोक्ख त्रि. [ अनन्तराविमोक्ष ], अग्रमार्ग के तुरन्त बाद में उत्पन्न विमोक्ष - अनन्तराविमोक्खासिं, अनुपादाय निब्बुता, थेरीगा. 105: अनन्तराविमोक्खासिन्ति अग्गमग्गस्स अनन्तरा उप्पन्नविमोक्खा आसि थेरीगा. अड.
110.
अनन्तरापयुक्त्त त्रि, चार प्रकार के गम्भीर पापकर्मों (आनन्तरीय कर्मों) के लिये उत्तरदायी व्यक्ति, चार गंभीर
पापकर्म करने वाला - अनन्तरापयुक्तो युग्गलो अभब्बो
सम्मत्तनियामं ओक्कमितुन्ति ? कथा. 386 कथा स्त्री, कथा के तेरहवें वर्ग की तीसरी कथा का शीर्षक कथा. 386-387.
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अनन्तराय त्रि अन्तराय का निषे. ब. स. [ अनन्तराय]. अन्तराय-रहित, उपसम्पदा की अर्हता के बाधक लक्षणों से रहित, बाधारहित, निर्विघ्न, निर्भय, कालव्यवधान के बिना दससु अन्तरायेसु एकेनपि अन्तरायेन अनन्तराया पाचि अ. 195; अक्खतन्ति वा अनाबाधं अनुप्पीळं, अनन्तरायेनाति अत्थो, वि. व. अ. 298 यिक त्रि. [अनन्तरायिक]. बाधारहित, निर्बाध, निर्विघ्न, उपसम्पदा के लिये निर्दिष्ट दस प्रकार के अन्तरायों से मुक्त अनन्तरायिकोति यस्स दससु अन्तरायेसु एकोपि नत्थि, चूळव. अट्ठ. 20 अनन्तरायिका आपत्ति जानितब्बा परि. 236, पाठा. अन्तरायिका टि. ब्रह्मचर्य आवास की परिपूर्णता में पांच बाधक तत्त्वों को अन्तराय कहते है ये है 1. कम्मन्तरायिक 2. किले सान्तरायिक 3 विपाकान्तरायिक 4. उपवादान्तरायिक 5 आणावितक्कान्तरायिक इनसे युक्त भिक्षु 146वें पाचित्तिय आपत्ति में आपतित होता है तथा जो इनसे रहित है वह अनन्तरायिक कहलाता है. इसी प्रकार उपसम्पदा - प्राप्ति के लिये 13 अनर्हताओं से मुक्त भिक्षु को भी अनन्तरायिक कहते हैं द्रष्ट, महाव. 97 - विकिनी स्त्री, अन्तरायों अथवा भिक्षु-जीवन में प्रवेश के लिये अयोग्य बनाने वाले तत्त्वों से रहित भिक्षुणी विघ्न तथा बाधाओं से सर्वथा मुक्त भिक्षुणी या पन भिक्खुनी भिक्खुनिया चीवर सा पच्छा अनन्तरायिकिनी नेव सिब्बेप्य पाचि 383. अनन्तरे अ, अनन्तरा का सप्तम्यन्त रूप, समीप में, निकट में, पास में गङ्गाय चेव एकस्स व जातस्सरस्स अनन्तरे पण्णसालं कत्वा, जा. अट्ठ. 5.388; पाठा. अन्तरे.
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अनन्तवण्ण
195
अनपराध
302.
1.98.
अनन्तवण्ण त्रि., ब. स. [अनन्तवर्ण], अनन्त यश वाला, दृष्टियुक्त करना, चक्षुकरण, ज्ञानकरण - अनन्धकरणो अप्रमेय यश वाला, अपरिसीम कीर्ति वाला - अनन्तवण्णो । चक्खुकरणो आणकरणो, इतिवु. 60.. अमितयसो, विचित्तसब्बलक्खणो, अप. 1.352..
अनन्वय त्रि., अन्वय का निषे०, ब. स. [अनन्वय], अर्थ के अनन्तवन्तु त्रि., [अनन्तवत्], अनन्त, असीम, निस्सीम, साथ मेल न रखने वाला, तात्पर्य-रहित, बिना परिणाम का, सीमारहित - अनन्तवा लोको, इदमेव सच्चं मोघमञान्ति, प्रभावरहित - अनन्वयं पियं वाचं, यो मित्तेसु पकुब्बति, सु. उदा. 145; अन्तवा लोको ति वा, अनन्तवा लोकोति वा, दी. नि. 257; अनन्वयन्ति यं अत्थं दस्सामि, करिस्सामीति च नि. 1.167; अनन्तवा अत्ता च लोको चाति, पटि. म. 150; भासति, तेन अननुगतं. सु. नि. अट्ठ. 1.271. नेवन्तवा नानन्तवा लोकोति, मि. प. 146.
अनन्दाहतचेत (स) त्रि., ब. स. [अनन्वाहतचेतस], वह, अनन्तवीरिय त्रि., [अनन्तवीर्य]. असीमशक्ति से सम्पन्न, जिसका चित्त भ्रमग्रस्त नहीं है, वह, जिसका चित्त विभ्रान्त निस्सीम वीर्य वाला - सो भगवा असमो असमसमो ... या पर्याकुल नहीं है, द्वेष से अप्रतिहत चित्तवाला - अनन्ततेजो अनन्तवीरियो ... धम्मनगरं मापेसि, मि. प. अनवस्सुतचित्तस्स, अनन्वाहतचेतसो, ध. प. 39;
अनन्वाहतचेतसोति ... दोसेन अप्पटिहतचित्तस्साति अत्थो, अनन्तसञी त्रि., [अनन्तसंज्ञी], धर्मो में अनन्त की संज्ञा ध. प. अट्ठ. 1.176. रखने वाला, धमों को अन्तहीन मानने वाला -.. यथासमाहिते अनपगत त्रि., अपगत का निषे., तत्पु [अनपगत], दूर न गया चित्ते अनन्तसञ्जी लोकस्मि विहरामि, दी. नि. 1.20; ..... हुआ, दूर न ले जाया गया, अदूरीकृत, नहीं हटाया गया - लोको ति गहेत्वा... अनन्तसञ्जी होति .... दी. नि. अट्ठ. अनपायोति पटिघवसेन अनपगतो, म. नि. अट्ठ. (उप.प.)
3.61. अनन्तादीनव त्रि., ब. स. [अनन्तादीनव]. अन्त न होने अनपच्च त्रि., अपच्च का निषे., ब. स. [अनपत्य], पुत्ररहित, वाले दैन्यभावों से युक्त, अनन्त विपदाओं या संकटों से पूर्ण, सन्तानविहीन निस्सन्तान - अनपच्चा अदायादा, तालावत्थू अनन्त अनर्थों से परिपूर्ण - अनन्तादीनवो कायो, भवन्ति ते, स. नि. 1(1).86%; अनपच्चाति भवन्तरेपि अपच्चं विसरुक्खसमूपमो, अप. 2.115; अनन्तादीनवा कामा, बहुदुक्खा वा दायादं वा न लभन्तीति अत्थो, जा. अट्ठ. 5.266. महाविसा, थेरीगा. 360.
अनपदान त्रि., [अनपदान]. अपराध-सम्बन्धी विवेक की अनन्तेवासिक त्रि., अन्तेवासिक का निषे., ब. स. बुद्धि न रखने वाला, निर्धारित मार्ग का आश्रय न लेने [अनन्तेवासिक], शा. अ. अन्तेवासियों अर्थात शिष्यों से वाला - अनपदानो गिहिसंसट्ठो विहरति अननुलोमिकेहि विहीन उपाध्याय, ला. अ. आन्तरिक अपवित्र मनोभावों या गिहिसंसग्गेहि महाव. 419; बालो होति अब्यत्तो आपत्तिबहुलो क्लेशों से विनिर्मुक्त - अनन्तेवासिकमिदं ... ब्रह्मचरियं अनपदानो, महाव. 403. वुस्सति अनाचरियक, स. नि. 2(2).139; अनन्तेवासिकन्ति अनपदेस त्रि., अपदेश का निषे., तत्पु. [अनपदेश], अन्तो वसनककिलेसविरहितं. स. नि. अट्ठ. 3.46.
तर्करहित, निरर्थक, असंगत, अयुक्त, गहरे अर्थ से रहित - अनन्तोगध त्रि., ब. स. [अनन्तर्गत], वह, जो किसी में अनिधानवतिं वाचं ... अनपदेसं अपरियन्तवति अनत्थसंहितं, अन्तर्भूत नहीं है, बहिर्भूत - अनन्तोगधसम्पदानत्थत्ता, सद्द. म. नि. 1.360; अनपदेसन्ति सत्तापदेसविरहितं, म. नि. 1.294.
अट्ठ. (मू.प.) 1(2).227. अनन्दी त्रि., नन्दी का निषे. [अनन्दिन], आनन्दरहित, अनपनत त्रि., अपनत का निषे., तत्प. [अनपनत], वह, जो मोदरहित - अनन्दी अनघो भिक्ख एवं जानाहि आवसोति, झुका हुआ न हो, अविनत, अविनम्र, उद्दण्ड - अनपनतं स. नि. 1(1).66.
चित्तं ब्यापादे न इञ्जतीति आनेज, उदा. अट्ठ. 150; अनन्ध त्रि., अन्ध का निषे., तत्पु. [अनन्ध], वह, जो पाठा. अनुपनत. अन्धा नहीं है, दृष्टियुक्त, चक्षुष्मान, आंख वाला - यथाहं । अनपराध त्रि., अपराध का निषे., ब. स. [अनपराध]. इमम्हा आसना अनन्धो वुट्ठहेय्यन्ति, म. नि. 2.189; कामा निर्दोष, दोषरहित, अपराध-रहित, दोषमुक्त - अनपराधं नाम अनन्धम्पि अन्धं करोन्ति, उदा. अट्ठ. 297; अनन्धेन एव वीथियं चरन्तं गहेत्वा घातयितन्ति, मि. प. 180; असियन्ति अन्धेन विय भवितब्ब, मि. प. 333; - करण त्रि., [करण], अनपराधं, जा. अट्ठ. 5.213.
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अनपविद्ध
196
अनमित
अनपविद्ध त्रि., अपविद्ध का निषे., तत्यु. [अनपविद्ध], एतम्पि छेत्वान परिब्बजन्ति, अनपेक्खिनो कामसुखं पहाय, अप्रक्षिप्त, अनवज्ञात, नहीं छितराया हुआ, अनुपेक्षित, ध. प. 346; जा. अट्ठ. 3.350. अतिरस्कृत, सत्कृत - सक्कच्चन्ति सादरं, अनपविद्धं अनपेत त्रि., अपेत का निषे., तत्पु. स. [अनपेत], अविरहित, अनवजातं कत्वा, पे. व. अट्ट. 118.
अवियुक्त, संयुक्त, विलग नहीं हो चुका - गिहिधम्मा अनपेतो. अनपाय त्रि., अपाय का निषे., ब. स. [अनपाय]. दुर्गतिरहित, अ. नि. 2(1).36, पाठा. अनपगतो. चार प्रकार की अपायभूमियों में न पहुंचा हुआ, अपायरहित - अनप्प त्रि., अप्प का निषे., तत्पु. स. [अनल्प]. प्रचुर, सो तेसु धम्मेसु अनुपायो अनपायो अनिस्सितो .... म. नि. 3.74. अधिक - कुसलफलं अनप्पं. दा. वं. 4.36; - क त्रि., निषे. अनपायी त्रि., अपायी का निषे., तत्पु. [अनपायिन्], कभी तत्पु. स. [अनल्पक], प्रचुर, अधिक, प्रभूत, पर्याप्त - लाभा विलग न होने वाला, अपृथग्भूत, सदा साथ रहने वाला - वत नो अनप्पका, ये मयं भगवन्तं अद्दसाम, सु. नि. 31; ततो नं सुखमन्वेति, छायाव अनपायिनी, ध. प. 2; छायाव तुम्हेहि पुजंपसुतं अनप्पक पे. व. 25; पहूतभोगेसु अनप्पकेसु. अनपायिनीति ... सरीरप्पटिबद्धत्ता, ध. प. अट्ठ. 1.25; सुखं विराधाय दुक्खज्ज पत्ता 'ति, पे. व. 79; पहायानप्पके अनुग्गता सीलवती, छायाव अनपायिनी, जा. अट्ठ.6.304; भोगे, थेरगा. 155; तस्मिं मते दुक्खमनप्पक मे, जा. अट्ठ. उत्तरो माणवो सत्तमासानि भगवन्तं अनुबन्धि छायाव 3.259; - कतर त्रि., तुल. वि. [अनल्पकतर], अधिक अनपायिनी, म. नि. 2.343.
प्रचुर, अधिक उत्तम, अधिक भव्य - पणीततराति अनप्पकतरा, अनपुंसक त्रि., नपुंसक का निषे., [अनपुंसक], नपुं. से म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.155; पाठा. अतप्पकतरा; - कपरिवार भिन्न लिङ्गवाला - अनपुंसकानि लिङ्गानि, क. व्या. 85. त्रि., ब. स. [अनल्पकपरिवार], विशाल परिवार अथवा अनपेक्ख त्रि., अपेक्ख का निषे., ब. स. [अनपेक्ष]. समूह वाला - अमितयसाति न मितयसा अनप्पकपरिवारा, इच्छारहित, निष्काम, तटस्थ निरपेक्ष - अपविद्धो सुसानस्मि वि. व. अट्ठ. 64; - रूप त्रि., ब. स. [अनल्परूप], विशाल अनपेक्खा होन्ति आतयो, सु. नि. 202; येन येनेव गच्छति, रूप वाला, भव्य स्वरूप वाला - किं भोजनं भुञ्जथ वो अनपेक्खोव गच्छति, थेरगा. 699; नत्थि चेतसिकं दुक्खं अनोमा, बलञ्च वण्णो च अनप्परूपाति, जा. अट्ठ. 3.459; अनपेक्खस्स गामणि, थेरगा. 707; अनपेक्खाव गच्छन्ति, मधनं लच्छसिनप्परूपन्ति, जा. अट्ट, 4.299; - सोकातुर तेन मे समणा पिया, थेरीगा. 282; येन येनेव गच्छति, त्रि, निषे., तत्पु. [अनल्पशोकातुर], अत्यधिक शोक से अनपेक्खोव गच्छति, अ. नि. 2(2).61; - पद नपुं., कर्म. पीड़ित - निरये पन नेरयिका सत्ता दुक्खा तिब्बा ... स., ऐसे स्वतन्त्र पद, जिनमें बुद्ध का वर्णन विशेषणों के अनप्पसोकातुरा ..., मि. प. 149. बिना हुआ है - अनपेक्खपदानीति पदानि दुविधा सियु, अनप्पमेय्य त्रि., अप्पमेय्य का निषे०, तत्पु. [अनप्रमेय], सद्द. 1.74; - चित्तता स्त्री., [अनपेक्षचित्तता]. चित्त की अपरिमेय, अप्रमेय, वह, जिसको मापा न जा सके, अनवगाय, अपेक्षारहित स्थिति, निरपेक्षचित्तता, उपेक्षा की अवस्था - वह, जिसकी थाह न ली जा सके - गोतमो अनप्पमेय्यो, अनपेक्खचित्तताय चित्तेन न उग्गहितन्ति अनुग्गहीतं, अ. मुळालपुप्फ विमलव, थेरगा. 1092; पमाणकरकिलेसाभावतो नि. अट्ठ. 3.23; - ता स्त्री. भाव. - काये च जीविते च अपरिमाणगुणताय च अनप्पमेय्यो, थेरगा. अट्ठ. 2.387. अनपेक्खताय पेसितत्तो..., उदा. अट्ठ. 140; - वा त्रि. अनब्मक्खातुकाम त्रि., ब. स., किसी के विरुद्ध मिथ्या अपेक्खवा का निषे., तत्पु. [अनपेक्षावत], उपेक्षा करने । अभियोग लगाने की कामना न करने वाला - वाला, अपेक्षा से रहित, तृष्णारहित, वीततृष्ण - अनपेक्खवाति । अनब्भक्खातुकामा हि मयं भवन्तं गोतमान्ति, दी. नि. वत्थु कामकिलेसकामेसु अपेक्खारहितो विगतच्छन्दरागो 1.146; अनब्भक्खातुकामाति न अभूतेन वत्तुकामा, दी. नि. नित्तण्हो, जा. अट्ट, 1.146; ये ते, भन्ते, पुग्गला अस्सद्धा अट्ठ. 1.259. ... सामञ्ज अनपेक्खवन्तो ..., अ. नि. 2(1).184. अनब्माहतत्त नपुं॰, भाव. [अनभ्याहतत्व], अनुत्पीड़ित होने अनपेक्खी त्रि., अपेक्खी का निषे., तत्पु. [अनपेक्षिन]. की अवस्था, अपीड़ित होना, बाधा-रहित होना - उप्पादजराहि अपेक्षारहित, अनासक्त, निस्पृह, अतृष्णालु - सीहवेकचरं अनब्माहतत्ता अजज्जरं नेत्ति. अट्ट, 245. नागं, कामेसु अनपेक्खिनं, सु. नि. 168; स. नि. 1(1).19; अनमित त्रि., अभित का निषे०, 1. अनाहूत, अनामन्त्रित, तं ब्रूमि उपसन्तोति, कामेसु अनपेक्खिनं, सु. नि. 863; नहीं बुलाया गया - अनमितो ततो आगा, नानुजातो इतो
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अनभाव
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अनभिनन्दित
गतो, पे. व. 87; अनभितोति अनव्हातो, एहि महं पत्तभावं उपगच्छाति एवं अपक्कोसितो, पे. व. अट्ठ. 54; अनव्हितो । अयाचितो, जा. अट्ठ, 3.142, पाठा. अनव्हितो; 2. विनय के विशेष सन्दर्भ में, सङ्घ में पुनः प्रविष्ट न होने योग्य, आह्वान (अब्भान) के अयोग्य - सो च भिक्ख अनभितो, पारा. 2903; अनभितोति न अभितो, असम्पटिच्छितो अकतब्भानकम्मोति वृत्तं होति, पारा. अट्ठ. 2.193; - टि. विनय-आपत्ति में आपन्न भिक्षु मानत्त अथवा परिवास का पालन कर लेने के बाद सङ्घ में पुनः प्रवेश देने के योग्य बन जाता है, तथा ऐसा भिक्खु 'अस्मानारह' भिक्खु कहलाता है, किन्तु जब तक सङ्घ उसे पुनः प्रवेश योग्य नहीं मानता, तब तक वह 'अनभित' स्थिति में रहता है. अनभाव पु.. [अन्वभाव]. पीछे होने वाला अभाव या अनस्तित्व, उच्छेद, निरोध, अविद्यमानता, अनुपस्थिति - भिक्खु उप्पन्नं कामवितक्क ... ब्यन्तिं करोति अनभावं गमेति, दी. नि. 3.180; म. नि. 1.15; अनभावं गमेतीति अनु अनु अभावं गमेति, म. नि. अट्ट (मू.प.) 1(1).88; म. नि. 1.285; अ. नि. 1(2).16; न अनभावं गमेतीति न अनुअभावं अवड्डि विनासं गमेति, अ. नि. अट्ठ. 2.250; महानि. 77; - कत त्रि., [अन्वभावकृत], आगे चलकर निरुद्ध या विनष्ट, बाद में समुच्छिन्न - ये ते, ब्राह्मण, रूपभोगा ... ते तथागतस्स पहीना ... अनभावंकता आयतिं अनुप्पादधम्मा, पारा. 2; यथा नेसं पच्छाभावो न होति, तथा कता होन्ति, तस्मा आह- अनभावंकताति, अयज्हेत्थ पदच्छेदो - अनुअभावं कता अनभावंकताति. अनभावं गता तिपि पाठो, तस्स अनुअभावं गताति अत्थो, तत्थ पदच्छेदो अनुअभावं गता अनभावं गताति यथा अनुअच्छरिया अनच्छरियाति, पारा. अट्ठ. 1.97, अप. अनभावकत. अनभिज्झा स्त्री., अभिज्झा का निषे., तत्पु. [अनभिध्या]. अलोभ, अनासक्ति, तीन कुशलमूलों में से एक, विराग, तृष्णा का अभाव - चत्तारि धम्मपदानि- अनभिज्झा धम्मपदं ... सम्मासमाधि धम्मपदं, दी. नि. 3.183; अनभिज्झा धम्मपदं नाम अलोभो वा अलोभसीसेन अधिगतज्झानविपस्सनामग्गफलनिब्बानानि वा, दी. नि. अट्ट. 3.186; अहमेतं अनभिज्झं धम्मपदं पच्चक्खाय, अ. नि. 1(2).35; अनभिज्झातिआदीसु अभिज्झापटिक्खेपेन अनभिज्झा, अ. नि. अट्ठ. 2.280; - लु त्रि., [अनभिध्यालु]. निस्पृह, निराकांक्ष, तृष्णाविनिर्मुक्त, अलोभी, लोभरहित - अनभिज्झालूति नित्तण्हो हुत्वा, अ. नि. अट्ठ. 2.2803;
अभिज्झालनोपि अनभिज्झालुनोपि, दी. नि. 1.123; मयमेत्थ अनभिज्झालू भविस्सामा ति सल्लेखो करणीयो. म. नि. 1.53; अनभिज्झालुस्स अभिज्झा पहीना होति, नेत्ति. 43; - सहगत त्रि. [अनभिध्यासहगत], लोभरहित, तृष्णाविनिर्मुक्त, अनासक्त - अनभिज्झासहगतेन चेतसा विहरति, म. नि. 3.98. अनभिज्झित त्रि., निषे. तत्पु. [अनभिध्यित], अभिध्या, आसक्ति तथा लोभादि से रहित, तृष्णा का अनालम्बन या अविषय - अनभिज्झितं सेरितं पेक्खमानो, एको चरे खग्गविसाणकप्पो, सु. नि. 40; एवं सन्तपि लोभाभिभूतेहि सब्बकापुरिसेहि अनभिज्झिता अनभिपत्थिता पब्बज्जा तं अनभिज्झितं परेसं अवसवत्तनेन धम्मपुग्गलवसेन च सेरितं पेक्खमानो, सु. नि. अट्ठ. 1.67. अनभिज्झितु पु., क. ना. का निषे०, अभिध्या, से रहित, आसक्ति-विरहित, लोभादि से मुक्त - यं तं परस्स परवित्तुपकरणं तं अनभिज्झाता होति, अ. नि. 3(2).254. अनभिज्ञात त्रि., अभिज्ञात का निषे. [अनभिज्ञात], वह,
जो अच्छी तरह से ज्ञात न हो अथवा जो अभिज्ञा नामक अर्हत् के ज्ञान का विषय न हो - अमतं तेसं भिक्खवे, अनभिज्ञातं येसं कायगतासति अनभिज्ञाता, अ. नि. 1(1).62; तत्थ अञतरोति नामगोत्तवसेन अनभिज्ञातो
अपाकटो एको, उदा. अट्ठ. 43. अनभिज्ञाय अभि + Vञा के पू. का. कृ. का निषे. [अनभिज्ञाय], ठीक से न जानकर, अभिज्ञा ज्ञान द्वारा ग्रहण न कर - एतेते उभो अन्ते अनभिज्ञआय ओलीयन्ति एके, उदा. 154; उभो अन्ते अनभिआयाति ते एते यथावुत्ते उभोपि अन्ते अजानित्वा, उदा. अट्ठ. 287. अनभिनत अभि + /नम के भू, क. कृ. का निषे. [अनभिनत], राग आदि क्लेशों के प्रति असमर्पित या अविषयीभूत, राग आदि क्लेशों से मुक्त - सतिमतो विपस्सिस्स अनभिनतस्स नो अपनतस्स, म. नि. 2.55; अनभिनतं चित्तं रागे न इजतीति आनेज, पटि. म. 377. अनभिनन्दन/अनभिनन्दना नपुं./स्त्री॰ [अनभिनन्दन,
अनभिनन्दना], अप्रसन्नता, अप्रासादिकता, असुमनस्कता - ... तेसमयं दिट्टि असारागाय सन्तिके, ... अनभिनन्दनाय
सन्तिके अनज्झोसानाय सन्तिके..... म. नि. 2.81. अनभिनन्दित त्रि., अभिनन्दित का निषे., तत्पु. [अनभिनन्दित], वह, जिसका स्वागत न किया गया हो, अवाञ्छित, वह, जो अभीष्ट न हो, नहीं इच्छित - सो सुखञ्चे वेदनं वेदेति
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अनभिनिब्बत्त
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अट्ठ. 2.46.
अनभिनन्दिताति पजानाति म. नि. 3.293 विज्ञाण अनाहारं अनभिनन्दितं अप्पटिसन्धिकं तं निरुज्झति, नेत्ति. 16: अनभिनन्दितन्ति अभिनन्दनभूताय तण्हाय पहीनत्ता एव अपत्थित, नेत्ति, अड. 202 तस्स इधेव भिक्खवे, सब्बवेदयितानि अनभिनन्दितानि सीति भविस्सन्ति इतिदु 28. अनमिनिब्बत्त त्रि अभिनिब्बत का निषे, तत्पु, स. [ अनभिनिर्वृत्त]. अप्रादुर्भूत, अनुत्पन्न, अप्रकट ये धम्मा अजाता अभूता असञ्ञाता अनिब्बत्ता अनभिनिब्बत्ता अपातुभूता अनुष्यन्ना ... इमे धम्मा अनुप्पन्ना, ध. स. 1042. अनभिनिन्नति स्त्री अभिनिब्बत्ति का निषे [ अनभिनिर्वृत्ति], अनुत्पत्ति, अपुनर्भव, अप्रतिसन्धि अनभिनिब्बत्तिया सति इदं सुखं पाटिकन. अ. नि. 3(2).100 सामग्गी स्त्री. [ अनभिनिर्वृति-सामग्री]. पुनर्जन्म का न होना, अनेक प्रकार की सामग्रियों में से एक बहु चेपि भिक्खु परिनिब्बायन्ति न तेसं पञ्ञायति अनभिनिब्बत्तिसामग्गी, महानि. 95.
अय
Pr
अनभिनेय्य अभि + √नी के सं. कृ. का निषे नहीं ले जाने या प्राप्त कराने योग्य सारम्भे चे भिक्खु वत्थुरिमं अनभिनेय्य वत्थुदेशनाय, पारा. 229. अनभिपत्थित त्रि. अभिपत्थित का निषे, तत्पु. स. [ अनभिप्रार्थित ] नहीं इच्छित, वह जिसकी कामना नहीं की गई हो सन्तेपि लोभाभिभूतेहि सब्बकापुरिसेहि अनभिज्झिता अनभिपत्थिता पब्बज्जा, सु. नि. अट्ठ. 1.67. अनभिप्येत त्रि.. अभिप्पेत का निषे तत्पु. स. [अनभिप्रेत ]. वह जो अभिप्रेत न हो, जो अभीष्ट न हो, अनिच्छित अवाञ्छित - आसन्ने अनभिप्पेते अयं पुरे - सद्दो, सारत्थ. टी. 1.41, पाठा. अनागते. अनभिभवनीय त्रि. अभिभवनीय का निषे, तत्पु, [अनभिभवनीय] पराभूत न किये जाने योग्य, अनादृत या तिरस्कृत न करने योग्य तानियेव अस्सद्धियादीहि अनभिभवनीयतो अकम्पियट्टेन सम्पयुक्त्तधम्मेसु थिरभावेन बलानीति वेदितब्बानि उदा. अड. 248 ता स्त्री. भाव. [ अनभिभवनीयता ] अनभिभूत होने की स्थिति अपराजेयता
अरानो केनचि अनभिभवनीयतमेव ताव दस्सेन्तो, पे, व. अ. 102 - त्त नपुं. भाव. [अनभिभवनीयत्व], उपरिवत् तं पन ठानं सकलेपि इमस्मि कप्पे अग्गिना अनभिभवनीयत्ता कप्पट्ठियपाटिहारियं नाम जातं, जा. अट्ठ 1.212; अजेय्या विहिंसितुम्पिअनभिभवनीयत्ता अजेय्या च आहेस सु. नि.
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अनभिरति
अनमिमूतत्र अभिभू के भू. क. कृ. का निषे, तत्पु. स. [ अनभिभूत] वह, जो अभिभूत न हो, जो जीता न गया हो, अविजित अपराजित, अप्रभावित एसो हि. भिक्खु ब्रह्मा महाब्रह्मा अभिभू अनभिभूतो म. नि. 1.410; दी. नि. 1.16; अनभिभूतोति अहि अनभिभूतो, म. नि. अट्ठ. (नू.प.) 1 (2). 299; तण्हाभिभूतस्स हि दुक्खा पटिपदा होति, अनभिभूतस्स सुखा ध. स. अड. 228. अनभिमत त्रि.. अभि + मन के भू. क. कृ. का निषे, तत्पु स० [ अनभिभत], अनचाहा, अनभीप्सित अनभिमतानि रूपानि, सद्द० 1.122. अनमिरत त्रि, अभि + √रम के भू. क. कृ. का निषे, तत्पु स. [ अनभिस्त ] ( भिक्षुभाव से) असन्तुष्ट, अप्रसन्न, अनासक्त, गृहस्थ जीवन में आनन्द या प्रमोद प्राप्त न करता हुआ - न खो अहं, आवुसो, अनभिरतो ब्रह्मचरियं चरामि, पारा. 20; अनभिरतोति उक्कण्ठितो. गिहिभावं पत्थयमानोति अत्यो, पारा. अड. 1.167; कच्चि नो त्वं आनुसो सेप्यसक, अनभिरतो ब्रह्मचरियं चरसीति पारा 147 अनभिरतोति विक्खित्तचित्तो कामरागपरिळाहेन परिडरहमानो न पन गिहिभावं पत्थयमानो, पारा. अड. 2.95; अनभिरता ब्रह्मचरिय चरन्ता जा. अह. 4.26 - सञ्ञा स्त्री. [सक्षा] लौकिक सुखों या आनन्दों में शून्यता की संज्ञा
सब्बलोकं अनभिरतसञ्ञ अ. नि. 2 (1), 74: अनभिरतसञ्जाति सब्बस्मिं तेधातुसन्निवेसे लोके उक्कण्ठितस्स उप्यज्जनकसञ्ञा. अ. नि. अड. 3.30 - सञ्ञापरिचित त्रि.. लौकिक सुखों में अनासक्ति की संज्ञा से परिचित - सब्बलोके अनभिरतसञ्ञापरिचितेन, अ. नि. 2(2).198.
अनभिरति त्रि, अभिरति का निषे, तत्पु, स. [ अनभिरति ]. 1. शा. अ. असन्तुष्टि, मन का उचाट, मन में आनन्द या प्रमोद का अभाव यदा ते अनभिरति उप्पज्जति रागो चित्तं अनुद्धरोति... पारा 147, यदा ते अनभिरति उप्पज्जतीति
कामरागवसेन उक्कण्ठितता विविधत्तचित्तता उप्पज्जति पारा. अट्ठ. 2.95; सचे उपज्झायस्स अनभिरति उपन्ना होति सद्धिविहारिकेन वूपकासेतब्बो महाव. 54 2. ला. अ. एकान्त-जीवन सहन करने की अक्षमता, संन्यास में भय या उद्वेग - तस्स अनभिरति परितस्सना उपपज्जति, दी. नि. 1.15; अनभिरतीति अपरस्सापि सत्तस्स आगमनपत्थना दी. नि. अड. 1.95; जातक नपुं., जा. सङ्ख्या 65 तथा 186 का शीर्षक: पीळित त्रि. [अनभिरतिपीड़ित ] असन्तुष्टि अथवा भिक्षु जीवन के प्रति अनभिरति के भाव से पीड़ित,
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अनभिरद्ध
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असन्तोष से व्यथित इदं सत्था कुणालदहे विहरन्तो अनभिरतिपीळिते पञ्चराते भिक्खु आरम्भ कधेसि जा. अड्ड 5.408; रस त्रि.ब. स. अनभिरति के कृत्य वाला - तस्सा अक्खमनलक्खणा वा तत्थ अनभिरतिरसा, म. नि. अट्ठ. ( मू०प०) 1 ( 1 ).114; सञ्ञी त्रि, लौकिक सुखों में अनासक्ति की संज्ञा रखने वाला सब्बलोके अनभिरतिसञ्ञी अ. नि. 1 ( 2 ).174; अनभिरतिसञ्ञीति सब्बस्मिम्पि तेधातुके लोकसन्निवासे अनभिरताय उक्कण्ठितसज्ञाय समन्नागतो, अ. नि. अट्ठ. 2.341.
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अनभिरद्ध त्रि, अभिरद्ध का निषे तत्पु. स. अप्रसन्न, अप्रसन्न मन वाला कुपितो अनत्तमनो अनभिरद्धो आहतचित्तो खिलजातो... पारा 255; अनभिरद्धोति न सुखितो न वा पसादितोति अनभिद्धो, पारा. अट्ठ. 2.154; अनभिरद्धस्स हि मनो दुक्खपदट्ठानत्ता अत्तनो मनो नाम न होति, ध. स. अट्ठ. 188.
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अनभिरद्धि त्रि. अभिरद्धि का निषे, तत्पु, स. असन्तुष्टि, अप्रसन्नता, कोप कोधाधाता कोपरोसा व्यापादो अनभिरद्धि च. अभि. प. 164 तत्र तुम्हेहि न अघातो न चेतसो अनभिरद्धि करणीया, दी. नि. 1.3; नेव अत्तनो न परेसं हितं अभिराधयतीति अनभिरद्धि, कोपस्सेत अधिवचनं दी. नि. अट्ठ. 1.49; चेतसो आघातो अप्पच्चयो अनभिरद्धि अज्झतं अवूपसन्तं होति, अ. नि. 1 ( 1 ) .94; अनभिरद्धीति कोपोयेव,
सोहि अनभिराधनवसेन अनभिरुद्धीति वच्यति अ. नि. अड्ड. 2.50. अनभिरमना स्त्री. अभिरमना का निषे, तत्पु, स. [ अनभिरमणा] असन्तुष्टि, अप्रसन्नता, मन का उचट जाना पन्तेसु वा सेनासनेसु अरति अरतिता अनभिरति अनभिरमणा अयं वुच्चति अरति, विभ. 403. अनभिराध पु, अभिराध का निषे तत्पु, स. [अनभिराधन]. अप्रसन्नता, असंतुष्टि - अनभिराधवसेन अनभिरद्धीति वुच्चति, अ. नि. अड. 2.50 इष्ट. अनभिरद्धि, अनभिसङ्करोति अभि + सं + √कर के वर्त. प्र. पु. ए. व. का निषे [अनभिसंस्करोति], चेतना द्वारा अभिसंस्कृत नहीं करता है सङ्घच्च पू. का. कृ. तदप्पतिठितं विजाणं अविरूळ्हं अनभिसङ्घच्चविमुत्तं. स. नि. 2 (1).49; अनभिसङ्घच्च विमुतन्ति पटिसन्धि अनभिसङ्घरित्वा विमुतं स. नि. अ. 2241 भू क. कृ. का निषे [अनभिसंस्कृत], अपरिष्कृत - ताभिधान नपुं०, सामान्य जनों की वाणी या अभिधान अभिसङ्गताभिधानानि अनभिसङ्गताभिधानानीति द्वेधा दिस्सन्तो..... सद्द. 1.75.
-
...
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अनमिसित्त
अनभिसमय पु. अभिसमय का निषे [बौ. सं. अनभिसमय ]. अविद्या, अज्ञान, अदर्शन रूपे, खो, वच्छ, अनभिसमया
रूपनिरोधगामिनिया पटिपदाय अनभिसमया.... स. नि. 2 (1).258; यं एवरूपं अञ्ञाणं अदस्सनं अनभिसमयो अननुबोधो अयं मत्तता, नेत्ति 63-64: अभिसमयोतिपि पञ्ञा, सा तं आकारं अभिसमेति, अविज्जा पन उप्पज्जित्वा तं अभिसमेतुं न देतीति अनभिसमयो नेत्ति, अड. 256: अभिमुखो हुत्वा धम्मेन न समेति, न समागच्छतीति अनभिसमयो, ध. स. अट्ठ. 293; द्रष्ट. अभिसमय के अन्त.. अनभिसमेत अभि स√इ के भू. क. कृ. का निषे. [ अनभिसमित], प्रज्ञा द्वारा अगृहीत, असाक्षात्कृत, अप्राप्त, अज्ञात, अदृष्ट - अञ्ञातं अदि अप्पतं असच्छिकतं अनभिसमेतं, अ. नि. 3 (1).199. अनभिसमेतावी त्रि, अभि + सं√इ के भू, क. कृ. (तावी प्रत्यय) का निषे, अज्ञाता, अद्रष्टा, साक्षात्कार न करने वाला आर्यसत्यों आदि का ज्ञान दर्शन न करने वालाअनभिसमेतावीनं ते समुदयसच्चं उप्पज्जित्थ नो च तेसं मग्गसच्चं उप्पज्जित्थ, यम. 1.317; अनभिसमेतावीनन्ति चतुराच्चपटिवेधसङ्घातं अभिसमयं अप्पत्तसत्तानं यम, अट्ट, 311. अनभिसम्बुद्ध त्रि. अभिसम्बुद्ध का निषे, तत्पु० स. [ अनभिसम्बुद्ध] 1. कर्म. वा. नहीं ज्ञात नहीं जाना गया, नहीं बूझा गया, अज्ञात, अदृष्ट सम्मासम्बुद्धस्स ते पटिजानतो इमे धम्मा अनभिसम्बुद्धाति म. नि. 1.104; 2. कर्तृ. वा. सम्बोधिज्ञान नहीं पाया हुआ बोधिसत्त्व पुब्बेव सम्बोधा, अनभिसम्बुद्धस्स बोधिसत्तस्सेव सतो. म. नि. 1.127; अ. नि. 1 (1).282.
अनभिसर/ अनभिस्सर त्रि. ब. स. [ अनभिसर], अत्राण, अशरण, असहाय शरणविरहित अताणो लोको अनभिसरो, म. नि. 2.265; अनभिस्सरोति असरणो अभिसरित्वा अभिगन्त्वा अस्सारोतुं समत्थेन विरहितो, म. नि. अड्ड. (म.प.) 2.216: अनभिस्सरोति अभिसारित्वा अभिगन्त्वा व्याहरणेन अस्सासेतुं समत्थेन रहितो असहायोति वा अत्थो, पटि. म. अट्ठ. 2.13. अनभिसंभवनीय त्रि. अभिसंभवनीय का निषे, अप्राप्तव्य, अगम्य, अबोध्य नहीं समझने योग्य ब्रह्मनो पकतियण्णो, अनभिसम्भवनीयो सो देवानं दी. नि. 2154; अनभिसम्भवनीयो च सो अञ्ञेहीति असामन्तपञ्ञ, पटि म. 367.
अनभिसित्त त्रि, अभिसित्त का निषे जिसका अभिषेक न किया गया हो
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[ अनभिषिक्त ], वह, रञो खत्तियस्स
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अनमतग्ग
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अनय
मुद्धावसित्तस्स जेट्टो पुत्तो होति आभिसेको अनभिसित्तो अनमतग्गिय त्रि., नपुं. में प्रयोग में प्राप्त [अनवराग्रीय]. अचलप्पत्तो, अ. नि. 1(1).131; अनभिसित्तोति अभिसेकारहोपि संसार की अनादिता एवं अनन्तता-विषयक कथन या वक्तव्य काणकुणिआदिदोसरहितो सकिं अभिसित्तो पुन अभिसेके - अन्तलिक्खे ठितो तत्थ, देसेसि अनमतग्गियन्ति, पारा. आसं न करोति, अ. नि. अट्ठ. 2.79.
अट्ठ. 1.48; थेरो ... नन्दनवने अनमतग्गियानि कथेसि, अनमतग्ग त्रि., ब. स. [बौ. सं. अनवराग्र], अवर-कोटि, पारा. अट्ठ. 1.58; - सुत्त नपुं.. [सूक्त, सूत्र?], उपरिवत् अग्र-कोटि से रहित और अग्र-रहित, निचली और ऊपरी -- अनमताग्गियसुत्तं च चरियापिटकं अनुत्तरं दी. वं. सीमाओं से रहित, प्रारम्भिकतम एवं अन्तिम कोटि से 14.45, तुल. म. वं. 15.186. विनिर्मुक्त, अनादि, अनन्त - अनमतग्गोयं, भिक्खवे, संसारो, अनमस्सनभाव पु., नमस्सनभाव का निषे., तत्पु. स. स. नि. 1(2).161; अनमतग्गोति अनु अमतग्गो, वस्ससतं [अनमनभाव], उद्दण्डता, अशालीनता, अविनम्रता, अशिष्टता वस्ससहस्सं जाणेन अनुगन्त्वापि अमतग्गो अविदितग्गो, - ... नमस्सनभावं वा अनमस्सनभावं वा तुम्हेव जानाथ,ध. नास्स सक्का इत्तो वा एतो वा अग्गं जानितु प. अट्ठ. 2.369-370. अपरिच्छिन्नपुब्बापरकोटिकोति अत्थो, स. नि. अट्ठ. 2.139%; अनम्बिल त्रि., अम्बिल का निषे०, ब. स. [अनाम्ल]. 1. अथ वा संसारचक्कन्ति अनमतग्गं संसारवट्ट वुच्चति, विसुद्धि. खटाई के बिना तैयार किया हुआ - अम्बिलानम्बिलमच्छमसानं 1.190; तत्थ अनमतग्गं संसारवट्टन्ति अनु अनु अमतग्गं धूपनवासं घायित्वा, जा. अट्ठ. 1.236; 2. निषे. तत्पु. स., अविआतकोटिकं संसारमण्डलं. विसुद्धि. टी. 1.2083; - अम्लरहित, खटाईरहित- यथा अनम्बिलं तक वा कजिक टि. इसका प्रयोग सामान्यतया संसार-सागर के संकेतक के वा परिणामवसेन परिवत्तित्वा अम्बिलं होति, जा. अट्ठ. 4.11. रूप में प्राप्त, आधुनिक विद्वानों द्वारा व्युत्पत्ति-परक निर्वचन अनम्हिकाल पु., व्यु. अनिश्चित, अम्हिकाल का निषे., अनेक रूपों में प्राप्त, द्रष्ट. पिशेल, प्राकृत भाषाओं का [अस्मयकाल, अमास्मिकाल?]. विपत्ति का काल, दुर्गति व्याकरण (जर्मन) पृ. 251, पा. टि. 1 तथा सद्द. 2.396, पा. का समय, अप्रसन्नता का काल, रोदनकाल - अनम्हिकाले टि. 10; - कथा स्त्री., [अनवराग्रकथा], अनादि एवं ससोणि, किन्न जग्घसि सोभने जा. अट्ठ. 3.194; अनम्हिकालेति अनन्त सांसारिक यात्रापथ से सम्बद्ध कथा - अनमतग्गकथं रोदनकाले, जा. अट्ठ. 3.195. कथेसि, ध. प. अट्ठ. 2.101; - ता स्त्री॰, भाव., संसारचक्र अनय' पु., नय का निषे., तत्पु. स. [अनय], दुराचार, की अनादिता एवं अनन्तता - एवं वृत्तेन वारेन संसारस्स अनीति, दुर्नीति, कुमार्ग, विपत्ति, व्यसन - अनयं नयति अनमतग्गता साधिता होति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).2343; दुम्मेधो, अधुरायं नियुञ्जति, जा. अट्ठ. 4.216; अनयं नयतीति - त्त नपुं., भाव., उपरिवत् - संसारं अनमतग्गतो संसारस्स अकारणं कारणन्ति गण्हाति, जा. अट्ठ. 4.217; नयिदं अनयेन अनु अमतग्गत्ता आणेन अनुगन्त्वापि अमतअग्गत्ता जीवितं, नाहारो हदयस्स सन्तिको, थेरगा. 123; इदं मम अविदितग्गत्ता, थेरीगा. अट्ठ. 312; - धम्मदेसना स्त्री., जीवितं अनयेन अञायेन वेळुदानपुप्फदानादिअनेसनाय न [अनवराग्रधर्मदेशना], संसार की अनादिता एवं अनन्तता होति जीवितकन्तिया अभावतो, थेरगा. अट्ठ. 1.266... के विषय में धर्मोपदेश- सत्थारं उपसङ्कमित्वा अनमतग्ग- अनय पु., न एत्थ अयो ति अनयो [अनय], क. कुमार्ग, धम्मदेसनं सुत्वा .... ध. प. अट्ठ. 1.268; - परियाय पु., विपत्ति, अनीति, दुर्नीति, अर्थहानि, व्यसन - अनयो व्यसने [अनवराग्रपर्याय], संसार की अनादिता एवं अनन्तता के चेव सन्दिस्सति विपत्तियं, अभि. प. 979; एत्थ न अयोति विषय में धर्मोपदेश का एक प्रकार - एवं सत्थरि अनयो, अवड्डिया एतं नाम, दी. नि. अट्ठ. 2.95; अनयमापन्ना अनमतग्गपरियायं कथेन्ते .... ध. प. अट्ठ. 1.393; - व्यसनमापन्ना यथाकामकरणीया पापिमतो. म. नि. 1.233; परियायकथा स्त्री., [अनवराग्रपर्यायकथा], उपरिवत् - अयं सकलस्स यूथस्स अनयो अवुद्धि महाविनासो कतोति, रक्खितत्थेरो पन ... अनमतग्गपरियायकथाय वनवासिके जा. अट्ठ. 3.315; ख. त्रि, महाविनाशकारी, महाविनाश पसादेसि, पारा. अट्ठ. 1.48; - भाव पु., संसार की अनादिता करने वाला - तस्मा तेसं अनयो महाविनासकारको हुत्वा, एवं अनन्तता - अनमतग्गतोति संसारस्स अनमतग्गभावतो, जा. अट्ठ. 4.163; तुल. अगति; - व्यसन नपुं.. द्व. स. थेरीगा. अट्ठ. 313; - संयुत्त नपुं., स. नि. के एक संयुत्त [अनयव्यसन], अनय और व्यसन, हानि और दुर्भाग्य - का शीर्षक- संयुत्तं अनमतग्गं कथेसि जनमज्झगो म. वं 12.31. अनयब्यसनं आपादेस्सामी ति, दी. नि. 2.56; हितञ्च सुखञ्च
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अनल
अनयूपरम वियस्सति विक्खिपतीति ब्यसनं जातिपारिजुआदीनं एतं नाम, दी. नि. अट्ठ. 2.95; - ब्यसनापत्ति स्त्री., [अनयव्यसनापत्ति], अनर्थ या विपत्तियों का आकर गिरना या उनमें फंस जाना, व्यसनापन्नता - तासं इत्थीनं अग्गिम्हि । अनयब्यसनापत्तिहेतुं, उदा. अट्ठ. 313. अनयूपरम पु., तत्पु. स. [अनयोपरम], विपत्ति का उपशमन, दुर्भाग्य का अन्त - विनये अनयूपरमे परमे, सुजनस्स सुखानयने नयने, पटु होति पधानरतो न रतो इध यो पन सारमते रमते, विन. वि. 37, उत्त. वि. 778. अनरह' त्रि, निषे०, तत्पु. स. [अनह], अयोग्य, अपात्र, कुपात्र, अप्रतिरूप - यो ... पुग्गलो पापिच्छो ... अयुत्तो अप्पत्तो अननुच्छविको अनरहो अप्पतिरूपो धुतझं समादियति, मि. प. 322. अनरहः पु., निषे., तत्पु. स. [अनर्हत्], वह, जो अर्हत् नहीं है, शैक्ष्य अथवा पृथक्जन, जिसके आस्रव क्षीण नहीं हुए हैं - यो वे अनरहं सन्तो, अरहं पटिजानाति, सु. नि. 135; अनरहं सन्तोति अखीणासवो समानो, सु. नि. अट्ठ, 1.145. अनरिय/अनारिय त्रि., पु., अरिय का निषे., तत्पु. स. [अनार्य], 1. नीचजन, पृथकजन, अज्ञानीजन, ग्राम्यजन, असंस्कृत, अपवित्र, निर्लज्ज - अनरियो तु पुथुज्जनो, अभि... प. 435; अनरियाति निल्लज्जा, जा. अट्ठ. 5.443; अनरियोति हिरोत्तप्पवज्जितो असप्पुरिसो, जा. अट्ठ. 2.187; 2. हीन, अनर्थसंहित, प्रदुष्ट, ग्राम्य, पापकर, अनर्थकर - मिच्छा च पटिपज्जति, एतं तस्मिं अनारियं सु. नि. 821; न च अत्तकिलमथानुयोगमनुयुत्तो दुक्खं अनरियं अनत्थसंहितं, दी. नि. 3.84; अनरियन्ति न निहोस, न वा अरियेहि सेवितब्ब, दी. नि. अट्ठ. 3.72; अनरियोति न अरियो न विसुद्धो न उत्तमो न वा अरियानं सन्तको, स. नि. अट्ठ. 3.327; - कथा स्त्री., कर्म. स. [अनार्यकथा], अहितकर कथन, अनर्थपूर्ण कथन - गुणं घट्टेत्वा कथा हि अनरियकथा नाम, न अरियकथा, अ. नि. अट्ठ. 2.182; - कम्म नपुं.. कर्म स. [अनार्यकर्मन्], अविशुद्ध कर्म, अनार्य कर्म, पापमय कर्म, दुष्टजनों के बुरे कर्म - अनरियानं दुस्सीलानं कम्म, जा. अट्ठ. 4.52; - गुण पु., कर्म. स. [अनार्यगुण], दोष, पाप, अपराध, दुष्टजनों का गुण - अनरियगुणमासज्ज, अञोञविवरेसिनो, अ. नि. 1(1).228; - चरित नपुं.. कर्म. स. [अनार्यचरित], बुरा आचरण, दुराचार, दुष्टजनों का आचार - यो अनरियचरितानि माचरि जा. अट्ठ. 5.451; -धम्म पु., कर्म. स. [अनार्यधर्म]. तुच्छता, क्षुद्रता बाल-
धर्म, अज्ञानी लोगों का स्वभाव - यो चारियरुदं भासे, अनरियधम्मवस्सितो, जा. अट्ठ. 5.371; अनरियधम्मोति अनरियसभावो, महानि. अट्ठ. 214; - परियेसना स्त्री., ष. तत्पु. [अनार्यपर्येषणा], तुच्छ एवं क्षुद्रधर्मों की चार प्रकार की मानसिक अनर्थकारी कामनाएं - चतस्सो इमा, भिक्खवे, अनरियपरियेसना, अ. नि. 1(2).283; अनरियपरियेसनाति अनरियानं एसना गवेसना, अ. नि. अट्ठ.2.394; - भाव पु., कर्म. स. [अनार्यभाव]. दुष्टता, अनार्यता, अनार्यमयी प्रकृति, पृथग्जनत्व - अनरियसंयुत्ते ति मित्तदुमीहि अहिरिकेहि कत्तब्बताय अनरियभावेन संयुत्ते, जा. अट्ठ. 5.355; - भूमि स्त्री., तत्पु. स. [अनार्यभूमि], पृथक्जनों की चित्तभूमि, अविद्याग्रस्त चित्तभूमि, कामावचर चित्त की भूमि - इमस्मि लोके सब्बत्थ च अनरियभूमियं उपपत्तिपच्चयभूता अविज्जा यथाक्कम दुतियततियमग्गेहि पहीयति, उदा. अट्ठ. 39; - मग्ग पु., कर्म. स. [अनार्यमार्ग]. पृथक्जनों द्वारा गृहीत मार्ग, भोगवाद एवं तपवाद के मार्ग- अकत्तब्बन्ति बद्धादयो अरिया वदन्ति, त्वं पन मं अनरियं मग्गं आरोचेसीति अधिप्पायो, जा. अट्ठ. 3.111; - रूप त्रि., ब. स. [अनार्यरूप], तुच्छ, निर्लज्ज, दुष्ट प्रकृति वाला, अनार्य स्वभाव वाला - ओपातमागच्छि अनरियरूपो, जा. अट्ठ. 5.42; अहिरिकभावेन अनरियरूपो ताय चित्तवसानुगाय पयोजितो, जा. अट्ठ. 5.42; अनरियरूपोति ... असप्परिसजातिको निल्लज्जपुरिसो, जा. अट्ठ. 6.265; - वोहार पु., कर्म. स. [अनार्यव्यवहार], अनुचित वक्तव्य या कथन, अनुपयुक्त वाग्व्यवहार, चार प्रकार के वाचिक दुश्चरित - अनरियवोहाराति अनरियानं बालपुथुज्जनानं वोहारा, पाचि. अट्ठ. 2; चत्तारो अनरियवोहारामुसावादो पिसुणावाचा, फरुसावाचा, सम्फप्पलापो, दी. नि. 3.185; अनरियवोहाराति अनरियानं लामकानं वोहारा, दी. नि. अट्ठ. 3.189; - संयुत्त त्रि., तत्पु. स. [अनार्यसंयुक्त], अनार्य-धर्म से सम्बद्ध, अनार्यभाव से संयुक्त - अनरियसंयुत्तेति मित्तदुभीहि अहिरिकेहि कत्तब्बताय अनरियभावेन संयुत्ते, जा. अट्ठ. 5.355; न में अनरियसंयुत्ते कम्मे योजेतुमरहसि, तदे; - सुख नपुं. कर्म. स., कामसुख, सामान्य जनों द्वारा सेवित विषयभोगों का सुख - इदं वुच्चति कामसुखं मिळहसुखं पुथुज्जनसुखं अनरियसुखं न सेवितब्बं न भावेतब्ब, म. नि. 2.1263B अनरियसुखन्ति अनरियहि सेवितसखं, म. नि. 2.121. अनल' पु. [अनल], अग्नि, आग, पावक - जातवेदो सिखी जोति पावको दहनोनलो, अभि. प. 33; सद्द. 334; अनलो
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अनल
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अनवज्ज
कण्हवत्तनी घतासनो धूमकेतु उत्तमाहेवनन्दहो, जा. अट्ठ. अनल्लीनत्त नपुं., भाव. [अनालीनत्व], पूरी तरह लगाव5.57.
रहित रहना, अनासक्तता - सो चित्तेन अनल्लीनत्ता पारं अनल त्रि., निषे., ब. स., असन्तुष्ट, अतृप्त - अनला समुदस्स वसन्तोपि अन्तोयेव होति, जा. अट्ठ. 4.194. मुदुसम्भासा, दुप्पूरा ता नदीसमा, जा. अट्ठ. 2.270; जा. अट्ठ अनल्लीयन त्रि., [अनालीयन], अनासक्त, वह, जो आसक्त 5.448; तत्थ अनला मुदुसम्भासाति मुदुवचनेनपि असक्कुणेय्या, ___ न हो अथवा जो काम भोगों में चिपका हुआ न हो - नेव सक्का सहवाचाय सङ्गहिन्ति अत्थो, पुरिसेहि वा समुक्खेटितोति इदं सुट्ट उत्तासेत्वा अणुसहगतस्सापि पुन एतासं न अलन्ति अनला, मदसम्भासाति हदये थद्धपि अनल्लीयनभावदस्सनवसेन वृत्तन्ति, पारा. अट्ठ. 2.82. सम्भासाव मुदु एतासन्ति मुदुसम्भासा, जा. अट्ठ. 2.270%; अनवकार त्रि., अवकार का निषे., मलरहित, अनुत्पादित, अनलाति तीहि धम्मेहि अलन्ति वचनविरहिता, जा. अट्ठ. अनिरुद्ध, अविलोपित - अवकारीकरित्वा अवकार + 5.449; अनलोति अतित्तो, जा. अट्ठ. 5.50.
Vकर का पू. का. कृ., विलुप्त न करके - पञ्चसु खन्धेसु अनलं निपा., क. अपर्याप्त, अत्यन्त स्वल्प, कम - इदं खो कञ्चि धम्म अनवकारीकरित्वा अस्मीति, म. नि. अट्ठ. अहं, उदायि, अनल न्ति वदामि. म. नि. 2.127; अनलञ्च (मू.प.) 1(1).214. मे अन्तरायायाति, म. नि. 3.42; ख. त्रि., नहीं बनाने योग्य अनवकास/अनोकास त्रि, निषे. ब. स. [अनवकाश घर वाला - अनलन्ति वदामीति अकत्तब्बआलयन्ति वदामि, त्रि.], अतार्किक, अनुपयुक्त, निराधार - अट्ठानमेतं, भिक्खवे, तण्हालयो एत्थ न उप्पादेतब्बोति दस्सेति, अथवा अनलं अनवकासो यं दिट्ठिसम्पन्नो पुग्गलो कञ्चि सङ्घार निच्चतो अपरियत्तं. म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.122.
उपगच्छेय्य, अ. नि. 1(1).38; अनवकासोति पच्चयपटिक्खेपो, अनलंकत त्रि., अलंकत का निषे. [अनलत]. वह, जो अ. नि. अट्ठ. 1.338; - कारी त्रि., अवसर प्रदान न अलंकृत न हो, असन्तुष्ट, अविभूषित - अअमञआभिगिज्झन्ति करनेवाला, मौका न देने वाला - अनधिकरणेन भवितब्ब कामेसु अनलङ्कता, स. नि. 1(1).18; अनलङ्कताति अतित्ता अनवकासकारिना, मि. प. 351, पाठा. अनवसेसकारिना. अपरियत्तजाता, स. नि. अट्ठ. 1.49.
अनवक्कन्त त्रि., अवक्कन्त का निषे., तत्पु. स. [अनवक्रान्त], अनलस त्रि., अलस का निषे०, तत्पु. [अनलस], सक्रिय, अनभिभूत, अपराजित, वश में न किया हुआ - इमे खो ते. उद्योगी, परिश्रमी, साहसी, पराक्रमी -- उट्ठायिकं अनलसं. आनन्द, धम्मा ... अरिया लोकुत्तरा अनवक्कन्ता पापिमता, सीलवतिं दुस्सते भत्ता, उट्ठायिका अनलसा, कि तुम्ह न म. नि. 3.157; अनवक्कन्ता पापिमताति पापिमन्तेन मारेन रोचते पुत्त, थेरीगा. 415-417; तत्थ न दक्खो होति, न अनोक्कन्ता, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.120; पथवीधातु चे अनलसो, महाव. 89; न अनलसोति उट्ठानवीरियसम्पन्नो न हिद, भिक्खवे, एकन्तदुक्खा अभविस्स ... अनवक्कन्ता होति, महाव. अट्ठ. 261; - ता स्त्री., भाव. [अनलसता], सुखेन, स. नि. 1(2).157. उद्योगपरायणता, वीर्यवत्ता, अनालस्य, सक्रियता - सो अनवगम पु., निषे., तत्पु. स. [अनवगम], अज्ञान, अबोध, ... मेधाविताय अनलसताय च ... ब्राह्मणसिप्पे निष्फत्तिं मो. व्या. 430, 441. पत्तो, वि. व. अट्ठ. 193; ... सब्बकिच्चकरणीयेसु खिप्पं अनवज्ज त्रि., अवज्ज का निषे., तत्पु. स. [अनवद्य], वह, पटिजाननता ... अनलसता ... खु. पा. अट्ठ. 24. जिसमें कुछ भी गर्हणीय या निन्दनीय न हो, निर्दोष, अनल्ल त्रि., अल्ल का निषे., तत्पु. स. [अनार्द्र], सूखा दोषरहित - कतमं अनवज्जबलं ? ... नत्थि किञ्चि हुआ, वह, जो गीला न हो, जो आर्द्र न हो - केस त्रि. वज्जन्ति अनवज्जबलं, पटि. म. 345; चतूहि, भिक्खवे, [अनार्द्रकेश]. सूखे हुए बालों वाला/वाली - अपि न त्वं अङ्गेहि समन्नागता वाचा सुभासिता होति, न दुभासिता, कदाचि करहचि अनल्लवत्था वा भवेय्यासि, अनल्लकेसा वा अनवज्जा च अननुवज्जा च विझून, सु. नि. पृ. 148; ति? उदा. 176; - गत्त त्रि., ब. स. [अनागात्र], सूखे अनवज्जानि कम्मानि, एतं मङ्गलमुत्तमं सु. नि. 266; - क हुए शरीर वाला या अंगों वाला - अनल्लगत्ताव तरन्ति पारं त्रि., [अनवद्यक], उपरिवत् - छेके कुसलसद्दोय, आरोग्ये स. नि. 1(1).197; - वत्थ त्रि.. ब. स. [अनार्द्रवस्त्र], सूखे अनवज्जके, अभि. अव. 3; - कम्म नपुं.. कर्म. स., निर्दुष्ट वस्त्रों वाला - कदाचि करहचि अनल्लवत्था वा भवेय्यासि कर्म, विशुद्ध कर्म, कुशल कर्म - अनवज्जकम्म वुच्चति सुक्क .... उदा. 176.
सुक्कविपाक, महानि. 230; - ता स्त्री., भाव. [अनवद्यता].
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अनवज्ज
शुद्धता, पवित्रता, निर्दुष्टता - आतिसङ्गहेन सकजनहितं अनवज्जकम्मन्तताय परजनहितञ्च करोन्ता खु. पा. अड. 126 गुण पु. कर्म. स. [ अनवद्यगुण ], दोषरहितता, निर्दुष्टता अनवज्जगुणबहुलतायपि तथागता पटिसल्लानं सेवन्ति, मि. प. 142; त्यपुच्छा स्त्री. तत्पु. स. [ अनवद्यार्थपृच्छा]. उत्तम अर्थविषयक प्रश्न कुशल धर्मों के विषय में प्रश्न - अपरापि तिस्सो पुच्छा अनवज्जत्थपुच्छा, निक्किलेसत्थपुच्छा, वोदानत्थपुच्छा, महानि. 251; धम्म त्रि.. व. स. दोष रहित प्रकृति वाला, शुद्ध स्वभाव वालाएवमादिके अनेके अत्तनो कुसले अनवज्जधम्मे बुद्धि गते, उदा. अड्ड. 273 पद नपुं, कर्म, स. धर्म से परिपूर्ण वचन, अर्थात् सैंतीस बोधिपक्षीय धर्म अनवज्जपदानि सेवमानो ततियं भिक्खुनमाहु मग्गजीविं, सु. नि. 88 अणुमत्तस्सापि वज्जस्स अभावतो अनवज्जता, कोद्वासभावेन च पदत्ता सत्ततिंसंबोधिपक्खियधम्मसङ्घातानि अनवज्जपदानि, सु. नि. अ. 1.130 पिण्ड पु. कर्म, स० अनुमोदित भोजन, नियमसम्मत भोजन अनवज्जपिण्डो भोत्तब्बो न च कोचूपरोधति, जा. अड. 5.241; अनेसनं पन पहाय मिच्छाजीवं वज्जेत्वा धम्मेन समेन उप्पादिता परिभुत्ता अनवज्जपिण्डो नाम, जा. अड. 5.242 - बल नपुं. कर्म. स. विशुद्धि की शक्ति, प्रज्ञाबल, विशुद्धिबलचत्तारिमानि,... बलानि,... पञ्ञाबलं, वीरियबलं, अनवज्जबलं, सङ्ग्रहबल, अ. नि. 1(2).163; अनवज्जबलन्ति निद्दोसबल अ. नि. अड्ड. 2.337 भोगी त्र अनुमोदित वस्तुओं का प्रयोग करने वाला या शुद्ध जीविका कमाने वाला - अनवज्जभोगी, गतिविगुत्तो... इमेहि तिसगुणवरेहि समुपेतो होति, मि. प. 326; - भोजी त्रि, उपरिवत् एते अलद्धा अनवज्जभोजी सु. नि. 47... धम्मेन समेन उप्पन्नं भोजनं मुञ्जन्तो तत्थ व परिघानुनयं अनुष्पादेन्तो अनवज्जभोजी हुत्वा ... सु. नि. अड. 1.75: भोजिगाथा स्त्री. सु. - नि. की गाथा सङ्ख्या 47 का शीर्षक, सु. नि. अट्ठ. 1.75: रस त्रि. व. स. विशुद्धिभाव या पवित्रभाव वाला इदं सीलं सम्पत्तिअत्थेन रसेन अनवज्जरसन्ति वेदितब्ब विसुद्धि. 1.9; - सङ्घातत्रि, कर्म. स. अनवद्य नाम वाला धर्म, कुशल धर्म ये धम्मा कुसला कुसलसङ्गाता धम्मा अनवज्जा अनवज्जसङ्घाता त्यास्स धम्मा पञ्ञाय वोदिडा होन्ति, अ. नि. 3 (1). 181 - सज्ञी त्रि. ब. स.. किसी धर्मविशेष को विशुद्ध मानने वाला तं अपस्सन्तो अनवज्जसज्ञी हुत्वा, पारा. अड. 1.164
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नाम
ये
सुख नपुं.
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203
अनवद्वान
कर्म. स. सर्वोत्तम आध्यात्मिक सुख, ध्यानसुख, निर्वाणाधिगम सुख सो इमिना अरियेन सीलक्खन्धेन समन्नागतो अच्छातं अनवज्जसुखं पटिसंवेदेति दी. नि. 1.62; अनवज्जसुखन्ति अनवज्जं अनिन्दितं कुसलं अविप्पटिसारपामो ज्जपीतिपस्सद्धिधम्मेहि परिग्गहितं कायिकचेतसिकसुखं, दी. नि. अड. 1.150; तेसु पन अनवज्जसुखविपाकलक्खणा कुसला. घ. स. अड्ड. 87. अनवज्ञत्ति स्त्री. अवञ्ञत्ति का निषे, तत्पु [ अनवज्ञप्ति ]. अपमान से विमुक्ति, अवहेलना का अभाव, अपरिभव, अपराभव अनवञ्ञत्तिपटिसंयुत्तोति एत्थ अनवञ्ञत्तीति अनवञ्ञा परेहि अत्तनो अहीजितता अपरिभूतता ताय अनवञ्ञत्तिया पटिसंयुत्त संसट्टो, इतिवु० अट्ठ 219 - काम त्रि०, ब० स०, तिरस्कार की कामना न रखनेवाला, सत्कारकामी. स्वागताभिलाषी पुन चपरं आनन्द, पापभिक्खु लाभकामो होति सक्कारकामो अनवञ्ञत्तिकामो, अ० नि० 1 ( 2 ) . 276; पटिसंयुक्त तत्पु. स. अनवज्ञाभाव से जुड़ा हुआ, लाभ, सत्कार तथा यश पाने की इच्छा से युक्त अनवञ्ञत्तिपटिसंयुत्त वितको इतिवु, 53; यो तत्थ गेहसितो तक्को वितक्को मिच्छासङ्कप्पो अयं दुध्यति अनवञ्ञत्तिपटिसंयुत्त वितको विम, 412: मद पु.. द्रष्ट. आगे अनवञ्ञतमद के अन्त.. अनवञ्ञपटिलाभ पु., तत्पु० स० [अनवज्ञाप्रतिलाभ ], सम्मान का लाभ, सत्कार -प्राप्ति - सो पापिकं इच्छं पणिदहति अनवञ्ञप्पटिलाभाय लाभसक्कारसिलोकप्पटिलाभाय, अ. नि. 1(2).165.
अनवञ्ञा स्त्री० [अनवज्ञा], अतिरस्कार, सम्मान, अपमान का अभाव - अनवञ्ञत्तीति अनवञ्ञा... इतिवु, अट्ठ. 219,
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द्रष्ट. ऊपर.
अनवजात त्र अवज्ञात का निषे, तत्पु. स. [ अनवज्ञात], अतिरस्कृत, वह जिसके प्रति असम्मान का भाव व्यक्त नहीं किया गया है- अक्खित्तोति जातिं आरम्भ किं सोति केनचि अनवञ्ञतो, सु. नि. अट्ठ. 2.166; अनपविद्ध अनवज्ञातं कत्वा, पे. व. अड. 118: मद पु. ष. तत्पु अतिरस्कृत या अपमानरहित रहने का घमण्ड अहं पन अनुज्ञातो अनवज्ञातोति मज्जनवसेन उप्पन्नो मानो अनवञ्ञातमदो नाम, विभ. अट्ठ. 442.
अनवट्ठान नपुं., अवट्ठान का निषे, तत्पु० स० [ अनवस्थान ], अस्थायित्व, अस्थिरता, अदृढता, टिकाऊ न रहना - अनवद्वानेन परिब्भमनतो विसुद्धि महाटी 1.37 एवमेव
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अनवहित
204
अनवसीदन अयम्यि वादो एकस्मि सभावे अनवट्ठानतो इतो चितो च लोकायतमहापुरिसलक्खणेसु अनवयो, अवयो न होतीति
सन्धावति, गाहं न उपगच्छतीति, सारत्थ. टी. 1.130. वुत्तं होति, सु. नि. अट्ठ. 2.153; ... अम्बठ्ठो नाम माणवो अनवहित त्रि., अव + Vठा के भू, क. कृ. का निषे. ... लोकायतमहापुरिसलक्खणेस अनवयो.... दी. नि. 1.77; [अनवस्थित], अस्थिर, अनवस्थित, वह, जो टिकाऊ न हो, अनवयोति इमेसु लोकायतमहापुरिसलक्खणेसु अनूनो अस्थायी, अचिरकालिक- मायामरीचिसदिसं इत्तरं अनवद्वितं. परिपूरकारी, अवयो न होतीति .... दी. नि. अट्ठ. 1.201; म. अप. 2.203; थेरीगा. अट्ठ. 164; भोगा नामेते न सस्सता नि. 2.341; म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.259; मि. प.9; अहं खो अनवद्विता तावकालिका महायगमनीया, पे. व. अट्ठ. 76; - पन ... अनवयो सके आचरियके कुम्भकारकम्मे चारिका स्त्री., कर्म. स., अस्थिर रूप से की गयी चारिका, परियोदातसिप्पो, पारा. 47; अनवयोति अनुअवयो, किसी एक स्थान पर अधिक देर तक न रुककर किया गया सन्धिवसेन उकारलोपो, अनु अनु अवयो, यं यं कुम्भकारेहि भिक्षाटन - दीघचारिक अनवद्वितचारिक अनुयुत्तो च होति कत्तब्बं नाम अत्थि, सब्बत्थ अनूनो..., पारा. अट्ठ. 1.230; रूपस्स दस्सनाय, महानि. 269; अनवद्वितचारिकन्ति द्रष्ट. अवयो; - टि. ट्रॅकनर के अनुसार यह संस्कृत के असन्निट्ठानचरणं, महानि. अट्ठ. 316; - चित्त त्रि., ब. स., अनवयव शब्द से समाक्षर-लोप की प्रवृत्ति के प्रभाव के अस्थिर चित्त वाला, चञ्चल चित्त वाला, अनवस्थित चित्त कारण एक वकार के लोप कर देने से पालि में प्रयुक्त है, वाला - अनवहितचित्तस्स, सद्धम्म अविजानतो, ध, प. 383; द्रष्ट. ट्रॅकनर, प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृ. 65-66, पा. अनवद्वितचित्तस्स लहुचित्तस्स दुझिनो, जा. अट्ठ. 3.63; - टि.; दूसरे मत में यह अन + वयस् का संभावित पालिता स्त्री., भाव., चञ्चलता, अस्थिरता, अस्थायित्व - एवं प्रतिरूप है, संभवतः यह अनुवयस का नैरुक्तिक चक्खुस्मि सारज्जन्तस्स चक्खुनो असुभतं अनवद्वितताय प्रक्रियाधारित पालि-प्रतिरूप भी हो सकता है, द्रष्ट. निरुक्त, अनिच्चतञ्च विभावेसि, थेरीगा. अट्ट. 281-282.
6.11. अनवट्ठ/अनवत्थ त्रि., ब. स. [अनवस्थ], अस्थिर, अस्थायी अनवयव पु., अवयव का निषे., तत्पु. स. [अनवयव]. विशेष - परमुद्दिस्स यं दानं अंनवत्थादि दीयते, सद्धम्मो. 217; - रूप से व्याकरणों में प्रयुक्त पद, संकेतक वर्ण, अक्षर, किसी चारिका स्त्री., कर्म. स., अस्थायी रूप से की गई चारिका, वास्तविक शब्द के अंग के रूप आया हुआ वर्ण या किसी एक स्थान पर अधिक देर तक न रुककर किया गया अनुबन्ध - सङ्केतो'नवयवो नुबन्धो, मो. व्या. 1.23. भिक्षाटन - दीघचारिक अनवत्थचारिकं अनुयुत्तो विहरति, अनवरत त्रि., [अनवरत], व्यवधान-रहित, निरन्तर -- सततं अ. नि. 2(1).161; अनवत्थचारिकन्ति अनवत्थानचारिक, अ... निच्चमविरतानारतसन्ततमनवरतं च धुवं, अभि. प. 41. नि. अट्ठ. 3.53; न च पादलोलोति ... अनवसिञ्चनक त्रि., अवसिञ्चनक का निषे. [अनवसेचक], दीघचारिकअनवद्वितचारिकविरतो वा, सु. नि. अट्ठ. 1.92, ऊपर तक उड़ेलने वाला, उड़ेल कर न बहाने वाला - द्रष्ट. अनवचरिका.
अनवसेसकन्ति अनवसिञ्चनकं अपरिस्सावनकं कत्वा, जा. अनवत्थाय अव+Vठा के पू. का. कृ. का निषे. [अनवस्थाय], अट्ठ. 1.382; अनवसेसन्ति अनवसिञ्चनकं अपरिसिञ्चनक उचित विचार न करके - अनिसम्म कतं कम्म, अनवत्थाय कत्वा, महानि. अट्ठ. 362. चिन्तितं, जा. अट्ठ. 4.407; अनवत्थाय चिन्तितन्ति अनवसित्त त्रि., अवसित्त का निषे., तत्पु. स. [अनवसिक्त]. अनवत्थपेत्वा अतुलेत्वा अतीरेत्वा चिन्तितं, जा. अट्ठ. 4.408. अप्रभावित, नहीं भीगा हुआ, अलिप्त, अपयश के छीटों से अनवमत त्रि., अवमत का निषे., तत्पु. [अनवमत], अतिरस्कृत, रहित, बेदाग - अब्यासेकसुखन्ति किलेसेहि अनवसित्तसुखं अनपमानित सम्मानित, सत्कृत, संपूजित - अनवमतेन ..., म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).114. गुणेन याति सग्गं, दी. नि. 3.114; अनवमतेनाति अनवातेन, अनवसीदन नपुं., अवसीदन का निषे०, तत्पु. स. दी. नि. अट्ठ. 3.100.
[अनवसीदन], 1.शा. अ. नीचे या बहुत गहराई तक अनवय त्रि., 1.शा. अ. वह, जिसमें कुछ भी अवयवों अर्थात् जाकर नहीं डूबना, 2.ला. अ. अवसाद या खिन्नता का खण्डों में न हो, समग्र; 2.ला. अ. वह, जो अपरिपक्व वय अभाव, शिथिलता का न होना, सक्रियता - अकुसीतवुत्तीति वाला न हो अर्थात् अनुभव वाला हो - एतेन ठानआसनचङ्कमनादीसु कायस्स अनवसीदनं सु. नि. लोकायतमहापुरिसलक्खणेसु अनवयो, सु. नि. पृ. 166; अट्ठ. 1.97; द्रष्ट, ओसीदन.
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अनवसेक
205
अनसुरोप अनवसेक त्रि., अवसेक का निषे०, तत्पु. स. [अनवसेक], आयति अनवस्सवाय पटिपज्जेय्याथ, चूळव. 196; दी. नि. ऊपर होकर न बहने वाला, बाहर की ओर न छलक रहा, 3.195; एवमेतस्स पापकस्स विवादमूलस्स आयतिं अनवस्सवो अवसेकरहित - समतित्तिकं अनवसेसकं तेलपत्तं यथा होति, अ. नि. 2(2).50. परिहरेय्य, जा. अट्ठ. 1.382; जा. अट्ठ. 3.206, अप. अनवसेस. अनवस्सुत त्रि., अवस्सुत का निषे०, तत्पु. [अनवस्रुत], 1. अनवसेस त्रि., अवसेस का निषे., ब. स. [अनवशेष], शा. अ. मलिन पदार्थों के रिसाव रहित, वह, जिसमें से समग्र, सम्पूर्ण, समूचा, वह, जिसमें कुछ भी शेष अथवा करने बाहर निकलकर कोई भी मलिन तत्त्व न बहता हो - योग्य न बच रहा हो, विनय में प्रज्ञप्त अनेक आपत्तियों या उदकपवेसनस्साभावेन अनवस्सुता, जा. अट्ठ. 4.19; 2.ला. भिक्षु के अपराधों में से एक - सावसेसं आपत्तिं अनवसेसा अ. राग एवं क्लेशों से पूरी तरह मुक्त, विशुद्ध चित्त आपत्तीति दीपेति, महाव. 476; अ. नि. 1(1).27; ये केचि - ... रक्खितकायकम्मन्तस्स ... .कायकम्मम्पि अनवस्सुतं पाणभूतत्थि, तसा वा थावरा वनवसेसा, सु. नि. 146; यकिञ्चीति होति, अ. नि. 1(1).295; अनवस्सुतो अपरिडरहमानो. सु. अनियमितवसेन अनवसेसं परियादियति ..., खु. पा. अट्ठ. नि. 63; ... ततो एव तत्थ तण्हावस्सुताभावेन अनवस्सुतो, 136; असेसविरागनिरोधाति ... अग्गमग्गेन अनवसेसअनुप्पा- थेरगा. अट्ट. 1.298; - चित्त त्रि., ब. स., क्लेशों से विनिर्मुक्त दप्पहानाति अत्थो, उदा. अट्ठ. 40; - दोही त्रि., निचोड़ चित्त वाला, विशुद्ध चित्त - अनवस्सुतचित्तस्स अनन्वाहतचेतसो. कर दुह लेने वाला, पूरी तरह से दूध दुहने वाला - ... ध. प. 39; - परियाय पु., स. नि. के एक सुत्त का शीर्षक: गोपालको ... न गोचरकुसलो होति अनवसेसदोही च होति स. नि. 2(2).184, पाठा. अवस्सुत-सुत्त. ..., म. नि. 1.284; - निरोध पु., कर्म स., सम्पूर्ण रूप अनवोसित त्रि., व्यु. संदिग्ध, केवल स. प. के पू. प. के
से निरोध- ... अरियमग्गेन अविज्जाय अनवसेसनिरोधा, रूप में ही प्रयुक्त, अनिर्धारित, अपूर्णीकृत, अनिश्चित - तत्त .... अविज्जाय अच्चन्तसमुग्घाटतोति अत्थो, उदा. अट्ठ. 38; त्रि., ब. स. [अनव्यवसितात्म]. वह, जिसके मन में दृढ़ - परियादान नपुं., कर्म. स., सभी का ग्रहण - याति निश्चय नहीं है, अडिग संकल्प से रहित - हित्वा गिहितं अनवसेसपरियादानं रमन्ति एताय अज्झत्तं उप्पन्नाय बहिद्धा अनवोसितत्तो, थेरगा. 101; अनवोसितत्तोति अनुरूप वा उपकरणभूतायाति रति, खु. पा. अट्ठ. 184; - पहान अवोसितत्तो ... अनुरूपपरिञादीनं अतीरितत्ता नपुं., पूर्ण रूप से छुटकारा - यस्मिं समये लोकुत्तरं झानं अपरियोसितभावो अकतकरणीयोति, थेरगा. अट्ठ. 1.224; - भावेति .... अविज्जाय अनवसेसप्पहानाय ... ध. स. 363, टि. ट्रॅकनर के मत में व्यव + /सो के भू. क. कृ. का निषे., 553; अनवसेसप्पहानायाति ... निस्सेसपजहनत्थाय ध. स. जिसमें निषे. उप. का द्वित्व कर दिया गया है, संभवतः अट्ठ. 281; - फरण नपुं., कर्म. स., पूर्ण रूप से व्याप्त हो संस्कृत के अनवसित तथा अनोसित के परस्पर-व्यामिश्रण जाना या पूरी तरह से फैल जाना - ... अनुक्कमेन से उद्भूत अथवा सं. समा. अनव्यवसित का पालिरूपान्तरण, उपचारप्पनाभेदं ... एकसत्ते वा अनवसेसफरणेन अप्पमाणं अनव्हित त्रि., अव्हित का निषे., तत्पु. [अनाह्वात], वह, मेत्तं चित्तं भावेन्तो, सु. नि. अट्ठ. 2.129; - वचन नपुं.. जिसका आह्वान नहीं किया गया हो, जिसे पुकारा न गया कर्म. स., अप्रमाणता या निसीमता को सङ्केतित करने वाला हो, अनामन्त्रित - ... अनव्हितो ततो आगा, जा. अट्ठ. वचन- तत्थ ये केचीति अनवसेसवचनं, खु. पा. अट्ठ. 3.142; सद्द. 456; अनव्हितो अयाचितो. जा. अट्ठ. 3.142; 198; - व्यापक त्रि., तत्पु., सर्वत्र व्याप्त रहने वाला, अनव्हिता ततो आगु, अप. 1.365; अनभितो ततो आगा. पे. सर्वव्यापी - अनवसेसब्यापको हि अयं निद्देसो, पे. व. अट्ट. व. अट्ट. 54. 61; - साधिगम पु., तत्पु. स., सभी कुछ का ज्ञान, सम्पूर्ण अनसन नपुं., असन का निषे०, तत्पु. [अनशन], उपवास, ज्ञान - ... विपुलाधिगमो च होति, ... अनवसेसाधिगमो च भोजन को न लेना, भूख - तयो रोगा पुरे आसुं. इच्छा होति..., नेत्ति. 75; अत्तना कत्तब्बस्स कस्सचि अनवसेसतो अनसनं जरा, सु. नि. 313; मनुस्सेसु तयो आबाधा भविस्सन्ति, अनवसेसाधिगमो, नेत्ति. अट्ठ. 278.
इच्छा, अनसनं, जरा, दी. नि. 3.55. अनवस्सव त्रि., ब. स. [अनवस्राव], वह, जो बाहर होकर अनसुरोप पु., व्यु., संदिग्ध, संभवतः असुररोप में समाक्षरन बह रहा हो, वह जिसमें बहुत अधिक न भर दिया गया लोप से व्यु., असुरोप का निषे. अथवा अप्ररोष (सं.) का हो, अनभिभूत, अदमित - तस्सेव पापकस्स विवादमूलस्स वर्ण विपर्ययादि से उद्भूत असुरोप से व्यु; शान्ति, सहनशीलता,
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अनस्स
206
अनागत
वाणी-प्रयोग में उग्रता या कर्कशता का अभाव - अनसुरोपोति असुरोपा वुच्चति न सम्मारोपितत्ता दुरुत्तवचनं तप्पटिपक्खतो अनसुरोपो सुरुत्तवाचाति..., ध. स. अट्ठ. 417; या खन्ति खमनता अधिवासनता अचण्डिक्कं अनसुरोपो..... अयं वुच्चति खन्ति , ध. स. 1348. अनस्स त्रि., अस्स का निषे०, ब. स. [अनश्व], वह, जिसके पास घोड़ा नहीं है - न अस्सो अनस्सो, सद्द. 3.774; क. व्या. 336; - क त्रि., ब. स. [अनश्वक], बिना घोड़े वाला - अनस्सको अस्थको, दीघमद्धानमागतो, जा. अट्ठ. 7.274. अनस्सन-धम्म त्रि., ब. स. [अनश्यनधर्म], अविनाशी प्रकृति वाला, अनश्वर, स्वभाव से ही विनष्ट न होने वाला - किञ्चि सङ्घारगतं अनस्सनधम्म नाम नत्थि, जा. अट्ठ. 4.150. अनस्सय त्रि., ब. स. [अनाश्रय], आश्रय-रहित, बेसहारा, अशरण - अनस्सयन्ति च केचि पठन्ति, सुखस्स अप्पतिवानभूतन्ति, वि. व. अट्ठ. 285, अप. अनायस. अनस्सव त्रि., अस्सव का निषे., तत्पु. [अनाश्रव], आज्ञा न मानने वाला, उद्दण्ड, वचनों को न मानने वाला, अववादशिक्षा को न सुनने वाला - अनस्सवा अवचनकरा पटिलोमवृत्तिनो .... महानि. 27; अनस्सवाति ओवादं असुणमाना, महानि. अट्ठ. 89; महल्लकस्स... हत्थपादापि अनस्सवा होन्ति, ध. प. अट्ट. 1.5; ... कस्सचि बहुम्पि धनं देन्तस्स सेना न सुणाति, सा अनस्सवा नाम होति, अ. नि. अट्ठ. 3.49. अनस्सावी त्रि., अस्सावी का निषे., तत्पु. स. [अनाश्रावी, अनास्रावी], क. शा. अ. न रिसने वाला, रिसकर बाहर की ओर न बह रहा घाव या व्रण - मा तस्स सप्पायानि भोजनानि भुञ्जतो वणो अस्सावी अस्स. म. नि. 3.44; ख. ला. अ. कामभोगों के प्रति कामना से रहित - सातियेसु अनस्सावी.... सु. नि. 859; सातियेसु अनस्सावीति सातवत्थूसु कामगुणेसु तण्हासन्थवविरहितो, सु. नि. अट्ठ. 2.241. अनस्सासक त्रि., अस्सासक का निषे०, तत्पु. स. [अनाश्वासक]. पुनः श्वास को वापस लाने में अक्षम, म्रियमाण व्यक्ति, वह, जिसकी श्वास फिर वापस न लौट सके- सो भिक्खु उत्तन्तो अनस्सासको कालमकासि, पारा. 103; अनस्सासकोति निरासासो, पारा, अट्ठ. 2.63. अनस्सासिक त्रि., अस्सासिक का निषे., तत्पु. स. [बौ. सं. अनाश्वासिक], आश्वासन न देने वाला, अविश्वसनीय, प्रोत्साहन न देने वाला - एवं अनस्सासिका खो, आनन्द, सङ्घारा, दी. नि. 2.146; अनस्सासिकाति एवं सुपिनके पीतपानीयं विय अनुलित्तचन्दनं विय च अस्सासविरहिता,
दी. नि. अट्ठ. 2.204; ... चत्तारि च अनस्सासिकानि ब्रह्मचरियानि अक्खातानि, म. नि. 2.192. अनहात त्रि., नहात का निषे., तत्पु. स. [अस्नात, न नहाया हुआ - ... भगवा अनहातोव गन्चा .... म. नि. अट्ट. (मू.प.) 1(2).42. अनाकप्पसम्पन्न त्रि, तत्पु. स. [अनाकल्पसम्पन्न]. वह,
जो उचित रूप में तैयार नहीं है, फूहड़, असामाजिक रूप में वेशभूषा धारण करने वाला - तेन खो पन ... दुन्निवत्था .... अनाकप्पसम्पन्ना पिण्डाय चरन्ति ..., महाव. 50; अनाकप्पसम्पन्नाति न आकप्पेन सम्पन्ना, समणसारूप्पाचारविरहिताति, महाव. अट्ठ. 247. अनाकर पु.. आकर का निषे., तत्पु. स. [अनाकर], अस्थान, अपात्र, अनुपयुक्त आधार - अनायतनं वुच्चति लाभयससुखानं
अनाकरो दुस्सील्यकम्म .... जा. अट्ठ. 5.119... अनाकिण्ण त्रि., आकिण्ण का निषे., तत्पु. स. [अनाकीर्ण]. नहीं भरा हुआ, अपरिपूर्ण, भीड़भाड़ से रहित, शान्त, खाली - अप्पसद्दमनाकिण्णं, नानाचङ्कमभूसितं, अप. 2.216; अनाकिण्णा गहढहि, मिगसङ्घनिसेविता, थेरगा. 1072; अनाकिण्णाति असंकिण्णा असम्बाधा, थेरगा. अट्ठ. 2.384, द्रष्ट, आकिण्ण. अनाकुल त्रि., आकुल का निषे०, तत्पु. स. [अनाकुल]. शा. अ. नहीं भरा हुआ, भीड़भाड़-रहित, बहुलता से रहित - समाधिस्मिं पुमे एकग्गो नाकुले, अभि. प. 1035; अनाकुले तत्थ नगे रमिस्सं, थेरगा. 1147; ला. अ. अव्याकुल, चित्त की व्यग्रता से रहित, चित्त की एकाग्रता वाला - ... अलोलोति ... एवं रसविसेसेसु अनाकुलो, सु. नि. अट्ठ. 1.93; - कम्मन्तता स्त्री., भाव., स्थिर अथवा अनुदविग्न चित्त की क्रियाशीलता, शान्त मन के साथ काम करने की दशा- ... अनाकुलकम्मन्तताय धनधादिसमिद्धि पापुणन्ता .... खु. पा. अट्ठ. 125. अनागत त्रि., आगत का निषे., तत्पु. स. [अनागत]. 1. भविष्यत्काल, कार्यशीलता को अप्राप्त - अतीतेसु अनागतेसु चापि .... सु. नि. 375; अनागतेसूति पवत्तिं अप्पत्तेसु पञ्चक्खन्धेसु एव, सु. नि. अट्ठ. 2.88; अनागतम्हि कालम्हि थेरगा. 950; 2. वर्तमान क्षण तक नहीं पहुंचा हुआ, इस समय तक अप्राप्त - अनागतं यो पटिकच्च पस्सति .... थेरगा. 547; तत्थ अनागतन्ति न आगतं, अविन्दन्ति, अत्थो, थेरगा. अट्ठ. 2.1583; किन्ति अनागता च अरहन्तो विजितं आगच्छेय्यु.., दी. नि. 2.58; मि. प. 123; 3. अकथित,
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अनागत
207
अनागत
अज्ञात, वह, जिसे वर्तमान क्षण तक सीखा नहीं जा सका है, वह, जो ज्ञान के विषय के रूप में अभी तक उपस्थित नहीं है; 4. अनतिक्रान्त, वह, जो अभी तक पार नहीं कर सका हो- अडरते अनागते पठमयामेयेव जा. अट्ठ. 1.473; अनागतेति परियोसानं अप्पत्ते, अनतिक्कन्तेति अत्थो, जा. अट्ठ. 7.103; 5. केवल नपुं. में संज्ञा-रूप में भी प्रयुक्त; क. भविष्यकाल - अतीतं नान्वागमेय्य, नप्पटिकले अनागतं. म. नि. 3.227; अतीतं खो, आवसो, एको अन्तो, अनागतं दुतियो अन्तो, अ. नि. 2(2).105; ख. केवल व्याकरणों में, किसी क्रिया-पद द्वारा व्यक्त भवि. - अनागते भविस्सन्ती. क. व्या. 423; मो. व्या. 5.68; - तंस पु., कर्म. स. [अनागतांश], वर्तमान क्षण तक अप्राप्त कालखण्ड, वर्तमान समय तक न पहुंचा हुआ कोई भी धर्म या भाग - यं रूपं अजातं ... अनागतंसेन सङ्गहितं ... इदं वच्चति रूपं अनागतं विभ. 2: तीणि जाणानि-अतीतसे आणं, अनागतंसे आणं पच्चुप्पन्नसे आणं दी. नि. 3.221; - तंसाण नपुं.. तत्पु. स., सात अभिज्ञाओं में एक, जो अंश अथवा कालखण्ड वर्तमान क्षण तक अप्राप्त है, उसके विषय में ज्ञान - ... अनागतंसाणं पेसेत्वा ओलोकेन्तो ... समिज्झनभावं अद्दस, अ. नि. अट्ट, 1.123; अनागतंसाणचतुत्थं ... अनागते सङ्घो नाम राजा भविस्सतीति आदिना नयेन ... नवत्तब्बारम्मणं विभ. अट्ठ. 352; अनागतंसाणस्स, यथाकम्मुपगस्स च, अभि. अव. 140; - कालिक त्रि., [अनागतकालिक]. अभी तक नहीं आए हुए भविष्यत्काल से सम्बन्धित -- कत्थचि अतीतकालिका कत्थचि अनागतकालिका, सद्द. 1.49; -- कोट्ठास पु., कर्म. स. [अनागतकोष्ठांश], काल का अभी तक नहीं आया हुआ भाग, भविष्यकाल का कोई अंशअपरन्तं आरम्भाति अनागतकोट्ठासं आरम्मणं करित्वा, ध. स. अट्ठ. 415; - जाणकथा स्त्री.. तत्पु. स., कथा. नामक प्रकरण की पांचवीं कथा के आठवें खण्ड का कुछ संस्करणों में प्राप्त शीर्षक, पृ. 262; - त्त नपुं., भाव. [अनागतत्व], अनधिगमन, अग्रहण या अज्ञान की अवस्था, अज्ञानत्व, अप्राप्तित्व - राजानं निस्साय गन्धेसु अनागतत्ता, सा. वं. 112(ना.); - त्थ त्रि., ब. स. [अनागतार्थ], अर्थ अथवा परियत्ति एवं पटिवेध के ज्ञान को प्राप्त न किया हुआ, सत्यज्ञानविरहित - खुद्दञ्च बालं उपसेवमानो, अनागतत्थञ्च उसूयकञ्च, सु. नि. 320; अनागतत्थन्ति अनधिगतपरियत्तिपटिवेधत्थं सु. नि. अट्ठ. 2.57; - ताधिवचनकुसल त्रि., तत्पु. स., भविष्य के विषय में
कुशल, भविष्यत्कालवाचक शब्द के प्रयोग के सम्बन्ध में कुशल - ... अतीताधिवचनकुसलो, अनागताधिवचनकुसलो .... नेत्ति. 29; - तारम्मण त्रि.. ब. स. [अनागतालम्बन], वे चित्त एवं चैतसिक धर्म, जिनका आलम्बन भविष्य हैं, भविष्य को चिन्तन-विषय बनाने वाले चित्त एवं चैतसिक धर्म -- अनागते धम्मे आरब्भ ये उप्पज्जन्ति चित्त-चेतसिका धम्मा-इमे धम्मा अनागतारम्मणा, ध. स. 1048, 1433; - तारम्मणकथा स्त्री., कथा. के 9.7, अध्याय का शीर्षक, कथा. 328-336; - पुच्छा स्त्री., तत्पु. स. [अनागतपृच्छा], भविष्यत्काल के विषय में पूछताछ - अपरापि तिस्सो पुच्छा - अतीतपुच्छा, अनागतपुच्छा, पच्चुप्पन्नपुच्छा, महानि. 251; -- प्पजप्पा स्त्री.. च. तत्पु. स. संभवतः प्र + जल से व्यु.. भविष्य से सम्बन्धित अनेक प्रकार की मानसिक कामना - अनागतप्पजप्पाय, अतीतस्सानसोचना, स. नि. 1(1).63; जा. अट्ठ. 6.31; अनागतप्पजप्पायाति अनागतरस पत्थनाय, स. नि. अट्ठ. 1.27 (द्रष्ट, पजप्पा, पजप्पना, आगे)- फल त्रि., ब. स. [अनागतफल], वह, जिसने फल को प्राप्त नहीं किया है, अनधिगतफल, फल को अप्राप्त - आगताफलो अनागताफलो च, सद्द. 2.491; - भय नपुं, तत्पु. स. [अनागतभय], भविष्य में आने वाला भय, भविष्य में आशङ्कित सङ्कट या विपत्ति - ... कामेस अनागतभयं सम्पस्समाना ...., म. नि.1.387; पुरा आगच्छते एतं, अनागतं महब्भयं थेरगा. 978; ... देवदत्तो लाभसक्कारगिद्धो हुत्वा अनागतभयं न ओलोकेसि, जा. अट्ठ. 4.144: - मद्धान नपुं., अनागत + अद्धान [अनागताध्वन्], काल का अभी तक न आया हुआ भाग, भविष्यत्काल - अनागतमद्धाने द्विन्नम्पि तेसं चक्खूनं अन्तरधानं दिस्वा.... मि. प. 130, द्रष्ट, अद्धान; - रूप नपुं., कर्म. स. [अनागत-रूप], भविष्यत्कालवाचक कोई शब्दरूप - ... भविस्सती ति आदीनि वदतो अनागतरूपं न समेति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).182; अनागतरूपन्ति अभीते अत्थे अनागतसद्दारोपनं अनागतप्पयोगो न समेति, मू. प. टी. 1(2).196; - वंस पु.. श्रीलङ्का के कस्सप-नामक स्थविर द्वारा रचित भावी बुद्ध मैत्रेय के जीवन-वृत्तान्त से सम्बन्धित एक लघु वंश-ग्रन्थ का नाम: ग. वं. 61, (जॅ. पा. टे. सो. 1886, 33-53 में जे. मिनायेफ द्वारा तथा ई. लूमन द्वारा मैत्रेय समिति, स्ट्रेसबर्ग 1919, 184-191 में संपादित); - वचन नपुं., कर्म. स., भवि. वाचक अथवा उससे सम्बन्धित शब्द - विम्हयत्थवसेन पनेत्थ भविस्सतीति अनागतवचनं कतं, म. नि. अट्ठ. (म.प.)
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अनागन्तु
208
अनागमन
2.182, तुल. अनागतरूप; - समागम पु., तत्पु. स., भविष्यत्काल का आगमन, भविष्यत्काल में मिलन, भविष्यत्काल - अम्हं सब्बपति होहि, अनागतसमागमे, अप. 2.261; - सम्बन्ध पु., तत्पु. स., भविष्यत्काल के साथ सम्बन्ध - तस्मा अनागतसम्बन्धं कत्वा, पारा. अट्ट. 2.67; - सुखावह त्रि., ब. स., भविष्य के लिए सुख देने वाला, भविष्य में सुखकारी - नाब्मतीतहरो सोको, नानागतसुखावहो, जा. अट्ठ. 3.145. अनागन्तु पु. आ + गम के कर्तृ. ना. का निषे. [अनागन्त], लौटकर न आने वाला (अनागामी के स्थानापन्न अथवा निर्वचन के रूप में केवल द्वितीयान्त'इत्थत्तं के ही साथ प्रयोगों में प्राप्त) - ... भवयोगयुत्तो अनागामी । होति अनागन्ता इत्थत्तं, इतिवु. 68; ... ब्रह्मा आगन्ता इत्थत्तं यदि वा अनागन्ता इत्थत्तं? म. नि. 2.339; ... सो ततो चुतो अनागामी होति, अनागन्ता इत्थत्तं. अ. नि. 1(1).80. अनागमन नपुं.. [अनागमन], नहीं आ पहुंचना, वापस न
आना, अप्रत्यावर्तन - असुरानं अनागमनत्थाय, जा. अट्ठ. 1.201; कस्सचि अनागमनभावं ञत्वा .... जा. अट्ठ. 1.256%; - दिद्विक त्रि., ब. स. [अनागमनदृष्टिक], कर्मों के प्रभाव से पुनः आगमन न होने की मिथ्या दृष्टि रखने वाला, पुनर्जन्म में विश्वास न रखने वाला - इध ... असप्पुरिसो ... अनागमनदिट्टिको दानं देति, म. नि. 3.703; अनागमनदिछिको देति ..., अ. नि. 2(1).161-162; अनागमनदिद्धिको देतीति कतस्स नाम फलं आगमिस्सतीति न एवं आगमनदिद्धिं न उप्पादेवा देति, अ. नि. अट्ठ. 3.54%B अनागमनदिछिको देतीति न कम्मञ्च फलञ्च सद्दहित्वा देति, अ. नि. अट्ठ. 3.265; - सील त्रि., ब. स. [अनागमनशील], इस लोक में पुनर्जन्म न लेने वाला - अनागामीति पटिसन्धिग्गहणवसेन कामलोकं अनागमनसीलो ..., उदा. अट्ठ. 249. अनागमनीय त्रि., आ + गम के सं. कृ. का निषे. [अनागमनीय], नहीं आगमन योग्य, नहीं स्वीकार करने योग्य, अप्रत्यावर्तनीय - अभब्बो दिद्विसम्पन्नो पुग्गलो अनागमनीयं वत्थु पच्चागन्तुं अ. नि. 2(2).139; अनागमनीयं वत्थुन्ति अनुपगन्तब्बं कारणं, पञ्चन्नं वेरानं द्वासडिया च दिद्विगतानमेतं अधिवचनं, अ. नि. अट्ठ. 3.143. अनागवन्तु त्रि., आगवन्तु का निषे. [अनागस्]. पापरहित, दोषरहित, निर्दोष - महानागं अनागवा, म. वं. 37.115,
तुल०; कथं आगुं न करोतीति - नागो? आगू वुच्चन्ति पापका अकुसला धम्मा ..., महानि. 147. अनागामी पु., आगामी का निषे., तत्पु. स. [अनागामी], 1.
शा. अ. पुनः लौटकर वापस न आने वाला, 2. ला. अ. बुद्ध के आर्यमार्ग में प्रविष्ट वह आर्यपुदगल, जिसने स्रोतापत्ति फल की अवस्था का साक्षात्कार कर प्रथम तीन संयोजनों का प्रहाण कर लिया है, सकृदागामी-मार्ग फल की अवस्था प्राप्त कर राग एवं द्वेष नामक दो संयोजनों को शिथिल कर लिया है तथा आर्यमार्ग की तृतीय अवस्था को प्राप्त कर राग एवं द्वेष का पूर्ण रूप से प्रहाण कर लिया है. उसे ब्रह्मा के लोक में जन्म प्राप्त होता है, वह इस मानवलोक में उत्पत्ति ग्रहण नहीं करता है - असुको भिक्खु अनागामी, पारा. 107; अनागामीति पटिसन्धिग्गहणवसेन कामलोकं अनागमनसीलो ततियफलट्ठो, उदा. अट्ठ. 249; ततियमग्गपचं भावेत्वा अनागामी नाम होति, विसुद्धि. 2.351; पटिसन्धिवसेन इध अनागमनतो अनागामी, विसुद्धि. महाटी. 2.499; - अरियसावक पु., अनागामी-फल की अवस्था को प्राप्त बुद्ध का आर्य श्रावक - अनागामिअरियसावकानम्हि समादानवसेन उपोसथकम्मं नाम नत्थि, ध. प. अट्ठ. 1.213; - उपासक पु.. अनागामी-फल की अवस्था को प्राप्त बुद्ध का गृहस्थ शिष्य - छत्तपाणि नामेको अनागामी उपासको .... जा. अट्ठ. 1.365; - उपासिका स्त्री., अनागामीफल की अवस्था को प्राप्त बुद्ध की गृहस्थ शिष्या - घरणी नाम इद्धिमन्ती एका अनागामिउपासिका, ध. प. अट्ट, 2.120; - मिता स्त्री., भाव. [अनागामिता], अनागामी की अवस्था - दिवेव धम्मे अञआ, सति वा उपादिसेसे अनागामिताति, सु. नि. (पृ.) 190; अनागामिताति अनागामिभावो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).311; - त्थे रवत्थु पु., ध, प. अट्ठ. 2.169 में आगत एक कथा का शीर्षक; - फल नपुं.. तत्पु. स., श्रमण-जीवन के चार फलों में से तीसरा फल, अनागामी मार्ग पर चलने वाले आर्यश्रावक द्वारा प्राप्तव्य फल-तं भगवा ब्याकरिस्सति सोतापत्तिफले ... अनागामिफले वा.... महाव. 384; मि. प. 33; 303; छन्दरागे उप्पादिते अनागामिफलं पटिविद्ध भविस्सति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.10; - फलसच्छिकिरिया स्त्री., तत्पु. स., अनागामीफल का साक्षात्कार - अनागामिफलसच्छिकिरियाय पटिपन्नो, चूळव. 397; अनागामिफलसच्छिकिरियाय पटिपन्ने दानं देति, म. नि. 3.305; - फलुप्पत्ति स्त्री.. तत्पु. स., अनागामी फल की
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अनागु
209
अनाचिण्ण उत्पत्ति - वुढानन्ति अनागामिस्स अनागामिफलप्पत्तिया, होतीति, महानि. अट्ठ. 359; अत्तना वा अनाचरियको हुत्वा विसुद्धि. 2.349; - फलूपनिस्सय पु., तत्पु. स., अनागामी ..... खु. पा. अट्ठ. 153; सयम्भू महाराज, तथागतो फल प्राप्त करने की योग्यता, अनागामीफल प्राप्त करने का अनाचरियको, मि. प. 222; ख. ला. अ. बाहरी कर्म-काण्ड शुभ चिह्न - ... सत्था ... मागण्डियब्राह्मणस्स सपजापतिकस्स के आचरणों से मुक्त, आचार-विचार के जटिल विधिअनागामिफलूपनिस्सयं दिस्वा .... ध प. अट्ठ. 1.115; - विधानों से रहित - अनन्तेवासिकमिदं, भिक्खवे, ब्रह्मचरियं भाव पु., भाव. [अनागामिता], अनागामीफल की प्राप्ति की वस्सति अनाचरियक, स. नि. 2(2).139; अनाचरियकन्ति अवस्था -- ... तस्मिं वा सति अनागामिभावो पटिकसोति आचरणकिलेसविरहितं, स. नि. अट्ठ. 3.46-47. दस्सेति, सु. नि. अट्ठ. 2.200; अनागामिताति अनागामिभावो, अनाचरियकुल नपुं., तत्पु. स., आचार्य से भिन्न अन्य म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1.311; - मग्ग पु.. तत्पु. स., व्यक्ति का घर या कुल - अनाचेरकुले वसन्ति आचरियकुलेपि अनागामीफल की प्राप्ति का मार्ग अथवा आर्यमार्ग के चार अवसमानो, आचारसिक्खापकं कञ्चि निस्साय अवसितत्ताति चरणों का तीसरा चरण - अनागामिमग्गं भावेन्तोपि .... अत्थो, जा. अट्ठ. 1.418. महानि. 6; कामरागपटिघसंयोजनानि अनागामिमग्गेन अनाचरियुपज्झाय त्रि., ब. स., आचार्य एवं उपाध्याय से पहीयन्ति, ध. स. अट्ट, 401; - मग्गचित्त नपुं., तत्पु. स. रहित व्यक्ति या भिक्षु - अनाचरियपज्झायो, वने वासं उपेमहं [मार्गचित्त], भूमि के आधार पर विभाजित लोकोत्तर-भूमि के अप. 2.78. चार प्रकार के मार्गचित्तों में से तृतीय मार्गचित्त - अनाचार' त्रि., आचार का निषे., ब. स. [अनाचार], अनैतिक, सोतापत्तिमरगचित्त ... अनागामिमग्गचित्तं, अपवित्र, पापी, बुद्धशासनप्रदूषक, बुद्ध-शासन को दूषित अरहत्तमग्गचित्तञ्चेति इमानि चत्तारिपि लोकुत्तरमग्गचित्तानि करने वाला - अप्पस्सुतो खो पन अयमायस्मा अनाचारो, नाम, अभि. ध. स.6; पटिसन्धिवसेन इमं कामधातुं न अ. नि. 3(2).133; 136; भिक्खं भिन्नाजीवं अनाचारं पापमित्तं आगच्छतीति अनागामी, तस्स मग्गो अनागामिमग्गो, तेन दुस्सीलं कुसीतं हीनवीरियं कसला बोधिपक्खिया धम्मा सम्पयुत्तं चित्तं अनागामिमग्गचित्तं, अभि. ध. वि. टी. 95; - आपातं न उपेन्ति, मि. प. 276. सुख नपुं., तत्पु. स., अनागामीफलस्थ पुद्गल द्वारा अनाचार- पु.. निषे., तत्पु. स. [अनाचार], दुराचार, पापकर्म, संवेद्यमान सुख - नेक्खम्मसुखन्ति अनागामिसुखं, ध. प. दुष्कर्म - अनाचारं आचरति, महाव. 63; कथञ्हि नाम अट्ठ. 2.230.
सामणेरा एवरूपं अनाचारं आचरिस्सन्तीति, महाव. 99; अनागु त्रि., आगु का निषे. [अनागस्], दोषरहित, निर्दोष, अनाचारं आचरतीति अनेकप्पकारं कायवचीद्वारवीतिक्कम निरपराध, निष्पाप - अनागु झायामि असोचमानो, स. नि. करोति, पारा. अट्ठ. 2.178; दुविधो हि अनाचारो कायिको 1(1).144.
वाचसिको च, विसुद्धि 1.18; सब्बम्पि दुस्सील्यं अनाचारो, अनाघात त्रि., आघात का निषे.. ब. स. [अनाघात]. विसुद्धि 1.17; - क त्रि., निषे०, ब. स. [अनाचारक], प्रतिहिंसा-रहित, आघातविरहित, द्वेषरहित, व्यापादरहित आचारविहीन, चरित्रविहीन, बुरे आचरण वाला- अयं पुग्गलो परविनाशचिन्तारहित, विहिंसामुक्त मैत्रीचित्त वाला - मेत्तं अप्पटिपन्नको अनाचारको, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.671; नु खो मे चित्तं पच्चुपट्टितं सब्रह्मचारीसु अनाघातं. अ. -किरिया स्त्री., [अनाचारक्रिया], दुराचारकर्म, पापकर्म, नि. 3(2).66; चूळव. 409-410; अनाघातन्ति अशोभनकर्म - तं इत्थिं दिस्वा तस्सा अनाचारकिरियं .... आघातविरहितं, विक्खम्भनेन विहताघातन्ति अत्थो, अ. नि. ध. प. अट्ट, 1.359. अट्ठ. 3.309.
अनाचिक्खित त्रि., आचिक्खित का निषे. [अनाख्यात], अनाचरियक त्रि.. आचरियक का निषे., ब. स. [अनाचार्यक]. अकथित, अनुल्लिखित, ध्यान में नहीं आया हुआ, न कहा क. शा.अ. आचार्य से रहित, किसी आचार्य पर निर्भर न हुआ - तस्मा अनाचिक्खितो भगवता, मि. प. 121; एत्तकं रहने वाला, अपना मार्गदर्शन स्वयं प्राप्त करने वाला, एत्थ निक्खित्तन्ति अनाचिक्खितं. पे. व. अट्ठ. 176. स्वयंभू बुद्ध - बुद्धोति यो सो भगवा सयम्भू अनाचरियको. अनाचिण्ण त्रि., आचिण्ण का निषे. [अनाचीर्ण], आचरण में .., महानि. 344; अनाचरियकोति सयम्भूपदस्स अत्थविवरणं, न उतारा गया, व्यवहार में न लाया गया, अप्रयुक्त, अव्यवहृत यो हि आचरियं विना सच्चानि पटिविज्झति, सो सयम्भू नाम - अनाचिण्णं तथागतेन, महाव. 476; चूळव. 195.
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अनाजानीय
210
अनाथपिण्डिक
अनाजानीय त्रि., अजानीय का निषे. [अनाजानेय], ठीक से न जानने वाला, आज्ञा न मानने वाला, घटिया किस्म या नस्ल का - मयहि, भन्ते, पुब्बे अञतित्थिये परिब्बाजके अनाजानीयेव समाने आजानीयाति अमझिम्ह, म. नि. 2.33; अनाजानीयेति गिहिवोहारसमुच्छेदनस्स कारणं । अजाननके म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.32; - भोजन नपुं.. कर्म, स., घटिया किस्म के घोड़ों के लिये दिया गया भोजन - अनाजानीयभोजन भोजिम्ह, म. नि. 2.33; अनाजानीयभोजनन्ति कारणं अजानन्तेहि भजितब्बं भोजनं. म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.32. अनाजीवभूत त्रि., आजीवभूत का निषे., तत्पु. स., जीविकासाधन के रूप में अग्राह्य, जीविकोपार्जन का निषिद्ध साधन या उपाय- अनाजीवभूतेन परिभोगेन, जा. अट्ठ. 5.469. अनाणत्त त्रि., आणत्त का निषे. [अनाज्ञप्त], आज्ञा न पाया हुआ, अननुमोदित - अनज्झिट्टो वाति थेरेहि धम्म भणाही ति अनाणत्तो अनायाचितो च, महानि. अट्ठ. 270; - त्त नपुं.. भाव., अयाचितत्त्व, अप्रार्थितत्व - तेहि पन अनाणत्तत्ता पाराजिक, पारा. अट्ट, 1.269, द्रष्ट. आगे. अनाणापित त्रि., आणापित का निषे., तत्पु. स. उपरिवत् - अनज्झोसितोति अनाणापितो, न इच्छितो ति एके, महानि. अट्ठ. 155. अनातापी त्रि., आतापी का निषे., तत्पु. स. [अनातापी], अनध्यवसायी, अनुद्योगी, हीनवीर्य, अनुत्साही, निर्वीर्य, प्रबल अभ्युत्साह से रहित - अनातापी ... अनोत्तप्पी अभब्बो सम्बोधाय, स. नि. 1(2).175; अनातापीति यं वीरियं किलेसे आतपति, तेन रहितो, स. नि. अट्ट. 2.146; अनातापी अनोत्तापी सततं समितं कुसीतो हीनवीरियो ति वुच्चति, अ. नि. 1(2).15; अनातापीति निब्बीरियो, अ. नि. अट्ठ. 2.251. अनातुर त्रि., आतुर का निषे. [अनातुर]. कष्टरहित, आतुरता रहित, व्यग्रतारहित, शान्त, स्वस्थ, अनुद्विग्न - सुसुखं वत जीवाम, आतुरेसु अनातुरा, ध. प. 198; किलेसातुरेसु मनुस्सेसु निकिलेसताय अनातुरा, ध. प. अट्ट. 2.148; विजानन्ति च ये धम्म, आतुरेसु अनातुरा, थेरगा. 276; - ता स्त्री॰, भाव. [अनातुरता], आरोग्य, स्वस्थता, निश्चिन्तता - तत्थ आरोग्य नाम सरीरस्स चेव चित्तस्स च अरोगभावो अनातुरता, जा. अट्ठ. 1.350. अनाथ त्रि., नाथ का निषे., ब. स. [अनाथ], नाथरहित, संरक्षणरहित, असहाय, दयनीय, अभागा, बेचारा - अपविद्धा
अनाथा ते, स. नि. 1(1).75; अनाथाति अपतिवा, स. नि. अट्ठ. 1.104; तस्मिञ्च म ते विधवा अनाथा होन्ति, पे. व. अट्ठ. 55; - थागमन नपुं.. तत्पु. स. [अनाथागमन], अनाथ की भांति आगमन - वे पुत्ते चस्स अनाथागमनेन आगते दिस्वा गन्तवा राजूनं आचिक्खि, जा. अट्ठ. 7.273; - कालकिरिया स्त्री., ष. तत्पु. [अनाथकालक्रिया], अनाथ की मृत्यु, निस्सहाय का मरण, अनाथ की भांति मरण - अनाथसालाय अनाथकालकिरियं कत्वा निपन्नो, म. नि. अट्ट (मू.प.) 1(2).253; - भाव पु.. [अनाथभाव], असहायता का भाव, दैन्य, असहाय स्थिति, दीनता - करुणा, परदुक्खासहनरसा, ... दुक्खाभिभूतान अनाथभावदस्सनपदट्ठाना, ध. स. अट्ट, 237; - मनुस्स पु., [अनाथमनुष्य], असहाय मनुष्य, दीन-दरिद्र मनुष्य - अनाथसालायं निपन्ने अनाथमनुस्से दिस्वा, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).276; - मरण नपुं.. कर्म. स. [अनाथमरण], दुःखद मृत्यु, दुर्भाग्यपूर्ण मरण, (प्रायः मरति के साथ प्रयुक्त) - परेसं हत्थे मरणतो अरज्ञ अनाथमरणमेव वरतरं जा. अट्ठ. 2.158; - मान त्रि., अपने को दीन-दरिद्र मानने वाला - अनाथमानो उपगायति नच्चति, जा. अट्ठ. 5.15; अनाथमानोति निरवस्सयो अनाथो विय, जा. अट्ठ. 5.17; - वास पु.. अनाथवास], अनाथों की तरह निवास, असहाय जीवन, दरिद्र जीवन, अकिञ्चन की भांति जीवनवृत्ति - अनाथवासं वसिम्ह, पारा. अट्ठ. 1.58; - सरीर नपुं.. [अनाथशरीर], ऐसा मृत शरीर, जिसकी देखरेख करने वाला कोई नहीं हो, लावारिश मुर्दा - अनाथसरीरानि पटिजग्गन्ता विचरन्ति, महाव. अट्ट, 237; - साला स्त्री., तत्पु. स. [अनाथशाला], निराश्रित जनों के लिये विश्रामगृह, दरिद्रों का विश्रामस्थल - ... अनाथसालायं निपन्ने अनाथमनुस्से दिस्वा, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).276%; कपालहत्थो ... तस्मियेव नगरे अनाथसालायं वसति, पे. व. अट्ठ. 4. अनाथपिण्डिक पु.. व्य. सं. [बौ. सं. अनाथपिण्डद], क. भगवान् बुद्ध के शिष्य तथा श्रावस्ती नगर के निवासी एक प्रसिद्ध धनी व्यापारी सुदत्त का उपनाम, संभवतः अनाथों या दीनदरिद्रों को उदारतापूर्वक दान देने के कारण यह उपनाम प्राप्त हुआ - सुदत्तो अनाथपिण्डको, अभि. प. 437; दायकानं यदिदं सुदत्तो गहपति अनाथपिण्डिको, अ. नि. 1(1).36; दायको दानपति हुत्वा तेनेव गुणेन पत्थटनामधेय्यो अनाथपिण्डिको नाम अहोसि, अ. नि. अट्ठ. 1.285; निच्चकालं
ना
नाथरहित,
1(1).36; दायका
घाट
1285 निच्चकालं
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अनादर
211
अनादान
अनाथानं पिण्ड अदासि, तेन अनाथपिण्डिकोति सङ्घयं गतो, खु. पा. अट्ठ. 90; ख. पिता का नाम सुमनसेट्ठी, ज्येष्ठभ्राता का नाम सुभूतिथेर - सावत्थियं सुमनसेट्ठिस्स गेहे निब्बत्ति, सुभूतीतिस्स नाम अंकसु, अ. नि. अट्ठ. 1.173; ग. महाउपासिका विशाखा के साथ इनका उल्लेख, कभी-कभी सुभूति को महानाथपिण्डिक तथा सुदत्त को चुळअनाथपिण्डिक कहा गया है, जा. अट्ट, 1.152; ध. प. अट्ठ. 2.81; घ. पुञलखणदेवी का नाम इनकी अग्रमहिषी के रूप में प्राप्त, जा. अट्ठ. 2.337; ङ. राजगृह के एक श्रेष्ठी की बहन के साथ इनके विवाह का उल्लेख प्राप्त होता है, चूळव. 282; च. पुत्र का नाम काल, ध. प. अट्ठ. 2.108; छ. तीन पुत्रियों के नाम महासुभद्दा, चूलसुभद्दा एवं सुमनादेवी, ध. प. अट्ठ. 1.88: ज. बहू का नाम सुजाता, नतिनी का नाम खेमा, जा. अट्ठ. 2.287; झ. उनके मित्रों के रूप में उग्गसेट्ठी एवं काळकण्णि के नाम प्राप्त, ध. प. अट्ठ. 2.265 जा. अट्ठ. 1.348; ञ. पुण्णा एवं रोहिणी के नाम उनकी दासियों के रूप में उल्लिखित, थेरीगा. अट्ठ. 223; जा. अट्ठ. 1.242; ट. श्रावस्ती में भगवान बुद्ध को जेतवनविहार का दान तथा इस विहार में अनेक बुद्धोपदेशों के उल्लेख सम्पूर्ण त्रिपिटक के विभिन्न भागों में प्राप्त, जा. अट्ठ. 1.102; ठ. उसके रुग्ण होने का उल्लेख निकायों में मिलता है - अनाथपिण्डिको गहपति आबाधिको होति दुक्खितो बाळहगिलानो, म. नि. 3.309; ड. उनकी मृत्यु तथा तदुपरान्त देवपुत्र के रूप में तषित स्वर्ग में उनकी उत्पत्ति के उल्लेख भी प्राप्त - अथ खो अनाथपिण्डिको गहपति, ... कालमकासि तुसितं कायं उपपज्जि, म. नि. 3.313; - पुत्तकालवत्थु नपुं., ध. प. अट्ठ. में आगत एक कथानक का शीर्षक, जिसमें अनाथपिण्डिक के पुत्र काल का कथानक वर्णित है, ध. प. अट्ठ. 2.108-110; - वग्ग पु., स. नि. के एक वर्ग का शीर्षक, स. नि. 1(1)62-68; - सेट्ठिवत्थु नपुं., ध. प. अट्ठ. के एक कथानक का शीर्षक, जिसमें अनाथपिण्डिक से सम्बद्ध एक वृत्तान्त वर्णित है; ध. प. अट्ट. 2.7-9; - पिण्डिकोवादसुत्त म. नि. के एक सुत्त का शीर्षक, जिसमें अनाथपिण्डिक के महाप्रयाण के काल में बुद्ध-प्रवेदित उपदेश का वर्णन मिलता है, म. नि. 3.309315. अनादर' पु., आदर का निषे., तत्पु. स. [अनादर]. 1. असम्मान, अपमान, उपेक्षा, तिरस्कार - अवमानं तिरोक्कारो परिभवोप्यनादरो, पराभवोप्यवा , अभि. प. 172:2. प्रयोग
नियम के अनुसार अनादर में छट्ठी तथा सप्त. वि. होती हैं -- अनादरे च, क. व्या. 307; छट्ठी चानादरे, मो. व्या. 2.37; तस्स पस्सन्तस्सेवाति अनादरे सामिवचनं तस्मिं पस्सन्तेयेवाति अत्थो, सारत्थ. टी. 1.124; अनादरे हि इदं सामिवचनं, उदा. अट्ठ. 310. अनादर त्रि., ब. स. [अनादर], आदर-रहित, सम्मान का भाव न रखने वाला, अन्यों के प्रति सम्मान प्रकट न करने वाला; असम्मानित - उक्खित्तं भिक्खं ... अनादरं अप्पटिकारं अकतसहायं तमनुवत्तेय्य पाचि. 293; दुस्सीललुद्दा फरुसा अनादरा, सु. नि. 250; अनादराति इदानि न करिस्साम, विरमिस्साम एवरूपा ति एवं आदरविरहिता, सु. नि. 1.265; यतो च होति पापिच्छो अहिरीको अनादरो, इतिवु. 26; - ता स्त्री., भाव. [अनादरता], असम्मानभाव, तिरस्कारभाव, तिरस्क्रिया - सहधम्मिके वुच्चमाने ... विष्पटिकूलग्गाहिता ..... अनादरियं अनादरता अगारवता ... अयं वुच्चति दोवचस्सता, ध. स. 1332; अनादरस्स भावो अनादरियं, इतरं तस्सेव वेवचनं, अनादियनाकारो वा अनादरता, ध. स. अट्ठ. 415; - भाव पु.. [अनादरभाव], उपरिवत् - अनादरभावो अनादरियं विभ. अट्ठ. 451. अनादरिय नपुं., अनादर से निष्पन्न [अनादर्य], अनादर का भाव, असम्मानभाव, असावधानी - अनादरभावो अनादरिय वि. भ. अट्ठ. 451; अनादरियं नाम द्वे अनादरियानि, पाचि. 153; सो अनादरियं पटिच्च करोति येव, पाचि. 153; ध. स. 1332; अनादरियेन वा अजाननेन वा, मि. प. 248; - रिक त्रि., अनादरिय से व्यु. [अनादर्यक]. उपरिवत् - पापमित्तसंसग्गेन पन ... अनादरिको हुत्वा .... पे. व. अट्ठ. 6, पाठा. अनादरियको; - कथा स्त्री., विन. वि. के एक खण्डविशेष का शीर्षक, 1604-1609; - ता स्त्री॰, भाव., अनादरभाव, असम्मानभाव, तिरस्कारभाव - सहधम्मिके वुच्चमाने ... अनादरियं अनादरियता ... अयं वच्चति दोवचस्सता, पु. प. 126, पाठा. अनादरियता.. अनादान त्रि., आदान का निषे., ब. स., इच्छा न करनेवाला, वीततृष्ण, स्कन्धों के प्रति रागमुक्त, आत्मग्राह से मुक्त मनोदशा वाला, कामनारहित या निष्काम - वीततण्हो अनादानो, निरुत्तिपदकोविदो, ध, प. 352; अनादानोति खन्धादीस निग्गहणो, ध. प. अट्ट. 2.321; वीततण्हो अनादानो, सतो भिक्खु परिब्बजे, जा. अट्ठ. 4.316; पञ्चन्नं खन्धानं अहं ममन्ति गहितत्ता सादानेस तस्स गहणस्स अभावेन अनादानं, ध. प. अट्ठ. 2.386.
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अनादिकाल
212
अनानुगिद्ध अनादिकाल पु./त्रि., स. प. के पू. प. के रूप में ही प्रायः अनादीनवदस्सावी त्रि, [अनादीनवदर्शी], उपरिवत् - प्रयुक्त [अनादिकाल], क. काल की वैसी स्थिति, जिसके अनादीनवदरसावी, सो दुक्खा न हि मुच्चति, थेरगा. 730प्रारम्भिक छोर का पता न हो, सुदीर्घकालावधि, ख. निषे०, 731; अनादीनवदस्सावीति यो ... इट्ठानिढेसु रूपायतनेसु ब. स., वह, जिसके लिये काल का कोई प्रारम्भिक क्षण .... यथारुचि पवत्तन्तं चक्खुन्द्रियं अनिवारयं ... आदीनवं विद्यमान न हो, आदिरहित, नित्य, शाश्वत, अनादिकाल दोसं न पस्सति, थेरगा. अट्ठ. 2.234. से चला आ रहा, - ता स्त्री., भाव., शाश्वतता, नित्यता, अनादीनवदस्सिता स्त्री., भाव., निषे०, तत्पु. स. चिरन्तनता - तेसं विसयेसु ... सत्ता विपुलविसयताय [अनादीनवदर्शिता], कामसुखों में आनन्द एवं कुशलता को अनादिकालताय च ..., उदा. अट्ठ. 297; - पवत्त त्रि., देखने की मनःस्थिति - ... कामेस अनादीनवदस्सितं अनादिकाल से चला आ रहा, अनादिकाल से प्रवर्तित - सब्बाकारतो विदित्वा ..., उदा. अट्ठ. 297. अनादिकालपवत्तं संसारचक्क, सु. नि. अट्ठ. 2.147; अनादेय्यवाचा स्त्री., कर्म. स., अग्राह्यवाणी, अस्वीकार्य अनादिकालपवत्ते दियड्डसहस्सकिलेसे .... उदा. अट्ठ. वाग्व्यवहार - यो सब्बलहुसो सम्फप्पलापरस विपाको, 273; - भावित त्रि. अनादिकाल से भावित - मनुस्सभूतस्स अनादेय्यवाचासंवत्तनिको होति, अ. नि.
अनादिकालभावितेहि किलेसेहि आहितं, उदा. अट्ठ. 156. 3(1).79. अनादिण्ण त्रि., आदिण्ण का निषे. [अनादीर्ण], नहीं फटा । अनाधानगाही त्रि., आधानगाही का निषे., तत्पु. स. हुआ, अविदीर्ण, अखण्डित - अच्छिन्नं वा अनादिण्णं अनाधानग्राही], अपने किसी विशेष मत पर आग्रह न धारेन्तस्स, तिचीवरं विन. वि. 47.
करने वाला, अनाग्रही- न सन्दिविपरामासी होति न अनादिन्नत्त नपुं॰, भाव., अनादिन्न से व्यु. [अनादत्तत्व], आधानग्गाही, दी. नि. 3.34; पाठा. अनाधानग्गाही; आधानं नहीं ग्रहण करने की स्थिति या अवस्था - विसमं अनादिन्नत्ता वुच्चति दळ्हं सुट्ट ठपितं, तथा कत्वा गण्हातीति समाधि, पटि. म. 44.
आधानग्गाही, दी. नि. अट्ठ. 3.21; भिक्ख असन्दिद्विपरामासी अनादिमन्तु त्रि., [अनादिमत्]. प्रारम्भ-रहित, नित्य, शाश्वत, होति अनाधानग्गाही सुप्पटिनिस्सग्गी, म. नि. 1.137. चिरन्तन - अनादिमतिसंसारे, उदा. अट्ठ. 318.
अनाधार त्रि., आधार का निषे०, ब. स. [अनाधार]. अनादियन नपुं, आदियन का निषे०, तत्पू. स., नहीं लिया आधाररहित, निराधार, आश्रयरहित, बेसहारा - कुम्भो जाना, अस्वीकरण, अग्रहण, तिरस्करण- अनादियनाकारो अनाधारो सुप्पवत्तियो होति, स. नि. 3(1).20; पत्ता अज्झोकासे वा अनादरता, ध. स. अट्ठ. 415; - नाकार पु., परामर्श के अनाधारा निक्खित्ता, चूळव. 231. अस्वीकरण की स्थिति - अनदायनाति अनादियनाकारो, अनानत्तकथिक त्रि.. नानत्तकथिक का निषे., तत्पु. स. विभ. अट्ठ, 471; - ता स्त्री., भाव., अस्वीकरण का भाव, [अनानात्वकथिक], बात को सीधे तौर पर कहने वाला, तिरस्क्रिया, उपेक्षाभाव - बुद्धादीनं वचनं अनादियनताय, घुमा-फिरा कर बात न करने वाला - अनानाकथिकोति सु. नि. अह. 2.212; - ना अनादियन का स्त्री., उपरिवत् अनानत्तकथिको होति. अ. नि. अट्ठ. 3.195... - अनद्दा ति अनादियना, विभ. अट्ठ. 471; - भाव पु., भाव., अनानाकथिक त्रि., निषे., तत्पु. स. [अनानाकथिक], बात उपरिवत् - वन्तोति इदं पुन अनादियनभावदरसनवसेन, को घुमा-फिरा कर न कहने वाला, सीधे रूप में कहने पारा. अट्ठ. 2.81.
वाला, निरर्थक बात न कहने वाला - सजगतो खो पन अनादीनवदस्स त्रि., आदीनवदस्स का निषे०, तत्पु. स. अनानाकथिको होति अतिरच्छानकथिको, अ. नि. 3(1).4; [अनादीनवदर्शक], विपत्ति या संकट को न देखने वाला, अनानाकथिकेनाति नानाविधं तं तं अनत्थकथं अकथेन्तेन, दोषरहितता देखने वाला, किसी तरह का दोष न परि. अट्ठ. 208. समझने वाला - ... अनादीनवदस्सो पुराणदुतियिकाय अनानुगिद्ध त्रि., अनुगिद्ध का निषे०, तत्पु. स. [अनानुगृद्ध तिक्खत्तु मेथुनं धम्म अभिविआपेसि, पारा. 19; या अनानुगिद्ध], लोभरहित, लिप्सारहित, आसक्तिरहित, अनादीनवदस्सोति यं भगवा इदानि सिक्खापदं पञपेन्तो निरासक्त - निब्बानाभिरतो अनानुगिद्धो, सु. नि. 86; आदीनवं दस्सेस्सति, तं अपस्सन्तो अनवज्जसञी हत्वा, अनानुगिद्धोति कञ्चि धम्म तण्हागेधेन अननुगिज्झन्तो, सु. पारा. अट्ठ. 1.164.
नि. अट्ठ. 1.129.
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अनानुपस्सी
213
अनापाद अनानुपस्सी त्रि., अनुपस्सी का निषे., तत्पु. स. या अपराधों से सर्वथा मुक्त (भिक्षु) - सुद्धानं भिक्खून [अनानुपश्यिन्], शा. अ. उचित विचार-विमर्श न करने अनापत्तिकानं महाव. 143; - कर पु, आपत्ति या अपराध को वाला, अनुचिन्तन न करने वाला, ला. अ. रूप आदि धर्मो उत्पन्न न करने वाला - अन्तोद्वादसहत्थट्ठो, अनापत्तिकरो में 'मैं' और 'मेरे' को न देखने वाला - उद्धं अधो सब्बधि सिया विन. वि. 46; एक दुस्ससाणिद्वारमेव अनापत्तिकर विप्पमुत्तो, अयंहमस्मीति अनानुपस्सी, उदा. 157; .... पारा. अट्ठ. 1.225; - दिहि त्रि., निषे., ब. स., आपत्ति को अनानुपस्सीति ... रूपवेदनादीसु अयं नाम धम्मो अहमस्मीति अनापत्ति माननेवाला - तस्सा आपत्तिया अनापत्तिदिष्टि दिट्ठिमानमञनावसेन एवं नानुपस्सति, उदा. अट्ठ. 294. होति. महाव. 457; तस्सा आपत्तिया अनापत्तिदिट्ठि अहोसि. अनानुपुट्ठ त्रि., अनुपुट्ठ का निषे., तत्पु. स. [अनानुपृष्ठ]. जा. अट्ठ. 3.429; - बहुल त्रि.. ब. स., अनपराधी प्रकृति क. वह, जिस से प्रश्न नहीं किया गया - यो अत्तनो वाला, निरपराध स्वभाव वाला - एकच्चो भिक्ख अधिच्चापत्तिको सीलवतानि जन्तु, अनानुपुट्ठोव परेस पाव, सु. नि. 788; होति अनापत्तिबहुलो, म. नि. 2.115; - भाव पु., अनानुपुट्ठोति अपुच्छितो, सु. नि. अट्ठ. 2.216; ख. पुनः निरपराधता, निर्दोषता, निष्पापता - वार पु., पारा. अट्ठ के पुनः पूछा गया - यो अत्तनो दुक्खमनानपट्टो, पवेदये जन्तु प्रथम भाग के एक खण्ड का शीर्षक, पारा. अट्ठ. 1.214अकालरूपे, जा. अट्ठ. 4.202.
216; - सञी त्रि., आपत्ति या अपराध के प्रति संज्ञावान अनानुयायी त्रि., अनुयायी का निषे., तत्पु. स. [अनानुयायी], न रहनेवाला - यो च आपत्तिया अनापत्तिसञी. अ. नि. 1(1).102 क. शा. अ. अनुगमन न करने वाला, ख, ला. अ. अनापन्न त्रि., आपन्न का निषे०, तत्पु. स. [अनापन्न]. विषयभोगों के प्रति अनासक्त होकर कामभोगों में प्रवेश न अप्राप्त, अप्रभावित, अस्पृष्ट, अछूता - अनापन्नो वा सङ्घादिसेसं करने वाला, अनासक्त, राग, द्वेष एवं मोह से मुक्त - धम्म, अ. नि. 1(2).277; अनुस्सुकाति कत्थचि उस्सुक्क साविमोक्खे परमे विमुत्तो, तिट्टेय्य सो तत्थ अनानुयायी, अनापन्ना, अ. नि. अट्ठ. 3.179. सु. नि. 1078; अनानुयायीति सो पुग्गलो तत्थ अनापर/नापर त्रि., अपर का निषे., ब. स., वह, जिससे आकिञ्चआयतनब्रह्मलोके अविगच्छमानो तिट्ठय्य, सु. नि. अधिक उत्कृष्ट कुछ भी न हो, अतिशय श्रेष्ठ, अद्वितीय, अट्ठ. 2.284; अनानुयायीति ... अरज्जमानो अदुस्समानो अनुपम - कथं कथा च यो तिण्णो विमोक्खो तस्स नापरो, अमुरहमानो अकिलिस्स - मानोति, चूळनि. 95.
सु. नि. 1095; अकिञ्चनं अनादानं, एतं दीपं अनापरं सु. अनानुरुद्ध त्रि., अनुरुद्ध का निषे [अनानुरुद्ध], वह, जो किसी के नि. 1100; अनापरन्ति अपरपटिभागदीपविरहितं, सेट्ठन्ति प्रति राग या आसक्तिभाव न रखता हो, रागद्वेषविरहित, उपेक्षावान् वुत्तं होति, सु. नि. अट्ठ. 2.289. - फस्सद्वयं सुखदुक्खे उपेक्खे, अनानुरुद्धो अविरुद्ध केनचि, अनापाथ त्रि., आपाथ का निषे., ब. स. [अनापाथ], पहुंच स. नि. 2(2).77; अनानुरुद्धो अविरुद्धो केनचीति केनचि सद्धिं के बाहर, पकड़ में न आने वाला - अनिदस्सनो ति नेव अनुरुद्धो न विरुद्धो भवेय्य, स. नि. अट्ठ. 3.27.
चक्खुविआणस्स अनापाथो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).7; अनानुलोम त्रि., अनुलोम का निषे., तत्पु. स. [अनानुलोम], अजेसं अनापाथो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).307; - गत विपरीत, अनुचित, अनुपयुक्त, विलोम - हीनं कायं उपपन्ना त्रि., इन्द्रियों द्वारा अग्राह्य, पकड़ के बाहर - अनापाथगतो. भवन्तो, अनानुलोमा भवतूपपत्ति, दी. नि. 2.201.
भिक्खवे, लुद्दस्स, म. नि. 1.234; अनापाथगता रूपादयोपि, अनापज्जन नपुं.. आपज्जन का निषे., तत्पु. स. ध. स. अट्ठ. 117; - गतत्त निषे., भाव. [-गतत्व]. [अनापदयमान], अप्राप्ति, किसी अन्य के साथ स्थिति का अग्राह्यत्व, इन्द्रियगोचरता का सर्वथा अभाव - तं रूपानं न होना - अपरितस्सायाति तासं अनापज्जनत्थाय, अ. नि. अनापाथगतत्तापि अाविहितस्सपि न होति, म. नि. अठ्ठ. अट्ठ. 3.183.
(मू.प.) 1(2).128. अनापत्ति स्त्री., आपत्ति का निषे. [अनापत्ति], अपराधराहित्य, अनापाद त्रि., ब. स., अविवाहित, अपरिणीत, नहीं ले जाया निर्दोषता, अदण्ड्यता, भिक्षु की विनयविरुद्ध पापकर्मों से गया - बहूसु वत सन्तीसु, अनापादासु इस्थिसु, जा. अट्ठ. 4. रहित होने की स्थिति, निरपराधता - अनापत्ति आपत्तीति 158; अनापादासूति ... आपादानं आपादो, परिग्गहोति दीपेति, महाव. 476; अनापत्ति, भिक्खवे, असादियन्तिया ति. अत्थो, नत्थि आपादो यासं ता अनापादा, अञहि पारा. 40; - क त्रि, निषे०, ब. स. [अनापत्तिक], आपत्तियों अकतपरिग्गहासूति अत्थो, जा. अट्ठ. 4.160.
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अनापुच्छा
214
अनामिका
अनापुच्छा अ., आ + vपुच्छ के पू. का. कृ. का निषे. अथवा लोकस्मिहि अनमतवानं असुसानं नाम नत्थीति अत्थो, आपुच्छा के निषे. का संक्षिप्तीकृत तृतीयान्त रूप, बिना पूछे तदे.. ही, बिना ध्यान दिये ही, उपेक्षापूर्वक - न उपज्झायं । अनामन्त/अनामन्ता अ., आ + vमन्त के पू. का. कृ. का अनापुच्छा एकच्चस्स पत्तो दातब्बो, महाव. 55; न, भिक्खवे, निषे. [अनामन्त्र्य], अनुमति प्राप्त न करके, परामर्श या उपज्झाये अनापुच्छा आवरणं कातब्ब, महाव. 107; सो अनुमोदन प्राप्त न करके, बिना पूछे ही, बिना आज्ञा लिए पुग्गलो अनापुच्छा पक्कमितब्बं म. नि. 1.152.
ही- अनामन्त कतं कम्म, तं पच्छा अनुतप्पती ति, जा. अठ्ठ. अनापुच्छित त्रि., आ + पुच्छ के भू. क. कृ. का निषे. 7.157; अनामन्तोति रहो नन्दादेविया सद्धि मन्तेन्तेपि मयि [अनापृष्ट], बिना पूछा हुआ, नहीं कहा गया, बिना अनुमति अजानापेत्वा सहसाव पविसति, जा. अट्ठ. 6.307. वाला - अनापुच्छिते अपुच्छितसा पक्कमति, पाचि. 373. ___अनामन्तचार पु., अनुमति प्राप्त किये बिना भिक्षाटन - अनाबाध' पु., आबाध का निषे०, तत्पु. स. [अनाबाध], अत्थतकथिनानं वो, भिक्खवे, पञ्च कप्पिस्सन्ति -
बाधा का अभाव, कष्ट का अभाव, सौभाग्य, सुखद स्थिति- अनामन्तचारो, असमादानचारो, महाव. 331; तत्थ ..... डंसमकसादीहि गुन्नं अनाबाधं सु. नि. अट्ठ. 1.25. अनामन्तचारोति याव कथिनं न उद्धरियति, ताव अनामन्तेत्वा अनाबाध त्रि., निषे., ब. स. [अनाबाध], निर्बाध, बाधारहित, चरणं कप्पिस्सति, महाव, अट्ठ. 366. विघ्नरहित, अनुत्पीड़ित - अक्खतन्ति वा अनाबाधं अनुप्पीळं अनामय त्रि., आमय का निषे., ब. स. [अनामय]. क. अनन्तरायेनाति अत्थो, वि. व. अट्ठ. 298.
स्वस्थ, शोकरहित, दुःखरहित, नीरोग - ओदनं वा अनामयो, अनाभतोदक त्रि., ब. स. [अनाहतोदक], वह, जो जल उत्त. वि. 945; सा पुचकामा सुखिनी अनामया, महाव. नहीं लाया है - अभिन्नकट्ठोसि अनाभतोदको, अहापितग्गीसि 385; अनामयाति अरोगा, महाव. अट्ठ. 385; ख. नपुं.. असिद्धभोजनो, जा. अट्ठ. 5.192.
स्वास्थ्य, आरोग्य - कुसलानामयारोग्यं, अभि. प. 331; अनाभोग पु., आभोग का निषे., तत्पु. स. [अनाभोग], क. कुसलञ्चेव नो राज, अथो राज अनामयं जा. अट्ठ. 5.316; रुचि का अभाव, ध्यान का अभाव, चित्तविक्षेप - यस्मा च तत्थ कुसलन्ति आरोग्य, इतरं तस्सेव वेवचनं, जा. अट्ठ. हितुपसंहारअहितापनयनसम्पत्तिमोदनअनाभोगवसेन चतुब्बि- 4.386. धोयेव सत्तेसु मनसिकारो, ध. स. अट्ठ. 240; ख. त्रि., भोग अनामसित त्रि., आमसित का निषे., तत्पु. स. [अनामृष्ट], न करने वाला, अनासक्त - अनावट्टेन्तस्स होति ... क. अस्पृष्ट, नहीं छुआ गया, ख. वह, जो विचाराधीन नहीं अनाभोगस्स होति, कथा. 286; अनावट्टिनो अनाभोगो न है, विचार का अविषय - पुब्बे अनामसितखेत्तविसेसं अत्तनो होति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).374.
दानमयं पुझं वत्वा ..., वि. व. अट्ठ. 91. अनामक त्रि., ब. स. [अनामक], नामरहित, बिना नाम ___ अनामसितब्ब त्रि., आ + /मस के सं. कृ. का निषे. वाला, बेनाम - यस्स नामं न जानन्ति तम्पि अनामको [अनाम्रष्टव्य], अविचारणीय, अपरामश्य, विवेचन न करने नामाति वदन्ति, ध. स. अट्ठ. 413-414.
योग्य - अनामासानि आमसिन्ति अनामसितब्बढ़ानानि आमसिं अनामट्ठ त्रि., आमट्ठ का निषे०, तत्पु. स. [अनामृष्ट], जा. अट्ठ. 2.299. अभुक्त, किसी दूसरे के द्वारा अगृहीत, नहीं खाया हुआ - अनामास त्रि., आमास का निषे., तत्पु. [अनामृष्य], परामर्श गोणा अनामट्ठतिणं खादिस्सन्ति, मनुस्सानं अनामटुं सूपेय्यपण्णं न करने योग्य, विवेचन के अयोग्य - अहं कपिस्मि भविस्सति, जा. अट्ठ. 1.107; अपिच अनामपिण्डपातो ... दुम्मेधो, अनामासानि आमसिं, जा. अट्ठ. 2.299; - दुक्कट इस्सरस्सापि दातब्बो, पारा. अट्ठ. 2.61 (अपब्बजितस्स नपुं, [अनामृष्यदुष्कृत], प्रतिषिद्ध धर्म के सेवन से उत्पन्न हत्थतो लद्धो अत्तना अञ्जन वा पब्बजितेन अग्गहितअग्गो दोष, पाचित्तिय के अन्त. विशेष प्रकार का अपराध या पिण्डपातो, सारत्थ. टी. 2.244).
आपत्ति - केवलं लोलताय गण्हन्तस्स अनामासदुक्कट सारस्थ. अनामत/अनमत त्रि., आमत का निषे., तत्पु. स. [अनामृत], टी. 1.64. मृत्यु का अविषयीभूत, न मरने वाला, अमृत्यु का स्थल - अनामिका स्त्री., [अनामिका], अनामिका, कानी तथा बिचली अस्मिं पदेसे दवानि, नत्थि लोके अनामतं, जा. अट्ठ. 245; अंगुली के बीच की अंगुली, बिना नाम वाली एक अंगुली - तत्थ अनामतन्ति मतट्टानं ... अनमत न्तिपि पाठो, मज्झिमानामिका चापि कनिट्ठा ति कमा सियं अभि. प. 266.
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अनामिसगरु
215
अनाराधक
02
मर
अनामिसगरु त्रि., लाभ-निरपेक्ष - अनामिसगरु हुत्वा धम्म
देसेय्य पण्डितो, सद्धम्मो. 521. अनायक त्रि., नायक का निषे.. ब. स. [अनायक]. नायकरहित, पथ प्रदर्शक विहीन, निर्देशकविहीन - उद्धरन्तो महादुग्गा, विप्पनढे अनायके, अप. 2.16. अनायतन नपुं., आयतन का निषे०, तत्पु. स. [अनायतन], अनुपयुक्त स्थल, अविहित क्षेत्र - पण्डिता अनायतनेपि वीरियं अकसु, जा. अठ्ठ. 1.178; 1.180; अनत्थकुसलेनाति अनत्थे अनायतने कुसलेन, जा. अट्ठ. 1.244; अनायतनं वुच्चति लाभयससुखानं अनाकरो दुस्सील्यकम्म, जा. अट्ठ. 5.119; - भूत त्रि., स्वभाव से ही अनाचार कर्म करने वाला, स्वभाव से ही दुराचारी, दुराचारी प्रकृति वाला - अनायतनसीलस्साति ... दुस्सील्यकम्मेन समन्नागतस्स, अनायतनभूतमेव दुस्सीलपुग्गलं सेवन्तस्स, जा. अट्ट. 5.119. अनायस त्रि., निषे., ब. स. [अनाश्रय], सुखविरहित, अभागा, अयोमय नरकतुल्य, सुख की उत्पत्ति के लिये अनुपयुक्त - उज्जङ्गलं तत्तमिवं कपालं, अनायसं परलोकेन तुल्यं, वि. व. 1232; अनायसन्ति नत्थि एत्थ आयो सुखन्ति अनायं, ततो एव जीवितं सीयति विनासेतीति अनायसं, अथ वा न आयसन्ति अनायसं वि. व. अट्ट, 285. अनायाचित/अयाचित त्रि., आयाचित अथवा याचित का निषे., तत्पु. स. [अनायाचित], अप्रार्थित, अयाचित, वह, जिसकी याचना न की गयी हो, अनभ्यर्थित - अनानपट्ठोति अपट्टो अपुच्छितो अयाचितो अनज्झसितो अपसादितो, महानि. 48; अनग्झिट्टो वाति थेरेहि धम्म भणाही ति अनाणत्तो अनायाचितो च, महानि. अट्ठ. 270. अनायास त्रि., आयास का निषे., तत्पु. स. [अनायास]. आयास-विहीन, दुःख-रहित - उपसन्तो अनायासो, थेरगा. 10083; अप्पकोधो अनायासो, अप. 1.344. अनायुस्स त्रि., आयुस्स का निषे०, तत्पु. स. [अनायुष्य], दीर्घायु को प्रदान न करनेवाला, दीर्घ जीवन प्रदान न करने वाला, आयु-उपच्छेदक - पञ्चिमे, भिक्खवे, धम्मा अनायुस्सा, अ. नि. 2(1).136; अनायुस्साति आयुपच्छेदना, न आयुववना, अ. नि. अट्ठ. 3.47. अनायूह त्रि., आयूह का निषे., तत्पु. स. [बौ. सं. अनायूह/ अनाव्यूह], प्रयत्नरहित, प्रयासरहित, प्रयत्न न करने वाला, वह, जिसके विषय में प्रयास नहीं किया गया है - अप्पतिटुं अनायूह, तिण्णं लोके विसत्तिकान्ति, स. नि. 1(1).2.
अनायूहन नपु., आयूहन का निषे., तत्पु. स. [अनायूहन/अनाव्यूहन], अप्रयास, प्रयासरहित्य, प्रयत्नाभाव, अध्यवसायरहित स्थिति - आयूहने आदीनवं दिस्वा अनायूहने चित्तं पक्खन्दति, पटि. म. 387; अकरणाति अनायूहनेन, अ. नि. अट्ठ. 2.196. अनारक्ख पु., आरक्ख का निषे., तत्पु. स. [अनारक्ष], क. आरक्षा का अभाव, असंवर, असंरक्षण - या इमेसं छन्न इन्द्रियानं अगुत्ति अगोपना अनारक्खो असंवरो, ध. स. 1352; इमेसं छन्नं इन्द्रियानं या अगुत्ति या अगोपना यो अनारक्खो यो असंवरो, अकथनं, अपिदहनन्ति अत्थो, ध. स. अट्ठ. 421; पु. प. 127; ख. त्रि., निषे०, ब. स., असुरक्षित, असावधान, असचेष्ट, अजागरूक - ... मुट्ठस्सतीनं अनारक्खानं विहरतं न होति पच्चत्तं सहधम्मिको समणवादो, अ. नि. 1(1).203. अनारतं अ. [अनारत], लगातार रूप में, अनवरत रूप में, अनवच्छिन्न रूप में - सततं निच्चमविरतानारतसन्ततमनवरतं च धुवं, अभि. प. 41. अनारद्ध त्रि., आरद्ध का निषे., ब. स. [अनारब्ध], वह, जिसका प्रारम्भ अभी तक नहीं हुआ है, अनागत, भविष्य, भावी - अनारखे अत्थे, मो. व्या. सू. 6.2 पर वण्णना.. अनारम्भ' त्रि., आरम्भ का निषे, ब. स. [अनारम्भ], हानि, भय तथा संकट से रहित -- तेहि भिक्खूहि वत्थु देसेतब्बअनारम्भं सपरिक्कमनं पारा. 229; सारम्भ अनारम्भन्ति सउपद्दवं अनुपद्दवं, पारा. अट्ठ. 2.141. अनारम्भ' पु., निषे. तत्पु. स. [अनारम्भ], कर्म का अप्रारम्भ, आरम्भ-रहित अवस्था अर्थात् निर्वाण - सब्बारम्भं पटिनिस्सज्ज, अनारम्भे विमुत्तिनो, सु. नि. 750; अनारम्भे विमुत्तिनोति अनारम्भे निब्बाने विमुत्तरस, सु. नि. अट्ठ. 2.203. अनारम्मण त्रि., आरम्भण का निषे०, ब. स. [अनालम्बन], आलम्बन-रहित, रूप, शब्द, गन्ध, रस, स्पृष्टव्य एवं धर्म नामक छ: प्रकार के चित्त के विषयीभूत आलम्बनों से रहित, ऐसे धर्म, जो स्वयं में चित्त के आलम्बन हैं परन्तु जिनके अपने कोई आलम्बन नहीं है- रूपञ्च निब्बानञ्च अनारम्मणा, ध. स. 1422; नत्थि एतेसं आरम्मणन्ति अनारम्मणा, ध. स. अट्ठ. 96; सब्बं रूपं न हेतु ... अव्याकतं, अनारम्मणं, विभ. 14; अरूपधम्मानं विय कस्सचि आरम्मणस्स अग्गहणतो नास्स आरम्मणन्ति अनारम्मणं, अभि. ध. वि. टी. 180. अनाराधक त्रि., आराधक का निषे., तत्पु. स. [अनाराधक]. भिक्षुओं के मन को सन्तुष्ट न कर सकने वाला, परीक्ष्यमाण
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अनाराधन
216
अनालोक प्रव्रजित - कथञ्च, भिक्खवे, अतिथियपुब्बो अनाराधको अनालय' त्रि., आलय का निषे०, ब. स. [अनालय], शा. होति, महाव. 88.
अ. बेघर, बिना घर वाला, ला. अ. स्वच्छन्द, इच्छारहित, अनाराधन त्रि., आराधन का निषे, ब. स. [अनाराधन], असन्तोषप्रद, तृष्णारहित, अनासक्त (निर्वाण)- अनामयाति ... तं लभित्वा अशोभन, अरुचिकर, अनुपयुक्त, अनुचित - येन अनाराधकम्मेन अअत्थ अनालया हुत्वा वसामी ति, जा. अठ्ठ. 3.228; मोक्खो अज्ज मं रज्जम्हि त्वं उदस्सये जा. अट्ट. 5.24.
निरोधो निब्बानं - सन्तं सच्चमनालयं, अभि. प.6; ख. अनाराधनीय त्रि., आराधनीय का निषे., तत्पु. स. अमहत्वाकांक्षी, निरपेक्ष, निराकांक्ष - यथारह अदा चेव [अनाराधनीय], असफल, अनुमोदन न करने योग्य, समर्थन ठानन्तरं अनालयो, चू. वं. 42.42; 46.4. न करने योग्य, स्वीकार न करने योग्य - इदं ... अनालय' पु., आलय का निषे., तत्पु. स. [अनालय], सङ्घातनिकं अञतित्थियपुब्बस्स अनाराधनीयस्मि महाव. अनासक्ति, अनागारिकता, निर्वाण - यो तस्सा येव तण्हाय 89; मनुस्सभूतो वा एस बुद्धभूतस्स कायवचीद्वारे किं असेसविरागनिरोधो, चागो, पटिनिस्सग्गो, मुत्ति, अनालयो. अनाराधनीयं पस्सिस्सति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).275. महाव. 14; म. नि. 3.300; ओकं वुच्चति आलयो, अनोक अनारुळह त्रि., आ + रुह के भू. क. कृ. का निषे०, वुच्चति अनालयो, आलयतो निक्खमित्वा अनालयसवातं [अनारूढ], अप्रविष्ट, अगृहीत, नहीं किया गया, अप्राप्त -- निब्बानं पटिच्च, ध. प. अट्ठ. 1.338; - गामी त्रि., तिस्सो पन सङ्गीतियो अनारुळ्हं धातुकथा आरम्मणकथा [अनालयगामिन्], निर्वाणाभिमुख, निर्वाण तथा अनासक्ति ...., स. नि. अट्ट, 2.177; - पुब्ब त्रि.. ब. स. [अनारूढ़पूर्व], की अवस्था की ओर जाने वाला - अनालयञ्च वो भिक्खवे, पूर्वकाल में प्राप्त न किया हुआ अथवा पूर्वकाल में अगृहीत देसेस्सामि अनालयगामिञ्च मग्गं. स. नि. 2(2).343; - - नेक्खम्मपटिपदं अनारुळ्हपुब्बानं अनेककिच्चपसुतानं. चार/चारी [अनालयचारिन], अनासक्त-जीवन जीने वाला, विसुद्धि. 1.131.
अपरिग्रही - अनोकसारिन्ति अनालयचारिध. प. अट्ट, 2.383. अनारोचना स्त्री., आरोचना का निषे., तत्पु. स., सूचना का अनालस्स/अनालस्य नपुं., आलस्य का निषे., तत्पु. स. अभाव, सङ्घ द्वारा ज्ञप्ति का अतिक्रमण, अनुद्घोषणा, उद्घोषणा [अनालस्य], वीर्य, उद्योग, अध्यवसाय, पराक्रम - ... दस का परित्याग - सहवासो, विप्पवासो, अनारोचना-इमे धम्मा आहारा - उठानं अनालस्यं भोगानं आहारो, अ. नि. ... तयो पारिवासिकस्स भिक्खुनो रत्तिच्छेदाति, चूळव. 82; 3(2).113; अनालस्यछेककुसलभावसङ्घातं दक्खं नाम साधु, अनारोचनाति आगन्तुकादीनं अनारोचना, चूळव. अट्ठ. जा. अट्ठ. 3.411. 14.
अनालाप पु., आलाप का निषे.. तत्पु. स. [अनालाप]. अनालपनता स्त्री॰, भाव., आलपनता का निषे., तत्पु. स. असम्भाषण, सम्भाषण का अभाव, संवादविहीनता, बात-चीत [अनालपनता], संवादविहीनता, संवादाभाव, अनुकूल बनाने का अभाव - अनालापो तेसं अञम ही ति, मि. प. 57; की असमर्थता - इति हिदं मारस्स च अनालपनताय ब्रह्मनो । अनालापो, आनन्दाति, दी. नि. 2.106. च अभिनिमन्तनताय..., म. नि. 1.415; अनालपनतायाति अनालिन्दक/अनाळिन्दक त्रि., आलिन्दक का निषे., ब. अनुल्लपनताय, म. नि. अट्ठ.(मू.प.) 1(2).308.
स. [अनालिन्दक], दरवाजा के सामने वाली चौकोर जगह अनालम्ब त्रि., आलम्ब का निषे०, ब. स. [अनालम्ब]. से रहित, चबूतरा से रहित, ओसारा-रहित - तेन खो पन आधार-रहित, आलम्बन-रहित, बेसहारा - अप्पतिढे अनालम्बे, समयेन विहारा अनाळिन्दका होन्ति अप्पटिस्सरणा, चूळव. को गम्भीरे न सीदति, सु. नि. 175; तस्मिञ्च अप्पतिढे 279; ओसारकन्ति अनाळिन्दके विहारे वंसं दत्वा ततो दण्डके अनालम्बे गम्भीरे अण्णवे को न सीदतीति असेक्खभूमि ओसारेत्वा कतछदनपमुखं चूळव. अट्ठ. 62.. पुच्छति, सु. नि. अट्ठ. 1.183; अप्पतिढे अनालम्बे, गिरिदुग्गस्मि अनालुलित/अलुलित त्रि., आलुलित का निषे., तत्पु. स. पापतं, जा. अट्ठ. 5.65; अनालम्बेति आलम्बितब्बट्ठानरहिते, [अनालुलित], अक्षुब्ध, अकम्पित, नहीं हिलाया हुआ, इधरजा. अट्ठ. 5.68; अप्पतिद्वं अनालम्बं, दुत्तरं सीघवाहिनं, अप. उधर न कंपाया हुआ- अनेरितो अघट्टितो अचलितो अलुळितो 2.118; - चर त्रि., [अनालम्बचर], बिना आधार के विचरण ...., महानि. 260; अलुळितोति न कललीभूतो महानि, अट्ठ. 304. करने वाला, निरालम्ब विचरण - ये पन ते, महाराज, अनालोक क. त्रि., आलोक का निषे., ब. स. [अनालोक], भिक्खू इद्धिमन्तो ... अनालम्बचरा ..., मि. प. 311. प्रकाशरहित, दृष्टिरहित, आलोकरहित, दृष्टिविहीन - नाहं
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अनावकूल/अनावकुल
217
अनावरण अन्धो अनालोको, मि. प. 273; ख. पु., तत्पु. स., पटिसन्धिवसेन अनावत्तनधम्मो, दी. नि. अट्ट, 1.252; - अन्धकार, तमस् - अप्पदीपेति अनालोके, पाचि. 366. समाव त्रि., ब. स. [-स्वभाव], स्वभाव से ही वापस न अनावकूल/अनावकुल त्रि., अवकूल/अवकुल का निषे०, लौटने वाला- अनावत्तिधम्मन्ति अनावत्तनसभावं अनिबत्तारह ब. स., समतल तट वाला, निचली सतह वाले, तट से अ. नि. अट्ठ. 3.273. रहित - अनावकुला वेळुरियूपनीला, जा. अट्ठ. 5.162; अनावत्ति स्त्री., आवत्ति का निषे., तत्पु. स. केवल स. प. अनावकुलाति न अवकुला अखाणुमा उपरि के पू. प. में ही प्रयुक्त [अनावृत्ति], अप्रत्यावर्तन, वापस उक्कुलविकुलभावरहिता वा समसण्ठिता, तदे...
लौटकर न आना; - धम्म त्रि., अप्रत्यावर्तन स्वभाव वाला, अनावज्जन नपुं, आवज्जन का निषे.. तत्पु. स. [अनावर्जन], पुनः वापस न लौटने वाला - ओपपातिको होति, तत्थ असावधानी, भूल, प्रमाद - महाथेरो तस्मिं काले अनावज्जनेन परिनिब्बायी, अनावत्तिधम्मो तस्मा लोका, दी. नि. 1.139; तेसं अदस्सनं सन्धाय वदति, उदा. अट्ठ. 200.
अनावत्तिधम्मोति ततो ब्रह्मलोका पुन पटिसन्धिवसेन अनावट त्रि., आवट का निषे, तत्पु. स. [अनावृत], खुला अनावत्तनधम्मो, दी. नि. अट्ठ. 1.252; तत्थ परिनिब्बायिनो हुआ, अनाच्छादित, अनावृत, अनियन्त्रित, असंयमित - अनावत्तिधम्मा, म. नि. 3.125; अनावत्तिधम्मं मे चित्तं अपिनुस्स इत्थीसु आवट वा अस्स अनावट वाति, दी. नि. अरूपभवाया ति, अ. नि. 3(1).212. 1.84; यंनूनाहं इमासु पोक्खरणीसु एवरूपं मालं रोपापेय्यं ___ अनावयह त्रि., आवरह का निषे., तत्पु. स. [अनावाह्य], उप्पलं ... सब्बजनस अनावट, दी. नि. 2.134; अनावट विवाह संस्कार में जीवनसाथी के रूप अस्वीकार्य - अमनुस्सा भगवतो आणदस्सनं. स. नि. 1(1)63; - द्वार ब. स., [- अनावरहम्पि नं करेय्युं अविवरह, दी. नि. 3.154; अनावरहन्ति द्वार], सबों के लिए खुला द्वार - सद्धो दायको दानपति न आवाहयुत्तं अविवरहन्ति, दी. नि. अट्ठ. 3.136. अनावटद्वारो, दी. नि. 1.122; - द्वारता स्त्री॰, भाव., खुले अनावर त्रि., अवर का निषे०, ब. स. [अनवर], उत्तम, द्वार वाला होने की स्थिति - मेत्तेन मनोकम्मेन अद्वितीय, उत्कृष्ट, अनुपम - जेत्वान मच्चुनो सेन, विमोक्खेन अनावटद्वारताय आमिसानुप्पदानेन, दी. नि. 3.145; अनावरं इतिवु. 55; अओहि आवरितुं पटिसेधेतुं असक्कुणेय्यत्ता अपिहितद्वारताय, दी. नि. अट्ठ. 3.126.
च अनावरं, इतिवु. अट्ठ. 224. अनावट्टित त्रि., आवट्टित का निषे., तत्पु. स. [अनावर्तित], अनावरण त्रि, निषे०, ब. स. [अनावरण]. खुला हुआ, अप्रवर्तित, निष्क्रिय - किरियमनोधातया भवङ्गे अनावट्टितेयेव अनाच्छादित, बाधारहित, निर्विघ्न, व्यवधानरहित- बोज्झङ्गा
अतिक्कमनआरम्मणानं पमाणं नत्थि, ध. स. अट्ठ. 307. अनावरणा अनीवरणा चेतसो अनज्झारूहा, स. नि. अनावट्टी त्रि०, आवट्टी का निषे०, तत्पु. स. [अनावर्तिन्], 3(1).118; एवं वुट्ठहतीति आणं अनावरणं, नेत्ति. 81; - आभोगरहित, आसक्ति-रहित, अलिप्त, अनासक्त - सो नेव जाण नपुं.. [अनावरणज्ञान], सर्वव्यापी ज्ञान, अप्रतिरोधी ताव अनावट्टी कामेसु होति, म. नि. 1.126; अरियसावको ज्ञान, स्पष्ट ज्ञान-तत्थ आवरणं नत्थीति-अनावरणत्राणं उपरि झानानं ... अनधिगतत्ता नेव ताव कामेसु अनावट्टी पटि. म. 119; भगवतो आणं ... तत्थावरणाभावतो होति, अनावट्टिनो अनाभोगो न होति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) निस्सङ्गप्पवत्तिमुपादाय अनावरणञाणन्ति वुच्चति, उदा. अट्ठ. 1(1).374, द्रष्ट, विलो. आवट्टी..
115; अनावरणञाणस्स, सब्बञ्जतञाणस्स पटिवेधाय, जा. अनावट्टेन्त त्रि., अ + Vवट्ट, वर्त. कृ., आसक्ति से रहित अट्ठ. 1.87;-जाणदस्सन त्रि., ब. स. [अनावरणज्ञानदर्शन], होकर जीने वाला, विषय भोगों में न लिपटने वाला - अनन्तज्ञानदर्शन से सम्पन्न अर्थात् बुद्ध - अनावदृन्तस्स होति ... अनाभोगस्स होति, कथा. 286; तत्थ अनावरणञाणदस्सना हि बुद्धा भगवन्तो, नेत्ति. 17; - दस्सन अनावट्टेन्तस्साति दानचेतनाय पुरेचारिकेन आवज्जनेन भवङ्गं त्रि., ब. स. [अनावरणदर्शन], अपरिसीम दृष्टि वाला, अनावट्टेन्तस्स अपरिवठून्तस्स, कथा. अट्ठ. 194.
सुस्पष्ट दृष्टि से सम्पन्न या युक्त - महावीरो, अनावत्तन/अनावट्टन नपुं.. आवत्तन का निषे., तत्पु. स. अनावरणदस्सनो, अप. 2.114; - दस्सावी त्रि., [अनावर्तन], वापस न लौटना, अप्रत्यावर्तन, पीछे की [अनावरणदर्शिन], उपरिवत् - अनावरणदस्सावी, यदि बुद्धो स्थिति में पुनः न आना - धम्म त्रि., वापस न लौटने की भविस्सति, सु. नि. 1011; अज्झत्तञ्च पजानाति, बहिद्धा च प्रकृति वाला - अनावत्तिधम्मोति ततो ब्रह्मलोका पुन । विपस्सति, अनावरणदस्सावी, थेरगा. 472; - दस्सी त्रि.,
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अनावरणीय
218
अनासन्न [-दर्शिन्], उपरिवत् - सुद्धेन जाणेन, अनावरणदस्सिना, पसन्नक्ख त्रि., ब. स. [अनाविलप्रसन्नाक्ष], निर्मल एवं अप. 1.18.
प्रसन्न दृष्टि वाला - अनाविलपसन्नक्खो, सब्बरोगविवज्जितो, अनावरणीय त्रि., आवरणीय का निषे., तत्पु. स. अप. 1.344; - लक्खण त्रि., ब. स. [अनाविललक्षण], [अनावरणीय], ढक कर न रखने योग्य, तिरस्कृत न करने निर्मल स्वभाव वाला, स्वच्छ प्रकृति वाला - अनाविललक्खणो योग्य, अतिरस्करणीय, अनभिभूत - चत्तारोमे ... तथागतस्स पसादो, नेत्ति. 25; - संकप्प त्रि., ब. स. [अनाविलसंकल्प]. केनचि अनावरणीया गुणा, मि. प. 155.
शान्त एवं स्वच्छ संकल्प वाला, अबाधित संकल्प या विनिश्चय अनावसूर त्रि., अवसूर का निषे. [उत्सूर], सूर्यास्त तक, वाला - एवं खो, आवुसो, भिक्खु ... अनाविलसङ्कप्पो, दी. सूर्यास्त-पर्यन्त - अनावसूरं चिररत्तसंसितं, जा. अट्ठ. 5.49; नि. 3.215. अनावसूरन्ति न अवसूर अनत्थङ्गतसूरियन्ति अत्थो, तदे... अनावुत्थपुब्ब त्रि., आवुत्थपुब्ब का निषे०, तत्पु. स., पहले अनावास' पु., निषे. तत्पु. स. [अनावास], क. भिक्षु के लिए आबाद नहीं किया गया वह स्थल, जहां पहले निवास नहीं निवास न करने योग्य गृह या स्थान - अनावासोति किया गया हो - यो मया अनावुत्थपुब्बो इमिना दीघेन नवकम्मसालादिको यो कोचि पदेसो, महाव. अट्ठ. 329; न अद्भुना ..., दी. नि. 2.38. एकच्छन्ने आवासे वा अनावासे वा वत्थब्ब, चूळव. 49; - अनासक/अनसक त्रि, निषे०, तत्पु. स. [अनशक], भोजन टि. चूळव. के अनुसार चेतियघर, बोधिघर, सम्मज्जनीअट्टक, ग्रहण न करने वाला, व्रत उपवास करने वाला, भोजन से दारुअट्टक, पानीयमाळ, वच्चकुटि तथा द्वारकोडक आदि अनुपस्थित रहने वाला, (ब्राह्मण तपस्वियों के एक वर्ग का को अनावास कहा गया है जिसे भिक्षु के लिये अनपुयुक्त नाम) - अनासका थण्डिलसेय्यका च, जा. अट्ठ. 5.230; स्थान कहा गया, चूळव. अट्ठ. 12.
एकच्चे हि मयं अनासका न किञ्चि आहारेमा ति मनुस्से अनावास त्रि., ब. स. [अनावास], क. गृहविहीन, बेघर - वञ्चन्ति, तदे. 5.232-233; अनासकाति निराहारा, जा.
अनगाराति अनावासा, पे. व. अट्ठ. 68; ख. नहीं बसा हुआ अट्ठ. 5.18; नानासकाति न अनासका, भत्तपटिवखेपकाति - वानरिन्दो गामो आवासो अनावासोति पुच्छि, जा. अट्ठ. अत्थो, ध. प. अट्ठ. 2.44; अनासकाति एकाहद्वीहादिवसेन 2.63.
अनाहारका, स. नि. अट्ठ. 3.42. अनाविकम्म नपुं., आविकम्म का निषे., तत्पु. स. अनासङ्क त्रि., आसङ्क का निषे., ब. स. [अनाशङ्क], निश्चिन्त, [अनाविष्कर्म], निगूढ़कर्म, माया, सुस्पष्ट प्रकाशन अथवा शङ्का-सन्देहों से रहित, निर्भय, भरोसेमन्द , विश्वसनीय -
अभिव्यक्ति का न होना, अप्रकट कर्म - या एवरूपा माया ... जने नासङ्कसम्मते, चू. वं. 67.58. .... गृहना परिगृहना ... अनाविकम्मं वोच्छादना ... अयं अनासत्त त्रि., आसत्त का निषे०, तत्पु. [अनासक्त], विषयभोगों वुच्चति माया, महानि. 56; न पाकट कत्वा दस्सेतीति के प्रति मानसिक लगाव न रखने वाला, लगावरहित, तृष्णा अनाविकम्म, महानि. अट्ट, 162.
अथवा आसक्ति से मुक्त - देवेन अनासत्तो अयक्खगहितको अनाविद्ध/अनपविद्ध त्रि., आविद्ध/अपविद्ध का निषे., अभूतविठ्ठो पुरिसो, जा. अट्ठ. 5.443; - चित्त त्रि., ब. स. तत्पु. स. [अनाविद्ध], अनुपेक्षित, सत्कृत, सम्मानित, समादृत [चित्त], आसक्तिरहित, चित्त वाला या वाली- असङ्गमानसाति - अनपविद्ध अनवजातं कत्वा, पे. व. अट्ठ. 118.
कत्थचिपि आरम्मणे अनासत्तचित्ता, थेरीगा. अट्ठ. 282. अनाविल त्रि., आविल का निषे०, तत्पु. स. [अनाविल], अनासन नपुं.. आसन का निषे०. तत्पु. स. [अनासन]. स्वच्छ, प्रसन्न, निर्मल, विशुद्ध, (मूलतः जल एवं चित्त की अनुपयुक्त आसन, अयुक्त आसन - यथारूपे अनासने निसिन्न स्वच्छता का वाचक)- कच्चि चित्तं अनाविलं. सु. नि. 1603; म. नि. 1.15; अनासनेति एत्थ पन अयुत्तं आसनं अनासनं, अनाविलन्ति पुच्छन्तो ब्यापादेन आविलभावं सन्धाय अब्यापादतं म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1)87; सो तञ्च अनासनं तञ्च पुच्छति, सु. नि. अट्ठ. 1.177; सारम्भा यस्स विगता, चित्तं अगोचरं म. नि. 1.15. यस्स अनाविल, सु. नि. 487; अनाविलन्ति अनासन्न नपुं., आसन्न का निषे., तत्पु. स. [अनासन्न], किलेसाविलत्तविरहितं, सु. नि. अट्ठ. 2.172; - त्त नपुं.. दूरवर्ती, निकट में नहीं स्थित - न सन्तिके न सामन्ता भाव. [अनाविलत्व]. स्वच्छता, निर्मलता, विशुद्धि - अनासन्ने विवेकडे, महानि. 20; अनासन्नेति अनच्चन्तसमीपे, अनाविलत्ता, भिक्खवे, उदकस्स, अ. नि. 1(1).12; - महानि. अट्ठ. 81.
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अनासव
219
अनाहूत/अनव्हित अनासव शा. अ. नपुं., आसव का निषे०, ब. स. [अनास्रव, असम्भिन्नपायासादीनिपि ... आसित्तानि योजितानेव आस्रवों से मुक्त, चित्त में प्रवहनशील मन को दूषित बनाने मधुरानि ... होन्ति, न एवमयं धम्मो, स. नि. अट्ठ. 1.277. वालों, काम, भव, अविद्या एवं दृष्टि नामक चार आस्रवों से अनासेवना स्त्री., आसेवना का निषे., तत्पु. स. [अनासेवना], मुक्त हो चुका अर्हत् या बुद्ध - ओघतिण्णमनासवं सु. नि. भावना न करना, अव्यवहार, अनभ्यास, अप्रयोग, प्रमाद - 180; 1151; चतुन्नं आसवानं अभावेन अनासवन्ति, स. नि. ..... कुसलानं वा धम्मानं भावनाय ... अनासेवना, अभावना अट्ठ. 1.228; पवुट्ठजातिमखिलं, ओघतिण्णमनासवं, दी. नि. ..... अयं वुच्चति पमादो ति, खु. पा. अट्ठ. 1.115. 2.192; सब्बाकुसलप्पहानवसेन अनासवमुनि, महानि. अट्ट. अनासेवित त्रि., आसेवित का निषे., तत्पु. स. [अनासेवित, 137, द्रष्ट. आसव, ला.अ. निर्वाण, जिसमें सभी आस्रवों का व्यवहार में न उतारा गया, वह, जिसे निजी जीवन में क्षय हो जाता है - अनासवं धुवमनिदस्सनाकतापलोकितं. व्यवहार में अवतरित न किया गया हो - अमतं तेसं अभि. प. 7; - कथा स्त्री., कथा. के तीसरे अध्याय का भिक्खवे, अनासेवितं .... अ. नि. 1(1).61. शीर्षक, कथा. 228-230; - गामी त्रि.. [-गामिन्]. निर्वाण अनाहट त्रि., आहट का निषे., तत्पु. स. [अनाहत], अव्यवहृत,
की ओर जाने वाला या मार्ग- ... अनासवगामिञ्च मग्गं समीप तक नहीं लाया अथवा पहुंचाया गया - न अनाहटे ..... स. नि. 2(2).341; - चित्त त्रि., ब. स. [-चित्त], कबळे मुखद्वारं विवरितब्ब, पाचि. 263; अनाहटेति अनाहरिते आसवों से विमुक्त चित्त वाला - अनासवचित्तस्स मुखद्वारं असम्पापितेति, पाचि. अट्ठ. 154; दिन्नाय पारिसद्धिया अरियमग्गसमङ्गिनो .... म. नि. 3.119.
अन्तरामग्गे पक्कमति, अनाहटा होति पारिसद्धि, महाव. 151. अनाससान/अनासिसान त्रि., आ + संस के वर्त. कृ.. अनाहरणीय त्रि०, आहरणीय का निषे., तत्पु. स.
का निषे. [अनाशंसमान], आशारहित, इच्छा न करने वाला, [अनाहरणीय], नहीं ले आने योग्य - अत्तनो सन्तकं परेहि किसी भी वस्तु के प्रति तृष्णा से रहित, निस्पृह - सो अनाहरणीय कातुं सक्कोसी ति, ध. प. अट्ठ. 2.402. निरासो अनासिसानो .... सु. नि. 371; .... ततो आसाय अनाहरित त्रि., आहरित का निषे., तत्पु. स. [अनाहत], अभावेन कञ्चि रूपादिधम्म नासीसति: तेनाह -'निरासो समीप में नहीं लाया हुआ - अनाहटेति अनाहरिते ... अनासिसानोति. सु. नि. अट्ठ. 2.88; द्रष्ट. आससान, असम्पापितेति अत्थो, पाचि. अट्ठ. 154. अनासा स्त्री., आसा का निषे., तत्पु. स. [अनाशा], आशा अनाहार पु., आहार का निषे., तत्पु. स. [अनाहार], शा. का अभाव, अनिच्छा, निराशा, अकामना - ... अनासञ्चेपि अ. ईंधन का अभाव, अनुपयुक्त आहार, अविषय, अनुपयुक्त करित्वा .... म. नि. 3.178; कालेन आसं कालेन अनासं क्षेत्र - पञ्चन्नञ्च, ... नीवरणानं ... आहाररुच अनाहाररुच ...., म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.1463; निरासं कत्वानाति देसेस्सामि, स. नि. 3(1).123; को च.... अनाहारो अनुप्पन्नस्स अनासं कत्वा .... जा. अट्ठ. 3.86; अनासाय लभति, आसाय वा कामच्छन्दस्स उप्पादाय ..., स. नि. 3(1).126; ला. अ. न लभति, महाव. 341.
त्रि., ब. स., आहार या भोजन न लेने वाला, निराहार, अनासादनीय त्रि., आसादनीय का निषे., तत्पु. स. विषय-भोगों में अलिप्त, ईधन से रहित - उस्सस्सति अनाहारो, [अनासादनीय], नहीं प्राप्त करने योग्य, अभिभूत न करने सोकसल्लसमप्पितो, सु. नि. 991; महागिनि पज्जलितो, योग्य, अकोपनीय - केनचिपि अनासादनीयतो च दुरासदो, अनाहारोपसम्मति, थेरगा. 702; अनाहारोति अनिन्धनो, वि. व. अट्ठ. 180; अनासादनीयमासादयित्वा, मि. प. थेरगा. अट्ठ. 2.223; अनाहाराति निराहारा निरुपादाना, म. 196.
नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).127; - ता स्त्री॰, भाव., भोजन न अनासित्तक त्रि., आसित्तक का निषे., तत्पु. स. [अनासिक्तक], लेने की अथवा भूखे रह जाने की अवस्था - ... तयो वह, जिसमें किसी के आसिञ्चन की आवश्यकता नहीं हो, दिवसे अनाहारताय दुब्बलोपि समानो .... जा. अट्ठ. स्वभाव से ही मधुर, आसिञ्चन की अपेक्षा न रखने वाला 4.213. - असेचनकं अनासित्तकं पकतियाव महारसं, थेरीगा. अट्ठ. अनाहूत/अनव्हित त्रि., आहूत का निषे., तत्पु. स. 67; ... एत्थ पन नास्स सेचनन्ति असेचनको अनासित्तको, [अनाहूत], वह, जिसका आह्वान नहीं किया गया है या ... केचि पन असेचनकोति अनासित्तको ... सभावेनेव जिसे बुलाया नहीं गया है- अनव्हितो ततो आगा, जा. अट्ठ. मधुरोति वदन्ति, पारा. अट्ठ. 2.9; यथा हि बाहिरानि 3.142, पाठा. अनाहूत.
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अनाळ्हिय
220
अनिक्खित्त
अनाळिहय त्रि., आळ्हिय का निषे०, तत्पु. स. [अनाढ्य], निर्धन, दरिद्र, धनरहित - पुरिसो दलिदो अस्सको अनाळिहयो. म. नि. 2.123; 2.395; अनाळिहयोति अनड्डो, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.119; अपि चे दलिद्दा कपणा अनाळिहया, जा. अट्ट. 5.91. अनिकट्ठकाय त्रि., निकट्ठकाय का निषे., ब. स. [अनिकटस्थकाय], वह, जिसका शरीर परिस्थिति विशेष के अनुकूल या सामञ्जस्यपूर्ण न हो - ... अनिकट्ठकायो च अनिकट्ठचित्तो..., अ. नि. 1(2).157. अनिकट्ठचित्त त्रि., निकट्ठचित्त का निषे०, ब. स. [अनिकटस्थचित्त], वह, जिसका चित्त कहीं और है, अन्यमनस्क - अनिकट्ठकायो च अनिकट्ठचितो च, ..., अ. नि. 1(2).157; अनिकट्ठचित्तोति अनुपविट्ठचित्तो, अ. नि. अट्ठ. 2.334. अनीकरत्त/अनीकदत्त पु., वारणवती के एक राजा का नाम - वारणवतिम्हि, राजा अनीकरतो.... थेरीगा. 464, 483. अनिक्कीळितावी त्रि., निकीळितावी का निषे., तत्पु. स.,
शा. अ. वह, जिसकी क्रीड़ा पूर्ण नहीं हुई है, ला. अ. वह, जिसने काम-भोगों का अभी तक पूर्ण सेवन नहीं किया है - पठमेन वयसा अनिक्कीळितावी कामेसु. स. नि. 1(1).11; अनिक्कीळितावी कामेसूति कामेस अकीळितकीळो अभुत्तावी, अकतकामकीळोति अत्थो, स. नि. अट्ठ. 1.39; पठमेन वयसा अनिक्कीळिताविनो कामेस. स. नि. 1(1).139. अनिकुब्बन्त त्रि., नि + ।कुब्ब के वर्त. कृ. का निषे. [अनिकुर्वत्], धोखाधड़ी न कर रहा, विप्रलम्भित न करने वाला - परेसं अनिकुब्बतो, जा. अट्ठ. 2.195. अनिकेत त्रि., निकेत का निषे., ब. स. [अनिकेत]. शा. अ. बेघर, गृह-विहीन, ला. अ. तृष्णा-रहित, अनासक्ति भाव वाला, रागरहित, निर्वाण को प्राप्त मुनि- अनिकेतमसन्थवं, एतं वे मुनिदस्सनं, सु. नि. 209; अनिकेतं ... असन्थवं ... उभयम्पेतं निब्बानस्साधिवचनं सु. नि. अठ्ठ. 1.2153; पब्बजितो ... अप्पिच्छो होति ... अनिकेतो..... मि. प. 229; - चारी त्रि., [अनिकेतचारिन्], संभवतः 'सारी' के स्थान पर अप.; अनासक्ति की अवस्था का पालन कर रहा - अनिकेतचारीति अपलिबोधचारी नित्तण्हचारी, स. नि. अट्ठ. 2.265; - वासी त्रि., अनासक्त अथवा तृष्णाविनिर्मुक्त होकर निवास करने वाला, बेघर - यदा देवदत्तो मनुस्सो अहोसि वनचरको अनिकेतवासी, मि. प. 192; - विहार
पु., तत्पु. स., अनासक्त जीवन बिताने वाला, बेघर होकर (प्रव्रजितभाव को प्राप्त कर) विचरण करने वाला - ओक पहाय अनिकेतसारी, सु. नि. 850. अनिक्कड्डन नपुं.. निषे०, तत्पु. स. [अनिष्कर्षण], बाहर न निकालना, निकाल बाहर न करना, खण्डन न करना -
इमिस्सा अनिक्कवनं करिस्सामि, जा. अट्ठ. 3.19. अनिक्कसाव त्रि, कसाव का निषे., ब. स. [अनिष्काषाय], चित्त के मलों या काषायों से अविनिर्मुक्त कलुषित चित्त वाला - अनिक्कसावो कासावं, यो वत्थं परिदहिस्सति, ध. प. 9; अनिक्कसावोति रागादीहि कसावेहि सकसावो, ध. प. अट्ठ. 1.49; थेरगा. 969. अनिक्खन्त त्रि., निक्खन्त का निषे., तत्पु. स., बाहर न निकला हुआ, परित्याग नहीं किया हुआ- ... मातुकुच्छितो अनिक्खन्तकालेयेव आभता आनीता, जा. अट्ठ. 1.282; - राजक त्रि.. ब. स. [-राजक], वह क्षेत्र, जहां से राजा बाहर नहीं निकला है - अनिक्खन्तराजकति राजा सयनिघरा अनिक्खन्तो होति, पाचि. 212; अनिक्खन्तो राजा इतोति अनिक्खन्तराजक, पाचि. अट्ठ. 139. अनिक्खमन नपुं., निक्खमन का निषे०, तत्पु. स. [अनिष्क्रमण]. बाहर न निकलना, गृह का परित्याग न करना, गृही या भोगासक्त जीवन, गृहत्याग न करने वाला - तदा बहि अनिक्खमनकुलानिपि, ध. प. अठ्ठ. 1.218. अनिक्खित्त त्रि., निक्खित्त का निषे., तत्पु. स. [अनिक्षिप्त], नहीं फेंका हुआ, नीचे न रखा हुआ, स्वीकृत, अपरित्यक्त; - कसाव त्रि., ब. स., द्रष्ट, 'अनिद्धन्तकसाव' के अन्त. आगे; - छन्द त्रि., ब. स. [अनिक्षिप्तछन्द], शिथिल इच्छा से रहित, सुदृढ़ संकल्प वाला, दृढ़ अध्यवसाय वाला - अप्पमत्तोति ... अनिक्खित्तछन्दो ... कुसलेसु धम्मेसु महानि. 42; - छन्दता स्त्री., भाव. [अनिक्षिप्तछन्दता], सुदृढ़ संकल्प की मनोदशा - यो तस्मिं समये चेतसिको वीरियारम्भो.... असिथिलपरक्कमता अनिक्खित्तछन्दता, ध. स. 26; यस्मा पनेतं वीरियं ... छन्दं न निक्खिपति, धुरं न निक्खिपति ... तस्मा अनिक्खित्तछन्दता, ध. स. अट्ठ. 191; अनिक्खित्तछन्दताति कुसलच्छन्दस्स अनिक्खिपनं. ध. स. अट्ठ. 426; - धुर त्रि., कर्म. स. [अनिक्षिप्तधुर]. वह, जो भार को नीचे उतार कर न फेंके, प्रबल वीर्य से सम्पन्न, दृढ़ उद्योगी - आरद्धवीरियो ... थामवा दळ्हपरक्कमो अनिक्खित्तधुरो कुसलेसु धम्मेसु. उदा. 109; अनिक्खित्तधुरोति अनोरोहितधुरो अनोसक्कितवीरियो, उदा.
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अनिक्खिपन
221
अनिच्च
अट्ठ. 190; चेतसिकवीरियवसेन अनिक्खित्तधुरो, सु. नि. अट्ठ. 1.200; - धुरता स्त्री., भाव.. सुदृढ़ वीर्य वाला होना, दृढ़ पराक्रम से युक्त होना - यो तस्मिं समये चेतसिको वीरियारम्भो.... अनिक्खित्तधुरता ..., ध. स. 36. अनिक्खिपन नपुं, निक्खिपन का निषे., तत्पु. स. [अनिक्षेपण], नीचे नहीं उतार फेंकना, उत्तरदायित्व से दूर न भागना, अपरित्याग - अनिक्खित्तछन्दताति कुसलच्छन्दस्स। अनिक्खिपनं ध. स. अट्ठ. 426. अनिखातकूल/अनिगाधकूल त्रि. निखातकूल/ निगाधकूल का निषे., ब. स. [अनिखातकूल], ऐसा जलाशय अथवा नदी, जिसके तट गहरे न हों, कम गहरे तीर वाला/वाली - अनिगाधकूलाति अगम्भीरतीरा, जा. अट्ठ. 6.132. अनिगम पु.. निगम का निषे., तत्पु. स. [अनिगम], निगम से भिन्न, बीरान बस्ती - निगमापि अनिगमा कता, म. नि. 2.308. अनिगूळ्हमन्त/अनिगुय्हमन्त त्रि., निगूळहमन्त/ निगुय्हमन्त का निषे., ब. स. [अनिगूढमन], अपनी योजना अथवा मन की बातों को दूसरों से छिपा कर न रखने वाला, अप्रतिच्छन्नमन्त्र - अनिगुयहमन्तन्ति अप्पटिच्छन्नमन्तं, जा. अट्ठ. 5.73. अनिग्गतरतनक त्रि., निग्गतरतनक का निषे०, ब. स. [अनिर्गतरत्नक, वह शयनघर, जहां से स्त्रीरत्न बाहर न निकले हों- अनिग्गतरतनकति महेसी सयनिघरा अनिक्खन्ता होति, उभो वा अनिक्खन्ता होन्ति, पाचि. 212; रतनं वच्चति महेसी, निग्गतन्ति निक्खन्तं, अनिग्गतं रतनं इतोति ... सयनिघरेति अत्थो, पाचि. अट्ठ. 139. अनिग्गमन नपुं.. निग्गमन का निषे., तत्पु. स. [अनिर्गमन], बाहर निकलकर नहीं जाना, बाहर न निकलना - ... आयतनानि अनागमनतो अनिग्गमनतो च दट्ठब्बानि, विभ. अट्ठ. 44. अनिग्गह त्रि., निग्गह का निषे.. ब. स. [अनिग्रह], नियन्त्रण में न लाने योग्य अनियन्त्रणीय - अनिग्गहासूति निग्गहेन विनेतुं असक्कुणेय्यासु, जा. अट्ठ. 5.435. अनिग्गहीत/अनिग्गहित त्रि., निग्गहीत या निग्गहित का निषे., तत्पु. स. [अनिगृहीत], अभिभूत न किया गया, अतिरस्कृत, नहीं उपेक्षित- मया धम्मो देसितो अनिग्गहितो असंकिलिट्ठो..... अ. नि. 1(1).206: निग्गण्हन्तो हि हापेत्वा वा दस्सेति, वडढेत्वा वा ... यस्मा चत्तारि अरियसच्चानि
... हापेत्वापि ... दस्सेतुं न सक्का, तस्मा ... अनिग्गहितो
नाम, अ. नि. अट्ठ. 2.160. अनिघ/अनीघ त्रि., इघ या ईघ का निषे., ब. स. [अनिघ]. निष्पाप, क्रोध अथवा आक्रोश से रहित, निरपेक्ष, सरल, सुरक्षित - अनिघो तिण्णकथंकथो विसल्लो. सु. नि. 17; ईघाभावतो अनीघो, सु. नि. अट्ठ. 1.21; सन्तं विधूमं अनीघं निरासं, सु. नि. 464; दुक्खाभावेन अनीघं सु. नि. अट्ठ. 2.120; अनीघोति रागादिईघविरहितो, सु. नि. अट्ठ. 2.27980; अनीघोति निढुक्खो हुत्वा, जा. अट्ठ. 3.392; - टि. दुक्खं च कसिरं किच्छंनीघो च ब्यसनं अघं, अभि. प. 89 में नीघ शब्द पुल्लिङ्ग में निर्दिष्ट है, परन्तु अभि. प. सूची में इसके विविध व्याख्यान, द्रष्ट. मोरिस, जॅ. पा. टे. सो. 1891, 3.41 व्यु. की अनेक संभावनाओं में प्रमुख, (क) नीहा (दुख) का निषे., (ख) ईहा, ईघा का निषे., (ग) सं. के निघ
का निषे. (घ) सं. अनघ का विप. पालि-प्रतिरूप है. अनिच्च त्रि., निच्च का निषे., तत्पु. स. [अनित्य], सदा विद्यमान न रहने वाला, अशाश्वत, क्षणभङ्गुर, अध्रुव - सब्बे सङ्घारा अनिच्चा .... ध. प. 277; सब्बे ते भवा अनिच्चा दुक्खा विपरिणामधम्मा, उदा. 106; ... हुत्वा अभावद्वेन अनिच्चा, उदा. अट्ठ. 174; हुत्वा अभावढेन अनिच्चधम्मो, दी. नि. अट्ठ. 1.178; - कम्मट्ठानिक त्रि., ब. स., अनित्यता के आलम्बन पर ध्यान करने वाला - पञ्चसतापि ते अनिच्चकम्मट्ठानिका भिक्खू..., अ. नि. अट्ठ. 3.181; - 8 त्रि., उप. स. [अनित्यस्थ), अनित्य के आकार वाला,
अनित्य की अवधारणा में अन्तर्भूत - यावता रूपस्स अनिच्चट्ठ ...... पटि. म. 119; अनिच्चट्ठन्ति च अनिच्चाकारं पटि. म.
अट्ठ. 2.32; - ता स्त्री॰, भाव. [अनित्यता], अनित्य स्वभाव वाला होने की अवस्था, क्षणभङ्गुरता, उत्पन्न होकर विनष्ट हो जाने का स्वभाव - रूपानंत्वेव अनिच्चतं विदित्वा, म. नि. 3.265; लोके अनिच्चतं ञत्वा, स. नि. 1(1),75; अनिच्चतं खयवयतं विदित्वा, उदा. अट्ठ. 237; अनिच्चता एसा सब्बलोकविनासिनी, म. वं. 20.57%; अनिच्चतमुदाहरि अप. 1.61; - ताकथा स्त्री., कथा. के ग्यारहवें वर्ग की दसवीं कथा का शीर्षक, कथा. 371-372; - च्चाकार पु., तत्पु. स./ब. स., अनित्यता का स्वभाव, अनित्यता के स्वरूप
को प्रकाशित करने वाला - अनिच्चाकारं ... धम्म देसेसि ...... जा. अट्ठ. 3.82; - दस्सावी त्रि., अधिच्चदस्सावी के स्थान पर अप., द्रष्ट. ऊपर; - धम्म त्रि., ब. स. [अनित्यधर्म], स्वभाव से ही अनित्य, अध्रुव प्रकृति वाला,
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अनिच्च
222
अनिच्च
विनश्वर - रूपं खो, राध, अनिच्चधम्मो, स. नि. 2(1).180; - पटिसंवेदी त्रि., [अनित्यप्रतिसंवेदी], सभी संस्कृत धर्मों में अनित्यता का अनुभव करने वाला - ... अनिच्चपटिसंवेदी सततं समितं...अ. नि. 2(2).164; अनिच्चाति एवं आणेन पटिसंवेदिता अस्साति अनिच्चपटिसंवेदी, अ. नि. अट्ट. 3.151; - लक्खण नपुं.. तत्पु. स. [अनित्यलक्षण], भगवान बुद्ध द्वारा प्रवेदित धर्मों के तीन लक्षणों में से सर्वप्रथम, जिसके अनुसार हेतुओं एवं प्रत्ययों से उत्पन्न सभी संस्कृत धर्म अपने हेतु-प्रत्ययों के निरुद्ध होते ही स्वयं भी निरुद्ध हो जाते हैं तथा कोई भी संस्कृत धर्म शाश्वत नहीं है - अनिच्चलक्खणं दुक्खलक्खणं अनत्तलक्खणञ्चेति तीणि लक्खणानि, अभि. स. 66; अनिच्चतायेव लक्खणं लक्खितब, लक्खीयति अनेनाति वा अनिच्चलक्खणं, अभि. ध. वि. टी. 232; खणतो उदयब्बयदस्सनेन अनिच्चलक्खणं पाकट होति.... विसुद्धि. 2.267; अनिच्चलक्खणं ताव उदयब्बयानं अमनसिकारा.... विभ. अट्ठ. 47; - लक्खणवत्थु नपुं..ध. प. अट्ठ. की एक कथा का शीर्षक, ध. प. अट्ठ. 2.233; - वग्ग पु., स. नि. के एक खण्ड विशेष का शीर्षक, स. नि. 2(1)20-24, 2(2)1-6; - सञ स्त्री., [अनित्यसंज्ञा], धर्मों में अनित्यता की अनुपश्यना, अनित्यता की विपश्यनाभावना, 'सभी संस्कृत पदार्थ विनश्वर हैं, नित्य नहीं हैं, इस प्रकार की अनित्यता की अनुपश्यना से उत्पन्न ज्ञान - अनिच्चसा भाविता बहुलीकता .... स. नि. 2(1).139; अनिच्चसञ्जाति अनिच्चं अनिच्चन्ति भावेन्तस्स उप्पन्नसा, स. नि. अट्ठ. 2.291; अनिच्चसञआति अनिच्चानुपस्सनाञाणे उप्पन्नसा , अ. नि. अट्ठ. 3.109; ... अभावतो उदयब्बयवन्ततो पभङ्गुतो तावकालिकतो ... सब्बे सङ्खारा अनिच्चा ति पवत्तअनिच्चानुपस्सनावसेन अनिच्चसचिनो, उदा. अट्ठ. 191; - सञआभावनानुयोग पु., तत्पु. स., धर्मों में अनित्यता की अनुपश्यना-भावना में स्वयं को लगा दे ना, अनित्यतानु पश्यना का अभ्यास - अनिच्चसआभावनानुयोगमनुयुत्ता विहरन्ति, म. नि. 3.126; - सानुलोम त्रि., ब. स., अनित्यता की विपश्यनाभावना के अनुरूप या उपयुक्त - अथ वा अनिच्चं वा अनिच्चसानुलोमं वा..., महानि. 142; ... ताय सञआय। अनुलोम अप्पटिकूलं अनिच्चसआनुलोम, महानि. अट्ठ. 244; - सापरिचित त्रि, तत्पु. स., अनित्यता की विपश्यना-भावना को जानने वाला अथवा उससे परिचित साधक- अनिच्चसञआपरिचितेन, भिक्खवे, भिक्खनो चेतसा
... अ. नि. 2(2).198; - सजी त्रि., [अनित्यसंज्ञी], अनित्यता की अनुपश्यना करने वाला, संस्कृत धर्मों में अनित्यता का मानसिक प्रत्यक्ष-ज्ञान प्राप्त करने वाला - सब्बसकारेसु अनिच्चानुपस्सी विहरति, अनिच्चसञी .... अ. नि. 2(2).165; अनिच्चाति एवं सा अस्साति अनिच्चसञी, अ. नि. अट्ठ. 3.151; - सभाव त्रि.. ब. स. [अनित्यस्वभाव], स्वभाव से ही अनित्य, विनश्वर या क्षणभङ्गुर - अनिच्चसभावानं पन खन्धानं जरामरणत्ता अनिच्चं नाम जातं. स. नि. अट्ठ. 2.37; - सम्भूत त्रि०, तत्पु. स. [अनित्यसम्भूत], अनित्य स्वभाव वाले संस्कृत धर्मों से उत्पन्न - अनिच्चसम्भूतं, भिक्खवे, चक्खु ... स. नि. 2(2).133; - च्चाकार पु., कर्म. स. [अनित्याकार], अनित्यलक्षण, धर्मो का अनित्य स्वभाव, अध्रुव स्वरूप, विनश्वर प्रकृति - ... भगवा पुग्गलस्स आचिक्खति विपस्सनानिमित्तं अनिच्चाकारं दुक्खाकारं अनत्ताकार, महानि. 264; अनिच्चाकारन्ति हुत्वा अभावाकारं महानि अट्ठ. 312; - च्चानुपस्सना स्त्री., तत्पु. स. [अनित्यानुपश्यना]. धर्मो के अनित्य स्वभाव को विपश्यना की भावना द्वारा देखना, चार स्मृति-प्रस्थानों में से अन्तिम अर्थात धर्मों की धर्मता पर अनुपश्यना, पांच स्कन्धों के क्षय एवं व्यय आदि का ज्ञानदर्शन - अनिच्चानुपस्सना अभिज्ञेय्या, पटि. म. 103;
अनिच्चानुपस्सना, दुक्खानुपस्सना अनत्तानुपस्सना चेति तिस्सो अनुपस्सना, अभि. ध. स. 66; तत्थ अनिच्चस्स, अनिच्चन्ति वा अनुपस्सना अनिच्चानुपस्सना तेभूमकधम्मानं अनिच्चतं गहेत्वा पवत्ताय विपस्सनाय एतं नाम, विसुद्धि. महाटी. 1.323; द्रष्ट. अनुपस्सना; -- च्चानुपस्सी त्रि., [अनित्यानुदर्शी, बौ. सं. अनित्यानुपश्यी], विपश्यना द्वारा धर्मों में अनित्यता का ज्ञान-दर्शन प्राप्त करने वाला - सब्बसवारेसु अनिच्चानुपस्सिनो विहस्थ, इतिवु. 58; ... अनिच्चलक्खणं नाम, तं आरब्भ पवत्ता विपस्सना अनिच्चानुपस्सना, तं अनिच्चन्ति विपस्सको अनिच्चानुपस्सी. इतिवु. अट्ठ. 234; अनिच्चन्ति अनुपस्सी, अनिच्चस्स वा अनुपस्सनसीलो अनिच्चानुपस्सीति, विसुद्धि. महाटी. 1.324; - च्चुच्छादनपरिमद्दनभेदनविद्धंसनधम्म त्रि., ब. स. [अनित्युत्सादनपरिमर्दनभेदनविध्वंसनधर्म], वह मानव शरीर, जो स्वभाव से ही अनित्य, अपचय-शील, अपघर्षणशील, टूट जाने वाला एवं विनष्ट हो जाने वाला है -... कायस्स अधिवचनं .... अनिच्चुच्छादन परिमद्दन भेदन-विद्धंसनधम्मस्स, म. नि. 1.198; ... हत्वा अभावद्वेन अनिच्चधम्मो
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अनिच्चल-बुद्धि 223
अनिट्ठ ... तदनुविलेपनेन उच्छादनधम्मो ... खुद्दकसम्बाहनेन ... पूर्णता की स्थिति को अप्राप्त - हस्सं अनिज्झानक्खमं परिमद्दनधम्मो ... भिज्जति चेव विकिरति च, एवं सभावोति, अतच्छ, जा. अट्ठ. 7.53; पण्डितानं न निज्झानक्खमं ..., दी. नि. अट्ट. 1.178; = म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).34. जा. अट्ठ. 7.55. अनिच्चल-बुद्धि त्रि., निच्चलबुद्धि का निषे०, ब. स. अनिञ्जन नपुं., निषे., तत्पु. स. [बौ. सं. अनिञ्जन], [अनिश्चलबुद्धि], चञ्चल अथवा अस्थिर बुद्धि वाला - अचल, अचलन, अकम्पन, निश्चल अथवा स्थिर - .... हरितब्बपञस्स अनिच्चलबुद्धिनो, जा. अट्ठ. 4.387; आनेञ्जप्पत्तं सयं अनिञ्जनद्वेन आनेञ्जन्ति वुच्चति, उदा. पाठा. निच्चं चलबुद्धिनो.
अट्ठ. 150; इदं चतुत्थज्झानं अनिञ्जनं अचलनं निष्फन्दनन्ति अनिच्छ त्रि., ब. स. [अनिच्छ], इच्छाओं से रहित, तृष्णा वदामि, म. नि. अट्ट (म.प.) 2.122; - प्पत्त त्रि., [बौ. सं. विरहित, कामनाओं से मुक्त - सदा इच्छाय निच्छातो, अनिञ्जनप्राप्त]. अचल-भाव को प्राप्त, न चलने योग्य - अनिच्छो होति निब्बुतो, सु. नि. 712; अनिच्छा पिण्डमेसना, आनेजप्पत्तं सयं अनिञ्जनद्वेन आनेञ्जन्ति वच्चति, उदा. अनिच्छा सयनासन, स. नि. 1(1).75; अनिच्छाति नित्तण्हा अट्ठ. 150, पाठा. आनेञ्जप्पत्त. हुत्वा, स. नि. अट्ठ. 1.104; - त्त नपुं., भाव., [-त्व], अनिञ्जित त्रि., इञ्जित का निषे०, तत्पु. [अनिञ्जित], क. तृष्णाविहीनता, इच्छामुक्त स्थिति- ... अनिच्छत्ता च निच्छातो। शान्त, अविचलित, अप्रभावित - नाहं सीतेन विहञिस्सं. होति अनातुरो ..., सु. नि. अट्ठ. 2.193.
अनिञ्जितो विहरन्तो, थेरगा. 386; चित्तस्स इञ्जितकारणानं अनिच्छनभाव पु., निषे., तत्पु. स. [अनिच्छा]. इच्छा का ब्यापादादीनं सुप्पहीनत्ता पच्चय्युप्पन्निञ्जनाय च अभावतो, अभाव, तृष्णा का न होना - ... अनिच्छनभावं मम परे न थेरगा. अट्ठ. 2.76; ख. नपुं., चतुर्थ ध्यान की शान्त अवस्था जानन्ति .... जा. अट्ठ. 4.29.
- इदम्पि खो अहं, उदायि, अनिजितस्मिं वदामि. म. नि. अनिच्छय पु., निच्छय का निषे., तत्पु. स. [अनिश्चय]. 2.127; पाठा. इञ्जितस्मिं; चतुत्थज्झानं अनिञ्जनं अचलनं निश्चय का अभाव, अनिर्णय, ऊहापोह भरी मनःस्थिति, निफन्दनन्ति वदामि, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.122. अनिश्चितता; - पच्चु पट्ठान त्रि., तत्पु. स. अनिट्ठ त्रि., इट्ठ का निषे., तत्पु. स. [अनिष्ट], वह, जो मन [अनिश्चयप्रत्युपस्थान], अनिश्चितता को उपस्थित या द्वारा इच्छित नहीं है, अवाञ्छित, अप्रार्थित, अप्रिय - अथो उत्पन्न करने वाली विचिकित्सा या सन्देह - सा संसयलक्खणा इवे अनिद्वे च ..., सु. नि. 155; यं मनोदुच्चरितस्स अनिट्ठो ... अनिच्छयपच्चुपट्टाना, ध. स. अट्ठ. 298; विसुद्धि. 2.98. अकन्तो अमनापो विपाको .... म. नि. 3.112; तं परे अनिच्छा स्त्री., इच्छा का निषे., तत्पु. स. [अनिच्छा], क. अनिद्वेन अकन्तेन अमनापेन समुदाचरन्ति, अ. नि. इच्छा का अभाव, अलोभ - उपेक्खा धुरसमाधि, अनिच्छा। 1(2).243; अनिट्ठन्ति अप्पियं, पटिलाभत्थाय वा अपरियेसितं. परिवारणं. स. नि. 3(1).6; ... अलोभसङ्घाता अनिच्छा .... विभ. अट्ट,8; - द्वाभिमत त्रि., कर्म. स. [अनिष्टाभिमत]. स. नि. अट्ठ. 3.1583; ख. हिचकिचाहट, अरुचि, विमुखता अनिष्ट अथवा अप्रिय रूप में माना गया, वह, जिसे अभीष्ट -सचे अहं दानं ददमानो विपाकं असद्दहित्वा अत्तनो अनिच्छाय नहीं माना गया हो-... एकच्चस्स अनिट्ठाभिमतो, एकच्चस्स दम्मि .... जा. अट्ठ. 4.29.
इट्ठो, उदा. अट्ठ. 163; - गन्ध पु., कर्म. स. अनिच्छित त्रि., इच्छित का निषे.. तत्पु. स. [अनिच्छित], [अनिष्टगन्ध], अप्रिय गन्ध, दुर्गन्ध - दुग्गन्धोति न चाहा हुआ, अनचाहा, अवाञ्छित, अप्रीतिकर, अप्रार्थित- अनिट्ठगन्धो, ध. स. अट्ठ. 352; - निमित्त नपुं.. कर्म. स. एवं सेय्यं अलभित्वा अनिच्छितं परित्तकमेव कालं सेय्यं [अनिष्टनिमित्त], अनिच्छित अथवा अप्रिय चिहन, अपशकुन लभति, ध. प. अट्ठ.2.275; यथा अनिच्छितं न गच्छति, एवं - अनिट्ठनिमित्तानि अतिधोरानि, सद्धम्मो. 285; - फल त्रि., आवरणतो आवरणं, दी. नि. अट्ठ. 2.99.
ब. स., अनिच्छित अथवा मन को प्रतिकूल फल देने वाला अनिज्झत्तिबल त्रि.. ब. स. [बौ. सं. अनिध्यप्तिबल], मनवाने - कटुकप्फलानीति अनिट्ठफलानि पापकम्मानि..., पे. व. में अक्षम, सन्तुष्टि देने में असमर्थ, शान्त कराने में अक्षम अट्ठ. 51; - फस्स पु.. कर्म. स. [अनिष्टस्पर्श], अप्रिय - ते असञ्जत्तिबला, अनिज्झत्तिबला ..., अ. नि. 1(1).90. स्पर्श, अनिच्छित अनुभव - ... तथेव धीरो इद्वानिट्ठफस्स अनिज्झानखम त्रि.. निषे., तत्पु. स. [अनिध्यानक्षम]. सूक्ष्म फुट्ठो होति, थेरगा. अट्ठ. 2.252; - रस नपुं., कर्म. स., परीक्षा में खरा न उतरने योग्य, परीक्षण किये जाने पर अनिच्छित स्वाद, पसन्द में न आने वाला स्वाद - असादति
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अनिद्वित
224
अनिदस्सन
अनिट्ठरसो, ध. स. अट्ठ, 353; - रूप नपुं., कर्म. स., अनचाही वस्तु, अप्रिय पदार्थ - यं किञ्चि चक्खुना रूपं पस्सति, अनिट्ठरूपयेव पस्सति, स. नि. 2(2).129-130; - ट्ठाकन्तविपाकत्त नपुं.. भाव. [अनिष्टाकान्तविपाकत्व]. अनिष्ट एवं अप्रिय विपाक की अवस्था - ... विपाककाले अनिट्ठाकन्तविपाकत्ता, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).200; - ढङ्गत/वागत त्रि., उप. स. [अनिष्ठागत], अनिश्चय से भरा, शङ्कालु, सन्देहग्रस्त, विचिकित्सा से पीड़ित - अपि च खो की होति विचिकिच्छी अनिट्ठङ्गतो सद्धम्मे, स. नि. 2(1).91; अ. नि. 1(2).202; अनिट्ठङ्गतो विचिकिच्छावसेन तिद्वति, महानि. 18; अनिट्ठङ्गतोति विचिकिच्छावसेन, महानि. अट्ठ. 192; - ता स्त्री॰, भाव. [अनिष्टता], शङ्कालुता, विचिकित्सायुक्त मनोदशा - या खो पन सा, भिक्खवे, कविता विचिकिच्छिता अनिट्ठङ्गतता सद्धम्मे सङ्घारो सो, स. नि. 2(1).91; - भाव पु., भाव. [अनिष्टभाव], उपरिवत् - .... काळारिकानं कणेरुकानं पदं भविस्सतीति अनिद्वङ्गतभावो विय योगिनो ..., म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).101. अनिहित त्रि., निट्ठित का निषे., तत्पु. स. [अनिष्ठित], पूर्ण न किया हुआ, समाप्त न किया हुआ, अपूर्णीकृत, अपूर्ण - तस्स विदत्थिमत्तं अनिहितं, ध. प. अट्ठ. 2.98; - छदन त्रि., ब. स. [अनिष्ठितछदन], ऐसा घर, जिसकी छत । अपूर्ण रह गयी है - ... रओ उय्याने वासागारं विप्पकतं होति, अनिहितच्छदनं ..., जा. अट्ठ. 3.279. अनिद्री त्रि., निदुरी का निषे०, तत्पु. स. [अनिष्ठुरिन्], वह, जो कठोर स्वभाव का न हो, कोमल प्रकृति वाला, ईर्ष्या एवं अहंकार से रहित - अनिट्वरी अननुगिद्धो, सु. नि. 958; तत्थ अनिदुरीति अनिस्सुकी, सु. नि. अट्ठ. 2.260; यस्सेतं निवरियं पहीनं ... आणग्गिना दर्द, सो वुच्चति अनिव्वरीति, महानि. 330. अनिण/अणण त्रि., इण या अण का निषे., ब. स. [अनृण], ऋण से मुक्त, वह, जिसके पास किसी का कोई ऋण शेष न हो - अणणो भुजामि भोजनं, म. नि. 2.315; इध किलेसइणानं अभावं सन्धाय अणणो ति वृत्तं, अनिणो तिपि पाठो, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.244. अनित्तर त्रि., इत्तर का निषे., तत्पु. स. [अनित्वर]. वह, जो विनश्वर अथवा अनित्य न हो, स्थिर, चिरस्थायी, अक्रूर, अकठोर, प्रधान, श्रेष्ठ - अनित्तरा इत्तरसम्पयुत्ता, जा. अट्ठ. 7.46; अनित्तराति सुभोग इमस्मिं लोके या च वेदा च अनित्तरा... ते इत्तरेहि ब्राह्मणेहि सम्पयुत्ता, जा. अट्ठ. 7.47.
अनित्थी स्त्री., इत्थी का निषे., तत्पु. स. [अस्त्री], क. अनारी, नारी से भिन्न कुछ और - अनित्थी इत्थिपण्डका, पारा. 223; ... अञ्जन सद्धिं संवासं गता नेव अनित्थी होति, जा. अठ्ठ. 2.104; ख. व्याकरण के विशेष सन्दर्भ में स्त्री. से भिन्न, पु. अथवा नपुं. शब्द - करतो इत्थियमनित्थियं वा अभिधेय्यायं रिरियप्पच्चयो होति वा, क. व्या. 556; - गन्ध 1. पु. एक राजकुमार का नाम - अनित्थिगन्धोत्वेव सञ्जानिस सु. नि. अट्ठ. 1.55; अनित्थिगन्धकुमारं नाम आरब्भ कथेसि, ध. प. अट्ठ. 2.164; जा. अट्ठ2.272; 2. स्त्री से कोई भी सम्बन्ध न रखने वाला, नारी के प्रभाव से मुक्त - ... हिमवति पञ्चसततापसा अनिस्थिगन्धा ..., म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.47; - न्धकुमारवत्थु नपुं.. ध. प. अट्ठ. की एक कथा का शीर्षक, ध. प. अट्ठ. 2.164-166; - गन्धवनसण्ड पु., स्त्री प्रभाव से मुक्त वनप्रदेश - पन दानि अहं अनित्थिगन्धवनसण्डमेव गमिस्सामि, जा. अट्ठ. 3.443; - भूत त्रि., इत्थिभूत का निषे., तत्पु. स. [अस्त्रीभूत], वह, जो स्त्रीत्वभाव वाला नहीं है, स्त्रीलिङ्ग का नही है - तथाहि अनित्थिभूतोपि समानो 'मातुलाति इथिलिङ्गवसेन रुक्खोपि नाम लभति, सद्द. 243. अनिस्थिण्ण/अनतिण्ण त्रि., नित्थिण्ण या अतिण्ण का निषे०, तत्पु. स. [अनिष्तीर्ण]. वह, जिसे पार न किया गया हो, वह, जिसका उद्धार न हुआ हो, अमुक्त, अरक्षित - सिया च नेसं कन्तारावसेसो अनतिण्णो, स. नि. 1(2).87. अनिदस्सन त्रि., निदस्सन का निषे०, ब. स. [अनिदर्शन], क. शा. अ. वह, जिसे लक्षणों द्वारा व्याख्यात न किया जा सके, वह, जिसे दृष्टान्तों आदि के सहारे दिखलाया न जा सके, ख, ला. अ. अदृश्य, अतर्कावचर, वह, जिसे चक्षुविज्ञान द्वारा ग्रहण न किया जा सके, निर्वाण - विआणं अनिदस्सनं. दी. नि. 1.203; .... निब्बानस्सेतं नाम, तदेतं निदस्सनाभावतो अनिदस्सनं, दी. नि. अट्ठ. 1.294; अनिदस्सनन्ति चक्खुविज्ञाणस्स आपाथं अनुपगमनतो अनिदस्सनं नाम, ... निब्बानमेव वुत्तं, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).306; अनिदस्सनोति दस्सनस्स चक्खुविणस्स अनापाथो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).7; यं चक्खु ... पसादो अत्तभावपरियापन्नो अनिदस्सनो.... विभ. 78; यं तं रूपं बाहिरं तं अस्थि सनिदस्सनं, अस्थि अनिदस्सनं, ध. स. 585; ग. नपुं., निर्वाण के पर्यायवाचक शब्द के रूप में - अनासवं, धुवमनिदस्सनाकतापलोकितं..., अभि. प. 7; - गामी त्रि., अनिदर्शन अर्थात निर्वाण की ओर ले जाने वाला
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अनिदान
- अनिदस्सनञ्च वो, भिक्खवे, देसेस्सामि अनिदस्सनगामिञ्च मग्गं. स. नि. 2 (2).342.
अनिदान त्रि, निदान का निषे, ब० स० [अनिदान ], कारणरहित, हेतु-प्रत्यय-रहित, निराधार, अनिमित्त सनिदानं समणो गोतमो धम्मं देखेति नो अनिदानं, म. नि. 2.211 सनिदान, भिक्खवे, उप्पज्जति कामवितक्को, नो अनिदान, स. नि. 1 (2). 133.
अनिद्दि त्रि, निद्दिट्ठ का निषे, तत्पु स० [ अनिर्दिष्ट], विस्तार के साथ अप्रकाशित, वह, जिसका स्पष्ट रूप से संकेत अथवा उल्लेख नहीं किया गया है पावचनस्मिं हि रूहि अनिद्दिद्वानिपि अनेकविहितानि निपातपदानि सन्दिस्सन्ति, सद 1.300 लक्खण त्रि. ब. स. वह जिसके लक्षणों का स्पष्ट रूप से कथन नहीं किया गया है। ये सदा अनिक्खिणा, क. व्या. 393 सद्द. 3,800. अनिद्धन्त त्रि. निद्धन्त का निषे, तत्पु० स० [ अनिध्मात], नहीं धाँका हुआ, परिशुद्ध न किया हुआ, अविशोधित, फूंक कर न हटाया हुआ - तं होति जातरूपं धन्तं सन्धतं निद्धन्तं अनिद्धन्तकसावं, अ. नि. 1 ( 1 ).286. अनिद्धारित त्रि, निद्धारित का निषे, तत्पु० स० [ अनिर्धारित ], निर्धारित न किया हुआ, वह, जिसका निश्चित रूप से निर्धारण नहीं हुआ है; - सामत्थिय त्रि०, ब० स०, वह जिसकी सक्षमता का निश्चय नहीं हुआ है किं अनिद्धारितसामत्थियेन अन्तराभवेन परिकप्पितेन पयोजन, उदा. अट्ठ. 74.
अनिद्धि त्रि. इद्धि का निषे, ब० स० [ अनृद्धि], ऋद्धि अथव धनधान्य से रहित, निर्धन दरिद्र, अभागा - अनिद्धिनं, महाराज, दमेतस्संव सारथि, जा. अट्ठ. 7.368; अनिद्धिं असमिद्धिं दलिदपुरिसं नाम -.. जा. अट्ठ. 7.363; . क त्रि. इद्धिक का निषे, व. स. [अनृद्धिक], उपरिवत्
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ते मयं... अनिद्धिका दन्ता ... असमिद्धि येव नो दमेति, जा. अ. 7.368 मन्तु त्रि. निषे, तत्पु, स. [अनृद्धिमत् ]. क. उपरिवत् - न केवलं ता नारियोव, अथ खो सब्बे अनिद्धिमन्तोपि सत्ता तस्स उपभोगा भवन्ति, जा. अट्ठ 6. 189; ख. वह जिसमें ऋद्धियां अथवा अलौकिक शक्तियां न हों - यो पन तत्थ अनिद्धिमा .... मि. प. 246. अनिधानगत क्रि निधानगत का निषे, तत्पु. स. [अनिधानगत], असञ्चित, वह जिसे पुञ्जीभूत अथवा एकत्रित नहीं किया गया है, छिन्न-भिन्न अनिधानगता भग्गा, पुञ्जो नात्थि अनागते महानि, 31... ये खन्धा भिन्ना
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अनिपकवुत्ति
ते निधानं निहितं निचयं न गच्छन्तीति अनिधानगता, महानि, अड. 119.
अनिधानवन्तु त्रि, निधानवन्तु का निषे०, का निषे तत्पु, स. [ अनिधानवत्] सुरक्षित करने अथवा संग्रह करने के लिए अनुपयुक्त, वह, जो, सुदृढ़ आधार पर न खड़ा हो, मन में न रखने योग्य गम्भीर तात्पर्य से रहित - अनिधानवतिं वाचं भासिता होति म. नि. 1.360; अनिधानवतिं वाचंति हृदयमञ्जुसायं निधेतुं अयुत्तं वाचं, म. नि. अट्ठ० ( मू०प०) 1 (2). 227; निधानं युच्चति उपनोकासो, निधानमस्सा अत्थीति निधानवती, हृदये निधातब्बयुत्तकं वाचं भासिताति दी. नि. अ. 1.71 अनिधानवतिं ति न हृदये निघेतब्बयुत्तकं
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अ. नि. अट्ठ. 2.259.
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अनिन्दारोस पु. इ. स. [ अनिन्दारोष ] निन्दा रोष या क्रोध का अभाव - अनिन्दारोसं निस्साय निन्दारोसो पहातब्बो, म. नि. 2.25; अनिन्दारोसन्ति अनिन्दाभूतं अघट्टनं. म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.29. अनिन्दित त्रि, निन्दित का निषे, तत्पु॰ स॰ [अनिन्दित], वह जिसकी निन्दा न हो रही हो, अनिन्दनीय, निन्दा-रहित • नत्थि लोके अनिन्दितो ध. प. 227; अनिन्दितो सग्गमुपेति ठानं. स. नि. 1 ( 1 ) 109 तज्ञ त्रि, ब स सुन्दर अङ्गों वाला / वाली - पासादमारुय्ह अनिन्दितङ्गी ति पादन्ततो याव केसग्गा अनिन्दितसरीरा जा. अह. 4.95; तब्बलोचन त्रि., ब॰ स॰ [अनिन्दितव्यलोचन ], सुन्दर नेत्रों वाला / वाली अनिन्दलोचनेति अनिन्दितम्बलोचने जा. अड. 7.156. अनिन्दिय त्रि. निन्दिय का निषे, तत्पु. स. [ अनिन्दय]. अनिन्दनीय, उत्तम, उत्कृष्ट, प्रशंसनीय परमसुन्दर अनिन्दियो धम्मकायो, अप. 2.201 थेरीगा. अड. 161. पाठा. अनिन्दित.
अनिन्द्रियबद्ध त्रि. निषे, तत्पु, स [अनिन्द्रियबद्ध ]. संज्ञाविहीन, चेतनाविहीन, निर्जीव अविञ्ञाणकं अनिन्द्रियबद्धसुवण्णरजतादि खु. पा. अट्ठ. 141; असञ्ञकायन्ति अनिन्द्रियबद्ध अधितकायञ्च ... जा. अड.
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7.55.
अनिन्धन त्रि, निषे, ब. स. [ अनिन्धन] बिना ईंधन वाला, जलावन अथवा ईंधन से रहित अनेधो धूमकेतूवाति अनिन्धनो अग्गि विय, जा. अड्ड 4.25; अनाहारोति अनिन्धनो, थेरगा. अट्ठ. 2.223. अनिपकवृत्ति त्रि, निपकवृत्ति का निषे०, ब० स० [अनिपकवृत्ति ], अविवेकपूर्ण जीवन जीने वाला अनेसनाय
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अनिपुण
जीविकं कप्पेन्तो अनिपकवृत्ति नाम होति, न पञ्ञाय ठत्वा जीविक कप्पेति म. नि. अड. (म.प.) 24. अनिपुण त्रि. निपुण का निषे, तत्पु. स. [ अनिपुण ]. क. वह, जो निपुण अथवा चतुर नहीं है, अकुशल अनिपुणोपेतं सुत्वा अत्तमनो भवेय्य, मि. प. 225 ख. अश्लील, स्थूल, क्षुद्र - थूलञ्च असुखुगं, अनिपुणन्ति... पारा. अड.
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1.170.
अनिष्पत्ति स्त्री, निष्पत्ति का निषे, तत्पु, स. [ अनिष्पत्ति ]. काम का अनिष्पादन, अनुष्ठान का पूरा न होना अम्म तय करोन्तिया अनिप्फत्ति नाम नत्थि, जा० अट्ठ. 1.436, तुल, अनिष्फादन अनिफन्न त्रि. निफन्न का निषे, तत्पु. स. [ अनिष्पन्न ], 1. व्याकरण के विशेष सन्दर्भ में अव्युत्पन्न, वह शब्द, जिसका उद्भव व्युत्पत्ति द्वारा न बतलाया जा सके धातुचिन्ताय ये मुत्ता अनिष्फन्नाति ते मता, सद्द 2.586; 2. अभिधर्म के सन्दर्भ में हेतुओं एवं प्रत्ययों से अनुत्पन्न अनिप्फन्ना दस चेति, अभि. ध. स. 43: ... विना विसुं पच्चयेहि अनिब्बत्तत्ता इमे अनिप्फन्ना.... अभि. ध. वि. टी. 180; - टि. रूप के विभाजन में चार महाभूत, पांच प्रसादरूप, चार गोचररूप, दो प्रकार के भावरूप, एक प्रकार का हृदयरूप, एक प्रकार का आहाररूप, तथा एक प्रकार का जीवितेन्द्रियये अट्ठारह प्रकार के रूप निप्फन्नरूप कहलाते हैं क्योंकि इनकी उत्पत्ति कर्म, चित्त, ऋतु एवं आहार इन चार हेतुओं में से किसी एक अथवा अनेक
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से होती है. परन्तु आकाश, दो प्रकार के विज्ञप्तिरूप, तीन प्रकार के विकार और चार प्रकार के लक्षणरूप- ये दस प्रकार के रूप इन चार कारणों से उत्पन्न न होने से अनिष्फन्न रूप कहलाते हैं.
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अनिष्फल त्रि, निष्फल का निषे, तत्पु० स० [ अनिष्फल ], वह जो फलरहित न हो, वह जो सार्थक अथवा फलदायी हो उपासिकायो अनिष्फला कालङ्कता, उदा. 163: थ. प. अड. 1. 127; अनिष्फलाति न निष्फला, सम्पत्तसामञ्ञफला एव.. उदा. अट्ठ. 312; दायका च अनिप्फला, पे. व. 11. अनिष्काद पु. निष्काद का निषे, तत्पु, स. [ अनिष्पाद]. कार्यान्वयन का अभाव, काम का पूरा न होना अनिष्फादाय सहेय्य धीरो, जा० अट्ठ 6.211.
अनिबद्ध / अनिबन्ध त्रि. निबद्ध / निबन्ध का निषे, तत्पु, स० [ अनिबद्ध / अनिर्बन्ध], क. अनिर्धारित, अनिश्चित, अनिर्णीत- जयपराजयोपि अनिबद्धो ... जा. अट्ठ. 1.419;
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अनिब्बत्तित
भगवतो गोचरगामो अनिबन्ध, म. नि. अड्ड. (म.प.) 1 (2). 144; ख. अस्थायी, क्षणभङ्गुर, अनित्य- पुथुज्जनिधि नाम चला अनिबद्धा म. नि. अड्ड. (म.प.) 2.174 - चारिका स्त्री, कर्म, स. किसी निश्चित उद्देश्य के लिए न किया जा रहा भ्रमण तत्य यं गामनिगमनगरपटिपाटिक्सेन चरति, अयं अनिबद्धचारिका नाम दी. नि. अ. 1.197 - वास त्रि०, ब० स०, अनिश्चित आवास वाला वीसति वस्सानि अनिबद्धवासो हुत्वा अ. नि. अड्ड 2.30 - सयन त्रि. ब. स. वह जिसके पास सुनिश्चित शय्या अथवा सोने का स्थान न हो योगिना योगावचरेन अनिबद्धसयनेन भवितब्ब, मि. प. 368. अनिबन्धनीय त्रि. निबंधनीय का निषे, तत्पु, स. [ अनिबन्धनीय], नहीं सटने अथवा चिपक जाने योग्य, बांध कर न रखे जाने योग्य सेतवण्णो अनिबन्धनीयो होति चूळय 277. अनिब्बचनीय त्रि निब्बचनीय का निषे, तत्पु. स. [ अनिर्वचनीय], वह जिसकी व्याख्या शब्दों द्वारा अथवा बुद्धि द्वारा न की जा सके, अव्याख्येय, अनुभवगम्य प्रत्यात्मवेध (निर्वाण के विशेष सन्दर्भ में प्रयुक्त) त नपुं. भाव अव्याख्येयता अनिब्बचनीयत्ता वीच्छासद्दानं, सद्द. 1.285. अनिब्बत्त त्रि. निब्बत्त का निषे, तत्पु, स. [ अनिर्वृत्त], अभी तक अनुत्पन्न, वह, जो वर्तमान क्षण तक उदित अथवा उत्पन्न नहीं हुआ है, अप्रादुर्भूत, अजात ये धम्मा अजाता अभूता ... अनिब्बत्ता ... इमे धम्मा अनुप्पन्ना, ध. स. 1042; अनिब्बत्तेन न जातो, पच्चुप्यन्नेन जीवति महानि. 30 अनिब्बत्तेन ... ति अजातेन अपातुभूतेन अनागतक्खन्धेन न जातो न निब्बत्तो, महानि. अट्ठ 119; फल त्रि०, ब० स०, वह जिसका फल वर्तमान क्षण तक उत्पन्न नहीं हुआ है यानिमानि रुक्खानि अनिब्बतफलानि, मि. प. 78. अनिब्बत्तन नपुं, निब्बत्तन का निषे, तत्पु. स. [अनिर्वर्तन]. अप्रादुर्भाव, अनुत्पत्ति, अप्राकटीभाव, उदय का अभाव, असम्पादन
अञ्ञस्स अत्तभावस्स अनिब्बत्तनेन, सु. नि. अट्ठ. 1.94. अनिब्बत्ती / अनिवत्ति त्रि निब्बत्ती का निषे तत्पु. स.
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[ अनिर्वर्तिन् ] पुनः वापस लौटकर न आने वाला, पुनर्जन्म ग्रहण न करने वाला, पुनर्भाव प्राप्त न करने वाला अनिब्बत्ती ततो अस्सं जा. अट्ठ. 7.352; पाठा. अनिवत्ति अनिब्बत्तित त्रि, निब्बत्तित का निषे, तत्पु० स० [ अनिर्वर्तित]. अनुत्पादित, वह जिसे प्रादुर्भूत न किया गया हो; अकृत - अकतेनाति अनिब्बतितेन अत्तना अनुपचितेन, पे. व. अड. 131.
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अनिमित्त
अनिब्बानसंवत्तनिक अनिब्बानसंवत्तनिक त्रि., निब्बानसंवत्तनिक का निषे., तत्पु. स. अनिर्वाणसंवर्तनिक], निर्वाण की ओर न ले जाने वाला, निर्वाण-प्राप्ति में असहायक या अनुपयोगी - कामवितक्को, भिक्खवे, अन्धकरणो ... अनिब्बानसंवत्तनिको, इतिव. 60- पञ्चिमे भिक्खवे नीवरणा अन्धकरणा... अनिब्बानसंवत्तनिका, स. नि. 3.118; अनिब्बानसंवत्तनिकाति निब्बानत्थाय असंवत्तनिका, स. नि. अट्ठ. 3.188; ... सब्ब रागतमं ... अनिब्बानसंवत्तनिकं नदित्वा, ..., महानि. 341; अनिब्बानसंवत्तनिकन्ति अपच्चयअमतनिब्बानत्थाय न संवत्तनिक, महानि. अट्ट, 359. अनिबिड त्रि., निबिट्ट का निषे., तत्प. स. [अनिर्विष्ट]. अनासक्त, अलिप्त - दस्सनतो या अनिबिट्ठा वा होतु निबिट्ठा, सद्द. 2.364, तुल. अनिविट्ठ (आगे). अनिब्बिद्ध त्रि., निब्बिद्ध का निषे., तत्पु. स. [अनिर्विद्ध]. वह, जिसे भीतर तक बेधा न गया हो अथवा जो दरार-रहित हो, विषयभोगों अथवा राग आदि से अप्रभावित (चित्त) - सो ... भावितेन चित्तेन अनिबिद्धपुब्बं ... लोभक्खन्धं निबिज्झति..., स. नि. 3(1).107; - द्धा स्त्री., ऐसा मार्ग, जो व्यूह के रूप में हो, सभी के लिए सरल न हो, चतुष्पथ, व्यूह - व्यूहो रच्छा अनिबिद्धा, अभि. प. 202; व्यूहोनिबद्धरच्छायं, अभि. प. 1007. अनिबिन्दियकारी त्रि., निबिन्दियकारी का निषे., तत्पु. स. अनिर्वेदकारी], निरुत्साह अथवा निराशाभाव के बिना काम करने वाला, अनासक्त होकर कर्म करने वाला, विषय-भोगों के प्रति निरपेक्ष होकर कर्मों में रत -
अनिबिन्दियकारिस्स, सम्मदत्थो विपच्चति, जा. अट्ठ. 5.117, द्रष्ट, न निबिन्दियकारी. अनिब्बिसता स्त्री., निब्बिसता का निषे. [अनिर्विषता], विष से मुक्त न होने की दशा, विषरहित न होने की अवस्था - अदन्तो ... ति एत्थ पन अनिब्बिसताय अदन्तो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).202. अनिब्बुत त्रि., निब्बुत का निषे०, तत्पु. स. [अनिवृत], निर्वाण को अप्राप्त, अमुक्त, अप्रसन्न - ... निबुतस्स अनिबुतो, इतिवु. 66; रागादिकिलेसपरिळाहाभिभवेन अनिबुतो, इतिवु. अट्ठ. 259; - किलेसता स्त्री॰, भाव. [अनिवृतक्लेशता], उस व्यक्ति की अवस्था अथवा मनोदशा, जिसके क्लेश नष्ट नहीं हुए हों, क्लेशों के उपशमन के अभाव वाली मनोदशा - अनिबुतकिलेसताय अपरिनिबुतोति वेदितब्बो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).202.
अनिब्बेमतिक त्रि., निब्बेमतिक का निषे., तत्पु.
अनिर्वैमतिक], सन्देहों से अमुक्त, सन्देहग्रस्त, संशयाल - भाव पु., कर्म, स., सन्देहग्रस्त होने की दशा, संशयग्रस्तता - अथ महाजनो न निब्बेमतिको होति, अथस्स
अनिब्बेमतिकभावं विदित्वचा.... ध. प. अट्ट, 1.23. अनिमित्त त्रि., निमित्त का निषे०, ब. स. [अनिमित्त], क. चिह्नों अथवा विशिष्ट लक्षणों से रहित, असंस्कृत, शून्य (निर्वाण) - अनिमित्तञ्च भावेहि. सु. नि. 344, थेरीगा. 20, 105; अनिच्चानुपरसनाञाणं निच्चनिमित्ततो विमुच्चतीति अनिमित्तो, सु. नि. अट्ट, 2.70; सुञतो अनिमित्तो च, ध. प. 92; रागादिनिमित्तानं अभावेन अनिमित्तं, तेहि च विमुत्तन्ति अनिमित्तो विमोक्खो , ध. प. अट्ठ. 1.344; ख. रहस्यमय, अज्ञात, विचित्र - अनिमित्तमनञआतं, मच्चानं इध जीवितं. सु. नि. 579; अनिमित्तन्ति किरियाकारनिमित्तविरहितं. सु. नि. अट्ठ. 2.161; ग. कारणरहित, अहेतुक - सनिमित्ता ..... उप्पज्जन्ति पापका अकुसला धम्मा, नो अनिमित्ता, अ.
नि. 1(1).98; तञ्च अनिमित्तं अनिदानं असङ्घारं अप्पच्चयं ..... स. नि. 3(2).290; घ. पुरुषत्व एवं स्त्रीत्व के चिह्नों (लिङ्गों) से रहित- अक्कोसति नाम अनिमित्तासि..., पारा. 190; ङ. परिसीमन-रहित, असीम - पथविं सागरपरियन्तं अखिलमनिमित्तं, दी. नि. 3.108; - कत त्रि., वह जिसके विषय में कोई निर्णय नहीं किया गया हो - अनिमित्तकतेन अत्थतं होति कथिनूं महाव. 332; - कतदिस त्रि., ब. स., अनिर्धारित दिशा की ओर जाने वाला - ... सा पपटिका .... अनिमित्तकतदिसा .... मि. प. 176; - फलसमापत्ति स्त्री., अनिमित्त अर्थात् निर्वाण के फल की प्राप्ति - ... सुञतफलसमापत्ति अनिमित्तफलसमापत्ति .... मि. प. 303; - मग्ग पु., कर्म. स. [अनिमित्तमार्ग], लक्षणरहित, नामरहित, चिह्नरहित मार्ग, अनिमित्त की अनुपश्यना वाला मार्ग - ... अनिमित्तविपस्सना सयं आगमनीयट्ठाने ठत्वा अत्तनो मग्गस्स नामं दातुं न सक्कोतीति अनिमित्तमग्गो न गहितो, ध. स. अट्ट, 267; - रत त्रि., तत्पु. स., निमित्तरहित (निर्वाणपद) में लगा हुआ - सुञताबहुलो तादी, अनिमित्तरतो वसी, अप. 2.16; - विमुत्त त्रि., कर्म. स. [अनिमित्तविमुक्त], अनिमित्त नामक विमुक्ति को प्राप्त करने वाला - ... सुअत्तविमुत्तेन, अनिमित्तविमुत्तेन .... नेत्ति. 162: - विमोक्ख पु., कर्म. [अनिमित्तविमोक्ष], अनिमित्त नामक विमुक्ति का एक प्रभेद - अनिच्चानुपस्सनाय हि वसेन अनिमित्तविमोक्खो कथितो, ध. स. अट्ठ. 266; - विहारी त्रि., उप. स.
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अनिमिस/अनिम्मिस
228
अनियम/अनियाम [अनिमित्तविहारी], त्रि. अनिमित्त नामक विमोक्ष की स्थिति न किया गया - अनिम्मिताति इद्धियापि न निम्मिता, दी. में अवस्थित व्यक्ति - ... तिस्सो ब्रह्मा सत्तमं अनिमित्तविहार नि. अट्ठ. 1.138. पुग्गलं देसेति, अ. नि. 2(2).219; - त्तानुपस्सना स्त्री., अनियत त्रि., नियत का निषे., तत्पु. स. [अनियत], क. तत्पु. स. [अनिमित्तानुपश्यना], संसार के धर्मों में अनिमित्त अनिश्चित, संदेहग्रस्त, अनियमित, आकस्मिक, परिगणित नामक लक्षण पर विपश्यना ध्यान - अनिमित्तानुपस्सना धर्मों में अन्तर्भूत न होने वाला, अवशिष्ट, अस्थिर, चञ्चल; अभिजेय्या, पटि. म. 19; अनिमित्तानुपस्सना यथाभूतं आणं इधर से उधर उछलने वाला, डांवाडोल - तयो रासी ... निमित्ततो सम्मोहा अञआणा मुच्चतीति .... पटि. म. 229. अनियतो रासि, दी. नि. 3.173; न नियतो ति अनियतो, अनिमिस/अनिम्मिस त्रि., निमिस/निम्मिस का निषे., ब. अवसेसानं धम्मानमेतं नाम, दी. नि. अट्ठ. 3.158; तथा स. [अनिमिष], क. वे आंखें, जिनकी पलकें न झपकाई अनियतत्ता अनियता, ध. स. अट्ठ. 97; गच्छती अनियतो गयी हों, एक ही आलम्बन पर टकटकी लगा कर देखने गळागळं जा. अट्ठ. 5.451; ख. विनय के विशिष्ट सन्दर्भ वाली आंखें, अपलक दृष्टि - यक्खानं अक्खीनि रत्तानि में- स्त्रियों के प्रति भिक्षु के व्यवहारों से संबंधित दो प्रकार होन्ति अनिम्मिसानि, जा. अट्ठ. 5.31; बोधिरुक्खञ्च अनिमिसेहि के वे अपराध, जिनकी प्रकृति अनिश्चित होती है - चक्खूहि ओलोकयमानो सत्ताहं वीतिनामेसि, उदा. अट्ट. अनियतोति न नियतो, पाराजिकं वा सङ्घादिसेसो वा पाचित्तियं 42; ख. पु.. देवता का नाम, देवमछली - निज्जरा, निमिसा वा, पारा. 296; - कथा स्त्री., कर्मस., विन. वि. के दिब्बा, अभि. प. 12; देवमच्छेस्वनिमिसो, अभि. प. 1044; - तृतीय खण्ड का नाम, विन. वि. 45-46; - गतिक त्रि.. टि. देवों एवं यक्ष आदि अर्ध-दैवी सत्त्वों की आंखे अनिमिस ब. स. [अनियतगतिक], वह, जिसके विविध जन्मों के मार्ग या पलक न झपकाने वाली मानी गई हैं; - चेतिय नपुं.. का निश्चय न हो, वह, जिसके अगले जन्म का स्वरूप कर्म. स., बोधिवृक्ष के निकटवर्ती उस पवित्र स्थल का नाम, अनिश्चित हो - ... पुथुज्जनकालकिरियं कत्वा अनियतगतिका जहां एक सप्ताह तक अपलक आंखों से बोधिवृक्ष की ओर भविस्सति, ध. प. अट्ठ. 2.99, नियतगतिक का विलो. - टकटकी लगाकर बुद्ध बैठे थे - ... तं ठानं अनिमिसचेतियं चित्त त्रि., ब. स., अस्थिर अथवा चञ्चल चित्त वाला, नाम जातं. उदा. अट्ठ, 42; - ता स्त्री., भाव. [अनिमिषता]. दुलमुल चित्त वाला - अनियताति अनियतचित्ता, जा. अट्ठ. आंखों की पलकें न झपकाने की स्थिति, अपलकता - 5.452; - त्त नपुं.. भाव. [अनियतत्व], अनिश्चितता, ... अक्खीनं अनिमिसताय चेव रत्तताय च .... जा. अट्ठ. चञ्चलता, अस्थिरता - तथा अनियतत्ता अनियता, ध. स. 6.163; - नेत्त त्रि., ब. स. [अनिमिषनेत्र], पलकों को न अट्ठ. 97; - लिङ्ग त्रि., ब. स. [अनियतलिङ्ग], वह शब्द, बन्द कर रहे नेत्रों से युक्त, अपलक देखने वाला - अभीतो जिसका कोई एक लिङ्ग निश्चित न हो, विशेषण शब्द - अनिमिसनेत्तो, एस सक्को देवराजाति, जा. अट्ठ. 6.166. इदानि अनियतलिङ्गानं नियतलिङ्गेस. सद्द. 1.78; - वचन अनिम्मात त्रि., निम्मात का निषे., तत्पु. स. [अनिर्मातृ]. त्रि., ब. स. [अनियतवचन]. अनिश्चयवाचक अथवा
शा. अ. किसी का निर्माण, सृजन अथवा उत्पादन न करने संयोजक सर्वनाम (शब्द) - याति अनियतवचनं खु. पा. वाला, अनुत्पादक; ला. अ. किसी भी हेतु एवं प्रत्ययों द्वारा अट्ठ. 184; - सवा स्त्री., कर्म स. [अनियतसंख्या], अनुत्पादित या अनिर्मित - सत्तिमे, महाराज, काया अकटा अनिश्चित संख्या - अनियतसङ्घावसेन बहुवचप्पयोगा वा, अकटविधा अनिम्मिता अनिम्माता .... दी. नि. 1.49; सद्द. 1.18; - तुद्देस पु., वि. पि. पारा. के एक खण्ड विशेष अनिम्माताति अनिम्मापिता, केचि अनिम्मापेतब्बाति.... दी. का शीर्षक, पारा. 292. नि. अट्ठ. 1.138, पाठा. अनिम्मापिता, स. नि. अट्ठ. 2.302. अनियम/अनियाम पु., नियम/नियाम का निषे., तत्पु. अनिम्मापेतब्ब त्रि., निम्मापेतब्ब का निषे०, तत्पु. स. स. [अनियम, बौ. सं. अनियाम/अन्याम], नियम का [अनिर्मातयितव्य], निर्माण अथवा सृजन या उत्पादन न अभाव, अनिश्चितता, अव्यवस्था, अविवेक - सो नेसादो करवाने योग्य - अनिम्माति अनिम्मापिता, केचि तत्थ अनियामेन पासे ओड्डेसि, जा. अट्ठ. 5.332; - वसेन
अनिम्मापेतब्बाति पदं वदन्ति, दी. नि. अट्ठ. 1.138. क्रि. वि., बिना किसी क्रम के सामान्य अथवा अनौपचारिक अनिम्मित त्रि., निम्मित का निषे., तत्पु. स. [अनिर्मित]. रूप से - अनियमवसेन भिक्खुसङ्घ सन्निपातापेत्वा .... जा. दूसरे कारणों आदि द्वारा निर्माण न किया गया या उत्पन्न अट्ठ. 3.469; - मत्थ त्रि., ब. स., वह शब्द, जिसका अर्थ
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अनियामित/अनियमित
229
अनिरोध
अनिश्चित हो, संयोजक सर्वनाम-शब्द, (य, वा, अञ्जतर एवं अञतम जैसे सर्वनाम) - अञतर अञतमसद्दा अनियमत्था, सद्द. 1.266; तत्थ वासद्दो अनियमत्थो, उदा. अट्ठ. 261. अनियामित/अनियमित त्रि., नियामित/नियमित का निषे., तत्पु. स. [अनियमित, बौ. सं. अनियमित/अनियामित], अनिश्चित, अनियमित, [प्रायः यं एवं तं जैसे संयोजक सर्वनामों के लिए प्रयुक्त].- निद्देस पु., कर्म स., संयोजक सर्वनामों के प्रयोग द्वारा किसी मन्तव्य का उल्लेख - तत्थ अञ्जतराति अनियमितनिदेसो, खु. पा. अट्ठ. 92; - पच्चत्त त्रि., तत्पु. स., संयोजक सर्वनाम 'य' आदि का प्रथमा विभक्ति में प्रयोग - यन्ति अनियमितपच्चत्तं, खु. पा. अट्ठ. 191; - परिच्छेद पु., तत्पु. स., अनिश्चित मात्रा अथवा माप का निर्धारण- यावाति अनियामितपरिच्छेदो, जा. अट्ठ. 4.155; - परिदीपन नपुं., अनिश्चय का संसूचन या प्रकाशन - एकं समयन्ति अनियमितपरिदीपनं, खु. पा. अट्ठ. 85; -- वचन नपुं., अनिश्चयवाचक अथवा संयोजक सर्वनाम - यानीध भूतानि समागतानी ति अनियमितवचनेन भूतानि परिग्गहेत्वा .... खु. पा. अट्ठ. 133 - वसेन क्रि. वि., अनियमित रूप में - तत्थ ... अनियमितवसेन अनवसेसं परियादियति, खु. पा. अट्ठ. 136; - सङ्खा-निद्देस पु., तत्पु. स. [अनियमित-संख्यानिर्देश], अनिश्चित संख्या का कथन -- बहूति अनियमितसङ्घयानिद्देसो, खु. पा. अट्ठ. 98; - तालपन नपुं., तत्पु. स., किसी अनिश्चित व्यक्ति का आह्वान, किसी विशेष व्यक्ति को सम्बोधित न करना - तत्थ पस्साति अनियामितालपनमेतं, जा. अट्ठ. 3.152; - तुद्देसवचन नपु., तत्पु. स., अनिश्चय वाचक अथवा संयोजक सर्वनाम-पद - तत्थ येति अनियमितुद्देसवचनं खु. पा. अट्ठ. 146. अनिय्यातित्तभाव त्रि., निय्यातित्तभाव का निषे०, ब. स. [बौ. सं. अनिर्यातितात्मभाव], वह, जो आत्मभाव के लगाव से बाहर नहीं निकल सका है- एवं अनिय्यातितत्तभावो हि अतज्जनीयो वा होति ..., विसुद्धि. 1.112. अनिय्यान नपुं., निय्यान का निषे., तत्पु. स. [अनिर्याण]. शा. अ. बाहर की ओर कूच करने या बाहर जाने अथवा आक्रमण करने का अभाव, ला. अ. संसार-बन्धन से बाहर न आ पाना, मुक्ति का अभाव - अनिय्यानन्ति विप्पवुत्थानं पुन आगमनं, दी. नि. अट्ठ. 1.84; - दीपक त्रि., तत्पु. स., विमुक्ति पर प्रकाश न डालने वाला - अनिय्यानदीपकहि
अनत्थकेहि पदेहि .... ध. प. अट्ठ. 1.364; - मग्ग पु., तत्पु. स., संसार-बन्धन से बाहर निकालकर न ले जाने वाला मार्ग - नानप्पकारका हि अनिय्यानमग्गापि मग्गात्वेव वुच्चन्ति , म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).248. अनिय्यानिक/अनीयानिक त्रि, निय्यानिक का निषे., तत्पु. स. [अनिर्याणिक], विमुक्ति अथवा छुटकारा न दिलाने वाला, मुक्ति के लिए अनुपयोगी, छुड़ाकर बाहर निकाल सकने में अप्रतिबल - इध धम्मो दुरक्खातो होति दुप्पवेदितो अनिय्यानिको, स. नि. 3(2).443; दुरक्खाते धम्मविनये दुप्पवेदिते अनिय्यानिके..... दी. नि. 3.87; ये खो पन धम्मा
अनिय्यानिका, ते निय्यन्ति तक्करस्स सम्मा दुक्खक्खयायाति ..... नेत्ति. 76%; लोकायतिकन्ति अनत्थनिस्सितं सग्गमग्गानं अदायकं अनिय्यानिकं.... जा. अट्ठ. 7.181; - कारण नपुं.. कर्म. स., निष्कर्ष तक न पहुंचाने वाली तर्क-पद्धति - .... दुतियं तक्कग्गाहकारणं अनिय्यानिककारणं, जा. अट्ठ. 1.112; - त्त नपुं., भाव., मुक्ति अथवा छुटकारा न दिलाने की अवस्था - अनिय्यानिकत्ता सग्गमोक्खमग्गानं तिरच्छानभूता कथाति ..., दी. नि. अट्ठ. 1.80; - भाव पु., मुक्ति अथवा छुटकारा न दिला सकने की स्थिति - अथ भगवा नेसं अनिय्यानिकभावकथनेन अत्थाभावतो.... म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).133. अनिरस्साद त्रि., निरस्साद का निषे., ब. स., सन्तुष्ट, असन्तोष से रहित - यदास्स एवं पटिपज्जतो अलीनं अनुद्धतं अनिरस्सादं ... समथवीथिपटिपन्नं चित्तं होति. विसुद्धि. 1.131; पआपयोगसम्पत्तिया, उपसमसुखाधिगमेन
च अनिरस्साद, विसुद्धि. महाटी. 1.149. अनिराकतज्झान त्रि., निराकतज्झान का निषे०, ब. स. [अनिराकृतध्यान], ध्यानभावना को बीच में बाधित न करने वाला, वह, जिसकी ध्यान भावना बीच में नहीं टूटती हो - पटिसल्लानारामा, भिक्खवे, विहस्थ ... अनिराकतज्झाना ..., इतिवु. 29; अनिराकतज्झानाति बहि अनीहतज्झाना
अविनासितज्झाना वा, इतिवु. अट्ठ. 147. अनिरुद्ध त्रि., निरुद्ध का निषे., तत्पु. स. [अनिरुद्ध], अप्रतिहत, अबाधित, वह, जिसकी समाप्ति अथवा अन्त नहीं हुआ है - उपेक्खासुखं अनिरुद्ध होति, म. नि. 2.127. अनिरोध त्रि., निरोध का निषे., ब. स. [अनिरोध], वह, जो अभी तक समाप्त नहीं है अथवा जिसका क्षय नहीं हुआ है - ... नत्थिभावविरुद्धो अस्थिभावो अनिरोधोति दस्सितं होति. उदा. अट्ठ. 32.
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अनिल
230
अनिवत्ती
अनिल पु., [अनिल], वायु, हवा, पवन - मालुतो पवनो वायु वातोनिलसमीरणो, अभि. प. 37; गिरिमिव अनिलेन दुप्पसरहो, जा. अट्ठ. 2.184; - जलवेगसञ्छादित त्रि., तत्पु. स., वातावरण अथवा हवा की नमी से पूरी तरह ढका हुआ - यथा वा पन, महाराज, गगनं अनिलजलवेगसञ्छादितं, मि. प. 123; - जव त्रि., ब. स., हवा की गति अथवा वेग वाला - यथा, महाराज, रओ अस्साजानीयो भवेय्य सीघगति अनिलजवो, मि. प. 143; - लञ्जस पु., तत्पु. स., हवा का मार्ग, वायुमण्डल - अम्बरे अनिलजसे, अप. 1.273; अगञ्छि अनिलजसा, अप. 2.4; - जसासंखुब्म त्रि., तत्पु. स., वायु के वेग से क्षुब्ध या प्रभावित न होने वाला - अनिलजसासङ्घडभो, यथाकासो असडियो, अप. 1.113; - पथ पु., तत्पु. स., आकाश, वायुपथ, वायुमण्डल, अन्तरिक्ष - वेहासो चानिलपथो आकासो नित्थियं नभं, अभि. प. 463B ... सकुणी अनिलपथं लङ्घयित्वा ..., जा. अट्ठ. 3.338; -- बल नपुं, हवा की शक्ति - रुक्खोपि ... अनिलबलवेगाभिहतो भिज्जति, मि. प. 159; - बलसमाहत त्रि., तत्पु. स., हवा की शक्ति द्वारा चोटिल - यथा वा पन, महाराज, सण्हसुखुमअणुरजो अनिलबलसमाहतो.... मि. प. 176; - लायन नपुं., तत्पु. स., वायु का मार्ग - चङ्कम सुसमारुळ्हो, अम्बरे अनिलायने, अप. 1.158; - लूपम-समुप्पात त्रि., ब. स., हवा के समान तेज, वायु जैसे वेग से युक्त -
अनिलूपमसमुप्पाता, सुदन्ता सोण्णमालिनो, जा. अठ्ठ. 7.105; अनिलूपमसमुप्पाताति वातसदिसवेगा, जा. अट्ठ. 7.106; - लेरित त्रि., तत्पु. स. [अनिलेरित], हवा द्वारा कंपाया जा रहा, वायु द्वारा प्रकम्पित - अनिलेरिता
लोहितपत्तमालिनी, जा. अट्ट, 5.399. अनिवत्तगमन नपुं.. कर्म. स. [अनिवर्त्यगमन], ऐसा गृहत्याग, जिसमें पुनः लौटकर वापस न आना हो, सदा के लिए गृहत्याग, अन्तिम रूप से गृहत्याग - इदं पन मम
अनिवत्तगमनं, ध. प. अट्ट, 1.39. अनिवत्तन नपुं., निवत्तन का निषे., तत्पु. स. [अनिवर्तन],
तदा पन वाराणसिरो ... अनिवत्तनधम्मा ... महायोधा होन्ति, जा. अट्ठ. 1.255; - भाव पु., वापस न मुड़ने अथवा पीठ न दिखाने की दशा - भयभीरुताय अभावेनेव भेरवारम्मणं दिस्वापि अनिवत्तनभावेनाति .... जा. अट्ठ. 1.449; - समाव त्रि., ब. स., वापस न लौटने अथवा पीठ न दिखलाने वाला, वीरता के स्वभाव वाला - भयभीरुताभावेन
च अनिवत्तनसभावा अहुम्हा, जा. अट्ठ. 1.449. अनिवत्त-ब्रह्मदत्त पु., व्य. सं., वाराणसी के एक राजा का नाम - बाराणसियं किर अनिवत्तब्रह्मदत्तो नाम राजा अहोसि. सु. नि. अट्ट, 1.90. अनिवत्तिक/अनिवत्तक त्रि., ब. स. [अनिवर्तिक], वापस न लौटने वाला - याव लोकप्पवत्ति, ताव अनिवत्तका धम्माति .... खु. पा. अट्ठ. 123; अनिवत्ति भविस्सामीति पबज्जतो अनिवत्तिको भविस्सामि .... अ. नि. अट्ठ. 3.29. अनिवत्तितग्गहण त्रि., ब. स., बहुत दृढ़ता के साथ विषयभोगों में आसक्त, सुदृढ़ आसक्ति वाला - अवस्थितसमादानोति निच्चलगहणो अनिवत्तितगहणो, दी. नि. अट्ठ. 3.92. अनिवत्ति-धम्म त्रि., ब. स., अपने वचन पर अडिग रहने वाला, विश्वसनीय, भरोसेमन्द - तेसं चित्तं उपत्थम्भेत्वा अनिवत्तिधम्मे कत्वा, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.77. अनिवत्तिमानस/अनिवत्तमानस त्रि., निवत्तिमानस का निषे., ब. स., सुदृढ़ अथवा अडिग मन वाला, वह, जिसका मन अविचलित रहे- अनिवत्तमानसंञत्वा, सम्बुद्धो एतदवि, बु.वं. 354. अनिवत्तिय त्रि., निवत्तिय का निषे., तत्पु. स. [अनिवर्त्य]. वापस न लौटने योग्य, पुनः सांसारिक जीवन में वापस आने के लिए अनिच्छुक अथवा अक्षम; - योध पु., कर्म. स., पीठ न दिखाने वाला या रणभूमि से वापस भाग कर न आने वाला वीर योद्धा - ... महानागा, हथिआदीसुपि अभिमुखं आगच्छन्तेसु अनिवत्तिययोधानं एतं अधिवचनं अ. नि. अठ्ठ. 3.182. अनिवत्ती त्रि., निवत्ती का निषे., तत्प. स. [अनिवर्तिन, क. वापस न लौटने वाला, अध्यवसायी, दृढ़प्रतिज्ञ - अनिवत्ति भविस्सामि, ब्रह्मचरियपरायणो, अ. नि. 1.172; पब्बज्जतो च सब्ब ताणतो च न निवत्तिस्सामि, अनिवत्तको भविस्सामि, अ. नि. अट्ठ. 2.128; ... सुहदया अनिवत्तिनो हुत्वा युज्झथाति आह, जा. अट्ठ. 3.4; ख. सुधार अथवा उपचार न किये जाने योग्य, लाइलाज, असाध्य, अचिकित्स्य
अप्रत्यागमन, अप्रत्यावर्तन - एतेन रत्तिक्खयो नाम जीवितक्खयो तस्स अनिवत्तनतोति दस्सेति, थेरगा. अट्ठ. 2.102; ... एवमेव एकादसविधो अग्गि सब्बसत्ते दहन्तो अनिवत्तमानोव गच्छति, सु. नि. अट्ट, 1.91; -धम्म त्रि.. ब. स., वापस अथवा पीछे की ओर न मुड़ने वाला, पलायन न करने वाला, पीठ न दिखाने वाला, जमा रहने वाला --
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अनिवातवुत्ति
231
अनिस्सरण -... तेसं चित्तं उपत्थम्भेत्वा अनिवत्तिधम्मे कत्वा..., म. नि. बाहर की ओर नहीं निकला हुआ, संसार-बन्धन से मुक्त नहीं अट्ठ. (उप.प.) 3.77.
हो चुका, अविप्रमुक्त, बन्धन-ग्रस्त - ये वा पन केचि समणा अनिवातवुत्ति त्रि., निवातवुत्ति का निषे., ब. स., मिथ्याभिमानी, वा ब्राह्मणा वा विभवेन भवस्स निस्सरणमाहंसु, सब्बे ते आडम्बरी, घमण्डी; - कार पु., मिथ्याभिमान, घमण्ड, दर्प अनिस्सटा भवस्मा ति वदामि, उदा. 106; ... तेसम्पि एवं - एवं वातभरितभस्तसदिसथद्धभावपग्गहितसिरअनिवातवुत्ति- विपरीतगाहीनं कुतो भवनिस्सरणं, तेनाह भगवा ... अनिस्सटा कारकरणो थम्भो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).179. ..... उदा. अट्ठ. 172; अयम्पि अनिस्सटो लोकम्हा, अ. नि. अनिवारित त्रि., निवारित का निषे., तत्पु. स. [अनिवारित]. 3(1).237. वह, जिसके विषय में प्रतिरोध न किया गया हो अथवा वह, अनिस्सट्ठ त्रि., निस्सट्ठ का निषे., तत्पु. स. [अनिःसृष्ट]. जिसका निवारण न किया गया हो - अक्खरसमये पन अपरित्यक्त, नहीं छोड़ा हुआ, अपने हाथों से नहीं निकला तादिसानि रूपानि अनिवारितानि, सद्द. 1.204.
हुआ - अदिन्नं नामं यं अदिन्नं अनिस्सर्ट अपरिच्चत्तं अनिविट्ठ/अनिविद्ध त्रि., निविट्ठ/निविद्ध का निषे. तत्पु. रक्खितं गोपितं ममायितं परपरिग्गहितं, पारा. 52; अत्तनो स. [अनिर्विष्ट, अस्थापित, निवेशित न किया हुआ, अविवाहित हत्थतो वा यथाठितहानतो वा न निस्सट्ठन्ति अनिस्सट्ठ - कुलकुमारियोति अनिविद्धा तासं धीतरो, अ. नि. अट्ठ. पारा. अट्ट, 1.241; द्रष्ट, निस्सट्ठ (आगे). 3.155, तुल. अनिबिट्ट.
अनिस्सय त्रि., निस्सय का निषे., ब. स. [अनिःश्रय], अनिवेसन त्रि., निवेसन का निषे.. ब. स. [अनिवेशन], मूलभूत आवश्यक उपकरणों अथवा जीवन-साधनों से विहीन,
शा. अ. बेघर, आवास-विहीन, ला. अ. सांसारिक आसक्ति बेसहारा, बजर, उदास, निर्जन, सुनसान, ऊसर - भाव से मुक्त, तृष्णा-मुक्त - जितञ्च रक्खे अनिवेसनो सिया, अनिस्सयमहीभागे त्विरीणमूसरे सिया, अभि. प. 886. ध. प. 40; अनिवेसनो सियाति अनालयो भवेय्य, ध. प. अट्ठ. अनिस्सर त्रि, इस्सर का निषे., तत्पु. स./ब. स. [अनीश्वर]. 1.180.
क. अप्रभु, अस्वतन्त्र, अशक्त, अक्षम, अवशवर्ती - ... अनिसम्म नि + /सम के पू. का. कृ. का निषे. [अनिशम्य], अरहतो चित्तं यं कायं निस्साय पवत्तति, तत्थ अरहा अनिरसरो न सुनकर, ध्यान न देकर, उचित विचार न करते हए, अस्सामी अवसवत्तीति, मि. प. 236; सम्हि सरीरे अनिस्सरा, शान्ति एवं धैर्य से रहित होकर - निसम्म खत्तियो कयिरा, जा. अठ्ठ. 3.49; अनेसमानोति अनिस्सरो, जा. अट्ठ. 5.17; नानिसम्म दिसम्पति, जा. अट्ठ. 3.91; तत्थ अनिसम्माति ख. बिना स्वामी वाला, वह, जिसका कोई भी नाथ न हो - अनोलोकेत्वा अनुपधारेत्वा, जा. अट्ठ. 4.408; - कारी त्रि., सब्बं अनिस्सरं एतं, इति वृत्तं महेसिना, थेरगा. 713: अनत्ताति बिना सोचे विचारे ही कर्म करने वाला - अनिसम्मकारी .... अस्सामिका अनिस्सराति अत्थो, ध. प. अट्ठ. 2.234. जम्मो, अभि. प. 729; राजा न साधु अनिसम्मकारी, जा. अनिस्सरण नपुं., स. प. मे पू. प. के रूप में ही प्रयुक्त - अट्ठ. 3.90.
दस्सावी त्रि., [अनिश्शरणदर्शिन], रूप आदि धर्मों को अनिसामय उपरिवत्, संभवतः, अनिसामिय का स्थाना., न आसक्ति के साथ देखने वाला, स्मृति एवं संप्रजन्य से रहित सुनकर, उचित रूप से विचार न करता हुआ - बहुस्सुतानं होकर धर्मों को देखने वाला - अनिस्सरणदस्सावी, गन्धे चे अनिसामयत्थं सु. नि. 322; अनिसामयत्थन्ति अनिसामेत्वा पटिसेवति, थेरगा. 732; द्रष्ट. निस्सरण, आगे; ... अत्थं, सु. नि. अट्ठ. 2.58.
सतिसम्पजञवसेन रूपायतने पवत्तमानो तत्थ अनिसेधनता स्त्री॰, भाव. निसेधनता का निषे., तत्पु०, निस्सरणदस्सावी नाम, वुत्तविपरियायेन अनिस्सरणदस्सावी उद्दण्डता, वश्यता, विनम्रता अथवा आज्ञाकारिता का अभाव दहब्बो, थेरगा. अट्ठ. 2.234; - टि. जो कायगता एवं - ... अतिथद्धो अनिसेधनताय.... मि. प. 175.
वेदनागता अनुस्मृति एवं सम्प्रज्ज्य के बिना ही काया, वेदना अनिस्सग्गिय त्रि., निस्सग्गिय का निषे., तत्पु. स. [बौ. सं. आदि को देखता है वह उनके प्रति चित्त की आसक्ति को अनिसर्गिक], अनिवार्य रूप से न त्यागने योग्य, न छोड़ने दृढ़ करके उनमें अनिस्सरण-दस्सावी कहलाता है; - योग्य - अनिसग्गियेन अत्थतं होति कथिनं, महाव. 332, दस्सी त्रि., [अनिश्शरणदर्शी], उपरिवत् - सो रागानुसयो द्रष्ट, निस्सग्गिया धम्मा, आगे.
होति, अनिस्सरणदस्सिनो, स. नि. 2(2).203; - पञ त्रि., अनिस्सट त्रि., निस्सट का निषे., तत्पु. स. [अनिःसृत], ब. स. [अनिश्शरणप्रज्ञ], वह, जिसके पास आसक्तियों के
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अनिस्सरता
232
अनीति
बाहर आने अथवा उनसे छुटकारा दिलाने वाली प्रज्ञा नहीं है - इमे खो ... पञ्च कामगुणे तेविज्जा ब्राह्मणा गधिता .... अनिस्सरणपा परिभुञ्जन्ति, दी. नि. 1.222; अनिस्सरणपञआति इदमेत्थ निस्सरणन्ति, एवं परिजाननपञआविरहिता, दी. नि. अट्ठ. 1.304. अनिस्सरता स्त्री॰, इस्सरता का निषे, भाव. [अनीश्वरता]. अपना स्वामी स्वयं न होने की अवस्था, अस्वाधीनता, पराधीनता - ... वचनकरो अनिस्सरताय, मि. प. 175. अनिस्सर-विकप्पी त्रि., [अनीश्वर-विकल्पी]. स्वयं स्वामी न रहने पर भी स्वामी के समान दान आदि देने का प्रबन्ध करने वाला - न असन्थवविस्सासी च होति, न अनिस्सरविकप्पी च, अ. नि. 2(1).128; अनिस्सरविकप्पीति अनिस्सरोव समानो इमं देथ, इमं गण्हथाति इस्सरो विय विकप्पेति, अ. नि. अट्ठ. 3.45. अनिस्सरिय त्रि., निस्सरिय का निषे०, ब. स., अक्षम, असमर्थ, प्रभावहीन - अत्तनो इस्सरिये अवसवत्तनतो अनिस्सरियो, महानि. 2.279,(रो.). अनिस्सा स्त्री., इस्सा का निषे०, तत्पु. स. [अना ], ईर्ष्या का अभाव - अनिस्सा च अमच्छरियञ्च, अ. नि. 1(1).116; - मनिक त्रि०, ब. स., ईर्ष्या-रहित मन वाला - अनिस्सामनिका खो पन होति, परलाभसक्कार... न इस्सं बन्धति, अ. नि. 1(2).233; अनिस्सामनिका अहोसिन्ति इस्साविरहितचित्ता अहोसिं अ. नि. अट्ठ. 2.370. अनिस्सायनरस त्रि., ब. स., ईर्ष्यामुक्त स्वभाव वाला - .... मुदिता, अनिस्सायनरसा, ध. स. अट्ट. 237; विसुद्धि. 1.308. अनिस्सित त्रि.. निस्सित का निषे०, तत्पु. स. [अनिःश्रित अथवा अनिसित], किसी भौतिक साधन पर आश्रित न रहने वाला, आत्मनिर्भर, आचार्य अथवा उपाध्याय के आश्रय से मुक्त, तृष्णा एवं दृष्टि-ग्राह से मुक्त - अनिस्सितो छेत्व सिनेहदोसं सु. नि. 66; एवं समथविपस्सनासम्पन्नो पठममग्गेन दिद्विनिस्सयस्स पहीनत्ता अनिस्सितो, सु. नि. अट्ट, 1.94, द्रष्ट, निस्सय, आगे; - चित्त त्रि., ब. स. [अनिःश्रितचित्त], तृष्णा एवं दृष्टि आदि से मुक्त चित्त वाला, आसक्ति-रहित चित्त वाला - अनिस्सितचित्ता न आयन्ति झायमाना, नेत्ति. 34; - वग्ग पु., परि. के उपालिपञ्चक के प्रथम वर्ग का नाम, परि. 337-340. अनिस्सुकी त्रि., इस्सुकी का निषे०, तत्पु. स., ईर्ष्या से रहित, ईर्ष्यामुक्त चित्त वाला- पुन चपरं निग्रोध, तपस्सी अमक्खी होति... अनिस्सुकी होति अमच्छरी, दी. नि. 3.34.
अनिहित त्रि., निहित का निषे., तत्पु. स. [अनिहित, नहीं त्यागा गया, नहीं स्वच्छ किया गया, अपरिमार्जित, नीचे न रखा गया - अनिद्धन्तं, अनिहितं, अनिन्नीतकसावं, अ. नि. 1.253. अनीक नपुं. [अनीक, सेना, सेना की टुकड़ी - सत्तहत्थिकञ्च
अनीकं, महाव. 257; सयमेव पत्तचीवर आदाय अनीका निस्सटो हत्थी विय, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).136; यस्स पुब्बे अनीकानि, कणिकाराव पुफिता, जा. अट्ठ. 7.252; -- कग्ग नपुं.. [अनीकाग्र], सेना का अग्रभाग, सेना की अगली पंक्ति - सोभयन्तो अनीकग्गं, नागसङ्घपुरक्खतो. सु. नि. 423; अनीकग्गन्ति बलकायं सेनामुखं, सु. नि. अट्ठ. 2.102; - कट्ठ पु., [अनीकस्थ], सेना में स्थित योद्धा या राजा का अङ्गरक्षक, महावत, द्वारपाल - अनीकट्ठो तु राजूनमगरक्खगणो मतो, अभि. प. 342; अमच्चा पारिसज्जा गणकमहामत्ता अनीकट्ठा दोवारिका .... दी. नि. 3.47; अनीकट्ठाति हत्थिआचरियादयो, दी. नि. अट्ठ. 3.32; दोवारिके अनीकट्टे, अतिवेलं पजग्घति, जा. अट्ठ. 6.303; -- दस्सन नपुं.. तत्पु. स. [अनीकदर्शन], सेना की पंक्तिरचना का प्रदर्शन, सेना-प्रदर्शन, कवायद, जुलूस - उय्योधिकं बलग्गं ... अनीकदस्सनं, दी. नि. 1.6; पाचि. 146; तयो हत्थी पच्छिम हत्थानीकन्तिआदिना नयेन क्तस्स अनीकस्स दस्सनं दी. नि. अट्ठ. 1.77; - टि. सेना की ऐसी विशिष्ट रचना अनीकदस्सन कही गयी है जिसमें क्रमशः पहले तीन हाथी, तीन घोड़े, तीन रथों तथा अन्त में चार धनुर्धर पैदल सैनिकों को खड़ा किया गया हो, द्रष्ट. पाचि. 146. अनीचवुत्ति त्रि., ब. स. [अनीचवृत्ति], अविनम्र, धृष्ट, निर्लज्ज, उद्दण्ड, गुस्ताख, असंगत - अप्पतिस्सोति
अप्पतिस्सयो अनीचवुत्ति, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.26. अनीति स्त्री., ईति का निषे. [अनीति], क. आकस्मिक संकट या ऋतुजन्य रोगों का अभाव, निरुपद्रवता, अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि छह आकस्मिक विपदाओं का अभाव - अनीतितो निरुपद्दवतो अभयतो खेमतो ... सीतलतो दट्ठब, मि. प. 295; ख. त्रि., निषे., ब. स., आकस्मिक विपदाओं से मुक्त निरुपद्रव, उपद्रव-रहित - सम्पत्तियो दुवे भुत्वा, अनीति अनुपद्दवो, अप. 1.125; इद्धा फीता च खेमा च अनीति अनुपद्दवा, अना. वं. 40; - क त्रि., निषे., ब. स. [अनीतिक]. क. उपरिवत्, ख. नपुं. चित्तक्लेश आदि रूपी संकटों से विनिर्मुक्त स्थिति, निर्वाण का विशेषण - धम्म ... तण्हक्खयमनीतिक, स. नि. 1143; अनीतिकन्ति
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अनीतिह
233
अनु अनु आहरित्वा
किलेसईतिविरहितं, सु. नि. अट्ठ. 2.297; अनीतिकन्ति इति अनीहमान त्रि., Vईह के वर्त. कृ. का निषे. [अनीहमान], वुच्चन्ति किलेसा च खन्धा च अभिसङ्घारा च ईतिप्पहानं चेष्टा न करने वाला, चेष्टाविमुख, प्रयासविमुख, प्रयत्नविमुख ... अमतं निब्बानन्ति, चू. नि. 195; परायणं सरणमनीतिक ___ - घरा नानीहमानस्स, जा. अट्ट, 2.195; नानीहमानस्साति तथा, अभि. प.7; - कधम्म पु., कर्म. स. [अनीतिकधर्म], निच्चकालं कसिगोरक्खादिकरणेन अनीहमानस्स क्लेशरहित चित्त की स्थिति, निर्वाण की अवस्था - अवायमन्तस्स घरा नाम नत्थि, तदे.. अनीतिकधम्मञ्च वो, भिक्खवे, देसेस्सामि ..., स. नि. अनु' क. संज्ञाओं के पूर्व में प्रयुक्त उप., प्रायः स्वरादि2(2).342; - कधम्मगामी त्रि., [अनीतिधर्मगामिन्], संज्ञाओं से पूर्व अन्व के रूप में परिवर्तित, अव्ययी. स. क्लेशरहित चित्त की स्थिति अथवा निर्वाण की ओर ले जाने बनाने के लिए संज्ञा-शब्दों के पूर्व जोड़ा जाने वाला उप.; वाला मार्ग - अनीतिकधम्मञ्च वो भिक्खवे, देसेस्सामि साहचर्य, के साथ, साथ ही, पीछे, सम्बन्ध में, विषय में, अनीतिकगामिञ्च मग्ग, स. नि. 2(2).342; - सम्पदा निरन्तरता या सातत्य में, भाग, हिस्सा, साम्य रखनेवाला, स्त्री., तत्पु. स. [अनीतिसम्पत्], ऋतुजनित विपदाओं से आवृत्ति आदि - पच्छा भुसत्थ सादिस्सानुपच्छिन्नानुवत्तिसु, विमुक्ति, ईतियों से विमुक्ति - अनीतिसम्पदा होति, विरूळ्ही हीने च ततियत्थाधोभावे स्वनु गते हिते, देसे भवति सम्पदा, अ. नि. 3(1).71; अनीतिसम्पदा होतीति लक्खणवीच्छेत्थम्भूतभागादिके अन, अभि. प. 1174; ख. कीटकिमिआदिपाणकईतिया अभावो एका सम्पदा होति, अ. स्वतन्त्र सम्बन्धबोधक अ. के रूप में कर्मकारक के नि. अट्ठ. 3.228.
साथ क. प्र. नाम से प्रयुक्त - कम्मप्पवचनीययुत्ते ... अनीतिह त्रि., इतिह का निषे०, छन्दानुरोधजनित इकार का पब्बजितमनुपबजिंसु, क. व्या. 301; ग. लक्षण, इत्थम्भूत, दीर्धीकरण, परम्परा से प्राप्त शिक्षा आदि में अप्राप्त, स्वयं वीप्सा आदि के अर्थ में द्वि. वि. में अन्त होने वाले परिकल्पित, स्वयं विचिन्तित, आत्मप्रत्यक्ष से जाना हुआ - नाम के साथ स्वतन्त्र अ. के रूप में प्रयुक्त - अभिभू हि सो अनभिभूतो, सक्खिधम्ममनीतिहमदस्सी, सु. देवदत्तो पसन्नो बुद्ध अनु, मो. व्या. 2.12; घ. साथ एवं नि. 940; न इतिहितिहं ... सामं सयमभिजातं किसी से कम होने के अर्थ में स्वतन्त्र अ. के रूप अत्तपच्चक्खधम्म अद्दसि, महानि. 295; दिढे धम्मे अनीतिह, में प्रयुक्त - अनु उपालित्थेरं विनयधरा, मो. व्या. 2.14-15; सु. नि. 1059; अनीतिहन्ति न इतिहीतिह, चूळनि. 67; ङ. अट्ठ. में यदा कदा निषे. अन उप. के स्पष्टीकरण अनीतिहन्ति अत्तपच्चक्खं, सु. नि. अट्ठ. 2.281.
हेतु भी प्रयुक्त - अनभावंकताति, अयव्हेत्थ पदच्छेदो अनीवरण त्रि., नीवरण का निषे., ब. स. [अनीवरण], अनुअभावं कता ..., पारा. अट्ठ. 1.97; च. यत्र तत्र अनुनीवरणों से मुक्त - सत्तिमे, भिक्खवे, बोज्झङ्गा अनावरणा अनु रूप में द्विरुक्तीकृत, - भावेति वड्डेतीति अनुभावो, अनीवरणा ... स. नि. 3(1).114; अनीवरणाति कुसलधम्मे अनुभावो एव आनुभावो, सारत्थ. टी. 1.42; छ. वीप्सा के ... न नीवरन्ति न पटिच्छादेन्तीति अनीवरणा, स. नि. अट्ठ. अर्थ में - अनुपेक्खेति दस्सेति अनुदस्सेति, चूळव. 174. 3.187.
अनु' त्रि., अणु के लिये अप., सूक्ष्म, बारीक - तत्थेव अनीवरणीय त्रि., नीवरणीय का निषे०, तत्पु. स. पुञकम्मम्हा अनुम्हा विपतुं फलं, सद्धम्मो. 271. [अनीवरणीय], क्लेशों द्वारा दुष्प्रभावित न होने वाला विशुद्ध अनु अच्छरिय त्रि., (अनच्छरिय के व्याख्यान हेतु प्रयुक्त चित्त धर्म, कुशल धर्म - अनीवरणिया धम्मा, ध. स. पृ. 10; शब्द), अक्षर-संविधान से मुक्त, स्वतः-स्फूर्त - अनच्छरियाति चत्तारो मग्गा अपरियापन्ना, चत्तारि च सामञ्जफलानि, अनु अच्छरिया, महाव. अट्ठ. 233; तत्थ पदच्छेदो अनुअभावं निब्बानञ्च - इमे धम्मा अनीवरणिया, ध. स. 1506. गता अनभावं गताति, यथा अनुअच्छरिया अनच्छरियाति, अनीहट/अनीहत त्रि., नीहट का निषे., तत्पु. स. [अनिर्हत], पारा. अट्ट, 1.97. नहीं हटाया गया, दूर न ले जाया गया, अदूरीकृत, अक्षिप्त, अनु अनु आहरित्वा अनु + आ + Vहर का पू. का. कृ. - ज्झान त्रि., ब. स. [अनिर्हत-ध्यान], वह, जिसका ध्यान [अन्वाहृत्य], सम्यक् रूप से विचार-विमर्श कर सुचिन्तितहटा हुआ न हो अथवा निराकृत न हो, अनिराकृत ध्यान रूप में ग्रहण कर - अथ वा सब चेतसो समन्नाहरित्वाति वाला - अनिराकतज्झानाति बहि अनीहतज्झाना सब्बस्मा चित्ततो देसनं सम्मा अनु अनु आहरित्वा, उदा. अविनासितज्झाना वा, इतिवु. अट्ठ. 147; महानि. अट्ठ. 328. अट्ठ. 316.
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अनु अनु गिज्झति
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अनुकम्पति अनु अनु गिज्झति अनुगिज्झति के अर्थ का सुदृढ़ीकृत अनुकङ्कितं पदं, सु. नि. अट्ठ. 2.236; अ. नि. अठ्ठ. 1.322; वर्त. क्रि. रू., किसी के प्रति अत्यधिक तृष्णालु या रागानुरक्त विसुद्धि. 1.103; अनुकङ्कितन्ति पादनिक्खेपसमये कड्डन्तो होता है - अनुगिज्झतीति अनु अनु गिज्झति पुनप्पुनं पत्थेति विय पादं निक्खिपति, तेनस्स पदं अनुकङ्कितं पच्छतो अञ्छितं महानि. अट्ठ. 42.
होति, विसुद्धि. महाटी. 1.118. अनु अनु नयन नपुं., पुनः पुनः ले जाना, लुरियाना, अनुकन्तति अनु + कन्त का वर्त०, प्र. पु.. ए. व. ठकुरसुहाती करना, चापलूसी करना - विसये सत्तानं अनु [अनुकृन्तति], काटता है, फाड़ता है, खरोंचता है - कुसो अनु नयनतो अनुनयो, महानि. अट्ठ. 29.
यथा दुग्गहितो हत्थमेवानुकन्तति,ध. प. 311; हत्थं अनुकन्तति अनु अनु पस्सन नपुं., विपश्यना ध्यान द्वारा पुनः पुनः फालेति, ध. प. अट्ठ. 2.277. समभाव से धर्मों को देखना - पुरिमपुरिमञाणानं अनु अनु अनुकम्पक त्रि. [अनुकम्पक], दयालु, करुणा से आर्द्र, पस्सनतो अनुपस्सनाति वुच्चति, पारा. अट्ठ. 2.33. कोमल प्रकृति वाला, कृपा करने वाला - परमत्थसहिता अनु अनु सेति अनु + Vसी का वर्त, प्र. पु.. ए. व., किसी गाथा, यथापि अनुकम्पिका. थेरीगा. 210; अनुकम्पिकाति के साथ अत्यधिक या पुनः पुनः संलिप्त होता है - थामगतढेन ..... अनुग्गाहिका, थेरीगा. अट्ठ. 195; आहुनेय्या च पुत्तानं, अनु अनु सेतीति अनुसयो, महानि. अट्ठ. 32.
पजाय अनुकम्पका, इतिवु. 78; अनुकम्पकाति अत्थकामा अनु अभाव पु., (अनभाव के व्याख्यान हेतु अट्ठकथाओं में हितेसिनो, खु. पा. अट्ठ. 164. प्रयुक्त विशिष्ट शब्द) पीछे प्राप्त होने वाला किसी धर्म का अनुकम्पचित्त नपुं., कर्म. स., अनुकम्पा युक्त चित्त, कोमल अभाव - तत्थ पदच्छेदो अनुअभावं गता अनभावं गताति, चित्त - अनुकम्पं उपादायाति अनुकम्पचित्तेन परिग्गहेत्वा, पारा. अट्ठ. 1.97.
स. नि. अट्ठ. 3.148, पाठा. अनुकम्पं चित्तेन. अनु अमतग्ग त्रि., (अनमतग्ग की व्याख्या के रूप में ___ अनुकम्पति अनु + ।कम्प का वर्त, प्र. पु., ए. व., अनुकम्पा अट्ठकथाओं में प्रयुक्त विशिष्ट शब्द) वह, जिसकी पूर्व एवं करता है, दया करता है, कृपा करता है, करुणा से द्रवीभूत अपर कोटि ज्ञान द्वारा अज्ञेय है, संसार - अनमतग्गोति अनु होता है, अनुग्रह करता है - आवासिको भिक्खु गिहीन अमतग्गो, स. नि. अट्ठ. 2.139.
अनुकम्पति, अ. नि. 2(1).244; - म्पमानो वर्त. कृ., पु.. अनु अवय त्रि., (अनवय के व्याख्यान के रूप में प्रयुक्त प्र. वि., ए. व. - मित्ते सुहज्जे अनुकम्पमानो, हापेति अत्थं विशिष्ट शब्द) परिपूर्ण गुण वाला, वह, जिसे किसी शिल्प पटिबद्धचितो, सु. नि. 37; अनुकम्पमानोति अनुदयमानो, का पूर्ण ज्ञान है - अनवयोति अनुअवयो, सन्धिवसेन तेसं सुखं अपसंहरितुकामो दुक्खं अपहरितुकामो च. सु. नि. उकारलोपो, अनु अनु अवयो, यं यं कुम्भकारेहि कत्तबं नाम अट्ठ. 1.59;-कम्प अनु., म. पु.. ए. व., - अनुकम्प में वीर अत्थि, सब्बत्थ अनूनो परिपुण्णसिप्पोति अत्थो, पारा. अट्ठ. महानुभाव, पे. व. 100; अनुकम्प महावीर, लोकजेट नरासभ, 1.230.
अप. 1.33; - म्पस्सु अनु., आत्मने., म. पु.. ए. व. - अनु अवसन/अनोवस्स त्रि., क्रि. वि. [अनववर्ष, अनुकम्पस्सु कारुणिको पे व. 415; अनुकम्पस्सूति अनुग्गण्ह अनववर्षण], वर्षा का अभाव, अवर्षण, सखे की स्थिति अनुदयं करोहि, पे. व. अट्ठ. 157-158; - म्पेय्याथ विधि., वाला, वर्षा-रहित अवस्था वाला - देवम्हि वस्समानम्हि, म. पु., ब. व. - ये, आनन्द, अनुकम्पेय्याथ ... ते वो, अनोवस्संभवं अका, जा. अट्ठ. 5.308; अनोवस्सन्ति अवस्सं. आनन्द, ... पतिद्वापेतब्बाति, अ. नि. 1(1).253; - यथा देवो न वस्सति, तथा कतन्ति अत्थो, तदे.; पाठा. म्पि/म्पित्थ अद्य., प्र. पु., ए. व., - उभयेन वत मं सो अनुअवसन.
भगवा अत्थेन अनुकम्पि, स. नि. 1(1).100; अनुसासि में अनुकङ्घन नपुं.. [अनुकर्षण], पीछे की ओर से पकड़कर ले अरियवता, अनुकम्पि अनुग्गहि, थेरगा. 334; सो सत्ते आना, परिहार करना - चसद्दग्गहणमनुकडनत्थं क. व्या. अनुकम्पित्थ भूपति, म. वं. 37.109; - म्पितुं निमि. कृ., -
न तं अरहति सप्पओ, मनसा अनुकम्पितुं, स. नि. अनुकडित त्रि०, अनु + कड्व का भू. क. कृ. [अनुकृष्ट]. 1(1).239; - म्प पू. का. कृ., - पणेमि दण्ड अनुकम्प पीछे लगा हुआ, पीछे पड़ा हुआ, पीछे से घसीटा हुआ, पीछे योनिसोति, जा. अट्ठ. 3.391; -म्पितो भू. क. कृ., - अहो से खींचा हुआ, छोड़ा हुआ प्रभाव चिह्न - दुवस्स होति सुलद्धलाभोम्हि, सुमित्तेनानुकम्पितो, अप. 2.159; अनुकम्पिम्ह
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अनुकम्पन
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अनुकुल/अनुकूल भदन्ते, भत्तेनच्छादनेन च पे. व. 437; - म्पितब्बा सं. कृ., करता है - स्सामि उ. पु., ए. व. - सिलोकमनुकस्सामि, - अनुकम्पितब्बा ति मनोभावनिया, सद्द. 2.556.
दी. नि. 2.186; अनुकस्सामीति अक्खरपदनियमित अनुकम्पन नपुं., [अनुकम्पन], दया, करुणा, अनुग्रह, चित्त वचनसङ्घातं पवत्तयिस्सामि, दी. नि. अट्ठ. 2.248. की कोमलवृत्ति - पच्छिमजनतं अनुकम्पनतो धम्मगरुभावतो अनुकार पु., [अनुकार], अनुकरण समानता, सदृशता - च, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).136; - सील त्रि., दयालु, तेसञ्च अनुकारेन, दी. वं. 5.39. कृपालु, दयार्द्रचित्त - ये अनुकम्पनसीला कारुणिका .... अनुकारण नपुं, गौण-मत, गौण-सिद्धान्त - धम्मस्स च पे. व. अट्ट. 13.
अनुधम्म ब्याकरोन्तीति भोता गोतमेन वृत्तकारणस्स अनुकारणं अनुकम्पा स्त्री., [अनुकम्पा], करुणा, दया, अनुग्रह - कथेन्ति, दी. नि. अट्ट, 1.259. दयानुकम्पा कारुझं करुणा च अनुद्दया, अभि. प. 160; अनुकारी त्रि., [अनुकारिन्], अनुकरण करने वाला अन्य के पाणेसु अनुद्दया अनुकम्पा अविहेसा भविस्सति, पारा. 48; समान या दूसरे जैसा प्रतीत होने वाला - अनुकम्पाति परदुक्खेन चित्तकम्पना, पारा. अट्ठ. 1.230; - रजतरज्जुसतानुकारी, दाठा. 5.32; एवं धामिळयोधा ते म्पं वि. वि., ए. व. - भगवता ... अनुकम्पकेन अनुकम्प मारयोधानुकारिनो, चू. वं. 80.70... उपादाय, उदा. 96; - म्पाय च./प. वि., ए. व. - चत्तारि अनुकिरिय स्त्री., [अनुक्रिया], अनुकरण, नकल, स्वाङ्ग अरियसच्चानि, अनुकम्पाय पाणिनं थेरगा. 492; साधु निब्बापनं करना - देवदत्तो इदानेव मम अनुकिरियं करोन्तो विनासं बहि, अनुकम्पाय गोतम, थेरगा. 1232; - जातिक त्रि., ब. पत्तो, जा. अट्ठ.2.31; बुद्धलीळाय धम्म देसेस्सामीति तुम्हाकं स. [अनुकम्पाजातिक], अनुकम्पा से सम्पन्न स्वभाव वाला, अनुकिरिय करोती ति वुत्ते ..., ध. प. अट्ठ. 1.83. दयालु, कृपालु - ब्राह्मणा अनुकम्पाजातिकयेव दानं देन्तीति. अनुकुल अ. [अनुकुलं], कुल-परम्परा के अनुरूप, प्रत्येक म. नि. 2.428.
कुल या परिवार में - ये च या निरारम्भा, यजन्ति अनुकम्पी त्रि., [अनुकम्पिन्], दया करने वाला, अनुकम्पा अनुकुलं सदा, स. नि. 1(1).93; अनुकुलन्ति अनुकुलेसु करने वाला, दयालु, करुणालु, कृपालु, अनुग्रह करने वाला यजन्ति, यं निच्चभत्तादि पुब्बपरिसेहि पट्टपितं, तं अपरापरं - सब्बे च पाणे मनसानुकम्पी, पहूतमरियो पकरोति पुज, अनुपच्छिन्नत्ता मनुस्सा ददन्तीति, स. नि. अट्ठ. 1.129. खु. पा. अट्ठ. 135; अ. नि. 3(1).2.
अनुकुल' त्रि., वंश परम्परा के अनुरूप चलने वाला - दुवे अनुकरण नपुं.. [अनुकरण]. अनुविधान, अनुकृति, किसी ___धीता चानुकूला कुलानुच्छविका अहुं, म. वं. 11.5; - यज्ञ एक को बाद में ज्यों का त्यों ग्रहण करके रख देना - नपुं., कर्म. स. [अनुकुलयज्ञ], वंश-परम्परा के अनुरूप अनुकरणवसेन पटिच्चसमुप्पादस्स ..., उदा. अट्ठ. 24; किया गया यज्ञ-निच्चदानानि अनुकुलयानि सीलवन्ते अनुकरणमत्तव्हएतं, सद्द. 1.262; - सद्द पु., अनुरणनात्मक पब्बजिते उद्दिस्स दिय्यन्ति, दी. नि. 1.128; अनुकुलयनीति ध्वनि या शब्द - अनुकरणसद्दो हि अयं, उदा. अठ्ठ. 53; - अम्हाकं पितुपितामहादीहि पवत्तितानीति कत्वा पच्छा सद्द. 3.642.
... वंसपरम्पराय पवत्तेतब्बानि यागानि..., दी. नि. अट्ठ. अनुकरोति अनु + Vकर का वर्त, प्र. पु., ए. व., अनुकरण 1.243.
करता है, समानता करता है - एवं गिही नानुकरोति अनुकुल'/अनुकूल त्रि.. [अनुकूल], शा. अ. तट के भिक्खुनो, सु. नि. 223; ... इत्थी पुरिसं अच्चाचरति .... सहारे बढ़ने वाला, तट के किनारे वृद्धि को प्राप्त कर रहा ददाति, याचति, कतमनुकरोति, जा. अट्ठ. 5.431; अनुकरोतीति - जातस्सरस्सानुकूलं, केतका पुफिता बहू अप. 1.381; दारकेन कतं कतं अनुकरोति, जा. अट्ठ. 5.434; तुल. ला. अ. विश्वसनीय, पूर्ण रूप से समर्पित, इच्छुक, उपयुक्त, अनुकुब्बति; - कुब्ब वर्त. कृ., प्र. वि., ए. व., - अनुरूप, नियमानुरूप - गुणड्डो अनुकुलो च..., सद्धम्मो. पस्समानानुकुब्बन्ति, अत्तमत्थं विचक्खणा, अ. नि. 1(1). 312; अट्ठतिसारम्मणेसु अत्तनो अनुकूलकम्मट्ठानं गहेत्वा 178; - रोन्तो उपरिवत् - देवदत्तो इदानेव मम अनुकरोन्तो ... म. नि. अट्ठ (मू.प.) 1(1).177; अनुकूलानि ... तिलिङ्गानं. विनासं पत्तो, जा. अट्ठ. 1.469.
सद्द. 266; - किरिय त्रि., अनुवर्ती, अनुवर्तन करने वाला, अनुकस्सति अनु + ।कस का वर्त., प्र. पु., ए. व., प्रस्तुत दूसरों की क्रियाओं जैसी क्रिया करने वाला - अनुब्बताति करता है, सामने रखता है, उद्धृत करता है, अभिवर्तन अनुकूलकिरिया, वि. व. अट्ट, 235; - ता स्त्री., अनुकूलता,
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अनुकट्ठित
स्वीकृति - एकादस इमे रागचरितस्सानुकूलता, अभि. अव. 113; पाठा. अनुकूलका भाव पु० [अनुकूलभाव], अनुकूलता, स्वीकृति, सम्मान, श्रद्धा सत्था दहरस्स अत्तनो अनुकुलभाव ञत्वा, ध. प. अड. 2.92; सामिकस्स अनुकूलभावेन वसे वत्तनसीला, वि. व. अट्ठ. 57; - मित्त पु., [ अनुकूलमित्र ], विश्वासी मित्र, मनोहर या सुखद मित्र अनुकूलमित्तो विय, ध. स. अट्ठ. 172; अभि. अव. 21; - वत्ती त्रि. [ अनुकूलवर्तिन् ], अनुकूल रहने वाला, आज्ञाकारी, अनुवर्ती, अनुवर्तन करने वाला - सब्बत्थ ते अनुकूलवत्ती भविस्सामीति अत्थो, जा. अट्ठ. 4.233; समानेन अनुकूलवत्तिना परिजनेन सद्धिं वासो यस्स सो समानवासो, सु० नि० अट्ठ. 1.24; - ले अ., क्रि. वि., अविपरीत रूप में, तट के सहारे - सुवण्णवण्णं सम्बुद्ध, अनुकूले समाहितं, अप
-
1.277.
अनुकट्ठित उत् + √क्वथ के भू० क० कृ० का निषे. [अनुत्क्वथित], नहीं उबलता हुआ, उबाल की स्थिति में न
तं सुत्वा
पहुंचा हुआ उदपत्तो अग्गिना असन्तत्तो अनुकट्ठितो अनुरसदकजातो, अ. नि. 2 ( 1 ) . 216, पाठा. अनुक्कुधितो. अनुके वट्ट पु. एक ब्राह्मण का नाम अनुकेवट्टब्राह्मणो... जा. अट्ठ 6.235. अनुक्कट्ठचीवर नपुं., कर्म. स. [अनुत्कृष्टचीवर ], वह चीवर, जो नियमानुरूप नहीं है, निर्धारित नियम के विरुद्ध चीवर यं हत्थे ठपेत्वा लद्वं, हत्थेयेव ठपितं, तं अनुक्कद्वचीवरं नाम, विसुद्धि. 1.61. अनुक्कण्ठना स्त्री॰, उक्कण्ठना का निषे, तत्पु० [ अनुत्कण्ठा], सन्तुष्टि, संतोष, धैर्य, उत्कण्ठा का सर्वथा अभाव- राजा पुत्तस्स अनुक्कण्ठनत्थाय तानि पञ्च कुमारसतानि तस्स सन्तिकेयेव ठपेसि, जा. अट्ठ. 6.5. अनुक्कण्ठित त्रि.. उक्कण्ठित का निषे, तत्पु० [अनुत्कण्ठित], सन्तुष्ट, प्रसन्न - ततो ततो आगम्म रमन्ति अभिरमन्ति
236
अनुक्कण्ठिता हुत्वा निवसन्तीति अत्थो, खु. पा. अट्ठ. 90; सत्ता अत्तनो अत्तनो निब्बत्तट्ठाने अभिरममानाव अनुक्कण्ठिताव जीवितं जहन्ति, जा० अट्ठ. 3.49.
अनुक्कम पु०, [अनुक्रम], क. क्रम के अनुरूप, तांता, क्रमबद्धता, उत्तराधिकार, धीरे धीरे उचित समय में इदहि सुत्तं इमिना अनुक्कमेन भगवता अवुत्तम्पि... खु. पा. अट्ठ. 72; अनुक्कमेन गेहे निसीदापेत्वा अन्तोगब्भे निपज्ज, जा० अट्ठ. 1.159; ... अनुक्कमेन भद्रयोब्बनं पत्वा ध. प. अ. 1.50; ततो परं भङ्गानुपस्सनादिवसेन
अनुक्खेप
म.
विपस्सनं उस्सुक्कापेत्वा अनुक्कमेन अरियमग्गं गण्हन्तो उदा. अट्ठ. 194; ख. युद्धभूमि के अश्वों के प्रशिक्षण में अपनाया गया एक विशेष तरीका या प्रकार तमेनं अस्सदमको उत्तरि कारणं कारेति अनुक्कमे मण्डले .... नि. 2.118; अनुक्कमेति चत्तारोपि पादे एकप्पहारेनेव उक्खिपने च निक्खिपने च, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.114; - आगत त्रि.. [अनुक्रमागत ], परम्परा से प्राप्त, किसी विशिष्ट क्रम में प्राप्त - अनुक्कमागतं पन पाळिपदं गहेत्वा इधेव कतं, म. नि. अट्ठ. ( मू०प.) 1 ( 2 ).101. अनुक्कमति अनु + √ कम का वर्त., प्र. पु. ए. व. [ अनुक्राम्यति], शा. अ. पीछे जाता है, बगल में चलता है, ला. अ. तात्पर्य ग्रहण करता है, धारण करता है, समझता है न्ति वर्त., प्र. पु. ब. व. - ये सत्थवाहेन अनुत्तरेन, सुदेसितं मग्गमनुक्कमन्ति, इतिवु, 58; अनुक्कमन्तीति देसनानुसारेन अनुगच्छन्ति पटिपज्जन्ति, इतिवु, अट्ठ. 233; - क्कमं वर्त. कृ., पु०, प्र. पु. ए. व. - ददमानो पियो होति, सतं धम्मं अनुक्कम, अ. नि. 2 ( 1 ). 36 : - क्कमे विधि., प्र. पु०, ए. व., - हत्थिक्खन्धावपतितं, कुञ्जरो चे अनुक्कमे, थेरगा. 194; मितवे निमि. कृ. अनुक्कमितवे सक्का, यायं पटिपदा दहा, स. नि. 1 ( 1 ).28; - मित्वा पू० का० कृ० - इतो वा एत्तो वा अनुक्कमित्वा... आरुळहो विय च गच्छति, म. नि. अट्ठ. (मू०प०) 1 (2). 233.
तस्स
अनुक्खित्त त्रि, उक्खित्त का निषे, तत्पु० स० [अनुत्क्षिप्त ].
बहिर्भूत-कृत, अनिष्कासित, नहीं हटाया गया या दूर न ले जाया गया - अनुच्चारितकतन्ति कप्पियं कारापेतुं आगतेन भिक्खुनाईसकम्पि अनुक्खित्तं वा अनपनामितं वा कतं, पाचि. अट्ठ. 85.
-
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अनुक्खिपं अनु + खिप का वर्त. कृ. प्र. वि. ए. व. [ अनुत्क्षिपन् ], लुढ़काता हुआ, एक ओर फेंकता हुआ, बगल में कर दे रहा - दारको वट्टमनुक्खिपं, आसीविसमकोपयि, चरिया. 403; वट्टमनुक्खिपन्ति खिपनवट्टसण्ठानताय वट्टन्ति लद्धनामं गेण्डुकं अनुक्खिपन्तो, गेण्डुककीळं कीळन्तोति अत्थो, चरिया. अट्ठ. 222.
अनुक्खेप पु०, अनु + √खिप [ अनुक्षेप ], शा. अ. पीछे की ओर फेंकना, बदले में लौटाना; ला. अ. क्षतिपूर्ति करना • अनुजानामि, भिक्खवे, अनुक्खेपे दिन्ने अतिरेकभागं दातुन्ति, महाव. 376; तत्थ अनुक्खेपो नाम यंकिञ्चि अनुक्खिपितब्ब अनुप्पदातब्बं कप्पियभण्डं महाव. अट्ठ. 383; - टि. यदि किसी भिक्षु को दूसरे भिक्षुओं से अधिक मूल्य वाला चीवर
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अनुखुद्दक
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अनुगामिक प्राप्त हो जाता है तो उसके द्वारा क्षतिपूर्ति के रूप में अन्य दुहराता है - अप्पेव नाम सियाति एत्थ पठमवचनेन भगवा भिक्षुओं को कोई भी वस्तु दिए जाने को अनुक्खेप कहा गया गज्जति, दुतियवचनेन अनुगज्जति, दी. नि. अट्ठ. 1.296.
अनुगत त्रि.. [अनुगत], क. पीछे जाने वाला, अनुकरण अनुखुद्दक त्रि., (खुद्दकानुखद्दक से गृहीत संक्षिप्त शब्दरूप), करने वाला, अनुकर्ता, अनुचर, ख. व्यवहृत, गृहीत, अनुसृत, बहुत छोटा, अनुक्षुद्रक, गौण, महत्त्वहीन, छोटा से छोटा- सम्बद्ध, किसी विषय के प्रति सर्वथा सहज - अनुगता कतमानि अनुखुद्दकानि सिक्खापदानीति, मि. प. 145. मनसो उप्पिलावा, उदा. 110; अनुगताति चित्तेन अनुवत्तिता, अनुग त्रि., [अनुग], पीछा करने वाला, अनुयायी, अनुगामी, उदा. अट्ठ. 192; परिसास्स होति अनुगता अचला ति, दी. अधीनस्थ, पराधीन, परायत्त - किञ्चस्स अनुगं होति, छायाव नि. 3.130; यथा, महाराज, ... रत्तलोहितचन्दनं नाम अनपायिनी, स. नि. 1(1).88; न तं अनुगं भविस्सतीति, अ.. सवरपुरमनुगतं ओञातं अवज्ञातं ... भवति, मि. प. 184; नि. 3(2).268; होतु राजा तवानुगो, जा. अट्ठ, 4.384%; - वेध एक शल्य-क्रिया के बाद द्वितीय शल्य द्वारा वेधन, तवानुगोति ... तव वसं अनुगतो होतु तया सद्धि एकट्ठाने दुबारा की गयी शल्य-क्रिया - अनवेधं विज्झेय्याति तस्सेव वसतु, जा. अट्ठ. 4.385.
वणमुखस्स अङ्गुलन्तरे वा द्वङ्गुलन्तरे वा आसन्नपदेसे अनुगच्छति अनु + गम का वर्तः, प्र. पु., ए. व., पीछे अनुगतवेधं, स. नि. अट्ठ. 3.114. जाता है, अनुगमन करता है, पीछा करता है, पीछे पड़ अनुगमन/अनुग्गमन नपुं.. [अनुगमन], किसी के पीछे जाता है, किसी का शिकार हो जाता है - सो तमनुगच्छति, पीछे जाना, अनुसरण, सेवा में उपस्थित रहना - ... म. नि. 1.239; - च्छन्तो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - अट्ठमीचातुद्दसीपन्नरसीनं पच्चुग्गमनानुग्गमनवसेन चत्तारो तमनुगच्छन्तो पस्सति नागवने महन्तं हत्थिपदं, म. नि. दिवसा, जा. अट्ठ. 4.287; पत्तपटिग्गहणं आसनपञआपनं 1.239; - च्छेय्य विधि., प्र. पु., ए. व. - सो तमनगच्छेय्य, अनुगमनन्ति एवमादिकं मेत्तं कायकम्मं नाम, म. नि. अट्ठ. स. नि. 1(2).93; - अन्वगू अद्य., प्र. पु., ए. व. - सोकस्स । (मू.प.) 2.288. वसमन्वगू, सु. नि. 591; - अन्वगं अद्य.. प्र. पु.. ब. व., अनुगम्मति अनु + गम का कर्म. वा., वर्त.. प्र. पु., ए. व.. अनियमित प्रयोग - तेजो नु ते नान्वर्ग दन्तमूलं, जा. अट्ट. किसी अन्य द्वारा अनुगमन किया जाता है, किसी के साथ 5.165; दुम्मेधो कामानं वसं अन्वगं, सद्द. 2.464; - अनुगत होता है - मानो वर्त. कृ., आत्मने, पु., प्र. वि., ए. अन्वगा/गमासि/गच्छि अद्य., प्र. पु., ए. व. - एको तं व. - अाहि च देवताह सेसराजककुधभण्डहत्थाहि वारियन्तो पि राजपुत्तेन अन्वगा, म. वं. 7.10; दिस्वान तयेव अनुगम्ममानो, जा. अट्ठ. 1.63-64. अनुगमासि, महाव. 20; सो पत्तं गहेत्वा सत्थारं अनुगच्छि, अनुगव त्रि., [अनुगव], बैल के पीछे पीछे - आयामे नुगवं ध. प. अट्ठ. 1.325; - अन्वगच्छिं अद्य., उ. पु., ए. व. - मो. व्या. 3.48 तुल. चान्द्र व्याकरण 4.4.69, अष्टा. 5.4.83. तदारसह पिडितो अन्वगच्छिं, जा. अट्ठ. 5.160; - न्वग, अनुगामिक त्रि., [अनुगामिक], शा. अ. अनुगमन करने अद्य., प्र. पु.. ब. व. - तं ब्राह्मणा अन्वगम, जा. अट्ठ. वाला, साथ रहने वाला, अनुचर, कभी भी साथ न छोड़ने 7.270; - च्छिस्ससि भवि., म. प., ए. व. - मं गच्छन्तं वाला - अनुगच्छतीति अनुगामिको, परलोकं गच्छन्तम्पि अनुगच्छिस्ससि, ठितं उपतिहिस्ससि. म. नि. अट्ठ. (मू.प.) तत्थ तत्थ फलदानेन न विजहतीति अत्थो, खु. पा. अट्ठ. 1(2).300; - गन्तवा पू. का. कृ. - ते पुनप्पुनं याचित्वा । 179; यस्मा पनेतं सद्धावित्तं अनुगामिक अनअसाधारणं ... अनुगन्त्वा परिदेवित्वा निवत्तिंसु, ध. प. अट्ठ. 1.9; - सब्बसम्पत्तिहेतु .... सु. नि. अट्ठ. 1.1963; ला. अ. कभी गन्तब्बो सं. कृ., - तस्मा न इमेसु दिवसेसु भगवा समाप्त न होने वाला पिछलग्गू, अनुरूप, अनुकूल, वशवर्ती अनुगन्तब्बोति निवारेसि, उदा. अट्ठ. 202.
- एसो निधि सुनिहितो, अजेय्यो अनुगामिको, खु. पा. 10; अनुगच्छना स्त्री., अनुगमन, पीछे चलना या उत्पन्न होना न. ... तथागतो परिसाय अनुगामिको, परिसा पन तथागतस्स - अनुगच्छना च अस्सासं, पस्सासं अनुगच्छना, पटि. अनुगामिका, मि. प. 158; - त त्रि०, उपरिवत् - म. 158.
अनुगामिकताछाया सद्धम्मो. 443, पाठा. अनुगामिकतच्छाया; अनुगज्जति अनु + गज्ज का वर्त.. प्र. पु., ए. व., गर्जना - कत्त नपुं.. भाव. [अनुगामिकत्व], अनुगामी होने की करता है, बार-बार चिल्लाता है, जोर देकर किसी बात को स्थिति, पिछलग्गूपन - मेत्तादिविहारो सेट्ठत्ता अनगामिकत्ता
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अनुगामिय
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अनुग्गण्हति/अनुग्गण्हाति च ब्रह्मनिधीति वुच्चति, सु. नि. अट्ठ. 2.45; - धन नपुं.. [अनुगृध्यति, अनु + Vगृध], किसी वस्तु या व्यक्ति के प्रति कर्म. स. [अनुगामिकधन], सदा साथ में रहने वाला धन लोभ-युक्त होता है, पुनः पुनः कामना करता है, बार-बार - यानिमानि थावरादीनि पञ्च धनानि, तेसु ठपेत्वा इच्छा करता है - थियो बन्धू पथ कामे, यो नरो अनुगिज्झति, दानसीलादिअनुगामिकधनं, सु. नि. अट्ठ. 1.24; - निधि सु. नि. 775; अनुगिज्झतीति अनु अनु गिज्झति पुनप्पुनं पु., कर्म. स. [अनुगामिकनिधि], सदा साथ रहने वाला पत्थेति, महानि. अठ्ठ. 42; - न्तो वर्त. कृ. का निषे०, प्र. खजाना, सदा साथ रहने वाला कोष - तं निधिन्ति तं पु., ए. व. - अनानुगिद्धोति कञ्चि धम्म तण्हागेधेन पुञ्जकम्म पण्डिता अनुगामिकनिधिं नाम कथेन्ति, जा. अट्ठ. अननुगिज्झन्तो, सु. नि. अट्ठ. 1.129. 4.250.
अनुगिणाति अनु +गि का वर्त.. प्र. पु.. ए. व. [अनुगृणाति], अनुगामिय त्रि., अनुगमन करने वाला, पीछे चलने वाला, दूसरे के शब्द को दुहराता है, अनुमोदन करता है, सहमति सदा साथ रहने वाला - महानिधानं निहितं अक्खयं देता है, पीछे बोलता है - तस्स हि भिक्खुनो जनो अनुगिणाति, अनुगामियं, सद्धम्मो. 311.
क. व्या. 279 तुल. पाणिनि. 1.4.41, सद्द. 3.696. अनुगामी त्रि., [अनुगामिन्], अनुगमन करने वाला, सेवक, अनुगिद्ध त्रि, भू. क. कृ. [अनुगृद्ध], किसी वस्तु या व्यक्ति किसी विशेष दिशा अथवा वस्तुविशेष को अभिप्रेत बनाने के प्रति निरन्तर लोभ से भरा हुआ व्यक्ति, सतत लोभयुक्त वाला - पारादिगमिम्हा ति किमत्थं? अनुगामि, क. व्या. - रसेसु अनुगिद्धस्स, झाने न रमती मनो, थेरगा. 580. 536; अनुयन्ताति अनुगामिनो सेवका, सु. नि. अट्ठ. 2.157. अनुगीति स्त्री., अनु + (गा + ति [अनुगीति], पूर्ववर्ती अनुगायति अनु + vगा का वर्त., प्र. पु.. ए. व. [अनुगायति]. गद्य में कथित वस्तु का गाथाओं में पुनर्कथन अथवा गाथावैदिक मन्त्रों का पाठ करता है, स्तुति करता है, अनुवाचन रूप में संक्षेपण, पुनरुद्धरण - अनुगीतीति वृत्तस्सेवत्थस्स करता है - न्ति प्र. पु., ब. व. - येपि खो ते ब्राह्मणानं सुखग्गहणत्थं अनुपच्छा गायनगाथा नेत्ति. अट्ठ. 149; अयं पुब्बका इसयो ... पोराणं मन्तपदं गीतं पवुत्तं समिहितं, पनेत्थ अनुगीति, म. नि. अट्ट. (मू.प.) 1(1).43. तदनुगायन्ति ... वाचितमनुवाचेन्ति, महाव. 322; दी. नि. अनुगीयति अनु +/गा का कर्म. वा., वर्त, प्र. पु., ए. व. 1.91; तदनुगायन्तीति एतरहि ब्राह्मणा तं तेहि पुब्बे गीत [अनुगीयते], किसी के द्वारा गाया जाता है, अनुगायन अनुगायन्ति अनुसज्झायन्ति, दी. नि. अट्ट. 1.221; - यिस्सं किया जाता है - न्ति वर्त, प्र. पु., ब. व. - तत्थ भवि., उ. पु.. ए. व., - पारायनमनुगायिस्सं सु. नि. 1137; सिक्खानुगीयन्ति, सु. नि. 946: तुल. सद्द. 3.923. तत्थ अनुगायिस्सन्ति भगवता गीतं अनुगायिस्सं सु. नि. अनुगु अव्ययी. स. [अनुगु], गायों के पीछे - गुन्नं पच्छा अट्ठ. 2.297; - गीत भू. क. कृ. - तेसं सह सच्चमनुगीतेन अनुगु, मो. व्या. 3.48; तुल. पाणिनि 5.2.15. महामेघो पवस्सति, मि. प. 126.
अनुगुण त्रि., [अनुगुण], समान गुणों वाला, अनुरूप, समनुरूप अनुगायन नपुं., [अनुगायन], वैदिक-मन्त्रों का पाठ, पूर्व में - लोकायतिका विय तदनुगुणं उच्छेददस्सनं अभिनिविसन्ता कथित अथवा गीत का पुनर्कथन या पुनर्गायन - ... ___..., उदा. अट्ठ. 288. अनुगायनपटिगायनकिरियावसेन सम्पदानं होतीति दट्ठबं, अनुगुत्त त्रि., [अनुगुप्त], संरक्षित, पीछे रक्षा किया गया - सद्द. 3.696.
तयानुगुत्तो सिरि जातिमामपि, जा. अट्ठ. 5.395; तयानुगुत्तोति अनुगार/अन्नमारो एक परिव्राजक का नाम - अन्नभारो तया अनुरक्खितो, तदे.. वरधरो सकुलुदायी च परिब्बाजको, म. नि. 2.204, पाठा. अनुग्गण्हति/अनुग्गण्हाति अनु + Vगह का वर्तः, प्र. पु., अनुगार
ए. व. [अनुगृह्णाति], पक्ष लेता है, सहायता करता है, रक्षा अनुगाहति अनु + Vगाह का वर्त., प्र. पु., ए. व., प्रवेश कर करता है, देख-भाल करता है, अनुमोदन करता है, अनुग्रह रहा है, निमज्जित हो रहा है, गहराई तक प्रवेश कर रहा करता है - अझे बहुजने पोसेतीति वदन्तो अनुग्गण्हति है- अप्पमत्तो तु धम्मानं सभावमनुगाहति, सद्धम्मो. 611; - नाम, जा. अट्ठ. 1.140; न खो पन मं सत्था सम्परायिकेनेवत्थेन न्तो वर्त. कृ.. पु.. प्र. पु.. ए. व. - सभावमनुगाहन्तो. अनुग्गण्हाति, जा. अट्ठ. 2.61; - ण्हन्तो वर्त. कृ.. (गरहति सद्धम्मो. 611.
के साथ साथ रहने पर गरहन्तो के विप. के रूप में) - इति अनुगिज्झति अनु. + गिध का वर्तः, प्र. पु., ए. व. बोधिसत्तो गरहन्तोपि अनुग्गण्हन्तोपि किञ्च देवो सकं पजन्ति
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अनुग्गण्हन
239
अनुग्गह आह, जा. अट्ठ. 1.140; - ण्हातु अनु., प्र. पु., ए. व. - उदा. अट्ठ. 192; अनुग्गता तिपि पाळि, अनुट्टिताति अत्थो, एवमेव भगवा एतरहि अनुग्गण्हातु भिक्खुसङ्घ, म. नि. उदा. अट्ठ. 192. 2.130; - ग्गण्ह अनु. म. पु.. ए. व. -- अनुकम्पस्सूति अनुग्गत त्रि., उग्गत का निषे., तत्पु. स. [अनुवगत], शा. अनुग्गण्ह अनुदयं करोहि, पे. व. अट्ठ. 157-58; - ग्गण्हेय्य अ. नहीं ऊपर उठा हुआ, ऊपर की ओर नहीं उठ रहाविधि., प्र. पु., ए. व. - द्वे वस्सानि नेव अनुग्गण्हेय्य न अनुग्गतम्हि आदिच्चे, अप. 1.261; अनुग्गतम्हि आदिच्चेति अनुग्गण्हापेय्य, पाचि. 446; - ग्गण्हेय्यं विधि., उ. पु., ए. सूरिये अनुग्गते अनुट्टिते पच्चूसकालेति अत्थो, अप. अट्ठ. व. - एवमेव एतरहि अनुग्गण्हेय्यं भिक्खुखङ्घन्ति, स. नि. 2.190; उच्चावचन्ति उग्गतञ्च अनुग्गतञ्च, जा. अट्ठ. 2(1).85; - ग्गहि/ग्गहेसि अद्य०, प्र. पु., ए. व. - यं 4.428; ला. अ. दर्परहित, विनम्र, घमण्डरहित, (प्रायः अनुगत पत्थयानो धम्मेसु उपज्झायो अनुग्गहि, थेरगा. 330; इमिना रूप में भी इसी तात्पर्य में प्राप्त) - अनुग्गता सीलवती, असाधारणेन अनुग्गहेन अनुग्गहेसि, दी. नि अट्ठ. 1.4; - छायाव अनपायिनी, जा. अट्ठ. 6.304; अनुग्गताति दहरकालतो ग्गण्हिस्सति भकि, प्र. पु., ए. व. - कथहि नाम अय्या पट्ठाय अनुगता, तदे. - लोम त्रि.. ब. स. [अनुद्गतलोम]. थुल्लनन्दा ... द्वे वस्सानि नेव अनुग्गहिस्सति न वह, जिसके रोएं खड़े न हों- पन्नलोमोति लोमहसुप्पादकस्स अनुग्गण्हापेस्सतीति, पाचि. 446; - ग्गहेस्सामि भवि., उ. छम्भितत्तस्स अभावेन अनुग्गतलोमो, उदा. अट्ठ. 131. पु., ए. व. - परिपूरं वा सीलक्खन्धं तत्थ तत्थ पञआय अनुग्गमन नपुं., अनुगमन का अप. [अनुगमन], किसी के अनुग्गहेस्सामि. अ. नि. 1(1).148; - ग्गहेत्वा पू. का. कृ. पीछे पीछे जाना, अनुसरण करना - अट्ठमीचातुद्दसीपन्नरसीनं - अट्ठकथं अनुग्गहेत्वाव .... विसुद्धि. 1.94; - ग्गहेतब्बो पच्चुग्गमनानुग्गमनवसेन चत्तारो दिवसा, जा. अट्ठ.4.287, सं. कृ., पु.. प्र. वि., ए. व. - उपज्झायेन, भिक्खवे, द्रष्ट. अनुगमन के अन्त.. सद्धिविहारिको सङ्गहेतब्बो अनुग्गहेतब्बो, महाव. 56; - अनुग्गह' पु., [अनुग्रह], क. कृपा, उपकार, सहायता ग्गहितो भू. क. कृ., पु.. प्र. वि., ए. व. - सेय्यथापि, भन्ते, संक्षेप, संग्रह, पक्षपात, उदारता - अनुग्गहे तु सङ्केपे गहणे भगवता पुब्बे भिक्खुसको अनुग्गहितो, म. नि. 2.130; - संगहो मतो, अभि. प. 925; सुखा सङ्घस्स सामग्गी, ण्हापेति प्रेर., वर्त.. प्र. पु., ए. व. - द्वे वस्सानि नेव समग्गानञ्चनुग्गहो, इतिवु. 10; समग्गानञ्चनुग्गहोति अनुग्गण्हाति न अनुग्गण्हापेतीति, पाचि. 446; - ण्हापेय्य समग्गानं सामग्गिअनुमोदनेन अनुग्गण्हनं सामग्गिअनुरूपं प्रेर., विधि., प्र. पु., ए. व. - द्वे वस्सानि नेव अनुग्गण्हेय्य इतिवु. अट्ठ, 62; द्वेमे, भिक्खवे, अनुग्गहा आमिसानुग्गहो च न अनुग्गण्हापेय्य, पाचि. 446; - ण्हापेस्सति प्रेर., भवि०, धम्मानुग्गहो च इतिवु. 70; ख. स्वीकृति, अनुमोदन स्वीकरण प्र. पु., ए. व. - द्वे वस्सानि नेव अनुग्गहिस्सति न - एत्थ पन किञ्चाति गरहत्थे च अनुग्गहणत्थे च निपातो, अनुग्गण्हापेस्सति, पाचि. 446.
जा. अट्ठ. 1.140; किञ्चापीति अनुग्गहगरहवचनं. म. नि. अनुग्गण्हन नपुं.. पूर्ववर्ती का भावनाम [अनुग्रहण]. अनुग्रह, अट्ठ. (मू.प.) 1(1).158; द्रष्ट. सद्द. 3.896; - बुद्धि स्त्री., कृपा, पक्षपात, संरक्षण, स्वीकरण, अनुमोदन - ब्रह्मचरियं तत्पु. स. [अनुग्रहबुद्धि], उपकारभावना, करुणा से भरा नाम तिस्सो सिक्खा, सकलं सासनं, तस्स अनुग्गण्हनत्थाय विचार, अनुकम्पामयी बुद्धि - बिम्बिसारो तदा राजा, आहारेति, ध. स. अट्ठ. 423; अज्ञातं आपनत्थाय आतं ममानुग्गहबुद्धिया, अप. 2.215; - सील त्रि., [अनुग्रहशील]. अनुग्गहणत्थाय .... ध. प. अट्ठ. 1.309-10; - क त्रि., दयालु, करुणा से भरी प्रकृति वाला, सहायता करने की [अनुग्रहणक], अनुकम्पक, उपकारक, सहायक, अनुमोदक मनोवृत्ति वाला - तत्थ अनुकम्पिकाति अनुग्गहसीला - अनुकम्पकाति सम्परायिकेन अत्थेन अनुग्गण्हका, पे. व. करुणाधिका, उदा. अट्ठ. 66. अट्ठ. 59; - सील त्रि., [अनुग्रहणशील], उपरिवत् - एवं अनुग्गह' त्रि., उग्गह का निषे., ब. स., स्वयं को अओपि ये अनुकम्पका अनुग्गण्हसीला होन्ति, पे. व. अट्ट. अध्ययनादि में न लगने वाला, किसी कार्य को हाथ में न 36.
लेने वाला - सन्तो असन्तेसु उपेक्खको सो, अनुग्गहो अनुग्गत' त्रि., अनु + उ + गम का पू. का. कृ. [अनूद्गत]. उग्गहणन्ति मजे, सु. नि. 918; तत्थ अनुग्गहोति पीछे उत्पन्न, साथ साथ उत्पन्न, समान काल में उत्पन्न, उग्गहणविरहितो, सोपि नास्स उग्गहोति अनुग्गहो, न वा समान काल में समुदित - अनुग्गतेति दुल्लभवसेन अनुप्पन्ने. उग्गण्हातीति अनुग्गहो, सू. नि. अठ्ठ. 2.253.
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326.
162.
अनुग्गहण
240
अनुचरित अनुग्गहण नपुं.. [अनुग्रहण], अनुकूल रूप में किसी वस्तु अनुघरं क्रि. वि., अ. [अनुगृह], प्रत्येक घर में, घर घर में का स्वीकरण, सहायता-प्रदान, अनुकम्पन - अनुग्गहायाति - ... अनुघरं पञ्च पञ्च उदकघटकानि ठपेन्ति .... मि. प. अनुग्गहणत्थं स. नि. अट्ठ. 2.21, पाठा. अनुग्गहत्थं - ___42. पच्चुपट्ठान त्रि., [-प्रत्युपस्थान], अनुग्रह या अनुकम्पा के अनुघरकं उपरिवत् - अनुधरकं अनुघरकं आहिण्डथ, महाव. कारण उत्पादित अनुकूल मानसिक संवेदन से उत्पन्न - सातलक्खणं सुखं, ... अनुग्रहणपच्चुपट्टानं, ध. स. अट्ठ. अनुघायित्वा अनु + Vघा का पू. का. कृ., सुगन्ध लेकर,
सूंघ कर, रसास्वाद ग्रहणकर - भमराव गन्धमनुघायित्वा अनुग्गहीत त्रि., अनु + गह का भू. क. कृ. [अनुगृहीत], पविसन्ति विवित्तकाननं, मि. प. 311. क. वह, जिस पर किसी ने अनुग्रह अथवा कृपा की है, अनुचङ्कमति अनु + कम का अवधारक वर्त, प्र. पु., ए. व. संतुष्ट, सहायता प्राप्त, अनुमोदित, उपकृत - कतिहि ... [अनुचङ्क्रम्यते], ऊपर से नीचे की ओर तथा नीचे से अङ्गेहि अनुग्गहिता सम्मादिट्टि, म. नि. 1.373, पाठा. ऊपर की ओर चलता है, किसी के साथ विचरण करता है, अनुग्गहीता; अनुग्गहिताति लद्धपकारा, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) स्मृति एवं संप्रजन्य के साथ चङ्क्रमण करता है - न्ति प्र. 1(2).242; ख. कर्तृ. वा., सहायक, दयालु, कृपालुः - चित्त पु.ब. व. - उपसङ्कमित्वा परितो परितो कुटिकाय अनुचङ्कमन्ति त्रि., ब. स., दयालु चित्तवाला, उदार - कालेन दानं देति, अनुविचरन्ति, स. नि. 2(2).123; - मानो वर्त. कृ., आत्मने., अनुग्गहितचित्तो दानं देति, अ. नि. 2(1).162; पु.प्र. पु., ए. व. - जवविहारं अनुचङ्कममानो, जा. अट्ठ. अनुग्गहितचित्तोति अग्गहितचित्तो मुत्तचागो हुत्वा, अ. नि. 4.7; - न्तानं वर्त. कृ., पु., ष. वि., ब. व. - माणवानं अट्ठ. 3.54.
जलविहारं अनुचङ्कमन्तानं अनुविचरन्तानं दी. नि. 1.214; - अनुग्गाहक त्रि.. [अनुग्राहक], सहायक, अनुग्रह करने मिं अद्य०, उ. पु., ए. व. - बुद्धस्स चङ्कमन्तस्स, पिद्वितो वाला, अनुकम्पक, उपकारक, प्रोत्साहक - पण्डिता भिक्खू अनुचङ्कमि, थेरगा. 1047; -मिंसु अद्य., प्र. पु., ब. व. - अनुग्गाहका सब्रह्मचारीनं म. नि. 3.297; भिक्खूनं अनुग्गाहको भगवन्तं अभिवादेत्वा भगवन्तं चङ्कमन्तं अनुचङ्कमिंसु, दी. नि. सब्रह्मचारीनं, स. नि. 2(1).6; अनुग्गाहकोति ... द्वीहिपि 3.59; - मिस्सं अद्य.. उ. पु., ए. व. - अनुचङ्कमिस्सं अनुग्गहहि अनुग्गाहको, स. नि. अट्ठ. 2.226; विरजं, सब्बसत्तानमुत्तम, थेरगा. 481. परमहितानुकम्पकेति ... अनुग्गाहके, वि. व. अट्ठ. 91. अनुचङ्कमन नपुं. [अनुचङ्क्रमण], बिहार में निर्मित वह पथ, अनुग्घात पु., उग्घात का निषे०, तत्पु. स. [अनुद्घात], जिस पर साधक भिक्षु स्मृति के साथ चंक्रमण करे -द्वीसु
शा. अ. झटकों अथवा गाड़ी की चाल में धक्कों का अभाव, पस्सेस रतनमत्तअनुचङ्कम दीघतो सद्विहत्थं.... जा. अट्ठ. 1.10. चोट, ठेस अथवा पीड़ा का अभाव, सवारी की बिना झटकों __अनुचङ्कमापेन्ति अनु + Vचङ्कम का प्रेर०, वर्त.. प्र. पु.. ब. वाली गति, ला. अ. क्रोध, द्वेष आदि के प्रहार या झटकों व., चङ्क्रमण के लिए प्रेरित करते है, चङ्क्रमण हेतु का अभाव - ... अनुग्घातीति ... अनुग्घातेन समन्नागतो, उत्साहित करते है - आयस्मन्तं महामोग्गल्लानं वेजयन्ते जा. अट्ठ. 7.143.
पासादे अनुचङ्कमापेन्ति अनुविचरापेन्ति, म. नि. 1.322. अनुग्घाती त्रि., झटकों अथवा धक्कों से रहित, अकष्टकर, अनुचर पु.. [अनुचर], साथी, अनुयायी, अनुगामी, सेवक, पीड़ा न देने वाला, क्रोध आदि से रहित, अहिंसक - भृत्य - आयसाधको आयुत्तकपुरिसो विय तन्निस्सितो नन्दिरागो
अक्कोधनमनुग्घाती, जा. अट्ठ. 7.142; ठितं वग्गुमनुग्घाती, अनुचरो नाम, ध. प. अट्ठ. 2.259. .... वि. व. 33; अनुग्घातीति न उग्घाति, अत्तनो उपरि अनुचरति अनु + चर का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अनुचरति], निसिन्नानं ईसकम्पि खोभं अकरोन्तोति, वि. व. अट्ठ. 27. पीछे चलता है, साथ-साथ चलता है, आ धमकता है, अनुघटेति अनु. + Vघट का वर्त, प्र. पु., ए. व., साथ में आक्रमण करता है; आह्वान करता है, इधर-उधर भटकता लगा देता है, संलग्न करता है, जोड़ देता है, अनुबद्ध कर है - सि म. पु., ए. व. - किं मुण्डो कपालमनुचरसि, स. देता है - न्तो त्रि., वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - ... नि. 2(2).190; -न्ति वर्त.. प्र. पु., ब. व. - यम्पि, भिक्खवे, जातकं पच्चुप्पन्नेन अनुघटेन्तो .... खु. पा. अट्ठ. 1583; दलिदो अस्सको अनाळिहको चोदियमानो न देति, पाठा. अनुसन्धेन्तो.
अनुचरन्तिपि नं., अ. नि. 2(2).66 अनुचरन्तिपि नन्ति
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अनुचरित 241
अनुज परिसमज्झगणमज्झादीस आतपठपनपंसओकिरणादीहि । होति, पाचि. 113-114; अनुच्चारितकतन्ति कप्पियं कारापेतुं विप्पकारं पापेन्तो पच्छतो पच्छतो अनुबन्धन्ति, अ. नि. अट्ठ. आगतेन भिक्खुना ईसकम्पि अनक्खित्तं वा अनपनामितं वा 3.117; - अन्वचारी अद्य., प्र. पु., ए. व. - महिळामुखो कतं, पाचि. अट्ठ. 85. पोथयमन्वचारी, जा. अट्ठ 1.187; - रापेत्वा प्रेर., पू. का. अनुच्चावचसील त्रि.. [अनुच्चावचशील], वह अर्हत्, जिसका कृ. - एवं वहिस्सतीति इतो चितो च अनुचरापेत्वा वीमंसाय शील न बढ़ सके, न घट सके, अपरिवर्त्य चरित्र वाला, अनुचरितं धम्म देसेति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).335. स्थिर आचरण वाला, अविकम्पित आचरण वाला, स्थिर अनुचरित त्रि.. भू. क. कृ. [अनुचरित], क. परिव्याप्त, भरा शील वाला अर्हत् - अनुच्चावचसीलस्स, निपकस्स च हुआ, परिवृत्त, परिपूर्ण, आपूरित, खचित- गवजमहिंसरुरु .... बिळारससकणिकानुचरिते. जा. अट्ठ. 5.411; ख. विचारित, खीणासवस्स पन सील एकन्तवडितमेव, तस्मा सो विमर्शित, सुचिन्तित - अनुचरापेत्वा वीमंसाय अनुचरितं अनुच्चावचसीलो नाम होति, अ. नि. अट्ट. 2.146. धम्म देसेति, म. नि. अट्ठ (मू.प.) 1(1).335.
अनुच्छिट्ठ/अनुच्चिट्ठ त्रि., [अनुच्छिष्ट], वह भोजन, जो अनुचरिया स्त्री., [अनुचर्या], शा. अ. सेवा, आराधना, जूठा न हो, वह आचरण, जिसका प्रयोग न किया गया हो, देख-भाल - सक्कस्स देवानमिन्दस्स अनुचरियं उपागमि, अस्पृष्ट, अपरिभुक्त, ताजा - सो अनुच्छि8 कत्वाव थोक भत्तं दी. नि. 2.194; ला. अ. न्यायिक प्रक्रिया, दण्डविधान - अपनेत्वा .... ध. प. अट्ठ. 1.252; तत्थ अग्गोदकानीति ... अनुचरियापि, भिक्खवे, दुक्खा लोकस्मिं कामभोगिनो ति, अपीतानि अनुच्छिट्ठोदकानि, जा. अट्ठ. 3.383; अनुच्छि8 अ. नि. 2(2).66.
अपरिभुत्तं दातुं वट्टती ति ..., जा. अट्ठ. 3.225. अनुचारिका स्त्री., [अनुचारिका], सेविका, दासी, देख-रेख अनुअच्छरिय त्रि., अप. [अनक्षरीय], अक्षरविधान से विनिर्मुक्त, करने वाली भार्या - अनुचारिका वुच्चति भरिया, दी. नि. स्वतः-स्फूर्त - अनच्छरियाति अनुअच्छरिया, स. नि. अठ्ठ. अट्ठ. 3.7.
1.173. अनुचिण्ण त्रि., अनु + Vचर का भू. क. कृ. [अनुचीर्ण], क. अनुच्छव/अनुच्छविक त्रि., [अनुच्छविक], प्रतिरूप, छवि व्यवहृत, पूर्वकाल में प्रयोग में लाया गया, अधिगत, परिपूर्ण, के अनुरूप, उचित विषय - इदं मे आसनं वीर, पञत्तं प्रयुक्त, खचित, भरा हुआ - तेहानुचिण्णं इसीभि, मग्गं तवनुच्छवं, अप. 1.66; ध. प. अट्ठ. 1.63; - क त्रि.. ब. स., दस्सनपत्तिया, थेरीगा. 206; इसीहि अनुचिण्णं पटिपन्नं उपरिवत् - पतिरूपोनुच्छविक, अभि. प. 715; राजा समथविपस्सनामग्गं आणदस्सनस्स अधिगमाय ..., थेरीगा. बोधिसत्तस्स तिण्णं उतूनं अनुच्छविके तयो पासादे कारेसि. अट्ठ. 193; ख. कर्तृ. वा. के तात्पर्य में - आचरण कर रहा, जा. अट्ठ. 1.68; धीतु अनुच्छविकं सब्बालङ्कारं अदासि, जा. अभ्यास कर रहा - सो पमाणमनुचिण्णो, इतिवु. 62; किं अट्ठ. 1.78; - यत्र तत्र निमि. कृ. के साथ भी प्रयुक्त - नायं तत्थ दुक्खमनुचिण्णेन, मि. प. 228.
मङ्गलहत्थी भवितुं अनुच्छविको, जा. अट्ट. 4.125; - वोहार अनुचिन्तेति अनु + चिन्त का वर्त, प्र. पु., ए. व. पु., कर्म. स., उपयुक्त व्यवहार, उपयुक्त वाणी का प्रयोग [अनुचिन्तयति], अनुचिन्तन करता है, विमर्श करता है, - अय्यपुत्तोति वत्तब्बे पब्बजितानं अनुच्छविकवोहारेन वदति. पुनः पुनः सोच विचार करता है - सि वर्त.. म. पु.. ए. व. उदा. अट्ट. 58. - इवानचिन्तेसि सयम्पि देव, जा. अट्ठ. 7.129; अनचिन्तेसीति अनुच्छेद/अनुपच्छेद पु., निषे. तत्पु. स. [अनुच्छेद या पुनप्पुन चिन्तेय्यासि. जा. अट्ठ. 7.130; - न्तय अनु., म. अनुपच्छेद], अविनाश, सातत्य, निरन्तरता, अविच्छिन्नता - पु., ए. व. - अयोनिसो पटिनिस्सज्ज, योनिसो अनुचिन्तय, दीपसिखाय अनुच्छेदो अनुपच्छेदो, म. नि. अट्ठ. 3.700(सि.). स. नि. 1(1).235; - न्तयु अद्य., प्र. पु.. ब. व. - अनुछमासं अ., क्रि. वि. [अनुषण्मास], प्रत्येक छह महीने ठिताचलट्ठिति थिरा, धम्मतमनुचिन्तयु, अप. 2.203. पर - दीघायुकबुद्धकाले च अनुसंवच्छरं वा अनुछमासं वा अनुच्चारित त्रि., उच्चारित का निषे. [अनुच्चारित], वह, भिक्खू उपोसथत्थाय सन्निपतन्ति, ध. प. अट्ट. 2.31. जिसे बाहर उड़ेला नहीं गया है, अविनिर्मुक्त, अबहिष्कृत, - अनुज पु.. [अनुज], छोटा भाई - कनिट्ठो कनियो नुजो, कत त्रि., वह, जिसे बाहर नहीं किया गया, वह, जो अभि. प. 254; - जा स्त्री., [अनुजा], छोटी बहिन - अतिरिक्त भाग नहीं है- अनतिरितं नाम ... अनुच्चारितकतं अजातका सचे होन्ति, भातुनो अनुजाय वा, विन. वि. 487.
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अनुज्जवं
242
अनुजोतन अनुज्जवं पु., अनु + vजु का वर्त. कृ., प्र. वि., ए. व., पीछे भवि., उ. पु., ए. व. - अनुज्ञेय्यं ख्वाहं भोतो उदेनस्स दौड़ता हुआ, मनाता हुआ, पीछे पड़ा हुआ - हंसराजं यथा अनुजानिस्सामि, म. नि. 2.372; - नितुं निमि. कृ. -
धङ्को, अनुज्जवं पतिस्ससी ति, जा. अट्ठ. 6.281; अनुज्जवन्ति अनुजानितुं आगमनाय पण्हे ति, जा. अट्ठ. 5.23; - नित्वा ... यथा सुवण्णहंसराजं अनुजवन्तो धङ्को अन्तराव पतिस्सति, पू. का. कृ. - उपोसथादीनि अनुजानित्वा ..., ध. प. अट्ठ एवं पतिस्ससि, तदे..
1.35. अनुजात त्रि., अनु + /जन का भू. क. कृ. [अनुजात], बाद अनुजानेति अनु + ञा, वर्त.. प्र. पु.. ए. व., उपरिवत्, - में उत्पन्न, अपने पूर्वजों अथवा आचार्यों के आचरणों का स्साम भवि., उ. पु.. ब. व. - आगते भिक्खू अनुजानेस्सामाति, अनुकरण करने वाला - सारिपुत्तो अनुवत्तेति, अनुजातो चूळव. 470; - नेत्वा पू. का. कृ. - तदाहं अनुजानेत्वा, तथागतं. सु. नि. 562; तत्थ अनुजातो तथागतन्ति तथागतहेतु पब्बजि अनगारियं, अप. 2.239. अनुजातो, तथागतेन हेतुना जातोति अत्थो, सु. नि. अट्ठ. अनुजिण्ण त्रि., अनु + Vजर का भू. क. कृ., कर्तृ. वा. 2.158; अनुजातो पितरं अनोमपओ, जा. अट्ठ. 6.210; अथवा कर्म. वा. दोनों ही में प्रयुक्त, [अनुजीर्ण], जीर्ण हो कुलपवेणिरक्खको पन अनुजातो, तदे.; - पुत्त पु.. चुका, वृद्धावस्था को प्राप्त - अनुजिण्णो वसलिं देवदत्तो, [अनुजातपुत्र], योग्य पुत्र, वंशदीपक - तेपि सब्बेव अनुजिण्णा वसली देवदत्तेन, मो. व्या. 5.59; तुल. पाणिनि अनुजातपुत्ता नाम अहेसु, ध. प. अट्ठ. 1.75.
3.4.72. अनुजानन नपुं.. [अनुजानन], स्वीकृति, अनुमोदन, समर्थन । अनुजीवसि अनु + Vजीव का वर्त., म. पु., ए. व., किसी - तत्थ किञ्चापीति अनुजाननप्पसंसनत्थे निपातो, म. नि. दूसरे के सहारे जीवित रहते हो, परनिर्भर हो - अलीनचित्तस्स अट्ठ. (मू.प.) 1(1).103.
तुवं, विक्कन्तमनुजीवसि, जा. अट्ठ. 4.242; अनुजीवसीति अनुजानाति अनु + Vा का वर्तः, प्र. पु., ए. व., शा. अ. उपजीवसि, तस्सानुभावेन तया जीवितं लद्धन्ति अत्थो, तदे.. अनुमति देता है, आज्ञा करता है, स्वीकृति प्रदान करता है, अनुजीवी त्रि., [अनुजीविन]. परनिर्भर, पराधीन, भृत्य, सेवक, प्रशंसा करता है, संस्तुति करता है - नन्ति ब. व. - नम अनुयोगी, अनुचर - अनुजीवी तु सेवको, अभि. प. 342; मातापितरो अनजानन्ति अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जायाति, दासी दासा च भरिया, ये चजे अनजीविनो, अप. 1.3473; म. नि. 2.257; ला. अ. विनय-नियमों को प्रज्ञप्त करता जा. अट्ठ. 3.224; - जन पु., सेवक, पराधीन-जन, परनिर्भर है - न भगवा अनुजानाति मातुगामस्स ... पब्बजन्ति, - यो आचरेय्य अनुजीवीजनस्स अत्थं, .... दा. वं. 5.43. चूळव. 416; - सि म. पु.. ए. व. - सुभासितं नानुजानासि अनुजु/अनुज्ज त्रि., उजु का निषे., तत्पु. स. [अनृजु], महन्ति , जा. अट्ठ. 7.178; - मि उ. पु.. ए. व. अनुजानामि, शठ, टेढ़ा, वक्र, कुटिल, दुष्ट प्रकृति वाला, मायावी -- भिक्खवे, दसवग्गेन वा अतिरेकदसवग्गेन वा गणेन निकतो च सठानुजु, अभि. प. 737; जिम्हं च रिम्हं अनुज, उपसम्पादेतुन्ति, महाव. 66; - नन्तो वर्त. कृ., पु., प्र. पु., सद्द. 2.323; - क त्रि., [अनृजुक], उपरिवत् - याव ए. व. - तस्स चित्तं अनुजानन्तोव वन्दनसासनं पहिणि, अनुजुको चायं चित्तो गहपति, याव सठो चायं चित्तो गहपति जा. अट्ठ. 6.260; पाठा. अजानन्तोव; - अनानुजानं वर्त. ...., स. नि. 2(2).289; द्रष्ट, अनुज्जुक (आगे); - ता स्त्री., कृ. का निषे, पु.प्र. पु., ए. व., - परस्स चे धम्ममनानुजानं. भाव. [अनृजुता]. कुटिलता, शठता, मायाविता, वक्रता, - सु. नि. 886; - जान अनु., म. पु.. ए. व. - इदानेव ताकार पु., कर्म, स., उपरिवत् - अनज्जवोति अनुजुताकारो, पब्बजिस्सामि, अनुजान, मन्ति, जा. अट्ठ. 4.438; - हि विभ, अट्ठ. 466; - भाव पु., उपरिवत् - अनज्जवभावो अनु., म. पु.. ए. व. - अनुजानाहि मे ब्रह्मे, नत्थि पञ्चसतानि अनज्जवता, विभ. अट्ठ. 466. मे, सु. नि. 988; - जञा/जानेय्य विधि., प्र. पु., ए. व. अनुजेटुं अव्ययी. स. [अनुज्येष्ठं], वरीयता के क्रम में, - न चानुजा हनतं परेसं सु. नि. 396; न हारये हरतं ज्येष्ठता के अनुसार - जेट्टानुक्कमेनाति अनुजेट्ट, मो. व्या. नानुजा , सु. नि. 397; सचे मं उपज्झायो अनुजानेय्य, 3.2, क. व्या. 321. उदा. 134; - जानि अद्य., प्र. पु., ए. व. - सत्था साधूति अनुजोतन नपुं., [अनुद्योतन], पीछे किया गया प्रकाशन, अनुजानि, जा. अट्ठ. 1.304; - जासिं अद्य., उ. पु.. ए. सकृदागामी मार्ग में विपश्यना-प्रज्ञा द्वारा बोध्यङ्गों की व. - अनुआसिं सुखेन च, जा. अट्ठ. 5.341; -- निस्सामि अनुपश्यना अथवा ज्ञानदर्शन- कतमो चतुमग्गपञआवसेन
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अनुज्जङ्गी/अनुज्झङ्गी 243
अनुहान उज्जोतनानुज्जोतनपटिज्जोतन - सञ्जोतनट्ठो, पटि. म. लद्धं.... म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).97; - पटिञात त्रि., अट्ठ. 1.87; एकत्ते जोतनट्ठो अभिनेय्यो, एकत्ते उज्जोतनट्ठो [अनुज्ञातप्रतिज्ञात], अनुमोदित एवं स्वीकृत - तेन खो पन अभिजेय्यो, पटि. म. 17; एकत्ते अनुजोतनहुँ बुज्झन्तीति- समयेन ... अम्बट्ठो नाम माणवो ... अनुआतपटिआतो बोज्झङ्गा, पटि. म. 298.
सके आचरियके तेविज्जके पावचने, दी. नि. 1.76-77; अनुज्जङ्गी/अनुज्झङ्गी स्त्री., ब. स. [नताङ्गी], गोलाकार अनुज्ञातपटिआतोति अनुआतो चेव पटिञातो च, अङ्गों वाली स्त्री, वर्तुलाकार अङ्गों वाली सुन्दरी, लचकदार आचरियेनस्स यं अहं जानामि, तं त्वं जानासी तिआदिना अङ्गों वाली सुन्दरी, अनिन्दित अङ्गों वाली, सर्वाङ्गशोभना अनुजातो, आम आचरिया'ति अत्तना तस्स सुन्दरी - सा कथज्ज अनुज्झङ्गी, पथं गच्छति पत्तिका, जा. पटिवचनदानपटिञाय पटिआतोति अत्थो, दी. नि. अट्ठ. अट्ठ. 7.253; अनुज्झङ्गीति अगरहितअङ्गी, जा. अट्ठ. 7.255. 1.201. अनुज्जलयि/अनुज्जलयी अनु + जल का अनद्य., प्र. अनुज्ञेय्य त्रि., [अनुज्ञेय], अनुमतियोग्य, अनुमोदित होने पु., ए. व., पंक्ति में प्रज्ज्वलित किया, कतारों में दीपकों को योग्य, सम्मतियोग्य - तथागतस्स ... धम्म देसेन्तस्स जलाया - गन्धतेलेन पूरेत्वा, दीपानुज्जलयी तहिं अप. 2.249. सन्तयेव परियायं अनुज्ञेय्यं, दी. नि. 3.34; (अनुज्ञेय्यन्ति अनुज्जा स्त्री., विधुर की पत्नी का नाम - अनुज्जाति अनुजानितब्बं अनुमोदितब्बं, दी. नि. अट्ठ. 3.20); एवंनामिका, जा. अट्ठ. 7.184.
अनुज्ञेय्यञ्चेवाह, भन्ते, भगवतो अनुजानिस्सामि, अ. नि. अनुज्जुक त्रि., उज्जुक का निषे०, तत्पु. स. [अनृजुक]. 1(2).227. कुटिल, वक्र, टेढ़ा प्रदुष्ट, प्रदूषित - या तिंसति सारमया अनुटीका स्त्री., [अनुटीका]. टीका या भाष्य की व्याख्या - अनुज्जुका, जा. अट्ठ. 3.280.
लीनत्थवण्णना नाम अनुटीका, ग. वं. 60; स. उ. प. में अनुज्जुगामी त्रि., [अनृजुगामिन]. टेढ़ा-मेढ़ा चलनेवाला, द्रष्ट, अभिधम्म के अन्त.. वक्रगति से चलने वाला (सर्प) - अनुज्जुगामी उरगा अनुट्ठहति अनु + Vठा का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अनुतिष्ठति]. दुजिव्ह, दाठावुधो घोरविसोसि सप्प, जा. अट्ठ. 4.294. निष्पादित करता है, काम को ठीक से पूरा करता है, अनुज्जुभूत त्रि., [अनृजुभूत], वह, जो सीधा अथवा सरल उद्योगशील रहता है, देख रेख या सेवा करता है - अनट्ठहति न हो, वह, जो प्रदुष्ट प्रकृति का हो चुका है - अनुज्जुभूतेन कालेन, कम्मफलं तरिसज्झति, जा. अट्ठ. 5.117; तस्मि हरं महन्तं, जा. अट्ठ. 5.283.
तस्मिं काले तं तं किच्चं करोति, जा. अट्ठ. 5.118. अनुज्झानबहुल त्रि., अनु + उज्झान + बहुल अनुट्ठाता पु., उत्तिट्ठति के कर्तृ. कृ. का निषे. [अनुत्थाता], [अनुच्छायनबहुल], अकष्टपूर्ण, परछिद्रान्वेषण न करने आलसी, अध्यवसाय अथवा पराक्रम से रहित, शक्तिहीन, वाला - सद्धो होति हिरिमा धितिमा ... अनुज्झानबहुलो वीर्य से रहित - अनुट्ठाता च यो नरो, सु. नि. 963; मेत्ताविहारी, मि. प. 319.
अनट्ठाताति वीरियतेजविरहितो उट्ठानसीलो न होति, सु. अनुञा स्त्री., [अनुज्ञा], आज्ञा, आदेश, अनुमति, सम्मति, नि. अट्ठ. 1.134; यत्थालसो अनुट्ठाता, अच्चन्तं सुखमेधति, सहमति, अनुमोदन - सम्मुत्यानुआ वोहारेस्वथ, अभि. प. स. नि. 1(1).251. 1133; मो. व्या. 6.9; रआनुआय चारिक, म. वं. 9.8. अनुहान' नपुं., उट्ठान का निषे. [अनुत्थान], आलस्य, अनुज्ञात त्रि., [अनुज्ञात], अनुमति को प्राप्त, अनुमोदित प्रमाद, वीर्य या पराक्रम का अभाव - आलस्यञ्च पमादो च. राजा द्वारा आदिष्ट, प्रज्ञप्त, विहित, स्वीकृत- बिम्बिसारेन अनुट्ठानं असंयमो, स. नि. 1(1).50; अनट्ठानन्ति कम्मसमये अनुज्ञातं होति, महाव. 94; यो वो मया गिलानपच्चयभेसज्ज कम्मकरणवीरियाभावो, स. नि. अट्ठ. 1.90; - मल त्रि., ब. परिक्खारो अनुआतो, दी. नि. 3.96; अनुजातोसि पन त्वं स. [अनुत्थानमल], आलस्य अथवा शिथिल पराक्रम के रहपाल, मातापितूहि ... म. नि. 2.256; अनुज्ञातो अहं मल या दोष वाला - असज्झायमला मन्ता, अनुहानमला मत्या, जा. अट्ठ. 6.18; भगवता तिचीवरानि अनुज्ञातानि, घरा, अ. नि. 3(1).37; ध. प. 241; उट्ठानवीरियाभावो घरानं ध. प. अट्ठ. 2.41; - त्त नपुं.. भाव. [अनुज्ञातत्व], स्वीकृत मलं नाम, अ. नि. अट्ठ. 3.215; - सेय्या स्त्री., तत्पु. स. या अनुमोदित कर दिये जाने की स्थिति, अनुमोदित [अनुत्थानशय्या], मरणशय्या, पूर्ण रूप से शिथिलता को अवस्था- भगवता हि अनुज्ञातत्तायेव भिक्खूहि ... पणीतचीवरं । ला देने वाली मृत्यु की अवस्था - तत्थ गन्वा
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अनुहान
244
अनुताळयि यमकसालानमन्तरे उत्तरसीसके मञ्चके अनुट्ठानसेय्याय नानुतपन्तिमाम, स. नि. 1(1)132; - पेय्य विधि, प्र. पु.. निपज्जि, जा. अट्ठ. 1.374; तं दिवसमेव पोलजनकस्स ए. व. - यथा तं सुचिण्णं नानुतप्पेय्य पच्छा ति, जा. अट्ठ.
सरीरे रोगो उप्पग्जि, अनुट्ठानसेय्यं सयि, जा. अट्ठ. 6.41. 5.269; ख. बाद में शोक या अनुताप करता है, पश्चात्ताप अनुवान नपुं.. [अनुष्ठान], काम का निष्पादन, कार्यपद्धति, करता है, पछताता है, पीछे दुख को प्राप्त होता है - न तं शील, समाधि एवं प्रज्ञा की शिक्षाओं की वास्तविक व्यवहार कम्म कतं साधु, यं कत्वा अनुतप्पति, ध. प. 67; कम्म कत्वा में परिणति - महतिया निब्बानव्हाय अधिसीलादिसिक्खाय ... अनुतप्पति अनुसोचति, ध. प. अठ्ठ. 1.272; अमित्तवसमन्वेति,
अनुवानन्ति अत्थो, थेरगा. अट्ट, 2.178; स. उ. प. के रूप पच्छा च अनुतप्पतीति, जा. अट्ठ. 3.234; - प्पामि वर्त., उ. में कम्मन्ता, कुसलधम्मा०, परिचरिया. के अन्त. द्रष्ट.. पु., ए. व. - भयानुतप्पामि महा च मे भया, जा. अट्ठ. 7.140; अनुद्वित' त्रि., उट्ठित का निषे. [अनुत्थित]. 1. शा. अ. - प्पथ वर्त., म. पु., ब. व. - यमेकरत्तं अनुतप्पथेतं, जा. ऊपर की ओर नहीं उठा हुआ, स्पष्ट रूप से प्रकट न होने अट्ठ. 4.398; - प्पाम वर्त., उ. पु., ब. व. - दत्वापि वे वाला, 2. ला. अ. अप्रकट, अजात, अनुत्पन्न, अभूत- ये नानुतप्पाम पच्छा, जा. अट्ठ. 4.47; - तपे/तप्पे विधि., प्र. धम्मा अजाता अभूता ... असमुप्पन्ना अनुहिता, ध. स. 1042; . पु., ए. व. - यो च दत्वा नानुतप्पे, जा. अट्ठ. 3.300; -- यं रूपं अजातं अभूतं... असम्प्पन्नं अनहितं विभ. 2.
पेय्यं विधि., उ. पु., ए. व. - ददतो मे न खीयेथ, दत्वा अनुद्वित' त्रि., अनु + Vठा का भू. क. कृ. [अनुष्ठित], क. नानुतपेय्यं, पे. व. 299; अप्पसादकं दिस्वा तेनहं पच्छा ठीक से या उचित रूप से निष्पादित, अच्छी तरह से नानुतपेय्यं, पे. व. अट्ठ. 113; - पिस्सति भवि०, प्र. पु.. ए. व्यवहार में उतारा हुआ, सुसमारब्ध, भलीभांति आचरण व. - वाणिजोव अतीतत्थो, चिरत्तं अनुतपिस्सति, अ. नि. किया गया - चत्तारो इद्धिपादा भाविता ... अनुहिता 3(1).62; - पेस्ससि भवि., म. पु., ए. व. - एवं सन्ते त्वं परिचिता, दी. नि. 2.79; मि. प. 142; अनुहिताति दीघमद्धानं सोचन्तो परिदेवन्तो अनुतपेस्ससि, जा. अट्ठ. 1. अधिद्विता, दी. नि. अट्ठ. 2.129; उदा. अट्ठ. 264; अनुहिताति 120; - प्पितब्ब त्रि., सं. कृ. - दानं नाम दत्वा नेव अविजहिता निच्चानुवद्धा, स. नि. अट्ठ. 1.160; ख. कर्तृ. । अनुतप्पितब्बन्ति, जा. अट्ठ. 3.301; - तप्प त्रि.. सं. कृ. - वा. देख-रेख या पालन करने वाला - अहं पतिञ्च पुत्ते च सावकानं कालङ्कतो अनुतप्पो होति, दी. नि. 3.90; अनुतप्पो .... अनुद्विता दिवारत्तिं, जा. अट्ठ. 7.338; अनुट्ठिताति होतीति अनुतापकरो होति. दी. नि. अट्ठ. 3.84; अ. नि. अट्ट. पारिचरियानुट्ठानेन अनुट्टिता अप्पमत्ता हुत्वा पटिजग्गामि, 1.93; कालकिरिया बहुनो जनस्स अनुतप्पा होति, अ. नि. 1(1)29. जा. अट्ठ. 7.339.
अनुताप पु., प्रायः पच्छा के साथ प्रयुक्त [अनुताप], पछतावा, अनुट्ठभा स्त्री., [अनुष्टुभ], समानमात्रायुक्त पादों वाले अथवा पश्चात्ताप, बाद में मन में उत्पन्न जलन या छटपटाहट - समवृत्त छन्दों के अनेक प्रभेदों में से एक प्रमुख छन्द का पच्छातापो अनुतापो च विप्पटिसारो पकासितो, अभि. प. नाम, जिसके प्रत्येक पाद में आठ-आठ अक्षर रहते हैं तथा 169; एवं तं कम्मं पच्छा अनुतापं आवहतीति, जा. अट्ट. जिसके चित्तपदा, विज्जुम्माला, मानवका, समानिका एवं 7.158; अनुतापोति विप्पटिसारो, वि. व. अट्ठ. 149; - कर पमाणिका नामक पांच उपभेद छन्दशास्त्र में बतलाए गये त्रि., पश्चात्ताप को उत्पन्न करने वाला, दुखदायक, शोचनीय हैं - छन्दो वसे अधिप्पाये वेदेच्छानुहभादिसु, अभि. प. 945; - अनुतप्पा होतीति अनुतापकरा होति, अ. नि. अट्ठ. 1.93; द्रष्ट. वुत्तो. 47-51(ना.).
तस्स पतत्ता अनुतापकरो न होति, दी. नि. अट्ठ. 3.84. अनुतपति/अनुतप्पति अनु + तप का वर्त., प्र. पु., ए. अनुतापी त्रि., [अनुतापिन्], पछतावा करने वाला, केवल व., कर्तृ. वा. एवं कर्म. वा. दोनों ही के आशय को परस्पर पच्छा के स. उ. प. के रूप में ही प्रयोग में प्राप्त- भुजाहि में व्यामिश्रित कर प्रयुक्त [अनुतपति/अनुतप्यते], क. बाद कामरतियो, माहु पच्छानुतापिनी, थेरीगा. 57; 190; हीने में उत्पीड़ित कर देता है, उद्वेलित करता है, अनुताप चित्तं पणिधाय, साम्हि पच्छानुतापिनी, वि. व. 242. उत्पन्न कराता है - किं कम्मजातं अनुतप्पते त्वं, जा. अट्ट. अनुताळयि अनु + Vताळ का अद्य., म. पु.. ए. व., बार-बार 5.23; तं पच्छा अनुतप्पती ति, जा. अट्ठ. 7.157; तं पच्छा ताड़ना दी या पीटा - बाहाय मंगहेत्वान, लट्ठिया अनुताळयि, अनुतप्पतीति ... तं कम्म पच्छा अनुतापं आवहति, जा. ___जा. अट्ट, 2233; यं मं बाहा गहेत्वान, तिक्खत्तुं अनुताळयीति, अट्ठ. 7.157-58; - न्ति वर्त, प्र. पु., ब. क. - रत्तिन्दिवा तदे..
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अनुतिति / अनुद्वहति
प्र.
उदा. अट्ठ. 252.
अनुतिति / अनुद्वहति अनु + √ठा वर्त. प्र. पु. ए. व. [ अनुतिष्ठति], कार्य को ठीक से पूरा करता है, ला. अ. देखभाल या सेवा करता है, सहयोग करता है अनुद्वहति कालेन, कम्मफलं तस्सिज्झति, जा० अट्ठ. 5.117; अनुद्वहतीति तस्मिं तस्मिं काले तं तं किच्चं करोति, जा. अड. 5.118 -न्ति प्र. पु. ब. व. उद्वाहतो अप्यमज्जतो, अनुतिद्धन्ति देवता, जा. अड्ड. 5.107 द्वाहि अनु, म. पु. ए. व. सक्कच्चं अनुतिद्वाहि, पे. व. अट्ठ. 67; पाठा. अनुपतिट्ठाहि; दुध अनु. म. फु. ब. व. तथा तमनुतिद्वथ अप. पु०, 2.201; - द्वन्तो वर्त. कृ., पु०, वि. ए. व. - थेरेन वृत्तविधिं पन अनुतिट्ठन्तो, अनुतिट्ठन नपुं०, क्रि. ना. [ अनुष्ठान ], कार्यान्वयन, निष्पादन एतेसं अनुतिद्वनं उपट्टानं, उदा. अड्ड. 286. अनुतिष्ण अनु + √तर का भू. क. कृ. केवल स. उ. प. में ही प्रयुक्त [ अनुतीर्ण], पार कर चुका पार गया हुआ, मुक्त - सोकावतिण्णो नु वनम्हि झायसि, स. नि. 1 (1).144; पाठा. सोकानुतिण्णो, तुल. ओतिण्ण, अनुतीरचारी पु.. व्य. सं. एक ऊदविलाव का नाम तस्मिं खणे गम्भीरवारी व अनुतीरवारी... जा. अट्ठ. 3.293; अनुतीरचारी भद्दन्ते, सहायमनुधाव मं, तदे.; अतीतस्मि अनुतीरचारी च गम्भीरचारी. ध. प. अ. 2.77. ..... अनुतीरे अ. क्र. वि. [अनुतीर] नदी आदि के तट के पास में, तीर के समीप में - अनुतीरे महिया समानवासो, सु. नि. 18. अनुतीरे महियेकरतिवासो, सु. नि. 19. अनुतुज त्रि, उतुज का निषे, तत्पु. स. [अनृतुज]. ऋतुओं अथवा भौतिक परिवर्तनों से उत्पन्न न होने वाला, मौसम के परिवर्तन से अप्रभावित यं लोके अकम्मजं अहेतुजं अनुतुजं मि. प. 250 तुल. उतुज, उतुनिब्बत्त. अनुनी स्त्री, उतनी का निषे, तत्पु० स० [अनृतुमती], वह स्त्री, जो रजस्वला नहीं है सुनखा सुनखिं उतुनिं येव गच्छन्ति नो अनुतुनि, अ. नि. 2 (1).207 न पायमानं गच्छति, न अनुतुनिं गच्छति, अ. नि. 210; उतुनिम्पि गच्छति अनुतुनिम्पि गच्छति, अ. नि. 212. अनुत्तत्रि वच के भू, क. कृ. उत्त का निषे, [अनुक्त]. वह, जिसे अभी तक कहा नहीं गया हो, अकथित, अनभिव्यक्त; - काल त्रि. [अनुक्तकाल] आख्यात अथवा क्रियापद का वह रूप, जिसमें भूत, वर्तमान तथा भविष्यत् कालों में से किसी का भी कथन अभिप्रेत न हो पच्युप्पन्नेनुत्तकाले अतीतेनागतेति स 1.50 कालिक त्रि. [अनुक्तकालिक].
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अनुत्तान
कालविशेष के तात्पर्य को न कहने वाला शब्द - अतिकालिका ति सङ्घ गतं अनुत्तकालिका ति वृत्तं सद्द.
1.57.
अनुत्तण्डुल त्रि, उत्तण्डुल का निषे०, ब० स०, कच्चे या पके हुए चावलों से रहित (ठीक से पकाया हुआ भात) तेहि तण्डुलेहि अनुत्तण्डुल अकिलिन्न, पारा, अड. 2.256. अनुत्तरत्र उत्तर का निषे.. ब. स. [ अनुत्तर). वह जिससे अधिक बढ़-चढ़कर दूसरा न हो, सर्वोत्तम बेजोड सर्वश्रेष्ठ
उत्तमो पवरो जेट्ठो पमुखानुत्तरो वरो, अभि. प. 694; उत्तरविपरीते च सेद्वे चानुत्तरं तिसु, अभि. प. 952... तदनुत्तरं - ब्रह्मचरियपरियोसानं दिद्वेव धम्मे सयं अभिञ सच्छिकत्वा. सु. नि. (पृ.) 98; दी. नि. 1.159; म. नि. 1.50 सब्बे तं सरणं यन्ति त्वं नो सत्था अनुत्तरो सु. नि. 181: सम्बुद्धो, सत्यवाहो अनुत्तरो, थेरगा. अड. 1.67; उपेमि सरणं बुद्ध, धम्मञ्चापि अनुत्तर, ध. प. अट्ट. 1.22; अत्तनो उत्तरितरस्स कस्साच अभावतो अनुत्तरं, थेरगा. अट्ट, 1.97; अनुत्तरन्ति सेट्टं, असदिसन्ति अत्थो, म. नि. अट्ठ. (मू०.प.) 1 (1) .45; धम्मराजता स्त्री अनुत्तरधम्मराज का भाव धर्म के सर्वोत्तम अथवा अनुपम स्वामी होने की अवस्था सम्मासम्बुद्धो पन अत्तनो अनुत्तरधम्मराजताय एकस्मियेवस्स अन्तरभत्ते सह पटिसम्भिदाहि अरहत्तं अदासि, जा० अट्ठ 1.126; ध० प० अट्ठ 1.141; अत्तनो बुद्धसुबुद्धताय अनुत्तरधम्मराजताय एतके सीलं तीसुयेव द्वारेसु पक्खिपित्वा मं गण्हापेसि, जा. अ. 1.267 भाव पु. सर्वोत्तम अवस्था - तत्थ अनुत्तरियन्ति अनुत्तरभावो दी. नि. अड. 3. 59. अनुत्तान त्रि, उत्तान का निषे [ अनुत्तान] शा. अ. वह जो खुला हुआ न हो, ला. अ. अस्पष्ट, अप्रकाशित, अव्याख्यात गूढ़, दुर्बोध इतो परं पन एत्तकम्पि अवत्वा यं यं अनुत्तानं तं तदेव वण्णविस्साम जा. अड्ड. 1.158; तासं तासं गाथानं अनुत्तानानि पदानि वण्णेतब्बानि, जा. अड. 7. 136 पद नपुं, अस्पष्ट अथवा दुर्बोध पद अनुत्तानपदमेव पन वण्णविस्साम, जा. अट्ठ. 3.438 पदत्थ पु०, दुर्बोध शब्दों का अर्थ अयं ताव अनुत्तानपदत्थो दी. नि. अड. 1.185; म. नि. अट्ठ (मू०प.) 1 ( 1 ). 138; - पदवण्णना स्त्री. दुर्बोध पदों के अर्थ का व्याख्यान अयं पत्थ अनुत्तानपदवण्णना सेलन्ति मणिवलयं, जा. अड. 3.336; - सभावता स्त्री०, भाव., दुर्बोध, दुरूह अथवा अस्पष्ट होने की अवस्था या प्रकृति अनुत्तानसभावताय गम्भीरं थेरगा. अट्ठ. 1.39.
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246
अनुत्तानीकत अनुत्तानीकत त्रि., उत्तानीकरोति के भू. क. कृ. का निषे. [अनुत्तानीकृत], दुर्बोध अथवा अस्पष्ट बना दिया गया सुस्पष्ट अथवा सरल (विषय, बात) - अनुत्तानीकतञ्च उत्तानीकरोन्ति, अ. नि. 1(1).140; 3(1).3; अनुत्तानीकतञ्च न उत्तानीकरोन्ति, म. नि. 1.285. अनुत्तानीकम्म नपुं., असुस्पष्टीकरण, अव्याख्यान, निर्वचन का अभाव, खुलासा करके न कहना - पटिच्छादना अनुत्तानीकम्मं अनाविकम्मं वोच्छादना पापकिरिया - अयं वुच्चति माया, पु. प. 126; महानि. 56; न उत्तानि कत्वा दस्सेतीति अनुत्तानीकम्म, महानि. अट्ठ. 162. अनुत्तासी त्रि., उत्तासी का निषे. [अनत्रासिन], निर्भीक, निडर, भयरहित - असम्भीतं अनुत्तासिं, मिगराजंव केसरि,
अप. 1.356; थेरगा. अट्ठ. 1.244. अनुत्तिण्ण त्रि., उ + Vतर के भू. क. कृ., 'उत्तिण्ण' का निषे॰ [अनुत्तीर्ण], पार न किया हुआ, जल से ऊपर उठकर न आया हुआ - अनुत्तिण्णो अनुत्तिण्णं दूसेसि, पाचि. 305; दिस्वा पदमनुत्तिण्णं, जा. अट्ट, 1.172. अनुत्थुणाति/अनुत्थुनाति' अनु + vथु का वर्त.. प्र. पु., ए. व. [अनुस्तनति/अनुस्तनयति], पीछे या बाद में शब्द करता है, कराहता है, विलाप करता है, हुआं-हुआं करता है, दहाड़ता है - परिदेवति सोचति हीनवादो, उपच्चगा मन्ति अनुत्थुनाति, सु. नि. 833; अनुत्थुनातीति सो मं वादेन वादं अतिक्कन्तोति आदिना नयेन सुट्टतरं विप्पलपति, सु. नि. अट्ठ. 2.233; - नामि उ. पु.. ए. व. - नेवाहमत्तानमनुत्थुनामि, न पुत्तदारं न धनं न रहूं, जा. अट्ठ. 5.474; - णन्ति प्र. पु., ब. व. - परिडरहमाना झायन्ति अनुत्थुनन्तीति अत्थो, पे. व. अट्ठ. 51; - नं वर्त. कृ., प्र. वि., ए. व. - सेन्ति चापातिखीणाव पुराणानि अनुत्थुनं, ध. प. 156; - नन्ता वर्त. कृ., प्र. वि., ब. व. - खादितपिवितनच्चगीतवादितादीनि अनुत्थुनन्ता सोचन्ता अनुसोचन्ता सेन्तीति, ध. प. अट्ठ. 2.73; - निंसु अद्य.. प्र. पु., ब. व. - सन्निपतित्वा अनुत्थुनिंसु, दी. नि. 3.63; अनुत्थुनिंसूति अनुभासिंसु, दी. नि. अट्ट. 3.47. अनुत्थुणाति/अनुत्थुनाति/अनुत्थवति अनु + vथु का वर्त, प्र. पु.. ए. व. [अनुस्तौति], प्रशंसा अथवा स्तुति करता है, किसी के बारे में बार-बार कहता है - नन्ति ब. स. - उद्धसरा सुद्धिमनुत्थुनन्ति, अवीततण्हासे भवाभवेसु. सु. नि. 907; सुद्धिमनुत्थुनन्तीति वदन्ति कथेन्तीति, सु. नि. अट्ठ. 2.251; - णन्तो वर्त. कृ., पु., प्र. पु., ए. व. - अनुत्थुणन्तो आसीनो, भत्तु याचित्थ जीवितं, जा. अट्ठ.
अनुदय्हन्ति/अनुडय्हन्ति 5.341; - त्थवि अद्य, प्र पु. ए. व. - यो मं पुफेन पूजेसि.
आणञ्चापिअनुथवि अप. 1.19, थेरगा. अट्ट,2325; पाठा अनुथनि अनुत्थुना स्त्री., अनु + Vथु से व्यु. [अनुस्तनन, नपुं.]. वाणी का विप्रलाप, बकवास, विलाप, दहाड़ - अनुत्थुना वुच्चति वाचा पलापो विप्पलापो लालप्पो, महानि. 122. अनुत्रस्त त्रि., उत्रस्त का निषे. [अनुत्रस्त], भय से रहित, निडर, निर्भीक - अभीतो अनुब्बिग्गो अनुस्सङ्की अनुत्रस्तो, उदा. 90; पाठा. अनुत्रासी; सचे अस्थि अनुत्रस्तं, तं मे अक्खाहि पुच्छितो ति. स. नि. 1(1).65; म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).246. अनुत्रासी/अनुत्रास त्रि., उत्रासी का निषे. [अनुवासिन], निर्भीक, निडर, भयमुक्त - सोज्ज भद्दो अनुत्रासी, पहीनभयभेरवो, थेरगा. 864; अभीरु अच्छम्भी अनुत्रासी अपलायी, स. नि. 1(1)118; चूळनि. 91; म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.68; अमङभूतो अभीरु अच्छम्भी अनुत्रासी विगतलोमहंसो परिसं उपसङ्कमति, मि. प. 307. अनुथेर पु., महाथेर या सङ्घथेर का विप. [अनुस्थविर], बौद्ध भिक्षुसङ्घ में निर्धारित वरीयता के क्रम में कनिष्ठ भिक्षु, अमहत्त्वपूर्ण स्थविर - पिण्डपातं अभुजित्वा अनुथेरेन आभतं भुञ्जिस्सामा ति, ध. प. अट्ठ. 1.365; अनुथेरो चतुत्थदिवसे अनागामी अहोसि, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).26. अनुथेरं अ., क्रि. वि., अव्ययी. स., वरीयता के क्रम में -
अनुपुब्बो थेरानं अनुथेरं बाला. 131. अनुदक/अनोदक/अनूदक त्रि., उदक का निषे., ब.
स. [अनुदक/अनूदक], जल से रहित, सूखा, बिना पानी वाला-किंमलं ब्रह्मचरियस्स, किं सिनानमनोदकन्ति, स. नि. 1(1).44; 1(1).50; वीतसद्धन सेवेय्य, उपदानंवनोदक. जा. अट्ठ. 5.221; अनुखणेति सचेपि अनुदकं उदपानं पत्तो पुरिसो.... जा. अट्ठ. 5.222; सा नून चक्कवाकीव पल्ललस्मि अनोदके, जा. अट्ठ, 7.33; - भूत त्रि., उदकभूत का निषे. [अनुदकभूत], वह, जो वास्तव में जल नहीं है - यथा अनुदकभूतायपि मरीचिया उदकानपरिसनो होन्ति, म. नि. अट्ठ (मू.प.) 1(1).253. अनुदय्हन्ति/अनुडय्हन्ति अनु + /दह/डह का कर्म वा. में वर्त, प्र. पु.. ब. व. [अनुदह्यन्ते]. बाद में मानसिक रूप से पीड़ित किये जाते हैं या जलाये जाते हैं - किं ते इमे कासावं अनुदरहन्ति, स. नि. 2(2).190; पाठा. अनुदहन्ति; - रहमाना स्त्री., वर्त. कृ., बाद में मानसिक पीड़ा प्राप्त कर रही - किलेसेन अनुडरहमाना खुज्जेन सद्धि पाप
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अनुदसाह
247
अनुदेव/अन्वदेव करोति, जा. अट्ठ. 5.422; उप्पन्नकामरतिया अनुडव्हमाना अनुदिसं अ., क्रि. वि., अव्ययी. स. [अनुदिशं], सभी विय हुत्वा पि, जा. अट्ठ. 6.250.
दिशाओं की ओर, प्रत्येक दिशा की तरफ - नन्दो अनुदिसं अनुदसाहं अ., क्रि. वि., अव्ययी. स. [अनुदशाह], प्रत्येक अनुविलोकेति, अ. नि. 3(1).16; गच्छति अनुदिसं. दी. दसवें दिन पर - अन्वड्डमासं अनुदसाहं अनुपञ्चाहं देवे नि. 1.203; अ. नि. 2(2).80; स. नि. 1(1).143; स. नि. वस्सन्ते ति अत्थो, पे. व. अट्ठ. 122; दी. नि. अट्ठ.2.362. 2(1).113. अनुदस्सति अनु + vदा का भवि., प्र. पु.. ए. व. [अनुदास्यति], अनुदिसा स्त्री., संभवतः अनुदिसं (अ.) के अनुकरण पर क. बदले में या परिणामस्वरूप देगा या लौटा देगा, प्रस्तुत भिन्न तात्पर्य में गढ़ा हुआ शब्द, दिशा-मण्डल का करेगा - सम्मा धारं पवेच्छन्ते सुबहूनि फलानि अनुदस्सति, अन्तर्मध्यवर्ती क्षेत्र ईशान, आग्नेय आदि, दिशाओं के चार मि. प. 342; ख. प्रदान करेगा, अर्पित करेगा - बोधिसत्तानं अन्तर्मध्यवर्ती क्षेत्रों के समूह का सङ्केतक शब्द - दिसाथ इमे दस गुणे अनुदस्सतीति, मि. प. 257.
दक्खिणापाची, विदिसानुदिसा भवे, अभि. प. 29; अनुदिसा अनुदस्सित त्रि., अनु + दिस के प्रेर. का भू. क. कृ. आलोकेतब्बा होति, म. नि. अट्ठ (मू.प.) 1(1).272; [अनुदर्शित], पूर्ण रूप से प्रदर्शित या अभिव्यक्त- तथागतस्स पुरत्थिमायपि अनुदिसाय सद्दानं सद्दनिमित्तं मनसि करोति, सदेवके लोके सेट्ठभावो अनुदस्सितो, मि. प. 125.
पटि. म. 103; तस्स चतस्सो दिसा चतस्सो अनुदिसा च अनुदस्सेति अनु + दिस का प्रेर. वर्त., प्र. पु., ए. व. गच्छन्तस्सापि, ध. प. अट्ठ. 1.184; - पेक्खण नपुं.. [अनुदर्शयति], पुनः पुनः सिखलाता या समझाता है - अनुदिशाओं की ओर दृष्टिपात, विलोकन, इधर-उधर ताकना सापेति निज्झापति पेक्खेति अनपेक्खेति दस्सेति - विलोकितं नाम अनुदिसापेक्खणं, स. नि. अट्ठ. 1.157; अनुदस्सेति, चूळव. 174.
दी. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).270. अनुदहति/अनुडहति अनु + Vदह/ डह का वर्त., प्र. अनुदीपयित्वा अनु + /दीप के प्रेर. का पू. का. कृ. पु., ए. व. [अनुदहति], धीरे-धीरे जलाता है, उत्पीड़ित [अनुदीप्य], ज्ञात कराके, प्रकाशित कराके, सुस्पष्ट कराके करता है, विनष्ट करता है, शोक में डुबो देता है - रागो - पुब्बकानं सयम्भूनं पवेणिमनुसिट्ठिया धम्माधम्ममनुदीपयित्वा .... सत्ते अनुदहति झापति, दी. नि. अट्ठ. 3.160; - न्ति प्र. धम्मेन, मि. प. 214. पु., ब. व. - किं ते इमे कासावा अनुदहन्ति, स. नि. अनुदूत पु., [अनुदूत], शा.अ. साथ चल रहा दूत, विशेष 3(1)63; 3(2)371; तं तं अनुदहन्ति महाविनासं पापेन्ति, जा. अर्थ-भिक्षुसङ्घ द्वारा किसी भिक्षु पर किसी अपराध का अट्ट. 5.449; - हितुं निमि. कृ. - तं विसं अनुडहितुं न विधान किये जाने पर तथा अपराध के निराकरण हेतु उस सक्कोति, ध. प. अट्ठ. 2.16.
भिक्षु द्वारा याचना किये जाने पर सङ्घ द्वारा उसके साथ अनुदहन/अनुडहन नपुं., अनु + /दह/ डह से व्यु. साक्षी के रूप में जाने के लिये दिया गया दूसरा भिक्षु - [अनुदहन], अग्निदाह, आग की ज्वाला, जलन, क्षय, सुधम्मस्स भिक्खुनो अनुदूतं देतु, चूळव. 41; तेन अनुदूतेन विनाश, अग्निकाण्ड - उक्कोपमा तिणुक्कूपमा अनुदहनतुन, भिक्खुना सद्धिं गन्त्वा, ध. प. अट्ट, 1.293; याचित्वा अनुदूतं थेरीगा. अट्ठ. 311; तिणुक्कूपमा कामा अनुदहनतुना ति, सो सह तेन पुरं गतो, म. वं. 4.15; अनुदूतन्ति अत्तदुतियं महानि. 5; - ता स्त्री॰, भाव., जला देने की क्षमता या भिक्खु याचित्वा तं ततो लभित्वाति अत्थो, म. वं. टी. 124 प्रकृति - अनुदहनताय रागरस, सा. सं. 130(रो.); - (ना.). बलवता स्त्री., जला डालने की शक्ति - अनुदहनबलवताय अनुदेव/अन्वदेव अ., [अन्वगेव], क. एक ही साथ, साथ अब्बोहारिकानि होन्ति, जा. अट्ट. 5.264.
साथ ही - अन्वदेवाति अनुदेव, सहेव एकतो येवाति अत्थो, अनुदिट्ठि स्त्री., [अनुट्टष्टि], गौण मिथ्या-धारणा, संसार की अ. नि. अट्ठ. 1.57; पुब्बङ्गमानं अकुसलानं धम्मानं समापत्तिया वस्तुओं (धर्मों) के विषय में परिकल्पित अप्रमुख मिथ्या- अन्वदेव अहिरिकं अनोतप्पं..., स. नि. 3(1).2; अ. नि. धारणा - अनुदिट्ठीनं अप्पहानं सङ्कप्पपरतेजितं, थेरगा. 754; 3(2).182; ... एतं अनुदेव सहेव एकतोव, न विना तेन अनुदिट्टीनं अप्पहानन्ति अनुदिट्ठिभूतानं सेसदिट्ठीनं उप्पज्जतीति अत्थो, स. नि. अट्ठ. 3.153; ख. बाद में, अप्पहानकारणं, थेरगा. अट्ठ. 2.242; स. उ. प. में अत्तानु०, तुरन्त पीछे - मनो अकुसलानं धम्मानं पठम उप्पज्जति, अपरन्तानु., परित्तत्तानु, पुब्बन्तानु. के अन्त. द्रष्ट.. अन्वदेव अकुसला धम्मा, अ. नि. 1(1).13.
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अनुद्दयता / अनुदयता
अनुयता / अनुदयता स्त्री० [ अनुहयता ]. कृपालुता, दयाशीलता, हमदर्दी- खन्तिया, अविहिंसाय, मेतचित्ताय, अनुदयताय एवं खो, भिक्खवे, परं रक्खन्तो अत्तानं रक्खति स नि. 3 (1) 244 अनुदयतायाति अनुवड्डिया सपुब्बभागाय मुदितायाति अत्यो स. नि. अड. 3.254 परेसं धम्मो देसेतब्बो, अनुदयतं पटिच्च कथं कथेस्सामीति. अ. नि. 2 (1).173; अनुद्दयतं पटिच्चाति महासम्बाधप्पत्ते सत्ते सम्बाधतो मोचेस्सामीति, अ. नि. अट्ठ. 3.56. अनुदयति अनु + √दय का वर्त. प्र. पु. ए. व. [ अनुदयते]. दया या अनुकम्पा करता है, रक्षा करता है, अच्छा लगता है अनुदयतीति अनुदया, रक्खतीति अत्थो, महानि, अट्ट दयमानो वर्त. कृ. पु. प्र. वि. ए. व. - करुणायमानोति करुणायमानो अनुदयमानो अनुरक्खमानो अनुग्गण्डमानो अनुकम्पमानोति चूळनि, 86. अनुदयना / अनुदयना स्त्री, अनु + √दय से व्यु. मैत्रीभावना, दया, करुणा, अनुकम्पा मेत्ताति या सत्तेसु मेत्ति मेत्तायना मेत्तायितत्तं अनुदया अनुदयना अनुदयितत्तं हितेसिता, महानि. 368.
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अनुदया / अनुदया स्त्री. अनु + √दया, अनुकम्पा के मिष्या सादृश्यवश सम्भवतः उप, अनु का प्रयोग, दया, अनुकम्पा, तरश - दयानुकम्पा कारुञ्ञ करुणा च अनुद्दया, अभि. प. 160: तस्स मोघपुरिसस्स पाणेसु अनुदया अनुकम्पा अविहेसा भविस्सति, पारा 48; न तेन होति संयुक्त्तो, यानुकम्पा अनुध्याति, स. नि. 1 ( 1 ) 239 दयं द्वि. वि. ए. व. अनुदयं पटिच्च अनुकम्पं उपादाय परेसं धम्मं देसेसि स. नि. 1 ( 2 ). 178; अनुदयन्ति रक्खणभावं, स. नि. अट्ठ 2.151; - या प. / तू. वि., ए. व. अञ्ञत्र अनुद्दया अञ्ञत्र अनुकम्पा, अ. नि. 1 (1).148, पु० प० 143; ध० प० अट्ठ 1.263 दयाय तू वि. ए. व. तत्थ सच्च तदभिज्ञाय पाणानं येव अनुध्याय अनुकम्पाय पटिपन्नो होति. अ. नि. 1 (2) 205 पु. प. 143 ध. प. अड. 1.263; स. उ. प. के रूप में कारुज्ञानु, कुलानु, खन्तिमेत्तानु परानु, बलवानु.. सञ्जातानु, सन्तानु के अन्त द्वष्ट.. अनुद्दा / अनुदा स्त्री०, मेत्ता मेत्तायना आदि के मिथ्यासादृश्य पर गढ़ा हुआ अनु + √दय से व्यु कर्तृ. कृ., दया, कृपा, अनुकम्पा अनुदयतीति अनुद्दा, रक्खतीति अत्थो, ध. स. अड्ड. 389; मेत्तायना मेत्तायितत्तं अनुदा अनुदायना हितेसिता अनुकम्पा अव्यापादो अव्यापज्जो अदोसो कुसलमूलं ध. स. 1062: तुल, अनुद्दायना, अनुद्दायितः
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अनुद्धंसन
कार पु.. दया अथवा करुणा की अवस्था अनुद्दाकारो अनुदायना ध. स. अट्ठ. 389. अनुद्दायना स्त्री, मेत्तायना के सादृश्य पर अनु + √दय से गढ़ा हुआ ना था, दया, करुणा अनुद्दाकारो अनुहायना, घ. स. अड. 389; तुल. अनुदयना, अनुदयना, अनुदाति / अनुदयितत्र अनु + √दया के ना. धा. अनुदयायति के वर्णव्यत्यय से बने हुए अनुद्दायति का भू० क० कृ., दयालु, अनुकम्पक अनुधायितरस भावो अनुदायितत्तं ध. स. अड. 389, अनुदयितस्स भावो अनुदयितत्तुं महानि, अदु. 374. अनुद्दिट्ठ' त्रि, उ + √दिस के भू. क. कृ., उद्दिट्ठ का नि... [ अनुद्दिष्ट], किसी विशेष व्यक्ति के लिए अनिर्धारित वह, जिसका निर्धारण अभी तक नहीं हुआ हो सचे अनुदिव तया महामुनि, पुप्फं इमं पारिछत्तस्स ब्रह्मे, जा. अट्ठ. 5.389; अनुद्दिद्वन्ति असुकस्स नाम दस्सामीति न उहि तदे अनुदिव' त्रि. अनु + उ + दिस का भू. क. कृ., दान के रूप में किसी अन्य के लिए अभिप्रेत या सङ्केतित समनन्तरानुद्दिट्टे, विपाको उदपज्जथ, पे. व 64 समनन्तरानुद्दिद्वेति अनूति निपातमत्तं तस्सा दविखणाय उद्दिट्ठसमनन्तरमेव, पे. व. अट्ठ. 43.
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अनुद्दिसति / अनुदिसति अनु + उ + √दिस का वर्त., प्र. पु. ए. व. [ अनुदिशति ] अपने अभिप्राय के विषय में सङ्केत करता है, पीछे कहता है- उत्तरो किर माणवो दानं दत्वा एवं अनुद्दिसति इमिनाहं दानेन पायासिं राजज्ञमेव इमरिंग लोके समागच्छ मा परस्मिन्ति दी. नि. 2.261 एवं अनुदिसतीति एवं उपदिसति दी. नि. अड. 2.363. अनुद्देस पु. उद्देस का निषे, तत्पु, स० [अनुद्देश], पाठ अथवा संक्षिप्त कथन का अभाव परिसाति तिक्खतु थेरेन पातिमोक्खुदेसस्स याचितत्ता अनुद्देसस्स कारण कथेन्तो
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उदा. अट्ठ. 241; द्रष्ट. उद्देस.
अनुदेसिक त्रि, अनुदेस से व्यु. [ अनुदेशिक] किसी विशेष अभिप्राय या प्रयोजन से रहित बिना प्रयोजन वाला, किसी एक को उद्देश्य में न रखकर कहा गया या किया गया. यो कोचि मरतूति एवं अनुद्दिस्सके पहारपच्चया यस्स कस्सचि मरणेन ... खु. पा. अट्ठ 19; पारा. अट्ठ. 2.40; पाठा, अनुद्देसिके, अनुद्धंसन नपुं. अनुचित दोषारोपण, अनुचित अभियोग यथा परस्स रोसो होति एवं अनुद्धसनवसेन रोसं उप्पादेन्ति उदा. अ. 89; तंपन अनुद्धसनं यस्मा अत्तना चोदेन्तोपि परेन चोदापेन्तो पि करोति येव, पारा. अट्ठ. 156.
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अनुद्वंसेति
अनुद्धंसेति अनु + √धंस के प्रेर० का वर्त., प्र. पु. ए. व. [ अनुध्वंसयते ], शा. अ. धूल से धूसरित कर देता है, मैला कर देता है, ला. अ. क. दूषित करता है, नीचे की ओर ले जाता है, दूर फेंक देता है यदा ते अनभिरति उप्पज्जति रागो चित्तं अनुद्धसेति, पारा 147; अनुद्धसेतीति कामरागो चित्तं धंसेति पधंसेति विक्खिपति चेव मिलापेति च, पारा, अट्ठ. 2.95; तस्स मातुगामं दिस्वा दुन्निवत्थं वा दुप्पारुतं वा रागो चित्तं अनुद्धसेति, म. नि. 2.134; स. नि. 1 (2).209, 246; अ. नि. 1 ( 2 ). 143 2 ( 1 ) 89; रागो चित्तं अनुद्धसेतीति रागो उप्पज्जमानोव समथविपस्सनाचित्तं धंसेति, दूरे खिपति, अ. नि. अट्ठ. 3.36 - सेय्य विधि., प्र. पु. ए. व. - रागो चित्तं अनुद्धसेय्य, म. नि. 3.41; अनुद्धसेय्याति सोसेय्य मिलापेय्य, म. नि. अट्ठ. (उप. प.) 3.36: - सेसि अद्य., प्र. पु. ए. व. - मा ते वातातपे चारितं अनुयुत्तस्स रजोसूकं वणमुखं अनुद्धसेसि, म. नि. 3.42; रागो चित्त अनुद्धसेसि, स० नि० 1 ( 1 ) . 215; - सेस्सति भवि., प्र. पु. ए. व. -- तस्स सुभनिमित्तस्स मनसिकारा रागो चित्तं अनुद्धसेस्सति, म. नि. 1.32; ख. आरोप लगाता है, अभियोग लगाता है आयस्मन्तं दब्बं मल्लपुत्तं अमूळिकाय सीलविपत्तिया अनुद्धंसेति, चूळव. 244; अनुद्धंसेति यो तस्स, तिस्सो आपत्तियो सियुं, उत्त. वि. 25 - न्ति वर्त., प्र० पु०, ब. व. - छब्बग्गिया भिक्खू भिक्खु अमूलकेन सङ्घादिसेसेन अनुद्धसेन्ति, पाचि. 197; अनुद्धसेन्तीति ते किर सयं आकिण्णदोसत्ता ... अमूलकेन सङ्घादिसेसेन चोदेन्ति, पाचि. अट्ठ. 135-36; - सेय्य विधि., प्र. पु. ए. व. - अनुद्ध सेय्याति चोदेति वा चोदापेति वा, पारा. 255.
अनुद्धत त्रि, उद्धत का निषे. [अनुद्धत], शा. अ. वह, जो ऊपर की ओर उठा हुआ नहीं है, ला. अ. अहङ्कार-रहित, विनम्र, शान्त - तो पु०, प्र. वि., ए. व. - अक्कोधनो असन्तासी ... मन्तभाणी अनुद्धतो, सु. नि. 856; अनुद्ध उद्धच्चविरहितो, सु. नि. अट्ठ. 2.241 - तं नपुं. प्र. वि., ए. व. - उजुं अनुद्धतं अचपलमस्स भासित, जा. अट्ठ. 5.193; अविक्खित्तताय अनुद्धटं, पतिट्ठितताय अचपलं, जा. अ. 5.196 - ता स्त्री०, प्र. वि., ए. व. - निब्बानं नाधिगच्छामि, अकुसीता अनुद्धता, थेरीगा० 113; अनुद्धताति अहं सुविसुद्धसीला सुसमाहितचित्तताय अनुद्धता च हुवा थेरीगा, अदु॰ 129; न उद्धताति अनुद्धता, उद्धच्चरहिता वूपसन्तचित्ता, थेरीगा. अट्ठ. 244 - तिन्द्रिय त्रि., ब॰ स॰ [अनुद्धतेन्द्रिय], शान्त इन्द्रियों वाला - सन्तानि
249
अनुधम्मं
इन्द्रियानि अस्साति सन्तिन्द्रियो, इद्वारम्मणादीसु रागादिवसेन अनुद्धतिन्द्रियोति वृत्तं होति, खु. पा. अट्ठ 196. अनुद्धटकट्ठ त्रि., ब० स० [अनुद्धृतकाष्ठ], वह, जिसने लकड़ियों या ईंधन का सञ्चय या भण्डारण नहीं किया है अभिन्नकट्टोसीति सो दानि अज्ज अनुद्धटकट्ठोसि, जा.
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अट्ठ 5. 192.
अनुद्धरीत्र अनिवरी के स्थान पर कतिपय संस्करणों में प्राप्त अप, घमण्ड से मुक्त, अहङ्कार रहित - अनिरी अननुगिद्धो अनेजो सब्बधी समो, सु. नि. 958; पाठा. अनुद्धरी.
अनुधम्म पु०, अनुलोम, अधिचित्त, अभिधम्म आदि के सादृश्य पर बनाया गया शब्द [ अनुधर्म] 1. गौण धर्म, सहायक धर्म, औपायिक धर्म, अनुलोम धर्म, लोकोत्तर निर्वाण-धर्म के साक्षात्कार में सहायक या अनुकूल चतुपारिसुद्धिसील एवं धुतों जैसे धर्म - धम्मेसु निच्चं अनुधम्मचारी, सु. नि. 69; अथ वा धम्मात नव लोकुत्तरधम्मा, तेसं धम्मानं अनुलोमो धम्मोति अनुधम्मो, विपस्सनायेतं अधिवचनं, सु. नि. अट्ठ. 1. 98; धम्मो नाम अरहत्तमग्गो, अनुधम्मो नाम हेट्ठिमा तयो मग्गा, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.280; अनुधम्मन्ति सीलविसुद्धिआदिपटिपदाधम्मं, उदा. अट्ठ. 77; धम्मस्स होत अनुधम्मचारी, ध. प. 20; अनुधम्मचारीति नवलोकुत्तरधम्मस्स अनुरूपं धम्मं पुब्बभागपटिपदासङ्घातं चतुपारिसुद्धिसीलधुतङ्गआसुभकम्मट्ठानादिभेदं चरन्तो..... ध ू प. अ. 1.92 2. समस्त अङ्गों एवं प्रत्यङ्गों सहित धर्म, समग्ररूप में धर्म (विशेष कर धम्मानुधम्म जैसे स. प. में) धम्मानुधम्मपटिपन्नस्स भिक्खुनो अयमनुधम्मो होति वेय्याकरणाय, इतिवु. 59; अयमनुधम्मो होतीति अयं अनुच्छविक सभावो पतिरूपसभावो होति... येन अनुधम्मेन तं धम्मानुधम्मं पटिपन्नोति .... इतिवु. अ. 236; अयं अनुधम्मोति अयं सभावो, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.138; (उप. प.) 3.64; 3. उचित पद्धति, सुसङ्गत व्याख्यानप्रकार
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धम्मानुधम्मप्पटिपन्नस्स, भिक्खवे, अयमनुधम्मो होति, यं रूपे निब्बिदाबहुलो विहरेय्य, स. नि. 2 (1).38; नवन्नं लोकुत्तरधम्मानं अनुलोमधम्मं पुब्बभागपटिपदं पटिपन्नस्स, अयमनुधम्मोति अयं अनुलोमधम्मो होति, स. नि. अ 2.236; इध सब्बञ्जतञ्ञाणं धम्मो नाम, महाजनस्स व्याकरणं अनुधम्मो, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2. 139.
अनुधम्मं अ, अव्ययी. स., क्रि. वि. [ अनुधर्म ], धर्म के अनुसार, धर्म की में अनुपुब्बं अनुधम्मं व्याकरोहि अनुरूपता
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अनुधम्मचक्कप्पवत्तक
250
मे, सु. नि. 515; धम्मस्स चानुधम्म ब्याकरोन्ति, महाव. 310; दी. नि. 1.1463; स. नि. 1(2).30; म. नि. 2.35; पच्चपादि धम्मस्सानुधम्म, स. नि. 2(2).69; 3(2).413; उदा. 78; म. नि. 2.354; 3.323. अनुधम्मचक्कप्पवत्तक पु., [अनुधर्मचक्रप्रवर्तक]. धर्मचक्र का प्रवर्तन करने वाला अगला व्यक्ति - सारिपुत्तो मय्हं अग्गसावको अनुधम्मचक्कप्पवत्तको ममानन्तरं सेनासनं लद्धं अरहति, जा. अट्ठ. 1.214-215. अनुधम्मचरणसील त्रि०, धर्म के अनुसार आचरण करने वाला, निर्वाण-प्राप्ति के लिए अनुरूप धर्मों का आचरण करने वाला - अनुधम्मचारिनोति अनुधम्मचरणसीला, दी. नि. अट्ठ. 2.130; स. नि. अट्ठ, 3.282. अनुधम्मचारी त्रि., [अनुधर्मचारिन्]. उपरिवत् - धम्मसु निच्च अनुधम्मचारी, सु. नि. 69; अनुधम्मचारीति ते धम्मे आरम पवत्तमानेन अनुगतं विपस्सनाधम्म चरमानो, सु. नि. अट्ठ. 1.98; बहुस्सुतो धम्मधरो च होति, धम्मस्स होति अनुधम्मचारी, थेरगा. 373; अ. नि. 1(2).9; अनुधम्मचारिनोति सल्लेखिक तस्सा पटिपदाय अनुरूपं अप्पिच्छतादिधम्म चरणसीला, उदा. अट्ठ. 266... अनुधम्मता स्त्री., अनुधम्म का भाव. [अनुधर्मता], धर्म के अनुकूल रहने की दशा, धर्मानुकूलता- अयं तत्थ सामीचीति अयं तत्थ अनुधम्मता, पाचि. 190; यो च तेसं तत्थ तत्थ, जानाति अनुधम्मतं, अ. नि. 1(2).53.. अनुधम्मभूत त्रि., [अनुधर्मभूत], धर्म के अनुरूप हो चुका, लोकोत्तर धर्म (निर्वाण) के लिए अनुलोमभूत विपश्यना या अष्टाङ्गिक-मार्ग - लोकुत्तरधम्मस्स अनुलोमत्ता अनुधम्मभूतं विपस्सनं भावयमानो, सु. नि. अट्ठ. 2.57; लोकुत्तरस्स निब्बाणधम्मस्स अनुधम्मभूतं पटिपदं पटिपन्नो, अनधम्मभूतन्ति
अनुरूपसभावभूतं. स. नि. अट्ठ. 2.31. अनुधारयु अनु + Vधर के प्रेर. का अद्य., प्र. पु.. ब. व. [अन्वधारयन्]. पीछे की ओर से पकड़कर धारण किये - सो विक्कमी सत्त पदानि गोतमो, सेतञ्च छत्तं अनुधारयु मरु, दी. नि. अट्ठ. 1.58; म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).51; अ. नि. अट्ठ. 1.86. अनुधावति अनु + Vधाव का वर्त., प्र. पु., ए. व. [अनुधावति]. पीछे भागता है, अनुसरण करता है, (किसी में) प्रवृत्त होता है या लग जाता है - अथायं इतरा पजा, तीरमेवानुधावति,ध. प. 85; स. नि. 3(1).23; अ. नि. 3(2). 199; अधोगमं जिम्हपथं, कुम्मग्गमनुधावति, थेरगा. 1183;
अनुनय यथा, महाराज, वंसो यत्थ वातो, तत्थ अनुलोमेति, नाञ्जत्थमनुधावति, मि. प. 338; - न्ति ब. व. - कायानुगता धम्मा भवे भवे कायं अनुधावन्ति अनुपरिवत्तन्ति, मि. प. 236; - वि अद्य., म. पु.. ए. व. - मा सन्दिट्टिकं हित्वा कालिक अनुधावी ति, स. नि. 1(1).11; - वित्थ अद्य., म. पु.. ब. व. - मा सन्दिद्विकं हित्वा कालिकं अनुधावित्था ति, स. नि. 1(1).139; - विस्साम भवि., उ. पु., ब. व. - ते मयं किं
सन्दिडिकं हित्वा कालिकं अनधाविस्साम, म. नि. 2.148. अनुनदीतीरे अ., अव्ययी. स., क्रि. वि., नदी के तट के पास या समीप, नदी-तट के बगल में - अनुनदीतीरे गोचरपसुतो अहोसि, स. नि. 2(2).180; तुल. अनुकूले. अनुनमति अनु + निम का वर्त.. प्र. पु., ए. व. [अनुनमति], झुकता है, प्रवृत्त होता है, रुचि लेता है - यावग्गमूलं समकमेव अनुनमति, मि. प. 338; - मितब्ब त्रि., सं. कृ., नमन किया जाना चाहिए, अभिवादन किया जाना चाहिए - योगिना योगावचरेन थेरनवमज्झिमसमकेस अनुनमितब्ब मि. प. 338. अनुनय पु., [अनुनय], क. आसक्ति, लगाव, अनुरोध, राग, झुकाव - यो इमेसु पञ्चसु उपादानक्खन्धेसु छन्दो आलयो अनुनयो, म. नि. 1.251; यो रागो सारागो अनुनयो, ध. स. 1065; ख. स्नेह, हितैषिता, मृदुता - अनुनयवसेन वा न चलन्ति न कम्पन्ति, ध. प. अट्ठ 1.331; ग. निष्कर्ष, अनुमान - धम्मन्वयोति पच्चक्खजाणसङ्घातस्स धम्मस्स अनुनयो अनुमानं, अनुबुद्धीति अत्थो, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.251; स. उ. प. में अविज्जानु, कामरागानु.. कोपानु.. दिवानु, पटिधानु., भवरागानु, मानानु., विचिकिच्छानु. के अन्त. द्रष्ट., विलो. पटिघ; - न नपुं., अनु + vनी से व्यु., अनुनय का समाना. [अनुनयन], उपरिवत् - विसयेसु सत्तानं अनुनयनतो अनुनयो, ध. स. अट्ठ 389; - पटिघ पु./नपुं.द्व. स. [अनुनयप्रतिघ], राग और द्वेष - तथागतो. महाराज, धम्म देसयमानो अनुनयप्पटिघं न करोति, मि. प. 163; - पटिघविप्पमुत्त त्रि.. [अनुनयप्रतिघविप्रमुक्त], राग एवं द्वेष से पूरी तरह से मुक्त - अनुनयप्पटिघविष्पमुत्तो धम्म देसेति, मि. प. 163; - पटिघविप्पहीन त्रि., [अनुनयप्रतिघविप्रहीन], राग एवं द्वेष से रहित - अनुनयपटिघविप्पहीनो, महानि. 82; अनुनयपटिघविप्पहीनोति सिनेहञ्च कोपञ्च ... महानि. अट्ठ. 194; - सञोजन नपुं.. [अनुनयसंयोजन], राग या लगाव का मानसिक बन्धन, स्नेह की बेड़ी - सत्त सञोजनानि -
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अनुनाद
251
अनुपक्खन्दति अनुनयसोजन, पटिघसञोजन, दिद्विसञोजन, मुक्त - सन्तो अनुण्णतो चरे, सु. नि. 707; पब्बतो अनुन्नतो विचिकिच्छासओजनं, मानसओजनं, भवरागसञोजनं, अनोनतो, मि. प. 356; विलो. अनोणतो/अनोनतो अविज्जासोजन, दी. नि. 3.201; - याभाव पु.. [अनवनत]. [अनुनयाभाव], राग या स्नेह का अभाव - एतेनस्स अनुन्नळ त्रि., उन्नळ का निषे., अहङ्कार से रहित, घमण्ड से अनुनयाभावं दस्सेति, उदा. अट्ठ. 151; - मान त्रि., आत्मने, रहित, अनुद्धत - अनुद्धता अनुन्नळा, अचपला, अमुखरा, वर्त. कृ., समझा-बुझा रहा, मार्गदर्शन करता हुआ, अभिप्रेरित म. नि. 1.39; अनुद्धता होन्ति अनुन्नळा, अ. नि. 1(1).86. करता हुआ -- अनुनयमानो तायं वेलायं इमा गाथायो अभासि. अनुन्नामिनिन्नामि त्रि., उन्नामी + निन्नामी का निषे., वह, स. नि. 1(1).268.
जो न ऊपर की ओर उठा हुआ है और न ढलानदार है, अनुनाद पु.. [अनुनाद], प्रतिध्वनि, कोलाहल, शब्द, अनुगूंज समतल, चौरस - इध, भिक्खवे, खेत्तं अनुन्नामानिन्नामि च - अत्तनोव नादरस अनुनादं सुणाति, स. नि. अट्ठ. 2.253. होति, अ. नि. 3(1).70. अनुनासिक त्रि., [अनुनासिक], नासिका से उच्चारित प्रत्येक अनुपकम्पति अनु + प + ।कम्प का वर्तः, प्र. पु., ए. व. व्यञ्जन-वर्ग का पांचवां व्यञ्जन (ङ्, ञ्, ण, न्, म्) तथा [अनुप्रकम्पति], चलायमान होता है, कांपता है, थरथराता अनुस्वार या निग्गहीत - एत्थ च गाथाबन्धसुखत्थं अनुनासिको है, हिलता-डुलता है, प्रभावित होता है - कस्स सेलूपमं खु. पा. अट्ठ. 152; - लोप पु.. [अनुनासिकलोप], अनुनासिक चित्तं, ठितं नानुपकम्पति, थेरगा. 191; यस्स सेलूपमं चित्तं, का लोप, अनुनासिक-ध्वनि की समाप्ति - अनुनासिकलोपो ठितं नानुपकम्पति, उदा. 114; लोकधम्मेहि नानुपकम्पति न चेत्थ "विवेकजं पीतिसुखन्ति आदीसु विय न कतो. सु. नि. पवेधति, उदा. अट्ठ. 200. अट्ठ. 2.123-124; - कागम पु.. [अनुनासिकागम]. अनुपकार त्रि., उपकार का निषे., अनुपयोगी, अहितकर, अनुनासिक का निवेशन, अनुनासिक को अतिरिक्त ध्वनि के भला न करने वाला - निरोधं समापज्जनकेन भिक्खुना रूप में रख देना - अनुनासिकागमं कत्वा वृत्तं 'अपरंकारोति, उपकारानुपकारानि अङ्गानि जानितब्बानि, म. नि. अट्ठ. उदा. अट्ठ. 281.
(मू.प.) 1(2).243; - धम्म पु., कर्म. स., अहितकारक बातें, अनुनीत त्रि०, अनु + Vनी का भू. क. कृ. [अनुनीत], ले उपकार या भलाई नहीं लाने वाले तत्त्व - सचे जाया गया, प्राप्त कराया गया, अभिप्रेरित - तेन दिद्विच्छन्देन अनुपकारधम्मे पहाय उपकारधम्मे सेवन्तो समापज्जति, पु. अनुनीतो ताय च दिविरुचिया निविट्ठो, सु. नि. अट्ठ. 2.215. प. अट्ठ. 34; अजानन्तो उपकारधम्मे नुदति नीहरति, अनुनीयमानो पु., अनु + ।नी का कर्म. वा. में वर्त. कृ. अनुफ्कारधम्मे सेवति, तदे... [अनुनीयमान], अभिप्रेरित किया जा रहा, प्राप्त कराया जा अनुपक्कम पु., उपक्कम का निषे., तत्पु. स., शा. अ. रहा - अनुनीयमानोपि सञ्जत्ति अनागच्छन्तो किसी के समीप न पहुंचना, ला. अ. दूसरों के अधार्मिक पच्छिमदिसाभिमुखो पक्कामि. थेरीगा. अट्ठ. 246.
उपायों का अभाव, किसी के द्वारा अनाक्रमण या आक्रमण अनुनेता पु., अनु + Vनी का कर्त. कृ. [अनुनेत]. नेतृत्व का अभाव - अनुपक्कमेन, भिक्खवे. तथागता परिनिब्बायन्ति. करने वाला, उत्प्रेरक - नेता विनेता अनुनेता. दी. नि. चूळव. 332. 3.146; पुनपुन नेतीति अनुनेता, दी. नि. अट्ठ. 3.127; अनुपक्किलेस पु., उपक्किलेस का निषे. [अनुपक्लेश], भगवा हि धम्मानं नेता विनेता अनुनेता, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) उपक्लेशों का अभाव - यदिमे तपोजिगुच्छा उपक्किलेसा 1(2).269.
वा अनुपक्किलेसा वाति, दी. नि. 3.32. अनुनेन्ती स्त्री., अनु + नी का वर्त. कृ., प्र. वि., ए. व. अनुपक्कुट्ट त्रि., उपक्कुट्ट का निषे. [अनुपक्रुष्ट], अनिन्दित, [अनुनयन्ती], अभिप्रेरित कर रही, मार्गदर्शन कर रही, निर्दोष निष्कलङ्क - अक्खित्तो अनुपक्कट्ठो जातिवादेन, म. समझा-बुझा रही- अनुनेन्ती अनिकरतं, केसे च छम खिपि नि. 2.384; दी. नि. 1.116; सु. नि. पृ. 173; याव सत्तमा सुमेधा, थेरीगा. 516.
पितामहयुगा अक्खितो अनुपक्कुट्टो जातिवादेन, अ. नि. अनुन्नत/अनुण्णत त्रि., उन्नत/उण्णत का निषे. 2(1).208. [अनुन्नत], शा. अ. वह, जो ऊपर की ओर उठाया हुआ अनुपक्खन्दति अनु + प + Vखन्ध का वर्त.. प्र. पु., ए. व. न हो; ला. अ. अहङ्कार से रहित, अभिमान या दर्पभाव से [अनुप्रस्कन्दति], शा. अ. उछलता है, पीछे ऊपर की ओर
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अनुपक्खिपत्वा उठता है, छलांग लगाते हुए अनुगमन करता है, आगे बढ़ता है, ला. अ. अवहेलना करता है - भवं सोणदण्डो समणस्सेव गोतमस्स वादं अनुपक्खन्दती ति, दी. नि. 1.107; अनुपक्खन्दतीति अनुपविसति, दी. नि. अट्ट, 1.234. अनुपक्खिपत्वा अनु + प + खिप का पू. का. कृ. [अनुप्रक्षिप्य], अन्दर, भीतर में या बीच में रखकर - अन्तरसथिम्हि नछुटुं अनुपक्खिपित्वा, अ. नि. 1(2).280; नढ अन्तरसथिम्हि पक्खिपित्वा ..., अ. नि. अट्ट, 2.392. अनुपखज्ज अनु + प+ खन्द का पू. का. कृ. [बौ. सं. अनुप्रस्कद्य]. 1. अन्यों की उपेक्षा कर अपने को बलपूर्वक आगे करके, अनुचित रूप से अनुप्रवेश करके - अथ खो छब्बग्गिया भिक्खू थेरे भिक्खू अनुपखज्ज सेय्यं कप्पेन्ति, पाचि. 63; अनुपखज्जाति अनुपविसित्वा, पाचि. 64; कथं हि नाम छन्नो भिक्खु भिक्खुनीनं अनुपखज्ज भिक्खूहि सद्धि विवदिस्सति, चूळव. 195; 2. अतिक्रमण करके, रौंद कर, कुचल कर, उपेक्षा या अवज्ञा कर - अनुपखज्ज मुच्छिता भोजनानि भुञ्जमाना मदं आपज्जिस्सन्ति, म. नि. 1.2093; यंनूनाहं अनुपखज्ज जीविता वोरोपेय्यान्ति, स. नि. 2(1).103; अनुपखज्जाति अनुपविसित्वा, स. नि. अट्ठ. 2.274; - कथा स्त्री., विन. वि. के एक खण्ड का शीर्षक, विन. वि. गा. 1089-1099; - सिक्खापद नपुं.. पाचि. के एक खण्ड का शीर्षक, पाचि. 63-64. अनुपखज्जन्त उप + Vखन्द के वर्त. कृ. का निषे., अतिक्रमण न करते हुए, अवज्ञा न करते हुए - थेरे भिक्खू अनुपखज्जन्तेन, परि. 311. अनुपगच्छति अनु + प + गम का वर्त., प्र. पु., ए. व. [अनुप्रगच्छति, विलीन हो जाता है, निकट पहुंच जाता है, संक्रमण कर जाता है, प्रवेश कर जाता है - पथवी पथवीकार्य अनुपेति अनुपगच्छति, म. नि. 2.193; अनुपेतीति अनुयायति अनुपगच्छतीति तस्सेव वेवचनं अनुगच्छतीतिपि अत्थो , दी. नि. अट्ट, 1.137. अनुपगत त्रि., उपगत का निषे. [अनुपगत], समीप तक न पहुंचा हुआ, अप्राप्त, किसी काम के पीछे न लगा हुआ - अनपायोति पटिघवसेन अनपगतो, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.61; पाठा. अनुपगतो. अनुपगमन 1. नपुं., उपगमन का निषे. [अनुपगमन].
[पहुचना, निकटता का अलाभ - चक्खुविाणरस आपाथं अनुपगमनतो अनिदस्सनं नाम, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).306; 2. त्रि., ब. स., समीप तक न पहुंचने वाला,
अनुपजग्घति निकटता को अप्राप्त - अनुपायोति रागवसेन अनुपगमनो हुत्वा, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.61. अनुपगमनीय त्रि., उपगमनीय का निषे. [अनुपगमनीय], समीप न पहुंचने योग्य, आश्रय न ग्रहण करने योग्य, वह, जिसको पकड़ना संभव न हो - पयोगासयविपन्नेहि अनुपगमनीयतो च केनचिपि अनासादनीयतो च दुरासदो, वि. व. अट्ठ. 180. अनुपगम्म/अनुपग्गम्म अ., उप + Vगम के पू. का. कृ. का निषे. [अनुपगम्य], पास न पहुंच कर, समीप में प्राप्त न होकर, आश्रय ग्रहण न कर, सहारा न लेकर, स्वीकार न कर - दिष्टिञ्च अनुपग्गम्म सीलवा दस्सनेन संपन्नो, सु. नि. 152; उभो अन्ते अनुपगम्म मज्झिमा पटिपदा तथागतेन अभिसम्बुद्धा, म. नि. 3.279; तिस्सो नदियो अनुपगम्म ... महासमुदं पविसति, उदा. अट्ठ. 245. अनुपचार पु., उपचार का निषे०, सुदूर, असमीपता, असामीप्य, निर्जनता, पास-पड़ोस या अड़ोस-पड़ोस का न रहना - मनुस्सानं अनुपचारद्वानं यत्थ न कसन्ति न वपन्ति, तेनेवाह - वनपत्थन्ति दूरानमेत सेनासनानं अधिवचनान्तिआदि, दी. नि. अट्ठ. 1.171. अनुपचित त्रि., उपचित का निषे. [अनुपचित], पुजीभूत या राशीकृत न किया हुआ, अराशीकृत, असञ्चित, अपुञ्जित - तत्थ अकतेनाति अनिब्बत्तितेन अत्तना अनुपचितेन, पे. व. अट्ठ. 131; - कुसलसम्भार त्रि., ब. स., पुण्यकर्मों को सञ्चित न किया हुआ - ससादीहि विय महासमुद्दो अनुपचितकुसलसम्भारेहि अलभनेय्यप्पतिवा दुप्परियोगाहा च, उदा. अट्ठ. 10; - जाणसम्भार त्रि., ज्ञान की सम्पदा को सञ्चित न करने वाला - तत्थ दुद्दसन्ति सभावगम्भीरत्ता अतिसुखुमसण्हसभावत्ता च अनुपचितञाणसम्भारेहि पस्सितुं न सक्काति दुद्दसं, उदा. अट्ठ. 319. अनुपचिनन्त त्रि., उप + चि के वर्त. कृ. का निषे., संग्रह या सञ्चय नहीं करने वाला - तत्थ अनुपचिनन्ताति सिनेहेन आलयवसेन अनोलोकेन्ता, जा. अट्ठ. 5.333. अनुपच्छिन्न त्रि., उपच्छिन्न का निषे. [अनुपच्छिन्न]. व्यवधान या अन्तराल से रहित, अव्यवहित, क्रमभङ्गरहित, अबाधित अनवरुद्ध - पच्छा भुसत्थ सादिस्सानुपच्छिन्नानु वत्तिसु, अभि. प. 1174; तत्थ अनुगते अन्वेति, अनुपच्छिन्ने अनुसयो, सद्द. 3.883. अनुपजग्घति अनु + प + /जग्घ का वर्त, प्र. पु.. ए. व., हँसता है, ठठाकर हँसता है, ठिठोली करता है, मजाक
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अनुपज्जथ
253
उड़ाता है -- पुग्गलो पहं पट्ठो समानो अभिहरति अभिमद्दति अनुपजग्घतीति खलितं गण्हाति, अ. नि. 1(1).228; अनुपजग्घतीति परेन पन्हे पुच्छितेपि कथितेपि पाणिं पहरित्वा महाहसितं हसति, अ. नि. अट्ठ. 2.181. अनुपज्जथ अनु + पद का अद्य., म. पु.. ब. व. [अन्वपद्यत]. एक साथ सम्मिलित होकर प्रवेश किया, एक साथ दिखाई पड़ा, प्रकट हुआ, साथ-साथ चला - विज्जू महामेघरिवानुपज्जथ, जा. अट्ठ. 5.402. अनुपज्झायक त्रि., उपज्झायक का निषे., ब. स. [अनुपाध्यायक]. बिना उपाध्याय वाला, उपाध्याय या । उपदेष्टा से रहित - न भिक्खवे, अनुपज्झायको उपसम्पादेतब्बो, यो उपसम्पादेय्य, आपत्ति दुक्कटस्साति, महाव. 113; तेन खो पन समयेन भिक्खू अनुपज्झायका
अनाचरियका अनोवदियमाना, महाव. 50. अनुपञ्चाहं अ., क्रि. वि., अव्ययी. स., प्रत्येक पाँचवें दिन पर - अनुदसाहं अनुपञ्चाहं देवे वस्सन्तेति अत्थो, पे. व. अट्ठ. 122. अनुपटिपज्जनक त्रि., अनु + पटि + vपद से व्यु., किसी के आचरण का अनुसरण करनेवाला, किसी के व्यवहार या कार्यपद्धति का अनुगमन करनेवाला, किसी के कार्य का अनुवर्तन करनेवाला, किसी की कार्यपद्धति का पक्षधर या समर्थक - तत्थ अनुवत्तकाति तस्स दिट्ठिखन्तिरुचिग्गहणेन अनुपटिपज्जनका, पारा. अट्ठ. 2.177. अनु-पटिपाटि स्त्री.. [अनुपरिपाटी], नियमित क्रम, प्रणाली, प्रक्रम, अनुक्रम, परिपाटी - तत्थ अनुपुब्बेनाति अनुपटिपाटिया, ध. प. अट्ठ. 2.197; एतासु अनुपटिपाटिया विहरितब्बढेन समापज्जितब्बढेन च अनुपुब्बविहारसमापत्तीसु. उदा. अट्ठ. 117; - कथा स्त्री., क्रमशः अथवा क्रमबद्धरूप में विकसित होने वाला व्याख्यान - अनुपुब्बिं कथन्ति अनुपटिपाटिकथं दी. नि. अट्ठ. 1.224; - निरोध प., क्रमिक प्रक्रिया से प्राप्त निरोध - अनुपुब्बनिरोधाति अनुपटिपाटिया निरोधा, दी. नि.
अट्ठ. 3.209. अनुपट्ठपेत्वा उप+Vठा के पू. का. कृ. का निषे., जागरूक न कर, उपस्थापित या प्रस्तुत न कर, तैयार न कर, प्रतिष्ठित न कर - अनुपद्विताय सतियाति कायगतासतिं
अनुपट्टपेत्वा, स. नि. अट्ठ.2.183. अनुपट्ठान नपुं., उपट्ठान का निषे. [अनुपस्थान], स्मृति की जागरुकता का अभाव, किसी की देखभाल करने या सेवा करने का अभाव, अनुपस्थिति, असामीप्य - वीरियिन्द्रियस्स
अनुपतन वसेन एकत्तअनपटानं वीरियिन्द्रियरस अत्थङ्गमो होति. पटि. म. 196; - कुसल त्रि., जो उपस्थित नहीं है उसके प्रति कुशल, प्रमाद करने में कुशल - नवहि आकारेहि अनुपट्ठानकुसलो होति, पटि. म. 214; - ता स्त्री., भाव., स्मृति की जागरुकता के अभाव की दशा, सेवा न करने की मनोवृत्ति, अनुपस्थिति - अनुपट्ठानताति नेक्खम्म पटिलद्धस्स कामच्छन्दो न उपट्ठाति, पटि. म. 94; विलो. उपट्ठान, अनुपट्ठित त्रि., उपट्ठित का निषे. [अनुपस्थित]. वह, जो सामने उपस्थित न हो, अविद्यमान, वह, जिसकी सेवा न की जा रही है, नहीं जागरुक, शिथिल - अनपट्टिता चेव सति न उपट्टाति, म. नि. 1.150; अनुपद्विताय सतिया, स. नि. 1(2).209; - कायसति त्रि., वह, जिसकी काया सम्बन्धी स्मृति शिथिल है या जागरुक नहीं है - अनुपडितकायसति च विहरति परित्तचेतसो, म. नि. 1.398; - सति त्रि., ब. स. [अनुपस्थितस्मृति], वह, जिसकी स्मृति जागरुक नहीं है, शिथिल स्मृतिवाला, प्रमादयुक्त व्यक्ति - बाधयन्ति अनुपद्वितस्सतिं. जा. अट्ठ. 5.450. अनुपतति अनु + vपत का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अनुपतति], किसी का पीछा करता है, अनुगमन करता है, प्रवेश करता है, आ धमकता है, आक्रमण करता है, किसी के अन्दर आ जाता है, अन्तर्सन्निविष्ट होता है, किसी दो के अन्तराल में आकर गिर जाता है - सत्तन्नत्वेव कायानमन्तरेन सत्थं विवरमनुपतति, म. नि. 2.196; ... एवं सत्तन्नं कायानं अन्तरेन छिद्देन विवरेन सत्थं पविसति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.164; - न्ति ब. व. - तं नामरूपस्मिमसज्जमानं अकिञ्चनं नानुपतन्ति दुक्खा , ध. प. 221; - माना वर्त., कृ. आत्मने., स्त्री. - अपि नाम एताय एकपदिया अनुपतमाना पुत्तके ते लहं पस्सेय्यासीति.... जा. अट्ठ. 7.328; - तेय्यासि विधि., म. पु., ए. व. - तमेवानुपतेय्यासि, अपि पस्सेसि ने लहुँ, जा. अट्ठ. 7.327; - तिस्सन्ति भवि., प्र. पु., ब. क. - मक्खिका नानुपतिस्सन्ति नान्वास्सविस्सन्तीति, अ. नि. 1(1). 315; - तितुं निमि. कृ. - सचे अनुपतितुकामासि, जा. अट्ठ. 7.327; - तित्वा पू. का. कृ. - तमेनं गिज्झापि काकापि कुललापि अनुपतित्वा अनुपतित्वा फासुळन्तरिकाहि वितुडेन्ति, पारा. 140. अनुपतन नपुं, अनु + vपत से व्यु.. क्रि. ना. [अनुपतन], अनुसरण, आक्रमण, अन्तःप्रवेश, अन्तर्सन्निवेश- अनुपतनं पवत्तीति अत्थो, अ. नि. अट्ट. 2.140; खणानुपातीति पमादक्खणे अनुपतनसीलो, जा. अट्ठ. 3.461.
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अनुपतित
254
अनुपनत अनुपतित त्रि., अनु + /पत का भू. क. कृ. [अनुपतित], क्रमसङ्गत पद्धति द्वारा किया गया परीक्षण या अनुशीलन
आ पड़ा, आकर गिरा हुआ, सहगत, विषयीभूत - अयम्पि मे किलेसो पहीनो ... अनुपदपच्चवेक्षणाय दुक्खानुपतितद्धगूध. प. 302; ये वट्टसङ्घातं अद्धानं पटिपन्नता पच्चवेक्खमानो भगवा निसिन्नो होति, उदा. अट्ठ. 273; अद्धगू ते दुक्खे अनुपतिताव, ध. प. अट्ठ. 2.264; स. उ. पाठा. पच्चवेक्षणाय; - सुत्त नपुं, म. नि. के एक सुत्त प. के रूप में अनोत्तप्पानुपतित, उपेक्खानु, दुक्खानु.. का शीर्षक, म. नि. 3.74-77; - दसो अ., क्रि. वि. [अनुपदशः], दोमनस्सानु., दोसानु.. पञ्जानु.. पमादानु, पितानु.. रागानु.. एक एक पद को लेकर, अक्षरशः - सब्बं कुत्तानुसारेन अनुपदसो विचारानु.. वितक्कानु., विरियानु.. सतानु.. सद्धानु.. पच्चवेक्खितब्बं म. नि. अट्ठ (मू.प.) 1(1).94. समाधानु. आदि के अन्त. द्रष्ट...
अनुपदिट्ठ त्रि., उपदिट्ठ का निषे. [अनुपदिष्ट], वह, जिसका अनुपद नपुं.. [अनुपद], 1. आगे आने वाला या उत्तरवर्ती उपदेश या कथन नहीं किया गया है - अनुपदिहानं पद, गाथा का द्वितीय पद, गाथागायन की एक पद्धति, वुत्तयोगतो, क. व्या. 51. जिसमें प्रथम पाद को छोड़ द्वितीय चरण का गायन होता अनुपद्दव त्रि०, ब. स. [अनुपद्रव], उपद्रवों, आपत्ति-विपत्तियों है; 2. छन्दबद्ध रचना का चतुर्थांश - पदं अनुपदञ्चापि, या बाधाओं से मुक्त, सङ्कटरहित, शुभ - यथापि मूले अनुपद्दवे अक्खरञ्चापि ब्यञ्जनं अप. 1.40; पदेन पदं कथयिस्सामि, दळ्हे, ध. प. 338; छेदनफालनपाचनविज्झनादीनं केनचि अनुपदेन अनुपदं कथयिस्सामि, मि. प. 308; - द अ., उपद्दवेन अनुपदवे, ध. प. अट्ठ. 2.306; सम्पत्तियो दुवे भुत्वा, [अनुपदं], शा. अ.1. शब्दशः - सब्बे बुद्धगुणे अनुपद अनीति अनुपद्दवो, अप. 1.125; याय, भन्ते, दिसा अभया अनवसेसतो मनसि कातुं न सक्का, उदा. अट्ठ. 274; शा. अनीतिका अनुपद्दवा .... पारा. 254. अ.2. एक-एक कदम का अनुसरण करते हुए, निरन्तर, __ अनुपद्दुत त्रि., उपद्दुत का निषे., बाधाओं, सङ्कटों, हानियों या कदम से कदम मिलाकर, पीछे-पीछे, कदम के साथ-साथ, उपद्रवों से मुक्त, भयमुक्त, अक्षत - इदं खो, यस, अनुपद्रुतं, तुरन्त पीछे - पदेनानुपदायन्तं, अप. 1.140; पदेनानुपद महाव. 20; अनुपडुता अनुपसट्टा खेमिनो अप्पटिभया गच्छन्तीति यन्तो, विपस्सिस्स महेसिनो, अप. 1.214; भण्डसामिका । वुत्तं होति. खु. पा. अट्ठ. 125; अक्खतन्ति अनुपटुतं पाटलिपुत्तं चोरानं अनुपदं गन्त्वा , ध. प. अट्ठ. 1.271; ला. अ. वि. व. अट्ठ.298. एकदम अनुरूप - बोधिञाणस्स अनुपदं चरमाना, जा. अट्ठ अनुपधारेत्वा उप + Vधर के प्रेर. के पू. का. कृ. का निषे. 3.439; - तो अ., [अनुपदं]. शब्दशः, अक्षरशः - अयं [अनुपधार्य], विचाराधीन रूप में न रखकर, बिना उचित अनुपदतो अत्थवण्णना, खु. पा. अट्ठ. 201; विलो. सोच-विचार के ही, उचित परीक्षण को न करके - अधिपेतत्थवण्णना, तुल. अनुपदं एवं अनुपदसो; - धम्म- मग्गपरिस्सयं अनुपधारेत्वाव थूपाभिमुखी गच्छति, वि. व. विपस्सना स्त्री., तत्पु. स. [अनुपदधर्मविपश्यना], एक- अट्ठ. 168; अहं सामि, अत्तनो बालताय अनुपधारेत्वा एक धर्म के विषय में क्रमशः विकसित विपश्यना ज्ञान - अनाथपिण्डिकेन सेट्टिना सद्धिं कथेसिं, जा. अट्ठ. 1.2253B सारिपुत्तो, भिक्खवे, अड्डमासं अनुपदधम्मविपस्सनं । अहो वत मे भारियं अनुपधारेत्वा कतकम्मान्ति महासंवेगो विपस्सति. म. नि. 3.74; तत्रिदं, भिक्खवे, सारिपुत्तस्स उदपादि, ध. प. अट्ठ. 2.397. अनुपदधम्मविपस्सनायाति या अनुपदधम्मविपस्सनं अनुपधिक/अनूपधीकं त्रि., उपधिक/उपधीक का निषे. विपस्सतीति अनुपदधम्मविपस्सना कुत्ता, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) [अनुपधिक], आसक्ति, राग या तृष्णा से मुक्त, सांसारिक 3.60; - टि. प्रथम ध्यान आदि में ध्यानाङ्ग-रूप में उदित क्लेशों से रहित (निर्वाण का पद) - सुकित्तितं वितर्क, विचार आदि धर्मों के अभिनिरोपण आदि के स्वभाव गोतमनूपधीक, सु. नि. 1063; एत्थ अनुपधिकन्ति निब्बानं. को जान कर उन्हें चित्त में व्यवस्थापित करना ही सु. नि. अट्ठ. 2.282; दिस्वा पदं सन्तमनुपधीकं अकिञ्चनं अनुपदधम्म-विपस्सना है, द्रष्ट. म. नि. अट्ठ. (उप.प.) कामभवे असत्तं, महाव. 41; विलो. सउपधिक. 3.60-61; - वग्ग पु., म. नि. के एक वग्ग का शीर्षक, म. अनुपनत त्रि., अनपनत का कुछ संस्करणों में प्राप्त अप., नि. 3.74-147; - ववत्थित त्रि.. [अनुपदव्यवस्थित]. एक- उपनुत (अपनत) का निषे. [अनुपनत], बुरे या पापकर्मों में एक करके व्यवस्थित या निर्धारित पद वाला - त्यारस धम्मा न लगा हुआ - अनपनतं चित्तं व्यापादे न इञ्जतीति अनुपदववत्थिता होन्ति, म. नि. 3.74; - समवेक्खना स्त्री., आनेज, उदा. अट्ठ. 150; पाठा. अनपनुत.
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अनुपनाह
255
अनुपब्बजति अनुपनाह पु., उपनाह का निषे. [अनुपनाह], वैर, मात्सर्य अनुपथे/अनुपन्थे अ., क्रि. वि., मार्ग के बगल में, मार्ग या ईर्ष्या का अभाव, अक्रोध, पुरानी बातों को मन में बांध के सहारे - अट्ठीनि अम्म याचित्वा, अनुपथे दहाथ नं. जा. कर न रखना - अक्कोधो च अनपनाहो च, अ. नि. अट्ठ. 5.292; अनुपथे दहाथनं, जङ्घमग्गमहामग्गानं अन्तरे 1(1)116; उपनन्धनलक्खणो उपनाहो, अ. नि. अट्ठ. 2.66. दहेय्याथति वदति, जा. अट्ठ. 5.293.. अनुपनाही त्रि., उपनाही का निषे. [अनुपनाही], उपनाह, अनुपन्न त्रि., अनु + /पद का भू. क. कृ. [अनुपन्न], द्रोह, ईर्ष्या या द्वेष न करने वाला, पुरानी बातों को मन में अनुगत, प्रविष्ट, प्रादुर्भूत, अनुप्राप्त - ब्राह्मणानं वचनपथं बांधकर न रखने वाला- परे उपनाही भविस्सन्ति, मयमेत्थ अनुपन्ना अनुगता, जा. अट्ठ. 7.61; स. उ. प. के रूप में अनुपनाही भविस्सामा ति, म. नि. 1.54; अक्कोधनोनुपनाही, काव्यपथानु., पन्थानु., मारधेय्यानु. के अन्त. द्रष्ट.. अमायो रित्तपेसुणो, थेरगा. 502, 503; अनुपनाही अनुपपत्ति स्त्री, उपपत्ति का निषे. [अनुपपत्ति], पुनर्जन्म पुरिसपुग्गलो ति, स. नि. 1(2).184.
की अप्राप्ति, नूतन भव का अभाव - अनुपपत्ति खेमन्ति अनुपनिस त्रि., क. उपनिस्सय के समाना. उपनिसा का अभिज्ञ्जय्यं, पटि. म. 12; अनुपपत्ति निरामिसन्ति अभिज्जेयं, निषे, हेतुओं एवं प्रत्ययों से अनुत्पन्न, असंस्कृत, अकारण पटि. म. 13; विलो. उपपत्ति; - क त्रि., पुनर्जन्म की प्राप्ति -विमुत्तिम्पाहं, भिक्खवे, सउपनिसं वदामि, नो अनुपनिसं. की ओर न ले जाने वाला, प्रतिसन्धि न दिलाने वाला - स. नि. 1(2).28; विलो. सउपनिस; ख. ध्यान न लगाने अनुपवज्जन्ति अनुपपत्तिकं अप्पटिसन्धिक, स. नि. अट्ठ. वाला - अनोहितसोतो, भिक्खवे, अनुपनिसो होति, अ. नि. 3.18; पाठा. अप्पवत्तिक; अनुपवज्जन्ति अनुप्पत्तिक 1(1).228; तुल. श्रद्धाय उपनिषदा, छान्दोग्य उपनिषद, अप्पटिसन्धिक, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.243. 1.1.10.
अनुपपद पु., उपपद का निषे. [अनुपपद], समास के पू. अनुपनिस्सय त्रि., उपनिस्सय का निषे., ब. स. प. से भिन्न दूसरा पद - अपिग्गहणेन अनुपपदस्सापि [अनुपनिःश्रय], उपनिश्रय से रहित, (अर्हत्व-प्राप्ति के लिये उत्तरपदादिस्स चस्स लोपो होति न वा ..., क. व्या. 392; आवश्यक) अर्हताओं से रहित, अनर्ह, आधाररहित - न खो सुतसद्दो सउपसग्गो अनुपसग्गो च अनुपपदेन सतसद्दो च, पन बुद्धा सउपनिस्सयानंयेव धम्म देसेन्ति, अनुपनिस्सयानम्पि सद्द. 2.491. देसेन्ति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).11; - सम्पन्न त्रि., अनुपपन्न त्रि., उप + vपद के भू. क. कृ. (उपपन्न) का तत्पु. स. [अनुपनिःश्रय-सम्पन्न], अर्हत्व के प्राप्ति की निषे. [अनुपपन्न], क, वह, जिसने कहीं पर प्रवेश नहीं योग्यता या अर्हता से रहित - तथागतो हि लोके पाया है, पुनर्जन्म को अप्राप्त, नहीं पहुंचा हुआ, पुनर्भव प्राप्त
ओमकसत्तसम्मतानं अनुपनिस्सयसम्पन्नानं विपरीतदस्सनानं न करने वाला- इमञ्च कायं निक्खिपति, सत्तो च अञ्जतरं ...., खु. पा. अट्ठ. 140; विलो. उपनिस्सयसम्पन्न.
कायं अनुपपन्नो होति, स. नि. 2(2).365; तं ठानं अनुपपन्ना अनुपनीत/अनूपनीत त्रि., उप+vनी के भू. क. कृ. का होन्ति, अ. नि. 3(2).239; ख. अपूर्ण, अपरिष्कृत, रहित, निषे. [अनुपनीत], शा. अ. समीप न ले जाया गया, पास अभव्य - अप्पस्सुतो सुतेन अनुपपन्नो, अ. नि. 1(2).7; तक न पहुंचाया गया, अप्रस्तुत, अनुद्धृत - न कम्मुना। मातितो हि, भो, ... अनुपपन्नोति, दी. नि. 1.84; ग. नोपि सुतेन नेय्यो, अनूपनीतो स निवेसनेसु. सु. नि. 852; व्याकरण के नियमों के अनुसार अनिष्पन्न निपात जैसे रूढ़ अत्ता च अनुपनीतो, महाव. 257; ला. अ. उपाध्याय के शब्द - यदनुपपन्ना निपातना सिज्झन्ति, क. व्या. 392; समीप नहीं पहुंचाया गया अर्थात दीक्षा को प्राप्त न किया। सद्द. 3.800. हुआ, अनुपसम्पन्न - एको अज्झायको उपनीतो एको अनुपब्बजति अनु + प + Vबज का वर्त, प्र. पु., ए. व. अनज्झायको अनुपनीतो, म. नि. 2.368.
[अनुप्रव्रजति], दूसरों की देखा-देखी प्रव्रजित होता है या अनुपनेय्य त्रि., उप + ।नी के पू. का. कृ., उपनेय्य का भिक्षुजीवन में प्रवेश करता है - न्ति ब. व. - अभिजाता निषे. अथवा उप + vनी के विधि., प्र. पु., ए. व. का निषे., अभिज्ञाता सक्यकुमारा भगवन्तं पब्बजितं अनुपब्बजन्ति, प्रस्तुत न करा कर, सामने उपस्थापित न करके - समोति चूळव. 316; - जिं अद्य. उ. पु., ए. व. - तदा सो पब्बजी अत्तानमनपनेय्य, हीनो न मजेथ विसेसि वापि, स. नि. धीरो, अहं तमनुपब्बजिं, अप. 2.252; - जिंसु अद्य. प्र. पु.,
ब. व. - बोधिसत्तं अगारस्मा अनगारियं पब्बजितं अनुपब्बजिंसु
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अनुपम/अनूपम/अनोपम
अनुपरिवत्ती दी. नि. 2.23; - जित त्रि., भू. क. कृ. [अनुप्रव्रजित], अनुपरियाति, नारीगणपुरक्खतो, जा. अट्ठ. 6.140; - किसी दूसरे का अनुकरण कर प्रव्रज्या लेने वाला व्यक्ति, न्ति/यन्ति प्र. पु., ब. व. - समन्तानुपरियन्ति, को एति दूसरे की देखा-देखी भिक्षु बन चुका व्यक्ति - अनुपब्बजिंसूति सिरिया जलं. जा. अट्ठ. 5.314; यं यं मया पुब्बे पत्थितं, अनुपब्बजितानि सहस्सानि, दी. नि. अट्ठ. 2.43; अनुपब्बजितानं सब्बमेव मत्थक पत्तान्ति पासादं अनुपरियायन्तीति, ध, प. तु गणना च न विज्जति, म. वं. 5.168; - जिस्सामि भवि०, अट्ट, 1.233; - यन्ते वर्त. कृ., सप्त. वि, ए. व. - उ. पु., ए. व. - सचे तुम्हेपि ... अहं तं पुरिसं अनुपरियन्तेति एते चन्दिमसूरिये सिनेरुं अनुपरियायन्ते, अनुपब्बजिस्सामी ति, जा. अट्ठ. 1.67; - ज्जं वर्त. कृ., पु., जा. अट्ठ. 7.171; - यायि अद्य., प्र. पु., ए. व. - तं पत्तं प्र. वि., ए. व. - अनुपब्बज्जम्पह, भिक्खवे, तेसं भिक्खूनं गहेत्वा तिक्खत्तुं राजगहं अनुपरियायि, चूळव. 228; - बहूपकारं वदामि, इतिवु. 76; अनुपब्बज्जन्ति अरियेसु चित्तं येय्युं विधि., प्र. पु., ब. व. - समन्तानुपरियायेय्युं निप्पोथेन्तो पसादेत्वा घरा निक्खम्म तेसं सन्तिके पब्बज्जं, इतिवु. अट्ठ. चतुद्दिसा, स. नि. 1(1).121.
अनुपरियाय पु.. अनु + परि + vया से व्यु.. चतुर्दिक भ्रमण, अनुपम/अनूपम/अनोपम त्रि., उपम का निषे.. ब. स. इधर-उधर चहलकदमी, हवाखोरी; - पथ पु., किले की [अनुपम], बेजोड़, अद्वितीय, सर्वश्रेष्ठ - असमसमरस भीतरी दीवालों के बगल में बना हुआ चौड़ा मार्ग, जिस पर अनुपमस्स अप्पटिसमस्स, मि. प. 155; महन्तं इदं सैनिक गश्त करते थे तथा इसी पर खड़ा होकर दुर्ग के तथागतसासनं सारं वरं सेट्ठ पवरं अनुपम मि. प. 231; बाहर की शत्रुसेना से युद्ध करते थे - रो पच्चन्तिमे नगरे बुद्धो अतिअग्गताय अनुपमो, मि. प. 259.
अनुपरियायपथो होति उच्चो चेव वित्थतो च, अ. नि. अनुपमोदमान त्रि., अनु + प + मुद का वर्त. कृ. 2(2)241; दोवारिको ... नगरस्स समन्ता अनुपरियायपथं [अनुप्रमोदमान], अन्यों के साथ प्रमोद या आनन्द का अनुक्कमति, अ. नि. 3(2).165. अनुभव कर रहा, निरन्तर प्रमुदित हो रहा - अनुमोदमानोति अनुपरियेति अनु + परि + Vइ का वर्तः, प्र. पु., ए. व. अनुपमोदमानो, निरन्तरं मोदमानोति अत्थो, सु. नि. अट्ठ. [अनुपर्येति], क. शा. अ. चारों ओर से घेर लेता है, गोल 2.98.
चक्कर काटता है -द्वारेन अनुपरियेति, घट्टयन्तो मुहं मुहुं अनुपरम पु., उपरम का निषे. [अनुपरम]. असमाप्ति, थेरगा. 125; समन्ता अनुपरियेति, सागरन्तं इमं महिं, स. अविराम, निरन्तरता - तस्स हेतुस्स तस्स पच्चयस्स अनुपरमा नि. 1(1).222; ख. ला. अ. अनुपरीक्षण करता है, क्रमशः कायिकं दुक्खवेदनं वेदेति, मि. प. 43.
विनिश्चय करता है या पकड़ लेता है - चेतसा अनुपरियेति, अनुपरिधावति अनु + परि + vधाव का वर्त, प्र. पु.. ए. व. मोग्गल्लानो महिद्धिको, थेरगा. 1259; अनुपरियेतीति, [अनुपरिधावति], इधर-उधर या चारों ओर दौड़ता है, चक्कर अनुक्कमेन परिच्छिन्दति, थेरगा. अट्ठ. 2.446. मारता है - तमेव थम्भं वा खिलं वा अनुपरिधावति, म. नि. अनुपरिवत्तति अनु + परि + Vवत का वर्त., प्र. पु., ए. व. 3.20; स. नि. 2(1).134.
[अनुपरिवर्तते], गतिशील रहता है, चक्कर लगाता है, पीछे अनुपरिधावन नपुं.. इधर उधर दौड़ना, चक्कर-मारना, चलता है, अनुगमन करता है - तमेव थम्भं वा खीलं वा चारों तरफ दौड़ लगाना - तण्हारज्जया बन्धित्वा सक्काये अनुपरिधावति अनुपरिवत्तति, स. नि. 2(1).134; - न्ति ब. उपनिबद्धस्स अनुपरिधावनं वेदितब्बं, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) व. - केचि तरिम उदके ठत्वा चन्दिमसूरिये अनुपरिवत्तन्ति,
उदा. अठ्ठ, 60; देवदत्तो च बोधिसत्तो च एकतो अनुपरिवत्तन्ति, अनुपरिप्फुट त्रि., [अनुपरिस्फुट], चारों ओर फैला हुआ, मि. प. 195; 236. पूर्ण रूप से व्याप्त, आद्योपान्त व्याप्त - महता उदकोघेन अनुपरिवत्तन नपुं.. [अनुपरिवर्तन], पीछे या उत्तर काल में पक्खन्दपब्बतकुच्छि विय च अनुपरिप्फुट होति, ध. स. अट्ठ. होने वाला रूपान्तरण या परिवर्तन - विपरिणामानुपरिवत्तजाति 162.
विपरिणामस्स अनुपरिवत्तनतो विपरिणामारम्भणचित्ततो जाता, अनुपरियाति अनु + परि + vया का वर्त., प्र. पु.. ए. व., म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.201. चारों तरफ या इधर-उधर जाता है, चक्कर मारता है - अनुपरिवत्ती त्रि., [अनुपरिवर्ती]. किसी की अनुरूपता में तत्थ यक्खो महिद्धिको, सब्बाभरणभूसितो, समन्ता विपरिणत या रूपान्तरित होने वाला - तस्स
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अनुपरिवत्तियन्ति
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रूपविपरिणाममञ्जथाभावा रूपविपरिणामानुपरिवत्ति विआणं होति, म. नि. 3.276; सङ्घारविपरिणामानुपरिवत्ति विज्ञआणं होति, स. नि. 2(1).16. अनुपरिवत्तियन्ति अनु + परि + Vवत के कर्म. वा. का वर्त, प्र. पु., ब. व., अनुकूल रूप में रूपान्तरित किये जाते हैं, उचित रूप में चर्या में उतारे जाते हैं - ते भावियन्ति
चेव अनुपरिवत्तियन्ति च, अ. नि. अट्ट, 2.335; - यमान त्रि., वर्त. कृ. - चत्तारोमे, भिक्खवे, काला सम्मा भावियमाना सम्मा अनुपरिवत्तियमाना अनुपुब्बेन आसवानं खयं पापेन्ति, अ. नि. 1(2).161. अनुपरिवत्तेन्ता अनु + परि + Vवत का वर्त.. कृ. प्र. वि., ब. क. [अनुपरिवर्तयन्त:], बार-बार दुहराते हैं, स्वाध्याय करते हैं, आवृत्ति करते हैं - परिवत्तेन्तीति सज्झायन्ति वाचेन्ति च, अथ वा ... वेदं अनुपरिवत्तेन्ता होमं करोन्ता
जपन्ति , पे. व. अट्ठ. 86.. अनुपरिवारेति अनु + परि +v के प्रेर. का वर्तः, प्र. पु., ए. व. [अनुपरिवारयति], क. चारों ओर से घेर लेता है, चारों ओर से घेराबन्दी कर देता है, ख. अनुगमन करता है, अनुरूप हो जाता है, अपने में समाविष्ट कर लेता है - त्वा पू. का. कृ. - उक्खेपकेहि वारियमानानम्पि तेसं तं अनुपरिवारेत्वा चरणभावञ्च सत्थ आरोचेसि, जा. अट्ठ. 3.429; - थ अनु., म. पु., ब. क. - मा ... उक्खित्तकं भिक्खुं अनुवत्तित्थ अनुपरिवारेथा ति, महाव. 458; - य्याम विधि., उ. पु., ब. व. - दण्डवाकराहि समन्ता सप्पदेसं अनुपरिवारेय्याम, म. नि. 1.211; - सु अद्य., प्र. पु., ब. व. - उक्खित्तकं भिक्खं अनुवत्तिंसु अनुपरिवारेसुं, महाव. 458. अनुपरिवेणं अ., क्रि. वि. [अनुपरिवेणं], परिवेण या कुटी के
आसपास - थेरो अनुपरिवेणं गन्वा, अ. नि. अट्ठ. 1.53... अनुपरिवेणियं अ., क्रि. वि., अनुपरिवेण से व्यु. [अनुपरिवेणिक], उपरिवत् - गच्छानन्द, अवापुरणं आदाय अनुपरिवेणियं भिक्खूनं आरोचेहि, महाव. 100; न, भिक्खवे, अनुपरिवेणियं पातिमोक्खं उद्दिसितब्ब, महाव. 134. अनुपरिसक्कन नपुं., अनु + परि + सक्क का क्रि. ना., चतुर्दिक गमन, परिरक्षण - आयाचनहेतु वा थोमनहेतु वा पञ्जलिका अनुपरिसक्कनहेतु वा, स. नि. 2(2).300-301. अनुपरिसक्केय्य अनु + परि + vसक्क का विधि., प्र. पु., ए. व., चारों ओर जाए, साथ रह कर रक्षण करे - आयाचेय्य थोमेय्य ... अनुपरिसक्केय्य, स. नि. 2(2).300.
अनुपलेप अनुपरिहरित्वा अनु + परि + शहर का पू. का. कृ., चारों
ओर से आच्छादित करके - सा तं सालं अनुपरिहरित्वा .... विटभिं करेय्य, म. नि. 1.388. अनुपरिहरेय्य अनु + परि + हर का विधि. का प्र. पु., ए. व. [अनुपरिहरेत], चारों ओर से घेर ले, समाविष्ट कर ले, आच्छादित करे - सा तं सालं अनुपरिहरेय्य, म. नि. 1.388. अनुपरोध पु., उपरोध का निषे. [अनुपरोध], सहमति, अविपरीतता, अनुकूलता, मेल-मिलाप, समनुरूपता - यथा अपि जिनवचनानुपरोधेन योजेतब्बा, क. व्या. 405; तेसु आदिमज्झुत्तरेसु जिनवचनानुपरोधेन क्वचि वुद्धि होति, सद्द. 3.809. अनुपलद्धि स्त्री., उपलद्धि का निषे. [अनुपलब्धि], अप्राप्ति, उपलब्ध न होना - निग्गहीतन्तवसेन पठमेकवचनन्तताय अनुपलद्धितो ..., सद्द. 1.230. अनुपलब्मन नपुं., उपलब्भन का निषे. [अनुपलम्भ], अस्तित्व में न पाया जाना, अप्राप्ति, अविद्यमानता, अनिश्चय - अत्तना पियतरस्स अनुपलब्भनवसेन पुथु विसुं विसु. उदा. अट्ठ. 224-25. अनुपलब्ममान त्रि., उप+Vलभ के वर्त. कृ., कर्म. वा. का निषे. [अनुपलभ्यमान], नहीं प्राप्त किया जा रहा, नहीं उपलब्ध हो रहा - सो अपरमत्थसभावो सच्चिकट्ठपरमत्थवसेन अनुपलब्भमानो अविज्जमानपञत्ति नाम, म. नि. 1.192. अनुपलित्त/अनूपलित्त त्रि., उप + लिप के भू. क. कृ.
का निषे. [अनुपलिप्त], राग आदि के दुष्प्रभाव से अप्रभावित, लगाव रहित, आसक्ति-रहित, अलिप्त, सर्वथा मुक्त - सब्बाभिभु सब्बविदुं सुमेध, सब्बेसु धम्मेसु अनूपलित्त, सु. नि. 213; स. नि. 1(2).257; तेसं लेपानं अभावा तेसु सब्बेसु धम्मेसु अनुपलित्तं, सु. नि. अट्ठ. 1.218; सब्बाभिभू सब्बविदूहमस्मि, सब्बेसु धम्मेसु अनूपलित्तो, ध. प. 353; महाव. 11; म. नि. 1.230; सब्बेसुपि तेभूमकधम्मेसु तण्हादिट्ठीहि अनूपलित्तो. ध. प. अट्ठ. 2.322; अनूपलित्तोति तण्हादिहिलेपेहि अलित्तो, सु. नि. अट्ट, 2.122; अनुपलित्तो लोकेन, तोयेन पदुमं यथा. अप. 2.160; - ता स्त्री॰, भाव. [अनुपलिप्तता]. लगावों, चित्त के बन्धनों या आसक्तियों से रहित होने की चित्तावस्था - पुरिमेन लोके जातस्स लोके संवड्वभावं, पच्छिमेन लोकेन
अनुपलित्ततं, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).16. अनुपलेप त्रि., ब. स. [अनुपलिप्त], आसक्तियों या लगावों से रहित - तण्हूपलेपाभावेन अनुपलेपं. उदा. अट्ठ.
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अनुपवज्ज
258
अनुपविट्ठचित्त अनुपवज्ज त्रि., उप + Vवद के सं. कृ. उपवज्ज का निषे. अद्य., प्र. पु., ए. व. - तं कल्याणं वत्तं निहितं, पच्छिमा [अनुपवद्य], निन्दा नहीं किये जाने योग्य, अनिन्दनीय, जनता अनुप्पवत्तेसि, म. नि. 2.279. दुष्परिणामों को न देने वाला, पुण्य से भरा, शुभ, निन्दा- अनुपवाद/अनूपवाद पु., उपवाद का निषे. [अनुपवाद]. वचनों का अविषय - अनिग्गहितो असंकिलिट्ठो अनुपवज्जो निन्दा अथवा दुर्वचनों का अभाव, वाणी द्वारा किसी के प्रति अप्पटिकुटो समणेहि ब्राह्मणेहि विझूहीति, अ. नि. 1(1).206%; बुरा भला न बोलना - अनूपवादो अनूपघातो, पातिमोक्खे च अनुपवज्जोति उपवादविनिमुत्तो, अ. नि. अट्ठ. 2.155; इमेहि संवरो, ध. प. 185; उदा. अट्ठ. 243; उदा. 117; दी. नि. तीहि ठानेहि अनुपवज्जस्स दिवसो वीतिवत्तती ति, मि. प. 2.38; पारा. अट्ठ. 1.142; तत्थ अनूपवादोति वाचाय कस्सचिपि 361; तुल. अनवज्ज, सउपवज्ज - ता स्त्री., भाव. अनुपवदनं, उदा. अट्ठ. 205; दी. नि. अट्ठ. 2.62; - क त्रि, [अनुपवद्यता], अनिन्दनीयता, प्रशस्यता- छन्नेन सम्मुखायेव उपवादक का निषे. [अनुपवादक], निन्दा न करने वाला,
अनुपवज्जता ब्याकताति, म. नि. 3.319; स. नि. 2(2).65. बुरे वचन न बोलने वाला, अनिन्दक - अरियानं अनुपवादका अनुपवत्तक/अनुप्पवत्तक त्रि., [अनुप्रवर्तक], वह, जो सम्मादिविका, म. नि. 1.29; 3.217; पटि. म. 105. पहले से गतिशील को पीछे भी गतिशील बनाए रखता है, अनुपवादापन नपुं., उपवादापन का निषे., निन्दा न करवाना, गतिशीलता के क्रम को आगे भी जारी रखने वाला - धम्मेन दुर्वचन न कहलाना, निन्दा करने या दुर्वचन कहने हेतु पवत्तितस्स धम्मचक्कस्स अनुप्पवत्तको सेनापति कोति पुच्छि दूसरों को प्रेरित न करना - अनूपवादोति अनूपवादनञ्चेव सु. नि. अट्ठ. 2.158; गोतमस्स भगवतो सासनवरे । अनूपवादापनञ्च, ध. प. अट्ठ. 2.136. धम्मचक्कमनुप्पवत्तको जातो, मि. प. 326; अतुलतेजा अनुपवादी त्रि., उपवादी का निषे. [अनुपवादी], निन्दा न धम्मचक्कानुप्पवत्तका पञआपारमिं गता, मि. प. 311. करने वाला, बुरे वचन न बोलने वाला, अनिन्दक - तत्थाहं अनुपवत्तन नपुं, अनु + प+ वत का क्रि. ना. [अनुप्रवर्तन], अनोवादी अनुपवादी घासच्छादनपरमो विहरामि, म. नि. 2.24. अनुष्ठान, गतिशीलता को आगे भी जारी रखना प्रयोग - अनुपविट्ठ/अनुप्पविट्ठ त्रि., अनु + प+विस का भू. क. बोज्झङ्गानं अनुपवत्तनेन भावनं मज्झिम वीथिं, उदा. अट्ठ. कृ. [अनुप्रविष्ट], प्रवेश किया हुआ, समीप पहुंचा हुआ, पूरी 294.
तरह से अन्दर में व्याप्त हो चुका; - @ो प्र. वि., ए. व. - अनुपवत्तन्त त्रि., अनु + प + Vवत का वर्त. कृ. कुच्छिगतो होति कोट्ठमनुपविट्ठो, म. नि. 1.416; - हा ब. [अनुप्रवर्तमान], लगातार आगे की ओर बढ़ रहा, निरन्तर व. - अविचारेत्वा समवायेन अनुपविट्ठा सप्पविठ्ठा, वि. व. गतिशील हो रहा - देसनानुसारेन आणे अनुपवत्तन्ते, उदा. अट्ठ. 285; तत्थ यस्मा तिलम्हि तेलं विय न वेदनादयो अट्ठ. 294.
सञआदीसु अनुपविठ्ठा, कथा. अट्ठ. 191; - 8 द्वि. वि., ए. अनुपवत्तित त्रि., अनु + प + वत का भू. क. कृ., प्रेर. व. - निब्बानं आरम्मणकरणवसेन गतं अनुपविट्ठ, ध. प. [अनुप्रवर्तित], पीछे अनुष्ठित, आगे की ओर बढ़ते हुए रखा अट्ठ. 2.71; निब्बानस्स गुणं अजेहि अनुपविट्ठ मि. प. 2903; गया, लगातार गतिशील बनाया हुआ, निर्मित, चलाया हुआ - द्वे सप्त. वि., ए. व. - अज्ज नरवरपवरे जिनवरवसभे - अनुट्ठितायाति अनुप्पवत्तिताय, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) नगरवरमनुपविढे वीथिया धनपालको हत्थी आपतिस्सति, 3.106.
मि. प. 199; - द्वेन अ., क्रि. वि., अन्दर में परिव्याप्त होने अनुपवत्तेति/अनुप्पवत्तेति अनु + प+ Vवत के प्रेर. का के अर्थ में, अन्तर्निविष्ट हो जाने के तात्पर्य में - वर्त.. प्र. पु.. ए. व. [अनुप्रवर्तयति], पहले से गतिशील को अब्भन्तरमनुप्पविठ्ठद्वेन पन अन्तोतुदकद्वेन दुन्निहरणीयढेन आगे या बाद में गतिशील बनाए रखता है, जारी रखता है, च सल्लं, सु. नि. अट्ठ. 1.80; - ता स्त्री., भाव., भीतर प्रवेश निरन्तर गति में रखता है - तथागतेन अनुत्तरं धम्मचक्कं । कर जाने की अवस्था, अन्दर अन्दर परिव्याप्त हो जाने की पवत्तितं सम्मदेव अनुप्पवत्तेतीति, म. नि. 3.77; अ. नि. स्थिति - सङ्घसमयमनुप्पविठ्ठतायपि दक्खिणं विसोधेति, मि. 2(1).141; मि. प. 326; स. नि. 1(1).221; - य्याथ विधि., प. 240. म. पु., ब. व. - इदं कल्याणं वत्तं निहितं अनुप्पवत्तेय्याथ, अनुपविट्ठचित्त त्रि., ब. स. [अनुप्रविष्टचित्त], वह, जिसका म. नि. 2.279; - य्यासि विधि., म. पु., ए. व. - इदं चित्त इधर-उधर भटका हुआ है, अस्थिर मन वाला - कल्याणं वत्तं निहितं अनुप्पवत्तेय्यासि, म. नि. 2.273 - सि अनिकट्ठचित्तोति अनुपविट्ठचित्तो, अ. नि. अट्ठ. 2.334.
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अनुपविठ्ठपुब्ब
259
अनुपसम अनुपविट्ठपुब्ब त्रि., [अनुप्रविष्टपूर्व], वह, जो पूर्वकाल में वा, अ. नि. 3(2).238-39; - सु अनु., म. पु., ए. व. - किसी के साथ जुड़ा हुआ रह चुका है, या पहले किसी के यस्सिच्छसि तस्सा अनुप्पवेच्छसु, जा. अट्ठ. 5.390; - भीतर समा चुका है - अनुपाविसिन्ति न कञ्चि च्छे/च्छेय्य विधि., प्र. पु., ए. व. - देवो च न कालेनकालं अनुपविठ्ठपुब्बोस्मि, न मया अओ कोचि समणो पुच्छितपुब्बोति सम्माधारं अनुप्पवेच्छेय्य, दी. नि. 1.66; जायन्तमस्स वदति, जा. अट्ठ. 6.73.
नानुप्पवेच्छे, सु. नि. 210; - च्छि अद्य., प्र. पु., ए. व. - अनुपविसति अनु + प + विस का वर्त, प्र. पु., ए. व. बुद्धानुभावेन देवो सम्माधारं अनुप्पवेच्छि, पारा. अट्ठ. 1.61. [अनुप्रविशति], प्रवेश करता है, किसी के भीतर जाकर अनुपवेस/अनुप्पवेस पु., [अनुप्रवेश], बहुत भीतर तक परिव्याप्त हो जाता है, किसी में जाकर समा जाता है, अथवा गहराई तक प्रवेश- ओगाधप्पत्ताति ओगाधं अनुप्पवेसं बलपूर्वक मार्ग बनाता है, पहुंच जाता है, जबर्दस्ती घुस पत्ता, अ. नि. अट्ठ. 3.100; यस्मा तिण्णं अत्यनयानं अञमर्श जाता है - घनघातिमन्ति या घातियमाना अधिकरणिं अनुप्पवेसो इच्छितो, नेत्ति. अट्ठ. 327. अनुपविसति, जा. अट्ठ. 3.248; बुद्धादीनं गुणे ओगाहति, अनुपवेसेय्य अनु + प + विस के प्रेर. का विधि., प्र. पु.. भिन्दित्वा विय अनुपविसतीति ओकप्पना, ध. स. अट्ठ. 189; ए. व., दे, प्रदान करे, अन्दर तक प्रवेश कराये या पहुंचाए तत्थ संसीदतीति मिच्छावितक्कस्मिं संसीदति अनुप्पविसति, - अनुप्पवेच्छेय्याति अनुप्पवेसेय्य, अ. नि. अट्ठ. 2.105; न अ. नि. अट्ठ. 3.35; पु. प. अट्ठ. 94; - सि म. पु., ए. व. अनुप्पवेच्छेय्याति न च पवेसेय्य, न वस्सेय्याति अत्थो, दी. - पोक्खरणी ति लद्धनाम दिब्बसरं जलविहाररतिया नि. अट्ठ. 1.177. अनुपविससि, वि. व. अट्ठ. 32; - सेय्य विधि., प्र. पु., ए. अनुपसग्ग/अनूपसग्ग त्रि., ब. स. [अनुपसर्ग], क. विपत्ति व. - छन्नं वा अनुपविसेय्य, पाचि. 297; - पाविसिं अद्य.. या दुर्भाग्य से मुक्त, विपत्ति-रहित - सउपसग्गो बालो, उ. पु., ए. व. - समणं ब्राह्मणं वापि, सक्कत्वा अनुपाविसिन्ति, अनुपसग्गो पण्डितो, अ. नि. 1(1).124; केनचि जा. अट्ठ, 6.73; - विस्स/विसित्वा पू. का. कृ. - अनुपसज्जितब्बत्ता अनुपसग्गं, नेत्ति. अट्ठ. 245; ख. केवल अहिंसको रेणुमनुप्पविस्स, जा. अट्ठ. 4.404; तथारूपं वनसण्ड ___व्याकरण के सन्दर्भ में - उपसर्गयुक्त समास से रहित अनुपविसित्वा अज्झत्तिककम्मट्ठान, ध. प. अट्ठ. 1.210; इदं शब्द - सुतसद्दो सउपसग्गो अनुपसग्गो च अनुपपदेन, ठानं पापुणाती'ति अनुपविसित्वा मञ्चपीठं पञ्जपेत्वा सुतसद्दो च, सद्द. 2.491; - धम्म त्रि., कर्म. स. - विपत्ति निसीदन्तिपि, पाचि. अट्ठ. 40; अनुपखज्जाति अनुपविसित्वा, या संकटों से मुक्त निर्वाण-धर्म - अनूपसग्गनुपसग्गधम्म, स. नि. अट्ठ. 2.274.
निब्बानमेतं सुगतेन देसितं, नेत्ति. 46; अनुपसग्गभावहेतुतो अनुपविसन नपुं., अनु + प + Vविस से व्यु. [अनुप्रवेशन], अनुपसग्गधम्म, नेत्ति. अट्ठ. 245. अन्दर गहराई तक बेध कर प्रविष्ट हो जाना, भीतर घुस __ अनुपस्सट्ठ त्रि., उपस्सट्ट का निषे., तत्पु. स. [अनुपसृष्ट], जाना - तं पन कण्ड अनुपविसनतुन सल्लन्ति वुच्चति, उपद्रव अथवा सङ्कटों से रहित, भय से मुक्त - इदं खो, यस, जा. अट्ठ. 1.158.
अनुपद्रुतं, इदं अनुपस्सg, महाव. 20; अनुपछता अनुपसट्ठा अनुपवेच्चति/अनुप्पवेच्छति व्यु. अनिश्चित, सम्भवतः खेमिनो अप्पटिभया गच्छन्तीति वुतं होति, खु. पा. अट्ठ. अनु + प + vयमु से व्यु. पयच्छति का विकृत रूप अथवा अनु + प + विस का प्रेर. रूप, वर्त, प्र. पु., ए. व. अनुपसम पु०, उपसम का निषे॰ [अनुपशम], अशान्ति, [अनुप्रयच्छति/अनुप्रवेशयति], शा. अ. प्रवेश करता है, मानसिक बेचैनी या व्यग्रता - अनुपसमारामा, भिक्खवे, भीतर में भर देता या उड़ेल देता है, ला. अ. प्रदान करता पजा अनुपसमरता अनुपसमसम्मुदिता, अ. नि. 1(2).149; है, बदले में दे देता है - दसरस ठानानि अनुप्पवेच्छति, उपसमपटिपक्खो अनुपसमो, अनुपसन्तढेन वा वट्टमेव महाव. 297; तमेनं अस्सदमको उत्तरि वण्णियञ्च पाणियञ्च अनुपसमो नाम, अ. नि. अट्ठ. 2.330; - संवत्तनिक त्रि., अनुप्पवेच्छति, म. नि. 2.118; देवो न सम्माधारं अनुप्पवेच्छति, [अनुपशम-संवर्तनिक], अशान्ति की मनोदशा में परिणत हो अ. नि. 1(1).187; अनुप्पवेच्छतीति वस्सितब्बयुत्ते काले जाने वाला, अशान्ति की ओर ले जाने वाला, राग-द्वेष आदि वस्सं न वस्सति, अ. नि. अट्ठ. 2.140; - न्ति ब. व. - यं का उपशम करने में असमर्थ - ... अनिय्यानिके वा पनस्स इतो अनुप्पवेच्छन्ति मित्तामच्चा वा आतिसालोहिता अनुपसमसंवत्तनिके असम्मासम्बुद्धप्पवेदिते भिन्नथूपे
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अनुपसम्पन्न
260
अनुपस्सयमान अप्पटिसरणे, दी. नि. 3.87; म. नि. 3.30; स. नि. 3(2).. देखता है - ठितं, आनेजप्पत्तं, वयञ्चस्सानुपस्सति, महाव. 443; अनुपसमसंवत्तनिकेति रागादीनं उपसमं कातुं असमत्थे, 256; अमिस्सीकतमेवरस चितं होति ठितं आनेञ्जप्पत्तं दी. नि. अठ्ठ. 3.80; म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.21; - रत। वयञ्चस्सानुपस्सति, अ. नि. 2(2).88; अत्तनो अत्तानं त्रि., [अनुपशमरत], अशान्ति में डूबा हुआ, शान्ति में नानुपस्सतीति ज्ञाणसम्पयुत्तेन चित्तेन विपस्सन्तो अत्तनो आनन्द का अनुभव न करने वाला - अनुपसमारामा, भिक्खवे, खन्धेसु अझं अत्तानं नाम न पस्सति, सु. नि. अट्ठ. 2.124; पजा अनुपसमरता अनुपसमसम्मुदिता, अ. नि. 1(2).149; - येन चक्खुपसादेन रूपानिमनुपस्सति, अभि. अव. 84; - समाराम त्रि., [अनुपशमाराम], अशान्ति में ही मन को सन्त वर्त. कृ. -- अनिच्चं दुक्खमनत्ताति, सङ्घारे अनुपस्सतो, रमाने वाला, शान्ति में आनन्द का अनुभव न करने वाला अभि. अव. 162; - स्समान वर्त. कृ., आत्मने. - अनुपसमारामा, भिक्खवे, पजा अनुपसमरता कायानुपस्सीति कायमनुपस्सनसीलो, कायं वा अनुपस्समानो, अनुपसमसम्मुदिता, अ. नि. 1(2).149 - सम्मुदित त्रि., म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).252. [अनुपशमसम्मुदित], अशान्ति में आनन्द अनुभव करने अनुपस्सन नपुं., अनुपश्यना, सम्यक-दृष्टि, गम्भीर दर्शन - वाला, चित्त की शान्ति में आनन्दित न होने वाला - पजा भवं अङ्गारकासुंव, आणेन अनुपस्सनो, थेरगा. 420; - सील
अनुपसमरता अनुपसमसम्मुदिता, अ. नि. 1(2).149. त्रि., अनुपश्यना या गम्भीर अनुचिन्तन करने के स्वभाव अनुपसम्पन्न त्रि., उपसम्पन्न का निषे. [अनुपसम्पन्न]. वाला - कायानुपस्सीति कायमनुपस्ससीलो, म. नि. अट्ठ. ऐसा श्रामणेर, जिसे अभी तक उपसम्पदा प्राप्त नहीं हुई है (मू.प.) 1(1).252. - उपसम्पन्नो ... अनुपसम्पन्नस्स पेसुञ्ज उपसंहरति, अनुपस्सना स्त्री., [अनुपश्यना], गम्भीर ज्ञान-दर्शन, आपत्ति दुक्कटस्स, पाचि. 25; अनुपसम्पन्नो नाम भिक्खुञ्च अनुपश्यना, धर्मों का प्रविचयात्मक ज्ञान, अमोह - अट्ठ भिक्खुनिञ्च ठपेत्वा अवसेसो अनुपसम्पन्नो नाम, पाचि. 263; अनुपस्सनाञाणानि, अट्ठ च उपट्ठानानुस्सतियो, चत्तारि - दूसक त्रि., [अनुपसम्पन्न-दूषक], ऐसी स्त्री को दूषित ...., पटि. म. 178; अट्ठ अनुपस्सनाञाणानीति दीघं रस्सं करने वाला व्यक्ति, जिसे उपसम्पदा प्राप्त नहीं हुई है -- सब्बकायपटिसंवेदी परसम्भयं कायसवार न्ति वुत्तेसु चतूसु सचे अनुपसम्पन्न-दूसको उपसम्पदं, विन. वि. 2539; - वत्थूसु अस्सासवसेन चतस्सो, परसासवसेन चतस्सोति अट्ठ सज्ञी त्रि., [अनुपसम्पन्न-संज्ञी], उपसम्पदा-प्राप्त भिक्षु को । अनुपस्सनाञआणानि, पटि. म. अट्ठ. 2.105; अनुपस्सनापि भी उपसम्पदा न पाया हुआ मानने वाला - उपसम्पन्ने आणन्ति, वरत्राणेन देसितं, अभि. अव. 158; या पा अनुपसम्पन्नसी विनयं विवण्णेति आपत्ति पाचित्तियस्स, पजानना ... अमोहो धम्मविचयो सम्मादिट्ठि- अयं वुच्चति पाचि. 192; - सील नपुं॰, कर्म. स., उपसम्पदा न पाये हुए अनुपस्सना, विभ. 218; सत्तविधा अनुपस्सना नाम श्रामणेरों के लिए निर्धारित दस प्रकार के शील या शिक्षापद अनिच्चानुपस्सना, दुक्खानुपस्सना अनत्तानुपस्सना - सामणेरसामणेरीनं दससीलानि अनुपसम्पन्नसीलं विसुद्धि. निबिदानुपस्सना, विरागानुपस्सना, निरोधानुपस्सना 1.16; - टि. उपसम्पदा न पाये हुए श्रामणेरों के लिये पटिनिस्सग्गानुपस्सनाति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).166; भगवान बुद्ध द्वारा प्रज्ञप्त निम्नलिखित दस शिक्षापद इदं दुक्खं अयं दुक्खसमुदयोति अयमेकानुपस्सना, सु. नि. अनुपसम्पन्न-सील कहे गये हैं :- 1. प्राणिहत्या से विरति, (पृ.) 190; स. उ. प. के रूप में अनत्तानुपस्सना, अनिच्चानु, 2. अप्रदत्त वस्तु को ग्रहण करने से विरति, 3. मैथुन से अनिमित्तानु.. अप्पणिहितानु., आदीनवानु.. कायानु.. खयानु.. विरति 4. असत्यभाषण से विरति 5. मादक पदार्थों के सेवन चित्तानु, दुक्खानु., दयतानु, धम्मानु., निब्बानानु., निबिदानु., से विरति 6. विकाल-भोजन से विरति 7. नृत्य, गीत आदि निरोधानु, पटिनिसग्गानु, पटिसङ्खानु.. वयानु., विपरिणामानु, से विरति 8. प्रसाधन-सामग्रियों के प्रयोग से विरति 9. विरागानु., विवट्ठानानु., वेदनानु., सतिपट्ठानानु., सुञतानु. बहुमूल्य, बिछावनों/पलङ्गों के प्रयोग से विरति 10. चांदी, के अन्त. द्रष्ट; -टि. विपश्यना ध्यान-पद्धति में विकसित सोने को दान में ग्रहण करने से विरति.
प्रज्ञा द्वारा धर्मों के यथार्थ स्वरूप का तटस्थभाव से प्रत्यवेक्षण अनुपस्सति अनु + दिस का वर्त, प्र. पु., ए. व. ही अनुपश्यना है. [अनुपश्यति], अनुपश्यना करता है, गम्भीर आन्तरिक अनुपस्सयमान त्रि., उप + Vसी के वर्त. कृ. उपस्सयमान अनुचिन्तन करता है, निरीक्षण करता है, आन्तरिकरूप में का निषे., आश्रय ग्रहण न करता हुआ, सङ्गति न करने
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अनुपस्सी -261
अनुपादान वाला - न हि विक्खित्तचित्तो सोतुं सक्कोति, न च सप्पुरिसे जा. अट्ठ. 6.229; अनुपाकारमत्थके कललं कत्वा वीहिं तत्थ अनुपस्सयमानस्स सवनं अत्थीति, दी. नि. अट्ठ. 1.30; म. रोपापेसि, जा. अट्ठ. 6.230; आचरिय, तुम्हे अनुपाकारे ठत्वा नि. अट्ट (मू.प.) 1(1).9; अ. नि. 1.8.
अम्हाकं मनुस्सानं पासादं ओलोकेत्वा ..., जा. अट्ठ. 6.234%; अनुपस्सी त्रि., अनु +दिस से व्यु. [अनुपश्यी], धर्मों की तथा अनुपाकारञ्च द्वारट्टालके अन्तरट्टालके ... कारेसि, यथार्थता को देखने वाला, सम्यक-दृष्टि वाला, मोह से जा. अट्ठ. 6.220. रहित, धर्मों का प्रविचयात्मक ज्ञान रखने वाला, देखने अनुपात पु., अनु + vपत से व्यु. [अनुपात], अनुप्रवृत्तियां, वाला, समझने वाला - न सो मित्तो यो सदा अप्पमत्तो, अनुपतन, पीछे या बाद में आ जाना - न च कोचि भेदासङ्की रन्धमेवानुपस्सी, सु. नि. 258; जा. अट्ठ. 3.165; सहधम्मिको वादानुपातो गारव्ह ठानं आगच्छति, अ. नि. ... रन्धमेवानुपस्सीति यो भेदमेव आसङ्कमानो कतमधुरेन 1(1).188; वादानुपातोति वादस्स अनुपातो, अनुपतनं पवत्तीति उपचारेन सदा अप्पमत्तो विहरति, सु. नि. अट्ठ. 1.271; अत्थो, अ.नि. अट्ठ. 2.140; अनुपातो अनुपच्छा पवत्ति, अ. रन्धमेवानपस्सीति छिदं विवरमेव पस्सन्तो, जा. अट्ठ. 3.166. नि. टी. 2.119; द्रष्ट. वादानुपात एवं वादानुवाद. अनुपहच्च अ., उप + Vहन के पू. का. कृ. का निषे०, बिना अनुपाती त्रि., अनुपात से व्यु. [अनुपाती], बाद में या पीछे हानि पहुंचाये हुए, नष्ट न करके, क्षत विक्षत न करके - आने वाला, अचानक आकर टूट पड़ने वाला, त्रासदायक यंनूनाहं इमस्स नागस्स अनुपहच्च छविञ्च ..., महाव. 293; (केवल स. उ. प. के रूप में ही प्रयोग में प्राप्त)- तं तं अनुपहच्चाति अविनासेत्वा, महाव. अट्ठ. 242; दी. नि. अट्ठ. असच्चं अविभज्जसेविनि, जानामि मूळ्हं विदुरानुपातिनि, 2.361; इमं पुरिसं अनुपहच्च छविञ्च चम्मञ्च ..., दी. नि. जा. अट्ठ. 5.395; द्रष्ट. खणानु., पण्डितानु. के अन्त.. 2.249; दक्खो गोघातको वा ... अनुपहच्च अन्तरं मंसकायं अनुपादं अ, क्रि. वि., अव्ययी. स. [अनुपादं], पैरों के अनुपहच्च बाहिरं चम्मकायं म. नि. 3.327.
समीप, पैरों के बगल में - एवं तिट्ठमानेनापि नातिदूरे अनुपहत त्रि., उपहत का निषे. [अनुपहत], 1. हानि को नाच्चासन्ने नानुपादं नानुसीसं ठातब्ब, विसुद्धि. 1.175; अप्राप्त, अक्षत - तीहि धम्मेहि समन्नागतो पण्डितो वियत्तो विलो. अनुसीसं. सप्पुरिसो अक्खतं अनुपहतं अत्तानं परिहरति, अ. नि. अनुपादा अ., उप + आ + Vदा के पू. का. कृ., उपादाय 1(1).331; कच्चि पनासि, तात कुम्म, अक्खतो अनुपहतो ति, के संक्षिप्तीकृत रूप का निषे., प्रायः संज्ञाओं के पूर्व में अक्खतो, खोम्हि, तात कुम्म, अनुपहतो, स. नि. 1(2).2063; प्रयुक्त, 1. शा. अ. किसी उपादान या सहायक सामग्री के 2. वह, जिस पर प्रहार न किया गया हो, जिसे हटाया न बिना, 2. ला. अ. सांसारिक बन्धनों के प्रति लगाव-रहित गया हो, या नीचे न रखा गया हो - गिम्हे, महाराज, होकर, किसी भी प्रकार की आसक्ति या राग के बिना - अनुपहतं होति रजोजल्लं, वातक्खुभिता रेणू गगनानुगता यथाभूतं विदित्वा अनुपादाविमुत्तो, दी. नि. 1.14; अनुपादा होन्ति, मि. प. 255; - जिव्हापसाद त्रि., ब. स., वह विमुत्तोति चतूहि उपादानेहि अग्गहेत्वा विमुत्तो, दी. नि. जिसकी जीभ कुण्ठित न हो या हकलाती न हो - ततो अट्ठ. 2.91; कथञ्चावुसो, अनुपादा परितस्सना होति, म. कम्मट्ठानं... यथा नाम अनुपहतजिव्हापसादो, ध. प. अट्ठ. नि. 3.275; अनुपादा परितस्सनाति ... 'उपादापरितस्सनञ्च 1.269.
.... अनुपादाअपरितस्सनञ्चाति, मनि. अट्ठ. (उप.प.) अनुपहनन/अनूपघातन नपुं.. [अनुपहनन], किसी को 3.200; अनुपादानो अनुपादाविमुत्तो, ... तस्स अभावा किञ्चि हानि या क्षति न पहुंचाना, अहिंसा - अनूपघातोति धम्म अनुपादियित्वाव विमुत्तो भिक्खवे तथागतोति, दी. नि. अनूपघातनञ्चेव अनूपघातापनञ्च, ध. प. अट्ठ. 2.136-37. अट्ठ. 1.94. अनुपहार पु., उपहार का निषे. [अनुपहार], पास में या अनुपादान' त्रि०, उपादान से व्यु., ब. स. [अनुपादान], समीप में नहीं ले आना, आपूर्ति न करना - अग्गि... तस्स प्रज्वलित करने वाली अथवा जलाने वाली सामग्री से च... अञस्स च अनुपहारा अनाहारो निबुतो ..., म. नि. रहित, ईधन-रहित, भवचक्र में फंसाने वाले रागों, आसक्तियों 2.165; स. नि. 1(2).76..
या लगावों से मुक्त - अग्गि सउपादानो जलति, नो अनुपाकारे अ., क्रि. वि. [अनुप्राकार], किले की दीवालों के अनुपादानो, स. नि. 2(2).365; अनुपादानो विय पदीपो बगल में, दुर्गभित्तियों के बगल में - अनुपाकारे चङ्कमन्ति, अपण्णत्तिकभावं गताति अत्थो, ध. प. अट्ठ, 1.338; अनेजो
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अनुपादान
अनुपादानो, सतो भिक्खु परिब्बजे, सु. नि. 756: निब्बायि अनुपादानो, दीपोव तेलसङ्ख्या, अप. 1.99; 2.110; सउपादानस्स उपपत्तिं पञपेमि नो अनुपादानस्स. स. नि. 2(2).364.
262
अनुपादान' नपुं, उपादान का निषे० तत्पु० स० [ अनुपादान ], उपादानों का अभाव, राग से रहित स्थिति, अनासक्ति, बन्धनभूत संभारों या संसाधनों की अविद्यमानता - अनुपादानाय धम्मो देखितो पारा 20 148; अनुपादानायाति अग्गहणत्थाय पारा. अड. 1.167; अनुपादानाय सन्तिकेति म. नि. 2.81;
177.
अनुपादानिय त्रि उपादानिय का निषे [ अनुपादानीय]. आसक्ति या राग आदि का अविषयीभूत, भवबन्धनों में न बांधे जाने योग्य, उपादानों का अविषय कतमे धम्मा अनुपादानिया? अपरियापन्ना मग्गा च मग्गफलानि च असङ्गता च धातु इमे धम्मा अनुपादानिया, ध. स. 1226;
1556.
अनुपादाय / अनुपादा अ, उप + आ + √दा के पू० का. कृ. उपादाय का निषे [ अनुपादाय] चारों उपादानों से मुक्त होकर, सांसारिक आसक्तियों से विलग होकर अनुपादाय अनिस्सितो कुहिञ्च सु. नि. 365; अनुपादायाति चतुहि उपादानेहि कञ्चि धम्मं अग्गहेत्वा सु. नि. अह. 2.86; ... बहिद्धा चस्स विञ्ञाणं अविक्खित्तं ... अनुपादाय न परितस्सेव्य इतिदु 67: तस्स भिक्खुसहस्सस्स एवं अनुसासियमानानं अनुपादाय आसवेहि चित्तानि विमुच्यिंसु पारा 9; महाव. 19; 21; सुत्त नपुं, स. नि. के मग्गसंयुक्त्त के आठवें सुत्त का शीर्षक, स. नि. 3 ( 1 ) 26. अनुपादिण्ण / अनुपादिन्न त्रि उपादिन्न का निषे. [बी. सं. अनुपात्त], शा. अ. वह जो उपादानों पर आश्रित नहीं है, ला. अ. 28 प्रकार के रूपों में प्रथम 18 रूपों को छोड़कर शेष 10 प्रकार के रूप कर्म नामक उपादान के आश्रय के बिना उत्पन्न होने से अनुपादिन्न है अनुपादिन्नेसु हि जातिभेदे गहिते उपादिन्नेसु सो पाकटतरो होति, सु. नि. अ. 2.167; बहिद्धारूपेति बहिद्धा उपादिन्ने वा अनुपादिन्ने वा. पारा. 150; अनुपादिन्नेति ताळच्छिहादिभेदे पारा. अड्ड. 2.100; कम्मजं उपादिन्नरूपं, इतरं अनुपादिन्नरूपं, अभि. ध. स. 44; कम्मतो जातं अहारसविधं उपादिन्नरूपं इतर अग्गहितग्गहणेनदसविधं अनुपादिन्नरूप अभि. थ. वि. 181 सहायतनं कायविज्ञति वचीविञ्ञत्ति रूपस्स लहुता रूपस्समुदुता रूपस्स कम्मञ्ञता रूपस्स जरता
,
-
अनुपादिसेस
रूपस्स अनिव्यता, यं वा पनज्ञम्पि अत्थि रूपं न कम्मस्स कतत्ता रूपायतनं गन्धायतनं रसायतनं फोट्टब्बायतनं आकासधातु आपोधातु रूपस्स उपचयो रूपरस सन्तति कबळीकारो आहारो इदं तं रूपं अनुपादिण्णं ध. स. 663
कत्रि, अनुपादिण्ण से व्यु., [बौ. सं. अनुपात्तक], कर्म आदि कारणों का आश्रय लिये बिना प्रकट होने वाले
आकाश आदि रूप, वृक्ष, पौधे आदि पर आश्रित न रहने वाले रूपस्कन्ध आदि तं दुविधं होति उपादिन्नक' अनुपादिन्नकन्ति ध. स. अट्ठ. 275 अनुपाविन्नकानं ताव कथेत आरो सु. नि. अड. 2.167; अनुपादिन्नकापि आहारा मिस्सेत्वा कथिता, म० नि० अट्ठ (मू०प०) 1 ( 1 ) . 222; अनुपादिन्नकं मुञ्चित्वा उपादिन्नकं गण्हाति, म.नि.अ. (मू.प.) 1 ( 1 ) 287 - दिण्णानुपादानिय उपादानों पर आश्रित न रहने वाले मार्ग, फल एवं निर्वाण, जो न अन्य उपादानों पर आश्रित हैं और न स्वयं तृष्णा आदि के उपादान है अपरियापन्ना मग्गा च मग्गफलानि च असङ्गता च धातु इमे धम्मा अनुपादिष्णअनुपादानिया, ध. स. 996 किञ्चापि खीणासवस्स खधा परेसं उपादानस्स पच्चया होन्ति, मग्गफलनिब्यानानि पन अग्गहितानि अपरामद्वानि अनुपादिष्णानेव तानि हि यथा दिवस सन्तत्तो अयोगुळो मक्खिकानं अभिनिसीवनरस पच्चयो न होति. एयमेव तेजुस्सदत्ता तण्हामानदिद्विवसेन गहणस्स पच्चया न होति तेन युत्तं इमे धम्मा अनुपादिण्ण अनुपादानियाति ध. स. अड 377 दिष्णुपादानिय त्रि. कामावचर, रूपावचर और अरूपावचर भूमियों के आसवयुक्त कुशल एवं अकुशल धर्म, तथा वेदनास्कन्ध आदि उपादान होने योग्य हैं परन्तु जो क्रियाचित्त हैं, जो धर्म न कुशल है न अकुशल है, न कर्मों के विपाक हैं और कर्म द्वारा उत्पन्न न होने वाला रूप उपादानों पर आश्रित नहीं है, अतः इन धर्मों में कुछ अनुपादिन्न हैं जबकि कुछ उपादान बनने योग्य हैं - सासवा कुसलाकुसला धम्माकामावचरा .... विञ्ञाणक्खन्धो,
न च कम्मविपाका, यञ्च रूपं न कम्मरस कतत्ता इमें धम्मा अनुपादिष्णुपादानिया, ध. स. 995. अनुपादिसेस त्रि उपादिसेस का निषे [बी. सं. अनुपधिशेष ] क. पांच उपादान स्कन्धों से मुक्त या रहित, समस्त उपादानों या लगावों से रहित (निर्वाण ) तेस पनेके समयं वदन्ति अनुपादिसेसे कुसला वदाना सु. नि. 882; यो चस्स समुदयष्यहानेन उपहतायतिकम्मफलस्स चरिमचित्ततोच उन्हें पवत्तिखन्धानं अनुप्पादनतो,
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अनुपापित
263
अनुपायास उप्पन्नानञ्च अन्तरधानतो उपादिसेसाभावो, तं उपादाय ते परगण्हाम, याव सामानुपापय, जा. अट्ठ. 6.105; - पयिं पञआपनीयतो नत्थि एत्थ उपादिसेसोति अनुपादिसेसं विसुद्धि अद्य., उ. पु., ए. व., मैंने प्राप्त करवाया - तमहं उपट्ठहित्वान, 2.138; अयं अनुपादिसेसो पुग्गलो अनुपादिसेसा च आरोग्यमनुपापयिं, चरिया. 403; - पेय्य विधि., प्र. पु., ए. निब्बानधातु, नेत्ति. 90; ख. शल्यक्रिया के विशेष सन्दर्भ व., प्राप्त करवाये, पहुंचाए - तेनेव कम्माभिसन्देन इद्धियानं में - किसी भी प्रकार के दुष्प्रभावी कीटाणुओं से पूरी तरह अभिरुयह पत्थितं निब्बाननगरं पापुणेय्या ति, मि. प. 257. से मुक्त, समस्त बाधाओं से मुक्त - उभतं खो मे सल्लं, अनुपाय' त्रि., उपाय का निषे., ब. स. [अनुपाय], समीप अपनीतो विसदोसो अनुपादिसेसो, म. नि. 3.42.
में नहीं आने वाला, स्वयं को (किसी में) पूरी तरह न लगाने अनुपापित त्रि., अनु + प + आप के प्रेर. का भू. क. कृ., वाला, अनुपगमक, असमर्पक - सो तेसु धम्मेसु अनुपायो प्राप्त कराया गया, पहुंचाया गया, समझाया गया- तेन तेन अनपायो अनिस्सितो .... म. नि. 3.74. सदिसेन कारणेन निरवज्जमनुपापितं जिनसासनं सेट्ठभावेन अनुपाय- पु., उपाय का निषे., तत्पु. स. [अनुपाय], अनुचित परिदीपितं, मि. प. 236.
उपाय, अनुपयुक्त साधन, किसी उद्देश्य को पाने हेतु अपनायी अनुपापुणाति अनु + प + vआप का वर्त, प्र. पु., ए. व. गयी अनुचित प्रक्रिया - अनुपायेनूपगता अग्गिदोसेन अट्टिता, [अनुप्राप्नोति], अभि तक अप्राप्त को प्राप्त करता है, जा सद्धम्मो. 405; अयम्पि अनुपायो ति आह, जा. अट्ट, 6.231; पहुंचता है, भाग्य के अधीन हो जाता है - अननुप्पत्तञ्च अनुपायेन यो अत्थं, इच्छति सो विहअति, जा. अट्ट, 1.248; अनुत्तरं योगक्खेमं अनुपापुणातीति, म. नि. 2.12; अ. नि. अनुपायेन हि आहारेन्तो दवत्थाय ... वा आहारेति, ध. स. 3(2).309; सच्चानुप्पत्ति होति, एतावता सच्चमनुपापुणाति, अट्ट. 421; - यापरिग्गह पु., [अनुपायापरिग्रह], अनुचित म. नि. 2.191; - मि उ. पु., ए. व. - अननुप्पत्तञ्च अनुत्तरं उपायों या साधनों के चयन या स्वीकरण का अभाव - योगक्खेमं नानपापुणामि, म. नि. 1.150; - तु अनु०, प्र. पु.. मुट्ठस्सति उपायापरिच्चागे अनुपायापरिग्गहे च असमत्थो ए. व., पहुंचे, प्राप्त करें - मा च खो त्वं, अय्ये, सेखं होति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).254; - परिवज्जन नपुं., अप्पत्तमानसं लाभसक्कारसिलोको अनुपापुणातूति, स. नि. तत्पु. स. [अनुपायपरिवर्जन], अनुचित उपायों या साधनों 1(2).213; - थ म. पु., ब. व., प्राप्त करो - तुम्हेपि, का परित्याग - असम्पजानो उपायपरिग्गहे अनुपायपरिवज्जने भिक्खवे, योनिसो मनसिकारा योनिसो सम्पप्पधाना अनुत्तरं च सम्मुव्हति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).254; - मनसिकार विमुत्तिं अनुपापुणाथ स. नि. 1(1)124; - णेय्य विधि., प्र. पु., कर्म. स., अपने मन के विचारों के प्रसार अथवा उदय पु., ए. व., प्राप्त करें, जा पहुंचे - सो अपरेन समयेन तं का अनुचित तरीका - अयोनिसोमनसिकारो नाम कन्तारं नित्थरेय्य सोत्थिना, गामन्तं अनुपापुणेय्य खेमं अनुपायमनसिकारो उप्पथमनसिकारो, विभ. अट्ठ. 255. अप्पटिभयं, दी. नि. 1.84; - पुणि अद्य, प्र. पु., ए. व., जा अनुपायास' पु., उपायास का निषे., तत्पु. स. [अनुपायास], पहुंचा, प्राप्त हुआ - तदवसरीति तं पाटलिगाम अवसरि उपायासों या मानसिक व्याकुलता का अभाव, विपत्तियों या अनुपापुणि, उदा. अट्ट, 330; - पुणिं उ. पु., ए. व., पहुंचा बाधाओं का अभाव, शान्त अवस्था, प्रश्रब्धि - ... अपरिदेवो - मजुस्सरानं भिक्खूनं, अग्गत्तमनुपापुणिं, अप. 2.141; - अभि य्यो, अनुपायासो अभि य्यो, पटि. म. 11; - बहुल णिस्सति भवि., प्र. पु., ए. व., प्राप्त करेगा, जा पहुंचेगा त्रि., आपत्तियों से पूरी तरह मुक्त, पूर्णतया शान्त - ... -- सावको खो पन ते सउपादिसेसो अनुपादिसेसं मनुस्सभूतो समानो अक्कोधनो अहोसि अनुपायासबहुलो, निब्बानधातुं अनुपापुणिस्सतीति नेतं ठानं विज्जति, नेत्ति. दी. नि. 3.119. 76; - अनुप्पत्वान पू. का. कृ., जा पहुंचकर, प्राप्त कर अनुपायास त्रि., उपायास का निषे., ब. स. [अनुपायास], - सो हि नून इतो गन्वा, अनुप्पत्वान द्वारक, पे. व. 281; मानसिक पीड़ाओं, व्यथाओं अथवा विपत्तियों से मुक्त, पूर्ण अनुप्पत्वान द्वारकन्ति द्वारवतीनगरं अनुपापुणित्वा, पे. व. रूप से शान्त, उपताप से रहित - अदुक्खो एसो धम्मो अट्ठ. 108.
अनुपघातो अनुपायासो अपरिळाहो, सम्मापटिपदा, म. नि. अनुपापेति अनु + प + आप का प्रेर., वर्त., प्र. पु., ए. व., 3.279; असोका ते विरजा अनुपायासाति वदामी ति, उदा. पहुंचा देता है, प्राप्त कराता है - पय अनु., म. पु., ए. व. 177; असोकं तं, भिक्खवे, अदरं अनुपायासन्ति वदामि, स. [अनुप्रापय], प्राप्त कराओ, पहुंचाओ, समझाओ - अञ्जलिं नि. 1(2).90; - सं क्रि. वि., बिना कष्ट या पीड़ा के, सुख
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अनुपारम्भ
के साथ सुखं विहरति अविघातं अनुपायासं अपरिविाहं स. नि. 1 (2). 135.
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अनुपारम्भ त्रि, उपारम्भ का निषे [ अनुपालम्भ ], द्वेषमयी या परछिद्रान्वेषी प्रवृत्ति से मुक्त, निन्दा या दुर्वचन न कहने वाला, अनिन्दक, अद्वेषी अनासवा अनुपधिकाति निद्दोसा अनुपारम्भा दी. नि. अट्ट. 3.70 - चित्त त्रि. ब. स. [ अनुपालम्भचित्त], उलाहना न देने या परनिन्दा न करने की प्रवृत्ति से युक्त चित्त वाला- अनुपारम्भचित्तो च सद्धम्मसोतुमिच्छति अ. नि. 2 (2) 177; सो अनुपारम्भचितो समानो भब्बो मुट्ठस्सच्चं पहातु ...चेतसो विक्खेप पहातु अ. नि. 3(2).123.
अनुपालक त्रि. [अनुपालक ]. पालन करने वाला, रक्षा करने वाला कम्मजानं अनुपालको हुत्वा पच्चयो होति., म. नि. अट्ठ. ( मू०प०) 1 (1). 218; जनको हेतु अक्खातो, पच्चयो अनुपालको अमि, अव. 153.
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अनुपालन नपुं, अनु + √पाल का कर्तृ. कृ. [अनुपालन ], संरक्षण, संधारण, सततरूप में अनुरक्षण - उस्मं पटिच्च
जीवितिन्द्रियेन उस्माय अनुपालनं म. नि. अड्ड. (मू.प.) 1(2).245; यथावुत्तप्पकारउपकारुपत्थम्भनानुपालनपरिवारमेव हुत्वा... ध. स. अड. 345 विसुद्धि. 2.73: जातित्र्य नामगोत्तञ्च आयुञ्च अनुपालन, दी. वं. 3.2; - लक्खण त्रि.. ब. स. [ अनुपालनलक्षण] पालन करने या संरक्षा करने की प्रकृति वाला, संरक्षण करने के स्वभाव से युक्त - अनुपालनलक्खणे इन्दद्वं कारेतीति इन्द्रियं ध. स. अट्ठ 168 तं पन अत्तना अविनिभुत्तानं धम्माने अनुपालनलक्खणं अभि. अव 21 समत्थ त्रि.. [अनुपालनसमर्थ] पालन या रक्षा करने में सक्षम अनुपालनसमत्थतो धम्मभण्डागारिकत्तसिद्धि, म. नि. अड. ( मू.प.) 1 ( 1 ) .8; - समत्थता स्त्री भाव [ अनुपालनसमर्थता], रक्षा करने की क्षमता धम्मकोसस्स अनुपालनसमत्थताय धम्मभण्डागारि कत्तसिद्धि, उदा. अड. 13 म. नि. अड. (म.प.) 1 ( 1 ) 8. अनुपालना स्त्री, अनुपालन से व्यु, लगातार संरक्षण, सतत संधारण वितीति हि जीवितिन्द्रियसङ्घाताय अनुपालनाय नाम, स. नि. अड. 2.235; अञ्ञथत्तं जरा वुत्ता, ठिती च अनुपालनाति तदे अनुपालित त्रि.. अनु + √पाल का भू. क. कृ. [अनुपालित]. किसी के द्वारा रक्षित, वह जिसका पालन या रक्षा किसी के द्वारा की गयी हो पुत्ता हि मातापितृहि वढिता येव अनुपालिता च, अ. नि. अट्ठ. 2.28.
7
...
264
अनुपिय / अनुपिया
अनुपालेति अनु + √पाल का वर्त, प्र. पु. ए. व. [अनुपालयति], अनुपालन करता है, संरक्षित करके रखता है, बरकरार रखता है, मानता रहता है- याव नं अनुपालेति, ताव सो सुखमेधति, जा. अड्ड. 2.357, 3.16; अनुपालेतीति यो कोचि एवरूपं लभित्वा याव रक्खति जा. अड. 2.357;
धम्मे अनुपालेति उदकं विय उप्पलादीनि अभि. अव. 21 - लय अनु. म. पु. ए. व. [ अनुपालय] अनुपालन करो
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अनुपालय वचसा कम्मुना च, जा. अट्ठ 7.215; लेसिं/ लयि अद्य उ. पु. ए. व. मैंने अनुपालन किया था भाजनं अनुपालेसिं, भिक्खुसहस्स तावदे, अप. 1.229, भाजनं अनुपालय, अप० 1.229; लियमान कर्म० वा., आयुना अनुपालियमानं
वर्त. कृ.. अनुपालित होता हुआ ध. स. अट्ठ. 344.
अनुपासिका स्त्री, उपासिका का निषे. तत्पु, स. [ अनुपासिका ]. वह नारी, जो उपासिका अर्थात् बुद्ध की गृहस्थ अनुयायिनी नहीं है, उपासिका भिन्न नारी - साच अनुपासिका, महाव, 193. अनुपाहन त्रि. ब. स. [ अनुपाहन] बिना जूतों वाला सत्या अनुपाहनो मतीति थेरापि भिक्खू अनुपालना मन्ति महाव. 260 राजपुती गिरिद्वारे, पत्तिका अनुपाहना, जा. अड. 7.323; कथं नु पथं गच्छन्ति, पत्तिका अनुपाहना, जा. अ. 7.370; थेरान भिक्खूनं अनुपाहनानं चङ्गमन्तानं सउपाहनो चङ्कमति, महानि. 166; विलो. सउपाहन. अनुपाहार पु.. देखिए अनुपहार के अन्त.. अनुपिय / अनुपिया नपुं / स्त्री. संभवतः अनूपिय का अप मल्ल जनपद के एक नगर अथवा आम्रवन का नाम, जहां गृहत्याग के उपरान्त तथा राजगृह जाने से पहले सिद्धार्थ गौतम ने प्रथम सप्ताह बिताया था: क. नपुं,, अनुपियं नाम मल्लानं निगमो, चूळव. 316; दी. नि. 3.1; बोधिसत्तोपि पब्बजित्वा तस्मिंयेव पदेसे अनुपियं नाम अम्बधनं अत्थि, तत्थ सत्ताहं पब्बज्जासुखेन वीतिनामेत्वा ... राजगहं पाविसि, जा. अनु. 1.75; ख. स्त्री. एक समयं भगवा अनुपियाय विहरति अम्बवने, उदा. 89; तेन समयेन बुद्धो भगवा अनुपियाय विहरति चूळव. 316 नगर नपुं. अनुपिय नामक मल्ल जनपद में स्थित नगर इदं सत्था अनुपियनगरं निस्साय अनुपियअम्बवने विहरन्तो.... जा. 31. 1.144; अम्बवन नपुं०, मल्ल जनपद के एक अनुपियअम्बवने विहरन्तो सुखविहारि
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आम्रवन का नाम भदियत्थेरं आरम्भ कधेसि जा. अड. 1.144.
ted
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अनुपीळित
265
अनुपुब्बनिरोध अनुपीळित त्रि., अनु + पीळ का भू. क. कृ. [अनुपीड़ित], अनुपुब्बकारणा तस्मिं ठाने परिनिब्बायति. म. नि. अत्यधिक कष्ट में पीड़ित, बहुत अधिक विपत्तिग्रस्त या 2.118. व्यथित - रत्तस्स हि उक्कुटिक पदं भवे, दुट्ठस्स होति अनुपुब्बकिरिया स्त्री., कर्म. स. [अनुपूर्वक्रिया], क्रमशः या सहसानुपीलितं, सु. नि. अट्ठ. 2.236; अ. नि. अट्ठ. 1.322; क्रमसङ्गत तरीके से की जाने वाली क्रिया - इमस्स ... ध. प. अट्ठ. 1.116.
अनुपुब्बसिक्खा अनुपुब्बकिरिया अनुपुब्बपटिपदा ... म. अनुपुच्छति अनु + vपुच्छ का वर्त., प्र. पु.. ए. व. नि. 3.50; 2.155; उदा. 130; एतेसं अज्झेनेपि पन [अनुपृच्छति], प्रश्न करता है, पूछता है, अनुमति लेता है; अनपब्बकिरियाय पञआयतीति दस्सेति. म. नि. अट्ठ. (उप.प.) - सि म. पु., ए. व., तूं पूछता है - एवं मं पहितत्तम्पि, किं । 3.46. जीवमनुपुच्छसि, सु. नि. 434; - च्छामि उ. पु., ए. व., मैं अनुपुब्बचारी त्रि., [अनुपूर्वचारी], नियमित क्रम में भिक्षाटन पूछता हूं- आणं सक्कानपुच्छामि, कथं नेय्यो तथाविधो, स. में विचरण करने वाला, एक घर के बाद दूसरे घर में बारीनि. 1119; आणं सक्कानुपुच्छामीति सक्काति भगवन्तं बारी से भिक्षा हेतु जाने वाला - सपदानचारीति अवोक्कम्मचारी आलपन्तो आह. सु. नि. अट्ठ. 2.293; - च्छमानो वर्त. कृ., अनुपुब्बचारी, सु. नि. अट्ठ. 1.94. पूछ रहा, प्रश्न कर रहा - दिठ्ठञ्च निस्साय अनुपुच्छमानो, अनुपुब्बतनुक त्रि.. [अनुपूर्वतनुक], नीचे से ऊपर की ओर (मागण्डियाति भगवा) समुग्गहीतेसु पमोहमागा, सु. नि. क्रमशः पतला अथवा कृश रहने वाला शिखर - सिखरसीसो 847; -छि अद्य.. उ. पु., ए. व. - किमेवहं तुण्डिलमनुपुच्छि वा उद्धं अनुपुब्बतनुकेन सीसेन समन्नागतो, महाव. अट्ठ. करेय्य संभातरं कालिकायं, जा. अट्ठ. 4.223.
294. अनुपुब्ब त्रि., [अनुपूर्व], क्रमबद्ध, क्रमानुसङ्गत, पूर्वापरक्रम अनुपुब्बता स्त्री.. भाव., अनुपुब्ब से व्यु. [अनुपूर्वता], क. में निबद्ध, अनुक्रमिक - अनुपुब्बा च ते ऊरू, नागनाससमूपमा, अनुकूलता, क्रमसङ्गत पद्धति से की गयी क्रिया, अनुकूल जा. अट्ठ. 5.150; किमानुपुब्बं पुरिसो, किं वतं किं समाचार क्रिया - अनुपुब्बताति अनुकूलकिरिया, वि. व. अट्ठ. 235; थेरगा. 727; ... किमानुपुब्बन्ति अनुपुब्बं अनुक्कमो, अनुपुब्बमेव ख. पूर्वापरक्रम, क्रमसङ्गतता, क्रमबद्ध परम्परा, केवल स. वक्खमानेसु वतसमाचारेसु को अनुक्कमो, थेरगा. अट्ठ. उ. प. के रूप में ही प्राप्त, गणनानु., पदानु. के अन्त. 2.233; क्रि. वि. के रूप में द्रष्ट. अनुपुब्बं, अनुपुब्बतो, द्रष्ट.. अनुपुब्बसो के अन्त..
अनुपुब्बतो/अनुपुब्बं अ., क्रि. वि. [अनुपूर्वतः], क्रमशः, अनुपुब्बं अ. क्रि. वि. [अनुपूर्व], नियमित क्रम में, एक-एक क्रमसङ्गत पद्धति से, क्रमिक प्रक्रिया के अनुरूप - अनुपब्बतो करके, क्रमशः - अनुपुब्बं अनुधम्म ब्याकरोहि मे, सु. नि. मनसिकरोन्तेनापि च नातिसीघतो मनसिकातब्ब, विभ. अट्ठ. 515-16: 605; अनुपुब्बन्ति पहपटिपाटिया अनुधम्मन्ति 216; तत्थ अनुपुब्बतोति इदहि सज्झायकरणतो पट्ठाय अत्थानुरूपं पाळि आरोपेन्तो, सु. नि. अट्ठ. 2.135; तस्स अनुपटिपाटिया मनसिकातब्बं न एकन्तरिकाय, विसुद्धि. ब्रह्मा वियाकासि, अनुपुब्बं यथातथं, म. नि. 1.423; अनुपुब्बं 1.235; झानानि पन चत्तारि, समापज्जानुपुब्बतो, अभि. परिचिता, यथा बुद्धेन देसिता, थेरगा. 548; 647; तथा अव. 137. अनुपुब्बं अनुक्कमेन परिचिता आसेविता भाविता, थेरगा. अनुपुब्बनिन्न त्रि, तत्पु. स. [अनुपूर्वनिम्न]. क्रमशः गहरा अट्ठ. 2.158.
होता हुआ, धीरे-धीरे गहराई को प्राप्त हो रहा - अनुपब्बनिन्नो अनुपुब्बकथा/अनुपुब्बिकथा/आनुपुब्बिकथा स्त्री., 1. अनुपुब्बपोणो अनुपुब्बपब्भारो, न आयतकेनेव पपातो. उदा. क्रमशः विकसित होने वाला कथन, क्रमानुसङ्गत उपदेश 2. 128; अ. नि. 3(1).39; अनुपुब्बनिन्नोतिआदीनि सब्बानि दानकथा, सीलकथा, सग्गकथा तथा मग्गकथा के रूप में अनुपटिपाटिया निन्नभावस्सेव वेवचनानि, उदा. अट्ठ. 244. क्रमशः स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ने वाले बुद्धवचन या अनुपुब्बनिरोध पु., कर्म. स. [अनुपूर्वनिरोध]. (ध्यान-प्रक्रिया बुद्धोपदेश - तस्स आविभावत्थं अयमनुपुब्बिकथा, जा. अट्ठ में चेतना का) क्रमशः प्राप्त होने वाला निरोध या उपशम 1.61; तदत्थदीपनत्थाय अनुपुब्बकथा अयं, म. वं. 22.1. - नव अनुपुब्बनिरोधा, पठमं झानं .... दी. नि. 3.211; अनुपुब्बकारण नपुं., कर्म. स., क्रमशः अथवा बारी बारी अनुपुब्बनिरोधाति अनुपटिपाटिया निरोधा, दी. नि. अट्ठ. से कराये जाने वाले करतब या काम - सो अभिण्हकारणा 3.209; नवयिमे, भिक्खवे, अनुपुब्बनिरोधा, अ. नि.
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अनुपुब्बपटिपदा
266
अनुपुब्बसेट्ठिपुत्त 3(1).218; एकादसमे अनुपुब्बनिरोधाति अनुपटिपाटिनिरोधा, अनुपुब्बविपस्सना स्त्री., कर्म. स. [अनुपूर्वविपश्यना], क्रमशः अ. नि. अट्ठ. 3.274.
विकसित विपश्यना-ज्ञान - तस्सेवं पवत्तानुपुब्बविपस्सनस्सेव अनुपुब्बपटिपदा स्त्री, कर्म. स. [अनुपूर्व-प्रतिपत्], क्रमशः सङ्घारारम्मणगोत्रभुञाणानन्तरं फलसमापत्तिवसेन निरोधे आगे बढ़ने वाली प्रगति, क्रमसङ्गत पद्धति से आगे बढ़ रहा चित्तमप्पेति, उदा. अट्ठ. 28-9; विसुद्धि. 2.340. मार्ग - ब्राह्मणानं दिस्सति अनुपुब्बसिक्खा अनुपुब्बकिरिया अनुपुब्बविहार पु., कर्म. स. [अनुपूर्वविहार], क्रमशः ऊपर अनुपुब्बपटिपदा ... म. नि. 3.50; इमस्मि धम्मविनये की ओर बढ़ रहे समाधि के चरण, ध्यानभावना की क्रमशः अनुपुब्बसिक्खा अनुपुब्बकिरिया अनुपुब्बपटिपदा, उदा. 130; अग्रसर हो रही अवस्थाएं - प्रथम ध्यान, द्वितीय ध्यान, अनुपुब्बपटिपदाय सत्त अनुपस्सना अट्ठारस महाविपस्सना तृतीय ध्यान, चतुर्थ ध्यान, आकाशानन्तायतन विज्ञानायतन, ..., उदा. अट्ठ. 247; इमस्मिं धम्मविनये अनुपुब्बसिक्खा नैवसंज्ञानासंज्ञायतन तथा संज्ञावेदयितृनिरोध - नव अनुपुब्बकिरिया अनुपुब्बपटिपदा, अ. नि. 3(1).41; (प्रायः अनुपुब्बविहारा, दी. नि. 3.211; अ. नि. 3(1).219; अनुपुब्बसिक्खा एवं अनुपुब्बकिरिया के साथ ही प्रयुक्त). अनुपुब्बविहाराति अनुपटिपाटिया समापज्जितब्बविहारा, दी. अनुपुब्बपदवण्णना क. स्त्री., कर्म. स. [अनुपूर्व-पदवर्णना], नि. अट्ठ. 3.209; अ. नि. अट्ठ. 3.275%; - समापत्ति स्त्री., पदों का क्रमसङ्गत पद्धति के सहारे किया गया व्याख्यान, तत्पु. स. [अनुपूर्वविहारसमापत्ति], नीचे से ऊपर की ओर ऐसी व्याख्या, जिसमें एक एक पद के अर्थ का वर्णन क्रमशः बढ़ रही ध्यान की प्रथम ध्यान आदि 9 अवस्थाओं मिलता हो - अयं मातिकाय अनुपुब्बपदवण्णना, ध. स. में प्राप्त मानसिक उपलब्धियां - नवयिमा, भिक्खवे, अट्ठ. 100.
अनुपुब्बविहारसमापत्तियो देसेस्सामि, अ. नि. 3(1).219; ... अनुपुब्बपब्मार पु., [बौ. सं. अनुपूर्वप्राग्भार], एक ढलान या नवानुपुब्बविहारसमापत्तियो अनुलोमप्पटिलोमं समापज्जीति, प्रपात के बाद दूसरी ढलान वाला, एक के बाद क्रमशः आ मि. प. 172; नवानुपुब्बविहारसमापत्तिञाणानि दसबलत्राणानि रही दूसरी ढलानों से युक्त - महासमुदो, भिक्खवे, अनुपुब्बनिन्नो च तथभावे वेदितब्बानि, उदा. अट्ठ. 107. अनुपुब्बपोणो अनुपुब्बपब्भारो, उदा. 128; चूळव. 393; अ. अनु पुब्बविहारि/ अनुपुब्बविहारी त्रि., कर्म. स. नि. 3(1).39.
[अनुपूर्वविहारी], ध्यान की प्रथम ध्यान आदि नौ अवस्थाओं अनुपुब्बपस्सद्धि स्त्री., कर्म. स. [अनुपूर्वप्रश्रब्धि], चार में क्रमशः आगे बढ़ने वाला - अनुपुब्बविहारि तत्थ सो, ध्यानों के दौरान क्रमशः प्राप्त शान्ति, क्रम से उदित उदा. 161; अनुपुब्बविहारि तत्थ सोति एवं तीसुपि ... उपशमभाव - अनुपुब्बपस्सद्धि अनुपुब्बपस्सद्धीति, आवुसो, सङ्घारगते अनुपस्सन्तो अनुक्कमेन ... अनुपुब्बविहारी समानो, वुच्चति ..., अ. नि. 3(1).260..
उदा. अट्ठ. 306. अनुपुब्बपोण त्रि.. ब. स. [अनुपूर्वप्रवण], क्रमशः नीचे की अनुपुब्बसमापत्ति स्त्री., कर्म. स. [अनुपूर्वसमापत्ति, ध्यान
ओर ढालू या ढलानदार हो रहा - महासमुद्दो, भिक्खवे, की नौ अवस्थाओं में अनुभव की जाने वाली क्रमशः प्राप्त अनुपुब्बनिन्नो अनुपुब्बपोणो अनुपुब्बपल्भारो, उदा. 128; चूळव. आध्यात्मिक उपलब्धियां - ... तिण्णं समाधीन 393; अ. नि. 3(1).39; तुल. अनुपुब्बन्नि तथा अनुपुब्बपब्भार पठमज्झानसमापत्तिआदीनञ्च नवन्नं अनपब्बसमापत्तीनं, म. (ऊपर).
नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).342. अनुपुब्बमुञ्चन नपुं., कर्म. [अनुपूर्वमोचन], क्रमशः प्राप्त अनुपुब्बसिक्खा स्त्री., कर्म. स. [अनुपूर्वशिक्षा], क्रमशः छुटकारा, क्रमबद्ध रूप में प्राप्त मुक्ति - एवं सत्तधा ... अथवा व्यवस्थित रूप से दी गयी अथवा प्राप्त की गयी शिक्षा अनुपुब्बतो, ... अनुपुब्बमुञ्चनतो, अप्पनातो, तयो च .... - इमस्स ... अनुपुब्बसिक्खा अनुपब्बकिरिया अनुपब्बपटिपदा आचिक्खितब्ब, विभ. अट्ठ. 216-17; एवं मनसिकरोन्तो यदिदं म. नि. 3.50; उदा. 130; तत्थ अनपब्बसिक्खाय तिस्सो अयमेते धम्मे अनब्बमुञ्चनतो मनसि करोति, ख पा. अट्ट 55. भिक्खा गहिता, उदा. अट्ठ. 246; प्रायः अनुपुब्बकिरिया एवं अनुपुब्बववत्थान नपुं, कर्म. स. [अनुपूर्वव्यवस्थान]. क्रमसङ्गत अनुपुब्बपटिपदा शब्दों के साथ ही प्रयुक्त. ढङ्ग से किया गया व्यवस्थापन, बातों की क्रमबद्ध रूप में अनुपुब्बसेट्टिपुत्त पु., एक व्यापारी के युवा पुत्र का उपनाम प्रस्तुति - अनुपुब्बववत्थाने, कारणञ्च विनिद्दिसे, खु. पा. -- सो एवं अनुपुब्बेन पुञकम्मरस कतत्ता अनुपुब्बसेहिपुत्तो अट्ठ. 4.
नाम जातो, ध. प. अट्ठ. 1.170.
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267
अनुपुब्बसो
अनुपेक्खेति अनुपुब्बसो अ., क्रि. वि. [अनुपूर्वतः], क्रमशः, नियमित अनुपुरोहित पु.. [अनुपुरोहित], सहायक पुरोहित, साधारण क्रम से, व्यवस्थित रूप से, क्रमसङ्गत रूप से - द्वत्तिसानि राजा का पुरोहित, अप्रधान पुरोहित - तत्थेव ते कत्तब्ध च ब्याक्खाता, समत्ता अनुपुब्बसो, सु. नि. 1006; देवानं करिस्सन्ती ति सत्त अनुपुरोहिते ठपेसि, दी. नि. अट्ठ. खन्धमारुळहा, निय्यन्ति अनुपुब्बसो, अप. 2.210; ये वोहं 2.229; उद्दालक उप्पब्बाजेत्वा उपपुरोहितं करोथ .... जा. कित्तयिस्सामि गिराहि अनुपुब्बसो दी. नि. 2.187; अनुपुब्बसोति अट्ठ. 4.271. अनुपटिपाटिया, दी. नि. अट्ठ. 2.249.
अनुपेक्खणता' स्त्री., अनुपेक्खण का भाव. [अनुप्रेक्षणता]. अनुपुब्बाधिगत त्रि.. कर्म. स. [अनुपूर्वाधिगत], क्रमशः उपेक्षा न करने की अवस्था, उपेक्षा न करना - आरम्मणं प्राप्त किया हुआ, क्रमसङ्गत-रूप में उपलब्ध या साक्षात्कृत अनुपेक्खमानो विय तिद्वतीति अनुपेक्खनता, ध. स. अट्ठ. 188. - अनुपुब्बाधिगतेन अरहत्तमग्गेन अविज्जण्डकोसंपदालेत्वा अनुपेक्खणता स्त्री., अनु + पेक्खण का भाव. [अनुप्रेक्षणता], ...., अ. नि. अट्ठ. 3.205.
चित्त की सुदृढ़ चिन्तन या गम्भीर चिन्तन में रहने की अनुपुब्बाभिसञआनिरोध पु. कर्म स. [अनुपूर्वाभिसंज्ञानिरोध]. स्थिति, गम्भीर चिन्तन की अवस्था - कतमो तस्मिं समये क्रमशः प्राप्त संज्ञा का निरोध, ध्यान की अवस्था में अनुभूत विचारो होति? यो तस्मिं ... विचारो अनुविचारो ... एक आध्यात्मिक उपलब्धि - एवं खो, पोट्टपाद, अनुसन्धानता अनुपेक्खनता- अयं .... ध. स. 8; 85; 2843 अनुपुब्बाभिसनिरोध-सम्पजान-समापत्ति होति, दी. नि. 372; विचरणवसेन वा उपेक्खनता अनपेक्खनता, ध. स. 1.164; सम्पजानसञआनिरोधसमापत्तीति सम्पजानन्तस्स अन्ते अट्ठ. 188. सञआ निरोधसमापत्ति .... दी. नि. अट्ठ. 1.278; द्रष्ट. ___ अनुपेक्खति अनु + प+ Vइक्ख का वर्त.. प्र. पु., ए. व. अभिसञआनिरोध.
[अनुप्रेक्षते], सावधानी के साथ देखता है, उचित रूप में अनुपुब्बाभिसमय पु.. कर्म. स. [अनुपूर्वाभिसमय], क्रमशः गहराई के साथ सोचता-विचारता है - चेतसा अनवितक्केति विकसित आन्तरिक ज्ञान, क्रमशः प्राप्त आन्तरिक अनुभूति अनुविचारेति मनसानुपेक्खति, दी. नि. 3.192; अ. नि. या अन्तर्दृष्टि - अनुपुब्बाभिसमयोति, कथा. 180; न वत्तब्बं 2(1).20; 82; - मान वर्त. कृ. [अनुप्रेक्षमाण], गहराई के अनुपुब्बाभिसमयोति, कथा. 185; तेसं लद्धिविवेचनत्थं साथ सोच-विचार कर रहा, सावधानीपूर्वक देख रहा - अनुपुब्बाभिसमयोति पुच्छा सकवादिस्स, पटिआ इतरस्स, पापकेन मनसानुपेक्खमानो नेव हत्थियायी भविस्सति, अ. कथा. अट्ठ. 159; - कथा स्त्री., कथा. के दूसरे वर्ग की 9वीं नि. 2(2).22; - क्खित त्रि., भू. क. कृ. [अनुप्रेक्षित], वह कथा का शीर्षक; कथा. 180-186.
जिस पर सावधानीपूर्वक सोच-विचार किया गया है, अच्छी अनुपुब्बी स्त्री., [आनुपूर्वी], क्रमशः आने वाली, क्रमसङ्गत तरह से विचारित, सुचिन्तित - तथारूपस्स धम्मा बहुस्सुता ढङ्ग से की गई प्रस्तुति, द्रष्ट. आनुपुब्बी के अन्त..
होन्ति, धाता वचसा परिचिता मनसानुपेक्खिता दिडिया अनुपुबूपसन्त त्रि., अनुपुब्ब + उपसन्त का कर्म. स. सप्पटिविद्धा, चूळव. 207; म. नि. 1.277; मनसानुपेक्खिताति [अनुपूर्वोपशान्त], क्रमशः शान्त हो चुका, क्रमशः समाप्त चित्तेन अनुपेक्खिता, म. नि. अट्ठ (मू.प.) 1(2).150. हो चुका, क्रमशः निरुद्ध, क्रमशः ठण्डा पड़ चुका - अनुपेक्खा स्त्री., उपेक्खा का निषे., तत्पु. स. [अनुपेक्षा], अनुपुब्बूपसन्तस्स, यथा न आयते गति, थेरीगा. अट्ठ. उपेक्षा का अभाव, उचित रुचि प्रकट करना, उचित ध्यान 177; उदा. 179; अप. 2.212; अनुपुब्बूपसन्तस्साति - उपेक्खाञआणेन अनुपेक्खाय, अनुलोमेन ... पटिलोमभावस्स, अनुक्कमेन उपसन्तस्स विज्झातस्स निरुद्धस्स, उदा. अट्ठ. .... पहानं, सु. नि. अट्ठ. 1.8.
अनुपेक्खितु पु., अनुपेक्खति से व्यु., कर्तृ. कृ., अनुप्रेक्षण अनुपुब्बेन अ., क्रि. वि. [अनुपूर्वेण], क्रमशः, नियमित रूप या गम्भीर सोच विचार करने वाला, समुचित अनुचिन्तन में, धीरे-धीरे, कालक्रम में - अनुपुब्बेन चारिक चरमानो येन करने वाला - अत्तानुपेक्खीति अत्तनोव कताकतं जाननवसेन कपिलवत्थु तदवसरि महाव. 104; म. नि. 2.250; अनुपुब्बेनाति अत्तानं अनुपेक्खिता, अ. नि. अट्ठ. 3.44. अनुपटिपाटिया, ध. प. अट्ठ. 2.197; सो अनुपुब्बेन वयप्पत्तो अनुपेक्खेति अनु + प + Vइक्ख के प्रेर. का वर्त., प्र. पु., .... जा. अट्ठ. 22; होतीति हि अयं वारो, अनुपुब्बेन ए. व. [अनुप्रेक्षयति], उचित एवं गम्भीर सोच-विचार-हेतु आगतो, अभि. अव. 61.
प्रेरित करता है, अनुप्रेक्षण कराता है - पुग्गलं सञआपति
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अनुपेति
268
अनुप्पत्तिधम्म निज्झापति पेक्खेति अनुपेक्खेति दस्सेति अनुदस्सेति, अनुप्पञत्ति स्त्री., [अनुप्रज्ञप्ति, अतिरिक्त रूप में निर्दिष्ट चूळव. 174; पेक्खति अनुपेक्खतीति यथा सो तं अत्थं विनयनियम, गौण नियम या आज्ञा - अत्थि तत्थ पत्ति, पेक्खति चेव पुनप्पुनञ्च पेक्खति, एवं करोति, चूळव. अट्ठ. अनुपञत्ति, परि. 1; अधिमानवत्थु अनुपअत्तियं वुत्तनयमेव, 36.
पारा. अट्ठ. 2.83; तेसंयेव अनुपजत्ति पञत्ते अनुपञत्तं, अनुपेति अनु + प+vs का वर्त., प्र. पु., ए. व. [अनुप्रैति], अ. नि. अट्ठ. 2.69; - टि.. मूल विनयनियमों पर कुछ किसी में जाकर घुल-मिल जाता है या विलीन हो जाता है, समय बाद में किये गये परिवर्तन या परिवर्धन अनुपचत्ति किसी की ओर अभिमुख हो जाता है - पथवी पथविकायं कहलाते हैं ये अतिरिक्त नियम आपत्तिकार (अपराध से अनुपेति अनुपगच्छति, आपो..., दी. नि. 1.49; म. नि. सम्बद्ध अतिरिक्त नियम बनाने हेतु) आपत्ति उपत्थम्भाकार, 2.192; अनुपेतीति अनुयायति, दी. नि. अट्ठ. 1.137; म. नि. (विद्यमान नियम को दृढ़ करने हेतु) तथा अनापत्तिकार अट्ठ. (म.प.) 2.163.
(विद्यमान नियम में छूट देने हेतु) होते हैं - वार पु.. अनुपेसेय्य अनु + प + Vइस के प्रेर. का विधि., प्र. पु., ए.. अनुप्रज्ञप्ति पर प्रकाश डालने वाले विनय के एक भाग का व. [अनुप्रेषयेत्], पीछे से भिजवा दे, पीछे लगवा दे, शीर्षक या नाम- अनुपञत्तिवारे- अन्तमसोति सब्बन्तिमेन अनुप्रेषण करा दे - ततो राजा ... अनुपेसेय्य अत्तनो परिच्छेदेन, पारा. अट्ठ. 1.206. परित्तकाय सेनाय बलं अनुपदं ददेय्य मि. प. 34. अनुप्पत्त त्रि., अनु + प+ vआप का भू. क. कृ. [अनुप्राप्त], अनुपोसथ पु.. उपोसथ का निषे. [बौ. सं. अनुपोसथ]. क. कर्मवा. के सन्दर्भ में - किसी के द्वारा प्राप्त किया उपोसथ के लिये निर्धारित तिथि से भिन्न दिन, प्रत्येक पक्ष गया, किसी की समझ या पकड़ में आने योग्य - सदत्थो की चतुर्दशी एवं प्रत्येक मास की पूर्णमासी के अतिरिक्त मे अनुप्पत्तो, कतं बुद्धस्स सासनन्ति, थेरगा. 112; स्वायं कोई दूसरा दिन - अनुपोसथे उपोसथो कातब्बो, महाव. सदत्थो मे मया अनुप्पत्तो अधिगतो, थेरगा. अट्ठ. 1.242; 178; अनुपोसथेति चातुद्दसिको च पन्नरसिको चाति इमे द्वे अनुप्पत्तो सच्छिकतो, सयं धम्मो अनीतिहो, थेरगा. 331; ख.
उपोसथे ठपेत्वा अञ्जस्मिं दिवसे, महाव, अट्ठ. 329.. कर्तृ. वा. के सन्दर्भ में - प्राप्त कर चुका, पहुंचा हुआ अनुपोसथिक त्रि., उपोसथिक का निषे०, स. [बौ. सं. - तयि जुण्हम्हि अहं एकेन अत्थेन इधानुप्पत्तो, जा. अट्ठ. अनुपोसथिक], उपोसथ का पालन न करने वाला, उपोसथ 4.87; - धम्मरज्ज त्रि., ब. स. [अनुप्राप्तधर्मराज्य], वह, न करने वाला - ये अनुपोसथिका होन्ति, ते निवारेति ..., जिसने धर्म के राज्य को प्राप्त कर लिया है, सत्य का म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.221.
साम्राज्य प्राप्त कर चुका - एवमेवं ... आनुभावेन अनुपोसथिकं अ., क्रि. वि., अनु + उपोसथिक से व्यु., अनुप्पत्तधम्मरज्जो धम्मराजापि..., अ. नि. अट्ट, 1.110; - प्रत्येक उपोसथदिवस पर, प्रत्येक पखवारे में - अन्वद्धमासन्ति सदत्थ त्रि., ब. स. [अनुप्राप्तसदर्थ]. वह, जिसने अपने अनुपोसथिक, पाचि. 193; 430; तस्मा अनुपोसथिकान्ति परम प्रयोजन अथवा सर्वोच्च लक्ष्य (अर्हत् अवस्था) को पदभाजने वुत्तं, पाचि. अट्ठ. 134.
प्राप्त कर लिया है - ... कतकरणीयो ओहितभारो अनुपोसिय अनु + vपुस के प्रेर. का सं. कृ. [अनुपोष्य], अनुप्पत्तसदत्थो परिक्खीणभवसओजनो सम्मदा विमुत्तो. पीछे या बाद में पालन-पोषण किये जाने योग्य - महाव. 255; अ. नि. 1(1).168; अनुप्पत्तसदत्थोति सदत्थो
सब्बसम्पत्तिबीजं मे रोपितं नानपोसियं, सद्धम्मो. 318. उच्चति अरहत्तं तं अनुप्पत्तो, अ. नि. अट्ठ. 2.123. अनुप्पगे अ., क्रि. वि., प्रातःकाल, सवेरे-सवेरे - ... अनुप्पगेयेव अनुप्पत्ति/अनुपत्ति स्त्री., अनु + प + vआप से व्यु. सन्निपतितानं काकानं ओरवसई, महाव. अट्ठ. 358; [अनुप्राप्ति], अपनी इच्छाओं की पूर्ति, प्राप्ति, उपलब्धि - अनुप्पगेयेवाति पातोयेव, सारत्थ. टी. 3.297.
आको चे हदयस्सानुपत्ति, स. नि. 1(1)55; 63; अनुप्पञत्त त्रि., अनु + प + ञा के प्रेर. का भू. क. कृ. हदयस्सानुपत्तिन्ति अरहत्तं, स. नि. अट्ट, 1.94. [अनुप्रज्ञप्त], बाद में प्रज्ञप्त किया गया, अतिरिक्त तौर पर अनुप्पत्तिधम्म त्रि., ब. स. [अनुत्पत्तिधर्म], अपुनर्भव की अनुमत अथवा नियोजित - पञत्ते अनुपचत्तं, परि. 413; प्रकृति वाला, पुनर्जन्म ग्रहण न करने वाला - सब्बं तं अ. नि. 1(1).119; तेसंयेव अनुपअत्ति पञत्ते अनुपञ्जत्तं, ... बोधिमूलेयेव पहीनं अनुप्पत्तिधम्म, उदा. अट्ठ. 109-1103; अ. नि. अट्ठ. 2.69.
- धम्मता स्त्री., अनुप्पत्तिधम्म का भाव. [अनुत्पत्तिधर्मता],
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अनुप्पदातु
269
अनुप्पन्न पुनः जन्म न होने की अवस्था या स्थिति - अनुप्पत्तिधम्मतं अपि नु तेसं अनुप्पदेसि खादनीयं वा भोजनीयं वा सायनीयं आपज्जन्ति, उदा. अट्ठ. 172; अनुप्पत्तिधम्मतापादनेन वा'ति, स. नि. 1(1).189; - मि वर्त., उ. पु., ए. व. विक्खम्भेसिन्ति अत्थो, थेरीगा. अट्ठ. 37.
[अनुप्रददामि], मैं अनुप्रदान करता हूँ - अप्पेकदा नेसाह, अनुप्पदातु पु., अनु + प + Vदा का कर्तृ. कृ. [अनुप्रदात]. भो गोतम, अनुप्पदेमि खादनीयं वा भोजनीयं वा सायनीयं
शा. अ. उन्मुक्त होकर अतिरिक्त दान देने वाला, ला. अ. वाति, स. नि. 1(1).189; - देन्त त्रि., वर्त. कृ. [अनुप्रददन], प्रोत्साहित करने वाला, प्रेरित करने वाला, उकसाने वाला अनुप्रदान करता हुआ, बदले में दे रहा - अलङ्कारं अनुप्पदेन्तो - सहितानं वा अनुप्पदाता समग्गारामो समग्गरतो..., दी. दारेसु धम्मं चरति नाम, जा. अट्ट, 5.120; - देतु अनु., प्र. नि. 1.4; अनुप्पदाताति सन्धानानुप्पदाता, दी. नि. अट्ठ पु., ए. व. [अनुप्रददातु], अनुप्रदान करे - तेसं भवं राजा 1.69; भिन्नान वा अनुप्पदाता, म. नि. 1.360; भिन्नानं ... बीजभत्तं अनुप्पदेतु, दी. नि. 1.120; - देहि अनु. म. पु.. असंसन्दनाय अनुप्पदाता ..., म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).227. ए. व. [अनुप्रदेहि], तूं अनुप्रदान कर - अम्हाकञ्च कालेन अनुप्पदान/अनुप्पादान नपुं.. अनुप्पदेति से व्यु., कर्तृ. कालं अनुप्पदेहि, अ. नि. 1(1).139; - दज्जु विधि., प्र. पु.. कृ. [अनुप्रदान], क. देना, उपलब्ध कराना, दिलाना, लागू ब. व. [अनुप्रदधुः], अनुप्रदान करें - तमेनं सामिका करना - ... अनुप्पदानं ओसधीनं पटिमोक्खो इति वा इति, रजकस्स अनुपदज्जु, स. नि. 2(1).119; - य्यासि विधि., दी. नि. 1.10; मूलभेसज्जानं अनुप्पादनन्ति इमिना म. पु., ए. व. [अनुप्रदद्याः], तू अनुप्रदान करे - तेसञ्च कायतिकिच्छानं दस्सेति, दी. नि. अट्ठ. 1.86; धनमनुप्पदेय्यासि, दी. नि. 3.44; - दज्जेय्याम विधि., उ. चीवरपिण्डपात से नासनगिलानपच्च यो सज्ज- पु.. ब. व. [अनुप्रदद्याम], हमें अनुप्रदान करना चाहिए - परिक्खारानुप्पदानत्थं पधानं अ. नि. 1(1).65; ... अनुप्पदानत्थं अप्पेव नाम मयम्पि आय स्मन्तान किञ्चिमत्त पधानन्ति एतेसं ... अनुप्पदानत्थाय पधानं नाम दुरभिसम्भवन्ति अनुपदज्जेय्यामा ति, पारा. 385; - दासि अद्य.. प्र. पु., ए. दस्सेति, अ. नि. अट्ठ. 2.4; ख. दान, व्यय - अनुप्पदानेनाति व. [अनुप्रादासीत्], उसने अनुप्रदान किया - महन्तञ्चस्स लजदानेन, जा. अट्ठ. 3.178; सो मातुगामस्स यसं अनुप्पदासि, जा. अट्ठ. 3.302; - दंसु अद्य., प्र. पु.. सयनवत्थालङ्कारादिअनुप्पदानेन बहुपकारो, अ. नि. अट्ठ. 3. ब. व., उन्होंने अनुप्रदान किया- ते पनस्स सालीनं भाग 167; स. उ. प. के रूप में अलङ्कारानुप्पदान, आभिसानु०, अनुप्पदंसु, दी. नि. 3.68; - दस्सति भवि०, प्र. पु., ए. व. इस्सरियानु, उपायनानु., दानानु., पक्खभिक्खानु, पत्तानु.. [अनुप्रदास्यति], अनुप्रदान करेगा - सचे मे याचमानस्स, बलानु आदि के अन्त. द्रष्ट; - रत त्रि., [अनुप्रदानरत], भवं नानुपदस्सति, सु. नि. 989; - दस्साम भवि., उ. पु., दान देने में आनन्द लेने वाला, दान देने के काम में पूरी ब. व. [अनुप्रदास्यामः], हम लोग अनुप्रदान करेंगे - मयं तरह से लगा हुआ - एको पुरिसो सद्धो दानपति पन ते सालीनं भागं अनुप्पदस्सामाति, दी. नि. 3.68; - अनुप्पदानरतो, अ. नि. 2(2).219; अनुप्पदानरतोति पुनप्पुनं दातुं निमि. कृ. [अनुप्रदातुं], अनुप्रदान करने के लिए - दानं ददमानोव रमति, अ. नि. अट्ठ. 3.174.
अम्हाकञ्च कालेन कालं अनुप्पदातुन्ति, अ. नि. 1(1).139; अनुप्पदिन्न त्रि., अनु + प + दा का भू. क. कृ. [अनुप्रदत्त]. - दत्त्वा पू. का. कृ. [अनुप्रदाय], अनुप्रदान करके - दिया हुआ, प्रदान किया हुआ - बलञ्च भिक्खूनमनुप्पदिन्नं. दिगुणं धनमनुप्पदत्वापि सुरं पिवति, सु. नि. अट्ठ. 1.30; - ...., खु. पा. 9; पे. व. 25; बलञ्च भिक्खूनमनुप्पदिन्नन्ति । दातब्ब त्रि., सं. कृ. [अनुप्रदातव्य], अनुप्रदान किये जाने इमिना समुत्तेजेति, खु. पा. अट्ठ. 172; अनुप्पदिन्ना बुद्धेन । योग्य - मूलञ्च अनुप्पदातब्बन्ति, म. नि. 2.395. सब्बेसं बीजसम्पदा, अप. 1.153.
अनुप्पन्न त्रि., उप्पन्न का निषे॰ [अनुत्पन्न], वह, जो उत्पन्न अनुप्पदेति/अनुपदेति अनु + प + दा का वर्तः, प्र. पु., नहीं हुआ है या प्रकट नहीं हुआ है, वह, जिसका उदय नहीं ए. व. [अनुप्रददाति], बदले में या अतिरिक्त रूप में देता हआ है - अनुप्पन्न यसं उप्पादेन्तो अतिजातो, जा. अट्ठ. 6. है, प्रत्यर्पित करता है, वितरण करता है, आपूर्ति करता है 210; भगवा अनुप्पन्नस्स मग्गस्स उप्पादेता, म. नि. 3.56%; - उप्पन्नेसु किच्चकरणीयेसु तद्दिगुणं भोग अनुप्पदेति, दी. म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).275; अनुप्पन्नस्स हि लाभस्स नि. 3.142; यथिच्छितमनुप्पदेति, मि. प. 200; - सि वर्त., उप्पादनं नाम न भारो, जा. अट्ठ. 5.112; - पञत्ति स्त्री., म. पु., ए. व. [अनुप्रददासि], तुम अनुप्रदान करते हो - कर्म. स. [अनुत्पन्नप्रज्ञप्ति], अभी तक उत्पन्न नहीं हुए
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अनुप्पबन्ध
विषय पर प्रज्ञप्त नियम अत्थि तत्थ पञ्ञति, अनुपञ्ञति, अनुष्पन्नपञ्ञति, परि 1: अयहि अनुष्पन्नपञ्ञत्ति नाम अनुप्पन्ने दोसे पञ्ञत्ता, परि. अट्ठ 138; - पुब्ब त्रि., कर्म. स. [ अनुत्पन्नपूर्व] पूर्व काल में अनुत्पन्न, वह जिसकी उत्पत्ति पूर्वकाल में नहीं हुई है- इतो पुब्बे याव सत्तमा राजकुलपरिवट्टा एवरूपं अनुप्यन्नपुबं खु. पा. अड. 130 मोगुप्पत्ति स्त्री. तत्पु, स. [अनुत्पन्नमोगुत्पत्ति], पहले से अप्राप्त भोगसाधनों की प्राप्ति- अदिन्नादाना अनन्तभोगता अनुष्यन्नभोगु व्यत्तिता... खु. पा. अ. 23 - वेवचन नपुं तत्पु, स. [ अनुत्पन्नविवचन] अनुत्पन्न शब्द का पर्याय असञ्जातस्साति इदं अनुष्पन्नवेवचनमेव स. नि. अट्ठ. 1.244.
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अनुप्पबन्ध पु०, अनु + प + √बन्ध से व्यु० क्रि० ना० [ अनुप्रबन्ध], सातत्य, निरन्तरता, लगातारपन, अविच्छिन्न प्रवृत्ति - सुखुमट्ठेन अनुमज्जनसभावद्वेन च घण्टानुरवो विय अनुष्पबन्धो विचारों, ध. स. अड. 160 सत्तस्स उत्पन्न म्मानं अनुप्पबन्धवसेन अविच्छेदाय, म. नि. अट्ठ० (मू०प.) 1 (1) 215; ता स्त्री अनुष्पबन्ध का भाव [अनुप्रबन्धता]. सातत्यपन, निरन्तरता, अविच्छिन्न प्रवृत्ति की अवस्था या स्थिति अनुप्पबन्धता तेस, सन्ततीति पवुच्चति, अभि. अव. 90 पच्चुपद्वान त्रि. ब. स. [ अनुप्रबन्धप्रत्युपस्थान ]. निरन्तरता अथवा अविच्छिन्नता से उदित होने वाला चित्तस्स अनुपबन्धपच्युपद्वानो, ध. स. अड. 160 अभि. अव. 20 भाव पु. तत्पु, स. [अनुप्रबन्धभाव] निरन्तरता की दशा - सुखवोकिण्णत्ता पन अनुपबन्धाभावा च दुज्जानमेतं पुथुज्जनेहीति पारा, अड. 2.55: पाठा, अनुष्पबन्धभावा अनुपबन्धति अनु + पबन्ध का वर्त. प्र. पु. ए. व. [ अनुप्रबध्नाति], लगातार जारी रहता है न्त वर्त. कृ. लगातार जारी रहता हुआ महामेघो अपरापरं अनुष्पबन्धो अभिवरसेय्य मि. प. 135 पाठा. अनुप्पबन्धन्तो धेय्युं विधि. प्र. पु. ब. व., लगातार जारी रहें अन्वास्सर्वयुं अनुबन्धेय्युं अज्झोत्थरेय्यु, ध. स. अ. 420. अनुष्पबन्धनता स्त्री अनुष्पबन्धन का भाव [अनुप्रबन्धता]. निरन्तरता लगातारपन मेघस्स, भन्ते, अनुष्पबन्धतायाति मि. प. 135.
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अनुप्यबन्धना स्त्री. अनुप्पबन्धन से व्यु [अनुप्रबन्धन]. लगातारपन या निरन्तरता ठपना सण्ठपना अनुसंसन्दना अनुष्पबन्धना दहीकम्म कोधस्स पु. प. 124 विभ. 412: अनुष्पबन्धनाति पुरिमेन सद्धिं पच्छिमस्स घटना, विभ. अड्ड.
अनुप्पादन
464; अनुप्पबन्धता तेसं, सन्ततीति पवुच्चति, अभि. अव.
90.
अनुप्पबन्धापेय्युं अनु पबन्ध के प्रेर. का विधि, प्र. पु०, ब० व., लगातार जारी रखने को प्रेरित करें, निरन्तर बनाए रखने को कहें - यदि तत्थ अपरापरं अनुप्पबन्धापेच्यु अभिवस्सापेप्यु. मि. प. 135. अनुप्ययोग पु. [ अनुप्रयोग] पूर्ववर्ती शब्द के ही समान अर्थ में दूसरे शब्द का अतिरिक्त रूप में प्रयोग - ब्यापाराभेदे तु सामञ्ञवचनस्सेव ब्यापकत्ता अनुपयोगो भवति, ओदनं भुञ्ज, यागुम्पिव, धाना खादेत्वेवायमज्झो हरति, मो. व्या. 6.13 पाठा. अनुपयोगो वचन नपुं. कर्म. स. पूर्ववर्ती शब्द के समान अर्थ में प्रयुक्त शब्द तं सरूपतो दस्सेतुं असम्मोहत्थ अनुपयोगवचनं पारा. अड. 2.278. अनुष्पवच्चति देखिए अनुपवेच्चति के अन्त... अनुष्पाद पु. उप्पाद का निषे [ अनुत्पाद]. शा. अ. उत्पत्ति का अभाव, अप्रादुर्भाव, अस्तित्व में न आना, निरोध, ला. अ. निर्वाण यथा च पहीनस्स कामच्छन्दस्स आयतिं अनुष्यादो होति तञ्च पजानाति म. नि. 1.78; निरोधों होतीति अनुष्पादो होति. म. नि. अड. (भू.प.) 1 (2).204; उप्पादो सङ्घारा, अनुप्पादो निब्बानन्ति अभिज्ञय्यं, पटि म. 14 उप्पादो भयं अनुप्पादों खेमन्तिआदि विपक्खपटिपक्खक्सेन उभयं समासेत्वा पटि म. अड्ड.
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अकुसलानं धम्मानं
1.222 दाय च वि. ए. व. अनुष्पादाय छन्द जनेति म. नि. 2.213 दा प. वि. ए. व. [ अनुत्पादात्], उत्पत्ति न होने के कारण, निरोध हों जाने से अनुष्पादा वा तथागतानं अ. नि. 1 ( 1 ) 321: दे सप्त, वि. ए. व. [अनुत्पादे] उत्पत्ति न होने पर खयेञाणं अनुप्पादेञाणं, दी. नि. 3. 171; - धम्म त्रि०, ब० स० [अनुत्पादधर्म] पुनः पुनर्जन्म को ग्रहण न करने वाला - अनभावकतो आयतिं अनुष्यादधम्मो ति पजानाति दी. नि. 3.216 पारा 4 धम्मता स्त्री. भाव. [अनुत्पादधर्मता ]. पुनः पुनर्जन्म ग्रहण न करने की अवस्था या स्थिति सा मग्गस्स भावितत्ता अनुष्पादधम्मत आपज्जनेन खीणा, उदा. अ. 140 निरोध पु तत्पु. स. [ अनुत्पादनिरोध]. पूर्णरूप से पुनर्जन्म की समाप्ति या निरोध असेसं निस्सेसं विरागेन अरियमग्गेन यो अनुप्पादनिरोधो, तं निब्बानन्ति उदा. अट्ठ 174; 40 99.
अनुष्पादन नपुं. उप्पादन का निषे [अनुत्पादन] उत्पन्न न करना, उपेक्षा, उत्पादन का न रह जाना तम्पि
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अनुष्पादनिय
अनुप्पन्नुप्पन्नान अकुसलानं अनुप्पादनपहानवसेन अनुपपन्नुपपन्नान ..... उदा. अट्ठ. 248. अनुष्पादनियत्र उप्पादनिय का निषे [अनुत्पादनीय]. उत्पादन न करने योग्य (निर्वाण का पद) अनुष्पादनीयं महाराज, निब्बानं, तस्मा न निब्बानस्स उप्पादाय हेतु अक्खातोति. मि. प. 251.
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अनुष्पादा अनुपादा का अप अनुपादा के अन्त, द्रष्ट.. अनुष्पादातु अनुप्पदातु के स्थान पर अप अनुप्पदातु के
अन्त. द्रष्ट..
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अनुष्पादान नपुं. द्रष्ट अनुष्पदान के अन्त अनुष्पादित त्रि, उ + पद के प्रेर के भू. क. कृ. का निषे [ अनुत्पादित] उत्पन्न नहीं कराया गया अत्तनो केसादीसु अनुप्यादितरूपावचरझानोति अत्थो ध. स. अड्ड
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235.
अनुप्पादेति द्रष्ट अनुष्पदेति के अन्त
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अनुष्पिय' नपुं. व्य. सं. द्रष्ट, अनुपिय के अन्त अनुष्पिय' त्रि/ क्रि. वि. [अनुप्रिय] इच्छित मनोरम, मनपसन्द, मन को अच्छा लगने वाला अनुप्पियञ्च यो आह, अपायेसु च यो सखा दी. नि. 3.142: अनुष्पियभाणीति अनुप्रियं भणति दी. नि. अनु. 3.119माणी त्रि.. [अनुप्रियभाणी] मनपसन्द बात बोलने वाला, मीठी वाणी बोलने वाला - अनुपियभाणी अमितो मित्तपतिरूपको वेदितब्बो, दी. नि. 3.141; अनुपियभाणीति अनुधियं भणति दी. नि. अ. 3.119 - भाणिता स्त्री. भाव० [ अनुप्रियभाणित्व], मन को लुभाने वाली बात बोलने की प्रकृति या दशा, चाटुकारिता, चापलूसीपन अनुपियभाणिताति पच्चयवसेन पुनप्पुनं पियवचनभणना, महानि, अदु. 340 अनुष्पियभाणिता चाटुकम्यता मुग्गसूप्यता परिभट्यता, विभ. 404; अनुप्रियभाणिताति राच्चानुरूपं वा पुनपुन पियभणनमेव विभ. अट्ठ. 456. अनुप्पिलवन नपुं. उप्पिलवन का निषे [ अनुत्प्लवन], ऊपर की ओर न उछलना, उछलकूद का अभाव, सुख में आनन्दित हो अत्यधिक न इतराना सुखे अनुपिलवद्वेन पण्डितो महानि, अड्ड. 134.
अनुष्पीळ त्रि.. उप्पीळ का निषे. [अनुत्पीड] उत्पीड़न से मुक्त, विपत्तियों या बाधाओं से मुक्त, अकण्टक - खेमट्ठिता जनपदा अकण्टका अनुप्पीला दी. नि. 1.120: सुखी अनुष्पील पसास मेदिनिं... जा. अट्ठ. 3.392.
अनुबन्धति
अनुकरण नपुं., अनु + √फर से व्यु.. कर्तृ. कृ. [अनुस्फुरण]. चारों ओर फैली हुई चमक या प्रकाश, अत्यधिक फैली हुई दमक अथवा आग की चिनगारियों का प्रकाश अनुकरणडेन महा अनुभावो अस्साति महानुभावो अ. नि. अड. 3.108
समन्ता सतयोजनानुफरणच्चिवेगा. मि. प. 149. अनुकरति अनु + √फर का वर्त. प्र. पु. ए. व. [ अनुस्फुरति ]). फैलता है, प्रसृत होता है, चारों ओर व्याप्त हो जाता है, सभी ओर फैल जाता है तिलफलमत्तोपि आहारो जिव्हाग्गे ठपितो सब्बकायं अनुकरति, दी. नि. अट्ठ 2.36 - रि अद्य., प्र. पु. ए. व. चारों ओर भर गयी पूवखण्डं मुखे तपितमत्तमेव सत्तरसहरणीसहस्सानि अनुफरि ध. प. अड्ड. 1.78. अनुफुसायति अनुफुस के ना. था. का वर्त, प्र. पु. ए. व. चारों ओर फैला सा देता है, अतिरिक्त रूप में विखेर देता है यस्मा च वरसती देवो, हिमञ्चानुफुसायति जा. अट्ठ.
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5.231.
अनुबद्ध / अनुबन्ध' त्रि, अनु + √बन्ध का भू० क० कृ० [ अनुबद्ध], शा. अ. पीछे की ओर से बांधा हुआ, ला. अ. क. पीछे अथवा आगे विद्यमान साथ में जुड़ा हुआ या संलग्न अनुबन्धे जरामरणे, तस्स घाताय घटिततब्ब थेरी 495; देवलोके मनुस्से वा अनुबन्धा इमे गुणा अप. 1. 339; अनुबन्धो होति ओतारापेक्खो ओतारं अलभमानो. स. नि. 1 ( 1 ) 144 म. नि. 3.334; मनुस्सा उच्चासदा पण्डोलभारद्वाजं पिडितोपिडितो अनुबन्धा, चूळव. 229 स. नि. 2 ( 2 ) . 176; तथा खो पनरस चारों च विहारो च अनुबुद्धो होति., स. नि. 2 ( 2 ). 188; पाठा. अनुबुद्धो ; ला. अ. ख. अनुसृत, पीछा किया जा रहा जनपदमनुस्सेहि अनुबद्धा पलायमाना अरज्ञ पविसित्वा, उदा. अट्ठ. 145; पाठा. अनुबद्धा.
लगातारपन
अनुबन्ध' पु० [ अनुबन्ध] क. अनुप्रबन्ध निरन्तरता, पपञ्चौ नाम वुच्चति अनुबन्धो, नेत्ति, 33; ख. केवल व्याकरण के विशेष सन्दर्भ में - प्रत्ययों में प्रतीकात्मक रूप से जुड़े हुए अक्षर, जिनका वास्तविक प्रयोग में लोप हो जाता है - अनुबन्धो तु पकत्तानिवत्ते नस्सनक्खरे, अभि. प. 980 अनुबन्धो, मो. व्या. 1.18; च-ज इच्चेतेसं क. व्या. 625.
होन्ति णानुबन्धे पच्चये परे,
अनुबन्धति अनु + √बन्ध [ अनुबध्नाति] किसी के
का वर्त. प्र. पु. ए. व. कदमों के पीछे लग जाता है, उत्प्रेरित करता है, पीछे लग जाता है, मानसिक तौर पर
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ate
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अनुबन्धन
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अनुबुज्झन
किसी के साथ बंध जाता है - अयं मं अगणेत्वा किन्नरि अनुबन्धति, जा. अट्ट, 2.192; ... कायिकम्पि चेतसिकम्पि दुक्खमनुबन्धतीति, ध. प. अट्ट, 1.15; - न्ति वर्त., प्र. पु., ए. व. [अनुबध्नन्ति], - भिक्खुनियो वुट्ठापितं पवत्तिनि वे वस्सानि नानु बन्धन्ति, पाचि. 447; अतिविय जेगुच्छबीभच्छदस्सना ते अनुबन्धन्ति, पे. व. अट्ठ. 48; - न्तो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व., पीछे लगा हुआ, साथ में लगा हुआ - तंआणमनुबन्धन्तो, जायते तदनन्तरं अभि. अव. 164; एळारं अनुबन्धन्तो, दक्खिणद्वारमागमि. म. वं. 25.68; - मानं वर्त. कृ., आत्मने. द्वि. वि., ए. व. - अन्वदेवाति तं अनुबन्धमानमेव, अ. नि. अट्ठ. 3.331; - धेय्य विधि०, प्र. पु.. ए. व. - या पन भिक्खुनी वुट्ठापितं पवत्तिनि द्वे वस्सानि नानुबन्धेय्य, पाचित्तियान्ति, पाचि. 4473; -धेय्यं विधि., उ. पु.. ए. व. - यंनूनाहं इमं भिक्खू पिडितो पिट्टितो अनुबन्धेय्यं महाव. 45; - न्धि' अद्य, प्र. पु., ए. व. - अथ खो उत्तरो माणवो सत्तमासानि भगवन्तं अनुबन्धि छायाव अनपायिनी, म. नि. 2.343; दारकेहि वनं गन्त्वा अनुबन्धि ससे बहू म. वं. 23.65; - न्धि अद्य.. म. पु., ए. व. - तत्थ अनुसरीति अनुबन्धि, जा. अट्ठ. 4.242; - न्धिसु अद्य, प्र. पु., ब. व. - ते पेसिता राजदूता, पिडितो अनुबन्धिसु. सु. नि. 414; - न्धिस्सति भवि., प्र. पु., ए. व. - इतो वा एत्तो वा पलायन्ते तुम्हे अनुबन्धिस्सतीति.... पे. व. अट्ठ. 92; -न्धिस्ससि म. पु., ए. व. - सचे मं त्वं अय्ये, वे वस्सानि अनुबन्धिस्ससि. ...... पाचि. 461; -धिस्सं उ. पु., ब. व. - सामिकं अनुबन्धिस्सं. सदा कासायवासिनी, जा. अट्ठ. 7.265; - न्धिस्साम उपरिवत् - आवुसो आनन्द, सत्था एककोव गतो, मयं अनुबन्धिस्सामा ति, उदा. अट्ठ. 202; - धितुं निमि. कृ. - न खो, आनन्द, अरहति सावको सत्थारं अनुबन्धितुं, म. नि. 3.157; - न्धित्वा पू. का. कृ. - सचाहं इध वसिरसामि, जातका में अनुबन्धित्वा पक्कोसिस्सन्तीति, ध. प. अट्ठ. 1.354; - न्धितब्ब त्रि., सं. कृ. - सो पुग्गलो अनापुच्छा पक्कमितब्बं, नानुबन्धितब्बो, म. नि. 1.152. अनुबन्धन नपुं.. [अनुबन्धन], लगाव, आसक्ति, प्रगाढ़ सम्बन्ध, प्रवृत्ति, मेल-जोल - महाजनेन अनुबन्धनदुक्खञ्चेव वनपरियोगाहनदुक्खञ्चत्र ..., जा. अट्ठ. 7.288; अत्थि च मे इदं सुत्तकं पट्टितो पट्टितो अनुबन्धान्ति, स. नि. 1(2), 206; स. उ. प. के रूप में गन्धानुबन्धन के अन्त. द्रष्ट, - क त्रि., लगावयुक्त, आसक्त, मेलजोल करने वाला -
अहो अम्हाकं अय्यो ति एवं लपनके अनुबन्धनके सस्नेहे करोति, पारा. अट्ठ. 2.69. अनुबन्धना स्त्री., क्रमबद्ध क्रम में उपन्यसन, सिलसिलेदार ढङ्ग से रखा जाना - गणना अनुबन्धना, फुसना ठपना सल्लक्खणा, पारा. अट्ठ. 2.21; विसुद्धि. 1.266;
अनुबन्धनाति अनुवहना, विसुद्धि. 1.266. अनुबल नपुं.. [अनुबल], अतिरिक्त शक्ति, सहायक बल -
ममानुबलं भविस्ससि, मि. प. 130. अनुबलप्पत्त त्रि., [अनुबलप्राप्त], वह, जिसे सेना की नई टुकड़ी का बल प्राप्त हो गया है - पच्छा अनुबलप्पत्तो दप्पुल्लो मलयं गतो, चू. वं. 48.98. अनुबलप्पदान नपुं.. तत्पु. स. [अनुबलप्रदान], पीछे से बल को दे देना, नैतिक या आत्मसंयम के बल का प्रदान - अनुवादो अनुवदना अनुल्लपना अनुभणना अनुसम्पवङ्कता
अब्भुस्सहनता अनुबलप्पदानं, चूळव. 196. अनुबलप्पदायक त्रि., [अनुबलप्रदायक], अनुबल या अतिरिक्त शक्ति को प्रदान करने वाला - ओसधानं वा अनुबलप्पदायिकाति कत्वा ओसधी ति .... पे. व. अट्ट. 60. अनुबुज्झति अनु + Vबुध का वर्तः, प्र. पु., ए. व. [अनुबोधति/अनुबोधते], जागता है, जानता है, समझता है, सचेत होता है, बाद में स्मरण करता है. संबोधि प्राप्त करता है - यो च उप्पतितं अत्थं न खिप्पमनुबुज्झति, जा. अट्ठ. 3.114, 234; 388; थेरी. अट्ठ. 117; यो पुब्बे कतकल्याणो. कतत्थो मनुबुज्झति, जा. अट्ठ. 3.342; तत्थ अन्वेतीति अन्वयो, जानाति, अनुबुज्झतीति अत्थो. म. नि. अट्ट. (मू.प.) 1(1).338; - न्ति वर्त, प्र. पु.. ब. व., समझते है, स्मरण करते है - अनुबुज्झन्तीति- बोज्झङ्गा, पटि. म. 292; - न्तु अनु., प्र. पु.. ए. व. [अनुबोधन्तु], जानें, समझें, प्रत्यक्ष करें - तत्थ अनुमअन्तूति अनुबुज्झन्तु, साधुकं सुत्वा पच्चक्खं करोन्तूति अत्थो, जा. अट्ठ. 5.318; - ज्झि अद्य, प्र. पु., ए. व., उसने जाना, बूझा, प्रत्यक्ष किया - सब्बं तं बोधिञाणेन बुज्झि अनुबुज्झि ..., महानि. 343; - ज्झिं अद्य०, उ. पु., ए. व., मैंने जाना या प्रत्यक्ष किया - सुखमनुबोधिन्ति एवं किलेससेनं जिनित्वा अहं एककोव झायन्तो सुखं अनुबुझिं सच्छिअकासिं, अ. नि. अट्ठ. 3.299; - बोधि अद्य., उ. पु.. ए. व., मैंने साक्षात्कार किया, बोधि ज्ञान में जाना - एकोहं झायं सुखमनुबोधि, अ. नि. 3(2).40. अनुबुज्झन नपुं.. अनु + Vबुध से व्यु., क्रि. ना. [अनुबोधन], ज्ञान, समझ, अन्तर्दृष्टि, अनुस्मरण, बोध -
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अनुबुद्ध
273
अनुब्रूहित एकत्ते अनुबुज्झनट्ठो अभिञ्जय्यो, पटि. म. 17; एकत्ते अनुबोधेति अनु + Vबुध के प्रेर. का वर्त, प्र. पु., ए. व. अनुबुज्झनटुं बुज्झन्तीति बोज्झङ्गा, पटि. म. 297.
[अनुबोधयति], - अनुबोधेन्ति प्र. पु., ब. व. अनुबुद्ध' त्रि., अनु + Vबुध का भू. क. कृ. [अनुबुद्ध], क. [अनुबोधयन्ति], अनुबोध कराते हैं, ज्ञान कराते हैं - जान लिया गया, समझा हुआ - अनुबुद्धा इमे धम्मा, अनुबोधेन्तीति- बोज्झङ्गा, पटि. म. 292. गोतमेन यसस्सिना, दी. नि. 293; सचे मग्गं अनुबुद्ध, खेमं अनुब्बजति/अनुवजति अनु + Vवज का वर्त, प्र. पु., ए. अमतगामिनं, स. नि. 1(1).145; सुणन्तु धम्म विमलेनानुबुद्धं व. [अनुव्रजति], साथ-साथ या सहारे से चलता है, अनुगमन स. नि. 1(1).163; म. नि. 1.227; विमलेनानुबुद्धन्ति इमे करता है; - जामि वर्त., उ. पु., ए. व. [अनुव्रजामि]. सत्ता रागादिमलानं ... सम्मासम्बुद्धेन अनुबुद्ध चलता हूँ, अनुगमन करता हूँ - एवम्पहं कामपङ्के व्यसनो, चतुसच्चधम्म सुणन्तु ताव भगवाति याचति, स. नि. अट्ठ. न भिक्खुनो मग्गमनुब्बजामि, जा. अट्ठ. 4.357; मग्गन्ति 1.175; म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).81; ख. वह, जिसके द्वारा तुम्हाकं ओवादानुसासनीमग्गं नानुब्बजामि पब्बजितुं न जान लिया गया है या जिसे अनुबोध प्राप्त हो चुका है - सक्कोमि, जा. अट्ठ. 4.358; - जिस्साम भवि., उ. पु.. सचे त्वं एवं अनुबुद्धो, मा सावके उपनेसि, ... सावकानं ब. व. [अनुव्रजिष्याम], हम अनुसरण करेंगे, चलेंगे - धम्म देसेसि, म. नि. 1.414; ... अनुबुद्धोति सचे त्वं एवं ते तं अनुवत्तिस्सामाति ते मयम्पि तुम्हेयेव अनुवत्तिस्साम, अत्तनाव चत्तारि सच्चानि अनुबुद्धो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) अनुपब्बजिस्सामाति अत्थो, “अनुवजिस्सामा तिपि पाठो, 1(2).308; अनुविदितो ति अनुबुद्धो वुच्चति, सु. नि. अट्ठ. तस्स अनुगच्छिस्सामाति अत्थो, दी. नि. अट्ठ. 2.234%; 2.140.
- जे विधि., प्र. पु., ए. व. [अनुव्रजेत्], अनुसरण करे, अनुबुद्ध' पु., [अनुबुद्ध], बुद्ध के अधीन रहने वाला भिक्षु चले - साहं कथं नानुवजे पजानन्ति, जा. अट्ठ. 4.439. शिष्य, वह, जिसने बुद्ध के ज्ञान-प्राप्ति के उपरान्त ज्ञान अनुब्बत त्रि., [अनुव्रत], निष्ठावान्, श्रद्धालु - ता स्त्री., पाया है, बुद्ध का ज्ञानी शिष्य - अनुबुद्धेन धम्मसेनापतिना निष्ठावती या साध्वी नारी, अनुकूल रहने वाली भार्या - सद्धि मन्तेतीति, जा. अट्ठ. 1.390; निब्बानं परमं वदन्ति यस्स भरिया तुल्यवया समग्गा, अनुब्बता धम्मकामा पजाता, ... पच्चेकबुद्धा च अनुबुद्धा चाति, इमे तयो बुद्धा निब्बानं जा. अट्ठ. 4.68; अनुब्बताति अनुवत्तिता, जा. अट्ठ. 4.70; तं ...., ध. प. अट्ठ. 2.136; अनुबुद्धपच्चेकबुद्धसुतबुद्धख्येसु वा चाहं नातिमामि, राम सीतावनुब्बता, जा. अट्ठ. 7.331. बुद्धेसु सेट्ठोति बुद्धसेट्ठो, खु. पा. अट्ठ. 143; स. उ. प. के अनुब्बिग्ग त्रि., उविग्ग का निषे., तत्पु. स. [अनुद्विग्न]. रूप में अननु, बुद्धानु, सानु के अन्त. द्रष्ट...
वह, जिसका मन उद्विग्न या बेचैन न हो, शान्त मन अनुबुद्धि स्त्री., [अनुबुद्धि], अनुमान, निष्कर्ष, तर्क- वाला, व्याकुलता-रहित - अरगतोपि... अभीतो अनुब्बिग्गो धम्मन्वयोति पच्चक्खञाणसङ्घातस्स धम्मस्स अनुनयो अनुमानं. अनुस्सकी ... मिगभूतेन चेतसा विहरामीति चूळव. 320; उदा. 90; अनुबुद्धीति अत्थो, म. नि. अट्ठ (म.प.) 2.251; अन्वयाति अच्छम्भितो अनुबिग्गो अतिरोचति सदेवकेति, मि. प. 308. अनुबुद्धियो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).280.
अनुब्बिलावितत्त/अनुप्पिलावितत्त नपुं.. उब्बिलावितत्त अनुबोध पु., [अनुबोध], ज्ञान, स्पष्ट अन्तर्दृष्टि, केवल स. का निषे. [बौ. सं. अनौदविल्यत्व], चित्त में दर्प या अहंभाव उ. प. के रूप में ही प्रयोग में प्राप्त, अननु. (अज्ञान), मग्गानु. न रहने की अवस्था, आनन्द भरी उत्तेजना के न रहने की (मार्ग का ज्ञान), सच्चानु. (सत्य का ज्ञान) के अन्त. द्रष्ट.. दशा - महन्ते इस्सरिये ... अनुप्पिलावितत्तं ततियं साध. अनुबोधन नपुं.. [अनुबोधन], ज्ञान कराना, जागरूक करना, जा. अट्ठ. 3.411. प्रत्यभिज्ञान की ओर ले जाना - एकत्ते अनुबोधनट्ठो अभिजेय्यो अनुबूहन नपुं.. [अनुबृहण], वृद्धि, सुदृढीकरण, पुष्टि - पटि. म. 17; अनुबोधनडेन बोज्झङ्गा, पटि. म. 292. .... सम्मापटिपत्तिया अनुबूहनं विसुद्धि. 1.61; 78; अपिस्सूति अनुबोधि स्त्री., [अनुबोधि], बोधिज्ञान, धर्मों के विषय में अनुबूहनत्थे निपातो, दी. नि. अट्ठ. 2.50; म. नि. अट्ठ. आन्तरिक ज्ञान; - पक्खिय त्रि., ब. स. [अनुबोधिपक्षीय], (मू.प.) 1(2).78. बोधिपक्षीय धर्म, बोधिज्ञान के अङ्ग - एकत्ते अनुबोधिपक्खियट्ठो अनुब्रूहित अनु + Vब्रूह का भू. क. कृ. [अनुवृहित], बढ़ा अभिज्ञय्यो, पटि. म. 17; अनबोधिपक्खियद्वेन बोज्झङ्गा, हुआ, सुदृढ़ीकृत, उगा हुआ, केवल स. उ. प. में ही प्रयुक्त पटि. म. 292.
द्रष्ट. उपेक्खानुब्रूहित के अन्त..
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अनुब्रूहेति
274
अनुभवति/अनुभोति अनुब्रूहेति अनु + Vब्रूह के प्रेर. के क्रि. रू. [अनुब्रहयति, जा. अट्ठ. 3.367; - न्ति वर्त., प्र. पु., ब. व., सक्षम होते अनुब्रह्मति, अनुबर्हयति], धीरे-धीरे वृद्धि को प्राप्त कराता है, हैं, योग्य होते हैं - देवा नानुभवन्ति दस्सनाया ति, उदा. 91; स्वयं को किसी काम में पूरी तरह लगा देता है, आचरण नानुभवन्ति दस्सनायाति ... दटुं नानुभवन्ति न अभिसम्भुणन्ति करता है; - हयं वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व., क्रमशः न सक्कोन्ति, उदा. अट्ठ. 132; कलम्पि ते नानुभवन्ति बढ़ता हुआ - सानुं पटिगमिस्सामि, विवेकमनुब्रूहयान्ति, सोळसिं, अ. नि. 3(1).2; - भवं वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. थेरगा. 23; 27; जा. अट्ठ. 1.277; विवेकमनुब्रूहयन्ति । व. [अनुभवन्], अनुभव करता हुआ - एवं परिभवं अभिभवं पटिपस्सद्धिविवेकं फलसमापत्तिकायविवेकञ्च परिग्रहयन्तो, अनुभवं पभवति पहोति .... सद्द. 1.72; - मानो वर्त. कृ., तस्स वा परिवहनहेतु गमिस्सामीति, थेरगा. अट्ट, 1.83; जा. पु., प्र. वि., ए. व., आत्मने, अनुभव करता हुआ - एवं अट्ठ. 1.278; - यमानो वर्त. कृ., आत्मने, पु.. प्र. पु., ए. सत्था... पुञ्ज अनुभवमानोव आगमासि,ध. प. अट्ठ. 1.355; व., आचरण करता हुआ, क्रमशः बढ़ाता हुआ - सत्थु - वेय्य विधि., प्र. पु., ए. व., अनुभव करे - राजा सावको तस्स सत्थु विवेकमनुब्रूहयमानो विवित्तं सेनासनं ततोनिदानं किञ्चि सुखं अनुभवेय्य, मि. प. 258; - वि भजति, म. नि. 3.158; - हि अनु., म. पु., ए. व., क्रमशः । अद्य, प्र. पु.. ए. व. [अन्वभूत], अनुभव किया - राजकुमारोपि बढ़ाओं, अभ्यास करो - तमेव अनुबूहेहि, मा चित्तस्स वसं तस्मिं गते पितरं मारापेत्वा महन्तं यस अनुभवि, जा. अट्ठ. गमि, थेरीगा. 163; - हये' विधि., प्र. पु.. ए. व. [अनुब्रहयेत]. 5.255; - विं अद्य., उ. पु., ए. व. [अन्वभूवम्], मैंने अनुभव बढ़ाए, अभ्यास करे - सक्कारं नाभिनन्देय्य, विवेकमन्ब्रहये, किया - चक्कवत्ती महारज्जं, बहुसोनुभविं अहं, अप. 2.155; ध. प. 75; - हये विधि., म. पु., ए. व. [अनुब्रहयेः], तुम्हें - विंसु अद्य.. प्र. पु., ब. व., [अन्वभूवन्], अनुभव किये - बढ़ाना चाहिए, अभ्यास करना चाहिए - येन अत्थेन आगच्छि, दिट्ठधम्मिकं भोगञ्च यसञ्च अनुभविंसूति, मि. प. 269; - तमेवमनुबूहये ति, स. नि. 1(1).207; - हयिं अद्य., उ. पु., वित्वा पू. का. कृ. [अनुभूय], ताहि सद्धि दिब्बसम्पत्ति ए. व., मैंने अभ्यास किया, वृद्धि को प्राप्त कराया - अनुभवित्वा .... जा. अठ्ठ. 4.3; ख. - भोति अनु + (भू का तओवाधिपतिं कत्वा, संवेगमनबहथि, चरिया. 394; - वर्त, प्र. पु., ए. व., उपरिवत् -- कल्यानकम्मकारी कल्याणं हेस्सामि भवि., उ. पु., ए. व., मैं वृद्धि को प्राप्त कराऊंगा, फलमनुभोति, पापकारी च पापकमेव हीनं लामकं अनिट्ठफलं अभ्यास करूंगा -- पब्बजित्वा विवेकमनुब्रूहेस्सामि, जा. अट्ठ. अनुभोति, जा. अट्ट. 2.169; भयेन अरओ महादुक्खं अनुभोति, 3.27; - हेस्साम भवि., उ. पु.. ब. व., हम वृद्धि को प्राप्त जा. अट्ठ. 2.211; - त्वा पू. का. कृ., अनुभव करके - कराएंगे - इमं अन्तोवस्सं सुआगारं अनुबूहेस्सामा ति, जा. देवलोके मनुस्से च, अनुभोत्वा उभो यसे, अप. 2.106; - मि अट्ठ. 3.164; - हेतुं निमि. कृ., वृद्धि प्राप्त कराने हेतु - वर्त, उ. पु., ए. व.. मैं अनुभव करता हूँ - अनुभोमि इदानि मया विवेकमनुबूहेतुं वट्टति, जा. अट्ठ. 1.12. विमानस्मिं, तञ्च दानि परित्तक, पे. व. 68, (पृ.) 98; अनुभणना स्त्री., बाद में बोलकर की गई पुष्टि, वाणी द्वारा अनुभोमि इदं रज्जं, फीतं धरणिमुत्तमान्ति, जा. अट्ठ. 3.364;
अनुमोदन या समर्थन - यो तत्थ अनुवादो... अनुभणना -न्ति वर्त., प्र. पु.. ब. व. [अनुभवन्ति], अनुभव करते हैं .... अनुबलप्पदानं - इदं वुच्चति अनुवादाधिकरणं चूळव. - उभोपि व्यसनानि अनुभोन्ति, थेरीगा. 217; - म वर्त, उ. 196.
पु., ब. व., हम अनुभव करते हैं - मयं पुत्तदारं पहाय अनुभव पु.. [अनुभव], अनुभव - अनुव्हवो ति, अनुभवनं एतस्सत्थाय दुभोजनदुक्खसेय्यादीनि अनुभोम, उदा. अट्ठ. अनुभवो, किन्तं परिभुञ्जनं, सद्द. 1.69.
269; - न्तो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. [अनुभवन्], अनुभवति/अनुमोति क. अनु + vभू का वर्त, प्र. पु., ए. अनुभव करता हुआ - सम्पराये च अपायदुक्खं अनुभोन्तो सो व. [अनुभवति], प्राप्त करता है, सक्षम वा समर्थ होता है, पापो पापानियेव पस्सति, ध. प. अट्ठ. 2.9; - हि अनु., म. सुख या दुख का अनुभव करता है - बीजानुरूपं पु., ए. व., तुम अनुभव करो - इमाय मणिपूजाय, अनुभोहि वीजानुच्छविकमेव फलं हरति गण्हाति अनुभवति, जा. अठ्ठ. महायसं अप. 2.47; - सि अद्य., प्र. पु., ए. व., उसने 2.169; यं सो पुरिसो बलीबद्दे दुक्खापेत्वा एवरूपं सुखं अनुभव किया था - इति सो ... महासम्पत्तिं अनुभोसि, ध. अनुभवति, मि. प. 257; - वामि वर्तः, उ. पु., ए. व., - प. अट्ठ. 1.100; - सिं अद्य., उ. पु., ए. व., मैंने अनुभव इदानि तव पादे परिचरमाना एवरूपं सम्पत्तिं अनुभवामि, किया - सम्पत्तिमनुभोसिं, अप. 2.125; पाठा. अनुभोमहं; -
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अनुभवन
275
अनुमग्गं स्सति भवि०, प्र. पु., ए. व., अनुभव करेगा - कत्तिकं अनुभावो, अनुभावो एव आनुभावो, पभावो, महन्तो, आनुभावो नानुभोस्सतीति, जा. अट्ठ. 1.477; - हिसि भवि., म. पु.. ए. येसं ते महानुभावा, सारत्थ. टी. 1.42; महानुभावे ... व., तुम अनुभव करोगे - अनुभोहिसि कामयुत्तो, थेरीगा. एकूनपञ्चसते परिग्गहेसि, पारा. अट्ठ. 1.6. 512.
अनुभावापेति अनु + भू के प्रेर. का वर्तः, प्र. पु., ए. व. अनुभवन नपुं., अनु + (भू का कृ. ना. [अनुभवन्], अनुभव [अनुभावयति], अनुभव या उपभोग कराता है - अनुभावापेती करना, सुख या दुख की वेदनाओं का संवेदन, कामभोगों ति पुग्गलो पुग्गलेन सम्पत्ति अनुभावापेति परिभोजेति, सद्द. 1.6. का आस्वाद - अनुभवनन्ति परिभुञ्जनं. सद्द. 1.86; इमरस अनुभासति अनु+भास का वर्त.. प्र. पु.. ए. व. [अनुभाषते]. मे दुक्खस्स अनुभवनत्थाय पुब्बनिमित्तं अहोसि, जा. अट्ठ पीछे या उत्तरकाल में बोलता है, दोहराता है, कही हुई बात 7.338; तस्स नन्दनवने सम्पत्तिं अनुभवनकालो विय तथागतस्स को पुनः कहता है; - न्ति वर्त., प्र. पु.. ब. व., - .... म. नि. अट्ठ (म.प.) 2.155; स. उ. प. के रूप में तदनुभासन्तीति तं अनुभासन्ति, ... भासितमनुभासन्तीति तेहि इट्ठानिट्ठानुभवन, कम्मविपाकानु, गन्धानु, दुक्खानु, सम्पत्तानु. भासितं सज्झायितं अनुसज्झायन्ति, दी. नि. अट्ठ. 1.221; के अन्त. द्रष्ट; - छान नपुं., तत्पु. स. [अनुभवनस्थान], ... तदनुभासन्ति भासितमनुभासन्ति .... दी. नि. 1.91; - अनुभव का स्थल या विषय - बहून नेरयिकसत्तानं सिंसु अद्य., प्र. पु., ब. व., वे लोग पीछे या बाद में बोले कम्मकरणानुभवनट्ठानं मित्तविन्दकस्स ... हुत्वा उपट्टासि, - अनुत्थुनिंसूति अनुभासिंसु, दी. नि. अट्ठ. 3.47. जा. अट्ठ. 4.3; द्रष्ट, कम्मकरण के अन्त; - योग्ग त्रि., अनुभूत' त्रि., अनु + Vभू का भू. क. कृ. [अनुभूत], वह, [अनुभवनयोग्य], सुख या दुख का अनुभव किये जाने जिसका अनुभव कर लिया गया है या जिसका उपभोग कर योग्य - इट्ठस्स च अनिट्ठस्स च अनुभवनयोग्गं, पे. व. अट्ठ. लिया गया है - अनुभूतं सुखदुक्खन्ति आदिसु वेदियने, 198; - रस त्रि., ब. स., अनुभव करने की क्रिया करने सद्द. 1.309; ... सम्पत्ति मनुस्सलोके मया अनुभूता, उदा. वाला/वाली - अनुभवनरसता पन सुखवेदनायमेव लभतीति अट्ठ, 326; सत्तेव वस्ससतानि, अनुभूतं यतो हि मे, पे. व. ... सब्बा अनुभवनरसा ति वत्वा अयमत्थो दीपितो, ध. स. 364, (पृ.) 122. अट्ठ. 155; - लक्खण त्रि.. ब. स. [अनुभवनलक्षण], वह, अनुभूत त्रि., [अणुभूत], वह, जिसे साधारण या गौण बना जिसका लक्षण अनुभव करना हो- वेदना अनुभवनलक्खणा दिया गया हो - अनुमज्झन्ति अनुभूतं मुदुतिखिणभावानं चा'ति, मि. प. 61; अनुभवनलक्खणा वेदना, मज्झं समाचरे, जा. अट्ठ. 4.171. विसयरसम्भोगरसा, सुखदुक्खपच्चुपट्टाना, फस्सपदट्ठाना, अनुभूयते अनु + ।भू. का कर्म. वा., वर्त.. प्र. पु., ए. व. उदा. अट्ठ. 35.
[अनुभूयते], अनुभव किया जाता है - सब्बा वित्य आनुभूयते. अनुभवितु पु., अनु + ।भू से व्यु., कर्तृ. कृ., अनुभव करने अभिभविय्यते अनुभुय्यतेति, सद्द. 1.21; क. व्या. 21; - वाला, भोगों में सुख अनुभव करने वाला - ... सुखं वा मान/य्यमान त्रि., वर्त. कृ. [अनुभूयमान], वह, जिसका अनुभविता सीलेन वा उपोसथकम्मेन वा ति. मि. प. 269%3; अनुभव किया जा रहा हो- यं रूपादिपञ्चकामगुणजातं पत्तं अनुभवती ति अनुभविता ..., सद्द. 71.
... एतरहि लद्धं अनुभुय्यमानं, उदा. अट्ठ. 286; अनुभूतन्ति अनुभवीयते अनु + Vभू के कर्म. वा. का वर्त, प्र. पु., ए. अनुभूयमानं मयाति अत्थो, पे. व. अट्ठ. 138; - मानत्त नपुं.. व. [अनुभूयते], अनुभव किया जाता है - अनुभवीयते ति । भाव. [अनुभूयमानत्व], अनुभव किये जाने की अवस्था, सम्पत्ति पुग्गलेन ..., सद्द. 1.6; - वियमान वर्त. कृ., अनुभव किये जाने की स्थिति- ... इममत्थं पेता एव किर अनुभव किया जा रहा - अत्तना अनुभवियमानं दुक्खं थेरस्स जानन्ति पच्चक्खतो अनुभुय्यमानत्ता, न मनुस्साति, पे. व. पवेदेसि, पे. व. अट्ठ. 29.
अट्ठ. 91. अनुभाग पु.. [अनुभाग], अपर भाग, बचा हुआ भाग, अनुपूरक अनुभोजन नपुं., भोजन का बचा हुआ भाग, भोजन का भाग - गहिते अनुभागे अओ भिक्खु आगच्छति, चूळव. अवशिष्ट अंश - महापालिम्हि दापेसि राजा राजानुभोजनं. 297; अनुभागन्ति पुन अपरम्पि भागं दातुं, चूळव. अट्ठ. 65. चू. वं. 37.181. अनुभाव पु., अनु + Vभू से व्यु. [अनुभाव], प्रभाव, क्षमता, अनुमग्गं अ., क्रि. वि. [अनुमार्ग], मार्ग के सहारे, रास्ते से शक्ति, सामर्थ्य, कृपा - अनु अन तंसमङ्गीनं भावेति वड्डेतीति होते हुए, मार्ग पर - कटाहकोपि बहु खादनीयभोजनीयं
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अनुमग्ग-पटिपन्न 276
अनुमत आदाय अनुमग्गं गन्त्वा बहुधनं दत्वा .... जा. अट्ठ. धम्मानुमज्जन; - लक्खण नपुं.. तत्पु. स. [अनुमार्जनलक्षण]. 1.434.
पुनःपुनः अथवा निरन्तर चिन्तन करते रहने का लक्षण - अनुमग्ग-पटिपन्न त्रि., तत्पु. स. [अनुमार्गप्रतिपन्न], मार्ग विचारस्स अनुमज्जनलक्खणं पीतिया फरणलक्खणं, दी. पर पहुंचा हुआ, मार्ग पर प्राप्त हो चुका या मार्ग पर चलता नि. अट्ठ. 1.60; ... अनुमज्जनलक्खणो विचारो, फरणलक्खणा हुआ - भगवा विगतवलाहकं नभं पटिपन्नतारकराजा विय, पीति, सातलक्खणं सुखं, ... इमे पञ्च धम्मा वत्तन्ति, म. राहलभद्दो च तारकाधिपतिनो अनुमग्गपटिपन्ना नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).243; किंलक्खणो विचारो ति? परिसुद्धओसधितारका विय, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.94. अनुमज्जनलक्खणो, महाराज, विचारोति, मि. प. 64. अनुमग्गे अ., क्रि. वि., मार्ग पर, रास्ते के बगल में, मार्ग से अनुमज्जीयन्ते अनु + मज्ज के कर्म. वा. का वर्त. कृ., होकर - अजे बहू इसयो साधुरूपा, राजीसयो अनुमग्गे द्वि. वि., ब. व., गम्भीर अनुचिन्तन किये जा रहे कोवसन्ति, जा. अट्ठ. 5.191; अञ पन ... ब्राह्मणिसयो च ... अनुमज्जीयन्ते दिस्वा अज्झपेक्खि, मि. प. 256. अनुमग्गे मम अस्सममग्गपस्से वसन्ति, जा. अट्ठ. 5.191; अनुमज्झ त्रि., [बौ. सं. अनुमध्य], अत्यधिक एवं अत्यल्प के यदि केचि मनुजा एन्ति, अनुमग्गे पटिपथे, जा. अट्ठ. बीच वाला, न बहुत अधिक, न बहुत कम - अप्पम्हा अप्पक 7.271.
दज्जा, अनुमज्झतो मज्झकं, जा. अट्ठ.5.383; अनुमज्झतो अनुमग्गेन अ., क्रि. वि., क्रमशः, क्रमसङ्गत पद्धति से - मज्झकन्ति अप्पमत्तकम्पि मज्झे.... जा. अट्ठ. 5.384.
अनुमग्गेन सम्बुद्धो, यं धम्म अभिनीहरि अप. 2.256. अनुमज्झं अ., क्रि. वि., सन्तुलित रूप में, बहुत अधिक एवं अनुमज्जति अनु + मज्ज का वर्त, प्र. पु., ए. व. बहुत कम का परिवर्जन कर, मध्यम रूप में - एतञ्च उभयं [अनुमाति, अनुमार्जयति], शा. अ. मलता है, पोंछ अत्वा, अनुमज्झं समाचरे, जा. अट्ठ. 4.171; अनुमज्झन्ति डालता है, धो देता है, रगड़ता है, हटा देता है, ला. अ. अनुभूतं मुदुतिखिणभावानं मज्झं समाचारे, जा. अट्ठ. 4.171. गहराई के साथ चिन्तन या सोच विचार करता है - सोहि अनुमति अनु +/मन का वर्त., प्र. पु., ए. व. [अनुमन्यते], आरम्मणं अनुमज्जतीति वुत्तं, .... ध. स. अट्ठ. 160; - स्वीकृति या अनुमोदन देता है, अनुमति देता है, स्वीकार न्तो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व., मलता हुआ, रगड़ता करता है, हामी भरता है, मंजूरी देता है; - ञ अनु., म. हुआ - ... पाणिना गत्तानि अनुमज्जन्तो तायं वेलायं इमं पु., ए. व. [अनुमन्यस्व], अपनी अनुमति दो या स्वीकृति उदानं उदानेसि, स. नि. 1(1).100; नवङ्ग अनुमज्जन्तो, दो - अनुमञ मं पब्बजितोम्हि दानी ति, थेरगा. 72; - न्तु रत्तिभागे रहोगतो, मि. प. 101; - ज्जथ अद्य., प्र. पु., ए. अनु., प्र. पु., ब. व. [अनुमन्यन्ताम्], अनुमति दें - भवञ्च व., आत्मने., उपरिवत् - लताय हत्थे बन्धित्वा, लताय राजा मनोजो, अनुमञ्जन्तु मे वचो, जा. अट्ठ. 5.317; अनुमज्जथ, जा. अट्ठ. 7.318; - ज्जि अद्य., प्र. पु., ए. व., अनुमअन्तूति अनुबुज्झन्तु, जा. अट्ठ. 5.318; - जासि उसने मला या रगड़ा - अनुमसीति कथिनसूचिं विय कत्वा विधि., म. पु., ए. व. - अपि नो अनुमआसि, अपि नो अनुमज्जि, दी. नि. अट्ठ. 1.223; - ज्जित्वा पू. का. कृ., जीवितं ददे ति, जा. अट्ठ. 5.337; अपि नो अनुमासीति पोंछ कर, स्वच्छ कर - उट्ठायासना उदकेन अक्खीनि चित्तकूटं गन्त्वा जातके पस्सितं त्वं अपि नो अनुजानेय्यासि, अनुमज्जित्वा दिसा अनुविलोकेय्यासि, अ. नि. 2(2).225; - जा. अट्ठ. 5.337. ज्जेय्यासि विधि., म. पु., ए. व., तुझे रगड़ना या मलना अनुमत त्रि., अनु + /मन का भू. क. कृ. [अनुमत], क. चाहिए - पाणिना गत्तानि अनुमज्जेय्यासि. अ. नि. कर्म. वा. में - अनुमोदित, स्वीकृत, आज्ञप्त, प्राधिकृत - 2(2).225.
सझेन अनुमतेन पुग्गलेन अनविज्जकेन ... उपज्झायो अनुमज्जन नपुं.. [अनुमार्जन], गम्भीर अनुचिन्तन, पुनः पुच्छितब्बो, परि. 311; ... सुभासिता नो दुब्भासिता, अत्थसंहिता पुनः चिन्तन, लगातार चिन्तन - विचारितन्ति नो अनत्थसंहिता, अनुमता मया, दी. नि. 1.85; अनुमता अनुमज्जनवसेन पवत्तो विचारो, दी. नि. अट्ठ. 1.104; मयाति मम सब्ब ताणेन सद्धिं संसन्दित्वा देसिता मया सुखुमढेन अनुमज्जनसभावढेन च घण्टानुरवो विय अनुज्ञाता, दी. नि. अट्ठ. 1.216; तथागतानं अनुमतं एतं. अनुप्पबन्धो विचारो, ध. स. अट्ठ. 160; ... अनुमज्जमानो मि. प. 179; ख. कर्तृ. वा. में - मन के अनुकूल, विचारो, ध. स. अट्ठ. 160; स. उ. प. के रूप में द्रष्ट. सहमत - भरिया, महाराज, अनुमता .... मि. प. 256; स.
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277
अनुमति
अनुमासं उ. प. के रूप में द्रष्ट., अननु., वद्धानु., वुद्धानु. के अदिट्ठजोतनापुच्छा, ... अनुमतिपुच्छा, कथेतुकम्यतापुच्छाति, अन्त..
ध. स. अट्ठ. 101; अयहि पुच्छा ... अत्थरस महाथेरस्स अनुमति स्त्री., अनु + /मन से व्यु. [अनुमति], स्वीकृति, ..... समुग्धातितसंसयत्ता, अनुमतिपुच्छापि न होति, वि. व. अनुमोदन, आज्ञा, सहमति - अनुमतिपक्खाति अनुमतिया। पक्खा, अनुमतिदायकाति अत्थो, दी. नि. अट्ठ. 1.240; - अनुमदस्सिक त्रि., कुछ संस्करणो में अनोमदस्सिक के या' तृ. वि., ए. व., आज्ञा से, अनुमति से - इमं यक्खं अप. के रूप में प्राप्त, द्रष्ट. अनोमदस्सिक के अन्त.. याचित्वा तस्स अनुमतिया वा, सचे सञत्तिं न गच्छति, पे. अनुमरति अनु + vमर का वर्त., प्र. पु., ए. व. [अनुम्रियते], व. अट्ठ. 100; - या च. वि., ए. व., अनुमोदन के लिये पीछे या बाद में मरता है - यं अनुमीयतीति यं रूपं येन - भगवा भिक्खूनं अनुमतिया पहं पुच्छति, दी. नि. अट्ठ. अनुसयेन अनुमरति, स. नि. अट्ठ. 2.235. 1.64; स. उ. प. के रूप में द्रष्ट, आवासानु., आसिट्ठानु... अनुमसि अनु + मस का अद्य.. प्र. पु.. ए. व. [अन्वमाीत]. यथानु, सम्बुद्धनु. के अन्त; - कप्प पु.. शा. अ. कल्पित स्पर्श किया, छू दिया - जिहं निन्नामेत्वा उभोपि कण्णसोतानि अनुमोदन, ला. अ. भिक्षुसङ्घ की पूर्ण बैठक द्वारा अनुमोदन ... नासिकसोतानि अनुमसि पटिमसि, दी. नि. 1.92; सु. नि. कर दिये जाने की प्रत्याशा में केवल कुछ एक भिक्षुओं द्वारा पृ. 167; अनुमसीति कथिनसूचिं विय कत्वा अनुमज्जि, किया गया किसी सङ्घकर्म का अनुमोदन - कप्पति तथाकरणेन चेत्थ मुदुभावो, दी. नि. अट्ट. 1.223; - अनुमतिकप्पो, चूळव. 463; कप्पति अनुमतिकप्पोति अनागतानं मस्स/मास्स पू. का. कृ. [अनुमृश्य], शा. अ. स्पर्श आगतकाले अनुमतिं गहेस्सामी ति तेसु अनागतेसुयेव वग्गेन करके, केवल स्पर्शमात्र के द्वारा, ला. अ. गम्भीर विचार सङ्घन कम्म कत्वा पच्छा अनुमतिं गहेतुं कप्पति, सारत्थ. टी. करके, सोच करके, परामर्श करके - यस्स वियू सब्रह्मचारी 1.100; छन्दारहानं सन्तिका अनाहटे येव छन्दे वग्गेन सत्थु सम्मुखा अनुमस्स अनुमस्स वण्णं भासन्ति, म. नि. भिक्खुसङ्घन उपोसथादिकम्म कत्वा पच्छा तेसमनुमतिं गण्हितुं ____1.201; अनुमस्स अनुमस्साति दस कथावत्थूनि अनुपविसित्वा वट्टतीति इमं अनुमतिकप्पं च, म. वं. टी. 123(ना.); - अनुपविसित्वा, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).52. गहण नपुं., तत्पु. स. [अनुमतिग्रहण], अनुमति अथवा अनुमान नपुं., अनु + vमा से व्यु. [अनुमान], यथार्थ ज्ञान स्वीकृति की प्राप्ति, अनुमोदन का मिल जाना - तं किं के साधनों या प्रमाणों में से एक, अनुमान, निष्कर्ष, अटकल, मञ्जसि राजा तिआदीसु विय अनुमतिगहणाकारेन अन्दाजा, समानता - धम्मन्वयोति पच्चक्खञाणसङ्घातस्स अप्पवत्तत्ता, वि. व. अट्ठ. 14; एवं नोति ... सन्निट्ठानजननत्थं धम्मस्स अनुनयो अनुमानं, अनुबुद्धीति अत्थो, म. नि. अट्ठ. अनुमतिग्गहणवसेन नो वा कथं वो एत्थ होती ति ... (म.प.) 2.251; - नेन तृ. वि., ए. व., अनुमान के द्वारा - आविकतं, उदा. अट्ठ.8; - दायक त्रि., [अनुमतिदायक], अनुमानेन आतब्ब, अत्थि सो द्विपदुत्तमो ति, मि. प. 301; अनुमति अथवा स्वीकृति देने वाला, अपना अनुमोदन प्रदान .... अनुमानेन जानन्ति छेको वत भो सो नगरवड्डकी, मि. प. करने वाला - अनुमतिपक्खाति अनुमतिया पक्खा, 302; गरूपदेसं लद्धेन अनुमानेन वेदियं सद्धम्मो. 74; - अनुमतिदायकाति अत्थो, दी. नि. अट्ठ. 1.240; - पक्ख पु., पञ्ह नपुं.. मि. प. के पांचवें परिच्छेद का शीर्षक, जिसमें तत्पु. स. [अनुमतिपक्ष], अनुमति देने वाला वर्ग या समूह, कुल 4 वग्ग और 33 प्रश्न अन्तर्भूत है, मि. प. 223-3163B अनुमति-समर्थक दल - इतिमे चत्तारो अनुमतिपक्खा तस्सेव - बुद्धि स्त्री., तत्पु. स. [अनुमानबुद्धि], अनुमान के द्वारा यञ्जस्स परिक्खारा भवन्ति, दी. नि. 1.121; 1263; प्राप्त निष्कर्ष - अनुमानबुद्धिया पन कतकिरियाय नयग्गाहेन अनुमतिपक्खाति अनुमतिया पक्खा, अनुमतिदायकाति अत्थो, जानाति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).68; - सुत्त नपुं.. म. दी. नि. अट्ठ. 1.240; - पुच्छा स्त्री., तत्पु. स. नि. के एक सुत्त का शीर्षक, म. नि. 1.133-144; अपिचरस [अनुमतिपृच्छा, सभी की स्वीकृति को जानने की दृष्टि से अनुमानसुत्तं, चूळतण्हासङ्घयसुत्तं ... विमानवत्थु पेतवत्थु... कनिष्ठ भिक्षु से प्रारम्भ कर वरिष्ठतम भिक्षु तक से किया महन्तभावो वेदितब्बो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).144गया प्रश्न, पांच प्रकार की पृच्छाओं में से एक - अपिच अनुमतिपुच्छा नामेसा खुद्दकतो पट्ठाय पुच्छितब्बा होति, म. अनुमासं अ., क्रि. वि. [अनुमास], प्रत्येक महीने में, एकनि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).149; पञ्चविधाहि पुच्छा - एक महीने में - दीघायुकबुद्धकाले च अनुसंवच्छरं वा
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अनुमित्त
278
अनुमोदन अनुछमासं वा भिक्खू उपोसथत्थाय सन्निपतन्ति, ध. प. दामि वर्त, उ. पु., ए. व., मैं अनुमोदन करता हूँ - अट्ठ. 2.31; पाठा. अनुद्दमास.
धम्मिको कथिनत्थारो, अनुमोदामीति, परि. 333; - न्ति अनुमित्त पु., [अनुमित्र], द्वितीय श्रेणी का मित्र, अत्यन्त वर्त., प्र. पु., ब. व., वे अनुमोदन करते हैं - सब्बे साधारण गुणों वाला मित्र - नानुमित्तो गरुं अत्थं, गुव्हं देवानुमोदन्ति, सु. नि. 548; - दथ अनु.. म. पु., ब. व., वेदितुमरहति, जा. अट्ठ. 5.73; नानुमित्तोति अनुवत्तनमत्तेन अनुमोदन करें - अनुमोदथ तुम्हे तं तुम्हाकं च यतो मधु, म. यो मित्तो, न हदयेन, जा. अट्ठ. 5.73; विलो. सुमित्त. वं. 5.56; - दरे वर्त, प्र. पु., ब. व., आत्मने., उपरिवत् अनुमिनाति अनु + vमा का वर्त., प्र. पु., ए. व., पीछे या - पहूते अन्नपानम्हि सक्कच्चं अनुमोदरे, खु. पा. 7.4 (पृ.) 8; बाद में मापता है अर्थात् मूल्याङ्कन करता है, अन्दाज - दाम वर्त., उ. पु., ब. व., हम अनुमोदन करते हैं - लगाता है; - नन्तो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व., मापता धम्मिको कथिनत्थारो, अनुमोदामा ति, परि. 333; - दमानो हुआ, मूल्याङ्कन करता हुआ, अन्दाज लगाता हुआ - सुत्वाति पु.. वर्त. कृ., प्र. पु., ए. व. - धीरो च दानं अनुमोदमानो, धम्म सुत्वा तदनुसारेन नयं नेन्तो अनुमिनन्तो, पे. व. अट्ठ. ध. प. 177; - दाहि अनु., म. पु., ए. व., तू अनुमोदन कर 197; - नितब्ब त्रि., सं. कृ. [अनुमातव्य], मूल्याङ्कन किया - धम्मिको कथिनत्थारो, अनुमोदाही ति, परि. 333; - मोदि जाना चाहिए - भिक्खुना अत्तनाव अत्तानं एवं अनुमिनितब्ब अद्य, प्र. पु.. ए. व., उसने अनुमोदन कर दिया - केणियं ..... म. नि. 1.137; अत्तनाव अत्तानं एवं अनुमिनितब्बन्ति जटिलं भगवा इमाहि गाथाहि अनुमोदि, सु. नि. (पृ.) 170; .... अनुमेतब्बो ..., म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).379.. - दित्वा पू. का. कृ., अनुमोदन करके - ... ते भिक्खू अनुमीयति/अनुमिय्यति अनु + vमर का वर्त०, प्र. पु., ए. आयस्मतो सारिपुत्तस्स भासितं अभिनन्दित्वा अनुमोदित्वा व. [अनुम्रियते], पश्चात् या बाद में मरता है - यं नानुसेति ... पहं अपुच्छु म. नि. 1.60; - दितुं निमि. कृ., अनुमोदन न तं अनुमीयति, यं नानुमीयति न तेन सङ्घ गच्छतीति, स. करने के लिये - अनुजानामि, भिक्खवे. भत्तग्गे अनुमोदितुन्ति, नि. 2(1).34; यं अनुमीयतीति यं रूपं येन अनुसयेन अनुमरति, चूळव. 354; - दितब्ब त्रि., सं. कृ., अनुमोदन किये जाने स. नि. अट्ठ. 2.235.
योग्य - केन नु खो भत्तग्गे अनुमोदितब्बन्ति, चूळव. 354; अनुमेतब्ब त्रि., अनु + vमा का सं. कृ. [अनुमातब्य], -दिस्सरे भवि., प्र. पु.. ब. व., आत्मने., अनुमोदन करेंगे
अनुमान किया जाना चाहिये, मूल्याङ्कन या मूल्यनिर्धारण - अनुमोदिस्सरे देवा, सम्पत्ते कुसलभवे, अप. 1.92; - किया जाना चाहिये, विनिश्चय किया जाना चाहिये - देय्य विधि., प्र. पु., ए. व., अनुमोदन करना चाहिए - अनुमिनितब्बन्ति एवं अत्तनाव अत्ता अनुमेतब्बो तुलेतब्बो सुभासितं अनुमोदेय्य, अ. नि. 1(1).229; - देय्यं विधि., उ. तीरेतब्बो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).379.
पु., ए. व., मुझे अनुमोदन करना चाहिये - अहो वत अहमेव अनुमोदक त्रि., अनु + मुद से व्यु. [अनुमोदक], अनुमोदन भत्तग्गे भुत्तावी अनुमोदेय्यं, म. नि. 1.35; - देय्युं विधि., प्र. करने वाला, बाद में समर्थन करने वाला - तेहि अनुमोदकेहि पु., ब. व., वे अनुमोदन करें - यदि ते अत्थतो जानेय्यु, भिक्खूहि एकसं उत्तरासङ्ग करित्वा ... एवमस्स वचनीयो, तेपि अनुमोदेय्यु मि. प. 256; सु. नि. (पृ.) 170. परि. 332-33; अनुमोदकेन कथं पटिपज्जितब्बं परि. 332; अनुमोदन नपुं., अनु + vमुद से व्यु., क्रि. ना. [अनुमोदन], द्विन्न पुग्गलानं अत्थतं होति कथिनं अत्थारकस्स च स्वीकृति, पुष्टि, समर्थन, "हां ऐसा ही है" कहकर दी गयी अनुमोदकस्स च, परि. 326.
स्वीकृति, "ठीक है" या "बहुत अच्छा" (साधु) कह कर दिया अनुमोदति अनु + 'मुद का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अनुमोदते], गया अनुमोदन, भिक्षा या अन्य दानों को पाने के बाद अनुमोदन करता है, आनन्द के साथ स्वीकार करता है, भिक्षुओं द्वारा आशीर्वचन अथवा साधुवाद देने के रूप में आनन्दित होता है, प्रसन्न होता है, धन्यवाद ज्ञापित करता प्रकट किये गये वचन - सत्था भत्तकिच्चावसाने अनुमोदनं है - निस्सीमट्ठो अनुमोदति, अनुमोदेन्तो न वाचं भिन्दति, करोन्तो.... ध. प. अट्ठ. 2.97; अयं ते अनुमोदनं करिस्सति, परि. 331; सो भुत्तावी अनुमोदति, म. नि. 2.347; जा. अट्ठ. 1.125; भत्तग्गे मनुस्सानं अनुमोदनं अकत्वा गुणाराधितचित्तो यं अनुमोदति मोदको, सद्धम्मो. 510; - सि पक्कमन्ति, ध. प. अट्ठ. 2.227; सो भुत्तावी मुहुत्तं तुण्ही वर्त.. म. पु., ए. व., तू अनुमोदन करता है - निसीदति, न च अनुमोदनस्स कालमतिनामेति, म. नि. विज्जाचरणसम्पन्नं, धम्मतो अनुमोदसि, सु. नि. 165; - 2.347; न च अनुमोदनस्साति यो हि भुत्तमत्तोव दारकेसु
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279
अनुमोदना भत्तत्थाय ... अनुमोदनं आरभति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2. 277; स. उ. प. के रूप में द्रष्ट.; कतानु., कतभत्तानु, खण्डानु, तिरोकुड्डानुदानानु., परकतपुञानु, भत्तानु०. सत्तानु. के अन्त०; - करण नपुं., [अनुमोदनकरण], धन्यवाद का ज्ञापन, स्वीकृतिप्रदान - सुमनो बुद्धप्पमुखं भिक्खुसङ्घ परिविसित्वा अनुमोदनकरणत्थाय पत्तं अग्गहेसि, ध. प. अठ्ठ. 1.120; - गाथा स्त्री., तत्पु. स., अनुमोदन को प्रकाशित करने वाली गाथाएं - पच्चेकबुद्धानं किर इधाव वे गाथा अनुमोदनगाथा नाम होन्ति, ध. प. अट्ट. 1.115; अनुमोदनगाथावण्णनायमेव आविभविस्सति, ध. प. अट्ठ. 2.58; - ज त्रि., [अनुमोदनज], अनुमोदन अथवा स्वीकृति से उत्पन्न - अनुमोदनजं पुजं चित्तायत्तम्महाफलं. सद्धम्मो. 516; - धम्मदेसना स्त्री., कर्म. स., अनुमोदन (या भोजन ग्रहण करने के उपरान्त साधुवाद-ख्यापन) के रूप में दिया गया धर्मोपदेश - सत्था अनुमोदनधम्मदेसनं आरभि, ध. प. अट्ठ. 1.120; - मत्त त्रि.. [अनुमोदनमात्र], केवल अनुमोदन, केवल धन्यवाद का ज्ञापन - ... परेन कतस्स दानस्स सक्कच्चं अनुमोदनमत्तेन हेतुना इदानि मह हत्थो.... पे. व. अट्ठ. 106; - सद्द पु., तत्पु. स. [अनुमोदनशब्द, अनुमोदन या स्वीकृति का शब्द, हामी भरने का शब्द, स्वीकरण - ... एवमेतं भगवा एवमेतं सुगताति अनुमोदनसई
अस्सोसि, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).195. अनुमोदना स्त्री, अनुमोदन, स्वीकृति, भोजनग्रहणोपरान्त
या दान प्राप्ति के उपरान्त आशीर्वचन अथवा साधुवाद को प्रकट करने के रूप में प्रकाशित अनुमोदन - न मे तुम्हेहि दानानुच्छविका अनुमोदना कता, ति? ध. प. अट्ठ. 2.107; अनुमोदेय्यन्ति अनुमोदनं करेय्य, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).156; दानानुमोदनाय महाजनो महन्तं विसेसं पापुणीति, ध. प. अट्ठ. 2.290; स. उ. प. के रूप में द्रष्ट. पत्तानु०, यागुदानानु., वस्सकारानु.. विहारदानानु., वेळुवनदानानु. के अन्त. (आगे). अनुमोदनानिसंसगाथा सद्धम्मो के ग्यारहवें अनुच्छेद का
शीर्षक, सद्धम्मो. गाथा संख्या 510-516 तक. अनुमोदनावसान नपुं.. अनुमोदन + अवसान, तत्पु. स. [अनुमोदनावसान], आशीर्वचनात्मक अनुमोदन की क्रिया की समाप्ति - अनुमोदनावसाने चतुरासीतिया पाणसहस्सानं धम्माभिसमयो अहोसि, ध. प. अट्ठ. 1.61. अनुमोदनीय त्रि., अनु + मुद का सं. कृ. [अनुमोदनीय], शा. अ. अनुमोदन करने या आशीर्वचन देने योग्य कृत्य,
अनुयायति ला. अ. अनुमोदन आदि के रूप में प्रकाशित वाणी का कर्म - अनुमोदनीयंकासि, नागका महिद्धिका अप. 2.222; ... अनुमोदनियादिवसेन पवत्तितं वचीकम्म. म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.22. अनुमोदित त्रि., अनु + vमुद का भू, क. कृ. [अनुमोदित]. धन्यवाद या साधुवाद के साथ स्वीकृत, वह, जिसका अनुमोदन कर दिया गया है - ... पानीयं दिन्नं अनुमोदितं. पे. व. अट्ठ 65-66. अनुम्मत्त त्रि., उम्मत्त का निषे०, तत्पु. स. [अनुन्मत्त], वह,
जो उन्माद या पागलपन से ग्रस्त नहीं है, उन्मादरहित, पागलपन से रहित - नानुम्मत्तो नापिसुणो, नानटो नाकुतूहलो, जा. अट्ठ. 2.347; तत्थ नानुम्मत्तोति न अनुम्मत्तो, जा. अट्ठ. 2.347; को वा ते वचनं आदियति अनुम्मत्तो, मि. प. 128; - क त्रि., उम्मत्तक का निषे. [अनुन्मत्तक], उपरिवत् - ... खिप्पं ... उपद्वितसतिता अनुम्मत्तकता आणवन्तता
अनलसता ..., खु. पा. अट्ठ. 24. अनुयागी त्रि., अनु + Vयज से व्यु. [अनुयाजी]. किसी दूसरे के अनुकरण पर यज्ञ करने वाला - राजा खो महाविजितो महायचं यजति, हन्दस्स मयं अनुयागिनो होमा ति, दी. नि. 1.126. अनुयात त्रि., अनु + Vया का भू. क. कृ. [अनुयात]. क. कर्म. वा. में - वह, जिसका अनुगमन दूसरों द्वारा किया गया है - ... मग्गं पुराणजसं पुब्बकेहि मनुस्सेहि अनुयात. स. नि. 1(2).93; एस मग्गो महन्तेहि, अनुयातो महेसिभि. अ. नि. 1(2).31; ख. कर्तृ. वा. में - अनुगमन करने वाला, अनुकरण कर रहा, केवल स. उ. प. में ही प्राप्त, द्रष्ट. महिस्सर जटामकुटानुयायी के अन्त... अनुयाति/अनुयायति अनु + या का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अनुयाति, अनुगमन करता है, बराबर साथ या पीछे चलता है - अनुपेतीति अनुयाति, स. नि. अट्ठ. 2.300; अनपेतीति अनुयायति, दी. नि. अट्ठ. 1.137; - न्ता त्रि., वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ब. व., अनुगमन करने वाले - खत्तिया भोगिराजानो, अनुयन्ता भवन्तु ते. सु. नि. 558; - याथ अनु., म. पु.. ब. व. [अनुयात], तुम लोग अनुगमन करो - इत्थागारं अज्झभासि, सब्बाव अनुयाथ में, जा. अट्ठ. 6.27; - यिस्सन्ति भवि०, प्र. पु., ब. व., अनुगमन करेंगे - यन्तं मं नानुयिस्सन्ति, तं कुदास्सु भविस्सति, जा. अट्ट, 6.59. अनुयायति अनु + Vया का वर्त, प्र. पु., ए. व., अनुशासन करता है, आधिपत्य करता है - चक्कवत्ती ... महापथविं
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अनुयायी
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अनुयुञ्जीयति अनुयायति कल्याणपापकानि विचिनमानो, मि. प. 3603; परिवर्जन के आशय में) जोड़ो, स्वयं को लगा दो - मा च पञ्चालमनुयायन्ति, अकामा वसिनो गता, जा. अट्ठ. 6.226. वातातपे चारित्तं अनुयुञ्जि, म. नि. 3.42; - जित्थ अद्य., अनुयायी त्रि., अनु + Vया से व्यु. [अनुयायिन्], अनुगमन म. पु., ब. व., (निषेधा. निपा. मा के साथ मना करने के या अनुसरण करने वाला, विषयीभूत, वशवर्ती, अधीनस्थ - विशेष आशय में) उपरिवत् - मा खिड्डारतिञ्च मा निई, कथं नु यातं अनुयायि होति, अल्लञ्च पाणिं दहते कथं सो, अनुयुजित्थ झाय कातियान, थेरगा. 414; - जिस्साम जा. अट्ठ.7.207; तस्सेव अत्थं पुरिसो करेय्य, यातानुयायीति भवि., उ. पु., ब. व., हम स्वयं को पूरी तरह से लगा देंगे, तमाहु पण्डिता, तदे; यातानुयायीति पुब्बकारिताय यातस्स समर्पित कर देंगे- इतो अअस्मि रत्तिभागे वा दविसभागे पुग्गलस्स अनुयायी, जा. अट्ठ. 7.208; ...., ब्राह्मणस्सेव वा अप्पमत्ता कम्मट्ठानमनुयुजिस्सामाति, ध. प. अट्ठ. अनुयायिनो होथा ति, .... मि. प. 263; स. उ. प. के रूप 1.381; - जित्वा पू. का. कृ., पूरी तरह से स्वयं को में अनानु., जरामरणानु.. यातानु. के अन्त. द्रष्ट..
लगाकर - एको दमयन्ति रत्तिहानादीस कम्मट्ठान अनुयुञ्जति अनु + vयुज का वर्त.. प्र. पु., ए. व. अनुयुजित्वा मग्गफला ... दमेन्तोति अत्थो, ध. प. अट्ठ. [अनुयुनक्ति], क. किसी के साथ स्वयं को जोड़ देता है, 2.269; - जितब्बं त्रि., सं. कृ., स्वयं को लगाया जाना किसी का अत्यधिक सेवन करता है, किसी में अत्यधिक चाहिए, जोड़ दिया जाना चाहिए - एतहि उपासकेन अनुरक्त होता है, स्वयं को किसी में पूरी तरह से लगा देता पुब्बभागे अनुयुजितब्बं बुद्धसासनं नाम, उदा. अट्ठ. 252; है, किसी चीज का आदी बन जाता है - सुरामेरयपानञ्च, ख. स्वयं को किसी के साथ पूरी तरह से जोड़ देना अथवा यो नरो अनुयुञ्जति, ध. प. 247; अनुयुञ्जतीति सेवति । किसी बात का गम्भीर परीक्षण करना या जांचना - अन्तो बहुलीकरोति, ध. प. अट्ठ. 2.206; - न्ति वर्त, प्र. पु., ब. पु., वर्त. कृ., प्र. वि., ए. व., परीक्षण करते हुए, जांचते हुए, व. - पमादमनुयुञ्जन्ति, बाला दुम्मेधिनो जना, ध. प. 26; पूछते हुए - अथ नं भगवा अनुयुञ्जन्तो किन्ति पन ते. ते पमादे आदीनवं अपस्सन्ता पमादं अनुयुञ्जन्ति पवत्तेन्ति, अग्गिवेस्सन, कायभावना सुताति आह, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) पमादेन कालं वीतिनामेन्ति, ध. प. अट्ठ. 1.146; - जं पु., 1(2).182; - जाहि अनु., म. पु., ए. व., तुम परीक्षा करो, वर्त. कृ., प्र. वि., ए. व., पूर्णरूप से स्वयं को लगाता हुआ, प्रश्न करो- इम पब्बजितं अनुयुञ्जाही ति, महाव. 109; - स्वयं को समर्पित करता हुआ - अहोरत्तं अनुयुज, जीवितं जथ अनु., म. पु., ब. व., प्रश्न करो, परीक्षा करो - इमे अनिकामयं, स. नि. 1(1).143; - अन्तो उपरिवत् - च भिक्खू अनुयुञ्जथा ति, पारा. 254; - जितुं निमि. कृ., कम्मट्ठानं पन उग्गहेत्वा अनुयुञ्जन्तो बहुस्सुतोव, ध. प. परीक्षा करने हेतु, प्रश्न करने हेतु - इमे नाम ... सह अट्ठ. 2.70; - ज अनु., म. पु., ए. व., स्वयं को लगा दो धम्मेन अनुयुञ्जितुं समत्थो नत्थि, उदा. अट्ठ. 109. - कतपुओसि त्वं, आनन्द, पधानमनुयुञ्ज, खिप्पं होहिसि अनुयुञ्जन नपुं., अनु + युज से व्यु., क्रि. ना. [अनुयुञ्जन]. अनासवोति, दी. नि. 2.109; - जथ अनु., म. पु., ब. व., सम्पूर्ण रूप से किसी के प्रति लगाव, दृढ़ निष्ठा - अपने को पूरी तरह से जोड़ दो- सारत्थे घटथ अनुयुञ्जथ, अनुयोगोति अनुयुञ्जनं, महानि. अट्ठ. 148; 329; सारत्थे अप्पमत्ता आतापिनो पहितत्ता विहरथ, दी. नि. 2. धम्मानुयोगन्ति दानादिकुसलधम्मस्स अनुयुञ्जनं, वि. व. 107; - जस्सु अनु., म. पु., ए. व., आत्मने., उपरिवत् अट्ठ. 293; - ना स्त्री., उपरिवत् - अकम्म हेतं ... - पुब्बापररत्तमप्पमत्तो, अनुयुञ्जस्सु दळ्हं करोहि योग, किलेसयुद्धं, सदत्थमनुयुञ्जना, एतं जिनपुत्तानं करणीयं थेरगा. 413; - जेय्य विधि., प्र. पु., ए. व., स्वयं को पूरी ... पूजा करणीया. मि. प. 173. तरह से लगा दे, जोड़ दे, समर्पित कर दे - सो यानि सम्मा अनुयुञ्जीयति अनु +vयुज के कर्म. वा. का वर्त०, प्र. पु., निब्बानाधिमुत्तस्स असप्पायानि तानि अनुयुञ्जय्य, म. नि. ए. व., दूसरों द्वारा परीक्षित किया जाता है, उत्तर देने के 3.41; - जेथ उपरिवत्, आत्मने. - मा पमादमनुयुजेथ, काम के साथ जोड़ दिया जाता है - न हि, यो परेहि मा कामरतिसन्थवं ध. प. 27; मा कामरतिसन्थवन्ति अनुयुञ्जीयति, सद्द. 2.374; - जियमानो वर्त. कृ., पु., वत्थुकामकिलेसकामेसु रतिसवात तण्हासन्थवम्पि मा प्र. पु., ए. व., परीक्षित किया जा रहा, पूछा जा रहा - अथ अनुयुजेथ मा चिन्तयित्थ मा पटिलभित्थ, ध. प. अट्ठ. खो सो ... उपालिना अनुयुञ्जियमानो एतमत्थं आरोचेसि, 1.146; - जि अद्य., प्र. पु., ए. व., (निपा. 'मा' के साथ महाव. 109; अनुयुजियमानोति एकमन्तं नेत्वा
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अनुयोगी
अनुयुत्त केसमस्सुओरोपनकासायपटिग्गहणसरणगमनउपज्झायरगहणकम्मवाचानिस्सयधम्मे पुच्छियमानो, महाव. अट्ठ. 282; - जियमाना स्त्री., कर्म. वा., वर्त. कृ., प्र. पु., ए. व., जांची जा रही, पूछी जा रही - एवमनुयुजियमाना सा, रहिते धम्मदेसनाकुसला, थेरीगा. 406; अनुयुजियमानाति पुच्छियमाना, सा इसिदासीति योजना, थेरीगा. अट्ठ. 289. अनुयुत्त त्रि., अनु + युज का भू. क. कृ., द्वि. वि. में अन्त होने वाले पद के साथ प्रयुक्त [अनयुक्त], 1. स्वयं को किसी में लगाया हुआ, किसी के प्रति पूर्णरूप से समर्पित - ... ते एवरूपं बीजगामभूतगामसमारम्भं अनुयुत्ता विहरन्ति, दी. नि. 1.6; .... यस्स समारम्भं अनयत्ता विहरन्तीति, दी. नि. अट्ठ. 1.75; ... ते एवरूपं जूतप्पमादट्ठानानुयोगं अनुयुत्ता विहरन्ति, दी. नि. 1.6; ये अत्तानयोग अनुयुत्ता सीलादीनि सम्पादेत्वा देवमनुस्सानं सन्तिका सक्कारं लभन्ति, ध. प. अट्ठ. 2.160; 2. अनुसरण या अनुगमन करने वाला, अधीनस्थ, आज्ञाकारी, सेवक - यो लोभगुणे अनुयुत्तो, सो वचसा परिभासति अजे. सु. नि. 668; अनुयुत्तोति अग्गसावकानं भेदकामताय सु. नि. अट्ठ. 2.180; - त्ते द्वि. वि., ब. व. - सो यावता जम्बूदीपे पदेसराजानो ते सब्बे अनयुत्ते अकासि, मि. प. 193; स. उ. के रूप में अनन.. चेतोसमथानु., जागरियानु.. झानानु., सरीरमण्डनानु. के अन्त. द्रष्ट.. अनुयोग पु., अनु + युज से व्यु. [अनुयोग]. क. पूर्ण रूप से समर्पण, पूर्ण निष्ठा, सुदृढ़ लगाव, पुनः पुनः योग - अनुयोगे किलिन्ने च सुतोभिधेय्यलिङ्गिको, अभि. प. 797; ... अनुयोगमन्वाय अप्पमादमन्वाय सम्मामनसिकारमन्वाय तथारूपं चेतोसमाधि फुसति, दी. नि. 1.11; पुनप्पुन युत्तवसेन अनुयोगोति, दी. नि. अट्ठ. 1.90; ख. प्रश्न, परीक्षण, जांच पड़ताल - पञ्हो तीस्वनुयोगो च पुच्छा, प्यथ निदस्सनं, अभि. प. 115; एतस्मिञ्च पाठे ... सम्बन्धित्वा पुन कस्माति अनुयोगं दस्सेत्वा, खु. पा. अट्ठ. 179; ग. Vदा से व्यु., क्रि. रू. के साथ प्रयुक्त - परीक्षा देना या उत्तीर्ण होना - ..., अङ्गेहि समन्नागतस्स भिक्खुनो अनुयोगो न दातब्बो ति, परि. 360; सो आचरियस्स अनुयोगं दत्वा बाराणसिं पच्चागच्छि, जा. अट्ठ. 3.368; स. उ. प. के रूप में अत्तकिलमथानु., अत्तपरितापनानु., अननु., अभिज्ञानु., असुभभावनानु.. आतपनानु., उदकोरोहणानु., उपादानपञत्तानु.. उपेक्खभावनानु., कामसुखल्लिकानु.. कामसुखानु., कायभावनानु., किलमथानु, केसमस्सुलोचनानु., जागरियानु०,
जूतपमादट्ठानानु, दूतेय्यपहिणगमनानु., देवदूतानु, धम्मानु. पञत्तानु, पधानानु, परपरितापनानु, परियायभत्तभोजनानु, भावनानु., मण्डनानु.. सतिपट्टानभावनानु., सिक्खत्तयानु०, सोमनस्सानु के अन्त. द्रष्ट.; - क्खम त्रि., [अनुयोगक्षम]. वह जो परीक्षण अथवा प्रश्न पूछने की स्थिति का सामना करने में सक्षम या समर्थ है, परीक्षा या जांच का सामना करने में समर्थ - नो अनुयोगक्खमो, नो विमज्जनक्खमोति अनुयोग वा वीमंसं वा न खमति, ..., म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.68; तस्स भगवतो वादो ..., अनुयोगक्खमो च विमज्जनक्खमो चाति, म. नि. 2.54; - दापन नपुं., तत्पु. स., परीक्षण करवाना, प्रश्न पुछवाना, जांच पड़ताल कराना - तेन नं भगवा अनुयोगक्खमो अयन्ति अत्वा सीहनादे अनुयोगदापनत्थं इमम्पि देसनं आरभि, दी. नि. अट्ठ. 3.563B .... अनुयोगं दापनत्थं, अनुयोगं दत्वा, दानं दत्वा, सद्द. 2.480; - भयभीत त्रि., परीक्षण या प्रश्नों को पूछे जाने से भयग्रस्त - तथेव भगवतो अनुयोगभयेन भीतो अज्ञपि अत्तनो सहायके आचिक्खन्तो पठम गाथमाह, जा. अट्ठ. 3.316; पाठा. अनुयोगभयेन भीती; - वन्तु त्रि.. [अनुयोगवत्], पूरी तरह से स्वयं को लगा देने वाला, पूर्णरूप से समर्पित, सुदृढ़ निष्ठा वाला - ... सततं सब्बकालं अनुयोगवन्ता, ते पुञ्जवन्तो केवलं .... पे. व. अट्ठ. 180; - वत्त नपुं.. [अनुयोगवृत्त], अनुयोग या परीक्षण या जांच पड़ताल सम्बन्धी प्रक्रिया, सङ्घसम्बन्धी किसी विषय का विनिश्चय - अनुयोगवत्तं निसामय, कुसलेन बुद्धिमता कतं, परि. 302; 313; ... भगवा अनुयोगवत्तं दस्सेन्तो सा पनावुसो, ..., म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).322; समनुयुञ्जतीति अनुयोगवत्तं आरोपेन्तो पुच्छति, ..., अ. नि. अट्ठ. 2.118; अनुयोगवत्तन्ति अनुयोगे कते वत्तितब्बवत्तं, आरोपेन्तोति कारापेन्तो, अत्तनो पुच्छं उद्दिस्स पटिवचनं दापेन्तो पुच्छति, अ. नि. टी.
2.106.
अनुयोगी त्रि., अनु + vयुज से व्यु. [अनुयोगी], निष्ठावान्, समर्पित, स्वयं को पूरी तरह से किसी में लगा देने वाला, केवल स. उ. प. के रूप में ही प्रयुक्त - अत्थं हित्वा पियग्गाही, पिहेतत्तानुयोगिनं, ध. प. 209; ये च ते सततानुयोगिनो, धुवं पयुत्ता सुगतस्स सासने, पे. व. 487; सततानुयोगिनोति ओसानगाथाय अयं सङ्घपत्थो - अहम्पि नाम रत्तियं पाणवधमत्ततो विरतो एवरूपंसम्पतिं अनुभवामि, पे. व. अट्ठ. 179-180; पिहेतत्तानुयोगिनन्ति ताय पटिपत्तिया सासनतो चुतो गिहिभावं पत्वा पच्छा ये अत्तानुयोग अनुयुत्ता
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अनुयोजन
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अनुरक्खति सीलादीनि सम्पादेत्वा देवमनस्सानं सन्तिका सक्कारं लभन्ति, या संधारण हेतु किया जा रहा दृढ़ प्रयास, समाधि के ध. प. अट्ठ.2.160.
निमित्त की सुरक्षा करने वाले के चित्त में उत्पन्न वीर्य - अनुयोजन नपुं.. [अनुयोजन], किसी के साथ, पीछे किया चत्तारिमानि, ..., पधानानि, ..., संवरप्पधानं, पहानप्पधानं. गया, जोड़, अन्य के साथ योग - ..., तत्थ भावनाप्पधानं, अनुरक्खणाप्पधानं, अ. नि. 1(2).18; 19; दी. सहजातानुयोजनरसो, ..., विसुद्धि. 1.137; सहजातानं नि. 3.180; अनुरक्खणाप्पधानन्ति समाधिनिमित्तं अनुरक्खन्तस्स अनुयोजनं आरम्मणे अनुविचारणसङ्घातअनुमज्जन-वसेनेव उप्पन्नवीरियं, अ. नि. अट्ठ. 2.253; - णभब्ब त्रि., वह, वेदितब्ब, विसुद्धि, महाटी. 1.156.
पुद्गल या व्यक्ति जिसकी विमुक्ति अथवा चित्तविशुद्धि की अनुय्योजेत्वा अनु + युज के प्रेर. का पू. का. कृ.. अर्हता अनुरक्षण पर आधारित नहीं रहती है - सचे न अनुयोजित कराके, किसी अन्य के साथ जुड़वा कर या अनुरक्खति, परिहायति ताहि समापत्तीहि - अयं वुच्चति सङ्गति बैठवा कर - ... अप्पेव नाम अत्तनो धम्मतायेपि पुग्गलो अनुरक्खणाभब्बो, पु. प. 118; अनुरक्खणाभब्बोति सल्लक्खेय्या ति अनुय्योजेत्वा तिट्ट, तात, याव ते यागुभत्तं अनुरक्षणाय अपरिहानि आपज्जितुं भब्बो, पु. प. अठ्ठ. 34. सम्पादेमि, ध. प. अट्ठ. 2.291; स. नि. अट्ठ. 1.269. अनुरक्खति अनु + रक्ख का वर्त, प्र. पु., ए. व. अनुय्यान नपुं., संभवतः अनु + उय्यान से व्यु. [अनूद्यान]. [अनुरक्षति], रक्षा करता है, सुरक्षित बनाए रखता है, छोटा सा उद्यान, साधारण बाग - अनेकानुभवाधारे देखभाल करता है, निगरानी करता है, ठीक-ठाक करके या नानानुय्यानसुन्दरे चू. वं. 68.58; संभवतः नानाउय्यानसुन्दरे विशोधित करके रखता है - भिक्खु ... समाधिनिमित्तं के स्थान पर भ्रष्ट पाठ.
अनुरक्खति अट्ठिकसझं ... उद्धमातकसङ्ख, अ. नि. अनुय्युत त्रि., उय्युत का निषे. [अनुद्युत], सार्थक, विषय 1(2).19; दी. नि. 3.181; अनुरक्खतीति समाधिपारिया सन्दर्भ के सर्वथा अनुरूप, समयानुरूप - अत्थं न हापेति पन्थिकधम्मे रागदोसमोहे सोधेन्तो रक्खति, अ. नि. अट्ठ. अनुय्युतं भणं, महाव. 483; अनुय्युतं भणन्ति अनुज्ञातं 2.253; दी. नि. अट्ठ. 3.184; सचे अनुरक्खति, न परिहायति अनपगतं भणन्तो, महाव. अट्ठ. 410.
ताहि समापत्तीहि, पु. प. 118; सचे अनुरक्खतीति सचे अनुरक्ख पु.. [अनुरक्ष], सुरक्षा, सुरक्षण - विजयो विजितो अनुपकारधम्मे पहाय उपकारधम्मे सेवन्तो समापज्जति, पु. च सो नावं अनुरक्खे न च, दी. वं. 9.32.
प. अट्ठ, 34; - ते वर्त.. प्र. पु.. ए. व., आत्मने.. उपरिवत् अनुरक्खक त्रि., अनु + रक्ख से व्यु. [अनुरक्षक], सुरक्षा - माताव पुत्तं अनुरक्खते पतिं, अ. नि. 2(2).230; - न्त करने वाला, सुरक्षित रखने वाला, संधारक - केवल स. उ. वर्त. कृ., सुरक्षित या नियन्त्रित रखता हुआ - प. में ही प्राप्त, वंसानु. के अन्त. द्रष्ट...
सच्चवाचानुरक्खन्तो, जीवितं चजितुमुपागम, चरिया. 404; अनुरक्खण क. नपुं, अनु + रक्ख से व्यु., क्रि. ना. - न्तेन वर्त. कृ., तृ. वि., ए. व. - तुम्हाकं चित्तं अनुरक्खन्तेन [अनुरक्षण], संरक्षण, सुरक्षा, संधारण, जो उपलब्ध है या मया एवं वुत्तं नेवेत्थ तुम्हाक दोसो अत्थि, न मरह, ध. प. उत्पन्न है उसको ठीक से सुरक्षित रखना - अम्हाकं ... अट्ट, 1.351; - क्ख अनु., म. पु., ए. व., तू रक्षा कर, अम्हाकं अनुरक्खणत्थाय अरञ्जवासं अनुजानि, जा. अट्ठ. सुरक्षित बनाकर रख - ..., तमेव त्वं साधुकमनुरक्खा ति, 1.138; ... या च लद्धस्स अनुरक्खणा, ... उप्पन्नस्स पन दी. नि. 3.25; - क्ख थ अनु., म. पु.. ब. व., तुम लोग रक्षा अनुरक्खणमेव भारो, जा. अट्ठ. 5.112; ख. त्रि., संरक्षक, करो, सुरक्षित अथवा नियन्त्रित करके रखो- अप्पमादरता संधारक, सुरक्षितरूप में रखने वाला - अञवादो सारत्थो होथ, सचित्तमनुरक्खथ, ध. प. 327; - क्खे विधि., प्र. पु.. सद्धम्ममनुरक्खणो, दी. वं. 4.30; स. उ. प. के रूप में ए. व., सुरक्षित रूप में रखे, रक्षा करे - माता यथा नियं इन्द्रियानु., चित्तानु., वण्णानु., वुत्तानु., सत्तानु, सीलानु के पुत्तमायुसा एकपुत्तमनुरक्खे, सु. नि. 149; - क्खेय्य अन्त. द्रष्ट; - रक्खणा/रक्खना स्त्री., संरक्षण, सुरक्षा विधिः, प्र. पु., ए. व., उपरिवत् - पझं नप्पमज्जेय्य, - संवरो च पहानञ्च, भावना अनुरक्खणा, अ. नि. 1(2).19; सच्चमनुरक्खेय्य, चागमनुब्रूहेय्य, सन्तिमेव सो सिक्खेय्या ति, अलद्धस्स च यो लाभो, लद्धस्स चानुरक्खणा, जा. अट्ठ. म. नि. 3.288; - क्खिसामि भवि., उ. पु., ए. व., मैं सुरक्षा 5.111; ...., या च लद्धस्स अनुरक्खणा, जा. अट्ठ. 5.112; करूंगा, सुरक्षित रखूगा, संयमित करके रखूगा - ..., - पधान/प्पधान नपुं. तत्पु. स. [अनुरक्षणप्रधान], सुरक्षा तमेवाहं साधुकमनुरक्खिसामीति, दी. नि. 3.25; -क्खिस्सते
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32.
अनुरक्खमानक 283
अनुराध भवि., प्र. पु., ए. व. , आत्मने., उपरिवत् - एवं 448; अनुरत्ता भत्तारन्ति भत्तारं अनुवत्तिका, थेरीगा. अट्ठ. कुसलधम्मानं, अनुरक्खिस्सते अयं, अप. 2.258; - क्खितुं 294. निमि. कृ., रक्षा करने के निमित्त - कीळितुं अभिसित्तानं अनुरथं अ., क्रि. वि. [अनुरथं], रथ के पीछे-पीछे - ... चरितं चानुरक्खितुं, म. वं. 26.7; - क्खितब्बं सं. कृ., पच्छात्थे अनुरथं, भूसत्थे अनुरत्तो, ..., सद्द. 3.883; मो. व्या. अनुरक्षण या सुरक्षा की जानी चाहिए, अनुरक्षण करने योग्य - ..., कायिकं वाचसिक अनुरक्खितब्बं, ..., मि. प. 102. अनुरव पु., अनु + रु से व्यु., क्रि. ना. [अनुरव], एक अनुरक्खमानक त्रि., अनु + ।रक्ख के वर्त. कृ., आत्मने. ध्वनि होने के बाद में उत्पन्न अनुगूंज या आवाज, केवल से व्यु., संधारक, रक्षा करने वाला, सुरक्षित रखने वाला - स. उ. प. के रूप में ही प्राप्त, घण्टानुरव के अन्त. द्रष्ट.. तथेव सील अनुरक्खमानका, सुपेसला होथ सदा सगारवाति, अनुरवति अनु + रु का वर्त., प्र. पु., ए. व. [अनुरौति], सद्धम्मो. 621; विसुद्धि. 1.33; दी. नि. अट्ठ. 1.53. गूंजता है, बाद में आवाज करता रहता है - यथा, महाराज, अनुरक्खा स्त्री., [अनुरक्षा], सुरक्षा, रखवाली - ननु, भन्ते, कंसथालं आकोटितं पच्छा अनुरवति अनुसन्दहति, मि. प. भगवा अनेकपरियायेन कुलानं अनुद्दयं वण्णेति, अनुरक्खं । 64; यथा, महाराज, भेरी आकोटिता अथ पच्छा अनुरवति वण्णेति, स. नि. 2(2).309; अत्तानुरक्खाय भवन्ति हेते. अनुसद्दायति, ध. स. अट्ठ. 159-60. हत्थारोहा रथिका पत्तिका च, जा. अट्ठ. 5.481.
अनुरवना स्त्री., अनु + रु से व्यु. [अनुरवन, नपुं०], गूंज, अनुरक्खित अनु + रक्ख का भू. क. कृ. [अनुरक्षित], वह, बाद में उत्पन्न आवाज - यथा अनरवना एवं विचारो जिसकी रक्षा की गयी है या जिसे सुरक्षित अथवा नियन्त्रित दहब्बो ति, मि. प. 64. करके रखा गया है - तयानुगुत्तोति तया अनुरक्खितो, जा. अनुरहो अ, निपा., क्रि. वि. [अनुरहसं], छिपे हुए रूप से, अट्ठ. 5.395.
एकान्त में, गुप्त रूप से, अप्रकट रूप से - आपत्तिञ्च वत अनुरक्खिय अनु + रक्ख का सं. कृ. [अनुरक्ष्य], रक्षा आपन्नो अस्सं अनुरहो मंभिक्खू चोदेय्यं नो सङ्घमज्झेति, किये जाने या नियन्त्रित करने योग्य, केवल स. उ. प. में म. नि. 1.34; अनुरहो मन्ति पुरिमसदिसमेव भिक्खं गहेत्वा ही प्राप्त, दुरनुरक्खिय के अन्त. द्रष्ट....
विहारपच्चन्ते सेनासनं पवेसेत्वा द्वारं थकेत्वा चोदेन्ते इच्छति, अनुरक्खिस्सते अनु + रक्ख के कर्म. वा. का भवि., प्र. म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).154. पु., ए. व., आत्मने. सुरक्षित या नियन्त्रित करके रखा अनुराज पु., राजतिलक किया गया सहायक अथवा जाएगा - एवं कुसलधम्मानं, अनुरक्खिस्सते अयं, अप. साधारण शासक, गौण या छोटा राजा - मुद्धाभिसित्तो 2.258.
अनुराजा उपराजा ति भासितो, सद्द. 2.347; बहूहि अमच्चेहि अनुरक्खी त्रि., सुरक्षा करने वाला, संयम या नियन्त्रण सद्धिं तत्थ गन्वा अनुराजभावेन रज्ज कारापेसि, सा. वं. रखने वाला, सुरक्षित स्थिति में रखने वाला - गुव्हमनुरक्खी 49(ना.). चाहं यावाहं जीविस्सामि ताव गुरहमनुरक्खिस्सामि, मि. प. अनुराध व्य. सं., [अनुराध], क. एक स्थविर का नाम, उसी 105.
से सम्बद्ध, स. नि. के कुछ सुत्तों का शीर्षक - ... आयस्मा अनुरञ्जन्त अनु + रज का वर्त. कृ., अलङ्कत अथवा । अनुराधो भगवतो अविदुरे अरञकुटिकायं विहरति, स. नि. प्रभासित करता हुआ, प्रज्वलित होता हुआ, सुशोभित होता 2(1).106-108; 2(2).349-353; ख. श्रीलङ्का के प्रथम हुआ - पभाहि अनुरञ्जन्तो, लोके लोकन्तगू जिनो, अप. शासक विजय के एक साथी का नाम - निवासद्वानराधानं 2.146; थेरगा. अट्ठ. 2.430; पभाहि अनुरञ्जन्तोति सो । अनुराधपुरं अहु, म. वं. 10.76; नगरस्स तोहि कारणेहि नाम पद्मुत्तरो भगवा नीलपीतादिछब्बण्णपभाहि रंसीहि अनुरञ्जन्तो ठपेन्तो निवासत्तानुराधनाति आदिमाह, तत्थ ... देविया भातु जलन्तो सोभयमानो विज्जोतमानोति अत्थो, अप, अट्ठ. अनुराधो चा ति इमेसं द्विन्न अनुराधानं निवसितत्ता 1.251.
अनुराधनक्खत्तेन पतिट्ठापितताय च अनुराधपुरं नाम अहोसी अनुरत्त त्रि., अनु + रज का भू. क. कृ. [अनुरक्त], ति अत्थो, म. वं. टी. 254(ना.); नक्खत्तनामको मच्चो लगाव या राग से युक्त, किसी के प्रति पूरी तरह से मापेसि अनुराधपुर दी. वं. 9.35; ग. एक शाक्यवंषीय समर्पित - अनुरत्ता भत्तार, तस्साहं विद्देसनमकासि थेरीगा. राजकुमार का नाम - उरुवेलानुराधानं निवासा च तथा
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अनुराधपुर 284
अनुरुध तथा, म. वं. 9.9; तेसं उरुवेल-अनुराधानं निवासा च द्रष्ट.; - पटिविरुद्ध त्रि.. राग एवं विरोध से युक्त - सा तथा उरुवेलअनुराधा ति वुच्चन्ती ति अत्थो, ..., सो पनावु सो, निट्ठा अनुरुद्धप्पटिविरुद्ध स्स उदाहु अनुराधो वासिं कारेसी ति सम्बन्धो, म. वं. टी. 237(ना.); अननु रुद्धअप्पटि-विरुद्धस्सा ति, म. नि. 1.95%3B रामो तिस्सो अनुराधो च महालि दीघावु रोहिनि, दी. वं. अनुरुद्धपटिविरुद्धस्साति रागेन अनुरुद्धस्स कोधेन 10.6; घ. अनुराधपुर का संक्षिप्तीकृत रूप - उपतिस्सगाम पटिविरुद्धस्स, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).322. मापेसि अनुराधस्स उत्तरे, म. वं. 7.44; - गाम पु.. अनुरुद्ध' पु., क. एक बुद्ध का नाम - अनुरुद्धो नाम [अनुराधग्राम]. श्रीलङ्का के प्राचीन नगर अनुराधपुर का ही सम्बुद्धो, सयम्भू अपराजितो, अप. 1.385; ख. कौण्डिन्य बुद्ध दूसरा नाम - अनुराधगामं तन्नामो कदम्बनदियन्तिके, म. के उपस्थापक या सेवक का नाम - अनुरुद्धो नामुपट्ठाको, वं. 7.43; - नगर नपुं., अनुराधपुर का ही एक अन्य कोण्डअस्स महेसिनो, बु. वं. 4.30; कोण्डअस्स बुद्धस्स नाम - ततो नुराधनगरं अभिगम्म यथाविधि, चू. वं. 59.8%; पन रम्मवती नाम नगरं ... भद्दो च सुभद्दो च द्वे अग्गसावका, गन्त्वा नुराधनगरं सयञ्च विधिकोविदो, चू. वं. 74.7. अनुरुद्धो नामु-पट्ठाको, तिस्सा च उपतिस्सा च द्वे अग्गसाविका, अनुराधपुर नपुं.. श्रीलङ्का की प्राचीन राजधानी का नाम, ... वस्ससतसहस्सं आयुप्पमाणं अहोसि, जा. अट्ठ. 1,40; ग. जिसे अनुराध ने स्थापित किया था, अनुराधपुर एवं अनुराराम बुद्ध के प्रमुख शिष्यों में से एक का नाम, जो कि शाक्यवंशीय रूप में भी उल्लिखित - नक्खत्तनामको मच्चो मापेसि था - इत्थं सुदं आयस्मा अनुरुद्धो थेरो इमा गाथायो अनुराधपुर दी. वं. 9.35; निवासट्टानुराधानं अनुराधपुरं अहु अभासित्थाति, अप. 1.33; घ. अनुरुद्धसतक, नामरूपपरिच्छेद, नक्खत्तेनानुराधेन पतिट्ठापितताय च. म. वं. 10.70; थेरो परमत्थविनिच्छय तथा अभिधम्मत्थसङ्गह नामक ग्रन्थों के तस्स ... वेहासं उप्पतित्वा अनुराधपुरस्स पुरथिमदिसाय रचयिता एक सिंहली भिक्षु का नाम - अभिधम्मावतारं ... मिस्सकपब्बते पतिहि, पारा. अट्ठ. 1.51; - रक्खक पु.. बुद्धदत्तथेरो, विनयसंगहं सारिपत्तथैरो, ... परमत्थविनिच्छयं तत्पु. स., अनुराधपुर नगर का रक्षक - अथ, एकदा नामरूपपरिच्छेदं अभिधम्मत्थसङ्गहञ्च अनुरुद्धथेरो महामच्चो नुराधपुररक्खको, चू, वं. 72.65.
संवणितत्ता सुखेन च लक्खणियत्ता लक्खणगन्धा ति अनुराधा स्त्री., [अनुराधा], 27 नक्षत्रों की सूची में सातवें उच्चन्ति, सा. वं. 31(ना.); ङ(1). अनेक राजाओं का नाम, नक्षत्र का नाम - विसाखानुराधा जेट्ठा मूलासाळ्हा दुवे तथा उदयभद्द के उत्तराधिकारी पुत्र तथा मुण्डक के पिता का अभि. प. 59; ... विसाखा अनुराधा जेट्ठा मूलं पुब्बासाळ नाम - उदयभद्दपुत्तो तं घातेत्वा अनुरुद्धको, म. वं. 4.2; उत्तरासाळ .... सद्द. 2.359.
अजातसत्तु बिम्बिसारं घातेसि, उदयो अजातसत्तुं. तस्स अनुराराम पु.. व्य. सं., श्रीलङ्का के रोहण में स्थित पुत्तो महामुण्डिको नाम उदयं तस्स पुत्तो अनुरुद्धो नाम अनुराधपुर विहार का हीं दूसरा नाम - कारेसि अनुराराम महामुण्डिक दी. नि. अट्ठ. 1.128; ङ.(2). श्रीलङ्का के महागामस्स सन्तिके, म. व. 35.83; कारेसिनुराधाराम ति अरिमद्दनपुर के एक शासक का नाम - सो च महागामस्स सन्तिके ततो उत्तरदिसाभागे अनुराधनामकं सिरिसङ्घबोधिराजा अम्हाकं मरम्मरटे अरिमद्दननगरे अनुरुद्धन विहारं च कारेसि, म. वं. टी. 608(ना.); कारेसि पोसथागारं नाम रञा समकालवसेन रज्जसम्पत्तिं अनुभवि, सा. वं. अनुरारामसव्हये, म. व. 36.37; 30.
23(ना.); ङ.(3). हंसावती नगर (श्रीलङ्का) के राजा, अनेक अनुरुज्झति अनु + रुधि का वर्त, प्र. पु., ए. व., सेतिमिन्द के एक राजकुमार का नाम - .... बलिभुञ्जनत्थाय [अनुरुध्यते], अनुरक्त होता है, सन्तुष्ट या आनन्दित होता जेट्टपुत्तस्स अनुरुद्धस्स नाम राजकुमारस्स दत्वा, .... सा. है, स्वीकृति देता है या अनुमोदन करता है, सहमत होता वं. 49(ना.); - संयुत्त नपुं.. स. नि. के आठवें संयुत का है - सो उप्पन्नं लाभं अनुरुज्झति, अलाभे पटिविरुज्झति नाम, 365-377; - सुत्त नपुं., म. नि. तथा स. नि. के एक ..... अ. नि. 3(1).9; अनुरुज्झतीति अनुरोधो, कामेतीति सुत्त का शीर्षक या नाम; म. नि. 3.185-191; स. नि. अत्थो , ध. स. अट्ठ. 389.
1(1).231-232. अनुरुद्ध' त्रि., अनु + रुधि का भू. क. कृ. [अनुरुद्ध]. अनुरुध अनु + (रुध का धा., रुधादि एवं दिवादिगण की सहमति को प्राप्त, अनुमोदित, समर्पित, राग से युक्त, लगाव धातुओं में परिगणित [अनुरुध, रुधादिगण]. इच्छा करना, रखने वाला, स. उ. प. के रूप में अननुरुद्ध के अन्त. कामना करना, अनुकूल होना, किसी के प्रति निष्ठावान
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अनुरूप
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अनुलग्ग होना - अनुरुद्ध कामे, काम इच्छा, अनुपुब्बो रुधधातु अनुरोदति अनु + रुद का वर्त.. प्र. पु., ए. व. [अनुरोदति]. इच्छायं वत्तति, अनुरुद्धो अनुरोध, अनुस्मा ति कि विरोधो किसी वस्तु की चाह में रोता है, अभीप्सित को उद्देश्य बना तत्थ अनुरुद्धो ति अनुरुज्झति पणीतं पणीतं वत्थु कामेती कर रोता है - यथापि दारको चन्द, गच्छन्तमनरोदति, पे. ति अनुरुद्धो, अनुरोधो ति अनुकूलता, अयं पाळी, सो उप्पन्नं व. 91; जा. अट्ठ. 3.143; सो हि विज्जमानचन्दं अनुरोदति, लाभं अनुरुज्झति अलाभे पटिविरुज्झतीति, सद्द. 2.485%3; जा. अट्ठ. 3.143; अनुरोदतीति मय्हं रथचक्कं गहेत्वा प्रयोग के लिए द्रष्ट. अनुरुज्झति, अनुरुद्ध आदि के अन्त.. देही ति अनुरोदति, पे. व. अट्ठ. 55. अनुरूप त्रि., [अनुरूप], उचित या समान प्रकृति वाला, अनुरोध पु., अनु + रुध से व्यु. [अनुरोध], विनती, एकदम मिलता-जुलता, योग्य, उपयुक्त, अनुकूल, सुखद आराधना, इच्छापूर्ति हेतु निवेदन, लिहाज, विचार, समरूपता, (ष. वि. में अन्त होने वाले पदों के साथ या समास में अनुकूलता - थानुरोधोनुवत्तनं, अभि. प. 345; ... अनुरोधो प्रयुक्त)- अत्थेन अत्थिको तरस अत्थत्थिकभावस्स अनुरूप ति अनुकूलता, विसुद्धि. 2.485; ... समानताय च अत्तनि किलेसग्गिवूपसमेन सन्तं, .... सु. नि. अट्ठ. 2.120; अनुरोधं विनेन्तो एवं ..., सु. नि. अट्ठ. 2.192; अनुरोधोति तस्मास्स अनुरूपसेनासनं दस्सेन्तो भगवा अरअगतो अनुकूलता, सद्द. 2.485; - विरोध पु.. ए. व. एवं ब. व. वातिआदिमाह, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).259; ... अननुरूप में प्रयुक्त, द्व. स. [अनुरोधविरोध]. शा. अ. अनुकूल एवं विहारं पहाय अनुरूपे विहारे विहरन्तेन ..., विसुद्धि. 1.88; विपरीतभाव, स्वीकृति एवं निषेध, ला. अ. राग एवं द्वेष - अञञ्च बहुं अत्तनो अनुरूपं वदन्तो अट्टासि जा. अट्ठ. सो एवं अनुरोधविरोधं समापन्नो यं किञ्चि वेदनं वेदेति सखं 1.100; पुब्बे पन तेन कतस्स कम्मरस अनुरूपमेव मरणं वा दुक्खं वा ..., म. नि. 1.338; अनुरोधविरोधन्ति रागञ्चेव पत्तो, ध. प. अट्ठ. 2.39; - पा स्त्री०, उपयुक्त समान, दोसञ्च, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).206; अनुरोधविरोधेहि, एकदम मिलती जुलती- सण्हतुङ्गसदिसी चाति सण्हा तुङ्गा विप्पमुत्तो तथागतो ति, स. नि. 1(1).132; चतुत्थे सेसमुखावयवानं अनुरूपाच, थेरीगा. अट्ठ. 235; - पं नपुं. अनुरोधविरोधेसूति रागपटिघेसु. स. नि. अट्ठ. 1.156; - क्रि. वि., ष. वि. में अन्त होने वाले पदों के साथ अथवा स. विप्पमुत्त त्रि., राग और द्वेष की अकुशल चित्तवृत्तियों से उ. प. के रूप में प्रयुक्त [अनुरूपं], सरलतापूर्वक, सुखदरूप पूरी तरह से मुक्त - योगानुभावो हि एस, यदिदं में, अनुकूलता में, अनुरूपं, मो. व्या. 3.2; - तो प. वि. अनुरोधविरोधविप्पमुत्तो अरतिरतिसहो अभूतपक्खेपभूताप्रतिरू. निपा., क्रि. वि., सप्त. वि. में अन्त होने वाले पदों पनयनविरहितो च होति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).255; - के साथ अथवा स. उ. प. के रूप में प्रयुक्त [अनुरूपतः], विप्पहीन त्रि., वह, जिसने राग और द्वेष को पूरी तरह सङ्गति में, सरलता के साथ, अनुकूल रूप में - से नष्ट कर लिया है - अनुरोधविरोधविप्पहीनो, सम्मा सो उक्कंसरसावकंसस्स, अन्तरे अनुरूपतो, अभि. अव. 100%; लोके परिब्बजेय्य, सु. नि. 364; ततियगाथाय अत्थानुरूपतो सद, अत्थं सद्दानुरूपत्तो, सद्द. 1.44; स. उ. अनुरोधविरोधविप्पहीनो ति सब्बवत्थूसु पहीनरागदोसो. सु. प. के रूप में अज्झासयानु., अत्थानु., अननु, अधिप्पायानु०, नि. अट्ठ.2.86; 192; - समतिक्कन्त त्रि., [अनुरोधविरोधअपराधानु, अभिसमयानु., आविभावानु. इच्छानु, ओकासानु, समतिक्रान्त], वह, जो राग और द्वेष के अकुशल मनोभावों कम्मानु.. कालानु, आणबलानु., तथानु, तदनु, पञानु.. को पार कर चुका है, राग एवं द्वेष पर विजय पा चुका पटिञानु, पाळिनयानु.. मगधभासानु., यथानु., योगानु.. व्यक्ति - अनुनयपटिघविप्पहीनो उग्घातिनिघातिवीतिवत्तो वचीदुच्चरितानु, वयानु, विभावानु.. सकसकभासानु, सद्दानु, अनुरोधविरोधसमतिक्कन्तो, महानि. 82; अनुरोधविरोधससानु, सुभानु के अन्त. द्रष्ट; - त्त नपुं, भाव. [अनुरूपत्व]. मतिक्कन्तोति अनुनयञ्च पटिघञ्च सम्मा अतिक्कन्तो, समानता, अनुकूलता, हितकरता - मतिया अनुरूपत्ता, महानि. अट्ट, 194; - समापन्न त्रि., [अनुरोधविरोधसमापन्न], अनुमज्जनलक्खणो, अभि. अव. 122; - समावभूत त्रि., राग और द्वेष से ग्रस्त - सो एवं अनरोधविरोधसमापन्नो न [अनुरूपस्वभावभूत], किसी की प्राप्ति में सहायक स्वभाव । परिमच्चति जातिया जराय मरणेन ... दोमनस्सेहि उपायासेहि वाला, अनुरूप स्वभाव वाला - धम्मानुधम्मप्पटिपन्नोति अ. नि. 3(1).9; म. नि. 1.338. लोकुत्तरस्स निब्बानधम्मस्स अनुधम्मभूतं पटिपदं पटिपन्नो, । अनुलग्ग त्रि., [अनुलग्न], साथ में लगा हुआ, पीछे से जोड़ा हुआ, अनुधम्मभूतन्ति अनुरूपसभावभूतं, स. नि. अट्ठ. 2.31. अनुगत - अन्वासत्ताति अनुलग्गा वोकिण्णा, उदा. अट्ठ. 177.
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अनुनतिस्स
286
अनुलेपनमत्तिका अनुलतिस्स पब्बत पु., श्रीलङ्का के गङ्गराजि-क्षेत्र में स्थित सीलगन्धेन अनुलित्ता भगवतो पुत्ता सदेवकं लोक एक पर्वत तथा एक विहार का नाम - पाचीनतो सीलगन्धेन धूपेन्ति सम्पधूपेन्ति, मि. प. 303; स. उ. प. के अनळतिस्सपब्बतं गङ्गराजियं ति पाचीनदिसायं गङ्गराजियं रूप में चन्दनगन्धरसानुलित्त, चन्दनसारानु, चन्दनानु. अनुळातिस्सपब्बतं नाम विहारं न नियेलतिरसारागमंचा ति आदि के अन्त. द्रष्ट.; - सीलगन्ध त्रि., ब. स. नियेलतिस्सपब्बतरामविहारं च, म. वं. टी. 616(ना.). [अनुलिप्तशीलगन्ध], वह, जिसे शील रूपी सुगन्धित पदार्थ अनुला/अनुळा स्त्री., व्य. सं.. 1. कश्यप बुद्ध की एक का लेप या उबटन किया गया है, शीलवान् - परूळ्हकच्छलोमो प्रमुख शिष्या या अग्रश्राविका का नाम - तस्स भगवतो सो अनजितअमण्डितो अनलित्तसीलगन्धो, मि. प. 161. जातनगरं बाराणसी नाम अहोसि, ब्रह्मदत्तो नाम ब्राह्मणो अनुलिम्पति अनु + लिम्प का वर्त, प्र. पु., ए. व. पिता, धनवती नाम ब्राह्मणी माता, तिसो च भारद्वाजो च द्वे [अनुलिम्पति, अनुलिम्पते]. लेप करता है, उबटन करता अग्गसावका, सब्बमित्तो नामुपट्टाको, अनुळा च उरुवेला च है, लीपता या पोतता है, लेप लगाता है, आच्छादित कर वे अग्गसाविका, निग्रोधरुक्खो बोधि, ..., जा. अट्ठ. 1.53; देता है - कुसलो भिसक्को.... अन्तोसल्लं सुसिरगतं ... अनुळा उरुवेळा च, अहेसुंअग्गसाविका, बोधि तस्स भगवतो, वणं वूपसमेन्तो वणमुखं ... भेसज्जेन अनुलिम्पति निग्रोधोति पवुच्चति, बु. वं. 26.39; 2. वाराणसी के चूळसेट्ठी परिपच्चनाय, ..., मि. प. 120; - म्पिं अद्य., उ. पु., ए. की एक पुत्री का नाम - बाराणसियं ... चूळसेटि नाम व., मैंने अवलेपन किया - फलं बुद्धस्स दत्वान, अगळु अहोसि, सो कालं कत्वा पेतेसु निब्बत्ति, तस्स कायो .... अनुलिम्पहं, अप. 1.383; काळानुसारियं गरह, अनुलिम्पिं अहोसि, धीता पनस्स अनुला ... पे. व. अट्ठ. 93; तथागतं, अप. 1.356; - म्पेत्वा पू. का. कृ., लेप लगाकर 3. श्रीलङ्का के शासक देवानम्पिय तिस्स के भाई महानाग - सम्बुद्धमनुलिम्पेत्वा, सन्थविं लोकनायकं अप. 1.356; - की रानी तथा मुटसीव की उस पुत्री का नाम, जिसने म्पितब्ब सं. कृ., लेप किया जाना चाहिए- एवमेव सङ्घमित्रा से प्रव्रज्या ग्रहण की - ... अनुळा देवी पब्बजितुकामा खो, महाराज, योगिना ... मेत्ताभेसज्जेन मानसं अनलिम्पितब्ब हुत्वा रओ आरोचेसि, .... पारा. अट्ठ. 1.63; 4. खल्लाहनाग मि. प. 364; - म्पन नपुं., क्रि. ना. [अनुलेपन], लेप या एवं वट्टगामिणि की रानी का नाम - महाळिकनाम तं उबटन लगाने की क्रिया - सत्तग्गहणछेदनलेखनवेधनपुत्तहाने उपेसि च, तम्मातरं अनुळादेवि महसिं च अकासि सल्लुद्धरणवणधावन सो सनभे सज्जालिम्पनवमसो, म. वं. 33.35-36; 5. चोरगाग, सिव एवं वटुक की रानी नविरेचनानुवासनकिरियमनुसिक्खित्वा .... मि. प. 320; - का नाम - चोरनागरस देवी तु विसमं विसमानुला, ..., म. म्पेति प्रेर. का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अनुलिम्पयति], लेप वं. 34.16-29.
लगवाता है, मलहम के लेप को लगवाता है - ... अनुलेपनीयं अनुळाप पु., अनु + Vलप से व्यु. [अनुलाप], कथन की अनुलिम्पेति, अनुवासनीयं अनुवासेति, मि. प. 166; ते
पुनरावृत्ति, पुनरुक्ति - मुहुम्भासानुलापो, अभि. प. 123. सदेवकं लोकं सीलवरचन्दनगन्धेन अनलिम्पयन्तीति, मि. अनुळार त्रि., उळार का निषे. [अनुदार]. छोटा, हल्का, वह, प. 236. जो बड़ा अथवा विशाल नहीं है; - क त्रि., उपरिवत् - अनुलेप पु०, अनु + लिप से व्यु., क्रि. ना. [अनुलेप], चतुरासीतिसहस्सानि पूजा च अनुळारिका, म. वं. 34.59; - मलहम लगाकर पट्टी या प्लास्टर बांध देना - निट्टिते त्त नपुं.. भाव. [अनुदारत्व]. हल्का-फुल्का या साधारण होने नवकम्मे च, अनुलेपमदासहं, अप. 1.269; दिस्सन्ति, भन्ते की अवस्था - तस्स च अप्पकत्ता अनुळारत्ता च आसनकान्ति नागसेन, वेज्जानं उपक्कमा भेसज्जपानानुलेपा, मि. प. आह, वि. व. अट्ट, 18.
152. अनुलित्त त्रि., अनु + लिम्प का भू. क. कृ. [अनुलिप्त]. अनुलेपदायक पु.. व्य. सं., दो स्थविरों के लिये प्रयुक्त वह, जिसे सुगन्धित तेल आदि का लेप लगाया गया है उपाधि - इत्थं सुदं ... अनुलेपदायको थेरो इमा गाथायो अथवा उबटन किया गया है - राजा न्हातानुलित्तो अभासित्थाति, अप. 1.176; 269-70. सुमण्डितप्पसाधितो नानग्गरसभोजनं भुजि, जा. अट्ठ. अनुलेपनमत्तिका स्त्री., तत्पु. स. [अनुलेपनमृत्तिका], लीपने1.257; जातिसुमनमल्लिकादीनं विय पुष्कं नहातानुलित्तस्स, पोतने के काम में प्रयुक्त मिट्टी - मत्तिकन्ति अनुलेपमत्तिक जिघच्छितस्स विय पणीतभोजनं, मि. प. 323; येन म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).128.
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अनुलेपनीय
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अनुलेपनीय त्रि.. अनु + √लिप का सं. कृ. [अनुलेपनीय). लेप किये जाने योग्य, लिपाई-पोताई किये जाने योग्य अनुलेपनीयं अनुलिम्पेति, मि. प. 166. अनुलोकी/ अनुलोकिक त्रि, देखने वाला, दृष्टिपथ में रखने वाला सीसानुलोकिनो हुत्वा अनुगता होती अत्थो, दी. नि. अट्ठ. 1.39; सारिपुत्तत्थेरोपि तस्स गमनं सुत्वा सीसानुलोकिको गन्त्वा ओकासं सल्लखेत्वा तं सत्तविसुद्धिक्कम पुच्छि अ. नि. अड. 1.159 अनुलोम त्रि.. विविध रूपों में प्रयोग [ अनुलोम]. शा. अ. बालों के अनुरूप, ला. अ. क. बालों की तरह ऊपर से नीचे की ओर आने वाला, नियमित या स्वाभाविक क्रम के अनुसार, अनुकूल, सीधे क्रम में बताति अनुलोमवचनत्थे निपातो, पटि. म. अट्ठ. 1.304; अपि नु मे तं. .... अनुलोमं अभविस्स आणस्स उप्पादाय सब्बे धम्मा अनत्ता'ति, स. नि. 2 (2).366 मेन तृ. वि. ए. व. अनुलोम या सीधे क्रम के द्वारा अनुलोमेन धम्मद्वितियं निब्बाने व पटिलोमभावस्स सु. नि. अड. 18 तो प. वि. प्रतिरू, निपा., अनुलोमक्रम से, क्रमसङ्गत रूप से सीधे क्रम से बोधिपक्षियधम्मानं उद्धञ्च अनुलोमतो अभि. अब 162: ख. मं. अ. क्रि. वि. नियिमित क्रम के अनुसार, सीधे क्रम से अथ खो भगवा - पठमं ग्रामं पटिव्यसमुप्पादं अनुलोमं साधुकं मनसाकासि उदा. 69. अथ वा आदितो पहाय अनुलोमतो अनुलोमो, तं अनुलोमं साधुकं मनसाकासीति सक्कच्च मनसि अकासि, उदा. अट्ठ. 31; ग. पु. / नपुं०, अनुधम्मं से निर्मित अनुधम्म के अनुकरण पर व्यु. सीधा या नियमित क्रम अथ वा आदितो पद्वाय अन्तं पापेत्वा वृत्तत्ता पत्तिया वा अनुलोमतो अनुलोमो, ते अनुलोम, उदा. अड. 31 अनुलोमपटिलोमन्ति अनुलोमञ्च पटिलोमञ्च, महाव, अड. 226; घ. नपुं०, तीसरा जवनचित्त, गोत्रभू से पूर्व की चित्त की एक अवस्था अप्पनायानुलोमत्ता, अनुलोमानि एव च तदेव, अनुलोमेन धम्मद्वितियं निब्बाने च पटिलोमभावतो, उदा. अ. 27; यस्मिहि जवनवारे अरियमग्गो उप्पज्जति, तत्थ यदा द्वे अनुलोमानि तदा ततियं गोत्रभु, चतुत्वं मग्गचितं ततो पर तीणि फलचित्तानि होन्ति, उदा. अनु. 27; ततियं जवनचित्तं, अनुलोमन्ति सञ्ञितं, अभि. अव 162; तस्मा तीणि फलानि हि, अनुलोमा तयो होन्ति, अभि. अव 165; स. उ. प. के रूप में अनत्तसञ्ञानु, अनिच्चसज्ञानु कप्पियानु.. कसिणानु. झानानु.. दुक्खसानु, निब्बिदानु पच्चनीयानु, पाठानु, विमोक्खानु,
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अनुलोम
सच्चानु, सासनानु तथा सुत्तानु के अन्त द्रष्ट क नपुं. तीसरा जवनचित्त गोत्रभू से तुरन्त पूर्ववर्ती चित्त दुतियं उपचार तं ततियं अनुलोमक, अभि. अव. 120 खन्ति स्त्री, उचित क्रम में भावना करने योग्य क्षान्ति अनुलोमखन्तिं लद्वान, मोदती तिदिवं गतोति ध. प. अ. 1.363: चित्त नपुं. कर्म. स. तीसरा जवनचित्त, गोत्रभू से सद्यः - पूर्ववर्ती चित्त - तस्मा सब्बन्तिमेन परिच्छेदेन द्वीहि अनुलोमधिरोहि भवितब्बं विसुद्धि 2.313 आण नपुं, कर्म. स. विपश्यना कर्मस्थान के दस ज्ञानों में दसवां ज्ञान, 9 ज्ञानों के कृत्यनिष्पादन में तथा बाद में 37 बोधिपक्षीय धर्मों के लिये अनुकूल विपश्यना कर्मस्थान का एक ज्ञान
निरन्तरं समाहितो अनुलोमत्राणानन्तरं गोत्रभुञणोदयतो पद्वाय, उदा. अट्ट. 154; सम्मसनञणं उदयब्बयत्राणं भङ्गञाणं भयत्राणं आदीनवत्राणं निब्बिदात्राणं मुच्चितुकम्यतात्राणं पटिसङ्गात्राणं सङ्ग्रारूपेक्खात्राणं अनुलोमजाणञ्चेति दस विपस्सनात्राणानि, अभि. ध. स. 66 पुरिमानं नवन्न किच्चनिष्पत्तिया उपरि च सत्ततिसाय बोधिपविखयधम्मानं अनुकूलंगाणं अनुलोमत्राणं, अभि. ध. वि. टी. 232: उपना स्त्री अपने प्रतिपाद्य की स्थापना के लिए उपयुक्त अथवा अनुकूल तार्किक स्थापना अयं ताव परवादी पक्खस्स उपनतो निग्गहपापनारोपनानं लक्खणभूता अनुलोमठपना नाम कथा अड. 110: त्त नपुं. भाव. [अनुलोमत्व]. अनुकूलता, उपयुक्तता, अनुकूल या उपयुक्त रहने की स्थिति अप्पनायानुलोमता, अनुलोमानि एवं च यं तं सम्बन्तिमं एत्थ गोत्रभूति पच्चति अभि. अव 899 (गा. ) धम्मानुधम्मं पटिपज्जमानोति लोकुत्तरधम्मस्स अनुलोमत्ता अनुधम्मभूतं विपस्सनं भावयमानो सु. नि. अड्ड. 2.57;
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धम्म पु. कर्म. स. [अनुलोमधर्म] अनुकूल धर्म, उपयुक्त प्रत्यवेक्षण अयमनुधम्मोति अयं अनुलोमधम्मो होति. स. नि. अड्ड. 2.236 नय पु. कर्म, स. [अनुलोमनय] अपनी तार्किक स्थापना के लिये अनुकूल तर्क-पद्धति इदानि धम्मेन... दस्सेतुं अनुलोमनये पुच्छा सकवादिस्स, अत्तनो लद्धिं निस्साय पटिज्ञा परवादिस्स कथा अट्ठ. 113; पक्ख पु.. कर्म. स. [अनुलोमपक्ष], तार्किक स्थापना में अनुकूल पक्ष तेन व्रत रेतिआदि अनुलोमपको निग्गहस्स पापितत्ता अनुलोमपापना नाम, कथा. अ. 110; -पच्चनीय नपुं. दुकपद्वान की एक प्रकार की गणनापद्धति का शीर्षक यथा कुसलत्तिके अनुलोमपच्चनीयगणना एवं गणेतब्ब पट्टा. 2.34: पञ्चक नपुं. कथा की पुग्गलकथा
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अनुलोमक
की कुछ वर्णनाओं का शीर्षक: कथा. 2 पटिपदा स्त्री.. कर्म. स. [ अनुलोम-प्रतिपत्] उपयुक्त अथवा उपयुक्त मार्ग, अनुकूल प्रक्रिया, सीधी तर्क-पद्धति सम्मापटिपदाय अनुलोमपटिपदाय अपच्यनीकपटिपदाय सीलेसु परिपूरिकारिताय इन्द्रियेसु गुत्तद्वारताय भोजने 'मत्तश्रुताय महा. नि. 10 अनुलोमपटिपदायाति अविरुद्धपटिपदाय, न पटिलोमपटिपदाय महानि, अह. 50: समणसामीचिप्पटिपदाति समणानं अनुच्छविका समणानं अनुलोमप्यटिपदा म. नि. अट्ठ. ( मू०प.) 1 (2). 221; - पटिलोम त्रि. सीधे तथा उलटे क्रम वाला, आगे की ओर से तथा पीछे की ओर से प्रारम्भ होने वाला मं अ. क्रि. वि., सीधे एवं उलटे क्रम से, नियमित क्रम में एवं विपरीत क्रम में अथ खो भगवा रतिया पठमं ग्रामं पटिच्चसमुप्पादं अनुलोमपटिलोम मनसाकासि, महाव. 1; अनुलोमपटिलोमन्ति अनुलोमञ्च पटिलोमञ्च, महाव. अड. 226 एवं अनुलोमपटिलोमं छसु देवलोकेसु सम्पत्तिं अनुभवन्ता विचरन्ति जा. अट्ठ. 4.431 छसु कामावचरसग्गेसु अनुलोमपटिलोमेन महन्तं देविस्सरिय अनुभवन्ता विचरन्ति जा. अड. 4.284 पद्वान नपुं. पट्टा. अ. के एक खण्ड का शीर्षक, पट्टा. अट्ठ. 490; - पापना स्त्री. तत्पु, स. अनुलोमपक्ष में निग्रह की प्राप्ति तेन यत रेतिआदि अनुलोमपक्खे निग्गहस्स पापितत्ता अनुलोमपापना नाम, कथा. अड. 110; - रोपना स्त्री, अनुलोम-पक्ष की तर्क-पद्धति में निग्रह का आरोपण या दोष का आविष्करण
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यं तत्थ वदेसीतिआदि अनुलोमपक्ो निग्गहस्स आरोपितत्ता अनुलोमरोपना नाम, कथा. अड. 110 मावसान नपुं. अप्पनावीथि के तृतीय चरण अनुलोम का अन्त या समाप्ति अनुलोमावसानहि सूरे तिक्खं विपस्सनं अभि, अव. 1325. अनुलोमिक 1 त्रि. [अनुलोमिक] उचित क्रम में आया हुआ, क्रमसङ्गत, स्वाभाविक अथवा नियमित क्रम में प्राप्त, ठीक या नियमित क्रम वाला, सीधे क्रम के हिसाब से रखा गया एस वीघनिकायोति, पठमो अनुलोमिको, ध. स. अट्ट. 27; अयं अनुलोमिकायं खन्तियं ठितो. उदा. अड्ड 111; ये चस्स धम्मा अवखाता, सामज्ञस्सानुलोमिका इतिवु, 74.:-. पटिच्चसमुप्यन्नेसु धम्मेसु अनुलोमिका खन्ति पटिलद्धा होति यथाभूतं आणं विभ. 389 2. नपुं. चार महाप्रदेश सुते विनये अनुलोमे, पञ्ञते अनुलोगिक, परि, 302; अनुलोमिकं नाम चत्तारो महापदेसा परि अड्ड. 202 स. उ. प. के रूप में अननु तदनु, नेतिधम्मानु, पब्बज्जितानु. भेदानु, सच्चानु, सिक्खापदानु के अन्त द्रष्ट
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अनुल्लपना
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अनुलोमेति अनुलोम के ना. धा. का वर्त. प्र. पु. ए. व. [अनुलोमयति] क. प्रायः द्वि. वि. में अन्त होने वाले नामों के साथ प्रयुक्त, ठीक-ठाक अथवा अनुकूल कर देता है, अनुकूल दिशा की ओर ले जाता है यागु देन्तो आयु देति
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वात अनुलोमेति... दसानिसंसा यागुयाति महाव. 297; - मेत्वा पू. का. कृ., अनुकूल बनाकर ठीक दिशा की ओर ले जाकर वातं अनुलोमेतीति वातं अनुलोमेत्वा हरति अ. नि. अट्ठ. 3.79; ख. किसी के द्वारा अनुकूल बना दिया जाता है या नियन्त्रित कर दिया जाता है भगवतो हि वाचाय कायो अनुलोमेति, उदा. अड. 103 तं चे अकपियं अनुलोमेति, पारा. अट्ठ. 1. 179: - न्ति वर्त, प्र० पु०, ब० व., अनुकूल या अनुरूप बना देते हैं, विनियमित कर देते हैंये ते, भिकावे, भिक्खू सुग्गहितेहि सुसन्ते हि व्यञ्जनष्पतिरूपकेहि अत्थञ्च धम्मञ्च अनुलोमेति अ. नि. 1 (1) 85 यित्वा / मेत्वान पू. का. कृ.. अपने अनुरूप करतं अनुलोमयित्वा कपिये अनवज्जे उत्वा समणधम्मं देव परियेसितब मि. प. 338: नव बुद्धवचनं अनुलोमेत्वान सब्बदा, मि. प. 338: ग. ष. वि. में अन्त होने वाले नाम के साथ आने पर अनुकूल या अनुरूप बन जाता है- अननुलोमिकेति सासनस्स न अनुलोमेतीति अननुलोमिक अ. नि. अड्ड. 2.76; भगवतो हि वाचाय कायो अनुलोमेति, कायस्सपि वाचा. म. नि. अट्ठ. (म.प.) 1(1)55: घ. सही या अनुकूल दिशा की ओर चलता है, अनुकूल हो जाता हैयथा, महाराज, वंसो यत्थ वातो, तत्थ अनुलोमेति..... मि. प. 338.
बना कर
अनुल्लपनता स्त्री. उल्लपन के भाव का निषे स्वयं को बढ़ा-चढ़ाकर नहीं कहना, डींग न हांकना अनालपनतायाति अनुल्लपनताय म. नि. अड. ( मू.प.) 1 (2).308 तुल.
अनालपनता.
134.
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अनुल्लपना स्त्री अनु + √लप से व्यु पीछे कहा गया कथन, अनुकरण पर बोला हुआ वचन, अनुवाद - यो तत्थ अनुवादो अनुवदना अनुल्लपना अनुभणना... चूळव. 196; अनुल्लपना अनुभणनाति उभयं अनुवदनवेवचनमत्तमेव चूळव. अट्ठ. 39; आलपना लपना सल्लपना उल्लपना समुल्लपना
अनुप्पियभाणिता... विम. 404 नाधिप्पाय त्रि. ब स.. स्वयं को बढ़ा-चढ़ाकर दिखलाने की प्रवृत्ति से रहित
अनापत्ति अधिमानेन, अनुल्लपनाधिप्पायस्स, उम्मत्तकस्स खित्तचित्तस्स, वेदनाद्वस्स आदिकम्मिकस्साति, पारा.
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अनुवंस
289
अनुवत्तापक अनुवंस पु., [अनुवंश], वंशज, वंशपरम्परा में आगे उत्पन्न अट्ठ. 4.31; - रे वर्तः, प्र. पु., ब. व., आत्मने., अनुसरण होने वाली संतान - अपच्चोति अनुवंसो, सु. नि. अट्ठ. 2273. करते हैं - निवातमनुवत्तरे, जा. अट्ठ.7.103; - त्ताम वर्त., अनुवग्ग त्रि., [अनुवर्ग], अपने समूह के अनुरूप, वर्ग के उ. पु.. ब. व., हम अनुगमन करते हैं - हन्द नं अनुवत्तामाति साथ सङ्गति रखने वाला - तुलासङ्घाटानुवग्गा, अनुवत्तिंसु, दी. नि. अठ्ठ. 1.232; - न्तो पु., वर्त. कृ., प्र. सोवण्णफलकत्थता, बु. वं. 1.14 (पृ.) 288; अनुवग्गाति वि., ए. व., अनुगमन करता हुआ - सो किर पुब्बे राजानं अनुरूपा, बु. वं. अट्ठ. 45...
अनुवत्तन्तो एक तण्डुलनाळि अस्सानं अग्घमकासि, जा. अनुवजति अनु + Vवज का वर्त, प्र. पु., ए. व., द्रष्ट. अट्ठ. 1.131; - न्तेहि पु., वर्त. कृ., तृ. वि., ब. व. - मं अनुब्बजति के अन्त..
अनुवत्तन्तेहि भिक्खूहि सद्धिं आवेणिक उपोसथं सड़कम्मानि अनुवज्ज त्रि., अनु + Vवद का सं. कृ. [अनुवाद्य], निन्दनीय, च करिस्सामीति अत्थो, उदा. अट्ठ. 258; - त्तेय्य विधि, प्र. केवल स. उ. प. में प्रयुक्त, अनवज्ज तथा सावज्ज के पु.. ए. व., अनुगमन या अनुसरण करे - या पन भिक्खुनी अन्त. द्रष्ट..
समग्गेन सङ्घन उक्खित्तं भिक्खं ... तमनुवत्तेय्य, .., अनुवड्डि स्त्री., [अनुवृद्धि], बाद में होने वाली वृद्धि, उन्नति पाचि. 293; - त्तेय्यु विधि., प्र. पु., ब. व., अनुगमन करें या सौभाग्य - अनुदयतायाति अनुवड्डिया, सपुब्बभागाय - अथ खो यो नेसं पाणकानं बलवतरो अस्स तस्स ते मुदितायाति अत्थो, स. नि. अट्ठ. 3.254.
अनुवत्तेय्युं ... वसं गच्छेय्यु, स. नि. 2(2).197; - त्ति अद्य., अनुवत्तक त्रि., अनु + Vवत से व्यु.. [अनुवर्तक], क. प्र. पु., ए. व., अनुगमन किया - माय्ये, एतं भिक्खं अनुगमन या अनुसरण करने वाला, निष्ठावान, परिचारक, अनुवत्ती ति, पाचि. 293; -त्तिसं अद्य., उ. पु., ए. व., मैंने पूर्णरूप से लगा हुआ - तथापि लोकाचरियो, लोको अनुगमन किया - अत्थं धम्म निराकत्वा, अधम्ममनुवत्तिसं. तरसानुवत्तको, अप. 2.155; - का प्र. वि., ब. व., अनुगमन पे. व. 504; - तिंसु ब. व., हमने अनुगमन किया - तथेव करने वाले, वफादार - कथञ्हि नाम भिक्खू देवदत्तस्स तं उक्खित्तकं भिक्खुं अनुवत्तिंसु अनुपरिवारेसुं, महाव. 458; सङ्घभेदाय परक्कमन्तस्स अनुवत्तका भविस्सन्ति वग्गवादकाति, - तिस्सति भवि०, प्र. पु., ए. व., अनुगमन करेगा - पारा. 274; अनुवत्तकाति यदिट्ठिको सो होति यखन्तिको कथन्हि नाम अय्या थुल्लनन्दा भिक्खुनी समग्गेन सङ्घन यंरुचिको तेपि तदिविका होन्ति तंखन्तिका तरुचिका, पारा. उक्खित्तं अरिष्टुं भिक्खुं ... अनुवत्तिस्सती ति, पाचि. 293; 275; - तिका स्त्री., अनुगमन करने वाली - तस्स - तिस्साम उ. पु., ब. व., हम अनुगमन करेंगे - ते तं कम्मरस ओसाने, उक्खित्तस्सानुवत्तिका, विन. वि. 1994; अनुवत्तिस्साम, सत्था गोविन्द नो भवं. दी. नि. 2.179; - ख. व्याकरण के विशेष सन्दर्भ में - अनुरूप रहने त्तितुं निमि. कृ., अनुगमन के निमित्त - अनुजानामि, वाला, अविपरीत प्रकृति वाला - यस्मा पन .... भिक्खवे, राजूनं अनुवत्तितुन्ति, महाव. 182; - त्तिय पू. का. अभिधेय्यलिङ्गानुवत्तकानि भवन्ति, सद्द. 1.247.
कृ., अनुगमन करके - एवं धम्मा अपक्कम्म, अधम्ममनुवत्तिय, अनुवत्तति अनु + Vवत का वर्त.. प्र. पु., ए. व. [अनुवर्तते], स. नि. 1(1).71. अनुगमन करता है, आज्ञाकारी होता है, अनुरूप रहता है, अनुवत्तन नपुं.. [अनुवर्तन], अनुसरण, आज्ञापालन, अनुरूप प्रसन्न करता है, किसी के प्रति पक्षपात करता है - बनना, अनुग्रह, स्वीकृति - विद्देसी च दिसो थुल्लनन्दा भिक्खुनी समग्गेन सङ्घन उक्खित्तं अर8 भिक्ष दिट्ठो'थानुरोधो नुवत्तनं, अभि. प. 345; धम्मानुवत्ती चाति गद्धबाधिपुब्बं अनुवत्तति, पाचि. 293; यो पोसो लहुचित्तस्स तिविधस्स सुचरितधम्मस्स अनुवत्तनं, जा. अट्ठ. 1.351; . मित्तस्स वा आतिनो वा अनुविधीयति अनुवत्तति, जा. अट्ठ. .., तिस्सन्नं सिक्खानं अनुवत्तनवसेन सिक्खितब्बं, उदा. 3.315; समानाधिकरणपदं नाम कत्थचि पधानलिङ्गि अनुवत्तति अट्ठ. 72; स. उ. प. के रूप में अननु, उग्गतपानु.. कत्थचि नानुवत्तति, सद्द. 1.102; - सि म. पु., ए. व. - नो धम्मानु, परचित्तानु.. लोकधम्मानु., वेदानु.. सुचरितधम्मानु. चे धम्म निरंकत्वा अधम्ममनुवत्तसि, जा. अट्ठ. 5.374; - न्ति के अन्त. द्रष्ट.. प्र. पु.. ब. व. - सब्बे ममनुवत्तन्ति, आदेय्यवचना अहुं अप. अनुवत्तापक त्रि., अनु + Vवत के प्रेर. से व्यु., व्याकरण में 2.186; - मानो पु., वर्त. कृ., अनुगमन करता हुआ - तं । पूर्वसूत्रों से अनुवृत्ति कराने वाला, व्याकरणगत संगति की कुल्लवत्तं अनुवत्तमानो, माहं कुले अन्तिमगन्धनो अहुं, जा. अपेक्षा रखने वाला - वाच्चलिङ्गानं अनुवत्तापकस्स
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अनुवत्ति
290
अनुवस्सं
भिधेय्यलिङ्गभूतस्स आपसदस्स काय चित्तानी ति ... पुंसकलिङ्गरूपानं अभावतो, सद्द, 1.115. अनुवत्ति स्त्री., [अनुवृत्ति], क. अनुरूपता, अनुगामिता, निरन्तरता, सहमति, ख. व्याकरण के विशेष सन्दर्भ में -- अगले नियम में पिछले नियम की पुनरुक्ति, पिछले नियम का आगामी नियम पर निरन्तर जारी रहने वाला प्रभाव, पुनरुक्ति - पच्छा भुसत्थ सादिस्सानुपच्छिन्नानुवत्तिसु. अभि. प. 1174; धम्मानुवत्ती च अलीनता च, अत्थस्स द्वारा पमुखा छळेते ति, जा. अट्ठ. 1.350; धम्मानुवत्ती चाति तिविधस्स सुचरितधम्मस्स अनुवत्तनं, जा. अट्ठ. 1.351. अनुवत्तिक त्रि., अनुवत्ती से व्यु., [अनुवर्तिक], अनुयायी, अधीन, वशवर्ती, आज्ञाकारी, पूर्णरूप से निष्ठावान - अञ्जतरा मारकायिकाति नामवसेन ... मिच्छादिविका मारपक्खिका मारस्सनुवत्तिका एवमयं मारधेय्यं मारविसयं.... पारा. अठ्ठ. 2.7; स. उ. प. के रूप में किलेसानु. के अन्त. द्रष्ट... अनुवत्तित त्रि., अनु + Vवत के प्रेर. का भू. क. कृ., वह, जिसका अनुगमन या अनुसरण किसी के द्वारा किया गया है, अनुगत - अनुगताति चित्तेन अनुवत्तिता, उदा. अट्ठ.
मातापि पुत्तं अनुवदति, चूळव. 202; - न्ति ब. व. - सुद्धो होति भिक्खु अनापत्तिको, अनुवदन्ति च नं. चूळव. 183; ख. निन्दा करता है, आरोप लगाता है, आलोचना करता है - ति वर्तः, प्र. पु., ए. व. - अमूलकेन अब्रह्मचरियेन अनुद्धंसेतीति तस्मिं पुग्गले अविज्जमानेन अन्तिमवत्थुना अनुवदति चोदेति, पारा. अट्ठ. 2.69; - दियमानो कर्म. वा., वर्त. कृ., प्र. वि., ए. व., निन्दित या आरोपित किया जा रहा - चित्तेन अनुवदियमानो सन्थम्भेतुं न सक्खिस्सामि, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).293. अनुवदना स्त्री., अनु + Vवद से व्यु.. किसी कथन की पुनरुक्ति, पीछे बोला गया वचन या कथन, पीछे कहा गया निन्दात्मक अथवा प्रशंसापरक कथन - यो तत्थ अनुवादो अनुवदना अनुल्लपना अनुभणना अनुसम्पवङ्कता अभुस्सहनता अनुबलप्पदानं - इदं वुच्चति अनुवादाधिकरणं, चूळव. 196; अनुवदनाति आकारनिदस्सनमेत, उपवदनाति अत्थो, चूळव. अट्ठ. 39; तुल. अनुवाद, उपवाद. अनुवसति अनु+Vवस का वर्त०, प्र. पु., ए. व. [अनुवसति], किसी (स्थान) के बगल में बसता है - गामं उपवसति, गामं अनुवसति, सद्द. 3.717; - वासेय्य विधि., प्र. पु., ए. व., अनुकरण करे - सक्कच्चं अनुवासेय्य, स राजवसतिं वसे, जा. अट्ठ. 7.191; अनुवासेय्याति उपोसथवासं वसन्तो अनुवत्तेय्य, जा. अट्ठ. 7.192; - सित्वा पू. का. कृ., रह कर, निवास कर - हिय्योपि इधेव आगन्तब्बं भविस्सती ति, तत्येव अनुवसित्वा अनुवसित्वा आवसथपिण्डं भुञ्जन्ति, पाचि०
192.
98.
अनुवत्ती त्रि., [अनुवर्तिन], अनुगामी, आज्ञाकारी, अनुरूप केवल कर्म. स. के उ. प. के रूप में ही प्रयुक्त, उग्गतपान., करुणान., धम्मानु., भत्तुवसानु., मारपासानु, वेदनानु. के अन्त. द्रष्ट.. अनुवत्तेति अनु + Vवत के प्रेर. का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अनुवर्तयति], अनुगमन या अनुसरण करता है, गतिशील बनाए रखता है, निरन्तर गतिशील रहने हेतु प्रेरित करता है, किसी के द्वारा गतिशील किये गये को आगे भी गतिशील कराता है - मया पवत्तितं चक्कं (सेलाति भगवा) धम्मचक्क अनुत्तरं सारिपुत्तो अनुवत्तेति, अनुजातो तथागतं, थेरगा. 826; 827; सु. नि. 561-62; - स्सति भवि., प्र. पु.. ए. व., अनुगमन कराएगा - अनुवत्तेस्सति सम्मा, वस्सेन्तो धम्मवडियो, अप. 1.20; - त्तये विधि., प्र. पु., ए. व., अनुसरण करे - पहाय इस्सरमदं, निवातमनुवत्तये, पे. व. 764; - त्तिंसु अद्य., प्र. पु., ब. व., अनुवर्तन किया, अनुगमन किया - ..., हन्द नं अनुवत्तामाति अनुवत्तिंसु, दी. नि. अट्ठ. 1.232. अनुवदति अनु + Vवद का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अनुवदति], क. सहमत होता है, समर्थन करता है, प्रशंसा करता है -
अनुवस्स' त्रि., वह भिक्षु, जिसने एक वर्षावास पूरा किया है - अनुवस्सिको पब्बजितो, पस्स धम्मसुधम्मतं, थेरगा. 24; तत्थ अनुवस्सिकोति अनुगतो उपगतो वस्सं अनुवस्सो, अनुवस्सोव अनुवस्सिको, थेरगा. अट्ठ. 1.84; तुल. अनुवस्सिक. अनुवस्स नपुं., बाद में आने वाला वर्षावास, अभी तक न आया हुआ वर्षावास - अथ वा अनुगतं पच्छागतं अपगतं वरसं अनुवस्सं तं अस्स अस्थीति अनुवस्सिको, थेरगा. अट्ठ.
1.84.
अनुवस्सं अ., क्रि. वि. [अनुवर्षम्], प्रत्येक वर्षा-ऋतु में, वार्षिक रूप में - तेन खो पन समयेन भिक्खू अनुवस्सं सन्थतं कारापेन्ति, पारा. 344; कथहि नाम भिक्खुनियो अनुवस्सं वुढापेस्सन्ति, उपस्सयो न सम्मती ति, पाचि. 465; या पन भिक्खुनी अनुवस्सं वुढापेय्य पाचित्तियं, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.112.
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अनुवस्सक 291
अनुवाद अनुवस्सक त्रि., अनुवस्स से व्यु. [अनुवार्षिक], वार्षिक, तस्स हि गन्धो अनुवातं गच्छति, अ. नि. अट्ठ. 2.198; विलो. प्रतिवर्ष वाला -निवेसेसि, बलिं तेसं अजेसं चानुवस्सक, पटिवातं; - पटिवातं अ., क्रि. वि. [अनुवातप्रतिवातं]. हवा म. कं 10.86; अनुवस्सं समुतं सतसहस्सद्वयारह म. कं 7.73. के बहने की दिशा में तथा हवा बहने की प्रतिकूल दिशा में अनुवस्सिक त्रि., वह भिक्षु, जिसने एक वर्षावास पूरा किया - किञ्चि गन्धजातं यस्स अनुवातम्पि गन्धो गच्छति, है, एक वर्षावास को पूर्ण किया हुआ भिक्षु या प्रव्रजित व्यक्ति पटिवातम्पि गन्धो गच्छति, अनुवातपटिवातम्पि गन्धो गच्छतीति, - अनुवस्सिको पब्बजितो, पस्स धम्मसुधम्मतं, थेरगा. 24; अ. नि. 1(1).256. पब्बजितोति पब्बजं उपगतो, पब्बजितो हुत्वा उपगतवस्समत्तो अनुवातकरण नपुं., भिक्षु-चीवर की अतिरिक्त सिलाई अथवा एकवस्सिकोति अत्थो, थेरगा. अट्ठ. 1.84.
अनुवात का प्रबन्ध - न अनुवातकरणमत्तेन अत्थतं होति अनुवहना स्त्री., अनु + Vवह से व्यु., एक दूसरे से अविच्छिन्न कथिन, महाव. 331; अनु वातकरणमत्ते नाति रूप से जुड़ा हुआ क्रम, तांता, सिलसिला, अनुक्रम - पद्विअनुवातारोपनमत्तेन, महाव. अट्ठ. 369.
अनुबन्धनाति अनुवहना, विसुद्धि. 1.266; पारा. अट्ठ. 2.21. अनुवातमग्ग पु., कर्म, स. [अनुवातमार्ग], हवा के बहने अनुवाक पु., [अनुवाक], वैदिक-संहिता के उपविभागों में से वाली दिशा की ओर जा रहा मार्ग - सचे अनुवातमग्गेन न एक का नाम, वेद के उपभाग या अध्याय - देवदत्तस्स सक्का होति गन्तुं ..., विसुद्धि. 1.175. विसयोनुवाको, मो. व्या. 4.16; मासमधीतोनुवाको न चानेन अनुवाते अ., अव्ययी. स., हवा के बहने वाली दिशा में, वह गहितोति, मो. व्या. 2.3.(पृ.) 27.
दिशा, जिसकी ओर हवा हो, अनुकूल स्थिति में, अप्रतिकूल अनुवाचेति अनु + Vवच के प्रेर. का वर्त, प्र. पु., ए. व., दशा में - परिगहिस्सामि नन्ति अनुवाते ठत्वा तस्स पूर्वकाल में पढ़ाए गए विषय को पुनः पढ़ाता है, अनुवाचन सरीरगन्धं घायित्वा अयं अम्हे मारेत्वा मंसं खादितुकामो, करता है, बाद में पाठ करता है - तदनुगायन्ति तदनुभासन्ति जा. अट्ठ. 2.315; सक्को देवानमिन्दो ... खग्गं भासितमनुभासन्ति वाचितमनुवाचेन्ति, दी. नि. 1.91; म. नि. सीलवन्ते कल्याणधम्मे अनुवातं पञ्जलिको नमस्समानो 2.388; वाचितमनुवाचेन्तीति तेहि असं वाचितं अनुवाचेन्ति, अहासि, स. नि. 1(1).261; यो समं अनुवाते च, पटिवाते च म. नि. अट्ट (म.प.) 2.298; दी. नि. अट्ट. 1.221. वायति, विसुद्धि. 1.10. अनुवात पु., भिक्षु के चीवर में की गयी अतिरिक्त सिलाई - अनुवाद पु., [अनुवाद], क. निन्दा, दोषारोपण - न पकतत्तस्स पिमिअनुवातारोपनमत्तेनाति दीघतो अनुवातस्स आरोपनमत्तेन, भिक्खुनो उपोसथो ठपेतब्बो, ..., न अनुवादो पट्टपेतब्बो, वि. वि. टी. 2.182; अनुजानामि, भिक्खवे, अनुवातं परिभण्डं न .... चूळव. 10; न अनुवादोति विहारे जेट्टकट्ठानं न आरोपेतुन्ति, महाव. 388; अनुवातं परिभण्डन्ति अनुवातञ्चेव कातब्बं, चूळव. अट्ठ.9; यो तत्थ अनुवादोति यो अनुवदन्तेसु परिभण्डच्च, महाव. अट्ठ. 386; सो पच्चेकबुद्धो तत्थ उपवादो, चूळव. अट्ट. 39; ख. ऐश्वर्य या आधिपत्य के भाव चीवरकम्मं करोन्तो अनुवाते अप्पहोन्ते संहरित्वाव ठपेतुं से किया गया दोषारोपण - ... भिक्खुनियो भिक्खून उपोसथं आरद्धो, पे. व. अट्ठ. 62; - करण नपुं., भिक्षु के चीवर की ठपेन्ति, .... अनुवादं पट्टपेन्ति, ओकासं कारेन्ति, चोदेन्ति, अतिरिक्त सिलाई अथवा उसकी आपूर्ति - न सारेन्ति, चूळव. 441; अनुवादन्ति इस्सरियट्ठानं, वजिर. टी. अनुवातकरणमत्तेन अत्थतं होति कथिनं, महाव. 331; 490; ग. समर्थन, पक्षग्रहण, पक्ष के समर्थन में बोलना - यो अनुवातकरणमत्तेनाति पट्ठिअनुवातारोपनमत्तेन, महाव. अठ्ठ. तत्थ अनुवादो अनुवदना अनुल्लपना ... अनुबलप्पदानं -
इदं वुच्चति अनुवादाधिकरणं चूळव. 1.96; यो तत्थ अनुवादोति अनुवातं अ., क्रि. वि. [अनुवातं], हवा बहने की दिशा में, यो तेसु अनुवदन्तेसु उपवादो, चूळव. अट्ठ. 39; विपत्तियो वायुप्रवाह के अनुकूल रूप में, अनुकूल रूप में - अनुवातं चतस्सोव ... अनुवादो उपागतो, विन. वि. 2762; 2766%3; योजनसतं गन्धो गच्छति, अ. नि. 2(2).250; येसं अनुवातं 2768; स. उ. प. के रूप में अत्तानु, परानु., वादानु., सानु. येव गन्धो गच्छति, नो पटिवातं, अ. नि. 1(1).256; ..., येन के अन्त. द्रष्ट.; - मूल नपुं., निन्दा या दोषारोपण का सीलगन्धेन अनलित्ता भगवतो पत्ता सदेवकं लोकं कारण- छः अनुवादमूलानि अनुवादाधिकरणस्स मूलं, चूळव. सीलगन्धेन धूपेन्ति सम्पधूपेन्ति, दिसम्पि अनुदिसम्पि 197; - विमुत्त त्रि., निन्दा अथवा दोषारोपण से मुक्त - अनुवातम्पि पटिवातम्पि वायन्ति अतिवायन्ति, मि. प. 3033; अननुवज्जा चाति अनुवादविमुत्ता, सु. नि. अट्ठ. 2.112;
८..
369.
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अनुवासति
292
अनुविचरति - दाधिकरण नपुं., चार प्रकार के अधिकरणों अथवा विरित्तस्स अनुवासितस्स आतुरस्स सप्पायकिरिया इच्छितब्बा विवाद-विषयों में से एक, निन्दा के कारण उत्पन्न होति, मि. प. 203. वैधानिक प्रश्न अथवा विवाद का विषय - अनुवादाधिकरणं अनुवासेति अनु + Vवास का वर्त, प्र. पु., ए. व., तेल की कतिहि समथेहि सम्मति अनुवादाधिकरणं चतूहि .... बत्ती डालकर विरेचन कराता है - अनुवासनीयं अनुवासेति, सिया अनुवादाधिकरणं वे समथे अनागम्मअमूळ्हविनयञ्च, मि. प. 166. तस्सपापियसिकञ्च, चूळव. 211; अधिकरणानन्ति अनुविक्खित्त त्रि., अनु + वि + खिप का भू. क. कृ. विवादाधिकरणं अनुवादाधिकरणं आपत्ताधिकरणं [अनुविक्षिप्त], चारों ओर छितराया हुआ अथवा बिखेरा किच्चाधिकरणन्ति इमेसं चतुन्न, दी. नि. अट्ठ. 3.204; - हुआ, इधर-उधर भागा हुआ - पञ्च कामगुणे आरम टि. सीलविपत्ति (शीलों का उल्लंघन), आचारविपत्ति अनुविक्खित्तो अनुविसटो, स. नि. 3(2).349; अनुविक्खित्तो (सदाचरण का अतिक्रमण), दिट्ठिविपत्ति (मिथ्या धारणाओं ति इध भिक्खु छन्द उप्पादेत्वा कम्मट्ठानं मनसिकरोन्तो से ग्रस्त हो जाना) तथा आजीवविपत्ति (जीविका कमाने के निसीदति, स. नि. अट्ठ. 3.288. उचित साधनों से भिन्न अनुचित साधन अपनाना), इन चार अनुविगणेति अनु + वि + गण का वर्त., प्र. पु., ए. व., अपराधों में से किसी एक के अपराधी भिक्षु के विरुद्ध की अनुचिन्तन करता है, तर्क-वितर्क करता है - न नूनायं गई निन्दा या भर्त्सना के कारण उत्पन्न वैधानिक परमहितानुकम्पिनो, रहोगतो अनुविगणेति सासनं, थेरगा. मसला अनुवादाधिकरण कहा गया है. इसके अन्तर्गत 109; अनुविगणेतीति एत्थ 'न नूना ति पदद्वयं आनेत्वा अपराधी भिक्षु के विरुद्ध प्रयुक्त सभी प्रकार के अनुवाद सम्बन्धितब्बं नानुविगणेति नूना ति, न चिन्तेसि मजे, थेरगा. (निन्दा), अनुलोपना (दोषों की प्राप्ति), अनुभणना (दोष- अट्ठ. 1.236. विषयक वार्तालाप), अनुसम्यवङ्गता, अब्भुस्सहनता तथा अनुविचरति अनु + वि + चर का वर्तः, प्र. पु., ए. व. अनुबलप्पदान, ये सभी आ जाते हैं. अनुवादाधिकरण का [अनुविचरति], शा. अ. अनुविचरण करता है, आस पास समाधान सम्मुखविनय, सतिविनय, अमूळ्हविनय तथा विचरण करता है, ऊपर नीचे विचरण करता है, ला. अ. तस्सपापिय्यसिका, इन चार उपायों द्वारा करणीय कहा चिन्तन करता है, अन्वेषण करता है - रत्तिं अनुवितक्केति गया है.
अनुविचारेति- अयं रत्तिं धूमायना, म. नि. 1.198; यं दिवसं अनुवासति अनु + आस का वर्त., प्र. पु., ए. व., शा. अ. ब्राह्मणो नगरं अनुविचरति..., म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).963; पीछे बैठता है, बगल में बैठ जाता है, ला. अ. अनुकूल - न्ति वर्त., प्र. पु., ब. व. - अनुपरियन्तीति अनुविचरन्ति, रूप में रहता है, उपस्थित होता है, अनुवर्तन करता है; - पे. व. अट्ठ. 164; इमं लोकं अनविचरन्तीति, अ. नि. अट्ठ. सेय्य विधि., प्र. पु., ए. व., अनुकरण करे, अनुगमन करे 2.121; - रन्ते वर्त. कृ., सप्त. वि., ए. व. - अनुचङ्कमन्तेपि -- सक्कच्चं अनुवासेय्य, स राजवसतिं वसे, जा. अट्ठ. अनुविचरन्तेपि, म. नि. 1.350; - रमान वर्त. कृ., आत्मने, 7.191; अनुवासेय्याति उपोसथवासं वसन्तो अनुवत्तेय्य, जा. अनुविचरण करता हुआ - दण्डपाणिपि खो सक्को जवाविहारं अट्ठ. 7.192.
अनुचकममानो अनुविचरमानो येन महावनं तेनुपसङ्कमि, म. अनुवासन नपुं.. [अनुवासन], तेल-भरी वर्तिका द्वारा विरेचन नि. 1.155; - रि अद्य., प्र. पु., ए. व., इधर उधर विचरण कराना - ... वमनविरेचनानुवासनकिरियमनुसिक्खित्वा .... किया - यहिमनुविचरि राजा, परिकिण्णो इत्थागारेहि, जा. मि. प. 320.
अट्ठ. 5.180; - रिं अद्य., उ. पु., ए. व., मैंने इधर उधर अनुवासनीय त्रि, अनु + Vवास का सं. कृ., तेलमयी विचरण किया- सन्धाविस्सं संसरि अपरापरं अनुविचरिन्ति वर्तिका द्वारा विरेचन कराये जाने योग्य - अनुवासनीयं अत्थो, ध. प. अठ्ठ. 2.71; -रितुं निमि. कृ., इधर उधर अनुवासेति, मि. प. 166.
विचरने के निमित्त - समत्थो च सो खणेन सागरजलपरियन्तं अनुवासरं अ., क्रि. वि. [अनुवासरं], प्रतिदिन - मणिमुत्तादिक महिं अनुविचरितुं, मि. प. 143; - रित्वा पू. का. कृ., वित्तं महग्घं अनुवासरं चू. वं. 62.32.
इधर उधर या बहुत दूर तक विचरण करके - अयं हयवरो अनुवासित त्रि., अनु + Vवास का भू. क. कृ., वह, जिसका सागरजलपरियन्तं महिं अनुविचरित्वा खणेन इधागच्छेय्या ति, विरेचन तेलभरी बत्ती डाल कर कराया गया हो - वन्तस्स मि. प. 143; - रापेन्ति प्रेर. वर्त., प्र. पु., ब. व.
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अनुविचार
293
अनुविज्झति/अनुविज्जति [अनुविचारयन्ति], इधर-उधर या चारों तरफ विचरण कराते दिवसे अनुविच्च निन्दकारणं वा पसंसकारणं वा जानित्वा हैं - महामोग्गल्लानं वेजयन्ते पासादे अनुचङ्कमापेन्ति पसंसन्ति, ध, प. अट्ठ. 2.190; अनुविच्चापि मं विघ्र गरहेय्यु अनुविचरापेन्ति, म. नि. 1.322; - रित त्रि., भू. क. कृ., पाणातिपातपच्चया, म. नि. 2.25; अनुविच्चापि में विज्ञ वह, जिस पर अच्छी तरह से अनुचिन्तन किया गया हो, गरहेय्युन्ति एवरूपे नाम सासने पब्बजित्वा पाणातिपातमत्ततोपि वह, जिसकी पूरी तरह परीक्षा कर ली गयी हो- दिट्ट सुत्तं ओरमितुं, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.29; - कार पु., अच्छी मुतं विज्ञातं पत्तं परियेसितं अनुविचरितं मनसा, दी. नि. 3. तरह सोच विचार कर या पूर्ण छानबीन कर किया गया 100; अनुविचरितं मनसाति चित्तेन अनुसञ्चरितं, दी. नि. काम, सुचिन्तित कृत्य - अनुविच्चकारं खो, गहपति, करोहि, अट्ठ. 3.88; वीमंसानुचरितन्ति ताय वुत्तप्पकाराय वीमंसाय ___ अनुविच्चकारो तुम्हादिसानं आतमनुस्सानं साधु होती ति. म. अनुचरितं, दी. नि. अट्ठ. 1.92; अनुविचरितन्ति वीमंसाय नि. 248; अनुविच्चकारन्ति अनुविचारेत्वा चिन्तेत्वा तुलयित्वा अनुपवत्तितं, वीमंसानुगतेन वा विचारेन अनुमज्जितं, लीन. कातळ करोहीति वुत्तं होति, म. नि. अठ्ठ. (म.प.) 2.64. (दी.नि.टी.) 1.129.
अनुविज्जा स्त्री., अनुविज्झति से व्यु., क्रि. ना., परीक्षण, अनुविचार पु., [अनुविचार], पुनः-पुनः अनुचिन्तन, बारम्बार जांच-पड़ताल, विचारण - चोदना अनुविज्जा च, आदि किया गया अनुप्रेक्षण, चिन्तनप्रक्रिया की निरन्तरता - ... मूलेनुपोसथो, गति चोदनकण्डम्हि, सासनं पतिट्ठापयन्ति, चारो विचारो अनुविचारो उपविचारो चित्तस्स अनुसन्धनता परि. 310. अनुपेक्खनता .... ध. स. 22; अनुगन्वा विचरणवसेन अनुविज्जापेत्वा अनु + विध के प्रेर. का पू. का. कृ., अनुविचारो, ध. स. अट्ठ. 188..
जांच-पड़ताल या छानबीन करा कर - अथरस पुत्तो पितरं अनुविचारापेत्वा अनु + वि + Vचर के प्रेर. का पू. का. कृ., दङकामो गतहानं अजानन्तो अनुविज्जापेत्वा .... जा. अट्ठ. अनुविचरण अथवा लगातार चिन्तन हेतु प्रेरित कर - 5.157; पाठा. अनुविचारापेत्वा. अत्थस्स पुत्तो ... अजानन्तो अनुविचारापेत्वा असुकट्ठाने अनुविज्जोतते अनु + वि + जुत के आत्मने, का प्र. पु., नाम वसतीति अत्वा ..., जा. अट्ठ. 5.157.
ए. व. [अनुविद्योतते], किसी के अगल-बगल में प्रकाश अनुविचारेति अनुविचार के ना. धा. का वर्त, प्र. पु., ए. व.. बिखेर रही है या चमक रही है - रुक्खं अनु विज्जोतते विचार करता है, सूक्ष्म परीक्षण करता है, अनुचिन्तन करता विज्जु, सद्द. 3.883. है - भिक्खु बहुलमनुवितक्कोति अनुविचारेति, तथा तथा अनुविज्झक/अनुविज्जक पु., दोषारोपण करने वाले नति होति चेतसो, म. नि. 1.164.
(चोदक) एवं आरोपित भिक्षु से प्रश्नकर्ता या परीक्षक के रूप अनुविचिन्तित त्रि., अनु + वि + चिन्त का भू. क. कृ., में भिक्षुसंघ द्वारा चुना गया भिक्षु, दोनों पक्षों के बीच मध्यस्थ वह, जिसका अनुचिन्तन अथवा परीक्षण कर लिया गया है, की भूमिका को ग्रहण करने वाला भिक्षु - मा खो पटिघं सुपरीक्षित - पुरिसा ते महाराज, मनसानुविचिन्तिता, जा. जनयि, सचे अनुविज्जको तुवं, परि. 302; सचे अनुविज्जको अट्ठ. 4.203; अनुविचिन्तिताति नालं इमे मं दुक्खा मोचेतुन्ति तुवन्ति सचे त्वं सङ्घमज्झे ओतिण्णं अधिकरणं विनिच्छित मया आता, जा. अट्ठ. 4.203.
निसिन्नो विनयधरो, परि. अट्ठ 202; अनुविज्जकेन चोदको अनुविचिन्तेत्वा अनु + वि + चिन्त का पू. का. कृ., ध्यान पुच्छितब्बो, परि. 305; - किच्चवण्णना स्त्री., तत्पु. स., में चढ़ाकर, अनुचिन्तन कर - एको रहो अनुविचिन्तेत्वा, वि. पि. परि. के चोदनाकाण्ड के प्रथम खण्ड का शीर्षक, दी. नि. 2.150.
परि. अट्ठ. 205. अनुविच्च व्यु., संदिग्ध, संभवतः अनु + विद के पू. का. अनुविज्झति/अनुविज्जति अनु + Vविध का वर्त., प्र. पु., कृ., अनुविज्ज का ही अनु + Vइ के पू. का. कृ. अन्विच्च ए. व. [अनुविध्यति], शा. अ. पीछे या बाद में बेधता या के अप. अनुविच्च के मिथ्यासादृश्य पर निर्मित शब्द छेदता है, आगे चल कर दुखाता है या सालता है, ताना [अनुविद्य], अच्छी तरह जान कर, भली भांति परीक्षण कर, मारता है या खिल्ली उड़ाता है, ला. अ. परीक्षण अथवा ठीक से नाप-जोख कर - अनुविच्च पपञ्चनामरूपं, अज्झतं खोजबीन करता है, विचार करता है, गहराई तक जाकर बहिद्धा च रोगमूलं, सु. नि. 53; यं चे विजू पसंसन्ति, जांचता है; - न्ति वर्तः, प्र. पु., ब. व. - महोसध अतीतेन, अनुविच्च सुवे सुवे, ध. प. 229; यं पन पण्डिता दिवसे नानुविज्झन्ति पण्डिता, जा. अट्ठ. 6.266; नानुविज्झन्तीति
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अनुवितक्केति
294
अनुविलोकन अतीतदोसं गहेत्वा मुखसत्तीहि न विज्झन्ति, जा. अट्ठ. अनुविदित्वा अनु + विद का भू. क. कृ., ठीक से जान 6.266; - जन्तो पु., वर्त. कृ., प्र. वि., ए. व., विचारता कर, भली भांति ज्ञान प्राप्त कर - ... अनिच्चानुपस्सनादीहि
अनुविज्जन्तोति विचारेन्तो, अ. नि. टी. 1.193; - अनुविच्च अनुविदित्वा, सु. नि. अट्ठ. 2.140. मानो वर्त. कृ., प्र. वि., ए. व., आत्मने, उपरिवत् - अनुविद्ध त्रि., भू, क. कृ., साथ में गूंथा हुआ या पिरोया हुआ, एवञ्च पन अनुविज्जको अनुविज्जमानो सत्थु चेव सासनकरो सुसज्जित किया हुआ, सजाया हुआ - मनिचन्दकप्पितन्ति होति, परि. 312; -ज्जितुकाम त्रि., विचारने या अनुचिन्तन मणिमयमण्डलानुविद्धं चन्दमण्डलसदिसेन मणिना अनुविद्ध, करने की इच्छा वाला - अनुविज्जकेन अनुविज्जितुकामेन वि. व. अट्ठ. 233; स. उ. प. के रूप में द्रष्ट, न उपज्झायो पुच्छितब्बो, परि. 311; - ज्जित्वा पू. का. मणिमयचन्दकानु, मणिमयमण्डलानु के अन्त.. कृ.. विचार कर, परीक्षण कर - अनुविज्जित्वा गहितं पन अनुविधा अनु + वि + Vधा धातु, अनुकरण करना - विनिच्छयवानं नयन्ति, अ. नि. अट्ठ. 2.119; - जितब्ब अनुविधा अनुकरणे अनुविपुब्बो धाधातु अनुकिरियायं वत्तति, त्रि., सं. कृ., विचारणीय, परीक्षण किया जाना चाहिये - सद्द, 2.484-85. कालेन अनुविज्जितब्बं नो अकालेन, परि. 311.
अनुविधान नपुं.. [अनुविधान], क्रमसङ्गत रूप में अथवा अनुवितक्केति अनु + वि + Vतक्क का वर्त, प्र. पु., ए. आदेश आदि के अनुरूप कार्य करना, अनुरूप या उपयुक्त व. [अनुवितर्कयति], कल्पना करता है, अटकल या अन्दाज रूप में कार्यों का निष्पादन - अनुविधायेय्युन्ति अनुगच्छेय्यु लगाता है, तर्क या विमर्श करता है, विचार करता है - ..... अनुविधानं आपज्जेयुन्ति अत्थो, स. नि. अट्ठ. 3.108. भिक्खु बहुलमनुवितक्केति अनुविचारेति, म. नि. 1.165; अनुविधायी त्रि., अनु + वि + vधा से व्यु.. [अनुविधायिन], छन्दरागट्ठानिये धम्मे आरब्भ चेतसा अनवितक्केति अभिप्राय एवं आदेशादि के अनुरूप कार्य निष्पादन करने अनुविचारेति, अ. नि. 1(1).298; - न्ति ब. व. - भिक्खू वाला, आज्ञाकारी, विनीत - वुत्तअधिप्पायानुविधायी आदि यथासुतं यथापरियत्तं धम्म चेतसा अनु वितकेन्ति कत्वा सत्थुचरियानुविधायकत्ता, सकलसासनपटिग्गाहकत्ता अनुविचारेन्ति मनसानुपेक्खन्ति, अ. नि. 2(1).167; - क्कये च म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).17. विधि., प्र. पु.. ए. व. - अनुस्सरेय्य सम्बुद्धधम्मञ्चानुवितक्कये, अनुविधीयति/अनुविधिय्यति अनु + वि + vधा के कर्म. अ. नि. 2(1).198; - क्कयतो वर्त. कृ., पु., ष./च. वि. वा., वर्त., प्र. पु., ए. व. [अनुविधीयते]. आदेशादि के ए. व. - अपि च खो मे अतिचिरं अनुवितक्कयतो अनुरूप कार्य निष्पादन करता है, अनुशिक्षण पाता है, अनुविचारयतो कायो किलमेय्य, म. नि. 1.164-65; - अनुकरण या अनुसरण करता है, अधीन हो जाता है - क्केत्वा पू. का. कृ., विचार-विमर्श करके, ठीक से सोच पोराणं पकतिं हित्वा, तस्सेवानुविधिय्यतीति, जा. अट्ठ. करके - रतिं अनुवितक्केत्वा अनुविचारेत्वा दिवा कम्मन्ते 2.81; अनुविधिय्यतीति अनुसिक्खति, जा. अट्ठ. 2.81; यो पयोजेति कायेन वाचाय मनसा- अयं दिवा पज्जलना, म. पोसो लहुचितस्स मित्तस्स वा आतिनो वा अनुविधीयति नि. 198.
अनुवत्तति, जा. अट्ठ. 3.315; - यतो वर्त. कृ., पु., ष. वि., अनुविदित त्रि., अनु + विद का भू. क. कृ. [अनुविदित], ए. व. - दिसो वे लहुचित्तस्स, पोसस्सानुविधीयतो, जा. वह, जिसे गहरा एवं पूरा-पूरा ज्ञान प्राप्त है, अच्छी तरह से अट्ठ. 3.314; - यन्तु अनु०, म. पु., ब. व. - सुणन्तु धम्म जानने वाला - अनुविदितो ति अनुबुद्धो वुच्चति, सु. नि. कालेन, तञ्च अनुविधीयन्तु, म. नि. 2.314; - येय्यु अट्ठ. 2.140; अनविदितं केन कथञ्च वीरियवाति, सु. नि. विधि., प्र. पु., ब. व., अनुरूप कार्य विधान करें- तस्स ते 533; अनुविदितो तादि पवुच्चते तथत्ता, सु. नि. 533; - अनुवत्तेय्यु अनुविधायेय्यु, स. नि. 2(2).197. विच्चकार पु., विचार विमर्श करके, ठीक से सोचकर एवं अनुविधीयना स्त्री., अनुविधीयति से व्यु., क्रि. ना., अनुरूपता तुलना करके कोई भी काम करने वाला - अनुविच्चकार में कार्य का निष्पादन - को पन वादो कायेन वाचाय खो, सीह, करोहि, अनुविच्चकारो तुम्हादिसानं आतमनुस्सानं अनुविधीयनासु. म. नि. 1.54; एकन्तहितसुखावहत्ता साधु होती ति, महाव. 313; अनुविच्चकारन्ति अनुविदित्वा अनुविधियनानं हेतुत्ता च, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).199. चिन्तेत्वा तुलयित्वा कातब्बं करोहीति वुत्तं होति, महाव. अनुविलोकन नपुं॰, अनु + वि + Vलोक से व्यु., क्रि. ना. अट्ठ.357.
[अनुविलोकन], इधर-उधर ताकना या देखना, चारों ओर
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अनुविलोकेति
295
अनुव्यञ्जन दृष्टिपात करना - सब्बा च दिसाति इदं सत्तपदवीतिहारूपरि विवट्टस्स एकपस्सतो द्विन्नं एक पस्सतो द्विन्नन्ति चतुन्नम्पि ठितस्स विय सब्बदिसानुविलोकनं वुत्तं, न खो पनेवं दहब्बं खण्डानमेतं नामं, महाव. अट्ठ. 384; विवढें अनुविवट्ट, दी. नि. अट्ठ. 2.27.
बाहन्तम्पि च भिक्खुनो, विन. वि. 563. अनुविलोकेति अनु + वि+Vलोक का वर्त., प्र. पु., ए. व.. अनुविसट नपुं.. अनु + वि + /सर का भू. क. कृ. [अनुविलोकयति]. शा. अ. इधर-उधर निगाह डालता है, [अनुविसृत], इधर-उधर बिखरा हुआ, विक्षिप्त, चारों ओर इधर-उधर ताकता है, ला. अ. मनन करता है, अनुचिन्तन । फैला हुआ - छन्दो बहिद्धा पञ्च कामगुणे आरभ अनुविक्खित्तो करता है, तलाशता है, ढूंढता है - सब्बं चेतसा समन्नाहरित्वा अनुविसटो, स. नि. 3(2).349; इमस्स हि भिक्खुनो दीघरत्तं नन्दो अनुदिसं अनुविलोकेति, अ. नि. 3(1).16; यतो यतो रूपादीसु आरम्मणेसु अनुविसट चितं कम्मट्ठानवीथिं ओतरितुं वा अनुविलोकेति, ततो ततो तुण्हीभूतं, तुण्हीभूतं वाचाय, न इच्छति, दी. नि. अट्ठ. 2.317; सब्बा दिसा पुन तुण्हीभूतं कायेन, सु. नि. अट्ठ. 2.199; सेतम्हि छत्ते अनुविसटोहमस्मि, महब्बलो अमित यसो अतुल्यो, जा. अट्ठ. अनुधारियमाने सब्बा च दिसा अनविलोकेति, आसभिं वाचं 4.91; अनुविसटोति अहं चतस्सो दिसा चतस्सो अनूदिसाति भासाति, दी. नि. अट्ठ. 1.57; - कयतो/केन्तस्स वर्त. सब्बा दिसा अत्तनो गुणेन पत्थटो पतो पाकटो, जा. कृ., पु., ष. वि., ए. व., इधर-उधर देख रहे का - एवं मे अट्ठ. 4.92. अनुदिसं अनुविलोकयतो नाभिज्झादोमनस्सा पापका अकुसला अनुवुत्ति स्त्री., [अनुवृत्ति], अगले व्याकरणसूत्र में पिछले धम्मा अन्वास्सविस्सन्तीति, अ. नि. 3(1).16; सब्बं तं परिसं सूत्र से ले ली गयी सूत्र की वृत्ति या व्याख्या, नए सूत्र में अनुविलोकेन्तस्स ... एतदहोसि, मि. प. 18; - कयमाना पिछले सूत्र का वृत्ति की पुनरुक्ति - अयं वर्त. कृ., पु.. प्र. वि., ब. व., इधर-उधर देखने वाले - इध मयं, पनाधिप्पायविज्ञआपिका अनुवृत्ति, सद्द. 3.655, 685. मारिस, सदेवकं लोकं अनुविलोकयमाना ... न पस्साम, अनुवुत्थ त्रि., अनु + Vवस का भू. क. कृ. [अनूषित], किसी मि. प. 7; - केय्यासि विधि., म. पु., ए. व. - ..... के साथ रह रहा अथवा निवास कर रहा, केवल स. उ. प. उट्ठायासना उदकेन अक्खीनि अनुमज्जित्वा दिसा के रूप में प्रयुक्त, चिरानुवुत्थ के अन्त. द्रष्ट., तुल. अनुविलोकेय्यासि, अ. नि. 2(2).225; - केय्यं विधि., उ. अधिवुसित (पीछे). पु., ए. व., मैं इधर उधर दृष्टिपात करूं - विजम्भित्वा अनुवेध पु.. एक बार शल्यक्रिया किये गए व्रणद्वार के समीप समन्ता चतुहिसा अनुविलोकेय्यं दी. नि. 3.16; - केसि में ही की गयी दूसरी शल्यक्रिया - तमेनं दुतियेन सल्लेन अद्य., प्र. पु., ए. व., उसने चारों ओर दृष्टिपात किया - अनुवेधं विज्झेय्य, स. नि. 2(2).205; अनुवेधं विज्झेय्याति उहायासना समन्ता चतुद्दिसा अनुविलोकेसि, सु. नि. (पृ.) तस्सेव वणमुखस्स अडुलन्तरे वा द्वङ्कलन्तरे वा आसन्नपदेसे 149; - केसु अद्य., प्र. पु., ब. व., उन्होंने इधर-उधर ताका अनुगतवेधं, स. नि. अट्ठ. 3.114. - सेतच्छत्ते धारियमाने सब्बाव दिसा अनुविलोकेसुंउदा. अनुव्यञ्जन नपुं० [बौ. सं. अनुव्यञ्जन], क. निमित्तों अट्ठ. 101; - केत्वा पू. का. कृ., इधर उधर देख कर - अथवा विशिष्ट लक्षणों से भिन्न गौण-लक्षण या विशिष्टता, समन्ता चतुद्दिसा अनुविलोकेत्वा तिक्खत्तुं सीहनादं नदति, बुद्ध के 80 गौण चिह्नों में से कोई एक चिह्न - भगवतो स. नि. 2(1).79; - केतब्ब सं. कृ., अनुविलोकन किया असीतिअनुब्यञ्जनानि ब्यामप्पभा द्वात्तिंसमहापुरिसलक्खणानि, जाना चाहिये, अनुविलोकन करने योग्य - अनुदिसा दी. नि. अट्ठ. 3.91; भगवा द्वत्तिसमहापुरिसलक्खणेहि अनुविलोकेतब्बा होति, अ. नि. 3(1).16.
समन्नागतो असीतिया च अनुब्यञ्जनेहि परिरजितो, मि. अनुविवट्ट नपुं.. [बौ. सं. अनुविवर्त], भिक्षु के चीवर के चार प. 81; अनुब्यञ्जनग्गाहीति किलेसानं अनुब्यञ्जनतो खण्डों में से मध्यवर्ती खण्ड या विवट्ट के दोनों पार्श्वभागों पाकटभावकरणतो अनुब्यञ्जनन्ति लद्धवो हार वाले दो खण्ड अथवा दोनों पार्श्वभाग वाले दो-दो खण्डों हत्थपादसितहसितकथितआलोकितविलोकितादिभेदं आकार अर्थात् चीवर के चारों खण्डों का नाम - ... अड्डमण्डलम्पि गण्हाति, ध. स. अट्ठ, 420; ..., अनुब्यञ्जनेन अनुब्यञ्जन नाम करिस्सति, विवट्टम्पि नाम करिस्सति, अनुविवट्टम्पि कथयिस्सामि, ..... मि. प. 308; ख. आगे आया हुआ नाम करिस्सति, ... छिन्नकं भविस्सति, महाव. 378; वचन, अनुवर्तिनी अभिव्यक्ति, आगे कही जाने वाली बात का अनुविवट्टन्ति तस्स उभोसु पस्सेसुद्धे खण्डानि.... अनुविवट्टन्ति । कथन - पदसो नाम पदं, अनुपदं, अनवक्खरं अनुब्यञ्जनं.
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अनुव्यञ्जनसो
296
अनुसंसन्दना पाचि. 26; अनुब्यञ्जनं नाम रूपं अनिच्चन्ति वुच्चमानो, सोभनाति एवं अनुब्यञ्जनवसेन निमित्तग्गाहो. स. नि. अट्ठ. वेदना अनिच्चा ति सदं निच्छारेति, पाचि. अट्ट.7; ग. अट्ठ. 3.51; ख. अ., क्रि. वि., प्रत्येक अक्षर एवं पद के विवेचन में अनु + वि + अञ्ज के क्रि. ना. के रूप में भी प्रयुक्त, की दृष्टि से - ... सुत्तसो अनुब्यञ्जनसो .... महाव. 83; स्पष्ट रूप से प्रकाशन अथवा अभिव्यक्त होना - अनुब्यञ्जनसोति अक्खरपदपारिपूरिया ... पाचि. अट्ठ. 49. अनुब्यजनग्गाहीति किले सान अनु ब्यजनतो अनुव्यञ्जनस्सादगथित त्रि., विषयभोगों के भेद-प्रभेदों में पाकटभावकरणतो अनुब्यञ्जनन्ति लद्धवोहारं ध. स. अट्ठ. अनुभूत आनन्द में लिप्त या बंधा हआ - निमित्तस्सादगथितं 420; - ग्गाह पु., विवरणों के साथ ग्रहण, किसी बात का वा, ... विज्ञआण.... अनुब्यञ्जनस्सादगथितं वा तस्मिञ्चे सभी विशेषताओं के साथ विवेचन - निमित्तग्गाहोति हि समये कालं करेय्य, ..., स. नि. 2(2).172. संसन्देत्वा गहणं, अनुब्यञ्जनग्गाहोति विभत्तिगहणं स. नि. अनुसंयायति/अनुसायति अनु + सं+vया का वर्त., अट्ठ. 3.51; यो हि पुग्गलो निमित्तग्गाहं अनुब्यञ्जनग्गाह प्र. पु., ए. व., क. चारों ओर जाता है, आर-पार जाता है, गण्हण्तो नखा सोभना ति गण्हाति, ध. प. अट्ठ. 1.44; - पार करके जाता है; - न्तेन वर्त. कृ.. तृ. वि., ए. व., ग्गाही त्रि., विवरणों अथवा प्रत्येक लक्षण के साथ धर्मों को किसी को पार कर या किसी में होकर जाने वाले के साथ ग्रहण करने वाला, हंसने, देखने, ताकने, सिकोड़ने, पसारने - ... चक्करतनं पुरक्खत्वा चत्तारो दीपे अनुसंयायन्तेन जैसी विभिन्न क्रियाओं के आकार या स्वरूप को इन्द्रियों सद्धि आगमंसु. म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).235; - यायित्वा द्वारा ग्रहण करने वाला - भिक्ख चक्खना रूपं दिस्वा न पू. का. कृ., अनुसंचरण करके, घूम-फिर कर, चक्कर निमित्तग्गाही होति नानुब्यञ्जनग्गाही, दी. नि. 1.62; ... न लगाकर - सकलजम्बुदीपं अन्तन्तेन अनुसंयायित्वा वाराणसिं निमित्तग्गाही होति नानुब्यञ्जनग्गाही, स. नि. 2(2).110; पापुणि, जा. अट्ठ. 4.191; ख. निरीक्षण करता है, निगरानी अनुब्यजनग्गाहीति किले सानं अनुअनु व्यञ्जनतो रखता है; - आयमानो वर्त. कृ., आत्मने, पु., प्र. वि., पाकटभावकरणतो अनुब्यञ्जन्ति लद्धवोहारं । ए. व., निगरानी करता हुआ, निरीक्षण कर रहा - ब्राह्मणो हत्थपादसितहसितकथितआलोकितविलो-कितादिभेदं आकार मगधमहामत्तो राजगहे कम्मन्ते अनुसआयमानो येन दारुगहे गण्हाति, महानि. अट्ठ. 316; - विचित्र त्रि., सौन्दर्य के गणको तेनुपसङ्कमि, पारा. 49; अनुसआयमानोति तमाम छोटे-मोटे लक्षणों के कारण पूर्ण रूप से भव्य या अनुसजायमानो, कताकतं जनन्तोति अत्थो, अनुविचरमानो उत्कृष्ट - रूपप्पमाणिका हि पुग्गला भगवतो वा, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.48; - ञातुं निमि. कृ., लक्खणखचितमनुब्यञ्जनविचित्र समुज्जलितकेतु- निगरानी करने के निमित्त, निरीक्षण के निमित्त - तस्मि, मालाब्यामप्पभाविनद्धमलङ्कारस्थमिव लोकस्स .... सु. नि. भिक्खवे, समये रुओ न फासु होति अतियातुं वा निय्यातु अट्ठ. 1.205; - धर त्रि., सुन्दरता अथवा उत्तमता के वा पच्चन्तिमे वा जनपदे अनुसआतुं, अ. नि. 1(1).84; ग. समस्त गौण-लक्षणों को भी धारण करने वाला - साथ में जाता है, पास जाता है;-यायी अद्य.. प्र. पु., ए. अनुब्यञ्जनधरं बुद्ध, आहुतीनं पटिग्गह, अप. 1.226; - व., साथ साथ गया - अनुसंयायी सो वीरो, मातुच्छ यावकोट्टक समुज्जल त्रि.. सुन्दरता/भव्यता के सम्पूर्ण गौण-लक्षणों अप. 2.208. द्वारा प्रभाषित अथवा जगमगाता हुआ - ... लक्खणविचित्तं अनुसंवच्छरं अ., क्रि. वि., अव्ययी. स. [अनुसंवत्सरं], अनुब्यञ्जनसमुज्जलं... सत्थु सरीरं ... इत्थिरूपं अद्दस, प्रत्येक वर्ष में, एक-एक वर्ष में - .... अनुसंवच्छरं ते ध. प. अट्ठ. 2.64; - सम्पन्न त्रि., भव्यता के समस्त गौण- सतसहस्सपरिच्चागेन बलिकम्म करिस्सामी ति, जा. अट्ठ. लक्षणों या चिहों से युक्त - अनुव्यञ्जनसम्पन्न, 1.77; अ. नि. अट्ट, 1.244; राजगहे च अनुसंवच्छर द्वतिसवरलक्खणं, बु. वं. 353; अप. 2.107; गिरग्गसमज्जो नाम अहोसि, ध. प. अट्ठ. 1.52; अनुसंवच्छर अनुब्यञ्जनसम्पन्नन्ति तम्बनखतुङ्गनासवट्टङ्कलितादीहि कातुं एवमेव नियोजयि, चू.वं. 37.88. असीतिया अनुब्यञ्जनेहि सम्पन्न, .... बु. वं. अट्ठ. 283. अनुसंसन्दना स्त्री., अनु + सं + /सन्द का क्रि. ना., धारा अनुव्यञ्जनसो अ., क्रि. वि., क. सुन्दरता या भव्यता के के प्रवाह की निरन्तरता, प्रवाह-सातत्य, पूर्ववर्ती एवं परवर्ती सभी गौण-लक्षणों की दृष्टि से, अनुव्यञ्जनों के आधार पर का एकीकरण, लगातार जारी रहना - यो एवरूपो ... - अट्ठमे अनुब्यञ्जनसो निमित्तग्गाहोति हत्था सोभना पादा सण्ठपना अनुसंसन्दना अनुप्पबन्धना दळहीकम्म कोधस्स -
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अनुसंसावना अयं वुच्चति उपनाहो, विभ. 412; अनुसंसन्दनाति पठमुप्पन्नेन कोधेन सद्धि अन्तरं अदस्सेत्वा एकीभावकरणा, विभ. अट्ठ. 464. अनुसंसावना स्त्री., अनु + सं. + सु के प्रेर. से व्यु., क्रि. ना., विनम्रभाव से संलाप करते हुए किसी के साथ चलना अथवा उसका अनुगमन - दुग्गतिं नाभिजानामि, अनुसंसावना फलं, अप. 1.264. अनुसंसावयिं अनु + सं + सु का प्रेर., अद्य., उ. पु., ए. व., विनम्रता के साथ संभाषण किया, कुछ दूर तक विनतभाव से पूज्य व्यक्ति का सहगामी हुआ - वन्दित्वा सत्थुनो पादे, अनुसंसावयिं पुरे अप. 1.221; अनुसंसावयिं बुद्ध, उत्तमत्थरस पत्तिया, अप. 1.264; तुल. अनुसंयायति, ऊपर. अनुसंगीत त्रि., फिर से गायन किया हुआ, वह, जिसकी मौखिक पुनरावृत्ति फिर से की गयी हो, दोहराया गया, दुबारा कहा गया - पञ्चहि या सङ्गीता, अनुसङ्गीता च पच्छापि, दी. नि. अट्ठ. 1.2; म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).2; ध. स. अट्ठ. 3. अनुसज्झायन्ति अनु + सज्झाय का ना. रू., वर्त., प्र. पु., ब. व., पुनः स्वाध्याय करते हैं, फिर से कण्ठस्थ करते हैं, फिर से आवृत्ति करते हैं या कहते हैं - भासितमनुभासन्तीति तेहि भासितं सज्झायितं अनुसज्झायन्ति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.298; ... तदनुगायन्ति ... सज्झायितमनुसज्झायन्ति वाचितमनुवाचेन्ति .... अ. नि. 2(1).209. अनुसञ्चरण नपुं., अनु + सं + Vचर से व्यु.. क्रि. ना. [अनुसञ्चरण], शा. अ. किसी के पीछे घूमते रहना, किसी के अगल-बगल टहलना, ला. अ. किसी के विषय में चित्त में उत्पन्न विभिन्न रूपों के संकल्प-विकल्प - विचरणं वा विचारो, अनुसञ्चरणन्ति वुत्तं होति, अभि. अव. 20; ध. स.
अट्ठ. 160. अनुसञ्चरति अनु + सं + Vचर का वर्त.. प्र. पु., ए. व., अनुसञ्चरण करता है, किसी तक जा पहुंचता है, सहचरण करता है, घूमता है, मार्ग को पकड़ता है, विचार का अनुसरण या उस पर अनुचिन्तन करता है; - सि म. पु.. ए. व.- किं मुण्डो कपालमनुसंचरसि, स. नि. 3(1).63; - न्तो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व., किसी तक पहुंचता हुआ, प्राप्त होता हुआ - तस्मा यथा नाम ... खेत्तं अनुसञ्चरन्तो यत्थ वा तत्थ वा ... सतिणमत्तिकपिण्डं देति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).125; - माना वर्त. कृ., आत्मने., प्र. वि., ब. व., ऊपर की ओर जा पहुंचते हुए- किपिल्लिका विय थम्भं
अनुसत्थि/अनुसिट्ठि/अनुसट्ठ सिनेरुं अनुसञ्चरमाना उट्ठहिंसु, जा. अट्ठ. 1.200; - रितुं निमि. कृ., पास पहुंचने के लिये - अथस्सा धञा ... गन्वा एवरूपे चेतियङ्गणे अनुसञ्चरितुं एवरूपञ्च मधुरं धम्मकथं सोतुं ... उदपादि, ध, स. अट्ठ. 161; - रित त्रि०, भू. क. कृ., क. वह, जिसके विषय में चित्त द्वारा सोचाविचारा गया हो, चित्त द्वारा सुचिन्तित, चिन्तन का विषयीभूत - अनुविचरितं मनसाति चित्तेन अनुसञ्चरितं, दी. नि. अट्ठ. 3.88; स. नि. अट्ठ. 2.299; ख. वह, जिसने या जिसके आसपास प्राणी चलते-फिरते हों या पहुंचते रहते हों - पुनचपर, महाराज, आकासो
इसितापसभूतदिजगणानुसञ्चरितो, मि. प. 356. अनुसञ्चेतेति अनु + सं + चित का वर्त, प्र. पु., ए. व., ध्यान को किसी एक पर केन्द्रित करता है, ध्यान को दृढ़तापूर्वक स्थिर रखता है - सचे अनुसञ्चेतेति, न परिहायति ताहि समापत्तीहि, पु. प. 118; अनुसञ्चेतेतीति, सचे समापज्जति, समापत्तिहि समापज्जन्तो अनुसञ्चेतेति नाम, पु. प. अट्ठ. 34. अनुसञआयति द्रष्ट. अनुसंयायति के अन्त.. अनुसट त्रि., अनु + /सर का भू. क. कृ. [अनुसृत], क. वह, जिसका अन्य लोगों द्वारा अनुसरण या अनुगमन किया गया है, या ग्रहण किया गया है, आच्छादित, ढका हुआ - सत्तहि अनुसयेहि अनुसटो लोकसन्निवासोति-पस्सन्तानं, पटि. म. 118; ... पदुमेहि अनुसट विप्पकिण्णं, ..., वि. व. अट्ठ. 27; ख. कर्तृ. वा. में, अनुसरण करने वाला, व्याप्त हो जाने वाला - अङ्गमङ्गानुसारिनोति धमनीजालानुसारेन सकलसरीरे अङ्गमङ्गानि अनुसटा ..., म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).127; ग. विकीर्ण, छितराया हुआ, असंयत - सरितानीति
अनुसटानि पयातानि, ध. प. अट्ठ. 2.307. अनुसति स्त्री., अनुस्सति का अप., द्रष्ट, अनुस्सति के
अन्त.. अनुसत्थि/अनुसिट्ठि/अनुसट्ठ स्त्री., पालि एवं अशोकीय प्राकृत में अनु + /सास से व्यु., क्रि. ना. [अर्धमागधी में अणुसट्ठि एवं अणुसिट्टि], अनुशासन, शिक्षण, आज्ञा, मार्गदर्शन, शिक्षा - भवदुक्खपटिपीळिता सत्ता धातुरतनञ्च धम्मञ्च विनयञ्च अनुसिठ्ठञ्च पच्चयं करित्वा .... मि. प. 110; तेन हि, महाराज, तथागतानं अनुसिट्टि सम्मानुसिट्टि होती ति, मि. प. 180; अनुसासनन्ति अनुसिद्धिं स. नि. अट्ठ. 1.93; एवमेव खो, महाराज, तथागतो सब्बकिलेसब्याधिवूपसमाय अनुसिद्धिं देति, मि. प. 168; स. उ. प. के रूप में
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अनुसत्थु अत्थधम्मानु, आचरियानु., जिनानु., धम्मानु, लाभानु. के अन्त. द्रष्ट; - कर त्रि., अनुशासन का पालन करने वाला - ... सत्थु करुणागुणदीपक भगवतो अनुसिढिकरानं कायकम्मवचीकम्मविष्फन्दितविनयनं विनयपिटकं पकासेसि, पारा. अठ्ठ. 171; - दायक त्रि., अनुशासन देने वाला - अनुसासिकाति अनुसिट्ठिदायिका, अ. नि. अट्ठ. 3.100; - पद नपुं॰, तत्पु. स., अनुशासन-प्रकाशक वचन, शिक्षापद - सिट्ठिपदेति अनुसिट्ठिपदे, स. नि. अट्ठ. 1.99. अनुसत्थु पु.. [अनुशास्त], अनुशासन या शिक्षण देने वाला, शिक्षक, आचार्य - त्थारं द्वि. वि., ए. व. - आचरियमनुसत्थारं सब्बकामरसाहर जा. अट्ठ. 4.159; अनुसत्थारन्ति अनुसासक. जा. अट्ठ. 4.160. अनुसद्दायति अनु + सद्द के ना. धा. का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अनुशब्दायते], बाद में गूंजता रहता है, अनुरव या अनुगूंज करता है - भेरी आको-टिता अथ पच्छा अनुरवति अनुसद्दायति, ध. स. अट्ठ. 160. अनुसद्दायना स्त्री., अनुगूंज, आवाज का गूंजते रहना - यथा पच्छा अनुरवना अनुसद्दायना एवं विचारो दडब्बोति, ध. स. अट्ठ. 160. अनुसन्तत त्रि०, अनु + सं + Vतन का भू. क. कृ. [अनुसन्तत], निरन्तर रूप में विद्यमान, सतत रूप में जारी - तत्थ दिद्विचरितो ... पब्बजितो सल्लेखानुसन्ततवृत्ति भवति सल्लेखे तिब्बगारवो, नेत्ति. 92; तण्हा चरितो ... पब्बजितो सिक्खानुसन्ततवृत्ति भवति सिक्खाय तिब्बगारवो, नेत्ति. 92. अनुसन्दति अनु + सं + vधा का वर्त., प्र. पु., ए. व. [अनुसंदधाति], अनुसन्दहति का अप., द्रष्ट., अनुसन्दहति
के अन्त... अनुसन्दहति अनु + सं + vधा का वर्त., प्र. पु., ए. व. [अनुसंदधाति], अभियोजित करता है, लगा देता है, जोड़ देता है, समर्पित कर देता है, बाद में जारी रहता है - ... चित्तं अनुसन्दहति अप्पटिकुल्यता सण्ठाति, अ. नि. 2(2).196; अनुसन्दहतीति पवत्तति, अ. नि. अट्ठ. 1.168; कंसथालं आकोटितं पच्छा अनुरवति अनुसन्दहति, ... मि... प. 64; - हित्वा पू. का. कृ. - अनुसन्दहित्वा ठपनतो चित्तस्स अनुसन्धानता, ध. स. अट्ठ. 1.88. अनुसन्धानता स्त्री., अनु + सं +vधा से व्यु., भाव., चित्त ।
का किसी आलम्बन पर सतत रूप में स्थिर रहना - यो तस्मि समये ... चितरस अनुसन्धानता अनुपेक्खनता, ध.
अनुसन्धि स. 284, 372; ..... अनुसन्दहित्वा ठपनतो चित्तस्स अनुसन्धानता, ध. स. अट्ठ. 188. अनुसन्धि पु., अनु + सं + vधा से व्यु. [अनुसन्धि]. क. परस्पर सम्बन्ध, जोड़, त्रिपिटक के विभिन्न खण्डों का पूर्वापर-सम्बन्ध अथवा तार्किक सम्बन्ध, निष्कर्ष, प्रयोग - तयो हि सुत्तस्स अनुसन्धी-पुच्छानुसन्धि, अज्झासयानुसन्धि, यथानुसन्धीति, दी. नि. अट्ट, 1.104; ख. “अनुसन्धिं घटेति" वाक्य के मुहावरे में, निष्कर्ष निकालता है, जातककथा की अतीतवत्थु एवं पच्चुप्पन्नवत्थु के बीच तर्कसङ्गत सम्बन्ध बतलाता है - सत्था इमं धम्मदेसनं ... कथेत्वा अनुसन्धि घटेत्वा जातकं समोघानेत्वा दस्सेसि, जा. अट्ठ. 1.113, 188, 207, 216, 295; द्वे वत्थूनि कथेत्वा अनुसन्धिं घटत्वा जातकं समोधानेसि, जा. अट्ठ. 1.149; स. उ. प. के रूप में अज्झासयानु.. अधिप्पयानु.. कथानु, तिविधानु, पुच्छानु, पुब्बापरानु०, यथानु०. वचनानु., वत्तानु, विनिच्छयानु. के अन्त. द्रष्ट; - कुसल त्रि., तत्पु. स. [अनुसन्धिकुशल], सङ्गति बैठाने में कुशल, जोड़ या सम्बन्ध को प्रकाशित करने में कुशल - पस्सति हि भगवा ... परिसति अनुसन्धिकुसलो एको भिक्खु सुप्पबुद्धस्स ... पुच्छिस्सति, उदा. अट्ठ. 237; सो किर अनुसन्धिकुसलो, भगवता यथा दण्डपाणी न जानाति, ..., म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).388; - कुशलता स्त्री॰, भाव. [अनुसन्धिकुशलता], सङ्गति या परस्पर-सम्बन्ध के बैठाने में कुशलता - तथागतं ... भिक्खुसङ्घस्स पाकटं करिस्सामीति चिन्तेत्वा अनुसन्धिकुसलताय एवमाह, म. नि. अठ्ठ. (उप.प.) 3.191; - क्कमयोजना स्त्री., तत्पु. स. [अनुसन्धिक्रमयोजना]. परस्पर-सम्बन्धों अथवा प्रयोगों के क्रम या पूर्वापर-क्रम की योजना - एस नयो सुक्कपक्खेपि, अयं तावेत्थ अनुसन्धिक्कमयोजना, म. नि. अट्ट. (मू.प.) 1(1).108; - नय पु., तत्पु. स. [अनुसन्धिनय], परस्पर-सम्बन्ध बैठाने या परस्पर में सङ्गति बैठाने की पद्धति - अनुसन्धिनया एते, मज्झिमस्स पकासिता ति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).4; - पुब्बापर नपुं.. तत्पु. स. [अनुसन्धिपूर्वापर], परस्परसम्बन्ध में प्राप्त पूर्वापरक्रम - अनुसन्धिपुब्बापरे पन सील आदि कत्वा आरद्धे सुत्तन्ते मत्थके छसु ..., अ. नि. अट्ठ. 3.61; - योजना स्त्री., तत्पु. स. [अनुसन्धियोजना], परस्पर-सम्बन्ध बैठाने की योजना, सम्बन्धों अथवा प्रयोगों के विषय में कथन - अनुसन्धियोजनापि चेत्थ संसग्गगाथाय वुत्तनयेनेव वेदितब्बा, सु. नि. अट्ठ. 1.68; ... न
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अनुसन्धीयति
अनुसयिक/अनुसायिक अनुसन्धियोजनाक्कमेन वित्थारो, सु. नि. अट्ट, 1.194; - पापका अकुसला धम्मा, नेत्ति. 18; पञआय अनुसया पहीयन्ति, वचन नपुं.. तत्पु. स. [अनुसन्धिवचन], भगवान् बुद्ध के नेत्ति. 14; स. उ. प. के रूप में अधिट्ठानाभिनिवेशानु.. वचनों के साथ जुड़े हुए श्रावकों के वचन - किं .... अननु, अविज्जानु., अहङ्कारम्मकारमानानु०, कामरागानु.. अनुसन्धिवचनं नीतत्थं नेय्यत्थं संकिलेसभागिय निब्बेधभागियं तण्हानु., दिट्ठानु.. दिट्ठिमानानु., मानानु., रागानु.. असेक्खभागियं, नेत्ति. 20; अनुसन्धिवचनन्ति सावकभासितं विचिकिच्छानु., व्यापादानु., सक्कायदिट्ठानु., सानु.. तहि भगवतो वचनं अनुसन्धेत्वा पवत्तनतो अनुसन्धिवचनान्ति सीलब्बतपरामासानु के अन्त. द्रष्ट; - जालमोत्थत त्रि., वृत्तन्ति, नेत्ति. अट्ठ. 208; - वचनपथ पु. तत्पु. स. अनुशयों अथवा चित्तसन्तति में सोये हए अकुशल मनोभावों [अनुसन्धिवचनपथ]. परस्परसम्बन्ध या प्रयोग को दरसाने के जाल में फंसा हुआ - ओघसंसीदनो कायो, वाले वचन के प्रकार - .... अनुसन्धिवचनपथं न जानाति, अनुसयजालमोत्थतो, थेरगा. 572; तेस जालेन ओत्थतो परि. 255; अनुसन्धिवचनपथन्ति कथानुसन्धि - अभिभूतोति अनुसयाजालमोत्थतो. थेरगा. अट्ठ. 2.170; - विनिच्छयानुसन्धिवसेन वत्थु न जानाति, परि. अट्ठ. 177. पटिपक्ख पु., तत्पु. स. [अनुशयप्रतिपक्ष], अनुशयों का अनुसन्धीयति अनु + सं + vधा के कर्म. वा. का वर्त., प्र. अभाव या उच्छेद - पञआय अनुसयपटिपक्खो, विसुद्धि. पु., ए. व. [अनुसन्धीयते]. सम्बद्ध कराया जाता है, 1.6; - पजहन नपुं., अनुशयों का परित्याग या विनाशसुसङ्गतरूप में जोड़ दिया जाता है - केचि निब्बानं वदन्ति, मग्गस्स हि एकमेव किच्चं अनुसयप्पजहनं, ध. स. अट्ठ. तं पुरिमपदेन नानुसन्धीयति, खु. पा. अट्ठ. 124; - न्घेतो 275; - पहान नपुं.. तत्पु. स. [अनुशयप्रहाण], अनुशयों वर्त. कृ. [अनुसन्धीयमान], अनुसन्धि या परस्पर-सम्बन्ध का उच्छेद या निरोध - अविज्जानिरोधाति अरियमग्गेन को सुसङ्गतरूप में बैठाता हुआ - ... अनुसन्धेन्तो भिक्खूनं अविज्जाय अनवसेसनिरोधा, अनुसयप्पहानवसेन अग्गमग्गेन धम्मकथं कथेसि, खु. पा. अट्ठ. 158.
अविज्जाय.... उदा. अट्ठ. 38-39; - यमक नपुं.. यम. के अनुसम्पवङ्कता स्त्री, अनु + सम्पवङ्क का भाव. [अनुसम्पर्यङ्कता], एक खण्ड का शीर्षक जिसमें अनुशयों का विवेचन हुआ है, घनिष्टता, निकटता, अत्यन्त निकटवर्ती होना, परस्पर- यम. 2.77-369; - वग्ग पु., अ.नि. के अनुशयविवेचनपरक सम्बन्ध का रहना - यो तत्थ अनुवादो अनुवदना ... एक वर्ग का शीर्षक, अ. नि. 2(2).161-167; - वार पु.. अनुसम्पवङ्कता अब्भुस्सहनता अनुबलप्पदानं .... चूळव. यम. के अनुसययमक के प्रथम उपखण्ड का शीर्षक, यम. 196, 202; अनुसम्पवङ्कताति पुनप्पुनं कायचित्तवाचाहि तत्थेव । 78-134; - समुग्घाटन नपुं.. तत्पु. स. सम्पवङ्कता, अनुवदनभावोति अत्थो, चूळव. अट्ठ. 39. [अनुशयसमुदघाटन], अनुशयों को उखाड़ फेंकना या अनुसम्मति द्रष्ट., अनुसुम्भाति के अन्त., आगे,
अनुशयों का पूर्णरूप से उच्छेद - अनुसयसमुग्घाटनत्थं अनुसय पु., अनु + Vसी से व्यु. [अनुशय], चित्त में खो, आवुसो, भगवति ब्रह्मचरियं वस्सती ति, स. नि. निष्क्रिय रूप में विद्यमान राग, द्वेष आदि क्लेश या कुछ 3(1).26; - समुग्घात पु., तत्पु. स. [अनुशयसमुद्घात]. अकुशल चित्तवृत्तियां, मानसिक अभिप्राय, क्लेशों के मूल उपरिवत् - ..., केन सोता पिघीयरेति अनुसयसमुग्घातं या बीज, कामराग, पटिघ (द्वेष), मान, दिट्टि, विचिकिच्छा, पुच्छति, नेत्ति. 14; सो च तस्सन्नं ... पदव्यञ्जननेहि भवराग एवं अविज्जा नामक सात प्रकार की मन की सूक्ष्म अनुप्पबन्धेहि अनुसयसमुग्घाताय, म. नि. 1.277; दुष्प्रवृत्तियां - पच्छातापानुबन्धेसु रागादोअनुसयोभवे, अभि. अनुसयसमुग्घातायाति सत्तन्न अनुसयानं समुग्घातत्थाय, प. 853; थामगततुन अनुसेतीति अनुसयो, ध. स. अट्ठ. म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).151; इन्द्रियानि भावितानि 392; अनुसयो हि भवपवत्तिया मूलं. उदा. अट्ठ. 303; सत्त बहुलीकतानि अनुसयसमुग्घाताय संवत्तन्ति, स. नि. 3(2). अनुसया कामरागानुसयो, पटिघानुसयो, दिट्ठानुसयो, 309; - यानुक्कमसहित त्रि., तत्पु. स. विचिकिच्छानुसयो, मानानुसयो, भवरागानुसयो, अविज्जानुसयो, [अनुशयानुक्रमसहित], अनुशयों के साथ - सन्दानं दी. नि. 3.200; अप्पहीनतुन अनुसयन्तीति अनुसया, दी. सहनुक्कमन्ति अनुसयानुक्कमसहितं द्वासहिदिहिसन्दानं, नि. अट्ठ. 3.204; इध तथागतो सत्तानं आसयं जानाति, ..., ध. प. अट्ठ. 2.376; सु. नि. अट्ठ. 2.170. अनुसयं जानाति चरितं जानाति, अधिमुत्तिं जानाति, .... अनुसयिक/अनुसायिक त्रि., अनु + Vसी से व्यु., शेष, उदा. अट्ठ. 112; अनुसया अकुसलमूलानि, इमे उप्पन्ना बचा हुआ, स्वाभाविक अथवा जन्म से ही विद्यमान, पुराना,
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अनुसयित चिरकालिक - अत्थि ते कोचि अनुसायिको आबाधोति, अस्थि मे, भो रखपाल, अनुसायिको आबाधो. म. नि. 2.266; थेरस्स किर वातपित्तसेम्हवसेन अनुसायिको आबाधो अत्थि, ..., स. नि. अट्ठ. 1.161; सो हि आयस्मा ... अप्पमत्तो आतापी ... पुसित्वा एकरस अनुस्सायिकस्स रोगस्स वसेन ततो परिहायि, ध. प. अट्ठ. 1.242; अप. आनुसायिक, अनुस्सायिक. अनुसयित त्रि., अनु + Vसी से व्यु., लम्बे समय से जुड़ा हुआ, जन्म से ही विद्यमान, स्वाभाविक रूप से भीतर विद्यमान - कण्हस्स सोत दीघरत्ता नु सयितं, सु. नि. 357; थेरगा. 1284; दीघरत्तानुसयितं, दिद्विगतमजानतं, पकप्पितं नामगोत्तं ..... सु. नि. अट्ठ. 2.174; अजानन्तानं सतानं हदये दीघरतं दिट्टिगतमनुसयितं. म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.310; - त्त नपुं.. अनुसयित का भाव., स्वाभाविक रूप में भीतर विद्यमान रहने की अवस्था - तस्स अनुसयितत्ता तं नामगोतं अजानन्ता नो पबुन्ति, .... म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.310; सु. नि. अट्ठ. 2.174. अनुस्सरण नपुं.. [अनुस्मरण], बाद में होने वाला स्मरण, पीछे आने वाली किसी की याद - फलदानेन बुद्धस्स,
गुणानुस्सरणेन च, अप. 2.141; अप. अनुसरण. अनुस्सरति/अनुसरति अनु + /सर का वर्त, प्र. पु., ए. व., यदा-कदा सं. अनुस्मरति के पालि-प्रतिरूप के रूप में भी प्रयुक्त [अनुस्मरति], अनुसरण करता है, अनुगमन करता है, किसी के पीछे दौड़ता भागता है, किसी की ओर लग जाता है - धम्म अनुस्सरतीति धम्मानुसारी, अ. नि. अट्ठ. 3.150; - न्ति ब. व. - उदाहु ते तक्कमनुस्सरन्ति, सु. नि. 891; - रं/रन्तो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - याव अनुस्सरं कामे जा. अट्ठ. 4.154; अनुस्सरन्ति अनुस्सरन्तो, जा. अट्ठ. 4.155; -री अद्य., म. पु.. ए. व., पीछे लग गया - यं त्वं अनुसरी पुरे, जा. अट्ठ. 4.242; तत्थ अनुसरीति अनुबन्धि, जा. अट्ठ. 4.242; - रित/सट त्रि, भू. क. कृ. [अनुसृत], वह जिसका अनुसरण या अनुगमन किया गया है - सरितानीति अनुसटानि पयातानि ध. प. अट्ठ. 2307; ताहानुसयेन
अनुसटो लोकं सन्निवासोति... पटि म. 116, 118. अनुसवाति अनु + सु का वर्त., प्र. पु., ए. व. [अनुश्रृणोति].
द्रष्ट. अनुस्सवति के अन्त... अनुसार' पु., अनु + (सर से व्यु. [अनुसार], शा. अ. समनुरूपता, अनुगमन, के अनुसार, प्रयोग के अनुरूप, की अनुरूपता - एतेनानुसारेन पच्चेकबुद्धअरियसावकानम्पि
अनुसासक पूजाय हितसुखावहता वेदितब्बा, खु. पा. अट्ठ. 104; ला.अ. क. नक्शे कदम पर, दिशा का अनुसरण, पदचिह्नों का अनुसरण - मनुस्सा उक्कं आदाय चोरस्स पदानुसारेन तत्थ आगन्त्वा तस्स ... चोरो इतो आगतो, जा. अट्ठ. 3.29; नन्दा देसनानुसारेन आणं पेसेवा सोतापत्तिफलं पापुणि ध. प. अट्ठ. 2.65; ला.अ. ख. के बगल से, के पार्श्व में - गिरिकन्दरानुसारेन अत्तनो निवासानुरूपं फासुकट्ठानं ..., जा. अट्ठ. 1.11; ला.अ. ग. के द्वारा, से होकर - इध पनस्स सोतद्वारानुसारेन उपधारित न्ति वा उपधारण न्ति वा अत्थो, उदा. अट्ठ. 11; ला.अ. घ. की अनुरूपता में - वित्थारो पन अस्सलायनसुत्तानुसारेन वेदितब्बो, सु. नि. अट्ठ. 2.121. अनुसार पु., अनुस्सार का भाव. [अनुस्वार]. स्वर के बाद आने वाली बिन्दु या निग्गहीत-ध्वनि, जिसका उच्चारण नासिका का निग्रहण कर किया जाता है - ... आगमवसेन एवानुसारो होति न सभावतो ति दट्ठतब्ब, सद्द. 1.162. अनुसारी त्रि., अनुसार' से व्यु. [अनुसारी], अनुसरण या अनुगमन करने वाला, किसी उद्देश्य या प्राप्ति के पीछे लगा हुआ, किसी की अनुरूपता में कार्य कर रहा - रिनो पु.. प्र. वि., ब. व., अनुसरण करने वाले, सेवक, अनुचर, अनुयायी - तस्स तं वचनं सुत्वा, पण्डितस्सानुचारिनो, जा. अट्ठ. 6.272; स. उ. प. के रूप में अङ्गुमङ्गानु०, अङ्गानु.. अत्थानु., उजुमग्गानु, धम्मानु, धम्मनिमित्तानु, परघोसानु.. पीतिसुखानु., भवसोतानु., रूपन्तिमित्तानु.. वट्टानु.. विपथानु, सतानु., सद्धानु. के अन्त. द्रष्ट.. अनुसारेति अनु + Vसर का प्रेर., वर्त., प्र. पु., ए. व. [अनुसारयति], अनुसरण कराता है, पीछे भेजता है या पीछे लगा देता है;- रेय्य विधि., प्र. पु., ए. व., पीछे से भिजवा दे, पीछे लगवा दे - ततो राजा अजमज अनुसारेय्य अनुपेसेय्य अत्तनो परित्तकाय सेनाय बलं अनुपदं ददेय्य, मि. प. 34. अनुसास पु., अनुसासनी का अप., अनुशासन, शिक्षा - भिक्खू भगवा पकासेसि, नो च भिक्खुनो अनुसासन्ति, स. नि. 1(1).54; अनुसासन्ति अनुसिद्धिं स. नि. अट्ठ. 1.93. अनुसासक पु., अनु + सास से व्यु. [अनुशासक], अनुशासन या शिक्षा देने वाला, बुद्ध के निर्वाण के उपरान्त शिक्षा प्रदान करने वाला, शिक्षक, आचार्य - तत्थ अनुसासिता मे न भवेय्य पच्छाति अनुसासको ओवादको न भवेय्य दुल्लभत्ता ओवादकानं. .... जा. अट्ठ, 3.337; किं पनेत्थ अनुसासको
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अनुसासति
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अनुसासनी किञ्चि दोसं आपज्जतीति? न हि भन्तेति, मि. प. 180: 106; मतिं करोहि त्वं देव, रज्जस्स मनुसासितुन्ति, जा. अनुसत्थारन्ति अनुसासक, जा. अट्ठ. 4.160; तथागतानं अट्ठ. 7.276; - सित्वा पू. का. कृ., अनुशासन करके, शिक्षा अन्तरधानेन असति अनुसासके मग्गो अन्तरधाथि, मि. प. देकर - आवुसो, असुका ... भिक्खुनी अझं अनुसासित्वा 206.
...., जा. अट्ठ. 1.411; - सियो सं. कृ., प्र. वि., ए. व., अनुसासति अनु + Vसास का वर्तः, प्र. पु., ए. व. पु., अनुशासन या शिक्षण पाने योग्य - कथहि नाम त्वं [अनुशास्ति], शिक्षण प्रदान करता है, घोषित करता है, मोघपुरिस, अओहि ओवदियो अनुसासियो अझं ओवदितु कहता है, मार्गदर्शन देता है, परामर्श देता है, भर्त्सना करता अनुसासितुं मञिस्ससि, महाव. 66; - सनीयो उपरिवत् -- है, शासन करता है, पथप्रदर्शन करता है, प्रतिपादित करता किस्स पन चोरो अनुसासनीयो अनुमतो तथागतानन्ति, मि. है -- यो अत्थं पुच्छितो सन्तो, अनत्थमनुसासति, सु. नि. प. 180; - सितब्बो उपरिवत् - सो भिक्खूहि नेव वत्तब्बो, 126; अदण्डेन असत्थेन, धम्मेनमनुसासति, सु. नि. 1008; न ओवदितब्बो, न अनुसासितब्बो ति, दी. नि. 2.115. अनत्थमनुसासतीति तस्स अहितमेव आचिक्खति, सु. नि.. ___ अनुसासन नपुं. अनु +vसास से व्यु., क्रि. ना. [अनुशासन], अट्ठ. 1.143; अत्तानं चे तथा कयिरा, यथाञ्जमनुसासति, क. हितकारी शिक्षा, "यह करो, यह न करो" के रूप में ध. प. 159; - सि म. पु., ए. व. - एवं चे कण्ह जानासि, भिक्षुओं को दी जाने वाली शिक्षा, आज्ञा, प्रशिक्षण, ख. यदञमनुसाससि, जा. अट्ठ. 4.77; - सामि उ. पु.. ए. व. प्रशासन, राज्यशासन - ओवादो चानुसिद्वित्थी - सब्बत्थ अनुसासामि, मासु कुज्झ रथेसभाति, जा. अट्ठ. पुमवज्जेनुसासनं, अभि. प. 354; आणायं आगमे लेखे 3.201; -न्ति प्र. पु.. ब. व.- समणा मनुसासन्ति, इसी सासनं अनुसासने, अभि. प. 992; यं किञ्चि पथविया ... धम्मगुणे रता, जा. अट्ठ. 4.122; - सरे प्र. पु., ब. व., छज्जभेज्जजनमनुसासनं .... मि. प. 323; मुखञ्चिदं आत्मने. - अनुसासरे किन्ति सुखी भवेय्य, जा. अट्ठ. 4.357; सब्बजिनानुसासने, यो सीलक्खन्धो वरपातिमोक्खियो, मि. - सं/सन्तो वर्त. कृ., पु., प्र. वि.. ए. व., पु., अनुशासन प.31; सत्थाति दिद्वधम्मिकसम्परायिकपरमत्थेहि सत्तानं देता हुआ - राजा कालिङ्गो चक्कवत्ति, धम्मेन पथविमनुसासं. अनुसासनतो सत्था, उदा. अट्ठ. 327; स. उ. प. के रूप में जा. अट्ठ. 4.208; - मानो वर्त. कृ., आत्मने, पु., प्र. वि., अत्थानु., लङ्कादीपानु के अन्त. द्रष्ट.; - कर त्रि., शिक्षा ए. व., - केवलं परमेव अनुसासमानो परतो निन्दं लभित्वा देने वाला, शिक्षा के अनुसार काम करने वाला - किलिस्सति नाम, ध. प. अट्ठ. 2.78; - तु अनु., प्र. पु., ए. ममानुसासनकरा, तेपि आसुं अनासवा, अप.2.118; - व. - अनुसासतु मं भवं, सु. नि. 465; - सेय्यु विधि., प्र... विधा स्त्री., तत्पु. स., शिक्षा के प्रकार, शिक्षण के प्रभेद पु.. ब. व. - अनुसासमाना च सुखं अनुसासेय्यु, मि. प. या विधियां, स्रोतापन्न, सकृदागामी, अनागामी एवं अर्हत्, 223; - सेमु विधि., उ. पु., ब. व., हम अनुशासन दें - इन चार प्रकार के व्यक्तियों को ध्यान में रखकर बुद्ध द्वारा येनझुना अनुसासेमु पुत्ते, जा. अट्ठ. 7.182; - सासि' अद्य.. दी जा रही शिक्षा के चार प्रकार - चतस्सो इमा भन्ते प्र. पु., ए. व., अनुशासन दिया, शिक्षा दी - आयस्मा अनुसासनविधा, ..., दी. नि. 3.79. महामोग्गलानो ... भिक्खू धम्मिया कथाय ओवदि अनुसासि. ___ अनुसासनी स्त्री., अनुसासन से व्यु. तथा अधिक प्रयुक्त, महाव. 340; - सासि म. पु., ए. व., तूने अनुशासन या यदा-कदा ओवाद के पर्याय के रूप में भी प्राप्त, शिक्षा, शिक्षण दिया - अनुसासि में अरियवता, थेरगा. 334; - हितकारिणी शिक्षा, शीलसम्बन्धी शिक्षा, इस लोक और सासिं उ. पु., ए. व., मैंने शिक्षा दी - ततो भिक्षु परलोक में कल्याण कराने के उद्देश्य से दी गयी शिक्षा - सहस्सानि, अनुसासिमहं तदा, अप. 2.118; - सिसु प्र. पु... एत्थ च सकिंवचनं ओवादो, पुनप्पुनवचनं अनुसासनी, अ. ब. व., उन्होंने अनुशासन (शासन) किया - विसं विसं पुरे नि. अट्ठ. 1.55; सम्मुखावचनम्पि ओवादो, पेसेत्वा परम्मुखा रज्जं कमतो अनुसासिसं. म. वं. 2.11; - सिस्ससि भवि., वचनं, अनुसासनी, अ. नि. अट्ट, 1.56; तेविज्जा अथ म. पु., ए. व., तूं अनुशासन या शिक्षण देगा - वहासिं, कता ते अनुसासनी, थेरगा. 180; तस्साहं वचनं चतुद्दीपमनुसासिस्सतीति, मि. प. 265; -- सितुं निमि. कृ... सुत्वा, करोन्ती अनुसासनि, थेरीगा. 172; ..... खमो अनुशासन के लिये - अनुजानामि, .... यावतके वा पन पदक्खिणग्गाही अनुसासनि, .... म. नि. 1.135; ..., उस्सहति ओवदितुं अनुसासितुं तावतके उपट्टापेतुन्ति, महाव. अनुसासनिया वा अनुसासनिन्ति? ..., म. नि. 1.118; -
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अनुसासिकजातक
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अनुसिस्स निकर त्रि, शिक्षा के अनुरूप आचरण करने वाला - सद्धासम्पन्नानं सद्धासम्पदं अनुसिक्खति, अ. नि. 3(1).110; सत्थुसासनकरोति सत्थु अनुसासनिकरो, अ. नि. अट्ठ. -न्ति ब. व. - ये पि तस्स अनुसिक्खन्ति तेपि कायस्स 1.55; - पाटिहारिय नपुं.. [अनुशासनप्रातिहार्य], बुद्ध की भेदा परं मरणा ... निरयं उपपज्जन्ति, मि. प. 63; - खरे तीन प्रकार के ऋद्धिबलों में से एक, शिक्षा प्रदान करने से वर्तः, प्र. पु.. ब. व., आत्मने. - युज गोतमसासने, सम्बन्धित ऋद्धि या अलौकिक शक्ति - तीणि खो इमानि, अप्पमता नु सिक्खरे ति, स. नि. 1(1).63; - क्खन्तो पु.. ..... कतमानि तीणि? इद्धिपाटिहारियं, आदेसनापाटिहारियं, वर्त. कृ., प्र. वि., ए. व., दूसरों से सीखता हुआ - ..., अनुसासनीपाटिहारियं, दी. नि. 1.1963; अ. नि. 1(1).198; - यञ्च अनुसिक्खन्तो सद्धाय वड्डति, ..... उदा. 182; - पुरेक्खार त्रि., अनुशासन या विनय की शिक्षा के प्रति क्खथ अनु., म. पु., ब. व. - अधिट्टहाथाति अनुसिक्खथ सम्मानभाव रखने वाला अथवा उसे प्रधानता देने वाला - इदं सेरीसकमहन्ति दस्सेति, वि. व. अट्ठ. 293; -- क्खे अनापत्ति अत्थपुरेक्खारस्स, धम्मपुरेक्खारस्स, विधिः, प्र. पु., ए.व., दूसरों से सीखे - अप्पमत्तो सदा अनुसासनिपुरेक्खारस्स, उम्मत्तकस्स, आदिकम्मिकरसाति, नमस्समनुसिक्खे ति, सु. नि. 940; स. नि. 1(1).224; ख. पारा. 192; अनुसासनिपुरेक्खारस्साति इदानिपि अनिमित्तासि सक. क्रि. के रूप में - अनुशासन या शिक्षण देता है उभत्तोब्यञ्जनासि अप्पमादं इदानि करेय्यासि, ..., पारा. - एहि तं अनुसिक्खामि, जा. अट्ठ. 5.340; तत्थ अट्ठ. 2.123.
अनुसिक्खामीति अनुसासामि, जा. अट्ठ. 5.341; - क्खापेत्वा अनुसासिकजातक नपुं., जा. अट्ठ. की एक जातककथा प्रेर. का पू. का. कृ., सिखला कर - ... अनुसिक्खापेत्वा का शीर्षक, जा. अट्ठ. 1.410-412.
रओ सन्तिके उपासनं आराधयित्वा .... मि. प. 319. अनुसासिका स्त्री., एक प्रकार का पक्षी, एक प्रकार के पक्षी अनुसिह त्रि., अनु + Vसास का भू. क. कृ. [अनुशिष्ट]. का नाम - सकुणसङ्को तस्सा अनुसासिकातेव नामं अकासि. शिक्षित, प्रशिक्षित, नियन्त्रित, आदिष्ट, वह, जिसको शिक्षा जा. अट्ठ. 1.411.
दी गयी है, वह, जो अन्य द्वारा सिखलाया गया है - अनुसासित त्रि., अनु + Vसास का भू, क. कृ. [अनुशिष्ट]. अनुसिटो सो मया, महाव. 120; तेनानसिठ्ठो हितमनेन वह, जिसे शिक्षा या अनुशासन दिया गया है, नियन्त्रित, तादिना, सु. नि. 702; ... येहि अनुसिट्ठो बोधिसत्तो तत्थ नियमपरायण, सुशिक्षित - सुसिडेनाति आचरियेहि सुट्ट तत्थ दिवसं वीतिनामेसि, मि. प. 221; अयं पुग्गलो यथानुसिटुं अनुसासितेन, जा. अट्ठ. 3.3; तुल. अनुसिट्ठ.
तथा पटिपज्जमानो.... सकदागामी भविस्सति, दी. नि. 3.79. अनुसासितु त्रि., अनु + Vसास का कर्तृ. कृ. [अनुशास्तृ], __ अनुसिट्ठि स्त्री., अनु + सास से व्यु., क्रि. ना. [अनुशिष्टि], शिक्षक, अनुशासन देने वाला, शासक, दण्डविधान करने अनुशासन या शिक्षा देना, धर्म एवं विनय की शिक्षा, वाला, नियन्त्रक - अयमेव कालो न हि अओ अस्थि, आत्मनियन्त्रण की शिक्षा, संसार के दुःखों का नाश कराने अनुसासिता मे न भवेय्य पच्छा, जा. अट्ठ. 3.337; तत्थ वाला वचन - सास अनुसिट्टियं- यो अनुसासनी ति च अनुसासिता मे नावेय्य पच्छाति अनुसासको ओवादको अनुसिट्ठी ति च वुच्चति, सद्द. 2.451; ओवादो चानुसिट्टित्थी .... ओवादकानं, ..., जा. अट्ठ. 3.337; तुल. अनुसत्थु.। पुमवज्जेनुसासनं, अभि. प. 354; बुद्धानं सावकानं वचनं अनुसासीयति अनु + Vसास के कर्म. वा. का वर्त, प्र. पु., व्यप्पथं देसनं अनुसिष्टुिं नादियन्तीति- अवदानिया, महानि. ए. व. [अनुशास्यते], अनुशासन किया जाता है, शिक्षण 26; भवदुक्खं नासेत्वा कथनं अनुसिट्टि नाम, महानि. अट्ठ. दिया जाता है, प्रशासन अथवा राज्य का शासन किया 89; स. उ. प. के रूप में अत्थानुसिट्टि के अन्त. द्रष्ट., जाता है - ... अपि च धम्मानुसिट्टिया अनुसासीयति. .... मि.. तुल. अनुसत्थि. प. 180; - अननुसासियमाना वर्त. कृ., प्र. वि., ब. व. अनुसिब्बन्त त्रि., अनु + सिव का वर्त. कृ., एक दूसरे के का निषे०, अनुशासन न दिये जा रहे - ... अनुपज्झायका साथ लिपटा हुआ या गुंथा हुआ- इतरेपि गवक्खजालसदिसं अनाचरियका अनोवदियमाना अननुसासियमाना... महाव. 50. अनुसिब्बन्ता निक्खन्ता .... पारा. अट्ठ. 1.66. अनुसिक्खति अनु + सिक्ख का वर्त., प्र. पु., ए. व. अनुसिस्स' पु., [अनुशिष्य], शिष्यों का शिष्य, प्रशिष्य - [अनुशिक्षते], क. दूसरे की बात को सीखता है, दूसरों के ततो उद्धं तेसंयेव सिस्सानुसिस्सेहीति एव ताव जम्बुदीपतले उदाहरण का अनुसरण या अनुकरण करता है - यथारूपानं आचरियपरम्पराय आभतो, ध. स. अट्ठ. 33.
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अनुसिस्स अनुसिस्स पु., व्य. सं., सरभङ्ग के प्रमुख शिष्यों में से एक तापस-शिष्य का नाम - तस्सोवादे ठत्वा ... सालिस्सरो ... पब्बतो काळदेविलो किसवच्छो अनसिस्सो नारदोति सत्त जेहन्तेवासिनो अहेसु. जा. अट्ट. 5.128; अनुसिस्सो च
आनन्दो, किसवच्छे च कोलितो, जा. अट्ठ. 5.145. अनुसीसं अ., क्रि. वि., सिर के ऊपर, सिर पर - अनुपादं
वा अनुसीस वा ठितस्स सब्बं असुभं समं न पआयति, विसुद्धि. 1.175. अनुसुय्यक/अनुसूयक त्रि., उसूयक का निषे. [अनसूयक]. ईर्ष्या न करने वाला, ईर्ष्या-भाव से मुक्त - वुड्ढापचायी अनुसूयको सिया, कालचस्स गरूनं दस्सनाय, सु. नि. 327; अनुसूयको अहं देव, अमज्जपायको अहं, जा. अट्ठ. 2.61; लाभा नो, आवुसोति अनुसूयको किरेस कालामो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).75; पोराणकत्थेरा हि अनुसूयका होन्ति, ..., दी. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).241; उट्ठानवीरिये पोसे, रमाह अनुसूयके, जा. अट्ठ. 5.107. अनुसुय्यति/अनुसूयति अनु + सु के कर्म. वा. का वर्त, प्र. पु.. ए. व. [अनुश्रूयते]. सुना जाता है, परम्परा में कहा जाता है - एवमक्खायति एवमनुसूयति, जा. अट्ठ. 5.411; - यते उपरिवत्, आत्मने. - तं यथानुसूयते - अस्थि योनकानं.... मि. प. 2; - य्यरे ब. व., आत्मने. - विपनट्ठा ब्रह्मरुओ, अन्धाव अनुसुय्यरे, अप. 1.152; अन्धाव चक्षुविरहिताव अनुसुय्यरे विचरन्तीति सम्बन्धो, अप. अट्ठ. 126. अनुसेट्ठी पु.. [अनुश्रेष्ठिन्], साधारण व्यापारी, छोटा सेठ -
सो एकदिवसं राजूपट्टानं गच्छन्तो अनसेलुि आदाय गमिस्सामी ति तस्स गेहं अगमासि, तस्मिं खणे अनुसेट्टि ..., जा. अट्ठ. 5.381. अनुसेति अनु + vसी का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अनुशेते], क. व्यक्ति के सन्दर्भ में प्रयुक्त होने पर, आसक्त हो जाता है, किसी के प्रति लगावयुक्त हो जाता है, किसी के विषय में मन में संकल्प विकल्प करता है - यञ्च ...
चेतेति यञ्च पकप्पेति यञ्च अनुसेति, आरम्मणमेतं होति विआणस्स ठितिया, स. नि. 1(2).58; यं खो, भिक्खु अनुसेति, तेन सङ्घ गच्छति, यं नानुसेति, न तेन सङ्घ गच्छती ति, स. नि. 2(1).33; ख. वस्तुओं या आलम्बनों के सन्दर्भ में - निष्क्रिय अथवा प्रसुप्त अवस्था में चित्त में अनुशय के रूप में पड़ा रहता है, निरन्तर प्रकट होता है - राग तेन पजहति, न तत्थ रागानुसयो अनुसेति, म. नि.
अनुसोतं 1.385; न तत्थ पटिघानुसयो अनुसेतीति तत्थ एवरूपे दोमनस्से पटिघानुसयो नानुसेति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).263; - न्ति वर्त, प्र. पु., ब. व., भीतर सोये हुए या निष्क्रिय रूप में पड़े रहते हैं - यथा च पन कामेहि विसंयुत्तं विहरन्तं तं ब्राह्मणं अकथंकथिं छिन्नकुक्कुच्च भवाभवे वीततण्हं सञआ नानुसेन्ति ..., म. नि. 1.155. अनुसेवित त्रि., अनु + सेव का भू. क. कृ. [अनुसेवित]. अर्जित, व्यवहृत, किया हुआ, व्यवहार में लाया गया - पुब्बानुसेवितं कम्म, पुजवापुञमेव वा, अभि. अव. 77. अनुसोचति अनु + Vसोच का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अनुशोचति], शोक करता है, पछताता है, खेद अनुभव करता है, विलाप करता है - निरासत्ति अनागते, अतीत नानुसोचति, सु. नि. 857; - सि म. पु., ए. व. - सक्का आनयितुं कण्ह, यं पेतमनुसोचसीति, जा. अट्ठ. 4.77; - चामि उ. पु., ए. व. - अतीतं नानुसोचामि नप्पजप्पामिनागतं जा. अट्ठ. 6.31;-न्ति प्र. पु.. ब. व. - अतीतं नानुसोचन्ति, नप्पजप्पन्ति नागतं. स. नि. 1(1).6; - चन्त त्रि., वर्त. कृ. - महती ... अत्तानं अनसोचन्तो रोदामी ति आह जा. अट्ठ. 1.65; - चेय्य विधि., प्र. पु., ए. व. - तं तं चे अनुसोचेय्य, यं यं तस्स न विज्जति, जा. अट्ठ. 3.81; - अननुसोचिय त्रि., सं. कृ. का निषे. [अननुशोच्य]. नहीं सोचने योग्य, नहीं पछताने योग्य - वीतं अननुसोचियन्ति, जा. अट्ठ. 3.81. अनुसोचन नपुं.. अनु + सोच से व्यु., क्रि. ना. [अनुशोचन]. पश्चात्ताप, पछतावा, शोकविलाप, बाद में सोचना-विचारना - एकित्थिन्ति यं एवरूपो भवं एक इत्थिं अनसोचेय्य, इद अनुसोचनं न पञ्जवतं इव, .... जा. अट्ठ. 5.362; एवंसम्पदमेवेतन्ति यो पेतं मतं अनसोचति, तस्सेतं अनुसोचनं एवंसम्पदं एवरूपं ..., पे. व. अट्ठ. 55; अनागतप्पजप्पाय, अतीतस्सानुसोचना, स. नि. 1(1).6; स. उ. प. के रूप में कताकतानु. के अन्त. द्रष्ट; - पच्चुपट्ठान त्रि., तत्पु. स. [अनुशोचनप्रत्युपस्थान], बीती बात को सोचने-विचारने या पछतावा करने से उत्पन्न या उदित - अन्तोनिज्झानलक्खणो सोको, चेतसो निज्झानरसो, अनसोचनपच्चपट्टानो, उदा.
अनुसोतं अ., क्रि. वि. [अनुस्रोतस], धारा के बहने की दिशा में, अनुकूल रूप में, पानी के नीचे की ओर होने वाले प्रवाह की दिशा में - सो तत्थ अनुसोतम्पि तुरहति, ..., अनुसोतपटिसोतम्पि बुरहति, म. नि. 3.224; ...., अनुसोतं गच्छतु ति वत्वा नदीसोते पक्खिपि, जा. अट्ठ 1.79; ...
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अनुस्वार
304
अनुस्सरण गङ्गाय नदिया अनुसोतं नावाय आगच्छन्तो तं पेतं तथा भिक्खून बहूपकारं वदामि, अनुस्सतिम्पाहं.... बहुकारं वदामि, गच्छन्तं दिस्वा पुच्छन्तो, पे. व. अट्ठ. 147; द्रष्ट. विलो. स. नि. 3(1).85; यं यं दानादिकुसलं अनुस्सरति भावतो, पटिसोत; - गामी त्रि.. [अनुस्रोतगामी], अनुकूल दिशा की तस्स तस्सानुरूप हि यसञ्चानुसती फलं. सद्धम्मो. 582; ओर जाने वाला, लकीर का फकीर, किसी स्थापित परम्परा __स. उ. प. के रूप में अननु, उपट्ठानानु., उपसमानु.. का अनुसरण करने वाला - सो रहमानो अनुसोतगामी, किं गुणानु., चागानु., देवतानु०. धम्मानु०, पुब्बेनिवासानु.. सो परे सक्खति तारयेतू. सु. नि. 321; अनुसोतगामि, भन्ते पुरिमजातिअनु., बुद्धानु., मरणानु., रतनानु., सङ्घानु., नागसेन, देवदत्तं तथागतो पटिसोतं पापेसि, मि. प. 120; सप्पुरिसानु, सीलानु के अन्त. द्रष्ट; - कम्मट्ठान नपुं..
चत्तारोमे, भिक्खवे. ... कतमे चत्तारो? अनुसोतगामी पुग्गलो, तत्पु. स. [अनुस्मृतिकर्मस्थान], ध्यान के आलम्बन के रूप .... अ. नि. 1(2).6; पुनप्पुनं जातिजरूपगामि ते. में अनुस्मृतियां, केवल स. उ. प. के रूप में ही प्रयुक्त, तण्हाधिपन्ना अनुसोतगामिनो, अ. नि. 1(2).6; - पटिसोतं बुद्धानुस्सतिकम्मट्ठान तथा बुद्धधम्मसङ्घानुस्सतिकम्मट्ठान के अ., क्रि. वि., धारा के बहाव की तथा इसके प्रतिकूल दिशा अन्त. द्रष्ट; - निद्देस पु., विसुद्धि के आठवें अध्याय का में, अनुकूल एवं प्रतिकूल रूप में - ... अनुसोतपटिसोतम्पि शीर्षक, विसुद्धि. 1.220-282. वुरहति, म. नि. 3.224.
अनुस्सतिद्वान नपुं., तत्पु. स. [अनुस्मृतिस्थान], ध्यानअनुस्वार पु., [अनुस्वार], द्रष्ट. अनुस्सार के अन्त... भावना के क्रम में अनुस्मृतियों की भावना के छः प्रकार के अनुस्सङ्की त्रि., उस्सङ्की का निषे. [अनुशङ्की], शङ्काओं से कारण या आधार - छ अनुस्सतिट्ठानानि - बुद्धानुस्सति, मुक्त, निर्भय, निःशङ्क - ... अभीतो अनुब्बिग्गो अनुस्सी धम्मानुस्सति, सङ्घानुस्सति, सीलानुस्सति, चागानुस्सति, अनुत्रस्तो, ..... चूळव. 320; उदा. 90; महाबलपरिबळ्हो, देवतानुस्सति, दी. नि. 3.198; अ. नि. 2(2).6; अनुस्सङ्की परक्कमि, म. वं. 10.40.
अनुस्सतिट्ठानानीति अनुस्सतिकारणानि, अ. नि. अट्ठ. अनुस्सङ्कित त्रि., उस्सङ्कित का निषे. [अनुत्शङ्कित], शङ्काओं 3.103. से मुक्त, निडर, निःशङ्क - ... अनुस्सङ्कितापरिसङ्किते हठ्ठपहढे अनुस्सतिवग्ग पु., अ. नि. के एक वर्ग का शीर्षक, अ.नि. उदग्गुदग्गे ..., म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).119.
3(2)296-322. अनुस्सतानुत्तरिय नपुं., तत्पु. स. [अनुस्मृत्यनुत्तर्य], अनुस्सतिविसेस पु., कर्म. स. [अनुस्मृतिविशेष], विशेष अनुस्मृतियों की अनुत्तरता या सर्वोत्तमता, अनुस्मृतियों का प्रकार की अनुस्मृति, विशेष रूप में भावित अनुस्मृति - सर्वोत्तम आदर्श, छ: प्रकार के अनुत्तर्य-धर्मों में से एक; बुद्ध, अनुस्सतिविसेसस्स सब्बा सम्पत्तियो फलं, सद्धम्मो. 231. धर्म एवं सङ्घ, इन तीन रत्नों के स्मरण की अनुत्तरता - छ अनुस्सद त्रि., उस्सद का निषे०, अहङ्काररहित, उभाड़ या अनुत्तरियानि - दस्सनानुत्तरियं, ..., पारिचरियानुत्तरिय, वृद्धि से रहित, तृष्णा, मान आदि अकुशल धर्मों की वृद्धि या अनुस्सतानुत्तरियं दी. नि. 3.197; अ. नि. 2(2).6; खत्तियादीनं प्रधानता से रहित - अक्कोधनं वतवन्तं सीलवन्तं अनुस्सद गुणानुस्सरणं नानुस्सतानुत्तरियं तिण्णं पन रतनानं सु. नि. 629; ध. प. 400; तण्हाउस्सदाभावेन अनुस्सद, गुणानुस्सरणं अनुस्सतानुत्तरियं नाम, दी. नि. अट्ठ. 3.200. ध. प. अट्ठ. 2.378; सु. नि. अट्ठ. 2.170; तं वे अनुस्सति/अनुसति स्त्री., [अनुस्मृति], पुनः पुनः उत्पन्न कल्याणधम्मोति आहु भिक्खु अनुस्सद, इतिवु. 70. स्मृति, पूर्व में अनुभूत धर्मों का स्मरण, मानसिक अनुचिन्तन, अनुस्सदकजात त्रि., उस्सदकजात का निषे., वह, जो ध्यान-प्रक्रिया में सतत रूप में भावनीय अभ्यास की एक ___ उष्ण या गर्म नहीं हुआ, वह, जिससे ऊपर उठकर बुलबुले क्रिया, बुद्ध, धर्म एवं सङ्घ आदि का पुनःपुनः मानसिक नहीं निकल रहे हों - ..., उदपत्तो अग्गिना असन्तत्तो स्मरण, अनुस्मरण - भावेहि बुद्धानुस्सति, भावनानमनुत्तर, अनुक्कुधितो अनुस्सदकजातो, अ. नि. 2(1).216; उदपत्तो अप. 1.66; विसुद्धि. 189-221; 220-282; उस्सोळिह अग्गिना सन्तत्तो पक्कुथितो उस्सुदकजातो, स. नि. त्वधिमत्तेहा, सति त्वनुस्सति स्थियं, अभि. प. 158; या सति 3(1).143; अ. नि. 2(1).214. अनुस्सति पटिस्सति सति सरणता धारणता ... सतिइन्द्रियं अनुस्सरण नपुं., अनु + (सर से व्यु., क्रि. ना. [अनुस्मरण]. सतिबलं .... अयं वुच्चति सति, महानि. 7; तत्थ पुनप्पुन अनुस्मृति, किसी बीती हुई बात का मन में स्मरण होना, उप्पज्जनतो सति एव अनुस्सति, महानि. अट्ठ. 27; तेसं पिछली बातों को मन में याद करना - तेसं भिक्खून
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अनुस्सरति
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अनुस्सरति बहूपकारं वदामि, अनुस्सरणम्पह, भिक्खवे, तेसं भिक्खूनं अससुकानि, सु. नि. 696; अनुस्सरन्तो सम्बुद्ध, अग्गं दन्तं बहूपकारं वदामि ..., इतिवु. 76; अनुस्सरणन्ति समाहितं, थेरगा. 354; - रन्तिया स्त्री., वर्त. कृ., ष. वि., रत्तिट्ठानदिवाट्टानेसु निसिन्नस्स इदानि अरिया ... ए. व., अनुस्मरण कर रही स्त्री - तस्सा इदं सत्वा लाभा दिब्बविहारादिगुणविसेसारम्मणं अनुस्सरणं इतिवु. अठ्ठ. 288; वत मेति अनस्सरन्तिया बलवपीतिसोमनस्सं उदपादि, उदा. .... तस्स सो चित्तप्पसादोपि तं अनुस्सरणमत्तम्पि महप्फलं अट्ठ. 329; - रमानो वर्त. कृ., आत्मने, पु., प्र. वि., ए. महानिससमेव होति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).169; स. उ... व., अनुस्मरण कर रहा - सो तमनुस्सरमानो अरञगतोपि प. के रूप में गुणानु, पुब्बेनिवासानु के अन्त. द्रष्ट.; - रुक्खमूलगतोपि सुआगारगतोपि अभिक्खणं उदानं उदानेसि, नय पु., तत्पु. स. [अनुस्मरणनय], बीती बातों को स्मरण उदा. 89;- रियमान वर्त. कृ., कर्म. वा., अनुस्मरण किया करने की पद्धति या तरीका - तत्रायं अनुस्सरणनयो ..., जा रहा - अनुस्सरियमानसुखतो च सारणीयं म. नि. अट्ठ. विसुद्धि. 1.190; - वत्थु नपुं, तत्पु. स. [अनुस्मरणवस्तु]. (मू.प.) 1(2).117; - स्सर अनु., म. पु., ए. व. [अनुस्मर], अनुस्मरण का विषय, वह वस्तु या व्यक्ति, जिसका स्मरण स्मरण करो- सब्बं अनुस्सरेवं ते सुखं सज्जु भविस्सति, म. बाद में किया जा रहा है- एवं भगवा पेतानं दक्खिणानिय्यातने वं. 23; - रथ ब. व. [अनुस्मरत], अनुस्मरण करें - ... कारणभूतानि अनुस्सरणवत्थूनि दस्सेन्तो, खु. पा. अट्ट. तिण्णं रतनानं गुणे अनुस्सरथा ति..., जा. अट्ठ. 2.121; - 170; यस्मा तेसं इमानि अनुसरणवत्थूनि अनुस्सरन्तो कुलपुत्तो स्सरे विधि., प्र. पु., ए. व. [अनुस्मरेत्], अनुस्मरण करना दक्खिणं दज्जाति दस्सेन्तो, पे. व. अट्ठ. 25; - समता चाहिए - अत्थं धम्म संयमं ब्रह्मचरियं, अनुस्सरे चेव समाचरे स्त्री., तत्पु. स. [अनुस्मरणसमता], अनुस्मरण की समानता च, सु. नि. 328; - रेय्य उपरिवत् - अनुस्सरेय्य सम्बुद्ध या एकरूपता - परिनिब्बानसमताय समापत्तिसमताय धम्मञ्चानुवितक्कये, अ. नि. 2(1).198; - रेय्यासि म. पु., अनुस्सरणसमताय च, उदा. अट्ठ. 328; 329; - ए. व., तुम अनुस्मरण करोगे - इध त्वं, महानाम, तथागतं णानिसंसगाथा स्त्री., सद्धम्मो के अट्ठारवें खण्ड का । अनुस्सरेय्यासि - इतिपि ... विज्जाचरणसम्पन्नो ... शीर्षक, सद्धम्मो. 580-587.
देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा'ति, अ. नि. 3(2).296; - रेय्यं उ. अनुस्सरति अनु +/सर का वर्त., प्र. पु.. ए. व. [अनुस्मरति], पु., ए. व., मैंने अनुस्मरण किया - अनेकविहितं पुब्बेनिवास बार-बार स्मरण करता हे, पूर्ववर्ती जन्मों या पूर्व काल की अनुस्सरेय्यं, म. नि. 1.44; - रि प्र. पु., ए.व., उसने बातों का मन में स्मरण करता है, मन में बीती बातों को अनुस्मरण किया- मयि एवं सरन्तम्हि, भगवापि अनुस्सरि, लाता है या धारण करता है, पूर्व में घटित घटनाओं आदि अप. 1.387; - रिं उ. पु., ए. व., मैने अनुस्मरण किया - का मन में अनुचिन्तन करता है, बारी-बारी से या एक-एक चरिमे वत्तमानम्हि, सरणं तं अनुस्सरिं, अप. 1.72; - 5 प्र. करके स्मरण करता है - अरियसावको तथागतं अनुस्सरति पु.. ब. व., उन लोगों ने अनुस्मरण किया - दिस्वा में ..., अ. नि. 1(1).236; तथागतं अनुरसरतीति अट्ठहि वाणिजा भीता, बुद्धसेट्ठमनुस्सरु, अप. 2.69; - रित्थ म. कारणेहि तथागतगुणे अनुस्सरति, अ. नि. 2.188; ..., यथा पु., ए. व., आत्मने, तूने अनुस्मरण किया - मास्सु पुब्बे समाहिते चित्ते अनेकविहितं पुब्बेनिवासंअनुस्सरति, दी. नि. रतिकीळितानि, हसितानि च अनुस्सरित्थ, जा. अट्ठ, 5.182; 1.11; - रामि उ. पु., ए. व., मैं अनुस्मरण करता हूं- इति - रिस्सति भवि०, प्र. पु., ए. व., वह अनुस्मरण करेगा -- साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरामि, पारा. .... अतीते बुद्धे ... परियादिन्नवट्टे सब्बदुक्खवीतिवत्ते जातितोपि 5; म. नि. 1.28; अनुस्सरामीति एकम्पि जाति द्वेपि जातियोति अनुस्सरिस्सति, दी. नि. 2.6-7;- रिस्सामि उ. पु., ए. व., एवं जातिपटिपाटिया अनुगनवा अनुगन्वा सरामि, पारा. मैं अनुस्मरण करुंगा - कुतो पनाहं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अट्ठ. 1.118; - न्ति वर्त., प्र. पु., ब. व., अनुस्मरण करते अनुस्सरिरसामि, म. नि. 2.233; - रितुं निमि. कृ., अनुस्मरण हैं - यं मं ज्ञाती सालोहिता पेता कालङ्कता पसन्नचित्ता करने हेतु - यावतकम्पि मे इमिना अत्तभावेन पच्चनुभूतं अनुस्सरन्ति तेसं तं महफ्फलं ..., म. नि. 1.41; - तम्पि नप्पहोमि साकारं सउद्देसं अनुस्सरितुं, म. नि. 2.233; रं/रन्तो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व., अनुस्मरण करता - रित्वा पू. का. कृ., अनुस्मरण करके - अनुस्सरित्वा हुआ - भरन्ति मातापितरो, पुब्बे कतमनुस्सर अ. नि. सम्बुद्धं, पदुमुत्तरनायकं अप. 1.153; - रितब्ब सं. कृ., 2(1).39; अपतनो गमनमनुस्सरन्तो, अकल्यरूपो गळयति अनुस्मरण किया जाना चाहिये, अनुस्मरण करने योग्य -
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306
अनुस्सरति
अनुस्सावक विज्जति यं ... उपोसथं उपवसित्वा ... चातुमहाराजिकानं अनुस्सवसच्च त्रि., ब. स., वह जिसके लिये किंवदन्तियां ... एवमादीनि चेत्थ सुत्तानि अनुस्सरितब्बानि, खु. पा. अट्ट. या लोगों के बीच परम्परा से सुनी गयी बात ही सत्य हो 114; - रणीय सं. कृ., उपरिवत् - तस्मानुस्सरणीयेसु - इधेकच्चो सत्था अनुस्सविको होति अनुस्सवसच्चो, म. बुद्धादिसु सगारवो, सद्धम्मो. 587.
नि. 2.198; अनुस्सवसच्चोति सवनं सच्चतो गहेत्वा ठितो, अनुस्सरित त्रि., अनु + Vसर का भू. क. कृ. [अनुस्मृत]. म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.166. वह, जिसका अनुस्मरण या अनुचिन्तन किया गया है, बाद अनुस्सव-सुत त्रि.. तत्पु. स. [अनुश्रव-श्रुत], परम्परा से में अथवा अनुकूल रूप में स्मरण किया गया - अननस्सरिताव, सुनी जा रही बातों के द्वारा सुना गया, किंवदन्तियों द्वारा भिक्खवे, तेहि कप्पा अस्सु. ..., स. नि. 1(2).165. सुना गया - सो खो पनस्स आयस्मा सामं दिडो वा होति अनुस्सरितु पु.. अनु + (सर से व्यु., कर्तृ. ना. [अनुस्मर्तृ], अनुस्सवस्सुतो, म. नि. 2.137; 138. अनुस्मरण करने वाला, बहुत पहले किये गये काम अथवा अनुस्सविक त्रि., अनुस्सव से व्यु. [आनुश्रविक], परम्परा से बोले हए वचनों को स्मरण रखने वाला - ... चिरकतम्पि सुनी हुई बातों का अनुयायी, परम्परा से शिक्षा लेने वाला, चिरभासितम्पि सरिता अनुस्सरिता, म. नि. 2.20; अ. नि... परम्परा की बातों को सत्य मानने वाला- इधेकच्चो सत्था 2(1).10; सरिता अनुस्सरिताति तस्मिं कायेन चिरकते कायो अनुस्सविको होति अनुस्सवसच्चो म. नि. 2.198; अनुस्सविको नाम कायवित्ति, चिरभासिते वाचा नाम वचीवित्ति, म. होतीति अनुस्सवनिस्सितो होती, म. नि. अट्ठ. (म.प.) नि. अट्ठ. (म.प.) 2.22; अनुस्सरिताति अनुगन्त्वा सरिता, 2.166; - पसाद पु., किंवदन्तियों पर विश्वास, परम्परा पर
अपरापरं सरितुं समत्थोति अत्थो, अ. नि. अट्ठ. 2.288. श्रद्धा - ... अनुस्सवप्पसाद उप्पादेत्वा परस्स वडित भोजन अनुस्सव पु., अनु + सु से व्यु. [अनुश्रव], परम्परा से सुनी। भुञ्जमाना विय सोतापत्तिफले पतिहासि, अ. नि. अट्ठ. हुई बात, किंवदन्ती, वह कथन, जो परम्परा में लोग सुनते 1.186; 337; अनुस्सविकप्पसादन्ति अनुस्सवतो आगतप्पसाद आ रहे हैं - सद्धा, रुचि, अनुस्सवो, आकारपरिवितक्को, अ. नि. टी. 1.196. दिविनिज्झानक्खन्ति ..., म. नि. 2.388; अनुस्सवं इदानि अनुस्सविय त्रि., अनुस्सव से व्यु., परम्परा का अनुयायी, वदेसि. म. नि. 2.388; सम्मुखाति सम्मुखतो, न अनुरसवेन परम्परा में सुनी सुनाई बातों को सत्य मानने वाला - न परम्परायाति अत्थो, उदा. अट्ठ. 328; सा च खो युत्तिवसेनेव, अनुस्सवियोति व आमन्ता, ननु भगवा सयम्भूति? आमन्ता, न अनुस्सववसेन, सु. नि. अट्ठ. 1.81; - कथा स्त्री., तत्पु. हञ्चि भगवा सयम्भू ... अनुस्सवियो ति, कथा. 241; स. [अनुश्रवकथा], परम्परा से सुना गया कथन, पूर्वकाल अनुस्सवियोति अनुस्सवेन पटिविद्धधम्मो, कथा. अट्ठ. 178. से लोगों द्वारा कही जा रही बात - अनुस्सवेनाति अनुस्सवूपलब्ममत्तेन अ., क्रि. वि., केवल परम्परा या अनुस्सवकथायपि मा गण्हित्थ, अ. नि. अट्ठ. 2.176. किंवदन्ती से प्राप्त ज्ञान द्वारा - ... चक्खुविाणेन अनुस्सवति अनु + सु का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अनुस्रवति], दिह्रिदस्सनेनेव वा दिढे अनुस्सपलब्भमत्तेनेव च सुते.....
शा. अ. पीछे पिघल कर बहता है, तरल रूप में बहना उदा. अट्ठ. 290. जारी रखता है, ला. अ. अभिभूत कर देता है; - न्ति ब. अनुस्सार/अनुस्वार पु., अनु + सर से व्यु. [अनुस्वार], व., अभिभूत करते हैं, वश में कर लेते हैं - सब्बुपादानकथा स्वर के बाद में आने वाली निग्गहित-नामक व्यञ्जनध्वनि, ... विहरन्तं आसवा नानुस्सवन्ति, ... स. नि. 1(1).47; जिसका उच्चारण नासिका का निग्रहण कर होता है तथा आसवा नानुस्सवन्तीति चक्खुतो रूपे सवन्ति आसवन्ति जिसे अनुनासिक एवं बिन्दु भी कहा गया है - सद्दसत्थे पन सन्दन्ति ... नानुस्सवन्ति नानुप्पवड्डन्ति, ..., स. नि. अठ्ठ. 2.57. तं अनुस्वारो ति वदन्ति, सद्द. 3.606; - सुति स्त्री., तत्पु. अनुस्सवप्पसन्न त्रि., तत्पु. स. [अनुश्रवप्रसन्न]. किंवदन्ती स. [अनुस्वारश्रुति], अनुस्वार की ध्वनि - चित्तं पुरिसं की बात पर विश्वास या भरोसा रखने वाला - कञ्जन्ति आदीनं अनुस्सारसुतिवसेन अञ्जमझं ..., सद्द. अनुस्सवप्पसन्नानं यदिदं काळी उपासिका कुलघरिका ति. 1.222. अ. नि. 1(1).37; ... ठानन्तरेसु ठपेन्तो इमं उपासिकं अनुस्सावक पु., अनु + सु के प्रेर, से व्यु., कर्तृ. ना. अनुस्सवप्पसन्नानं अग्गट्ठाने ठपेसीति, अ. नि. अट्ठ. [अनुश्रावक], शा. अ. पाठ करके सुनाने वाला, कहने 2.337.
वाला, ला. अ. विनय के कम्मवाचा का पाठ करने वाला
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131.
अनुस्सावन/अनुसावन
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अनुस्साहित वरिष्ठ भिक्षु - उपज्झायस्स, देव, सीसं छेतब्बं, अनुस्सावकस्स के कर्मकाण्डीय वचनों का पाठ कराया जाता है; - जिव्हा उद्धरितब्बा, .... महाव. 93.
माने वर्त. कृ., सप्त. वि., ए. व., अनुश्रवण कराया जा अनुस्सावन/अनुसावन नपुं., अनु + vसु के प्रेर. से व्यु., रहा - यो पन भिक्खु यावततियं अनुस्सावियमाने सरमानो क्रि. ना. [अनुश्रावण], क. विनय के कम्मवाचा अथवा अत्ति सन्तिं आपत्तिं नाविकरेय्य, सम्पजानमुसावादस्स होति, महाव. (प्रस्ताव) का पाठ, उद्घोषणा - हन्द, मयं, आवुसो, सब्बेव एकानुस्सावने करोमा ति, महाव. 118; द्वे एकानुस्सावनेति अनुस्सावेति अनु + vसु के प्रेर. का वर्त., प्र. पु., ए. व. वे एकतो अनुस्सावने, एकेन एकस्स अजेन इतरस्साति [अनुश्रावयति], शा. अ. अनुश्रवण कराता है, विनय के एवं द्वीहि वा आचरियेहि एकेन वा एकक्खणे कम्मवाचं कर्मकाण्डीय वचनों की उद्घोषणा कराता है, ला. अ. .... महाव. अट्ठ. 298; तीहि आचरियेहेव, एकतो अनुसावनं व्यक्ति को उपसम्पदा दिलाने हेतु भिक्षुसङ्घ के समक्ष प्रस्तुत विन. वि. 2545; ख. संघ में विभाजन उत्पन्न कराने के करता है, सभी को सुना कर अत्ति (प्रस्ताव) अथवा कम्मावाचा अभिप्राय से पुनः पुनः की गयी घोषणा या प्रचार - कम्मेन, का पाठ करता है - अत्तिचतुत्थे चे, भिक्खवे, कम्मे द्वीहि उद्देसेन वोहरन्तो, अनुस्सावनेन, सलाकग्गाहेन, परि. 371; अत्तीहि कम्मं करोति, न च कम्मवाचं अनुस्सावेतिअनुस्सावनेनाति ननु तुम्हे जानाथ मह उच्चाकुला अधम्मकम्म, महाव. 413; सुमनो तिस्सथेरस्स अनुस्सावेसि पब्बजितभावं बहुस्सुतभावञ्च, ..., किं अहं अपायतो न साधुकं विन. वि. 2549; - वेय्य विधि., प्र. पु., ए. व., भायामी ति आदिना नयेन कण्णमूले वचीभेद कत्वा अनुश्रवण कराए, सुनाए - सो साधु सामी ति ... ठत्वा अनुस्सावनेन, अ. नि. अट्ठ. 1.340; परि. अट्ठ. 225; - तिक्खत्तुं सद्दमनुस्सावेय्य यावता गामे गामिका, ..., मि. प. विपन्न त्रि., तत्पु. स. [अनुश्रावणविपन्न], विनय के 148; 233; - वेत्वा पू. का. कृ., अनुश्रवण कराकर, कम्मावाचा के पाठ से रहित - अत्तिविपन्नम्पि कम्मं करोन्ति सुनाकर, घोषितकर - एकतो अनुसावेत्वा, कतम्पि च न अनुस्सावनसम्पन्न, अनुस्सावनविपन्नम्पि कम्मं करोन्ति कुप्पति, विन. वि. 2547; - वेसि अद्य., प्र. पु., ए. व., अत्तिसम्पन्न, महाव. 412; विलो. अनुस्सावनसम्पन्न; - उसने उद्घोषित किया, पाठ किया, सुनाया - अथ खो, सम्पदा स्त्री., तत्पु. स. [अनुश्रावणसम्पत], विनय के आनन्द, अन्तरहितो यक्खो सद्दमनुस्सावेसि, दी. नि. अट्ठ. कर्मकाण्ड के वचनों वाली सम्पत्ति - सत्थुसासनेनाति 2.151; - वेसु ब. व., उन्होंने सुनाया - एकम्हि वस्से अत्तिसम्पदाय अनुस्सावनसम्पदाय, परि. 322; महाव. अट्ठ. निक्खन्ते देवता सद्दमनुस्सावेसुं. दी. नि. 2.37. 402; - सम्पन्न त्रि., तत्पु. स. [अनुश्रावणसम्पन्न], अनुस्साह पु., उस्साह का निषे. [अनुत्साह]. उत्साह का विनयकर्मकाण्डीय वचनों के पाठ से युक्त - अत्तिविपन्नम्पि अभाव, अक्षमता, वीर्यहीनता - अथ खो आयस्मा ... कम्मं करोन्ति अनुस्सावनसम्पन्न, ..., महाव. 412; विलो. पापियमाने भिक्खुसङ्के सिक्खं समादियमाने अनस्साह अनुस्सावनविपन्न.
पवेदेसि, म. नि. 2.109; ... पितरं वन्दित्वा गारवेनेव अनुस्सावना स्त्री., अनुस्सावन से व्यु., उपरिवत् - .... अरञवासे अनुस्साहं पवेदेन्तो .... जा. अट्ठ. 4.198; -
अत्तिया अनुस्सावनं न जानाति, ..., परि. 346; यथा मया लक्खण त्रि., ब. स. [अनुत्साहलक्षण], वह, जिसका अत्ति च अनुस्सावना च पञ्जत्ता, महाव. 461; अत्तिया लक्षण अथवा विशिष्ट प्रकृति अनुत्साह है - तत्थ थिनं अनुस्सावनन्ति इमिस्सा अत्तिया एका अनुस्सावना, परि. अनुस्साहलक्खणं, वीरियविनोदनरसं संसीदनपच्चुपट्टानं, अट्ठ. 221.
विसुद्धि. 2.96; अभि. अव. 26; - संहननता स्त्री., तत्पु. अनुस्सावित त्रि., अनु + सु के प्रेर. का भू. क. कृ. स., प्रयास की कमी के कारण उत्पन्न संकुचन अथवा हास [अनुश्रावित], उद्घोषित, वह, जिसमें (अथवा जिसका) - अनुस्साहसंहननता असत्तिविघातो चाति अत्थो, विसुद्धि. विनय के कर्मकाण्डीय वचनों का पाठ किया गया है - 2.96; अभि. अव. 26. एवमेवं एवरूपाय परिसाय यावततियं अनुस्सावितं होति, अनुस्साहित त्रि., उस्साहित का निषे. [अनुत्साहित], वह, महाव. 131.
जो उत्साहित नहीं है, ढीला-ढाला, शिथिल प्रयास करने अनुस्सावियति अनु + सु के प्रेर. का कर्म. वा., वर्त, वाला, उत्साहहीन - परस्स भण्डं वा हरति सभावतिक्खेनेव प्र. पु., ए. व. [अनुश्राव्यते], अनुश्रवण अथवा विनय अनुस्साहितेन चित्तेन, अभि. अव. 7.
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अनुस्सित
अनुस्सित त्रि, उस्सित का निषे [ अनुच्छ्रित], शा. अ. वह, जो ऊपर की ओर बढ़ा हुआ या उठा हुआ नहीं है, ला. अ. वह, जो घमण्डी नहीं है या अभिमानी नहीं है - तं कथं कथये धीरो, अविरुद्धो अनुस्सितो, अ० नि० 1 (1).229. अनुस्सुक / अनुस्सुक्क त्रि., उस्सुक का निषे. [अनुत्सुक ], वह जो उत्सुकता से रहित है, इच्छा-रहित, सुरक्षित, अपेक्षारहित, आसक्ति-रहित खीणासवा अरहन्तो, ते लोकस्मिं अनुस्सुका ति स. नि. 1(1).18; यत्थ भुत्वा पिवित्वा च, सयेय्याथ अनुस्सुको 'ति, जा. अट्ठ. 2.194; सयेय्याथ अनुस्सुकोति येसु अलङ्कृतसिरिसयनपिट्टे अनुस्सुको हुत्वा सयेय्यासि, ते घरा नाम अतिविय सुखाति, जा. अट्ठ. 2.195; - ता स्त्री०, भाव. [अनुत्सुकता ], उत्सुकता का अभाव, इच्छाओं या आसक्तियों का अभाव, विगततृष्णता अनञ्ञपोसिनोति आमिससङ्गण्हनेन अञ्ञ सिस्सादिके पोसेतुं अनुस्सुक्कताय अनञ्ञपोसिनो, उदा. अट्ठ. 162. अनुस्सुत' त्रि, अनु + √सु का भू० क० कृ० [अनुश्रुत], परम्परा से सुना हुआ, केवल स. उ. प. के रूप में ही प्रयुक्त सुरुचितंयेव होति... स्वानुस्सुतंयेव होति... म. नि. 2.389. अनुस्सुत' / अनुस्सद त्रि. संभवतः अनवस्सुत का रूपान्तरण, अवस्सुत का निषे [ अनवस्रुत], शा. अ. ऊपर छलक कर न बहने वाला, ला. अ. लोभ या राग के अकुशल धर्म से मुक्त, तृष्णा या आसक्ति से रहित - अक्कोट
नं वतवन्तं, सीलवन्तं अनुस्सद, ध. प. 400; सु. नि. 629; तण्हाउस्सदाभावेन अनुस्सद, ध. प. अट्ठ. 2.378. अनुसुतिक त्रि, अनुसुति से व्यु [आनुश्रुतिक ], परम्परा सुनी सुनाई बातों के आधार पर तार्किक निष्कर्ष निकालने वाला, चार प्रकार के तर्कविशारदों में से एक तत्थ चतुब्बिध तक्की अनुरसुतिको, जातिस्सरो, लाभी, सुद्धतक्किकोति, तत्थ ... सस्सतो अत्ताति तक्कयन्तो दिट्ठि गण्हाति, अयं अनुरसुतिको नाम, दी. नि. अट्ठ. 1.92. अनुस्सुय्यक त्रि. उस्सुय्यक का निषे, ईर्ष्यारहित, द्रष्ट. अनुसुय्यक के अन्त..
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अनुहायनं अ., क्रि० वि० [ अनुहायनं ], प्रत्येक वर्ष पर, हर साल, वार्षिक तौर पर महादानञ्च सद्धाय चीवरं चानुहायनं, चू. वं. 91.23.
अनूदक त्रि०, ब० स० [ अनुदक], जलरहित, द्रष्ट. अनुदक के अन्त..
308
अनून त्रि, ऊन का निषे, तत्पु० स० [अनून] अन्यून, सम्पूर्ण, परिपूर्ण, भरा-पूरा, समूचा, अखण्ड अनवयोति
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अनून
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इमेसु लोकायतमहापुरिसलक्खणेसु अनूनो परिपूरकारी, अवयो न होतीति वृत्तं होति, दी. नि. अट्ठ. 1. 201; परिपुण्णानीति अनूनानि, पे. व. अट्ठ. 248; नापदानं पञ्ञयतीति अलायितं हुत्वा अनूनमेव पञ्ञायति, दी. नि. अट्ठ. 3.47; - क त्रि अनून सेव्यु [ अनूनक], अनल्प, पूर्ण, सम्पूर्ण, अखण्ड, भरपूर अनूनकं दानवर, यो मे पादासि माणवो, अप. 1.337; हत्थस्सरथयोधेहि पत्तीहि च अनूनको, म. वं. 5.81; ददामहं कुमारस्स, वीसकोटी अनूनका, अप. 1.327; - नंग त्रि., ब० स० [ अन्यूनाङ्ग ], शरीर की विकलाङ्गता से रहित, अविकलाङ्ग शरीर वाला, सम्पूर्ण अङ्गों वाला अचलो होमि मेत्ताय, अनूनङ्गो भवामहं, अप. 1.355; अभिरूपो सुचि होमि, सम्पुण्णङ्गो अनूनको, अप. 2.104; -- ता भाव, अनून से व्यु. [ अनूनता], परिपूर्णता, अखण्डता, अविकलता, भरापूरापन, अङ्गों की स्वस्थता - अनूनतं मे पस्सित्वा, काळकण्णी 'ति निन्दिसुं चरिया 399; अनूनतन्ति हत्थादीहि अविकलतं, चरिया. अट्ठ. 201; - त्त नपुं., अनून से व्यु० [अनूनत्त्व]. उपरिवत् सो तेसं धम्मानं अनूनत्ता परिपुण्णत्ता सम्पन्नत्ता ओक्कमति, मि. प. 161; नाम पु०, व्य. सं., परिपूर्ण नाम वाला, पुण्णक का श्लेषपरक उपनाम अनूननामो लभतज्ज दारं, अज्जेव तं कुरुयो पापयातूति, जा. अट्ठ. 7.220; अनूननामोति सम्पुण्णनामो पुण्णको यक्खसेनापति, जा. अट्ठ. 7.220; कच्चायनो माणवकोस्मि, राज, अनूननामो इति मव्हयन्ति, जा. अट्ठ. 7.165; तत्थ अनूननामोति न ऊननामो, तदे. - भोग त्रि, भरपूर विषयभोगों का आनन्द लेने वाला अनूनभोगो हुत्वान, देवरज्जं करिस्सति, अप. 1.37; 396 - मनसंकप्प त्रि०, ब० स० [अनूनमनसङ्कल्प], वह, जिसके मन के सङ्कल्प परिपूर्ण हों अनूनमनसङ्कप्पो, तिक्खपञ्ञ भविस्सति, अप. 2.60; - सत नपु., कर्म. स. [अनूनशत], पूरे एक सौ - सोचयन्तो
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थिरसारदण्डं अनूनसतसलाकालङ्कतं उस्सापेति पण्डरविमलसेतच्छत्तं,... मि. प. 213; - नाधिक त्रि. द्व० स० [ अनूनाधिक ], न कम, न अधिक उपयुक्त मात्रा अथवा संख्या वाला अनूनाधिकतोति कस्मा पन भगवता पञ्चेव खन्धात्ता अनूना अनधिकाति, विसुद्धि 2.106; विचक्खणताय अनूनाधिकं अविपरीतञ्च गहेत्वा वित्थारिकं करोति, सु. नि. अट्ठ. 1.199; अनुनाधिके दस मासे गब्भवासं वसन्तो पि उप्पज्जमानो नाम, अ. नि. अट्ठ. 1.81; अनूनाधिकतो चेव, विञ्ञातब्बो विभाविना. म. नि. अ. (मू.प.) 1(1).89; नाधिकवचन नपुं०, कर्म. स.
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अनूप/अनोप
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अनेकंस सभी प्रकार की आसक्तियों से मुक्त, लगाव से रहित -- मायञ्च मोहञ्च पहाय धोनो, स केन गच्छेय्य अनूपयो सो, सु. नि. 792; तत्थ उपयोति तण्हादिट्टिनिस्सितो ... अनूपयं केन कथं वदेय्याति तण्हादिद्विपहानेन अनूपयं खीणासवं केन रागेन ... दुट्ठोति वा वदेय्य, सु. नि. अट्ठ. 2.217; सब्बं लोकं अभिआय, ... विसंयुत्तो, सब्बलोके अनूपयो, अ. नि. 1(2).28. अनूपलित्त त्रि., उप + लिप के भू. क. कृ., उपलित्त का निषे. [अनुपलिप्त], द्रष्ट. अनुपलित्त के अन्त. (ऊपर). अनूपवदन/अनूपवाद/अनूपवादक द्रष्ट. अनुपवाद के
अन्त. (ऊपर). अनूपादि त्रि., सस्सती के अर्थ को स्पष्ट करने हेतु प्रयुक्त, बराबर विद्यमान रहने वाला, आदि और अन्त से रहित, शाश्वत - तीस्वनूपाद्ययो चन्द-सूरादो सस्सतीरितो, अभि. प. 189. अनूलका स्त्री., व्य. सं., द्रष्ट. अनुला के अन्त., (ऊपर). अनूसय पु., द्रष्ट. अनुसय के अन्त. - चरितं अधिमुत्तिञ्च
आसञ्च अनूसयं, दी. वं. 1.42. अनूसर त्रि., ऊसर का निषे. [अनूषर], नमक या रेहकणों से रहित, वह भूमि, जो बञ्जर न हो - इध, भिक्खवे, खेत्तं अनुन्नामानिन्नामि च होति, ..., अनूसरञ्च होति, ..., अ. नि. 3(1).70. अनूहत त्रि०, उ + Vहन के भू. क. कृ. का निषे. [अनुदधृत अथवा अनुद्धत], अनुत्पाटित, वह, जिसे उच्छिन्न नहीं कर दिया गया है अथवा हटाया न गया हो - एवम्पि तहानुसये अनूहते, निब्बत्तती दुक्खमिदं पुनप्पुन, ध. प. 338; एवमेव छद्वारिकाय तण्हाय अनुसये अरहत्तमग्गाणेन अनूहते ... पुनप्पुनं निब्बत्ततियेवाति अत्थो, ध. प. अट्ठ. 2.306-7; नपि पस्सं निपातेस्सं. तहासल्ले अनुहते, थेरगा. 223. अनेक त्रि., एक का निषे. [अनेक], एक की संख्या से
अधिक संख्या वाला, कई एक, बहुत सारे, असंख्य - कचि पन एत्थ ... चिन्तयित्वान अनेककोटिसत धनन्ति एत्थ ..., सद्द. 3.631; एवमस्सिमे अनेके पापका अकुसला धम्मा सम्भवन्ति मिच्छादिट्टिपच्चया, म. नि. 2.72; अस्माभिजप्पन्ति जना अनेकाति, स. नि. 1(1).169; यदा कदा'नेक रूप में भी प्रयुक्त. अनेकंस पु., एकंस का निषे., अनिश्चितता, सन्देह - ब्राह्मणो नाम संसयमनेकसं विमतिपथं वीतिवत्तो.... मि. प. 212; - ग्गाह पु., एकंसग्गाह का निषे., किसी एक
[अनूनाधिकवचन], न कम और न अधिक विस्तार वाला वचन, सन्तुलित वचन, परिपूर्ण वचन - परिपुण्णन्ति अनूनाधिकवचनं, दी. नि. 1.145; म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).105. अनूप/अनोप त्रि., अनु + आप से व्यु. [अनूप], जलीय क्षेत्र, जल की बहुलता वाला स्थान या प्रदेश, नदी का तटवर्ती क्षेत्र, दलदली क्षेत्र - अनूपो सलिलप्पायो कच्छं पुमनपुंसके अभि. प. 187; मन्दवडिकाले थले खेत्ते विपज्जति, निन्ने थोकं सम्पज्जति, अनूपखेत्ते सम्पज्जतेव, जा. अट्ठ. 4.342; - खेत्त नपुं., कर्म. स. [अनूपक्षेत्र], जल की बहुलता वाला क्षेत्र या स्थान, दलदली क्षेत्र, कछार - थले च निन्ने च वपन्ति बीजं, अनूपखेत्ते फलमासमाना, जा. अट्ठ. 4.342; अनूपखेत्ते नदिञ्च तळाकञ्च निस्साय कतं ओघेन वुय्हति, तदे; तस्सा चानुपखेत्तम्हि, सयम्भू वसते तदा, अप. 1.194; - तित्थ नपुं.. कर्म. स. [अनूपतीर्थ]. नदी के जल की बहुलता वाला तट, दलदली किनारा - अनूपतित्थे जायन्ति, पदुमुप्पलका बहू अप. 1.380; - भूमि स्त्री., कर्म. स. [अनूपभूमि], पानी की बहुलता वाली भूमि - हरितानूपाति उदकनिद्धमनस्स उभोसु पस्सेसु हरिततिणसञ्छन्ना अनूपभूमियो, जा. अट्ठ. 4.321. अनूपघात पु., उपघात का निषे., [अनुपघात], उपघात या हिंसा का अभाव, अद्वेष, अनुत्पीड़न, क्षति या हानि का अभाव, अप्रहार - अनूपवादो अनूपघातो, ध. प. 185%; अनूपधातोति अनूपघातनञ्चेव अनूपघातापनञ्च, ध. प. अट्ठ. 2.136-137; अनूपवादो अनूपघातो, पातिमोक्खे च संवरो, उदा. 117; इति मरहञ्च अविहेसा भविस्सति परस्स च पुग्गलस्स अनूपघातो, म. नि. 3.27. अनूपघातन नपुं, उपघातन का निषे. [अनुपघातन], उपरिवत् - अनूपघातनञ्चेव अनूपघातापनञ्च, ध. प. अट्ठ. 2.136-137. अनूपम'/अनुपम त्रि., ब. स. [अनुपम]. बेजोड़, वह, जिसकी किसी से उपमा न दी जा सके, श्रेष्ठ, उत्तम -
पूजा पूजं सब्बोपहारेहि करोन्तो च अनूपम, महाव. 37.72. अनूपम पु., व्य. सं., थेरगा. की दो गीतियों के रचयिता एक स्थविर कवि का नाम, थेरगा. 213-14; थेरगा. अट्ठ. 1.364-65. अनूपय त्रि., उप + इ से व्यु. उपय (ऊपय) का निषे. [अनुपय, उप + Vइण + अच् = उपय का निषे.], शा. अ. वह, जो किसी के पास पहुंचने वाला नहीं हैं, ला. अ.
- इध, भिक्खये
मानन्नामि च होति
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अनेकंसिक
सुनिश्चित तत्त्व या बात को ग्रहण न करना, सन्देहपूर्ण
मनोवृत्ति, संकल्प का अभाव
कड्ढा कढायना कडायतत्तं अनेकंसग्गाहो आसप्पना चित्तस्स मनोविलेखो, ध स. 425 सा संसयलक्खणा कम्पनरसा, अनिच्छयपव्युपद्धाना अनेकंसगाहपच्चुपट्ठाना वा, ध. स. अट्ठ. 298; ग्गाहपच्युपद्वान नपुं. ब. स. सन्देह या शङ्का से परिपूर्ण मानसिकता से व्यक्त होने वाला सा संसयलक्खणा, कम्पनरसा... अनेकंसगाहपच्चुपट्टाना वा... दट्ठब्बा, विसुद्धि. 2.98. अनेकंसिक त्रि, एकंसिक का निषे, क. अनिश्चित, अनिर्धारित, संदिग्ध, ख. अनेक दृष्टिकोणों से सम्बद्ध. अनेक खण्डों वाला एकसिकापि हि खो, पोट्टपाद, मया
"
अनेकांसकापि हि खो, पोद्रपाद, मया धम्मा देसिता पकासिता, दी. नि. अ. 1.169; अनेकसिकाति न एककोट्ठासा एकेनेव कोद्रासेन सरसताति... अत्थो दी. नि. अड्ड 2.282 ता स्त्री. भाव, अनिश्चित मानसिक प्रकृति या अवस्था, संदिग्ध मनःस्थिति या दशा पण्डको अनेकसिकताय मन्तितं गुप्तं विवरति न धारेति मि. प. 104 भाव पु.. उपरिवत् कल्याणपापकानं अनेकसिकभावं समोधानेसि, जा. अट्ठ. 1.437. अनेकंसिकत त्रि., एकंसीकरोति के भू० क० कृ०, एकंसिकत का निषे, वह, जिसका निश्चय अभी तक नहीं किया गया है, अनिश्चयीकृत, सुनिश्चित तथ्य को प्रकाशित न करने वाला अनियतो न नियतो अनेकसिकतं पदं, परि. 284 अनेकसिकतं पदं, यस्मा इदं सिक्खापदं अनेकंसेन कतन्ति अत्थो, परि. अट्ठ. 192. अनेककारणेन तृ. वि. प्रतिरू, निपा. [ अनेककारणेन], कई एक पद्धतियों या तरीकों द्वारा तत्थ अनेकपरियायेनाति अनेककारणेन, दी. नि. अड्ड. 3.3: पारा, अड. 1.167. अनेककोटिसङ्घ त्रि०, ब० स० [ अनेककोटिसंख्य], कई करोड़ों की संख्या वाला सुमेधो नाम ब्राह्मणकुमारो हुत्वा .. मातापितूनं अच्चयेन अनेककोटिसङ्घं धनं परिच्चजित्वा .... ध. प. अट्ठ. 1.49. अनेककोटिसन्निचय त्रि.. तत्पु, स. [अनेककोटिसन्निचय], अनेक करोड़ की पूंजी को जमा कर लेने वाला अनेककोटिसन्निचयो, पहूतधनधज्ञवा जा. अड्ड. 1.4. अनेककोट्ठास त्रि. ब. स. [अनेककोष्ठांश ], अनेक भागों या खण्डों वाला अनेकभागेन गुणेनाति अनेककोद्वासेन आनिसंसेन पे व अड. 193.
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सत्था इमाय पकासेत्या जातकं
अनेकजातिसंसार
"...
अनेकगुण त्रि. ब. स. [ अनेकगुण ], बहुत सारे अच्छे गुणों से युक्त एवरूपो महाराज, बहुगुणो अनेकगुणो अप्पमाणगुणो गुणरासि गुणपुञ्जो सत्ताननं... मि. प. 188. अनेकग्गचित्त त्रि, एकग्गचित्त का निषे [ अनेकाग्रचित्त]. चित्त को किसी एक आलम्बन पर स्थिर करके न रखने वाला, चञ्चल अथवा बिखरे हुए चित्त वाला अनेकग्गचित्ता अयोनिसो च मनसि करोति, अ. नि. 2 (1). 164; ताकार पु०, तत्पु० स०, चित्त की चञ्चलता की दशा, विक्षिप्तचित्तता की अवस्था तेसं एवं विचरन्तानं विक्खित्तभावो अनेकग्गताकारो नाम, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.74 उपदयोति अनेकग्गताकारों, अ. नि. अड. 2.71 - भाव पु०, तत्पु० स० [अनेकाग्रभाव ] चित्त की चञ्चलता की अवस्था चित्त में एकाग्रता का न होना असमाधीति अनेकग्गभावो. अ. नि. अड्ड. 3.138. अनेकचित्त' त्रि., ब० स० [ अनेकचित्त], चञ्चल चित्त वाला, बिखरे हुए अथवा अस्थिर चित्त वाला सुरक्खितं मेति कथं नु विस्ससे, अनेकचित्तासु न इत्थि रक्खणा, जा. अ. 3.467; नरानमारामकरासु नारिसु अनेकचित्तासु अनिग्गहासु च, जा. अट्ठ. 5.432.
·
वाला
अनेकचित्त' त्रि, एकचित्त का निषे०, ब० स० [ अनेकचित्र ], बहुत सारी सजावटों अथवा चित्रों से युक्त, अनेक अलङ्करणों अनेकचित्तन्ति अनेकेहि उय्यानकप्परुक्खपोक्खरणिआदीहि विमानेसु च अनेकेहि भित्तिविसेसादीहि चित्तं वि. द. अट्ट, 45; अनेकचित्तन्ति नानाविधचित्तरूपं, वि. व. अड्ड 273 अनेकचित्ताति अनेकविधचित्ततायुत्ता, वि. व. अड्ड. 88; सुवण्णवण्णा जलिता महायसा विमानमोरुह अनेकचित्ता वि. व. अट्ट 85 तावत त्रि तत्पु. स. [ अनेकचित्रावृत] अनेक प्रकार के चित्रों या अलङ्करणसाधनों से ढका हुआ, अलङ्करण- सामग्रियों से परिपूर्ण
अनेकचित्तावततो रथो अयं, पुथू च नेमी च सहस्सरंसिको, वि. व. अड. 229; अनेकचित्तावततोति अनेकेहि मालाकम्मादिधिरोहि आवततो समोकिष्णो वि. व. अड्ड
232.
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अनेकजातिसंसार पु० तत्पु० स० [ अनेकजातिसंसार], अनेक जन्मों में से होकर संसरण, एक जन्म से दूसरे जन्म में जाने का अन्तहीन सिलसिला अनेकजातिसंसार, सन्धाविस्सं अनिब्बिसं ध० प० 153; अनेकजातिसंसारं अनेकजातिसत सहस्ससङ्गतं इमं संसारव अनिब्बिसं अ. 71; अनेकजातिसंसार, सन्धावन्ति अविद्दसू, थेरीगा.
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66.
अनेकज्झासय
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अनेकपरियाय 164; अनेकजातिसंसारन्ति अयं गाथा भगवता अत्तनो यथा हि नीलपीतादिभेदेन अनेकधा भिन्नस्सापि रूपायतनस्स सब्ब तआणपदट्ठानं अरहत्तप्पत्तिं पच्चवेक्खन्तेन सनिदस्सनत्तं लक्खणं, तदे; तुल. नेकधा. एकनवीसतिमस्स पच्चवेक्षणञाणस्स अनन्तरं भासिता, अनेकधातु' पु., प्रायः ब. व. में ही प्रयुक्त, कर्म. स. सारत्थ. टी. 1.58.
[अनेकधातु], बहुत सारी धातुएं. अनेक आलम्बन या स्वभाव अनेकज्झासय त्रि., ब. स. [अनेकाध्याशय], अनेक या - अनेकधातूसु पुथू सदासितं, स. नि. 1(1).211; बहुत से मानसिक अभिप्राय रखने वाला, अनेक प्रकार के अनेकधातूसूति अनेकसभावेस आरम्मणेसु. स. नि. अट्ठ. संकल्पों वाला - दुतियं अनेकज्झासयानुसयचरियाधिमुत्तिका 1.234; आसा च पिहा अभिनन्दना च, अनेकधातूसु सरा सत्ता यथानुलोमं ... यथानुलोमसासनं, पारा. अट्ट, 1.17; पतिहिता, नेत्ति. 22; 44. अनेकज्झासयातिआदीसु आसयोव अज्झासयो, सारत्थ. टी. अनेकधातु त्रि., ब. स., अनेक धातुओं अथवा नाना प्रकार
के मानसिक अभिप्रायों वाला - अनेकधातु नानाधातु खो, अनेकट्ठान त्रि., ब. स., अनेक स्थानों अथवा अनेक आलम्बनों दी. नि. 2.208; अनेकधातूति अज्झासयधातु उत्तरपदलोपेन
से सम्बद्ध - अप्पगभाति न पगभा, अट्ठट्ठानेन कायपागभियेन वुत्ता, ... अनेकज्झासयो नानाज्झासयोति, लीन. (दी.नि.टी.) ...., अनेकट्ठानेन मनोपागभियेन च विरहिताति अत्थो, स. नि. अट्ठ. 2.149; खु. पा. अट्ठ. 196; सु. नि. अट्ठ. 1.130; अनेकधातुपटिवेध पु., तत्पु. स. [अनेकधातुप्रतिवेध], बहुत अनेकट्ठानं मनोपागभियं नाम तेसु ... कायवाचाहि अज्झाचारं सी धातुओं का गम्भीर आन्तरिक ज्ञान, चक्षु, रूप आदि अनापज्जित्वा पि मनसा व कामवितक्कादीनं वितक्कनं. स. धातुओं का शमथ एवं विपश्यना द्वारा आन्तरिक ज्ञान - नि. अट्ट. 2.149.
अनेकधातुपटिवेधो होति, नानाधातुपटिवेधो होति, ..., अ. अनेकताल त्रि., ब. स., अनेक या असंख्य ताड़ के वृक्षों की नि. 1(1).30; अनेकधातुपटिवेधोति चक्खुधातु रूपधातूतिआदीनं ऊंचाई वाला - अनेकताले, गम्भीरे च सुदुत्तरे, जा. अट्ठ. अट्ठारसन्नं धातूनं बुद्धप्पादेयेव पटिवेधो होति, अ. नि. अट्ठ. 4.173; तत्थ अनेकतालेति अनेकतालप्पमानो, तदे... 1.97; समथो च विपस्सना च - अनेकधातुपटिवेधाय अनेकत्थ त्रि., ब. स. [अनेकार्थ], क. एक से अधिक अर्थ संवत्तिस्सन्ति, म. नि. 2.172. कहने वाला (शब्द) -
अनेकधातुपटिसम्भिदा स्त्री., तत्पु. स. [बौ. सं. अनवसेसयेभुय्यअब्यामिस्सानतिरेकदळहत्थविसंयोगादि अनेकधातुप्रतिसंवित्], विभिन्न धातुओं का प्रतिसंवित्-ज्ञान अनेकत्थो, खु. पा. अट्ठ. 92-3; म. नि. अट्ठ. (मू.प.) अथवा प्रविचयात्मक ज्ञान, धातुओं के प्रभेदों के विषय में 1(1).30; अ. नि. अट्ठ. 2.231; ख. बहुवचन का अर्थ, एक ज्ञान - एकधम्मे, ... बहुलीकते अनेकधातुपटिवेधो होति से अधिक की संख्या का अर्थ - द्वि इच्चेवमादितो कप्पच्चयो .... नानाधातुपटिवेधो होति ... अनेकधातुपटिसम्भिदा होति, होति अनेकत्थे च, ते निपातना सिज्झन्ति, क. व्या. 394. अ. नि. 1(1).59; अनेकधातुपटिसम्भिदा होतीति इमिना अनेकत्थपदस्सित त्रि., तत्पु. स. [अनेकार्थपदनिःश्रित], धातुभेदाणं कथितं, अ. नि. अट्ठ. 1.398. बहुत सारे हितकारक धर्मों से भरपूर, अनेक हितकारक अनेकनाम त्रि., ब. स. [अनेकनाम], एक से अधिक नामों वाला, धर्मों से युक्त - इङ्घ एकपदं तात, अनेकत्थपदस्सितं, जा. बहुत से नामों वाला - एको पि हि अत्थो... अनेकसहप्पवत्तिअट्ठ. 2.198; अनेकत्थपदस्सितन्ति अनेकानि अत्थपदानि निमित्तताय अनेकनामोति दट्ठब्ब, सद्द. 2.378-79. कारणपदानि निस्सितं, तदे; दक्खेय्येकपदं तात, अनेकप/नेकप पु., [अनेकप], एक से अधिक सूड़ों से अनेकत्थपदस्सितं, जा. अट्ठ.2.199; अनेकत्थपदस्सितन्ति पीने वाला, हाथी - मातङ्गो द्विरदो सविहायनो नेकपो इभो, एवं वृत्तप्पकारं वीरियं अनेकेहि अत्थपदेहि निस्सितं. सद्द. 2.345.
अनेकपरियाय पु., कर्म. स., केवल तृ. वि., ए. व. में ही अनेकधा अ., निपा. [अनेकधा], अनेक प्रकार से, बहुत सारे प्रयुक्त [अनेकपर्याय], अनेक तरीकों से, बहुत से समानान्तर तरीकों से - अंधकारं पकासञ्च, दस्सयित्वा अनेकधा, अप. कथनों द्वारा - एवमेवं भोता गोतमेन अनेकपरियायेन धम्मो 2.157; सीलनं लक्खणं तस्स, भिन्नस्सापि अनेकधा, पकासितो, सु. नि. (पृ.) 98; म. नि. 2.90; भगवता सनिदस्सनत्तं रूपस्स, यथा भिन्नस्सनेकधा, विसुद्धि. 1.8; अनेकपरियायेन विरागाय धम्मो देसितो, नो सरागाय, पारा.
धातुओं के प्रभेदोसवित-ज्ञान
- एकधम्म ..
तदे..
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अनेकपुनरुत्तक
312
अनेकवण्ण 20; अनेकपरियायेनाति अनेककारणेन, पारा. अट्ठ. अनेकयोजनन्तरिक त्रि., ब. स., अनेक योजनों की दूरी 2.166.
पर स्थित - पक्कमन्ति दिसोदिसन्ति दिसतो दिसं अनेकपुनरुत्तक त्रि., ब. स. [अनेकपुनरुक्तिक], बहुत अनेकयोजनन्तरिक ठानं पक्कमन्ति, पे. व. अट्ठ. 151. सारी पुनरुक्तियों से परिपूर्ण - अतीव क्वचि सचित्तो, अनेकरतन त्रि., ब. स. [अनेकरत्न], बहुत सारे रत्नों से अनेकपुनरुत्तको, म. वं. 1.2.
परिपूर्ण, अनेक रत्नों से युक्त - पुन चपरं भिक्खवे, महासमुद्दो अनेकप्पकार त्रि., ब. स. [अनेकप्रकार], अनेक प्रकारों बहुरतनो अनेकरतनो, चूळव. 394; उदा. 129; - विचित्त वाला, बहुत सारे भेदों और प्रभेदों वाला - निवासागारं पन त्रि., तत्पु. स., अनेक प्रकार के रत्नों से अलङ्कत - सो हि ... महागन्धकुटिकरे रिमण्डलमाळ को सम्ब- ..... मत्तिकाभाजनं छड्हेत्वा अनेकरतनविचित्तं पभस्सररंसिजाल कुटिचन्दनमालादिअनेकप्पकारं, सु. नि. अट्ठ. 2.118; .... वुत्तप्पकारं ... यथावुत्तं ... पटिलभीति, उदा. अट्ठ. 238. परसमानानंयेव आतीनं अम्म ... पुथु अनेकप्पकारकं अनेकरसव्यञ्जन त्रि., ब. स. [अनेकरसव्यञ्जन], बहुत लालपतयेव मच्चानं एकमेको ... नीयति, ... लोकोति, सु. से रसीले व्यञ्जनों वाला (भोजन) - भुजामि कामकामिनी, नि. अट्ठ. 2.164.
अनेकरसव्यञ्जनं, पे. व. 109; ..., अनेकरसब्यञ्जनं भत्तं अनेकभाग त्रि., ब. स. [अनेकभाग], बहुत सारे हिस्सों या भुजामीति योजना, पे. व. अट्ठ. 62... खण्डों वाला - अनेकभागो समुप्पादि अरहन्तेव दक्खिणा, अनेकरूप' त्रि., ब. स. [अनेकरूप], अनेक रूपों वाला, दी. नि. 2.196; अनेकभागेन गुणेन सेय्यो, अयमेव सूलो विभिन्न प्रकारों वाला - उपाधिनिदाना पभवन्ति दुक्खा, ये निरयेन तेन. पे. व. 525; अनेकभागेन गुणेनाति अनेककोट्ठासेन केचि लोकस्मिमनेकरूपा, सु. नि. 733; 1056; ... अनेकरूपा आनिसंसेन, पे. व. अट्ठ. 193; - सो अ., क्रि. वि., बहुत नानाविधा इमस्मिं सत्तलोके दिस्सन्ति उपलब्मन्ति, उदा. सारे तरीकों से, अनेक प्रकारों से - नप्पवेधति अनेकभागसो. अट्ठ.347. सब्बसो च मुखभावमेव सो ति, मि. प. 388.
अनेकरूप नपुं., कर्म. स. [अनेकरूप], शा. अ. अनेक अनेकभारपरिमाण त्रि., ब. स., बहत अधिक वजन की माप प्रकार के रूप-धर्म - फुट्ठो अनेकरूपेहि, नातुमानं विकप्पयं वाला, अत्यधिक वजन वाला- पहूतं मे जातरूपन्ति सुवण्णम्पि तिढे, सु. नि. 924; ला. अ. मांगलिक अनुष्ठानों या पहूतं अनेकभारपरिमाणं अहोसीति सम्बन्धो, पे. व. अट्ठ. 91. उत्सवों के विभिन्न स्वरूप - सीलब्बतेनापि वदन्ति सद्धि, अनेकभाव त्रि., ब. स. [अनेकभाव], अनेक प्रकार का, बहुत अनेकरूपेन वदन्ति सुद्धि, सु. नि. 1085-87; तत्थ सारे भेदों, प्रभेदों वाला - अनेकभावो समुप्पादि, अरहन्तेव अनेकरूपेनाति कोतूहलमङ्गलादिना, सु. नि. अट्ट. 2.286; दक्खिणा, दी. नि. 2.196; अनेकभावो सम्मुप्पादीति अनेकरूपम्पि पहाय सब्ब, तण्हं परिआय अनासवासे, सु. अनेकविधो जातो, दी. नि. अट्ठ. 2.265.
नि. 1088-89. अनेकभूमिका स्त्री., कर्म. स., कई मञ्जिलें, बहुत सारे अनेकलिङ्ग त्रि., ब. स. [अनेकलिङ्ग]. अनेक चिहों या तल - सङ्गेति अनेकभूमिके दस्सेत्वा अद्धरत्तअङ्गयुत्ते तत्थ लक्षणों वाला, बहुत सारी विशिष्टताओं से युक्त - एकादस्सी त्वं पुब्बे सयीति अत्थो, जा. अट्ठ. 5.499.
दुम्मेधोति एवं अनेकलिङ्गे अनेकलक्खणे अत्थे.... थेरगा. अनेकमाय त्रि., अनेक + माया से व्यु., ब. स., बहुत सारी 232; एको पि ओय्यत्तो अनेकलिङ्गो सतलिङ्गस्स अत्थस्स माया करने वाला, अनेक छल-बल करने वाला - मिगं ....., सद्द. 2.379. तिपल्लत्थमनेकमाय, अट्ठक्खुरं अडरत्तापपाथि, जा. अट्ठ. अनेकवचन नपुं.. कर्म. स., व्याकरण के सन्दर्भ में 1.165; अनेकमायन्ति बहुमायं बहुवञ्चनं, जा. अट्ठ. 1.165%; प्रयुक्त - नाम अथवा आख्यातपदों का बहुवचन - राजानो च नाम अनेकमाया कुसलेहि धनुग्गहेहि विज्झापेन्ति, पुथुवचनं अनेकवचनन्ति च इमस्स एव नाम, सद्द. 1.17; जा. अट्ठ. 3.283. अनेकमुख त्रि., ब. स. [अनेकमुख], शा. अ. अनेक मुखों अनेकवण्ण त्रि., ब. स. [अनेकवर्ण], अनेक रङ्गों वाला, वाला, ला. अ. अनेक उपायों को अपनाने वाला, अनेक चित्र-विचित्र, अनेक स्वरूपों वाला - .... अनेकवण्णोति दृष्टिकोणों से प्रकाशित - अनेकमुखा हि देसना नं देवता सञ्जानिसु. वि. व. अट्ठ. 273; - देवपुत्त पु., व्य. पटिसम्भिदापभेदेन देसनाविलासप्पत्तानं, खु. पा. अट्ठ. 62. सं., अनेकवण्णविमान के नायक एक देवपुत्र का नाम -
92.
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अनेकवण्णविमान
313
अनेकसलाक
बुद्धप्पादे ... अनेकवण्णदेवपुत्तोति इमे तयो समानदेवपुत्ता म. नि. 2.231; अनेकविहिता दिडियो लोके उप्पज्जन्ति, म. मम आसन्नट्ठाने निब्बत्ता, मया तेजवन्ततरा, ध. प. अट्ठ. नि. 1.51; पुब्बन्तं आरभ अनेकविहितानि अधित्तिपदानि 1.239; उदा. अट्ठ. 161.
अभिवदन्ति ..., दी. नि. 1.11; ..., अनेकविहितेसु च अनेकवण्णविमान नपुं॰, अनेक विमानों में से एक का नाम, कवाठानीयेसु धम्मेसु कङ्घन पटिविनोदेन्ति, म. नि. 1.286. वि. व. अट्ठ. की एक वर्णना का शीर्षक; वि. व. अट्ठ. अनेकव्यञ्जन त्रि., ब. स. [अनेकव्यञ्जन], अनेक प्रकार 271-274; अनेकवण्णं दरसोकनासनं विमानमारुय्ह के व्यञ्जनों वाला, बहुत सारे स्वादिष्ट खाद्य-पदार्थों वाला अनेकचित्तं, वि. व. 1199; अनेकवण्णं दरसोकनासनन्ति (भोजन)- सो अहोसि पिण्डपातो अनेकसूपो अनेकव्यञ्जनो अनेकवण्णविमानं, वि. व. अट्ठ. 271.
अनेकरसब्यञ्जनो, उदा. 101; अनेकव्यञ्जनोति अनेकवस्सगण पु., तत्पु. स. [अनेकवर्षगण], कई एक नानाविधउत्तरिभङ्गो, उदा. अट्ठ. 160; ... भुञ्जति विचितकाळकं वर्षों का सिलसिला या अटूट क्रम - नेकवस्सगणेति अनेकसूपं अनेकव्यञ्जनं, म. नि. 1.48. अनेकवस्सगणे, जा. अट्ठ. 3.438.
अनेकव्यसनानुबन्धत्त नपुं॰, भाव. [अनेकव्यसनानुबन्धत्व], अनेकवस्सगणिक त्रि., अनेक वस्सगण से व्यु. अनेक प्रकार की विपत्तियों से ग्रस्त होने की स्थिति - .... तं [अनेकवर्षगणिक], अनेक वर्षों के दौरान उत्पन्न या सञ्चित, अनिच्चादिविपरिणामसभावत्ता अनेकव्यसनानुबन्धत्ता च बहुत सारे वर्षों की गणना वाला, बहुत पुराना - सेय्यथापि, भवहेतुभावतो अतिविय भयानकढेन भयं, उदा. अट्ठ. भिक्खवे, गण्डो अनेकवस्सगणिको, अ. नि. 3(1).200; ..., 170. अनेके वस्सगणा उप्पन्ना अस्साति अनेकवस्सगणिको, अ. अनेकसत त्रि., [अनेकशत, कई सौ की संख्या वाला - नि. अट्ठ. 3.264; सेय्यथापि, भिक्खवे, जम्बाली सा, एसा, भग्गव, परिसा महा होति अनेकसता अनेकसहस्सा, अनेकवस्सगणिका, अ. नि. 1(2).192; अनेकवस्सगणिकाति दी. नि. 3.12: ... अनेकसताय परिसाय धम्म देसेता, म. नि. गामस्स वा नगरस्स वा उप्पन्नकालेयेव उप्पन्नत्ता अनेकानि 1.317; ... अनेकसतं खत्तियपरिसं उपसङ्कमिता, दी. नि. वस्सगणानि उप्पन्नाय एतिस्साति अनेकवस्सगणिका, अ. 2.84; - कण्ण त्रि., तत्पु. स. [अनेकशतकर्ण], कई सौ नि. अट्ठ.2.352.
कानों वाला - ... पुन अट्ठकण्णो भवित्वा अनेकसतकण्णोपि अनेकवारं अ., क्रि. वि. [अनेकवारं], अनेक बार में, कई भविस्सतीति वत्वा ..., जा. अट्ठ. 6.222; - क्खत्तुं अ., क्रि. बार, पुनःपुन, बारम्बार - भोजि जे त्वं अनेकवारं मम वि० [अनेकशतकृत्वः], कई सौ बार - अनेकसतक्खत्तुञ्च, सन्तिकं आगता, चोरा यथारुचितं हरन्तु, ध. प. अट्ठ. चक्कवत्ती अहोसहं, अप. 2.47. 2.342; अहं पन यक्खिनी हुत्वा अनेकवारं..., उदा. अट्ठ. अनेकसफ त्रि., ब. स. [अनेकशफ], फटे हुए या विदीर्ण 236; विलो. एकवारं.
खुरों वाला - एकखुरं कत्वाति अनेकसफम्पि एकसर्फ विय अनेकविध/नेकविध त्रि., [अनेकविध], कई तरह का, कत्वा, लीन. (दी.नि.टी.) 3.141. बहुत से प्रभेदों या रूपों वाला - चित्तम्पि हि बहुं अनेकसभाव त्रि., ब. स. [अनेकस्वभाव], अनेक प्रकार की अनेकविधं नानप्पकारक म. नि. 2.227; सो पनेस प्रकृति वाला, विविध अवस्थाओं वाला - अनेकधातूसूति अगारियमुनि, ... पच्चेकबुद्धमुनि, मुनिमुनीति अनेकविधो, ____अनेकसभावेसु आरम्मणेसु. स. नि. अट्ठ. 1.234. जा. अट्ट, 1.116-17; ..., बहुविधानि अनेकविधानि दुक्खानि अनेकसम्भार त्रि., ब. स. [अनेकसम्भार], विविध प्रकार की संसारगतो अनुभवति, मि. प. 189; - सूप त्रि., कर्म. स. साधनसामग्रियों अथवा आवश्यक उपकरणों वाला - वीणा [अनेकविधसूप], अनेक प्रकार के रसों वाला - अनेकसूपोति नाम अनेकसम्भारा महासम्भारा, स. नि. 2(2).195. मुग्गमासादिसूपेहि चेव खज्जविकतीहि च अनेकविधसूपो, अनेकसरसता स्त्री., अनेकसरस का भाव., विविध प्रकार के उदा. अट्ठ. 160.
स्वभावों वाला होना, विविध प्रकार के कृत्यों वाला होना - अनेकविहित त्रि., बहुत से प्रभेदों वाला, कई तरह का, अनेकसरसताति अनेकसभावता, अनेककिच्चता वा, अ. नि. विभिन्न प्रकारों का - सो अनेकविहितं इद्धिविधं पच्चनुभोति टी. 3.177. ..., दी. नि. 1.69; तथारूपं चेतोसमाधि फुसति, यथासमाहिते अनेकसलाक त्रि., ब. स. [अनेकशलाक, अनेक शाखाओं चित्ते अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति, दी. नि. 1.11; अथवा शलाकाओं से युक्त -... अनेकसाखन्ति अनेकसलाकं ... उच्चासद्दमहासद्दाय अनेकविहितं तिरच्छानकथं कथेन्तिया, सु. नि. अट्ठ. 2.187.
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अनेकसहस्स
314
अनेकानत्थानुबन्ध
अनेकसहस्स त्रि., द्वि. स. [अनेकसहस्र], क. एकवचनान्त नामों के साथ आने पर, कई हजारों वाला, कई हजारों से युक्त - सा एसा, भग्गव, परिसा महा होति अनेकसता अनेकसहस्सा, दी. नि. 3.12; ... सो अनेकसहस्सं भिक्खुसङ्घ परिहरिस्सति, मि. प. 157; ख. बहुवचनान्त नामों के साथ प्रयुक्त होने पर, अनेक सहस्र, कई हजार - अथापि सो सत्तो ... ओलोकेन्तस्स अनेकसहस्सानं सत्तानं मज्झे ठितोपि .... म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).350. अनेकसाख त्रि.. ब. स. [अनेकशाख], बहुत सी कमानियों या तिल्लियों वाला - अनेकसाखञ्च सहस्समण्डलं, छत्तं मरू धारयुमन्तलिक्खे, सु. नि. 693; अनेकसाखन्ति रतनमयानेकसतपटिट्ठानहीरक लीन. (दी.नि.टी.) 2.26... अनेकसारीरिक त्रि., [अनेकशारीरिक]. अनेक शरीरों से सम्बद्ध, अनेक शरीरों से उत्पन्न, बहुत सारे लोगों के हितों से जुड़ा हुआ - सब्बेते अनेकसारीरिकं पुचप्पटिपदं पटिपन्ना होन्ति, अ. नि. 1(1).1963; अनेकसारीरिकन्ति अनेकसरीरसम्भवं, स. नि. अट्ठ. 2.174. अनेकसाहस्सधन त्रि., ब. स. [अनेकसहस्रधन], कई हजारों की संख्या में धन रखने वाला - इद्धानि फीतानि कुलानि अस्सु, अनेकसाहस्सधनानि लोके जा. अट्ठ. 5.16. अनेकसूप त्रि., ब. स. [अनेकसूप]. अनेक प्रकार के रसीले
खाद्य पदार्थों से युक्त, अनेक प्रकार की चटनियों से युक्त (भोजन)- सो अहोसि पिण्डपातो अनेकसूपो अनेकव्यञ्जनो अनेकरसन्यजनो, उदा. 101%; अनेकसू पोति मुग्गमासादिसूपेहि चेव खज्जविकतीहि च अनेकविधसूपो, उदा. अट्ठ, 160; ... पिण्डपातं भुञ्जति विचितकाळकं अनेकसूपं अनेकव्यञ्जनं, म. नि. 1.48; - रसव्यञ्जन त्रि., ब. स. [अनेकसूपरसव्यञ्जन], अनेक प्रकार की चटनियों, रसीले पदार्थों तथा व्यञ्जनों से युक्त - अनेकसूपरसब्यञ्जनोति अनेकेहि सूपेहि चेव ब्यञ्जनेहि च मधुरादिमूलरसानञ्चेव सभिन्नरसानञ्च अभिव्यञ्जको, नानग्गरससूपब्यञ्जनोति अत्थो, उदा. अट्ठ. 160; - व्यञ्जन त्रि., ब. स. [अनेकसूपव्यञ्जन], अनेक तरह की चटनियों एवं व्यञ्जनों वाला - सा अनेकसूपव्यञ्जनं बहुभत्तं पचि,
जा. अट्ठ. 6.194. अनेकसेतिमिन्द पु., व्य. सं., पेगू एवं म्यां-मां के शासक बयिन्नौङ्ग का नाम - अनेकसेतिभिन्दो किर राजा योनकरटुं विजयकाले पठम सासनस्स पतिद्वानभूतं इदं तिकत्वा .... सा. वं. 49(ना.).
अनेकसो अ, क्रि. वि. [अनेकशः], कई बार, बारम्बार, पुनःपुनः - लोलवत्थु अनेकसो वित्थारितमेव, जा. अट्ठ. 3.196. अनेकस्सर त्रि., ब. स. [अनेकस्वर], एक से अधिक स्वरों वाला, बहुस्वरीय - धातुस्स अन्तो क्वचि लोपो होति यदानेकसरस्स, अनेकसरस्सेति किमत्थं, पाति, याति, दाति, भाति, वाति, क. व्या. 523. अनेकाकार त्रि., ब. स. [अनेकाकार], अनेक आकारों या स्वरूपों वाला, प्रायः स. प. के पू. प. के रूप में प्रयुक्त; - वोकार त्रि., ब. स. [अनेकाकारव्यवकार], विभिन्न आकारों एवं विशेषताओं वाला - एवं महाथेरो अनेकाकारवोकार रतनत्तयगुणेसु अविभूतेसु ... पटिसंवेदन्तो निसीदि, उदा. अट्ठ. 217-18; ... अनेकाकारवोकारं असुभभावनानुयोगमनुयुत्ता विहरन्ति, पारा. 81; पुब्बेव मया ... वत्वा अनेककारवोकारं वचीदुच्चरितसन्निस्सितं आदीनवं पे. व. अट्ठ. 10; - वोकिण्ण त्रि., तत्पु. स. [अनेकाकारव्यवकीर्ण], उपरिवत् - अनेकाकारवोकिण्णो अनेककारणसम्मिस्सोति वृत्तं होति, पारा. अट्ठ. 2.5; - सम्पन्न त्रि., तत्पु. स. [अनेकाकारसम्पन्न]. अनेक प्रकार के अच्छे गुणों से परिपूर्ण, बहुत सारी विशिष्टताओं से युक्त - अनेकाकारसम्पन्ने, सारिपुत्तम्हि निब्बुते, थेरगा. 1167; अनेकाकारसम्पन्न, पयिरुपासन्ति गोतमन्ति, थेरगा. 1260; अनेकाकारसम्पन्नन्ति अनेकेहि गुणेहि समन्नागतं, स. नि. अट्ठ. 1.250; - सम्मिस्स त्रि., ब. स., अनेक प्रकार के आकारों एवं विशिष्टताओं से समन्वित - अनेकाकारवोकिण्णो अनेककारणसम्मिस्सोति वृत्तं होति, पारा. अट्ठ. 2.5. अनेकादीनव त्रि., ब. स., बहुत सारी विपत्तियों से परिपूर्ण - ... समुद्दो अनेकादीनवो, मा गमी ति निवारेसि, जा. अट्ठ. 4.2. अनेकाधिवचन नपुं, तत्पु. स. [अनेकाधिवचन], बहुवचन
को सूचित करने वाली अभिव्यक्ति, केवल स. प. के पू. प. के रूप में प्रयुक्त; - कुसल त्रि., तत्पु. स., बहुवचनवाचक शब्दों के प्रयोग में कुशल - अयञ्च वुच्चति अत्थकुसलो ... एकाधिवचनकुसलो अनेकाधिवचनकु सलो, ...
जनपदनिरुत्तियो, नेत्ति. 29. अनेकानत्थानुबन्ध त्रि., ब. स. [अनेकानर्थानुबन्ध], अनेक प्रकार के अनर्थों अथवा अहितकारक बातों के साथ जुड़ा हुआ, बहुत से हानिकारक एवं विघ्नकारक तत्त्वों से युक्त - ... तेसं मनुस्सानं आपानभूमिरमणीयेसु ... अनेकानत्थानुबन्धेसु घोरासरहकटुकफलेसु..., उदा. अट्ठ. 297.
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अनेकानिसंस
315
अनेलगल/अनेळगल/अनेळगळ अनेकानिसंस त्रि., ब. स., अनेक प्रकार के लाभों या अनेजका पु., प्र. वि., ब. व., देवताओं के एक वर्ग का नाम हितकारक धर्मों से परिपूर्ण - सो पन पिण्डपातो बहुगुणो - वरुणा सहधम्मा च, अच्चुता च अनेजका, दी. नि. 2.191; अनेकानिसंसो, मि. प. 171.
अच्चुता च अनेजकाति अच्चुतदेवता च अनेजकदेवता च, अनेकानुसन्धिक त्रि., ब. स. [अनेकानुसन्धिक], अनेक दी. नि. अट्ठ. 2.254. प्रकार की अनुसन्धियों से युक्त, अनेक प्रकार के तार्किक अनेध त्रि., एध का निषे., ब. स. [अनिन्धन], शा. अ. सम्बन्धों या प्रायोगिक अभिप्रायों से युक्त - यं ईंधन से रहित, ला. अ. अकुशल-मूलों से रहित, क्रोध अनेकानुसन्धिकं तत्थ अनुसन्धिवसेन धम्मक्खन्धगणना, ध. आदि से मुक्त - अनेधो धूमकेतूव, कोधो यस्सूपसम्मति, स. अट्ठ. 29; अनेकानुसन्धिकस्स सुत्तस्स पठमानुसन्धि जा. अट्ठ. 4.25; अनेधो धूमकेतूवाति अनिन्धनो अग्गि विय, आदि, अन्ते अनुसन्धि परियोसानं, ..., म. नि. अट्ठ. (मू.प.) तदे.. 1(2).103; अनेकानुसन्धिकस्स पठमो अनुसन्धि आदि, ..., अनेरित त्रि., ईरित का निषे. [अनीरित], अप्रकम्पित, अ. नि. अट्ट, 2.98.
अगतिशील, अप्रेरित - अनेरितो अघट्टितो अचलितो अलुळितो अनेकिमिन्द पु., व्य. सं., सिरिखेत्तनगर के एक बौद्ध-स्तूप अभन्तो वूपसन्तो तत्र ऊमि नो जायति, ठितो होति समुद्दोति, का नाम - तञ्च चेतियं रतनचेतियं ति पञआपेसि, महानि. 260. हत्थिरूपबाहुल्लताय पन अनेकिभिन्दो ति पाकट अहोसि. अनेळ/अनेल त्रि., अट्ठ में अनेळक, अनेळगल एवं अनेळमूग सा. वं. 87(ना.).
के व्याख्यान के क्रम में ही स्वतन्त्र शब्द के रूप में प्रयुक्त, अनेज' त्रि., एजा का निषे. अथवा ।एज के निषे. के रूप एळ अथवा एल का निषे. [बौ. सं. अनेला], निर्दोष, चित्त में व्यु., ब. स., तृष्णा से मुक्त, इच्छारहित, आसक्तियों या की अकुशल चित्तवृत्तियों से मुक्त - इलति, एल एला, एत्थ सांसारिक लगावों से मुक्त, अप्रकम्पित, अप्रभावित, स्थिर, एलं वुच्चति दोसो, केन अत्थेन .... सद्द. 2:4383; दृढ़ - तं कवछिदं मुनिं अनेजं, दुतियं भिक्खुनमाहु मग्गदेसिं. अनेलगलायाति अनेलाय अगलाय निहोसाय चेव सु. नि. 87; स वे अनेजो अखिलो अकसो, तथागतो अरहति अक्खलितपदब्यञ्जनाय च, स. नि. अट्ठ. 1.242; पूरळासं सु. नि. 481; ओकञ्जहं तण्हच्छिदं अनेजं. सु. नि. अनेळमूगोति अलालामुखो, अथ वा अनेळो च अमूगो च, 1107; अनेजन्ति लोकधम्मेसु निकम्पं, सु. नि. अट्ठ. 2.291; पण्डितो व्यत्तोति वुत्तं होति, सु. नि. अट्ठ. 1.98; द्रष्ट. सुखहि वड्ड मुनयो, अनेजा छिन्नसंसया, थेरीगा. 205; अनेळक, अनेळमूग, अनेलगल आगे. एजासङ्घाताय तण्हाय अभावेन अनेजा, थेरीगा. अट्ठ. 193; ते अने ळ क/अने लक/अनीळक/अनीलक त्रि., तुसिता जेत्वा मारं सवाहिनि ते अनेजा, अ. नि. 1(2).18; ते । अनेळ /अनेल से व्यु. [बौ. सं. अनेळक, सं. अनीडक], अनेजाति ते खीणासवा तण्हासङ्घाताय एजाय अनेजा निच्चला शुद्ध, निर्दोष, स्वच्छ, अविशुद्धियों से रहित, मधुमक्खियों के नाम, अ. नि. अट्ठ. 2.252.
अण्डों एवं उनकी लार से रहित स्वच्छ मधु - सेय्यथापि अनेज' नपुं., तृष्णा से विमुक्ति, आसक्तियों से छुटकारा, खुद्दमधुं अनीलकं एवमस्साद, पारा. 7; सेय्यथापि खुद्दमधु अर्हत्-अवस्था का फल अर्हत्व - अनेज उपसम्पज्ज, अनीळकन्ति इदं पनस्स मधुरताय ओपम्मनिदस्सनत्थं वुत्तं, रुक्खमूलम्हि झायति, थेरीगा. 364; अनेजन्ति पटिप्पस्सद्ध पारा. अट्ठ. 1.138; इसिमुग्गानि पिसित्वा, मधुखुद्दे अनीळके, एजताय अनेजन्ति लद्धनाम अग्गफलं, थेरीगा. अट्ठ. 269; अप. 1.199. अनेजस्स वसिप्पत्तस्स, भगवतो तस्स सावको हमस्मि, म. अनेळकसप्प पु., कर्म. स., एक जहरीला सर्प, अत्यधिक नि. 2.55; ननु चत्तारो अरूपा अनेजा वुत्ता भगवताति? विषैले सर्प का एक वर्ग- अनेळकसप्पो नाम महासीविसो, आमन्ता, कथा. 272; अनेजं ते अनुप्पत्ता, चितं तेसं अनाविलं. स. नि. टी. 3.41. स. नि. 2(1).77; अनेजन्ति एजासङ्घाताय तण्हाय पहानभूतं अनेलगल/अनेळगल/अनेळगळ त्रि., एलगल का निषे., अरहत्तं, स. नि. अट्ठ. 2.250; - त्त नपुं., भाव., तृष्णा या ब. स., शा. अ. लार के बहाव या टपकाव से रहित, ला. आसक्तियों से रहित होना - अनेजत्तायेव सब्बकिलेसेहि अ. पूर्णतया परिशुद्ध, सुस्पष्ट अथवा दोषरहित (विशेष रूप परवादवातेहि च अकम्पनीयत्ता ठितो एकग्घनपब्बतसदिसो. से वाणी के विशे. के रूप में प्रयुक्त)- ..., अनेलगलाय, उदा. अट्ठ. 151.
अत्थस्स विज्ञापनिया, महाव. 270; भवम्हि सोणदण्डो ...
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316
अनेलमूग/अनेळमूग
अनोग्गत वाचाय समन्नागतो विस्सट्ठाय अनेलगलाय अत्थस्स विवेके यत्थ दूरम, ध. प. 87; ओका अनोकमागम्याति ओक विआपनिया ..., दी. नि. 1.99; अनेलगलायाति वुच्चति आलयो, ध. प. अट्ठ. 1.338; - सारी त्रि.. बेघर या एलगळेनविरहिताय, दी. नि. अट्ट, 1.2273; अनेलगळायाति गृहत्याग कर विचरण करने वाला - तस्मा तथागतो एला वृच्चति दोसो, तं न पग्घरतीति अनेलगळा, ताय अनोकसारी ति वुच्चति, एवं खो, गहपति, अनोकसारी होति, निदोसायाति अत्थो, उदा. अट्ठ. 255; अनेलगलायाति यथा स. नि. 2(1).10; अनोकसारी होतीति एवं कम्मविआणेन दन्धमनुस्सा मुखेन खेळ गळन्तेन वाचं भासन्ति, न एवरूपाय, ओकं असरन्तेन अनोकसारी नाम होति. स. नि. अट्ठ. अथ खो निद्दोसाय विसदवाचाय, स. नि. अट्ठ. 2.210. 2.228; अनोकसारिमप्पिच्छ, तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं, सु. नि. अनेलमूग/अनेळमूग त्रि., एळमूग का निषे. [अनेडमूक], 633.
शा. अ. वह, जो बधिर एवं मूक न हो, ला. अ. बुद्धिमान, अनोकास क. पु., ओकास का निषे० [अनवकाश], स्थान पण्डित, निपुण - तहक्खयं पत्थयमप्पमत्तो, अनेळमूगो अथवा क्षेत्र का अभाव, अनुपयुक्त स्थान या विषय, अविषय, सुतवा सतीमा, सु. नि. 70; अप्पका ते सत्ता ... अजळा अगोचर - अनोकासं कारेत्वा, मो. व्या. 3.12; इधेकच्चो अनेळमूगा पटिबला सुभासितदुभासितस्स अत्थमआसु. अ. भिक्खु कुलानि उपगन्त्वा अनोकासे ठितो ठानं भजति, मि. नि. 1(1).48; येसं एळा मुखतो न गळति, ते अनेळमूगा नाम प. 215; ख. त्रि.. पर्याप्त स्थान से रहित, स्थान न पाने अनेळमुखा निदोसमुखाति अत्थो, अ. नि. अट्ठ. 1.366. वाला - द्वारानि अनोकासानि अहेसुंध. प. अट्ठ. 2.252; अनेसना स्त्री., एसना का निषे. [अनेषणा, अणेसणा], शा. ततो एकच्चे द्वारेसु ओकासं अलभमाना पाकार भिन्दित्वा अ. (भोजन को) अनुचित साधनों द्वारा पाने की कामना, पलाता, खु. पा. अट्ठ. 132; - कत त्रि., ब. स. ला. अ. चीवर, पिण्डपात आदि को प्राप्त करने हेतु [अनवकाशकृत]. वह, जिसे अनुमति या अनुमोदन प्राप्त अपनाए गये अनुचित उपाय, अनुचित कामना, अप्रतिरूप नहीं हुआ है, सङ्घ द्वारा अननुमोदित - कथहि नाम, इच्छा - ..., न च चीवरहेतु अनेसनं अप्पतिरूपं आपज्जति, भिक्खवे, भिक्खुनियो अनोकासकतं भिक्खं पहं पुच्छिस्सन्ति, दी. नि. 3.179; अनेसनन्ति, दूतेय्यपहिनगमनानुयोगप्पभेद पाचि. 477; अनोकासकतन्ति असुकस्मिं नाम ठाने पुच्छामीति नानप्पकारं अनेसनं, दी. नि. अट्ठ. 3.178; दायकस्स हि । एवं अकतओकासं, पाचि. अट्ठ. 219; - कतसिक्खापद निमन्तनं एकवीसतिया अनेसनासु अञ्जतराय ... नाम नपुं., कर्म. स., वि. पि. पाचि. के एक खण्ड का शीर्षक, होति, जा. अट्ठ. 4.336; आचारसीलसम्पन्नेति एकवीसतिया पाचि. 477; - त्त नपुं., अनोकास का भाव. [अनवकाशत्त्व], अनेसनाहि जीविककप्पनं अनाचारो नाम, जा. अट्ठ. 3.365; प्रयोग का क्षेत्र न होना, प्रयोग-हेतु उपयुक्त स्थान न होना यो पन इमस्मि सासने पब्बजित्वा एकवीसतिअनेसनं पहाय - ईदिसे ठाने परभूतानं यो अनादीनं वचनानं अनोकासत्ता, चतुपारिसुद्धिसीले पतिद्वाय बुद्धवचनं .... म. नि. अट्ठ. ... सद्द. 1.140; - भूत त्रि., [अनवकाशभूत], प्रयोग हेतु (मू.प.) 1(2).136.
उचित स्थान न बनने वाला, अनुपयुक्त स्थान बना हुआ, अनेसमान त्रि., Vईस के वर्त. कृ., आत्मने. का निषे., स्वयं वह, जो किसी धर्म के लिये उपयुक्त स्थल नहीं है - अपना स्वामी न होता हुआ, अपने पर नियन्त्रण न करने अनोकोति अभिसङ्कारविज्ञआणादीनं अनोकासभूता, सु. नि. वाला, अनीश्वर - यं पित्वा चित्तस्मिं अनेसमानो, आहिण्डती अट्ठ. 2.265. गोरिव भक्खसादी, जा. अट्ठ. 5.15; अनेसमानोति अनिस्सरो, अनोक्कन्त त्रि., अव + ।कमु के भू. क. कृ. का निषे. जा. अट्ठ. 5.17.
[अनवक्रान्त], द्रष्ट. अनवक्कन्त के अन्त. - धम्मा अनोक त्रि., ओक का निषे.. ब. स. [अनौक], क. शा. अ. एकन्तकुसला कुसलायातिका अरिया लोकुत्तरा अनवक्कन्ता बेघर, गृहविहीन, ला. अ. सांसारिक आसक्तियों एवं इच्छाओं पापिमता, म. नि. 3.157. से पूरी तरह से मुक्त - सो तेहि फुट्ठो बहुधा अनोको, वीरियं अनोग्गत त्रि., अव + गम के भू. क. कृ. (अवगत) का परक्कम्मदळ्हं करेय्य, सु. नि. 972; अनोकोति निषे. [अनवगत], सूर्य के समान नहीं डूबा हुआ, सूर्य की अभिसवारविज्ञआणादीनं अनोकासभूतो, सु. नि. अट्ठ. तरह अस्त न हो चुका - अनोग्गतस्मिं सूरियस्मिं, ततो 2.265; ख. पु./नपुं., गृहविहीनता, बेघर होने की स्थिति, चित्तं विमुच्चि मे, थेरगा. 477; अनोग्गतस्मिं सूरियस्मिन्ति प्रव्रजित अवस्था, अनागारिक स्थिति-ओका अनोकमागम्मा सूरिये अनथङ्गतेयेव, थेरगा. अट्ठ. 2.116.
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अनोघतिण्ण 317
अनोतत्त अनोघतिण्ण त्रि., ओघतिण्ण का निषे. [अनोघतीर्ण]. वह, अनोजा एव च मे नामं होतूति पत्थनं पट्टपेसि, ध. प. अट्ठ. जिसमें क्लेशों अथवा अकुशलधर्मों के जलप्रवाह को पार 1.314; सा वयप्पत्ता महाकप्पिनरओ गेहं गन्त्वा अनोजादेवी नहीं किया है, क्लेशों से ग्रस्त चित्त वाला - ते चे मुनि ब्रूसि नाम अहोसि.ध. प. अट्ठ. 1.315; अनोजापुप्फसदिसवण्णताय अनोघतिण्णे, अथ को चरहि देवमनुस्सलोके. सु. नि. 1087. पनस्सा अनोजादेवीत्वेव नामं अहोसि, स. नि. अट्ठ. 1.240. अनोज/अणोज स्त्री., व्य. सं., लाल पुष्पों वाले एक वृक्ष । अनोज्ञात त्रि., अव + Vा के भू. क. कृ. अवजात का
या पौधे का नाम, जिसके पुष्पों की मालाएं बनाई जाती हैं निषे. [अनवज्ञात], वह, जो तिरस्कृत या अपमानित नहीं - चोटके ठपेत्वान, अनोज पुष्फमुत्तमं, अप. 1.117; किया गया, अनुपेक्षित - तेसु तेसु वा पन जनपदेसु कोरण्डका अनोजा च, पुफिता नागमल्लिका, जा. अट्ठ. अनोज्ञातं अनवआतं अहीळितं अपरिभूतं चित्तीकतं, एतं 7.304; - पुष्फ नपुं.. तत्पु. स., अनोज-नामक पौधे का उक्कट्ठ नाम, पाचि.8; तुल. एवं द्रष्ट. अनवजात तथा फूल - ... अनोजपुप्फचङ्कोटकं गहेत्वा अनुमोदनकाले सत्थारं अनुज्ञात. अनोजपुप्फेहि पूजेत्वा तं साटकं सत्थु पादमूले ठपेत्वा, अनोणत/अनोनत त्रि., ओनत का निषे. [अनवनत]. ..... ध. प. अट्ठ. 1.314; चकोटके ठपेत्वान, अनोज पुप्फमुत्तमं शा. अ. वह, जो नीचे को झुका हुआ न हो, ला. अ. .... अप. 1.117; - पुष्फचङ्गोटक पु.. तत्पु. स., अनोज- अशिष्ट, अविनम्र, उद्दण्ड - पुन चपर, महाराज, पब्बतो नामक पौधे के फूलों की टोकरी या मञ्जूषा - अतिरेकतरं अनुन्नतो अनोनतो, एवमेव खो, ... न करणीया, मि. प. कत्वा सत्थारं पूजेस्सामीति अनोजपुप्फवण्णेन सहस्समूलेन 356; अनोणतं चित्तं कोसज्जेन इञ्जतीति आनेज. उदा. साटकेन सद्धिं अनोजपुप्फचङ्कोटकं गहेत्वा, .... ध. प. अट्ठ. 150; अनोनतेन पविसितुं न सक्का , ध. प. अट्ठ. अट्ठ. 1.314; - पुष्फदाम नपुं., तत्पु. स., अनोज, नामक 1.324. पौधे के फूलों से बनी हुई माला - तत्थ अलातो एतदब्रवीति अनोणमन नपुं., ओनमन का निषे. [अनवनमन], शा. अ. सो किर कस्सपदसबलस्स चेत्तिये अनोजपुप्फदामेन पूजं नीचे की ओर नहीं झुकना, ला. अ. किसी के प्रति कत्वा ... संसारे संसरन्तो ... बहुं पापमकासि, जा. अट्ठ. आदरभाव प्रकट न करना, किसी की ओर प्रवृत्त न होना - 7.111; - पुष्फवण्ण त्रि., अनोज-नामक पौधे के फूलों के एत्थ च ... सुविदूरभावतो इद्धिया मूलभूतेहि अनोणमनादीहि समान रङ्गवाला - ... अतिरेकतरं कत्वा सत्थारं पूजेस्सामी ति सोळसहि ... आनेञ्जप्पत्तं ... आनेञ्जन्ति वुच्चति, उदा. अनोजपुप्फवण्णेन सहस्समूलेन साटकेन सद्धि.... ध. प. अट्ठ. 150. अट्ठ. 1.314; - पुष्फसदिसवण्णता स्त्री., भाव., अनोज- अनोणमितदण्डजात त्रि., गैर-लचीली छड़ी या कड़े एवं नामक पौधे के फूलों के समान वर्ण या रङ्ग होने की अवस्था सख्त डण्डे के समान, सख्त, दुर्नम्य एवं कठोर रूप में - ... अनोजापुप्फसदिसवण्णताय पनस्सा अनोजादेवीत्वेव उत्पन्न - सो धातो पीणितो परिपुण्णो निरन्तरो तन्दिकतो नाम अहोसि, अ. नि. अट्ठ. 1.240.
अनोणमितदण्डजातो पुनदेव तत्तकं भोजनं भुजेय्य, मि. प. अनोजका/अनोजक स्त्री./पु., लाल रङ्ग के फूलों वाले 224; अ. नि. अट्ठ. 1.345; अनोणमितदण्डजातोति यावदत्थं एक वृक्ष का नाम - पदुमकुमुदुप्पलकुवलयं, भोजनेन ओणमितु असक्कुणेय्यताय अनोणमनदण्डो विय योधिकबन्धुकनोजका च सन्ति, वि. व. 649; अनोजकापि जातो, अ. नि. टी. 1.203; पाठा. अनोन.. सन्तीति पाठं वत्वा अनोजकापीति कुत्तं होतीति अत्थं वदन्ति, अनोतत्त पु., व्य. सं., प्रायः दह के साथ स. प. रूप में वि. व. अट्ठ. 133.
प्रयुक्त, यदा-कदा अनवतत्त रूप में भी प्रयुक्त [बौ. सं. अनोजवन्तु त्रि., ओजवन्तु का निषे. [अनोजवत्], तेज से अनवतप्त], हिमालय पर्वत में अवस्थित सात विशाल विहीन, शक्ति या बल को न देने वाला, निष्प्रभावी - ...... सरोवरों में से एक, जिस पर सूर्य एवं चन्द्रमा का प्रकाश तावतकमेव असमयेन भुत्तं अनोजवन्तं होति, अ. नि. सीधा न पड़ने से तथा जल के सदा शीतल रहने से 2(1).240; अनोजवन्तं होतीति अकाले भुत्तं ओज हरितं न 'अनोतत्त' नाम पड़ा- चन्दिमसरिया दक्षिणेन वा उत्तरेन सक्कोति, अ. नि. अट्ठ. 3.84.
वा गच्छन्ता पब्बतन्तरेण तं ओभासेन्ति, उजु गच्छन्तो न अनोजा स्त्री., व्य. सं., अनोज-नामक वृक्ष के फूलों के ओभासेन्ति, तेनेवस्स अनोतत्तान्ति सङ्घा उदपादि, सु. नि. अनुकरण पर रखा गया एक राजकुमारी का नाम - ..., अट्ठ.2.145; अनोतत्तो तथा कण्णमुण्डो च रथकारका,
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अनोतत्त
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अनोत्तप्पी/अनोतापी छद्दन्तो च कुणालो च वुत्ता मन्दाकिणीत्थिय, अभि. प. 679; अनोतिण्ण त्रि., ओतिण्ण का निषे. [अनवतीर्ण], सामने सरानीति अनोतत्तादीनि महासरानि खीयन्तियेव, जा. अट्ठ. अविद्यमान, अविचाराधीन, अप्रासङ्गिक - ओतिण्णे वा अनोतिण्णे 4.450; सेय्यथिदं अनोतत्ता, सीहपपाता, स्थकारा कण्णमुण्डा, वा वत्थुस्मिं तन्ति ठपनवसेन वचनं अनुसासनी, अ. नि. ..., ता उस्सुस्सन्ति विसुस्सन्ति, न भवन्ति, अ. नि. अट्ठ. 1.56; अनुसासनीति ओतिण्णे वत्थुस्मि, महाव. अट्ठ. 2(2).238; अनोतत्तम्हा महासरा पभवन्तीति, सद्द. 3.702; 251. यत्थ आयामेन वित्थारेन गम्भीरताय च पण्णासयोजनप्पमाणो अनोत्तप्प नपुं., अव + Vतप के सं. कृ. ओत्तप्प का निषे. दियड्डयोजनसतपरिमण्डलो अनोतत्तदहो कण्णमुण्डदहो [अनवत्राप्य], मानसिक घबड़ाहट या उद्वेग का अभाव, रथकारदहो, छद्दन्तदहो कुणालदहो मन्दाकिनीदहो भय का अभाव, अविवेक, अत्रास - अग्गितो सलभो विय सीहपपातदहोति सत्ता महासरा पतिहिता, उदा. अट्ठ. 244; ततो अनुत्तासलक्खणं अनोत्तप्पं, अभि. ध. वि. 103; ... - उदक नपुं, तत्पु. स. [बौ. स. अनवतप्तोदक], अनवतप्त, अहिरिकबलं होति, अनोत्तप्पबलं होति, लोभो होति..... इमे नामक जलाशय या झील का जल - ... पूरेत्वा धम्मा अकुसला, ध. स. 365; ... अस्मिमानो आसयो, अनोत्तप्पं अनोतत्तउदकञ्च नागलतादन्तपोणञ्च गहेत्वा तेसं सन्तिक आसयो, उद्धच्चं आसयो, महानि. 379; पुब्बङ्गमा अकुसलानं आगन्वा आह, सु. नि. अट्ठ. 2.132; ... इतो पट्ठाय धम्मानं समापत्तिया अन्वदेव अहिरिकं अनोत्तप्पं .... इतिवु. अनोतत्तउदकेन अत्थे सति तुम्हाकं आगमनकिच्चं नत्थि, 26; कतमे छ? अस्सद्धियं, अहिरिक, अनोत्तप्पं, कोसज्ज .... वत्वा पक्कामि, ध, प. अट्ठ. 2.359; - त्तोदक नपुं.. मुट्ठस्सच्च, दुप्पञ्जतं - इमे खो, ... अनागामीफलं उपरिवत् - अनोतत्तोदक कझं उत्तम हरिचन्दनं पारा. सच्छिकातुन्ति, अ. नि. 2(2).124; बालदुकनिदेसे बालेसु अट्ठ. 1.53; - त्तोदकाज पु., तत्पु. स., अनवतप्त झील के अहिरिकानोत्तप्पानि पाकटानि, मूलानि च सेसानं जल को ढोने वाले पात्र या उन पात्रों के बोझ -- बालधम्मानं, ध. स. अठ्ठ. 412; - बल नपुं, तत्पु. स. अनोतत्तोदकाजेसु सङ्घस्स चतुरो अदा, म. वं. 5.84; [अनवत्राप्यबल], अनवत्राप्य-नामक अकुशल चैतसिक का अनोतत्तोदकाजं च गङ्गासलिलमेव च, म. वं. 11.30 - दह बल - अनोत्तप्पमेव बलं अनोत्तप्पबलं, ध. स. अट्ठ. 289; - पु., कर्म. स. [अनवतप्तहूद], अनवतप्त-नामक हिमालय मूलक त्रि.. ब. स. [अनवत्राप्यमूलक], अनवत्राप्य-नामक की एक झील या बड़ा जलाशय - सीतोदक उप्पलिनि सिवं अकुशल चैतसिक पर आधारित - दसमे अनोत्तप्पमूलका नदिन्ति अनोतत्तदहतो निक्खन्तनदिमुखं सन्धाय वदति, तयो, सु. नि. अट्ठ. 2.126; - मूलकसुत्त नपुं., स. नि. के वि. व. अट्ठ. 110; - दहउदक नपुं., तत्पु. स. एक धातुसंयुत्त के दूसरे वग्ग के सुत्त का शीर्षक, स. नि. [अनवतप्तहूदोदक]. अनवतप्त-नामक झील का जल - ..... 1(2).146-147; - प्पानुपतित त्रि०, तत्पु. स. सामणेर, सत्था अनोतत्तदहउदकेन पादे धोवितुकामो, कुटं [अनवत्राप्यानुपतित], बुरे कामों को निर्भय होकर करने के आदाय किर उदकं आहराति आह, ध. प. अट्ठ.2.360; - काम में आ पड़ा हुआ - ... अनोत्तप्पानुपतितन्ति? न हेवं दहपिट्ठ नपुं.. तत्पु. स. [अनवतप्तहूदपृष्ठ], अनवतप्त वत्तब्बे ..... कथा. 337. झील का तट या किनारा - एतस्मिं अनोतत्तदहपिढे अनोत्तप्पी/अनोतापी त्रि., अव + Vतप से व्यु., ओतापी पन्नगनागराजेन सद्धिं मम सङ्गामो भविस्सति, .... ध. प. का निषे. [अनवत्रापिन्], वह, जो पापकर्मों में उद्वेग या अट्ठ. 2.358; - पानीय नपुं., तत्पु. स. [अनवतप्तपानीय], मानसिक व्याकुलाहट का अनुभव न हीं करता है, बुरे कर्मों अनवतप्त-नामक झील का पानी - अनोतत्तपानीयत्थाय को करने में निर्भय एवं लज्जारहित रहने वाला, अविवेकी आगतो भविस्सति, ध. प. अट्ट, 2.357; - पिट्ठि स्त्री., तत्पु. - जिगुच्छति नाहिरिको, पापा गूथाव सूकरो, न भायति स., अनवतप्त झील का तट - ... अनोतत्ते कीळिस्सामा ति अनोत्तप्पी, सलभो विय पावको ति, अभि. ध. वि. 103; अनोतत्ततित्थं अगच्छिंसु, जा. अट्ठ.2.225; पाठा. तित्थं; - अहिरिको अनोत्तप्पी, तं जञा वसलो इति, सु. नि. 133; वापी स्त्री., कर्म. स., श्रीलङ्का के एक सरोवर का नाम - नास्स पापजिगुच्छनलक्खणा हिरी, नास्स उत्तासनतो अनोतत्तवापीतो भागीरथिं च निग्गतं. म. वं. 79.49; - सर उब्बेगलक्खणं ओत्तप्पन्ति अहिरिको अनोत्तप्पी, सु. नि. पु./न., कर्म. स., अनवतप्त नामक सरोवर - अनोतत्तस अट्ठ. 145; अहिरिकोयं, भिक्खवे, अनोत्तापी पमत्तो होति, अ. रासन्ने, रमणीये सिलातले, अप. 1.328; उदा. अट्ठ. 213. नि. 3(2),121; अहिरिको हि अनोतप्पी च न किञ्चि अकुसलं
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अनोत्थत
न करोति नामाति, ध॰ स॰ अट्ठ 412; अनोतप्पीति निब्भयो किलेसुप्पत्तियो कुसलानुप्पत्तितो च भयरहितो स. नि. अड्ड 2.146; अनोत्तापिस्स पुरिसपुग्गलस्स ओत्तप्पं होति परिनिब्बानाय... म. नि. 1.56; 58; परे अनोत्तापी भविस्सति, मयमेत्थ ओतापी भविस्सामा ति सल्लेख करणीयो म. नि. 1.54; अनोत्तप्पिनो अनोत्तप्पीहि सद्धिं संसन्दन्ति समेन्ति, स. नि. 1 (2).147. अनोत्थतत्र अव थर के भू. क. कृ. का निषे. [ अनवस्तृत ] वह, जो किसी के द्वारा ढक नहीं दिया गया है, वह जिसके ऊपर कुछ फैला नहीं दिया गया है, अनाच्छादित अनज्झापन्नोति तहाय अनोत्थतो
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अपरियोनद्धो दी. नि. अड. 3.178.
अनोत्थरण त्रि / नपुं, ओत्थरण का निषे [अनवस्तरण]. अनाच्छादन, फैलाव या विस्तार का अभाव, ऊपर में फैलाव का न रहना यथा हि लोके उदकोघेन अनोत्थरणड्डानं थलो ति युच्चति सद्द 2.438. अनोत्थरणीयत्त नपुं, अव + थर के सं. कृ. (ओत्थरणीय) के निषे का भाव [अनवस्तरणीयत्व], किसी के द्वारा आच्छादित अथवा दुष्प्रभावित न होने योग्य रहने की अवस्था एवं किलेसोधेन अनोत्थरणीयत्ता पब्बज्जा निब्बानञ्च थलेति दुच्चति, सद्द
2.438.
अनोदक त्रि. द्रष्ट अनुदक के अन्त (पीछे). अनोदरिक त्रि. ओदरिक का निषे [अनौदरिक] वह, जो पेटू न हो, अत्यधिक भोजन न करने वाला, सदा पेट को भरने में न लगा रहने वाला अनोदरिकस्स भावो अनोदरिकत्तं कथा 362; एवं अनोदरिकत्तं इच्चादि, सद. 3.791; त्त नपुं. भाव [ अनौदरिकत्व] पेटूपन से मुक्त होने की अवस्था, अधिक भोजनप्रियता का अभाव, अल्पाहारता
अप्पाहारो होति अनोदरिकत्तं अनुयुत्तो, अ. नि. 2 ( 1 ).112; अनोदरिकत्तन्ति न ओदरिकभावं अमहग्घसभावं अनुयुक्तो 31. f. 31. 3.41.
अनोदिस्स अ अब + दिस के पू. का. कृ. ( अवदिस्स / ओदिस्स) का निषे [ अनुद्दिश्य] किसी विशिष्ट व्यक्ति या वस्तु के सन्दर्भ के बिना, सामान्य रूप से, सार्वभौम रूप से अनोदिस्सेव पञ्ञते. यावदत्थेव भिक्खुना, विन. वि. 1199; अनोदिस्स अदस्सनेन अनभिसङ्घतं कोचि अन्तरायं करोति किं परस्स दिन्नेनाति, अयं अदिट्ठन्तरायो नाम, मि. प. 155.
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अनधि
अनोदिस्सक त्रि, ओदिस्सक का निषे. [अनुद्देसिक], किसी एक विशेष को उद्देश्य में न रखने वाला, सामान्य, सार्वभौम, अविशिष्ट प्रकृति वाला ओदिस्सकअनोविस्सकदिसाफरणानहि अञ्ञतरवसेन मेत्तं उग्गण्डन्तस्सापि व्यापादो पहीयति दी. नि. अड. 2.332; म. नि. अट्ठ. (मू०प०) 1 (1).293; कं नपुं. क्रि. वि. सामान्य रूप से, अविशिष्ट रूप से अनोदिस्सकमोपात खणतो होति दुक्कदं उत्त. वि. 125 भिक्खुना नाम सब्बसत्तेसु ओदिस्सकानोदिस्सकवसेन मेत्ता भावेतब्बा, जा. अड. 2.50. सत्था पञ्ञत्तासने निसीदित्वा अनोदिस्सकं कत्वा "कामवितक्कं वितक्कयित्था" ति अवत्वा ..... जा. अट्ठ. 4.102; - नय पु०. कर्म. स. [अनुद्देसिकनय], सामान्य - कथन की पद्धति, किसी एक धर्म को विषय न बनाकर सर्वसंग्राहक पद्धति एवरूपादिब्बसम्पत्ति नाम पुञ्ञकम्मवसेनेवाति ओदिस्सकनयेन वत्वा पुन अनोदिस्सकनयेन दस्सेन्ती "सुखं अकतपुञ्जानन्ति गाथमाह वि. व. अ. 77.
अनोधि क. त्रि०, ब० स० [ अनवधि], शा. अ. बिना किसी अवधि या सीमा वाला, सम्पूर्ण रूप वाला, ला. अ. अर्हत्व का वह मार्ग, जिसमें बिना किसी अवधि या सीमा के समस्त क्लेशों का अनवशेष रूप से प्रहाण कर दिया जाता है। ओधीति हेट्ठा तयो मग्गा वुच्चन्ति अरहत्तमग्गो पन किञ्चि किलेसे अनवसेसेत्वा पजहति तस्मा अनोधीति वुच्चति, म. नि. अड. (मू.प.) 1 ( 1 ). 182 ख. अ. क्र. वि., किसी प्रकार की सीमा निर्धारित न करके, अपवाद के बिना, सम्पूर्ण रूप में पूरी तरह से सब्बे सहारा अनोधिं कत्वा कुक्कुलाति, कथा. 177; छ, भिक्खवे, आनिसंसे सम्पस्समानेन अलमेव भिक्खुना सब्बसद्वारेसु अनोधि करित्वादुक्खसज्ञ उपद्वापेतुं अ. नि. 2(2).143: अनोखिं करित्वाति एतकाव सद्वारा अनिच्या न इतो परे ति एवं सीमं मरियाद अकत्वा, अ. नि. अट्ठ 3.143 - जिन त्रि. ओघिजिन का निषे पृथक्जन या अज्ञानी जन जिन्होंने असीम रूप से या पूर्णरूप से क्लेशों का प्रहाण नहीं किया है - चक्खुना रूपं दिस्वा उप्पज्जति उपेक्खा बालस्स मूळ्हरस पुथुज्जनस्स अनोधिजिनस्स अविपाकजिनस्स...... म. नि. 3.266; ध० स० अट्ठ 238; तस्स तस्स अपायगमनीयकिलेसोधिस्स अनवसेसता जितत्ता खीणासवों निप्परियायतो ओधिजिनो नाम तदभावतो पुथुज्जनो निप्परियायतोव अनोधिजिनो नाम, म. नि. टी. (उप. प.)
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अनोधिसो
320
अनोमदस्सी
अनोधिसो अ., क्रि. वि., अनोधि से व्यु. [अनवधितः], बिना 2. अनोमदरसी बुद्ध के एक अग्रश्रावक या प्रधान शिष्य का किसी अवधि या सीमा के, सम्पूर्ण रूप से, निस्सीम रूप से नाम - अनोमदस्सिस्स पन भगवतो चन्दवती नाम नगरं - ओधिसो अनोधिसो दिसाफरणवसेन मेत्तं भावेत्तस्सापि, म. अहोसि ... निसभो च अनोमो च द्वे अग्गसावका.... जा. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).293; अत्थि अनोधिसो फरणा अट्ठ. 1.46; ध. प. अट्ठ. 1.61; 3. एक चक्रवर्ती राजा का मेत्ताचेतोविमुत्ति, पटि. म. 304.
नाम - पञ्चपासकप्पम्हि अनोमो नाम खत्तियो, अप. 1. अनोप त्रि., [अनूप], जल से भरा अथवा जल के समीप 363; 4. एक तापस का नाम - पब्भारकूट निस्साय, अनोमो वाला क्षेत्र, नदी तट, कछार - इमा ता हरितानूपा, इमा नाम तापसो, अप. 1.386; 5. नपुं. एक नगर का नाम - नज्जो सवन्तियो, जा. अट्ठ. 4.320.
तस्स भगवतो अनोमं नाम नगरं अहोसि, जा. अट्ठ. 1.49. अनोपम' त्रि., ब. स. [अनुपम]. वह, जिसकी कोई उपमा अनोमगुण त्रि., ब. स. [अनवमगुण]. उत्तम गुणों वाला, न हो, लाजवाब, सर्वोत्तम - सिद्धत्थं लोकपज्जोतं, अप्पमेय्यं उत्तम गुणों से विभूषित - अनोमगुणो सो भवं गोतमो, दी. अनोपमं अप. 1.76; अनोपमस्स विरजस्स, भगवतो तस्स नि. अट्ठ. 1.232. सावकोहमस्मि, म. नि. 2.54; ... अनोपमाय बुद्धसिरिया अनोमज्जति अनु + अव + vमज्ज का वर्त. प्र. पु., ए. व. विरोचमानं दिस्वा, जा. अट्ठ. 1.98.
[अन्वमार्जयति, अन्वमाष्टि], ऊपर से नीचे की ओर मलता अनोपम नपुं.. व्य. सं., वेस्सभू बुद्ध के पिता राजा सुप्पतीत है या रगड़ता है, साफ या स्वच्छ करता है, धोता है, निर्मल की राजधानी का नाम - सुप्पतितस्स ओ अनोपमं नाम करता है - मागण्डियो परिब्बाजको सकानेव सुदं गत्तानि नगरं राजधानी अहोसि, दी. नि. 2.6; पाठा. अनोम. पाणिना अनोमज्जति, म. नि. 2.187; - ज्जामि उ. पु., अनोपमा स्त्री., व्य. सं., थेरीगा. की 152वीं तथा 153वीं ए. व. - सो खो ... तमेव कार्य अस्सासेन्तो पाणिना गत्तानि गीतियों की रचनाकी एक थेरी का नाम - पितु मे अनोमज्जामि, म. नि. 1.114; - न्त वर्त. कृ. -- तस्स पेसयी दूतं, देथ मयह अनोपम, थेरीगा. 152-53; तस्सा ... पाणिना गत्तानि अनोमज्जतो पूतिमूलानि .... म. नि. रूपसम्पत्तिया अनोपमाति नामं अहोसि, थेरीगा. अट्ठ. ___1.114; 314; भगवतो गत्तानि पाणिना अनोमज्जन्तो भगवन्तं 153-54.
एतदवोच, स. नि. 3.292. अनोमासनीय त्रि., अव + vभास के सं. कृ., ओभासनीय का अनोमदस्सिक त्रि., ब. स. [अनवमदर्शिक], दिखने में निषे. [अनवभासनीय], अप्रकाश्य, वह, जिसे प्रकाशित अत्यन्त सुन्दर, सौन्दर्य में निकृष्ट न दिखने वाला, उत्कृष्ट करना आवश्यक न हो, अवभासित नहीं करने योग्य - सौन्दर्य से युक्त - या महेसित्तं कारेय्य, चक्कवत्तिस्स .... तमसा विसंसद्वत्ता केनचि अनोभासनीया लोकसभावाभावतो राजिनो, नारी सब्बङ्गकल्याणी, भत्तु चानोमदस्सिका. वि. व. ..., उदा. अट्ठ. 120.
191; भत्तु चानोमदस्सिकाति सामिकस्स अलामकदस्सना अनोभासित त्रि., अव + भास के भू. क. कृ. का निषे. सातिसयं दरसनीया पासादिका, वि. व. अट्ठ. 83. [अनवभासित], अप्रकाशित, आभा या उजाला से रहित - अनोमदस्सी' त्रि., सर्वोत्तम ज्ञान से युक्त, सर्वोत्तम पद अप्पदीपेति पदीपचन्दसूरियअग्गीसु ऐकनापि अनोभासिते. अर्थात् प्रत्येकबोधि को देख चुके बुद्ध या प्रत्येकबुद्ध - न पाचि. अट्ठ. 191.
किरत्थि अनोमदस्सिसु, पारिचरिया बुद्धसु अप्पिका, जा. अनोम' त्रि., ओम का निषे. [अनवम], वह, जो तुच्छ या अट्ठ. 3.361; 1.224; तत्थ अनोमदस्सिसूति अनोमस्स निकृष्ट न हो, घटिया न हो, उत्कृष्ट, उत्तम, हर तरह से अलामकस्स पच्चेकबोधिञाणस्स दिद्वत्ता पच्चेकबुद्धा ... परिपूर्ण - अयं मग्गो निय्यानिको ति सयंसमत्तं करोति अनोमदस्सिनो नाम, जा. अट्ठ. 3.361.. परिपण्णं करोति अनोमं करोति.... महानि. 46; किं भोजनं अनोमदस्सी ' पु.. व्य. सं., क. सातवें बुद्ध का नाम - भुञ्जथ वो अनोमा, बलञ्च वण्णो च अनप्परूपाति, जा. सोभितस्स अपरेन सम्बुद्धो द्विपदुत्तमो, अनोमदस्सी अमितयसो, अट्ठ. 3.459.
तेजस्सी दुरतिक्कमो, बु. वं. 322; 323; 324; 366; अप. अनोम' पु.. व्य. सं., 1. सोभित बुद्ध के उपस्थापक या 2.52; जा. अट्ठ. 1,46; एकस्मिं येव कप्पे तयो बुद्धा निब्बत्तिंस सेवक का नाम - तस्स पन भगवतो सुधम्म नाम नगरं अनोमदस्सी पदुमो नारदोति ..., जा. अट्ठ. 1.45; 54; ध. अहोसि ... अनोमो नामुपट्ठाको .... जा. अट्ठ. 1.45; प. अट्ठ. 1.49; 61; 64; अप. 1; 42; 352; ख. म्यां-मार के
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अनोमनाम
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अनोरपार
सुधम्मपुर निवासी एक थेर का नाम - सुधम्मपुरे हि 7.163; दद्दल्लमानं सिरिया अनोमवण्णं, दस्सेस पत्तं समापत्तिलाभी अनोमदरसी नाम थेरो ... निसीदि, सा. वं. असितव्हयस्स, सु. नि. 691; महासनं देवमनोमवण्णं, यो 58(ना.); ग. श्रीलङ्का के हत्थवनगल्लविहार के एक थेर का सप्पिना असक्खि भोजेतुमग्गिं, जा. अट्ठ. 7.48. नाम - अनोमदस्सिनामस्स महासामिस्स धीमतो, चू. वं. अनोमविरियत्त नपुं., अनोमवीरिय का भाव. [अनवमवीर्यत्व], 86.38.
अत्यन्त श्रेष्ठ वीर्य या पराक्रम वाला होना - अनोमनिक्कमोति अनोमनाम त्रि., ब. स. [अनवमनाम], शा. अ. वह व्यक्ति, सय्हो नाम सो बुद्धो, अनोमविरियत्ता पन अनोमनिक्कमोति जो अपने सम्पूर्ण गुणों एवं ज्ञान की उत्तमता के आधार पर वुत्तो, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.92-93. अत्यधिक प्रसिद्ध हों, ला. अ. गौतम बुद्ध तथा पदुमुत्तर अनोमविहारी त्रि, [अनवमविहारी], उत्तम या श्रेष्ठ व्यवहार बुद्ध की एक उपाधि - अनोमनाम सत्थारं हन्द पस्साम करने वाला, निकृष्ट रूप में आचरण न करने वाला, घटिया गोतम, सु. नि. 153; तत्थ अनोमेहि अलामकेहि जीवन न जीने वाला - अनोमनिक्कमोति अनोमविहारी सब्बाकारपरिपूरेहि गुणेहि नामं अस्साति अनोमनामो, जा. सेट्टविहारी, दी. नि. अट्ठ. 3.101. अट्ठ. 1.173; अनोमनाम निपुणत्थदस्सिं, पञ्जाददं कामालये अनोमसत्त/अनोमकसत्त त्रि.. ब. स. [बौ. सं. अनोमसत्त्व, असत्तं, स. नि. 1(1).37; 272; पञ्चमे अनोमनामन्ति । शा. अ. अत्यन्त उत्कृष्ट जीव, परिपूर्ण प्राणधारी, ला. अ. सब्बगुणसमन्नागतत्ता अवेकल्लनाम, स. नि. अट्ठ. 1.76. बुद्ध, बोधिसत्त्व, प्रत्येक-बुद्ध, अर्हत् एवं चक्रवर्ती राजा - अनोमनिक्कम त्रि., ब. स., अत्यन्त उत्कृष्ट वीर्य अथवा तमत्थं विदित्वा अनोमसत्तानं कम्मं नाम एवं विसुज्झती ति पराक्रम से युक्त - पब्बजम्पि च अनोमनिक्कमो, अग्गत सत्था .... जा. अट्ठ. 5.407; - परिभोग त्रि., तत्पु. स. वजति सब्बपाणिनं, दी. नि. 3.116; दुरन्नयो सङ्घो अथोपि [बौ. सं. अनोमसत्त्वपरिभोग], परिपूर्ण जीवधारी, उत्तम उज्जयो, अपरो मुनि सय्हो अनोमनिक्कमो. म. नि. 3.1163; व्यक्ति द्वारा अनुभव किये जाने योग्य भोगसाधन या संपत्ति अनोमनिक्कमोति सय्हो नाम सो बद्धो, अनोमवीरियत्ता पन -- अनोमसत्तपरिभोग, रतनं तेन वुच्चतीति, खु. पा. अट्ठ. अनोमनिक्कमोति वुत्तो, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.92-93. 136; उदा. अट्ठ. 247; - सम्मत त्रि., कर्म. स., अन्य लोगों अनोमपञ त्रि., ब. स. [अनवमप्रज्ञ], महती प्रज्ञा वाला, द्वारा परमश्रेष्ठ प्राणी के रूप में माना गया व्यक्ति - परिपूर्ण या सर्वोत्तम प्रज्ञा वाला, परिपूर्ण प्रज्ञा वाला - तथागतो हि लोके अनोमक सत्तसम्मतान पुच्छाम सत्थारमनोमपञ्ज, दिद्वेव धम्मे .... सु. नि. 345; अनुपनिस्सयसम्पन्नानं ... छन्नं सत्थारानं ... अपरिभोगो, अनोमपञ्जन्ति ओम वुच्चति परित्तं लामक, न ओमपझं. खु. पा. अट्ठ. 140. अनोमपझं महापञ्जन्ति अत्थो, सु. नि. अट्ठ. 2.73; एवं अनोमा स्त्री., व्य. सं., क. नारद बुद्ध की माता का नाम - करोन्ति ये सद्दहन्ति, वचनं अनोमपञ्जस्स, थेरीगा. 524; ये अनोमा नाम जनिका नारदस्स महेसिनो, बु. वं. 327; ख. सदहन्ति वचनं अनोमपञस्सा ति, ... परिपुण्णपञ्जस्स एक नदी का नाम - बोधिसत्तो एकरतेनेव तीणि रज्जानि सम्मासम्बुद्धस्स वचनं ये..., थेरीगा. अट्ठ. 318.
अतिक्कम्म तिंसयोजनमत्थके अनोमानदीतीरं पापुणि, जा. अनोमबुद्धिपुत्त पु. तत्पु. स., सर्वोत्कृष्ट अथवा परिपूर्ण अट्ठ. 1.74; अड्वरत्तसमये छन्नसहायोव कण्टकमारुय्ह प्रज्ञा वाले बुद्ध का पुत्र अथवा पुत्रस्थानीय - न निक्खमित्वा अनोमानदीतीरे पब्बजित्वा, जा. अट्ठ. 4.1083; सम्मासम्बुद्धपुत्तोति मंधारेहि, ... न अनोमबुद्धिपुत्तो, ... में अनोमानदीतीरे खग्गेन केसे छिन्दित्वा, सु. नि. अट्ठ. धारेही ति ... सिक्खापच्चक्खानं होति, पारा. अट्ठ. 1.202. 2.100; - टि. इसी नदी को पार कर राजकुमार सिद्धार्थ अनोममानी त्रि., स्वयं को परिपूर्ण एवं अद्वितीय मान कर ने राजकीय वेश एवं अलङ्कारों आदि सारथि छन्न को सौंप अभिमान करने वाला - परिपुण्णमानीति परिपुण्णमानी दिए थे तथा उससे एवं कन्थक-नामक अश्व से अन्तिम समत्तमानी अनोममानीतिमानेन मत्तो परिपुण्णमानी, महानि. विदा ली थी. 219.
अनोरपार त्रि., ब. स., शा. अ. वह, जिसका इस ओर का अनोमवण्ण त्रि., ब. स. [अनवमवर्ण], अत्यन्त उत्तम स्वरूप तट तथा पार दिखलाई न पड़े, बिना ओर छोर वाला, या आकृति वाला, अत्यधिक सुन्दर - आजञ्जमारुरह असीम, अनन्त - पुन चपरं महाराज, महासमुद्दो महन्तो अनोमवण्णो, पक्कामि वेहायसमन्तलिक्खेति, जा. अट्ठ. अनोरपारो, मि. प. 292.
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अनोरमन्त
322
अनोवादक
अनोरमन्त, अनोरमित्वा द्रष्ट. ओरमति के अन्त... अनोवट त्रि०, ओवट का निषे॰ [अनावृत], शा. अ. बन्द अनोरोपक त्रि., ओरोपक का निषे. [अनवरोपक], नीचे न नहीं किया हुआ, खुला खुला, ला. अ. अवर्जित, अप्रतिषिद्ध रख देने वाला, न उतार फेंकने वाला - अनिक्खित्तधुरोति - अनोवटो भिक्खूनं भिक्खुनीसु वचनपथो, पाचि. 76; वीरियधुरस्स अनोरोपको, महानि. अट्ठ. 329.
चूळव. 419; अ. नि. 3(1).106; अनोवटोति अपिहितो अवारितो अनोरोपितधुर त्रि., ब. स. [अनवरोपितधुर], वह, जिसने अप्पटिक्खित्तो, पाचि. अट्ठ. 58. बोझे या भार को नहीं उतार फेंका हो, वीर्यवान, अध्यवसायी अनोवट्ट/अनोवट्ठ त्रि., अव + Vवस्स के भू. क. कृ. का - अनिक्खित्तधुरो कुसलेसु धम्मेसूति कुसलेसु धम्मेसु । निषे. [अनववृष्ट], वह क्षेत्र या प्रदेश, जहां पर वर्षा नहीं
अनोरोपितधुरो अनोसक्कितवीरियो, अ. नि. अट्ठ. 3.2. हुई है, बिना वर्षा वाला समय या स्थल - अनोवढेन उदक, अनोरोहितधुर त्रि., ब. स., उपरिवत् - अनिक्खित्तधुरोति महिया उब्भिज्जि तावदे, बु. वं. 300; जा. अट्ठ. 1.24;
अनोरोहितधुरो अनोसक्कितवीरियो, उदा. अट्ठ. 190. अनोवढेनाति अनोवटे, भुम्मत्थे करणवचनं, बु. वं. अट्ठ. अनोलग्ग त्रि., अव + Vलग के भू. क. कृ. का निषे. 116. [अनवलग्न], अलिप्त, अप्रभावित, राग, तृष्णा आदि में मन अनो वदितु काम त्रि., ओवदितुकाम का निषे. को लिप्त न करने वाला - अकम्पितो अनोलग्गो, [अनववदितुकाम], अववाद की शिक्षा देने की इच्छा न एवमेवमदासह, चरिया. 372.
रखने वाला - ते पुत्तेन मिगमाया उग्गहिताति वत्वा इदानि अनोलीन त्रि., ओलीन का निषे. [अनवलीन], वह, जो पितं अनोवदितुकामोव हुत्वा, इमं गाथमाह, जा. अट्ठ. 1.162. संकुचित चित्त वाला न हो, उदारचित्त, निम्न मनोवृत्ति न अनोवदियमान त्रि., अव + Vवद के कर्म. वा. के वर्त. कृ., रखने वाला - अकम्पितो अनोलीनो, ददेय्य दानमुत्तम, आत्मने का निषे., वह, जिसे अववाद की शिक्षा प्राप्त नहीं चरिया. 372; अनोलीनो विहरति, उपसन्तो सदा सतो ति, हो रही है, अववाद-शिक्षा न पा रहा भिक्षु - तेन खो पन मि. प. 363; - मानस त्रि., ब. स. [अनवलीनमानस], वह, समयेन सद्धिविहारिका अनुपज्झायका अनाचरियका जिसका मन संकुचित या संकीर्ण नहीं है, उदार मन वाला अनोवदियमाना, महाव. 50. - असज्जित्वा अबज्झित्वा अनोलीनमानसो हुत्वा गिरि.... अनोवस्स त्रि., ओवस्स का निषे. [अनववर्ष, निरावर्ष], वर्षा जा. अट्ठ. 7.347; - विरिय त्रि., ब. स. [अनवलीनवीर्य], के जल से अप्रभावित रहने वाला, बराबर सूखा बना रहने सुदृढ़ पराक्रम वाला, उद्योगी, अशिथिल - एवं त्वम्पि ... वाला, वर्षा-रहित - घटिकारस्स कुम्भकारस्स आवेसनं दळहवीरियो अनोलीनवीरियो समानो बुद्धो .... जा. अट्ठ. अनोवस्सं आकासच्छदनं अहोसि, मि. प. 210; देवम्हि 1.29; - वुत्तिक त्रि., ब. स. [अनवलीनवृत्तिक], अशिथिल वस्समानम्हि, अनोवस्सं भवं अका, जा. अट्ट. 5.308; सचे अथवा दृढ़ जीवनवृत्ति वाला, उद्योगी एवं अशिथिल मनोवृत्ति आरअकेनापि, अनोवस्से च नो सति, विन. वि. 1066; - वाला - ... अनोलीनवृत्तिको च होति असाथलिको, म. नि.. क त्रि., अनोवस्स से व्यु. [अनववर्षक], उपरिवत् - यो 1.264; अप्पमत्तोति ... अद्वितकारी अनोलीनवुत्तिको देसो अनोवस्सको होति, चूळव. 354; तेन हि घटिकारस्स अनिक्खित्तच्छन्दो अनिक्खित्तधुरो कुसलेसु धम्मेसु, महानि. कुम्भकारस्स आवेसनं अनोवस्सक अहोसि... वचनं पच्छा, 42; - दुत्तिता स्त्री॰, भाव. [अनवलीनवृत्तिता], कर्तव्य मि. प. 210; तिणपण्णच्छदनं अनोवस्सक मण्डलमाळोति पालन के लिये शिथिलता - अनोलीनवृत्तिताति अलीनजीविता, वदन्ति, उदा. अट्ठ. 163; पाचि. 373. अलीनपवत्तिता वा, ध. स. अट्ठ. 426; ... अनोलीनवृत्तिता अनोवस्सिक त्रिं., [अनववर्षिक], वर्षा से सर्वथा अप्रभावित अनिक्खित्तछन्दता अनिक्खित्तधुरता आसेवना भावना स्थान - परित्तञ्च अनोवस्सिक, महा च मेघो उग्गतो, बहुलीकम्म, ध. स. 1379.
महाव. 239. अनोलेकेन्त त्रि., अव + Vलोक के वर्त. कृ. का निषे.. अनोवादक त्रि., ओवादक का निषे. [अनववादक], क. वह
अवलोकन करता हुआ, द्रष्ट. ओलोकेति के अन्त.. व्यक्ति, जिसका कोई मार्गदर्शक न हो या जिसे करने योग्य अनोळारिकसभावता स्त्री.. भाव. ओळारिकसभावता का एवं न करने योग्य की शिक्षा न मिली हो - अनोवादका निषे., वह, जो स्थूल नहीं है, सूक्ष्मता - दारुणा न होन्तीति मनुस्सा फरुसा अहेसु, जा. अट्ठ. 3.266; ख. परामर्श या अनोळारिकसभावताय सुखुमाति वुत्ता, उदा. अट्ठ. 192. मार्गदर्शन को ग्रहण न करने वाला, अप्रशिक्षित - तस्स
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अनोवादकर
323
अनोहितसोत
अनोवादकस्स मा चिन्तयि, जा. अट्ठ. 1.162; न करोति अनोसक्कितमानस त्रि., ओसक्कितमानस का निषे., ब. सासनन्ति अनसिटुं न करोति, दुब्बचो अनोवादको होति, स., मन की शिथिलता से रहित, प्रबल उत्साहभाव से मुक्त जा. अट्ठ. 1.235; -- त्त नपुं, अनोवादक का भाव. - तेनाह अनोसक्कितमानसो'ति, पहानत्थायाति [अनववादकत्व], उचित मार्गदर्शन का अभाव - मिगालोपो समुच्छिन्नत्थाय, अ. नि. अट्ठ. टी. 3.2; - ता स्त्री.,
अनोवादकत्ता पितु वचनं अकत्वा .... जा. अट्ठ. 3.223. भाव., प्रबल उत्साहशीलता - आरद्धवीरियोति अनोवादकर त्रि., ओवादकर का निषे. [अनववादकर], दी। पग्गहितवीरियो अनोसक्कितमानसो, अ. नि. अट्ठ. 3.2; धुरं गयी शिक्षा अथवा मार्गदर्शन के अनुसार आचरण न करने न निक्खिपति, ... अनोसक्कितमानसतं आवहति, महानि. वाला, उच्छृखल - .... दुब्बचो वा अनोवादकरो, अट्ठ. 332. येनकामंगमो वा आचरियं अनापुच्छाव यत्थिच्छति, विसुद्धि. अनोसक्कितवीरिय त्रि., ओसक्कितवीरिय का निषे., ब. 1.112; अनोवादकरे दिजेति तस्मिं भिगालोपे ... गन्त्वा स., प्रबल वीर्य या पराक्रम वाला, उद्योगी, उत्साही - विनासं पापुणिंसु, जा. अट्ठ. 3.224.
अनिक्खित्तधुरोति अनोरोहितधुरो अनोसक्कितवीरियो, उदा. अनोवादी त्रि., ओवादी का निषे. [अनववादी], वह, जिसे अट्ठ. 190; अनिक्खित्तधुरो कुसलेसु धम्मसूति ... परामर्श देने अथवा आज्ञा देने की आवश्यकता नहीं है, अनोरोपितधुरो अनोसक्कितवीरियो, अ. नि. अट्ठ. 3.2. करने अथवा न करने की अववाददेशना न देने वाला - अनोसक्कियमान त्रि., अव + सक्क के कर्म. वा. में वर्त. तत्थाहं अनोवादी अनुपवादी घासच्छादनपरमो विहरामि, म. कृ. [अनपसृप्यमान], वह, जो किसी के द्वारा विचलित या नि. 2.360; अनोवादी अनुपवादीति ताता, कसथ, वपथ, अनुत्साहित नहीं किया जा रहा है - मानस त्रि., ब. स. वणिप्पथं, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.28.
[अनपसृप्यमानमानस], वह, जिसका मन किसी के भी द्वारा अनोवुट्ठ/अनोवट्ठ त्रि., ओवुट्ठ का निषे., द्रष्ट. विचलित या उत्साहहीन नहीं बनाया जा सकता है - अनोवट्ट/अनोवुट्ठ के अन्तः, ऊपर.
अनिवत्तमानसन्ति अनोसक्कियमानमानसं, बु. वं. अट्ठ. 287. अनोसक्कन नपुं., ओसक्कन का निषे., अव + सक्क से अनोसारित त्रि., ओसारित का निषे., वह भिक्षु, जिसे सङ्घ में व्यु. [अनपसर्पण, अनपष्वक्षण], शा. अ. पीछे की ओर पुनः प्रवेश की अनुमति नहीं मिली है, सङ्घ से बहिष्कृत एवं कदम न खींचना, वापस न भागना, ला. अ. पराजित न पुनर्वास की अनुमति को अप्राप्त भिक्षु - अकटानुधम्मो नाम होना, हिचकिचाहट न करना - एवं अनोसक्कनं समग्गभावेन उक्खित्तो अनोसारितो, पाचि. 183. अमेज्जचित्तानं, वीरियञ्च परिसपरक्कमो च थिरो अहोसि, अनोसित त्रि., अव + सि के भू, क. कृ. का निषे. जा. अट्ठ. 3.6; - ता स्त्री., ओसक्कनता का निषे [अनवश्रित], क. वह, जो किसी का आश्रय या शरणस्थल [अनपसर्पणत्व], पीछे की ओर कदम न खींचना, पराजित नहीं है, ख. अड्डा या आश्रय न बना लेने वाला, अपने प्रसार न होना -- अप्पटिवानिता च पधानस्मिन्ति अरहत्तं अपत्वा का क्षेत्र न बनाने वाला - इच्छं भवनमत्तनो, नाबसासिं पधानस्मिं अनिवत्तनता अनोसक्कनता, ध. स. अट्ठ. 100; - अनोसितं, सु. नि. 220; नादसासिं अनोसितन्ति किञ्चि ठानं भाव पु., उपरिवत् - ... छन्न बोज्झङ्गानं जरादीहि अनज्झावुत्थं नादक्खिं सु. नि. अट्ठ. 2.258. अनोसक्कनअनतिवत्तनभावसाधको..., विभ. अट्ठ. 296. अनोसीदन नपुं.. अव+/सद से व्यु. (अवसीदन) का निषे. अनोसक्कना स्त्री., ओसक्कना का निषे. [अनपसर्पण], [अनवसीदन], शा. अ. नहीं डूबना, ला. अ. निरुत्साह उपरिवत - तत्थ अप्पटिवानिताति अप्पटिक्कमना या विषाद से ग्रस्त न होना; - पच्चुपट्ठान नपुं.. ब. स. अनोसक्कना, अ. नि. अट्ठ. 2.5.
[अनवसीदनप्रत्युपस्थान], उत्साह या वीर्य के भाव से अनोसक्कमान त्रि., अव + सक्क के आत्मने, वर्त. कृ., प्रकाशित होने वाला - तं पग्गहलक्खणं, उपत्थम्भनरसं.
ओसक्कमान का निषे. [अनपसर्पणत्], अपसरण अथवा । अनोसीदनपच्चुपट्टानं, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).90-91. पीछे की ओर पलायन न करता हुआ, पराजित न होता अनोहितसोत त्रि., ब. स., ओहितसोत का निषे. हुआ, विचलित न होता हुआ - दासिया वुत्तगाथाय । [अनवहितश्रोत], कान लगाकर ध्यान से न सुनने वाला, सब्बसमागतानन्ति सब्बेसं ... अविकम्पमाना अनोसक्कमाना, किसी बात को ध्यान से न सुनने वाला - अनोहितसोतो, जा. अट्ठ. 4.277.
भिक्खवे, अनुपनिसो होति. अ. नि. 1(1).228.
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अन्त
324
अन्तकर
अन्त' पु./नपुं.. [अन्त], अनेक अर्थों में प्रयुक्त, समीप, स. उ. प. के रूप में पदपूरणार्णक रूप में प्राप्त, यदा-कदा छोर, आखिरी किनारा, भीतर, समाप्ति, मृत्यु आदि प्रमुख पूर्णता समस्तता के अर्थ का सूचक - अन्तो सेदस्स अर्थ -- पदपूरणसमीपउम्मग्गादीसुपि हि अन्तसद्दो दिस्सति, अत्थिता वा नत्थिता वा कथं सक्का आतुन्ति कडं करेय्य, म. लीन. (दी.नि.टी.) 1.125; तत्थ अन्तोति अयं सद्दो नि. अट्ठ (मू.प.) 1(2).177; स. उ. प. के रूप में कम्म. (कर्म अन्तअब्भन्तरमरियादलामकपरभागकोट्ठासेसु दिस्सति, दी. की परिपूर्णता), सुत्त. (सम्पूर्ण सुत्तपिटक), वन (सम्पूर्ण वनक्षेत्र), नि. अट्ठ. 1.89; अन्तो नित्थ समीपे चावसाने पदपूरणे, आदि में ला. अ. में सम्पूर्णता या समाप्ति का सूचक. अभि. प. 791; प्रयोगगत अर्थ- क. किसी भी वस्तु का अन्त त्रि., [अन्त्य], शा. अ. सबसे अन्त में आने वाला, सब से अन्तिम किनारा या आखिरी छोर, असन्तुलित दृष्टि वह, जिसका अपना कोई अन्त, छोर या सीमा न हो (प्रायः (कोटि के पर्याय के रूप में प्रयुक्त) - कायबन्धनस्स अन्तो निषे. अनन्त में इसी अर्थ में प्राप्त) - तथागतो होति जीरति .... चूळव. 257; इदानि पनिमस्स मूलपरियायस्स अनन्तपञो. सु. नि. 472; अनित्थयन्तो परियन्तो पन्तो च अन्तं वा कोटिं वा न जानाम न पस्साम, म. नि. अट्ट. पच्छिमान्तिमा, अभि. प. 714; ला. अ. घटिया, सब से नीचे (मू.प.) 1(1).61; ख. सीमा, पार्श्वभाग, भीतर, अन्दर - आने वाला, तुच्छ - अन्तो नित्थि समीपे चावसाने पदपूरणे, एकमन्तं निसिन्नो खो मिलिन्दो राजा आयस्मन्तं नागसेनं अभि. प. 791; अन्तमिदं भिक्खवे, जीविकानं यदिदं पिण्डोलयं एतदवोच, मि. प. 28; ... अन्तं ओरतो भोगं कत्वा चीवर इतिवु. 64; स. नि. 2(1).86. निक्खिपितब्बं महाव. 52; ते थोकयेव ओदातं अन्ते आदियित्वा अन्त नपुं., [आन्त्र], आंत, छोटी आंत, बड़ी आंत - अन्तं तथेव सुद्धकाळकानं ... कारापेन्ति, पारा. 342; ग. एक अन्तगुणं उदरियं करीसं मत्थलुङ्ग खु. पा. (पृ.) 2; अन्तन्ति दूसरे से विरुद्ध दो बातें, दो प्रतिद्वन्द्वी या परस्पर, विरुद्ध पुरिसस्स द्वत्तिंस हत्था, इत्थिया ... विभ. अट्ठ. 229; तत्थ धर्म - द्वेमे, भिक्खवे, अन्ता पब्बजितेन न सेवितब्बा, महाव. अन्तस्स पूरो अन्तपूरो, सु. नि. अट्ट, 1.209; अथरस अन्तानि 13; एते खो, भिक्खवे, उभो अन्ते अनुपगम्म, मज्झिमा परिवत्तित्वा मुखेन निक्खमनाकारप्पत्तानि विय अहेसु. जा. पटिपदा तथागतेन अभिसम्बुद्धा, महाव. 13; एते ते. कच्चान, अट्ठ. 1.76. उभो अन्ते अनुपगम्म मज्झेन तथागतो धम्म देसेति, स. नि. अन्तक' पु., [अन्तक], शा. अ. अन्त कर देने वाला, मृत्यु, 1(2).17; वीततण्हो पुरा भेदा, पुबन्तमनिस्सितो, सु. नि. मरण, ला. अ. ब्राह्मण-परम्परा में यम तथा बौद्ध-परम्परा 855; पुबन्तमनिस्सितोति अतीतद्धादिभेदं पुब्बन्तमनिस्सितो, में मार - अन्तका वसवत्ती च पापिमा च पजापति, अभि. प. सु. नि. अट्ठ. 2.241; घ. सीमा, परिमाण, निश्चित संख्या, 43; अतित्त व कामेसु, अन्तको कुरुते वसं, ध. प. 48; ओर-छोर - नत्थि अन्तो कुतो अन्तो, न अन्तो पटिदिस्सति, अन्तको कुरुते वसन्ति मरणसङ्घातो अन्तको कन्दन्तं परिदेवन्तं जा. अट्ठ. 3.40; नत्थि अन्तोति ... कालपरिच्छेदो नत्थि, गहेत्वा गच्छन्तो अत्तनो वसं पापेतीति अत्थो, ध. प. अट्ठ जा. अट्ठ. 3.41; ..., पविसन्तानञ्च निक्खमन्तानञ्च अन्तो 1.206; एवं जानाहि पापिम, निहतो त्वमसि अन्तका ति, नत्थि, .... जा. अट्ठ. 1.473; ङ.(1) समाप्ति, जीवन का थेरीगा. 59; ततो एव बलविधमनविसयातिक्कमनेहि अन्तक अवसान या मृत्यु - तस्स तस्सेव पन्हस्स, अहं अन्तं करोमि लामकाचार, मार त्वं मया निहतो बाधितो असि.... थेरीगा. तेति, सु. नि. 517; एतम्हि तुम्हे पटिपन्ना, दुक्खस्सन्तं अट्ठ. 71. करिस्सथ, ध. प. 275; निधनो नित्थियं नासो कालोन्तो अन्तक नपुं., परिसमाप्ति, क्रम-विच्छेद - दिसा दसविधा चवनं भवे, अभि. प. 404; अन्तेनाति मरणेन, स. नि. अट्ठ लोके, यायतो नत्थि अन्तक, अप. 1.6. 1.74; ङ.(2). अन्तिम लक्ष्य या निर्वाण - यो वेदि अन्तक नपुं., आंत, केवल स. उ. प. में ही प्रयुक्त - द्वे जातिमरणरंस अन्तं. सु. नि. 471; जातिमरणस्स अन्तं नाम कायबन्धनानि - पट्टिकं, सूकरन्तकान्ति, चूळव. 257. निब्बानं वुच्चति, सु. नि. अट्ठ. 2.121; असङ्घतं अन्तं अनासवं, अन्तकम्म नपुं.. कर्म. स. [अन्तकर्मन], अन्त कर देना, सच्चञ्च पारं निपुणं सुदुद्दसं. स. नि. 2(2).343; पाठा. समाप्त या विनष्ट कर देना - सो अन्तकम्मनि, सद्द. 2.504; अनतं; च. व्याकरण के विशेष सन्दर्भ में स. उ. प. के रूप सा अन्तकम्मनि, सद्द. 2.489. में प्रयुक्त, असमान., एकवचन., ततिय, तद्धित., धात्व., अन्तकर त्रि., [अन्तकर], अन्त कर देने वाला, उच्छेद या निग्गहित., बहुवचन., व्यञ्जन, सर. के अन्त. द्रष्ट; छ. निरोध कर देने वाला - सद्धाय घरा निक्खम्म, दुक्खस्सन्तकरो
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अन्तकरण
भव. सु. नि. 339 जुतिमा मुतिमा पहूतपञ्ञ दुक्खस्सन्तकरं सु. नि. 544; जातिमरणस्स पारंग, दुक्खरसन्तकरा भवामरो सु. नि. 32 मानञ्च पहाय असेस, विज्जायन्तकरो समितावी ति., स. नि. 1 (1). 217; विज्जायन्तकरोति विज्जाय किलेसानं अन्तकरो, स. नि. अट्ठ. 1.238; स. उ. प. के रूप में जीवित दुक्ख के अन्त, द्रष्ट.. अन्तकरण नपुं० [अन्तकरण] अन्त कर देना, विनाश, उच्छेद या निरोध अन्तकिरियायाति वट्टदुक्खस्स अन्तकरणत्थाय, सु. नि. अट्ठ. 2.201. अन्तकिरिया स्त्री. कर्म. स. [अन्तक्रिया ], अन्त करा देने वाली क्रिया, उच्छेद, निरोध, विनाशअप्पेव नाम इमस्स केवलस्स दुक्खक्खन्धस्स अन्तकिरिया पञ्ञयेथाति, इतिवु. 64; न खो पनाहं आवुसो अप्पत्वा लोकस्स अन्तं दुक्खस्स अन्तकिरियं वदामि स. नि. 1 (1) 76: दुक्खस्सन्तकिरियाय, सा वे याचानमुत्तमाति सु. नि. 456: अथवा ते अन्तकिरियाय से वे जातिजरूपगा सु. नि. 730 अन्तकिरियायाति वहदुक्खस्स अन्तकरणत्थाय, सु. नि अट्ठ. 2.201.
अन्तक्खर पु. कर्म. स. [ अन्त्याक्षर] अन्त में आया हुआ अक्षर या वर्ण - अन्तक्खरतो पुब्बक्खरं उपदा, अन्तक्खरतो पुब्बक्खर उपेक्खासज्ञ भवति, सर. 3.861. अन्तगण्ठाबाध पु०, तत्पु० स०, आंत या आहारनली में आई हुई मोच, आंत की ग्रन्थि से सम्बन्धित बीमारी तेन खो पन समयेन बाराणसेय्यकस्स सेट्ठिपुत्तस्स मोक्खचिकाय कीळन्तरस अन्तगण्ठाबाधो महाव. 363. अन्तगण्ठि पु. तत्पु. स. [आन्त्रग्रन्थि] आंत में उभरी हुई गांठ - अन्तगण्ठिं विनिवेठेत्वा अन्तानि पटिपवेसेत्वा उदरच्छविं सिब्बित्वा आलेपं अदासि, महाव. 364.
325
अन्तगत त्रि., [अन्तगत], अन्त तक गया हुआ, पार किया हुआ, पूरी तरह से कार्य को किया हुआ सो पारं गतो पारप्यत्तो अन्तगतो अन्तप्पत्तो कोटिगतो - अभयप्पत्तो . निब्बानप्पत्तो, महानि० 15; अन्तगतोति मग्गेन सङ्घारलोकन्तं गतो. महानि, अट्ठ. 65. दुक्खन्तगुनाति वट्टदुक्खस्स अन्तगर्तन सु. नि. अ. 2.98: भवन्तीति इमं गाथं महासत्तो अन्तोगतमेव भासति जा. अड. 5.198 त नपुं. अन्तगत से व्यु., भाव. [अन्तगतत्व], किसी काम या स्थान के अन्त तक जाना यो वट्टदुक्खस्स तीहि परिञ्ञाहि अन्तगतत्ता अन्तगू A. 3.2.119. अन्तगमक त्रि. [अन्तगमक] अन्त या परिसमाप्ति कर देने ओसानेत्वेव व्यारुद्धे, दिस्वा मे अरती अहूति
वाला
योबञ्ञादीनं ओसाने एवं अन्तगमके एव विनासके अरति मे अहोसि, सु. नि. अड. 2.258.
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अन्तजन
अन्तगुण नपुं तत्पु. स. [आन्त्रगुण] आंत की नली, आहार नली अन्त अन्तगुणं उदरियं करीस मत्थलुङ्ग खु. पा. (पृ.) 3; ततो परं अन्तोसरीरे अन्तन्तरे अन्तगुणं वण्णतो सेतं दकसीतलिकमूलवण्णन्ति ववत्थपेति, खु. पा. अ. 43; अयमेतस्स सभागपरिच्छेदो, विसभागपरिच्छेदो पन केससदिसो एवाति एवं अन्तगुणं वण्णादितो ववत्यपेति खु. पा. अड. 44 - भाग पु० तत्पु० स० [आन्त्रगुणभाग ], आंत की नली का एक भाग परिच्छेदतो अन्तगुणं अन्तगुणभागेन परिच्छिन्नन्ति ववत्थपेति, खु. पा. अट्ठ. 44. अन्तगू' त्रि अन्त कर देने वाला, उच्छेद या नाश कर देने वाला यदन्तगू वेदगू यज्ञकाले यस्साहुतिं लभे तस्सिति भूमि, सु. नि. 462 तत्थ यदन्तगृति यो अन्तगू, ओकारस्स अकारो सु. नि. अड्ड. 118 अन्तगुसि पारगू दुक्खस्स, अरहासि सम्मासम्बुद्धो खीणासवं तं मत्र सु. नि. 544;
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अन्तगुसि पारगू दुक्खस्सा ति सु. नि. अट्ठ. 2.143. अन्तगू' पु०, व्य. सं., मृत्यु की ओर ले जाने वाले मार के लिये प्रयुक्त उपाधि कण्होति यो सो मारो कण्हो अधिपति अन्तगू नमुचि पमत्तबन्धु महानि, 369; मरणं पापनतो अन्तगू महानि, अड. 374.
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अन्तग्गत त्रि.. [अन्तर्गत ] किसी वर्ग, समूह या श्रेणी के भीतर आने वाला, अन्तर्निविष्ट अन्तग्गते तु परियापन्नं अन्तोगधो गधा, अभि. प. 742. अन्तग्गाहिका स्त्री०, दिट्ठि के विशे० के रूप में प्रयुक्त [ अन्तग्राहिका ] शाश्वतवाद एवं उच्छेदवाद जैसे अन्तों को ग्रहण करने वाली दृष्टि, मिथ्यादृष्टि - मिच्छादिट्टिको होति अन्तग्गाहिकाय दिद्रिया समन्नागतो. दी. नि. 3.32; अन्तग्गाहिकाति सायेव दिट्टि उच्छेदन्तस्स गहितत्ता अन्तग्गाहिका ति दुच्चति दी. नि. अड. 321 बसवत्युका अन्तग्गाहिका दिडि. महानि. 81; अन्तग्गाहिकादिद्वीति सस्तो लोको इदमेव सच्च, गहेत्वा पवत्ता दिट्टि, महानि. अड. 192.
अन्तच्छिन्न त्रि०, ब० स० [ अन्तछिन्न ], ऐसा वस्त्र या चिथड़ा, जिसके किनारे फटे हुए पंसुकूलन्ति सोसानिक, पायणिक... अन्तछिन्नं दसछिन्नं... देवदत्तियन्ति तेवीसति पंसुकूलानि वेदितब्बानि, अ. नि. अट्ठ. 2.270. अन्तजन पु०, कर्म. स. [ अन्तः जन], घर के भीतर के लोग, अपने लोग, केवल स. उ. प. के रूप में ही प्राप्त;
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अन्तजातक
326
अन्तमन्त
सुसङ्गहितन्तजन त्रि.. ब. स., दान आदि द्वारा अपने जनों ... मद्दन्तो विय अन्तन्तेन चरित्वा परेपातरासमेव आगन्त्वा को ठीक से रखने वाला - सुसङ्गहितन्तजनोति, तात, यस्स अत्तनो सम्पादितं भत्तं भूञ्जितुं समत्थो, जा. अट्ठ. 1.74; हि रओ अत्तनो अन्तोजनो अत्तनो वलञ्जनकपरिजनो च ... भगवन्तं उपसङ्कमित्वा अन्तन्तेनेव चरन्तो सब्बरत्ति दानादीहि असङ्गहितो होति, जा. अट्ठ. 5.113.
नानप्पकार..., उदा. अट्ठ. 53. अन्तजातक नपुं., एक जातक का नाम, जा. अट्ठ. ___ अन्तपटल नपुं., तत्पु, स. [आन्त्रपटल]. आंत का फैलाव 2.364-65.
या विस्तारण - उदरं नाम उभतो निप्पीळियमानस्स अन्तति अति का वर्त., प्र. पु., ए. व. [अन्तति], बांधता है अल्लसाटकस्स मज्झे सजातफोटकसदिसं अन्तपटलं, - अति बन्धने, अन्तति, अन्तं, सद्द. 2.360.
..., खु. पा. अट्ठ. 44. अन्ततो अ., क्रि. वि. [अन्ततः], अन्त से लेकर, आखिरी अन्तपूर त्रि., तत्पु. स. [आन्त्रपूर्ण], आंत या अंतड़ी से भरा छोर से- ... अन्ततो पन मज्झतो वा पट्ठाय आदि पापेत्वा हुआ - अन्तपूरो उदरपूरो, यकनपेळस्स वत्थिनो, सु. नि. अवुत्तत्ता इतो अ नत्थेनेत्थ पटिलोमता न युज्जति, उदा. 197; तत्थ अन्तस्स पूरो अन्तपूरो, सु. नि. अट्ठ. 1.209; जा. अट्ठ. 38.
अट्ठ. 1.150. अन्तद्वय नपुं., द्वि. स. [अन्तद्वय], दो अन्त, दार्शनिक वादों अन्तप्पत्त त्रि., तत्पु. स. [अन्तप्राप्त], अन्त को पा चुका, या अवधारणाओं के दो छोर - लोकुत्तरकुसलसम्मादिट्ठियेव छोरों तक पहुंच चुका, फल को प्राप्त कर चुका, जीवन के हि अन्तद्वयमनुपगम्म उजुभावेन गतत्ता, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) अन्त या मृत्यु को प्राप्त कर चुका - सो पारंगतो पारप्पत्तो 1(1).204; तेसं यदग्गेन ततो अन्तद्वयतो संसारसुद्धि न अन्तप्पतो कोटिगतो कोटिप्पत्तो परियन्तगतो .... महानि. होति. उदा. अट्ठ. 287; - यूपनिस्सय पु. [अन्तद्वयोपनिश्रय], 15; अन्तप्पत्तोति तमेवं कोकन्तं फलेन पत्तो, महानि. अट्ठ. दो प्रकार के अन्तों का आश्रय या उनपर दृढ़ विश्वास - 65. एवं अन्तद्वयूपनिस्सयेन तण्हाअविज्जानं दिहिवड्वकता अन्तबिल नपुं., तत्पु. स. [आन्त्रबिल], आंत की नली, वेदितब्बा, उदा. अट्ठ. 287; - निपतित त्रि., तत्पु. स. भोजन जाने वाली नली, आहारनलिका - एवमेव यं किञ्चि [अन्तद्वयनिपतित], दो प्रकार के अन्तों के जाल में फंसा आमासये पतितं ... आपज्जित्वा अन्तबिलेन ओगळित्वा हुआ - यथा हि तेसं समणब्राह्मणानं ... नत्थी ति ओमहित्वा ... हुत्वा तिट्ठति, खु. पा. अट्ठ. 45. अन्तद्वयनिपतितानंतण्हादिहिवसेन सम्परितसितविष्फन्दितमत्तं अन्तभार पु., कुछ संस्करणों में अन्नभार का अप., अन्न का उदा. अट्ठ. 172; - वन्तु त्रि.. [अन्तद्वयवत्], दो विभिन्न भार - सेय्यथिदं अन्नभारो वरधरो सकुलुदायी च परिब्बाजको विभक्ति-प्रत्ययों के अन्त से युक्त - यस्मा पन मयं ... परिब्बाजका, अ. नि. 1(2).204; पाठा. अन्तभार. पाळिनयानुसारेन अन्तद्वयवतो आपसहस्स पुल्लिङ्गतं अन्तभूत त्रि., [अन्तर्भूत], अन्त में आया हुआ, अन्तिम - नपुंसकलिङ्गत्तञ्च विदधाम, सद्द. 1.116; - वज्जन नपुं.. णम्हि पच्चये परे रञ्ज इच्चेतस्स धातुस्स अन्तभूतस्स तत्पु. स. [अन्तद्वयवर्जन], दो प्रकार के अन्तों का परित्याग जकारस्स जो आदेसो होति वा भावकरणेसु, क. व्या. 592. या परिवर्जन - एत्तावता हि ... तेविज्जतादीनं उपनिस्सयो, अन्तभोग पु., तत्पु. स. [आन्त्रभोग], आंत की कुण्डली या अन्तद्वयवज्जनमज्झिमपटिपत्तिसेवनानि, ..., विसुद्धि. 1.5; घुमावदार आंत - अन्तगुणन्ति अन्तभोगट्ठानेसु बन्धनं विभ. - विवज्जनानय पु., तत्पु. स. [अन्तद्वयविवर्जननय], दो अट्ठ. 229; ... एकवीसतिया ठानेसु अन्तभोगानं अन्तरा ठितं. प्रकार के अन्तों के परित्याग का प्रकार, पद्धति या तरीका विभ. अट्ठ. 229; ओकासतो कुदालफरसुकम्मादीनि ... - तत्थत्तनयो पत्तिनयो देसनानयो अन्तद्वयविवज्जनानयो यन्तफलकानि अन्तभोगे एकतो अग्गळन्ते ... एकवीसतिया अचिन्तेय्यनयो अधिप्पायनयो ति, सद्द. 2.396.
अन्तभोगानं अन्तरा ठितन्ति, खु. पा. अट्ठ. 43; पाठा. अन्तन्त त्रि., छोटा से छोटा - एथ अहं तुम्हे ... निस्साय अन्तभाग. अन्तन्ते गामे पहरन्तो दामरिकभावं जानापेत्वा ..., अ. नि. अन्तमन्त त्रि., बहुत दूर-दूर वाले, बहुत दूर-दूर के, सुदूरवर्ती अट्ठ. 2.72; पाठा, अन्तमन्ते.
- सेय्यथापि नाम गोकाणा परियन्तचारिणी अन्तमन्तानेव अन्तन्तेन अ., क्रि. वि. [अन्तन्तेन], एक किनारे या छोर से। सेवति, दी. नि. अट्ठ. 3.27; अन्तमन्तानेवाति कोचि मं पहं लेकर दूसरे किनारे या छोर तक, चारों ओर - सो हि एक पुच्छेय्याति पञआभीतो अन्तमन्तानेव पन्तसेनासनानि सेवति,
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अन्तमन्तेन
327
अन्तर
दी. नि. अट्ठ. 3.17; ... अन्तमन्ते गामे पहरन्तो दामरिकभावं प. 771; अन्तरं मज्झवत्था खणोकासोधिहेतूस व्यवधाने जानापेत्वा अनब्बेन निगमेपि जनपदेपि पहरति. अ. नि. विनात्थे च भेदे छिदे मनस्यपि, अभि. प. 802; ख. अट्ठ.2.72.
1. स्थानविषयक अन्तराल एवं दूरी - किं ते ऊरुनमन्तरस्मि अन्तमन्तेन अ., क्रि. वि., बहुत दूर-दूर तक, अन्तिम छोर सपिच्छितं कण्हखिप्पकासति, जा. अट्ठ. 5.188%3B तक, सुदूरवर्ती क्षेत्रों या विषयों तक - समई अन्तमन्तेन, 2. कालविषयक अन्तराल, समय का व्यवधान - यं एतस्मि इस्सरियं वत्तयामहं, बु. वं. (पृ.) 310; समुह अन्तमन्तेनाति अन्तरे भासति लपति निद्दिसति, इतिवु. 85; तस्स कम्मरस एत्थ चक्कवाळपब्बतं सीमं मरियादं कत्वा ठितं समदं अन्तं कुसलस्स, विपाकं दीघमन्तरं पे.व. 67; दीघमन्तरन्ति कत्वा इस्सरियं वत्तयामीति अत्थो, बु. वं. अट्ठ. 158. मकारो पदसन्धिकरो, दीघअन्तरं दीघकालन्ति अत्थो, पे. व. अन्तमसो अ., क. प्रायः पुष्टिकारक निपा. 'अपि' के अट्ठ. 45; यावतकेन अन्तरेन चम्पं गतागतं करिस्सति साथ प्रयुक्त [अन्तमशः/अन्तिमशः, अन्तशः], यहां सब्बानि तानि ... पातुकरिस्सति, म. नि. 2.3; 3. (क) तक कि, कम से कम, अधिक से अधिक - पिण्डपातो नाम __ भेद, फूट, विभाजन - इसीनमन्तरं कत्वा, भरुराजाति यागुपि भत्तम्पि खादनीयम्पि ... दसिकसुत्तम्पि, अन्तमसो मे सतं. जा. अट्ठ. 2.143; तत्थ अन्तरं कत्वाति छन्दागतिवसेन धम्मम्पि भणति, पारा. 360; अलङ्कारलोलताय ... अन्तमसो विवरं कत्वा, जा. अट्ठ. 2.144; अयं पनेत्थ अत्थो इसीनमन्तरं उदकतेलकेनपि केसे ओसण्डेत्वा मुखं परिमज्जति, सु. नि. कत्वा, ..... जा. अट्ठ. 5.114; (ख) छिद्र अथवा कमजोर अट्ठ. 2.30; अन्तमसो अत्तनो सरीरम्पि नानुगच्छति, ध, प. पक्ष, दोषपूर्ण पक्ष - ता तस्सा अन्तरं परियेसिंसु. जा. अट्ठ. अट्ठ. 1.94; ... अन्तमसो तिणकुटिकापि तिणसन्थारकम्पि, 5.440; अन्तरन्तरा खीरं अदत्वा एकसंवच्छर वीमंसन्तापिस्स उदा. अट्ठ. 186; ख, मत्तम्पि के साथ अन्वित होने अन्तरं न परिसंसु, जा. अट्ठ. 6.5; सा तस्स अन्तरं ओलोकेन्तियो पर, कम से कम केवल इतनी मात्रा में, अधिक से अधिक विचरन्ति, जा. अट्ठ. 6.297; आतिसङ्घस्स मन्तरन्ति अम्हेहि इतनी मात्रा में ही - पटिसेवति नाम यो निमित्तेन ... द्वीहि जनेहि विरहितस्स मम आतिसङ्घस्स अन्तरं छिड़, जा. अङ्गजातं अन्तमसो तिलफलमत्तम्पि पवेसेति, एसो पटिसेवति अट्ठ. 5.348; 4. भेद, वैविध्य, भिन्नता, विशेषता - किं नाम, पारा. 31; अयहि मूलसद्दो मूलानि उद्धरेय्य पनेत्थ, महाराज, अन्तरं को विसेसो कुमुदभण्डिकाय च उसीरनाळमत्तानिपीति आदीसु मूलमूले दिस्सति, उदा. सालीनञ्चा ति?, मि. प. 270; साविआणपानं, को अट्ठ. 22; ग. 'उपादाय' के साथ अन्वित होने पर, विसेसो किमन्तरं अभि. अव. 1174; 5. समूह के बीच का यहां तक कि, अमुक को लेकर भी, अमुक के सहित भी- अन्तराल, दो स्थानों के बीच में, किसी स्थान के अन्दर - ..., अन्तमसो कुन्थकिपिल्लिकं उपादाय पस्सन्ति, खु. पा. ..... भिक्खूनं अन्तरं पविसित्वा अम्हाकं सरभाणं न पापेन्ति, अट्ठ. 138; अहं इधोतिण्णं अन्तमसो सकुणिक उपादाय न जा. अट्ठ. 2.54; अभिवादेत्वाति छब्बण्णानं घनबुद्धरस्मीनं किञ्चि भुञ्जामि, जा. अट्ठ. 1.172.
अन्तरं पविसित्वा ... विय, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.2; अन्तर' त्रि., [आन्तर], भीतर वाला, अन्दर में विद्यमान, 6. भीतर अर्थात् मन या चित्त - तत्थ यस्सन्तरतो न सन्ति
आन्तरिक, भीतरी, आध्यात्मिक, चित्त की सन्तति से जुड़ा कोपाति यस्स अरियपुग्गलस्स अन्तरतो अभन्तरे अत्तनो हुआ - अहं खो, भन्ते, सम्मसामि अन्तरं सम्मसन्ति, स. नि. चित्ते ... अनेकभेदा ... न विज्जन्ति, उदा. अट्ठ. 131; 1(2).94; अन्तरं सम्मसन्ति अब्भन्तरं पच्चयसम्मसनं, स. 7. भेद, भीतर की बात, रहस्य, गुप्त बात, किसी विषय की नि. अट्ठ. 2.104; भिक्खु सिनातो अन्तरेन सिनानेनाति, म. भीतरी या वास्तविक स्थिति - देव, एते न मयह पत्ता, नि. 1.49; तत्थ अन्तरेन सिनानेनाति अब्भन्तरेन उपसागरस्स पत्ताति तं अन्तरं आरोचेसि, जा. अट्ठ. 4.73; किलेसवुवानसिनानेन, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).186%; इमं अन्तरं पभावतिया मा कथाहीति दळहं वत्वा उय्योजेसि, तयोमे भिक्खवे, अन्तरामला अन्तराअमित्ता अन्तरासपत्ता जा. अट्ठ. 5.278; मनुस्सा तं अन्तरं, अजानन्ता अहो अन्तरावधका अन्तरापच्चत्थिका, इतिवु. 60.
पतिब्बता तिआदीनि वत्वा तं अनाचारित्थिं वण्णयिंसु, जा. अन्तर नपुं., [अन्तर], क. अट्ठ. में कारण, क्षण, चित्त, अट्ठ 2.99; ते तस्स वण्णसम्पत्तिमेव दिस्वा अन्तरं अजानन्ता वैमध्य तथा विवर आदि अनेक अर्थों के सूचक के रूप में। ... तं गण्हित्वा गच्छन्ति, जा. अट्ठ. 1.217. व्याख्यात - सन्निवेसो च सण्ठान, अथाब्भन्तरमन्तरं अभि. अन्तर द्रष्ट. अन्तो के अन्त..
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अन्तरं
328
अन्तरङ्ग
अन्तरं अ., क्रि. वि., अन्तर/अन्तरा से व्यु. [अन्तरं]. शा. अ. बीच में, मध्य में - अहं खलु महाराज, नागराजारिवन्तरं जा. अट्ठ. 5.346; तत्थ नागराजारिवन्तरन्ति पेळाय अभन्तरं पविट्ठो नागराजा विय, जा. अट्ठ. 5.347; ला. अ. (क) कर के क्रि. रू. के साथ (मुहावरे के रूप में) अतिक्रमण (करना), पार करना - .... इमे इमं सीमं अन्तरं कत्वा वसन्ता पस्सन्तु, ..., जा. अट्ठ. 2.178; ... दस द्वे योजनानि अन्तरं कत्वा अहु, पे. व. अट्ठ. 122; (ख). अन्दर या मन के भीतर (करना), अन्दर या मन की एकाग्रता का आलम्बन (बनाना) - सो कामरागयेव अन्तरं करित्वा झायति पज्झायति निज्झायति अपज्झायति, म. नि. 3.62; ततो एक .... आचरियस्स अन्तरं कत्वा नं भिन्दिस्सामा ति तयो ...
वन्दित्वा अट्ठसु. म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.235. अन्तरंस नपुं.. [अन्तरांस], दो कन्धों के बीच वाला प्रदेश अर्थात वक्षस्थल या सीना - चितन्तरंसोति अन्तरंसं वच्चति द्विन्नं कोट्टानं अन्तरं तं चितं परिपुण्णं अन्तरंसं अस्साति चितन्तरंसो, दी. नि. अट्ठ. 2.35; विततन्तरंसोति पुथुलअन्तरंसो,
जा. अट्ठ. 7.14. अन्तरकप्प पु., कर्म. स. [अन्तर्कल्प], महाकल्प के 64 उपप्रभेदों में से एक, प्रलय के काल एवं पुनःसृष्टि के कालों के बीच की संक्षिप्त समयावधि - ... कम्मे च अड्डकम्मे च द्वद्विपटिपदा द्वट्ठन्तरकप्पा छळाभिजातियो अट्ठ पुरिसभूमियो .... दी. नि. 1.47-48; द्वद्वन्तरकप्पाति एकस्मिं कप्पे चतुसद्धि अन्तरकप्पा नाम होन्ति, दी. नि. अट्ट, 1.134; अन्तरकप्पो च नामेस दुभिक्खन्तरकप्पो रोगन्तरकप्पो सत्थन्तरकप्पोति तिविधो, दी. नि. अट्ठ. 3.34; यो पन दुभिक्खकाले वा परिहीनसम्पत्तिकाले वा अन्तरकप्पे वा मनुस्सेसु निब्बत्तति, ..., अ. नि. अट्ठ. 2.112. अन्तरकरण नपुं.. अन्तरं करोति से व्यु., क्रि. ना., मन में कर लेना, ध्यान में कर लेना - अयं मं निस्साय अन्तरकरणं लभती ति, दी. नि. अट्ठ. 1.264; अ. नि. अट्ठ. 2.238; म. नि. अट्ठ (मू.प.) 1(1).357. अन्तरकाजक पु., [अन्तरकाचक]. दो ढोने वालों के बीच में बांस के डण्डे पर रस्सी से बंधा हुआ बोझा - न वहे उभतोकाजं, वट्टतन्तरकाजकं, विन. वि. 2818. अन्तरखज्जक नपुं., कर्म. स. [अन्तरखाद्यक], प्रातःकाल के अल्पाहार एवं मध्याह्न भोजन के बीच में खाया जाने वाला आहार - मनापं अन्तरखज्जकान्ति वा तण्हापरितस्सनाय परितस्सति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.276; ... तेसं
अन्तरखज्जकं खादित्वा निसिन्नकाले वन्दित्वा एकमन्तं निसिन्नो समत्थिं पुच्छि, जा. अट्ठ. 1.378; - वेला स्त्री., प्रातः एवं मध्याह्न काल के बीच में खाए जाने वाले आहार को ग्रहण करने का समय - पुटबद्धानि मज्झमही ति च पुब्बण्हे अन्तरखज्जकवेलायमेव पेसेत्वा चेतियवानम्हि मज्झे पुटबन्धानि साटकानि ठपापयी ति अत्थो, म. वं. टी. 479(ना.). अन्तरगङ्गा स्त्री., व्य. सं. [अन्तरगङ्गा]. एक स्थान का नाम, जहां पर नदी का प्रवाह भूमि के भीतर में है - अन्तरगङ्गाय पन महावाचकालउपासको नाम अहोसि, अ. नि. अट्ठ. 2.109. अन्तरगब्म पु., अनन्तरगम का अप., द्रष्ट. अनन्तरगम के
अन्त.. अन्तरगवेसी त्रि.. [अन्तर्गवेषिन्], परछिद्रान्वेषी, दूसरों की कमी को खोजते रहने वाला - रन्धमेसीति अन्तरगवेसी, महानि. अट्ठ. 227. अन्तरघरं/अन्तरघरे अ. क्रि. वि., क. दो घरों के बीच में या गांव के अन्दर, ख. घर के भीतर, घर में - यो पन भिक्खु ... भिक्खुनिया अन्तरघरं पविट्ठाय हत्थतो खादनीय वा ... पटिग्गहेत्वा खादेय्य वा भुजेय्य वा. पाचि. 232; अन्तरघरन्ति न पल्लत्थिकाय अन्तरघरे निसीदिस्सामी ति एत्थ अन्तोनिवेसनं अन्तरघरं स. नि. अट्ठ. 2.31; भिक्खू तिण्णं चीवरानं अजतरं चीवरं अन्तरघरे निक्खिपित्वा . अतिरेकछारत्तं विप्पवसन्तीति, पारा. 390; अन्तरघरे निक्खिपितुन्ति अन्तोगामे निक्खिपितुं पारा. अट्ठ.2.280%; पासादिको होति अभिक्कन्तपटिक्कन्ते सुसंवुतो अन्तरघरे निसज्जाय, अ. नि. 3(2).171. अन्तरघरप्पवेसन नपुं.. घरों के भीतर में प्रवेश - अट्ठद्वानं .... सङ्घगणपुग्गल ... अन्तरघरप्पवेसनेसु कायेन
अप्पतिरूपकरणं, खु. पा. अट्ठ. 196. अन्तरघरसंयुत्त त्रि., घर के भीतर के विषयों से जुड़ा हुआ,
सम्बन्धित - अन्तरघरसंयुत्ता, सेसपत्तियो पन. उ. वि. 612. अन्तरङ्ग नपुं., [अन्तरङ्ग], किसी शब्द या नियम का आवश्यक
या भीतरी भाग - त्त नपुं.. अन्तरङ्ग का भाव. [अन्तरङ्गत्व, किसी शब्द या नियम का आवश्यक या भीतरी भाग होना - अन्तरङ्गत्ता अकारस्स, मो. व्या. 2.116; - धुर नपुं., कर्म. स., भीतरी मामलों या आन्तरिक विषयों से सम्बन्धित प्रशासनिक प्रमुख - अन्तरङ्गधुरं नाम कत्वा मच्चम्हि ठापयि, चू. वं. 69.32-35.
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अन्तरचक्क
अन्तरचक्क नपुं., [अन्तरचक्र], प्राचीन काल की एक विद्या का नाम, ज्योतिषशास्त्र की एक विशेष शाखा, जिसमें चक्र के आन्तरिक भागों को विभक्त कर फलाफल का निर्धारण होता था जोतिसं लोकायतिकं साचक्कं मिगचक्कं अन्तरचक्क मिस्सकुष्पाद सकुणरुतरवितं सिक्खा करणीया. मि. प. 174.
अन्तरचर त्रि. [अन्तश्चर ], भीतर की ओर गतिशील, अन्दर की ओर चलने वाला या फैल जाने वाला छट्टो अन्तरचरो वधको उक्खित्तासिको पिट्टितो पिड़ितो पातेस्सामीति, स.नि. 2 (2).177; छट्टो अन्तरचरो वधकोति पठमं आसीविसेहि अनुबद्धो इतो चितो च ते वञ्चेन्तो पलायि, स.नि.
...
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अट्ठ. 3.56. अन्तरट्टालक पु.. कर्म, स. मध्यवर्ती निरीक्षण-स्तम्भ, बीच वाली अट्टालिका तथा अनुपाकारञ्च द्वारट्टालके अन्तरट्टालके उदकपरिखं... परिखायो कारेसि, जा. अट्ठ
6.220.
अन्तरद्रुक क. पु. अ. के अनुसार माघ एवं फाल्गुन मासों के मध्य में पड़ने वाला आठ दिनों का वह काल, जिसमें माघ के अन्तिम चार दिन तथा फाल्गुन के प्रारम्भ वाले चार दिन अन्तर्भूत रहते हैं सीता, भन्ते हेमन्तिका रति अन्तरद्वको हिमपातसमयो, अ. नि. 1(1).161; अन्तरद्वकोति माघफग्गुणानं अन्तरे अट्ठदिवसपरिमाणो कालो, माघस्स हि अवसाने चत्तारो दिवसा फग्गुणस्स आदिम्हि चत्तारोति अयं अन्तरट्ठको ति वुच्चति, अ. नि. अट्ठ. 2.116; उदा. अड. 59... सीतासु हेमन्तिकासु रत्तीसु अन्तरहके हिमपातसमये गया ... इमिना सुद्धीति, उदा. 75; रत्तियो सीता हेमन्तिका अन्तरद्वका हिमपातसमया तथारूपासु रतीसु रति अब्भोकासे विहरामि म. नि. 1.113. ख. त्रि, आधुनिक कोशकारों के अनुसार प्रत्येक मास की पूर्णमासी के बाद के आठ दिनों का समुच्चय अट्टक है अतः शब्द का अर्थ 'इस समुच्चय के बीच में आने वाली या पढ़ने वाली रात किया गया है.
अन्तरतो अ.. क्रि. वि. [ अन्तरतः ]. भीतर में, आन्तरिक रूप में, चित्त या चेतना के स्तर पर यस्सन्तरतो न सन्ति कोपा, इतिभवाभवतञ्च वीतिवत्तोति, सु. नि. 6; ततो यस्सन्तरतो न सन्ति कोपाति ततिय मग्गेन समूहतत्ता यस्स वित्ते न सन्ति कोपाति अत्थो, सु. नि. अ. 1.18; भयमन्तरतो जातं तं जनो नाववुज्झति अ. नि. 2 ( 2 ) 234: अन्तरतो जातन्ति अब्भन्तरे उप्पन्नं, अ. नि. अट्ठ. 3.179.
अन्तरधान
अन्तरदीप पु०, कर्म, स० [ अन्तरद्वीप ], नदी की धारा के बीच में स्थित टापू या द्वीप यत्थ गोदावरी द्विधा भिज्जित्वा तियोजनष्यमाणं अन्तरदीपमकासि सु. नि. अनु. 2.270: ये ओकास अन्तरदीपं अकासि सु. नि. अ. 1.23 वासी त्रि.. द्वीप में निवास करने वाला - एवं काले गच्छन्ते एकदिवस अन्तरदीपकवासी एको इद्धिमन्ततापसो... आकासे
उपरिभागं ओतरि जा. अ. 4.429 पाठा. अन्तरदीपकवासी.
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अन्तरदीपक पु. नदी की धारा के बीच में निकला हुआ छोटा सा टापू या द्वीप नदीविदुग्गन्ति नदीनं दुग्गमद्वानं अन्तरदीपक, यत्थ सक्का होति सद्धि निलयितुं अ. नि. अह. 2.136 द्वे जयम्पतिका एक फलक गहेत्वा अन्तरदीपकं पविसिंधु सेसा सब्बे तत्येव मरिसु ध. प. अड. के सप्त वि., ए. व. 2.75; तासम्पि वचनं अकत्वा परतो गच्छतो अन्तरदीपके एक यक्खनगर अस, जा. अट्ठ. 1.235; एहि, सम्म, अन्तरदीपके महाफले खादितुं गच्छामा 'ति, जा० अट्ठ 3.113.
अन्तरद्वारे अ., क्रि. वि., दो द्वारों के बीच में, द्वारों के बीच
में से, द्वार के सामने - अरे बाल, ब्राह्मण, किं तव जातका अन्तरद्वारे कहापणं ठपेन्ति, परतो मं हरा ति म. नि. अड. ( मू०प०) 1 ( 1 ).327; नगरतो बहि गच्छन्तो अन्तरद्वारा दसबलं दिस्वा पादेसु पतित्वा ..... जा. अट्ठ. 1.296. अन्तरघा अदर्शनार्थक अन्तर या धातु अन्तरधा अदस्सने
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सद्द. 2.481.
अन्तरधान नपुं. अन्तर + √था से व्यु. क्रि. ना. [ अन्तर्धान]. शा. अ. अचानक अदृश्य या तिरोहित हो जाना, अकस्मात् दृष्टिपथ से ओझल हो जाना यदि एवं कथं समिञ्जनादिनिदस्सनं? तं अन्तरधाननिदस्सनन्ति गहेतब्ब उदा. अड. 138; तिरोधानअन्तराधानपिधानच्छादनानि थ अभि. प. 51; अथ नेसं सत्थुनो अन्तरधानं होति, दी. नि. 3.90, अन्तरायायाति लोकुत्तरकुसलधम्मानं अन्तरायाय अन्तरधानाय लोकियकुसलधम्मानं परिच्चागाय, महानि. अ. 51; ला. अ. क. एक जन्म से बिलग हो दूसरे जन्म का ग्रहण चुति चवनता, भेदो अन्तरधानं मच्चु मरणं किरिया म. नि. 1.62 रूपस्स खयो वयो भेदो परिभेदो अनिच्चता अन्तरधान छ, स. 644 अन्तरधायति एत्थाति अन्तरधानं ध. स. अट्ठ. 361; ला. अ. ख. क्रमशः हो रहा क्षय, अपक्षय या हानि न ताव, कस्सप, सद्धम्मस्स अन्तरधानं होति याव न सद्धम्मप्पतिरूपकं लोके उप्पज्जति, स. नि. 1 ( 1 ) . 203
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अन्तरधानमन्त
330
अन्तरन्तरेन
ओक्कमनिया धम्मा सद्धम्मस्स सम्मोसाय अन्तरधानाय संवत्तन्ति, स. नि. 1(1).204; उपधारेन्तो अद्दस अनागतमद्धाने द्विन्नम्पि तेसं चक्खूनं अन्तरधानं, दिस्वा ते एवमाह एक मे, ...., मि. प. 130. अन्तरधानमन्त पु., तत्पु. स. [अन्तर्धानमन्त्र], वह मन्त्र, जिसके प्रयोग द्वारा किसी को अदृश्य कर दिया जाए, अदृश्य बना देने वाला मन्त्र - ... अयं आभाय अन्तरधानमन्तं जानाति मति , ध. प. अट्ठ. 2.393. अन्तरधापना स्त्री., अन्तरधापेति से व्यु., क्रि. ना., अदृश्य या तिरोहित करा देना, अप्रकट करा देना - अयं विभावना नाम, अन्तरधापनाति अत्थो, ध. स. अट्ठ. 208; अथ वा विभावना ति अभावना अन्तरधापना, सद्द. 1.81. अन्तरधापेति अन्तर + vधा के प्रेर. का वर्त., प्र. पु., ए. व., शा. अ. अदृश्य या अप्रकट करा देता है, ला. अ. विनष्ट या विलुप्त करा देता है, उपशान्त बना देता है - तमेनं महाअकालमेधो ठानसो अन्तरधापेति वूपसमेति, स. नि. 3(2).60; ... सद्धम्म अन्तरधापति, स. नि. 1(2).204; -न्ति ब. व. - ते चिमं सद्धम्म अन्तरधापेन्तीति, अ. नि. 1(1).25; - पेथ अनु., म. पु.. ब. व., उपशान्त करा दो - सा च पन मे दुक्खेन लद्धा, मा नं अन्तरधापेथ, जा. अट्ठ. 1.152; - पेसु अद्य., प्र. पु., ब. व. - ते तं ब्रह्मचरियं खिप्पजेव अन्तरधापेसु, पारा. 83 अन्तरधापे सुन्ति वग्गसङ्गहपण्णाससङ्गहादीहि असङ्गहन्ता यं यं अत्तनो रुच्चति, तं..., पारा. अट्ठ. 1.143. अन्तरधायति अन्तर + vधा का वर्त., प्र. पु., ए. व. [अन्तर्दधाति], शा. अ. भीतर में ले जाकर रख देता है, ला. अ. अदृश्य हो जाता है, विलुप्त हो जाता है, शान्त हो जाता है, नष्ट हो जाता है - अथ खो आयस्मा ... सेय्यम्पि कप्पेति धूमायतिपि पज्जलतिपि अन्तरधायतिपि, तञ्चेव उदानं ... बुद्धवचनं, पाचि. 79; तत्थ अन्तरधायतिपीति अन्तरधायतिपि अदस्सनम्पि गच्छतीति अत्थो, पाचि. अट्ठ. 60; तं पाटिहारियं ... भगवन्तं खमापेसु, तङ्खणओव उदकोधो अन्तरधायि, वि. व. अट्ठ. 36; उपज्झाया अन्तरधायति सिस्सो, मातरा च पितरा च अन्तरधायति पुत्तो, क. व्या. 2763; सद्द. 3.704; - यामि उ. पु., ए. व. - एसा अन्तरधायामि, कुच्छि वा पविसामि ते, स. नि. 1(1).156; - न्ति प्र. पु., ब. व. - एवं ते कामा हायन्ति परिहायन्ति ... अन्तरधायन्ति विप्पलुज्जन्ति, महानि. 4; - मान त्रि., वर्त. कृ., आत्मने. - सद्धम्मे अन्तरधायमाने बहतरानि चेव
सिक्खापदानि होन्ति, म. नि. 2.117; - स्सु अनु., म. पु., ए. व. - हन्द चरहि मे त्वं ब्रह्मे, अन्तरधायस्सु. सचे विसहसी ति, म. नि. 1,413; - येय्य विधि., प्र. पु., ए. व. - सो सदो अन्तरधायेय्य, मि. प. 109; - यि अद्य., प्र. पु.. ए. व. - इदं वत्वा तत्थेवन्तरधायि, म. नि. 1.198; - यथ अद्य., प्र. पु., ए. व., आत्मने. - ततो सो दुम्मनो यक्खो , तत्थेवन्तरधायथाति, सु. नि. 451; - यिसु अद्य.. प्र. पु.. ब. व. - ठानं खन्धं उपयित्वान साखा अन्तरधायिसु. म. वं. 18. 34; - यिस्सति भवि., प्र. पु., ए. व. - सत्ताहस्स अच्चयेन अन्तरधायिस्सति, महाव. 49; - यिस्सन्ति ब. व. - तं हत्थे गण्ह, अवसेसा अन्तरधायिस्सन्तीति, जा. अट्ठ. 1.125; - यिस्सामि उ. पु., ए. व. - अथ खो, भिक्खवे, बको ब्रह्मा अन्तरधायिस्सामि समणस्स गोतमस्स ... नेवस्स मे सक्कोति अन्तरधायितुं, म. नि. 1.413; - यित्वा पू. का. कृ. - पुरतो गन्त्वा विय सक्को अन्तरधायित्वा सकट्ठानमेव गतो, जा. अट्ठ. 6.40; विलो. पातुभवति. अन्तरन्तरा अ., क्रि. वि. [अन्तरन्तरा], अन्तराल में, बीचबीच में, कभी-कभी, समय-समय पर, किसी विशेष अवसर पर - अन्तरन्तरा हि भिक्खू तं आयस्मन्तं दूरतोव आगच्छन्तं दिस्वा.... जा. अट्ठ. 1.164; एवं अन्तरन्तरा खीरं अदत्वा एकसंवच्छरं वीमंसन्तापिस्स अन्तरं न पस्सिंसु, जा. अट्ठ. 6.5; यथा पन अन्तरन्तरा ठितासुपि निसिन्नासुपि विज्जमानासुपि, .... म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).219; - कथा स्त्री., ओपातेति के साथ प्रयुक्त, बीच में रुकावट उत्पन्न करने वाली बात - न उपज्झायस्स भणमानस्स अन्तरन्तराकथा ओपातेतब्बा, महाव. 52; ... अन्तरन्तराकथा ओपातेतब्बाति अन्तरघरे वा...., महाव. अट्ठ. 248; ... एवं जानन्ता एवं पस्सन्ता अन्तरन्तराकथं ओपातेय्यन्ति, म.नि. 2212 अन्तरन्तरे अ., क्रि. वि., क. समय समय पर, एक निश्चित समय पर, बीच बीच में - ततो पट्ठाय इमिनाव नियामेन अन्तरन्तरे तत्थ गन्त्वा देवतामङ्गलिको विय पूजं करोति, जा. अट्ठ. 1.252; अन्तरन्तरा कथं ओपातेय्युन्ति मम कथावारं पच्छिन्दित्वा अन्तरन्तरे अत्तनो कथं पवेसेय्यन्ति अत्थो, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.171; ख. ष. वि. में अन्त होने वाले पद के साथ, मध्य में, बीच में - ... वनसण्डस्स अन्तरन्तरेन विचरति, ध, प. अट्ठ. 1.36; ... अञिस्सा कथाय अन्तरन्तरे कतरा कथा उप्पज्जीति पुच्छति, अ. नि. अट्ठ. 2.148. अन्तरन्तरेन अ., तृ. वि., प्रतिरू. निपा., सीधे बीच में से होकर, मध्यभाग से होकर - नागो भिक्खुनं अन्तरन्तरेन
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अन्तरपरिखा
गन्त्वा सत्थु पुरतो तिरियं अट्ठासि, ध. प. अट्ठ 1.39; तेहि खित्ता सरा विटभस्स पुरिसानं अन्तरन्तरेन गच्छन्ति ध. प. अट्ठ. 1.202.
अन्तरपरिखा स्त्री. कर्म. स. मध्यवर्ती खाई या नालीओकिण्णन्तरपरिखं दल्हमङ्गालकोहक, जा. अड. 4.85 तत्थ ओकिण्णन्तरपरिखन्ति इदं द्वादसयोजनिकं सुरुन्धनपुरं अन्तरन्तरा उदकपरिक्खाननं ..... जा. अट्ठ. 4.95. अन्तरपेय्याल नपुं., स. नि. के एक खण्ड का शीर्षक: स. नि. 1 (2).115-118.
अन्तरबाहिर त्रि, अन्दर और बाहर दोनों स्थानों के साथ सम्बद्ध तस्सा तण्डुलनाळिकाय बाराणसिं सन्तरबाहिर अग्यमकासि जा. अ. 1.131 बाराणसिं सन्तरबाहिरं अयमग्घति तण्डुलनाळिका ति तदे.. अन्तरभत्त / अन्तराभत्त नपुं०, क. प्रातःकालीन अल्पाहार एवं मध्याहन भोजन के मध्य दिया जाने वाला भोजन वाराणसिर फिर सूदो अन्तरभत्तं पचित्वा उपनागेसि सु. नि. अड. 1.84; ख भोजनकाल में भोजन समाप्त करने से पूर्व एकस्मिंयेवस्स अन्तरभत्ते सह पटिसम्भिदाहि
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अरहत्तं अदासि, ध. प. अट्ठ 1.141; जा. अट्ठ. 1.126; अन्तराभत्तस्मियेव ब्राह्मणस्स चत्तारो पुत्ता सन्तिके निसीदित्वा आहंसु प. प. अड. 2288 समये भोजनकाल में
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यागुखज्जकं दत्वा अन्तराभत्तसमये एतमत्थं आरोचेसि, म. नि. अट्ठ. ( मू.प.) 1 ( 2 ). 186; सत्था पन ... निसीदित्वा अन्तरभत्तसमये महाधम्मपालजातकं कथेत्वा .... जा. अड. 4.252. अन्तरभोगिक त्रि दो राज्यों के बीच वाले कुछ गांवों या क्षेत्रों के स्वामी पदेसराजा मण्डलिका अन्तरभोगिका अक्खदस्सा महामत्ता, येवा... पारा 53; अन्तरभोगिका नाम द्विन्नं राजूनं अन्तरा कतिपयगामसामिका पारा. अ. 1.247, अन्तरमेगिरि पु०, श्रीलङ्का के एक विहार का नाम
पाचीनकम्बविद्वि च तथा अन्तरमेगिरि चू के 38.48. अनन्तररद्व पु.. कर्म. स. किसी एक राज्य के बाद में आने
वाला राष्ट्र, पड़ोसी राज्य अथ तस्स रट्ठस्स अनन्तररद्वाधिपतिनो कालिङ्गो अटुको... जा. अड. 5.130. अन्तरवत्थु नपुं. कर्म. स. घर के भीतर वाला आंगन, गृहप्राङ्गण तरिगं समये जलवातपानं विवरित्वा अन्तरवत्युं जलवातपानं विवरित्वा अन्तरवत्युं ओलोकेन्तो अट्टासि, अ. नि. अ. 1.332; अन्तरवत्थुन्ति गेहक्षणं अ. नि. टी. 1.194... तङ्खणञ्ञव आगन्त्वा अन्तरवत्थुम्हि असीतिहत्यमत्तं अङ्गारकासुं निम्मिनि जा.
अट्ठ. 1.228.
अन्तरसत्थि
अन्तरवस्स नपुं तत्पु स. वर्षा ऋतु के ही बीच में आने वाला समय, वर्षावास के अन्दर का समय- अथ खो आयस्मा भहियो तेनेव अन्तरवस्सेन तिस्सो विज्जा सच्छाकासि, चूळव. 319; उदा. 96; तेनेवन्तरवस्सेनाति तरिमंयेव अन्तरवस्से महापवारणं अनतिक्कमित्वाव, उदा. अट्ट. 147.
अन्तरवार पु. त्रिपिटक के संग्रह का एक उपविभाजन
चतुवीसतिया अन्तरवारेहि पटिमण्डेत्वा द्वेभाणवारपरिमाणाय तन्तिया अवोच, म. नि. अट्ठ. ( मू०प०) 1 ( 1 ) .61. अन्तरवासक पु.. कर्म, स. [अन्तर्वासय, नपुं.], शा. अ. भीतरी परिधान या वस्त्र, ला. अ. (विनय के विशेष सन्दर्भ में) बौद्ध भिक्षु के तीन चीवर परिधानों में सबसे नीचे वाला परिधान, भिक्षु का अधोवस्त्र, जिसे कायबन्ध या कमर-पट्टी द्वारा बांध कर धारण किया जाता है निवासनान्तरीयान्यन्तरमन्तरवासको अभि. प. 292 सङ्घाटि उत्तरासो अन्तरवासको परि, 330 निवत्थो अन्तरवासकेन, परि. 401; इमिना अन्तरवासकेन कथिनं अत्थरामी ति एतेन वचीभेदेन परि० अट्ठ. 216; उदकं आहर अन्तरवासक धोविस्सामीति, मि० प० 129.
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अन्तरविट्ठि पु०, श्रीलङ्का के एक गांव का नाम गामं अन्तरविहिं च तथा सङ्गाटगामक, चू वं. 60.68; गन्त्वा अन्तरविद्विम्हि वेरिनो च पलापयुं, चू. वं. 70.322. अन्तरविद्विक पु०, उपरिवत् अन्तरविद्विक पु. उपरिवत् युज्झापेत्वान घातेत्वा गामे अन्तरविद्विके, चू. वं. 61.46.
अन्तरविरहित त्रि., [ अन्तरविरहित] अन्तराल से रहित, व्यवधानरहित, भेदरहित, समान अनन्तराति अन्तरविरहिता, अत्तनो कुलेन सदिसाति अत्थो, दी. नि. अट्ठ. 3.43. अन्तरवीथि स्त्री [अन्तर्वीधि], सड़क, छोटा मार्ग, गली, भीतर की सड़क, नगर की सड़क अन्तरवीथिचतुक्कराजद्वारादीसु निसीदित्वा ... जा. अड. 1.325; तस्मिं खणे सेट्ठि .... सत्तमे द्वारकोट्टके अन्तरवीथिं ओलोकेन्तो चङ्कमति, जा. अट्ठ. 4.57; ध० प० अ० 1.186 ते अन्तरवीथियं ठत्वा किं समणो गोतमोव बुद्धो, ध. प.
अट्ठ. 2.102.
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अन्तरसत्थि क्रि. वि., अव्ययी. स., जांघों के बीच में एकस्मिं उपेत्वा न अन्तरसत्थिम्हि पक्खिपित्वा ठपेत्वा सयति, म. नि. अट्ठ (मू०प०) 1 (2). 212; रञ्ञो नागो
उदकं गहेत्वा... सकिं उभोसु परसेसु सकिं अन्तररात्थियं पक्खिपन्तो कीळित्थ म. नि. अट्ट. (नू.प.) 1 ( 2 ). 170; अहं
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137.
अन्तरसमुद्द
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अन्तराकथा तरुणपोतककाले इमं निग्रोधगच्छं अन्तरसत्थीसु कत्वा अद्धानमग्गप्पटिपन्नो होति ... दी. नि. 1.1; उपको गच्छामि, जा. अट्ठ. 1.215.
आजीवको अन्तरा च गयं अन्तरा च बोधि अद्धानमग्गप्पटिपन्नं अन्तरसमुद्द पु., व्य. सं., एक क्षेत्र-विशेष का नाम - अथओ म. नि. 1.230; अन्तरा च गयं अन्तरा च बोधिन्ति गयाय च भिक्खु अन्तरसमुदं गन्त्वा तस्मिं विहारे पटिवसन्तो .... बोधिस्स च विवरे तिगावुतन्तरे ठाने, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) पारा. अट्ठ. 1.245.
1(2).90; 2.ख. कालसूचक निपा., एक सुनिश्चित अन्तरसाटक पु., कर्म. स., अन्दर पहना जाने वाला वस्त्र कालावधि के अन्दर - तेन खो ... भिक्खू वस्सं उपगन्त्वा या परिधान - इध पन अन्तरसाटकातिआदीसु विय उत्तरिये अन्तरावरसं चारिकं चरन्ति, महाव. 182; 2.ग. व्यवधान दहब्बो, वि. व. अट्ठ. 137.
रूप में, बाधा के रूप में - न तेसं अन्तरा गच्छे, स अन्तरसोम द्रष्ट., अन्तरासोम के अन्त...
राजवसतिं वसे, जा. अट्ठ. 7.189; न तेसं अन्तरा गच्छति अन्तरहित त्रि., अन्तर + vधा का भू. क. कृ. [अन्तर्हित], तेसं लाभस्स अन्तरा न गच्छे, अन्तरायं न करेय्य, जा. अठ्ठ शा. अ. अन्दर या भीतर में रख दिया गया, ला. अ.
7.190. विलुप्त, नष्ट, अदृश्य, सामने अविद्यमान - अन्तरहितो सो, अन्तरा' स्त्री., [अन्तरीय], ऊपरी वस्त्र, उत्तरीय, उत्तरासङ्ग, भन्ते, सदो ति, उदा. 120; इमस्स खो पुग्गलस्स कुसला ऊपर रखा जाने वाला चादर या गमछा - अन्तरा उत्तरिय धम्मा अन्तरहिता, अ. नि. 2(2).111; सापि अनुपुब्बेनेव उत्तरासङ्गो उपसंब्यानन्ति परियायसदा एते. वि. व. अट्ठ. इदम्पि अन्तरहितं, .... ध. प. अट्ठ. 2.64; अन्तरहिताय गोधाय इति चिन्तसि सो तहिं, म. वं. 28.10.
अन्तराअमित्त पु., भीतरी शत्रु, अपने चित्त के अन्दर रहने अन्तरा' अ., निपा., अनेकार्थक [अन्तरा], 1. क्रि. वि. क. वाली शत्रु-रूपी मानसिक दुष्प्रवृत्तियां - अन्तरामला परिमाणसूचक अन्दर में, भीतरी माप के प्रमाण से - अन्तराअमित्ता अन्तरासपत्ता अन्तरावधका अन्तरापच्चत्थिका, दीघसो द्वादस विदत्थियो, सुगतविदत्थिया तिरियं सत्तन्तरा, इतिवु. 60. पारा. 229; तिरियं सत्तन्तराति अब्भन्तरिमेन मानेन, पारा. अन्तराअहोसि अन्तरा + vहु या (भू का अद्य०, प्र. पु., ए. 229; अन्तराति इमस्स पन अयं निद्देसो, अब्भन्तरिमेन व., बाधित हुआ - तेन सद्देन धम्मकथा अन्तरा अहोसि, मानेना ति, पारा. अट्ठ. 2.139-40; ख. स्थानसूचक, बीच चूळव. 261; अन्तरा अहोसीति अन्तरिता अहोसि पटिच्छन्ना, रास्ते में ही, मार्ग पर, बीच में ही, अन्तराल में - सरभोव चूळव. अट्ठ. 57. गिरिदुग्गस्मि, अन्तरायेव सीदति, जा. अट्ठ. 4.387; अन्तराकथा स्त्री०, अन्तरा' + कथा, क. किसी एक विषय अन्तरेनन्तरा अन्तो, अभि. प. 1150; ... अन्तरापि परिवसन्ति, पर चल रही बातचीत के बीच में आने वाली विषयान्तर की महाव. 134; इमं निग्रोधं अन्तरा सत्थीनं करित्वा अतिक्कमामि, बातचीत, ख. प्रारम्भ एवं समाप्ति के बीच में आपतित अन्य चूळव. 290; उभिन्नमन्तरा एतं अब्बोहारिकमेव तं, अभि. विषयों की बातचीत - का च पन वो अन्तराकथा विप्पकताति, अव. 1321; ग. कालवाचक - इस बीच में, मध्यवर्ती म. नि. 1.220; अन्तरा कथाति समयावधि में - न चन्तरा पापको अस्थि रोगो, जा. अट्ठ. कम्मट्ठानमनसिकारउद्देसपरिपुच्छादीनं अन्तरा अजा एका 4.399; न चन्तराति अम्हाक वस्ससहस्सं आयु, अन्तरा च कथा, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).73; ... अनुविचरन्तानं नो पापको जीवितन्तरायकरो रोगोपि नत्थि, जा. अट्ठ.. अयमन्तराकथा उदपादि, सु. नि. (प्र.) 173; अयमन्तराकथाति 4.400; अन्तरा मेथुनं धम्म, ..., सु. नि. 293; घ पहले यं अत्तनो सहायकभावानुरूपं कथं कथेन्ता अनुविचरिंसु, ही, पूर्वकाल में ही, अन्ततः, आखिरकार - .... अथन्तरा तस्सा कथाय अन्तरा ... वुत्तं होति. सु. नि. अट्ठ. 2.166; मे भविस्सति कालकिरिया, सु. नि. 699; गन्त्वा अप्पत्वाव । अन्तराकथाति अवसानं अप्पत्वा आरम्भस्स च अवसानस्स च लोकस्स अन्तं अन्तराव कालङ्कतो, सु. नि. 1(1).76; अन्तराव वेमज्झट्टानं पत्तकथा, पाचि. अट्ठ. 67; अयं ख्वज्ज, भो कालङ्कतोति चक्कवाळलोकस्स अन्तं अप्पत्वा अन्तराव मतो, गोतम, राजन्तेपुरे राजपुरिसानं सन्निपतितानं सन्निसिन्नानं स. नि. अट्ठ. 1.105; 2.क. द्वि. वि. में अन्त होने वाले सन्निपतितानं अन्तराकथा उदपादि, अ. नि. 1(1).197; दो नामपदों के साथ अन्वित, दो स्थानों के मध्य में अन्तराकथा उदपादीति अञ्जिस्सा कथाय अन्तरन्तरे कतरा - एक समयं भगवा अन्तरा च राजगह अन्तरा च नाळन्दं । कथा उप्पज्जीति पुच्छि, अ. नि. अट्ठ. 2.148.
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अन्तराकम्म
333
अन्तरामग्गे
अन्तराकम्म नपुं., बीच वाले समय का कर्म - ततो पट्ठाय अन्तरापरिनिब्बायी पु., निर्धारित अवधि से पूर्व ही परिनिर्वाण
इमेसं उभिन्नम्पि अन्तराकम्मं न कथितं अ. नि. अट्ट, 1.124. को प्राप्त करने वाला, आयु के प्रथमार्द्ध को बिना पार किये अन्तराकाज पु., दो भारवाहकों के बीच में लटक रहा बोझा, ही निर्वाण पाने वाला - नो चे पञ्चन्नं ओरम्भागीयानं दो भारवाहकों द्वारा ढोया जा रहा वह भार, जो दोनों के संयोजनानं परिक्खया अन्तरापरिनिब्बायी होति, स. नि. मध्य में लटक रहा हो - एकतोकाजं अन्तराकाजं सीसभारं 3(1).86; अ. नि. 2(2).213; अन्तरापरिनिब्बायीति यो .... ओलम्बकान्ति, चूळव. 258; अन्तराकाजन्ति मज्झे लग्गेत्वा आयुवेमज्झं अनतिक्कमित्वा परिनिब्बायति सो तिविधो होति, द्वीहि वहितब्बभारं चूळव. अट्ठ. 56.
स. नि. अट्ठ. 3.180; अन्तरापरिनिब्बायीति उपपत्ति अन्तराकिलेस पु., आन्तरिक क्लेश, चित्त की सन्तति में समनन्तरतो पट्ठाय आयुनो वेमज्झं अनतिक्कमित्वा एत्थन्तरे विद्यमान अकुशल चित्तवृत्तियां - यायं अरिया पञआ अन्तरा किलेसपरिनिब्बानेन परिनिबुतो होति, अ. नि. अट्ठ. 3.173; किलेस संयोजनं अन्तरा बन्धनं .... म. नि. 3.3283; अयं वच्चतीति अयं एवरूपो पुग्गलो आयुवेमज्झरस अन्तरायेव अन्तरकिलेसमेवाति अन्तरे चित्ते जातत्ता सत्तसन्तानन्तो- परिनिब्बायनतो अन्तरापरिनिब्बायीति वुच्चति, पु. प. अट्ठ. 48. गधताय अब्भन्तरभूतकिलेसमेव, म. नि. टी. (उप.प.) अन्तराबन्धन नपुं, शरीर के भीतर वाला स्नायुओं का 3.206.
बन्धन, अस्थिबन्ध - यं यदेव तत्थ अन्तरा विलिमसं अन्तरा अन्तरागङ्ग पु.. व्य. सं., श्रीलङ्का के एक बौद्धविहार का नाम हारु अन्तराबन्धनं तं तदेव तिण्हेन गोविकन्तनेन सञ्छिन्देय्य - अन्तरागङ्गसहस्स चुल्लमातिकगामक चू. वं. 44.100. ..., म. नि. 3.327. अन्तरातीत त्रि., अनन्तरातीत का अप., द्रष्ट., अनन्तरातीत ___ अन्तराभत्ते अ., सप्त. वि., प्रतिरू. निपा., भोजन-ग्रहण के अन्त..
करने के समय में, भोजन समाप्त करने से पूर्व में - दानं अन्तराधान नपुं.. अदृश्य या तिरोहित हो जाना ददमानो अन्तराभत्ते उय्याने चरितुकामा चरन्तूति आह, -तिरोधानन्तराधानपिधानच्छादनानि च, अभि. प. 51. जा. अट्ठ. 2.321; घटसतेन न्हातो विय तेजोधातु ... पत्तञ्च अन्तरान्हारु पु., शरीर के अन्दर विद्यमान स्नायु या नस - मुखञ्च धोवित्वा अन्तराभत्ते कम्मट्ठानं... परिभुजित्वा यं यदेव तत्थ अन्तरा विलिमसं अन्तरा न्हारु अन्तरा बन्धनं ... गहेत्वा आगच्छति, दी. नि. अट्ठ. 1.153-54. तं तदेव तिण्हेन ... सञ्छिन्देय्य .... म. नि. 3.327. अन्तराभव पु., मृत्यु एवं पुनर्जन्म के मध्यवर्ती अस्तित्व की अन्तरापच्चत्थिक पु., आन्तरिक शत्रु, अपने चित्त के भीतर अवस्था, पूर्वशैलीय एवं साम्मितीय बौद्ध शाखाओं की दृष्टि विद्यमान शत्रु - अन्तरामलं अन्तराअमित्तो अन्तरासपत्तो में अन्तरापरिनिब्बायी का पर्यायभूत वचन - कामभवस्स च अन्तरावधको अन्तरापच्चत्थिको, महानि. 11.
रूपभवस्स च अन्तरे अत्थि अन्तराभवोति? न हेवं वत्तब्बे अन्तरापण पु., कर्म. स. [अन्तरापण], बाज़ार की दो ..., कथा. 300; ... अन्तराभवोति पुट्ठो यस्मा दुकानों के बीच वाला स्थान, बाजार, बाज़ार के बीच वाला निरयूपगअसञ्जसत्तूपग- अरूपूपगानं अन्तराभवं न इच्छति, स्थल - तमेनं ... मनुस्सकुणपं ... अञिस्सा कंसपातिया तस्मा पटिक्खिपति, कथा. अट्ठ. 202; - कथा स्त्री॰, व्य. पटिकुज्जित्वा अन्तरापणं पटिपज्जेय्यं. म. नि. 1.38; सं., कथा. के आठवें वर्ग की दूसरी कथा का शीर्षक, कथा. अन्तरापणन्ति आपणानमन्तरे महाजनसंकिण्णं रच्छामुखं, 300-303. म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).159; सुवण्णवण्णं सम्बुद्ध, अन्तरामग्गतो अ., प. वि., प्रतिरू. निपा., बीच रास्ते से ही, गच्छन्तं अन्तरापणे, अप. 1.314.
पूरा मार्ग पार किये बिना ही - राजा काले सेनं उय्योजेत्वा अन्तरापत्ति स्त्री., कर्म. स. [अन्तरापत्ति, विनय-शिक्षा पदों अन्तरामग्गतो निवत्तापेति, अ. नि. 3(2).68. में अथवा उनके अन्दर में प्रज्ञप्त आपत्ति या भिक्षु अन्तरामग्गे अ., सप्त. वि., प्रतिरू. निपा., मार्ग पर, रास्ते द्वारा किया गया अपराध - विनये अत्थि वत्थु ..., अस्थि में ही, बीच रास्ते में, मार्ग के बीचो-बीच - अन्तरामग्गे चोरा अन्तरापत्ति, ... तत्थ एकमेको कोट्ठासो, एकमेको निक्खमित्वा एकच्चा भिक्खुनियो अच्छिन्दिसु, एकच्चा धम्मक्खन्धोति वेदितब्बो, पारा. अट्ठ. 1.23; अन्तरापत्तीति भिक्खुनियो दूसेसु, महाव. 112; सो एकदिवसं न्हानत्थिं पटिलातं उक्खिपति, आपत्ति दुक्कटस्सा ति एवमादिना न्हत्वा नत्वा आगच्छन्तो अन्तरामग्गे सम्पन्नपत्तसाखं एक सिक्खापदन्तरेसु पञ्जत्ता आपत्ति, सारत्थ. टी. 96. वनप्पत्तिं दिस्वा .... ध. प. अट्ठ. 1.3.
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अन्तरामरण
334
अन्तरायिक
अन्तरामरण नपुं., निर्धारित समय के पहले ही बीच में हो। तेसं होति अहितानुकम्पी वाति? अहितानुकम्पी, दी. नि. जाने वाली मृत्यु, असामयिक मृत्यु - अन्तरामरणं नत्थि, 1.207; अन्तरायकरोति लाभन्तरायकरो, दी. नि. अट्ठ. तेसं निस्सन्दतो मम, अप. 1.341; ते तस्स कम्मरस निस्सन्देन 1.297; मा मे माता तरन्तरस, अन्तरायकरा, अहूति, जा. तत्थ तत्थ अन्तरामरणं पापुणिंसु, उदा. अट्ठ. 236. अट्ठ. 4.111; अम्हाकं एवरूपस्स मन्तस्स अन्तरायकर अन्तरामल पु., चित्तसन्तति में विद्यमान लोभ, द्वेष एवं मोह पच्चामित्तं गहिस्साम, जा. अट्ठ. 6.224. जैसी अकुशल मनोवृत्तियां - तयोमे, भिक्खवे, अन्तरामला अन्तरायकरण नपुं.. [अन्तरायकरण], विघ्न या बाधा उत्पन्न अन्तराअमिता अन्तरासपत्ता अन्तरावधका अन्तरापच्चत्थिका, करना, बाधक बनना - ... अनुपगन्त्वा एतस्स अन्तरायं इतिवु. 60; महानि. 11; यथा चेते लोभादयो सत्तानं चित्ते कातुन्ति अन्तरायकरणत्थं नानाकारणेहि संसग्गमाविकत्वा उप्पज्जित्वा मलिनभावकरा नानप्पकारसंकिलेसविधायकाति दळ्हं करित्वा पच्छा अन्तरायं करोति, जा. अट्ठ. 4.52. अन्तरामला, इतिवु. अट्ठ. 241; - सुत्त इतिवु. के चौथे वर्ग अन्तरायाभाव पु., तत्पु. स. [अन्तरायाभाव], किसी प्रकार के नौवें सुत्त का शीर्षक, इतिवु. 60-62.
के विघ्न या बाधा का अभाव - राजकुमारस्स नामगहणदिवसे अन्तरामुत्तक त्रि., बीती हुई प्रवारणा तथा अगले वर्षावास लक्खणपाठके ब्राह्मणे पक्कोसापेत्वा ... कुमारस्स के बीच में खाली पड़ा हुआ या छोड़ा हुआ (निवास) - तयो अन्तरायाभावं पुच्छि, जा. अट्ट. 6.3. मे, भिक्खवे, सेनासनग्गाहा - पुरिमको, पच्छिमको, अन्तरायविमोचन नपुं., तत्पु. स. [अन्तरायविमोचन]. अन्तरामुत्तको, चूळव. 207; अपरज्जुगताय पवारणाय आयतिं विघ्नबाधाओं से छुटकारा - अत्थीति सङ्घो आचिक्खि वस्सावासत्थाय अन्तरामुत्तको गाहापेतब्बोति आह, चूळव, अट्ट अन्तरायविमोचनं, म. वं. 35.73; अन्तराय विमोचनं ति 65; पुरिमिको पच्छिमिको, तथेवन्तरामुत्तको, विन. वि. 2842. आयुस्ससन्तराय पटिमोचनं अस्थि महाराजाति सङ्घो आचिक्खि, अन्तराय पु.. [अन्तराय], शा. अ. विघ्न, बाधा, दुर्भाग्य, ...., म. वं. टी. 607(ना.). मृत्यु, विध्वंस, विनाश, ला. अ. विनय के विशेष सन्दर्भ अन्तरायिक त्रि., अन्तराय से व्यु. [बौ. सं. अन्तरायिक, में - उपोसथ एवं पवारणा जैसे सङ्घकर्मों के निष्पादन में आन्तरायिक], विघ्न-बाधा लाने वाला, अमङ्गल-कारक, उत्पन्न विघ्न या बाधाएं, निम्नलिखित बाधाएं अन्तराय के बाधक, रुकावट खड़ी करने वाला - दारुणो, भिक्खवे, अन्तर्गत परिगणितः, राजन्तराय, चोरन्तराय, उदकन्तराय, लाभसक्कारसिलोको कटुको फरुसो अन्तरायिको अनुत्तरस्स अग्यन्तराय, मनुस्सन्तराय, अमनुस्सन्तराय, वाळन्तराय, योगक्खेमस्स अधिगमाय, स. नि. 1(2).205; अन्तरायिकोति सरीसपन्तराय, जीवितन्तराय, ब्रह्मचरियन्तराय - अन्तरायो अन्तरायकरो, स. नि. अट्ठ. 2.181; अन्तरायिका आपत्ति च पच्चूहो, विकारो च विकत्यपि, अभि. प. 765; इति बालो जानितब्बा, परि. 236; सग्गमोक्खानं अन्तरायं करोन्तीति विचिन्तेति, अन्तरायं न बुज्झति, ध. प. 286; अन्तरायन्ति अन्तरायिका, पाचि. अट्ठ. 125; उपसम्पादेन्तेन तेरस असुकस्मिं नाम काले वा ... मरिस्सामी ति अत्तनो अन्तरायिके धम्मे पुच्छितुं महाव. 118; - धम्म पु., कर्म. स. जीवितन्तरायं न बुज्झतीति, ध, प. अट्ठ. 2.246; बोधिसत्तो [आन्तरायिकधर्म], निर्वाण एवं सुखद गतियों की प्राप्ति में तस्मिम्पि चिरायन्ते अन्तरायेन भवितब्बन्ति सयं गन्चा ... बाधक 5 प्रकार के धर्म तथा भिक्षु-उपसम्पदा की प्राप्ति में अयं सरो ... धनं गहेत्वा अट्ठासि, ध. प. अट्ठ. 2.42; ..., बाधक 13 प्रकार की अयोग्यताएं - अन्तरायिकधम्मे वा अञत्र पकतत्तेन, अञत्र अन्तराया, चूळव. 79; अनुभावेन जानता, निय्यानिकधम्मे परसता, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) सोसेत्वा, अन्तराये असेसतो, ध. स. अट्ठ. 2; स. उ. 1(1).320; अनुजानामि, भिक्खवे, उपसम्पादेन्तेन तेरस प. के रूप में - अग्य., अदिट्ठ., अमनुस्स., उदक., अन्तरायिके धम्मे पुच्छितुं, महाव. 118; - टि. स्वर्ग-प्राप्ति उद्दिस्सकट., उपक्खट., उपोसथ., उप्पत्त., कम्मट्ठान., या निर्वाण के साक्षात्कार के मार्ग में 5 प्रकार के अन्तरायिक खीर., गमन., चोर., जीवित., परिभोग., बाधक, ब्रह्मचरिय., या बाधक तत्त्व हैं, कम्मन्तरायिक, किलेसन्तरायिक, भत्त., भोग., मङ्गल., मनुस्स., रज्ज., राज. आदि के अन्त. विपाकन्तरायिक, उपवादन्तरायिक एवं द्रष्ट..
आणावीतिक्कमन्तरायिक के अन्त. द्रष्ट., भिक्षु उपसम्पदा अन्तरायकर त्रि., विघ्नकारक, बाधा खड़ी करने वाला, में 13 तथा भिक्षुणी की उपसम्पदा में 24 प्रकार के अन्तरायिक बाधक, अहितकर - अन्तरायकरो समानो हितानुकम्पी वा भी उल्लिखित हैं.
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335
अन्तरे
अन्तराराम अन्तरारामं अ., अव्ययी. स., आराम के अन्दर, गांव के उदा. अट्ठ. 86.7; स. उ. प. के रूप में अग्गळ., अङ्गुल., भीतर स्थित विहार की ओर -- अन्तरारामन्ति अन्तोगामे आसन०, झान., ताल०, पखुम, फासुल. आदि के अन्त. विहारो होति, तं गच्छति, पाचि. अट्ठ. 112; अनापत्ति समये, द्रष्ट.. ... अन्तरारामं गच्छति, ... आदिकम्मिकस्साति, पाचि. 138. अन्तरित त्रि., अन्तर + Vइ का भू. क. कृ., प्रायः तृ. वि. अन्तराल नपुं.. [अन्तराल], मध्यवर्ती स्थल, बीच वाली ___ में अन्त होने वाले पद के साथ कर्म. वा. के रूप में प्रयुक्त जगह; - पथे अ., सप्त. वि., प्रतिरू. निपा., बीच रास्ते में, [अन्तरित], व्यवहित, विभाजित, दूरीकृत, दूरी में स्थित - मार्ग के मध्य में - अन्तरालपथे येव गुत्तहालकमण्डलो, चू. असतिअमनसिकारोति यथा सो पुग्गलो न उपट्टाति, कुट्टादीहि वं. 61.12; 66.114.
अन्तरितो विय होति, अ. नि. अट्ठ. 3.57; मातापितुस्स अन्तरावधक पु., चित्त-सन्तति में विद्यमान वध या विनाश अट्ठउसभमत्तेन ठानेन अन्तरिता, ..., म. नि. अट्ठ. (म.प.) करने वाले मलिन मनोभाव, आन्तरिक रूप में विनाशक 2.238; अनेकहितं भवसहस्सेहि अन्तरितं, .... मि. प. 269; तत्त्व - अन्तरामला अन्तराअमित्ता अन्तरासपत्ता पाकारकुट्टादिअन्तरिकस्स पन पनस्स अपाकटकालोपि अस्थि, अन्तरावधका अन्तरापच्चत्थिका, इतिवु. 60; महानि. 11. ध. स. अट्ठ. 129; - त्त नपुं, अन्तरित का भाव. [अन्तरितत्व], अन्तरावास पु., तत्पु. स., आवास की भीतरी क्षेत्र, अन्तःपुर व्यवहित या विभाजित होना या किया जाना - मुसावादेन - कालासोकस्स दसवस्से तम्बपण्णिअन्तरावासे वस्सं एकादसं अन्तरितत्ता सच्चं सच्चेन न घटीयति, ..., दी. नि. अट्ठ. भवे, दी. वं. 5.80.
1.68. अन्तरावोसान नपुं., आ + vपद से व्यु., क्रि. रू. के साथ अन्तरीप नपुं.. [अन्तरीप], जलप्रवाहों के मध्य में अवस्थित प्रयुक्त, बीच में ही छोड़ देना, आधे रास्ते में ही काम की भूक्षेत्र, द्वीप, टापू - दीपोन्तरीपपज्जोतपतिहानिब्बुतीसु च, परिसमाप्ति ... भिक्खू न ओरमत्तकेन विसेसाधिगमेन अभि. प. 998. अन्तरावोसानं आपज्जिस्सन्ति, ... दी. नि. 261; समतेजेतीति अन्तरीय न, [अन्तरीय], अधोवस्त्र, भीतरी परिधान - एतं दुक्करं दुरभिसम्भवन्ति मा सम्मापटिपत्तियं पमादं निवासनान्तरीयान्यन्तरमन्तरवासको, अभि. प. 292. अन्तरावोसानं आपज्जथ, ..., उदा. अट्ठ. 310.
अन्तरुद्धि/अन्तरुधी स्त्री., संभवतः अन्तवट्टि के स्थान पर अन्तरावोसानगमन नपुं., बीच में ही परिसमाप्ति की प्रवृत्ति प्रयुक्त, अतड़ी, आंत - दुग्गन्धभावेन पनस्स अन्तरुधीनं - अन्तरा वोसानगमनं खो पन तथागतप्पवेदिते धम्मविनये । निक्खमनकालो विय अहोसि, .... जा. अट्ठ. 6.8. परिहानमेतं, अ. नि. 3(2).132.
अन्तरुमार पु., कर्म. स., भिक्षु-संघ से तात्कालिक निष्कासन, अन्तरासंयोजन नपुं., कर्म स., आन्तरिक बन्धन, मानसिक कुछ ही समय के लिये किया गया निलम्बन - द्वे कथिनद्धारा बन्धन - यायं अरिया ... अन्तरा संयोजन अन्तरा बन्धनं अन्तोसीमाय उद्धरिय्यन्ति - अन्तरुङमारो, सहुभारो, परि. सञ्छिन्दति सन्तति सम्पकन्तति सम्परिकन्तति, म. नि. 336; सुणाति चन्तरुभारं सा होति सवनन्तिका, विन. वि. 3.328.
2715. अन्तरासपत्त पु., कर्म, स., भीतरी शत्रु, चित्त के अन्दर अन्तरुस्सव पु., कर्म. स., बीच-बीच में आयोजित होने वाले विद्यमान क्लेशों के रूप में शत्रु, आन्तरिक दुष्प्रवृत्तियां - छोटे उत्सव, विशिष्ट अवसर पर आयोजित उत्सव - अन्तरामला अन्तराअमित्ता अन्तरासपत्ता अन्तरावधका छणेसूति आवाहविवाहमङ्गलादीसु अन्तरुस्सवेसु पारा. अठ्ठ. अन्तरापच्चत्थिका, इतिवू. 60; महानि. 11.
2.194; अन्तरुस्सवे सूति महुस्सवस्स अन्तरन्तरा अन्तरासोब्म पु., व्य. सं., श्रीलङ्का के एक क्षेत्र का नाम - पवत्तितउस्सवेसु, सारत्थ. टी. 2.335. महाकोट अन्तरासोब्भे, दोणे गव्हरमग्गहि, म. वं. 25.11; अन्तरुपट्टान नपुं.. कर्म. स., बीच-बीच में या सुनिश्चित कत्वा अन्तरासोब्भम्हि देवनाम विहारकं चू. वं. 48.4. अन्तरालों पर की जाने वाली सेवा या देख भाल - अन्तरिका स्त्री., अन्तर से व्यु., मध्यवर्ती क्षेत्र या स्थल, अञआनिपि अन्तरन्तरुपट्टानानि होन्तियेव, जा. अट्ठ. 1.222. अन्तराल - अस्थि दिन्नं निब्बानानं उच्चनीचता हीनपणीतता अन्तरे अ., सप्त. वि., प्रतिरू. निपा., क्रि. वि., क. भीतर उक्कंसावको सीमा वा भेदो वा अन्तरिका वाति?, कथा. में, अन्दर में - सो भेरवयक्खरूपं ... तं पातेत्वा दाठानं 190; तपोदा द्विन्नं महानिरयानं अन्तरिकाय आदीस विवरे अन्तरे कत्वा खादितुकामो विय अहोसि, जा. अट्ठ. 7.202;
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अन्तरेन
बीच रास्ते पर मार्ग के
ख. अन्तरा के आशय में मध्य में - तस्मि अत्थते थेरो इदं कूटागारं अन्तरे अप्पतिट्ठहित्वा रञ्ञा दिट्ठकालेयेव ... परिनिब्बायि, अ० नि० अड्ड. 2.131... पुरे वा पच्छा वा अन्तरे वा अनन्तरे वा धनं देति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.11; ग. ष. वि. में अन्त होने वाले पद के साथ प्रयुक्त, दो या अनेकों, मध्य में बीचो-बीच हिन्नं पन नगरानं अन्तरे उभयनगरवासीनम्पि लुम्बिनीवनं नाम मङ्गलसालवनं अतिथ जा. अट्ठ. 1.63; सावत्थिया च जेतवनस्स च अन्तरे सकटानि मोचयिंसु ध. प. अड. 141. एकसट्टिया अरहन्तानं अन्तरे पञ्चवग्गियाने अब्भन्तरो अगतो. ध. प. अड. 1.53: अम्हाकं पनन्तरे राजा नाम नत्थि ... जा. अट्ठ. 2.291 घ. साथ में विषय में बारे में - किर मम अन्तरे एवं वुत्तन्ति, ध. प. अट्ठ. 2.238; अहिंसकमानवो तुम्हाकं अन्तरे दुमतीति मज्ञमाति म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.235.
तया
...
336
अन्तरेन अ., अन्तर से व्यु. तृ. वि. प्रतिरू, निपा., क्रि.वि. [ अन्तरेण]. क. बीच से होकर मध्य में, बीच में, कालावधि में अन्तरेन हत्थं पवेसेत्वा, म. नि. अट्ठ. 3.495 (सिआमी सं.): ख, द्वि. वि. में अन्त होने वाले पद के साथ, बीच में, मध्य में - चुतूपपाते असति नेविध न हुरं न उभयमन्तरेन, स. नि. 2 ( 2 ) . 65; ये पन उभयमन्तरेना ति वचनं गर्हत्वा अन्तराभव इच्छन्ति, ते सं... स. नि. अड्ड. 3.19; ग. ष. वि. में अन्त होने वाले पद के साथ, बीच में मध्य में सत्तन्नं त्वेव कायानमन्तरेन सत्यं विवरमनुपततीति दी. नि. 1.50 -- अन्तरेन यमकसालानं उत्तरसीसकं मञ्चकं पञ्ञपेहि दी. नि. 2.104; समतित्तिको तेलपत्तो अन्तरेन च महाजनकायस्स.... जा. अट्ठ. 1.376; घ. प. वि. में अन्त होने वाले पदों के साथ प्रयुक्त होने पर बिना या वर्जन के अर्थ वाला निपा, अन्तरेन परोपदेसा सामं येव सच्चानि अभिसम्भूज्झि इच्च एवमादि, सद. 3.733: तु विना नाना अन्तरेन रितेपृथु अभि. प. 1137. अन्तलिक्ख नपुं [अन्तरिक्ष ] आकाश एवं पृथ्वी के बीच वाला प्रदेश, वायुमण्डल, वातावरण, आकाश, नभमण्डल अन्तलिक्खं खमादिव्यपथों मं गगनाम्बरं अभि. प. 45: आकासो अम्बर अब्भं अन्तलिक्खं अयं नभः सह 2.442: सूरियोव ओभासयमन्तलिक्खन्ति उदा. 71; सूरियो अब्भुग्गतो अत्तनो पभाय अन्तलिक्खं ओभासेन्तोव अन्धकार विधमेन्तोतिद्वति, उदा. अ. 41: यानीध भूतानि
0,
यथा
अन्तवण्ण
समागतानि भुम्मानि वा यानि च अन्तलिक्खे, सु. नि. 224 गत्रि [ अन्तरिक्षग], अन्तरिक्ष में गमन करने वाला, आकाशमार्ग पर चलने वाला - तमोनुदा ते पन अन्तलिकखगा, अ. नि. 1 ( 1 ) 244 अन्तलिक्खगाति आकासङ्गमा, अ. नि. अट्ठ. 2.193 - चर त्रि., [अन्तरिक्षचर] आकाशमार्ग पर विचरण करने वाला - अन्तलिक्खचरो आसिं, चक्कवत्ती महब्बलो, बु. वं. 14.11; अन्तलिक्खचरोति चक्करतनं पुरखत्या आकासचरो, बु. वं. अड्ड. 235 अन्तलिक्खचरो पासो खायं चरति मानसो ति ध. स. अट्ट.
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185; - भवन नपुं, तत्पु. स. [अन्तरिक्षभवन ], आकाश में स्थित भवन नान्तलिक्खभवनेन नाङ्गपुत्तपिनेन वा जा.
अट्ठ. 3.191.
अन्तलिक्खेचरत्रि अन्तलिक्खचर का अप. [अन्तरिक्षचर] अन्तरिक्ष या आकाश में विचरण करने वाला मनोमया पीतिभक्खा सयंपभा अन्तलिक्खेचरा सुभट्ठायिनो चिरं दीघमद्धानं तिद्वन्ति, अ. नि. 3 ( 2 ) .50.
अन्तलुत्ति स्त्री, तत्पु, स. [अन्तलुप्ति ], अन्तिम वर्ण का लोप दिसा स्वानश्वान्तलुति च सह 3.857. अन्तलोप पु०, तत्पु॰ स॰ [अन्तलोप], अन्तिम वर्ण (स्वर या व्यञ्जन) का लोप दिसा स्वानस्वान्तलोपो च. क. व्या.
601.
अन्तवन्तु त्रि, अन्त से व्यु [ अन्तवत् ], वह, जिसका अन्त या विनाश अवश्य होता है, परिसीमित, वह जिसका कोई न कोई छोर या किनारा रहता है, सुनिश्चित प्रमाण वाला, असर्वगत अन्तवा अयं लोको परिवटुमो दी. नि. 1.19 अन्तवा अत्ता होति, दी० नि० 1.26; अन्तवा लोको, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञन्ति, उदा. 145 अन्तवाति सपरियन्तो परिवटुमो परिच्छिन्नपमाणो न सब्बगतोति अत्थो, उदा. अट्ठ. 277.
अन्तवग्ग पु. स. नि. के खन्धसंयुक्त्त के 11वें वग्ग का नाम, स. नि. 2 (1).141-42.
अन्तवट्टि स्त्री. कर्म. स. उदर के भीतर विद्यमान आंत या अंतड़ी एकवीसतिया ठानेसु ओभग्गा अन्तवट्टि, विभ. 31. 229; अन्तवद्दीहि रुक्खं परिक्खिपित्वा लोहितपञ्चकुलिकानि करोम जा. अनु. 3.138. अन्तवण्ण पु. ब. स. [अन्त्यवर्ण] सबसे अधम जाति में उत्पन्न मनुष्य, अन्तिम वर्ण में जन्म ग्रहण करने वाला व्यक्ति सुद्दोन्तवण्णो वसलो ककिष्ण मागधादयो, अभि.
प. 503.
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अन्तविरहित
337
अन्तिम
अन्तविरहित त्रि., तत्पु. स. [अन्तविरहित], वह, जिसका कोई ओर-छोर न हो, अनन्त, अप्रमाण, असीम - ...... अन्तविरहिते संसारे भवादीस सत्ते जवापेतीति अविज्जा, उदा. अट्ठ. 34. अन्तसञी त्रि., ब. स. [अन्तसंज्ञिन], वह, जो धर्मों को अन्त वाला अथवा परिसीमित मानता हो - यथासमाहिते चित्ते अन्तसञी लोकस्मिं विहरति, दी. नि. 1.19; अबढेत्वा तं लोको ति गहेत्वा पटिभागनिमित्तं चक्कवाळपरियन्तं अन्तसञी लोकस्मिं विहरति. दी. नि. अट्ठ. 1.98. अन्तसर पु., कर्म. स. [अन्त्यस्वर]. पद के अन्त में आया हुआ स्वरवर्ण - आकारन्तानं धातूनं अन्तसरस्स आय
आदेसो होति..., क. व्या. 594. अन्तातीत त्रि., अच्चन्त के लिये प्रयुक्त पर्यायभूत वचन [अन्तातीत], वह, जिसने अन्त का अतिक्रमण कर लिया है, अविनाशी - अच्चन्तन्ति अन्तातीतं अविनासधम्म, जा. अट्ठ. 5.453. अन्तानन्त त्रि, द्व. स. [अन्तानन्त], क. अन्तवाला एवं अन्त से रहित, ख. अन्त एवं अनन्त होने की अवस्था - यं आगम्म यं आरभ एके समणब्राह्मणा अन्तानन्तिका अन्तानन्तं लोकस्स पञपेन्ति, दी. नि. 1.19; - वाद पु., तत्पु. स. [अन्तानन्तवाद], लोक एवं आत्मा के अन्तवान् एवं अन्तरहित होने के तथ्य को प्रतिपादित करने वाला बुद्धकालीन सिद्धान्त - अन्तानन्तिकाति अन्तानन्तवादा, दी. नि. अट्ठ. 1.98; -न्तिक त्रि., अन्तानन्त से व्यु. [अन्तानन्तिक], वह, जो लोक एवं आत्मा आदि धर्मों की अन्तवत्ता एवं अनन्तता का प्रतिपादन करता है, अन्तानन्तवादी बुद्धकालीन धर्माचार्य - यं आगम्म यं आरब्म एके समणब्राह्मणा अन्तानन्तिका अन्तानन्तं लोकस्स पञपेन्ति, अन्तानन्तिकाति अन्तानन्तवादा, दी. नि. अट्ठ. 1.98. अन्तावसान नपुं.. तत्पु. स. [अन्तावसान], आंतो का छोर या किनारा, अंतड़ियों के शिरे - पक्कासयो नाम हेट्ठा नाभिपिट्टिकण्टकमूलानं अन्तरे अन्तावसाने उब्बेधेन अट्ठङ्गुलमत्तो वंसनळकब्अन्तरसदिसो पदेसो, खु. पा. अट्ठ.
अन्तिक त्रि., अन्त से व्यु.. [अन्तिक], समीपवर्ती, निकटवर्ती, पास वाला - अन्तिकस्स नेदो, क. व्या. 266. अन्तिकभाव पु., कर्म. स. [अन्तिकभाव], सामीप्य, निकटता - उदकस्स अन्तिकभावेन ओदकन्तिकं खु. पा. अट्ठ. 174. अन्तिके अ., अन्तिक से व्यु., सप्त. वि., प्रतिरू. निपा., प्रायः ष./सप्त वि. में अन्त होने वाले पद के साथ प्रयुक्त [अन्तिके], समीप में, निकट में, पास में - एहि गच्छाम पितु ममन्तिके, एसोव ते एतमत्थं पवक्खतीति, जा. अट्ठ. 7.156; जीवञ्च नंगहेत्वान, आनयेहि ममन्तिके ति, जा. अट्ठ. 4.247; तस्मिं रुक्खे निब्बत्तदेवताय, सन्तिके पुत्तधीतुयसधनादीसु यं यं इच्छति, तं ते पत्थेन्तं, जा. अट्ठ. 1.252; पाठा. सन्तिके; एवं सदेवका लोका, ओसरन्तु तवन्तिके बु. वं. 2.1863; तुल. अन्तिकं, सन्तिके. अन्तिम' त्रि., अन्त से व्यु. [अन्तिम], क. अन्त में आया हुआ, ख. सबसे निचला, ग. सबसे अधिक निकटवर्ती - अनित्थन्तो परियन्तो पन्तो च पच्छिमान्तिमा, अभि. प. 7143; सरीरञ्च अन्तिमं धारेति, पत्तो च सम्बोधिमनुत्तरं सिवं सु. नि. 482; अच्छिन्दि भवसल्लानि, अन्तिमोयं समुस्सयो, ध. प. 351; अन्तिमे वत्तमानम्हि, सो निवासो भविस्सति, दी. नि. 2.212; अन्तिमे वत्तमानम्हीति अन्तिमे भवे वत्तमाने, दी. नि. अट्ठ. 2.298; उभिन्न भावितत्तानं सरीरन्तिमधारिनन्ति. सं. नि. 1(1).74; धारेति अन्तिमं देहं जेत्वा मारं सवाहिनिन्ति, इतिवु. 37; - गन्धन त्रि., कुल में सबसे निकृष्ट या अधम - तं कुल्लवत्तं अनुवत्तमानो, माहं कुले अन्तिमगन्धनो अहं जा. अट्ठ. 4.31; माहं कुले अन्तिम गन्धनो अहुन्ति अहं अत्तनो कुले सब्ब पच्छिमको चेव कुलपलापो च मा अहुन्ति सल्लक्खेत्वा .... जा. अट्ठ. 4.31; - जीविक त्रि., ब. स. [अन्तिमजीविक], जीविका उपार्जन के निकृष्ट साधनों के सहारे जीने वाला - सा एवमाह ... पाटलिपुत्ते गणिका रूपूपजीविनी अन्तिमजीविका, मि. प. 127; - देहधर त्रि०, अन्तिम देह या शरीर को धारण करने वाला - अहमस्मि, भिक्खवे, बाह्मणो याचयोगो सदा पयतपाणि अन्तिमदेहधरो अनुत्तरो भिसक्को सल्लकत्तो, इतिवु. 73; - देहधारी त्रि., उपरिवत् - खीणासवो अन्तिमदेहधारी, तथागतो अरहति पूरळासं सु. नि. 475; यो होति भिक्खु अरह कतावी, खीणासवो अन्तिमदेहधारी, स. नि. 1(1).16; सो वुत्थवासो परिपुण्णमानसो, खीणासवो अन्तिमदेहधारी, जा. अट्ठ. 1.183; - पच्छिमगतिक त्रि., ब. स. [अन्तिमपश्चिमगतिक], सबसे निकृष्ट या अधम अवस्था वाला, निकृष्टतम स्थिति
45.
अन्ति/अन्तिम अ., अन्त से व्यु.. क्रि. वि. [अन्ते], समीप में, निकट में, पास में, उपस्थिति में - सुधाविवादेन तवन्तिमागता, तं मं सुधाय वरपञ भाजय, जा. अट्ठ. 5.394; तवन्तिमागताति तव सन्तिकं आगता, जा. अट्ठ. 5.395.
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अन्तीयति
338
अन्तेपुरिका में आपतित - ... अताणा असरणा असरणीभूता अनप्पसोकातुरा अन्तुरेळि पु.. व्य. सं., श्रीलङ्का के एक प्राचीनकालीन ग्राम अन्तिमपच्छिमगतिका एकन्तसोकपरायणा .... मि. प. 149; का नाम - अन्धकार अन्तुरेळि बालवं द्वारनायक, चूवं. 46.13. - पुरिस पु., कर्मस. [अन्तिमपुरुष], क, कुल का अन्ते अ., क्रि. वि. [अन्ते], पास में, समीप में, प्रायः स. उ. अन्तिम व्यक्ति, ख, सबसे घटिया या अधम मनुष्य - ... मा प. में पू. प. के रूप में प्राप्त - एत्थ अन्ते वसतीति खो मे त्वं अन्तिमपुरिसो अहोसि, म. नि. 2.273; तस्सायं अन्तेवासी, दी. नि. अट्ट, 1.36; सो गेहं पविसित्वा अन्तोउम्मारे अनुत्तानपदत्थो ... पुरिसन्त अन्तिमपुरिस .... सु. नि. अट्ट. ठत्वा दोवारिक पक्को सापेत्वा, ..... जा. अट्ठ. 1.335; 2.180; - भव पु., कर्म. स. [अन्तिमभव], अन्तिम जन्म - पाठा. अन्तो. सोयं अन्तिमभवो अनुप्पत्तो परिपक्कं बोधिजाणं छहि वस्सेहि अन्तेपुर/अन्तोपुर नपुं.. [अन्तःपुर], शा. अ. नगर का बुद्धो ... अग्गपुग्गलो, मि. प. 266; - वत्थु नपुं.. कर्म भीतरी भाग, भीतरी नगर, ला. अ. क. राजकीय प्रासाद, स. [अन्तिमवस्तु], शा. अ. अन्तिम मामला, ला. अ.. शाही महल - सो साकियानं विपुलं जनेत्वा पीति, अन्तेपुरम्हा गम्भीरतम अपराध, पाराजिक आपत्ति - अन्तिमवत्थं निग्गमा ब्रह्मचारी, सु. नि. 700; ओ अन्तेपुरे आसिं. अज्झापन्नको पटिजानाति, महाव. 151; अन्तिमवत्थुना आसि । गोपको अभिसम्मतो, अप. 1.185; सारथि विपस्सिस्स कुमारस्स भूतत्था सङ्घमज्झगा, म. वं. 37.38; सङ्गमज्झगा ति पटिस्सुत्वा ततोव अन्तेपुरं पच्चनिय्यासि, दी. नि. 2.20; पाराजिकावत्थुवीतिक्कमवसेन भूतत्था सच्चत्था अन्तिमवत्थुना कासाविया यन्तु अन्तेपुरन्तं, जा. अट्ठ. 4.404; ख. प्रासाद चोदना विनिच्छय करणत्थाय सङ्घमज्झंगता आसि अहोसीति का वह भाग, जहां रानियां रहती हैं, रनिवास - इत्थागारंतु अत्थो, म. वं. टी. 641(ना.); - समुस्सय पु., कर्म. स., ओरोधो सुद्धन्तोन्तेपुरं पि च, अभि. प. 215; बहिपि अन्तेपुरे अन्तिम संग्रह या सञ्चय, अन्तिम देह - रक्खा सुसंविहिता अहोसि. उदा. 90; अन्तेपुरेति इत्थागारस्स अन्तिमसमुस्सयमत्तावसेसं दुक्खं अकासीति वुत्तं होति. सञ्चरणद्वानभूते राजगेहस्स अब्भन्तरे यत्थ राजा म. नि. अट्ट (मू.प.) 1(1).94; - सरीरधारिता स्त्री... न्हानभोजनसयनादि करोति, उदा. अट्ठ. 150; ग. राजा की तत्पु. स., शरीर को अन्तिम बार धारण करना - रानियां, रानियों का समूह - तत्थ महाजने आगते राजापि ..... तेन संसारकारणसमुच्छेदो अन्तिमसरीरधारिता, अगमासि सद्धि अन्तेपुरेन सु. नि. अट्ठ. 1.57; - कथा
आणदस्सिताय सब्बगुणसम्भवो, सु. नि. अट्ठ. 2.124; - स्त्री., विन. वि. के एक खण्ड का शीर्षक, विन. वि. सारीर त्रि., ब. स., अपने अन्तिम शरीर को धारण करने 1177-1183; - जन पु. तत्पु. स. [अन्तःपुरजन]. राजा के वाला - स वे अन्तिमसारीरो, ध. प. 352; स वे महल में रहने वाले लोग - अत्थस्स छत्तचामरादिहत्थो अन्तिमसारीरोति एस कोटियं ठितसरीरो, ध. प. अट्ठ. परिजनो चेव अन्तेपुरजनो च ततो नानाकारक .... दी. 2.320; - सेय्या स्त्री, कर्म, स. [अन्तिमशय्या], अन्तिम नि. अट्ट. 2.190; - द्वार नपुं, तत्पु. स. [अन्तःपुरद्वार]. शय्या, मृत्यु की शय्या - यदा अन्तिमसेय्याय राजा के महल का द्वार, अन्तःपुर का द्वार - राजा पसेनदि जरारोगाभिपीळितो, सद्धम्मो. 278; - मण्डल नपुं.. कर्म. स. .... निक्खमित्वा अन्तेपुरद्वारा पठमं स्थविनीतं अभिरुहेय्य, [अन्तिममण्डल], सबसे अन्दर वाला मण्डल, सबसे छोटा म. नि. 1.2063; - पालक पु., तत्पु. स. [अन्तःपुरपालक]. मण्डल या क्षेत्र, अनेक क्षेत्रों के मध्य में अवस्थित सभी के राजा के अन्तःपुर का रक्षक, राजप्रासाद का रक्षक - सो भीतर का क्षेत्र - जनपदचारिकं चरन्ता च महामण्डल सपिवारो ... नागदन्तकेसु ओलग्गिते अन्तेपुरपालके च मज्झिमण्डल अन्तिममण्डल इमेसं तिण्णं मण्डलान .... भाजनानि भिन्दित्वा ... रतनघरद्वारानि..... जा. अट्ठ. अञ्जतरस्मि मण्डले चरन्ति, पारा. अट्ठ. 1.150; तत्थ 6.286; - प्पवेसन नपुं., तत्पु. स., राजप्रासाद या अन्तःपुर अन्तिममण्डलन्ति, खुद्दकमण्डलं. इतरेसं वा मण्डलानं में प्रवेश - अपिच अन्तेपुरप्पवेसने वृत्तादीनववसेनपेत्थ अत्थो अन्तोगधत्ता अन्तिममण्डलं, अब्भन्तरिममण्डलन्ति वुत्तं होति, वेदितब्बो, जा. अट्ठ, 4.200; - सिक्खापद नपुं., तत्पु. स., सारत्थ. टी. 1.396.
क. अन्तःपुर से सम्बन्धित विनय शिक्षापद, ख. पाचि. के अन्तीयति ।अन्त के कर्म. वा. का वर्त, प्र. पु., ए. व., वें वर्ग के पहले सुत्त का शीर्षक, पाचि. 209-213. बांधा जाता है - अन्तीयति बन्धीयति अन्तगुणेना ति अन्तं अन्तेपुरिका स्त्री., अन्तेपुर से व्यु. [अन्तःपुरिका]. राजा के सद्द. 2.360.
रनिवास में रहने वाली नारी- ततो सोळससहस्सा अन्तेपुरिका
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अन्तेपुरित्थी 339
अन्तो तात महापदुमकुमार, .... ... महाविरवं विरविंसु, जा. अट्ठ. अनुकम्पाय ... धम्माभिसमयो ... माणवकसतानन्ति, मि. प. 4.170; तत्थ रूपूपजीविनियो मातुगामा अन्तेपुरिकादयो च 178-79; - वत्त नपुं., तत्पु. स. [अन्तेवासिकव्रत], महाव. सप्पिफाणितं नाम पिवन्ति, ध. स. अट्ठ. 422; - कपारुत । के महाखन्धक में अन्तर्भूत एक खण्ड का शीर्षक, जिसमें नपुं, तत्पु. स., अन्तःपुर में रहने वाली नारियों का चूंघट - तत्थ भिक्षु-शिष्यों के कर्तव्यों का विवरण है; महाव. 73-77; - यं किञ्चि सेतपटपारु तं ... अन्तेपुरिकपारुतं ... सब्बमेतं वास पु., तत्पु. स. [अन्तेवासिकवास]. शिष्य के समान गिहिपारुतं नाम ... यथा च अन्तेपुरिकायो अक्खितारकमत्तं जीवनवृत्ति - ..., अन्तेवासिकवासो विय भविस्सति, पे. व. दस्सेत्वा ओगुण्ठिकं पारुपन्ति, चूळव. अट्ठ, 56.
अट्ठ. 11; -सिका स्त्री., शिष्या - कथहि नाम अन्तेवासिका अन्तेपुरित्थी स्त्री., तत्पु. स. [अन्तःपुरस्त्री], राजा के आचरियेसु न सम्मा वत्तिस्सन्तीति, चूळव. 375; - कामिसेक रनिवास में रहने वाली नारी - ज्ञा थेरगुणं सुत्वा ओ पु., तत्पु. स., शिष्य के रूप में अभिषेक - ये एथ सत्थु अन्तेपुरित्थियो, म. वं. 14.46.
सम्मुखा अन्तेवासिकाभिसेकेन, दी. नि. 2.115; ये एत्थाति ये अन्तेवासी पु., [अन्तेवासिन], शा. अ. स्वामी या आचार्य तुम्हे एत्थ सासने सत्थारा सम्मुखा अन्तेवासिकाभिसेकेन के समीप में बसने वाला, ला. अ. शिष्य, शिशिक्षु, सेवक, अभिसिता, .... दी. नि. अट्ठ. 162; - सिवास/सीवास सहायक, परिचारक - सोत्थियो छन्दसो सो, पु., तत्पु. स., शिष्य के समान जीवन-दशा, शिष्यत्व - मा अथसिसाअन्तेवासिनो, अभि. प. 408; अमोघो तुम्हमोवादी, भवं उदायि, आचरियो हुत्वा अन्तेवासीवासं वसी ति, म. नि. अन्तेवासिम्हि सिक्खितो ति, थेरगा. 334; आहरियिस्सति 2.241; मानवोति अन्तेवासिवासं अनतीतभावेन वुच्चति, घरं गन्त्वा अन्तेवासिं आणापेसि, महाव. 293; ... राजागारके जातिया पन महल्लको, सु. नि. अट्ठ. 2.126; तुल. एकरत्तिवासं उपगच्छि सद्धि अन्तेवासिना ब्रह्मदत्तेन माणवेन, अन्तेवासिकवास; -- सूपद्दव पु., तत्पु. स., शिष्य के ऊपर दी. नि. 1.2; अञदेव आचरियो अन्तेवासिस्स भासति तं आया हुआ सङ्कट या विपत्ति - ... आचरियूपद्दवो होति, एवं तदेवस्स अन्तेवासी अब्भनुमोदति, म. नि. 2.317; एत्थ अन्ते सन्ते अन्तेवासूपद्दवो होति, .... म. नि. 3.158. वसतीति अन्तेवासी समीपचारो सन्तिकावचरो सिस्सोति अन्तो अ., क्रि. प. के साथ उप. की भांति प्रयुक्त, अत्थो, दी. नि. अट्ट, 1.36; तुल. अन्तेवासिक.
सम्बन्धसूचक अ० [अन्तर]. 1. क्रि. वि., बीच में, मध्य में अन्तेवासिक पु./स्त्री., [अन्तःवासिक], शिष्य, शिशिक्षु - या अन्दर में, भीतर में - अन्तरेनन्तरा अन्तो, अभि. प.
सन्तिके सिप्पुग्गण्हनको अन्तेवासिको नाम, जा. अट्ठ. 1150; अन्तो चे, ... वुटुं वहिपक्कं, सामं पक्कं तञ्चे 1.140; अन्तेवासिको आचरियम्हि पितुचित्तं उपट्ठापेस्सति, परिभुजेय्य, आपत्ति द्विन्नं दुक्कटानं, महाव. 287; तस्मा महाव. 68; अन्तेवासिकं वा सद्धिविहारिकं वा न सम्मा कत्वा पुरं अन्तो सीमं बन्धथसज्जुकं, म. वं. 15.183; 2. वत्तन्तं निक्कडति वा निकडापेति वा, पाचि. 67; यथा क्रि. प. के साथ उप. के रूप में, क. प. वि. में अन्त अन्तेवासिकस्स आचरियो अत्थि, .., मि. प. 250; सम्मा होने वाले पदों के साथ में - अन्तो अस्स वसन्तीति पटिपन्ने अन्तेवासिके ये आचरियानं पञ्चवीसति आचरियगुणा, अस्स पुग्गलस्स अन्तो अब्भन्तरे चित्ते वसन्ति पवत्तन्ति, स. मि. प. 105; - ता स्त्री., अन्तेवासिक का भाव. नि. टी. 3.34; त्यास्स अन्तो वसन्ति, अन्तस्स ... अकुसला [अन्तेवासिकता], शिष्यत्व, शिशिक्षुत्व, अधीनता - ..., ते धम्माति, स. नि. 2(2).139; अनन्तेवासिकन्ति अन्तो महल्लककालेपि अन्तेवासिकताय माणवकात्वेव वुत्ता, स. वसनककिलेसविरहितं. स. नि. अट्ठ. 3.46; त्यस्स अन्तो नि. अट्ठ. 3.41; - माणव पु., कर्म. स., युवा ब्राह्मण-शिष्य वसन्ति अन्वासवन्ति पापका अकुसला धम्माति, महानि. 10%; - तेसु पुरोहितस्स अन्तेवासिकमानवो पण्डितो व्यत्तो आचरियं अन्तो वसन्तीति अब्भन्तरे चित्ते निवसन्ति, महानि. अट्ठ. 52; आह, जा. अट्ठ. 1.328; पाठा. अन्तेवासिकमानव; - कम्यता ख. वि. वि. में अन्त होने वाले पदों के साथ - सो स्त्री., तत्पु. स., शिष्य प्राप्त करने की कामना, शिष्य बनाने तं सत्ताह अन्तो सन्निवत्तं करोति, महाव. 204; ग. अव्ययी. की इच्छा - ..... एवमस्स - अन्तेवासिकम्यता नो समणो स. के पू. प. के रूप में प्रायः सप्त. वि., द्वि. वि. गोतमो एवमाहाति, दी. नि. 3.40; अन्तेवासिकम्यताति तथा प. वि. में अन्त होने वाले नामपदों के साथ अन्तेवासिकम्यताय, अम्हे अन्तेवासिके इच्छन्तो, दी. नि.. प्रयुक्त - तस्मिं समये अन्तोअटवियं चोरा मनुस्से विलुम्पित्वा अट्ठ. 3.24; .... न पक्खहेतु न अन्तेवासिकम्यताय, अथ खो पलायिंसु, जा. अट्ठ. 1.294; निच्चले बुद्धे ... योजनसतिके
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अन्तोउद्वितससन
340
अन्तोगध
स., मां की कोख में गया हुआ या विद्यमान - तिरोकुच्छिगतन्ति अन्तोकुच्छिगतं. दी. नि. अट्ठ. 2.25. अन्तोकोट्ठागारिक त्रि.. ब. स., अपने पास धन-धान्य का संग्रह करने वाला - अन्तोकोडागारिका इमे समणा सक्यपुत्तिया, सेय्यथापि राजा ... बिम्बिसारो ति, पारा. 375; अन्तोकोट्ठागारिकाति अब्भन्तरे संविहितकोट्ठागारा, पारा. अट्ठ. 2.262. अन्तोगत त्रि., [अन्तर्गत], शा. अ. बीच में या अन्दर में गया हुआ, अन्दर आया हुआ, ला. अ. भीतर में या आन्तरिकरूप में केन्द्रित, बाहर की ओर नहीं बिखरा हुआ, अविक्षिप्त - ततो त्वं मोग्गल्लान, पच्छापुरेसी चङ्कम अधिगृहेय्यासि अन्तोगतेहि इन्द्रियेहि अबहिगतेन मानसेन, अ. नि. 2(2).225; अन्तोगतेहि इन्द्रियेहीति बहि अविक्खित्तेहि अन्तो अनुपविटेहेव पञ्चहि इन्द्रियेहि, अ. नि. अट्ठ. 3.175; अन्तमसो पत्तपरियापन्नमत्तम्पीति ... पत्तस्स अन्तोगतं द्वत्तिकटच्छुभिक्खामत्तम्पि, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).289; झानस्स वञ्चितस्सन्तो-गतं रूपं तु योगिना, अभि. अव.
1091.
अन्तो अवीचिम्हि योजनसतुब्बेधमेवस्स सरीरं निब्बत्ति, ध. प. अट्ठ. 1.86; थेरो नासाय तेलं आसिञ्चन्तो निसिन्नकोव आसिञ्चित्वा अन्तोगाम पाविसि, ध. प. अट्ठ. 1.6; ग.3. यत्र तत्र संज्ञा के रूप में भी प्रयुक्त, पु., अन्दर, भीतर, भीतरी भाग- सचे इमस्स कायस्स अन्तो बाहिरको सिया, जा. अट्ठ. 1.151; अन्तोपि सो होति पस्सन्नचित्तो, पारं समुहस्स पसन्नचित्तो, जा. अट्ठ. 4.194; - अमच्च पु.. तत्पु. स., आन्तरिक मन्त्री, विश्वासपात्र मन्त्री - अन्तो अमच्चेन एकेन कारापितं विहारं आणालङ्कारसद्धम्मधजमहाधम्मराजगुरुथेरस्स अदासि, सा. वं. 122(ना.); - अरुण पु., तत्पु. स., सूर्यास्त होने से पूर्व का समय, सूर्यास्त होने तक का समय - तेसु पातरासभत्तं ..., इतरं मज्झन्हिकतो उद्धं अन्तोअरुणेन, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).109; - आराम पु., तत्पु. स. [अन्तराराम], आराम का भीतरी भाग - अज्झारामो नाम परिक्खित्तस्स आरामस्स अन्तो आरामो, पाचि. 216; - अवसथ पु., तत्पु. स., किसी भी आवासीय भवन का भीतरी भाग - अज्झावसथो नाम परिक्खित्तस्स आवसथस्स अन्तो अवसथो, पाचि. 216. अन्तोउद्वितससन नपुं., कर्म. स. [अन्तरुत्थितश्वसन], भीतर से उठी हुई श्वास-प्रक्रिया - एतेसु द्वीसु .... अन्तो उद्वितससनं अस्सासो, सद्द. 2.399. अन्तोउदरगत त्रि., तत्पु. स., पेट के भीतर तक जा चुका, उदर में पहुंचा हुआ - हदयन्तरनिस्सिता अन्तोउदरगतापि दानवं अतिचरि, एवं अतिचरन्ति, जा. अट्ठ. 5.452. अन्तोकरण नपुं.. [अन्तःकरण, भिन्नार्थक], अन्दर में अन्तर्भूत कर लेना, अपने भीतर कर लेना, अन्तर्निवेशन - अन्तोकरणथो हि अयं आकारो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).66%; ध. प. अट्ठ. 95. अन्तोकसम्बु त्रि., तत्पु. स., शा. अ. भीतर में अपवित्र या दूषित, ला. अ. आन्तरिक क्लेशों से मलिन - अन्तोकसम्बु सङ्किलिट्ठो, कुहनं उपनिस्सितो, स. नि. 1(1).193; अन्तोकसम्बूति अन्तो किलेसप्रतिसभावेन प्रतिको, स. नि. अट्ठ. 1.204. अन्तोकुच्छि स्त्री., तत्पु. स., पेट की कोख, उदर का कोठा, पेट - अन्तोकुच्छि विपरिवत्तमाना महारवं रवि, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).176; अन्तोघरे कुसूले च कोट्टोन्तोकुच्छियं प्यथ, अभि. प. 862; हत्थिनो अन्तोकुच्छियं सट्टि पुरिसा अपरापरं चङ्कमन्ति, ध. प. अट्ठ. 1.112; - गत त्रि., तत्पु.
अन्तोगतं अ., अव्ययी. स., अन्दर ही अन्दर, मन में, वाणी के प्रयोग के बिना - भवन्तीति इमं गार्थ महासत्तो अन्तोगतमेव भासति, जा. अट्ठ. 5.198. अन्तोगध त्रि., [बौ. सं. अन्तोगत, अन्तर्गत], अपने अन्दर में ग्रहण किया हुआ, अन्तःसन्निविष्ट, अन्तःस्थित, बीच में या मध्य में आया हुआ - अन्तरगते तु परियापन्न अन्तोगधोगधा, अभि. प. 742; तथा हि तं दुक्खसच्चपरियापन्नत्ता दुक्खे अन्तोगधं, दुक्खसच्चञ्चस्स ..., म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).233; .... अन्तोगधावास्स कुसला धम्मा ये केचि विज्जाभागिया, म. नि. 3.138; अन्तोगधावास्साति तस्स भिक्खनो भावनाय अब्भन्तरगताव होन्ति, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.105; अन्तोगधानं पभेदो, उपमातो चतुक्कतो. विभ. अट्ठ. 77; - नियम त्रि., ब. स., वह, जिसके अन्तर्गत नियम रहते हों, नियमों या नियन्त्रणों का सङ्केतक - तेनेतं लक्खणं अन्तोगधनियम इध पटिच्चसमुप्पादस्स वुत्तन्ति दहब्बं, उदा. अट्ठ. 32; ... अन्तोगधनियमेहि वचनेहि अभिहितं मुञ्चित्वा अओ पच्चयभावो नाम अत्थि, उदा. अट्ठ. 34; - नियमता स्त्री., अन्तोगधनियम का भाव., नियम का सङ्केतक होना - इमस्स उप्पादा एव, न निरोधा'ति, अन्तोगधनियमता दस्सिता, उदा. अट्ठ. 38; - साम्यत्थत्त नपुं., भाव., ष. वि. के स्वामी अर्थ को
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अन्तोगेहगत
341
अन्तोदोस सूचित करना, स्वामी अर्थ को अपने अन्तर्गत रखना की श्रेणियों में से एक, घर की दासी का पुत्र - एत्थ चत्तारो - अन्तगधसम्पदानत्थत्ता अन्तोगधसाम्यत्थत्ता पन ममको दासा- अन्तोजातो, धनक्कीतो, करमरानीतो, सामं दासव्यं इच्चेव पञत्ति वत्तब्बा सिया, सद्द. 1.294; - हेतुअत्थ त्रि., उपगतो ति, तत्थ अन्तोजातो नाम जातिदासो घरदासिया प्रेर. अर्थ को सूचित करने वाला या उसका सङ्केतक - पुत्तो, महाव. अट्ट, 268; अन्तोजातो धनक्कीतो दासब्योपगतो
ओभाससीति वा अन्तोगधहेतुअथवचनं ओभासेसीति अत्थो वि. सयं, अभि. प. 515; तत्थ दासाति अन्तोजातका वा व. अट्ठ. 10.
धनक्कीता वा ... दासब्यं उपगता, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.6. अन्तोगेहगत त्रि., तत्पु. स., घर के अन्दर लाया हुआ, घर अन्तोजालीकत त्रि., शा. अ. जाल के अन्दर फंसा कर के भीतर पहुंचा हुआ - ... कुमुदभण्डिका नाम धञजाति लाया हुआ, ला. अ. ठीक से समझा हुआ - अन्तोजालीकता मासलूना अन्तोगेहगता होति, मि. प. 270.
एते, तव आणम्हि चक्खुम, अप. 1.18; सब्बे ते इमेहेव अन्तोगेहप्पवेसन नपुं.. तत्पु. स., घर के भीतर में प्रवेश द्वासट्ठिया वत्थूहि अन्तोजालीकता, दी. नि. 1.40; करना या प्रवेश - अन्तोगेहपवेसनस्सेव हि अयं दोसो, ध. अन्तोजालीकताति इमस्स मयह देसनाजालस्स अन्तोयेव प. अट्ठ. 2.21.
कता, दी. नि. अट्ठ. 1.108. अन्तोगेहाभिमुख त्रि.. ब. स., घर के अन्दर की ओर अपना अन्तोठित त्रि., [अन्तःस्थित], अन्दर में स्थित, भीतर विद्यमान मुख किया हुआ व्यक्ति - तस्मिं खणे मट्ठकुण्डली - अन्तो ठितमनुस्सा वेगेन पलापेसुंध. प. अट्ठ. 1.112;
अन्तोगेहाभिमुख निपन्नो होति, ध. प. अट्ठ. 1.17. अन्तोठितानि उग्गन्त्वा पथवीतलमारुहुँ, म. वं. 11.8. अन्तोघर नपुं.. अव्ययी. स., घर का भीतरी भाग, भीतरी अन्तो-तापनकिलेस पु., कर्म. स., भीतर मन को जलाने प्रकोष्ठ - अन्तोघरे कुसूले च कोट्टोन्तो कुच्छियं प्यथ, अभि. वाले क्लेश - अन्तो तापनकिलेसानं अभावा सीतलो जातोति प. 862; आमन्तयि अनुलादेविं सह अन्तोघरे जने, दी. वं. सीतिभूतो, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.7. 12.82; - चारी त्रि., घर के अन्दर चलने-फिरने वाला, घर अन्तोतुदक त्रि., भीतर ही भीतर चुभने वाला या पीड़ादायक के साथ सम्बद्ध - राजा अन्तोघरचारिनो मणिं परियेसित्वा - अब्भन्तरमनुप्पविठ्ठद्वेन पन अन्तोतुदकद्वेन दुन्निहरणीयढेन देथा ति बन्धापेसि, स. नि. अट्ठ. 1.129; - जन पु., तत्पु. स., घरेलू लोग, घर के लोग - अथ देवेसु च मनुस्सेसु च अन्तोदाह पु. [अन्तर्दाह], मन के अन्दर जल रही आग की ... देवता ... समचिन्तेसु ... नाम घरसामिको अन्तोघरजनानं, जलन, शोक, द्वेष आदि की अग्नि का दाह - ... अन्तोसोको गामसामिको गामवासीनं, खु. पा. अट्ठ. 97.
अन्तोपरिसोको अन्तोदाहो अन्तोपरिदाहो चेतसो परिज्झायना अन्तोजटा त्रि., ब. स., आन्तरिक रूप में उलझनों से दोमनस्सं सोकसल्लं, महानि. 92; अन्तोदाहोति अब्भन्तरदाहो, उलझा हुआ, मानसिक जटिलता से पीड़ित - अन्तोजटा महानि. अट्ठ. 201. बहिजटा, जटाय जटिता पजा, स. नि. 1(1).15; 1(1).292; अन्तोदुस्सन नपुं., कर्म. स. [अन्तर्दूषण], आन्तरिक प्रदूषण, अन्तोजटाति गाथाय जटाति तण्हाय जालिनिया अधिवचनं, मानसिक अविशुद्धि - अन्तोदुस्सनटेन गण्डतो, अ. नि. स. नि. अट्ठ. 1.46.
अट्ठ. 3.276; अन्तोदोसडेन गण्डतो, म. नि. अट्ठ. (म.प.) अन्तोजन पु., तत्पु. स., घर के भीतर के लोग, अपने 2.105. परिवार के लोग - अन्तोजनस्स च अत्तनो च पक्कमत्तं अन्तोदेवता स्त्री., शा. अ. घर के भीतर के देवता, ला. सब् दापेसि, जा. अट्ठ. 4.162; ... गुत्तिं संविदहस्सु अ. सास, श्वसुर एवं पति - अन्तोदेवता नमस्सितब्बाति, अन्तोजनस्मि बलकायस्मिं खत्तियेस अनुयन्तेस ... ध. प. अट्ठ. 1.222; अन्तोदेवता नमस्सितब्बा ति इदम्पि मिगपक्खीसु. दी. नि. 3.44; इदानि यत्थ सा संविदहितब्बा, सस्सुञ्च ससुरञ्च सामिकञ्च देवता विय दव वट्टतीति तं दस्सेन्तो अन्तोजनस्मिन्तिआदिमाह, दी. नि. अट्ठ. 3.31; सन्धाय वुत्तं ध. प. अट्ठ. 1.226; अ. नि. अट्ट. 1.307. यो सो भत्तु अब्भन्तरो अन्तोजनो दासाति वा ..., अ. नि. अन्तोदोस पु., कर्म. स. [अन्तर्दोष], आन्तरिक प्रदूषण, 2(1).33.
मानसिक प्रदूषण - सो हि सब्बदारुणो ... अन्तोदोसो अन्तोजात/अन्तोजातक त्रि., [अन्तर्जात], स्वामी के घर अन्तोपब्बलोहितोव होति, स. नि. अट्ट, 1.44-45; भिन्देतं में ही उत्पन्न एक प्रकार का दास, दासों की 3 या 4 प्रकार अन्तोदोससल्लान्ति, मि. प. 295.
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अन्तोनगर 342
अन्तोभाव अन्तोनगर न, अव्ययी. स., नगर का भीतरी क्षेत्र - पविसनवातोति विनयट्ठकथायं कुत्तं विसद्धि. 1.260; परसासोति
अन्तोनगरं सम्बाधं अम्हाकं परिजनो महन्तो ध. प. अट्ठ. 1217. अन्तोपविसनवातो, पारा. अट्ठ.2.13. अन्तोनिज्झान/अन्तोनिज्झायन नपुं., मन की बेचैनी, अन्तोपवेसन नपुं.. [अन्तःप्रवेशन], अन्दर में प्रवेश कराना
आन्तरिक कष्ट, चित्त का सन्ताप - सोकोति सोचनं या रख देना, अन्दर खोद कर गाड़ देना, भीतर घुसा देना चित्तसन्तापो, अन्तोनिज्झानन्ति अत्थो, पे. व. अट्ठ. 15; - अन्तोपवेसने निखातो, नीहरणे निद्धारणंसद्द. 3.885. तत्थ अन्तोनिज्झायनलक्खणो सोको, दी. नि. अट्ठ. अन्तोपुब्बलोहित त्रि., ब. स., अन्दर में पीब एवं रक्त से 1.103.
भरा हुआ - सो हि ... दुत्तिकिच्छो अन्तोदोसो अन्तोनिमुग्गपोसी त्रि., अव्ययी. स., पानी के अन्दर डूबे अन्तोपुब्बलोहितोव होति, स. नि. अट्ठ. 1.45. रहते हुए पुष्टि को प्राप्त करने वाला - ... उदके जातानि अन्तोपूति त्रि., [अन्तःपूति], अन्दर से प्रदुष्ट या सड़ा हुआ, उदके संववानि उदकानुग्गतानि अन्तोनिमुग्गपोसीनि, दी. चित्त के भीतर अकुशल एवं मलिन मनोभावों से परिपूर्ण - नि. 1.66; अन्तोनिमुग्गपोसीनीति उदकतलस्स अन्तो एकच्चो दुस्सीलो होति ... अस्समणो ... ब्रह्मचारिपटिओ निमुग्गानियेव हुत्वा पोसीनि, ववीनीति अत्थो, दी. नि. अट्ठ. अन्तोपूति अवस्सुतो कसम्बुजातो, स. नि. 2(2).183; 1.177.
अन्तोपूतीति वक्कहदयादीसु अपूतिकस्सपि गुणानं पूतिभावेन, अन्तोनिरोध पु., कर्म स., आन्तरिक रूप में निरोध या अन्तोपूति, स. नि. अट्ठ. 3.84; इधेकच्चो पुग्गलो दुस्सीलो विनाश, निरोध का आन्तरिक पक्ष - ततो चित्तसङ्घारोति ततो होति पापधम्मो ... अन्तोपूति अवस्सुता ..., महानि. 168; परं चित्तसङ्कारो अन्तोनिरोधे निरुज्झति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) अन्तो पूतीति अमान्तरे कु सलधाम्मविरहितत्ता 1(2).260; पञ्चिमानि, आवुसोति इध किं पुच्छति? अन्तोपूतिभावमापन्नो, महानि. अट्ठ. 270; - भाव पु., तत्पु. अन्तोनिरोधस्मिं पञ्च पसादे .... म. नि. अट्ठ. 1(2).244. स. [अन्तःपूतिभाव], आन्तरिक अपवित्रता - को थले उस्सादो, अन्तो-निसीदनयोग्ग त्रि., अन्दर बैठने योग्य - ... पुत्तदारस्स ... को आवट्टग्गाहो, को अन्तोपूतिभावोति, स. नि. 2(2).182;
अन्तो निसीदनयोग्गं गरुळसकुणं कत्वा ....ध. प. अट्ठ. 2.74. अन्तो पूतीति अब्भन्तरे कुसलधाम्मविरहितत्ता अन्तोपब्बतेन अ., अव्ययी. स., क्रि. वि., पर्वत के भीतर से अन्तोपूतिभावमापन्नो, महानि. अट्ठ. 270. होकर - ततो ... पब्बतं पविसित्वा तासेन्तो वग्गन्तो अन्तोफेग्गू त्रि., [अन्तःफल्गु], भीतर में तत्त्वहीन या सारहीन, अन्तोपब्बतेन उग्गन्त्वा महासत्तं पादे दळ्हं गहेत्वा ... अन्दर से बिना गूदे वाला हृदयरूपी काष्ठ - तिणा लतानि विस्सज्जसि, जा. अट्ठ. 7.203.
ओसझोति अन्तोफेग्गुबहिसारतिणानि च लतानि च अन्तोपरिदाह पु., कर्म. स., आन्तरिक जलन, मन के अन्तोसारओसधियो च, जा. अट्ठ. 5.88; तिणादीसु तिणं नाम
अन्दर शोक आदि से उत्पन्न जलन या चुभन - सोकोति अन्तोफेग्गु बहिसारं तालनाळिकेरादि, स. नि. अट्ठ. 2.234. ... सोको सोचना सोचितत्तं अन्तो सोको अन्तोपरिसोको अन्तोभत्तिक त्रि., ब. स., अन्दर में भोजन ग्रहण करने अन्तोदाहो अन्तोपरिदाहो चेतसो ... सोकसल्लं, महानि. वाला - राजा पण्डितं पुच्छि तात, अन्तोभत्तिको भविस्ससि.
उदाहु बहिभत्तिको ति, जा. अट्ठ. 6.173. अन्तोपविट्ठ त्रि., [अन्तःप्रविष्ट]. घर के अन्दर प्रवेश कर अन्तोभविक त्रि., किसी के अन्तर्गत आने वाला, किसी में चुका या प्रवेश किया हुआ - तत्थ एकेन छिद्देन गोधा अन्तो अन्तर्भूत होने वाला - न परिनिबुतो बुद्धो संयुत्तो लोकेन पविट्ठा, ध. प. अट्ठ. 2.240; मिगे अन्तो पविढे द्वारं पिदहिंसु, अन्तोभविको लोकस्मिं लोकसाधारणो, मि. प. 107. जा. अट्ठ. 1.160; - हनुक त्रि., भीतर की ओर धंसे हुए अन्तोभाग पु., [अन्तर्भाग]. भीतरी हिस्सा, आन्तरिक भाग - चिबुक वाला, कुछ कम उभाड़ वाले चिबुक वाला - ते सामीप्ये बन्धने छेकान्तोभागोपरीतीस च, अभि. प. 1166. इमिना ... कथितभावं जनो जानातूति अन्तोपविठ्ठहनुका वा अन्तोभाव पु., [अन्तर्भाव], किसी के अन्तर्गत रहना, किसी वङ्कहनुका वा ... होन्ति, दी. नि. अट्ठ. 1.110.
में अन्तर्भूत होना - अन्तोभावभुसत्थातिसयपूजास्वतिक्कमे, अन्तोपविसनवात पु., कर्म. स., बाहर से भीतर की ओर अभि. प. 1182; हिंसा पकारन्तोभाववियोगावयवेसु च, अभि. खींची गयी श्वांस, प्रश्वास - पस्सासो ति अन्तोपविसनवातो प. 1163; पकारे अभिनिष्फन्ने अन्तोभावे च तप्परे, सद्द. ति विनयट्ठकथायं वुत्तं, सद्द. 2.399; पस्सासोति अन्तो 3.881; अन्तोभावे पक्खित्तं, तदे..
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अन्तोभूमिगत
343
अन्तोवन अन्तोभूमिगत त्रि., [अन्तर्भूमिगत]. भूमि के अन्दर गाड़ मध्यवर्तिता, पांच प्रकार के दोषों में से एक - दिया गया या रख दिया गया - ..., अन्तोभूमिगतानि पन पञ्चदोसविवज्जितन्ति पञ्चमे ... नाम - थद्धविसमता, चिरतरं तिट्ठन्ति, दी. नि. अट्ठ. 2.326; म. नि. अट्ट. अन्तोरुक्खता, गहनच्छन्नता, अतिसम्बाधता, अतिविसालताति, (मू.प.) 1(1).284.
जा. अट्ठ. 1.10; पञ्चदोसविवज्जितन्ति ..... थद्धविसमता, अन्तोमज्झन्हिक पु.. [अन्तर्मध्याहिनक], मध्याह्न समय अन्तोरुक्खता, गहनच्छन्नता, अतिसम्बाधता, अतिविसालताति वाला, मध्याह्न काल का - अट्ठमे पच्छाभत्तन्ति ... पातोव इमेहि पञ्चहि दोसेहि विवज्जितं, बु. वं. अट्ठ. 88. भुत्तानं अन्तोमज्झन्हिकोपि पच्छाभत्तमेव ... वेदितब्बं उदा. अन्तोलीन त्रि., अन्तर्निष्ठ, सहज रूप में सङ्केतित, क्रमअट्ठ. 163; तेसु पातरासभत्तं अन्तोमज्झन्हिकेन परिच्छिन्नं, प्राप्त, स्वाभाविक रूप से प्राप्त - कोयं पुब्बरामो, कथञ्च .... अन्तोअरुणेन. म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).109; अ. नि. पुब्बरामो, का च मिगारमाता, कथञ्चस्सा पासादो अहोसीति अट्ठ. 2.191.
एतस्मिं अन्तोलीने अनुयोगे, लीन. (दी.नि.टी.) 3.33. अन्तोमण्डल नपुं., कर्म. स., बुद्ध की अतुरितचारिका का अन्तोलोहित त्रि., अन्दर ही अन्दर अत्यधिक जमे हुए रक्त तीन सौ योजनों की परिधि वाला भीतरी मण्डल या क्षेत्र - से युक्त - फरसुना पहटो विय पादो अन्तोलोहितोयेव वुत्तनयेनेव इतरेसु द्वीसु मण्डलेसु सक्कारो अन्तोमण्डले अहोसि, अ. नि. अट्ट, 1.341; विभ. अट्ठ. 402. ओसरति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).55; दी. नि. अट्ठ. अन्तोवङ्क त्रि., भीतर से वक्र या टेढ़ा, आन्तरिक रूप में 1.196; तुल. अन्तिममण्डल.
नतोदर या मुड़ा हुआ - तत्थ सुदस्सनकूट सुवण्णमयं अन्तोमन त्रि., ब. स. [अन्तर्मनस्], दुःखी मन वाला, द्वियोजनसतुब्बेधं अन्तोवत काकमुखसण्ठानं तमेव सरं विषादग्रस्त मन वाला - सो दानि ... किसो ... पटिच्छादेत्वा ठितं, सु. नि. अट्ठ. 2.145; म. नि. अट्ठ. धमनिसन्थतगत्तो अन्तोमनो लीनमनो दुक्खी दुम्मनो (म.प.) 2.26. विप्पटिसारी पज्झायसि, पारा. 20; अन्तोमनोति अन्तोवङ्कगत त्रि., ब. स., शा. अ. वह, जिसने मछली अनुसोचनवसेन अब्भन्तरेयेव ठितचित्तो, पारा. अट्ठ. 1.167. पकड़ने वाला कांटा अन्दर निगल लिया है, मछली पकड़ने अन्तोमानुसक पु., कर्म. स., अपने घर के अन्दर के मनुष्य, वाले कांटे या अंकुड़ा को अन्दर कर लेने वाला, ला. अ. निजी लोग, अपने लोग - ... तं अन्तोमानुसकानं न । वह, जिसके चित्त में क्लेश रूपी कांटे विद्यमान हैं - कथेतब्बं ..., अ. नि. अट्ठ. 1.307.
अन्तोवङ्कगतो आसि, मच्छोव घसमामिसं, थेरगा. 749; अन्तोमुखं अ., क्रि. वि., भीतर से, अन्दर से, भीतरी रूप में अन्तोवङ्कगतो आसीति व वुच्चति दिद्विगतं मनोवङ्कभावतो, - आकडजियस्स धनुदण्डस्स विय पादानं अन्तोमुखं सब्बेपि वा किलेसा अन्तोति हदयवङ्कस्स अत्थो. ..... थेरगा.
कुटिलताय अन्तोवङ्कपादता, लीन. (दी. नि. टी.) 3.98. अट्ठ. 2.241. अन्तोमुट्ठिगत त्रि., [अन्तर्मुष्ठिगत], मुट्ठी के अन्दर में अन्तोवङ्कपाद त्रि., भीतर की ओर वक्र या टेढ़े पैरों वाला - विद्यमान, मुट्ठी के अन्दर पहुंचा हुआ - चित्तं न परियादाय ...तं कम्म जनो जानातूति अन्तोवङ्कपादा वा बहिवङ्कपादा वा ठस्सन्तीति ... चित्तं अन्तोमुद्विगतं करोन्तो विय परियादाय ... भवन्ति, दी. नि. अट्ठ. 3.97; आकड्ढजियस्स धनुदण्डस्स .... सोभामि. म. नि. अट्ठ (म.प.) 2.100.
विय पादानं अन्तोमुखं कुटिलताय अन्तोवङ्कपादता, लीन. अन्तोयुधनायक पु., तत्पु. स. [अन्तर्युद्धनायक], आन्तरिक (दी. नि. टी.) 3.98. सुरक्षा का प्रमुख - एवं पन चिन्तेत्वा, अन्तोयुधनायकं अन्तोवण्ट त्रि., ब. स. [अन्तर्वृन्त], भीतर की ओर मुड़े हुए अमच्चं पधानं कत्वा तेसं तेसं थेरानं ... आरोचापेसि. सा. फूलों या पत्तो के डंठल वाला - ततो सा पुप्फकञ्चुका, वं. 121(ना.).
अन्तोवण्टा बहिमुखा, अप. 1.156; थेरगा. अट्ठ. 1.192. अन्तोयुद्धविहार पु., व्य. सं., एक विहार का नाम - अन्तोवण्ण त्रि., ब. स. [अन्तर्वर्ण], भीतर में सुन्दर रूप अपरभागे ... आणं नाम भिक्खं आनेत्वा अन्तोयुद्धविहारं वाला, सद्गुणसम्पन्न, कुशलधर्मों से युक्त चित्त वाला - न नाम कारापेत्वा तस्स अदासि. सा. वं. 121(ना.).
ब्राह्मणो बहिवण्णो, अन्तोवण्णो हि ब्राह्मणो, थेरगा. 140. अन्तोरुक्खता स्त्री., अन्तोरुक्ख का भाव., वृक्षों के समूह में अन्तोवन त्रि., [अन्तर्वन], वन का भीतरी भाग - सो या ता या वृक्षों के बीच में एक वृक्ष होने की अवस्था, वृक्षों की ...निहरेय्य, अन्तोवनं सुविसोधितं विसोधेय्य, म. नि. 1.177.
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अन्तोवळञ्ज पु.. कर्म. स. भीतर वाला आवास, आवास का भीतरी भाग बोधिसतो चिन्तेसि इदं पिळन्धन अन्तोदकज्जे
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नद्व जा. अट्ठ. 1.368. अन्तोवळञ्जनक त्रि आवास के भीतरी भाग में निवास करने वाला - सब्बे अन्तोवलञ्जनके मनुस्से गहेत्वा चूळामणिं आहरापेथाति जा. अड. 1. 366: अमच्चा मातुगामे उपादाय अन्तोवलञ्जनके किलमेन्ति जा. अड्ड. 1.366; तस्मा अन्तोवळञ्जनकानम्पि तं गत्वा पलायितुं न सक्का, एवं नेव बहिवळञ्जनकानं, न अन्तो, उय्याने वळञ्जनकानं गहणूपायो दिस्सति जा. अड. 1.368. अन्तोवसनक त्रि. भीतर निवास करने वाला, चित्त में विद्यमान - अनन्तेवासिकन्ति अन्तोवसनककिलेसविरहित, स. नि. अड. 3.46. अन्तोवस्स नपुं. अव्ययी, स. वर्षा ऋतु के भीतर आने वाला काल, वर्षा ऋतु - इदानि कित्तकं अन्तोवस्सं अवसिद्वेन्ति, वि. व. अट्ठ० 52; भिक्खुनियो अन्तोवस्सं चारिक चरन्ति पाथि 405 चरमानो ततो तिंसयोजनिके ठाने खदिरवनं गन्त्वा अन्तोवरसेयेव तेमासान्तरे सह पटिसम्भिदाहि अरहतं पापुणि घ. प. अट्ट. 1.355: दिस्वा च पन उपकट्टे अन्तोवस्से आकासेन गन्त्वा गामद्वारे ओतरि, घ. प. अ. 2.356 भाव पु. वर्षा ऋतु के काल का होना, वर्षावास की कालावधि का होना ते अन्तोवरसभावेन सत्थु सन्तिकं गन्तुं अविसहन्ता ध. प. अट्ठ. 1.36. अन्तोविहाराभिमुख त्रि. ब. स. बिहार के भीतर की ओर अभिमुख या अग्रसर अयं सा यक्खिनीति, अयं सा यक्खिनीति, ... सण्ठातुं असक्कोन्ती नियत्तेत्वा अन्तोविहाराभिमुखी पक्खन्दि, ध. प. अट्ठ. 1.32.
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अन्तोस पु, कर्म, स. शा. अ. आन्तरिक सङ्कोच, ला. अ. मन की शिथिलता, मन में उत्साह एवं पराक्रम का अभाव अनातापिनो अन्तोसङ्क्षेपो अन्तरायकरो होति, दी. नि. अड. 2.313: म. नि. अड. (म.प.) 1 ( 1 ).254 अन्तो सङ्गेपो अन्तोओलीयनो, कोसज्जन्ति अत्थो, लीन. (दी. नि. टी.) 2.273. अन्तोसमोरोध पु. [अन्तस्समवरोध ] आन्तरिक रुकावट, मानसिक अवरोध, मानसिक निष्क्रियता या शिथिलता, चित्तवृत्तियों की शिथिलता मिाति... ओनाहो परियोनाहो अन्तोसमोरोधो मिद्धं सुप्पं पचलायिका सुप्पं सुप्पना सुष्पिततं महानि. 314; अब्भन्तरे समोरुन्धतीति अन्तोसमोरोधो, महानि. अड. 352.
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अन्दु / अन्दू
अन्तोसल्ल त्रि. ब. स. [अन्तःशल्य ] शा. अ. वह जिसके अन्दर बाण का नुकीला किनारा चुभा हुआ हो, ला . अ. वह चित्त, जिसे राग, द्वेष आदि के सात प्रकार के शल्य या बाण बेध रहे हों अन्तोसल्लं सुसिरगतं भेराज्जेन अनुलिम्पति परिपच्चनाय, मि. प. 120.
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अन्तोसाणितो अ०, प० वि०, प्रतिरू, निपा., पर्दे के अन्दर से
बोधिसत्तं परिवारेत्वा निसिन्ना धातियो रञ सम्पत्तिं परिसस्सामा ति अन्तोसाणितो बहि निक्खन्ता, जा० अट्ठ
1.68.
अन्तोसार त्रि. [अन्तःसार] क. शा. अ. भीतर में सारतत्त्व रखने वाला तिणा लतानि ओसझोति अन्तो फेग्गुबहिसारतिणानि च लतानि च अन्तोसारओसधियो च, जा. अड्ड. 5.88; ख. ला. अ. आन्तरिक गुणों से परिपूर्ण - न कण्हो तचसा होति, अन्तोसारो हि ब्राह्मणो, जा. अह 4.9; अन्तोसारोति अमन्तरे सीलसमाधिपञाविमुत्ति समन्नागतो. तदे.. अन्तोसीमगत त्रि, तत्पु. स. [सीमान्तर्गत], संघकर्म उपोसथ आदि के लिए निर्धारित सीमा के अन्दर विद्यमान यावतिका भिक्खू अन्तोसीमगता तेहि भाजेतब्ब, महाव. 404; तथ सीमाय देतीति अन्तोसीमं गतेहि तु विन. वि. 2728 अन्तोसुद्ध त्रि. [ अन्तः शुद्ध], आन्तरिक रूप से विशुद्ध, विशुद्ध चित्त वाला अन्तोसुद्ध बहिसुद्ध अधिमुत्तमनासवं
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अप. 1.107.
अन्तोसोक पु०, कर्म. स. [ अन्तःशोक ], भीतरी शोक, आन्तरिक शोक... सोको सोचना सोचितत्तं अन्तोसोको अन्तोपरिसोको अयं ...,.दी. नि. 2.228; म. नि. 3.299; पटि. म. 33; विभ. 113. अदबन्धन अर्थ वाली एक धातु - अदि बन्धने, सद्द
2.377.
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अन्दति अन्द का वर्त. प्र. पु. ए. व. बांधता है अन्दति अन्द्र सद्द. 2.377.
अन्दु पु०, व्य. सं., श्रीलङ्का के एक प्राचीन ग्राम का नाम
अन्दूति विस्सुतं मन्दपओ गाम पुरन्तिके, . 59.5. अन्दु / अन्दू स्त्री॰ [अन्दू], हाथों अथवा पैरों को बांधने वाली बेड़ी या हथकड़ी अन्दुराहो पन एत्थ इत्थिलिङ्गो गहेतब्बो पालियं इत्थिलिप्रयोगदरसनतो, सद. 2377: सो ओरिमतीरे दळहाय अन्दुया पच्छावाहं गाळहबन्धनबद्धो, सद्द. 3.377; दी. नि. 1.222; अप्पेकच्चे रज्जूहि अपेकच्चे अब्रूहि अप्पेकच्चे सङ्घलिकाहि, स. नि. 1 ( 1 ).93; अन्दूबन्धनसङ्घातं दारुज, पञ्च रज्जुबन्धनं ध. प. अट्ठ. 2.311.
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अन्दुक 345
अन्ध अन्दुक पु., [अन्दुक], हाथों या पैरों को बांधने वाली बेड़ी, द्वारेहि असुचिं ... अन्धो विय अहोसिं थेरगा. अठ्ठ. 2.33; हाथी के पैरों को बांधने वाली जजीर - नीत्थी त निगळोन्दुको, अतित्थिया, भिक्खवे, परिब्बाजका अन्धा अचक्खुका, उदा. अभि. प. 364.
146; भिक्खु अन्धमकासि मारं, ..., म. नि. 1.217; अन्दुकहापण पु., तत्पु. स. [अन्दुकार्षापण], कैदी के बेड़ी अन्धमकासि मारन्ति न मारस्स अक्खीनि भिन्दी, म. नि. से मुक्त होने पर प्राप्त शुल्क या पुरस्कार - अन्दुबन्धनेन अट्ठ. (मू.प.) 1(2).67; ला. अ. ख. नपुं., तम अथवा बद्धस्स विस्सज्जनेन लभमानकहापणो बन्धकहापणो, म. तिमिसा के साथ प्रयुक्त होने पर, अंधेरा, घना अंधेरा, नि. टी. (मू.प.) 1(2).251.
अज्ञान का अंधकार, धुंधलापन - अन्धन्तमं धनतमे, अभि. प. अन्दुघर नपुं., तत्पु. स. [अन्दुगृह], कारागार - तथेव त्वं 72; अन्धतमं तदा होति, यंलोभो सहते नरं इतिव. 61; ला.
सब्बभवे, पस्स अन्दुघरे विय, बु. वं. 303; तत्थ अन्दुघरेति अ. ग. त्रि., नहीं देख सकने वाला, देखने में अक्षम - बन्धनागारे, बु. वं. अट्ट. 121; यथा अन्दुघरे पुरिसो, चिरवुत्थो उभोपि नेत्ता नयना, अन्धा उपहता मम, चरिया. 377; ङ. दुखट्टितो, जा. अट्ठ. 1.28.
अतीक्ष्ण, भोथड़, स्थूल, केवल स. प. में पू. प. के रूप में अन्दुबन्धन नपुं., तत्पु. स. [अन्दुबन्धन], बेड़ी द्वारा बांध प्रयुक्त, अन्धनख के अन्त. द्रष्ट; - करण नपुं.. दिया जाना, बेड़ी का बन्धन - बन्धनगता सब्बसत्ता [अन्धकरण], शा. अ. अन्धा कर देना या बना देना, ला. अन्दुबन्धनादीहि मुच्चिंसु, जा. अट्ठ. 1.62; बन्धेय्युं वाति अ. संशयग्रस्त कर देना, अज्ञान में ला देना, प्रज्ञा का रज्जुबन्धनेन वा, अन्दुबन्धनेन वा सङ्घलिकबन्धनेन वा ... निरोध कर देना, यथाभूतदर्शन का निरोध - अन्धकरणो बन्धेय्यु, पारा. 53; अन्दुबन्धनेन बद्धस्स विस्सज्जनेन अचक्खुकरणो अआणकरणो पञआनिरोधिको विघातपक्खिको लभमानकहापणो बन्धनकहापणो, म. नि. टी. (मू.प.) अनिब्बानसंवत्तनिको, इतिवु. 60; अ. नि. 1(1).247; 1(2).251; भन्ते, अज्ज अम्हेहि पिण्डाय चरन्तेहि बन्धनागारे अन्धकरणोतिआदीसु यस्स रागो उप्पज्जति, तं बहू चोरा अन्दुबन्धनादीहि बद्धा महादुक्खं अनुभवन्ता दिट्ठा, यथाभूतदस्सननिवारणेन अन्धं करोतीति अन्धकरणो, अ. ध. प. अट्ठ. 2.310.
नि. अट्ठ. 2.194; - कारक त्रि., अंधा या अज्ञानी बना देने अन्धोलि स्त्री., बांस के दण्ड पर लटक रही पालकी - वाला - ते अन्धकारके कामे, बहुदुक्खे महाविसे, जा. अट्ठ.
अन्धोलिधवलच्छत्तचामराधीनि सो तदा, चू. वं. 88.88. 3.442; तत्थ अन्धकारके ति पाचक्खुविनासनतो अन्दोलिका स्त्री., पालकी - पाटङ्किन्ति अन्दोलिकायेतं अन्धभावकरे तदे. - कारी त्रि., [अन्धकारिन], अंधा बनाने अधिवचनं, सारत्थ. टी. 3.263.
वाला, अज्ञान से भर देने वाला - अन्धकाराति अन्ध' द्रष्टि के विनष्ट होने के अर्थ वाली एक धातु - अन्धकारगतसदिसी, जानितुकामे च अन्धकारिनी, लीन. अन्ध दिदुपसंहारे, सद्द, 2.548.
(दी.नि.टी.) 2.243; - चक्खु क त्रि., ब. स. [अन्धचक्षुष्क], अन्ध त्रि., Vअन्ध धातु से व्यु. [अन्ध], शा. अ. दोनों नेत्रों अंधी आंखों वाला, अन्धा - अन्धचक्खुकानं यक्खानं मेत्तानुभावेन की दृश्यशक्ति से रहित, अन्धा - अन्धोति अन्धेतीति अन्धो चक् लभापेसि, सा. वं. 69(ना.); - ज्जन पु., कर्म. स., द्विन्न चक्खूनं एकस्स वा वसेन नट्ठनयनो, सद्द. 2.548; पुथुज्जन के मि. सा. पर जकार को द्वित्व [अन्धजन], अन्धो द्वयेन थ, अभि. प. 321; सब्बानिपि चे ओस्सजेय्य अंधे लोग, अज्ञानी लोग, अविद्या से ग्रस्त लोग - अन्धोव सिया, समविसमस्स अदस्सनतो, थेरगा. 321; अन्धज्जननानं हदयन्धकारं विद्धंसनं दीपमिमं जलन्तं, अभि. अन्धं पब्बाजेन्ति, महाव. 115; अन्धोति जच्चन्धो वुच्चति, अव. 66; - ज्जनपलोभिक त्रि., [अन्धजनप्रलोभक], महाव. अट्ठ. 296; ..., अन्धस्स सतो पुन दिब्बचक्खूनि अज्ञानी लोगों को प्रलोभित करने वाला या ललचाने वाला उप्पन्नाति, मि. प. 125; अन्धा मातापिता मह, ते भरामि - राजा आह ... छिन्निकाय पापिया भिन्नसीलाय ब्रहावने, जा. अट्ठ. 6.95; यञ्च अन्धे न पस्सामि, मओ हिरिअतिक्कन्तिकाय अन्धजनपलोभिकायाति, मि. प. 1283; हिस्सामि जीवितान्ति, तदे. ला. अ.क. मानसिक रूप में - तम नपुं., अन्ध' (ग) के अन्त. द्रष्ट.; - नख त्रि., ब. विक्षिप्त, अज्ञानी, मूर्ख, मोह से ग्रस्त, अविद्या से ग्रस्त, स. [अन्धनख], गन्दे या काले नखों वाला, अतीक्ष्ण नखों प्रज्ञाचक्षु से रहित - कामरागो पातुरह, अन्धोव सवती अहं, वाला - बलङ्कपादो अन्धनखो, अथो ओवद्धपिण्डिको, जा. थेरगा. 316; अन्धोव सवती अहन्ति तस्मिं कळेवरे नवहि अट्ठ. 7.319; अन्धनखोति पूतिनखो, जा. अट्ठ. 7.320; -
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अन्ध
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अन्धबधिरं
त्रि., कर्म० स०,
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घन्धं अ.. क्रि. वि., धुंधले रूप में टिमटिमाते हुए सो काय उद्धच्चकुक्कुच्चरसापि न सुप्पटिविनीतत्ता अन्धन्धं विय झायति म. नि. 3.190 - पुथुज्जन पु.. कर्म. स. [अन्धपृथग्जन] अज्ञानी लोग, सम्यक दृष्टि से रहित या अविद्या से ग्रस्त अज्ञानी जन यो हि अन्धपुथुज्जनो पापजनसेवी अयोनिसोमनसिकारबहुलो अकतकुसलो अकतपुत्रञ, उदा. अट्ठ 219; ते होन्ति परपत्तियाति ते मज्ञमाना बाला अन्धपुधुज्जना विज्ञाणपदस्स अप्पतताय ..... जा. अड. 3.67 - प्पवेणी / वेणी स्त्री. [अन्धप्रवेणी] अन्धे लोगों की श्रृहला या कतार अन्धवेणीति अन्धपवेणी दी. नि. अड्ड. 1.302: म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.298 - बधिर त्रि द्व० स० [ अन्धवधिर], अन्धा और बहरा मनुष्य पबाजेति... महाव. 115; 420; - बाल अज्ञानी एवं मूर्ख, प्रज्ञाविहीन, मोहग्रस्त सो अन्धबालो हिताहितं अजानन्तो परेसं... अट्टासि, पे. व. अट्ठ 4; अहो अन्धबाला एवरूपे ठाने इमं सिरिसम्पत्तिं नानुभवति, वि. व. अह. 53: मच्छरिनो हि अन्धवाला एवरूपेसु दानं ददमानेसु .. विय निरये निब्बतन्ति ध. प. अ. 1.300; अन्धवाले, त्वं पुष्येपि पापकम्मं कत्वा यक्खिनी जातासि जा. अड. 6.163; समणं गोतमं पटिच्च गब्भो मे लद्धोति अन्धबाले गाहापेत्वा दस्सेत्वा जा. अड्ड. 4.167; पुच्छे कतानं कम्मान, विपाको मध्ये मनन्ति... अकुसलकम्मान फलं उळारं हुत्वा उप्पज्जमान अन्धवालानं चित्तं मथयेय्य अभिभवेय्य पे. द. अ. 230 भाव पु. तत्पु, स. [ अन्धभाव], शा. अ. अन्धापन, ला॰ अ॰ अज्ञान, अविद्या, मिथ्यादृष्टि इति भगवा... पञ्ञाचक्खुवेकल्लतो अन्धभावं दस्सेत्वा इदानि तमत्थं .... उदा. अ. 278 कर त्रि.. [अन्धभावकर ]. अन्धा अथवा अज्ञानी कर देने वाला अन्धतमन्ति अन्धभावकर तमं बहलतम् अ. नि. अड. 3.179; दसमे अन्धकरणाति अन्धभावकरणा, स. नि. अट्ठ. 3.188; - करण नपुं. [ अन्धभावकरण] अंधा या अज्ञानी कर देना अन्धकारतिमिसाति चक्खुविञ्ञणुप्पत्तिनिवारणेन अन्धभावकरणं बहलतमं दी. नि. अट्ठ. 3.44; - भावकरणतिमिस नपुं०, कर्म. स. [अन्धभावकरणतमस], अंधा या अज्ञानी कर देने वाली अविद्या का अन्धकार - अन्धकारतिमिसाति चक्युविज्ञणुप्पत्तिनिवारणतो अन्धभावकरणतिमिसेन समन्नागता, दी. नि. अट्ठ. 2.23; भावकारक त्रि. [ अन्धभावकारक ], अन्धापन या अज्ञान उत्पन्न कर देने
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अन्ध
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वाला तत्थ अन्धकारतिमिसायन्ति अन्धभावकारके तमे जा. अट्ठ. 3.384; भावलक्खण त्रि., ब. स. [ अन्धभावलक्षण], अन्धापन या अज्ञान के लक्षण वाला मोहो चित्तस्स अन्धभावलक्खणो अञ्ञाणलक्खणो वा. ध. स. अड्ड. 289 भूत त्रि. [अन्धभूत] अंधा हो चुका, अज्ञान में डूबा हुआ अन्यभूतो अयं लोको, तनुकेत्थ विपस्सति घ. प. 174; तत्थ अन्धभूतो अयं लोकोति अर्थ लोकियमहाजनो पञ्ञाचक्खुनो अभावेन अन्धभूतो, ध. प. अड. 2.100 एवं सङ्काभूतेसु अन्धभूते पुथुज्जने, ध. प. 59: अविज्जानिवुत्ता पोसा, अन्धभूता अचक्चुका. अ. नि. 1 (2). 83; - महल्लक त्रि, द्व० स०, अंधेपन से ग्रस्त वृद्ध व्यक्ति, अंधा और वृद्ध इमेस अन्धमहल्लकानं एतं कम्म ध. प. अड. 2.39, महिंस पु. कर्म. स. [ अन्धमहिष] अंधा भैंसा बने अन्धमहिसोव चरेप्य बहुको जनो, जा. अट्ठ. 3.326; एवं सन्ते वने अन्धमहिसो गोचरागोचरं सासहनिरासहुञ्च ठानं अजानन्तो चरति तदे. - मूग त्रि. द्व० स० [ अन्धमूक ], अंधा और गूंगा
बहरा
अन्धमूगं पब्बाजेन्ति महाव. 115; 420; मूगबधिर त्रि. इ. स. (अन्धमूकवधिर], अंधा, गूंगा और अन्धमूगबधिरं पब्बाजेन्ति, महाव. 115 420; वण्ण त्रि. ब. स. [अन्धवर्ण] अन्धे मनुष्य जैसे छद्मवेश वाला, अन्धे के स्वरूप वाला अन्धवण्णोव हुत्वान, राजानं उपसङ्गमि चरिया 377: (1.8.6): वन नपुं. व्य. सं., श्रावस्ती नगर के समीप के एक उपवन का नाम तेन खो भिक्खु सावत्धिया अन्धवने दिवाविहारगतो निपन्नो होति, पारा 44; अन्धवनेति एवं नामके वने म. नि. अड. (मू.फ.) 1 (2). 27; अथ खो आयस्मा पुण्णो मन्ताणिपुत्तो अन्धवनं अज्झोगाहेत्वा रुक्खमूले निसीदि. म. नि. 1.202: वेणि स्त्री, तत्पु, स. [अन्धवेणी], एक दूसरे को पकड़कर एक दूसरे के पीछे चल रहे अन्धों की कतार, अन्धों की पंक्ति अन्धवेणि परम्परसंसत्ता पुरिमोपि न परसति दी. नि. 1.217: अन्धवेणीति अन्धपवेणी, एकोअन्धो गण्हाति... अन्धा परिपाटिया घटिता अन्धवेणीति दुच्चति दी. नि. अट्ट. 1.302 वेणूपम त्रि. तत्पु. स. शा. अ. अन्धों की पंक्ति के समान, ला. अ. बिना परीक्षण के परम्परा का अनुसरण करने वाला अन्धवेणूपणं मध्ये तेविज्जानं ब्राह्मणानं भासितं दी. नि. 1.217 - वेणूपमता स्त्री, अन्धवेणूपम का भाव गतानुगतिकता, लकीर का फकीर होना, अन्धानुकरण करना.... अभावेन
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अन्ध
347
अन्धकार अन्धवेणूपमतं सद्दमत्तेनेव तानि गहेत्वा ..., अ. नि. अट्ठ. नि. अट्ट, 20; तत्थ अन्धकाति काळमक्खिकानं अधिवचनं. 2.155; - वेस पु., तत्पु. स. [अन्धवेश], अन्धे मनुष्य की पिङ्गलमक्खिकानन्ति एक, सु. नि. अट्ठ. 1.28. वेशभूषा, अन्धे मनुष्य का रूप- ... वधभयेन अन्धवेसं गहेत्वा अन्धविन्द पु., व्य. सं., मगध-क्षेत्र के एक प्राचीन नगर या पण्णसालं अगमासि, जा. अट्ठ, 3.370.
ग्राम का नाम - तेन ... महाकस्सपो अन्धकविन्दा राजगह अन्ध' पु., ए. व. एवं ब. व. में प्राप्त, व्य. सं. [अन्ध्र/ उपोसथं आगच्छन्तो ... वूळ्हो अहोसि, महाव. 137; तेन
आन्ध्र], आधुनिक आन्ध्र प्रदेश, उस प्रदेश के निवासी तथा .... वेलट्ठो कच्चानो राजगहा अन्धकविन्दं अद्धानमग्गप्पटिपन्नो वहां की भाषा - मिलक्खकं नाम यो कोचि अनरियको होति, महाव. 300; भगवता अन्धकविन्दे दसानिसंसे अन्धदमिलादि, पारा. अट्ठ. 1.203; -किय त्रि., आन्ध्र क्षेत्र सम्परसमानेन यागु अनुञआता, तदे. 384; - ब्राह्मण पु.. में नियुक्त या उस क्षेत्र से सम्बन्धित व्यक्ति - अन्धे नियुत्तो अन्धकविन्द नामक गांव का ब्राह्मण - सकटसतेहि ... अन्धकियो, क. व्या. 335; - भासा/कभासा स्त्री., तत्पु. ओकासं ... गावुतप्पमाणेपि ... अनुबन्धन्ति च स. [आन्ध्रभाषा], आन्ध्र जनपद की भाषा, तमिल भाषा/तेलुगु अन्धकविन्दब्राह्मणादयो विय, उदा. अट्ठ. 88; - वग्ग पु., भाषा - ये अन्धकभासादीसु अञ्जतराय, तेसं ताय ताय अ. नि. 2(1) के पञ्चकनिपात के एक वग्ग का नाम, अ. भासाय, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).147; - रट्ठ/करट्ठ नि. 2(1).128-133; - सुत्त नपुं. स. नि. 1(1) के सगाथवग्ग नपुं.. कर्म. स. [आन्ध्रराष्ट्र], आधुनिक काल का आन्ध्र के अर्न्तगत ब्रह्मसंयुत्त के दूसरे वग्ग के तीसरे सुत्त का राज्य - महिंसकमण्डलं अन्धरठ्ठन्ति वदन्ति, वजिर. टी. 25. शीर्षक, स. नि. 1(1).181-2. अन्धक पु., [आन्ध्रक], क. आन्ध्र प्रदेश का निवासी - माता अन्धकवेण्ड पु., व्य. सं. [अन्धकवृष्णि], देवगब्मा के एक दमिळी, पिता अन्धको, ... सचे पितुकप्पं पठमं सुणाति, सेवक का नाम, जो नन्दिगोपा का पति था - नन्दिगोपा अन्धकभासं भासिस्सति, विभ. अट्ठ366; अन्धका मुण्डका __... परिचारिका अहोसि, अन्धकवेण्डो नाम दासो तस्सा सब्बे, कोटला हनुविन्दका, अप. 1.394; ख. बौद्ध धर्म की सामिको आरक्खमकासि, जा. अट्ट, 4.71; कण्हदीपायनासज्ज, अट्ठारह शाखाओं या निकायों में से एक - अन्धका नाम इसिं अन्धकवेण्डयो, जा. अट्ठ. 5.259; - दासपुत्त पु., पुब्बसेलिया, अपरसेलिया, राजगिरिया, सद्धत्थिकाति इमे तत्पु. स., देवगमा के वे दस पुत्र, जिनका पालन पच्छा उप्पन्ननिकाया, कथा. अट्ठ. 153; सब्बे धम्मा अन्धकवेण्ड तथा उसकी भार्या नन्दिगोपा ने किया था - सतिपट्टाना ति लद्धि, सेय्यथापि एतरहि अन्धकानं, तदे; - मनुस्सा सन्निपतित्वा अन्धकवेण्डदासपुत्ता दस भातिका रष्टुं कट्ठकथा स्त्री., तत्पु. स., बौद्धधर्म की अन्धक शाखा के विलुम्पन्तीति राजङ्गे उपक्कोसिसु, जा. अट्ठ. 4.73; - पुत्त विनय पर लिखी गयी एक प्राचीन अट्ठकथा, जो वर्तमान में पु., तत्पु. स., उपरिवत् - यं वे पित्वा अन्धकवेण्डपुत्ता अप्राप्त है - अन्धकट्ठकथायं पन परतीरतो नदि ओतरित्वा समुद्दतीरे परिचारयन्ता, जा. अट्ठ. 5.17; अन्धकवेण्डपुत्ताति दस्सनुपचारतो दारुनि, पण्णनित्वा मग्गित्वा आनेति, अनापत्ति, दस भातिकराजानो, जा. अट्ठ. 5.18. वजिर. टी. 327; - कट्ठकथापाठ पु.. तत्पु. स., अन्धक- अन्धकार' पु./नपुं.. [अन्धकार], अंधेरा, अन्धापन - शाखा की प्राचीन अट्ठकथा में प्राप्त पाठ - अन्धकारो तमो नित्थि तिमिसं तिमिरं मतं, अभि. प. 70; तेन विकालगामप्पवेसनसिक्खापदेपि कत्थचि उपचार समयने होति अन्धकारो अन्धकारतिमिसा, दी. नि. 3.63-643; अतिक्कमन्तस्सा ति पाठो दिस्सतीति, सो अन्धकारोति तमो, दी. नि. अट्ठ. 3.44: अन्धकारा विधसिता. अन्धकट्ठकथापाठतो गहितोति आचरियो, वजिर. टी. 326; - अप. 1.90; ..., अन्धकार व खायति, थेरगा. 1037; भाषा स्त्री., तत्पु. स., आन्ध्र प्रदेश की भाषा - अन्धकभासं अन्धकारेन ओनद्धा, तण्हादासा सनेत्तिका, चूळव. 465%; भासिस्सति, विभ. अट्ठ. 366; - रट्ठ नपुं., कर्म स... पुरिसो अन्धकारा वा अन्धकारं गच्छेय्य, स. नि. 1(1).112; वर्तमानकालीन आन्ध्र प्रदेश, अन्य प्राचीननाम अहिंसक एतम्हा अन्धकारा अओ अन्धकारो महन्ततरो च भयानकतरो मण्डल या महीशासक मण्डल भी - महिंसकमण्डलं नाम चाति, स. नि. 3(2).515; अन्धकारे वा तेलपज्जोतं धारेय्य,
अन्धकरटुं यं यक्खपुररलृ ति वच्चति, सा. वं. 11(ना.). पारा. 6; अन्धकारेति काळपक्खचातुइसी अवरत्त-घनवनसण्डअन्धकमकस पु. , द्व. स., काली मक्खियां एवं मच्छर - मेघपटलेहि चतुरङ्गे तमासि, पारा. अट्ठ. 129. अन्धकमकसा न विज्जरे, कच्छे रुळहतिणे चरन्ति गावो, सु. अन्धकार त्रि., अंधीभूत, धुंधला, अस्पष्ट, अंधा, अज्ञानी,
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अन्धकार
तमभूत यापि ता. अन्धकारा अन्धकारतिमिसा म. नि. 3.162; अन्धकाराति तमभूता, म. नि. अट्ठ० (उप. प.) 3. 130; यो अन्धकारे तमसि पभङ्करो, स० नि० 1 ( 1 ). 61; अन्धकारेति चक्खुविज्ञाणुप्पत्ति निवारणेन अन्धभावकरणे, स० नि० अ०
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1.97.
अन्धकार' पु०, श्रीलङ्का के एक प्राचीन ग्राम का नाम अन्धकारे अन्तुरेति बालवं द्वारनायक यू यं. 46.13. अन्धकारगब्म पु०, अन्धकार से भरा हुआ प्रकोष्ठ या कमरा इतरेपि चत्तारो पण्डिता अन्धकारगब्भं पविट्ठा विय न किञ्चि पस्सिंसु, जा. अट्ठ. 6.179-80. अन्धकारतमोनुदत्रि. गहरे अन्धकार को मिटा देने वाला बुद्धो अयं अनुष्यत्तो, अन्धकारतमोनुदो अप. 1.46; चक्षु सब्बस्स लोकरस, अन्धकारे तमोनुदो, थेरगा. 1051. अन्धकार तिमिसा स्त्री. कर्म. स. [अन्धकारतमिस्रा ], काली अंधियारी रात, गहरा अज्ञान तेन समयेन होति अन्धकारो अन्धकारतिमिसा दी. नि. 3.62-63 अन्धकारतिमिसाति चक्खुविञाणुष्पत्तिनिवारणेन अन्धभावकरणं बहलतमं दी. नि. अड. 3.44 अन्धकारतिमिसायं, तुझे उपरिपब्बते जा. अट्ट. 3.383; तत्थ अन्धकारतिमिसायन्ति अन्धभावकारके तमे, जा. अट्ठ. 3.384; अप. अन्धकारतिमिस्सा. अन्धकारपरेत त्रि. व. स. [अन्धकारपरेत]. अंधेरे में डूबा हुआ, अन्धकार से अभिभूत अन्धकारपरेतोति चतुरङ्गसमन्नागतेन अन्धकारेन किञ्चि अत्तत्थं वा परत्थं वा कातुं असक्कुणेय्यभावेन अभिभूतो विसुद्धि महाटी. 2.444. अन्धकारपीळित त्रि., तत्पु० स० [अन्धकारपीड़ित ], अंधेरे से पीड़ित निक्खममानो... निक्खमति अन्धकारपीळितो वा - आलोकत्थाय स. नि. अड. 2.252.
+
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अन्धकारवग्ग पु. पाचि के अर्न्तगत भिक्खुनी विभङ्ग के पाचित्तियकण्ड के दूसरे वग्ग का शीर्षक, पाचि, 366-380. अन्धकारसमाकुल त्रि. तत्पु. स. अज्ञान के अन्धकार से
भ्रमग्रस्त समुद्धरसिमं लोकं, अन्धकारसमाकुलं, अप. 1.85. अन्धकाराभिनिवेस त्रि. ब. स. अन्धेपन या अज्ञान की ओर प्रवृत्त, अज्ञान के प्रति लगाव रखने वाला आदानाधिष्पाया अन्धकाराभिनिवेशा अदरसनपरियोसाना ति अ. नि. 2 ( 2 ) 76, अन्धकारत्थाय एतेसं चित्तं अभिनिवसतीति अन्धकाराभिनिवेसा, अ. नि. अड्ड. 3.122.
अन्धीकत त्रि.. अन्ध + कर का भू. क. कृ. [अन्धीकृत ]. शा. अ. अन्धा कर दिया गया व्यक्ति, वह, जो पहले अन्धा नहीं था, बाद में अन्धा बना दिया गया है, ला. अ.
348
अन्न
मोहग्रस्त, अविद्याग्रस्त अन्धा कताति अन्धीकता, उदा. अड्ड 298 तेन खो पन समयेन... अज्झोपन्ना अन्धीकता सम्मत्तकजाता कामेसु विहरन्ति, उदा. 158; अन्धीक कामा नाम अनन्यम्पि अन्धं करोन्ति, उदा. अड्ड. 297 मूतहा सम्मूळ्हा सम्पमूल्हा अविज्जाय अन्धीकता आयुता पटिकुज्जिता, महानि, 19 अविज्जाय अन्धीकताति अद्वसु ठानेसु अञ्ञाणाय अविज्जाय अन्धीकता, महानि. अट्ठ. 75. अन्धेति / अन्धयति अन्ध (दृष्टि का उपसंहरण) का वर्त.. प्र. पु. ए. व. [ अन्धयति] 1. अंधा होता है 2. अंधा कर देता है या अंधा बनाता है अन्धो ति अन्धेती अन्धो, सद. 2.548 यिंसु अद्य प्र. पु. ब. व. अन्धोति अन्धयति चकवूनि अन्धविसु, सद. 2.548.
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अन्घनारक पु०, व्य. सं., श्रीलङ्का के एक गांव का नाम - कतकं च तुलाधारं अन्धनारकं एव च म. वं. 46.12. अन्न नपुं. असे व्यु [ अन्न ], वह जो खाया जाए. भोजन, भात ओदनों वा कुरं भत्तं भिक्खा चान्नं अभि. प. 465 1103 सालीनमन्नं परिभुज्जमानो, सो... सु. नि. 243 244 अन्नमेवाभिनन्दन्ति, उभये देवमानुसा सं. नि. 1 (1) 36: वत्थानि गन्धमाला च अन्नानि मधुराणि च म. वं. 29.21; अन्नानमयो पानानं खादनीयानं अधोपि वत्थान सु. नि. 930; ततो च पातो उपयुत्थुपोसथो अन्नेन पानेन च भिक्खुरा सु. नि. 405 अन्नेनाति यागुभत्तादिना सु. नि. अ. 2.98 कथा स्त्री, तत्पु, स. [अन्नकथा]. भोजन से सम्बन्धित कथन या खाने पीने के बारे में बातचीत राजकथं चोरकथं... अन्नकथं पानकथं ... इत्विकथं ... इतिभवाभवकथं इति वा इति दी. नि. 1.7:किच्च नपुं तत्पु, स. [ अन्नकृत्य ] भोजन ग्रहण करने की क्रिया कतन्नकिच्चो सरणेसु ते उभो दा. व. 1.59 - न्नग्ग नपुं., कर्म. स. [ अन्नाग्र], उत्तम भोजन, मनपसन्द भोजन अप्पका ते सत्ता ये अन्नग्गरसग्गानं लाभिनो अ. नि. 1 ( 1 ) .50; - न्नद्विक त्रि. [ अन्नार्थिन् ], अन्न की इच्छा रखने वाला, भोजन की तलाश करने वाला यंनूनाहं इमासं पोक्खरणीनं तीरे एवरूपं दानं पट्टपेय्यं अन्नं अन्नद्विकस्स, पानं पानद्विकस्स... दी. नि. 2.134; द पु.. [ अन्नद]. अन्न या भोजन देने वाला दो प्र. वि. ए. च. अन्नदो बलदो होति. स. नि. 1 ( 1 ) .36; भुत्वा पन दुब्बलोपि हुत्वा बलसम्पन्नो होति तस्मा अन्नदो बलदोति आह, स. नि. अट्ठ. 1.74; दा प्र. वि. ब.व. अन्नदा बलदा चेता, सु. नि. 299; तस्मा अन्नदा बलदा वण्णदा
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अन्नपान
349
अन्वड्डमासं/अन्वद्धमासं सुखदा चेताति वेदितब्बा, सु. नि. अठ्ठ. 2.49; - दायक वह, जिसे भोजन एवं पेय पदार्थ प्रदान कर दिये गये है, त्रि., [अन्नदायक], अन्न या भोजन प्रदान करने वाला - खाद्यों एवं पेयों से परिपूर्ण - दसहि सद्देहि अविवित्तं, अन्नं ददाती ति अन्नदायको, क. व्या. 529; - भच्च पु., अन्नपानसमायुतं. खु. पा. अट्ठ. 89; - नादिक त्रि., ब. स. [अन्नभृत्य], भोजन के निमित्त बनने वाला सेवक, अन्न [अन्नपानादिक], अन्न एवं पेय इत्यादि - अन्नपानादिकस्स द्वारा भरण-पोषण किया जाने वाला भृत्य या सहायक - हि दसविधस्स दातब्बवत्थुनो एतं नाम, पे. व. अट्ठ. 7;अन्नभच्चा चभच्चा च, योध उद्दिस्स गच्छति, जा. अट्ठ. नादिविधि पु., तत्पु. स. [अन्नपानादिविधि], अन्न एवं 2.306; तत्थ अन्नभच्चा चभच्चा चाति पुरिसं उपनिस्साय पीने के पदार्थों का विधान - सो उपगन्त्वा ... सत्तमाय जीवमाना यागुभत्तादिना अन्नेन भरितब्बाति अन्नभच्चा, जा. ... सिरिसयनं पञापेत्वा सब्ब अन्नपानादिविधि उपट्टपेत्वा अट्ठ. 2.307; - भार' त्रि., ब. स., अन्न के भार को ढोने देवकायो विय ... होन्तु, जा. अट्ठ. 7.183; - पासनमङ्गल वाला, घसियारा, जौ से बने भोजन के भार को उठाने वाला नपुं.. तत्पु. स. [अन्नप्राशनमङ्गल], शिशु को प्रथम बार - अन्नभारनेसादानन्ति एत्थ अन्नं वच्चति यवभत्तं तं भारो अन्न ग्रहण कराए जाने का मङ्गलमय संस्कार, अन्नप्राशन एतेसन्ति अन्नभारा, अ. नि. अट्ठ. 3.42; - भार' पु., व्य. का माङ्गलिक संस्कार - कण्णवेधमहं चेव अन्नपासनमङ्गलं. सं., 1. एक परिव्राजक का नाम - अन्नभारो वरधरो चू. वं. 62.53. सकुलुदायी च परिब्बाजको अञ च अभिजाता ... अन्ना स्त्री., मां - भोति अम्मा, भोति अन्ना. .... भोति ताता, परिबाजका, म. नि. 2.204; अन्नभारोति एकस्स सद्द. 3.652; क. व्या. 115. परिब्बाजकस्स नाम, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.168; अन्वक्खर नपुं., अन्वक्खरं का संक्षिप्तीकृत रूप [अन्वक्षर], 2. अनुरुद्ध थेर का पूर्वजन्मों में से एक जन्म का नाम - शा. अ. एक-एक अक्षर, प्रत्येक अक्षर, ला. अ. किसी अन्नभारो पुरे आसिं, दलिद्दो घासहारको, थेरगा. 910; - विशेष प्रकार के पाठ का एक-एक अक्षर - पदसो नाम पद, भारनेसाद पु., द्व. स., घसियारे एवं पक्षी पकड़ने वाले अनुपद, अन्वक्खरं अनुब्यञ्जनं, पाचि. 26; अन्वक्खरन्ति बहेलिए या निषाद - तथागतो धम्म देसेति अन्तमसो । एकेकमक्खरं पाचि. अट्ठ. 7. अन्नभारनेसादानम्पि, अ. नि. 2(1).114; अन्नभारनेसादानन्ति अन्वग त्रि., अनुगत के संक्षिप्तीकृत रूप अनुग के मि. सा. एत्थ अन्नं वच्चति यवभतं, तं भारो एतेसन्ति अन्नभारा, अ. पर अन्वगत का संक्षिप्तीकृत शब्दरूप, पीछे पीछे जाने नि. अट्ठ. 3.42; - संसावक पु., व्य. सं., एक स्थविर का वाला, अनुसरण करने वाला - भयं नु ते अन्वगतं महन्तं, नाम; अप. 1.75-76; 281; - सन्निधि पु., [अन्नसन्निधि], तेजो नु ते नान्वगं दन्तमूलं, जा. अट्ठ. 5.165; तेजो नु ते अनाज का संग्रह या भण्डारण - अन्नसन्निधिं पानसन्निधिं नान्वगं ... तेजो ... भयं महन्तं अन्वगतं, उदाहु विसं .... इति वा इति, दी. नि. 1.6.
दन्तमूलं न अन्वगतं, जा. अट्ठ. 5.167. अन्नपान नपुं., द्व. स. [अन्नपान], भोजन और पीने योग्य अन्वगत त्रि., अनु + गम का भू, क. कृ. [अनुगत], वस्तु या पान - ममन्नपानं विपुलं उळारं, उप्पज्जतीमस्स उपरिवत् - भयं नु ते अन्वगतं महन्तं, तेजो नु ते.... जा. मनिस्स हेतु, जा. अट्ठ. 2.237; तत्थ ममन्नपानन्ति मम अट्ठ. 5.165. यागुभत्तादिदिब्बभोजनं अट्ठपानकभेदञ्च दिब्बपानं तदे; पहूते अन्वगू अनु + vगम का अद्य०, प्र. पु., ए. व., अनुगच्छति अन्नपानम्हि, खज्जभोज्जे उपट्टिते, खु. पा. (पृ.) 8; अन्ने के अन्त. द्रष्ट. - अनुत्थुनन्तो कालङ्कतं, सोकस्स वसमन्वगू, च पानम्हि च अन्नपानम्हि खु. पा. अट्ठ. 164; - खादनिय सु. नि. 591; वसमन्वगूति वसं गतो, सु. नि. अट्ट. त्रि, द्व. स. [अन्नपानखादनीय], भात, पेय वस्तुएं एवं कौर 164. निगल कर खाया जाने वाला भोजन - नगरवासिनो बहुं अन्वचारी अनुचरति के अन्त. द्रष्ट.. अन्नपानखादनीयं आदाय विहारं गन्त्वा महादानं पवत्तयिंसु, अन्वड्डमासं/अन्वद्धमासं अ., अनु + अद्ध + मास से व्यु., जा. अट्ठ. 5.331; - भोजन नपुं.. द्व. स. [अन्नपानभोजन]. क्रि. वि. [अन्वर्धमास], प्रत्येक पखवारे में, प्रत्येक पन्द्रह भात, पेय पदार्थ या तरल पदार्थ तथा भोजन - चण्डालकुले दिनों में, आधे महीने में - वीच्छायं अन्वद्धमासं, मो. व्या. .... वा दलिद्दे अन्नपानभोजने कसिरवृत्तिके, स. नि. 3.2; अन्ववमासं अनुदसाह अनुपञ्चाहं देवे वस्सन्तेति अत्थो, 1(1).112; - समायुत्त त्रि., तत्पु. स. [अन्नपानासमायुक्त], पे. व. अट्ठ. 122.
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अन्वड्डमासे/अन्वद्धमासे
350
अन्वागत
अन्वड्डमासे/अन्वद्धमासे अ.. सप्त. वि., प्रतिरू. निपा., तस्सन्वयो सावको भावितत्तो. इतिवु. 58; गाथास तस्सन्वयोति क्रि. वि., उपरिवत् - .... अन्वद्धमासे पण्णरसे पुण्णमाये । तस्सेव सत्थु पटिपत्तिया धम्मदेसनाय च अनुगमनेन तस्सन्वयो उपोसथे पच्चयं नागं आरुय्ह दानं दातुं उपागमिन्ति ..., अनुजातो. इतिवु. अट्ठ. 233; ग. त्रि., केवल स. उ. प. सद्द. 1.243; अन्वद्धमासे पन्नरसे, .... चरिया. 391; तत्थ । के रूप में, अनुगामी., अनुपालक, परिचर., काया., चित्त०, अन्वद्धमासेति अनुअद्धमासे, चरिया. अट्ठ. 77.
तद, साक्यकुल०, स्नेह. के अन्त. द्रष्ट.; घ. पु., तर्क या अन्वत्थ/अन्वट्ठ त्रि., अनु + अत्थ से व्यु. [अन्वर्थ], अर्थ हेतुविद्या के सन्दर्भ में, तार्किक या युक्तियुक्त सम्बन्ध, के अनुरूप, आशय या अभिप्राय के अनुरूप, उपयुक्त, तर्कसङ्गत नैरन्तर्य, हेतु और साध्य की सतत सहवर्तिता, विध सटीक - अन्वट्ठ यत्थ नाम पितं लङ्कातिलक इति, चू. वं. नात्मक प्रतिज्ञा - चत्तारि आणानि-धम्मे आणं, अन्वये आणं, 78.53; - नामधेय्य त्रि., ब. स., लक्षण या प्रकृति के .... दी. नि. 3.181; अन्वये आणन्ति चत्तारि सच्चानि अनुरूप नाम वाला - अन्वत्थनामधेय्यत्ता लक्खुय्यानं ति पच्चक्खतो दिस्वा यथा इदानि, .... दी. नि. अट्ठ. 3.184; संमतं, चू. वं. 79.4; - पटिपत्ति स्त्री., कर्मस. के पनायस्मतो आकारा, के अन्वया, येनायस्मा एवं वदेसि, [अन्वर्थप्रतिपत्ति], उपयुक्त, आचारण या अनुकूल व्यवहार म. नि. 1.400; अन्वयाति अनुबुद्धियो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) - तत्थ अन्वत्थपटिपत्तियाति सयं पच्चासीसितलद्धपटिपत्तिया 1(2).280; के ... आकारा के अन्वया ति. म. नि. टी. (मू.प.) निब्बानलद्धभावेनाति, अत्थो, चूळनि. अट्ठ.8; - पटिपदा 1(2).280; नामन्वयेन आगच्छु, ये चञ सदिसा सह, दी. स्त्री., कर्म. स. [अन्वर्थप्रतिपत्]. उपयुक्त मार्ग, उपयुक्त । नि. 2.192; ङ. पु., व्यतिरेक के साथ प्रयुक्त, साधन या उपाय - सम्मापटिपदाय ... अन्वत्थपटिपदाय अनुमानवाक्य में विधायक-प्रतिज्ञा, स्वीकारात्मक प्रतिज्ञा या ..., सीलेसु परिपूरिकारिताय इन्द्रियेसु गुत्तद्वारताय भोजने सहमति, अंगीकारसूचक सामान्यपद - ... च गाथाद्वयेन मत्तञ्जताय, महानि. 10; अन्वत्थपटिपदायाति अत्थअनुगताय ब्यतिरेकतो अन्वयतो च विभावेति, पे. व. अट्ठ. 197; - पटिपदाय, उपरूपरि वडिताय पटिपदाय, महानि. अट्ठ. 50%; संसग्ग पु., तत्पु. स. [अन्वयसंसर्ग], विधानात्मक तार्किक - सज्ञा स्त्री., कर्म. स. [अन्वर्थसंज्ञा], अर्थ या स्वभाव के सम्बन्ध की स्थापना - इति चेति चे सद्दो अन्वयसंसग्गेन अनुरूप नामकरण - थेरिकेति इदं ..., पचुरेन परिकप्पेतीति आह ..., लीन. (दी.नि.टी.) 2.237; - यागत
अन्वत्थसआभावतो पन थिरे सासने थिरभावप्पत्ते, थिरोहि त्रि०, तत्पु. स. [अन्वयागत], वंशपरम्परा से प्राप्त, पूर्वजों से .... समन्नागतेति अत्थो, थेरीगा. अट्ट. 6.
प्राप्त - तेन अन्वयागतम्पि भोगसम्पत्तिं दीपेति, सु. नि. अट्ठ. अन्वदेव अ., निपा. [अन्वगेव], बाद में, पीछे से, अनुकूल 2.103. रूप में - एत्थ अनुअन्दति अनुबन्धतीति अन्वदि, अन्वदि एव अन्ववेक्खन नपुं., अनु + अव + Vइक्ख से व्यु., केवल स. अन्वदेवा ति कितविग्गहो सन्धिविग्गहो च वेदितब्बो, सद्द. उ. प. के रूप में प्राप्त [अन्ववेक्षण], जांच-पड़ताल, परीक्षण 2.377; पुब्बङ्गमा अकुसलानं धम्मानं समापत्तिया अन्वदेव - पातिमोक्खसंवरो इन्द्रियानरक्खणं, पच्चयान्ववेक्खन अहिरिकं अनोत्तप्पं, इतिवु. 26; अन्वदेव राजा महासुदस्सनो जीवसुद्धि एव च, सद्धम्मो, 449. सद्धि चतुरङ्गिनिया सेनाय, दी. नि. 2.129; अनुदेवाति अनु अन्वहं अ., क्रि. वि. [अन्वह, प्रतिदिन - अन्वहं पूजयी एव, द-कारो पदसन्धिवसेन आगतो, सारत्थ. टी. 1.341; बोधिं, पटिमायो च कारयिं चू. वं. 41.29; 73.24; अवसि पाठा. अनुदेव.
सुगतधातुं अन्वहं वन्दमानो, दा. वं. 4.8. अन्वय पु., अनु + Vइ से व्यु. [अन्वय], क. पु., शा. अ. अन्वगच्छि अनु + आ + गम का अद्य., प्र. पु., ए. व., पीछे जाना, अनुगमन, साहचर्य, मेलजोल, ला. अ. पीछे-पीछे गया - पुरिसो च ते पिहितो अन्वगच्छि, पे. व. वंशपरम्परा, वंशावली, बाद में सतत रूप से चल रही 742(गा.). शृंखला - कुलं वंसो च सन्तानाभिजना गोत्तमन्वयो, अभि. अन्वागन्त्वान अनु + आ + Vगम का पू. का. कृ., बाद में प. 332; 1090; यस्स पन आदिकालतो पति अन्वयवसेन पुनः वापस आकर - अन्वागन्वान दूसेय्य, भुञ्ज भोगे सो एव जनपदो निवासो, सु. नि. अट्ट. 103; ख. पु./त्रि., कटाहकाति, ध. प. अट्ठ. 2.207. अनुगामी, अनुसरण करने वाला, आगे चलकर या बाद में अन्वागत त्रि., अनु + आ गिम का भू. क. कृ. [अन्वागत], अनुसरण करने वाला - सत्था हि लोके पठमो महेसि, क. कर्म. वा. में, किसी के द्वारा अनुगत या रक्षित,
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अन्वागमेति
351
अन्वावज्जना
परवर्ती काल में प्राप्त या अधिगत, किसी से परिपूर्ण या भरपूर - तुम्हेव पादे सरणं गतास्मि, अन्वागता पुत्तसोकेन, जा. अट्ठ. 4.346; कतं किच्चं रतं रम्म, सुखेनन्वागत सुखान्ति, थेरगा. 63; ख. कर्तृ. वा. में, 1. वापस लौटा हुआ, पुनः आया हुआ - यक्खा हवे सन्ति महानुभावा, अन्वागता इसयो साधुरूपा, जा. अट्ठ. 4.346; अन्वागताति अनु आगता, तदे.; 2. वह, जिसने किसी का अनुगमन किया है अथवा किसी को अभिभूत कर लिया है - यं मं पण्डारकनागं सुपण्णो अन्वागतोति, जा. अट्ठ. 5.73; ... भयं महन्तं अन्वगतं, जा. अट्ठ. 5.167. अन्वागमति अनु + आ + गम के प्रेर. का वर्त., प्र. पु.. ए. व. [अन्वागमयति], आने देता है, वापस आने हेतु प्रेरित करता है, पुनः आने देता है - कथञ्च, भिक्खवे, अतीतं अन्वागमेति? म. नि. 3.228; - मेय्य विधि., प्र. पु., ए. व. [अन्वागमयेत्], पुनः आने दे - अतीतं नान्वागमेय्य, नप्पटिको अनागतं, म. नि. 3.227; नान्वागमेय्याति तण्हादिट्ठीहि नानुगच्छेय्य, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.176. अन्वाचय पु०, अनु + आ +चि से व्यु. [अन्वाचय], प्रधान वाक्य में एक क्रिया द्वारा मुख्य कार्य का कथन करके पुनः उपवाक्य की क्रिया द्वारा गौण कार्य का कथन, मुख्य कथ्य के साथ गौण कथ्य को जोड़ना, 'च' निपात का एक अर्थ - तत्थ केवलसमुच्चये अन्वाचये च समासो न होति, सद्द. 3.768; तत्र अन्वाचये भिक्खञ्च देहि गवञ्चानेहीति वा दानञ्च देहि सीलञ्च रक्खाहीति वा इति अन्वाचयो भिक्खकिरियविसये दट्ठब्बो, सद्द. 3.887. अन्वादिट्ठ त्रि., अनु + आ + दिस का भू. क. कृ. [अन्वादिष्ट], पुनः निर्दिष्ट, पूर्व में उल्लिखित शब्द या विचार का पुनः सङ्केत या उल्लेख - एत्थाति अनन्तरवृत्तधम्माव अन्वाधिट्ठाति आह कण्हसक्क.... लीन. (दी.नि.टी.) 3.35. अन्वादिसाहि अनु + आ + दिस का अनु., म. पु., ए. व. [अन्वादिस], पुनः संपुष्टि करो- देहि पुत्तक मे दानं, दत्वा अन्वादिसाहि मे, पे. व. 121; अन्वादिसाहि मेति यथा दिन्नं दक्खिणं मय्ह उपकप्पति, तथा उद्दिस पत्तिदानं देहि पे. व. अट्ठ. 69. अन्वादेस पु., अनु + आ + दिस से व्यु., क्रि. ना. [अन्वादेश], अनुकथन, पूर्वोक्त शब्द या कथन की पुनरुक्ति - अथोति अन्वादेसेपि स्वागतं ते महाराज अथो ते अदुरागतं. सद्द. 3.892.
अन्वाधिक त्रि., अनु + अधिक से व्यु., वकार में दीर्धीकरण अच्चाहित के मि. सा. के कारण, अधिक या अतिरिक्त प्रदान करने वाला - अन्वाधिकम्पि आरोपेतु, महाव. 389; अन्वाधिकम्पि आरोपेतुन्ति आगन्तुकपत्तम्पि दातुं महाव. अट्ठ. 386; सब्बेसु अप्पहोन्तेसु देय्यमन्वाधिकम्पि वा, विन. वि. 561. अन्वानयन्ति अनु + आ + नी का वर्त०, प्र. पु., ब. व. [अन्वानयन्ति], बार-बार लाते हैं, पुनः पुनः प्राप्त कराते हैं - सब्बेव ते निन्दमन्वानयन्तीति, महानि. 224; तत्थ अन्वानयन्तीति अनु आनयन्ति पुनप्पुनं आहरन्ति, महानि. अट्ठ. 295. अन्वामद्दि अनु + आ + मद्द का अद्य०, प्र. पु., ए. व., अनुमर्दन किया, निचोड़ दिया, दबा दिया, चाप दिया - गलकं अन्वावमद्दि, नत्थि दुढे सुभासितं, जा. अट्ठ. 3.425; पाठा. अन्वावमद्दि. अन्वाय अ०, अनु + आ + vs का पू. का. कृ., आदेति से आदाय, निधेति से निधाय आदि के मि. सा. के द्वारा व्यु., द्वि. वि. में अन्त होने वाले नामपद के पश्चसर्ग के रूप में प्रयुक्त, क. के पश्चात्, के परिणाम-स्वरूप, के फलस्वरूप - अथ खो सालवती गणिका गभस्स परिपाकमन्वाय पुत्तं विजायि, महाव. 375; 464; ..., तेसं संवासमन्वाय पुत्तो जायेथ, दी. नि. 1.84; न खो सो, भिक्खवे, कुमारो वुद्धिमन्वाय इन्द्रियानं परिपाकमन्वाय यानि तानि कुमारकानं कीळापनकानि तेहि कीळति, म. नि. 1.337; ख. के द्वारा, माध्यम से, के फलस्वरूप, सहारा लेकर - एकच्चो ... आतप्पमन्वाय... सम्मामनसिकारमन्वाय तथारूपं चेतोसमाधि फुसति, दी. नि. 1.11; एवं तिप्पभेदं वीरियं अन्वाय आगम्म पटिच्चाति अत्थो, दी. नि. अट्ट, 1.90. अन्वायिक त्रि., अनु + (इ से व्यु., अनुगमन करने वाला, अनुयायी, पीछे लगा रहने वाला- महास्स जनो अन्वायिको होति, दी. नि. 3.127; ... दुक्खं अन्वेति अनुगच्छति अन्वायिक होति, महानि. 13; सील सिरी चापि सतञ्च धम्मो, अन्वायिका पञ्जवतो भवन्ति, जा. अट्ठ. 5.142; ... अन्वायिका पञवतो
भवन्ति पञ्जवन्तमेव अनुगच्छन्ति, तदे... अन्वारुहि अनु + आ + रुह का अद्य., प्र. पु., ए. व., आरोहण किया, किसी अन्य के साथ प्रवेश किया - तं नागकआ चरितं गणेन, अन्वारुही कासिराजा पसन्नो, जा. अट्ठ. 4.420. अन्वावज्जना स्त्री., अनु + आ + Vवज्ज से व्यु., पुनः पुनः होने वाली प्रतिकूलता या विरुद्धता - सच्चविप्पटिकूलेन वा
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अन्वावट्टन्ति/अन्वावत्तन्ति
352
अन्विच्छा
चित्तस्स आवज्जना अन्वावज्जना अभोगो समन्नाहारो मनसिकारो, अ. नि. अट्ठ. 1.26. अन्वावट्टन्ति/अन्वावत्तन्ति अनु + आ + Vवत का वर्तः, प्र. पु., ब. व., किसी के आस-पास रहते हैं, चारों ओर से घेर लेते हैं, पास पहुंच जाते हैं - तस्स तथावूपकट्ठस्स विहरतो अन्वावत्तन्ति बाह्मणगहपतिका नेगमा चेव जानपदा च, म. नि. 3.158; अन्वावत्तन्तीति अनुआवत्तन्ति उपसङ्कमन्ति, म. नि. अट्ट (उप.प.) 3.121. अन्वावट्टना स्त्री., अनु + आ + Vवत से व्यु., क्रि. ना. [अन्वावर्तना], चारों ओर मडराते रहना, समीप पहुंच जाना, उपसंक्रण - सच्चविप्पटिकुसलेन वा चित्तस्स आवट्टना अनावट्टना आभोगो समन्नाहारो मनसिकारो, विभ. 435; म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).70; अनुअनु आवटेतीति अनावट्टना, विभ. अट्ठ. 472; पाठा. अनावट्टना. अन्वाविसित्वा अनु + आ + विस का पू. का. कृ., अभिभूत करके, ग्रस्त करके -मारो पापिमा अञतर ब्रह्मपारिसज्ज
अन्वाविसित्वा में एतदवोच, म. नि. 1.410. अन्वाविट्ठ त्रि०अनु + आ + विस का भू. क. कृ. [अन्वाविष्ट], बुरी तरह से अभिभूत, ग्रस्त, पीड़ित - अन्वाविट्ठा
खो, भिक्खवे, णगहपतिका दूसिना मारेन, म. नि. 1.419; अन्वाविठ्ठाति आवहिता, म. नि. अट्ट (मू.प.) 1(2).311. अन्वाविसति अनु + आ + विस का वर्त., प्र. पु., ए. व., भीतर प्रवेश कर जाता है, अभिभूत कर लेता है, वश में कर लेता है - सेय्यं विधि., उ. पु., ए. व. - ... यंनूनाहं ब्राह्मणगहपतिके अन्वाविसेय्यं, म. नि. 1.417-418; - विसि अद्य.. प्र. पु., ए. व. - पञ्चसालके ब्राह्मणगहपतिके
अन्वाविसि, मि. प. 155. अन्वासत्त त्रि., अनु + आ + सिञ्ज का भू. क. कृ. [अन्वासक्त], बन्धन में बांध दिया गया, जाल में फंसा लिया गया, अभिभूत कर लिया गया, वशीभूत किया हुआ- .... तीहि पापकेहि अकुसलेहि वितक्केहि अन्वासत्ता, अ. नि. 3(1).176; उदा. 108; अन्वासत्ताति अनुबद्धा सम्परिवारिता, अ. नि. अट्ठ. 3.258; - ता स्त्री॰, भाव., वशीभूतता, बन्धनबद्धता - सत्था पन तीहि वितक्केहि अन्वासत्तताय ..., ध. प. अट्ठ. 1.163. अन्वास्सव अनु + आ + vसु से व्यु., क्रि. ना. [अन्वास्रव], शा. अ. ऊपर होकर निकल रहा बहाव, प्रचुर बहाव, ला. अ. चित्त के सन्तान में क्लेशों या अकुशल धर्मों की प्रचुरता
- अन्वस्सुतोति इमाय पटिपत्तिया तेस तेस आरम्मणेस किलेसअन्वास्सवविरहितो, सु. नि. अट्ठ. 1.92. अन्वास्सवति/अन्वासवति अनु + आ + vसु से व्यु., वर्त, प्र. पु., ए. व. [अन्वास्रवति], शा. अ. बाहर निकल कर या ऊपर होकर बहता है, प्रचुरता के साथ रिसता या टपकता रहता है, ला. अ. अत्यधिक अभिभूत कर लेता है, किसी का अनुगमन कर उसके भीतर में भर जाता है; - न्ति वर्त, प्र. पु.. ब. व. - त्यस्स अन्तो वसन्ति अन्वासवन्ति पापका अकुसला धम्माति..., महानि. 11; अन्वासवन्तीति, किलेससन्तानं अनुगन्त्वा भुसं सवन्ति अनुबन्धन्ति, महानि.
अट्ठ. 52; -- यिस्सन्ति भवि०, प्र. पु., ब. व. - एवं मे ..... नाभिज्झादोमनस्सा पापका धम्मा अन्वारसविस्सन्तीति, अ. नि. 3(1).15; - येय्यु विधि., प्र. पु., ब. व. - ... पापका अकुसला धम्मा अन्वास्सवेय्यु तस्स संवराय पटिपज्जति, स. नि. 2(2).110. अन्वास्सवन नपुं, अनु + आ + सु से व्यु., क्रि. ना., ऊपर से होकर बहाव या तरल पदार्थ का बहना, चित्तसन्तान में अकुशल धर्मों का भर जाना - ...पुग्गलं एतेसं हीनधम्मानं वस्सनतो सिञ्चनतो अन्वास्सवनतो वसलो ति नानेय्याति, सु. नि. अट्ठ 1.141. अन्वाहत त्रि., अनु + आ + हन का भू. क. कृ. [अन्वाहत], शा. अ. पीछे या बाद में पीटा गया या प्रहार किया गया, ला. अ. व्याकुल, उद्विग्न, अशान्त, केवल निषे. स. उ. प. में प्रयुक्त, अनन्वाहतचेतसो के अन्त. द्रष्ट... अन्वाहिण्डति अनु + आ + हिड का वर्त., प्र. पु., ए. व. [अन्वाहिण्डते], इधर उधर भटकता है या घूमता है, कुछ खोजते हुए इधर से उधर जाता है, विचरता है - ... महामोग्गल्लानो आयस्मा च आनन्दो अवापुरणं आदाय विहारे आहिण्डन्ति, अ. नि. 3(1).190; पाठा. आहिण्डति; - न्त वर्त. कृ., इधर उधर विचरता हुआ - ... महानामो ... भगवतो ... पटिस्सुत्वा कपिलवत्थु पविसित्वा केवलकप्पं कपिलवत्थु अन्वाहिण्डनतो नाद्दस कपिलवत्थुरिमं ... विहरेय्य, अ. नि. 1(1).312; अन्वाहिण्डन्तोति विचरन्तो, अ. नि. अट्ठ. 2230; ... उसभो छिन्नविसाणो ... रथियाय रथियं सिद्घाटकेन सिङ्घाटकं अन्वाहिण्डन्तो न किञ्चि हिंसति ..., अ. नि. 3(1).192. अन्विच्छा स्त्री., [अन्विच्छा], बार बार हो रही इच्छा, मन में पुनः पुनः उत्पन्न इच्छा - पुनप्पुन इच्छा अनविच्छा, सद्द. 2.447; पाठा. अनविच्छा.
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अन्वेत
353
अपकवन्ति
अन्वेत त्रि., अनु + Vइ का भू. क. कृ. [अन्वित], वह, अन्वेसना स्त्री., अन्वेसन से व्यु. [अन्वेषणा], उपरिवत् - जिसका किसी के द्वारा अनुगमन किया जा रहा हो, उपगत, परियेसनान्वेसना परियेट्टि गवेसना, अभि. प. 428. युक्त, सहित - यथा वा विस्सासवसेन सीह मिगमातुका अन्वेसी त्रि., [अन्वेषिन्], अन्वेषण या किसी वस्तु की खोज अन्वेता उपगताति अत्थो, जा. अट्ठ. 1.371.
करने वाला, इच्छा या अभिलाषा करने वाला, केवल स. उ. अन्वेति अनु + Vइ का वर्त, प्र. पू., ए. व. [अन्वेति], प. के रूप में प्रयुक्त - कुसलानुएसीति कुसलधम्मे अन्वेसमानो, अनुगमन करता है, पीछा करता है, पीछे लगा रहता है - सु. नि. अट्ठ. 2.264; पाठा. कुसलानुएसी. ततो नं दुक्खमन्वेति, चक्कव वहतो पदान्ति, ध. प. 1; सु. अन्वेसित त्रि०, अनु + Vइस का भू. क. कृ., चाहा गया, नि. 776; ततो नं दुक्खमन्वेतीति ततो तिविधदुच्चरिततो तं प्रार्थित, अभीष्ट, वाञ्छित - मग्गितं परियेसितं, अन्वेसितं पुग्गलं दुक्खं अन्वेति, दुच्चरितानुभावेन चतूसु अपायेसु, गवेसितं, अभि. प. 753. मनुस्सेसु ... कायिकचेतसिकं विपाकदुक्खं अनुगच्छति, ध. अन्ह पु., अण्ह का अप॰ [अहन्], दिन, केवल स. उ. प. प. अट्ट, 1.15; ..., तेनेव मारो अन्वेति जन्तुं. सु. नि. 1109; के रूप में प्राप्त, पुब्बण्ह, मज्झन्ह, अपरण्ह के अन्त. द्रष्ट.. तेनेव मारो अन्वेति जन्तुन्ति तेनेव उपादानपच्चय- अप' प्राप्ति अर्थ वाली एक धातु - अप सम्भु च पापुणने निब्बत्तकम्माभिसङ्कारनिब्बत्तवसेन पटिसन्धिक्खन्धमारो तं सत्तं ...., धा. मं. 117; अप पापुणे, सद्द. 2.493. अनुगच्छति, सु. नि. अट्ठ. 2.291; -न्ति वर्त, प्र. पु., ब. अप. अ., उप. [अप], क. क्रि. प. एवं ना. प. के पूर्व में व. - ... निन्दमेव अन्वेन्ति, गरहमेव अन्वेन्ति, अकित्तिमेव प्रयुक्त एक उप., यत्र-तत्र अव के स्थान पर भी प्रयुक्त, अन्वेन्ति, ... -सब्बेव ते निन्दमन्वानयन्ति, महानि. 224; - वर्जन, निवारण, प्रदूषण, गर्दा या निन्दा, अर्थों का संकेतक तु अनु., प्र. पु., ए. व. [अन्वेतु]. - तस्सा सा वसमन्वेतु, - अपसद्दो अपगते गरहावज्जनेसु च पदुस्सने पूजनादिअत्थेसु या ते अम्बे अवाहरी ति, जा. अट्ठ. 3.118; तस्स एवरूपस्स पिच दिस्सति, सद्द. 3.884; निद्देसे वज्जने पूजापगतेवारणे महल्लकस्स सा वसं अन्वेतु, तथारूपं पतिं लभतु, तदे.; - पि च, अभि. प. 1184; ख. निन्दा अर्थ में - अपगब्भो न्तु अनु., प्र. पु., ब. व. - नेगमा च मं अन्वेन्त, गच्छ समणो गोतमो ति, पारा. 4; ग. वर्जन या मना करने के पुत्तनिवेदको, जा. अट्ठ. 6.26; - सि अद्य., प्र. पु., ए. व.. अर्थ में - अपसालाय आयन्ति वाणिजा, सद्द. 3.702; घ. - सिविमग्गेन अन्वेसि, पुत्ते आदाय लक्खणा ति, जा. अट्ठ. प्रदूषण अर्थ में - अपरद्धा सुद्धिमकेवली ते, सु. नि. 897; 7.268; अन्वेसीति तं अगमासि, पासादा ओतरित्वा रथं ... गन्तुं न हि तीरमपत्थि, सब्बसमा हि समन्तकपल्ला, सु. नि. अत्थो, तदे. - तुं निमि. कृ. - ... पाणिं विसं अन्वेतुं न 677; गन्तुं न हि तीरमपत्थीति अपगन्तुं न हि तीरं अत्थि, सक्कोति, ध. प. अट्ठ. 2.17.
सु. नि. अट्ठ. 2.182; ङ. प. वि. में अन्त होने वाले पद अन्वेसति अनु + Vइस का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अन्विष्यति], से पूर्व में प्रयुक्त - से दूर, से बाहर, के बिना, से रहित व्यु. क्रि. रू. - सं वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. [अन्विष्यन्]. - अप सालाय आयन्ति वणिजा, क. व्या. 274; सद्द. खोज करता हुआ, ढूंढता हुआ, अन्वेषण करता हुआ -- 702.18; कल्याणिनामनगरा अप दक्षिणस्मि, चू, वं. 91.63; भिक्खु सइन्दा देवा सब्रह्मका सपजापतिका अन्वेसं च. अव्ययी. स. के पद के रूप में द्वि. वि. अथवा प. वि. नाधिगच्छन्ति, म. नि. 1.194; तत्थ अन्वेसन्ति अन्वेसन्ता । के स. प. के पू. प. के रूप में प्राप्त, उपरिवत् - अपपब्बतं गवेसन्ता, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).22; - न्त त्रि., वर्त. वस्सि देवो, अपपब्बतो, मो. व्या. 3.5. कृ., उपरिवत् - ततो सो वट्टगतं मग्गं, अन्वेसन्तो कुमारको, अपकट्ठ त्रि., अप + ।कस का भू. क. कृ. [अपकृष्ट]. चरिया. 403; तत्थ अन्वेसन्ति अन्वेसन्ता गवेसन्ता, म. नि. खींचकर दूर ले जाया गया, दूर हटा दिया गया, दृढ़ता के अट्ठ. (मू.प.) 1(2).22; - मान त्रि., वर्त. कृ., आत्मने., साथ नहीं जुड़ा हुआ - न च कायसिम अल्लीनं न च उपरिवत् - कुसलानुएसीति कुसलधम्मे अन्वेसमानो, सु. कायस्मा अपकट्ठ, ... म. नि. 2.347; अपकट्ठन्ति नि. अट्ट. 2.264; फलमन्वेसमाना ते. अलभिंसु फलं तदा, खलिसाटको विय कायतो मुच्चित्वापि न तिट्ठति, म. नि. अप. 1.325.
अट्ठ. (म.प.) 2.278. अन्वेसन नपुं., अनु + Vइस से व्यु.. क्रि. ना. [अन्वेषण], अपकड्डन्ति अप+ कड्ड का वर्त., प्र. पु.. ब. व. [अपकर्षन्ति], खोज, तलाश - मग अन्वेसने, सद्द. 2.524.
खींच कर दूर ले जाते हैं, दूर हटा देते हैं, दूर तक खींच
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अपकड्ढन
354
अपक्क
ले जाते हैं - पुरिसस्स सञ्ज उपकडन्तिपि, दी. नि. 1.162; ततियो नं निसेधेत्वा आथब्बणपयोगं सन्धाय उपकडन्तिपि अपकडन्तिपी ति आह, दी. नि. अट्ठ. 1.275; तानि भिक्खू उदकेन तेमेत्वा ... अपकड्डन्ति, महाव. 277; - ड्वाम उ. पु.. ब. व., बाहर खींच कर ले आते हैं - तानि मयं उदकेन तेमेत्वा तेमेत्वा अपकवामा ति, महाव. 277; 387; -- डन्त त्रि., वर्त. कृ., खींच कर बाहर ले जा रहा, बाहर निकाल रहा - ... छन्दरागं अपकड्वन्तो विचेस्सति विचिनिस्सति विजानिस्सति पटिविज्झस्सति सच्छिकरिस्सति, ध. प. अट्ठ. 1.190; अहसा ... आहिण्डनतो ... चीवरानि उदकेन तेमेत्वा तेमेत्वा अपकवन्ते, महाव. 277; 387; - ड्डेय्य विधिः, प्र. पु., ए. व., निकाल बाहर करे - इदमेत्थ अपकड्डेय्य, एवं तं परिसुद्धतरं अस्साति, इति हेतं न पस्सति, दी. नि. 3.94; - ड्डि अद्य., प्र. पु., ए. व., खींच कर बाहर कर दिया, निकाल बाहर किया- अथ खो जीवको कोमारभच्चो सेद्विभरियाय सत्तवस्सिकं सीसाबाधं एकेनेव नत्थुकम्मेन अपकड्डि, महाव. 360; - ड्डित्वा पू. का. कृ. - सो थेरं वन्दनकाले कम्बलतो अङ्गुलिं अपकड्डित्वा कम्बलं थेरस्स पादमूले पातेसि, ध, प. अट्ठ. 1.298. अपकड्ढन अप + कड्ड से व्यु., क्रि. ना. [अपकर्षण], निकाल बाहर करना, दूर कर देना - तेसु दोसं दिस्वा
छन्दरागस्सापकडनं पहानपरिआ, जा. अट्ठ. 7.149. अपकड्डापेत्वा अप + कड्ड के प्रेर. का पू. का. कृ., दूर करा कर, निकाल बाहर करा कर, हटवा कर -... गीवायं गहेत्वा अपकड्डापेत्वा अत्तनो पमाणं न जानाथ, जा. अट्ट. 1.327; ... खाणुकण्टक अपकढापेत्वा भूमि समं ... अपरभागे .... नगरं मापेति, मि. प. 31. अपकत त्रि., अप+vकर का भू. क. कृ. [अपकृत], वह, जिसके साथ अनुचित कार्य या व्यवहार किया गया हो, अपमानित, पीड़ित, ग्रस्त - इच्छापकतरसाति इच्छाय अपकतस्स, उपद्दुतस्साति अत्थो, विभ. अट्ठ. 453. अपकतञ्जू त्रि., अप्पकतञ्जू के अन्त. द्रष्ट.. अपकतिभोजन नपुं., कर्म, स. [अप्रकृतिभोजन], असामान्य । भोजन, अप्राकृतिक आहार - महाविकटभोजनस्मिन्ति महन्ते विकटभोजने, अपकतिभोजनेति अत्थो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).359. अपकस्सति अप + ।कस का वर्त, प्र. पु.. ए. व. [अपकर्षति]. क. सक. क्रि. के रूप में – खींच कर दूर ले जाता है, दूर कर देता है, हटा देता है, शान्त कर देता है; - थ अनु०,
म. पु., ब. व. [अपकर्षत], शान्त कर दो, दूर कर दो - कारण्डवं निद्धमथ, कसम्बु अपकस्सथ, सु. नि. 283; ..., तं कचवरभूतं पुग्गलं कचवरमिव अनपेक्खा निद्धमथ, सकटभूतञ्च ... पथिन्नपग्घरितकट्ठ चण्डालं विय अपकरस्सथ, हत्थे वा सीले वा गहेत्वा निकडथ, सु. नि. अट्ठ.2.42; - स्स पू. का. कृ. [अपकृष्य], दूर करके, शान्त करके, हटाकर - अपकस्सेव कायं, अपकस्स चित्तं, निच्चनवका कुलेसु अप्पगब्भा, स. नि. 1(2).177; अपकस्स चित्तन्ति तेनेव सन्थवादीनं अकरणेन कायञ्च चित्तञ्च अपकस्सित्वा अपनेत्वाति अत्थो, स. नि. अट्ठ. 2.148; ख. अक. क्रि. के रूप में - दूर हटा देता है, विलग हो जाता है या कर देता है, इधर उधर कर देता है - न्ति वर्त, प्र. पु., ब. व. - ते इमेहि अट्ठारसहि वत्थूहि अपकस्सन्ति, अवपकस्सन्ति, आवेनिं उपोसथं करोन्ति, .... एत्तावता खो, उपालि सङ्घो भिन्नो होति, चूळव. 345; तत्थ अपकस्सन्तीति परिसं आकड्वन्ति, विजटेन्ति, एकमन्तं उस्सारेन्ति च, चूळव. अट्ट 114. अपकार पु., अप + vकर का क्रि. ना. [अपकार], अहित उत्पन्न करने वाला काम, गिरा हुआ नीच कर्म, दूसरे की हानि करना या कष्ट पहुंचाना - बुद्धस्स अपकारेन, दुग्गन्धा वदनेन च, अप. 2.251; थेरीगा. अट्ठ. 79; पापानं दुद्दचित्तानं अपकारे कतं बहू चू. वं. 46.8; - रोपकार पु.. अपकार + उपकार का द्व. स. [अपकारोपकार], दूसरे को कष्ट देने वाला काम तथा हितकारक काम - सुकम्म समुपट्टाति अपकारोपकारतो, सद्धम्मो. 283. अपकीरितून अप + vकिर का पू. का. कृ. [अपकीर्य], निरर्थक या तुच्छ रूप में इधर-उधर फेंक कर या बिखेर कर - तस्सेतं कम्मफलं, यं मं अपकीरितून गच्छन्ति, थेरीगा. 449; यं में अपकीरितून गच्छन्तीति यं दासी विय सक्कच्चं उपट्ठहन्ति में तत्थ तत्थ पतिनो अपकिरित्वा
छड्वेत्वा अनपेक्खा अपगच्छिन्ति, थेरीगा. अट्ट, 294. अपक्क त्रि., पिच के भू. क. कृ. (पक्क) का निषे. [अपक्व],
शा. अ. वह जो उबला हुआ नहीं हो, कच्चा, नहीं पकाया हुआ, सूखा - ... भिक्खू न जानन्ति रजनं पक्कं वा अपक्क वा, महाव. 376; अनगिपक्कि काति अग्गिना अपक्कपत्तफलानि खादित्वा यापेन्ता, सु. नि. अट्ठ. 1.270; ला. अ. परिपाक की अवस्था को अप्राप्त कर्म, विपाक की स्थिति को अप्राप्त कर्म - न खो, राजञ, समणब्राह्मणा सीलवन्तो कल्यानधम्मा, अपक्कं परिपाचेन्ति, दी. नि.
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अपक्कट्ठ
355
अपगत
2.247; अपक्कं न परिपाचेन्तीति अपरिणतं अखीणं आयुं अपक्ख' त्रि., पक्ख का निषे०, ब. स. [अपक्ष], वह, जो अन्तराव न उपच्छिन्दन्ति, दी. नि. अठ्ठ. 2.360; न च किसी एक का पक्ष नहीं ले रहा हो, पक्षपातरहित; - ता अरहन्तो अपक्कं पातेन्ति, मि. प.44; - भाव पु., कर्म. स. स्त्री., अपक्ख का भाव., पक्षपात से रहित होने की दशा[अपक्वभाव], न पके हुए होने की अवस्था, कच्चा रहने की स्थिति दुब्बल्याति अपक्खता, पाचि. 327. अपक्कट्ठ त्रि., द्रष्ट. अपकट्ट के अन्त. ऊपर.
अपक्ख त्रि., पक्ख का निषे., ब. स., विकलाङ्गता से रहित, अपक्कन्त त्रि., अप + vकम का भू. क. कृ. [अपक्रान्त], वह, जिसके अङ्गों में कोई व्याधि न हो - अमूगो मूगवण्णेन, दूर ले जाया गया, विमुक्त कर दिया गया, पृथक् या अलग अपक्खो पक्खसम्मतो, जा. अट्ठ. 6.20... कर दिया गया, हट चुका, भागा हुआ - अरियधम्मा अपक्कन्तो, अपक्खिक त्रि., अपक्ख' से व्यु. [अपक्षिक], बिना प्रतिपक्ष यथा पेतो तथैवह जा. अट्ट. 3.413; अञआय ... सक्यपुत्तिकानं वाला, ऐसा वाद, जिसमें कोई प्रतिपक्ष न रहे - ... अपक्खिको ... धम्मविनया अपकन्तोति, अ. नि. 1(1).213; मोघपरिसा वादो न सोभती ति ..., थेरीगा. अट्ठ. 113.
अपक्कन्ता इमम्हा धम्मविनया, म. नि. 2.155; 205. अपगच्छति अप + गम का वर्त.. प्र. पु.. ए. व. [अपगच्छति], अपक्कम पु., अप + Vकम का क्रि. ना. [अपक्रम], दूर चला दूर चला जाता है, नष्ट हो जाता है, एक ओर को हो जाता जाना, भाग जाना, हट जाना, पलायन करना - पराजयो है - न्ति वर्त, प्र. पु., ब. व. [अपगच्छन्ति], दूर चली रणे भङ्गो, पलायनमपक्कमो, अभि. प. 402.
जाती हैं। चले जाते हैं - सब्बा ईतियो अपगच्छन्तीति, मि. अपक्कमति अप + Vकम का वर्त, प्र. पु., ए. व.. प. 152; - तु अनु०, प्र. पु., ए. व. [अपगच्छतु], दूर चला [अपक्राम्यति], दूर भाग जाता है, पलायन कर जाता है, जाए, हट जाए - पुन थोकं निदायित्वा वहितो वातवुद्धि विय चला जाता है, हट जाता है, छोड़ जाता है, वियुक्त हो जाता तालवण्टवातं असहन्तो को एस? अपगच्छतुति आह, ध. है; - न्ति वर्त, प्र. पु., ब. व. [अपक्राम्यन्ति], दूर भाग स. अट्ठ. 225; - च्छामि अनु., उ. पु., ए. व. [अपगच्छामि]. जाते हैं - अलिक भासमानस्स, अपक्कमन्ति देवता, जा. पलायन कर जाऊं - तत्थ अपायामीति अपगच्छामि, अट्ठ. 3.402; अपक्कमन्ति ..., सचे अलिकं भणिस्सति पलायामीति अत्थो, जा. अट्ठ. 28; - च्छ अनु., म. पु., ए. चत्तारो देवपुत्ता ... अन्तरधायिस्सन्तीति .... तदे; - मे व. [अपगच्छ], पलायन कर जाओ, भाग जाओ- अपगच्छाति विधि, प्र. पु., ए. व. - अनुसूयमनक्कोसं, सणिक तम्हा तज्जेसि, ध. स. अट्ट. 225; - च्छथ अनु., म. पु., ब. व. अपक्कमेन्ति, जा. अट्ठ. 3.23; - मेय्य उपरिवत् - यथा तं [अपगच्छत], पलायन कर जाओ, भाग जाओ- अपगच्छथाति आपायिकोति यथा अपाये निब्बत्तनारहो सत्तो अपक्कमेय्य, अच्छर पहरि ध. प. अट्ठ. 1.238; - च्छाम अनु., उ. पु., एवमेव अपक्कमीति अत्थो, दी. नि. अट्ठ. 3.3; - क्कमि ब. व. [अपगच्छाम], भाग जाएं - हन्द मयं अपगच्छाम, मि. अद्य., प्र. पु., ए. व. - अलद्धा तत्थ अस्साद, वायसेत्तो प. 199; - गमि अद्य., प्र. पु., ए. व. [अपागमत्], दूर भाग अपक्कमि, सु. नि. 450; स. नि. 1(1).145; अथ खो तत्थ गया - ... वसितुं असक्कोन्तो अपगमि, जा. अट्ठ. 6.85; -- अस्सादं अलभित्वाव वायसो एत्तो अपक्कमेय्य, स. नि. अट्ठ. च्छंसु अद्य, प्र. पु., ब. व. [अपागमन्]. दूर भाग गए - 1.164; - क्कमि अद्य., उ. पु., ए. व. - तं धम्म अनलङ्करित्वा ते एक वचनेनेव अपगच्छिंसु, ध. स. अट्ठ. 225; - न्तुं तस्मा धम्मा निबिज्ज अपक्कमि, म. नि. 1.224; अपक्कमिन्ति निमि. कृ., दूर भागने के लिए - गन्तुं न हि तीरमपत्थीति अगमासिं, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).76; - क्कमु अद्य.. प्र. अपगन्तुं न हि तीरं अत्थि, सु. नि. अट्ठ. 2.182; - न्त्वा पू. पु., ब. व. - सुत्वा नेलपतिं वाचं, वाळा पन्था अपक्कमुन्ति, का. कृ., पलायन कर, दूर जा कर - ..., एवं अपगन्त्वा जा. अट्ठ. 7.332; - क्कमितुं निमि. कृ. - ... बुद्धानं ___ अट्ठासि, ध. प. अट्ठ 1.224. सन्तिका अपक्कमितुकामो हुत्वा ..., अ. नि. अट्ट, 1.119; अपगत त्रि., अप. + गम का भू. क. कृ. [अपगत], दूर -- क्कम्म पू. का. कृ. - ततो च सो अपक्कम्म, वेदेहस्स गया हुआ, हटाया हुआ, वियुक्त कर दिया गया, से रहित - उपन्तिका, जा. अट्ठ. 6.244.
निद्देसे वज्जने पूजापगतेवारणे पि च, अभि. प. 1184%3; अपक्कोसित त्रि., पक्कोसित का निषे. [अप्रक्रुष्ट], वह, अपगता इमे सामा , अपगता इमे ब्रह्मा , उदा. 119; जिसे पुकारा नहीं गया हैं या बुलाया नहीं गया है - एहि अपगताति अपेता परिभट्टा, उदा. अट्ठ. 210; तेनाहं लिङ्गेन मय्ह पुत्तभावं उपगच्छाति एवं अपक्कोसितो, पे. व. अट्ठ. 54. दूरमपगतो ति अरहति उपासको सोतापन्नो भिक्खं पृथुज्जन
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अपगत
356
अपगत
अभिवादेतुं पुच्छितुं. मि. प. 161; अपगता च ते, भिक्खवे, भिक्खू इमस्मा धम्मविनया, इतिवु. 80; स. उ. प. के रूप में अत्था., अनुसया., अहङ्कारममकारमाना०, दूरा., सब्बनिमित्ता.. सामञआ. के अन्त. द्रष्ट.; - तकाळक त्रि., ब. स. [अपगतकालक], शा. अ. काले धब्बों या काले दागों से रहित, ला. अ. चित्त के मलिन तत्त्वों या अकुशल धर्मों से मुक्त, परिशुद्ध - सेय्यथापि नाम सुद्धं वत्थं अगगतकाळकं सम्मदेव रजनं पटिग्गण्हेय्य, महाव. 20; 22; एवं तिवस्सं परिवुत्थस्स सगन्धरत्तसालिनो अपगतकाळके सुपरिसुद्धे तण्डुले गहेत्वा ... पटिमादियिंस, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.201; भिक्खुसङ्घो निरादीनवो अपगतकालको सुद्धो सारे पतिट्टितो, पारा. 10; अपगतकालळकोति काळका वच्चन्ति दुस्सीलायेव, ... तेसं अभावा अपगतकाळ को, अपहतकाळकोतिपि पाठो, पारा. अट्ठ. 1.149; - त्त नपुं... अपगतकालक का भाव. [अपगतकालकत्व], काले धब्बों या अकुशल धर्मों से रहित होने की अवस्था - सुद्धोति अपगतकाळकत्तायेव सुद्धो परियोदातो पभस्सरो, पारा. अट्ठ. 1.149; - केस त्रि., ब. स. [अपगतकेश], केशों से रहित, बिना केशों वाला - निवृत्तकेसोति अपनीतकेसो,
ओहरितकेसमस्सूति वुत्तं होति, सु. नि. अट्ट, 2.118; पाठा. अपनीतके सो; - कोतूहलमङ्गलिक त्रि., ब. स. [अपगतकौतूहलमाङ्गलिक], शा. अ. कौतूहल भरे माङ्गलिक अनुष्ठानों में विश्वास न रखने वाला, ला. अ. अन्धविश्वासों या मिथ्यादृष्टि से मुक्त, सम्यक् दृष्टि वाला - सम्मादिट्टिको होति, अपगतकोतूहलमङ्गलिको जीवितहेतुपि न अझं सत्थारं उद्दिसति, मि. प. 106; - खील त्रि., ब. स. [अपगतकील] शा. अ. खूटे से रहित, ला. अ. क्लेशों से रहित - विगतखिलोति अपगतखिलो, सु. नि. अट्ठ. 1.26; - गब्मा स्त्री., ब. स. [अपगतगर्भा], गर्भ धारण न करने वाली नारी, बन्ध्या नारी - ... अञ्जतरा इत्थी अपगतगभा भिक्खू निमन्तेत्वा दुस्सं पञपेत्वा एतदवोच, चूळव. 248; मङ्गलत्थाय याचियमानेनाति अपगतगब्मा वा होतु गरुगभा वा, चूळव. अट्ठ. 53; - जिम्ह त्रि., ब. स. [अपगतजिह्म], टेढ़ेपन से रहित, वक्रता से रहित - एवायं नेमि अपगतवङ्का अपगतजिम्हा अपगतदोसा सुद्धा अस्स सारे पतिहिताति, म. नि. 1.39; - जीवित त्रि., ब. स. [अपगतजीवित]. प्राण-रहित, जीवनरहित, मृत - तत्थ मजे ओक्कन्तसत्तं मन्ति एवं सन्ते अहं में अपगतजीवितं सल्लक्खेमि, जा. अट्ठ. 6.253; - तचपपटिक त्रि., ब. स. [अपगतत्वक्पर्पटीक], भीतरी एवं
बाहरी त्वचा से रहित, ऊपरी आवरणों से मुक्त, परिशुद्ध, सहज - एवमेव भोतो गोतमस्स पावचनं अपगतसाखापलासं अपगतचपपटिकं अपगतफेगुकं सुद्धं, सारे पतिहितं, म. नि. 2.166; - दोस त्रि., ब. स. [अपगतदोष], दोषरहित - एवायं नेमि अपगतवङ्का अपगतजिम्हा अपगतदोसा सुद्धा अस्स सारे पतिहिताति, म. नि. 1.39; - पटलपिळक त्रि., ब. स. [अपगतपटलपिड़क], जाला एवं गूमड़ा से रहितमंसचक्खुम्पि हिस्स परिसुद्ध वट्टति अपगतपटलपिळक, पआचक्खुम्पि असारभावदस्सन-समत्थं, स. नि. अट्ठ. 2.284; - फेग्गुक त्रि., ब. स. [अपगतफल्गुक], खोखली या साररहित लकड़ी से रहित, निस्सारता से रहित, सारवान् - एवमेव ... अपगतसाखापलासं अपगततचपपटिक अपगतफेग्गुकं सुद्धं, सारे पतिट्टितं, म. नि. 2.166; - मंसलोहित त्रि., ब. स. [अपगतमांसलोहित], मांस एवं रक्त से रहित - ... अट्टिकसङ्घलिकं अपगतमंसलोहित न्हारुसम्बन्धं .... दी. नि. 2.219; अपगतमंसलोहितं न्हारुसम्बन्धन्ति एका, दी. नि. अट्ठ. 2.326; - मेघ त्रि., ब. स. अपगतमेघ, मेघों से रहित, बिना बादलों वाला - विगतवलाहकन्ति अपगतमेघ, उदा. अट्ठ. 80; महाव. अट्ठ. 231; - रज त्रि., ब. स. [अपगतरज], धूलरहित, स्वच्छ, मलिनता-रहित - अरजविरजहेमजालछन्नन्ति सयं अपगतरज विरजेन निहोसेन कञ्चनजालेन छादितं, वि. व. अट्ठ. 198; - लज्ज त्रि., ब. स. [अपगतलज्ज], निर्लज्ज, लज्जारहित - अथ सा ... पदेसे वासं कप्पेन्ती कतिपाहच्चयेन अपगतलज्जा ... जीविकं कप्पेसि, पे. व. अट्ठ. 40; - वङ्क त्रि., ब. स. [अपगतवक्र], वक्रता या टेढ़ेपन से रहित - एवायं नेमि अपगतवङ्का अपगतजिम्हा अपगतदोसा सुद्धा अस्स सारे पतिद्विाति, म. नि. 1.39; - वत्थ त्रि., ब. स. [अपगतवस्त्र], वस्त्रों से रहित, नग्न - ... एकच्चा अपगतवत्था, पाकटबीभच्छसम्बाधट्ठाना, जा. अट्ठ. 1.71; - विज्ञाण त्रि., ब. स. [अपगतविज्ञान], चेतना से रहित, मृत - अचिरं कायो अपेतविणोति अयं कायो अचिरेनेव अपगतविआणो सुसानं निब्बुय्हति उपनीयति, थेरीगा. अट्ठ. 308; न ओग्गतत्तस्स भवन्ति मित्ताति अपगतविआणस्स मतस्स मित्ता नाम न होन्ति मित्तेहि कातब्बकिच्चस्स अतिक्कन्तत्ता, पे. व. अट्ठ. 191; यथा हि जीवितिन्द्रियुपच्छेदेन मता दारुक्खन्धसदिसा अपगतविआणा, ध. प. अट्ठ. 1.130-31; - सम्बन्ध त्रि., ब. स. [अपगतसम्बन्ध], जोड़ने वाले सम्बन्धों से विहीन, जोड़ों से रहित, संयोजक तत्त्वों से
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अपगब्म
357
अपचायति
रहित - अद्विकानि अपगतसम्बन्धानि दिसा विदिसा पर्यन्तभाग - नेतन्ते चित्तकेपाङ्ग सिद्धत्थो सापने जिने अभि. प. विक्खित्तानि, दी. नि. 2.219; अटिकानि अपगतसम्बन्धानीति 1116; 2. नपुं, आंखों के छोरों या किनारों पर लगाए गए आदिका एका अद्विकानि सेतानि सङ्घवण्णपटिभागानीति एका, काजल की रेखा - नेत्तन्ते चित्तकेपाङ्ग, सिद्धत्थो सासपे जिने, दी. नि. अट्ठ.2.326; - साखापलास त्रि., ब. स. अभि. प. 1116; अवङ्ग करोन्तीति अक्खी अञ्जन्तियो अवङ्गदेसे [अपगतशाखापलाश], शाखाओं तथा पत्तों एवं पंखुड़ियों से अधोमुखं लेखं करोन्ति, चूळव, अट्ठ. 129-130. रहित, बिना शाखाओं एवं पत्तों वाला - एवमेव भोतो अपच त्रि., [अपच], शा. अ. नहीं पकाने वाला, ला. अ. गोतमस्स पावचनं अपगतसाखापलासं अपगततचपपटिकं ___गृहस्थ जीवन की तुच्छ वृत्तियों को ग्रहण न करने वाला - अपगतफेग्गुकं सुद्ध, सारे पतिद्वितं, म. नि. 2.166; - अनागारे पब्बजिते, अपचे ब्रह्मचारयो, अ. नि. 3(1).76%3; सुक्कधम्म त्रि., ब. स. [अपगतशुक्लधर्म], कुशलधर्मों से अपचे ब्रह्मचारयोति ब्रह्मचारिणो अपचयति, नीचवुत्तितं नेसं रहित, अच्छे गुणों से विहीन - कथहि नाम मे तातो आपज्जति, अ. नि. अट्ठ. 3.130. अपगतसुक्कधम्म निल्लज्ज नग्गभोग्गं उपसङ्कमित्वा पहें अपचन्त त्रि., vपच के वर्त. कृ., पचन्त का निषे. [अपचन्]. पुच्छिस्सति, जा. अट्ठ. 7.116; - सोक त्रि०, ब. स. शा. अ. नहीं पकाने वाला, ला. अ. पवित्र जीवन-वृत्ति [अपगतशोक], शोक-रहित, शोक न करने वाला - अत्थस्स वाला - पचन्तो अपचन्तस्स, अममस्स सकिञ्चनो, जा. सत्था सोकविनोदनं धम्मकथं कत्वा अपगतसोकं कल्लचित्तं अट्ठ. 4.334; अपचन्तापि दिच्छन्ति, सन्तो लद्धान भोजनं. विदित्वा ... अगमासि, पे. व. अट्ठ. 33.
जा. अट्ठ. 4.58; अपचन्तापीति इदं सत्था जेतवने विहरन्तो अपगब्म त्रि., [अपगर्भा], 1. देवलोक में उत्पत्ति देने वाले एक दानवित्तं भिक्खं आरभ कथेसि, जा. अट्ठ. 4.56%3B गर्भ में न आने वाला, हीन गर्भ वाला - गब्भतो अपगतोति अपचन्तापि सन्तो सप्पुरिसा भिक्खाचरियाय लद्धम्पि भोजनं अपगभो, अभब्बो देवलोकूपपत्तिं पापुणितुन्ति अधिप्पायो हीनो दातुं इच्छन्ति, जा. अट्ठ. 4.58. वा गब्भो अस्साति अपगब्भो, अ. नि. अट्ठ. 3.202; 2. भविष्य अपचय पु., अप + चि से व्यु., क्रि. ना. [अपचय], शा. में गर्भग्रहण न करने वाला - गब्भतो अपगतोति अपगब्भो, अ. क्षय, हानि, हास, घटाव, कमी - खयेच्चने चापचयो, अ. नि. अट्ठ. 3.202; अपगब्भताय धम्म देसेति, अ. नि. कालो समयमच्चुसु, अभि. प. 1082; तस्स असारत्तस्स . 3(1).28; महाव. 311; तस्मा सो तंअपगभतं अत्तनि सम्परसमानो ... विहरतो आपत्तिं पञ्चुपादानक्खन्धा अपचयं गच्छन्ति, म. अपरम्प परियायं अनुजानाति, पारा. अट्ठ. 1.100.
नि. 3.348; ला. अ. 1. कर्मों का क्षय, पुनर्जन्म का अपगब्म त्रि., पगब्भ का निषे., अप्पगम के अन्त. द्रष्ट.... निरोध - आचयाय संवत्तन्ति नो अपचयाय, चूळव. 422; अपगम पु., अप + गम का क्रि. ना. [अपगम], दूर चला सेक्खो अपचयेन न तप्पति, जा. अट्ठ. 3.302; ... अपचयस्स जाना, अदृश्य हो जाना, विलुप्त हो जाना, नाश - वीरियारम्भस्स वण्णं भासित्वा भिक्खूनं तदनुच्छविकं ... भुसत्थापगमाधिक्यपुब्बकम्मनिवत्तिसु, अभि. प. 1185; ... आमन्तेसि, महाव. 51; ला. अ. 2. अर्चना, सम्मान - सुखदुक्खानं अपगमे सातासातप्पटिक्खेपवसेन ... पाकटा खयेच्चने चापचयो, कालोसमयमच्चुसु, अभि. प. 1082; - होति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).288; पण्डुपलासो बन्धना गामी त्रि.. [अपचयगामिन्], शा. अ. क्षय या हास की पवुत्तो तिआदीसु अपगमे, म. नि. टी. (मू.प.) 1(1).166; ओर ले जाने वाला, ला. अ. कर्म अथवा पुनर्जन्म के क्षय आकासे पवत्तितविआणस्स अपगमातिक्कमतो चतुत्थाति की ओर ले जाने वाला - सम्मादिट्टि ... सम्माविमुत्तिसब्बथा ... वेदितब्बा, ध. स. अट्ठ. 253.
अयं वुच्चति, ... अपचयगामी धम्मो ति, अ. नि. 3(2).210%; अपगमन नपुं.. [अपगमन]. उपरिवत् - पच्छिमेन पञआय कुसला अपचयगामिनी पहानतण्हा, नेत्ति. 72; - याराम
अपगमनं, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).15; खु. पा. अट्ठ. 91.. त्रि., ब. स. [अपचयाराम], कर्मों या पुनर्भवों के क्षय में अपग्घरणक त्रि., पग्घरणक का निषे. [अप्रघ्ररणक], पिघल आनन्द अनुभव करने वाला, कर्मों के क्षय में रत - सेक्खा कर बाहर की ओर न बहने वाला - मासातिक्कमेन पनस्सा अपचयारामा, अप्पमत्तानुसिक्खरे, स. नि. 1(1).272; सोकेन अस्सूनं अपग्घरणकालो नाम नाहोसि, जा. अट्ठ. 7.31. अपचयारामाति वट्टविद्धंसने रता, स. नि. अट्ठ. 1.307. अपङ्ग/अवङ्ग/अपाङ्ग पु./नपुं.. [अपाङ्ग], 1. आंख का अपचायति अप + vचाय का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अपचायति], बाहरी छोर या किनारा, आंख का प्रान्तभाग, नेत्र का पूजा-अर्चना करता है, कृतज्ञतापूर्वक सम्मान प्रकट करता
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अपचायन/अपचायना
358
अपचिनाति
है, हीन कर्म को प्रदर्शित करता है - एवं सो सहितो होति, यो वुड्डमपचायति, जा. अट्ठ. 2.370; - न्ति प्र. पु., ब. व. - न ब्राह्मणे अपचायन्ति, दी. नि. 1.79; न अपचायन्तीति अभिवादनादीहि नेसं अपचितिकम्मं नीचवत्तिं न दस्सेन्ति तयिदन्ति, दी. नि. अट्ट, 1.207; - सि म. पु., ए. व., सम्मान प्रकट करते हो - अरियवत्तसि वक्कङ्ग, यो पिण्डमपचायसि, जा. अट्ठ.5.358; - यन्ती स्त्री., वर्त. कृ., सम्मान प्रकट कर रही - धम्म अपचायन्ती खणं न पस्सि, मि. प. 197; - यमान त्रि., वर्त. कृ., आत्मने., उपरिवत् - धम्म अपचायमानो, दी. नि. 3.44; धम्म अपचायमाना सुवचा भविस्साम, म. नि. 1.179; - यिस्ससि भवि., म. पु.. ए. व. - सो दानि त्वं कुसीतो विहरन्तो न तं पिण्डं
अपचायिस्ससि, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).303. अपचायन/अपचायना पु./स्त्री., अप + चाय से व्यु.. क्रि. ना. [अपचायन], सम्मान करना, पूजा या अर्चना करना, परिचर्या करना - तत्थ कालट्ठितस्स मे सतोति काले ... अपचायनपरिचरियादिवसेन उट्ठानवीरियसम्पन्नस्स मे समानस्स, पे. व. अट्ठ. 113; अपचायति पूजावसेन सामीचिं करोति एतेनाति अपचायनं, अभि. ध. स. 159; अञ्जलि सिरसि परगण्हन्ती गुणविसिट्टानं अपचायनं अकासिन्ति अत्थो, वि. व. अट्ठ. 18; - कर त्रि., [अपचायनकर, सम्मान प्रकट करने वाला, पूजा-अर्चना करने वाला - कुले जेट्ठापचायिकाति कुले जेट्ठकानं अपचायनकरा, पे. व. अट्ठ. 92; - प्पत्त त्रि., तत्पु. स. [अपचायनप्राप्त], पूजा-सत्कार को पाया हुआ, सम्मानित, पूजित - अपचितोति अपचायनप्पत्तो, उदा. अट्ट, 64. अपचायित त्रि., अप + vचाय का भू. क. कृ. [अपचायित], सम्मानित, सत्कृत, पूजित - अपचायितो च महितो पूजितारहिताच्चिता, अभि. प. 750; ... पूजितो, अपचायितो, मानितो. ... आतो, क. व्या. 645. अपचायिता स्त्री., अप + चाय से व्यु., क. ना., अपचायी का भाव. [अपचायित्व], सम्मान करने की स्थिति, पूजा अर्चना करने की दशा, केवल स. उ. प. के रूप में ही प्राप्त, जेट्ठापचायिता एवं वद्धापचायिता के अन्त. द्रष्ट... अपचित त्रि., अप + चि का भू. क. कृ. [अपचित], पूजित, सम्मानित, सत्कृत - ... मानितो, अपचितो, वन्दितो, सक्कारितो, आतो, क. व्या. 645; उक्काधारो मनुस्सानं, कच्चि अपचितो तया, सु. नि. 337-338; अपचितोति अभिप्पसन्नचित्तेहि मग्गदानआसनाभिहरणादिवसेन अपचितो,
उदा. अट्ठ. 63; सक्कारो गरुकारो च, देवानं अपचिता अहं. वि. व. 40; अपचिताति पूजिता, वि. व. अट्ठ. 29; मेत्ताय निच्चं अपचितानि होन्ति, भूतेस वे सोत्थानं तदाहूति, जा. अट्ठ, 4.68; - ताकार पु., तत्पु. स., सम्मान या सत्कार के भाव को व्यक्त करने वाला स्वरूप या मुखाकृति - पुरोहिते पन अत्तनो उपट्टानं आगच्छन्ते तस्मिं गारवेन अपचिताकारं दस्सेसि, जा. अट्ठ. 3.401. अपचिति स्त्री., अप + चि से व्यु.. क्रि. ना. [अपचिति], सम्मान या सत्कार का भाव, पूजा, पूजन, अर्चना, आदरप्रदर्शन - बुद्धेसु सगारवता, धम्मे अपचिति यथाभूतं, थेरगा. 589; ... सक्करोन्ति ... अपचित्तिं करोन्ति, महानि. 52;
अपचितिं करोन्तीति अपचितिप्पत्तं करोन्ति, महानि. अट्ठ. 158; - कम्म नपुं॰, तत्पु. स. [अपचितिकर्मन्]. सम्मान या आदर प्रकट करने वाला कर्म, पूजाकर्म - ये केचि सत्ता जेट्टापचितिकम्मे छेका कुसला गुणसम्पन्नानं वयोवुड्वानं अपचितिं करोन्ति, जा. अट्ठ. 1.216; - करण नपुं., तत्पु. स. [अपचितिकरण], उपरिवत् - तस्मा तादिसानं वुड्वानं अपचितिकरणेन वुड्डापचायी, सु. नि. 2.61; - कारक त्रि., तत्पु. स. [अपचितिकारक], आदर करने वाला, पूजासत्कार करने वाला - ते इमस्मिञ्च अत्तभावे जेडापचितिकारकाति पसंसं वण्णनं थोमनं लभन्ति, जा. अट्ठ. 1.216; - दस्सन नपुं॰, तत्पु. स. [अपचितिदर्शन], सम्मान या पूजा-सत्कार करना - थेरो पुच्छितमत्तकेनेव अकथेत्वा दसबलस्स अपचितिदस्सनत्थं सेय्यथापि .... ध. स. अट्ठ.6; - प्पत्त त्रि., तत्पु. स. [अपचितिप्राप्त], वह, जिसे आदर या पूजा-सम्मान प्राप्त है - अपचितिं करोन्तीति
अपचितिप्पत्तं करोन्ति, महानि. अट्ठ. 158; तुल. अपचय. अपचिनाति अप+चि का वर्त., प्र. पु., ए. व. [अपचिनोति, हटा देता है, कम कर देता है, हानि या नाश कर देता है, छांट देता है - रूपं अपचिनाति, नो आचिनाति.... स. नि. 2(1).83; - नन्त त्रि., वर्त. कृ., घटा रहा, विध्वंस कर रहा - ... तेन चितचितवानं अपचिनन्तो विद्धसेन्तो एव गच्छेय्य, ध. स. अट्ठ. 258; ... वट्टञ्च अपचिनन्तं गच्छतीति अपचयगामि, कथा. अट्ठ. 198; एवं अपचिनतो दुक्खं सन्तिके निब्बानं वुच्चति, थेरगा. 807; - नेथ विधि., प्र. पु., ए. व., नष्ट करें, क्षीण करें - अपचिनेथेव कामानं अप्पिच्छस्स अलोलुपो, जा. अट्ठ. 4.154; - नेय्य/चेय्य/उपचेय्य त्रि., सं. कृ. [अपचेय], पूजा-सम्मान या आदर पाने योग्य, पूजनीय - अपचितोपचेय्यानं, तस्स इच्छामि हातवे ति,
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अपचेतब्ब
359
अपच्चवेक्खित
थेरगा. 186; अपचितो अपचेय्यानं, तस्स इच्छामि हातवेति, अपच्चक्खाय अ., पच्चक्खाति के पू. का. कृ. का निषे. स. नि. 1(1).204.
[अप्रत्याख्याय]. प्रत्याख्यान न करके त्याग या निषेध न करके, अपचेतब्ब त्रि., अप + चि से व्यु., सं. कृ. [अपचेतव्य], सहारा लेकर, उपेक्षा न करके - ... अपच्चक्खाय दुब्बल्यं पूजार्ह, आदर पाने योग्य, सम्मान प्राप्त करने योग्य - अनाविकत्वा मेथुनं धम्म पटिसे वेय्य अन्तमसो अतिथी खो पनम्हहि सक्कातब्बा गरुकातब्बा मानेतब्बा तिरच्छानगतायपि, पारा. 25; अम्बं अपच्चक्खाय पच्छिमेन पूजेतब्बा अपचेतब्बा, दी. नि. 1.103; 119.
अम्बेन सो पुरिसो दण्डप्पत्तो भवेय्या ति, मि. प. 45; पाठा. अपच्च नपुं.. यत्र तत्र लिङ्गविपर्यासवश पु.. [अपत्य], सन्तान, अप्पचक्खाय. पुत्र, सुत - थापच्चं पुत्तोत्तजो सुतो, अभि. प. 240; अपच्चो अपच्चत्तवचनत्त नपुं, अपच्चत्तवचन का भाव., प्र. वि. से ओक्काकराजस्स, सक्यपुत्तो पभङ्करो, सु. नि. 997; मनुनो भिन्न विभक्तियों में रहना - यत्थ सति पि नामस्स साधक अपच्चाति मनुस्सा, खु. पा. अट्ठ. 98; अक्खरचिन्तका पन वाचकत्ते ... अपच्चत्तवचनत्ता आख्यातपदेन तुल्याधिकरणता "ब्रह्मनो अपच्चं ब्राह्मणो ति वदन्ति, सद्द. 2.357; वा णप्पच्चे, न लमति, सद्द. 1.21; 22. क. व्या. 346.
अपच्चनीकता स्त्री., अपच्चनीक का भाव. [अप्रत्यनीकता], अपच्चक्कोसन नपुं., पच्चकोसन का निषे. [अप्रत्याक्रोशन]. अविरुद्धता अविपरीतता, अप्रतिकूलता, अनुकूलता - सुसील्यं बदले में या पलट कर बुरी भली बातें न कहना - पच्चुपट्टितं अयञ्च सम्मादिवि ... अरियानं अपच्चनीकता एतदकिञ्चि सेय्योति यं खीणासवस्स अक्कोसन्तं वा सद्धम्मसञत्ति अनत्तुक्कंसना अपरवम्भना, म. नि. 2.73; अपच्चक्कोसनं, ध. प. अट्ठ. 2.368.
77; - पटिपत्ति स्त्री., कर्म. स. [अप्रत्यनीकप्रतिपत्ति], अपच्चक्ख त्रि., ब. स. [अप्रत्यक्ष], क. शा. अ. आंखों के अविपरीत आचरण, अनुकूल व्यवहार - तत्थ पटिपादितोति सामने अविद्यमान, आंखों से ओझल, ला. अ. इन्द्रिय-जन्य आभिसमाचारिकवत्तं आदि कत्वा सम्मा अपच्चनीकपटिपत्तिय ज्ञान की पकड़ के बाहर - अपच्चक्खं मनिन्द्रिय, अभि. प. योजितो, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.3; - पटिपदा स्त्री., 716; अट्ठानमेतं यं बुद्धा अनुपधारेत्वा अपच्चक्खं कत्वा कर्म. स. [अप्रत्यनीकप्रतिपत्], उपयुक्त मार्ग, अनुकूल किञ्चि कथेय्यु दी. नि. अट्ठ. 3.43; ख. व्याकरण के उपाय - सम्मापटिपदाय अनुलोमपटिपदाय विशेष सन्दर्भ में, परोक्ष भूत या परोक्खा विभत्ति का अर्थ, अपच्चनीकपटिपदाय अविरुद्धपटिपदाय अन्वत्थपटिपदाय वक्ता द्वारा अपनी आंखों से न देखा गया पूर्वकाल - धम्मानुधम्मपटिपदाय, महानि. 10; अपच्चनीकपटिपदायाति अपच्चक्खे अतीते काले परोक्खा विभत्ति होति, क. व्या. न पच्चनीकपटिपदाय, अपच्चत्थिकपटिपदाय, महानि. अट्ठ. 419; अपच्चक्खे परोक्खाय अतीते इति हि लक्खणे, सद्द. 1.53; 3.816; मो. व्या. 6.6; - कत त्रि., [अप्रत्यक्षकृत], अपच्चवेक्खना/अपच्चवेक्खणा स्त्री., पच्चवेक्खणा का आंखों के सामने नहीं लाया गया या उपस्थित न किया निषे. [अप्रत्यवेक्षण], अपरीक्षण, अज्ञान, सूक्ष्म जांच पड़ताल गया, असाक्षात्कृत - असच्छिकतानन्ति अपच्चक्खकतानं. न करना, मोह - यं अआणं अदस्सनं ... अपरियोगाहणा ध. स. अट्ठ. 262; - कम्म त्रि., ब. स. [अप्रत्यक्षकर्मन्], असमपेक्खणा अपच्चवेक्षणा अपच्चक्खकम्म ... मोहो साक्षात् अनुभव न रखने वाला, प्रत्यक्ष अनुभव से रहित - ... अविज्जायोगो ... अकुसलमूलं-इदं वुच्चति असम्पजज रूपे खो, वच्छ, ... रूपसमुदये ... रूपनिरोधे अप्पच्चक्खकम्मा. पु. प. 127; धम्मानं सभावं पति न अपेक्खतीति स. नि. 2(1).260; - कारी त्रि., [अप्रत्यक्षकारिन], अपनी ___अपच्चवेक्खणा, ध. स. अट्ठ. 294. सूझबूझ से काम न करने वाला - पण्डिता नाम तादिसेन अपच्चवेक्खित त्रि., पच्चवेक्खति के भू. क. कृ. का निषे. परपत्तियेन अपच्चक्खकारिना सद्धिं न वसन्तीति वत्वा तस्स [अप्रत्यवेक्षित], सूक्ष्म रूप से अपरीक्षित, गहराई के साथ न अनाचारं पकासेन्तो, जा. अट्ठ. 5.220; तस्मा यदिपि तत्थ जांचा गया - तस्स ता विनसुन्ति तस्स ता एवं
अपच्चक्खकारीनम्पि विञ्जनं कवा... नत्थियेव, उदा. अट्ठ. 321. अपच्चवेक्खन्तस्स सीहपरिपन्थादितो अरक्खियमाना अजा अपच्चक्खात त्रि., पच्चक्खात का निषे. [अप्रत्याख्यात], सीहपरिपन्थादीहि विनस्सिंसु. जा. अट्ठ. 3.356; - परिभोग अप्रतिषिद्ध, अनिषिद्ध, अपरित्यक्त - दुब्बल्याविकम्मञ्चेव पु., कर्म. स., किसी वस्तु का बिना जांच-पड़ताल के होति सिक्खा च अपच्चक्खाता, पारा. 26.
उपयोग, परीक्षण के बिना ही उपभोग - लित्तं परमेन
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अपच्चवेक्खित्वा
तेजसाति इदं सत्था जेतवने विहरन्तो अपच्चवेक्खितपरिभोगं आरम्भ कथेसि, जा० अट्ठ. 1.363. अपच्चवेक्खित्वा अ., पच्चवेक्खति के भू० क० कृ० का निषे. पूरी पूरी जांच पड़ताल न करके, सूक्ष्म परीक्षण न करके
तस्मिं किर काले भिक्खू चीवरादीनि लभित्वा येभुय्येन अपच्यवे विखत्वा परिभुज्जन्ति जा. अड. 1.363; अनगारियानपि चत्तारो पच्चये अपच्चवेक्खित्वा परिभुञ्जन्तान पञ्चकामगुणवसेन अनरियपरियेसना होति म. नि. अड. (मू०प.) 1(2).94.
अट्ठ. 2.297.
अपच्यागमन नपुं. पच्चागमन का निषे [ अप्रत्यागमन]. पुनः वापस न लौटना, फिर लौट कर वापस न आना तत्थ यस्मिं सङ्ग्रामे देवा पुन अपच्चागमनाय असुरे जिनिंसु, दी. नि. अपच्चास त्रि. ब. स. [ अप्रत्याश], प्रत्याशा न करने वाला, बदले में कुछ पाने की आशा न रखने वाला निरालयो अपच्चासो, सम्बोधिमनुपत्तिया 'ति, चरिया 374; अपच्चासो किञ्चिपि अपच्चासीसमानो, चरिया. अट्ठ. 43. अपच्चासीसन नपुं. पच्चासिंसन का निषे [ अप्रत्याशंसन]. प्रत्याशा न रखना, बदले में कुछ पाने की इच्छा न करना मिगभूतेन चेतसा विहरन्तीति अपच्चासीसनपक्खे ठिता हुत्वा विहरन्ति म. नि. अड. (म.प.) 2.119. अपच्चुद्धारक त्रि.. पच्चुद्धारक का निषे [ अप्रत्युद्धारक], दान में न देने वाला, दान में नहीं प्रदत्त अपच्युद्धारकं वापि, आविस्सासेन तस्स वा विन. वि. 1644; - सञ्ञी त्रि. [अप्रत्युद्धारकसंज्ञिन् ] प्रदत्त वस्तु में अप्रदत्त की समझ रखने वाला पच्चुद्धारकवत्थेसु अपच्युद्धारसज्ञिनो दिन. दि. 1648.
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360
अपच्चु पलक्खण नपुं., [ अप्रत्युपलक्षण], किसी प्रकार का विभेदक लक्षण प्रकट न करना रूपे खो, वच्छ, अपच्चुपलक्खणा .... स. नि. 2 ( 1 ) . 260 - णादिसुत्त नपुं. स. नि. 2 ( 1 ) के खन्ध-संयुक्त्त के एक सुत्त का शीर्षक, स. नि. 2 (1) 200. अपच्युपेक्खण नपुं. पच्चुपेक्खण का निषे [ अप्रत्यवेक्षण]. प्रत्यवेक्षण नहीं करना, सूक्ष्म जांच पड़ताल न करना वेदनानिरोधगामिनिया पटिपदाय अपच्चुपेक्खणा... स. नि. 2 (1) 280. अपच्चोरोहणता स्त्री०, अपच्चोरोहण का भाव. [अप्रत्यवरोहणता], अशिथिलता, उद्योगशीलता - अपरेहिपि चतूहि कारणेहि सतो ... सतिया अपच्चोरोहणताय सतो,
अपञ्जस
महानि. 7 अपथ्योरोहणतायाति अनिवत्तनभावेन अपच्चोसक्कनभावेन, महानि. अट्ठ. 39. अपच्चो सक्कनभाव पु.. पच्चोसक्कनभाव का निषे. [ अप्रत्यवष्कनभाव], अशिथिला का भाव उद्योगशीलता, ढीले-ढालेपन का अभाव अपच्चोरोहणतायाति अनिवत्तनभावेन अपच्चोसक्कनभावेन, महानि. अट्ठ. 39. अपच्छा अ.. पच्छा का निषे, क्रि. वि., न पीछे, बाद में नहीं, पीछे नहीं सच्छिकिरिया च अपच्छा अपुरे अहोसि. अ. नि. अह, 1210, अपुब्बं अचरिमन्ति अपुरे अपच्छा, एकप्पहारेनेवाति अत्थो, पु. प. अ. 37 अपुरिम त्रि, न पीछे वाला, न पहले वाला - बोधिसत्तस्स ... काकस्स उरे निलीयनञ्च अपच्छाअपुरिमं अहोसि, जा. अड. 3.258. अपजापतिक त्रि, पजापतिक का निषे, अविवाहित, बिना पत्नी वाला यत्थ परसति कुमारकं वा अपजापतिकं..... पारा. 200.
अपजित त्रि./ न. [अपजित] 1. त्रि.. युद्ध अथवा द्यूतक्रीड़ा आदि में हारा हुआ 2. नपुं. हानि, क्षय जितं अपजितं कविरा, तथारूपस्स जन्तुनो ध. प. 105. अहमस्स जितं अपजित करिस्सामि ध. प. अ. 1.374. अपज्झायति अप + √झा का वर्त० प्र० पु०, ए. व. [ अपध्यायति ] चिन्तन में निमग्न हो जाता है, सोच विचार डूब जाता है सेय्यथापि नाम उलूको रुक्खसाखायं मूसिकं मग्गयमानो झायति पज्झायति निज्झायति अपज्झायति, म. नि. 1.418.
में
अपञ्चगव नपुं. पञ्चगय का निषे [ अपञ्चगव], पांच से कम संख्या वाला गायों का समूह या झुण्ड - न पञ्चगवं अपञ्चगवं, क. व्या. 328.
-
अपञ्चपूली स्त्री, पञ्चपूली का निषे, पांच से कम संख्या वाले गुच्छों का ढेर ते घ उभो दिगु-कम्मधारयसमासा तत्पुरिससञ्ञा होन्तिः अपञ्चवस्सं, असत्तगोदावरं, अपञ्चपूली, सद्द 3.759; न पञ्चपूली अपञ्चपूली, क. व्या. 328. अपञ्चवस्स त्रि, पञ्चवस्स का निषे [ अपञ्चवर्ष], वह व्यक्ति, जो पांच वर्षों की आयु वाला न हो, पांच वर्षों से कम आयु वाला नस्स पदस्स तप्पुरिसे उत्तरपदे अत्तं होति, अब्राह्मणो, अवसलो अभिक्षु, अपञ्चवस्सो, अपञ्चगव क. व्या. 335; न पञ्चवस्सं अपञ्चवस्सं, क. व्या. 328. अपञ्जस त्रि०, ब० स० [अपाञ्जस्], गलत रास्ते पर चलने वाला, कुमार्गगामी, सत्पथ से भ्रष्ट विसमं वातेसु वायन्तेसु विसमेसु अपजसेसु देवता परिकुपिता भवन्ति, अ. नि.
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अपञ/अप्पञ
361
अपण्णक 1(2).87; अपञ्जसाति मग्गतो अपगता, उम्मग्गगामिनो हुत्वा अपण्णक त्रि., व्यु. संदिग्ध [अपर्णक, पत्तों से रहित अपण्यक वायन्तीति अत्थो, अ. नि. अट्ठ. 2.309.
(बहुमूल्य) या अप्रश्नक?], क. अविरुद्ध, पवित्र, सन्देहों से अपच/अप्पञ त्रि., ब. स. [अप्रज्ञ], प्रज्ञा से रहित, रहित, विवादमुक्त, सुस्पष्ट, सार्वभौम, परिपूर्ण, एकमात्र रूप मूर्ख, अज्ञानी, मन्द प्रज्ञा वाला - मन्दोति मन्दपओ में सुरक्षित - मेज्झं पूतं पवित्तो वा, अविरुद्धो अपण्णको, अपञस्सेवेतं नाम दी. नि. अठ्ठ. 1.100; बालं अच्चुपसेवतोति अभि. प. 698; एतम्पि दिस्वा पब्बजितोम्हि राज, अपण्णक बाल अप्पझं अतिसेवन्तस्स, जा. अट्ठ. 3.464; - क त्रि., सामञ्जमेव सेय्योति, म. नि. 2.271; अपण्णकं सामञ्जमेव अपञ से व्यु., ब. स. [अप्रज्ञक], प्रज्ञाविहीन, मन्द प्रज्ञा वाला, सेय्योति अविरुद्ध अद्वज्झगामि एकन्तनिय्यानिकं सामञ्जमेव मूर्ख - अम्बं पुट्ठा लबुजं वा ब्याकरिंसु अपञका, दी. वं. 6.30. सेय्यो उत्तरितरञ्च पणीततरञ्चाति .... म. नि. अट्ठ. अपायन नपुं., पञआयन का निषे. [अप्रज्ञापन], ज्ञात न (म.प.) 2.218; अपण्णकं ठानमेके, दुतियं आह तक्किका, कराया जाना, ज्ञान का विषय न बनाया जाना, सूचित न जा. अट्ठ. 1.111; तत्थ अपण्णकन्ति एकसिकं अविरुद्ध किया जाना - ..., तस्सा अपआयनतो संसारस्स निय्यानिकं, जा. अट्ठ. 1.111; कतमो च गहपतयो अपण्णको अनमतग्गता सिद्धा होतीति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).234. धम्मो? म. नि. 2.71; अपण्णकोति अविरद्धो अद्वेज्झगामी अपटु त्रि., पटु का निषे. [अपटु], वह, जो चतुर या निपुण एकसगाहिको, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.84; ख. पाशा के नहीं है, अचतुर - मन्दो भाग्यविहीने चाप्पके मूळहापटुस्वापि, विशे. के रूप में - सेय्यथापि, भिक्खवे, अपण्णको मणि अभि. प. 892.
उद्धं खित्तो येन येनेव पतिद्वाति सुप्पतिहितं येव पतिद्वाति, अपट्ठपेत्वा अ०, अप + Vठा का पू. का. कृ. [अपस्थाय], अ. नि. 1(1).304; अपण्णको मणीति छहि तलेहि समन्नागतो
शा. अ. दूर में या एक ओर रख कर, ला. अ. अपेक्षा न पासको, अ. नि. अट्ठ. 2.226; - टि. संभवतः मूलरूप में करके, उपेक्षा करके - अहं अञ अपट्टपेत्वा अत्तानओव अपण्णक पाशा की प्राचीन भारतीय क्रीड़ा से सम्बन्धित सोधेतुं लभामी ति पुच्छि, जा. अट्ठ. 4.274.
प्रतीत होता है, आगे चलकर यह मौलिक अर्थ पूरी तरह अपठवी/अपथवी स्त्री., पथवी/पठवी का निषे. [अपृथ्वी, विलुप्त हो गया प्रतीत होता है; - कं अ., क्रि. वि०, निश्चित पृथ्वी से भिन्न, भूमि से इतर - अहं इमं महापथविं अपथविं रूप से, बिना किसी सन्देह के - अपण्णक मे तनूपपत्ति करिस्सामी ति, म. नि. 1.179; अपथविं करेय्याति एवं कायेन भविस्सति, म. नि. 2.80; - कङ्ग नपुं, कर्म. स., अनुपम च वायाय च पयोगं कत्वापि सक्कुणेय्य अपथविं कातुन्ति, या बहुमूल्य अङ्ग-दानं देन्तस्स सीलं पूरेन्तस्स योगे कम्म म. नि. अट्ठ (मू.प.) 1(2).7; अपथविया पथविसी , ..., करोन्तस्स चत्तारि अपण्णकङ्गानेव लमन्ति, ध. स. अट्ठ. अपथविसी , पाचि. 51.
177; चत्तारि अपण्णकङ्गानि हापेत्वा पाळियं आगतानि अपण्डर त्रि., पण्डर का निषे०, तत्पु. स. [अपाण्डर], वह, द्वत्तिसमेव, ध. स. अट्ठ. 290; - गाह पु., तत्पु. स., अत्यन्त जो उज्जवल-धवल वर्ण का न हो, कृष्ण वर्ण वाला - सुरक्षित तत्त्व का ग्रहण, बहुमूल्य तत्त्व का चयन - अपण्डरो अण्डसम्भवो, सीवथिकाय निकेतचारिको, थेरगा. अपण्णकग्गाहं पन एकसिकग्गाहं अविरद्धग्गाहं गाहितमनुस्सा 599; अपण्डरो काळवण्णो, थेरगा. अट्ठ.2.183; अपण्डरा ... अहोसि, जा. अट्ठ. 1.107; - ग्गाहगाही त्रि., अत्यन्त लोहितन्ता, जिजूकफलसन्निभा, जा. अट्ठ. 5.150; अपण्डराति सुरक्षित अथवा अत्यधिक मूल्यवती धारणा या मान्यता को कण्हा , जा. अट्ट. 5.151.
ग्रहण करने वाला - अपण्णकग्गाहगाहिनो पन अमनुस्सानं अपण्डित त्रि., पण्डित का निषे. [अपण्डित], मूर्ख, अश्रुत, हत्थतो मुच्चित्वा सोत्थिना इच्छितट्टानं गन्त्वा .... जा. अट्ठ. अज्ञानी, स. प. के पू. प. में प्रयुक्त - जातिक त्रि., ब. स., 1.111; - जातक नपुं.. एक जातक का शीर्षक, जा. अट्ठ. अज्ञान-भरी प्रकृति वाला, मूढ प्रकृति वाला - तत्थ 1.104-133; सा पनेसा निदानकथा याव लट्ठिवने असभिरूपोति अपण्डितजातिको, जा. अट्ठ. 6.241; - पुरिस उरुवेलकस्सपसीहनादा अपण्णकजातके कथिता, जा. अट्ठ. पु., कर्म. स. [अपण्डितपुरुष], मूर्ख पुरुष, अज्ञानी पुरुष 4.252; अपण्णक जातकादीनि पञआसाधिकानि - बालो हि अपण्डितपुरिसो रज्जं वा ओपरज्जं वा अझं वा पञ्चजातकसतानि जातकन्ति वेदितब्, दी. नि. अट्ठ. 1.24; पन महन्तं ठानं पत्थेन्तो कतिपये अत्तना सदिसे विधवपुत्ते अपण्णकादीनि पुरा, जातकानि महेसिना, जा. अट्ठ. 1.2; - महाधुत्ते गहेत्वा .... अ. नि. अट्ठ. 2.72.
ट्ठान नपुं., वादविधि का सुरक्षित स्थल - सब्बम्पेतं
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अपतन
362
अपत्थद्ध
[अपतमान], शा. अ. नीचे की ओर न गिरने वाला, ला. अ. चार प्रकार की अधम गतियों में उत्पन्न न होने वाला -... चतूसु अपायेसु अपतमाने धारेतीति धम्मो, उदा. अट्ठ. 234. अपतिका/अपतीका स्त्री., ब. स. [अपतिका], बिना पति वाली विधवा अथवा अविवाहित कुमारी - वेधवेराति विधवा अपतिका, जा. अट्ठ. 4.165; कुमारिकं वा अपतिक, पारा.
200.
अपण्णकट्ठानं..., जा. अट्ठ. 1.111; - ता स्त्री., अपण्णक का भाव., सुनिश्चितता, परिपूर्णता, अविरुद्धता - सचे तस्स भोतो सत्थुनो सच्चं वचनं, अपण्णकताय मह...स. नि. 2(2).328; अपण्णकताय मय्हन्ति अयं पटिपदा मयह अपण्णकताय अनपराधकताय एव संवत्ततीति अत्थो, स. नि. अट्ठ. 3.146; - धम्मदेसना स्त्री., कर्म. स., उत्तम धर्मोपदेश, सुस्पष्ट एवं सुनिश्चित अर्थ वाला धर्मोपदेश - इमं ताव अपण्णकधम्मदेसनं भगवा सावत्थिं उपनिस्साय जेतवनमहाविहारे विहरन्तो कथेसि, जा. अट्ठ. 1.104; 113; ... इमिस्सा अपण्णकधम्मदेसनाय अभिसम्बुद्धो हुत्वा इमं गाथमाह, जा. अट्ठ. 1.111; - पटिपदा स्त्री., कर्म. स., पूरी तरह से सुरक्षित मार्ग, जटिलता से मुक्त मार्ग, अष्टाङ्गिकमार्ग - सब्बम्पेतं अपण्णकट्ठानं अपण्णकपटिपदा, निय्यानिकपटिपदाति अत्थो, जा. अट्ठ. 1.111; धम्मेहि समन्नागतो भिक्खु अपण्णकपटिपदं पटिपन्नो होति, अ. नि. 1(2).89; ततियवग्गस्स पठमे अपण्णकप्पटिपदन्ति अविरद्धप्पटिपदं, अ. नि. अट्ठ. 2.311; - वग्ग पु., व्य. सं., 1. जा. अट्ठ. के एक खण्ड का शीर्षक, जा. अट्ट, 1.104-1463; 2. अ. नि. के एक वर्ग का नाम, अ. नि. 1(2).89-96; - वचन नपुं., कर्म. स., निश्चय का अर्थ कहने वाला वचन, सार-तत्त्व से परिपूर्ण वचन - अद्धाति एकसवचनं .... अपण्णकवचनं अवत्थापनवचनमेतं अद्धाति, महानि. 2; अपण्णकवचनन्ति पलासरहितं सारवचनं अविरद्धकारणं अपण्णकं ठानमेके तिआदीसु विय, महानि. अट्ठ. 15; - सुत्त नपुं.. 1. म. नि. के एक सुत्त का शीर्षक, म. नि. 2.71-83; 2. अ. नि. के एक सुत्त का शीर्षक, अ. नि. 1(1).136-137. अपतन' त्रि., पतन का निषे. [अपतन], उड़ने में अक्षम, न उड़ने योग्य - सन्ति पक्खा अपतना, सन्ति पादा अवञ्चना, जा. अट्ठ. 1.211; तत्थ सन्ति पक्खा अपतनाति मय्हं पक्खा नाम अत्थि उपलब्मन्ति, तदे.. अपतन' नपुं., पतन का निषे, नहीं गिरना, केवल स. प. के पू. प. के रूप में ही प्रयुक्त; - धम्म त्रि., ब. स. [अपतनधर्म], पतन की ओर न जाने वाला, बुरी गतियों में पतित न होने वाला - अविनिपातधम्मोति चतूसु अपायेसु अपतनधम्मो, दी. नि. अट्ट, 1.252; - सभाव त्रि०, ब. स. [अपतनस्वभाव], उपरिवत् - चतूस अपायेसु उपपज्जनवसेन
अपतनसभावोति अत्थो, उदा. अट्ठ. 236. अपतमान त्रि., पत के वर्त. कृ., आत्मने का निषे.
अपत्तक त्रि., ब. स. [अपात्रक], बिना भिक्षापात्र वाला, भिक्षापात्र न रखने वाला - ... भिक्खू अपत्तकं उपसम्पादेन्ति, महाव. 114; न, भिक्खवे, अपत्तको उपसम्पादेतब्बो, तदे.. अपत्तचीवरक त्रि., ब. स. [अपात्रचीवरक], भिक्षापात्र एवं चीवर से विहीन - ... भिक्खु अपत्तचीवरकं उपसम्पादेन्ति, महाव. 114. अपत्तिक त्रि., अपत्ति से व्यु. [अप्राप्तिक], दूसरों द्वारा फल का भाग नहीं प्राप्त किए जाने योग्य (दान आदि)- इत्थीहि अपत्तिकं करोमा ति एते वदन्तीति, दी. नि. अट्ठ. 2.274. अपत्तियायेत्वा पत्तियायति के पू. का. कृ. का निषे., विश्वास न करके, भरोसा न करके - अपरप्पच्चयाति न परप्पच्चयेन, अञ्जस्स अपत्तिययेत्वा अत्तपच्चक्खञाणमेवस्स एत्थ होतीति, स. नि. अट्ठ. 2.30. अपत्थ' त्रि., अप + अत्थ- का ब. स. [अपार्थ], निरर्थक, बिना अर्थ या तात्पर्य वाला - ब्याहतं पुनरुत्तं वा, अपत्थं वा निरत्थक, अप. 2.154. अपत्थ- त्रि., अप+ अस के भू. क. कृ. से व्यु. [अपास्त]. दूर फेंक दिया गया, बेकार समझ कर छोड़ दिया गया - यानिमानि अपत्थानि, अलाबूनेव सारदे, ध. प. 149; तत्थ अपत्थानीति छड्डितानि, ध. प. अट्ठ. 2.62. अपत्थट त्रि०, अप + vथर का भू. क. कृ. [अपस्तृत], ढक दिया गया, पिनद्ध, पिहित, बन्द - रहदेहमस्मि ओगाळहो, अहारियजमत्तिके, मायाउसूयसारम्भ, थिनमिद्धमपत्थटे थेरगा. 759. अपत्थद्ध त्रि., अप + vथम्म का पू. का. कृ. [अवस्तब्ध], अपने ऊपर दर्प या अभिमान करने वाला, घमण्ड करने वाला - सकुणग्घि सके बले अपत्थद्धा सके बले असंवदमाना लापं सकुणं पमुञ्चि, स. नि. 3(1).225; दी. नि. अट्ठ. 3.27; अपत्थद्धाति अवगाळहत्थम्भा सञ्जातत्थम्भा, लीन (दी.नि.टी.) 3.23.
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अपत्थनकाल
363
अपदान
अपत्थनकाल नपुं॰, पत्थनकाल का निषे. [अप्रार्थनाकाल], निमित्तकम्मन्ति, पारा. 54; अपदेसु अहि नाम सरसामिको इच्छाओं या कामनाओं के अभाव का काल, अनिच्छा या अहितुण्डिकादीहि गहितसप्पो, पारा. अट्ठ. 1.290; मच्छो तृष्णा के अभाव का काल - तस्स मानुसकानं पञ्चन्न केवलं इध अपदग्गहणेन आगतो, पारा. अट्ठ. 1.291; ग. कामगुणान अपत्थनकालो विय तथागतस्स त्रि., चिह्नरहित, बिना निशान वाला, कोई भी चिह्न अपने चतुत्थज्झानिकफलसमापत्तिरतिया वीतिनामेन्तस्स पीछे न छोड़ने वाला - तेसहि जाननं अपदे आकासे हीनजनसुखस्स अपत्थनकालोति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) पददस्सनं विय होति. दी. नि. अट्ठ. 3.56; तं बुद्धमनन्तगोचरं 2.156.
अपदं केन पदेन नेस्सथ, ध. प. 179-80; घ. त्रि., कदम अपत्थरति अप+vथर का वर्त.. प्र. पु.. ए. व. [अपस्तृणाति], रखने या पादनिक्षेप के लिये आवश्यक आधार से रहित, आच्छादित करता है, ढक लेता है; - राम/अवत्थराम शून्य, आलम्बनरहित - अपदेन पदं याति, अन्तलिक्खचरो उ. पु., ब. व. - आदाय वत्थं मणिकुण्डलञ्च, हन्त्वान दिजो, जा. अट्ठ. 4.383; ... अपदे आकासे पदं कत्वा याति, साखाहि अवत्थरामा ति, जा. अट्ठ. 4.390; हन्त्वानाति राजानं तदे. अपदे पदं करोन्तो विय, आकासे पदं दस्सेन्तो विय मारेत्वा ... एकमन्ते साखाहि पटिच्छादेमाति, जा. अट्ठ. ...., पारा. अट्ठ. 1.227; अपदं विधित्वा मारचक्खु अदरसनं 4.390; - रिं अद्य०, उ. पु., ए. व. - वाकचीरं गहेत्वान, गतो पापमितो, म. नि. 1.217; यथा मारस्स चक्खु अपदं पादमूले अपत्थरि अप. 1.356.
होति निप्पदं, अप्पतिद्वं निरारम्मणं, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) अपत्थित त्रि., पत्थ के भू. क. कृ. का निषे. [अप्रार्थित], 1(2).67. नहीं चाहा गया, अवाञ्छित, अनिश्चित, कामनाओं का अपदकथा स्त्री., पारा. अट्ठ. के एक खण्ड का शीर्षक, पारा. अविषयीभूत - आवाहविवाहकानं अपत्थितो होति, दी. नि. अट्ठ. 1.290-291. 3.139; - तित्थिक त्रि., मनचाही नारी को प्राप्त न करने अपदान' नपुं.. [बौ. सं. अवदान], शा. अ. छेदन, विखण्डन, वाला - सपत्तबहुलो होति सदा चापत्थितिथिको, सद्धम्मो. व्यवधान या भेदन - दानं वुच्चति अवखण्डनं अपेतं दानतोति
अपदानं अनवखण्डनन्ति अत्थो, विसुद्धि. 1.58; खण्डने अपत्थिय त्रि., पत्थ के सं. कृ. का निषे. [अप्रार्थ्य], इच्छा त्वपदानं च इतिवुत्ते च कम्मनि, अभि. प. 943; अपदान न करने योग्य, नहीं चाहने योग्य - बालो खो त्वंसि माणव, वुच्चति परिच्छेदो, महाव, अट्ठ. 404; ला. अ. 1. साहस भरे यो त्वं पत्थयसि, अपत्थियं, जा. अट्ठ. 4.55; अपत्थियं यो वे पुण्यकार्य या कुशलकर्म, जिनके द्वारा पापमयी प्रवृत्तियां पत्थयसि, चन्दतो ससमिच्छसी ति, जा. अट्ट. 4.76; बालो अथवा अकुशल धर्म छिन्न-भिन्न कर दिए जाएं, खो त्वं असि माणव, यो त्वं पत्थयसे अपत्थियं, ध. प. अठ्ठ. अकुशलधर्मों को काट देने वाले दान आदि उत्तम कार्य या
लक्ष्ण - कम्मलक्खणो पण्डितो, अपदानसोभनी पजाति, अपथ क. नपुं., पथ का निषे॰ [अपथ], अनुपयुक्त या अ. नि. 1(1).124; यं भगवा सद्धस्स सद्धापदानानि भासेय्य, अनिर्धारित मार्ग, कुमार्ग, ख. त्रि., मार्गरहित स्थान, ऐसा अ. नि. 3(2).303; सद्धानं पुग्गलानं अपदानेसु लक्खणेसु. व्यक्ति, जिसके सामने कोई मार्ग न रहे - सुप्पथो तु सुपन्थो अ. नि. अट्ठ. 3.344; बालस्स बाललक्खणानि बालनिमित्तानि च, उप्पथं त्वपथं भवे, अभि. प. 193; आकासो ... वेहायसं बालापदानानि, अ. नि. 1(1).125; बालापदानानीति बालस्स वायुपथो अपथो अनिलजसं, सद्द. 2.442; अपथम्पि पथं अपदानानि, अ. नि. अट्ठ. 2.73; अपदान वुच्चति विख्यात कत्वा, गच्छामि अनिलजसे, अप. 1.385; दुप्पयाताति टुट्ट कम्म, दुच्चिन्तितचिन्तितादीनि च बाले विख्यातानि पयाता अपथे गता, ततो एव अपरद्धमग्गा, वि. व. अट्ठ असाधारणभावेन, तस्मा बालस्स अपदानानी ति, अ. नि.
टी. 2.70; ला. अ. 2. क्लेशों को काट देने वाली शिक्षा - अपद त्रि.. ब. स. [अपद], क, बिना पैरों वाला, रेंगने वाला, तुम्हापदाने विहरं विहरामि अनासवोति, थेरगा. 47: विहरामि सरीसृप - सत्ता अपदा वा द्विपदा वा चतुप्पदा वा बहुप्पदा अनासवोति तुम्हं तव अपदाने ओवादे गतमग्गे पतिपत्तिचरियाय वा ..., इतिवु. 63; अपदाति अपादका, इतिवु. अट्ठ. 248; विहरं.... थेरगा. अट्ठ 1.126; सुगतापदानेसूति सुगतलक्खणेसु ख. नपुं, बिना पैरों वाला प्राणी - ... पाणो अपदं द्विपदं सुगतस्स सासनसम्भूतासु तीसु सिक्खासु, दी. नि. अट्ठ. चतुप्पदं बहुप्पदं ओचरको ओणिरक्खो संविदावहारो सङ्केतकम्मं । 3.11; नापदानं पायति, दी. नि. 3.65 ला. अ.
79.
1.19
286.
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अपदान
364
अपधारेसि
3. साहस भरे कुशल कर्मों से, सम्बन्धित कथानक - द्वेनवुते खणस्स दुल्लभत्ता, खु. पा. अट्ठ. 134; - सन्ता उपरिवत्, इतोकप्पे, अपदानं पकित्तथि, अप. 1.257.
ब. व. - ... तं तं कम्मं अपदिसन्तायेव तेमासं वीतिनामेसु. अपदान नपुं.. [बौ. सं. अवदान], खु. नि. के 13वें संग्रह जा. अट्ठ. 1.212; - सेय्यु विधि., प्र. पु., ब. व. - ... अज्ञ का नाम, जिसके अन्तर्गत बुद्धापदान, पच्चेकबुद्धापदान, बाले अब्यत्ते अपदिसेय्यु, महाव. 149; - सि अद्य०, प्र. पु.. थेरापदान के साथ साथ बुद्ध के पूर्वजन्मों के उत्तम एवं ए. व. - कस्मा पन सत्था एवं दूरद्धानं अपदिसी ति, ध. प. त्यागपरायण को, थेरी-अपदान तथा अन्य बौद्ध सन्तों के अट्ठ. 2.118; - सिंसु ब. व. - तत्थ एकच्चे छ सत्थारे पूर्व जन्मों के उत्तम कर्मों के कथानक गाथाओं में हैं, इनमें अपदिसिंसु एतेहि ओक्कन्तमत्ते वूपसमेस्सती ति, खु. पा. से अनेक कथानक थेरगा. अट्ठ. एवं थेरीगा. अट्ठ में भी अट्ठ. 130; - सित्वा पू. का. कृ. - इमिना चतुपच्चयदायका उपलब्ध हैं तथा बौ. सं. के दिव्यावदान, अवदानशतक एवं गहट्ठा पच्चये अपदिसित्वा धम्मिकसमणब्राह्मणेहि ... अवदानकल्पलता में प्राप्त होते हैं; - अट्ठकथा स्त्री., अप. दीपेति, जा. अट्ठ. 3.205; - सितब्ब त्रि., सं. कृ. - की अपेक्षाकृत उत्तरकालीन एवं अपूर्ण अट्ठ, परम्परा के अपदिसितब्बा विसं कातब्बा ववत्थपेतब्बा, विहि ... अनुसार इसका नाम विसुद्धजनविलासिनी है तथा लेखक होति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).99; अपदिसितब्बाति हेट्ठा आचार्य बुद्धघोष हैं, ग. वं. 59; 69(रो.).
कत्वा वत्तब्बाति, म. नि. टी. (मू.प.) 1(1).164. अपदानसोभन त्रि., तत्पु. स., परिणाम, विपाक या उत्तम अपदिस्सति अप + दिस के कर्म. वा. का वर्त, प्र. पु., ए.
कर्मों से शोभित होने वाला, या प्रकाशित होने वाला - व., सङ्केत किया जाता है, निर्धारित किया जाता है - एत्थ ...., अपदानसोभनी पञआति, अ. नि. 1(1).1243 च दिस्सति अपदिस्सति अस्स अयन्ति वोहरीयतीति देसो,
अपदानसोभनी पाति या पञआ नाम अपदानेन सोभति, पारा. अट्ठ. 2.167. बाला च पण्डिता च अत्तनो अत्तनो चरितेनेव पाकटा अपदीयन्ति अप + दा के कर्म. वा. का वर्त, प्र. पु., ब. होन्तीति अत्थो, अ. नि. अट्ठ. 2.73; तेन सोभतीति व., काट दिए जाते हैं, विनष्ट कर दिए जाते है, छिन्नअपदानसोभनी, अ. नि. टी. 2.70.
भिन्न कर दिये जाते है - अपदीयन्ति दोसा एतेन रक्खीयन्ति, अपदानिय पु., व्य. सं. एक स्थविर का नाम - इत्थं सुदं । लूयन्ति छिज्जन्ति वाति अपदानं, अ. नि. टी. 2.70. आयस्मा अपदानियो थेरो इमा गाथायो अभासित्थाति, अप. अपदेस पु., अप + दिस से व्यु., क्रि. ना. [अपदेश]. 1. 1.257.
अभिव्यक्ति, कथन, सङ्केत - अपदेसो निमित्ते च छले च अपदायन्ति अप + vदा का वर्त, प्र. पू., ब. व., विशोधित कथने मतो, अभि. प. 860; तत्थ इधाति देसापदेसे निपातो, करते हैं, क्लेशों का अवरवण्डन कर देते हैं - ते अपदायन्ति म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).22; तत्थ तेन हीति कारणापदेसो, सोधेन्ति सत्तसन्तानं एते हीति, सुगतापदानानि, तिस्सो अ. नि. अह. 2.195; 2. कारण, बहाना, व्याज - अथ नं सिक्खा , लीन. (दी.नि.टी.) 3.10.
मनुस्सानं.... अपदेसं कत्वा मुहत्तं वीतिनामेत्वा मनुस्सेसु अपदिसति अप + दिस का वर्त., प्र. पु., ए. व., सङ्केतित .... नगरं पाविसि, जा. अट्ट, 3.51; पुनपि थोक गन्त्वा तेनेव करता है, निर्धारित करता है, नियोजित कर देता है - अयं अपदेसेन ओतरित्वा अभिरुहि, ... अकासि ध. प. अठ्ठ. भणे लोके अग्गपुग्गलं सत्थारं सक्खिं अपदिसति, न युत्तं 1.354; आवु सो मोगल्लाना तिआदिना एतस्स दोसं आरोपेतंध, प. अट्ठ. 1.272; सत्थारं अपदिसति, इद्धानुभावमहन्ततापकासनापदेसेन अत्तनो ... दीपेति, उदा. जिनवचनं अप्पेति, उदा. अट्ठ. 15; - सामि उ. पु., ए. व. अट्ठ. 200; - रहित त्रि., तत्पु. स. [अपदेशरहित], बहाना - दिसापामोक्खं आचरियं अपदिसामी ति चिन्तेत्वा मुसावाद रहित, छदम-रहित, हेतुरहित - अनपदेसन्ति अपदेसरहितं. ... दिसापामोक्खाचरियस्स ... पच्चक्खासि, जा. अट्ठ. अ. नि. अट्ठ. 2.259. 4.181; - न्ति प्र. पु., ब. व. - ते सञ्चिच्च दूरे अपदिसन्ति, अपधारेसि अप + vधर का अद्य., प्र. पु., ए. व., अनुचिन्तन पारा. 251; - सथ म. पु., ब. व. - तुम्हे नत्थिधम्म निब्बान किया, मन में धारण किया, सोचा विचारा - सहसा वोहार अपदिसथ नत्थि निब्बानन्ति, मि. प. 252; - सन्तो त्रि., मा पधारेसि, परि. 302; ... पधारेसीति यो एतेसं सहसा वर्त. कृ., प्र. वि., ए. व. - तं कारणभावेन अपदिसन्तो आह वोहारो होति, सहसा भासितं तं मा पधारेसि, मा गहित्थ, यस्मा मम भासितं नाम अतिदुल्लभं अट्ठक्खणपरिवज्जितस्स परि. अट्ट, 203.
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अपनत
365
अपनिधेति
अपनत त्रि., अप + नम का भू. क. कृ. [अपनत], अप्रवृत्त, दूर हटा हुआ, अप्रदुष्ट - समाधि न चाभिनतो न चापनतो न च ससङ्खारनिग्गरहवारितगतो. अ. नि. 3(1).235; दोसवसेन न अपनतो, अ. नि. अट्ठ. 3.278; अपनतं चित्तं ब्यापादानुपतित-समाधिस्स परिपन्थो, पटि. म. 159; सतिमतो विपस्सिस्स, अनभिनतस्स नो अपनतस्स, म. नि. 2.55; नो अपनतस्साति अदुट्ठस्स, म. नि. अट्ट (म.प.) 2.70; विलो., अभिनत; पाठा. अपणत. अपनमति अप + Vनम का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अवनमति].
शा. अ. दूर होकर झुक जाता है, नीचे झुक जाता है, ला. अ. दूर हट जाता है, अप्रवृत्त होता है; - तु अनु., प्र. पु., ए. व., नीचे की ओर झुक जाए - सचे अयं सम्मासम्बुद्धस्स धातु छत्तं अपनमतु. ..., पारा. अट्ठ. 1.60; - मि अद्य., प्र. पु., ए. व. - सह रओ चित्तुप्पादेन छत्तं अपनमि, पारा. अट्ठ. 1.60; - मिस्सन्ति भवि., प्र. पु., ब. क. - कप्पञ्जहं अभिमाचे सुमेध, सुत्वान नागस्स अपनमिस्सन्ति इतो, सु. नि. 1107; ... अपनमिस्सन्ति इतोति नागस्स तव भगवा वचनं सत्वा इतो पासाणकचेतियतो बहू जना पक्कमिस्सन्तीति
अधिप्पायो, सु. नि. अट्ठ. 2.291. अपनयति अपनेति के अन्त., द्रष्ट. (आगे) अपनयन नपुं., अप + vनी से व्यु., क्रि. ना. [अपनयन], दूर ले जाना, हटाना, दूर कर देना, शान्त कर देना, उपसंहरण, उपशम - ओण अपनयने, सद्द. 2.358; 2.362; ओसधीनं पटिमोक्खोति खारादीनि दत्वा तदनुरूपे वणे गते तेसं अपनयन, दी. नि. अट्ठ. 1.86; ... असुभासुखभावादीनं अपनयनस्स च पहानं वुत्तं, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).255. अपनामेति अप + /नम के प्रेर. का वर्त.. प्र. पु., ए. व. [अपनामयति], 1. दूर ले जाता है, हटवा देता है, शान्त करा देता है - असप्पायं अपनामेति सप्पायं उपनामेति. महाव. 395; बहिद्धा कथं अपनामेति, म. नि. 1.134; 1383; बहिद्धा कथं अपनामेतीति इत्थन्नामं आपत्तिं आपन्नोसी ति ... पुच्छाम, आपत्ति पुच्छामा ति ... आपत्तिं आपन्नोसीति, ... बहिद्धा विक्खिपति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).379; - न्ति ब. व., दूर हटा देते हैं - नागा वा अपनामेन्ति, यक्खा वापि हरन्ति नं, खु. पा. 9.(8.4); - न्तो वर्त. कृ., प्र. वि., ए. व., दूर हटाता हुआ - पच्छतो अपनामेन्तो पटिक्कमति नाम, म. नि. अट्ट. (मू.प.) 1(1).264; दी. नि. अट्ठ. 1.151; - य्यं विधि., उ. पु., ए. व., मैं दूर हटा दूं - बहिद्धा कथं अपनामेय्य, म. नि. 1.138-39; - सि अद्य., प्र. पु., ए. व.,
दूर कर दिया, हटवा दिया - बहिद्धा कथं अपनामेसि, म. नि. 1.319; - स्सति भवि., प्र. पु., ए. व., दूर हटवा देगा - बहिद्धा कथं अपनामेस्सति, अ. नि. 1(1),215; बहिद्धा अझं आगन्तुककथं आहरन्तो पुरिमकथं अपनामेस्सति, अ. नि. अट्ठ. 2.174; - स्सामि भवि., उ. पु., ए. व., दूर करा दूंगा - न बहिद्धा कथं अपनामेस्सामि, म. नि. 1.139; 2. नीचे रख देता है, छोड़वा देता है - य्यं विधि., उ. पु., ए. व. - अहञ्चेव खो पन, भो गोतम, यानगतो समानो छत्तं अपनामेय्यं, दी. नि. 1.111; - त्वा पू. का. कृ. - ... छत्तं अपनामेत्वा सीसं विवरित्वा सीसे चीवरं ... पविसितब्बो, चूळव. 350. अपनिधान नपुं., अप + नि + Vधा से व्यु., क्रि. ना., अदृश्य कर देना, छिपा देना, दूर हटाकर रख देना, केवल स. उ. प. के रूप में प्रयुक्त, चीवरापनिधान के अन्त. द्रष्ट.. अपनिधापेति अप + नि + vधा के प्रेर. का वर्त., प्र. पु., ए. व., छिपा कर रखा देता है, दूर हटवा कर रखा देता है, अदृश्य करा देता है - अनपसम्पन्नरस पत्तं वा चीवरं वा अजवा परिक्खारं अपनिधेति वा अपनिधापेति वा. .... पाचि. 167; - य्य विधि., प्र. पु., ए. व., छिपा कर रखा दे, दूर हटवा दे, अदृश्य करा दे - यो पन ... चीवरं वा ... सूचिघरं वा कायबन्धनं वा अपनिधेय्य वा अपनिधापेय्य
वा, पाचि. 166. अपनिधेति अप + नि + vधा का वर्तः, प्र. पु., ए. व. [अपनिदधाति], दूर रख देता है, एक ओर कर देता है, छिपा देता है, अदृश्य कर देता है - अज परिक्खारं अपनिधेति वा अपनिधापेति वा, ..... पाचि. 167; अपनिधेति, पयोगे दुक्कट अपनिधिते आपत्ति पाचित्तियस्स, परि. 70; - न्ति ब. व., छिपा देते हैं, हटाकर रख देते हैं - छब्बग्गिया भिक्खू अम्हाकं पत्तम्पि चीवरम्पि अपनिधेन्तीति, पाचि. 165; अपनिधेन्तीति अपनेत्वा निधेन्ति, पाचि. अट्ठ. 119; - न्तो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व., छिपा रहा, दूर हटाकर रखने वाला - भिक्खुस्स पत्तं वा चीवर वा निसीदनं वा सूचिघरं वा कायबन्धनं वा अपनिधेन्तो वे आपत्तियो आपज्जति, परि. 70; - न्तस्स ष. वि., ए. व., उपरिवत् - भिक्खरस पत्तं ... कायबन्धनं वा अपनिधेन्तस्स पाचित्तियं कथं पञत्तन्ति, परि. 33; अजं अपनिधेन्तस्स, होति आपत्ति दुक्कटं विन. वि. 1651; - य्य विधि., प्र. पु., ए. व., दूर हटा कर रख दे, छिपा दे - ... कायबन्धन वा अपनिधेय्य वा अपनिधापेय्य वा, पाचि. 166; - सुं अद्य.. प्र.
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366
अपनेति
अपनीत पु., ब. व., छिपा कर रख दिए - छब्बग्गिया भिक्खू ... चीवरम्पि अपनिधेसु, तस्मिं वत्थुस्मि, परि. 33-34; - स्सथ भवि., म. पु.. ब. व., छिपा कर रखोगे - भिक्खूनं पत्तम्पि चीवरम्पि अपनिधेस्सथ, पाचि. 165; - स्सन्ति भवि., प्र. पु., ब. व., दूर हटा देंगे, छिपा देंगे - कथहि नाम ... भिक्खून पत्तम्पि चीवरम्पि अपनिधेस्सन्तीति, पाचि. 165; - अपनिहित/धित भू. क. कृ. [अपनिहित], हटाया हुआ, दूर में रखा गया, छिपा कर रखा हुआ -- तेनापनिहिते तस्स, पाचित्तिं परिदीपये, विन. वि. 1650; अपनिधिते आपत्ति पाचित्तियस्स, परि. 70; - त्त नपुं., अपनिहित का भाव. [अपनिहितत्व]. दूर हटा कर रख देने की अवस्था, छिपा । कर रख देने की स्थिति - साटकस्स पन अपनिहितत्ता नग्गो अहोसि, पे. व. अट्ठ. 216... अपनीत त्रि., अप + vनी का भू. क. कृ. [अपनीत], दूर ले जाया गया, हटा दिया गया, छिपाया हुआ, अदृश्य बनाया हुआ - अपनीतो अविज्जाविसदोसो, म. नि. 3.41; इदानेव मया इमस्स सोको अपनीतो, पब्बेपि अपनीतोयेवाति वत्वा तेहि याचितो अतीतं आहरि पे. व. अट्ठ. 34; दिविगतन्ति खो, वच्छ, अपनीतमेतं तथागतस्स, म. नि. 2.163; किन्ते छत्तुपाहनं अपनीतान्ति, ध. प. अट्ठ. 1.214; अपनीतन्ति नीहट अपविद्धं, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.141; - त्त नपुं., अपनीत का भाव. [अपनीतत्व], दूर ले जाना, तिरोहित कर देना - तनुबन्धमुद्धरन्ति तनुकं ... तित्तकस्स अनपनीतत्ता तं असादुमेव कयिरा, जा. अट्ठ. 3.281; निषे. अनपनीतत्त; - ता स्त्री., भाव., उपरिवत्, निषे. अनपनीतता - तरस जातदिवसे गममलस्स धोवित्वा अनपनीतताय केसा जटिता हुत्वा अट्ठसु. ध. प. अट्ठ. 406; - कसाव त्रि., ब. स. [अपनीतकाषाय], चित्त के कलुषित विचारों को हटा चुका, निर्मल चित्त वाला - सब्बवङ्कदोसनिहितनिन्नीतकसावोति निहितसब्बवङ्कदोसो चेव अपनीतकसावो च म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.145; - काळक त्रि., ब. स., काले धब्बों या मस्सों से रहित, अकुशल तत्त्वों से मुक्त - विचितकाळकन्ति अपनीतकाळकं म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).183; तत्थ विचितकाळकन्ति विचिनित्वा अपनीतकाळकं, दी. नि. अट्ठ 1.221; - पाणि त्रि., ब. स. [अपनीतपाणि], हाथ को हटाया हुआ, भोजन समाप्ति पर पात्र से हाथ को हटा चुका - ओनीतपत्तपाणिन्ति पत्ततो अपनीतपाणिं, धोतपत्तपाणिन्तिपि पाठो, धोतपत्तहत्थन्ति अत्थो, उदा. अट्ठ. 196; - मान त्रि., ब. स. [अपनीतमान], घमण्ड को नष्ट कर चुका, निरहङ्कार,
अभिमान न करने वाला - निहतमानन्ति अपनीतमानं थेरीगा. अट्ठ. 290; - हत्थ त्रि., ब. स. [अपनीतहस्त]. अपने हाथ को भोजनपात्र से हटा चुका व्यक्ति - ओनीतपत्तपाणिन्ति पत्ततो ओनीतपाणिं, अपनीतहत्थन्ति वृत्तं होति, सु. नि. अट्ट, 2.159; दी. नि. अट्ट, 1.224. अपनीयति अप + Vनी के कर्म. वा. का वर्तः, प्र. पु., ए. व. [अपनीयति]. दूर ले जाया जाता है, हटा दिया जाता है, शान्त कर दिया जाता है - अस्सोव जिण्णो निब्भोगो, खादना अपनीयति, स. नि. 1(1).205; खादना अपनीयतीति अस्सो हि यावदेव तरुणो होति जवसम्पन्नो, .... जिण्णं निब्भोग ततो अपनेन्ति, स. नि. अट्ठ. 1.230. अपनुदति/अपनुदेति अप + vनुद का वर्त., प्र. पु., ए. व. [अपनुदति], छोड़ देता है, हटा देता है, भगा देता है - ततो योगवचरो अहिते धम्मे अपनुदेति, हिते धम्मे उपग्गण्हाति, मि. प. 35; ध. स. अट्ठ. 166; - नुज्ज पू. का. कृ., हटा कर, त्याग कर, दूर कर - ते भगवा अपनुज्ज एकारामं अनुयुत्तो विहरति, दी. नि. 2.164; अपनुज्जाति तेसं ... विहरन्तो चित्तेन अपनुज्ज, दी. नि. अट्ट. 2.220; - नुदितु पु., क. ना., नष्ट कर देने वाला, मिटा देने वाला, हटा देने वाला - ..., उब्बेगउत्तासभयं अपनुदिता, दी. नि. 3.110; उभेगउत्तासभयापनूदनो, तदे. - पानुदि अद्य०, प्र. पु., ए. व. - यो मे सोकपरेतस्स, पितसोक अपानुदि, जा. अट्ठ. 3.135; सच्चं अहम्पि जानामि, दुस्सं में त्वं अपानुदि, पे. व. 148; - पानुदिं उ. पु.. ए. व. - तस्सा त्याजानमानाय, दुस्सं त्याहं अपानुदि, पे. व. 147; पाठा. अपनुदेति. अपनूदन त्रि., अप + नुद से व्यु. [अपनोदन], दूर हटा देने वाला, मिटा देने वाला, शान्त कर देने वाला - उभेगउत्तासभयापनूदनो, दी. नि. 3.110; ते तस्स धम्म देसेन्ति, सब्बदुक्खापनूदनं, चूळव, 273; उदा. अट्ठ. 339; तुल. अपनुदितु. अपनेति अप + vनी का वर्त.. प्र. पु., ए. व. [अपनयति],
दूर कर देता है, हटा या मिटा देता है, रोक देता है, उतार फेंकता है, निरस्त कर देता है, बहिर्भूत कर देता है - .... आणिं अञआय ... हत्थादीहि सञ्चालेत्वा अपनेति, उदा. अट्ठ. 139; ..., भयमपनेति, .... मि. प. 141; - न्ति ब. व. - .... तमेनं अपनेन्ति, अपनेत्वा जातकानं नेन्ति, अ. नि. 2(1).88; 90; - हि अनु.,म. पु., ए. व., निकाल बाहर करो, हटा दो - तं तेसं गरहं परिभवं विनोदेहि अपनेहि
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अपन्थक
367
अपमार/अपस्मार
निच्छारेही ति, मि. प. 242; - थ ब. व. - ... तुम्हाकं सकटं अपब्बजन नपुं, पब्बजन का निषे., क्रि. ना. [अप्रव्रजन], अपनेथा ति .... जा. अट्ठ. 3.90; - य्य विधि., प्र. पु., ए. गृहत्याग न करना, प्रव्रजित जीवन का ग्रहण न करना - व., मिटा देना चाहिए - एसनिय .... अपनेय्य विसदोस अहं इमस्स ... इदानिस्स अपब्बज्जनत्थाय सरीरवण्ण सउपादिसेसं. म. नि. 3.42; - य्यं विधि., उ. पु., ए. व., वण्णयिस्सामी ति, जा. अट्ठ. 3.348. उपरिवत् - .... एतं अढि अपनेय्यं जा. अट्ठ. 3.22; - अपब्बजितुं प + Vबज के निमि. कृ. का निषे., प्रव्रजित न सि अद्य., प्र. पु.. ए. व., दूर कर दिया, हटा दिया - होने के लिए - न हि सक्का अम्हेसु एकेन अपब्बजितु न्ति, सोवण्णपादुकाति इमानि पञ्च राजककुधभण्डानि अपनेसि, ध. प. अट्ठ. 1.79. जा. अट्ठ. 5.257; - स्सन्ति भवि., प्र. पु., ब. व., दूर कर अपब्बजित त्रि., पब्बजित का निषे. [अप्रव्रजित], वह, देंगे, मिटा देंगे, त्याग देंगे - ते इमं भोजनं भूजित्वा । जिसने गृहस्थ जीवन को त्याग प्रव्रज्या ग्रहण नहीं की है कामरूपारूपभवेसु सब्बं तहमपनेस्सन्तीति, मि. प. 232; या भिक्षुसङ्घ में प्रवेश नहीं पाया है, गृहस्थ - - नयितुं निमि. कृ., दूर करने के लिये - किं न समत्थो अपब्बजितोपि अयं मोघपुरिसो कप्पट्ठियमेव कम्म इद्धिया अत्तनो उपघातं अपनयितुं. मि. प. 182; - त्वा पू. आयूहिस्सतीति कारुञ्जेन देवदत्तं पब्बाजेसी ति, मि. प. का. कृ., दूर ले जाकर, एक ओर हटा कर - ... तं भिक्खु 117; - ता पु.. प्र. वि., ब. व. - तत्थ चराति अपब्बजिता बाहायं गहेत्वा एकमन्तं अपनेत्वा तं भिक्खु एतदवोच, दी. एव पब्बजितरूपेन रट्ठपिण्ड भुञ्जन्ता पटिच्छन्नकम्मन्तत्ता, नि. 1.202; सो संवेगप्पत्तो कासायानि अपनेत्वा गिहिनियामेन उदा. अट्ठ. 271. परिदहित्वा .... ध. प. अट्ठ. 1.10; - य्य त्रि., सं. कृ., दूर अपबज्जा स्त्री., पब्बज्जा का निषे. [अप्रव्रज्या], प्रव्रज्या किये जाने योग्य, हटाने योग्य, त्यागने योग्य, भगा देने का का अभाव, प्रव्रज्या को ग्रहण न करना, गृहस्थ जीवन - पात्र - अपनेय्येसो, भिक्खवे, पुग्गलो, अ. नि. 3(1).17; - गेहञ्चावसति नरो अपब्बज्ज, दी. नि. 3.1203; तब्ब त्रि., सं. कृ., दूर करने योग्य, मिटाने या हटाने योग्य अपब्बज्जमिच्छन्ति अपब्बज्जं गिहिभावं इच्छन्तो, दी. नि. - साकटा पीळेत्वा अपनेतब्बाकारप्पत्ता अहेसं. जा. अट्ठ. अट्ठ. 3.105. 1.143; - नयितब्ब उपरिवत् - अचिन्तियेन अचिन्तियं अपब्बहित्वा अप + वि ऊह का पू. का. कृ., हटा करके, अपनयितब्ब, मि. प. 182.
रास्ते से अलग करके - एकदिवसं अत्तनोव ... सन्निपतितवाने अपन्थक पु., पन्थक का निषे०, पथभ्रष्ट, राह भटका हुआ कचवरं उभयतो अपब्बहित्वा तं ठानं अतिरमणीयमकासि, व्यक्ति - पन्थकोपि अपन्थकोपि मग्गमूळ्हो होति, जा. अट्ठ. म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).197. 1.385.
अपब्मार त्रि., पब्भार का निषे., ब. स. [अप्राग्भार], तीक्ष्ण अपपञ्चित त्रि., पपञ्चित का निषे., प्रपञ्चों के जाल में ढलान से रहित, खड़ी ढलान न रखने वाला, अप्रपाती, नहीं फंसा हुआ, घरेलू जीवन आदि के झमेलों से मुक्त - समतल तटों वाला/वाली - ..., जाता पोक्खरणी सिवा, वनन्तमभिहारयति अपपञ्चितो गिहिपपञ्चेन वनं एव गच्छेय्य, अकक्कसा अपभारा, साधु अप्पटिगन्धिका, जा. अट्ठ. सु. नि. अट्ठ. 2.193.
5.401; अप. 1.12. अपपतित त्रि..प+पत के भू, क. कृ. का निषे. [अप्रपतित, अपभङ्गु त्रि., पभङ्गु का निषे. [अप्रभङ्गुर], अविनाशी, क्षण-क्षण नहीं भटका हुआ, भटकाव या संभ्रम में नहीं फंसा हुआ - में भग्न या नष्ट न होने वाला - यो तस्स निरोधो वूपसमो धम्मेहि समन्नागतो इमस्मा धम्मविनया अपपतितो ति वच्चति, अत्थङ्गमो, इदं अप्पभड, स. नि. 2(1).31. अ. नि. 1(2).3.
अपभस्सर त्रि, पभस्सर का निषे. [अप्रभास्वर], आभा या अपबोधति व्यु. संदिग्ध, अप + Vबुध अथवा आ + प + । दीप्ति से रहित, चमक-दमक से विहीन - कण्हाति काळका, Vबुध का वर्त., प्र. पु.. ए. व., निवारण या बचाव करता है, चित्तस्स अपभस्सरभावकरणा, ध. स. अट्ठ.98. रोक देता है, अपने को बचाते हुए जानता है - यो निन्दं अपमाण त्रि., अप्पमाण के अन्त. द्रष्ट... अपबोधति, अरसो भद्रो कसामिवाति, स. नि. 1(1).9; ध. प. अपमार/अपस्मार पु.. [अपस्मार], मिर्गी का रोग, मूर्छा 143; यो निन्दं अपबोधतीति यो गरहं अपहरन्तो बुज्झति, स. का रोग - अपमारो अपस्मारो, अभि. प. 325; ... पञ्च नि. अट्ठ. 35; ध, प. अट्ठ. 2.48.
आबाधा उस्सन्ना होन्ति - कुलु, गण्डो, किलेसो, सोसो,
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अपमारिक 368
अपर अपमारो, महाव. 91; अपमारोति पित्तुम्मारो वा चक्खुमारो सं. कृ., वापस लौटाने योग्य - अपयापेतब्बं अपयापेतुं, दी. वा, महाव, अट्ठ. 264.
नि.2.132. अपमारिक त्रि., अपमार से व्यु. [अपस्मारिन], मिर्गी के रोग अपयिरुपासना स्त्री., पयिरुपासना का निषे. [अपर्युपासना], से पीड़ित रोगी - कुट्ठिकं गण्डिकं किलासिकं सोसिकं सेवा या देखभाल न करना, असम्मान, असत्कार - तत्थ अपमारिक, पाचि. 12; कुट्टि गण्डिं किलासिञ्च, सोसिञ्च. असेवनाति अभजना अपयिरुपासना, खु. पा. अट्ठ. 99. अपमारिकं विन. वि. 2.484; सन्ति इधेकच्चे कुद्धिका गण्डिका अपरं अ., क्रि. वि. [अपरम], पुनः, फिर से, भविष्य में, इसके किलासिका सोसिका अपमारिका ति भणति, पाचि. 16. अतिरिक्त, और आगे - त्वञ्च मे दीपमक्खाहि, यथायिदं अपमुट्ठ त्रि., प + मुस के भू. क. कृ. का निषे. [अप्रमुष्ट]. नापरं सिया, सु. नि. 1098; यथायिदं नापरं सियाति यथा वह, जिसे भुलाया नहीं गया है, या जो स्मृति-पटल से इदं दुक्खं पुन न भवेय्य, सु. नि. अट्ठ. 2.289; ततो नं अपरं विलुप्त नहीं हुआ है, अनुपेक्षित, जागरुक - अप्पमुटुं येसं कामे, धम्मे तण्हं व विन्दति, जा. अट्ठ. 4.153; अपरन्ति कायगतासति अप्पमुट्ठा ति, अ. नि. 1(1).61; उपट्टिता सति परभागदीपनं, जा. अट्ठ, 4.154; पुनापरं यदा होमि, ब्राह्मणो असम्मुठ्ठा, म. नि. 1.165-66.
सबसव्हयो, चरिया. 74; 75; - कार पु., परकार का निषे०, अपयाति अप + Vया का वर्त, प्र. पु., ए. व., दूर चला सयंकार के मि. सा. पर परंकार में अनुस्वार का आगम, जाता है, वापस चला जाता है; - यन्तो वर्त. कृ., पु.. प्र. दूसरों द्वारा अनिर्मित, अपने आप उत्पन्न या निर्मित - वि., ए. व., वापस लौट रहा - महासमुद्दो, भिक्खवे, असयंकारो अपरंकारो अधिच्चसमुप्पन्नो अत्ता च लोको च. अपयन्तो महानदियो अपयापेति, स. नि. 1(2).104; अपयन्तोति दी. नि. 1.103; उदा. 149; अनुनासिकागमं कत्वा वुत्तं अपगच्छन्तो ओसरन्तो, स. नि. अट्ठ. 2.108; - न्ती स्त्री., अपरंकारोति, उदा. अट्ठ. 281; असयंकारं अपरंकारं उपरिवत्, वापस जा रही, क्षीण हो रही- अविज्जा अपयन्ती । अधिच्चसमुप्पन्नं सुखदुक्खं, दी. नि. 103; उदा. 150. सङ्घारे अपयापेति, स. नि. 1(2).104; अविज्जा अपयन्तीति अपर' त्रि., [अपर], अपश्चाश्रयी, पश्चात् या बाद में न आने अविज्जा अपगच्छमाना ओसरमाना उपरि सङ्घारानं पच्चयो वाला, अनुवर्ती - तस्मा तेना पि नयेन पदतो अपरानि पि भवितुं न सक्कुणन्तीति अत्थो, स. नि. अट्ठ. 2.108; - यन्तं तानि कदाचि सियु, सद्द. 1.276; - त्त नपुं.. अपर का भाव. नपुं.. उपरिवत् - विआणं अपयन्तं नामरूपं अपयापेति, स. [अपरत्व], पश्चात् या बाद में नहीं होने की स्थिति - पदतो नि. 1(2).104; - यन्ता वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ब. व. - अपरत्ते पिनासंसद्दस्स दस्सना, सद्द. 1.276. सङ्घारा अपयन्ता विज्ञाणं अपयापेन्ति, स. नि. 1(2).104; - अपर त्रि., कुछ अर्थों में सर्व की भांति प्रयुक्त [अपर], - यन्तियो स्त्री., उपरिवत् - महानदियो अपयन्तियो कुन्नदियो तथा हि पुब्ब परापर-दक्षिण-उत्तरसदा पुल्लिङ्गत्ते यत्थारह अपथापेन्ति, स. नि. 1(2).104; - पायामि अनु., उ. पु., ए. काल-देसादिवचना, सद्द. 1.267; क. दूसरा, अन्य - ..., व. - हन्द दानि अपायामि, नाहं अज्ज तया सह, जा. अट्ठ. विमोक्खो तस्स नापरो, सु. नि. 1095; तत्थ विमोक्खो तस्स 7.28; तत्थ अपायामीति अपगच्छामि पलायामीति अत्थो, नापरोति तस्स अञो विमोक्खो नत्थि, सु. नि. अट्ठ. 2.288%; तदे.; - पायंसु अद्य., प्र. पु., ब. व. - देवा अपायंस्वेव जन्तुगामन्ति एवं नामकं तस्सेव विहारस्स अपरं गोचरगाम, उत्तरेनमुखा, स. नि. 1(1).259.
..... उदा. अट्ठ. 175; सो तेसं किरियं ... गच्छामह अपयान नपुं., अप + Vया से व्यु., क्रि. ना. [अपयान], पण्डिता ति वत्वा अपरेन अरे दुहब्राह्मण, ..., जा. अट्ठ. 6. वापस पलायन, पीछे की ओर भागना - बाहिरानं रञ्ज 240; अपरस्स चक्कवत्तिस्स सम्मापटिपत्तिया उपगच्छति, अपयानं भविस्सति, दी. नि. 1.9...
मि. प. 206; अपरं दीपकं ... उपायेन अपरस्मिं दीपके अपयापेति अप + Vया के प्रेर. का वर्त, प्र. पु., ए. व., मणिविमाने सोळस, जा. अट्ठ. 4.3; तत्थ कतमे अपरेपि तयो वापस या पीछे की ओर लौटाता है, वापस कराता है, सत्थारो? पु. प. 145; ख. एक और, दूसरा और, इसके हखाता या दूर करता है - महासमुद्दो, भिक्खवे, अपयन्तो अतिरिक्त कुछ और - अपरम्प सम्म ते बाल्यं, यो मुत्तो न महानदियो अपयापेति, स. नि. 1(2).104; ... रुओ अहिते । पलायसि जा. अट्ठ, 3.244; तं ते अपलायनं अपरम्प बाल्यं, च हिते च ञत्वा अहिते अपयापेति, ध. स. अट्ठ. 166; - तुं जा. अट्ठ. 3.245; कतं करणीयं नापरं इत्थत्तयाति अमज्जासि, निमि. कृ. - अपयापेतब्बं अपयापेतुं दी. नि. 2.132; - तब्ब सु. नि. (पृ.) 98; अपरोपि बाराणसियं अजपालानं पमादेन
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अपर
369
अपर
गोचरभूमियं ... सीसेहि मरिस्सन्ति, जा. अट्ठ. 4.2233; अपरेपिस्स तयो सहाया अहेसुं..., तदे. 3.44; ग. काल । एवं देश की दृष्टि से, बाद वाला, अगला, उत्तरकालीन, पिछला, अन्तिम - विपस्सी बोधिसत्तो अपरेन समयेन पञ्चसु उपादानक्खन्धेसु उदयब्बयानुपस्सी विहासी, दी. नि. 2.27; अपरेन समयेनाति एवं पच्चयञ्च पच्चयनिरोधञ्च विदित्वा ततो अपरभागे, दी. नि. अट्ठ. 2.46; सो किर तापसो अपरस्मिं काले एक पच्चन्तगामं निस्साय नदी तीरे वनसण्डे विहासि, जा. अट्ठ. 3.319; दिढे वा धम्मे उपपज्ज वा अपरे वा परियाये, अ. नि. 1(1).159%; - काल पु., कर्म. स. [अपरकाल], आगे आने वाला समय, बाद वाला काल, भविष्य - पुब्बकालं कोधो, अपरकालं उपनाहो, विभ. 412; वृत्तञ्चेतं-पुब्बकाले कोधो, अपरकाले उपनाहो तिआदि, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).113; - क्खर पु./नपुं., कर्म. स. [अपराक्षर], बाद में आने वाला अक्षर, पश्चाश्रयी अक्षर - पुब्बक्खरेन अपरक्खरं जानाति नाम, ध. प. अट्ठ. 2.321; - गोयान नपुं./पु.. व्य. सं. [बौ. सं... अपरगोदान], बौद्धों की ब्रह्माण्ड-व्याख्या में सिनेरु (सुमेरु) से पश्चिम की ओर स्थित एक महाद्वीप का नाम - पुब्बविदेहो चापरगोयानं जम्बुदीपो च, उत्तरकुरु चेति सियुं चत्तारो मे महादीपा, अभि. प. 183; सत्तयोजनसहस्सपरिमण्डलंयेव अपरगोयानं, खु. पा. अट्ठ. 141; अपरगोयानतो आगतमनुस्सेहि आवसितपदेसो अपरन्तजनपदोति नाम लभि, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).236; अपरगोयाने मज्झिमयामो, दी. नि. अठ्ठ. 3.46; सहस्सं अपरगोयानानं, अ. नि. 1(1).2583; - गोयानदीप पु., कर्म. स., उपरिवत् - गोयानियेति अपरगोयानदीपं. जा. अट्ठ.7.171; अपरगोयानदीपे उग्गमनकालो इध मज्झन्हिको.. दी. नि. अट्ठ. 3.46; - गोयानका पु., अपरगोयन नामक महाद्वीप के निवासी - ते जम्बुदीपका, अपरगोयानका, उत्तरकुरुका, पुब्बविदेहकाति चतुबिधा, इध जम्बुदीपका अधिप्पेता, खु. पा. अट्ठ. 98; ... भूमिसया नरा नाम अपरगोयानका च उत्तरकुरुका च, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).316; - चेतना स्त्री., कर्म. स. [अपरचेतना], किसी भी कर्म की आधारभूत तीन प्रकार की चेतनाओं में से तीसरे प्रकार की चेतना, दान आदि कर्मों को करते समय अपरभाग में दाता के चित्त में उदित चेतना - ... पुब्बचेतना, मुञ्चचेतना, अपरचेतनाति तिविधेन उप्पज्जति, विभ. अट्ठ. 390; पुञ्जन्ति पुब्बचेतना च मुञ्चनचेतना च, पुञ्जमहीति
अपरचेतना, अ.नि. अट्ठ. 3.172; अहो वत मे जानीति अपरचेतनं परिपुण्णं कातुं नासक्खि , जा. अट्ठ. 3.262; .... इमे ताव तयो पुब्बचेतनाय च अपरचेतनाय चाति द्विन्न
चेतनानं वसेन दुक्खवेदना होन्ति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).270; तुल. अपरभागचेतना; - रज्जु अ., क्रि. वि. [अपरेधुः], अगले दिन, दूसरे दिन - अपरस्मिं काले अपरज्ज, अपरज्जु, अपरस्मिं वा, क. व्या. 573; अज्जतना भिक्खुनिसङ्घ पवारेत्वा अपरज्जु भिक्खुसङ्घ पवारेतु न्ति, चूळव. 440; सायं वा निक्खमति अपरज्जु वा काले, स. नि. 1(1).216; अपरज्जु वा कालेति दुतियदिवसे वा भिक्खाचारकाले, स. नि. अट्ठ. 1.237; - रज्जुगत त्रि., अगले दिन पड़ने वाला, अगले दिन घटित होने वाला/वाली - अपरज्जुगताय आसाळिहया पुरिमिका उपगन्तब्बा, ... पच्छिमिका उपगन्तब्बा, महाव. 181; - रज्जुदिवसपुब्बभाग पु., तत्पु. स., दूसरे दिन का पूर्वभाग - पातोति अपरज्जुदिवसपुब्बभागे, सु. नि. अट्ठ. 2.98; - रट्ठम त्रि., कर्म. स. [अपराष्टम], दूसरा या अन्य आठवां - पटिसम्भिदारहत्तञ्च, एतं मे अपरट्ठमं, अप. 1.355; - रण्ण नपुं, अपर + अन्न का स. प. [अपरान्न], सात प्रकार के खाद्यान्नों से इतर साग सब्जी, दाल आदि खाद्य पदार्थ -
खेत्तं नाम यत्थ पुब्बण्णं वा अपरणं वा जायति, पारा. 57; तत्थ पुब्बण्णन्ति सालिआदीनि सत्त धज्ञानि, अपरण्णन्ति मुग्गमासादीनि, पारा. अट्ठ. 1.272; खेत्तं नाम यस्मिं पुब्बणं रुहति, वत्थु नाम यस्मिं अपरण्णं रुहति, दी. नि. अट्ठ. 1.72; - जाति स्त्री., उपरिवत् - हरेणुकाति अपरण्णजाति, जा. अट्ठ. 5.402; - निस्सित त्रि., तत्पु. स., दालों या सब्जियों के खेतों के समीप में स्थित - .... अपरण्णनिस्सितं वा होति, .... एतं सारम्भं नाम, पारा. 231; एसेव नयो अपरण्णनिस्सितादीसपि, पारा. अट्ठ. 2.141; - रण्ह पु.. अपर + अण्ह का स. प. [अपराह्ण], दिन का मध्याह्न के बाद वाला भाग - ... पुब्बन्हो, अपरण्हो, अज्जन्हो, ..., मो. व्या. 110; - तो अ., [अपरतः], पश्चिम दिशा की ओर - सर काणकच्छपं पुब्बसमुद्दे, अपरतो च युगछिदं, थेरीगा. 502; - दिवस पु., कर्म स॰ [अपरदिवस], दूसरा दिन, अगला दिन - सा पेती तं ... सब्बकामसमिद्धा च हुत्वा अपरदिवसे आयस्मतो ... वन्दित्वा अट्ठासि, पे. व. अट्ठ. 69; -दीपन/दीपना नपुं./स्त्री., अन्य पद्धतियों द्वारा किसी पद की दूसरी व्याख्या या भिन्न निर्वचन, पूर्व-पद का परवर्ती पद द्वारा व्याख्यान या अर्थ का सुदृढीकरण -
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अपरज्झति 370
अपरन्त एतकेन हि सब्बम्पि अपरदीपनं सिद्ध होति, विभ. अट्ठ.8 अपरट्ठ त्रि., अपरद्ध का अप., परिभ्रष्ट, च्युत, वञ्चित - अपरस्स अपरस्सा'ति दीपनं अपरदीपनं, विभ. मू. टी. 8; अपरद्धोति अरहत्तमग्गप्पत्तितो पट्ठाय परिभट्ठो चुतो न अपरदीपना पनेत्थ द्वे ठानानि गच्छति, ध. स. अट्ठ. 182; अभिनिब्बत्तिस्सति, अपरटोति वा पाठो, अपगतसमिद्धितो अपरेन वा पुरिमत्थस्स दीपना अपरदीपना, ध. स. मू. टी. समुच्छिन्नकारणत्ता अपगतोति अत्थो, थेरगा. अट्ठ. 1.185. 90; - रड्ड त्रि., ब. स. [अपरार्ध], किसी गाथा या वाक्य अपरद्ध त्रि., अप + Vराध का भू. क. कृ., क. किसी अभिप्रेत का बाद में आने वाला आधा भाग, उत्तरार्ध- ततियगाथायपि की प्राप्ति से वञ्चित, परिभ्रष्ट, रिक्त, तुच्छ, पराजित व्यक्ति पुब्बड्ळ तत्थ वुतनयमेव अपरड्डे सङ्गोति सज्जनहानं, लग्गनन्ति - त्वं.... समनुयुञ्जियमानो ... रित्ते तुच्छो अपरद्धो, म. नि. वुत्तं होति, सु. नि. अट्ठ. 2.283.
1.299; अपरद्धोति पराजितो. म. नि. अट्ठ. (मू.प.) अपरज्झति अप + /राध का वर्त., प्र. पु., ए. व. 1(2).177; असुद्धो मञसि सुद्धो, सुद्धिमग्गा अपरद्धोति, [अपराध्यति]. 1. हिंसा करता है, प्रदूषित कर्म करता है - स. नि. 1(1).122; अपरद्धोति दूरे त्वं सुद्धिमग्गा ति वदति, रज्झति विरज्झति अपरज्झति, अपराधो, सद्द. 2.484; क. स. नि. अट्ठ. 1.149; भगवता सके ... समनुभासियमाना किसी के विरुद्ध पाप-कर्म करता है - कोचि पुरिसो रित्ता तुच्छा अपरद्धाति, म. नि. 2.236; पस्स .... याव किस्मिञ्चिदेव पकरणे अपरज्झति, मि. प. 183; - ज्झामि अपरद्धञ्च ते इदं आचरियस्स ब्राह्मणस्स पोक्खरसातिस्स, तदे., उ. पु., ए. व. - क्याहं अय्यानं अपरज्झामि? चूळव. दी. नि. 1.90; अपरद्धोति अरहत्तमग्गप्पत्तितो पट्ठाय परिमट्ठो 180; - ज्झन्तो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व., अपराध कर चुतो न अभिनिब्बत्तिस्सति, थेरगा. अट्ठ. 1.185; ख. कर्तृ. रहा, पाप कर्म कर रहा - तुम्हेसु च देविया च अपरज्झन्तो वा. में, अपराध कर चुका, पापकर्म कर चुका, दुष्कृत्य कर इमे निस्साय एतेसं ... पापकम्म करि जा. अट्ठ.5.235; - चुका - यदि पन तस्सा पुत्तो अपरद्धो होति वेलातिवत्तो, मि. ज्झन्तं उपरिवत्, द्वि. वि., ए. व. - तम्पि तथेव अत्तनि प. 153; येन एवं... भिक्खुसड़े अपरद्धान्ति तमत्थं तस्स अपरज्झन्तं चोरं दिस्वा. उदा. अट्ठ. 197; - ज्झन्तेन तदे., ..... गच्छ, पे. व. अट्ठ. 168; ग. कर्म. वा. में, वह, जिसके तृ. वि., ए. व. - तस्मिं पच्चेकबुद्ध अपरज्झन्तेन तया द्वारा अपराध या पापकर्म किया गया है - किस्स तया कतस्स पापकम्मरस अनुच्छविकमेवेतं फलं तुम्हें उपनीतं. अपरद्ध, भण विस्सट्ठा यथाभूतं. थेरीगा. 419. पे. व. अट्ठ. 2.50; - ज्झि अद्य., प्र. पु., ए. व., अपराध अपरद्धमेसी त्रि., [अपराधगवेषिन्], दूसरों के गुणों को न किया - मम पुत्तो हत्वा अग्गमहेसिया अपरज्झि, जा. अट्ठ. देख उनके दोषों को खोजने वाला, परछिद्रान्वेषी - 4.170; -ज्झिं तदे., उ. पु., ए. व. - तत्थ भिय्योति यस्मा रन्धमेसीति विरन्धमेसी अपरद्धमेसी खलितमेसी गळितमेसी तादिसे परिसुद्धसीलगुणसम्पन्ने तयि अपरज्झिं, जा. अट्ठ. विवरमेसीति, महानि. 121; अपरद्धमेसीति गुणं अपनेत्वा 6.113; नपिहं अपरज्झिन्ति नपि अहं तस्स किञ्चि अपरझिं। दोसमेव गवेसी, महानि. अट्ठ. 227. थेरी. अट्ट, 291; - झिंसु उपरिवत्, ब. व. - अपरद्धन्ति अपरन्त पु., कर्म, स. [अपरान्त], 1. पश्चिम दिशा - सो अपरझिंसु, दी. नि. अट्ट, 1.207; - ज्झिम्हा तदे., उ. पु., कदाचि पुबन्ततो अपरन्तं गच्छति, कदाचि अपरन्ततो पुबन्तं. ब. व. - ... येसं अपरज्झिम्हा, .... म. नि. अट्ठ. (मू.प.) जा. अट्ठ. 1.107; ... पुब्बन्तापरन्तं गच्छन्तो.... जा. अट्ठ. 1(1).121; - ज्झित्वा पू. का. कृ., अपराध करके - सो 1.352; 2. भविष्य, जीवन का आगे आने वाला भाग - एके पुरिसो महासत्ते अपरज्झित्वा कुट्ठी हुत्वा दिधम्मेयेव मनुस्सपेतो समणब्राह्मणा अपरन्तकप्पिका अपरन्तानुदिहिनो, अपरन्तं अहोसि, जा. अट्ठ. 5.62; ख. न्यूनीभूत, पराजित, रहित, आरब्भ अनेकविहितानि अधिमूत्तिपदानि अभिवदन्ति वञ्चित, खो चुका, द्रष्ट, अपरज्झन तथा अपरद्ध के अन्त.. चतु चत्तारीसाय वत्थूहि, दी. नि. 1.26; तत्थ अपरज्झन नपुं., अप + Vराध से व्यु., क्रि. ना., केवल पू. अनागतकोट्टाससङ्घातं अपरन्त कप्पेत्वा गण्हन्तीति प. के रूप में ही प्रयुक्त, किसी के विरुद्ध दुष्कृत्य या अपरन्तकप्पिका, अपरन्तकप्पो वा एतेसं अत्थीति अनुचित कृत्य - भाव पु., तत्पु. स., अपराध कर देने की अपरन्तकप्पिका, दी. नि. अट्ठ. 1.101; 3. पश्चिमी भारत के अवस्था, दुष्कृत्य कर देने की दशा - कलिंव कितवा एक क्षेत्र का प्राचीन नाम - अपरगोयानतो आगतमनस्सेहि सठोति एत्थ सकुणेसु अपरज्झनभावेन अत्तभावो कलि नाम आवसितपदेसो अपरन्तजनपदोति नाम लभि, दी. नि. अट्ट. ध. प. अट्ठ.2.216.
2.65; अपरन्ते जनपदे कुमुदभण्डिका नाम धजाति मासलूना
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अपरन्तकप्प
371
अपरप्पच्चय
अन्तोगेहगता होति. मि. प. 270; सुरट्ठा अपरन्ता च, आगच्छन्ति अपरपच्चय अपरप्पच्चय के अन्त. द्रष्ट.. ममं घरं अप. 1.394.
__ अपरपजा स्त्री., कर्म. स. [अपरप्रजा], आगे जन्म लेने अपरन्तकप्प पु.. [अपरान्तकल्प], भावी जीवन के विषय में वाली सन्तानें, पौत्र, पौत्री आदि, भावी सन्ततिया, अगली कल्पना, जीवन के भविष्य से सम्बन्धित मत - तत्थ पीढ़ी - ..., अपरपजा चस्स पटिपूजेन्ति, दी. नि. 3.145; अनागतकोट्टाससडातं अपरन्तं कप्पेत्वा गण्हन्तीति अपरपजा चस्स पटिपूजेन्तीति सहायरस पुत्तधीतरो पजा अपरन्तकप्पिका, अपरन्तकप्पो वा एतेसं अत्थीति नाम, तेसं पन पुत्तधीतरो च नत्तुपनत्तका च अपरपजा नाम, अपरन्तकप्पिका, दी. नि. अट्ठ. 1.101.
दी. नि. अट्ठ. 3.125. अपरन्तकप्पिक त्रि., अपरन्तकप्प से व्यु. [अपरान्तकल्पिक, अपरपट्टिय अपरप्पट्टिय के अन्त. द्रष्ट.. भविष्य में जीवन की विद्यमानता का प्रतिपादन करने वाला, अपरपरियाय/अपरापरियाय पु., कर्म स., अपरापरिय या उनमें विश्वास रखने वाला - समणब्राह्मणा अपरन्तकप्पिका का अप॰ [अपरापर्य], जीवन की आगे चलने वाली यात्रा, अपरन्तानुदिहिनो, दी. नि. 1.26; तत्थ अनागतकोट्ठाससङ्घातं अगला जन्म, पुनर्जन्म - निरयम्पि गच्छतीतिआदि निरयादीहि अपरन्तं कप्पेत्वा गण्हन्तीति अपरन्तकप्पिका, अपरन्तकप्पो अविप्पमुत्तत्ता अपरपरियायवसेन तत्थ गमनं सन्धाय वुत्तं, वा एतेसं अत्थी ति अपरन्तकप्पिका, दी. नि. अट्ठ. 1.101. अ. नि. अट्ठ. 2.225; - वेदनीय त्रि., तत्पु. स. अपरन्तप त्रि., परन्तप का निषे. [अपरन्तप], दूसरों को [अपरापर्यवेदनीय], जन्मान्तरों में अनुभव किये जाने योग्य, कष्ट या पीड़ा न देने वाला - सो अनत्तन्तपो अपरन्तपो बारी-बारी से अनुभव किये जाने योग्य, एक एक कर दिद्वेव धम्मे निच्छातो निबुतो सीतीभूतो सुखप्पटिसंवेदी अनुभव किये जाने योग्य - उभिन्नमन्तरे पञ्चजवनचेतना ब्रह्मभूतेन अत्तना विहरति, दी. नि. 3.185; म. नि. 2.3; 81; अपरापरियवेदनीयकम्मं नाम होति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 376-77.
2.242; दिद्वधम्मवेदनीयं उपपज्जवेदनीयं अपरपरियायवेदनीय, अपरन्तसहगत त्रि., तत्पु. स. [अपरान्तसहगत], भविष्य अ. नि. अट्ठ. 2.105; यं पन अपरपरियायवेदनीयं, तं या जीवन में आगे आने वाले भाग से सम्बन्धित - येपि ते, अञत्र अपरपरियाये वेदयितब्बफलं होति ... अत्थो, पे. व. चुन्द, अपरन्तसहगता दिद्विनिस्सया, ..., दी. नि. 3.102; अट्ठ. 209; - वेदनीयकम्म नपु., कर्म. स. इमेसञ्च, चुन्द, पुब्बन्तसहगतानं दिट्ठिनिस्सयानं इमेसञ्च [अपरापर्यवेदनीयकर्मन्], भावी जन्मों में अथवा क्रमशः अपरन्तसहगतानं दिविनिस्सयानं पहानाय ..., देसिता अनुभव किये जाने योग्य विपाक वाला कर्म - उभिन्न अन्तरे पञत्ता, दी. नि. 3.104-05.
पन पञ्चजवनचेतना अपरपरियायवेदनीयकम्मं नाम, अ. अपरन्तानुदिट्ठि' स्त्री., कर्म. स. [अपरान्तानुदृष्टि], भविष्य- नि. अट्ठ. 2.106; म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.242. विषयक, मिथ्या-दृष्टिकोण या मत, आगे आने वाले जीवन अपरपाद पु., केवल ब. व. में प्राप्त, पीछे वाले पैर - ततो के भाग से सम्बन्धित मिथ्या अवधारणा - अपरन्तं अनुगता अपरपादेसु, दळह, बन्धं लतागुणं, जा. अट्ठ. 3.330; दिट्टि अपरन्तानुदिति, ध. स. अट्ठ. 98; इमिना तत्थेव अपरपादेसूति पच्छापादेसु. तदे... आगता चतुचत्तालीस अपरन्तानुदिट्ठियो गहिता, ध. स. अपरप्पच्चय' त्रि., परपच्चय का निषे., ब. स. [अपरप्रत्यय], अट्ठ. 415; पुब्बन्तानुदिट्ठीनं असति, अपरन्तानुदिट्ठियो न दूसरों पर आश्रित या निर्भर न रहने वाला, आत्मनिर्भर, होन्ति, स. नि. 2(1).42; अपरन्तानुदिट्ठीनं असति, थामसो दूसरों पर श्रद्धा या भरोसा न रखने वाला - दिठ्ठधम्मा परामासो न होति, तदे...
... तिण्णविचिकिच्छा ... वेसारज्जप्पता अपरप्पच्चया अपरन्तानुदिट्ठिः त्रि., ब. स., भविष्य के जीवन के विषय सत्थुसासने भगवन्तं एतदवोचु, महाव. 16; नास्स परो में दृष्टिकोण रखने वाला या उस पर विश्वास रखने वाला पच्चयो, न परस्स सद्धाय एत्थ वत्ततीति अपरप्पच्चयो, दी. - ते च भोन्तो ... अपरन्तकप्पिका अपरन्तानुदिडिनो अपरन्तं नि. अट्ठ. 1.224; अपरप्पच्चयाति परप्पच्चयो खुच्चति परसद्धा
आरम्भ अनेकविहितानि... चतुचत्तारीसाय वत्थूहि, दी. नि. 1.26. परपत्तियायना, ताय विरहिताति अत्थो, अ. नि. अट्ठ. 3.100%; अपरन्तिका स्त्री., [अपरान्तिका], एक छन्द का नाम जिसके सच्छिकत्वाति अत्तनायेव पआय पच्चक्खं कत्वा, अपरप्पच्चयं प्रत्येक पाद में 12 वर्ण रहते हैं - अस्स या समकता अत्वाति अत्थो, सु. नि. अट्ठ. 1.124; म. नि. अट्ठ. (म.प.) परान्तिका, वुत्तो. 35.
2.76; यो सारो ब्रह्मचरियस्स, तस्मिं अपरपच्चया, स. नि.
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अपरप्पच्चय
372
अपराजित
2(1).78; तस्मिं अपरपच्चयाति तस्मिं अरियफले, न अझं पत्तियायन्ति, पच्चक्खतोव पटिविज्झित्वा ठिता, स. नि. अट्ठ. 2.251; - भाव पु.. [अपरप्रत्ययभाव], आत्मनिर्भरता, किसी अन्य के प्रति श्रद्धावान न होने की अवस्था - तं किन्ति केन कारणेन अहं अवेच्च अपरपच्चयभावेन सद्दहेय्यं, पे. व. अट्ठ. 196-197. अपरप्पच्चय- पु., कर्म. स. [अपरप्रत्यय], आत्मनिर्भरता, अन्य के प्रति श्रद्धा का अभाव, दूसरों पर आश्रय का अभाव - सयं अभिआ सच्छिकत्वाति अत्तनायेव पञआय पच्चक्खं कत्वा, अपरप्पच्चयेन ञत्वाति अत्थो, उदा. अट्ठ. 140; म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).173-74; ... अपरपच्चया आणमेवस्स एत्थ होति, स. नि. 1(2).17; अपरप्पच्चयाति न परप्पच्चयेन, अञस्स अपत्तियायेत्वा अत्तपच्चक्खञाणमेवस्स एत्थ होतीति, स. नि. अट्ठ. 2.30. अपरप्पत्तिय त्रि., अपरपच्चय का ही वैकल्पिक शब्द, परप्पत्तिय
का निषे. [अपरपत्तिक], किसी अन्य पर श्रद्धाभाव न रखने वाला - अपरप्पच्चयोति अपरप्पत्तियो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).178; न परो पत्तियो सद्दहातब्बो एतस्स अत्थीति अपरप्पत्तियो, म. नि. टी. (मू.प.) 1(2).194; अनीतिहन्ति इतिहपरिवज्जितं, अपरपत्तियन्ति अत्थो, अ. नि. अट्ठ. 2.267; रआ नाम... अपरपत्तियेन हुत्वा सब्बानि किच्चानि अत्तपच्चक्खेनेव कातब्बानि, जा. अट्ठ. 5.108. अपरभाग पु., कर्म. स. [अपरभाग], क. काल के सन्दर्भ में, आगे आने वाला समय, भावी समय: 1. क्रि. वि. के रूप में सप्त. वि., ए. व. में - आगे चलकर, बाद में, फलस्वरूप - चक्खादीनं ... पुब्बभागे ... एव अपरभागे अवस्समुप्पत्तितो आरम्मणाधिग्गहितुप्पन्नन्ति वुच्चति, सु. नि. अट्ठ. 1.7; सा अपरभागे अअम्पि पुत्तं लभि, ध. प. अट्ठ. 1. 3; 2. ष. वि. में अन्त होने वाले पद के उपरान्त प्रयुक्त -के पीछे, के उपरान्त- तस्स सत्थुनो अपरभागे कोण्डओ मङ्गलो सुमनो रेवतो ..., ध. प. अट्ठ. 1.49; दीपङ्करस्स पन भगवतो अपरभागे एक असङ्घयेय्यं कोण्डओ नाम सत्था उदपादि, जा. अट्ठ. 1.40; ख. बाद वाला भाग, परवर्ती भाग - .... तस्सेव अपरभागेन कहावितरणेन कथंकथीभावस्स. ..., सु. नि. अट्ठ. 1.8; ग. पश्चिम दिशा -
अपरभागे विसाणाय राजधानिया रज्जंकारेसि, दी. नि. अठ्ठ. 3.135. अपररत्त नपुं.. तत्पु. स. [अपररात्र], रात्रि का उत्तरार्द्ध, रात का अन्तिम प्रहर - रत्तिया पुब्बं पुब्बरतं, रत्तिया अपरं अपररत्तं, पारा. अट्ठ. 1.178.
अपरवत्त नपुं.. [अपरवक्त्रा], एक छन्द का नाम, जिसके प्रत्येक पाद में 11 वर्ण रहते हैं तथा जो अर्धसमवृत्त नामक छन्द-वर्ग के अन्तर्गत वेतालिय का एक प्रभेद है - यदि ननरलगा न जा जरा, यदि च तदापरवत्तमिच्छति, वुत्तो. 114. अपरवम्भना स्त्री., परवम्भना का निषे, दूसरों की अवज्ञा का अभाव, अन्य लोगों की उपेक्षा या तिरस्कार न करना - अयञ्च सम्मादिट्टि ... अरियानं अपच्चनीकता सद्धम्मसञत्ति अनत्तुक्कंसना अपरवम्भना, म. नि. 2.73; 78. अपरवम्भी त्रि., परवम्भी का निषे०, दूसरों की अवज्ञा या निन्दा न करने वाला - .... अनत्तुक्कंसका अपरवम्भी अरञ्जवनपत्थानि पन्तानि ... अञ्जतरो ति, म. नि. 1.25; पुन चपरं, भिक्खु अनत्तुक्कसको होति अपरवम्भी, म. नि. 1.135; - म्भिता स्त्री., अपरवम्भी का भाव., दूसरों की निन्दा न करने की प्रकृति - अनत्तक्कंसकतं अपरवम्भितं
अत्तनि सम्पस्समानो भिय्यो पल्लोममापादिं अरओ विहाराय, म. नि. 1.25. अपरसेल पु., कर्म, स. [अपरशैल], 1. पश्चिम की दिशा में स्थित पर्वत - मंदारो परसेलोत्थो, अभि. प. 6063; 2. एक विहार का नाम, अपरसेलिय के अन्त. द्रष्ट.. अपरसेलिय त्रि., अपरसेल से व्यु. [बौ. सं. अपरशैलीय],
अशोक के समय तक विकसित 18 बौद्ध-निकायों में से एक निकाय तथा उसके अनुयायी - अपरापरं पन हेमवतिका, ....... अपरसेलिया, वाजिरियाति अओपि छ आचरियवादा
उप्पन्ना, कथा. अट्ठ. 105; अन्धका नाम पुब्बसेलिया, अपरसेलिया, ..., इमे पच्छा उप्पन्ननिकाया, तदे. पुब्बसेलियभिक्खू च तथा अपरसेलिया, म. वं. 5.12. अपराजित' त्रि., परा + जि के भू. क. कृ. का निषे. [अपराजित], वह, जो पराजित नहीं हुआ है, नहीं हराया गया, अनभिभवनीय; - तो पु., प्र. वि., ए. व. - अस्थि सक्यकुले जातो, सम्बुद्धो अपराजितो, थेरीगा. 192; अत्थदस्सी तु भगवा, सयम्भू अपराजितो, अप. 1.85; 375; - तं द्वि. वि., ए. व. - एका वासि मया दिन्ना, सयम्भु अपराजितं, अप. 1.233; - ता प्र. वि., ब. व. - एतादिसानि कत्वान, सब्बत्थमपराजिता, सु.नि. 272; सब्बत्थमपराजिताति सब्बत्थ खन्धकिलेसाभिसङ्घारदेवपुत्तमारप्पभेदेसु चतूसु पच्चत्थिकेसु एकेनापि अपराजिता हुत्वा, सयमेव ते चत्तारो मारे पराजेत्वाति वुत्तं होति, खु. पा. अट्ठ. 125; - ते द्वि. वि., ब. व. - पच्चेकबुद्धेनेकसते, सयम्भू अपराजिते. अप. 1.3; - ट्ठान
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अपराजित
373
अपराधीन नपुं.. तत्पु. स. [अपराजितस्थान], अपराजेय प्राणी का स्त्री., अपराध करने वाली नारी - अहं रओ महापतापस्स स्थान - अपराजितवानम्हि, बोधिपल्लङ्कमुत्तमे, बु. वं. 361; अपराधकारिका, ... जा. अट्ठ. 3.153; - रहित त्रि., अप. 2.361; - पल्लङ्क पु., तत्पु. स. [अपराजितपर्यङ्क], [अपराधरहित], निरपराधी, बेकसूर - अनापराधकम्मन्तन्ति अपराजेय व्यक्ति का पालथी लगाकर बैठना, बोधिवृक्ष के कामकम्मादीसु अपराधरहितं, जा. अट्ठ. 6.309; - धानुरूपं नीचे सिद्धार्थ का ध्यान की अवस्था में शान्तभाव से विशेष अ., क्रि. वि., किये गये अपराध के अनुसार - अपराधे आसन बना कर बैठना - ... अपराजितपल्लङ्क आभुजित्वा अपराधानुरूपं वधबन्धनछेदनताळनादिवसेन करोति, जा. निसीदि, जा. अट्ठ. 1.81; ... बोधिरुक्खमूले अपराजितपल्लङ्के अट्ठ. 2.195; अपराधं पन अनुविज्जित्वा अपराधानुरूप ... उदपादि, सु. नि. अट्ठ. 1.117; - संघ पु., कर्म. स. असाहसेन विनिच्छयं करोन्ता .... ध. प. अट्ठ. 2.219. [अपराजितसङ्घ], अपराजेय अर्हतों का समूह - आगतम्ह अपराधी त्रि., अपराध से व्यु. [अपराधिन], अपराध करने इमं धम्मसमयं, दक्खिताये अपराजितसङ्घन्ति, स. नि. वाला - ... राजापराधिनो हुत्वा अझं पविसित्वा चोरिकाय 1(1).31; दक्खिताये अपराजितसङ्घन्ति केनचि अपराजितं जीविकं कप्पेन्ता .... उदा. अट्ठ. 344. अज्जेव तयो मारे महित्वा विजितसङ्गाम इमं अपराजितसङ्घ अपराधिक त्रि., अपराध से व्यु., प्रायः स. उ. प. में प्रयुक्त दस्सनत्थाय आगतम्हाति अत्थो, स. नि. अट्ठ. 1.69. [अपराधिन्], शा. अ. किसी के विरुद्ध अपराधकर्म करने अपराजित- पु., व्य. सं., 1. एक चक्रवर्ती राजा का नाम - वाला - ते तं सासनं सुत्वा संसारे विचरन्तानं न पुत्तो न इतो च सत्तमे कप्पे, एकोसिं अपराजितो, अप. 1.225; धीता नाम नत्थि, ते अम्हाकं महापराधिका, .... जा. अट्ठ. 2. एक गृहस्थ का नाम - कनिट्ठस्स अपराजितोति, ध. प. 1.122; अ. नि. अट्ठ. 1.167; तस्स इस्सरापराधिकस्स अट्ठ.2.399; ... अपराजितोयेव नाम भागिनेय्यो उपसमित्वा. परिसस्स कतदोसो अहन्ति जानन्तस्स ... उप्पज्जेय्याति, ध. प. अट्ट, 2.400.
मि. प. 150; अनेकदिवसं उपरिगङ्गाय राजापराधिक चोरं अपराजिता स्त्री., [अपराजिता], 1. एक जड़ी या औषधीय हत्थपादे च कण्णनासञ्च छिन्दित्वा ... पवाहेसुं, जा. अट्ठ. पादप का नाम, गिरिकी नाम की जड़ी का दूसरा नाम - 2.97; वेस्सवणापराधिको विय यक्खो , मि. प. 20; ला. अ. गिरिकण्यपराजिता, अभि. प. 584; 2. सक्करी वर्ग के च्युत हो जाने वाला, परिभ्रष्ट, वञ्चित - अविज्जानिवतो अन्त. परिगणित एक समवृत्त छन्द, जिसके प्रत्येक पाद में पोसो, सद्धम्म अपराधिको, अ.नि. 3(1).62; ..... अहमेवेत्थ 14 वर्ण रहते हैं - न-न-र-स-लह-गा सरेहि पराजिता, वुत्तो. अपराधिको, अ. नि. अट्ठ. 2.11.
अपराधिकता स्त्री., अपराधिक का भाव., अपराधी होना, अपराध पु., अप + Vराध से व्यु., क्रि. ना. [अपराध], अपराधी होने की अवस्था - दिलथ कारण? अपराधिकता, अपराध, पाप से भरे-बुरे काम, दोषमय क्रियाकलाप, बाधक एवमेव ... पवत्तेोत, मि. प. 183... कार्य - आगु वुत्तमपराधो, अभि. प. 355; - धो प्र. वि., ए. अपराधित त्रि., अप + Vराध के प्रेर. का भू. क. कृ., खो व. - किं चिन्तयमानो दुम्मनोसि, नून देव अपराधो अस्थि चुका, खो दिया गया, अपराध किया गया - अत्थञ्च धम्म महन्ति, जा. अट्ठ. 6.214; -धं द्वि. वि., ए. व. - अत्थं अनुसास में इसे, अतीतमद्धा अपराधितं मया, जा. अट्ठ. करिस्सन्ति मुसा अभाणिं, एकापराधं खम राजसेट्ट, जा. 7.140; ... अपराधितं मया ति एकसेन मया अतीतं कम्म अट्ठ. 3.348; - धेन तृ. वि., ए. व. - सत्ता च अत्तनो अपराधितं विराधित, तदे; किं ते अपराधितं मया, यं में अपराधेन न तथा विहअन्ति, उदा. अट्ठ. 265; - धस्स ष. ओवरियानं तिट्ठसि, थेरीगा. 369; - कम्म नपुं., कर्म. स., वि., ए. व. - अकारकाति अपराधस्स न कारका, उदा. अट्ठ. अकुशल कर्म, अनुचित कर्म, बुरा काम - इदं वा 211; -धे सप्त. वि., ए. व. - यो पन ... तस्मिं तस्मिं राजापराधितकम्मं तया कतन्ति एवरूपं दारुणं अब्भक्खानं अपराधे अपराधानुरूपं वधबन्धनछेदनताळनादिवसेन करोति, वा, ध. प. अट्ठ. 2.40. जा. अट्ठ. 2.195; - क त्रि., अपराध से व्यु. [अपराधक], अपराधीन त्रि., पराधीन का निषे. [अपराधीन], स्वतन्त्र, वह अपराध करने वाला, बुरे काम करने वाला - अपराधका जो दूसरों के सहारे पर नहीं है, स्वाधीन, आत्मनिर्भर - दूसका हेठका च, लभन्ति ते राजिनो निज्झपेतुं, जा. अट्ठ. ... अत्ताधीनो अपराधीनो भुजिस्सो येनकामंगमो, दी. नि. 4.448; - कारक त्रि.. [अपराधकारक], उपरिदत्; - रिका 1.64; म. नि. 1.348; - ता स्त्री., अपराधीन का भाव.
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अपराधेति
374
अपरामट्ठ
[अपराधीनता, स्वाधीनता, स्वतन्त्रता, आत्मनिर्भरता - यं 1(2).150; ... महामेघो अपरापरं अनुप्पबन्धो अभिवस्सेय्य, पनेत्थ सब्बत्थेव अपराधीनताय लभति चित्तसुखं, उदा. मि. प. 135; ग. शनैः शनैः, क्रमशः, एक-एक करके - अट्ठ. 128; - वृत्ति त्रि., ब. स. [अपराधीनवृत्ति], स्वतन्त्र अपरापर पनेत्थ मनु स्सा भिक्खु सङ्घस्स जीवन-वृत्ति वाला व्यक्ति, वह, जिसकी जीवन-पद्धति किसी रतिट्ठानदिवाट्ठानमण्डपचङ्कमादीनि करियिंसु, म. नि. अट्ठ. दूसरे पर आश्रित नहीं है - इमं उदानन्ति इमं (मू.प.) 1(2).135; तस्स अपरापरं पीति उप्पज्जति, मि. प. पराधीनापराधीनवुत्तीसु आदीनवानिसंसपरिदीपक उदानं 273; अपरे पन ... अपरापरं जरामरणेहि सिवथिकवड्डनाति उदानेसि, उदा. अट्ठ. 127.
अत्थं वदन्ति, उदा. अट्ठ. 287. अपराधेति अप + राध के प्रेर. का वर्त, प्र. पु., ए. व. अपरापरिम नपुं, अपरापर से व्यु. [अपरापर्य], लगातार [अपराधयति], शा. अ. अनुचित रूप में होने या करने हेतु चली आ रही परम्परा, पुनर्जन्मों का लगातार चल रहा प्रेरित करता है, असफल उकसाता है, ला. अ. उपेक्षा सिलसिला-दिट्ठव धम्मे गरहं सम्पराये दुग्गतिं अपरापरिये करता है - चेतसा विहरन्तो अकिच्चं करोति, किच्चं उम्मादञ्च पापुणाति, खु. पा. अट्ठ. 115; - वेदनीय त्रि., अपराधेति, अ. नि. अट्ठ. 1(2).77; किच्चं अपराधेतीति तत्पु. स. [अपरापर्यवेदनीय], पुनर्जन्मों में अनुभव किया कत्तब्बयुत्तकं किच्चं अकरोन्तो तं अपराधेति नाम, अ. नि. जाने वाला, चार प्रकार के कर्मों में से वह कर्म जिसके अट्ठ. 2.305; - त्वा पू. का. कृ., उपेक्षा करके - सो विपाकों का संवेदन अगले जन्मों में होता है - तस्सापि वचनं ... तमेव अपराधेत्वा कालं कत्वा पदुमनिरये अपरापरियवेदनीयं कम्मं अपरापरियवेदनीयद्वेन नियतन्ति?, उप्पज्जि , सु. नि. अट्ठ. 2.178.
कथा. 492; दिट्ठधम्मवेदनीय उपपज्जवेदनीय अपरापर त्रि., [अपरापर], लगातार क्रम वाला, एक के बाद अपरापरियवेदनीयं अहोसिकम्मञ्चेति पाककालवसेन चत्तारि दूसरा, कई एक, बहुत सारे, विविध प्रकार के - अपि च कम्मानि नाम, अभि. ध. स. 36; अपरे अपरे दिट्टधम्मतो अपरापरं निब्बाहनं सोतुकामो न सम्पटिच्छिन्ति, मि. प. अञ्जस्मि यत्थ कत्थचि अत्तभावे वेदितब्बं कम्म 283; - रे पु., प्र. वि., ब. व. - अपरापरे पन ब्राह्मणा अपरापरियवेदनीय, अभि. ध. स. 155; - वेदनीयकम्म पाणातिपातादीनि पक्खिपित्वा तयो वेदे भिन्दित्वा बुद्धवचनेन नपुं.. तत्पु. स. [अपरापर्यवेदनीयकर्मन], अगले जन्मों में .... अकंसु, म. नि. अठ्ठ. (म.प.) 2.298; दी. नि. अट्ठ. अनुभव में आने वाला कर्म - विपाकं दत्वाव नस्सतीति 1.221; अपरापरे पनाति अट्ठकादीहि अपरा परे पच्छिमा अपरापरियवेदनीयकम्म सन्धायाह, जा. अट्ठ. 4.353;
ओक्काकराजकालादीसु उप्पन्ना, लीन. (दी.नि.टी.) 1.2733; उभिन्नमन्तरे पञ्चजवनचेतना अपरापरियवेदनीयकम्मं नाम, - रा स्त्री., प्र. वि., ब. व. - रत्तियो पत्थयन्तेन, उळारा अभि. अव. 154; - वेपक्क त्रि., तत्पु. स., अगले जन्मों में अपरापरा, स. नि. 1(1).104; - रेसु सप्त. वि., ब. व. - विपाक को प्राप्त करने वाला कर्म - अप्पट्टियं कम्म तस्मा तस्स भगवा अपरापरेसुपि दिवसेसु पिण्डाय चरितब्ब, अपरापरियवेपक्कन्ति?, कथा. 384. ..... सु. नि. अट्ठ. 2.194.
अपरापरियाय द्रष्ट. अपरपरियाय के अन्त.. अपरापरं अ., क्रि. वि. [अपरापरं], क. इधर-उधर, इस छोर । अपरापरूप्पत्तिक त्रि., ब. स. [अपरापरूत्पत्तिक], शनैः से उस छोर, एक किनारे से दूसरे किनारे तक - अपरापरं शनैः अथवा क्रमशः उत्पन्न होने वाला/वाली - परियेसन्ति, महानि. 271; अपरापरं परियेसन्तीति उपरूपरि अपरापरूप्पत्तिका वनथा नाम,ध. प. अट्ठ.2.243. गवेसन्ति, महानि. अट्ठ. 320; सो पासादो ... अपरापरं अपरापरूप्पन्न त्रि., कर्म. स. [अपरापरूत्पन्न], उत्तरकम्पति चलति न सन्तिट्ठति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2). काल में उत्पन्न, क्रमशः उत्पन्न, हेतु-प्रत्ययों की अपेक्षा से 199; सो हत्थी ... अपरापरं करोन्तो कीळति, उक्खिपित्वा उत्पन्न - सा अपरापरूप्पन्नाय अविज्जाय उपनिस्सयपच्चयो कुम्भे पतिट्ठापेति, जा. अट्ठ. 1.188; ते अपरापरं संसरन्ता होति, म. नि. अट्ठ. 1(1),233. एक बुद्धन्तरं देवलोके खेपेत्वा अम्हाकं भगवतो काले ... अपरामट्ठ त्रि., परामट्ठ का निषे. [अपरामृष्ट], शा. अ. निब्बत्ति, उदा. अट्ठ. 145; ख. पुनः पुनः, बार-बार, और भी स्पर्श न किया हुआ, ला. अ. अप्रभावित, अदूषित, अगृहीत आगे - रुआ विनिच्छितकालतो पट्ठाय अट्ठो अपरापरं न - ... सीलानि अखण्डानि अच्छिद्दानि ... अपरामट्ठानि सञ्चरति, राजवचनेनेव छिज्जति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) समाधिसंवत्तनिकानि ..., दी. नि. 2.63; तण्हादिट्ठीहि
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अपरामस / अपरामसन्तु
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अपरामट्ठत्ता - इदं नाम त्वं आपन्नपुब्बो ति केनचि पराम असक्कुणेय्यत्ता च अपरामद्वानि दी. नि. अड. 2113; दिट्टिया पहीनता दिट्ठपरामासेन अग्गहितत्ता अपरामट्ठा, पटि म. अट्ठ. 1.171; 183; अरियकन्तेहि ... अखण्डेहि अपरामट्ठेहि समाधिसंवत्तनिकेहि, स. नि. 3(2).411; अपरामट्टेहीति इदं नाम तया कतं, इदं वीतिक्कन्तन्ति एवं परामसितुं असक्कुणेय्येहि स. नि. अड्ड. 3.307 सीलं अखण्ड अच्छिदं... अपरामहं कत्वा परिपूरेन्तो वदति, उदा. अ. 218: परामासेहि आरम्मणकरणवसेन परामद्वता परामट्ठा, ध. स. अट्ठ 96; मग्गफलनिब्बानानि पन अग्गहितानि अपरामद्वानि अनुपादिण्णानेव घ. स. अड. 377 त नपुं, अपराम का भाव [अपरामृष्टत्व] प्रभावित न होने की अवस्था, प्रदुष्ट न होने की दशा तण्हादिट्ठीहि अपरामत्ता- इदं नाम त्वं आपन्नपुष्योति केनचि परामहं असक्कुणेय्यत्ता च अपरामट्ठानि, दी. नि. अट्ठ 2.113; पारिसुद्धिसील नपुं. कर्म. स. [ अपरामृष्टपरिशुद्धिशील]. सर्वथा अप्रदुष्ट विशुद्धियों से सम्बन्धित शील, शील का एक प्रभेद परियन्तपारिसुद्धिसील, - सत्तन्न सेक्खानं इदं अपरामद्वपारिसुद्धिसीलं, पटि. म. 37. अपरामस / अपरामसन्तु त्रि, परा + मस के वर्त. कृ. का निषे॰ [अपरामृशन्], शा. अ. स्पर्श न कर रहा, नहीं छू रहा, ला. अ. किसी प्रकार का महत्त्व नहीं दे रहा, महत्त्वहीन मान रहा, तृष्णा, मान एवं दृष्टि की पकड़ से मुक्त रहता हुआ, वितर्क या संकल्प-विकल्प न करता हुआ सं पु०, प्र॰ वि॰, ए. व. लोकपञ्ञत्तियो, याहि तथागतो वोहरति अपरामसन्ति दी. नि. 1.178; याहि तथागतो वोहरति अपरामसन्ति याहि लोकसमहि लोकनिरुत्तीहि तथागतो तण्हामानदिद्विपरामासान अभावा अपरामसन्तो वोहरतीति देसनं विनिवट्टेत्वा अरहत्तनिकूटेन निद्वापेसि, लीन. ( दी. नि. टी.) 1.285; अममायन्तो अगण्हन्तो अपरामसन्तो अनभिनिविसन्तो चरेय्य.... यापेय्याति, महानि. 36; अपरामसन्तोति वितक्केन ऊहनं अकरोन्तो, महानि. अ. 128 सन्तं पु. द्वि. वि. ए. व. तं ब्राह्मणं दिट्ठिमनादियन्तं अगण्हन्तं अपरामसन्तं अनभिनिवेसन्तन्ति, महानि. 80: अपरामसन्तन्ति तण्हामानदिद्वीहि न परामसन्तु महानि, अ, 192 सतो पु. च. / ष. वि. ए. व. अपरामसतो चस्स पच्चत्तञ्ञेव निब्बुति विदिता, दी. नि. 1.14; अपरामसतो चस्स अपरामासपच्चया सयमेव अत्तनायेव तेस परामासकिलेसानं निब्बुति विदिता दी. नि.
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375
अपरिक्खित्त
व.
अ. 1.93: समानो वर्त. कृ., आत्मने, पु. प्र. वि. ए. अनुपादियमानो अगण्हमानो अपरामासमानो अनभिनिविसमानोति, महानि. 77.
अपरायत्तता स्त्री०, अपरायत्त का भाव. [ अपरायत्तता ], दूसरों के अधीन न होने की स्थिति, स्वायत्तता, आत्मनिर्भरता तं द्वि. वि., ए. व. सेरितन्ति सच्छन्दवृत्तितं अपरायत्ततं. सु. नि. अड्ड. 1.66.
अपरायण त्रि, परायन का निषे [ अपरायण], बेसहारा, आश्रयविहीन बन्धुबान्धवो से विहीन णो पु. प्र. वि. ए. व. सोहं सहस्सजीनोव, अबन्धु अपरायणो, जा. अट्ठ 3.413; अपरायणोति असरणो, निप्पतिट्ठोति अत्थो, तदे.; यिनी स्त्री. प्र. वि. ए. व. सा नूनाहं मरिस्सामि, अबन्धु अपरायिनी जा. अड. 3.341: अपरायिनीति अप्पतिद्वा अप्पटिसरणा, तदे.. अपरिकथाकत त्रि, परिकथाकत का निषे [अपरिकथाकृत]. वह कठिन चीवर जो चीवर के महत्व को प्रकाशित करने वाली कथा द्वारा प्राप्त नहीं हुआ हो अपरिकधाकतेन अत्थतं होति कथिनं, महाव. 332; परिकथाकतेनाति कथिनं नाम दातुं वहति कठिनदायको बहु पुग्यं पसवतीति एवं परिकथाय उप्पादितेन महाव. अह. 369. अपरिकुपित त्रि, परिकुपित का निषे [अपरिकुपित], कोप या क्रोध से मुक्त, तीव्र कोप से रहित देवतासु अपरिकुपितासु देवो सम्मा धारं अनुष्पवेच्छति अ. नि. 1 (2).87, अपरिक्कमन नपुं., परिक्कमन का निषे. [अपरिक्रमण], क. घूमने-फिरने के विस्तृत क्षेत्र या मैदान से रहित सारम्भे चे भिक्खु वत्थुरिमं अपरिक्कमने सञ्ञाधिकाय कुटिं कारेय्य पारा 229; सपरिक्कमनं अपरिक्कमनन्ति सउपचारं अनुपचार, पारा. अट्ठ. 2.141; ख. बचने के उपायों से रहित, त्राण के उपायों से रहित सपरिक्कमनो अयं धम्मो, नायं धम्मो अपरिक्कमनो अ. नि. 3 (2) 231. अपरिक्खत त्रि.. परिक्खत का निषे [ अपरिक्षत ], क्षतिरहित, हानि अथवा क्षय को अप्राप्त.... तं अक्खतं केनचि अपरिक्खतं मनुस्सरूपेनेव पाटलिपुत्तं नयिस्सामि, पे. व. अड. 238 धम्म त्रि.. ब. स. [ अपरिक्षयधर्मन्] कभी भी क्षय को प्राप्त न होने वाला, स्वभाव से ही अक्षय अक्षयधम्ममत्थुति अपरिक्खयधम्मं होतु पे. व. अड. 208. अपरिक्खित्त त्रि, परि + √खिप के भू. क. कृ. का निषे. [ अपरिक्षिप्त ]. ऐसा आदास, जो चारों ओर से घिरा हुआ न हो, घेराबन्दी से रहित - अपरिक्खित्तस्स गामस्स घरूपचारे
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अपरिक्खीण
376
अपरिचितकुसलता
ठितस्स मज्झिमस्स पुरिसस्स लेड्डपातो, पारा. 52; तस्मा । धन आदि के "यह मेरा है" इस रूप में मन द्वारा पकड़ ... अपरिक्खितस्से गामस्स घरूपचारे ठितस्स ... वृत्तं, कर नहीं रखना, ख. अविवाहित रहने की स्थिति - सो पारा. अट्ठ. 1.240; .... अपरिक्खित्तस्स उपचारो, पाचि. अपरिग्गहभावं अत्वा समीपं गत्वा भद्दे, का नाम त्वन्ति 216.
पुच्छि, जा. अट्ठ. 6.192; - रस त्रि., ब. स., वह जिसका अपरिक्खीण त्रि., परिक्खीण का निषे. [अपरिक्षीण], पूरी कृत्य पकड़ कर या बांधकर रखना न हो - अपरिग्गहणरसो तरह से क्षय को अप्राप्त, पूरी तरह से समाप्त न होने वाला, मुत्तभिक्खु विय, ध. स. अट्ठ. 172. अप्रयुक्त - यावकीवञ्च मेति यत्तकं कालं मम सकं मुत्तकरीसं अपरिग्गहित त्रि., परि + गह के भू. क. कृ. का निषे. अपरिक्खीणं होति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).359; [अपरिगृहीत], क, अविवाहित, गृहस्थ जीवन के आवरण से अपरिक्खीणा च आसवा न परिक्खयं गच्छति, म. नि. रहित - अवावटाति अपेतावरणा अपरिग्गहा, जा. अट्ठ. 1.150; सति वा उपादिसेसेति उपादानसेसे वा सति 5.202; ख. "यह मेरा है" इस रूप में मन द्वारा अचिन्तित, अपरिक्खीणे, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).311; - ता स्त्री., मन द्वारा अगृहीत - ... अपरिग्गहिता कामा, महानि. 2; अपरिक्खीण का भाव. [अपरिक्षीणता], पूरी तरह क्षीण न अपरिग्गहिताति तथा अपरिग्गहिता उत्तरकुरुकानं कामा, होना, समाप्त न होना - यानि तेसु संयोजनानि अखीणासवानं महानि. अट्ठ. 13. तेसं अपरिक्खीणता च, उदा. अट्ठ. 32.
अपरिचक्खितु पु., परि + चक्ख से व्यु., क्रि. ना. का अपरिक्खोभ त्रि., परिक्खोभ/परिखोभ का निषे., ब. स. निषे. [अपरिचष्ट्र], वह, जो सावधान या चौकन्ना नहीं है, [अपरिक्षोभ], परिक्षोभ अथवा बाधक तत्त्वों से मुक्त, क्लेश सूक्ष्म परीक्षण न करने वाला - विकिण्णवाचं अनिगुय्हमन्तं, आदि से मुक्त - किलेसपरिखोभाभावेन अपरिखोभं, उदा. असञ्जतं अपरिचक्खितारं जा. अट्ठ. 5.72; अपरिचक्खितारन्ति अट्ठ. 301.
अयं मया कथितमन्तं रक्खितुं सक्खिस्सति न सक्खिस्सतीति अपरिगमनता स्त्री०, अपरिगमन का भाव., जन्म-मरण के पुग्गलं ओलोकेतुं उपपरिक्खितुं असक्कोन्तं, जा. अट्ठ. 5.73. चक्र में आने जाने से मुक्ति, भवचक्र से मुक्ति, आवागमन अपरिचरित्वान परि + /चर के पू. का. कृ. का निषे., से छुटकारा - अपरिगमनताय ठितो, महानि. 16; परिचर्या न करके, उचित देखभाल न करके, उपेक्षा करके अपरिगमनतायाति संसारे अगमनभावेन पुनागमनाभावेनाति - मातरं अपरिचरित्वान, किच्छं वा सो निगच्छति, जा. अट्ठ. अत्थो, महानि. अट्ठ. 70.
5.324; मिच्छा चरित्वानाति मातरं अपटिजग्गित्वा, जा. अपरिगुत्ति स्त्री., परिगुत्ति का निषे. [अपरिगुप्ति], सुरक्षा अट्ठ. 5.326. का अभाव, असुरक्षा - ये तत्थ अपरिगुत्तिया च... आबाधं न अपरिचारक त्रि., परिचारक का निषे. [अपरिचारक], ठीक करोन्ति, विसुद्धि. 1.32.
से सेवा या देखभाल न करने वाला, उपेक्षा करने वाला - अपरिग्गह त्रि., ब. स. [अपरिग्रह], शा. अ. परिग्रह अथवा एवं किच्छा भतो पोसो, पितु अपरिचारको, जा. अट्ठ. 5.324. धन-सम्पत्ति आदि भौतिक साधनों से रहित, मन के लगाव अपरिचिण्ण त्रि., परि + चर के भू. क. कृ. का निषे० से मुक्त, "मेरा है इस प्रकार के मनोभाव से मुक्त - मनुस्सा [अपरिचीर्ण], वह, जिसकी उचित देख भाल नहीं की गयी तत्थ जायन्ति, अममा अपरिग्गहा, दी. नि. 3.151; अपरिग्गहाति है, केवल स. उ. प. के रूप में प्राप्त; - छान नपुं., कर्म. इत्थिपरिगहेन अपरिग्गहा, दी. नि. अट्ठ. 3.133; अममा स., ऐसा स्थान या अवसर, जहां किसी की सेवा या सम्मान अपरिग्गहा, नियतायुका, अ. नि. 3(1).207; अपरिग्गहाति न किया गया हो- बुद्धानं पन अपरिचिण्णट्ठाने आसनपत्तिं 'इदं महान्ति परिग्गहरहिता, अ. नि. अट्ठ. 3.271; ला. अ. आचिक्खन्तेन एकेन भिक्खुना पठमतरं गन्तुं वट्टति, ध. प. पत्नी-रहित, अविवाहित - सपरिग्गहो वा ब्रह्मा अपरिग्गहो अट्ठ. 1.43; - पुब्ब त्रि., ब. स., वह, जिसकी पहले कभी वाति? दी. नि. 1.223; अपरिग्गहो भो गोतमातिआदीसुपि भी ठीक से सेवा-सुश्रूषा या देखभाल नहीं की गयी है - कामच्छन्दस्स अभावतो इत्थिपरिग्गहेन अपरिग्गहो, दी. नि. अग्गि सुलभरूपो यो मया अपरिचिण्णपुब्बो इमिना दीघेन अट्ठ. 1.304; सा अपरिग्गहापि न सेवितब्बा, जा. अट्ठ. अद्भुना, म. नि. 1.116. 5.445; ... सपरिग्गहा, अपरिग्गहाति पुच्छापेसि, जा. अट्ठ. अपरिचितकुसलता स्त्री., अपरिचितकुसल का भाव., कर्म. 6.176; - भाव पु. , तत्पु. स. [अपरिग्रहभाव], क. स्त्री, स., कुशल कर्मों या शील के विषय में अपरिचय, शील
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अपरिच्चत्त
377
अपरिणत
विषयक अज्ञान - सा पनेसा अस्सद्धकुसलस्स धीता चिरकालं अपरिचितकुसलताय साधुजनाचारविरहिता अनादरा अलक्खिका विय अट्ठासि, पे. व. अट्ठ. 57. अपरिच्चत्त त्रि, परि + चिज के भू. क. कृ. का निषे. [अपरित्यक्त], शा. अ. वह, जिसका परित्याग न किया गया हो, ला. अ. वह, जिसे दान में न दे दिया गया हो - .... अदिन्नं अनिस्सटुं अपरिच्चत्तं रक्खितं गोपितं ममायितं परपरिग्गहितं. पारा. 52; यथाठाने ठितम्पि अनपेक्खताय न परिच्चत्तन्ति अपरिच्चत्तं, पारा. अट्ठ. 1.241; अपरिच्चत्तं खो रओ नागस्स जीवितान्ति, म. नि. 1.85; अपरिच्चत्तन्ति अनिस्सट्ठ, परेसं जयं अम्हाकञ्च पराजयं पस्सीति मति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.92. अपरिच्छिन्नपुब्बापरको टिक त्रि., ब. स. [अपरिच्छिन्नपूर्वापरकोटिक], वह, जिसके पूर्वान्त एवं अपरान्त (भविष्य) की कोटियां या सिरे अपरिमित हों - ...
अपरिच्छिन्नपुब्बापरकोटिकोति अत्थो, स. नि. अट्ठ. 2.138. अपरिच्छिन्नप्पमाण त्रि., अपरिमित प्रमाण वाला - अप्पमाणिकायोति एत्तकेन निट्ठ गच्छिस्सन्तीति एवं अपरिच्छिन्नप्पमाणायो, ... अत्थो, पारा. अट्ठ. 2.134. अपरिच्छिन्नक त्रि., परिच्छिन्नक का निषे. [अपरिच्छिन्नक], परिच्छेद या सुनिश्चित माप तौल या निश्चित सीमा से रहित, अपरिमित, असीम - अपरिच्छिन्नसङ्घयत्ता सङ्घयामहत्तेनपि महता, उदा. अट्ठ. 195.. अपरिच्छेद त्रि., ब. स. [अपरिच्छेद], उपरिवत् - महावनेति महावनं नाम सयंजातं अरोपिमं अपरिच्छेदं महन्तं वनं. उदा. अट्ठ. 148. अपरिजानं/अपरिजानन्त त्रि., परि + आ के वर्त. कृ. का निषे. [अपरिजानन्], अच्छी तरह से या पूर्ण रूप से नहीं जान रहा - अनभिजानं अपरिजानं तत्थ चित्तं अविराजयं अप्पजहं अभब्बो दुक्खक्खयाय, इतिवु. 4; अपरिजानन्ति न परिजानन्तो, इतिवु. अट्ठ. 47; अनभिजानं अपरिजानं
अविराजयं अप्पजहं अभब्बो दुक्खक्खयाय, स. नि. 2(2).96. अपरिज्ञआणधम्म त्रि., ब. स. [अपरिज्ञानधर्मन], ज्ञान की क्षमता से रहित, स्वभाव से ही अज्ञानी - सचे बालो
अपरिआतधम्मो सीलादिगुणा परिबाहिरो तित्थायतने पब्बजितो .... ध. प. अट्ठ. 1.284, पाठा. अपरिञातधम्मों. अपरिञात त्रि., परि + Vा के भू, क. कृ. का निषे. [अपरिज्ञात], पूरी तरह से या अच्छी तरह से नहीं जाना या समझा हुआ, तीन परिज्ञाओं द्वारा ग्रहण न किया गया
- अमतं तेसं, भिक्खवे, अपरिजातं येसं कायगतासति अपरिञाता, अ. नि. 1(1).62; अपरिजातन्ति आतपरिआवसेन अपरिआतं, अ. नि. अट्ठ. 1.404; यत्थ सासवं विआणं अपरिञातं तत्थ वीजत्थो, नेत्ति. 663; अपरिञातं तस्सातिवदामि, म. नि. 1.2; - त नपुं., अपरिआत का भाव. [अपरिज्ञातत्व], तीन प्रकार की परिज्ञाओं द्वारा ज्ञात न होने की अवस्था - वाचावत्थुमत्तस्सेव भाणिनो अत्थस्स अपरिञातत्ता, उदा. अट्ठ. 260; - धम्म त्रि., ब. स. [अपरिज्ञातधर्मन], स्वभाव से ही धर्मों का परिज्ञान न रखने वाला, अज्ञानी, पृथग्जन - सचे बालो
अपरिआतधम्मो सीलादिगुणा परिबाहिरो तित्थायतने पब्बजितो ..... ध. प. अट्ठ. 1.284; - वत्थु क त्रि., ब. स. [अपरिज्ञातवस्तुक], वह, जिसे वस्तुओं का परिज्ञान नहीं है, धर्मों को यथार्थरूप में न जानने वाला - स्वायं इध यस्मा पुथुज्जनो अपरिआतवत्थुको, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).28. अपरिज्ञामूलिक त्रि., ब. स. [अपरिज्ञामूलक], वह, जिसके मूल में अज्ञान रहे - अपरिआमूलिका च इधाधिप्पेतानं सब्बधम्मानं मूलभूता मञ्जना होति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).28. अपरिडरहमान त्रि., परि + डह के कर्म. वा. के वर्त. कृ., आत्मने. का निषे. [परिदह्यमान], नहीं जलाया जा रहा, राग एवं द्वेष की अग्नि से नहीं जल रहा - अनवस्सुतो अपरिडरहमानो, एको चरे खग्गविसाणकप्पो, सु. नि. 63; अपरिडरहमानोति एवं अन्वास्सवविरहाव किलेसग्गीहि अपरिडरहमानो, सु. नि. अट्ठ. 1.92; चूळनि. अट्ठ. 121; अपरिडरहमानोति रागजेन परिळाहेन अपरिडरहमानो, चूळनि. 261; - चित्त त्रि., ब. स. [अपरिदह्यमानचित्त], वह, जिसका चित्त क्लेशों की अग्नि द्वारा जलाया नहीं जा रहा है - ... अभिनिबुतत्तोति गुत्तचित्तो अपरिडरहमानचित्तो च, सु. नि. अट्ठ. 2.73. अपरिणत त्रि., परि + Vनम के भू. क. कृ. का निषे. [अपरिणत], शा. अ. नहीं पका हुआ, अपरिवर्तित, ला. अ. क. वह, जो किसी एक को उद्देश्य बनाकर नहीं दिया गया है, या उचित रूप में विनियोजित नहीं किया गया है - अपरिणते परिणतसञी, आपत्ति दुक्कटस्स, पारा. 394; ला. अ. ख. अक्षीण, क्षय को अप्राप्त - अपक्क न परिपाचेन्तीति अपरिणतं अखीणं आयं अन्तराव न उपच्छिन्दन्ति, दी. नि. 2.360; - भोजी त्रि., बिना पकी हुई चीजों को
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अपरिणायक
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अपरिनिब्बुत खाने वाला - सप्पाये मत्तं न जानाति, अपरिणतभोजी च होना; - नं द्वि. वि., ए. व. - उपादापरितस्सनञ्च ..., होति, अ. नि. 2(1).136.
देसेस्सामि अनुपादाअपरितस्स - नञ्च, स. नि. 2(1).15; अपरिणायक त्रि., ब. स. [अपरिणायक], नेता-रहित, .... अपरितस्सनन्ति अग्गहणेन अपरितस्सनं, स. नि. अट्ट, मार्गदर्शक या नायक से रहित - एकचिन्तितोयमत्थो, बालो 2.231; कथञ्चावुसो, अनुपादाना अपरितस्सना होति, म. अपरिणायको, जा. अट्ठ. 2.189; बालो अपरिणायकोति अयं नि. 3.276; स. नि. 2(1).16; - वार पु., तत्पु. स., खुज्जो बालो, ..... तदे; -यिका स्त्री., नेतृत्वरहित या व्याकुलता या उद्विग्नता के अभाव की बारी या अवसर - मार्गदर्शक-रहित नारी- सानूनसा कपणिका, अन्धा अपरिणायिका अपरितस्सनावारे न एवं होतीति येहि किलेसेहि एवं भवेय्य, जा. अट्ट, 483; ते हिन्न मरिस्सन्ति, अन्धा अपरिणायका, जा. अट्ट तेसं पहीनत्ता न एवं होति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).17. 4.372
अपरितस्सी त्रि., परितस्सी का निषे., परित्रास न करने अपरितस्स पु., परितस्स = परितास का निषे. [अपरित्रास, वाला, व्याकुलता से रहित, मन में भय या चिन्ता न लाने बौ. सं. अपरितास], अकम्पन, तृष्णा एवं दृष्टियों के भय से । वाला- सो अछम्भी अकम्पी अवेधी अपरितस्सी विगतलोमहंसो. मुक्ति, निडरता, अनुदद्वेग, बेचैनी का अभाव - रुञो पच्चन्तिमे म. नि. 2.346. नगरे बहु सालियवकं सन्निचितं होति अब्भन्तरानं रतिया अपरित्त त्रि., परित्त का निषे. [अपरीत्त], शा. अ. अनल्प, अपरितस्साय फासुविहाराय बाहिरानं पटिघाताय, अ. नि. असीम, अधिक, अप्रमाण, ला. अ. कामावचरभूमि से ऊपर 2(2).242; अपरितस्सायाति तासं अनापज्जनत्थाय, अ. नि. वाले महग्गत चित्त - एकच्चो पुग्गलो ... भावितपओ अट्ठ. 3.183; एवमेवं ... विहरतो रतिया अपरितस्साय अपरित्तो महत्तो अप्पमाणविहारी, अ. नि. 1(1).282-283; फासविहाराय ओक्कमनाय निब्बानस्स, अ. नि. 3(1).64; अपरित्तोति न परित्तगुणो, अ. नि. अट्ठ. 2.218; तेसं पहाना अपरितस्सायाति तण्हादिद्विपरितस्सनाहि अपरितस्सनत्थाय, अपरित्तञ्च मे चित्तं भविस्सति अप्पमाणं सुभावितान्ति, म. अ. नि. अट्ठ. 3.225.
नि. 3.46; अपरित्तन्ति कामावचरचित्तं परित्तं नाम, तस्स अपरितस्सं/अपरितस्सन्त/अपरितस्समान त्रि., परि + पटिक्खेपेन महग्गतं अपरित्तं नाम, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) Vतस के वर्त. कृ. का निषे॰ [अपरित्रसन], व्याकुल न होता 3.39. हुआ, उद्विग्न न रहता हुआ, भय न करता हुआ - अनुपादयं अपरिदेव पु., परिदेव का निषे, विलाप या रोने कलपने का न परितस्सति, अपरितस्सं पच्चत्त व परिनिब्बायति, दी. अभाव - अपरिदेवो अभिनेय्यो, पटि. म. 11; परिदेवा नि. 2.53; म. नि. 1.98; अपरितस्सन्ति अपरितस्समानो, हित्वा अपरिदेवं पक्खन्दतीति- गोत्रभु, पटि. म. 60. दी. नि. अट्ठ. 2.88; - स्सन्तं द्वि. वि., ए. व. - भगवता अपरिनिहित त्रि, परि + नि+vठा के भू, क. कृ. का निषे. अज्झत्तक्खन्धविनासे अपरितस्सन्तं खीणासवं दस्सेत्वा देसना [अपरिनिष्ठित], पूर्णता को अप्राप्त, पूर्ण न किया हुआ, आधे निट्ठापिता, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).17; - स्सतो च./ष. अधूरे रूप में तैयार - मम आगमनपच्चया अपरिनिहिता वि., ए. व. - विआणे ... असण्ठिते अनुपादाय अपरितस्सतो सिखं अप्पत्ता, दी. नि. अट्ठ. 1.47; दस पारमियो ... आयति जातिजरामरणदुक्खसमुदयसम्भवो न होतिति, इतिवु. अननुच्छविकमेतन्ति अपरिनिट्ठताव मालायो गहेत्वा.... दी. 67; - स्समानं द्वि. वि., ए. व. - इमिना भगवा नि. अट्ठ. 2.150. अज्झत्तक्खन्धविनासे अपरितस्समानं खीणासवं दस्सेन्तो देसनं अपरिनिप्फन्न त्रि., परि + नि + पद के भू. क. कृ. का मत्थक पापेसि, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).16.
निषे. [अपरिनिष्पन्न], हेतुओं एवं प्रत्ययों द्वारा उत्पन्न न अपरितस्सक त्रि., अपरितस्स से व्यु. [बौ. सं. अपरितासक], किया गया, अवास्तविक - रूपं अपरिनिफन्नन्ति? आमन्ता, परित्रास न करने वाला, मन में व्याकुलता न लाने वाला, कथा. 505; ... पन्नरस रूपानि परिनिष्फन्नानि नाम, दस भयरहित - अज्झत्तं अपरितस्सन्ते ... परिक्खारविनासे अपरिनिप्फन्नानि नाम, ध. स. अट्ठ. 373; - कथा स्त्री., परितस्सकेन अपरितस्सकेन चापि भवितब्ब, म. नि. अट्ठ. कथा. की एक कथा का शीर्षक, कथा. 505-506. (मू.प.) 1(2).17.
अपरिनिब्बुत त्रि., परिनिब्बुत का निषे. [अपरिनिर्वृत], पूर्ण अपरितस्सना स्त्री., अपरितस्सन से व्यु. [अपरित्रसन], रूप से मुक्ति को अप्राप्त, परिनिर्वाण को अप्राप्त, पूर्णतया भय या मानसिक व्याकुलता का अभाव, परित्रास का न अविमुक्त - अत्तना अदन्तो अविनीतो अपरिनिबुतो परं
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अपरिमितपानभोजन
379
अपरिप्फन्द
दमेस्सति विनेस्सति ... विज्जति, म. नि. 1.51; ... अपरिपुण्ण त्रि., परिपुण्ण का निषे. [अपरिपूर्ण], क. वह, अपरिनिबुतोति एत्थ पन अनिब्बिसताय अदन्तो, म. नि. जो पूर्ण नहीं है, गोलाकार से रहित - अओसहि अक्खिभण्डा अट्ठ. (मू.प.) 1(1).202; - त्त नपुं., भाव. [अपरिनिर्वृतत्व], अपरिपुण्णा होन्ति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.273; दी. नि. पूर्णतया परिनिर्वाण न पाने की अवस्था - सारिपुत्तत्थेरो अट्ठ. 2.37; ख. अत्यल्प, बहुत अधिक नहीं, छोटा-मोटा, तथागतस्स सन्तिके अपरिनिब्बतत्ता बुद्धानं सन्तिका महन्तं हल्का - ... परिभासाय परिपुण्णाय, नो अपरिपुण्णाया ति, नलभि, जा. अट्ठ. 5.123-124.
दी. नि. 3.59; नो अपरिपुण्णायाति अन्तरा अट्ठपिताय निरन्तरं अपरिमितपानमोजन त्रि., ब. स., बिना सीमा के अत्यधिक पवत्ताय, दी. नि. अट्ठ. 3.41; ग. अपूर्ण, तुच्छ, हीन, घटिया भोजनों और पेय पदार्थों का उपभोग करने वाला - - अकेवली सो असमत्तो सो अपरिपुण्णो सो हीनो निहीनो अपरिमितपानभोजना होन्ति, अ. नि. 1(2).285.
..., महानि. 210; अपरिपुण्णोति न सम्पुण्णो, महानि. अठ्ठ. अपरिपक्क त्रि., परि + vपच के भू. क. कृ. का निषे. 290; अरियो सीलक्खन्धो परिपुण्णो नो अपरिपुण्णो, दी. नि. [अपरिपक्व], शा. अ. कच्चा, वह, जो पूरी तरह से पका 1.183; अपरिपुण्णस्स खो सीलक्खन्धस्स पारिपूरिया ... नहीं है, ला. अ. हज़म न किया हुआ, प्रौढ़ता या गम्भीरता उपनिस्साय विहरेय्यं, स. नि. 1(1).165; घ. अप्राप्त - इमि से रहित - सो पनायमाहारो एवरूपे ओकासे निधानमुपगतो इम अपरिपुण्णो वत्तमानयो, सद्द. 2.319; - कम्मन्त त्रि., ब. भाव अपरिपक्को होति, विसुद्धि. 1.335; एवमेव .... स. [अपरिपूर्णकर्मन], वह, जिसने अपना काम पूर्ण रूप से सेम्हपटलपरियोनद्धो ... उपगन्वा तिद्वतीति एवं अपरिपक्कतो. नहीं किया है - अपरिपुण्णकम्मन्ता विप्पटिसारिनियो पटिक्कूलता पच्चवेक्खितब्बा, विसुद्धि. 1.336; अपरिपक्काम, पच्चानुतापिनियो हीनं कामं उपपन्ना'ति, अ. नि. 3(1).203; ..., चेतोविमुत्तिया पञ्च धम्मा परिपाकाय संवत्तन्ति, उदा. - पत्तचीवर त्रि., ब. स. [अपरिपूर्णपात्रचीवर], वह व्यक्ति, 109; - त्त नपुं.. अपरिपक्क का भाव. [अपरिपक्वत्व], जिसके पास पात्र और चीवर नहीं है - तथागता परिपक्वता का अभाव, कच्चापन, अपूर्णता, परिपाक या अपरिपुण्णपत्तचीवर उपसम्पादेन्तीति, म. नि. 3.296; - विपाक प्राप्त न करने की अवस्था - सबमेतं आणस्स सीस त्रि., ब. स. [अपूर्णशीर्ष], अपूर्ण सिर वाला, वह, अपरिपक्कत्ता तस्स कामानं दुप्पहानताय सम्मापटिपत्तियं जिसका सिर उचित या पूर्ण बनावट वाला नहीं है - अओ योग्यं कारापेतुं वदति, उदा. अट्ठ. 252; पटिपस्सम्भीति पन जना अपरिपुण्णसीसा होन्ति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) इन्द्रियानं अपरिपक्कत्ता, संवेगस्स च नातितिक्खभावतो 2.273; दी. नि. अट्ठ. 2.38; - ण्णायतन त्रि., ब. स. वूपसमि, उदा. अट्ठ. 252; - आणत्त नपुं., भाव. [अपरिपूर्णायतन], वह, जिसकी इन्द्रियां पूर्णरूप से सक्षम [अपरिपक्वज्ञानत्व], मानसिक रूप से अविकसित रहने की। नहीं है, अक्षम इन्द्रियों वाला - जातिवारे जाति सजातीति स्थिति - अयं पन अपरिपक्कञाणत्ता ब्राह्मणकुले ... जाति, सा अपरिपुण्णायतनवसेन युत्ता, म. नि. अट्ठ. उग्गहितवोहारवसेनेव हीळेन्तो एवमाह, म. नि. अट्ठ. (म.प.) (मू.प.) 1(1).226. 2.199; - वेदनिय त्रि., तत्पु. स. [अपक्ववेदनीय], अपरिपूर त्रि., परिपूर का निषे०, अपूर्ण, दोषपूर्ण, दूषित, विपाकक्षण उदित होने से पूर्व ही अनुभव में आने योग्य - अधूरा - अद्धानहीनो, अङ्गहीनो, ... अपरिपूरो, परि. 253; तं मे कम्मं अपरिपक्कवेदनीयं होतूति, अ. नि. 3(1).197; सद्धो च, ..., एवं सो तेनङ्गेन अपरिपूरो होति, अ. नि. अपरिपक्कवेदनीयन्ति अलद्धविपाकवारं अ. नि. अट्ठ. 3. 3(1).138; अपरिपूरं वा सीलवखन्धं परिपूरेस्सामि, पु. प. 263; - न्द्रिय त्रि., ब. स. [अपरिपक्विन्द्रिय], वह, जिसकी 143; एवमिदं ब्रह्मचरियं अपरिपूरं अभविस्स तेनङ्गेन, म. नि. इन्द्रियां पूरी तरह से परिपक्व नहीं है, शिथिल या अक्षम 2.170; - कारी त्रि., पूर्ण रूप से काम को न करने वाला, इन्द्रियों वाला - सचे पन चतुमासं वडवस्सस्सापि भगवतो आधा-अधूरा करने वाला - सरणानि सक्को सिक्खाय वेनेय्यसत्ता अपरिपक्किन्द्रिया होन्ति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) अपरिपूरकारी अहोसी ति, स. नि. 3(2).441. 1(2).55.
अपरिप्फन्द पु., परिप्फन्द का निषे॰ [अपरिष्पन्दन, नपुं०], अपरिपुच्छा स्त्री., परिपुच्छा का निषे. [अपरिपृच्छा], प्रश्न धड़कन या फड़कन का अभाव, उछल-कूद का अभाव, का न होना, पूछताछ का अभाव - असुस्सूसा अपरिपुच्छा स्थिरता - .... आयचित्तानं अपरिप्फन्दनभूतसीतिभाव पाय परिपन्थो, अ. नि. 3(2).113.
पच्चुपट्टाना, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).91.
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अपरिप्फन्दन
380
अपरिमित अपरिप्फन्दन नपं., परिप्फन्दन का निषे. [अपरिष्पन्दन]. स. अट्ठ. 399; - गारह त्रि., [अपरिभोगार्ह]. परिभोग या उपरिवत् - संयतहत्थपादताय ... अभावतो अपरिफन्दनेन उपभोग न करने योग्य - तेन अभिहटभिक्खाय परेसं ठितेन करजकायेन चाति ... ठितेन, उदा. अट्ठ. 261; - अपरिभोगारहतो च तथा वत्तुं वट्टतीति दस्सितं होति, उदा. न्दन्त त्रि., वर्त. कृ., न धड़कता हुआ, न उछलता-कूदता अट्ठ. 324. हुआ - सो च सुसिक्खितत्ता अपरिप्फन्दन्तो निपज्जि, उदा. अपरिमण्डल त्रि., ब. स. [अपरिमण्डल]. शा. अ. परिमण्डल अट्ठ. 279.
से रहित, ला. अ. उपयुक्त स्वरूप से रहित, अपूर्ण आकार अपरिप्फुटालाप त्रि., ब. स. [अपरिष्फुटालाप], सुस्पष्ट वाला - तस्स कथा अपरिमण्डला नाम होति. म. नि. अट्ठ. बातचीत न करने वाला - मम्मनाति अप्परिप्पुटतलापा, (मू.प.) 1(2).151; - लं अ., क्रि. वि., (अन्तरावासक के) लीन. (दी.नि.टी.) 3.111.
नाभि से घुटनों तक लटक रहे घेरे के बिना, परिमण्डल के अपरिभासनेय्य/अपरिभासिय त्रि., परि + भास के सं. बिना - अथ खो परिमण्डलंयेव निवासेस्सामीति विरज्झित्वा कृ. का निषे. [अपरिभाषनीय/अपरिभाष्य], निन्दा न करने अपरिमण्डलं निवासेन्तस्स अनापत्ति, पाचि. अट्ठ. 150. योग्य, अनिन्दनीय, निर्दोष - सो वचसा परिभासति अझं अपरिमाण त्रि., ब. स. [अपरिमाण], वह, जिसकी कोई माप अभासनेय्यम्पि पुग्गलं. सु. नि. अट्ठ. 2.180; पाठा. अभासनेय्य; न हो या सीमा न हो, असीम, अत्यधिक प्रचुर, असंख्य, तथागता वत्थु याचन्ति, ताय अवत्थुयाचनाय अपरिभासिया । कालातीत - खीणकुलीने कपणे, अनुभूतं ते दुखं अपरिमाणं, भवन्तीति, मि. प. 211.
थेरीगा. 220; एवम्पि सब्बभूतेसु मानसं भावये अपरिमाणं अपरिभिन्न त्रि., परि + भिद के भू, क. कृ. का निषे. सु. नि. 149; 150; न अस्स परिमाणन्ति अपरिमाणं खु. पा. [अपरिभिन्न], स्वस्थ, सही-सलामत, अपीड़ित - चक्खं अट्ठ. 201; अखुद्दावकासोति एत्थ भगवतो अपरिमाणोयेव अपरिभिन्नं होति, म. नि. 1.251.
दस्सनाय ओकासोति वेदितब्बो, दी. नि. अट्ठ. 1.229; तस्मि अपरिभुत्त त्रि., परि + vभुज के भू. क. कृ. का निषे. दिवसे अपरिमाणेसु चक्कवाळेसु अपरिमाणा सत्ता सब्बे [अपरिभुक्त], क. वह, जिसका आनन्द न लिया गया हो या सुवण्णवण्णाव अहेसुं, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).87; ... जिसका अनुभव न किया गया हो, अननुभूत - अमतं तेसं. पठमे धम्मदेसने अट्ठारस ब्रह्मकोटियो अपरिमाणा च देवतायो, ..... अपरिभुत्तं येसं कायगतासति अपरिभुत्ता, अ. नि. मि. प. 317; - गणन त्रि., ब. स., गणना न करने योग्य 1(1).61; ख. प्रयोग न किया गया, अप्रयुक्त - अनुच्छि8 संख्या वाला, बहुत ऊंची संख्या वाला - अनेकसहस्साति अपरिभुत्तं दातुं वट्टतीति अत्तनो वसनट्ठानेयेव एकपस्से सहस्सेहिपि अपरिमाणगणना, दी. नि. अट्ठ. 3.9; - वण्ण अपरिभुत्तपल्लङ्कञ्च सेनासनञ्च पञआपेसि, जा. अट्ठ. 225; त्रि०, ब. स. [अपरिमाणवर्ण, भिन्न अर्थ में], असीम या - काम त्रि., ब. स., वह, जिसने सांसारिक भोगों का पूरा- अपरिमित प्रशंसा का पात्र, असीम या अत्यधिक स्तुतियों का पूरा उपभोग न किया हो - अनिकीळिताविनो कामेसूति विषय, अप्रमेय स्तुति या प्रशंसा पाने योग्य गुणों वाला - ... कामकीळा, तं अकीळितपुब्बा, अपरिभूत्तकामाति अत्थो, अपरिमाणवण्णो हि सो भवं गोतमो ति, दी. नि. 1.103; स. नि. अट्ठ. 3.39.
अपरिमाणवण्णोति तथारूपेनेव सब्ब नापि अप्पमेय्यवण्णो अपरिभोग' त्रि., ब. स. [अपरिभोग], शा. अ. उपभोग न ..... दी. नि. अट्ठ. 1.232; - सत्तारम्मण त्रि., ब. स. करने योग्य, उपभोग न करने वाला - तीहि ठानेहि मंस [अप्रमेयसत्त्वालम्बन], असंख्य प्राणियों को अपना आलम्बन अपरिभोगन्ति वदामि, म. नि. 2.35; तथागतो ... एवरूपानं बनाने वाला- तञ्च अपरिमाणसत्तारम्मणवसेन एकस्मि वा सुपिनन्तेपि अपरिभोगो, खु. पा. अट्ठ. 140; ला. अ. निरर्थक, सत्ते अनवसेसफरणवसेन अपरिमाणं भावेयेति, खु. प. अट्ट. तुच्छ, त्याज्य - तथेव भिन्दति वा छड्डेति वा झापेति वा अपरिभोगं वा करोति, पारा. 54; अपरिभोगं वा करोतीति अपरिमित त्रि., परि + vमा के भू, क. कृ. का निषे. अखादितब्बं वा अपातब्बं वा करोति, पारा. अट्ठ. 1.257; अमुं [अपरिमित], शा. अ. वह, जिसे मापा-जोखा न जा सके, उदपानं अपरिभोगं करिस्साम, उदा. अट्ठ. 308.
असीमित, वह, जो मापा हुआ या नपा-तुला न हो, ला. अ. अपरिभोग पु., परिभोग का निषे. [अपरिभोग], उपभोग न प्रचुर, अत्यधिक, सीमाओं से परे - पेतेसु च निरयेसु च, करना, त्याग - अपरिभोगदुप्परिभोगादिवसेन विनासेति, ध. अपरिमिता दिस्सरे धाता, थेरीगा. 477; अपरिमितञ्च दुक्खं
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अपरिमुत्त
381
अपरियन्त बहनि च चित्तदोमनस्सानि, थेरीगा. 512; अपरिमितञ्च खयं पत्तं ... खयवयं सम्परसमानो, ध. प. अट्ठ. 1.43; अप. दुक्खन्ति अपरिमाणं एत्तकान्ति परिच्छिन्दितुं असक्कुणेय्यं, अपरियन्तकरं. .... थेरीगा. अट्ठ. 316; परसानुभावं अपरिमितं ममयिदं, अपरियन्त त्रि.. ब. स. [अपर्यन्त], वह, जिसका कोई ओरतयानुदिढ अतुलं दत्वा सङ्घ, पे. व. 256; ... अपरिमितं छोर न रहे, असीम, अन्तरहित - अनन्तो अयं लोको ... मम इदं अपरिमाणं दिब्बानुभावं पस्सा ति अत्तनो सम्पत्ति अपरियन्तोति, दी. नि. 1.20; अनन्तवाति अपरियन्तो, पच्चक्खतो ओ दस्सेन्तो वदति, पे. व. अट्ठ. 97; - सब्बगतोति अत्थो, उदा. अट्ठ. 277; - ता स्त्री., अपरियन्त जलधर त्रि., [अपरिमितजलधर], अत्यधिक जल को से व्यु., भाव. [अपर्यन्तता], असीमता, ओर-छोर से रहित धारण करने वाला, न मापने योग्य जल को रखने वाला - होना - ... संसारस्स अपरियन्ततं कम्मस्सकतञ्च विभावेन्तेन महासमुद्दो अपरिमितजलधरो गोपदे उदकं विय, मि. प. देसितं धम्म सुत्वा ..., पे. व. अट्ठ. 145; ... कम्मन्तानं 266; - आणवरधर त्रि., [अपरिमितज्ञानवरधर], सीमा- अपरियन्तताय अक्खाताय तेन हि त्व व घरावासं वस, रहित या अत्यधिक उत्तम ज्ञान रखने वाला, असीम उत्तम ध. प. अट्ठ. 1.79; - कत त्रि., तत्पु. स. [अपर्यन्तकृत], ज्ञान से युक्त - भिक्खु अपरिमितत्राणवरधरा असङ्गा अतुलगुणा अन्तरहित अथवा अनन्त विपाकों वाला (कर्म)- तं भगवा अतुलयसा ... धम्मचक्कानुप्पवत्तका पञापारमिं गता. मि. ... इमस्स अपरियन्तकतं कम्मं मम सासने पब्बजितस्स प. 311; - दस्सी त्रि., [अपरिमितदर्शिन]. असीम ज्ञान- परियन्तकतं भविस्सति, मि. प. 117; - गोचर त्रि., ब. स. दर्शन से युक्त, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी - अपरिमितदस्सिना गोतमेन, [अपर्यन्तगोचर], अनन्त आलम्बनों या विषयों वाला, प्रत्येक बुद्धेन देसितो धम्मोति, थेरगा. 91; - पञ त्रि., ब. स. विषय को अपना आलम्बन बनाने वाला - अनन्तगोचरन्ति [अपरिमितप्रज्ञ], असीम प्रसार वाली प्रज्ञा से युक्त, अनन्त अनन्तारम्मणस्स सब्बताणस्स वसेन अपरियन्तगोचर प्रज्ञा से युक्त - अनन्तपोति अपरिमितपओ, सु. नि. ध. प. अट्ठ. 2.114; - धनधञ त्रि., ब. स. अट्ठ. 2.122.
[अपर्यन्तधनधान्य], असीम धनसम्पदा वाला - अपरिमुत्त त्रि., परि + मुच के भू. क. कृ. का निषे. पहूतधनधासेति तिण्णं चतुन्न... अत्थाय ... धनधास्स [अपरिमुक्त], वह, जो पूर्ण रूप से मुक्त नहीं हुआ है - वसेन अपरियन्तधनधा , पे. व. अट्ठ. 86; - पारिसुद्धि अपरिमुत्तो सो दुक्खस्माति वदामि, स. नि. 1(2).158; ... स्त्री., कर्म. स. [अपर्यन्तपरिशुद्धि]. पूर्ण विशुद्धि, असीम अपरिमुत्तोव निरया, अपरिमुत्तो तिरच्छानयोनिया, अपरिमुत्तो शुद्धि - एवं गणनवसेन सपरियन्तम्पि पेत्तिविसया, अपरिमुत्तो अपायदुग्गतिविनिपाता, उदा. अट्ठ. अदिट्ठपरियन्तभावञ्च सन्धाय अपरियन्तपारिसुद्धि-सीलन्ति 86.
वुत्तं, विसुद्धि. 1.44; - पारिसुद्धिसील नपुं, कर्म. स. अपरिमेय्य त्रि., परि + मा के सं. कृ. का निषे. [अपरिमेय], [अपर्यन्तपरिशुद्धिशील], शीलों का एक प्रभेद, जिसका
नहीं मापने-जोखने योग्य, वह, जिसका सही-सही स्वरूप पालन यश जैसे दिखलाई देने वाले प्रयोजनों के कारण निर्धारण न किया जा सके, वह, जिसकी संख्या का निर्धारण नहीं किया जाता - ... पञ्चसीलानि-परियन्तपारिसुद्धिसील, न किया जा सके, असीम, विशाल - अपरिमेय्युपादाय, अपरियन्तपारिसुद्धि सील, परिपुण्णपारिसुद्धि सील, पत्थेमि तव सासनं, अप. 1.40; 37; हिमवावापरिमेय्यो, अपरामट्ठपारिसुद्धिसील पटिप्पस्सद्धिपारिसुद्धिसील न्ति, सागरोव दुरुत्तरो, अप. 1.113; अप्परिमेय्ये इतो कप्पे, विसुद्धि. 1.12; उपसम्पन्नानं अपरियन्तसिक्खापदानं-इदं ओक्काककुलसम्भवो, अप. 1.363.
अपरियन्तपारिसुद्धिसील, पटि. म. 37; छट्ठदुके अपरियत्त त्रि., परियत्त का निषे. [अपर्याप्त]. 1. अपर्याप्त, लाभयसञातिअङ्गजीवितवसेन दिट्ठपरियन्तं सपरियन्तं नाम, नहीं पर्याप्त - अथ वा अनलं अपरियत्तं..., म. नि. अट्ठ. विपरीत अपरियन्तं, विसुद्धि. 1.13; - वती स्त्री., (म.प.) 2.122; इदम्पि एत्तकं वत्थु एकस्सेव अपरियत्तं, जा. [अपर्यन्तवती], ओर-छोर या सीमा से रहित, निरर्थक - अट्ठ. 4.154; अप. अपरियन्तं; 2. असंतुष्ट, अतृप्त - अनिधानवतिं वाचं भासिता होति अकालेन अनपदेसं अनलकत्ताति अतित्ता अपरियत्तजाता, स. नि. अट्ठ. 1.49; - अपरियन्तवति अनत्थसंहितं. म. नि. 1.360; अपरियन्तवतिन्ति कर त्रि., सन्तोष या तृप्ति प्रदान न करने वाला - इदं अपरिच्छेद, .... म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).227; - सरीरं इदानेव ओलोकेन्तानं अपरियत्तकरं हत्वा इदानेव सिक्खापद त्रि., ब. स. [अपर्यन्तशिक्षापद], वह, जिसके
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अपरियादान
382
अपरियोसित
लिए विनय के शिक्षापदों का पालन बिना किसी नियन्त्रण अपरियिट्ट त्रि., परि + Vइस के भू. क. कृ. का निषे. [बौ. के अवश्य ही करणीय हों - उपसम्पन्नान सं. अपर्यिष्ट]. वह, जिसकी खोज-बीन नहीं की गयी है, अपरियन्तसिक्खापदानं- इदं अपरियन्तपारिसद्धिसीलं. पटि. वह, जिसको पाने की कोई कामना या इच्छा नहीं है, म. 37; - तादीनव त्रि., ब. स., अनन्त विपदाओं, सङ्कटों । अप्रार्थित, नहीं खोजा हुआ - तं मे इदं अपरियिट्ठयेव या बाधाओं से भरा हुआ - अनन्तादीनवाति लोभनं ... सत्थहारकं लद्धान्ति, म. नि. 3.322; स. नि. 2(2).68. उण्हस्स पुरक्खतो तिआदीना च दुक्खक्खन्धसुत्तादीसु अपरियेसित त्रि., उपरिवत् - पटिलाभत्थाय वा अपरियेसितं, वुत्तनयेन अपरियन्तादीनवा बहुदोसा, थेरीगा. अट्ठ. 269. विभ, अट्ठ. 8. अपरियादान नपुं.. परियादान का निषे. [बौ. सं. अपर्यादान], अपरियोगाहणा स्त्री., परि + अव + Vगाह के क्रि. ना. का
शा. अ. अग्रहण, पूर्णरूप से ग्रहण न किया जाना, ला. अ. निषे॰ [अपर्यवगाहन], शा. अ. नीचे उतर कर गहरे पानी अप्रयोग, असमाप्ति, क्षय का अभाव, अभिभूत न किया जाना में प्रवेश न करना, ला. अ. सूक्ष्म परीक्षण या जांच पड़ताल - चेतसो अपरियादाना आरद्धं होति वीरियं असल्लीनं, स. न करना, गहरी परीक्षा न करना - यं अजाणं ... नि. 2(2).129.
अप्पटिवेधो असङ्गाहणा अपरियोगाहणा ... अपच्चक्खकम्म अपरियादिन्न/अपरियादिण्ण त्रि., परि + आ + ।दा के ... असम्पजनं मोहो पमोहो ... अविज्जालङ्गी मोहो भू, क. कृ. का निषे. [बौ. सं. अपर्यादत्त], शा. अ. अकुसलमूलं, पु. प. 127; ध. स. 390; महानि. 306-07; अगृहीत, अप्रयुक्त, पूर्णरूप से ग्रहण न किया हुआ, ला. अ. परियोगाहितुं असमत्थताय अपरियोगाहणा, महानि. अट्ठ. नहीं समाप्त किया गया, क्षय को अप्राप्त, अनभिभूत, अपरिक्षीण 349. - सकं मुत्तकरीसं अपरियादिन्नं होति, म. नि. 1.113; अपरियोगाहेत्वा परि + अव + vगाह के पू. का. कृ. का अपरियादिन्नयेवस्स तथागतस्स पहपटिभानं, म. नि. निषे. [अपर्यवगाह्य], पर्यवगाहन या सूक्ष्म परीक्षण न 1.117; अपरियादिन्नायेवाति अपरिक्खीणायेव, म. नि. अट्ठ. करके, गम्भीर रूप से जांच पड़ताल न करके - एवं (मू.प.) 1(1).365; - चित्त त्रि., ब. स., वह, जिसका चित्त पुग्गलो अननुविच्च अपरियोगाहेत्वा अवण्णारहस्स वण्णं पूरी तरह से प्रभावित या अभिभूत नहीं हुआ है, अनभिभूत भासिता होति, पु. प. 158; अपरियोगाहेत्वाति पाय गुणे या अदुष्प्रभावित चित्त वाला - पुरिसपुग्गलो लोभेन अनभिभूतो अनोगाहेत्वा, पु. प. अट्ठ. 74. अपरियादिन्नचित्तो नेव पानं हनति, अ. नि. 1(2).219. अपरियोदात त्रि., परि + अव + दा के भू. क. कृ. का अपरियापन्न त्रि., परि + आ + vपद के भू. क. कृ. का। निषे. [अपर्यवदात]. पूरी तरह से स्वच्छ या पवित्र न किया निषे. [बौ. सं. अपर्यापन्न], अप्राप्त, अन्तर्भूत या हुआ, पूर्ण रूप से विशुद्धि को अप्राप्त - ... अपरियोदातस्स अन्तर्सन्निविष्ट न किया हुआ, असम्बद्ध, अनभिभूत - दिद्विगतं चित्तस्स परियोदपनाय, अ. नि. 197. अपरियापन्नन्ति, कथा. 409; अपरियापन्ना धम्मा, ध. स. अपरियोनद्ध त्रि०, परि + अव + निह के भू. क. कृ. का 163; तस्मिन परियापन्नाति अपरियापन्ना, ध. स. अट्ठ. 97; निषे. [अपर्यवनद्ध], शा.अ. वह, जिसे पूरी तरह से नाथा - कथा स्त्री., व्य. सं., कथा. के चौदहवें वग्ग की 9वीं नहीं गया है या जिसको नकेल नहीं डाली गयी है, ला. अ. कथा का शीर्षक, कथा. 409; - हेतु पु., कर्म. स., काम, पूरी तरह से बन्धनों से न बंधा हुआ - इति विवटेन चेतसा रूप एवं अरूप इन तीन लोकों से असम्बद्ध हेतु, 3 कुशल अपरियोनद्धेन सप्पभासं चित्तं भावेति, दी. नि. 3.1783; हेतु और 3 अव्याकृत हेतु - तत्थ कतने छ अपरियापन्नहेतू? अपरियोनद्धेनाति समन्ततो अनद्धेन, दी. नि. अट्ठ. 3.172; तयो कुसलहेतू, तयो अव्याकतहेतू, इमे छ अपरियापन्न अनज्झापन्नोति तण्हाय अनोत्थतो अपरियोनद्धो, दी. नि. हेतू ध. स. 1072; कतमे धम्मा हेत? ... छ अपरियापन्नहेतु अट्ठ. 3.178. ध. स. 1059.
अपरियोसित त्रि., परि + अव + vसा के भू. क. कृ. का अपरियापुट त्रि., परियापुट का निषे., नहीं पढ़ा गया, निषे. [अपर्यवसित], समाप्ति तक न ले जाया गया, अपूर्ण, कण्ठस्थ न किया गया, वह, जिसका पूर्ण ज्ञान प्राप्त नहीं पूर्णता को अप्राप्त, स. प. के पू. प. के रूप में ही प्राप्त; किया गया है - अनुद्दिढ इदं वरं ..., अपरियापुट इदं वरं, - संकप्प त्रि., ब. स. [अपर्यवसितसंकल्प], वह, जिसका ... विनयो वा अन्तरधायतु, पाचि. 192.
संकल्प पूरा नहीं हुआ है - अपरियोसितसङ्कप्पो, विचिकिच्छो
लेति. अलि
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अपरिळाह
कथं कथी, दी. नि. 2.212; अपरियोसितसङ्गप्पोति अनिट्ठितमनोरथो, दी. नि. अट्ठ. 2.298; अपरियोसितसङ्कप्पो, कुतित्थे सञ्चरिं अहं अप. 1.23; - सिक्खत्त नपुं०, भाव. [ अपर्यवसित शिक्षात्व], शिक्षा की अपूर्णता की अवस्था, शिक्षा का अपूर्ण रहना सो हि अपरियोसितसिक्खत्ता तदधिमुत्तत्ता च सिक्खा सा एतस्स सीलन्ति सेखो, उदा.
-
383
अट्ठ. 295.
अपरिळाह त्रि. परिळाह का निषे [ अपरिदाह ], मन में उत्पन्न दाह या जलन से रहित, मानसिक बेचैनी से रहित, मानसिक व्यग्रता या व्याकुलता से मुक्त अदुक्खो एसो धम्मो अनुपघातो अनुपायासो अपरिळाहो, सम्मापटिपदा, म. नि. 3.279; .. सुखो विहारो अविघातो अनुपायासो अपरिळाहो, स. नि. 2 (1).8; अपरिळाहोति निद्दाहो, स. नि. अट्ठ. 2.228; सुखं विहरति अविघातं अनुपायासं अपरिळाहं, स. नि. 1(2).135. अपरिवज्जन नपुं. परि + √वज्ज के क्रि० ना० का नि [ अपरिवर्जन ], परिवर्जन न करना, छोड़ न देना, दूरीकरण का अभाव, स्वीकरण - एतमत्थं विदित्वाति एतं पापानं अपरिवज्जने आदीनवं, उदा. अड. 239. अपरिवार त्रि०, ब० स० [अपरिवार], समूह या झुण्ड से रहित, बिना परिवार वाला, निपट अकेला बुद्धानुबुद्धेसु अपरिवारेन एककेनेव ठातब्बं होति, उदा. अट्ठ. 264. अपरिवेसन नपुं. परि + √विस के क्रि० ना० का निषे. [ अपरिवेषण], प्रतीक्षा न करना, प्रतीक्षा का अभाव, सेवासुश्रूषा का न होना यम अपरिवेसने, यमेति यमयति, यमो,
सद्द 2.557. अपरिव्यत्तत्र, परि + वि + √अञ्ज के भू० क० कृ० का नि.. [ अपरिव्यक्त], पूरी तरह से स्पष्ट या सुव्यक्त न रहने वाला, अस्पष्ट - अपरिव्यत्तहि तस्सा तत्थ किच्च, ध. स. अट्ठ. 218; - किच्च त्रि., ब० स० [अपरिव्यक्तकृत्य ], वह, जिसके क्रिया-कलाप पूरी तरह से स्पष्ट न हों - साकस्मा न वुत्ताति? अपरिब्यत्तकिच्चतो, ध. स. अट्ठ
218.
अपरिसङ्कित त्रि, परि + √स के भू० क० कृ० का निषे.
[अपरिशङ्कित], समस्त शङ्काओं और सन्देहों का अविषयीभूत, वह जिसके विषय में किसी प्रकार की शङ्का न हो तिकोटिपरिसुद्धं मच्छमंसं - अदिट्टं असुतं अपरिसङ्कित न्ति, पारा. 270; अपरिसङ्कितं पन दिट्ठपरिसङ्कितं सुतपरिसङ्कितं तदुभयविमुत्तपरिसङ्कितञ्च ञत्वा तब्बिपक्खतो जानितब्ब
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अपरिसुद्ध
पारा. अट्ठ. 2.172; अमूलकं नाम अदिट्ठ असुतं अपरिसङ्कित, अपरिसङ्कितं नाम चित्तेन अपरिसङ्कितं, पारा. अट्ठ. 155. अपरिसमत्त त्रि, परिसमत्त का निषे [ अपरिसमाप्त], पूरी तरह से समाप्त न किया हुआ, पूर्णता को अप्राप्त, आधेअधूरे तौर पर किया हुआ वत्तमाने आरद्धापरिसमत्ते अत्थे वत्तमानतो क्रियत्था त्यादयो होन्ति, मो. व्या. 6.1. अपरिसावचरत्रि, परिसा + अवचर का निषे, भीड़-भाड़ या जनसमूह के बीच आनन्द न लेने वाला, एकान्तप्रेमी, सभाभीरु अपरिसावचरो समणो गोतमो, दी. नि. 3.27; अपरिसावचरोति अविसारदत्ता परिसं ओतरितुं न सक्कोति, दी. नि. अड. 3.17. अपरिसिञ्चनक त्रि, परिसिञ्चनक का निषे, चारों ओर पानी न डालने वाला, अवसिञ्चन न करने वाला, पानी न छिड़कने वाला - अनवसेकन्ति अनवसिञ्चनक अपरिसिञ्चनकं कत्वा, महानि, अट्ठ. 362. अपरिसुद्ध त्रि, परि + √सुध के भू० क० कृ० का निषे. [ अपरिशुद्ध ], वह, जो पूरी तरह शुद्ध नहीं है या शुद्ध नहीं किया गया है - अपरिसुद्धा, आनन्द, परिसाति, चूळव. 392; अनरियन्ति अरियगरहितं सब्बं असुन्दरं अपरिसुद्ध कम्मं परिवज्जयाम, जा. अट्ट. 4.48; अन्तो असुद्धाति अब्भन्तरतो रागादीहि अपरिसुद्धा, महानि, अट्ठ 358; - कायकम्मन्त त्रि.. ब॰ स॰ [अपरिशुद्धकायकर्मान्त ], वह जिसके शारीरिक कर्म पूरी तरह शुद्ध नहीं हुए हैं - समणा वा ब्राह्मणा वा अपरिसुद्धकायकम्मन्ता अरञ्ञवनपत्थानि पटिसेवन्ति, म. नि. 1.22; - कायसमाचार त्रि, उपरिवत् समणब्राह्मणा अपरिसुद्धकायसमाचारा ... अपरिसुद्धाजीवा, अ. नि. 1 (2). 230; - आणदस्सन त्रि, ब० स० [अपरिशुद्धज्ञानदर्शन], वह, जिसके ज्ञान एवं अन्तर्दृष्टि में पूर्ण विशुद्धि नहीं हुई है -... सत्था अपरिसुद्धञणदस्सनो समानो परिसुद्धञाणदस्सनोम्ही ति पटिजानाति परिसुद्ध असंकिलिट्ठन्ति, अ. नि. 2 (1).117; - धम्मदेसन त्रि०, ब० स०, वह, जिसके धर्मोपदेश में पूर्ण शुद्धि नहीं आ सकी है अपरिसुद्धधम्मदेसनो समानो परिसुद्धधम्मदेसनोम्ही ति पटिजानाति असंकिलिद्वाति, अ० नि० 2 (1).116; मनोकम्मन्त त्रि०, ब० स० [ अपरिशुद्धमनः कर्मान्त], वह, जिसके मानसिक कर्म पूरी तरह शुद्ध नहीं हो सके हैं -
सत्था
समणा वा ब्राह्मणा वा अपरिसुद्धवचीकम्मन्ता पे० अपरिसुद्ध मनोकम्मन्ता पे. पटिसेवन्ति, म. नि. 1.23; - मनोसमाचार त्रि. ब. स. [ अपरिशुद्धमनः समाचार],
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अपरिसेस
384
अपरिहीन
वह, जिसका मानसिक आचरण पूर्ण रूप से शुद्ध नहीं है - समणब्राह्मणा अपरिसुद्धकायसमाचारा ... अपरिसुद्धमनोसमाचारा अपरिसद्धाजीवा, अ. नि. 1(2).230; - वचीकम्मन्त त्रि., ब. स., वह, जिसके वाणी के कर्म पूर्ण रूप से शुद्ध नहीं है - ... समणा वा ब्राह्मणा वा अपरिसुद्धवचीकम्मन्ता ... पे.... अरञ्जवनपत्थानी पन्तानि सेनासनानि पटिसेवन्ति, म. नि. 1.23; - वचीसमाचार त्रि., ब. स., वह, जिसकी वाणी के प्रयोग पूरी तरह से शुद्ध नहीं है - समणब्राह्मणा अपरिसुद्धकायसमाचारा अपरिसुद्धवचीसमाचारा ... अपरिसुद्धाजीवा, अ. नि. 1(2).230; - वेय्याकरण त्रि., ब. स., वह, जिसके व्याख्यान या निर्वचन पूरी तरह से शुद्ध नहीं हैं - इधेकच्चो सत्था अपरिसुद्धवेय्याकरणो समानो परिसद्धवेय्याकरणोम्ही ति पटिजानाति परिसुद्ध ... असंकिलिट्ठन्ति, अ. नि. 2(1),116; - वोहार त्रि., ब. स. [अपरिशुद्धव्यवहार], वह, जिसका व्यवहार पूरी तरह से शुद्ध नहीं है - अपरिसुद्धवोहारो अयमायस्मा, अ. नि. 1(2).217; - सील त्रि.. ब. स. [अपरिशुद्धशील, वह, जिसका शील पूरी तरह से विशुद्ध नहीं है - एकच्चो सत्था अपरिसुद्धसीलो समानो परिसुद्धसीलोम्ही ति पटिजानाति परिसुद्धं ... असंकिलिट्ठन्ति, अ. नि. 2(1).115;-द्धाजीव त्रि., ब. स. [अपरिशुद्धाजीव]. वह, जिसके जीविका अर्जित करने के साधन पूरी तरह से शुद्ध नहीं हैं - न खो पनाहं अपरिसुद्धाजीवो अरञ्जवनपत्थानि पन्तानि सेनासनानि पटिसेवामि, परिसुद्धाजीवोहमस्मि, म. नि. 1.23; आजीववारे अपरिसुद्धाजीवाति अपरिसुद्धन वेज्जकम्मदूतकम्मवडिपयोगादिना एकवीसतिअनेसनभेदेन आजीवने समन्नागता. म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).122. अपरिसेस त्रि., ब. स. [अपरिशेष], कुछ भी शेष न रखने वाला, सभी कुछ अपने में अन्तर्भूत कर लेने वाला, सारा का सारा - एत्थेते पापका अकुसला धम्मा अपरिसेसा निरुज्झन्तीति, म.नि. 1.156-57; - सं क्रि. वि., समग्ररूप में, पूरी तरह से, बिना कुछ छोड़े हुए - एत्थ चुप्पन्नं दुक्खिन्द्रियं अपरिसेसं निरुज्झति, स. नि. 3(2).290; कथं चुप्पन्नं दोमनस्सिन्द्रियं ... सोमनस्सिन्द्रियं अपरिसेसं निरुज्झति, ध. स. अट्ठ. 220; नाटपुत्तो सब सब्बदस्सावी
अपरिसेसं आणदस्सनं पटिजानाति, म. नि. 1.130. अपरिस्सावनक' त्रि., परिस्सावनक का निषे. [अपरिस्रव], ऊपर निकल कर न बहने वाला - अनवसेसकन्ति अनवसिञ्चनकं अपरिस्सावनकं, जा. अट्ठ. 1.382.
अपरिस्सावनक: त्रि., ब. स., जल को छानने वाले जलशुद्धिकारक उपकरण (छन्नी) से रहित भिक्षु - अपरिस्सावनकेन अद्धानो पटिपज्जितब्बो, चूळव. 237; अपरिस्सावनको आह, अयं, भन्ते, अन्तरामग्गे मया सद्धिं विवादं कत्वा परिस्सावनं नादीसी ति, जा. अट्ठ. 1.197. अपरिहान नपुं.. परिहान का निषे. [अपरिहाण], हानि का न होना, घाटा न होना, अवनति या अधःपतन की अवस्था का न होना, लाभ की स्थिति, उत्कर्ष - सद्धो परिसपुग्गलो ति, भन्ते, अपरिहानमेतं. हिरिमा .... स. नि. 1(2).184; धम्मा सेखस्स भिक्खुनो अपरिहानाय संवत्तन्ति, इतिवु. 52; - धम्म त्रि., ब. स. [अपरिहाणधर्मन]. परिहानि को न पाने वाला, घाटे में न रहने वाला, क्षति न पाने वाला - राजा
समानो किं लभति? अपरिहानधम्मो होति, न परिहायति .... सब्बसम्पत्तिया, दी. नि. 3.123; - धम्मता स्त्री॰, भाव. [अपरिहाणधर्मता], हानि से मुक्त रहने की स्थिति, लाभ की स्थिति - असहानधम्मतन्ति अपरिहीनधम्म, दी. नि. अट्ठ 3.1073; पाठा. असहानधम्मतन्ति. अपरिहानि स्त्री., परिहानि का निषे. [अपरिहानि], पूर्ण हानि
का अभाव, घाटा न होना, अधःपतन की स्थिति का न रहना - यं पन उपचारप्पनाभेदस्स समाधिनो याव अत्तनो अपरिहानिपवत्ति, .... सु. नि. अट्ठ. 1.8-9; - कर त्रि, हानि न करने वाला, वृद्धि करने वाला - अपरिहानियेति
अपरिहानिकरे, वुद्धिहेतुभूतेति अत्थो, दी. नि. अट्ठ. 2.102. अपरिहानिय त्रि., अपरिहान से व्यु., हानि न देने वाला, हानि की ओर न ले जाने वाला, सर्वथा सक्षम - अपरिहानिये धम्मे देसेस्सामि, ..... भासिस्सामीति, दी. नि. 2.593 अपरिहानियेति अपरिहानिकरे, वुद्धिहेतुभूतेति अत्थो, दी. नि. अट्ठ. 2.102; सत्त अपरिहानिया धम्मा, उदा. अट्ठ. 273; - सभाव त्रि., ब. स., स्वभाव से ही अहानिकर, स्वभाव से ही वृद्धि की ओर ले जाने वाला - एवं परिहानियसभावा मनुस्सलोका चवित्वा अपरिहानियसभावं एवरूपं देवलोक गमिस्ससीति, जा. अट्ठ. 4.98. अपरिहारी त्रि., परि + Vहर से व्यु., परिहारी का निषे. [अपरिहारिन्], अपने साथ जल आदि को न ले जाने वाला - एको उदकमणिको अच्छिद्दो अहारी अपरिहारी, स. नि. 2(2).302; अहारी अपरिहारीति उदकं न हरति न परिहरति, स. नि. अट्ठ. 3.142. अपरिहीन त्रि., परिहीन का निषे. [अपरिहीन], नहीं छोड़ दिया गया, अशिथल, अनुपेक्षित, अपरित्यक्त - अमतं तेसं.
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अपरूपक्कम
385
अपलाळेति भिक्खवे, अपरिहीनं येसं कायगतासति अपरिहीनाति, अ. च, दी. नि. 3.152; जनोघमपरेन चाति एतस्स अपरभागे नि. 1(1).60; दानपथो च मे अपरिहीनो भविस्सति, मि. प. जनोघं नाम अझं नगरं दी. नि. अट्ठ. 3.134. 261; अहापेत्वा अलम्बित्वाति अपरिहीनं अलम्बितं कत्वा, अ. अपलाप त्रि., पलाप का निषे., ब. स. [अप्रलाप], वह स्थल, नि. अट्ट, 2.311; - ज्झान त्रि., ब. स. [अपरिहीनध्यान]. जहां प्रलाप या निरर्थक बातचीत न हो, सत्पुरुषों से युक्त कभी भी न टूटने वाले ध्यान से युक्त - हेर्पपत्तिको ... स्थान - अपलापायं, .... परिसा निप्पलापायं, ..., परिसा समापत्तियो निब्बत्तेत्वा अपरिहीनज्झानो कालं कत्वा सुद्धा सारे पतिहिता, अ. नि. 1(2).211; म. नि. 3.125; चतुत्थज्झानभूमियं ... निब्बत्ति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) अपलापाति पलापरहिता, अ. नि. अट्ठ. 2.360. 1(2).301-02; स. नि. अट्ठ. 1.183; - पदव्यञ्जन त्रि., ब. अपलायन न., पलायन का निषे॰ [अपलायन], पलायन स. [अपरिहीनपदव्यञ्जन], ऐसी वाणी, जिसमें पदों एवं का अभाव, नहीं भाग जाना - तं तं अपलायनं अपरम्प व्यञ्जनों के प्रयोगों में कोई स्खलन या त्रुटि न रहे - अथ बाल्यं, जा. अट्ठ. 3.245. वा अनेलगळायाति अनेलाय च अगळाय च निद्दोसाय अपलायी त्रि., पलायी का निषे. [अपलायिन्], पलायन न अगळितपदव्यञ्जनाय, अपरिहीनपदव्यञ्जनायाति अत्थो, करने वाला, भयरहित, शङ्कारहित - अथ आगच्छेय्य उदा. अट्ठ. 255; अने लगळायाति ... चेव खत्तियकुमारो सुसिक्खितो कतहत्थो कतयोग्गो कतूपासनो अक्खलितपदव्यञ्जनाय च, स. नि. अट्ठ. 1.242.
अभीरु अच्छम्भी अनुत्रासी अपलायी, स. नि. 1(1).118; - अपरूपक्कम त्रि., पर + उपक्कम से व्यु., परूपक्कम का यिनो प्र. वि., ब. व. - सकमित्तस्स कम्मेन, निषे., ब. स., वह, जहां दूसरे पास न फटक सकें, अन्य सहायस्सापलायिनो, जा. अट्ठ. 4.264; सहायस्सापलायिनोति प्राणियों द्वारा न छुए जाने योग्य - गुणा एकरसा अरोगा सहायस्स अपलायिनो मिगराजस्स तदे. - यिनं द्वि. वि., अकुप्पा अपरूपक्कमा अफुसानि किरियानि, मि. प. ए. व. - समन्ता परिकिरेय्यु, सहस्सं अपलायिनं, स. नि. 156.
1(1).214; - यीनं ष. वि., ए. व. - सहस्सं अपलायिनन्ति अपरूपघाती त्रि., परूपघाती का निषे. [अपरोपघातिन]. ये ते समन्ता सरेहि परिकिरेय्यू, तेसं अपलायीनं सङ्घ दूसरों की हत्या न करने वाला, दूसरों को कष्ट या पीड़ा दस्सेन्तो सहस्सन्ति आह, स. नि. अट्ठ. 1.236; - यिनि न पहुंचाने वाला - अप्पम्पि चे निबुति भुञ्जती यदि, स्त्री. संबो. - त्वञ्च खो मेव अक्खाहि, अत्तानमपलायिनी, असाहसेन अपरूपघाती, जा. अट्ठ. 3.461.
जा. अट्ठ. 5.4; अपलायिनीति अपलायित्वा मम सम्मुखे अपरेन अ., अपर सर्व से व्यु., तृ. वि., प्रतिरू. निपा. ठितेति तं देवतं आलपति, जा. अट्ठ. 5.5. [अपरेण], अनेक अर्थों एवं रूपों में प्रयोग, क.1. प. वि. अपळाल/अपलाल पु., व्य. सं., बुद्ध द्वारा दमित एक में अन्त होने वाले पदों के साथ, अगला, बाद में, नागराजा का नाम - तथा हि भगवता तिरच्छानपरिसापि आगे का (स्थान, क्षेत्र)- पुरत्थिमाय दिसाय गजङ्गलं नाम अपलाको नागराजा, पारा. अट्ठ. 1.87; - दमन नपुं.. निगमो तस्सापरेन महासालो. दी. नि. अट्ठ. 1.142; तत्पु. स., अपलाल-नामक नागराज का बुद्ध द्वारा दमन मज्झिमदेसो नाम- पुरत्थिमाय दिसाय ... निगमो, तस्स - आलवकङ्गुलिमाल अपलालदमनं पि च, म. वं. अपरेन महासालो. ..... ओरतो मज्झे, जा. अट्ठ. 1.60; क. 30.84. 2. काल के सन्दर्भ से, बाद में, बाद वाले समय में, अपलाळेति अप + लळ का वर्तः, प्र. पु., ए. व., बहका भविष्य में - दीपङ्करस्स अपरेन, कोण्डओ नाम नायको, बु. कर दूर ले जाता है, फुसला कर किसी के पास से दूर करा वं. 4.1; तत्थ दीपङ्करस्स अपरेनाति दीपङ्करस्स सत्थुनो देता है; - न्ति वर्त., प्र. पु., ब. व. - तेन खो ... अपरभागेति अत्थो, बु. वं. अट्ठ. 153; ख. प. वि. के छब्बग्गिया भिक्खू थेरानं भिक्खून सामणेरे अपलाळेन्ति, 'ततो' के साथ प्रयुक्त - बाद में, आगे आने वाले समय महाव. 108; अपलाळेन्तीति तुम्हाक पत्तं दस्साम, चीवर में - ततो अपरेन दासिभोगेन भुञ्जन्ति, पारा. 201; तमेन दस्सामा ति ... सङ्गण्हन्ति, महाव. अट्ठ. 280; - य्य विधि., परसामिपरेन नारिन्ति तमेनं नारि अपरेन समयेन जरं पत्तं प्र. पु., ए. व. - यो अपलाळेय्य, आपत्ति दुक्कटस्साति, अन्तरहितरूपसोभग्गप्पत्तं पस्सामि, जा. अट्ठ. 3.349; ग, महाव. 108; - तब्बा सं. कृ., स्त्री., प्र. वि., ए. व. - न, पश्चिम दिशा की ओर - उत्तरेन वसिवन्तो, जनोघमपरेन भिक्खवे, अञस्स परिसा अपलाळेतब्बा, महाव. 108; न
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अपळास
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अपलोकन भिक्खवे अञस्स परिसा अपलाळेतब्बाति एत्थ सामणेरा वा अप्पतिहितेन अपलिबुद्धेन भवितब्ब, मि. प. 356-57; -द्धं होन्तु उपसम्पन्ना वा, महाव. अट्ठ. 280.
नपुं॰, प्र. वि., ए. व. - देवतानहि सुचरितकम्मनिब्बत्तं अपळास पु., पळास का निषे. [बौ. सं. अपदास], द्वेष या पित्तसेम्हरुहिरादीहि अपलिबुद्ध दूरेपि दुर्भाव का अभाव, क्षमाशीलता, मनमुटाव का न रहना - आरम्मणसम्पटिच्छनसमत्थं दिबं पसादचक्खु होति, उदा. ... अमक्खो च अपळासो च .... अ. नि. 1(1).116; अट्ठ. 58; - द्धा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - देवतानव्हि ... अनुन्नतेन मनसा, अपळासो असाहसो, अ. नि. 1(1).2203; अपलिबुद्धा ... दिब्बपसादसोतधातु होति, उदा. अट्ठ. 162; अपळासोति युगग्गाहपळासवसेन अपळासो हत्वा, अ. नि. -द्धेन तृ. वि., ए. व. - अहं पुब्बे ... अद्दसं सेम्हादीहि अट्ठ. 2.182.
अपलिबुद्धेन सुवण्णक्खन्धसदिसेन अत्तभावेन समन्नागता, अपलासि पु., व्य. सं., एक व्यक्ति का नाम - छहासीतिम्हितो ध. प. अट्ठ. 2.114; - द्धाय स्त्री., च./ष. वि., ए. व. - कप्पे, अपिलासिसनामको, अप. 1.209.
गुणपरिपुण्णाय अपलिबुद्धाय अदोसाय अगलितपदब्यञ्जनाय अपळासी त्रि., अपळास से व्यु. [बौ. सं. अपदासिन]. अत्थं विज्ञापेतुं समन्नागतो न होतीति अत्थो, अ. नि. अट्ठ. द्वेषरहित, क्षमाशील, मनमुटाव न रखने वाला - भिक्खु 2.320; - कथ त्रि.. ब. स., बिना रुकावट के सुस्पष्ट रूप अमक्खी होति अपळासी, म. नि. 1.136; 139; 142; दी. से बोलने वाला - तत्थ विसठ्ठवचनोति अपलिबुद्धकथो, जा. नि. 3.34; अ. नि. 2(1).104; कतमो च पुग्गलो अपळासी? अट्ठ. 6.25. ...., यस्स पुग्गळस्स अयं पळासो पहीनो - अयं वुच्चति अपलिबोध' पु., पलिबोध का निषे. [अपरिरोध], परिरोध या पुग्गलो अपळासी, पु. प. 128-29; मयमेत्थ अपळासी रुकावट का न रहना, बाधाओं का अभाव, सु-अवसर - द्वे भविस्सामा ति सल्लेखो करणीयो, म. नि. 1.54.
कथिनस्स अपलिबोधा, महाव. 352; परि. 239. अपलिखति/अपलेखति/अपलिहति अप + लिख का अपलिबोध त्रि., ब. स. [अपरिरोध], परिरोध या अड़चन से वर्त, प्र. पु., ए. व. [अपलिखति], खुरच देता है, रगड़ रहित, सुस्पष्ट, बाधारहित -धं स्त्री., वि. वि., ए. व. - देता है, छील देता है, मिटा देता है, चाट लेता है - उच्चार पञ्जवन्तोपि ... पट्ठाय ... उट्ठाय अकिञ्चनं अपलिबोधं वा कत्वा हत्थस्मि व दण्डकसञ्जी हत्वा हत्थेन अपलिखति, रमणीयं पब्बज्ज उपगन्तुं नं सक्कोन्ति, जा. अट्ठ. 3.210; दी. नि. अट्ट, 1.263; अपलिखति अपलिहति उदकेन अट -धा पु., प्र. वि., ब. व. - एते चत्तारो पच्चेकबुद्धा रज्ज
वनतो, लीन. (दी.नि.टी.) 1.313; - खामि वर्त०, उ. पु., पहाय पब्बजित्वा अकिञ्चना अपलिबोधा पब्बज्जासखेन ए. व. - हत्थापलेखनोति हत्थे पिण्डम्हि ठिते जिव्हाय हत्थं वीतिनामन्ति, जा. अट्ठ. 336. अपलिखामि, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).356; उच्चारं वा अपलिहति/अपलिखति द्रष्ट, अपलिखति के अन्त. (ऊपर) कत्वा हत्थस्मि व दण्डकसञी हत्वा हत्थेन अपलिखामीति - हत्थापलेखनोति हत्थे पिण्डम्हि ठिते जिव्हाय हत्थं दस्सेति, तदे..
अपलिखति, उच्चारं वा कत्वा ... अपलिखति, दी. नि. अपलिपपलिपन्न त्रि., पलिपपलिपन्न का निषे. अट्ठ. 1.263; जिव्हाय हत्थं अपलिखति अपलिहति उदकेन [अप्रलेपपरिपन्न], शा. अ. भयानक दलदल या कीचड़ में अधोवनतो, लीन. (दी. नि. टी.) 1.313. नहीं फंसा हुआ, ला. अ. पांच कामगुणों में अलिप्त - सो अपलेखन/अवलेखन नपुं., [अपलेखन]. खरोच देना, वत, चुन्द, अत्तना अपलिपपलिपन्नो परं पलिपपलिपन्न मिटा देना, केवल स. उ. प. के रूप में प्राप्त, हत्थापलेखन उद्धरिस्सती ति ठानमेतं विज्जति, म. नि. 1.56;
वेज्जति, म. नि. 1.56; के अन्त. द्रष्ट.. (पलिपपलिपन्नोति गम्भीरकद्दमे निमुग्गो वुच्चति, म. नि. अपलोकति अपलोकेति के अन्त. द्रष्ट. (आगे). अट्ठ (मू.प.) 1(1).201).
अपलोकन नपुं, अप + Vलोक से व्यु., क्रि. ना. [अपलोकन], अपलिबुद्ध त्रि., परि + Vबुद्ध के भू. क. कृ. का निषे. 1. इधर-उधर देखना, पीछे की ओर देखना - ककुसन्धो [अपरिरुद्ध?], रुकावट से रहित, विघ्न बाधाओं से मुक्त, .... नागापलोकितं अपलोकेसि ... सहापलोकनाय ..., दूसी सुस्पष्ट, बिना रुकावट वाला/वाली; - द्धो पु.. प्र. वि., मारो तम्हा च ठाना चवि ..., म. नि. 1.420-21; ए. व. - आकासो अलग्गो असत्तो अप्पतिद्वितो अपलिबद्धो, सहापलोकनायाति ककुसन्धस्स ... अपलोकनेनेव सह .... योगिना योगावचर ... पलिबोधे पच्चये ... अनासत्तेन तणजेव, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).314; तस्मा पच्छतो
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अपलोकी
387
अपलोकेति/अवलोकेति अपलोकनकाले न सक्का होति गीवं परिवत्तेतू, दी. नि. निर्वाण - अपकितं निपुणमनन्तमक्खरं अभि. प.7; कतमञ्च, अट्ठ.2.138; 2. किसी सङ्घकर्म को सम्पादित करने के लिए ..... अपलोकितं ... अनिदस्सनञ्च, स. नि. 2(2).342; सङ्घ से अनुमति प्राप्त करने हेतु किया गया निवेदन या अपलुज्जनताय अपलोकितं, स. नि. अट्ठ. 3.149; अजज्जरं दिया गया आवेदन - अपलोकनन्ति सङ्घ अपलोकेत्वा ति धुवं अपलोकितं, अनिदस्सनं निप्पपञ्च सन्तं, स. नि. आदिसु विय जानापनं. सद्द. 2.520; - कम्म नपुं.. तत्पु. स., 2(2).343; - गामी त्रि., ध्रुव एवं अच्युत पद निर्वाण की ओर सङ्घ से अनुमति प्राप्त कर किया जा रहा सङ्घकर्म - ... ले जाने वाला - देसेस्सामि अपलोकितगामिञ्च मग्ग, स. अपलोकनकम्म, अत्तिकम्म, .... चूळव. 196; 201; नि. 2(2).342. अपलोकनकम्म नाम सीमट्ठकसॉ सोधेत्वा छन्दारहानं छन्दं अपलोकेति/अवलोकेति अप +Vलोक का वर्त., प्र. पु., आहरित्वा समग्गस्स सङ्घस्स अनुमतिया तिक्खत्तुं सावेत्वा ए. व. [अवलोकयति], क. पूरे शरीर को पीछे की ओर घुमा कत्तब्बकम्म चूळव. अट्ठ. 40; चत्तारि अपलोकनकम्मानि कर देखता है, किसी की ओर देखता है - हत्थी सबकायेनेव जानितब्बानि, परि. 317; यं सङ्घस्स अपलोकनादीनं चतुन्नं अपलोकेति, मि. प. 368; - न्तो पु., वर्त. कृ. - अपलोकेन्तो कम्मानं करणं, इदं किच्चाधिकरणं नाम, म. नि. अट्ठ. खो पन सो भवं गोतमो सब्बकायेनेव अपलोकेति, म. नि. (उप.प.) 3.28; तत्थ कम्मेनाति अपलोकनकम्मादीसु चतूस 2.346; - य्य विधि., प्र. पु., ए. व. - सो निमीलेय्य वा कम्मेसु अञतरेन कम्मेन, उदा. अट्ठ. 258.
अञ्जन वा अपलोकेय्य, म. नि. 1.170; - सि अद्य, प्र. पु., अपलोकी त्रि., अप + Vलोक से व्यु., क्रि. ना., अनुमति ए. व.- अथ खो भगवा आयस्मन्तं आनन्दं अपलोकेसि, म. प्राप्त कर कर्म करने वाला, परामर्श कर काम करने वाला नि. 2.288; - केतुकामो त्रि., देखने की इच्छा कर रहा - योगिना ... सब्बकायेन अपलोकिना भवितब्ब, मि. प. - निक्खमित्वा च पुन नगरं ओलोकेतुकामो जातो, जा. 368-69.
अट्ठ. 1.73; - त्वा पू. का. कृ. - अथ खो भगवा अपलोकत्वा अपलोकिक त्रि., अप+ Vलोक से व्यु., सम्भवतः अपलोकित आयस्मन्तं राहुलं आमन्तेसि, म. नि. 2.91; तं सन्धाम अथ का अप., द्रष्ट. अपलोकित के अन्त. द्रष्ट. - अव्यापज्झ खो भगवा अपलोकेत्वा तिआदि वृत्तं, म. नि. अट्ठ. (म.प.) सिवं खेमं निपुणं अपलोकिकं सद्द. 1.70.
2.96; ख. सम्मानपूर्वक सेवासत्कार करता है, देखरेख अपलोकित' नपुं, अप+Vलोक का भू. क. कृ. [अपलोकित], करता है - त्वा उपरिवत् - जनपदकल्याणी घरा 1. नपुं.. पीछे की ओर मुड़कर देखना, पीछे की ओर शरीर निक्खमन्तस्स उपङ्घल्लिखितेहि केसेहि - अपलोकेत्वा मं घुमाकर फेंकी गयी दृष्टि - नागापलोकितं अपलोकेसि, म. एतदवोच, उदा. 93; अपलोकेत्वाति सिनेहरसविष्फारसंसूचकेन नि. 1.420-21; नागापलोकितं अपलोकेसीति ... गीवं अडक्खिना आबन्धन्ती विय ओलोकेत्वा, उदा. अट्ठ. 1383; अपरिवत्तेत्वा सकलसरीरेनेव निवत्तित्वा अपलोकेति, म. नि. ग. अनुमति पाने हेतु याचना करता है - म वर्त., उ. पु.. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).313; वेसालियं पिण्डाय चरित्वा ... ब. व. - वस्संवद्धा, अपलोकेम ... अपिच, यो देय्यधम्मो सो नागापलोकितं वेसालिं अपलोकेत्वा आयस्मन्तं ... आमन्तेसि. न दिन्नो, पारा. 11; - यमाना पु., वर्त. कृ., प्र. वि.. ब. दी. नि. 2.93; 2. वह, जिससे अनुमति या परामर्श लिया व. - ते तेन ... सम्मदपिता समुत्तेजिता सम्पहसिता गया हो, वह, जिससे कुछ करने हेतु पूछा गया हो; - तो उवायासना पक्कमन्ति अवलोकयमानायेव अविजहितत्ता, पु.. प्र. वि., ए. व. - अपलोकितो पन वो, ..., सारिपुत्तोति?, म. नि. 2.348; - हि अनु., म. पु., ए. व. - तेपि ताव स. नि. 2(1).6; अपलोकितोति आपुच्छितो, स. नि. अट्ठ. अपलोकहि, यथा ते ... करिस्सन्तीति, महाव. 37; अस्थीति 2.226; - ता पु., प्र. वि., ब. व. - किं हिमे करिस्सन्ति वत्वा तेन हि अपलोकेहि नन्ति वृत्ते, ध. प. अट्ठ. 1.41; - निगण्ठा अपलोकिता वा अनपलोकिता वा?, अ. नि. थ ब. व. - अपलोकेथ, भिक्खवे, सारिपुत्तं, स. नि. 3(1).26; - ताय स्त्री., च. वि०. ए. व. - किं मे इमाय 2(1).6; अपलोकेथाति आपुच्छथ, स. नि. अट्ठ. 2.226; -
अपलोकिताय वा अनपलोकिताय वा, ध. प. अट्ठ. 1.335. केस्साम भवि., उ. पु.. ब. व. - आयामानन्द, वेरजं अपलोकित त्रि., व्यु. संदिग्ध, संभवतः प + Vलुज के भू. ब्राह्मणं अपलोकेस्सामा ति, पारा. 10; अपलोकेस्सामाति क. कृ. (पलुज्जित) के स्थान पर भ्रष्ट प्रयोग का निषे. चारिक चरणत्थाय आपुच्छिस्साम, पारा. अट्ठ. 1.151; - त्वा [अपलुज्जित]. विनाश या क्षय से रहित, अच्युत पद पू. का. कृ.- एवं महासत्तो ... राजानो पलापेत्वा कनिट्ठभातरं
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अपवग्ग
388
अपवियूहति/अपव्यूहति अपलोकेत्वा कामे पहाय इसिपब्बज्जं पब्बजित्वा ... पवारणा न किया हुआ भिक्षु या भिक्षुसङ्घ- अप्पवारितोव सो ब्रह्मलोकूपगो अहोसि, जा. अट्ठ. 2.74; - अनप पू. का. कृ. भविस्सति, महाव. 239. का निषे., बिना अनुमति पाए हुए - न ते अनपलोकेत्वा अपवारेन्त त्रि., पवारेन्त का निषे., पवारणा नामक सङ्घकर्म जनपदचारिक पक्कमन्ति, पारा. 10; - तब्बो पु.. सं. कृ., को नहीं कर रहा - महापवारणाय अप्पवारेन्तो जण्हे आपज्जति प्र. वि., ए. व. - राजा नाम यत्थ राजा अनुसासति, राजा नो काले, परि. अट्ठ. 164; आपज्जतापवारेन्तो, जुण्हे न पन अपलोकेतब्बो, पाचि. 303; नत्थि ते कोचि अपलोकेतब्बोति काळके, उत्त. वि. 490. दुत्ते, ध. प. अट्ठ. 1.41.
अपवाहेति अप + Vवह के प्रेर. का वर्त.. प्र. पु., ए. व. अपवग्ग पु., [अपवर्ग]. अन्तिम रूप से विमुक्ति, पूर्ण रूप से [अपवाहयति], दूर करा देता है, हटवा या मिटवा देता है विशुद्धि, निर्वाण - अपवग्गो परिच्चागावसानेस विमुत्तियं, - त्वा पू. का. कृ. - ... कललकद्दम अपवाहेत्वा अभि. प. 910: अपवग्गो विसङ्कारो सभि सुद्धि विसद्धि च, परिसुद्धविमलदेसमुपगत्वा तत्थ परमसुखं लभेय्य, मि. प. 296. विसुद्धि. 1.70.
अपविद्ध त्रि., अप + Vविध का भू. क. कृ. [अपविद्ध]. दूर अपवज्जन नपुं.. अप + Vवज्ज से व्यु., क्रि. ना. [अपवर्जन]. फेंक दिया गया, तुच्छ या घटिया समझ कर परित्यक्त,
शा. अ. परित्याग, ला. अ. दान - चागो विसज्जनं दानं उपेक्षित, तिरस्कृत, अनुपयोगी; - द्धो पु., प्र. वि., ए. व. ... विस्सरणं वितायिता पवज्जनं, अभि. प. 420.
- अपविद्धो सुसानस्मि, अनपेक्खा होन्ति आतयो, सु. नि. अपवदति अप + Vवद का वर्त., प्र. पु., ए. व. [अपवदति]. 202; अपविद्धोति गहेतब्बाभावं दस्सेति, सु. नि. अट्ठ. शा. अ. बुरा बोलता है, अनुचित रूप से बोलता है, ला. 1.210; - द्धं द्वि. वि., ए. व. - ... पुरिसोति विचिनन्तो अ. बुरा भला कहता है, निन्दा करता है, खण्डन कर देता तम्पि पटिच्छन्नट्ठाने अपविद्ध दिस्वा ... पत्तो, जा. अट्ठ. है, बात को काट देता है - अपवदतेव भवं सोणदण्डो वण्ण 1.248; अपविद्ध ब्रहार, चन्दंव पतितं छमा, जा. अट्ठ. अपवदति मन्ते, अपवदति, जाति एकसेन, दी. नि. 1.106; 6.107; तत्थ अपविद्धन्ति रजा निरत्थक छड्डितं, जा. अट्ठ. अपवदतीति पटिक्खिपति, दी. नि. अट्ठ. 1.134; - न्ति ब. 6.108; - द्धा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - सा दानि सब्बस्स व. - यमाहु नत्थि वीरियन्ति, अहेतुञ्च पवदन्ति ये जा. कुलस्स इस्सरा, अहं पनम्हि अपविद्धा एकिका ति, जा. अट्ठ. 5.230.
अट्ठ, 3.377; अपविद्धाति छड्डिता अनाथा हत्वा एकिका अपवहति अप + Vवह का वर्त., प्र. पु., ए. व. [अपवहति]. वसामि, तदे. अथ खो पायासि ... दानं दत्वा अपविद्धं दानं दूर ले जाता है, हटा देता है - यानि पन ... तानि वातो दत्वा कायस्स भेदा ... देवानं ... विमानं, दी. नि. 2.261. एकमन्तं अपवहति, अ. नि. 3(1).18; न च तस्स भोतो अपवियूहति/अपव्यूहति/अपब्बूहति/ अपब्यूहति अप गोतमस्स कायम्हा वातो चीवरं अपवहति, म. नि. 2.347. + वि + ऊह का वर्त०, प्र. पु., ए. व., रास्ते से हटा देता अपवाद पु., अप + Vवद से व्यु., क्रि. ना. [अपवाद]. बुरा है, दूर कर देता है, खण्डों में विभाजित कर देता है - भला बोलना, निन्दा, खण्डन - कलङ्कोकापवादेसु. देसे अपब्यूहेति तत्थेव, तस्स थुल्लच्चयं सिया, विन. वि.54; - जनपदो जने, अभि. प. 1089; - भय पु., तत्पु. स. न्तो पु., वर्त. कृ., प्र. वि., ए. व. - अपि च इतो चितो च [अपवादभय], निन्दा का भय - ... परेसं अपवादादिभयेन अपब्यूहन्तोपि फन्दापेतियेव, सो थुल्लच्चयं आपज्जति, पारा. परिनिब्बानाय चेतेन्ति .... उदा. अट्ठ. 349; पाठा. उपवादादि. अट्ठ. 1.253; अपब्यूहन्तोति हेट्ठा ठितं गहिस्सामी ति हत्थेन अपवारण नपुं.. अप + Vवु से व्यु. [अपवारण], ढक्कन, द्विधा करोन्तो, सारत्थ. टी. 2.120; - हि अद्य., प्र. पु., ए. आच्छादन - छद अपवारणे, छादेति छादयति, .... सद्द. व. - सोपि सिङ्गालो मरणभयभीतो चतूहि पादेहि रओ 2.544; जल अपवारणे, ..... सद्द. 2.563.
उपरिभागे अपब्यूहि, जा. अट्ठ. 1.256; - हित्वा पू. का. कृ. अपवारित' त्रि., अप + Vवु का भू. क. कृ., फटा हुआ, खुला - सो तं ... सेवालपणकं अपवियूहित्वा अञ्जलिना पिवित्वा हुआ, उद्घाटित - विच्छिदं वुच्चति द्विधा छिन्दनेन अपवारितं. पक्कमेय्य, अ. नि. 2(1),175; अपवियूहित्वाति अपनेत्वा, अ. ध. स. अट्ठ. 242; पाठा. अपधारितं.
नि. अट्ठ. 3.58; - हापेसि प्रेर., अद्य०, प्र. पु., ए. व., अप्पवारित/अपवारित त्रि., पवारित का निषे. [अप्रवारित], हटवाया - इदानि नं गहिस्सामाति तरुणसूकरे पक्कोसित्वा वह, जिसने पवारणा नामक सङ्घकर्म सम्पादित नहीं किया, रुक्खमूलता पंसु अपब्यूहापेसि, जा. अट्ठ. 4.310.
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अपसक्कति
अपसक्कति अप + √सक्क का वर्त, प्र० पु०, ए. व., दूर चला जाता है, बगल से होकर चला जाता है, विदा हो जाता है तेसञ्च डयमानानं एकेत्थ अपसक्कति, जा. अट्ठ. 4.309; एकेत्थ अपसक्कतीति एको एतेसु ओसक्कित्वा वा एकपस्सेन वा विसुं गच्छति, तदे न्ति व. व. - तित्थिया अपसक्कन्ति पाचि 98 अपसक्कन्तीति अपगच्छन्ति पाचि. अ. 68 न्तो पु. वर्त. कृ. प्र. वि., ए. व. अपसक्कन्तो च अकारणेनेव अन्धबालो महन्तं
अनत्थं अत्तनो अकासी ति रज्ञो
करिएससी ति. पे.
-
व. अ. 265 ता स्त्री. भू. क. कृ. तेहि भिक्खूहि सा भिक्खुनी अपसादेतब्बा- अपराक्कताव, पाचि. 234 विकत्वा पू. का. कृ. - मग्गा ओक्कम्माति मग्गतो अपसविकत्वा उदा. अट्ठ. 308; थेरो एकपदनिक्खेपमत्तं अपसक्कित्वा अट्टासि वि. व. अड्ड. 80. अपसम्मज्जति अप + सं + √मज्ज का वर्त., प्र. पु. ए. व. [अपसम्माष्टि], झाडू लगाकर साफ कर देता है, झाडू लगा देता है, स्वच्छ कर देता है; न्ति ब. व. - तमेनं सामिका सम्मज्जनिं गत्वा भिय्योसोमत्ताय अपसम्मज्जन्ति आ. नि. 3(1).18 अपसम्मज्जन्तीति सारधन एकतो दुब्बलधनं
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अपसम्मज्जन्ति, अपसम्मज्जनिसङ्घातेन वातग्गाहिना सुप्पेन वा वत्थेन वा निहरन्ति अ. नि. अड. 3.197. अपसम्मज्जनी स्त्री, अप + सं √मज्ज से व्यु [ अपसम्मार्जिनी], धान को साफ कर देने वाला सूप, झाडू
तमेनं सामिका सम्मज्जनिं गहेत्वा भिय्योसोमत्ताय अपसम्मज्जन्ति, अ० नि० 3 (1).18; अपसम्मज्जनिसङ्घातेन वातग्गाहिना सुम्पेन वा वत्थेन वा नीहरन्ति अ. नि. अड. 3.197. अपसरति अप + √सर का वर्त. प्र. पु. ए. व. [ अपसरति]. बाहर निकल रहा है, निर्गत कर रहा है; - न्तेन वर्त. पु. तृ. वि. ए. व. तेजसापसरन्तेन जनानं पविकासय चू॰ वं. 65.20.
"
.कृ..
अपसव्य / अपसब्य त्रि. ब. स. [ अपसव्य]. क. वह, जो वामभाग का नहीं है, दाहिना वामं कलेव सव्यं, अपसव्यं तु दक्खिणं, अभि. प. 719; ख. दाहिनी ओर अवस्थित, दक्षिण-भागीय निद्रुभित्वा अपसव्यतो करित्वा पक्कामि, उदा. 125 अपसव्यतो करित्वाति पण्डिता तादिसं पच्चेकबुद्ध दिस्वा वन्दित्वा पदविखणं करोन्ति, अयं पन अविञ्ञताय परिभवेन तं अपसव्यं कत्वा अत्तनो अपसव्यं अपदक्षिणं कत्वा गतो, अपसब्यामतो तिपि पाठो, उदा. अट्ठ. 238; दिस्वा निट्टुभित्वा अपसब्यं कत्वा दीघरत्तं... ब्याकरित्वा,
389
अपसादेति
ध. प. अट्ठ. 1.270; - करण नपुं० [ अपसव्यकरण], किसी की ओर दक्षिणभाग कर लेना तस्स कम्मरसाति... हीळेत्वा निदुभन अपसव्यकरणवसेन पवत्तपापकम्मस्स उदा. अड. 238. अपसाद पु०, [ अप्रसाद], अप्पसाद के अन्त. द्रष्ट.. अपसादना स्त्री, अप + √सद के प्रेर, से व्यु., क्रि. ना. [ अपसादन] किसी को कम करके आंकना, तिरस्कार, अवमूल्यन उस्सादनञ्च ञत्वा अपसादनञ्च ञत्वा नेवुस्सादेय्य म. नि. 3.279, अयं आमिसगिद्धो एवमस्स गेहसितवसेन अपसादनापि नत्थीति अत्थो, म. नि. अट्ठ (भू.प.) 1(1).280 न चैव नाम सधम्मुक्कंसना भविस्सति न च परधम्मापसादना, अ. नि. 1 (1) 249, अपसादित त्रि. अप + √सद के प्रेर. का भू. क. क्र. [ अपसादित], क. दूरीकृत, अस्वीकृत, तिरस्कृत, दूर हटा दिया गया, बहिष्कृत तो पु. प्र. वि. ए. क. एवं अपसादितो च पन पुण्णमुखो पुस्तकोकिलो ततोमेव पटिनिवत्ति, जा. अड. 5.417; ता स्त्री. प्र. वि., ए. व. अथ खो सा गणकी रोहि आजीवकसावकेहि अपसादिता पुनदेव सावत्थिं पच्चागच्छि, पारा 201; ख. निन्दित, डांटाफटकारा गया अय्येन किर महाकरसपेन अय्यो आनन्दो वेदेहमुनि कुमारकवादेन अपसादितो ति, स. नि. 1(2). 197; गहपतीति यत्वा गहपतिना काकोपमाय अपसादितो कुखित्वा एसो ते, ध. प. अट्ठ 1.292. अपसादियमान त्रि अप + √सद के प्रेर के कर्म. वा. का वर्त. कृ. अस्वीकृत या तिरस्कृत किया जा रहा. भर्त्सना किया गया; ना पु०, प्र० वि०, ब० व. ते भिक्खूह अपसादियमाना रोदन्ति, महाव. 99. अपसादेति अप + √सद के प्रेर० का वर्त०, प्र० पु०, ए. व. [अपसादयति] क. दूर हटा देता है, निकाल बाहर करता है, अस्वीकार कर देता है भिक्खु चोदितो चोदकेन चोदकं अपसादेति म. नि. 1.134; अपसादेतीति किं नु खो तुम्हें बालस्स अब्यत्तस्स भणितेन एवं घट्टेति, म. नि. अट्ठ. ( मू.प.) 1 ( 1 ) . 378; ख. निन्दा करता है, डांटता-फटकारता है, अभियोग लगाता है, अपमानित करता है - मं भगवा परिसाय खेळासकवादेन अपसादेति, चूळव. 326; न्ति ब ८. भिक्खू अपसादेन्ति महाव. 99 धम्मयोगा भिक्खु झायी भिक्खू अपसादेन्ति, अ. नि. 2 ( 2 ).69; अपसादेन्तीति घट्टेति हिंसन्ति अ. नि. अड. 3.119 न्तो पु. वर्त. कृ. प्र. वि., - ए. व. किं नाम त्वं वरं दस्ससी ति अपसादेन्तो गाथमाह, जा. अट्ठ. 5.488; न्ता प्र. वि. ब. व. ते सब्बेपि
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अपस्मार / अपमार
अपसादयन्ता अञ्ञ एवमाहंसु, दी. नि. अट्ठ. 2.189; - य्य विधि., प्र. पु. ए. व. न अपसादेय्य धम्ममेव देसेय्य म. नि. 3.279; न अपसादेय्याति गेहसितवसेन कञ्चि पुग्गलं नेव उक्षिपेय्य न अवक्खिपेय्य, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.202 य्यं उ. पु. ए. व. अहञ्चेव खो पन चोदितो चोदकेन चोदकं अपसादेय्य, म. नि. 1.138; - सि अद्य., प्र. पु. ए. व. एवं वुत्ते कुणालो सकुणो तं पुण्णमुखं फुस्सकोकिलं एवं अपसादेसि, जा. अड. 5.417: स्सामि भवि., उ. पु. ए. व. भिक्खुना चोदितो चोदकेन चोदकं न अपसादेस्सामी ति चित्तं उप्पादेतं. म. नि. 1.138; तु निमि कृ. - एकस्स चेपि भिक्खुनो न पटिभासेय्य तं भिक्खुनिं अपसादेतुं पाचि, 234 तब्बा स्त्री. सं. कृ. - तेहि भिक्खुहि सा भिक्खुनी अपसादेतब्बा, पाचि. 234; - तु पु. प्रेर. का क. ना. [ अपसादयितृ] डांटने-फटकारने वाला, निन्दा या भर्त्सना करने वाला तपस्सी अञ्ञतरं समणं वा ब्राह्मणं वा नापसादेता होति दी. नि. 3.33. अपस्मार / अपमार पु. [ अपस्मार] मिरगी का रोग - अपमारो अपस्मारो, अभि. प. 325; अतेकिच्छेन वातापमारादिना रोगेन समन्नागतो निद्रापतगिलानो कथितो अ. नि. अट्ठ 2.90; वातापमाररोगेनाति वातरोगेन च अपमाररोगेन च वातनिदानेव वा अपमाररोगेन, अ. नि. टी. 2.84 वाता पु. प्र. वि. ब. व. मिरगी के दौरे तस्स वाता वलीयन्तीति तस्स हृदयं अपस्मारवाता अवत्थरन्तीति अत्थो, जा. अट्ठ. 4. 75.
अपस्सं / अपस्सन्त दिस के वर्त. कृ. का निषे. [अपश्यत् ]. शा. अ. नहीं देख रहा, अन्धा, ला. अ. अज्ञानी, मूर्ख; स्सं प्र. वि. ए. व. अपरसं अरियसच्चानि, अन्धभूतो पुथुज्जनो, थेरगा. 215 अपरसं बज्डाते मूळ्हो, बडझमानो न मुच्चतीति दी. नि. अह्न 2.373 म. नि. अड. ( मू.प.) 1 (1) 106; महानि, अट्ट, 35 तो ष. वि. ए. व. नो अजानतो नो अपस्सतो, इतिवु. 74; - तं / तानं ष. वि., ब. व. निवुतानं तमो होति., अन्धकारो अपरसतं. स. नि. 2 (2). 131; तेसं भगवन्तं अपस्सन्तानं सिया अञ्ञथत्तं, म. नि. 2.130.
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390
अपस्सय पु०, केवल एक स्थल में नपुं० [ अपश्रय / अपाश्रय], सिर, पीठ अथवा केहुनी को रखने के लिए सहारा, सिरहाना, गद्दी, तकिया, बिछावन तपस्वियों द्वारा प्रयुक्त कांटों से भरा बिछावन या शय्या तस्स चन्दनमयो अपस्सयो अहोति, घ. प. अ. 2.211 सत्तनो नाम तीसु दिसासु अपस्सयं
अपरिसत
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कत्वा कतमञ्चो, चूळव. अट्ठ 59 - यानि नपुं. प्र. वि., ब. व. - अपस्सेनानीति अपस्सयानि, दी. नि. अट्ठ. 3.173. अपस्सयति / अपस्सेति अप + आ + √सी का वर्त प्र. पु. ए. व. [ अपाश्रयति] सहारा लेता है, आश्रय लेता है, पीछे की ओर या पीठ के बल सहारा लेता है, किसी पर टिक कर लेट जाता है - तत्थ यं यं दिसं अल्लीयति अपरसयतीति अत्थो, सु. नि. अड. 2.182 न्ति ब. व. तेन खो परिकम्मकतं भित्तिं अपररोन्ति चूळव. 308तं वर्त, कृ. द्वि. वि. ए. व. तस्मिं अपस्सेने यथा अपस्सयन्तं विज्झति वा छिन्दति वा सत्थं ठपेति, दुक्कटं पारा अट्ट. 2.51 य्य विधि, प्र. पु. ए. व. - यो अपस्सेय्य, आपत्ति दुक्कटस्स, चूळव. 308; - यिं अद्य., उ. पु. ए. व. जनितं मे भवितं मे इति पठ्ठे अपस्सयिं जा. अट्ठ. 2.66, पाठा. अवस्सयि; - स्साय पू. का. कृ.. तेन खो पन महावने दिवाविहारगतो अपरसाय निपन्नो होति, पारा 45; तब्बा स्त्री. सं. कृ. न भिक्खवे, परिकम्मकता भित्ति अपस्सेतबा, चूळवू. 308 यनीय उपरिवत्- अपस्सयनीयद्वेन अपस्सेन नाम पारा, अह.
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2.51.
अपस्सयन / अवस्सयन नपुं अप + √सी से व्यु. क्रि. ना. [अवश्रयण] अवलम्ब सहारा, निर्भरता, विश्वास सप्पुरिसावस्सयोति बुद्धादीनं सप्पुरिसानं अवस्सयनं सेवनं भजनं, न राजानं अ. नि. अट्ठ. 2.282; पाठा. अवस्सयनं; अपस्सेनानीति अपस्सयानि, दी. नि. अट्ठ. 3.173. अपस्सयपीठक नपुं. तत्पु. स. [ अवश्रयपीठक]. सिर को टिका देने वाले उपकरण से युक्त आसन एकच्चे मन्ते विचारेत्वा सयं पक्कसालद्वारे अपस्सयपीठके निसीदित्वा कथेसि, जा. अट्ठ 3.206.
अपरसयिक त्रि. अपरसय से व्यु बिछावन, शय्या या तकिया का सहारा लेकर लेटा हुआ कण्टकापस्सविकोपि होति कण्टकापस्सये सेव्यं कप्पेति दी. नि. 1.150; एकपस्सयिकोपि होति रजोजल्लधरो तदे.. अपरिसत त्रि, अप + √सी का भू. क. कृ. [अपाश्रित]. सहारा, आश्रय या अवलम्बन लिया हुआ, किसी का सहारा लेकर लेटा हुआ, किसी पर आश्रित, किसी पर भरोसा रखने वाला तो पु. प्र. वि. ए. व. तात माणवको एसो. तालमूलं अपस्सितो, जा. अट्ठ. 2.57; तालमूलं अपस्सितोति तालक्खन्धं निस्साय ठितो, तदे, अनुभोत्वान तं पुत्रं सककम्मं अपस्सितो, अप० 1.101; - ता' स्त्री०, प्र. वि., ए.
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अपस्सितब्बयुत्तक
391
अपहरति व. - दलिद्दा कपणा नारी, परागारं अपस्सिता, वि. व. 185; अपह त्रि., अप + Vहा से व्यु. [अपह], नष्ट करने वाला, परागारं अपरिसताति परगेहं निस्सिता, वि. व. अट्ठ. 81; - विनाशक, केवल स. उ. प. के रूप में ही प्रयुक्त, अघापह ता' पु., प्र. वि., ए. व. - अत्रे च उत्तरकुरु, सकं आदि के अन्त. द्रष्ट... बलमवस्सिता, अप. 1.383.
अपहत त्रि., अप + Vहन का भू. क. कृ. [अपहत], नष्ट कर अपस्सितब्बयुत्तक नपुं., कर्म स., अमङ्गल कारक दृश्य, दिया गया, हटा दिया गया, मिटाया हुआ, पीड़ित,
अशुभ प्रकाशित करने वाला दृश्य - ता ते चण्डालपुत्ते व्यथित - तेन पुत्तकं गच्छस्स. मा सोकापहतो भवाति, .... चण्डालपुत्ताति सुत्वा अपस्सितब्बयुत्तकं वत पस्सिम्हाति थेरगा. 82; - काळक त्रि., ब. स., वह, जिसकी कालिमा .... निवत्तिंसु, जा. अट्ठ. 4.350.
या दूषित तत्त्व हटा दिए गये हैं, काले धब्बों से अपस्सेतु पु., अप + Vसी से व्यु., क. ना. [अवश्रयितु]. रहित, क्लेशों से मुक्त- अपहतकाळकोतिपि पाठो, पारा. अट्ठ. किसी के सहारे टिकने वाला, किसी का सहारा लेकर स्थित 1.149.
या लेटा हुआ - ... नाभिजानामि अपस्सेनकं अपस्सयिता अपहत्तु पु.. अप+Vहर से व्यु., क. ना. [अपहर्तृ], अपहरण .... कप्पेता, म. नि. 3.168.
करने वाला, हटा देने वाला, मिटा देने वाला, नष्ट कर देने अपस्सेन' नपुं., अप + /सी से व्यु. [अपाश्रयण], शा. अ. वाला; - ता प्र. वि., ए. व. - बहूनं वत नो भगवा दीवाल पर टिकने हेतु प्रयुक्त लकड़ी या धातु की पट्टी, ला. दुक्खधम्मानं अपहत्ता बहूनं ... उपहत्ता..., म. नि. 2.120; अ. निर्भरता, भरोसा, अनुपालन - अपस्सेनं नाम अपस्सेने अपहत्ताति अपहारको, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.117; विलो. सत्थं वा ठपेति विसेन वा मक्खेति ... ठपेति, पारा. 91; 88; उपहत्तु. अपस्सेने सत्थं वाति एत्थ अपस्सेनं नाम निच्चपरिभोगो अपहरण नपुं., अप + Vहर से व्यु., क्रि. ना. [अपहरण], दूर ... अपस्सेनकत्थम्भो ... आलम्बनरुक्खो ... अपस्सयनीयद्वेन ले जाना, चुरा कर ले जाना, लूट कर ले जाना-सो या अपस्सेनं नाम, पारा. अट्ट. 2.51; हत्थिनागे च पल्लङ्के, ता साललट्ठियो कुटिला ओजापहरणियो ता छेत्वा बहिद्धा अपस्सेनञ्चनप्पक, अप. 1.302; - नानि ब. व. - चत्तारि नीहरेय्य, ... विसोधेय्य, म. नि. 1.177; ओसधसमो सत्तानं अपस्सेनानि, ... सवायेकं पटिसेवति, ... अधिवासेति ... किले सब्याधि पसमें, उदक समो सत्तान परिवज्जेति, ... विनोदेति, दी. नि. 3.179; अपस्सेनानीति किलेसरजोजल्लापहरणे, मि. प. 188. अपस्सयानि, दी. नि. अट्ठ. 3.173; कथञ्चावुसो, भिक्खु अपहरति अप + हर का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अपहरति], चतुरापस्सेनो होति, ..., दी. नि. 3.215; तुल. अपस्सय, 1. दूर ले जाता है, हटा देता है, रोक देता है, निवारण ऊपर; - त्थम्भ पु., कर्म. स. [अपाश्रयणकस्तम्भ], टिकने करता है - कसामिवाति यथा भद्रो अस्सो अत्तनि पतमानं के लिये सहारा देने वाला स्तम्भ या खम्भा - अपस्सेने सत्थं कसं अपहरति, अत्तनि पतितुं न देति, ध. प. अट्ठ. 2.48; - वाति एत्थ अपस्सेनं नाम ... अपस्सेनफलकं वा दिवाहाने न्तो पु., वर्त. कृ., प्र. वि., ए. व. - यो निद्दन्ति अप्पमत्तो निसीदन्तस्स अपस्सेनकत्थम्भो वा तत्थजातकरुक्खो वा समणधम्म करोन्तो अत्तनो उप्पन्नं निदं अपहरन्तो बुज्झतीति चङ्कमे अपस्साय अपस्साय तिट्ठन्तस्स ... अपस्सयनीयद्वेन अपबोधेति, ध. प. अट्ठ. 2.48; यो निन्दं अपबोधतीति यो अपस्सेनं नाम, पारा. अट्ठ. 2.51; - फलक नपुं.. कर्म. स. गरहं अपहरन्तो बुज्झति, स. नि. अट्ठ. 1.35; अपहरन्तोति [अपाश्रयणफलक], विहार की रंगी-पुती दीवालों पर सिर अपनेन्तो ... एवं परिहरन्तोति अत्थो, स. नि. टी. 1.72; - या पीठ टिकाने हेतु प्रयुक्त लकड़ी का तख्ता या धातु से रितुं/हातुं निमि. कृ. - अप्पम्पि तस्स अपहातुमिच्छति, निर्मित पट्टिका - अपस्सेनफलकं नीहरित्वा एकमन्तं अ. नि. 2(2).230; - रित्वा पू. का. कृ. - पुन चपरं निक्खिपितब्बं महाव. 53; अपस्सेने सत्थं वाति एत्थ अपस्सेनं महाराज, तच्छको फेगुं अपहरित्वा सारमादियति, .... मि. नाम ... पीठं वा अपस्सेनफलकं वा दिवाडाने निसीदन्तस्स प. 386; 2. मना कर देता है, आपत्ति खड़ी कर देता है; अपस्सेनकत्थम्भो वा ... आलम्बनफलकं वा सब्बम्पेतं - न्ति वर्त. प्र. पु. ब. व. - ये ते पन्हवीमंसका परिसा अपस्सयनीयद्वेन अपस्सेनं नाम, पारा. अट्ठ. 2.51.
पारिसज्जा पासारिका, ते अपहरन्ति, अत्थापगतं भणितान्ति अपस्सेन' पु., व्य. सं., एक चक्रवर्ती राजा का नाम - इतो अत्थतो अपहरन्ति, ... अत्थो ते दुन्नीतो, महानि. 1213 छट्टम्हि कप्पम्हि, अपस्सेनसनामको, अप. 1.225..
अपहरन्तीति पटिबाहन्ति, महानि. अट्ठ.226.
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अपहानधम्म
392
अपाणातिपात अपहानधम्म त्रि., ब. स. [अप्रहाणधर्म], वह, जिस के धर्म अविदितकम्मावदानो, जा. अट्ठ. 7.186; - ता स्त्री., अपाकट
का प्रहाण या क्षय नहीं हो सकता है, परिपूर्ण शैक्ष्य, जिसका का भाव. [अप्रकटता], अज्ञातता, अव्यक्त होना - तथागतेन अधःपतन संभव नहीं है और जिसकी शील, समाधि एवं प्रज्ञा भया ओसक्कितं, उदाहु अपाकटताय ओसक्कितं, उदाहु की शिक्षाएं पूर्ण हो चुकी हैं - परिपुण्णसिक्खं अपहानधम्म, दुब्बलताय ओसक्कितं, मि. प. 218; - त्त नपुं॰, अपाकट पत्तरं जातिखयन्तदस्सिं. इतिवु. 30.
का भाव., [अप्रकटत्व]. उपरिवत् - आगतत्ता अपव्यूहापेसि अप + वि + Vऊह के प्रेर. का अद्य०, प्र. पु.. पच्चत्तेकवचनबहुवचनभावस्स पन अपाकटत्ता वेभूय्यप्पवत्तिं ए. व., रास्ते से हटवा दिया, अलग करा दिया, अदृश्य करा सन्धाय .... सद्द. 1.126; - पाटिहारिय नपुं., कर्म. स. दिया - इदानि नं गहिस्सामा ति तरुणसूकरे पक्कोसित्वा [अप्रकटप्रातिहार्य], ऋद्धिबल का वह चमत्कार, जिसमें रुक्खमूलता पेसु अपब्यूहापेसि, जा. अट्ठ. 4.310.
ऋद्धि ही दिखलाई दे, ऋद्धिमान् नहीं- अपाकटपाटिहारिये अपहाय/अवहाय अव + हा का पू. का. कृ., त्याग कर, इद्धि येव पायति न इद्धिमा, विसुद्धि. 2.21; - टीभूत छोड़ कर - बहभण्डं अवहाय, मग्गं अप्पटिवेक्खिय, जा. त्रि., [अप्रकटीभूत], अप्रकट बन चुका, अव्यक्त या अप्रादुर्भूत अट्ठ.4.4.
हो चुका - अपातुभूतन्ति अपाकटीभूतं. स. नि. अट्ट. 2.247. अपहारक पु., अप + Vहर से व्यु., क. ना. [अपहारक, अपाकटिक त्रि., [अप्राकृतिक]. अव्यवस्थित अथवा अपहरण करने वाला, हटा देने वाला, विनष्ट करने वाला अप्राकृतिक अवस्था वाला/वाली, अस्त व्यस्त - इन्द्रियानि - अपहत्ताति अपहारको, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.116. अपाकतिकानि, किलन्तरूपानि विय पञआयन्तीति पुच्छि, अपहारी अप + Vहर के प्रेर. का अद्य., उ. पु., ए. व., मैंने ध. प. अट्ट, 1.254. हटवा दिया या मिटवा दिया, मैंने विनष्ट करा दिया - अपागत नपुं., आ + गम का भू. क. कृ., शा. अ. ठीक चिरस्सं न्हापितं लद्धा, लोमं तं अज्ज हारयिन्ति, जा. अट्ठ. से नहीं आना, ला. अ. नियमों का अतिक्रमण या उल्लङ्घन, 3.276; अज्ज हारयिन्ति अज्ज हारेसिं, तदे...
भ्रम - कस्सच्चया न विज्जन्ति, कस्स नत्थि अपागतं. स. अपहारी त्रि., केवल स. उ. प. के रूप में ही प्राप्त नि. 1(1).29. [अपहारिन्], नष्ट करने वाला, मिटा देने वाला, दूर कर अपाची/अवाची स्त्री., [अपाची/अवाची], दक्षिण दिशा - देने वाला - नदतो परिसाय ते, वादितब्बपहारिनो, अप. पाची पतीच्युदीचित्थी पुब्ब पच्छिम उत्तरा, दिसाथ 2.202; थेरीगा. अट्ठ. 163.
दाक्षिणा'पाची, अभि. प. 29. अपहास पु., द्रष्ट. अवहास के अन्त...
अपाचीन त्रि., [अवाचीन]. नीचे की ओर अवस्थित; - नं अपाक 1. त्रि., ब. स. [अपाक], नहीं पका हुआ, कच्चा, नपुं., क्रि. वि., नीचे की ओर - उद्धं तिरियं अपाचीनं, नन्दी अपरिपक्व, नहीं पकाया हुआ - भन्ते, एकिस्सायेव कुम्भिया तेसं न विज्जति, स. नि. 2(1).78; उद्धं तिरिय अपाचीनं, पच्चमानं ओदनं अपाकं असं अपाकन्ति , जा. अट्ठ. 1.325; यावता जगतो गति, इतिवु. 84; अ. नि. 1(2).18. उसभा रुक्खा गावियो गवा च, अस्सो कंसो सिङ्गाली च अपाटली/आपाटली स्त्री., एक पुष्प का नाम - अपाटलिं कुम्भो, पोक्खरणी च अपाकचन्दनं, जा. अट्ठ. 1.321; 2 पु.. अहं पुप्फ उज्झितं सुभहापथे, अप. 1.119. तत्पु. स., नहीं पकना, विपाक को प्राप्त न होना - अपाकं अपाटुम/अपाटुक त्रि., व्यु. संदिग्ध [अप्रतिम/अपटुक?],
अविपाकस्स, छधा छट्ठस्स पच्चयो, विभ. अट्ठ. 166. असंयत स्वभाव वाला, असभ्य, अनुचित व्यवहार करने अपाकट त्रि., पाकट का निषे., तत्पु. स. [अप्रकट]. अस्पष्ट, वाला, प्रतिभा से सम्बन्ध न रखने वाला, अपटु - अव्यक्त, अज्ञात - तत्थ अञ्जतरोति नामगोत्तवसेन नेकतिका वञ्चनिका, कूटसक्खी अपाटुका, थेरगा. 940; अनभिजातो अपाकटो एको, उदा. अट्ठ. 43; अञ्जतरोति __ अपाटुकाति वामका, असंयतवुत्तीति अत्थो, थेरगा. अट्ट. नामगोत्तेन अपाकटो, तस्सं परिसायं निसिन्नो एको भिक्ख, 2.301. उदा. अट्ठ 47; रहोति पटिच्छन्नं अपाकटवसेन, पे. व. अट्ठ. अपाणातिपात पु., पाणतिपात का निषे., तत्पु. स. [बौ. सं. 92; अप्पपज्ञातोति अजातो अपाकटो, स. नि. अट्ठ. 3.163; __ अप्राणातिपात], प्राणों का हनन न करना, प्राणि-हिंसा न - गुण त्रि., ब. स., वह, जिसके गुण सुव्यक्त नहीं हो, करना - अपाणातिपातं निस्साय पाणातिपातो पहातब्बोति, अज्ञात गुणों वाला - तत्थ अातोति अपाकटगुणो म. नि. 2.25.
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अपाणी
393
अपापक
अपाणी त्रि., ब. स. [अप्राण], निर्जीव, प्राणरहित, - नं ष. वि., ब. व. - मन्ददसकादीसु पाणीनं विय च, पुप्फफलपल्लवादीसु च अपाणीनं विय, म. नि. अठ्ठ. (मू.प.) 1(1).205; ध. स. अट्ठ. 360. अपातब्ब त्रि., Vपा के सं. कृ. का निषे. [अपातव्य], नहीं पीने योग्य, अपेय - अपरिभोग वा करोतीति अखादितब्बं वा अपातब्बं वा करोति, पारा. अट्ठ. 1.257. अपातुभ त्रि., प्रादुर्भाव से रहित, उत्पत्ति से रहित - सुकच्छवी वेधवेरा थूलबाहू अपातुभा ... अपातुभाति अपातुभावा धनुप्पादरहितापि अत्थो, जा. अट्ठ. 4.164-165. अपातुभाव पु.. पातुभाव का निषे. [अप्रादुर्भाव], प्रकट न होना, अदृश्य स्थिति में होना - अपातुभावो बुद्धस्स सद्धम्मामतदायिनो, सद्धम्मो. 6; दुतियज्झानक्खणे
अपातुभावाति वुत्तं होति, ध. स. अट्ठ. 213. अपातुभूत त्रि, पातुभूत का निषे. [अप्रादुर्भूत], वह, जो प्रकट या स्पष्ट रूप से दृश्य नहीं है, अप्रकाशित, अव्यक्त - यं, भिक्खवे, रूपं अजातं अपातुभूतं भविस्सती ति तस्स सङ्घा, स. नि. 2(1).66; यं एवं अभावितं अपातुभूतं महतो अनत्थाय सवत्तति यथयिद, भिक्खवे, चित्तं, चितं, भिक्खवे, अभावितं अपातुभूतं महतो अनत्थाय संवत्तती ति, अ. नि. 1(1).7; ये धम्मा अजाता अभूता असजाता अनिब्बत्ता ।
अनभिनिब्बत्ता अपातुभूता अनुप्पन्ना, ध. स. 1042. अपातुभोन्त त्रि., पातु + vभू के वर्त. कृ. का निषे. [अप्रादुर्भवत्], प्रकट रूप में नहीं दिख रहा, स्पष्ट रूप से दिखलाई न पड़ने वाला - ते लाभसक्कारे अपातुभोन्ते,
सन्धापिता जन्तुभि सन्तिधम्म, जा. अट्ठ. 7.53. अपाथेय्य त्रि., ब. स. [अपाथेय]. मार्ग के लिए आवश्यक सामग्रियों से रहित, यात्रा के बीच उपयोगी भोजन, जल आदि को न रखने वाला, आवश्यक अपकरणों से रहित - मग्गा कन्तारा, अप्पोदका अप्पभक्खा, न सुकरा अपाथेय्येन गन्तुं महाव. 321; 358. अपादक त्रि., ब. स. [अपादक], शा. अ. बिना पैरों वाला, ला. अ. रेंगने वाला सर्प आदि- मा में अपादको हिंसि, मा में हिंसि द्विपादको, चूळव. 227; अपादकेहि मे मेत्तं, मेत्तं द्विपादकेहि मे, अ. नि. 1(2).84; जा. अट्ठ 2.120. अपादकथा स्त्री., विन. वि. की गाथा संख्या 231 से 236 तक के खण्ड का शीर्षक, विन. वि. (पृ.) 20; पारा. अट्ठ. की एक कथा का शीर्षक, पारा. अट्ठ. 1.290.
अपादान नपुं.. अप + आ + Vदा से व्यु., क्रि. ना. [अपादान], व्याकरण के सन्दर्भ में पञ्च, वि. के कारक का नाम - यस्मा वा अपेति, यस्मा वा भयं जायते यस्मा वा आदत्ते तं कारकं अपादानसज्ज होति, क. व्या. 273; अपादानकारके पञ्चमी विभत्ति होति, क. व्या. 297; अपादाने पञ्चमी, सद्द. 1.60; - कारक नपुं.. कर्म. स. [अपादानकारक], उपरिवत् - अपादानकारके पञ्चमी विभत्ति होति, क. व्या. 297; - विसयत्त नपु., भाव. [अपादानविषयत्व]. अपादान-कारक का विषय या क्षेत्र होना - एत्थ पन अपादानविसयत्ते पि गवावयवभूतस्स विसाणस्स विसंगहित्ता गवं खीरं दुहन्तोति, सद्द. 2.599; - सञ त्रि., ब. स. [अपादानसंज्ञक], अपादान संज्ञा वाला - तं कारकं अपादानसो होति, क. व्या. 273. अपान नपुं.. [अपान], नीचे की ओर अभिमुख होकर बाहर को निकलने वाली प्राण वायु, प्रश्वास - अथो अपानं पस्सासो, अस्सासो आनमुच्चते, अभि. प. 39. अपानक त्रि., पानक का निषे. [अपानक], कोई भी पेय न पीने वाला, पान न करने वाला, प्राचीन काल के तपस्वियों का एक वर्ग - अपानकोपि होति अपानकत्तमनुयुत्तो, दी. नि. 1.150; अपानकोति पटिक्खित्तसीतुदकपानो, दी. नि. अट्ठ. 1.265; अपरे अपानकत्ता होन्ति, मयं पानीयं न पिवामाति वदन्ति, जा. अट्ठ. 5.233; - त्त नपुं, अपानक का भाव. [अपानकत्व], कुछ भी नहीं पीने की अवस्था - परियायभत्तञ्च अपानकत्ता, पापाचारा अरहन्तो वदाना, जा. अट्ठ. 5.230; अपानकोपि होति अपानकत्तमनयत्तो, दी. नि. 3.29. अपानुभ त्रि. मिथ्या अहंकार से ग्रस्त - इमे, भन्ते, लिच्छविकुमारका चण्डा फरुसा अपानुभा, अ. नि. 2(1).70%; अपानुभाति अवड्डिनिस्सिता मानथद्धा, अ. नि. अट्ठ. 3.29. अपापक त्रि., ब. स., पाप-रहित, अदयनीय, दुर्गति से रहित, अकुरूप - कं नपुं, प्र. वि., ए. व. - अपापकं ते मरणं भविरसति, स.नि. 2(1).111; अपापकन्ति अलामक स. नि. अट्ठ. 2.277; - केहि पु./नपुं.. तृ. वि., ब. व. - सकेहि कम्मेहि अपापकेहि पुजेहि मे लद्धमिदं विमानन्ति, जा. अट्ठ. 7.213; तत्थ अपापकेहीति अलामकेहि, तदे. - पिका स्त्री., प्र. वि., ए. व. - दहरा च अपापिका चसि. किं ते पब्बज्जा करिस्सति, थेरीगा. 372; अपापिका चसीति रूपेन अलामिका च असि, उत्तमरूपधरा चाहोसीति अधिप्पायो, थेरीगा. अट्ठ. 276.
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अपापकम्म/अपापकम्मी
394
अपापेतब्ब अपापकम्म/अपापकम्मी त्रि., ब. स., पापकम्म का निषे. साक्षात्कार न करके - यं तं पुरिसथामेन ... पुरिसपरक्कम्मेन [अपापकर्मन्/अपापकर्मिन], पाप कर्मों को न करने वाला, पत्तब्न तं अपापुणित्वा वीरियस्स सण्ठानं भविस्सती ति, कुशल-कर्मों को करने वाला - तत्थ अपापकम्मिनोति म. नि. 2.156; स. नि. 1(2).27; 250.
अपापकम्मा सत्ता एवं विसुज्झन्ति ... अद्दसंसु जा. अट्ट. 5.407. अपापुरण/अवापुरण नपुं.. अप/अव + आ + vपू से अपापतं अप + आ + /पत का वर्त. कृ., पु.. प्र. वि., ए. व्यु., क्रि. ना. [अपावरण]. शा. अ. वह उपकरण, जिसके व. [अपापतन्], उड़ते हुए आकर किसी के अन्दर गिर द्वारा द्वार खोले जाएं, ला. अ. चाभी, कुजी- ताळोवापुरणं रहा, आकर गिर रहा - कीटोव अग्गिं जलितं अपापतं, चाथ वेदिका कथ्यते, अभि. प. 222; अवापुरणन्ति अवापुरन्ति उपपज्जति मोहमूळ्हो नग्गभावं जा. अट्ट, 7.120; अपापतन्ति विवरन्ति द्वारं एतेना ति अवापुरणं, सद्द. 2.430; अवापुरण अपि आपतं, पतन्तोति अत्थो, तदे..
आदाय अनुपरिवेणियं भिक्खूनं आरोचेहि, महाव. 100; म. अपापदस्सना स्त्री., ब. स. [अपापदर्शना], शीलवती नारी, नि. 3.169; अ. नि. 3(2).190; अवापुरणं आदायाति कुञ्चिक वह नारी, जिसको देखना कल्याणकारक हो अथवा जो गहेत्वा , म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.142. कल्याणमय स्वरूप वाली हो - साता च धम्मजीविनी, अपापुरति/अवापुरति अप/अव + आ + vपू का वर्त., सीलवती च अपापदस्सना, जा. अट्ठ. 3.366; अपापदस्सनाति प्र. पु., ए. व. [अपावरति/अपावृणोति, खोल देता है, कल्याणदस्सना पियधम्मा, जा. अट्ठ. 3.367.
द्वार को उद्घाटित कर देता है - पुरति पुरं पुरी, अवापुरति, अपापपुरेक्खार त्रि., पापपुरेक्खार का निषे[अपापपुरष्कार]. अवापुर एतं अमतस्स द्वार, सद्द. 2.430; - न्ति ब. व. -
शा. अ. पापरहित धर्मों को आगे करके विचरण करने अपापुरन्ति अमतस्स द्वारं योगा पमोचेन्ति बहज्जनं ते. वाला, ला. अ. किसी के विरुद्ध पापमय विचार न रखने इतिवु. 583; अपापुरन्तीति उग्घाटेन्ति, इतिवु. अट्ठ.233; - वाला, पाप-कर्म की इच्छा न रखने वाला - गोतमो कम्मवादी न्तो वर्त. कृ.. पु.. प्र. वि., ए. व. - अत्थस्स द्वारानि किरियवादी अपापपुरेक्खारो ब्रह्माय पजाय ... पे....... अवापुरन्तो, तेनाहं तुस्सामि यवोदनेन, जा. अट्ठ. 6.202; - दी. नि. 1.101; म. नि. 2.386; अपापपुरेक्खारोति अपापे न्तं द्वि. वि., ए. व. - अवापुरन्त अमतस्स द्वार, देवातिदेवं नव लोकुत्तरधम्मे पुरतो कत्वा विचरति, दी. नि. अट्ठ. 1. सतपुञ्जलक्खणं वि. व. 1042; अवापुरन्त अमतस्सद्वारन्ति 231; अपापपुरेक्खारोति न पापपुरेक्खारो, न पापं पुरतो ... अरियमग्गं विवरन्तं. वि. व. अट्ठ. 237; - र अनु०. म. कत्वा चरति, पापं इच्छतीति अत्थो, म. नि. अट्ठ. (म.प.) पु., ए. व. - अपापुरेतं अमतस्स द्वारं महाव. 6; म. 2.297.
नि. 1.227; अपापुरेतन्ति विवर एतं. म. नि. अट्ठ. (मू.प.) अपापसत्तपनिसेवी त्रि., उप. स. [अपापसत्त्वोपसेविन]. 1(2).81; - रितुं निमि. कृ. - तेन ... भिक्खू न सक्कोन्ति निष्पाप प्राणियों का साथ सङ्ग करने वाला, सज्जनों का कवाट अपापुरितुं, चूळव. 273; - रित्वा पू. का. कृ. - पक्षधर - विनी स्त्री., प्र. वि., ए. व. - सिराह देवी मनुजेहि तमेनं उट्ठहित्वा अपापुरित्वा ओलोकेय्य, म. नि. 1.38%3; पूजिता, अपापसत्तूपनिसेविनी सदा, जा. अट्ठ. 5.394; अपापुरित्वाति विवरित्वा, म. नि. अट्ठ. 1(1).159; - रित्वान अपाप सत्तू पनिसेविनीति अनवज्जसद्धाय च उपरिवत् - द्वारं अपापुरित्वानहं, मातापितरो अनीकरत्तञ्च, एकन्तपत्तियायनुसभावार परेसुपि... नाम, जा. अट्ठ. 5.398. थेरीगा. 496; - रापेत्वा प्रेर.. पू. का. कृ., खुलवा कर, अपापायि अप+ vपा का अद्य., प्र. पु., ए. व., पान किया, उद्घाटित करा कर - नगरद्वारानि अवापुरापेत्वा सद्धि पिया - तं सिङ्गालो अपापायि, जानं सीहेन रक्खितान्ति, जा. अमच्चसहस्सेन महातले पल्लङ्कमज्झे निसीदि, जा. अट्ठ. अट्ठ. 2.104; अपापायीति अप इति उपसग्गो, अपायीति 1.255; पाठा. विवरापेत्वा; - रीयति कर्म. वा. में वर्त., प्र. अत्थो , तदे..
पु.. ए. व., खुलाया जाता है, उद्घाटित किया जाता है - अपापुणि अप + आप का अद्य.. प्र. पु.. ए. व., प्राप्त किया ..... महानिरयस्स पच्छिम द्वार ... उत्तरं ... दक्खिणं द्वार या साक्षात्कार कर लिया - तत्थेव सो ठितो थेरो, अरहत्तं अपापुरीयति, म. नि. 3.223; सचे द्वारं न अवापुरीयित्थ, अपापुणि, विसुद्धि. 1.21; - णिं अद्य उ. पु. ए. व. - तत्थ ... सम्पादेय्य, जा. अट्ठ. 1.73. चित्तं विमुच्चि मे, अरहत्तं अपापुणिं, अप. 1.56; 61; - अपापेतब्ब त्रि., प + आप के प्रेर. के सं. कृ. (पापेतब्ब) णित्वा पू. का. कृ. का निषे. [अप्राप्य], नहीं प्राप्त कर, का निषे॰ [अप्रापयितव्य]. प्राप्त न करवाने योग्य - तत्थ
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अपापेस्सं
395
अपाय
अपारनेय्यन्ति वायामेन मत्थकं अपापेतब्ब, जा. अट्ठ 6.43. अपापेस्सं प+ आप के प्रेर. के काला. का उ. पु., ए. व., यदि मैं प्राप्त कराऊं- ... इधेवं तं जीवितक्खयं अपापेस्सं. इदानि ... डंसितुं, जा. अट्ट. 2.10. अपाभत त्रि., अप + आ + vभर का भू. क. कृ. [अपाहृत]. दूर ले जाया गया, दूर से ले आया गया - दुस्स में खेत्तपालस्स, रत्तिभत्तं अपाभतं, जा. अट्ट. 3.46; चरिया. अट्ट, 102; अपाभतन्ति आभतं आनीतं, जा. अट्ट. 3.463; रत्तिभत्तं अपाभतन्ति रत्तिभोजनतो अपनीतं. चरिया. अट्ट. 102. अपामग्ग पु., अप + आ + Vमज से व्यु. [अपामार्ग], चिड़चिड़ी नामक एक औषधीय पौधा -- अपामग्गो सेखरिको,
अभि. प. 583. अपाय पु., अप + Vइ से व्यु., अथवा अप + पय से व्यु. अथवा पाय का निषे. [अपाय]. शा. अ. दूर चला जाना, अधोगमन, बाहर की ओर निकास, ला. अ. पतन, हास, अवनति, संपत्ति या शील की क्षति, भवचक्र में संसरण करने के क्रम में उपस्थित दुखदायक गति, नरक; - यो प्र. वि., ए. व. - एत्थ अपायोति नत्थि पायो वृद्धि एत्थ ति अपायो, सद्द. 2.403; 421; अपायोति अवुद्धि, दी. नि. अट्ठ. 3.169; - या ब. व. - निरयादयो हि वड्डिसङ्घाततो अयतो अपेतत्ता अपाया, दी. नि. अट्ट. 2.120; - येसु सप्त. वि., ब. व. - अनुप्पियञ्च यो आह, अपायेसु च यो सखा, दी. नि. 3.142; - यं द्वि. वि., ए. व. - ते कायस्स भेदा पर मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपन्ना पारा. 53; अपायन्ति एवमादि सब्बं निरयवेवचनं, पारा. अट्ट, 1.125; . .. अपायं दुग्गतिं विनिपातं संसारं नातिवत्तति, दी. नि. 243; तत्थ अपायोति निरयतिरच्छानयोनिपेत्तिविसयअसुरकाया, दी. नि. अट्ठ. 2.77; तत्थ चत्तारो अपाया नाम निरयतिरच्छानपेत्तिविसयअसुरकाया, खु. पा. अट्ठ. 150; पमत्तस्स हि चत्तारो अपाया सकघरसदिसा, ध. प. अठ्ठ. 1.148; - ये द्वि. वि., ब. व. - मतमता चत्तारो अपाये पूरेन्ति, जा. अट्ठ. 2.118; - येहि तृ. वि., ब. व. - चतूहापायेहि च विप्पमुत्तो, छच्चाभिठानानि अभब्ब कातुं सु. नि. 234; .... तप्पहाना तस्सापि पहानं दीपेन्तो आह चतूहपायेहि च विप्पमुत्तोति. सु. नि. अट्ठ. 1.250; - कुसल त्रि., तत्पु. स. [अपायकुशल]. मन में अनुत्पन्न अकुशल धर्मों को मन में उत्पन्न न होने देने में कुशल, चार प्रकार
की कुशलताओं में से एक से सम्पन्न - आयकुसलो अपायकुसलो उपायकुसलो महता कोसल्लेन समन्नागतोति, नेत्ति. 19; - कोसल्ल नपुं., तत्पु. स. [अपायकौशल्य], अकुशल धर्मों को मन से दूर ले जाने की कुशलता - तीणि कोसल्लानि-आयकोसल्लं, अपायकोसल्लं, उपायकोसल्लं. दी. नि. 3.176; तत्थ कतम अपायं कोसल्लं? इमे धम्मे मनसिकरोति अनुप्पन्ना चेव कुसला धम्मा न उप्पज्जन्ति ... इदं वुच्चति अपायकोसल्लं, दी. नि. अट्ठ, 3.170; विभ. 371; एवं अपायकोसल्लम्पि पञ्जा एवाति वेदितब्बं विभ. अट्ठ. 392; -- गत त्रि., तत्पु. स. [अपायगत], नरक आदि दुखदायक गतियों में गया हुआ, दुर्गति को प्राप्त, विपत्तिग्रस्त - भूमिं गतो भूमिगतो, सब्बरत्तिं सोभनो सब्बरत्तिसोभनो अपायं गतो अपायगतो इस्सरेन कतं इस्सरकतं, क. व्या. 329; समासे ताव-भूमिगतो, अपायगतो, इस्सरकतं, सल्लविद्धो, कठिनदुस्स, चोरभयं, धारासि, संसारदुक्खं पुब्बा च अपरा च पुब्बापरं क. व्या. 573; - गमनीय त्रि., तत्पु. स. [अपायगमनीय], दुखद अवस्था की ओर ले जाने वाला, नरक आदि दुख भरी योनियों में जन्म दिलाने वाला - यो पु.. प्र. वि., ए. व. - सोतापत्तिमग्गेन अनवसेसो दिवासवा खीयति, अपायगमनीयो कामासवो खीयति, अपायगमनीयो भवासवो खीयती, अपायगमनीयो अविज्जासवो खीयति, पटि. म. 87; स्वाहं कत्थचि असन्तुट्टो लोभमेव वडमि, लोभो च नामेस अपायगमनीयो धम्मो, सु. नि. अट्ठ. 1.90; - यं द्वि. वि., ए. व. - सीलब्बतपरामासं, अपायगमनीयं राग अपायगमनीयं दोसं, अपायगमनीयं मोह, अ. नि. 2(2). 138; अभूतं वितथं अलिक विरुद्ध विपरीतं दुक्खदायक दुक्खविपाकं अपायगमनीयन्ति, मि. प. 110; सचाहं गन्त्वा न ओवादेय्य, माता मे अपायगमणीयं अपुझं विचिनित्वा चतूसु अपायेसु उप्पज्जेय्या ति, सा. वं. 34(ना.); कामुपादानं अपायगमनीयं पठमेन कामरागभूतं बहलं दुतियेन, सुखुमं ततियेन, उदा. अट्ट, 173; - गामी त्रि., [अपायगामिन्]. नरक आदि दुखदायक गतियों में जाने वाला - यो तं दानं देति, सो अपायगामी होति, मि. प. 259; - नो प्र. वि., ब. व. - पब्बजितुकामापि न पब्बजिस्सन्ति, वचनं च मे न सद्दहिस्सन्ति, असद्दहन्ता ते मनुस्सा अपायगामिनो भविस्सन्ति, मि. प. 254; तथा मरणजालेन ओत्थटेसु सत्तेसु बहू अपायगामिनो होन्ति, ध. प. अट्ट. 2.100; - दुक्ख नपुं.. तत्पु. स. [अपायदुःख], नरक आदि की कष्टदायिनी योनियों में प्राप्त होने वाला दुख - अथ दिद्वधम्मे
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अपाय
396
अपाय
विविधाकम्मकारणा, सम्पराये च अपायदुक्खं अनुभोन्तो सो पापो पापानियेव परसति, ध. प. अट्ठ. 2.9; इध लोके अपायदुक्खं अनुभवन्तो परलोके च अनुतप्पति, जा. अट्ठ. 5. 114; - क्खेहि तृ. वि., ब. व. - इमिना पुञकम्मेन सब्बेहि अपायादिदुक्खेहि मोचेय्यामि, सा. वं. 106(ना.); - दुग्गतिविनिपात पु., द्व. स. [अपायदुर्गतिविनिपात], अधःपतन, दुखद-गति एवं अवनति अर्थात् नरक - अथ खो सो परिमुत्तो निरया परिमुत्तो तिरच्छानयोनिया परिमुत्तो पेत्तिविसया परिमुत्तो अपायदुग्गतिविनिपाता, स. नि. 3(2). 410; अपरिमुत्तो पेत्तिविसया अपरिमुत्ता
अपायदुग्गतिविनिपाताति, अ. नि. 3(1).194; - द्वार नपुं... तत्पु. स. [अपायद्वार], नरक का द्वार - अम्हाकञ्च अपायद्वारानि विवटानेव, तस्मा अञत्र पातो भिक्खाचारवेलं. ध, प. अट्ठ. 1.381; करोति अथ खोपायद्वारानिपि विधेति च, अभि. अव. 164; - पटिसन्धि पु., तत्पु. स. [अपायप्रतिसन्धि], नरक आदि दुखदायक योनियों में पुनर्जन्म, पुनर्जन्म के चार प्रभेदों में सबसे अधम पुनर्भव - अपायपटिसन्धि कामसुगतिपटिसन्धि रूपावचरपटिसन्धि अरूपावचरपटिसन्धि चेति चतुबिधा पटिसन्धि नाम, अभि. ध. स. 33; - परायण त्रि, तत्प. स. [अपायपरायण], निश्चित रूप से नरक प्राप्ति में लगा हुआ, निश्चित रूप से नरक को प्राप्त करने वाला - एवं अकरोन्तस्स पन अत्ता पियो नाम न होति, अपायपरायणमेव नं करोति, ध. प. अट्ठ. 2.76; - परिपूरक त्रि., [अपायपरिपूरक], नरक को परिपूर्ण कर देने वाला, नरक को प्राप्त होने वाला - ततो संवेगमापज्जित्वा पुन अहं इमं तण्हं वड्डेन्तो अपायपरिपूरको भविस्सामि. सु. नि. अट्ट, 1.91; - परिपूरणत्त नपुं., भाव. [अपायपरिपूर्णत्व], नरक को पूरी तरह से भर देना - अनेकसतानं अपायपरिपूरणत्तं अत्तनो सासने पब्बजितानञ्च देवदत्तादीनं.... म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).98; - परिमुत्ति स्त्री., तत्पु. स. [अपायपरिमुक्ति], नरक आदि दुखदायक गतियों से पूर्ण मुक्ति - तस्मा तेसं अपाया-परिमत्तिं सब्बगुणसम्पत्तिञ्च इच्छन्तो आह, म. नि. अट्ट. (मू.प.) । 1(1),98; - पूरक त्रि., तत्पु. स. [अपायपूरक], नरक को भर देने वाला - एवं ते मनुस्सा दिढदिट्टहाने सीलवन्ते अक्कोसन्ता अपुज पसवित्वा अपायपूरका अहेसु. म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).311; अम्हेसु पदुद्वचित्तो महाजनो अपायपूरको भवेय्य. अ. नि. अट्ठ. 1.142; - भय नपुं.. तत्पु. स. [अपायभय], नरक का भय, नरक से डर - एवं
अपायभयं पच्चवेक्खन्तस्सापि वीरियसम्बोज्झङ्गो उप्पज्जति, विभ, अट्ठ. 264; भयन्ति अपायभयं तेन सभावेन सण्ठितं
ओत्तप्पं ध. स. अट्ठ. 171; ते मिच्छातपं चरन्ते दिस्वा अपायभयम्हा मुत्ता ति पसीदित्वा .... जा. अट्ट. 4.267; - भय-पच्चवेक्षणता स्त्री॰, भाव. [अपायभयप्रत्यवेक्षणता]. नरक के भय पर अनुचिन्तन - अपिच एकादस धम्मा विरिय सम्बोज्झङ्गरस उपादाय संवत्तन्ति - अपायभयपच्चवेक्षणता सत्थुमहत्तपच्चवेक्षणता, विभ, अट्ठ. 264; - भय-विनिमुत्तता स्त्री॰, भाव., तत्पु. स. [अपायभयविनिर्मुक्तता], नरक आदि के भय से पूरी तरह मुक्त होने की दशा - लमिता सुखसयनता सुखप्पटिबुज्झनता अपायभयविनिमुत्तता इत्थिभावप्पटिलाभरस वा. खु. पा. अट्ठ 24; - भूमि स्त्री., तत्पु. स. [अपायभूमि], प्राणियों द्वारा जन्म ग्रहण करने की चार भूमियों में से वह भूमि, जिसमें अकुशल कर्म करने वाले प्राणी को तिरच्छान, पेत्तिविसय, असुरकाय एवं निरय, इन चार दुखदायक गतियों में उत्पन्न होना पड़ता है - देवाचेव मनुस्सा च, तिस्सो वापायभूमियो, अभि. अव. 40; ये केचि बुद्ध सरणं गतासे, नते गमिस्सन्ति अपायभूमि, स. नि. 1(1).31; खु. पा. अट्ठ. 8; जा. अट्ठ. 1.105; दोसेहि सीदापेन्तरस तथेवापायभूमियं, राद्धम्मो. 43; - मग्ग पु., तत्पु. स. [अपायमार्ग]. नरक की ओर ले जाने वाला मार्ग, कुमार्ग - एत्थ यथा मग्गकुसलो पुरिसो पठमं वज्जेतब्बं अपायमग्गं दस्सेन्तो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).73; सुपिहितसग्गद्वारो, अपायमग्गं समारुळहो, विसुद्धि. 1.55; - मुख नपुं०, तत्पु. स. [अपायमुख], जल की निकासी का विवर या द्वार, पानी के बाहर जाने का निकास मार्ग, अधःपतन का द्वार - तस्सा पुरिसो यानि चेव आयमुखानि तानि विदहेय्य, यानि च अपायमुखानि तानि विवरेय्य, देवो च न सम्मा धार अनुप्पवेच्छेय्य, अ. नि. 1(2).192; अपायमुखानीति अपवाहनच्छिद्दानि, अ. नि. अट्ठ. 2.352; अनुत्तराय विज्जाचरणसम्पदाय चत्तारि अपायमुखानि भवन्ति, दी. नि. 1.88; - लोक पु., कर्म. स. [अपायलोक], दुखदायक गति वाले तिरच्छान, पेत्ति-विसय, असुरकाय तथा नरक नाम वाले चार लोक - लोकेति अपायलो के मनुस्सलोकदेवलोके, खन्धलोके धातुलोके आयतनलोके, महानि.7; यमलोकञ्चाति चतुबिधं अपायलोकञ्च, ध. प. अट्ठ. 1.189; - समुद्द पु., तत्पु. स. [अपायसमुद्र], दुःख से परिपूर्ण विपदाओं के रूप वाला समुद्र, विपत्तियों का
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अपायिम्हवग्ग
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अपारुत
समुद्र - अपरिपुण्णज्झासये एव महोघो विय परिकङ्घमानो अपायसमुद्दे पक्खिपती ति वत्वा धम्म देसेन्तो, ध, प. अट्ठ. 2.247; - सम्पन्न त्रि., तत्पु. स. [अपायसम्पन्न], जल की निकासी वाले द्वार से युक्त, जल को बाहर निकालने वाले विवर वाला - न आयसम्पन्न होति, न अपायसम्पन्न होति । न मातिकासम्पन्न होति, न मरियादसम्पन्न होति. अ. नि. 3(1).70; न अपाय सम्पन्नन्ति पच्छाभागे उदकनिग्गमनमग्गसम्पन्न न होति, अ. नि. अट्ट. 3.228; - सम्पापक त्रि., तत्पु. स. [अपायसम्प्रापक], नरक आदि दुःखदायक योनियों को प्राप्त कराने वाला, दुःखदायक गतियों के रूप में परिणत होने वाला - पञ्च छिन्देति हेट्ठाअपायसम्पापकानि पञ्चोरम्भागियसंयोजनानि पादे बद्धरज्जु पुरिसो सत्थेन विय हेढामग्गत्तयेन छिन्देय्य, ध. प, अट्ठ. 2.345; - सहाय पु., तत्पु. स., दुःखदायक गतियों या विपदाओं में ले जाने वाला साथी, भोगसाधनों को विनष्ट करने में सहायक साथी - अनुप्पियभाणी अमित्तो मित्तपतिरूपको वेदितब्बो, अपायसहायो अमित्तो मित्तपतिरूपको वेदितब्बो, दी. नि. 3.141; चतूहि ठानेहि अपायसहायो अमित्तो मित्तपतिरूपको वेदितब्बो ति, दी. नि. 3.142; अपायसहायोति भोगानं अपायेस सहायो होति, दी. नि. अट्ठ. 3.119. अपायिम्हवग्ग पु.. जा. अट्ट, के एक वग्ग का शीर्षक, जा.
अट्ट. 1.344-362. अपायूपपत्ति स्त्री., तत्पु. स. [अपायोत्पत्ति], नरक आदि दुःखदायक योनियों में पुनर्जन्म का ग्रहण - मनुस्सदोभग्गं वा हि अपायुप्पत्ति वा सब्बा पमादमूलिकायेवाति, ध. प. अट्ट, 1.158. अपायेसि ।पा के प्रेर. का अद्य., प्र. पु., ए. व., द्रष्ट. पिवति
के अन्त.. अपार' नपुं., पार का निषे. [अपार], शा. अ. नदी का इस
ओर वाला तट, जिसे पार न करना पड़े - ओरत्वपारमुच्चते. अभि. प. 665; न चस्स नावा सन्तारणी उत्तरसेतु वा अपारा पारं गमनाय, स. नि. 2(2).177: एहि पारापारन्ति अम्भो पारं अपारं एहि, अथ में सहसाव गहेत्वा गमिस्ससि. दी. नि. अट्ठ. 1.303; तथा यो पटिपज्जेय्य, गच्छे पारं अपारतो, सु. नि. 1135; अपारा पारं गच्छेय्य, भावेन्तो मग्गमत्तम सु. नि. 1136; ला. अ. यह लोक, मृत्यु से पूर्ववर्ती वर्तमान जीवन वाला संसार, छ: बाहरी इन्दियां या आयतन - यस्स पारं अपारं वा, पारापार न विज्जति, ध. प. 385; एवं मे
भयजातस्स, अपारा पारमेसतो, थेरगा. 763; तत्थ पारन्ति अज्झन्तिकानि छ आयतनानि, अपारन्ति बाहिरानि छ आयतनानि, ध. प. अट्ठ. 2.364; विलो. पार, तुल.
ओर. अपार त्रि.. ब. स. [अपार]. 1. तट-रहित, असीम, पहुंच के बाहर, अजेय, पार करने हेतु अतिकठिन - अथ परतो महासमुदं गम्भीरं वित्थतं अगाधमपारं दिस्वा भायेय्य मि. प. 114; अपारमतिघोरञ्च, सोसेति च असेसतो, अभि. अव. 1335; 2. वह जिसने नदी या सागर को पार नहीं किया है, उस पार न गया हुआ - अतिण्णयेव याचस्सु, अपारं तात नाविक जा. अट्ट. 3.202; तत्थ अपारन्ति तात, नाविक परतीरं अतिण्णमेव जनं ओरिमतीरे ठित व वेतनं याचस्स. जा. अट्ठ, 3.202; - नेय्य त्रि., पारनेय्य का निषे. [अपारनेय], शा. अ. वह, जिसे नदी के उस पार न ले जाया सके, ला. अ. फल प्राप्ति की अवस्था को अप्राप्त, भवसागर के उस पार नहीं ले जाने योग्य - अपारनेय्यं यं कम्म अफलं किलमथुद्दयं, जा. अट्ठ. 6.43; तत्थ अपारनेय्यन्ति वायामेन मत्थक अपापेतब्ब, जा. अट्ठ. 6.43; - दस्सी त्रि., पारदस्सी का निषे. [अपारदर्शिन्], शा. अ. उस पार को न देखने वाला, ला. अ. भवसागर का दूसरा तट अर्थात् निर्वाण का साक्षात्कार न करने वाला अज्ञानी जन - अस्सुतवा पुथुज्जनो .... अतीरदस्सी अपारदस्सी, स. नि. 2(1).148; अपारदस्सीति पारं वच्चति निब्बानं तं न पस्सति, स. नि. अट्ठ. 2.293; - पारगू त्रि., [अपारपारङ्गत], अपार या असीम संसारसागर के उस पार पहुंच चुका (बुद्ध की एक उपाधि) - अपच्छि सत्थारमपारपारगं, निरङ्गणं आतिगणस्स मज्झे, बु. वं. अट्ठ. 1. अपारिवासिक त्रि., पारिवासिक का निषे०, ताजा, रात भर संग्रह कर या संजोकर नहीं रखा गया, गर्म (भोजन), वह भोजन, जो बासी न हो - पच्चग्घन्ति अभण्डं अपारिवासिक.
जा. अट्ठ. 2.360. अपारुत त्रि., अप + आ + Vवु के भू. क. कृ. पारुत का निषे॰ [अपावृत], नहीं ढका हुआ, अनाच्छादित, खुला हुआ, खोल कर रखा हुआ, खोल दिया गया - अपारुता तेसं अमतस्स द्वारा, दी. नि. 2.31; अपारुताति विवटा, दी. नि. अट्ठ. 2.55; 214; अपारुतं तेसं अमतस्स द्वार'न्ति केचि पठन्ति, लीन. (दी.नि.टी.) 2.58; ... अपारुता अमतस्स द्वाराति... दी. नि. 2.160; - घर त्रि., ब. स. [अपावृतगृह]. खुले हुए द्वारों वाला घर - मनुस्सा मुदा मोदमाना उरे पुत्तं
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अपालम्ब
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अपि
नच्चेन्ता अपारुतघरा मजे विहरिस्सन्तीति, दी. नि.. 1.120; अपारुतघराति चोरानं अभावेन द्वारानि असंवरित्वा विवटद्वाराति अत्थो, दी. नि. अट्ट, 1.239; - द्वार त्रि., उपरिवत् - ... अपारुतद्वारे निवेसने ... गच्छथ, जा. अट्ठ. 1.255-56. अपालम्ब पु., अप + आ + Vलम्ब से व्यु. [अपालम्ब], आलम्बन, सहारा, पकड़ने का सहारा, रथ पर लकड़ी से बनी हुई वे पट्टिकाएं, जिनका सहारा लेकर लोग रथ पर बैठते हैं - हिरी तस्स अपालम्बो, सत्यस्स परिवारणं स. नि. 1(1).37; तस्स अपालम्बोति यथा बाहिरकरथस्स रथे ठितानं योधानं अपतनत्थाय दारुमयं अपालम्बनं होति, दी. नि. अट्ठ. 1.79; बाहु सच्चमपालम्बोति अत्थसन्निस्सितबहस्सुतभावमयेन अपालम्बेन समन्नागतो, जा. अट्ठ. 7.143; बाहुसच्चमपालम्बो, ठितचित्तमपाधियो, जा. अट्ठ. 7.142. अपालम्बन नपुं., उपरिवत् - तरस अपालम्बोति ... दारुमयं अपालम्बनं होति, एवं इमस्स ... हिरोत्तप्पं अपालम्बनं, स. नि. अट्ठ. 1.79. अपालयु पाल का अद्य.. प्र. पु.. ब. व., पालन किए, रक्षा
की- सज्झायधनधासु, ब्रह्म निधिमपालयु, सु. नि. 287. अपाळिनयत्त नपुं, अपाळिनय का भाव., त्रिपिटक में निर्धारित नीतियों के विपरीत मार्ग का रहना, बुद्धवचनों से विपरीत पद्धति का होना - अपाळिनयत्ता, अभिरूपाय का देय्याति अयं हि सद्दसत्थतो आगतो नयो, सद्द. 1.130-31. अपासाणसक्खरिक त्रि., पासाणसक्खरिक का निषे., ब. स. [अपाषाणशर्करिक], कंकड़ों एवं पत्थरों से रहित (खेत) - खेत्तं अनुन्नामानिन्नामि च होति, अपासाणसक्खरिकञ्च होति, अ. नि. 3(1).70. अपासादिक त्रि., पासादिक का निषे. [अप्रासादिक]. असन्तोषजनक, मन में प्रसन्नता न लाने वाला, मन को न खिला देने वाला - ..., आदिनवा अपासादिके, अ. नि. 2(1),235; सत्तमे अपासादिकति अपासादिकेहि कायकम्मादीहि समन्नागते, अ. नि. अट्ठ. 3.82. अपासि ।पा के अद्य. का प्र. पु., ए. व., पिवति के अन्त.
द्रष्ट.. अपाहत/अपहत त्रि., अप + आ + Vहर का भू. क. कृ. [अपहृत], शा. अ. दूर कर दिया गया, विनाशित, ला. अ. तार्किक दोषों के आधार पर निराकृत या खण्डित, अस्वीकृत, तिरस्कृत - यमस्स वादं परिहीनमाहु, अपाहतं
पहविमंसकासे, सु. नि. 833; तत्थ परिहीनमाह अपाहतन्ति अत्थब्यञ्जनादितो अपाहतं परिहीनं वदन्ति, सु. नि. अट्ठ. 2.233; अपाहतस्मिं पन मङ्क होति, निन्दाय सो कुप्पति रन्धमेसी, सु. नि. 832; अपाहतस्मिन्ति पञ्चवीमंसकेहि
अत्थापगतं ते भणित, सु. नि. अट्ठ. 2.233. अपाहाय/अवहाय अप + आ + vहा का पू. का. कृ. [अपहाय], छोड़ कर, त्याग करके - उजुमग्गं अवहाय, कुम्मग्गमनुधावति, जा. अट्ठ. 7.121. अपि' अ., निपा., स्वरों से पूर्व अप, अप्य अथवा अप्प रूप में प्राप्त, कहीं कहीं 'पि' अथवा 'प' रूप में भी प्राप्त [अपि]. सम्भावना, अपेक्षा, प्रश्न, समुच्चय, गर्हा या निन्दा, आशङ्का या शङ्का तथा संवरण आदि अर्थों का सूचक - अपि सम्भावनापेक्खा पऽहं समुच्चयेसु च, गरहादिसु च अत्थेसु वत्तती ति पकासये, ... अपि महाकं पण्डितका ति, सद्द. 3.884; सम्भावने च गरहापेक्खासु च समुच्चये पन्हे सञ्चरणे चेव आसंसत्थे अपीरितं, अभि. प. 1183; 1. संभावना के अर्थ में- अपि दिब्बेसु कामेस, रतिं सो नाधिगच्छति, ध. प. 188; मेरुञ्चपि विनिविज्झित्वा गच्छेय्य, सद्द. 3.884; 2. उपेक्षा अर्थ में - अयम्पि धम्मो अनियतो ति, पारा. 297; 3. समुच्चय अर्थ में - अन्तम्पि अन्तगुणम्पि आदाय अधोभागा निक्खमति, म. नि. 3.224; उपरिअत्थं उपादाय सम्पिण्डनत्थो पिकारो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).261; 4. गर्हा या निन्दा के अर्थ में - अपि महाकं पण्डितकाति, सद्द. 3.884; 5. प्रश्न का संसूचक - अपि किञ्चि लभित्थाति, पारा, अट्ठ. 1.28-29; पालि-साहित्य में 'अपि' एवं 'पि' के कुछ विशिष्ट प्रयोग - 1. आरम्भ में या आदि में प्रयुक्त; क. भी, में भी, और भी - अपि दिब्बेसु कामेस, रतिं सो नाधिगच्छति,ध. प. 187; अपि अतरमानानं, फलासाव समिज्झति, जा. अट्ट, 1.141; अपि अग्गिं
पविसिस्सामि, नेवत्तना एकवारं जहितविसं पच्चाहरिस्सामीति ..... जा. अट्ठ. 1.298; ख. संभावनार्थक निपा., प्रायः वर्त. अथवा विधि. के क्रि. रु. के साथ प्रयुक्त; संभवतः, शायद, हो सकता है कि - अपेत्थ मुदं विन्देम, अपि अस्सादना सिया, सु. नि. 449; तदाहं सुखितो मुत्तो, अपि पस्सेय्य मातरन्ति, ... अपि नाम मातरं पस्सेय्यन्ति, जा. अट्ठ. 3.239; ग. पर्यालोचन या विमर्श का सङ्केतक - अपाहं बुद्ध पच्चक्खेय्यन्ति वदति, पारा 27; अपाहं सियन्ति होति. अपाहं इत्थं सियन्ति होति, अपाहं एवं सियन्ति होति, अपाह अञथा सियन्ति होति, विभ. 460; घ. पूर्वकथन से
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अपि
अपि
399 वैपरीत्य का सूचक - परन्तु, यदि, ऐसा है तो, बल्कि नामेत्थ किञ्चि भवेय्या ति निग्रोधरुक्खाभिमुखो पायासि. - अपि नो किसानि मंसानि, जा. अट्ठ. 7.368; ङ. जा. अट्ठ. 2.168; अपि नाम मातरे पस्सेय्यन्ति, जा. अठ्ठ. अनुशीलन या पुष्टि का सङ्केतक - निश्चित रूप से, 3.239; ण. अपि नु/अपि नु खो प्रश्नसूचक, क्या ? - वास्तव में, क्योंकि - अपि मेय्य, एवं होति, अय्यं उपनन्द अपि नु सो पुरिसो अमुंबिळारभस्तं मदितं सुमद्दितं सुपरिमदितं. चीवरेन अच्छादेस्सामी ति, पारा. 327; अपाहं पुग्गलं असं म. नि. 1.181; अपिनु त्वं इमञ्चेव अनुत्तरं विज्जाचरणसम्पदं इध पाणातिपाति अदिन्नादायिं, म. नि. 3.259; अपि नु ...., दी. नि. 189; त. अपि नूनं भले ही, चाहे - अपि हनुका सन्ता, मुखञ्च परिसुस्सति, ध. प. अट्ठ.2.242; च. नूनहं मरिस्सं नाहं राजपुत्त तव हेस्सं जा. अट्ठ. 4.255; थ. प्रश्नसूचक निपा. के रूप में, प्रायः 'नु खो' के अपि पन प्रश्नसूचक, क्या ? - अपि पन ते ... दापित पूर्व में अथवा संबो. नाम से पूर्व में प्रयुक्त - अपि । अत्थीति, जा. अट्ठ 1.447; अपि पन ते किञ्चि दिन्नन्ति भन्ते. पिण्डो लभतीति, चूळव. 23; अपय्याहि चीवरं लद्धान्ति, पुच्छि, जा. अट्ठ. 5.437; द. अपिस्सु और तब, और इसके पाचि. 333; मिगराज नमो त्यत्थु, अपि किञ्चि लभामसे, अतिरिक्त, और तब आगे - अपिस्सु भगवन्तं इमा अनच्छरिया ध. प. अट्ठ. 1.84; छ, अनु. या आज्ञा की पुष्टि करने गाथायो पटिभंसु पुब्बे अस्सुतपुब्बा, महाव. 5; अपिस्सु वाणिजा वाले निपा. के रूप में - चेतासमथमनुयुत्तो, अपि मुद्धनि एका, नारियो पण्णवीसति .... जा. अट्ठ. 4.313; ध. तिहतु, थेरगा. 988; अपि भीरुके अपि जीवितुकामिके, अपिस्सुदं वास्तव में, नहीं तो, बल्कि - अपिस्सुदं मनुस्सा किम्पुरिसि गच्छ हिमवन्तं, जा. अट्ट. 4.255; ज. वाक्य के कित्तयमानरूपा विहरन्ति, दी. नि. 2.149; न. अपिहा नून अन्दर लघु उपवाक्य के प्रारम्भ में प्रयुक्त - यहां निश्चित रूप से, न तो ... न ही ... - अपिहा नून मयिपि, तक कि, भी-अदेय्यो, गहपति, आरामो अपि कोटिसन्थरेनाति, वनथो ते न विज्जति, थेरगा. 338; प. अप्पेव शायद, चूळव. 287; को दिस्वा नप्पसीदेय्य, अपि कण्हाभिजातिको, सम्भवतः - संसयत्थमम्हि अप्पेव अप्पेवनाम नु ति च, अभि. सु. नि. 568; न सक्का पुज सङ्घातुं इमेत्तमपि केनचि, प. 1158; सन्तं विधूम अनीघं निरासं, अप्पेविध अभिविन्दे अप. 1.133; ध. प. 196; झ. अपि खो पन/अपि च खो सुमेध, सु. नि. 464; फ. 'अपिच' के साथ सम्बद्ध, न केवल पन और तब, केवल, यद्यपि, दूसरी ओर, किसी भी स्थिति .... बल्कि - मयं खो ..., बहुकिच्चा ... अप्पेव सकेन में - अपिच खो पनाहं तुम्हे योग्गं कारेस्सामी ति, जा. अट्ठ. करणीयेन, अपि च देवानंयेव तावतिंसानं करणीयेन, म. नि. 2.137; अपि च खो पन सकेन सकेन लक्खणेन उपवहन्तीति, 1.321; अपि च देवानंयेव तावतिसानं करणीयेनाति, म. नि. मि. प. 66; ञ. प्रायः निषे. उपवाक्य के पश्चात् अपि अट्ठ. (मू.प.) 1(2).196; ब. अप्पेवनाम संभवतः निश्चित च रूप में प्रयुक्त – फिर भी, तो भी, परन्तु तब भी - अपि रूप से - संसयत्थमम्हि अप्पेव अप्पेवनाम न ति च, अभि. च मेत्थ पुग्गलवेमत्तता विदिताति, सु. नि. (प्र.) 164; दी. प. 1158; दिस्वान अत्तमनो उदग्गो पमुदितो नि. 1.159; अपि च खो महाराज ससा समझा पञत्ति पीतिसोमनस्सजातो अप्पेव नामायं पब्बजितो कञ्चि सारं वोहारो, मि. प. 22; ट. अपि च खो रूप में - इसके जानेय्या ति येनायरमा रोहणो तेनुपसङ्कमि. मि. प. 10; भ. विपरीत, लेकिन, किन्तु, परन्तु, इस सबके बावजूद, यह अप्पेव नं संभवतः, हो सकता है कि - गन्त्वान तं होने पर भी, फिर भी, इसके अतिरिक्त - अपि च ते पटिकरेमु अच्चयं, अप्पेव नं पुत्त लभेम् जीवित न्ति, जा. सम्फरसो पापको ति, सु. नि. (पृ.) 125; अपि च, ख्वस्स अट्ठ. 4.345; 2. गाथाओं में सामान्यतः प्रयुक्त 'पि' के तथेव पापकम्मं पवेदेन्ति, अ. नि. 2(1).194; ठ अपि चापि स्थानापन्न पूर्वाश्रयी निपा. के रूप में प्रयुक्त; क. के रूप में - और भी, इसके अतिरिक्त भी- अपि चापि भी, यहां तक कि ... भी - निसज्ज तत्थ इदमवोचासि सो पुरिमदिसं अगच्छि, सच्चप्पटिओ इसि साधुरूपो ति, सक्ये, कुहिं कुमारो अहमपि दचकामो, सु. नि. 690; दिस्वान जा. अट्ट, 4.345; ड. अपि चे/अपि चे पि रूप में - तण्ह अरतिं रगञ्च, नाहोसि छन्दो अपि मेथुनस्मि, सु. नि. और यदि, इसके अतिरिक्त भी यदि, और भी संभवतः - अपि 841; ख. प्रायः पूर्ववर्ती अकार के साथ सन्धि के प्रभाववश वस्ससतं जीवे, भिय्यो वा पन माणवो, सु. नि. 594; अपि चे 'पि' रूप में संक्षिप्तीकृत, यत्र-तत्र प्रश्नवाचक, अन्यत्र होति तेविज्जो, मच्चुहायी अनासवो, थेरगा. 129; ढ. अपि उपरिवत् - अन्जापि नून समणो गोतमो अवीतरागो अवीतदोसो नाम रूप में - सम्भवतः, शायद, हो सकता है कि - अपि अवीतमोहो, म. नि. 1.29; अज्जापि च अरुञवासं न
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400
अपि
विजहति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).136; ये ब्राह्मणा ये च समणा, अज्जे वापि वणिब्बका, जा. अट्ठ. 7.257; 3. 'पि' के रूप में सन्धि-प्रभाववश संक्षिप्तीकृत पूर्वाश्रयी निपा., अनेक तात्पर्यों में अनेक रूपों में प्रयुक्त, स्वरों से पूर्व 'प्' रूप में भी प्राप्त - ... पिसद्दो पि निपातेसु इच्छितब्बो, अपिसद्दो पि च निपातपक्खिको कातब्बो यत्थ किरियावाचकपदतो पुब्बो न होति, सद्द. 3.904; 3.क. 'चि' निपा. के समान प्रश्नवाचक सर्व. 'किं' के शब्दरूपों के उ. प. में प्रयुक्त, अनिश्चित सत्व, स्थान या वस्तु का संकेतक - जो कोई भी, जिस किसी को भी - कम्पि मझे भणति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).108-109; कम्पि चझं सन्धाय केवलिनं महसिं .... सु. नि. अट्ठ. 2.125; ख. 'अञ' आदि दूसरे सर्व के शब्दरूपों के पश्चात् भी प्रयुक्त, यहां तक कि ... भी- अविदूरे पनस्स अञोपि पञ्चसतमिगपरिवारो साखमिगो नाम वसति, जा. अट्ठ. 1.154; उदका पन अनुग्गतानि अञानिपि सरोगउप्पलादीनि नाम अत्थि, म. नि. अट्ट. (मू.प.) 1(2).83; ग. निपा. एवं ना. प. के पश्चात् भी प्रयुक्त - उपरिवत् - इतिपि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो ... बुद्धो भगवा, पारा. 1; इतिपि सो भगवाति आदीसु पन अयं ताव योजना-- सो भगवा अरह इति पि अरह, पारा. अट्ठ. 1.79; घ. वाक्य-विन्यास की किसी भी इकाई में सामान्य तथा प्रथम शब्द के उपरान्त प्रयुक्त, भी - दुस्सङ्गहा पब्बजितापि एके, अथो गहट्ठा घरमावसन्ता. सु. नि. 43; हत्थिपालो तायपि परिसाय आकासे ठत्वा धम्म देसेसि, जा. अट्ठ. 4.439; ङ, संख्यावाचक अथवा समुदायबोधक शब्दों के बाद में प्रयुक्त होने पर समग्रता या सम्पूर्णता का पुष्टिकारक, सब मिलाकर, कुल मिलाकर - मरन्ता उभोपि मरिस्साम, जा. अट्ट. 1.219; अञथत्तं अहु नेव पोत्थकेसुपि तीसु पि, चू. वं. 37.241; च. संभवतः, शायद, हो सकता है कि मैं यह कह सकता हूं कि - आयुञ्च वो कीवतको नु सम्म, सचेपि जानाथ वदेथ आयु. जा. अट्ठ. 4.399; अयं पब्बजित्वापि भरियं जहितुं न सक्कोती ति, गरहिस्सन्ति म. जा. अट्ठ. 6.77; छ.(1) प्रायः विधि के क्रि. रू. के पूर्व में प्रयुक्त - सिया खो पन भिक्खवे सत्थुगारवेनापि न पुच्छेय्याथ, सहायकोपि, भिक्खवे, सहायकस्स आरोचेतूति, दी. नि. 2.116; अयं मय्ह पुत्तानं पापकम्पि चिन्तेय्या ति, जा. अट्ठ. 1.132; छ.(2). कभीकभी विधि; के क्रि. रू. के अनन्तर भी प्रयुक्त -
कुज्झेय्यपि मे अयं जा. अट्ठ. 4.32; चण्डोयं राजा घातापेय्यापि मं, महाव. 365; छ.(3), भवि. के क्रि. रू. से पूर्व में प्रयुक्त- लक्खणेन अङ्केत्वा दासपरिभोगेनापि परिभजिस्सन्ति, जा. अट्ठ. 1.433; इदानि को जानाति, कित्तकापि आगमिस्सन्ति, जा. अट्ठ. 1.473; ज, यद्यपि ... तथापि, रहते हुए भी - अहं मनुस्सभूतोपि समानो तुम्हाकं गुणे न जानाभि, जा. अट्ठ. 1.257; एवं सन्तेपिस्स फलं तितकं जातं, जा. अट्ठ. 2.86%; जानन्तो पि न सक्का ति राजानं आह वड्डको, म. वं. 30.32; झ. फिर भी, तो भी, कम से कम - अप्पेव नाम पुत्तो सुदिन्नो तुम्हम्पि वचनं करेय्या ति, पारा. 18; अप्पेवनाम स्वेपि उपसङ्कमेय्याम कालञ्च समयञ्च उपादाया ति, दी. नि. 1.181; ञ. प्रश्न-सूचक वाक्यों में, यहां तक कि ... भी - को इमस्स उपगतस्स पिण्डकम्पि दस्सति, चूळव. 23; पारा. 282; भिक्खवे, अपि नायं अरिहो भिक्खु गद्धबाधिपुब्बो उस्मीकतोपि इमस्मिं धम्मविनये ति? म. नि. 1.186; ट. किसी कथानक की निरन्तरता बनाए रखने वाले सन्दर्भ में किसी नूतन उद्भावना या घटना का सूचक - सत्थापि अन्तरामग्गे रोयेव पिण्डपातं परिभुञ्जि, थेरोपि भत्तकिच्चावसाने दिवसे, .... जा. अट्ठ. 1.96; हंसराजापि अत्तनो वसनट्ठानमेव गतो, जा. अट्ठ. 1.205; ठ. पि ... पि - चाहे ... चाहे, भले ही - तंयेव वा परिमं रज्जसुखं समनुस्सरन्तो अरुअगतोपि रुक्खमूलगतोपि सुआगारगतोपि अभिक्खणं उदानं उदानेसि, चूळव. 319; इत्थियापि परिसस्सपि नामम्पि गोतम्पि पुच्छितब्बं अहोसि, म. नि. 2.1983; ड. पि ... पि न/ ... नो पि, प्रायः यदा एवं तदा निपा. के उपरान्त प्रयुक्त, जब भी .... तब भी नहीं- यदापि आसी असुरेहि सङ्गमो, जयो सुरानं असुरा पराजिता. तदापि नेतादिसो लोमहंसनो, किमभुतं ददु मरु पमोदिता, सु. नि. 686; तयि मारेन्तिपि अमारेन्तेपि न सक्का अज्ज मया मरणा मुच्चितुन्ति, जा. अट्ठ. 1.169; ढ.(1) पि न, पि ... न/पि ... अ .... यहां तक कि ... में भी नहीं - मया न तादिसो
खन्तिमेत्तानुद्दयसम्पन्नो मनुस्सेसुपि दिठ्ठपुब्बो, जा. अट्ठ. 1.155; अस्सोपि ते नानुच्छविको, ध. प. अठ्ठ. 2.46; ढ.(2). नापि, न ... न पि/न ... पि न तो ... न ही - इधे कच्चो न हेव खो निमित्तेन आदिसति, नापि मनुस्सानं ... अपि च खो ... आदिसति, दी. नि. 3.76; न खो, भिक्खु, ... नापि ... उपादानं, यो खो, .... म. नि. 3.64; इमे ते मनुस्सा नेव जातका, न दासकम्मकरा, नापि, म. नि. अट्ट (मू.प.) 1(1).303; ण.(1). पि खो,_खो से पूर्व में
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अपिण्डपातिक
401
अपिलाप
प्रयुक्त, वास्तव में, निश्चित रूप से - एतावतापि खो, आवसो, अरियसावको सम्मादिद्धि होति. म. नि. 1.59; चिरम्पि खो तं खादेय्य, गद्रभो हरितं यवं जा. अट्ठ. 2.91; ण.(2). च से पूर्व में प्रयुक्त, और ... (में) भी- सरणेसु ठितो पञ्च सीले पि चापरे, म. वं 25.110; भद्दवग्गियपब्बज्जं जटिलानं दमनं पि च, म. वं. 30.79; ण.(3). पि ताव, कम से कम, हर हालत में - एत्थपि ताव दिस्सति ... च. मि. प. 192; ण.(4). पि नाम, संभवतः .... भी - एवम्पि नाम भवेय्य, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).91; बहूनं वसनट्ठाने अफासुकम्पि नाम होति,ध. प. अट्ठ. 1.6; ण.(5). पि रे, अपमान, अवज्ञा या तिरस्कार पर जोर देने वाला - चर पिरे विनस्साति, पाचि. 185; त. कभी-कभी पुनरुक्ति जैसा, अथवा - हन्देहि दानि तरमानरूपो, दीघो हि अद्धापि अयं पुरत्था, जा. अट्ठ. 7.198; थ (1). कभी-कभी अपि या पि संवरणार्थक धातुओं या क्रि. ना. के पू. स. के रूप में भी प्रयुक्त - यतो चायं गङ्गा नदी पभवति यत्थ च महासमुई अप्पेति ..., स. नि. 1(2).165; थ.(2) कभी कभी धारणार्थक Vधा तथा उससे व्यु. शब्दों के पूर्व से प्रयुक्त - गङ्ग मे पिदहिस्सन्ति, न तं सक्कोमि ब्राह्मण, जा. अट्ठ.5.53; तमहं महासिन्धुं अपिधेतुं न सक्कोमि, तदे; थ.(3). निह या लुह तथा उससे व्यु, शब्दों से पूर्व में प्रयुक्त - अपिलटह मञ्जरिन्ति सपल्लवं असोककणिक कण्णे पिलिन्धित्वाति वृत्तं होति, जा. अट्ट. 5.396. अपिण्डपातिक त्रि., पिण्डपातिक का निषे. [अपिण्डपातिक]. 'पिण्डपातिक भिक्षुसमूह से भिन्न समूह वाला भिक्षु, भिक्षाटन कर भोजन ग्रहण न करने वाला भिक्षु - किं पन । अपिण्डपातिकानं अयं नयो न लभतीति, उदा. अट्ठ. 164. अपिण्डित त्रि., पिण्ड के भू. क. कृ. का निषे. [अपिण्डित], पिण्ड के आकार को अप्राप्त, एक साथ मिलाकर पिण्ड का एक गोला न बनाया हुआ - ... अनुत्तण्डुलं अकिलिन्नं अपिण्डितं सुविसद, ... पक्खिपितब्बो, पारा. अट्ठ. 2.256. अपितिक त्रि., ब. स. [अपितृक], बिना पिता वाला, पिता से रहित - अमातिको अपितिको, रुक्खमूलस्मि झायतीति, जा. अट्ट. 5.240. अपिदहन नपुं., पिदहन का निषे. [पिधान], अनाच्छादन, अनियन्त्रण, असंयम - ... यो असंवरो, अथकनं अपिदहनन्ति अत्थो, ध. स. अट्ट. 421. अपिधान नपुं.. [अपिधान], आच्छादन, ढक्कन - अपिधानं निपतति, महाव. 278-79; तिणचुण्णेहिपि पंसुकेहिपि
ओकिरिय्यति ... पे...... ... अपिधानान्ति, चूळव. 241; परसावकुम्भी आपरुता दुग्गन्धा होति... अपिधानन्ति, चूळव. 262 अपिधीयति अपि + vधा के कर्म. वा. का वर्त., प्र. पु., ए. व., ढक दिया जाता है, आच्छादित कर दिया जाता है, अदृश्य बना दिया जाता है - नवेन सुखदुक्खेन, पोराणं अपिधीयति, जा. अट्ठ. 2.130; पोराणं अपिधीयतीति, ..., नवेन हि सुखेन पोराणं सुखं, जा. अट्ठ. 2.130. अपिधेतु अपि + vधा का निमि. कृ., ढक देना, आच्छादित कर देना - अपिधेतुं महासिन्धुं तं कथं सो भविस्सति, जा. अट्ठ. 5.53; तमहं महासिन्धुं अपिधेतुं न सक्कोमि, तदे.. अपिरत्ते अ०, सप्त. वि., प्रतिरू. निपा. [वै. अपिरात्रे]. तड़के, बहुत सबेरे, ऊषा काल में, प्रत्यूष वेला में - अपि रत्तेव मे मनोति अपि बळवपच्चूसे सुपिनं पस्सन्तिया विय मे मनो, जा. अट्ठ. 7.336. अपिळद्ध/अपिळन्ध त्रि., पिळद्ध का निषे. [अपिनद्ध].
शा. अ. न छेदा हुआ, न ढका हुआ, अनाच्छादित, ला. अ. अनलंकृत, असुसज्जित, नहीं सजाया हुआ - अपिळन्धाव सोभसीति त्वं इमेहि अलङ्कारेहि अनलङ्कतापि अतनो रूपसम्पत्तियाव सोभसि, वि. व. अट्ठ. 137. अपिलद्धपुब्ब/अपिळन्द्धपुब्ब त्रि., ब. स. [अपिनद्धपूर्व]. वह अलङ्करण, जिसके द्वारा किसी को पूर्वकाल में अलङ्कत नहीं किया गया हो - यथा च पकतिया अपिळन्धपुब्बं मालं पिळन्धित्वा, ध. स. अट्ठ. 261. अपिळन्धन नपुं.. संभवतः अपि + नह या ळह से व्यु., क्रि. ना., अट्ट के अनुसार पिळन्धन का निषे., अलङ्करण के लिए अनुपयुक्त अलङ्कार - दहरा वियलङ्कार, धारेति अपिळन्धनं, जा. अट्ठ. 6.303; अपिळन्धनन्ति पिळन्धितुं अयुत्तं अलङ्कार धारेति, जा. अट्ठ. 7.303; वातस्स वेगेन च सम्पकम्पिता, भुजेस माला अपिळन्धनानि च, वि. व. 1032; स्थरस घोसो अपिळन्धनान च, खुरस्स नादो अभिहिसंनाय च, वि. व. 1024; अपिळन्धनान चाति अकारो निपातमत्तं वि. व. अट्ठ. 233-34. अपिळयह अपि + निह का पू. का. कृ. [अपिनह्य], बांध कर, अन्तर्जटित कर, पहन कर - ओसित्तवण्णं परिदयह सोभसि, कुसग्गेरतं अपिळयह मञ्जरि जा. अट्ठ. 5.396; अपिलव्ह मञ्जरिन्ति सपल्लवं असोकमञ्जरि कण्णे पिळन्धित्वाति वुत्तं होति, तदे.. अपिलाप पु., पिळु से व्यु., पिलाप का निषे. अथवा अपि + लप से व्यु. [अप्लाव/अपिलाप], शा. अ. नहीं बहना,
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402
अपिलापन
अपिहित बहाव का अभाव, छलांग-रहित, ला. अ. अविस्मरण, नहीं नहीं देता है, स्मृति में ला देता है - सति कुसले धम्मे भूल जाना, पुनः पुनः बोलना - अपिलापे करोति अपिलापेति. अपिलापेति-इमे चत्तारो सतिपट्टाना, ..., ध. स. अट्ठ. म. नि. टी. (मू.प.) 1(1).155.
166; सति
उप्पज्जमाना अपिलापन नपुं.. पिळु के प्रेर. से व्यु. पिलापन का निषे. कुसलाकुसलसावज्जानवज्जहीनपणीतकण्हसुक्कसप्पअथवा अपि + Vलप से व्यु. [अप्लावन]. शा. अ. बाढ़ या टिभागधम्मे अपिलापेति, मि. प. 35. जल-प्रलय में निमग्न नहीं हो जाना या डूब न जाना, बार- अपिवन्तियो स्त्री., vपा के वर्त. कृ. का प्र. वि., ब. व., बार दुहराना ला. अ. अविस्मरण, नहीं भूल जाना, अप्रभोष (पिबन्तियो) का निषे. [अपिबन्त्यः], नहीं पी रहीं, जल का - अपिलापनं असम्मोसो निमुञ्जित्वा विय आरम्मणस्स पान न ही कर रहीं - यथा ता तिणं अखादन्तियो पानीयं ओगाहणे वा, नेत्ति. अट्ठ. 220; सा पजाननटेन पञ्जा, अपिवन्तियो सयन्ति, तथा सयन्तीति अत्थो, जा. अट्ठ. 5.18. यथादिट्ठ अपिलापनढेन सति, नेत्ति. 15; आरम्भढेन वीरियं अपिसुण त्रि., पिसुण का निषे., तत्पु. स. [अपिशुन], शा. अपिलापनढेन सति अविक्खेपढेन समाधि, पजाननटेन पञ्जा, अ. चुगली न करने वाला, ला. अ. चुगलखोरी से रहित, नेत्ति. 45; - किच्च नपुं, तत्पु. स., अविस्मरण का कृत्य, सज्जन, निष्ठावान् व्यक्ति - नानुम्मत्तो नापिसुणो, नानये नहीं भूल जाने का कार्य, स्मृति को जागृत रखने की क्रिया नाकुतूहलो, जा. अट्ठ. 2.347; नापिसुणोति एत्थापि यो - सतिया च अपिलापनकिच्चं साधेन्तिया लद्धपकारो हुत्वा पिसुणो होति, तदे, अपिसुणं वाचं निस्साय पिसुणा वाचा सक्कोति, विभ. अट्ठ. 84; - ता स्त्री., अपिलापन का भाव. पहातब्बाति, म. नि. 2.26. [अप्लावनता], अविस्मरण की अवस्था, नहीं भूल जाना, अपिह त्रि., पिहा का निषे., ब. स. [अस्पृह], स्पृहा या अविप्रमोष, स्मृति की जागरूकता - सति सरणता धारणता इच्छा से रहित, कामनाओं से मुक्त - अपिहा नूनं मयिपि, अपिलापनता असम्मुस्सनता सति सतिन्द्रियं सतिबलं वनथो तेन विज्जति, थेरगा. 338; - नसील त्रि., ब. स. सम्मासति, ध. स. 14; 23; 290; तेनेव सद्धा ओकप्पनाति अस्पृहणशील], स्वभाव से ही लोभ-लालच से मुक्त, स्वभाव वुत्ता, सति अपिलापनताति, समाधि अवहितीति, पञआ। से ही कामनाओं से रहित - अपिहालूति अपिहनसीलो, परियोगाहनाति, ध. स. अट्ठ. 188; - भाव पु., तत्पु. स... पत्थनातण्हाय रहितोति वुत्तं होति, सु. नि. अट्ट. 2.241. उपरिवत् - अनुपविसनसङ्घातेन ओगाहनढेन अपिलापनभावो अपिहा स्त्री., पिहा का निषे. स॰ [अस्पृहा], कामना या तृष्णा अपिलापनता, ध. स. अट्ठ. 191; - रस त्रि., ब. स., विस्मृत का अभाव - अपिहा नूनं मयिपि, वनथो ते न विज्जति, न कर देने का कार्य करने वाला, वह, जिसका कार्य स्मृति थेरगा. 338; - गिध त्रि., ब. स. [अस्पृहगृध], ईर्ष्या, द्वेष को विलुप्त न होने देना है - इमे चत्तारो सतिपट्ठानाति एवं लोभ-लालच से रहित, राग और द्वेष से मुक्त चित्त वाला वित्थारो, अपिलापनरसा, किच्चवसेनेव हिस्स एतं लक्खणं - विचरन्तं तमद्दक्खिं पिण्डत्थं अपिहागिधं, अप. 2.126; - थेरेन वुत्तं. म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).90; - लक्ख ण त्रि.. लु त्रि.. [अस्पृहालु], अत्यधिक तृष्णा या आसक्ति को न ब. स. [अप्लावनलक्षण], वह, जिसका लक्षण स्मृति को रखने वाला - अपिहालूति अपिहनसीलो, पत्थनातण्हाय मिटाना या धुंधला करना न हो- अपिलापनलक्खणा सति, रहितोतिवुत्तं होति, सु. नि. अट्ठ. 2.241; पतिलीनो अकुहको, तस्सा सतिपट्टानं पदट्ठान, नेत्ति. 25; सा पनेसा अपिहालु अमच्छरी, सु. नि. 858; दब्बो चिररत्तसमाहितो, उपट्ठानलक्खणा, अपिलापनलक्खणा वा, म. नि. अट्ठ. अकुहको निपको, अपिहालु, स. नि. 1(1).217; - लुक त्रि., (मू.प.) 1(1).89; अपरो नयो - अपिलापनलक्खणा सति, अपिहालु से व्यु., उपरिवत् - तेन अलङ्करणेन ध. स. अट्ठ. 167.
अनपेक्खणसीलो, अपिहालुको, नित्तण्हो, विभूसनहाना विरतो अपिलापिस पु., व्य. सं., एक चक्रवर्ती राजा का नाम - सच्चवादी एको चरेति, सु. नि. अट्ठ. 1.89.
छळासीतिम्हितो कप्पे, अपिलासिसनामको, अप. 1.209. अपिहित' त्रि., पिहित का निषे. [अपिहित], खुला हुआ, नहीं अपिलापेति प + Vलप के प्रेर. के वर्त, प्र. पु., ए. व. का वर्जित, नहीं बन्द किया हुआ - अनोवटोति अपिहितो निषे. [अप्रलापयति/अभिलापयति], शा. अ. छिपाकर अवारितो अप्पटिक्खित्तो, पाचि. अट्ठ. 58; - द्वारता स्त्री., नहीं रखवाता है, टालमटोल नहीं कराता है, बार बार भाव., द्वारों का खुला हुआ होना, द्वारों का बन्द न रहना - दुहराता है; ला. अ. विलुप्त नहीं होने देता है, भुलाने अनावटद्वारतायाति अपिहितद्वारताय, दी. नि. अट्ठ. 3.126.
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अपिहित
403
अपुञ
अपिहित त्रि., आ + अपि + vधा से व्यू. [आपिहित], बन्द, अवरुद्ध - सब्बे अपिहिता द्वारा, ओरुद्धोस्मि यथा दिजो. जा. अट्ट, 4.4; अपिहिताति थकिता, तदे... अपीठसप्पी त्रि., पीठसप्पी का निषे. [अपीठसर्पिन्], वह, जो लंगड़ा लूला या विकलाङ्ग नहीं है, अविकलाङ्ग - तात तेमियकुमार मयं तव अपीठसप्पिंआदिभावं जानाम, जा. अट्ठ. 6.9. अपीत त्रि., vपा के भू, क. कृ. पीत का निषे. [अपीत], नहीं पिया हुआ, शुद्ध - अहि मिगेहि पठमतरं अपीतानि अनुच्छिट्ठोदकानि, जा. अट्ठ. 3.383; - पुब्ब त्रि., ब. स. [अपीतपूर्व], वह जल, जिसे पूर्वकाल में नहीं पिया गया है, पहले कभी न पिया गया -- अपीतपब्बानि च पाणीयानि पिवेय्यान्ति, अ. नि. 3(1).225. अपीळियमान त्रि.. पीळ के कर्म. वा. का वर्त. कृ. [अपीड्यमान], पीड़ा द्वारा पीडित नहीं किया जा रहा - अपरापरं परिवत्तनं अकरोन्तो अपीळियमानो अक्खियमानो विय अधिवासेसि. उदा. अट्ठ. 325; अविहञमानोति अपीळियमानो, सम्परिवत्तसायिताय वेदनानं वसं अगच्छन्तो, स. नि. अट्ठ. 1.71. अपुच्चण्डता स्त्री., भाव. [अपूत्यण्डता]. शा. अ. सड़े गले अण्डे की अवस्था में न रहना, ला. अ. स्वस्थ मानसिक स्थिति -- अपुच्चण्डताय समापन्नो, भब्बो अभिनिभिदाय, भब्बो सम्बोधाय, म. नि. 2.21; अपुच्चण्डतायाति अपूतिअण्डताय, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.23. अपुच्छित त्रि., पुच्छ के भू. क. कृ. पुच्छित का निषे.. नहीं पूछा गया, अयाचित, अप्रार्थित - अनानुपुट्ठोति अपुच्छितो, सु. नि. अठ्ठ 2216; अनानुपुट्ठोति अपुट्ठो अपुच्छितो अयाचितो
अनज्ोसितो अपसादितो, महानि. 48. अपुच्छितब्ब त्रि., vपुच्छ के सं. कृ., पुच्छितब्ब का निषे. [अपृष्टव्य], नहीं पूछने योग्य, प्रश्न करने हेतु अनुपयुक्त - महाराज, विसज्जको अत्थी ति अपछिछतब्बं पुच्छि, किस्स
आकासो निरालम्बो, मि. प. 272. अपुञ 1. त्रि.. ब. स., कलुषित व्यक्ति, पाप करने वाला, पापमय, पुण्य या कुशल कर्मों से रहित - अपुझंचे सद्धार अभिसङ्करोति, स. नि. 1(2).74; अपुज चे सङ्कारन्ति द्वादसचेतनाभेदं अपुजाभिसङ्घारं अभिसङ्घरोति. स. नि. अट्ट. 2.69; 2. नपुं.. निषे. स. [अपुण्य], पाप कर्म, अकुशल कर्म - अपुञाकुसलं कण्हं कलुसं दुरितागु च, अभि. प. 84; अपुजवुच्चति सब्ब अकुसलं. महानि. 64; बहुञ्च त्वं,
देवते, अपुजंपसवेय्यासि. पाचि. 52; - कर त्रि०, उप. स. [अपुण्यकृत]. पुण्यकर्म न करने वाला, अकुशल कर्मो को करने वाला - अप्पस्सुतापुञ्जकरो, अप्पस्मि इध जीविते, इतिवु. 44; अपुञ्जकरोति ततो एव अरियधम्मस्स अकोविदताय किब्बिसकारी पापधम्मो, इतिवु. अट्ठ. 193; - किरिया स्त्री., कर्म. स. [अपुण्यक्रिया], पुण्य न देने वाला कर्म, स. उ. प. के रूप में ही प्राप्त; -- वत्थूनि नपुं.. प्र. वि., ब. व., अपुण्य कराने वाले प्राणि-हत्या आदि दस प्रकार के दुराचार - अपुञ्जकिरियवत्थूनि दस होन्तीति दीपये, सद्धम्मो. 54; - ता स्त्री., अपुञ का भाव. [अपुण्यता]. पुण्य कर्मों को न करने की अवस्था, पापमयता - अप्पपुञताति अपुञता अकतकल्याणता, पे. व. अट्ठ. 236; - पटिपदा स्त्री., कर्म. स., दुराचार का मार्ग, पापमय मार्ग - निरयं पापकम्मन्ताति अपुञप्पटिपदा, ... तत्थ या च पुञप्पटिपदा या च अपुञप्पटिपदा ..., नेत्ति. 79; - भागिय त्रि., अपने पाप कर्मों के अनुरूप रहने वाला - दुच्चरितपारिपूरिया अपाये निवत्तस्स अत्तभावो अपुञभागियो नाम, अ. नि. अट्ठ. 3.137; वेदियमानो तज्जं तज्ज अत्तभावं अभिनिब्बत्तेति पुञभागियं वा अपुञभागियं वा, अ. नि. 2(2).116; - लाभ पु.. तत्पु. स. [अपुण्यलाभ], अकुशल कर्मों के फलस्वरूप नरक आदि में पुनर्जन्म के रूप में अकुशल-विपाक का लाभ -- अपुञलाभ न निकामसेय्यं, निन्दं ततीयं निरयं चतुत्थं ध, प. 309; अपुञलाभन्ति अकुसललाभ, ध. प. अट्ठ. 2.275; अपुञलाभो च गती च पापिका, भीतस्स भीताय रती च थोकिका, ध. प. 310; अपुञलाभो चाति एवं तस्स अयञ्च अपुञलाभो, तेन च अपुञ्जेन निरयसखाता पापिका गति होति, ध. प. अट्ठ. 275; - वन्तु त्रि.. [अपुण्यवत्]. पुण्यों का संग्रह न करने वाला, पुण्यकर्म न करने वाला, पापी - ... पुञ्जवन्तं वा अपुञवन्तं वा ब्रह्मचरियवन्तं वा अब्रह्मचरियवन्तं वा ... पब्बाजेतुं वाति, म. नि. 2.338; - वत्थु नपुं.. कर्म, स., अपुण्य कर्म या अकुशलकर्म, पुण्यरहित प्राणातिपात आदि दस अकुशलधर्म - दस चापुञवत्थूनि यथा फलवसेन हि, सद्धम्मो. 75; - जाभिसङ्खार पु., तत्पु. स. [अपुण्याभिसंस्कार], अकुशल कर्मों का समुच्चय या राशि, अकुशल कर्मों का चेतना द्वारा अभिसंस्करण -- तयो सवारा-पुञाभिसङ्घारो, अपुञाभिसङ्घारो, आनेजाभिसङ्घारो, दी. नि. 3.174; अपुओ च सो अभिसङ्घारो चाति अपुञाभिसवारो, दी. नि. अट्ठ. 3.164; .... न अपआभिसवारं अभिसङ्करोति न आनेज्जाभिसङ्घारं अभिसङ्करोति, स. नि.
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अपुट्ठ
404
अपुप्फित 1(2).74; - ञायतन नपुं.. तत्पु. स. [अपुण्यायतन], अपुनगेय्य त्रि., पुनगेय्य का निषे. [अपुनर्गेय], फिर दुबारा अपुण्य का आगमन-द्वार, अपुण्य की आधार-स्थली - एतं न दुहराने योग्य अथवा न पाठ करने योग्य - अपुञायतनं विवज्जये, उम्मादनं मोहनं बालकन्तं, सु. नि. बहलाधिकारतो असमत्थेहि पि केहिचि होति - अपनगेय्या 401; - पग त्रि., उप. स. [अपुण्योपग], अपुण्य कर्म गाथा, मो. व्या. 3.12. के विपाक के समीप पहुंच रहा, अकुशल विपाक को कर अपुनप्पुनं अ., अकार निपातमात्र, नहीं बारम्बार, नहीं और रहा - अपुञ्जूपगं होति विज्ञाणं, स. नि. 1(2).74. आगे - नाहं पुनं न च पुन, न चापि अपुनप्पुन, जा. अट्ठ. अपुट्ठ त्रि., vपुच्छ के भू. क. कृ. पुट्ठ का निषे. [अपृष्ठ]. नहीं 1.479; तत्थ न चापि अपुनप्पुनन्ति अकारो निपातमत्तो, पूछा हुआ, वह, जिसे किसी ने पूछा नहीं है - अपुट्ठोति जा. अट्ठ. 1.480... मूलपदं, तस्स अपुच्छितोति अत्थो, महानि. अट्ठ. 155. अपुनमव पु.. पुनब्भव का निषे. [अपुनर्भव]. शा. अ. अपुत्त पु., निषे. तत्पु. स. [अपुत्र]. वह, जो पुत्र नहीं है, पुत्र पुनर्जन्म का अभाव, ला. अ. पूर्ण विमुक्ति, निर्वाण - ते से भिन्न कोई और - अपुत्तं पुत्तं इव आचरति पुत्तीयति दुत्तरं ओघमिमं तरन्ति, अतिण्णपुब्बं अपुनभवाया ति, सु. सिस्सं आचरियो, सद्द. 2.587; - क' त्रि.. ब. स. [अपुत्रक, नि. 275; ये च नं विनोदेन्ति, ते दुत्तरं ओघमिमं तरन्ति पुत्ररहित, बिना पुत्रों वाला - ... राजा अपुत्तको हुत्वा अतिण्णपुब्बं अपुनभवाय, सु. नि. अट्ठ. 2.37; मग्गञ्च अत्तनो इथियो पुत्तपत्थनं करोथा ति आह, जा. अट्ठ 2.272; लद्धा अपुनभवाय, न पुनप्पुनं जायति भूरिपओ ति, स. नि. तं अपुत्तको सेट्टि तस्स मातापितून धनं दत्वा पुत्तं कत्वा 1(1).203; ... अपुनभवायाति अपुनब्भवाय मग्गो नाम अग्गहेसि. म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).284; सो हि राजकुमारो निब्बानं तं लभित्वाति अत्थो, स. नि. अट्ठ. 1.227; - भूत अपुत्तको, सुतञ्चानेन अहोसि, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.229; त्रि.. [अपुनर्भवभूत], पुनर्जन्म से रहित, पुनर्जन्म न लाने - क' पु., व्य. सं., एक व्यापारी का नाम - हनन्ति भोगाति वाला - अभिनिब्बत्ति च नाम यस्मा पुनब्भवभूतापि इमं धम्मदेसनं ... विहरन्तो अपुत्तकसेटिं नाम आरम अपुनभवभूतापि, पारा. अट्ठ. 1.100; अ. नि. अट्ट 3.202. कथेसि.ध. प. अट्ट, 2.325; - तिका स्त्री., बिना पुत्रों वाली अपुनरावती त्रि., पुनरावत्ती का निषे. [अपुनरावर्तिन, स्त्री- दुग्गताहं पुरे आसिं, विधवा च अपुत्तिका, थेरीगा. गृहस्थ जीवन/सांसारिक जीवन में पुनः वापस न लौटने 122; सा पन अपुत्तिका, तेनस्सा थऑनस्थि, जा. अट्ठ. वाला - गिही येव ... यदा अपुनरावत्ति होति तदा सो 5.425; - कं नपुं., प्रायः सापतेय्यं के विशे के रूप में पब्बाजेतब्बो, मि. प. 231; - त्तिता स्त्री.. अपुनरावत्ति का प्रयुक्त, उत्तराधिकारी-रहित, वारिस-रहित - मा नो अपत्तकं भाव., गृही जीवन में पुनः वापस न लौटना, गृही या सापतेय्यं लिच्छवयो अतिहरापेसुन्ति, पारा. 18; मा नो । सांसारिक जीवन के प्रति अनासक्तिभाव- अगेधता निरालयता अपुत्तकं सापतेय्यं लिच्छवयो अतिहरापेसुन्ति मयज्हि लिच्छवीनं चागो पहानं अपुनरावत्तिता सुखुमता ... बुद्धधम्मस्स, मि. गणराजूनं रज्जे वसाम, पारा. अट्ठ. 1.163; - कता स्त्री., प. 257; - गमनदीपनीयमकगाथा स्त्री.. जिना. के एक भाव. [अपुत्रकता]. पुत्रहीनता, सन्तानरहितता, निपूतापन, गाथासमुच्चय का शीर्षक, जिना. (12) 78-86. वंशोच्छेद - अपुत्तकताय पटिपन्नो समणो गोतमो, महाव. अपुनागमन नपुं.. पुनागमन का निषे॰ [अपुनरागमन], शा. 48; - भाव पु., किसी के पुत्र या वारिश न होने की दशा अ. इस लोक में पुनः नहीं आना, पुनर्जन्म का न होना, - अथ नं विनिच्छय नेत्वा अपुत्तभावं कत्वा नीहरापेसि, जा. वापस न लौटना, ला. अ. निर्वाण - येसु पमत्तो अपनागमनं. अट्ठ. 5.464; - सुत्त नपुं., स. नि. के दो सुत्तों के शीर्षक, अनागतो पुरिसो मच्चुधेय्या ति, स. नि. 1(1),26; अपुनागमनं स. नि. 1(1).107-109; तथा 109-111; - सेद्विवत्थु नपुं.. ... तेभूमकवट्टसङ्घाता मच्चुधेय्या अपुनागमनसतातं निब्बानं ध. प. अट्ठ. के एक कथानक का शीर्षक, ध. प. अट्ठ. अनागता, स. नि. अट्ठ. 1.57. 2.325-327.
अपुष्फित त्रि., पुप्फित का निषे. [अपुष्पित], फूलों को अपुथुज्जनसेवित त्रि., पुथुज्जनसे वित का निषे. धारण न किया हुआ, नहीं फूला हुआ - द्वान नपुं.. [अपृथग्जनसेवित], सामान्य अज्ञानी जनों द्वारा नहीं अपनाया [अपुष्पित स्थान], ऐसा स्थान, जहां पुष्प फूले न हों - गया, अज्ञानियों द्वारा अगृहीत - अकम्पियं अतुलियं, मूलतो पडाय याव अग्गा अपुफितद्वानं नाम नत्थि म. नि. अपुथुज्जनसेवितं, थेरीगा. 201.
अट्ठ. (मू.प.) 1(2).148.
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405
अपुब्ब अपुब्ब त्रि., ब. स. [अपूर्व]. एकदम नया, सर्वथा अभिनव, जो पहले स्थित नहीं था - सलाकग्गं च पासाद, अपुब्बं येव कारयि, चू. वं. 49.32; महाधातुकथायं अपुब्बं नत्थि अप्पमत्तिकाव तन्ति अवसे सा, ध. स. अट्ठ. 53; एवमत्थन्तिआदीसुपि अपुब् नत्थि अनन्तरसुत्ते वुत्तनयेनेव वेदितब्बं उदा. अट्ठ. 352; - पदवण्णना स्त्री., तत्पु. स. [अपूर्वपदवर्णन], पूर्व में अप्राप्त या अव्याख्यात पदों की व्याख्या - अयं ताव चतूसु अभिभायतनेसु अपुब्बपदवण्णना, ध. स. अट्ठ. 233; अयमेत्थ अपुब्बपदवण्णना, ध. स. अट्ठ. 236; अभिसम्बुद्धोति वदामीति एत्थ अपुब्बपदवण्णनं, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).51; तेस दानि करिस्सामि, अनुपुब्बपदवण्णन, पारा. अट्ठ. 2.198; - ब्बानुत्तानपदवण्णना स्त्री., तत्पु. स., पूर्व में अव्याख्यात अस्पष्ट पदों का वर्णन या व्याख्या - अपुब्बानुत्तानपदवण्णनामत्तमेव हि इतो परं करिस्साम, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).205; - ब्यपुम त्रि., पुम का निषे०, पुलिङ्ग से भिन्न लिङ्ग वाला, स्त्रीलिङ्ग अथवा नपुं. लिङ्ग वाला - अनुक्कमो परियायो अनुपुब्ब्यपुमे कमो, अभि. प. 429. अपुरक्खत त्रि., पुर + vकर के भू. क. कृ. का निषे. [अपुरस्कृत], शा. अ. आगे या सामने नहीं रखा गया, ला. अ. 1. वह, जिस पर विशेष ध्यान न दिया गया हो, उपेक्षित, तृष्णा अथवा मिथ्या दृष्टि से सर्वथा अप्रभावित - तं तस्स अपुरक्खतं, तस्मा वादेसु नेजति, सु. नि. 865; न तण्हाय वा न दिहिया वा परिवारितो चरतीति तं तस्स अपरक्खतं, महानि. 182; तं रागादिवज्जं तस्स अरहतो अपुरक्खतं, महानि. अट्ठ. 281; ला. अ. 2. अप्रभावित, अनभिभूत, तटस्थ - तस्मा विनेय्य सारम्भ, झायेय्य अपुरक्खतो ति, थेरगा. 37; कप्पाकप्पेस कुसलो, चरेय्य अपुरक्खतो ति, थेरगा. 251. अपुराण त्रि., पुराण का निषे. [अपुराण], वह, जो पुराना न हो, नया, अभिनव; - णं नपुं.. - अपोराणं वत भो राजा, सब्बभुम्मो दिसम्पति, जा. अट्ठ. 6.52; - वण्णी त्रि., वृद्ध व्यक्ति जैसा स्वरूप न रखने वाला, तरुण या नवयुवक सा दिखने वाला - अमस्सुजातो अपुराणवण्णी, आधाररूपञ्च पनरस कण्ठे, जा. अट्ठ. 5.192. अपुरे अ., पुरे निपा. का निषे.. नहीं सामने, नहीं आगे, नहीं पूर्वकाल में, नहीं पहले - अपुब्बं अचरिमन्ति अपुरे अपच्छा एकतो नुप्पज्जन्ति, दी. नि. अट्ठ. 3.73; अपुब्बं अचरिमन्ति अपुरे अपच्छा एकक्खणेयेव, अ. नि. अट्ट, 3.151.
अपूप/पूर्व अपुरेक्खरान पुरे + कर के आत्मने, वर्त. कृ., पुरेक्खरान
का निषे. [अपुरस्कुर्वत], शा. अ. सामने या आगे न करता हुआ, विशेष ध्यान न देता हुआ, विशेष महत्व न देता हुआ, ला. अ. उपेक्षा कर रहा, अप्रभावित हो रहा - कामेहि रित्तो अपुरेक्खरानो, कथं न विग्गरह जनेन कयिरा, खु. नि. 850; अपुरेक्खरानोति आयति अत्तभावं अनभिनिब्बत्तेन्तो, सु. नि. अट्ठ. 2.238; एवं खो, गहपति, अपुरेक्खरानो होति, महानि. 146; अपुरेक्खरानोति वट्ट पुरतो अकुरुमानो, महानि. अट्ठ. 248. अपूजनीय त्रि., पूज के सं. कृ., पूजनीय का निषे. [अपूजनीय], पूजा अथवा सम्मान-सत्कार न पाने योग्य, उपेक्षा करने योग्य, स्वीकार न करने योग्य, ग्रहण न करने योग्य - तस्मा तादिसी सद्दरचना अपूजनीया, सद्द. 1.54; तत्थ अपूजन्ति अपूजनीयं, जा. अट्ठ. 3.71. अपूति त्रि., पूति का निषे. [अपूति], वह, जो दुर्गन्ध-युक्त अथवा सड़ा-गला न हो, सुदृढ, ठोस, पवित्र - पञ्च बीजजातानि अखण्डानि अपूतिकानि अवातातपहतानि सारादानि सुखसयितानि स. नि. 2(1).50; अपूतिकानीति उदकतेमनेन अप्पूतिकानि, स. नि. अट्ट. 2.241; - अण्डता स्त्री., अपूतिअण्ड का भाव., शा. अ. अण्डे की सड़ा-गला न रहने वाली दशा, ला. अ. सामान्य स्थिति, स्वस्थ उद्भव, स्वस्थता - अपुच्चण्डतायाति अपूतिअण्डताय, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.23; - क त्रि., अपूति से व्यु. [अपूतिक], स्वच्छ, पवित्र, दुराचार से मुक्त, दुर्गन्ध एवं सड़न-गलन से रहित - होति बलवं बन्धनं, दळ्हं बन्धन, थिर बन्धनं. अपूतिकं बन्धन, थूलो, कलिङ्गरो, म. नि. 2.121; गम्भीररूपो ते वणो सलोहितो, अपूतिको वणगन्धो महा च, अपूतिकोति पूतिमंसरहितो, जा. अट्ठ. 5.189; - कायकम्मन्त त्रि.. ब. स., विशुद्ध या पवित्र कायकर्म करने वाला - तस्स अपूतिकायकम्मन्तस्स अपूतिवचीकम्मन्त स्स अपुतिमनोकम्मन्तरस भद्दकं मरणं होति. .... अ. नि. 1(1).296. अपूप/पूर्व पु.. [अपूप/पूप], पुआ, पिट्ठा - अथो सत्तु च गन्धो च पूपा पुपा तु पिट्ठको, अभि. प. 463; मंसोदनं. सप्पिपायासं भुञ्ज, खादस्सु च त्वं मधुमासपूवेजा. अठ्ठ. 5.19; - खादन नपुं.. तत्पु. स. [अपूपखादन], पुए का खाना, पुए का भोजन करना - आपूपिको ति एत्थ अपूपसद्देन अपूपखादनं विय ..., सारत्थ. टी. 1.71; - जाति स्त्री., तत्पु. स., एक प्रकार का पुआ, पुए का एक प्रभेद;-तीहि
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अपूरणीयमाव
तृ. वि. ब. व. नानग्गरसमतेहि नानग्गापूपजातीहि चू वं. 85.115 भक्खणसील / मक्खसील त्रि. ब. स. [अपूपभक्षणशील ] पुए खाने का शौकीन यथा अपूपभक्खनसीलो आपूपिको अ. नि. टी. 2.210: अथ वा सीलट्ठेन इक-सद्देन गमियत्थत्ता किरियावाचकस्स सद्दस्स अहस्सनं दट्टब्बं यथा अपूपभक्खनसीलो आपूपिको ति, विभ. मू. टी. 68.
-
406
415;
अपूरणीयभाव पु. [अपूरणीयभाव] कभी भी संतुष्ट न होने की प्रकृति, अपूरणीयता असन्तुष्टिभाव एवं तव्हाय अपूरणीयभावं जानाहीति दीपेति, जा. अट्ठ. 4. 101. अपूरेसिपूर का अय प्र. पु. ए. व. भर दिया, भरपूर कर दिया खिप्यं पत्तं अरेसि, सम्पजानो पटिस्सतो, सु. नि. अपूरथिं उ. पु. ए. व. पसन्नचितो सुमनो पानीघटमपुरथि, अप. 2.77. अपेक्ख / अपेख त्रि. ब. स. अपेक्षा रखने वाला, इच्छा करने वाला, ध्यान में रखने वाला, केवल स. उ. प. के रूप में ही प्राप्त. अपेक्खक त्रि, अप इक्ख से व्यु, व्याकरण के विशेष सन्दर्भ में प्रयुक्त [अपेक्षक]. संज्ञा अथवा विशे. की अपेक्षा रखने वाला पद बिसेसकपदानन्तु अपेक्खकपदानि च सद. 1.74; एवं विसेसपदापेक्खकानि भवन्ति, सद. 1.75;
नपुं. भाव. [ अपेक्षकत्व], अपेक्षा करना, निर्भर होना, सापेक्ष रहना गहपति-धम्मानं अपेक्खकत्तं तेसन्ति निद्वं एत्थावगन्तब्ब, सद्द. 1.230.
अपेक्खता स्त्री. भाव केवल स. उ. प्र. के रूप में प्राप्त, उपरिवत् - हसापेक्खतायपि नाम दवकम्यताय वा मुसावाद अकरणसासने पब्बजित्वा म. नि. अड. (म.प.) 2.30. अपेक्खते अप + √इक्ख का वर्त. प्र. पु. ए. व.. आत्मने.
-
"
[ अपेक्षते]. आशा करता है, इच्छा करता है, अपेक्षा करता है, आसक्ति या लगाव रखता है कामेसु नापेक्खते चित्तं पस्स सत्तस्स सुद्धतं, सु. नि. 437 :- ति उपरिवत् पर. आलयकरणवसेन अपेक्खतीति अपेक्खा, ध० स० अट्ट 391 खानो पु.. वर्त. कृ. प्र. वि. ए. व. साहं धम्मं अपेक्खानो, धम्मा चत्वं समुद्धितं जा. अनु. 5.334 मानो उपरिवत् एकोव तिब्बानि सहेय्य धीरो, सच्च हिरोत्तप्पमपेक्खमानोति जा. अड. 4.202: अत्थि च मे हिरी ओतष्यन्ति अपेक्खमानोव अजस्स धीरोति, जा. अड. 4. 203 माना स्त्री. प्र. वि. ए. व. पतिमानेन्तीति अपेक्खमाना, पाचि. अट्ठ 163; - न्तो पु०, वर्त. वर्त. कृ. प्र.
-
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अपेक्खिक
वि. ए. व. अपेक्खानोति अपेक्खन्तो, जा. अनु. 5.336; न्ती स्त्री उपरिवत यथाभूतमवेक्खन्ती, खन्धानं उदयब्बयं थेरीगा. 96: यथाभूतमवेक्खन्तीति एवं जातसंवेगा विपस्सनं पड़पेत्या अनिच्चादिमनसिकारेन यथाभूतमवेक्खन्ती थेरीगा. अड. 100 विखय पू. का. कृ. एवं चलित असण्ठितं. सुखदुक्खं मनुजेस्वपेक्खिय जा. अड्ड. 3.49 - क्खित्वा उपरिवत् तं तं अत्थमपेक्खित्वा, भुम्मेन करणेन घ. दी. नि. अड. 1.34.
अपेक्खन नपुं., अप + √इक्ख से व्यु० क्रि० ना० [अपेक्षण], इच्छा, लगाव, अपेक्षा सरोकार अनुयोग चित्तसतिपद्वानसद्धादीनं गृहपति धम्मादीनं अपेक्खनवसेन निच्चं पुल्लिङ्गभावरस इच्छिता सद. 1.229. अपेक्खवन्तु त्रि. [ अपेक्षावत्] अपेक्षाओं या इच्छाओं से युक्त, आसक्ति-युक्त, स्नेह-युक्त; वा पु०, प्र. वि., ए. व. सुखं चे जीवितुं इच्छे, सामञ्ञस्मिं अपेक्खवा, थेरगा. 228: सामञ्ञस्मिं अपेक्वाति सामज्ञस्मिं समणभावे अपेक्खवा सिक्खाय इच्छेय्य थे, थेरगा. अड. 1.379; अपेक्खवा अनुपादाय च न परितस्सति म. नि. 3.276 अपेक्खवाति सालयो ससिनेहो, म नि० अट्ठ. (उप.प.) 3.201; बती स्त्री. प्र. वि. ए. व. अपेक्खवतीति तस्सेव रागस्स वसेन तस्मिं पुरिसे पवत्ताय अपेक्खाय समन्नागता, पाचि, अट्ठ. 163.
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अपेक्खा स्त्री, अप + √इक्ख से व्यु [अपेक्षा ], स्नेह, लगाव, आसक्ति इच्छा सम्भावने व गरहापेक्खासु च समुच्चये, अभि. प. 1183; वंसो विसालोव यथा विसत्तो पुत्तेसु दारेसु व या अपेक्खा, सु. नि. 38: या अपेक्खाति या तण्हा यो स्नेहो, चूलनि, अद्ध. 99 या मे मातापितूसु अपेक्खा सा पहीनाति, स. नि. 3(2). 472; - य तृ. वि., ए. व. सुत्तन्ति इमिना एवंसहसन्निधानतो वक्खमानापेक्खाय वा सोतब्बभेदप्पटिवेधदीपकेन दीपेति, उदा. अट्ठ. 15 -रहित त्रि. तत्पु. स. [अपेक्षारहित] अपेक्षा, आसक्ति या लगाव से रहित . अनपेक्खवाति वत्थु अपेक्खारहितो विगतच्छन्दरागो नित्तण्हो एवरूपो पुग्गलो विहरति महाराजाति, जा. अ. 1.146.
अपेक्खी त्रि., [बौ. सं. अवेक्षिन् ], अपेक्षा करने वाला, लगाव रखने वाला, प्रयोजन रखने वाला, केवल स. उ. प. के रूप में प्रयुक्त, अनपेक्खी, आमिसपेक्खी के अन्त द्रष्ट अपेक्खिक त्रि. [बौ. सं. अवेक्षिक] उपरिवत् ताणं लेणनन्ति आदीनि पेक्खिकानि भवन्ति हि सद्द० 1.70.
148
च
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अपेक्खित
407
अपेत
अपेक्खित त्रि., अप + Vइक्ख का भू. क. कृ. [अपेक्षित], वह, जिस पर अत्यधिक ध्यान दिया जाए या जिस पर अत्यधिक प्रेम किया जाए, आवश्यक - मा जेट्टपत्तं अवधी अपेक्खितं, जा. अट्ठ. 6.153(रो.). अपेच्च अप + Vइ का भू. क. कृ. [अपेत्य]. दूर जाकर,
अलग हटकर, रहित होकर, अपेत्ति के अन्त. द्रष्ट.. अपेत त्रि., अप + Vइ का भू. क. कृ. [अपेत], शा. अ. दूर गया हुआ, ला. अ. हटाया हुआ, रहित - अपेतो दमसच्चेन न सो कासावमरहति, ध. प.9; अपेतो ... इन्द्रियदमसङ्घातेन दमेन च ... निब्बानसङ्खातेन च परमत्थसच्चेन अपेतो परिवज्जितो, जा. अट्ट. 2.166; अपेतो दमसच्चेनाति इन्द्रियदमेन चेव... अपेतो, वियुत्तो परिच्चत्थोति अत्थो, ध. प. अट्ट, 1.49; - ता स्त्री., प्र. वि., ए. व. - तङ्खणजेव .... दुक्खतो अपेता उळारसम्पत्तिं पटिलभित्वा ... अत्तानं दस्सेसि, पे. व. अट्ठ. 30; - ता पु.. प्र. वि., ब. व. - अपेता ते च ब्रह्मा , न ते वुच्चन्ति ब्राह्मणा, जा. अट्ठ. 4.324; 325; 326; 327; - कद्दम त्रि., ब. स. [अपेतकर्दम]. कीचड़-रहित, स्वच्छ - रहदोव अपेतकद्दमो, संसारा न भवन्ति तादिनो, ध. प. 95; - कम्मावरण त्रि., ब. स. [अपेतकर्मावरण]. कर्मो के आवरणों से मुक्त -- तञ्च पन सावसेसायुकस्स वयसम्पन्नस्स अपेतकम्मावरणस्स, मि. प. 151; - चित्त त्रि., ब. स., विपर्यस्त मन वाला, उखड़े हुए चित्त वाला, विक्षिप्त चित्त वाला - चजे चजन्तं वनथं न कयिरा, अपेतचित्तेन सम्भजेय्य, जा. अट्ठ. 2.172; 3.933; अपेतचित्तेनाति विगतचित्तेन विपल्लत्थचित्तेन, तदे.; - जातरूपरजत त्रि., ब. स., सोना और चांदी से रहित, सोना और चांदी का प्रयोग न करने वाला - कुम्भकारो निक्खित्तमणिसुवण्णो अपेतजातरूपरजतो, म. नि. 2.252; निक्खित्तमणिसु वण्णा समणा सक्यपुत्तिया अपेतजातरूपरजताति, स. नि. 2(2).310; - त्त नपुं., अपेत का भाव. [अपेतत्व]. रहित होने की स्थिति, विलगाव की हालत, अविद्यमानता - निरयो हि सग्गमोक्खहेतुभूता पुञसाता अया अपेतत्ता, उदा. अट्ठ. 338; मनुस्सत्तभावतो अपेतत्ता पेतपरियायोपि लभति एवाति तस्स वत्थु .... दहब्ब, पे. व. अट्ठ. 81; - दरथ त्रि., ब. स., शारीरिक एवं मानसिक व्यथाओं से मुक्त - सोहं अपेतदरथो, ब्यन्तीभूतो दुखक्खमो जा. अट्ठ. 5.4; अपेतदस्थोति विगतकायचित्तदस्थो, जा. अट्ठ. 5.5; - पापक त्रि., ब. स., पापरहित, निष्पाप - एवम्पि वोहारसुचिं असाहस, विसद्धकम्मन्तमपेतपापक,
जा. अट्ट. 3.281; अपेतपापकन्ति अपगतपापकम्म, जा. अट्ठ. 3.282; - भयसन्तास त्रि., ब. स. [अपेतभयसन्त्रास]. भय एवं त्रास से मुक्त, भयमुक्त, संकट से मुक्त - अपेतभयसन्तासो, भवेहं सब्बतो भवे, अप. 2.105; - भेरव त्रि., ब. स. [अपेतभैरव], भयजनक अवस्थाओं से मुक्त, भयकारक परिस्थियों से मुक्त - विजितावी अपेतभेरवो हि, दब्बो सो परिनिबुतो ठितत्तोति, थेरगा. 5; 7; अपेतभेरवोति पञ्चवीसतिया भयानं सब्बसो अपेतत्ता अपगतभेरवो अभयूपरतो. थेरगा. अट्ट, 1.45; - मनपापक त्रि.. ब. स., मन की पापमयी दुष्प्रवृत्तियों से रहित, विशुद्ध मन वाला/वाली -- पिका स्त्री, प्र. वि., ए. व. - विसुद्धमनसा अज्ज, अपेतमनपापिका, अप. 2.190; 198; थेरीगा. अट्ठ. 57; - लोमहंस त्रि., ब. स. [अतीतरोमहर्ष], क. रोमांच से रहित, कपकपी या थरथराहट से मुक्त - विजितावी अपेतलोमहंसो, रक्खं कायगतासतिं धितिमाति, थेरगा. 6%3; ख संकोच या घबराहट से रहित, बुरे काम करते समय भय से रहित, अनाचारी - अपेतलोमहंसस्स, रो कामानुसारिनो, जा. अठ्ठ. 5.112; अपेतलोमहंसस्साति अत्तानुवादादिभयेहि निभयस्स, जा. अट्ठ. 5.115; - वत्थ त्रि०, ब. स. [अपेतवस्त्र], वस्त्रों या परिधानों से रहित, उचित वेशभूषा को धारण न करने वाला - यं पित्वा भासेय्य अभासनेय्यं सभायमासीनो अपेतवत्थो, जा. अट्ठ. 5.15; - विज्ञाण त्रि., ब. स. [अपेतविज्ञान]. चेतना से रहित, मृत, मूर्छित, प्राणहीन - छुद्धो अपेतविआणो, निरत्थंव कलिङ्गर, ध. प. 41; निब्बुरहति सुसान, अचिरं कायो अपेतविज्ञाणो, थेरीगा. 470; अचिरं कायो अपेतविञआणोति अयं कायो अचिरेनेव अपगतविज्ञाणो सुसानं निब्बुरहति उपनीयति, थेरीगा. 308; - विजाणत्त नपुं., भाव. [अपेतविज्ञानत्व, चेतना से विहीन हो जाना, मृत या निष्प्राण हो जाना - कल्याणकम्मं पूरेस्सामी ति आभोगो वा पत्थना वा परियुट्टानं वा नत्थि अपगतविजाणत्ता, जा. अठ्ठ. 5.95; - सोक त्रि., ब. स. [अपेतशोक], शोक से रहित - सोकावतिण्णं जनतमपेतसोको, अवेक्खस्सु जातिजराभिभूतं दी. नि ?31; महाव.6; इतिवु. 25; अत्थ समेच्चाहमपेतसोको, एको विवित्ते सयनासनम्हि, सयामहं सब्बभूतानुकम्पी, स. नि. 1(1).131; - तावरण त्रि., ब. स. [अपेतावरण]. शा. अ. आवरण या आच्छादित करने वाले वस्त्र आदि उपकरणों से मुक्त, अनाच्छादित, खुला हुआ, ला. अ. मन को चञ्चल बनाने वाले 5 प्रकार के नीवरणों से मुक्त, संयोजनों आदि
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अपेति
408
अप्प
7/7/
द्वारा नहीं बंधा हुआ - अवावटाति अपेतावरणा अपरिग्गहा,
जा. अट्ठ. 5.202. अपेति अप + Vइ का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अपेति], शा. अ. दूर चला जाता है या भाग जाता है, ला. अ. हट जाता है, उचट जाता है, अदृश्य हो जाता है, विनष्ट हो जाता है, विदा ले लेता है - उपेति समुपेति वेति अपेति अवेति अन्वेति समेति अभिसमेति, सद्द. 2.315; सा तेन अट्टीयमाना अपेति, जा. अट्ट, 1.281; यस्मिं पन पुग्गले मनो न निविसति अपेति, सो सन्तिके वसन्तोपि दूरेयेव, जा. अट्ठ. 4.1943: --- न्ति ब. व. - सद्धा च पीति च मनो सति च, नापेन्ति मे गोतमसासनम्हा, सु. नि. 1149; - हि अनु. म. पु., ए. व. - अपेहीति अपयाहि, स. नि. अट्ठ. 1.164; अपेहि गच्छ त्वमेवेको, किमञमनुसाससी ति, स. नि. 1(1).145; अपेहि त्वं, उपक, विनस्स, मा तं अद्दसन्ति , अ. नि. 1(2).210; - यामि उ. पु., ए. व. [अपयानि], - हन्द दानि अपायामि, जा. अट्ठ. 7.28; तत्थ अपायामीति अपगच्छामि, पलायामीति अत्थो, तदे.. अपेत्तेय्य त्रि., पेत्तेय्य का निषे. [अपैतृक], पिता का हित न करने वाला, पिता के प्रति सम्मानभाव न रखने वाला - य्यो पु.. प्र. वि., ए. व. - अयं, देव, पुरिसो अमत्तेय्यो अपेत्तेय्यो असामओ अब्रह्मओ, अ. नि. 1(1).163; - य्या ब. व. - अथ खो एतेव बहुतरा सत्ता ये अपेत्तेय्या ... पे.. स. नि. 3(2).525; - ता स्त्री., अपेतेय्य का भाव., पिता के प्रति असम्मान का भाव या अहितकारिता - अमत्तेय्यता अपेत्तेय्यता असामञता अब्रह्मञ्जता न कुले जेट्ठापचायिता, दी. नि. 3.51; अपेत्तेय्यतादि एसेव नयो, दी. नि. अठ्ठ. 3.33. अपेय्य त्रि., पेय्य का निषे. [अपेय], शा. अ. नहीं पीने योग्य - तं परितं उदकं अमना लोणकपल्लेन लोणं अस्स अपेय्यन्ति, अ. नि. 1(1).283; सो अमुना लोणकपल्लेन लोणो न अस्स अपेय्यो ति, अ. नि. 1(1).283; तीरे समुद्दसुदकं स जन्तं, तं सागरो तेनापेय्यो ति, जा. अट्ठ. 7.51; ला. अ. पीकर खाली न कर सकने योग्य -- नास्स नायति पीतन्तो, अपेय्यो किर सागरोति, जा. अट्ट. 2.366. अपेसल त्रि., पेसल का निषे. [अपेशल], अकृपालु, अप्रिय स्वभाव वाला, अप्रसन्न चित्त, असामाजिक - एते अगुणा येस च सन्ति सब्बे तानीध खेत्तानि अपेसलानि, जा. अट्ठ. 4.343; अपेसलानीति एवरूपा पुग्गला आसीविसभरिता विय वम्मिका अप्पियसीला होन्ति, तदे..
अपेसित त्रि., पेसित का निषे. [अप्रेषित], काम करने हेतु प्रेरित नहीं किया गया - न मोहागतिं गच्छेय्य, न भयागति गच्छेय्य, पेसितापेसितञ्च जानेय्य, चूळव. 310-311. अपेसियमान त्रि., प + Vईस के कर्म. वा. के वर्त. कृ. का निषे. [अप्रेष्यमाण], काम पर लगने हेतु प्रेरित नहीं किया गया, - ना पु.. प्र. वि.. ब. व. - सामणेरा अपेसियमाना कम्मं न करोन्ति, चूळव. 310. अपेसुञ नपुं., पेसुञ का निषे. [अपैशुन्य], चुगली का अभाव, इधर की बात उधर न करना - सच्चवाक्यसमत्तङ्गो, अपेसुञसुसञतो, जा. अट्ठ. 7.142; अपेसुजेन सुद्ध सञ्जतो समुस्सितो, जा. अट्ठ. 7.143. अपेसुण त्रि., पेसुण का निषे., ब. स. [अपैशुन]. चुगली न करने वाला, इधर की बात उधर न कहने वाला - अक्कोधनो असचट्टो, सच्चो सण्हो अपेसुणो, जा. अट्ठ. 7.190. अपोरिसता स्त्री., अपोरिस का भाव. [अपौरुषता], पुरुष के प्रयास या पुरुष के पराक्रम से रहित होना, मानवीय प्रयास से अनिर्मित होना, अपने आप उत्पन्न होना - सो पन अपोरिसताय अकित्तिमो सयंजातो केनचि अघटितोयेव, वि. व. अट्ठ. 231. अपोसन नपुं., पोसन का निषे. [अपोषण], पालन या पोषण का अभाव - अञस्स अत्तभावस्स अपोसनेन अनञपोसीति दस्सेति, सु. नि. अट्ठ. 1.94; पाठा. अनिब्बत्तनेन; - ता स्त्री., भाव. [अपोषणता], किसी दूसरे का पोषण या पालन नहीं किया जाना - इमं अत्तभावं अञरस अत्तभावस्स वा पुत्तदारस्स वा अपोसनताय अनञ्जपोसी. स. नि. अट्ठ 1.182. अपोह पु., अप + vऊह से व्यु., क्रि. ना. [अपोह]. शा. अ.
दूर कर देना, हटा देना, ला. अ. अनावश्यक बातों को विचार की कोटि से बाहर निकाल देना, निषेधात्मक तार्किक स्थापना - ऊहनं आयूहनं व्यूहो अपोहो, सद्द. 2.457; सब्बं अनत्थं अपोहति, अपोहो. सद्द. 2.459. अपोहति अप + vऊह का वर्त., प्र. पु.. ए. व. [अपोहते], दूर कर देता है, तर्क-कोटि से बाहर कर देता है, खण्डन कर देता है - सब्बं अनत्थं अपोहति, अपोहो, सद्द. 2.459. अप्प् प्राप्ति या पाने के अर्थ की सूचक एक धातु [आप्ल]. - अप्प पापुणे, अपोति, आपो, एत्थ आपोति अप्पोति तं तं ठानं विसरतीति आपो, सद्द. 2.508. अप्प त्रि., प्रायः निषे. 'अ' का समानार्थक [अल्प]. कम, बहुत कम, थोड़ा सा, तनिक सा, छोटा, नहीं के बराबर -
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अप्प
409
अप्पकसिरेन
अप्पिच्छन्ति अनिच्छ, म. नि. अट्ट (म.प.) 2.307; अप्पाबाधतन्ति निराबाधतं, अप्पातङ्कतन्ति निढुक्खतं, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).3; तेनाहं अप्पोदके ति, अप्प सद्दो हत्थ अभावत्थो अप्पिच्छो अप्पनिग्घोसो तिआदीस विय, वि. व. अट्ठ. 284; सुद्धपंसु सुद्धमत्तिका अप्पपासाणा अप्पसक्खरा अप्पकठला अप्पमरुम्बा अप्पवालिका, येभ्य्येनपुंसका, येभुय्येनमत्तिका, पाचि. 50; परितं सुखुम खुद्द थोकं अप्पं किसं तनु, अभि. प. 704; - पो पु., प्र. वि., ए. व. - सकुणो जालमुत्तोव, अप्पो सग्गाय गच्छति, ध. प. 174; अप्पो हुत्वा बहु होति, वडते सो अखन्तिजो, जा. अट्ठ. 4.10; - पं' नपुं.. द्वि. वि., ए. व. - अप्पं दानं न हीळेय्य, दातारं नावजानिया, सु. नि. 718; - पं. अ., क्रि. वि., बहुत कम ही, कभी-कभी ही - इमाहं पञ्च धम्मे पब्बजितेस बहल समनपस्सामि अप्पं गहढेसु. म. नि. 2.428; - पेन तृ. वि., ए. व. - अमोघं दिवसं कयिरा, अप्पेन बहुकेन वा, थेरगा. 451; - पस्स ष. वि., ए. व. - अप्पस्स कम्मरस फलं ममेद, उदयो अज्झागमा महत्तपत्तं, जा. अट्ठ. 3.398; - पस्मा पु., प. वि., ए. व. - अप्पस्मा दक्षिणा दिन्ना, सहस्सेन समं मिताति, स. नि. 1(1).22; जा. अट्ठ. 4.59; - पम्हा उपरिवत् - अप्पम्हा अप्पक दज्जा, अनुमज्झतो मज्झक, जा. अट्ठ. 5.383; - पस्मिं सप्त. वि., ए. व. - तत्थ अप्पस्मेके पवेच्छन्तीति ... पण्डितपरिसा अप्परिमम्पि देय्यधम्मे पवेच्छन्ति, ददन्तियेवाति
अत्थो, जा. अट्ठ. 4.59; अप्पस्मेके पवेच्छन्ति, बहनेके न दिच्छरे, तदे.; - पा पु., प्र. वि., ब. व. - अप्पापि सन्ता बहुके जिनन्ति, ... ददाति, स. नि. 1(1).24; अप्पापि सन्ता बहुके जिनन्तीति यथा च युद्धे अप्पकापि वीरपुरिसा बहुके भीरुपरिसे जिनन्ति, स. नि. अट्ठ. 1.56; - पानि नपुं.. प्र. वि., ब. क. - चत्तारिमानि, ..., अप्पानि च सुलभानि च, तानि च अनवज्जानि, अ. नि. 1(2).32; सत्तमे अप्पानीति परित्तानि, अ. नि. अट्ठ. 2.268; - क त्रि०, अप्प से व्यु. [अल्पक]. उपरिवत् - मन्दो भाग्यविहीनेचाप्पके मूळ्हापटुस्वपि, अभि. प. 892; - को पु., प्र. वि., ए. व. - अप्पको वत मे सन्तो, कामो वेल्लितकेसिया, दी. नि. 2.1963; अप्पको वत मे सन्तोति पकतियाव मन्दो समानो, दी. नि. अट्ठ.2.265; न सोचनाय परिदेवनाय, अत्थोव लब्भो अपि अप्पकोपि.जा. अट्ठ. 3.177; - प्पिका स्त्री., प्र. वि., ए. व. - गुणवन्तानं समणब्राह्मणानं ... दिन्नपदक्खिणा अप्पिका नाम नत्थि, जा. अट्ठ. 3.362; न किरत्थि अनोमदस्सिस. पारिचरिया बुद्धेसु अप्पिका, जा. अट्ठ. 3.361; - कं नपुं.. प्र.
वि., ए. व. - अप्पकं जीवितं मय्ह, जरा ब्याधि च मद्दति, थेरीगा. 95; अप्पकं जीवितं मरहन्ति ... जीवितं अप्पक परित्तं लहुक, थेरीगा. अट्ठ, 100; अप्पकम्पि कतं कारं विपुलं होति तादिसु, अप. 2.15; -- केन' तृ. वि., ए. व. - अप्पकेनपि मेधावी, पाभतेन विचक्षणो, जा. अट्ट, 1.128; तत्थ अप्पकेनपीति थोकेनपि परित्तकेनपि, तदे; - केन' क्रि. वि., बहुत थोड़े से लाभ के लिए - अप्पकेन तुवं यक्ख, थल्लमत्थं जहिस्ससि, जा. अट्ट. 3.288; - कस्मिं सप्त. वि., ए. व. - धम्म चरे योपि समुञ्जकं चरे, दारञ्च पोस ददमप्पकस्मि स. नि. 1(1).23; - का पु.. प्र. वि.. ब. व. - अप्पका ते मनुस्सेसु. ये जना पारगामिनो, स. नि. 3(1).23; अप्पका ते सत्ता लोकस्मिं ये उळारे उळारे भोगे लभित्वा न चेव मज्जन्ति, स. नि. 1(1).90; - कठल त्रि., ब. स. [अल्पकठर, बौ. सं. अल्पकठल्य], शा. अ. बहुत कम कठोर, लगभग नहीं के बराबर कठोर, ला. अ. मिट्टी के बर्तनों या भाण्डों के टुकड़ो या ठीकरों से लगभग रहित, बहुत कम कपालखण्डों वाला/वाली; - कठला स्त्री., प्र. वि., ए. व. - ... अप्पपासाणा अप्पसक्खरा अप्पकठला अप्पमरुम्बा अप्पवालिका, येभुय्येनपंसुका, येभुय्येनमत्तिका, पाचि. 50; कथलाति कपालखण्डानि, पाचि. अट्ठ. 19. अप्पकतञ्जू त्रि., पकतझू का निषे. [अप्रकृतज्ञ], जो कुछ निर्धारित किया गया है उसे न जानने वाला, प्रधान या महत्वपूर्ण बात को न जानने वाला, - ब्रुनो पु., प्र. वि., ब. व. - भगवता सिक्खापदं अपञ्जत्तं, ते वा भिक्खू अप्पकत नोति, पाचि. 151; अप्पकत नोति यं भगवता पकतं पञत्तं तं न जानन्तीति अत्थो, पाचि. अट्ठ. 1163; ये पिमे गोचरे अप्पकत नो तेदानिमे गोचरे पकतजनो, महाव. 407; ... वज्जिपुत्तका ... नवका चेव होन्ति अप्पकतञ्जुनो, चूळव. 338-39; - त्त नपुं.. भाव. [अप्रकृतज्ञत्व], महत्वपूर्ण या प्रमुख बात को न जानने की स्थिति - ... मन्दत्ता मोमूहत्ता अपकतञ्जुत्ता पक्खलन्तस्स अझं भणिस्सामीति अञभणनं, पारा, अट्ठ. 1.203. अप्पकसिरेन अ., क्रि. वि., तृ. वि., प्रतिरू. निपा. [अल्पकृच्छ्रेण], कम कठिनाई से, सरलता के साथ, आसानी से, सुखपूर्वक - गच्छन्ति अप्पकसिरेन, सुखे लद्धे निरामिसेति, थेरगा. 163: ... खिप्पं लहं अप्पकसिरेनेव पारं गच्छेय्य, महानि. 15; अप्पकसिरेनेवाति निदुक्खेनेव, महानि. अट्ठ.
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अप्पकार
410
अप्पग्ध
64; बलवा पुरिसो अप्पकसिरेनेव अच्छर पहरेय्य, म. नि. 3.362. अप्पकार त्रि., ब. स. [अप्रकार], कुरूप, भयानक रूप वाला, बेडौल शरीर वाला, भद्दी आकृति वाला - दुद्दसी अप्पकारोसि, दुब्बण्णो भीमदस्सनो, जा. अट्ठ. 5.63; अप्पकारोसीति सरीरप्पकाररहितोसि, दुस्सण्ठानोति अत्थो, जा. अट्ठ. 5.64. अप्पकासन नपुं..पकासन का निषे., तत्पु. स. [अप्रकाशन]. सुस्पष्ट रूप में नहीं दिखलाई पड़ना, नहीं चमकना या प्रभासित होना - केनस्सु नष्पकासतीति लोकस्स अप्पकासनं पुच्छति, नेत्ति. 11; नेनस्सु निवुत्तो लोको, केनस्सु नप्पकासति, सु. नि. 1038. अप्पकिच्च त्रि., ब. स. [अल्पकृत्य], बहुत कम दायित्व वाला, थोड़े से ही कामकाज को हाथ में लिया हुआ - च्चो पु.. प्र. वि., ए. व. - सन्तुस्सको च सुभरो च, अप्पकिच्चो च सल्लहुकवुत्ति, सु. नि. 144; अप्पं किच्चमस्साति अप्पकिच्चो, सु. नि. अट्ठ. 1.161; तस्मा हि अप्पकिच्चस्स, अप्पमिद्धो अनुद्धतो, इतिवु. 52. अप्पकिण्ण/अप्पाकिण्ण त्रि., पकिण्ण का निषे. अथवा
अप्प + आकिण्ण का स. प. [अप्रकीर्ण/ अल्पाकीर्ण], भीड़-भाड़ से नहीं भरा हुआ, कम भीड़ वाला, अत्यधिक नहीं भरा हुआ, बाधाओं से रहित, - किण्णं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - सेनासनं नातिदूरं होति नाच्चासन्नं गमनागमनसम्पन्न दिवा अप्पाकिण्णं रत्तिं अप्पसदं .... अ. नि. 3(2).13; दिवाअप्पाकिण्णन्ति दिवसभागे महाजनेन अनाकिण्णं अ. नि. अट्ठ. 3.287; दिवा अप्पाकिण्णं रत्ति अप्पस अप्पनिग्घोस विजनवातं. महाव. 44; -किण्णा पु.. प्र. वि.. ब. व. - तत्थ मयं अप्पसद्दा अप्पाकिण्णा फासं विहरेय्यामा ति, अ. नि. 3(2).111. अप्पकिलमथेन पु., अप्पकिलमथ का तृ. वि., ए. व. [अल्पक्लमथेन]. बिना किसी थकावट के, सरलता से, सुखपूर्वक, आराम से - कच्चिसि अप्पकिलमथेन अद्धानं आगतो, न च पिण्डकेन किलन्तोसी ति, उदा. 135; अप्पकिलमथेनाति अनायासेन इमं एत्तकं अद्धानं कच्चि आगतोसि. उदा. अट्ठ. 254; खमनीयं कच्चि यापनीयं कच्चिसि अप्पकिलमथेन अद्धानं आगतो?, पारा. 227; महाव. 66. अप्पकिलेस/अप्पक्लेस त्रि., ब. स. [अल्पक्लेश], क्लेशों से रहित, बहुत कम क्लेशों से युक्त - सो पुरिमनयेनेव
अप्पकिलेसो होति, ध. स. अट्ट, 306; धम्मकामो सदा होमि, अप्पक्लेसो अनासवो, अप. 1.339; अप्परजक्खजातिकाति पञाचक्खुम्हि अप्पकिलेसरजसभावा, स. नि. अट्ट, 1.152. अप्पकोध त्रि.. ब. स. [अल्पक्रोध], बहुत कम या नहीं के बराबर क्रोध से युक्त, क्रोधरहित - अप्पकोधो अनायासो, संसरन्तो भवे अहं, अप. 1.344. अप्पक्खता स्त्री., भाव, द्रष्ट. अपक्ख के अन्त.. अप्पक्खर त्रि०, ब. स. [अल्पाक्षर], बहुत कम अक्षरों वाला, कुछ ही अक्षरों वाला - यस्मा च सुत्तेन नाम
अप्पक्खरेन असंदिड्वेन सारवन्तेन, सद्द. 1.150. अप्पगंध त्रि.. ब. स. [अल्पगन्ध], गन्धरहित, बिना गन्ध वाला - लोहितचन्दनस्स एकदेसं प्रतिक होति अप्पगन्ध मि. प. 236. अप्पगम त्रि., पगब्भ का निषे., तत्पु. स. [अप्रगल्भ]. हठ या दुराग्रह से मुक्त, शरीर, वाणी एवं मन की प्रगल्भता से रहित, अनुद्धत - सारदो सरदुब्भूते अप्पगभे मतो तिसु. अभि. प. 984; सन्तिन्द्रियो च निपको च, अप्पगब्भो कुलेस्वननुगिद्धो, सु. नि. 144; खु. पा. 9.2; अप्पगब्भोति कायपागभियादिविरहितो, सु. नि. अट्ठ. 2.241; अप्पगब्भो अजेगुच्छोति, पागभियन्ति तीणि पागभियानि-कायिकं पागभियं वाचसिकं पागभियं चेतसिकं पागभियं महानि. 165. अप्पगुण/अपगुण त्रि., 1. पगुण का निषे. [अप्रगुण], शा. अ. प्रकृष्ट या उत्तम गुणों से रहित, ला. अ. असरल, वक्र, अकुशल, अविशारद - तत्थपरित्तं परित्तारम्मणन्तिआदीस यं अप्पगुणं होति, ध. स. अट्ठ. 229; 2. अप्प + गुण से व्यु.. ब. स. [अल्पगुण], गुणहीन, बहुत कम गुणों से युक्त, अमहत्वपूर्ण, तुच्छ - गुणवन्तेसु मनुस्सादीसु अप्पगुणे पाणे अप्पसावज्जो, महागुणे महासावज्जो, दी. नि. अट्ठ. 1.65; म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).206; ध. स. अट्ठ. 143; - ज्झान नपुं., कर्म. स. [अल्पगुणध्यान]. अनुपयुक्त रूप से किया गया ध्यान - सुख अपरिसोधितत्ता दुब्बलमेव समापत्तिं वळजित्वा अप्पगुणज्झाने ठितो कालं कत्वा परित्ताभेसु निब्बत्तति, म. नि. अट्ठ. (उप. प.) 3.147. अप्पग्घ त्रि., ब. स. [अल्पार्घ], कम मूल्य वाला, निचली कीमत वाला, - घो पु., प्र. वि., ए. व. - नवोपि पोत्थको दुब्बण्णो चेव होति दुक्खसम्फस्सो च अप्पग्घो च, मज्झिमोपि ...जिण्णोपि ... अप्पग्यो च. पु. प. 140; - घं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - वाकचीरस्मिहि द्वादस आनिसंसा-अप्पग्धं सुन्दरं कप्पियन्ति अयं ताव एको आनिसंसो, जा. अट्ठ.
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अप्पचिन्त
अप्पञत्त
1.12; - घेन तृ. वि., ए. व. - अप्पग्धेन लक्खे न जूतं न धातु - इमे धम्मा अप्पच्चया, ध. स. 1090; - यो पु., प्र. कीळिरसति, जा. अट्ठ. 6.162; - घानि नपुं.. प्र. वि., ब. वि., ए. व. - यो येव सो धम्मो अप्पच्चयो, सो एव सो धम्मो व. - उच्चावचानीति महग्घअप्पग्घानि, जा. अट्ठ. 4.329; - असतो, ध. स. 1092; - त्त नपुं., भाव., अकारणता, हेतु ता स्त्री., भाव. [अल्पार्घता]. कम मूल्य वाला होना - प्रत्यय-निरपेक्षता, असंस्कृत धर्म होना - अपच्चयत्ता वा इदमस्स अप्पग्घताय पु. प. 141; इदमरस अप्पग्घताय । उप्पादाभावो, उदा. अट्ठ. 318; जातिआदीनं जातिया वदामि, अ. नि. 1(1).280-281.
अप्पच्चयत्ता, विभ. अट्ठ. 197; - निब्बान नपुं०, कर्म. स. अप्पचिन्त त्रि., ब. स. [अल्पचिन्तिन]. कम चिन्ता करने [अप्रत्ययनिर्वाण], उपादान रहित निर्वाण, निर्वाण की वह वाला- तानं पु, ष. वि., ब. क. - ... आहारचिन्तारहितानं स्थिति जिसमें समस्त उपादान स्कन्ध भी निरुद्ध हो जाते अप्पचिन्तानमरियानं सुखं अस्सत्थीति अप्पचिन्तसुखो. जा. हैं - अनुपादापरिनिब्बानन्ति अप्पच्चयनिब्बानं. अ. नि. अट्ठ. अट्ट, 3.275; - सुख त्रि., बहुत कम चिन्ताओं के कारण 3.173; - परिनिब्बान नपुं., कर्म. स., उपरिवत् - नं प्र. सुख का अनुभव करने वाला, इच्छामुक्त एवं निश्चिन्त वि., ए. व. - अनुपादापरिनिब्बानन्ति अप्पच्चयपरिनिब्बानं. मनोवृत्ति के फलस्वरूप सुखी - अप्पिच्छरस हि पोसस्स, अ. नि. अट्ठ. 3.303; - नेन तृ. वि., ए. व. - अप्पचिन्तसुखस्स च, ... अप्पचिन्तसुखस्साति परिनिब्बायिस्सतीति अप्पच्चय-परिनिब्बानेन परिनिब्बायिस्सति. आहारचिन्तारहितानं अप्पचिन्तानमरियानं सखं अस्सत्थीति अ. नि. अट्ठ. 2.205; 225; - भावना स्त्री., तत्पु. स., हेतुअप्पचिन्तसुखो, जा. अट्ठ. 3.275.
प्रत्ययों से मुक्त असंस्कृत निर्वाण की अनुभूति या साक्षात्कार अप्पचिन्ता स्त्री०, कर्म. स. [अल्पचिन्ता], चिन्ता का अभाव, - ... सत्तानं अप्पच्चयभावना न सुकराति, ..., उदा. अट्ट, 319, चित्त की शान्त अवस्था - अप्पिच्छा अप्पचिन्ताय अदूरगमनेन अप्पच्चोसक्कित त्रि., पटि + अव + vसक्क के भू. क. कृ. च. ... अप्पचिन्तायाति अज्ज कहं आहार लभिस्सामि, स्वे का निषे., शा. अ. पीछे की ओर वापस कदम न खींचने कहन्ति एवं आहारचिन्ताय अभावेन, ..., जा. अट्ठ. 3.275. वाला, ला. अ. अश्रान्त, अत्यधिक आसक्त - दसमे अप्पचिन्ती पु., व्य. सं., एक मत्स्य (मछली) का नाम - अप्पटिवानोति अनुकण्ठितो अपच्चोसक्कितो, अ. नि. अट्ट. बहुचिन्ती, अप्पचिन्ती, मितचिन्तीति तेसं नामानि जा. अट्ठ. 1.409; बहुचिन्ती अप्पचिन्ती, उभो जाले अबज्झरे, ... तदा अप्पजहन्तु त्रि., प+ हा के वर्त. कृ. का निषे. [अप्रजहत्]. बहुचिन्ती च अप्पचिन्ति च इमे द्वे अहेसु. जा. अट्ठ. 1.410. त्याग न करता हुआ, नहीं छोड़ता हुआ, - हं पु.. प्र. वि., अप्पच्चय' पु.. कर्म. स. [अप्रत्यय], भू-आदि धातुगणों में ए. व. - सोकमप्पजहं जन्तु, भिय्यो दुक्खं निगच्छति, सु. भ्वादिगण का विकरण 'अ', जो इस गण की धातुओं के बाद नि. 591; अनभिजानं अपरिजानं तत्थ चित्तं अविराजयं में जोड़ा जाता है - भू इच्चेवमादितो धातुगणतो अप्पच्चयो अप्पजहं अभब्बो दुक्खक्खयाय, इतिवु. 4; अप्पजहन्ति होति कत्तरि क. व्या. 447; रुधिइच्चेवमादितो धातुगणतो विपस्सनापासहिताय मग्गपआय तत्थ पहातब्बयुत्तक अप्पच्चयो होति कत्तरि क. व्या. 448.
किलेसवट्ट अनवसेसतो न पजहन्तो, इतिव. अट्ठ. 47. अप्पच्चय' पु., पच्चय का निषे., तत्पु स. [अप्रत्यय]. अप्पजहित्वा प+vहा के पू. का. कृ. का निषे॰ [अप्रहाय]. अविश्वास, सन्देह, शङ्का, असन्तुष्टि, निरुत्साह - तथागतस्स नहीं त्याग कर, नहीं छोड़कर - इदमप्पहायाति इदं इदानि न होति आधातो न अप्पच्चयो न चेतसो अनभिरद्धि, म. नि. वक्खमानं दुविधं पापसमाचार अप्पजहित्वा, इतिवु. अट्ठ. 1.194; परवादेस आघातो अप्पच्चयो व्यापादो कायगन्थो, महानि. 70; - यं द्वि. वि., ए. व. - ते तञ्चेव नप्पजहन्ति, अप्पजानन्तु त्रि., प+ ञा के वर्त. कृ. का निषे. [अप्रजानत]. मयि च अप्पच्चयं उपट्टापेन्ति, म. नि. 2.122.
ठीक से या पूर्ण रूप से नहीं जान रहा, - न्ता पु.. प्र. वि., अप्पच्चय' त्रि., ब. स. [अप्रत्यय], क. कारणों से रहित, ब. व. - निरोधं अप्पजानन्ता, आगन्तारो पुनभवं, सु. नि. हेतुओं एवं प्रत्ययों से उत्पन्न न होने वाला, असंस्कृत- यं 759. नपुं॰, प्र. वि., ए. व. - तञ्च अनिमित्तं अनिदानं असङ्घारं अप्पञत्त त्रि.. पञ्चत्त का निषे. [अप्रज्ञप्त], नहीं बतलाया अप्पच्चयं दुक्खिन्द्रियं उप्पज्जिस्सतीति, स. नि. 3(2).2903; गया, ज्ञात नहीं कराया गया, अविहित, अस्थापित, अनिर्दिष्ट, - या पु., प्र. वि., ब. व. - कतमे धम्मा अप्पच्चया? असङ्घता अप्रकाशित - त्तं न, प्र. वि., ए. व. - पञत्तं तथागतेन
2.50.
153.
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अप्पञत्ति/अप्पण्णत्ति
412
अप्पटिकार
अपञत्तं तथागतेनाति दीपेति, महाव. 476; वज्जी अपञत्तं वाचकत्त नपु., अपञत्तिवाचक का भाव. न पञपेन्ति, दी. नि. 2.57; ... पुब्बे अकतं सङ्क वा बलिं [अप्रज्ञप्तिवाचकत्व], किसी नाम को कहने वाला न होना, वा दण्ड वा आहरापेन्ता अपञत्तं पञपेन्ति नाम, दी. नि. नाम का वाचक न रहना - कस्मा अपत्तिवाचकत्ता ति अट्ठ. 2.97; - तेन पु./नपुं., तृ. वि., ए. व. - अनुपसम्पन्ने दहब्ब, सद्द. 1.174. पञ्जत्तेन वा अपञत्तेन वा वुच्चमानो, पाचि. 153; अप्पात त्रि., पञ्ञात का निषे. [अप्रज्ञात], अज्ञात, अल्प अपञत्तेनाति सुत्ते वा अभिधम्मे वा आगतेन, पाचि. अट्ट रूप में विख्यात, भिक्षा आदि के सत्पात्र के रूप में अप्रसिद्ध, 116; - ते सप्त. वि., ए. व. - पुराणदुतियिकाय बाहायं - तो पु., प्र. वि., ए. व. - विहरे अञ्जतरो भिक्खु नवो गहेत्वा महावनं अज्झोगाहेत्वा अपञत्ते सिक्खापदे अप्पज्ञातो आबाधिको दुक्खितो बाळ्हगिलानो, स. नि. आदीनवदस्सो ... अभिविआपेसि, पारा. 19; अपञत्ते 2(2).50; अप्पातोति अज्ञातो अपाकटो, स. नि. अट्ठ. सिक्खापदेति पठमपाराजिकसिक्खापदे अट्ठपिते. पारा. अट्ठ. 3.16; अप्पञातोतिनं बाला, अवजानन्ति, अजानता, थेरगा. 1.164; - त्त नपुं., भाव. [अप्रज्ञप्तत्व], अनिर्दिष्ट, नहीं 129; - ता ब. व. - अयं अनाथा अप्पाता, पाचि. 308; बतलाया गया होना - अनुपोसथे उपोसथो कातब्बो इमे पनऊ भिक्खू अप्पाता अप्पेसक्खा ति, म. नि. तिसिक्खापदरस अपञ्जत्तत्ता, उदा. अट्ठ. 241.
1.253; अपाताति द्विन्नं जनानं ठितवाने न पञआयन्ति, अप्पजत्ति/अप्पण्णत्ति स्त्री., पत्ति/पण्णत्ति का निषे. म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).130; - क नपुं.. [अप्रज्ञातत्व], [अप्रज्ञप्ति], अप्रकाशन, सूचित न किया जाना, अप्रादुर्भाव, प्रसिद्ध या विख्यात न होना, अप्रसिद्धि, अप्रकाशन, - केन तिरोभाव, अस्त हो जाना - निरुद्धा सा अच्चि अप्पञत्तिं तृ. वि., ए. व. - तेन च अपातकेन नो परितस्सति, अ. गताति, मि. प. 79; - भाव पु., तत्पु. स., प्रकाशन अथवा नि. 2(1).125; अपञातकेनाति अपञातभावेन अपाकटताय संसूचन का न रहना, नहीं ज्ञात कराया जाना, नहीं प्रकट मन्दपुञ्जताय, अ. नि. अट्ठ. 3.44; - भाव पु., उपरिवत् - किया जाना - यथा तस्मिं वत्थुस्मिं ... पायत्ति, एवं पुन अपातकेनाति अपञ्जातभावेन अपाकटताय मन्दपुञताय, अपजत्तिभावं नीताति अत्थो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) अ. नि. अट्ठ. 3.44. 1(2).20-21.
अप्पातिक' त्रि., ब. स. [अल्पज्ञातिक], बहुत कम सगेअप्पत्तिक/अपण्णत्तिक त्रि., पञत्तिक का निषे. सम्बन्धियों वाला- इदानि अप्पञातिकं अप्पपक्खं जातान्ति, [अप्रज्ञप्तिक], शा. अ. नामकरण नहीं किए जाने योग्य, अ. नि. अट्ठ. 1.65. बिना नाम वाला, बिना पहचान वाला- न यत्थ कत्थचि सङ्घ अप्पातिक नपुं., अपआतक के स्थान पर अप., द्रष्ट, उपेति अञदत्थु अनुपादानो विय जातवेदो परिनिब्बानतो अपञ्जातक के अन्त.. उद्धं अपञत्तिकोव होतीति, उदा. अट्ठ. 174; - भाव पु., अप्पटिकम्म' त्रि., ब. स. [अप्रतिकर्मन], क. अशुभ, अमङ्गल, तत्पु. स. [अप्रज्ञप्तिकभाव], नाम आदि द्वारा जानने योग्य अमङ्गलसूचक, असाध्य, लाइलाज - सप्पटिकम्मा, नहीं रह जाना, नामकरण या उपाधि आदि से ऊपर उठ अप्पटिकम्माति? कामं एते सपिना अतिफरुसत्ता अप्पटिकम्मा. जाना, पहचान-रहित हो जाना - अपण्णत्तिकभावं गमिस्सतीति जा. अट्ठ 1.320; ख. अक्षम्य, प्रायश्चित्त न किये जाने अत्थो दी. नि. अट्ठ. 1.109; सो गामोपि छड्डितो अपण्णत्तिकभावं योग्य - अप्पटिकम्मा आपत्ति जानितब्बा, परि. 2363B अगमासि, जा. अट्ठ. 1.456; ... तेसं वट्ट अपचत्तिभावं गतं । सप्पटिकम्म अप्पटिकम्म आपत्तिं न जानाति, परि. 345; निप्पत्तिकं जातं. म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).24; उदा. कतेत्थ अप्पटिकम्मा वुत्ता, बुद्धनादिच्चबन्धुना, परि. 387. अट्ठ. 288; ला. अ. किसी विशेष वाद या सिद्धान्त को अप्पटिकम्म नपुं., पटिकम्म का निषे., तत्पु. स. प्रतिपादित न करने वाला, केवल विनय के नियमों के । [अप्रतिकर्मन्], प्रायश्चित्त का अभाव, निराकरण का न आचरण की शिक्षा देने वाला, अप्रत्यक्ष निर्वाण को होना, शुद्धि की प्राप्ति का न होना - भिक्खु आपत्तिया बतलाने वाला - न सो भगवा वेनयिको अप्पत्तिको ति, अप्पटिकम्मे उक्खित्तको विब्भमति, महाव. 124; आपत्तिया अ. नि. 3(2).162; अपत्तिकोति न किञ्चि पआपेतु अप्पटिकम्मे, उक्खेपनीयकम्मं करोतुं .... चूळव. 55. सक्कोति, अथ वा वेनयिकोति सत्तविनासको, अपञत्तिकोति अप्पटिकार त्रि., ब. स. [अप्रतिकार], 1. वह, जिसने अपने अपच्चक्खं निब्बानं पापेति, अ. नि. अट्ठ. 3.327; - अपराध का प्रायश्चित्त नहीं किया है, अपने अपराध कर्म की
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अप्पटिकूल/अप्पटिक्कूल
413
अप्पटिक्खित्त विशुद्धि न चाहने वाला - भिक्खुं धम्मेन विनयेन सत्थुसासनेन घृणित या अहितकर को अनुकूल हितकर या शुभ समझने अनादरं अप्पटिकारं अकतसहायं तमनुवत्तेय्य, पाचि. 293; वाला -- सो सचे आकङ्घति - पटिकूले अप्पटिकूलसी 2. किए हुए उपकार का बदला न देने वाला, प्रत्युपकार विहरेय्यन्ति, अप्पटिकुलसी तत्थ विहरति, म. नि. के रूप में कुछ न करने वाला - रिकायो स्त्री., प्र. वि., 3.364; भिक्खु कालेन कालं पटिकूले अप्पटिकूलसञी ब. व. - कतविनासनेन मित्तदुभिताय कतरस । विहरेय्य, अ. नि. 2(1).159. अप्पटिकारिकायोति, जा. अट्ट. 5.414; 3. असाध्य, लाइलाज, अप्पटिकोपयन्त त्रि., पटि + कुप के प्रेर. के वर्त. कृ., उपचार न किये जा सकने योग्य, अनिवार्य, - रं नपुं.. प्र. पटिकोपयन्त का निषे. [अप्रतिकोपयत्], नहीं तोड़ता हुआ, वि., ए. व. - मरणं नाम सब्बसाधारणं अप्पटिकारञ्च, तस्मा भग्न न करता हुआ - एतादिसं दुक्खमहं तितिक्खं उपोसथं मा त्वं पितरि अतिबाळ्हं सोचि, पे. व. अट्ठ. 239; - क त्रि., अप्पटिकोपयन्तो, जा. अट्ठ. 5.166. उपरिवत् - रिकायो स्त्री., प्र. वि., ब. व. - लहुचित्तायो अप्पटिक्कमना स्त्री., पटिक्कमन के स्त्री. का निषे. कतस्स अप्पटिकारिकायो अनिलो विय येनकामंगमायोति, [अप्रतिक्रमण], शा. अ. पीछे की ओर वापस न जाना, जा. अट्ट. 5.413.
पीछे की ओर कदम न मोड़ना, ला. अ. शक्ति से रहित न अप्पटिकूल/अप्पटिक्कूल त्रि., पटिकूल का निषे., तत्पु. हो जाना, क्षमता, सामर्थ्य - अप्पटिवानिताति अप्पटिक्कमना स. [अप्रतिकूल]. अनुकूल, हितकर, विरोधरहित, मनोहर, अनोसक्कना, अ. नि. अट्ठ. 2.5. उपयोगी, आपत्ति-रहित, - लं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अप्पटिक्कुज्झन्त त्रि., पटि + vकुध के वर्त. कृ. का निषे. चारुदस्सनोति ... अप्पटिकूलं रमणीयं चारु एव दस्सनं [अप्रतिक्रुध्यत्], बदले में क्रोध नहीं कर रहा - कुद्ध अस्साति चारुदस्सनो, सु. नि. अट्ठ. 2.156; - ला' स्त्री., अप्पटिकुज्झन्तो, सङ्गामं जेति दुज्जयं, थेरगा. प्र. वि., ए. व. - गन्तुं अप्पटिकूलासि, उदा. 96%; 442. अप्पटिकूलाति न पटिकूला, मनापा मनोहराति अत्थो, उदा. अप्पटिक्कूल ऊपर द्रष्ट., अप्पटिकूल के अन्त.. अट्ठ. 149; - ला' पु., प्र. वि., ब. व. - मेत्ताय भावितत्ता अप्पटिक्कोसना स्त्री., पटि + Vकुस से व्यु., क्रि. ना. का सत्ता अप्पटिकूला होन्ति, पटि. म. 225; ध. स. अट्ट. 235; निषे. [अप्रतिक्रोषण], उपेक्षा, तिरस्कार या डांट-फटकार - लानि नपुं.. प्र. वि., ब. व. - सुभान्यप्पटिकूलानि, का अभाव, बदले में किसी को खरी-खोटी न सुनाना या फोटुब्बानि अनुस्सर थेरगा. 734; -- गंध कर्म. स. डांट-डपट नहीं करना - उपगमनं अज्झपगमनं अधिवासना [अप्रतिकूलगन्ध], सुगन्ध, मन को प्रिय लगने वाली गन्ध अप्पटिकोसना - इदं तत्थ पटिआतकरणस्मि, चूळव. - अप्पटिगन्धिकाति अपटिक्कूलगन्धेन उदकेन समन्नागता, 216; 220. जा. अट्ठ. 5.402; - गाहिता स्त्री., [अप्रतिकूलग्राहित्व, अप्पटिक्कोसित त्रि., पटि + vकुस के भू. क. कृ. का निषे. नपुं.], विपरीत रूप में किसी बात को ग्रहण न करने की [अप्रतिक्रुष्ट], नहीं तिरस्कृत, नहीं निराकृत, अनुमोदित, अवस्था, बातों को प्रतिकूल रूप में या विपरीत आशय में अनुमत, समर्थित - एसा सद्धम्मविदूहि गरूहि अप्पटिकोसिता ग्रहण न करना - सहधम्मिके वुच्चमाने सोवचस्सायं अनुमता सम्पटिच्छिता, सद्द. 1.57. सो वचस्सियं सो वचस्सता अप्पटिक लग्गाहिता अप्पटिकोसित्वा पटि + Vकुस के पू. का. कृ. का निषे. अविपच्चनीकसातता सगारवता, ध, स. 1334; पु. प. 130; [अप्रतिक्रुष्य], बुरा-भला न कह कर, खण्डन न करके, - वादी त्रि., [अप्रतिकूलवादी]. प्रतिकूल या विपरीत रूप स्पष्ट रूप से अस्वीकार न करके - अनभिनन्दित्वा में न बोलने वाला, पुरानी बातों को मन में बांध कर द्वेष अप्पटिक्कोसित्वा उट्ठायासना पक्कामि, म. नि. 2.225; म. आदि से प्रभावित होकर न बोलने वाला, अनुकूल रूप में नि. 3.256; अनभिनन्दित्वा अप्पटिक्कोसित्वा पहो पुच्छितब्बो, बोलने वाला, कटु वचनों से अप्रभावित हो स्वयं मृदु वचन म. नि. 3.78. बोलने वाला - खन्ता दुरुत्तानमप्पटिकूलवादी, अधिवासनं अप्पटिक्खित्त त्रि., पटि+vखिप के भू. क. कृ. का निषे. सोत्थानं तदाहु जा. अट्ठ. 4.68; अप्पटिकूलवादीति अक्कोच्छि [अप्रतिक्षिप्त], अप्रतिषिद्ध, नहीं अस्वीकृत, नहीं वर्जित, मं अवधि मन्ति युगग्गाहं अकरोन्तो अनुकूलमेव वदति, जा. अनुमोदित - इदं न कप्पतीति अप्पटिक्खित्तं तञ्चे अकप्पियं अट्ठ. 4.69; - सञी त्रि., [अप्रतिकूलसंज्ञिन्], प्रतिकूल अनुलोमेति, महाव. 327.
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अप्पटिक्खिप्प
414
अप्पटिजग्गन्त/अपटिजग्गन्त अप्पटिक्खिप्प त्रि., पटि + खिप के सं. कृ. का निषे. अप्पटिघत्ता अछम्भी च होतीति एवं पटिपत्तिगणं दिस्वा, सु० [अप्रतिक्षेप्य], अस्वीकृत या निषिद्ध नहीं होने योग्य, नि. अट्ठ. 1.70. स्वीकरणीय - खिप्पा पु., प्र. वि., ब. व. - सब्बे ते अप्पटिच्च अ०, पटि+के पू. का. कृ., पटिच्च का निषे. अप्पटिक्खिप्पा, पुब्बाचरियवचो इदं, ... तथा उद्दिस्स [अप्रतीत्य], अपेक्षा न करके, निर्भर न होकर, हेतुओं एवं गच्छन्ता सचेपि बहू होन्ति, तथापि तेन पुरिसेन सब्बे ते प्रत्ययों के बिना - सा च खो पटिच्च, नो अपटिच्च, म. नि. अप्पटिक्खिप्पा, जा. अट्ट. 2.306-307.
1.2463; 249. अप्पटिगन्धिक/अप्पटिगन्धिय त्रि., पटिगन्धिक का निषे.. अप्पटिच्छन्न त्रि., पटि + vछद के भू. क. कृ. का निषे. ब. स. [अप्रतिगन्धिक], दुर्गन्ध से रहित, सुगन्ध से युक्त, -- [अप्रतिच्छन्न], नहीं ढका हुआ, खुला हुआ, अनाच्छादित, न्धिका स्त्री., प्र. वि., ए. व. - अकक्कसा अपब्भारा, उन्मुक्त, सुस्पष्ट, रहस्यमय, अगूढ़ - नच्चन्तो अप्पटिच्छिन्नो साधु अप्पटिगन्धिका, जा. अट्ठ. 5.401; अप्पटिगन्धिकाति अहोसि, जा. अट्ठ. 1.205; एक आपत्तिं आपन्नो होति अप्पटिक्कूलगन्धेन उदकेन समन्नागता, जा. अट्ठ. 5.402; सञ्चेतनिक सुक्कविस्सट्टि अप्पटिच्छन्नं चूळव. 98; - - धियं द्वि. वि., ए. व. - समञ्च चतुरंसञ्च, सादु कम्मन्त त्रि., ब. स. [अप्रतिच्छन्नकर्मान्त], छिपाकर कर्म अप्पटिगन्धियं, जा. अट्ठ. 7.279; -न्धिया स्त्री, प्र. वि., न करने वाला, पारदर्शितायुक्त क्रियाकलाप करने वाला, - ब. व. - सेतोदका सुप्पतित्था, सीता अप्पटिगन्धिया, पे. व. स्स ष. वि., ए. व. - अप्पटिच्छन्नकम्मन्तरस, भिक्खवे. 114; अप्पटिगन्धियाति पटिकलगन्धरहिता सरभिगन्धा, पे. द्विन्नं गतीनं अञ्जतरागति पाटिकवा, अ. नि. 1(1).77; छडे व. अट्ठ. 66.
पटिच्छन्नकम्मन्तरसाति पापकम्मरस, अ. नि. अट्ठ. 2.26%3; अप्पटिग्गहित त्रि., पटिग्गहित का निषे. [अप्रतिगृहीत], - किलोमक नपुं.. ब. स. [अप्रतिच्छन्नक्लोमन्], खुला किसी के द्वारा औपचारिक रूप से ग्रहण नहीं किया गया हुआ फुप्फुसावरण या दाहिना फेफड़ा - अप्पटिच्छन्नकिलोमक - अनतिरित्तं नाम अकप्पियकतं होति, अप्पटिग्गहितकतं सकलसरीरे चम्मस्स हेह्रतो मंसं परियोनन्धित्वा ठितन्ति, होति अनुचारिकतं होति, पाचि. 113; भिक्खना अप्पटिगहितयेव खु. पा. अट्ठ. 41; विभ. अट्ट, 57; - परिवास पु., कर्म. स. पुरिमनयेनेव अतिरित्तं कतं, पाचि. अट्ठ. 85.
[बौ. सं. अप्रतिच्छन्नपरिवास], परिवास (बौद्ध भिक्षुसङ्घ में अप्पटिगहितकसञी त्रि., ब. स. [अप्रतिगृहीतसंज्ञिन], प्रवेश के लिये निर्धारित परीक्ष्यमाण अवधि) के अनेक प्रभेदों इस बात का ज्ञान या समझ रखने वाला कि कोई वस्तु में से एक, अन्य धर्मावलम्बियों को दिया जाने वाला परिवास विधिपूर्वक न दान दी गयी है और न ही स्वीकार की गयी - पटिच्छन्नपरिवासो, अप्पटिच्छन्नपरिवासो सुद्धन्तपरिवासो है - अप्पटिग्गहितके अप्पटिग्गहितकसञी अदिन्नं मुखद्वारं समोधानपरिवासो, परि. 249; महाखन्धकेवुत्तो तित्थियपरिवासो आहारं आहारेति, पाचि. 124.
अप्पटिच्छिन्नपरिवासो नाम परि. अट्ठ.6; द्रष्ट. परिवास के अप्पटिघ त्रि., ब. स. [अप्रतिघ], क. चित्त की विशुद्धि में अन्त. (आगे), - मन्त त्रि., ब. स. [अप्रतिच्छन्नमन्त्र], बाधक नीवरणों या बाधाओं से मुक्त, भयों से मुक्त - अपने रहस्यों को छिपाकर न रखने वाला - अनिगुव्हमन्तन्ति चातुद्दिसो अप्पटिघो च होति, सन्तुस्समानो इतरीतरेन, सु. अप्पटिच्छन्नमन्तं जा. अट्ठ. 5.73; - मानत्त नपुं.. कर्म. स. नि. 42; अप. 1.9; तासु दिसासु कत्थचि सत्ते वा सङ्घारे वा [बौ. सं. अप्रतिच्छन्नमानाप्य]. छिपाकर कर किया गया भयेन न पटिहअतीति अप्पटिघो, सु. नि. अट्ठ. 1.69; ख. मानत्त-नामक तप या प्रायश्चित्त, चार प्रकार के मानत्तों में प्रतिरोध से रहित, रुकावट से रहित - कतमे धम्मा अप्पटिघा, से एक - चत्तारो मानत्ता - पटिच्छन्नमानत्तं, ध. स. 1460; सनिदस्सनसप्पटिघं रूपं, अनिदरसनसप्पटिघं अपटिच्छन्नमानत्तं, पक्खमानत्तं समोधानमानत्तं, परि. 249; रूपं, अनिदरसन अप्पटिघरूपं, दी. नि. 3.174; नास्स तत्थ अप्पटिच्छन्नमानत्तं नाम- यं अप्पटिच्छन्नाय आपत्तिया पटिघोति अप्पटिघं, दी. नि. अट्ठ. 3.163; अघेति अप्पटिचे परिवासं अदत्वा केवलं आपत्तिं आपन्नभावेनेव मानत्तारहस्स ठाने, जा. अट्ठ. 4.287; - ता स्त्री., भाव. [अप्रतिघता], मानत्तं दिय्यति, परि. अट्ठ. 16; द्रष्ट. मानत्त के अन्त, आगे. बाधा-रहित होना, घात-प्रतिघात की स्थिति से रहित होना अप्पटिजग्गन्त/अपटिजग्गन्त त्रि, पटि + (जाग के - तरसेव सप्पटिघअप्पटिघताय दसके नयो दिन्नो, ध, स. वर्त. कृ. का निषे., किसी के प्रति जागरुक न रहने वाला, अट्ठ. 369; - त्त नपुं॰, भाव. [अप्रतिघत्व], उपरिवत् - उचित ध्यान या देखरेख न रखने वाला, - न्तानं ष. वि.,
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अप्पटिजानन्त
415
अप्पटिपहरण
ब. व. -धनकामानं उप्पन्नं धनम्पि मातरं अपटिजग्गन्तानं अप्पटिनिस्सज्जन नपुं., पटि + नि+सज के क्रि. ना. नरसतीति मे सुतन्ति, जा. अट्ठ. 5.326; - ग्गित्वा पू. का. का निषे., अपरित्याग - अप्पटिनिस्सग्गोति अत्तना गहितस्स कृ., उचित देखभाल न कर, उचित रूप में ध्यान न देकर - अप्पटिनिस्सज्जनं, विभ. अट्ठ. 465; - रस त्रि., ब. स., वह, मिच्छा चरित्वानाति मातरं अपटिजग्गित्वा, जा. अट्ठ. 5.326;- जिसका कार्य परित्याग को न होने देना है - उपनन ग्गिय त्रि.. सं. कृ., असाध्य, अनुपचार्य, लाइलाज - निलक्खणो उपनाहो, वेर अप्पटिनिस्सज्जनरसो, कोधानुपबन पूतिगत्ततिस्सत्थरोत्वेवस्स नाम उदपादि, अथस्स अपरभागे भावपच्चुपट्टानो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).113. अट्ठीनि भिजिंस सो अप्पटिजग्गियो अहोसि.ध. प. अट्ठ. अप्पटिनिस्सज्जित्वा पटि + नि + Vसज के पू. का. कृ. 1.181.
का निषे., परित्याग न करके, नहीं छोड़ कर - ... दिद्धिं अप्पटिजानन्त त्रि, पटि + Vा के वर्त. कृ. का निषे. अप्पटिनिस्सज्जित्वा समणस्स गोतमस्स सम्मुखीभावं [अप्रतिजानत्]. वचन न देते हुए, प्रतिज्ञा नहीं कर रहा, गच्छेय्यन्ति, दी. नि. 3.9; अप्पटिनिस्सद्वतण्हाति अनुमोदन नहीं कर रहा, सहमत नहीं हो रहा - ... अनु सयकिले स अप्पटिनिस्स-ज्जित्वा ठितत्ता अत्तना उप्पादितभावं अप्पटिजानन्तो ..., उदा. अट्ठ. 15. अप्पटिनिस्सद्वतण्हा, महानि. अट्ठ. 125. अप्पटिञा स्त्री., पटिञा का निषे., तत्पु. स. [अप्रतिज्ञा]. अप्पटिनिस्सह त्रि., पटि + नि + सज के भू, क. कृ. का प्रतिज्ञा का अभाव, अनुमोदन या स्वीकृति का अभाव, निषे. [अप्रतिनिःसृष्ट], क, कर्मवा. में - वह, जिसका अस्वीकृति - पटिञायकरणीयं कम्मं अपटिञाय करोति परित्याग नहीं किया गया है, नहीं त्यागा गया या छोड़ा ... महाव. 424; अप्पटिआय कतं होति- ... समन्नागतं गया, ख. कर्तृ. वा. - नहीं त्यागने वाला - जानं ... दिदि तज्जनीयकम्म अधम्मकम्मञ्च होति, अविनयकम्मञ्च, अप्पटिनिस्सटेन सद्धि सम्भुजिस्सथापि संवसिस्सथापि दुवूपसन्तञ्च, चूळव. 4; ब्राह्मणा अप्पटिञाय तेसं सहापि सेय्यं कप्पेस्सथ, पाचि. 183;- तण्ह त्रि., ब. स., समणब्राह्मणानं, म. नि. 2.395.
वह, जिसने अभी तक तृष्णा का त्याग नहीं किया है - अप्पटिनाद पु./त्रि., [अप्रतिनाद], अद्वितीय नाद या गर्जना अप्पटिनिस्सट्टतण्हाति निस्सरणप्पहानाभावेन भवे पतिहित - तत्थ सीहनादन्ति सेटनादं अभीतनादं अप्पटिनादंअ. अनुसयकिलेसं अप्पटिनिस्सज्जित्वा ठितत्ता अप्पटिनिस्सट्टतण्हा, नि. अट्ठ. 2.175.
महानि. अट्ठ. 125; अमुत्ततण्हा अप्पहीनतण्हा अप्पटिनिस्सग्ग पु.. पटिनिस्सग्ग का निषे. [अप्रतिनिःसर्ग]. अप्पटिनिस्सद्वतण्हाति-अवीततण्हासे भवाभवेसु, महानि. 35. अपरित्याग, अपलायन, पीछे की ओर पैर नहीं खींचना - यो अप्पटिपक्खभाव पु., तत्पु. स. [अप्रतिपक्षभाव], विरोध का पळासो पळासायना ... विवादवानं यगग्गाहो अप्पटिनिस्सग्गो, अभाव, किसी एक तार्किक प्रतिज्ञा के विरुद्ध विरोधी द्वारा अयं वुच्चति पळासो, पु. प. 125; तथा अप्पटिनिस्सग्गे, स्थापित विपरीत प्रतिज्ञा का अभाव - न्हानस्स पापहेतूनं पापिकाय हि दिट्ठिया, उत्त. वि. 516; 932; - मन्ती त्रि., अप्पटिपक्खभावतो, उदा. अट्ठ. 61. [अप्रतिनिसर्गमन्त्रिन्]. परित्याग करने की बात नहीं सोचने अप्पटिपज्जन नपुं. पटिपज्जन का निषे., अनभ्यास, व्यवहार वाला, वाद-विवाद में अपनी स्थापना को नहीं छोड़ने वाला में नहीं उतारना, स्वयं को नहीं लगा देना - यथानुसिट्ठ - ते असञ्जत्तिबला अनिज्झत्तिबला अप्पटिनिस्सग्गमन्तिनो अप्पटिपज्जनतो पदक्खिणेन अनुसासनिं न गण्हातीति तमेव अधिकरणं थामसा परामासा अभिनिविस्स वोहरन्ति अप्पदक्खिणग्गाही अनुसासनि, पारा. अट्ठ. 2.179. अ. नि. 1(1).90; इमे पन न तथा मन्तेन्तीति अप्पटिपज्जमान त्रि., पटिपज्जमान का निषे. अप्पटिनिस्सग्गमन्तिनो, अ. नि. अट्ठ. 2.48.
[अप्रतिपद्यमान], अभ्यास नहीं कर रहा, व्यवहार में आचरण अप्पटिनिस्सज्ज पटि + नि + Vसज के पू. का. कृ. का न करने वाला, स्वयं को न लगा देने वाला - सद्धाविरहितो निषे०, क्षमा याचना न करके, अपने पापकर्म के लिए ... अत्तनो विषये अपटिपज्जमानो विसेसं नाधिगच्छति, सु. पश्चात्ताप का भाव प्रकट न करके - सारिपत्तो आसज्ज नि. अट्ट, 1.113. अप्पटिनिस्सज्ज चारिक पक्कन्तोति, अ. नि. 3(1).190; अप्पटिपहरण नपुं, पटिप्पहरण का निषे. [अप्रतिप्रहार], अप्पटिनिस्सज्जाति अक्खमापेत्वा अच्चयं अदेसेत्वा, अ.नि. उलटकर प्रहार न करना, पलट कर वार न करना - अट्ठ.3.261.
पहरन्तं वा अप्पटिपहरणं, ध, प. अट्ठ. 2.368.
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4.32.
अप्पटिपुग्गल
416
अप्पटिभान अप्पटिपुग्गल त्रि., ब. स. [अप्रतिपुद्गल], वह, जिसके अप्पटिबलपचं अतितरुणिजेव समानं, जा. अट्ठ समान कोई दूसरा व्यक्ति नहीं है, अद्वितीय, अनुपम, - लो पु., प्र. वि., ए. व. - अत्थि सक्यकुले जातो, बुद्धो अप्पटिबाहनीय त्रि., पटि + Vबाह के सं. कृ. का निषे., वह, अप्पटिपुग्गलो, थेरीगा. 185; यत्थ एतादिसो सत्था, लोके जिसे बाहर न किया जा सके या जिससे बचा जा सके, अप्पटिपुग्गलो, दी. नि. 2.117; अप्पटिपुग्गलोति अनिवारणीय - तस्मा ... सम्मासम्बुद्ध नपि पटिभागपुग्गलविरहितो, दी. नि. अट्ठ. 2.167; अप्पटिबाहनीयमेतन्ति दस्सेति, पे. व. अट्ठ. 250. अप्पटिपुग्गलोति अओ कोचि अहं बुद्धोति एवं पटिचं अप्पटिबाहित त्रि., पटि + Vबाह के भू. क. कृ. का निषे., कातुं समत्थो पुग्गलो नत्थीति अप्पटिपुग्गलो, अ. नि. अनिन्दित, अनुपेक्षित, अनिवारित - अप्पटिकट्ठाति अट्ठ. 1.94; - लं पु., द्वि. वि., ए. व. - ताहं दिसं अप्पटिबाहिता, स. नि. अट्ठ. 2.247; - बाहित्वा पटि + नमस्सिस्सं जिनं अप्पटिपुग्गलं, अप. 1.157; - लस्स पु.. Vबाह के पू. का. कृ. का निषे०, निन्दा न करके, बुरा-भला ष. वि., ए. व. - तथागतस्सप्पटिपुग्गलस्स, उपज्जि न कह कर, तिरस्कार न करके - अप्पटिक्कोसित्वाति कारुञता सब्बसत्ते, बु. वं. 1.2; - त्त नपुं॰, भाव. बालदुभासितं तया भासितन्ति एवं अप्पटिबाहित्वा, दी. नि. [अप्रतिपुद्गलत्व], अनुपम या अद्वितीय होना, अपने जैसे अट्ठ. 1.133; - बाहिरभाव पु., निन्दा न करना, तिरस्कार किसी अन्य व्यक्ति का न रहना - असमोति अप्पटिपुग्गलत्ताव न करना, खण्डन न करना, अप्रतिषेध, स्वीकृति - चतुत्थवारे सब्बसत्तेहि असमो, अ. नि. अट्ट, 1.94.
.... विसपक्खिपनपापकम्मस्स अप्पटिबाहिरभावं जत्वा चतुत्थवारे अप्पटिपुच्छा अ., क्रि. वि., पटिपुच्छा का निषे. न अगमासि, जा. अट्ठ4.138. [अप्रतिपृच्छा]. उत्तर दिए बिना, जांच-पड़ताल के बिना, अप्पटिभय त्रि., ब. स. [अप्रतिभय], वह, जिससे किसी बिना कहे हुए ही - समग्गो सङ्घो पटिपुच्छाकरणीयं कम्मं प्रकार का भय न हो, निर्भीक, भयरहित - यो पु.. प्र. पु.,
अप्पटिपुच्छा करोति, महाव. 425; अप्पटिपुच्छा कतं होति, ए. व. - सप्पटिभयो बालो, अप्पटिभयो पण्डितो. .... म. नि. ... तीहङ्गेहि समन्नागतं तज्जनीयकम्म अधम्मकम्मञ्च होति, 3.108; - यं पु., द्वि. वि., ए. व. - गामन्तं अनुप्पत्तो खेम अविनयकम्मञ्च, दुवूपसन्तञ्च, चूळव. 4.
अप्पटिभयाति, दी. नि. 1.64; - या स्त्री॰, प्र. वि., ए. व. अप्पटिबद्ध त्रि., पटि + Vबन्ध के भू. क. कृ. का निषे. - एवमस्स ... दिसा पटिच्छन्ना होति खेमा अप्पटिभया, दी. [अप्रतिबद्ध], किसी के साथ नहीं जुड़ा हुआ या बंधा हुआ, नि. 3.144; - यं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - पारिमं तीरं खेम स्वतन्त्र, बन्धनमुक्त, - द्धो पु., प्र. वि., ए. व. - .... अप्पटिभयं, म. नि. 1.188; - या पु.. प्र. वि., ब. क. - अनिस्सितो अप्पटिबद्धो विष्पमुत्तो विसञ्जत्तो विमरियादिकतेन अनुपडुता अनुपसट्टा खेमिनो अप्पटिभया गच्छन्तीति वुत्तं चेतसा विहरति, चूळनि. 59; अप्पटिबद्धोति मानेन न बद्धो, होति, खु. पा. अट्ठ. 125. महानि. अट्ठ. 16; -द्धं पु., वि. वि., ए. व. - अप्पटिबद्ध अप्पटिभाग त्रि., ब. स. [अप्रतिभाग]. वह, जिसका प्रतिभागी चित्तं छन्दरागे न इञ्जतीति-आनेज, पटि. म. 377; - कोई न हो अथवा जिसके समान कोई न हो, अतुलनीय, चित्त त्रि., ब. स. [अप्रतिबद्धचित्त], नहीं जुड़े हुए या बेजोड़, - गो पु., प्र. वि., ए. व. - एतेसन्ति ... सीलवन्तानं बंधे हुए चित्त वाला, बन्धनमुक्त चित्त वाला, आसक्ति या सप्पुरिसानं सीलगन्धोव अनुत्तरो असदिसो अपटिभागोति, लगावों से मुक्त चित्त वाला - कुले कुले अप्पटिबद्धचित्तो, ध. प. अट्ठ. 1.237; अप्पटिभागो बुद्धोति, मि. प. 225; - नं एको चरे खग्गविसाणकप्पो, सु. नि. 65; कुले कुले नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अप्पटिभाग. .... निब्बानं. मि. प. 289. अप्पटिबद्धचित्तोति खत्तियकुलादीस यत्थ कत्थचि किलेसवसेन अप्पटिभान त्रि., ब. स. [अप्रतिभान], किंकर्तव्यविमूढ़, अलग्गचित्तो, चन्दूपमो निच्चनवको हुत्वाति अत्थो, सु. नि. उलझन भरे चित्त वाला, कुछ भी सोचने में असमर्थ, उत्तर अट्ठ. 1.94; कामेसु अप्पटिबद्धचित्ता, उद्धंसोताति वुच्चतीति, देने में अक्षम, भोंचक्का - नो पु., प्र. वि., ए. व. - अरिहो थेरीगा. 12
भिक्खु गद्धबाधिपुब्बो तुण्हीभूतो मडुभूतो पत्तक्खन्धो अप्पटिबल त्रि., ब. स. [अप्रतिबल], अक्षम, असमर्थ, - अधोमुखो पज्झायन्तो अप्पटिभानो निसीदि, म. नि. 1.186%; पञ त्रि., ब. स. [अप्रतिबलप्रज्ञ], अक्षम या निर्बल अप्पटिभानोति किञ्चि पटिभानं अपस्सन्तो भिन्नपटिभानो प्रज्ञा वाला - तत्थ असमत्थपञ्जन्ति, कुटुम्ब विचारेतुं एवरूपम्पि नाम निय्यानिकसासनं म. नि. अट्ट (मू.प.)
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अप्पटिम
417
अप्पटिवानिय/अप्पटिवानीय
1(2).11; - नं पु., द्वि. वि., ए. व. - अथ खो दुम्मुखो ... सच्चकं ... अप्पटिभानं विदित्वा भगवन्तं एतदवोच, म. नि. 1.299; -- ना पु.. प्र. वि., ब. व. - सङ्घाटिपल्लत्थिकाय निसीदिसु तुण्हीभूता मङ्गभूता पत्तक्खन्धा अधोमुखा पज्झायन्ता अप्पटिभाना, पारा. 253; - ता स्त्री॰, भाव. [अप्रतिभानत्व]. किंकर्तव्यविमूढ़ता, जड़ता, निरुत्तर हो जाना, भौचक्का हो जाना - सो अप्पटिभाणताय एवं भविस्सती ति पक्कामि, जा. अट्ठ. 4.12. अप्पटिम त्रि., ब. स. [अप्रतिम], अतुलनीय, लाजवाब, बेजोड़, अनोखा, - मो पु.. प्र. वि., ए. व. - ओगाहि सत्था सुकिलन्तरूपो, तथागतो अप्पटिमोध लोके, उदा. 168; अप्पटिमोध लोकेति अप्पटिमो इध इमस्मिं सदेवके लोके, उदा. अट्ठ. 327; विधुरोति विगतधुरो, अप्पटिमोति वुत्तं होति, सु. नि. अट्ठ. 2.273; उत्तमो बुद्धोति, पवरो बुद्धोति असमो बुद्धोति, असमसमो बुद्धोति अप्पटिमो बुद्धोति, अप्पटिभागो बुद्धोति, मि. प. 225. अप्पटिमंस त्रि., पटिमरस के अप. का निषे. [अप्रतिमृश्य].
शा. अ. स्पर्श नहीं करने योग्य, अंगुलि से संकेत नहीं करने योग्य, ला. अ. दोषरहित, निर्दुष्ट, - सेन पु., तृ. वि., ए. व. ... परिसुद्धेन कायसमाचारेन समन्नागतो - अच्छिद्देन अप्पटिमसेन, चूळव. 409; परिसुद्धनम्हि वचीसमाचारेन समन्नागतो अच्छिद्देन अप्पटिमसेन, अ. नि. 3(2).65; अप्पटिमसेनातिआदीसु येन केनचिदेव पहटो वा होति, अ. नि. अट्ट. 3.309. अप्पटिरूप/अप्पतिरूप त्रि., ब. स. [अप्रतिरूप].
अनुपयुक्त, नहीं अनुकूल, प्रतिकूल, मर्यादा या प्रतिष्ठा के विपरीत, - पो पु.. प्र. वि., ए. व. - अयुत्तो अप्पत्तो अननुच्छविको अनरहो अप्पतिरूपो धतङ्ग समादियति, मि. प. 322: - पं' पु..द्वि. वि., ए. व. - न च चीवरहेतु अनेसनं अप्पतिरूपं आपज्जति, स. नि. 1(2).174; महानि. 375; - पं. नपुं.. प्र. वि.. ए. व. - अननुलोमिकत्ता एव च अप्पतिरूपं पारा. अट्ठ. 1.169; - त्त नपुं.. भाव. [अप्रतिरूपत्व], अनुपयुक्तता, अनुकूल न होना, अनुरूप न होना - अप्पतिरूपत्ता एव च अस्सामणक, समणानं कम्म न होति. पारा. अट्ट. 1.169. अप्पटिलद्ध त्रि., पटि + Vलभ के भू. क. कृ. का निषे. [अप्रतिलब्ध], अभी तक अप्राप्त, अभी तक प्राप्त नहीं किया गया, - द्धाय स्त्री., ष. वि., ए. व. - हेतु अट्ठ पच्चया । आदिब्रह्मचरियिकाय पाय अप्पटिलद्धाय पटिलाभाय, अ.
नि. 3(1).3; - द्धस्स पु., ष. वि., ए. व. - इति रूपाति -अप्पटिलद्धस्स पटिलाभाय चित्तं पणिदहति, महानि. 24. अप्पटिलोमवुत्ति त्रि०, ब. स. [अप्रतिलोमवृत्ति], वह, जो विपरीत स्वभाव वाला न हो, अनुपूरक, वह, जो अनुकूल प्रकृति वाला हो - असङ्कसकवुत्तिस्साति अप्पटिलोमवृत्ति अस्स, जा. अट्ठ. 7.193. अप्पटिवत्तिय त्रि., पटि + Vवत के सं. कृ. का निषे. [अप्रतिवर्त्य], नहीं पलटने योग्य, नहीं रोक देने योग्य, नहीं पीछे की ओर पुनः वापस ले जाने योग्य, - यं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - धम्मेन चक्कं वत्तेमि, चक्कं अप्पटिवत्तियं, सु. नि. 559; मि. प. 178; इसिपतने मिगदाये अनुत्तर धम्मचक्कं पवत्तितं अप्पटिवत्तियं समणेन वा ब्राह्मणेन वा, म. नि. 3.297; आसभीवाचाभासनं अप्पटिवत्तियवरधम्मचक्कप्पवत्तनस्स पुब्बनिमित्तं, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).51; - यो पु., प्र. वि., ए. व. - धम्मपरियायो पवत्तितो
अप्पतिवत्तियो समणेन वा ब्राह्मणेन वा, म. नि. 3.123. अप्पटिवान 1.नपुं., पटिवान का निषे. [अप्रतिवारण], शा. अ. उत्कण्ठा का अभाव, अविरोध, अप्रतिकूलता, बाधा का अभाव, ला. अ. थकावट का अभाव, अप्रतिक्रमण, असन्तुष्टि, अतृप्ति, अनुत्कण्ठा - तुम्हे चे पि, भिक्खवे, अप्पटिवानं पदहेय्याथ, अ. नि. 1(1).66; 2. त्रि., ब. स., असन्तुष्ट - धम्मानं अतित्तो अप्पटिवानो कालङ्कतो, अ. नि. 1(1).314; अप्पटिवानोति अनिवत्तो अनुक्कण्ठितो, अ. नि. अट्ठ. 2.232; अतित्तो अप्पटिवानो मातुगामो कालं करोति, अ. नि. 1(1).93; तिण्णं धम्मानं अतित्तो अप्पटिवानो मातगामं कालं करोती ति, जा. अट्ठ. 2.270; - चित्त त्रि.. ब. स., उत्कण्ठा से मुक्त चित्त वाला, अविचल चित्त वाला - अप्पटिवानचित्तोति अनुक्कण्ठितचित्तो, अ. नि. अट्ठ. 3.20; तस्मा ददे अप्पटिवानचित्तो, यत्थ दिन्नं महप्फलं, अ. नि. 2(1).37. अप्पटिवानिता स्त्री॰, भाव., अविचलता, पीछे कदम न ले जाना, बाधारहित अथवा निर्मुक्त प्रयास करने की दशा - तत्थ अप्पटिवानिताति अप्पटिक्कमना अनोसक्कना, अ. नि. अट्ठ. 2.5; अप्पटिवानिता च पधानस्मिन्ति अरहत्तं अपत्वा पधानस्मिं अनिवत्तनता अनोसक्कनता, ध. स. अट्ठ. 100; असन्तुद्धिता च कुसलेसु धम्मेसु अप्पटिवानिता च पधानस्मि दी. नि. 3.171; अप्पटिवानिता च पधानास्मिन्ति कुसलानं धम्मानं भावनाय सक्कच्चकिरियता, दी. नि. अट्ठ. 3.150. अप्पटिवानिय/अप्पटिवानीय त्रि., [बौ. सं. अप्रतिवाणीय], नीरसता या उबाऊपन नहीं लानेवाला, प्रतिबाधित न होने
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अप्पटिवानी
418
अप्पटिविरत
योग्य, नहीं रोके जा सकने योग्य - तञ्च अप्पटिवानीय, असेचनकमोजवं, थेरीगा. 55; अप. 2.277; तञ्च पन अप्पटिवानीयन्ति तञ्च पन धम्म अप्पटिवानीयं देसेति, स. नि. अट्ठ. 1.277. अप्पटिवानी' त्रि., अप्पटिवान से व्यु. [अप्रतिवारणिन]. अविचल चित्त वाला, उत्कण्ठारहित या सुदृढ़ प्रयास करने वाला - अप्पटिवानी सदाहं भिक्खवे पदहामि, अ. नि. 1(1).66. अप्पटिवानी स्त्री., अप्पटिवानिता के स्थान पर प्रयुक्त [बौ. सं. अप्रतिवाणिः]. अनुत्कण्ठता, दृढ़ता, वापस कदम न लौटाना, अविचलता - वायामो च उस्साहो च उस्सोलिहञ्च अप्पटिवानी च सति च सम्पजञञ्च करणीयं, अ. नि. 1(2).108; अ. नि. 2(2).25; जरामरण, भिक्खवे अजानता ... पे ... अप्पटिवानी करणीया ... पे .... स. नि. 1(2). 117; अप्पटिवानीति अनिवत्तनता, अ. नि. अट्ठ. 2.317. अप्पटिविजानन्तु त्रि., पटि + वि + आ के वर्त. कृ. का निषे. [अप्रतिविजानत्]. सुख और दुःख का संवेदन न
करने वाला - अप्पटिविजानन्तस्स सपिनो न होति. मि. प. 275. अप्पटिविज्झन नपुं.. पटि + विध के क्रि. ना. का निषे. [अप्रतिवेध], गहरी पैठ का अभाव, उचित ध्यान का अभाव, तीरण एवं प्रहाण परिज्ञा द्वारा धर्मों की यथार्थता के ज्ञान का अभाव - अप्पटिवेधाति अप्पटिविज्झनेन, दी. नि. अट्ठ. 2.119; स. नि. अट्ठ. 3.329; अप्पटिवेधाति तीरणप्पहानपरिञावसेन अप्पटिविज्झना, स. नि. अट्ठ. 2.84; - क त्रि., धर्मों की यथार्थ प्रकृति की गहराई तक जाकर प्रतिवेध-ज्ञान द्वारा उनके यथार्थ का ज्ञानदर्शन न करने वाला - चतुन्नं अरियसच्चानं अप्पटिविज्झनकमोहञ्च
अतीतो, ध. प. अट्ठ. 2.395; सु. नि. अट्ठ. 2.172. अप्पटिविज्झन्तु त्रि., पटि+विध के वर्त. कृ. का निषे.. प्रतिवेध-ज्ञान द्वारा सत्य का ज्ञानदर्शन नहीं करने वाला - उत्तरि अप्पटिविज्झन्तो ब्रह्मलोकूपगो होति. अ. नि. 3(2).308; पटि. म. 304; मि. प. 190. अप्पटिविज्झिय पटि + विध के पू. का. कृ. का निषे. [अप्रतिविध्य]. प्रतिवेध-ज्ञान द्वारा नहीं जान कर - बाला च मोहेन रसानुगिद्धा, अनागतं अप्पटिविज्झियत्थं, जा. अट्ठ.. 4.148; अप्पटिविज्झियत्थन्ति अप्पटिविज्झित्वा अत्थं पठममेव कत्तब्बं अकत्वाति अत्थो, जा. अट्ठ. 4.149. अप्पटिविदित त्रि., पटि + विद के भू. क. कृ. का निषे. [अप्रतिविदित], प्रतिवेध-ज्ञान द्वारा अथवा परिज्ञा द्वारा अज्ञात,
गहन आन्तरिक ज्ञान द्वारा नहीं जाना गया - येसं धम्मा अप्पटिविदिता, परवादे सु नीयरे, स. नि. 1(1).4; अप्पटिविदिताति आणेन अप्पटिविद्धा, स. नि. अट्ठ. 1.24. अप्पटिविद्ध त्रि., पटि + vविध के भू. क. कृ. का निषे. [अप्रतिविद्ध], शा. अ. गहराई तक नहीं बेधा गया, बहुत गहरे जाकर नहीं छेदा गया, स्वस्थ, घायल अवस्था को अप्राप्त - ... तव सेनं ब्रह्मदत्तेन दिन्नं अप्पटिविद्धं आनेस्सामि, जा. अट्ठ. 6.275; ला. अ. गहराई के साथ नहीं समझा गया, ठीक से नहीं जाना गया - अयम्पि खो ते, भद्दालि, समयो अप्पटिबिद्धो अहोसि. म. नि. 2.110; भद्दालीति, ... कारणं अत्थि, तम्पि ते न पटिविद्धं न सल्लक्खितन्ति दस्सेति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.108; - चतुसच्च त्रि., ब. स. [अप्रतिविद्धचतुःसत्य], वह, जिसने चार सत्यों का गहराई के साथ ज्ञान प्राप्त नहीं किया है- अनभिसम्बुद्धस्साति अप्पटिविद्धचतुसच्चस्स, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).120. अप्पटिविभत्त त्रि, पटि + वि + भज के भू. क. कृ. का निषे. [अप्रतिविभक्त], विभक्त नहीं किया हुआ, विभाजित नहीं किया गया, समान भागों में अविभाजित, समान रूप से ग्राह्य - यं ... कुले देय्यधम्म सब्ब त अप्पटिविभत्तं भविस्सति ..., स. नि. 2(2).293; अप्पटिविभत्तन्ति इदं भिक्खूनं दस्साम, इदं अत्तना भुजिस्सामाति एवं अविभत्तं भिक्खूहि सद्धि साधारणमेव भविस्सतीति, स. नि. अट्ठ. 3.139; - भोग पु., कर्म. स. [अप्रतिविभक्तभोग]. विभाजित न करके वस्तुओं का समान रूप से उपभोग - ते किर अञमज अप्पटिविभत्तभोगा परमविस्सासिका अहेसं. जा. अट्ठ. 4.350; - भोगी त्रि., पटिविभत्तभोगी का निषे. [अप्रतिविभक्तभोगिन], विभाजित न किये गये भोजन, वस्त्र आदि का उपभोग करने वाला, सामान्य रूप में किसी भी भेदभाव के बिना का भोग करने वाला- तथारूपेहि लाभेहि अप्पटिविभत्तभोगी होति, सीलवन्तेहि सब्रह्मचारीहि साधारणभोगी, म. नि. 1.404; तदुभयम्पि अकत्वा यो अप्पटिविभत्तं भुञ्जति, अयं अप्पटिविभत्तभोगी नाम. म. नि. अट्ठ (म.प.) 1(2).2903; ये ते लाभा ... लाभेहि अप्पटिविभत्तभोगी भविस्सन्ति सीलवन्तेहि सब्रह्मचारीहि साधारणभोगी, दी. नि. 2.63. अप्पटिविरत त्रि., पटि + वि + (रम के भू. क. कृ. का निषे. [अप्रतिविरत], किसी काम से पूरी तरह नहीं हटा हुआ, वह, जो पूरी तरह से बिलग नहीं हुआ है - पाणातिपाता अप्पटिविरता अदिन्नादाना अप्पटिविरता, ... दुस्सीला
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अप्पटिविरुद्ध
419
अप्पटिसङ्खाय/अप्पटिसङ्खा पापधम्मा, इतिवु. 47; नपटिविरताति अप्पटिविरता, इतिवु. - तो पु., प्र. वि., ए. व. -- ... पुब्बे अप्पटिसंविदितो अट्ठ. 203; सुरामेरयपाना अप्पटिविरता .... चूळव. 465. इन्दखीलं अतिक्कामेय्य, पाचि. 212; ... योहं पुब्बे अप्पटिविरुद्ध त्रि., पटि + वि + रुध के भू. क. कृ. का अप्पटिसंविदितो समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमेय्यन्ति, निषे. [अप्रतिविरुद्ध], अविरुद्ध, वह, जो किसी के विरोध में म. नि. 2.349-50; अप्पटिसंविदितोति अविज्ञातआगमनो, नहीं है, अनुकूल - निट्ठा अनुरुद्धप्पटिविरुद्धस्स उदाहु । म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.279; - तं द्वि. वि., ए. व. - पुब्बे अननुरुद्धअप्पटि-विरुद्धस्सा ति? म. नि. 1.95.
अप्पटिसंविदितं मं. .... पहं अपच्छि, स. नि. 1(2).48; पुब्बे अप्पटिवुट्ठ त्रि., पटि + (कुस के भू. क. कृ. का निषे. अप्पटिसंविदितन्ति इदं नाम पुच्छिस्सतीति पुब्बे मया अविदितं [अप्रतिक्रुष्ट], अतिरस्कृत, अनुपेक्षित, अनिन्दित, वह, जिसे अञातं. स. नि. अट्ठ. 2.58; - विदित्वा पटि + सं + डांटा फटकारा न गया हो, वह, जिसे खरी-खोटी बातें न विद के पू. का. कृ. का निषे. [अप्रतिसंवेद्य], संवेदन या कही गयी हों, - हो पु., प्र. वि., ब. व. - असंकिलिट्टो अनुभव न करके, ज्ञान न पाकर, बिना जाने हुए ही - अनुवज्जो अप्पटिवुट्टो समणेहि बाह्मणेहि विझूहीति, अ. सञ्चेतनिकानं कम्मानं कतानं उपचितानं अप्पटिसंवेदित्वा नि. 1(1).206; - द्वा ब. व. - न सङ्घीयन्ति, न सङ्कीयिस्सन्ति, दुक्खस्सन्तकिरियं वदामि, अ. नि. 3(2).260; 262. अप्पटिवुवा समणेहि बाह्मणेहि विहि, स. नि. 2(1).66%3; अप्पटिसंवेदन त्रि., ब. स. [अप्रतिसंवेदन], वेदनारहित, कथा. 285.
किसी प्रकार की वेदना का अनुभव न करने वाला - अप्पटिवेक्खित्वा/अप्पटिवेक्खिय पटि + वि + Vइक्ख अप्पटिसंवेदनो मे अत्ताति इति वा हि, दी. नि. 2.52; के पू. का. कृ. का निषे. [अप्रत्यवेक्ष्य], प्रत्यवेक्षण न करके, अप्पटिसंवेदनो मे अत्ताति इमिना रूपक्खन्धवत्थुका, दी. उचित सोच-विचार न करके, स्वयं प्रत्यक्ष रूप में उचित नि. अट्ट. 2.85. अनुचिन्तन न करके- अप्पटिवेक्खित्वा मंसं परिभूञ्जिस्ससि, अप्पटिसंहरणा/अप्पटिवरणा स्त्री., पटिसंहरणा का निषे. महाव. 294; सामं अप्पटिवेक्खियाति परस्स वचनं गहेत्वा [अप्रतिसंहरण]. पीछे की ओर पैर या कदम न मोड़ना, अत्तनो पच्चक्खं अकत्वा पथविस्सरो राजा दण्डं न पणये न अविचलता, स्थिरता, अकम्पता, छोड़कर न भाग जाना, पट्टपेय्य, जा. अट्ठ. 4.171; बद्दभण्ड अवहाय, मग्गं अपरित्याग - अप्पटिवानीति अनुक्कण्ठना अप्पटिसकरणा, अप्पटिवेक्खिय, जा. अट्ठ. 4.4.
अ. नि. अट्ठ. 3.101. अप्पटिवेदित त्रि., पटि + विद के प्रेर. के भू. क. कृ. का अप्पटिसङ्घा' स्त्री., पटिसङ्घा का निषे. [अप्रतिसंख्या, निषे. [अप्रतिवेदित], वह, जिसके बारे में पहले से घोषणा जागरुक चेतना का अभाव, सुनिश्चित निर्णय या ज्ञान नहीं की गयी है, असूचित, नहीं बतलाया गया- अनामन्तो का अभाव, प्रज्ञा द्वारा ज्ञात नहीं किया जाना, यथार्थ पविसति, पुब्बे अप्पटिवेदितो. जा. अट्ठ. 6.307.
ज्ञान का अभाव, - सा प्र. वि., ए. व. - इधेकच्चो अप्पटिवेध पु., पटिवेध का निषे. [अप्रतिबेध], अज्ञान, अप्पटिसङ्घा अयोनिसो आहारं आहारेति दवाय मदाय मण्डनाय प्रतिवेधस्तरीय ज्ञान का अभाव, गहरी पैठ का अभाव, गम्भीर विभूसनाय, ध. स. 1353; रागादीनं अविनयो असंवरो अप्पहानं आन्तरिक ज्ञान का अभाव, - धो प्र. वि., ए. व. - यं अपटिसङ्घाति अयं अविनयो नाम, अ. नि. अट्ठ. 1.70; - झं अआणं... असम्बोधो अप्पटिवेधो असङ्गाहणा.. मोहो पमोहो । द्वि. वि., ए. व. - अप्पटिसङ्ख पजहतो पटिसहानुपस्सनावसेन सम्मोहो... मोहो अकुसलमूलं- पु. प. 127; - धा प. वि., धम्मा अञमञ्ज नातिवत्तन्तीति, पटि. म. 29; - जाय तृ. ए. व. - अरियसच्चानं अननुबोधा अप्पटिवेधा एवमिदं वि., ए. व. - वतिं भिन्दित्वा गावीनं पविसनं विय सहसा दीघमद्धानं... तुम्हाकञ्च, दी. नि. 2.71; अप्पटिवेधाति । अप्पटिसङ्काय पमादं आगम्म रागरस उप्पज्जनं, उदा. अट्ठ. अप्पटिविज्झनेन, दी. नि. अट्ठ. 2.119; द्रष्ट, पटिवेध के अन्त..
अप्पटिसङ्खाय/अप्पटिसङ्खा' अ., क्रि. वि., मूल रूप में अप्पटिसंविदित त्रि., पटि + सं+विद के भू. क. कृ. का पटि + सं + Vखा के पू. का. कृ. अप्पटिसङ्खाय का ही निषे. [अप्रतिसंविदित], वह, जिसे किसी (विषय या व्यक्ति संक्षिप्तीकृत रूप [अप्रतिसंख्याय], बिना चेतना के, ठीक से
आदि) का पूरा-पूरा अनुभव नहीं है या वह, जिसके विषय जाने-बूझे बिना ही, प्रत्यवेक्षण के बिना, उचित सोच-विचार में ठीक ठीक ज्ञान नहीं है, अनुद्घोषित, असूचित, अविज्ञात, किये बिना - सो तं आपानीयकंसं सहसा अप्पटिसङ्घा
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अप्पटिसन्धि
420
अप्पटिस्स/अप्पतिस्स
पिवेय्य, स. नि. 1(2).96, अप्पटिसङ्घाति अपच्चवेक्खित्वा, स. नि. अट्ठ. 2.105; सो तं उदकरहदं सहसा अप्पटिसला पक्खन्देय्य, अ. नि. 3(2).172. अप्पटिसन्धि स्त्री.. पटिसन्धि का निषे. [अप्रतिसन्धि]. पुनर्जन्म का अभाव, पुनर्जन्म से मुक्ति, निर्वाण, अपुनर्भव, - न्धि प्र. वि., ए. व. - अप्पटिसन्धि अभिज्ञेय्या, पटि. म. 11; - धिया तृ. वि., ए. व. - नाझं पत्थयते किञ्चि, अञत्र अप्पटिसन्धिया ति, महानि. 328; अप्पटिसन्धियाति निब्बानं ठपेत्वा, महानि. अट्ठ. 355. अप्पटिसन्धिय/अप्पटिसन्धिक त्रि., पटिसन्धिय/ अपटिसन्धिक का निषे. [अप्रतिसन्धेय]. 1.शा. अ. वह, जिसे एक साथ जोड़ कर न रखा जा सके, ला. अ. ठीक न करने योग्य, असाध्य, मूल रूप में वापस न लाने योग्य, फिर से नहीं जोड़े जाने योग्य, - यो पु., प्र. वि., ए. व. - यथापि ब्रह्म उदकुम्भो, भिन्नो अप्पटिसन्धियो, पे. व. 93; जा. अट्ठ. 3.143; भिन्नो अप्पटिसन्धियोति ब्राह्मण सेय्यथापि उदकघटो मुग्गरप्पहारादिना भिन्नो अप्पटिसन्धियो पुन पाकतिको न होति, पे. व. अट्ठ, 56; --- का स्त्री., प्र. वि., ए. व. - सेय्यथापि नाम पृथुसिला द्विधा भिन्ना अप्पटिसन्धिका होति, पारा. 87; 2. त्रि०, अपटिसन्धि से व्यु. [अप्रतिसन्धिक]. पुनर्जन्म की ओर न ले जाने वाला, पुनर्भव का अविषय, - के नपुं., प्र. वि., ए. व. -- अनुपवज्जन्ति अप्पवत्तिकं अप्पटिसन्धिकं स. नि. अट्ट. 3.18; - केन पु./नपु., तृ. वि., ए. व. - रूपायतनादिगोचरताय रूपसादिभेदा सब्बापि सजा अप्पटिसन्धिकेन निरोधेन निरुज्झि, उदा. अट्ठ. 350; - कत्त नपुं., अप्पटिसन्धिक का भाव. [अप्रतिसन्धिकत्व]. पुनर्जन्म की ओर नहीं ले जाना, पुनर्भव का कारण न होना - किलेसाभावेनेव कम्म अप्पटिसन्धिकत्ता अवस्सटुं नाम होतीति ... कम्म पजहि, उदा. अट्ठ. 269; - कभाव पु., उपरिवत - तं त्वन्ति तस्स महत्वं सखेनेव निब्बानगामिमग्गं आरुरह अपटिसन्धिकभावं पत्थेन्तस्स तं अत्थञ्च ... अक्खाहि जा. अट्ट. 5.51. अप्पटिसन्धेय्य त्रि., पटि + सं + vधा के सं. कृ. का निषे. [अप्रतिसन्धेय], फिर नहीं जोड़ने योग्य, मरम्मत न करने योग्य - पुन अप्पटिसन्धेया, द्विधा भिन्ना सिला विय, विन. वि. 1995. अप्पटिसम त्रि., ब. स. [अप्रतिसम], वह, जिसके समान कोई भी दूसरा न हो, बेजोड़, अनुपम, - मो पु.. प्र. वि.,
ए. व. - तथागतो ... अदुतियो असहायो अप्पटिमो अप्पटिसमो ..... असमो असमसमो द्विपदानं अग्गो ति, अ. नि. 1(1).29;
सो भगवा ... अप्पटिसमो असदिसो अतुलो ... अनन्तबलो .... उप्पादेत्वा ... पापुणिचा ... धम्मनगरं मापेसि. मि. प. 302; - मं वि. वि., ए. व. - ... बुद्ध भगवन्तं ... असमं असमसमं अप्पटिसमं अप्पटिभागं ... पुरिसनिसभं ... पटिलभिं, चूळनि. 189-90; अप्पटिसमन्ति अत्तनो सदिसविरहितं, चूळनि. अट्ठ. 77; - माय स्त्री., तृ. वि., ए. व. -- भगवा इमं ... बुद्धलीळाय अपटिसमाय बुद्धसिरिया जेतवनविहारं पाविसि. जा. अट्ट, 1.102; - मस्स पु./नपुं.. ष. वि., ए. व. - यं तथागतस्स ... अग्गपुग्गलवरस्स .... असमसमस्स अनुपमस्स अप्पटिसमस्स छवक लाभक
परित्तं पापं ... लाभन्तरायमकासी ति, मि. प. 155; तुल. असम, अप्पटिम. अप्पटिसरण त्रि., ब. स. [अप्रतिशरण], क, बेसहारा, आश्रयहीन, सुरक्षा से रहित, आधारहीन, अनाथ - सो दलिदो अप्पटिसरणो हुत्वा भरियं आदाय सङ्घसेटिं पच्चयं कत्वा .... जा. अट्ठ. 1.445; तुम्हेसु पक्कन्तेसु जेतवनविहारो अप्पटिसरणो होति, जा. अट्ठ. 4.204; ख. आश्रय स्थल अथवा शरण स्थल प्रदान न करने वाला, शरण स्थल से रहित, - णा पु., प्र. पु., ब. व. - तेन खो पन समयेन विहारा अनाळिन्दका होन्ति अप्पटिसरणा, चूळव. 279. अप्पटिसिद्ध त्रि., पटिसिद्ध का निषे॰ [अप्रतिषिद्ध], वह, जिसका निषेध नहीं किया गया है, अनुमोदित, स्वीकृत - इतरथा हि चक्खु अत्ता वा अत्तनियं वाति अप्पटिसिद्धमेव सिया, खु. पा. अट्ठ. 142. अप्पटिसेट्ठ त्रि. ब. स. [अप्रतिश्रेष्ठ]. वह, जिससे अधिक श्रेष्ठ कोई दूसरा न हो, सर्वश्रेष्ठ, श्रेष्ठ प्रतिद्वन्द्वी रहित, अनुत्तर, - टुं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अतुलियं धुतगुणं अप्पमेय्यं असमं अप्पटिसमं अप्पटिभाग अप्पटिसेलू उत्तरं सेलु विसिद्ध मि. प. 322. अप्पटिस्स/अप्पतिस्स त्रि., ब. स. [अप्रतिश्रव/अप्रतिश्रय, बौ. सं. अप्रतीश], अविनीत, आज्ञा पालन न करने वाला, वश में न रहने वाला, उद्दण्ड, श्रेष्ठ-जनों के प्रति गौरव भाव न रखने वाला, - स्सो पु., प्र. वि., ए. व. - अप्पतिस्सोति पतिस्सयरहितो कञ्चि जेट्ठकठाने अट्ठपेत्वाति अत्थो, स. नि. अट्ठ. 1.179; सो सत्थरिपि अगारवो विहरति अप्पतिस्सो, धम्मपि अगारवो विहरति अप्पतिस्सो, सङ्केपि अगारवो विहरति अप्पतिस्सो, चूळव. 196; - स्सा ब. व. - भिक्खूसु अगारवा
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अप्पट्टम
अप्पटिस्सति अप्पतिस्सा असभागवुत्तिका विहरिस्सन्तीति, महाव. 106; यं मयं अञ्जम अगारवा अपतिस्सा असभागवत्तिनो विहरेय्याम, जा. अट्ट, 1.215. अप्पटिस्सति स्त्री., पटिस्सति का निषे. [अप्रतिस्मृति], स्मृति का अभाव, अनुस्मृति का अभाव, चित्त की जागरूकता का अभाव - या अस्सति अननुस्सति अप्पटिस्सति अस्सति अस्सरणता अधारणता, पु. प. 127; ध. स. 1356; अननुस्सति अप्पटिस्सतीति उपसग्गवसेन पदं वद्धितं.ध. स. अट्ठ. 424. अप्पटिस्सय त्रि., अट्ठ. में अप्पटिस्स के निर्वचन के सन्दर्भ में सदा अप्पटिस्स के साथ प्रयुक्त [अप्रतिश्रय], शा. अ. स्वीकृतिपरक उत्तर न देने वाला, ला. अ. आज्ञापालन न करने वाला, उद्दण्ड, हठी, - स्सया पु., प्र. वि., ब. क. - अप्पतिरसाति अप्पतिस्सया अनीचत्तिका, स. नि. अट्ठ. 179; अप्पतिस्सोति अप्पतिस्सयो अनीचवुत्ति, दी. नि. अट्ठ. 3.198; - वुत्तिरस त्रि., ब. स. [अप्रतिश्रयवृत्तिरस], आज्ञापरायणता से च्युत होने की क्रिया करने वाला, उद्दण्डता या हठधर्मिता की क्रिया करने वाला - थम्भो अप्पतिस्सयवुत्तिरसो अमद्दवता पच्चुपट्टानो, म. नि. अट्ट. (मू.प.) 1(1).114. अप्पटिस्सव/अप्पतिस्सव त्रि., ब. स., अप्पटिस्स का समाना. [अप्रतिश्रव], स्वीकृतिपरक वचन न बोलने वाला, आज्ञा का पालन न करने वाला, उद्दण्ड - चतुत्थ सिक्खापदे - अप्पतिस्साति अप्पतिस्सवा, पाचि. अट्ठ. 7; -- ता स्त्री., भाव. [अप्रतिश्रवता], उद्दण्डता, आज्ञा का पालन न करना, हठधर्मिता - अनादरियं अनादरियता अगारवता अप्पतिस्सवता - अयं वुच्चति दोवचरसता, पु. प. 126; अनादरियं अनादरता अगारवता अप्पटिस्सवता- अयं वुच्चति दोवचस्सता, ध. स. 1332; - भाव पु., उपरिवत् - सजेटकवासं अवसनवसेन उप्पन्नो अप्पटिस्सवभावो अप्पटिस्सवता, ध. स. अट्ठ. 415; - वास पु., तत्पु. स. [अप्रतिश्रववास]. शा. अ. उत्तरदायित्व से रहित समाज में निवास, ला. अ. राजा से रहित समाज में निवास- अम्हाकं पनन्तरे राजा नाम अस्थि, अप्पतिस्सवासो नाम न वट्टति, जा. अट्ठ. 2.291. अप्पटिहत त्रि., पटि + Vहन के पू. का. कृ. का निषे. [अप्रतिहत], रुकावटों से मुक्त, बाधाओं से मुक्त, बिना रुकावट वाला, बेरोक-टोक, अप्रभावित, अतिरस्कृत, सर्वव्यापी, - तो पु., प्र. वि., ए. व. - फलं लद्धापि अलद्धापि अननुनीतो अप्पटिहतो मज्झतो येव हुत्वा गच्छति, सु. नि. अट्ठ. 2.195; सब्बत्थ अप्पटिहतो निसभो ति, सु. नि. अट्ठ. 1.33; - तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अतीते बुद्धस्स भगवतो
अप्पटिहतं आणं, अनागतेबुद्धस्स भगवतो अप्पटिहतं जाणं, पटि. म. 368; - चार त्रि., बिना रुकावट के चारों ओर विचरण करने वाला - येन कामञ्च पक्कमति अप्पटिहतचारो, उदा. अठ्ठ. 131; - चारता स्त्री., भाव., बिना रुकावट के या उन्मुक्त रूप से विचरना, स्वतन्त्र रूप से विचरना - इमिना कत्थचि अप्पटिहतचारतं दस्सेति, वि. व. अट्ठ. 11; - चित्त नपुं० [अप्रतिहतचित्त], राग एवं द्वेष आदि से अप्रभावित चित्त, अबाधित विशुद्ध चित्त - आगतवाने दोसेन चित्तस्स पहतभावो वुत्तो, इध पन दोसेन अप्पटिहतचित्तस्साति अत्थो, ध. प. अट्ठ. 1.176; - प्राण त्रि., ब. स. [अप्रतिहतञाण], बाधा-रहित अथवा बिना रुकावट के सर्वत्र प्रसृत ज्ञान से युक्त -- लोकस्स अग्गपुग्गलो अतीतादीसु अप्पटिहतञाणो सत्था वसति, ध. प. अट्ठ, 1.254; -- ञाणचारता स्त्री., भाव., बाधारहित ज्ञान का सर्वत्र फैलाव होना, ज्ञान का अबाधित रूप से प्रसार -- अत्थो अस्थि सब्बत्थ अप्पटिहतञाणचारताय एकप्पमाणत्ता जेय्यधम्मेसु, उदा. अट्ठ. 23; - परिमोक्खता स्त्री॰, भाव., प्रातिमोक्ष का अबाधित रूप से नियमित अनुष्ठान होना - पसन्नानञ्च भिय्योभावाय साधारण पदद्वान, अप्पटिहतपातिमोक्खता दुम्मङ्कनञ्च पुग्गलानं निग्गहाय, नेत्ति. 42; - भाव पु., बिना बाधा वाला या बिना रुकावट वाला होना, निर्बाधता, उन्मुक्तता - नत्वेवाति इमिना सब्ब ताणस्स अप्पटिहतभावं दस्सेति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.315. अप्पट्ट त्रि., ब. स. [अल्पार्थ], छोटे-छोटे विषयों से सम्बद्ध, अल्प महत्व वाला, छोटे-मोटे प्रयोजनों वाला, अमहत्वपूर्ण - कम्मट्ठानं अप्पटुं अप्पकिच्चं अप्पाधिकरणं अप्पसमारम्भ विपज्जमानं अप्पफलं होति, म. नि. 2.422; अप्पट्ठो अप्पकिच्चो अप्पाधिकरणो अप्पसमारम्भो, म. नि. 2.428; भिक्खु अप्पट्ठो होति अप्पकिच्चो सुभरो सुसन्तोसो जीवितपरिक्खारेसु, अ. नि. 2(1).112; - तर त्रि., तुल. वि., तुलनात्मक रूप से कम कठिन अथवा कम आपत्तिप्रद, - रो पु०, प्र. वि., ए. व. - सोळसपरिक्खाराय अप्पट्टतरो च अप्पसमारम्भतरो च महप्फलतरो च, दी. नि. 1.127; - तरा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - कतमा पटिपदा खमति अप्पत्थतरा च महप्फलतरा, अ. नि. 1(1)196. अप्पट्ठम त्रि., पठम का निषे. [अप्रथमा], प्रथमा विभक्ति से भिन्न अन्य विभक्ति-प्रत्ययों वाला - तेहि तुम्हाम्हहि यो अप्पठमो आकं होति वा, क. व्या. 162.
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अप्पणिधान
422
अप्पणिधान नपुं., पनिधान का निषे. [अप्रणिधान]. सुदृढ़ संकल्प का अभाव, दृढ़ इच्छाशक्ति का अभाव - चेतसो अप्पणिधानपच्चया न तदभिनन्दति, महानि. 156; अप्पणिधानपच्चयाति न पत्थनाठपनकारणेन, महानि. अट्ठ. 256. अप्पणिहित त्रि., पणिहित का निषे., प्रायः सुझत एवं अनिमित्त के साथ प्रयुक्त [अप्रणिहित], शा. अ. प्रणिधान या सुदृढ़ संकल्प से रहित, किसी सुनिश्चित उद्देश्य से रहित, ला. अ. किसी विशेष इच्छा को मन में रखकर नहीं की गयी (समाधि), इच्छामुक्त चित्त द्वारा की गयी समाधि, प्रणिधियों एवं राग आदि से मुक्त (चित्त की समाधि), इच्छाओं से मुक्त (निर्वाण), - तो पु., प्र. वि., ए. व. - सुञतो समाधि, अनिमित्तो समाधि, अप्पणिहितो समाधि - अयं वुच्चति ..., स. नि. 2(2).335; सुञतो ...., अनिमित्तो ..., अप्पणिहितो समाधि, दी. नि. 3.175%3; मि. प. 306; रागपणिधिआदीनं अभावा अप्पणिहितोति अयं सगुणतो कथा, दी. नि. अट्ठ. 169; ... सब्बपणिधीहि अप्पणिहितो होति निरोधगोचरो, पटि. म. 280; - ता स्त्री., प्र. वि., ए. व. - अयं विपस्सना अप्पणिहिता नाम होति.. ध. स. अट्ठ. 265; - तं नपुं., द्वि. वि., ए. व. - ... पठम झानं उपसम्पज्ज विहरति अप्पणिहितं, ध. स. 351; 507; - हितेन नपुं, तृ. वि., ए. व. - तत्थ कामयोगो ... अप्पणिहितेन विमोक्खमुखेन पहानं गच्छन्ति, नेत्ति. 97; ध. स. 352-356; सुञतञ्चानिमित्तञ्च, विमोक्खञ्चाप्पणिहितं. मि. प. 385; - पटिपदा स्त्री., तत्पु. स. [अप्रणिहितप्रतिपत्], 1. इच्छामुक्त निर्वाण की अवस्था तक पहुंचाने । वाला मार्ग - इतो परं ... सुद्धिकअप्पणिहिता अप्पणिहितपटिपदाति अयं देसनाभेदो होति, ध. स. अट्ठ. 264; 2. ध. स. की मातिका संख्या 523-527 का शीर्षक, ध. स. (पृ.) 133-135 ; - फलसमापत्ति स्त्री., तत्पु. स., इच्छामुक्त निर्वाण के फल की प्राप्ति - सेय्यत्थीदं ... सुञतफल समापत्ति अनिमित्तफल समापत्ति अप्पणिहितफलसमापत्ति, मि. प. 303; - मूलकपटिपदा स्त्री., ध, स. 352-356 का शीर्षक, ध, स. (पृ.) 94-95; - विमुत्त त्रि., अप्रणिहित समाधि द्वारा विमुक्त व्यक्ति, - त्तेन तृ. वि., ए. व. - असेक्खभागियं ... सद्धाविमुत्तेन, ..., सुञतविमुत्तेन, अनिमित्तविमुत्तेन, अप्पणिहितविमुत्तेन, ... चाति, नेत्ति. 162; - विमोक्ख पु., [अप्रणिहितविमोक्ष], अप्रणिहित समाधि द्वारा प्राप्त मुक्ति, इच्छा रहित चित्त वाली
अप्पटिक्ख निर्वाण की अवस्था, - क्खो प्र. वि., ए. व. - सुञतो अनिमित्तो चाति एत्थ अप्पणिहितविमोक्खोपि गहितोयेव, ध. प. अट्ठ. 1.344; - स्स ष. वि., ए. व. - अप्पणिहितविमोक्खस्स वसेन कायसक्खी, पटि. म. 246; - विमोक्खपटिपक्ख पु., तत्पु. स. [अप्रणिहितविमोक्षप्रतिपक्ष], अप्रणिहित निर्वाण का विरोधी- अप्पणिहितविमोक्खपटिपक्खो हि कामासवो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).73; - विमोक्खमुख नपुं.. तत्पु. स. [अप्रणिहितविमोक्षमुख], अप्रणिहित निर्वाण के मार्ग का प्रारम्भिक चरण - ..., अप्पणिहितविमोक्खमुखं सीलक्खन्धो, नेत्ति. 75%; - तानु पस्सना स्त्री., तत्पु. स. [अप्रणिहितानुपश्यना], धर्मों में अनित्यता की अनुपश्यना के उपरान्त सुख की इच्छा से मुक्त दुःख की अनुपश्यना - .... अप्पणिहितानुपस्सना अभिजेय्या. पटि. म. 19; अप्पणिहितानुपस्सनाति अनिच्चानुपस्सनानन्तरं पवत्ता दुक्खानुपस्सनाव सुखपत्थनापजहनवसेन पणिधिअभावा
अप्पणिहितानुपस्सना नाम होति, पटि. म. अट्ठ. 1.89. अप्पतर त्रि०, अप्प से व्यु., तुल. विशे. [अल्पतर]. और भी अधिक कम, अपेक्षाकृत कम, और भी अधिक कम संख्या वाला, और भी अधिक छोटा, - रं नपुं., प्र. वि., ए. व. - यस्स रत्या विवसाने, आयु अप्पतरं सिया, जा. अट्ठ. 6.32; यस्स मातुकुच्छिम्हि ... रत्तिदिवातिक्कमेन अप्पतरं आयु होति, जा. अट्ठ. 6.33; - रेन पु./नपुं., तृ. वि., ए. व. - अप्पेव नाम भगवा अवन्तिदक्षिणापथे अप्पतरेन गणेन उपसम्पदं अनुजानेय्य, महाव. 269; - रे पु., सप्त. वि., ए. व. - एवं सत्तन्नं ... ततो अप्पतरेपि काले दस्सेन्तो तिद्वन्तु, भिक्खवेतिआदिमाह, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).311; - रानि नपुं॰, प्र. वि., ब. व. - ... पुब्बे अप्पतरानि चेव सिक्खापदानि अहेसुं बहुतरा च भिक्खु अञआय सण्ठहिंसु. म. नि. 2.117. अप्पता स्त्री., अप्प का भाव॰ [अल्पता], (कमी) न्यूनता, हलकापन - सो यमत्थं भञ्जति तस्स अप्पताय अप्पसावज्जो ध. स. अट्ठ. 144. अप्पटिक्ख त्रि., [अप्रतीक्ष्य], शा. अ. वह, जिसकी प्रतीक्षा न की जा सके, ला. अ. सम्मान न पाने योग्य, बुरे कर्म करने वाला - स वे तादिसको भिक्खु, अप्पटिक्खोति वुच्चति, परि. 313; ... लद्धपक्खो , ... अहिरिको, ... कण्हकम्मो, ... अनादरो, स वे तादिसको भिक्ख अपटिक्खोति वृच्चति न पटिक्खितब्बो न ओलोकेतब्बो, न सम्मन्नित्वा इस्सरियाधिपच्चजेडकडाने ठपेतब्बोति अत्थो, परि. अट्ठ. 212.
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अप्पति?
423
अप्पत्त/अपत्त अप्पतिट्ट त्रि., ब. स. [अप्रतिष्ठ]. शा. अ. बिना नींव वाला, अप्पतिद्वितकारणाति अत्थो, स. नि. अट्ट, 1.163; - वचन आधार-रहित, आधारशिला-रहित, आलम्बन-रहित -टुं नपुं.. त्रि., ब. स. [अप्रतिष्ठितवचन], विश्वास न करने योग्य प्र. वि., ए. व. - न उपपत्ति, अप्पतिट्ट, अप्पवत्तं, वचन बोलने वाला - अथेतन्ति अथिरं अप्पतिहितवचनं, जा. अनारम्मणमेवेत, उदा. 164; केवलं पन तं अरूपसभावत्ता अट्ठ. 4.52. अपच्चयत्ता च न कत्थचि पतिद्वितन्ति अप्पतिद्वं उदा. अट्ठ. अप्पतीत त्रि., पति +vs के भू. क. कृ. का निषे. [अप्रतीत]. 318; - टुं स्त्री., द्वि. वि., ए. व. - अप्पतिद्वं अनालम्ब, दुत्तरं शा. अ. किसी की ओर नहीं गया हुआ, किसी के समीप सीघवाहिनि अप. 2.118; -टे पु./नपुं., सप्त. वि., ए. व. नहीं पहुंचा हुआ, ला. अ. असन्तुष्ट, अप्रसन्न, द्वेषभाव से - अप्पतिद्वे अनालम्बे, को गम्भीरे न सीदति, सु. नि. 175; भरा हुआ, सुख आदि से रहित, - तो पु., प्र. वि., ए. व. -द्वा स्त्री.. प्र. पु.. ब. व. - असंवुताति हेट्ठापि अप्पतिट्टा, - यो पन भिक्खु भिक्खुं दुट्ठो दोसो अप्पतीतो अमूलकेन म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.130; - द्वे पु., वि. वि., ब. व. - पाराजिकेन धम्मेन अनुद्धसेय्य- पारा. 255; अप्पतीतोति अप्पतिद्वेव नो कत्वा समणो गोतमो खिपेय्या ति अत्तमना नप्पतीतो पीतिसुखादीहि वज्जितो, न अभिसटोति अत्थो, भवन्ति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).99; ला. अ. बे-सहारा, पारा. अट्ठ. 2.154; - ता पु., प्र. वि., ब. व. -- अप्पतीता निराश्रय, अनाथ, - Sो पु., प्र. वि., ए. व. - यथा एस होन्ति तेन अतुट्ठा असोमनस्सिकाति अप्पच्चयो, दी. नि. अप्पतिट्ठो होति. म. नि. अट्ठ (मू.प.) 1(2).169; अयं अट्ठ. 1.49; - ता स्त्री॰, भाव., अप्रसन्नता दौर्मनस्यता, मन अप्पतिद्वो अनालम्बो होतु. म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.141; - की खिन्नता - अप्पच्चयन्ति अप्पतीतता, दोमनस्सन्ति वृत्तं ट्ठा' स्त्री., प्र. वि., ए. व. - अपरायिनीति अप्पतिट्ठा होति, सु. नि. अठ्ठ. 2.134. अप्पटिसरणा, जा. अट्ठ. 3.341; - हा' पु., प्र. वि., ब. व. अप्पत्त/अपत्त त्रि., पत्त का निषे॰ [अप्राप्त]. 1. कर्म - अनाथाति अपतिट्ठा, स. नि. अट्ठ. 1.104; - तु पु., द्वि. वा. में, वह, जिसे किसी के द्वारा प्राप्त नहीं किया गया है, वि., ब. व. - ब्राह्मणा तं दिस्वा ... अम्हे अप्पतिढे किसी के द्वारा नहीं समझा हुआ, अगृहीत, - तं नपुं॰, प्र. करिस्सती ति, जा. अट्ठ. 4.349.
वि., ए. व. - यदतीत पहीनं तं अप्पत्तञ्च अनागतं. म. नि. अप्पतिद्वं/अप्पतिद्वन्तु पति + vठा के वर्त. कृ. का निषे. 3.227; अप. 2.157; यञ्च मारेन सम्पत्तं अप्पत्तं यञ्च [अप्रतिष्ठत्]. बिना पैर जमाए हुए, आधार-रहित - अप्पतिद्वं मच्चुना, म. नि. 1.292; - त्तस्स पु., ष. वि., ए. व. - अनायूह, तिण्णं लोके विसत्तिकान्ति, स. नि. 1(1).2; अप्पत्तस्स पत्तिया अस्थि आयाम स. नि. 3(1).13; - त्ते पु.. अथस्सा भगवा पहं विस्सज्जेन्तो अप्पत्तिट्ठ सप्त. वि., ए. व. - अप्पत्ते पत्तसञी अकते कतसञ्जी, ख्वाहन्तिआदिमाह, स. नि. अट्ठ. 1.17.
अनधिगते अधिगतसञी, अ. नि. 3(2).138; 2. कर्तृ. वा. अप्पतिट्ठानता स्त्री॰, पतिट्टान के निषे. का भाव. में शा. अ. नहीं पहुंचा हुआ, नहीं पाया हुआ, नहीं समझा [अप्रतिष्ठानत्व], आधार हीनता, आधार-रहित होना, आलम्बन हुआ - त्तो पु., प्र. वि., ए. व. -- भिक्खु विस्सासमापादि, से रहित होना - पथवीपब्बतादि विय अपतिद्वानताय न अप्पत्तो आसवक्खयं ध. प. 272; - त्ता स्त्री., प्र. वि., ए. ठिति, उदा. अट्ठ. 318; - भूत त्रि.. [अप्रतिष्ठानभूत], वह, । व. - ... अपत्ताव सकं गेहं पन्थे विजायित्वान पतिं मतं जो किसी के लिये आधार या आश्रय न हो - अनस्सयन्ति अद्दस अहन्ति योजना, थेरीगा. अट्ठ. 198; 200; - त्तं नपुं., च केचि पठन्ति, सुखस्स अप्पतिद्वानभूतन्ति अत्थो, वि. व. प्र. वि., ए. व. - अपत्त व तं ओधि, नळो छिन्नोव सुस्सति. अट्ठ. 285.
जा. अट्ठ. 4.355; - त्ते सप्त. वि., ए. व. - अनागतेति अप्पतिद्वित त्रि., पतिट्ठित का निषे. [अप्रतिष्ठित], आधार से परियोसानं अप्पत्ते, जा. अट्ठ. 7.103; ला. अ. अक्षम, अपात्र रहित, अच्छी तरह से स्थित नहीं रहने वाला, क्षीण, दुर्बल - अपिस्सा होति अप्पत्तो उच्छिद्वमपि भुञ्जित, जा. अट्ठ - तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - तदप्पतिद्वितं विआणं 7.264; - काल पु., कर्म. स., अनुपयुक्त समय - अकाले अविरुळ्हं अनभिसङ्घच्चविमुत्तं, स. नि. 2(1).49; - तेन अयुत्तप्पत्तकाले परस्स पियभण्डं याचनाय मित्ता जीरन्ति पु./नपुं.. तृ. वि., ए. व. - अप्पतिहितेन च, भिक्खवे, नाम, जा. अट्ठ. 5.222; - परिभवन त्रि., ब. स., पराभव विज्ञआणेन गोधिको कुलपुत्तो परिनिब्बुतो ति. स. नि. या तिरस्कार को अभी तक प्राप्त न करने वाला, अभी तक 1(1).143; अप्पतिहितेनाति पटिसन्धिविआणेन अप्पतिहितेन, अनुत्तेजित - एत्थ मनपरिभूतो ति ईसकं अप्पत्तपरिभवनो
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अप्पत्वा
424
अप्पदुक्खेन वुच्चति, सद्द. 1.79; - तब्ब त्रि., प + आप के सं. कृ. अप्पदक्खिणग्गाही त्रि., [अप्रदक्षिणग्राहिन्], उचित का निषे. [अप्राप्तव्य], प्राप्त न करने योग्य, नहीं पाने योग्य सम्मानभाव के साथ ग्रहण न करने वाला, शिक्षा को ठीक - अनभिसम्भवनीयोति अपत्तब्बो, न तं देवा तावतिंसा पस्सन्तीति से ग्रहण न करने वाला - यथानुसिटुं अप्पटिपज्जनतो अत्थो, दी. नि. अट्ठ. 2.209; - मानस त्रि.. ब. स. पदक्षिणेन अनुसासनिं न गण्हातीति अप्पदविखणग्गाही [अप्राप्तमानस], शा. अ. वह, जिसके मन की इच्छाएं पूरी अनुसासनिं, पारा. अट्ठ. 2.179; हम्मेहि समन्नागतो अक्खमो नहीं हुई हों, - सा पु., प्र. वि., ब. व. - येपि ते अप्पदक्खिणग्गाही अनुसास,नें पारा. 278; म. नि. 1.133; सिविसेट्ठस्स, दायादापत्तमानसा, जा. अट्ठ. 7.369; ओवदियमानो दुब्बचो अहोसि अक्खमो अप्पदक्खिणग्गाही दायादाअपत्तमानसा असम्पुण्णमनोरथा हुत्वा, तदे. ला. अनुसासनि, जा. अट्ठ. 3.426. अ. स्रोतापन्न, सकृदागामी और अनागामी अवस्थों में स्थित अप्पदस्स त्रि., [अल्पदृक], सीमित ज्ञान रखने वाला, कम व्यक्ति, जिसे अभी तक अर्हत के चित्त की पूर्ण विशुद्धि नहीं सूझबूझ वाला, दुर्बल अन्तर्दृष्टि वाला, - स्से पु.. द्वि. मिली है, - सो पु.. प्र. वि., ए. व. - अप्पत्तमानसो सेक्खो , वि., ब. व. - एवं पहं अप्पदस्से पहाय, महोदधिं हंसोरिव कालं कयिरा जनेसुताति, स. नि. 1(1).142; सेक्खो अज्झपत्तो, सु. नि. 1140; चूळनि. 19; 190; अप्पदरसे अप्पत्तमानसो अनुत्तरं योगक्खेम पत्थयमानो विहरति, म. पहायाति यो च बावरी बाह्मणो, चूळनि. 189.. नि. 1.5; - सानं पु., ष. वि., ए. व. - उभतो कोटिको एसो अप्पदान नपुं., पदान का निषे. [अप्रदान], प्रदान नहीं पहो, नेसो विसयो अप्पत्तमानसानं मि. प. 107; -- त्तारहत्त करना, नहीं देना, स्वीकृति या अनुमति नहीं देना - तस्स त्रि., ब. स. [अप्राप्तार्हत्व], अर्हत अवस्था में नहीं पहुंचा हुआ, याथावलक्खणप्पटिवेधनिवारणेन, आणप्पवत्तिया चेत्थ शैक्ष्य - तेन अप्पत्तारहत्तोति कुत्तं होति. म. नि. अट्ठ अप्पदानेन, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).233; उक्कण्ठितुं (मू.प.) 1(1)45; अप्पत्तमानसोति अप्पत्तअरहत्तो, स. नि. अट्ठ. अप्पदानतो सहायटेन दुतिया, ध. स. अट्ठ. 390. 1.162.
अप्पदालित त्रि.. प+vदल के प्रेर. के भू. क. कृ. का निषे. अप्पत्वा प + vआप के पू. का. कृ. का निषे. [अप्राप्य], नहीं । [अप्रदालित], भग्न न किया हुआ, टुकड़े-टुकड़े नहीं किया प्राप्त करके, नहीं पहुंच कर - न च अप्पत्वा दुक्खन्तं, हुआ, - पुब्ब त्रि., ब. स. [अप्रदालितपूर्व], पहले भग्न या विस्सासं एय्य पण्डितो, थेरगा. 585; वस्ससतंगत्वा अप्पत्वाव नष्ट नहीं किया हुआ, अभी तक भग्न नहीं किया गया- सो लोकस्स अन्तं अन्तराव कालङ्कतो, स. नि. 1(1).76; मम सतिसम्बोज्ाङ्ग भावितेन चित्तेन अनिबिद्धपब्बं अप्पदालितपुब्ध पुत्तस्स बोधितले बुद्धत्तं अप्पत्वा परिनिब्बानं नाम नत्थी ति, लोभक्खन्धं निबिज्झति, स. नि. 3(1).107... जा. अट्ठ. 4.45.
अप्पदीप त्रि., पदीप का निषे., ब. स. [अप्रदीप]. दीपक अप्पत्थ पु.. तत्पु. स. [अल्पार्थ], अप्प (अल्प) शब्द का अर्थ से रहित, बिना प्रदीप का, अप्रकाशित, प्रकाश-विहीन - - सम्मा भुस सहाप्पत्थाभिमुखत्थेसु सङ्गते, अभि. प. 1170; भिक्खुनी सत्तन्धकारे अप्पदीपे पुरिसेन सद्धि एकेनेका - वाचक त्रि., तत्पु. स. [अल्पार्थवाचक]. अल्पता के अर्थ । सन्तितिपि, सल्लपतिपीति, पाचि. 366; अप्पदीपेति को कहने वाला - सकदागामिमग्गचित्तन्ति आदिस पन पदीपचन्दसूरियअग्गीसु एकेनापि अनोभासिते पाचि. अट्ठ. 191. तनुसद्दो अप्पत्थवाचको, सद्द. 2.506.
__ अप्पदुक्खविहारी त्रि., [अल्पदुःखविहारिन्], 1.कम या थोड़े अपत्थाम/अप्पथाम त्रि.. ब. स. [अल्पस्थामन्]. कम से दुःख के साथ जीवन बिता रहा, 2 थोड़े से पापकर्म के बल वाला, स्वल्प शक्ति वाला, दुर्बल, - मा' स्त्री.. प्र. वि., कारण भी दुःख के साथ जी रहा - एकच्चो पुग्गलो ... ए. व. - दुब्बलाति अप्पथामा, जा. अट्ठ. 7.153; - मा' पु., परित्तो अप्पातुमो अप्पदुक्खविहारी, अ. नि. 1(1).282; प्र. वि., ब. व. - हंसा सकजातिकानं मंसं खादित्वा अप्पथामा अप्पदुक्खविहारीति अप्पकेनपि पापेन दुक्खविहारी, अ. नि. जाता, जा. अट्ठ. 5.467; - क त्रि०, अप्पत्थाम से व्यु., अठ्ठ. 2.218; एकच्चं तपस्सिं अप्पदुक्खविहारि परसामि उपरिवत् - को पु., प्र. वि., ए. व. - अक्कन्दति परोदति, । दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन ... निरयं उपपन्नं दी. नि. 1.146. दुबलो अप्पथामको, स. नि. 2(2).204; - कं पु.. द्वि. वि., अप्पदुक्खेन तृ. वि., प्रतिरू. निपा., क्रि. वि. [अल्पदुःखेन]. ए. व. - अबलं पुग्गलं दुब्बलं अप्पबलं अप्पथामकं हीन कम दुःख के साथ, कम कठिनाई के साथ - अप्पकसिरेनाति निहीनं, महानि. 9.
अप्पदुक्खेन, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).310.
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अप्पदुट्ठ
425
अप्पना/अप्पणा अप्पदुट्ट त्रि., प + vदुस के भू. क. कृ. का निषे. [अप्रदुष्ट]. वि., ए. व. - इदानेसा केनचि अप्पधंसिया जाता ति अरुजतो प्रदूषणों से रहित, लोभ आदि चित्तमलों से अदूषित, विशुद्ध ... निसीदि, वि. व. अट्ठ. 175; - यं नपुं., प्र. वि., ए. व. चित्त वाला, पापरहित, - स्स पु., ष. वि., ए. व. - यो - बोधिसत्तो नगरं पटिसकरित्वा परेहि अप्पधसियं अकासि. अप्पदुट्ठस्स नरस्स दुस्सति, सुद्धस्स पोसस्स अनङ्गणस्स, जा. अट्ठ. 3.137; - या पु., प्र. वि., ब. क. - परेहि सु. नि. 667; किञ्च भिय्यो - यो अप्पदुट्ठस्साति, सु. नि. अप्पधसियाति अत्थो, जा. अट्ठ. 1.314. अट्ठ. 2.180; - द्वेसु सप्त. वि., ब. व. - यो दण्डेन अप्पधन त्रि., ब. स. [अल्पधन], कम धन वाला, दरिद्र - अदण्डेसु, अप्पदुद्वेसु दुस्सति, ध. प. 137; अप्पदुद्रुसूति अत्थम्पिचे भासति भूरिपओ. अनाळिहयो अप्पधनो दलिदो. परेसु वा अत्तनि वा निरपराधेसु.ध. प. अट्ठ. 240; - चित्त जा. अट्ठ. 6.189. त्रि., ब. स. [अप्रदुष्टचित्त], प्रदूषणों या मलों से मुक्त अप्पधान त्रि., पधान का निषे. [अप्रधान], गौण, अन्यविशुद्ध चित्त वाला, - त्ता पु.. प्र. वि., ब. व. - ते सापेक्ष, अप्रमुख, दूसरे पर निर्भर, नामपद के रूप में प्रयुक्त, अञमज अप्पद्वचित्ता अकिलन्तकाया अकिलन्तचित्ता, अप्रधान पद - नामभूतेहि अप्पधानेहि च सब्बादीहि यं वृत्तं दी. नि. 1.18; - पदोसी त्रि., क. अप्रदूषित या निर्दोष ...., मो. व्या. 2141; - लिङ्ग नपुं, कर्म, स., [अप्रधानलिङ्ग], व्यक्ति को प्रदूषित करने वाला - तस्मा यो अप्पदुट्ठस्स अप्रधान या विशेषणभूत नामपद - अविभावी धम्मविभावीआदीनि नरस्स दुस्सति, ... ति एवं वुत्तो अप्पदुट्ठपदोसी पुग्गलो, अप्पधानलिङ्गानि, सद्द. 1.233. स. नि. अट्ठ. 1.45; ख. निरपराध, निर्दोष, विशुद्ध - सिनं अप्पना/अप्पणा स्त्री., [अर्पण, नपुं.], क. किसी एक पु., वि. वि., ए. व. - एतादिसंखो कटुकं, अप्पट्ठप्पदोसिनं आलम्बन पर चित्त की एकाग्रता, ध्यान में चित्त को लगा पे. व. 762; अप्पदुप्पदोसिनं इसिं सब्बतं आसज्ज आसादेत्वा देना, गम्भीर ध्यान, समाधि के दो प्रभेदों में से एक, जिसमें पापकम्मन्ता पुग्गला ... पच्चन्तीति योजना, पे. व. अट्ठ. पूर्ण रूप से एकाग्र चित्त को किसी एक आलम्बन पर स्थिर 231; - मनसङ्कप्प त्रि., ब. स. [अप्रदुष्टमनसङ्कल्प], कर दिया जाता है -- ना प्र. वि., ए. व. - एकग्गं चित्तं अप्रदूषित मानसिक संकल्प वाला, वह, जो अपने मन में बुरे आरम्मणे अप्पेतीति अप्पना, ध. स. अट्ठ. 187; यो तस्मिं विचारों को न लाए - अब्यापन्नचित्तो खो पन होति समये तक्को वितक्को सङ्कप्पो व्यप्पना चेतसो अभिनिरोपना अप्पदुट्ठमनसङ्कप्पो, म. नि. 1.362.
सम्मासङ्कप्पो, ध. स. 7; 21; 298; - नं द्वि. वि., ए. व. - अप्पदुस्सिय त्रि.. प+vदुस के सं. कृ. का निषे॰ [अप्रदूष्य]. सह निमित्तुप्पादेनेवेत्थ अप्पनं निब्बत्तेतीति अत्थो, ध. स. दूषित नहीं किए जाने योग्य - आपदास सहायो मे अभेज्जो अट्ठ. 232; - नाय तृ. वि., ए. व. - तत्थ किञ्चापि अप्पदुस्सियो, सद्धम्मो. 312.
अन्तोअप्पनाय सुभान्ति आभोगो नत्थि,ध. स. अट्ठ. 265; - अप्पधंसिक त्रि., पधंसिक का निषे. [अप्रध्वंस्य], गुणों से तो प. वि., ए. व. - अप्पनातोति अप्पनाकोडासतो. विभ. अथवा स्थान से बिलग न किए जाने योग्य, ध्वस्त या अट्ठ. 219; ख. तर्क, निगमन, व्याख्या - इमानि तानीति विनष्ट नहीं किए जाने योग्य - अप्पधंसिको होतीति गुणतो अप्पनं करोति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).343; अप्पनन्ति वा ठानतो वा पधंसेतुं चावेतुं असक्कुणेय्यो, दी. नि. अट्ठ. निगमनं म. नि. टी. (मू.प.) 1(2).22; - उपचार पु., तत्पु. 3.110; - ता स्त्री., भाव., गुणों या अच्छे कर्मों से बिलग स., अर्पणा समाधि से पूर्ववर्ती समाधि का चरण- देसेसीति न रहना, गुण-सम्पन्नता - अप्पधंसिकता आनिसंसो, दी. ... लभति, समापत्तिं एवं निब्बत्तेतीति अपनाउपचारं पापेत्वा नि. अट्ठ. 3.110.
एककसिणपरिकम्म कथेसि. म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.1443; अप्पधंसित त्रि.. प + vधंस के भू. क. कृ. का निषे. - कम्मट्ठान नपुं., तत्पु. स. [बौ. सं. अर्पणाकर्मस्थान]. [अप्रध्वस्त], अनुल्लंघित, वह, जिसे ध्वस्त या अभिभूत न समाधि की अर्पणा स्थिति की चर्या या साधना - नानि प्र. किया गया हो- ... कच्चिसि अप्पधसिताति, अप्पधसिताम्हि वि., ब. व. - तत्थ आनापानपब्बं ... द्वे अप्पनाकम्मट्ठानानि, अय्ये ति, पाचि. 305; 306.
... द्वादसपि उपचारकम्मट्ठानानेवाति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) अप्पधंसिय त्रि., ध्वस्त नहीं करने योग्य, स्थान से या गुणों 1(1).285; - कोट्ठास नपुं, कर्म, स. [बौ. सं. अर्पणाकोष्ठांश], से रहित न बनाने योग्य - यो पु., प्र. वि., ए. व. - न अर्पणा समाधि में चित्त के लिए आलम्बन बनाया गया रूप सुप्पसव्होति अप्पधंसियो, पे. व. अट्ठ. 103; - या स्त्री॰, प्र.. का कोष्ठांश - अप्पनातोति अप्पनाकोडासतो, विभ. अट्ठ.
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अप्पना/अप्पणा
426
अप्पपञ्च 219; - कोसल्ल नपुं., भाव. [अर्पणाकौशल्य], अर्पणा- तपस्सिनो बह्मचारी, चोदेन्ता अप्पनाव ते, अप. 1.399; - समाधिविषयिणी कुशलता - ..., दसविधं अपनाकोसल्लं. नावह त्रि., अर्पणा-नामक समाधि-प्रभेद के अनुकूल - वीरियसमता, अप्पनाविधानन्ति इमे नव आकारा कथेतब्बा, उपचारवहा वुत्ता, सेसा, सेसा ते अप्पनावहा, अभि. अव. विसुद्धि. 1.114; 125; 132; 274; - चित्त नपुं., तत्पु. स. 113; - वारपरिहानि स्त्री., तत्पु. स., अर्पणा समाधि में [अर्पणाचित्त], अर्पणा समाधि में विद्यमान चित्त - तस्मा तं आई हुई हानि - सब्बत्थ अप्पनावार परिहानि कता मया, अप्पनाचित्तं, दिवसम्पि पवत्तति, अभि. अव. 880; - चेत उत्त. वि. 63;-विधान नपुं., तत्पु. स., अर्पणा समाधि का नपुं., तत्पु. स., उपरिवत् - अप्पनाचेतसो तानि, अभ्यास -- पनेत्थ कसिणकरणञ्चेव परिकम्मञ्च परिकम्मोपचारतो, अभि. अव. 898; - जवन नपुं, तत्पु. अप्पनाविधानञ्च सब्बं विसद्धिमग्गे वित्थारतो वृत्तमेव, म. स., अप्पना-समाधि में स्थित योगी का जवनचित्त - नि. अट्ठ. (म.प.) 2.182; - वीथि स्त्री., तत्पु. स., चित्तवीथियों दुहेतुकानमहेतुकानञ्च पनेत्थ किरियजवनानि चेव का एक प्रभेद, अर्पणा-समाधि के चित्त द्वारा विषयों के ग्रहण अप्पनाजवनानि च लभन्ति, अभि. ध. स. 30; विशेष करने की प्रक्रिया - यथाभिनीहारवसेन यं किञ्चि जवनं द्रष्ट. जवन के अन्त०; - झान नपुं.. तत्पु. स. अप्पनावीथिमोतरति, अभि. ध. स. 27; - समाधि पु., तत्पु. [अर्पणाध्यान], अर्पणा-नामक ध्यान, समाधि-प्रक्रिया की स., समाधि का एक चरण, जिसमें चित्त को आलम्बन पर अर्पणा नामक अवस्था - झानं भावेतीति एकचित्तक्खणिक पूर्णरूप से एकाग्र किया जाता है - इधेकच्चो पठम अप्पनाझानं भावेति जनेति वड्डेति, ध. स. अट्ठ. 258; --- उपचारसमाधि वा अप्पनासमाधि वा उप्पादेति, म. नि. अट्ठ. नाधिगम पु., तत्पु. स., समाधि-प्रक्रिया में अर्पणा-नामक (मू.प.) 1(1).116. अवस्था की प्राप्ति - उप्पन्ने निमित्ते तं वड्वेत्वा अप्पनाधिगमो अप्पनिग्घोस त्रि., ब. स. [अल्पनिर्घोष], कम कोलाहल भारो, सतेस सहस्सेसु वा एकोव सक्कोति, ध. स. अट्ठ. वाला, हल्ला-गुल्ला से रहित, शान्त - सं नपुं॰, प्र. वि., ए. 231-32; - प्पत्त/पत्त त्रि., तत्पु. स. [अर्पणाप्राप्त], वह, व. - विवित्तं अप्पनिग्घोसं, मत्त होहि भोजने, सु. नि. जिसने अर्पणा समाधि की अवस्था को पा लिया है -- तं 340; विवित्तं अप्पनिग्घोस, वाळमिगनिसेवितं, थेरगा. 577; - स्त्री., द्वि. वि., ए. व. - सो तं ... तं परमसुखुमं सेसु सप्त. वि., ब. व. - अप्पसद्देसु अप्पनिग्घोसेसु अप्पनाप्पत्तं सझं पापुणाति, ध. स. अट्ठ. 251; - त्ता स्त्री., विजनवातेसु मनुस्सराहस्सेय्यकेसु पटिसल्लानसारुप्पेसु. प्र. वि., ए. व. - निष्फन्ना अप्पनापत्ता, पञआ सा भावनामया, महानि. 277. अभि. अव. 1185; - त्ताय स्त्री., तृ. वि., ए. व. - मेत्ताय अप्पन्नपानभोजन त्रि., ब. स. [अल्पान्नपानभोजन]. अत्यल्प ... सब्बे सत्ता दसदिसाफरणवसेन पवत्ताय अप्पनाप्पत्ताय खाद्यों एवं पेयों को रखने वाला, दरिद्र - ने नपुं., सप्त. मेत्ताभावनाय अपचिता होन्ति, जा. अट्ठ. 4.68; - परिच्छेद- वि., ए. व. - रथकारकुले वा पुक्कुसकुले वा दलिद्दे जाननक-पञा स्त्री., कर्म. स., अर्पणा के विभिन्न चरणों अप्पन्नपानभोजने कसिखुत्तिके, पु. प. 161; अ. नि. 1(1).131. का ज्ञान कराने वाली प्रज्ञा - सह परिकम्मेन अप्पपंसु त्रि., ब. स. [अल्पपांसु], कम ढीली मिट्टी वाला, अप्पनापरिच्छेदजाननकपआ पन समापत्तिकुसलता नाम, दोमट मिट्टी से रहित - अजाता नाम पथवी - ध. स. अट्ठ. 416; - मन नपुं., तत्पु. स. [अर्पणामनस्]. सुद्धपालिका अप्पपंसुका अप्पमत्तिका, येभुय्येनपासाणा समाधि के अर्पणा-नामक चरण में स्थित मन - चतुत्थं येभु नसक्खरा येभुय्ये नकठला, येभु नमरुम्बा गोत्रभुं दिलु, पञ्चमं अप्पनामनो ... ततियं गोत्रभुं दिलु येभुय्येनवालिका, पाचि. 50. चतुत्थं अप्पनामनो, अभि. अव. 121; - मानस नपुं.. उपरिवत् अप्पपक्ख त्रि., ब. स. [अल्पपक्ष]. वह, जिसके पक्ष लेने - सेन तृ. वि., ए. व. - सहजातं तु यं आणं अप्पनामानसेन ___वाले बहुत कम लोग हों, बहुत कम समर्थकों वाला - क्खं हि, अभि. अव. 1064; - लक्खण त्रि., ब. स. [अर्पणालक्षण], नपुं., प्र. वि., ए. व. - असुकं नाम कुलं पुब्बे बहुञातिक आलम्बन पर चित्त को रख देने या बैठा देने के लक्षण अहोसि बहुपक्खं, इदानि अप्पञातिकं अप्पपक्खं जातान्ति, वाला - एवमेव खो, महाराज, अप्पनालक्खणो वितक्कोति, अ. नि. अट्ठ. 1.65. मि. प. 64; - वत नपुं., तत्पु. स. [अर्पणाव्रत], अर्पणा- अप्पपञ्च त्रि., ब. स. [अप्रपञ्च]. जटिलता से रहित, नामक समाधि से सम्बन्धित व्रत - ते सप्त. वि., ए. व. - प्रपञ्च-रहित, नहीं उलझन भरा - इति वदं अप्पपञ्च
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अप्पपञ
427
अप्पभिक्खुक
196.
पपञ्चेति, अ. नि. 1(2).187; अप्पपञ्चं पपञ्चेतीति न अप्पफल त्रि., ब. स. [अल्पफल], बहुत कम फल देने पपञ्चेतबहाने पपञ्चं करोति, अनाचरितब् मग्गं चरति, वाला, कम लाभदायक - महाकिच्चं महाधिकरणं महासमारम्भ अ. नि. अट्ठ. 2.349.
विपज्जमानं अप्पफलं होति, म. नि. 2.422; - ता स्त्री., अप्पपञ त्रि., ब. स. [अल्पप्रज्ञ], कम बुद्धि वाला, मूर्ख, भाव., बहुत कम फलदायक होना, कम लाभप्रद होना - अज्ञानी - तस्सप्पपओ अभिसद्दहन्तो, उपेति गमञ्च परञ्च अप्पफलताय वा तुद्धिं न जनेति, पे. व. अट्ट. 122. लोक, थेरगा. 785; सिङ्गाल बाल दुम्मेध, अप्पपोसि अप्पबल त्रि०, ब. स. [अल्पबल], कम बल वाला, अल्प जम्बुक, जा. अट्ठ. 3.195; गिरिदुग्गचरं छेतं, अप्पपञ्ज शक्ति से युक्त, दुर्बल-ला पु., प्र. वि., ब. व. - अबलाति अचेतसं. स. नि. 1(1).230..
अबला किलेसा दुब्बला अप्पबला अप्पथामका हीना निहीना अप्पपरिक्खार त्रि., ब. स. [अल्पपरिष्कार], अत्यल्प ओमका लामका छतुक्का परित्ता, महानि. 8. साधनों से सम्पन्न, बहुत कम आवश्यकता रखने वाला- अप्पबुद्धि त्रि., ब. स. [अल्पबुद्धि], दुर्बुद्धि, मूर्ख, कम बुद्धि यो अप्पपरिक्खारो होति, पत्तचीवरादि वाला-द्धीनं ष. वि., ब. व. - यसो च अप्पबुद्धीनं, विजूनं अद्वसमणपरिक्खारमत्तमेव परिहरति, दिसापक्कमनकाले अयसो च यो, अयसोव सेय्यो विञ्जूनं न यसो अप्पबुद्धीनं, पक्खी सकुणो विय समादायेव पक्कमति, खु. पा. अट्ठ. थेरगा. 667.
अप्पबुद्धिक त्रि., ब. स. [अल्पबुद्धिक], उपरिवत् - महासेष्टि अप्पपरिवार त्रि., ब. स. [अल्पपरिवार], बहुत छोटे समूह · मातुगामो नाम अप्पबुद्धिको, ध. प. अट्ठ. 2.405. वाला, बहुत कम लोगों से घिरा रहने वाला - रा पु., प्र. अप्पम त्रि.. ब. स. [अप्रभ], प्रभा-रहित, तेज या चमक से वि., ब. व. - अप्पेसक्खाति अप्पपरिवारा, म. नि. अट्ठ. रहित, धूमिल - मे पु., वि. वि., ब. व. - अयोघरम्हि संवड्वो, (मू.प.) 1(2).130; अ. नि. अट्ठ. 2.369; अप्पेसक्खाति अप्पभे चन्दसूरिये, चरिया. 396; अप्पभे चन्दसूरियेति अप्पपरिवारा, पुरतो वा पच्छतो वा गच्छन्तं न लभन्ति, म. चन्दसूरियानं पभारहिते अयोघरे, चरिया. अठ्ठ. 180. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).130.
अप्पभक्ख त्रि., ब. स. [अल्पभक्ष], भोजन अन्न आदि से अप्पपासाण त्रि., ब. स. [अल्पपाषाण], बहुत कम पत्थरों रहित, अभाव-पीड़ित - क्खं द्वि. वि., ए. व. - ते तं से युक्त, कम कंकड़-पत्थर वाला/वाली - जाता नाम कन्तारमागम्म, अप्पभक्खं अनोदक, जा. अट्ठ. 4.312; - पथवी - सुद्धपंसु सुद्धमत्तिका अप्पपासाणा अप्पसक्खरा क्खा पु., प्र. वि., ब. व. - अप्पोदका अप्पभक्खा , न सकरा ..... पाचि. 50.
अपाथेय्येन गन्तुं, महाव. 321; - कन्तार नपुं.. कर्म. स. अप्पपुञ त्रि.. ब. स. [अल्पपुण्य]. बहुत कम पुण्यकर्म [अल्पभक्षकान्तार], भोजन आदि से रहित बीहड़ वन - करने वाला - जो पु., प्र. वि., ए. व. - अप्पपातोति कन्तारन्ति चोरकन्तारं वाळकन्तारं अमनुस्सकन्तारं निरुदककन्तारं अपाकटो अप्पपुसओ, अ. नि. अट्ट 3.44; किं पनायं अप्पभक्खकन्तारन्ति पञ्चबिधं स. नि. अट्ठ. 2.91. अप्पपुओ अप्पे सक्खो न लाभी अप्पभवन्तु त्रि.. प + Vभू के वर्त. कृ. का निषे. [अप्रभवत्]. चीवरपिण्डपातसेनासनगिलानपच्चयभेसज्जपरिक्खारा- प्रभाव से रहित, बिना प्रभाव वाला - सोहं अप्पभवं तत्थ, नन्ति, महानि. 292; - जा ब. व. - मयमेवम्हा अलक्खिका साखं हत्थेहि अग्गहिं, जा. अट्ठ. 3.330; सद्द. 1.72. मयं अप्पपुआ, ये मयं एवं स्वाखाते धम्मविनये पब्बजित्वा अप्पभाव पु., तत्पु. स. [अल्पभाव], संख्या में कम होना, ..., पारा. 24.
प्रसार या फैलाव में छोटा होना - पुट्ट चुट्ट अप्पभावे..... अप्पं अप्पपुरिस त्रि., ब. स. [अल्पपुरुष], बहुत कम पुरुषों वाला भवतीति अत्थो, सद्द. 2.532. - लानि नपुं.. प्र. वि., ब. व. - कुलानि बहुत्थिकानि अप्पभास त्रि.. ब. स. [अप्रभास], प्रकाश से रहित, उजाला
अप्पपुरिसानि तानि सुप्पधंसियानि होन्ति, स. नि. 1(2).241. से रहित - से पु., सप्त. वि., ए. व. - तिमिरे अन्धकारे अप्पपुरिसक त्रि., ब. स. [अल्पपुरुषक], उपरिवत् - अप्पभासे सुपरिसुद्धपि आदासे छाया न दिस्सति, मि. प. सिकानि नपुं.. प्र. वि., ब. व. - कुलानि बहुत्थिकानि 275-76. अप्पपरिसकानि, तानि सुप्पधंसियानि होन्ति, अ. नि. अप्पभिक्खुक त्रि., ब. स. [अल्पभिक्षुक], वह स्थान, जहां 3(1).107; चूळव. 419-20.
भिक्षु कम संख्या में हों - ... अवन्तिदक्षिणापथो
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अप्पभोग
428
अप्पमञा
अप्पभिक्खुको होति, उदा. 134; तत्थ अप्पभिक्खुकोति कतिपयभिक्खुको, उदा. अट्ठ. 253; - त्त नपुं॰, भाव, [अल्पभिक्षुकत्व], भिक्षुओं की संख्या कम होना - यावजीवं .. अप्पभिक्खुकत्ता दक्खिणापथे तिण्णं वस्सानं अच्चयेन
लखूपसम्पदो सत्थारं सम्मुखा... अभणि, ध. प. अट्ट. 2.340. अप्पभोग त्रि., ब. स. [अल्पभोग]. कम भोगसाधनों वाला, स्वल्प धनसम्पदा वाला, दरिद्र - गो पु., प्र. वि.. ए. व. -- अप्पभोगो महातण्हो, खत्तिये जायते कुले, सु. नि. 114; अप्पभोगो नाम सन्निचितानञ्च भोगानं आयमुखस्स च अभावतो. सु. नि. अट्ठ. 1.137; - गा प्र. वि., ब. व. -- दलिद्दा च होति अप्परसका अप्पभोगा ..., सद्द. 1.96; - गे पु., सप्त. वि., ए. व. - कपणम्हि अप्पभोगे, धनिकपुरिसपातबहुलम्हि, थेरीगा. 445; - गा पु., प्र. वि., ब. व. - ..., अजे अप्पभोगा, अजे महाभोगा, ..., मि. प. 68; - त्त नपुं, भाव. [अल्पभोगत्व], दरिद्रता, धनसम्पदा की कमी - अप्पभोगसंवत्तनिका पटिपदा अप्पभोगत्तं उपनेति, म. नि. 3.255. अप्पभोजन त्रि., ब. स. [अल्पभोजन], ऐसा स्थान या घर,
जहां बहुत कम भोजन मिलता हो - नीचे कुलम्हि जातोहं, दलिदो अप्पभोजनो, थेरगा. 620. अप्पमंस त्रि., ब. स. [अल्पमांस], वह, जिसके शरीर में बहुत कम मांस रहे, - तर त्रि., तुल. विशे.. वह, जिसके शरीर में और भी कम मांस हो - अथिमं खुद्दकं पक्खिं , अप्पमंसतरं मया, जा. अट्ठ. 3.352; - लोहित त्रि., ब. स. [अल्पमांसलोहित], कम मांस एवं कम रक्त वाले शरीर वाला, बलहीन, दुर्बल - तत्थ को तुम्हाकन्ति ... इमेसूकरा अप्पमंसलोहिता, जा. अट्ठ. 4.307; - त नपुं., भाव. [अल्पमसलोहितत्व], बलहीनता, बहुत कम मांस और रक्त का होना- पेता हि अप्पमंसलोहितत्ता अद्विसङ्घातजटिता एकेन परसेन सयितन सक्कोन्ति, म. नि. अट्ट (मू.प.) 1(2)212. अप्पमज्जं/अप्पमज्जन्त प + vमद के वर्त. कृ. का निषे. [अप्रमाद्यत्], प्रमाद नहीं कर रहा, सुदृढ़ प्रयास करने वाला, अध्यवसायी - ज्जतो पु.. प्र. वि., ए. व. -
अधिचेतसो अप्पमज्जतो, मुनिनो मोनपथेसु सिक्खतो, पाचि. 79; अप्पमज्जतोति नप्पमज्जतो, पाचि. अट्ठ. 60; उट्ठाहतो अप्पमज्जतो, अनुतिट्ठन्ति देवता, जा. अट्ठ, 5.107; - न्तो पु., प्र. वि., ब. व. - एवं दायकोपि ... परिचरियाय च अप्पमज्जन्तो उळारं विपुलञ्च दानफलं पटिलभति, पे. व. अट्ट. 7.
अप्पमज्जन नपुं., पमज्जन = पमाद का निषे०, अप्रमाद, स्मृति की जागरुकता - नं प्र. वि., ए. व. - संयमनं संयमो अप्पमज्जनं अप्पमादो, खु. पा. अट्ठ. 114; - नं द्वि. वि., ए. व. - अप्पमादं पसंसन्तीति ... अप्पमादं अप्पमज्जन पण्डिता सप्प बुद्धादयो पसंसन्ति, वण्णेन्ति थोमेन्ति, इतिवु. अट्ठ. 71; - ने सप्त. वि., ए. व. - अप्पमादरताति .... अप्पमज्जने रता अभिरता तत्थ अप्पमादेनेव रत्तिन्दिवं
वीतिनामेन्ता, इतिवु. अट्ठ. 148. अप्पमञति अप्प + vमन का वर्त., प्र. वि., ए. व. [अवमन्यते], तिरस्कार करता है, निचली दृष्टि से देखता है, अवज्ञापूर्वक देखता है, - जेथ विधि., प्र. पु., ए. व., आत्मने. -- मावमजेथ पापस्स, न मन्तं आगमिस्सति, ध. प. 121; तत्थ मावम थाति न अवजानेय्य, पापस्साति पापं ध. प. अट्ठ.2.10. अप्पमञा स्त्री., व्यु. संदिग्ध, संभवतः अप्पमाण का भाव., मेत्ता, करुणा आदि की भावना का सङ्केतक होने के कारण संभवतः स्त्री. का निर्धारण [अप्रामाण्य], शा. अ. प्रमाणरहित होना, सीमारहित होना, ला. अ. मेत्ता, करुणा, मुदिता एवं उपेक्खा नाम के चार ब्रह्मविहार, जिनके प्रसार का क्षेत्र असीम तथा जिनके आलम्बनभूत प्राणियों की संख्या भी अप्रमाण रहती है - आ प्र. वि., ए. व. - उपेक्खा अप्पमआ च अरूपा चेव पश्चिमे, अभि. अव. 830; - चं द्वि. वि., ए. व. - रत्तिन्दिवं सततमप्पमत्तो, सब्बा दिसा फरति अप्पमधे सु. नि. 512; - यो द्वि. वि., ब. व. - फुसिस्सं चतस्सो अप्पमआयो, ताहि च सखितो विहरिरसं. थेरगा. 386; - नं ष. वि., ब. व. - भागी वा भगवा चतुन्न झानानं चतुन्नं अप्पमञानं चतुन्न अरूपसमापत्तीनन्ति भगवा, महानि. 104; चतुन्न अप्पमञानन्ति मेत्तादीनं फरणप्पमाणविरहितानं चतुन्नं ब्रह्मविहारानं. महानि. अट्ठ. 212; - सु सप्त. वि., ब. व. - दानस्मि ब्रह्मचरियं अप्पमासु सासने, अभि. प. 782; - गाथा स्त्री., कर्मस., सु. नि. की 73वीं गाथा का सु. नि. अट्ठ. में बतलाया गया शीर्षक - अप्पमञआगाथावण्णना समत्ता, सु. नि. अट्ठ. 1.102; - विभङ्ग पु., विभ, के तेरहवें अध्याय का शीर्षक, जिसमें मेत्ता आदि 4 ब्रह्मविहारों का विवेचन है, विभ. 307-322; विभ. अट्ठ. 356-380; - विरति स्त्री., तीन प्रकार के विरति-चैतसिक तथा ब्रह्मविहार - अप्पमाविरतियो पनेत्थ पञ्चपि पच्चेकमेव योजेतब्बा, अभि. ध. स. 13.
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अप्पमत्त
429
अप्पमाण
अप्पमत्त' त्रि., पमत्त का निषे. [अप्रमत्त], वह, जो प्रमाद- युक्त या असावधान न हो, जागरुक, चैतन्य, उत्साही, वीर्यवान् -- त्तो पु., प्र. वि., ए. व. - तण्हक्खयं पत्थयममप्पमत्तो, अनेळमूगो सुतवा सतीमा, सु. नि. 70; अप्पमत्तोति सातच्चकारी सक्कच्चकारी, सु. नि. अट्ट, 1.983; -स्स पु, ष. वि., ए. व. - भिक्खुनो अप्पमत्तस्स आतापिनो पहितत्तरस विहरतो, सु. नि. (पृ.) 190; तस्स मे अप्पमत्तस्स, संसारा विनळीकता, थेरगा. 216; - त्ता पु., प्र. वि., ब. व. - सारत्थो अप्पमत्ता आतापिनो पहीतत्ता विहरथ, दी. नि. 2.107; - त्तेन पु., तृ. वि., ए. व. - साधु, केवलं ते अप्पमत्तेन भवितब्बन्ति, जा. अट्ठ. 1.237; - स्स पु.. च. वि., ए. व. - यत्थ अमोघा पब्बज्जा, अप्पमत्तस्स सिक्खतो, थेरगा. 837; - त्ताय स्त्री., च. वि., ए.व. - तस्सा मे अप्पमत्ताय, विचिनन्तिया योनिसो, थेरीगा. 85; - त्ता पु.. प्र. वि., ब. व. - धीरा समधिगच्छन्ति, अप्पमत्ता विचक्खणाति, थेरगा. 4; अप्पमत्ता न मीयन्ति, ये पमत्ता यथा मता, ध. प. 21. अप्पमत्त त्रि.. ब. स. [अल्पमात्र], बहुत कम मात्रा वाला, प्रसार में छोटा, कम संख्या या कम मूल्य वाला, महत्वहीन, तुच्छ -- त्तो पु., प्र. वि., ए. व. -- अप्पमत्तो अयं कलि, यो अक्खेसु धनपराजयो, सु. नि. 664; पाठा. अप्पमत्तकी. अप्पमत्तक 1. त्रि., अप्पमत्त से व्यु., उपरिवत् - को पु., प्र. वि., ए. व. - अप्पमत्तको सो भिक्खवे कलिग्गहो यं सो अक्खधुत्तो पठमेनेव कलिग्गहेन पुत्तम्पि जीयेथ, म. नि. 3.209; अप्पमत्तकोपि गूथो दुग्गन्धो होति, अ. नि. 1(1).48%; - के पु., सप्त. वि., ए. व. -- ते अप्पमत्तकेपि दुक्खधम्मे उप्पन्ने अत्तना कन्दमाना रोदमाना, जा. अट्ठ. 3.49; - त्तिका स्त्री., प्र. वि., ए. व. - महाधातुकथायं अपुब्बं नत्थि,
अप्पमत्तिकाव तन्ति अवसेसा, ध. स. अट्ठ.5; - कं स्त्री., द्वि. वि., ए. व. - यकिञ्चि अप्पमत्तकम्पि वेदनं अनुभवति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).194; - केसु पु.. सप्त. वि., ब. व. - भयदस्सावीति अप्पमत्तकेस वज्जेस भयदस्सावी, पाचि. अट्ठ. 47; - कस्स पु../नपुं.. ष. वि., ए. व. - किं पनिमस्स अप्पमत्तकस्स ओरमत्तकस्स अधिसल्लिखतेवायं समणोति, म. नि. 2.121; 2. नपुं., अल्प मात्रा, अल्पमात्रा वाली वस्तु - तस्मा अम्हहि अप्पमत्तकानि येव दस्सितानि, सद्द. 1.142; 3. - मत्तकेन अ., तृ. वि., प्रतिरू., क्रि. वि., क्षुद्र कारण से, मामूली सी बात से - ते आकुलचित्ता अप्पमत्तकेनपि तसन्ति वित्तसन्ति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.)
1(1).122; - परिच्चाग पु., तत्पु. स., बहुत कम का त्याग, थोड़ी सी या अमहत्वपूर्ण वस्तु का परित्याग - अपिच खो पुब्बे अप्पमत्तकपरिच्चागानुभावेन निब्बत्तोति, खु. पा. अट्ठ. 156; - विस्सज्जक त्रि., बहुत साधारण वस्तुओं का दान देने वाला - भिक्खु अप्पमत्तकविरसज्जकं सम्मन्नितुं .... चूळव. 310. अप्पमत्तता स्त्री., अप्पमत्त' का भाव. [अप्रमत्तता], चित्त की जागरुकता, प्रमाद से रहित होने की अवस्था - अनेलमूगता
अमत्तता अप्पमत्तता असम्मोहता अच्छम्भिता. खु. पा. अट्ठ. 24. अप्पमत्ता स्त्री., कर्म. स., [अल्पमात्रा], बहुत कम मात्रा - अप्पमत्ता एतस्साति अप्पमत्तक, दी. नि. अट्ठ. 1.52; - मत्ताय प. वि., ए. व. - नारहतायस्मा अम्बट्टो इमाय अप्पमत्ताय अभिसज्जितु न्ति, दी. नि. 1.80. अप्पमत्तिक त्रि., ब. स. [अल्पमृत्तिक], बहुत कम मिट्टी वाला/वाली - का स्त्री.. प्र. वि., ए. व. - अजाता नाम पथवी- ... सुद्धवालिका अप्पपंसुका अप्पमत्तिका येभुय्येन पासाणा, पाचि. 50. अप्पमरुम्ब त्रि., ब. स. [अल्पमरूव], कम कंकरीली बालू वाली, कम चूने वाले कङ्कड़ों वाली - जाता नाम पथवी..... अप्पसक्खरा अप्पकठला अप्पमरुम्बा अप्पबालिका, पाचि.
50; मरुम्बाति कटसक्खरा, पाचि० अट्ठ. 19. अप्पमाण' त्रि., ब. स. [अप्रमाण]. 1. नहीं मापने जोखने योग्य, असीम, अनन्त, असंख्य, सर्वव्यापी - णं नपुं.. द्वि. वि., ए. व. - सो वीतरागो पविनेय्य दोसं, मेत्तं चित्तं भावयप्पमाणं सु. नि. 512; मेत्तचित्तञ्च भावेथ, अप्पमाणं दिवा च रत्तो च, जा. अट्ट, 5.182; - णेन तृ. वि., ए. व. - यो वे मेतेन चित्तेन सब्बलोकानुकम्पति, उद्धं अधो च तिरियं, अप्पमाणेन सब्बसो अप्पमाणं हितं चित्तं परिपुण्णं सुभावितं, जा. अट्ठ. 2.50; सोहं अप्पमाणेन चक्खुना अप्पमाणञ्चेव ओभासं सजानामि, अप्पमाणानि च रूपानि पस्सामि, म. नि. 3.201; - णा पु.. प्र. वि., ब. व. - तत्थ अपरिमाणा वण्णा अपरिमाणा व्यञ्जना अपरिमाणा सङ्कासना, स. नि. 3(2).4933; नवमे अपरिमाणा वण्णाति अप्पमाणानि अक्खरानि, स. नि. अट्ठ. 3.328; 2. त्रि०, अतुलनीय, बेजोड़ - णो पु., प्र. वि., ए. व. - अप्पमाणो बुद्धो अप्पमाणो धम्मो, अप्पमाणो सङ्घो, पमाणवन्तानि सरीसपानि, अ. नि. 1(2).85; महाव. 227; अप्पमाणो बुद्धोति एत्थ बुद्धोति बुद्धगुणा वेदितब्बा, ते हि अप्पमाणा नाम, अ. नि. अट्ठ. 2.308; - णं द्वि. वि.. ए. व. - अतुलन्ति अप्पमाणं उळारं पणीतं. पे. व. अट्ठ. 96%;
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अप्पमाण
430
अप्पमाणक
- णा स्त्री॰, प्र. वि., ए. व. - अप्पमाणा चेतोविमुत्ति या च महग्गता चेतोविमुत्ति, म. नि. 186; - णो पु., प्र. वि., ए. व. - मुदुना कम्मञ्जुन चित्तेन अप्पमाणो समाधि होति सुभावितो, अ. नि. 3(1).228; अप्पमाणो समाधीति चतुब्रह्मविहारसमाधिपि मग्गफलसमाधिपि अप्पमाणो । समाधि नाम, अ. नि. अट्ठ. 3.276; - णानि नपुं॰, प्र. वि., ब. व. - अज्झत्तं ... पस्सति अप्पमाणानि सवण्णदुब्बण्णानि, दी. नि. 2.85; अप्पमाणानीति वद्धिततप्पमाणानि, महन्तानीति
अत्थो , दी. नि. अट्ठ. 2.136. अप्पमाण नपुं. निषे. तत्पु. स. [अप्रमाण], वह, जो यथार्थज्ञान
का उचित साधन या आधार नहीं है, प्रमाण का अभाव, नहीं प्रमाण - एत्थ च यस्मा अवि परे अप्पमाणं, खु. पा. अट्ट. 197; एतेसं वचनं अप्पमाणं जा. अट्ठ. 2.267; काळपक्खो वा जुण्हपक्खो वा एत्थ अप्पमाणन्ति वुत्तं होति, जा. अट्ठ. 1.167. अप्पमाणक त्रि., ब. स. [अप्रमाणक], बिना प्रमाण वाला, प्रमाण-रहित, असङ्गत - पाळं पत्वान तेसन्तु वचणं अप्पमाणकं. सद्द. 1.9; - गुण त्रि.. ब. स. [अप्रमाणगुण], असंख्य गुणों से युक्त - बहुगुणो अनेकगुणो अप्पमाणगुणो गुणरासि गुणपुञ्जो सत्तानं ... मि. प. 188; - ता स्त्री॰, भाव. [अप्रमाणगुणत्व]. असंख्य गुणों से भरपूर होना - ... तिण्णं रतनानं अप्पमाणगुणतं दस्सेत्वा सप्पमाणे सत्ते दस्सेतुं ..., जा. अट्ठ. 2.121; - गोचरता स्त्री., अप्पमाणगोचर का भाव. [अप्रमाणगोचरता], अपरिमेय विषयों वाला होना, आलम्बनों या विषयों की अपरिमेयता - एवं अप्पमाणगोचरताय एकलक्खणासु चापि एतासु पुरिमा ... होन्ति, ध. स. अट्ठ. 241; - चित्त/चेतस त्रि., ब. स. [अप्रमाणचित्त/ अप्रमाणचेत], शा. अ. वह व्यक्ति, जिसका चित्त अप्रमेय हो अर्थात् प्रमाणों द्वारा ग्राह्य न हो, ला. अ. लोकोत्तर चित्त वाला, क्लेशों से मुक्त चित्त वाला - सो पु., प्र. वि., ए. व. - उपडितकायस्सति च विहरति, अप्पमाणचेतसो तञ्च चेतोविमुत्तिं पञआविमुत्तिं ..., स. नि. 2(2).12526; म. नि. 1.341; अप्पमाणचेतसोति उपडितसतिताय निक्किलेसचित्तेन अप्पमाणचित्तो. स. नि. अट्ठ. 3.43; तत्थ अप्पमाणचेतसोति अप्पमाणं लोकुत्तरं चेतो अस्साति अप्पमाणचेतसो, मग्गचित्तसमङ्गीति अत्थो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).207; - दस्स त्रि., [अप्रमाणदर्श]. प्रमाणों से अग्राह्य निर्वाण को देखने वाला, प्रमाणों के अविषयीभूत निर्वाण का साक्षात्कार करने वाला, - दस्सं पु., द्वि. वि..
ए. व. - ... बुद्ध भगवन्तं अप्पमाणदस्सं अग्गदस्सं ... असमं असमसमं अप्पटिसमं ... पटिलभिं, चूळनि. 189190; अप्पमाणदस्सन्ति पमाणं अतिक्कमित्वा अप्पमाणं निब्बानदस्सं. चूळनि. अट्ठ. 77; - पाक त्रि., ब. स., अनग्गपाळ नाम की सार्थकता को प्रकाशित करने हेतु प्रयुक्त, पकाए हुए भोज्य पदार्थों को बिना किसी सोच विचार के जिस किसी को भी दान देने वाला - तस्सपि तेनेव कारणेन अनग्गपाळोति नामं जातं, अप्पमाणपाकोति अत्थो, अ. नि. अट्ठ. 1.195; - विहारी त्रि., [अप्रमाणविहारिन्]. शा. अ. प्रमाणों को अतिक्रमण कर चुकी स्थिति में विहार करने वाला, ला. अ. आस्रवों को नष्ट कर चुका अर्हत्, प्रमाण या परिसीमन करने वाले राग आदि से मुक्त चित्तभूमि में विहार करने वाला अर्हत्, राग आदि से मुक्त अर्हत्वफल में विहार करने वाला - ... भावितकायो होति भावितसीलो भावितचित्तो भावितपओ अपरित्तो महत्तो अप्पमाणविहारी, अ. नि. 1(1).283; अप्पमाणविहारीति खीणासवस्सेतं नाममेव, सो हि पमाणकरानं रागादीनं अभावेन अप्पमाणविहारी नाम, अ. नि. अट्ठ. 2.218; - रिनो पु.. ष. वि., ए. व. - समाधि न विकम्पति, अप्पमाणविहारिनो, स. नि. 1(2).210; अप्पमाणविहारिनोति अप्पमाणेन फलसमाधिना विहरन्तरस, स. नि. अट्ठ. 2.183; - सञी त्रि., [अप्रमाणसंज्ञिन्], शा. अ. प्रमाण से परे अथवा अत्यधिक विपुलविषय की संज्ञा रखने वाला, ला. अ. ऐसी आत्मा, जो अत्यधिक विपुल विषय की संज्ञा कर सके, सांख्य एवं वैशेषिक दर्शनों में प्रतिपादित सर्वज्ञ पुरुष या आत्मा - अप्पमाणसञी अत्ता होति. दी. नि. 1.26%; विपुलकसिणवसेन अप्पमाणसञीति वेदितब्बा, दी. नि. अट्ठ. 1.102; कपिलकणादादयो विय अत्तनो सब्बगतभावपटिजाननवसेन अप्पमाणो सञी चाति अप्पमाणसञीति .... लीन. (दी.नि.टी.) 1.152; - सत्तारम्मण त्रि.. ब. स. [अप्रमाणसत्त्वालम्बन], अप्रमाण या असंख्य प्राणियों को अपना आलम्बन बनाने वाला - अप्पमाणन्ति अप्पमाणसत्तारम्मणं, जा. अट्ठ. 5.183; -- त्त नपुं., अप्पमाणारम्मण का भाव. [अप्रमाणालम्बनत्व], अप्रमाण या असीम आलम्बनों वाला होना - अप्पमाणेनाति अप्पमाणसत्तानं अप्पमाणारम्मणत्ता अप्पमाणेन. जा. अट्ठ. 2.50; - समाधि पु., कर्म. स. [अप्रमाणसमाधि]अर्हत्व के मार्गक्षण में स्थित साधक द्वारा की जा रही समाधि - अभियुय्य दिसा सब्बा, अप्पमाणसमाधिना, अ. नि. 1(1).269;
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अप्पमाणिक
अप्पमाणसमाधिनाति अरहत्तमग्गसमाधिना, अ० नि० अट्ट 2.211; - सुभ पु०, रूप ब्रह्मलोकों में से एक में निवास करने वाले अनन्त शोभा से युक्त देवताओं के एक वर्ग का नाम मा प्र. वि. ब. व. एकतलवासिनो एवं चेते सब्वेपि परितसुभा अप्यमाणसुभा सुभकिण्हाति वेदितब्बा म. नि. अट्ठ. ( मू.प.) 1 ( 1 ) .39; - मानं ष० वि०, ब० व. अप्पमाणसुभानं देवानं म. नि. 1. 364; - णाभ त्रि., ब. स. [ अप्रमाणाभ] अत्यन्त देदीप्यमान आभा वाले रूपब्रह्मलोकों में से एक के निवासी देवगण भानं पु.. ष. वि. ब. व. ... अप्पमाणाभानं देवानं... म. नि. 1363: आभानं देवानन्ति
431
परिताभअप्पमाणाभ आभस्सरानमेतं अधिवचनं, म. नि. अट्ठ. ( मू०प०) 1 (2).229; णारम्मण त्रि. ब. स. [ अप्रमाणालम्बन] विपुल विषय को आलम्बन बनाने वाला, अप्रमाण या लौकिक सीमाओं के ऊपर जा चुके धर्म (निर्वाण ) को आलम्बन बनाने वाली समाधि प्रज्ञा या सम्यकदृष्टि - णो पु०, प्र. वि., ए. व. - अत्थि परित्तारम्मणो, अत्थि महग्गतारम्मणो अतिथ अप्पमाणारम्मणो विभ. 18:णा स्त्री. प्र. वि., ए. व. अप्पमाणे धम्मे आरम्भ या उप्पज्जति पञ्ञा पजानना... अमोहो धम्मविचयो सम्मादिट्टि अयं वृच्चति अप्यमाणारम्मणा पञ्ञा, विग. 373 णं नपुं. प्र. वि. ए. व. यं विपुले आरम्भणे पवत्तं तं वुद्धिप्यमाणता अप्यमाण आरम्भणं अस्साति अप्पमाणारम्मण ध. स. अह. 229 णा पु. प्र. कि. व. क... अप्पमाणे धम्मे आरम्भ ये उप्पज्जन्ति चित्तचेतसिका धम्मा-इमे धम्मा अप्पमाणारम्मणा, ध. स. 1031; - ता स्त्री. भाव. [ अप्रमाणालम्बनता ], विपुल आलम्बन वाला होना, लोकोत्तर धर्म (निर्वाण) को आलम्बन बनाने की स्थिति विपरियायेन अप्पमाणारम्मणता वेदितब्बा, ध. स. अट्ठ. 253.
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अप्पमाणिक त्रि.. अप्पमाण से व्यु [अप्रमाणिक] निर्धारित मानदण्डों से रहित, प्रामाणिक माप-जोख से रहित, बहुत बड़ी या बहुत छोटी णिकायो स्त्री द्वि. वि. ब. द.
सज्ञाचिकायो कुटियो कारापेन्ति अस्सामिकायो अतुद्देसिकायो अप्पमाणिकाय, पारा. 224 अप्पमाणिकायोति एतकेन निद्रं गच्छिरसन्तीति एवं अपरिच्छिन्नप्पमाणायो, बुद्धिप्पमाणायो वा महन्तप्पमाणायोति अत्थो, पारा. अड. 2.1.134 णिकानि नपुं. द्वि. वि. ब. व. भगवता निसीदने अनुज्ञान्ति अप्पमाणिकानि निसीदनानि धारेति पाचि. 224. अप्पमाद पु. पमाद का निषे. [अप्रमाद] चित्त की जागरुकता, स्मृति की जागरुकता, प्रमाद या चित्त की शिथिलता या
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अप्पमाद
आतप्प
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विक्षिप्तता का न रहना दो प्र. वि. ए. व. - पधानं अधिद्वानं अनुयोगो अप्पमादो कुसलेसु धम्मेसु, महानि. 42-43, अप्यमादोति नष्पमज्जनं सतिया अविप्पवासो महानि, अ. 148: अप्पमादो दुच्चति सतिया अविप्पवासो दी. नि. अड. 1.90; देन तृ, वि. ए. व. सद्धाय तरति ओघं अप्पमादेन अण्णवं सु. नि. 186 तस्मा अप्पमादेन अण्णवन्ति इमिना पदेन भवोघतरणं सकदागामिमग्गं सकदागामिञ्च प्रकासेति सु. नि. अ. 198 दं द्वि. वि. ए. ब. अप्पमादञ्च मेधावी, धनं सेट्ठव रक्खति, थेरगा. 883; - दे सप्त. वि. ए. व. अप्पमादे पमोदन्ति, अरियानं गोचरे रता, ध० प० 22; - गरु / गारव त्रि०, ब० स० [अप्रमादगौरव ], अप्रमाद में गौरव अनुभव करने वाला, अप्रमाद को सम्मान देने वाला अप्पमादगरु भिक्खु, पटिसन्धारगारवो अ. नि. 2 (2) 47: 181 गारवता स्त्री. भाव [अप्रमादगौरवता]. अप्रमाद में सम्मान या गौरव का भाव - अप्पमादगारवताति अप्पमादे गरुभावो, अ० नि० अट्ठ. 3.108; - गुण पु०, तत्पु० स. [ अप्रमादगुण] अप्रमाद का गुण ने सप्त. वि., ए. व. अप्पमादगुणे युत्तो, तदा कालहूतो अहं अप. 1.164; - धम्म पु०, तत्पु० स० [ अप्रमादधर्म], अप्रमाद का धर्मअप्पमादधम्मो देसितो एवं अप्पमादधम्मं येव थेरो देसेसि, सा. वं. 56 (ना.); पटिपत्ति स्त्री. तत्पु. स. [ अप्रमादप्रतिपत्ति], अप्रमाद की चर्या, अप्रमाद का अभ्यास,
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तियं सप्त वि. ए. व. अनुसासमाना च अप्पमादप्पटिपत्तियं अनुसासन्ति, मि. प. 223; - पद नपुं०, [ अप्रमादपद], अप्रमादविषयक वचन, कथन या वाक्य दे सप्त वि. ए. व. ओवादं सब्बं एकस्मिं अप्पमादपदेयेव पक्खिपित्वा अदासि दी. नि. अड. 2.166;
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वाला
फल नपुं., तत्पु॰ स॰ [अप्रमादफल ], अप्रमाद का फल लं हि. वि. ए. व. इमेसं भिक्खूनं अप्पमादफलं सम्पस्समानो अप्पमादेन करणीयन्ति वदामि म. नि. 2.152; - मूलक त्रि०, ब० स० [ अप्रमादमूलक ], अप्रमाद में अपनी जड रखने वाला अप्रमाद के कारण उदित होने का पु०, प्र०वि०, ब० व. ये केचि कुसला धम्मा, सब्बे ते अप्पमादमूलका अप्पमादसमोसरणा, स. नि. 3( 1 ) 49 रतत्र तत्पु. स. [अप्रमादस्त], अप्रमाद में आनन्द लेने वाला - तो पु०, प्र. वि., ए. व. - अप्पमादरतो भिक्खु, पमादे भयदस्सिवा ध. प. 31 तं पु.. द्वि. वि.. ए. व. अप्पमादरत दिवा, उत्तमत्थं गवेसक, अप. 1.65; ताय स्त्री. चतु वि., ए. व. बहूहि दुक्खधम्मेहि
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अप्पमाद
432
अप्पमोचन
अप्पमादरताय मे, थेरीगा. 36; अप्पमादरतायाति ताय एव दुक्खोतिण्णताय ... अप्पमादे रताय, थेरीगा. अट्ठ. 46; - ता पु., प्र. वि., ब. व. - अप्पमादरता सन्ता, पमादे भयदस्सिनो, इतिवु. 29; अप्पमादरताति वुत्तप्पकाराय समथविपस्सनाभावनाय अप्पमज्जने रता ... वीतिनामेन्ता, इतिवु. अट्ट. 148; - लक्खण नपुं, तत्पु. स. [अप्रमादलक्षण]. अप्रमाद का लक्षण, - णं द्वि. वि., ए. व. - अप्पमत्ता पन अप्पमादलक्खणं वड्डत्वा खिप्पं मग्गफलानि सच्छिकत्वा दुतियततियअत्तभावेसु न निब्बत्तन्ति, ध. प. अट्ठ. 1.130; - वग्ग पु., ध. प. के द्वितीय वर्ग का शीर्षक, जिसमें अप्रमाद से सम्बन्धित बुद्धवचनों का संग्रह कुल बारह गाथाओं में किया गया है - ध. प. 21-32; - ग्गं द्वि. वि., ए. व. -- रओ अनुरूपं धम्मपदे अप्पमादवग्गं अनुमोदनत्थाय अभासि, पारा. अट्ट, 1.34; तस्सप्पमादवग्गं सो सामणेरो अभासथ म. वं. 68; - वग्गवण्णना स्त्री., तत्पु. स., ध. प. के अप्पमादवग्ग की अट्ट. का शीर्षक, ध. प. अट्ठ. 1.94-162; - विहार पु., तत्पु. स., अप्रमाद के साथ जीवनवृत्ति - रे सप्त. वि., ए. व. - इमं उदानन्ति इम पमादविहारे अप्पमादविहारे च यथाक्कम आदीनवानिसंसविभावनं उदानं उदानेसि, उदा. अट्ठ. 193; -विहारी त्रि., अप्रमाद से युक्त होकर जीवनयापन करने वाला - री पु., प्र. वि., ए. व. - ... अप्पमादविहारी त्व सङ्घ गच्छति, स. नि. 2(2).85; - रिनो पु., च./ष. वि., ए. व. - एवं मे विहरन्तरस, अप्पमादविहारिनो, अप. 1.65; -नियो स्त्री, प्र. वि., ब. व. - एवं इमा अप्पमादविहारिनियो भविस्सन्तीति ... सम्पटिच्छापेसुंध. प. अट्ठ. 2.56; - रिनं ष. वि., ब. व. - तेसं सम्पन्नसीलानं, अप्पमादविहारिनं. ध. प. 57; - समोसरण त्रि., तत्पु. स., अप्रमाद में आकर एक जुट हो जाने वाला, अप्रमाद में अन्तर्भूत हो जाने वाला - णा पु., प्र. वि., ब. व. - सब्बे ते अप्पमादमूलका अप्पमादसमोसरणा, स. नि. 3(1).49; - सम्पदा स्त्री., तत्पु. स. [अप्रमादसम्पत्], अप्रमाद की पूर्णरूप से प्राप्ति - यदिदं-सीलसम्पदा, ... अत्तसम्पदा, ... अप्पमादसम्पदा, स. नि. 3(1).28; अप्पमादसम्पदाति कारापकअप्पमादसम्पत्ति, स. नि. अट्ठ. 3.169; - सुदेसना स्त्री., तत्पु. स., अप्रमादविषयक बुद्ध का उत्तम उपदेश - नं द्वि. वि., ए. व. -विलोकयी तेपिटकं महारह, तमद्दस अप्पमादसुदेसनं, दी. वं. 50; - दाधिकरण त्रि., ब. स., अप्रमाद के फलस्वरूप प्राप्त - णं पु., द्वि. वि., ए. व. - सीलवा
सीलसम्पन्नो अप्पमादाधिकरणं महन्तं भोगक्खन्धं अधिगच्छति, दी. नि. 2.67; - दाधिगत त्रि., [अप्रमादाधिगत], अप्रमाद के द्वारा प्राप्त - तो पृ., प्र. वि., ए. व. - योपिस्स सो होति यसो अप्पमादाधिगतो, अ. नि. 2(2).233; - दानिसंसगाथा स्त्री., सद्धम्मो. उन्नीसवें अध्याय का शीर्षक, सद्धम्मो. (गा.) 588-621; - दाभाव पु.. तत्पु. स. [अप्रमादाभाव], अप्रमाद का अभाव - वा प. वि., ए. व. --- पमत्तस्सपि अप्पमादाभावाति तस्मा उभोपेते एकसदिसाव, जा. अट्ठ. 5.94; - दोवाद पु.. अप्रमाद-विषयक बुद्धोपदेश -- अप्पमादो अमतपद, पमादो मच्चु नो पदन्ति,
अप्पमादोवादञ्च कथेसि, जा. अह. 5.60. अप्पमायु त्रि., ब. स. [अल्पायुष], अल्प आयु वाला - उपनीयति जीवितमप्पमायु, जरूपनीतस्सन सन्ति ताणा, जा. अट्ठ. 4.357; स. नि. 1(1).3; अ. नि. 1(1).181. अप्पमारिस पु.. [अल्पमारिष], एक औषधीय पौधा, चिडचिड़ी - तण्डुलेय्योप्पमारिसो, अभि. प. 594. अप्पमिद्ध त्रि., ब. स. [अल्पमृद्ध, बौ. सं. अल्पमिद्ध]. अल्प आलस्य या तन्द्रा वाला, अनिद्रालु, जागरुक, चौकन्ना, अध्यवसायी -- दो पु., प्र. वि., ए. व. - तस्मा हि अप्पकिच्चस्स, अप्पमिद्धो अनुद्धतो, इतिवु. 52; अप्पमिद्धोति दिवसं चङ्कमेन निसज्जाया तिआदिना वुत्तजागरियानुयोगेन निद्दारहितो अस्स, इतिवु. अट्ठ. 218; - द्धेन पु., तृ. वि., ए. व. - योगिना योगावचरेन अप्पमिद्धेन भवितब्बं, मि. प. 384. अप्पमेय्य त्रि., प+vमा के सं. कृ. का निषे. [अप्रमेय]. माप-जोख द्वारा निर्धारण नहीं किए जाने योग्य, असीम, अनन्त, अप्रमाण - य्यो पु.. प्र. वि., ए. व. - तिम्बरुसकवण्णाभो, अप्पमेय्यो अनूपमो, अप. 1.68; -- य्यं पु., वि. वि., ए. व. - बुद्धमप्पमेय्यं अनुस्सर पसन्नो, थेरगा. 382; 383; 384; - य्या स्त्री, प्र. वि., ए. व. - वसुधा यथाप्पमेय्या, चित्ता वनवटसका अप. 1.113; - य्यानं पु., ष. वि., ब. व. - सत्तानन्त्व अप्पमेय्यानं दुस्सीला विरतो जनो, सद्धम्मो. 338; - गुण त्रि., ब. स. [अप्रमेयगुण], असीम या असंख्य गुणों वाला - णो पु., प्र. वि., ए. व. - सो भगवा विचित्तफुप्फरासि विय अनन्तगुणो अप्पमेय्यगुणो, मि. प. 315. अप्पमोचन नपुं.. पमोचन का निषे. [अप्रमोचन]. विमुक्ति का अभाव, छुटकारा का न होना - यथा तव ... अनागतसंवच्छरे वा योजेतब्बतो अप्पमोचनमेव होन्ति, सु. नि. अट्ठ. 1.117.
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अप्पयस 433
अप्पवत्ति अप्पयस त्रि., ब. स. [अल्पयशस्], कम प्रसिद्धि वाला, अल्प अरियधम्मलाभिभावञ्च सयमेव एस अकासीति ... समोधानेसि. रूप में सम्मानित या सत्कृत - यसा स्त्री., प्र. वि., ए. व. जा. अट्ट, 1.236. - अप्पेसक्खा च अप्पलाभा चाति भो पब्बज्जा नाम अप्पयसा अप्पवज्ज त्रि., [अल्पवद्य], कम निन्दनीय, अल्प रूप में चेव, दी. नि. अट्ठ. 2.235.
प्रदूषित - ज्जो पु., प्र. वि., ए. व. - सावज्जो, वज्जबहुलो, अप्परज त्रि., ब. स. [अल्परजस्], कम धूल भरी/भरा, अप्पवज्जो , अनवज्जो , अ. नि. 1(2).155. कम धूल वाली/वाला - रजा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - अप्पवत्त 1. त्रि., पवत्त का निषे. [अप्रवृत्त], निष्क्रिय, काम नीचत्तिणा अप्परजा च भूमि, पासादिका यत्थ जहन्ति में नहीं लगा हुआ - त्तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - अप्पवत्तं सोक जा. अट्ठ. 5.162; अप्परजाति पंसुरहिता, तदे... चित्तं सुखदुक्खं नप्पजानाति, मि. प. 275; - वत्ते नपुं.. अप्परजक्ख त्रि., ब. स., अट्ठ. के अनुसार अप्प + रज + सप्त. वि., ए. व. - अप्पवत्ते चित्ते सुपिनं न पस्सति, मि.
अक्खि से व्यु. [अल्परजस्क अथवा अल्परजक्ष]. शा. अ. प. 276; - त्तं द्वि. वि., ए. व. - पुरिसस्स जालापवत्ते कम धूल भरा, कम धूल भरी आंखों वाला, ला. अ. (राग उक्कण्ठित्वा उदकप्पहारेन जालं अप्पवत्तं कत्वा छारिकाय आदि के) अल्प मलों वाला, वह, जिसकी प्रज्ञाचक्षु में राग अङ्गारे पिधाय ... निरोधसमापज्जनं. म. नि. अट्ठ. (मू.प.) आदि की धूल बहुत कम रह गयी है - क्खो पु., प्र. वि., 1(2).245; 2.क. नपुं., निर्वाण के पर्याय के रूप में - ए. व. - भिक्खु दीघरत्तं अप्परजक्खो इमस्मिं धम्मविनये, अप्पवत्तं अभिज्ञेय्यं, पटि. म. 11; अप्पवत्तं सुखं ... खेमं अ. नि. 3(2).163; - क्खे पु., द्वि. वि., ब. व. - विपस्सी ... निब्बानं पटि. म. अट्ठ. 1.82; सो अप्पवत्तत्थाय मग्गं भगवा अरहं ... बुद्धचक्खुना लोकं वोलोकेन्तो अद्दस सत्ते आयूहति गवेसति भावेति बहुलीकरोति, मि. प. 297; - अप्परजक्खे महारजक्खे ... अप्पेकच्चे ... विहरन्ते, दी. वत्तस्स ष. वि., ए. व. - अप्पवत्तस्स गुणं पवत्ते च भयं नि. 2.30; अप्परजक्खेतिआदीसु येसं वुत्तनयेनेव पञाचक्खुम्हि दीपयमानो, मि. प. 189; - वत्ते सप्त. वि., ए. व. - पवत्ते रागादिरजं अप्पं ते अप्परजक्खा , दी. नि. अट्ठ. 2.52; - क भयदरसाविस्स अप्पवत्ते चित्तं पक्खन्ति ... निस्सरण न्ति, त्रि., उपरिवत् - का पु., प्र. वि., ब. व. - देसकस्स मि. प. 297; 2.ख. अप्रवृत्ति, निष्क्रियता, अनुत्पाद - त्ताय अभावेन यतो अप्परजक्खका, सद्धम्मो. 519; - जातिक च. वि., ए. व. - एतेसं अप्पवत्ताय, देसेसि मग्गमुत्तमं. त्रि, ब. स. [बौ. सं. अल्परजस्कजातिय], वह, जिसमें थेरगा. 767; एतेसं अप्पवत्तायाति यथावुत्तानं पापधम्मानं स्वभाव से ही राग आदि की धूल अत्यल्प हो, राग आदि से अप्पवत्तिया अनुप्पादाय, थेरगा. अट्ठ. 2.245. अत्यल्प रूप में प्रभावित स्वभाव वाला - का पु., प्र. वि., अप्पवत्तन नपुं., पवत्तन का निषे. [अप्रवर्तन], क. आगे ब. व. - सन्ति सत्ता अप्परजक्खजातिका, दी. नि. 2.30: जारी नहीं रहना - नं प्र. वि., ए. व. - ... किलेसवभावतो अप्परजक्खजातिकाति पामये अक्खिम्हि अप्पं परित्तं कम्मवट्टस्स अप्पवत्तनं उदा. अट्ठ. 296; - भाव पु.. रागदोसमोहरजं एतेसं, एवं सभावाति अप्परजक्खजातिका. [अप्रवर्तनभाव], उपरिवत् - वं द्वि. वि., ए. व. - ... दी. नि. अट्ठ. 2.30; सन्तीध सत्ताप्परजक्खजातिका, देसेहि आयुसद्धारं ओलोकेन्तो तस्स अप्पवत्तनभावं ञत्वा सत्थारं धम्म अनुकम्पिमं पज, बु. वं. 1.1.
आह, ध. प. अट्ठ. 2.45; ख. घटित न होना, प्रयोग में न अप्परुळहहरित त्रि., [अप्ररूढहरित], ऐसा स्थान, जहां आना - तो प. वि., ए. व. - रुळिहवसेन ते पवत्ता हरी-भरी घास बहुत कम उगी हो - ते नपुं., सप्त. वि., ए. पकतिआपादिसु अत्थेसु अप्पवत्तनतो, सद. 1.108. व. - अप्पहरितेति अप्परुळ्हहरिते, म. नि. अट्ट (मू.प.) अप्पवत्तन्त त्रि., प+Vवत के वर्त. कृ. का निषे. [अप्रवर्तत], 1(1).101; - तिण त्रि, उपरिवत् - णे उपरिवत् - आगे को नहीं बढ़ रहा या नहीं पहुंच रहा - न्ते पु., सप्त. अप्परुळहरिततिणे वा पासाणपिट्ठिसदिसे, सु. नि. अट्ठ. वि., ए. व. - सो सोतापन्नो हुत्वा उपरिविसेसे अप्पवत्तन्ते 1.121.
भविस्सति ... आह, ध. प. अट्ट, 1.54. अप्पलामी त्रि., [अल्पलाभिन्], कम लाभ पाने वाला - भी अप्पवत्ति स्त्री., पवत्ति का निषे. [अप्रवृत्ति सक्रिय नहीं पु., प्र. वि., ए. व. - अहो लोसकतिस्सत्थेरो अप्पपुओ रहना, आगे कार्यरत न होना - त्ति प्र. वि., ए. व. - उभिन्न अप्पलाभी, जा. अट्ठ. 1.232; - मिभाव पु., कम लाभ पाने अप्पवत्ति निरोधसच्चं, म. नि. अट्ट (मू.प.) 1(1).213-14; - की स्थिति - वं द्वि. वि., ए. व. - अत्तनो अप्पलाभिभावञ्च तिं द्वि. वि., ए. व. - एवं दिट्ठादीनवाय तग्हाय एव
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अप्पवत्तिक
434
अप्पसद्द
अप्पवत्ति, सु. नि. अट्ट, 1.98; - तिया' तृ. वि., ए. व. - किसी पर आश्रित नहीं है - हानि नपुं, प्र. वि., ब. व. - फस्सहेतुकेसु ... तण्हादीनं अप्पवत्तिया संवतो, उदा. अट्ट. कतमानि कानिचि ओकारन्तपदानि पुरिसनये सब्बथा 154; - तिया' च. वि., ए. व. - एतेसं अप्पवत्तायाति अप्पविठ्ठानि, सद्द. 1.105; - ता स्त्री., भाव., प्रविष्ट न होना, यथावुत्तानं पापधम्मानं अप्पवत्तिया अनुप्पादाय, थेरगा. अन्तर्भूत न होना - तस्मा ... पुरिसनये सब्बथा गोसहस्स अहृ. 245; - तो प. वि., ए. व. - यतिन्द्रियोति चक्खादीनं अप्पविठ्ठता वुत्ता, सद्द, 1.106. छन्नं इन्द्रियानं अभिज्झाद्यप्पवत्तितो, संयमेन यतिन्द्रियो, अप्पविपाक त्रि., ब. स. [अल्पविपाक], बहुत हलका फल उदा. अट्ठ. 166; - कत त्रि., [अप्रवृत्तिकृत], निष्क्रिय कर या परिणाम देने वाला - कं स्त्री., द्वि. वि., ए. व. - दिया गया, वह, जिसे निष्क्रिय बना दिया गया है - महावते अप्पविपाकं वा तुलं. उदा. अट्ठ. 268. ... पवाहेत्वा अप्पवत्तिकतकालो विय ... अप्पटिसन्धिकभावेन अप्पविसय त्रि., ब. स. [अल्पविषय], केवल कुछ सीमित ... वेदितब्बो, अ. नि. अट्ठ. 2.115; - करण नपुं.. विषयों में ही प्रयुक्त - यो पु., प्र. वि., ए. व. - कतरसद्दो [अप्रवृत्तिकरण], निष्क्रिय कर देना, क्रियाविहीन बना देना हि अप्पविसयो, सद्द. 1.270; - यानि नपुं., प्र. वि., ब. व. - णेन तृ. वि., ए. व. - एवमेतं झानञ्च आरम्मणञ्चाति - अप्पविसयानि इतरानि चतुचित्तसम्पयोगा, विभ. अट्ठ. 174.
उभयम्पि अप्पवत्तिकरणेन च... विहातब्बंध. स. अट्ठ. 250. अप्पवेदनीय त्रि., [अल्पवेदनीय]. बहुत कम मात्रा में अनुभव अप्पवत्तिक त्रि., ब. स. [अप्रवृत्तिक], प्रवृत्ति या क्रियाशीलता किये जाने योग्य - यं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - तं मे कम्म से रहित, आगे जारी न रहने वाला - कं नपुं., प्र. वि., ए. अप्पवेदनीयं होतूति, अ. नि. 3(1).197. व. - अनुपवज्जन्ति अप्पवत्तिकं अप्पटिसन्धिकं स. नि. अप्पसक्खर त्रि., ब. स. [अल्पशर्कर, बहुत कम रोड़ी या अट्ठ. 3.18.
कंकड़ों वाला/वाली - रा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - सुद्धपंसु अप्पवारित त्रि., पवारित का निषे. [अप्रवारित], अभुक्त, सुद्धमत्तिका अप्पपासाणा अप्पसक्खरा अप्पकठला भोजन नहीं कर चुका (भिक्षु), वह, जिसे पहले दान के अप्पमरुम्बा अप्पवालिका, पाचि. 50. रूप में कुछ नहीं दिया गया है - तो पु., प्र. वि., ए. व. अप्पसच्च नपुं., भाव. [अल्पश्रुत्य], बहुत कम पढ़ा लिखा - कथम्हि नाम ... पुब्बे अप्पवारितो गहपतिकं उपसङ्कमित्वा होना, अज्ञान - च्चं प्र. वि., ए. व. - अप्पसच्चं खो पन चीवरे विकप्पं आपज्जिस्सती ति, पारा. 327; पुब्बेव हुत्वा तथागतप्पवेदिते धम्मविनये परिहानमेतं अ. नि. 3(2).133; 136. पन अप्पवारितो, उत्त. वि. 40; - सज्ञा स्त्री., तत्पु. स. अप्पसत्थ' त्रि., पसत्थ का निषे. [अप्रशस्त], अप्रशंसित, [अप्रवारितसंज्ञा], भोजन कर चुके को भोजन न किया जुगुप्सित - त्थं नपुं. प्र. वि., ए. व. - ..., हुआ मानना - जाय तृ. वि.. ए. व. - पवारिते अमनुजगन्धं बहूनं अकन्तं ... तदप्पसत्थं द्विरसञ्जु भुजे, अप्पवारितसजाय, मि. प. 248.
जा. अट्ठ. 7.53. अप्पवालिक त्रि., ब. स. [अल्पबालुक], कम बालू अप्पसत्थ त्रि., ब. स. [अल्पसार्थ], वह, जिसके पास वाला/वाली - का स्त्री., प्र. वि., ए. व. - जाता नाम कमजोर रक्षा साधन हों या बहुत छोटा सा समूह हो - त्थो पठवी-सुद्धपंसु सद्धमत्तिका अप्पपासाणा ... अप्पमरुम्बा पु.. प्र. वि., ए. व. - वाणिजोव भयं मग्गं, अप्पसत्थो अप्पवालिका, ... येभुय्येनमत्तिका, पाचि. 50.
महद्धनो, ध. प. 123. अप्पवाहन त्रि., ब. स. [अल्पवाहन], बहुत कम वाहनों अप्पसद्द त्रि., ब. स. [अल्पशब्द], बहुत कम कोलाहल वाला, - नो पु., प्र. वि., ए. व. - दीघीति नाम ... दलिद्दो। वाला, कोलाहल रहित, शान्त; क. स्थान, आसन आदि - अप्पधनो अप्पभोगो अप्पबलो अप्पवाहनो अप्पविजितो द्देसु नपुं.. सप्त. वि., ब. व. - अथासनेसु सयनेसु अप्पसद्देसु अपरिपुण्णकोसकोट्ठागारो, महाव. 463.
भिक्खु विहरेय्य, सु. नि. 931; - द्दानि नपुं.. प्र. वि., ब. व. अप्पविजित त्रि., ब. स. [अल्पविजित], वह, जिसके अधीन - आरञकानि सेनासनानि, पन्तानि अप्पसद्दानि, थेरगा. बहुत कम जीता हुआ क्षेत्र हो - तो पु., प्र. वि., ए. व., 592; - इं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - सेनासनं नातिदूरं होति उपरिवत्.
नाच्चासन्नं गमनागमनसम्पन्नं दिवा अप्पाकिण्णं रत्तिं अप्पसदं अप्पविट्ठ त्रि., प + विस के भू. क. कृ. का निषे. अप्पनिग्घोसं ..., अ. नि. 3(2).13; - हे नपुं., सप्त. वि., [अप्रविष्ट], वह, जिसने भीतर प्रवेश नहीं किया अथवा जो ए. व. - अप्पसद्दे अप्पनिघोसे विजनवाते मनस्सराहस्सेय्यके
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अप्पसन्न
435
अप्पसाद
पटिसल्लानसारुप्पे सेनासनेति, महानि. 351; - दो पु., प्र. ..., पे. व. अट्ठ. 173; - न्ने नपुं., सप्त. वि., ए. व. - वि., ए. व. - किमिदं अप्पसद्दोव, अस्समो पटिभाति म जा. जोतिपालो माणवो अस्सद्धे अप्पसन्ने कुले पच्चाजातो, मि. अट्ठ. 7.334; ख. शान्त, मौन एवं कोलाहल न करने वाला प. 210; - न्नानि नपुं.. प्र./द्वि. वि., ब. व. - ... कुलानि व्यक्ति - दो पु., प्र. वि., ए. व. - अप्पसद्दो अन्तरघरे अस्सद्धानि अप्पसन्नानि अनोपानभूतानि.... महानि. 357; - गमिस्सामीति सिक्खा करणीया ति, पाचि. 249; तेन अप्पसद्दो न्ना पु.. प्र. वि., ब. व. - मातापितरो पन नेसं अस्सद्धा उपसङ्कमित्वा अन्तरमानो आळिन्दं पविसित्वा ... आकोटेहि । अप्पसन्ना समणब्राह्मणेसु ... अहेसु. पे. व. अट्ठ. 47; - दी. नि. 1.78; - इन पु, तृ. वि., ए. व. - अप्पसद्देन न्नानं पु, ष. वि., ब. व. - अप्पसन्नानं पसादाय, पसन्नानं अन्तरघरे गन्तब्ब, पाचि.249; - द्दा पु., प्र. वि., ब. व. - भिय्योभावाय, पारा. 22; अप्पसन्नानं वा पसादाय, पसन्नान अप्पसद्दा आयस्मन्तो होथ, पु. प. 142; - इं स्त्री., द्वि. वि., भिय्योभावाय .... पाचि. 20; - भाव पु.. तत्पु. स. ए. व. - अप्पसदं परिसं विदित्वा ... म या ति, दी. नि.. [अप्रसन्नभाव], अप्रसन्नता, अविश्वास या अश्रद्धा का भाव 1.161; -- हे पु., द्वि. वि., ब. क. - अप्पसद्दे कत्वाति निरये। - वं द्वि. वि., ए. व. - अप्पसादं पवेदेय्युन्ति अप्पसन्नभावं अपसद्दे कत्वा, दी. नि. अट्ठ. 3.18; ग. नपुं., उपरिवत् जानापेय्यु, अ. नि. अट्ठ. 3.252. प्रशान्ति - हस्स पु.. ष. वि., ए. व. - अप्पसद्दकामो खो सो अप्पसमारम्भ त्रि., ब. स. [अल्पसमारम्भ], अपेक्षाकृत कम आयस्मा अप्पसद्दस्स वण्णवादी, दी. नि. 1.161; घ. पु.. कष्टसाध्य, कम क्रियाकलापों के रहने से अल्प पीड़ादायक व्याकरण के सन्दर्भ में - 'अप्प' शब्द - द्दो प्र. वि., ए. व. - म्भं नपुं., प्र. वि., ए. व. - कम्मट्ठानं अप्पट्ट अप्पकिच्चं - अप्पसदो हेत्थ अभावत्थो अप्पिच्छो अप्पनिग्घोसोतिआदीस अप्पाधिकरणं अप्पसमारम्भ सम्पज्जमानं महप्फलं होति. म. विय, वि. व. अट्ठ. 284; - काम त्रि., ब. स. [अल्पशब्दकाम]. नि. 2.422; - म्भो पु., प्र. वि., ए. व. - अप्पट्ठो अप्पकिच्चो शान्तिप्रिय, कोलाहल-रहित अवस्था या स्थान की कामना अप्पाधिकरणो अप्पसमारम्भो, सततं समितं सच्चवादी होति, करने वाला - मो पु., प्र. वि., ए. व. - अप्पसद्दकामो खो म. नि. 2.428; - तर त्रि., तुल. विशे., अपेक्षाकृत कम सो आयस्मा अप्पसद्दस्स वण्णवादी, दी. नि. 1.161; -- मा पीड़ादायक - तरो पु.. प्र. वि., ए. व. - अओ अजओ पु., प्र. वि., ब. व. -- अप्पसद्दकामा खो पनेते आयस्मन्तो .... अप्पट्टतरो च अप्पसमारम्भतरो च महप्फलतरो... चाति, अप्पसद्दविनीता, दी. नि. 3.27; - विनीत त्रि., तत्पु. स., दी. नि. 1.127; - तरा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - द्विन्न शान्त अवस्था में संयम की शिक्षा को प्राप्त - ता पु., प्र. पटिपदानं ... अप्पत्थतरा च अप्पसमारम्भतरा च महप्फलतरा वि., ब. व., उपरिवत् - अप्पसद्दकामा खो पनेते आयस्मन्तो ... चाति, अ. नि. 1(1).197; - ता स्त्री॰, भाव., कम अप्पसद्दविनीता, दी. नि. 3.27.
कष्टकरता, स्वल्प रूप में पीड़ादायकता - ता प्र. वि., ए.व. अप्पसन्न त्रि., पसन्न का निषे. [अप्रसन्न], 1. अस्वच्छ, - तत्रिमे दस गुणा अप्पसमारम्भता एको गुणो, जा. अट्ठ. 1.13. मलिन, अविशुद्ध - न्ने नपुं., सप्त. वि., ए. व. - यथोदके अप्पसयह त्रि., प + /सह के सं. कृ. पसरह का निषे. आविले अप्पसन्ने, न पस्सति सिप्पिकसम्बुकञ्च, जा. अट्ठ. [अप्रसह्य], नहीं रोके जा सकने योग्य, अनिवार्य, नहीं 2.83; अप्पसन्नेति तायेव आविलताय अविप्पसन्ने, तदे. 2. बच सकने योग्य - यहो पु., प्र. वि., ए. व. - अप्पसरहो वह व्यक्ति, जिसका चित्त किसी के प्रति विश्वास से युक्त सदा होमि, सब्बारक्खेहि रक्खितो, अप. 1.344; कुसलो नहीं है, या जो किसी सिद्धान्त पर श्रद्धा नहीं रखता है, बुद्धधम्मेहि, अपसव्हो परेहि सो, अप. 1.351; - यह नपुं.. प्र. अविश्वासी, अश्रद्धावान् - न्नो पु., प्र. वि., ए. व. - त्वं पन वि., ए. व. - जायेथ नो ये नरके सु सत्तो, तदा मयि अप्पसन्नो, पे. व. अट्ठ. 193; - न्नं द्वि. वि., ए. तत्थग्गिदाहादिकमप्पसरह विभ. अट्ठ. 90. व. - पसन्नमेव सेवेय्य, अप्पसन्नं विवज्जये, जा. अट्ठ. अप्पसाद पु., तत्पु. स., पसाद का निषे. [अप्रसाद]. असन्तोष, 5.221; - न्नस्स पु., ष. वि., ए. व. - अद्धा पटिआतमेतं । अविश्वास, श्रद्धा का अभाव - दं वि. वि., ए. व. - ... तदाहु, नाचिक्खना अपसन्नस्स होति, पे. व. 528; उपासके सद्धे पसन्ने अक्कोसामि, परिभासामि, अप्पसादं अप्पसन्नस्स होतीति अकथना अप्पसन्नस्स होति, पे. व. करोमि, चूळव. 466; यो च विनेय्य सारम्भ, अप्पसादञ्च अट्ठ. 193; - न्ना स्त्री., प्र. वि., ए. व. - ... गणिका चेतसो, स. नि. 1(1).209; - देन तृ. वि., ए. व. - धम्मे अस्सद्धा अप्पसन्ना मच्छेरमलपरियद्वितचित्ता तेहि मनस्सेहि अप्पसादेन समन्नागतो अस्सुतवा पृथुज्जनो कायस्स भेदा
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अप्पसार
436
अप्पस्सुत परं मरणा ... उपपज्जति, स. नि. 3(2).445; - न्नानं ष. ब. व. -- लूखानि तिणबीजानि, अप्पस्नेहानि भुञ्जसि, जा. वि., ब. व. - अप्पसन्नानञ्चेव अप्पसादाय, पारा. 22; - दे। अट्ठ. 3.274; अप्पस्नेहानीति मन्दोजानि, जा. अट्ठ. 3.275; सप्त. वि., ए. व. - कूट अप्पसादे, कूटेति कूटयति, .... पाठा. स्नेहानि. कूटतापसो, सद्द. 2.532; - क पु.. अप्पसाद से व्यु... अप्पसुखवेदना स्त्री., कर्म. स., [अल्पसुखवेदना], सुख अल्परूप में अविश्वास, हलकी अश्रद्धा - कं द्वि. वि., ए. की अत्यल्प अनुभूति - नाय तृ. वि., ए. व. - सम्मत्तकजाताति व. - दत्वा... किञ्चिदेव अप्पसादकं दिस्वा ... नानृतपेय्यं, कामेसु पातब्यतं आपज्जन्ता अप्पसुखवेदनाय सम्मत्तका पे, व. अट्ठ. 113; -- नीय त्रि., प + Vसद के प्रेर. के सं. सुट्ट मत्तका जाता, उदा. अट्ठ. 296. कृ., पसादनीय का निषे. [अप्रसादनीय], प्रसन्न न कराने अप्पसुत त्रि., [अल्पश्रुत], कम ज्ञान वाला, अज्ञानी - तं योग्य, अविश्वसनीय, अश्रद्धेय - ये नफं, सप्त. वि., ए. व. - पु.. द्वि. वि., ए. व. - बहुस्सुतो अप्पस्सुतं. यो सुतेनातिमति , अननुविच्च अपरियोगाहेत्वा अप्पसादनीये ठाने पसादं उपदंसेति, थेरगा. 1029; - तो पु., प्र. वि., ए. व. - अप्पस्सुतायं अ. नि. 1(2).3; - बहुल त्रि., ब. स. [अप्रसादबहुल]. परिसो, बलिबद्दोव जीरति, थेरगा. 1028; तुल. अप्पस्सुत, अत्यधिक अविश्वासी, अत्यधिक अश्रद्धावान् - लो पु., प्र. वि., विलो. बहुस्सुत. ए. व. - भिक्खूसु अप्पसादबहुलो होति, अ. नि. 2(1).251. अप्पसूप त्रि., ब. स. [अल्पसूप]. कम रसीले यूष से युक्त, अप्पसार त्रि., ब. स. [अल्पसार], अत्यल्प मूल्य वाला, कम कम चटनी से युक्त - पं नपुं., द्वि. वि., ए. व. - ... अप्पसूपं महत्व रखने वाला - रानि नपुं.. प्र. वि., ब. व. - यवभत्तं भुञ्जमानं पस्सि, जा. अट्ट. 6.202; न तायते यानम्हाकं सत्थे अप्पसारानि पणियानि, दी. नि. 2.2553; भाववसूपनितं, यो यवकं भुञ्जसि अप्पसूपान्ति, तदे..
अप्पसारानीति अप्पग्घानि, दी. नि. अट्ट. 2.361. अप्पसेन त्रि., ब. स. [अल्पसेन], बहुत छोटी सेना वाला - अप्पसावज्ज त्रि., [अल्पसावद्य], छोटे-मोटे पापकर्मों के नो पु., प्र. वि., ए. व. - अप्पसेनो महासेनं, कथं विग्गय्ह कारण निन्दनीय, कम निन्दनीय - ज्जो पु., प्र. वि., ए. ठस्ससि, जा. अट्ठ. 6.275; अप्पसेनोपि चे मन्ती, महासेनं व. - सो गुणविरहितेसु तिरच्छानगतादीसु पाणेसु खुद्दके अमन्तिनं, तदे, विलो. महासेन. पाणे अप्पसावज्जो, म. नि. अट्ट (मू.प.) 1(1).206; सो अप्पस्सक त्रि., ब. स. [अल्पस्वक]. दरिद्र, बहुत कम यमत्थं भजति तस्स अप्पताय अप्पसावज्जो, ध. स. अट्ठ.. संपत्ति वाला - को पु.. प्र. वि., ए. व. - एकच्चो दलिदो 144; तुल. अप्पवज्ज, विलो. अनवज्ज.
होति अप्पस्सको अप्पभोगो, अ. नि. 1(1).284; 285; - का अप्पसिद्ध त्रि., पसिद्ध का निषे. [अप्रसिद्ध], व्याकरण की प्र. वि., ब. व. - दलिद्दा च होति अपस्सका अप्पभोगा सामान्य प्रक्रिया में अप्रचलित, असामान्य, अनावश्यक - अप्पेसक्खा च? अ. नि. 1(2).232; 233. द्धो पु., प्र. वि., ए. व. - तत्थापच्चयो पावचने अप्पसिद्धो, अप्पस्साद त्रि.. ब. स. [अल्पास्वाद], बहुत कम आनन्द सद्द. 3.805; -द्धं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - उकारन्तं पुल्लिङ्ग देने वाला, दुःखभरा, अत्यल्प मात्रा में सुख से पूर्ण - दो तु भूधातुमयं अप्पसिद्ध, सद्द. 1.61; 62; -द्धा पु., प्र. वि. पु., प्र. वि., ए. व. - सङ्गो एसो परित्तमेत्थ सोख्य, अप्परसादो ब. व. - एत्थ मे अप्पसिद्धाति ये ये सद्दा पकासिता, सद्द. दुक्खमेत्थ भिय्यो, सु. नि. 61; अप्पस्सादो .... इमे पञ्च 1.63; - द्धानि नपुं, प्र. वि., ब. व. - सत्तमीरूपादीनि कामगुणे पटिच्च उप्पज्जति सुखं सोमनरसं. ... अस्सादो सब्बथा अप्पसिद्धानि, सद्द. 2.319; - ता स्त्री., भाव. ति वुत्तो, सु. नि. अट्ठ 1.90; - दा प्र. वि., ब. व. - [अप्रसिद्धता], सामान्य नियमों में प्रचलित न होना, अप्परसादा दुखा कामा, इति विज्ञाय पण्डितो, ध. प. 186%3; असामान्यता - ता प्र. वि., ए. व. - एवं अञ्जतरा पि अप्पस्सादाति सुपिनसदिसताय परित्तसुखा, ध. प. अट्ठ. पसिद्धता च अप्पसिद्धता च उपपरिक्खितब्बा, सद्द. 2.593; 2.138; - ता स्त्री॰, भाव., बहुत कम मात्रा में आनन्दमयता, - त्त नपुं., भाव. [अप्रसिद्धत्व]. उपरिवत् - त्ता प. वि., ए. अत्यल्प सुखमयता - तं द्वि. वि., ए. व. - सुखसम्मतस्सापि व. - ... उकारन्तपुल्लिङ्गानं अप्पसिद्धत्ता असं .... विपरिणामदुक्खतं अप्परसादतञ्च अपस्सन्तोपि तप्पच्चयं उकारन्तपुल्लिङ्गानं वसेन .... सद्द. 1.189.
.... दीपसिखाभिनिपातं. विभ. अट्ठ. 137. अप्पसिनेह/अप्पस्नेह त्रि., ब. स. [अल्पस्नेह], कम अप्पस्सुत 1. त्रि., तत्पु. स., अप्पसुत का पाठा० [अल्पश्रुत], चिकनाई वाला, कम आर्द्रता वाला - हानि नपुं.. द्वि. वि., शा. अ. वह, जिसने बहुत कम सुना है, ला. अ. अत्यल्प
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अप्पहरित
रूप में शिक्षित, अशिक्षित, अज्ञानी तं पु०, प्र. वि., ए. व. बहुस्सुतो अप्पस्सुतं यो सुतेनातिमञ्ञति, थेरगा. 1029; तो पु. प्र. वि., ए. व. अप्पस्सुतायं पुरिसो बलिवद्दोव जीरति ध. प. 152, थेरगा. 1028 अप्परसुतो अनावरो, केन लोकस्मि किं सिया थेरगा. 987 परे अप्पस्सुता भविस्सन्ति, म. नि. 1.54 ता पु. प्र. कि. ब. व. अष्यं सुतमेतेसन्ति अप्पस्सुता म. नि. अ. (भू.प.) 1 (1) 198 स्स पु.. ष. वि., ए. व. दुतियगाथा पन अप्यस्सु तस्सपि योनिसोमनसिकारे कम्म करोन्तरस कारकपुग्गलस्स वसेन कविता ध. प. अ. 1.92 2. नपुं, अल्पज्ञान, अल्पश्रुतता ते सप्त वि. ए. व. परञ्च अप्पस्सुते समादर्पति अ. नि. 1 (2). 248. अप्पहरित त्रि. कर्म. स. [ अल्पहरित ] कम हरा भरा बहुत कम घास वाला, ऊसर ते नपुं., सप्त. वि., ए. व.. तेन हि त्वं ब्राह्मण, तं पायासं अप्यहरिते वा छड्डेहि, सु, नि. (पृ.) 97. अप्पहरितेति परितहरिततिणे, अप्परुच्हिततिणे वा पासाणपिद्विसदिसे, सु. नि. अ. 1.121 ततो चे उत्तरिं अप्पहरितेपि ठितो अधिदृहेय्य पाचित्तियन्ति पाचि 69; अप्पहरिते ठितेनाति अहरिते ठितेन, पाचि० अट्ठ. 44; - तं नपुं. क्रि. वि., द्वि. वि. ए. व. इमं ठानं अप्पहरितं कातुं वट्टतीति अकासि ध. प. अड्ड. 2.196 कारक पु.. [ अल्पहरितकारक ]. भूमि को तृणरहित अथवा ऊसर बना देने वाला को प्र. वि. ए. व. कपियकारकोति में धारेहि, अप्पहरितकारको, खज्जकभाजकोति मं धारेही ति होति, पारा. अट्ठ. 201. अप्पहातब्य त्रि.. पहा के सं. कृ. पहातब्ब का निषे. [ अग्रहातव्य], वह जिससे छुटकारा न पाया जा सके, नष्ट न किये जाने योग्य नपुं. प्र. कि. ए. क.. ब्बं तदङ्गादिवसेन पहातब्बताभावतो अप्पहातब्बं अभि. ध. स. टी. 180; अहेतुकं ... अपहातब्वमेवाति एकविधम्पि अज्झत्तिक बाहिरादिवसेन बहुधा भेदं च्छति, अभि. ध. स. 43. अप्पान नपुं. पहान का निषे [ अप्रहाण ], अपरित्याग, छुटकारा न होना, अविमुक्ति नं. प्र. वि. ए. व. अनुदिट्ठीनं अप्पहानं, सङ्कप्पपरतेजितं, थेरगा. 754; अनुदिट्ठीनं अप्पहानन्ति अनुदिद्विभूतानं सेसदिट्ठीनं अप्पहानकारणं, थेरगा. अड. 2.242; हाना प. वि. ए. व. समणमालान आपायिकानं ठानानं दुग्गतिवेदनियानं अप्पहाना न समणसामीचिप्पटिपदं पटिपन्नो वदामि म. नि. 1.353:धम्म / अपहानधम्म त्रि [अप्रहाणधर्मन्] अविचल या
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437
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अप्पहोनक
अनश्वर प्रकृति वाला, अविनाशशील, वह जिसकी विमुक्ति अचल प्रकृति की है, परिपूर्ण शैक्ष्य पुद्गलम्मं पु. द्वि. वि., ए. व. परिपुण्णसिक्खं अप्पहानधम्मं पञ्ञत्तरं जातिखयन्तदस्सिं इतिवु. 30; पहानधम्मोति हि हाधम्मो कृप्यधम्मो न पहानधम्मोति अपहानधम्मो अकुप्पधम्मो अप्पानधम्मो तिपि पाछि सो एव अत्थो, इतिबु, अड. 149. अप्पहीन त्रि.. पहीन का निषे [ अप्रहीण]. क. पूरी तरह से नष्ट नहीं हो चुका, अपरित्यक्त, अनुत्पाद की स्थिति को अप्राप्त, अक्षीण, पूर्ण निरोध को अप्राप्त नो पु०, प्र. वि., ए. व. - रागो..., दोसो..., मोहो अप्पहीनो, इतिवु. 42; रागो अप्पहीनोति रञ्जनद्वेन रागो समुच्छेदवसेन न पहीनो मग्गेन अनुष्पत्तिधम्मतं न आपादितो इतिवु, अड 189 ना ब व., उपरिवत् पञ्च चेतोखिला अप्पहीना, म. नि. तीणि 1.145; 353; - नानि नपुं. प्र. वि., ब. व. संयोजनानि अप्पहीनानि पु. प. 119 ने पु. वि. वि. ब. - व. - विज्ञ सब्रह्मचारी ते पापके अकुसले धम्मे अप्पहीने समनुपस्सन्ति, अ. नि. 3 ( 2 ) 142 तह त्रि. ब. स. [अप्रहीणतृष्ण]. वह जिसकी तृष्णा पूरी तरह नष्ट नहीं हुई है ण्हा पु. प्र. वि. ब. व. अमुत्ततण्हा अप्पहीनतण्हा - अप्पटिनिस्सदृतण्हाति, महानि, 35; अप्पहीनतण्हाति पटिप्यस्सद्धिप्पहानाभावेन न पहीनतन्हा महानि, अनु. 125:
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- त्त नपुं., भाव. [अप्रहीणत्व], विनष्ट नहीं होना, शान्त न होना त्ताप. वि. ए. व. अप्पहीनत्ताति तेस वृत्तप्पकारानं कम्माभिसङ्घारानं न पहीनभावेन, महानि, अट्ठ. 166; विपल्लास त्रि. ब. स. [ अप्रहीणविपर्यास], वह जिसकी विपर्यस्त - दृष्टि या मिथ्या-दृष्टि नष्ट नहीं हुई है - सानं पु.. ष. वि. व. व. अप्पहीनविपल्लासानहि चितं मारस्स यथाकामकरणीयं होति दी. नि. अट्ठ 3.25; - विपल्लासत्त नपुं. भाव [अप्रहीणविपर्यासत्व] विपर्यस्त दृष्टि अथवा विपरीत रूप में संसार को देखने की दृष्टि का विनष्ट न होना त्ताप. वि. ए. व. यस्मा असातं ... सङ्घारजात अप्पहीनविपल्लासता अयोनिसोमनसिकारेन इद्वं विय पियं
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...
उदा. अट्ठ. 126.
अप्पय्य त्रि. प + √हा के सं० कृ०, पहेय्य का निषे. [ अप्रय], नहीं नष्ट करने योग्य, उच्छिन्न न होने योग्य तो प. वि. ए. व. तस्स अप्पय्यतो न कोचि भवमूलं जहेग्य सु. नि. अ. 1.6.
अप्पोनक त्रि. पहोनक का निषे, अपर्याप्त, न्यून - के सप्त वि. ए. व. इदं पन अप्पहोनके आरोपेतब्बे, महाव.
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अप्पहोन्त
"
अड. 386 भाव पु. न्यूनता कमी अपर्याप्तता वेन तृ. वि., ए. व. अप्पहोनकभावेन सासनद्वितिमानसो, चू. वं. 60.4. अप्पहोन्त त्रिप√हु के वर्त. कृ. पहोन्त का निषे [ अप्रभवत् ] क. असमर्थ या अक्षम रहता हुआ - न्तं पु०, द्वि. वि., ए. व. सो एकदिवस सिङ्गालं पलायितुं अप्पहोन्तं उरेन निपन्न दिस्वा किं जा. अट्ठ. 3.282; .. अप्पहोन्तातीतकमापाथमागतं आरम्भणं महन्तं नाम, अभि० ध. स. 26; अप्पहोन्तातीतकन्ति अप्पहोन्तं हुत्वा अतीतं, अभि. ध० स० टी० 133 - न्ते पु०, द्वि० वि०, ब० व. - ब्राह्मणी नतुमत्तेपि अप्पहोन्ते चत्तारो कुमारके गहेत्वा आगतोसी ति घ. प. अ. 2.385; ख. अपर्याप्त, किसी (गुण आदि) से विहीन न्ते पु. सप्त वि. ए. व. तस्मिं च समये - अनुवाते अप्पहोते सङ्घरित्वा ठपेतुं आरद्धो, अ. नि. अ. 1.134 न्तेसु उपरिवत् ब.व.- सब्बेसु अप्पहोतेसु देय्यमन्वाधिकम्पि वा, विन. वि. 561. अप्पाटिक्कुल्यता स्त्री. भाव [अप्रातिकूल्यत्व, नपुं.]. अनुकूलता, अविपरीतता ता प्र. वि. ए. व. दस्सनेने मनापता व सण्ठहेग्य, अप्पाटिकुल्यता च सण्ठहेथ्य म. नि. 1.38; भिक्खुनो आहारे ... विहरतो रसतण्हाय चित्तं अनुसन्दहति अप्पाटिकुल्यता सण्ठाति, अ. नि. 2 (2).197. अप्पाटिहारिय त्रि. ब. स. [ अप्रातिहार्य] चमत्कार-रहित, प्रभाव से रहित, तार्किक हेतुओं से रहित यं पु., द्वि. वि., ए. व. सप्पाटिहारियं समणो गोतमो धम्मं देसेति नो अप्पटिहारियन्ति, म. नि. 2.211; सप्पाटिहारियन्ति पुरिमस्सेवेतं वेवचनं, सकारणन्ति अत्थो, म. नि. अ. (म.प.) 2.171. अप्पाटिहीरकत त्रि., [ अप्रतिहारीकृत], प्रभाव या चमत्कार से रहित कर दिया गया निर्मूल निरर्थक तं नपुं. प्र. वि., ए. व. ननु... समणब्राह्मणानं अप्पाटिहीरकतं सम्पज्जतीति दी. नि. 1.170 अप्पाटिहीरकतं पटिहरणविरहितं, अनिय्यानिकन्ति वृत्तं होति. दी. नि. अ.
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तस्स सह
...
-
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....
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1.282.
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अप्पाणक त्रि. ब. स. [ अप्राणक], कीड़े-मकोड़े से रहित, क्षुद्र जन्तुओं से रहित के नपुं सप्त वि. ए. व. - अप्पाणके वा उदके ओपिलापेही ति सु. नि. (पू.) 97. अप्पाणकेति निष्पाणके सु. नि. अट्ट. 1.121. अप्पतङ्क / अप्पातङ्क 1. पु. कर्म, स. [अल्पातङ्क], आतङ्क की अल्पता, रोग या व्याधि का अभाव ङ्कं द्वि. वि., ए. व.
438
अप्पाबाध
सुभो अप्पाबाधं अप्पात लहुद्वानं बलं फारविहार पुच्छतीति, दी. नि. 1.180; अप्पातङ्कोति किच्छजीवितकरो रोगो युच्चति तस्सापि अभाव पुच्छाति वदति दी. नि. अनु. 1.287 2 कि. ब. स. रोग से लगभग मुक्त, व्याधिमुक्त ङ्को पु॰ प्र॰ वि॰, ए॰ व॰ अप्पाबाधो अहोसि अप्पातङ्को दी. नि. 2.133; ता स्त्री भाव [अल्पातङ्कता]. नीरोग होना, व्याधिमुक्त होना, दुखमुक्त होना - तं द्वि
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"
वि. ए. व. भुञ्जमानो अप्पाबाधतन्य सज्जानामि अप्पातङ्कतञ्च फासविहारञ्च म. नि. 1.176; अप्पातङ्गतन्ति निदुक्खतं म. नि. अट्ठ, (मू०प.) 1 ( 2 ) . 3. अप्पातुम त्रि. ब. स. [ अल्पात्मन् ] क्षुद्र या गुणरहित व्यक्तित्व वाला - मो पु. प्र. कि. ए. व..... परितो अप्पातुमो अप्पदुक्खविहारी. अ. नि. 282 अप्पातुमोति आतुमा दुच्चति अत्तभावो, तस्मिं महन्तेपि गुणपरितताय अप्पातुमोयेव, अ. नि. अड. 2.218. अप्पाधिकरण त्रि. ब. स. [ अल्पाधिकरण], सीमित कार्यक्षेत्र वाला, हल्के-फुल्के कार्यक्षेत्र वाला, अल्प अधिकार वालाणं नपुं. प्र. वि. ए. व. कम्मट्टानं अपटुं अपकिव्वं अप्पाधिकरणं... होति. म. नि. 2.422 णो पु. प्र. वि. - ए. व. - पब्बजितो अप्पट्टो अप्यकिच्यो अप्पाधिकरणो अप्पसमारम्भो, म. नि. 2.428.
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.
-
अप्पानक / अप्पाणक त्रि. ब. स. प्राचीन योगसाधना या ध्यानप्रक्रिया के सन्दर्भ में ही प्रयुक्त [अल्पानक / अप्राणक, बौ. सं. आरफानक], प्राणवायु या श्वसन प्रक्रिया से रहित, मुख एवं नासिका से आश्वास तथा प्रश्वास के निरोध की प्रक्रिया को करने वाला कं नपुं. प्र. वि., ए. व. - यंनूनाहं अप्पाणकंयेव झानं झायेय्यन्ति, म. नि. 1.311; 2.441; अप्पाणकन्ति निस्सासक, म. नि. अट्ठ० (मू०प०) 1 ( 2 ). 186. अप्पानुभाव त्रि०, ब० स० [ अल्पानुभाव], कम प्रभाव वाला, अल्प शक्ति वाला, दुर्बल वा पु०, प्र० वि०, ब० व. अप्पानुभावा तं महानुभाव, तेजस्सिनं हन्ति अतेजवन्तो जा. अ. 5.165; अप्पानुभावाति भोजपुत्ते सन्धायाह जा. अड.
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5.167.
अप्पाबाध 1. पु. कर्म. स. [ अल्पाबाध]. छोटी या हलकी विपत्ति, नीरोगता धं द्वि. वि. ए. व. सुभो अप्पाबाध अप्पातङ्कं लहुट्ठानं बलं फासविहारं पुच्छतीति, दी. नि. 1. 180 अप्पाबाधन्तिआदीसु आबाधोति विसभागवेदना बुच्चति,
गण्हति दी. नि. अ. 1.287 2 त्रि. ब. स. विपत्तियों या रोगों से लगभग मुक्त घो पु. प्र. वि. ए. व.
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अप्पाय
439
अप्पिच्छ
अप्पाबाधो अहोसि अप्पातको ... अञ्जेहि मनुस्सेहि, दी. नि. द्धा प्र. वि., ब. व. - अप्पायुकबुद्धा पन यस्मा बहुतरेन 2.133; - धा ब. व., उपरिवत् - अझे बाबाधा अजे जनेन अदिट्ठा एव परिनिब्बायन्ति, सु. नि. अट्ठ. 1.169; -
अप्पाबाधा, मि. प. 68;-धता स्त्री, भाव. - ... अप्पिच्छता संवत्तनिक त्रि.. [अल्पायुस्संवर्तनिक, अल्पायुता में परिणत ... अप्पाबाधताति, अ. नि. 1(1).53; पाणातिपाता वेरमणिया होने वाला, अल्पायु बना देने वाला - को पु.. प्र. वि., ए. ... अच्छम्भिता ... सुसण्ठानता अप्पाबाधता असोकिता ... व. - यो सबलहुसो पाणातिपातस्स विपाको, मनुस्सभूतस्स फलानि, खु. पा. अट्ठ. 23; - त्त नपुं॰, भाव. [अल्पाबाधत्व]. अप्पायुकसंवत्तनिको होति, अ. नि. 3(1).78; - का स्त्री., उपरिवत् - तं द्वि. वि., ए. व. - सो तं ... खेमतञ्च प्र. वि, ए. व. - अप्पायुकसंवत्तनिका एसा, मानव, पटिपदा
सुभिक्खतञ्च अप्पाबाधतञ्च पच्छेय्य, म. नि. 3.39. यदिदं - ..., म. नि. 3.251; - कं नपुं., प्र. वि., ए. व. अप्पाय त्रि., ब. स. [अल्पाय], कम आय अर्जित करने - पाणातिपातकम्मं नाम निरये तिरच्छानयोनियं ... निब्बत्तेति, वाला, कम राजस्व पाने वाला - यो पु.. प्र. वि., ए. व. - मनुस्सेसु निब्बत्तनिब्बत्तहाने अप्पायुकसंवत्तनिकं होती ति कुलपत्तो अप्पायो समानो उळारं जीविकं कप्पेति, अ. नि. .... आदीनवं, जा. अट्ट, 1.265. 3(1).111.
अप्पायुत्त नपुं., अप्पायु का भाव. [अल्पायुत्व], अल्प आयु अप्पायति आ + /पाय का वर्त., प्र. पु., ए. व. [आप्यायते], वाला होने की दशा - तं प्र. वि., ए. व. - अप्पायुत्तं च पूरा भर देता है, सन्तुष्ट कराता है, बढ़ा देता है सत्तानं भमन्तानं भवण्णवे. म. वं. 73.145. - अप्पायतीति ब्रहेति, विसुद्धि, महाटी. 1.416; - न्ति अप्पावसेस त्रि., ब. स. [अल्पावशेष], वह, जिसका बहुत तदेव, ब. व. - न ता मनं अप्पायन्ति वड्डन्तीति अमनापा, कम भाग शेष बचा है - सं नपुं, प्र. वि., ए. व. - तञ्च दानि स. नि. अट्ट. 1.71; - यितुं निमि. कृ. - अमनापानन्ति मनं परित्तकन्ति ... इदानि परित्तकं अप्पावसेसं. पे. व. अट्ठ. 45. अप्पायितुं वहेतुं असमत्थानं, अ. नि. अट्ठ. 3.51.
अप्पासी त्रि./पु., प्र. वि., ए. व., [अल्पाशिन], कम मात्रा अप्पायन नपुं.. आ + vपाय से व्यु., क्रि. ना. [आप्यायन], में खाने वाला - अप्पासी निपको सूरो, स राजवसतिं पूरा भरना, संतुष्टि, तृप्ति - ने सप्त. वि., ए. व. - पूरी वसे ति, जा. अट्ट, 7.190; अप्पासीति भोजनमत्तशं तदे.. अप्पायने, पूरेति पूरयति, सद्द. 2.599.
अप्पाहार 1. पु., कर्म. स. [अल्पाहार], कम मात्रा का अप्पायुक त्रि., ब. स. [अल्पायुस्क], अल्प आयु वाला, भोजन - रं द्वि. वि., ए. व. - खन्तिं हवे भासति नागराजा, वह, जिसकी आयु बहुत कम बची है - का स्त्री., प्र. वि., अप्पाहारं गरुळो वेनतेय्यो, जा. अट्ठ. 7.151; 2. त्रि., ब. स. ए. व. - याव अप्पायुका हि, भन्ते, भगवतो माता अहोसि, [अल्पाहार], कम मात्रा में भोजन लेने वाला, भोजन लेने उदा. 123; याव अप्पायुकाति यत्तकं परित्तायुका, में संयत - रो पु., प्र. वि., ए. व. - अप्पाहारो समणो अतिइत्तरजीविताति अत्थो, उदा. अट्ठ. 225; - की उपरिवत् गोतमो, म. नि. 2.209; 207; अहं एकस्मिं काले अप्पाहारो - अप्पायुकी कालकता ततो चुता, उपपन्ना तिदसगणं अहोसिं. म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.170; - रं पु., द्वि. वि., ए. यसरिसनी, वि. व. 710; अप्पायुकीति ईदिसं नाम उळारं व. - एणिजङ्घ किसं वीरं, अप्पाहारं अलोलुपं. सु. नि. 167; पुञ्ज कत्वा न तया एतस्मिं दुक्खबहुले ... - रा पु., प्र. वि., ब. व. - अप्पिच्छा निपका एते, अप्पाहारा सजाताभिसन्धिना विय परिक्खयं गतेन कम्मुना अप्पायुका अलोलुपा, अप. 1.178; - ता स्त्री॰, भाव. [अल्पाहारता]. समाना, वि. व. अट्ठ. 152; - का पु., प्र. वि., ब. व. - ते कम मात्रा में भोजन लेने की प्रवृत्ति या मनोदशा - मयं अनिच्चा अद्धवा अप्पायुका चवनधम्मा इत्थत्तं आगताति, तासङ्खातं नपुं.. प्र. वि., ए. व., अल्पाहारता रूप में दी. नि. 1.16; - तर त्रि., तुल. विशे., तुलनात्मक रूप में विख्यात - अप्पाहारतासङ्घातं आहारहेतु पापस्स अकरणं, कम आयु वाला/वाली - तरा पु.. प्र. वि., ब. व. - ते । जा. अट्ठ. 7.151; - ताधम्मेन पु., तत्पु. स., तृ. वि., ए. अप्पायुकतरा च होन्ति दुब्बण्णतरा अप्पेसक्खतरा च, दी. व. [अल्पाहारताधर्म], अल्प आहार लेने की प्रवृत्ति के द्वारा नि. 1.16; - त्त नपुं.. भाव., अल्प आयु वाला होना - त्तं - इमिना धम्मेनाति इमिना अप्पाहारताधम्मेन, म. नि. अट्ठ. द्वि. वि., ए. व. - अप्पायुकसंवत्तनिका पटिपदा अप्पायुकत्तं (म.प.) 2.170. उपनेति, म. नि. 3.255; - बुद्ध पु., कर्म, स., उस कल्प अप्पिच्छ त्रि., ब. स. [अल्पेच्छ], बहुत कम इच्छाएं रखने में उत्पन्न बुद्ध, जिसमें मनुष्य अल्प आयु वाले होते थे- वाला, इच्छाओं पर नियन्त्रण कर चुका व्यक्ति - च्छो पु.,
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अप्पिच्छा 440
अप्पिय प्र. वि., ए. व. - अप्पिच्छो चेव सन्तुट्टो, पविवित्तो वसे मुनि, यावदेव अप्पिच्छ व निस्साय सन्तुहिजेव ... आरञ्जिको, थेरगा. 581; - च्छा ब. व. - अप्पिच्छा होथ सन्तुट्ठा, झायी होति, महानि. 174; - च्छा = च्छाय तृ. वि., ए. व. - झानरता सदा, अप. 1.28; - च्छं पु., द्वि. वि., ए. व. - अप्पिच्छा अप्पचिन्ताय, अदूरगमनेन च, जा. अट्ठ. 3.275; अनोकसारिमप्पच्छं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं सु. नि. 633; - स्स तत्थ अप्पिच्छाति आहारेसु अप्पिच्छताय नित्तण्हताय, ... पु., ष. वि., ए. व. - अप्पिच्छरस सन्तुहस्स सल्लेखस्स आहाराहरणतायाति अत्थो, जा. अट्ठ. 275. .... वण्णं भासित्वा, पारा. 22; - कथा स्त्री., तत्पु. स., प्र. अप्पित त्रि, अप्प का भू. क. कृ. [अर्पित], 1. किसी वि., ए. व. [अल्पेच्छकथा], इच्छाओं पर नियन्त्रण रखने से आलम्बन पर केन्द्रित, किसी विषय की ओर उन्मुखीकृत, सम्बन्धित कथन या उपदेश, कम इच्छाएं रखने के विषय किसी के साथ दृढ़तापूर्वक बांध दिया गया - ता पु., प्र. में उपदेश - अप्पिच्छकथा, सन्तुढिकथा ... अकसिरलाभी, वि., ब. व. - कामबन्धनेहि वा समप्पिताति सुद्ध अप्पिता उदा. 109; अ. नि. 3(1).172; एवमेतेसं अप्पिच्छानं या अल्लीना, उदा. अट्ट, 271; - तं' द्वि. वि., ए. व. - अप्पिछता.... तप्पटिपक्खस्स अत्रिच्छादिभेदस्स इच्छाचारस्स सामावतीपि रा अत्तनो अप्पितं कण्डं... पटिबाही ति... आदीनवविभावनवसेन च पवत्ता कथा अप्पिच्छकथा, उदा. कथेसि, अ. नि. अट्ठ. 1.328; अप्पितञ्च सुवीतञ्च अट्ठ. 185; - ता स्त्री., भाव. [अल्पिच्छता], इच्छाओं की सुप्पवायितञ्च सुविलेखितञ्च सुवितच्छितञ्च करोही ति, स्वल्पता, इच्छाओं पर संयम - ता प्र. वि., ए. व. - तत्थ पारा. 384; - तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - चित्तं समाधियतीति अप्पिच्छता च सन्तुट्टिता च अलोभो, अ. नि. अट्ठ. 1.1303; ... अप्पितं विय अचलं तिट्ठति, म. नि. अट्ठ (मू.प.) अज.. कुसला धम्मा... अकुसलाधम्मा परिहायन्ति यथयिदं. 1(1).183; 2. नष्ट कर दिया गया, बहिष्कृत, समाप्त किया ..., अप्पिच्छता, अ. नि. 1(1).15; - तं द्वि. वि., ए. व. - हुआ - ता पु., प्र. वि., ब. व. - इति ... सन्ता ... अत्थङ्गता
अप्पिच्छतं अत्तनि सम्पस्समानो भिय्यो पल्लोममापादिं अरज्ञ अब्भत्थङ्गता अप्पिता ब्यप्पिता ... ब्यन्तीकता, विभ. 219; विहाराय, म. नि. 1.25; -- ताय' च. वि., ए. व. - नग्गियं अप्पिताति विनासिता, अप्पवत्तियं ठपितातिपि अत्थो. विभ. अनेकपरियायेन अप्पिच्छताय सन्तुहिताय सल्लेखाय धुतताय अट्ट, 248; - चित्त नपुं.. कर्म. स. [अर्पितचित्त], किसी पासादिकताय अपचयाय वीरियारम्भाय संवत्तति, महाव. एक आलम्बन पर एकाग्र होकर स्थित चित्त - तं द्वि. वि., 397; - तायः ष. वि., ए. व. - अत्तना च अप्पिच्छो होति ए. व. - मग्गं अप्पितचित्तञ्च ठपेत्वा भावनामये, सद्धम्मो. अप्पिच्छताय च वण्णवादी, म. नि. 1.278; - पटिपत्ति 233. स्त्री., तत्पु. स. [अल्पेच्छाप्रतिपत्ति], अल्पेच्छता की अप्पित्थिक त्रि, ब. स., अप्प + इत्थी से व्यु. [अल्पस्त्रीक], व्यावहारिक साधना, इच्छाओं पर संयम रखने का व्यावहारिक बहुत कम नारियों से युक्त - त्थिकानि नपुं॰, प्र. वि., ब. अभ्यास - तिं द्वि. वि., ए. व. - भगवता ... अप्पिच्छप्पटिपत्तिं व. - यानि कानिचि कुलानि अप्पित्थिकानि बहुपुरिसानि पकित्तयमानेन ... चाति, मि. प. 227; - भाव पु., तत्पु. स. ..... कुम्भत्थेनकेहि, स. नि. 1(2).241. [अल्पेच्छभाव], इच्छाओं पर संयमन, सन्तुष्टिभाव - वं द्वि. अप्पिय' क. त्रि., पिय का निषे., तत्पु. स. [अप्रिय], वह, जो वि., ए. व. - सक्को तस्स परमप्पिच्छभावं ञत्वा, ध. प. मन के अनुकूल न हो, मन में आनन्द न देने वाला, अट्ठ. 1.161; - सन्तुट्ठ त्रि., द्व. स. [अल्पेच्छसन्तुष्ट], कम प्रतिकूल रूप में मन द्वारा वेदनीय - यो पृ., प्र. वि., ए. इच्छाएं रखने वाला और सन्तुष्ट - हो पु.. प्र. वि., ए. व. व. - अयं मे पुग्गलो अप्पियो अमनापो, म. नि. 1.137; - - तं खादित्वा... पिवित्वा परमप्पिच्छसन्तट्ठो हत्वा अञ्जत्थ या ब. व., उपरिवत् - ... परेसं अप्पिया अमनापा. म. नि. न गच्छति, जा. अट्ठ. 3.433; - सन्तुट्ठभावगुणेन पु., 2.64; - यं' पु., द्वि. वि., ए. व. - हित्वान पियञ्च तत्पु. स., तृ. वि., ए. व. [अल्पेच्छसन्तुष्टिभावगुण], कम अप्पियञ्च, अनुपादाय अनिस्सितो कुहिञ्चि, सु. नि. 365; इच्छाओं और सन्तोष-भाव के गुण द्वारा - तस्स - य नपुं., उपरिवत् - पियंयेव भासति नो अप्पियं, सु. नि. अप्पिच्छसन्तुद्वभावगुणेन सक्कस्स भवनं कम्पि, जा. अट्ठ. (पृ.) 148; - येहि पु., तृ. वि., ब. व. - मा पियेहि 3.433.
समागच्छि, अप्पियेहि कुदाचनं, ध. प. 210; - यानं पु., ष. अप्पिच्छा स्त्री., कर्म. स. [अल्पेच्छा], कम इच्छा, सन्तोष, वि., ब. व. - पियानं अदस्सनं दुक्खं, अप्पियानञ्च दस्सनं. सन्तुष्टि, इच्छा पर नियन्त्रण - च्छं द्वि. वि., ए. व. - ध. प. 210; ख. पु., शत्रु, वैरी -- यो पु., प्र. वि., ए. व.
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अप्पिय
441
अप्पेक
- सतहि सो पियो होति, असतं होति अप्पियो, थेरगा. 994; - यं द्वि. वि., ए. व. - गन्था तेसं न विज्जन्ति, येसं नत्थि पियाप्पियं, ध. प. 211; - करण नपुं, अप्पिय + अकरण के योग से व्यु., तत्पु. स. [अप्रियाकरण], हानि नहीं करना, मन को प्रतिकूल रूप में अनुभव होने वाला काम न करना - णं नपुं. द्वि. वि., ए. व. - सब्द तेति विकुद्धभावञ्च इदानि अप्पियकरणञ्च उभयं ते इदं सब्बमेव पटिजानामि, जा. अट्ठ. 5.300; - मनापसद्द पु., अप्पिय + अमनाप + सद्द के योग से व्यु., कर्म. स. [अप्रियामनापशब्द], अप्रिय एवं मन को अच्छा न लगने वाला शब्द - इंद्वि. वि., ए. व. - भेरण्डकयेवाति अप्पियअमनापसद्दमेव, दी. नि. अट्ठ. 3.11; तेनाह अप्पियअमनापसद्दमेवाति, लीन. (दी.नि.टी.) 3.10; -- ता स्त्री., भाव. [अप्रियता], प्रतिकूलता, अप्रिय होने की दशा - ताय तृ. वि., ए. व. - तस्मिञ्च मे अप्पियताय अज्ज, पितरञ्च ते नत्थि कोचि विसेसो, जा. अट्ठ. 4.30; - तं द्वि. वि., ए. व. - न चापि मे अप्पियतं अवेदि, अञत्र कामा परिचारयन्ता, जा. अट्ठ. 4.32; - पसंसी त्रि., [अप्रियप्रशंसिन्]. अप्रिय जनों या पदार्थों की प्रशंसा करने वाला - पसंसी पु., प्र. वि., ए. व. - अप्पियपसंसी च होति, पियगरही च, अ. नि. 3(1).6; ततिये अप्पियपसंसीति अप्पियजनस्स पसंसको वण्णभाणी, अ. नि. अट्ठ. 3.195; - पुग्गल पु.. कर्म स. [अप्रियपुद्गल], अप्रिय व्यक्ति - ले सप्त. वि., ए. व. - अयहि मेत्ता अप्पियपुग्गले ... इमेसु चतूसु पठमं न भावेतब्बा, विसुद्धि. 1.284; -- भाव पु., कर्म. स. [अप्रियभाव], अप्रियता, प्रतिकूलता, प्रिय नहीं होना - वेन त. वि., ए.व. - तस्मिञ्च आसीविसे तव ... पितरि च अप्पियभावेन मह कोचि विसेसो नत्थि जा. अट्ठ. 4.30; - रूप त्रि., ब. स. [अप्रियरूप], मन को अच्छा न लगने वाले आकार या स्वरूप वाला- पे नपुं.. सप्त. वि., ए. व. - अप्पियरूपे रूपे न ब्यापज्जति, म. नि. 1.341; - वचन नपुं., कर्म. स. [अप्रियवचन], अच्छा न लगने वाला वचन - नेन तृ. वि., ए. व. - कतेन अदानेन वा अप्पियवचनेन वा अनत्थचरियाय वा असमानत्तताय वा... सुतपुब्बं मि. प. 159; - वादी त्रि., [अप्रियवादिन]. अप्रिय वचनों को बोलने वाला, गाली गलौज, डांट-फटकार या निन्दा करने वाला - मुखरो दुम्मुखो बद्धमुखो चाप्पियवादिनि, अभि. प. 735; - सम्पयोग पु., तत्पु. स. [अप्रियसम्प्रयोग], अप्रिय-जनों के साथ संयोग या मेल-मिलाप-गो पु., प्र. वि., ए. व. - अप्पियसम्पयोगो
नाम अमनापेहि सत्तसङ्खारेहि समोधानं, विसुद्धि. 2.133; - सील त्रि., ब. स. [अप्रियशील], मन को अच्छा न लगने वाले स्वभाव से युक्त - ला पु.. प्र. वि., ब. व. - अपेसलानीति एवरूपा पुग्गला आसीविसभरिता विय वम्मिका अप्पियसीला होन्ति, जा. अट्ठ. 4.343. अप्पिय त्रि., अप्प का सं. कृ. [अर्ग्य], प्रमुख तत्त्व के रूप में रखे जाने योग्य, प्रमुख वचन अथवा अभिधेय शब्द के रूप में रखा जाने योग्य - यं पु., वि. वि., ए. व. - कायोति वा सरीरन्ति वा, सरीरन्ति वा कायोति वा, कायं अप्पियं करित्वा एसेसे एकटे समे समभागे तज्जातेति, कथा. 31; तत्थ कायं अप्पियं करित्वाति कायं अप्पेतब्बं अल्लीयापेतब्ब एकीभावं उपनेतब्बं अविभजितब्बं कत्वा पृच्छामीति अत्थो, कथा. अट्ठ. 121. अप्पियायन्त त्रि., पिय के ना. धा. पियायति के वर्त. कृ. का निषे. [अप्रियायत्]. प्रेम न करता हुआ, अप्रिय रूप में या बुरे रूप में आचरण कर रहा - न्तो पु., प्र. वि., ए. व. - ... कल्याणकम्म दुस्सन्तो अप्पियायन्तो अट्टीयन्तो न करोति, जा. अट्ठ, 5.109. अप्पीति स्त्री., पीति का निषे., तत्पु. स. [अप्रीति], प्रीति का अभाव, द्वेष, वैर-भाव - यं सप्त. वि., ए. व. - दिसी अप्पीतियं. "धम्म देस्सति, सद्द. 2.452; दुस अप्पीतियं, दुस्सति पदुस्सति, दोसो ..., सद्द. 2.489. अप्पीभाव पु., [अल्पीभाव], क. छोटा हो जाना, कम हो जाना, कुटिल हो जाना - वे सप्त. वि., ए. व. - कुञ्च कोटिल्ल अप्पीभावेसु, सद्द. 2.335; ख. कम हो जाना, च्युत होना, बिलग होना - चुट अप्पीभावे, चोटति, सद्द. 2.353; ग. क्षमा करना - मस अप्पीभावे, खमायञ्च, मस्सति, सद्द. 2.489; घ. क्षीण हो जाना, घट जाना - लिस अप्पीभावे, लिस्सति, लेसो, सद्द. 2.489. अप्पीयति अप्प के कर्म. वा. का वर्तः, प्र. पु., ए. व. [अर्प्यते], बैठाया जाता है, स्थिर किया जाता है, दृढ़ता के साथ जोड़ दिया जाता है - तादिसम्हि आरम्मणं मनस्मिन अप्पीयति, विभ. अट्ठ, 8. अप्पेक त्रि., अपि + एक के योग से व्यु., कुछ एक-लोग - के पु., प्र. वि., ब. व. - अप्पेके सतमद्दक्ष, सहस्सं अथ सत्तरि ... अप्पेकेनन्तमद्दक्खं दिसा सब्बा फुटा अहं, दी. नि. 2.187; अप्पेके सतमद्दक्खुन्ति तेसु भिक्खूसु एकच्चे भिक्खू अमनुस्सानं सतं अद्दसंसु, दी. नि. अट्ठ. 2.249.
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अप्पेकच्च
442
अप्पेकच्च त्रि., अपि + एकच्च के योग से व्यु., प्रायः ब. व. में ही प्रयोग में द्रष्ट; 1. और भी कुछेक, और भी कुछ - च्चो पु., प्र. वि., ए. व. - अपेत्थेकच्चो भिक्खु न परिनिब्बायेय्या ति? म. नि. 3.48; - च्चे पु., द्वि. वि., ब. व. - अप्पेकच्चे न परलोकवज्जभयदस्साविने विहरन्ते, दी. नि. 2.30; - च्चा स्त्री, प्र. वि., ब. व. - सपत्तिकम्पि हि दुक्खं, अप्पेकच्चा सकिं विजातायो, थेरीगा. 216; - च्चानि नपुं., प्र. वि., ब. व. - उप्पलिनियं वा ... अप्पेकच्चानि उप्पलानि वा पदुमानि ... अन्तोनिमग्गपोसीनि, दी. नि. 1.66; अप्पेकच्चानि सेदफुसितानि नलाटा मुत्तानि, म. नि. 1.299; 2. कभी-कभी वाक्य में आवृत्ति, कुछ एक ... जबकि कुछ दूसरे - च्चे ... च्चे पु., प्र. वि., ब. व. - ... अप्पेकच्चे उद्धनानि खणन्ति, ... अप्पेकच्चे कट्ठानि .... भाजनानि ..., उदकमणिकं....... आसनानि पञआपेन्ति, सु. नि. (पृ.) 165; - च्चानि ... च्चानि नपुं.. प्र. वि., ब. व. - अप्पेकच्चानि उप्पलानि वा पदुमानि ... अप्पेकच्चानि
समोदकं ठितानि, दी. नि. 2.30. अप्पेकदा अ., कालसूचक निपा., अपि + एकदा के योग से । व्यु. [अप्येकदा], कभी कभी, जब-तब - यं तस्मिं ... खादनीयं वा भोजनीयं वा... विरसज्जेत्वा अप्पेकदा अनसिता अच्छन्ति, पाचि. 235; ... अप्पेकदा तथागतं धम्मदेसना पटिभाति, अप्पेकदा न पटिभाति?, अ. नि. 3(1).158. अप्पेति ।अप्प का वर्त., प्र. पु., ए. व. [अर्पयति], शा. अ. किसी के बीच में या भीतर में बैठा देता है या अन्तर्निविष्ट कर देता है, बैठा देता है, जोड़ देता है, स्थापित कर देता है - यथा वड्ढकी सुपरिकम्मकतं दारुं सन्धिस्मि अप्पेति, मि. प. 64; न तासु मनो अप्पेति, स. नि. अट्ठ. 1.71; फलसमापत्तिवसेन निरोधे चित्तं अप्पेति, उदा. अट्ठ. 29; - न्ति ब. व. - अप्पेन्ति निम्बमलस्मि, तस्मिं मे सकते मनोति, जा. अट्ठ. 3.30; गण्ठितफलकम्पि पासकफलकम्पि अन्ते अप्पेन्ति, चूळव. 2583; एकग्गं चित्तं आरम्मणे अप्पेन्तीति अप्पना, ध. स. अट्ठ. 187; - न्ती स्त्री., वर्त. कृ., प्र. वि., ए. व. - सामिकेन ... नामुद्दितं सञआणञ्च अप्पेन्ती, वि. व. अट्ठ. 88; - प्पिय/प्पेतब्ब त्रि., सं. कृ. - कायं अप्पियं करित्वा .... कथा. 31; कायं अप्पेतब्बं अल्लीयापेतब्बं .... कथा. अट्ठ. 121; - तुं निमि. कृ. - गण्ठिकफलक अन्ते
अप्पेतुन्ति, चूळव. 258; - त्वा पू. का. कृ. - असिथिलं .... फलसमापत्तिं अप्पेत्वा उपधिविवेक परिपूरयमानो विहरति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).110; ला. अ. क. निदर्शित
अप्पेसक्ख करता है, सङ्गति बैठाने हेतु प्रकशित करता है - जिनवचनं अप्पेति, दी. नि. अट्ठ. 1.31; अप्पेतीति निदस्सेति, लीन. (दी.नि.टी.) 1.40; ला. अ. ख. तेजी के साथ आ मिलता है या आ गिरता है, विलीन हो जाता है, आकर एक जुट हो जाता है - यतो चायं गङ्गा नदी पभवति यत्थ महासमुई अप्पेति, स. नि. 1(2).165; - न्ति ब. व. - ... सवन्तियो महासमुदं अप्पेन्ति, अ. नि. 3(1).40; अप्पेन्तीति अल्लीयन्ति ओसरन्ति, अ. नि. अट्ठ. 3.218; ला. अ. ग. 'अप्पना'नामक समाधि में स्थापित कर दिया जाता है - केचि पन द्दवम्पि चित्तं अप्पेतीति वदन्ति, उदा. अट्ठ. 28; - न्ति ब. स. - अञ अभिज्ञा अप्पेन्ति, अभिआ वसिभाविता, अप. 1.4; - तुं निमि. कृ. - न सक्कोतीति आपेतुं, वेदितब्बं विभावना, अभि. अव. 906; ला. अ. घ. (वैर का) बदला लेने में लग जाता है, बदला लेने लगता है - व्यं विधि., उ. पु., ए. व. - अयं ख्वस्स कालो योहं वे अप्पेयन्ति कोसिया खग्गं निब्बाहि, महाव. 467; - सि अद्य.. प्र. पु., ए. व. - इति फन्दनरुक्खोपि वे अप्पेसि तावदे, जा. अट्ठ. 4.188. अप्पेसक्ख त्रि., व्यु. संदिग्ध, अट्ठ. के निर्वचनों के आलोक में अप्पे + सक्ख से व्यु. [अल्पसाख्य, बौ. सं. अल्पेशाख्य, अल्प + ईश + आख्य], साधारण, अमहत्वपूर्ण, अल्प रूप में सम्मानित, अल्प ऐश्वर्य वाला, छोटे परिवार वाला, छोटी मित्रमण्डली वाला- क्खो पु., प्र. वि., ए. व. - किं पनायं अप्पपुजओ अप्पेसक्खो .... महानि. 292; अप्पेसक्खोति परिवारविरहितो, महानि. अट्ठ. 341; ततियवाचा इदानि अकतपुञ्जताय दुग्गतो दुब्बण्णो अप्पेसक्खो, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.79-80; सचे मनुस्सत्तं आगच्छति यत्थ यत्थ पच्चाजायति अप्पेसक्खो होति, म. नि. 3.252; अप्पेसक्खोति अप्पपरिवारो, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.188; - क्खा' पु., प्र. वि., ब. व. - ... अप्पपुआ अप्पेसक्खा न लाभियो चीवर-पिण्डपात-सेनासन-गिलानप्पच्चय-भेसज्ज - परिक्खारानान्ति, स. नि. 1(2).207; इमे पन भिक्खू अप्पाता अप्पेसक्खाति, म. नि. 1.253; अप्पेसक्खाति अप्पपरिवारा, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).130; - क्खा' स्त्री., प्र. वि., ए. व. - अप्पेसक्खा च अप्पलाभा चाति भो पब्बज्जा नाम अप्पयसा चेव, दी. नि. अट्ठ. 2.235; अप्पेसक्खा च ... पब्बज्जा नाम अप्पयसा चेव, दी. नि. अट्ठ. 2.235; - खेहि पु., तृ. वि., ब. व. - न सक्का अप्पेसक्खेहि अज्झोगाहितुन्ति वुत्तं होति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1),199;
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अप्पोति
443
तर त्रि., तुल. विशे., और भी अधिक कम परिवार या छोटी मित्रमण्डली वाला तरा पु. प्र. वि. ब. व. ते अप्यायुक्तरा च होन्ति दुब्बण्णतरा व अप्प्रेसक्खतरा छ दी. नि. 1.16;त नपुं. भाव. [अल्पेशाख्यत्व], कम प्रभाव वाला होना, छोटे परिवार वाला होना - त्तं द्वि. वि., ए. व. अप्पेसक्खसंवत्तनिका पटिपदा अप्पेसक्खत्तं उपनेति, म. नि. 3.255; संवत्तनिक त्रि. कम महत्वपूर्ण होने या स्वल्प प्रभावशीलता की ओर ले जाने वाला / वाली का स्त्री. प्र. वि. ए. व. अप्पेसक्खसंवत्तनिका पटिपदा अप्पेसक्खत्तं, म. नि. 3.255. अप्पोति आप का वर्त. प्र. पु. ए. व. [आप्नोति] प्राप्त करता है, जा पहुंचता है, व्याप्त हो जाता है अप्पोति आपो, एत्थ आपो अप्पोति तं तं ठानं विसरती ति आपो, विसन्दनभावेन तं तं ठानं आपोति अप्पोती
सद्द. 2.508; ति आपो, सद्द 1.111. अप्पोदक त्रि. ब. स. [ अल्पोदक]. बहुत कम पानी से युक्त, अल्प जल वाला, कम जल वाला स्थान के नपुं०, सप्त. वि., ए. व. मच्छेव अप्पोदके खीणसोते, सु. नि. 783; महानि, 36: अप्पोदकेति मन्दोदके, महानि, अट्ट, 127; का पु०, प्र. वि., ब.व. मग्गा कन्तारा अप्पोदका अप्पभक्खा, महाव. 321; कं द्वि. वि., ए. व. सब्द अप्पोदक मधुपायासं परिभुजि, जा. अड. 1.79. अप्पोदवण्ण क्रि. ब. स. [अल्पोदकवर्ण] कम पनीले स्वरूप वाला, कम तरल या कम ढीले आकार वाला ण्णे पु. वि. वि. व. क. अप्पोदवण्णे कुम्मासे सिङ्गि विदलसूपियो
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जा. अट्ठ. 4.313.
अप्योस्सुक्क/ अप्योस्सुक त्रि. कर्म. स. [अल्पोत्सुक]. कम उत्सुक, निरपेक्ष, अकर्मण्य, निश्चिन्त प्रकृति वाला, अनुद्विग्न - क्को पु०, प्र. वि., ए. व. अप्योस्सुक्को परपुत्तेसु हुत्वा एको घरे खग्गविसाणकप्पो सु. नि. 43क्का स्त्री. प्र. वि. ए. क. - अप्योस्सुका घटिस्सं जातिमरणप्पहानाय, थेरीगा, 459 अप्योस्सुक्काति अञ्ञकिच्चेसु निरुस्सुक्का, थेरीगा. अड. 307 क्के पु.. द्वि. वि. ब. व. भिक्खू पीणिन्दियो अप्पो सुक्के पन्नलोमे परदत्तवृत्ते मिगभूतेन चेतसा विहरन्ते, म. नि. 2.330-31 ता स्त्री. भाव. [ अल्पोत्सुकता ]. कम उत्सुकता. निरपेक्षता .... यत्र हि नाम अप्पोत्सुक्कताय चित्तं नमति नो धम्मदेसनायाति दी. नि. 2.29 अप्योस्सुक्कतायाति निरुस्सुक्कभावेन,
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अप्फोटा
अदेसेतुकामतायाति अत्यो दी. नि. अड्ड. 2.50 भाव पु. उपरिवत्वं द्वि. वि. ए. व. - परे धम्मदेसनाय अप्पोस्सुक्कभावं आपन्ने भगवति ... आगन्त्वा, म. नि. अ (मू.प.) 1 (1).175.
अप्फुट त्रि, फर के भू. क. कृ. का निषे, [अस्पृष्ट]. अछूता अप्रभावित नहीं भरा हुआ, नहीं व्याप्त टं नपुं. प्र. वि. ए. व. नास्स किञ्चि सब्बावतो कायस्स समाधिजेन पीतिसुखेन अप्फुटं होति, म. नि. 1.349; दी. नि. 1.65; कायस्साति... अणुमत्तम्पि ठानं पठमज्झानसुखेन अप्फुटं नाम न होति दी. नि. अड. 1.176 टो पु.. प्र. वि., ए. व. - नत्थि सो पदेसो ... देवताहि अप्फुटो, दी. नि. 2.105: अप्फुटोति असम्फुट्टो अभरितो वा दी. नि. अ. 2152 चतुत्वदुतियेसु परस्वेसं चतुत्थदुतियानं तब्बग्गे ततियपठमा होन्ति, पचासत्त्या अप्फुट अब्भुग्गतो
? मो. व्या. 1.35. अप्फुद्ध त्रि.. फुस के भू. क. कृ. का निषे, [अस्पृष्ट]. 1. नहीं स्पर्श किया गया, 2. व्याकरण के विशेष सन्दर्भ में, अघोष सिथिल अप्फुट, धनितं फुद्ध सद्द. 3.607 त्त नपुं., भाव, [अस्पृष्टत्व], अघोष वर्ण होना- त्तं द्वि. वि., ए. व. सासनिका पन वग्गानं येव फुद्धत्तञ्च अद्वत्तञ्च च वदन्ति, सद्द 3.607. अप्फोटन नपुं. अप्फोटेति का क्रि. ना. [आस्फोटन ]. ताली बजाना करतलध्वनि, ताल ठोकना, वाएं हाथ को हृदय पर रख दाहिने हाथ की हथेली से शब्द उत्पन्न करना देवता अत्तनो .... अप्फोटनसेळनचेलुक्खेपादीहि महाकीळकं कीळिंसु, दी. नि. अट्ठ. 2.28; अप्फोटनं दुच्चति भुजहत्थसमुङ्गनसदो अत्थतो पन वामहत्थं उरे ठपेत्वा दविखणेन पृथुपाणिना हत्थताळनेन सद्दकरणं लीन. ( दी. नि. टी.) 2.27: देवतानं अप्फोटनादीहि कीळनं प्रमोदुष्पत्ति भवन्तगमनेन, लीन. (दी.नि.टी.) 2.28 द्वादसयोजनिक.... सद्देन ब्रह्मअप्फोटनं नाम अप्फोटेस्सामी ति ध. प. अठ्ठ 2.120; घोस पु. तत्पु. स. [ आस्फोटनघोष ], करतलध्वनि, ताल ठोकने से उत्पन्न आवाज संद्वि. वि. ए. व. असुरानं अप्फोटनघोसं
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उदा. अट्ठ. 53-54.
अप्फोटा स्त्री.. [आस्फोटा], जङ्गली चमेली का पौधा अप्फोटा वनमल्लिका, अभि. प. 575 अप्फोटा सूरियवल्ली च. काळीया मधुगन्धिया जा. अड्ड. 7.304; अप्फोटाति अप्फोटवल्लियो, जा. अट्ठ. 7.305.
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अप्फोटेति 444
अफासु अप्फोटेति आ + vफुट का वर्त०, प्र. वि., ए. व. अफल त्रि., ब. स. [अफल], निष्फल, निरर्थक, अलाभदायक [आस्फुटयति], ताली बजाता है, करतल-ध्वनि करता है, - ला स्त्री., प्र. वि., ए. व. - एवं सुभासिता वाचा, अफला अंगलियां चटकाता है - न्ति प्र. वि., ब. व. - तं दिस्वा होति अकुब्बतो, ध. प. 51; - लं नपुं. प्र. वि., ए. व. - महाजना वग्गन्ति नदन्ति अप्फोटेन्ति सेळेन्ति, जा. अट्ठ. मोघं वत नो तपो, अफलं ब्रह्मचरियं म. नि. 2.369; अफलं 5.125; स्थस्सपि., उस्सेळेन्तिपि, अफोटेन्तिपि, ... नच्चकि पधानं, म. नि. 3.8; - लो पु., प्र. वि., ए. व. -- एवं सन्ते एवं वदन्ति, चूळव. 22; - न्तो पु., वर्त. कृ., प्र. वि., ए. आयस्मन्तानं निगण्ठानं अफलो उपक्कमो होति. म. नि. व. - ... वग्गन्तो गज्जन्तो अप्फोटेन्तो विचरि जा. अट्ठ. 3.8; स. उ. प. के रूप में, द्रष्ट. फलाफल के अन्त.. 4.79; - न्तं पु., वर्त. कृ., द्वि. वि., ए. व. - तञ्च तत्थ अफस्सक त्रि., ब. स. [अस्पर्शक]. वह, जिसका स्पर्श न विजम्भन्तं अप्फोटेन्तं जो अन्तेपुरे ... उदिक्खिंसूति, जा. किया जा सके, स्पर्श करने की क्षमता न रखने वाला - का अट्ठ. 5.301; - न्ता पु., वर्त. कृ., प्र. वि., ब. व. - पु., प्र. वि., ब. व. - असञ्जसत्ता देवा अहेतुका अनाहारा चक्कातिचक्कं मञ्चातिमञ्चं ... वग्गन्ता गज्जन्ता अप्फोटेन्ता अफस्सका अवेदनका ... पातभवन्ति, विभ. 491. विचरिंसु, जा. अट्ठ. 4.73; - न्तु अनु०, प्र. पु., ब. व. - अफस्सयि फस्स के ना. धा. का अद्य., प्र. पु., ए. व., वादेन्तु वग्गन्तु सेळेन्तु नदन्तु नच्चन्तु गायन्तु अप्फोटेन्तु, स्पर्श कर लिया, छू लिया, अनुभव कर लिया - यो सो अट्ठ जा. अट्ठ. 6.229; - सि' अद्य., प्र. पु., ए. व. - सो उद्याय विमोक्खानि, पुरेभत्तं अफस्सयि, थेरगा. 1181; यो महानेरुनो वग्गित्वा गज्जित्वा अप्फोटेसि, जा. अट्ठ. 4.73; - सि म. कूट विमोक्खेन अफस्सयि, थेरगा. 1211. पु., ए. व. - कस्मा, सामि, एत्तकं धनं विस्सज्जेत्वा अफस्सित त्रि., फस्स के ना. धा. के भू, क. कृ. का निषे., कतगन्धकुटिया झामकाले अप्फोटेसी ति, ध. प. अट्ठ. 2.36%; शा. अ. स्पर्श न किया गया, ला. अ. प्रज्ञा आदि द्वारा - सिं उ. पु., ए. व. - हट्टो हटेन चित्तेन, अप्फोटेसिं अहं अगृहीत, अनुपलब्ध, अप्राप्त, असाक्षात्कृत - तो पु., प्र. वि., तदा, अप. 1.148; -- सुप्र. पु., ब. क. - ब्रह्मानो अप्फोटेसं. ए. व. - अफस्सितो पआय दुक्खडो नत्थीति, पटि. म. मि. प. 12;-स्सामि भवि., उ. पु., ए. व. - ... ब्रह्मअफोटनं 121; - तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - अज्ञातं अभविस्स अदिट्ठ नाम अप्फोटेस्सामी ति, ध. प. अट्ठ. 2.120; - त्वा पू. का. अविदितं असच्छिकतं अफस्सितं पञआय, म. नि. 2.150. कृ. - ... आयुपालं तुण्हीभूतं दिस्वा अप्फोटेत्वा उक्कुटिं अफासु त्रि., फासु का निषे. [अस्फास्नु], असरल, कठिन, कत्वा योनके एतदवोच, मि. प. 18; -- टित त्रि., भू. क. कष्टप्रद - सु नपुं., प्र. वि., ए. व. - ... अञ्जतरस्स कृ. [आस्फोटित], - तस्स वामहत्थं समजित्वा भिक्खुनो यानुग्घातेन बाळ्हतरं अफासु अहोसि, महाव. 265; दक्खिणहत्थेन अप्फोटितकाले आकासा ... वस्सति, जा. - सुं तदेव, द्वि. वि., ए. व. - या पन भिक्खुनी भिक्खुनिया अट्ठ. 2.257.
सञ्चिच्च अफासुं करेय्य, पाचित्तियान्ति, पाचि. 396; - क अफन्दन त्रि., फन्दन का निषे. [अस्पन्दन], नहीं हिल-डुल त्रि, प्रायः नपुं. के नाम के रूप में प्रयुक्त, कष्ट, कठिनाई, रहा, नहीं चल फिर रहा, नहीं फड़क रहा, कम्पनहीन, जड़ असुविधा, परेशानी - कं नपुं., प्र. वि., ए. व. -- पुत्तस्स ते -- ना स्त्री., प्र. वि., ब. व. - सब्बसहा अफन्दना अकुप्पा, अफासुकं जातान्ति, जा. अट्ठ. 1.281; मरह अअं अफासुकं
तथिथियो तायो न विस्ससे नरो, जा. अट्ट. 5.420. नत्थि, तदे.; - केन नपुं०, तृ. वि., ए. व. - ... केनचि अफरुस त्रि., फरुस का निषे. [अपरुष], अकठोर, कोमल, अफासुकेन भवितब्बन्ति .... जा. अट्ठ. 2.230; अपिच खो मृदु, विनम्र - सं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अकक्कसं पनेकेन अफासुकेन जीवितक्खयं पत्तो, जा. अट्ट, 4.46; - अफरुसं, खरधोतं सुपासियं, जा. अट्ठ. 3.247; सुमहताय काम त्रि., ब. स., सुख या आनन्द की कामना न करने अफरुसं तदे; - सो पु.. प्र. वि., ए. व. - मुदूति वाला - मानि नपुं., प्र. वि., ब. व. - ... कुलानि अस्सद्धानि कायवाचाचित्तेहि अफरुसो, जा. अट्ठ. 7.181; - वाचता ... अफासुकामानि ... उपासिकानं, महानि. 357; स्त्री., भाव., प्र. वि., ए. व., कोमल अथवा मृदुवाणी बोलने अफासुकामानीति फासुकं न इच्छन्ति, अफासुकमेव इच्छन्ति, की अवस्था, मीठी वाणी बोलना - या तत्थ सहवाचता महानि. अट्ठ. 370; - विहार पु., कर्म. स., कष्टमय या ... सिथिलवाचता अफरुसवाचता, महानि. 286%; दुखमय जीवनवृत्ति - राय चतु. वि., ए. व. - अहिताय अफरुसवाचताति मधुरवचनता, महानि. अट्ट. 340.
दुक्खाय अफासुविहाराय, महानि. 12; स. नि. 1(1).86-87;
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पे. [अवधिरपि बधिरो विमा कोचि
अफुट्ठ
445
अबन्धितब्बयुत्तक अफासुविहारायाति तदुभयेन न सुखविहारत्थाय, महानि. सन्धिभागों वाला - विकटोति विकटपादो, अबद्धसन्धी तिपि अट्ठ. 52.
वुत्तं, जा. अट्ट, 7.320. अफुट्ठ त्रि., Vफुस के भू. क. कृ. फुट्ट का निषे. [अस्पृष्ट], अबद्धसीमविहार त्रि., ब. स. [अबद्धसीमविहार], ऐसे विहार
शा. अ. नहीं स्पर्श किया गया, ला. अ. अप्रभावित, पूरी में रहने वाले भिक्षु, जिसकी सीमा सङ्घ द्वारा निर्धारित नहीं तरह मुक्त - हो पु., प्र. वि., ए. व. - धीरोपि तथेव की गई हो - रा पु., प्र. वि., ए. व. -- ये अबद्धसीमविहारा, मरणफरसेन फुट्ठो अफुट्ठो नाम नत्थि, म. नि. अट्ठ. (म.प.) तेसु भिक्खू एकज्झं सन्निपातेतब्बा, छन्दारहानं छन्दो 2.217; - टुं नपुं., द्वि. वि., ए. व. - अफुटु फुसितब्ब, म. आहरापेतब्बो, महाव. अट्ठ. 306. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.152.
अबद्धसीमा स्त्री., कर्म. स. [अबद्धसीमा], किसी भी सङ्घकर्म अफुसिं (फुस का अद्य, उ. पु., ए. व., मैंने स्पर्श किया, के लिये निर्धारित वह सीमा, जिसकी न कोई निश्चित हद अनुभव किया, साक्षात्कृत किया - मातरा चोदितो सन्तो, रहती है और न किसी उत्तिदुतियकम्म द्वारा पुष्टि भी अफुसिं सन्तिमुत्तमं, थेरीगा. 328.
आवश्यक होती है जैसे ही भिक्षुसङ्घ उपोसथ या किसी भी अफुस/अफुस्स त्रि., Vफुस के सं. कृ., फुस्स का निषे. सङ्घकर्म के लिए एकत्रित होता है तो यह सीमा स्वतः बन [अस्पृश्य], अछूत, स्पर्श या अनुभव न किये जाने योग्य - जाती है. गामसीमा, सत्तब्भन्तरसीमा तथा उदकुक्खेपसीमा सानि नपुं., प्र. वि., ब. क. - सब्बेपेते. .... गुणा एकरसा इसी के अन्तर्गत आती है - य सप्त. वि., ए. व. - अरोगा अकुप्पा अपरूपक्कमा अफुसानि किरियानि. मि. प. सङ्गमज्झे ओसरन्तीति अबद्धसीमाय कथितं, बद्धसीमायं पन 156.
वसन्ता अत्तनो वसनट्ठानेयेव उपोसथं करोन्ति, म. नि. अट्ठ. अफेग्गुक त्रि०, ब. स. [अफल्गुक], सारहीन या खोरवली (म.प.) 2.171. लकड़ी से रहित, ठोस या अच्छी लकड़ी वाला - का स्त्री., अबधिर त्रि., बधिर का निषे. [अबधिर], वह, जो बहरा नहीं प्र. वि., ए. व. - सा सिंसपा, सारमया अफेग्गुका, कुहिं है - रो पु., प्र. वि., ए. व. - अबधिरोपि बधिरो विय होहि, ठिता उप्परितो न धंसती ति, जा. अट्ठ. 3.279.
जा. अट्ट. 6.4; केवलम्हि इध इत्थीपि पुरिसोपि यो कोचि अफेग्गुसार पु./नपुं, व्य. सं., हंसावती के एक स्थविर विज्ञ अनन्धो अबधिरो अन्तोद्वादसहत्थे ओकासे ठितो ... द्वारा रचित एक रचना का नाम - रं द्वि. वि., ए. व. - करोति, पारा. अट्ठ. 2.197. तत्थेव अञ्जतरो थेरो अफेग्गुसारं नाम गन्धं अकासि, सा. अबन्धन त्रि., ब. स. [अबन्धन], शा. अ. बिना बन्धनों वं. 45(ना.).
वाला (भिक्षापात्र)- नो पु., प्र. वि., ए. क. - ऊनपञ्चबन्धनो अबद्ध त्रि., Vबन्ध के भू. क. कृ. का निषे. [अबद्ध], नहीं नाम पत्तो अबन्धनो वा एकबन्धनो वा द्विबन्धनो वा तिबन्धनो बंधा हुआ, बन्धनों से मुक्त - द्धो पु., प्र. वि., ए. व. - मिगो वा चतुबन्धनो वा, पारा. 369; ला. अ. भवबन्धनों या अरजम्हि यथा अबद्धो, येनिच्छकं गच्छति गोचराय, सु. नि. संयोजनों से मुक्त - नो पु., प्र. वि., ए. व. - न सो सोचति 39; अबद्धोति रज्जुबन्धनादीहि अबद्धो, एतेन विस्सत्थचरियं नाज्झति, छन्नसोतो अबन्धनो, स. नि. 954; -- ना उपरिवत्, दीपेति, सु. नि. अट्ठ. 1.66; - स्स पु., ष. वि. ए. व. - ब. व. - तादी तत्थ न रज्जन्ति, छिन्नसुत्ता अबन्धना ति, असितस्साति अबद्धस्स. म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.70; - पित्त थेरगा. 282; - नं द्वि. वि., ए. व., उपरिवत् - अनीघं पस्स नपुं., नहीं बंधा हुआ पित्त, खुला हुआ पित्त - त्तं प्र. वि., आयन्तं, छन्नसोतं अबन्धनन्ति, उदा. अट्ठ. 159. ए. व. - अबद्धपित्तं मिलातबकुलपुप्फवण्णन्तिपि एक, खु. अबन्धनोकास त्रि., ब. स. [अबन्धनावकाश], वह, जिसमें पा. अट्ठ. 46; - माला स्त्री., कर्म. स. [अबद्धमाला]. खुला बन्धन के लिये कोई भी अवसर न रहे - सो पु., प्र. वि., हुआ माला का अलङ्करण - मालाति बद्धमाला वा अबद्धमाला ए. व. - अबन्धनोकासो नाम पत्तो यस्स द्वला राजिन वा, दी. नि. अट्ठ. 1.79; - मुख त्रि., ब. स., अप्रियवादी, होति, पारा. 369... बकवास करने वाला, खुले हुए मुख वाला - खो पु.. प्र.. अबन्धितब्बयुत्तक त्रि., वह, जिसे बांधा जाना या कारागार वि., ए. व. - मुखरो दुम्मुखो बद्धमुखो चाप्पियवादिनि, में डालना उचित नहीं है, कारागार आदि में बांधने के लिए अभि. प. 735; - सन्धि त्रि., ब. स. [अबद्धसन्धि], वह, अनुपयुक्त - का पु., प्र. वि., ब. व. - अन्धबालानं नाम जिसके शरीर के सन्धिभाग सुगठित न हो, ढीले-ढाले अवत्थुकेन वचनेन अबन्धितब्बयुत्तकापि पण्डिता पच्छाबाहं
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446
घोटा
अबन्धु
अबहुलीकत बद्धा, जा. अट्ठ. 1.421; -- के द्वि. वि., ए. व., उपरिवत् - भाकुटिकभाकुटिको विय? पारा. 282; अबलबलो वियाति एवं बाला नाम अबन्धितब्बयुत्तकेपि बन्धापेन्ति, जा. अट्ठ. 1,421. अबलो किर बोन्दो वुच्चति, अतिसयत्थे च इदं आमेण्डितं, अबन्धु त्रि., ब. स. [अबन्धु], बन्धुबान्धवों से रहित, बिना तस्मा अतिबोन्दो वियाति वुत्तं होति, पारा. अट्ठ. 2.186%; साथियों वाला, मित्र-रहित - न्धु' पु., प्र. वि., ए. व. - सोह बोन्दो ति लोलो, मन्दधातुकोति अत्थो, वि. वि. टी. 1265; सहस्सजीनोव, अबन्धु अपरायणो, जा. अट्ठ. 3.413; - न्धु ... अबलबलो विय हुत्वा किञ्चि अजानन्तो विय .... जा. स्त्री, प्र. वि., ए. व. - सा नूनाहं मरिस्सामि, अबन्धु । अट्ट. 2.196. अपरायिनी, जा. अट्ठ. 3.341; - नं ष. वि., ब. व. - पतिढा अबलस्स पु., कर्म. स. [अबलाश्व], कमजोर या बलहीन वुय्हतं ओघे, त्वहि नाथो अबन्धुनं, अप. 1.357.
घोड़ा - स्सं द्वि. वि., ए. व. - अबलस्संव सीघस्सो, हित्वा अबब' नपुं.. व्यु. अनिश्चित, एक बड़ी संख्या, एक-सौ हजार याति सुमेधसो, ध. प. 29; अबलस्संवाति कुण्ठपादं छिन्नजवं निन्नत की एक बड़ी संख्या-बं प्र. वि., ए. व. - अहहं दुब्बलस्सं सीघजवो सिन्धवाजानीयो विय, ध. प. अट्ठ. अबबं चेवाटटं सागेन्धिकुप्पलं, अभि. प. 475.
1.149. अबब. पु., एक नरक का नाम - बो प्र. वि., ए. व. - अबहि अ., क्रि. वि. [अबहिः], अन्दर, भीतर, मन में,
सेय्यथापि, भिक्खु, वीसति निरब्बुदा निरया एवमेको अबबो । आन्तरिक रूप में - अबहीति अब्भन्तरं चित्ते एवाति अत्थो, निरयो, सु. नि. (पृ.) 182; - बा ब. व. - सेय्यथापि भिक्खु नेत्ति. अट्ठ. 162; ... अन्तोगतेहि इन्द्रियहि अबहिगतेन वीसति अबबा निरया एवमेको अहहो निरयो, सु. नि. (प.) 182. मानसेन, अ. नि. 2(2).225; गुत्तिन्द्रियो झानरतो, अबल' पु., मूर्ख, बुद्धिहीन - लो प्र. वि., ए. व. - अबलबलो अबहिग्गतमानसो, वि. व. 840; ततो एव ... निब्बाने च वियाति अबलो किर बोन्दो वुच्चति, पारा. अट्ठ. 2.186. ओगाळ्हचित्तताय अबहिग्गतामानसो, वि. व. अट्ठ. 180. अबल त्रि., ब. स. [अबल], बलहीन, शक्तिहीन, कमजोर, अबहुकत त्रि., बहुकत का निषे॰ [अबहुकृत], बहुत अधिक दुर्बल - लो पु., प्र. वि., ए. व. - जिण्णोहमस्मि अबलो मतलब या प्रयोजन न रखने वाला, अधिक सम्मान न देने वीतवण्णो सु. नि. 1126; तत्थजिण्णोहमस्मि अबलो वीतवण्णोति वाला - तो पु., प्र. वि., ए. व. - पुब्बे अगारिकभूतो समानो सो किर बाह्मणो जराभिभूतो वीसवस्ससतिको जातिया, सु.. अबहुकतो अहोसि धम्मेन अबहकतो सङ्केन, स. नि. नि. अट्ठ. 2.295; - ला' स्त्री., नारी, स्त्री - पमदा सुन्दरी 3(1).110; दसमे अबहुकतोति अकतबहुमानो, स. नि. अट्ठ. कन्ता रमणी दयिताबला, अभि. प. 230; -- ला पु., प्र. वि., 3.186. ब. व. - सब्बे सत्ता ... सब्बे जीवा अवसा अबला अवीरिया अबहुमत/अबहुमान त्रि., तत्पु. स., ब. स. [अबहुमत], .... सुखदुक्खं पटिसंवेदेन्ति, दी. नि. 1.47; अवसा अबला उपेक्षित, बहुत अधिक नहीं चाहा गया - तो पु., प्र. वि., अवीरियाति तेसं अत्तनो वसो वा बलं वा वीरियं वा नत्थि, ए. व. - सो... पुत्तदारेन अबहुमतो पब्बजित्वा कालं ... दी. नि. अट्ठ. 1.134; अबला नं बलीयन्ति, मद्दन्तेनं परिस्सया, याचि, अ. नि. अट्ठ. 1.246. सु. नि. 776; - लानि नपुं.. प्र. वि., ब. व. - एकूनासीतिया अबहुलीकत त्रि., बहुल + कर के भू. क. कृ. बहुलीकत सत्त, सोळसेवाबलानि तु, अभि. अव. 125; - लं' पु., द्वि. का निषे. [अबहुलीकृत], वह, जिसने किसी बात को वि., ए. व. - अबलं तं बलं आहु यस्स बालबलं बलं. स. विकसित नहीं किया है या बढ़ाया नहीं हैं या उसका भरपूर नि. 1(1).256; 258; - लं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - तन्हि अभ्यास नहीं किया है - तो पु.. प्र. वि., ए. व. - कामेसु तस्सा अबलं बन्धन, दुब्बलं ... पुतिकं ..., असारकं । खो मे आदीनवो अदिट्ठो, सो च मे अबहुलीकतो, अ. नि. बन्धन न्ति, म. नि. 2.122; - सयात त्रि, तत्पु. स. 3(1).244; - ता स्त्री.. प्र. वि., ए. व. - यस्स कस्सचि [अबलसंख्यात], निर्बल या बलहीन के रूप में जाना गया कायगतासति अभाविता अबहुलीकता, म. नि. 3.138; - तं - ता पु.. प्र. वि., ब. व. - अबलसङ्घाता किलेसा बलीयन्ति नपुं, प्र. वि., ए. व. - अजं ... अभावितं अबहुलीकतं सहन्ति मद्दन्ति, सु. नि. अट्ठ. 2.208.
महतो अनत्थाय संवत्तति यथयिदं .... चित्तं, अ. नि. अबलबल त्रि., अट्ट के अनुसार अबल + अबल के आमेण्डित 1(1).7-8; -- कम्म नपुं. पूरी तरह से नहीं करना, विकसित न स. से व्युत्पन्न, अत्यधिक मूर्ख, नासमझ - लो पु., प्र. वि., करना, अनभ्यास- म्मप्र वि., ए. क. - ... अभावना, अबहुलीकम्म ए. व. - क्वायं अबलबलो विय मन्दमन्दो विय अनधिद्वानं अननुयोगो पमादो खु. पा. अट्ट, 115.
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अबाध
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अबाध त्रि०, ब. स. [अबाध], रुकावटरहित, बाधारहित, बन्धनरहित .. धं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अबाधं तु निराग्गलं, अभि. प. 717. अबालजातिक त्रि०, ब. स. [अबालजातीय], बचपने की प्रकृति से रहित, मूर्खता से रहित-का पु.. प्र. वि., ब. व. - ये ते कक्कटा अबालजातिका अलोलजातिका, स. नि. 3(1).226. अबाळ्ह त्रि., आ + Vबह का भू. क. कृ. [आबाढ़], अकोमल, कठोर, कर्कश, रूक्ष, बलवती - ळहं स्त्री., द्वि. वि., ए. व. - अबाळ्हं गिरं सो न भणि परुसं.दी. नि. 3.131; अबाळ्हं ... एत्थ अकारो परतो भणिसद्देन योजेतब्बो, दी. नि. अट्ट. 3.110; अवाळ्हन्ति वा एत्थ अकारो बुद्धिअत्थो असेक्खा धम्मा तिआदीसु विय, तस्मा अतिविय बाळ्हं परुसं गिरन्ति एवमेत्थ अत्थो वेदितब्बो, लीन. (दी.नि.टी.) 3.111. अबाहिर त्रि., बाहिर का निषे. [अबाह्य], नहीं बाहरी, वह जो बाहर की ओर उन्मुख न हो, बाहर के कर्मकाण्ड आदि से मुक्त - रं द्वि. वि., ए. व., क्रि. वि. - मया धम्मो अनन्तरं अबाहिरं करित्वा..... दी. नि. 2.78; अनन्तरं अबाहिरन्ति धम्मवसेन वा पुग्गलवसेन वा उभयं अकत्वा, दी. नि. अट्ठ. 2.123. अबीज त्रि०, ब. स. [अबीज], शा. अ. बीजरहित (कच्चा फल), ला. अ. उत्पादक या प्रजनन की शक्ति से रहित -जं नपुं., द्वि. वि., ए. व. - अबीजं निब्बत्तबीजं अकतकप्पं फलं परिभुञ्जितुन्ति, महाव. 291; अबीजन्ति तरुणफलं, यस्स बीजं न अडुरं जनेति, महाव. अट्ठ. 354; अग्गिपरिचितं. .... अबीज, निब्बत्तबीज व पञ्चमं चूळव. 226; - जे नपुं., सप्त. वि., ए. व. - अबीजे बीजसञी आपत्ति दुक्कटस्स, पाचि. 53; - सञी त्रि., [अबीजसंज्ञिन]. बीजरहित के रुप में जानने वाला - ञी पु., प्र. वि., ए.. व. - अबीजे अबीजसञ्जी, अनापत्ति, पाचि. 53. अबुज्झन नपुं.. Vबुज्झ से व्यु. क्रि. ना. बुज्झन का निषे. [अबोधन], अज्ञान - नेन तृ. वि., ए. व. - अननुबोधाति
अबुज्झनेन अजाननेन, दी. नि. अट्ठ. 2.119. अबुज्झि ।बुध का अद्य., प्र. पु., ए. व., जाना, साक्षात्कृत किया - यो झानमबुज्झि बुद्धो, पटिलीननिसभो मुनीति, अ. नि. 3(2).252; यो झानमबुज्झीति यो झानं अबुज्झि, अ. नि. अट्ठ. 3.281. अबुद्धवचन नपुं., बुद्धवचन का निषे. [अबुद्धवचन], बुद्ध द्वारा नहीं कहा गया वचन - नं प्र. वि., ए. व. -
अब्बहति/अब्बूहति अबुद्धवचनं नामेतं पदान्ति बीजनिं ... आरभि. म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).183; ... अबुद्धवचनं परियत्तिसद्धम्मप्पतिरूपक नाम, स. नि. अट्ठ. 2.177; - नि तदेव, ब. व. - वण्णपिटक .... वेदल्लपिटकानि पन अबुद्धवचनानियेवाति वृत्तं पाचि.
अट्ठ. 8. अबुद्धिक त्रि., ब. स. [अबुद्धिक], बिना बुद्धि वाला, बुद्धिहीन - को पु.. प्र. वि., ए. व. - किं पन, महाराज, ब्रह्मा सबुद्धिको अबुद्धिको ति, मि. प. 82. अबुद्धिमन्तु त्रि., बुद्धिमन्तु का निषे. [अबुद्धिमत्], उपरिवत् - मा पु., प्र. वि., ए. व. - नाकासिं सकलानुसासनिं, चिरपापाभिरतो, अबुद्धिमा, पे. व. 483. अबोध त्रि., ब. स. [अबोध], अज्ञानी, नासमझ, मूर्ख - धं पु., वि. वि., ए. व. -- भयं तमन्वेति सयं अबोध, नागं यथा पण्डरकं सुपण्णो , जा. अट्ठ. 5.72. अब्ब गति एवं हिंसा अर्थ वाली एक धातु - अब्ब सब्ब हिंसायञ्च गत्यापेक्खाय चकारो, अब्बति सब्बति, सद्द. 2.405. अब्बजे आ + Vवज का विधि., प्र. पु., ए. व. [आव्रजेत्], आव्रजन करे, किसी नई अवस्था या स्थल में आए या जाए - यक्खत्तं येन गच्छेय्यं, मनस्सत्तञ्च अब्बजे. अ. नि. 1(1).44; उदा. अठ्ठ. 142. अब्बण त्रि., ब. स. [अव्रण], व्रणरहित, घावों या जख्मों से रहित - णं पु.. द्वि. वि., ए. व. - नाबणं विसमन्वेति, नत्थि पापं अकुब्बतो, ध. प. 124; नाब्बणं विसमन्वेति अवणव्हि पाणिं विसं अन्वेतुं न सक्कोति, ध. प. अट्ठ. 2.17. अब्बत 1. त्रि., ब. स. [अव्रत]. शीलों एवं धुतङ्गों से रहित - तो पु., प्र. वि., ए. व. - न मुण्डकेन समणो, अब्बतो अलिक भणं, ध. प. 264; अब्बतोति सीलवतेन च धतङ्गवतेन च विरहितो, ध. प. अट्ठ. 2.225; 2. नपुं.. शीलों से रहित अवस्था, शीलहीनता, व्रतरहितता - ता प. वि., ए. व. - अदिहिया अस्सुतिया अञआणा, असीलता अब्बता नोपि तेन, सु. नि. 845; अब्बताति धुतङ्गवतं विना, सु. नि. अट्ठ. 2.237. अब्बहति/अब्बूहति अ(आ) + Vब्रह/ब्रूह का वर्त., प्र. पु.. ए. व. [आवृहति], बाहर की ओर खींचता है, निकालकर बाहर कर देता है - ह अनु., म. पु., ए. व. - ओमद्द खिप्प पलिघ, एसिकानि च अब्बह, जा. अट्ट, 2.78; एसिकानि च अब्बहाति नगरद्वारे सोळसरतनं अद्वरतनं भूमियं पवेसेत्वा ... एसिकत्थम्भा होन्ति, ते खिप्पं, उद्धर .... जा. अट्ठ. 2.783;
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अब्बाहन/अब्बूहण 448
अब्बुद - हेय्य विधि., प्र. पु., ए. व., निकाल बाहर करे - अब्बु नपुं.. उपद्रव, उथल-पुथल - अब्बु वुच्चति उपद्दवं, तं अप्पमादेन विज्जाय, अब्बहे सल्लमत्तनोति, सु. नि. 336; देतीति अब्बुदं, स. नि. टी. 1.123. अब्बहे सल्लमत्तनो ति तस्सत्थो- यस्मा एवमेसो सब्बदापि अब्बुद नपुं.. [अर्बुद], शा. अ. सूजन, नाना प्रकार की गांठ, पमादो रजो, तस्मा ... अप्पमादेन ... कुलपुत्तो उद्धरे ..., दस करोड़ की संख्या, ला. अ. 1. गर्भाधान के बाद वाले सु. नि. अट्ट, 2.66; अत्तनो सुखमेसानो, अबहे सल्लमत्तनो, दूसरे सप्ताह में विकसित भ्रूण की अवस्था का नाम - दा सु. नि. 597; अब्बहेति उद्धरे, सु. नि. अट्ठ. 2.165; तस्स प. वि., ए. व. -- अब्बुदा जायते पेसि, पेसि निब्बत्तती घनो, सो भिसक्को सल्लकत्तो सल्लं अब्बुहेय्य, म. नि. 3.3; - स. नि. 1(1).238; अब्बुदा जायते पेसीति तस्मापि अब्बूदा ही/हि अद्य., प्र. पु., ए. व., निकाल बाहर कर दिया - सत्ताहच्चयेन विलीनतिपुसदिसा पेसि नाम सजायति, स. अब्बही वत मे सल्लं. यमासि हदयस्सितं, जा. अट्ठ. 3.135%; नि. अट्ठ. 1.264; - दं प्र. वि., ए. व. - अब्बुदं नाम थेरीगा. 52; ... लद्धनाम सोक तण्हञ्च अब्बही वत नीहरि सम्पज्जतीति अत्थो, स. नि. टी. 1.269; कलला होति वत, थेरीगा. अट्ठ. 62; सुतवा अरियसावको अब्बहि सविसं अब्बुदं, अब्बुदा जायती पेसी ति च "हिमवता गङ्गा पभवन्ति सोकसल्लं, अ. नि. 2(1).51; -हिंसु ब. व., निकाल बाहर ..... उदा. अट्ठ. 33; - स्स ष. वि., ए. व. - किं नु खो, किए - तं दिस्वा असिग्गाहा थेरस्स सीसं पातेस्सामा ति महाराज, अजा एव कललस्स माता, अजा अब्बुदस्स कोसतो, असिं अब्बाहिंसु, पारा. अट्ठ. 1.41; अब्बाहिंसूति माता, मि. प. 39; ला. अ. 2. मल, अपयश, घोटाला, आकडिसु. सारत्थ. टी. 1.125; - बुह्य पू. का. कृ., बाहर काम, संकट - दं प्र. वि., ए. व. - सुदिन्नेन कलन्दपुत्तेन निकालकर - तमेव सल्लमब्बुरह, न धावति न सीदति, सु. अब्बुदं उप्पादितं, पारा. 19; ... उप्पज्जिस्सति न खो नि. 945; तमेव सल्लमब्बुरह, ... उद्धरित्वा ता च दिसा न अनागतेपि सासनस्स एवरूपं अब्बदन्ति ओलोकयमाना इम धावति, सु. नि. अट्ठ. 259; -- हित्वा/हित्वान पू. का. कृ. अहसंसु, पारा. अट्ठ. 1.27; अब्बुदन्ति उपद्दवं उपद्दवं वदन्ति - ... खग्गं अब्बाहित्वा पहरिस्सामि ... पतिठ्ठपेसि, जा. चोरकम्मम्पि भगवतो वचनं थेनेत्वा अत्तनो वचनस्स दीपनतो, अट्ठ. 3.396; सोहं खन्धे परिञाय, अब्बहित्वान जालिनि. सारत्थ. टी. 1.101-102; - दा पु., प्र. वि., ब. व. थेरगा. 162.
(लिङ्गविपर्यय)-- कोधो सत्थमलं लोके, चोरा लोकरिममब्बुदा, अब्बाहन/अब्बूहण नपुं., अ(आ) + Vब्रह/ Vब्रूह से व्यु., स. नि. 1(1).51; अब्बुदन्ति विनासकारणं, चोरा लोकस्मि क्रि. ना. [आबर्हण], निकाल बाहर करना, उच्छेदन, विनासकाति अत्थो, स. नि. अट्ट, 1.90; 3. एक बहुत बड़ी निर्मूलीकरण- णं प्र. वि., ए. व. - अज्ञाय सल्लकन्तनन्ति संख्या, एक सौ हजार निन्नतों वाली संख्या - रागसल्लादीनं कन्तनं निम्मथनं अब्बूहणं एतं मग्ग, ध, प. अक्खोहिणी स्थिय बिन्दु अब्बुदं च निरखुदं, अभि. प. 475; अट्ठ. 2.232; महतो तण्हासल्लस्स अब्बहनं, महानि. 252; सतं सतसहस्सनिन्नहुतानि एक अब्बुद, सु. नि. अट्ठ. - हेतु अ., बाहर निकाले जाने के कारण से - सो 2.178-179; - दानि प्र. वि., ब. व. - सतं सहस्सान सल्लस्सपि अब्बुहनहेतु दुक्खा तिब्बा कटुका वेदना वेदियेय्य, निरब्बुदानं, छत्तिसति पञ्च च अब्बुदानि, सु. नि. 665; म. नि. 3.3-4.
4. पु.. एक ऐसे नरक का नाम, जहाँ पर पापी प्राणी एक अब्बाहेति/अब्बाहयति अ(आ) + Vब्रह/Vब्रूह के प्रेर. का। अर्बुद वर्षों तक रहते हैं - दो प्र. वि., ए. व. - नत्वेव एको वर्त, प्र. पु., ए. व., खींच कर बाहर निकालता है, निकाल अब्बुदो निरयो, सु. नि. (पृ.) 182; ... अब्बुदो नाम कोचि बाहर करवाता है - न्ति प्र. पु., ब. व. - वेस्सपथेस पच्चेकनिरयो नत्थि, अवीचिम्हियेव अब्बुदगणनाय पच्चनोकासो तिद्वन्ति, सत्थं अब्बाहयन्तिपि, जा. अट्ठ. 4.327; सत्थं पन अब्बुदो निरयोति वुत्तो, सु. नि. अट्ट. 2.178; - दा प्र. अब्बाहयन्तीति सत्थवाहानं हत्थतो सतम्पि सहस्सम्पि गहेत्वा वि., ब. व. - वीसति अब्बुदा निरया एवमेको निरब्बुदो सत्थे चोराटविं अतिबाहेन्ति, जा. अट्ट, 4.329; -- सि अद्य., निरयो, सु. नि. (पृ.) 182; -- गणना स्त्री., तत्पु. स., एक प्र. पु., ए. व., बाहर निकाला - अथरस सीसं छिन्दिस्सामीति अर्बुद वर्षों की गणना - नाय तृ. वि., ए. व. - अवीचिम्हियेव असिगाहो असिं अब्बाहेसि, जा. अट्ठ. 2.264; - हित्वा पू. अब्बुदगणनाय पच्चनोकासो पन अब्ब्दो निरयो ति वृत्तो, सु. का. कृ., बाहर निकालकर - किच्चपरियोसाने चोरजेट्ठको नि. अट्ट. 2.178; - जात त्रि., मलिन बना दिया गया, असिं अब्बाहित्वा सामणेरं उपसङ्कमि, ध, प. अट्ठ. 1.383. अशुद्ध हो चुका - तो पु., प्र. वि., ए. व. - इदानि
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अब्बुळ्ह/अब्बूळ्ह
449
अब्बोहार भिक्खुसङ्घो अब्बुदजातो, अपरिसुद्धा पुग्गला उपोसथं स. नि. अट्ठ. 2.72; - ण्णा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - पञ्जा आगच्छन्ति, उदा. अट्ठ. 243.
किच्चकारी होति होति अचला असिथिला अब्बोकिण्णा अब्बुळ्ह / अब्बूळ्ह त्रि., अ(आ) + Vब्रह/ Vब्रूह का भू. क. अहिरिकेन, सु. नि. अट्ठ. 1.116; - ण्णानि नपुं.. प्र. वि., कृ., वह, जिसे बाहर खींचकर निकाला गया है, निराकृत, ब. व. - भिक्खुनो पञ्च जातिसतानि अब्बोकिण्णानि हटाया हुआ, अपनीत - ळ्हं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - ... ब्राह्मणकुले पच्चाजातानि, उदा. 100; अब्बोकिण्णानीति विचिकिच्छाकथंकथासल्लं, तञ्च भगवता अब्बुळ्हन्ति, दी. खत्तियादिजातिअन्तरेहि अवोमिस्सानि अनन्तरितानि, उदा. नि. 2.209; अब्बूळ्हं अघगतं विजितं, एकञ्चे ओस्सजेय्य अट्ठ. 156; - ण्णो पु.. प्र. वि., ए. व. - ... सुखो च कलीव सिया, थेरगा. 321; - ळ्हे नपुं., सप्त. वि., ए. व. विहारोति एत्थ पन नास्स सेचनन्ति असेचनको अनासित्तको - एतस्मिम्हि अब्बूळ्हे सल्ले अब्बूळ्हसल्लो ... निट्ठापेसि. अब्बोकिण्णो पाटेक्को .... पारा. अट्ठ. 2.9; 2. अ., क्रि. वि., सु. नि. अट्ठ. 2.165; - त्त नपुं., भाव., बाहर निकाल दिया निरन्तर रूप में, लगातार रूप में, सतत रूप में - जाना, हटा दिया जाना - त्ता प. वि., ए. व. - ... अनिच्चसंवेदी सततं समितं अब्बोकिण्णं चेतसा अधिमुच्चमानो अब्बूळ्हत्ता अब्बूळ्हसल्लो सतिवेपुल्लप्पत्तिया अप्पमत्तो चरं, पाय परियोगाहमानो, अ. नि. 2(2).164; अब्बोकिण्णन्ति सु. नि. अट्ठ. 2.213; - सल्ल त्रि., ब. स. [आवृढशल्य], निरन्तरं अञ्जन चेतसा असंमिस्सं अ. नि. अट्ठ. 3.151. वह, जिसके अन्दर से चुभने वाला कांटा या अकुशल अब्बोच्छिन्न/अब्मोच्छिन्न 1. त्रि., वि + अव + छिद के मनोभाव बाहर निकाल दिया गया है - ल्लो पु., प्र. वि., भू. क. कृ. बोच्छिन्न का निषे. [अव्यवच्छिन्न], बीच में ए. व. - अब्बुळ्हसल्लो असितो, सन्तिं पप्पुय्य चेतसो, सु. किसी भी व्यवधान से रहित, सतत-रूप में प्रवर्तित - न्नं नि. 598; एतस्मिहि अब्बूळ्हे सल्ले अब्बूळ्हसल्लो ... नपुं.. प्र. वि., ए. व. - पुरिसस्स च विआणसोतं पजानाति, निद्वापेसि, सु. नि. अट्ठ. 2.165; सोहं अब्बूळ्हसल्लोस्मि, उभयतो अब्बोच्छिन्नं इध लोके अप्पतिद्वितञ्च परलोके वीतसोको अनाविलो, जा. अट्ठ. 3.136; -- सोकसल्ल त्रि, अप्पतिद्वितञ्च, दी. नि. 3.78; दरसनं अविजहित्वा गमनं ब. स. [आवृढशोकशल्य], वह, जिसका शोकरूपी चुभने अब्बोच्छिन्नं कत्वा पच्छतो पच्छतो इरियापथानुबन्धनेन वाला कांटा बाहर निकाल दिया गया है - ल्लं पु., द्वि. वि., अनुबन्धि, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.94; - न्नो पु., प्र. वि., ए. व. - असोकन्ति निस्सोकं अब्बूळ्हसोकसल्लं, खु. पा. ए. व. - अज्जापि तु अब्बोच्छिन्नो, पुब्बाचरियनिच्छयो, खु. अट्ठ. 123.
पा. अट्ठ. 2; - न्नाय स्त्री., तृ. वि., ए. व. - अब्बोच्छिन्नाय अबूळ्हेसिक त्रि., ब. स. [आवृढेसीक], वह, जिसका सन्ततिया न सक्का तानि कम्मानि दस्सेतुं .... मि. प. इच्छारूपी स्तम्भ या खम्भा नष्ट कर दिया गया है, वह, 78; 2. नपुं.. क्रि. वि., निरन्तर रूप में, अबाधित रूप में - जिसके मन में गहराई तक प्रविष्ट तृष्णा-रूपी वाण को अब्बोच्छिन्नं वत्तमाना, संसारोति पवुच्चती ति, सु. नि. अट्ठ. खींचकर बाहर निकाल दिया गया है - को पु., प्र. वि., ए. 2.136; - निरन्तरविरिय नपु., कर्म. स. व. - कथञ्च, भिक्खवे, भिक्खु अब्बूळ्हेसिको होति?, म.. [अव्यवच्छिन्ननिरन्तरवीर्य], बिना रुकावट वाला वीर्य, नि. 1.194; तण्हाति वट्टमूलिका तण्हा अयहि गम्भीरानुगतढेन लगातार सक्रिय वीर्य या पौरुष, अप्रतिहत पौरुष - येन त. एसिकाति वुच्चति-तेनेस तस्सा अब्बूळ्हत्ता लुञ्चित्वा छड्डितत्ता वि., ए. व. - धितिया दळहाय चाति दळ्हाय धितिया च, अब्बूळ्हेसिकोति वुत्तो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).21. थिरेन अब्बोच्छिन्ननिरन्तरवीरियेन चाति अत्थो, जा. अट्ट, 1. अब्बेति/अब्बति ।अब्ब का वर्त., प्र. पु., ए. व., उपभोग 449; अब्बोच्छिन्नवीरियेन धितिमा, भूरिसमाय विपुलाय पाय करता है, अनुभव करता है - न्ति ब. व. - गन्धं अब्बन्ति मतिमा, जा. अट्ठ. 7.180. परिभुञ्जन्तीति गन्धब्बा, लीन. (दी.नि.टी.) 2.85. अब्बोहार त्रि., ब. स. [अव्यवहार], व्यवहार में किसी भी अब्बोकिण्ण 1. त्रि., वोकिण्ण का निषे. [अव्यवकीर्ण], नहीं __ काम में न आने वाला, निरर्थक, अनुपयोगी - रो पु., प्र. छितराया हुआ, चारों ओर नहीं बिखरा हुआ, व्यवधान-रहित, वि., ए. व. - अब्बोहारोव सो अन्तो, पूवादीसुपि कण्णक बाधामुक्त, अमिश्रित, लगातार चलने वाला - ण्णं नपुं. प्र. विन. वि. 1019; कमल्लिकासु दिन्नासु अब्बाहारोति वट्टति, वि., ए. व. - इध, पुण्ण, एकच्चो कुक्कुरवतं भावेति विन. वि. 1521; - नय पु., [अव्यवहारनय], व्यावहारिक परिपुण्णं अब्बोकिण्णं म. नि. 2.57; अब्बोकिण्णन्ति निरन्तरं तौर पर अनुपयोगी या निरर्थक पद्धति - यो प्र. वि., ए.
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अब्बोहारिक/अब्बोहारिय 450
अब्म व. - तथा पत्तस्स वण्णो वा, अब्बोहारनयो अयं विन. वि. अब्भ अन्तलिक्खं अघं नभं सद्द. 2.442; अब्भं रजो अच्छादेसि. 1452.
उय्यत्ता सिविवाहिनी, जा. अट्ट, 7.364: 2क. बादल. मेघ अब्बोहारिक/अब्बोहारिय त्रि., बोहारिक/ बोहारिय का - ब्मो प्र. वि., ए. व. - एत्थ अभो ति मेघो, सो हि अभति निषे. [अव्यवहार्य], व्यवहार में नहीं लाने योग्य, व्यावहारिक अनेकसतपटलो हुत्वा गच्छतीति अब्भो ति वुच्चति, सद्द. तौर पर अनुपयोगी, - कं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - तञ्च खो 2.407; अब्भुट्टितोव सो याति, स गच्छं न निवत्तति, जा. एतं अब्बोहारिकन्ति, पारा. 111; ... अब्बोहारिकन्ति ... अट्ठ. 4.446; - ब्मा ब. क. - आकासेपि अब्मा सुबहुला आपत्तिपञापने वोहारं न गच्छति, आपत्तिया अङ्गन होतीति होन्ति, मि. प. 255; 2. ख. स्त्री., धुआं, धूल - यं रूपं अत्थो, पारा. अट्ठ. 2.72; - का स्त्री., प्र. वि., ए. व. - .... अमा महिका धूमो रजो, ध. स. 617; 2.ग. नपुं.. राहु, अत्थेसा, भिक्खवे, चेतना, सा च खो अब्बोहारिकाति, पारा. चन्द्र एवं सूर्य को ग्रसने वाला धूमरज - अब्मं भिक्खवे 149; अब्बोहारिका ति... आपत्तिया अङ्गन होति, पारा. अट्ठ. चन्दिमसुरियानं उपक्किलेसो, चूळव. 464; अब्भ, महाराज, 2.96; - का तदेव, ब. स. - तेहि पन चित्तेहि सहजाता सूरियरस रोगो, मि. प. 254; - रमा प. वि., ए. व. - अब्भा अभिज्झाब्यापादमिच्छादिट्ठियो चेतनापक्खिका वा भवन्ति मुत्तोव चन्दिमा, म. नि. 2.314; - क नपुं.. अभ्रक, अबरक अब्बोहारिका वा, ध. स. अट्ठ. 136; - कानि नपुं., प्र. वि., - कं प्र. वि., ए. व. - रीरित्थी आरकुटो वा, अमलं त्वम्भक ब. व. - यथा पन जिव्हग्गे छ मधुबिन्दूनि सत्तमस्स भवे, अभि. प. 492; तुल. - गवलं माहिषं श्रृङ्गम्, अभ्रक तम्बलोहबिन्दुनो अनुदहनबलवताय अब्बोहारिकानि होन्ति, गिरिजामले, स्रोतोञ्जनं तु सौवीरं कापोताञ्जनयामुने, अमर. जा. अट्ठ. 5.264; - का पु.. प्र. वि., ब. व. - सन्ताय 2.9.100; - कूट पु./नपुं., [अभ्रकूट], बादल का ऊपरी समापत्तिया बुद्वितस्स भिक्खुनो अस्सासपस्सासा अब्बोहारिका भाग, मेघशिखर - टं द्वि. वि., ए. व. - अलङ्कते मल्यधरे होन्ति, म. नि. अट्ठ (मू.प.) 1(2).260; - द्वान नपुं.. कर्म सुवत्थे, ओभाससि विज्जुरिवभकूट वि. व. 1; -टा पु., प्र. स. [अव्यावहारिकस्थान], व्यवहार या प्रयोग के लिये वि., ब. व. - उग्गता अब्भकूटाव, नीला अञ्जनपब्बता, जा. अनुपयुक्त स्थान - ने सप्त. वि., ए. व. - अस्थि दुक्खवेदनाय अट्ठ. 7.292; - कूटसम त्रि., [अभ्रकूटसम], मेघों के पन बलवभावेन सा अब्बोहारिकट्ठाने ठिता, अ. नि. अट्ठ. शिखर या शीर्ष जैसा - मा पु.. प्र. वि., ब. व. - 2.92; - ता स्त्री., भाव. [अव्यावहारिकता], व्यवहार में न अब्भकूटसमा उच्चा, कण्टकनिचिता दुमा, जा. अट्ठ. आने योग्य होना - तं द्वि. वि., ए. व. - पुष्फितं तु 7.138; - पटल नपुं.. तत्पु. स. [अभ्रपटल], बादलों की अहिच्छत्तं, अब्बोहारिकतं गतं, विन. वि. 1021; -- त्त नपुं.. पतली चादर - लं प्र. वि., ए. व. - सकदागामिनो हि भाव. [अव्यवहारिकत्व]. उपरिवत् - त्ता प. वि., ए. व. - रागादयो अब्भपटलं विय मच्छिकापत्तं विय न तनुका होन्ति, व्याधिपच्चया पुप्फ वा फलं उपसिङ्घति, अब्बोहारिकत्ता वट्टति, न बहला, अ. नि. अट्ठ. 2.209; मन्दमन्दा उप्पज्जन्ति पाचि. अट्ठ. 107; - नय पु., कर्म, स. [अव्यावहारिकनय], तनुकाकारा हुत्वा अब्भपटलमिव मक्खिकापत्तमिव च, म. व्यवहार के लिये अनुपयुक्त पद्धति - यो प्र. वि., ए. व. - नि. अट्ट (मू.प.) 1(1).172; - सञ्चरणहेतु पु.. तत्पु. स. इदानि अब्बोहारिकनयो वुच्चति - भुञ्जन्तानहि दन्ता [अभ्रपटलसञ्चरणहेतु], बादलों की हल्की चादर के खिय्यन्ति, पाचि. अट्ठ. 102; - पक्ख पु., कर्म. स. इधर-उधर सञ्चरण का कारण - तवो प्र. वि., ब. [अव्यावहारिकपक्ष), व्यवहार में न लाने योग्य श्रेणी या वर्ग व. - तथा केवलं अब्भपटलसञ्चरणहेतवो अब्भवलाहका - क्खं द्वि. वि., ए. व. - सचे सखमं आमिसं होति, रसो लीन. (दी.नि.टी.) 2.224; - मण्डप पु., तत्पु. स. न पआयति, अब्बोहारिकपक्खं भजति, पाचि. अट्ठ. 107; - [अभ्रमण्डप), बादलों का मण्डप, मेघों का झुण्ड, बादलों भाव पु.. कर्म. स. [अव्यावहारिकभाव], व्यवहार में नहीं का मण्डप जैसा दिखने वाला फैलाव - पो प्र. वि., ए. व. आने योग्य अवस्था - वं वि. वि., ए. व. - इति भगवा - अभं होतीति अब्भमण्डपो होति, स. नि. अट्ठ. 2.315; सुपिनन्ते चेतनाय अब्बोहारिकभावं दस्सेत्वा, एवञ्च पन अब्भमण्डपोति मण्डपसदिसअब्भपटलवितानमाह, स. नि. भिक्खवे इमं सिक्खापदं उद्दिसेय्याथ, पारा. अट्ठ. 2.96. टी. 2.252; - पं द्वि. वि., ए. व. - अब्भमण्डपं कत्वा देवो अब्म नपुं.. [अभ्र], 1. आकाश, गगन, नभ - अन्तलिक्खं एकमेकं फुसायतूति ..., स. नि. अट्ठ. 3.131; अब्भमण्डप खमादिच्चपथोब्भं गगनाम्बरं, अभि. प. 45; आकासो अम्बरं कत्वाति समन्ततो छादनवसेन मण्डपं विय मेघपटलं
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अब्भक्खाति/अब्भाचिक्खति
451
अब्भञ्जन
उप्पादेत्वा, स. नि. टी. 3.85; - माली त्रि., [अभ्रमाली]. बादलों की माला को धारण कर रहा, बादलों से घिरा हुआ ... मालिं पु.. द्वि. वि., ए. व. - मिगो यथा सेरि सुचित्तकानने, रम्म गिरि पावुस अब्भमालिनि, थेरगा. 1147; - मुत्त त्रि., तत्पु. स. [अभ्रमुक्त], मेघरहित, बिना बादलों वाला, स्वच्छ - त्तं पु., द्वि. वि., ए. व. - सूरियं तपन्तं सरदरिवब्भमुत्तं, आनन्दजातो विपुलमलत्थ पीति, सु. नि. 692; - लाहक पु., केवल ब. व. में प्रयुक्त, अन्तरिक्ष के देवों का वर्ग, जो मेघपटल पर सञ्चरण करते हैं - का प्र. वि., ब. व. - सीतवलाहका देवा, सन्ति उण्हवलाहका देवा, सन्ति अब्भवलाहका देवा, सन्ति वातवलाहका देवा, सन्ति वस्सवलाहका देवा, स. नि. 2(1).251; आगुं मन्दवलाहकाति ..., अभवलाहका, ... एते सब्बेपि वलाहकायिका मन्दवलाहका नाम वुच्चन्ति, दी. नि. अट्ठ. 2.254; तथा केवलं अब्भपटलसञ्चरणहेतवो अब्भवलाहका, लीन. (दी.नि.टी.) 2.224; - कानं ष. वि., ब. व. - अब्भवलाहकानं देवानं. ..., स. नि. 2(1).252; - सम त्रि., तत्पु. स. [अभ्रसम], बादलों या आकाश जितना ऊँचा - मं पु., वि. वि., ए. व. - तत्थद्दसं महन्तं पब्बतं अब्भसमं सब्बे पाणे निप्पोन्तो आगच्छति, स. नि. 1(1).119; अब्भसमन्ति आकाससम, स. नि. अट्ट, 1.147; - सम्पिलाप पु.. तत्पु. स. [अभ्रसंप्लव, बादलों की बाढ़, बादलों का झुण्ड, मेघमण्डप, बादलों की झड़ी - पो प्र. वि., ए. व. - अब्भसम्पिलापो च अस्स, देवो च एकमेकं फुसायेय्या ति, स. नि. 2(2).281. अब्मक्खाति/अब्माचिक्खति अभि + आ + Vख्या का वर्त.. प्र. पु., ए. व. [अभ्याचिक्षति]. चुगली करता है, झूठा । आरोप लगाता है - अब्भक्खाति अभूतेन, अलिकेनाभिसारयं, जा. अट्ठ. 6.206; - न्ति वर्तः, प्र. पु., ब. व. - एवं अञमज अभूतेन अब्भाचिक्खन्ति, अलिकेन सारेन्ति चोदेन्ति, जा. अट्ट, 6.206; -चिक्खि अद्य., प्र. पू. ए. व. - अब्भाचिक्खि
अभूतेन, जनकायस्स अग्गतो, उदा. अट्ठ. 214. अमक्खान नपुं. [अभ्याख्यान, झूठा आरोप, मिथ्या दोषारोपण - राजतो वा उपसग्गं, अब्भक्खानञ्च दारुणं, ध. प. 139; अभखानं मया लद्धं, सुन्दरिकाय कारणा, अप. 1.328; अब्भक्खानन्ति अदिट्ठअसुतअचिन्तितपुबंइदं सन्धिच्छेदादिकम्म, इदं वा राजापराधितकम्म तया कतन्ति एवरूपं दारुणं अब्मक्खानं वा, ध. प. अट्ठ. 2.40. अमघन पु., कर्म. स. [अभ्रघन, त्रि.], घना बादल - नं वि. वि., ए. व. - वातो यथा अभघनं विहानं, सु. नि. 350; -
ना प. वि., ए. व. - चन्दो अभघना मुत्तो, परिसासु विरोचरे'ति, इतिवु. 48; अब्भघनाति अब्भसङ्खाता घना, घनमेघपटला वा .... इतिवु. अट्ठ. 208; चन्दोवभघना मुत्तो, विचरामि अहं सदा, अप. 1.366; - ना प्र. वि., ब. व. - तिदिवोकचराव अच्छरा, विज्जवब्मघना विनिस्सटा,
जा. अट्ठ. 7.161. अब्मङ्ग पु., [अभ्यङ्ग], शरीर पर तेल की मालिश, लेप, उबटन - ङ्गं द्वि. वि., ए. व. - अयं यस्मा वेळुपेसिका विय अब्भङ्ग परस्स गुणं निप्पेसेति निपुञ्छति, विभ. अट्ठ. 457; अब्भङ्गन्ति अब्भञ्जनं विसुद्धि. महाटी. 1.51. अब्मच्चनारह त्रि., [अभ्यर्चनाह], पूजा करने योग्य, सम्मान देने योग्य, पूज्य - हं नपुं., द्वि. वि., ए. व. - महाविहारे तस्सेव निच्च अभच्चनारह, देहनिक्खेपट्टानं च ओलोकेन्तो पुनप्पुन, चू. वं. 88.54. अब्मछादित त्रि., तत्पु. स. [अभ्राच्छादित], मेघों से ढका हुआ, अत्यधिक बादलों वाला - ता पु., प्र. वि., ब. व. - उमापुप्फेन समाना, गगनावमछादिता, थेरगा. 1071; गगनावब्भ छादिताति ततो एव सरदस्स गगनअब्मा विय काळमेघसञ्छादिता, नीलवण्णाति अत्थो, थेरगा. अट्ठ. 2.384. अब्मञ्जति अभि + अञ्ज का वर्त., प्र. पु., ए. व. [अभ्यनक्ति], तेल की मालिश लगाता है, लेप लगाता है, आंखों में काजल लगाता है, उबटन मलता है - जेय्य विधि., प्र. पु.. ए. व., काजल लगा दे - सेय्यथा वा पन अक्खं अब्भजेय्य यावदेव भारस्स नित्थरणत्थाय, स. नि. 2(2).180; - जित अद्य., प्र. पु., ए. व., मालिश कर दी - सिरिमं ओवदित्वा उण्होदकेन न्हापेत्वा सतपाकतेलेन अब्भञ्जि, ध. प. अट्ठ. 2.181; - जिंसु ब. व., मालिश की - तत्थ निसिन्नानं गन्धोदकेन पादे धोवित्वा सतपाकेन तेलेन अब्भजिंसु, जा. अट्ठ. 5.373; - जित्वा पू. का. कृ., मालिश करा के-तेलेन गत्तानि अभजित्वा किलिट्ठवत्थं निवासेत्वा गिलानालयं कत्वा दासियो आणापेसि .... जा.
अट्ट. 1.420. अमञ्जन नपुं., अभि + अञ्ज से व्यु., क्रि. ना. [अभ्यञ्जन]. चिकने पदार्थों को शरीर पर मलना, मालिश करना, आंखों में काजल डालना, उबटन, लेप - नं प्र. वि., ए. व. -- अभञ्जनं मया दिन्नं, द्विपदिन्दस्स तादिनो, अप. 1.250; अनुजानामि, भिक्खवे, अभञ्जनं अधिट्ठातुन्ति, महाव. 281.
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अब्भञ्जनदायक
452
अब्मनुमोदति
अब्मञ्जनदायक पु., दो स्थविरों के लिये प्रयुक्त उपाधि या व. - नामतीतहरो सोको, नानागतसुखावहो, ... तत्थ उपनाम -- को प्र. वि., ए. व. - इत्थं सुदं आयस्मा नामतीतहरोति नाब्भतीताहारो, अयमेव वा पाठो, सोको नाम अब्भञ्जनदायको थेरो इमा गाथायो अभासित्थाति, अप. अब्मतीतं अतिक्कन्तं निरुद्धं अत्थङ्गतं पुन नाहरति, जा. 1.250; इत्थं सुदं आयस्मा अब्भजनदायको थेरो इमा __ अट्ठ. 3.145. गाथायो अभासित्थाति, अब्भञ्जनदायकत्थेरस्सापदानं चतुत्थं अब्मत्त त्रि., अभि + अञ्ज का भू. क. कृ. [अभ्यक्त], वह, अप. 2.102.
जिसका उबटन किया गया है या जिसके शरीर पर तेल अब्मजापेत्वा अभि + अञ्ज के पू. का. कृ. का प्रेर.. की मालिश की गयी है - त्तो पु., प्र. वि., ए. व. - उबटन लगवा कर, तेल की मालिश कराकर - परिसद्धसरीरं कुच्छिसञमनब्भन्तोति कुच्छिसंयमसङ्घातेन मितभोजनमयेन सहस्सपाकतेलेन अब्भजापेत्वा सयनपिढे एळकचम्म । तेलेन अब्भन्तो, जा. अट्ठ. 7.143. सन्थरापेत्वा .... जा. अट्ठ. 3.329.
अब्भत्थं अ., क्रि. वि., केवल 'गच्छति के साथ ही प्रयुक्त अब्मति अब्भ (गत्यर्थक) का वर्त., प्र. पु., ए. व. [अभ्रति]. [अभ्यस्त], शा. अ. घर की ओर जाता है, ला. अ. अस्त जाता है, इधर-उधर घूमता है - अब्मति, अब्भो, वभति, हो जाता है, डूब जाता है, क्षीण हो जाता है, अदृश्य हो मभति, ... सो हि अमति अनेकसतपटलो हत्वा गच्छती ति जाता है - भिक्खवे, पटिसञ्चिक्खतो अब्भत्थं गच्छति, म. अब्भो ति वुच्चति, सद्द. 2.407.
नि. 1.163; अब्भत्थं गच्छतीति खयं नत्थिभावं गच्छति, म. अब्मतिक त्रि., [अभ्यतिक/अभ्यधिक], अधिक श्रेष्ठ, ऊंची। नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).395; एवं अकुसलापिधम्मा एकलक्खत्ता श्रेणी या पद वाला, अधिक सम्मानित - को पु., प्र. वि., पहानं अब्भत्थं गच्छन्ति, नेत्ति. 28; - गत त्रि., अस्त हो ए. व. - समानसा होथ मयाव सब्बे, कोनीध हो अमतिको चुका, समाप्त हो चुका, डूब चुका, क्षीण हो चुका, शान्त हो मनुस्सो, जा. अट्ठ. 7.185; इध राजकुले तुम्हेहि अओ को नु। चुका - तो पु., प्र. वि., ए. व. - सन्तो निरुद्धो अत्थंगतो रुओ अब्भतिको मनुस्सो ति अत्तनो आसने निसीदापेय्य, तदे.. अब्भत्थंगतो ति आदीनि पयोगानि, सद्द. 1.178; निरुद्ध अब्मतिक्कन्त त्रि., अभि + अति + कम का भू. क. कृ. निरोधेति, विगतं विगमेति, खीणं खेपेति, अत्थङ्गतं अत्थङ्गमति, [अभ्यतिक्रान्त, बहुत पहले ही इस लोक को पार कर अब्भत्थङ्गतं अब्भत्थङ्गमेतीति?, कथा. 464; इमम्हि लोके चुका, विदा हो चुका, मृत - ता पु., प्र. वि., ब. व. - ये विनीता होन्ति पटिविनीता सत्ता समिता खूपसत्ता अत्थङ्गता वुद्धा अब्भतिक्कन्ता, सम्पत्ता कालपरियायं, जा. अट्ठ.. अभत्थङ्गता अप्पिता ब्यप्पिता सोसिता विसोसिता ब्यन्तीकता, 5.372; अब्भतिक्कन्ताति इमं मनुस्सलोकं अतिक्कन्ता, तदे.. विभ. 219; ध. स. अट्ठ. 214. अब्मतीत त्रि., अभि + अति + Vइ का भू. क. कृ. [अभ्यतीत]. अब्मत्थता स्त्री., अभत्थ का भाव [अभ्यस्तता], अदृश्यता, क. कर्म. वा., वह, जिसका उल्लंघन किया गया है या विलुप्तता, मृत्यु - तं द्वि. वि., ए. व. - अभुत्तपरिभोगेन, अतिक्रमण किया गया है - तो पु., प्र. वि., ए. व. - बद्धा सब्बे अब्भत्थतं गता, ... अब्भत्थतं गताति सब्बे मरणमेव कुलीका मितमाळकेन, अक्खा जिता संयमो अब्मतीतो, जा. पत्ता, जा. अट्ठ. 5.466. अट्ठ. 3.477; अब्मतीतो जीवितवृत्तिं निस्साय पब्बजन्तेनेव अब्मनुजानाति अभि + अनु + Vञा का वर्त., प्र. पु., ए. व. सीलसंयमो अतिक्कन्तो, तदे; ख. नपुं., वह, जिसे पार [अभ्यनुजानाति], किसी के बारे में सहमत होता है, किसी किया जा चुका है - अदि8 अब्मतीतं, बहुकेहि कप्पनहुतेहि के साथ सहमति रखता है, बात को स्वीकार करता है - अप. 1.22; ग. अकर्मक, बीत चुका - ता पु., प्र. वि., ब. किं पनायस्मा सारिपुत्तो एकच्चं अब्भनुजानाति, एकच्चं न व. -- बहुका खो, भिक्खवे, कप्पा अब्मतीता अतिक्कन्ता, स. अब्भनुजानातीति, दी. नि. 3.84-85; किं पन, बाह्मण सब्बो नि. 1(2).165; अब्भतीता च ये बुद्धा, वत्तमाना अनागता, लोको बाह्मणानं एतदभनुजानाति-इमा चतस्सो पारिचरिया अप. 1.280; - सहाय त्रि., ब. स. [अभ्यतीतसहाय], वह, पञपेन्तूति, म. नि. 2.395; किं पनानन्द, पूरणस्स कस्सपस्स जिसके साथी-सङ्गी इस लोक से जा चुके हैं - यस्स पु., सब्बो लोको एतदब्भनुजानाति इमा छळभिजातियो ष. वि., ए. व. - अब्भतीतसहायरस, अतीतगतसत्थुनो, पञआपेतु न्ति, अ. नि. 2(2).93. थेरगा. 1038; - हर त्रि.. [अभ्यतीतहर], बीते हुए समय अब्मनुमोदति अभि + अनु + vमुद का वर्त, प्र. पु., ए. व. को खींचकर सामने ले आने वाला - रो पु., प्र. वि., ए. [अभ्यनुमोदति], अनुमोदन करता है, धन्यवाद देते हुए
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अब्मनुमोदन
453
अब्मन्तर हर्षपूर्वक किसी की बात को स्वीकार करता है, 'साधु, 771; गब्भसेय्यकानं मातुकुच्छितो निक्खमनकाले पठम साधु' कहते हुए समर्थन करता है, प्रशंसा करता है - कस्मा अब्भन्तरवातो बहि निक्खमति, सद्द. 2.399; ला. अ. 1. पन भवं कूटदन्तो समणस्स गोतमस्स सुभासितं सुभासिततो भीतर स्थित हृदय, मन या चित्त - अब्भन्तरं ते गहनं, बाहिर नाभनुमोदतीति? दी. नि. 1.127; यस्स विझू सब्रह्मचारी परिमज्जसि, ध. प. 394; अब्भन्तरन्ति अब्भन्तरहि ते सत्थु सम्मुखा अनुमस्स अनुमस्स वण्णं भासन्ति, तञ्च सत्थ रागादिकिलेसगहनं, ध, प. अट्ट. 2.373; - रे सप्त. वि., ए. अब्भनुमोदति, म. नि. 1.201; - सि म. पु., ए. व. - किं व. - अब्भन्तरे पीति उप्पज्जि , जा. अट्ट, 6.12; 2. 28 ला. पन त्वं सम्म अभय, आयस्मतो आनन्दस्स सुभासितं अ. 2. हाथों की बराबरी वाली माप की इकाई - सत्तभन्तराति सुभासिततो नाभनुमोदसी ति? अ. नि. 1(1).252; - देन्तो एत्थ एक अब्भन्तरं अट्ठवीसति हत्थं होति, पारा. अट्ठ. 2. पु., वर्त. कृ.. प्र. वि., ए. व., अनुमोदन करते हुए - अथरस 213; परसतो अब्भन्तरं न विजहितब्ब, पारा. 310; अब्भन्तरं भगवा सरभञपरियोसाने अब्भनुमोदेन्तो- साधु साधु भिक्खूति तु हत्थानट्ठवीसप्पमाणतो, अभि. प. 197; अरुओ समन्ता साधुकारं अदासि,ध. प. अट्ठ. 2.340; - मानो उपरिवत् - सत्तभन्तरा, अयं तत्थ समासंवासा एपोसथा, महाव. 139; भगवतो धम्मदेसनं अब्भनुमोदमानो भगवन्तं एतदवोच, सु. तत्थ एक अब्भन्तरं अट्ठवीसति हत्थप्पमाणं होति, मज्झे नि. अट्ठ. 1.122; - देय्य विधि., प्र. पु.. ए. व. - मुद्धापि ठितस्स समन्ता सत्तभन्तरा विनिब्बेधेन चुद्दस होन्ति, महाव. तरस विपतेय्य, यो समणस्स गोतमस्स सुभासितं सुभासिततो अट्ट. 315. नाभनुमोदेय्य, दी. नि. 1.127; - मोदि अद्य., प्र. पु., ए. अब्भन्तर- त्रि., [आभ्यन्तर], शा. अ. भीतरी, अन्दर में व. - अथ खो भगवा आयस्मतो सोणस्स सरभञपरियोसाने विद्यमान - रानि नपुं.. प्र. वि., ब. व. - वज्जी यानि तानि
अब्भानुमोदि, महाव. 270; - दिस्सामि भवि., उ. पु., ए. व. वज्जीनं वज्जिचेतियानि अब्भन्तरानि चेव बाहिरानि च, दी. -- आयस्मतो आनन्दस्स सुभासितं सुभासिततो । नि. 2.58; अब्भन्तरानीति अन्तोनगरे ठितानि, दी. नि. अट्ठ. नाभनुमोदिस्सामि, अ. नि. 1(1),252; -दित्वा पू. का. कृ. 2.98; - स्स पु., ष. वि., ए. व. - तस्स पन अब्भन्तरस्स - अथरस भगवा... तं तं वचनं सम्पटिच्छित्वा अब्भनुमोदित्वा वा बाहिररस वा ञाणसम्पन्नो मूलवधाय परक्कमतीति, जा. ..., म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).120.
अट्ठ. 3.183; ला. अ. क, घर के भीतर रहने वाला, अपना अब्भनुमोदन नपुं., अभि + अनु + vमुद से व्यु., क्रि. ना. निजी व्यक्ति, विश्वासपात्र व्यक्ति - रा पु., प्र. वि., ब. व. [अभ्यनुमोदन], समर्थन, आनन्द से परिपूर्ण अनुमोदन - - रो अन्तेपुरे अब्भन्तरा गुरहमन्ता बहिद्धा सम्भेदंगच्छन्ति, नं प्र. वि., ए. व. - परेहि दिन्नाय पत्तिया व अञआय वा पाचि. 211; त्वं मेसि माता च पिता अळार, अब्भन्तरो पुञ्जकिरियाय साधु साधूति अनुमोदनवसेन अब्भनुमोदनं पाणददो सहायो, जा. अट्ठ. 5.161; ... अब्भन्तरोति वेदितब्बं ध. स. अट्ठ. 203; - ने सप्त. वि., ए. व. - हदयमंससदिसो, जा. अट्ठ. 5.162; सासनस्स दायादो होमि, अब्भनुमोदने हि अयमिध अभिक्कन्तसद्दो ... यस्मा च न होमीति सासनस्स जातको अब्अन्तरो होमि, न होमीति अभनुमोदनत्थे, तस्मा साधु साधु भो गोतमाति वुत्तं होतीति अत्थो, पारा. अट्ठ. टी. 1.120; ला. अ. ख. अनेक भीतरी वेदितब्ब, सु. नि. अट्ठ. 1.122; - ना स्त्री., उपरिवत् - ना लोगों में से एक, अन्यतर - ... असीतिया महाथेरानं प्र. वि., ए. व. - मद्दी व पुत्तदानम्हि दिन्नस्सब्भनुमोदना, अभन्तरो अहोसि, जा. अट्ठ. 5.454; - अम्ब पु., कर्म. स. सद्धम्मो. 218.
[आभ्यन्तराम्र], देवताओं का वह आम्रवृक्ष, जिसे हिमालय अब्भनुमोदित त्रि., अभि + अनु + vमुद का भू. क. कृ. के भीतरी प्रदेश में लगाया गया था - म्बं द्वि. वि., ए. व. [अभ्यनुमोदित, अनुमोदित, समर्थित, वह, जिसकी स्वीकृति - नाहं देव अब्भन्तरअम्बं जानामि, जा. अट्ठ.2.325; - या पुष्टि कर दी गई है - ता पु., प्र. वि., ब. व. - एवं म्बस्स प. वि., ए. व. - अब्भन्तरअम्बस्स अस्थिभावं जानाथाति सब्बेहि पि तेहि पुब्बाचरियेहि अब्भनुमोदिता अप्पटिकोसिता, पुच्छि, बाह्मणा आहंसु - देव अब्भन्तरअम्बो नाम सद्द. 1.57.
देवतानपरिभोगो, जा. अट्ट, 2.326; - अम्बपक्के नपुं., अब्भन्तर' नपुं.. [अभ्यन्तर], शा. अ. मध्यवर्ती क्षेत्र, कर्म. स., सप्त. वि., ए. व., पके हुए देवों के आम्रवृक्ष के बीच वाला स्थान, भीतरी क्षेत्र, अन्तराल - रं प्र. वि., ए. फल में - सामि, अम्हाकं रुओ देविया अब्भन्तरअम्बपक्के व. - सन्निवेसो च सण्ठानं, अथाब्भन्तरमन्तरं अभि. प. दोहळो उप्पन्नो, जा. अट्ठ. 2.328; -- अम्बफलं नपुं. तत्पु.
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अब्मन्तर
454
अब्भन्तरिम
स., प्र. वि., ए. व., देवों के आम्र-वृक्ष का फल - अब्मन्तरमातिका स्त्री., धातु. के अन्तर्गत आए हुए विषयों अब्भन्तरअम्बफलं देवाति, जा. अट्ठ. 2.325.
की विस्तृत सूची - तत्थ मातिका उद्देसो सा पञ्चविधा - अब्मन्तर नपुं.. [अभ्रान्तर], मेघों के बीच वाला अन्तराल - नयमातिका, अब्भन्तरमातिका नयमुखमातिका, रे सप्त. वि., ए. व. - तदा जिनसासनं अब्भन्तरे चन्दो विय लक्खणमातिका, बाहिरमातिकाति, धातु, अट्ठ. 2: ... अयं अति परिसुद्धं न अहोसि, सा. वं. 109(ना.).
पञ्चवीसाधिकेन पदसतेन निक्खित्ता अमन्तरमातिका नाम, तदे.. अब्भन्तरं अ., क्रि. वि. [अभ्यन्तरं], आन्तरिक रूप में, भीतर अब्भन्तरवग्ग पु., जातक के एक खण्ड का शीर्षक, जा. में, भीतरी तौर पर - अब्भन्तरं पुरे आसि, ततो मज्झे ततो अट्ठ. 2.323-355. बहि.... अब्भन्तरन्ति पठम मम अब्भन्तरं आसनं आसि, जा. अब्भन्तरवात पु., तत्पु. स. [आभ्यन्तरवात]. भीतर की वायु अट्ठ, 5.211-222; अन्तरन्ति अब्भन्तरं दी. नि. अट्ठ. 1.241. - तो प्र. वि., ए. व. - ... गमसेय्यकानं मातृकुच्छितो अब्मन्तर गत त्रि., तत्पु. स. [अभ्यन्तरगत]. भीतर गया निक्खमनकाले पठम अब्भन्तरवातो बहि निक्खमति पच्छा हुआ, आन्तरिक रूप में विद्यमान - तो पु.. प्र. वि., ए. व. बाहिरवातो .... सद्द. 2.399. - अब्भन्तरगतो अवेक्खति, बहिद्धा निक्खमित्वा अवेक्खतीति? अमन्तरसीमा स्त्री., कर्म. स. [आभ्यन्तरसीमा]. भीतरी अब्भन्तरगतो अवेक्खतीति, कथा. 64; तत्थ अब्भन्तरगतोति सीमा, 15 प्रकार की सीमाओं में नौवीं सीमा, 28 हाथों की रूपस्स अन्तोगतो, इतो वा एत्तो वा अनिक्खमित्वा माप वाली सीमा - मा प्र. वि., ए. व. - सीमाय देतीति एत्थ रूपपरिच्छेदवसेनेव ठितो हुत्वाति अत्थो, कथा. अट्ठ. 133; ताव खण्डसीमा, ..., अब्भन्तरसीमा, ..., चक्कवाळसीमाति - ता ब. व. - एकविमानभन्तरगता वे महाब्रह्मानो विय, पन्नरस सीमा वेदितब्बा, महाव, अट्ठ. 392. एकस्मिं गगनहाने ठितानि द्वे चन्दमण्डलानि विय, उदा. अब्मन्तरापस्सय त्रि., ब. स. [आभ्यन्तरपश्रय], हृदय के अट्ठ. 198.
अन्दर विद्यमान, अन्दर विद्यमान - स्सयं नपुं. वि. वि.. अब्मन्तर जातक नपुं.. एक जातक का शीर्षक, जा. अट्ठ. ए. व. - को मे असत्थो अवणो, सल्लमभन्तरपस्सय, 2.323-328.
थेरगा. 757; अभन्तरपस्सयन्ति अभन्तरसखातं हदयं निस्साय अब्मन्तरदाह पु.. तत्पु. स. [आभ्यन्तरदाह]भीतर में ठितं, थेरगा. अट्ठ. 2.242; पाठा. अब्भन्तरपस्सयं, जलन, मन में जलन, आन्तरिक दाह - हो प्र. वि., ए. व. अब्भन्तरिक त्रि., [आभ्यन्तरिक], भीतरी, अत्यन्त घनिष्ट या - अन्तोदाहोति अब्भन्तरदाहो, महानि. अट्ठ. 201. समीपी, विश्वस्त, भरोसेमन्द - को पु.. प्र. वि., ए. व. - अब्मन्तरधातुप्पकोप पु.. तत्पु. स. [आभ्यन्तरधातुप्रकोप]. सो किर रञो सब्बत्थसाधको अमच्चो अब्भन्तरिको शरीर के भीतर की धातुओं की गड़बड़ी, आन्तरिक अङ्गों में अतिविस्सासिको... सहायो, जा. अट्ठ. 1.94; - का तदेव, उत्पात - अब्भन्तरधातुप्पकोपवसेन वा सीतं होति ..... ब. व. - अब्भन्तरिका तरुणदारका जानिस्सन्तीति उप्पन्नानि अब्भन्तरधातुप्पकोपवसेन वा उण्हं होति. महानि. 367; कम्मानि न करिस्सन्ति, जा. अट्ठ. 1.323; विलो. बाहिरक. अब्भन्तरधातुपकोपवसेन वाति सरीरमन्तरे आपो । अब्मन्तरिम त्रि., [अभ्यन्तरिम]. शा. अ. भीतरी, अन्दर धातुक्खोभवसेन वा अञधातुक्खोभवसेन वा, महानि. अट्ठ. वाला, भीतर में स्थित - मेन नपं, त. वि., ए. व. - तिरियं
सत्तन्तराति अब्भन्तरिमेन मानेन, पारा. 229; अब्भन्तरिमेन अब्भन्तरभूत त्रि.. [आभ्यन्तरभूत], अन्तर्गत आने वाला, मानेनाति, कुट्टस्स ... अब्भन्तरिमेन अन्तेन ... वृत्तं होति. किसी वर्ग या समूह के अन्दर स्थित -- ते नपुं.. सप्त. वि., पारा. अट्ठ. 2.40; - मा पु.. प्र. वि., ब. व. - न अब्भन्तरिमा ए. व. - अन्तरद्वके हिमपातसमयेति हेमन्तस्स उतनो बहि निक्खमन्ति, न बाहिरा अन्तो पविसन्ति, जा. अट्ठ.5. अब्भन्तरभूते माघमासस्स अवसाने चत्तारो फग्गुणभासस्स 77: ला. अ. अत्यन्त निकटवर्ती या घनिष्ट-कं पु., द्वि. आदिम्हि चत्तारोति अढदिवसपरिमाणे हिमस्स पतनकाले, वि., ए. व. - अहं तं... विस्सासिक अभन्तरिकं करिस्सामीति उदा. अट्ठ. 59.
...., म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).300; - मन्त पु.. कर्म. स. अब्मन्तरमण्डल नपुं., कर्म. स. [आभ्यन्तरमण्डल]. भीतरी [आभ्यन्तरिमान्त], भीतर वाला किनारा या क्षेत्र - मन्ते घेरा - लं प्र. वि., ए. व. - अन्तिममण्डलन्ति अभन्तरमण्डलं. सप्त. वि., ए. व. - अभन्तरिमन्ते पञाससहस्सग्घनिका, पारा. अट्ठ. वजिर. टी. 56.
म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).27.
373.
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अमन्तरे
455
अब्माचिक्खति
अब्मन्तरे अ., क्रि. वि., अब्भन्तर (1) का सप्त. वि., प्रतिरू निपा., क. अन्दर में, भीतर में, चित्त के अन्दर, हृदय में - अब्भन्तरे वातो जीवो... निक्खमति च, मि. प. 27; 244; अब्भन्तरे अत्ता नाम ... नत्थि. म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).272; अब्भन्तरे रागादीनं उपसन्तताय, ध. प. अट्ठ. 2; ख. प. वि. में अन्त होने वाले नाम के पश्चात् प्रयुक्त, बीच में, के साथ, में से एक - तरसेवं... आतिसङ्घस्स अब्भन्तरे अयं तथा उदपादि, जा. अट्ट. 1.68; अभिक्खुके ..... भिक्खुनुपस्सयतो अड्डयोजनअन्तरे ओवाददायका .. न वसन्ति, पाचि. अट्ठ. 51; तस्सा पुब्बे ... पविट्ठमत्ताय उम्भारमन्तरे सकलसरीरं उग्घाटितवच्चकुटि विय दुग्गन्धं जातं, अ. नि. अट्ठ. 1.134. अब्माकुटिक/अभाकुटिक त्रि., भाकुटिक का निषे. [अभ्राकुटिक], भौंहे नहीं तानने वाला, अहंकार-रहित, दर्परहित, विनम्र - को पु.. प्र. वि., ए. व. - गोतमो एहिस्वागतवादी सखिलो सम्मोदको अभाकुटिको उत्तानमुखो पुब्बभासी, दी. नि. 1.102; अब्भाकुटिकोति यथा एकच्चे परिसं पत्वा थद्धमुखा सटितमुखा होन्ति, न एदिसो, परिसदस्सनेन ... होति, दी. नि. अनु. 1.231; समणो किर गोतमो अन्भाकुटिको उत्तानमुखो सुखसम्भासो पटिसन्थारकुसलो, ध. प. अट्ठ. 2.286; - का पु.. प्र. वि०, ब. व. - अम्हाक... सण्हा... एहिस्वागतवादिनो अब्भाकुटिका उत्तानमुखा पुब्बभासिनो, पारा. 282; अब्भाकुटिका ति इमिना । भाकुटिकभाकुटिकाकारस्स अभावो दस्सितो, पारा. अठ्ठ. 2. 187. अब्मागत त्रि.. अभि + आ + गम का भू. क. कृ. [अभ्यागत]. शा. अ. अपनी ओर आया हुआ, ला. अ. अतिथि, आगन्तुक - ता पु.. प्र. वि. ब. व. - ... निक्खन्ता अभागता, सब्बेपि ते तं... भोजनं न लभिंसु. मि. प. 155%; - ते पु., द्वि. वि., ब. व. - ते... पूजेस्साम अभागते च आसनोदकेन पटिपूजेस्सामाति, अ.नि. 2(1).33; अभागतेति अत्तनो सन्तिकं आगते, अ. नि. अट्ठ. 1.18; - तानं पु., ष. वि., ब. व. - समण ब्राह्मणानं पन अभागतानं आसनं दत्वा पादधोवनञ्च दातब्बं, अ. नि. अट्ट, 1.19; अहं मनुस्सेसु मनुस्सभूता, अब्भागतानासनकं अदासिं. वि. व. 5; अभागतानन्ति अभिआगतानं, सम्पत्तआगन्तुकानन्ति अत्थो, वि. व. अट्ठ. 18. अमागमन नपुं.. अभि + आ + गम से व्यु., क्रि. ना. [अभ्यागमन], शा. अ. अपनी ओर किसी का आना, आ
पहुंचना, आगमन - नं प्र. वि., ए. व. - कच्चित्थ, भोन्तो कुसलं अनामयं, चिरस्समभागमनम्हि इधाति, जा. अट्ट. 3.466; चिरस्समभागमनन्हि वो इधाति अज्ज तुम्हाक इध अभागमनञ्च चिरं जातं तदे.; भिक्खुसङ्घस्स अब्भागमनं आरोचेसी'ति, अ. नि. 2(2).208; ला. अ. मैथुन-कर्म हेतु सम्पर्क - परिसस्स वा अभागमनं सादियेय्य, पाचि. 297. अब्माघातनिस्सित त्रि., अभि + आ + Vहन से व्यु.. अभाघात + निस्सित का तत्पु. स. [अभ्याघातनिःश्रित], वघस्थल में स्थित - तं नपुं. प्र. वि., ए. व. - पुब्बण्णनिस्सितं वा होति, अपरण्णनिस्सितं वा होति, अब्भाघातनिस्सितं वा होति, पारा. 231; एत्थ पन अभाघातन्ति कारणाघरं, वेरिघर पारा. अट्ठ.2.141. अब्माचिक्खति अभि + आ + चिक्ख का वर्त.. प्र. वि., ए. व. [अभ्याचष्टे], आरोप लगाता है, किसी बात को अनुचित रूप में प्रस्तुत करता है - अत्तनादुग्गहितेन अम्हे येव अभाचिक्खति, पारा. अट्ठ. 1.20; अमचिक्खतीति अम्हाकञ्च अब्भाचिक्खनं करोति, पारा. टी. 1.80; - सि म. पु., ब. व. - अत्तना दुग्गहितेन अम्हे चेव अब्माचिक्खसि, म. नि. 1.185; - क्खामि उ. पु., ए. व. - न च भगवन्तं अभूतेन अभाचिक्खामि, म. नि. 3.179; -न्ति प्र. पु.. ब. व. - न च भवन्तं गोतमं अभूतेन अब्भाचिक्खन्ति, धम्मस्स चानुधम्म ब्याकरोन्ति, दी. नि. 1.146; एवंवादिं खो में ... एके समणब्राह्मणा असता तुच्छा मुसा अभूतेन अब्भाचिक्खन्ति, दी. नि. 3.25; अभाचिक्खन्तीति अभिआचिक्खन्ति, दी. नि. अट्ठ. 3.13; - न्तो पु., वर्त. कृ., प्र. वि., ए. व., दोषारोपण करने वाला - तत्थ अभूतवादीति... मुसावादं कत्वा तुच्छेन परं अभाचिक्खन्तो, ध. प. अट्ठ. 2.272; - न्ता उपरिवत्, ब. स. - न च ... भगवन्तं ... अभूतेन अभाचिक्खन्ता, महाव. 314; - क्खे य्याथ विधि., म. पु., ब. व. - न च भगवन्तं अभूतेन अब्भाचिक्खेय्याथ. स. नि. 2(1).6; - क्खेय्याम विधि., उ. पु., ब. व. - न च भगवन्तं अभूतेन अभाचिक्खेय्याम, म. नि. 2.158; - क्खन्तेसु पु., वर्त. कृ., सप्त. वि., ब. व. - यस्मा इमे... फरुसाहि वाचाहि अभाचिक्खन्तेसुपि... दस्सेन्ति, उदा. अट्ठ. 211; - क्खि अद्य., प्र. पु.. ए. व. - ..., अभाचिक्खि अभूतेन, उदा. अट्ठ. 214; - क्खिं अद्य.. उ. पु., ए. व. - पच्चेकबुद्धं सुरभिं, अब्भाचिक्खिं अदूसक, अप. 1.328; - क्खितो पु., भू. क. कृ., प्र. वि., ए. व. - अयञ्च मे अभूतेन अभाचिक्खितो, ध. प. अट्ठ. 2.66.
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अब्माचिक्खन
456
अब्मीरित
अब्माचिक्खन नपुं., अभि + आ + चिक्ख से व्यु., क्रि. ना. [अभ्याख्यान], मिथ्या दोषारोपण - नं प्र. वि., ए. व.- न युत्तं बुद्धादीनं गरून अब्भाचिक्खन, सद्द. 1.95; - णेन तृ. वि., ए. व. - येपि च ... अभूतेन अब्भाचिक्खणेन ..... पुथुज्जना, उदा. अट्ठ. 351. अब्मादिउपक्किलेसरहित/अब्मादिमलविरहित त्रि., तत्पु. स., निष्कलङ्क, बेदाग, विशुद्ध, मलरहित - तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - विसुद्धन्ति अब्भादिउपक्किलेसरहितं. सु. नि. अट्ठ. 2.187; - तो पु., प्र. वि., ए. व. - विमलोति
अब्भादिमलविरहितो, जा. अट्ट. 5.57. अब्मान नपुं., विनय का पारिभाषिक शब्द [बौ. सं. आह्वान].
शा. अ. वापस बुलाना, आमन्त्रण, विनय के सन्दर्भ में, सङ्घ से निष्कासित भिक्षु को सङ्घ में पुनः प्रवेश देने वाला सङ्घकर्म, जिस भिक्षु ने सङ्घादिसेस के अन्तर्गत आने वाला कोई भी अपराध कर 6 रातों तक मानत्त नामक प्रायश्चित पूरा किया है, उसे सङ्घ में पुनः प्रवेश का कर्म ही अब्भान है - नं नपुं., प्र. वि., ए. व. - मज्झिमेसु जनपदेसु उपसम्पदं अब्भानं, ..., ठपेत्वा एक कम्मं - अब्भानं, महाव.. 416: ... पातिमोक्खं ... अब्भानं पञ्जत्तं, अ. नि. 1(1).119; चिण्णमानत्तस्स अमानं पञत्तं, अ. नि. अट्ट. 2.69; - स्स च. वि., ए. व. - ... मानत्तदानस्स... अमानस्स .... परि. 272; - कम्म नपुं.. तत्पु. स. [आह्वानकर्मन्], भिक्षु को सङ्घ में पुनः वापस बुलाने का सङ्घ का विधान - ततो परं सब्बा अन्तरापत्तियो योजेत्वा अमानकम्मं दस्सितं, परि. 33; अब्भानकम्मवसेन ओसारेतब्बोति वत्तं होति, पारा. अट्ठ. 2.193; - सञित त्रि., अमान नाम वाला (संघकर्म)- तं नपु.. प्र. वि., ए. व. - उपसम्पदककम्मञ्च, कम्ममभानसञ्जितं, विन. वि. 3010; - नारह त्रि., [आह्वानाह], संघ में पुनः वापस बुलाए जाने योग्य - हो पु., प्र. वि., ए. व. - सचे उपज्झायो अब्भानारहो होति. महाव. 55; 59; - हं तदेव, द्वि. वि., ए. व. - ... अभानारहं उपसम्पादेति, महाव. 424; - हेन तदेव, तृ. वि., ए. व. - अब्मानारहेन भिक्खुना सद्धि एकच्छन्ने आवासे वत्थब्बं चूळव. 82; - हा पु., प्र. वि., ब. क. - अभानारहा भिक्खू सादियिस्सन्ति पकतत्तानं भिक्खूनं अभिवादनं पच्चुट्ठान, चूळव. 95; - चतुत्थ त्रि., कर्म. स. [आह्वानार्हचतुर्थ], चौथी बार संघ में पुनः प्रवेश देने योग्य - त्थो पु., प्र. वि., ए. व. - अब्भानारहचतुत्थो चे ..., परिवासं ददेय्य, ... अकम्मं न च करणीयं, महाव. 418.
अब्भामत्त त्रि., ब. स. [अभ्रमात्र], वह, जिसकी मात्रा महामेघ के समान हो, अत्यधिक मात्रा वाला - त्तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - वालग्गमत्तं पापस्स, अब्भामत्तंव खायतीति, स. नि. 1(1).237; अब्भामत्तं वाति वलाहककूटमत्तं विय, स. नि. अट्ठ 1.262; अभामत्तं खायतीति महामेघप्पमाणं हत्वा उपहाति, जा. अट्ठ. 3.270. अब्मास पु.. [अभ्यास]. क. पुनरावृत्ति, बार बार दोहराना -
से सप्त. वि., ए. व. - मन अभासे, सद्द. 2.397; ख. व्याकरण के विशेष सन्दर्भ में, किसी धातु के द्वित्व किए गए वर्णों का प्रथम वर्ण - से सप्त. वि., ए. व. -
अब्भासे वत्तमानो सरो रस्सो होति, सद्द. 3.826; - सञ त्रि., ब. स. [अभ्याससंज्ञक], वह, जिसकी संज्ञा 'अभ्यास' हो - जो पु., प्र. वि., ए. व. - द्वेभूतस्स धातुस्स यो पुब्बो
सो अभाससओ होति, दधाति, ददाति, बभूव क. व्या. 461. अब्माहत त्रि., अभि + आ + vहन का भू. क. कृ. [अभ्याहत], बुरी तरह से पीटा गया, अभिभूत, दुर्गतिग्रस्त, विपत्तिग्रस्त - तो पु., प्र. वि., ए. व. - एवमब्भाहतो लोको, मच्चुना, मच्चुना च जराय च, सु. नि. 586; यथाति अभिवेगब्भाहतो विचरन्तो यम्हि पदेसे पतिद्वं लभति, जा. अट्ट, 6.267: -- तं पु., द्वि. वि., ए. व. - जराय अनुसट, मरणेन अभाहतं, म. नि. अट्ट (उप.प.) 3.221; - ता पु., प्र. वि., ब. व. - ... इमिना पन अभाहता सन्तो न कम्पन्ति न पवेधेन्ति,
जा. अट्ठ. 2.159. अमित त्रि, वापस बुलाया गया, पुनः प्रवेश-प्राप्त, पुनर्वास
को प्राप्त - तो पु.. प्र. वि., ए. व. - अब्भेय्य विधिना भिक्ख पकतत्तो पुनभितो, विन. वि. 538; अनभितोति न अभितो, पारा. अट्ठ. 2.193. अब्मिद त्रि.. भिद के सं. कृ. का निषे. [अभेद्य], नहीं टूटने या काटने योग्य, नष्ट न होने योग्य - दं नपुं॰, प्र. वि., ए. व. - सीलमाभरणं सेटु, सील कवचमभुतं, थेरगा. 614; सपाणपरित्तानतो कवचमभिदं, थेरगा. अट्ठ. 2.188; पाठा. अब्भुतं. अब्मिदा भिद के अद्य. का प्र. पु., ए. व., तोड़ दिया, नष्ट कर दिया - मकसं वधिस्सन्ति हि एळमूणो, पुत्तो पितु अभिदा उत्तमङ्गन्ति, जा. अट्ट, 1.241; यत्थभिदा गरुळो उत्तमङ्गन्ति , ध. प. अट्ठ. 1.84. अब्मीरित त्रि०, अभि + ईर का भू. क. कृ. [अभीरित]. कहा हुआ, उच्चारित, कथित - तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - वा ति कस्मा? अब्भीरितं, अज्झिणमुत्तो, क. व्या. 46.
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अब्मुक्किरण
457
अमुक्किरण नपुं., अभि + उ + किर से व्यु. [अभ्युत्किरण]. छिड़काव, पानी का छिड़काव, पवित्रीकरण की क्रिया - सज विसग्गपरिसज्जनभु करणेसु, सजति, लोक्यं सजन्तं उदकं
सद्द. 2.348. अब्मुक्किरति अभि + उ + (किर का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अभ्युत्किरति], छिड़कता है, छिड़काव करता है - दक्षिणेन हत्थेन चक्करतनं अभुक्किरति, म. नि. 3.211; अत्तनो उपरि सीसे सजन्तं अब्भुकिरति, जा. अट्ठ.7.51; - रि अद्य., प्र. पु., ए. व. - पुन उदकं गहेत्वा दक्षिणाय पच्छिमाय
उत्तरायाति एवं चतूसु दिसासु अब्भुक्किरि, पे. व. अट्ठ. 64. अब्मुग्गच्छति अभि + उ गम का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अभ्युद्गच्छति], क. चारों ओर फैलता है, जहां-तहां फैलता है, ऊपर की ओर उठ जाता है -- दुस्सीलरस सीलविपन्नस्स पापको कित्तिसद्दो अभुग्गच्छति, महाव. 303; - च्छेय्य विधि., प्र. वि., ए. व. - करस नु खो कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गच्छेय्य यो वा सो पुरिसो अस्सद्धो मच्छरी कदरियो परिभासको, अ. नि. 2(2).220; - च्छि अद्य., प्र. पु., ए. व. - गहपतनिया अपरेन समयेन एवं पापको कित्तिसद्दो अभुग्गच्छि चण्डी वेदेहिका गहपतानीति, म. नि. 1.178; - हेत्वा पू. का. कृ. - सोण्डाय भिसमुळालं अब्भुहेत्वा न सुविक्खालितं विक्खालेत्वा .... स. नि. 1(2).245; ख. समीप जाता है, भेंट करने जाता है - गञ्छि अद्य., प्र. पु., ए. व. - पञ्चहि सेद्विसतेहि सद्धिं भगवन्तं अभुग्गच्छि, जा. अट्ठ. 1.102. अब्भुग्गत त्रि.. भू. क. कृ. [अभ्युद्गत]. ऊपर की ओर उठा हुआ, आगे गया हुआ - तो पु., प्र. वि., ए. व. -- तं खो पन भवन्त गोतमं कल्याणो कित्तिसद्धो अब्भुग्गतो, पारा. 1; कतत्ता बोधिसत्तस्स कित्तिसद्दो दससहस्सिया लोकधातुया सदेवमनुस्सेसु अभुग्गतो, मि. प. 257; - तानि नपुं., प्र. वि., ब. व. -- कथं अब्भुग्गतानीति न चिन्तेतब्ब, जा. अट्ठ. 1.70; - त्त नपुं.. भाव., ऊपर की ओर उठ जाना, समुन्नत हो जाना - त्ता प. वि., ए. व. - पीतिमा पन पुग्गलो कायचित्तानं उग्गतत्ता अब्भुग्गतत्ता उदग्गोति वुच्चति, ध. स. अट्ठ. 188. अब्मुज्जलन नपुं., अभि + उ + vजल से व्यु., क्रि. ना. [अभ्युज्ज्वलन], शा. अ. ऊपर की ओर आग का जलना, ला. अ. ऐन्द्रजालिक प्रक्रिया के द्वारा मुख से अग्निज्वाला को निकालना - नं प्र. वि., ए. व. - अब्भुज्जलनन्ति मन्तेन मुखतो अग्गिजालानीहरणं, दी. नि. अट्ठ. 1.10.
अब्भुत अब्भुट्ठाति अभि + उ + vठा का वर्त.. प्र. पु., ए. व. [अभ्युत्तिष्ठति], आगे की ओर जाने के लिये बढ़ता है, आगे जाने के लिये समुद्यत होता है - हासि अद्य.. प्र. पु.. ए. व. - भगवा विहारा निक्खम्म चङ्कम अब्भुट्ठासि. दी. नि. 1.92. अब्भुट्टित त्रि., अभि + उ +vठा का भू, क. कृ. [अभ्युत्थित, ऊपर की ओर उठ रहा, बादल के समान ऊपर की ओर उठता हुआ - तो पु., प्र. वि., ए. व. - अभुट्टितोव सो याति, स गच्छन निवत्तति, जा. अट्ठ. 4.446; अब्भुद्वितोव सो यातीति सो माणवो यथा नाम वलाहकसङ्घातो अब्भो उछितो निब्बत्तो, जा. अट्ठ. 4.449. अब्मुण्ह त्रि., [अभ्युष्ण], अधिक गर्म, ताजा, अपनी उष्णता को सुरक्षित रखने वाला - ण्हं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - पच्चग्घन्ति अब्भुण्हं अपरिवासिकं, जा. अट्ट, 2.360; - ण्हे नपुं.. सप्त. वि., ए. व. - अभिन्ने सरीरेति अब्भुण्हे अल्लसरीरे पंसुकूलं न गहेतब्ब, पारा. अट्ठ. 1.302. अब्मुत' त्रि., [अद्भुत]. क. विस्मयकारी, आश्चर्यजनक, अभूतपूर्व, अलौकिक- विम्हयेच्छरियाभुता, अभि. प. 736%3; अब्भुतोच्छरिये तीसु पणे चेवाभूतो पुमे, अभि. प. 1023; - तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अच्छरियं, वत भो, अभुतं, वत भो..... दी. नि. 1.53; उदा. 86; अभूतपुब्बं भूतन्ति अभुतं. उदा. अट्ठ. 101; - ता पु., प्र. वि., ब. व. - अढिमे, भिक्खवे, महासमुद्दे अच्छरिया अभुता धम्मा, ..., उदा. 128; ख. पु., नाट्य या काव्य के नौ रसों में एक, अद्भुत रस - सिङ्गारो करुणो वीरभुतहस्सभयानका, सन्तो बीभच्छरुद्दानि नव नाट्यरसा इमे, अभि. प. 102; सुबोधा. 353; ग. नपुं.. आश्चर्य, विस्मय, इन्द्रजाल, ऋद्धि का चमत्कार - तं द्वि. वि., ए. व. - तस्मिं ठाने कता साला पकासेतुं तमब्भूतं. म. वं. 19.27; घ. बुद्धवचनों के नवाङ्ग-विभाजन का एक अङ्ग, ऋद्धि चमत्कारों अथवा अलौकिक बातों का उल्लेख करने वाले बुद्धवचन - ... जातकब्भुतवेदल्लं नवङ्ग सत्थुसासनं, दी. वं. 4.20; ङ. नपुं., निर्वाण का सङ्केतक पद - तं द्वि. वि., ए. व. - अभुतञ्च वो, भिक्खवे, देसेस्सामि अभुतगामिञ्च मग्ग. स. नि. 2(2).342; - गामी त्रि., [अद्भुतगामिन्]. अलौकिक अथवा पूर्व में अप्राप्त निर्वाण-पद की ओर ले जाने वाला (मार्ग)- मिं पु., द्वि. वि.. ए. व. - अब्भुतञ्च वो, भिक्खवे, देसेस्सामि अभुतगामिञ्च मग्ग. स. नि. 2(2).342; - चित्तजात त्रि., आश्चर्यचकित, अभूतपूर्व सन्तुष्टिभाव से युक्त, - ता स्त्री., प्र. वि., ए. व. - सा
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अब्भुत
458
अब्भुन्नामेत्वा परिसा अब्भुतचित्तजाता अहोसि, स. नि. 1(1).207; प्र. वि., ए, व. - अहो दानन्ति बहसो उदानं अभूदीरयं, अब्भुतचित्तजाताति अभूतपुब्बसन्तुढिया समन्नागता, स. नि. सद्धम्मो. 514; - रयी अद्य., प्र. पु., ए. व. - अहङ्गुपेतं अट्ट, 1.232; - धम्म' पु., कर्म. स. [अद्भुतधर्म], गिरमभुदीरयी, म. नि. अट्ट (मू.प.) 1(1).51; - रेसु अद्य., आश्चर्यजनक धर्म, उत्तम एवं प्रणीत धर्म --- म्मं द्वि. वि., प्र. पु., ब. व. - इमा गिरा अब्भुदीरेसु, थेरीगा. 404. ए. व. - ... भन्ते, भगवतो अच्छरियं अब्भुतधम्म धारेमि. म. अब्मुद्देति/अब्भुदेति अभि + उद + Vइ का वर्त, प्र. पु., नि. 3.162; - म्मेन तृ. वि., ए. व. - यदा मम भाता ए. व. [अभ्युदेति], उगता है, ऊपर की ओर उठता है, सूर्य महन्तेन अब्भुतधम्मेन समन्नागतो विज्जाधरो..... जा. अट्ठ. के समान उदित होता है - वेरोचनो अब्भुदेति यत्थ च 3.401; - धम्म नपुं.. विषय एवं शैली के आधार पर अस्थमेति, अ. नि. 1(2).57; यदा च रस्मिसम्पन्नो, अब्भुदेति बुद्धवचनों का विभाजन करने वाले नौ अङ्गों में से एक, पभङ्करो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).316; - यं वर्त. कृ., पु., आश्चर्य, ऋद्धिप्रातिहार्य एवं लोकोत्तर तत्त्वों से भरपूर प्र. वि., ए. व. - अभुद्दयन्ति अभिउग्गच्छन्तो, अब्भुद्दसन्ति बुद्धवचन - म्म प्र. वि., ए. व. - ... सब्बेपि पिपाठो, वि. व. अट्ठ. 235; ओभासयन्ती दस सबसो दिसा, अच्छरियभुतधम्मपटिसंयुत्तसुत्तन्ता अब्भुतधम्मन्ति वेदितब्ब ___ अब्भुद्दयं सारदिको व भाणुमा वि. व. 1031. दी. नि. अट्ठ. 1.24; - धम्मसमन्नागत त्रि., तत्पु. स., अब्मुद्दय पु., [अभ्युदय], विकास, उन्नति, प्रगति, सफलता विलक्षण अथवा अद्भुत धर्मों से परिपूर्ण - ता पु., प्र. वि., - यं द्वि. वि., ए. व. - इधलोकपरलोकेसु वुद्धि अब्भुदयं ब. व. - तथागता अब्भुतधम्मसमन्नागता चा ति, म. नि. नावबुज्झन्ति, उदा. अट्ठ. 278. 3.162; - धम्मसो अ., निपा., अब्भुत धम्म नामक अङ्ग की अब्भुद्धरण नपुं., [अभ्युद्धरण], ऊपर की ओर उठाना, बाहर दृष्टि से - यदि अभुतधम्मसो- ततो ततो लभतेव अत्तमनतं, की ओर ले जाना - अग्गियाधाने ठितो अग्गि कतब्भुद्धरणो लभति चेतसो पसाद, अ. नि. 2(1).218.
समिधापक्खेपं बीजनवातञ्च लभित्वा .... सु. नि. अट्ठ. अब्भुत पु./नपुं.. बाजी, दांव, शर्त - तो पु., प्र. वि., ए.
1.338. व. - पणो भुतो, अभि. प. 532; पणे चेवाब्भुतो पुमे, अभि. अब्भुन्नत त्रि., अभि + उ + नम का भू, क. कृ. [अभ्युन्नत]. प. 1023; प्रायः ।कर के क्रि. रू. के साथ प्रयुक्त, बाजी उठा हुआ, ऊंचा किया हुआ, ऊपर की ओर उभरा हुआ - लगाता है, दांव पर लगा देता है - करिस्सति न करिस्सती ता स्त्री., प्र. वि., ब. व. - अभुन्नता समा होन्ति, को दिस्वा ति अभुतमकंसु. पारा. 203; सेहिना सद्धिं सहस्सेन अब्भुतं न पसीदति, अप. 2.44. करोहि, पाचि. 7; होतु नो अब्भुतं तत्थ, जा. अट्ठ. 7.37. अब्भुन्नति स्त्री., अभि + उ + निम से व्यु. [अभ्युन्नति], अब्भुतोरुगुणाकर पु.. [अद्भुतगुणाकर], आश्चर्यकर एवं दर्पशीलता, अतिमानिता, अहंकार, घमण्ड - लक्खण त्रि., विस्तृत गुणों की खदान - रो प्र. वि., ए. व. - अवझवादी ब. स., अत्यधिक अहङ्कारी, घमण्डी स्वभाव वाला - क्खणो अतुलो अब्भुतोरुगुणाकरो, सद्धम्मो. 345.
पु., प्र. वि., ए. व. - अब्भुण्णतिलक्षणो अतिमानो. अतिविय अब्भुदाहासि अभि + उद + आ + Vहर का अद्य., प्र. पु.. अहङ्काररसो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).114. ए. व., प्रकाशित किया, प्रकट किया, स्पष्ट रूप से कहा अब्मुन्नदित त्रि., अभि + उ + निद का पू. का. कृ. - इमं कथावत्थु राजन्तेपुरे अभुदाहासीति, म. नि. 2.335. [अभ्युन्नदित], निनादित, प्रतिध्वनित, अनुगुञ्जित -दिता अब्मुदित त्रि.. अभि + उद + Vइ का भू. क. कृ. [अभ्युदित]. पु.. प्र. वि., ब. व. - अभुन्नदिता सिखीहि, ते सेला शा. अ. उठा हुआ, उगा हुआ, ला. अ. सौभाग्यशाली, रमयन्ति में, थेरगा. 1068; अब्भन्नदिता सिखीहीति शुभ, माङ्गलिक - ता स्त्री., प्र. वि., ए. व. - तेसं अब्भुदिता मधुरस्सरेन उन्नदिता, थेरगा. अट्ठ. 2.383. कालसम्पदा येव केवलं, चू. वं. 64.49.
अब्मुन्नमित्वा अभि + उ + Vनम का पू. का. कृ., ऊपर की अब्मुदीरित त्रि०, अभि + उद + Vईर का भू. क. कृ. ओर छलक कर, फूट कर बाहर निकल कर - उदकसालतो [अभ्युदीरित]. कहा हुआ, उक्त - तं नपुं., प्र. वि., ए. व. पि अभुन्नमित्वा भगवतो चितकं निब्बापेसि, दी. नि. 2.123. - अभुदीरितं अब्भुग्गच्छति, क. व्या. 44; सद्द. 3.619. अब्मुन्नामेत्वा अभि + उ +vनम के प्रेर. का पू. का. कृ., अब्मुदीरेति अभि + उद + Vईर का वर्त., प्र. पु., ए. व. ऊपर की ओर तान कर, सीधा खड़ा कर - पुरिम कायं [अभ्युदीरयति], कहता है, बोलता है - रयं वर्त. कृ., पु., अभुन्नामेत्वा पच्छिम कायं अनुविलोकेति, अ. नि. 1(2).280.
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अब्मुन्नामेय्यं
459
अब्रह्म
2.54.
अब्मुन्नामेय्यं अभि + उ + नम के प्रेर. का विधि., उ. पु., तब्ब त्रि., सं. कृ. - अभेतब्बोति अभिएतब्बो सम्पटिच्छितब्बो, ए. व., ऊपर की ओर कर दूं, खड़ा कर दूं - यानगतो पारा. अट्ट. 2.193.
समानो पतोदलद्धिं अभुन्नामेय्यं, दी. नि. 1.111. अब्मोकास पु., [अभ्यवकाश], खुला स्थान, खुली जगह, अब्भुय्यात त्रि., अभि + उ + vया का भू. क. कृ., कूच कर खुला आकाश - सो प्र. वि., ए. व. - सम्बाधो घरावासो
चुका, बाहर की ओर निकल चुका, किसी की ओर अभिमुख रजोपथो, अब्भोकासो पब्बज्जा, दी. नि. 1.55; अलग्गनढेन होकर चल चुका - तो पु., प्र. वि., ए. व. - राजा पसेनदि अब्भोकासो वियाति अब्भोकासो, दी. नि. अट्ट, 1.148; - सं सेनाय अभुय्यातो होति, पाचि. 142; अब्भुय्यातोति अभिउय्यातो. द्वि. वि., ए. व. - अब्भोकासन्ति अच्छन्न, दी. नि. अट्ठ. परसेनं अभिमुखो ... निग्गतोति अत्थो, पाचि. अठ्ठ. 113; 1.171; - गत त्रि., खुले स्थान में स्थित - तो पु., प्र. वि., वेदेहिपुत्तो चतरङ्गिनि सेनं सन्नहित्वा ममं अब्भुय्यातो, स. ए. व. - अब्भोकासगतो खो, देव, आरज्ञ्जको नागो ति, म. नि. 1(1).100.
नि. 3.173; सुझागारगतोपि ... अब्भोकासगतोपि, अ. नि. अब्मुसक्कमान त्रि., अभि + उ + सिक्क का वर्त. कृ., 3(2).101; - सय त्रि., खुले स्थान या आकाश के नीचे ऊपर की ओर उठता हुआ, ऊपर की ओर चढ़ रहा - नो लेटा हुआ - यो पु., प्र. वि., ए. व. - अब्भोकाससयो जन्तु, पु., प्र. वि., ए. व. - देवो आदिच्चो नभं अब्भुसक्कमानो वजन्त्या खीरपायितो, जा. अट्ठ. 4.358. दुद्दिक्खो होति .... दी. नि. 2.137; इतिवु. 16; नभं अब्मोकासिक त्रि., [आभ्यवकासिक, तुल. अभ्रावकाशिक, अब्भुस्सक्कमानोति उदयट्ठानतो आकासं उल्लङ्घन्तो, इतिवु. खुले स्थान में रहने वाला, किसी विशिष्ट तापस का अट्ठ. 79; - नं पु.. द्वि. वि., ए. व. - वनन्ततो अभुस्सक्कमानं पदनाम या अभिधान - को पु., प्र. वि., ए. व. - चन्द भिन्दित्वा ... पुरतो हुत्वा .... म. नि. अट्ट (म.प.) अब्भोकासिकोपि होति यथासन्थतिको, दी. नि. 1.150; -
कस्स पु., ष. वि., ए. व. - नाहं, भिक्खवे, अब्भोकासिकस्स अब्भुस्सहनता स्त्री., अपने को उत्तेजित या उत्साहित अब्भोकासिकमत्तेन सामनं वदामि, म. नि. 1.354; - का करने की प्रयत्नशीलता, उत्साहवर्द्धन - ता प्र. वि., ए. क. स्त्री., प्र. वि., ए. व. - रुक्खमूलिका अब्भोकासिका - अनुसम्पवङ्कता अब्भुस्सहनता अनुबलप्पदानं ... पळालपुञ्जिका, मि. प. 309; - कङ्ग नपुं, खुले स्थान पर अनुवादाधिकरणं कुसलं, चूळव. 200; अमुस्सहनताति कस्मा रहने वाले तापसों की चर्या का एक अङ्ग - छन्नरुक्खमूलानि एवं न उपवदिस्सामि, उपवदिस्सामियेवा ति उस्साहं कत्वा पटिक्खिपित्वा अभोकासिकसमादानेन अब्भोकासिको, थेरगा. अनुवदना, चूळव. अट्ठ. 39..
अह. 2.274. अब्भुस्साह पु., [अभ्युत्साह], शक्ति, बल, प्रबल उत्साह - अब्मोकासी त्रि., [अभ्यवकाशिन], खुले स्थान में रहने हं द्वि. वि., ए. व. - अब्भुस्साहं जनेन्तो समुत्तेजेसि, सु. नि. वाला, आकाश के नीचे निवास करने वाला - सी पु., प्र. अट्ठ. 2.152.
वि., ए. व. -- अब्भोकासी साततिको ..., थेरगा. 853. अब्मुस्साहितहदय त्रि., ब. स. [अभ्युत्साहितहृदय], अब्मोकिरति अभि + अव + किर का वर्त., प्र. पु., ए. व. अत्यधिक उत्साह से भरपूर हृदय वाला - यो पु.. प्र. वि., [अभ्यवकिरति], चारों ओर से ढकता है, आच्छादित करता ए. व. - केवलन्तु महाकरुणाय अब्भुस्साहितहदयो सत्तानं या फैलाता है - रिस्सं अद्य., उ. पु., ए. व. - अब्भोकिरिस्सं परमहिताय अदेसयीति, खु. पा. अट्ठ. 152.
पत्तेहि पसन्ना सेहि पाणिभि, वि. व. 39; अब्भोकिरिस्सन्ति अब्मेति आ + vव्हे का वर्त, प्र. पु., ए. व. [आह्वयति]. अभिओकिरिं अभिप्पकिरि वि. व. अट्ट, 29. आह्वान करता है, बुलाता है, आमन्त्रित करता है, अस्थायी अब्मोक्किरण नपुं.. अभि + अव + किर से व्यु., क्रि. ना., रूप से निष्कासित भिक्षु को पुनः सङ्घ में बुलाता है या मुखौटा, चारों ओर से ढक देना या लपेट देना - णं प्र. प्रतिष्ठित करता है - मानत्तारह अब्भेति ... अब्भानारहं । वि., ए. व. - सोभनकन्ति नटानं अब्भोक्किरणं, दी. नि. अट्ठ. उपसम्पादेति, महाव. 424; उपसम्पदारह अमेति, महाव. 1.77. 426; - तु अनु०, प्र. पु., ए. व. - सङ्घो उदायिं भिक्खु अब्रह्म त्रि., [अब्राह्म], अपवित्र, अशुद्ध, हीन, अश्रेष्ठ, सांसारिक, अब्भेतु, चूळव. 100; - य्य विधि., प्र. पु., ए. व... एकेनापि घटिया - मं पु., वि. वि., ए. व. - अब्रह्म हीनं वीसतिगणो भिक्खुसङ्घो तं भिक्षं अब्भेय्य, पारा. 290; - लामकधम्मं चरन्तीति अब्रह्मचारी म. नि. अट्ट (मू.प.) 1(1).196.
०८9.
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अब्रह्मचरिय
अब्रह्मचरिय नपुं. [अब्रह्मचर्य ] पापाचार, दुराचार हीन जीवनपद्धति, ब्रह्मचर्य का अभाव, अपरिशुद्ध जीवन यं पु. द्वि. वि. ए. व. अब्रह्मचरियं परिवज्जयेय्य अङ्गारकासुं जलितं व विज्ञ सु. नि. 398 अब्रह्मचरिये पहाय ब्रह्मचारी समणो गोतमो दी. नि. 1.4 या प. वि. ए. व. अब्रह्मचरिया विरमेय्य मेथुना, सु. नि. 402 - येन तृ. वि., ए. व. परिसुद्धं ब्रह्मचरियं... अब्रह्मचरियेन अनुद्धंसेति पारा. 109110 वास पु. [अब्रह्मचर्यवास] अधार्मिक जीवन अपवित्र जीवन ब्रह्मचर्यवास के विपरीत जीवन सो प्र. वि. ए. व. सो अब्रह्मचरियवासो ब्रह्मचरिया निखिज्ज पक्कमति म. नि. 2.197 साब. व. तेन भगवता जानता परसता अरहता सम्मासम्बुद्धेन चत्तारो अब्रह्मचरियवासा अक्खाता, म. नि. 2.192. अब्रह्मचारी त्रि.. [अब्रह्मचारिन्] उत्तम चर्या का पालन न करने वाला व्यभिचारी, ब्रह्मचर्य या परिशुद्ध जीवन न जीने वाला, दुराचारी री पु.. प्र. वि. ए. व. समणपटिया अब्रह्मचारी ब्रह्मचारिपटिज्ञो अन्तोपूति, महानि, 168 अब्रह्मचारीति रोद्रचरिया विरहितो महानि, अनु. 270 री प्र. वि., ब. व. - अब्रह्मं हीनं लामकधम्मं चरन्तीति अब्रह्मचारी, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1 (1).196.
-
अब्रह्मञ्ञ त्रि.. [अब्राह्मण्य], ब्राह्मण अर्थात् आस्रवों का क्षय कर चुके अर्हतों के प्रति असौहार्दपूर्ण, अर्हतों के प्रति आदर भाव न रखने वाला, ब्राह्मणों का सम्मान न करने वाला
पु. प्र. कि. ए. व. पुरिसो अमत्तेच्यो अपेत्तेव्यो असामज्ञो अब्रह्नाज्ञ. अ. नि. 1 (1).163: अब्रह्मज्ञोति एत्थ च खीणासवा ब्राह्मणा नाम, तेसु मिच्छा पटिपन्नो अब्रह्मञ्ञ नाम, अ. नि. अड. 2.118 - ता स्त्री०, अब्राह्मण्य का भाव., अर्हतो एवं ब्राह्मणों के प्रति असौहार्दपूर्णता ता प्र. वि. ए. व. असामञ्ञता अब्राह्मञ्ञता न कुले जेद्वापचायिता, दी. नि. 3.52.
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460
अब्राह्मण पु.. [अब्राह्मण], वह व्यक्ति जो ब्राह्मण नहीं है, ब्राह्मणत्वविरहित व्यक्ति, ब्राह्मण के गुणों एवं धर्म से सर्वथा रहित णो प्र. वि. ए. व. न जच्चा ब्राह्मणो होति. न जच्चा होति अब्राह्मणो कम्मुना ब्राह्मणो होति. कम्मुना होति अब्राह्मणो सु. नि. 655: नि. 655; -- णं द्वि. वि., ए. व. ब्राह्मणो हि ये त्वं ब्रूसि मञ्च ब्रूसि अब्राह्मणं सु. नि. 460 णे द्वि. वि. व. व. ब्राह्मणा इमेहि वण्डालुछिदुकं पीतन्ति अब्राह्मणे करिंसु, जा. अड. 4.348; करण त्रि. वह अवस्था जो ब्राह्मणकारी न हो, ब्राह्मण न करने वाला या
अभब्ब
ये धम्मा
न बनाने वाला धर्म का पु. प्र. वि. ब. व. अब्राह्मणकारका, दी. नि. 1.222. अभक्खत्रि, [अभक्ष्य ], वह, जो भक्षण योग्य न हो, न खाने योग्य, अखाद्य जो भोजन के रूप में उपयुक्त न होक्खो पु०, प्र. वि., ब.व. न चापि मे सीवलि सो अभक्खो.... जा. अट्ट, 6.77 अभक्खोति सो पिण्डपातो मम अभक्खो नाम न होति, तदे०; - सम्मतभाव पु०, अभक्ष्य के रूप में समझा जाना अभक्ष्य के रूप में अनुमोदित रहना वंद्वि. वि. ए. व. अत्तनो सरीरमंसस्स अभक्खसम्मतभावं दस्सेतुं जा. अट्ठ. 6.91.
अभच्च त्रि.. [अमृत्य]. वह जो भृत्य न हो या भरण-पोषण योग्य न हो - च्चा पु०, प्र. वि., ब.व. अन्नभच्चा चभच्चा च. योध उदिस्स गच्छति जा. अड. 2306; इतरे तथा अभरितब्बत्ता अभच्चा, जा. अट्ठ. 2.307. अभजना स्त्री०, असेवन, असाहचर्य, असम्पर्क, असंसर्ग - ना प्र. वि. ए. व. असेवनाति अभजना अपयिरुपासना खु. पा. अट्ठ. 99.
अभजन्त त्रि भज के वर्त. कृ. का निषे [अभजत्]. अनिच्छुक, अप्रवृत्त किसी तरह का सरोकार न रखने वाला, प्रतिपक्षी न्तं न्तं पु.. द्वि. वि. ए. व. भजे भजन्तं पुरिसं, अभजन्तं न भज्जये, जा. अट्ठ. 5.221; अभजन्तन्ति पच्चत्थिक, जा. अट्ठ. 5.222.
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अभण्डन नपुं., [अभण्डन], अविग्रह, अकलह, सामञ्जस्य, मैत्रीभाव नं प्र. वि., ए. व. इति अभण्डन इति अविग्गहो इति अकलहो, स. नि. 1 ( 1 ) 259. अमद्दक 1 त्रि.. [अभद्र ] अमाङ्गलिक, अकल्याणकारक, अनर्थकारी कं स्त्री. द्वि. वि. ए. व. तरस हीनेन मनसा, वाचं भासिं अभद्दकं, अप. 1.99; अग्गसावकस्स हीनेन लामकेन मनसा चित्तेन अभदकं असुन्दर अयुक्तक
अप. अट्ठ. 2.68; 2. नपुं., अकल्याण, बुराई कं द्वि० वि.. ए. व. तस्स पुग्गलस्स अभटक अनत्थं मनसापि न चिन्तेय्य न पिहेय्य, पे. व. अट्ठ 102 - केन तृ. वि., ए. व.- अपरभागे पापेन अभद्दकेन अनत्थकेन बाधति, पे. व. अट्ट. 102.
अमन्त त्रि. [ अभ्रान्त], प्रशान्त, भ्रम में नहीं पड़ा हुआ, व्युपशान्तनां नपुं. प्र. वि. ए. व. अभन्तं होति मे चित्त, अखिलो होमि कस्सचि अप. 1.355.
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अमब्ब त्रि.. [ अभव्य ]. क. अक्षम, असमर्थ नहीं हो सकने योग्य ब्बो पु. प्र. वि. ए. व. चतूहपायेहि च विप्यमुतो
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अभब्ब
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235;
छच्चाभिठानानि अभब्बो कातुं सु. नि. 234 अभबो सो तस्स पटिच्छदाय, अभब्बता दिट्ठपदस्स वुत्ता, सु० नि० ख. अयोग्य, अनाड़ी ब्बा पु. प्र. वि. ब.व. ये पन सत्ता अभब्बा, ते धम्मामतेन हज्ञन्ति पतन्ती ति. मि. प. 164; ग. अकुशल, विपाक न देने वाला, दुर्बल - अत्थि कम्मं अभलं अभब्याभासं म. नि. 3263: अभब्यन्ति भूतविरहितं अकुसल म. नि. अड. (उप. प.) 3.193 द्वान नपुं. [ अभव्यस्थान ]. क. अनुपयुक्त अवस्था, अनर्ह अवस्था नं द्वि. वि. ए. व. इमे अह अत्तनो किरियाय विपन्नता अभवद्वानं पत्ताति पाराजिकार पारा, अट्ट, 293 अभवद्दाने वज्जेत्वा वारयन्ती अनाचार अप. 2.221; ख. अकरणीय बातें, अनैतिक आचरण नानि प्र. वि. ब. व. पञ्च अभवद्दानानि दी. नि. 3.187 द्वान्त नपुं.. [ अभव्यस्थानत्व] अनुपयुक्त अवस्था का होना त्ता प वि. ए. क. बोधिसत्ता हि अरूपरामापत्तिलाभिनो हुत्वापि अभब्बद्वानत्ता आरुप्पे न निब्बत्तन्ति, जा. अड्ड, 1.388; - ता स्त्री. अभव्य का भाव, अनुपयुक्तता, अयोग्यता, अक्षमता अभब्बता वुत्ता, अ० नि० 1 ( 1 ) 263; न हि मया अरियपुग्गलस्स अभव्यता कथिता अ. नि. अट्ट. 2.208
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तृ.वि., ए. व. रज्जुमालापि अत्तानं विनिपातेतुं अभव्यताय खन्तिमेत्तानुदयसम्पन्नताय... वि. क. अड्ड, 175; -त्त नपुं, अभब्ब का भाव [ अभव्यत्व], उपरिवत् - त्ता प० कि.. ए. व. मातरं जीविता वोरोपनादीनं अभब्बत्ता आयेन कारणेन... अत्थो दी. नि. अ. 2.297 पुग्गल पु.. [अभव्यपुद्गल]. अकुशल कर्मों को करने वाला व्यक्ति, अनुत्तम व्यक्ति, अयोग्य या असमर्थ व्यक्ति - लेन तृ. वि., ए. व. अभव्यपुण्गलेन मया भवितव्यन्ति वीरियं ओस्सजित्वा आगतोम्हीति जा. अड. 1.114 ला प्र. वि. ब. व. - एकादस अभब्बपुग्गला, पारा. अट्ठ. 2.93; - ब्बागमन त्रि. ब. स. उच्च आध्यात्मिक अवस्था तक पहुंचने में अयोग्य, आध्यात्मिक उन्नति प्राप्त करने के लिये अक्षम नो पु.. प्र. वि. ए. व. कतमो ध पुग्गलो अभव्यागमनो ? ये ते पुग्गला कम्मावरणेन समन्नागता, पु० प० 119; अभब्बागमननिद्दे से सम्मत्तनियामागमनस्स अभब्बोति अभब्बागमनो, पु. प. अट्ठ० 36: - ब्बापत्तिक त्रि०, ब० स०, भिक्षुसंघ द्वारा निर्धारित किसी भी अपराध का दोषी न होने योग्य को पु. प्र. वि. ए. व. अभव्यापत्तिको को च. - भब्बापत्तिकोपुग्गलो, उत्त. वि. 433; - ब्बाभास त्रि०, ब० स० [ अभव्याभास], दूसरे दुर्बल अकुशल को अभिभूत कर लेने
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अभय
वाला सं नपुं. प्र. वि., ए. क.. अत्थि कम्मं अभब्ब अभब्बाभासं ..., म. नि. 3.263; अभब्बाभासन्ति अभब्बं आभासति अभिभवति पटिबाहतीति अत्यो, म नि. अट्ट (उप.प.) 3.193; - ब्बुपपत्तिक त्रि०, ब० स० [ अभव्युत्पत्तिक], पुनः जन्म न लेने वाला, पुनः उत्पन्न न होने वाला को पु.. प्र. वि., ए. व. पटिपस्सद्धो अभब्बुप्पत्तिको आणग्गिना दडो, महानि, 38 अभब्बुप्पत्तिकोति पुन उप्पज्जितुं अमबो, महानि, अड. 133.
"
ए.
अभय' क्र. व. स. [ अभय ] भय रहित सुरक्षित, निर्भय, भयमुक्त यो पु. प्र. वि. ए. व. खेगी अवेरी अभयो, पण्डितोति पवुच्चति, ध. प. 258 - या स्त्री. प्र. वि., व. दिसा अभया अनीतिका अनुपहवा, पारा. 254 यानि नपुं. प्र. वि. ब.व. येन येन सुभिकखानि सिवानि अभयानि च, थेरगा. 82.
अभय' नपुं., [अभय], शा. अ. भय का अभाव, ला. अ. कल्याण की अवस्था, निर्वाण ये सप्त. वि., ए. व. अभये भयदस्सिनो भये चाभयदस्सिनो ध. प. 317: भया पमुत्तो अभये विमुत्तो. स. नि. 1 ( 1 ). 181 अभयेति निब्बाने स. नि. अट्ट. 1.194; - यं द्वि. वि., ए. व. ओलोकेन्तो द्वे सुवण्णमिगे दिस्वा तेस अभय अदासि, जा. अड. 1.154. अभय' पु,, [अभय], 1.क. अत्थदस्सी बुद्ध का प्रधान सेवक या उपस्थापक अभयो नामुपट्टाको अत्थदस्सिस्स सत्थुनो, बु. वं. 16.19; जा. अ. 1.49 ख. लिच्छवी राजकुमार का नाम अभयो च लिच्छवि येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु अ. नि. 1 (2). 229; ग. एक राजकुमार का नाम, जो बिम्बिसार तथा पद्मावती का पुत्र था अभयो नाम राजकुमारो कालस्सेव राजुपद्वानं गच्छन्तो. महाव. 357; राजकुमारवत्थु नपुं. ध. प. अ. का एक खण्ड का शीर्षक, ध. प. अ. 2.94-95; - राजकुमारसुत्त नपुं., म. नि. के एक सुत्त का शीर्षक, म. नि. 2.62; घ. श्रीलंका के अनेक राजाओं या महान् व्यक्तियों का नाम 1 ओजदीप के अभयपुर के एक राजा का नाम ओजदीपेभयपुरे अभयो नाम खत्तियो, दी. वं. 15.37; कदम्बनदिया पारे तत्थ राजाभयो अहु, म. वं. 15.59 2. पाण्डवों या पाण्डुवासुदेव के ज्येष्ठपुत्र का नाम सब्बजेहोभयो नाम म. वं. 9.1 3. मुटसीव के पुत्र का
नाम
मुटसीवस्स अत्रजा अथ दस भातुका, दी. वं. 11.7 4. दुलगामणि अभय - दुगामणि सद्देन पाकटो भयनामको म. वं. 15.172 दी. वं. 19.24; 5. देव (खञ्जदेव) के पिता का नाम अभयस्सन्तिमो पुत्तो देवो नामासि
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अभयगत
462
अभयपत्त
थामवा, म. वं. 23.78; 6. यट्ठालायक तिस्स का पुत्र - अभयघोसना स्त्री.. [अभयघोषणा], उन्मुक्ति की घोषणा, तस्स पुत्तो भयो तथा, म. वं. 22.10; 7. कुटिकण्ण के पुत्र निरापदता या असंक्राम्यता की उदघोषणा - नं द्वि. वि., ए. (एक राजकुमार) का नाम - पूजिता कुटिकण्णेन अभयेन व. - चतूसु कण्णेसु देवसिकं अभयघोसनं घोसापेसि, जा. यसस्सिना, दी. वं. 18.38; कुटिकण्णस्स अत्रजो अभयो अट्ठ. 4.382. नाम खत्तियो, दी. वं. 21.1; 8. वट्टगामणि अभय - वडगामणी अभयङ्कर त्रि., [अभयङ्कर], अभयदान देने वाला, सुरक्षा करने अभयो एवं द्वादसवस्सक, दी. वं. 20.19; 9. आमण्डगामणी वाला, भगवान् बुद्ध का एक अभिधान - र संबो., ए. व. - का पुत्र - आमण्डगामणी भयो महादाठिकअच्चये, म. वं. नमो ते सब्बलोकग्ग, नमो ते अभयङ्कर, अप. 2.147. 35.1; 10. चूळाभय - आमण्डगामणीपुत्तो चूळाभयो ति अभयद त्रि., [अभयद], सुरक्षादायक, सुरक्षा देने वाला - विस्सुतो... रज्जं कारेसि वस्सेकं चूळाभयमहीपति, दी. वं. दो पु., प्र. वि., ए. व. - अपिच अभयदो विय वीरपुरिसो 21.38; 11. अभयनाग - अभयस्सच्चये भातु ... द्वे वस्सानि बुद्धो, खु पा. अट्ठ. 12; - दस्स पु, ष. वि., ए. क - सिरिनागो लङ्कारज्जं अकारयि, म. वं. 36.54.
तस्सामयस्साभयदस्स भातु राजाभिसेकं अकरुं उळारं म. वं 929. अभयगत त्रि., [अभयगत], शा. अ. सुरक्षा की स्थिति में अभयदक्खिणा स्त्री., [अभयदक्षिणा], सुरक्षित या भयरहित पहुंचा हुआ, भयरहित स्थिति को प्राप्त; ला. अ. निर्वाण की स्थिति का उपहार, अभयदान - णं द्वि. वि., ए. व. - दत्वा अवस्था को प्राप्त - तो पु., प्र. वि., ए. व. - सरणगतो अभयदक्खिणं, जा. अट्ठ. 4.234. सरणप्पत्तो अभयगतो... निब्बानप्पत्तो, महानि. 15; अभयगतोति अभयदस्सी त्रि., [अभयदर्शिन], अभयदर्शी, किसी में या मग्गेन निभयं गतो, महानि. अट्ट. 65.
कहीं भी भय न देखने वाला, निर्भीक - स्सिनो पु., प्र. वि., अभयगल्लक पु., श्रीलङ्का के एक विहार का नाम - कं द्वि. ब. व. - अभये भयदस्सिनो, भये चाभयदस्सिनो, ध. प. 317. वि., ए. व. - मण्डवापिविहारं सो तथा अभयगल्लक ..... अभयदान नपुं० [अभयदान], उन्मुक्ति का दान, निर्भयता कारयि, म. वं. 34.8.
का दान, निर्भीकता का उपहार - नं द्वि. वि., ए. व. - अभयगिरि पु., [अभयगिरि], अभय के द्वारा निर्मित श्रीलंका अभयदक्खिणं याचेय्यामाति अभयदानं याचेय्याम, स. नि. के एक विहार या सङ्घाराम का नाम - विहारं द्वि. वि., ए. अट्ट, 1.302; - प्पकासन नपुं., भयरहित अवस्था की व. - अभयगिरिविहारं सो पतिद्वापेसि भूपति, म. वं. 33.81; घोषणा, निर्भयता का प्रकाशन - रो सन्तिके वसित्वा - पब्बत पु., विजयपुर में अवस्थित अभयगिरि नाम का एक नगरे सब्बसत्तानं अभयदानपकासनत्थं सवण्णभेरि चरापेत्वा पर्वत - ते सप्त. वि., ए. व. - कच्चायनवण्णनं पन। ..., जा. अट्ठ. 3.240. विजयपुरेयेव अभयगिरिपब्बते निसिन्नो महाविजितावी नाम अभयदायक त्रि., [अभयदायक], उन्मुक्ति देने वाला, सुरक्षा थेरो अकासि. सा. वं. 85(ना.); - वासी पु., अभयगिरि में देने वाला - को पु., प्र. वि., ए. व. - एसो वीसति वस्सानि रहने वाले भिक्षुओं का वर्ग - सीनं ष. वि., ब. व. - अभयो भयदायको, म. वं. 10.52... महासेनस्स नाम रओ काले अभयगिरिवासीनं भिक्खूनं अभयनाग पु., श्रीलङ्का के एक राजा का नाम - विस्सुतोभयनागो ..., सा. वं. 24(ना.); - वासिगण पु., अभयगिरि में निवास ति कनिट्ठो तस्स राजिनो, म. वं. 36.42. करने वाले भिक्षुओं का एक गण - णतो प. वि., ए. व. - अभयपुर नपुं., ओजद्वीप में अवस्थित श्रीलंका के अभय अभिसङ्घरित्वा अभयगिरिवासिगणतो विसुंएको गणो अहोसि. नामक राजा की राजधानी का नाम - रं प्र. वि., ए. व. - सा. वं. 23(ना.); - विहारवासी त्रि., उसी विहार में रहने राजा अभयो नाम, नगरंअभयपुरं नाम, पारा, अट्ठ. 1.60; - रे सप्त. वाला - सो च दुविधा पुब्बारामविहारवासी - वि., ए. व. - ओजदीपेभयपुरे अभयो नाम खत्तियो, दी. वं 15.37. अभयगिरिविहारवासीवसेनाति, सा. वं. 156(ना.).
अभयपत्त त्रि., [अभयप्राप्त], निर्भयभाव को प्राप्त, क्षेमप्राप्त, अभयगिरिक पु., अभयगिरि में निवास करने वाला भिक्षुसङ्घ, सुरक्षा प्राप्त, वह, जिसने सुरक्षा प्राप्त कर ली है, निर्वाण की स्थविरवाद से फूट कर निकली हुई भिक्षुओं की एक शाखा । अवस्था को प्राप्त कर चुका - त्तो पु., प्र. वि., ए. व. - - का प्र. वि., ब. व. - एवं तेभयगिरिका निग्गता थेरवादतो. असमनुपस्सन्तो खेमप्पत्तो अभयप्पत्तो वेसारज्जप्पत्तो विहरामि. म. वं. 33.97; - केहि तृ. वि., ब. व. - पभिन्नाभयगिरिकेहि । म. नि. 1.105; सो पारं गतो पारप्पत्तो... अभयगतो अभयप्पत्तो, दक्खिणविहारका यती, म. वं. 33.98.
महानि. 15.
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अभयप्पद
463
अभाजनभूत अभयप्पद त्रि., [अभयप्रद], उन्मुक्ति देने वाला, सुरक्षा अभयाभिसेक पु., [अभयाभिषेक], म. वं. के एक अध्याय प्रदान करने वाला, निर्भय भाव को देने वाला - दो पु., प्र.. का शीर्षक, म. वं. परिच्छेद 10. वि., ए. व... अनाथानं भवं नाथो, भीतानं अभयप्पदो, अप. अभयुत्तर पु., क. श्रीलंका के अभयगिरि में अवस्थित 2.147.
एक मठ का नाम - रं द्वि. वि., ए. व. - अभयभीरुता स्त्री., भयभीरु के भाव. का निषे., भयों अनुसम्पवच्छर नेत्वा विहार अभयुत्तरं तेसं पूजाविधि से नहीं डरना, कायरता या डरपोकपन का अभाव कातुं एवंरूपं नियोजयि, म. वं. 37.97; धातुं विहारं - य तृ. वि., ए. व. - कुसलूपदेसे... अनिवत्तितत्ता अभयुत्तरमेव नेत्वा पूजं विधातुं अनुवच्छरमेवरूपं. दाठा. वं. भयभीरुताय च, जा. अट्ठ 1.449; अनिवत्तितत्ता 5.67; ख. एक महास्तूप का नाम - अभयुत्तरं महाथूपं भयभीरुताय चाति भयभीरुताय अनिवत्तितताय च, तदे. वड्डत्वा चिनापयि, म. वं. 35.119; ग. एक परिवेण (कक्ष, कुसलुपदेसे... अनिवत्तितत्ताभयभीरुताय च. ध. प. अट्ठ... कोठरी) का नाम - कप्पूरपरिवेणं सो कारेसि अभयुत्तरे चू. 2.329.
वं. 45.29. अभयमाता स्त्री., अभयमातु थेरी-गाथा की रचयित्री एक अभयूपरत त्रि., [अभयोपरत], किसी भय के कारण वैराग्य थेरी, थेरीगा. 33-34.
को ग्रहण न करने वाला, भयरहित होकर वैराग्य लेने वाला अभयराजव्ह त्रि., ब. स., विजयवाहु द्वारा निर्मित - तो पु.. प्र. वि., ए. व. - ततो न उत्तर समन्नेसति वनग्गामपासादमठ का अभयराज नामक एक परिवेण - व्हं अभयूपरतो... तमेनं समन्नेसमानो एवं जानाति- अभयूपरतो पु., द्वि. वि., ए. व. - राजा तत्थ वनग्गामपासादहविहारक अयमायस्मा, म. नि. 1,400; अभयूपरतोति अभयो हुत्वा ... कारेत्वा भयराजव्हं परिवेणं च तस्स सो... अदा, चू. वं. उपरतो, अच्चन्तूपरतो सततूपरतोति अत्थो, न वा भयेन 88.51-52.
उपरतोतिपि अभयूपरतो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2),279; सो अभयवापी स्त्री०, अनुराधपुर की एक बाबड़ी या सरोवर का हिसब्बसो समुच्छिन्नभयो, तस्मा अभयूपरतोति, पु. प. अट्ट. नाम, अनुराधपुर के विस्तृत आयताकार जलाशय का नाम - पिया ष. वि., ए. व. - यक्खं तु चित्तराजानं हेट्ठा अभयूवर त्रि., अदण्डनीय, अभय-प्राप्त - रा पु.. प्र. वि., ब. अभयवापिया, म. वं. 10.84; पादे पितलुपेत्वापि जले क. - अभयूवरा इमे समणा सक्यपुत्तिया, नयिमे लब्मा अभयवापिया, म. वं. 26.20.
किञ्चि कातुं, महाव. 94; - भाणवार नपुं., महा. के एक अभयवास पु., निश्चिन्त भाव से निवास, शान्ति के साथ भाग का शीर्षक, महाव. 91-104. निवास, सुरक्षित निवास - मिगानं पन अभयवासत्थाय अभरित त्रि., [अभरित], नहीं भरा हुआ, भीड़-भाड़ से रहित दिन्नत्ता मिगदायोति वुच्चति, दी. नि. अट्ठ. 2.55. - तो पु., प्र. वि., ए. व. - अप्फुटो असम्फुटो अभरितो वा, अभयसञा स्त्री., किसी चीज को भयरहित मानना, भय से दी. नि. अट्ठ. 2.152. रहित होने की समझ - जाय तृ. वि., ए. व. - अभव पु.. [अभव], विपत्ति, विनाश, दुर्भाग्य, हानि, अवृद्धि -
भयदस्सनेन सभयेसु अभयसआय, सु. नि. अट्ठ. 1.8. वो प्र. वि., ए. व. - भवो च रुओ अभवो च रुओ, दासाह अभयसुत्त नपुं.. म. नि. के एक सुत्त का शीर्षक, म. नि. देवस्स परम्पि गन्त्वा , जा. अट्ठ. 7.178; - वेन तृ. वि., ए. 2.62.
व. - अभवेनस्स न नन्दति, भवेनस्स नन्दति, दी. नि. अभया' स्त्री., [अभया], हरे, हरीतकी - अभया तु हरीतकी. 3.143. अभि. प. 569.
अभस्सथ भिस्स से निष्पन्न, अद्य., प्र. पु.. ए. व., गिर पड़ा, अभया' स्त्री., एक थेरी (स्थविरा) का नाम, थेरीगा. की एक गिर गया - तस्स सोकपरेतस्स, वीणा कच्छा अभस्सथ, सु. गीति की रचना करने वाली कवयित्री का नाम, थेरीगा. नि. 451. 35-36.
अभाजनभूत त्रि., [अभाजनभूत], अयोग्य, पात्रताविहीन, अमयाचल पु., [अभयाचल]. एक पर्वत का नाम, अभयगिरि अक्षम, असमर्थ, अपात्र, नालायक, निकम्मा - तो पु., प्र. - ले सप्त. वि., ए. व. - महालेखं च कारेसि परिवेणं वि., ए. व. - अयं अभाजनभूतोति मुखबन्धमस्स अकासि, अभयाचले. चू. वं. 48.135.
सु. नि. अट्ट.2.232.
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अभाजित
464
अभावित
अभाजित त्रि., भज के प्रेर. का भू. क. कृ. [अभाजित], व., अवर्तमानता, अविद्यमानता - सुखविहारिता अकुतोभयता वह, जो आवण्टित न हो, जो बांटा न गया हो, जिसका पियविप्पयोगा भावताति एवमादीनि, खु. पा. अट्ठ. 24; - विभाजन न किया गया हो - भाजिताभाजितं न जानाति, धम्म त्रि., ब. स. [अभावधर्म], विनाशशील, अनित्य, विकारी, अ. नि. 2(1).258.
विनश्यमान - म्म नपुं., प्र. वि., ए. व. - इदं पन अनिच्चं अभायनक त्रि., vभी से व्यु., क्रि. ना. का निषे०, नहीं डरने । हुत्वा अभावधम्म, जा. अट्ठ. 3.137. वाला, भय न करने वाला - मरणस्स अभायनकसत्तो नाम अभावना स्त्री., क. कुशलधर्मों को विकसित करने के प्रयास नत्थि जा. अट्ठ. 5.29.
का अभाव, ध्यानभावना का अभाव - कुसलानं वा धम्मानं अभायितब्ब त्रि., vभाय के सं. कृ. का निषे., नहीं डराए भावनाय असक्कच्चकिरियता ... अभावना, खु. पा. अट्ठ.
जाने योग्य, भयभीत न किए जाने योग्य, भयाक्रान्त न होने 115; ख. अभावेति का क्रि. ना.. विनष्ट कर देना, वाला - तब्बं पु., वि. वि., ए. व. - किर अभायितब्ब तिरोधानता, अन्तर्धानता - अथ वा विभावना ति अभावना भायन्ति गण्डुप्पादो किकी कुन्तनी ब्राह्मणाति, सु. नि. अट्ट अन्तरधापना, सद्द, 1.81. 2.47; - तब्बे नपुं., सप्त. वि., ए. व. - अतसितब्बे अभावनीय त्रि., Vभू के प्रेर. के सं. कृ. का निषे. [अभावनीय]. अभायितब्बे ठानम्हि, ..., स. नि. अट्ठ. 2.244.
असम्माननीय, जो आदरणीय न हो, अप्रिय - यो पु.. प्र. अभारिक पु.. [अभारिक], भार-रहित, अकठिन, आसान - वि., ए. व. - धम्मेहि समन्नागतो कुलूपको भिक्खु कुलेसु
को पु., प्र. वि., ए. व. - अगरूति अभारिको, दी. नि. अट्ठ. अप्पियो च होति अमनापो च अगरु च अभावनीयो, अ. नि. 1.204.
2(1).128. अभारियता स्त्री., अभारिय का भाव., बोझिल नहीं होना, अभावाकार पु.. [अभावाकार], अनस्तित्व की अवस्था या भारी न होना, अकठिनता - अदन्धानताति स्थिति, अस्तित्वहीनता की अवस्था - रेन तृ. वि., ए. व. गरुभावपटिक्खेपवचनमेतं, अभारियताति अत्थो, ध. स. अट्ठ. - अनिच्चाति आदीसु हुत्वा अभावाकारेन अनिच्चा, स. नि. 194.
अट्ठ. 2.135. अभाव पु., [अभाव], अविद्यमानता, अस्तित्व का न होना, अभावी त्रि.. [अभाविन]. क न होने वाला, विनश्यमान, वह, अस्तित्व का अभाव, विध्वंस, क्षय - वं द्वि. वि., ए. व. - जिसके होने की कोई आशा नहीं है - विनो पु.. प्र. वि., परिक्खयं अभावं गच्छन्तीति अत्थो, ध. प. अट्ठ. 2.258; ब. व. - ननु अनिच्चा सब्बे सङ्घारा हुत्वा अभाविनोति, जा. कामगुणेति कामकोट्ठासे हुत्वा अभावढेन अनिच्चतो, जा. अट्ठ. 4.45-46; ख, नपुंसक, हिजड़ा, लैङ्गिक-प्रभेद से रहित अट्ठ. 5.143; - वेन तृ. वि., ए. व. - पारुपनस्स हि - विनो ष. वि., ए. व. - तत्थेवन्धबधिरस्स, पञ्च होति अभावेन न सक्का अम्हेहि एकतो गन्तुन्ति, ध. प. अट्ठ. अभाविनो, सच्च. 65.. 2.2; अभावोधिपतीनञ्च, अयमेव विसेसको, अभि. अव. 12; अभावित त्रि., भू के प्रेर. के भू. क. कृ. का निषे. - क त्रि., क. लैङ्गिक विभेदन से रहित, हिजड़ा, नपुंसक, [अभावित], ध्यान-भावना द्वारा विशुद्ध न किया हुआ, पण्डक - को पु.. प्र. वि., ए. व. - यो पन पटिसन्धियंयेव असंस्कृत, अपरिष्कृत - तं नपुं., द्वि. वि., ए. व. - एवं अभावको उप्पन्नो, महाव. अट्ठ. 282; - गव्मसेय्यक त्रि., अभावितं चित्तं रागो समतिविज्झति,ध. प. 13; अभावितन्ति लिङ्ग-विहीन भ्रूण - कानं पु., ष. वि., ब. व. - नामरूपे तं अगारं वुद्धि विय भावनाय रहितत्ता अभावित चित्तं रागो यस्मा अभावकगमसेय्यकानं अण्डजानञ्च पटिसन्धिखणे समतिविज्झति, ध, प. अट्ठ. 1.71; - ता स्त्री.. प्र. वि., ए. वत्थुकायवसेन, विभ. अट्ठ. 160; अभावगब्भसेय्यानं, व. - भिक्खुनो मेत्ताचेतोविमुत्ति अभाविता सो सुप्पधंसियो अण्डजानञ्च वीसति, अभि. अव. 99; ख. अभाव वाला - होति अमनुस्सेहि स. नि. 1(2).241; - काय त्रि., अपरिशुद्ध कं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - एता हि रूपमाकासं, विज्ञआणं कायिक कर्मो वाला - एकच्चो पुग्गलो अभावितकायो होति. तदभावक अभि. अव. 133; - करण नपुं.. विनाश, विध्वंस, अ. नि. 1(1),282; अभावितकायोतिआदीहि कायभावनारहितो अपनयन, निरोध, अप्रसारण, अवसान, समापन - णं द्वि. वट्टगामी पुथुज्जनो दस्सितो. अ. नि. अट्ठ. 2.218; - वि., ए. व. - गत्यवसारणं गतिया अवसारणं ओसारणं कायगतासति त्रि., ब. स., वह, जिसकी कायविषयक अभावकरणं.... सद्द. 2.352; - ता स्त्री., भाव., प्र. वि., ए. स्मृति सुविकसित या सुपरिशोधित नही है - ति पु.. द्वि.
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अभावेति
465
अभिकखन
वि., ए. व. - एवं अभावितकायगतासति पुग्गलं अल्लमत्तिकपुजादीहि उपमेत्वा ..., म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.106; - चित्त त्रि., ब. स. [अभावितचित्त], अपरिशोधित चित्त वाला - त्तो पु.. प्र. वि., ए. व. - अभावितचित्तो तसति रवति भेरवरावमभिरवति, मि. प. 237; - पञ त्रि., ब. स. [अभावितप्रज्ञ], अपरिशोधित प्रज्ञा वाला - स्स पु.. ष. वि., ए. व. - सद्दो अभावितकायस्स... अभावितपञ्जरस काये नमिते विरमिस्सति, मि. प. 95; - सील त्रि., ब. स., असंस्कृत आचरण वाला - ला पु०, प्र. वि., ब. व. - अभावितकाया अभावितसीला अभावितचित्ता अभावितपञा ..., स. नि. 2(2).119. अभावेति अभाव के ना. धा. का वर्त., प्र. पु.. ए. व., विनष्ट या तिरोहित कर देता है, विलुप्त कर देता है - अट्ठ वा विभावेति अभावेति अन्तरधापति, सद्द. 1.5; द्रष्ट. अभावना. अभासन नपुं.. [अभाषण]. चुप्पी, मौन, निःशब्दता - नं प्र. वि., ए. व. - मोनं अभासनं तुण्ही भावो, अभि. प. 429; तुण्ही इति अभासने तुण्हीभूतो उदिक्खेय्य, सद्द. 3.899. अभासनेय्य त्रि., vभास के सं. कृ. का निषे. [अभाषणीय], न बोले जाने योग्य, न कहने योग्य - य्यं नपुं., वि. वि., ए. व. -- यं पित्वा भासेय्य अभासनेय्यं.... जा. अट्ठ. 5.15. अभासित त्रि., भास के भू. क. कृ. का निषे॰ [अभाषित]. नहीं कहा गया, अकथित, वह, जिसका कथन न किया गया हो- तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अभासितं अलपितं तथागतेन भासितं लपितं तथागतेनाति दीपेति, महाव. 476; - तानं स्त्री., ष. वि., ब. व. - कथं नु कथानं अभासितानं, अत्थं नयेय्यु कुसला जनिन्दाति, जा. अट्ठ. 7.150. अभासितब्ब त्रि., vभास के सं. कृ. का निषे. [अभाषितव्य]. न कहने योग्य, वह, जिसे न कहा जाना चाहिये, अनिर्वचनीय - तो नपुं.. प. वि., ए. व. - कस्मा? अभासितब्बतो. सु. नि. अट्ठ. 2.112. अभि अ., धातुओं एवं क्रि. ना. से पूर्व लगाया जाने वाला अनेकार्थवाचक उप. [अभि]. 1. परम्परागत अर्थ- अयहि अभिसद्दो वुडिलक्खणपूजितपरिच्छिन्नाधिकेसु दिस्सति, दी. नि. अट्ठ. 1.18; अभिमुख्यविसिदुद्धकम्मसारूप्पबुद्धिसु. पूजाधिककुलासच्चलक्खणादिम्हि चाप्यभि, अभि. प. 1176; 2. कुछ प्रमुख अर्थ क. की ओर, की दिशा में, अभिमुख - अभिमुखीभावे अभिमुखो, अभिक्कमति, सद्द. 3.883; ख. विशिष्ट, प्रधान, प्रमुख, अतिरिक्त - केनटेन अभिधम्मो? धम्मातिरेकधम्मविसेसद्वेन. ध. स. अट्ठ. 4; ग. ऊर्ध्वकर्म,
ऊपर से, ऊपर होकर, ऊपर की ओर, उत्तम, उत्कृष्ट - राजापि दन्तमेव अभिरुहति, ध. प. अट्ठ. 2.284; घ. (सारूप्य या सौन्दर्य की) उत्कृष्टता का द्योतक -- अभिरूपोति दस्सनीयङ्गपच्चङ्गो, सु. नि. अट्ठ. 2.101; ङ. (कुल की) उत्तमता, श्रेष्ठता या विशिष्टता का सूचक - रुओ खत्तियरस अभिजातकुलकुलीनस्स खत्तियाभिसेकेन अभिसित्तस्स परिचरन्ति, मि. प. 323; खत्तियं जातिसम्पन्न, अभिजातं यसस्सिनं, स. नि. 1(1).85; च. (पूजन, वन्दन अथवा आदरभाव की) गम्भीरता का सङ्केतक - यथानग्गाव सावत्थिं गन्त्वा भिक्खू अभिवादेन्ति, पारा. 322; छ. अधिकता या प्रचुरता का बोधक - सा पुञधारा विपुला, दातारं अभिवस्सति, स. नि. 1(1).119; ज. भेदबोधक विशिष्ट चिह्न, लक्षण या संकेत का सूचक - रुक्खं अभिविज्जोतते विज्जु, सद्द, 3.883; झ. किसी के प्रति, किसी के विषय में - साध देवदत्तो मातरं अभि, सद्द. 3.883; ञ. चारों ओर, चतुर्दिक, सभी ओर - रुक्खं रुक्खं अभिविज्जोतते चनदो, सद्द. 3.883. अभिआचिक्खन्ति अभि + आ + चिक्ख का वर्त., प्र. पु.. ब. व., स्पष्ट रूप से कहते हैं - अब्भाचिक्खन्तीति अभिआचिक्खन्ति, दी. नि. अट्ठ. 3.13. अभिआगत त्रि., [अभ्यागत], किसी की ओर उन्मुख होकर आया हुआ, अतिथि- तानं पु, ष. वि., ब. व. - अभागतानन्ति अभिआगतानं, वि. व. अट्ठ. 18. अभिकंखति अभि + किंख का वर्त., प्र. पु., ए. व. [अभिकाडक्षति], अत्यधिक इच्छा करता है, प्रबल अभिलाषा करता है, प्रतीक्षा करता है, अपेक्षा करता है - सा जम्मी लामिका सुप्पमुसलेहि सद्धिं उदुक्खलं अभिकङ्घति इच्छतीति. जा. अट्ठ. 2.353; - सि वर्त, म. पु. ए. व.- केन करसप, धीरस्स दस्सनं अभिकङ्घसि, जा. अट्ठ. 4.216; - सामि उ. पु., ए. व. - वाचाभिकवामि महेसि तुम्ह, सु. नि. 1067; निस्नेहमभिकवामि, एते मे चतुरो वरेति, जा. अट्ठ. 4.10; - न्तं वर्त. कृ., पु., वि. वि., ए. व. - अमतं अभिकङन्तं, कतं कत्तब्बकं मया, थेरगा. 330; - ता वर्त. कृ.. पु., तृ. वि., ए. व. - हि अत्तकामेन महत्तमभिकङ्घता, स. नि. 1(1).166; महत्तमभिकताति महन्तभावं पत्थयमानेन.., स. नि. अठ्ठ. 1.180. अभिकंखन नपुं. अभि +vकंख से व्यु., क्रि. ना. [अभिकांक्षन], आकांक्षा, इच्छा, अभिलाषा - अत्थुप्पत्तिकालं अभिकङ्घनत्थाय, म. नि. अठ्ठ. (मू.प.) 1(2).55; - सभाव त्रि.. ब. स.,
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अभिकखा
466
अभिक्कन्त
स्वभाव से ही इच्छाएं रखने वाला, स्वभाव से ही स्पृहालु - वेन नपुं, तृ. वि., ए. व. - गिद्धाति अभिकलनसभावेन
अभिज्झनेन गिद्धा गेधं आपन्ना, उदा. अट्ठ. 296. अभिकंखा स्त्री., [अभिकाङ्क्षा], कामना, इच्छा, लालसा - यं सप्त. वि., ए. व. -- गिधु अभिकखायं, सद्द. 2.484; गद्ध
अभिकखायं, सद्द. 2.548. अभिकंखी त्रि., [अभिकाङ्क्षिन्], लालसा करने वाला -
खी पु., प्र. वि., ए. व. - तस्स च पुरिसस्स पाहुनको आगच्छेय्य भत्तारहो भत्ताभिकङ्घी, मि. प. 116; - डिनी स्त्री., प्र. वि., ए. व. - तदा मुदितचित्ताहं, तं ठानमभिकलिनी, अप. 2.226. अभिकंखित त्रि., [अभिकाक्षित], चाहा हुआ, इच्छित, अभिलषित, अभिप्रार्थित - ता पु., प्र. वि., ब. व. - अनभिच्छिताति न अभिकविता, वि. व. अट्ट. 169; - तं नपुं... प्र. वि., ए. व. - नाभिकखामि मरणं, अभिकखितं धनं, सद्द. 2.330. अभिकिण्ण त्रि., अभि + किर का भू. क. कृ. [अभिकीर्ण], आच्छन्न, आच्छादित, भरा हुआ, व्याप्त - ण्णो पु., प्र. वि., ए. व. - सकलविहारो मिस्सकपप्फेहि अभिकिण्णो विय अहोसि, अ. नि. अट्ठ. 2.32; - ण्णं नपुं., प्र. वि., ए. व. - पुप्फाभिकिण्णन्ति पुप्फेहि अभिकिण्णं, वि. व. अट्ठ. 29; -- ण्णे सप्त. वि., ए. व. -- पुफाभिकिण्णम्हीति गन्थितेहि च ... च अभिकिण्णे, वि. व. अट्ठ. 238.. अभिकिरति/अभिकीरति अभि + किर का वर्तः, प्र. पु., ए. व. [अभिकिरति], शा. अ. ऊपर तक भर जाता है, पूरी तरह से भर जाता है, ला. अ. अभिभूत करता है, विनष्ट कर देता है - दीपं कविराथ मेधावी, यं ओधो नाभिकीरति, ध. प. 25; यं ओधो नाभिकीरतीति यं... अभिकिरितुं विद्धसेतुं न सक्कोति, ध. प. अट्ठ. 1.145; - कीररे वर्त., प्र. पु., ब.. व., आत्मने. -- कन्दितरुदितं निरत्थक, कि वो
सोकगणाभिकीररे, जा. अठ्ठ. 3.49. अभिकीळति अभि + ।कीळ का वर्त., प्र. पु., ए. व. [अभिक्रीड़ति], खेलता है, क्रीड़ा करता है - बहुविध धम्मकीळमभिकीळति, मि. प. 324. अभिकूजति अभि + कूज का वर्त, प्र. पु., ए. व., कूजता है, शब्द करता है, मधुर ध्वनि करता है - जन्ति ब. व. -
अभिकूजन्ति ते तत्थ, सोभयन्ता ममस्सम, अप. 1.403. अभिकूजित त्रि., अभि + कूज का भू. क. कृ. [अभिकूजित]. कूजन किया हुआ, शब्दित, ध्वनित, पक्षियों की चहचहाहट
से भरा हुआ- ता स्त्री., प्र. वि., ए. व. - हंसकोञ्चाभिरुदा,
च चक्कवक्काभिकूजिता, पे. व. 350. अभिक्कन्त' त्रि., अभि + ।कम का भू, क. कृ. [अभिक्रान्त],
शा. अ. पार किया हुआ, बीत चुका, प्रिय, सम्मोहक, अभिरूप, प्रशंसनीय - अभिकन्तसद्दो खयसुन्दराभिरूपअब्भनुमोदनेसु दिस्सति, पारा. अट्ट, 1.128; - न्तो पु., प्र. वि., ए. व. - वाच्चलिङ्गो अभिक्कन्तो सुन्दरस्मिमभिक्कमे, अभि. प. 836; विशेष अर्थ में - क. काफी आगे बढ़ा हुआ, पार किया हुआ, बीत चुका, क्षीण हो चुका - न्ता स्त्री., प्र. वि., ए. व. - अभिक्कन्ता खो... रत्ति, दी. नि. 2.68; अभिक्कन्ताति अतिक्कन्ता खीणा खयवयं उपेता, दी. नि. अट्ठ. 2.116; - न्ताय ष. वि., ए. व. - आयस्मा आनन्दो अभिक्कन्ताय रत्तिया .... उदा. 97; ख. आ पहुंचा, आ धमका - न्ता पु०, प्र. वि., ब. व. - देवकाया अभिक्कन्ता, ते विजानाथ भिक्खवो, दी. नि. 2.187; - क्कन्ते पु., वि. वि., ब. व. - दस्सनाय अभिक्कन्ते, नानावेरज्जके बहू, थेरगा. 1040; तं सुत्वा थेरो दस्सनाय अभिक्कन्तेति अपरं गाथमाह, थेरगा. अट्ठ. 2.362; ग. श्रेष्ठ, उत्तम, प्रशंसनीय - न्ता स्त्री., प्र. वि., ए.व.- अभिक्कन्ता हेसा, भो गोतम, यदिदं उपेक्खाति, अ. नि. 1(2).116; अभिक्कन्ता हेसा ... यदिदं तत्थ काल ता, तदे; - न्ते नपुं: सप्त. वि., ए. व. - ममं सावका अभिक्कन्ते आणदस्सने, म. नि. 2.211; घ. अतिसुन्दर, भव्य, शानदार, वैभवशाली, मनपसन्द - न्तेन पु., तृ. वि., ए. व. - अभिक्कन्तेन वण्णेन, या त्वं तिट्ठसि देवते, वि. व. 75; अभिक्कन्तेनाति अतिकन्तेन अतिमनापेन अभिरूपेनाति, वि. व. अट्ठ. 40; ङ. नपुं., प्रशंसा एवं वाहवाही देने हेतु प्रयुक्त, आश्चर्य, विस्मय अथवा अनुमोदन को सूचित करने के लिए प्रयुक्त, सुन्दर, भव्य, अतिसुन्दर, वाह वाह! - अभिक्कन्तं भन्ते, अभिक्कन्तं, भन्ते, दी. नि. 1.74; अभिक्कन्तं भो, गोतमा ति आदीसु अब्भनुमोदने, दी. नि. अठ्ठ. 1.184; अभिक्कन्तं, भो गोतम अभिक्कन्तं भो गोतमा ति, सु. नि. अट्ठ, 1.122; अथ वा अभिक्कन्तन्ति अभिकन्तं अतिइट्ठ अतिमनापं अतिसुन्दरन्ति वुत्तं होति, तदे. - तर त्रि., [अभिक्रान्ततर], अधिक सुन्दर, अधिक रमणीय - रो पु., प्र. वि., ए. व. -- इमेसं उभिन्नं वण्णानं अभिक्कन्ततरो च पणीततरो चाति, म. नि. 2.235; - रा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - नन्वाय... अभिक्कन्ततरा च पणीततरा, अ.नि. 3(2).172; -रं नपुं, प्र. वि., ए. व. - इमेहि सन्दिविकेहि सामञफलेहि अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्चाति, दी. नि. 1.55.
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अभिक्कन्त
467
अभिक्खिपित्वा
अभिक्कन्त नपुं., क. आगे की ओर बढ़ना, विकास की ओर बढ़ना, विकास, आगे की ओर बढ़ रहा कदम, प्रगति - न्तं प्र. वि., ए. व. - अभिक्कन्तं ते सेय्यो नो पटिक्कतन्ति, चूळव. 283; एकच्चस्स पुग्गलस्स पासादिकं होति अभिक्कन्तं पटिक्कन्तं... पसारितं. अ. नि. अट्ट. 1(2).120; - न्तेन तृ. वि., ए. व. - पसादिकेन अभिक्कन्तेन... पसारितेन, महाव. 45; पासादिकेन अभिक्कन्तेनाति आदीस... वेदितब्बं महाव. अट्ठ. 245. अभिक्कन्तदस्सावी त्रि., शुभ या मङ्गलमय देखने वाला, दृष्टि की उत्तम क्षमता रखने वाला, उत्तम रूप में देखने वाला - विं पु., वि. वि., ए. व. - एवं अभिक्कन्तदस्साविं, अत्थि पहन आगमं सु. नि. 1124; अभिक्कन्तदस्साविन्ति एवं अग्गदरसाविं, सु. नि. अट्ठ. 2.294. अभिक्कन्तवण्ण त्रि., ब. स. [अभिक्रान्तवर्ण], अतीव सुन्दर आभा वाला, अत्युत्कृष्ट दीप्ति या चमक से युक्त, भव्य- सौन्दर्य से परिपूर्ण - ण्णो पु., प्र. वि., ए. व. - अभिक्कन्तवण्णो केवलकप्पं गिज्झकूट ... तेनुपसङ्कमि, दी. नि. 2.162; अभिक्कन्तवण्णोति अतिइट्ठकन्तमनापवण्णो, दी. नि. अट्ठ. 2.215; - ण्णा स्त्री.. प्र. वि., ए. व. - अभिक्कन्ताय रतिया अभिक्कन्तवण्णा केवलकप्पं ... तेनुपसङ्कमि, उदा. 94; अभिक्कन्तवण्णाति अतिउत्तमवण्णा, उदा. अट्ठ. 141. अभिक्कम पु०, आगे बढ़ना, विकास, प्रगति, उन्नति, पास आना या पहुंचना, प्रयत्न, आरम्भ - मे प्र. वि., ए. व. - वाच्चलिङ्गो अभिक्कन्तो सुन्दरस्मिमभिक्कमे, अभि. प. 836; - क्कमो प्र. वि., ए. व. - अभिक्कमोसानं पञआयति नो पटिक्कमो, म. नि. 2.410; मया अभिक्कमो निब्बत्तितो ति वा सम्मुव्हन्ति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1.271. अभिक्कमति अभि + कम का वर्त., प्र. पु.. ए. व., आगे की ओर बढ़ता है, पास आ पहुंचता है, आक्रान्त हो जाता है, पीड़ित हो जाता है - सतोव अभिक्कमति सतोव पटिक्कमति, अ. नि. 2(2)41; सतोव अभिक्कमतीति गच्छन्तो सतिपाहि समन्नागतोव गच्छति, अ. नि. अट्ठ. 3.106; - मामि उ. पु.. ए. व. - अहं अभिक्कमामि... सम्मुव्हन्ति, दी. नि. अट्ठ. 1.156-157; अभिक्कमामी ति चित्ते उप्पज्जमाने तेनेव..... दी. नि. अट्ठ. 1.157; - मथ अनु., म. पु., ब. व. - अभिक्कमथायरमन्तो अभिक्कमथायस्मन्तो, महाव. 472; - मन्तु अनु., प्र. पु.. ब. क. - अभिक्कमन्तु भोन्तो लिच्छवी. म. नि. 1.294; - मिस्सामि भवि., उ. पु., ए. व. - अभिक्कमिस्सामि पटिक्कमिस्सामी ति हि चित्तं... समुठ्ठापेति,
ध. स. अट्ठ. 127; - क्कम अनु., म. पु., ए. व. - अभिक्कम गहपति अभिक्कम गहपति, चूळव. 283; - मथ अद्य., प्र. पु., ए. व., आत्मने. - अभिक्खमथ वेगेन, दिजसत्तु दिजाधिपे, जा. अट्ठ. 5.334; - क्कम्म पू. का. कृ. - सो च वेगेनभिक्कम्म, आसज्ज परमे दिजे, जा. अट्ठ. 5.334; - मितब्ब/मनीय त्रि., सं. कृ. - एवं ते अभिक्कमितब्बं, म. नि. 2.132; अत्थिकानं अत्थिकानं मनुस्सानं अभिक्कमनीयं चूळव. 286. अभिक्कमन नपुं.. [अभिक्रमण], आगे बढ़ना, उत्कर्ष, उन्नति, प्रगति - नं प्र. वि., ए. व. - अभिक्कमनं ते सेय्यो, नो पटिक्कमनन्ति, स. नि. 1(1).244. अभिक्कमापेति अभि + ।कम के प्रेर. का वर्त, प्र. पु., ए. व., आगे की ओर बढ़ने के लिये प्रेरित करता है, आगे की ओर बढ़ाता है - अत्तना सहजातं रूपकायं सन्थम्भेति ... अभिक्कमापेति पटिक्कमापेति, ध. स. अट्ठ. 127. अभिक्खण नपुं., अभि +/खण का क्रि. ना., प्रबल, उत्साह या उमङ्ग - णं प्र. वि., ए. व. - अभिक्खणन्ति खो, ... वीरियारम्भस्सेतं अधिवचनं, म. नि. 1.199. अभिक्खणं निपा., अ. [अभीक्षण]. पुनः पुनः, बारम्बार, निरन्तर, लगातार - अभिक्खणं उदानं उदानेन्तस्स .... उदा. 89; अभिक्खणन्ति बहुलं, उदा. अट्ठ. 129; धम्मपरियायं अभिक्खणं भासेय्यासि ... उपासकानं, दी. नि. 3.86; अभिक्खणं भासेय्यासीति पुनप्पनं भासेय्यासि, दी. नि. अट्ठ. 3.79. अभिक्खणन्त त्रि., अभि + Vखन का वर्त. कृ., शा. अ. चारों ओर से खोदता हुआ, ला. अ. पूरा प्रयास करता हुआ, भरपूर जोर लगा रहा - णन्तो पु.. प्र. वि., ए. व. - अभिक्खणन्तो सुमेधो सत्थं... कम्म, म. नि. 1.197. अभिक्खणातङ्क त्रि., ब. स., निरन्तर रोगी बना रहने वाला, निरन्तर विपत्ति में पड़ा हुआ-तको पु., प्र. वि., ए. व. -- जिण्णो वुड्डो ... आतुरकायो अभिक्खणातङ्को, स. नि. 2(1).2: अभिक्खणातङ्कोति अभिण्हरोगो निरन्तररोगो, स. नि. अट्ठ. 2.220. अभिक्खिपन्त त्रि., अभि + सिप का वर्त. कृ. [अभिक्षिपत्].
शा. अ. नीचे या इधर उधर फेंकता हुआ, ला. अ. अपमानित या तिरस्कृत करता हुआ - न्तो पु., प्र. वि., ए. व. - न भगवन्तं अभिक्खिपन्तो भणति, सु. नि. अट्ट, 1.112; पाठा. अवक्खिणन्तो. अभिक्खिपित्वा अभि + खिप का पू. का. कृ., उपरिवत् - अभिक्खिपित्वा कतवा तहिं धातुं दा. वं. 3.60.
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अभिक्खु
अभिक्खु पु तत्पु. स. [ अनिक्षु], वह व्यक्ति, जो भिक्षु नहीं है, अभिक्षु, भिक्षुभाव-रहित नस्स पदस्स तत्पुरिसे उत्तरपदे अत्तं होति... अबसलो, अभिक्खु, क, व्या. 335; क क्रि ब. स. [अभिक्षुक ] उपदेश देने वाले भिक्षुओं से रहित, शून्य विहार, वह आवास, जहाँ भिक्षु न हो- के पु०, सप्त. वि., ए. व. न भिक्खुनिया अभिक्खुके आवासे वस्सं वसितब्ब पाचि. 76: अभिक्खुके आवासेति एत्थ सचे भिक्खूनुपस्सयतो अड्ढयोजनामन्तरे ओवाददायका.... अभिक्खुको आवासो नाम, पाचि. अड. 51; - को पु०, प्र. वि., ए. व. - सभिक्खुका आवासा अभिक्खुको आवासो... गन्तब्बो चूळव. 79: अभिक्खुको आवासोति सुज्ञविहारो, चूळव. अ. 11. अभिख्या स्त्री॰ [अभिख्या], क. नाम, अभिधान ख. दीप्ति, चमक-दमक, शोभा, कान्ति प्रकाशरश्मि अगते तु सुधा लेपे, अभिख्या नामरंसिसु अभि. प. 1052. अभिगच्छति अभि + √गम का वर्त, प्र० पु०, ए. व. [ अभिगच्छति ], किसी की ओर जाता है, समीप जाता है - गच्छिं अय., उ. पु. ए. व. - दीपा दीपं उपप्लविन्ति सत्थारादितो सत्धारादि अभिगच्छं सु. नि. अड. 2.298. अभिगज्जति अभि + √गज्ज का वर्त. प्र. पु. ए. व. [ अभिगर्जति], गरजता है, दहाड़ता या चिल्लाता है, घोर गर्जन करता है न्ति व. व कुसुमितसिखरा च पादपा अभिगज्जन्तिव मालुतेरिता, थेरीगा 374: अभिगज्जन्तिव मालुतेरिताति वातेन सञ्चलिता... अभित्थनिता विय तिहन्ति थेरीगा. अड. 276 - ज्ज / ज्जन्तो वर्त. कृ.. पु. प्र. वि., ए. व. अभिगज्जमेति पटिसूरमिच्छन्ति यथा सो पटिसूरं अभिगज्जन्तो एति, सु. नि. अ. 2.233; - ज्जिसु अद्य, प्र. पु. ब. व. वाळा च... अभिगज्जिं तावदे, अप
+
-
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1.375.
अभिगज्जी त्रि. गरजने वाला, आनन्द के साथ कूजने वाला, गर्जनशील ज्जिनो पु०, प्र. वि., ब. व. केवल स. उ. प. में महिन्दघोसत्थनिताभिगज्जिनो.... झायिन थेरगा० 1111; महिन्दघो सत्थनिताभिगज्जिनोति जलघोसत्थनितेन ... गज्जनसीला, थेरगा. अट्ठ. 2.396. अभिगन्तब्य त्रि.. अभि + √गम का सं. कृ. [ अभिगन्तव्य ]. सेवनीय, समीप में जाने योग्य, सम्पर्क या साथ करने योग्य ब्बो पु. प्र. वि. ए. व. अरियोति निब्बानत्यिकेहि अभिगन्तब्बो, खु. पा. अ. 68. अभिगमन नपुं. [अभिगमन] विरोध में गमन आक्रमण - घु अभिगमने अभिगमनं अधिगमनं, सद्द, 2.334.
अभिघात
अभिगमनीय क्रि, अभिगम का सं. कृ. [ अभिगमनीय]. समीप में पहुंचने योग्य, आश्रय लेने योग्य, साथ-सङ्ग करने योग्य - यो पु०, प्र. वि., ए. व. - अभिगमनीयो च होति विस्सासनीयो, पे. व अड. 8 लोकेन अरणीयतो अभिगमनीयतोति वृत्तं होति, खु. पा. अट्ट, 64. अभिगिज्झति अभि + √गिज्झ का वर्त., प्र. पु. ए. व.. क. के प्रति आसक्त होता है, लालच करता है, अभिलाषा करता है न्तो वर्त, कृ. पु. प्र. वि. ए. व. सेखो अभिगिज्झन्तो असमुप्पन्नञ्च किलेस उप्पादेति नेति. 18: ज्झेय्य विधि, प्र. पु. ए. व. कामेसु नाभिगिज्ज्ञेय्य सु. नि. 1045; ख. ईर्ष्या करता है, डाह करता है, आपस में एक दूसरे से जलता है, स्पर्द्धा करता है न्ति वर्त,, प्र. पु. ब. व. अञ्ञञ्ञानिगिज्झन्ति कामेसु अनलङ्कता, स. नि. 1 (1).18; अञ्ञमञ्ञाभिगिज्झन्तीति अञ्ञमञ अभिगिज्झन्ति पत्थेन्ति पिहेन्ति, सु. नि. अट्ठ 1.49; - गिद्धभाव पु. लालचीपन वंद्वि. वि. ए. व. सब्बेनपि कामे अभिगिद्धभावमेव पकारोति उदा. अड. 270. अभिगीत त्रि. अभि + रंगा का भू. क. कृ. [ अभिगीत ]. शा. अ. गुञ्जित, पक्षियों के कलरव या कूजन से भरा हुआ, मधुर स्वर के निनाद या सङ्गीत से परिपूर्ण तं नपुं द्वि. वि. ए. व. समन्ततो किम्पुरिसाभिगीत जा. अड. 5.190; तं नपुं. प्र. वि. ए. व. मधुरस्सरेन गायन्तेहि विय नानाविधेहि सकुणेहि अभिरुदं, अभिगीतन्ति अत्थो, जा.. 7.163; ला. अ. क. प्रभावशाली गाथाओं द्वारा बांधा हुआ - तो पु०, प्र. वि., ए. व. बुद्धगाथाभिगीतोम्हि, नो चे मुञ्चेय्य चन्दिमन्ति, स. नि. 1(1).61; ला. अ. ख. नपुं०, गाथाओं को कहकर प्राप्त गाथाभिगीतं धनुदन्ति बुद्धा, सु. नि. 81; गाथाभिगीतन्ति गावाहि अभिगीतं... लद्धन्ति दुतं होति. सु. नि. अट्ठ. 1.119.
अभिगुत्त त्र अभि + √गुप का भू. क. कृ. [अभिगुप्त ], अभिरक्षित, सुरक्षित, नियन्त्रित तो पु. प्र. वि., ए. व. थलूदके होहि मयाभिगुत्तो, जा. अट्ठ. 5.79; मया अभिगुत्तो रक्खितो होहीति, तदे..
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अभिघात पु., अभि + √हन् से निष्पन्न [ अभिघात ]. क. प्रहार, आघात, धक्का, केवल स. उ. प. के रूप में प्राप्त, द्रष्ट. उदकवेगा कसा घण्टा, दण्डा, मुसला.. लगुळा., वातवेगा., सक्खरा. के अन्त., ख. सम्पर्क, स्पर्श का प्रभाव, केवल स. उ. प. के रूप में प्राप्त, गन्धा, फोडुब्बा, रसा.. रूपा, सद्दा० के अन्त द्रष्ट; जसद्द पु०, सम्पर्क से
Pr
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अभिघुट्ठ
469
अभिजप्पप्पदारण
उत्पन्न शब्द, अभिघात या प्रहार से उत्पन्न शब्द - दस्स ष. वि., ए. व. - अभिघातजसदस्स समानकालता एत्थ लब्भति, सद्द. 1.312. अभिघुट्ठ त्रि.. अभि + Vघुस का भू. क. कृ. [अभिघुष्ट], क. घोषित, उदघोषित, वह, जिसकी घोषणा कर दी गयी हो - ढे नपुं.. सप्त. वि., ए. व. - वस्संवत्थस्स भगवतो अभिघुढे पवारणे, बु. वं. 6.12; अना. वं. 80; ख. पु./नपुं.. पक्षियों के मधुर संगीत के साथ अभिगुञ्जित - टुं नपुं., द्वि. वि., ए. व. - दिजाभिघटु दिजसङ्घसेवितं, जा. अट्ठ.5.195; - द्वा पु., प्र. वि., ब. व. - मधुरस्सरेहि दिजेहि अभिघुट्टा, जा. अट्ठ. 5.402. अभिचरण नपुं., अभि + vचर से व्यु., क्रि. ना. [अभिचरण], मनोरञ्जन के साधनों को देखने जाना या भ्रमण करना, नृत्यगीतादि का दर्शन; केवल स. उ. प. के रूप में प्रयोग - आदीनवा समज्जाभिचरणो दी. नि. 3.138; समज्जाभिचरणे सहायो होति, जा. अट्ठ. 3.142; समज्जाभिचरणन्ति नच्चादिदस्सनवसेन समज्जागमन, जा. अट्ठ. 3.115. अभिचिन्तयन्त त्रि.. अभि + चिन्त का वर्त. कृ. [अभिचिन्तयत]. अच्छी तरह से विचार कर रहा, गंभीर चिन्तन कर रहा - यं/न्तेन्तो पु., प्र. वि., ए. व. - गम्भीरपहं मनसाभिचिन्तयं, नाच्चाहितं कम्म करोति लुई, जा. अट्ठ. 5.140; मनसाभिचिन्तयति मनसा अभिचिन्तेन्तो अत्थं पटिविज्झित्वा ... पाकटं कत्वा, तदे... अभिचेत नपुं.. उत्तम चित्त, सर्वथा विशुद्ध चित्त - तो प्र. वि., ए. व. .. अभिचेतसिकानन्ति अभिचेतोति अभिक्कन्तं विसुद्धचित्तं वुच्चति ..., म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).170. अभिचेतसि सप्त. वि., प्रतिरू. निपा., चित्त में, मन में -
अभिचेतसि जातानि आभिचेतसिकानि, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 1(1).170; तुल. अभिधम्मे. अभिछन्न त्रि., अभि + Vछद का भू. क. कृ. [अभिछन्न], ढका हुआ, आच्छादित, आच्छन्न - न्नो पु., प्र. वि., ए. व. - सत्तो गुहायं बहुनाभिछन्नो... पगाळहो. सु. नि. 778; - न्नं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अलङ्कतं हेमजालाभिछन्नं जा.. अट्ठ. 2.307; हेमजालाभिछन्नन्ति सवण्णजालेन अभिच्छन्नं, तदे. - न्ना पु.. प्र. वि., ब. व. - परोसतं हेमजालाभिछन्ना, जा. अट्ठ. 2.39. अभिच्छा स्त्री.. [अभीप्सा]. इच्छा, आकांक्षा, कामना, लालसा - संपटिच्छनं इच्छा अभिच्छा, सद्द. 2.453.
अभिजच्चबल नपुं., तत्पु. स. [अभिजात्यबल]. उत्तम कुल में जन्म लेने की शक्ति, अभिजाति-सम्पत्ति - लं द्वि. वि., ए. व. - अभिजच्चबलञ्चेव, तं चतुत्थं असंसयं, जा. अट्ठ. 5.116; अभिजच्चबलन्ति तीणि कुलानि ... जातिसम्पत्ति
जा. अट्ठ. 5.117. अभिजन पु., [अभिजन]. कुल, वंश, जन्मभूमि, उत्तम कुल में उत्पत्ति - कुलं वंसो च सन्तानाभिजना गोत्तमन्वयो, अभि. प. 332; कुले त्वभिजनो वुत्तो उप्पत्तिभूमियं पि च, अभि. प. 855. अभिजनेति अभि + जिन के प्रेर. का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अभिजनयति], उत्पन्न कराता है, प्रजनन कराता है, पैदा करता है या पैदा कराता है- पटिसल्लानं पटिसल्लीयमानं अत्तानं रक्खति ... वीरियमभिजनेति, मि. प. 141; - हि अनु., म. पु.. ए. व. - तत्थ छन्दमभिजनेहि.... निग्गहायाति. मि. प. 125. अभिजप्प पु.. [अभिजल्प], बुदबुदाहट, फुसफुसाहट - प्पेन तृ. वि., ए. व. - मन्ताभिजप्पेन पुरे हि तुम्ह... ब्रह्मो, जा. अट्ठ. 4.182. अभिजप्पति अभि + जिप्प का वर्त., प्र. पु., ए. व. [अभिजल्पति], कामना करता है, प्रार्थना करता है, अनुनयपूर्वक कहता है, चिरौरी करता है - अत्था - अत्थाति लोको हि किमत्थमभिजप्पति, सद्धम्मो. 99; -न्ति ब. व. -- आसीसन्ति थोमयन्ति, अभिजप्पन्ति जुहन्ति, सु. नि. 1052; अभिजप्पन्तीति रूपादिपटिलाभाय वाचं भिन्दन्ति, सु. नि. अट्ठ. 2.279; - प्पेय्य विधि. प्र. पु., ए. व. - भवञ्च नाभिजप्पेय्य ... सम्पवेधेय्य, सु. नि. 929; भवञ्च नाभिजप्पेय्याति तस्स ... न पत्थेय्य, सु. नि. अट्ठ. 2.255; - मानस्स पु., वर्त. कृ., ष. वि., ए. व. - सादियमानस्स ..... अभिजप्पमानस्साति कामं कामयमानस्स, महानि. 2. अभिजप्पन नपुं.. [अभिजल्पन], जाप, सम्मोहन, वशीकरण, मन्त्रमुग्ध करना, मोहित करना - हत्थाभिजप्पनन्ति हत्थानं परिवत्तनत्थं मन्तजप्पनं; दी. नि. अट्ट, 1.86; केवल स. उ. प. के रूप में हत्था. आदि के अन्त. द्रष्ट... अभिजप्पप्पदारण त्रि.. प्राणियों के चित्तों को व्यथित करने वाला (तृष्णाबाण), इच्छाओं की पूर्ति न होने से मन को फाड़ देने वाला - णं नपुं. द्वि. वि., ए. व. - कोधप्पत्तमनत्थद्ध, अभिजप्पप्पदारण, थेरगा. 752; इच्छितालाभदिवसेन हि तण्हा सत्तानं चित्तं पदालेन्ती विय पवत्तति, थेरगा. अट्ठ. 2.242.
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अभिजप्पा
अभिजप्पा स्त्री. प्र. वि. ए. व. इच्छा, कामना, लालसा, अभिलाषा, आकांक्षा, तृष्णा अभिजप्पा खो मे उदपादि, म. नि. 3. 199; अभिजप्पाति देवलोकाभिमुखं... तण्हा उदपादि म. नि. अ. (उप.प.) 3.153 अभिजप्पा ति करित्या तत्थ लोको अभिलित्तो नाम भवति नेत्ति 13. अभिजप्पी त्रि, चाह कर रहा, आकांक्षी अभिलाषी - प्पिनं पु. ष. वि. ब. व. एतन्हि बनानं दुक्खं कामलाभाभिजप्पिनंं अ. नि. 2(2).67; कामलाभाभिजप्पिनन्ति कामलाभं पत्थेन्तानं, अ. नि. अट्ठ. 3.118.
अभिजवति अभि + √जू का वर्त. प्र. पु. ए. व. प्रसन्नता के साथ तीव्र गति से आगे की ओर बढ़ता है, वेग के साथ आगे को बढ़ता है न्ति ब. व. नाभिजवन्ति न ताणमुपेन्सि सु. नि. 673: नाभिजवन्तीति न सुमुखभावेन अभिमुखा जवन्ति सु. नि. अड. 2.181. अभिजात त्रि. अभि + √जन का भू. क. कृ. [अभिजात]. ऊंचे कुल में उत्पन्न, कुलीन तो पु. प्र. वि. ए. व. - बुधेभिजातो कुलजे, अभि. प. 1074; अभिजातोति अतिक्कमित्वा उपोसथकुले जातो, जा. अदु. 4.209 ता पु. ब. व. अभिजाता च कुञ्जरा जा. अट्ठ. 4. 208 - तं द्वि. वि. ए. व. खत्तियं जातिसम्पन्नंं अभिजातं यसस्सिन्ं स.नि. 1 ( 1 ) 85 ता स्त्री. प्र. वि. ए. व. खत्तियो च विदेहानं, अभिजाता समुद्दजाति, जा० अट्ठ. 7.7; - कुलकुलीन त्रि.. उच्चकुल वाले परिवार से सम्बद्ध उत्तम वंश में उत्पन्न स्स पु. ष. वि., ए. व. जो खतियस्स अभिजातकुलकुलीनरस... अभिशित्तरस मि. प. 323द्वान नपुं॰, जन्मस्थान, उद्भव स्थान ने सप्त. वि., ए. व. - अभिजातद्वाने किमिपरिगतोव हुत्वा अट्ठो अहितो, थेरीगा.
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अट्ट. 293.
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अभिजाति स्त्री. क. बुद्ध का जन्म श्रेष्ठ जन्मतिं द्वि. वि., ए. व. विसाखपुण्णमाय पच्चूससमये अभिजातं पापुणि, उदा. अह्न 118: तीन ष. वि. ब. व संगतिया धन्नं अभिजातीनं तं तं अभिजातिं उपगमनेन, जा. अह. 5.225 - क्खण पु., [क्षण], किसी के जन्म का क्षण अभिजातिक्खणे पनस्स पटिसन्धिग्गहणक्खणे... पातुरहेसुं उदा. अड. 119: ख प्राणियों की प्रजाति या जन्माधारित प्रभेद यो प्र. वि. ब. व. छळाभिजातियो दी. नि. 1.48; छळाभिजातियोति कण्हाभिजाति....इमा छ अभिजातियो वदति दी. नि. अड्ड. 1.134 तीसु सप्त. वि. ए. व. - छस्वेवाभिजातीसु सुखदुक्खं पटिसंवेदेति दी. नि. 1.47:
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अभिजायति
वत्तितत्र प्रत्येक अभिजाति या प्रजाति विशेष में आचरण किया गया तं नपुं. द्वि. वि. ए. व. सब्बभवाभवगतीसु अभिजातिवत्तितमनुचरितं जानाति मि. प. 213 हेतु प. वि०, प्रतिरू, निपा०, किसी विशेष प्रजाति में जन्म ग्रहण करने के कारण से - सत्ता अभिजातिहेतु सुखदुक्खं पटिसंवेदेन्ति, म. नि. 3.8; केवल स. उ. प. के रूप में कण्हा.. नीला, परमसुक्का, लोहिन, सुक्का, हलिद्धा., के अन्त. द्रष्ट..
अमिजातिता स्त्री. अभिजाति का भाव [अभिजातित्व]. जन्म ग्रहण करना, उत्पन्न होना, उत्पत्तिभाव यतृ. वि. ए. व. सम्मासम्बुद्धस्स उरे वायामजनिताभिजातिताय ओरसपुत्ती, वि. व. अट्ठ. 182. अभिजातिपरिशुद्ध त्रि.. [अभिजातिपरिशुद्ध ]. स्वभाव से ही परिशुद्ध शुद्ध प्रकृति वाला द्धस्स पु. ष वि.. ए. व. जातिमन्तस्स अभिजातिपरिसुद्धस्स मज्जननिघसनपरिसोधनेन करणीयं न होति. मि. प. 203.
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अभिजानन नपुं,, अभि + √ञा का क्रि० ना० [ अभिजानन ], अभिनिश्चयन निश्चयात्मक ज्ञान नाय च. वि., ए. व.
अभिज्ञायाति सब्बस्सापि अभिज्ञेय्यस्स अभिजाननाय उदा. अट्ठ. 184.
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अभिजानाति अभि + √ञा का वर्त० प्र० पु०, ए. व. [ अभिजानाति), क अभिज्ञा नामक विशिष्ट आन्तरिक ज्ञान द्वारा जानता है, ज्ञात-परिज्ञा द्वारा धर्मो को अनित्य, दुख एवं अनात्म रूप में जानता है सो सब्बं धम्मं अभिजानाति, म. नि. 1.320, सोपि पथविं पथवितो अभिजानाति म. नि. 1.5; अभिजानातीति... अभिविसिद्धेन आणेन जानाति, म. नि. अट्ट. ( मू.प.) 1 (1) 46. अभिजानातीति अनिच्च दुक्ख अनत्ताति आतपरिञाय अभिजानाति, म. नि. अट्ठ० ( मू०प.) 1 (2) 194; ख. स्मरण करता है, ध्यान में किसी तथ्य के प्रति जागरुक या चैतन्य होता है नामि वर्त, उ. पु. ए. नाभिजानामि सङ्घप्पं अनरियं दोससंहितन्ति, थेरगा. 48: मेत्तञ्च अभिजानामि, अप्पमाणं सुभावितं, थेरगा. 647; अभिजानामीति अभिमुखतो जानामि थेरगा. अड. 2.204नासि म. पु. ए. व. अभिजानासि नो त्वं महाराज इमं पञ्हें अत्रे समणब्राह्मणे पुच्छिता' ति? दी. नि. 1.46. अभिजायति अभि + √जन का वर्त. प्र. पु. ए. व. [अभिजायति, अभि + जन का भा० वा०] हो जाता है, बन जाता है, (किसी विशेष) अभिजाति का हो जाता है यो ओगहणे थम्भोरिवाभिजायति, सु. नि. 216: एकच्चो सुक्काभिजातियो
व.
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अभिजिक/अभिजिक
471
अभिज्झादोमनस्स
समानो कण्हं धम्म अभिजायति, अ. नि. 2(2).94; कण्हंधम्म व. - उदकेपि अभिज्जमाने गच्छति सेय्यथापि पथविया, दी. अभिजायतीति कण्हसभावो हुत्वा जायति निब्बतति, अ. नि. नि. 1.69; अभिज्जमाने उदके अगञ्छि महिया यथा, अप.2205. अट्ठ. 3.128.
अभिज्जमानपेतवत्थु नपुं., पे. व. की एक कथा का शीर्षक, अभिजिक/अभिजिक पु., एक व्यक्ति का नाम, स्थविर पे. व. 125; - वण्णना स्त्री., पे. व. अट्ठ. के एक खण्ड आनन्द का एक शिष्य - कं द्वि. वि., ए. व. - भण्डञ्च नाम का शीर्षक, पे. व. अट्ठ. 147-154. भिक्खं आनन्दस्स सद्धिविहारि अभिजिकञ्च ..., स. नि. अभिज्जलति अभि + Vजल का वर्त०, प्र. पु., ए. व. 1(2).182.
[अभिज्वलति], चमकता है, अभिप्रकाशित होता है, पूर्ण अभिजिगिंसति/अभिजिगीसति अभि + जि के इच्छा.. प्रज्ज्वलित होता है - लन्ती वर्त. कृ., स्त्री., प्र. वि., ए. का वर्त, प्र. पु., ए. व., जीतने की इच्छा करता है, विजय व. - दद्दल्लमानाति अतिविय अभिजलन्ती, पे. व. अट्ठ. पाने की इच्छा करता है - अलम्पायनो.. ममं अभिजिगीसति, 164; - न्तं वर्त. कृ., पु.. द्वि. वि., ए. व. - सच्चेन जा. अट्ठ. 7.38; अभिजिगीसतीति युद्ध जिनितुं इच्छति, जा. दावग्गिमभिज्जलन्तं, दा. वं. 3.43. अट्ठ. 7.39; उच्चावचेहुपायेहि परेसमभिजिगीसति, थेरगा. अभिज्झति अभिज्झा के ना. धा. का वर्त, प्र. पु., ए. व., 743; परेसमभिजिगीसतीति परेसं सन्तकं आहरितं इच्छति, किसी वस्तु की आकांक्षा, इच्छा या अभिलाषा करता है, लोभ थेरगा. अट्ठ. 2.237.
करता है - सोतेन सदं सुत्वा मनापं नाभिज्झति नाभिहसति, अभिजीवति अभि + Vजीव का वर्त, प्र. पु., ए. व. स. नि. 3(1).90; मनापं नाभिज्झतीति इद्वारम्भणं नाभिज्झायति, [अभिजीवति], किसी के सहारे जीता है, किसी के सहारे स. नि. अट्ठ. 3.182. बना रहता है - न्ति ब. व. - अभिजीवनिकस्साति येन अभिज्झा स्त्री., प्र. वि., ए. व. [अभिध्या], तृष्णा, आकांक्षा, सिप्पेन अभिजीवन्ति, महाव, अट्ठ, 346.
लोभ, राग - अभिज्झा वनथो वानं लोभो रागो च आलयो, अभिजीवनिक त्रि., जीवन-यापन का सहारा देने वाला, अभि. प. 163; - य तृ. वि., ए. व. - अभिज्झाय चित्तं जीविका प्रदान करने वाला - कस्स पु.. ष. वि., ए. व. - परिसोधेति, दी. नि. 3.35; - ज्झं द्वि. वि., ए. व. - अभिज्झं ओदातवत्थवसनका अभिजीवनिकस्स सिप्पस्स ... विहरिस्सन्ति, पजहेय्याम, दी. नि. 3.54. महाव. 260; अभिजीवनिकस्साति येन सिप्पेन अभिजीवन्ति अभिज्झाकायगन्थ पु., पुनः पुनः नाम काय को जन्म एवं ..., महाव. अट्ठ. 346.
मरण के भवचक्र में बांधने वाली मन की गांठ के रूप में अभिजीहना स्त्री., [अभिजेहन, नपुं.]. दृढ़ प्रयत्न, प्रबल विद्यमान लोभ की चित्तवृत्ति, चार प्रकार की मन की गांठों प्रयास- नाय त. वि., ए. व. - कालञ्च ञत्वा अभिजीहनाय, में से एक, राग या आसक्ति - न्थो प्र. वि., ए. व. - जा. अट्ठ. 6.202; अभिजीहनायाति वीरियकरणस्स, जा. चत्तारो गन्था अभिज्झा कायगन्थो, ब्यापादो कायगन्थो, अट्ठ. 6.203.
सीलब्बतपरामासो कायगन्थो, इदं सच्चाभिनिवेसो कायगन्थो, अभिजोतये अभि + Vजत के प्रेर. का विधि., प्र. पु.. ए. व. ध. स. 1140; - न्थस्स ष. वि., ए. व. - अलोभेन [अभिद्योतये], प्रकाशित कराए, दिखलाए - तादिसे सञ्चज अभिज्झाकायगन्थस्स पभेदनं होति, ध. स. अट्ठ. 173; --- पाणं कमत्थमभिजोतये, जा. अट्ठ. 5.333; पाणसञ्चजने त्वं न्था प्र. वि., ब. व. - नानप्पकारेसु आरम्मणेसु पवत्तमाना पाणं सञ्चजन्तो कमत्थं जोतेय्यासीति, जा. अट्ठ. 5.336. अभिज्झाकायगन्था, जा. अट्ठ. 4.12. अभिज्जनक त्रि., अभेदय, वह, जिसका भेदन न किया जा अभिज्झातु पु.. (स्त्री./नपुं.) अभि + Vझे का कर्तृ. कृ., सके, अविनाशी, अक्षय - को पु०, प्र. वि., ए. व. - लज। विषय-भोगों में आकांक्षा रखने वाला, लोभी, तृष्णालु, लालची लभित्वा अभिज्जनको नाम नत्थि, जा. अट्ठ. 2.141; लोके -- ज्झाता पु., प्र. वि., ए. व. - परस्स परवित्तूपकरणं तं धनदानेन अभिज्जनकसत्तो नाम नत्थि ध. प. अट्ठ. 2.108; अभिज्झाता होति, म. नि. 1.360; अभिज्झाता होतीति अभिज्झाय - कं नपुं. प्र. वि., ए. व. - नापि ठितं अभिज्जनकं नाम ओलोकेता होति, म. नि. अट्ट. (मू.प.) 1(2).228; तुल. अत्थि, जा. अट्ठ. 1.375.
अभिज्झितं अधीरितं, क. व्या. 46. अभिज्जमान त्रि., (भिद के कर्म. वा. के वर्त. कृ. का निषे., अभिज्झादोमनस्स नपुं., द्व. स. [अभिध्यादौर्मनस्य], लोभ बिना भीगे हुए, अप्रभावित रहते हुए - ने पु., सप्त. वि., ए. तथा दौर्मनस्य, राग एवं द्वेष का समुच्चय - स्सं द्वि. वि.,
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अभिज्झापरियुट्टान 472
अभिज्ञ ए. व. - कायानुपरसी... विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं. अभिज्झालु कामेसु तिब्बसारागं समणं... विज्जति, अ. नि. दी. नि. 2.74; विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सन्ति वुत्तं, दी. 1(2).35; - स्स पु., ष. वि., ए. व. - सङ्घाटिधारणमत्तेन नि. अट्ठ. 2.313; - स्सा नपुं, प्र. वि.. ब. व. - अभिज्झालुस्स अभिज्झा पहीयेथ, म. नि. 1.354; - नी
अभिज्झादोमनस्सा पापका अकुसला धम्म ..., दी. नि. 1.62. स्त्री., प्र. वि., ए. व. -... अभिज्झालनी होति, अ. नि. 3(2). अभिज्झापरियुट्ठान नपुं., तत्पु. स. [अभिध्यापर्युत्थान], (मन 257; - लू/लुनो पु., प्र. वि., ब. व. - अभिज्झालू कामेसु में) लोभ या राग का अत्यधिक ऊपर उठना, लोभ की तिब्बसारागा, म. नि. 1.23; अभिज्झालूति परभण्डादि प्रबलता - नं प्र. वि., ए. व. - अभिज्झापरियट्ठानं खो पन अभिज्झायनसीला, म. नि. अट्ट, (मू.प.) 1(1).122; तथागतप्पवेदिते धम्मविनये परिहानमेतं, अ. नि. 3(2).138. अभिज्झालुनोपि अनभिज्झालुनोपि, दी. नि. 1.123. अभिज्झापरियुट्ठित त्रि., लोलुपता से घिरा हुआ, लिप्सा से अभिज्झाविनय पु., [अभिध्याविनय], लालच का संयमन, आवृत - तेन नपुं.. तृ. वि., ए. व. - अभिज्झापरियुट्टितेन लोभ का नियन्त्रण, लिप्सा का निराकरण, अर्हत्व - ये चेतसा बहुलं विहरति, अ. नि. 3(2).138.
सप्त. वि., ए. व. - अभिज्झाविनये सिक्खं अ. नि. अभिज्झायति अभि + vझा का वर्तः, प्र. पु., ए. व. [अभिध 1(2).37; अभिज्झाविनये सिक्खन्ति अभिज्झाविनयो वुच्चति यायति], लोभ, लालच या लिप्सा करता है, राग भरे चित्त से आलम्बन का अनुचिन्तन करता है - अभिज्झायतीति अभिज्झाविसमलोभ 1. पु., शा. अ. तृष्णा से युक्त अभिज्झा, स. नि. अट्ठ. 2.131; अभिज्झायति एतायाति अनुचित लोभ, ला. अ. अपनी धनसम्पति में राग या लगाव अभिज्झा, इतिवु. अट्ठ. 307; - न्ति ब. व. - ते चतुप्पभेदा तथा दूसरों की संपत्ति के प्रति लोभ - भो प्र. वि., ए. व. अभिज्झायन्ति एताय, सयं वा अभिज्झायति, - अभिज्झाविसमलोभो चित्तस्स उपक्किलेसो, म. नि. 1.46; अभिज्झायनमत्तमेव वा एसाति अभिज्झा, महानि. अट्ठ. 186%; तत्थ सकभण्डे छन्दरागो अभिज्झा, परभण्डे विसमलोभो, म. - यिंसु अद्य.. प्र. पु., ब. व. - अभिज्झायिंसु ब्राह्मणा, सु. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).178; 2. नपुं.. द्व. स., अभिध्या या नि. 302; अभिज्झायिंसूति ... तण्हं ववेत्वा अभिपत्थयमाना लालच नामक अनुचित लोभ - भं प्र. वि., ए. व. - झायिंसु, सु. नि. अट्ठ. 2.50; - न्ता वर्त. कृ., पु., प्र. वि., अभिज्झाविसमलोभन्ति अभिज्झासङ्घातं विसमलोभं अ. नि. ब. व. - सत्ते अभिज्झायन्ता परेसं दारेसु चारितं आपजिंसु, अट्ठ. 2.305; - भाभिभूत त्रि., तृष्णा तथा अन्यायपूर्ण लोभ दी. नि. 3.50; - ज्झाय पू. का. कृ. - तं विमानं अभिज्झाय, से पराभूत या हारा हुआ - तेन नपुं., तृ. वि., ए. व. - जा. अट्ठ. 7.17; अभिज्झायाति पत्थेत्वा, जा. अट्ठ. 7.18. अभिज्झाविसमलोभाभिभूतेन ... चेतसा विहरन्तो अ. नि. 1(2).77. अभिज्झायन नपुं, अभि + Vझा से व्यु., क्रि. ना. अभिज्झाब्यापाद पु., द्व. स. [अभिध्याव्यापाद]. राग एवं [अभिध्यान], लालच, लोभ अथवा राग से भरा हुआ मानसिक द्वेष - दा प्र. वि., ब. व. - मनुस्सेसु अभिज्झाब्यापादा अनुचिन्तन - नट्ठ पु., तत्पु. स., रागसहित मानसिक वेपुल्लमगमंसु, दी. नि. 3.51; अभिज्झाब्यापादाति अभिज्झा चिन्तन का तात्पर्य या आशय - द्वेन तृ. वि., ए. व. - च ब्यापादो च, दी. नि. अट्ठ, 3.33; अभिज्झाब्यापादो विगतो अभिज्झायनद्वेन अभिज्झा, महानि. अट्ठ, 32; - सील त्रि., होति, अ. नि. 1(2).17. लालच या लोभ की प्रवृत्ति वाला, अभिध्यालु - लु पु., प्र. अभिज्झासहगत त्रि., तत्पु. स. [अभिध्यासहगत], लोभ से वि., ए. व. - तत्थ अभिज्झालूति परभण्डादि युक्त, राग से सम्पृक्त, रागान्वित - तेन नपुं. तृ. वि., ए. व. अभिज्झायनसीला, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).122.
- अभिज्झासहगतेन चेतसा दिवसं अतिनामेति, अ. नि. 1(1)235. अभिज्झायितु पु., अभिज्झायति का क. ना., लालची, लालच अभिजिक/अभिजिक पु., एक भिक्षु का नाम, आयुष्मान से भरा हुआ, अभिध्यालु - यिता प्र. वि., ए. व. - अनुरुद्ध का एक शिष्य - कं द्वि. वि., ए. व. - अभिजिकञ्च अभिज्झालूति परभण्डानं अभिज्झायिता, स. नि. अट्ठ. 2.267. भिक्ष अनुरुद्धस्स सद्धिविहार आमन्तेहि. स. नि. 1(2). अभिज्झालु त्रि., [अभिध्यालु], लालची, तृष्णालु लोभी प्रकृति 182; द्रष्ट. आभिजिक, वाला, तीव्र राग से युक्त - लु पु., प्र. वि., ए. व. - अमिञ त्रि.. [अभिज्ञ], जानने वाला, जानकार, दक्ष, सर्वोच्च अभिज्झा अस्स पकति अभिज्झालु, अभिज्झा अस्स बहुला वा ज्ञान रखने वाला --- जानि नपुं. प्र. वि., ब. व. - अभिज्झालु, क. व्या. 361; - लु द्वि. वि., ए. व. - ... अभिज्ञानि च सब्बानि, अभि. अव. 171.
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अभिञट्ठ
473
अभिज्ञा
अभिजड पु. [अभिज्ञार्थ], अलौकिक ज्ञान का अर्थ, लोकोत्तर ज्ञान या अभिज्ञा ज्ञान का तात्पर्य-ट्ठो प्र. वि., ए. व. - अभिज्ञाय अभिजट्ठो आतो दिट्ठो... पाय, पटि. म. 330. अभिज्ञतर त्रि., [अभिज्ञतर], अतीव बुद्धिमान, पूर्ण रूप से प्रज्ञावान् - रो पु.. प्र. वि., ए. व. - भगवता भिय्योभिजतरो यदिदं सम्बोधियान्ति, दी. नि. 2.64. अमिञत्थ त्रि.. [अभिज्ञार्थ]. अभिज्ञा के लिए उपयोगी, पूर्ण ज्ञान के लिये अनिवार्य - त्था पु., प्र. वि., ब. व. - अभिञ्जत्था परिञत्था पहानत्था ति, म. नि. 1.373; - त्थं नपुं., वि. वि., ए. व. - अभिज्ञत्थं परिञत्थं, ब्रह्मचरियं अनीतिह, इतिवु. 23; अभिञ्जत्थन्ति कुसलादिविभागेन खन्धादिविभागेन च सब्बधम्मे... जाननत्थं इतिवु. अट्ठ. 98. अभिचप्पत्त त्रि., [अभिज्ञाप्राप्त], वह, जिसने अभिज्ञा अर्थात् पूर्णज्ञान को पा लिया है, अलौकिक ज्ञान या सर्वोच्च ज्ञान को प्राप्त - तेन पु., तृ. वि., ए. व. - अभिआप्पत्तेन एकेन रूपावचरकिरियेनाति .... ध. स. अट्ठ. 356. अभिज्ञा स्त्री.. अभि + Vञा का क्रि. ना. [अभिज्ञा], उच्चतम ज्ञान, अलौकिक ज्ञान, लोकोत्तर ज्ञान; 1. उपचार समाधि की अवस्था से लेकर अर्पणा समाधि की अवस्था तक सक्रिय प्रज्ञा, इद्धिविध, दिव्यस्रोत, परचित्त विजानन, पूर्वजन्मों का अनुस्मरण, दिव्यचक्षु या प्राणियों के मरने एवं जन्म लेने का ज्ञान, ये पांच प्रकार के विशिष्ट आन्तरिकज्ञान - ञा प्र. वि., ए. व. - उपचारतो पट्ठाय याव अप्पना ताव पवत्ता पञ्जा अभिजाति वुच्चति, ध. स. अट्ठ. 227; - जे द्वि. वि., ए. व. - अरहतो अभिञ्ज उप्पादेन्तस्स समापत्ति ..., विभ. 369; - य च. वि., ए. व. - एकन्तनिबिदाय.... अभिज्ञाय सम्बोधाय निब्बानाय संवत्तति? म. नि. 2.279; - हि तृ. वि., ब. व. - अरहत्तं पापुणि .... चेव अभिजाहि च, ध. प. अट्ठ. 1.277; - यो द्वि. वि.. ब. व. - पञ्चाभिजायो निब्बत्तेत्वा ब्रह्मलोकूपगो अहोसी ति. मि. प. 208; - सु सप्त. वि., ब. व. - ... आसवानं खये जाणं इमा छसु अभिज्ञासु पञ्जा, विभ. 382; स. उ. प. के रूप में द्रष्ट. आसवक्खया., क्रिया., छळ., झाना., पञ्चा.. मग्गफलविज्जा.. मग्गा., मुण्डाकथा., रूपारूपभवा., लोकिका., लोकियपञ्चा., सब्बाभिज्ञाबलप्पत्त इत्यादि के अन्त.; ख. अभिप्राय, इच्छा या रुचि केवल स. उ. प. के रूप में प्राप्त - यथाभिचं करिस्सतीति, जा. अट्ठ. 5.360; यथाभिञ्जन्ति यथाधिप्पाययथारुचिं. तदे; ग. नाम, संज्ञा, अभिधान, चिह्न, केवल स. उ. प. के रूप में प्राप्त, द्रष्ट. किमभिञ के
अन्त; जा. अट्ट, 6.151; - कथा स्त्री., [अभिज्ञाकथा], अभिज्ञा के विषय में उपदेश - थं द्वि. वि., ए. व. - तस्मा अभिआकथं ताव आरभिस्साम, विसुद्धि. 2.1; - कुसल नपुं., अभिज्ञा से युक्त कुशल चित्त - पञ्चमज्झानसङ्घातं अभिआकुसलञ्चेति, अभि. ध. स. 22; - चक्खु नपुं., [अभिज्ञाचक्षु], दिव्यचक्षु, पाँच प्रकार के अभिज्ञाबलों में से पांचवीं अभिज्ञा - क्खं द्वि. वि., ए. व. - अभिआचऱ्या तादिसन्ति दिब्बं वियाति दिब्बं, उदा. अट्ठ. 58; - चित्त नपुं.. [अभिज्ञाचित्त], अभिज्ञा-ज्ञान के साथ कार्यरत महग्गतभूमि का चित्त, इद्धिविध आदि पांच प्रकार की लौकिक अभिज्ञाओं से युक्त चित्त - त्तं प्र. वि., ए. व. - चत्तारो आणसंयुत्ताभिज्ञाचित्तञ्च पुञतो, अभि. अव. 54; - तेन तृ. वि., ए. व. - कामावचरेहि अभिज्ञाचित्तेन चाति नवहि कसुलचित्तेहि, ध. स. अट्ठ. 356; - चित्तज त्रि., [अभिज्ञाचित्तज], अभिज्ञा-युक्त महग्गत चित्त से उत्पन्न, दिव्यचित्त से उत्पन्न - जा स्त्री॰, प्र. वि., ए. व. - अभिज्ञाचित्तजा पञ्जा, दिब्बचक्खुन्ति वुच्चति, अभि. अव. 82; - चेतना स्त्री., [अभिज्ञाचेतना], अभिज्ञा ज्ञान अथवा पांच प्रकार के लौकिक अभिज्ञाबलों से युक्त चित्त की चेतना, प्र. वि., ए. व. - यथा च अभिआचेतना, एवं उद्धच्चचेतनापि न होति, विभ. अट्ठ. 136; यदि हि अभिजाचेतना विपाकं उप्पादेय्य ..., अभि. अव., अभि. टी. 2.67; - जाण नपुं.. [अभिज्ञाज्ञान], अभिज्ञा का ज्ञान या बोध, विशिष्ट आन्तरिक ज्ञान, इद्धिविध आदि पांच या छ प्रकार का विशिष्ट ज्ञान - णेन तृ. वि., ए. व. - पञ्चाभिजात्राणेन वा तण्हाबन्धुं वा दिद्विबन्धुं ..., महानि. 241; - णानं ष. वि., ब. व. - छन्नं अभिजात्राणानं. पटि. म. 364; - द्वय नपुं., दो प्रकार का अभिज्ञा ज्ञान - यं प्र. वि., ए. व. - तथाभिञाद्वयञ्चेव क्रियावोहब्बनम्पि च, अभि. अव. 52; - द्वयचित्त नपुं., दो प्रकार की अभिज्ञा से युक्त चित्त - त्तस्स ष. वि., ए. व. - अभिञाद्वयचित्तस्स, कामपाकक्रियस्स च, अभि. अव. 56; - निद्देस पु., अभि. अव. के सोलहवें परिच्छेद तथा विसुद्धि के एक भाग का शीर्षक, अभि. अव. 134-140; विसुद्धि. 2.35-62; -
ञानिसंस त्रि., ब. स. [अभिज्ञानिशंस], अभिज्ञा-नामक विशिष्ट ज्ञान के उत्तम लाभ-वाला - सा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - ... अप्पनासमाधिभावना अभिज्ञानिसंसा होति. विसुद्धि. 1.363; - जानुयोग पु., कथा. के एक स्थल का शीर्षक, जिसमें अभिज्ञा ज्ञान के विषय में विरोधी का प्रश्न
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अभिज्ञा
474
अभिज्ञा
है, कथा. 56-57; - पञत्ति स्त्री॰ [अभिज्ञाप्रज्ञप्ति], सभी धर्मों के विषय में प्राप्त अभिज्ञा-ज्ञान की अभिव्यक्ति या प्रकाशन, अभिज्ञा-ज्ञान द्वारा धर्मों का प्रकाशन - अभिज्ञापञत्ति सब्बधम्मानं, नेत्ति. 51; - पञा स्त्री., इद्धिविध आदि पांच अभिज्ञा ज्ञानों को प्राप्त करने वाली प्रज्ञा - कथं अभिआपञा आतढे आणं, पटि. म. 80; -- पटिपाटि स्त्री., [अभिज्ञापरिपाटि], अभिज्ञाओं का अनुक्रम, अभिज्ञाओं का सिलसिला - टिं द्वि. वि., ए. व. - खीणासवस्स अभिआपटिपाटिं दस्सेन्तो, अ. नि. अट्ठ. 3.276; - परिज्ञेय्य त्रि., अभिज्ञा ज्ञान के द्वारा जानने योग्य, सर्वोच्चज्ञान के द्वारा परिज्ञेय - य्यं नपुं., प्र. वि., ए. व. - सब्ब अभिजापरिजेय्य, स. नि. 2(2).30; - पादक त्रि., [अभिज्ञापादक, अभिज्ञा के लिए आधारभूत - कं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अभिआपादकं होति, ध. स. अट्ठ. 231; - के सप्त. वि., ए. व. - अभिज्ञपादके झाने वृत्ते ... वारो आगतो. म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).170; - झान नपुं.. [अभिज्ञापादकध्यान], अभिज्ञा-ज्ञान के लिए आधारभूत ध्यान - अभिजापादकज्झानं समापज्जित्वा ..., म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.54; - पारगू त्रि., [अभिज्ञापारग], अभिज्ञा अर्थात् उच्चतम ज्ञान के द्वारा पूर्णता को प्राप्त कर चुका - गू पु., प्र. वि., ए. व. - अभिज्ञापारगू परिञापारगू .... समापत्तिपारगू महानि. 15; अभिञापारगूति अधिगतेन आणेन जातपरिञाय निब्बानपारं गन्तुकामो गच्छति, महानि. अट्ट. 64; - पारमी स्त्री.. [बौ. सं. अभिज्ञापारमी], अभिज्ञा में पूर्णता, उच्चतम ज्ञान की आदर्श पराकाष्ठा, अभिज्ञा ज्ञान की पारमिता - मि द्वि. वि., ए. व. - अभिज्ञापारमिं गन्त्वा ब्रह्मलोकं अगच्छिह, अप. 1.21; - मिप्पत्त त्रि., अभिज्ञाज्ञान की पूर्णता को प्राप्त - त्तो पु.. प्र. वि., ए. व. - अभिञापारमिप्पत्तो ... विसोधिता, थेरगा. 1271; अभिञापारमिप्पत्तोति छन्नम्पि अभिआनं पारमि उक्कंसं अधिगतो, थेरगा. अट्ठ. 2.448; - पारिपूरी स्त्री., [बौ. सं. अभिज्ञापारिपूरी], अभिज्ञा की पूर्णता-रिं द्वि. वि., ए. व. - अभिज्ञापारिपरि कत्वा दस्सेतुम्पि, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).173; - बल नपुं., अभिज्ञा अथवा उच्चतम ज्ञान की शक्ति - लं द्वि. वि., ए. व. - अट्ठगुणसमूपेत अभिजाबलमाहरि बु. वं. 2.29; -- बलप्पत्त त्रि., उच्चतम ज्ञान की शक्ति या बल को प्राप्त, अभिज्ञा की शक्ति को प्राप्त - त्तानं पु, ष, वि., ब. व. - अभिज्ञाबलप्पत्तान, निब्बुतानं तपस्सिनं, बु. वं. 9.11; अभिआबलप्पत्तानन्ति
अभिज्ञानं वलप्पत्तानं, बु. वं. अट्ठ. 199; - बलपारग त्रि., उच्चतम ज्ञान या अभिज्ञा में पूर्ण, अभिज्ञा की शक्ति से सम्पन्न, छह प्रकार के अभिज्ञा-बलों में परिपूर्ण - गा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - सङ्घमित्ता महाथेरी अभिजाबलपारगा, म. वं. 19.20; अभिजाबलपारगा ति छसु अभिआबलेसु ... अधिप्पायो, म. वं. टी. 361 (ना.); - मानस नपुं.. [अभिज्ञानमानस], अभिज्ञा या उच्चतम ज्ञान से युक्त महग्गत चित्त, ध्यानभूमि के अभिज्ञा ज्ञान से युक्त चित्त - सं प्र. वि., ए. व. - तथा दस क्रिया कामे, अभिजामानसं द्वयं, अभि. अव. 36; - सा प्र. वि., ब. व. - अभिज्ञामानसा द्वेपि, अभि. अव. 53; - जारम्पणनिद्देस पु., अभि. अव. का सत्रहवां परिच्छेद, जिसमें अभिज्ञाओं के आलम्बनों (ग्राह्यविषयों) का वर्णन है, अभि. अव. 140-146; -- लाभी त्रि.. [अभिज्ञालाभिन्], उच्चतम अभिज्ञा से युक्त, उच्चतम ज्ञान या अभिज्ञा का लाभ पाने वाला - भी पु., प्र. वि., ए. व. - यथाकथितं भूतं हुत्वा अयं अभिजालाभी ति पाकटो अहोसि, सा. वं. 49(ना.): पक्कोसनतो अयं अभिजालाभी ति कित्तिघोसो अहोसि तदे. - नं ष. वि., ब. व. - अभिजालाभीनं ... गमनागमनवसेन सूरियोभासं. सा. वं. 30(ना.); - वसिभावितु त्रि., वह, जिसने अभिज्ञा-ज्ञान पर पूर्ण अधिकार प्राप्त कर लिया है, वह, जिसने अभिज्ञा को वशीभूत कर लिया है - ता पु., प्र. कि., ब. व. - अ अभिआ अप्पेन्ति, अभिआ वसिभाविता, अप. 1.32; अभिजा पञ्च अभिज्ञायो वसिभाविता वसीकरिंस, अप. अट्ट, 1.116; - वोसानपारमिप्पत्त त्रि., वह, जिसने अभिज्ञा के द्वारा पूर्ण प्रवीणता या दक्षता को पा लिया है - त्तो पु., प्र. वि., ए. व. - धम्मेस अभिजावोसानपारमिप्पत्तो पटिजानामि, अ. नि. 2(1).9; अभिआवोसानपारमिप्पत्तो पटिजानामीति चतूस ... अभिजानित्वा वोसानपारमि ... पारं पत्तो, अ. नि. अट्ठ. 3.4; - ता पु.. प्र. वि., ब. व. - सावका बहू अभिज्ञावोसानपारमिप्पत्ता विहरन्ति, म. नि. 2.213; अभिजावोसानपारमिप्पत्ताति... अरहत्तं पत्ता, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.172; केवल स. उ. प. के रूप में दिट्ठधम्मा. आदि के अन्त. द्रष्ट; - वोसित त्रि., [अभिज्ञाव्यवसित]. अभिज्ञाज्ञान के द्वारा पूर्ण रूप से मुक्त हो चुका अर्हत्, जन्म के क्षय को प्राप्त अर्हत् - तो पु., प्र. वि., ए. व. - अभिआ वोसितो मुनि, म. नि. 2.353; अभिआ वोसितोति तं अरहत्तं अभिजानित्वा वोसितो वोसानप्पत्तो, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.279; - सच्छिकरणीय त्रि., अभिज्ञा के द्वारा साक्षात्कार
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अभिजाण
475
अभिण्हकारण
करने योग्य या अनुभवनीय - स्स पु., ष. वि., ए. व. - यस्स यरस अभिआसच्छिकरणीयस्स धम्मस्स ... अभिआसच्छिकिरियाय, म. नि. 3.139; अभिज्ञासच्छिकरणीयस्साति अभिआय सच्छिकातब्बस्स, म. नि. अट्ट. (उप.प.) 3.106; - येसु पु.. सप्त. वि., ब. व. - अभिजा सच्छिकरणीयेसु धम्मेस. स. नि. 2(1).229; अभिजा सच्छिकरणीयेस धम्मेसूति... छळभिआधम्मेस. स. नि. अट्ठ. 2.309; - सच्छिकिरिया स्त्री., अभिज्ञा-ज्ञान द्वारा साक्षात् ज्ञान या दर्शन - याय च. वि., ए. व. - धम्मरस चित्तं अभिनिन्नामेति अभिआसच्छिकिरियाय, म. नि. 3.140; - समापत्तिलाभी त्रि., अभिज्ञाओं तथा समापत्तियों का लाभ पाने वाला - भिनो पु., प्र. वि., ब. व. - सब्बेव अभिआसमापत्तिलाभिनोति, जा. अट्ठ. 6.122; - हदय नपुं., अभिज्ञाज्ञानयुक्त चित्त, अभिज्ञामानस - दया प्र. वि., ब. व. - अभिज्ञाहदया द्वेपि, अभि. अव. 53; - जारम्मणनिद्देस पु., अभिधम्मावतार के एक परिच्छेद का शीर्षक, अभि. अव. 140-146. अभिजाण नपुं.. [अभिज्ञान], चिह्न, पहचान-चिह्न पहचानने का साधन, घनिष्ट सम्बन्ध स्थापित करने का साधन, स्वीकार करने का साधन - कलङ्को लञ्छनं लक्खं अङ्को भिजाणलक्खणं, अभि. प. 55; - जाणेन तृ. वि., ए. व. - सो इमिना अभिआणेन इदं इत्थिया सीसं, जा. अट्ठ, 6.167; अभिआणेन पस्सितब्बं पस्सामीति अत्थो, इतिवु. अट्ठ. 67; - आणं द्वि. वि., ए. व. - दारुम्हि अभिआणं कत्वा ... तेन अभिजाणेन तं पच्चाभिजाननकाले, ध. स. अट्ठ. 156. अभिजात त्रि., अभि + Vञा का भू. क. कृ. [अभिज्ञात], क. जाना हुआ, पूर्ण रूप से समझा बूझा हुआ, विशिष्ट या अधिक ज्ञान के द्वारा जाना हुआ - तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अभिनेय्यं अभिजातं... भावितं. सु. नि. 563; महानि. 15; अभिजातन्ति अधिकेन जाणेन आतं, महानि. अट्ट. 66; ख. प्रख्यात, सुप्रसिद्ध, योग्य, विशिष्ट, यशस्वी - ख्यातो पतीतो पातो भिजातो पथितो सुतो, अभि. प. 724; - तो पु., प्र. वि., ए. व. - जेतो कुमारो अभिजातो ञातमनुस्सो, चूळव. 287; - स्स पु.. ष. वि., ए. व. - ... चेव अभिजातस्स च ब्राह्मणस्स, दी. नि. 1.78; अभिञातस्साति रूपजातिमन्तकुलापदेसेहि पाकटस्स, दी. नि. अट्ठ. 1.204; - ता' स्त्री., प्र. वि., ए. व. - पाकटा अभिजाता परिब्बाजिका, उदा. अट्ठ. 210; - ता पु., प्र. वि., ब. व. - सम्बहुला
अभिआता ... ब्राह्मणमहासाला मनसाकटे, दी. नि. 1.214; अभिआता अभिजाताति कुलचारित्तादिसम्पत्तिया तत्थ तत्थ पञाता, दी. नि. अट्ठ. 1.300; - तेहि पु., तृ. वि., ब. व. - अभिआतेहि अभिजातेहि थेरेहि सावकेहि सद्धि, म. नि. 1276; - तानं पु., ष. वि., ब. व. - अभिजातानं अभिजातानं योधान, महाव. 92; - कोलञ त्रि., ब. स. [अभिज्ञातकौलीन्य], यशस्वी कुल का, विशिष्ट कुल या वंश का, प्रख्यात-कुलोत्पन्न - ओ पु., प्र. वि., ए. व. - अम्बट्टो माणवो अभिजातकोलओ, दी. नि. 1.783; अभिजातकोलोति पाकटकुलजो, दी. नि. अट्ठ. 1.203. अभिज्ञावग्ग पु., अ. नि. के एक वग्ग का एक शीर्षक, अ. नि. 1(2).283-289. अभिनेय्य त्रि., अभि + Vञा का सं. कृ., ज्ञातव्य, ज्ञातपरिज्ञा द्वारा जानने योग्य -- य्यो पू., प्र. वि., ए. व. -- अयं एको धम्मो अभिज्ञय्यो, दी. नि. 3.218; अभिनेय्यो ति आतपरिञाय अभिजानितब्बो, दी. नि. अट्ठ. 3.219. अभिठान नपुं.. अभि + Vठा से निष्पन्न, गम्भीर दुष्कर्म, मातृहनन तथा पितृहनन जैसे जघन्य कर्म या अपराध, छह पापकर्मों (मातृहत्या, पितृहत्या, अर्हतों की हत्या, बुद्धशरीर से लोहितोत्पाद, सङ्घभेद और अन्य धर्मों की शरण में जाना) में से एक - नानि वि. वि., ब. व. - छच्चाभिठानानि
अभब्बकातुं, खु. पा. 6.11; सु. नि. 231. अभिजानिद्देस पु., अभि. अव. के एक खण्ड का शीर्षक, अभि. अव. 134-140; विसुद्धि के एक स्थल का भी शीर्षक, विसुद्धि. 2.35-62. अभिज्ञानुयोग पु., कथा. के एक खण्ड का शीर्षक, कथा. 56-57. अभिण्हं निपा., [अभीक्ष्णम्], लगातार, निरन्तर, बार-बार, पुनः-पुनः, - पुनप्पुनं अभिण्... मुह, अभि. प. 1137; ते च पापेसु कम्मेसु अभिण्हमुपदिस्सरे, सु. नि. 140; राहुलं इमाहि गाथाहि अभिण्ह ओवदतीति, सु. नि. 138. अभिण्ह-सन्निपात त्रि., बार-बार समूह में एकत्रित होने वाला, अनेक बार बैठक बुलाने वाला - ता पु., प्र. वि., ब. व.- बज्जी अभिण्हं सन्निपाता सन्निपातबहला ति, दी. नि. 2.57; अभिण्हं सन्निपाता भविस्सन्ति सन्निपातबहला, अ. नि. 2(2).168. अभिण्हकारण नपुं., निरन्तर प्रशिक्षण, बार-बार का अभ्यास - णा प. वि., ए. व. - अभिण्हकारणा... ठाने परिनिब्बायति, म. नि. 2.118.
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अभिण्हजातक
476
अभित्थनति
अभिण्हजातक नपुं. एक जातक-कथा का शीर्षक, जा.
अट्ठ. 1.188-190. अभिण्हदस्सन नपुं.. निरन्तर सम्पर्क, बारम्बार समागम, लगातार संसर्ग - नं प्र. वि., ए. व. - मातुगामस्स अभिण्हदस्सनं..... अ. नि. 2(1).239; - ना प. वि., ए. व. - अभिण्हदस्सना, नागो स्नेहमकासि कुक्कुरे ति, जा. अट्ठ 1.189; - स्स ष. वि., ए. व. - अट्ठानपरिकप्पेन अभिण्हदस्सनस्स उपायं दस्सेति, म. नि. अट्ट (मू.प.) 1(2).62. अभिण्हरोग त्रि., ब. स., रोग से निरन्तर पीड़ित रहने वाला, निरन्तर रुग्ण रहने वाला - गो पु., प्र. वि., ए. व. - अभिक्खणातकोति अभिण्हरोगो निरन्तररोगो, स. नि. अट्ठ. 2.220; - ता स्त्री॰, भाव., निरन्तर या लगातार रोग से ग्रस्त रहना - ताय तृ. वि., ए. व. - अभिण्हरोगताय पनस्स ब्याधातुरता इध अधिप्पेता, स. नि. अट्ठ. 2.220. अभिण्हसंवास पु., निरन्तर सहवास, लगातार (किसी के) साथ निवास- सा प्र. वि., ब. व. - कच्चि अभिण्हसंवासा नावजानासि पण्डितं, सु. नि. 337. अभिण्हसंसग्ग पु.. [अभीक्ष्णसंसर्ग], निरन्तर चल रहा संसर्ग, लगातार सम्पर्क - ग्गेन त, वि., ए. व. - अभिण्हसंसग्गवसेन परन्तपेन सद्धि अतिचरि, जा. अट्ट. 3.369; अच्चाभिक्खणसंसग्गाति अतिविय अभिण्हसंसग्गेन, जा. अट्ठ. 5.222. अभिण्हसो निपा., निरन्तर, बार-बार, पुनः पुनः लगातार - दुल्लभं दस्सनं होति, सम्बुद्धानं अभिण्हसो, सु. नि. 564; येसं वे दुल्लभो लोके, पातुभावो अभिण्हसो, सु. नि. 565; सुतं नेतं अभिण्हसो, दी. नि. 3.149; सुतं नेतं अभिण्हसोति एतं अम्हेहि अभिक्खणं सुतं, सु. नि. अट्ठ. 3.132. अभिण्हापत्तिक त्रि., निरन्तर अपराध करने वाला, निरन्तर आपत्ति-बहुल होने वाला - को पु.. प्र. वि., ए. व. - अभिण्हापत्तिको होति आपत्तिबहुलो, म. नि. 2.114; अभिण्हापत्तिकोति निरन्तरापत्तिको, म. नि. अट्ठ (म.प.) 2.110. अभिण्होवाद पु., निरन्तर प्रबोधन, अभिण्ह-संवास के विषय में बार बार दिया गया आदेश - दं द्वि. वि., ए. व. - पियपुत्तस्स राहलत्थेरस्स अभिण्होवादं..., म. नि. अट्ठ (मू.प.) 1(2).274. अभितक्कयित्वा अभि + Vतक्क का पू. का. कृ., पाने हेतु प्रयत्न कर - यंधम्मिकं नरवरं अभितक्कयित्वा. दा. वं 5.4. अभितत्त त्रि., अभि + Vतप का भू. क. कृ. [अभितप्त], झुलसाया हुआ, अत्यधिक तपाया हुआ, चारों ओर से गर्म
किया हुआ, गर्मी से बुरी तरह पीड़ित, केवल स. उ. प. के रूप में प्राप्त - उण्हाभितत्ता द्वार... पपतन्ति, चूळव. 364; घम्माभितत्ता तलसा पपीळिता, जा. अट्ठ. 2.187; घम्माभितत्ता तलसा पपीळिताति घम्मेन अभितत्ता पादतलेन च पीळिता, तदे.. अभितप्पयति अभि + Vतप्प के प्रेर. का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अभितर्पयति], पूर्ण रूप से तृप्त या सन्तुष्ट करता है - यन्तो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - सकललोकमभितप्पयन्तो ..... चारिक चरमानो ... अनुप्पत्तो, मि. प. 18. अभिताप पु.. [अभिताप], अधिक गरमी, विशेष ताप, भयानक ताप, केवल स. उ. प. के रूप में द्रष्ट. महा. (जा. अट्ठ. 5.137): सीसा., (पारा. 99) के अन्त... अभितिकृति अभि + vठा का वर्त.. प्र. पु., ए. व[अभितिष्ठति],
जीतता है, पराजित करता है, पराभूत करता है - सहस्सं ब्रह्मलोकानं महाब्रह्माभितिट्टति, दी. नि. 2.193; -- द्वाय पू. का. कृ. - आभतं पररज्जेभि, अभिट्ठाय बहु धनं, जा. अट्ट 6.305. अभितुन्न/अभितुण्ण त्रि., अभि + Vतुद का भू. क. कृ., विशेष रूप से कष्टापन्न, पूर्ण रूप से व्यथित - न्नो पु.,
प्र. वि., ए. व. - महावेदनाहि अभितुन्नो विसञीभूतो, जा. __ अट्ठ. 1.77; - स्स ष. वि., ए. व. - अस्सासेनाभितुन्नस्स
पस्सासपटिलाभे मुच्छना, पटि. म. 158.. अभितो निपा., [अभितः], चारों ओर, दोनों ओर, समीप में - यो ब्रह्म परिपुच्छति, सुधम्मायाभितो सभं, म. नि. 1.422; अभितो गामं वसति, सद्द. 3.716; उय्यानभूमि अभितो अनुक्कम वि. व. 1015; उय्यानभूमि अभितोति उय्यानभूमिया समीपे, वि. व. अट्ठ. 231. अभितोसयति अभि + Vतुस का वर्त, प्र. पु., ए. व., प्रेर. [अभितोषयति], सन्तुष्ट करता है, सन्तोष देता है, अधिक सन्तुष्ट करता है - यं वर्त. कृ., पु.. प्र. वि., ए. व. - सन्तुष्ट करता हुआ - अत्तानमभितोसयं, सु. नि. 714; अत्तानमभितोसयन्ति ... सिया... अत्तानं अतीव तोसेन्तो झायेथ, सु. नि. अट्ठ. 2.194. अभित्थनति अभि + Vथन के प्रेर. का वर्त०, प्र. पु., ए. व. [अभिस्तनति], घोर गर्जन करता है, ठनका ठनकता है, बिजली कड़कती है - न्तं नपुं.. वर्त. कृ., प्र. वि., ए. व. - अभित्थनन्तं विज्जुलता निच्छारेन्तं, अधोमुखं जा. अट्ठ. 1.315; - नन्तो पु., प्र. वि., ए. क. - अभित्थनन्तो विज्जुलता निच्छारेन्तो वस्सापेहीति, जा. अट्ट, 1.317; -
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अभित्थरति
477
अभिदोस
त्थनय अनु., म. पु., ए. व. - अभित्थनय पज्जुन्न, जा. अट्ठ. 1.317; अभित्थनय पज्जुन्नाति पज्जुन्नो वुच्चति मेघो
..., तदे....
अभित्थरति अभि + Vतर का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अभित्वरति, शीघ्रता करता है, जल्दीबाजी करता है - रेथ विधि., म. पु., ब. व. - अभित्थरेथ कल्याणो, ध. प. 116; अभित्थरेथाति तुरिततुरितं सीघसीघं करेय्याति, ध. प. अट्ठ. 2.3. अभित्थव पु.. [अभिस्तव, प्रशंसा, संस्तवन - थु अभित्थवे
थुनाति अभित्थुनाति, थुति अभित्थुति, थवना अभित्थवना, थुतो अभित्थुतो, सद्द. 2.496. अभित्थवति अभि +vथु का वर्त., प्र. पु.. ए. व. [अभिस्तौति]. प्रशंसा करता है, संस्तवन करता है - वन्तो वर्त. कृ., पु.. प्र. वि., ए. व., प्रशंसा करता है - अभित्थवन्तो अरहत्तनिकूटेन देसनं, सु. नि. अट्ठ. 2.115; - न्ता ब. व. - अञ्जलिं पग्गयह अभित्थवन्ता .... ध. प. अट्ठ. 2.141; - मानो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - अभित्थवमानो कथंकथापमोक्खं याचन्तो, सु. नि. अट्ठ. 2.283; - वेय्यं विधि., उ. पु., ए. व. सारुप्पाहि गाथाहि अभित्थवेय्यं सु. नि. 167; - स्थवि। अद्य०, प्र. पु., ए. व.- भगवन्तं सम्मखा सारुप्पाहि गाथाहि अभित्थवि, सु. नि. (पृ.) 148; - वित्वा पू. का. कृ. -
अभित्थवित्वा सिखिनं..., अप. 1.275. अभित्थवना स्त्री., प्रशंसा, संस्तवन - थवना अभित्थवना
थुति अभित्थति, सद्द. 2.363. अभित्थवीयति अभि + Vथव का भाव., वर्त.. प्र. पु., ए. व.. प्रशंसा की जाती है - सो हि महाजुतिताय अक्कीयति
अभित्थवीयाति तप्पसन्नेहि जनेही ति अत्थो, सद्द. 2.522; - वियमानो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - गाथाहि
अभित्थवियमानो राजगहं पविसित्वा .... पे. व. अट्ठ. 19. अभित्थुत त्रि., अभि + Vथव का भू. क. कृ. [अभिस्तुत]. प्रशंसा किया हुआ, प्रशंसित - तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - अभित्थुतं, अतित्थुतं, मो. व्या. 3.13; - गुण त्रि., ब. स.. वह, जिसके गुण की प्रशंसा की जा चुकी है - णो पु.. प्र. वि., ए. व. - काळेन नागराजेन अभित्थतगणो बोधिमण्ड ....., ध. प. अट्ठ. 1.51. अभित्थुति स्त्री.. [अभिस्तुति], प्रशंसा - उदेतयं चक्खुमाति
आदिना अभित्थुति दिस्सति, सद्द. 2.522. अमित्थुनाति अभि + Vथु का वर्त, प्र. पु., ए. व., प्रशंसा या स्तुति करता है - निंसु अद्य., प्र. पु., ब. क. - बोधिसत्तं नानप्पकाराहि थुतीहि अभित्थुनिसु, जा. अट्ठ. 1.21.
अभिथोमयिं अभि + Vथोम के ना.धा. का अद्य., उ. पु., ए. व. मैंने प्रशंसा की या गुणगान किया -- एकनवुतितो कप्पे, यं बुद्धमभिथोमथि, अप. 1.160. अभिदक्खिण त्रि., [अभिदक्षिणम निपा.]. दक्षिण की ओर, दक्षिणाभिमुख - हञ्चि कप्पट्टो चेतियं अभिदक्खिणं करेय्य, कथा. 385. अभिदन्त पु.. ऊपर का दांत - न्तं द्वि. वि., ए. व. - दन्तेभिदन्तमाधायाति हेद्वादन्ते उपरिदन्तं ठपेत्वा, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).185. अभिदहरत्त नपुं., भाव., [अभिदहरत्व], अधिक युवा होना, तरुणत्व, किशोरत्व - त्ता प. वि., ए. व. - सो एव
अभिदहरत्ता कुमारको, सद्द. 2.559. अभिदेय्य त्रि., अभि + दा का सं. कृ. [अभिदेय]. केवल
स. उ. प. के रूप में प्राप्त, सब्बाभिदेय्य के अन्त. द्रष्ट.. अभिदो 1. निपा. [अभितः], निकट, की ओर, चारों ओर, दोनों ओर - यो वा तदहपोसथे पन्नरसे विद्धे विगतवलाहके देवे अभिदो अवरत्तसमयं चन्दो .... म. नि. 2.235-236; अभिदो अवरत्तसमयन्ति अभिन्ने अद्यरत्तसमये, म. नि. अट्ट. (म.प.) 2.193; अभिदो अद्धरत्तन्ति अभिअद्धरत्तं अद्धरत्ते अभिमुखीभूते, अ. नि. अट्ठ. 3.136; अभिदोति अभिसद्धेन समानत्थनिपातपदन्ति आह "अभिअडरत्तन्ति, अ. नि. टी. 3.127; 2. त्रि., ब. स. [अभेद्य], नहीं भिन्न, समान- नत्थि एतस्स भिदाति वा अभिदो... तस्मा अभिदो अवरत्तन्ति अभिन्ने अङ्करत्तिसमयेति अत्थो, अ. नि. टी. 3.127. अभिदोस पु.. [प्रदोष और अभिदोषम्, निपा.]. गोधूलि का काल, प्रदोष, रात्रिभाग, गोधूलि का समय, पिछली रात का प्रथम भाग, पिछली रात्रि का मध्य भाग - अभिदोसो पदोसोथ, अभि. प. 68; - सं द्वि. वि., ए. व., क्रि. वि. - दोसन्ति अभिदोसं. रत्तिभागेति, जा. अट्ठ. 6.215; - कालकत त्रि., वह, जो बीते प्रदोष काल में मर चुका है, बीती हुई सन्ध्या में मर चुका - तो पु.. प्र. वि., ए. व. - अभिदोसकालङ्कतो उद्दको रामपुत्तोति, म. नि. 1.229; अभिदोसकालङ्कतोति अडरते कालङ्कतो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).88; - सगत त्रि., वह, जो बीती हुई रात में चला गया है, वह, जो बीती रात में प्रस्थान कर चुका हो, वह, जो कल की रात में चला गया हो, बीती रात के प्रथम प्रहर में जा चुका - तो पु.. प्र. वि., ए. व. - अभिदोसगतो दानि एहिसि, जा. अट्ठ. 6.215; अभिदोसगतोति हिय्यो पठमयामे गतो इदानि आगतो, तदे..
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अभिद्दवति
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अभिधम्मदेसना
अभिद्दवति अभि + vदु का वर्त., प्र. पु., ए. व. [अभिद्रवति], हमला करता है, आक्रमण करता है -- वन्तं वर्त. कृ., पु.. द्वि. वि., ए. व. - अभिद्दवन्तं अतिभासनेन ... दमेसि यो
आळक्कम्पि यक्खं, दा. वं. 3.47. अभिधमति अभि + Vधम का वर्तः, प्र. पु., ए. व., फूंकता है, धौंकता है, फूंक मार कर आग को उद्दीप्त करता है - कालेन काल अभिधमति, अ. नि. 1(1).290; - मेय्य विधि., प्र. पु., ए. व. - तमेनं कालेन कालं अभिधमेय्य, म. नि.. 3.292 अभिधम्म पु.. [बौ. सं. अभिधर्म], विशिष्ट धर्म, अतिरेक धर्म, क. अभिविनये के साथ साथ अभिधम्मे रूप में शब्द का प्राचीनतम प्रयोग, धर्म के विषय में, धर्म के सम्बन्ध में, (अर्थों में प्राप्त) - म्मे सप्त. वि., ए. व. - अभिधम्मे अभिविनये उळारपामोज्जो, दी. नि. 3.213; अभिधम्मे विनये अभिविनये च उळारपामोज्जोति बहुलपामोज्जो होतीति अत्थो, दी. नि. अट्ठ. 3.210; सियंसु द्वे भिक्खू अभिधम्मे नानावादा, म. नि. 3.25; अभिधम्मेति विसिट्टे धम्मे, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.18; ख. अभिधम्मपिटक तथा इसके सात प्रकरण - म्म द्वि. वि., ए. व. - पिटके तीनि देसयि, सुत्तन्तमभिधम्मञ्च, विनयञ्च महागुणं, परि. 179; - म्मे सप्त. वि., ए. व. --
अभिधम्मे अभिविनयेति अभिधम्मपिटके चेव विनयपिटके च ..., म. नि. अट्ट, (म.प.) 2.132; अभिधम्मे विनेतुं, महाव. 82;
अभिधम्मेति नामरूपपरिच्छेदे विनेत न पटिबलोति अत्थो, महाव. अट्ठ. 259; ग. पु. (नपुं.), [बौ. सं. अभिधर्म], उच्चतर या विशिष्ट धर्म, अतिरिक्त या विशिष्ट रूप में निवर्चन किया गया धर्म - म्मो प्र. वि., ए. व. - अभिधम्मो तेन अक्खातो ति, दी. नि. अट्ट, 1.18; केनटेन अभिधम्मोः धम्मातिरेक-धम्म-विसेसटेन अभिधम्मो, ध. स. अट्ठ. 4; अभिधम्मो नाम न सावकविसयो, न सावकगोचरो... बुद्धगोचरो, ध, स. अट्ठ. 428; - म्म नपुं, लिङ्ग-विपर्यय, प्र. वि., ए. व. - सुत्तन्तं अभिधम्मञ्च, विनयञ्चापि केवलं, अप. 1.41; सुत्तन्तं अभिधम्मञ्चाति तव तुम्ह एत्थ धम्मनगरे सुत्तन्तं अभिधम्म विनयञ्च ..., अप. अट्ठ. 1.295; - म्म द्वि. वि., ए.व. - आभिधम्मिका अभिधम्म खु. पा. अट्ठ. 122; सेट्ठिस्स अभिधम्म देसेसि, मि. प. 15; - तो प. वि., ए. व. - अभिधम्मतो सुत्तं आहरित्वा धम्म कथेन्तो, ध. स. अट्ठ, 30%; - स्स ष. वि., ए. व. - नानानयविचित्तरस, अभिधम्मस्स आदितो, ध. स. अट्ठ. 3; पदेसविहारसुत्तन्तवसेन अभिधम्मरस निदानं कथेसिध. स. अट्ठ. 32; - म्मे सप्त.
वि., ए. व. - अभिधम्मेति विसिढे धम्मे ... म. नि. अठ्ठ. (उप.प.) 3.18; अभिधम्मे सुप्पटिपन्नो पासम्पदं निस्साय ...., ध. स. अट्ठ. 26; पठम विनये वा सुत्तन्ते वा अभिधम्मे
वा, मि. प. 11. अभिधम्मकथा स्त्री., अभिधर्म का उपदेश, शील आदि उत्तम धर्मों का कथन - थं द्वि. वि., ए. व. - अभिधम्मकथं कथेन्ति, म. नि. 1.278; अभिधम्मकथं वेदल्लकथं कथेन्ता ..... अ. नि. 2(1).100; अभिधम्मकथन्ति सीलादिउत्तमधम्मकथं अ. नि. अट्ठ. 3.37; - था प्र. वि., ए. व. -- अभिधम्मकथा नाम अतिसण्हा .... ध. प. अट्ठ. 2.189, - मग्ग पु., अभिधर्मकथा का मार्ग या पद्धति - ग्गं द्वि. वि., ए. व. - अभिधम्मकथामग्गं देवानं सम्पवत्तयि, ध. स. अट्ट 2. अभिधम्मगत त्रि., अभिधर्म में आया हुआ अभिधर्म से सम्बद्ध - ता पु., प्र. वि., ब. व. - तस्सभिधम्मगता पन अत्था, अभि. अव. 39. अभिधम्मटीका स्त्री., आनन्द-थेर द्वारा मधुरसारत्थदीपनी नामक अभिधम्म की टीका - काय ष. वि., ए. व. - आनन्दथेरो मधुरसारत्थदीपनि नाम अभिधम्मटीकाय संवण्णनं ... सा. वं. 45(ना.); - यं सप्त. वि., ए. व. - तथा हि अभिधम्मटीकायं मग्गो ति उपायो, सद्द. 2.525. अभिधम्मतन्ति स्त्री., अभिधम्म का पिटकीय खण्ड - न्तिं
द्वि. वि., ए. व. - अभिधम्मतन्तिं पच्चवेक्खन्तानं अनन्तं ......ध. स. अट्ठ. 13. अभिधम्मत्थगण्ठिपद नपुं.. महाकस्सप थेर के द्वारा विरचित एक ग्रन्थ का नाम, जॅ. पा. टे. सो. 1910-12. (पृ.) 122. अभिधम्मत्थविभावनी (विनी) स्त्री., सुमङ्गल के द्वारा विरचित अभिधम्मत्थसङ्गह की टीका - निं द्वि. वि., ए. व. -- अभिधम्मत्थविभाविनिं नाम लक्खणटीकं उग्गण्हापेसि, सा. वं. 91(ना.). अभिधम्मत्थसङ्गह पु.. अनुरुद्धथेर के द्वारा विरचित एक ग्रन्थ का नाम - हं द्वि. वि., ए. व. - परमत्थविनिच्छयं नामरूपपरिच्छेदं अभिधम्मत्थसङ्गहञ्च अनुरुद्धथेरो, सा. वं. 31(ना.). अभिधम्मदेसना स्त्री., अभिधर्म का उपदेश - अभिधम्मदेसनत्थं पण्डुकम्बलसिलायं वरसं उपगतं, ध. प. अट्ठ. 2.125; - परियोसान नपुं., अभिधर्मदेशना का अन्त या पर्यवसान - नं प्र. वि.. ए. व. - सम्मासम्बुद्धस्स अभिधम्मदे सनापरियो सानञ्च ते स भिक्खून सत्तप्पकरणाउग्गहणञ्च ..., ध. स. अट्ठ. 18.
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अभिधम्मनय
अभिधम्मनय पु.. अभिधर्म की पद्धति येन तृ. वि. ए. व. अभिधम्मनयेन चत्तारो आसवा वेदितब्बार उदा. अड्ड. 142; - ये सप्त. वि., ए. व. अभिधम्मनये दुरासदे .....अभि. अव. 30; - ञ्ञत्रि, अभिधर्म की पद्धति का ज्ञाता - हं पु. प्र. वि. ए. व. अभिधम्मनयहं कथावत्युविसुखिया, अप. 1.34 समुह पु.. अभिधर्मनय का सागर, अभिधर्म की पद्धति का समुद्रदं द्वि. वि. ए. व. अभिधम्मनयसमुद्द अधिगछि ध. स. अड्ड. 82.
अभिधम्मनिद्देस पु. तत्पु, स. अभिधर्म की विस्तृत व्याख्या या विश्लेषण तो प. वि. ए. व.- सुत्तन्तपरियायतो
अभिधम्मनिद्देसतोति दुविध, विभ. अट्ठ. 7. अभिधम्मपद नपुं., अभिधर्म का शब्द या पद, अभिधर्म का उद्धरण दानि द्वि. वि. ब. व. आभिधम्मिको भण, तात् अभिधम्मपदानीति, मि. प. 15.
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अभिधम्मपरिचय पु. अभिधर्म-विषयक विचार-विमर्श, अभिधर्म का गम्भीर अनुचिन्तन रतनधरसताहे पन अभिधम्मपरिचयवसेनेव विहासीति, उदा. अड्ड. 42. अभिधम्मपरियाय पु., अभिधर्म की व्याख्या का विशिष्ट स्वरूप, अभिधम्म का विशिष्ट निर्वाचन प्रकार यो प्र. वि. ए. व. सुतन्तपरियायो च अभिधम्मपरियायो ध. दी. नि. अड. 3.157 यं द्वि. वि. ए. व. अभिधम्मपरियायं पत्वा कोसल्लसम्भूतनिहस्थ सुखविपाकट्टेन दी. नि. अड्ड. 3.60येन तृ. वि. ए. व. अभिधम्मपरियायेन अनिमित्तमग्गो नाम नत्थीति, ध. स. अट्ठ. 267. अभिधम्मपाळि स्त्री. अभिधम्मपिटक
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ए.
लियं सप्त. वि., व. अभिधम्मपाळियमेव वृत्तं तेवीसतिविधं रूपं, म. नि. अट्ठ. ( मू.प.) 1 ( 1 ) 231. अभिधम्मपिटक नपुं., बुद्धवचनों के तीन पिटकों में किए गए विभाजन में तीसरा ग्रन्थः इसमें सात ग्रन्थ समाहित हैं। जिनके नाम इस प्रकार है- धम्मसङ्गणि, विभङ्ग, धातुकथा, पुग्गलपञ्ञत्ति, कथावत्थु, यमक तथा पद्वान इसमें परमार्थ देशना (परमत्थदेसना) है के सप्त वि. ए. व. अभिधम्मपिटके अधिपञ्ञासिक्खा, दी. नि. अट्ठ. 1.20; - कं प्र. वि. ए. व. अन्तरधायति तदा पठमं अभिधम्मपिटकं नस्सति विभ अड. 407. अभिधम्मभाजनीय नपुं विभङ्ग में अध्यायों की विषयवस्तु के विवेचन के तीन प्रकारों में से एक, अभिधम्म या अभिधम्ममातिका के आधार पर धर्मों का विवेचन - इदानि अभिधम्मभाजनीयं होति, विभ. अट्ठ 33; तुल० सुत्तन्तभाजनीय एवं पञ्हापुच्छक.
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अभिधम्मिक
अभिधम्ममहण्णवपार नपुं. अभिधर्म के महान सागर का दूसरी ओर का तट, अभिधर्ममहार्णव का दूसरी ओर का तट रं द्वि. वि. ए. व. सो अभिधम्ममहण्णवपारं दुत्तरमुत्तरमुत्तरतेव, अभि. अव. 57. अभिधम्ममहापुर नपुं. अभिधर्म का महान् नगर रद्वि. कि. ए. द. भिक्खून पविसन्तानं, अभिधम्ममहापुरं अभि.
अव. 2.
अभिधम्ममहोदधि पु. [ अभिधर्ममहोदधि], अभिधर्म का महान् सागर, अभिधर्म का महार्णव, अभिधर्म का विराट समुद्र धिं द्वि. वि. ए. व. सुदुत्तरं... अभिधम्ममहोदधि, अभि.
अव. 2.
अभिधम्ममिस्सक त्रि., [ अभिधर्ममिश्रक], अभिधर्म से मिला हुआ, अभिधर्म से मिश्रित कं स्त्री. द्वि. वि. ए. व. अभिधम्मकथन्ति अभिधम्ममिस्सकं कथं अ. नि. अड्ड.
3.133.
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अभिधम्मविनयोगाळह त्रि. [ अभिधर्मविनया-वगाढ], अभिधर्म और विनय की गंभीरता में डूबा हुआ अभिधर्म एवं विनय के साथ सङ्गति रखने वाला / वाली - कहा स्त्री० प्र० वि. ए. व. अभिधम्मविनयोगाळ्हा, सुत्तजालसमतिता नागसेनकथा चित्रा, मि. प. 1.
"
अभिधम्मसिङ्घाटक
अभिधम्मविरोध पु., अभिधर्म के साथ विरोध या असहमति धो प्र. वि., ए. व. सुत्तो परसति अभिधम्मविरोधो आपज्जति पारा. अट्ठ. 2.98. अभिधम्मसंयुक्त्त त्रि. [ अभिधर्मसंयुक्त] अभिधर्म के साथ जुड़ा हुआ, अभिधर्म के प्रतिपाद्यों से युक्त त्ताय तृ. वि. ए. व. - अभिधम्मसंयुत्ताय कथाय... मि. प. 57. अभिधम्मसिङ्गाटक त्रि. ब. स. [ अभिधर्मश्रृङ्गाटक]. अभिधर्म-रूपी चौराहा वाला सतिपट्टानवीथिक मि. प. 302. अभिधम्मावतार पु. बुद्धदत्त द्वारा विरचित अभिधर्म से सम्बद्ध एक संग्रह-ग्रन्थ रेन तू. कि. ए. व. अभिधम्मावतारेन, अभिधम्ममहोदधिं अभि. अव 17 टीका स्त्री०, क. वाचिस्सर महासामी के द्वारा विरचित पोराणटीका, ख. सुमङ्गल थेर द्वारा विरचित अभिनवटीका काय द्वि. वि., ब॰ व॰ अभिधमत्थसङ्गहाभिधम्मावतारभिनवटीकायो सुमंगलसामिधेरो, सा. व. 32 (ना.).
अभिधम्मिक त्रि. [ अभिधार्मिक ], अभिधर्म का अध्येता, अभिधर्म को पढ़ने वाला, आभिधर्मिक, अभिधर्म के गूढ़ रहस्यों को जानने वाला म्मिको पु०, प्र. वि., ए. व. विनयमधीते ति वेनयिको, विनयमधीते वा एवं सुत्तन्तिको
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अभिधान
480
अभिनदित
आभिधम्मिको, क. व्या. 353; गोदत्तो अभिधम्मिको, अभि. अव. 121; - क पु., संबो. ए. व. - वद त्वं अभिधम्मिक, अभि. अव. 65; - कं द्वि. वि., ए. व. - अभिधम्मिक उपसङ्कमित्वा कप्पियाकप्पियं पुच्छति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).161; - का पु., प्र. वि., ब. व. - अभिधम्मिका पनाहु,
जा. अट्ठ. 1.87. अभिधान नपुं.. [अभिधान], नाम, संज्ञा, उपाधि - नं प्र. वि., ए. व. - इमस्मिं पकरणे परियायवचनन्ति च अभिधानं ति च सङ्घा ति आदीनि, सद्द. 1.65; एकाभिधाने परो पुरिसो गहेतब्बो, क. व्या. 411. अभिधानप्पदीपिका स्त्री., महामोग्गल्लानथेर द्वारा विरचित 1203 गाथाओं का पालि-पर्यायकोश, - कं द्वि. वि., ए. व. - अभिधानपदीपिकं पन महामोग्गल्लानथेरो .... सा. वं. 32(ना.); - टीका स्त्री., विजयपुर के निवासी चतुरङ्गबल द्वारा अभिधानप्पदीपिका पर लिखी गयी टीका - यं सप्त. वि., ए. व. - तेनेव आह अभिधानप्पदीपिकाटीकायं.... सा. वं. 84(ना.). अभिधारेति अभि + vधर के प्रेर. का वर्त., प्र. पु., ए. व. [अभिधारयति], धारण करता है, बरकरार रखता है - यि अद्य., प्र. पु., ए. व. - तमं लोके निहन्त्वान, धम्मोक्कमभिधारयि, बु. वं. 312. अभिधावति अभि + Vधाव का वर्त, प्र. पु., ए. व., (किसी) की ओर दौड़ता है, शीघ्रता करता है, तेज गति से आगे की ओर दौड़ता है - न्ति वर्त., प्र. पु., ब. व. - समन्ता अभिधावन्ति ..., दारके, जा. अट्ठ. 7.333; - रे वर्त., प्र. पु., ब. व., आत्मने. - वनग्गा ... बुद्धरंसीभिधावरे, अप. 2.83; - थ अनु., म. पु.. ब. व, - अभिधावथ चूपधावथ च, जा. अट्ठ. 2.182; अभिधावथ भद्दन्ते, जा. अट्ठ. 4.111. अभिधावी त्रि., [अभिधाविन्], दौड़कर या शीघ्रतापूर्वक किसी
की ओर जाने वाला - विनो पु., प्र. वि., ब. व. - द्वे मिगा विय उक्कण्णा, समन्ता अभिधाविनो, जा. अट्ठ. 7.333. अभिधेय्य क. त्रि., अभि + Vधा का सं. कृ. [अभिधेय], कहने योग्य, अभिव्यक्त करने योग्य - य्यायं स्त्री., सप्त. वि., ए. व. - सआयमभिधेय्यायं दाधातो इप्पच्चयो होति, क. व्या. 553; ख. नपुं., तात्पर्य, निहितार्थ, आशय, अर्थ - य्यं प्र. वि., ए. व. - अभिधेय्यं न कथेस्साम, सद्द. 1.65; - कथन नपुं., कर्म. स. [अभिधेयकथनं], अर्थपूर्ण कथन, अर्थगर्भित वक्तव्य - नं प्र. वि., ए. व. - सद्दा निब्बचनाभिधेय्यकथनं. सद्द. 1.64; - लिङ्ग नपुं.. प्रधान लिङ्ग, नाम-पद का लिङ्ग -
ङ्गानि प्र. वि., ब, व. - अभिधेय्यलिङ्गानी ति पधानलिङ्गानि ... वा लिङ्गानि, सद्द. 1.247; तब्भावे चाप्यभिधेय्यलिङ्गो सहगतो भवे, अभि. प. 833; - लिङ्गभूत त्रि०, प्रधान लिङ्ग बना हुआ - तस्स पु., ष. वि., ए. व. - वाच्चलिङ्गानं. .. अभिधेय्यलिङ्गभूतस्स, सद्द. 1.115; - लिङ्गानुगतत्त नपुं.. [अभिधेयलिङ्गानुगतत्व], प्रधान लिङ्ग के अनुरूप रहना, नामपद (संज्ञापद) के लिङ्ग के अनुरूप होना - त्ता प. वि., ए. व. - अत्तनो रूपानि अभिधेय्यलिङ्गानगतत्ता यथासक लिङ्गवसेन..., सद्द, 1.217; - लिङ्गानुरूप त्रि., व्याकरण में प्रधान लिङ्ग के अनुरूप रहने वाला - तो प. वि., ए. व. - धातुमयानि च वाच्चलिङ्गानि अभिधेय्यलिङ्गानुरूपतो योजेतब्बानि, सद्द. 1.247; - लिङ्गानुवत्तक त्रि, [अभिधेयलिङ्गानुवर्तक], प्रधान लिङ्ग का अनुवर्त्तक, नामपद के लिङ्ग का अनुवर्तन या अनुगमन करने वाला - कानि नपुं.. प्र. वि., ब. व. - अथ खो अभिधेय्यलिगानुवत्तकानि वाच्चलिङ्गानि, सद्द. 1.101; - लिङ्गानुवत्तित्त नपुं॰, भाव. [अभिधेयलिङ्गानुवर्तित्व], प्रधान लिङ्ग का अनुवर्ती होना - त्ता प. वि., ए. व. - गुणसद्दस्स अभिधेय्यलिङ्गानुवत्तिता पुल्लिङ्गवसेन वा... इथिलिङ्गनिद्देसो दिस्सति, सद्द. 1.96. अभिनत/ अभिणत त्रि., अभि + (नम का भू. क. कृ. [अभिनत], शा. अ. किसी की ओर झुका हुआ, ला. अ. राग आदि से ग्रस्त, कामभोगों में लगा हुआ या लिप्त -- तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - अभिनतं चित्तं रागानुपतितं, पटि. म. 159; - तो पु., प्र. वि., ए. व., - समाधि न चाभिनतो न चापनतो. अ. नि. 3(1).235; न चाभिनतोति आदीसु रागवसेन न अभिनतो, अ. नि. अट्ट, 3.278; विलो. अपनत. अभिनदति अभि + निद का वर्त.. प्र. पु.. ए. व. [अभिनदति], उन्मुख होकर नाद करता है, ध्वनि करता है, कूकता है - न्ति वर्त.. प्र. पु.. ब. व. - मोरा कारम्भियं अभिनदन्ति, थेरगा. 22; अभिनदन्तीति पावुरसकाले... केकासई करोन्ता ... हंसादिके अभिभवन्ता विय नदन्ति, थेरगा. अट्ठ. 1.81; -- न्ता पु., प्र. वि., ब. व., नाद करते हुए, शब्द या ध्वनि करते हुए -- समन्ता मभिनादिताति समन्ता अभिनदन्ता विचरन्ति, जा. अट्ठ. 7.296. अभिनदित नपुं., अभि + निद का भू. क. कृ., प्रतिध्वनित,
शब्दों या कलरवों से परिपूर्ण, निनादित - चिहचिहाभिनदिते, सिप्पिकाभिरुतेहि च, थेरगा. 49.
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अभिनन्दति
अभिनन्दति अभि + √नन्द का वर्त. प्र. पु. ए. व. [ अभिनन्दति ] क इच्छा करता है, अभिकांक्षा करता है, आनन्दमिश्रित राग रखता है रूपं अभिनन्दति अभिवदति
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स. नि. 2 ( 1 ). 13; अभिनन्दतीति पत्थेति, स० नि० अ० 2.230; सो तं वेदनं अभिनन्दति अभिवदति अज्झोसाय तिद्वति म. नि. 1.338 न्दामि उ. पु. ए. व. नाभिनन्दामि मरणं .... थेरगा. 196 तत्थ नाभिनन्दामि मरणन्ति मरणं न अभिकङ्क्षामि थेरगा, अट्ट. 1.347 न्ति प्र. पु. ब. व. अज्झत्तिकबाहिरे आयतने अभिनन्दन्ति अभिवदन्ति अज्झेसाय तिवन्ति नि. प. 72 दितुं निमि. कृ. यदनिच्यं तं नालं अभिनन्दितुं नालं अभिवदितुं नाल अज्झोसितु न्ति, म. नि. 3.47; ख. उठकर और आगे बढ़कर ( आने वाले का स्वागत करता है, शिष्टाचार के रूप में प्रणाम अभिवादन करता है या कुशल- मङ्गल पूछता है- आगतं अभिनन्दति, जा० अट्ठ. 4. 177; ब. व॰ प्रतिमित्ता सुहज्जा ब अभिनन्दन्ति आगतन्ति प. प. 219 अभिनन्दन्ति आगतन्ति नं दिस्वा गेहसम्पत्तं पन नानप्पकारपण्णकाराभिहरणवसेन अभिनन्दन्ति, ध. प. अड. 2.171; ग. बहुत अच्छा है' या 'साधु साधु' कह कर किसी के द्वारा कथित कथन पर आनन्द भरी प्रतिक्रिया प्रकट करता है, 'साधु साधु' कहकर अनुमोदन करता है न्दि अद्य.. प्र. पु. ए. व. भगवतो भासितं अभिनन्दीति म.नि. 1.117; न्दिं अद्य, उ. पु. ए. व. भासितं नेव अभिनन्दि नप्पटिक्कोसिं दी. नि. 1.48; न्दु / न्दिंसु अद्य., प्र. पु. ब. व. अभिनन्दन्ति अनुमोदिंसु चेव सम्पटिच्छिंसु च दी. नि. अ. 1.110 न्दित्वा पू. का. कृ. - भासितं अभिनन्दित्वा अनुमोदित्वा उहायासना पक्कामि, दी. नि. 2.59 - न्दितब्बं नपुं. सं. कृ. - तस्स, भिक्खये भिक्खुनो भासित नेव अभिनन्दितव्यं नप्पटिकोसित दी. नि. 2.94; नेव अभिनन्दितब्बन्ति दुतुट्ठेहि साधुकारं दत्वा पुब्बेव न सोतब्बं दी. नि. अड्ड. 2139: घ. अनुग्रह या कृपा करता है न्दतु अनु. प्र. पु. ए. व. अभिनन्दतु, भन्ते भगवा भिक्खुसङ्ग म. नि. 2.130; ख. आनन्दित या सन्तुष्ट होता है - न्दिंसु अद्य., प्र. पु. ब. व. 4. मातापितरोधि अभिनन्दिसु दी. नि. 2.259; अभिनन्दिसूति तुस्सिंसु, दी. नि. अट्ठ. 2.362. अभिनन्दन नपुं. अभिनन्द से व्यु क्रि. ना. [अभिनन्दन] प्रहर्षण, अभिवादन, स्वागत करना, प्रशंसा करना, अनुमोदन नं हि. वि. ए. व. मज्ञनं अभिनन्दनञ्च यत्या....
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481
अभिनव
मञ्ञति, म.नि. अट्ठ. (मू०प०) 1 ( 1 ). 32 - नाय च. वि., ए. व. अभिनन्दनाय सन्तिके, म. नि. 2.81; रसा स्त्री. आनन्द उत्पन्न कराने का कार्य करने वाली हेतुभावलक्खणा तन्हा अभिनन्दनरसा, उदा. अह. 35: बसेन पु.. तृ. वि.. ए. व. आनन्द लेने के कारण, अभिनन्दन हेतु तेसु कामानं अभिनन्दवसेन... कामवितक्को, उदा. अड. 177 - सो पु. प्र. वि. ए. व. अभिनन्दन शब्द - अयहि अभिनन्दसो अभिनन्दति अभिवदती ति आदीसु तण्हायम्पि आगतो. दी. नि. अट्ठ. 1.110; - सीला पु०, प्र. वि., ब.व. अभिनन्दन या आनन्दानुभूति की प्रकृति वाले कामस्सादाभिनन्दिनोति कामगुणेसु... अभिनन्दनसीला, पे.
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व. अट्ठ. 227.
अभिनन्दना स्त्री, अभिलाषा, कामना, तृष्णा
ना प्र. वि.
ए. क. या काचि कट्ठा अभिनन्दना वा स. नि. 1 ( 1 ) 211: अभिनन्दनाति अभिनन्दनवसेन तण्हाव बुत्ता स. नि. अड्ड. 1.234; नाय तृ. वि., ए. व. अभिवदतीति ताय अभिनन्दनाय स. नि. अड. 2.230. अभिनन्दित त्रि., [अभिनन्दित] स्वागत किया गया, सत्कृत, चाहा गया, प्रार्थित, आनन्द के साथ अनुभूत तो पु०, प्र० वि., ए. व. देवलोकेन अभिनन्दितो हुत्वा... जा. अड. 4.245 - तं नपुं. प्र. कि. ए. व. बालानं अभिनन्दितं थेरगा. 394; बालानं अभिनन्दितन्ति बालेहि... अहं मम न्ति अभिनिविस्स नन्दितं, थेरगा. अट्ठ. 2.80. अभिनय पु. [ अभिनय ] हाव-भाव, अङ्गविक्षेप, नाटकीय प्रदर्शन, किसी मनोभाव या आवेश को दृष्टि संकेत या मुद्रा आदि से प्रकट करना अभिनयो सुच्चसूचन अभि. प. 101. अभिनव त्रि, [अभिनव], बिल्कुल नया, महार्घ, ताजा, तुरन्त प्राप्त अतिरिक्त रूप में प्राप्त, दूसरे या पुराने से अलग हटकर कुछ और वो पु. प्र. वि. ए. व. पच्चग्यो नूतनो भिनवो नवो, अभि. प. 713: अभिनवो नयो उदपादि, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.7 - वं नपुं. प्र. वि., ए. व.
पथ्यग्यन्ति अभिनवं महग्धं वा पे. व. अड्ड. 76करण नपुं. नवीनीकरण, पुनरुज्जीवित करना, पुनः प्रारम्भ करना बसेन तृ. वि. ए. व. अभिनवकरणवसेनाति तणे करियमान विय अत्तानं अभिनवकरणवसेन, अभि. ध. वि. टी. 169 बहूर पु.. सर्वथा नवीन अंबुआ या कल्ला. नया अंकुर रा प्र. वि. ब. व. महाबोधिस्स अभिनवरा पातुरहेसु पारा अड. 1.67 चुल्लनिरुति स्त्री. सिरिसद्धम्मालंकार द्वारा विरचित व्याकरणग्रन्थ का शीर्षक
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अभिनादित
482
अभिनिग्गण्हाति
- टीका स्त्री., एक उत्तर-कालीन, अनुटीका - यो द्वि. वि., ब. व. - अभिधम्मत्थसङ्गहाभिधम्मावताराभिनवटीकायो सुमंगलसामिथेरो, सा. वं. 32(ना.); - योब्बन नपुं., कर्म स. [अभिनवयौवन], नवयौवन, किशोरावस्था, तरुणाई - नं द्वि. वि., ए. व. - अभियोब्बनं पतीति सुन्दरे अभिनवयोब्बनकाले सा नासिका इदानि जराय ... वरत्ता विय च जाता, थेरीगा. अट्ठ. 235. अभिनादित त्रि., अभि + निद के प्रेर. का भू. क. कृ. [अभिनादित], ध्वनिपूर्ण, शब्दों या गंजों से भर दिया गया, कोलाहल से परिपूर्ण किया हुआ - ता' पु., प्र. वि., ब. क. - भमरा पुष्फगन्धेन, समन्ता अभिनादिता, जा. अट्ठ. 7.294; समन्ता अभिनादिताति समन्ता अभिनदन्ता विचरन्ति, जा. अट्ठ. 7.296; - ता स्त्री.. प्र. वि., ए. व. - हंसेहि च कोञ्चेहि च अभिनादिता, पे. व. अट्ठ. 136. अभिनादेति अभि + निद के प्रेर. का वर्तः, प्र. पु., ए. व. [अभिनादयति], ध्वनि से भर देता है, कोलाहल से परिपूर्ण बना देता है - को नु सद्देन महता, अभिनादेति दद्दर जा. अट्ठ. 2.55; अभिनादेति ददरन्ति दद्दरं रजतपब्बतं एकनादं करोति, तदे.; - न्ति वत, प्र. पु.. ब. व. - अभिनादेन्ति पवनं, जा. अट्ठ. 7.294; - यित्थ अद्य, प्र. पु., ए. व. - दिसा इमायो अभिनादयित्थ जा. अट्ठ. 5.404; अभिनादयित्थाति यानसद्देन एकनिन्नादं अकासि, जा. अट्ट. 5.405. अभिनिकूजति अभि + नि + कूज का वर्त., प्र. पु.. ए. व. [अभिनिकूजति], शब्द करता है, कूजन करता है - जिं अद्य., उ. पु., ए. व. - म नाभिनिकूजहं, अप. 2.140; मञ्जुनाभिनिकूजहन्ति मधुरेन ... अभिनिजि ... अहन्ति अत्थो , अप. अट्ठ. 2.241. अभिनिकूजित अभि + नि + कूज का भू. क. कृ., पशुओं या पक्षियों के कलरव या कूजन से प्रतिध्वनित - तं नपुं... प्र. वि., ए. व. - पिङ्गलेनाभिकूजितं. जा. अट्ठ. 5.220; अभिकूजितन्ति एतेन तव सुनखेन... न जानाति, तदे; - ते सप्त. वि., ए. व., पशुओं या पक्षियों के कूजन से प्रति वनित होने पर - कोकिलाभिनिकूजिते. जा. अट्ठ. 5.294%; कोकिलाभिनिकूजितेति कुसराजकुले ... कोकिलेहि अभिनिकूजिते, जा. अट्ठ. 5.295. अमिनिक्खन्त त्रि., अभि + नि + ।कम का भू. क. कृ. [अभिनिष्क्रान्त], शा. अ. वह, जो घर से बाहर निकल गया है, ला. अ. वह, जिसने सांसारिक जीवन छोड़ दिया है, प्रव्रजित, गृहत्यागी, आसक्ति-रहित - न्तो पु., प्र. वि.,
ए. व. - बोधिसत्तो नेक्खम्ममभिनिक्खन्तो अपरिपक्कं
आणं .... मि. प. 264. अभिनिक्खम पु.. [अभिनिष्क्रम], निकलना, बाहर आना, उत्पन्न होना, प्रसव - मे सप्त. वि., ए. व. - जातितो अभिनिक्खमे, बु. वं. 1.70; अभिनिक्खमेति मातुकुच्छितो
अभिनिक्खमने पसवे, बु. वं. अट्ठ. 66. अभिनिक्खमति अभि + नि + कम का वर्तः, प्र. पु., ए. व. [अभिनिष्क्राम्यति], शा. अ. बाहर की ओर जाता है, बाहर निकलता है, गर्भ से बाहर निकलता है, ला. अ. गृहत्याग करता है, प्रव्रजित होता है - म्मेय्य विधि.. प्र. पु., ए. व. - गभो न सोत्थिना अभिनिक्खमेय्या ति, ध. स. अट्ठ. 136; - क्खमि अद्य., उ. पु., ए. व. - अभिनिक्खमि अमतपदं जिगीसं. थेरगा. 1113; - मिस्सं भवि., उ. पु.. ए. व. - अज्जेव तात भिनिक्खमिस्सं, थेरीगा. 480; - मित्वा/क्खम्म पू. का. कृ. - सद्धाय अभिनिक्खम्म, थेरगा. 249; कासायवत्थो अभिनिक्खमित्वा, सु. नि. 643 अभिनिक्खमित्वा सम्मासम्बोधिं अभिसम्बुद्धो, उदा. अट्ठ. 21. अमिनिक्खमन नपुं.. [अभिनिष्क्रमण], शा. अ. बाहर निकल जाना, प्रसव, ला. अ. सांसारिक या गृहस्थ जीवन को छोड़ना, प्रव्रजित होना - ने सप्त. वि., ए. व. - मातकच्छितो अभिनिक्खमने पसवे, बु. वं. अट्ठ.66; - नं प्र. वि., ए. व. - महाभिनिक्खमनं नाम अनच्छरियं, जा. अट्ठ. 6.2; साततिकाति अभिनिक्खमनकालतो पट्ठाय ...,ध. प. अट्ठ. 1.131; बोधिया महाभिनिक्खमनं निक्खन्तो, मि. प. 264%3; केवल स. उ. प. के रूप में द्रष्ट., कता., गभा., महा. के अन्त.. अभिनिक्खिपति अभि + नि+खिप का वर्त., प्र. पु., ए. व. [अभिनिक्षिपति], उतार फेंकता है, नीचे की ओर फेंकता है - पिंसु अद्य., प्र. पु.. ब. व. - तं ... अभिनिक्खिपिंसु, दा. वं. 3.12. अभिनिग्गण्हना स्त्री., अभि + नि + Vगह से व्यु., क्रि. ना., किसी को पकड़ लेना, अङ्ग को पकड़ कर ऐंठना, मजबूती के साथ पकड़ना, सुदृढ़ पकड़ - अभिनिग्गण्हना नाम अङ्गं गहेत्वा निप्पीळना, पारा. 174; - नाय च. वि., ए. व. - अभिनिग्गण्हनाय हत्थे वा बाहाय वा दळ्हं गहेत्वा ...पारा. अट्ठ. 2.111. अमिनिग्गण्हाति अभि + नि + गह का वर्त.. प्र. पु.. ए. व. [अभिनिग्रह्णाति], शा. अ. कस कर पकड़ लेता है - इत्थिया कायेन कायं आमसति ... अभिनिग्गण्हाति
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अभिनिघात
483
अभिनिप्पीळना
अभिनिप्पीळेति, पारा. 175; ला. अ. अभिभूत कर देता है, किर, पाचि. 373; -ज्जितुं निमि. कृ. - अभिनिसीदितुं वा दमित करता है, खण्डन करता है - वादेन अधम्मिक वादं अभिनिपज्जितुं वा, अ. नि. 3(1).32; - पज्जियमानो कर्म. अभिनिग्गण्हाति, अ. नि. 3(2).197; - मि उ. पु., ए. व. - वा., वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व., लिटाया जा रहा - सो चेतसा चित्तं अभिनिग्गण्हामि ... अभिसन्तापेमि, म. नि. मातगामेन अभिनिसीदियमानो अभिनिपज्जियमानो... मेथन 1.311; - ण्हतो वर्त. कृ., पु.. ष. वि., ए. व. - चेतसा चित्तं धम्म पटिसेवति, अ. नि. 2(1).86; - पज्जापेय्य प्रेर., अभिनिग्गण्हतो... अभिसन्तापयतो, म. नि. 1.171; - ण्हेय्य विधि., प्र. पु., ए. व., बिछवा दे, लिटवा दे, रखा दे - तत्तं प्र. पु., ए. व. - अभिनिग्गण्हेय्य अभिनिप्पीळेय्य अभिसन्तापेय्य । अयोमञ्च वा अयोपीठं वा अभिनिसीदापेय्य वा, अ. नि. म. नि. 1.171; - ण्हेय्यं विधि., उ. पु., ए. व. - चेतसा 2(2).261. चित्तं अभिनिग्गण्हेय्यं अभिनिप्पीळेय्यं अभिसन्तापेय्यन्ति, म. अभिनिपतति अभि + नि + /पत का वर्त., प्र. पु., ए. व., नि. 1.311; - हितबं सं. कृ., नपुं., प्र. वि., ए. व. - आकर गिरता है, प्रारम्भ होता है, प्रवृत्त, सक्रिय या तत्पर चेतसा चित्तं अभिनिग्गण्हितब्बं अभिनिप्पीळेतब्ब होता है - ... तं कम्म कातुं अभिनिपतति पक्खन्दति अभिसन्तापेतब्ब, म. नि. 1.171.
पटिपज्जति... जा. अट्ठ. 2.7; पटिसन्धिविआणञ्च यस्मि अभिनिघात पु.. [अभिनिघात], दमन, उन्मूलन, निरोध, पूर्ण यस्मिं ठाने अभिनिपतति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).219. रूप से विनाश - पञत्ति स्त्री., [अभिनिघातप्रज्ञप्ति], अभिनिपात पु.. [अभिनिपात], आकर गिरना, टकराहट, दमन या उन्मूलन की अभिव्यक्ति या प्रकाशन - भिडन्त, प्रवृत्ति, सक्रियता - तो प्र. वि., ए. व. - इमिना अभिनिघातपत्ति पापकानं अकुसलानं धम्मानं, नेत्ति. 50; कारणेन विज्ञआणाहारे अभिनिपातोयेव भयन्ति .... म. नि. अभिनिघातपञत्तीति समुग्घातपत्ति, नेत्ति. अट्ठ. 248. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).219; चेतसो पठमाभिनिपातो वितक्को . अभिनिद्दिसति अभि + नि+दिस का वर्त., प्र. पु., ए. व. ध. स. अट्ठ. 160; ... तस्मि आरम्मणे चित्तचेतसिकानं [अभिनिर्दिशति], अच्छी तरह बताता है, निर्देश करता है, पठमाभिनिपातो तं आरम्मणं फुसन्तो उप्पज्जमानो फस्सो दिखाता या सूचित करता है - न्ति ब. व. - पियदस्सनोति पाकटो होति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).286; - त्त नपुं.. अभिनिद्दिसन्ति नं.दी. नि. 3.126.
भाव. [अभिनिपातत्व], प्रवृत्तिभाव, सक्रियता - त्ता प. वि., अभिनिन्नामेति अभि + नि+निम के प्रेर. का वर्त, प्र. ए. व. - पठमाभिनिपातत्ता चित्तस्सारम्मणे किर अभि. अव. 18. पु., ए. व. [बौ. सं. अभिनिर्णामयति], किसी ओर प्रवृत्त अभिनिपातन नपुं./त्रि०, केवल स. उ. प. के रूप में कराता है या ले जाता है, झुका देता है या फैला देता है प्रयुक्त [अभिनिपातन]. नीचे फेंक देना, पछाड़ देना, - चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति, दी. नि. 1.67; - मेय्य दण्डसत्था के अन्त. द्रष्ट.; न च ताव दण्डसत्थअभिनिपातनो विधि०, प्र. पु., ए. व. - अभिनिन्नामेय्य तं तदेव ते कुमारका, होति, महानि. 157. स. नि. 1(1).145; - मेस्सति भवि०, प्र. पु., ए. व. - अङ्ग अभिनिपाती त्रि., [अभिनिपातिन], आकर टूट पड़ने वाला, अभिनिन्नामेस्सति, स. नि. 2(2).181; - सिं अद्य., उ. पु., अत्यन्त वेग के साथ काम प्रारम्भ कर देने वाला - तिनं ए.व.- चित्तं अभिनिन्नामेसिं पारा. 5; चित्तं अभिनिन्नामेसिन्ति पु., वि. वि., ए. व. - तुरिताभिनिपातिनं, जा. अट्ठ. 2.6; परिकम्मचित्तं नीहरि पारा. अट्ठ. 1.121.
तुरिताभिनिपातिनन्ति यो पुग्गलो यं कम्म कत्तुकामो होति, अभिनिपज्जति अभि + नि + (पद का वर्त, प्र. पु., ए. व. तत्थ ... वेगेनेव तं कम्मं कातुं अभिनिपतति पक्खन्दति [अभिनिपद्यते], लेटता या नीचे लेटता है, किसी के पास पटिपज्जति. जा. अठ्ठ. 2.7. होकर लेट जाता है, पड़ा रहता है - आसने अभिनिसीदतिपि अभिनिप्पतति अभि + नि + vपत का वर्त०, प्र. पु., ए. व. अभिनिपज्जतिपि, पाचि. 373; अभिनिसीदति अभिनिपज्जति [अभिनिष्पतति], शीघ्रता से बाहर लाता है, (अन्तिम) परिणति अज्झोत्थरति, अ. नि. 2(1).86; - न्ति प्र. पु., ब. व. - बन जाता है - प्पतं वर्त. कृ., पु.. प्र. वि., ए. व. - मच्च अभिनिसीदन्ति न अभिनिपज्जन्ति, पाचि. 373; - ज्जेय्य यस्साभिनिप्पतन्ति, जा. अट्ठ, 6.43; मच्चु यस्साभिनिष्पतन्ति विधि., प्र. पु., ए. व. - आसने... वा अभिनिपज्जेय्य वा, यस्स अट्ठाने वायामकरणस्स मरणमेव निप्फन्नं, तदे.. पाचि. 374; - जिस्सति भवि०, प्र. वि., ए. व. - अभिनिप्पीळना स्त्री., अभि + नि+vपीळ से व्यु., क्रि. ना. अभिनिसीदिस्सतिपि अभिनिपज्जिस्सतिपी ति... पे.... सच्चं अभिनिष्पीड़ना, परस्पर में दबाना, परस्पर में रगड़ना,
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अभिनिप्पीळेति
484
अभिनिब्बत्तनत्थ
ऐंठना या चापना - ना प्र. वि., ए. व. - अभिनिप्पीळना नाम केनचि सह निप्पीळना, पारा. 174; - य तृ. वि., ए. व. - अभिनिप्पीळनाय वत्थेन वा आभरणेन वा सद्धिं... थुल्लच्चयं पारा. अट्ठ.2.111. अभिनिप्पीळेति अभि + नि + vपीळ का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अभिनिप्पीडयति], शा. अ. चांपता है, दबाता या दबोचता है, रगड़ता है - नं इत्थिया कायेन कायं आमसति परामसति... अभिनिग्गण्हाति अभिनिप्पीळेति... पारा. 175; ला. अ. क. खण्डन करता है, संत्रस्त या दमित करता है, अभिभूत कर लेता है, बाध्य कर देता है - इध, भिक्खवे, एकच्चो अधम्मिकेन वादेन अधम्मिक वादं अभिनिग्गण्हाति अभिनिप्पीळेति, अ. नि. 3(2).197; - मि उ. पु.. ए. व. - अभिनिग्गण्हामि अभिनिप्पीळेमि अभिसन्तापेमि, म. नि. 1.311; - ळयतो वर्त. कृ., पु, ष. वि., ए. व. - अभिनिग्गण्हतो अभिनिप्पीळयतो अभिसन्तापयतो... म. नि. 1.311; - ळेय्य विधिः, प्र. पु., ए. व. - अभिनिग्गण्हेय्य अभिनिप्पीळेय्य अभिसन्तापेय्य तदे. - ळेय्यं उ. पु., ए. व. - चेतसा चित्तं अभिनिग्गण्हेय्यं अभिनिप्पीळेय्यं तदे, ला. अ. ख. कष्ट देता है, व्यथित कर देता है, उत्तेजित कर देता है - केसि म. पु., ए. व. - अथ किञ्चरहि त्वं... तथागतं यावततियक अभिनिप्पीळेसी ति, दी. नि. 2.89. अमिनिष्फज्जति अभि + नि + vपद का वर्त., प्र. पु., ए. व. [अभिनिष्द्यते], सफल होता है, पूरा होता है, तैयार हो जाता है - न्ति प्र. पु., ब. व. - वायमतो ते भोगा नाभिनिष्फज्जन्ति, म. नि. 1.120; नाभिनिष्फज्जन्तीति न निप्फज्जन्ति, हत्थं नाभिरुहन्ति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).369. अभिनिष्फन्न/अभिनिप्पन्न त्रि., अभि + नि पद का भू. क. कृ. [अभिनिष्पन्न], तैयार किया हुआ, उत्पादित, पूर्ण रूप से तैयार किया हुआ, परिपक्व बनाया हुआ - न्नो पु.. प्र. वि., ए. व. - खो पन तस्स भगवतो लाभो अभिनिष्फन्नो सिलको, दी. नि. 2.164; - न्नं नपुं., प्र. वि., ए. व. -
अग्गसस्सं अभिनिप्फन्नं, मि. प. 8. अभिनिप्फादक त्रि., उत्पन्न करने वाला, निष्पन्न करने वाला, सम्पन्न करने वाला, पूरा कराने वाला - कं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - सुगतियम्पि दुक्खविसेसस्स अभिनिप्फादक अभि. अव. 8. अभिनिप्फादित त्रि., अभि + नि+vपद के प्रेर. का भू. क. कृ. [अभिनिष्पादित], पूर्णरूप से निष्पादित, पूरा किया
हुआ, ठीक से पूर्ण किया हुआ - तं नपुं॰, प्र. वि., ए. व. - अतिरेकछक्खत्तुंठानेन अभिनिष्फादितं निस्सग्गियं पारा. 337. अभिनिप्फादेति अभि + नि + पद के प्रेर. का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अभिनिष्पादयति], उत्पन्न करता है, पूरा करता है, सम्पादित करता है, प्राप्त करता है, अर्जित करता है, उपार्जित करता है, अनुभव में लाता है - कामावचरसुगतियं भवभोगसम्पत्तिं अभिनिप्फादेति, अभि. अव. 5; सचे अभिनिप्फादेति, इच्चेतं कुसलं नो चे अभिनिप्फादेति, पारा. 337; - न्ति ब. व. - धम्मा नाना सन्ता एक अत्थं अभिनिप्फादेन्ति, मि. प. 37; - देय्य विधि., प्र. पु., ए. व. - तं तदेव करेय्य अभिनिष्फादेय्य दी. नि. 1.69; चोदयमानो सारयमानो तं चीवरं अभिनिष्फादेय्य, पारा. अट्ठ. 2.229; - देसि अद्य., प्र. पु., ए. व. - देवदत्तो पोथुज्जनिक इद्धि अभिनिष्फादेसि, चूळव. 319; - स्सन्ति भवि., प्र. पु., ब. व. - इद्धिपदेसं अभिनिप्फादेस्सन्ति सब्बे ते... बहुलीकतत्ता, स. नि. 3(2).329. अभिनिब्बज्जियाथ अभि + नि + Vवज्ज का अनु., म. पु., ब. व., वर्जित कर दो, मना कर दो, हटवा दो, रोक दोसब्बे समग्गा हुत्वान अभिनिब्बज्जियाथ नं. सु. नि. 283; तत्थ अभिनिब्बज्जियाथाति विवज्जेय्याथ मा ... अभिनिबज्जनमत्तेनेव अप्पोस्सुक्कतं आपज्जेय्याथ, सु. नि. अट्ठ. 2.42. अमिनिब्बत्त त्रि., अभि + नि + Vवत्त का भू. क. कृ., पूर्ण रूप से उत्पन्न, पुनर्जात या उत्पादित, पूर्णता के साथ प्रादुर्भूत, तैयार, पूर्ण - त्तो पु., प्र. वि., ए. व. - उत्तरारणिं आदाय अग्गिं अभिनिब्बत्तो, म. नि. 2.366; -- त्ता पु., प्र. वि., ब. व. - सजाता निब्बत्ता अभिनिब्बत्ता पातुभूता
उप्पन्ना, ध. स. 1041. अमिनिब्बत्तति अभि + नि + Vवत्त का वर्त., प्र. पु., ए. व. [अभिनिर्वतते], पूरी तरह तैयार होकर सामने आता है, या उदित होता है, उत्पन्न किया जाता है, जन्म या पुनर्जन्म प्राप्त करता है - ... उस्मा जायति तेजो अभिनिब्बत्तति, स. नि. 2(2).212; - त्तिस्सथ काला. प्र. पु., ए. व. - नामरूप इत्थत्ताय अभिनिब्बत्तिस्सथाति, दी. नि. 2.49. अभिनिब्बत्तनत्थ पु., तत्पु. स. [अभिनिर्वतनार्थ], पुनर्जन्म प्राप्त करने का प्रयोजन, पुनर्जन्म ग्रहण करने का आशय या तात्पर्य - त्थाय च. वि., ए. व. - पुरिसं तत्थ तत्थ अभिनिब्बत्तनत्थाय कङ्घति, दी. नि. अट्ट. 2.296; - नटेन
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प.
अभिनिब्बत्ति
485
अभिनिधिमज्जति तृ. वि., ए. व. - निब्बत्तिसङ्घातेन अभिनिब्बत्तनदेन - अग्गिं अभिनिब्बत्तेन्तु तेजो पातुकरोन्तु, म. नि. 2.366; -- अभिनिब्बत्ति, विभ. अट्ठ. 89.
तेय्य विधि०, प्र. पु., ए. व., उत्पन्न करे, प्रादुर्भूत करे - अमिनिब्बत्ति स्त्री., [अभिनिर्वृत्ति], जन्म, पुनर्जन्म, स्कन्धों उत्तरारणिं आदाय अभिमन्थेन्तो अग्गिं अभिनिब्बत्तेय्य, म. का प्रादुर्भाव, आयतनों का प्रतिलाभ, अस्तित्व का लाभ- नि. 3.138; - त्तेसु अद्य., प्र. पु., ब. व., उत्पन्न किये, जाति सञ्जाति ओक्कन्ति अभिनिब्बत्ति खन्धानं पातुभावो, प्रादुर्भत किये - एके समणब्राह्मणा... अभिनिब्बत्तेसुं अ. नि. विभ. 112; खत्तियकुले चे अत्तभावस्स अभिनिब्बत्ति होति. 3(2).40; एके समणब्राह्मणा अत्थोति अभिनिब्बत्तेसुन्ति ... म. नि. 2.398; - या च. वि.. ए. व. - दिब्बानं भवानं अत्थोति गहेत्वा अभिनिब्बत्तेसु. अ. नि. अट्ट, 3.299. अभिनिब्बत्तिया .... दी. नि. 1.208; -- गुण पु., पुनर्जन्म की अभिनिब्बाति अभि + नि + Vवा का वर्त., प्र. पु., ए. व. प्राप्ति का गुण या महत्व - णं द्वि. वि., ए. व. - पूरेत्वा [अभिनिर्वाति], शा. अ. बुझ जाता है, ला. अ. पूर्ण रूप तुसितभवने अभिनिब्बत्तिगुणं तत्थ निवासगुणं सु. नि. अट्ठ से शान्त हो जाता है, तृष्णा से मुक्ति पा लेता है, निर्वाण 1.220; स. उ. प. के रूप में द्रष्ट. अत्तभावा., अन., का अधिगम करता है - अभिनिब्बाति अतन्दितो घटन्तो, पुनब्भवा. के अन्त..
सद्धम्मो. 450; तुल. अभिनिब्बुत. अभिनिब्बत्तित त्रि., अभि + नि + Vवत्त का भू, क. कृ., अमिनिब्बज्जन नपुं.. अभि + नि + विध से व्यु. सम्यक-रूप से परिनिष्ठित भाव को प्राप्त, अच्छी तरह से [अभिनिर्वेधन], विवेचन के द्वारा प्राप्त विभेद-परक ज्ञान, उत्पादित या सामने लाया गया - ता स्त्री., प्र. वि., ए. व. त्याग - मा चस्स अभिनिबज्जनमत्तेनेव अप्पोस्सुक्कतं - या पुथुज्जनकालस्मिं, अभिनिब्बत्तिता पन, अभि. अव. 16; आपज्जेय्याथ, सु. नि. अट्ठ. 2.42. या ... पन पुथुज्जनकालस्मिं पुथुज्जनभावट्टितेन योगिना अमिनिब्बुत त्रि., अभि + नि + Vवा अथवा Vवु का भू. क. अभिनिब्बत्तिता या रूपारूपसमापत्ति, अभि. अव. टी. 14. कृ. [अभिनिर्वृत], पूर्णरूप से शान्त, पूर्णतः व्युपशान्त, अभिनिब्बत्तिभाव पु., भाव., पुनर्जन्म की प्राप्ति, पुनर्जन्म प्रशान्त - ता पु.. प्र. वि., ब. व. - अददन्ता चिरं ठातुं ग्रहण करना - तो प. वि., ए. व. - ये पन धम्मा कम्मादीहि लज्जितावाभिनिब्बुता, सद्धम्मो. 35; - चित्त त्रि., ब. स. निबत्तन्ति तेसं अभिनिब्बत्तिभावतो जातिया तप्पच्चयवोहारो [अभिनिवृतचित्त], प्रशान्त मन वाला, व्युपशान्त चित्त से अनुमतो, ध. स. अट्ठ. 371.
युक्त - त्तो पु., प्र. वि., ए. व. - किलेसपरिनिब्बानेन अभिनिब्बत्तिमत्त नपुं.. पुनर्जन्म लेना मात्र, पुनर्जन्म की अभिनिब्बुतचित्तो सीतिभूतो, उदा. अट्ठ. 157; - त्त त्रि., ब. घटना मात्र, केवल पुनर्जन्म का ग्रहण - त्तं प्र. वि., ए. व. स. [अभिनिवृतात्मन], प्रशान्त आत्मभाव वाला - त्तो पु., - जायमानस्स हि अभिनिब्बत्तिमत्तं जातीति, ध. स. अट्ठ 371. प्र. वि., ए. व. - जातो यसस्सी अभिनिबुतत्तो, सु. नि. 345; अभिनिब्बत्तिवोहार पु., व्यवहार में अभिनिब्बत्ति शब्द का अभिनिब्बुतत्तोति गुत्तचित्तो अपरिडव्हमानचित्तो वा, सु. नि. प्रयोग, अभिनिब्बत्ति वचन का व्यावहारिक प्रयोग - रं द्वि. अट्ठ. 2.73. वि., ए. व. - धम्मानं अभिनिब्बत्ति... अभिनिब्बत्तिवोहारञ्च । अभिनिबिज्झ अभि + नि + विध का पू. का. कृ. लभति, ध. स. अट्ठ. 371.
[अभिनिर्विध्य, शा. अ. पूरी तरह खण्ड खण्ड करके, ला. अमिनिब्बत्तेति अभि + नि+Vवत्त का वर्त., प्र. पु., ए. व., अ. विखण्डन या विभाजन द्वारा विभक्त करके - ततो प्रेर. [अभिनिवर्तयति], उत्पन्न होने के लिये प्रेरित करता सकाय पञआय, अभिनिबिज्झ दक्खिसं. थेरीगा. 84; ... है, उत्पन्न करता है, उत्पादित करता है - सम्मा विप्पसन्नो घनविनिब्भोगकरणेन अभिनिबिज्झ .... थेरीगा. अट्ठ. 96. बहिद्धा परधम्मेस आणदस्सनं अभिनिब्बत्तेति, दी. नि. अभिनिबिज्झन नपुं.. अभि + नि+विध से व्यु., क्रि. ना. 2.159; अभिनिब्बत्तेतीति अत्तनो कायतो परस्स कायाभिमुखं [अभिनिर्वेधन], भञ्जन, तोड़कर बाहर आ जाना - तो प. आणं पेसेति, दी. नि. अट्ठ. 2.213; - त्तेन्तो वर्त. कृ., पु.. वि., ए. व. - न च भब्बो अभिनिबिधा गन्तुन्ति प्र. वि., ए. व. - अस्सुतवा ... अभिनिब्बत्तेन्तो अभिनिब्बत्तेति, किलेसाभिसङ्कारानं अभिनिबिज्झनतो... न च भब्बो, नेत्ति. स. नि. 2(1).136; - यतो वर्त. कृ., पु., ष. वि., ए. व. - अट्ठ. 288. अत्तभावपटिलाभं अभिनिब्बत्तयतो ... परिहायन्ति, म. नि. अभिनिदिमज्जति अभि + नि+भिद का वर्त, प्र. पु., ए. 3.100; - न्तु अनु., प्र. पु.. ब. व., उत्पन्न करें, तैयार करें व. [अभिनिर्भियते], तोड़कर बाहर निकलता है, भेदन
मजदि क्षमि त ठिक र अहिद का वर्तत. प्र. पदन
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अभिनिब्मिदा
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अभिनिरोपन/अभिनिरोपना करते हुए बाहर आता है - ज्जेय्य विधि., प्र. पु., ए. व.. 3.173; यानि खो पनस्स होन्ति साठेय्यानि ... तेसमस्स भेदन करे, खण्डित करे, तोड़कर बाहर निकल जाए - सारथि अभिनिम्मदनाय वायमति, अ. नि. 3(1).32-33. अण्डकोसं पदालेत्वा सोत्थिना अभिनिभिज्जेय्य, पारा. 4:- अमिनिम्मान नपुं., [अभिनिर्माण], अभिज्ञाबल द्वारा निर्माण ज्जे व्यु ब. व. - अण्डकोसं पदालेत्वा सोत्थिना या रचना, इन्द्रजाल (इद्धिविध) द्वारा निर्माण, - नाय च. अभिनिभिज्जेय्यु. म. नि. 1.149; - तुं निमि. कृ., - वि. ए. व. - मनोमयं कायं अभिनिम्मानाय... अभिनिन्नामेति. अण्डकोसं पदालेत्वा सोत्थिना अभिनिभिज्जित, तदे. - दी. नि. 1.68. ज्ज पू. का. कृ. - अण्डकोसं अभिनिभिज्ज जायन्ति, म. अमिनिम्मित त्रि., अभि + नि + vमा का भू. क. कृ. नि. 1.106; अभिनिभिज्ज जायन्तीति भिन्दित्वा निक्खमनवसेन [अभिनिर्मित], अभिज्ञाबल या ऋद्धिबल के द्वारा निर्मित या जायन्ति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).348.
बनाया हुआ, ऋद्धिबल के द्वारा विरचित - ता पु.. प्र. वि., अभिनिमिदा स्त्री., [बौ. सं. अभिनिर्भेद], शा. अ. सफल ब. व. - अभिनिम्मिता पञ्चरथासता च ते. वि. व. 137 (प्र.) भञ्जन या निर्भेदन, ला. अ. ज्ञान-प्राप्ति की क्रमशः 13: अभिनिम्मिताति तव पुञकम्मेन निम्मिता निबत्ता, वि. विकसित होने वाली अवस्थाएं, मन के क्लेशों का भञ्जन व. अट्ठ. 63. करके प्राप्त ज्ञान की अवस्था - अयमस्स पठमाभिनिभिदा अभिनिम्मिनाति अभि + नि + vमा का वर्तः, प्र. पु., ए. व. होति कुक्कुटच्छापकस्सेव अण्डकोसम्हा, म. नि. 2.22; [बौ. सं. अभिनिर्मिमीते एवं अभिनिर्मिणोति], अभिज्ञाबल पठमाभिनिभिदाति पठमो आणभेदो. म. नि. अट्ठ. (म.प.) द्वारा, निर्माण करता है या उत्पन्न करता है, आकार 2.23; - दाय च. वि., ए. व. - उस्सोळ्हीपन्नरसङ्गसमन्नागतो (आकृति) प्रदान करता है - अझं कायं अभिनिम्मिनाति भिक्ख भब्बो अभिनिबिदाय, म. नि. 1.149; अभिनिभिदायाति रूपिं... अहीनिन्द्रियं दी. नि. 1.68; - न्ति ब. व. - अज
आणेन किलेसभेदाय, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).382; - कायं अभिनिम्मिनन्ति रूपिं मनोमयं म. नि. 2.219; - पञत्ति स्त्री., प्र. वि., ए. व., अभिनिर्भेद की प्रज्ञप्ति या नन्तानं वर्त. कृ., ष. वि., ब. व. - मनोमयं कार्य प्रकाशन, - अभिनिबिदापत्ति चित्तस्स, नेत्ति. 51. अभिनिम्मिनन्तानं यदिदं, अ. नि. 1(1).32; - नित्वा पू. का. अभिनिमन्तनता स्त्री., अभिनिमन्तन का भाव. कृ.- ओळारिक अत्तभावं अभिनिम्मिनित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा [अभिनिमन्त्रणत्व, नपुं.], अनुरोध किया जाना, प्रार्थना किया ...., अ. नि. 1(1).314; - नेय्य विधि., प्र. पु., ए. व. - जाना, अनुनय से भरे वचनों को कहा जाना - य तृ. वि., पुरिसरूपं वा अभिनिम्मिनेय्य सब्बङ्गपच्चङ्ग स. नि. 1(2).90. ए. व. - इति हिदं मारस्स च... अभिनिमन्तनताय .... म. अभिनिरोपन/अभिनिरोपना अभि + नि + रुह के प्रेर. नि. 1.415; ब्रह्मनो च अभिनिमन्तनतायाति बकब्रह्मनो च से व्यु., क्रि. ना. [अभिनिरोपण], क. नपुं./स्त्री., आलम्बनों ... कायकेन ब्रह्मटानेन निमन्तनवचनेन, म. नि. अट्ठ. पर चित्त का लगाव या चित्त को रख देना - नो पु., प्र. (मू.प.) 1(2).308.
वि., ए. व. - ... ठितकण्टको विय अभिनिरोपनो वितक्को, अभिनिमन्तेति अभि + नि+vमन्त का वर्त., प्र. पु., ए. व. पटि. म. अट्ठ. 1.154; - ना स्त्री., प्र. वि., ए. व. - सुतत्ता [अभिनिमन्त्रयते]. साथ लाई हुई वस्तुओं को स्वीकार करने अभिनिरोपना विपाकमनोधातु विज्ञाणचरिया, पटि. म. 733; हेतु अनुरोध करता है, देय वस्तु के ग्रहण करने हेतु यो खो, भिक्खवे, अरियचित्तस्स ... तक्को वितक्को ... आमन्त्रित करता है - त्तेय्याम विधि., उ. पु., ब. व. - चेतसो अभिनिरोपना वचीसङ्घारो.... म. नि. 3.120; आरम्मणे अभिनिमन्तेय्यामपि नं चीवरपिण्डपातसेनासनगिला- चित्तं अभिनिरोपेति पतिठ्ठापेतीति चेतसो अभिनिरोपना, ध. नप्पच्चयभे सज्जपरिक्खारेहि, दी. नि. 1.53; स. अट्ठ. 187; - लक्खण नपुं.. अभिनिरोपण की विशिष्टता अभिनिमन्तेय्यामपि नन्ति अभिहरित्वापि नं निमन्तेय्याम, दी. या लक्षण - णं प्र. वि., ए. व. - वितक्कस्स नि. अट्ठ. 1.140.
अभिनिरोपनलक्खणं दी. नि. अट्ठ. 1.60; पटि. म. अट्ठ. 1. अमिनिम्मदन नपुं., अभि + नि + vमद से व्यु. क्रि. ना., 176; ख. त्रि., ब. स., वह, जिसका लक्षण (किसी पर) घोड़े या हाथी को वश मे लाना या दमन करना, संशोधन, अभिनिरोपित कर दिया जाना या रख दिया जाना हो- णो सुधार, ठीक करना, सही करना - नाय च. वि. ए. व. - पु., प्र. वि., ए. व. - सम्मा अभिनिरोपनलक्खणो सम्मासङ्कप्पो, आरञ्जकं नागं दमयाहि... सीलानं अभिनिम्मदनाय. म. नि. दी. नि. अट्ठ. 1.252.
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अभिनिरोपित
487
अभिनिवेस
अभिनिरोपित त्रि., अभि + नि + रुह के प्रेर. का भू. क. कृ., किसी पर जड़ा हुआ या बैठाया हुआ, किसी पर रखा हुआ - त्त नपुं, भाव., अभिनिरोपित या आबद्ध रहना - त्ता प. वि., ए. व. - अभिनिरोपितत्ता... विआणचरिया गन्धेस. पटि. म. 73; अभिनिरोपितत्ताति रूपारम्मणं अभिरुळहत्ता, पटि. म. अट्ठ. 1.241. अभिनिरोपेति अभि + नि + रुह का वर्त, प्र. पु., ए. व., प्रेर. [अभिनिरोपयति], चित्त को जमा देता है, लगा देता है या बैठा देता है - (चित्त को) प्रतिष्ठापित कर देता है -- आरम्मणे चित्तं अभिनिरोपेति पतिद्वापेतीति चेतसो
अभिनिरोपना, ध. स. अट्ठ. 187; आरम्मणं चित्तं अभिनिरोपेतीति वितक्को, उदा. अट्ठ. 177; सम्पयत्तधम्मे च सम्मा अभिनिरोपेति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).112. अभिनिलीयि अभि + नि + Vली का अद्य, प्र. पु., ए. व. [अभ्यनिलीयत], अपने को छिपाया, प्रच्छन्न होकर पड़ा रहा - पलायित्वा ... अभिनिलीयि सो, म. वं. 33.48. अभिनिवज्जेति/अभिनिवत्तेति अभि + नि + Vवज्ज का वर्त.. प्र. पु., ए. व. [अभिनिवर्जयति], अलग पड़ा रहता है, दूर रहता है, बचता है, बचकर रहता है, परिहार करता है, टालता है, एक तरफ पड़ा रहता है - तदभिनिवत्तेतीति तं अभिनिवत्तेति, अ. नि. अट्ठ. 2.223; - वत्तेय्य विधि., प्र. पु.. ए. व. - अभिनिहनेय्य अभिनीहरेय्य अभिनिवत्तेय्य, म. नि... 1.169; - ज्जेय्यासि विधि., म. पु., ए. व. - तेसं सुत्वा यं अकुसलं तं अभिनिवज्जेय्यासि, दी. नि. 3.44%; अभिनिवज्जेय्यासीति गूथं विय... सद्व वज्जेय्यासि, दी. नि. अट्ठ. 3.31; - त्वा पू. का. कृ., दूर रहकर, बचकर - इरियापथं अभिनिवज्जेत्वा सुखुमं... कप्पेय्य, म. नि. 1.171; अभिनिवेज्जेत्वा उपेक्खको... सम्पजानोति, इतिवु. 59. अभिनिवट्टेति/अभिनिवत्तेति अभि + नि + Vवत्त के प्रेर. का वर्त., प्र. पु., ए. व. [अभिनिवर्तयति], पीछे की ओर लौटता है, रुक जाता या ठहर जाता है - त्तेय्य विधि., प्र. पु., ए. व., पीछे की ओर लौटे, रुके या ठहरे - अभिनिहनेय्य
अभिनीहरेय्य अभिनिवत्तेय्य, म. नि. 1.169. अभिनिविट्ठ त्रि., अभि + नि + विस का भू. क. कृ. [अभिनिविष्ट, किसी के साथ आसक्त, किसी में जड़ जमा चुका - 8ो पु., प्र. वि., ए. व. - दिवसेसु परदारिककम्मे अभिनिविट्ठो, जा. अट्ठ. 5.54; - हा पु., ब. व., विशेष रूप से जम चुके या जड़ जमा चुके - अज्झोसिताति तण्हावसेन अभिनिविठ्ठा, थेरीगा. अट्ठ. 308; समत्ता समादिन्ना ....
अभिनिविट्ठा अज्झोसिता, महानि. 46; अभिनिविद्वाति विसेसेन लद्धप्पतिट्ठा, महानि. अट्ट, 151. अभिनिविसति अभि + नि+विस का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अभिनिविशते], शा. अ. में प्रवेश करता है, बस जाता है, डेरा डाल देता है - न्ति वर्त, प्र. पु., ब. व. - देवता अभिनिविसन्ति ... ता देवता अभिरमन्तीति, म. नि. 3.1883; अभिनिविसन्तीति वसन्ति, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.148; ला. अ. किसी के प्रति आसक्त होता है, किसी में लिप्त होता है या लगावयुक्त हो जाता है - आकारेन अभिनिविसतीति इदंसच्चाभिनिवेसो, ध. स. अट्ठ. 401; सब्बाव एता दिद्विसम्मतियो नेति न उपेति... न परामसति नाभिनिविसतीति ...., महानि. 226; - त्तस्स वर्त. कृ., पु., ष. वि., ए. व. - रूपमुखेन अभिनिविसन्तस्स रूपधम्मपरिग्गहतो, उदा. अट्ठ. 262; - सन्ता वर्त. कृ., पु., प्र. वि. , ब. व. - उच्छेददस्सनं अभिनिविसन्ता ... अतिधावन्ति नाम, उदा. अट्ठ. 288; - समानो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - अपरामासमानो अनभिनिविसमानोति... अनुपादियानो, महानि. 77; - स्सथ अनु., म. पु. ब. व. - कल्याणे अभिनिविस्सथ, चरिया. 382; - सेय्य विधि., प्र. पु., ए. व. - गण्हेय्य परामसेय्य अभिनिविसेय्य अत्ता मेति, महानि. 226; - निविस्स/त्वा पू. का. कृ. - थामसा परामासा अभिनिविस्स वोहरति, म. नि. 1.184; अभिनिविस्स वोहरतीति अधिट्ठहित्वा वोहरति दीपेति वा, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).10; किं उपादाय, किं अभिनिविस्स एतं मम, एसोहमस्मि स. नि. 2(1).166; कत्थचि अभिनिविसित्वा इतरम्पि... वट्टति, ध. स. अट्ठ. 267. अभिनिवुट्ठ त्रि., अभि + नि + Vवस का भू. क. कृ., रह चुका या निवास कर चुका - पुब्ब त्रि., पूर्वकाल में रह चुका या निवास कर चुका - ब्बो पु.. प्र. वि., ए. व. - यस्मिं यस्मिं अत्तभावे अभिनिवुठ्ठपुब्बो होति, दी. नि. 3.82. अभिनिवेस पु.. [अभिनिवेश]. शा. अ. पूर्ण रूप से कहीं पर प्रवेश, व्यापक विस्तार, ला. अ. प्रवृत्ति, झुकाव, चिपकाव, आसक्ति, भरोसा, विश्वास, दृढ़ धारणा, दृढ़ लगाव - सो प्र. वि., ए. व. - निग्रोधराजस्स द्वादसयोजनानि अभिनिवेसो अहोसि, अ. नि. 2(2).80-81; अभिनिवेसोति पत्थरित्वा ठितसाखानं निवेसो, अ. नि. अट्ठ. 3.123; गाहो पतिठ्ठाहो अभिनिवेसो परामासो कुम्मग्गो, ध. स. 381; गण्हातीति गाहो पतिद्वहनतो पतिट्ठाहो ... गण्हाति निच्चादिवसेन अभिनिविसतीति अभिनिवेसो, ध. स. अट्ठ. 293; -- सं द्वि.
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अभिनिसिन्न
488
अभिनिस्सट
वि., ए. व. - यो जातितो ब्राह्मणोति अभिनिवेसं करोन्ति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.309; - साय च. वि., ए. व. - सब्बे धम्मा नालं अभिनिवेसाया ति, म. नि. 1.320; सब्बे धम्मा नालं अभिनिवेसायाति ... ते सब्बेपि तण्हादिहिवसेन अभिनिवेसाय नालं न परियत्ता न समत्था न युत्ता, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).194; - तो प. वि., ए. व. - सुद्धीति अभिनिवेसतो.... अयमेत्थ सङ्केपो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1). 228; - स्स ष. वि., ए. व. - सुञतानुपस्सनाय अभिनिवेसस्स ..., पटि. म. 42; स. उ. प. के रूप में अकता., अज्झत्त०, अतिधावना., अत्ता., अधिट्ठाना., अनत्ता., आळया., इदंसच्छा., ओलीयना., तण्हा., दिट्ठिठाना., सारागा., मिच्छा., विपस्सना., सोगा., सम्मोहा., सारागा., सारादाना., अन्धकारा., आकिञ्चज्ञा., उप्पादा., कम्मन्ता.. या. के अन्त. द्रष्ट.; - करणपच्चुपट्ठान त्रि., अभिनिवेश का प्रकटीकरण या प्रत्यक्षीकरण कराने वाला, लगाव को प्रकट करने वाला या लगाव को उदित कराने वाला - ना स्त्री., प्र. वि., ए. व. - यथागहितनिमित्तवसेन अभिनिवेसकरणपच्चुपट्टाना, ध. स. अट्ठ. 156; - पञत्ति स्त्री., अभिनिवेश की प्रज्ञप्ति (काम-भोगविषयक तृष्णा में) मन के दृढ़ लगाव का प्रकाशन - "कामेसु सोजन्तु कथं नमेय्या ति वेवचनपअत्ति च कामतण्हाय अभिनिवेसपञत्ति च, नेत्ति. 51; - परामास पु., अभिनिवेश का सुदृढ़ प्रभाव, मानसिक आसक्ति का सङ्ग या दुष्प्रभाव - सो प्र. वि., ए. व. - दिट्ठीति अभिनिवेसपरामासो दिट्टि, पटि. म. 123; - भूत त्रि., अभिनिवेशयुक्त, मानसिक आसक्ति बन चुका - ता पु., प्र. वि., ब. व. - अधिट्ठानभूता चेव अभिनिवेसभूता च अनुसयभूता च, ..., स. नि. अट्ठ. 2.228; - लक्खण त्रि०, अभिनिवेश के लक्षण से युक्त - णा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - सब्बधम्मअभिनिवेसलक्खणा अनत्तसञआ, नेत्ति. 25; - साकार पु., अभिनिवेश का ही एक आकार या स्वरूप-रानं ष. वि., ब. व. - दिडिगतिकानं अभिनिवेसाकारानं निस्सया, उदा. अट्ठ. 276; - सानुसय पु., द्व. स. [अभिनिवेसानुसय], अभिनिवेश एवं अनुशय - यं द्वि. वि., ए. व. - चेतसो अधिट्टानं अभिनिवेसानुसयं न उपेति, स. नि. 1(2).17; अभिनिवेसानुसयन्ति अभिनिवेसभूतञ्च अनुसयभूतञ्च, स. नि. अट्ठ. 2.30. अभिनिसिन्न त्रि., अभि + नि + सद का भू. क. कृ. [अभिनिसिन्न], क. कर्तृ. वा. में - किसी पर बैठा हुआ, किसी के ऊपर आसीन - न्ना पु.. प्र. वि., ब. व. - पण्ड्कम्बलसिलं अभिनिसिन्ना द्वे सक्का विय..., म. नि.
अट्ठ. (मू.प.) 1(2).59; ख. कर्म. वा. में - किसी के द्वारा स्थापित, रखा गया या लगाया गया - न्नं पु., द्वि. वि., ए. व. - राजकुमारेन अभिनिसिन्नं दारुक्खन्धं पत्वा .... जा.
अट्ठ. 1.310. अभिनिसीदति अभि + नि+Vसद का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अभिनिषीदति], बैठता है, आसन पर बैठता है - उपसङ्कमित्वा अभिनिसीदति अभिनिपज्जति अज्झोत्थरति, अ. नि. 2(1).86; अभिनिसीदतीति अभिभवित्वा सन्तिके वा एकासने वा निसीदति, अ. नि. अट्ठ. 3.35; - सि म. पु., ए. व. - आहच्चपादक मञ्चं सहसा अभिनिसीदसी ति, पाचि.67; -- न्ति वर्त.. प्र. पु., ब. व. - आसने नेव अभिनिसीदन्ति न अभिनिपज्जन्ति, पाचि. 373; - देय्य विधि., प्र. पु., ए. व. - मञ्चं वा पीठं वा अभिनिसीदेय्य वा अभिनिपज्जेय्य वा, पाचि, 67; - दिस्सति भवि०, प्र. पु., ए. व. - आहच्चपादक मञ्चं सहसा अभिनिसीदिस्सति, पाचि. 67; - दिस्ससि भवि., म. पु., ए. व. - आहच्चपादक मञ्चं सहसा अभिनिसीदिस्ससि, पाचि. 67; - दितुं निमि. कृ. - गिहिविकतं अभिनिसीदित, महाव. 267; - त्वा पू. का. कृ. - अङ्गजाते अभिनिसीदित्वा यावदत्थं कत्वा पक्कामि, पारा. 44; - दियमानो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व., कर्म. वा., बैठाया जा रहा - अभिनिसीदियमानो अभिनिपज्जियमानो अज्झोत्थरियमानो ... धम्म पटिसेवति, अ. नि. 2(1).86. अभिनिसीदन नपुं., अभि + नि + /सद से व्यु., क्रि. ना., पर बैठना, चारों ओर से मंडराते हुए बैठना - नस्स ष. वि., ए. व. - मक्खिकानं अभिनिसीदनस्स पच्चयो न होति, ध. स. अट्ठ. 377. अभिनिसीदापेय्य अभि + नि+Vसद के प्रेर. का विधि., प्र. पु., ए. व. [अभिनिसीदयेत], रखा दे, बैठवा दे - अयोपीठं वा अभिनिसीदापेय्य वा अभिनिपज्जापेय्य वा, अ.नि. 2(2).261. अमिनिसीदेति/अभिनिसीदापेति अभि + नि + Vसद के प्रेर. का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अभिनिषीदयति], रखवाता है, बैठवाता है, प्रवेश कराता है, स्थित कराता है - देन्ति वर्तः, प्र. पु.. ब. व. - पस्सावमग्गेन ... मुखेन अङ्गजातं अभिनिसीदेन्ति, पारा. 33; मनस्सित्थिं भिक्खस्स सन्तिके आनेत्वाति ... वच्चमग्गेन तस्स भिक्खुनो अङ्गजातं अभिनिसीदेन्ति, पारा. अट्ठ. 1.208-209. अभिनिस्सट त्रि०, अभि + नि + /सर का भू. क. कृ. [अभिनिःसृत], पूर्ण रूप से बाहर जा चुका, पूर्णतया बहिर्गत
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अभिनिहत
489
अभिनीहार
या असम्बद्ध, पूर्णतः अनासक्त या निर्लिप्त, केवल स. उ. प. के रूप में प्राप्त, तिभवा. के अन्त. द्रष्ट.. अभिनिहत त्रि., अभि + नि + Vहन का भू. क. कृ. [अभिनिहत], पूर्ण रूप से आघात को प्राप्त, प्रहत, ताड़ित, पीटा गया - तो पु., प्र. वि., ए. व. - चक्काभिनिहतो अहन्ति, जा. अट्ठ. 4.4; चक्काभिनिहतोति चक्केन अभिनिहतो, तदे.. अभिनिहनन्तो अभि + नि + हन का वर्त. कृ., पु., प्र. पु.. ए. व. [अभिनिर्हनत्], निकाल बाहर कर रहा, भगा दे रहा, बहिष्कृत करा या हटा रहा - अभिनीहरेय्याति एवं अभिनिहनन्तो फलकतो नीहरेय्य, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).403. अभिनीत त्रि., अभि + vनी का भू. क. कृ. [अभिनीत], शा. अ. समीप में लाया गया, ला. अ. क. परिपूर्ण, परिष्कृत, परिसज्जित, ख. पुकारा या बुलाया गया, न्यायालय के समक्ष (साक्ष्य के लिये) लाया गया - तो पु., प्र. वि., ए. व. - अभिनीतो सक्खिपुट्ठो, महानि. 111; अभिनीतोति पुच्छनत्थाय नीतो, महानि. अट्ठ. 218; ग. (राजा, चोर या रोग के भय से) अभिभूत, पीड़ित, केवल स. उ. प. के रूप में प्राप्त राजा., चोरा., वातरोगा. के अन्त. द्रष्ट; - वास त्रि., ब. स., आचरण में सर्वोत्तम, उत्तम आचरण वाला - सो पु., प्र. वि., ए. व. -- अकुप्पधम्मो अभिनीतवासो, मि. प. 325. अभिनील त्रि., [अभिनील], सुन्दर नीले रंग वाला - नेत्त । त्रि., ब. स., सुन्दर नीले नेत्रों वाला, कुछ कुछ नीले नेत्रों वाला (बुद्ध)- त्तो पु., प्र. वि., ए. व. - कुमारो अभिनीलनेत्तो ...., दी. नि. 2.14; अभिनीलनेत्तोति न सकलनीलनेत्तो, दी. नि. अट्ठ. 2.37; - नेत्तनयन त्रि., ब. स., सुन्दर नयनों वाला - नो पु., प्र. वि., ए. व. - अभिनीलनेतनयनो सुदस्सनो, दी. नि. 3.126; - मायत त्रि., ब. स., सुन्दर नीले और चौड़ी आंखों वाला, सुन्दर एवं दीर्घायत नयनों वाला - ता पु., प्र. वि., ब. व. - नेत्तहेसमभिनीलमायता, थेरीगा. 257; अभिनीलमायताति अभिनीला हुत्वा आयता, थेरीगा. अट्ठ. 234. अभिनीहट त्रि., अभि + नि + हर का भू. क. कृ. [अभिनिर्हत], तैयार किया हुआ, तैयार करके रखा हुआ, चालू किया हुआ - टं नपुं., प्र. वि., ए. व. - धम्मचक्क अभिनीहरति नाम, अभिनीहट नाम, ... पवत्तितं नामाति अयं पभेदो वेदितब्बो, अ. नि. अट्ठ. 1.98.
अभिनीहरण नपुं., अभिनीहरति का क्रि. ना., निष्कासन, निकालना, बाहर करना, किसी ओर ले जाना - णं प्र. वि., ए. व. - गमनवसेन कायस्साभिनीहरणं गमनाभिहारो, म. नि. टी. (म.प.) 2.119. अभिनीहरति अभि + नि + vहर का वर्त, प्र. पु., ए. व., क. खींच कर बाहर निकालता है, बाहर निकाल फेंकता है - रेय्य विधिः, प्र. पु., ए. व. - आणि अभिनिहनेय्य अभिनीहरेय्य अभिनिवत्तेय्य, म. नि. 1.169; अभिनीहरेय्याति एवं अभिनिहनन्तो फलकतो नीहरेय्य, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).403; ख. कार्यान्वित करता है, सक्रिय करता है - रि अद्य.. प्र. पु., ए. व. - ततियम्पि गमनं अभिनीहरि ध. स. अट्ठ. 411; सो... “पठवियं ठपेस्सामी ति पादं अभिनीहरि, अ. नि. अट्ठ. 1.219; दुतियम्पि गमनं अभिनीहरि, ध. स. अट्ठ. 411; ग. लगाता है, की ओर उन्मुख करता है - .... आणदस्सनाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति, दी. नि. 1.67; चित्तं अभिनीहरतीति विपस्सनाचित्तं तन्निन्नं तप्पोण तप्पभारं करोति, दी. नि. अट्ठ. 1.182; घ. उत्पादित करता है, निष्पादित करता है, पूरा करता है - पवत्तितन्ति एत्थ धम्मचक्कं अभिनीहरति नाम, अ. नि. अट्ठ. 1.983; - रिं अद्य., उ. पु., ए. व. - यं कम्म अभिनीहरि अप. 1.51. अभिनीहार पु., अभिनीहरति से व्यु. [बौ. सं. अभिनिरि], क. गति, गतिशीलता - रो प्र. वि., ए. व. - वायोधातविफारेन सकळकायस्स पुरतो अभिनीहारो गमनन्ति वुच्चति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).262; ख. अभिप्राय - उम्मग्गो यथा च अभिनीहारो ... पहासमुदाहारो, अ. नि. 1(2).218; अभिनीहारोति पहाभिसरणवसेन चित्तस्स अभिनीहारो, अ. नि. अठ्ठ. 2.363; ग. उत्कट, आकांक्षा, अभिलाषा, प्रणिधान, बुद्धत्व की प्राप्ति हेतु दृढ़ संकल्प - अभिनीहारो नरुत्तम, बु. वं. 1.75; अभिनीहारोति अभिनीहारो नाम बुद्धभावत्थं मानसं बन्धित्वा बुद्धब्याकरणं अलद्धा ... वीरियमधिट्ठाय निपज्जनं, बु. वं. अट्ठ 69; - रं द्वि. वि., ए. व. - कल्लतापरिचितं ... अभिनीहारं खमतीति युज्जति देसना, नेत्ति. 24 - रेन तृ. वि., ए. व. - अभिनीहारेन ते भगवन्तो आगता, उदा. अट्ठ. 101; - स्स ष. वि., ए. व. - महन्तेन वायामेन अभिनीहारस्स समिज्झनतो, ध. प. अट्ठ. 2.135; केवल स. उ. प. के रूप में कता., गमना., पुब्बपत्थना., महा., समिद्धा के अन्त. द्रष्ट.; - करण नपुं.. अभिनीहार का प्रदर्शन, सुदृढ़, संकल्प का लेना - णे सप्त. वि., ए. व. - पत्थयतो अभिनीहारकरणे... इच्छितब्बा, सु.
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अभिन्दितब्बपरिस
490
अभिपत्थेति/अभिपत्थयति नि. अट्ट. 1.42; - कारण नपुं., अभिनीहार का कारण - णा सप्त. वि., ए. व. - अभिदो... अभिन्ने अड्वरत्तसमये, म. नि. प्र. वि., ब. व. - अधिकारो छन्दता एते अभिनीहारकारणा, अट्ठ. (म.प.) 2.193; ला. अ. क. वह, जो बिखरा हुआ न सु. नि. अट्ठ. 1.42; - कुसल त्रि., अभिनीहार के निर्माण हो, जो छिन्न-भिन्न न हुआ हो, ताजा मृत शरीर, गीला में निपुण, दृढ़ संकल्प लेने में कुशल - लो पु., प्र. वि., मृतशरीर - ... अञ्जतरो भिक्खु सुसानं गन्वा अभिन्ने सरीरे ए. व. - समाधिस्स अभिनीहारकुसलो, अ. नि. 2(2).30; - पंसुकूलं अग्गहेसि, पारा. 68; अभिन्ने सरीरेति अब्भुण्हे ला ब. व. - चन्दसूरियपरिमज्जका विकुब्बनाधि- अल्लसरीरे..., पारा. अट्ठ. 1.302; ला. अ. ख. वह, जो ट्ठानाभिनीहारकुसला इद्धिया पारमिं गता, मि. प. 311; - अस्त-व्यस्त न हो, जिसका क्रम गड़बड़ न हो, संभ्रमरहित क्खम त्रि., अभिनीहार करने में सक्षम - मं द्वि. वि., ए. व. - न्नो पु., प्र. वि., ए. व. - अनाकुलो अनाकिण्णो अभिन्नो - ... अभिनीहारक्खमं कत्वा, अभि. अव. 138; - गुणपारमी छेकेन चित्तकारेन तुलिकाय परिच्छिदित्वा पञ्जत्तो विय, म. स्त्री., अभिनीहार के गुण से युक्त पारमिता - नि. अट्ठ. (म.प.) 2.151; हत्थपादसीसेहि ... पहटेन न अभिनीहारगुणपारमियो पूरेत्वा, सु. नि. अट्ठ. 1.220; - चलितो अभिन्नो, म. नि. टी. (म.प.) 2.103; ला. अ. ग. दीपनीगाथा स्त्री., जिनालंकार की गाथाओं के एक समुच्चय वह मार्ग, जो गड़बड़ या टूटा-फूटा न हो - न्नेन पु., तृ. का शीर्षक, जिना. 5.13-22; - नानत्तता स्त्री., अभिनीहार वि., ए. व. - मग्गेन अभिन्नेनेव गमिस्सामि, जा. अट्ठ. का नानात्व, विविधता या नानारूपता - ता प्र. वि., ए. व. 1.107; - कट्ठ त्रि., ब. स. [अभिन्नकाष्ठ], वह, जिसका - चतुत्थं झानं भावेत्वा... अभिनीहारनानत्तता, विभ. 498; - अग्निकाष्ठ विदीर्ण या विदलित न हो, वह, जिसके पास पच्चुपट्ठान त्रि., ब. स., गतिशीलता द्वारा प्रकाशित होने काटी हुइ लकड़ियां न हों - 8ो पु., प्र. वि., ए. व. - वाला - हाना स्त्री, प्र. वि., ए. व. - वित्थम्भनलक्खणा अभिन्नकट्ठोसि अनाभतोदको, जा. अट्ट, 5.192; - सण्ठान वायोधातु ... अभिनीहारपच्चुपट्ठाना, अभि. अव. 81; - त्रि., ब. स., वह, जिसकी आकृति भिन्न न हो, जिसका रूप परिपुच्छादिविनिच्छयादिविनिमुत्त त्रि., अभिनीहार के भिन्न न हो, एक जैसी शारीरिक बनावट वाला - नानि विषय में प्रश्न आदि एवं निश्चय आदि से विमुक्त - त्तस्स नपुं., प्र. वि., ब. व. - अभिन्नसण्ठानानि तिट्ठन्ति, पे. व. ष. वि., ए. व. - परेसहि अभिनीहारपरिपुच्छादिवि- अट्ठ. 35; - सरीरवत्थु नपुं.. सद्य:मृत शरीर की कथा या निच्छयादिविनिमत्तस्सेव... अट्टप्पत्तिभावेन, उदा. अट्ठ. 253B विषय - स्मिं सप्त. वि., ए. व. - अभिन्नसरीरवत्थुस्मि - समिद्धि स्त्री., अभिनीहार का कार्यान्वयन, अभिनीहार की अधिवत्थोति ... सरीरे निब्बत्तो, पारा. अट्ठ. 1.301. सिद्धि या उपलब्धि - तो प. वि., ए. व. - अभिपत्थियना स्त्री, प्र. वि., ए. व., विश्वास, प्रतीति, अट्ठधम्मसमोधानेन अभिनीहारसमिद्धितो पभुति ..., म. नि. आस्था, श्रद्धा - अभिपत्थियना सद्दहनमेव, नेत्ति. अट्ठ. 220. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).120; - सम्पन्न त्रि., ब. स., वह, जिसने अभिपत्थित त्रि., [अभिप्रार्थित], आकांक्षित, अभिलषित, वाञ्छित, अभिनीहार को उपलब्ध कर लिया है, अभिनीहार से युक्त, चाहा हुआ, इच्छित - तो पु., प्र. वि., ए. व. - चेतसो सुदृढ़ संकल्प वाला - न्नो पु., प्र. वि., ए. व. - पत्थितपत्थनो । अभिपत्थितो, थेरगा. 514; - तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - यं अभिनीहारसम्पन्नो सावको, जा. अट्ठ. 2.117 - न्ना स्त्री., किञ्चि अभिपत्थितान्ति, म. नि. 2.351; - ता स्त्री॰, प्र. वि., प्र. वि., ए. व. - सेद्विधीता... पत्थितपत्थना अभिनीहारसम्पन्ना, ए. व. - दहरा त्वं रूपवती, पुरिसानभिपत्थिता, जा. अट्ठ. ध. प. अट्ठ. 1.220; - न्नं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - 7.283; - ता पु., प्र. वि., ब. व. - लोकनाथेन अभिपत्थिता पत्थितपत्थनं अभिनीहारसम्पन्न, ध. प. अट्ठ. 1.393. पवत्तिता च, इतिवु. अट्ट, 117. अभिन्दितब्बपरिस त्रि., वह, जिसके अनुगामी अपने आप में अभिपत्थेति/अभिपत्थयति अभि + vपत्थ का वर्त., प्र. विभक्त होने योग्य नहीं हैं; एकताबद्ध अनुयायियों वाला, पु., ए. व. [अभिप्रार्थयति], इच्छा करता है, चाहता है, एकजुट होकर रहने वाले समूह वाला - सो पु., प्र. वि., आकांक्षा करता है - न्ति वर्त., प्र. पु., ब. व. - यं ए. व. - अभेज्जपरिसोति अभिन्दितब्बपरिसो, दी. नि. अट्ठ. यदेवाभिपत्थेन्ति, सब्बमेतेन लभति, खु. पा. 10; - यं/मानो 3.190.
वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - न कामे अभिपत्थयं सु. नि. अभिन्न त्रि., भिद के भू. क. कृ. का निषे॰ [अभिन्न], शा. 425; निब्बानपदाभिपत्थयानो, सु. नि. 367; अ. अविभक्त, अखण्डित, अनटूटा, पूर्ण, समान - न्ने पु., निब्बानपदाभिपत्थयानोति ... खन्धपरिनिब्बानपदं पत्थयमानो,
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अभिपस्सति
491
अभिप्पमोद
सु. नि. अट्ठ. 2.87; - येय्यं विधि., उ. पु., ए. व. - यदि हि अहं कामे अभिपत्थयेय्यं, सु. नि. अट्ठ. 2.103; - त्थये विधि., प्र. पु., ए. व. - ... पेतं कालकताभिपत्थये ति, जा. अट्ठ. 4.55. अभिपस्सति अभि + दिस का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अभिपश्यति], शा. अ. अच्छी तरह से देखता है, ला. अ. सम्मान देता है, स्वीकार करता है, विचारता है, छानबीन करता है, लक्ष्य बनाता है, खोज करता है - स्ससि वर्त, म. पु., ए. व. - कं तेन त्वाभिपस्ससी ति, जा. अट्ठ. 6.2003; कं तेन त्वाभिपस्ससीति तेन ... पियं कतमं पुग्गलं ... अभिपस्ससीति, जा. अट्ट. 6.206; - स्सतो वर्त. कृ., पु., ष. वि., ए. व. - निब्बानं अभिपस्सतो, अ. नि. 1(1).172. अभिपातेति अभि + /पत का प्र. पु., ए. व., प्रेर. [अभिपातयति], गिरवा देता है, उड़वाता है, फेंकवा देता है, मरवा देता है - पलालसकटस्स वा पच्छाभागेन कण्डं पवेसेत्वा पुरेभागेन अतिपातेति, जा. अट्ठ. 2.75. अमिपारक पु., [अभिपारग], राजा शिवि के सेनापति का नाम, राजा शिवि का सेनानी - कं द्वि. वि., ए. व. - अभिपारकं सेनापतिट्ठाने... रज्जं कारेसि, जा. अट्ठ. 5.200; -स्स ष, वि., ए. व. - तस्सेसा भरियाभिपारकस्स, जा. अट्ठ. 5.202. अभिपारुत त्रि०, अभि + प + आ + Vवु का भू. क. कृ. [अभिप्रावृत], वस्त्रों से ढंका हुआ, वस्त्राच्छन्न, कपड़ों से सज्जित या सजा-धजा - तं पु.. वि. वि., ए. व. - पवरुत्तमं पवररुचिकासिककासावमभिपारुतं दिस्वा न पूजयि, मि. प. 209. अमिपालयति अभि + vपाल का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अभिपालयति], देखभाल करता है, पालन करता है, रक्षा करता है -न्ति ब. व. - यञ्चापि मे... अभिपालयन्ति, जा. अट्ठ. 5.210; -लिता भू. का. कृ., पु., प्र. वि., ब. व., पूर्ण रूप से रक्षित या प्रतिपालित - मोदन्ति वा देववराभिपालिता, जा. अट्ट. 5.388; देववराभिपालिताति सक्केन रक्खिता, जा. अट्ठ. 5.389. अभिपीळयति अभि + vपीळ का वर्त., प्र. वि., ए. व. [अभिपीड़यति], कष्ट पहुंचाता या सताता है, तंग करता या यातना देता है - सत्ते बोधेन्तो धम्मयन्तमभिपीळयति, मि. प. 164; - ळित त्रि., भू. क. कृ., पीड़ित, केवल स. उ. प. के रूप में प्राप्त, उण्हां., जरा-रोगा., महाहिक्का. के अन्त. द्रष्ट..
अभिपुच्छति अभि + vपुच्छ का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अभिपृच्छति], पूछता या पूछ-ताछ करता है, परिपृच्छा करता है, प्रश्न करता है - च्छ अनु., म. पु., ए. व. - उडेहि नं पञ्जलिकाभिपुच्छ, जा. अट्ठ. 4.17; पञ्जलिकाभिपुच्छाति अञ्जलिको हुत्वा अभिपुच्छ, जा. अट्ठ. 4.17; - च्छित/पुट्ठ त्रि., भू. क. कृ., पूछा गया, प्रश्न किया गया - तेन तृ. वि., ए. व. - पऽहं अभिपुच्छितेन सता ब्याकतं. म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).142; तमेनं भगवता पहाभिपुढेन ब्याकतान्ति, म. नि. 1.273. अभिपूजयति/अभिपूजेति अभि + पूज का वर्त., प्र. पु.. ए. व. [अभिपूजयति], आदर, सम्मान या पूजा करता है, यज्ञ या आराधना करता है - जेमि वर्त.. उ. पु., ए. व. - तं आणं अभिपूजेमि. अप. 1.167; - याम ब. व. - यं तं वालधिनाभिपूजयाम, जा. अट्ठ. 1.471; - यि अद्य, प्र. पु.. ए. व. - बोधिसत्तो तिरच्छानगतो समानो कासावं अभिपूजयि, मि. प. 209; - यिं उ. पु., ए. व. - पुष्फेहि अभिपूजयिं, अप. 1.122. अभिपूरयित्वा अभि + vपूर का पू. का. कृ., परिपूर्ण करके, पूरी तरह से भरकर - भोजनं भुजेय्य छादेन्तं याव कण्ठमभिपूरयित्वा, मि. प. 224; पंसूहि सम्मा अभिपूरयित्वा, दा. वं. 3.60. अभिप्पकिण्ण अभि + प+vकिर का भू. क. कृ. [अभिप्रकीर्ण], सर्वत्र बिखरा हुआ, सर्वत्र छितराया हुआ, सर्वत्र फैला हुआ - पुप्फानं अम्बणमत्तेन अभिप्पकिण्णसयने पत्तस्स ..., जा. अट्ठ. 1.72. अभिप्पकिरति अभि + प +किर का वर्त., प्र. पु., ए. व. [अभिप्रकिरति], सर्वत्र बिखेरता है, सर्वत्र छितराता है, बार-- बार बिखेर देता है या चारों ओर छितरा देता है - रन्ति वर्त, प्र. पु., ब. व. - तथागतस्स सरीरं ओकिरन्ति ... अभिप्पकिरन्ति तथागतस्स पूजाय, दी. नि. 2.104; अभिप्पकिरन्तीति अभिण्हं पुनप्पुनं पकिरन्तियेव, दी. नि. अट्ट, 2.149; - रिं अद्य., उ. पु., ए. व. - अब्मोकिरिस्सन्ति अभिओकिरि अभिप्पकिरि वि. व. अट्ठ. 29; - रित्वा पू. का. कृ., बिखेर कर, छितरा कर - लाजपञ्चमेहि पुप्फेहि अभिप्पकिरित्वा ... उपेत्वा, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).96-97. अभिप्पमोद पु.. [अभिप्रमोद], अत्यधिक आनन्द, अतिशय आह्लाद, हर्षातिरेक - दो पु., प्र. वि., ए. व. - चित्तस्स अभिप्पमोदो, पटि. म. 182; द्वीहाकारेहि अभिप्पमोदो होति. पारा. अट्ठ. 2.32.
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अभिप्पमोदति
492
अभिभवति/अभिभोति अभिप्पमोदति अभि + प + vमुद का वर्त, प्र. पु., ए. व. अभिप्पसन्नोति अतिविय पसन्नो, अ. नि. अट्ट. 3.107; - [अभिप्रमोदति], अतिशय प्रसन्न होता है, मोद के मनोभाव न्ना' स्त्री., प्र. वि., ए. व. - पटिवसति अभिष्पसन्ना बुद्धे से भर जाता है - ... दुवा मयी अञमभिप्पमोदयि, जा. .... सड़े च, म. नि. 2,433; नाळन्दा इद्धा चेव फीता च अट्ठ. 3.467; दुवा मयीति इदानि मयि ... अझं पुरिसं ..... भगवति अभिप्पसन्ना, दी. नि. 1.195; - न्ना पु.. प्र. वि., अभिप्पमोदति, जा. अट्ठ. 3.468.
ब. व. - मनुस्सा च अभिप्पसन्ना... पे..... दी. नि. 1.102; अभिप्पमोदयति अभि + प+ मुद का वर्त., प्र. पु., ए. व., - न्ने पु., द्वि. वि., ब. व. - सब्बे च... सासने अभिप्पसन्ने प्रेर. [अभिप्रमोदयति], प्रसन्न या आनन्दित करता है, अकासि पे. व. अट्ठ. 124; - चित्त त्रि., अत्यधिक श्रद्धा से हर्षोत्फुल्ल बनाता या प्रहर्षित कर देता है - यं वर्त. कृ., भरे चित्त वाला, अत्यन्त निर्मल चित्त वाला - त्तेहि पु., तृ. पु., प्र. वि., ए. व. - अभिप्पमोदयं चित्तं ... समादहं पारा. वि., ब. व. - अपचितोति अभिप्पसन्नचित्तेहि ... अपचितो, 83; अभिप्पमोदयं चित्तन्ति चित्तं मोदेन्तो... पहासेन्तो, पारा. उदा. अट्ठ. 63. अट्ठ.2.32.
अभिप्पसाद पु., अभि + प+ Vसद से निष्पन्न [अभिप्रसाद]. अभिप्पलम्बन्ति अभि + प + Vलम्ब का वर्त, प्र. पु., ब. व.. अत्यधिक श्रद्धा या विश्वास - दो पु., प्र. वि., ए. व. - [अभिप्रलम्बन्ति], नीचे की ओर लटकते हैं - ओलम्बन्ति सद्धा सद्दहना ओकप्पना अभिप्पसादो, ध, स. 12; सयं वा अज्झोलम्बन्ति अभिप्पलम्बन्ति, म. नि. 3.204.
अभिप्पसीदतीति अभिप्पसादो, ध. स. अट्ठ. 189. अभिप्पवट्ट/अभिप्पवुट्ठ त्रि., अभि + प + विस्स का भू. अभिप्पसादेहि अभि + प + vसद का अनु., म. पु., ए. व., क. कृ. [अभिप्रवृष्ट], वर्षा कर चुका, अत्यधिक बरस चुका प्रेर. [अभिप्रसादय], श्रद्धा से भर दो, स्वच्छ या निर्मल बना - वो पु.. प्र. वि., ए. व. - कन्तारे महामेघो अभिप्पवट्टो, दी. दो - अभिप्पसादेहि मनं वि. व. 196, (पृ.) 19. नि. 2.255; उपरिपब्बते महामेघो अभिष्पवुट्ठो होति, म. नि. अभिप्पसारेय्यासि अभि+प+vसर का विधि., म. पु., ए. 2.327; - टुं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - पावुस्सकेन मेघेन व., प्रेर. [अभिप्रसारयेः], आगे की ओर फैला दे, किसी की अभिप्पवट्ट, म. नि. 1.388; - हानि नपुं.. प्र. वि., ब. व. --- ओर पसार दे - मा खो त्वं ... येन राजा तेन पादे पावुसकेन मेघेन अभिप्पट्ठानि... भवन्ति, स. नि. 2(1).139; अभिप्पसारेय्यासि, महाव. 251. पावुस्सकेन मेघेन अभिप्पवट्टानि ... परिहायन्ति, अ. नि. अभिप्पसीदति अभि + प + सद का वर्त., प्र. पु., ए. व. 2(2).258.
[अभिप्रसीदति, अत्यधिक श्रद्धावान होता है, किसी के प्रति अभिप्पवस्सति अभि + प+ Vवस्स का वर्त., प्र. पु., ए. व. श्रद्धा रखता है - दिस्सति भवि०, प्र. पु.. ए. व. - भगवति [अभिप्रवर्षति], अत्यधिक बरस रहा है - न्तो वर्त. कृ., पु.. अभिप्पसीदिस्सतीति दी. नि. 1.195; सयं वा अभिप्पसीदतीति, प्र. वि., ए. व., अत्यधिक बरस रहा - अभिप्पवस्सन्तो ध. स. अट्ठ. 189. महामेघो विय निन्नानि, पे. व. अट्ठ. 115: - स्सेय्य विधि., अभिप्पहारणी/अभिप्पहारिणी विशे., स्त्री., प्र. वि., ए. प्र. पु.. ए. व., जमकर बरसे - उपरिपब्बते महामेघो व. [अभिप्रहारिणी], प्रहार करने वाली, आक्रमण करने अभिष्पवस्सेय्य, मि. प. 33; - स्सि अद्य.. प्र. पु., ए. व., वाली, विघ्न या बाधा खड़ा करने वाली - कण्हस्साभिष्पहारिनी, जम कर बरसा - महामेघो अभिष्पवस्सि, मि. प. 8; - सु. नि. 441; कण्हस्साभिप्पहारिनी ति ... समणब्राह्मणानं स्सिंसु अद्य., प्र. पु., ब. व., जम कर बरसे - दिब्बानि च घातनी निप्पोथनी, अन्तरायकरीति अत्थो, सु. नि. अट्ट. मन्दारवपुप्फानि अभिप्पवस्सिंसु, मि. प. 12; - स्सित्वा पू. 2.107. का. कृ., खूब बरस कर - महतिमहामेघो अभिष्पवस्सित्वा अभिभव पु.. [अभिभव], क. दमन, पराभव, आक्रान्त होना, निब्बापेय्य, मि. प. 280.
प्रभावित होना - वे सप्त. वि., ए. व. - जि अभिभवे, सद्द. अभिप्पसन्न त्रि., अभिप्रसीदति का भू. क. कृ. [अभिप्रसन्न]. 2.344; ख. पराजय, हार - वो प्र. वि., ए. व. - सब्बे मदे पूर्ण रूप से प्रसन्न, अतिशय प्रसन्न, किसी के प्रति अत्यहि अभिभवोस्मि, अ. नि. 1(1):172; पाठा. अभिभोस्मि. कि श्रद्धा से परिपूर्ण - न्नो पु., प्र. वि., ए. व. - त्वञ्च अभिभवति/अभिभोति अभि + vभू का वर्त, प्र. पु., ए. व.
तो ति, सु. नि. (प्र.) 165; निविद्वसद्धो [अभिभवति], पराजित करता है, हरा देता है, अभिभूत निविठ्ठपेमो एकन्तगतो अभिप्पसन्नो, अ. नि. 2(2).42; करता है, पार करता है, मर्दित करता है, श्रेष्ठ हो जाता
धा
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493
अभिभवन
अभिभुय्यचारी है, स्वामी होता है- अभिभोति अभिभवती ति... मद्दति, सद्द. अभिभवितु त्रि., अभि + भू से व्यु., क. ना. [अभिभवित], 1.5; सो पच्चामित्तं अभिभवति, जा. अट्ट, 1.271; - न्ति अभिभूत करने वाला, दूसरों से आगे निकल जाने वाला, वर्त., प्र. पु., ब. व. - ... ववन्ति अभिभवन्ति, पे. व. अट्ठ. परास्त करने वाला, दमन करने वाला - ता पु., प्र. वि., 83; - न्तो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - दावग्गि ए. व. - अभिभवतीति अभिभविता परं अभिभवन्तो यो कोचि अभिभवन्तो विय विरवन्तो आगच्छति, जा. अट्ट, 1.209; - ...... सद्द. 1.71; वत्रभूति वत्ररस नाम असुरस्स अभिभविता, मानं वर्त. कृ., स्त्री., वि. वि., ए. व. - सिरिया सिरि जा. अट्ठ. 5.146. अभिभवमानं विय विरोचित्थ, म. नि. अट्ट (म.प.) 2.16; - अभिभायतन नपुं.. [अभिभ्वायतन], आधिपत्य का क्षेत्र, प्रभुत्व वेय्य विधि., प्र. पु., ए. व. - अनुद्धसेय्याति धंसेय्य पधंसेय्य का स्थान या आयतन, आठ प्रकार के ध्यानों में से एक, - अभिभवेय्य अज्झोत्थरेय्य, पारा. अट्ठ. 2.156; - वि अद्य, प्र. ने सप्त. वि., ए. व. - एकेकस्मिं अभिभायतने एको पु., ए. व. - अभिभवती ति... किं अभिभवि, सद्द. 1.76; - सुद्धिकनवको, ध. स. अट्ठ. 234; - नानि प्र. वि., ब. व. विं उ. पु., ए. व. - अच्छे अभिभविं अहं, अप. 2.206; - - अट्ट खो इमानि ... अभिभायतनानि, दी. नि. 2.85; हेस्सति भवि०, प्र. पु., ए. व. - कवचमभिहेस्सति अभिभायतनानीति अभिभवनकारणानि, दी. नि. अट्ठ. 2.135; अधम्भितो ति, जा. अट्ठ. 4.82; कवचमभिहेस्सतीति ... - नानं ष. वि., ब. व. - अट्ठन्नं अभिभायतनानं नवन्नं अभिहनिस्सति भिन्दिरसति, जा. अट्ठ. 4.83; - वितब्बं सं. ... भगवा, महानि. 104; अभिभायतनानन्ति ... झानानन्ति कृ., नपुं.. प्र. वि., ए. व. - तेन अभिभवितब्बं अत्तनो अभिभायतनानि, महानि. अट्ठ. 212; - नेसु सप्त. वि., ब. लाभयसजीवितं. जा. अट्ठ.2.297; - भुय्य/भूय्य पू. का. व. - चतुसु अभिभायतनेसु अपुब्बपदवण्णना, ध. स. अट्ट. कृ., वश में करके- अभिभुय्य सब्बानि परिस्सयानि ध. प. 328. 233; एकेकस्मि अभिभायतने एको सुद्धिकनवको, ध. स. अभिभवन नपुं, किसी का किसी पर हावी होना, पराजित अट्ठ. 234; - कथा स्त्री॰, ध. स. अट्ठ. के अभिभू आयतन होना, पराभूत होना, पराभवन, पराजय - नं प्र. वि., ए. व.. पर प्रकाश डालने वाले खण्ड का शीर्षक, ध. स. अट्ठ. - अभिभवनं ति विधमन, सद्द. 1.86; बलक्कारो नाम अत्तनो 232-234; - देसना स्त्री., प्र. वि., ए. व., अभिभूआयतन... दुब्बलस्स अभिभवन, सद्द. 2.355; - तो प. वि., ए. व. विषयक उपदेश - अट्ठ अभिभायतनदेसना, उदा. अट्ट. - जीवितुपच्छेदवसेन सब्बे सं सत्तानं अभिभवनतो 273; - सङ्घात त्रि., अभिभायतन नाम वाला - तं नपुं.. प्र. मच्चुराजसतातस्स ..., उदा. अट्ठ. 262; - नत्थसाधका वि., ए. व. - ... अचम्पि अभिभायतनसङ्घातं रूपावचरकुसलं पु., प्र. वि., ब. व., विधमन या पराजय के भाव को सिद्ध पवत्तति, ध. स. अट्ठ. 232. करने वाला - अभिभवनत्थसाधका... ति अत्थो, सद्द. 2.344; अभिभावापेति अभि + भू का वर्त., प्र. पु., ए. व., प्रेर. -- कारण नपुं., पराभूत होने का कारण - णानि प्र. वि., [अभिभावयति], दूसरों के द्वारा पराभूत कराने के लिये ब. व. - अभिभायतनानीति अभिभवनकारणानि, दी. नि. प्रेरित करता है, दूसरों से अभिभूत कराता है - पुग्गलो अट्ठ. 2.135; - क्रिया स्त्री., अभिभूत करने की क्रिया - सो पुग्गलेन सपत्तं अभिभावापेति अज्झोत्थरापेति, सद्द. 1.5. च खो.... अभिभवनक्रियायासति पुब्बे, सद्द. 1.76; - नादिक अभिभावेति अभि + vभू का वर्त., प्र. पु., ए. व., प्रेर, त्रि., अभिभव आदि से सम्बद्ध - दिके नपुं., सप्त. वि., ए. [अभिभावयति], उपरिवत् - न्ति ब. व. - अभिभावेन्ति व. - अभिभवनादिके वा किच्चे उप्पन्ने...ध. प. अट्ठ. 2299. पुरिसा पुरिसे पाणजातिक, सद्द. 1.12. अभिभवव्यापार पु.. [अभिभवव्यापार], किसी को अभिभूत अभिभासति अभि + भू का वर्त., प्र. पु., ए. व. [अभिभाषते,
करने की क्रिया या कृत्य, किसी को अपने वश में करने की बोलता है, सम्बोधित करता है, भाषण करता है - न किञ्चि क्रिया - रे सप्त. वि., ए. व. - अपि च निच्चेतनभावेन ___ मभिभासति, जा. अट्ट. 6.98; - सि म. पु., ए. व. - त्वञ्च अभिभवव्यापारे असति पि पुब्बे ..., सद्द. 1.76.
में नाभिभाससि, जा. अट्ठ. 7.336. अभिभवित त्रि., [अभिभूत], पराभूत, हारा हुआ, विजित, अभिभासन नपुं.. अभि + vभास का क्रि. ना. [अभिभाषण]. पराजित, वश में लाया हुआ - तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - सम्प्रसादन, तुष्टीकरण- चित्तस्स अभिभासनं, थेरगा. 613. अभिभायतनव्हतं... अभिभवितं आयतनन्ति कथितं. स. नि. अभिभुय्यचारी त्रि., सबको पराभूत कर विचरण करने वाला अट्ट, 3.30.
-री पु.. प्र. वि., ए. व. - राजा मिगानं अभिभुय्य चारी,
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494
अभिमद्दति
अयुक्त - बार
नि. 1.16:
मस्मीति
अभिभू सु. नि. 72; यो कामे हित्वा अभिभुय्यचारी, सु. नि. 471; अभिभुय्यचारीति तेसं पहीनत्ता वत्थुकामे अभिभुय्यचारी, सु. नि. अट्ठ. 2.121. अमिभू' त्रि., [अभिभू], सर्वश्रेष्ठ, प्रधान, पराभूत या पराजित करने वाला शासक, क. महाब्रह्मा के लिये प्रयुक्त - ब्रह्मा महाब्रह्मा अभिभू अनभिभूतो, दी. नि. 1.16; अभिभूति अभिभवित्वा ठितो जेट्ठकोहमस्मीति, दी. नि. अट्ठ. 1.96; ख. बुद्ध के सन्दर्भ में प्रयुक्त, प्र. वि., ए. व. - ... तथागतो अभिभू अनभिभूतो अञदत्थुदसो वसवत्ती, अ. नि. 1(2).28; तत्थ अभिभूति रूपादीनं अभिभविता, सु. नि. अट्ठ. 2.257; - भुं द्वि. वि., ए. व. - अभिभुं अकथंकथिं विमुत्तं, सु. नि. 539; इमाय पटिपदाय किलेसे किलेसट्टानिये च धम्मे अभिभवित्वा
अभिभूति सङ्घ गतो, सु. नि. अट्ठ. 2.141. अभिभू पु., प्र. वि., ए. व., क. रूपब्रह्मलोक के एक असंज्ञी देवता का नाम - अभिभूति अभिभवतीति अभिभू असञ्जसत्तो, सद्द. 1.76; - भुं द्वि. वि., ए. व. - अभिभु अभिभूतो सञ्जानाति, म. नि. 1.3; - भुस्स ष. वि., ए. व. - अभिभस्स अभिभुत्तेन अननुभूतं. म. नि. 1.413; - सद्द पु... अभिभू का शब्द, ध्वनि या उच्चारण - दस्स ष. वि., ए. व. - अभिभूसहस्स असञ्जिसत्ताभिधानत्ते अभिभुं अभिभूतो मञ्जतीति, सद्द. 1.77; ख. शिखी बुद्ध के दो प्रमुख शिष्यों में से एक का नाम - अभिभू च सम्भवो च द्वे अग्गसावका, जा. अट्ठ. 1.52; सिखिस्स खो पन भिक्खवे, भगवतो .... अभिभूसम्भवं नाम सावकयुगं अहोसि, स. नि. 1(1).182. अभिभूत' त्रि०, अभि + भू का भू. क. कृ. [अभिभूत]. पराभूत, पराजित, परास्त, वशीभूत - तो पु.. प्र. वि., ए. व. - अभिभूतो मारो विजितसङ्गामो, उदा. 106; ... खन्धमारो मच्चुमारो पञ्चविधो मारो... अभिभूतो पराजितो, उदा. अट्ठ. 174; -- तं नपुं., वि. वि., ए. व. - तण्हाय पातितं अभिभूतं परियादिन्नचित्तं, महानि. 34; उपादिण्णकरूपं संयोगं विय तण्हाय अभिभूतं. महानि. अट्ठ. 124; - स्स ष. वि., ए. व. - कोधेन अभिभूतस्स, अ. नि. 2(2).234; - ता पु., प्र. वि., ब. व. - तत्थ थिनमिद्धेन परियुट्टिता अभिभूताति थिनमिद्धपरियट्टिता, म. नि. अट्ट. (मू.प.) 1(1).197; केवल स. उ. प. के रूप में अज्ञाणरागा., अन., अभिज्झातिसमलोभा., अयसा., आसा., उद्धच्चकुकुच्चा., कुट्ठरोगा., कोधा., कोसज्जा. आदि के अन्त. द्रष्ट.. अभिभूत पु., एक थेर का नाम, थेरगा. की एक कविता के रचियता स्थविर का नाम, थेरगा. 206-207.
अभिभूति स्त्री., [अभिभूति], प्रमुखता, प्रभुत्व, प्रचण्डशक्ति - तिं द्वि. वि., ए. व. - अभिभूतिं असक्कोन्तो कातुं दुम्मनतं गतो, चू. वं. 57.58. अभिभूयति/अमिभुय्यति अभि + भू का वर्त, प्र. पु., ए. व., भा. वा. [अभिभूयते], क. भा. वा. में दुःखी, पीड़ित, आक्रान्त अथवा पराभूत किया जाता है, - उपादिन्नकसरीरं नाम खण्डिच्चादीहि अभिभुय्यति, उदा. अट्ठ. 264; - य्यमानानं वर्त. कृ., पु, ष, वि०, ब. व. - नयिदं युत्तं मनुस्सानम्पि पेतानं विय खुप्पिपासादीहि अभिभुय्यमानानं दिस्समानत्ता, पे. व. अट्ठ. 91; ख. कर्तृ. वा. में अभिभूत कर लेता है, दबोच लेता है - रागं अभिभुय्यतीति अभिभुय्य वत्ततीति अभिभवति अज्झोत्थरति, स. नि. अट्ठ. 3.124. अभिमङ्गल त्रि., [अभिमङ्गल], भाग्यवान्, सौभाग्यशाली, शुभ, माङ्गलिक, मङ्गलकारी - रूपदस्सन नपुं., माङ्गलिक स्वरूप का दर्शन - नं प्र. वि., ए. व. - तमओ अभिमङ्गलरूपदस्सनं मङ्गलं नाम, जा. अट्ठ. 4.66; - सम्मत त्रि., शुभ या माङ्गलिक माना जाने वाला - ता स्त्री., प्र. वि., ए. व. - अरोगपुत्ता अरोगनत्ता अभिमङ्गलसम्मता, ध. प. अट्ठ. 1.2293; - तं पु., वि. वि., ए. व. - ... अभिमङ्गलसम्मतं सबसेतं हत्थिपोतकं आनेत्वा .... जा. अट्ठ, 7.234; -- तं नपुं., द्वि. वि., ए. व. - यं वा पनजम्पि किञ्चि एवरूपं अभिमङ्गलसम्मतं
रूपं पस्सति, खु. पा. अट्ठ. 95. अमिमण्डित त्रि.. अभि + vमण्ड का भू. क. कृ. [अभिमण्डित], सुन्दर ढंग से विभूषित, पूर्णरूप से समलङ्कृत - तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - सुगन्धं पियं पत्थितं पसत्थं जलकद्दममनपलितं अणुपत्तकेसरकणिकाभिमण्डितं. मि. प. 325. अभिमत त्रि., अभि + /मन का भू. क. कृ. [अभिमत], अभीष्ट, प्रिय, रुचिकर, स्वीकृत, अनुमित, आकलित - ता स्त्री., प्र. वि., ब. क. - द्वे भावना अभिमता विनिच्छयो तत्थ जातब्बो, विसुद्धि. 2.332; - देस पु., कर्म. स. [अभिमतदेश], वाञ्छित प्रदेश, अभीष्ट भू-भाग - सन्हि सप्त. वि., ए. व. - तवाभिमतदेसम्हि संगामो वा करीयतं, चू. वं. 60.31. अभिमद्दति अभि + vमद्द का वर्तः, प्र. पु.. ए. व. [अभिमृदनाति], मर्दन करता है, रौंदता है, कुचलता या पीस देता है, परास्त करता या दबाता है - अथ पापजनं कोधो, पब्बतोवाभिमद्दतीति, स. नि. 1(1).277; पब्बतोवाभिमद्दतीति लामकजनं पब्बतो विय कोधो अभिमद्दतीति, सु. नि. अट्ठ. 1.310; - मानो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. -- मिगसङ्घ अभिमद्दमानो दीपि विय च अञ भिक्खू तत्थ विज्झन्तो ..., म. नि. अट्ठ. (मू.प.)
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अभिमद्दन 1(2).279; - हे विधि., प्र. पु.. ए. व. - नाभिहरे नाभिमद्दे न वाचं पयुतं भणे, अ. नि. 1(1).229; - द्दथ अद्य., प्र. पु., ए. व. - एवं विहरमानं म, मच्चुराजाभिमद्दथ, अप. 2.79. अभिमद्दन नपुं, अभि + मद्द का क्रि. ना. [अभिमर्दन], रगड़ना, कुचलना, दमन - नं द्वि. वि., ए. व. - सो हि पुरिसो विय... न पुंसेति अभिमदनं कातुं न सक्कोतीति नपुंसकोति वुच्चति, सद्द. 2.566; - द्दने सप्त. वि., ए. व. - पुस अभिमद्दने नकारो निग्गहीतत्थं, सद्द. 2.566. अभिमद्दित त्रि०, अभि + vमद्द का भू. क. कृ. [अभिमर्दित], कुचला हुआ, दमन किया हुआ, सम्मर्दित, रगड़ा हुआ - तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - ताव मनोरमं बिम्ब, जराय अभिमद्दितं. स. नि. 3(2).293. अभिमन त्रि., [अभिमनस], वह, जो किसी की ओर अपने मन को किये हुए हो, किसी की ओर अभिमुख मन वाला - नो पु., - दुक्खा हि कामा कटुका महब्भया, निब्बानमेवाभिमनो चरिस्सं. थेरगा. 1125; निब्बानमेवाभिमनो चरिस्सं तस्मा निब्बानमेव उद्दिस्स अभिमखचित्तो विहरिस्सं. थेरगा. अट्ठ. 2.399. अभिमनाप त्रि., अतीव सुन्दर, रमणीय, रोचक, प्रीतिकर, सुखद, मनोहर - पेन पु./नपुं., तृ. वि., ए. व. - अभिक्कन्तेनाति अतिमनापेन, अभिरूपेनाति अत्थो, पे. व. अट्ठ. 60; - तर त्रि., तुल., विशे०, अपेक्षाकृत अधिक मनभावन - रं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अभिक्कन्ततरन्ति
अभिमनापतरं अतिसेहतरन्ति, दी. नि. अट्ठ. 1.141. अभिमन्थति/अभिमत्थति अभि + मन्थ का वर्त.. प्र. पु.. ए. व. [अभिमन्थति, अभिमथ्नाति], शा. अ. रगड़ देता है, कुचल देता है, पीस देता है, ला. अ. पीड़ित करता है, उत्पीड़ित करता है, विनष्ट करता है - अभिमत्थति दुम्मेधं वजिरंवस्ममयं मणि ति, ध. प. 161; अभिमत्थति कन्तति विद्धसेतीति, ध. प. अट्ठ. 2.84; - त्थथ म. पु., ए. व. -- बाला कुमुदनाळेहि, पब्बतं अभिमत्थथ, स. नि. 1(1).149; - त्थं वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - स्वस्स गोमयचुण्णानि अभिमत्थं तिणानि च जा. अट्ठ.6.200; अभिमत्थन्ति हत्थेहि घंसित्वा आकिरन्तो..., जा. अट्ठ. 6.201; - न्थेय्य विधि., प्र. पु., ए. व. - बलवा पुरिसो तिण्हेन सिखरेन मुद्धनि अभिमन्थेय्य, म. नि. 1.312; - त्थियमानो भा. वा., वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - मत्थको सिखरेन अभिमत्थियमानो विय जातो, जा. अट्ठ. 4.413; - मन्थेन्तो प्रेर., वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व., पूर्ण शक्ति लगाकर मथ रहा या रगड़
अभिमुखं रहा - अमु अल्लं कहूँ ... उत्तरारणिं आदाय अभिमन्थेन्तो
अग्गिं अभिनिब्बत्तेय्य, म. नि. 2.437. अभिमान पु.. [अभिमान], क. दर्प, अहङ्कार, घमण्ड, गर्व ख भ्रान्त धारणा - गब्बो भिमानो हङ्कारो, अभि. प. 171; - नेन तृ. वि., ए. व. - अभिवदतीति अभिमानेन उपवदति, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.16; - वसीकत त्रि., प्र. वि., ए. व. [अभिमानवशीकृत], घमण्ड या अभिमान के वश में रहने वाला - ता पु.. प्र. वि., ब. व. - पदुट्ठमनसङ्कप्पा
अभिमानवसीकता, चू. वं. 74; 135. अभिमानी त्रि., [अभिमानिन] घमण्डी, अहङ्कारी, हेकड़ी भरने वाला, अक्खड़, महत्त्वाकांक्षी - ततो अभिमानी सेनानी सेनं सो तत्थ पेसयि, चू, वं. 57.55;-निनो ब. व. - पधानामच्चसामन्तभटादिस्वभिमानिनो, चू. वं. 66.142. अभिमार' पु., बुद्ध की हत्या का प्रयास करने वाला, बुद्ध का वधिक या गुप्तघाती - रे द्वि. वि.. ब. व., गुप्तघातियों या छलघातियों को - अभिमारे पेसेत्वा धनपालं मुञ्चापेत्वा .... दी. नि. अट्ठ. 1.127; - पयोजन नपुं.. गुप्तघाती का प्रयोजन - ना प. वि., ए. व. - देवदत्तस्स वत्थु याव अभिभारप्पयोजना
खण्डहालजातके आविभविस्सति, जा. अट्ठ. 1.147. अभिमार पु., मार की एक उपाधि - खेरभेरोरभिमारभेखे,
खेरभेरेखि भेखे खे, जिना. 98. अभिमुख त्रि., [अभिमुख], वह, जो किसी की ओर मुख किये हुए हो, की ओर, किसी की ओर मुड़ा हुआ, सामने क. द्वि. वि. में अन्त होने वाले नामपद के साथ अन्वित - खो पु., प्र. वि., ए. व. - गिरिमारञ्जरं पतीति आरञ्जरं नाम गिरि अभिमुखो हुत्वा .... जा. अट्ठ. 7.244; ख. प. वि. में अन्त होने वाले पद के साथ अन्वित- खं नपुं., प्र. वि., ए. व. - एकदिवसेनेव देवगणं अत्तनो अभिमुखमकासि. म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.225; - खा पु.. प्र. वि., ब. क. - नाभिजवन्तीति न सुमुखभावेन अभिमुखा जवन्ति, सु. नि. अट्ठ. 2.181; स. उ. प. के रूप में अन्तोगेहा., अन्तोविहारा., अस्समा., आगतमग्गा., आरम्मणा., आरामा., उत्तरदिसा., उत्तरा., उय्याना., कम्मट्ठाना., कामा. आदि के अन्त. द्रष्ट.. अभिमुखं निपा., [अभिमुखम्], आगे की ओर, किसी दिशा में, के सामने, की उपस्थिति में, के निकट - तदा पन बाराणसिरओ मत्तवारणेपि अभिमुखं आगच्छन्ते ..., जा. अट्ठ. 1.255; स. उ. प. के रूप में आघातना.. आपणा., उत्तरा.. गगनतला., पुरत्था., भूमितला. तथा सिविरट्ठा. के अन्त. द्रष्ट..
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अभिमुखकरण 496
अभिरत अभिमुखकरण नपुं., [अभिमुखकरण], सामने की ओर का पाचि. 415; - त्वा पू. का. कृ. - अम्हाकं सन्तकानि सङ्केत, समीपवर्ती की सूचना - यदिदन्ति अभिमुखकरणत्थे एतानीति अभियुजित्वा तेसु .... जा. अट्ठ. 1.327. निपातो, तेन एसाति उद्दिढ निद्दिसितुं या एसाति अभिमुखं अभियुत्त त्रि., अभि + vयुज का भू. क. कृ. [अभियुक्त], करोति, खु. पा. अट्ट. 186.
अत्यन्त निपुण, पूर्ण रूप से परिचित - तेहि पु.. तृ. वि., अभिमुखत्थ पु., [अभिमुखार्थ]. विद्यमान होने या सामने ब. व. - सयं वा कारकादिभावेन अभियुत्तेहि लोकियतीति मौजूद रहने का अर्थ अथवा तात्पर्य - सम्मा भुस लोकोति अधिप्पेतो. उदा. अट्ट, 276. सहाप्पत्थाभिमुखत्थेसु सङ्गते, अभि. प. 1170.
अभियोग पु.. [अभियोग], क. प्रयत्न, उद्यम, प्रयास, चित्त अभिमुखभाव पु., [अभिमुखभाव], सामने विद्यमान रहना -- की एकाग्रता - गो प्र. वि., ए. व. - यतो मङ्गलत्थिकेन वे सप्त. वि., ए. व., क. अभि उप. के अर्थ में - विसिढे एत्थेव अभियोगो कातब्बो, खु. पा. अट्ठ. 72; - गं द्वि. वि., अभिमुखीभावे उद्धकम्मे तथेव च, सद्द, 3.883; ख. 'आ' उप.. ए. व. - गन्ताभियोगं कत्वान, चू.वं. 44.113; ख. दोषारोपण, के अर्थ में ग. "स' उप. के अर्थ का सूचक- पच्चुपट्ठान आरोप, मुकदमा - गो प्र. वि., ए. व. - आरामादिथावरेसु त्रि.. ब. स., सामने विद्यमान होने के रूप में प्रकाशित होने पन येभुय्येन अभियोगवसेनेव गहणसम्भवतो एत्थेव पालियं वाला - नानि नपुं., प्र. वि., ब. व. - सद्दादीसु अभियोगो वुत्तो, वि. वि. टी. 1.159; - करण नपुं.. अभिमुखभावपच्चुपट्ठानानि, अभि. अव. 11.
[अभियोगकरण]. दोषारोपण कर देना, दोष लगा देना - अभिमुखयुद्ध नपुं., खुला युद्ध, आमने सामने की लड़ाई - णं प्र. वि., ए. व. - ... इदं अभियोगकरणं परेसं भूमट्ठभण्डादीसु द्धेन तृ. वि., ए. व. - अभिमुखयुद्धेन गहेतुं न सक्काति पिकातुं वट्टति येव, वि. वि. टी. 1.159. अत्थो, दी. नि. अट्ठ. 2.100; अभिमुखयुद्धेनाति अभिमुखं अभियोगी त्रि.. [अभियोगिन्], अच्छा अभ्यास किया हुआ, उजुकमेव सङ्गामकरणेन, लीन. (दी. नि. टी.) 2.111. एकाग्र या दत्तचित्त, किसी के साथ पूरी तरह से जुड़ा हुआ अभियाचति अभि + Vयाच का वर्त., प्र. पु., ए. व. - गिनो पु., प्र. वि., ब, व. - अभियोगिनो च निपुणा, दी. [अभियाचते], मांगता है, अनुनय विनय करता है, चिरौरी नि. 3.126; अभियोगिनोति लक्खणसत्थे युत्ता, दी. नि. अट्ट. करता है, घिघियाता है - चाम उ. पु., ब. व. - एवं तं 3.108. अभियाचाम, पुन कयिरासि परियाय'न्ति, जा. अट्ठ. 4.194; अभियोब्बन नपुं, [अभियौवन], खिला हुआ यौवन, उत्फुल्ल - चे उ. पु., ए. व., आत्मने. - कप्पञ्जहं अभियाचे यौवन, चढ़ी हुई जवानी -- नं प्र. वि., ए. व. -- सोभते स सुमेध, सु. नि. अहृ. 1107; अभियाचेति अतिविय याचामि, अभियोब्बनं पति, थेरीगा. 258; सु अभियोब्बनं पतीति सुन्दरे सु. नि. अट्ट. 2.291.
अभिनवयोब्बनकाले.... थेरीगा. अट्ट, 235. अभियाति अभि + Vया का वर्त., प्र. पु., ए. व. [अभियाति], अभिरक्खति अभि + रक्ख का वर्त, प्र. पु., ए. व. विरोध में अभियान करता है, आक्रमण करता है, धावा बोल [अभिरक्षति], रक्षा करता है, देखभाल करता है, पूरी तरह देता है - यन्ति प्र. पु.. ब. व. - एते. तात सुवीर, असुरा से रक्षा करता है - तु अनु०, प्र. पु., ए. व. - अथोपि तं देवे अभियन्ति, स. नि. 1(1).250; - यातुकाम त्रि., आक्रमण महाराजा, सञ्जयो अभिरक्खतूति, जा. अट्ठ. 7.374. करने की इच्छा रखने वाला - मो पु., प्र. वि., ए. व. - अभिरक्खा स्त्री., [अभिरक्षा], सुरक्षा, पूर्ण रक्षा - क्खा प्र. राजा मागधो अजातसत्तु वेदहिपुत्तो वज्जी अभियातुकामो वि., ब. व. - पञ्चविधा ठपिता अभिरक्खा , स. नि. 1(1). होति. दी. नि. 2.56; अभियातुकामोति अभिभवनत्थाय यातुकामो, 247; जा. अट्ठ. 1.201. दी. नि. अट्ट. 2.95.
अभिरत त्रि., अभि + रम का भू. क. कृ. [अभिरत], किसी अभियुञ्जति अभि + (युज का वर्त., प्र. पु., ए. व.. वस्तु में आनन्द प्राप्त करने वाला, किसी से संतुष्ट होने [अभियुङ्कते], झूठा दावा ठोकता है, नालिश करता है - वाला, पूरी तरह से लगा हुआ या समर्पित - तो पु., प्र. आरामं अभियुञ्जति, आपत्ति दुक्कटस्स, पारा. 56; आराम वि., ए. व. - समग्गरति अभिरतो, क. व्या. 588; अभिरतो अभियुञ्जतीति परसन्तकं मम सन्तको अयान्ति मसा भणित्वा पविवेके, दी. नि. 1.53; - तेन पु.. तृ. वि., ए. व. - अभियुञ्जति, पारा. अट्ठ. 1.270; - जिस्सति भवि०, प्र. अभिरतेन पनावुसो, किं दुक्करन्ति, स. नि. 2(2).254; - पु.. ए. व. -- यं किञ्चि नटुं सब्ब अम्हे अभियुञ्जिस्सती ति, स्स पु., ष. वि., ए. व. - रत्तस्स यथाभिरतस्स रूपरस
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अभिरति
497
अभिरमति
... सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सूपायासा ..., म. नि. 3.154; - ता पु.. प्र. वि., ब. क. - ... अभिरता होन्तीति अत्थो, ध. प. अट्ठ. 1.131. अभिरति स्त्री., [अभिरति], आनन्द, अनुराग, लगाव - ति प्र. वि., ए. व. - एवहिस्स तदत्थं ब्रह्मचरियवासे विसेसतो अभिरति भविस्सतीति, उदा. अट्ठ. 138; - तिं द्वि. वि., ए. व. - यं मे परो अनभिरतिं विनोदेत्वा अभिरति उप्पादेय्य, स. नि. 1(1).215; तत्राभिरतिमिच्छेय्य, ध. प. 88; - तिया त. वि., ए. व. - अभिज्झाविनयेन च काये अभिरतिया, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).255; - तियं सप्त. वि., ए. व. - तं ब्रह्मचरियं पुब्बे वुत्तं ... अभिरतिय आदरजननत्थं अभिरम, उदा. अट्ठ. 139; स. उ. प. के रूप में पविवेका., वत्ता. के अन्त. द्रष्ट.; - कारक त्रि., आनन्द या लगाव उत्पन्न करने वाला/वाली- रिकासु स्त्री., सप्त. वि., ब. व. - आरामकरासूति अभिरतिकारिकासु. जा. अट्ठ. 5.435; - कारण नपुं., आमोद से भरपूर रहने का कारण - णं द्वि. वि., ए. व. - केसवस्स अभिरतिकारणं पुच्छि, जा. अट्ठ. 3.123; - सजा स्त्री.. [अभिरतिसंज्ञा], आनन्द के भरपूर रहने की समझ या मान्यता - जाय ष. वि., ए. व. - निबिदानुपस्सनेन अभिरतिसआय .... सु. नि. अट्ठ. 1.8; स. उ. प. के रूप में अन.. एकत्ता. के अन्त. द्रष्ट.. अमिरत्त त्रि., [अभिरक्त], क. लगा हुआ, सम्बद्ध, लिप्त, आसक्त - त्ता पु.. प्र. वि., ब. व. - सन्दिद्विरागेन हि तेभिरत्ता, सु. नि. 897; यस्मा सकेन दिद्विरागेन अभिरत्ताति वुत्तं होति, सु. नि. अट्ठ. 2.249; ख. लाल, सुर्ख लाल - भाव पु., लालपन, लालरंग में रंगा होना - वेन तृ. वि., ए. व. - अभिरत्तभावेन जिव्हासदिसं ते ओट्टपरियोसानन्ति वदति, जा. अट्ठ. 5.151; - लोचन त्रि., ब. स. [अभिरक्तलोचन]. लाल आंखों वाला - ना पु.. प्र. वि., ब. व. - विसालनेत्ता अभिरत्तलोचना, वि. व. 10263B अभिरत्तलोचनाति विसेसतो रत्तराजीहि उपसोभितनयना, वि.. व. अट्ठ. 234. अभिरद्ध त्रि., अभि + vराध का भू. क. कृ. [अभिराद्ध]. संतुष्ट या प्रसन्न कर दिया गया, आह्लादित-द्धो पु., प्र. वि., ए. व. - बुद्धस्स ... अवण्णे भञमाने अत्तमनो होति उदग्गो अभिरद्धो, महाव. 89; - स्स पु.. ष. वि., ए. व. - अभिरद्धस्स पन सुखपदट्ठानत्ता अत्तनो मनो नाम होति, ध. स. अट्ठ. 188; - द्धा पु., प्र. वि., ब. व. - अय्यरस नन्दकस्स अत्तमना अभिरद्धा यं नो अय्यो नन्दको पवारेतीति,
म. नि. 3.329; अय्यास्स नन्दकस्स अत्तमना अभिरद्धा ..., म. नि. 3.329. अभिरन्तं अ०, इच्छानुसार, अपनी रुचि के अनुसार - अथ खो भगवा अम्बलट्ठिकायं यथाभिरन्तं विहरित्वा, आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि, दी. नि. 2.64; यथाभिरन्तं विहरे अरुजे. सु. नि. 53. अभिरमति अभि + vरम का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अभिरमते]. सुखानुभव करता है, आनन्द का अनुभव करता है, प्रेम में मग्न हो जाता है, मजा लेता है - सा तत्थ न रज्जति, तत्र नाभिरमति, अ. नि. 2(2).203; एवं अयम्पि हत्थिनागो ... विवेकं उपब्रूहयमानो इदानि एको असहायो वने अरुले रमति अभिरमति, उदा. अट्ट, 203-204; - सि म. पु., ए. व. - नागयोनियं अभिरमसीति पुच्छि, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.205; - मामि उ. पु., ए. व. - जनपदकल्याणिया पटिबद्धचित्तो हुत्वा नाभिरमामी ति, जा. अट्ठ. 2.76; - न्ति प्र. पु.. ब. व. - अपि च यत्थ ... मक्खिका अभिनिविसन्ति .... मक्खिका अभिरमन्ति, म. नि. 3.188; - न्तो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - सो ताय सद्धि अभिरमन्तो धम्मे चित्तमत्तम्पि अनुप्पादेत्वा ... पे. व, अट्ठ. 4; - मानो उपरिवत् - इदानि पन आगन्त्वा सङ्गणिकाय अभिरममानो चरसि, जा. अट्ट. 1.114; - माना पु., प्र. वि., ब. व. - अभिरममानाव अनुक्कण्ठिताव जीवितं जहन्ति, जा. अट्ठ. 3.49;- तु अनु.. प्र. पु.. ए. व. - अभिरमत, भन्ते, अय्यो गग्गो मन्ताणिपत्तो, म. नि. 2.311; - मेय्य विधि, प्र. पू.. ए. व. - मया सद्धि इध अभिरमेय्या ति तस्सा दिब्बभोगसम्पत्तिया अनुभवनहेतु वीमसन्तो.... पे. व. अट्ठ. 127; - मेय्यं उ. पु., ए. व. - सचाहं, भन्ते, पब्बजितो अस्सं, अभिरमेय्यामह, महाव. 201; - य्यु प्र. पु.. ब. व. - तथारूपा चक्खुविनेय्या रूपा ये दिस्वा दिस्वा अभिरमेय्यु, म. नि. 3.355; - मेय्याथ म. पु., ब. व. - तुम्हाकं पतिरूपं ... अनगारियं पब्बजितानं यं तम्हे अभिरमेय्याथ ब्रह्मचरिये, म. नि. 2.135; - मि/मित्थ अद्य., प्र. पु., ए. व. - गतकाले तेन सद्धिं किलेसवसेन अभिरमि, जा. अट्ठ, 3.161; कुमारो उय्यानभूमिया अभिरमित्थ, दी. नि. 2.17; - मि उ. पु., ए. व. - सब्बं तं तक्कवड्डनं, नाहं तत्थ अभिरमि, सु. नि. 1090; - मिस्सति भवि०, प्र. पु., ए. व. - सचे रखपालो कुलपुत्तो नाभिरमिस्सति अगारस्मा अनगरियं पब्बज्जाय, म. नि. 2.259; - मिस्सामि उ. पु., ए. व. - अभिरमिस्सामि ब्रह्मचरियवासे ति, पे. व. अट्ठ. 52; - मितुं निमि. कृ. -
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अभिरमण
498
अभिरुहनक दुरभिरमन्ति अभिरमितुं न सुखं म. नि. अठ्ठ (मू.प.) प्राप्त करने में सफल रहता है - नेव अत्तनो न परेसं हितं 1(1).120.
अभिराधयतीति अनभिरद्धि, दी. नि. अट्ठ. 1.49; -- ये विधि., अभिरमण नपुं.. [अभिरमण], किसी वस्तु में आनन्द प्राप्त प्र. पु., ए. व. - सब्बं चे पथविं दज्जा , नेव नं अभिराधयेति. करना या मन को रमा देना -- णं प्र. वि., ए. व. -- तव जा. अट्ठ. 1.3083; नेव नं अभिराधयेति एवं करोन्तोपि एवरूप कामेहि अभिरमणं मम चित्तमत्तं न होति, जा. अट्ठ. 7.105. .... वा पसादेतुं वा न सक्कुणेय्याति अत्थो, जा. अट्ठ. 1.308; अभिरमापन नपुं., आनन्द से परिपूर्ण कराना, मन को पूरी - यि अद्य.. प्र. पु., ए. व. - बाहिया हि सुहन्नेन, तरह रमा देना - नाय च. वि., ए. व. - अभिरमापनाय राजानमभिराधयी ति, जा. अट्ठ. 1.403; राजानमभिराधयीति मनुस्सकन्तेसु सीलेसु समादपनाय ..., म. नि. 3.173. देवं अभिराधयित्वा इमं सम्पत्ति पत्ताति, तदे.;- यिं उ. पु.. अभिरमापेति अभि + रम के प्रेर. का वर्त, प्र. पु., ए. व. ए. व. - वहन्ती नाभिराधयिं, जा. अट्ठ. 3.341. [अभिरमयति], किसी वस्तु में आराम या सुख पाने के लिये अभिराधित त्रि., अभि + Vराध का भू. क. कृ. [अभिराद्ध]. प्रेरित करता है, आनन्द से भर देता है, तृप्त कराता है, सफलतापूर्वक प्राप्त किया हुआ - तो पु., प्र. वि., ए. व. आनन्द दिलवाता है, मजा दिलाता है, पूरी तरह रमा देता - मानुसोपि च भवोभिराधितो, थेरगा. 259; मानुसोपि च है - गतगतद्वाने पियसहायो विय अभिरमापेति, ध. स. अट्ठ. भवोभिराधितोति... मया तादिसेन कुसलकम्मुना समवायेन 390; - पेन्तो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - एवं में अभिराधितो साधितो अधिगतो, थेरगा. अट्ठ. 1.409. अभिरमापेन्तो कप्पो अलोणक... सामाकनीवारयागुं पायेसि. अभिराधी त्रि., प्रसन्न कर देने वाला, सन्तुष्ट कर देने जा. अट्ठ. 3.124; - पेन्तियो वर्त. कृ., स्त्री., प्र. वि., ब. वाला, केवल मित्ताभिराधी के स. उ. प. के रूप में प्राप्त - व. -... सम्परिवारयित्वा अभिरमापेन्तियो नच्चगीतवादितानि । मित्ताभिराधीति .... जा. अट्ठ. 4.245. पयोजयिंसु, जा. अट्ठ. 1.71; - पेय्यं विधि., उ. पु., ए. व. अभिरुचि स्त्री., [अभिरुचि], इच्छा, आनन्द, प्रहर्ष, प्रवृत्ति, --- राजानं पत्तियापेत्वा मया सद्धि अभिरमापेय्यान्ति चिन्तेत्वा मानसिक आशय - चिं द्वि. वि., ए.व. - इथिचित्तं .... जा. अठ्ठ. 3.347; - तु निमि. कृ. - नच्चगीतेहि चेव विराजेत्वाति इत्थिभावे चित्तं अज्झासयं अभिरुचिं विराजेत्वा, मधुरवचनादीहि च नानप्पकारेहि अभिरमापेतुं वायमिंसु. जा. पे. व. अट्ठ. 146. अट्ठ. 6.9; - पेत्वा पू. का. कृ. - ... चित्तं अभिरमापेत्वा । अभिरुचित त्रि., अभि + (रुच का भू. क. कृ., मनचाहा, पच्छा सीले नियोजेन्ति, मि. प. 215.
मनपसंद - तं नपुं., वि. वि., ए. व. - जनपदचारिक अभिरमेहि अभि + (रम का अनु., म. पु., ए. व., रमण करो, चरित्वा अत्तनो अभिरुचितं एक मङ्गलनामं गहेत्वा .... जा. मौज करो, मस्ती करो - इमं मणिं गहेत्वा अञ्जत्थ न । अट्ठ. 1.385; - तेहि तृ. वि., ब. व. - लक्खणेसु अत्तनो अभिरमेहीति, जा. अट्ट, 5.176.
अभिरुचितेहि लक्खणेहि भगवन्तं थुनन्तो .... सु. नि. अट्ठ. अभिरवति अभि + रु का वर्तः, प्र. पु., ए. व. [अभिरौति]. 2.157. जोर से चिल्लाता है, नाद करता है - अभावितचित्तो तसति अभिरुद त्रि., [अभिरुत], आनन्दपूर्ण ध्वनि, चिल्लाहट, रवति भेरवरावमभिरवति, मि. प. 237; - न्ति ब. व. - कोलाहल, पक्षियों का मधुर कलरव - रुदा पु..प्र. वि., ब. तेपज्जुभो अभिरवन्ति, धुवं बुद्धो भविस्ससि, जा. अट्ठ. 1.23. व. - वारणाभिरुदा रम्मा, उभो कालूपकूजिनो, जा. अट्ठ. अभिराज पु.. [अधिराज], सर्वश्रेष्ठ राजा, राजाधिराज - जा 7.308; वारणाभिरुदा रम्माति रम्माभिरुदा वारणा, जा. अट्ठ. प्र. वि., ए. व. - राजाभिराजा मनोजो, इन्दोव जयतं पति, 7.309; स. उ. प. के रूप में सकुन्ता., कुजा., हंसकोञ्चा. जा. अट्ठ. 5.314; राजाभिराजाति एकसतराजूनं पूजितो, के अन्त. द्रष्ट.. तेसं वा अधिको राजाति राजाभिराजा, जा. अट्ठ. 5.315. अभिरुयह अभि + रुह का पू. का. कृ. [अभिरुह्य], चढ़ अभिराधन पु., थेर सम्भूत के तीन मित्रों में से एक का नाम कर, सवार होकर - अभिरुयह गजवरं सुकप्पित, वि. व. - भूमिजो जेय्यसेनो च, सम्भूतो अभिराधनो, थेरगा. अट्ठ. अट्ठ. 212; पुन अभिरुयहाति एत्थ ... दहब्बो, अभिरुरह 1.46.
आरोहनीयन्ति वुत्तं होति, तदे... अभिराधयति अभि + Vराध का वर्त, प्र. पु., ए. व., प्रेर. अभिरुहनक त्रि., पास वाले पौधे को अभिभूत करके उगने [अभिराधयति], प्रसन्न या संतुष्ट करता है, सिद्ध कराता है, वाला या बढ़ने वाला - का पु.. प्र. वि., ब. व. -
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अभिरूप
499
अभिरोचति/अभिरोचयति अभिरुहनकाति समीपरुक्खे अभिभवित्वा रुहनका, लीन. प. पर कोई चढ़ा हुआ है -- न्हं पु., द्वि. वि., ए. व. - इत्थिया (स. नि. टी.) 2(2).136.
अभिरुळहं सङ्कम सारत्तो सञ्चालेसि. पारा. 187. अभिरूप त्रि., [अभिरूप], सुन्दर ढंग से निर्मित, अतीव अभिरूहति/अभिरुहति अभि + रुह का वर्त, प्र. पु., ए. सुन्दर, रमणीय, मनोहर - पो पु.. प्र. वि., ए. व. - इमं व. [अभिरोहति/अभिरुहति], चढ़ता है, सवार होता है, भोन्तो निसामेथ, अभिरूपो ब्रह्मा सचि. स. नि. 412; अभिरूपोति आरोहण करता है - दन्तं नयन्ति समिति, दन्तं राजाभिरूहति, दस्सनीयङ्गपच्चङ्गो, सु. नि. अट्ट, 2.101; - पेन पु., तृ. वि., ध, प. 321; राजाति तथारूपेहेव वाहनेहि गच्छन्तो राजापि ए. व... तस्मा अभिक्कन्तेनाति अतिकन्तेन अतिमनापेन, दन्तमेव अभिरूहति, ध. प. अट्ठ. 2.284; - न्ति ब. व. - अभिरूपेनाति अत्थो, वि. व. अट्ट, 40; - पा स्त्री., प्र. वि., इतरा पकतियानकं वा अभिरुहन्ति, ध, प. अट्ठ. 1.219; - ए. व. - तस्स पन सुवण्णहंसराजस्स धीता हंसपोतिका न्तो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - चङ्कम अभिरुहन्तो, अभिरूपा अहोसि, जा. अट्ठ. 1.204; - पं स्त्री., द्वि. वि., ए. तत्थेव पपतिं छमा, थेरगा. 271; - मानो उपरिवत्, आत्मने. व. - तस्सा विहारं पविसनसमये एकं पन अभिरूपं इत्थिं -- ततियं पासादं अभिरुहमानो सोपानसीसे ठत्वा ..., जा. ..., ध, प. अट्ठ. 2.64; - च्छवि त्रि., ब. स. [अभिरूपछवि], अट्ठ. 3.105; - माना वर्त. कृ., स्त्री., प्र. वि., ब. व. - चौंधियाने वाली सुन्दरता वाला, चकित या विस्मित करने अभिरुहमाना सब्बसाखा पलिवेठेन्ती मत्थक पत्वा ..., म. वाली छवि से युक्त - वि स्त्री., प्र. वि., ए. व. - तेन नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).266; - रुह अनु., म. पु., ए. व. - अभिक्कन्तवण्णा अभिरूपच्छवि इट्ठवण्णा मनापवण्णाति वुत्तं अरियानं दानाभिरतानं बुद्धादीनं मग्गं अभिरुह, जा. अट्ठ. होति, स. नि. अट्ट, 1.14; - तर त्रि., तुल. विशे. 5.385; - तु प्र. पु., ए. व. - अभिरुह सुगतो दुस्सानि, [अभिरूपतर], और भी अधिक सुन्दर, अत्यधिक सुन्दर - म. नि. 2.288; - न्तु ब. व. - निरालया इमं पब्बत रो पु., प्र. वि., ए. व. - असितो देवलो इसि अभिरूपतरो अभिरुहन्तूति वत्वा .... उदा. अट्ठ. 64; - थ म. पु., ब. व. चेव होति, म. नि. 2.369; -- रा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - - मया सद्धिं रथं अभिरुहथ जा. अट्ट. 3.420; - हेय्य कतमा नु खो अभिरूपतरा, ध, प. अट्ठ. 1.69; - रानि नपुं.. विधि., प्र. पु., ए. व. - सो तं नावं अभिरुहेय्य, मि. प. 223; प्र. वि., ब. व. - पञ्च अच्छरासतानि अभिरूपतरानि चेव - रुहि/रूहि अद्य., प्र. पु., ए. व. - यत्र हि नाम जातस्स ... पासादिकतरानि चाति, ध. प. अट्ठ. 1.69; - ता स्त्री., जरा... ततोव पटिनिवत्तित्वा पासादमेव अभिरुहि, जा. अट्ठ. अभिरूप का भाव. [अभिरूपता]. सुन्दरता, अत्यधिक सुन्दर 1.69; - तुं निमि. कृ. - तं पन ठानं नेव हेट्ठाभागेन रूप से युक्त होता -- ताय तृ. वि., ए. व. - अभिरूपताय अभिरुहितुं ..., जा. अट्ठ. 4.297; - रुय्ह पू. का. कृ. - पन रूपनन्दाति पञायि, ध. प. अट्ट, 2.63; - नन्दा स्त्री... देवयानं अभिरुव्ह, विरजं सो महापथं सु. नि. 139. थेरीगा. में बुद्ध द्वारा उद्बोधित, खेमक की पुत्री - न्दं द्वि. अभिरूहन/अभिरूहण नपुं. अभि + रुह से व्यु., क्रि. वि., ए. व. - इत्थं सुदं भगवा अभिरूपनन्दं सिक्खमानं ना. [अभिरोहण], ऊपर सवार होना, चढ़ना, आरोहण - नं ... अभिण्ह ओवदतीति, थेरीगा. 20; - न्दाय ष. वि., ए. व. पु., वि. वि., ए. व. - यदा च मग्गमद्दक्खिं नावाय -- आतुरं असुचिं ... अभिरूपनन्दाय सिक्खमानाय गाथा, अभिरहन थेरगा. 766; नावाय अभिरुहनन्ति अरियमग्गनावाय थेरीगा. अट्ट, 26; - वती स्त्री, प्र. वि., ए. व. [अभिरूपवती]. अभिरूहनूपायभूतं... अद्दक्खिं , थेरगा. अट्ठ.2.244; - नाय अतीव सुन्दरी - नच्चन्तवण्णाति अभिरूपवती, जा. अट्ठ. चतु. वि., ए. व. - सामञ्जत्थसेलसिखरमुद्धनि अभिरूहनाय, 5.444.
मि. प. 322; -- मग्ग पु., [अभिरोहणमार्ग], चढ़ने का मार्ग अभिरुळह त्रि., अभि + रुह का पू. का. कृ. [अभिरुढ़], क. या सीढ़ी, सोपान, निःश्रयणी - ग्गं द्वि. वि., ए. व. - सो कर्तृ. वा. में- चढ़ चुका, आरूढ़ हो चुका, सवार हो चुका एकेन पस्सेन अभिरूहनमग्गं कत्वा अभिरूहित्वा दारक - हे पु., सप्त. वि., ए. व. - एकस्मिं पुरिसे अभिरुळहे गण्हि , ध. प. अट्ट, 1.96. सा नावा समुपादिका भवेय्य, मि. प. 223; - न्हाय स्त्री., अभिरोचति/अभिरोचयति अभि + रुच का वर्त, प्र. पु., सप्त. वि., ए. व. - पच्छतो महापथविया योजनमत्तं ए. व., आनन्द पाता है, पसन्द करता है - चामि/चयामि अभिरुळहाय गोतमो नाम बुद्धो उप्पज्जिस्सति, ध, प. अट्ठ. उ. पु., ए. व. - न वासमभिरोचामि, जा. अट्ठ. 7.313; न 1.60; ख. भा. वा. में - वह सवारी या हाथी आदि जिस चाहमेतं अभिरोचयामि, जा. अट्ठ. 5.210; - ये उपरिवत,
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अभिरोपेति
500
अभिलिम्पति
आत्मने. - न दानाहं तया सद्धिं संवासमभिरोचये, जा. अट्ठ. 3.165. अभिरोपेति अभि + रुह का वर्त, प्र. पु., ए. व., प्रेर. [अभिरोपयति], शा. अ. पौधे रोपता है, पौधा लगाता है, ला. अ. क. अलङ्करण के रूप में धारण करता है या अपने ऊपर रखता है - पेहि अनु., म. पु., ए. व. - कासिकसुखुमानि धारय, अभिरोपेहि च मालवण्णकं थेरीगा. 379; अभिरोपेहीति मण्डनविभूसनं वा सरीरं आरोपय, थेरीगा. अट्ठ. 277; ला. अ. ख. उपहार के रूप में सामने रखता है या प्रस्तुत करता है, पूजा सामग्री के रूप में चढ़ाता है - यिं अद्य, उ. पु.. ए. व. - तिसकप्पसहस्सम्हि यं पुप्फमभिरोपयिं अप. 1.96; - पित त्रि., भू. क. कृ. - तं नपुं॰, प्र. वि., ए. व. - बरं मे बुद्धसेट्ठस्स, जाणम्हि अभिरोपितं, अप. 2.186. अभिलक्खित त्रि०, अभि + लक्ख का भू. क. कृ. [अभिलक्षित], जाना गया, चिह्नित किया गया, सङ्केतित, देखा गया - तो पु., प्र. वि., ए. व. - अज्ज अभिलक्खितो महाउपोसथदिवसो, जा. अट्ट, 4.2: - ता स्त्री., प्र. वि., ब. व. - यंनूनाहं या ता रत्तियो अभिजाता अभिलक्खिता, म. नि. 1.27; - तेसु पु., सप्त. वि., ब. व. - अातुच्छेनाति
अभिलक्खितेसु इस्सरजनगेहेसु .... स. नि. अट्ठ. 2.211; -- त्त नपुं॰, भाव. [अभिलक्षितत्व], सङ्केतित होना, अभिलक्षित होना, दृष्टिपथ में आ जाना - त्ता प. वि., ए. व. - तेसं अभिलक्खितत्ता अयं पदेसो कामावचरो त्वेव उच्चति,ध. स. अट्ठ. 108. अभिलङ्गति/अभिलङ्घति अभि + Vलङ्घ का वर्त., प्र. पु., ए. व. [अभिलङ्घति], लांघ जाता है, ऊपर की ओर उठता या चढ़ता है - पुण्णचन्दमिथुनं पुब्बापरियेन गगनतलं अभिलङ्गती ति, दी. नि. अट्ठ. 2.189; - मानं वर्त. कृ., पु.. द्वि. वि., ए. व. - विसुद्ध गगनतलं अभिलङ्घमानं चन्दमण्डलं दिस्वा ..., जा. अट्ठ. 7.102. अभिलपीयति अभि + Vलप का वर्त.. प्र. पु., ए. व., कर्म. वा. [अभिलप्यते], कहा जाता है, उच्चारित किया जाता है, घोषित किया जाता है - उदीरियति अभिलपीयती ति अत्थो ति वदन्ति, सद्द. 2.543. अभिलम्बति अभि + Vलम्ब का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अभिलम्बति], सहारे खड़ा या टिका रहता है, दोनों ओर अवस्थित रहता है - न्ति ब. व. - उभतो अभिलम्बन्ति, दुग्गं वेतरणिं नदि, जा. अट्ठ. 5.261; - न्ता वर्त. कृ., पु.. प्र. वि., ब. व. - उभतो अभिलम्बन्ता, सोभयन्ति ममस्सम
अप. 1.12; - न्तं वर्त. कृ., पु.. वि. वि., ए.व. - पपातमभिलम्बन्तं, सम्पन्नफलधारिन, जा. अट्ठ. 5.64; - म्बिता स्त्री., भू. क. कृ., प्र. वि., ए. व., केवल स. उ. प. के रूप में, नीलदुमा., नीले वृक्ष की डाली पर लिपटी हुई या चिपकी हुई - सा सुत्तचा नीलदुमाभिलम्बिता, जा. अट्ठ. 5.402. अभिलसति अभि + Vलस का वर्त, प्र. पु., ए. व., कामना करता है, इच्छा करता है - न्तो वर्त. कृ., पु.. प्र. वि., ए. व. - कत्तुं अभिलसन्तो पि राजा एवं अचिन्तयि, चू, वं. 81.64. अमिलाप पु.. [अभिलाप]. कथन, उल्लेख नाम, अभिव्यक्ति, उक्ति- सङ्घा समा... नामधेय्यं निरुत्ति व्यञ्जनं अभिलापो, ध. स. 1314; - पे सप्त. वि., ए. व. - तस्सा अभिलापे तं सभावनिरुत्तिं सदं आरम्मणं कत्वा ..., विभ. अट्ठ. 366; -- नानत्त नपुं, अभिव्यक्ति की विविधता या विभिन्नता - त्तेन तृ. वि., ए. व. - नानज्झासयताय पन सत्तानं देसनाविलासेन अभिलापनानत्तेन देसनानानत्तं वेदितब्बं उदा. अट्ट. 48; - मत्त नपुं., केवल अभिव्यक्ति का एक तरीका - त्तं प्र. वि., ए. व. -. अभिलापमत्तमेव चेतं, अत्थतो पन पितामहायेव पितामहयुगं, सु. नि. अट्ठ.2.166; - मत्तभेद पु.. केवल अभिव्यक्ति या कथन का एक रूपान्तरण या प्रभेद - दो प्र. वि., ए. व. - एकं समयान्ति वा अभिलापमत्तभेदो एस, सब्बत्थ भुम्ममेव अत्थोति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).13. अभिलाव पु. [अभिलाव, काटना, कटाई, लवन - लवोभिलवो
लवनं, अभि. प. 770; पाठा. अभिलवो. अभिलास पु.. [अभिलाष], आकांक्षा, इच्छा, कामना, उत्कण्ठा, अनुराग - पिहा मनोरथो इच्छा भिलासो कामदोहळा, अभि. प. 163; केवल स. उ. प. के रूप में फातिकरणा., विमुत्ता., सजाता. के अन्त. द्रष्ट... अभिलासी त्रि., [अभिलाषिन्], कामना या इच्छा करने वाला, चाहने वाला, केवल स. उ. प. के रूप में - सककम्मामिलासिनो पु., प्र. वि., ब. व., अपने काम को पूरा करने की अभिलाषा रखने वाले - पटिपूजेन्ति पुलिनं. सककम्माभिलासिनो, अप. 2.65. अभिलित्त अभि + लिप का भू. क. कृ. [अभिलिप्त]. शा. अ. पूर्ण रूप से लीपा हुआ या पोता हुआ, ला. अ. अनुरक्त, आसक्त, लगावयुक्त - त्तो पु.. प्र. वि., ए. व. - लोको अभिलित्तो नाम भवति, नेत्ति. 13. अभिलिम्पति अभि + लिप का वर्त.. प्र. पु.. ए. व.. चिपका देता है, सटा देता है, शिकार को फंसाता है या उसे फंसाने
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अभिलेखति
अभिवण्णेति के लिये लासा लगाता है - सा कथं अभिलिम्पति? नेत्ति. ब. व. - इट्ठा कन्ता मनापा धम्मा अभिवड्डेय्युन्ति, म. नि. 12; अभिलिम्पतीति मक्कटालेपो विय मक्कटं दारुसिलादीस 1.391; - ड्ढि अद्य, प्र. पु., ए. व. - भगवतो पकतिदुब्बले
परिसं रूपादिविसये अल्लीयापेतीति अत्थो, नेत्ति. अट्ठ. 195. सरीरे खीणे आयुसवारे उप्पन्नो रोगो भिय्यो अभिवति, मि. अभिलेखति अभि + लिख का वर्त, प्र. पु., ए. व., प्रेर. प. 171; - यिं अद्य., उ. पु., ए. व. - अब्मन्तरे सुञआगारे, [अभिलेखयति], उत्कीर्ण करने या खोदने के लिये प्रेरित धम्मतो अभिवड्वयिन्ति, मि. प. 343; - स्सति भवि०, प्र. पु.. करता है, लिखवाता, है, उत्कीर्ण कराता है - यि अद्य., प्र. ए. व. - समणस्स गोतमस्स यसो अभिवद्धिस्सति, दी. नि. पु., ए. व. - अभिलेखयि चारित्तलेखं, दाठा. 5.67. 1.98; - स्सन्ति भवि., ब. व. - वोदानिया धम्मा अभिवद्धिस्सन्ति, अभिलेपन नपुं., अभि + लिप से व्यु., क्रि. ना., प्रायः स. दी. नि. 1.173; - तुं निमि. कृ. - योगिना योगावचरेन उ. के रूप में प्रयुक्त, बन्दर को पकड़ने के लिये प्रयुक्त अरहत्ते अभिवद्धितुकामेन मनसा ... अरहत्ते अभिववितब्ब, लेप या लासा - नं द्वि. वि., ए. व. - किस्साभिलेपनं ब्रूसि, मि. प. 341; - ड्डितब्ब सं. कृ. - मनसा आरम्मणं सु. नि. 1038; किस्साभिलेपनं... अस्स लोकस्स अभिलेपनं आलम्बित्वा अरहत्ते अभिववितब्ब, मि. प. 341. वदेसि, सु. नि. अट्ठ. 2.276; जप्पाभिलेपनं ब्रूमि, दुक्खमस्स अभिवड्दन त्रि., अभि + Vवड्ड से व्यु., क्रि. ना. [अभिवर्धन]. महभयं सु. नि. 1039; जप्पाभिलेपनन्ति तण्हा अस्स लोकस्स बढ़ाने वाला, वृद्धि कराने वाला, केवल स. उ. प. के रूप मक्कटलेपो विय अभिलेपनं, सु. नि. अट्ठ. 2.276. में, - रट्ठाभिवड्डन संबो., ए. व., राष्ट्र की वृद्धि कराने अभिवग्ग पु., सैकड़ों तेज दांतो वाला एक प्रकार का उठाऊ वाला - यं त्वं रद्वाभिवड्वन, जा. अट्ठ. 5.6; रद्वाभिवङ्घनाति फाटक - ग्गेन तृ. वि., ए. व. - अभिवग्गेनपि ओमद्दन्ति, रद्धस्स अभिवड्वन, जा. अट्ठ. 5.7; - रागदोसाभिवड्डनी म. नि. 1.121; अभिवग्गेनाति सतदन्तेन, म. नि. अट्ठ. स्त्री., प्र. वि., ए. व. राग और द्वेष को बढ़ाने वाली -- (मू.प.) 1(1).370.
दोसाभिवड्वनी, सद्धम्मो. 68. अभिवज्जित त्रि., [अभिवर्जित], मुक्त, विवर्जित, रहित - अभिवड्डि स्त्री., [अभिवृद्धि], अत्यधिक वृद्धि या विकास - तो पु., प्र. वि., ए. व. - तेहि तीहि दोसेहि अभिवज्जितो, ड्डि द्वि. वि., ए. व. - जिनसासनपरिहानि दिस्वा अभिवद्धिं म. वं. टी. 1.47(रो.).
इच्छसि, मि. प. 106; - या च. वि., ए. व. - अभिभवडिया अभिवट्ठ/अभिवुट्ट त्रि., अभि + Vवस्स का भू. क. कृ. वायमति, मि. प. 106; तुल. अभिवुड्डि. [अभिवृष्ट], कर्तृ. वा. - वह, जिस पर भारी वृष्टि की गई। अभिवडित त्रि., अभि + वड्ड का भू. क. कृ. [अभिवर्धित]. है, बरसा से सराबोर - टुं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अभिवट्ठव अच्छी तरह से विकसित, कद में अधिक बढ़ा हुआ - तो बीरणं, ध. प. 335; पुनपुन वस्सन्तेन देवेन अभिवटुंबीरणतिण पु., प्र. वि., ए. व. - उरुळहवाति अभिवड्डितो आरोहसम्पन्नो, ध. प. अट्ठ. 2.304; - हा पु., प्र. वि., ब. व. - अभिवुट्ठा म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.92. रम्मतला नगा, थेरगा. 1068; - टुं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अभिवड्डेति अभि + Vवड्ड का वर्त., प्र. पु., ए. व., प्रेर. अभिवट्ठ उदकं, मि. प. 189; कर्म. वा. - खूब वर्षा कर [अभिवर्धयति], बढ़ने के लिये प्रेरित करता है, बढ़ाता है - चुका - द्वे पु., सप्त. वि., ए. व. - अभिवढे महामेघे, मि... तदग्गेन ते उपादानक्खन्धे अभिवड्डेतीति अधिप्पायो, उदा. प. 171.
अट्ठ. 287. अभिवकृति अभि + Vवड्ड का वर्त, प्र. पु., ए. व. अभिवण्णित त्रि., अभि + Vवण्ण का भू. क. कृ. [अभिवर्णित]. [अभिवर्धते, अधिक से अधिक बढ़ता है, विकसित होता है, प्रशंसित, संस्तुत, अतिशय प्रशंसित - तं पु., वि. वि., ए. समृद्ध होता है, विस्तृत होता है - सञतस्स धम्मजीविनो, व. - अतिप्पसत्थं बहनाभिवणितं एतम्हि नानाकुसुमं व अप्पमत्तस्स यसोभिवकृति, ध. प. 24; तदा मुच्छा पिपासा च गन्थितं, दी. वं. 1.4. जरो च अभिवड्डति, सद्धम्मो. 288; धम्मो पदीयमानो हि अभिवण्णेति अभि + Vवण्ण का वर्त, प्र. पु., ए. व. उभयत्थाभिवकृति, सद्धम्मो. 523; - न्ति ब. व. - अनिट्ठा, [अभिवर्णयति], प्रशंसा करता है, गुणगान गाता है, सराहना अकन्ता अमनापा धम्मा अभिवड्डन्ति, म. नि. 1.391; - मान करता है, गुणानुवाद करता है - ण्णयि अद्य., प्र. पु., ए. वर्त. कृ. - भिय्योसोमत्ताय अभिवङ्घमानदानज्झासयो ... व. - नायको निधिकण्णम्हि विसेसेनाभिवण्णयि, सद्धम्मो. महादानं पवत्तेसि, पे. व. अट्ठ. 116; -ड्डेय्यं विधि, प्र. पु.. 588.
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अभिवदति
502
अभिवादन अभिवदति अभि + Vवद का वर्त., प्र. पु., ए. व. [अभिवदति], ब्रह्मना अभिवन्दितो, थेरगा. 177; ब्रह्मना अभिवन्दितोति क. सम्बोधित करता है, विशिष्ट रूप से बोलता है - देथ महाब्रह्मना सदेवकेन लोकेन च अभिमुखेन हुत्वा ..., थेरगा. अनु., म. पु. ब. व. - मजुनाभिवदेथ मन्ति, जा. अट्ठ. 6. अट्ठ. 2.414; अभिवन्दितो सि थुतिवन्दनाय, वि. व. 971(रो.). 112; मञ्जुनाति मधुरस्सरेन मं अभिवदेथ, तदे.; - दी अभिवस्सक त्रि., संवर्षण या मूसलाधार वर्षा करने वाला, अद्य., म. वि. ए. व. - यं माणवोत्याभिवदी जनिन्द, जा. केवल स. उ. प. के रूप में पुप्फाभिवस्सक के अन्त. द्रष्ट.. अट्ठ. 7.223; ख. विषय में बोलता है, चर्चा करता है, अभिवस्सति अभि + Vवस्स का वर्त०, प्र. पु., ए. व. विशेष बल देता है, निश्चयपूर्वक या बलपूर्वक कहता है, [अभिवर्षति], जोरदार पानी पड़ता है, मूसलाधार पानी दावे के साथ कहता है, प्रतिपादित करता है, खुले आम बरसता है, प्रचुर मात्रा में बरसता है - पज्जुन्नोरिव भूतानि, कहता है, स्वीकार करता है, मानता है - न्ति वर्त, प्र. पु., भोगेहि अभिवस्सति, जा. अट्ठ. 7.193; - सि म. पु.. ए. व. ब. व. - केवलपरिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं अभिवदन्ति, म. - महामेघोव हुत्वान, सावके अभिवस्ससि, थेरगा. 1249; - नि. 1.277; ग. मंजूर करता है, अनुमोदन करता है, न्ति प्र. पु., ब. व. - विचित्तपुप्फा गगना, अभिवस्सन्ति स्वागत करता है - न्ति वर्त., प्र. पु., ब. व. - अज्झत्तिकबाहिरे तावदे, जा. अठ्ठ. 1.23; - स्सं/न्तो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., आयतने अभिनन्दन्ति अभिवदन्ति अज्झोसाय तिट्ठन्ति, मि. ए. व. - थलं निन्नञ्च पूरेति, अभिवस्सं वसुन्धरं अ. नि. प. 72; - तु अनु., प्र. पु., ए. व. - अभिनन्दतु, भन्ते, भगवा 2(1).30; महतिमहामेघो अभिवस्सन्तो न सक्कोति तेमयितुं, भिक्खुसङ्घ, अभिवदतु, भन्ते, भगवा भिक्खुसङ्घ. म. नि. मि. प. 191; - मानो उपरिवत् - यं महामेघो अभिवस्समानो 2.130; - तुं निमि. कृ. - यदनिच्चं तं नालं अभिनन्दितुं न तं तेमेति, मि. प. 191; - तु अनु., प्र. पु., ए. व. - एतेन नालं अभिवदितुं, म. नि. 3.47; - तब्बं सं. कृ., नपुं., प्र. सच्चवज्जेन, पज्जुन्नो अभिवस्सतु, चरिया. 402; - स्सेय्य वि., ए. व. - एत्थ चे नत्थि अभिनन्दितब्बं अभिवदितब्बं, म. विधि०, प्र. पु., ए. व. - महामेघो अपरापरं अनुप्पबन्धो नि. 1.156.
अभिवस्सेय्य, मि. प. 135; - थ अद्य., प्र. पु., ए. व., अभिवन्दति/अभिवन्देति अभि + Vवन्द का वर्त., प्र. पु., आत्मने. - पुप्फवुट्ठी च गगना अभिवस्सथ मेदनि, अप. ए. व. [अभिवन्दति], आदरपूर्वक नमस्कार करता है - 2.209. वन्दे/वन्दामि उ. पु., ए. व. - कोकनदाहमस्मि अभिवन्दे, अभिवस्सापेति अभि + Vवस्स का वर्त., प्र. पु., ए. व., प्रेर., स. नि. 1(1).34; अभिवन्देति भगवा तुम्हाकं पादे वन्दामि, जमकर पानी बरसाता है, मूसलाधार वर्षा कराता है, - स. नि. अट्ठ. 1.73; - दिसु अद्य., प्र. पु., ब. व. - सब्बे पेय्यु विधि., प्र. पु., ब. व. - बुद्धपुत्ता आचारसीलगुणवमें उपसङ्कम्म, पुनापि अभिवन्दिसु. जा. अट्ठ. 1.35; - तपटिपत्तिमेघवस्सं अपरापरं अनुप्पबन्धापेय्युं अभिवस्सापेय्यु त्वा/न्दिय पू. का. कृ. - अभिवन्दिय, अभिवन्दित्वा, क. मि. प. 135. व्या. 599; सेट्ठ तिलोकमहितं अभिवन्दियग्गं, क. व्या. (पृ.) । अभिवस्सी त्रि., [अभिवर्षिन्], जलाभिवर्षी, जल बरसाने 1; - न्दनीयो सं. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - राजा नाम वाला - सब्बत्थ अभिवस्सीति, वुच्चरे चक्कवत्तिनो, अप. 1.242 उपगतसम्पत्तजनानं बहूनमभिवन्दनीयो भवति, मि. प. 213; अभिवस्सेति अभि + Vवस्स का वर्त, प्र. पु., ए. व., प्रेर. भगवापि, महाराज, उपगतसम्पत्तदेवमनुस्सान [अभिवर्षयति], पानी बरसाता है, मूसलाधार या व्यापक बहूनमभिवन्दनीयो, मि. प. 213.
वृष्टि कराता है - यित्वा पू. का. कृ. - योगिना योगावचरेन अभिवन्दन नपुं. [अभिवन्दन], आदरपूर्वक नमन, सम्मानपूर्वक । ..... धम्ममेघमभिवस्सयित्वा अधिगमकामानं मानसं परिपूरयितब्ब नमन, पूजन, वन्दना - नमस्सा तु नमक्कारो वन्दना मि. प. 383. चाभिवादनं, अभि. प. 426; पाठा. अभिवन्दनं.
अभिवादन नपुं.. [अभिवादन], सम्मान-भाव के साथ नमन, अभिवन्दना स्त्री०, उपरिवत्, प्र. वि., ए. व. - वन्दति पूज्यजनों या गुरुजनों के समक्ष आदरसहित नमन - नं
अभिवन्दति अभिवन्दना वन्दनं वन्दको, सद्द. 2.381. वि. वि., ए. व. - सिरसा मे तं भवं गोतमो अभिवादनं धारेतु, अभिवन्दित त्रि., अभि + Vवन्द का भू. क. कृ. [अभिवन्दित], दी. नि. 1.111; उत्तमङ्गेन अभिवादनं करोहि, उदा. अट्ठ. वह, जिसे आदरपूर्वक नमन किया गया है, सम्मानपूर्वक 99; - पच्चुट्ठान नपुं, द्व. स. [अभिवादनप्रत्युत्थान], अभिवादित, नमस्कृत, स्तुत - तो पु०, प्र. वि., ए. व. - सम्मान के साथ नमन तथा आगे बढ़कर स्वागत करना -
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अभिवादापेति
503
अभिविधि
... अभिवादनपच्चद्वानअञ्जलिकम्मसामीचिकम्मानि च करिस्साम, जा. अट्ट. 1.215; ... अभिवादनपच्चुट्टानादीनि सब्बकिच्चानि अकंसु. जा. अट्ठ 1.90; - सम्पटिच्छन नपुं., अभिवादन तथा स्वीकरण - नेन तृ. वि., ए. व. - अभिवदन्तीति अभिवादनसम्पटिछनेन वडितवचनेन वदन्ति, दी. नि. अट्ठ. 2.267; - सीली त्रि., [अभिवादनशील], स्वभाव से ही विनम्र, स्वभाव से ही गुरुजनों के प्रति सम्मानभाव रखने वाला - लिस्स पु., ष. वि., ए. व. - अभिवादनसीलिस्स, निच्च वुढापचायिनो, ध. प. 109; अभिवादनसीलिस्साति वन्दनसीलिस्स.ध. प. अट्ठ. 1.379. अभिवादापेति अभि + Vवद का वर्तः, प्र. पु., ए. व., प्रेर. [अभिवादयति], अभिवादन कराता है, विनम्र बनाता है, अभिवादन करने हेतु प्रेरित करता है - पयेथ विधि., प्र. पु., ए. व. - कथं नो अभिवादेय्य, अभिवादापयेथ वे, जा. अट्ठ. 7.212; कथं वा तेन अत्तानं अभिवादापयेथ वे, तदे.; - पेतब्बो सं. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - सचे नवको होति,
अभिवादापेतब्बो, चूळव. 350. अभिवादित/अभिवदित त्रि., अभि + Vवद के प्रेर. का भू क. कृ. [अभिवादित], वह जिसका अभिवादन या सम्मानपूर्वक नमन किया गया है, नमस्कृत - तो पु., प्र. वि., ए. व. -
अभिवदितो सक्को देवानमिन्दो भगवतो इन्दसालगुहं पविसित्वा ...., दी. नि. 2.198; अभिवदितोति वडितवचनेन वुत्तो, दी. नि. अट्ठ. 2.267. अभिवादिय अभि + Vवद के प्रेर. का पू. का. कृ. [अभिवाद्य], आदरपूर्वक या ससम्मान प्रणाम करके - अभिवादिय भासिरसं..
अभिधम्मत्थसहं, अभि. ध. स. 1. अभिवादेति अभि + Vवद का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अभिवादयति], आगमन तथा प्रस्थान इन दोनों अवसरों पर आसन से उठकर ससम्मान नमस्कार करता है, अभिवादन करता है, वन्दना करता है - अभिवादेतब्बन अभिवादेति, म. नि. 3.253; - देसि म. पु.. ए. व. - व्यम्हितो नाभिवादेसि, नयिदं पञ्जवतामिवाति, जा. अट्ठ. 7.212; - देमि उ. पु., ए. व. - अभिवादेमि तं भन्ते, सम्बुलाहं नमत्थु ते, जा. अठ्ठ. 5.84; - देन्ति प्र. पु.. ब. व. - यथानग्गाव सावत्थिं गन्वा भिक्खू अभिवादेन्ति, पारा. 322; - देय्य/दये विधि., प्र. पु., ए. व. - न वज्झो अभिवादेय्य, वज्झं वा नाभिवादये, जा. अट्ठ. 7.212; - देय्यं उ. पु., ए. व. - भवन्तं गोतम अभिवादेय्यं, दी. नि. 1.111; - दयिं अद्य., प्र. पु., ए. व. - दसङ्गुली नमस्सित्वा, सिरसा अभिवादयिं, अप.
1.2; - तुं निमि. कृ. - वज्झो पन अभिवादेतुं .... जा. अट्ठ. 7.212; - देवा पू. का. कृ. - भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा पक्कामि, उदा. 125; - देतब् सं. कृ., नपुं., द्वि. वि. ए. व. - अभिवादेतबं न अभिवादेति, म. नि. 3.253 अभिवायति अभि + Vवा का वर्त.. प्र. पु., ए. व. [अभिवाति]. चारों ओर या आर-पार होकर हवा बहती है, फैल जाती है, व्याप्त होती है - वायु सपप्फितवनसण्डन्तरं अभिवायति. मि. प. 353. अभिवारेति अभि + Vवु का वर्त., प्र. पु., ए. व. [अभिवारयति], रोकता या रोक रखता है, निवारण करता है, दूर रखता या नियन्त्रित करता है - तं मन्ति तं मं... सोणपण्डितो तम्हा पुञा अभिवारेति, जा. अट्ठ. 5.318. अभिवाहेति अभि + Vवह का वर्त.. प्र. पु., ए. व., प्रेर. [अभिवाहयति], हटा देता है, दूर करा देता है, निकलवा देता है - यि अद्य., प्र. पु., ए. व. - तत्थ सब्बकिलेसानि, असेसमभिवाहयि, बु. वं. 11.5; अभिवाहयोति मग्गोधिना च ... सब्बे किलेसे अभिवाहथि, बु. वं. अट्ठ. 211. अभिविजिनाति अभि + वि + V जि का वर्त., प्र. पु., ए. व. [अभिविजयते], पूरी तरह से जीत लेता है, पूर्णरूप से विजय पाता है, पराभूत करता है - न्ति प्र. पु., ब. व. - सङ्गामे परसेनं अभिविजिनन्ति, मि. प. 38; - तु अनु०, प्र. पु., ए. व. - अभिविजिनातु भवं चक्करतनान्ति, दी. नि. 2. 129; - नितुं निमि. कृ. - सक्का च तावतकेनेव बलमत्तेन अभिविजिनितं. म. नि. 2.268; - नित्वा पू. का. कृ. - तं सङ्गामं अभिविजिनित्वा विजितसङ्गामो ततो पटिनिवत्तित्वा वेजयन्तं नाम पासादं मापेसि, म. नि. 1.321. अभिविञापेति अभि + वि + ञा का वर्त., प्र. पु., ए. व., प्रेर. [अभिविज्ञापयति, अच्छी तरह से विज्ञापित करता है, प्रकट या प्रकाशित करता है, व्यक्त करता है, प्रवर्तित करता है - सि अद्य, प्र. पु., ए. व. - पुराणदुतियिकाय तिक्खत्तुं मेथुनं धम्म अभिविज्ञापेसि, पारा. 19;
अभिविज्ञआपेसीति पवत्तेसि, पारा. अट्ठ. 1.164. अभिवितरति अभि + वि + Vतर का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अभिवितरति], विवेचन या अच्छी तरह से निश्चय करता है - न्ति प्र. पु., ब. व. - पुच्छित्वा अभिवितरन्ति, महाव. 175; - रित्वा पू. का. कृ. - सञ्चिच्चाति जानन्ती सञ्जानन्ती
चेच्च अभिवितरित्वा वीतिक्कमो, पाचि. 396. अभिविधि पु., व्याकरण का पारि शब्द [अभिविधि], पूर्ण रूप से अन्तर्भाव - मरियादाभिविधत्था यावयोगे... याव इति
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अभिविनय
504
अभिब्यापेति
निपातेन च योगे तं कारक ... होति, सद्द. 3.703; विलो. मरियादा. अभिविनय पु., क. विशिष्ट प्रकार का अथवा उच्च स्तर का विनय, भिक्षुओं का अत्यन्त उदात्त आत्मनियन्त्रण - यो प्र. वि., ए. व. - किलेसवूपसमं कारणं अभिविनयो, दी. नि. अट्ठ. 3.210; ख. वि. पि. के खन्धक एवं परिवार नामक संग्रह - अभिविनयोति खन्धकपरिवारा, दी. नि. अट्ट, 3.210; ग. अभिविनये रूप में प्राप्त होने पर, विनय के विषय में, केवल विशुद्ध विनय के सम्बन्ध में - अभिधम्मे अभिविनये उळारपामोज्जो, दी. नि. 3.213; पटिबलो विनेतुं अभिधम्मे अभिविनये ति आदीसु परिच्छिन्ने, अञमञ्जसङ्करविरहिते धम्मे च विनये चाति कुत्तं होति.ध. स. अट्ट, 21; पारा. अट्ठ 1.16. अभिविन्दति पु., अभि + विद का वर्त, प्र. पु., ए. व., पाता है, प्राप्त करता है, उपलब्ध करता है - विन्दे विधि., म. पु., ए. व. - अप्पेविध अभिविन्दे सुमेधं सु. नि. 464; अभिविन्दे लच्छसि अधिगच्छिस्ससि सु. नि. अट्ठ. 2.120. अभिविसिट्ठ त्रि., [अभिविशिष्ट], अतिविशिष्ट, सर्वोत्तम, परमश्रेष्ठ - द्वेन तृ. वि., ए. व. - सयमेव अभिविसिडेन जाणेन पच्चक्खं कत्वा, दी. नि. अट्ठ. 1.87; - हाय स्त्री., तृ. वि., ए. व. - ये इमञ्च लोकं परञ्च लोकं अभिविसिवाय पञाय सयं पच्चक्खं कत्वा .... म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).228. अभिविसज्जि/अभिविस्सजि/अभिविसज्जेसि अभि + वि + सज के प्रेर. का अद्य, प्र. पु., ए. व., पूर्णरूप से त्याग दिया, पूर्ण रूप से हटवा दिया - पुरिमतरभवे ठितो अभिविस्सजि, दी. नि. 3.119; अभिविस्सजीति अभिविस्सज्जेसि. दी. नि. अट्ठ. 3.105. अभिविस्सत्थ त्रि., अभि + वि + ।सस का भू. क. कृ. [अभिविश्वस्त], अत्यधिक विश्वस्त, आत्मविश्वासपूर्ण, निश्चयी, अतीव विश्वस्त - त्थो पु.. प्र. वि., ए. व. - यस्स मे कस्सपो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो एवं अभिविस्सत्थो ति, म. नि. 2.253; अभिविस्सत्थोति अतिविस्सत्थो, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.203. अभिविहच्च अभि + वि+ हन का पू. का. कृ. [अभिविहत्य], चारों ओर विखेर कर, तितर वितर कर, छिन्न-भिन्न कर, विनष्ट कर, हटा कर, दूर कर - आदिच्चो नभं अभुस्सकमानो सब् आकासगतं तमगतं अभिविहच्च भासते च तपते च विरोचते, म. नि. 1.398; अभिविहच्चाति अभिहन्त्वा, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).272.
अभिविहत अभि + वि + vहन का भू. क. कृ. [अभिविहत]. बुरी तरह से मारा हुआ, अभिभूत, पराजित, आहत, परास्त - तानं पु., ष. पु., ब. व. - भोगपारिजुजेन वा ब्याधिपारिजुञ्जेन वा अभिहतानं .... खु. पा. अट्ठ. 113; पाठा. अभिहतानं. अभिवुड्ड अभि + Vवड्ढ का भू. क. कृ. [अभिवृद्ध]. पूर्णरूप से पाला पोसा हुआ, सुख में स्थित, बढ़ाया हुआ - ड्डा पु., प्र. वि., ब. व., - सुखेधिता ति पाठो, सुखेन अभिवुड्डा फीताति अत्थो, पे. व. अट्ठ. 131. अभिवुद्धि स्त्री., [अभिवृद्धि]. अत्यधिक वृद्धि, अभ्युदय, सफलता, विकास, सम्पन्नता - द्धिं द्वि. वि., ए. व. - अभिवुद्धि अथो... सयं, चू, वं. 81.64; - या च. वि., ए. व. - कतं वि जनस्साससासनस्सभिवुद्धिया, सद्द, 1.265; - कामा स्त्री., ब. स., प्र. वि., ए. व., किसी के विकास या संवर्धन की कामना करने वाली - दहरस्स अभिवृद्धिकामा होति, ध. स. अट्ठ. 240. अमिवेदेति क. अभि + विद का वर्त, प्र. पु.. ए. व. [अभिवेत्ति], किसी के बारे में ज्ञान रखता है, ध्यान रखता है या जानता है - न्ति प्र. पु., ब. व. - तं मं मतं वा जीवं वा, नाभिवेदेन्ति जातका, जा. अट्ट, 7.18; नाभिवेदेन्तीति न जानन्ति, कथेन्तोपि नेसं नत्थि, तदे. ख. प्रेर.. [अभिवेदयति]. के बारे में सूचित करता है, दिखाता है, प्रकट करता है - यित्थ अद्य.. प्र. पु., ए. व., आत्मने. - अभिवेदयित्थ मग्गं. दा. वं. 5.2. अभिव्यञ्जक त्रि., [अभिव्यञ्जक], प्रकट करने वाला, प्रकाशन करने वाला, सुस्पष्ट कर देने वाला - को पु.. प्र. वि., ए. व.- अनेकरसव्यञ्जनोति अनेकेहि सूपेहि... सम्मिन्नरसानञ्च
अभिव्यञ्जको, उदा. अट्ठ. 160. अभिव्यञ्जति अभि + वि + अञ्ज का वर्त, प्र. पु.. ए. व., प्रेर. [अभिव्यञ्जयति], प्रकट या सुव्यक्त करता है, सुस्पष्ट कर देता है - अञ्जति तत्थ ठितं अतिसुन्दरताय अभिव्यञ्जतीति हि अङ्गणं, सद्द. 2.333; - व्यत्त भू. क. कृ. [अभिव्यक्त], प्रकट किया हुआ, प्रकाशित, उद्घोषित - ताय स्त्री., भाव., तृ. वि., ए. व. - इमेहि पन पदेहि कालातिक्कमेयेव अभिब्यत्तताय ... पकतिया दीपिता, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).224. अभिब्यापेति अभि + वि + आप का वर्त, प्र. पु., ए. व., प्रेर. [अभिव्यापयति, चारों ओर भर देता है, फैलाता है, विस्तृत कराता है - त समन्ता विधूपेति अभिब्यापेति, मि. प.
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अभिव्याहट
505
अभिसङ्खार
236; - न्ति प्र. पु., ब. व. - ते सदेवकं लोकं सीलवरगन्धेन अभिब्यापेन्ति, मि. प. 235; - त्वा पू. का. कृ. - ब्याममत्तप्पदेसं अभिब्यापेत्वा चन्दिमसूरियालोक...
अन्धकारं विधमित्वा तिट्ठति, उदा. अट्ठ. 289. अमिव्याहट त्रि., अभि + वि + आ + Vहर का भू. क. कृ. [अभिव्याहत], कहा हुआ, सम्बोधित, उच्चारित - रञम्मतो
मिट्टो रुञम्बुद्धो, रुजं पूजितो... आकुडो, रुट्टो, रुसितो, अभिव्याहटो दयितो ... अमतो. मो. व्या. 5.60. अभिसंविसति अभि + सं+ विस का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अभिसंविशति], सहवास करता है, मन में ले आता है, मन में धारणा बनाता है - सेय्यं विधि., उ. पु., ए. व. - ..... सवनगन्धं भयानकं कुणपं, अभिसंविसेय्यं भस्तं, थेरीगा. 468; कुणपं अभिसविसेय्यं भस्तन्ति कुणपभरितं चम्पपसिब्बक ... असकिं सब्बकालं... मम इदन्ति अभिनिवेसेय्यं, थेरीगा. अट्ठ. 308. अभिसंसति अभि +/सस का वर्त.. प्र. पु. ए. व. [अभिशंसति]. काट देता है, मार डालता है, पीड़ित करता है - ससि अद्य., प्र. पु.. ए. व. - कच्चि नु ते नाभिससि, जा. अट्ठ. 7.31; कच्चि न ते नाभिससीति कच्चि न त कोचि न अभिससि अक्कोसेन वा ... विहिंसीति पुच्छति, जा. अट्ठ. 7.31-32; - ससिं उ. पु., ए. व. - स्वाहं सके अभिस्ससिं. जा. अट्ठ.7.260; स्वाहं सके अभिस्ससिन्ति सो अहं अत्तनो नगरवासिनोयेव ... पीलसिं, जा. अट्ठ. 7.261. अभिसंहरिं अभि + सं + Vहर का अद्य.. उ. पु.. ए. व.. सौंपा, वितरण किया, प्रस्तुत किया- उच्छङ्गे पाटलिपुप्फ कत्वान अभिसंहरि, अप. 1.122. अभिसङ्खत/अभिसङ्खट अभि + सं+ कर का भू. क. कृ. [अभिसंस्कृत, व्यवस्थित किया गया, तैयार किया गया, धार्मिक अनुष्ठान की पूर्णता से युक्त, सोच समझकर प्रकाशित किया हुआ, हेतु-प्रत्ययों द्वारा उत्पादित, सञ्चित या पुञ्जित, चेतना द्वारा चित्त का आलम्बन बनाया गया - तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. -- यं खो पन किञ्चि अभिसङ्कतं अभिसञ्चेतयितं. म. नि. 2.13; अभिसङ्कतन्ति पच्चयहि अभिसमागन्वा कतं. स. नि. अट्ठ. 3.46; - तो पु., प्र. वि., ए. व. - ञा पहो अभिसङ्घतो ति सन्निट्ठानं कत्वा .... जा. अट्ठ. 6.180; - ते पु..द्वि. वि. ब. व. - खत्तियपण्डितादीहि अभिसङ्घते सुखुमपन्हे भिन्दित्वा .... जा. अट्ठ. 7.146; - ता नपुं. ब. व. - पकप्पितानीति कप्पिता पकप्पिता अभिसङ्घता सण्ठपितातिपि पकप्पिता, महानि. 136; - ताभिधान नपुं.. कृत्रिम पद,
कृत्रिम अभिव्यक्ति, कृत्रिम अभिधान - नानि प्र. वि., ब. व. - अभिसङ्घताभिधानानि अनभिसङ्घताभिधानानीति द्वेधा दिरसनतो ...., सद्द. 1.75; स. उ. प. के रूप में सप्पिमधुफाणिता.,
सप्पिमधुसक्करा. के अन्त. द्रष्ट.. अभिसङ्खरण नपुं.. अभि + सं + कर से व्यु., क्रि. ना. [अभिसंस्करण], सुव्यवस्थित करना, तैयार करना, अभिसंस्करण - सङ्घारो सङ्घते पञआभिसङ्घारादिके पिच पयोगे कायसङ्घाराद्यभिसरणेसु च, अभि. प. 832. अभिसङ्घरोति अभि + सं + ।कर का वर्त.. प्र. पु., ए. व. [अभिसंस्करोति, अभिसंस्कृत करता है, आलम्बनों के ग्रहण के क्रम में चित्त की प्रतिक्रिया के रूप में कर्म की तात्त्विक ऊर्जा तैयार करता है, व्यवस्थित करता है, ऊर्जा तैयार कर देता है -- न्ति प्र. पु., ब. व. - ते पञ्हं अभिसङ्करोन्ति, म. नि. 1.237; पहं अभिसङ्घरोन्तीति दुपदम्पि तिपदम्पि चतुप्पदम्पि पन्हं करोन्ति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).99; -- न्ता वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ब. व. - ततो पट्ठाय मनुस्सा नगरं अभिसङ्घरोन्ता सक्कच्चं उपट्ठातुं ओकासं न लभिंसु. ध. प. अट्ट, 2.279; - रेय्यं विधि., उ. पु., ए. व. -- अहञ्चेव खो पन चेतेय्यं, अभिसङ्घरेय्य, दी. नि. 1.164; यंनूनाहं न चेव चेतेय्यं न च अभिसङ्घरेय्यान्ति, दी. नि. 1.164; - वासि अद्य., प्र. पु., ए. व. - अथ खो भगवा तथारूप इद्धाभिसङ्घारं अभिसङ्घासि, दी. नि. 1.92; -ङ्खासिं उ. पु., ए. व. - तथारूपं इद्धाभिसङ्घारं अभिसङ्घासिं एत्तावता ब्रह्मा च ... सद्दञ्च मे सोस्सन्ति, म. नि. 1.413; - सरितु/ड्वातु निमि. कृ. - अनुजानामि, ... पज्ज अभिसङ्करितुन्ति, महाव. 281; पज्ज अभिसङ्घरितुन्ति येन फालितपादा ... पक्खिपित्वा पज्जं अभिसङ्घरितु, महाव. अट्ठ. 353; तंसमुट्ठाना पन वितक्कविचारा वाचं अभिसवातुं न सक्कोन्तीति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).261; - सच्च/करित्वा पू. का. कृ. - अभिसङ्घच्च भोजनं स. नि. 1(1).119; अभिसङ्घच्चाति अभिसङ्करित्वा समोधानेत्वा रासिं कत्वा, स. नि. अट्ठ. 1.146; अभिसरित्वा कुहको, भेखं सो अकित्तयि, सु. नि. 990; अभिसङ्घरित्वाति गोमयवनपुप्फकुसतिणादीनि आदाय सीघं सीघं... कुहनं कत्वाति वुत्तं होति, सु. नि. अट्ठ. 2.272. अभिसङ्खार पु., [बौ. सं. अभिसंस्कार], शा. अ. तैयारी, प्रभावपूर्ण अथवा फलदायक बनाना - रो प्र. वि., ए. व. - बीजानं अभिसवारो, एतस्सत्थस्स साधको, अभि. अव. 6103; ला. अ. क. कर्म एवं कर्म-विपाक के उत्प्रेरक या जनक
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अभिसारिक
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अभिसज्जति तत्त्व के रूप में चित्तवृत्तियों (चेतना) सहित चित्त की। नानासम्भारेहि अभिसङ्करित्वा कतं सुसज्जितं, पारा. अट्ठ. क्रियाशीलता - स्स ष. वि., ए. व. - तं पवत्तितं समानं । 2.150; - खादनीय नपुं, ठीक से तैयार किया गया खाद्य यावतिका अभिसङ्कारस्स गति तावतिक गन्त्वा ..., अ. नि. पदार्थ - नीयानि प्र. वि., ब. व. - सङ्घतियोति 1(1).134; अभिसवारस्स गतीति पयोगस्स गमनं, अ. नि. अभिसवारिकखादनीयानि, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.117. अट्ठ. 2.82; ला. अ. ख. चेतना के स्तर पर, कर्म का अभिसवित्त त्रि., अभि + सं + खिप का भू. क. कृ. संचय - रा प्र. वि., ब. व. - ते अभिसवारा अप्पहीना, [अभिसंक्षिप्त], संग्रह किया हुआ, एकत्रीकृत - तं नपुं, प्र. महानि. 58; ते अभिसङ्घारा अप्पहीनाति ये वि., ए. व. - ममापिदं पहूतं सापतेय्यं धम्भिकेन बलिना पुजापुञआनेजाभिसङ्घारा, ते अप्पहीना, महानि. अट्ट अभिसङ्घतं, दी. नि. 1.126. 166; - रे द्वि. वि., ब. व. - सब्बे किलेसे, सब्बे दुच्चरिते, अभिसजिपित्वा अभि + सं + खिप का पू. का. कृ. सब्बे अभिसङ्खारे... अभिभुय्यतीति भूरिपा , पटि. म. 369; अभिसंक्षिप्य], अत्यधिक संक्षिप्त बना कर, राशि के रूप में ला. अ. ग. चित्त की विशुद्धि की तैयारी - रो प्र. वि., ए. एक साथ रखकर - तदेकज्झं अभिसहित्वा अभिसजिपित्वा व. - तयो खो, आवुसो, पच्चया अनिमित्ताय च धातुया अयं वुच्चति रूपक्खन्धो, विभ. 2. मनसिकारो, पुब्बे च अभिसङ्घारो, म. नि. 1.377; ... पुब्बे च अभिसङ्ग/अभिस्सङ्ग पु.. [अभिष्वङ्ग, अभिषङ्ग / अभिसङ्ग]. अभिसङ्कारोति अद्धानपरिच्छेदो वुत्तो. म. नि. अट्ठ. (मू.प.) क. आसक्ति या चिपकाव, मजबूत लगाव, झुकाव, रुचि - 1(2).247; ला. अ. घ. दृढ़ संकल्प या तैयारी, केवल स. अभिलासे तु किरणे अभिस्सङ्गे रुचित्थियं, अभि. प. 873; मा उ. प. के रूप में अकुसला., अन., अपुञा., आणजा., रोचय मभिसङ्गं जा. अट्ट, 5.6; मा रोचयाति एवं तण्हाभिसङ्ग आनेजा., इद्धा., कम्मा., खन्धकिलेसा., गमिका., पब्बज्जा., मा रोचय, जा. अट्ठ. 5.7; ख. अभिशाप, आक्रोश, दुर्वचन, पुञा. के अन्त. द्रष्ट.; - भार पु., अभिसंस्कार का भार - मिथ्या दोषारोपण, लाञ्छन - अक्कोसनमभिसङ्गो, अभि. प. रो प्र. वि., ए. व. - यतो खन्धभारो च किलेसभारो च 759; स. उ. प. के रूप में तण्हा., सुखा. के अन्त. द्रष्ट; अभिसवारभारो च पहीना होन्ति, महानि. 246; - लक्खण - रस त्रि., सुदृढ़ लगाव या आसक्ति का कार्य करने वाला त्रि., ब. व., अभिसंस्कार के लक्षण या विशिष्ट चिह्न वाला - तेसु लोभो... अभिसङ्गरसो तत्तकपाले खित्तमंसपेसि विय, - क्खणं नपुं., प्र. वि., ए. व. - यं किञ्चि चित्तसम्भूतं, ध. स. अट्ठ. 289; - हेतुक त्रि., दृढ़ आसक्ति के कारण अभिसङ्घारलक्खणं, अभि. अव. 1200 (पृ.)149; - विज्ञाण उत्पन्न या उसी पर आश्रित - कस्स नपुं.. ष. वि., ए. व. नपुं.. नये जन्म के निर्माण में हेतुभूत चित्त या चेतना - स्स - तेसं विनासेन अभिसङ्गहेतुकरस दुक्खस्स अभावा.....ध. ष. वि., ए. व. - सोतापत्तिमग्गजाणेन अभिसङ्कारविआणस्स स. अट्ठ. 174. निरोधेन सत्त भवे ठपेत्वा, ध. स. अट्ठ. 277; - अभिसङ्गी पु., प्र. वि., ए. व., क. चिपकाव रखने वाला, सहगतविज्ञाण नपुं., कुशल अथवा अकुशल चेतना से आसक्ति से परिपूर्ण, ख. आघात या आक्रमण करने वाला सहगत चित्त - णस्स ष. वि., ए. व. - अनोकोति -भिक्खु कोधनो होति कोधहेतु अभिसङ्गी, म. नि. 1.133. अभिसङ्घारसहगतविज्ञाणस्स ओकासंन करोतीतिपि अनोको, अभिसज्जति अभि + Vसज का वर्त, प्र. पु., ए. व., कर्म महानि. 368; अभिसङ्घारसहगतविज्ञआणस्साति वा. [बौ. सं. अभिसज्यते]. शा. अ. किसी के साथ बुरी कुसलाकुसलचेतनासम्पयुत्तचित्तस्स ओकासं न करोतीति तरह चिपक जाता है या अटक जाता है, ला. अ. क्रोध या अवकास पतिद्वं न करोति, महानि. अट्ठ. 373; - रूपधि पु., द्वेष को प्रकट करता है - अप्पम्पि वुत्ता समाना अभिसज्जति प्र. वि., ए. व. भव या अस्तित्व की निर्धारक चेतना - कुप्पति ब्यापज्जति पतित्थीयति, अ. नि. 1(2).233; - उपधीति चत्तारो उपधयो- कामूपधि, खन्धूपधि किलेसूपछि ज्जेय्य/ज्जेथ/जे विधि., प्र. पु., ए. व. - नाभिसपित्थाति L. अभिसङ्घारूपधीति, सु. नि. अट्ट. 1.36.
... कोचि तं न अक्कोसि न परिभासीति पृच्छति अभिसङ्खारिक त्रि., विशेष रूप से या उपयुक्त ढंग से तैयार "नाभिसज्जेथा तिपि पाठो, न कोपेसीति अत्थो, जा. अट्ठ. 5. किया हुआ, उचित ढंग से बनाया हुआ - कं नपुं.. द्वि. वि., 168; गामे च नाभिसज्जेय्य, लाभकम्या जनं न लपयेय्य, ए. व. - मनुस्सा इच्छन्ति थेरानं भिक्खूनं अभिसवारिक सु. नि. 935; गामे च नाभिसज्जेय्याति गामे च ... पिण्डपात ... तेलम्पि उत्तरिभङ्गम्पि, पारा. 252; अभिसङ्कारिकन्ति । गिहिसंसग्गादीहि नाभिसज्जेय्य, सु. नि. अट्ठ. 2.256; ...
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अभिसज्जना
अभिसद्दहति याय नाभिसजे कञ्चि, ध. प. 408; नाभिसजेति याय गिराय दी. नि. 1.161; - धे सप्त. वि., ए. व. - अझं कुज्झापनवसेन न लग्गापेय्य, सु. नि. अट्ठ. 2.172; अभिसञआनिरोधेति एत्थ अभीति उपसग्गमत्तं, दी. नि. अट्ठ - सज्जि अद्य, प्र. पु., ए. व. - अप्पम्पि वुत्तो समानो 1.274. अभिसज्जि कुप्पि ब्यापज्जि पतिद्वयि, जा. अट्ठ, 4.20-21; अभिसञ्जूहित्वा अभि + सं + vऊह का पू. का. कृ., एक -सज्जिं उ. पु., ए. व. - अप्पम्पि वुत्ता समाना अभिसन्जिं साथ जुटकर या जोड़कर - तदेकज्झं अभिसहित्वा ... अप्पच्चयञ्च पात्वाकासिं, अ. नि. 1(2).235; - तुं निमि. अभिसविपित्वा ..., विभ. 2. कृ. - नारहतायस्मा अम्बट्टो इमाय अप्पमत्ताय अभिसट त्रि., अभि + vसर का भू. क. कृ. [अभिसृत], क. अभिसज्जितान्ति, दी. नि. 1.80; अभिसज्जितन्ति कोधवसेन कर्म वा. -- बार बार देखा हआ, वह, जिसके समीप लग्गितुं, दी. नि. अट्ट, 1.208.
पुनःपुनः जाया जाए, सरलता से पहुंचने या सम्पर्क करने अभिसज्जना स्त्री॰, प्र. वि., ए. व., सटाव, चुभन, लगाव, योग्य - टा स्त्री॰, प्र. वि., ए. व. - अभिसटा अस्थिकानं आसक्ति - वाचाभिलापो अभिसज्जना वा, सु. नि. 49; अस्थिकानं मनस्सानं पटिसतेन च रत्तिं गच्छति, महाव. तस्मिं सिनेहवसेन अभिसज्जना च जाता ... सहममस्स 357; ख. कर्तृ. वा. - एक साथ आ जुटा, एकत्रित - टो वाचाभिलापो अभिसज्जना वा, सु. नि. अट्ठ. 1.78. पु., प्र. वि., ए. व. - कत्थेसो अभिसटो जनोति, जा. अट्ठ. अभिसज्जनी स्त्री., कठोर, कर्कश, कटु, चुभने वाली - 6.69; कत्थेसोति किमत्थं एस महाजनो अभिसटो सन्निपतितो, अपसन्नकारिणी पराभिसज्जनीति कुटिलकण्टकसाखा विय। तदे.. चम्मेसु विज्झित्वा परेसं अभिसज्जनी, ध, स. अट्ठ 417; स. अभिसत्त त्रि., अभि + Vसप का भू. क. कृ. [अभिशप्त], उ. प. के रूप में पराभिसज्जनी - या सा वाचा अण्डका अभिशाप पाया हुआ, आक्रुष्ट, विनिन्दित - त्तो पु., प्र. वि., कक्कसा परकटुका पराभिसज्जनी कोधसामन्ता ए. व. - पच्छा इसिना अभिसत्तो परिहीनसभावो..... जा. असमाधिसंवत्तनिका, म. नि. 1.360.
अट्ठ. 3.406; - रूप त्रि., ब. स. [अभिशप्तरूप], शापित, अभिसञ्चेय्यं अभि + सं + चि का विधि., उ. पु., ए. व., भयङ्कर आकार वाला - पो पु.. प्र. वि., ए. व. - पूर्ण रूप से सञ्चित कर लूं - तं चाहं अभिसञ्चेय्यं, वि. लुद्दानमावासमिदं पुराणं, भूमिप्पदे सो अभिसत्तरूपो, वि. व. व. 531(रो.).
1232; अभिसत्तरूपोति “एवं लूखो घोराकारो होतूति पोराणेहि अभिसञ्चेतयति अभि + संचित का वर्त., प्र. पु., ए. व. इसीहि सपितसदिसो, दिन्नसपो वियाति अत्थो, वि. व. अट्ठ. [अभिसञ्चेतयति], पूर्णरूप से चेतना द्वारा ग्रहण करता है, 285. चेतना द्वारा अच्छी तरह से ग्रहण करता है, आलम्बन के अभिसत्तिक त्रि., ब. स. अभिषक्ति], अत्यधिक आसक्ति प्रति चैतन्य हो जाता है - सो नेव तं अभिसङ्घरोति न या लगाव रखने वाला, केवल स. उ. प. के रूप में प्राप्त
अभिसञ्चेतयति भवाय विभवाय वा, म. नि. 3.293; - देवकञा. के अन्त. द्रष्ट.. तयित त्रि., भू. क. कृ., प्रकल्पित, सोचा हुआ, चेतना द्वारा अभिसत्थ/अभिसत्त त्रि., अभि + संस का भू. क. कृ. गृहीत, विचारित - तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - इदं पि पठमं अभिशप्त/अभिशिष्ट], आज्ञप्त, अनुशासित, प्रशस्त - झानं अभिसङ्घतं अभिसञ्चेतयितं. म. नि. 2.13; - तयिता तो पु., प्र. वि., ए. व. - अभिसत्तोव निपतति, थेरगा. 1183; उपरिवत् स्त्री, प्र. वि., ए. व. - अयं पि खो मेत्ता तत्थ अभिसत्तोवाति त्वं सीघं गच्छ मा तिट्ठा ति देवेहि
चेतोविमुत्ति अभिसङ्घता अभिसञ्चेतयिता, म. नि. 2.14. अनुसिठ्ठो आणत्तो विय, थेरगा. अट्ठ 1.255. अभिसञ्छन्न त्रि., अभि + सम् + Vछद् का भू. क. कृ.. अभिसद्दहति वर्त., प्र. पु., ए. व. [अभिश्रद्दहति], श्रद्धा [अभिसंछन्न, चारों ओर से ढका हुआ, चारों ओर से रखता है, भरोसा रखता है, दृढ़ विश्वास रखता है - एवं आच्छन्न; केवल स. उ. प. के रूप में हेमजाला., नानालता. पजानित्वा पजानित्वा एवं अभिसद्दहति, स. नि. 3(2).301; - के अन्त. द्रष्ट..
न्ति प्र. पु.. ब. व. - तदप्पपञ्जा अभिसद्दहन्ति, पस्सन्ति तं अभिसजानिरोध पु., चित्त का क्षणिक या स्थायी निरोध, पण्डिता अत्तनाव, जा. अट्ठ. 7.53; - हं/हन्तो वर्त. कृ., चित्त का विराम या विरमन, चित्त का निरोध - निरोधो प्र. पु., प्र. वि., ए. व. - अभिसद्दहं कम्मफलं उळारं म. नि. वि., ए. व. - कथं नु खो, भो, अभिसानिरोधो होती ति, 3.307; तस्सप्पपओ अभिसद्दहन्तो, म. नि. 2.270; -- न्ता
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अभिसन्तापेति
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अभिसपति
प्र. वि., ब. व. - कम्मफलं अभिसद्दहन्ता चित्तीकारं अविजहन्ता, पे. व. अट्ठ. 23; - हेय्यं विधि., उ. पु., ए. व. - सब्बम्पि ताहं अभिसद्दहेय्यं पे. व. 529; सब्बम्पि ताह अभिसद्दहेय्यन्ति सबम्पि... अझं वा अभिसद्दहेय्यं पे. व. अट्ठ. 194; - हेय्यु प्र. पु., ब. व. - ये चापि तेसं
अभिसद्दहेय्यु, जा. अट्ठ. 7.56. अभिसन्तापेति अभि + सं + Vतप का वर्त, प्र. पु., ए. व., प्रेर. [अभिसन्तापयति], पूर्ण सन्ताप देता है, यातना देता है, उत्पीड़ित करता है, कष्ट पहुचाता या सताता है - मि उ. पु., ए. व. -- चेतसा चित्तं अभिनिग्गण्हामि, अभिनिप्पेळेमि अभिसन्तापेमि. म. नि. 1.311; - यतो वर्त. कृ., पु., ष. वि०, ए. व. - चेतसा चित्तं अभिनिग्गण्हतो अभिनिप्पीळयतो अभिसन्तापयतो .... म. नि. 1.171; - सेय्य विधि., प्र. पु., ए. व. - सीसे वा गले वा ... गहेत्वा अभिनिग्गण्हेय्य अभिनिप्पीळेय्य अभिसन्तापेय्य, म. नि. 1.171; - य्यं उ. पु.. ए. व. - चेतसा चित्तं अभिनिग्गण्हेय्यं अभिनिप्पीळेय्यं अभिसन्तापेय्यान्ति, म. नि. 1.311; अभिसन्तापेय्यन्ति तापेत्वा वीरियनिम्मथनं करेय्यं म. नि. अट्ट. (मू.प.) 1(2).185; - तब्बं सं. कृ.. नपुं., प्र. वि., ए. व. - चेतसा चित्तं अभिनिग्गण्हितब अभिनिप्पीळेतब्बं अभिसन्तापेतब्ब, म. नि. 1.172. अभिसन्द पु., [अभिस्यन्द], क. बाढ़ जलौघ, जलप्लावन, निःस्राव, बहिर्गमन, केवल स. उ. प. के रूप में प्राप्त कम्मा., कुसल., पुजा. के अन्त. द्रष्ट; ख. स. नि. के तीन सुत्तों का शीर्षक, स. नि. 3(2).454-455. अभिसन्दति अभि + /सन्द का वर्त., प्र. पु., ए. व. [अभिस्यन्दते], रिसता है, बाहर की ओर बहता है, जल का स्राव होता है - आपो ति संखं गतं सलिलं सुचिं सुगन्धं हुत्वा तथा अभिसन्दतीति, सद्द. 1.108; - न्ति प्र. पु., ब. व. - बहका नागवित्तोदा, अभिसन्दन्ति वारिना, जा. अट्ठ. 5.6; - न्तो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - थलं निन्नञ्च, पूरेति अभिसन्दन्तोव वारिना, इतिवु. 49. अभिसन्दन नपुं, अभि + /सन्द से व्यु., क्रि. ना. [अभिष्यन्दन], जल से सराबोर कर देना, जलप्रवाहन, परिपूरण जल का संवर्षण - सुखस्स अभिसन्दनट्ठो अभिनेय्यो, पटि. म. 16. अभिसन्दहति अभि + सं + vधा का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अभिसंदधाति], शा. अ. किसी को अपना लक्ष्य बनाता है या अभिसन्धान करता है, किसी को अपने दृष्टिपथ पर रखता है, ला. अ. पुनः एक साथ जोड़ देता है या सङ्गति
बैठा देता है - चेतयतीति चेतना सद्धिं अत्तना सम्पयुत्तधम्मे आरम्मणे अभिसन्दहतीति अत्थो, ध. स. अट्ठ. 157; - त्वा पू. का. कृ. - एसा निसिन्ना अभिसन्दहित्वा, थेरगा. 151; - न्धाय उपरिवत, अपना लक्ष्य बनाकर ध्यान में रखकर - तत्थ किमत्थमभिसन्धायाति किं नु खो कारणं पटिच्च किं
सम्पस्समानो, जा. अट्ठ. 2.317. अभिसन्देति अभि + /सन्द का वर्त, प्र. पु., ए. व., प्रेर. [अभिस्यन्दयति], तर-बतर कर देता है, सराबोर कर देता है, संतृप्त करता है, पूरी तरह भिंगो देता है, भर देता है - कायं विवेकजेन पीतिसुखेन अभिसन्देति परिसन्देति, म. नि. 1.348; अभिसन्देतीति तेमेति स्नेहेति, सब्बत्थ पवत्तपीतिसुखं करोति, दी. नि. अट्ठ. 1.176; - न्दयमानं वर्त. कृ., नपुं.. प्र. वि., ए. व. - सकलसरीरं खोमेन्तं महन्तं फरमानं अभिसन्दयमानं, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).287; - देय्य विधि., प्र. पु., ए. व. - सीतेन वारिना अभिसन्देय्य परिसन्देय्य परिपूरेय्य परिप्फरेय्य, म. नि. 1.349. अभिसन्धान नपुं.. [अभिसन्धान], सोद्देश्य उदघोषणा, प्रतिज्ञा, उद्देश्य, प्रयोजन - अभिधेय्यधनकारणपयोजननिवत्याभिस न्धानादिवचनो पन पुल्लिङ्गो, सद्द. 1.255. अभिसन्धि पु., [अभिसन्धि]. लक्ष्य, प्रयोजन, उद्देश्य अध्याशय, अभिप्राय, आशय - अज्झासयो अधिप्पायो आसयो चाभिसन्धि च, अभि. प. 766; - ना त. वि., ए. व. - इमिना च अभिसन्धिना वरबुद्धासने निसिन्नं दिस्वा... इसिनिसभं भगवन्तं .... सु. नि. अट्ठ. 2.190. अभिसन्न/अभिस्सन्न त्रि., अभि + /सन्द का भू. क. कृ., (प्रीति) से संप्लावित, तर-बतर, संतृप्त, आनन्द या दुःख से अत्यधिक अभिभूत - न्नो पु., प्र. पु., ए. व. - पीतिया च अभिस्सन्नो, जा. अट्ठ. 1.22; बु. वं. 2.78; पीतिया च अभिस्सन्नोति पीतिपरिप्फुटो, बु. वं. अट्ठ. 114; - न्नानि नपुं., प्र. वि., ब. व. - तानि याव चग्गा याव च मूला सीतेन वारिना अभिसन्नानि परिसन्नानि .... म. नि. 1.349; - काय त्रि., ब. स., वह, जिसका शरीर हानिकारक द्रवों या तरलों से भरा है - यो पु., प्र. पु., ए. व. - अञ्जतरो भिक्खु अभिसन्नकायो होति, महाव. 282; अभिसन्नकायोति उस्सन्नदोसकायो, महाव. अट्ठ. 353. अभिसपति अभि + सप का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अभिशपति], सरापता है, शाप देता है, कोसता है, दोष लगाता है या दोषारोपण करता है, अभियोग लगाता है - उपसम्पन्नाय वेमतिका निरयेन वा ब्रह्मचरियेन वा अभिसपति, पाचि. 379;
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509
अभिसपथ
1
पाम अनु., उ. पु. ब. व. हन्द, नं अभिसपामा 'ति, म. नि. 2.369; न्तो वर्त. कृ., पु०, प्र. वि., ए. व. - इति तं गरहित्वा उदानि अभिसपन्तो... जा. अड्ड. 5.82 पथ म. पु. व. व. व्हे दोसो नत्थीति मम वदन्तस्सेव तुम्हे अभिसपथ, घ. प. अ. 1. 27 - पेय्य विधि, प्र. पु. ए. क. अत्तानं वा परं वा निरयेन वा ब्रह्मचरियेन वा अभिसपेय्य, पाचि 378 पि अद्य. प्र. पु. ए. व. तुम्हाकं कुलूपको तापसो में निरपराधं अभिसपि जा. अड्ड. 4349 पिंसु ब. च. सत ब्राह्मणिसयो असितं देवलं इसिं अभिसपिंसु, म. नि. 2.369; पिस्सति भवि., प्र. पु. ए. व. अयं मे अभिसपिस्सति जा. अनु. 5.154 क. अभिसपिस्यामि तन्ति दुत्ते त्वा पू. का. कृ. - अभिसपित्वा च पन कस्स नु खो उपरि अभिसपो, ध. प. अट्ठ. 1.28.
अभिसमयसंयुत्त नपुं. स. नि. के एक खण्ड का शीर्षक, स.नि. 1 ( 2 ) 119-124.
J
पिस्सामि उ. पु. ए. घ. प. अ. 1.27 -
-
अभिसमयसह पु.. अभिसमय का शब्द या ध्वनि दस्स घ वि. ए.व. समयसदस्स अत्युद्धारे अभिसमयसदस्स गहणे कारणं वुत्तनयेनेव वेदितब्ब, उदा. अड्ड॰ 17.
अमिसपथ पु. अभिशाप थो प्र. कि. ए. व. सपर्धा अभिसमयहेतु पु. प्र. वि. ए. व. अभिसमय का हेतु या अभिसपथो अभिसपितो सपनको, सद्द 2.403.
कारण एवमेव खो महाराज, तस्स तेन दोसेन अभिसमयहेतु
अभिसपन नपुं., अभिशाप एतं ते परलोकस्मिं
समुच्छिन्नो, मि. प. 239. अमिसमागच्छति अभि सं आ + गम का वर्त., प्र. पु. ए. व. [ अभिसमागच्छति] यथार्थबोध के लिए आता है, समझने के लिए आता है, उद्देश्य विशेष के साथ आता है। ति अभिसमेतीति आणेन अभिसमागच्छति स. नि. अट्ठ. 2.36; गन्त्वा पू. का. कृ. अभिसमेच्चाति अभिसमागन्त्वा, खु. पा. अड. 191. अभिसमाचार पु. अभिसमाचार का सं. रू० [दौ. सं. अभिसमाचार ], विशिष्ट मार्गशील एवं फलशील, आचरणसम्बन्धी विशिष्ट वचन, आचरण से सम्बद्ध विशिष्ट या अतिरिक्त नियम रो प्र. वि., ए. व. - अधिको समाचारो अभिसमाचारो विसुद्धि महाटी 1.30: अघिसीलसिक्खापरियापन्नत्ता अभिविसिद्धो समाचारोति अभिसमाचारोति आह उत्तमसमाचारोति विसुद्धि. महाटी. 1.31; - रं द्वि. वि. ए. व. - अभिसमाचारं वा आरम्भ पञ्ञत्तं आभिसमाचारिक विसुद्धि. 1.12. आभिसमाचारिक 1. त्रि. [ बौ. सं. आभिसमाचारिक ], शा. अ. उत्तम आचरण, उत्तम आचरण से सम्बद्ध; ला. अ. क. सामान्य उदात्त परम्परा से चला आ रहा (धर्म). - कं पु०, द्वि. वि., ए. व. आरज्ञिको सङ्घ विहरन्तो आभिसमाचारिकम्पि धम्मं न जानाति, म. नि. 2.143; आभिसमाचारिकम्पि धम्मन्ति अभिसमाचारिक वत्तपटिपत्तिमत्तम्पि. म. नि. अड. (म.प.) 2.131 ला.
अभिसपनवसेन कतं पापकम्मं, पे, व अट्ठ. 126. अभिसमय पु., [बौ. सं. अभिसमय], क. बोध, चार आर्यसत्यों का यथार्थ बोध या यथाभूत प्रतिवेध सम्यक दृष्टि यो प्र. सच्चानं अभिसमयो, एतं समणस्स पतिरूपं, पु. ए. व. थेरगा. 593; सच्चानं अभिसमयोति दुक्खादीनं अरियसच्चानं पटिवेधो, थेरगा. अट्ठ. 2.179; - यं द्वि. वि., ए. व. सह दोमनस्सेन चतुन्न अरियसच्चान अभिसमयं वदामि. स. नि. 3(2).503 येन तृ. वि. ए. व. चत्तारि सच्चानि एकपटिवेधेनेव पटिविज्झति एकाभिसमयेन अभिसमेति, म. नि. अ. ( मू.प.) 1(1).79 याय च. वि. ए. व. सब्बे ते चतुन्नं अरियसच्चानं यथाभूतं अभिरामयाय... स. नि. 3(2) 479, स. उ. प. के रूप में अत्था, अनुपुब्बा, अभिरोपना, एका., किच्चा, चतुसच्चा, दस्सना, परिज्ञा०, पहाणा०, फस्सा, भावना, महाजना, माना, सच्चा, सच्छिकिरिया के अन्त. द्रष्ट..
"
0,
"
अभिसमयकथा स्त्री पटि म. के एक खण्ड का शीर्षक पटि० म० 384-387. अभिसमयजाति स्त्री यथार्थबोध युक्त जन्म तियं सप्त वि. ए. व. पनरस पच्छिमे भवे अभिसमयजातियं मग्ग आरम्भ सतिसम्मोसो हेस्सति मि. प. 268. अभिसमय पु.. [ अभिसमयार्थ] यथार्थबोध का आशय या अर्थ - ट्ठो प्र. वि., ए. व. - अभिसमयट्टो इमेहि .... आकारेहि
आमिसमाचारिक
अभिसमयद्वेन चत्तारि सच्चानि एकसङ्ग्रहितानि पटि. म.
286.
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अमिसमयन्तरायकर त्र अभिसयम या यथार्थबोध में कि.. न (अन्तराय) लाने वाला यथार्थबोध में विघ्नकारक कर नपुं. प्र. वि. ए. व. अजानन्तेनपि कतं पापं अभिसमयन्तरायकर होति. मि. प. 239 पञ्ह पु. मि. प. के एक खण्ड का शीर्षक, मि. प. 238-240. अमिसमयवग्ग पु. स. नि. के एक खण्ड का शीर्षक, स. f. 3(2).518-523.
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अभिसमाचित
510
अभिसमेति
अ. ख. खन्धकों में निर्दिष्ट शिक्षा-पद या शिक्षा, उत्तमआचरण से सम्बद्ध नियम, आचरण के विशिष्ट नियमों के साथ जुड़ा हुआ, मार्गशील एवं फलशील की दृष्टि से प्रज्ञप्त - कं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अधिको समाचारो अभिसमाचारो तत्थ नियुत्तं, सो वा पयोजनं एतस्साति आभिसमाचारिक विसुद्धि. महाटी. 1.30; - काय स्त्री., सप्त. वि., ए. व. - पटिबलो... सद्धिविहारिं वा आभिसमाचारिकाय सिक्खाय सिक्खापेतुं, महाव. 83; आभिसमाचारिकाय सिक्खायाति खन्धकवत्ते विनेतुं न पटिबलो होतीति अत्थो, महाव. अट्ठ. 259; - का प्र. वि., ए. व. - मया सावकानं आभिसमाचारिका सिक्खा पञत्ता, अ. नि. 1(2).278; आभिसमाचारिकाति उत्तमसमाचारिका, अ. नि. अट्ठ. 2.392; 2. नपुं.. खन्धकों में संगृहीत क्षुद्रकानुक्षुद्रक शिक्षापद - खुद्दानुखुद्दकं
आभिसमाचारिकमुच्चते, अभि. प. 431; - कं प्र. वि., ए. व. - अभिसमाचारोव आभिसमाचारिक विसुद्धि. महाटी. 1.31; एवं आभिसमाचारिक - आदिब्रह्मचरियकवसेन दुविधं विसुद्धि. 1.12; - केसु सप्त. वि., ब. व. - असंसठ्ठो आभिसमाचारिकसु सक्कच्चकारी गरूचित्तीकारबहुलो विहरति, उदा. अट्ठ. 182; -धम्मपूरण नपुं., परम्परा-प्राप्त उदात्त धर्म को पूरा करना या उसका अनुपालन करना - णं प्र. वि., ए. व. - भिक्खूनहि मेत्तचित्तेन आभिसमाचारि-कधम्मपूरणं मेत्तं कायकम्म..., म. नि. अट्ठ (मू.प.) 1(2).288; - वत्त नपुं.. उत्तम आचरण से सम्बद्ध व्रत या नैतिक आचरण - त्तं द्वि. वि., ए. व. - आभिसमाचारिकवत्तहि पूरेन्तोयेव अरियफलादीनि सच्छिकरोति, ध. प. अट्ठ. 2.90; गामन्तमभिहारयति आभिसमाचारिकवत्तं कत्वा, सु. नि. अट्ठ. 2.194; - तो प. वि., ए. व. - आयरमा सारिपुत्तो... वसेन आभिसमाचारिकवत्ततो पट्ठाय ..., म. नि. अट्ठ (म.प.) 2.132; - वत्तपटिवत्त नपुं॰, प्र. वि., ए. व. छोटे-मोटे आचरणीय नियम - अभिसमाचारिकवत्तपटिवत्तं मम अकासि. जा. अट्ठ. 5.224. अभिसमाचित त्रि., अभि + सं + आ + vचि का भू. क. कृ. [अभिसमाचित], संग्रहीत, एक साथ पुजीभूत किया हुआ, केवल स. उ. प. के रूप में प्राप्त चिरकाला. के अन्त. द्रष्ट... अभिसमित त्रि., अभिसमेति का भू. क. कृ., समझा हुआ, बूझा हुआ, जाना हुआ, पता लगाया हुआ - तो पु.. प्र. वि., ए. व. - अम्हाकं धम्मो अम्हाकं अय्यपत्तेन धम्मो अभिसमितोति, पारा. 278; ... पन अत्तनो सन्तकभावे युत्तिं दस्सेन्तो अम्हाक
अय्यपत्तेन धम्मो अभिसमितो ति, आह, पारा. अट्ठ. 2.178; - त्त नपुं॰, भाव.. समझा हुआ अथवा जाना हुआ रहना - त्ता प. वि., ए. व. - धम्मस्स सुतत्ता सच्चानञ्च अभिसमितत्ता मनुस्सेसु दिब्बेसु चाति ... अरति उक्कण्ठिं अधिगच्छि, थेरीगा. अट्ठ. 265. अभिसमेक्खति अभि + सं + इक्ख का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अभिसमीक्षते], भली-भांति देखता है, अवलोकन करता है, अनुचिन्तन करता है, गहराई के साथ विचारता है- से म. पु., ए. व., आत्मने. - यं त्वं सुखेनाभिसमेक्खसे मं, जा. अट्ठ. 4.18; यं त्वन्ति यस्मा त्वं सुखेन में अभिसमेक्खसे, तदे. - क्ख अनु०. म. पु., ए. व. - त्वं नोत्तमेवाभिसमेक्ख नारद, जा. अट्ठ. 5.390; त्वं नोत्तमेवाति उत्तममहामनि त्वमेव नो उपधारेहि, तदे.. अमिसमेतु पु.. अभि + सं+Vइ से व्यु. क. ना., अच्छी तरह से जानने या समझने वाला - तारो प्र. वि., ब. व. - पुथुज्जनानम्पि भिक्खु भिक्खुनी उपासकउपासिकानं धम्मदेसनं सुत्वा होन्तियेव धम्म अभिसमेतारो, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 1(1).201. अभिसमेतब्ब त्रि., अभिसमेति का सं. कृ., ठीक से समझने योग्य - तो प. वि., ए. व. - पटिवेधोति हि अभिसमेतब्बतो अभिसमयो, उदा. अट्ठ. 17; - भाव पु., ठीक से या पूर्ण रूप से समझे जाने योग्य होना - वेन तृ. वि., ए. व. - अभिसमयट्ठोति... अभिसमेतब्बभावेन एकीभावं उपनेत्वा वृत्तानि, उदा. अट्ठ. 17. अभिसमेतावी त्रि., पूर्ण रूप से समझ चुका, अच्छी तरह से ज्ञान पा चुका - विनो पु., प्र. वि., ब. व. - दिद्विसम्पन्नस्स पुग्गलस्स अभिसमेताविनो ..., स. नि. 1(2).119; अभिसमेताविनोति पञआय अरियसच्चानि अभिसमेत्वा ठितस्स, स. नि. अट्ठ. 2.113; - विनी स्त्री., प्र. वि., ए. व. - सद्धेय्यवचसा नाम आगतफला अभिसमेताविनी विज्ञातसासना, पारा. 294; अभिसमेताविनीति
पटिविद्धचतुसच्चा, पारा. अट्ठ. 2.195. अभिसमेति' अभि + सं+ (इ का वर्त., प्र. पु.. ए. व., शा. अ. किसी के पास ठीक से जा पहुंचता है, ला. अ. ठीक से समझता है, अच्छी तरह से जान जाता है-न्ति प्र. पु.. ब. व. - ये च तं सुत्वा धम्म अभिसमेन्ति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).201; - न्तेन वर्त. कृ., पु., तृ. वि., ए. व. - सच्छिकिरियाभिसमयवसेन अभिसमेन्तेन विसयतो किच्चतो च आरम्मणतो च ... पटिविद्धं, उदा. अट्ठ. 319; - मेसि
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अभिसमेति
अभिसम्बुद्ध अद्य.. प्र. पु., ए. व. -- नानानयेहीभिसमेसि सत्ते, जिना. सम्पूर्ण रूप से जानता है, समझता है, पूर्ण तथा प्रत्यक्ष रूप 177; - मेसु ब. व. - सब्बे ते चत्तारि अरियसच्चानि में अनुभव करता है, ला. अ. पूर्णरूप से सम्बोधिज्ञान को यथाभूतं अभिसमेसु. स. नि. 3(2).479; - स्ससि भवि., म. पाता है, बुद्ध की अवस्था पा लेता है, पूर्ण रूप से ज्ञान एवं पु., ए. व. - दिवसे दिवसे तीहि तीहि ... वस्ससतस्स । दर्शन पा लेता है - अनुत्तरं सम्मासम्बोधि अभिसम्बुज्झति, अच्चयेन अनभिसमेतानि चत्तारि अरियसच्चानि दी. नि. 2.101; - न्ति ब. व. - सब्बे ते ... अरियसच्चानि अभिसमेस्ससी ति, स. नि. 3(2).503; - स्सन्ति प्र. पु., ब.. यथाभूतं अभिसम्बुज्झन्ति, स. नि. 3(2).497; - झिं अद्य., व. - सब्बे ते चत्तारि अरियसच्चानि यथाभूतं अभिसमेस्सन्ति, उ. पु., ए. व. - याव न सम्मासम्बोधि अभिसम्बुझिं, स. नि. स. नि. 3(2).480; - मेच्च पू. का. कृ., ठीक से समझकर अट्ठ. 1.224; - झिंसु प्र. पु.. ब. व. - भावेत्वा अनुत्तरं -- सम्मा परियन्तदस्सावी सम्मदत्थं अभिसमेच्च दिदेव धम्मे सम्मासम्बोधिं अभिसम्बुज्झिसु, दी. नि. 2.65; - धं/धानो दुक्खस्सन्तकरो होति, अ. नि. 3(2).43; - मेत्वा पू. का. वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - यं धम्म अभिसम्बुध, स.नि. कृ., ठीक से जान-बूझकर -- अभिसम्बुज्झित्वा अभिसमेत्वा 1(1).243; फेणूपगं कायमिमं विदित्वा, मरीचिधम्म आचिक्खति देसेति... विवरति विभजति उत्तानीकरोति, स. अभिसम्बुधानो, ध. प. 46; -- स्सामि भवि., उ. पु., ए. व. नि. 1(2).24.
- इदानाहं मनुस्सयोनियं.. अभिसम्बुज्झिरसामीति उदा. अट्ठ. 118; अभिसमेति' अभि + (सम का वर्त.. प्र. पु., ए. व., प्रेर. - स्सन्ति प्र. पु., ब. व. - अनुत्तरं सम्मासम्बोधि [अभिशमयति], शान्त कर देता है, सन्तुष्ट कर देता है - अभिसम्बज्झिस्सन्ति, दी. नि. 2.66; - त्वा पू. का. कृ. - मेसि म. पू., ए. व. -- नानानयेहीभिसमेसि सत्ते, जिना. 177. अभिसम्बुज्झित्वा अभिसमेचा आचिक्खति देसेति, स. नि. 1(2).24. अभिसम्पत्त त्रि.. अभि + सं + प + vआप का भू. क. कृ. अभिसम्बुज्झन नपुं., अभि. + सं + Vबुध से व्यु., क्रि. ना. [अभिसम्प्राप्त], वह, जिसने अच्छी तरह से प्राप्त कर लिया । [अभिसम्बोधन], सम्बोधिज्ञान की प्राप्ति, पूर्ण बोधिज्ञान की है, वह, जिसने पा लिया या अधिगत कर लिया है - प्राप्ति - काल पु., तत्पु. स. [अभिसम्बोधनकाल], पूर्ण अभिसम्बुद्धोति पच्चआसिन्ति "अभिसम्बुद्धो अभिसम्पत्तो सम्बोधि-ज्ञान की प्राप्ति का काल - लो प्र. वि., ए. व. - पटिविज्झित्वा ठितो ति एवं पटिजानि. स. नि. अट्ठ. 2.136; सिद्धत्थकुमारस्स अभिसम्बुज्झनकालो आसन्नो, जा. अट्ट. पाठा. अहं पत्तो.
1.69; - दिवस पु., तत्पु. स. [अभिसम्बोधनदिवस], अभिसम्पराय पु. [बौ. सं. अभिसम्पराय], पारलौकिक अवस्था, सम्बोधिज्ञान प्राप्त करने का दिन - से सप्त. वि., ए. व. मृत्यु के उपरान्त प्राप्त होने वाली पारलौकिक गति - यो - अनेकेसं बोधिसत्तसहस्सानं अभिसम्बुज्झनदिवसे ओतरित्वा प्र. वि., ए. व. - तस्स का गति, को अभिसम्परायोति, म. ...... जा. अट्ठ. 1.79. नि. 2.354; - यं द्वि. वि., ए. व. - भिक्खू कोसम्बिय अभिसम्बुज्झनक त्रि., [अभिसम्बोधनक]. सम्बोधिज्ञान को पिण्डाय चरन्ता तं पवत्तिं ञत्वा पच्छाभत्तं भगवतो आरोचेत्वा पाने वाला - को पु., प्र. वि., ए. व. - सम्बोधिपरायनोति तासं अभिसम्परायं पुच्छिसु. उदा. अट्ठ. 312.
..... तं सम्बोधि अवस्सं अभिसम्बुज्झनकोति अत्थो, स. नि. अभिसम्परायं सप्त. वि., प्रतिरू. निपा., आगे आने वाले अट्ठ. 2.65. जीवन या अस्तित्व में, आगामी जीवन में, मृत्यु के उपरान्त अभिसम्बुद्ध त्रि., अभि + सं + Vबुध का भू. क. कृ. प्राप्त होने वाले जीवन में- दिद्वे चेव धम्मे अभिसम्परायञ्च, [अभिसम्बुद्ध], क. पूर्णरूप से समझा हुआ, बोधिज्ञान में दी. नि. 3.61; आसवा अस्सवेय्यु अभिसम्परायान्ति, अ. नि. पूर्णतया ज्ञात या अनुभव किया हुआ-द्धा पु., प्र. वि., ब. 1(2).226; कायस्स भेदा अभिसम्पराय, जा. अह. 4.43. व. - इति इमे दस धम्मा भूता तच्छा तथा अवितथा अभिसम्बन्धित्वा अभि + सं + Vबन्ध का पू. का. कृ., अनञथा सम्मा तथागतेन अभिसम्बुद्धा, दी. नि. 3.218; समवेत कर, सम्मिश्रित कर, जोड़ कर, संयोजित कर - इतिवु. 85; ख. वह, जिसने सर्वोच्च ज्ञान (बोधिज्ञान) को पा अभिसम्बन्धित्वा चतुत्थपादो... वृत्तोपि वेदितब्बो, सु. नि. लिया है, पूर्णतः सम्बुद्ध, बुद्धत्व को प्राप्त - द्धो पु., प्र. वि., अट्ठ. 1.58.
ए. व. - तेन समयेन बुद्धो भगवा उरुवेलायं विहरति नज्जा अभिसम्बुज्झति अभि + सं+ Vबुध (जागना) का वर्त., प्र. नेरञ्जराय तीरे बोधिरुक्खमूले पठमाभिसम्बुद्धो, महाव. 1; पु., ए. व. [अभिसम्बुध्यते], शा. अ. अच्छी तरह से या - काल पु., तत्पु. स. [अभिसम्बुद्धकाल], बुद्धों द्वारा
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पं.भावपातिकथाभूत
अभिसम्बुधं/अभिसम्बुधन्त
512
अभिसम्भवति/अभिसम्भोति अभिसम्बोधि की प्राप्ति के बाद का समय या काल - तो सम्बुद्ध द्वारा प्राप्त ज्ञान - णं वि. वि., ए. व. - प. वि., ए. व. - भगवतो अभिसम्बुद्धकालतो, सा. वं. अभिसम्बोधिञाणं देतीति एवमादि दानगुणपटिसंयुत्तं कथं 33(ना.);- गाथा स्त्री., तत्पु. स., बुद्ध के द्वारा कही गयी ..... म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.65; - समय पु., तत्पु. स. गाथा, जातक कथानकों में बोधिप्राप्ति के अनन्तर स्वयं बुद्ध [अभिसम्बोधिसमय], सम्बोधि-ज्ञान पाने का समय - यो प्र. द्वारा कही गई बोधिसत्व के रूप में अपने पूर्व-जीवनों पर वि., ए. व. - ये वा इमे गम्भोक्कन्तिसमयो.... मारविजयसमयो प्रकाश डालने वाली इतिहास-गाथा - था द्वि. वि., ब. व. अभिसम्बोधिसमयो, उदा. अट्ठ. 18; स. नि. अट्ठ. 1.10. - सत्था इमं धम्मदेसनं आहरित्वा इमा अभिसम्बुद्धगाथा अभिसम्भव पु., स. उ. प. के रूप में ही प्रयुक्त, वशीकरण, वत्वा जातकं समोधानेसि, जा. अट्ठ. 2.206; इमा चतस्सो अधीनीकरण, दुरभिसम्भव आदि के अन्त., द्रष्ट.. म्मराजेन भासिता अभिसम्बुद्धगाथा, जा. अट्ठ. 4.52; - था अभिसम्भवति/अभिसम्भोति क. अभि + सं+Vभू (होना) प्र. वि., ए. व. - तमत्थं दीपयमाना ओसाने अभिसम्बुद्धगाथा । का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अभिसम्भवति]. प्राप्त करता है, ठपिता, जा. अट्ठ. 3.436; - त्त नपुं., भाव॰ [अभिसम्बुद्धत्व], अभिभूत कर लेता है, प्राप्त करने में सक्षम होता है, सहन अभिसम्बोधि ज्ञान का प्राप्त होना, बोधिज्ञान-प्राप्ति की अवस्था कर लेता है, सिद्ध कर लेता है, पूरा कर लेता है - ... - त्ता प. वि., ए. व. - चतुन्न अरियसच्चानं यथाभूतं कम्मन्ते अभिसम्भोति, दी. नि. 2.171; भावनामयं अभिसम्बुद्धता तथागतो, स. नि. 3(2).496; तस्मापि तथानं पुञ्जकिरियंवत्थु नाभिसम्भोति, अ. नि. 3(1).73; नाभिसम्भोतीति धम्मानं अभिसम्बुद्धत्ता तथागतोति वच्चति, म. नि. अट्ठ. न निप्फज्जति, अ. नि. अट्ठ. 3.229; - न्ति ब. व. - अथ (मू.प.) 1(1).54.
खलु, भो, ता दिजकञआयो तं कुणालं सकुणं आरामेनेव अभिसम्बुधं/अभिसम्बुधन्त त्रि., अभि + सं+Vबुध (जानना) आरामं, ... खिप्पमेव अभिसम्भोन्ति रतित्थाय, जा. अट्ठ से व्यु., वर्त. कृ., पूर्णरूप से ज्ञान प्राप्त कर रहा, गहराई 5.413; -- म्भोम उ. पु., ब. क. - तानि चे नाभिसम्भोम, जा. तक प्रवेश कर सत्य को जानने वाला, पूर्णरूप से या अट्ठ. 3.120; - भोन्तो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - स्पष्टता के साथ ज्ञान पाने वाला-धं पु., प्र. वि., ए. व. लुखम्पि अभिसम्भोन्तो, विहरिस्सामि कानने, थेरगा. 351; - जरामरणमोक्खाय, यं धम्म अभिसम्बुधं तं धम्म सोतुमिच्छामि लूखम्पि अभिसम्भोन्तोति अरज्ञावासजनितं... दुस्सहम्पि ..... स. नि. 1(1).243; अभिसम्बधन्ति अभिसम्बधन्तो, तेनाहं पच्चयलूखं अभिभवन्तो अधिवासेन्तो, थेरगा, अट्ट, 2.52; - "अभिसम्बुद्धो ति, स. नि. टी. 1.275.
भोन्ती स्त्री, प्र. वि., ए. व. - एतानि अभिसम्भोन्ती, अभिसम्बोध पु., केवल स. उ. प. के रूप में प्रयुक्त परलोके अनासवा, थेरीगा. 330; - न्तं नपुं., वि. वि., ए. [अभिसम्बोध], असाधारण ज्ञान, पूर्ण ज्ञान - धेन तृ. वि., व. - अभिसम्भोन्तन्ति पापुणन्तं, अभि. ध. वि. 236; - ए. व. - सच्चाभिसम्बोधेन असाधारणञाणेन च अदक्खि सु. म्भवे/म्भवेय्य विधि., प्र. पु., ए. व. - ये भिक्ख अभिसम्भवे, नि. अट्ठ. 2.297.
पन्तम्हि सयनासने, सु. नि. 966; अभिसम्भवे ति अभिभवेय्य, अभिसम्बोधि स्त्री., [अभिसम्बोधि], पूर्णज्ञान, सर्वोच्च-ज्ञान, सु. नि. अट्ट. 2.264; अद्धा भवन्तो अभिसम्भवेय्य, सु. नि. परम-ज्ञान, सम्यक सम्बुद्ध अथवा प्रत्येकबुद्धों द्वारा प्राप्त 974; - म्भवेम उ. पु.. ब. व. - यथा गतिं ते अभिसम्भवेमाति, ज्ञान - अभिसम्बोधि, सम्बोधि'इति नामद्वयं पन, जा. अट्ठ. 5.143; - म्भवेथ म. पु., ब. व. - यथा गति में पच्चेकबुद्धसब्ब बुद्धानं येव रूहति, सद्द. 1.83; - धिं द्वि. अभिसम्भवेथाति, जा. अट्ठ. 5.144; - म्भोसि अद्य., प्र. पु.. वि., ए. व. - महापधानं अभिसम्बोधिं... चतबिधं मग्गजाणं ए. व. - येपिस्स पिता कम्मन्ते अभिसम्भोसि, दी. नि. ..., सु. नि. अट्ठ. 1.220; - धिया ष. वि., ए. व. - 2.171; - म्मोसिं उ. पु., ए. व. - आवासं अभिसम्भोसिं. अभिसम्बोधिया वा अधिगतत्ता ततो अझं उत्तरि करणीयं पत्वान अस्सम अहं अप. 1.129; - म्भोस्सं भवि., उ. पु.. नाम नत्थि, उदा. अट्ठ. 176; -- तो प. वि., ए. व. - अम्हाक ए. व. - सब्बानि अभिसम्भोस्सं गच्छओव, रथेसभ, जा. भगवा अभिसम्बोधितो सत्तमे संवच्छरे .... पे. व. अट्ठ. 119; अट्ठ. 7.264; - म्भवितुं/म्भोतुं निमि. कृ.- अत्थे च - धियं सप्त. वि., ए. व. - अभिनिक्खमनेपि धम्मे च निरुत्तिया च... न अचओ कोचि सक्कोति अभिसम्भवितुं अभिसम्बोधियम्पि... दससहस्सिलोकधातु अकम्पित्थ, स. पटि. म. 367; यदि नं कातुं वा अभिसम्भोतुं वा सुखं भवेय्य, नि. अट्ठ. 3.197; - आण नपुं.. [अभिसम्बोधिज्ञान], सम्यक् सु. नि. अट्ट. 2.190; - म्भवित्वा पू. का. कृ. - सब्बानिपेतानि
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अभिसम्मत
513
अभिसिञ्चति
अभिसम्भवित्वा, सु. नि. 52; ख. - अभिसम्भुणाति उपरिवत्, पापुणाति के मि. सा. पर निर्मित, पूरा कर देता है, सिद्ध कर देता है, प्राप्त करता है, लाभ पाता है - न किञ्चि अत्थं अभिसम्भुणाति, पारा. अट्ठ. 1.3; ... सीहळदीपतो अञदीपवासिनो भिक्खुगणस्स किञ्चि अत्थं पयोजनं यस्मा नाभिसम्भुणाति न सम्पादेति, न साधेति, सारस्थ. टी. 1.18; - णन्ति प्र. पु., ब. क. - देवा नानुभवन्ति दस्सनायाति .... दट्टु नानुभवन्ति न अभिसम्भुणन्ति न सक्कोन्ति .... उदा.
अट्ठ. 132. अभिसम्मत 1. त्रि., अभि + सं + मन का भू. क. कृ. [अभिसम्मत], अनुमोदित, सत्कृत, सम्मानित - तो पु., प्र. वि., ए. व. - रो अन्तेपुरे आसिं, गोपको अभिसम्मतो, अप. 1.185; 2. क. पु., एक यक्ष का नाम - देवेहि ठपितो यक्खो, अभिसम्मतनामको, अप. 1.70; ख. पु., एक चक्रवर्ती राजा का नाम - इतो तेसहिकप्पम्हि अभिसम्मतनामको,
सत्तरतनसम्पन्नो चक्कवत्ती महब्बलो, अप. 1.123. अभिसर पु., [अभिसर], साथी, अङ्गरक्षक, अनुगामी, अनुचर - रेन तृ. वि., ए. व. - न मे अभिसरेनत्थो, नगरेन धनेन वा, जा. अट्ठ. 5.369; तत्थ अभिसरेनाति आरक्खपरिवारेन, जा. अट्ठ. 5.370. अभिसरण नपुं, केवल स. उ. प. के रूप में प्राप्त [अभिशरण].
शरण या आश्रय, तण्हाभिसरण आदि के अन्त. द्रष्ट.. अभिसरणता स्त्री., भाव., किसी के आश्रय में जाना, किसी के समीप मिलने के लिए पहुँचना - ताय तृ. वि., ए. व. - ... अभिसरणताय अभिसारिका नाम हुत्वा एकिका अदुतिया गावुतद्विगावुतमत्तं दीघं अद्धानं गच्छतु, जा. अट्ठ. 3.119. अभिसल्लेखन्ति अभि + सं + लिख का वर्त., प्र. पु., ब. व., किसी को विशिष्ट रूप से उल्लिखित करती हैं, किसी को अधिक महत्व देती हैं- अभिसल्लेखन्तीति अभिसल्लेखिका, अ. नि. अट्ठ. 3.255. अभिसल्लेखिक त्रि., अत्यन्त कठोर संयम पर विशेष बल देने वाला/वाली - का स्त्री, प्र. पु., ए. व. - ... यायं कथा अभिसल्लेखिका चेतोविवरणसप्पाया, अ. नि. 3(1).172; अभिसल्लेखिकाति अतिविय किलेसानं सल्लेखनी. उदा. अट्ठ. 183. अभिसाधेति अभि + (साध का वर्तः, प्र. पु., ए. व. [अभिसाधयति], कार्यान्वित करता है, इन्द्रजाल के द्वारा उपलब्ध कर देता है - न्ति वर्त., प्र. पु., ब. व. - ते इमेहि पयोगेहि सामञ्जत्थमभिसाधेन्ति, मि. प. 246; - धये
विधि, प्र पू. ए. व. - सुधारितो सनिक्खित्तो सब्बत्थमभिसाधये, जा. अट्ठ. 7.23. अभिसपति वर्त., म. पु., ए. व., अभिशाप देता है, आक्रोश प्रकट करता है, कोसता है - ... निरयेन वा ब्रह्मचरियेन वा
अभिसपति, पाचि. 379; - पिस्सति भवि०, प्र. पु., ए. व. - ... ब्रह्मचरियेनपि अभिसपिस्सति, पाचि. 378; - पेय्य विधि., प्र. पु., ए. व. - ... ब्रह्मचरियेन वा अभिसपेय्य,
पाचित्तिय्यन्ति, पाचि. 378. अभिसाप पु., [अभिशाप], शाप, कोसना, गाली या अपभाषण का शब्द, आक्रोश - पो प्र. वि., ए. व. - अभिसापोय, भिक्खवे, लोकस्मि-पिण्डोलो विचरसि पत्तपाणी ति, इतिवु. 64; अभिसापोति अक्कोसो, इतिवु. अट्ठ. 256, अभिसप्पित/अभिसापित त्रि., अभि + Vसप का भू. क. कृ. [अभिशापित], अभिशप्त, अभिशाप पाया हुआ - ते नपुं., सप्त. वि., ए. व. - पयोगे दुक्कट वुत्तं, पाचित्ति
अभिसप्पिते, उत्त. वि. 214. अभिसापयिं अभि + सप के प्रेर. का अद्य, उ. पु., ए. व., अभिशाप दिया, आक्रोश प्रकट किया - विमुत्तचित्तं कुपिता, भिक्खुनि अभिसापयिं, थेरीगा. अठ्ठ. 237. अभिसाम पु., एक चक्रवर्ती राजा का नाम - इतो पन्नरसे कप्पे अभिसामसमव्हयो, सत्तरतनसम्पन्नो चक्कवत्ती महब्बलो, अप. 1.229. अभिसारये अभि + सर के प्रेर. का विधि., प्र. पु., ए. व. [अभिस्मारयेत्], उलाहना दे, भत्सर्ना करे, डाँटे, निन्दा करे - अब्भक्खाति अभूतेन, अलिकेनाभिसारये, जा. अट्ठ. 6.207. अभिसारिका/अभिसारिया स्त्री., [अभिसारिका], वह स्त्री,
जो अपने प्रिय से मिलने को जाती है, प्रिय के द्वारा नियत स्थान की ओर जाने वाली - का प्र. वि., ए. व. - ... अभिसरणताय अभिसारिका नाम हुत्वा एकिका अदुतिया गावुतद्विगावुतमत्तं दीघं अद्धानं गच्छतु, जा. अट्ठ. 3.119; 8 वित्थिनी तु संकेतं याति या साभिसारिका, अभि. प. 232. अभिसिञ्चति अभि सिच का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अभिसिञ्चति], शा. अ. चारों ओर छिड़कता है, पानी के छीटें देता है, ला. अ. शान्त करता है, भरपूर कर देता है, सन्तुष्ट करता है, राज्यतिलक करता है, राजा को सिंहासन पर प्रतिष्ठित कराता है - यथा महाराज, कोचि अयुत्तो अप्पत्तो... कुजातिको खत्तियाभिसेकेन अभिसिञ्चति, मि. प. 323; अहं पण्डितो ति अभिसिञ्चति, सु. नि. अट्ठ. 2.248; - न्ति ब. व. - ततो पट्ठाय किर यावज्जतना राजानो...
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अमिसित्त
514
अभिसेकट्ठान
तीहि सङ्केहि अभिसिञ्चन्ति, जा. अट्ठ. 2.335; - ञ्च अनु., अमिसुणोति/अभिसुणाति अभि + सु का वर्त.. प्र. पु.. म. पु., ए. व. - सिञ्चाति महामेघो विय वुडिया भोगेहि ए. व., निचोड़ता है, पीड़ित करता है, दबाव देता है, पेरता अभिसिञ्च, जा. अट्ठ. 7.361; - ञ्चेय्यु विधि., प्र. पु., ब है - अभिसुणोति, अभिसुणाति, क. व्या. 450; अभिसुणोति व. - अहो वत में रज्जे अभिसिञ्चेय्युान्ति, महाव. 42; - संतुणोति, सद्द. 3.830. ञ्चि' अद्य., प्र. पु., ए. व. - अमतेन अभिसिञ्चि, जा. अठ्ठ. अभिसुत नपुं., सिरका, कांजी, कंजिका - सोवीरं कजियं 4.257; - ञ्चि- अद्य., म. पु., ए. व. - ततो अमतमादाय, वुत्तं, आरनाळं थुसोदक, धम्बिल विलङ्गोथ, अभि. प. अभिसिञ्चि महीरुह, जा. अट्ठ. 3.438; - चिंसु प्र. पु.. ब. 460. व. - तच्छक अभिसिञ्चिसु, त्वं नो राजासि इस्सरो ति, जा. अभिसेक' पु., [अभिषेक], क. पानी का छिड़काव, अट्ठ. 4.311; - ञ्चिस्सामि भवि., उ. पु., ए. व. - पेत्तिके राज्यतिलक, राजाओं का सिंहासनारोहण - को प्र. वि., ए. तं ठाने ठपेस्सामि, गोविन्दिये अभिसिञ्चिस्सामीति, दी. नि. व. - बुद्धानं पन सब्बगुणसम्पत्तिं देति अभिसेको विय रओ 2.170; -ञ्चिस्सन्ति प्र. पु., ब. व. - कुदास्सु नाम मम्पि सब्बलोकस्सरियभावं, स. नि. अट्ठ.2.136; अ. नि. अट्ठ. खत्तिया खत्तियाभिसेकेन अभिसिञ्चिस्सन्ती ति, अ. नि. 2.79; - के द्वि. वि., ए. व. - त्वं अज्जेव मुद्धनि अभिसेकं 1(1).131; - तुं निमि. कृ. - परिकिण्णो अमच्चेहि पुत्तं अभिसिञ्चयस्सु, जा. अट्ठ. 5.24; - केन तृ. वि., ए. व. - सिञ्चितुमागमि, जा. अट्ट, 7.367; - त्वा पू. का. कृ. - देव, तस्साभिसेकेन समं बहूनच्छरियानहं, म. वं. 11.7; - के तुम्हे इमं रज्जं कारेथा ति नगरं पवेसेत्वा रतनरासिम्हि सप्त. वि., ए. व. - अभिसेकारहोपि काणकुणिआदिदोसरहितो ठपेत्वा अभिसिञ्चित्वा तक्कसिलराजानं अकंसु, जा. अट्ठ. सकि अभिसित्तो पुन अभिसेके आसं न करोति, अ. नि. अट्ठ. 1.381; - तब क्रि, सं कृ. - ... आरहत्ताभिसेकेन अभिसिञ्चितब्बो 2.79; - केन तृ. वि., ए. व. - असोकरञा पेसितेन विपस्सनाविञाणराजपुतो दट्टब्बो स. नि. अट्ठ. 3.102.
अभिसेकेन एकमासाभिसित्तो होति, पारा. अट्ठ. 1.54. अभिसित्त त्रि., अभि + सिच का भू. क. कृ. [अभिषिक्त], अभिसेक पु., अभयगिरि में प्रतिष्ठित बुद्ध की प्रतिमा का छिड़काव युक्त, आर्द्र किया हुआ, वह, जिसका राज्याभिषेक नाम - रंसिचुळमणिञ्चेव अभिसेकव्हयस्स च, चू. वं. हो चुका हो, राज्यतिलक प्राप्त कर चुका शासक - त्तो पु.. 38.66. प्र. वि., ए. व. - सयमेव सामं मनसाभिसित्तो, महानि. 219; अभिसेकउदक नपुं.. [अभिषेकोदक], अभिषेक का जल, अ. नि. अट्ठ. 2.79; - त्ता ब. व. - येन अमतेन अभिसित्ता अभिषेकार्थ जल - कं प्र. वि., ए. व. - अभिसेकउदक देवमनुस्सा, मि. प. 305; - त्तानं पु., ष. वि., ब. व. - आसित्तं, सूकरिमेवस्स अग्गमहेसिं करिंसु, जा. अट्ठ. 4.311. कीळितुं अभिसित्तानं चरितं चानुरक्खितं. म. वं. 26.7; स. अभिसेककरण नपुं.. तत्पु. स. [अभिषेककरण], पवित्रीकरण, उ. प. के रूप में पठमा., एकमासा.. मुद्धा. के अन्त. द्रष्ट; राज्याभिषेक करना - णं प्र. वि., ए. व. - ततो पट्ठाय - सरसि त्वं महाराज, पठमाभिसित्तो एवरूपिं वाचं भासिता, उदुम्बरभद्दपीठे निसीदापेत्वा दक्षिणावट्टसङ्घन अभिसेककरण पारा. 50; एकमासा एक - अभिसेकेन एकमासाभिसित्तो, पवत्तं, जा. अट्ठ. 4.311. पारा. अट्ठ. 1.54; गहेत्वा रुओ खत्तियस्स गुद्धाभिसित्तरस अभिसेककिच्च नपुं, तत्पु. स. [अभिषेककृत्य], राज्याभिषेक दस्सेसु, दी. नि. 3.48; - गत्त त्रि., ब. स. [अभिषिक्तगात्र], का कार्य - च्चं प्र. वि., ए. व. - एतिस्सा पादधोवनउदकेन अभिषेक किए हुए शरीर वाला - त्तो पु., प्र. वि., ए. व. सकलजम्बुदीपे राजूनं अभिसेककिच्चं करिस्सामीति चिन्तेत्वा - राजा अमतेनेव अभिसित्तगत्तो विय परमेन पीतिपामोज्जेन । पुन चिन्तेसि, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.52-53. समन्नागतो हुत्वा पुच्छि, पारा. अट्ठ. 1.60; - मत्त त्रि., अभिसे कगे हप्पवे सनमङ्गल नपु., तत्पु. स. तुरन्त राज्याभिषेक किया हुआ - त्ता पु.. प्र. वि., ब. व. - [अभिषेकगृहप्रवेशनमंगल], अभिषेक-कक्ष या राज्याभिषेक राजानो किर अभिसित्तमत्तायेव धम्मभेरि चरापेन्ति ... पारा. के गृह में प्रवेश से सम्बन्धित मांगलिक अनुष्ठान - दुतियदिवसे अट्ठ. 1.236; - हदय त्रि., ब. स. [अभिषिक्तहृदय], पन नन्दस्स राजकुमारस्स अभिसेकगेहप्पवेसनविवाहमङ्गलेस सुसिञ्चित अथवा आर्द्र हृदय वाला/वाली- यो पु०. प्र. वत्तमानेसु .... जा. अट्ठ. 1.100. वि., ए. व. - ... अमतेनेव अभिसित्तहदयो अत्तमनो... हुत्वा अभिसेकट्ठान नपुं.. तत्पु. स. [अभिषेकस्थान]. राजा का .... सु. नि. अट्ठ. 1.140.
अभिषेक किए जाने का स्थान – ने सप्त. वि., ए. व. -
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अभिसेकद
515
अभिहट
अभिसेकिकन्ति रओ अभिसेकट्ठाने छड्डितचीवरं विसुद्धि 1.61. अभिसेकद त्रि., राज्याभिषेक को कार्यान्वित करने वाला, राज्याभिषेक देने वाला - दो पु.. प्र. वि., ए. व. - महाब्रह्मा ठितो तत्थ रजतच्छत्तधारको, विजयुत्तरसङ्घन सक्को च
अभिसेकदो, म. वं. 30.74. अभिसेकमङ्गल नपुं, तत्पु. स. [अभिषेकमङ्गल], अभिषेक का महोत्सव, अभिषेक का मांगलिक समारोह - लं प्र. वि., ए. व. - नन्दकुमारं अभिसेकमङ्गलं न तथा पीळेसि, अ. नि. अट्ठ. 1.238; - निद्देस पु., चू. वं. के 72वें परिच्छेद का शीर्षक - सो प्र. वि., ए. व. - इति ... महावंसे अभिसेकमङ्गलनिद्देसो नाम द्वासत्ततिमो परिच्छेदो, चू, वं. (पृ.) 322; - पोक्खारणी स्त्री., तत्पु. स. [अभिषेकमङ्गलपुष्करिणी], राज्याभिषेक जैसे मांगलिक उत्सवों पर प्रयोग में लाया जाने वाला सरोवर, वैशाली में स्थित लिच्छवी राजकुमारों का एक सरोवर - णियं सप्त. वि., ए. व. - ... अभिसेकमङ्गलपोक्खरणियं ओतरित्वा न्हत्वा पानीयं पातुकामाम्हिसामोति, ध. प. अट्ट, 1.198. अभिसेकमण्डप पु., राज्याभिषेक के महोत्सव के अवसर पर खड़ा किया गया मण्डप - पं द्वि. वि., ए. व. - ते तावदेव अभिसेकमण्डपं कत्वा राजधीतरं सब्बालङ्कारेहि अलङ्करित्वा उय्यानं आनेत्वा कुमारस्स अभिसेकं अकंसु, पे. व. अट्ठ. 64. अभिसेकारह त्रि., [अभिषेकाह], अभिषेक करने के लिए सर्वथा योग्य या उपयुक्त - हो पु.. प्र. वि., ए. व. - आभिसेकोति जेट्टोपि न अभिसेकारहो आसं न करोति ..., अ.. नि. अट्ठ. 2.79. अभिसेकासा स्त्री., तत्पु. स. [अभिषेकाशा], अभिषेक की आशा - पुब्बे अनभिसित्तस्स अभिसेकासा सा पटिप्पस्सद्धा, अ. नि. 1(1).131. अभिसेकित त्रि., अभिसेक का भू. क. कृ., अभिषिक्त, राज्याभिषिक्त, अभिषेक किया हुआ - तं पु., द्वि. वि., ए. व. - इमिना अभिसेकेन अभिसेकितं महाराजं करोन्ति, म. वं. टी. 305. अभिसेकिय त्रि., [अभिषेक्य], अभिषेक के स्थान या अभिषेक की क्रिया के साथ जुड़ा हुआ - यं पु., प्र. वि., ए. व. - थूपचीवरिकञ्चेव, तथैव अभिसेकियं, उत्त. वि. 664; तुल., अभिसेकिक. अभिसेकोपकरण नपुं.. [अभिषेकोपकरण], राज्याभिषेक के लिये आवश्यक उपकरण या सामग्री, राजा के राज्याभिषेक
के लिए आवश्यक वस्तुएं - णं प्र. वि., ए. व. -
अभिसेकोपकरणं परिवारविसेसितं, म. वं. 11.32. अमिसेचन नपुं, अभि + सिच से व्यु., क्रि. ना. [अभिषेचन], अभिषेक, राज्याभिषेक - नं प्र. वि., ए. व. - अग्गहिं मत्तिकापत्तं, इदं दुतियाभिसेचनान्ति, थेरगा. 97; -- ककम्म नपुं, तत्पु. स. [अभिषेचनकर्म], राज्याभिषेक का कार्य - म्म द्वि. वि., ए. व. - आपो सिञ्चं यजं उस्सेति यूपन्ति अभिसेचनककम्मं करोन्तो, जा. अट्ठ. 4.269. अभिसेचयु अभि + सिच का अद्य., प्र. पु., ब. व., प्रेर., राज्याभिषेक कराया, राजपद पर अभिषिक्त किया - मा में रज्जाभिसेच', जा. अट्ठ. 6.19; चेता रज्जेभिसेचयु, जा. अट्ठ. 7.277. अभिसेति अभि + सि का वर्त., प्र. पु., ए. व. [अधिश्रयति]. शरण ग्रहण करता है, आश्रय ग्रहण करता है, सहारा लेता है - अभिसेतीतिपि पाठो... अल्लीयति अपस्सयतीति अत्थो. सु. नि. अट्ठ. 2.182. अभिसेवन नपुं., स. उ. प. के रूप में ही प्राप्त [अधिसेवन, अनुसरण, अनुसेवन, लगाव, लाग लपेट - नं प्र. वि., ए. व. - पुञकम्मं विवज्जेत्वा पापकम्माभिसेवनं, सद्धम्मो. 210. अभिस्सवति अभि + सु का वर्त., प्र. पु., ए. व. [अभिस्रवति, किसी दिशा की ओर बहता या प्रवाहित होता है, भीतर की
ओर बहता है -न्ति ब. व. - तत्थ नज्जोति निन्ना हुत्वा सन्दमाना अन्तमसो कुन्नदियोपि गङ्ग अभिस्सवन्ति, जा. अट्ठ. 6.187. अभिहंसति अभि + हंस का वर्त०, प्र. पु., ए. व. [अभिहंसति/अभिहृष्यति], प्रहर्षित होता है, आनन्दमग्न होता है, प्रमुदित हो जाता है - सोतेन सदं सुत्वा ... मनापं नाभिज्झति नाभिहसति, स. नि. 3(1).90; नाभिहंसतीति न सामिसाय तुहिया अभिहसति, स. नि. अट्ठ. 3.182. अभिहट त्रि., अभि + हर का भू. क. कृ. [अभिहत], लाया गया, भेंट या उपहार के रूप में लाया गया - टं स्त्री., द्वि. वि., ए. व. - न एहिभद्दन्तिको, न तिट्ठभद्दन्तिको, नाभिहट दी. नि. 1.150; अभिहटन्ति पुरेतरं गहेत्वा आहट भिक्खं दी. नि. अट्ठ. 1.264; दिस्वा अभिहट अग्गं, ..., जा. अट्ठ. 5.373; - टानं ष. वि., ब. व. - अभिहारानन्ति सतं वा सहस्सं वा उक्खिपित्वा अभिहटानं दायानं, स. नि. अट्ठ. 3.232; - टे सप्त. वि., ए. व. - एको अभिहटे भत्ते पवारणाय भीतो हत्थ अपनेत्वा .... पाचि. अट्ठ. 83.
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अभिहत
516
अमिहार
अभिहत त्रि., अभि + हन का भू. क. कृ. [अभिहत], चोट
खाया हुआ, प्रभावित, पीड़ित, विनाशित - तो प्र. वि., ए. व. - व्याधिना अभिहतो, अ. नि. अट्ठ. 2.119; - ता पु., प्र. वि., ब. व. - ते जरायभिहता न सोभरे, थेरीगा. 257; जरायभिहताति जराय अभिहता, थेरीगा. अट्ठ. 234; - तानं नपुं.. ष. वि., ब. व. - ताव तेनाभिहतानं नीवरणानं यथासकं ... अनुप्पत्तिसङ्घात पहानं, सु. नि. अट्ठ. 1.9. अभिहनति/अभिहन्ति अभि + Vहन का वर्तः, प्र. पु., ए. व. [अभिहन्ति], मारता है, प्रहार करता है, आघात पहुंचाता है, घायल करता है, विनष्ट करता है, भगा देता है, तितर- बितर कर देता है, दूर करता है - सा तं लेडुदण्डादीहि मुडिआदीहि च अभिण्हं अभिहनति, वि. व. अट्ट. 174; - न्ति ब. व. - ... "उच्छु गहेस्सामी ति उपगतमत्ते तं उच्छू अभिहनन्ति, पे. व. अट्ठ. 223; - नन्ता वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ब. व. - पासाणा निरन्तरा अञमञ अभिहनन्ता पतन्ति , स. नि. अट्ठ. 1.155; - नि अद्य., प्र. पु., ए. व. - दुग्गन्धो नासापुटं अभिहनि, स. नि. अट्ठ. 1.275; - निस्सति भवि., प्र. पु., ए. व. - ... सङ्गामं पविसित्वा पच्चामित्तानं कवचं अभिहनिस्सति भिन्दिस्सति ... सपत्तानं कवचं हनिस्सति, जा. अट्ठ. 4.83; - न्तुं निमि. कृ. - ... मम विसतेजो अञस्स तेजेन अभिहन्तुम्पिन सक्का, जा. अट्ठ. 5.167; - त्वा पू. का. कृ. - अभिविहच्चाति अभिहन्त्वा विधमित्वा, इतिवु. अट्ठ. 79. अभिहरति अभि + हर का वर्त., प्र. पु., ए. व. [अभ्याहरति], शा. अ. (किसी की ओर) ले जाता है, ला. अ. क. उपहार के तौर पर ले जाता है, उपहार के रूप में देता है - उय्यानपालो उय्याने नानप्पकारानि पुप्फफलानि गहेत्वा दिवसे दिवसे रो अभिहरति, जा. अट्ठ. 1.60; - न्ति ब. व. - सब्बानि तानि उद्धं ओजं अभिहरन्ति, स. नि. 1(2).78; उद्धं ओजं अभिहरन्तीति ... आपोरसञ्च उपरि आरोपेन्ति, स. नि. अट्ठ. 2.74; सचे गामं पविट्ठस्स पातिसतेहिपि मत्तं अभिहरन्ति, स. नि. अठ्ठ. 2.194; - रन्तो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - गमने ताव पुरतो कायं अभिहरन्तो अभिक्कमति नाम, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).264; -- रन्तं द्वि. वि., ए. व. - अपरो भत्तं अभिहरन्तं भिक्खू सल्लक्खेत्वा ..., पाचि. अट्ठ. 83; - न्तु अनु०, प्र. पु., ब. व. - अन्नपानञ्च खज्जञ्च, खिप्पं अभिहरन्तु ते. जा. अट्ठ. 7.103; - रेय्य विधि., प्र. पु., ए. व. - पुरिसो
ओ चक्कवत्तिस्स मधुं वा मधुपिण्डकं वा अनं वा उपायनं
अभिहरेय्य, मि. प. 154; - रेय्याथ म. पु., ब. व. - तेन मे अभिहरेय्याथ यमस्स, पतिरूपं म य्याथा ति, म. नि. 1.302; - अब्मिहासि [अभ्यहार्षीत], अद्य., प्र. पु., ए. व. - अचोदिता आसनमभिहासि, जा. अट्ठ. 5.163; अभिहासीति अभिहरि अत्थरीति वुत्तं होति, तदे; - अमिहासिं उ. पु., ए. व. - सुधाभिहासिं तुरितो महामुनि, जा. अट्ठ. 5.393; -- हरि अद्य., प्र. पु., ए. व. - राजा अलङ्कतपटियत्तं कुमार आहरापेत्वा तापसं वन्दापेतुं अभिहरि जा. अट्ट. 1.65; - हरि अद्य., उ. पु., ए. व. - तत्थ सुधाभिहासिन्ति इम सुधाभोजनं तुव्ह अभिहरिं जा. अट्ठ. 5.393; - हरिंसु अद्य., प्र. पु.. ब. व. - थालिपाकसतानि भत्ताभिहारं अभिहरिंसु, म. नि. 1.302; - रितुं निमि. कृ. - न सक्का केनचि तव पण्णाकारत्थाय अभिहरितुन्ति अत्थो, जा. अट्ठ. 4.379; -- हारितुं निमि. कृ. - न ते सो अभिहारितु न्ति, जा. अट्ठ. 4.379; - हरितब्ब त्रि., सं. कृ. - भत्ताभिहारोति अभिहरितब्बभत्तं, दी. नि. अट्ट, 2.202; स. नि. अट्ठ. 2.186%; - हरित्वा पू. का. कृ. - एको समंसक रसं अभिहरित्वा "रसं गण्हथाति वदति, पाचि. अट्ठ. 83; ला. अ. ख. (खाने पीने में) साझीदार या भागीदार होता है, पकड़ने के लिए हाथ पसारता है, पास ले जाता है - पवारितो नाम असनं पायति, भोजनं पायति, हत्थपासे ठितो अभिहरति, पाचि. 113; अभिहरतीति हत्थपासमन्तरे ठितो गहणत्थं उपनामेति, पाचि. अट्ठ. 82; इमस्स वा अभिहरति, स. नि. 3(1).227; अभिहरतीति गहणत्थाय हत्थं पसारेति. स. नि. अट्ठ. 3.232; ला. अ. ग. इधर-उधर से (उद्धरण) लाकर व्याख्यान कर देता है - सचाय, भिक्खवे, पुग्गलो पन्हं पुट्ठो समानो अभिहरति...., अ. नि. 1(1).228; अभिहरतीति इतो चितो सुत्तं आहरित्वा अवत्थरति, अ. नि. अट्ठ. 2.181. अभिहरीयति अभि + Vहर का वर्त, प्र. पु.. ए. व., कर्म. वा. [अभिहियते], ले आया जाता है - पञ्च च ... भत्ताभिहारो अभिहरीयति, चूळव. 321; - रियित्थ अद्य., प्र. पु.. ए. व. - अहेसं सायं पातं भत्ताभिहारो अभिहरियित्थ, दी. नि. 2.140. अभिहार पु., [अभिहार], कहीं से लाया हुआ उपहार या भेंट, राशि, बन्धन, समूह, किसी के समीप जा पहुंचना - रो प्र. वि., ए. व. - उपहारोभिहारेपि चयो बन्धनरासिसु, अभि. प. 1128; तत्थ दुविधो अभिहारो- वाचाय चेव कायेन च दी. नि. अट्ठ. 1.140; अभिहारो पञआयति, पाचि. अट्ठ, 98; - रं द्वि. वि., ए. व. - अव्हानं नाभिनन्देय्य, अभिहारञ्च गामतो, सु. नि. 715; अभिहारं इमं दज्जा, अत्थधम्मानुसिट्ठियाति,
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517
अभिहारेति
अभुञ्जितब्ब जा. अट्ठ. 5.52; अभिहारञ्च गामतोति सचे गामं पविट्ठस्स गया, अभिव्यक्त - तं पु., वि. वि., ए. व. - भासितं लपितं जातिसतेहिपि भत्तं अभिहरन्ति, तस्मिं नाभिनन्देय्य सु. नि.. वुत्ताभिहताख्यातजप्पिता, अभि. प. 755; - तं पु., द्वि. वि., अट्ठ. 2.194;- हारे सप्त. वि., ए. व. -दुक्कट अभिहारे च, ए. व. - न निरोधा ति अन्तोगधनियमेहि वचनेहि अभिहितं गहणे इतरस्स हि, विन. वि. 1315; - रानं ष. वि., ब. व. ..... उदा. अट्ठ. 34; - कत्ता पु.. [अभिहितकर्ता], क्रिया या - न लाभी अभिहारानं, स. नि. 3(1).228; अभिहारानन्ति सतं आख्यात द्वारा कहा गया कर्ता - तत्थ परिसो मग्गं गच्छति, वा सहस्सं वा उक्खिपित्वा अभिहटानं दायानं, स. नि. अट्ठ. अयं अभिहितकत्ता, आख्यातेन कथितत्ता, सद्द. 3.691; - 3.232; -- हारा प्र. वि., ब. व. - एत्थ वे अभिहारा कम्म नपुं.. कर्म. स., प्र. वि., ए. व. [अभिहितकर्म]. क्रिया वाचाभिहारो च पच्चयाभिहारो च, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) द्वारा कहा गया कर्म - "नागो मणिं याचितो 1(2).162; - क त्रि., [अभिहारक], दिये गये उपहार को ब्राह्मणेन इच्चेवमादिसु बुद्धादयो अभिहितकम्मं नाम, सद्द. स्वीकार करने वाला - कस्स ष. वि., ए. व. -- महासुमनत्थेरो 3.693. ताव अभिहारकस्स गमनं पठमं उपच्छिन्नं तस्मा पवारेतीति अभीत त्रि., अभि + vभी के भू, क. कृ. का निषे. [अभीत], आह, पाचि. अठ्ठ. 84.
निर्भय, भयमुक्त, निडर - तो पु.. प्र. वि., ए. व. - अच्छम्भी अभिहारेति अभि + Vहर, प्रेर. का वर्त., प्र. पु., ए. व. च अभीतो च, व्याकासिं सत्थुनो अहं, थेरगा. 482; अभय [अभिहारयति], क. उपहार के रूप में किसी के समीप ले सम्म ते दम्मि, अभीतो भण सारथि, जा. अट्ठ. 6.24; - नाद आने या ले जाने देता है, अभिहरण के लिए प्रेरित करता पु., तत्पु. स. [अभीतनाद], भयमुक्त व्यक्ति का गर्जन या है, अभिहरण कराता है, भिजवाता है - रेसु अद्य.. प्र. पु., दहाड़, निर्भय मनुष्य का ठहाका या अट्टहास - दं द्वि. वि., ब. व. - हंसानं अभिहारेसु अग्गरओ पवासितन्ति, जा. ए. व. - तत्थ सीहनादन्ति सेट्ठनादं अभीतनादं अप्पटिनादं अट्ठ. 5.373; अभिहारेसुन्ति उपनामेसु. तदे. - रयिं अद्य... अ. नि. अट्ठ. 2.175; - रूप त्रि., ब. स., भयमुक्त या निडर उ. पु., ए. व. - गेहतो निक्खमित्वान उय्यानमभिहारयिं, चेहरे मोहरे वाला - पो पु., प्र. वि., ए. व. - अभीतरूपो थेरीगा. 146; उय्यानमभिहारयिन्ति नक्खत्तकीळावसेन उय्यानं तत्थासिं, मिगराजा चतुक्कमो, अप. 1.47; - पं पु., द्वि. वि., उपनेसिं थेरीगा. अट्ठ. 153; - रयु अद्य., प्र. पु., ब. व. ए. व. - अभीतरूपं सीहंव, गरुळग्गंव पक्खिनं अप. 1.117; - बहु अन्नञ्च पानञ्च, पण्डितस्साभिहारयु. जा. अट्ठ. - पा स्त्री., प्र. वि., ए. व./ब. व. - अभिरूपा विचराम 7.226; तत्थ अभिहारयुन्ति पेसेसं तदे.; ख. क्रम में किसी अण्णवे ति, जा. अट्ठ. 3.459. स्थान पर पहुंचाता है, उपहार या दान देने हेतु प्रेरित अभीरु त्रि., [अभीरु], भयमुक्त, निडर - रु पु., प्र. वि., ए. करता है, विचरण करता है - रेसि अद्य., प्र. पु., ए. व. व. - ... कतूपासनो अभीरु अच्छम्भी अनुत्रासी अपलायी, स. - पिण्डाय अभिहारेसि, आकिण्णवरलक्खणो, सु. नि. 410; नि. 1(1).118; - नो ब. व. - सूरा ति अभीरुनो, अ. नि. पिण्डाय अभिहारेसीति भिक्खत्थाय तस्मिं नगरे चरि सु. नि. अट्ठ. 3.177; - जातिक त्रि., ब. स. [अभीरुजातिक], अद्ध. 2.101; - रये विधि., प्र. पु., ए. व. - स पिण्डचारं निर्भय स्वभाव का - को पु., प्र. वि., ए. व. - तस्मा चरित्वा, वनन्तमभिहारये, सु. नि. 713; वनन्तमभिहारयति भीरुकजातिको भिक्खु खिप्पमेव तत्थ.... पारा. अठ्ठ. 1.301; अपपञ्चितो गिहिपपञ्चेन वन एव गच्छेय्य, सु. नि. अट्ट - का ब. व. - सूराति अभीरुकजातिका, दी. नि. अल. 2.193; - रेसि अद्य., प्र. पु., ए. व. - पण्डवं अभिहारेसि, 1.202. एत्थ वासो भविस्सति, सु. नि. 416; पण्डवं अभिहारेसीति तं अभुजिस्सभावकरण नपुं., मुक्ति - तो प. वि., ए. व. - पब्बतं अभिरुहि, सु. नि. अट्ठ. 2.102; ग. पहुंचना, समीप सत्तवणिज्जा अभुजिस्सभावकरणतो..., लीन (दी. नि. टी.) में पहुंचा देना अथवा प्राप्त करा देना - हारये विधि., प्र. 1.250. पु., ए. व. - अत्तना चोदयत्तानं, निब्बानमभिहारये, थेरगा अमुजितब्ब त्रि., vभुज के सं. कृ. का निषे. [अभोक्तव्य], 637; निब्बानमभिहारयेति, अत्तानं निब्बानं अभिहरेय्य न खाने योग्य, अभक्ष्य, अखाद्य - बं नपुं, प्र. वि., ए. व. उपनेय्य, थेरगा. अट्ठ. 2.200,
- अभोजनेय्यन्ति अभुजितब स. नि. अट्ठ. 1.205; नियतेतं अभिहित त्रि., अभि + vधा का भू. क. कृ. [अभिहित], कह अभुत्तब्बन्ति एतं नियतिवसेन तया अभुजितब्बं भविस्सति, दिया गया, बोला गया, घोषित किया गया, सम्बोधित किया। जा. अट्ठ. 7.118.
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अभुत्त 518
अभूमि अभुत्त त्रि., vभुज के भू. क. कृ. का निषे. [अभुक्त], वह, 2.48; - गुणकथा स्त्री., तत्पु. स. [अभूतगुणकथा], चापलूसी जिसने खाया नहीं है, वह भोजन, जो अभी तक खाया नहीं भरी बात - थं द्वि. वि., ए. व. - "यंनूनाहं एतस्स गया है, वे विषयभोग या गतियां, जिनका अनुभव अभी तक अभूतगुणकथं कथेत्वा मंसं खादेय्य न्ति चिन्तेत्वा .... जा. नहीं किया गया है - त्तेन पु., तृ. वि., ए. व. - नेन । अट्ठ. 2.364; - ततब्भाव पु., [अभूतताव], जो पहले पवारणप्पहोनकं भोजनं अभुत्तेन कतं, पाचि. अट्ट. 85. विद्यमान न हो उसका होना, बनना या बदलना - वे अभुत्तब्ब त्रि., 'भुज के सं. कृ. का निषे. [अभोक्तव्य], न सप्त. वि., ए. व. - कत्तुतो अभूततब्भावे आयो होति बहुलं,
खाने योग्य, नहीं भोगने योग्य – तब्बं नपुं॰, प्र. वि., ए. व. .... मो. व्या. 5.9; - पुब्ब त्रि., [अभूतपूर्व], वह, जो पहले - नियतेतं अभुत्तब्बन्ति एतं नियतिवसेन तया अभुजितब्बन्ति न हुआ हो या जिससे आगे कोई भी न बढ़ा हो, अदभुत - भविस्सति, जा. अट्ठ. 7.118.
ब्बो पु०, प्र. वि., ए. व. - तत्थ अभुतोति अभूतपुब्बो, जा. अभुत्तावी त्रि०, भुज के पू. का. कृ. का निषे०, क. वह, अट्ठ. 6.125; - ब्बा स्त्री॰, प्र. वि., ए. व., अद्वितीय नारी जिसने पूरी तरह तृप्त होकर नहीं खाया, छककर भोजन - पुरिसा हि इत्थियो, इत्थियो वा पुरिसा अभूतपुब्बा नाम न किया हुआ व्यक्ति - ना पु., तृ. वि., ए. व. - अभुत्ताविना नत्थि , ध. प. अट्ट, 1.186; - ब्बं नपुं. प्र. वि., ए. व. - कतन्ति यो अलमेतं सब्बन्ति अतिरित्तं करोति, तेन अभूतपुब्बं भूतन्ति अब्भुतं. म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.2; - पवारणप्पहोनकं भोजनं अभुत्तेन कतं, पाचि. अट्ठ. 85; तभक्खानसंवत्तनिक त्रि., [अभूताख्यानसंवर्तनिक], जो अभुत्ताविना कतं होति, पाचि. 114; ख. विषयभोगों का वास्तव में नहीं है, उसके कथन में परिणत होने वाला - आनन्द न लेने वाला - वी पु.. प्र. वि., ए. व. - को पु., प्र. वि., ए. व. - मुसावादो अभूतभक्खानसंवत्तनिको, अनिक्कीळितावी कामेसूति कामेसु अकीळिकीळो अभुत्तावी, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.48; - भाव पु.. [अभूतभाव], अकतकामकीळोति अत्थो, स. नि. अट्ठ. 1.39.
पूर्वकाल में अविद्यमानता, पहले विद्यमान नहीं रहना - वं अभू क, स्त्री., वृद्धि का अभाव, हानि, ख. त्रि., पूर्वकाल में द्वि. वि., ए. व. - ... तस्स अभूतभावं अत्वा समग्गा हुत्वा घटित न होने वाला/वाली - अभूति वुद्धिविरहिता कथा न अनुक्कमेन तमेव आवासं पच्चागमिंसु, पे. व. अट्ठ. 12; - भूतपुब्बाति वा अभू सद्द. 1.84.
वेन तृ. वि., ए. व. -- यं अभूतं तं अभूतभावेनेव, अपनेतब्ब अभूत त्रि., भू के भू. क. कृ. का निषे. [अभूत], क. अभी दी. नि. अट्ठ. 1.50; - वाद पु., [अभूतवाद], मिथ्या कथन, तक अस्तित्व में न आया हुआ, वह, जो हुआ ही न हो, असत्य कथन - देन तृ. वि., ए. व. - नो अभूतवादेनाति, अजन्मा, ख. अवास्तविक, मिथ्या, अयथार्थ, वितथ, असत्य, मि. प. 168; - वादी त्रि.. [अभूतवादिन], असत्यवादी, मृषा - तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अस्थि भिक्खवे, अजातं अपनी कही बात को पूरा न करने वाला - दी पु.. प्र. वि., अभूतं अकतं असतं, इतिवु. 27; - तं नपुं., वि. वि., ए. ए. व. - अभूतवादी निरयं उपेति, यो वापि कत्वा न करोमि व. - अहं अभूतं न पस्सामि, जा. अट्ठ. 5.350; - ता स्त्री.. चाह, ध. प. 306; - विपाक पु., [अभूतविपाक], निरर्थक प्र. वि., ए. व. - सा अभाव अभूता अतच्छा, जा. अट्ट. विपाक, अवास्तविक विपाक - का प्र. वि., ब. व. - 1.260-61; - तं स्त्री., द्वि. वि., ए. व. - यं तथागतो वाचं द्वेधाविपाकाति भूतविपाका वा अभूतविपाका वा, म. नि. अट्ठ. जानाति अभूतं अतच्छं.... म. नि. 2.64; अभूतन्ति अभूतत्थं, (म.प.) 2.299; - ताकार पु., कर्म. स. [अभूताकार]. म. नि. अठ्ठ. (म.प.) 2.79; - ता पु.. प्र. वि., ब. व. - ये अयथार्थ स्वरूप, अवास्तविक प्रकृति- रेन तृ. वि., ए. व. धम्मा अजाता अभूता असञ्जाता, ध. स. 1045; - तं नपुं.. - ... मायामरीचिआदयो विय अभूताकारेन अग्गहेतब्बो भूतहो, द्वि. वि., ए. व. -- त्वं अभूतं वत्वा वेदे च यज्ञ च ब्रह्मणो कथा. अट्ठ. 108; - तारोचन नपुं, तत्पु. स. [अभूतारोचन],
च वण्णेसि, जा. अट्ठ. 7.52; - तेन त. वि., ए. व., क्रि. मिथ्या या अवास्तविक कथन, मिथ्या घोषणा - ने सप्त. वि., वि., अयथार्थ रूप में - ... अभूतेन अतच्छेन पर ए.व. - अभूतारोचने तरस, गरुकापत्ति दीपिता, उत्त. वि. 445. अब्भाचिक्खन्तो, उदा. अट्ठ. 211; अभूतेनाति-वादञ्च जातं. अभूमि स्त्री., [अभूमि], अनुपयुक्त स्थान या स्थल, अपात्र, महानि. 44; - तक्खान नपुं.. कर्म. स. [अभूताख्यान, अनुचित क्षेत्र - मि प्र. वि., ए. व. - इतो परं तुय्ह अभूमि, असत्य का कथन, जो वास्तव में नहीं है उसका कथन - दी. नि. अट्ठ. 201; - मि द्वि. वि., ए. व. - अभूमि तात मुसावादो अभूतब्यक्खानसंवत्तनिको, म. नि. अट्ठ. (म.प.) सेवसि, जा. अट्ठ. 3.223.
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अभेज्ज
519
अभोग
अभेज्ज त्रि., भिद के सं. कृ. का निषे. [अभेद्य], शा. अ.
नहीं टूटने या फूटने योग्य, अविभाज्य, अखण्ड्य, ला. अ. विश्वासपात्र (मित्र), किसी के भी द्वारा विलग न करने योग्य (मित्र), फूट न डालने योग्य - ज्जं नपुं॰, प्र. वि., ए. व. --- वजिरस्स नत्थि किञ्चि अभेज्ज मणि वा पासाणो वा, अ. नि. 1(1).147; - ज्जो पु., प्र. वि., ए. व. - विस्सासो थिरो अहोसि केनचि अभेज्जो. जा. अट्ठ. 3.8; - ज्जा' स्त्री., प्र. वि., ए. व. - निच्चा धुवा सस्सता अच्छेज्जा अभेज्जा अक्खया ति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).299; - ज्जा ब. व. -- अभेज्जास्स होन्ति परिसा, दी. नि. 3.129; - कवचजालिका स्त्री., कर्म. स., अभेद्य कवच - कं द्वि. वि., ए. व. - इध, महाराज, पुरिसो सङ्गामसूरो अभेज्जकवचजालिक सन्नरिहत्वा सङ्गामं ओतरेय्य, मि. प. 190; - कायता स्त्री., भाव., शरीर का अभेद्य रहना - ताय तृ. वि., ए. व. - अभेज्जकायताय परुपक्कमेन चम्मच्छेदं कत्वा ..., अ. नि. अट्ट. 1.341; - चित्त त्रि., ब. स. [अभेद्यचित्त], अविकृत चित्त वाला, वह व्यक्ति, जिसके चित्त या मन को भ्रष्ट या प्रदुष्ट न किया जा सके - त्तानं ष. वि., ब. व. - अनोसक्कनं समग्गभावेन अभेज्जचित्तानं ... थिरो अहोसि, जा. अट्ठ. 3.6; - परिवार त्रि., ब. स. [अभेद्यपरिवार]. वह, जिसके परिवार या अनुगामियों को भिन्न या विलग न किया जा सके, एकता के सूत्र से बंधे हुए समूह वाला - रो पु., प्र. वि., ए. व. - अभेज्जपरिवारो सो जायते थिरमानसो, प. ग. दी. 97(रो.); - परिस त्रि., ब. स. [अभेद्यपरिषद], एकताबद्ध अनुयायियों वाला, वह, जिसके अनुयायियों एवं साथियों में भेद न डाला जा सके - सो पु., प्र. वि., ए. व. - अभेज्जपरिसो होति, अभेज्जास्स होन्ति परिसा, ब्राह्मणगहपतिका, दी. नि. 3.129; अभेज्जपरिसोति
अभिन्दितब्बपरिसो, दी. नि. अट्ठ. 3.109; - परिसता स्त्री., भाव., अनुयायियों या साथियों की एकजुटता - ता प्र. वि., ए. व. - अभेज्जपरिसता आनिसंसो, दी. नि. अट्ठ. 3.109; लोकपियता नेलता अभेज्जपरिसता अच्छम्भिता, खु. पा. अट्ठ. 23; - परिस-पह पु., मि. प. के एक खण्ड का शीर्षक, जिसमें बुद्ध के भिक्षुसंघ की अभेद्यता या एकजुटता के विषय में राजा मिलिन्द का प्रश्न है, मि. प. 159; - मन्त त्रि., ब. स., वह, जिसकी गुप्त बातें बाहर प्रकट न हो सकें - तस्स पु., ष. वि., ए. व. - अमच्चबलन्ति अभेज्जमन्तस्स सूरस्स ... अत्थिता, जा. अट्ठ. 5.117; - वरसूर पु.. [अमेद्यवरशूर], विश्वासी एवं उत्तम वीर -- रा प्र. वि., ब.
व. - रज्ज गहेतुं समत्था सहस्समत्ता अभेज्जवरसूरा महायोधा होन्ति, जा. अट्ट, 1.255; - रूप त्रि., ब. स. [अमेद्यरूप], विश्वस्त चरित्र वाला, भरोसेमन्द स्वभाव से युक्त - पेहि पु., तृ. वि., ब. व. - अभेज्जरूपेहि सुचीहि मन्तिभि, जा. अट्ठ. 3.280; - समाधि पु., [अभेद्यसमाधि], शान्त समाधि, निर्विकार समाधि, अविचलित समाधि - घि प्र. वि., ए. व. - समग्गभावेन मनसो अभेज्जो , अभेज्जसमाधि, जा. अट्ठ. 3.6; - सहाय पु.. [अभेद्यसहाय], विश्वासपात्र मित्र, कभी साथ न छोड़ने वाला साथी - यो प्र. वि., ए. व. - सद्धि अभेज्जसहायो हुत्वा यावजीवं समग्गवासं वसि, जा. अट्ट. 3.43; - हदय त्रि., ब. स. [अभेद्यहृदय], एकजुटता के भाव से भरपूर चित्त वाला, निष्ठावान हृदय वाला - येहि पु., तृ. वि., ब. व. - ... मन्तीहि अभिज्जहदयेहि सुसङ्गहितो सिरितो न धंसति, जा. अट्ठ. 3.280. अभेदनमुख नपुं., खुला निर्गम-द्वार, जो काट कर न बनाया गया हो - खानि प्र. वि., ब. व. - तस्सस्सु गण्डस्स नव वणमुखानि नव अभेदनमुखानि, अ. नि. 3(1).200; अभेदनमुखानीति न केनचि भिन्दित्वा कतानि, अ. नि. अट्ठ. 3.264. अभेद पु., केवल स. पू. प. के रूप में ही प्राप्त [अभेद], भेद का अभाव, अभिन्नता, समानता - दोपचार पु., औपचारिक रूप में या लाक्षणिक अर्थ में अभेद - रेन त. वि., ए. व. -- अभेदोपचारेन पन अक्खरस्स खत्तियसहस्सपि सेडताति, लीन. (दी. नि. टी.) 3.44. अभेदि भिद का अद्य., प्र. पु., ए. व., क. कर्तृ. वा., टूट गया, नष्ट हो गया - ... भिक्ख न गिलितबळिसो मारस्स अभेदि .... स. नि. 2(2).163; ख. कर्म. वा., तोड़ दिया गया, नष्ट किया गया - अभेदि कायो निरोधि सञा. उदा. 178; तत्थ अभेदि कायोति सब्बो भूतुपादायपभेदो चतुसन्ततिरूपकायो भिज्जि, उदा. अट्ठ.
350
अभेसज्ज नपुं., [अभैषज्य], औषधि या दवा से भिन्न कोई दूसरी वस्तु, दवा के रूप में काम न आने वाला - ज्ज प्र. वि., ए. व. - यं किञ्चि अभेसज्ज पस्सेय्यासि तं आहराति, महाव. 358. अभोग पु., [अभोग], गलत प्रयोग, अनुचित नियोजन - गेन तृ. वि., ए. व. - ... सचे अदेसे वा निक्खिपति अभोगेन वा भुञ्जति विस्सज्जेति वा .... पारा. 370; न
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अभोजन 520
अमड अभोगेनाति ... अपरिभोगेन न परिभजितब्बो, पारा. अट्ट अमक्ख पु., [अम्रक्ष], उपेक्षा या तिरस्कार का अभाव, 2.261; अपरिभोगेनाति अयुत्तपरिभोगेन, सारत्थ. टी. अनिन्दा, अनवज्ञा - क्खो प्र. वि., ए. व. - अमक्खो च 2.380.
अपळासो च..... अ. नि. 1(1).116. अभोजन नपुं.. [अभोजन], भोजन नहीं करना, नहीं अमक्खी त्रि., अनिन्दक, निन्दा न करने वाला, अवज्ञा या खाना - नं प्र. वि., ए. व. - अजज्जितन्ति अभोजनं म. उपेक्षा न करने वाला - क्खी पु., प्र. वि., ए. व. - नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).186; - नेन तृ. वि., ए. व. - तस्स यम्पावुसो भिक्खु अमक्खी होति अपळासी, म. नि. 1.136%; अभोजनेन सुद्धिकामो हुत्वा तं न भुञ्जति, सु. नि. अट्ट. भिक्खु अमक्खी होति, मक्खविनयरस वण्णवादी, अ. नि. 1.266.
3(2).142. अमोजनीय/अभोजनेय्य त्रि., (भुज के सं. कृ. का निषे. अमक्खिकमधु नपुं.. कर्म. स. [अमक्षिकमधु], मधुमक्खियों [अभोजनीय], अभोज्य, अखाद्य, खाने के अयोग्य, भोजन से रहित मधु - धुं द्वि. वि., ए. व. - अमक्खिकमधु के लिए सर्वथा निषिद्ध, अपवित्र - य्यं नपुं.. प्र. वि., पस्सामि तं खादन्तो नत्थी ति, सु. नि. अट्ठ. 1.50. ए. व. - गाथाभिगीतं मे अभोजनेय्यं, सु. नि. 81; अमक्खित त्रि., मक्ख के भू. क. कृ. का निषे., नहीं लीपाअभोजनेय्यन्ति भुञ्जनारहं न होति, सु. नि. अट्ठ. पोता गया, दूषित न किया गया, अकलुषित, अभ्रष्ट, अपवित्रता 1.119; - य्यं द्वि. वि., ए. व. - बहुम्पि भुजेय्य अभोजनेय्यं, से रहित, शुद्ध, असंलिप्त - तो पु.. प्र. वि., ए. व. - जा. अट्ठ. 5.15; अभोजनेय्यन्ति भुजितुं अयुत्तं, जा. अट्ठ. विसदोव निक्खमति अमक्खितो उदेन अमक्खितो सेम्हेन 5.17.
अमक्खितो रुहिरेन अमक्खितो केनचि असुचिना सुद्धो अभ्यावहरण/अज्झोहरण नपुं.. [अभ्यवहरण], भोजन विसदो, म. नि. 3.165. करना, खाना, गले के नीचे ले जाना - णेसु सप्त. वि., अमक्खेत्वा मिक्ख के पू. का. कृ. का निषे०, न बिगाड़ कर, ब. व. - भुज पालनाभ्यावहरणेस. सद्द. 2.471.
विनाश न करके, कलुषित या दूषित न करके, अशुद्ध न अभ्यास' पु.. [अभ्यास], बार बार दुहराना, पुनरावृत्ति प्रशिक्षण, करके - व्यञ्जनं अमक्खेत्वा तया कथितगाथानं पन मयह शिक्षा, केवल स. उ. प. के रूप में ही प्राप्त, सराभ्यास आदि अत्थो, जा. अट्ठ.4.242; व्यञ्जनं अमक्खेत्वा सुद्ध भासितानं के अन्तः , द्रष्ट. (आगे).
...., जा. अट्ठ. 4.243. अभ्यास पु.. [अभ्याश], समीपता, निकटता, आसन्नता, अमक्खेन्त ।मक्ख के वर्त. कृ. का निषे०, विकृत न करते नजदीकी, पड़ोस- समीपं निकटासन्नो पकट्ठाभ्याससन्तिके. हुए, विनष्ट न करते हुए, दूषित न करते हुए - न्तो पु., अभि. प. 705.
प्र. वि., ए. व. - पुब्बापरञ्च अमक्खेन्तो आचरियेहि दिन्ननये अम' अमगमने [अं गतौ], जाने के अर्थ में प्रयुक्त एक ठत्वा, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).151; अमक्खेन्तोति धातु - अम दम हम्म मीम छम गतिम्हि सद्द. 2.412; अम अविनासेन्तो, म. नि. टी. (मू.प.) 1(2).176. याते..., धा. मं. 55; अम गमने, मो. धा. 192; हन-जन-भा- अमग्ग पु. [अमार्ग], अनिर्धारित मार्ग, कुमार्ग, अनुचित मार्ग रिखनु अम-वे-धे-धा-सि-कि-हि इच्चेवमादीहि धातूहि नुणु- - ग्गेन तृ. वि., ए. व. - अमग्गेन पथं मापेत्वा याम, तु इच्चेते पच्चया होन्ति, क. व्या. 673.
जा. अट्ठ. 5.370; - ग्गे सप्त. वि., ए. व. - अम रोग के अर्थ में प्रयुक्त एक धातु - अम रोगे, मेति मग्गामग्गववत्थानेन अमग्गे मग्गसआय, सु. नि. अट्ठ.1. अमयति, अन्धो, सद्द. 2.558; अमरोगतादिसु.धा. मं. 139; 8; - कुसल त्रि., [अमार्गकुशल]. वह, जो मार्ग के विषय खाद-अम-गमु इच्चेतेसंधातूनं खन्ध अन्ध-गन्धादेसा होन्ति में निपुण न हो, मार्ग का अज्ञाता - लो पु., प्र. वि., ए. व. कप्पच्चयो च, क. व्या. 666.
- एको पुरिसो अमग्गकुसलो... तमेनं सो अमग्गकुसलो अमकस त्रि., ब. स. [अमशक]. मच्छड़रहित मच्छड़ों से पुरिसो अमुं मग्गकुसलं पुरिसं मग्गं पुच्छेय्य, स. नि. मुक्त - से सप्त. वि., ए. व. - ते हि सोत्थिं गमिस्सन्ति, कच्छे वामकसे मगा, स. नि. 1(1).62; ते अमङ्क त्रि., [अमङ्क, घबराहट रहित, पछतावारहित, निराशा अमकसे पब्बतकच्छे वा नदीकच्छे वा मगा विय सत्थिं गमिस्सन्तीति से मुक्त, विशारद - भाव पु., [अमभाव], निर्भीकता, स. नि. अट्ठ. 1.98.
तेजस्वी होना - वो प्र. वि., ए. व. - अविष्पटिसारो
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अमच्च
521
अमज्ज
उपदहाब्बोति अमङभावो उपमेतब्बो, अ. नि. अट्ठ. 3.61; - यथा राजा, अमच्चपरिवारितो, थेरगा. 1244; - पुत्त पु.. भूत त्रि., निराशा से मुक्त हो चुका, पश्चात्ताप से रहित हो [अमात्यपुत्र], मन्त्री का पुत्र - त्तो प्र. वि., ए. व. - एको चुका - तो पु.. प्र. वि., ए. व. - विसारदो उपसङ्कमति किर अमच्चपुत्तो गामियेहि परिवारितो गाममज्झे ठत्वा कम्म अमभूतो, अ. नि. 2(1).35; अमडुभूतोति न नित्तेजभूतो, अ. करोति, स. नि. अट्ठ. 2.117; - बल नपुं.. [अमात्यबल], नि. अट्ठ. 3.20; - ते द्वि. वि., ब. व. - अभीते अमभूते मन्त्री का बल - लं प्र. वि., ए. व. - अमच्चबलञ्च दीघाव योनके दिस्वा .... मि. प. 18.
ततियं वुच्चते बलं, जा. अट्ट. 5.116; - मण्डल नपुं.. अमच्च पु., [अमात्य], शा. अ. सुख और दुख में सदा साथ [अमात्यमण्डल], मन्त्रिमण्डल, मन्त्रियों का समूह - लं रहने वाला, ला. अ. राजा का सहचर या अनुयायी, राजा द्वि. वि., ए. व. - अमच्चमण्डलं रज्ज, फीतं अन्तेपुरं मम, का मन्त्री, राजा के साथ रहने वाला - च्चो प्र. वि., ए. व. चरिया. 405. - तस्सेको अमच्चो अन्तेपुरे... अपरभागे पाकटो जातो. जा. अमच्चुधेय्य नपुं.. मच्चुधेय्य का निषे. [अमृत्युधेय], वह, जो अट्ठ. 1.254; पे. व. अट्ठ. 82; - च्चा ब. व. - सुखदुक्खेसु मृत्यु का क्षेत्र नहीं है, अमर्त्यता का क्षेत्र, निर्वाण, मृत्यु की अमा सह भवाति अमच्चा, सहायसदिसा उपट्ठाका, इतिवु. पकड़ के बाहर वाला - व्यं' प्र. वि., ए. व. - अमच्चुट अट्ठ. 219; अमच्चा जातिसङ्घा च, ये चस्स अनुजीविनो, अ.. रोग्यं नव लोकुत्तरधम्मा, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2). नि. 1(1).178; ब्राह्मणगहपतिका नेगमजानपदा... अमच्चा164; - य्यं द्वि. वि., ए. व. - अमच्चुधेय्यं पुच्छन्ति, ये पारिसज्जा राजानो भोगिया कुमारा, दी. नि. 3.133; चूळव. जना पारगामिनो, स. नि. 1(1).145; अमच्चुधेय्यन्ति मच्चुनो 245; पे. व. अट्ठ. 24; अ. नि. 1(1).1783; जा. अट्ठ. 1.254; अनोकासभूतं निब्बानं, स. नि. अट्ट, 1.164; - स्स ष. वि., दी. नि. 1.121; अ. नि. 1(1).167; - च्वं द्वि. वि., ए. व. ए. व. - अकुसला मच्चुधेय्यस्स अकुसला अमच्युधेय्यस्स, ... राजा परिगण्हन्तो... अत्वा तं अमच्चं पक्कोसापेत्वा म, नि. 1.290. ..., जा. अट्ठ. 1.254; ... विस्सज्जेत्वा सब्बकम्मिकं अमच्चं अमच्छरी त्रि., [अमत्सरिन्], मात्सर्य-भाव से सर्वथा विमुक्त, पक्कोसापेत्वा .... पे. व. अट्ठ. 6.9; -- च्चे द्वि. वि., ए. व. अद्वेषी, मात्सर्यविरहित उदार, अकृपण - री पु., प्र. वि., ए. - मित्तामच्चेति मित्ते च कम्मकरे च सु. नि. अठ्ठ. 2.152; व. - पतिलीनो अकुहको, अपिहालु अमच्छरी, सु. नि. 858; - च्चेहि तृ. वि., ब. व. - सहनन्दी अमच्चेहि आरा अमच्छरीति सब्बमच्छरियानं बोधिमूलेयेव सुप्पहीनत्ता संयोजनक्खया, इतिवु. 53; वेदेहो सहमच्चेहि उमङ्गेन मच्छररहितो, इतिवु. अठ्ठ. 282; - च्छीरं पु., द्वि. वि., ए. गमिस्सती ति, जा. अट्ठ. 6.272; - च्चेसु सप्त. वि., ब. व. व. - पुत्तं लभेथ वरदं याचयोगं अमच्छरिं जा. अट्ठ. 7.231; - तेसुपि अमच्चेसु एवं बन्धित्वा नीयमानेसु.... जा. अट्ठ. - रिनी स्त्री., प्र. वि., ए. व. - अनिस्सुकिनी च होति, 1.256; - कुल नपुं.. तत्पु. स. [अमात्यकुल], मन्त्रियों का । अमच्छरिनी च, सद्धादेय्यं न विनिपातेति, अ. नि. 2(1). कुल या वंश - ले सप्त. वि., ए. व. - सोपि तत्थेव .... 132; - रिता स्त्री॰, भाव., प्र. वि., ए. व. एकस्मि अमच्चकुले निब्बत्तो ..., म. नि. अट्ठ. (मू.प.) [अमात्सर्यता], अमात्सर्य का भाव, द्वेष का अभाव, ईर्ष्या एवं 1(2).190; -- गणपरिवुत त्रि., [अमात्यगणपरिवृत], मन्त्रियों डाह का अभाव, उदारता का भाव - कतञ्जता कतवेदिता के समूह के साथ - तो पु., प्र. वि., ए. व. - सो एकम्पि अमच्छरिता चागवन्तता सीलवन्तता उजुता .... खु. पा. पटिसत्तुं अपस्सन्तो ... अमच्चगणपरिवुतो .... जा. अट्ठ. अट्ठ. 24. 1.255; - गणना स्त्री.. [अमात्यगणना], मन्त्रियों की अमच्छरिय नपुं., [अमात्सर्य], अमात्सर्य, अद्वेष, ईर्ष्या गिनती या गणना - नाय तृ. वि., ए. व. - तेसं छ येव एवं डाह का अभाव, कृपणता का अभाव - यं प्र. वि., जना अमच्चगणनाय गणीयन्ति ..., मि. प. 122; - जन पु., ए. व. - अनिस्सा च अमच्छरियञ्च ..., अ. नि. [अमात्यजन], सुख-दुख में सदा साथ रहने वाले लोग, 1(1).116. मन्त्री लोग - सने गमजानपदभटबल- अमज्ज त्रि., [अमद्य], मद्य-विरहित, नशा-रहित, नशीलेपन ब्राह्मणगहपतिकअमच्चजनमज्झे .... मि. प. 143; - से मुक्त - ज्जं पु., वि. वि., ए. व. - अमज्जं अरिष्टुं परिवारित त्रि., [अमात्यपरिवृत], मन्त्रियों से घिरा हुआ, पिवति, पाचि. 150; अमज्जं अरिद्वन्ति यो अरिष्टो मज्जन मन्त्रिगण से युक्त - तो पु., प्र. वि., ए. व. - चक्कवत्ती होति, पाचि. अट्ठ. 115; - प त्रि., [अमद्यप], मद्य न पीने
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अमणि
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अमतगामी वाला, अमद्यपायी, वह, जो मदिरा या सुरा न पीता हो - पो निर्वाण, मृत्यु की पकड़ के बाहर की अवस्था, मृत्यु से मुक्ति पु., प्र. वि., ए. व. - कच्चि अमज्जपो तात .... जा. अट्ठ की अवस्था - असङ्घतं शिवममतं सुदुडुसं. अभि. प. 7; 6.28; अमज्जपो अहं पुत्त, तदे; - पा ब. व. - अमज्जपा अपवग्गे च सलिले सुधायं अमतं पदं, अभि. प. 975; - तं' मज्जरहा पिवन्तु, जा. अट्ठ. 7.225; - पायक त्रि०, प्र. वि., ए. व. - ओदहथ, भिक्खवे, सोतं, अमतमधिगतं. [अमद्यपायक], मद्य न पीने वाला - को पृ., प्र. वि., ए. महाव. 12-13; अमतं अज्जापि च लभनीयमिदं, थेरीगा. व. - अनुसूयको अहं देव, अमज्जपायको अहं, जा. अट्ठ. 515; खेमं अमतगामिनन्ति एत्थ खेमन्तिपि अमतन्तिपि 2.160; - सञी त्रि., मद्य की संज्ञा न रखने वाला, 'यह निब्बानस्सेव नाम. म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.157; नशीलेपन से मुक्त है', इस प्रकार से समझने वाला - ञी अमतमधिगतन्ति अमतं निब्बानं मया अधिगतन्ति दस्सेति, पु., प्र. वि., ए. व. - अमज्जे अमज्जसञी अनापत्ति, महाव. अट्ठ. 236; - तं द्वि. वि., ए. व. - यो पठमं अमतं पाचि. 150.
अधिगच्छति.... महाव. 45; - स्स ष. वि., ए. व. - सत्था अमणि त्रि., ब. स. [अमणि], मणिरहित, मणि से भिन्न - नो अमतस्स कोविदो, थेरगा. 21; भावेति मग्गं अमतस्स णिं नपुं.. वि. वि., ए. व. - यथा मायाकारो अमणियेव पत्तिया ति, थेरगा. 35; - ते सप्त. वि., ए. व. - तस्मिञ्चे उदकं मणिं कत्वा दस्सेति, ध. स. अट्ठ. 334.
अमते अक्खाते ..., स. नि. 1(1).223; ला. अ. ख. जल, अमण्डनसील त्रि., [अमण्डनशील], वह, जो मण्डन या पानी - अपवग्गे च सलिले सुधायं अमतं मतं, अभि. प. विभूषण का प्रेमी न हो अथवा शौकीन मिज़ाज़ का न हो, 975; नीरञ्च केबुकं पानि अमतं एलमेव च, सद्द. 2.408; सरल, सादगी प्रिय - लो पु., प्र. वि., ए. व. - अचपलोति 2. त्रि., [अमृत], अमृत के समान मधुर एवं उत्तम - ता अमण्डनसीलो, जा. अट्ठ. 7.188.
स्त्री., प्र. वि., ए. व. - सत्यं वे अमता वाचा, सु. नि. 455; अमण्डना स्त्री., प्र. वि., ए. व. [अमण्डना], अविभूषिता, अमताति अमतसदिसा सादुभावेन ... निब्बानामतपच्चयत्ता अनलंकृता वह, जो अनलंकृत या विभूषित न हो, साज- वा अमता, सु. नि. अट्ट, 2.114. सजावट से रहित - अमण्डना अविभूसना वण्णस्स परिपन्थो, अमतंसक पु., चौबीस बहुमूल्य रत्नों में से एक - को प्र. अ. नि. 3(2).112.
वि., ए. व. - अमतंसको, पियको, ब्राह्मणी चाति चतुब्बीसति अमण्डित त्रि., [अमण्डित], वह, जो विभूषित न हो, अनलंकृत, मणि नाम, उदा. अट्ठ. 81. अलंकरण-विरहित - तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - रम्मरूपन्ति । अमतकभाव पु., भाव. [अमृतकभाव], अभी तक मृत्यु प्राप्त अनञ्जितं अमण्डितं, जा. अट्ठ. 7.367; - रूप त्रि., ब. स. न होने की अवस्था - वो प्र. वि., ए. व. - इमिना कारणेन [अमण्डितरूप], अलङ्करणों से रहित रूप वाला, सजावट तव मतकभावो वा अमतकभावो वा दुज्जानो ति वत्वा ..., या प्रसाधन से रहित रूप वाला - पा पु., प्र. वि., ब. व. जा. अट्ठ. 1.467; - वं द्वि. वि., ए. व. - अयं मम - दुम्मक्खरूपाति अनञ्जितक्खा अमण्डितरूपा अमतकभावं जानातीति उट्ठाय दण्डं खिपि, जा. अट्ठ. लूखसङ्घाटिधरा, जा. अट्ठ. 4.267.
1.468. अमत नपुं.. [अमृत], शा. अ. मृत्यु से मुक्त करा देने अमतगत त्रि., [अमृतगत], परम सुख तथा अमृतत्व की वाला, देवताओं का प्रिय पेय, अमृतत्व-प्रदायक पेय, सुधा, अवस्था (निर्वाण) को प्राप्त कर चुका व्यक्ति - तो पु.. प्र. पीयूष - तं प्र. वि., ए. व. - पीयूसममतं सुधा, अभि. प. वि., ए. व. - अमतगतो अमतप्पत्तो निब्बानगतो निब्बानप्पत्तो, 25; अपवग्गे च सलिले सुधायं अमतं मतं, अभि. प. 9753B महानि. 15; अमतगतोति मरणरहितं निब्बानं मग्गेन गतो. पुन चपर, महाराज, अमदो अमतं, मि. प. 291; महानि. अट्ठ. 65. सुगम्भीरमवितथं मधुरं अमतं विय, सद्धम्मो. 530; - तेन तृ. अमतगामी त्रि., [अमृतगामिन्], निर्वाण या मुक्ति की ओर वि., ए. व. - भगवता धम्मिया कथाय अमतेन अभिसित्तोति, जाने वाला, निर्वाणगामी - मी पु.. प्र. वि., ए. व. - अरियो स. नि. 2(1).2; अमतेनेव अभिसित्तहदयो अत्तमनो। अङ्गिको अमतगामी, थेरीगा. 222; - मिनं पु., द्वि. वि., ए. विप्पसन्निन्द्रियो निहतमानो हुत्वा .... सु. नि. अट्ठ. 1.140; व. - सचे मग्गं अनुबुद्ध खेमं अमतगामिन, स. नि. - म्हि सप्त. वि., ए. व. - अमतम्हि विज्जमाने, किं तव 1(1).145; विवेकप्पटिसंयुत्तं खेमं अमतगामिनि, अ. नि. पञ्चकटुकेन पीतेन, थेरीगा. 505; ला. अ. क. मुक्ति , 2(2).44; - मिनो पु., प्र. वि., ब. व. - ... खेमगामिनो च
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अमतग्ग
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अमतप
अमतगामिनो चाति लद्धिवसेन गहिता, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.157; - मिनं पु., ष. वि., ब. व. - अहङ्गिको च मग्गानं.
खेमं अमतगामिनन्ति, म. नि. 2.186. अमतग्ग त्रि., [अमताग्र], वह, जिसके प्रारम्भ के बारे में सोचा नहीं जा सकता है, वह, जिसका आरम्भ अज्ञात हो या विदित न हो, अविदिताग्र - ग्गो पु., प्र. वि., ए. व. - वस्ससतं ... अनुगन्त्वापि अमतग्गो अविदितग्गो, स. नि. अट्ट. 2,139. अमतघटिका स्त्री., [अमृतघटिका], शा. अ. अमृत का घट, पीयूषघट, सुधाकलश; ला. अ. धर्मदेशना - कायं सप्त. वि., ए. व. - अमतघटिकायं धम्मकटमत्तो, कतपदं ज्ञानानि ओचेतुं, थेरगा. 199; अमतघटिकायं मम अमतघटे तह तह वस्सन्ते अमतमधिगतं अहमनुसासामि, थेरगा. अट्ठ. 1.349. अमतहान नपुं.. तत्पु. स. [अमृतस्थान], वह स्थान, जहां कोई मरा नहीं हो - नं प्र. वि., ए. व. - इमेसहि सत्तानं पथवियं निपज्जित्वा अमतद्वानं नाम नत्थी ति, ध. प. अट्ठ.
1.304.
अमतदस त्रि., [अमृतदृक], निर्वाण को देखने वाला- सा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - एवं अहं अमतदसम्हि देवता, वि. व. 147; अमतदसम्हीति अमतदसा निब्बानदस्साविनी अम्हि वि. व. अट्ठ. 67. अमतदस्सी त्रि., निर्वाण को देखने वाला, निर्वाणदर्शी - स्सी पु.. प्र. वि., ए. व. - उत्तमे दमथे दन्तो, अमतदस्सी भविस्सति, अप. 1.22. अमतदुन्दुभि पु.. [अमृतदुन्दुभि], अमृत की भेरी, निर्वाण के लाभ का आवाज करने वाला नगाड़ा या बड़ा ढोल - भी प्र. वि., ए. व. - अमतदुन्दुभी तिपि नं धारेहि. म. नि. 3.113; - भिं द्वि. वि., ए. व. - आहञ्छं अमतदुन्दुभि न्ति, म. नि. 1.230; आहञ्छ अमतदुन्दुभिन्ति धम्मचक्कपटिलाभाय अमतभेरि पहरिस्सामीति गच्छामि, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).91. अमतद्दस त्रि., [अमृतद्दश]. अमृतपद का दर्शन करने वाला, निर्वाण का साक्षात्कार करने वाला - अरहा दक्खिणेय्योम्हि तेविज्जो अमतद्दसो, थेरगा. 296; अमतद्दसो ति निब्बानस्स दस्सावी, थेरगा. अट्ट, 21; ... तथागते निहङ्गतो अमतद्दसो अमतं सच्छिकत्वा इरियतीति, अ. नि. 2(2).150; अमतं अद्दसाति अमतद्दसो, अ. नि. अट्ठ 3.145.
अमतद्वार नपुं, तत्पु. स. [अमृतद्वार], निर्वाण का द्वार, अमृतपद के द्वार के रूप में अष्टाङ्गिक मार्ग, आर्यमार्ग - रं प्र. वि., ए. व. - विवट अमतद्वारं खेमं निब्बानपत्तिया, म. नि. 1.292; अमतद्वारन्ति अरियमग्गो, म. नि. (मू.प.) 1(2).165; - रेन तृ. वि., ए. व. - इमेसं एकादसन्नं अमतद्वारानं एकेकेनपि अमतद्वारेन सक्कुणिस्सामि अत्तानं सोत्थिं कातुं, म. नि. 2.17; - रानि द्वि. वि., ब. व. - एक अमतद्वारं गवेसन्तो सकिदेव एकादस अमतद्वारानि अलत्थं भावनाय, म. नि. 2.17. अमतधम्म पु.. [अमृतधर्म], अमृत अर्थात् निर्वाण का लोकोत्तर धर्म - अहं एतं अमतधम्म तम्पि जानापेस्सामी ति तव
सन्तिकं आगतोस्मि, सम्माति, अ. नि. अट्ठ. 1.185. अमतनिट्ट त्रि., [अमृतनिष्ठ], निर्वाण में परिणत होने वाला, निर्वाण में पर्यवसान प्राप्त करने वाला-टुं नपुं.. प्र. वि.,
ए. व. - अमतपरियोसानान्ति अमतनिट्ठ स. नि. अट्ठ. 3.275. अमतनिब्बत्तिक त्रि., [अमृतनिष्पत्तिक], निर्वाण का फल लाने वाला, निर्वाण की प्राप्ति कराने वाला, निर्वाण प्रापक - कं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अमतपरायणन्ति अमतनिब्बत्तिक स. नि. अट्ठ. 3.275. अमतनिब्बान नपुं.. [अमृतनिर्वाण], अमृतपद निर्वाण, मृत्युरहित स्थिति वाला, निर्वाण का पद - नं द्वि. वि., ए. व. - परमं खेमन्तभूमि अमतं महानिब्बानं पापुणाति, दी. नि. अट्ठ. 1.176; - महातळाक नपुं.. मृत्युरहित निर्वाण का महासरोवर या तड़ाग - स्स ष. वि., ए. व. -
अमतनिब्बानमहातळाकस्स दोसो, जा. अट्ठ. 1.6. अमतन्तळ पु./नपुं.. अमततळाकतल का सं. रूप., निर्वाण के सरोवर की तलहटी या अमृत पद निर्वाणरूपी तड़ाग - ळे सप्त. वि., ए. व. - एवं किलेसमलधोव, विज्जन्ते अमतन्तळे, बु. वं. 2.14; जा. अट्ठ. 1.6; अमतन्तळेति अमतसङ्घातस्स तळाकस्स, सामि अत्थे भुम्मवचनं दहब्ब, बु. वं. अट्ठ. 83. अमतंदद त्रि., [अमृतद], मुक्ति को देने वाला, मुक्तिप्रदायक, अमृतपद निर्वाण को देने वाला - दो पु., प्र. वि., ए. व. - अमतं ददो च सो होति, स. नि. 1(1).36%B अमतंददो च सो होतीति पणीतभोजनस्स पत्तं पूरेन्तो विय अमरणदानं नाम देति, स. नि. अट्ठ. 1.75. अमतप त्रि., [अमृतप], अमृत का पान करने वाला (देवता) .. पा पु., प्र. वि., ब. व. - सुरा मरु-दिवोका चामतपा सग्गवासिनो, अभि. प. 11.
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अमतपद
अमतपद नपुं., [अमृतपद], अमृत या निर्वाण का पद, जन्म एवं मरण से मुक्त अमृतपद निर्वाण की प्राप्ति का उपाय दं प्र. वि. ए. व. अप्पमादो अमतपदं पमादो मच्युनो पदं, जा. अट्ठ. 5.94; ध प० 21; अमतपदन्ति अमस्स निब्बानस्स पदं अधिगमकारणं जा अट्ट. 5.95 अमतपदन्ति अमतं दुच्चति निब्बानं अमतस्स पदं अमतपदं अमतस्स अधिगमूपायोति वृत्तं होति. ध. प. अड्ड. 1.130. अमतपरायन त्रि. वह जिसका परम प्रयोजन निर्वाण की प्राप्ति हो, निर्वाण का अधिगम या प्राप्ति कराने वाला - नं द्वि. वि. ए. व. सम्मासमाधि भावेति अगतो गवं अमतपरायनं अमतपरियोसानं, स. नि. 3 ( 1 ) .45; अमतपरायनन्ति अमतनिब्बत्तिक, स. नि. अदु. 3.275.
अमत परियोसान . [ अमृतपर्यवसान] वह जिसकी परिणति निर्वाण में हो नं नपुं. प्र. वि., ए. व. अमतोगधं होति अमतपरायणं अमतपरियोसान, स. नि. 3 ( 2 ) 296 अमतपरियोसानन्ति अमतनिद्वं, स. नि. अट्ठ. 3.275. अमतपान नपुं., [अमृतपान ], अमृत का पान, अमरत्व धर्म का पान, अमृत रूपी धर्म का पान नं द्वि. वि. ए. व.
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सत्था इमं धम्मदेसनं आहरित्वा सच्चानि पकासेत्वा बहू जने अमतपानं पायेत्वा जा. अड. 3.351; यो भगवतो धम्मदेसनं सुत्वा पटिविज्झति अमतपानं पिवति, तस्स ....
उदा. अ. 264.
अगतपायी त्रि., [अमृतपायिन्], अमृत का पान करने वाला देवता, सुधा पीने वाला देवता यी पु. प्र. वि. ए. व. दिवोको मतपायी च सग्गट्टो देवता पि च सर. 2477. अमतपुब्बपदेस . [ अमृतपूर्वप्रदेश] वह स्थान पहले जहाँ मनुष्य मरे ही न हो से सप्त. दि. ए. व. आनन्दत्वेरसदिसा पन अमतपुब्बपदेसे परिनिब्बायन्ति ध० प० अट्ठ 1.305. अमतप्कासन त्रि. [ अमृतप्रकाशन] अमृतपद (निर्वाण ) को प्रकाशित करने वाला, निर्वाण का निर्देशक नो पु.. प्र. वि. ए. व. अमतप्यकासनो सद्धम्मो मज्झिमबुद्धवचनं
"
नाम, ध. स. अ. 19.
अमतपत्त त्रि. [अमृतप्राप्त ] अमृतत्व या निर्वाण की अवस्था को प्राप्त, निर्वाण प्राप्त तो पु. प्र. कि. ए. क. - अमतप्पत्तोति तं फलेन पत्तो, महानि. 65. अमतफल / अमतफल त्रि. ब. स. [अमृतफल] अमृत के फल को देने वाला, अमरत्व के फल का दायक, निर्वाण के फल को देने वाला लं नपुं. द्वि. वि. ए. व. अमतफल - करित्या आगमिस्सामि जा. अड. 3434: फला स्त्री. प्र.
अमतमहानिब्बान
"
वि. ए. व. साहोति अमतप्फला, सु. नि. 80; सा होत अमतष्फला, सा एसा कसि अमतप्फला होति. अमतं युच्चति निब्बानं निब्बानानिसंसा होतीति अत्थो, सु. नि. अड. 1.119 फलं नपुं. प्र. वि. ए. व. तेन ते सुखिता होन्ति ये कीता अमतप्फलन्ति मि. प. 304. अमतब्मन्तर त्रि. [ अमृताभ्यन्तर] अमृत या निर्वाण के अन्तर्गत विद्यमान रं नपुं. प्र. वि. ए. व. - चतुत्थे अमतोगधन्ति अमतभन्तर. स. नि. अट्ठ. 3.275. अमतभावसाधन त्रि., [ अमृतभावसाधन], निर्वाण की अवस्था की प्राप्ति में सहायक या साधनभूत तो प. वि. ए. व. अमतभावसाधनतो अनामतं नाम, जा. अट्ठ. 2.45. अमतमेरी स्त्री. [अमृतमेरी] निर्वाण की प्राप्ति के लिये दुन्दुमि, निर्वाण की भेरी, निर्वाण का नक्कारा (नगाड़ा) रिं द्वि. वि. ए. व. तदा अमतभेरि सो, आहनी मेखले पुरे, बु. यं. 6.2: तत्थ अमतभेरिन्ति अमताधिगमाय निब्बानाधिगमाय भेरिं, बु. वं. अ. 176. अमतमग्गद त्रि.. [अमृतमार्गद] मुक्ति के मार्ग को देने वाला, निर्वाण के पथ को प्रशस्त करने वाला दं पु०, द्वि० वि., ए. व. - सब्बलोकगरुं वीरं हितं अमतमग्गद, सद्धम्मो० 1. अमतमग्गदेसक त्रि. अमृतपद निर्वाण की ओर ले जाने वाले मार्ग का उपदेश करने वाला को पु. प्र. वि., ए. व... कोचि वो अमतमग्गदेसको लद्धों ति पुच्छि ध. प.
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अट्ठ. 1.55.
अमतगद पु.. [अमृतगद] सर्पों का एक प्रकार दा प्र. वि., ब. व. अमतं वुच्चति अगदं तेन मज्जन्तीति अमतमदा, सप्पा..., थेरगा. अट्ठ. 2.28. अमतमधुर त्रि.. [अमृतमधुर] अमृत (सुधा) के समान मधुर या मीठा - रं नपुं. प्र. वि., ए. व. - अमतमधुरं सवनूपगं अकासि. मि. प. 241. अमतमहानिब्बान नपुं. मृत्यु-रहित महानिर्वाण, ऐसा महानिर्वाण, जिसके साक्षात्कार के उपरान्त जन्म एवं मरण के चक्र से मुक्ति मिल जाती है नं द्वि. वि. ए. व. - एवंभूतेन मया अजातिं अजरं अब्याधिं ... अमतमहानिब्बानं परियेसितुं वहति जा, अड. 1.5: अमत्तमहानिब्बानं सच्छिकत्वा महन्तं सुखं अनुभवन्तीति जा. अड. 2.167; नेन तृ. वि. ए. व. एवं बुद्धानं ओवादकरा संसारपारं निब्बानं गच्छन्तीति अगतमहानिब्बानेन धम्मदेशनाय कूटं गण्डि जा. अड. 2.107 तळाक पु. [अमृतमहानिर्वाणतटाक] अमृतत्व से युक्त महानिर्वाण का महासरोवर या झील के सप्त.
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अमतम्बु
वि. ए. व. एवमेव किलेसमलपोवने अमतमहानिब्बानतळाके विज्जन्ते... जा. अड्ड. 1.6.
अमतम्बु नपुं. अमृत 1 से युक्त धर्म-कथा का जल, अमृत का जल, अमृत की वर्षा, अमृत जैसे धर्म वचनों का जलना तृ. वि. ए. व. सदेवकं तप्पयन्तो अभिवस्सि अमतम्बुना बु. व. 20.2: अमतम्बुनाति अमतसङ्घातेन धम्मकथासलिलेन तप्पयन्तो पावस्सीति अत्थो, बु. वं. अट्ठ. 267. अमतरंस त्रि, केवल स. उ. प. के रूप में प्रयुक्त, अमृत की किरणों से युक्त, अमृत का रस परिपीतामतरंसं सद्धम्मोसधभाजन, सद्धम्मो 571; पाठा. अमतरस. अगतरस पु. [अमृतरस] अमृत का रस, निर्वाण का रस सं द्वि. वि., ए. व. सराजिकानं रवासिनं अमतरसं अदासि सा. वं. 34 (ना.) अमतरसं पायेसि सा. वं. 154 (ना.); - भागी त्रि. [ भागिन् ], निर्वाण के रस का भागीदार, निर्वाण के रस का भाग पाने वाला नो पु., प्र. वि. ब. व. सुत्वा सत्ता अमतरसभागिनो भवन्तीति सद्द
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1.161.
अमतरहद पु. [अमृतहृद], अमृत का सरोवर, निर्वाण का सरोवर, निर्वाण का हृद - दं द्वि. वि., ए. व. - अमतरहदं गवेसमाना परिसति निसिन्नं अतिविसारदं नारदसम्मासम्बुद्ध अद्दसंसु, बु. वं. अट्ठ. 213.
अमतवग्ग पु., स. नि. के एक वर्ग का शीर्षक, स. नि. 3(1),259-265.
अमतवस्सा स्त्री. [अमृतवर्षा] अमृत जैसे धर्म-वचनों की वर्षा स्सं द्वि. वि., ए. व. - धम्मं देसेति अमतवस्सं वस्सन्तो विय, रस. 1.6 (रो० ).
अमतवाद त्रि.. [अमृतवाद], निर्वाण का कथन करने वाला, निर्वाण को अमृतपद बतलाने वाला दो पु. प्र. वि. ए. अमतवादो ति निब्बानवादो एवं मुनि सन्तिवादो, महानि. 148.
व.
-
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सो पु०, प्र. वि., ए. व.
स. नि. अट्ट० 1.133; सा अगताति अमतसदिसा सादुभावेन,
अमतसदिसत्र [अमृतसदृश] अमृत के समान, अमृत जैसा मधुर या स्वादिष्ट अतिमधुरो अमतसदिसो स्त्री. प्र. कि. ए. व. सु. नि. अड. 2.114. अमतसभाव त्रि, ब० स० [ अमृतस्वभाव], स्वभाव से ही अविनाशी, प्रकृत्या, अविनश्वर त नपुं भाव, अविनाशी स्वभाव वाला होना ततो अमतसभावत्ता चवनाभावो, उदा. अट्ठ. 318.
3,
...
अमतप्पत्तिपटिपदा
अमतसम त्रि. [अमृतसम], अमृत-सदृश, अमृत के समान मं नपुं. प्र. वि. ए. क. अमतसमं महाराज, धुतगुणं विशुद्धिकामानं राब्बकिलेसविसनासनद्वेन मि. प. 320. अमता स्त्री० [ अमृता ], आमलक, आंवला, एक प्रकार की लता अमतामलकी तिसु अभि. प. 569. अमताकार त्रि. [अमृताकार] अमृत के समान मधुर आकार वाला रंनपुं द्वि. वि. ए. व. न पुनो अमताकारं परिसस्सामि मुखं तव अप. 2206 थेरीगा. अड. 172. अमताधिगत त्रि.. [अमृताधिगत] अमृतपद निर्वाण को प्राप्त, अच्युतपद को प्राप्त तो पु. प्र. वि. ए. व. अमताधिगतो कच्चि निब्बानमच्युतं पदं, अप. 1.23. अमताधिगमहेतु पु तत्पु, स० [अमृताधिगमहेतु] निर्वाण के अधिगम का कारण, निर्वाण की प्राप्ति का कारण तो प्र. वि. ए. व. अमताधिगमहेतुतो च महलन्ति वृच्चति, खु. पा. अट्ठ. 115. अमतापण नपुं. [अमृतापण]. अमृत अर्थात सुधा की मंडी या दुकान, सुधा का भण्डार णं द्वि. वि. ए. व. - ब्याधितं जनतं दिवा, अमतापणं पसारयि, मि. प. 305. अमतामिसेक पु. [ अमृताभिषेक], सुधा का छिड़काव, अमृत के छींटे देना को प्र. वि. ए. व. अमताभिसेको ति दब्बों, स. नि. अड. 2.221 सदिस त्रि.. [ सदृक]. अमृत के छिड़काव जैसा सेन पु. तृ. वि., ए. व. पण्डितजनहृदयानं अमताभिसेकसदिसेन ब्रह्मस्सरेन भासमानस्सापि म. नि. ( मू.प.) 1 ( 1 ) . 61. अमतारम्मण त्रि.. [अमृतालम्बन] अमृत के आलम्बन वाला णं प्र. वि., ए. व. - अमतारम्मणं संयोजनन्ति ? आमन्ता, कथा. 328; - कथा स्त्री, कथा के एक भाग का शीर्षक,
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कथा. 328-330.
अमतावह त्रि [अमृतावह ]. अमृत अर्थात् निर्वाण को लाने सतसाखरे तस्मिं पसादो
वाला हो पु. प्र. वि. ए. व.
अमतावहो, अप. 2.109.
अमतासित त्रि [अमृताधिक्त ] अमृत या सुधा से आई किया हुआ, सुधा से अच्छी तरह सिञ्चित या गीला कर दिया गया धम्मजं उग्गहदयं अमतासित्तसन्निभं अप.
2.112.
"
अमति अम (जाना) का वर्त. प्र. पु. ए. व. जाता है, आगे बढ़ता है अम गतियं, अमति, सह 2.412. अमतप्पत्तिपटिपदा स्त्री. [अमृतप्राप्तिप्रतिपत्] निर्वाण की प्राप्ति का मार्ग, निर्वाण के अधिगम का मार्ग या प्रतिपदा
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अमतोगध 526
अमद्दव दं द्वि. वि., ए. व. - अमतपत्तिपटिपदं कथेत्वा देति, इदं - भोजनम्हि चामत्तञ्जु कुसीतं हीनवीरिय, ध. प.7; अपिच धम्मदानं नाम, अ. नि. अट्ट, 2.61; अमतपत्तिपटिपदन्ति पच्चवेक्षणमत्ता विस्सज्जनमत्ताति इमिरसापि मत्ताय अमतप्पतिहेतुभूतं सम्मापटिपदं, अ. नि. टी. 2.53.
अजाननतो अमत्त ,ध. प. अट्ठ. 1.45; - नो पु., प्र. वि., अमतोगध क. पु./नपुं., अमृतपद निर्वाण की गम्भीरता, ब. व. - भोजने अमत्त नो, म. नि. 1.39; भोजने निर्वाण की तलहटी - धं वि. वि., ए. . - अमत्त नोति भोजने या मत्ता जानितब्बा
अमतोगधमनुप्पत्तं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं, सु. नि. 640; ध. प. परियेसनपटिग्गहणपरिभोगेसु युत्तता तस्सा अजाननका, म. 411; अमतं निब्बानं ओगहेत्वा अनुप्पतं, तमहं ब्राह्मणं वदामीति नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).161; - बेहि पु., तृ. वि., ब. व. अत्थो, सु. नि. अट्ठ. 2.172; ध. प. अट्ट. 2.390; ख. त्रि., - अगुत्तद्वारेहि भोजने अमत्तहि जागरियं ... चारिक निर्वाण में अवगाहन करने वाला, निर्वाण में गहराई तक चरसि, स. नि. 1(2).197; ततो तत्थेव संसीदि, अमत्तञ्जूहि बढ़ा हुआ - धो पु., प्र. वि., ए. व. - अमतोगधो मग्गो सो अहु जा. अट्ठ. 2.244; - अता स्त्री., भाव॰ [अमात्रज्ञता]. अरियसच्चन्ति मं अवोचाति सम्बन्धो, वि. व. अट्ठ. 181; - असंयम का भाव - इन्द्रियेसु अगुत्तद्वारता च भोजने अमत्त ता धं पु., द्वि. वि., ए. व. - त्वञ्च मे मग्गमक्खाहि, अजसं च, दी. नि. 3.170; - य तृ. वि., ए. व. - भोजने अमतोगधं थेरगा. 168; अमते निब्बाने सम्पापकभावेन पतिद्धिता अमत्त ताय च, इतिवु. 18; - भावो पु.. प्र. वि., ए. व., अमतोगधं, थेरगा. अट्ठ. 1.318; - स्स ष. वि., ए. व. - भोजन की मात्रा या उपयुक्तता का ज्ञान न रहना -- अमतोगधस्स निब्बानस्स परियोसानलक्खणं तथं अवितथं, अमत्त ताति अमत्त भावो पमाणसाताय मत्ताय अजाननं. दी. नि. अट्ठ. 1.61; - धा पु., प्र. वि., ब. व. - ध. स. अट्ठ. 421. अमतोगधा सब्बे धम्मा, निब्बानपरियोसाना सब्बे धम्मा, अ. अमत्तता स्त्री॰, भाव., प्रमत्त न होने का भाव, मतवाला न होना नि. 3(2).89.
- ता प्र. वि., ए. व. - अमत्तता अप्पमत्तता, खु, पा. अट्ट, 24. अमतोसध नपुं.. [अमृतौषध], अमृत के समान लाभदायक अमत्तेय्य त्रि., माता के प्रति आदरभाव न रखने वाला, मां
औषधि, दिव्य दवाई - धं प्र. वि, ए. व. - हरीतकं के प्रति अनिष्ठावान् - य्यो पु., प्र. वि., ए. व. -- अयं, देव आमलकं महग्घं अमतोसधं, म. वं. 11.31; नहानोदकं पन परिसो अमत्तेय्यो अपेत्तेय्यो असामओ अब्रह्मओ, न कुले ते अमतोसधं भविस्सति, जा. अट्ठ. 4.340; - धं द्वि. वि., ए. जेट्टापचायी, अ. नि. 1(1).163; न मत्तेप्योति अमत्तेय्यो, व. - देथ, सामि, अमतोसधन्ति सुवण्णसरकं उपनामेसि. मातरि मिच्छा पटिपन्नोति अत्थो, अ. नि. अट्ठ. 2.118; - जा. अठ्ठ. 4.347; मि. प. 232.
य्या ब. व. - मनुस्सेसु ये ते भविस्सन्ति अमत्तेय्या अपेत्तेय्या, अमत्त' त्रि., Vमद के भू. क. कृ. का निषे. [अमत्त], वह, जो दी. नि. 3.52; - ता स्त्री., भाव. - अमत्तेय्यता अपेतेय्यता, मतवाला न हो, अप्रमत्त, मदरहित, मतवालापन से रहित - दी. नि. 3.51. त्तो पु.. प्र. वि., ए. व. - कच्चि रूपादीसु कामगुणेसु अमत्तो अमथित त्रि.. [अमथित]. जो मथा न गया हो, अविलोड़ित अप्पमत्तो, जा. अट्ठ. 5.375.
(दूध) - तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - आवासानुमताचिण्णममथितं अमत्त नपुं.. [अमत्र], घड़ा, कलश, पात्र - त्तं प्र. वि., ए. जलोगि च, म. वं. 4.10; - कप्प पु., नहीं मथे हुए दूध व. - अमत्तं पत्तोथ भाजनं, अभि. प. 457; - तानि ब. व. आदि को लेने की अनुज्ञा - प्पो प्र. वि., ए. व. - कप्पति - अमत्तानि वुच्चन्ति भाजनानि, तानिये विक्किणन्ति, पाचि. अमथितकप्पो, चूळव. 463. अट्ठ. 197; केवल उ. प. के रूप में - यथा कुम्भकारो अमद त्रि., [अमद], दर्परहित, अभिमान मुक्त - दा पु., प्र. आमके आमकमत्ते. म. नि. 3.160; आमकमत्तेति नातिसुक्खे वि.. ब. व. - मदा निम्मदा अमदा होन्ति विनस्सन्ति, तस्मा भाजने, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.122; जा. अट्ठ. 3.326. निम्मदनन्ति वच्चति, पारा. अट्ठ. 168. अमत्तञ्जू त्रि., [अमात्रज्ञ], भोजन के ग्रहण में मात्रा का अमद्दव पु., [अमार्दव], अकोमलता, कठोरता, हठधर्मिता, ज्ञान न रहने वाला, अमर्यादित भोजन करने वाला, 'यह कर्कशता - वो प्र. वि., ए. व. - तत्थ कतमो अमद्दवो? या भोजन धर्मसङ्गत हैं या अधर्मसङ्गत इसका विवेचन न करने अमुदुता अमद्दवता कक्खलियं फारुसियं कक्खलता, वाला - जू पु., प्र. वि., ए. व. - भोजनम्हि अमत्तञ्चू कठिनता, उजुचित्तता अमुदुता - अयं वुच्चति अमद्दवो, इन्द्रियेसु असंवुतो, इतिवु. 18; - पु., द्वि. वि., ए. व... विभ. 415.
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अमद्दवता
527
अमनुज्ञ अमद्दवता स्त्री., भाव., प्र. वि., ए. व. [अमार्दवता], उपरिवत् नि. 2.64; - पा स्त्री., प्र. वि., ब. व. - सारीरिका वेदना - या अमुदुता अमद्दवता, विभ. 415.
... कटुका असाता अमनापा, स. नि. 1(1).31; - पानं अमद्दवनिद्देस पु.. [अमार्दवनिर्देश]. अमार्दव की व्याख्या, स्त्री., ष. वि., ब. व. - खरानं कटुकानं असातानं अमनापानं अमृदुता की व्याख्या - से सप्त. वि., ए. व. - अमद्दवनिद्देसे अ. नि. 1(1).178; अमनापानन्ति मनं वड्डेतु असमत्थानं, अ. न मुदुभावो अमुदुता, विभ. अट्ठ, 466.
नि. अट्ठ. 2.136; - गन्ध पु., कर्म. स. [अमनापगन्ध]. मन अमद्दवाकार पु.. [अमार्दवाकार]. कठोर स्वरूप, कठोर के लिए अप्रिय गन्ध - धा प्र. वि., ब. व. - हिमवन्ते प्रकृति, कर्कश आकार - रो प्र. वि., ए. व. -- अमद्दवाकारो विसरुक्खानं मूलादिगन्धा च अमनापगन्धा, .... पारा. अट्ठ. अमद्दवता, विभ. अट्ठ. 466.
2.53; - ता स्त्री॰, भाव. [अमनापता], मन के लिए अप्रियता, अमधुर त्रि., [अमधुर], वह, जो मीठा न हो, जो स्वादिष्ट अननुकूलता - तस्स सहदस्सनेन अमनापता च सण्ठहेय्य, न हो, तिक्त, तीता, अस्वादिष्ट - रो पु., प्र. वि., ए. व.. म. नि. 1.38; - फोट्टब्ब पु., कर्म स॰ [अमनापस्पृष्टव्य], - अमधुरो तित्तको जातो, जा. अट्ठ.2.83; - रेन पु.. तृ. मन के लिए अरुचिकर स्पृष्टव्य वस्तु - ब्बा प्र. वि., ब. वि., ए. व. - असातेन अमधुरेन निम्बरुक्खेन सद्धिं, जा. व. - विसफरस महाकच्छुफस्सादयो अमनापफोटब्बा, पारा. अट्ठ. 2.83; - नं पु., ष. वि., ब. व. - असातानन्ति अट्ठ. 2.54; - रस त्रि., ब. स. [अमनापरस]. मन को अमधुरानं, अ. नि. अट्ठ. 2.136.
अप्रिय लगने वाली रसभरी वस्तु - सा पु.. प्र. वि., ब. व. अमनसिककरण नपुं.. मनन नहीं करना, हृदयङ्गम नहीं - पटिकूलमूलरसादयो अमनापरसा, पारा. अट्ठ. 2.54; - करना - णेन तृ. वि., ए. व. - अप्पवत्तिकरणेन रूप त्रि., ब. स. [अमनापरूप], मन को अच्छा न लगने अमनसिकरणेन च, ध. स. अट्ठ. 250.
वाले स्वरूप वाला, कुरूप - पं नपुं, द्वि. वि., ए. व. - अमनसिकारोन्त वर्त. कृ., पु., मनसिकरोति का निषे., अमनापरूपयेव पस्सति, नो मनापरूपं. स. नि. 2(2).130; -- उपेक्षा करता हुआ, अवहेलना करता हुआ, अवज्ञा करता वास पु., [अमनापवास], असह्य निवास, अप्रिय निवास - हुआ, मन या विचार में नहीं ला रहा - स्स ष. वि., ए. व.. सं द्वि. वि., ए. व. - अमनापवासं वसि, जिण्णेन पतिना - अमनसिकारोन्तस्स होति, कथा. 286; अमनसिकरोन्तस्साति सह, जा. अट्ठ. 7.282; - सद्द पु., कर्म. स. [अमनापशब्द], मनं अकरोन्तस्स कथा. अट्ठ. 194.
अप्रिय शब्द, मन को प्रिय न लगने वाली ध्वनि - हा प्र. अमनसिकार पु.. [अमनसिकार], मनोयोग का अभाव, ध्यान वि., ब. व. - केवलज्हेत्थ अमनुस्ससद्दादयो उत्रासजनका का अभाव, सावधानी का अभाव - रो प्र. वि., ए. व. - अमनापसद्दा, पारा. अट्ठ. 2.53; - सद्दसंवत्तनिक त्रि., सब्बनिमित्तानञ्च अमनसिकारो, म. नि. 1.377; - रा ब. व. [अमनापशब्दसंवर्तनिक], अप्रिय शब्द या ध्वनि के रूप में - यस्मि आनन्द, समये तथागतो सब्बनिमित्तानं अमनसिकारा परिणत होने वाला - को पु., प्र. वि., ए. व. - यो .... .... उपसम्पज्ज विहरति, दी. नि. 2.78; - बहुलीकार पु.. मनुस्सभूतस्स अमनापसद्दसंवत्तनिको होति. अ. नि. न तो मनोयोग, न ही अभ्यास - रो पु.. प्र. वि., ए. व. - 3(1).79; - सम्पयोग पु., तत्पु. स. [अमनापसंप्रयोग]. तत्थ अमनसिकारबहुलीकारो - अयमनाहारो, स. नि. अप्रिय-जन के साथ भेंट या मुलाकात - गा प्र. वि., ए. व. 3(1).127.
- ... यं वा वो... संसरतं अमनापसम्पयोगा... अस्सु पस्सन्नं अमनाप त्रि., [अमनाप], मन को प्रसन्न करने में असमर्थ, पग्धरितं. स. नि. 1(2).162. असुन्दर, अप्रिय - पो पु., यं मनोदुच्चरितस्स अनिट्ठो अमनापिय त्रि.. [अमनाप], उपरिवत् - यो पु.. प्र. वि., ए. अकन्तो अमनापो विपाको निब्बत्तेय्य, म. नि. 3.112; अ. व. - अमनापियो फोटुब्बो दुक्खसम्फस्सो कायविनेय्यं नि. 1(1).40; अमनापो च अगरु च अभावनीयो च, अ. नि. रूपं, ध. स. 974. 2(1).128; -- पं द्वि. वि., ए. व. - चक्खुना खो पनेव रूपं अमनुज त्रि., [अमनोज्ञ], अप्रिय, अरुचिकर, मन को दिस्वा अमनापं न मड होति, स. नि. 3(1).90; - सेन पु.. अनुकूल संवदेन न देने वाला - ञा पु., प्र. वि., ब. व. तृ. वि., ए. व. - तं परे अनिटेन अकन्तेन अमनापेन - अमनुआ अपरिभोगारहाति अत्थो, जा. अट्ठ. 5.222; - समुदाचरन्ति, अ. नि. 1(2).243; - पा स्त्री., प्र. वि., ए. व. गन्ध त्रि., ब. स., अप्रिय गन्ध, अच्छी न लगने वाली -- परेसं अप्पिया अमनापा न तं तथागतो वाचं भासति, म. गन्ध - न्धं नपुं, प्र. वि., ए. व. - लोकापचितो समानो,
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अमनुस्स
528
अमनुस्सिकाबाध अमनुजगन्धं वहूनं अकन्तं, जा. अट्ठ. 7.53; - सभाव त्रि. मार्ग, आबादी से रहित रास्ता - थं द्वि. वि., ए. व. -- ब. स. [अमनोज्ञस्वभाव], बेदर्द, कठोर स्वभाव वाला, दया अमनुस्सपथं गन्त्वा महासमुदं पविसन्ति, उदा. अट्ठ. 245; - से सर्वथा विरहित प्रकृति वाला - वं नपुं.. प्र. वि., ए. व. परिग्गह त्रि., ब. स. [अमनुष्यपरिग्रह]. भूतों से आविष्ट, - तं इदानि परिवत्तित्वा अमनञसभावं जातं. जा. अट्ठ. दुष्ट आत्माओं से अभिभूत, भूताविष्ट - हं स्त्री., वि. वि., 7.153.
ए. व. - अमनुस्सपरिग्गहं अटविं पाविसि. जा. अट्ठ. 1.234; अमनुस्स' त्रि.. [अमनुष्य], मानव-रहित, मनुष्यों से रहित - - परिग्गहीत त्रि., [अमनुष्यपरिगृहीत], मनुष्येतर प्राणियों
स्सो पु., प्र. वि., ए. व. - अमनुस्सो गामो, पारा. 53; - से भरपूर - ता स्त्री, प्र. वि., ए. व. - अहं दुबलो, म्हि सप्त. वि., ए. व. - अमनुस्सम्हि कानने, अप. 1.240. अन्तरामग्गे च अमनुस्सपरिग्गहीता अटवी अस्थि, ध. प. अमनुस्स' पु.. [अमनुष्य], मनुष्य से भिन्न प्राणी, राक्षस, अट्ठ 1.9; - ते सप्त. वि., ए. व. - अमनुस्सपरिग्गहिते यक्ष, किन्नर देव आदि - स्सो प्र. वि., ए. व. - सब्बे सो कन्तारे यक्खभक्खा हुत्वा महाविनासं पत्ता, जा. अट्ठ. यक्खो अमनुस्सो भक्खेसि, दी. नि. 2.254; - स्सेन तृ. 1.106-7; - तानि नपुं, प्र. वि., ब. व. - लामकसेनासनानि वि., ए. व. -- यं न लभा मनुस्सेन अमनुस्सेन वा पुन, जा. चेव अमनुस्सपरिग्गहितानि च ध. प. अट्ठ. 1.293; - अट्ठ. 4.77; - स्सा प्र. वि, ब. व. - अमनुस्सा द्वार पुच्छा स्त्री., प्र. वि., ए. व. [अमनुष्यपृच्छा], मानव से विवरिंसु, महाव. 19; - स्से द्वि. वि., ब. व. - अक्खरानि । भिन्न प्राणी द्वारा पूछा गया प्रश्न - कतमा अमनुरसपुच्छा? लिखित्वा अमनुस्से च भेरवसद्दे ... सकट्ठानमेव गतो, जा. अमनुस्सा भगवन्तं उपसङ्कमित्वा पन्हं पुच्छन्ति, नागा पुच्छन्ति, अट्ठ. 7.280; - स्सेहि तृ. वि., ब. व. - सो सुप्पधंसियो सुपण्णा पुच्छन्ति ... देवतायो पुच्छन्ति अयं अमनुस्सपुच्छा, होति अमनुस्सेहि, स. नि. 1(2).241; - स्सानं ष. वि., ब. महानि. 250; - वच नपुं., दिव्य वाणी, देववाणी या ध्वनि व. - अपि च खो मनुस्सानं वा अमनुस्सानं वा देवतानं वा -- चो द्वि. वि., ए. व. - अमनुस्सवचो सत्वा, तस्माहं न गहे सदं सुत्वा आदिसति, अ. नि. 1(1).198; - क त्रि., मनुष्यो रमे, दी. नि. 2.178; - विद्ध त्रि., [अमनुष्यविद्ध], दुष्टात्मा से रहित - के सप्त. वि., ए. व. - रम्मे पदेसे रमणीये या भूतादि के द्वारा घायल किया या चोट पहुंचाया हुआ - विवित्ते अमनुस्सके, चरिया. 389; - कन्तार पु./नपुं. स्स ष. वि., ए. व. - अमनुस्सपविट्ठस्स करोन्ति पण्डिता. [अमनुष्यकान्तार]. भुतहा जङ्गल, भूताविष्ट कान्तार - रं जा. अट्ठ. 2.180; पाठा. अमनुस्सविद्ध; - सद्द पु., नपुं.. प्र. वि., ए. व. - कन्तारं नाम - चोरकन्तारं वाळकन्तार [अमनुष्यशब्द], मनुष्य से भिन्न अन्य प्राणियों की आवाज, निरुदककन्तारं, अमनुस्सकन्तारं, अप्पमक्खकन्तारन्ति भूत, प्रेत, दानव आदि का शब्द - दो प्र. वि., ए. व. - पञ्चविधं ... अमनुस्साधिट्टितं अमनुस्सकन्तार, जा. अट्ट. मनुस्ससद्दो अमनुस्ससद्दो, ध, स. 621; - इंद्वि. वि., ए. व. 1.108; - जातिक त्रि., ब. स. [अमनुष्यजातिक], मनुष्य - अहं दिवाहानं अमनुस्ससह अस्सोसिंध. प. अट्ठ. 1.178; से भिन्न जाति से सम्बद्ध, मनुष्य से भिन्न वर्ग का - को - सेवित त्रि.. [अमनुष्यसेवित], मनुष्य से भिन्न दूसरे पु., प्र. वि., ए. व. - भूतोति एवंनामको अमनुस्सजातिको प्राणी के द्वारा उपभुक्त या सेवित - तं नपुं.. प्र. वि., ए. सत्तविसेसो, सद्द. 1.64; - छान नपुं.. [अमनुष्यस्थान]. व. - उप्पलं चुदका समुग्गतं, यथा तं अमनुस्ससेवितं. बीहड़ जङ्गल, ऊसर प्रदेश, अरण्यप्रदेश, निर्जन स्थान - ने थेरीगा. 381; यथा तं अमन स्ससेवित तञ्च सप्त. वि., ए. व. - अमनुस्सट्टाने उदकंव सीतं तदपेय्यमानं रक्खसपरिग्गहिताय पोक्खरणिया जातत्ता निम्मनुस्सेहि सेवितं परिसोसमेति, स. नि. 1(1).109; - दस्सन नपुं... केनचि अपरिभुत्तमेव भवेय्य थेरीगा. अट्ट, 278. [अमनुष्यदर्शन], मनुष्येतर प्राणियों का दर्शन, देवता का अमनुस्सिकाबाध पु., मनुष्येतर प्राणी या दानव के द्वारा दर्शन - नं प्र. वि., ए. व. - तत्थ किञ्चापि अमनुस्सदस्सनं उत्पन्न कराया गया रोग, वेदना या दुःख, दानवों के द्वारा नाम मनुस्सानं सप्पटिभयं होति, म. नि. अट्ट. (उप.प.) उत्पन्न मनस्ताप - धो पु., प्र. वि., ए. व. - तेन खो पन 3.131; - स्सन्तराय पु., मनुष्य से भिन्न प्राणियों से खतरा समयेन अञतरस्स भिक्खुनो अमनुस्सिकाबाधो होति, महाव. या कष्ट - यो प्र. वि., ए. व. - अमनुस्सन्तरायो, महाव. 278; - घे सप्त. वि., ए. व. - अनुजानामि भिक्खवे, 141; भिक्खु यक्खो गण्हाति, अयं अमनुस्सन्तरायो, महाव. अमनुस्सिकाबाधे आमकमंसं आमकलोहितन्ति, महाव. अट्ट, 320; - पथ पु.. [अमनुष्यपथ]. निर्जन प्रदेश, वीरान
278.
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अमनुस्सित्थी
529
अमर
अमनुस्सित्थी स्त्री., अमानवी स्त्री, मनुष्य-योनि से भिन्न सम्बन्धो कातब्बो, म. वं. टी. 84(ना.); - स्स पु., ष. वि., योनि की स्त्री - त्थी प्र. वि., ए. व. - कि मनुस्सित्थि ए. व. - अममस्स ठितस्स तादिनो, उदा. 92; अममस्साति उदाहु अमनुस्सित्थीति पुच्छति, पे. व. अट्ठ. 41; - त्थियो रूपादीसु कत्थचि... अममस्स ममङ्काररहितस्स, उदा. अट्ठ. ब. व. - अथ नं ता अमनुस्सित्थियो दूरतोव आगच्छन्तं 134; - मेसु पु., सप्त. वि., ब. व. - दीघायुकेसु अममेसु दिस्वा एस मम परिग्गहो, एस मे परिग्गहोति, उपधाविंस.. पाणिसु, नेत्ति. 119; - गा पु., प्र. वि., ब. व. - वितरेय्य पे. व. अट्ठ. 134.
ओघ अममा चरन्ति, सु. नि. 500. अमनुस्सुस्सदट्ठान नपुं.. मानवेतर प्राणियों की भीड़ से भरा अममायन्त त्रि., ममायति का वर्त. कृ. का निषे., तृष्णा हुआ स्थान - नानि प्र. वि., ब. व. - द्वेपि चेतानि ठानानि अथवा आसक्ति न करता हुआ - ... चक्खं अममायन्तो अमनुस्सस्सदठानानि होन्ति, तस्मा वज्जेतब्बानि, अ. नि. सोतं अममायन्तो घानं महानि. 36; अममायन्तोति तण्हादिट्ठीहि अट्ठ. 3.131.
आलयं अकरोन्तो, महानि. अट्ठ. 128. अमनुस्सूपद्दव त्रि., [अमनुष्योपद्रव], भूतों या दुष्टात्माओं अममायित त्रि., ममायति के भू. क. कृ. का निषे०, नहीं के उत्पातों से बाधित, भूतों से बाधित या ग्रस्त -- वो पु.. दुलराया हुआ, नहीं पुचकारा हुआ, नहीं अपनाया गया - प्र. वि., ए. व. - भन्ते, अमनुस्सुपद्दवो मग्गो, तुम्हे च ता पु.. प्र. वि., ब. व. - अममायिता कामा, महानि. 2; अन्धा परिणायका, कथं इधं वसिरसथा ति? ध. प. अट्ठ. अममायिताति वुत्तपटिपक्खा, महानि. अट्ठ. 13. 1.10.
अमर' त्रि., [अमर], अमर्त्य, वह, जो मृत्यु का विषय न हो, अमनोरम त्रि., [अमनोरम]. वह, जो मन को रमाने योग्य कभी न मरने वाला, अविनाशी - रो पु., प्र. वि., ए. व. - न हो, असुन्दर, अप्रीतिकर, अप्रिय, अरुचिकर - मं' पु., द्वि. न चत्थि सत्तो अमरो पथब्या, जा. अट्ठ. 5.75; अमरोति वि., ए. व. - नाभिजानामि उप्पन्न, आबाधं अमनोरम, जा. अमरणसभावो सत्तो नाम नत्थि, तदे. - रा ब. व. - चरिम्हा अट्ठ. 5.316; - मं स्त्री., वि. वि., ए. व. - एत्थन्तरे न अमरा विय, जा. अट्ट. 7.124; - रा स्त्री, प्र. वि., ए. व. जानामि, चेतनं अमनोरम, अप. 2.60.
- न मरतीति अमरा, दी. नि. अट्ठ. 1.98; - राय ष. वि., अमन्ती पु., [अमन्त्रिन्]. दुष्ट मन्त्री, दुष्ट अमात्य - नं पु.. ए. व. - अमराय दिडिया वाचाय च विक्खेपोति अमराविक्खेपो, द्वि. वि., ए. व. - अप्पसेनोपि चे मन्ती, महासेनं अमन्तिनं. दी. नि. अट्ट, 1.98; - रं नपुं., द्वि. वि., ए. व. - सुद्धिमग्गं जा. अट्ठ. 6.275.
अजानन्तो, अकासिं अमरं तपं. थेरगा. 219; - रा प्र. वि., अमथ्यमान त्रि., मथ/मन्थ के कर्म. वा. के वर्त. कृ. का ब. व. - ये वापि लोके अमरा बहू तपा, सु. नि. 252; अमरा निषे. [अमथ्यमान], अग्नि के समान रगड़ या संघर्षण से ति अमरभावपत्थनताय पवत्तकायकिलेसा, सु. नि. अट्ठ. उत्पन्न न किया हुआ - नो पु.. प्र. वि., ए. व. - 1.266. नामत्थमानो अरणीनरेन, नाकम्मुना जायति जातवेदो, जा. अमर पु., [अमर], क. देवता - तिदसा त्वमरा देवा अट्ठ. 7.52; नामत्थमानोति नापि अरणिहत्थेन नरेन । विवुधा च सुधासिनो, अभि. प. 11; सद्द. 2.477; ख. एक अमत्थियमानो निब्बत्तति, जा. अट्ठ. 7.54.
मछली, अत्यधिक चिकनी होने से जिसे मारना अत्यन्त अमन्द त्रि., वह, जो थोड़ा न हो, वह, जो अत्यल्प न हो, __ कठिन होता है - रो प्र. वि., ए. व. - यथा अमरो नाम
अत्यधिक, व्यापक, सुविस्तृत - अमन्दचन्दनत्थम्भसोभित्तेन मच्छो उदके गहेत्वा मारेतुं न सक्का .... विभ. अट्ठ. 463; विजम्भिना, चू. वं. 73.106.
- कोस पु., [अमरकोश(ष)], अमरसिंह के द्वारा विरचित अमम त्रि., [अमम], निर्धन, ममता से विरहित, अहंकार- एक संस्कृत शब्दकोश का नाम - से सप्त. वि., ए. व. - विहीन, तृष्णारहित, स्वार्थरहित - मो पु., प्र. वि., ए. व. - पहुण्णं कोसेय्यविसेसोति हि अमरकोसे वृत्तं लीन. (दी.नि.टी.) गिही दारपोसी अममो च सुब्बतो, सु. नि. 222; अममो च 3.199; तुल., पत्त्रोर्ण धौतकौशेयम्, अमर. 2.6.113; - सुब्बतो, पुत्तदारेसु तण्हादिट्टिममत्तविरहितो, सु. नि. अट्ट. गिरि पु., अत्थदस्सी बुद्ध के प्रासादों में एक प्रासाद का 1.228; - म पु.. संबो., ए. व. - पुनरागमनेनेत्थ वासभूमि नाम - अमरगिरि सुगिरि वाहना तयो पासादमुत्तमा, बु. वं. ममामम, म. वं. 1.66; तत्थ वासभूमि ममाममा ति वासभूमि 339; - तप नपुं.. [अमरतप], अमर होने के लिये की गई मम अमम इति पदच्छेदो, अमम महादय एत्थ मम .... तपस्या - पं प्र. वि., ए. व. - अमर तपन्ति अमरतपं
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अमरमन्तु
त्त
अमरभावत्थाय कतं लूखतपं. स. नि. अड. 1.149; नपुं, भाव. [ अमरत्व], अमरता, देवत्व, देवावस्था - त्तं द्वि. वि. ए. व. न चापाहं अधम्मेन अमरत्तमभिपत्थये जा. अट्ठ. 5.210; - त्ताय च. वि., ए. व. अमरत्ताय वितक्को अमरो वा वितक्को वा ति अमरवितक्को, महानि० अट्ठ. 339 :नगर नपुं., सिद्धार्थ बुद्ध के समय में राजा सम्बहुल (सम्बल) और सुमित्त की राजधानी का नाम रे सप्त. वि., ए. व. अमररुचिरदस्सने अमरनगरे नाम सम्बलो च सुमित्तो च द्वे भातरो रज्जं कारेसुं. बु. वं. अनु. 257 पुर नपुं., [अमरपुर], क. देवताओं का नगर या वासस्थान अमरपुरसदिसं सोभनं नगरं पविसित्वा... म. बो. वं. 45 ( रो०) ख. 1781 ई. में बोदोह द्वारा म्यांमा में स्थापित एक राजधानी का नाम- काळपक्खद्वादसमियं अङ्गार वारे उत्तरफग्गुणीनक्खत्तेन योगे अमरपुरं नाम महाराजद्वानीनगर मायेसि सा. वं. 122 (ना.) पुरनिकाय पु. अमरपुरनिवासी भिक्षुओं की एक विशेष शाखा के साथ जुड़ा हुआ यो पु. प्र. वि., ए. क. अमरपुरनिकायो ति तत्थेरपभवो ति सा. वं. 131 यिक त्रि. अमरपुर निवासी, भिक्षुओं की कानं पु., ष. वि., ब. व. पन सङ्घराजा महाथेरो सीहलदीपे अमरपुरनिकायिकानं भिक्खून आदिभूतो आचरियो, सा. वं. 122 ( ना० ) - पुरमापक पु०, अमरपुर नगर का निर्माण कराने वाला कस्स पु०, ष. वि., ए. व. तेसु गुणसिरीथेरो अमरपुरमापकस्स रज्ञ काले...... वं. 149 (ना.); - भाव पु०, अमर्त्यता, अमरता, अमरत्व वत्थाय च. वि., ए. व., अमर अवस्था पाने के लिए अमरंतपन्ति अमरतपं अमरभावत्थाय कतं लूखतपं. स. नि. अट्ठ. 1; भावपत्थनता स्त्री, अमर अवस्था पाने की इच्छा यच. वि., ए. व. अमरभावपत्थनताय पवत्तकायकिलेसा, सु. नि. अड्ड. 1.266. अमरमन्तु पु., [अमरमन्तृ] देवों को मन्त्रणा देने वाला, (बृहस्पति) देवों का अमात्य तारं द्वि. वि., ए. व. बुद्धियां मरमन्तारं सुद्धिया सरदम्बरं चू वं. 42.3. अमरमन्ती पु.. प्र. वि. ए. व. [ अमरमन्त्रिन्] देवों का मन्त्री या अमात्य - वत्ता सोमरमन्तीव चागवा धनदो विय, चू. वं.
शाखा
सा.
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52.38.
अमरवती / अमरावती स्त्री [अमरावती ] क. इन्द्र की नगरी शक्र की नगरी मराबासारो वरसोकसारा चेवामरावती
अभि. प. 21; तिया तृ. वि., ए.व. देवलोके
अमरवतिया राजधानिया सिरितो अधिकतरसस्सिरीकं विय
अमराविक्खेप
नगर कातुकामेन ... पारा. अड. 1.35, ख. सुमेध बोधिसत्त्व का नगर तिया सप्त. वि., ए. व. नगरे अमरवतिया सुमेधो नाम ब्राह्मणो, अनेककोटिसन्निचयो पहूतधनधञ्ञवा, जा. अट्ठ. 1.4; ग. कौण्डिन्य बुद्ध के समय का एक नगर - पुन भगवा अमरवतीनगरद्वारे... बु. वं. अट्ठ. 141; अमर नाम नगरन्ति अमरन्ति च अमरवतीति च लद्धनाम नगरं अहोस बु. व. अनु. 78.
अमरवर त्रि. [अमरवर] देवों में सर्वश्रेष्ठ, देवश्रेष्ठ रेहि पु. तृ. वि. ब. व. पुष्फुत्तमं अमरवरेहि सेवितं जा. अड. 5.389; अमरवरेहीति सक्कं सन्धाय वृत्तं तदे.. अमरवितक्क पु. [ अमरवितर्क] अमरत्व के विषय में विचार, अमरता के लिये तर्क-विर्तक को प्र. वि., ए. व. अमरताय वितको अमरो वा वितको अमरवितको महानि अट्ठ. 339.
अमरण नपुं., [अमरण], मरण का अभाव, मृत्यु न होना - णं प्र. वि., ए. व. नत्थिं जातस्स अमरणं, स. नि. 1 (1) 129; इमस्स मरणम्पि अमरणं विय भविस्सती ति जा. अड. 6.96 - ता स्त्री. भाव, नहीं मरना, मृत्यु न होना पाणातिपाता वेरमणिया चेत्थ अङ्गपञ्चङ्ग सम्पन्नता अमरणता- एवमादीनि फलानि, खु० पा० अट्ठ 23. अमरा' स्त्री. क. एक मछली का नाम, जिसे उसकी चपल गति के कारण पकड़ना सर्वथा कठिन है न मरतीति अमरा अमरा नाम एक मच्छजाति सा उम्मुज्जननिमुज्जनादिवसेन उदके सन्धायमाना गहेतुं न सक्काति दी. नि. अट्ठ. 1.98.
अमरा' स्त्री०, महौषध (महोसध) की पत्नी का नाम - पुन च कथयति महोसवरस भरिया अमरा नाम इत्थी गामके ठपिता मि. प. 196.
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11
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अमरादेवीपञ्ह पु. [अमरादेवी प्रश्न ] 112वें जातक का शीर्षक, जा० अट्ठ. 1.407 मि. प. 196-197. अमराधिप पु., [अमराधिप], देवों का राजा, देवों का स्वामी इन्द्र पो प्र. वि. ए. व. एतं हत्वा मनुरिसन्दं भवरसु अमराधिपो जा. अड्ड. 4.244. अमराविक्खेप पु. टाल-मटोल भरा उत्तर अनिश्चित या अस्पष्ट उत्तर या कथन अमराय दिट्टिया वाचाय च विक्खेपो ति अमराविक्खेयो दी. नि. अह. 1.98; अमरा नाम एका मच्छजाति, सा... गहेतुं न सक्काति एवमेव अयम्पि वादो इतोचितो च सन्धावति तदे दिहि स्त्री. भगवान बुद्ध के समय में भारत में विचारकों द्वारा गृहीत 62 मिथ्या
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अमरविक्खेपिक
531
अमा
या भ्रान्त धारणाओं में से एक - नेव होति न नहोतीति गण्हतो चतुत्था अमराविक्खेपदिद्धि, ध. स. अट्ठ. 3963B - धम्म पु., ढुलमुल प्रकृति - म्मो प्र. वि., ए. व. - एवं तस्मि पुग्गले अनरियधम्मो ... अमराविक्खेपधम्मो, यदिदं मिच्छापटिपदाति, महानि. 105. अमरविक्खेपिक त्रि., अस्पष्ट या अनिश्चित उत्तर देनेवाला, टालमटोल करने वाला, ढुलमुल सिद्धान्त प्रतिपादित करने वाला - का पु., प्र. वि., ब. व. - ... सो एतेसं अत्थीति अमराविक्खेपिका, दी. नि. अट्ठ. 1.98; अमराविक्खेपिनो एव अमराविक्खेपिका, लीन. (दी. नि. टी.) 3.143. अमरिका स्त्री.. एक नदी का नाम - कं द्वि. वि., ए. व. -
नदि अमरिक नाम उपगन्त्वानहं तदा, अप. 2.78. अमरितुकाम त्रि., ब. स., मरने की इच्छा या कामना न करने वाला - मो पु., प्र. वि., ए. व. - ... अथ पुरिसो आगच्छेय्य जीवितुकामो अमरितु कामो सुखकामो दुक्खपटिकूलो, म. नि. (उप.प.) 3.45; - मे पु., द्वि. वि., ब. व. - ... अमरितुकामे सुखकामे दुक्खपटिकूले, दी. नि. 2.246. अमरिन्द पु., [अमरेन्द्र], देवों का स्वामी या राजा, इन्द्र, अमरेन्द्र - स्स ष. वि., ए. व. - अहोसिं अमरिन्दस्स महेसी दयिता तहिं, अप. 2.206; - सुनन्दन त्रि.. देवताओं के राजा इन्द्र को आनन्दित कर देने वाला - नं नपुं., प्र. वि., ए. व. - सुदिट्ठ नन्दनं तेन, अमरिन्दसुनन्दनं, थेरीगा. अट्ठ. 145. अमरिसन नपुं० [अमर्षण], अधीरता, व्यग्रता, अधैर्य, असहनशीलता - अत्थि नामाति अमरिसनत्थे निपातो, अ. नि. अट्ठ. 3.60. अमरुय्यान नपुं.. [अमरोद्यान], अमरनगर में अवस्थित एक उद्यान, देवों का उद्यान - नं द्वि. वि., ए. व. - दस्सेत्वा अमरुय्यानं गन्त्वा परमरमणीये अत्तनो करुणासीतले सिलातले निसीदि, बु. वं. अट्ठ. 257. अमल' नपुं., अभ्रक - अमलं त्वब्भकं भवे, अभि. प. 492; तुल. अमर. 2.9. अमल' त्रि., [अमल], निर्मल, क्लेशों के मलों से रहित, धब्बारहित, बेदाग, निष्कलङ्क, विमल, कलङ्करहित, पवित्र - लो पु.. प्र. वि., ए. व. - अमलोति किलेसमलविरहितो, चूळनि. अट्ठ. 74; - ट्ठ पु., [अमलार्थ], मलों से रहित निर्वाण का प्रयोजन - 8ो प्र. वि., ए. व. - अमलट्ठो अभिज्ञेयो, पटि. म. 17; अमलनिब्बानारम्मणत्ता अमलट्ठो,
पटि. म. अट्ठ. 1.87; - धम्म पु., [अमलधर्म], विशुद्ध वाद या मत, विमल धर्म - सिक्खेय्यामलधम्मसागरतटे निब्बानतित्थूपगे, सद्द. 1.129; - मज्झिम त्रि., निर्दोष कटिवाला, निर्दोष कमर वाला/वाली - मे स्त्री., संबो., ए. व. - तं
रहमानं सोतेन दिस्वानामलमज्झिमे, जा. अट्ठ. 5.4; अमलमज्झिमेति विमलमज्झे, तदे.; - मति त्रि., [अमलमति], विशुद्ध मति वाला, राग आदि के मलों से रहित बुद्धि वाला, निर्मल मन वाला - ति पु., द्वि. वि., ए. व. - राजा सो सुमतिं महामहिन्दथेरं आगम्मामलमतिमेत्थ कारयित्वा ..., म. वं. 15.214; अमलमतिं ति रागादिसब्बकिलेसविरहितत्ता परिसुद्धमति... म. वं. टी. 328. अमलिन त्रि., [अमलिन], स्वच्छ, पवित्र, क्लेश के मलों से मुक्त-नं नपुं. द्वि. वि., ए. व. - एकदिवसम्पि किलेसमलेन अमलिनं कत्वा चरिमकचित्तं पापेतब्बताय एकन्तपरिसद्ध, उदा. अट्ठ. 251. अमल्ल पु.. [अमल्ल], वह, जो योद्धा या पहलवान न हो -
ल्लो प्र. वि., ए. व. - अमल्लम्हि अमल्लोम्ही ति वदन्तमेव नाहं तव मल्लभावं वा अमल्लभावं जानामीति, जा. अट्ठ. 4.73; - भाव पु., वि. वि., ए. व. - ... अमल्लभाव वा
जानामीति, जा. अट्ठ. 4.73. अमस्सुक त्रि., ब. स. [अश्मश्रुक]. दाढ़ी-रहित, श्मश्रुहीन - को पु.. प्र. वि., ए. व. - द्वे द्वे गहपतयो गेहे, एको तत्थ अमस्सुको, जा. अट्ट. 2.154. अमस्सुजात त्रि., [अश्मश्रुजात], वह, जिसे अभी तक दाढ़ी या मूंछ नहीं आई है, तरुण, युवा - तो पु., प्र. वि., ए. व. -- अमरसुजातो अपुरावण्णी, आधाररूपञ्च पनस्स कण्ठे, जा. अट्ठ. 5.192; अमस्सुजातो ति न तावस्स मस्सु जायति, तरुणोयेव, जा. अट्ठ. 5.195. अमहग्गत त्रि., महग्गत का विलो. [बौ. सं. अमहद्गत].
शा. अ. अविस्तीर्ण, विस्तृत न किया गया, परिसीमित, परिमित, ला. अ. कामावचर-भूमि का चित्त - तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - अमहग्गतं चित्तं पजानाति, दी. नि. 1.70. अमहग्घसभाव पु.. महग्घसभाव का निषे०, पेटूपन का अभाव, अत्यधिक खाने पीने की प्रवृत्ति का अभाव - वं द्वि. वि., ए. व. - अनोदरिकन्ति न ओदरिकभावं अमहग्घसभावं अनुयुत्तो,
अ. नि. अट्ट. 41. अमा निपा., [अमा], से निकट, पास, के साथ, से मिलकर - सह सद्धि समं अमा, अभि. प. 1136; सह, सद्धि, अमा इच्चेते समकिरियायं सद्द. 3.899.
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अमातापितरसंवद्ध/अमातापितरिसंवड्ड
532
अमित
अमातापितरसंवद्ध/अमातापितरिसंवड्ड त्रि., शा. अ. अमामक त्रि., [अमामक], वह, जो मेरा अपना नहीं हो, माता पिता के द्वारा असंवर्द्धित या असम्पोषित, ला. अ. मुझसे प्रेम न रखने वाला - का पु.. प्र. वि., ब. व. - माता पिता से शिक्षा न पाया हुआ - द्धो पु०, प्र. वि., ए. ओवदियमानापि मम... अपटिग्गहणेन अतिक्कमनेन अमामका, व. -- तत्थ अमातापितरसंवद्धोति मातापितरो निस्साय तेसं ओवादं अग्गहेत्वा संवड्डो, जा. अट्ठ. 1.418; - संववृत्त । अमाय त्रि., ब. स. [अमाय], छल-प्रपञ्चरहित, मायारहित नपुं., भाव., माता एवं पिता द्वारा पोषित न होना, पारिवारिक __- यो पु., प्र. वि., ए. व. - सच्चो सिया अप्पगभो, अमायो शिक्षा से रहित होना - तुम्हे पन अमातापितरिसंवड्डत्ता रित्तपेसुणो, सु. नि. 947. आचरियकुले च अनिवुठ्ठत्ता एतं..... सद्द. 1.95.
अमाया स्त्री., [अमाया], माया या छलप्रपञ्च का अभाव - अमातापुत्तिक त्रि., मां एवं पुत्र के साथ नहीं जुड़ा हुआ, या प्र. वि., ए. व. - मायाविस्स पुरिसपुग्गलस्स अमाया माता एवं पुत्र द्वारा न बचाए जाने योग्य - कानि नपुं.. प्र. होति, म. नि. 1.56. वि., ब. व. - अमातापुत्तिकानि भयानीति अस्सुतवा पुथुज्जनो अमायावी त्रि., [अमायाविन्], माया-रहित, धोखेबाजी या भासति, अ. नि. 1(1).206; अमातापुत्तिकानीति माता च पुत्तो छल से काम न लेने वाला, कपटयुक्ति का प्रयोग न करने च मातापुत्तं परित्तातुं समत्थभावेन नत्थि एत्थ मातापुत्तन्ति वाला - वी पु.. प्र. वि., ए. व. - भिक्खु असठो होति अमातापुत्तिकानि, अ. नि. अट्ठ. 2.161.
अमायावी, म. नि. 1.137; यम्पावुसो भिक्खु असठो होति अमातिक त्रि., [अमातृक], माताविहीन, मातारहित - को अमायावी, तदे; - विना पु., तृ. वि., ए. व. - असठेन
पु., प्र. वि., ए. व. - अमातिको अपितिको, जा. अट्ठ. 5.240. अमायाविना हुत्वा कल्याणज्झासयेन भवितब्ब, ध. प. अट्ठ. अमानना स्त्री., [अमानन], अनादर, निरादर, असम्मान - 1.42; - विनो पु., प्र. वि., ब. व. - असा अमायाविनो
ना प्र. वि., ए. व. - अमानना यत्थ सिया, जा. अट्ठ. 3.217; अकेतबिनो, म. नि. 1.39. माननस्स अभावेन अमानना, तदे..
अमारधेय्य नपुं., मार का अविषय, मार की पकड़ का अक्षेत्र अमान पु., [अमान], अभिमान या अहंभाव का अभाव - सत्त - व्यं प्र. वि., ए. व. -- अमारधेय्यं नव लोकुत्तरधम्मा, म. त्रि., अहंभाव के कारण पदार्थों में आसक्ति या लगाव न नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).164; - य्यस्स ष. वि., ए. व. रखने वाला - त्तो पु.. प्र. वि., ए. व. - यो मानसत्तेसु - अकुसला मारधेय्यस्स अकुसला अमारधेय्यरस, म. नि. अमानसत्तो, सु. नि. 477.
1.290. अमानुस' त्रि., [अमानुष], मनुष्य से असम्बद्ध, अतिमानवीय, अमारितभाव पु., नहीं मार दिए जाने की अवस्था, अमृतत्व अलौकिक, दैवी, दिव्य, चमत्कारी - सो पु.. प्र. वि., ए. व. - वं द्वि. वि., ए. व. - अग्गपादेहि गन्त्वा परस्स अमारितभावं - अमानुसो वायति गन्धो, पे. व. 657; - सी स्त्री., प्र. वि., पन तथागतस्स सदेवको लोको इमिना कारणेन जानातूति, ए. व. - अमानुसी रति होति, ध. प. 373; धम्म विपस्सन्तस्स दी. नि. अट्ठ. 3.97. विपस्सनासङ्घाता अमानुसी रति दिब्बा रति उप्पज्जतीति अमावसी/अमावासी स्त्री., अमावासिय का सं. रू. अत्थो, ध. प. अट्ठ. 2.345; - सिं स्त्री., द्वि. वि., ए. व. - [अमावसी]. नूतन चन्द्रमा का दिन, वह दिन, जब सूर्य एवं अनुभोमि रत्तिं अमानुसिं, पे. व. 486; - सा पु.. प्र. वि., ब. चन्द्रमा दोनों एक साथ रहते हैं, प्रत्येक चान्द्रमास के व. - भुत्ता अमानुसा कामा, पे. व. 367; - से पु.. द्वि. वि., कृष्णपक्ष की पन्द्रहवीं तिथि, अमावस्या - अमावसीप्यमावासी. ब. व. - भुञ्ज अमानुसे कामे, पे. व. 366.
अभि. प. 73; ग्रन्थों में केवल, सप्त. वि., ए. व. में ही प्रयुक्त अमानुस पु., [अमानुष], मानवेतर यक्ष, गन्धर्व, देव आदि -- ... महामोग्गल्लानो कत्तिकमासस्सेव कालपक्खअमावसियं, प्राणी - सो प्र. वि., ए. व. - अमानुसो मानुसकेन सद्धि. जा. अट्ठ. 1.374. पे. व. 564; वि. व. 955; -- स्स ष. वि., ए. व. - अमिञ्जक त्रि., मिगी या गूदा से रहित, साररहित, सुविकसित अमानुसरसेव तवज्ज वण्णो, जा. अट्ठ. 7.204; अमानुसस्सेव आंठी से रहित (लहसुन आदि)- को पु., प्र. वि., ए. व. तवज्ज वण्णोति अज्ज तव इदं कारणं अमानसस्सेव, तदे.; - अमिजको, अङ्करमत्तमेव हि तस्स होति, पाचि. अट्ठ. 185. - सा प्र. वि., ब. व. - चतुद्दिसा दुन्दुभियो, नादयिंसु, अमित' त्रि., [अमित], सीमा-रहित, असीमित, प्रभूत, अमानुसा, अप. 2.121.
अत्यधिक, असंख्य - तो पु., प्र. वि., ए. व. - अनोमनामो
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अमित
533
अमित्त
अमितो, अप. 2.113; - ता ब. क. - ... भोगा च अमिता मम, अप. 1.354; - तं नपुं., द्वि. वि., ए. व. - लभामि अमितं धनं, अप. 1.414; - गुण त्रि., ब. स. [अमितगुण], अनन्त गुणों वाला, अनेक गुणों से युक्त - णो पु., प्र. वि., ए. व. - यद्धि बुद्धो अमितगुणो असमप्पटिपुग्गलो, अप. 2.187; - प्पम त्रि., ब. स. [अमितप्रभ], अनन्तप्रभा से युक्त - भो पु., प्र. वि., ए. व. - यदा च बुद्धो लोकस्मिं, उदेति अमितप्पभो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).316; - बुद्धिमन्तु त्रि., अनन्त बुद्धिमान्, अत्यन्त तीब्र बुद्धि से युक्त - मा पु., प्र. वि., ए. व. - इदं वत्वान पक्कामि सोणको अमितबुद्धिमा, जा. अट्ठ. 5.247; - भोग त्रि., ब. स. [अमितभोग], असीमित भोगसाधनों से सम्पन्न - गा पु.. प्र. वि., ब. व. - पञ्च अमितभोगा नाम अहेसं जोतिको जटिलो मेण्डको पुण्णो काकवलियोति, अ. नि. अट्ठ. 1.301; -- यस त्रि., ब. स. अमितयशस्], अपरिमित यश वाला, अतुलनीय कीर्ति वाला - सो पु., प्र. वि., ए. व. - अनन्ततेजो अमितयसो, अप्पमेय्यो दुरासदो ति, जा. अट्ठ. 1.40; - सा स्त्री॰, प्र. वि., ए. व. - केनच्छसि त्वं अमितयसा सुखेधिता, वि. व. 140; अमितयसाति न मितयसा अनप्पकपरिवारा, वि. व. अट्ठ. 64; - ताभ' त्रि., ब. स. [अमिताभ], असीम आभा से युक्त, अनन्त वैभव या असीम दीप्ति से सम्पन्न - भा पु., प्र. वि., ब. व. - झायिनो अमिताभा ये पीतिभक्खा महिद्धिका, सद्धम्मो. 255; - ताभ पु., एक चक्रवर्ती का नाम - अमिताभोति नामेन चक्कवत्ती महब्बलो, अप. 1.219; - तोदक त्रि., ब. स. [अमितोदक], अपरिमित या असीम जल से भरा हुआ - कं पु., वि. वि., ए. व. - अक्खोब्भ अमितोदकं जलरासिं ..., चूळनि. 51(रो.); - तोदन पु., [अमृतोदन], एक शाक्य राजकुमार का नाम, सीहहनु का पुत्र शुद्धोधन का भाई, बुद्ध का चाचा - सीहहनुरो किर पञ्च पुत्ता अहेसु-सुद्धोदनो अमितोदनो धोतोदनो सक्कोदनो सुक्कोदनो ति, सु. नि. अट्ठ. 2.81; - तोदय त्रि., ब. स. [अमितोदय], प्रभूत सफलता को प्राप्त, असीम सफलता पाने वाला - समुद्धरसिमं लोकं सयम्भू अमितोदय, अप. 1.17. अमित पु., एक चक्रवर्ती का नाम - अहोसि अमितोगतो,
अप. 1.243. अमितञ्जल पु., एक चक्रवर्ती का नाम - इतो चुद्दसकप्पम्हि
अहोसिं अमितञ्जलो, अप. 1.230. अमिता' स्त्री., पद्मोत्तर बुद्ध की अग्रश्राविका का नाम - अमिता च असमा च द्वे अग्गसाविका, जा. अट्ठ. 1.47.
अमिता स्त्री., बुद्ध की चाची तथा तिष्यस्थविर की माता का नाम - अमिता नाम देवी तेसं भगिनी, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).373. अमित्त पु., [अमित्र], शत्रु, वैरी, दुश्मन - अमित्तो रिपु वेरी
च सपत्तो राति सत्त्वरी, अभि. प. 344; सद्द. 2.452; - त्तो प्र. वि., ए. व. - सेय्यो अमित्तो मेधावी यञ्चे बालानुकम्पको, जा. अट्ठ. 1.242; - त्तं द्वि. वि., ए. व. - तिखिणेन असिना अमित्तं गीवाय पहरन्तो..... उदा. अट्ठ. 189; - त्तेन तृ. वि., ए. व. - चरन्ति बाला दुम्मेधा, अमित्तेनेव अत्तना, ध. प. 66; अमित्तेनेव अत्तना ति अमित्तभूतेन विय वेरिना हुत्वा, ध. प. अट्ठ. 1.271; - त्ता प्र. वि., ब. क. - अमित्ता वधका कामा, अग्गिखन्धूपमादुखा, थेरीगा. 353; - त्ते द्वि. वि., ब. व. - यो चापिमित्ते अथवा अमित्ते, सेटे सरिक्खे अथवा पिहीने, जा. अट्ठ. 3.230; - त्तेहि तृ. वि., ब. व. - कच्चामित्तेहि पकतो, दीघमद्धानमागतो, जा. अट्ठ. 7.274; - त्तानं ष. वि., ब. व. - अमित्तानंव हत्थत्थं सिवि पप्पोति मामिव, जा. अट्ट, 3.412; -- गाम पु.. शत्रु का ग्राम, दुश्मन का गांव - मंद्वि. वि., ए. व. - अथ केन वण्णेन अमित्तगामं तुवमिच्छसि उत्तमपञ गन्तुन्ति, जा. अट्ठ. 7.209; - जनन त्रि., शत्रुओं को उत्पन्न करने वाला, वैरी तैयार कर देने वाला - ना पु., प्र. वि., ब. व. - एवं अमित्तजनना, तापना संकिलेसिका, थेरीगा. 358; अमित्तजनना ति अमित्तभावस्स निबत्तनका, थेरीगा. अट्ठ. 268; - जाति त्रि., बन्धुओं एवं मित्रों से विहीन - ति पु., प्र. वि., ए. व. - अमित्तजाति, महाराज, पुग्गलो ..., मि. प. 267; - तापन त्रि०, [अमित्रतापन], शत्रुओं को पीड़ित करने वाला - ना पु., प्र. वि., ब. व. - मा त्वं सोचि अमित्ततापना, जा. अट्ठ. 7.154; - नं पु., वि. वि., ए. व. - इमञ्च आजञ अमित्ततापनं, जा. अट्ठ. 7.165; - दुब्मी त्रि., [अमित्रद्रोहिन], अपने मित्र के साथ विश्वासघात न करने वाला - नो पु., ष. वि., ए. व. - अमित्तदुब्भिनो गुणकथं कथेन्ति, जा. अट्ठ. 6.16; - भाव पु., शत्रुभाव, दुश्मनी का भाव - वं द्वि. वि., ए. व. - कथं नु खो सक्का मया इमस्स मित्तभावं वा अमित्तभावं वा जानितुन्ति ... न सक्खिस्सति, जा. अट्ठ.4.175; - मज्झे सप्त. वि., प्रतिरू. निपा., शत्रुओं के मध्य में - अमित्तमज्झे वसतो, तेसु आमिसमेसतो, जा. अट्ठ. 3.274; - लक्खण नपु., [अमित्तलक्षण], शत्रु का लक्षण - णं द्वि. वि., ए. व. - अथस्स अमित्तलक्खणं कथेन्तो आह, जा. अट्ठ.4.176%; - वस पु., [अमित्रवश], शत्रु की अधीनता - सं द्वि. वि.,
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अमित्ततापन
534
अमु/असु ए. व. - अमित्तवसमन्वेति, पच्छा च अनुतप्पति, जा. अट्ठ अमिस्सीकत त्रि., [अमिश्रीकृत]. वह, जो मिलाया हुआ न 3.114; अत्थं खिप्पं अजानन्तो अमित्तवसं गच्छति, तदे.; - हो, अमिश्रीकृत - तं नपुं, प्र. वि., ए. व. - अमिस्सीकतमेवस्स विजय पु., [अमित्रविजय], अपने शत्रु पर विजय - येन चित्तं होति, महाव. 256; - ता पु., प्र. वि., ब. व. - लोमा तृ. वि., ए. व. - अमित्तविजयेन विय तुट्ठो सकलगामे न केसाति एवं अवसेसएकतिंसकोट्ठासेहि अमिस्सीकता केसा कटच्छुमत्तम्पि भतं... उपसङ्कमि, स. नि. अट्ठ. 158; - सङ्घ नाम पाटियेक्को ..., विसुद्धि. 1.240. पु., शत्रुओं का समूह - द्वि. वि., ए. व. - सोचयन्तो अमु त्रि., सङ्केतक सर्व का एक शब्द-रूप, इम का विलोम अमित्तसङ्घ मि. प. 213; - समागम पु., [अमित्रसमागम]. [अदस्], ऐसा ऐसा व्यक्ति या वस्तु या पदार्थ, (जब नाम शत्रुओं के साथ मिलन, शत्रुओं से भेंट - अमित्तस्स वसनट्ठानं से सम्बोधित न किया जाय), फलां फलां व्यक्ति, वस्तु या अमित्तसमागमन्ति, जा. अट्ठ. 7.209; - हत्थ पु., शत्रु का ___ स्थान - परस्मिं चात्र तीस्वमु, अभि. प. 1089; अमुसद्दो हाथ - त्थं द्वि. वि., ए. व. - अमित्तहत्थं पुनरागतोसि, दूरवचनो, सद्द. 1.267. नखत्तधम्मे कुसलोसि राजा ति, जा. अट्ठ. 5.484; - त्थगता अमु/असु पु., प्र. वि., ए. व., वह फलां फलां - अमु, हि, स्त्री., प्र. वि., ए. व., शत्रुओं के हाथों में जा चुकी - भो गोतम, पुरिसो नळकारगामे जातवद्धो, म. नि. 2.4303; अमित्तहत्थगता तचसारसमप्पिता, जा. अट्ठ. 3.177; असु अमुत्र उपपन्नो, असु अमुत्र उपपन्नोति, म. नि. अमित्तहत्थगताति अमित्तानं हत्थगता, तदे..
2.137; - असु स्त्री., प्र. वि., ए. व. - असु हि, भन्ते, सत्ति अमित्ततापन पु., एक चक्रवर्ती राजा का नाम - अमित्ततापनो तिहफला ..., स. नि. 1(2).242; - अमु द्वि. वि., ए. व. नाम चक्कवत्ती महब्बलो, अप. 1.171.
- ... भब्बो नु खो सो पुरिसो अमुं सत्तिं तिण्हफलं पाणिना अमित्ततापना स्त्री., जूजक नामक एक ब्राह्मण की पत्नी का वा मुट्ठिना वा पटिलेणेतुं ..., स. नि. 1(2).241; - मुना नाम - अमित्ततापना चिञ्चमाणविका, जा. अट्ठ. 7.381. पु./नपुं., तृ. वि., ए. व. - अपि नु तं परित्तं उदकं अमुना अमित्ता स्त्री॰, अमित्ततप्पना का संक्षिप्त रूप [अमित्रा], एक लोणकपल्लेन लोणं अस्स अपेय्यन्ति, अ. नि. 1(1).283; स्त्री-शत्रु - अमित्ता नून ते माता, अमित्तो नून ते पिता, जा. अमुना अकथितं इमस्स वदन्तानं पिसुणवाचानं वसेन भिन्नानं अट्ठ. 7.281.
मनु स्सान, उदा. अट्ठ. 341; - अमुया स्त्री., अमिलात' त्रि., मिलायति के भू. क. कृ. का निषे. [अम्लात]. तृ./प./ष./सप्त. वि., ए. व. - अमुया अमूहि अमूभि, नहीं कुम्हलाया हुआ, नहीं मुरझाया हुआ वह, जो तेजरहित सद्द. 1.278; अमुस्सा अमुया अमूसं... अमुया अमुयं अमुस्स न हो - तं स्त्री., वि. वि., ए. व. - आनीतुप्पलमालं च, अमूसु, तदे.; - अमुस्स पु./नपुं.. ष. वि., ए. व. - .... अमिलातं पिलन्धितुं, म. व. 22.46.
परिचारयमानो अमुस्स गहपतिस्स वा गहपतिपुत्तस्स वा अमिलात पु., [अम्लान], दुपहरिया पुष्प का वृक्ष, आंवला पिहेय्य, म. नि. 2.183; - अमुस्सा स्त्री., ष. वि., ए. व. का वृक्ष - तो प्र. वि., ए. व. - तिलबीजसासपभत्तकसेवालोपि - पुरिसो अमुस्सा इत्थिया सारत्तो... तिब्बच्छन्दो तिब्बापेक्खो, उदकतो उद्धतो अमिलातो अग्गबीजसहं गच्छति, पाचि. म. नि. 3.9; - अमुस्मा पु./न. प. वि., ए. व. - अमुस्मा अट्ठ. 25.
अमुमहा अमूहि अमूभि, सद्द. 1.277; - अमुस्मिं पु./नपुं.. अमिस्स त्रि., [अमिश्र], अमिश्रित, वह, जो मिश्रित न हो - सप्त. वि., ए. व. - पमत्ता समाना ... अहेसं नेवापिकस्स स्सं नपुं., प्र. वि., ए. व. - एवं भन्ते, नागसेन, रज्जसुखं, अमुस्मिं निवापे, म. नि. 1.209; अमुम्हि - गच्छ, अमुम्हि दुक्खेन अमिस्सं, अजं तं रज्जसुखं अझं, दुक्खन्ति, मि. ओकासे तिहाहीति, महाव. 119; - अमुया/अमुयं/अमुस्सं प. 288; - कता स्त्री॰, भाव., बिना किसी मिलावट वाला स्त्री., सप्त. वि., ए. व. - अमुया अमुयं अमूसु इदं इथिलिङ्गे, होना, परिशुद्ध होना, मिश्रणरहितता - अमिस्सकतावसेनाति सद्द. 1.278; - अमू पु.. प्र. वि., ब. व. - उपसङ्कमन्ता खो कोट्ठासन्तरेहि अवोमिस्सकतावसेन, विसुद्धि. टी. 1.284; अमू आवुसो रेवत, सप्पुरिसा येनायस्मा सारिपुत्तो तेन लोमापि न केसाति एवं अमिस्सकतावसेन ... वेदितब्बो, धम्मस्सवनाय, .... म. नि. 1.276; - अमूनि नपुं., प्र. वि., विसुद्धि. 1.234.
ब. व. - अमुं निवापं निवुत्तं मारस्स अमूनि च लोकामिसानि अमिस्सित त्रि., [अमिश्रित], वह, जो मिश्रित या मिला हुआ न .... भुजिंसु, म. नि. 1.213; - अमूहि तृ. वि., ब. व. - हो-तो पु, प्र. वि., ए. व. - अमिस्सितो किलेसेहि, मि. प. 285.. इदञ्चिदञ्च वुत्ताति अमूहि कथितं... पवेसेय्याति, म. नि.
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अमुक 535
अमुत्र अट्ठ. (उप.प.) 3.20; -- अमूसं ष. वि., ब. व. - अमुत्त वा अमुञ्चित्वा ।मुच के पू. का. कृ. का निषे., न छोड़ करके,
सुत्वा न इमेसं अक्खाता अमूसं भेदाय, दी. नि. 1.4. विमुक्त न करके - इस्सासो दण्डकसञ्ज अमुञ्चित्वाव सरं अमुक त्रि., सङ्केतक सर्व., अमु से व्यु. [अमुक], कोई व्यक्ति खिपित्वा फलकसतं निबिज्झति, ध. स. अट्ठ. 275. या पदार्थ, ऐसा व्यक्ति या पदार्थ, फलां फलां - को पु.. प्र. अमुण्ड त्रि., ब. स. [अमुण्ड], मुण्डन-रहित सिर वाला, वह, वि., ए. व. - असु राजा, अमुको राजा, क. व्या. 173; सद्द. जो गंजा न हो, नहीं मुड़े हुए सिर वाला - डो पु., प्र. वि., 3.661; - कं' द्वि. वि., ए. व. - अमुकं नाम जनपदन्ति, ए. व. - महामाताय पुत्तो अमुण्डो , म. नि. अट्ठ. (मू.प.) दी. नि. 2.254; - कं स्त्री.. द्वि. वि., ए. व. - अमुकं नाम 1(1).75. गणकि धीतरं याचिम्हा अम्हाक कुमारकस्स, पारा. 201; - अमुत त्रि., मुनाति का भू. क. कृ. का निषे., [अमत], चित्त म्हा पु.. प. वि., ए. व. - अमुकम्हा जनपदा ति, दी. नि. के द्वारा अचिन्तित, अबोधित या अविचारित, इन्द्रियों द्वारा 2.254; - स्स पु./नपु, ष. वि., ए. व. - अमुकस्स अगृहीत - तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अमुतं मुतं मेति, पाचि. कुलस्स कुमारिका अभिरूपा दस्सनीया पासादिका पण्डिता, 2.3; घानादिवसेन मुनित्वा तीहि इन्द्रियेहि एकाबद्ध विय पारा. 200; - स्मिं पु./नपुं.. सप्त. वि., ए. व. - अमुकस्मि कत्वा अग्गहितं अमुत, पाचि. अट्ठ. 3; - ते सप्त. वि., ए. एवं सुखापितो ति सरति. मि. प. 87; श. रू. के लिए द्रष्ट.. व. - अमुते अमुतवादी होति, अ. नि. 1(2).259; - वादी सद्द. 1.277-78; 3.661; क. व्या. 173.
त्रि., [वादिन], किसी चीज को अचिन्तित कहने वाला - अमुख त्रि., ब. स. [अमुख], मुखविहीन, मुंहरहित - खे पु.. वो पु., प्र. वि., ए. व. - अमुते अमुतवादी होति, अ. नि. सप्त. वि., ए. व. - ... चन्दनिकाय पक्खित्ते अमुखे 1(2).259; - वादिता स्त्री॰, भाव., प्र. वि., ए. व., आठ रवणघटे चन्दनिकरसो पविसति, विभ. अट्ठ. 235.
अनार्य-व्यवहारों में से एक - अट्ठिमे अनरियवोहार ... मुते अमुखर त्रि., [अमुखर], बकवास न करने वाला, बहुत अधि अमुतवादिता, अ. नि. 3(1).131.
क बातें न करने वाला, वह, जो वाचाल न हो - रेन अमुत्त त्रि., vमुच के भू. क. कृ. का निषे. [अमुक्त], क. वह, पु./नपुं.. तृ. वि., ए. व. - ... भिक्खुना सङ्घगतेन सङ्घ जिसके बन्धन खोले न गये हों, जो जाने में स्वतन्त्र न हो, विहरन्तेन अमुखरेन भवितब्बं अविकिण्णवाचेन, म. नि. जन्म-मरण के बन्धन से जिसे मुक्ति न मिली हो अथवा 2.145; - रा पु., प्र. वि., ब. व. - कुलपुत्ता सद्धा अगारस्मा जिसे निर्वाण प्राप्त न हुआ हो -- त्ता पु.. प्र. वि., ब. व. - अनगारियं पब्बजिता असठा अमायाविनो अकेतविनो ... असुरं पेत्तिविसयं अमुत्ता मारबन्धना, इतिवु. 66; ख. वह, अमुखरा अविकिण्णवाचा, म. नि. 1.39.
जिसे निष्कासित न किया गया हो या जो फेंका न गया हो अमुच्चन्त त्रि., vमुच के वर्त. कृ. का निषे., न छोड़ते हुए, - ते पु., सप्त. वि., ए. व. - अमुत्ते थुल्लच्चयन्ति, पारा. त्याग न करते हुए - ते पु./नपुं.. सप्त. वि., ए. व. - अट्ठ. 1.222; - ग. त्तं नपुं.. एक हथियार (चाकू या तलवार अमुच्चन्ते थुल्लच्चयमेव, पारा. अट्ठ. 1.223.
आदि), जो सदैव पकड़ा जाता है, फेंका नहीं जाता है). अमुच्चितुकम्यता स्त्री., मुक्ति पाने की अनिच्छा, मुक्ति न चार आयुधों में से एक- अमुत्तं छुरिकादिक, अभि. प. 387%; पाने की इच्छा - य तृ. वि., ए. व. - मुच्चितुकम्यताञआणेन - तण्ह त्रि., ब. स. [अमुक्ततृष्ण]. तृष्णा से सर्वथा अमुच्चितुकम्यताय, सु. नि. अट्ठ. 1.8.
अविमुक्त - तण्हा पु.. प्र. वि., ब. व. - अमुत्ततण्हाति अमुच्छित त्रि.. [अमूर्छित], मोह से मुक्त, वह, जो मुर्छित, अप्पहीनतण्हा, महानि. 35; अमुत्ततण्हाति सम्भ्रमित या किंकर्तव्यविमूढ न हो, तृष्णारहित - तो पु.. मच्चन्तसमुच्छेदप्पहानाभावेन न मुत्ततण्हा, महानि. अट्ठ. प्र. वि., ए. व. - अमुच्छितो यो नयते नयानयं, जा. अट्ट. 125. 3.390; अमुच्छितोति छन्दादीहि अगतिकिलेसेहि अमुच्छितो. अमुत्र स्थानसूचक निपा., इध का विप॰ [अमुत्र], क. वहां, अनभिभूतो हुत्वा, जा. अट्ठ. 3.391; अमुच्छितोति उस स्थान पर, फलां फलां स्थान पर, परलोक में, आगामी
अधिमत्ततण्हाय मुच्छ अनापन्नो, अ. नि. अट्ठ. 2.273. जीवन में - अमुत्रासिं एवंनामो एवंगोत्तो, पारा 5; कथं? अमुञ्चनरस त्रि., ब. स., मुक्त न होने देने का कार्य करने "अमुत्रासिन्तिआदिना नयेन, तत्थ अमुत्रासिन्ति अमुम्हि वाला - सं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - गहणलक्खणं उपादानं संवट्टकप्पे अहं अमुम्हि भवे वा.... पारा. अट्ट, 1.119; इध अमुञ्चनरसं... तण्हापदहानं, विभ. अट्ठ. 128.
गच्छ, अमुत्रागच्छ, इदं हर अमुत्र इदं आहराति इति वा
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100.
अमुदु 536
अमूळ्ह इति .... दी. नि. 1.8; ख. एक स्थान से दूसरे स्थान में, अनुद्धसेस्सन्तीति, चूळव. 181; ला. अ. ख. निरर्थक, अन्यत्र - अमुत्रागच्छाति ततो असुकं नाम ठानं आगच्छ, व्यर्थ, बेकार - कं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अमूलक सुराभत्तं ... अमुत्र इदं आहराति असुकट्ठानतो इदं नाम इध आहर, नट्ठन्ति कोधामिभूतो... पक्कामि, जा. अट्ठ. 4.339; ला. अ. दी. नि. अट्ठ. 1.82.
ग. निःशुल्क, बिना मूल्य का, मुफ्त - कानि नपुं॰, प्र. वि., अमुदु त्रि., [अमृदु], वह, जो अतीव कोमल न हो, वह, जो ब. व. - तुम्हे निस्साय मयं अमूलकानि सुराभत्तादीनि न अतिशय सुकुमार न हो या अतीव विनम्र न हो, अतीक्ष्ण - लभिम्हाति, जा. अट्ठ. 4.350. दु पु., प्र. वि., ए. व. - अमुदु अतिक्खो हुत्वा रज्जं अमूलक-कथा स्त्री., विन. वि. के एक खण्ड का शीर्षक. कारेय्याति अत्थो, जा. अट्ठ. 4.171; -- क त्रि., मजबूत, विन. वि. 141. पक्का, टिकाऊ - कं द्वि. वि., ए. व. - पटिथद्धन्ति थद्ध अमूलकभूतगाम पु., कर्म. स., बिना जड़ वाले पेड़ पौधे - अमुदुकं जा. अट्ठ. 3.248; - चित्त त्रि., ब. स. [अमृदुचित्त]. मे सप्त. वि., ए. व. - अमूलकभूतगामे सङ्गहं गच्छति, जिद्दी, हठधर्मी, अड़ियल, कठोर चित्त वाला - त्तो पु., प्र. पाचि. अट्ठ. 26. वि., ए. व. - तेन थद्धो होति अमुचित्तो, म. नि. अट्ठ अमूलकवल्ली स्त्री., एक लता का नाम - अमूलकवल्लि (मू.प.) 1(1).115; - चित्तता स्त्री॰, भाव., प्र. वि., ए. व. चतुरस्सवल्लिकणवीरादीनि फळुबीजानि, पाचि. अट्ठ. 24. चित्त का कठोर या हठी होना - अमुदुता अमद्दवता कक्खळ्यिं अमूलकसिक्खापद नपुं., पाचि. के एक खण्ड का शीर्षक, फारुसियं कक्खळ्ता कठिनता उजुचित्तता अमुदुता अयं पाचि. 197-198. वुच्चति अमद्दवो, विभ. 415; अमद्दवनिद्देसे न मुदुभावो अमुदुता, अमूल न्तिमवत्थु नपुं.. वस्तुतः अविद्यमान पाराजिक विभ. अट्ठ. 466.
अपराध, अकारण या निराधार रूप में आरोपित पाराजिक अमुरहमान त्रि., vमुह के वर्त. कृ. का निषे. [अमुम्हमान]. अपराध - ना तृ. वि., ए. व. - चोदनाय गरु भिक्खं भ्रान्त न होता हुआ, मोहग्रस्त न होता हुआ, अविभ्रान्त - नो अमूलन्तिमवत्थुना, उत्त. वि. 65. पु., प्र. वि., ए. व. - ... एवं अरज्जमानो अदुस्समानो अमू लवल्ली स्त्री., बिना जड़ की लता अमरहमानो अकिलिस्समानोति, चूळनि. 86.
अमूलवल्लिआदीनमयमेव विनिच्छयो, विन. वि. 1016. अमूग त्रि., [अमूक], वह, जो गूंगा न हो, वह, जो मूक या अमूलिक त्रि., [अमूल्य], अत्यधिक मूल्य वाला, अमूल्य - मौन न हो - मो पु.. प्र. वि., ए. व. - स पतपाणि विचरन्तो कं नपुं., वि. वि., ए. व. - अमूलिकञ्च वजिरवलयं अमूगो मूगसम्मतो, सु. नि. 718; अथ वा अनेळो च अमूगो देवदत्तियं, चू, वं. 55.17.
च, पण्डितो ब्यत्तोति वुत्तं होति. सु. नि. अट्ठ. 1.98. अमूळ्ह त्रि., vमुह के भू. क. कृ. का निषे. [अमूढ], शा. अमूल नपुं.. [अमूल], क. मूल या आधार का अभाव, जड़ अ. मोह-मुक्त, मोह-रहित, मोह से अनभिभूत, ला. अ. क. का न रहना, आधार-हीनता - ला पु./नपुं., प. वि., ए. पूर्ण चेतना से युक्त - ळहो पु., प्र. वि., ए. व. - अमूळ्हो व. - सको तं वत्थु अविनिच्छिनित्वा अमूला मूलं गन्चा गब्भमेस्सामि, दी. नि. 2.211; अमूळहो गब्भमेस्सामीति सङ्घसामग्गिं करोति, महाव. 482; ख. त्रि., बिना मूल्य का, नियतगतिकत्ता अमूळ्हो हुत्वा, दी. नि. अट्ठ. 2.297; ला. बिना भुगतान का - लं नपुं., प्र. वि०. ए. व. - अमूलं एत्थ अ. ख. चेतना को पुनः प्राप्त कर चुका, फिर से होश में कम्मं च न कातब्बं ति आपयि, म. वं. 30.17.
वापस लौटा हुआ व्यक्ति - स्स ष. वि., ए. व. - सङ्को अमूलक त्रि., [अमूलक], शा. अ. जड़-रहित, निर्मूल - मग्गस्स भिक्खुनो अमूळ्हस्स अमूळ्हविनयं देतु, चूळव. लिका स्त्री., प्र. वि., ए. व. - एका अमूलिका लता होति, 183; ला. अ. ग. चतुर, कुशल, दक्ष - हा पु., प्र. वि., ब. पाचि. अट्ठ. 26; ला. अ. क. निराधार, वस्तुतः अविद्यमान, व. - अमूळ्हा अजळा नाम, अ. नि. अट्ठ. 1.366; -- चित्त अवास्तविक -- केन तृ. वि., ए. व. - अमूलकेन अब्रह्मचरियेन त्रि., ब. स. [अमूढ़चित्त], मोह से अनभिभूत या अप्रभावित अनुद्धसेति, पारा. 110; अमूलकेन अब्रह्मचरियेन अनुद्धसेतीति चित्त वाला - त्ता पु., प्र. वि., ब. व. - अमूळहचित्ता तस्मि पुग्गले अविज्जमानेन अन्तिमवत्थना अनुवदति चोदेति, विवदन्ति, चूळव. 196; - विनय पु., पागलपन की अवस्था पारा. अट्ठ. 2.69; - लिकाय स्त्री., तृ. वि., ए. व. - में किसी भिक्षु द्वारा किए गए अपराध के मसले को हल आयस्मन्तं दब्ब मल्लपुत्तं अमूलिकाय सीलविपत्तिया करने हेतु किया जाने वाला संघकर्म - यो प्र. वि., ए. व.
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अमेज्झ 537
अमोह - ... अमूळ्हविनयो दातब्बो, पाचि. 283; - विनयारह त्रि. दित्वा .... मि. प. 232; - वचन त्रि., कर्म. स. [अमोघवचन], [अमूढविनयाह], अमूळ्ह-विनय नामक संघकर्म द्वारा आपत्ति कभी बेकार न होने वाले वचन बोलने वाला, अव्यर्थ वचन या अपराध का समाधान पाने योग्य (भिक्षु) - रहस्स पु, ष. बोलने वाला - नो पु., प्र. वि., ए. व. -- अमोघवचनो वि., ए. व. - सतिविनयारहस्स अमूळ्हविनयं देति ... धम्मकायो माराभिभू, सद्द. 1.74; - ना ब. व. - अमोघवचना अमूळविनयारहस्स तस्सपापियसिकाकम्मं करोति.... महाव. बुद्धा भगवन्तो तथवचना अद्वेज्झवचना, मि. प. 142. 424.
अमोसधम्म त्रि., ब. स. [अमृषाधर्म], कभी असत्य न होने अमेज्झ क त्रि., [अमेध्य], अपवित्र, अशुद्ध, ख. नपुं.. मल, की प्रकृति वाला, कभी विनष्ट न होने की प्रकृति से युक्त, विष्ठा, मैला - ज्झेन पु./नपुं., तृ. वि., ए. व. - चतुत्थे स्वभाव से ही अविनाशी या अपरिवर्तनशील (निर्वाण) - म्म असुचिनाति गूथसदिसेन अपरिसुद्धेन अमेज्झेन, अ. नि. नपुं., प्र. वि., ए. व. - अमोसधम्म निब्बानं, तदरिया सच्चतो अट्ठ. 2.237; - पोत्थकाकार त्रि., ब. स., मिट्टी या लकड़ी विदू, सु. नि. 763. से बने अपवित्र खिलौने जैसा - रं पु., वि. वि., ए. व. - अमोह' पु.. [अमोह, मोह का अभाव, सम्यक-प्रजानन, प्रज्ञा, अमेज्झपोत्थकाकारं तनुच्छविविमोहिता, सद्धम्मो. 363; - सम्यक-दृष्टि - हो प्र. वि., ए. व. - ... पञआपज्जोतो भरित त्रि., अपवित्रता से पूर्ण या भरा हुआ - ता स्त्री., प्र. पञआरतनं अमोहो धम्मविचयो सम्मादिट्टि इदं वच्चति वि., ए. व. - जाता अमेज्झभरिता, अहो रूपमसस्सतं. अप. सम्पज . पु. प. 131; पटिभानममोहो, अभि. प. 153; 2.245.
पञ्जिन्द्रियं पञ्जबलं अमोहो सम्मादिट्टि च, सद्द. 1.82; - ज अमेतब्ब त्रि., vमा के सं. कृ. का निषे., नहीं मापने योग्य, त्रि., प्रज्ञा या ज्ञान से उत्पन्न होने वाला - जं नपुं.. प्र. वि., अपरिमेय, वह, जिसका माप न किया जा सके या जिसे ए. व. - अमोहपकतं कम्म अमोहजं अमोहनिदान तौला न जा सके - तो प. वि., ए. व. - निक्करिसं नाम अमोहसमुदयं, अ. नि. 1(1).160; - जा पु., प्र. वि., ब. व. करिसमत्तेना पि अमेतब्बतो लहभावो येव, सद्द. 2.435. - इतिस्समे अमोहजा अमोहनिदाना ... अनेके कुसला धम्मा अमेति ।अम का वर्त, प्र. पु., ए. व., रोगग्रस्त होता है, सम्भवन्ति, अ. नि. 1(1).233; - ज्झासया पु., प्र. वि., ब. रुग्ण होता है, बीमार पड़ जाता है - अम रोगे अमेति व., मोह-रहित चित्तवृत्ति वाले - अमोहज्झासया च अमयति, सद्द. 2.558.
बोधिसत्ता मोहे दोसदस्साविनो, विसुद्धि. 1.113; - निदान अमोघ त्रि., अचूक, अव्यर्थ, फलप्रद, अनिष्फल, प्रभावोत्पादक त्रि, मोह से अनुत्पन्न - नं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - - घो पु.. - अमोघो अय्यायोवादो, तेविज्जाम्हि अनासवाति, अमोहपकतं कम्म अमोहजं अमोहनिदानं अमोहसमुदयं, अ. थेरीगा. 126; - घं द्वि. वि., ए. व. - अमोघं दिवस कयिरा, नि. 1(1).160; - ना पु., प्र. वि., ए. व. - अमोहजा थेरगा. 451; अमोघं दिवसं कयिरा ... पवत्तितेन अमोहनिदाना अमोहसमुदया अमोहपच्चया... धम्मा सम्भवन्ति, विपस्सनामनसिकारेन अमोघं आवझं दिवसं करेय्य, थेरगा. अ. नि. 1(1).233; - निस्सन्दता स्त्री., भाव., अमोह, प्रज्ञा अट्ठ. 2.102; - घा स्त्री., प्र. वि., ब. व. - अद्धा अमोघा या सम्यक्-दृष्टि का फल होना - य तृ. वि., ए. व. - मम पुच्छना अह, सु. नि. 509; दक्खिणेय्ये सत्वा अत्तमानो अमोहनिस्सन्दताय मनोजवं गच्छति येनकामं वि. व. अट्ठ. ब्राह्मणो आह अद्धा अमोघा ति, सु. नि. अट्ठ. 2.129; - कथा 11; - पकत त्रि., (अमोह) या प्रज्ञा के प्रभाव द्वारा निष्पन्न स्त्री., कभी निष्फल न होने वाला कथन - थं वि. वि., ए. या किया गया - तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अमोहपकतं व. - अद्वेज्झकथं अमोघकथं निय्यानिककथं कथेन्तेन ... कम्मं अमोहजं अमोहनिदानं अमोहसमृदयं, अ. नि. पच्चनीकग्गाहं गण्हितु न्ति ... म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).160; - पच्चय त्रि., अमोह या प्रज्ञा के द्वारा निर्धारित, 1(2).99; - धुवसिद्धकम्म त्रि., ब. स., सफल एवं निश्चित अमोह पर आधारित - या पु., प्र. वि., ब. व. - इतिस्समे रूप से सिद्ध होने वाले कर्म को करने वाला, फलदायक अमोहसमुदया अमोहपच्चया अनेके कसला धम्मा सम्भवन्ति, कर्म का कर्ता - म्मो पु., प्र. वि., ए. व. - सभावइसिभत्तिको अ. नि. 1(1).233; - समुदय त्रि., अमोह से उदित होने .... रोगप्पत्तिकुसलो अमोघधुवसिद्धकम्मो भिसक्को सल्लकत्तो, वाला - यं नपुं., प्र. वि., ए. व. - कम्म अमोहज मि. प. 233; - म्मं द्वि. वि., ए. व. - ... पुरिसो परमव्या अमोहनिदानं अमोहसमुदयं, अ. नि. 1(1).160; - या पु.. प्र. तो रोगुप्पत्तिकुसलं अमोघधुवसिद्धकम्म भिसक्कं सल्लकत्तं वि., ब. व. - इतिस्समे अमोहजा अमोहनिदाना अमोहसमुदया
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अमोह
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अमोहपच्चया अनेक कुसला धम्मा सम्भवन्ति, अ. नि. 1 (1). 233; - हुस्सद त्रि, प्रज्ञा अथवा ज्ञान से परिपूर्ण, प्रज्ञा अथवा ज्ञान की प्रधानता को लिए हुए दा पु.. प्र. वि.. ए. व. लोभुस्सदा दोसुस्सदा मोहुस्सदा अलोभुस्सदा अदोसुस्सदा अमोहुस्सदा च होन्ति विसुद्धि. 1.101. अमोहर त्रि.. ब. स. [ अमोह ] मोह से मुक्त, अज्ञानरहित हो पु०, प्र. वि., ए. व. सो अरागो अदोसो अमोहो अनङ्गणो असंकिलिङ्गचित्तो काल करिस्सति म. नि. 1.32. अमोहयि मुह के प्रेर. का अद्य. प्र. पु. ए. व.. मोहजाल में फंसा लिया, मूर्ख बना दिया, धोखा दिया - अमोहयि मयुराजन्ति बूमी ति इतिदु 43 यित्थ अद्य, प्र. पु. ए. व.. आत्मने. मच्चुराजा अमोहयित्थ वसानुगे, सु. नि.
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334.
अम्बक. पु. / नपुं. [आ] आम्रवृक्ष, आम का पेड़म्बो पु. प्र. वि., ए. व. अम्बो चूतो, सहो त्वेसो सहकारो सुगन्धता, अभि. प. 557; तस्सा अविदूरे अम्बो, महाव, 35: म्बं पु.. द्वि. दि. ए. व. साघूति अम्बं उपगन्त्वा सत्तपदमत्धके ठितो. जा. अड्ड. 4.181: म्बस्स पु.. ष० वि. ए. व. मूलं अम्बस्सुपागच्छं जा. अड्ड. 6.74: म्बा पु., प्र. वि., ब. व. अम्बा कपित्था पनसा, साला जम्बू विनीतका, जा. अट्ट. 7293 बेहि तु. वि. ब. व. अलं तेहि अम्बेहि, जा. अट्ठ. 2.132; ख. नपुं, आम का फल - म्बं नपुं. प्र. वि. ए. व. सेय्यथापि तं अम्बं आमं आमवण्णि... पु. प. 154 म्बं द्वि. वि. ए. व. सामि इच्छामहं अम्बं खादितु न्ति, जा. अट्ठ. 3.24; - म्बा पु०, प्र० वि., ब.व. अम्बाव पतिता छमा, जा० अट्ठ 7.251; अम्बाव पतिता छाति भूमियं पतितअम्बपक्कानि विय, तदे. - म्बे पु. वि. वि. ब. द. अम्बे आमलकानि च थेरगा. 938; - म्बानि नपुं. वि. वि. व. व. पविद्वे अम्बचोरका अम्बानि पातेत्वा खादित्वा च गहेत्वा च गच्छन्ति जा. अड.
FOR
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538
3.117.
"
अम्मकञ्जिक नपुं., कर्म. स. [ अम्लकञ्जिक ], खट्टी काँजी - कं द्वि. वि. ए. व. अम्बकञ्जिकं अहमदासिं, वि. व. 517; अम्बकञ्जिकन्ति अम्बिलकञ्जिक, वि. व. अड. 121. अम्बकट्ठ नपुं., तत्पु० स० [आम्रकाष्ठ], आम की लकड़ी का टुकड़ा, आम्रकाष्ठद्वं द्वि. वि. ए. व. अथापरो पुरिसो सुक्खं अम्बकट्ठे आदाय अग्गिं अभिनिब्बत्तेय्य, म. नि. अम्बकपञ्ञत्रि ब. स. [ अम्बिकाप्रज्ञ] स्त्री होने के नाते अन्य स्त्री की ही तरह चतुर या बुद्धिमती ज्ञा स्त्री. प्र.
2.337.
अम्बद्ध
वि., ए. व. उपासिका बाला अब्यत्ता अम्मका अम्मकपञ्ञा. अ. नि. 2 (2).63; अम्मका अम्मकपञ्ञाति इत्थी हुत्वा इत्थिसजाय एवं समन्नागता अ. नि. अट्ट. 3. 116: अम्मक के अन्त..
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-
अम्बका स्त्री.. [अम्बिका ] नारी स्त्री य तृ. वि. ए. व. -जितम्हा यत भो अम्बकाय पराजितम्ह वत भो अम्बकाया ति महाव. 308 अम्बकायाति मानुगामेन, उपचारवचनहेतुं इत्थी यदिदं अम्बका मातुगामो जननिकाति सारत्थ. टी.
3.291.
"
अम्बगन्धी पु. प्र. वि. ए. व. [ आम्रगन्धी] एक वृक्ष का नाम, जिसकी गन्ध आम की गन्ध के समान होती है. नयिता अम्बगन्धी च अप. 1.13. अम्बगहपतिस्स पु०, एक श्रामणेर का नाम स्सो प्र. वि., ए. व. कलियुगे पन... सीहलदीपतो अम्बगहपतिस्सो वातुरगम्भो ति इमे छ सामणेरा... आगता... सा. वं. 124 (ना.).
अम्बगाम पु. क. वैशाली और भोगनगर के बीच में स्थित एक गांव का नाम येन हथिगामो येन अम्बगामो ... भोगनगरं तेनुपसङ्कमिस्सामा ति दी. नि. 2.94; ख. श्रीलङ्का में स्थित एक प्राचीन गांव का नाम ग्गामे सप्त. वि., ए. व. अम्बग्गामे चतुत्तिसहत्थायामं मनोहरं चू. वं. 86.23:
पाठा. अम्बग्गाम.
अम्बगोपक पु०, [आम्रगोपक], आम्रवृक्षों की रक्षा करने वाला •को प्र. वि., ए. व. पुब्बेपेस अम्बगोपको हुत्वा ... जा. अट्ठ. 3.117.
अम्बङ्कर पु., [आम्राङ्कुर], आम का अङ्कुर या अंखुआ रेन तृ. वि. ए. व. अम्बङ्कुरवण्णन्ति अम्बङ्कुरेन समानवण्णं
ध. स. अट्ठ. 350.
अम्बङ्गण नपुं०, श्रीलङ्का के एक स्थान का नाम णं प्र. वि., ए. व. - ओकासे सङ्घस्स अनागते अम्बङ्गणं नाम सन्निपातद्वानं भविस्सति पारा. अड. 1.70. अम्बचोरकपु., [आम्रचोरक], आम के फलों को चुराने वाला का प्र. वि. ब. व. भिक्खाचार पविट्टे अम्बचोरका अम्बानि पातेत्वा खादित्वा च गहेत्वा च गच्छन्ति, जा. अट्ठ. 3.117; वत्थु नपुं. वि. पि. के एक खण्ड का शीर्षक सत्तसु अम्बचोरकादिवत्थूसु पंसुकूलसञ्ञाय गहणे अनापति
-
पारा. अट्ठ. 1.307.
अम्बद्ध पु. ब्राह्मण जाति में उत्पन्न, पोक्खरसाति नामक ब्राह्मण आचार्य के एक शिष्य का नाम ट्ठो प्र. वि., ए.
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अम्बट्ठकोलक
539
अम्बपन्ति
व. - ब्राह्मणस्स पोक्खरसातितस्स अम्बट्टो नाम माणवो अन्तेवासी होति, दी. नि. 1.76; - कुल नपुं., अम्बट्ट का परिवार या कुल - स्स ष. वि., ए. व. - अम्बट्टकुलस्स खत्तिय, ... अहुं, जा. अट्ठ. 3.366; अम्बट्टकुलस्साति कुटुम्बियकुलस्स, जा. अह. 3.367. अम्बट्ठकोलक पु., श्रीलङ्का के एक जिला का नाम - के सप्त. वि., ए. व. - जम्बुदीपा इध आगम्म देसे अम्बट्ठकोलके चू. वं. 39.21; - लेणम्हि नपुं., सप्त. वि., ए. व. - पुरतो दक्खिणे पस्से अट्ठयोजनमत्थके, अम्बट्ठकोललेणम्हि रजतं उपपज्जथ. म. वं. 28.20. अम्बट्ठज पु., चौदह चक्रवर्ती राजाओं का पदनाम -
सत्तसत्ततिकप्पसते, अम्बट्ठजसनामका, अप. 1.116. अम्बट्ठवंस पु., अम्बठ्ठ गोत्र के मनुष्यों की कुलपरम्परा या वंश- सं द्वि. वि., ए. व. - एवं सक्यवंसं पकासेत्वा इदानि
अम्बठ्ठवंसं पकासेन्तो..., दी. नि. अट्ट, 1.212. अम्बट्टवेस्स पु., द्व. स., सदा ब. क. में, अम्बष्ट लोग एवं वैश्य लोग - स्सेहि तृ. वि., ब. व. - समा अम्बद्ववेस्सेहि, जा. अट्ट, 4.326. अम्बट्ठसुत्त नपुं॰, दी. नि. के एक सुत्त का शीर्षक, दी. नि. 1.76-96. अम्बट्ठा' स्त्री., [अम्बष्ठा, एक पौधे का नाम, जूही का पौधा - अम्बट्ठा च तथा पाठा कटुका अटुकरोहिणी, अभि. प. 582. अम्बठ्ठा' स्त्री., जादू-टोने की एक विद्या - टुं द्वि. वि., ए. व. - धनुअगमीनयं अम्बट्ठ नाम विज्ज अदासि दी. नि. अट्ठ. 1.214. अम्बढि नपुं.. [आम्रास्थि]. आम की गुठली या आंठी- डिं द्वि. वि., ए. व. - "इमं अम्बढिं इधेव पंसुं वियूहित्वा रोपेही ति, ध, प, अट्ठ. 2.119; - हीहि तृ. वि., ब. क. - कण्डम्बो नाम अयन्ति वत्वा ते उच्छिडअम्बट्ठीहि पहरिंस. ध. प. अट्ट, 2.119; - क नपुं., उपरिवत् - कं द्वि. वि., ए. व. - अम्बद्धिकं अदा राजा तं सयं तत्थ रोपयि, म. वं. 15.42. अम्बण नपुं., पानी मापने का छोटी डोंगी जैसा एक जलपात्र, द्रोण या द्रोणी जैसा जलपात्र - णं प्र. वि., ए. व. - दीघफलक... दण्डमुग्गरो, अम्बणं राजनदोणि... सङ्के दिन्नं गरुभण्ड, चूळ व. अट्ट, 82; अम्बणन्ति फलकेहि पोक्खरणीसदिसं कतपानीयभाजनं, सारत्थ. टी. 3.366. अम्बति ।अबि का वर्त, प्र. पु., ए. व., शब्द करता है, ध्वनि करता है - अबि सद्दे अम्बति, अम्बा अम्बु, सद्द. 2.406.
अम्बतरुण नपुं, कर्म. स. [आम्रतरुण], आम का कोमल फल, जिसका प्रयोग अम्बपान बनाने के लिए होता था - णानि द्वि. वि., ब. व. - आमेहि करोन्तेन अम्बतरुणानि भिन्दित्वा उदके पक्खिपित्वा, ..., महाव. अट्ठ. 361. अम्बतित्थ' नपुं., चेतिय क्षेत्र के भद्दवतिका के समीप में स्थित एक तीर्थ- त्थं द्वि. वि., ए. व. - भगवा अम्बतित्थं
अगमासि, जा. अट्ट, 1.344. अम्बतित्थ पु.. अम्बतित्थ का निवासी एक जटिल - अथ
खो आयस्मा सागतो येन अम्बतित्थस्स जटिलस्स अस्समो तेनुपसङ्कमि, पाचि. 148. अम्बतित्थक क. पु.. एक नाग - को प्र. वि., ए. व. - अम्बतित्थे जटिलस्स अस्समे अम्बतित्थको नाम नागो आसीविसो घोरविसो..., जा. अट्ठ. 1.344; ख. नपुं., श्रीलङ्का का एक स्थान - कं द्वि. वि., ए. व. - गहेत्वा दमिळे तत्थ आगन्त्वा अम्बतित्थक, म. वं. 25.7. अम्बत्थल नपुं., श्रीलङ्का में मिस्सक पर्वत का एक पठार - ले सप्त. वि., ए. व. - अट्ठासि सीलकूटम्हि रुचिरम्बत्थले वरे, म. वं. 13.20; - मग्ग पु., अम्बत्थल की ओर जाने वाला मार्ग - ग्गं द्वि. वि., ए. व. - मिगो अम्बत्थलमग्गं गहेत्वा पलायितुं आरभि, पारा. अट्ट, 1.52; - महाथूप पु., अम्बत्थल पर स्थित एक विशाल स्तूप - लं द्वि. वि., ए. व. -- अम्बत्थलमहाथूपं कारापेसि महीपति, म. वं. 34.71. अम्बदान नपुं.. [आम्रदान], आम के फलों का दान - नेन
तृ. वि., ए. व. - इमिना मधुदानेन अम्बदानेन चूभयं अप. 1.116. अम्बदायक पु., एक स्थविर, जिसने बुद्ध को आम के फलों का दान दिया था- को प्र. वि., ए. व. - इत्थं सदं आयस्मा अम्बदायको थेरो इमा गाथायो अभासित्थाति, अप. 1.116. अम्बदुग्गमहावापी स्त्री, श्रीलङ्का के एक सरोवर का नाम - पिं द्वि. वि., ए. व. - अम्बदुग्गमहावापिं भयोलुप्पलमेव च, म. वं. 34.33. अम्बदोहळिनी विशे., [आम्रदोहदिनी], आमों की अत्यधिक इच्छा करने वाली गर्भवती स्त्री - नी प्र. वि., ए. व. - तस्स
भरिया अम्बदोहळिनी हुत्वा तं आह, जा. अट्ट. 3.24. अम्बपक्क नपुं., कर्म स. [आम्रपक्व], पका हुआ आम का फल- कं द्वि. वि., ए. व. - अम्बपक्कंदकं सितं, सद्द. 1.237; - कानि ब. व. - अम्बे रक्खन्तो पतितानि
अम्बपक्कानि खादन्तो विचरति, जा. अट्ठ. 3.117. अम्बपन्ति स्त्री., तत्पु. स. [आम्रपंक्ति], आमों की कतार या पंक्ति - तीहि तृ. वि., ब. व. - सो आवासो समन्ततो
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166.
( मू
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अम्ब
अम्बपल्लवसङ्कास
540
अम्बयागुदायक अम्बपन्तीहि परिक्खित्तो छायूदकसम्पन्नो..., वि. व. अट्ठ अम्बपिण्डिय पु., दो थेरों (स्थविरों) का नाम - यो प्र. वि.,
ए. व. - इत्थं सुदं आयस्मा अम्बपिण्डियो थेरो इमा गाथायो अम्बपल्लवसङ्कास त्रि., [आम्रपल्लवसङ्काश], आम के पल्लवों अभासित्थाति, अप. 1.264; 2.22. के समान - सं नपुं., द्वि. वि., ए. व. - अम्बपल्लवसङ्कासं, अम्बपेतवत्थु नपुं., पे. व. अट्ठ के एक खण्ड का शीर्षक, अंसे कत्वान चीवर थेरगा. 197; अम्बपल्लवसङ्कासं, अंसे पे. व. अट्ठ. 238-241. कत्वान चीवरन्ति अम्बपल्लवाकारं पवाळवण्णं चीवरं ... अम्बपेसिका स्त्री., [आम्रपेशिका], आम के फलों का रेसा उत्तरासङ्ग करित्वा, थेरगा. अट्ठ 1.348.
- यो प्र. वि., ब. व. - सूपे अम्बपेसिकायो पक्खित्ता होन्ति, अम्बपान नपुं.. [आम्रपान], आम के फलों से बना हुआ एक चूळव. 226. मादक पेय - नं प्र. वि., ए. व. - अम्बपानं जम्बुपानं अम्बपोतक पु.. [आम्रपोतक], आम का छोटा (तरुण) चोचपानं... फारुसकपानं, महाव. 322; अम्बपानन्ति आमेहि पौधा - कं द्वि. वि., ए. व. - अन्तमसो तदहुजातम्पि वा पक्केहि वा अम्बेहि कतपानं, महाव. अट्ठ. 361.
अम्बपोतकं उप्पाटेत्वा अरओ खिपापेसुंध. प. अट्ठ. 2.1183; अम्बपानक नपुं., उपरिवत् - कं द्वि. वि., ए. व. - सत्था --- स्स ष. वि., ए. व. - मधुरं अम्बपक्क... अम्बपोतकस्स
अम्बपानकं पिवित्वा कण्डं आह, ध, प. अट्ठ. 2.119. समन्ता उदककोडकं थिरं कत्वा बन्धति, म. नि. अट्ठ. अम्बपालक पु., [आम्रपालक], आम की रक्षा करने वाला - (मू.प.) 1(2).242. का प्र. वि., ब. व. - अम्बपालका भिक्खूनं अम्बफलं देन्ति, अम्बफल नपुं., [आम्रफल], आम का फल - लं द्वि. वि., पारा. 77.
ए. व. - ... राजूनं अम्बफलं पेसेन्तो अद्वितो अम्बपाली स्त्री., वैशाली की एक विश्वसुन्दरी गणिका - ली रुक्खनिब्बत्तनभयेन ..., जा. अट्ठ. 2.86; - लानि द्वि. वि. प्र. वि., ए. व. - अम्बपाली च गणिका अभिरूपा होति ब. व. - पक्खित्तानि अम्बफलानि कानिचि तापसा दस्सनीया पासादिका परमाय वण्णपोक्खरताय समन्नागता, गहिसु, पे. व. अट्ठ. 133; - लानं ष. वि., ब. व. - महाव. 356; - लि संबो., ए. व. - देहि, जे अम्बपालि, अम्बफलानं तित्तकभावं ञत्वा उय्यानपालो पलायि, जा. अम्हाकं एतं भत्तं सतसहस्सेना ति, महाव. 308; - लिवग्ग अट्ठ. 2.86. पु., स. नि. के सतिपट्ठानसुत्त संयुत्त का एक खण्ड, जिसमें __ अम्बफलिक पु., आमों का विक्रेता, आम बेचने वाला कुल 10 ऐसे सुत्तों का संग्रह है जिनका उपदेश वैशाली के - को प्र. वि., ए. व. - सालाकिको, तिन्दुकिको आम्रपाली के उद्यान में दिया गया था, स. नि. 3(1).220- अम्बफलिको ... नाळिकरिको इच्चेवमादि, क. व्या. 234; - लिवन नपुं., अम्बपाली का उद्यान या वन - ने 353. सप्त. वि., ए. व. - एक समयं भगवा वेसालियं विहरति अम्बबीज नपुं., [आम्रबीज], आम का बीज, आम की अम्बपालिवने, स. नि. 3(1).220.
गुठली या आंठी- जंवि. वि., ए. व. - मधुरम्बबीज रोपेत्वा अम्बपासाणवासी पु., श्रीलङ्का में अवस्थित एक विहार का समन्ता मरियादं बन्धित्वा ..., अ. नि. अट्ट. 3.8. निवासी - दक्खिणदिसाभागे... अम्बपासाणवासि-चित्तगुत्तत्थेरो अम्बमाल पु., श्रीलङ्का के रोहण में स्थित एक प्राचीन नाम पृथुज्जनकाले विचित्तपटिभाणो परिसावचरो..., म. वं. विहार - अम्बमालविहारादिविहारे कारयी बहू चू. वं. टी. 511(ना.).
45.55. अम्बपिण्डी स्त्री, प्र. वि., ए. व. [आम्रपिण्डी], आम के अम्बयाग पु.. [आम्रयाग], आम के फल का नैवेद्य, आम के फलों का गुच्छा, आम्रस्तवक - अम्बपिण्डी मया दिन्ना, फल का दान - गं द्वि. वि., ए. व. - सम्बद्ध यन्तं दिस्वान विपस्सिस्स महेसिनो, अप. 1.264; - ण्डिधर त्रि., आम के अम्बयागं अदासह, अप. 1.232. गुच्छों को धारण करने वाला - रो पु., प्र. वि., ए. व. - अम्बयागु स्त्री., [आम्रयवागू], आम का यवागू (दलिया) - एकेकस्मिं ठाने परिपक्कअम्बपिण्डिधरो अहोसि, ध. प. अट्ट. गुं द्वि. वि., ए. व. - पच्चेकबुद्ध दिस्वान, अम्बयागं 2.119; - ण्डिदण्डक पु., आम के गुच्छों का डण्ठल या अदासह, अप. 1.309. वृन्त - अम्बपिण्डिदण्डकानुवत्तकानि भवन्तीतिपि अत्थो, अ.. अम्बयागुदायक पु., एक स्थविर, जिसने बुद्ध को आम के नि. अट्ठ. 3.123.
दलिया का दान दिया था - को प्र. वि., ए. व. - इत्थं सुदं
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अम्बर 541
अम्बवापी अम्बयागुदायको थेरो इमा गाथायो अभासित्थाति, अप. मि. प. 246; - सण्ड [आम्रषण्ड], पु., आम के पेड़ों का 1.309.
वन - ण्डे सप्त. वि., ए. व. - अम्बवनेति अम्बर नपुं.. [अम्बर], क, आकाश, आदित्यपथ, तारापथ - तरुणअम्बरुक्खसण्डे, दी. नि. अठ्ठ 1.300. आकासो अम्बरं अब्भं ..., सद्द. 2.442; - रं प्र. वि., ए. व.. अम्बलकोटक/अम्बणकोट्ठक नपुं., आसनशाला, बैठक
छादितं होति अम्बरं, अप. 1.15; - रे सप्त. वि., ए. व. घर - के सप्त. वि., ए. व. - जेतवने विहरन्तो अम्बणकोट्टके - गच्छन्ति अम्बरे तदा, अप. 1.15; ख. वस्त्र, कपड़ा - आसनसालाय भत्तभुञ्जनसुनखं आरब्भ कथेसि, जा. अट्ठ. पटोचोलो साटको च, वासो वसनमंसुकं दुस्समच्छादनं 2.206. वत्थं चेलं वसनि अम्बरं सद्द. 2.353; - म्वरे सप्त. वि., ए. अम्बलट्ठिका स्त्री., [आम्रयष्टिका], तरुण आम्रवृक्ष, एक व... मणिसङ्गमुत्तारतनं, नानारत्ते च अम्बरे, जा. अट्ठ स्थान विशेष का नाम, जो राजगृह तथा नालन्दा के बीच 6.115.
अवस्थित था तथा जिसमें राजा का विश्रामगृह या राजागारक अम्बर/अम्बरवती स्त्री., उत्तरकुरु के एक नगर का नाम एवं एक उद्यान भी था - यं सप्त. वि., ए. व. - अत्थसमीप
- तियो प्र. वि., ब. व. - नवनवुतियो अम्बर-अम्बरवतियो गतो सूरियो ति अम्बलडिकायं राजागारके एकरत्तिवासं .... नाम राजधानी, दी. नि. 3.152.
उपगच्छि, दी. नि. अट्ठ. 1.41; - द्वार नपुं., अम्बलट्ठिका अम्बरंससनाम त्रि., ब. स., अम्बरंसस नाम वाले 35 चक्रवर्ती का प्रवेश-द्वार - रं द्वि. वि., ए. व. - ... बुद्धलीलाय राजा - मा पु., प्र. वि., ब. व. - अम्बरंससनामा ते, गच्छमानो अनुपुब्बेन अम्बलट्टिकाद्वारं पापुणित्वा सूरियं चक्कवत्ती महब्बला, अप. 1.169..
ओलोकेत्वा .... दी. नि. अट्ठ. 1.41; - पासाद पु., अनुराध अम्बरंसि पु., वाराणसी का एक प्राचीन राजा - तस्स पुत्तो पुर में लौहप्रासाद का एक भाग, अम्बलट्ठिका-प्रासाद - दो
अम्बरंसि नाम... अहोसी ति इमे सोळस राजानो बाराणसियमेव प्र. वि, ए. व. - अम्बलढिकपासादो तस्स मज्झे सुभो अहु, कताभिसेका ति दडब्बा, म. वं. टी. 100(ना.).
म. वं. 27.17; तस्स मज्झे ति तस्स पासादस्स मज्झे सुभो अम्बरस पु., [आम्ररस], आम के फलों का रस - सं द्वि. अम्बलहिकपासादो अहू ति सम्बन्धो, म. वं. टी. 462 (ना.). वि., ए. व. - सो ततो पट्ठाय थेरिया निबद्ध अम्बरसं दापेसि, अम्बलद्विकाराहुलोवादसुत्त नपुं., म. नि. के एक सुत्त का जा. अठ्ठ. 2.324; - दान नपुं, आम के रस का दान - नं शीर्षक, म. नि. 2.84-96. द्वि. वि., ए. व. - ... जेतवने विहरन्तो सारिपुत्तत्थेरस्स। अम्बललव्हय त्रि., ब. स., श्रीलङ्का के रोहण में निर्मित ... अम्बरसदानं आरब्भ कथेसि, जा. अट्ठ. 2.323.
अम्बलल नाम वाला एक प्रासाद - यं पु., वि. वि., ए. व. अम्बरावचर त्रि., [अम्बरावचर], आकाश में विचरण करने - निक्खमित्वा ततो ठानं गतो अम्बललव्हयं, चू. वं. 74.58. वाला, आकाश या गगन में सञ्चरण करने वाला - रा पु., अम्बवन नपुं.. [आम्रवन], आम का वन, ककुधा नदी के प्र. वि., ब. व. -- अम्बरावचरा सब्बे, वसन्ति अस्समे तदा, पास अवस्थित आमों का एक उद्यान - नं द्वि. वि., ए. व. अप. 1.399.
- उपसङ्कमित्वा ककुधं नदिं... पच्चुत्तरित्वा येन अम्बवनं अम्बरियविहारवासी त्रि., श्रीलङ्का के अम्बरिय-नामक विहार । तेनुपसङ्कमि, दी. नि. 2.102; – ने सप्त. वि., ए. व. -
का निवासी-नो पु, ष, वि., ए. व. - अम्बरियविहारवासिनो निसीदम्बवने रमे, याव कालप्पवेदना, थेरगा. 563; अम्बवनेति, पिङ्गलबुद्धरक्खितत्थेरस्स, सन्तिके .... ध. स. अट्ठ. 149. अम्बवने जीवकेन कतविहारे, थेरगा. अट्ठ. 2.166; - नानि अम्बरुक्ख पु.. [आम्रवृक्ष], आम का पेड़ - खो प्र. वि., ए. प्र. वि., ब. व. - रम्मानि च अम्बवनानि भागसो, जा. अट्ठ. व. - द्वारसमीपे तरुणअम्बरुक्खो अत्थि, दी. नि. अट्ठ 7.221. 1.41; - क्खं द्वि. वि., ए. व. - हत्थगतभावं ञत्वा अम्बरुक्खं अम्बवनव्ह त्रि., श्रीलङ्का में राजा कस्सप तृतीय के द्वारा ... फग्गववल्लियो च रोपेसि, जा. अट्ठ. 2.86; - क्खे द्वि. निर्मित अम्बवन नाम वाला प्रधान घर - व्हं पु., द्वि. वि., वि., ब. व. - रमणीयं आवासं कारेत्वा तस्स समन्ततो ए. व. -- तथा अम्बवनव्हं च पधानघरं उत्तमं.... चू. वं. 48.25. अम्बरुक्खे रोपेसि, वि. व. अट्ठ. 166; - मत्थक पु., आम अम्बवापी स्त्री., श्रीलङ्का में अवस्थित एक प्राचीन तालाब का के पेड़ का शिखर, आम्रवृक्ष की चोटी -- के सप्त. वि., ए. नाम - पिं द्वि. वि., ए. व. - बूककल्ले अम्बवापिं चूवं. व. - ... महतिमहन्ते अम्बरुक्खमत्थके फलपिण्डि भवेय्य, 46.20.
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अम्बविमानवत्थु 542
अम्बिल अम्बविमानवत्थु नपुं.. क. वि. व. के एक खण्ड का शीर्षक, वि. 1359; - दायक पु., एक स्थविर (थेर) का नाम - को वि. व. अट्ठ. 165-167; ख. वि. व. के ही एक अन्य स्थल प्र. वि., ए. व. - आयस्मा अम्बाटकदायको थेरो इमा का शीर्षक, वि. व. अट्ठ. 259-261.
गाथायो अभासित्थाति, अप. 2.21; - पिट्ठ नपुं., आमड़ा का अम्बसक्कर पु., एक लिच्छवी राजा का नाम - रो प्र. वि., पेठा या पिष्टान्न - टुं प्र. वि., ए. व. - पिट्ठ पनसपिट्ठ ए. व. - भगवति जेतवने विहरन्ते अम्बसक्करो नाम लबुजपिट्ठ अम्बाटकपिढें सालपिढें धोतकतालपिट्ठञ्च ... लिच्छविराजा मिच्छादिट्टिको... वेसालियं रज्ज कारेसि, पे. पिट्ठानि यावकालिकानि, पाचि. अट्ठ. 92. व, अट्ठ. 188; - अम्बसक्खरपेतवत्थु नपुं., पे. व. का अम्बाटकवन नपुं., मच्छिकासण्ड में अवस्थित एक आमड़ा एक स्थल, पे. व. अट्ठ. 188-210.
के वृक्षों का वन, जिसे चित्तगृहपति ने भिक्षुसङ्घ को दान में अम्बसण्ड पु.. [आम्रषण्ड], आमों का उद्यान - ण्डानं ष. दे दिया था - नं प्र. वि., ए. व. - ... अय्यो सुधम्मो वि., ब. व. - सो किर गामो अम्बसण्डानं अविदूरे निविट्ठो. मच्छिकासण्डे, रमणीयं अम्बाटकवनं..., चूळव. 37. दी. नि. अट्ट. 2.260.
अम्बाटकाराम पु., आम्रातकवन में अवस्थित एक आराम - अम्बसण्डा पु.. राजगृह के एक ब्राह्मणग्राम का नाम, जो कि मे सप्त. वि., ए. व. - परे अम्बाटकारामे, वनसण्डम्हि आम्रवनों के समीप स्थित था - ... भगवा मगधेसु विहरति, भदियो, थेरगा. 466; - स्स ष. वि., ए. व. - सो किर पाचीनतो राजगहस्स अम्बसण्डा नाम ब्राह्मणगामो, दी. नि. अम्बाटकारामस्स पिद्विभागे होति, स. नि. अट्ठ. 3.130. 2.194; सो किर गामो अम्बसण्डानं अविदूरे निविट्ठो, तस्मा अम्बाटकिय पु.. एक स्थविर, जिसने आमड़ा वृक्ष की पूजा 'अम्बसण्डा त्वेव वुच्चति, दी. नि. अट्ठ. 2.260.
कर यह नाम पाया - यो प्र. वि., ए. व. - इत्थं सुदं अम्बसामणेर पु., श्रीलङ्का के सिलाकाल राजा का उपनाम आयस्मा अम्बाटकियो थेरो इमा गाथायो अभासित्थाति, अप. - तं अम्बसामणेरादिसिलाकालो ति वोहरु, चू, वं. 41.27. 2.27. अम्बसामिक त्रि., आम के वन का स्वामी या अधिपति - को अम्बाराम पु.. [आम्राराम], आम का उद्यान, आमों का बाग पु., प्र. वि., ए. व. - तमेनं अम्बसामिको गहेत्वा ओ - मं द्वि. वि., ए. व. - अय्यो इमं अम्बाराम पविसित्वा मुहत्तं दस्सेय्य .... मि. प. 45.
विस्समित्वा ... गच्छथ अनुकम्पं उपादाया ति. वि. व. अट्ट, अम्बसिञ्चक त्रि., [आम्रसिञ्चक, आम के पेड़ों को सींचने वाला - को पु., प्र. वि., ए. व. - तञ्च दिस्वान आयन्तं, अम्बिल त्रि., [अम्ल], खट्टा, छ: रसों में से एक - लो पु.. अवोचं अम्बसिञ्चको, वि. व. 1153; अवोचं अहं तदा प्र. वि., ए. व. - कसावो नित्थियं तितो मधुरो लवणो इमे, अम्बसिञ्चको हुत्वाति योजना, वि. व. अट्ठ. 261. अम्बिलो कटुको चेति छ रसा तब्बती तिसु. अभि. प. 148; अम्बसेचन नपुं.. [आम्रसेचन], आम्रवृक्षों की सिंचाई - तथा -लं नपुं, प्र. वि., ए. व. - तं एकजातिकम्पि समानं हि एकेनोदकघटेन अम्बसेचनयतिनहापनादि भवति, सद्द. अम्बिलं अनम्बिलन्ति नाना वुच्चति, जा. अट्ठ. 4.11; 3.675-676.
परिणामवसेन परिवत्तित्वा अम्बिलं होति, तदे; - लेन तृ. अम्बा स्त्री., प्र. वि., ए. व. [अम्बा], माता, जननी - भोति । वि., ए. व. - तमस्स अम्बिलेन पहरित्वा तम्बमलं विय
अम्मा, भोति अन्ना, भोति अम्बा, भोति ताता, क. व्या. 115. पदुमपलासतो उदकबिन्दु विय विनिवत्तेत्वा, .... जा. अट्ठ. अम्बाटक पु.. [आम्रातक], आमड़ा का वृक्ष और उसका 3.303; - कजी स्त्री., खट्टी कांजी - जिय सप्त. वि.. फल - को प्र. वि., ए. व. - अम्बाटको पीतनको मधुको ए. व. - अविस्सासिकेन हि दिन्नं चतुमधुरम्प विस्सासिकेन तु मधुडुमो, अभि. प. 554; - का ब. व. - अम्बाटका बहू दिन्नं अम्बिलकञ्जियं न अग्घतीति, जा. अट्ठ. 3.124; - तत्थ, वल्लिकारफलानि च, अप. 1.381; - कं द्वि. वि., ए. कोट्ठास त्रि., अत्यधिक खट्टेपन से भरा हुआ, खट्टेपन की व. - पसन्नचित्तो सुमनो, अम्बाटकमपूजयिं अप. 2.27; प्रचुरता लिया हुआ - सेहि तृ. वि., ब. व. - अम्बिलग्गेहीति अम्बाटकं गहेत्वान, सयम्भुस्स अदासह, अप. 2.20; - स्स अम्बिलकोट्ठासेहि, स. नि. अट्ठ. 3.232; - लग्ग त्रि, ष. वि., ए. व. - सतावरि कसेरूनं, कन्दो अम्बाटकरस च. [अम्लाग्र]. उपरिवत् - ग्गं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - विन. वि. 1330; - ट्ठि नपुं०, तत्पु. स., आमड़ा की आठी अम्बिलग्गं वा मधुरग्गं वा तित्तकग्गं वा. म. नि. अठ्ठ. या गुठली - पनसम्बाटकट्ठीनि, सालट्ठि लबुजट्टि च, विन. (मू.प.) 1(1).146; - ग्गेहि तृ. वि., ब. व. - राजानं वा
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अम्बिलापिक 543
अम्बूपम राजमहामत्तं वा नानच्चयेहि सूपेहि पच्चुपट्टितो अस्स- 5.7; - म्बूनि प्र. वि., ब. व. - अच्छा सवन्ति अम्बनि, जा. अम्बिलग्गेहिपि... अलोणिकहिपि, स. नि. 3(1).228; - लत्त अट्ठ. 7.169; - चारी त्रि., [अम्बुचारिन्]. जल में विचरण नपुं॰, भाव. [अम्लत्व], खट्टापन, अम्लत्व, अम्लता - त्तं द्वि करने वाला/वाली मछली, मत्स्य - री पु.. प्र. वि., ए. व. वि., ए. व. - ... अब्भन्तरे सो ... जानेय्य अम्बिलत्तं ... - जालंव भेत्वा सलिलम्बुचारी, सु. नि. 62; सलिले अम्बुचारी कसायत्तं वा मधुरत्तं वा ति, मि. प. 56; - पस्सव पु., एक सलिलम्बुचारी, सु. नि. अट्ठ. 1.91. विहार का नाम - वं द्वि. वि., ए. व. - विहारं तंसमीपम्हि अम्बुज त्रि., [अम्बुज], जल में उत्पन्न क. पु., मछली, मीन कत्वा अम्बिलपरसवंचू, वं. 42.17; - फल नपुं. [अम्लफल]. (इस अर्थ में संस्कृत में अप्रयुक्त) - जो प्र. वि., ए. व. - खट्टा फल - लं प्र. वि., ए. व. - अझं किञ्चि अम्बिलफलं मच्छो मीनो जलचरो पुथुलोमो'म्बुजो झसो, अभि. प. 671; आहरिस्सामी ति, जा. अट्ठ. 3.24; - भाजन नपुं., पटिगन्तुं न सक्कोमि, वयस्तोव अम्बुजो, दी. नि. 2.1963; [अम्लभाजन], खट्टी चीजों को रखने के लिए प्रयुक्त पात्र ख. कमल - जं नपुं., प्र. वि., ए. व. - जातं यथा - नं द्वि. वि., ए. व. - ... यावं दधिभाजनादिकं अम्बिलभाजनं पोक्खरणीसु अम्बुजं. जा. अट्ठ. 3.281; अम्बुजन्ति पदुमस्सेव न पापुणाति, ध. प. अट्ठ. 1.287; - यागु' स्त्री., [अम्लयवागु]. वेवचनं तदे... खट्टे चावल का मांड या दलिया - गुं द्वि. वि., ए. व. - अम्बुजिनी स्त्री., कमलों वाला तालाब - नी प्र. वि., ए. व. साकपण्णं पक्खिपित्वा कणतण्डुलेहि अम्बिलयागु पचित्वा - सेवालो नीलिका चाथ भिसिन्यम्बुजिनी भवे, अभि. प. 689. ठपेहि स. नि. अठ्ठ. 3.195; - यागु' पु., श्रीलङ्का के प्राचीन अम्बुट्ठी स्त्री., प्र. वि., ए. व., व्य. सं., श्रीलङ्का का एक गांव का नाम - गुम्हि सप्त. वि., ए. व. - गामे अम्बिलयागुम्हि प्राचीन सरोवर - वलाहस्सं च अम्बट्ठी गोण्डिगाम्हि वापिकं, वासं पुत्ते दुवे लभि. चू. वं. 38.15; - सुरा स्त्री., [अम्लसुरा], चू. वं. 37.185. खट्टा मद्य, खट्टी मदिरा - राय तृ. वि., ए. व. - आदाय अम्बुद पु., [अम्बुद], शा. अ. जल देने वाला, ला. अ. पीठके निसीदित्वा अम्बिलसुराय कोसकं पूरेत्वा, जा. अट्ट मेघ, बादल - दो प्र. वि., ए. व. - मेघो बलाहको देवो 1.334.
पज्जुन्नोम्बुधरो घनो, धाराधरो च जीमूतो, वारिवाहो तथाम्बुदो, अम्बिलापिक पु., एक गांव का नाम - कं द्वि. वि., ए. व. अभि. प. 47; पियो दानपति होति गिम्हकाले व अम्बुदो, - कस्सपरस गिरिस्सापि आहारं अम्बिलापिकं चू, वं. सद्धम्मो. 275. 44.98.
अम्बुधर पु., [अम्बुधर], मेघ, बादल - रो प्र. वि., ए. व. अम्बिलिकाफल नपुं.. [अम्लिकाफल]. इमली का फल - - मेघो बलाहको देवो पज्जुन्नोम्बुधरो घनो, अभि. प. 47; - लं द्वि. वि., ए. व. - एको कबिट्ठफलञ्च अम्बिलिकाफलञ्च, बिन्दु पु., वर्षा की बूंद - यदि वदनसंयोगे चुविधातु वत्तति अ. नि. अट्ठ. 2.50; अम्बिलिकाफलञ्च अद्दसाति आनेत्वा कथं... अम्बुधरबिन्दुचुम्बितकूटो ति एत्थ अवचने ..., सद्द. सम्बन्धो, अम्बिलिकाफलन्ति तिन्तिणीफलन्ति वदन्ति, अ.
2.405. नि. टी. 241.
अम्बुय्यान नपुं., श्रीलङ्का में अवस्थित एक प्राचीन बौद्धविहार अम्बिलपदर पु., एक गांव का नाम - रं द्वि. वि. ए. व. - का नाम - म्हि सप्त. वि., ए. व. - अम्बुय्यानम्हि आवासं
अम्बिल्लपदरं चादा चेतियस्स गिरिस्स सो..., चू. वं. कत्वा दप्पुलपब्बतं, चू, वं. 49.30... 44.122.
अम्बुसेवालसञ्छन्न त्रि., [अम्बुशैवालसञ्छन्न], पानी और अम्बु नपुं.. [अम्बु], जल, पानी - पानीयं उदकं तोयं, जलं । सेवार (शैवाल) से ढका हुआ, जल और सेवार से आच्छादित पातो च अम्बु च, सद्द. 2.408; -- म्बु प्र. वि., ए. व. - -- न्ना पु., प्र. वि., ब. व. - अम्बुसेवालसञ्छन्ना ते सेला अम्बूति उदकं सु. नि. अट्ट, 1.91; - ना तृ. वि., ए. व. स्मयन्ति मन्ति, थेरगा. 113; अम्बुसेवालसञ्छन्नाति पसवनतो - अम्बुना नेक्खम्मनिन्नो तिभवाभिनिस्सटो, थेरगा. 1092; सततं पग्घरमानसलिलताय तहं तहं उदकसेवालसञ्छादिता, ... विमलंव अम्बुनाति यथा... निम्मलं विरजं... उदकेन न थेरगा. अट्ठ. 1.244. लिम्पति, थेरगा. अट्ठ. 2.387; - नि सप्त. वि., ए. व. - अम्बूपम त्रि., ब. स. [आम्रोपम], आम जैसा, आम के फलों फलं पतति अम्बुनि, जा. अट्ठ. 5.6; सोतस्साति यं उभतो के समान - मा पु., प्र. वि., ब. व. - चत्तारो अम्बूपमा तीरे जातरुक्खेहि फलं मम अम्बुनि पतति, जा. अट्ठ पुग्गला सन्तो संविज्जमाना लोकस्मि, अ. नि. 1(2).122.
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अम्भ 544
अम्मणक अम्म' 'शब्द करने के अर्थ वाली एक धातु - देभ अभि दभि अम्म अ., मूलतः स्त्रियों को बुलाने हेतु प्रयुक्त अम्मा का सद्दे, सद्द. 2.408; अम्ब सद्दे, मो. धा. 168.
संबो., ए. व. [अम्ब]. निम्नलिखित रूप से नारियों के अम्भ नपुं.. [अम्भस्], जल - एत्थ च अम्भो वुच्चति उदक आमन्त्रण या उन्हें बुलाने/पुकारने हेतु प्रयुक्त निपा., क. ..... अम्भति सदं करोतीति अम्भो ति वुच्चति, सद्द. 2.408. सन्तानों द्वारा मां के लिए प्रयुक्त - "मतं वा अम्म रोदन्ति अम्भो/हम्भो अ., निपा., विस्मय, तिरस्कार, प्रशंसा जैसे ... जीवन्तं मं अम्म पस्सन्ती, कस्मा में अम्म रोदसीति, अनेक अर्थों का सूचक [बौ. सं. हम्भो/हम्भोः], क. किसी थेरगा. 44; अम्म, रोदन्ता नाम आतका मित्ता वा अत्तनो व्यक्ति का ध्यान अपनी ओर खींचने के लिए या उसे जातकं मित्तं वा मतं उद्दिस्स रोदन्ति परलोक गतत्ता, पुकारने हेतु प्रायः संबो., ए. व. में प्रयुक्त नाम के साथ थेरगा. अट्ठ. 1.120; ख. पुत्री के लिए प्रयुक्त - "अम्म, प्रयुक्त, ऐ, ओ, अरे - अम्भो पुरिसाति आलपनाधिवचनमेतं. पब्बजितुं सक्खिस्ससी ति आह, ध. प. अट्ठ. 1.277; पिता पारा, 87; 'अम्भो पुरिस, किं तुम्हिमिना पापकेन दुज्जीवितेन, पनस्सा सालं गच्छन्तो आह-'अम्म परसन्तको मे साटको पारा 86; ... अम्भो पुरिस, भरियं नेसी ति, मि. प. 46; आरोपितो .... ध. प. अट्ठ. 2.98; ग. सामान्य रूप से आतुसो, अम्भो हम्भो, हरे अरे हे इच्चेते एकवचनपथवचनवसेन किसी भी नारी के लिए प्रयुक्त - "अम्म, किं वदेसि, पुरिसानं आमन्तणे, सद्द. 3.894-95; ख. चेतावनी देने, मव्ह उपवानपुप्फेहि तेन पूजा कता ति, ध. प. अट्ठ. 1.275; डांटने-फटकारने तथा किसी बात पर आपत्ति प्रकट करने घ. प्रायः 'तात' के साथ प्रयोग में आने पर माता-पिता को तथा तिरस्कार जैसे अर्थों का सूचक - ... अम्भो न किर सम्बोधित करने हेतु प्रयुक्त - अम्मताता न मय्ह एवरूपायत्थो सद्धेय्यं यं वातो पब्बतं वहे. जा. अट्ठ. 3.52; "अम्भो पुरिस .... ध. प. अट्ठ. 2.39; "अम्मताता, अनुजानाथ मं पब्बजितु न्ति यं त्वं जनपदकल्याणिं इच्छसि कामेसि, म. नि. 2.234; आह, उदा. अट्ठ. 57; ङ. 'अम्मा' के रूप में प्रयोग में अम्भो, रुक्ख-पुब्बे त्वं ओलम्बकं चारेन्तो विय उजकमेव आने पर किन्हीं भी अन्य लोगों को सम्बोटि फलानि पातेसि, जा. अठ्ठ. 1.175; "अम्भो, समण, तव त करने हेतु प्रयुक्त - अम्मा, तुम्हेपि उट्ठहथ, यागु पिसितासनो पिसाचो उपट्टितो ति महन्तं ... अत्तानं सन्धाय पचथ, भत्तं पचथा ति विचरित्वा आरोचेही ति, ध. प. यक्खो वदति, उदा. अट्ठ.54; ग. कभी कभी प्रशंसा एवं अट्ठ. 1.132; च. कभी कभी 'अम्मताता' रूप में भी प्रयुक्त अनुमोदन का भी सूचक, अहा हा ! वाह, क्या कहना -- होने पर बहुत सारे लोगों के समूह का सम्बोधन - अम्भो अम्भो नाममिदं इमिस्सा, जा. अट्ठ. 5.203; तमेनं जनो "अम्मताता, एकेककुलतो एकेको पुरिसो फरसुवासिआदीनि दिस्वा एवं वदेय्य “अम्भो, किमेविदं हरीयति जञ्जजअं गहेत्वा अरज... आहरित्वा अय्यानं वसनट्ठानं करोतु ति. विया ति, म. नि. 1.38.
ध. प. अट्ठ. 1.313. अम्भोद पु.. [अम्भोद], शा. अ. जल देने वाला, ला. अ. अम्मण नपुं.. [तुल. अर्मण], क. द्रोणी, डोंगी - णं प्र. वि., मेघ, बादल - हारहसहिमम्भोदपण्डरायातिचारुया .... चू. ए. व. - दोणी त्वित्थो तथाम्मणं, अभि. प. 668; अम्मणं वं. 73.134.
दोनियं चेकादसदोणप्पमाणके, अभि. प. 1032; ख नहाने अम्भोधर पु.. [अम्भोधर]. शा. अ. जल को धारण करने के लिए प्रयुक्त डोंगी के आकार की नांद, कण्डाल या वाला, ला. अ. मेघ, बादल - महीतलावतिण्णम्भोष्ट बालटी - णं द्वि. वि., ए. व. - सत्था अम्बणं आहरापेत्वा रिसंसयकारिहि यन्तरूपेहि हत्थीहि हत्थालंकारधारिहि, चू. उण्होदकं आसिञ्चित्वा .... ध. प. अट्ठ. 1.182; ग. ग्यारह वं. 85.18.
द्रोणों की बराबरी वाली बड़ी माप की एक इकाई, भारी अम्भोधि पु., [अम्भोधि], शा. अ. जल को संजोकर रखने वजन - णं प्र. वि., ए. व. - चेकादस दोणा तु अम्मणं, वाला, ला. अ. समुद्र, सागर - निजपुञ्जमहम्भोलि अभि. प. 484; पिंसापयित्वा निसदे एक पंसनमम्मणं, म. वं. निनदभमकारिहि ... निनादेहि विवडितं. चू. वं. 85.45. 30.9; - णानि ब. व. - वीहीनं अड्ढचूळञ्च वाहा अम्भोरासि पु.. [अम्भोराशि], शा. अ. जल का ढेर, ला. वीहिसत्तम्बणानि द्वे च तुम्बा..., मि. प. 112; ततो उपपड्डपड अ. समुद्र, सागर - इत्थं राजा बुद्धिमा बुद्धसद्धो च पंसू द्वे अम्मणानि च, म. वं. 30.7. संसारम्भोरासिसंतारसेतु निस्सेणिं वासेससग्गाय गन्तुं .... अम्मणक नपुं., अम्मण (डोंगी) से व्यु., डोंगी, छोटी नौका, अकासि, चू. वं. 85.122.
द्रोणी- के सप्त. वि., ए. व. - एकस्मिं अम्बणके निपज्जापेत्वा
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अम्मणपिट्ठ
545
अयं
महागङ्गाय पवाहेसु, जा. अट्ठ. 2.97; केवल स. उ. प. के रूप में चतुरस्स अम्बणकताळ के अन्त०, द्रष्ट... अम्मणपिट्ठ पु., तत्पु. स. [अर्मणपृष्ठ], डोंगी का ऊपरी या ऊंचाई वाला भाग, डोंगी का पृष्ठभाग - 8 सप्त. वि., ए. व. - सयन्तो अम्बणपिढे सयति, जा. अठ्ठ. 5.286. अम्मणमत्त/अम्बणमत्त नपुं.. [अर्मणमात्र]. एक अम्बण की माप - त्तेन तृ. वि., ए. व. - राहुलमाता सुमनमल्लिकादीनं पुप्फानं अम्बणमत्तेन ... हत्थं ठपेत्वा निहायति, जा. अट्ठ. 1.72. अम्मतातवदन्तु त्रि., [अम्बातातवादिन], "ओ मां, ऐ पिता
जी बोलने वाला - न्तरं पु., द्वि. वि., ए. व. - पस्सामि वोहं दहरं, अम्मतात वदन्तरं जा. अट्ठ. 6.32; अम्म तात वदन्तरन्ति “अम्म, ताता ति वदन्तं ..., जा. अट्ठ. 6.33. अम्मा स्त्री., [अम्बा], मां - म्मा प्र. वि., ए. व. - अम्माम्बा जननी माता जनेत्ती जनिका भवे, अभि. प. 244; अम्मा सब्बो च मे जातिगणवग्गो, थेरीगा. 426; - म्मं द्वि. वि., ए. व. - यञ्च अम्म न पस्सामि, जा. अट्ठ. 6.95; - म्म/म्मा/म्मे संबो., ए. व. - को तं अम्म कोपेसि, जा. अट्ठ. 5.175; - य ष. वि., ए. व. - "गच्छ अम्माय अफासुक जानाही ति पेसेसि, जा. अट्ठ. 3.347:- यो संबो./प्र. वि. ब. व. - अम्मा भोतियो अम्मा अम्मायो ति आदिना योजेतब्बं
सद्द. 1.198. अम्ह'/अस्म पु., [अश्मन], पत्थर, चट्टान, शिलाखण्ड - स्मो/म्हो प्र. वि., ए. व. - थ भ पासाणस्मोपलो सिला. अभि. प. 605; विशेष प्रयोग अस्म के अन्त. द्रष्ट.. अम्हं अम्ह स. ना. का द्वि./च./ष. वि., ब. व. [अस्माकं, अस्मभ्यं, अस्मान्], हमें, हमारे लिए, हमारा - तस्मा हि अम्हं दहरा नमिय्यरे, जा. अट्ठ. 3.262; लाभो अम्हं न विज्जति, अप. 2.56. अम्हमय त्रि., [अश्ममय], पाषाणों या पत्थरों से निर्मित,
अस्ममय के अन्त०, द्रष्ट. (आगे). अम्हसद्द पु., [अस्मत् शब्द], विभक्तिचिहरहित, उत्तमपुरुषसूचक सर्वनाम 'अम्ह' शब्द - स्स ष. वि., ए. व.- सब्बस्सेव अम्हसदस्स सविभत्तिस्स मम आदेसो होति से विभत्तिम्हि, क. व्या. 120; - द्देन तृ. वि., ए. व. - अम्हेन योगो मय्योगो, अम्हसद्देन योगो इच्चेव अत्थो, सद्द. 1.290. अम्हाकं सं. ना. अम्ह से व्यु., ष. वि., ब. [अस्माकं], हमें, हमारा, हमारे लिए - अम्हाकं पस्ससि, अम्हे पस्ससि वा क. व्या. 162; किं अम्हाकं चिन्तेसि, जा. अट्ठ. 1.218.
अम्हादिस त्रि., हमारे जैसा -- सा पु.. प्र. वि., ब. व. - "मतका नाम अम्हादिसा नेव होन्तीति वदिसु, जा. अट्ठ. 4.135; - सेहि पु., तृ वि., ब. व. - सुदुक्करन्ति तस्मिं खणे एस अम्हादिसेहि अनरियेहि सदुक्करं अकासि, जा. अट्ठ. 5.343; दुप्पटिमन्तियाति अम्हादिसेहि अधम्मवादीहि दुक्खेन पटिमन्तितब्बा होन्ति, म. नि. अट्ट (म.प.) 2.287; - सानं पु., ष. वि., ब. व. - तत्थ अम्हादिसानं अप्पेसक्खानं .... ओकासोति दस्सेति, स. नि. अट्ठ. 1.41. अम्हानं अम्ह के प्र./द्वि. वि., ब. व. के नियमित रूपों का स्थानापन्न रूप, हम, हमें - कच्चायने तुम्हानं अम्हानन्ति च पठमा-दुतियाबहुवचनं, सद्द. 1.289. अम्हि अस का वर्त., उ. पु., ए. व. [अस्मि ], मैं हूँ, द्रष्ट.,
अस्थि के अन्त.. अम्हे अम्ह स. ना. का प्र./द्वि. वि., ब. व., हम, हमें - कथं अम्हे करोमसेति, जा. अट्ठ. 7.6; याय नो अनुकम्पाय, अम्हे पब्बाजयी मुनि, थेरगा. 176. अम्हेसु अम्ह का सप्त. वि., ब. व. [अस्मासु]. हम लोगों में, हम लोगों के बीच, हमारे विषय में - यानस्मेसूति यानि वज्जानि अम्हेसु न विज्जन्ति, जा. अट्ठ. 5.376; द्रष्ट. अहं के अन्त. (आगे). अम्हेहि अम्ह का तृ./प. वि., ब. व. [अस्माभिः/अस्मत्], हमारे द्वारा, हम से - अम्हेहि अम्हेभि, सद्द. 1.289; द्रष्ट.
अहं के अन्त., (आगे). अय' पु.. [अय], शा. अ. गमन, गति, चलना फिरना, ला.
अ. क. अच्छा भाग्य, सुख, ख. हेतु, कारण - यो प्र. वि., ए. व. - अयोति सुखं न अयो अनयो, दुक्खं दी. नि. अट्ठ. 2.360; - यं द्वि. वि., ए. व. - एवं कुसलधम्मानं, अनुरक्खिस्सते अयं, अप. 2.258; - या प. वि., ए. व. -- निरयो हि सग्गमोक्खहेतुभूता पुञसङ्घाता अया अपेतत्ता ... अपायो, उदा. अट्ठ. 338; - ये सप्त. वि., ए. व. - वायमितब्बनसञ्जिते अये वा इरियनतो ..., खु. पा. अट्ठ. 64; अयसद्दो कारणं दीपेति, विसुद्धि. 2.122. अय नपुं.. [अयस्], लौह, लौहधातु, धातु - यो प्र. वि., ए. व. -- लोहो नित्थि अयो कायसं अभि. प. 493; तत्थ अयोति लोहं सु. नि. अट्ठ. 2.181; कतमे पञ्च-अयो, लोह, तिपु. सीस. अ. नि. 2(1).15; - सा तृ. वि., ए. व. - अयोपाकारपरियन्तो अयसा पटिकुज्जितो. महानि. 299. अयं पु./स्त्री., अस/इस सर्व से व्यु., सङ्केतक सर्व. [अयं/इयं], शा. अ. यह पुरुष, यह स्त्री, यह फल आदि;
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अयं
546
अयचुण्ण
ला. अ. क. वक्ता के ठीक सामने विद्यमान व्यक्ति, वस्तु, ब्राह्मणा वादसीला, तदे. 384; ला. अ. च. तीनों लिंगों की अवस्था या स्थान आदि का सूचक, ठीक यही, एकदम यही, . वि. में प्रायः 'तस्स के ही समानार्थक के रूप में प्रयुक्त एकदम यह -- यं पु., प्र. वि., ए. व. - निब्बन्ति धरा यथायं - अस्स पु., ष. वि., ए. व. - आसवास्स न विज्जन्ति, सु. पदीपो, सु. नि. 238; -यं स्त्री., प्र. वि., ए. व. - अयं तासं नि. 1106; - स्सा स्त्री., ष. वि., ए. व. - "सीलमस्सा धम्मता, जा. अट्ठ. 2.106; - इदं/इमं नपुं., प्र. वि., ए. भिन्दापेस्सामी ति, जा. अट्ठ. 1.280. व. - इदम्पि बुद्ध रतनं पणीतं. सु. नि. 226; - मं अयकण्टक पु., [अयस्कण्टक], कांटेदार बी, कंटीली पु./स्त्री., द्वि. वि., ए. व. - इममत्थं पकासेन्तो .... जा.. मत्स्यमाला, मछली पकड़ने के लिए प्रयुक्त लोहे से बना अट्ठ. 2.132; सत्था इमं धम्मदेसनं आहरित्वा .... जा. अट्ठ. कांटा - टको प्र. वि., ए. व. - ... गहितो 2.134; - स्मा पु., प. वि., ए. व. - अस्मा लोका परं लोक, कणिकसल्लसण्ठानो, अयकण्टको, यस्मिं वेगेन पतित्वा कथं पेच्च न सोचति, सु. नि. 187; - इमस्स/अस्स कटाहे अग्गमत्ते दण्डको निक्खमति ....स. नि. अट्ठ. पु./नपु., च०/ष. वि., ए. व. - इमस्स मच्छे नेत्वा सरे 2.182; अयकण्टकोति अयोमयवङ्कटको, स. नि. टी. 2.153. विस्सज्जनं नाम नत्थि, जा. अट्ट, 1.219; अथरस । अयकन्तपासाण पु., [अयस्कान्तपाषाण]. चुम्बक पत्थर, रूपसोभग्गप्पत्तं अत्तभावं ओलोकेत्वा ..., जा. अट्ट, 2.46; -- कीमती पत्थर - णेहि तृ. वि., ब. व. - तत्थ अयकन्तपासाणेहि स्मिं पु., सप्त. वि., ए. व. - अस्मिं लोके परम्हि च, सु. परिच्छिन्दित्वा कतचङ्कमो अस्थि, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) नि. 639; ला. अ. ख. वक्ता के कथन के तुरन्त पहले 3.247; - णेसु सप्त. वि., ब. व. - तत्थ समुद्दवीचियो कही गई बात का सूचक, पूर्ववर्ती वाक्य में सङ्केतित तात्पर्य आगन्त्वा अयकन्तपासाणेसु पहरित्वा महासदं करोन्ति, तदे.. का सूचक - इदं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - यं किञ्चि वित्तं अयकार पु., [अयस्कार]. लोहार, लोहे का काम करने इध वा हुरं वा, सग्गेसु वा यं रतनं पणीतं... इदम्पि बुद्ध वाला - रा प्र. वि., ब. व. - लोहकारा वट्टकारा अयोकारा रतन पणीत, सु. नि. 226; - इमेसु पु., सप्त. वि., ब. व. ... रथकारा दन्तकारा रज्जुकारा, मि. प. 301. - इमेसु दिवसेसु जेतवने वसति, जा. अट्ठ. 2.342; - यं अयकूटजातक नपुं, जा. अट्ठ की एक जातक कथा, जा. स्त्री., प्र. वि., ए. व. - अयं तासं धम्मता, जा. अट्ठ. 2.106; अट्ठ. 3.125-126. ला. अ. ग. तुरन्त बाद में कहे जाने वाले विचार, समय अयक्खगहितक त्रि., यक्खगहित का निषे. [अयक्षगृहीतक]. या सम्बन्ध का सूचक - यं पु., प्र. वि., ए. व. - अयमेव वह, जो यक्षों अथवा भूत-प्रेतों से ग्रस्त नहीं है, भूत-प्रेतों अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो सेय्यथीदं ..., महाव. 13; - इमे पु.. आदि से अनभिभूत - को पु.. प्र. वि., ए. व. - देवेन प्र. वि., ब. व. - द्वेमे, भिक्खवे, अन्ता पब्बजितेन न अनासत्तो अयक्खगहितको अभूतविट्ठो... सद्धातुं नारहति, सेवितब्बा, महाव. 13; ला. अ. घ. व्यंग्य हास्य एवं जा. अट्ठ. 5.443. अवमानना के पुट के साथ वक्ता एवं अभिधेय के मध्य अयखाणुक पु., [अयस्थाणुक]. लोहे का खम्भा, लोहे का अत्यन्त निकटवर्ती सम्बन्ध का सूचक, इस इस तरह का, खूटा- के द्वि. वि., ब. व. - अयखाणुके भूमियं आकोटेत्वा ऐसा ऐसा - यं पु., प्र. वि., ए. व. - अयं पासाणो इदानि नगरस्स उप्पतनकाले नङ्गलानि गहेत्वा ... अयससलिक उच्चतरो खायति, जा. अट्ठ. 1.269; "अयञ्च अयञ्च अम्हाकं अयखाणुके बन्धेय्याथ, जा. अट्ठ. 4.74. रओ सीलाचारोति, जा. अट्ठ. 2.3; - मस्स पु., ष. वि., अयगुळिका स्त्री., प्र. वि., ए. व. [अयस्गुडिका], लोहे का ए. व. - अय्य, इमस्स वानरिन्दस्स हदयमंसे दोहळो छोटा सा गोला - सासपप्पमाणापि सक्खरा वा अयगुळिका उप्पन्नोति, जा. अट्ठ. 1.269; ला. अ. ङ संयोजक सर्व. वा उदकरहदे पक्खित्ता उदकपिढे उप्लवितं न सक्कोति, के साथ अन्वित रहने पर सामान्यीकरण (जो कोई भी, जो अ. नि. अट्ठ. 2.106. यह, जिस किसी प्रकार का/की) अथवा विशिष्टीकरण का अयगूथ पु.. [अयस्गूथ], लोहे का कचड़ा, लोहे पर लगा सूचक-यं स्त्री., प्र. वि., ए. व. - यायं तण्हा पोनोमविका हुआ जंग - गण्ठिपदे पन चम्मकारा उदके तिपुमलं नन्दीरागसहगता तत्रतत्राभिनन्दिनी सेय्यथिदं कामतण्हा, अयगूथञ्च पक्खिपित्वा चम्मं कालं करोन्ति, सारत्थ. टी. 3.74. भवतण्हा, विभवतण्हा, महाव. 14; - इमे पु., प्र. वि., ब. क. अयचुण्ण नपुं.. [अयस्चूर्ण], लोहे का चूरा - पणं द्वि. वि., - ये केचिमे तित्थिया वादसीला, सु. नि. 383; ये केचिमे ए. व. - पटिच्छन्नकूटं नाम तुलं सुसिरं कत्वा अन्तो
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अयजी
547
अयबलिस
अयचुण्णं पक्खिपित्वा गण्हन्तो तं पच्छाभागे करोति, दी. अयनङ्गल न., तत्पु. स. [अयस्लाङ्गल], लोहे का हल - नि. अट्ठ. 1.73.
लेन तृ. वि., ए. व. - चम्मस्स दडकाले अयनङ्गलेन अयजी यज के अद्य. का प्र. पू., ए. व., उसने यज्ञ किया कसापेत्वा ..., ध. प. अठ्ठ. 1.127; - लेहि ब. व. - चतूसु - यो धम्मयागं अयजी अमच्छरी, इतिवु. 73.
द्वारेसु ठिता चतूहि अयनङ्गलेहि गहेत्वा नङ्गलबद्धा अयति Vइ का वर्त.. प्र. पु., ए. व. [एति], जाता है, अयसङ्घलिका खाणुकेसु बन्धिंसु. जा. अट्ठ. 4.74. क्रियाशील होता है - अयती ति आयो, क. व्या. 530; अयपच्छि स्त्री., लोहे की टोकरी - च्छीहि तृ. वि., ब. व. यथावुत्तेहि कल्याणपुग्गलेहेव सब्बिरियापथेसु सह अयति - ... निमुग्गानं महतीहि अयपच्छीहि आदाय उपरिअङ्गारे पवत्तति, उदा. अट्ठ. 179; - न्ति ब. व. - संयुत्ता अयन्ति ओकिरन्ति, जा. अट्ठ. 6.130. पवत्तन्ति सत्ता ... समयो दिट्टि, उदा. अट्ठ 17. अयपट्ट पु./नपुं.. [अयस्पट्ट], लोहे की पट्टी - ढें द्वि. वि., अयथाभूतपजानना स्त्री., [अयथाभूतप्रजानन, नपुं.], धर्मो ए. व. - एकङ्गुलबहलं अयपट्ट.... जा. अट्ठ. 5.126; - ट्रेन के यथार्थ या वास्तविक स्वरूप का ज्ञान न होना - नं द्वि. तृ. वि., ए. व. - ... यं बलवा पुरिसो तत्तेन अयोपट्टेन वि., ए. व. - अञतित्थियानं धम्मस्स अयथाभूतपजाननं आदित्तेन ... कायं सम्पलिवेठेय्या ति, अ. नि. 2(2).2603; पकासेन्तो ..., उदा. अट्ट, 278.
... भीतो अयपट्टेन कुच्छि परिक्खिपित्वा चरति, म. नि. अट्ठ. अयथासभाव त्रि., ब. स. [अयथास्वभाव], धर्मों के यथार्थ (मू.प.) 1(2).168; - क नपुं.. [अयस्पत्र]. लोहे का आरा, स्वभाव के अननुरूप - वं पु., द्वि. वि., ए. व. - ..... लकड़ी चीरने वाला आरा - केन तृ. वि., ए. व. - इमस्स अयथासभावं मुसावादं करोति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) पन अयपट्टकेन छिन्नसङ्घपटलं विय समा भविस्सन्ति, दी. 1(1).389.
नि. अट्ठ. 2.36; अथरस पासो पादं अयपट्टकेन कड्डन्तो विय अयदण्ड पु.. [अयस्दण्ड], लोहे का मुद्गर, लोहे का मूसल आबन्धित्वा गहि, जा. अट्ठ. 5.332. - ण्डेन तृ. वि., ए. व. - महापथवी तावदेव अयदण्डेन अयपथवी स्त्री., [अयस्पृथिवी], लोहे वाला धरातल, लोहे पहतं कंसथालं विय ..., म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).86; - की फर्श - वितो प. वि., ए. व. - तेसं ततो पतनकाले ण्डेहि ब. क. - गीवं सम्परिवत्तकं लञ्चित्वा जलितअयदण्डेहि हेट्ठा अयपथवितो सूलानि उट्ठहित्वा तेसं मत्थकं पटिच्छन्ति, ... जलितलोहरसेप क्खिपित्वा तुट्ठहट्ठा होन्ति, जा. अट्ठ. जा. अट्ठ. 5.268; - वियं सप्त. वि. ए. व. - ... महाहत्थिप्पमाणा 6.132.
जलितअयपथवियं नेरयिकसत्ते मिगे विय अनुबन्धित्वा .... अयदाम नपुं.. [अयस्दामन्], लोहे की जञ्जीर - मं द्वि. जा. अट्ठ. 6.129; पादा याव गोप्फका हेट्ठा अयपथवियं
वि., ए. व. - तुम्हे ति वत्वा अयदामं छिन्दित्वा मत्तहत्थी पविट्ठा, ध. प. अट्ठ. 1.86... ...., जा. अट्ठ. 4.452.
अयपब्बत पु., [अयस्पर्वत], लोहे का पर्वत - तं द्वि. वि., अयन नपुं.. [अयन], शा. अ. जाना, हिलना, गति - ए. व. - जलितं अयपब्बतं आरोपेन्ति, जा. अट्ठ. 5.139. पज्जो यनं च पदवी वत्तनी पद्धतीत्थियं, अभि. प. 191; अयपोत्थक/आयपोत्थक नपुं.. तत्पु. स. [आयपुस्तक], ... थायनं गमने पदे, अभि. प. 1101; - नं प्र. वि., ए. व. आय को लिखने वाली पुस्तक, बहीखाता - त्थकं द्वि. वि., - अयनं पवत्ति अवठ्ठानन्ति समूहो समयो यथा समुदायोति, ए. व. - अथस्स रासिवड्डको अमच्चो आयपोत्थकं आहरित्वा, उदा. अट्ठ. 17; - नो पु.. (लिङ्ग विपर्यय) प्र. वि., ए. व. ....... जा. अट्ठ. 1.3. - एकायनोति एकरसेव अयनो एकपदिकमग्गो, जा. अट्ठ. अयफलक नपुं., [अयस्फलक], लोहे का पटरा या तख्ता 7.332; ला. अ. क. मार्ग, राह, पथ ख. स्थान, प्रवेशद्वार, - केसु सप्त. वि., ब. व. - जलितेसु अयफलकेसु ठपेत्वा सूर्य का मार्ग, ग. व्यक्गित दृष्टिकोण, निजी धारणा - नं ..., जा. अट्ठ. 6.134. प्र. वि., ए. व. - मग्गो पन्थो पथो पज्जो अञ्जसं वटुमायनं । अयफाल पु., [अयस्फाल], हल में लगा लोहे का फाल या अद्धानं अद्धा पदवी वत्तनी च एव सन्तती ति इमानि ____ फाली - ले सप्त. वि., ए. व. - मूसिका पन अयफाले नामानि, पटिपदामग्गस्स पन, सद्द. 2.525; केवल स. उ. खादन्तीति .... जा. अट्ठ. 2.152. प. के रूप में द्रष्ट. अनिलायन, उत्तरायन, एकायन आदि अयबलिस पु., [अयस्वलिश], लोहे का अंकुड़ा, लोहे का के अन्त..
अंकुश, लोहे का छल्ला - सं द्वि. वि., ए. व. - जलमाने
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अयमकचिवाल
548
अयाथाव
फाले आदाय मुखं विक्खम्भेत्वा विवरित्वा रज्जवलं अयबलिसं खिपित्वा ..., जा. अट्ठ, 5.266; - सेहि तृ. वि., ब. व. - अथ ने पज्जलितेहि अयबलिसेहि उद्धरित्वा ...जा. अट्ठ. 6.128. अयमकचिवाल पु., लोहे के तारों का गुच्छा या जाली - लेहि तृ. वि., ब. व. - वालेहीति अयमकचिवालेहि वेठेत्वा अययन्तेन पीळयन्ति, जा. अट्ठ. 5.267. अयमुग्गर/अयोमुग्गर पु.. [अयस्मुद्गर], लोहे का मूसल, लोहे का हथौड़ा - रं द्वि. वि., ए. व. - सोण्डायपि कम्म करोतीति अयमुग्गरं वा खदिरमुसलं वा गहेत्वा ..., म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.92; - रे ब. व. - महन्ते अयोमुग्गरे गहेत्वा अञमचं आकोटेन्ति, पे. व. अट्ठ. 47; - रेहि तृ. वि., ब. व. - निप्पोथयन्ताति जलितेहि अयमग्गरेहि पहरन्ता, जा. अट्ठ. 5.267. अयमुसल पु., [अयस्मुसल], लोहे का मूसल या हथौड़ा - लेन तृ. वि., ए. व. - दीघासिलट्ठिया वा अयमुसलेन वा छेदनभेदनं ..., म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.92. अययन्त नपुं., [अयस्यन्त्र], लोहे का यन्त्र, लोहे की मशीन - न्तेन तृ. वि., ए.व. - वालेहीति अयमकचिवालेहि वेठेत्वा अययन्तेन पीळयन्ति, जा. अट्ठ. 5.267. अयस पु.. [अयश], अकीर्ति, बदनामी - सो प्र. वि., ए. व. - लाभो च अलाभो च यसो च अयसो च, निन्दा च. दी. नि. 3.206; लाभो अलाभो अयसो यसो च, जा. अट्ठ. 7.58; - सं द्वि. वि., ए. व. - वज्ज पिदहति अयसमपनेति यसमुपनेति, मि. प. 141; - साय च. वि., ए. व. - यसाय वा अयसाय वा, मि. प. 275; - से सप्त. वि., ए. व. - उप्पन्नुप्पन्ने वत्थुस्मिं अयसे पाकटे दोसे वित्थारिके, मि. प. 254. अयसंखलिका स्त्री., तत्पु. स. [अयशृङ्खलिका]. लोहे की जजीर - लिकं द्वि. वि., ए. व. - नङ्गलबद्धं अयसङ्घलिकं अयखाणुके बन्धेय्याथ, जा. अट्ठ. 4.74; - का ब. व. - नङ्गलबद्धा अयसङ्घलिका खाणुकेसु बन्धिंसु. जा. अट्ठ. 4.74. अयसाभिभूत त्रि., तत्पु. स. [अयशाभिभूत], अपकीर्ति या बदनामी से पीड़ित, असम्मानित - तो पु., प्र. वि., ए. व. - पाकटो च अयसाभिभूतो गामसतम्पि पविसित्वा, ..., म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).153. अयसिङ्घाटक / अयो सिङ्घाटक/अयसङ्घाटक नपुं.. [अयश्शृङ्गाटक]. लोहे का अंकुश, लोहे की बी या भाला - कंप्र. वि., ए. व. - सेय्यथापि नाम परिसस्स अयोसिङ्घाटकं कण्ठे विलग्ग, म. नि. 2.62; - कानि ब. व. - तस्सानन्तरा
महन्तानि अयसङ्घाटकानि निरन्तरं भूमियं ओदहिंस, ध, प. अट्ठ. 2.342; - केहि तृ. वि., ब. व. - वासिफरसु-कुद्दालनिखादन ... असिलोहदण्डककचखाणुक अयसिङ्घाटकेहि
अत्थो, जा. अट्ठ. 5.40. अयसूचिमुख त्रि., ब. स. [अयस्सूचिमुख], लोहे की सुई
जैसे मुख वाला - खा पु., प्र. वि., ब. व. - अयोमुखाति अयसूचिमुखा, जा. अट्ठ, 5.267. अयसूल/अयोसूल नपुं.. [अयःशूल], लोहे का खूटा, लोहे से बनी शूली - लं द्वि. वि., ए. व. - महातालक्खन्धपरिमाणं अयसूलं पच्छिमभित्तितो निक्खमित्वा, .... ध. प. अट्ठ. 1.86; - लेन तृ. वि., ए. व. - अयोसकुनाति अयसूलेन, स. नि. अट्ठ. 3.51; - लानि द्वि. वि., ब. व. - निरयपाला तालक्खन्धपमाणानि अयसूलानि आदित्तानि ... गहेत्वा ..., म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).314; - लेहि तृ. वि., ब. क. - तिण्हेहि अयसूलेहि कोठूत्वा, जा. अट्ठ. 5.266; - समप्पित त्रि., [अयःशूलसमर्पित], लोहे की शूली पर रखा हुआ- तं पु., द्वि. वि., ए. व. - ... सन्धिपब्बेस अधिमत्तं अयसूलसमप्पितं विय तिट्ठति, स. नि. अट्ठ. 3.53. अयाच त्रि., Vयाच के सं. कृ. का निषे. [अयाच्य], याचना नहीं किए जाने योग्य, नहीं मांगे जाने योग्य - चं नपुं., द्वि. वि., ए. व. - अयाचं याचते धनं, जा. अट्ठ, 6.304. अयाचक त्रि., [अयाचक], याचना न करने वाला, न मांगने वाला, समृद्ध - को पु., प्र. वि., ए. व. - यो पन अयाचको समिद्धो, सद्द. 2.366. अयाचित त्रि., Vयाच के भू. क. कृ. का निषे॰ [अयाचित, नहीं मांगा गया, वह, जिसकी याचना न की गई हो या जिसे नहीं कहा गया या पुकारा गया - तो पु., प्र. वि., ए. व. - अयं तात मया परलोकतो अनव्हितो अयाचितो, जा. अट्ठ. 3.142. अयाचितब्बरूप त्रि., ब. स. [अयाचितव्यरूप], याचना न किए जाने योग्य स्वरूप वाला - पं पु.. द्वि. वि., ए. व. -
तं अयाचितबरूपं मय्ह देही ति याचति, जा. अट्ठ 6.304. अयाथाव त्रि., [अयथावत्], अयथार्थ, गलत - वं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - तुच्छ एतं, मुसा एतं ... अयाथावं एतान्ति, महानि. 213; - क त्रि., उपरिवत् - स्मिं नपुं., सप्त. वि., ए. व. - अयाथावकस्मिं याथावकान्ति गाहो .... महानि. 35; - अनिय्यानिक-अकुसलसंकप्प पु., कर्म. स., अयथार्थ, अकल्याणकारी एवं अकुशल संकल्प - प्पा प्र. वि., ए. व. - मिच्छासङ्कप्पाति अयाथावअनिय्यानिकअकुसलसङ्कप्पा, म.
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अयानक 549
अयुत्त नि. अट्ट (मू.प.) 1(1).196; - दिट्ठि स्त्री., कर्म. स. - रा संबो., ब. व. - जालिनो मुञ्चथायिरा में, जा. अट्ठ. [अयथावदृष्टि], अयथार्थ दृष्टि, मिथ्या-दृष्टि, गलत 2.148; - रे द्वि. वि., ब. व. - वन्दामि ते अयिरे पसन्नचित्तो, धारणा - या तृ. वि., ए. व. - मिच्छादिट्ठिकोति नत्थि जा. अट्ठ. 5.132; - क पु.. [आर्यक], उपरिवत् - केन त. दिन्नन्तिआदिनयप्पवत्ताय अयाथावदिविया उपेतो, दी. नि. वि., ए. व. - पञ्चहि ठानेहि अय्यिरकेन हेट्ठिमा दिसा अट्ठ. 3.21; - पटिपदा स्त्री., कर्म. स. [अयथावत्प्रतिपत], दासकम्मकरा पच्युपद्विता, दी. नि. 3.145; - कं द्वि. वि., मिथ्या मार्ग, गलत मार्ग - दा प्र. वि., ए. व. - ए. व. - पञ्चहि ठानेहि अय्यिरकं अनुकम्पन्ति-पुबुढायिनो मिच्छापटिपदाति अयाथावपटिपदा अकुसलपटिपदा, म. नि. च होन्ति ..., दी. नि. 3.145; - य्यिको पु., प्र. वि., ए. व. अट्ठ. (उप.प.) 3.202; - पथ पु., कर्म. स. [अयथावत्पथ], - अय्यिको नो राजा मन्धाता'ति... समाना दासायेव, जा. अयथार्थ मार्ग, गलत रास्ता - तो प. वि., ए. व. - अट्ठ. 2.259. अयाथावपथतो मिच्छापथो, ध. स. अट्ठ. 293; - मान पु०, अयिरा/अय्या स्त्री., [आर्या], भार्या, घर की मालकिन, कर्म. स. [अयथावत्मान], निराधार अभिमान - ना प्र. वि., गृहस्वामिनी - य्या प्र. वि., ए. व. - अय्या च भरिया ति ब. व. - इतरे द्वे अयाथावमाना, ध. स. अट्ठ. 397; - च सा पवुच्चति, अ. नि. 2(2).230; चोरीति अय्याति च या लद्धिकता स्त्री., भाव., किसी मत या विचार को मिथ्या या पवुच्चति, जा. अट्ठ. 2.289. अयथार्थ रूप में ग्रहण किया जाना - ताय तृ. वि., ए. व. अयुज्झपुर' नपुं.. कर्म. स. [अयोध्यपुर]. युद्ध द्वारा नहीं - तक्किका हि अयाथावलद्धिकताय दुद्दिष्टिनो ..., उदा. जीत सकने योग्य नगर, अभेद्य या दुर्भेद्य नगर - रानं ष. अट्ठ. 292; - सक्खी पु.. कर्म, स. [अयथावत्साक्षिन], वि., ब. व. - अन्तरा द्विन्नं अयुज्झपरानं, पञ्चविधा ठपिता गलत या झूठा गवाह, झूठा साक्षी- क्खिनो प्र. वि., ब. अभिरक्खा , जा. अट्ठ. 1.201; स. नि. अट्ठ. 1.295; - रानि व. - कूटसक्खीति अयाथावसक्खिनो, थेरगा. 2.301. प्र. वि., ब. व. - द्वे नगरानिपि युद्धेन गहेतु असक्कुणेय्यताय अयानक क. त्रि., ब. स. [अयानक], बिना वाहन वाला - अयुज्झपुरानि नाम जातानि, जा. अट्ठ. 1.202. को पु., प्र. वि., ए. व. - अरथकोति अयानको, जा. अट्ठ. अयुज्झपुर नपुं., एक नगर का नाम - ... तं राजानो 7.274; ख. पु., अकुशल सारथि - का प्र. वि., ब. व. - कुसावती अयुज्झपुर ... वाराणसीनगरन्ती'ति इमानि भञ्जन्ति रथं अयानका, जा. अट्ठ. 5.430.
एकूनवीसति नगरानि, म. वं. टी. 100(ना.). अयाम Vइ का अनु, उ. पु., ब. क., आयाम के स्थान पर अयुज्झानगर नपुं., एक नगर का नाम - रे सप्त. वि., ए. अप., हम जाएं - आयामाति एहि याम अयामा तिपि पाठो, व. - महारज्जं अकारेसुं अयुज्झानगरे पुरे, दी. वं. 3.15. दी. नि. अट्ठ. 2.144.
अयुजितब्ब त्रि., Vयुज के सं. कृ. का निषे., नहीं जोड़ने अयामकालिक त्रि., यामकालिक का निषे. [अयामकालिक], योग्य, नहीं लगाने योग्य - तब्बे पु., सप्त. वि., ए. व. - रात के एक याम की समयावधि तक सीमित न रहने वाला, तत्थ अयोगेति अयुजितब्बे योनिसोमनसिकारे, ध. प. अट्ठ. रात के एक याम तक ही टिका न रहने वाला - को पु., 2.160. प्र. वि., ए. व. - अओ फलरसो नत्थि, अयामकालिको अयुत्त त्रि., युज के भू. क. कृ. का निषे. [अयुक्त], क. इध, विन. वि. 228.
अनुचित, अनुपयुक्त, अननुरूप - त्तो पु.. प्र. वि., ए. व. अयिट्ठपुब्ब त्रि., ब. स., पूर्वकाल में न किया गया, पहले - कोचि अयुत्तो अप्पत्तो अननुच्छविको अनरहो ... हीनो असम्पादित - ब्बो पु., प्र. वि., ए. व. - यओ सुलभरूपो । कुजातिको, मि. प. 323; - त्तं नपुं., प्र. वि., ए. व. -
यो मया अयिट्ठपुब्बो इमिना दीघेन अद्भुना, म. नि. 1.116. अनासनेति एत्थ पन अयुत्तं आसनं अनासनं ..., म. नि. अयिर/अय्यिर पु., [आर्य], स्वामी, सम्माननीय व्यक्ति, अट्ठ. (मू.प.) 1(1).86; - त्ता पु.. प्र. वि., ब. व. असञ्जुत्ताति उत्तम गुणों से सम्पन्न व्यक्ति - रो पु., प्र. वि., ए. व. - जयम्पतिका भवितुं अयुत्ता असम्बन्धा... जा. अट्ठ. 3.233; अयिरो हिदासस्स जनिन्द इस्सरो, जा. अट्ठ. 7.196; - स्स ख. तार्किक दृष्टि से असङ्गत, अयुक्तियुक्त, अतार्किक - ष. वि., ए. व. - तदुत्तनि भासेय्य दासो अयिरस्स, जा. त्तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - अनिट्ठ पन हि ठाने, अयुत्तन्ति अट्ठ. 5.247; पाठा. दासोवय्यस्स; - रं पु./नपुं.. द्वि. वि., पकासितं, अभि. अव. 1132; भिक्खूहि सद्धि उपसङ्कमित ए. व. - अयिरञ्च कयिराय सुखागमाय, जा. अट्ठ. 4.264; अयुत्तान्ति चिन्तेत्वा ते भिक्खू बहि ठपेत्वा, ..., ध. प. अट्ठ.
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अयुत्ति
550
अयोगक्खेमकाम 1.37; - त्तानि ब. व. - अचिन्तेय्यानीति चिन्तेतं अयुत्तानि, भिक्खवे, दिवसंसन्तत्ते अयोकपाले हञमाने पपटिका अ. नि. अट्ठ. 2.312; - प्पत्तकाल पु., कर्म स निब्बत्तित्वा निब्बायेय्य, अ. नि. 2(2).213. [अयुक्तप्राप्तकाल], अनुपयुक्त काल, अनुचित समय - ले अयोकाय पु.. तत्पु. स. [अयस्काय], लोहे का ढेर, लौहसप्त. वि., ए. व. -- अकालेति अयुत्तप्पत्तकाले परस्स प्रचय - यो प्र. वि., ए. व. - चम्मकायो, दारुकायो, पियभण्डं याचनाय मित्वा जीरन्ति नाम, जा. अट्ठ. 5.222; लोहकायो, अयोकायो, वालिककायो, उदककायो, - जन पु., कर्म. स. [अयुक्तजन], अनुपयुक्त व्यक्ति, फलककायोति इमे सत्त महाकाया नाम, जा. अट्ठ. 2.75. अनधिकारी व्यक्ति, अपात्र - नस्स ष. वि., ए. व. - अयोकुम्भी स्त्री., तत्पु. स. [अयस्कुम्भी], लोहे की गगरी, युत्तजनस्सेव दातब्बो न अयुत्तजनस्सा ति वत्वा अभिसम्बुद्धो लोहे की भट्टी, केवल स. प. के अन्त में प्रयुक्त - हुत्वा ..., जा. अट्ठ. 3.203; - परिभोगकम्मूपचय पु., अयोपट्टअयोगुळअयोमञ्चअयोपीठअयोकुम्भी उपमाहि... दुक्खं [अयुक्तपरिभोगकर्मोपचय], अनुपयुक्त विषयभोगों के कर्मों दस्सेति, विसुद्धि. 1.53. की राशि - यं द्वि. वि., ए. व. - अधुना कतं अयोकूट/अयकूट नपुं., तत्पु. स. [अयस्कूट], लोहे का अयुत्तपरिभोगकम्मूपचयं निस्साय .... विसुद्धि. 1.31. हथौड़ा - टं द्वि. वि., ए. व. - त्वं वीरियं अनोस्सजन्तो इम अयुत्ति स्त्री., [अयुक्ति], उपयुक्त नहीं रहना, अनुपयुक्तता, अयकूट गहेत्वा आवाट ओतरित्वा .... जा. अट्ठ. 1.116; - अतार्किकता, केवल स. प. के रूप में प्रयुक्त - सद्दनीति टेन त. वि., ए. व. - इमिना ते जलितेन अयकूटेन सीस नाम सद्दानत्थानञ्च युत्तायुत्तिप्पकासनत्थं ... सब्ब, सद्द, __... राजानं तज्जेत्वा ..., जा. अट्ठ. 6.200; - टेहि तृ. वि., 1.144.
ब. व. - सत्तीहि लोहकूटेहि, नेत्तिसेहि उसूहि च, जा. अट्ठ. अयुद्धपराजित त्रि., बिना युद्ध किए ही पराजित हो जाने 5.262; - योत्तकसण्ठान त्रि., ब. स., लोहे के हथौड़े की वाला, बिना लड़े ही हार जाने वाला - तं पु., द्वि. वि., ए. पट्टियों के समान बनावट वाला - नं नपुं.. प्र. वि., ए. व. व. - मा भवं अस्सलायनो अयुद्धपराजितं पराजयी ति, म. - ... हेडिमहनुकट्टि कम्मारानं अयोकूटयोत्तकसण्ठानं, खु. नि. 2.363.
पा. अट्ठ. 38. अयुद्धय नपुं., म्यां-मां में स्थित एक प्राचीन क्षेत्र या प्रदेश, अयोखील/अयोखिल पु., [अयस्कील], लोहे की खूटी, केवल स. प. के अन्त. प्राप्त -- कम्बोज-खेमावर-हरिभुज- लोहे की कांटी या कील - लो प्र. वि., ए. व. - अयोखीलो अयुद्धयादीसु ... सासनं पतिद्वापेसि, सा. वं. 46 (ना.) . वा इन्दखीलो वा ... अचलो असम्पकम्पी, खु. पा. अट्ठ. अयोकटाह पु., तत्पु. स. [अयस्कटाह], लोहे की कड़ाही 147; - लं द्वि. वि., ए. व. - तत्तं अयोखिलं हत्थे - हे सप्त. वि., ए. व. - पुरिसो दिवससन्तत्ते अयोकटाहे गमेन्तीति, सु. नि. अट्ठ. 2.181. ... उदकफुसितानि निपातेय्य, म. नि. 2.125; - म्हि अयोग' पु., योग का निषे., तत्पु. स. [अयोग], एकाग्रता या उपरिवत् - निपातोति अयोकटाहम्हि पतनं, म. नि. अट्ठ. चित्त की स्थिरता का अभाव, अनुपयुक्त ध्यानाभ्यास - गा (म.प.) 2.120-121.
प. वि., ए. व. - योगा वे जायती भूरि अयोगा भूरिसङ्घयो, अयोकण्टसीस त्रि., ब. स. [अयस्कण्टकशीर्ष]. लोहे के ध. प. 282; - गे सप्त. वि., ए. व. - अयोगे युञ्जमत्तानं, कांटा या अंकुश से युक्त सिरे वाला - सो पु., प्र. वि., ए. ध. प. 209; अयोगेति अयुजितब्बे अयोनिसोमनसिकारे, व. - तुत्तवेगहतं वियाति तुत्तं वुच्चति अयोकण्टकसीसो दीघदण्डो .... चरिया. अट्ठ. 192.
अयोग' त्रि., अनुपयुक्त, योग से रहित, चित्त की एकाग्रता अयोकन्त पु., [अयस्कान्त], चुम्बक पत्थर - न्तो प्र. वि., से रहित - गं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - ... अयोगन्ति कत्वा ए. व. - अयोकन्ततीति अयोकन्तो, सद्द. 1.118.
सब्बमत्थीति, कथा. 106; अयोगन्ति अयुत्तं, कथा. अट्ठ. अयोकपाल/अयकपल्ल नपुं., [अयस्कपाल], लोहे का 145. पात्र या कटोरा - लं प्र. वि., ए. व. - अयोकपालमादित्तं, अयोगक्खेमकाम त्रि., ब. स. [अयोगक्षेमकाम], योगक्षेम सन्तत्तं जलितं यथा, महानि. 300; - ल्लं द्वि. वि., ए. व. अर्थात् मङ्गलमय पद निर्वाण की कामना न करने वाला - - सीसं याव कण्णसक्खलितो उपरि अयकपल्लं पाविसि, मो प्र. वि., ए. व. - अहितकामो अयोगक्खेमकामोति, म. ध. प. अट्ठ. 1.86; - ले सप्त. वि., ए. व. - सेय्यथापि, नि. 1.167; अयोगक्खेमकामोति चतूहि योगेहि खेमं निभयवानं,
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अयोगक्खेमी
551
अयोनि
.... म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).398; - मा ब. व. - ...
अनत्थकामा अहितकामा अफासुकामा अयोगक्खेमकामा ...., पटि. म. 34; - मानि नपुं.. प्र. वि., ब. व. -
अनत्थकामानि अहितकामानि... अयोगक्खेमकामानि, विभ. 277. अयोगक्खेमी त्रि., [अयोगक्षेमिन], योगक्षेम अर्थात् भयरहित निर्वाण के पद के साक्षात्कार से बहुत दूर रहने वाला - मिनो पु.. प्र. वि., ब. व. - ते योगयुत्ता मारस्स, अयोगक्खेमिनो
जना, अ. नि. 1(2).60. अयोगी त्रि., [अयोगिन], वह, जो योग के साथ नहीं जुड़ा है, योग न करने वाला, चित्त के उपशमन हेतु योगाभ्यास न करने वाला - गिनो पु., प्र. वि., ब. व. - बाला सूरा अयोगिनो, जा. अट्ठ. 3.49; सूरा अयोगिनोति अयोनिसोमनसिकारेन सूरा, योगेसु अयुत्तताय अयोगिनो जा. अट्ठ. 3.49. अयोगुळ/अयोगुळ्ह पु., [अयोगुड़], लोहे का गोला - ळो प्र. वि., ए. व. - सेय्यो अयोगुळो भुत्तो, ध. प. 274; तत्तो आदित्तो अग्गिवण्णो अयोगुळोव भुत्तो सेय्यो सुन्दरतरो, ध. प. अठ्ठ. 2.274; - ळं द्वि. वि., ए. व. - न गण्हाति भवं किञ्चि , सुतत्तं व अयोगुळं थेरगा. 714; - ळ्हं द्वि. वि., ए. व. - तेसं मुखे तत्तं अयोगुळ्हं पक्खिपन्ति, जा. अट्ठ. 6.128; हत्थे तत्तं अयोगुळं निक्खिपेय्य, मि. प. 44; - ळे सप्त. वि., ए. व. - यथा, महाराज, पुरिसो दिवससन्तत्ते अयोगुळे जलिते तत्ते कठिते .... मि. प. 296; - कीळा स्त्री., प्र. वि., ए. व. [अयोगुड़क्रीड़ा], लोहे की गोली से खेला जाने वाला एक खेल - चण्डालन्ति अयोगुळकीळा, दी. नि. अट्ठ. 1.77. अयोग्ग पु., [अयोग्र], लोहे का मूसल, धान कूटने वाला मूसल - ग्गो प्र. वि., ए. व. - अयोग्गो मुसलो नित्थी, अभि. प. 455; तुल. अमर. 2.9. अयोधन पु./नपुं.. [अयोघन]. लोहे का घन या हथौड़ा - नो पु., प्र. वि., ए. व. - कूट वा अयोधनो, अभि. प. 526; - नं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अयोधनहतस्साति अयो हति एतेनाति अयोधन, उदा. अट्ठ, 352; - हत त्रि., तत्पु. स. [अयोधनहत], लोहे के घन या मूसल से कूटा गया - स्स पू. प. वि., ए. व. - अयोधनहतस्सेव जलतो जातवेदसो उदा. 179. अयोघर नपुं. [अयोगृह], लोहे का घर - रं द्वि. वि., ए. व. - अयोघरं अलङ्कारापेत्वा तं आदाय अयोघरं पाविसि, जा. अट्ठ. 4.445.
अयोघरकुमार पु., एक बोधिसत्व राजकुमार - रो प्र. वि., ए. व. - अयोघरकुमारो त्वेवस्स नाम करिंसु. जा. अट्ठ. 4.445. अयोघरचरिय नपुं., जा. अट्ठ. के एक कथानक का शीर्षक,
जा. अट्ठ. 4.444-452. अयोघरपण्डित पु., जातक कथानक में उल्लिखित एक बोधिसत्व - तो प्र. वि., ए. व. - अयोघरपण्डितो पन
अहमेव अहोसिन्ति, जा. अट्ठ. 4.452. अयोजित त्रि., युज के भू. क. कृ. का निषे. [अयोजित]. नहीं जोड़ा गया, नहीं मिलाया गया या रखा गया - तानि नपुं., प्र. वि., ब. व. - पदमालाय अयोजितानि पि तत्थ तत्थ नयतो योजितानि, सद्द. 1.247. अयोज्झ त्रि., युध के सं. कृ. का निषे. [अयोध्य], युद्ध द्वारा पराजित नहीं किए जाने योग्य, अजेय, अपराजेय - ज्झं पु., वि. वि., ए. व. - परमकुसलं उत्तमपत्तिपत्तं समणं अयोज्झं..., म. नि. 2.225; अयोज्झन्ति वादयुद्धेन युज्झित्वा चालेतुं असक्कुणेय्यं अचलं निक्कम्पं थिरं म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.187; - पुर नपुं, 1. आधुनिक उ.प्र. में स्थित नगर अयोध्या - रामन्वयसमुभूतो, तदायोज्झपुरागतो, चू. वं. 56.13; 2. सिआम (थाई देश) की प्राचीन राजधानी अयुथ्या - रं द्वि. वि., ए. व. - दत्त्वा अमच्चे पेसेसि,
अयोज्झपुरमुत्तमं चू. वं. 100.60.. अयोज्झा/अयुज्झा स्त्री॰ [अयोध्या], गङ्गा नदी के तट पर स्थित बुद्धकालीन नगर का नाम - युज्झायं सप्त. वि., ए. व. - भगवा अयुज्झायं विहरति गङ्गाय नदिया तीरे स. नि. 2(1).126... अयोधी त्रि., युद्ध न करने वाला, युद्ध करने में अक्षम - धिनो पु.. प्र. वि., ब. व. - अयोधिनोतिपि पाठो, किलेसमारेन
सद्धि युज्झितुं असमत्थाति अत्थो, जा. अट्ठ, 3.49. अयोनि स्त्री., [अयोनि], अनुपयुक्त पद्धति, अप्रभावकारी उपाय - नि प्र. वि., ए. व. - अयोनि हेसा, भूमिज, तेलस्स अधिगमाय, म. नि. 3.180; - या तृ. वि., ए. व. - निस्सितचित्ता अयोनिया च अयोनिसोमनसिकारेन च निद्दिसितब्बा, नेत्ति. 34; - संविधान नपुं., अनुचित या अनुपयुक्त तरीके से किया गया कार्य-निष्पादन - नेन तृ. वि., ए. व. - अयोनि संविधानेन बालो दुक्खं निगच्छति, थेरगा. 291; अयोनिसंविधानेनाति ... अनुपायसंविधानेन उपायसंविधानाभावेन बालो..., थेरगा. अट्ठ. 2.18; - सुद्धि स्त्री., अनुपयुक्त उपाय से प्राप्त की जाने वाली चित्त की
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त्त
45.
अयोनिसो 552
अयोमय शुद्धि - द्धि द्वि. वि., ए. व. - अयोनिसद्धिमन्वेसं, अग्गिं विभ. अट्ठ. 139; - मनसिकारसम्भूत त्रि., तत्पु. स., परिचरि वने, थेरगा. 219; तत्थ अयोनीति अयोनिसो अनुपायेन, मिथ्या या भ्रान्त चिन्तन से उत्पन्न - तं नपुं., प्र. वि., ए. सुद्धिन्ति संसारसुद्धिं भवनिस्सरणं, थेरगा. अट्ठ. 1.370. व. - महं सूरियेन सद्धि जवनं नाम निरत्थक अयोनिसो अ., निपा., क्रि. विशे०, प्रायः मनसि करोति एवं । अयोनिसोमनसिकारसम्भूतं, जा. अट्ठ. 4.191; - 'मनसिकारों के साथ प्रयुक्त [बौ. सं. अयोनिशः], उपयुक्त मनसिकारहेतु अ., प. वि., प्रतिरू. निपा., मिथ्या अथवा सोच-विचार के बिना, अविवेकपूर्ण ढङ्ग से, बिना ठीक से भ्रान्त चिन्तन के कारण से - इमरस अयमायस्मतो दिट्ठि सोचे-विचारे, मिथ्या रूप से, भ्रान्त रूप में, बिना किसी अत्तनो वा अयोनिसोमनसिकारहेतु उप्पन्ना परतोघोसपच्चया उपाय के ही- अयोनिसो दायज्जंगवेसन्ती.... दी. नि. वा, अ. नि. 3(2).159. 2247; अयोनिसोति अनुपायेन, दी. नि. अट्ठ. 2.360; अयोनिसो, अयोपटल नपुं.. तत्पु. स. [अयस्पटल], लोहे की परत, भिक्खवे, मनसिकरोतो अनुप्पन्ना चेव आसवा उप्पज्जन्ति लोहे का पटरा - लेन तृ. वि., ए. व. - अयसा ...., म. नि. 1.10; - चित्त नपुं.. [बौ. सं. अयोनिश:चित्त], पटिकुज्जितन्ति अयोपटलेनेव उपरि पिहितं, पे. व. अट्ठ. भ्रान्त चित्त, ठीक से न सोचने विचारने वाला चित्त - त्तं प्र. वि., ए. व. - याव अयोनिसो चित्तं.... जा. अट्ठ. 2.230; अयोपत्त पु., [अयस्पात्र, नपुं.], लोहे का पात्र, लोहे का - मनसिकार पु., अविवेकपूर्ण चिन्तन, अनुपयुक्त रूप में कटोरा या तश्तरी- त्तो प्र. वि., ए. व. - पत्तो नाम द्वे पत्ता आलम्बन की ओर चित्त की प्रवृत्ति, उखड़े हुए चित्त का अयोपत्तो मत्तिकापत्तोति, पारा. 365; अयोपत्तो पञ्चहि पाकेहि विषय (आलम्बन) की ओर उन्मुखीभाव, भ्रान्त अथवा मिथ्या ... पाकेहि पक्को अधिवानुपगो, पारा. अट्ठ. 2.257. रूप से आलम्बनों का ग्रहण, भ्रमपूर्ण मनन - कतमो एको अयोपाकारपरियन्त त्रि., ब. स. [अयस्प्राकारपर्यन्त], लोहे धम्मो हानभागियो? अयोनिसो मनसिकारो ..., दी. नि. की दीवालों से घिरा हुआ - न्तो पु., प्र. वि., ए. व. - 3.218; अयोनिसो मनसिकारोति अनिच्चे निच्चन्ति आदिना अयोपाकारपरियन्तो पटिकुज्जितो, अ. नि. 1(1).166; - न्तं नयेन पवत्तो उप्पथमनसिकारो, दी. नि. अट्ठ. 3.220; पु., वि. वि., ए. व. - अयोपाकारपरियन्तं, अयसा पटिकुज्जितं अस्सादमनसिकारलक्खणो अयोनिसोमनसिकारो, नेत्ति. 25; पे. व. 70; अयसाकारपरियन्तन्ति अयोमयेन पाकारेन - रेन तृ. वि., ए. व. - निस्सितचित्ता अयोनिया च परिक्खित्तं, पे. व. अट्ठ, 45. अयोनिसोमनसिकारेन च निद्दिसितब्बा, नेत्ति. 34; - रा प. अयोपिण्ड पु., [अयपिण्ड], लोहे का पिण्ड, लोहे का वि., ए. व. - अयोनिसो मनसिकारा, कामरागेन अट्टिता, गोला - ण्डं द्वि. वि., ए. व. - नाल्लीयन्ति सन्तत्तं थेरीगा. 77; अयोनिसो मनसिकाराति अनुपायमनसिकारेन, अयोपिण्डं व मक्खिका, सद्धम्मो. 529. थेरीगा. अट्ठ. 88; - मनसिकारपदट्ठान त्रि., [बौ. सं. अयोपीठ नपुं.. तत्पु. स. [अयःपीठ], लोहे का पीढ़ा या अयोनिश:मनस्कारपदस्थान], वह, जिसका आसन्न कारण आसन - ठं द्वि. वि., ए. व. - तत्तं अयोमञ्चं वा अयोपीठं भ्रान्त मानसिक चिन्तन हो, मिथ्या चिन्तन को अपना वा अभिनिसीदापेय्य वा अभिनिपज्जापेय्य, अ. नि. आसन्न कारण बनाने वाला (मोह या अज्ञान) - द्वानो 2(2).262. पु.. प्र. वि., ए. व. - असम्मापटिपत्तिपच्चुपट्टानो अयोपोक्खरपत्त नपुं., तत्पु. स. [अयःपुष्करपत्र], लोहे से अन्धकारपच्चुपट्टानो वा, अयोनिसोमनसिकारपदट्ठानो, ध. निर्मित कमल का पत्ता - त्तानि प्र. वि., ब. व. - सूलानं स. अट्ठ. 289; - मनसिकारबहुलीकार त्रि., भ्रान्त अथवा हेट्ठा उदकपिढे जलितानि.... तिखिणानि अयोपोक्खरपत्तानि, निराधार मानसिक चिन्तन की बहुलता वाला, भ्रान्त चिन्तन जा. अट्ठ, 6.127-128. से भरपूर - रो पु., प्र. वि., ए. व. - तत्थ अयोमञ्च पु., तत्पु. स. [अयोमञ्च], लोहे का पलंग या अयोनिसोमनसिकारबहुलीकारो-अयमाहारो... ब्यापादस्स मञ्च - ञ्चं द्वि. वि., ए. व. - तत्तं अयोमञ्चं वा अयोपीठं उप्पादाय ..., स. नि. 3(1).82; - मनसिकारमूलक त्रि.. वा... अभिनिपज्जापेय्य वा, अ. नि. 2(2).261. ब. स., असङ्गत या अयथार्थ चिन्तन से उत्पन्न होने वाला अयोमय त्रि., [अयोमय], लोहे से निर्मित - या स्त्री॰, प्र. (अकुशल धर्म) - का पु., प्र. वि., ब. व. - सब्बेते वि., ए. व. - तस्स अयोमया भूमि, जलिता तेजसा युता, अ. अयोनिसोमनसिकारमूलका ति असाधारणत्ता एक हेतुमाह, नि. 1(1).166; - येन पु., तृ. वि., ए. व. -
1 (अयोमञ्च]. लोहे का,
मञ्च -
9.82; - मनसिकास
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- 00a
अयोमुख
553
अय्यउत्तिय अयोपाकारपरियन्तन्ति अयोमयेन पाकारेन परिक्खित्तं, पे. सुवण्णचितपक्खरे, जा. अट्ठ. 7.362; अयोसुकतनेमियोति व. अट्ट, 45; - या स्त्री., प्र. वि., ब. व. - अयोमया अयेन सुट्ट परिक्खित्तनेमियो, तदे... सिम्बलियो, जा. अट्ठ. 5.261; - येहि पु.. तृ. वि., ब. व. अय्य 1. पु.. [आर्य], उत्तम व्यक्ति, सम्माननीय व्यक्ति, - अयोमयेहि वालेहि, जा. अट्ठ. 5.261; - कूट पु., तत्पु. आदरणीय भिक्षु, स्वामी, प्रभु, धनी - अय्याधिपाधिभू नेता, स. [अयोमयकूट], लोहे से बना हुआ हथौड़ा - टेभि तृ.. अभि. प. 725; - य्यो प्र. वि., ए. व. - अय्यो हत्वा दासो वि., ब. व. -- तत्थ हनन्ति अयोमयकूटभि, सु. नि. 674; - होति, दासो हुत्वा अय्यो होती ति, म. नि. 2.363-64; तुम्ह त्त नपुं., भाव. [अयोमयत्व, लोहे से बना हुआ होना - त्ता सो किं होती ति अय्यो मे, सामी ति, जा. अट्ठ. 3.143; अय्यो प. वि., ए. व. - समन्ततो अयोमयत्ता आयसञ्च..., वि. व.. देवदत्तो आह तथा करेय्याथा ति, चूळव. 329; - य्यं द्वि. अट्ठ. 285; - पट्ट पु., लोहे से निर्मित पट्टिकाएं, लोहे की वि., ए. व. - 'अय्यं पस्सिस्सामी ति पुन आगतोम्हि, ध. प. तख्ती - Zा प्र. वि., ब. व. - साटका च जलिता अट्ट, 1.95; - य्येन तृ. वि., ए. व. - अहम्पि अय्येन सद्धि अयोमयपट्टा होन्तूति, पे. व. अट्ठ. 37; - विज्झनकण्टक गच्छन्ती... लभिस्सामि, ध. प. अट्ठ. 1.11-12; - स्स ष. पु., कर्म. स., लोहे का बेधने वाला कांटा - अग्गे तु सिखरं वि., ए. व. - सचाहं एवरूपस्स ... अय्यस्स सन्तिकं न चायोमयविज्झनकण्टके, अभि. प. 993.
गमिस्सामि, ...ध. प. अट्ठ. 1.11; - य्या प्र. वि., ब. व. अयोमुख त्रि., ब. स. [अयोमुख], लोहे के कांटे के समान - सचे अय्या इमं तेमासं इध वसेय्यु, ध. प. अट्ठ. 1.6; - तीव्र मुख वाला, लोहे की सुई जैसी चोंच वाला- खा पु... य्ये द्वि. वि., ब. व. - अयिरेति, अय्ये, जा. अट्ठ. 5.132; - प्र. वि., ब. व. - धङ्का भेरण्डका गिज्झा, काकोला च य्यानं ष. वि., ब. व. - अपि न खो अय्यानं ... कोचि अयोमुखा, जा. अट्ठ. 5.263; अयोमुखाति अयसूचिमुखा, उपद्दवो अत्थीति, ध. प. अट्ठ. 1.95; - य्य संबो., ए. व. - जा. अट्ठ. 5.267.
किं अय्य, चिन्तेन्तो निसिन्नोसी ति पुच्छिसु, जा. अट्ठ. अयोमुट्ठि पु., प्र. वि., ए. व. [अयोमुष्टि], लोहे का मुट्ठा, 1.218; - य्या संबो. ब. व. - कोमारसामिको मे, अय्याति, लोहे की हथौड़ी - कम्मारानं अयोकूट अयोमुट्ठि च, उदा... जा. अट्ठ. 1.380; 2. त्रि., सम्माननीय, आदरणीय, पूज्य, अट्ठ. 352.
सज्जन, सभ्य - कुलीनो सज्जनो साधु सम्यो चाय्यो अयोलोहमय त्रि., [अयोलोहमय]. लोहे या तांबे से निर्मित महाकुलो, अभि. प. 333; - पुत्त पु.. [आर्यपुत्र], क. किसी - यं पु., वि. वि., ए.व. - तथा अयोलोहमयं पटुं स्त्री के सन्दर्भ में, उसका पति - त्तो प्र. वि., ए. व. द्विचतुरङ्गुलं, म. वं. 23.87.
- खन्तिमेत्तानुद्दयसम्पन्नो मे अय्यपुत्तो, जा. अट्ठ. 3.143; - अयोसंकु पु., [अयश्शङ्क, लोहे की कांटी, लोहे की नुकीली त्त संबो., ए. व. - अहं, अय्यपुत्त, फलाफलानि आदाय कील या तीखी संडसी - ना तृ. वि., ए. व. - निरयपाला आगच्छन्ती एक दानवं पस्सिं, जा. अट्ठ. 5.89; - स्स ष. तत्तेन अयोसङ्कना मुखं विवरित्वा .... म. नि. 3.224; वि., ए. व. - यञ्च मे अय्यपुत्तस्स, मनो हेस्सति अञथाति, अयोसकुनाति सण्डासेन, विसुद्धि. महाटी. 1.80; - डू प्र. जा. अट्ठ. 5.89; ख. सेवकों एवं अधीनस्थों आदि वि., ब. व. - सतं आसि अयोसङ्क सब्बे पच्चत्तवेदना, म. नि. के सन्दर्भ में - राजकुमार, धनी घर का युवा 1.421; - समाहतट्ठान नपुं.. कर्म. स., लोहे की तीक्ष्ण स्वामी - त्तो प्र. वि., ए. व. - अय्यपुत्तो रखपालो संडसियों से भरा हुआ स्थान (नरक)- नं द्वि. वि., ए. व. अनुप्पत्तो ति, म. नि. 2.260; मय्ह अय्यपुत्तो अज्ज - अयोसडुसमाहतवानं तिहधारमयसूलमुपेति, सु. नि. 672. महाभिनिक्खमनं ... भविस्सती ति, जा. अट्ठ. 1.72; - त्त अयोसलाका स्त्री., तत्पु. स. [अयश्शलाका], लोहे की संबो., ए. व. - अहं, अय्यपुत्त, छन्नो ति आह, जा. अट्ठ. सलाई - य तृ. वि., ए. व. - तस्मा वर, भिक्खवे, तत्ताय 1.72; - त्ता संबो. ब. व. - "तथा हि पन मे, अय्यपुत्ता, अयोसलाकाय आदित्ताय सम्पज्जलिताय... सम्पलिमट्ठान्ति भगवा निमन्तितो स्वातनाय भत्तं सद्धि भिक्खुस नाति, दी. वित्थारेत्वा .... जा. अट्ट. 3.469.
नि. 2.76. अयोसुकतनेमि त्रि., ब. स. [अयस्सुकृतनेमिक], लोहा से अय्यउत्तिय पु., तिस्स का भाई तथा कल्याणी का राजकुमार भली-भांति मढ़े हुए पहियों की परिधि या घेरों वाला (रथ) - नामको पु., प्र. वि., ए. व., अय्य उत्तिय नाम वाला - - यो पु., द्वि. वि., ब. व. - अयोसुकतनेमियो भीतो ततो पलायित्वा अय्यउत्तियनामको, म. वं. 22.14;
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अय्यक
554
अरं
अय्य उत्तियनामकोति अय्यस्स उत्तियस्स नामको ब. व. - सुसानेपि... उम्मारेपि अय्यवोसाटितकानि सामं उत्तियनामको ति वुच्चति, म. वं. टी. 390 (ना.).
गहेत्वा .... पाचि. 123; अय्यवोसाटितकानीति एत्थ अय्या अय्यक पु.. [आर्यक], क. पितामह, कोई भी आदरणीय वुच्चन्ति कालकता पितिपितामहा वोसाटितकानि वुच्चन्ति व्यक्ति - अय्यको तु पितामहो, अभि. प. 247; - को प्र. वि., तेसं अत्थाय सुसानादीसु छड्डितकानि खादनीयभोजनीयानि, ए. व. - धम्मेन मे गोतम अय्यकोसी ति, थेरगा. 5363 पाचि. अट्ठ. 97; दसमे अय्यवोसाटितकानीति पितुपिण्डरसेतं अय्यकोसीति पितामहो असि, थेरगा. अट्ठ. 2.147; ततो मे अधिवचनं, सारत्थ. टी. 3.63. अय्यको तुट्ठो, अप. 2.237; - कं द्वि. वि., ए. व. - अय्यकं अय्यसमा स्त्री., प्र. वि., ए. व. [आर्यासमा], मालकिन चोदेन्तो इमं गाथमाह, जा. अट्ठ. 7.360; - केन तृ. वि., ए. के समान, स्वामिनी जैसा/जैसी, सात प्रकार की व. - अय्यकेन सद्धिं निपज्जि, जा. अट्ठ. 4.41; - स्स ष.. भार्याओं में से एक - कतमा सत्त ? वधकसमा, वि., ए. व. - पिता मे अय्यकस्स मतकालतो पट्ठाय चोरीसमा, अय्यसमा, मातासमा ... दासीसमा, अ. नि. सोकाभिभूतो, चरति, जा. अट्ठ. 3.134; ख. स्वामी, प्रभु, 2(2).229. अधिपति - कानं ष. वि., ब. व. - ... अय्यकानं दण्डभयेन अय्या स्त्री., [आर्या], उदात्त या उत्तम स्थिति वाली नारी, भीता, थेरीगा. अट्ठ. 227; - कुल नपुं.. तत्पु. स. गृहस्वामिनी, स्वामिनी, मालकिन, भिक्षुणी - य्या प्र. वि., ए. [आर्यककुल], पितामह का कुल, दादा का वंश- ले सप्त. व. -- अथ अय्या जिनदत्ता, थेरीगा. 429; सुखुमाली वत वि., ए. व. - दारका अय्यककुले वड्डन्ति, जा. अट्ठ. 1.122; अय्या, जा. अट्ठ. 7.273; - य्ये संबो., ए. व. - सुणातु मे, - पय्यक पु.. व. स. [आर्यकप्रार्यक], पितामह एवं प्रपितामह, अय्ये, सङ्घो, पाचि. 324; सन्तप्पयित्वा अवचं, अय्ये इच्छामि दादा एवं परदादा - दयो प्र. वि., ब. व. - इमं एत्तक पब्बजितु, थेरीगा. 431; - य च०/ष. वि., ए. व. - यस्सा धनरासिं अय्यकपय्यकादयो अत्तना सद्धिं गहेत्वा..., अ. नि.. अय्याय खमति इत्थन्नामाय च भिक्खुनीनं समनुसासना अट्ठ. 1.194; - कानं ष. वि., ब. व. - एत्तक ...., पाचि. 324; - य्या संबो., ए. व. - अय्या छब्बग्गिया अय्यकपय्यकान'न्ति याव सत्तमा कुलपरिवट्टा धनं इधेव आगन्त्वा अम्हे ओवदन्तीति, पाचि. 429; - यो संबो. आचिक्खित्वा .... जा. अट्ठ. 1.3.
ब. व. - उद्दिष्वा खो, अय्यायो, अट्ठ पाराजिका धम्मा, पाचि. अय्यका/अय्यिका स्त्री०, अय्यक से व्यु., क. नानी मां, 298; - नं ष. वि., ब. व., - भिक्खुनिया निस्सग्गियो मातामही - मातामही तु अय्यका, अभि. प. 245; - का प्र. अय्यानं निस्सट्ठो, पाचि. 331. वि., ए. व. - पसेनदिस्स कोसलस्स अय्यिका कालङ्कता अय्यक पु., [आर्यक], किसी दास का स्वामी - का' प्र. वि., होति, चूळव. 299; - कं द्वि. वि., ए. व. - रेवतस्स अय्यिक ब. व. - अय्यका पस्सित्वा एवमाहंसु, महाव. 96; - का? वन्दापेत्वा ..., अ. नि. अट्ठ. 1.175; - य तृ. वि., ए. व. - स्त्री., प्र. वि., ए. व. [आर्यिका], मालकिन, स्वामिनी - एका दारिका अय्यिकाय सद्धि अवसेसा अहोसि.जा. अट्ठ. अय्यका च पुरे अहं, थेरीगा. 159. 1.118.
अर गमन या गति अर्थ वाली एक धातु - अर नासे गते अय्यकाकाळक पु.. वृषभ के रूप में जन्म ग्रहण करने वाला च, धा. मं. 61; अर गतियं अरति अत्थं अत्थो उतु, सद्द. एक बोधिसत्व - को प्र. वि., ए. व. - सो अय्यकाकाळको 2.432. त्वेव नाम पञआयित्थ जा. अट्ठ. 1.193.
अर पु., [अर], गाड़ी के पहिए का अर या तिल्ली, पहिए का अय्यकानी स्त्री., अय्यका का समाना., नानी मां - मातुल अर्धव्यास - रो प्र. वि., ए. व. - एको सतिसङ्घातो अरो इच्चेवमादीनमन्तो आनत्तमापज्जते ईकारप्पच्चये परे, एतस्साति एकारो, उदा. अट्ठ. 301; - रानं ष. वि., ब. व. मातुलानी, अय्यकानी, वरुणानी, क. व्या. 98.
- अरानं चक्कनाभीनं, इंसानेमिरथरस च, जा. अट्ठ.4.187; अय्यमित्त पु., मित्तथेर का दूसरा नाम - स्स ष. वि., ए. व. अरानम्पि सवङ्कत्ता सदोसत्ता सकसावत्ता ..., अ. नि. 1(1).
- तव भातिकस्स अय्यमित्तस्स आगतकाले भत्तं पचित्वा ___ 135; - रा प्र. वि. ब. व. - अरापि अवका अदोसा अकसावा, ...., म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).304.
अ. नि. 1(1).135. अय्यवोसाटितक त्रि., दादा, परदादा आदि पूर्वजों को अरं अ., क्रि. वि. [अरं], शीघ्रता से, जल्दी से, तेजी से - अर्पित, पितरों को अर्पित (पिण्ड) - कानि नपुं., द्वि. वि., आसु तुण्हभरं, अभि. प. 40; तुल. अमर. 1.1.
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अरक
555
अरज्ञ
अरक पु., एक प्राचीन धर्माचार्य या तीर्थङ्कर - को प्र. वि., ए. व. - अरको नाम सत्था सावकानं ब्रह्मलोकसहब्यताय धम्म देसेति, अ. नि. 2(2).264. अरकजातक नपुं., जा. अट्ठ. का एक कथानक, जा. अट्ठ.
2.49. अरकपण्डित पु.. बुद्धकालीन धर्माचार्य या शास्ता - काल पु.. धर्माचार्य अरक का काल - ले सप्त. वि., ए. व. - ... तथा विधुरपण्डितकाले ... अरकपण्डितकाले ... पञापारमिताय पूरितत्तभावानं परिमाणं नाम नत्थि, जा.
अट्ठ. 1.56. अरक्खित त्रि., रक्ख के भू. क. कृ. का निषे. [अरक्षित]. रक्षा न की गई (भूमि) अनियन्त्रित (मन या इन्द्रियां) - तं नपुं. प्र. वि., ए. व. - अरक्खितं महतो अनत्थाय संवत्तती ति. अ. नि. 1(1).9; - तेन पु., तृ. वि., ए. व. - अरक्खितेन कायेन, उदा. अट्ठ. 111; - ताय स्त्री., तृ. वि., ए. व. -
अरक्खितेनेव कायेन अरक्खिताय वाचाय अनुपहिताय सतिया .... म. नि. 2.134; - ता पु., प्र. वि., ब. व. - एते हि द्वारा विवटा अरक्खिता, विसुद्धि. 1.34; - तानि नपुं.. प्र. वि., ब. व. - अरक्खितानि अहिताय, रक्खितानि हिताय च, थेरगा.. 728; - भाव पु.. [अरक्षितभाव], रक्षित अथवा नियन्त्रित नहीं होना - वं द्वि. वि., ए. व. - छविाणकायस्स अरक्खितभावं सन्धायाह, उदा. अट्ठ. 194. अरक्खिय त्रि०, रक्ख के सं. कृ. का निषे. [अरक्ष्य], क. वह, जिसकी रक्षा न की जा सके या जिस पर नियंत्रण न रखा जा सके - यो पु., प्र. वि., ए. व. - मातुगामो नाम अरक्खियो, जा. अट्ठ. 3.77; - या स्त्री., प्र. वि., ब. व.- भिक्खु, इत्थियो नाम अरक्खिया, जा. अट्ठ. 1.279; ख. वह, जिसे रक्षा की अपेक्षा ही न हो, किसी प्रकार की रक्षा की
अपेक्षा न करने वाला - या पु.. प्र. वि., ब. व. - अरक्खिया .... तथागताति, चूळव. 333. अरक्खेय्य त्रि., वह, जिसकी रक्षा करने की कोई भी आवश्यकता ही न रहे - य्यानि नपुं, प्र. वि., ब. व. - तीणि तथागतस्स अरक्खेय्यानि, दी. नि. 3.173; अरक्खेय्यानीति न रक्खितब्बानि, दी. नि. अट्ठ. 3.159. अरज' त्रि.. ब. स. [अरजस्क]. शा. अ. धूल-रहित, मल या गन्दगी से रहित, स्वच्छ, पवित्र-जं स्त्री., द्वि. वि., ए. व. - अरजं भूमिमक्कमा ति, जा. अट्ठ 6.151; अरज भूमिमक्कमाति अरजं ... दिब्बभूमि दिब्बयानेन अक्कम, तदे.; - जा पु.. प्र. वि., ब. व. - सरजा अरजा चपि, स.
नि. 2(2).214; ला. अ. क्लेशों से रहित, चित्त के मलिन भावों से मुक्त - जो पु.. प्र. वि., ए. व. - अरणोति अरजो निक्किलेसो, म. नि. अट्ट. (उप.प.) 3.203; - जं पु., द्वि. वि., ए. व. - अरज रजसा वच्छ..., जा. अट्ठ. 5.259. अरज पु.. व्य. सं., धम्मदस्सी बुद्ध के अनेक प्रासादों में से एक - जो प्र. वि., ए. व. - अरजो विरजो सुदस्सनो, बु. वं. 17.14. अरज्जन नपुं., रज्जन का निषे. [अरञ्जन], अलगाव, अनासक्ति, अप्रवृत्ति, केवल स. प. के रूप में प्रयुक्त - आरम्मणेसु अरज्जनादिवसेन पवत्तति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).126. अरज्जन्त त्रि., रज्ज के वर्त. कृ. का निषे., आसक्त न होता हुआ, लगाव या राग से मुक्त रहता हुआ- न्तो पु०, प्र. वि., ए. व. - नामे च रूपे च अरज्जन्तो असज्जन्तो असोचन्तो भिक्खु नाम होती ति, ध. प. अट्ठ. 2.339. अरञ्जर पु.. [अलञ्जर/अलिञ्जर], घड़ा, भाण्ड, मिट्टी का बर्तन, मटका - कोलम्बो चाथ मणिक, भाणको च अरञ्जरो, अभि. प. 456; तुल. अमर. 2.9; -- रो प्र. वि., ए. व. - एत्थ पन भाणकन्ति अरञ्जरो वुच्चति, चूळव. अट्ठ. 76; अरञ्जरोति बहुउदकगण्हनका महाचाटिजलं गण्हित
अलन्ति अरञ्जरो, सारत्थ. टी. 3.365. अरञ्जरगिरि/आरञ्जरगिरि पु., पर्वतों के नाम के रूप में प्रयुक्त मध्यदेश की एक पर्वतमाला का नाम - रिम्हि सप्त. वि., ए. व. - मज्झिमदेसे आरञ्जरगिरिम्हि पब्बतजालन्तरे... गुहालेणे वसि, जा. अट्ठ. 3.408. अरज्ञ नपुं.. [अरण्य], वन, जङ्गल - अरज काननं दायो गहनं विपिनं वनं, अभि. प. 536; तुल. अमर. 11.4; - जो पु., प्र. वि., ए. व. - पुब्बे किर सो वनसण्डो अरओ अहोसि, जा. अट्ठ. 1.171; (लिङ्गविपर्यय के कारण पु.); - नं प्र. वि., ए. व. - अरुझं नाम यं मनस्सानं परिग्गहितं होति, तं अरुज, पारा. 58; अरनं नाम ठपेत्वा गामञ्च गामपचारञ्च अवसेसं नाम, पारा. 52; - ज द्वि. वि., ब. व. - मयहि एतं निस्साय इमं अरशंपविट्ठा, ध. प. अट्ठ. 2.43; - ञा/ञतो प. वि., ए. व. - यो पन भिक्खु गामा वा अरआ वा अदिन्नं थेय्यसङ्घातं आदियेय्य, पारा. 52; ... यथा परिच्छिन्ने काले अरञतो आगन्त्वा .... विसुद्धि. 1.71; - ओ सप्त. वि., ए. व. - गामे कट्ठत्थं फरति न अरज्ञ, इतिवु. 65; - आम्हि सप्त. वि., ए. व. - वसितं मे अरुजेसु. थेरगा. 602; मिगो अरञम्हि यथा अबद्धो, सु.
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अरञ्ञज
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नि. 39. ज्ञायतन नपुं. [ अरण्यायतन] जङ्गली निवास स्थल, वन में बना हुआ आवास ने सप्त. वि., ए. व. एकस्मिं अरज्ञायतने फलानि खादन्तो वसति, जा. अट्ठ 1.174 कुटिका स्त्री. तत्पु. स. [ अरण्यकुटिका ], वन में बनाई हुई कुटी कार्य / काय सप्त. वि. ए. व. हिमवन्तपदे से अरजकुटिकाय ओतरि ध. प. अ. 2.356: कोसलेसु विहरन्ति हिमवन्तपस्से अरज्ञकुटिकाय उद्धता स. नि. 1(1).75; हिमवन्तपदेसे अरञ्ञकुटिकायं विहरन्तो मार आरम्भ कधेसि घ. प. अड. 2298 कोक पु. जङ्गली कुत्ता, भेड़िया का प्र. वि. ब. व. सुनखमंसन्ति एत्थ अरज्ञकोका नाम सुनखसदिसा होन्ति, महाव, अड्ड 355: गत तत्पु, स. [ अरण्यगत], वन में विद्यमान, जङ्गल में गया हुआ - तो पु०, प्र. वि., ए. व. - अरञगतो वा रुक्खमूलगतो वा .... इति पटिसञ्चिक्खति म. नि. 1.405; अरज्ञगतो वा रुक्खमूलगतो वा सुञ्ञागारगतो वा पारा. 83 त पु. द्वि. वि. ए. व. अरञ्ञगतं वा तं' सुञगारतं वा, अ. नि. 2 ( 2 ) .67; - तं नपुं. प्र. वि., ए. व. अरज्ञगतं अरज्जे नस्सति म. नि. अड. (उप.प.) 3. 187 - गतसञ्ञी त्रि. शा. अ. वन में जाकर एकान्तसेवन की बात सोचने वाला, ला. अ. चित्त को क्लेशों से मुक्त एवं विशुद्ध बनाने की इच्छा करने वाला, अनासक्तिभाव के विकास का प्रबल संकल्प करने वाला - ञ्ञिनो पु., ष. वि., ए. व. एवं अरञ्ञगतसञ्ञिनो नेक्खम्मसङ्घप्पबहुलस्साति अत्थो, थेरगा. अ. 1.238 - गतसुदेशक त्रि.. जङ्गल में कुशल मार्गदर्शक को फु.. प्र. वि., ए. व. असम्मोहपच्युपद्वाना अरजगतसुदेशको अभि. अव. 21 अरञ्जगतसुदेसको दिय अरजे गतो मग्गसुदेसको विय, अमि, अव. पु. टी. 18; गामक पु०, [अरण्यग्रामक], जंगल में स्थित छोटा सा गांव के सप्त वि. ए. व. एकस्मिं अरज्ञगामके पिण्डाय चरन्ति म. नि. अट्ट. ( मू.प.) 1 (2) 277 गोण पु. तत्पु, स. जंगली बैल णा प्र. वि. ब. व. गोणसिराति अरज्ञगोणा, जा. 31. 7.306.
अरज्ञज त्रि. [ अरण्यज], वन में उत्पन्न जो पु०प्र० वि. ए. व. गामिकेहि अरज्ञजोति जा. अड. 5.102: जा ब. व. अपि रुक्खा अरञ्ञजा, जा. अट्ट. 1.314; जातक नपुं०, जा. अट्ठ का एक कथानक, जा० अ० 3.128 128 ज्झासय त्रि.. व. स. [ अरण्याध्याशय ]. शा. अ. वन के एकान्तवास में मानसिक अभिरुचि रखने वाला,
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अरजपीति
ला. अ. एकान्तप्रेमी, लगावरहित चित्त के विकास में अभिरुचि रखने वाला या पु०, प्र. वि., ब. व. - बुद्धा नाम अरञ्ञज्झासया अरञ्ञारामा, उदा. अट्ठ. 331; - ञ्ञटु त्रि., [अरण्यस्थ] वन में स्थित जङ्गल में मौजूद ' नपुं. प्र. वि. ए. व. अहं नाम भण्डं अरज्ञे चतूहि ठानेहि निक्खित्तं पारा 58: दुग् नपुं. द्वि. वि. ए. व. अरऋटुं भण्डं अवहरिस्सामीति श्रेय्यचित्तो दुतियं वा परियेसति गच्छति वा पारा. 58; टुकथा स्त्री. तत्पु. स. पारा अड के एक भाग का शीर्षक, पारा. अट्ठ 1.275: ज्ञद्वान नपुं तत्पु. स० [अरण्यस्थान], जङ्गली स्थान, वन क्षेत्र ने सप्त. वि., ए. व. - अरञ्ञट्टाने पञ्चसता पेसनकचोरा नाम पन्थघातं
पारा. अड. 1.275.
जा. अट्ठ. 1.246; छायूदकसम्पन्ने अरञ्ञद्वाने वासं उपगच्छंसु, पे. व. अट्ठ. 27 - निदानक त्रि. ब. स. वन में निवास पर आधारित (बुद्ध के) अरण्यनिवास के साथ जुड़ा हुआ कं नपुं. प्र. वि., ए. व. अरअनिदानक नामेतं सुत्तन्ति म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1 (2) 144: पाल पु.. [ अरण्यपाल ] वन का रक्षक ला प्र. वि. क. क अरञ्ञपाला च मयं... तापसानञ्च भागं अगण्हन्ता, पारा. अट्ठ. 1.275; लानं ष. वि. ब. व. अरज्ञपालानं देय्यधम्मं दत्वा अरञपीति स्त्री, तत्पु. स. [ अरण्यप्रीति], वन में रहने की सुखदायक अनुभूतिति प्र. वि. ए. व.सहं सुणतो अरञ्जरति नाम उप्पज्जतीति अ. नि. अट्ट. 1. 177, पाठा. अरज्ञरति - बिकार पु. तत्पु, स. [ अरण्यबिडाल]. जंगली बिल्ली रा.प्र.वि. ब. व. विकारात अरबिळारा जा. अड. 7.169 भूत त्रि [अरण्यभूत] जंगल हो चुका, वन में बदल चुका तं नपुं. प्र. वि. ए. व. दण्डकीरज्ञ कालिङ्गारज्ञ... मातङ्गारज्ञ अरअं अरসभूत ति म. नि. 2.47 - भूतभाव पु, वन बन जाना, जंगल के रूप में दिखलाई पड़ना वो प्र. वि. ए. क मज्झारज्ञस्स अरज्ञभूतभावो वेदितब्बो म. नि. अड. (म.प.) 2.63; - मास पु., तत्पु. स. [ अरण्यमाष]. जंगली उड़द का पौधा, जंगली उड़द का बीज या फल सा प्र. वि., ब.व. केणूति अरज्ञमासा, जा. अड. 5.402 लक्खण नपुं.. [ अरण्यलक्षण], जंगल का विशिष्ठ चिह्न, जंगल की पहचान का विशेष लक्षण, केवल स. प. के रूप में प्रयुक्त पञ्चधनुसतिक पच्छिमन्ति वुत्तअरज्ञलक्खणयोगतो अर
थेरगा. अट्ठ. 1.96; वग्ग पु., अ. नि. के एक वर्ग का शीर्षक, अ. नि. 2 (1) 204-206: वनपत्थ नपुं॰, द्व॰ स
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अरञ्जवास
557
अरञाराम
सदा ब. व. में ही प्रयुक्त [अरण्यवनप्रस्थ], क. जंगल एवं पठार में स्थित वन, ख. जंगलों एवं वनों में विद्यमान आश्रय-स्थल - नि प्र. वि., ब. व. - अरवनपत्थानि पन्तानि सेनासनानि, म. नि. 1.22; अञ्जवनपत्थानीति अरआनि च वनपत्थानि, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).119; अरञ्जवनपत्थानीति अरञकङ्गयुत्तताय अरानि, महावनसण्डताय वनपत्थानि, दी. नि. अट्ठ. 2.360; अरज्जवनपत्थानीति अरञ्जलक्खणप्पत्तानि वनपत्थानि, अ. नि. टी. 2.24. अरञवास 1. पु.. [अरण्यवास], क. वनवासी या वानप्रस्थजीवन, तपस्वी जीवन, भिक्षुभाव - सो प्र. वि. ए. व. - तस्स अञवासो न इज्झति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).144; अरञवासो नाम बुद्धादीहि वण्णितो थोमितो ति, थेरगा. अट्ट, 1.96; - सं द्वि. वि., ए. व. - अम्हाक अनुरक्खणत्थाय अरञवासं अनुजानि जा. अट्ठ. 1.138; - सेन तृ. वि., ए. व. - किं करिस्सामि अरञ्जवासेन, जा. अट्ट, 1.114; - स्स ष. वि., ए. व. - अरुञवासस्स पच्चयसम्पत्तिं दरसेति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).114; - से सप्त. वि., ए. व. - अरतिन्ति अरजवासे उक्कण्ठितत्तं. ध. प. अट्ठ. 2.413; - म्हि सप्त. वि., ए. व. - तस्मा अज्ञवासम्हि रतिं कयिराथ पण्डितोति, विसुद्धि. 1.72; 2 त्रि., ब. स., तापस जीवन बिताने वाला, वानप्रस्थ, वन में वास करने वाला साधक, वनवासी - सा पु., प्र. वि., ब. व. - अरञवासा अहेसुं... उत्तमत्थगवेसका, मि. प. 130; - वासी त्रि.. [अरण्यवासिन्], वन में निवास करने वाला, तपस्वी जीवन बिताने वाला - सिनो पु., प्र. वि., ब. व. - अरुञवासिनो पन दुब्बलमनुस्सा ... न सक्कोन्ति, म. नि. अट्ट (मू.प.) 1(2).137; - वासिको पु., प्र. वि., ए. व.. उपरिवत् - अरञवासिको एको तापसो झानलाभी, जा. अट्ठ. 1.286; - विहार पु.. [अरण्यविहार], क. वन में निवास - रेन त. वि., ए. व. - अत्तमनो होमि अरविहारेन, अ. नि. 2(2).57; ख. वन में विद्यमान आवास-गृह - स्स ष. वि., ए. व. - एकस्स अरविहारस्स पिट्ठिभागे पादे ..... पलिबुद्धो, जा. अट्ठ. 3.292; - सङ्गामगत त्रि., [अरण्यसंग्रामगत], जङ्गल में हो रहे युद्ध में पहुंचा हुआ - तो पु., प्र. वि., ए. व. - अरञसङ्गामगतो अवसेसधुतायुधो, । विसुद्धि. 1.72; - सज्ञा स्त्री., प्र. वि., ए. व. [अरण्यसंज्ञा]. शा. अ. वन में एकान्तसेवन से सम्बन्धित सोच-विचार, ला. अ. लगावरहित या अनासक्त जीवन की इच्छा,
अनासक्तिभाव के लिए संकल्प - मिगसूकरादिसद्देन अरञ्जसा उप्पज्जति, सु. नि. अट्ठ. 2.68; - अं द्वि. वि., ए. व. - अरञस येव मनसि करिस्सति एकत्तन्ति, अ. नि. 2(2).57; - य तृ. वि., ए. व. - अरअसआय चित्तं पक्खन्दति ... अधिमुच्चति, म. नि. 3.148; - सजी त्रि., [अरण्यसंज्ञिन], लगावरहित जीवन की इच्छा करने वाला, अनासक्तिभाव के लिए सुदृढ़ संकल्प करने वाला - चिनो पु, ष. वि., ए. व. -- विवेककामस्स अरअसचिनो, थेरगा. 110; - सत्थ पु., एक चक्रवर्ती राजा का नाम - त्थो प्र. वि., ए. व. - अरञसत्थो नामेन, चक्कवत्ती महब्बलो, अप. 1.281; - सामिक पु., तत्पु. स. [अरण्यस्वामिन], जंगल का स्वामी - मिका प्र. वि. , ब. व. - अरञसामिका एतेसं अनिस्सरा, पारा. अट्ठ. 1.274; - सुनख पु.. तत्पु. स., जंगली कुत्ता, भेड़िया - खो प्र. वि., ए. व. - एत्थ कोकोति अरञसुनखो, सद्द. 2.325; - सेनासन नपु., तत्पु. स. [अरण्यशयनासन], जंगल में बना निवास स्थान - नं द्वि. वि., ए. व. - तेनस्स परक्कमजवयोग्गभूमि अरञसेनासन दस्सेन्तो भगवा ..., पारा. अट्ठ2.12; - अस्स पु.. [अरण्याश्व], जंगली घोड़ा - स्सा प्र. वि., ब. व. - हत्थी अरञहत्थी अस्सा अरु अस्सा. म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.240. अरञानी स्त्री., [अरण्यानी], विशाल वन, बीहड़ जंगल, बड़ा जंगल, विस्तृत मरुभूमि - नियं सप्त. वि., ए. व. - ब्रहावनेति महारुक्खगच्छगहनताय महावने अरुआनियं ...., थेरगा. अट्ठ. 1.96. अरआयतन नपुं.. तत्पु. स. [अरण्यायतन]. वन में मौजूद (वन्य पशुओं अथवा तपस्वियों का) आश्रय-स्थल, वन्य निवासस्थली - नं प्र. वि., ए. व. - रमणीयं अरआयतनं ...... पे. व. अट्ठ. 36; - नानि द्वि. वि., ब. व. - भयभोगा
पटिविरता अरआयतनानि अज्झोगाहेत्वा, म. नि. 1.209; - तो प. वि., ए. व. - याजेय्याति सचे त्वं अरआयतनतो इसि लोमसकस्सपं आनेत्वा .... जा. अट्ठ. 3.454; - ने सप्त. वि., ए. व. - एकस्मिं अरआयतने फलानि खादन्तो वसति, जा. अट्ठ. 1.174. अरज्ञाराम त्रि., ब. स. [अरण्याराम], वनवासी जीवन में भरपूर आनन्द अनुभव करने वाला - मा पु., प्र. वि., ब. व. - बुद्धा हि नाम अरञज्झासया अरजारामा अन्तोगामे ..... म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.13.
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अरट्ठ 558
अरणीय अरट्ठ नपुं., रट्ट का निषे. [अराष्ट्र], राष्ट्र की स्थिति से वि., ए. व. - अरणिं मन्थेत्वा अग्गिं निब्बत्तेत्वा धूमं करिंसु. भिन्न, राष्ट्र से इतर -- टुं द्वि. वि., ए. व. - रष्टुं अरद्वमकसु. जा. 4.259; - णी वि. वि., ब. व. - अरणी फलपीठे च जा. अट्ठ. 5.349.
पत्तपिधानथालके, अप. 1.333; - नं ष. वि., ब. व. - द्विन्नं अरण त्रि०, ब. स. [अरण, भिन्नार्थक], क्लेशों से मुक्त, कट्ठानन्ति द्विन्न अरणीनं, स. नि. अट्ठ. 3.270; - क नपुं.. विशुद्ध - णो पु., प्र. वि., ए. व. - तस्मा एसो धम्मो अरणो, [अरणिक], लकड़ियों के घर्षण द्वारा आग उत्पन्न करने में म. नि. 3.286; - णा ब. व. - अरणा धम्मा, ध. स. 100%; उपयोगी उपकरण, अरणिधनुक- के सप्त. वि., ए. व. - तेनाकारेन नत्थि एतेसं रणाति अरणा, ध. स. अट्ठ. 973; अनापत्ति गण्ठिकाय, अरणिके, विधे... आदिकम्मिकस्साति, केसूध अरणा लोके, स. नि. 1(1).52; - णं द्वि. वि., ए. व. पाचि. 221; अरणिकति अरणिधनुके, पाचि. अट्ठ. 142; - - सन्तं समाधि अरणं निसेवतो, नेत्ति. 150.
धनुक नपुं., आग जलाने के लिए घूमती हुई अरणि अरणजह पु., 16 चक्रवर्ती राजाओं की उपाधि के रूप में लकड़ियों को सक्रिय रखने में प्रयुक्त धनुष - के सप्त. वि., प्रयुक्त - हा प्र. वि., ब. व. - सत्ततिसम्हितो कप्पे, सोळस ए. व. - अरणिकति अरणिधनुके, पाचि. अट्ठ. 142; - अरणजहा, अप. 1.206.
पोतक पु., दोनों अरणिकाष्ठों का एक छोटा भाग - को अरणविभङ्ग पु., तत्पु. स. 'अरण' का व्याख्यानात्मक विवेचन प्र. वि., ए. व. - अरणिपोतको न सिया, मि. प. 54; - ङ्गं द्वि. वि., ए. व. - अरणविभङ्गं वो... देसेस्सामि, म. अरणिपोतको सिया, तदे.;-मथनयोग पु.. [अरणिमथनयोग], नि. 3.279; - स्स ष. वि., ए. व. - अयमुद्देसो अरणविभङ्गरस, अरणि नामक लकड़ियों के घर्षण के काम में लगाव - गेन म. नि. 3.279; - सुत्त नपुं., म. नि. का एक सुत्त, जिसमें तृ. वि., ए. व. - योगयुत्तोति अरणिमथनयोगेन युत्तो हुत्वा, क्लेशों से विमुक्ति के उपाय का उपदेश प्राप्त होता है, म. जा. अट्ठ. 7.54; - णीयुगळ नपुं.. [अरणियुगल], ऊपर नि. 3.279-286.
तथा नीचे की दोनों अरणि नामक लकड़ियां - लं प्र. वि., अरणविहार पु., साधक के चित्त की वह शुद्ध अवस्था, ए. व. - अरणीसहितन्ति अरणीयुगळं दी. नि. अट्ठ. 2.361; जिसमें रहते हुए ध्यानों द्वारा मन के नीवरण, वितर्क, विचार अरणी युगळन्ति उत्तरारणी, अधरारणीति अरणीद्वयं, लीन. आदि को तथा धर्मों में अनित्य, दुःख और अनात्म की (दी.नि.टी.) 2.327; - योत्तक नपुं.. [अरणियोक्तृ], दोनों अनुपश्यना द्वारा नित्य, सुख एवं आत्मा की संज्ञाएं हर ली अरणि लकड़ियों को एक साथ बांध कर रखने वाली लकड़ी जाती हैं - रो प्र. वि., ए. व. - पठमेन झानेन नीवरणे - कं प्र. वि., ए. व. - अरणियोत्तकं न सिया, मि. प. 54; हरती ति अरणविहारो, पटि. म. 89; - रे सप्त. वि., ए. व. अरणियोत्तकं सिया, तदे; - णीसहित नपुं., आग उत्पन्न - कथं दस्सनधिपतेय्यं सन्तो च विहाराधिगमो करने वाली अरणि-नामक दो लकड़ियां - तं प्र./द्वि. वि., पणीताधिमुत्तता पजा अरणविहारे आणं, पटि. म. 89; -- ए. व. - अयं वासी इमानि कट्ठानि इदं अरणिसहितं. दी. आणनिद्देस पु, पटि. म. का एक परिच्छेद, जिसमें अरणविहार नि. 2.252; अरणीसहितन्ति अरणीयगळं दी. नि. अट्ठ. में साक्षात्करणीय ज्ञान पर प्रकाश डाला गया है, पटि. म. 2.361; - अरणिसहितं नीहरित्वा अग्गिं करोन्ति, जा. अट्ठ. 89-90.
1.209; - तानि ब. व. -- थविकतो अरणिसहितानि नीहरित्वा, अरणविहारी त्रि., क्लेशमुक्त या विशुद्ध चित्त के साथ म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).404; - तेन तृ. वि., ए. व. - विहार कर रहा साधक, अर्हत् - री पु., प्र. वि., ए. व. -- अरणिसहितेन अग्गिं निब्बत्तेत्वा ... अग्गिक्खन्धं कत्वा, ध. पुअरस खेत्तं अरणविहारी, पे. व. 549; - नं ष. वि., ब. प. अट्ट, 1.382; - हत्थ त्रि., ब. स. [अरणिहस्त]. अपने व. - एतदग्गं अरणविहारीनं यदिदं सुभूति, अ. नि. हाथों में अरणि नामक लकड़ियों के टुकड़ों को लिया हुआ 1(1).32.
-त्थेन पुत. वि., ए. व. - नामत्थमानोति नापि अरणिहत्थेन अरणि/अरणी पु./स्त्री., [अरणि, अरणी], आग उत्पन्न नरेन अमत्थियमानो निब्बत्तति, जा. अट्ट, 7.54; - णीनर करने वाली लकड़ी, शमी की लकड़ी के टुकड़े, जिनके पु., अरणियों को लिया हुआ भनुष्य - रेन तृ. वि., ए. व० घर्षण से आग जलाई जाती थी- यूपो थूणाय निम्मन्थ्यदारुम्हि - नामत्थमानो अरणीनरेन, जा. अट्ठ. 7.52. त्वरणी द्विसु, अभि. प. 419; तुल. अमर. 11.7; -णि पु.... अरणीय त्रि., अर का सं. कृ., प्राप्त करने योग्य, जाकर प्र. वि., ए. व. - अरणि न सिया, मि. प. 54; -णिं द्वि. पाने योग्य, प्राप्तव्य, साक्षात्कार किए जाने योग्य - यं नपुं.,
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अरत
559
अरन्तर
प्र. वि., ए. व. - तहि हेतुवसेन अरणीयं गन्तब्बं पत्तब्ध, विभ. अट्ट. 365; - तो प. वि., ए. व. - तं सब्बं अरणीयतो अत्थोति वुच्चति, खु. पा. अट्ठ. 191; सेदवकेन च लोकेन अरणीयतो बुद्धा च ... च वुच्चन्ति, स. नि. अट्ठ. 2.221; - त्त नपुं., भाव., प्राप्त करने योग्य होना, समीप पहुँचने योग्य होना - त्ता प. वि., ए. व. - सदेवकेन लोकेन अरणीयत्ता
अरिया, प. प. अट्ठ. 39. अरत त्रि., रिम के भू. क. कृ. का निषे. [अरत], नहीं रमा हुआ, आसक्ति या लगाव से मुक्त, राग से रहित - तो पु०, प्र. वि., ए. व. - निब्बनथो अरतो स हि भिक्खु, स. नि. 1(1).216; अरतोति तण्हारतिरहितो, स. नि. अट्ठ. 1.237. अरति ।अर (जाना) का वर्तः, प्र. पु., ए. व., जाता है, निष्पादित करता है - तं तं सत्तकिच्चं अरति वत्तेती ति
उतु, सद्द. 2.432. अरती' स्त्री., रति का निषे. [अरति], शा. अ. राग या तृष्णा का अभाव, लगाव या आसक्ति का अभाव, आनन्द के अनुभव का अभाव, मन का उचटाव या अनभिरुचि, ला. अ. विषयभोगों को पाने की उत्कण्ठा एवं कुशल धर्मों के प्रति अनुत्कण्ठा - रती प्र. वि., ए. व. - कच्चि तं एकमासीनं अरती नाभिकीरतीति, स. नि. 1(1).66; अरती नाभिकीरतीति उक्कण्ठिता नाभिभवति, स. नि. अट्ठ. 1.101%; अरतीति अकुसलपक्खा उत्कण्ठितता, स. नि. अट्ट, 1.33; भिय्यो नो अरती सिया, जा. अट्ठ. 3.142; - तिं द्वि. वि., ए. व. - एको रमे अरतिं विप्पहाया ति, स. नि. 1(1).209; उप्पन्नं अरति अभिभुय्य अभिभुय्य विहरेय्य न्ति, म. नि. 1.42; - या' तृ. वि., ए. व. - अरतिया यदिदं मुदिताचेतोविमुत्ती ति, अ. नि. 2(2).13; - या ष. वि., ए. व. - अरतिया पहानाय मुदिता भावेतब्बा, अ. नि. 2(2).147. अरति/अरती स्त्री., मार की एक पुत्री का नाम - ति/ती प्र. वि., ए. व. - तण्हा च अरति च रगा च मारधीतरो, स. नि. 1(1).146; तण्हा च अरती रगा, स. नि. 1(1).150; - तिं द्वि. वि., ए. व. - दिवान तण्हं अरति रगञ्च सु. नि. 841. अरतिस्सह त्रि., अरति या अनुत्कण्ठा को सहन करने वाला - हो पु., प्र. वि., ए. व. - धीरो हि अरतिस्सहो, अ. नि. 1(2).34; धीरो हि अरतिस्सहोति अरतिसहत्ता हि सो धीरो नाम, अ. नि. अट्ठ. 2.279. अरतिका/अरतिता स्त्री., अरति का भाव., रति या राग का न रहना, उत्कण्ठा या आसक्ति का अभाव होना आनन्द का अनुभव न करना - ता प्र. वि., ए. व. - अधिकुसलेसु
धम्मेसु अरति अरतिता अनभिरति ... उक्कण्ठिता, विभ. 403; अरतिताति अरमणाकारो, विभ, अट्ठ. 452. अरतिबहुल त्रि., ब. स. [अरतिबहुल], अरति या अनुत्कण्ठा के भाव से भरा हुआ, अत्यधिक अरति रखने वाला - स्स पु., ष. वि., ब. व. - मुदिता अरतिबहुलस्स.ध. स. अट्ठ. 240. अरतिरति स्त्री., द्व. स. [अरतिरति], अनासक्ति एवं आसक्ति, मन का बिलगाव और लगाव - न च म अरतिरति सहय्य, अ.नि. 3(2).110; - सह त्रि., अनासक्ति एवं राग दोनों को सहन करने में सक्षम - हो पु., प्र. वि., ए. व. - अरतिरतिसहो हि ... धीरो'ति, अ. नि. 1(2).33; अरतिरतिसहोति अरतिञ्च पञ्चकामगुणरतिञ्च सहति, अ. नि. अट्ठ. 2.279. अरतिवन्तु त्रि., [अरतिमत्], अरति या अनुत्कण्ठा से युक्त - तिवा पु.. प्र. वि., ए. व. - विहेसवा अस्स अरतिवा अस्स पटिघवा ... अनभावंकतो आयतिं अनुप्पादधम्मो, म. नि. 2.37. अरतिविघातपच्चुपट्ठान त्रि., ब. स., अरति या भोगों के प्रति अनुत्कण्ठा के विनाश से उदित होने वाला/वाली - ना स्त्री., प्र. वि., ए. व. - सत्तेसु पमोदनलक्खणा मुदिता ... अरतिविघातपच्चुपट्टाना सत्तानं सम्पत्तिदस्सनपदवाना, ध. स. अट्ठ. 237. अरतिवूपसम पु., तत्पु. स. [अरत्युपशम], अरति का उपशमन, अरति की समाप्ति - मो प्र. वि., ए. व. -
अरतिवूपसमो तस्सा सम्पत्ति, ध. स. अट्ठ. 237. अरत्त त्रि., रिज के भू. क. कृ. का निषे. [अरक्त]. शा. अ. नहीं रंगा हुआ, ला. अ. राग या लगाव से मुक्त, तृष्णा एवं आसक्ति से रहित - त्तो पु. प्र. वि., ए. व., - सो तत्थ अरत्तो तत्त अनभिरतो, अ. नि. 2(2).204; - त्ता स्त्री., प्र. वि., ए. व. - सा तत्थ अरत्ता तत्त अनभिरता, अ. नि. 2(2).203. अरथक त्रि., ब. स. [अरथक], बिना रथ वाला - को पु०, प्र. वि., ए. व. - अनस्सको अरथको दीघमद्धानमागतो, जा. अट्ठ. 7.274; अस्थको अयानको, तदे.. अरनेमि पू., एक ब्राह्मण आचार्य, एक धर्माचार्य - अरनेमि
च ब्राह्मणो, अ. नि. 2(2).83; अरनेमि नाम सत्था अहोसि, अ. नि. 2(2).82. अरन्तर नपुं.. [अरान्तर], रथ के अरों के बीच वाला अन्तराल - रानि प्र. वि., ब. व. - अरपि अरन्तरानिपि नेमियोपि. म. नि. अट्ठ (मू.प.) 1(2).152.
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अरमणट्ठान
560
अरहटघटियन्त
अरमणट्ठान नपुं., तत्पु. स. [अरमणस्थान], आनन्द का अनुभव न कराने वाला स्थान, मन को रमाने में अक्षम स्थान, सांसारिक मौजमस्ती न देने वाला स्थान - नं प्र. वि., ए. क. - कामगवेसकानं अरमणट्ठानमेव वीतरागानं रमणट्ठानं होती ति, ध. प. अट्ट, 1.359. अरमणाकार पु., तत्पु. स. [अरमणाकार], मौजमस्ती के न । होने की स्थिति, अनभिरुचि या असन्तुष्टि की अवस्था - रो प्र. वि., ए. व. - अरतिताति अरमणाकारो, विभ. अट्ठ. 452. अरवाळ पु., [बौ. सं. अरवाड], एक नागराज का नाम - ळो प्र. वि., ए. व. - कस्मीरगन्धारढे सरसपाकसमये अरवाळो नाम नागराजा करकवस्सं नाम वस्सापेत्वा ..., पारा. अट्ठ. 1.46. अरवालदह पु., हिमालय में स्थित एक जलाशय -- दहे सप्त. वि., ए. व. - अरवालदहे वारिपिटे चङ्कमणादिके, म. वं. 12.11. अरविन्द नपुं. [अरविन्द], कमल - सरोरुहं सतपत्तं अरविन्दं
च वारिजं. अभि. प. 684. अरस त्रि., ब. स. [अरस], रस-रहित, नीरस केवल स. प.
के पू. प. में ही प्राप्त -- जातिक त्रि., ब. स. [अरसजातिक], रुखे-सूखे स्वभाव वाला, नीरस प्रकृति का - को पु., प्र. वि., ए. व. - तस्मा अरसरूपो भवं गोतमो अरसजातिको अरससभावोति, पारा. अट्ट, 1.96; - पटिसंवेदी त्रि., [अरसप्रतिसंवेदिन], रस के स्वाद का संवेदन या अनुभव न करने वाला - दी पु., प्र. वि., ए. व. - अरसपटिसंवेदी तरमानो भुञ्जति, विसुद्धि. 1.104; - रूप त्रि., ब. स., रुखे-सूखे स्वभाव का, नीरस, असामाजिक - पो पु., प्र. वि., ए. व. - अरसरूपो भवं गोतमो ति, पारा. 2; - समाव त्रि०, ब. स. [अरसस्वभाव], उपरिवत् - पो पु.. प्र. वि., ए. व. - तस्मा अरसरूपो भवं गोतमो, अरसजातिको
अरससभावोति, पारा. अट्ट, 1.96. अरह/आरह त्रि., [अर्ह), योग्य, पात्र, अधिकारी, आदरणीय, उचित, उपयुक्त, क. निमि. कृ. के साथ - मणिं धारेतुमारहो, जा. अट्ठ. 7.23; धारेतुमारहो ति धारेतुं अरहो, तदे.; ख. ष. वि. ब. व. में अन्त होने वाले नपुं. नामों के साथ- बहुविविधा गिहीनं अरहानि, दी. नि. 3.123; अरहानीति बहू विविधानि गिहीनं अनुच्छविकानि । पटिलभति, दी. नि. अट्ठ. 3.107. अरह त्रि./पु., [अर्हत्]. क. त्रि., उपरिवत् - रहा पु. प्र. वि., ए. व. - अरहा भवं वत्तुं, सद्द. 3.862; ख. पु., आस्रवों
या चित्तमलों को पूरी तरह नष्ट कर चुका वह बौद्ध साधक, जिसने विशुद्धि के मार्ग को पार कर लिया है, अशैक्ष्य हो चुका है, लगभग बुद्धत्व की स्थिति तक पहुंच चुका है, स्रोतापन्न, सकृदागामी एवं अनागामी नामक तीन शैक्ष्य आर्य पुद्गलों की स्थिति से ऊपर वाली मानसिक विशुद्धि को पा चुका है तथा बुद्ध, श्रावक, प्रत्येक बुद्ध, सुक्खविपस्सक एवं समथयानिक जैसे विविध प्रभेदों में वर्णित है; श. रू. - रहं/रहा प्र. वि., ए. व. - यो वे अनरहं सन्तो, अरह पटिजानाति, सु. नि. 135; योपि सो, भिक्खवे, भिक्खु, अरह खीणासवो.... म. नि. 1.6; असुको भिक्खु अरहा, असुको भिक्खु तेविज्जो, पारा. 107; - हन्तं द्वि. वि., ए. व. - ... अरहन्तं जीविता वोरोपेय्य, म. नि. 3.111; - हता/न्तेन तृ. वि., ए. व. - ... तेन भगवता जानता परसता अरहता सम्मासम्बुद्धेन ..., दी. नि. 1.2; - हतो/हन्तस्स ष. वि., ए. व. - अपि नु खो, भन्ते, अरहतो अनादरियं होति, मि. प. 278; अञरस अरहन्तस्स आगमनं भवेय्य वा न वा भवेय्य, मि. प. 247; - हन्ते/हन्तम्हि सप्त. वि., ए. व. - अनेकभावो समुप्पादि अरहन्तेव दक्षिणा, दी. नि. 2.196; अभिप्पसादेहि मनं, अरहन्तम्हि तादिने, थेरगा. 1182; - हन्तो/हन्ता प्र. वि., ब. व. - अरहन्तो एते, भिक्खवे, भिक्खू, महाव. 112; अम्भो पुब्बे छ सत्थारो लोके'मयं अरहन्तम्हा ति विचरिंसु.ध. प. अट्ठ. 2.116; - हन्ते वि. वि., ब. व. - नेतं, महाराज, वचनं भगवता अरहन्ते उपादाय भणितं मि. प. 147; - हन्तेहि तृ. वि., ब. व. - अस्सादो वे समुदया अरहन्तेहि अपरे द्वे, स. नि. 2(1).96; - हतं/हन्तानं ष. वि०. ब. व. - अञ्जतरो खो पनायस्मा सेनियो अरहतं अहोसीति, म. नि. 2.61; नत्थि अरहन्तानं सतिसम्मोसो, मि. प. 248; - हन्तेसु सप्त. वि., ब. व. - यावकीवञ्च, लिच्छवी, वज्जीनं अरहन्तेसु धम्मिका .... अ. नि. 2(2).169. अरहग्गत त्रि., क. अर्हतों से सम्बन्धित, ख. सभी सम्मानों
को पाने योग्य त्रिरत्न के प्रति देय (सम्मान-भाव) - ग्गतं स्त्री., वि. वि., ए. व. - अरहग्गतं आयरमन्तो सति उपट्टापेथा ति, अ. नि. 2(1).244; अरहग्गतन्ति सबसक्कारानं अरहे रतनत्तयेव गतं. अ. नि. अट्ठ. 3.85, अरहटघटियन्त नपुं.. तत्पु. स. [अरघट्टघटीयन्त्र]. रहट, जिसमें लगे हुए डोलों (जल भरे डिब्बों) द्वारा कुएं से पानी निकाला जाता है - चक्कवट्टकन्ति अरहटघटियन्तं चूळव. अट्ठ. 52; अरहटघटियन्तं नाम सकटचक्कसण्ठानं अरे अरे
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अरहत्तफल
घटिकानि बन्धित्वा एकेन द्वीहि वा परिममियमानं यन्तं, सारत्थ. टी. 3.351. अरहति अरह का वर्त, प्र. पु., ए. व., द्वि. वि. में अन्त होने वाले नामों तथा निमि. कृ. के साथ प्रयुक्त [अर्हति], क. (सम्मान आदि को पाने के लिए) योग्य है, अधिकारी है, ख. (अन्य लोगों की) समानता पाने योग्य है, ग. म. पु. में, परामर्श या अनुरोध का सङ्केतक तथा 'चाहिए' अर्थ का प्रकाशक, घ. सक्षम है, पर्याप्त है - ते मारो वत्तुमरहति, सु. नि. 433; अपेतो दमसच्चेन, न सो कासावमरहति, ध. प. 9;-सि म. पु. ए. व. -- यथा खो त्वं आवुसो, पटिजानासि, अरहसि अनन्तजिनोति, महाव. 12; -- हामि उ. पु., ए. व. - तञ्चारहामि वत्तवे, जा. अट्ठ. 3.270; - हन्ति प्र. पु.. ब. व. - न इमे मम सरीरे उपयोगं अरहन्ति, ध. प. अट्ठ. 2.2; - हथ म. पु.. ब. व. - आम, महाराज, अरहथ भगवन्तं दव सा. वं. 34 (ना.); - हाम उ. पु., ब. व. - यथा मयमेव अरहाम तं समणं गोतम दस्सनाय उपसङ्कभितुं, म. नि. 2.385. अरहत्त' नपुं., अरहन्त की व्यु. को स्पष्ट करने के क्रम में प्रयुक्त, अरह का भाव. [अर्हत्व], योग्यता, सक्षमता, पात्रता - त्ता प. वि., ए. व. - तत्थ आरकत्ता अरीनं, अरानञ्च हतत्ता पच्चयादीनं अरहत्ता ... इमेहि ताव कारणेहि सो भगवा अरहन्ति वेदितब्बोति ....दी. नि. अट्ठ. 1.122-123; पारा. अट्ठ. 1.79; सु. नि. अट्ट. 2.147. अरहत्त नपुं.. अरहन्त का भाव. [अर्हत्व], अर्हत् की अवस्था, बुद्ध-चर्या के अनुयायी द्वारा प्राप्य चित्तविशुद्धि की सर्वोत्तम अवस्था, आस्रवों के क्षय के ज्ञान की स्थिति, अन्तिम आर्यफल की अवस्था - त्तं प्र. वि., ए. व. - अञआ तु अरहत्तं च, अभि. प. 436; विमुत्तिरतनं खो ... अरहत्तं वुच्चति, मि. प. 307; - त्तं द्वि. वि., ए. व. - पटिसम्भिदाहि अरहत्तं पापुणि, मि. प. 16; - त्ताय च. वि. ए. व. - भगवा अरहा चेव अरहत्ताय च धम्म देसेतीति, उदा. 76; - त्ता प. वि., ए. व. - तंपजाननो मग्गो मग्गसच्चन्ति चतुसच्चकम्मद्वानं अट्ठारसधातुवसेन... अरहत्ता मत्थक पापेत्वा ..., विभ. अट्ठ.67; - स्स ष. वि., ए. व. - भगवा अरहत्तस्स मच्छरायती ति, दी. नि. 3.5; अरहत्तस्सापि रागादीनं खयमत्तपसङ्गदोसापत्तितो, अभि. अव. 102; - त्ते सप्त. वि., ए. व. - तण्हक्खयरतोति अरहत्ते चेव निब्बाने च अभिरतो होति, ध. प. अट्ठ. 2.138; अरहत्ते वा सम्पक्खन्दति योगं करोति, मि. प. 33; - ग्गहण नपुं.. तत्पु. स. [अर्हत्वग्रहण],
अर्हत्व फल में स्थिति, अर्हत् की अवस्था की प्राप्ति - णं प्र. वि., ए. व. - अरहत्तग्गहणन्ति इदं विपस्सनाधुरं ध. प. अट्ठ. 1.5; -निकूट/कूट पु./नपुं.. अर्हत्व के फल को शीर्षस्थ बनाने वाली धर्मोपदेश-पद्धति, अर्हत्व फल में परिणत होने वाली धर्मदेशना - टेन तृ. वि., ए. व. - सत्था अरहत्तकूटेन देसनं निट्ठापेत्वा, जा. अट्ठ. 1.268%B अरहत्तनिकूटेनेव भगवा देसनं निट्ठापेसि. सु. नि. अट्ठ. 1.22; इमम्पि सुत्तं अरहत्तनिकूटेनेव देसेसि, सु. नि. अट्ठ. 2.282; - पटिवेध पु., तत्पु. स. [अर्हत्वप्रतिवेध], अर्हत्व का प्रतिवेधात्मक ज्ञानदर्शन, अर्हत अवस्था का आन्तरिक साक्षात्कार - धो प्र. वि., ए. व. - अरहत्तपटिवेधो नाम नत्थि, उदा. अट्ठ. 247; - परियाय पु., तत्पु. स. [अर्हत्वपर्याय], अर्हत्व को प्रकाशित करने वाली उपदेशपद्धति अथवा व्याख्यान-प्रकार - येहि तृ. वि., ब. व. - अरहत्तपरियायेहीति चतुसहिया कारणेहि अलङ्करित्वा, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).234; - प्पत्त त्रि., तत्पु. स. [अर्हत्वप्राप्त], अर्हत्-अवस्था को प्राप्त कर चुका (साधक) - त्तो पु., प्र. वि., ए. व. - आयस्मा अनुरुद्धो अरहत्तप्पत्तो तायं..., अ. नि. 3(1).67; - त्ता ब. व. - अरहत्तप्पत्ता पन एकन्तविप्पसन्नाव होन्तीति, ध. प. अट्ट, 1.333; - स्स ष. वि., ए. व. - अरहत्तप्पत्तस्स सुखं होति, ध. प. अट्ठ 1.302; - त्तानं ष. वि., ब. व. - अरहत्तप्पत्तानं पन नेसं ....अ. नि. 2(1).29; - प्पत्ति स्त्री., तत्पु. स. [अर्हत्वप्राप्ति, अर्हत् अवस्था अथवा अर्हत् फल की प्राप्ति - एवं याव अरहत्तप्पत्ति, सु. नि. अट्ठ. 2.193; - तिं द्वि. वि., ए. व. - मम सन्तिके अरहत्तप्पत्तिं व्याकरोति, अ. नि. 1(2).181; - या च. वि., ए. व. - देसेति धम्म अरहत्तपत्तिया, अप. 2.126; - निट्ठ त्रि., ब. स. [अर्हत्वप्राप्तिनिष्ठ], अर्हत्व की प्राप्ति में परिणत होने वाला - टुं नपुं., द्वि. वि., ए. व. - भिक्खुनो अरहत्तप्पत्तिनिट्ठ... सेनासनवत्तञ्च कथेन्तो, सु. नि. अट्ठ. 2.193. अरहत्तफल नपुं, तत्पु. स. [अर्हत्वफल], बुद्ध के आर्यमार्ग के पथिक द्वारा पाया जाने वाला चौथा और अन्तिम फल, अर्हत्व मार्ग पर चल रहे आर्य श्रावक द्वारा प्राप्य चरम फल, श्रमण-जीवन में प्राप्य चार आर्य फलों में से अन्तिम फल - लं प्र. वि., ए. व. - सोतापत्तिफलं सकदागामिफलं ...
अरहत्तफलं सुअत्तफलसमापत्ति... अप्पणिहितफलसमापत्ति, मि. प. 303; चत्तारि सामञफलानि - सोतापत्तिफलं, सकदागामिफलं, अनागामिफलं, अरहत्तफलं, दी. नि.
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अरहत्तमग्ग
562
अरहत्तमग्ग
3.182; - स्स ष. वि., ए. व. - अनागामिफलरस सच्छिकिरिया अरहत्तस्स सच्छिकिरिया, पारा. 114; - कामी त्रि., [अर्हत्वफलकामिन], अर्हत्व-फल की प्राप्ति के लिए दृढ़ संकल्प करने वाला - मिना पु.. तृ. वि., ए. व. - तथेव बुद्धपुत्तेन अरहत्तफलकामिना, मि. प. 341; - क्खण पु., तत्पु. स. [अर्हत्वफलक्षण]. अर्हत्व के फल में स्थित होने का क्षण, अर्हत्व-फल में स्थित आर्यपुदगल का चित्तक्षण - क्खणे सप्त. वि., ए. व. - अरहत्तफलक्खणे दस्सनं विसुद्ध, पटि. म. 97; - धम्म पु., तत्पु. स. [अर्हत्वफलधर्म], अर्हत्व का फल -- म्म वि. वि., ए. व. - सच्छिकरोति एकं धम्मन्ति एक अरहत्तफलधम्म निरोधमेव वा पच्चक्खं करोति, अ. नि. अट्ठ. 2.181; - पञा स्त्री., कर्म. स. [अर्हत्वफलप्रज्ञा], अर्हत्वफल को प्राप्त आर्यश्रावक की प्रज्ञा - समाधिविपस्सनापञआहि अरहत्तफलपआ उत्तरितरा, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.223; - विमुत्ति स्त्री., तत्पु. स. [अर्हत्वफलविमुक्ति], अर्हत्वफल में स्थित व्यक्ति द्वारा पाई गई विमुक्ति - एत्थ हि विमुत्तीति अरहत्तफलविमुत्ति, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.224; - विमोक्ख पु., तत्पु. स. [अर्हत्वफलविमोक्ष), उपरिवत् - क्खं द्वि. वि., ए. व. - नयेन कारणेन अरहत्तफलविमोक्खं आणफस्सेन फुसति, अ. नि. अट्ठ. 2.181; - सच्छिकिरिया स्त्री०, तत्पु. स. [अर्हत्वफलसाक्षात्क्रिया], अर्हत्वफल की साक्षात् अनुभूति - अरहत्तफलसच्छिकिरिया होती ति, अ. नि. 1(1).30; - य च. वि., ए. व. - एको धम्मो... अरहत्तफलसच्छिकिरियाय संवत्तती ति, अ. नि. 1(1).59; - समाधि पु., तत्पु. स. [अर्हत्वफलसमाधि], अर्हत्वफल से सम्बद्ध समाधि -- अरहत्तफलसमाधि नामेसो वुत्तो भगवताति अत्थो, अ. नि. अट्ठ. 3.278; - लाधिगम पु., तत्पु. स. [अर्हत्वफलाधिगम]. अर्हत्वफल की प्राप्ति - म लिङ्गविपर्ययवश, नपुं., प्र. वि., ए. व. - धम्मकामस्स विय
अरहत्तफलाधिगममनुत्तरं मि. प. 323. अरहत्तमग्ग पु., तत्पु. स. [अर्हत्वमार्ग]. स्रोतापत्ति, सकृदागामी, अनागामी एवं अर्हत्, इन चार लोकोत्तर अवस्थाओं की प्राप्ति में लगे हुए चार आर्य साधकों में से अन्तिम द्वारा ग्रहण किया गया वह मार्ग, जिसका अनुसरण कर रहा योगी पांच अपर-भागीय संयोजनों के क्षय के लिए प्रयत्नशील रहता है- ग्गो प्र. वि., ए. व. - अरहत्तमग्गोपि वट्टतियेव, दी. नि. अट्ठ. 1.181; सत्तविधं अनुपस्सनं भावेन्तस्स अरहत्तमग्गो उप्पज्जित्वा फलं देति, म. नि. अट्ट (मू.प.)
1(2).242; - ग्गं द्वि. वि., ए. व. - ये वत लोके अरहन्तो वा अरहत्तमग्गं वा समापन्ना, महाव. 45; - ग्गेन तृ. वि., ए. व. - अरहत्तमग्गेनेव हि सा अनवसेसं पहीयतीति, उदा. अट्ट. 39; पठमेन झानेन नीवरणे निरोधेति... अरहत्तमग्गेन सब्बकिलेसे निरोधेति, पटि. म. 93; - ग्गा प. वि., ए. व. - ... पट्ठाय याव अरहत्तमरगा सतत पवत्तकायिकचेतसिकवीरिया, ध, प. अट्ट, 1.131; - ग्गस्स ष. वि., ए. व. - अनुप्पन्नस्स अरहत्तमग्गरस उप्पादाय ..... पटि. म. 96; - क्ख ण पु., तत्पु. स. [अर्हत्वमार्गक्षण]. अर्हत्वमार्ग पर चल रहे साधक का चित्तक्षण - क्खणे सप्त. वि., ए. व. - अरहत्तमग्गक्खणे दस्सनं विसुज्झति, पटि. म. 97; - खन्ति स्त्री.. तत्पु. स. [अर्हत्वमार्गक्षान्ति], अर्हत्वमार्ग के क्षण की क्षान्ति या सहनशीलता -- पठमज्झानखन्ति नीवरणेहि सा ... अरहत्तमग्गखन्ति सब्बकिलेसेहि सुझा, पटि. म. 358; - चित्त नपुं., तत्पु. स. [अर्हत्वमार्गचित्त], अर्हत्वफल की प्राप्ति की ओर ले जाने वाले मार्ग के पथिक का चित्त या चित्तक्षण - त्तं प्र. वि., ए. व. - तेन सम्पयुत्तं चित्तं अरहत्तमग्गचित्तं, अभि. ध. स. 95; - जाण नपुं., तत्पु. स. [अर्हत्वमार्गज्ञान], अर्हत्वमार्ग में प्राप्त किया गया ज्ञान - णं प्र. वि., ए. व. - सब्बदुक्खक्खये आणं नाम अरहत्तमग्गेजाणं. म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.224; पाठा. ग्गे आणं; -- टु त्रि., [अर्हत्वमार्गस्थ], अर्हत्वमार्ग में स्थित, अर्हत्व-प्राप्ति के मार्ग पर पहुंचा हुआ - ट्ठा पु.. प्र. वि., ब. व. -- ... याव अरहत्तमग्गट्ठा छबिधो होति, अ. नि. अट्ट. 3.149; - पटिलाभ पु., तत्पु. स. [अर्हत्वमार्गप्रतिलाभ], अर्हत्वमार्ग की प्राप्ति - भो प्र. वि., ए. व. - सुओ ... अरहत्तमग्गपटिलाभो सब्बकिलेसेहि सुझओ, पटि. म. 357; - पटिवेध पु., तत्पु. स. [अर्हत्वमार्गप्रतिवेध], अर्हत्वमार्ग की गहराई तक जाकर प्रवेश - धो प्र. वि., ए. व. -- ... अरहत्तमग्गप्पटिवेधो सब्बकिलेसेहि सुओ, पटि. म. 357; - परिग्गह पु., तत्पु. स. [हत्वमार्गपरिग्रहण],
अर्हत्वमार्ग का भली-भांति ग्रहण - ग्गहो प्र. वि., ए. व. -- .... अरहत्तमग्गपरिग्गहो सब्बकिलेसेहि सुओ, पटि. म. 357; - परियोगाहण नपुं. तत्पु. स. [अर्हत्वमार्गपर्यवगाहन], अर्हत्व-मार्ग की गहराई तक जाकर डूब जाना, अर्हत्वमार्ग में निमग्न हो जाना - णं प्र. वि., ए. व. - ... अरहत्तमग्गपरियोगाहण सब्बकिलेसेहि सुझं पटि. म. 358; - फल नपुं., तत्पु. स. [अर्हत्वमार्गफल]. अर्हत्वमार्ग द्वारा
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अरहत्ताधिगम 563
अरहन्त प्राप्य फल, केवल स. प. के अन्त. प्रयुक्त - अरहत्तासन्नगत त्रि., तत्पु. स. [अर्हत्वासन्नगत्], अर्हत् अभिञाकुसलञ्चेति अरहत्तमग्गफलवज्जितसब्बारम्मणानि, अवस्था के समीप पहुंचा हुआ - तो पु., प्र. वि., ए. व. - अभि. ध. स. 22; - वज्झक त्रि., अर्हत्वमार्ग में बाधक, अरहत्तासन्नगतोति अरहति उपासको ... अभिवादे पच्चद्वातुं अर्हत्वमार्ग में बाधा खड़ी करने वाला - को पु., प्र. वि., मि. प. 161. ए. व. - मानोति अरहत्तमग्गवज्झको मानो एव, ध. स. अरहत्तुप्पत्ति स्त्री., तत्पु. स. [अर्हतुत्पत्ति], अर्हत्व का अट्ट. 281; - विज्जा स्त्री., [अर्हत्वमार्गविद्या], अर्हत्वमार्ग उदय या प्रादुर्भाव - पटिपाटिया पन... पूरेचाव अरहत्तुप्पत्तीति में प्राप्त ज्ञान - य ष. वि., ए. व. - विज्जुप्पादाति ____ अत्थो, उदा. अट्ठ. 247. अरहत्तमग्गविज्जाय उप्पादेन, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) अरहत्तूपनिस्सय पु., [अर्हत्वोपनिःश्रय], अर्हत्व का 1(2).243; - ग्गाधिट्ठान नपुं. तत्पु. स. आधारभूत लक्षण, अर्हत्व की आधारभूत पात्रता - अन्तोघटे [अर्हत्वमार्गाधिष्ठान], अर्हत्वमार्ग पर पहुंचने के लिए किया पदीपो विय तस्सा हदये अरहत्तूपनिस्सयो जलति, जा. गया दृढ़ संकल्प - नं प्र. वि., ए. व. - सुझं... पे. ..... अट्ट. 1.149. अरहत्तमग्गाधिद्वानं सब्बकिलेसेहि सुझं, पटि. म. 358; - अरहद्धज क. पु., तत्पु. स. [अर्हद्ध्वज], किसी अर्हत् का ग्गेकत्त नपुं.. तत्पु. स. [अर्हत्वमार्गेकत्व]. अर्हत्वमार्ग में विशिष्ट चिह्न, अर्हत् द्वारा धारण किया जाने वाला चीवर विद्यमान एकत्व - त्तं प्र. वि., ए. व. - अरहत्तमग्गेकत्तं अथवा काषायवस्त्र -- जं द्वि. वि., ए. व. - अजेगुच्छ चेतयतो सब्बकिलेसेहि सुझं पटि. म. 358; - ग्गेसना विमुत्तेहि सुरत्तं अरहद्धज, थेरगा. 961; अरहन्तानं बुद्धादीनं स्त्री., तत्पु. स. [अर्हत्वमार्गेषणा], अर्हत्वमार्ग पर पहुंचने चिण्णताय अरहद्धजं जिगुच्छिस्सन्ति कासावं, थेरगा. अट्ट. की इच्छा -- अरहत्तमग्गेसना सब्बकिलेसेहि सा, पटि. 2.310; - जे सप्त. वि., ए. व. - आभते अरहद्धजे गहितमत्तेयेव म. 357; - वग्ग पु., क. स. नि. के एक वर्ग का शीर्षक, ... राजगहं पत्वा, अ. नि. अट्ठ. 1.116; ख. त्रि.. ब. स., स. नि. 2(1).68-75; ख. अ. नि. के एक वर्ग का शीर्षक, काषाय-वस्त्रों या चीवरों को धारण करने वाला, अर्हत - अ. नि. 2(2).131-135; - विमोक्ख पु., [अर्हत्वविमोक्ष), अरहद्धजो सभि अवज्झरूपोति, जा. अट्ट, 5.43; अरहद्धजो अर्हत्व अवस्था की प्राप्ति द्वारा प्राप्य विमोक्ष या मुक्ति - नाम सभि पण्डितेहि अवज्झरूपो, जा. अट्ठ. 5.44. क्खो प्र. वि., ए. व. - अजाविमोक्खं पब्रहीति अझाविमोक्खो अरहन्त पु.. [अर्हत], चित्त के क्लेशों को नष्ट कर चुका वुच्चति अरहत्तविमोक्खो ..., चूळनि. 141; - ब्याकरण क्षीणास्रव अर्हत् - न्तानं ष. वि., ब. व. - अरहन्तानं नपुं., तत्पु. स., अर्हत्व की प्राप्ति से सम्बन्धित निर्वचन या वण्णेन अमनुस्सा पाणं हनन्ति ... पे.... अदिन्नं आदियन्ति, व्याख्या - णानि प्र. वि., ब. व. - अज्ञाब्याकरणानीति कथा. 502; - घात पु., ष, वि., ए. व. [अर्हद्घात], अर्हत् अरहत्तब्याकरणानि, अ. नि. अट्ट. 3.41; - संखात त्रि., की हत्या - तदभावे अरहन्तघातो, अ. नि. अट्ठ. 1.342; - [अर्हत्वसंखात], अर्हत्व नामक, अर्हत्व नाम से ज्ञात - तं घातक त्रि., तत्पु. स. [अर्हद्घातक]. अर्हत् की हत्या पु., द्वि. वि., ए. व. - मग्गामग्गस्स कोविदं अरहत्तसङ्घातं करने वाला - अरहन्तघातको ... अनुपसम्पन्नो न उत्तमत्थं ..., ध. प. अट्ठ. 2.381.
उपसम्पादेतब्बो, महाव. 112; -- स्स पु., ष. वि., ए. व. - अरहत्ताधिगम पु., तत्पु. स. [अर्हत्वाधिगम], अर्हत् अवस्था न पितघातकस्स ... पे.... न अरहन्तघातकस्स... पे....., की प्राप्ति - तो प. वि., ए. व. -- सा च अरहत्ताधिगमतो महाव. 178; - भूमि स्त्री., तत्पु. स., अर्हत्व की स्थिति, ओरं वेदितब्बा, सु. नि. अट्ठ. 2.193.
अर्हत्व की अवस्था - सो तेसं धम्मानं अनूनत्ता परिपुण्णत्ता अरहत्ताधिमान पु., तत्पु. स. [अर्हत्त्वाभिमान], अपने अर्हत् ... असेक्खभूमि अरहन्तभूमि ओक्कमति, मि. प. 161; - होने का अभिमान -- नो प्र. वि., ए. व. - किलेसानं वग्ग पु., क.ध. प. का एक वर्ग, जिसमें अर्हतों से सम्बद्ध असमुदाचारतो अरहत्ताधिमानो उप्पज्जतीति, उदा. अट्ठ, 66. गाथाएं संगृहीत हैं, ध. प. 24-25; ख. स. नि. के एक वर्ग अरहत्तानिसंस त्रि., अर्हत्व को लाभकारी बतलाने वाला, का शीर्षक, स. नि. 1(1).187-200; - वाद पु., तत्पु. स., अर्हत्व के लाभ का प्रशंसक - सो पु., प्र. वि., ए. व. - 'अर्हत्' कहकर सम्बोधन, 'अर्हत्' कह कर पुकारना - देन अरहत्तानिसंसो भिक्खु अरहत्तं पत्थेन्तो झायी भवेय्य.... स. तृ. वि., ए. व. - अयञ्च ब्राह्मणो अम्हे अरहन्तवादेन नि. अट्ठ. 1.94.
समुदाचरति, पारा. 138; - वादपटिसंयुत्त त्रि., तत्पु. स.
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अरहरूप
564
अरिट्ठ
[अर्हत्ववादप्रतिसंयुक्त], 'अर्हत् कह कर पुकारने की आदत अरहोपेक्खा अञविहिताति न रहो अस्सादापेक्खा रहो वाला, 'अर्हत्' सम्बोधन से युक्त - त्तं नपुं.. प्र. वि. ए. व. अरसादतो अञविहिताव हुत्वा .... पाचि. अट्ठ. 191. - यकिञ्चि वदन्तो अरहन्तवादपटिसंयुत्तमेव वदति, ध. प. अराग त्रि., [अराग], राग से रहित, आसक्ति या लगाव से अट्ठ. 2.362; - सजी पु.. [अर्हत्संज्ञिन्]. अर्हत् समझने ___ मुक्त - सो अरागो अदोसो अमोहो... कालं करिस्सति, म. वाला - अयं अम्हेसु अरहन्तसञी ति चिन्तयिंसु. ध. प. नि. 1.32. अट्ठ. 2.362; - न्तूपसहित त्रि., [अर्हदुपसंहित], अर्हतों अराज' राज के अद्य. का प्र. पु., ए. व.. महाराज शब्द के से सम्बन्धित, अर्हत्-विषयक-हिता स्त्री., प्र. वि., ए. व. निर्वचनक्रम में प्रयुक्त, प्रभासित हुआ, सुशोभित हुआ - महि - बुद्धपसम्हिता ... अरहन्तूपसम्हिता काम्पसम्हिता, दी. अराज महाराजा ति च छेदो, सद्द. 2.346. नि. 2.195.
अराज' पु., राज का निषे. [अराजन्], अशासक, अनृपतिअरहरूप त्रि., ब. स. [अर्हरूप], योग्य प्रकृति से युक्त, ओ ष. वि., ए. व. - तुरहं पन अरोपि सतो उपयुक्त अथवा उदात्तस्वरूप वाला - तो प. वि., ए. व. ___ अधिवासनभारो जातो, जा. अट्ठ. 2.174. - ... सारेतु निरन्तरं पवत्तेतुं अरहरूपतो सरितब्बभावतो च ___ अराजक त्रि., ब. स. [अराजक], बिना राजा वाला - कं साराणीय, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).117.
नपुं., द्वि. वि., ए. व. - सोपि न अराजकं चक्कं वत्तेतीति, अरहसजी त्रि., रहसञी का निषे. [अरहःसंज्ञिन]. अरहस्यमय अ. नि. 2(1).141; अराजक रज्जन वट्टति, अ. नि. अट्ठ. या अगुप्त रूप में जानने वाला, एकदम खुले रूप में या 1.136; - के सप्त. वि., ए. व. - अरुओति अराजके सुञ स्पष्ट रूप में जानने वाला - चिनो पु., ष. वि., ए. व. जा. अट्ठ. 5.68. - अनन्धे सति वि स्मि ठितस्सारहसचिनो, विन. वि. अराजिक त्रि., ब. स. [अराजक], बिना राजा वाला - कं 547.
नपुं., प्र. वि., ए. व. - नग्ग रष्टुं अराजिक जा. अट्ठ. अरहस्स त्रि., ब. स. [अरहस्य], छिपा कर न रखने वाला, 7.265; - का स्त्री., प्र. वि., ए. व. - संवच्छरं तदा आसि उन्मुक्त, खुला हुआ - स्सं पु.. द्वि. वि., ए. व. - पुरिसं तम्बपण्णि अराजिका, दी. वं. 11.11. विवट पाकट अकिरियं अरहस्सं रहस्सकामा परिवज्जेन्ति, अराति पु.. [अराति], शत्रु, बैरी - अमित्तो रिपु वेरी च मि. प. 276; - कारी त्रि. [अरहस्यकारी], लुक-छिप कर सपत्तोराति सत्त्वरी, अभि. प. 344. काम न करने वाला - रिना पु., तृ. वि., ए. व. - ... अरि पु.. [अरि]. शत्रु - खेम यहिं तत्थ अरी उदीरितो, जा. अरहस्सकारिना भवितब्बं, मि. प. 105; - वचन नपुं.. कर्म. ___ अट्ठ. 1.450; - रिं द्वि. वि., ए. व. - दुद्वचित्तो वसमागतं स. [अरहस्यवचन], ऐसा वचन, जो किसी से भी छिपाए अरिं जा. अट्ठ. 5.451; तं अरिं मद्दनिपाति भूरिपा , जाने योग्य न हो- नं प्र. वि., ए. व. - तिण्णं सन्निपाता पटि. म. 369; - री प्र. वि., ब. व. - अरी असेसा दमथं गब्भस्स अवक्कन्ति होती ति असे सवचनमेतं ... उपेन्ति, दी. नि. अट्ठ. 2.191; - रीनं ष. वि., ब. व. - अरहस्सवचनमेतं. मि. प. 128...
अरीनं वा हतत्ता अरह, उदा. अट्ठ. 67. अरहित त्रि., अरह का भू. क. कृ. [अर्हित], सम्मानित, अरिकारिविहार पु., श्रीलङ्का के एक प्राचीन विहार का नाम पूजित, सत्कृत - अपचायितो च महितो पूजितारहिताच्चिता. - रे सप्त. वि., ए. व. - अरिकारिविहारे च पटिसंखासि अभि. प. 750.
जिण्णक, चू. वं. 49.32. अरहो अ, क्रि. वि., रहो का निषे. [अरहः]. अगुप्त या । अरिञ्चमान त्रि.. रिञ्च के वर्त. कृ. का निषे०, रिक्त या अरहस्यमय रूप में, दूसरों से बिना छिपाए हुए - अरहो खाली न करता हुआ, नहीं छोड़ता हुआ, नहीं त्यागता हुआ अरहोसञ्जी, पारा. 88; अरहो रहोसञ्जीनिदेसादीसु अरहोति - नो पु., प्र. वि., ए. व. - पटिसल्लानं झानमरिञ्चमानो, सम्मुखे, पारा. अट्ठ. 2.46; - पेक्ख त्रि.. ब. स., रहस्यमयता सु. नि. 69; एवमेतं पटिसल्लानञ्च झानञ्च अरिञ्चमानो. की इच्छा न करने वाला, किसी बात को गुप्त रखने की सु. नि. अट्ठ. 1.98. इच्छा न करने वाला - क्खा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - अरिट्ठ' पु./नपुं.. [अरिष्ट], क. मादक तरल पेय, मादक अनापत्ति यो कोचि विझू दुतियो होति अरहोपेक्खा । शराब, आसव - @ो प्र. वि., ए. व. - यो अरिष्टो मज्जन अञविहिता सन्तिट्ठति वा सल्लपति वा, पाचि. 367; होति, तस्मिं अनापत्ति, पाचि. अट्ठ. 115; अरिठ्ठो आसवे
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अरिट्ठ
565
अरित्त
काके... च पेणिलवमे, अभि. प. 822; - टुं द्वि. वि., ए. व. अतेकिच्छा अनिवत्तिनो अरिष्टकण्टकसदिसा, म. नि. अट्ठ. - अमज्जं अरिष्टुं पिवति, पाचि. 150; ख. जंगली कौआ - (म.प.) 2.88. अरिहो आसवे काके निम्बे च पेणिलद्दुमे, अभि. प. 822; अरिट्ठकथा स्त्री., विन. वि. के एक खण्ड का शीर्षक, विन. एत्थ 'काको धको वायसो बलिभोजी अरिहो ति इमानि वि. 137-138. काकाभिधानानि, सद्द. 2.325; ग. रीठे का पेड़ - अरिदट्ठो अरिट्ठजनक पु., महाजनक का पुत्र, मिथिला का राजा - फणिलो भवे, अभि. प. 555; घ. नीम का पेड़ - निम्बो रो अच्चयेन अरिट्ठजनको राजा हुत्वा .... जा. अट्ठ. अरिष्टो सुचिमन्दी, अभि. प. 570.
6.38. अरिट्ठ' नपुं.. [अरिष्ट]. क तर्क, तोड़ - तक्के मरणलिङ्गे अरिद्वपुर नपुं., सिविरट्ट में अवस्थित एक नगर - रं द्वि. च अरिद्वभसुभे सुभे, अभि. प. 822; ख. मरण का चिह्न, वि., ए. व. - वातवेगेन सिविरटे अरिद्वपुरं नाम गन्चा दुर्भाग्य का चिह, उपरिवत्, ग. अशुभ, दुर्भाग्य, उपरिवत्; .... जा. अट्ठ. 6.246. घ. शुभ, सुख, सौभाग्य, उपरिवत्.
अरिहसिक्खापद नपुं., अरिट्ठ नामक एक भिक्षु के अनुचित अरिट्ठ' पु., क. अनेक व्यक्तियों के नाम के रूप में प्राप्त 1. आचरण को पाचित्तिय नामक आपत्ति (अपराध) प्रज्ञप्त एक प्रत्येकबुद्ध - अरिद्वो उपरिठ्ठो तगरसिखी यसस्सी, म. करने वाला शिक्षापद, पाचि. 178-182. नि. 3.115; 2. एक भिक्षु - आयस्मा अरिद्वो भगवतो अरित्त' त्रि., रिञ्च के भू. क. कृ. का निषे. [अरिक्त], नहीं पच्चस्सोसि, स. नि. 3(2).385; 3. एक नाग - तस्स। खाली किया हुआ, अव्यर्थ, विपाक से अशून्य, अमुक्त - त्तो अरिद्वोति नाम करिंसु ... चत्तारो पुत्ते विजायित्वापि पु., प्र. वि., ए. व. . कामेहि अरित्तो होति, स.नि. नागभवनभावं न जानाति, जा. अट्ठ. 7.11; 4. श्रीलङ्का के 2(1).11; किलेसकामेहि अरित्तो होति अन्तो कामानं भावेन राजा देवानम्पिय तिस्स के भतीजे तथा भिक्ष महेन्द्र के शिष्य अतुच्छो, स. नि. अठ्ठ. 2.229; - ज्झान त्रि., ब. स. एक अमात्य का नाम - टुं द्वि. वि., ए. व. - अमच्च [अरिक्तध्यान], ध्यान को नहीं छोड़ा हुआ - ज्झानो पु०, सेनापतिं अरिष्टुं सालं च परंचपब्बतं. दी. वं. 11.32; ख. प्र. वि., ए. व. - भिक्खु अरित्तज्झानो विहरति ... अनेक स्थानों या क्षेत्रों के नाम के रूप में प्राप्त 1. श्रीलङ्का ओवादपतिकरो, अ. नि. 1(1).13; अरित्तज्झानोति के एक पर्वत का नाम - युद्ध सज्जा अरिष्टुं तं उपसङ्कम्म अतुच्छज्झानो अपरिच्चत्तज्झानो, अ. नि. अट्ठ. 1.55; - ता पब्बतं. म. वं. 10.64; 2. श्रीलङ्का के एक विहार का नाम स्त्री., भाव. [अरिक्तता], नहीं खाली कर देना, नहीं त्याग - अरिद्वविहारं कारेसि तथा कुञ्जरहीनक, म. वं. 33.27. देना, मुक्त न होना - य तृ. वि., ए. व. - आसयस्स अरिद्वक' त्रि., अरिट्ठ (1ग) से व्यु. [अरिष्टक], रीठे के कड़े अरित्तताय अनिग्गते... दुक्खाहि वेदनाहि फुट्ठो, उदा. अट्ठ. फल के समान कृष्ण वर्ण वाला, रीठा जैसे काले रङ्ग का । 93. - को पु.. प्र. वि., ए. व. - सेय्यथापि नाम महा अरिटको अरित्त' नपुं.. [अरित्र], नौकाओं को आगे बढ़ाने में प्रयुक्त मणि ..., स. नि. 1(1).123; अरिटकोति काळको, स. नि. पतवार, डांड या लंगर - त्तं प्र. वि., ए. व. - अरित्तं अट्ठ. 1.150; अरिखकोति अरिखकवण्णो, लीन. (स. नि. केनिपातोथ अभि. प. 667; तुल. अमर. 1.10; तत्थ अरीयति टी.) 1.177.
तेन नावाति अरित्तं पाजनदण्डी, विसुद्धि. महाटी. 1.310; - अरिहक' पु., ब. व. में ही प्राप्त, देवताओं का एक वर्ग- त्तेन तृ. वि., ए. व. - विना अरित्तेन न सक्का ठपेतु, का प्र. वि., ब. व. - अरिखका च रोजा च उमापुप्फनिभासिनो, विसृद्धि. 1.185; यो पन... थेय्यचित्तो अरित्तेन वा फियेन वा दी. नि. 2.191; अरिद्वका च रोजा चाति अरिट्ठकदेवा च पाजेति, पाराजिक, पारा. अट्ठ 1.266; - बल नपुं.. तत्पु. स. रोजदेवा च, दी. नि. अट्ठ. 2.254.
[अरित्रबल], लङ्गर या पतवार की शक्ति - लेन तृ. वि., अरिट्ठकण्डकसदिस त्रि., तत्पु. स. [अरिष्टकण्टकसदृक]. ए. व. - सेय्यथापि नाम अपरिसण्ठितजलाय सीघसोताय दुखदायक कांटों जैसा, असौभाग्यदायक या पीड़ाप्रद कांटों नदिया अरित्तबलेनेव नावा तिट्ठति, विसुद्धि. 1.185; सरीखा - सो पु., प्र. वि., ए. व. - सत्तमे बुद्धानम्पि अरित्तबलेनाति पाजनदण्डबलेन, विसुद्धि. टी. 1.203; - अतेकिच्छो अनिवत्ती अरिष्टकण्डकसदिसो होति. म. नि. तूपत्थम्मन नपुं., तत्पु. स., लंगर द्वारा (नौकाओं का) अट्ठ. (उप.प.) 3.98; - सा ब. व. - सत्तमे बुद्धानम्पि ठहराव या आगे बढ़ने से विराम करा देना -- नवसेन तृ.
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अरिन्दम
566
अरिय
वि., ए. व. - अरित्तूपत्थम्भनवसेन चण्डसोते नावाठपनमिव. पारा. अट्ठ. 1.22. अरिन्दम' त्रि., राजाओं अथवा आयुधों की उपाधि के रूप में प्रयुक्त [अरिंदम], शत्रुओं का दमन करने वाला, शत्रुओं को पराभूत कर देने वाला - मो पु., प्र. वि., ए. व. - अरिं दमेती ति अरिन्दमो, क. व्या. 527; दायको ससराजा व नरिन्दोरिन्दमो विय, सद्धम्मो. 276; - म पु., संबो., ए. व. - आतिं पस्सेमुरिन्दम जा. अट्ठ. 5.348; - मं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अरिन्दम नाम नराधिपस्स, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.162. अरिन्दम' पु.. व्य. सं., क. महासम्मत के वंशज एक सौ राजाओं में सबसे अन्तिम राजा - तेसं पच्छिमको राजा अरिन्दमो नाम खत्तियो, दी. वं. 3.15; ख. शिखी बुद्ध के समय का एक बोधिसत्व - अहं तेन समयेन, अरिन्दमो नाम खत्तियो, बु. वं. 22.9; ग. शिखी बुद्ध के समय का वाराणसी का एक राजा - नामग्गहणदिवसे चस्स अरिन्दमकुमारो ति नाम करिंसु, जा. अट्ठ. 5.236; घ. एक चक्रवर्ती राजा - एकतालीसकप्पम्हि एको आसिं अरिन्दमो, अप. 1.95. अरिभू पु., केवल भूरी के व्यु. निर्वचनक्रम में प्रयुक्त, शत्रुओं को अभिभूत कर देने वाला - एत्थ पन गोत्रभूति पदमिव अरिभूति वत्तब्बेपि ..., सद्द. 1.82. अरिभूत त्रि., [अरिभूत], शत्रु हो चुका, बैरी बन चुका - ते । नपुं.. वि. वि., ब. व. - कम्मट्ठानहाने पतिढापेत्वान चित्तमरिभूते .... सद्धम्मो. 493. अरिमद्दननगर नपुं., म्यां मां के शासक अनुरुद्ध की। राजधानी - रे सप्त. वि., ए. व. - सो च... अरिमद्दननगरे अनुरुद्धेन नाम रुञा समकालवसेन रज्जसम्पत्ति अनुभवि, सा. वं 23. अरिमद्दनराज पु., अरिमद्दन नगर का राजा - जिनो ष. वि., ए. व. - इच्चामच्चे समाहूय अरिमद्दनराजिनो, चू, वं. 76.38. अरिमद्दनवासी त्रि., अरिमद्दन नगर में निवास करने वाला - सिनो पु, ष. वि., ए. व. - पेसेतवान नरिन्दस्स
अरिमद्दनवासिनो, चू. वं. 80.6. अरिमद्दविजयग्गाम पु., श्रीलङ्का का एक प्राचीन गांव - मग त्रि, अरिमद्दन गांव गया हुआ/गई हुई-गं स्त्री., वि. वि., ए. व. - तथारिमद्दविजयग्गामगं मातिकं पिच .... चू. वं. 79.56. अरिय त्रि., [आर्य], क, व्यक्ति के सन्दर्भ में - आदरणीय, उच्चकुलीन, पूरी तरह से विशुद्ध चित्त वाला (बुद्ध, प्रत्येकबुद्ध
या अर्हत्) क्लेशमुक्त, उदात्त, प्रणीत, स्रोतापन्न, सकृदागामी, अनागामी एवं अर्हत् - यो पु, प्र. वि., ए. व. - सोतापन्नादिके अग्गे अरियो तीसु द्विजे पुमे, अभि. प. 1002; अरियो दस्सनसम्पन्नो, स लोकं भजते सिवन्ति, सु. नि. 115; पराभवसङ्घाते अनये न इरियतीति अरियो, येन दस्सनेन याय पञआय पराभवे दिस्वा विवज्जेति तेन सम्पन्नत्ता दस्सनसम्पन्नो, सु. नि. अट्ठ. 1.137-138; अरियो अनरियं कुबन्तं जा. अट्ठ. 2.233; - यं नपुं. प्र. वि., ए. व. - यावता आनन्द अरियं आयतनं महाव. 304; अरियं परमं सीलं. दी. नि. 1.157; अरियन्ति निरुपक्किलेसं परमविसुद्ध दी. नि. अट्ट, 1.267; - येन पु., तृ. वि., ए. व. - अरियेन वेदेनाति सुन्दरेन पटिलाभेन, जा. अट्ठ. 3.233; - याय स्त्री., तृ. वि., ए. व. - अरियाय जातिया जातो, म. नि. 2.313; - स्स पु., ष. वि., ए. व. - दिठ्ठधम्मसुखविहारा एते अरियस्स विनये वुच्चन्ति, म. नि. 1.51; अरियरस विनये बुद्धस्स भगवतो सासने वुड्डि नाम, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.109; अरियस्स अरियेन समेति सख्य, जा. अट्ठ. 5.489; अरियस्साति आचारअरियरस, तदे; - या पु., प्र. वि., ब. व. - अमोसधम्म निब्बानं तदरिया सच्चतो विदू, सु. नि. 763; यं परे सुखतो आहु, तदरिया आहु दुक्खतो, सु. नि. 767; - येमि पु., तृ. वि., ब. व. - सुखं दिहमरियभि, सक्कायस्स निरोधनं ... सब्बलोकेन परसतं, स. नि. 2(2).131; को नु अञत्र अरियेभीति ठपेत्वा अरिये को नु अञो निब्बानपदं जानितुं अरहति, स. नि. अट्ठ, 3.45; - यानं पु., ष. वि., ब. व. - अरियानं उपवादका ... मिच्छादिट्टिकम्मसमादाना, पारा. 5; - येसु पु., सप्त. वि., ब. व. - कालेन दिन्नं अरियेसु उजुभूतेसु तादिसु, अ. नि. 2(1).37; ख. त्याग, मार्ग, धर्म आदि उत्तम अमूर्त भावों के सन्दर्भ में - उत्तम, प्रणीत, उदात्त - यो पु., प्र. वि., ए. व. - परमो अरियो चागो, म. नि. 3.294; अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो, खु. पा. 3; - यं पु., द्वि. वि., ए. व. - अरियं चट्ठङ्गिकं मग्गं, ध, प. 191; अरियं लोकुत्तरं धम्म पुरिसस्स सन्धनं पञपेमि, म. नि. 2.398; - येन पु., तृ. वि., ए. व. - अरियेन इन्द्रियसंवरेन समन्नागतो, दी. नि. 1.62; - स्स पु., ष. वि., ए. व. - अरियरस... पञ्चङ्गिकस्स सम्मासमाधिस्स भावनं देसेस्सामि, अ. नि. 2(1).21; अरियरसाति विक्खम्भनवसेन पहीनकिलेसेहि आरका ठितरस, अ. नि. अह. 3.10; - ये पु., सप्त. वि., ए. व. - अरिये पथे कममानं महेसिं, सु. नि. 179; अरिये पथेति अनिके
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अरिय
567
अरियचङ्कम
मग्गे, सु. नि. अट्ठ. 1.185; - या' पु.. प्र. वि., ब. व. - अरिया निय्यानिका सम्बोधगामिनोति उपगन्तब्बढेन अरिया, सु. नि. अट्ठ. 2.200; - या स्त्री., प्र. वि., ए. व. - इद्धि अनासवा अनुपधिका अरिया ति वच्चति, दी. नि. 3.83; - याय' स्त्री., ष. वि., ए. व. - अरियाय ... पञआय अननुबोधा अप्पटिवेधा एवमिदं ..., दी. नि. 2.93; - याय' स्त्री., तृ. वि., ए. व. - सत्ता सुपरिहीना ये अरियाय परिहीना, इतिवु. 26; वड्डीहि वड्डमाना अरियसाविका अरियाय वड्डिया वड्डति, स. नि. 2(2).244; - यं नपुं, प्र. वि., ए. व. - अरियं उच्चासयनमहासयन, अ. नि. 1(1).210; - येन नपुं., तृ. वि., ए. व. - अरियेन आणेन .... अ. नि. 2(2).150; अरियेनाति निद्दोसेन लोकुत्तरसीलेन, अ. नि. अट्ठ. 3.145; - स्स नपुं., ष. वि., ए. व. - अरियस्स सीलस्स अननुबोधा ... ममं चेव तुम्हाकञ्च, दी. नि. 2.93; -- स्मिं नपुं., सप्त. वि., ए. व. - वसिप्पत्तो पारमिप्पत्तो अरियस्मि सीलस्मि, म. नि. 3.77; - यानि नपुं., प्र. वि.. ब. व. - अरियानि सच्चानीतिपि अरियसच्चानि विसुद्धि. 2.122. अरिय' पु., एक प्रत्येकबुद्ध - केतुम्भरागो च मातझो अरियो, म. नि. 3.116. अरिय पु., एक मछुआरा - यं द्वि. वि., ए. व. - एक अरियं नाम बालिसिकं आरब्भ कथेसि, ध. प. अट्ठ. 2.228; - बालिसिकवत्थु नपुं., अरिय नामक मछुआरे का कथानक, ध. प. अट्ठ. 2.228-229. अरिय नपुं.. आर्यभाषा, उत्तम एवं सभ्य भाषा - यं द्वि. वि., ए. व. - अरियं बुवानो वक्कङ्गो, जा. अट्ठ. 5.357; अरियन्ति
सुन्दरं निहोस, तदे.. अरियक त्रि., अरिय से व्यु. [आर्यक], आर्य या उत्तम जनों से सम्बन्धित (जन्म भाषा आदि), मागधी भाषा, म्लेच्छों से । भिन्न उत्तम जनों से सम्बद्ध - कं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अरियक नाम अरियवोहारो मागधभासा, पारा. अट्ठ. 1.203; - केन नपुं.. तृ. वि., ए. व. - अरियकेन मिलक्खस्स सन्तिके सिक्खं पच्चक्खाति, पारा. 30; ... अरियकेनाति
आदिमाह .... पारा. अट्ठ. 1.203. अरियकन्त त्रि., तत्पु. स. [आर्यकान्त], आर्यों या उत्तम ज्ञानी जनों के लिए प्रिय (शील), विशुद्ध चित्त वाले उत्तम जनों द्वारा इच्छित - न्तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अरियकन्तं पसंसितं, थेरगा. 507; अरियकन्तन्ति अरियानं कन्तं पियायितं भवन्तरेपि अविजहनतो .... थेरगा. अट्ठ. 2.131; - न्तानि ब. व. -- अरियकन्तानि सीलानि तेसं अग्गमक्खायति, अ.
नि. 2(1).31; - न्तेहि नपुं., तृ. वि., ब. व. - अरियकन्तेहि सीलेहि समन्नागतो होति, दी. नि. 2.74%; अरियकन्तेहीति अरियानं कन्तेहि पियहि मनापेहि दी. नि. अट्ठ. 2.120; - न्तेसु नपुं.. सप्त. वि., ब. व. -- अरियकन्तेसु सीलेसु परिपूरकारिनो, अ. नि. 2(1).31; अरियकन्तेसु सीलेसु परिपूरकारिता, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).321. अरियकमनुस्स पु., केवल ब. व. में प्राप्त, आर्य जाति वाले मनुष्य, आर्यदेशवासी मनुष्य - स्सानं ष. वि., ब. व. - अरियकमनुस्सानं ओसरणहानं नाम अत्थि, दी. नि. अट्ट. 2.117; अरियकमनुस्सानन्ति अरियदेसवासिमनस्सानं, लीन. (दी. नि. टी.) 2.123. अरियकरधम्म पु., कर्म. स. [आर्यकरधर्मन], आर्य बना देने वाला आचरण या ज्ञान, आर्य बना देने वाली बातें - म्मानं ष. वि., ब. व. - अरियकरधम्मानं अरियभावस्स च अदिद्वत्ता ..., स. नि. अट्ठ. 2.222. अरियकोटिय त्रि., अरियकोटि नामक क्षेत्र में रहने वाला, स. प. के अन्तर्गत प्राप्त - तिद्वति अरियकोटियवासीमहादत्तत्थेरो विय, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).169; अरियकोटियमहादत्तो अमनुस्सभयेन गतोति वचनतो
लज्जामि, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).170. अरियगण पु., तत्पु. स. [आर्यगण], उत्तम या उदात्त जनों का समूह, ब्राह्मणों का समूह - णे सप्त. वि., ए. व. - कदाहं अरियगणे च वतवन्ते अलङ्कते, जा. अट्ठ. 6.59; अरियगणेति बाह्मणगणे ते किर तदा अरियाचारा अहेसं. जा. अट्ठ. 6.64; - णा प्र. वि., ब. व. - कदास्सु में अरियगणा, जा. अट्ट, 6.62. अरियगब्भ पु., तत्पु. स. [आर्यगर्भ], उत्तम जनों का जन्म, आर्यजनों का उदय - मं द्वि. वि., ए. व. - अरियगब्भ वड्डेमी ति एक कुलपुत्तं अत्तनो सन्तिके पब्बाजेत्वा ..., अ. नि. अट्ट, 1.208. अरियगरहित त्रि., तत्पु. स. [आर्यगर्हित], उत्तम जनों द्वारा निन्दित - तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - अनरियन्ति अरियगरहितं सब्बं असुन्दरं अपरिसद्ध कम्मं परिवज्जयाम, जा. अट्ठ. 4.48. अरियगोत्त नपुं.. तत्पु. स. [आर्यगोत्र]. आर्यों का गोत्र या कुलनाम - त्तं प्र. वि., ए. व. - ... अरियगोत्तमभिसम्भोन्तञ्च पवत्तति, अभि. ध. स. 68. अरियचङ्कम पु.. [आर्यचंक्रम], आर्यों के समान चंक्रमण -
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अरियचित्त
568
अरियधम्म
फलसमापत्तिन्हि... वृद्वितस्सापि चङ्कमादयो अरियचङ्कमादयो, अ. नि. अट्ठ. 2.168. अरियचित्त त्रि., ब. स. [आर्यचित्त], उत्तम चित्त वाला, विशुद्ध चित्त वाला - स्स पु., प. वि., ए. व. - अरियचित्तस्स
अनासवचित्तस्स अरियमग्गसमङ्गिनो अरियमग्गं भावयतो ...., म. नि. 3.119. अरियजनसेवित त्रि., तत्पु. स. [आर्यजनसेवित], आर्यजनों द्वारा सेवन किया गया - तं नपुं., वि. वि., ए. व. - अरियकन्तं अरियजनसेवितमेव असंकिलिटुं सुखं नामकायेन पटिसंवेदेति तस्मा, ध. स. अट्ट, 219. अरियाण नपुं.. कर्म. स. [आर्यज्ञान], यथार्थ का ग्रहण कराने वाला ज्ञान, अर्हत् अवस्था प्राप्त होने पर उत्पन्न ज्ञान - अरियसावकस्स अरियाणं उप्पन्न होति, स. नि. 3(2).303; - दस्सन नपुं., [आर्यज्ञानदर्शन], उत्तम ज्ञान एवं दर्शन, यथार्थ या सत्य का ग्रहण कराने वाला ज्ञान एवं आन्तरिक दर्शन - अरियं विसद्ध उत्तम आणदस्सनन्ति
अरियाणदस्सनं, पारा. अट्ठ. 2.73. अरियञ्जस पु., आर्यों का सीधा सपाट मार्ग - जसा प्र. वि., ब. व. - अरियवंसा अरियतन्तियो.... अरियजसा ...
सुत्तन्तं विनिवदे॒त्वा, अ. नि. अट्ठ. 2.279. अरियट्ठ पु.. तत्पु. स. [आर्यार्थ], आर्य शब्द का अर्थ या तात्पर्य, विशुद्ध अर्थ- अरियट्ठो नाम परिसुद्धहोति परिसुद्धतापि अरिया, पु. प. अट्ठ. 39. अवमङ्गल त्रि., ब. स. [अवमङ्गल]. मङ्गलरहित, अशुभ, अनिष्ट, अप्रिय - लं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - मङ्गलकिच्चेसु समणदस्सनं अवमङ्गलन्ति एवंदिष्टिको, सु. नि. अट्ठ. 1.140; -- भूत त्रि., अवृद्धिभूत, अमङ्गल से परिपूर्ण - ता स्त्री., प्र. वि., ए. व. - अवभूतावाति अवडिभूता अवमङ्गलभूतायेव, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.318. अरियतन्ति स्त्री., तत्पु. स., आर्यों की परम्परा की कतार, आर्य वंश, श्रेष्ठ जनों की अविच्छिन्न परम्परा - न्ति प्र. वि., ए. व. - एवं अयम्पि अट्ठमो अरियवंसो अरियतन्ति अरियपवेणी नाम होति, अ. नि. अट्ठ. 2.268; दी. नि. अट्ठ. 3.173; - न्तियो ब. व. - इमे चत्तारो अरियवंसा अरियतन्तियो
अरियपवेणियो अरियञ्जसा, अ. नि. अट्ठ. 2.279. अरियदेवता स्त्री., कर्म./तत्पु. स., ब. व. में ही प्राप्त [आर्यदेवता], क. श्रेष्ठ या उत्तम देवता, ख. आर्यजनों के देवता - अरियदेवता चिन्तयिंसु- एकिस्सा लोकधातुया वे बुद्धा नाम नत्थि, दी. नि. अट्ठ. 2.247.
अरियदेसवासी त्रि., [आर्यदेशवासिन]. आर्य-देश का निवासी - सिमनुस्स पु., तत्पु. स. [आर्य-देशवासी मनुष्य], आर्य देश में निवास करने वाला मनुष्य - स्सानं ष. वि.. ब. व. - अरियकमनुस्सानन्ति अरियदेसवासिमनुस्सानं, लीन. (दी.नि.टी.) 2.123. अरियदेसीस पु., तत्पु. स. [आर्यदेशेश], आर्य देश का स्वामी या शासक - सो प्र. वि., ए. व. - वीरो अरियदेसी
सो वीरदेवो ति पाकटो, चू. वं. 61.36. अरियदेही त्रि., [आर्यदेहिन्]. आर्य व्यक्ति, स्रोतापन्न, सकृदागामी, अनागामी एवं अर्हत्, इन चार अवस्थाओं में पहुंचा हुआ व्यक्ति- हिनं पु., ष. वि., ब. व. - पुथुज्जनानं तिण्णम्पि, चतुन्नं अरियदेहिनं, अभि. अव. 48.. अरिद्दस/अरियद्दस त्रि., [आर्यद्रक], चार आर्यसत्यों एवं निर्वाण का साक्षात्कार करने वाला व्यक्ति - सा पु., प्र. वि.. ब. व. - अरियद्दसा वेदगुनो, सम्मदाय पण्डिता, इतिवु. 67; अरियं निब्बानं, अरियं चतुसच्चमेव वा दिट्ठवन्तोति
अरियद्दसा, इतिवु. अट्ट. 261. अरियधन नपुं., कर्म. स. [आर्यधन]. शा. अ. उत्तम धन, ला. अ. श्रद्धा, शील, ही, अपत्राप्य, श्रुत, त्याग एवं प्रज्ञा का धन - नं प्र. वि., ए. व. - नेतं समणसारुप्पं न एतं अरियद्धनं, थेरीगा. 344; महन्तं खो पनेतं सत्थु दायज्ज, यदिदं सत्तअरियधनं नाम, तं न सक्का कुसीतेन गहेतुं, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).305; -- नानं ष. वि., ब. क. - सद्धाधनं सीलधनं हिरिधनं ओत्तप्पधनं सतधनं चागधनं पञाधनन्ति इमेसं सत्तन्नं अरियधनानं. ... ... विसुद्धि. महाटी. 2.456; - दायज्ज नपुं. तत्पु. स. [आर्यधनदायाद्य], श्रद्धा आदि उत्तम संपत्तियों की धरोहर - ज्ज द्वि. वि., ए. व. - एवं कुसीतोपि इदं अरियधनदायजंन लभति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).305. अरियधम्म' पु.. तत्पु./कर्म. स. [आर्यधर्म]. बुद्ध द्वारा उपदिष्ट उत्तम धर्म, आर्य अष्टाङ्गिक मार्ग, उत्तम अवस्था की ओर ले जाने वाला धर्म, आर्य बनाने वाला धर्म - म्मो प्र. वि., ए. व. - ... इमिना येसं अञो अरियधम्मो नत्थि, तथागते पन सद्धामत्तं पेममसत्तमेव होति. म. नि. अट्ट. (मू.प.) 1(2).25; - म्मं द्वि. वि., ए. व. - परोवरं अरियधम्म विदित्वा, सु. नि. 355; अरियधम्मन्ति चतुसच्चधम्म सु. नि. अट्ठ. 2.75; - म्मेन तृ. वि., ए. व. -- यमरियधम्मेन पुनन्ति बुद्धा, जा. अट्ट, 4.69; - स्स ष. वि., ए. व. - अरियधम्मस्स अकोविदोति सतिपट्टानादिभेदे अरियधम्मे अकसलो, ध. स.
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अरियधम्म
569
अरियपरियेसना
अट्ठ. 380; - म्मे सप्त. वि., ए. व. - एतं अनुसरं मच्चो, अरियधम्मे ठितो नरो, अ. नि. 1(2).80; - पकासिका स्त्री., तत्पु. स., प्र. वि., ए. व. [आर्यधर्मप्रकाशिका], उत्तम धर्म को प्रकाशित करने वाली - सुञतापटिसंयुत्ता, अरियधम्मप्पकासिका, थेरगा. अट्ठ. 1.2; - पदट्ठान नपुं.. उत्तम धर्म का सबसे निकटवर्ती या समीपी कारण - नानि प्र. वि., ब. व. - सब्बानेव च लोलुप्पविद्धंसनरसानि, निल्लोलुप्पभावपच्चुपट्टानानि अप्पिच्छतादिअरियधम्मपदट्ठानानि, विसुद्धि. 1.59; अरियधम्मपदद्वानानीति परिसुद्धसीलादिसद्धम्म पदट्ठानानि, विसुद्धि. महाटी. 1.84; एतं यथावुत्तपरिग्गहवत्थु सद्धादिधनं विय अरियधम्ममयम्पि धनं न होति, थेरीगा. अट्ट, 266; - लामिभाव पु., तत्पु. स. [आर्यधर्मलाभित्व], आर्यजनों अथवा अर्हतों के धर्मों के लाभ प्राप्त होने की अवस्था - वं द्वि. वि., ए. व. - एसो भिक्खु अत्तनो अलाभिभावञ्च अरियधम्मलाभिभावञ्च अत्तनाव अकासि, जा. अट्ठ 1.232; - विपाक पु., तत्पु. स. [आर्यधर्मविपाक, स्रोतापत्ति आदि चार आर्यमार्गों पर विद्यमान आर्यपुद्गल का विपाक - को प्र. वि., ए. व. - तत्थ अरियधम्मविपाकोति मग्गसङ्घातस्स अरियधम्मस्स विपाको, कथा. अट्ट, 198; - विपाककथा स्त्री., कथा. के 7वें वर्ग की एक कथा का शीर्षक, कथा. 296-297; - सन्निस्सित त्रि, तत्पु. स. [आर्यधर्मसन्निश्रित], स्रोतापत्ति आदि लोकोत्तर मार्ग पर आधारित धर्म से जुड़ा हआ - तं स्त्री., वि. वि., ए. व. - एवं मं जनो सम्भावेस्सती ति अरियधम्मसन्निस्सितं वाचं भासति, महानि. 164; अरियधम्मसन्निस्सितन्ति लोकत्तर धम्मपटिबद्ध, महानि. अट्ठ. 269; - सवन नपुं.. तत्पु. स. [आर्यधर्मश्रवण], लोकोत्तर धर्म का सुनना - नं नपुं., प्र. वि., ए. व. - सो अरियधम्मस्सवनं आगम्म योनिसोमनसिकारं धम्मानुधम्मप्पटिपत्तिं असंसट्ठो विहरति, दी. नि. 2.158. अरियधम्म त्रि., ब. स. [आर्यधर्मन्], आर्यधर्म अथवा बुद्ध के लोकोत्तर मार्ग का अनुसरण करने वाला - म्मं पु.. द्वि. वि., ए. व. -- तमरियधम्म कुसला वदन्ति, सु. नि. 789; - म्मो पु., प्र. वि., ए. व. - तस्स तं अकत्थन अरियधम्मो एसोति बुद्धादयो खन्धादिकुसला वदन्ति, सु. नि. अट्ठ. 2.216... अरियनिसेवित त्रि., तत्पु. स. [आर्यसेवित]. वह, जिसका व्यावहारिक प्रयोग अर्हत् आदि आर्यजन करते हैं, आर्यजनों द्वारा आचरित या सेवित - तं स्त्री., द्वि. वि., ए. व. - इति सन्तं समापत्ति, इमं अरियनिसेवितं, विसुद्धि. 2.350; अरियेहि एव निसेवितब्बता अरियनिसेवितं, विसुद्धि. महाटी. 2.498.
अरियन्वयसम्भूतकुमार पु., कर्म. स. [आर्यान्वयसम्भूतकुमार], आर्यवंश में उत्पन्न राजकुमार - रेन तृ. वि., ए. व. - अरियन्वयसंभूतकुमारेन सहामुना? चू. वं. 63.15. अरियपञा स्त्री., तत्पु. स. [आर्यप्रज्ञा], आर्यजनों अथवा मार्गस्थ एवं फलस्थ आर्यश्रावकों की प्रज्ञा, विशुद्ध प्रज्ञा, निर्मल प्रज्ञा - य तृ. वि., ए. व. - सद्दहाना अरहतं, अरियपाय झायिनो, इतिवु. 79; अरियपञआयाति सुविसुद्धपाय, इतिवु. अट्ठ. 297. अरियपटिपदा स्त्री., कर्म. स./तत्पु. स. [आर्यप्रतिपत्], क. उत्तम या श्रेष्ठ मार्ग, ख. आर्यजनों द्वारा गृहीत मार्ग - इमानि अरियपटिपदानि पूरेन्तो, म. नि. अट्ट, (म.प.) 2.4; पाठा. पटिपदानि में लिङ्ग-विपर्यय, अरियपटिविद्ध त्रि.. तत्पु. स. [आर्यप्रतिविद्ध], बुद्धों एवं अर्हतों द्वारा गहराई तक प्रवेश कर खोजा गया - द्धानि नपुं., प्र. वि., ब. व. - अरियसच्चानीति अरियभावकरानि,
अरियपटिविद्धानि वा सच्चानि, अ. नि. अट्ठ. 2.158. अरियपथ पु., कर्म. स./तत्पु. स. [आर्यपथ]. क. उत्तम लोकोत्तर मार्ग, ख. बुद्धों एवं अर्हतों द्वारा गृहीत मार्ग, ग. आर्य बनाने वाला मार्ग - थे सप्त. वि., ए. व. - एसोहि धम्मो सुमुख, यं त्वं अरियपथे ठितो, जा. अट्ठ. 5.355; अरियपथे तिरियं निपतित्वा महाजनस्स अहिताय दुक्खाय पटिपन्नो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1.(2)201. अरियपरियेसनसुत्त नपुं.कुछ संस्करणों में म. नि. के एक सुत्त का शीर्षक, जिसमें भगवान् बुद्ध ने गृहत्याग के उपरान्त ज्ञान-प्राप्ति के लिये स्वयं द्वारा किये गए प्रयासों का तथा बोधिज्ञान की प्राप्ति आदि का वर्णन किया है, अनेक संस्करणों में इसी सुत्त को पासरासिसुत्त नाम दिया है, द्रष्ट. पासरासिसुत्त के अन्त., म. नि. 1.219-235; वित्थारो पन साट्ठकथानं अरियपरियेसनपबज्जसुत्तादीनं वसेन वेदितब्बो, ध. स. अट्ट, 82. अरियपरियेसना स्त्री., कर्म. स./तत्पु. स. [आर्यपर्येषणा], क. उत्तम पद या निर्वाण की खोज, ख. बुद्धों एवं अर्हतों आदि आर्यजनों द्वारा की जा रही शान्तपद की तलाश - ना प्र. वि., ब. व. - चतस्सो इमा, भिक्खवे, अरियपरियेसना, अ. नि. 1(2).284; - ना प्र. वि., ए. व. - अथ भगवा अयं तुम्हाकं परियेसना अरियपरियेसना नामा ति दस्सेतुं इमं देसनं आरभि, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).73.
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अरियपरिहार
570
अरियभाव
अरियपरिहार पु., तत्पु. स., आर्यजनों को प्राप्त विशेष सुविधा या सम्मान, आर्यजन की विशेष देखभाल - रेन तृ. वि., ए. व. - एकपस्से अरियपरिहारेन पठमतरं न्हायित्वा पच्चुत्तरित्वा ठितो, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.199; अरियपरिहारेनाति अरियानं परिहारेन अनागामीनं न्हानकाले अत्तनो कायस्स परिहारनियामेनाति अत्थो, म. नि. टी. (म.प.) 2.135. अरियपवेणी स्त्री., तत्पु. स. [आर्यप्रवेणी], आर्य-वंश, आर्यों की कुल परम्परा - णी प्र. वि., ए. व. - एवं अयम्पि अट्ठमो अरियवंसो अरियतन्ति अरियपवेणी नाम होति, दी. नि. अट्ठ 3.173; अ. नि. अट्ठ. 2.268; -णियो ब. व. - इमे चत्तारो अरियवंसा अरियतन्तियो अरियपवेणियो अरियजसा, अ. नि. अट्ट, 2.279. अरियपुग्गल पु., कर्म. स. [आर्यपुद्गल]. उत्तम प्रकृति का व्यक्ति, बुद्ध के लोकोत्तर मार्ग में प्रविष्ट तथा फलस्थ स्रोतापन्न, सकृदागामी, अनागामी और अर्हत् - ला प्र. वि., ब. व. - कतमो च पुग्गलो अरियो? अट्ठ अरियपुग्गला अरिया, पु. प. 120; सब्बेपि अरियपुग्गला अरिये विमोक्खे असमया विमुत्ता, पु. प. 17; द्वे पुग्गला अभब्बा सञ्चिच्च आपत्तिं आपज्जितु-भिक्खू च भिक्खुनियो च अरियपुग्गला, परि. 239; - लेन तृ. वि., ए. व. - येन अरियपुग्गलेन अरियमग्गसेतुना सब्बो दिट्ठिपङ्को संसारपङ्को .... उदा. अट्ठ. 144; - लानं ष. वि., ब. व. - पाणं घातेस्सामी ति अरियपुग्गलानं चित्तम्पि नुप्पज्जतीति, ध. स. अट्ठ. 149; - विभाग पु., तत्पु. स. [आर्यपुद्गलविभाग], श्रद्धानुसारी, श्रद्धाविमुक्त कायसाक्षी, उभतः भागविमुक्त, धर्मानुसारी, दृष्टिप्राप्त तथा प्रज्ञाविमुक्त इन सात शीर्षकों में आर्यपुद्गलों का विभाजन - यं पन वुत्तं सत्तअरियपुग्गलविभागाय पच्चयो होती ति, तत्थ सद्धानुसारी, सद्धाविमुत्तो कायसक्खि .... इमे ताव सत्त अरियपुग्गला ..., विसुद्धि. 2.295-96. अरियपुथुज्जन पु.. द्व. स. [आर्यपृथग्जन], ज्ञानसम्पन्न । स्रोतापन्न से अनागामि तक आर्यजन तथा अविद्या से ग्रस्त साधारण जन - ना प्र. वि., ब. व. - गणनावीतिवत्ता ते संसारियपुथुज्जना, म. वं. 5.113; - नेहि तृ. वि., ब. व. - सब्बेहि पि अरियपुथुज्जनेहि भिक्खूहि उपसम्पदमालके आदितो व चत्तारि अकरणीयानि आचिक्खितब्बानीति .... सा.व. 143. अरियप्पत्त त्रि., तत्पु. स., पृथग्जन की अवस्था से ऊपर उठकर स्रोतापत्ति आदि आर्यजनों की अवस्था को प्राप्त
व्यक्ति - त्ता प्र. वि., ब. व. - भिक्खू इमस्मिं भिक्खुसङ्के अरियप्पत्ता विहरन्ति, अ. नि. 1(2).212; अरियप्पत्ताति पृथुज्जनभावं अतिक्कम अरियभावं पत्ता, अ. नि. अट्ठ. 2.361. अरियप्पवेदित त्रि., तत्पु. स. [आर्यप्रवेदित], आर्यजनों द्वारा सिखलाया गया या ज्ञान कराया गया - ते पु., सप्त. वि., ए. व. - अरियप्पवेदिते धम्मे, सदा रमति पण्डितो, ध. प. 79; धम्मे च ये अरियप्पवेदिते रता, अनुत्तरा ते वचसा मनसा कम्मुना च, जा. अट्ठ. 3.390. अरियफल नपुं. तत्पु. स. [आर्यफल]. स्रोतापत्ति, सकृदागामी, अनागामी एवं अर्हत् मार्ग पर स्थित आर्यजन द्वारा प्राप्त स्रोतापत्तिफल, सकृदागामिफल, अनागामिफल एवं अर्हत्वफल, श्रमणजीवन के चार लोकोत्तर फल - लं प्र. वि., ए. व. - अरियफलन्ति हि सोतापत्तिफलादि सामञफलं वच्चति, विसुद्धि. 2.339; - लेन तृ. वि., ए. व. - अरियफलेन निब्बानं सच्छिकरोन्तो धीरा पण्डिता ताय विपाकफुसनाय फुसन्ति, ध. प. अट्ट, 1.131; आभिसमाचारिकवत्तन्हि पूरेन्तोयेव अरियफलादीनि सच्छिकरोति, ध. प. अट्ठ. 2.90; -- पटिलाभकरत्त नपुं., भाव. [आर्यफलप्रतिलाभकरत्व], आर्यफलों अथवा स्रोतापत्ति आदि श्रामण्यफलों का प्रतिलाभ कराने वाला होना-त्ता प. वि., ए. व. - अरियो अट्ठङ्गिको मग्गोति तंतमग्गवज्झकिलेसहि आरकत्ता अरियभावकरत्ता अरियफलपटिलाभकरता च अरियो, उदा. अट्ट. 249; - रसानुभवन नपुं, तत्पु. स. [आर्यफलरसानुभवन], आर्यफलों के रस का अनुभव करना - वं प्र. वि., ए. व. -- अरियफलरसानुभवनन्ति न केवलञ्च किलेसविद्धसनओव, अरियफलरसानुभवनम्पि पञ्जाभावनाय आनिसंसो, विसुद्धि. 2.339. अरियभाव पु., तत्पु. स. [आर्यभाव]. स्रोतापन्न, सकृदागामी, अनागामी एवं अर्हत्व की अवस्था - वं द्वि. वि., ए. व. - अरियप्पत्ताति पुथुज्जनभावं अतिक्कम्म अरियभावं पत्ता, अ. नि. अट्ठ. 2.361; --वाय च. वि., ए. व. - ... अरियभावाय समत्थोति वुत्तं होति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).334; - वे सप्त. वि., ए. व. - न अलमरियाति अरियभावे असमत्था. दी. नि. अट्ठ. 3.42; - कर त्रि., [आर्यभावकर], आर्यभाव अथवा स्रोतापत्ति आदि की अवस्था को उत्पन्न करने वाला - रानि नपुं., प्र. वि., ब. व. - अरियसच्चानीति अरियभावकरानि, अरियपटिविद्धानि वा सच्चानि, अ. नि. अट्ठ. 2.158; अवितथभावेन सच्चानि चाति अरियं सच्चानि,
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अरियभूमि
अरियभावकरानि वा सच्चानि अरियसच्चानि, इतिवु. अ. 75; - करत नपुं,, भाव, आर्यभाव को उत्पन्न करना त्ता प.वि., ए. व. - अरियोति तंतंमग्गवज्झकिलेसेहि आरकत्ता अरियभावकरता अरियफलपटिलाभकरता व अरियो, उदा. अ. 249; महानि. अट्ठ. 51; दी. नि. अट्ठ. 2.352; - सिद्धि स्त्री. तत्पु. स. [आर्यभावसिद्धि] स्रोतापन्न आदि आर्यअवस्थाओं की सिद्धि या पूर्णता तो प. वि. ए. व. अथ वा एतेसं अभिसम्बुद्धत्ता अरियभावसिद्धितोपि अरियसच्चानि, खु. पा. अड. 64 वावह त्रि [आर्यभावावह] आर्य अवस्था अथवा स्रोतापत्तिमार्ग एवं फल आदि की अवस्था को लाने वाला तो प. वि. ए. व. राद्धादिधनं विय अरियधम्ममयपि धनं न होति. न अरियभावावहतो, थेरीगा.
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31. 266.
अरियभूमि स्त्री. कर्म. स. [आर्यभूमि] स्रोतापत्ति-मार्ग एवं स्रोतापत्ति फल आदि की आठ लोकोत्तर अवस्थाएं मिं द्वि. वि. ए. व. निद्धन्तमलो अनङ्गणो दिब्बं अरियभूमिं उपेहिसि प. प. 236 पठमबोधिहि दसवलस्स पुथुभूतेषु सावकेसु अपरिमाणेसु देवमनुरसेसु अश्यिभूमिं ओक्कन्तेसु जा. अ. 4.166; ध० प० अट्ठ 2.102; - प्पत्ति स्त्री०, तत्पु. स. [आर्यभूमिप्राप्ति ] स्रोतापत्ति आदि लोकोत्तर अवस्थाओं की प्राप्ति या तृ. वि. ए. व. वितस्स उप्पादयमाना अरिभूमिप्पत्तिया अन्तरायं करोतीति, म.नि. अड. ( मू०प.) 1 ( 2 ) . 214.
अरियमग्ग पु तत्पु, स. [ आर्यमार्ग ] स्रोतापत्ति-मार्ग, सकृदागामी मार्ग, अनागामी मार्ग एवं अर्हत्व-मार्ग, लोकोत्तरमार्ग ग्गो प्र. वि. ए. व. पञ्चसीलारिय मग्गोपोसथङ्गधितीसु च, अभि. प. 783; वीरियेन नं पणामेत्वा, अरियमग्गो विसुज्झतीति, स. नि. 1(1).9; अरियमग्गोति लोकुत्तरमग्गो स. नि. अड. 1.33: फलनिब्बत्तको हेतु अरियमग्गो च भासितं अभि अब 148 ग्गं द्वि. वि. ए. व. अरियचित्तस्स अनासवचित्तस्स अरियमग्गसमहिनो अरियमग्गं भावयतो पञ्ञा म. नि. 3.119 आणग्गि पु.. तत्पु. स. [ आर्यमार्गज्ञानाग्नि] आर्य मार्ग में प्राप्त ज्ञान की अग्नि ना तू. वि. ए. व. एवं अरियमग्गजाणग्गिनापि महन्तानि च खुदकानि च संयोजनानि उहन्तेन गन्तब्ब भविस्सतीति प. प. अ. 1.159 - त्तय नपुं [आर्यमार्गत्रय]. स्रोतापत्ति-मार्ग, सकृदागामी मार्ग तथा अनागामी का मार्ग, अर्हत्वमार्ग को छोड़ शेष तीन लोकोत्तर-मार्ग ये सप्त. वि., ए. व. कत्थचि धम्मचक्षुम्हि विरजं वीतमलं
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अरियरतन
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धम्मचक्षु उदपादी ति हि एत्थ अरियमग्गत्तयपञ्ञ दी. नि. अड. 1.150 प्पत्ति स्त्री, तत्पु. स. [आर्यमार्गप्राप्ति ], - लोकोत्तर- मार्ग को पा जाना, स्रोतापत्ति आदि आर्यमार्गों पर स्थित हो जाना तो प. वि. ए. व. अरियमग्गष्पत्तितो अपरभागेयेवाति युत्तं होति. म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1 ( 1 ) 120: समग्री त्रि.. आर्यमार्ग या लोकोत्तर मार्ग से युक्त झिनो पु., ष. वि., ए. व. अरियचित्तस्स अनासवचित्तस्स अरियमग्गसमङ्गिनो अरियमग्गं भावयतो... म. नि. 3.121; - ङ्गिस्स उपरिवत् - अरियमग्गसमङ्गिस्स मग्गङ्गानि ठपेत्वा
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ध. स. 1039; सम्पयुत्त त्र, तत्पु० स० [आर्यमार्गसम्प्रयुक्त], लोकोत्तर आर्यमार्ग के साथ जुड़ा हुआ तो फु. प्र. वि. ए. व. अयं लोकियलोकुत्तरवसेन दुविधोतिआदीसु अरियमग्गसम्ययुक्तो समाधि वृत्तो विसुद्धि. 1.88; - त्ता स्त्री. प्र. वि., ए. व. - अरियमग्गसम्पयुत्ता पन विरति समुच्छेदविरती ति वेदितबा ध. स. अ. 149 - सम्भारभाव पु. तत्पु. स. [ आर्यमार्गसम्भारभाव ] लोकोत्तरमार्ग अथवा स्रोतापत्ति आदि मार्गों के लिए आवश्यक आधारभूत सामग्री तो प. वि. ए. व. -
सा
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अत्रिच्छतामाहिच्छतापापिच्छतादीनं पापधम्मानं पहानाधिगमहेतुतो, सुगतिहेतुतो, अरियमग्गसम्भारभावतो, चातुदिसादिभावहेतुतो च मङ्गलन्ति वेदितब्बा, खु. पा. अड 118: सोत नपुं तत्पु, स. [आर्यमार्गस्रोत] आर्यमार्ग की धारा तं नपुं. प्र. वि., ए. व. सोतापन्नाति अरियमग्गसोतं आपन्ना. अ. नि. अड. 3.315: ग्गाधिगमन नपुं, तत्पु, स॰ [आर्यमार्गाधिगमन] आर्यमार्ग की प्राप्ति, आर्यमार्ग पर स्थिति तो प. वि. ए. व. सब्बाकुसलेहि च सब्बया विमुत्तो अरहा अरियमग्गाधिगमनतो पुणे सुपिनन्तेपि अतिष्णपुब... उदा. अड. 295. अरियमण्डल पु. तत्पु. स. [आर्यमण्डल]. बुद्धों तथा उनके शैक्ष्य एवं अशैक्ष्य शिष्यों का समूह ला प्र. वि. ब.व. तपिता परमन्नेन सब्बे ते अरियमण्डला, अप. 1.3. अरियमनुस्स पु. ब. व. में प्राप्त कर्म. स. [आर्यमनुष्य]. आर्यदेश के निवासी मनुष्य स्सानं ष. वि. ब. व. अरियं आयतनन्ति यत्तकं अरियमनुस्सानं ओसरणद्वानं नाम अस्थि, उदा. अड. 341 अश्यिकमनुस्सानन्ति अरिवदेसवासिमनुस्सान दी. नि. महाटी. 2.123. अरियरतन नपुं तत्पु, स. [आर्यरत्न] 8 प्रकार के आर्यजनरूपी रत्नन प्र. वि. ए. व. अरियरतनम्पि दुविधं सेखासेखवसेन, खु. पा. अट्ठ. 141.
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अरियरुद
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अरियवण्णी अरियरुद नपुं., कर्म, स. [आर्यरुत], उत्तम वचन, सुन्दर मातिकं ठपेत्वा अयं नयो दस्सितो, विसुद्धि. 2.262; - त्तय वचन - दं द्वि. वि., ए. व. - यो चारियरुदं भासे, नपुं. द्व. स. [आर्यवंशत्रय], आर्यवंश का सदस्य होने के अनरियधम्मवस्सितो, जा. अट्ट, 5.371; अरियरुदन्ति मुखेन लिए अपेक्षित चार लक्षणों में प्रथम तीन से युक्त तीन प्रकार अरियवचनं सुन्दरवचनं भासति, जा. अट्ठ. 5.372. के आर्यवंशीय-भिक्षु - ये सप्त. वि., ए. व. - इति अरियरूप नपुं., तत्पु./कर्म. स. [आर्यरूप], आर्यजनों की अनवज्जसीलब्बतगुणपरिसुद्धसब्बसमाचारो पोराणे वाणी अथवा उनका आचरण - पं प्र. वि., ए. व. - अरियवंसत्तये पतिद्वाय, विसुद्धि. 1.57; - देसना स्त्री., अरियरूपं महाभूतानं उपादायाति? कथा. 402; तत्थ अरियानं तत्पु. स., अरियवंससुत्त का उपदेश - य तृ. वि., ए. व. रूपं, अरियं वा रूपन्ति अरियरूपं, कथा. अठ्ठ. 239; - कथा - यथा च अरियवंसदेसनाय चत्तारोमे, भिक्खवे, अरियवंसा स्त्री., कथा. के एक वर्ग की चौथी कथा का शीर्षक, कथा. अग्गा रत्तचा वंसा , म. नि. अट्ट, (मू.प.) 1(1).247; 402-403; अरियरूपकथा निद्विता, कथा. 403.
- पटिपदा स्त्री., तत्पु. स., अरियवंससुत्त में उपदिष्ट अरियवंस' पु., कर्म. स./तत्पु. स. [आर्यवंश], शा. अ. मार्ग या पद्धति - दं द्वि. वि., ए.व. - भिक्खूनं उत्तम, कुल-परम्परा, ला. अ. 1. बुद्धों, प्रत्येकबुद्धों एवं पच्चयसन्तोसदीपकं अरियवंसपटिपदं कथेसि, जा. अट्ठ. अर्हतों की गुरुशिष्य-परम्परा - सो प्र. वि., ए. व. - 3.292; अहं चन्दोपमप्पटिपदञ्चेव अरियवंसप्पटिपदञ्च एकस्मिं किर गामे अरियवंसो होति, विसुद्धि. 1.64; - सा कथेन्तो..... ध. प. अट्ठ. 1.342; - सुत्त नपुं.. अ. नि. के ब. व. - चत्तारो मे, भिक्खवे, अरियवंसा अग्गा रत्ता एक सुत्त का शीर्षक, अ. नि. 1(2)32-34; - सुत्तपटिसंयुत्ता वंसा पोराणा असंकिण्णा असंकिण्णपुब्बा, न संकीयन्ति, स्त्री., प्र. वि., ए. व., तत्पु. स., अरियवंस-सुत्त से जुड़ी हुई न संकीयिस्सन्ति, अप्पटिकुठ्ठा समणेहि ब्राह्मणेहि विनंहि, -- अरियवंसोति अरियवंससुत्तपटिसंयुत्ता धम्मकथा, विसुद्धि. अ. नि. 1(2).32; म. नि. अट्ट (मू.प.) 1(1).247; अनेके च महाटी. 1.88; - सानुपालक त्रि., [आर्यवंशानुपालक]. कुसले धम्मेति... चतस्सो पटिसम्भिदा चतयोनिपरिच्छेदकजाणं आर्यवंशीय होने के लिए आधारभूत चार बातों का पालन चत्तारो अरियवंसा, चत्तारि वेसारज्जाणानि, उदा. अट्ठ. करने वाला - को पु., प्र. वि., ए. व. - चीवरादिसु 273; ला. अ. 2. दी. नि. एवं म. नि. के अरियवंस-सुत्त सन्तुट्ठोरियवंसानुपालको, सद्धम्मो. 474; - सालङ्कार पु., में निर्दिष्ट भिक्षुओं की वह परम्परा, जिसमें चार प्रकार के आणाभिवंस नामक म्यां मा के एक भिक्षु की रचना - रं द्वि. वि., उत्तम आचरण हों - अरियवंसोति अरियवंससुत्तपटिसंयुत्ता ए. व. - अरियवंसालङ्कारं नाम गन्धञ्च अकासि, सा. वं. 124. धम्मकथा, विसुद्धि. महाटी. 1.88.
अरियवंसिक त्रि., अरियवंससुत्त का उपदेशक - के पु०, अरियवंस पु., म्या-मा के कुछ स्थविरों के लिए प्रयुक्त द्वि. वि., ब. व. - मिच्छाजीवानं उस्सन्नट्ठाने अरियवंसिके नाम, क. उत्तराजीव के शिक्षक का नाम - सो पन पेसेत्वा अरियवंसं कथापेन्ति, दी. नि. अट्ठ. 2.102; अ. नि. रामञरद्ववासिनो अरियवंसथेरस्स सद्धिविहारिको, सा. वं. 37; ख. पन्द्रहवीं सदी की पागान (म्यां-मा) की छपदशाखा । अरियवचन नपुं, तत्पु./कर्म. स. [आर्यवचन], उत्तम का अनुयायी तथा मणिसारमञ्जूसा, मणिदीप, गन्धाभरण, जनों अथवा बुद्धों, प्रत्येकबुद्धों एवं अर्हतों का वचन, उत्तम महानिस्सर एवं जातकविसोधन नामक पांच ग्रन्थों का वचन - नं प्र. वि., ए. व. - अरियरुदन्ति मुखेन अरियवचनं लेखक एक थेर - सो च अरियवंसथेरो मणिदीपं नाम सुन्दरवचनं भासति, जा. अट्ठ. 5.372. गन्धं गन्धाभरणञ्च जातकविसोधनञ्च पाळिभासाय अकासि. अरियवटुम नपुं, कर्म. स. [आर्यवर्मन]. उत्तम मार्ग, आर्यों सा. वं. 92-93; - कथा स्त्री., तत्पु. स., अरियवंससुत्त का द्वारा गृहीत मार्ग, बुद्धों, अर्हतों का मार्ग - मानि प्र. वि., उपदेश - थं द्वि. वि., ए. व. - जनपदविहारं गन्त्वा ब. व. - इमे चत्तारो अरियवंसा अरियतन्तियो अरियपवेणियो पणीतपरिक्खारे भिक्खू दिस्वा अरियवंसकथं कथेत्वा. ..... अरियजसा अरियवटुमानीति सुत्तन्तं विनिवढेत्वा .... अ. जा. अट्ठ. 2.365; - ठान नपुं., तत्पु. स., वह स्थान, जहां नि. अट्ठ. 2.279. अरियवंससुत्त का उपदेश दिया जा रहा हो-ने सप्त. वि., अरियवण्णी त्रि., ब. स. [आर्यवर्णिन], आर्यों जैसे स्वरूप ए. व. - अरियवंसकथाठाने लङ्कादीपे खिले पिच, म. वं. वाला, सुन्दर रूप वाला - ण्णी पु., प्र. वि., ए. व. - 36.38; - यं सप्त. वि., ए. व. - अरियवंसकथायं पन ..... दुब्बण्णरूपं तुवमरियवण्णी, पुरक्खत्वा पञ्जलिको नमस्ससि,
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अरियवत
573
अरियसङ्घ
जा. अट्ठ. 3.266; तत्थ अरियवण्णीति सुन्दररूपो, तदे. अरियवत त्रि., ब. स. [आर्यव्रत], आर्यजनों अथवा बुद्धों एवं अर्हतों द्वारा गृहीत शील आदि व्रतों का पालन करने वाला -- ता पु.. प्र. वि., ब. व. - अनुसासि में अरियवता, अनुकम्पि अनुग्गहि, थेरगा. 334; अरियवताति सुविसुद्धसीलादिवतसमादानेन, थेरगा. अट्ठ. 2.43. अरियवत्ति' स्त्री., कर्म, स. [आर्यवृत्ति], उत्तम आचरण, उत्तम शील - त्ती प्र. वि., ब. व. - ठितमरियवत्ती सवचो अकोधनो, जा. अट्ठ. 3.392; ठितमरियवत्तीति ठितअरियवत्ति, अरियवत्ति नाम दसराजधम्मसङ्कातं पोराणराजवत्तं, तदे... अरियवत्ति त्रि., ब. स. [आर्यवृत्ति]. उत्तम शीलों वाला, उत्तम आचरण वाला, आर्य के उत्तम आचरणों एवं गुणों से युक्त - त्ती पु.. प्र. वि., ए. व. - अरियवत्तसि वक्कङ्ग, यो पिण्डमपचायसि, जा. अट्ठ. 5.358; तत्थ अरियवत्तसीति मित्तधम्मरक्खणसङ्घातेन आचारअरियानं वत्तेन समन्नागतोसि, तदे.. अरियवास पु.. तत्पु. स. [आर्यवास], बुद्धों एवं अर्हतों द्वारा पालन किए गए ब्रह्मचर्य-जीवन में निवास, शील समाधि एवं प्रज्ञा की शिक्षाओं का अनुपालन - सा प्र. वि., ब. व. - दस अरियवासा, इधावुसो, भिक्खु पञ्चङ्गविप्पहीनो होति. दी. नि. 3.214; 249; अरियवासाति अरिया एवं वसिंसु वसन्ति वसिरसन्ति एतेसूति अरियवासा, दी. नि. अट्ट. 3.214; - भाणक त्रि., ब्रह्मचर्य-जीवन में वास से सम्बन्धित सुत्तों का पाठ करने वाला - को पु., प्र. वि., ए. व. - सो वत्तब्बो त्वं अरियवासभाणको होसि न होसी ति, विभ. अ. 433. अरियविनय पु., कर्म. स. [आर्यविनय], विनय के उत्तम नियम, आर्यों अथवा बुद्ध द्वारा प्रज्ञप्त विनय - ये सप्त. वि., ए. व. - तथेव अरियविनये, सद्धा यस्स न विज्जति, अ. नि. 2(2).67; सद्धम्मे सुप्पवेदिते सम्मासम्बुद्धेन सुट्ट पवेदिते अरियविनये अहं पब्बजिता, थेरीगा. अट्ठ. 266. अरियविहार पु.. तत्पु./कर्म. स. [आर्यविहार], उत्तम विहार, आर्यजनों अथवा बुद्धों, प्रत्येकबुद्धों एवं अर्हतों की जीवनवृत्ति, मन की उत्तम अवस्था - रो प्र. वि., ए. व. - सम्मा वदमानो वदेय्य- अरियविहारो इतिपि, ब्रह्मविहारो इतिपि, तथागतविहारो इतिपि, स. नि. 3(2).395-396; - रेन त. वि., ए. व. - तदा अरियविहारेन विहरति तेसं अमोहकुसलमूलुप्पादनत्थं, सु. नि. अट्ठ. 1.108; - स्स ष. वि., ए. व. - अदोसो ब्रह्मविहारस्स, अमोहो अरियविहारस्स.
ध. स. अट्ठ. 174; - पुब्बङ्गम त्रि.. ब. स. [आर्यविहारपूर्वङ्गम], वह, जिसके पूर्वाधार के रूप में उत्तम विहार या आर्यजनों द्वारा अनुपालित ब्रह्मचर्यवास रहता हो - माय स्त्री., तृ. वि., ए. व. - तं समयं अरियविहारपुब्बङ्गमाय धम्मपच्चवेक्खणाय भगवा विहासि, उदा. अट्ठ. 19; - समङ्गिता स्त्री., भाव, आर्यविहारों से भरपूर होना - ता प्र. वि., ए. व. - इरियापथेसु आसनसङ्खातं इरियापथसमायोगपरिदीपनं अरियविहारसमङ्गिता-परिदीपनञ्चाति वेदितब्बं उदा. अट्ठ. 22. अरियवीथि स्त्री., कर्म. स. [आर्यवीथि], आर्यजनों का मार्ग, उत्तम लोकोत्तर मार्ग, बुद्धों, प्रत्येकबुद्धों एवं अर्हतों का चित्तविशुद्धि प्राप्त कराने वाला मार्ग - तो प. वि., ए. व. - असेसअरियवीथितोपि तथागता पटिसल्लानं सेवन्ति, मि. प. 142. अरियत्ति त्रि., ब. स. [आर्यवृत्ति], उत्तम जीवन जीने वाला, उत्तम आचरण या व्यवहार वाला - तिं पु.. द्वि. वि., ए. व. - अरियवृत्तिं मेधाविं, हीनजच्चम्पि पूजये, स. नि. 1(1),118; - त्तिने पु., सप्त. वि., ए. व. - कतम्हि च पोसम्हि, सीलवन्ते अरियत्तिने, जा. अट्ट. 4.38; - तिनं पु., ष. वि., ब. व. - इच्चेवं मन्तयन्तानं अरियानं अरियवुत्तिनं. जा. अट्ठ. 5.334; 356. अरियवोहार पु., क. कर्म. स. [आर्यव्यवहार], उत्तम वाणी का प्रयोग, शिष्ट वाग्व्यवहार, सभ्य भाषा का प्रयोग, असत्यभाषण, चुगली, कठोरवाणी एवं निरर्थक बातचीत से मुक्त वाग्व्यवहार - रेन तृ. वि., ए. व. - भगिनियोति अरियवोहारेन आलपनं, जा. अट्ठ. 5.418; - रा प्र. वि., ब. व. - चत्तारो अरियवोहारा ति एत्थ चेतना, उदा. अट्ठ. 271; चत्तारोमे, भिक्खवे, अरियवोहारा ... अदितु अदिवादिता असुते असुतवादिता अमुते अमुतवादिता अविआते अविज्ञातवादिता, अ. नि. 1(2).281; परि. 248; ख. जनसाधारण के लिए प्रयुक्त आर्यजनों की भाषा का प्रयोग -- अयमेवेका यथाभुच्चब्रह्मवोहारअरियवोहारसङ्घाता मागधभासा
न परिवत्तति, विभ. अट्ठ. 367. अरियसङ्घ पु., तत्पु./कर्म. स. [आर्यसङ्घ], आर्यों अथवा
उत्तम शील आदि से सम्पन्न भिक्षुओं का सङ्घ, उत्तम सङ्घ - ई वि. वि., ए. व. - खेत्तं जनानं कुसलथिकानं, तमरियसङ्घ सिरसा नमामि, पारा. अट्ठ. 1.2; वन्दे अरियसङ्घ तं. पुञक्खेत्तं अनुत्तरं उदा. अट्ठ. 1; - स्स ष. वि., ए. व. - सत्तमो पुग्गलो एसो, अरियसङ्घस्स वुच्चति, अ. नि.
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अरियसच्च
574
अरियसुख 2(2).84; - गुण पु., तत्पु. स. [आर्यसङ्घगुण], उत्तम अरियसावक पु., कर्म. स. [आर्यश्रावक], शा. अ. उत्तम भिक्षुसङ्घ का गुण - णा प्र. वि., ब. व. - अनुत्तरं पुञ्जक्खेत्तं शिष्य, ला. अ. स्रोतापत्ति, सकृदागामी, अनागामी एवं लोकस्सा ति एवं अरियसङ्घगुणाति अनुस्सरितब्बा, अर्हत्व के मार्ग पर मौजूद चार प्रकार के शैक्ष्य शिष्य, बुद्धों, विसुद्धि. 1.210; अरियसङ्घगुणाति आरकत्ता किलेसेहि, ... अर्हतों आदि के धर्मोपदेश को सुना हुआ व्यक्ति - को प्र. अरियानं वा सङ्घो अरियसङ्घो, तस्स गुणा, विसुद्धि. महाटी.. वि., ए. व. - एते च पटिविज्झि यो गहट्ठोसुतवा अरियसावको 1.262.
सपओ, सु. नि. 90; तस्सेव लक्खणस्स अरियानं सन्तिके अरियसच्च नपुं.. कर्म./तत्पु. स. [आर्यसत्य], क. उत्तम सुतत्ता अरियसावको, सु. नि. अट्ट, 1.131; एवं पस्सं. सत्य, ख. बुद्धों एवं अर्हतों जैसे शुद्धचित्त आर्यों द्वारा देखा भिक्खवे, सुतवा अरियसावको रूपस्मिम्पि निबिन्दति, महाव. गया सत्य, ग. क्लेशरहित चित्त की अवस्था तक पहुंचाने 19; 39; अरियसावकोति अरियस्स बद्धस्स सावको, विभ. वाला सत्य अथवा आर्य बना देने वाला सत्य - च्वं प्र. वि., अट्ठ 111. ए. व. - इदं खो पन, भिक्खवे, दुक्खं अरियसच्चं ... अरियसाविका स्त्री., कर्म. स., अरियसावक से व्यु. दुक्खसमुदयं अरियसच्चं ... दुक्खनिरोधं .... [आर्यश्राविका]. शा. अ. बुद्धों एवं अर्हतों जैसे आर्यों से दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदा अरियसच्चं, महाव. 14; - धर्म सुन चुकी भिक्षुणी, ला. अ. स्रोतापत्ति आदि चार च्चानि प्र. वि., ब. व. - अरियसच्चानीति परिच्छिन्न- लोकोत्तर मार्गों पर स्थित भिक्षुणी .. का प्र. वि., ए. व. - धम्मनिदस्सनं, दुक्खं अरियसच्चन्ति आदिम्हि पन उद्देसवारे, पञ्चहि, भिक्खवे, वडीहि वङ्घमाना अरियसाविका अरियाय विभ. अट्ठ. 77; चत्तारो धम्मा अभिज्ञेय्या - चत्तारि वडिया ववति, स. नि. 2(2).244; सा हि भगवतो अगुपट्टायिका अरियसच्चानि, पटि. म.6; यो च बुद्धञ्च धम्मञ्च सङ्घञ्च पणीतदायिकानं साविकानं एतदग्गे ठपिता सोतापन्ना सरणं गतो, चत्तारि अरियसच्चानि सम्मप्पाय पस्सति, अरियसाविका, उदा. अट्ठ. 97; सा किर सोतापन्ना ध. प. 190; -- च्चान ष. वि., ब. व. - तपो च ब्रह्मचरियञ्च, अरियसाविका भारद्वाजगोत्तस्स ब्राह्मणस्स भरिया. म. नि. अरियसच्चान दस्सनं, खु. पा. 5.11; - च्चेसु सप्त. वि., अट्ठ. (म.प.) 2.317. ब, व. - ... भिक्खु धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति चतूसु अरियसीलवत त्रि., ब. स. [आर्यशीलव्रत], बुद्धों एवं अर्हतों अरियसच्चेसु. म. नि. 1.84; -- देसना स्त्री., प्र. वि., ए. व. द्वारा उपदिष्ट शीलों एवं व्रतों का पालन करने वाला, तत्पु. स., चार आर्यसत्यों का उपदेश - का च पन साति? आर्यजनों के शीलों एवं व्रतों से युक्त - वतो पु.. प्र. वि., अरियसच्चदेसना, तेनेवाह- दुक्खं समदयं निरोधं मग्गन्ति, ए. व. - न चाहं तस्मिं दुभेय्यं, अरियसीलवतो हि सो, जा. उदा. अट्ट. 231; म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.66.
अट्ठ. 7.240; ... अरियसीलवतोति अरियेन सीलवतेन अरियाय अरियसदिस त्रि., तत्पु. स. [आर्यसदृश], आर्यजन जैसा, च आचारसम्पत्तिया समन्नागतो, तदे.. उत्तम जनों के समान - सो पु.. प्र. वि., ए. व. - अरियसीली त्रि.. ब. स. [आर्यशील], अर्हत् आदि आर्यजनों अरियावकासोति रूपेन अरियसदिसो देववण्णो हुत्वा चरसि. के शीलों से युक्त, उत्तम शीलों का आचरण करने वालाजा. अट्ठ. 7.204.
ली पु., प्र. वि., ए. व. - गोतमो सीलवा अरियसीली अरियसमाचार त्रि., ब. स. [आर्यसमाचार], उत्तम आचरण कुसलसीली कुसलसीलेन समन्नागतो, दी. नि. 1.101; वाला - रो पु., प्र. वि., ए. व. - अरियो अरियसमाचारो, चतुपारिसुद्धिसीलेन सीलवा, तं पन सील अरियं उत्तम बाळ्हं त्वं मम रुच्चसि, जा. अट्ट. 5.321; अरियसमाचारोति परिसुद्धं तेनाह अरियसीली ति, दी. नि. अट्ठ. 1.230. सुन्दरसमाचारोपि जातो, तदे...
अरियसुख नपुं.. कर्म. स. [आर्यसुख], उत्तम सुख, सदाचार अरियसम्मत त्रि., कर्म, स. [आर्यसम्मत]. लोगों के बीच एवं चित्त की विशुद्धि से प्राप्त सुख - खं प्र. वि., ए. व. 'आर्य' या उत्तम व्यक्ति के रूप में पहचान रखने वाला, - द्वेमानि, भिक्खवे सुखानि.... अरियसुखञ्च अनरियसुखञ्च आर्य के रूप में माना गया व्यक्ति - ता पु., प्र. वि., ब. व. ... एतदग्गं, भिक्खवे, इमेसं द्विन्नं सुखानं यदिदं - सत्ततिंसबोधिपक्खियअरियधम्मसमायोगतो वा अरियसम्मता अरियसुखान्ति, अ. नि. 1(1).96; छ8 अरियसुखन्ति बुद्धपच्चेकबुद्धबुद्धसावका एतानि पटिविज्झन्ति, खु. पा. अपुथुज्जनसुखं, अनरियसुखान्ति पुथुज्जनसुखं अ. नि. अट्ठ. 64.
अट्ठ. 2.52.
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अरियसेट्ट 575
अरिस अरियसेट्ठ त्रि., तत्पु. स. [आर्यश्रेष्ठ], आर्यों के बीच में श्रेष्ठ निदोससुन्दरसरीरावकासोसि, अभिरूपोसीति अत्थो, तदे.; - वो पु., प्र. वि., ए. व. - तं कुंजराजञहयानुचिण्णं, अरियावकासोसि अनरियोवासि असञतो सञ्जतसन्निकासो, पावेक्खि अन्तेपुरमरियसेट्ठोति, ... अरियसेडोति आचारअरियेस ... अरियावकासोसीति अरिपटिरूपकोसि, जा. अट्ठ. 5.81उत्तमो पुण्णको यक्खो पण्डितस्स अन्तेपुरं पाविसि, जा. 82; अरणन्ति अरणियेहि देवेहि सदिसवण्णो अरियावकासोति अट्ठ. 7.182-183.
अत्थो , पे. व. अट्ठ. 183-184. अरियाकरि पु., व्य. सं., श्रीलङ्का के एक प्राचीन बौद्ध-विहार अरियिद्धि स्त्री., तत्पु. स. [आर्यऋद्धि], अर्हतों आदि आर्यजनों का नाम - करिस्स ष. वि., ए. व. - दत्वारियाकरिस्सेस की ऋद्धि, उत्तम ऋद्धि - इद्धिनाम चेसा - अधिट्ठानिद्धि, गामं सो मालवत्थुकं, चू. वं. 45.60.
विकब्बनिद्धि, मनोमयिद्धि, आणविष्फारिद्धि समाधिविप्फारिद्धि. अरियाचरित त्रि., तत्पु. स. [आर्याचरित], आर्यों अथवा अरियिद्धि, कम्मविपाकयिद्धि, पुञ्जवतो इद्धि, विज्जामयिद्धि, अर्हतों आदि द्वारा आचरण में लाया गया - तं नपुं॰, प्र. वि., ध. स. अट्ठ. 136-137; - बल नपुं, तत्पु. स., आर्य-जनों ए. व. - ... अरियाचरितं सुकोसले अरहन्तो मे मनापाव की ऋद्धियों का बल - लेन तृ. वि., ए. व. - तं थेरस्स परिसतान्ति, ... अरियाचरितन्ति अरियेहि बद्धादीहि आचिण्णं अरियिद्धिबलेन परिक्खयं न अगमासि, जा. अट्ठ. 1.232; - जा. अट्ठ. 3.365-366.
योग पु., तत्पु. स., आर्यजनों की ऋद्धियों के साथ जोड़ अरियाचार क. पु., तत्पु. स. [आर्याचार], उत्तम आचरण, या सम्बन्ध - गेन तृ. वि., ए. व. - यतिन्द्रियन्ति आर्यजनों का आचरण - रे सप्त. वि., ए. व. - तत्थ सुपरिसुद्धमनो समाचारताय, अरिसिद्धियोगेन मनुस्सो............ वा, अरियाचारे ठितो आचारअरियो नाम, अब्यावटअप्पटिसङ्घानुपेक्खाभावतो च मनिन्द्रियवसेन जा. अट्ठ. 2.234; ख. त्रि., ब. स., उत्तम आचरण वाला - यतिन्द्रिय, उदा. अट्ठ. 69. रा पु.. प्र. वि., ब. व. - अरियगणेति ब्राह्मणगणे, ते किर अरियूपवाद पु., तत्पु. स. [आर्योपवाद], आर्यजनों अथवा तदा अरियाचारा अहेसं तेन ते एवमाह, जा. अट्ठ. 6.64. बुद्धों एवं अर्हतों आदि की निन्दा, आर्यजनों के विषय में अरियाधिगत त्रि., तत्पु. स. [आर्याधिगत], आर्यजनों या बुरा-भला कहना - दो प्र. वि., ए. व. - महासावज्जो हि अर्हत् आदि द्वारा साक्षात्कृत, आर्यजनों द्वारा प्राप्त किया अरियूपवादो, आनन्तरियसदिसत्ता, विसुद्धि. 2.54; -धम्म हुआ - तं पु., द्वि. वि., ए. व. - अरियाधिगतञ्च धम्म त्रि., ब. स., स्वभाव से ही आर्यजनों का निन्दक - म्मा पु.. अनधिगच्छन्तो अरियकरधम्मानं अरियभावस्स च अदिट्ठता, प्र. वि., ब. व. - अरियूपवादधम्मा उपवादन्तरायिका नाम अरियानं अदस्सावी ति वेदितब्बो, स. नि. अट्ठ. 2.222. ते पन याव अरिये न खमापेन्ति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) अरियायतन नपुं., तत्पु. स. [आर्यायतन], आर्यजनों का 1(2).9. क्षेत्र-प्रसार, अर्हतों आदि की भूमि (मध्य-देश)- तने नपुं.. अरियूपोसथ पु., तत्पु. स. [आर्योपवसथ], आर्यों का उपोसथ, सप्त. वि., ए. व. - तथागतप्पवेदितस्स धम्मविनयस्स ऐसा उपोसथ, जिसमें आर्यजनों की समीपता प्राप्त हो - देसेता पुग्गलो दुल्लभो लोकस्मि, अरियायतने पच्चाजाति थो प्र. वि., ए. व. - गोपालकुपोसथो, निगण्टुपोसथो, दुल्लभा लोकस्मि, अ. नि. 2(2).141; दसमस्स पठमे अरियुपोसथो, अ. नि. 1(1).235; अरियपोसथोति अरियानं अरियायतनेति मज्झिमदेसे, अ. नि. अट्ठ. 3.143.
उपवसनउपोसथो, अ. नि. अट्ठ. 2.187. अरियालंकारथेर पु.. व्य. सं., क. अनेक पालि-रचनाओं अरियूपवादी त्रि., [आर्योपवादिन], अर्हतों जैसे आर्यजनों को बर्मी-भाषा में रूपान्तरित करने वाले एक स्थविर का की निन्दा करने वाला - दी प्र. वि., ए. व. - भिक्खु नाम - अरियालङ्कारथेरो पन धातुपच्चयविभागट्ठाने अधिकोति अक्कोसकपरिभासको अरियूपवादी सब्रह्मचारीनं, तस्स पञ्च दट्ठब्बो, सा. वं. 100; ख. एक सामणेर का नाम - ... पेसेसं आदीनवा पाटिकवा, अ. नि. 2(1).232; - दिनो पु., ष. वि., सद्धि अरियालङ्कारेन नाम सामणेरेन, सा. वं. 146.
ए. व. - यं मुसा भणतो पापं यं पापं अरियूपवादिनो, स. अरियावकास त्रि., ब. स., सुन्दर स्वरूप वाला, उत्तम एवं नि. 1(1).260; अरियूपवादिनोति कोकलिकस्स विय पापं. भव्य आकृति वाला - सो पु., प्र. वि., ए. व. - अरियावकासोसिस. नि. अट्ठ. 1.300. पसन्ननेत्तो, मझे भवं पब्बजितो कुलम्हा, जा. अट्ठ. 2.234; अरिस नपुं.. [अर्शस], बवासीर का रोग - सं प्र. वि., ए. जा. अट्ट. 5.159; तत्थ अरियावकासो सीति । व. - दुन्नामकं च अरिसं. छद्दिकावमथूदितो, अभि. प. 327;
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अरिसक 576
अरुण अरसावोति अरिसभगन्दरमधुमेहादीनं वसेन असुचिपग्घरणकं सरवनं पविसेय्य, स. नि. 2(2).196; अरुगत्तो ति वणसरीरो, पाचि. अट्ठ. 143.
स. नि. अट्ठ. 3.107. अरिसक त्रि, तत्पु. स. [अरिस्वक]. शत्रुओं से सम्बद्ध, अरुचि स्त्री.. [अरुचि], शा. अ. रुचि का अभाव, अप्रियता, शत्रुभूत, शत्रु जैसा - कं नपुं.. द्वि. वि., ए. व. - लोभस्स अच्छा या मन पसन्द न लगना, ला. अ. भूख की कमी, न वसं गच्छे हनेय्यारिसकं मनं. ... हनेय्यारिसकं मनन्ति अजीर्णता - या तृ. वि., ए. व. - कुमारो निवत्तितुकामो अन्तो उप्पज्जमानानं नानाविधानं लोभसत्तून सन्तकं मनं. अरुचिया गच्छन्तो सत्थुगारवेन पत्तं गण्हथा ति वत्तुं न लोभसम्पयुत्तचित्तं हनेय्याति अत्थो, जा. अट्ठ. 4.316. सक्कोति, ध, प. अट्ठ 1.67; भन्ते, तुम्हे एतेसं अरुचिया अरिसरोग पु., तत्पु. स. [अर्शरोग], बवासीर का रोग - गो सील देथ, जा. अट्ठ. 3.147; - सूचनत्थ त्रि., ब. स. प्र. वि., ए. व. - अंसाति अरिसरोगो, महानि. अट्ठ. 47; सद्द. [अरुचिसूचनार्थ], अरुचि या असहमति के अर्थ वाला - 2.567.
त्थे पु., सप्त. वि., ए. व. - किर इति अनुस्सवत्थे अरिसङ्गर पु., तत्पु. स. [अरिसङ्गर]. शत्रुओं के साथ संग्राम अरुचिसूचनत्थे च, सद्द. 3.898. -- रे सप्त. वि., ए. व. - रम्मे पुलत्थिनगरे, वसं वीतारिसंगरे, अरुच्चन नपुं०, रुच से व्यु., क्रि. ना. का निषे, शा. अ. चू, वं. 74.181.
रुचिकर न लगना, अच्छा न लगना, ला. अ. आहार अच्छा अरिसङ्घ पु., तत्पु. स. [अरिसङ्घ]. शत्रुओं का समूह - घा प्र. न लगना- रोग पु., कर्म. स., ऐसा रोग, जिसमें भोजन वि., ब. व. - सूरा पुरे रणमुखे विजितारिसंघा. तेल. 16-17. अच्छा न लगे- गो प्र. वि., ए. व. - अरोचको आहारस्स अरु पु./नपुं.. [अरुष], व्रण, घाव, जख्म - अय्यं त्वरु वणो अरुच्चनरोगो, लीन. (दी.नि.टी.) 2.172. नित्थी, फोटो तु पिळका भवे, अभि. प. 324; - रु नपुं., द्वि. अरुच्चनक त्रि., (रुच से व्यु.. क्रि. ना. रुच्चन से व्यु., वि., ए. व. -- कायो वा काये अरु वा न मक्खेतब्ब, पारा.. रुच्चनक का निषे. [अरोच्यनक], अरुचिकर, अनुपयुक्त, अट्ठ. 2.269; - रूनं ष. वि., ब. व. - तेसंयेव अरून रुचि उत्पन्न न कराने वाला - के नपुं., वि. वि., ए. व. पक्कत्ता पक्कगत्तो, स. नि. अट्ठ. 3.107.
-- कायकम्मादीस कोचि दोसोति पच्चवेक्खन्तो अत्तनो अरुकूपमचित्त त्रि., ब. स., पुराने व्रण या घाव के समान अरुच्चनकं किञ्चि कम्म अदिस्वा, ध.प. अट्ट, 1.143; चित्त वाला - तो पु., प्र. वि., ए. व. - अरुकूपमचित्तो अम्हाकं छाया विय तुम्हे अमुञ्चित्वा विचरन्तानं अरुच्चनक पुग्गलो, विज्जूपमचित्तो पुग्गलो, वजिरूपमचित्तो पुग्गलो, नाम अस्थि, स. नि. अट्ठ. 3.247. अ. नि. 1(1).147; अरुकूपमचित्तोति पुराणवणसदिसचित्तो, अरुज त्रि०, ब. स. [अरुज], नीरोग, स्वस्थ, व्याधिमुक्त, अ. नि. अट्ट. 2.93.
बाधामुक्त - जं नपुं., द्वि. वि.. ए. व. - अमरं अजरं अरजं अरुकाय पु., कर्म. स., ऐसा शरीर, जिसमें व्रण ही व्रण हों, अरुजं अधिगच्छति सन्तिपदं पन सो, विन. वि. 2443. घावों से भरा शरीर - यं द्वि. वि., ए. व. - पस्स चित्तकतं अरुण' पु./नपुं. तथा त्रि., [अरुण, सूर्य का सारथि]. क बिम्ब, अरुकायं समुस्सितं. ध. प. 147; थेरगा. 7693; प्रभातकाल में सूर्योदय से पूर्व आकाश पर प्रकट लालिमा, अरुकायन्ति नवन्नं वणमुखानं वसेन अरुभूतं काय, ध. प. दिन की पहली किरण या आभा - णो प्र. वि., ए. व. - अट्ठ. 2.60.
सूरस्सोदयतो पुब्बट्टितरंसि सिया रुणो, अभि. प. 65; इदानि अरुक्ख त्रि., ब. स. [अवृक्ष], वृक्षरहित, बिना पेड़ वाला/वाली अरुणो उग्गमिस्सती ति सम्मासम्बोधिध पापुणि, - क्खं पु., वि. वि., ए. व. - ते में परियोनन्धिस्सन्ति, सब्ब तापत्तिसमनन्तरमेव च अरुणो उग्गच्छति, उदा. अरुक्खं मं करिस्सरे, जा. अट्ठ. 3.352; करिस्सरेति अथेव अट्ठ. 41; ख. उट्ठापेसि के साथ प्रयुक्त होने पर प्रातःकाल परियोनन्धित्वा मं अरुक्खमेव करिस्सन्ति सबसो भञ्जिस्सन्ति, होने की प्रतीक्षा की, सूर्य को उदित कराया - णं द्वि. वि., जा. अट्ट. 3.353.
ए. व. - ... ठितकोव अरुणं उछापेसि, जा. अट्ठ. 1.111; अरुगत्त त्रि., ब. स. [अरुगात्र], वह, जिसके शरीर के .... अरुणं नो उछापेही ति कन्दिसु, ध. प. अट्ठ. 1.27; - णे विभिन्न अङ्गों में घाव ही घाव हों - त्तो पु.. प्र. वि., ए. व. सप्त. वि., ए. व. - भिज्जमाने, रुणे वस्सि महामेघो - कुटी पुरिसो अरुगत्तो पक्कगत्तो किमीहि खज्जमानो, म. महीतले. म. वं. 37.197; ग. नपुं, 1. सूर्य, प्रातःकालीन नि. 2.184; सेय्यथापि, भिक्खवे, परिसो अरुगत्तो पक्कगत्तो लालिमा - बोधिसत्तस्सपि धम्म कथेन्तरसेव अरुणं उद्यहि,
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अरुण
577
अरुणा
जा. अट्ठ.5.378; 2. नाग लोक में खिलने वाला कमल - नागानं पवरं पुष्फ, अरुणं नाम उप्पलं, अप. 2.222; तुल. अमर. 1.5.15; - उतु पु., कर्म. स. [अरुणतु], प्रातःकाल का मौसम, प्रातःकालीन वायु - तुं द्वि. वि., ए. व. - सा मेघउतुञ्च पब्बतउतुञ्च अरुणउतुञ्च गहेत्वा जातत्ता पुत्तस्स उतेनोति नामं अकासि.ध. प. अट्ठ. 1.96; - णग्ग/रुणुग्ग नपुं.. तत्पु. स. [अरुणाग्र], प्रभात की पहली किरण, ऊषाकाल - ग्गं प्र. वि., ए. व. - सूरियस्स, भिक्खवे, उदयतो एतं पुब्बङ्गमं एतं पुब्बनिमित्तं, यदिदं अरुणग्गं, अ. नि. 3(2).203; स. नि. 3(1).27; सूरियपेय्याले अरुणुग्गं विय कल्याणमित्तता, स. नि. अट्ट, 3.169; - निभ त्रि.. ब. स., सूर्य के समान, सूर्य जैसा - भाय स्त्री., तृ. वि., ए. व. - अरुणवण्णाय अरुणनिभाय, अरुणप्पभावण्णायाति अत्थो, विसुद्धि. महाटी. 1.134; - पुर नपुं.. एक नगर का नाम - रे सप्त. वि., ए. व. - तदारुणपुरे रम्मे, ब्राह्मञकुलसम्भवा, अप. 2.283; थेरीगा. अट्ठ 237; - प्पभरञ्जित त्रि., तत्पु. स. [अरुणप्रभारञ्जित. सूर्य की प्रभा से रंगा हुआ या लाल रङ्ग का हो चुका - ते नपुं.. सप्त. वि., ए. व. - ... सुवण्णघटतो निक्खममाना खीरधारा विय अरुणप्पभारजिते गगनतले.... म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).273; अरुणप्पभारजिते गगनप्पदेसे ओसधितारका विय च अतिमनोहराय सिरिया विरोचति, दी. नि. अट्ट 2.38; - वण्ण त्रि., ब. स. [अरुणवर्ण], प्रभातकालीन नभ-लालिमा के समान लाल रङ्ग वाला - ण्णाय स्त्री., तृ. वि., ए. व. - तस्मा .... अरुणवण्णाय मत्तिकाय कसिणं कातब्बं, विसुद्धि. 1.120; - वण्णमत्तिका स्त्री., कर्म. स. [अरुणवर्णमृत्तिका, लालरङ्ग की मिट्टी, ऊबड़-खाबड़ पृथ्वी - कं द्वि. वि., ए. व. - अरुणवण्णमत्तिकं अञ्जनं नागमाहट, दी. वं. 12.3; पारा. अट्ठ. 1.53; हरिचन्दनं अरुणवण्णमत्तिक, अञ्जनं हरीतक, आमलकन्ति, पारा. अट्ठ. 1.53; - सिख स्त्री०, तत्पु. स. [अरुणशिखा], सूर्य की पहली किरण, प्रातःकाल की लालिमा - खाय सप्त. वि., ए. व. - अथ थेरो अरुणसिखाय पञ्जायमानाय महापथविं उन्नादयन्तो अनुपादिसेसाय निब्बानधातुया परिनिब्बायि, दी. नि. अट्ठ. 2.128; - णाराम पु., वह आराम, जहां, वेस्सभू-बुद्ध ने प्रथम धर्मोपदेश दिया था - मे सप्त. वि., ए. व. - वत्ति चक्कं महावीरो, अरुणारामे नरुत्तमो, बु. वं. 23.22; - णुग्गमन नपुं.. तत्पु. स. [अरुणोद्गमन], सूर्योदय, ऊषाकाल - नं प्र. वि., ए. व. - इति पयोगासयसुद्धस्स आगमाधिगमसम्पन्नस्स वचनं
अरुणुग्गमनं विय, उदा. अट्ठ. 14; विभाताय पन रत्तिया वलाहकविगमो च अरुणुग्गमनञ्च तस्सा गब्भवुद्वानञ्च एकक्ख णेयेव अहोसि, ध. प. अट्ठ. 1.96; - ना प. वि., ए. व. - ... याव अरुणुग्गमना सयित्वा अरुणुग्गमनवेलाय सत्तिं गहेत्वा निक्खमि, जा. अट्ठ. 2.127; - णुग्गमनकाल पु., तत्पु. स. [अरुणोद्गमनकाल], सूर्योदय का समय - ले सप्त. वि., ए. व. - न्हापेत्वा मण्डेत्वा दिब्बभोजनं भोजेवा दिब्बसयने सयापेत्वा अरुणुग्गमनकाले बद्धाकारेनेव निपज्जापेत्वा अन्तरधायि, जा. अट्ठ. 7.353; - णुग्गमनवेला
स्त्री., तत्पु. स. [अरुणोद्गमनवेला], सूर्योदय का समय - .... याय सब्बो सो ओकासो अरुणग्गमनवेला विय सजातालोको होति, दी. नि. अट्ठ. 2.195. अरुण? पु., व्य. सं., अनेक व्यक्तियों के लिए प्रयुक्त एक नाम, क. अरुणवती के शासक तथा शिखी बुद्ध के पिता का नाम - नगरं अरुणवती नाम, अरुणो नाम खत्तियो, बु. वं. 22.15; तस्स भगवतो अरुणवती नाम नगरं अहोसि, अरुणो नाम खत्तियो पिता, पभावती नाम माता, जा. अट्ठ. 1.52; नगरे अरुणवतिया, अरुणो नाम खत्तियो, थेरीगा. अट्ठ. 72; ख. अस्सक राष्ट्र के शासक का नाम - ... सो हि रज्जे पतिद्वितकाले रहनामवसेन अस्सको नाम जातो, कुलदत्तियं पनस्स नाम अरुणोति, जा. अट्ठ. 3.3. अरुणवत पु., व्य. सं., एक राजा का नाम - रुओ खो पन, भिक्खवे, अरुणवतो अरुणवती नाम राजधानी अहोसि, स. नि. 1(1).182. अरुणवती स्त्री., व्य. सं., राजा अरुणवत की राजधानी का नाम - रो खो पन, भिक्खवे, अरुणवतो अरुणवती नाम राजधानी अहोसि, स. नि. 1(1).182; अरुणवतिनगरे अरुणवतो रो पभावतिया नाम महेसिया कुच्छिस्मि निब्बत्तित्वा ..., अ. नि. अट्ट, 2.199; - सुत्तन्त पु., स. नि. के ब्रह्मसंयुत्त के दूसरे वग्ग के एक सुत्त का शीर्षक, स. नि. 1(1).182-184; अरुणवतिसुत्तन्तो केन कथितोति, अ. नि. अट्ठ. 2.199; - न्ते सप्त. वि., ए. व. - अरुणवतिसुत्तन्ते अत्थुप्पत्तियं आनन्दत्थेरस्स पुच्छाय कथितं, अ. नि. अट्ठ. 2.199; -- विहार पु., एक विहार का नाम - तदा आयस्मा सारिपुत्तत्थेरो तमेव गामं उपनिस्साय अरुणवतीविहारे विहरन्तो, .... पे. व. अट्ठ. 57. अरुणा पु.. अरुण का प्र. वि., ब. व., सदा ब. व. में ही प्राप्त, देवताओं के एक वर्ग का नाम - सुक्का करम्भा अरुणा, आगुं वेघनसा सह, दी. नि. 2.192.
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अरुणाभ
578
अरूप
अरुणाम त्रि., ब. व. [अरुणाभ]. लाल रङ्ग की चमक वाला, अरूपाति, थेरगा. अट्ट. 2.398; 2. अरूप-ध्यान, जिसमें चित्त सूर्य के समान आभा वाला - मं स्त्री., द्वि. वि., ए. व. - को आकाररहित आकाश आदि चार आलम्बनों पर एकाग्र नागाहट अञ्जनं च अरुणाभं च मत्तिक, म. वं. 11.29. किया जाता है - तस्सातिक्कमनत्थाय, अरूपं पटिपज्जति, अरुणुद्वान नपुं.. तत्पु. स. [अरुणोत्थान], सूर्य का ऊपर की अभि. अव. 128; अरूपन्ति अरूपावचरभावनं, अभि. अव०,
ओर उठना, दिन निकलना - नं प्र. वि., ए. व. - भगवतो अभि. टी. 2.190; ख. त्रि., ब. स. [अरूप], आकार या रूप किर धम्मद सनापरिनिद्वानञ्च अरुणुहानञ्च से रहित, अशरीरी, अभौतिक - पो पु., प्र. वि., ए. व. - रस्मिविस्सजनञ्च एकक्खणे अहोसि. म. नि. अट्ठ. (उप.प.) वण्णसङ्घातं रूपं अस्स अत्थीति रूपी, न रूपीति अरूपीति 3.225; - वेला स्त्री., तत्पु. स. [अरुणोत्थानवेला], सूर्योदय आह 'अरूपो ति, म. नि. टी. (म.प.) 1(2).77; - पा ब. क. का समय, दिन के निकलने का समय - य सप्त. वि., ए. - सरूपा, भिक्खवे, उप्पज्जन्ति पापका अकुसला धम्मा, नो व. - सचे अरुणट्ठानवेलाय तेसं आबाधो ववति, तेसंयेव अरूपा, अ. नि. 1(1).98; - क त्रि., अरूप से व्यु.. रूप या किच्चं कातब्बं विसुद्धि. 1.71.
आकार से रहित - कानं पु.. ष. वि., ब. व. -- अरूपकानं अरुणुद्वापन नपुं.. तत्पु. स., सूर्य का ऊपर उठ कर आना, उपपज्जन्तानं तेसं मनायतनं उप्पज्जति, यम. 1.127; - प्रातःकाल होना, दिन निकलना - नं प्र. वि., ए. व. - कम्मट्ठान नपुं.. तत्पु. स. [बौ. सं. अरूपकर्मस्थान], चित्त भगवतो हि चारिकाचरणम्पि अरुणट्ठापनम्पि नियतं, की एकाग्रता हेतु रूपरहित आलम्बन - नं द्वि. वि., ए. व. मज्झिमपदेसेयेव चारिकं चरति, स. नि. अट्ठ. 3.309. - इति भगवा रूपकम्मट्टानं कथेत्वा अरूपकम्मट्ठानं कथेन्तो अरुणोदय पु., तत्पु. स., [अरुणोदय], सूर्योदय, प्रातःकाल .... वेदनावसेन ... कथेसि, दी. नि. अट्ट, 2.327, म. नि. - यो प्र. वि., ए. व. - अथ रत्ति विभासि, अरुणोदयो जातो, अट्ठ. (मू.प.) 1(1).286; - कसिणलाभी त्रि., जा. अट्ठ. 7.342; - ये सप्त. वि., ए. व. - अथ खुज्जस्स [अरूपकृत्स्नलाभिन्], चित्त की एकाग्रता के आलम्बन के सब्बरत्तिं सीतासिहतस्स अरुणोदये सरीरे वातो कुप्पि, जा. रूप में रूपरहित धर्मों को ग्रहण करने वाला - भिं पु., द्वि. अट्ठ. 2.189.
वि., ए. व. - अरूपिन्ति एत्थ पन अरूपकसिणलाभिं अरुप्पल पु., व्य. सं., एक प्राचीन सिंहली ग्राम - लं द्वि. अरूपक्खन्धगोचरं वाति एवमत्थो दहब्बो, दी. नि. अट्ट. वि., ए. व. - विहाररस समीपम्हि अरुप्पलं ति नामक गाम 2.85; - कायिक त्रि., ब. स. [अरूपकायिक], रूप या एकं च अञानि गामक्खेत्तानि च बहू चू, वं. 100-212. आकार से रहित (प्राणी), बिना रूप-रङ्ग वाले प्राणी - का अरुभूत त्रि., [अरुषभूत], केवल व्रण या घावों ही घावों से । पु., प्र. वि.. ब. व. - ‘अस्थि देवेसु अरूपकायिका नाम भरपूर, घावों के रूप में परिवर्तित - तं पु., वि. वि., ए. व. देवा ति, मि. प. 290; - क्खन्ध पु.. तत्पु. स. - अरुकायन्ति नवन्नं वणमुखानं वसेन अरुभूतं कायं ध. प.. [अरूपस्कन्ध]. पांच स्कन्धों में रूपस्कन्ध को छोड़कर शेष अट्ठ 2.60.
चार रूप या आकाररहित स्कन्ध, वेदना, संज्ञा, संस्कार एवं अरुमक्खन नपुं., तत्पु. स. [अरुष्मक्षण], घावों पर लगाया। विज्ञान स्कन्ध - धा प्र. वि., ब. व. - अरूपक्खन्धा हि जाने वाला मलहम या तेल - नं द्वि. वि., ए. व. - तेलञ्च इध भवोति आगता, विभ. अट्ट. 196; तं परिग्गण्हतो उप्पन्ना वसञ्च मुद्धनितेलं वा अभञ्जनं वा मधुं अरुमक्खनं फाणितं फस्सपञ्चमकाधम्मा चत्तारो अरूपक्खन्धा. स. नि. अट्ठ. घरधूपनं अधिद्वति, अनापत्ति, पारा. अट्ठ. 2.269.
2.96; - क्खन्धगोचर त्रि., ब. स. [अरूपस्कन्धगोचर]. अरूप क. नपुं.. तत्पु. स. [अरूप], 1. रूपस्कन्ध के रूपस्कन्ध से भिन्न वेदना आदि चार स्कन्धों को अपना
अन्तर्गत न आने वाले सम्पूर्ण लौकिक एवं अलौकिक धर्म, आलम्बन बनाने वाला - रं पु., वि. वि., ए. व. - अरूपिन्ति चित्त, चेतसिक एवं निर्वाण - पं प्र. वि., ए. व. - ताणं एत्थ पन अरूपकसिणलाभिं अरूपक्खन्धगोचरं वाति एवमत्थो लेणमरूपं च सन्तं सच्चमनालयं, अभि. प. 1.6; सद्द 1.70. दहब्बो, दी. नि. अट्ठ. 2.85; - जीवित नपुं., कर्म. स. अनालयमरूपञ्च पदमच्चुतमक्खर, अभि. अव. 104; [अरूपजीवित], अभौतिक जीवन, रूपस्कन्ध से भिन्न रूपसभावाभावतो अरूपं, तदे. - प संबो. ए. व. - अरूप स्कन्धों से जुड़ा हुआ जीवन - ते सप्त. वि., ए. व. - दूरङ्गम एकचारि थेरगा. 1125; रूपाभावतो अरूपा चित्तस्स अरूपजीविते वुत्त-नयेनेव च तं वदे, अभि. अव. 87; - हि, तादिसं खण्ठानं नीलादिवण्णभेदो वा नत्थि तस्मा वत्तं ज्झान नपुं., कर्म. स. [अरूपध्यान], रूप या आकार से
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अरूप
रहित चार प्रकार के आलम्बनों वाला वह ध्यान, जो रूपध्यान के उपरान्त किया जाता है तथा जिस में मन को स्थूल से सूक्ष्म की ओर ले जाने वाले चार अङ्ग रहते हैं - स्सष. वि. ए. व. चित्तमरूपज्यानस्स आलम्बा चतुरो मता, सद्धम्मो 464 द्वायी त्रि. [ अरूपस्थायिन् ] अरूपी ब्रह्मलोकों में निवास करने वाला यिनो पु. प्र. वि. ब. व. ये च रूपूपगा सत्ता ये च अरूपट्टायिनो इतिवु 46: स. नि. 1 ( 1 ) 155; तण्हा स्त्री, तत्पु. स. [ अरूपतृष्णा ]. अरूप भूमि में निवास करने की तृष्णा अपरापि तिस्सो तण्हा रूपतण्हा, अरूपतण्हा, निरोधतण्हा, दी. नि. 3.172; अरूपभवे छन्दरागो अरूपतण्हा, दी. नि. अ. 3.155; कामतण्हा, भवतण्हा, विभवतण्डा, रूपतण्हा, अरूपतण्हा निरोधतन्हा महानि. 6 धम्म पु. तत्पु. स. [ अरूपधर्म] रूपलोक से ऊपर वाले लोक का धर्म म्मा प्र. वि. ब. व. इमे व अरूपधम्मा छसद्वि च रूपधम्माति सब्बेपि समोधानेत्वा ..., अ. नि. अट्ठ. 2. 157; ताव किञ्चापि अरूपधम्मा विय रूपधम्मापि कम्मसमुद्वाना अस्थि, छ. स. अ. 377 धातु स्त्री. कर्म. स. [ अरुपधातु] रूप से रहित प्राणियों वाला लोक या क्षेत्र तुं द्वि. वि. ए. व. - इमं लोकं नासीसति कामधातुं परं लोकं नासीसति रूपधातुं अरूपधातुं महानि, 43: तु प्र. वि. ए. व. रूपधातु एवं मम... अरूपधातु एतं मम पटि. म. 125: - या सप्त. वि., ए. व. अरूपधातुया चत्तारो खन्धा, द्वे आयतनानि विभ. 475, धातुकथा स्त्री, कथा की एक कथा का शीर्षक - अरूपधातुकथा अरूपिनो धम्मा अरूपधातृति अरूपधातुकथा निद्विता, कथा 3.08-309 धातुपटिसंयुत्त त्रि.. तत्पु. स. [ अरुपधातुप्रतिसंयुक्त ] अरूपधातु के साथ जुड़ा हुआ तो पु. प्र. वि. ए. व. रूपधातुअरूपधातुपटिसंयुतो रागो सारागो चित्तस्स सारागो अयं वुच्चति भवतण्हा, विभ. 423: अभिधम्मे पनेता कामधातुपटिसंयुत्तो
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अरूपधातुपटिसंयुक्तोति एवं वित्थारिता दी. नि. अड. 3.154 - धातुवेपक्क त्रि. तत्पु, स. [ अरूपधातुवैपाक्य ]. अरूपधातु में विपाक प्राप्त करने वाला क्कं नपुं. द्वि. वि. ए. व. अरूपधातुवेपक्कञ्च, आनन्द, कम्मं नाभविस्स अपि न खो अरूपभवो पञ्चायेथाति, अ. नि. 1 (1).254: परिग्गह पु. तत्पु. स. [ अरूपपरिग्रह] अरूपधातु या अरूपलोक का कर्मस्थान के रूप में दृढ़ता से ग्रहण, कर्मस्थान हो प्र. वि. ए. व. रूपपरिग्गहो अरूपपरिग्गहोतिपि एतदेव वुच्चति म. नि. अट्ठ. ( मू.प.)
अरूप
1 (1) 286 अहारससु धातूसु अडेकादसधातुयो रूपपरिग्गहो अड्ढट्ठमकधातुयो अरूपपरिग्गहोति रूपारूपपरिग्गहोव कथितो, म. नि. अट्ट. (उप.प.) 3.74 हं द्वि. वि. ए. व. - अरूपकम्मट्टानन्ति अरूपपरिग्गह म. नि. टी. (म.प.) 1 ( 1 ) 329 पुञ्ञ नपुं तत्पु, स. [ अरूपपुण्य ] अरूप लोक में किया गया पुण्य जानि प्र. वि. द. क वतारारूपपुज्ञानि सब्बे पाका अनुत्तरा, अभि. अब 47 यानि चारूपपुज्ञानि, सरूपेनीरितानि तु, अभि. अव० 128; प्पटिसंयुत्त त्रि तत्पु, स. [ अरूपप्रतिसंयुक्त ] अरूपलोक के साथ जुड़ा हुआ तो पु. प्र. वि. ए. व. -
अरूपप्पटिसतो विमोक्खो अयं निरामिसो विमोक्खो पटि॰ म॰ 227; - भव पुढे, कर्म. स. [ अरूपभव], तीन प्रकार के भवों या अस्तित्वों में से एक, अरूपलोक में प्राप्त होने वाला भव वो प्र. वि. ए. व. अपि न खो अरूपभवो पञ्ञायेत्था ति अ. नि. 1 (1) 254 सेय्यधिदं कामभवो वा रूपभवो वा अरूपभवो वा दी. नि. 2.45; वे सप्त वि.. ए. व. - बुद्धसतेनपि बुद्धसहस्सेनपि गन्त्वा बोधेतुं असक्कुणेय्ये अरूपभवे निब्बतिस्सामीति जा. अड. 1.64 वा प्र. कि.. ब. व. - द्वे अरूपभवाति अपरेनयि परियायेन सङ्ग्रहतो छ भवा?, विभ. अड. 177 - मग्गसमीत्रि अरूपलोक में उत्पत्ति प्राप्त कराने वाले मार्ग से युक्त ङ्गी पु.. प्र. वि.. ए. व. - चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति आरूप्पमग्गसमङ्गीति, महानि, 204 आरूपमग्गसमङ्गीति अरूपसमापत्तिया गमनमग्न अपरिहीनो महानि, अट्ठ 288 राग पु.. तत्पु. स. [ अरूपराग] अरूपलोक में उत्पत्ति के प्रति मानसिक लगाव, अर्हत्व मार्ग पर चल रहे साधक द्वारा नष्ट किये जाने योग्य पांच ऊर्ध्वभागीय संयोजनों में से एक गो प्र. वि. ए. व. पज्य उद्धम्भागियानी सञ्ञोजनानि रूपरागो अरूपरागो, मानो, उद्धव्यं, अविज्जा दी. नि. 3.187; अरहत्तमग्गेन रूपरागो, अरूपरागो, मानो, उद्धच्चं अविज्जा- इमानि पञ्च सञ्ञोजनानि पहीयन्ति, पटि. म. लोक पु०, तत्पु० स० [ अरूपलोक], रूप और आकार से रहित ब्रह्माओं का लोक- के सप्त. वि., ए. व.
275;
रूपगरुभारमुज्झिय अरूपलोके पि सङ्गमपहाय, सद्धम्मो, 494: विपाक त्रि. ब. स. [ अरूपविपाक ] अरूप-भव से प्राप्त विपाक कानि नपुं. प्र. वि. व. क. चत्तारि ब० अरूपविपाकानीति एवं चतुब्बिधं विञ्ञाणं होतीति, विभ. अ. 144 विभाग पु. रूपा. वि. के एक भाग का शीर्षक, रूपा. वि. 151-159; सङ्गात त्रि. ब. स. [ अरूपसंख्यात].
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अरूप
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अरूपूपपत्ति
वह, जो रूप या आकार से रहित धर्म के रूप में प्रसिद्ध हो, रूप-आकार से रहित कहा जाने वाला - तो पु., प्र. वि., ए. व. - सा उप्पज्जिस्सतीति अरूपसङ्घातो अत्ता नत्थीति सङ्घयं अगन्तवा तिढतेव नामाति जातो. ध. स. अट्ठ. 388; - ता स्त्री., प्र. वि., ए. व. - अरूपेन युत्ता धातु अरूपधातु, अरूपसङ्खाता वा धातु, अरूपधातु, महानि. अट्ट, 34; - सजी त्रि., रूपसजी का निषे. [अरूपसंज्ञिन]. रूप में परिकर्म की संज्ञा न रखने वाला - जी पु., प्र. वि., ए. व. - अज्झत्तं अरूपसञ्जीति अलाभिताय वा अनत्थिकताय वा अज्झत्तरूपे परिकम्मसआविरहितो, दी. नि. अट्ठ. 2.136; न रूपसञी अरूपसी , सञआसीसेन झानं वदति, लीन (दी. नि. टी.) 2.143; - सन्तति स्त्री., तत्पु. स. [अरूपसन्तति], रूप-रहित धर्मों की निरन्तरता या लगातारपन - संयुत्तभाणका पन रूपसन्ततीति अरूपसन्ततीति द्वे सन्ततियो वत्वा .... ध. स. अट्ठ. 4363B -- समापत्ति स्त्री., तत्पु. स. [अरूपसमापत्ति], अरूपलोक की प्राप्ति, अरूपलोक में उत्पत्ति – या तृ. वि., ए. व. - अरूपसमापत्तिया गमनमग्गेन अपरिहीनो, महानि. अट्ठ 288; अरूपसमापत्तिया रूपकायतो विमुत्तो, मग्गेन नामकायतो. म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.134; - यो प्र. वि., ब. व. - चत्तारि च झानानि, चतस्सो च अरूपसमापत्तियो- अयं सामयिको विमोक्खो, पटि. म. 226; - सत्तकसम्मसनकथा स्त्री., विसुद्धि के एक खण्ड का शीर्षक, विसुद्धि. 2.260-264; - सहगत त्रि., तत्पु. स. [अरूपसहगत], अरूप-ध्यान के साथ विद्यमान - तानं स्त्री., ष. वि., ब. व. - रूपसहगतानं वा अरूपसहगतानं वा समापत्तीनं, .... पु. प. 117; अरूपसहगतानन्ति रूपतो अझं, न रूपन्ति अरूपं पु. प. अट्ठ. 32; - पारम्मण त्रि., ब. स. [अरूपालम्बन], रूपरहित या निराकार आलम्बनों वाला - णं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - रूपारम्मणञ्च सुखं अरूपारम्मणञ्च सुखं, अ. नि. 1(1).97; - पावचर 1. पु., अरूप ब्रह्मलोक - रं द्वि. वि... ए. व. - ये अरूपावचरं उपपज्जित्वा परिनिब्बायिस्सन्ति तेसं धम्मायतनं उप्पज्जिस्सति, यम. 1.144; 149; 2. त्रि., अरूपलोक के साथ जुड़ा हुआ, अरूप ब्रह्मलोक में अनुभूत, अरूप-ब्रह्मलोक में अत्यधिक घटित होने वाला - रो पु., प्र. वि., ए. व. - कामावचरो फस्सो रूपावचरो फस्सो अरूपावचरो फस्सो सुञतो फस्सो, महानि. 37; कामञ्च रूपञ्च पहाय अरूपे अवचरती ति अरूपावचरो, कुसलाब्याकतवसेन द्वादसां रूपावचरचित्तसम्पयुत्तो, महानि.
अट्ठ. 131; 3. त्रि., उपरिवत्, स. पू. प. में ही प्राप्त; - कुसल त्रि., अरूपभूमि का कुशल चेतसिकों से सम्प्रयुक्त चित्त - लं नपुं., प्र. वि., ए. व. - अरूपावचरकुसलं, ध. स. 78; - ज्झान नपुं., कर्म, स. [अरूपावचरध्यान्], रूपरहित चार आलम्बनों पर चित्त को एकाग्र कराने वाला ध्यान - यस्मा रूपावचरचतुत्थज्झानम्पि दुवङ्गिक उपेक्खासहगतं, अरूपावचरज्झानम्पि तादिसमेव, दी. नि. अट्ठ. 2.93; - देवता स्त्री., अरूप ब्रह्मलोक के देवता - मन्दान सन्निपतिता असआ अरूपावचरदेवता समापन्नदेवता च, दी. नि. अट्ठ. 2.243; - भूमि स्त्री., कर्म. स., चित्त की क्रियाशीलता का वह चरण, जिसमें चित्त रूपरहित आलम्बनों पर एकाग्र होता है - चतस्सो भूमियो - कामावचरा भूमि, रूपावचरा भूमि, अरूपावचरा भूमि, अपरियापन्ना भूमि, पटि. म. 77; - लोक पु., कर्म. स., रूपरहित ब्रह्मा का लोक - के सप्त. वि., ए. व. - तस्स रूपावचरे कडा नत्थि, अरूपावचरलोके अत्थि, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.88; - समाधिभावनानिद्देस पु., तत्पु. स., अभि. अव. के पन्द्रहवें परिच्छेद का शीर्षक, अभि. अव. 128-134. अरूपी त्रि., रूपी का निषे. [अरूपी], रूपरहित, अभौतिक, निराकार - रूपी च अरूपी च अत्ता होति... पे.... नेवरूपी नारूपी अत्ता होति, दी. नि. 1.26; अयहि, भन्ते, आकासो अरूपी अनिदस्सनो, म. नि. 1.180; - पिनो पु., प्र. वि., ब. व. - रूपिनो वा अरूपिनो वा सचिनो वा असजिनो वा नेवसञ्जीनासचिनो वा, मि. प. 205; - पिसु पु., सप्त. वि., ब. व. - पञ्च रूपभवेयेव, चत्तारेव अरूपिसु अभि. अव. 40. अरूपिक त्रि., बिना रूप वाला, अभौतिक, रूपस्कन्ध से असम्बद्ध (केवल स. प. के रूप में ही प्राप्त) -
रूपारूपिकपुञ्जन्तु रूपारूपभवावहं, सद्धम्मो. 236. अरूपिब्रह्म पु., कर्म, स., केवल ब. व. में प्राप्त [अरूपिब्रह्मन], अरूप लोक के ब्रह्मा - नो द्वि. वि., ब. व. - एवं सो असञ्ज च अरूपिब्रह्मानो च ठपेत्वा सब्बत्थ मुहुत्तेनेव
आहिण्डित्वा आरोचेसि, ध. प. अट्ठ. 2.358. अरूपिम त्रि., रूपिम का निषे०, सुन्दर रूप से विहीन, कुरूप - मं पु., वि. वि., ए. व. - पस्सामि पोसं अलसं महग्घसं. सुदुक्कुलीनम्पि अरूपिम नरं जा. अट्ठ. 5.395. अरूपूपपत्ति स्त्री., तत्पु. स. [अरूपोपपत्ति], क. अरूपलोक में जन्म की प्राप्ति, ख. अरूपध्यान की प्राप्ति - या च./ष. वि., ए. व. - यस्मिं समये अरूपूपपत्तिया मग्गं भावेति, ध. स. 2663; 267; 268; विभ. 195; अरूपूपपत्तियाति
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अरे/हरे/रे
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अल
अरूपभवो अरूप, अरूपे उपपत्ति अरूपूपपत्ति, तस्सा अरोगी त्रि., रोगी का निषे. [अरोगिन], रोगरहित, स्वस्थ, अरूपूपपत्तिया, ध. स. अट्ठ. 245.
कुशल, क्षय-मुक्त - गी पु., प्र. वि., ए. व. - अरोगी महितं अरे/हरे/रे अ०, [अरे रे], आश्चर्य, घबराहट, असन्तोष, चम्म, धन्तहेमं निदस्सनं, अभि. अव. 90. डांट-फटकार एवं तिरस्कार का सूचक निपा., अपने से अरोचक/अरोचिक पु.. [अरोचक], भूख का कम लगना, छोटी श्रेणी वाले लोगों के लिए प्रयुक्त सम्बोधन - अव्हाने भोजन के प्रति अरुचि या जुगुप्सा - को प्र. वि., ए. व. भो अरे अम्भो हम्भो रे जेङ्ग आवुसो, हे हरे थ, अभि. प. - अरोचको आहाररस अरुच्चनरोगो, लीन. (दी.नि.टी.) 1139; आवुसो, अम्भो हम्भो हरे अरे हे इच्चेते 2.172; - केन तृ. वि., ए. व. - भत्ताच्छादकेनाति भत्तं एकवचनपुथुवचनवसेन पुरिसानं आमन्तणे, सद्द, 3.894%; अरोचिकेन, महाव. अट्ठ. 351. 895; अहो वत रे छेका आचरिया, ईदिसानिपि नाम सिप्पानि अरोचयति रुच के वर्त. प्र. पु., ए. व., पसन्द करता है, करिस्सन्ती ति, ध. स. अट्ठ. 251; सा नून पुन रे पक्का, मन के लिए रुचिकर मानता है - यिंसु अद्य. प्र. पु. ब. विकाले भत्तमाहरि जा. अट्ठ. 5.99; महाजनो अरे व. - तम्हा च कम्मा विरमिंसु एके, एके च पब्बज्जमरोचयिंसु, दुट्ठअन्तेवासिक, त्वं आचरियेन सद्धिं सारम्भं करोसि, जा. थेरगा. 724. अट्ठ. 2.187.
अरोदनकारण नपुं., तत्पु. स. [अरोदनकारण], नहीं रोने अरोग/आरोग त्रि., ब. स. [अरोग], शा. अ. रोग से का कारण - णं द्वि. वि., ए. व. - तं सुत्वा सा अरोदनकारणं मुक्त, स्वस्थ, हट्ठा कट्ठा, अच्छा, भला- गो पु., प्र. वि., ए. कथेन्ती.... पे. व. अट्ट. 54. व. - सोम्हि अरोगो विभमिस्सामी ति ... तं भिक्खु चेव अरोदमान त्रि., रुद के वर्त. कृ. का निषे. [अरोदमान], उपलहिंस. जीवको च कोमारभच्चो तिकिच्छि सो अरोगो नहीं रो रहा/रही - ना स्त्री., प्र. वि., ए. व. - केन विभमि, महाव. 91-92. येन येन भेसज्जेन आतुरो अरोगो कारणेन त्वं रोदितं युत्तकाले अरोदमानाव महाहसितं हसासि, होति, तेन तेन भेसज्जेन आतुरं उपसङ्कमति, मि. प. 166; जा. अट्ठ, 3.195. - गा ब. व. - पुत्ता च मे समानिया अरोगा, सु. नि. 24; अरोपितजात त्रि., कर्म. स. [अरोपितजात], बिना रोपे हुए ला. अ. अक्षुण्ण, नित्य, मृत्यु के उपरान्त रोग आदि से स्वयं उत्पन्न (जंगली फसल) - ता पु.. प्र. वि., ब. व. - सर्वथा मुक्त एवं शुद्ध आत्मा - अरूपी अत्ता होति अरोगो परं चीनकानीति अटविपब्बतपादेसु अरोपितजाता चीनमुग्गा, मरणा सञी तिनं पञपेन्ति, दी. नि. 1.26; तत्थ अरोगोति सु. नि. अट्ठ 1.261. निच्चो, दी. नि. अट्ठ. 1.101; एवं वण्णो अत्ता होति अरोगो अरोपिम त्रि., उपरिवत् -- नं नपुं.. प्र./द्वि. वि., ए. व. - परं मरणा'ति, म. नि. 2.235; - गा स्त्री., प्र. वि., ए. व. महावनं नाम सयंजातं अरोपिमं सपरिच्छेदं महन्तं वनं. - सुखिनी होतु सुप्पवासा कोलियधीता, अरोगा अरोगं पुत्तं । विजायतूति, उदा. 86; तावदेवस्स माता अरोगा अहोसि, अरोसनेय्य त्रि.. रुस के सं. कृ. रोसनेय्य का निषे०, वह, ध. स. अट्ठ. 149; - ता स्त्री॰, भाव. [अरोगता], स्वस्थ जिसे किसी भी तरह रुष्ट या क्रोधित न किया जा सके - होना, उपद्रवों से मुक्त होना, रोग-रहित होना - सोभनानं य्यो पु., प्र. वि., ए. व. - अरोसनेय्यो न सो रोसेति कञ्चि, अत्थिता होतु अरोगता निरुपदवताति, खु, पा. अट्ठ. 142; तं वापि धीरा मुनि वेदयन्ति, सु. नि. 218; ... सो खीणासवमुनि आयु अरोगता वण्णं, सग्गं उच्चाकुलीनता, मि. प. 309; - अरोसनेय्यो धीतुमारको ति वा पेसकारो ति वा एवमादिना नत्तु त्रि., ब. स. [अरोगनप्त], वह, जिसके नाती स्वस्थ या नयेन कायेन वा वाचाय वा रोसेतुं घट्टेतुं बाधेतुं अरहो न नीरोग हों - त्ता स्त्री., प्र. वि., ए. व. - तेन खो पन होति, सु. नि. अट्ठ. 1.224. समयेन विसाखा मिगारमाता बहुपुत्ता होति बहुनत्ता, अरोगपुत्ता अल क. तन्द्रा, रोकना, दूर रखना अर्थ वाली एक धातु - अरोगनत्ता अभिमङ्गलसम्मता, पारा. 292; - भाव पु.. स्वस्थ कलिले अलकल द्वयं, धा. मं. 66; मनु-पूर सुण कुसु होना, रोगों से रहित अवस्था, कुशलता - वं द्वि. वि., ए. इल अल मह सि-कि इच्चेवामादीहि धातूहि पाटिपदिकेहि व. - सा मातापितूनञ्च भरियाय च पत्तानञ्च अरोगभावं च उस्सनुस इस इच्चेते पच्चया होन्ति, क. व्या. 675; ख. पुच्छि ध. प. अट्ठ. 1.186; अथरस मम अरोगभावं कथेत्वा अलङ्करण अर्थ वाली एक धातु - अल भूसने, सद्द. तं आदाय आगच्छेय्याथ, जा. अट्ठ. 3.52.
2.434.
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अलि
अलं/हलं अलि बन्धन अर्थ वाली एक धातु - अलि बंधने धा. मं. 66.. आदिमाह, दी. नि. अट्ठ. 2.161; अलन्ति पटिक्खेपत्थे अळ/अल नपुं./पु. [अल]. केकड़ें के पजे का शिरा, निपातो, तदे. 3. तृ. वि. में अन्त होने वाले नामों बिच्छू की पूंछ पर लगा डंक - ळं द्वि. वि., ए. व. - तथा पू. का. कृ. के साथ अन्वित रहने पर प्रायः यदेव हि सो, भन्ते, कक्कटको अळ अभिनिन्नामेय्य तं बस, बेकार, जैसे अर्थों का सङ्केतक - होतु, भन्ते, तदेव ते कुमारका वा कुमारिका वा .... म. नि. 1.300; एवं अलं एत्तकेनाति, मि. प. 16; “अलं मे बुद्धन, अलं मे अळं सिथिलं करिस्सामि, काकं पन नेव विस्सज्जेस्सामीति, धम्मेन, अलं मे सङ्केनाति वदेही तिध. प. अट्ठ. 1.269; - जा. अट्ठ. 3.260; - ळेहि तृ. वि., ब. व. - उप्पलमकुळ मत्थ/मत्त त्रि., ब. स., उपयोगी, अत्यधिक लाभप्रद, विय अळेहि उभिन्नम्पि सीसं कप्पेत्वा जीवितक्खयं पापेसि, क्षमता या सामर्थ्य से युक्त - ... त्वं वीसतिवस्सुद्देसिकोपि. जा. अट्ठ. 3.260-261; सचाहं अळेहि तव गीवं गहेतु .. उरुबली बाहुबली अलमत्तो सङ्गामावचरो, म. नि. 2.266. लभिस्सामि, जा. अट्ठ. 1.219; - च्छिन्न त्रि., ब. स., क. - कम्मनीय त्रि.. पूर्णरूप से उपयुक्त - ... उपसङ्कमित्वा पंजे या डंक से रहित; वह, जिसका डंक या पंजा गिर चुका तस्सा कुमारिकाय सद्धिं एको एकाय रहो पटिच्छन्ने आसने है - न्नो पु.. प्र. वि., ए. व. - उद्धटदाठो विय सप्पो, अलंकम्मनीये निसज्जं कप्पेसि.... पारा. 292; - वचनीय अळछिन्नो विय कक्कटको, छिन्नविसाणो विय च उसभो त्रि., तिरस्कार या अवमानना के साथ सम्बोधित किये जाने अहोसि, जा. अट्ट, 1.481; ख. कटे हुए अंगूठों वाला - न्नो। योग्य, अपमान-प्रकाशक शब्दों से सम्बोधित - यं पु., द्वि. पु., प्र. वि.. ए. व. - अळछिन्नोति यस्स चतूसु अङ्गुटकेसु वि., ए. व. - परिसमज्झे अलंवचनीयं कत्वा मा पुन गेहं अङ्गुलियं वुत्तनयेनेव एको वा वहू वा अङ्कुट्टका छिन्ना होन्ति, पाविसी ति विस्सज्जेसि. म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.8; - या महाव. अट्ठ. 292; - न्नं पु., द्वि. वि., ए. व. - अलच्छिन्नं । स्त्री., प्र. वि., ए. व., किसी एक के प्रति समर्पित, परित्यक्ता पब्बाजेन्ति, महाव. 115; हत्थच्छिन्नमळच्छिन्नं, पादछिन्नञ्च नारी, गर्हित स्त्री - तस्स कुकुच्च अहोसि..पे... अलंवचनीया, पुग्गलं, विन. वि. 2486.
भिक्खूति?, पारा. 223; नालंवचनीयाति न परिच्चत्ताति अलं/हलं अ., निपा., वै. अरं का रूपान्तरण [अलं], अनेक अत्थो, या हि यथा यथा येसु येसु जनपदेसु परिच्चत्ता प्रकार के आशयों में प्रयोग, क पर्याप्त, यथेष्ट, काफी, परिच्चत्ताव होति, भरियाभावं अतिक्कमति, अयं युक्त, उपयुक्त, सक्षम, तुल्य (प्रायः निमि. कृ. अथवा च. अलंवचनीया ति, तुच्चति, पारा. अट्ठ.2.134; - वचनीयत्त वि. में अन्त होने वाले नामों के साथ प्रयुक्त)- निपातभूतो नपुं.. भाव., अपमानजनक शब्दों से सम्बोधित होना - त्तं पन अयं सद्दो परियत्तिनिवारणत्थवाचको दिस्सति, अलं एतं । द्वि. वि., ए. व. - अलंवचनीयत्तं वा, पण्णत्तिं वा अजानतो. सब्ब.... सद्द. 2.434. अलञ्च पन ते पटिसेवतो अन्तरायाय, विन. वि. 376; - समक्खाता पु.. किसी बात को पर्याप्त म. नि. 1.183; अलं ते अविष्पटिसाराय, चूळव. 411; रूप से प्रकाशित करने वाला, सक्षम शिक्षक - तारो प्र. अलमेव सद्धेन कुलपुत्तेन दस्सनाय उपसमितुं अपि वि.. ब. व. - ओवादका विञआपका सन्दरसका समादपका पुटोसेना ति. दी. नि. 1.103; तत्थ अलमेवाति युत्तमेव, दी. समुत्तेजका सम्पहंसका अलंसमक्खातारो सद्धम्मस्स दस्सम्पहं नि. अट्ठ. 1.232; ख. निषेध या वर्जन के अर्थ का सङ्केतक, इतिवु. 76; अलंसमक्खातारोति अलं परियत्तं यथावृत्तं बस, व्यर्थ, हो चुका, रहने भी दो, बेकार - निसेधे न अ नो अपरिहापेत्वा सम्मदेव अनुग्गहाधिपायेन अक्खातारो, इतिवु. माल नहि, चे तु सचे यदि, अभि. प. 1147; न नो मा अ अट्ठ. 288; - समुग्गह त्रि.. ब. स., भिक्षुसङ्घ के दूत आदि अलं हलं इच्चेते पटिसेधनत्थे. सद्द. 3.889. अनेक रूपों में के कर्मों को अपने हाथ में लेने में सक्षम - ग्गहो पु., प्र. प्रयोग, 1. निमि. कृ. के साथ अन्वित - तस्मा हि यागुं वि., ए. व. - दूतेय्यकम्मेसु अलं समुग्गहो, सङ्घस्स किच्चेसु अलमेव दातुं निच्चं मनुस्सेन सुखत्थिकेन, महाव. 2973; च आहु नं यथा, महाव. 484: दूतेय्यकम्मेसु अलन्ति अहि पञ्चहि, भिक्खवे, अङ्गेहि समन्नागतो सद्धिविहारिको अलं दूतनेहि समन्नागतता सङ्घस्स दूतेय्यकम्मेसु समत्थो, सुद्ध पणामेतुं, महाव. 61; 2. संबो. के साथ अन्वित रहने उग्गण्हातीति समुग्गहो, महाव. अट्ठ. 411; - साकच्छ त्रि०, पर चेतावनी या प्रतिक्षेप अर्थ का सङ्केतक - अलं किसी सार्थक संभाषण में संलाप करने में सक्षम- च्छो प.. देवदत्त! मा ते रुच्चि सडभेदो, चूळव. 337; सुत्वा च पन प्र. वि., ए. व. - पञ्चहि, भिक्खवे, धम्मेहि समन्नागतो सुभहस्सेव अत्थाय महता उस्साहेन आगतत्ता अलं आनन्दाति भिक्खु अलंसाकच्छो सब्रह्मचारीनं, अ. नि. 2(1).75; पञ्चमे
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अलक
583
अलक्खिय
अलंसाकच्छोति साकच्छाय युत्तो, अ. नि. अट्ठ. 3.31; - साजीव त्रि., भिक्षुसङ्घ में अन्य भिक्षुओं के साथ ठीक से निवास करने तथा अन्य क्रियाकलापों में सक्षम – वो पु., प्र. वि., ए. व. - पञ्चहि, भिक्खवे, धम्मेहि समन्नागतो भिक्खु अलंसाजीवो सब्रह्मचारीनं, अ. नि. 2(1).76; छठे अलंसाजीवोति साजीवाय युत्तो, अ. नि. अट्ठ. 3.31; - साटक त्रि.. ब. स., पांच प्रकार के पेटुओं या अत्यधिक मात्रा में भोजन लेने वालों में से एक, पेट्रपन के कारण उठी हुई तोंद के कारण ठीक से वस्त्र धारण करने में अक्षम - को पु.. प्र. वि., ए. व. - महग्यसो चाति महाभोजनो आहरहत्थकअलंसाटकत-त्रवट्टककाकमासकभुत्तवमितकानं अञतरो विय, ध. प. अट्ठ. 2.290; यो भुजित्वा अच्चु मातकुच्छिताय अद्वितोपि साटकं निवासेतुं न सक्कोति, अयं अलंसाटको, विसद्धि. महाटी. 1.56. अलक' पु.. [अलक]. धुंघराले बाल, बालों की लटें, जुल्फें, मस्तक के घूघर - का प्र. वि., ए. व. - कस्स वातेन छुपिता, निद्धन्ता मुदुकाळका, जा. अट्ठ. 7.63. अळक' पु., व्य. सं., एक राजा का नाम - स्स ष. वि., ए. व. - सो अस्सकस्स विसये, अळकस्स समासने, सु. नि. 983; अळकस्स पतिद्वानं, पुरिमाहिस्सतिं तदा, सु. नि. 1017. अलकमंदा/आळकमन्दा स्त्री., [अलकनन्दा]. कुबेर विस्सवन महाराज) की राजधानी- देवानं आळकमन्दा नाम राजधानी इद्धा चेव होति फीता च बहुजना च.... दी. नि. 2.110-111; आळकमन्दाव देवानं सावत्थिपुरमुत्तमन्ति, खु. पा. अट्ठ. 90; अलका लकमन्दास्स पुरी, पहरणं गदा, अभि. प. 32. अलका स्त्री.. [अलका]. उपरिवत् - अलकेव कुबेरस्स
सक्कस्सेवामरावती, चू. वं. 80.5. अळक्क' पु.. [अलक], सफेद मदार, अकवन - क्को प्र. वि., ए. व. - अक्को विकिरणो तस्मि, त्वळक्को सेतपुप्फके. अभि. प. 581; - माला स्त्री.. तत्पु. स. [अलर्कमाला]. मदार के पुष्पों की माला - य तृ. वि., ए. व. - वानरेन कुत्तगाथाय अलक्कमालीति अहितुण्डिकेन कण्ठे परिक्खिपित्वा ठपिताय अलक्कमालाय समन्नागतो, जा. अट्ठ. 4.2773; - माली पु.. प्र. वि., ए. व. [अलर्कमालिन]. मदार के पुष्पों की माला को धारण करने वाला - अलक्कमाली तिपुकण्णविद्धो, लट्ठीहतो सप्पमुखं उपेत जा. अट्ठ.4.2763
... अलक्कमालीति ... अलक्कमालाय समन्नागतो, जा.
अट्ठ. 4.277. अलक्क पु., [अलक], पागल कुत्ता - स्वानो सुवानो साळूरो सूनो सानो च सा पुमे, उन्मत्तादितमापन्नो अळक्को तिसुणो मनो, अभि. प. 519; तुल., शुनको भषक: श्वा स्यात्, अलर्कस्तु स योगितः, अमर. 2(10).22. अलक्खिक त्रि., [अलक्षक, अलक्ष्मक], शा. अ. चिहों या लक्षणों से रहित, नहीं दिखाई देने योग्य, ला. अ. वह, जिसके अशुभ लक्षण स्पष्ट रूप में दिखलाई न पड़ें, अमङ्गलसूचक, दुर्भाग्यजनक, मूर्ख, प्रज्ञाहीन - को पु..प्र. वि., ए. व. - याव पापो अयं देवदत्तो, अलक्खिको, चूळव. 335; अलक्खिकोति एत्थ न लक्खेतीति अलक्खिको, न जानातीति अत्थो, अहं पापकम्मं करोमीति न जानाति, न लक्खितब्बोति वा अलक्खिको, न परिसतब्बोति अत्थो, चूळव अट्ठ. 109; - का स्त्री., प्र. वि., ए. व. - अहं काळी अलक्खिका, काळकण्णीति में विदू ... अलक्खिकाति निप्पा , जा. अट्ठ. 3.226; - कं पु., द्वि. वि., ए. व. - कस्मा एवरूपं अलक्खिक रुञो पच्छिमासने निसीदापेसु. जा. अट्ठ. 5.277-78; - ता स्त्री., भाव. [अलक्ष्यता, अलक्ष्मीकता], ऐश्वर्य-विहीनता, धनसंपत्ति आदि से रहित होना - य तृ. वि., ए. व. - तत्थ नाहं अलक्ख्याति अलक्खिकताय निस्सिरीकताय नाहं गेहतो निक्खमिन्ति योजना, थेरगा. अट्ठ.2.399. अलक्खिपुरिस पु., कर्म. स. [अलक्ष्मीकपुरुष], ऐश्वर्य या सौभाग्य से रहित पुरुष, अभागा, पापी - स संबो.. प्र. वि., ए. व. - पुरिसन्त अन्तिमपुरिस, कलि अलक्खिपुरिस, अवजात अवजातपुत्त, सु. नि. अट्ठ. 2.180. अलक्खी स्त्री.. [अलक्ष्मी], क. दुर्भाग्य, विपत्ति, दुर्दशा, बुरी हालत - क्खिं द्वि. वि., ए. व. - नहि लक्खिं अलक्खिं वा, अञो अञस्स कारको ति, जा. अट्ठ. 3.230; अलक्खिं नुद महाराज, लक्ख्या भव निवेसनं जा. अट्ठ. 5.107: ख. कालकर्णी, अपशकुन, दुर्भाग्यसूचक लक्षण, असमृद्धि की देवी - अलक्खी काळकण्णीत्थी, अथ लक्खी सिरित्थिय, अभि. प. 82; सिरी तात अलक्खी च, पुच्छिता एतदब्र.
जा. अट्ठ. 5.107. अलक्खिय पु., व्य. सं., एक तमिल-प्रमुख का नाम - तथा ताड़िगप्पेरुमाळो अळक्खियरायरव्हयो, चू. वं. 76.145.
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अलगक्कोनार
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अलंकत/अलङ्कत अलगक्कोनार पु., व्य. सं., एक राजकुमार का नाम, जो अलग्गो असत्तो अप्पतिहितो अपलिबुद्धो, ... सब्बकिलेसे च श्रीलङ्का के शासक विक्कमबाहु चतुर्थ का समकालीन, सब्बत्थ अलग्गेन भवितब्ब, मि. प. 356-357; ... गच्छन्तो पेरदोषी (आधुनिक पेरादेनिय) का निवासी तथा जयवङ्घनकोट्ट राजहंसो विय कत्थचि अलग्गोयेव मम पुत्तो ति..... ध. प. नामक नगर का संस्थापक था - गिरिवंसाभिजातो सो अट्ट, 1.343; एवं सो कत्थचि अलग्गो बहि निक्खमति, अलगक्कोनारनामको, चू. वं. 91.3..
उदा. अट्ठ, 97; - चित्त त्रि.. ब. स. [अलग्नचित्त], अलगद्द पु.. [अलगर्द], पानी का सांप, गेंहुअन सांप की इच्छारहित चित्त वाला, आसक्ति-रहित चित्त वाला, अनपेक्ष कृष्ण-वर्ण वाली प्रजाति का एक सांप - सिरिंसपो फणी - त्तो पु.. प्र. वि., ए. व. - एवं करुणं परिदेवन्ते तत्थ तत्थ सप्पा लगद्दा भोगिपन्नग्गा, अभि. प. 653; तुल., अलगर्दो, अनपेक्खो अलग्गचित्तो, चरिया. अट्ठ. 169; - ता स्त्री., जलव्याल: समौ राजिलडुण्डुभौ, अमर. 1(8).5; - दो प्र. भाव. [अलग्नता], अनासक्ति, बिलगाव की स्थिति, निरपेक्षता वि., ए. व. - तस्स सो अलगद्दो पटिपरिवत्तित्वा हत्थे वा - य तृ. वि., ए. व. - तमहं अलग्गताय असत्तं, पटिपत्तिया बाहाय वा अञ्जतरस्मिं येवा अङ्गपच्चले डसेय्य, म. नि. सुट्ट गतत्ता सुगतं, चतुन्नं सच्चानं बुद्धताय बुद्धं ब्राह्मणं 1.187; गदोति हि विसरस नाम, तं तस्स अलं परिपुण्णं वदामीति अत्थो, ध. प. अट्ठ.2414; - भाव पु. [अलग्नभाव, अत्थीति अलगद्दो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).13; अलं उपरिवत् - वो प्र. वि., ए. व. - सब्बं पच्चुपट्टपेत्वा परियत्तो गदो अस्साति अलगद्दो, म. नि. टी. (मू.प.) कमलदले जलबिन्दु विय सब्बत्थ अलग्गभावो, उदा. अट्ठ. 1(2).83; - स्स ष. वि., ए. व. - तं किस्स हेतु? दुग्गहितत्ता 188; - भाव-लक्खण त्रि., ब. स. [अलग्नभावलक्षण], भिक्खवे, अलगद्दस्स, म. नि. 1.187; - द्दत्थिक त्रि., बिलगाव, निरपेक्षता या अनासक्ति के लक्षण वाला - णो [अलगार्थिक], पानी के जहरीले सांप की चाह करने पु., प्र. वि., ए. व. - अलग्गभावलक्षणो वा कमलदले वाला - को पु., प्र. वि., ए. व. - सेय्यथापि, भिक्खवे, जलबिन्दु विय, ध. स. अट्ठ. 172. पुरिसो अलगद्दत्थिको अलगद्दगवेसी अलगद्दपरियेसनं चरमानो अलग्गन? त्रि., ब. स. [अलग्नार्थ], अलिप्तता या बिलगाव .... म. नि. 1.187; अलगद्दत्थिकोति आसिविसअस्थिको, म. के अर्थवाला - द्वेन पु., तृ. वि., ए. व. - अलग्गनदेन नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).13; - परियत्ति स्त्री., कर्मस. अब्भोकासो वियाति अब्भोकासो, दी. नि. अट्ठ. 1.148. [अलगर्दपर्याप्ति], जहरीले सांप को पकड़ने में प्राप्त फल अलग्गमान त्रि., Vलग के वर्त कृ. का निषे०, नहीं लगाव के समान लाभ-सम्मान पाने के लिए बुद्धवचनों का ज्ञान रखने वाला, लिप्त न रहने वाला - नं पु., वि. वि., ए. व. पाना - तिस्सो हि परियत्तियो अलगद्दपरियत्ति नित्थरणपरियत्ति - असज्जमानन्ति अलग्गमानं, ध. प. अट्ठ. 2.174. भण्डगारिकपरियत्तीति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).13; तत्थ अळग्वानगिरि पु., सिंहल के राजा परक्कमबाहु प्रथम द्वारा यो बुद्धवचनं उग्गहेत्वा एवं चीवरादीनि वा लभिस्सामि, विजित क्षेत्र - रिं द्वि. वि., ए. व. - अळग्वानगिरि गहि चतुपरिसमज्झे वा मं जानिस्सन्तीति लाभसक्कारहेतु महाबलपरक्कमो, चू. वं. 77.12. परियापुणाति, तस्स सा परियत्ति अलगद्दपरियत्ति नाम, तदे; अलंक/अलङ्क पु./नपुं. विशेष प्रकार का आभूषण या - सुत्तन्त पु.. म. नि. के एक सुत्त का शीर्षक, जिसमें बुद्ध गहना - इमिस्सं हि कवीनं कब्बरचनायं अलंकसद्दो भूसनविसेसं ने अरिट्ठ को उसकी मिथ्या धारणा के विषय में समझाते हुए वदति, सद्द. 2.434.19. यह बतलाया है कि जैसे जहरीले सर्प को ठीक से न अलंकत्त/अलङ्कत त्रि., अलं + कर का भू. क. कृ. पकड़ने वाले व्यक्ति को सांप काट लेता है उसी प्रकार बुद्ध- [अलङ्कृत], शा. अ. पर्याप्तरूप से निर्मित, अच्छी तरह से वचनों के सही आशय को न पकड़ने वाला व्यक्ति हानि को तैयार किया गया, ला. अ. सुसज्जित कर दिया गया, प्राप्त करता है; म. नि. 1.183-196; - दूपमा स्त्री., प्र. वि., विभूषित - तो पु.. प्र. वि., ए. व. - अलङ्कतो चेपि समं ए. व., जहरीले सर्प को पकड़ने जैसी - तत्थ या दुग्गहिता चरेय्य, ध. प. 142; तत्थ अलङ्कतोति वत्थाभरणेहि पटिमण्डितो. उपारम्भादिहेतु परियापुटा अयं अलगद्पमा, ध. स. अट्ठ. 25. ध. प. अट्ठ. 2.47; एकदिवसं नगरं सज्जापेत्वा सक्को अलग्ग त्रि., Vलग के भू. क. कृ. का निषे. [अलग्न], नहीं देवराजा विय अलङ्कतो अलङ्कतएरावणपटिभागस्स लिपटा हुआ, नहीं जुटा हुआ, किसी के साथ नहीं बंधा हुआ, मत्तवरवारणस्स खन्धे निसीदित्वा .... जा. अट्ठ 3.3463; नहीं अवलम्बित - ग्गो पु., प्र. वि., ए. व. - आकासो अलङ्कतो मढकुण्डली, मालधारी हरिचन्दनुस्सदो, ... तत्थ
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अलङ्कम्मनिय
585
अलङ्कार
अलङ्कतोति नानाभरणविभूसितो, जा. अट्ट. 4.54; ध. प. अट्ठ. संवारना - णेन तृ. वि., ए. व. - अलङ्कारेनाति 1.18; - तं पु., द्वि. वि., ए. व. - सीलालङ्कारेन हि अलङ्कतं पटिजग्गनपुब्बकेन अलङ्करणेन, विसुद्धि, महाटी. 1.203; सीलकुसुमपिळन्धितं सीलगन्धानुलित्तं सदेवको लोको ख सन्तुष्टि या आनन्द पाना, केवल स. पू. प. के रूप में, आलोकेन्तो.... उदा. अट्ट, 230; - तत्तभाव त्रि., ब. स. अनलङ्करण के अन्त. द्रष्ट; - चुण्ण नपुं.. तत्पु. स. [अलङ्कृतात्मभाव], वस्त्रों एवं आभूषणों आदि से सुसज्जित [अलङ्करणचूर्ण], सजने-संवरने के उपयोग में लाया जाने शरीर वाला/वाली - वा पु., प्र. वि., ब. व. - वाला चूर्ण या पाउडर - ण्णं प्र. वि., ए. व. - वडमानन्ति बाहुसच्चसिप्पविनयेहि अलङ्कतत्तभावा, विनयानुरूपं सुभासितं अलङ्करणचुण्णं, वजिर. टी. 25. भासमाना, खु. पा. अट्ठ. 125; - पटियत्त त्रि., पूर्णरूप से अलङ्करोति अलं +vकर का वर्त., प्र. पु.. ए. व. [अलङ्करोति]. सजाया हुआ, सभी तरह से अलङ्कत - त्तो पु.. प्र. वि., ए. सजाता है, वस्त्र या आभूषण धारण करता है, अलङ्कृत व. - सन्ततिमहामत्तो गाथावसाने अरहत्तं पत्वा करता है - कुरुमानो पु., वर्त. कृ., प्र. वि., ए. व. - अलङ्कतपटियत्तोयेव आकासे निसीदित्वा परिनिबुतो, ध. प. सम्मासम्बुद्धो छबण्णबुद्धरस्सियो विस्सज्जेत्वा अट्ठ. 2.46; ततो पट्ठाय याव जेतुत्तरनगरा निरन्तर पुब्बकोट्ठकनदीतीरे लोकं अलङ्करुमानो अट्ठासि, अ. नि. अलङ्कतप्पटियत्तोव....जा. अट्ठ. 7.379; - त्तं द्वि. वि., ए. अट्ठ, 3.113; - नं द्वि. वि., ए. व. - पाचीनसमुद्दजलतलं व. - उप्पीळेत्वा बद्धमालाकपालो विय अलङ्कतप्पटियत्तं छिन्दमानं विय आकासं अलङ्कमानं विय दिब्बं चक्करतन मालासनं विय च, उदा. अट्ठ. 119; - रजत-दाम-सदिस पातुभवति, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.157; - ङ्कर अनु., म. त्रि., [अलङ्कृतरजतदामसदृक], अलंकृत चांदी की पट्टी के पु., ए. व. - तेन हि, वधु, येन अलङ्कारेन अलङ्कता पुत्तस्स समान सुन्दर - सं पु.. द्वि. वि., ए. व. - 'इतो एथा ति मे सुदिन्नरस पिया अहोसि, मनापा तेन अलङ्कारेन अलङ्कराति, वत्वा अलङ्गतरजतदामसदिसं हत्थिसोण्डं गहेत्वा तेसं हत्थे पारा. 17; -- करोहि उपरिवत - उय्यानं गन्चा महापरिसे ठपेत्वा उदकं पातेत्वा अलङ्कतवारणं ब्राह्मणानं अदासि जा. दिब्बालङ्कारहि अलङ्करोही ति, जा. अट्ठ. 1.70; -- करित्वा पू. अट्ठ. 7.237; - राजपुत्तगण पु., तत्पु. स. का. कृ.- राजा सब्बालङ्कारं अलङ्करित्वा अमच्चगणपरिवुतो [अलङ्कतराजपुत्रगण], अलङ्कत या सजे संवरे राजपुत्रों का नङ्गलकरणहानं अगमासि, जा. अट्ठ. 1.68; - अनलङ्क- पू. समूह - णो प्र. वि., ए. व. - अलङ्कतराजपुत्तगणो विय का. कृ. का निषे. - खिडं रतिं कामसुखञ्च लोके, सद्धम्मालङ्कतो सो, खु. पा. अट्ठ. 13; - वारण पु., कर्म. अनलङ्करित्वा अनपेक्खमानो, सु. नि. 59; अनलङ्करित्वा स. [अलङ्कृतवारण]. पूरी तरह से सजाया हुआ हाथी - णं अलन्ति अकत्वा, एतं तप्पकन्ति वा सारभूतन्ति वा एवं द्वि. वि., ए. व. - ... उदकं पातेत्वा अलङ्कतवारणं ब्राह्मणानं अग्गहेत्वा, सु. नि. अट्ठ. 1.89; - ङ्कारापेतुं प्रेर., निमि. कृ. अदासि, जा. अट्ठ. 7.237; - सयन नपुं., कर्म स. - कामो पु.. प्र. वि., ए. व., अलङ्कत करवाने की कामना [अलङ्कतशयन], अच्छी तरह से सजायी गई सेज या शय्या वाला - अत्थगते सूरिये मङ्गलसिलापट्टे निसीदि अत्तानं - नं द्वि. वि., ए. व. - न मे अलङ्कतसयनं सादियिस्सति, अलङ्कारापेतुकामो, जा. अट्ठ. 1.70; - ङ्कारापेत्वा प्रेर., पू. जा. अट्ठ, 7.2.
का. कृ., अलङ्कत कराके - मग्गं समं कारेत्वा कदलिपुण्णघटअलङ्कम्मनिय त्रि., कर्म. स. [अलंकर्मण्य], काम करने हेतु धजपटाकादीहि अलङ्कारापेत्वा देवि..... जा. अट्ठ. 1.62. पूरी तरह से उपयुक्त, हाथ में ले लेने योग्य, काम करने अलङ्कार पु., अलं + Vकर से व्यु. [अलङ्कार]. शा. अ. के लिये अच्छा - ये नपुं., सप्त. वि., ए. व. - तस्सा। पर्याप्त रूप से तैयार कर देना, ला. अ. सजावट, गहना, कुमारिकाय सद्धिं एको एकाय रहो पटिच्छन्ने आसने आभूषण-रो प्र. वि., ए. व. - अयमस्स पच्छिमो अलङ्कारो, अलंकम्मनिये निसज्जं कप्पेसि, पारा 292; जा. अट्ठ. 1.70; - राय च. वि., ए. व. - अलङ्काराय अलंकम्मनियेति कम्मक्खम कम्मयोग्गन्ति कम्मनियं, संवत्तन्ति, पटि. म. 42; अविप्पटिसारादिपवत्तिया मूलकारणं अलं परियत्तंकम्मनियभावायाति अलंकम्मनियं, तस्सिं हुत्वा समाधिस्स सद्धिन्द्रिायादिअलङ्कारसाधनेन अलङ्काराय अलंकम्मनिये, यत्थ अज्झाचारं करोन्ता सक्कोन्ति, पारा. संवत्तन्ति, पटि. म. अट्ठ. 1.193; - चुण्ण नपुं., कर्म. स. अट्ठ. 2.194.
[अलङ्कारचूर्ण], मुख को सजाने हेतु लगाया जाने वाला अलङ्करण नपुं.. [अलङ्करण], क. अलङ्कत करना, सजाना- चूर्ण या पाउडर - ण्णं प्र. वि., ए. व. - वडमानं ति
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अलङ्कार
586
अलज्जी
अलङ्कारचुण्णं, म. वं. टी. 265; - जनितसोभारागी त्रि., पुथुलो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).96; - लोल त्रि., ब. स. [अलङ्कारजनितशोभारागिन्], अलङ्कारों से उत्पन्न शोभा के [अलङ्कारलोल], अलङ्कारों के प्रति लोभ या लालच रखने प्रति राग या लगाव रखने वाला - गिनो पु., ष. वि., ए. वाला/वाली - ला स्त्री., प्र. वि., ब. व. - अनागतस्मिव्हि व. - लोहिनकं लोहितमक्खितपटिक्कूलभावप्पकासनतो इथियो पुरिसलोला सुरालोला अलङ्कारलोला विसिखालोला अलङ्कारजनित-सोभारागिनो सप्पायं विसुद्धि. 1.185; - रञ्जन आमिसलोला भविस्सन्ति, जा. अट्ठ 1.323; - ता स्त्री., नपुं., कर्म. स. [अलङ्काराञ्जन], साज-सजावट या भाव., अलङ्कारों के प्रति लालच या लोभ - ताय त. वि., अलङ्करणहेतु प्रयुक्त अञ्जन - नं प्र. वि., ए. व. - ए. व. - पञ्चहि लोलताहि लोलो होति- आहारलोलताय अजनन्ति अलङ्कारञ्जनमेव, दी. नि. अट्ठ. 1.79; - त्थम्भ अलङ्कारलोलताय, परपुरिसलोलताय, धनलोलताय पु., कर्म. स. [अलङ्कारस्तम्भ], सजावट के लिये खड़ा पादलोलताय, सु. नि. अट्ठ. 1.30; - विभूसित त्रि., तत्पु. किया गया स्तम्भ या खम्भा - एसिकत्थम्भो इन्दखीलो स. [अलङ्कारविभूषित]. गहनों से सजा हुआ/सजी हुई - नगरसोभनो अलङ्कास्थम्भो, लीन. (दी. नि. टी.) 2.175; - ता स्त्री., प्र. वि., ए. व. - सा दिब्बवत्थनिवत्था दण्डक पु.. कर्म. स. [अलङ्कारदण्डक]. घूमने के समय दिब्बालङ्कारविभूसिता सब्बकामसमिद्धा देवच्छरापटिभागा प्रयुक्त मनोहर या सुन्दर छड़ी-कं वि. वि., ए. व. - अपरे अहोसि, पे. व. अट्ठ. 39; - रानुप्पदान नपुं.. तत्पु. स. चतुहत्थदण्डं वा अझं वा पन अलङ्कतदण्डकं गहेत्वा [अलङ्कारानुप्रदान], गहनों या सजावट-सामग्रियों का दान विचरन्ति, दी. नि. अट्ठ. 1.80; - दान नपुं, तत्पु. स. - नेन तृ. वि., ए. व. - सम्माननाय अनवमाननाय [अलङ्कारदान], अलङ्कारों का दान - नेन तृ. वि., ए. व. अनतिचरियाय इस्सरियवोस्सग्गेन, अलङ्कारानुप्पदानेन, दी. - अलङ्कारानुप्पदानेनाति अत्तनो विभवानुरूपेन अलङ्कारदानेन, नि. 3.144; - रूपविचार त्रि., ब. स., केवल अलङ्कारों या दी. नि. अट्ठ. 3.125; - पटिमण्डित त्रि., तत्पु. स. प्रसाधनसामग्रियों के बारे में सोचते रहने वाला/वाली[अलङ्कारप्रतिमण्डित], गहनों से सजा/सजी- मण्डिता रा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - इत्थी खो, ब्राह्मण, पुरिसाधिप्पाया स्त्री., प्र. वि., ए. व. - तावदेव नं सहजाता सविसहस्सा अलङ्कारूपविचारा पुत्ताधिद्वाना असपतीभिनिवेसा अमच्चा सब्बालङ्कारप्पटिमण्डिता परिवारयिंस. जा. अट्ठ. इस्सरियपरियोसानाति, अ. नि. 2(2).76; अलङ्कारत्थाय मनो 7.374; - परिभोगूपग त्रि., अलङ्कारों के उपभोग के लिये उपविचरति एतिस्साति अलङ्कारूपविचारा, अ.नि. अट्ठ. उपयोगी - पगं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - एवं इमेहि द्वीहि 3.122. पदेहि यं मनुस्सानं वोहारूपगं अलङ्कारपरिभोगूपगञ्च अलङ्घनीय त्रि., Vलङ्घ के सं. कृ. का निषे. [अलङ्घनीय], वह, जातरूपरजतमुत्तामणिवेळुरियपवाळलोहितमसास्गल्लादिकं जिसका उल्लंघन न किया जा सके, उल्लंघन न करने .... खु. पा. अट्ठ. 136; - पलिबोध पु.. तत्पु. स. योग्य - यं स्त्री., वि. वि., ए. व. - यो आचरेय्य [अलङ्कारपरिरोध], अलङ्करण के लिये रुकावट या बाधा - परदारमलङ्घनीयं तेल. 80. घो प्र. वि., ए. व. - अलङ्कारपलिबोधो मण्डनपलिबोधो अळजनपद पु., व्य. सं., श्रीलङ्का के एक प्राचीन क्षेत्र का तेलमक्खनपलिबोधो धोवनपलिबोधो मालापलिबोधो, मि. प. नाम, जहां महाविहार की तीर्थयात्रा से वापस लौटते समय 10; - भण्डक नपुं.. तत्पु. स. [अलङ्कारभाण्डक], अलङ्करण इसिदत्त तथा महासोण नामक भिक्षु रुके थे- दं द्वि. वि., करने हेतु प्रयुक्त सामग्री या साजोसामान, सजावट की ए. व. - इसिदत्तत्थेरोपि अनुपब्बेन चारिकं चरन्तो अळजनपदं सामग्रियां - कं द्वि. वि., ए. व. - बोधिसत्तस्स तुस्सित्वा सम्पापुणि विभ. अट्ठ. 421. ब्राह्मणस्स सोळस गोणे अलङ्कारभण्डकं निवासगामञ्चस्स अलज्जी त्रि., लज्जी का निषे. [अलज्जिन]. लज्जा से ब्रह्मदेय्यं दत्वा महन्तेन यसेन ब्राह्मणं उय्योजेसीति,ध. प. रहित, बेशर्म - यदि तेन सद्धिं परिभोगं करोति, सोपि अट्ठ. 2.69; जा. अट्ठ. 2.138; - रथ पु., कर्म. स. अलज्जीयेव होति. पारा. अट्ठ. 2.248; अदूसकानं पुत्तानं, [अलङ्काररथ]. सजाया हुआ शाही रथ, अलङ्कत रथ - थो अलज्जी वत ब्राह्मणो, जा. अट्ठ. 7.323; - ज्जिनो पु.. प्र. प्र. वि., ए. व. - रथो च नामेसो दुविधो होति- योधरथो, वि., ब. व. - तेन खो पन समयेन असज्जिपुनब्बसुका नाम अलङ्कारस्थोति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).96; स. नि. अट्ठ. कीटागिरिस्मिं आवासिका होन्ति अलग्जिनो पापभिक्खू पारा. 3.156; अलङ्कारस्थो महा होति, दीघतो दीघो, पुथुलतो । 281; -ज्जिपग्गह पु.. तत्पु. स. [अलज्जीप्रग्रह], निर्लज्ज
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अलज्जिताय
अलद्ध लोगों को जमकर पकड़ लेना, निर्लज्जियों को समर्थन या अलङ्कतो अलङ्कतं, सद्द. 2.434; केचि पन एत्थ अलभूसन संरक्षण - हो प्र. वि., ए. व. - अपरे द्वे पग्गहा, द्वे च परियापन वारणेसूति धातुं पठन्ति, तदे... परिभोगा- लज्जिपग्गहो, अलज्जिपग्गहो .... पारा. अट्ठ. अलत्तक/अलन्तक पु.. [अलक्त, अलक्तक], वृक्षों से 2.248; - परिभोग पु., तत्पु. स. [अलज्जीपरिभोग]. निकलने वाली राल, लाल रंग की लाख, आलता, महावर निर्लज्जों के साथ मौज मस्ती, निर्लज्जों के साथ सांसारिक - को प्र. वि., ए. व. - अलन्तको यावको च लाखा जतु सुखों का उपभोग - गो प्र. वि., ए. व. - अपरेपि चत्तारो नपुंसके, अभि. प. 305; - कत त्रि., तत्पु. स. परिभोगा- लज्जिपरिभोगो, अलज्जिपरिभोगो, धम्मियपरिभोगो, [अलक्तककृत, महावर या आलता से रंगा हुआ - ता पु., अधम्मियपरिभोगोति, पारा. अट्ठ. 2.248; - पुग्गल पु., कर्म. प्र. वि., ब. व. - अलत्तककता पादा, पादुकारुयह वेसिका, स. [अलज्जीपुद्गल], निर्लज्ज व्यक्ति - ले सप्त. वि., ए. थेरगा. 459; ध. प. अट्ठ. 2.397; अलत्तककता पादा, मुखं व. - अलज्जिपुग्गले निस्साय वसन्तीति अत्थो, महाव. चुण्णकमक्खितं, थेरगा. 771; - पटल/पाटल नपुं.. अट्ठ. 296-97; - भाव पु.. [अलज्जीभाव], लज्जाहीनता, तत्पु. स., महावर या आलता जैसा श्वेतरक्त वर्ण, लाख बेशर्मी - वं द्वि. वि., ए. व. -- तस्मा यदास्स अलज्जीभावं जैसा रंग - तेन पच्चूससमये अलत्तकपटलबन्धुजीव जानाति, पारा. अट्ठ. 2.248; - वाद पु.. [अलज्जीवाद], कपुप्फसदिसं मंसपेसि विजायि, म. नि. अट्ठ (मू.प.) लज्जाहीन या निर्लज्ज कह कर पुकारना, निर्लज्ज की। 1(1).332; खु. पा. अट्ठ. 128; अलत्तकपाटलवण्ण संज्ञा या उपाधि-देन तृ. वि., ए. व. - छब्बग्गिया भिक्खू उत्तरासङ्गचीवरं एकसं कतमेव, जा. अट्ठ 4.103; - एवं वदन्ति - किस्स तुम्हे, आवसो अम्हे अलज्जिवादेन रसरञ्जित त्रि., तत्पु. स. [अलक्तकरसरञ्जित], लाख पापेथा ति? पाचि. 200.
के द्रव द्वारा रंगा हुआ - ता स्त्री., प्र. वि., ए. व. - सक्को अलज्जिताय त्रि., लज्ज के सं. कृ. का निषे. चीवरकरणढाने भूमिपरिभण्डमकासि, भूमि अलत्तकरसरजिता [अलज्जितब्य], लज्जा न करने योग्य विषय - ये नपुं.. विय अहोसि, ध. प. अट्ठ. 1.345; - वण्ण त्रि., ब. स. सप्त. वि., ए. व. - अलज्जिताये लज्जन्ति, लज्जिताये न । [अलक्तकवर्ण], लाख या महावर जैसे रङ्ग वाला -- लज्जरे, ध. प. 316; तत्थ अलज्जितायेति अलज्जितब्बेन, नं नपुं., प्र. वि., ए. व. - तावदेव अलत्तकवण्णं भिक्खाभाजनहि अलज्जितब्ब नाम, ... तेन तेसं रत्तचन्दनं पायि, ध. प. अट्ठ. 2.115; - ण्णानि नपुं.. प्र. अलज्जितब्बेन लज्जितं लज्जितब्बेन अलज्जितं, ध, प. वि., ब. व. - थेरस्स हत्थतो मच्चित्वा अलत्तकवण्णानि अट्ठ. 2.280.
भगवतो पादतलानि चन्दनदारुआदीसु ..., दी. नि. अट्ठ. अलज्जुस्सद त्रि., ब. स. [अलज्योत्सेध], अत्यधिक निर्लज्ज, 2.175. बढ़ी-चढ़ी बेशर्मी से युक्त - दे पु., सप्त. वि., ए. व. - अळत्तूरुनाडाल्वार पु.. व्य. सं., दो तमिल शासकों की अलज्जुस्सदे गूळहेन, विवटेनेव लज्जिसु. विन. वि. 2771. उपाधि या नाम - अळत्तूरुनाडाल्वारो तयो मण्णयरायरा, अलज्जुस्सन्ना त्रि., तत्पु. स. [अलज्ज्युत्सन्न], निर्लज्जों कळवण्डियनाडाल्बारो, केरळसीहमुत्तरो, चू. वं. 76.141; से खचाखच भरा हुआ/हुई - न्ना स्त्री., प्र. वि., ए. व. अळत्तूरुनाडाल्बरा दुवे पन्द्रियरायरो, चू. वं. 76.184. - सचे अलज्जुस्सना होति, परिसा उब्बाहिकाय वूपसमेतब्बं अलत्थ लिभ का अद्य०, प्र. पु., ए. व., उसने पाया, लाभ परि. 414.
प्राप्त किया - सब्बाव इत्थी कयिरु नु पापं, अझं अलत्थ अलञ्जल/अरञ्जर पु.. [अरञ्जर], बहुत बड़ा पानी पीठसप्पिनापि सद्धिं, जा. अट्ठ. 5.432; अलत्थाति अलद्धा, का मटका - रो/लो प्र. वि., ए. व. - अरञ्जरो जा. अट्ठ. 5.435. उदकचाटि, अलजलो, बहुउदकगण्हनकोति अत्थो, वजिर. अलद्ध त्रि., Vलभ के भू. क. कृ. का निषे. [अलब्ध], वह, टी. 481.
जिसने कुछ भी प्राप्त नहीं किया है - द्धस्स पु., ष. वि., अळति' अळ से व्यु. वर्तः, प्र. पु., ए. व. [अडति], प्रयास ए. व. - अलद्धस्स च यो लाभो, लद्धस्स चानुरक्खणा, जा.
करता है - अळ उग्गमे अळति, वाळो, सद्द, 2.460. अट्ठ. 5.111; अलद्धस्साति यो च पुब्बे अलद्धस्स लाभस्स अळति अल से व्यु. वर्त., प्र. पु., ए. व. [अलति, अलते], लाभो, जा. अट्ठ. 5.112; - द्धन्नलवोदक त्रि., ब. स., वह, सजाता है, सक्षम होता है, रोकता है - अलति, अलङ्कारो जिसे अन्न एवं जल की एक बूंद तक प्राप्त नहीं हुई है -
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अलदब
अनच्छादितकोपीना
दका पु०, प्र. वि., ब. व. अलद्धन्नलवोदका, सद्धम्मो. 106. अलद्धब्ब त्रि.. लम के सं. कृ. का निषे.. नहीं प्राप्त होने योग्य नहीं मिलने योग्य ब्बं नपुं. प्र. वि. ए. व. पिण्डम्पि अलब्द्धब अहोसि. म. नि. 2.198 एत्थ पूरंतु अयुत्तद्वेन कायदुच्चरितादि अविन्दियं नाम अलद्धब्वं ति अत्थो, सद्द. 2.577. अलमोक्ख त्रि. व. स. [अलब्धाधिमोक्ष] सुदृढ़ संकल्प को प्राप्त न करने वाला क्खा पु०, प्र. वि., ब. व. ये पुब्बवुद्धेसु कताधिकारा अलद्वमोक्खा जिनसासनेसु अप. 1.1. अलद्धविपाकवार त्रि. ब. स. [अलब्धविपाकवार], परिपाक होने के अवसर को न प्राप्त करने वाला, वह जिसके परिपाक का अवसर ही नहीं आया है- रं नपुं०, प्र. वि., ए. व. अपरिपक्कवेदनीयन्ति अलद्धविपाकवारं अ. नि. अड्ड
"
3.263.
अद्धा लभ के पू. का. कृ. लद्धा का निषे. [अलभ्य ], नहीं प्राप्त कर कथं झायिं बहुलं कामसञ, परिवाहिरा होन्ति अलद्ध यो तन्ति, स० नि० 1 ( 1 ). 148, 149; अलद्धाति अलभित्वा स. नि. अट्ठ. 1.165. अलद्वाधिमोक्ख त्रि. ब. स. [अलब्धाधिमोक्ष] सुदृढ़ संकल्प को प्राप्त न किया हुआ, संशयालु क्खे पु०, सप्त.वि., व.- विचिकिच्छासहगते अलद्धाधिमोक्खे दुब्बलेपि पटिसन्धिं आकढमाने उद्धच्चसहगतं लद्धाघिमोक्खं बलवं कस्मा नाकड्डूतीति ?, ध. स. अट्ठ. 300.
ए.
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अलद्धूपचार त्रि. ब. स. [ अलब्योपचार) पूर्णरूप से प्रयास न किया गया, आधे-अधूरे रूप में किया गया रं नपुं. प्र. वि. ए. व. अलडूपचार सिप्पं फलं न देति ताताति, म. नि. अड. (म.प.) 2.235. अळनागराजमहेसी स्त्री. व्य. सं., नागों की एक रानी चित्तलपब्बते भिक्खुना नीहटउदकवाहकं अळनागराजमहेसी विय, एवम्पि वट्टति, पारा अट्ठ. 2.234 पाठा. अळन्दनागराजमहेसी. अलपितलिप के भू० क. कृ. लपित का निषे. [ अलपित], नहीं कहा गया, नहीं स्थापित या नहीं प्रतिपादित तं नपुं. प्र. वि., ए. व. अभासितं अलपितं तथागतेन भासितं लपितं तथागतेनाति दीपेति, महाव. 476. अलब्भत्र लभसे सं. कृ. लब्भ का निषे [ अलभ्य ] नहीं प्राप्त करने योग्य नहीं मिल सकने योग्य नपुं. प्र. वि., ए. व.
व॰
यमिदं कम्मं दिधम्मवेदनीयं तं उपक्कमेन
.
17
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अलमत्थ / अलमत्त
वा पधानेन वा सम्परायवेदनीयं होतूति अलब्भमेतं, म. नि.
3.7.
अलब्मनीय त्रि लभ के सं. कृ. लब्भनीय का निषे. [ अलभनीय] उपरिवत् यानि नपुं. प्र. वि. ब. व. - अलब्भनीयानि दानानि समणेन वा ब्राह्मणेन वा देवेन वा मारेन वा ब्रह्मना वा केनचि वा लोकस्मिं. अ. नि. 2 (1).50; यद्वान नपुं. कर्म. स. [ अलभनीयस्थान] प्राप्त न हो सकने योग्य चीज या वस्तु नं. प्र. वि., ए. व. पण्डितानं कथं सुत्वा अलब्भनीयट्ठानन्ति तथतो अत्वा अप्पमत्तकम्पि सोकं न करिसूति. जा. अड्ड. 4.53. अलब्मनेय्य त्रि.. लभ के सं. कृ. लब्भनेय्य का निषे. [ अलमनीय] उपरिवत् थ्यो पु. प्र. वि. ए. व. सचे पजानेय्य अलब्भनेय्यो, मयाव अञ्ञेन वा एस अत्थो, अ. नि. 2 ( 1 ) 53: जा. अड. 3.177 - खेमता स्त्री०, भाव., कुशल- मङ्गल या कल्याण का अप्राप्य होना - य प्र. वि., ए. क. अतायनताय चेव अलब्भनेय्यखेमताय च अताणतो, महानि. अ. 132; - ट्ठान नपुं. कर्म. स. [अलभनीयस्थान ], नहीं प्राप्त हो सकने योग्य अवस्था या स्थितिनं नपुं प्र. वि. ए. व. यस्मा अलब्भियं अलब्भनेय्यद्वानहि नामेतन्ति अत्यो जा. अनु. 4.77 पतिद्वत्रि ब. स. [ अलभनीयप्रतिष्ठ], किसी अवस्था पर दृढ़-स्थिति प्राप्त न करने वाला द्वं नपुं. प्र. वि., ए. व. दुक्खोगाहं अलब्भनेय्यपतिद्वञ्च तस्मा गम्भीरं, ध. स. अड. 24 सकलसुत्तन्तं भगवा परेस पञ्ञाय अलब्धनेय्यपतिद्वं परमगम्भीरं सब्बञ्ञतञाणं दरसेन्तो... म. नि. अट्ठ० (मू०प.) 1 (1).60; - वत्थु नपुं०, कर्म. स. [अलभनीयवस्तु ], प्राप्त न हो सकने योग्य वस्तु स्मिं सप्त. वि. ए. व. - आकासेन गच्छन्तस्स बन्दस्स गहेतुकामतासदिसं अलब्भनेय्यवत्थुरिमं इच्छाभावतोति अधिप्यायो पे. व. अट्ट
"
55.
अलब्जियत्र लभ के सं. कृ.. लभिय का निषे. [अलभ्य]. नहीं पाए जाने योग्य, अप्राप्य यं नपुं. प्र. वि. ए. व. जातो मे मा मरी पुत्तो, कुतो लब्भा अलब्मिय, जा. अड्ड 4.77 यस्मा अलब्धियं अलब्धनेष्यद्वानहि नामेतन्ति अत्थो तदे.. अलमत्थ/अलमत्त त्रि. ब. स. [ अलमर्थ], सक्षम, समर्थ, योग्य, निपुण त्यो पु०, प्र. वि., ए. व. एवं भोगे समाहत्वा, अलमत्तो कुले गिही दी. नि. 3.143; अलमत्थोति युत्तसभावो समत्थो वा परियत्तरूपो घरावासं सण्ठापेतुं दी.
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अलमत्थदस
589
अलम्बुसा नि. अट्ठ. 3.121; - तर त्रि., तुल. विशे., अधिक योग्य, विसेस पु., तत्पु. स., उत्तम ज्ञान एवं दर्शन की क्षमता की अधिक समर्थ, अधिक निपुण - तरा पु., प्र. वि., ब. व. - सबसे उत्कृष्ट अवस्था - सो प्र. वि., ए. व. - नत्थि तुम्हे तेन पण्डिततरा च ब्यत्ततरा च बहुस्सुततरा च समणस्स गोतमस्स उत्तरिमनु स्सधधम्मा अलमत्थतरा च, चूळव. 2; अलमत्थतराति समत्थतरा, चूळव. अलमरियाणदस्सनविसेसो, म. नि. 1.99; अलमरियो च अट्ठ. 1.
सो जाणदस्सनविसेसो चाति अलमरियाणदस्सनविसेसो, अलमत्थदस त्रि., [अलमर्थदक], हितकारी या उपयोगी म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).334; - सं द्वि. वि., ए. व. -- बातों को देखने में समर्थ (ऋषि)- सा पु.. प्र. वि., ब. व. इरियाय ताय पटिपदाय ताय दुक्करकारिकाय नाज्झगमं - अलमत्थदसतरेहीति एत्थ अत्थे पस्सितुं समत्था उत्तरि मनुस्सधम्मा अलमरियाणदस्सनविसेसं. म. नि. अलमत्थदसा, ते अतिसित्वा ठिता अलमत्थदसतरा, अ. नि. 1.115. अट्ठ. 2.359; - दसतर त्रि., तुल. विशे०, हितकारक बातों अलंपञ त्रि., ब. स. [अलंप्रज्ञ], समझदार, परिपक्व बुद्धि को देखने में अधिक समक्ष या समर्थ - तरो पु., प्र. वि., वाला - ओ पु., प्र. वि., ए. व. - यतो च खो, भिक्खवे, ए. व. - अलमत्थदसतरो चेव पितरा, येपिस्स पिता अत्थे सो कुमारो बुद्धो होति अलंपओ, अ. नि. 2(1).6; अलपओ अनुसासि, तेपि जोतिपालस्सेव माणवस्स अनुसासनिया ति, ति युत्तपञो, अ. नि. अट्ठ. 3.3. दी. नि. 2.170; अलमत्थदसतरोति समत्थो पटिबलो अत्थदसो अलंपतेय्य स्त्री., पति प्राप्त करने हेतु उपयुक्त आयु वाली, अलमत्थदसो, त अलमत्थदसं तिरेतीति अलमत्थदसतरो, विवाह करने योग्य आयु को प्राप्त नारी- य्या प्र. वि., ब. दी. नि. अट्ट. 2.227.
व. - मनुस्सेसु पञ्चवस्सिका कुमारिका अलंपतेय्या अलमत्थविचिन्तक त्रि., [अलमर्थविचिन्तक], हितकारक भविस्सन्ति, दी. नि. 3.52; अलंपतेय्याति पतिनो दातुं युत्ता, एवं उपयोगी बातों का निश्चय करने में सक्षम - कं पु.. दी. नि. अट्ठ. 3.33. द्वि. वि., ए. व. - पण्डितं वत में सन्तं, अलमत्थविचिन्तक, अलम्बत्थना/अलम्बत्थनी स्त्री०, ब. व॰ [अलम्बसस्तनो], थेरगा. 252; अलमत्थविचिन्तकन्ति अत्तनो च परेसञ्च अत्थं । वह नारी, जिसके स्तन नीचे की ओर लटके हुए न हो, हितं विचिन्तेतुं समत्थं, अलं वा परियत्तं अत्थस्स विचिन्तक कठोर स्तनों वाली युवती - नियो द्वि. वि., ब. व. - किलेसविद्धसनसमत्थं अत्थदस्सिनं वा, सब्बमेतं अत्तनो महासत्तस्स पन अतिदीघादिदोसवज्जिता अलम्बत्थनियो
अन्तिमभविकताय थेरो वदति, थेरगा. अट्ठ. 1.405. मधुरथञायो चतुसट्टि धातियो अदासि, जा. अट्ठ. 6.3; - अलमरिय त्रि.. कर्म. स., आर्य होने में सक्षम, आर्य की ता स्त्री., भाव. [अलम्बस्तनता], स्तनों के लटकते न रहने पहचान करने में सक्षम, आर्य बनाने वाली बातों को जानने की स्थिति में होना, स्तनों का कठोर होना - अनुन्नतकुच्छिता में समर्थ - यो पु., प्र. वि., ए. व. - तत्थ अलमरियं छट्टो अलम्बत्थनता सत्तमो, अपलितभावो अट्ठमो, जा. अट्ठ.
आतुन्ति अलमरियो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).334; - या 7.232. ब. व. - ये इमेसं भवतं धम्मा अकुसला अकुसलसङ्घाता, अलम्बित त्रि., Vलम्ब के भू. क. कृ. लम्बित का निषे०, वह, सावज्जा सावज्जसताता, असेवितब्बा असेवितब्बसङ्घाता, न जिसकी प्रगति में कोई बाधा नहीं डाली गई है, बिना अलमरिया न अलमरियससाता, कण्हा कण्हसवाता ..., दी. हिचकिचाहट वाला - तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अहापेत्वा नि. 1.148.
अलम्बित्वाति अपरिहीनं अलम्बितं कत्वा, अ. नि. अट्ठ. 2.311. अलमरियाणदस्सन त्रि., उत्तम ज्ञान एवं दर्शन को प्राप्त अलम्बित्वा लिम्ब के पू. का. कृ., प्रेर. लम्बित्वा का निषे., करने में सक्षम - नं नपुं., द्वि. वि., ए. व. - यो पन भिक्खु बिना देरी के, बिना बाधा या हिचकिचाहट के - अहापेत्वा अनभिजान उत्तरिमनु स्सधाम्म अत्तु पनायिक अलम्बित्वा परिपूरं वित्थारेन परस्स अवण्णं भासिता होति, अलमरियजाणदस्सनं समुदाचरेय्य, पारा. 110; 111; अ. नि. 1(2).89; अहापेत्वा अलम्बित्वाति अपरिहीनं अलम्बितं अलमरियाणदस्सनन्ति एत्थ लोकियलोकुत्तरा पञा कत्वा, अ. नि. अट्ठ. 2.311. जाननढेन आणं, चक्खुना दिट्ठमिव धम्म पच्चक्खकरणतो अलम्बुसा स्त्री., एक अप्सरा का नाम - सं द्वि. वि., ए. व. दरसनडेन दरसनन्ति आणदरसनं. ... तत्थ येन आणदस्सनेन - 'देवकज पराभेत्वा, सुधम्मायं अलम्बु सन्ति ... सो अलमरियजाणदस्सनोति वुच्चति, पारा. अट्ठ. 2.73; - पण्डुकम्बलसिलासने निसिन्नो तं अलम्बुसं पक्कोसापेत्वा
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अलवणभोजी
590
अलात/आलात इदमाह, जा. अट्ठ. 5.146; सक्कट्ठानं नु खो तापसो पत्थेतीति 3.5; अलसकेनाति अजीरणेन आमरोगेन, लीन. (दी. नि. अलम्बुसं नाम देवकज तापसस्स तप भिन्दित्वा एही ति टी.) 3.5. पेसेसि, दी. नि. अट्ठ. 1.274; - जातक नपुं., जा. अट्ट, के अलसताळम्बर नपुं., समा. द्व. स., दो प्रकार के वाद्य - 523वें जातक का शीर्षक, जिसमें अलम्बुसा नामक एक अलसो च ताळम्बरञ्च अलसताळम्बरं मो. व्या. 3.19. अप्सरा के द्वारा इसिसिङ्ग नामक ऋषि को तपोभ्रष्ट करने अलसन्द' पु., व्य. सं., यूनानियों के अधीनस्थ एक द्वीप का के असफल प्रयास का कथानक दिया गया है, जा. अट्ठ. नाम, जहां यूनानी शासक मिलिन्द का जन्म हुआ - अत्थि, 5.145-156.
भन्ते, अलसन्दो नाम दीपो, तत्थाहं जातोति, मि. प. 91; - अलवणमोजी त्रि., [अलवणभोजी]. बिना नमक का भोजन न्दं द्वि. वि., ए. व. - महासमुदं पविसित्वा वङ्ग तक्कोलं
खाने वाला, नमकीन या नमकयुक्त भोजन न खाने वाला चीनं सोवीरं सुरलु अलसन्दं कोलपट्टनं सुवण्णभूमिं गच्छति - असुरियंपस्सानि मुखानि, अचन्दमुल्लोकिकानि मुखानि, मि. प. 324.
असद्धभोजी, अलवणभोजी, अपुनगेय्या गाथा, सद्द. 3.744. अलसन्द' पु.. सिंहली सूचियों में उल्लिखित यूनानियों का अलस' त्रि., [अलस], आलसी, सुस्त, अकर्मण्य - सो पु.. एक सुदूरवर्ती बन्दरगाह - योननगरालसन्दा प्र. वि., ए. क. - निक्कोसज्जो अकिलासु, मन्दो तु योनमहाधम्मरक्खितो. म. वं. 29.39; योननगरालसन्दा ति अलसो प्यथ, अभि. प. 516: ... यथा-मनुस्सो, ... इल्लिसो, योनविसयम्हि अलसन्दा नाम नगरपरिवत्ततो ति वृत्तं होति, अलसो, महिसो सीसं कीसं. क. व्या. 675; अलसो म. वं. टी. 481. कोधपआणो, तं पराभवतो मुखं सु. नि. 96; अलसोति अलसन्दक पु., अलसन्दा नामक यूनानी नगर या द्वीप का जातिअलसो अच्चन्ताभिभूतो थिनेन ठितवाने ठितो एव होति, निवासी- का प्र. वि., ब. व. - अलसन्दका पल्लवका, सु. नि. अट्ट, 1.134; - सा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - धम्मरा निग्गमानुसा, अप. 1.394. अकम्मकाया अलसा महग्घसा, अ. नि. 2(2).230; अलसाति अलसुण नपुं., लसुण का निषे॰ [अलशुन]. लहसुन से भिन्न निसिन्नहाने निसिन्नाव ठितवाने ठिताव होति, अ. नि. अठ्ठ. कुछ और - णे सप्त. वि., ए. व. - लसुणे अलसुणसआ 3.178; -- जातिक त्रि., [अलसजातिक], आलसी स्वभाव खादति, आपत्ति पाचित्तियस्स ... अलसुणे लसुणसआ वाला, स्वभाव से ही सुस्त या निष्क्रिय रहने वाला - का खादति, आपत्ति दुक्कटस्स, अलसुणे वेमतिका खादति, स्त्री., प्र. वि., ए. व. - अलसजातिका अम्हाक धीता, आपत्ति दुक्कटस्स, अलसुणे अलसुणसआ खादति, अनापत्ति एतिस्सा सामिको कञ्जिकमत्तम्पि न लभिस्सति म ति पाचि. 353-54. .... ध. प. अट्ट, 1.218; - कस्स पु., ष. वि., ए. व. - अलात'/आलात नपुं.. [अलात], आग का अंगार, अलाव, अञ्जतरस्स सत्तस्स अलसजातिकस्स एतदहोसि, दी. नि.. ___अधजली लकड़ी - तं प्र. वि., ए. क. - कुक्कुळो तुण्हभस्मस्मि 3.66; - ता स्त्री., अलस का भाव. [अलसता], आलस्य, अङ्गारो लातमम्मुकं, अभि. प. 36; जवतो पनस्स सरीरं निष्क्रियता, निकम्मापन, सुस्ती - य तृ. वि., ए. व. - अन्धकारे परिभमन्तं अलातं विय खायति, अ. नि. अट्ठ. एवमेवं अलसताय कम्मन्ते अप्पयोजेत्वा वप्पमङ्गलादीसु 2.284; - तं द्वि. वि., ए. व. - सा अलातं गहेत्वा निद्दायमाना पिण्डाय चरित्वा .... सु. नि. अट्ठ 1.112; अलसो विय निसीदित्वा वीहिखादनत्थाय एळके सम्पत्ते उहाय अलातेन अलसताय मन्तितं अत्थं ब्यापादेति, मि. प. 103; - भाव एळकं पहरि जा. अट्ठ. 1.462; - तानि ब. व. - सक्को पु., तत्पु. स. [अलसभाव], आलस्य, सुस्ती, निष्क्रियता - अलातानि समानेन्तो अग्गिं जालेसि, जा. अट्ठ. 1.78; - वेन तृ. वि., ए. व. - युवा बलीति पठमयोब्बने ठितो खण्ड नपुं., तत्पु. स. [अलातखण्ड], आग के अंगारो का बलसम्पन्नोपि हुत्वा अलसभावेन उपेतो होति, ध. प. अट्ठ. एक हिस्सा, अलाव का एक भाग -- ण्डं प्र. वि., ए. व. - 2.236.
अलातखण्डं वा अङ्गारपिण्डो वा छारिका वा धूमो वा उपहाति, अलसक पु., [अलसक], पेट का एक रोग, अपच या विसुद्धि. 1.164; - तग्गिसिखा स्त्री., तत्पु. स. अजीर्णता का रोग, अतिभोजन - केन त. वि., ए. व. - [अलाताग्निशिखा], आग के अङ्गारों की लौ या लपट, अचेलो कोरक्खत्तियो सत्तमं दिवसं अलसकेन कालङ्करिस्सति, अलाव से बाहर निकल रही लौ -- बलवता पुरिसेन दी. नि. 3.5; अलसकेनाति अलसकव्याधिना, दी. नि. अट्ठ. आविञ्छनअलातग्गिसिखा विय उय्यानपाकारमत्थके
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591
अलात/अलातक
अळार/आळार पायित्थ, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.116; - चक्क नपुं.. अलावुलोमसानीति अलाबुलोमसदिसमुत्तानि सुखुमानीति तत्पु. स. [अलातचक्र]. मण्डलाकार आग का अलाव, गोल दीपेति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.170. आकार वाला आग का अंगारा - क्कं प्र. वि., ए. व. - अलाभ पु., लाभ का निषे॰ [अलाभ], लाभ का अभाव, हानि, मायामरीचिसुपिनन्तअलातचक्कगन्धब्बनगरफेणकदलि न्यूनता, कमी - भो प्र. वि., ए. व. - धम्मेन च अलाभो यो, आदयो विय अस्सारा निस्साराति चापि उपठ्ठहन्ति, विसुद्धि. यो च लाभो अधम्मिको, अलाभो धम्मिको सेय्यो, यं चे लाभो 2.267; मण्डलाकारेन अविज्झियमानं अलातमेव अलातचक्क अधम्मिको, थेरगा. 666; लाभो अलाभो यसो अयसो च, विसुद्धि. महाटी. 2.400.
निन्दा पसंसा च सुखञ्च दुक्खं, जा. अट्ठ. 3.84; - भेन तृ. अलात'/अलातक पु., व्य. सं., राजा अंगति के सेनापति वि., ए. व. - पाय च अलाभेन, धम्मस्स च अदस्सना, का नाम - विजयो च सुनामो च अलातो चाति तयो अमच्चा जा. अट्ठ. 6.20; पञआयाति विपस्सनापजाय अलाभेन जा. अहेस. जा. अट्ठ. 7.102; ततो सेनापति रुजओ, अलातो अट्ठ. 6.21; - क नपुं.. अलाभ से व्यु., किसी वस्तु के लाभ एतदब्रवि, जा. अट्ठ. 7.103; अलातो देवदत्तोसि, सुनामो न होने से उत्पन्न निराशाभाव - केन तृ. वि., ए. व. - इम आसि भद्दजि, जा. अट्ठ. 7.145; विजयो च सुनामो च पस्सित्वा अलाभकेन सुस्सित्वा मरिस्सती ति, आपत्ति सेनापति अलातको, जा. अट्ठ. 7.115.
दुक्कटस्स, पारा. 91; इतरो अलाभकेन सुस्सित्वा मरति, अलाबु नपुं.. [अलाबु/आलबू, स्त्री.], लम्बी लौकी, तुमड़ी पाराजिक, पारा. अट्ठ. 2.53. से बना पान-पात्र, पानी में तैरने वाला तुमड़ी का हलका अलाभी त्रि., लाभी का निषे. [अलाभिन्], लाभ प्राप्त न फल -- कारवेल्लो तु सुसवि, तुम्ब्य लाबु च लाबु सा, अभि. करने वाला/वाली - तत्थ वै जना उच्छेददिष्टुिं गण्हन्ति, प. 596; सो कुद्दालकेन भूमिपक्कम्म कत्वा डाकञ्चेव लाभी च अलाभी च, ..., दी. नि. अट्ठ. 1.102; - भिभाव अलाबुकुम्भण्डएळालुकादीनि च वपित्वा तानि विक्किणन्तो पु., लाभ प्राप्त न होने की अवस्था - वं द्वि. वि., ए. व. कपणजीविक कप्पेसि, जा. अट्ठ. 1.299; यथा पन अलाबु- - भिक्खवे, एसो भिक्खु अत्तनो अलाभिभावञ्च लाबुसद्देसु विसुं विसुं विज्जमानेसु .... सद्द. 1.218; यानिमानि अरियधम्मलाभिभावञ्च अत्तनाव अकासि, जा. अट्ट, 1.232. अपत्थानि अलाबूनेव सारदे, ध. प, 149; - क नपुं., अलामक त्रि., लामक का निषे०, अलम्पट, नीचपन से मुक्त उपरिवत् - कं' प्र. वि., ए. व. - मत्थलुङ्गस्स पूरितन्ति - कं नपुं., प्र. वि., ए. व. - अपापकन्ति अलामक स. नि. दधिभरितअलाबुकं विय मत्थलुङ्गभरितं. सु. नि. अट्ट, 1.210; अट्ठ. 2.277; - स्स पु, ष. वि., ए. व. - तत्थ अनोमदस्सिसूति -- कं द्वि. वि., ए. व. - बुद्धस्स पादे धोवित्वा अलाबुकमदासह अनोमस्स अलामकस्स पच्चेकबोधिञाणस्स दिट्टत्ता पच्चेकबुद्धा अप. 2.14; - के सप्त. वि., ए. व. - तेलभाजनेसु विसाणे अनोमदस्सिनो नाम, जा. अट्ठ. 3.361; - केहि पु., तृ. वि., वा नळियं वा अलाबुके वा ठपेत्वा ..., पारा. अट्ठ. 1.234: - ब. व. -- तत्थ अपापकेहीति अलामकेहि, जा. अट्ठ. 7.213; कटाह नपुं., तत्पु. स. [अलाबुकटाह], तुमड़ी से बना हुआ - दस्सना स्त्री., ब. स., प्र. वि., ए. व., वह, जो असुन्दर पात्र या कड़ाही - हं प्र. वि., ए. व. - उदके अलाबुकटाहं । अथवा कुरूप न हो, दिखने में सुन्दरी - सामिकस्स विय आरम्मणे पिलवतीति पिलापनता, ध. स. अट्ठ. 425; - अलामकदस्सना सातिसयं दस्सनीया पासादिका, वि. व. कटाहसण्ठान त्रि., ब. स. [अलाबुककटाहसंस्थान], तुमड़ी अट्ठ. 83. के पात्र जैसे आकार वाला - सीसट्ठीनि सिब्बेत्वा अलायित त्रि., Vलू के भू. क. कृ. लायित का निषे., नहीं ठपितजज्जरालाबुकटाहसण्ठानानीति, खु. पा. अट्ठ. 38; - काटा गया - अलायितन्ति लायितहानम्पि तेसं कम्मप्पच्चया पत्त नपुं. तत्पु. स. [अलाबुपात्र], तुमड़ी से बना हुआ पात्र अलायितमेव हुत्वा अनूनं परिपुण्णमेव पञ्जायति, लीन. - त्तं द्वि. वि., ए. व. - निगण्ठसमणा विय अलाबुपत्तं (दी. नि. टी.) 3.42. भिक्खू पत्तं अग्गबाहाय पक्खिपित्वा आदाय विचरन्ति, अ. अळार' त्रि., [अराल]. मुड़ा हुआ, टेढ़ा, वक्र -- अळार नि. अट्ठ. 1.73; - लोमस त्रि, कर्म. स., तुमड़ी के सूक्ष्म- वेल्लित वर्षं कुटिल जिम्ह कुञ्चितं, अभि. प. 709. रेशों के समान सूक्ष्म-धागों वाला सानि नपुं.. वि. वि., ब. अळार/आळार पु., व्य. सं., मिथिला के एक कुटुम्बी या व. - अहं खो पनुदायि, अप्पेकदा गहपतिचीवरानि धारेमि गृहस्थ का नाम - करोम ते तं वचनं अलार, मित्तञ्च नो दळहानि सत्थलुखानि अलाबुलोमसानि, म. नि. 2.209; होहि विदेहपुत्त, जा. अट्ट. 5.160; आळारो, सारिपुत्तो,
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अळारक्खी
592
अलिप्पमान
सकपालनागराजा पन अहमेव अहोसिन्ति, जा. अट्ट. समणो, अब्बतो अलिक भणे. ध. प. 264; - केन तृ. वि.. 5.170.
ए. व. - अभक्खाति अभूतेन, अलिकेनाभिसारये, जा. अट्ठ. अळारक्खी त्रि., ब. स. [अरालाक्ष], विशाल नेत्रों वाला- 6.207; - वादी त्रि., [अलीकवादिन], असत्यवादी, झूठ
क्खी स्त्री०, प्र. वि., ए. व. - यतो पन मे अयं अळारक्खी बोलने वाला - दी पु.. प्र. वि., ए. व. - तत्थ अभूतवादीति विसालनेत्ता सोभनलोचना लद्धा, जा. अट्ठ. 1.293.
अरियूपवादवसेन अलिकवादी, सु. नि. अट्ठ. 2.179; - दिनं अळारपम्ह/अळारपखुभ/आळारपम्ह त्रि., ब. स. पु., वि. वि., ए. व. - जिने कदरिय दानेन, [अरालपक्ष्मन], वक्र या तिरछी बरौनियों वाला/वाली, सच्चेनालिकवादिन, ध, प. 223; - ने पु.. सप्त. वि., ए. व. विशाल नयनों वाला/वाली, सुन्दर एवं तिरछी पलकों - अलिकवादिनेति मुसावादिम्हिपि न विस्ससे, जा. अट्ठ. वाला/वाली - म्हा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - आळारपम्हा 4.51; - दिता स्त्री॰, भाव॰ [अलीकवादिता]. असत्य बोलना हसुला, सुसा तनुमज्झिमा, जा. अट्ठ. 7.258; अळारपम्हाति ___- य तृ. वि., ए. व. - मुसावादिनोति दुस्सीला समाना विसालक्खिगण्डा, जा. अट्ठ. 7.260; आळारपम्हा हसिता सीलवन्तो मयन्ति अलिकवादिताय मुसावादिनो उदा. अट्ट. 210. पियंवदा, वि. व. 1025; आळारपम्हाति बहलसङ्गतपखुमा, अलिखितपोत्थक पु., कर्म. स. [अलिखितपुस्तक, नपुं.]. गोपखुमाति अत्थो, वि. व. अट्ठ. 234; - म्हेहि नपुं., तृ. वि. रिक्त पुस्तक या कोरा कागज, जिस पर कुछ भी नहीं ब. व. - अळारपम्हहि सुभेहि वग्गुभि, पलोभयन्ती मं यदा लिखा गया हो - को प्र. वि., ए. व. - रित्तपोत्थकोपीति उदिक्खति, ..., जा. अट्ठ. 5.203; अळारपम्हेहीति अलिखितपोत्थको, वि. वि. टी. 2.233. विसालपखुमेहि. जा. अट्ठ. 5.204; - म्हे संबो., ए. व. - अलिङ्ग त्रि., ब. स., निषे. [अलिङ्ग]. तीन लिङ्गों में से किसी आळारपम्हे हसिते पियंवदे, पे. व. 443; आळारपम्हेति भी एक सुनिश्चित लिङ्ग से रहित शब्द - ङ्गेन पु., तृ. वि., वेल्लितदीधनीलपमुखे, पे. व. अट्ठ. 164.
ए. व. - पुलिङ्गेन वा सलिङ्गेन वा अलिङ्गेन वा सद्धिं अलालामुख त्रि., ब. स. [अलालामुख], शा. अ. वह, समानाधिकरणानि हुत्वा ..., सद्द. 1.226; - भेद त्रि., ब. स., जिसके मुख से लार न निकलती हो, ला. अ. बचपन की निषे., लिङ्गों के भेदों से रहित, (क्रियापद)- दं नपुं.. प्र. चञ्चलता से रहित, प्रौढ़ बुद्धि वाला - खो पु. प्र. वि., ए.. वि., ए. व. - किरियालक्खणं आख्यातिक अलिङ्गभेदति व. -- अनेळमूगोति अलालामुखो, सु. नि. अट्ठ. 1.98. इति, सद्द. 1.27; - भेदत्त नपुं.. भाव. [अलिङ्गभेदत्व]. लिङ्गों अलि/अळि पु., [अलि], काला भौंरा - मधुलीहो मधुकरो के भेद का न रहना, लिङ्ग-भेद का अभाव होना - त्ता प. मधुपो भमरो अली, अभि. प. 636; सरे सरोजे रुदिताळिपाळि वि., ए. व. - आख्यातिकस्स किरियालक्खणत्ता अलिङ्गभेदत्ता समन्तो पस्सति पजरजसा, जिना. 70; तत्थ च तिण्णं लिङ्गानं... सद्द. 1.27. कमोळिअलिसेवितन्ति वन्दन्तानं अनेकसतानं ब्रह्मानं अलित्तं त्रि., लिप के भू. क. कृ. लित्त का निषे॰ [अलिप्त, मोलिभमरसेवितन्तिसेवितन्ति कवयो इच्छन्ति, सद्द. 1.239. शा. अ. नहीं लीपा हुआ, ला. अ. अप्रभावित, अप्रदूषित अलिक क. त्रि., [अलीक], असत्य, झूठा, अधम, निन्दनीय, - त्तो पु.. प्र. वि., ए. व. - अनूपलित्तोति तण्हादिहिलेपेहि अप्रिय - अधमो कुच्छिते ऊने, अप्पिये यलिको भवे, अभि. प. अलित्तो, सु. नि. अट्ठ. 2.122; अनूपलित्तोति तण्हादीहि 1070; तुल०, पीडार्थेऽपि व्यलीकं स्यात्, अलीकं त्वप्रियेऽनृते, लेपेहि अलित्तो, स. नि. अट्ठ. 1.182; - त्तं पु.द्वि. वि., ए. अमर. 3.3.12; - कं नपुं.. प्र. वि.. ए. व. - तं तेसं व. - अलित्तन्ति तं अन्तेवासिक पापधम्मेन अलित्तं सो तिथियानं वचनं मिच्छा अभूतं वितथं अलिक विरुद्ध विपरीतं आचरियो विसदिद्धो सरो सेसं सरकलापं विय लिम्पति, जा. दुक्खदायकं दुक्खविपाक अपायगमनीयन्ति, मि. प. 110: अट्ठ. 4.394. ख. नपुं.. [अलीक], झूठी या असत्य बात, असत्य कथन अलिनी स्त्री.. [अलिनी], काले रङ्ग की भ्रमरी या भौंरा - या वचन - लीक त्वसच्च मिच्छा मसाव्ययं, अभि. प. 1273; अत्थं वदता मा वुच्चति लक्खी अलिनी ति भमरीति वुत्तं - कं द्वि. वि., ए. व. - धम्मेन लद्धं सतमस्नमाना, न सद्द. 1.244. कामकामा अलिक भणन्ति, सु. नि. 242; सच्चयेव भासति अलिप्पमान त्रि., लिप के कर्म. वा., वर्त. कृ., लिप्पमान नो अलिक सु. नि. (पृ.) 148; सच्चं भणे नालिक तं का निषे. [अलिप्यमान], लिप्त न होने वाला, प्रभावित या चतुत्थान्ति, सु. नि. 452; खु. पा. अट्ठ. 108; न मुण्डकेन प्रदूषित न होने वाला - नो पु.. प्र. वि., ए, व. - पदुमंव
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अलीन
593
अलुत्त-विभत्तिक तोयेन अलिप्पमानो, एको चरे खग्गविसाणकप्पो, सु. नि. अलीनमनो अलीनज्झासयोव हुत्वा अनवज्जडेन कुसल 71; अकुसलमूलानं पहानवसेन असन्तसन्तो असज्जमानो सन्ततिं सबोधिपक्खियभेदं धम्म भावेति वड्डेति, जा. अट्ठ. अलिप्पमानो च वेदितब्बो, सु. नि. अट्ठ. 1.100; - नं द्वि. 1.265; - मनस त्रि., ब. स., उपरिवत् - सो पु., प्र. वि., वि., ए. व. - तेसं लेपानं पहीनत्ता लोकेन अलिप्पमानं, सु.. ए. व. - यो अलीनेन चित्तेन अलीनमनसो नरो, जा. अट्ठ. नि. अट्ठ. 1.220; इमं पदुम उदके सजातमेव उदकेन 1.265; मन-सङ्कप्प त्रि., ब. स. [अलीनमनसंकल्प], सुदृढ़ अलिप्पमानं ठित न्ति, जा. अट्ठ. 3.281.
या उदार संकल्प करने वाला, उदार मन वाला - प्पो पु.. अलीन त्रि., लीन का निषे. [अलीन], शा. अ. नहीं लेटा प्र. वि., ए. व. - अलीनमनसङ्कप्पो, विधुरो एतदवि, जा. हुआ, नहीं छिपा हुआ, ला. अ. अशिथिल, जागरुक, अट्ठ. 7.186; - विरिय त्रि., ब. स. [अलीनवीर्य], सुदृढ़ चौकन्ना - नं नपुं., प्र. वि., ए. व. - योगिना योगावचरेन वीर्य से संपन्न - यो पु., प्र. वि., ए. व. - अलीनवीरियो कुसलेसु धम्मेसु अलीनमतन्दितं सन्तं मानसं पग्गहेतब्ब होति, पग्गहितमनो सदा, बु. वं. 2.138; जा. अट्ठ. 1.30; -- मि. प. 359; सम्पहढं यदा चित्तं, अलीनं भवतिनुद्धतं, त्ति त्रि., ब. स. [अलीनवुत्ति], उत्साही मनोवृत्ति वाला, महानि. 385; - चित्त त्रि., ब. स. [अलीनचित्त], अशिथिल उत्साह भरे मन वाला - त्तिं पु., वि. वि., ए. व. - उद्वाहक चित्त वाला, आसक्तिरहित या हर तरह के लगावों से मुक्त चेपि अलीनवृत्ति कोमारभत्तारं पियं मनापं, जा. अट्ठ. चित्त वाला - त्तो पु.. प्र. वि., ए. व. - अलीनचित्तो 5.445. अकुसीतवुत्ति, सु. नि. 68; - त्तं पु., द्वि. वि., ए. व. - अलीनचित्त पु., व्य. सं., एक राजकुमार का नाम, जो बाद उदग्गचित्तन्ति थिनमिद्धविगमेन सम्पग्गहवसेन अलीनचित्तं, में वाराणसी का राजा बना - तस्स नामग्गहणदिवसे पन उदा. अट्ठ. 231; - स्स पु.. ष. वि., ए. व. - अलीनचित्तस्स महाजनस्स अलीनचित्तं परगण्हन्तो जातोति अलीनचित्तकुमारो तुवं, विक्कन्तमनुजीवसि, जा. अट्ठ. 4.242; दुक्खूपनीतं त्वेवरस नामं अकंसु. जा. अट्ठ. 2.17; - त्तं द्वि. वि., ए. व. मच्चुमुखा पमोचयि, अलीनचित्तं तं मिगंवदेसी ति, तदे. - - अलीनचित्तं निस्साय, पहठ्ठा महती चम्, जा. अट्ठ. 2.18; चित्तसन्थार त्रि., ब. स. [अलीनचित्तसंस्तार], आसक्ति- ध. प. अट्ठ. 1.309; - जातक नपुं., जातक सं. 156 का रहित अथवा सङ्कीर्णतारहित चित्त के फैलाव या विस्तार शीर्षक, जा. अट्ठ. 2.15-19; इमं दुकनिपाते अलीनचित्तजातक वाला (शरीर रूपी रथ) - रो पु.. प्र. वि., ए. व. - वित्थारेत्वा कथेसि, ध. प. अट्ठ. 1.309. अलीनचित्तसन्थारो, वुद्धिसेवी रजोहतो, जा. अट्ठ. 7.142; अलीनसत्तु/अलीनसत्त पु., व्य. सं., उत्तरपञ्चाल नगर अलीनचित्तसन्थारो यथा स्थो नाम दन्तमयेन उळारेन सन्थारेन के राजा जयद्दिस के पुत्र के रूप में उत्पन्न एक बोधिसत्व सोभति, एवं तव कायरथोपि दानादिना का नाम - सामि अलीनसत्तु यस्मा त्वं अनधिमनोसि. जा. अलीनअसङ्कुटितचित्तसन्थारो होतु. जा. अट्ठ. 7.144; - अट्ठ. 5.27; - कुमार पु., उपरिवत् - रो प्र. वि., ए. व. नज्झासय त्रि.. ब. स. [अलीनाध्याशय], जागरुक चित्तवृत्ति -- ... अग्गमहेसी राहुलमाता, अलीनसत्तुकुमारो पन अहमेव वाला, अतन्द्रित मन वाला - यो पु.. प्र. वि., ए. व. - यो अहोसिन्ति, जा. अट्ठ. 5.31; 32; तदा बोधिसत्तो तस्स पुरिसो अलीनेन असंकुटितेन चित्तेन पकतियापि अलीनमनो अग्गमहेसिया कुच्छिम्हि निब्बत्ति, अलीनसत्तुकुमारोतिस्स अलीनज्झासयोव हुत्वा अनवज्जवेन कुसलं .... जा. अट्ठ. नाम करिंसु, जा. अट्ट. 5.21; - त्तुं द्वि. वि., ए. व. - तत्थ 1.265; - ता स्त्री., अलीन का भाव. [अलीनता], अशिथिलता, अलीनसत्तुन्ति एवंनामकं कुमार..., जा. अट्ठ. 5.24; - त्ते जागरुकता, चित्त की उदारता अथवा असङ्गीर्णता - सप्त. वि., ए. व. - आवी रहो वापि मनोपदोसं. नाहं सरे धम्मानुवत्ती च अलीनता च, अत्थस्स द्वारा पमुखा छळेतेति. जातुमलीनसत्ते, जा. अट्ठ. 5.26; ... जातु एकसेन अलीनसत्ते जा. अट्ठ. 1.350; अलीनता चाति चित्तस्स अलीनता अनीचता, मम भातिके अहं सम्मुखा वा परम्मुखा वा मनोपदोसं न इमिना चित्तस्स असङ्कोचतं पणीतभावं उत्तमभावं दस्सेति, सरामि, तदे.. जा. अट्ठ. 1.351; - तं द्वि वि., ए. व. - अलीनचित्तोति अलुत्त-विभत्तिक त्रि., ब. स. [अलुप्तविभक्तिक]. वह पद, एतेन बलविरियूपत्थम्भानं चित्तचेतसिकानं अलीनतं दस्सेति, जिसकी विभक्तियों का लोप नहीं हुआ है, विभक्तिप्रत्ययसहित सु. नि. अट्ट, 1.97; - मन त्रि., ब. स. [अलीनमनस]. पद - केन नपुं., तृ. वि., ए. व. - अलुत्तविभत्तिकेन पदेन उदार या असंकीर्ण मन वाला - नो पु., प्र. वि., ए. व. - सह पदानं समासो होति, सद्द. 3.743.
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अलुत्त-समास 594
अलेप अलुत्त-समास पु., कर्म. स. [अलुप्तसमास], ऐसा समासपद, ससण्ठितमकम्पितमलुळितसभावपरिसद्धाचारेन भवितब्बं मि. जिसके पूर्वपद की विभक्तियों का लोप न हुआ हो - सो प्र. प. 351. वि., ए. व. - तस्सपापियसिकाकम्मन्ति च अलुत्तसमासोयेव, अलूख त्रि., लूख का निषे. [अरुक्ष], नहीं रूखा, रूखेपन तेनाह इदं ही ति आदि, वि. वि. टी. 2.210; सो च समासो से रहित, चिकना, साफ-सुथरा - खं नपुं., प्र. वि., ए. व. किच्चवसेन लुत्तसमासो अलुत्तसमासो ति दुविधो, सद्द. - मज्झे कण्हं होति सुकण्हं अलूखं सिनिलु पासादिक 3.745; - से सप्त. वि., ए. व. - ब्राह्मणाति आदिसु दस्सनेय्यं अद्दारिद्वकसमानं, महानि. 261; अलूखन्ति अत्थसमसनं अलुत्तसमासे, सद्द. 3.741.
पासादिक, महानि. अट्ठ. 305. अलुद्ध त्रि., Vलुभ के भू. क. कृ. लुद्ध का निषे. [अलुब्ध]. अलेण 1. नपुं., लेण का निषे०, तत्पु. स. [अलयन], शरण लोभ से रहित, निर्लोभी, लगाव या लालच से मुक्त - द्धो या आश्रय का अभाव, विश्राम या विश्राम-स्थल का अभाव, पु., प्र. वि., ए. व. - अलुद्धो पनायं, भद्दिय, पुरिसपुग्गलो अशरण स्थल, अनाश्रय - तो प. वि., ए. व. - पभङ्गुतो लोभेन अनभिभूतो अपरियादिन्नचित्तो नेव पाणं हनति, अ. अधुवतो अताणतो अलेणतो असरणतो ... आदीनवतो नि. 1(2).222; तत्थ अलोलोति अलुद्धो, जा. अट्ठ. 7.1933; निस्सरणतो तीरेति - अयं तीरणपरिआ, महानि. 38; -द्धा ब. व. - न हि अलुद्धा एवरूपानि कम्मानि करोन्ति, अल्लीयितुं अनरहताय, अल्लीनानम्पि च लेणकिच्चाकारिताय जा. अट्ठ. 4.12; - चित्त त्रि., ब. स. [अलुब्धचित्त]. अलेणतो..., महानि. अट्ठ. 132; मि. प. 392; 2. त्रि., क. लोभमुक्त चित्त वाला, लगाव या लालच से रहित चित्त आश्रय-रहित, शरण न देने वाला, टिकने की जगह से वाला - त्ता पु., प्र. वि., ब. व. - इध पन, भिक्खवे, भिक्खू रहित - णो पु., प्र. वि., ए. व. - अलेणो लोकसन्निवासोति, अलुद्धचित्ता विवदन्ति, चूळव. 197.
पटि. म. 116; अतायनो लोकसन्निवासो, अलेणो, असरणो, अलुब्भन नपुं.. Vलुभ से व्यु. क्रि. ना., लुब्भन का निषे., लोभ असरणीभूतो, उदा. अट्ठ. 113; ख. वह, जिसे कहीं आश्रय या लालच न करना, आसक्ति न रखना - सयं वा न या शरण नहीं मिली है, बेसहारा - णा पु., प्र. वि., ब. व. लुब्मति, अलुब्भनमत्तमेव वा तन्ति अलोभो, ध. स. अट्ठ. - अलेणा अनगारा च, नीलमञ्चपरायणा, पे. व. 120; 172; अभि. अव. (पृ.) 21; - क त्रि., 1. लोभ न करने अब्भाहता दुक्खे पतिहिता अताणा अलेणा असरणा वाला, 2, नपुं., अलोभ, लालच का अभाव - अलोभनिद्देसे असरणीभूता, महानि. 304; - दस्सी त्रि., [अलयनदर्शिन], अलुब्भनकवसेन अलोभो, ध. स. अट्ठ. 193; - ना स्त्री., आश्रय या निवास स्थान को नहीं देख रहा/देख रही - अलुब्भन से व्यु., लोभ या लालच का न होना - यो तस्मिं स्सिनी स्त्री., प्र. वि., ए. व. - परियेसति लेणमलेणदस्सिनी, समये अलोभो अलुमना अलुमितत्तं असारागो असारज्जना, तदा नदी अजकरणी रमेति में थेरगा. 308; अलेणदस्सिनीति ध. स. 32; अलुब्भनाति अलुब्भनाकारो, ध. स. अट्ठ. 1933; वसनट्ठानं अपस्सन्ती, थेरगा. अट्ठ. 2.27. - नाकार पु., निर्लोभता का आचरण - रो प्र. वि., ए. व. अलेप पु., लेप का निषे., तत्पु. स. [अलेप]. लेप का अभाव - अलुब्भनाति अलुभनाकारो, ध. स. अट्ठ. 193.
- पो प्र. वि., ए. व. - तत्थ लेपो च अलेपो च लेपोकासो अलुमित त्रि., Vलुभ के भू. क. कृ., लुब्भित का निषे. च अलेपोकासो च वेदितब्बो, सेय्यथिदं- लेपोति द्वे लेपा [अलुब्ध], लोभ या लालसा से मुक्त, निर्लोभी - स्स पु.. ष. - मत्तिकालेपो च सुधालेपो च, ठपेत्वा पन इमे वे लेपे वि., ए. व. - अलुभितस्स भावो अलुभितत्तं ध. स. अट्ठ. अवसेसो भरमगोमयादिभेदो लेपो अलेपो, पारा. अट्ठ. 2.140; 194; - तं नपुं., भाव., प्र. वि., ए. व. [अलुब्धत्व]. लोभ - पारहो पु., प्र. वि., ए. व. [अलेपार्ह], लेप न करने से मुक्त होना, निर्लोलुपता, निराकांक्षता - यो तस्मिं समये योग्य - थम्भतुलापिट्ठसङ्घाटवातपानधूमच्छिद्दादि अलेपारहो अलोभो अलुब्भना अलुमितत्तं असारागो असारज्जना ओकासो सब्बोपि अलेपोकासोति वेदितब्बो, पारा. अट्ठ. असारज्जितत्तं अनभिज्झा, ध. स. 32; 312.
2.140; -- पोकासो पु., तत्पु. स., प्र. वि., ए. व. अलुळित त्रि., Vलुळ के भू, क. कृ., लुळित का निषे. [अलेपावकाश], लेप करने के लिए अनुपयुक्त स्थल - [अलुलित], नहीं हिलाया हुआ, परिशुद्ध, साफ सुथरा - तत्थ लेपो च अलेपो च लेपोकासो च अलेपोकासो च अलुलितोति न कललीभूतो, महानि. अट्ठ. 304; आपो वेदितब्बो.... सब्बोपि अलेपोकासोति वेदितब्बो, पारा. अट्ठ. सुसण्ठितमकम्पितमलुळितसभावपरिसुद्धो ... अपनेत्वा 2.140.
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अलोण
595
अलोम
अलोण त्रि., ब. स. [अलवण], नमक की अपेक्षित मात्रा से रहित, बिना पर्याप्त नमक वाला - णं पु., द्वि. वि., ए. व. - परिभिन्नवण्णं अलोणं सुक्खकम्मासं उपनेसि, भगवा पटिग्गहेसि, वि. व. अट्ठ. 153; ततो अलोणं यागं लभित्वा एकिस्साय सालाय निसीदित्वा पिवन्ति, म. नि. अट्ट. (मू.प.) 1(2).277; -णिका स्त्री., अलोण से व्यु., उपरिवत् - य तृ. वि., ए. व. - अलोणिकायाति फाणितविरहिताय, निप्फाणितत्ता हि सा अलोणिका ति वुत्ता, जा. अट्ठ. 3.362; सुक्खाय अलोणिकाय च, पस्स फलं कुम्मासपिण्डिया, जा. अट्ठ. 3.361; जा. अट्ठ. 1.224; - कदिवस पु., कर्म स. [अलोणकदिवस]. नमक का प्रयोग नहीं किया जाने वाला दिन - से सप्त. वि., ए. व. - पुरिमदिवसे मनुस्सा बहु लोणमदसु, अथाह अलोणकदिवसे भविस्सती ति अतिरेकं लोणं ठपेसिन्ति, जा. अट्ठ. 3.324; - काहार पु., कर्म, स. [अलोणकाहार], बिना नमक वाला भोजन - रं द्वि. वि., ए. व. - एकदा अलोणकाहारमेव
देन्ति, जा. अट्ठ. 3.324. अलोण-पण्ण-भक्ख त्रि.. [अलवणपर्णभक्षिन], बिना नमक के साग-सब्जियों के पत्तों को खाने वाला - क्खो पु., प्र. वि., ए. व. - अलोणपण्णभक्खोम्हि, नियमेस च संवतो,
अप. 1.242. अलोणिक त्रि., अलोण से व्य. [अलवणक], बिना नमक वाला - कं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - पवना आभतं पण्णं, अतेलञ्च अलोणिक चरिया. (पृ.) 372: इदं लोणिक, इदं अलोणिक, इदं तित्तकं इदं खारिकं इदं कटुकं ... इदं कसावंति सूपरसं न जानाति, ध. प. अट्ठ. 1.268. अलोपनीय त्रि., Vलुप के सं. कृ., लोपनीय का निषे. [अलोपनीय], लोप न करने योग्य, लोप का अविषयीभूत - या पु.. प्र. वि., ब. व. - अत्थविसेसस्स जोतका वा अजोतका वा लोपनीया वा अलोपनीया वा, ते सदा पच्चया, सद्द, 1.3. अलोभ पु.. लोभ का निषे., तत्पु. स. [अलोभ], लोभ-नामक
अकुशल हेतु का चित्त में अभाव, तीन कुशलमूलों में से प्रथम - भो प्र. वि., ए. व. - तीणि कुसलमूलानि- अलोभो कुसलमूलं, अदोसो कुसलमूल, अमोहो कुसलमूलं. दी. नि. 3.171; अलोभो खो, महालि, हेत अलोभो पच्चयो कल्याणस्स कम्मस्स किरियाय, अ. नि. 3(2).72; - ज त्रि., [अलोभज], अलोभ के कारण उत्पन्न - जं नपुं., प्र. वि., ए. व. - अलोभपकतं कम अलोभजं अलोभनिदानं
अलोभसमुदयं, अ. नि. 1(1).160; - ज्झासय त्रि., ब. स. [अलोभाध्याशय], लोभ से मुक्त चित्तवृत्ति वाला - सया पु.. प्र. वि., ए. व. - अलोभज्झासयाति अलुब्मनाकारेन पवत्तअज्झासया, विसुद्धि. महाटी. 1.128; - मय त्रि., अलोभ से युक्त - येन पु., तृ. वि., ए. व. - कम्मफलसद्दहनसद्धामयेन च अलोभमयेन च सुन्दरेन अलङ्कारेन समन्नागतो. जा. अट्ठ.7.143; - निदान त्रि., ब. स. [अलोभनिदान], अलोभ के कारण उत्पन्न - नं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अलोभकतं कम्म अलोभ अलोभनिदानं अलोभसमृदयं, अ. नि. 1(1).160; - निस्सन्दता स्त्री., भाव., अलोभ का फल या परिणाम होना - य तृ. वि., ए. व. - अथ वा तं विमानं यस्स पुञकम्मरस निस्सन्दफलं, तस्स अलोभनिस्सन्दताय सोवण्णमयं, अदोसनिस्सन्दताय उळारं वि. व. अट्ठ. 11; - निद्देस पु., तत्पु. स. [अलोभनिर्देश], अलोभविषयक कथन या व्याख्यान - से सप्त. वि., ए. व. - अलोभनिद्देसे अलुब्भनकवसेन अलोभो, ध. स. अट्ठ. 193; - पकत त्रि., ब. स. [अलोभप्रकृत], अलोभ के प्रभाव में किया गया, अलोभ द्वारा निर्धारित - तं नपुं॰, प्र. वि., ए. व. - यं, भिक्खवे, अलोभपकतं कम्मं अलोभज अलोभनिदानं अलोभसमुदयं अ. नि. 1(1),160; 297; -- पच्चय त्रि., ब. स. [अलोभप्रत्यय, अलोभ को प्रत्यय के रूप में रखकर उत्पन्न - या पु., प्र. वि., ब. व. - इतिस्स में अलोभजा अलोभनिदाना अलोभसमुदया अलोभपच्चया अनेके कुसला धम्मा सम्भवन्ति, अ. नि. 1(1).233; - सङ्घात त्रि., कर्म. स. [अलोभसंख्यात. अलोभ नाम से प्रसिद्ध, अलोभ नाम वाला -- अलोभो कुसलमूलन्ति अलोभसङ्घात कुसलमूलं.ध. स. अट्ठ. 194; - समुदय त्रि., ब. स. [अलोभसमुदय], अलोभ से उत्पन्न होने वाला - यं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - यं, भिक्खवे, अलोभपकतं कम्मं अलोभजं अलोभनिदानं अलोभसमुदयं, अ. नि. 1(1).160; 297; - या पु.. प्र. वि., ए. व. - इतिस्स मे अलोभजा अलोभनिदाना अलोभसमुदया अलोभपच्चया अनेके कुसला धम्मा सम्भवन्ति, अ. नि. 1(1).233; - मुस्सदा तत्पु. स., पु., प्र. वि., ब. व., अलोभ से परिपूर्ण - इमे सत्ता पुब्बहेतुनियामेन ... अलोभुस्सदा अदोसुस्सदा अमोहुस्सदा च होन्ति, विसुद्धि. 1.101. अलोम त्रि., निषे०, ब. स. [अलोमन], रोएं- रहित, बिना रोमों वाला - मो पु., प्र. वि., ए. क. - सिङ्गी मिगो आयतचक्खुनेत्तो अद्वित्तचो वारिसयो अलोमो, जा. अट्ठ. 2.283; -- मा स्त्री.,
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अलोमविमान
नातिदीघा नातिरस्सा, नालोमा
प्र. वि. ए. व. नातिलोमसाति, जा. अ. 6.287. अलोमविमान नपुं. वि. व. के एक अध्याय का शीर्षक अलोमविमानं चतुत्थं, वि. व. 711-717; अभिक्कन्तेन वण्णेनाति अलोमविमान वि. व. अट्ट. 152. अलोमहरु त्रि, लोमहद्ध का निषे [अलोमदृष्ट]. शा. अ. लोमहर्ष या रोमाञ्च से रहित वह जिसके रोंगटे खड़े न हों, ला. अ. भयरहित, निर्भीक हो पु. प्र. वि. ए. व. अलोमहद्धो मनुजिन्द, पुच्छ पन्हं यमिच्छसि जा. अड. 6.119, अलोमहोति निमयो अहदुलोमो हुचा पुच्छ, महाराजाति, तदे. अछम्भी अभीतो अलोमहद्वो इच्यब्रवि वरुणं नागराजानं जा. अड. 7.220 अलोमहनोति भयेन अहदुलोमो, तदे.. अलोमा स्त्री०, व्य. सं., एक नारी का नाम - तत्थेका अलोमा नाम दुग्गतित्थी भगवन्तं दिवा पसन्नचिता अञ्यं दातब्ब अपस्सन्ती वि. व. अड्ड. 153.
अलोल त्रि., लोल का निषे तत्पु. स. [अलोल] लालचरहित, निर्लोभ, सुदृढ़, स्थिर, अचञ्चल लो पु०, प्र. वि., ए. व. रसेषु गेोघं अकरं अलोलो, अनञ्ञपोसी सपदानचारी, सु. नि. 65 अलोलोति इदं सायिस्सामि इदं सायिरसामी ति एवं रसविसेसेसु अनाकुलो सु. नि. अह. 1.93; सद्धो होति हिरिमा घितिमा अकहो अत्थवसी अलोलो सिक्खाकामो दहसमादानो अनुज्झानबहुलो मेत्ताविहारी मि. प. 319लक्खित्रि, ब० स० [ अलोलाक्ष], अचञ्चल दृष्टि वाला, चञ्चलता के साथ इधर-उधर न ताकने वाला - क्खिं पु०, द्वि. वि., ए. व. - अलोलक्खिं मितभाणिं, युगमत्तं निदक्खितं, अप. 2.148; जातिक त्रि. लोलजातिक का निषे. [ अलोलजातिक], चञ्चलता से रहित स्वभाव वाला, स्थिर प्रकृति वाला का पु. प्र. वि. ब. व. तंत्र भिक्खये ये ते मक्कटा अबालजातिका अलोलजातिका, ते तं लेपं दिस्वा आरका परिवज्जन्ति, स. नि. 3 (1). 226. अलोलुप त्रि. लोलुप का निषे [ अलोलुप ] लालच से रहित, लोभरहित पो पु. प्र. वि., ए. क. - अनूदरो मिताहारो, अधिकछस्स अलोलुपो, सु. नि. 712 वीतसोको निरारम्भो, अप्पाहारो अलोलुपो अप. 1.386 पाव. व. अपिच्छा निपका एते. अप्पाहारा अलोलुपा, अप. 1.14 अपिच्छा निपका धीरा, अप्पाहारा अलोलुपा, मि. प. 310;
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पं हि. वि. ए. व. एणिजङ्घ किसं वीरं, अप्पाहारं अलोलुपं. स. नि. 1 (1) 19 अलोलुपन्ति चतूसु पच्चयेसु लोलुप्पविरहितं, स. नि. अड. 1.50.
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अल्लकप्प
अलोलुप्प त्रि. लोलुप्य का निषे [ अलीलुप्य] लालचीपन से मुक्त प्पा पु. प्र. वि. व. व. अपकिच्या अलोलुप्पा निपका सन्तवृत्तिनो अप. 2.56 चारता स्त्री. भोजन ग्रहण करने में लालचीपन का अभाव य तू. वि. ए. व. सुवराजापि सुवगणपरिवुतो आगन्त्वा अलोलुप्पचारताय हिय्यो खादितट्ठाने ओड्डितपासे पादं पवेसन्तोव ओतरि, जा. 31. 4.248.
,
अलोहित त्रि., लोहित का निषे०, ब० स० [अलोहित], क. वह, जो लाल रङ्ग का न हो, ख. रक्त रहित, बिना खून वाला / वाली - ता स्त्री. प्र. वि., ए. व. अक्कोसति नाम अनिमित्तासि निमित्तमत्तासि अलोहितासि, घुवलोहितासि पारा 190; अलोहिताति सुक्खसोता, पारा. अट्ठ. 2.122; - कत्रि०, ब० स०, उपरिवत् कानि नपुं. प्र. वि., ब. व. अलोहितकानि द्वेपि वट्टन्तियेव, दी. नि. अट्ठ. 1.79. अल्ल त्रि., [आर्द्र ], गीला, नम, सूखेपन से रहित, ताजा तिन्तोल्ला' किलिन्नोन्ना मग्गितं परियेसितं अभि. प. 753; ल्लं पु. द्वि. कि. ए. व. अल्लं सुक्ख वा भुञ्जन्तो न बाळहं सुहितो सिया मि. प. 378: यथालद्धेन व्यञ्जनेन सद्धि अल्लमेव भत्तं पच्छियं ओपीळेल्या आदाय योजनिकं मग्गं पक्खन्दो, थप अट्ठ. 1.252; - ल्लेन / ल्लाय पु. / स्त्री. तृ. वि. ए. व. मुखं पिदहित्वा अल्लेन चम्मेन ओनन्धित्वा अल्लाय मत्तिकाय बहलावलेपनं करित्वा... दी. नि. 2.247 - ल्लेहि पु० / नपुं०, तृ. वि., ब. व. तेन खो पन समयेन भिक्खू अल्लेहि पादेहि सेनासन अक्कमन्ति चूळव. 307.
अल्लकप्प पु०/नपुं०, स्था. सं., मगध के पड़ोस में स्थित बुली नामक जाति के लोगों का क्षेत्र या नगर प्पे सप्त वि., ए. व. अल्लकप्पकापि बुलयो अल्लकप्पे भगवतो सरीरानं थूपञ्च महञ्च अकंसु, दी. नि. 2.125; - क त्रि. अल्लकप्प क्षेत्र के निवासी बुल्ली लोग प्पका पु. प्र. कि. ब. व. अस्सोसुं खो अल्लकप्पका बुलयो... अथ खो अल्लकम्पका बुलयो कोसिनारकानं मल्लानं दूतं पाहेसुं दी. नि. 2.124; तापस पु०, व्य. सं., अल्लकप्प जनपद का राजा जो बाद में तपस्वी बन गया सस्सष. वि., ए. व. - अल्लकप्पतापसस्सपि खो ततो अविदूरे वसनद्वानं होति. ध. प॰ अट्ठ॰ 1.96; - रट्ठ नपुं०, अल्लकप्प नामक राष्ट्र सप्त. वि., ए. व. अतीते अल्लकप्परद्वे अल्लकप्पराजा नाम, घ. प. अड. 1.94; अल्लकप्परद्वे पन दुभिक्खे जीवितुं असक्कोन्तो, ध. प. अ. 1.98; राज पु. व्य. सं.,
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अल्लकेस
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अल्लमत्तिकापिण्ड
अल्लकप्प नामक क्षेत्र का उसी नाम वाला राजा - जा प्र. अल्लत्त नपुं., भाव. [आर्द्रत्व], गीलापन, ताजापन, हरापन वि., ए. व. - अतीते अल्लकप्परटे अल्लकप्पराजा नाम, - त्तं द्वि. वि., ए. व. - आपो धातु सिनेहेति च अल्लत्तञ्च ध. प. अट्ट, 1.94.
अनुपालेति, म. नि. अट्ठ (मू.प.) 1(1).278; उदके आकिरन्ते अल्लकेस त्रि., ब. स. [आर्द्रकेश], गीले या भीगे हुए बालों अल्लत्तं वा पल्लवितहरितभावो वा न भवेय्य, मि. प. 151. वाला/वाली .. सो पु., प्र. वि., ए. व. - अथ खो वड्डो । अल्लदारु नपुं., कर्म. स. [आर्द्रदारू], हरी-भरी लकड़ी, न लिच्छवी ... अल्लवत्थो अल्लकेसो येन भगवा तेनुपसङ्कमि ही सूखी हुई ताजी लकड़ी - रूनि द्वि. वि., ब. व. - एकेन चूळव. 245; - सा स्त्री, प्र. वि., ए. व. - ओदातवत्था सुचि हत्थेन अल्लदारूनि भजित्वा रुक्खतो ओरुय्ह .... जा. अल्लकेसा, कच्चानि कि कुम्भिमधिस्सयित्वा, जा. अठ्ठ. 3.376. अट्ठ. 1.305; - रासि पु., तत्पु. स. [आदारुराशि], हरी अल्लगूथ नपुं.. कर्म. स. [आर्द्रगूथ], ताजा पाखाना, गीला भरी या ताजी लकड़ी का ढेर - सिं द्वि. वि., ए. व. -- मल - थं प्र. वि., ए. व. - गूथपज अभिरुहि, अल्लगूथं सामणेरे समादपेत्वा पासाणपिढे अल्लदारुरासिं कारेहीति, तस्मिं आरुळ्हे थोकं ओनमि, जा. अट्ठ. 2.177.
अ. नि. अट्ठ. 1.29. अल्लगोमय नपुं.. कर्म. स. [आर्द्रगोमय], ताजा गोबर, अल्लपाणि त्रि., ब. स. [आर्द्रपाणि], गीले या भींगे हुए गीला गोबर - यं द्वि. वि., ए. व. - हरितसस्सं वा करतल (गदेली) वाला/वाली - णिना पु., तृ. वि., ए. व. अल्लगोमयं वा कच्छप वा तिलं वा पूर्फ वा फलं वा - अल्लपाणिना उपकारकिरियाय अल्लपाणिना धोतहत्थेन आमसति, खु. पा. अट्ठ. 95; - येन तृ. वि., ए. व. - पुब्बकारिना हेवा ....पे. व. अट्ठ. 102; - हत त्रि., हाथ हठ्ठतुट्ठा अल्लगोमयेन गेहं उपलिम्पेत्वा पायासं पचित्वा धोकर किए हुए उपकार को भूल जाने वाला, अकृतज्ञ - आगमनमग्गं ओलोकेन्ती .... जा. अट्ठ. 4.43; तो पु., प्र. वि., ए. व. - अल्लपाणिहतो पोसो, न सो भद्रानि सुधापरिकम्मकतम्पि भूमि अल्लगोमयेन ओपज्जापेत्वा पस्सतीति, पे. व. 265; अल्लपाणिहतो पोसोति अल्लपाणिना परिसुक्खभावं ञत्वा ... न पायति, उदा. अट्ठ. 331. धोतहत्थेन पुब्बकारिना ... हतो बाधितो ... अकत पुग्गलो, अल्लचम्म नपुं., कर्म, स. [आर्द्रचर्मन्]. गीला चमड़ा - पे. व. अट्ठ. 102. म्मेन तृ. वि., ए. व. - नवहि मंसपेसिसतेहि अनुलित्तो, अल्लपिण्डमंस नपुं., तत्पु. स. [आर्द्रमांसपिण्ड], ताजे मांस अल्लचम्मेन परियोनद्धो, छविरागेन पटिच्छन्नो, म. नि. का पिण्ड - ण्डेन तृ. वि., ए. व. - बोधिसत्तस्स मधुरसद अट्ट. (मू.प.) 1(1).402; -- म्मं द्वि. वि., ए. व. - तत्थ यथा सू त्वा अल्लमंसपिण्डेन हदये पहटा विय... जा. अठ्ठ. 3.248 अल्लचम्मपरियोनद्धाय पेळाय न अल्लचम्म जानाति... अहं अल्लमंसपेसिवण्ण त्रि., ब. स. [आर्द्रमांसपेशीवर्ण], ताजी अल्लचम्मेन परियोनद्धाति, खु. पा. अट्ठ. 34; तावदेव मांसपेशी के समान रङ्ग-रूप वाला/वाली - ण्णं पु., द्वि. बलवता पुरिसेन अक्कन्तअल्लचम्मं विय, ध. प. अठ्ठ. वि., ए. व. - तस्सा पस्सन्तियाव तं अल्लमंसपेसिवण्ण 2.358; - पटिच्छन्न त्रि., तत्पु. स. [आर्द्रचर्मप्रतिच्छन्न]. कुमारकं गहेत्वा मुरुमुरायन्ती खादित्वा पक्कामि, जा. अट्ट. गीले चमड़े से ढका हुआ - न्नो पु., प्र. वि., ए. व. - अल्लचम्मपटिच्छन्नो, नवद्वारो महावणो, खु. पा. अट्ठ. 35; अल्लमंससरीर त्रि., ब. स. [आर्द्रमांसशरीर], ताजे मांस से मि. प. 80; - परियोनद्ध त्रि., तत्पु. स. [आर्द्रचर्मपर्यवनद्ध], भरे शरीर वाला/वाली - रा पु., प्र. वि., ब. व. - न हि ताजे या जीवित चमड़े से ढका हुआ --द्धं नपुं, प्र. वि., एते कोळापरुक्खा, न च वम्मिका अल्लमंससरीराव, ध. प. ए. व. - इदं सरीरं नाम ... नवमंसपेसिसतानुलित्तं अट्ठ. 1.278; 2.379. अल्लचम्मपरियोनद्धं छविया पटिच्छन्नं विसुद्धि. 1.186. अल्लमत्तिकापिण्ड पु., तत्पु. स. [आर्द्रमृत्तिकापिण्ड], गीली अल्लचीवर त्रि., ब. स. [आर्द्रचीवरक]. गीले चीवर धारण मिट्टी का पिण्ड या गोला - ण्डम्हि सप्त. वि., ए. व. - करने वाला - रो पु.. प्र. वि., ए. व. - कदाहं सत्ताहसम्मेघे, सत्था घणपिद्विपासाणे अल्लमत्तिकपिण्डम्हि लञ्छनं विय ओवट्ठो अल्लचीवरो, जा. अट्ठ. 6.63.
पदचेतियं दस्सेसि. म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.250; - पुञ्ज अल्लतिण नपुं., कर्म. स. [आर्द्रतृण], ताजी घास, गीला पु., तत्पु. स. [आर्द्रमृत्तिकापुञ्ज]. गीली मिट्टी का ढेर - तृण - अल्लतिणादिं आगम्म निब्बायतीति अत्थो, म. नि. जे सप्त. वि., ए. व. - सेय्यथापि, भिक्खवे, परिसो गरुकं अट्ठ. (मू.प.) 1(2).127.
सिलागुळं अल्लमत्तिकापुजे पक्खिपेय्य, म. नि. 3.138.
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अल्लायते
अल्लमधु अल्लमधु नपुं.. कर्म. स. [आर्द्रमधु], ताजा शहद - धुं द्वि. वि., ए. व. - किं नु खो एत्थ नत्थीति ओलोकेन्ता अल्लमधुमेव न अद्दसं. ध. प. अट्ट, 1.357; - धुस्स ष. वि., ए. व. - ते अल्लमधुस्सत्थाय चतूसु नगरद्वारेसु चत्तारि कहापणसहस्सानि गाहापेत्वा पहिणिंसु.ध. प. अट्ठ. 1.357. अल्लमीरचवट्टिका स्त्री., तत्पु. स. [आर्द्रमरिचवर्तिका]. हरी मिर्च की फल्ली - कं द्वि. वि., ए. व. - मरिचवट्टिकं ति अल्लमरिचवट्टिक, म. वं. टी. 453. अल्लयूस पु./नपुं., कर्म. स. [आर्द्रयूष, नपुं.]. ताजा झोल या शोरबा, ताजा रसा - आपोधातुनिद्देसे आपोगतन्ति सब्बआपेसु गतं अल्लयूसभावलक्खणं, म. नि. अट्ट (मू.प.) 1(2).126; सब्बआपेस गतं अल्लयूसभावलक्खणन्ति द्रवभावलक्खणन्ति अत्थो , म. नि. टी. (मू.प.) 1(2).161. अल्लरस त्रि., ब. स. [आर्द्ररस], ताजे या नए स्वाद वाला - सं नपुं.. द्वि. वि., ए. व. - सिन्धवा किलन्ता अल्लरसमेव नेसं मुद्दिकपानं देथाति आणापेसि, जा. अट्ठ 2.79; पञ्चसतानं आजानीयसिन्धवानं अल्लरसमद्दिकपानकपीतावसेसं उच्छिट्ठकसट.... ध. प. अट्ठ. 1.334. अल्लरुक्ख पु.. कर्म. स. [आईवृक्ष], हरा-भरा पेड़ - क्खे द्वि. वि., ब. व. - सो साधु, भन्ते, ति वत्वा उदुम्बरादयो अल्लरुक्खे छिन्दित्वा महन्तं रासिं कत्वा..., स. नि. अट्ट. 2.242-43. अल्लरोहितमच्छ पु., कर्म. स. [आर्द्ररोहितमत्स्य], ताजी रेहू मछली - च्छं द्वि. वि., ए. व. - दोहळो मे सामि, उप्पन्नो, अल्लरोहितमच्छं खादितं इच्छामी ति, जा. अट्ठ. 3.293. अल्लवण त्रि.. ब. स. [आर्द्रव्रण]. ताजे या खून बह रहे घाव वाला - णो पु., प्र. वि., ए. व. - अद्धदण्डकादीनं वा अञ्जतरेन, याव अल्लवणो होति, ताव न पब्बाजेतब्बो, .... सो सचे भुजिस्सो याव अल्लवणो होति, ताव न पब्बाजेतब्बो, महाव. अट्ठ. 266. अल्लवत्थ त्रि., ब. स. [आर्द्रवस्त्र], गीले कपड़े धारण करने वाला/वाली - त्थो/त्था पु./स्त्री., प्र. वि., ए. व. - अल्लकोसो अल्लवत्थो इस्सरपुरिसो विय ... अल्लकेसा अल्लवत्था उप्पलकुमुदमाला पिळन्धित्वा पदुमपुण्डरीककलापे ..., जा. अट्ट, 1.108; अल्लवत्थो अल्लकेसो येन भगवा
तेनुपसङ्कमि, चूळव. 245. अल्लसरीर नपुं., कर्म. स. [आर्द्रशरीर], सद्यः-निष्प्राण हुआ शरीर - रे सप्त. वि., ए. व. - अभिन्ने सरीरेति अभण्हे
अल्लसरीरे पंसुकूलं न गहेतब्ब, पारा. अट्ठ. 1.302; - रेसु सप्त. वि., ब. व. - तं खणं पतितेसु अल्लसरीरेसु राग उप्पादयिंसु, ध. प. अट्ठ. 2.62. अल्लससमंस पु., कर्म. स. [आर्द्रशशमांस], खरगोश का ताजा मांस - सं द्वि. वि., ए. व. - वेज्जेन च अल्लससमंसं लटुं वट्टतीति वुत्तं,ध. स. अट्ठ. 149; म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).211;. अल्लसाटक नपुं., कर्म. स. [आर्द्रशाटक], गीले कपड़े का एक टुकड़ा - कं द्वि. वि., ए. व. - अल्लसाटकं हदये कत्वा सीताय छायाय निपन्नो होति, विसुद्धि. 1.263. अल्लसिङ्ग नपुं.. कर्म. स. [आर्द्रशृङ्ग]. पौधे के ऊपर निकली नई कोपल या किसलय - अयं वा सो मतो सेति. अल्लसिङ्गव वच्छितो, जा. अट्ठ. 3.344; अल्लसिङ्गन्ति मालुवलताय अग्गपवालं, तदे.. अल्लसिंगीवेर पु., कर्म. स. [आर्द्रशृङ्गवेर, हरा या ताजा अदरख - रं द्वि. वि., ए. व. - सब्बपत्तानि लुञ्जित्वा अल्लसिङ्गीवेञ्च सिद्धत्थके..., जा. अट्ठ. 3.197. अल्लसिनेह पु., कर्म. स. [आर्द्रस्नेह], अण्डे का भीतरी उजला तरल पदार्थ - हो प्र. वि., ए. व. - योपि नेसं अल्लसिनेहो सो परियादानं गच्छति, पारा. अट्ठ. 1.101; यो नेसं अल्लसिनेहो, सोपि परियादानं गच्छति, स. नि. अट्ठ. 2.289. अल्लसिर त्रि., ब. स. [आर्द्रशिरस्], गीले या भीगे हुए शिर वाला - रा पु., प्र. वि., ब. व. - अल्लवत्था अल्लसिरा,
सब्बेव पञ्जलीकता, अप. 1.43; थेरगा. अट्ठ. 1.401. अल्लसुक्खतिण नपुं., कर्म. स. [आर्द्रशुष्कतृण], हरी एवं सूखी घास - णानि वि. वि., ब. व. - ते अल्लसुक्खतिणानि
खादन्ति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).216; ध. स. अट्ठ. 362. अल्लहत्थ पु.. कर्म. स. [आर्द्रहस्त], गीला या भीगा हुआ हाथ - त्थं द्वि. वि., ए. व. - अल्लहत्थं ठपेत्वान, रजग्गाहो च भूमिया, खु. सि. 257; अघंसन्तेन पन अल्लहत्थं पथवियं ठपेत्वा रजं गहेतुं वट्टति, पाचि. अट्ठ. 21. अल्लापसल्लाप पु., द्व. स. [आलापसंलाप], आलाप और संलाप, बातचीत - पं द्वि. वि., ए. व. - बालेनल्लापसल्लापं न करे न च रोचये, जा. अट्ठ. 4.215... अल्लायते अल्ल के ना. धा. का वर्तः, प्र. पु., ए. व. [आर्द्रायते], गीला सा हो रहा है - अल्लायते अयं रुक्खो, अपि वारीव सन्दति, जा. अट्ठ. 4.313: अल्लायतेति उदकभरितो विय अल्लो हुत्वा पञआयति, जा. अट्ठ. 4.314.
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अल्लावलेपन/अद्दावलेपन 599
अव अल्लावलेपन/अद्दावलेपन त्रि., ब. स. [आर्द्रावलेपन]. व. - तस्सा पच्छितो एक पूर्व गण्हन्तिया सब्बे एकाबद्धा गीली लिपाई-पुताई से युक्त - ना स्त्री., प्र. वि., ए. व. - अल्लीपिंसु, जा. अट्ठ. 1.332; - यितुं निमि. कृ. - सेय्यथापि, आवुसो, कूटागारं वा साला वा बहलमत्तिका आसीविसपटिभागो असनिअग्गिसदिसो अल्लीयितुं न युत्तो अद्दावलेपना, स. नि. 2(2).187.
आसङ्कितब्बो, जा. अट्ठ. 1.478; - यित्वा पू. का. कृ. - अल्लि स्त्री., क. एक वृक्ष का नाम - या ष. वि., ए. व. - अन्तरद्वारे दिट्ठमङ्गलिकं दिवा एकमन्तं अपगन्त्वा अल्लीयित्वा पत्तेसु अल्लिया पत्तं, तथा पत्तञ्च नीलिया, विन. वि. 2744; अट्ठासि, जा. अट्ठ. 4.338. अल्लिया पन पत्तेन, धोवितुं पन वट्टति, विन. वि. 2746; ख. अल्लीयन नपुं., आ + Vली से व्यु.. क्रि. ना. [आलीयन. अल्लि-वृक्ष की पत्तियों से तैयार किया गया रंग-ल्लिं वि घनिष्ट सम्बन्ध, दृढ़ लगाव या प्रबल आसक्ति - नं प्र. वि., वि., ए. व. - अल्लिं नीलञ्च पत्तेसु. तचे लोद्दञ्च कण्डुलं. ए. व. - सच्चिकिरियावसेन अल्लीयनं अरहतीति अत्थो, खु. सि. 59; अल्लिपत्तं नीलिपत्तञ्च ठपेत्वा सब्बं पत्तरजनं । विसुद्धि. 1.208; गूथधारी विय गूथपिण्डे कामेसुयेव अल्लीयनं वट्टति, गिहिपरिभुतं पन अल्लिपत्तेन एकवारं रजितुं वट्टति, इच्छन्ति, उदा. अट्ठ.57. महाव. अट्ठ. 383.
अल्लीयापन त्रि., मजबूती से जोड़ देने वाला, दृढ़ता से गूंथ अल्लिक नपुं./स्त्री., उपरिवत् - यो च पक्खिपति भिक्खु देने वाला या सिल देने वाला - अग्गळं तुन्नन्ति एत्थ
चीवरं कजिपिट्ठखलिअल्लिकादिसु, विन. वि. 3040. उद्धरित्वा अल्लीयापनखण्ड अग्गळं महाव. अट्ठ. 385; अल्लिपत्त नपुं.. तत्पु. स., अल्लि-नामक वृक्ष की पत्ती - अल्लीयापनखण्डन्ति दुब्बलट्ठान अपने त्वा तेन तृ. वि., ए. व. - गिहिपरिभुत्तं पन अल्लिपत्तेन एकवारं अल्लीयापनवत्थखण्ड, सारत्थ, टी. 3.307. रजितुं वट्टति, महाव. अट्ठ. 383.
अल्लीयापेत्वा आ +Vली के प्रेर. का पू. का. कृ., मजबूती अल्लीन त्रि., आ + Vली का भू. क. कृ. [आलीन], पूरी से जोड़ दे कर, दृढ़ता से गूंथ कर या सिल कर - सन्थस्स तरह से चिपका हुआ या सटा हुआ, आसक्त, जुड़ा हुआ - अन्ते अनुवातं विय दस्सेत्वा ओदातं अल्लियापेत्वा .... पारा. नो पु., प्र. वि., ए. व. - यो नु खो दुक्खं अल्लीनो दुक्खं अट्ठ. 2.239. उपगतो दुक्खं अज्झोसितो. म. नि. 1.298-99; दुक्खं । अल्लोकास पु., कर्म. स. [आर्द्रावकाश], भीगा हुआ या अल्लीनोति इमं पञ्चक्खन्धदुक्खं तण्हादिट्ठीहि अल्लीनो, गीला स्थल - सं द्वि. वि., ए. व. - तत्थ वातेन असम्फुट्ठ म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).176; - नानं ष. वि., ब. व. - अल्लोकासं तिलफलमत्तम्पि पवेसेन्तस्स पाराजिकमेव, पारा. अल्लीनानम्पि च लेणकिच्चाकारिताय अलेणतो, महानि. अट्ठ. 1.223; - से सप्त. वि., ए. व. - अल्लोकासे निमित्तं अट्ठ. 132; अत्तपरितापने च अल्लीनेहि किलेसदुक्खातुरानं सं. तिलमत्तम्पि सन्थतं, खु. सि. 1.2. अनुसिक्खन्तेहि .... उदा. अट्ठ. 287; - त्त नपुं॰, भाव. अव रक्षा अर्थ वाली एक धातु - अव रक्खणे जीव पाणधारणे [आलीनत्व]. पूरी तरह से जुड़ा हुआ होना या लगावयुक्त तु प्लवो गते, धा. मं. (पृ.) 377: अव पालने, अवति, बुद्धो होना - त्ता प. वि., ए. व. - सो चित्तेन अल्लीनत्ता पारं मम अवतं, सद्द. 2.440.
समुद्दस्स अन्तो वसन्तोपि अन्तोयेव होति, जा. अट्ठ. 4.194. अव अ., उप. [अव/अप], क. अनेक अर्थों का सङ्केतकअल्लीयति आ + Vली का वर्त, प्र. पु., ए. व. [आलीयते], वियोगे जानने चाधोभावानिच्छयसद्धिसु वचोक्रियाय थेय्ये च किसी के साथ पूरी तरह से जुड़ जाता है या सट जाता है, आणप्पत्तादिके अव, अभि. प. 1173; अधोभावे वियोगे च देसे किसी पर आश्रित हो जाता है, किसी के प्रति आसक्त हो निच्छयसुद्धिसु, परिभावे जानने च थेय्यादिसु च दिस्सति, जाता है - उत्तरसेविपुत्तस्स पन दीघरत्तं ब्रह्मलोके वसितत्ता अव इच्छुपसग्गोति विज्ञातब्बं विभाविना, सद्द. 3.882; 1. किलेसेसु चित्तं न अल्लीयति, जा. अट्ठ. 1.415; अनुपलित्तोति अधोभाव या नीचे की ओर - ओक्खित्तचक्खू न च उपगन्त्वापि न अल्लीयति पोक्खरपत्ते उदकबिन्दु विय, पादलोलो, सु. नि. 63; तत्थ ओक्खित्तचक्खू ति महानि. अट्ठ. 1.134; - न्ति ब. व. - आप्पेन्तीति अल्लीयन्ति हेट्ठाखित्तचक्खु, सु. नि. अट्ठ. 1.92; 2. वियोग या बिलगाव
ओसरन्ति, उदा. अट्ठ. 246; - येथ विधि., प्र. पु.. ए. व. - अनुजानामि, भिक्खवे, ओमुक्कं गुणगुणूपाहनं, महाव. - इमं चे तुम्हे, भिक्खवे, दिद्धिं एवं परिसुद्धं एवं परियोदातं 260; ओमुक्कन्ति पटिमुञ्चित्वा अपनीतं, महाव. अट्ठ. 346; न अल्लीयेथ.... म. नि. 1.331; - यिंसु अद्य., प्र. पु., ब. 3. देश या स्थान - तेन खो पन समयेन भगवा ...
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८.02.
अवहरि/अवाहरी
600
अवकप्पना अज्झोकासे चङ्कमति, महाव. 20; 4. निश्चय या पुष्टि - व. - एको अरओ विहरसि, नावकसि जीवितं, जा. अट्ठ. हत्थदाहनरिन्देन तस्मिं अत्थे वधारिते. चू. वं. 47.4; 5. 4.334; नावकङ्घसीति सयं दुल्लभभोजनो हुत्वा एवरूपं भोजनं शुद्धि की प्रकृष्टता या अधिकता - वोदानन्ति विसुद्धता, अञ्जस्स देसि, कि अत्तनो जीवितं न कसि, जा. अट्ठ. दी. नि. अट्ठ. 1.84; 6. तिरस्कार या अपमान - यो 4.335; - ङ्खामि उ. पु., ए. व. - भत्तिञ्च तयि सम्परसं चत्तानं समुक्कसे, परे च मवजानाति, सु. नि. 132; परे च नावकवामि जीवितं, जा. अट्ठ. 5.334. मवजानातीति तेहियेव परे अवजानाति, नीचं करोति, सु. अवकढयित्वा अव + कड्ड का पू. का. कृ., शा. अ. नीचे नि. अट्ट, 1.144; 7. जानना - एत्थ च यथा लोके की ओर खींच कर, ला. अ. कहीं अन्यत्र से लेकर या अवगन्ता अवगतोति वुच्चति, खु. पा. अट्ट. 7; 8. छीनना, उद्धृत कर - हेतुमवकड्ढयित्वा, एसो हारो परिक्खारो, नेत्ति. चुराना - संविदावहारो नाम सम्बहुला संविदहित्वा एको 5; हेतुमवकवयित्वाति तं यथावुत्तपच्चय सङ्घात भण्डं अवहरति ..., पारा. 60; ख. व्यञ्जनादि पदों से जनकादिभेदभिन्नं हेतुं आकवित्वा सुत्ततो निद्धारेत्वा यो पूर्व प्रायः 'ओ' के रूप में परिवर्तित, अप के स्थान संवण्णनासङ्घातो ..., नेत्ति. अट्ठ. 160. पर भी प्रयुक्त - ओलोकेथ, भिक्खवे, लिच्छविपरिसं, अपलोकेथ, अवकण्णक त्रि., [अवकर्णक], कनकटा, कटे हुए कान भिक्खवे, लिच्छविपरिसं. दी. नि. 2.76; सो नेव सक्कुण्णेय्य वाला (दास के लिये प्रयुक्त नाम) - के नपुं. प्र. वि., ए.
उग्गिलितुं न सक्कुण्णेय्य ओगिलितुं, म. नि. 2.62. व. - हीनं नाम नाम- अवकण्णक, जवकण्णक, धनिट्ठक अवहरि/अवाहरी अव + हर का अद्य, प्र. पु., ए. व. सविडकं, कुलवड्वक, पाचि.8; अवकण्णकादि दासानं नाम [अवाहरत], नीचे की ओर ले गया - पातालरजो हि दुत्तरो, होति, तस्मा हीनं, पाचि. अट्ट. 5; अवकण्णकन्ति मा तं कामरजो अवाहरि स. नि. 1(1).228; अयं कामरजो छिन्नकण्णकनाम, वजिर. टी. 257. तं मा अवहरि अपायमेव मा नेतूति अत्थो, स. नि. अट्ठ. 1.253. अवकन्त त्रि., अव + कत का भू. क. कृ. [अवकृत्त], काटा अवं अ०, उप., क्रि. वि., प्रायः स. प. में ही प्रयुक्त [वै. हुआ - तेनेव तस्सा गलकावकन्तं, अयम्पि अत्थो अवाक /अवान्], नीचे, नीचे की ओर - तं सदं सुत्वा बहुतादिसोवा ति, जा. अट्ट, 4.225. तुरितमवसरी सो, सु. नि. 690; पाठा. अवसरी; अवसरीति अवकन्तति अव+vकत का वर्त, प्र. पु. ए. व. [अवकृन्तति]. ओतरि, सु. नि. अट्ठ. 2.187; पतन्ति सत्ता निरयं अवंसिरा, टुकड़ों में करके काट देता है, खण्ड-खण्ड कर देता है, - सु. नि. 251; ... अवंसिरा अधोगतसीसा, सु. नि. अट्ठ. 1.266. न्ति प्र. पु. ब. व. - ओक्कन्तति पुनपुनन्ति अवकन्तितढ़ाने अवंसिर त्रि., ब. स. [अवाकशिरस]. नीचे की ओर अपना खारोदकेन आसिञ्चित्वा पुनप्पनम्पि अवकन्तन्ति, पे. व. सिर किया हुआ - रो पु., प्र. वि., ए. व. - अवन्तं सिरो अट्ठ. 186; - थ अनु०. म. पु., ब. व. - पुथुसो मं यस्स, सो यं अवंसिरो, सद्द. 1.102; अवंसिरोति आदिसु विकन्तित्वा, खण्डसो अवकन्तथ, जा. अट्ठ. 4.140; - न्ता निच्चं ववत्थितविभासत्ता वाधिकारस्स, मो. व्या. 1.38; - रा पु., वर्त. कृ., प्र. वि., ब. व. - अग्गे चाति अवकन्तन्ता पन ब. व. - एवं निसिन्नकाले एवं अवंसिरा पतिस्सन्तीति, ध. पठमं अग्गे, ततो मज्झे छेत्वा सब्बपच्छा मूले छिन्दथ, जा. प. अट्ठ. 1.245; निगण्ठा अवंसिरा आवाटे पतिंस. ध. प. अट्ठ. 4.141; - न्तित त्रि., भू. क. कृ. - ओक्कन्तति अट्ठ. 1.246.
पुनप्पुनन्ति अवकन्तितट्ठाने .... पे. व. अट्ठ. 186. अवकंस पु., अव + ।कंस से व्यु., क्रि. ना. [अवकर्ष], अवकप्पन नपुं., अव + कप से व्यु., क्रि. ना., कप के अर्थ पतन, नीचे की ओर घसीटा या खींच कर ले जाया जाना के रूप में प्रयुक्त, सक्षम होना, समर्थ होना - ने सप्त. वि., - तो प. वि., ए. व. - पच्चयो सत्तधा छठा, होति तं ए. व. - कप अवकम्पने, कपेति कप्यति, कपणो, कपणो ति अवकसतो, ..., विभ. अट्ठ. 165; वत्थुनो कायजिव्हानं, वसा करुणायितब्बो, सद्द. 2.553; भू अवकप्पने, सद्द. 2.555. तिसावकसतो, उक्कंसस्सावकसस्स, अन्तरे अनुरूपतो, अभि.. अवकप्पना स्त्री., उपरिवत् [अवकल्पना], शा. अ. घोड़े अव. 100.
का लगाम द्वारा नियन्त्रण, ला. अ. नियन्त्रण - अवकप्पनाय अवकसति अव + कंख का वर्त., प्र. पु., ए. व., इच्छा कप्पितअस्सो आकड्डियमानोपि राजानं गहेत्वा पलायि, जा. करता है, कामना करता है - एवम्हि धीरा कुब्बन्ति, अट्ठ. 6.236; एवं अवकप्पनाय कप्पेत्वा मज्झिमयामसमनन्तरे नावकवन्ति जीवितं. ध. प. अट्ठ. 1.243; - सि म. पु.. ए. .... तदे..
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अवकस्सित्वा
601
अवक्कन्त
अवकस्सित्वा अव + ।कस का पू. का. कृ., नीचे की ओर पटिकिराम, अवकुज्जा पतामसे, पे. व. 789; अवकुज्जा घसीट कर, खींच कर -- तत्थ ओक्कस्साति अवकस्सित्वा पतामसेति कदाचि अवकुज्जा हुत्वा पताम, पे. व. अट्ट. आकड्डित्वा, दी. नि. अट्ठ. 2.98; ओकस्साति वा पसरहाति 236; - कं अ., द्वि. वि., प्रतिरू. निपा.. अस्त, व्यय या वा पसरहाकारस्सेवेतं नाम, ओकासातिपि पठन्ति, तत्थ तिरोधान के रूप में- तेन विचिनि सङ्घारे अक्कुज्जमवकुज्जक
ओकस्साति अवकसित्वा आकवित्वा, अ. नि. अट्ठ. 3.155. बु. वं. 11.4; उक्कुज्जमवकुज्जकन्ति सङ्कारानं उदयञ्च अवकिरण नपुं., अव + ।किर से व्यु., क्रि. ना. [अवकिरण].. वयञ्च विचिनीति अत्थो, बु. वं. अठ्ठ. 211; - निपन्न त्रि०, दूर फेंक देना, छितरा देना, परित्याग, विनाश, नानाकरण कर्म. स., नीचे को मुख करके लेटा हुआ या पड़ा हुआ - - णे सप्त. वि., ए. व. - चसद्दग्गहणमवधारणत्थं - न्नो पु., प्र. वि., ए. व. - यो उत्तानं निपन्नो ... यो अवसाने, अवकिरणे, अवकिरति, क. व्या. 79.
अवकुज्ज निपन्नो ... यो चन्दं पस्सति, महानि. 280; अवकिरति/ओकिरति अव +किर का वर्त., प्र. पु., ए. अवकुज्ज निपन्नोति अधोमुखो हुत्वा निपन्नो पस्सति, महानि. व., शा. अ. इधर-उधर बिखरा देता है या छितरा देता है, अट्ठ. 335; - पञ त्रि., ब. स., मन्द प्रज्ञा वाला, लड़खड़ाती दूर फेंक देता है, ला. अ. उपेक्षा करता है - हुई बुद्धि वाला - ओ पु., प्र. वि., ए. व. - कतमो च चसद्दग्गहणमवधारणत्थं- अवसाने, अवकिरणे, अवकिरति, पुग्गलो अवकुज्जपओ, पु प. 138; दसमे अवकुज्जपोति क. व्या. 79; - वाकिरि अद्य., प्र. पु., ए. व., दूर फेंक अधोमुखपओ, अ. नि. अट्ठ. 2.98. दिया - सस्सु च पच्छा अनुयुञ्जते मम, कहं नु उच्छु अवकुज्जेति अवकुज्ज का ना. धा., वर्त, प्र. पु., ए. व., वधुके अवाकिरि वि. व. 300; अवाकिरीति अपनेसि छड्डेसि, पलट देता है, उलट पुलट कर देता है, गड़बड़ कर देता विनासेसि वा. वि. व. अट्ठ. 104; - किरिय पू. का. कृ., है- अजिस्सा पातिया पटिकुज्जति अवकुण्जेति, अवकुज्जो इधर उधर बिखेर कर - किसहि वच्छं अवकिरिय दण्डकी, निपज्ज अहं, सद्द. 2.349; - ज्जन्तो त्रि., वर्त. कृ., उच्छिन्नमूलो सजनो सरहो, ... अवकिरियाति उलटता हुआ - भत्तभरितं पाति अवकुज्जन्तो विय थेरस्स अवकिरित्वानिवभनदन्तकट्ठपातनेन तस्स सरीरे कलिं पसादभङ्गं करोन्तो एवमाह, अ. नि. अट्ठ. 2.205. पवाहेत्वा, जा. अट्ठ. 5.137; 138; - किरित्वा पू. का. कृ., अवकुट्ठ त्रि., अव + कुस का भू. क. कृ. [अवक्रुष्ट]. कल बिखरा कर - सित्थावकारकन्ति सित्थानि अवकिरित्वा कल से गूंज रहा, आवाजों से भरा हुआ, कूजित, निनादित अवकिरित्वा, पाचि. अट्ठ. 155; - किरीयति कर्म. वा., -8 नपुं., प्र. वि., ए. व. - अवादयो कुट्ठाद्यत्थे ततिताय: वर्त., प्र. पु., ए. व., छोड़ दिया जाता है, त्याग दिया जाता अवकुटुं कोकिलाय वनमवकोकिलं, अवमयूरं मो. व्या. 3.13. है - पहूतं अन्नपानम्पि, अपिस्सु अवकिरीयति, पे. व. 396; अवकूल त्रि., निचली या गहरी खाइयों वाले तट वाला/वाली अपिस्सु अवकिरीयतीति सूति निपातमत्तं, अपि अवकिरीयति - ला स्त्री, प्र. वि., ए. व. - अनावकुलाति न अवकुला छट्टीयति, पे. व. अट्ठ. 152.
अखानुमा उपरि उक्कुलविकुलभावरहिता वा समसण्ठिता, अवकुज्ज त्रि., [बौ. सं. अवकुब्जक], अधोमुख होकर पड़ा जा. अट्ठ. 5.162. हुआ, नीचे की ओर मुख करके लेटा हुआ, नीचे की ओर अवकोकिल त्रि.. [अवकोलिल], 1. अत्यधिक कोयलों वाला, झुका हुआ (कुबड़ा) - ज्जो पु.. प्र. वि., ए. व. - कुज्जति 2. कोयलों की कूक से गूंजता हुआ - लं नपुं. प्र. वि., ए. निकुज्जति उक्कुज्जति पटिकुज्जति, निकुग्जितं वाव. - अवकुटुं कोकिलाय वनमवकोकिल, मो. व्या. 3.13; उक्कुण्जेय्य, अजिस्सा पातिया पटिकुज्जति, अवकुज्जेति वियोगे ओमुक्कौपाहनो, अवकोकिलं वनं, सद्द. 3.882. अवकुज्जो निपज्ज अहं सद्द. 2.349; सो खो अहं, सारिपुत्त, अवक्कन्त त्रि., अव + ।कमु का भू. क. कृ. [अवक्रान्त]. वच्चं वा मुत्तं वा करिस्सामी ति तत्थेव अवकुज्जो पपतामि भीतर तक भरा हुआ, पूरी तरह से डूबा हुआ, अत्यधिक तायेवप्पाहारताय, म. नि. 1.114; अवकुज्जो पपतामी ति पीड़ित - न्ता पु.. प्र. वि., ब. व. - भिक्खवे, एकन्तदुक्खा तस्स हि उच्चारपस्सावत्थाय निसिन्नरस पस्सावो नेव अभविस्स दुक्खानुपतिता दुक्खावक्कन्ता अनवक्कन्ता सुखेन, निक्खमति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).363; - ज्जा' स्त्री., नयिदं सत्ता पथवीधातुया सारज्जेय्यु, स. नि. 1(2).157; प्र. वि., ए. व. - घरतो निक्खमित्वान, अवकुज्जा निपज्जहं, दुक्खावक्कन्ताति दुक्खेन ओक्कन्ता ओतिण्णा. स. नि. थेरीगा. अट्ठ.9; - ज्जा' पु., प्र. वि., ब. व. - उत्ताना अट्ठ. 2.138.
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अवक्कन्ति
602
अवगच्छति
अवक्कन्ति स्त्री., [अवक्रान्ति, क. मार्ग या नियाम में प्रवेश, ख. गर्भ में प्रवेश या अवतरण, ग. पुनर्जन्म का ग्रहण, घ. अनुभूति, साक्षात्कार, प्रादुर्भाव - येसं धम्मानं समनन्तरा अरियधम्मस्स अवक्कन्ति होति. पु. प. 119; अवक्कन्ति होतीति ओक्कन्ति निब्बत्ति पातुभावो होति. पु. प. अट्ठ. 35; तस्मिं पतिहिते विज्ञाणे विरुळहे नामरूपस्स
अवक्कन्ति होति. स. नि. 1(2).58. अवक्कम/वोक्कम पु.. [अवक्रम], गर्भ में प्रवेश, गर्भधारण - तस्सा उतुम्हि न्हाताय, होति गभस्स वोक्कमो, जा. अट्ठ. 5.323. अवक्कमति अव + किम का वर्त., प्र. पु., ए. व. [अवक्राम्यति], शा. अ. अन्दर जाता है, पास पहुंचता है, ला. अ. प्रवेश करता है, गर्भ में प्रवेश करता है - क्कमि अद्य., उ. पु., ए.व. - पच्छतो तुम्हें नमुटु, कथं ख्वाहं अवक्कमिन्ति, जा. अट्ठ. 3.423; तव पच्छतो ठितं अहं कथं अवक्कमिन्ति अत्थो, जा. अट्ठ. 3.424. अवक्कमन नपुं., अव + Vकम से व्यु., क्रि. ना. [अवक्रमण]. अवतरण, अन्दर प्रवेश, नीचे उतरकर आना - थेरस्स कुमारकस्सपरस गब्भावक्कमनन्ति?... तासं त्वं सद्दहसि गब्भस्सावक्कमनन्ति?, मि. प. 130. अवक्कारपाती स्त्री., तत्पु. स. [अवकारपात्र/अवस्करपात्र, नपुं.]. भिक्षा में प्राप्त भोजन के अतिरिक्त भाग को रखने वाला पात्र, कूड़ा रखने का पात्र, उच्छिष्ट भोजनादि को रखने की टोकरी - तिं द्वि. वि., ए. व. - पानीयं परिभोजनीयं पटिसामेति, अवक्कारपातिं पटिसामेति, भत्तग्गं सम्मज्जति, म. नि. 1.271; अवक्कारपातिन्ति अतिरेकपिण्डपातं अपनेत्वा ठपनत्थाय एक समुग्गपातिं धोवित्वा ठपेति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).140; - यं सप्त. वि., ए. व. - तस्मिं खो पन समये भिक्खूनं अवक्कारपातियं भुत्तावसेसकं भत्तं होति, ध. प. अट्ठ. 1.174. अवक्खलित नपुं.. [अवस्खलित, त्रि.], अपराध, त्रुटि, सन्मार्ग से फिसलन, भूल, कमी, गलती - तं प्र. वि., ए. व. - तस्स तं अनिस्सितरस यथावृत्तं चलितं अवक्खलितं विफन्दितं वा नत्थि कारणस्स सुविक्खम्भितत्ता, उदा. अट्ठ. 323; अलभमानोति रथरेणुमत्तम्पि अवक्खलितं अपस्सन्तो.... स. नि. अट्ठ. 1.163. अवक्खित्त त्रि., अव + खिप का भू. क. कृ. [अवक्षिप्त].
शा. अ. नीचे की ओर फेंका हुआ, ला. अ. उपेक्षित, नकारा गया, अस्वीकृत, अग्राह्य - तो पु., प्र. वि., ए. व.
- अथायं कायो उज्झितो अवक्खित्तो सेति, यथा कटु अचेतनन्ति , म. नि. 1.376; स. प. में पू. प. के रूप में - मत्तिकापिण्ड पु., कर्म. स. [अवक्षिप्तमृत्तिकापिण्ड], नीचे फेंका हुआ मिट्टी का ढेला - ताय एव मुच्छाय उप्पत्तिया ठत्वा अवक्खित्तमत्तिकापिण्डा विय विस्सुस्सित्वा पथवियं पतिता, फे. व. अट्ठ. 151; - चक्खु त्रि., ब. स. [अवक्षिप्तचक्षु), नीचे की ओर आंख की नजर रखने वाला, अपनी दृष्टि नीचे की ओर किया हुआ -- तत्थ अधोभावे अवकुज्जो, अवक्खित्तचक्खु, सद्द. 3.882; तुल. ओक्खित्तचक्खु: - सेद त्रि., ब. स. [अवक्षिप्तस्वेद], पसीना बहाकर कठोर परिश्रम करने वाला - देहि त. वि., ब. व. - सेदावक्खित्तेहीति अवक्खित्तसेदेहि, सेदं मुञ्चित्वा वायामेन पयोगेन समधिगतेहीति अत्थो, अ. नि. अट्ठ. 2.305. अवक्खिपति अव + खिप का वर्त, प्र. पु., ए. व., उतार फेंकता है, दूर हटा देता है - न्ती स्त्री., वर्त. कृ.. प्र. वि.. ए. व., पीछे की ओर फेंक रही- अजा यथा वेळगुम्बस्मि बद्धा, अवक्खिपन्ती असिमझगच्छि, ... तत्थ अवक्खिपन्तीति कीळमाना पच्छिमपादे खिपन्ती, जा. अट्ठ. 4.225; - पि अद्य., प्र. पु., ए. व. -- ततो नो समणो गोतमो महावाते थुसं धुनन्तो विय दूरमेव अवक्खिपि, दी. नि. अट्ट, 1.216. अवक्खिपन नपुं., अव + खिप से व्यु., क्रि. ना., उतार फेंकना, दूर हटा देना - नेन तृ. वि., ए. व. - अधो अवक्खिपनेनाति इमाहि छहि कलाहि यथा अतिभोति, जा. अट्ठ. 1.166. अवक्खेप पु., उपरिवत् - पो प्र. वि., ए. व. - अवक्खेपो
अधो खिपनं सद्द. 2.530. अवखण्डन नपुं., अव + Vखण्ड से व्यु., क्रि. ना. [अवखण्डन], विभाजन, वितरण, दान, टुकड़े-टुकड़े कर देना - नं प्र. वि., ए. व. - दानं वुच्चति अवखण्डनं, अपेतं दानतोति अपदानं अनवखण्डनन्ति अत्थो, विसुद्धि. 1.58; अवखण्डनं विच्छिन्दनं निरन्तरमप्पवत्ति, विसुद्धि. महाटी. 1.83; - ने सप्त. वि., ए. व. - दा अवखण्डने ... एत्थ च परितन्ति समन्ततो खण्डितत्ता परितं अप्पमत्तकं हि गोमयपिण्डं परित्तन्ति वुच्चति, सद्द. 2.480; - रहित त्रि०, तत्पु. स. [अवखण्डनरहित], बाधा से रहित - तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - सह अपदानेन सपदानं, अवखण्डनरहितं अनुघरन्ति वुत्तं होति, विसुद्धि. 1.58. अवगच्छति अव+ गम का वर्त.. प्र. पु. ए. व. [अवगच्छति], जानता है - पटिगच्छतीति पुन गच्छति, अवगच्छतीति
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अवगण्डकारक
603
अवच
जानाति अधिगच्छतीति लभति जानाति वा, सद्द. परलोक फलन्तस्स को समत्थो, व गाहितुं, सद्धम्मो. 327. 2.462.
अवगाहन/ओगहण नपुं., अव + /गाह से व्यु., क्रि. ना. अवगण्डकारकं अ., क्रि. वि., गालों के भीतर भोजन को [अवगाहन], शा. अ. स्नान, जल में पूर्णरूप से डूब जाना, ढूंसते हुए (खाते समय), गालों को फुलाते हुए - न ला. अ. नहाने के लिए प्रयुक्त स्थान या घाट - हणे सप्त. अवगण्डकारकं भुञ्जिस्सामीति सिक्खा करणीया ति, पाचि० वि., ए. व. - यथा नाम ओगहणे मनुस्सानं न्हानतित्थे ... 265; अवगण्डकारकन्ति मक्कटो विय गण्डे कत्वा कत्वा. अङ्ग घंसन्ति, सु. नि. अट्ठ. 1.221; पीळ अवगाहने, सद्द. पाचि. अट्ठ. 154; कदाचि अवगण्डकारकं भुञ्जन्तो विय 2.569. कपोलन्तरे ठपेति, स. नि. अट्ठ. 1.98.
अवगुण्ठन नपुं, अव + गुण्ठ से व्यु., क्रि. ना. [अवगुण्ठन], अवगत त्रि., अव + Vगम का भू. क. कृ. [अवगत], क. वह, ___ चूंघट, पर्दा, आच्छादन - नं प्र. वि., ए. व. - हितावगुण्ठनं जिसने जान लिया है, समझा हुआ, सुपरिचित, ठीक से थूलं मोहजालं विघाटितं, सद्धम्मो. 314. जाना हुआ -- बुद्धं जातं पटिपन्नं विदितावगतं मतं, अभि. प. अवग्गाह पु., [अवग्रह], शा. अ. विघ्न, बाधा, बिलगाव, 757; - तो पु., प्र. वि., ए. व. - तत्थ अजातोति अवगतो, ला. अ. सूखा, अनावृष्टि - हो प्र. वि., ए. व. - पे. व, अट्ठ, 193; ख. क. वा. में, जानने वाला, समझने दुब्बुद्विकाति अवग्गाहो, वस्सविबन्धोति वुत्तं होति, दी. नि. वाला - एत्थ च यथा लोके अवगन्ता अवगतोति वुच्चति, अट्ठ. 1.84. एवं बुज्झिता सच्चानीति बुद्धो, खु. पा. अट्ठ. 7; तत्थ । अवङ्क त्रि., वङ्क (वक्र) का निषे., तत्पु. स. [अवक्र], शा. अ. सकललोकं तीरणपरिआय तथाय गतो अवगतोति तथागतो, शरीर की वक्रता से रहित, ला. अ. सरल-स्वभाव वाला, उदा. अट्ठ. 104.
निष्कपट, निष्ठावान्, कुटिलता से रहित -को पु., प्र. वि., अवगन्तु त्रि., अव + Vगम से व्यु., क. ना. [अवगन्त]. ए. व. - सन्तो विधूमो अनीघो निरासो, मत्तो विसल्लो अममो ज्ञाता, समझने वाला, जानने वाला - न्ता पु., प्र. वि., ए. अवको, पे. व. 550; अवकोति कायवङ्कादिवङ्कविरहितो, पे. व. व. - एत्थ च यथा लोके अवगन्ता अवगतोति वुच्चति, खु. अट्ठ. 200; उजू अवको असठो अमायो, न लेसकप्पेन च पा. अट्ठ. 7.
वोहरेय्य, वि. व. 1270; - स्स पु., ष. वि., ए. व. - अपि अवगम पु.. [अवगम], ज्ञान, समझ, जानना -- मो प्र. वि., नु खो, महाराज, नाराचस्स ... अजिम्हस्स अवङ्कस्स ए. व. - आगमो अवगमो गन्तब्बं गमनीयं गम्म गम्ममानं अकुटिलस्स ..., मि. प. 115; - ता स्त्री., भाव, प्र. वि., गमीयमानं गो मातुगामो, सद्द. 2.464-65.
ए. व. [अवक्रता], सीधापन, अकुटिलता, सरलता - उजुता अवगमन नपुं., [अवगमन], उपरिवत् - ने सप्त. वि., ए. उजुकता अजिम्हता अवङ्कता अकुटिलता - अयं तरिम व. ... बुध अवगमने, अवगमनं जाननं, सद्द. 2,481; एत्थ समये कायुजुकता होति, ध. स. 50; अवङ्कताति
ओक्कमनं उच्चन्ति अवगमनद्वेन पञ्च नीवरणानि. म. नि. चन्दलेखावङ्कभावपटिक्खेपो, ध. स. अट्ठ. 195; - त्त नपुं. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).108.
भाव. [अवक्रत्व], उपरिवत् - त्ता प. वि., ए. व. - तं अवगम्यते अव + गम के कर्म. वा. का वर्त, प्र. पु.. ए. नेमियापि अवङ्कत्ता अदोसत्ता अकसावत्ता, अरानम्पि अवङ्कत्ता व. [अवगम्यते], जाना जाता है, समझा जाता है - .... नाभियापि अवङ्कत्ता अदोसत्ता अकसावत्ता पवत्तितं समानं, पयोगसामत्थिया सम्बन्धिविसेसानवगमोवगम्यते मो. व्या. 4.40. अ. नि. 1(1).135. अवगाहति/ओगाहति अव + /गाह का वर्त, प्र. पु., ए. अवच त्रि., उच्च के मि. सा. पर अव + च के योग से व्यु., व. [अवगाहते]. शा. अ. अन्दर तक जाकर डुबकी प्रायः उच्च के साथ स. प. में प्रयुक्त [अवाक् अ.]. नीचे लगाता है, पानी में भीतर तक डूबकर नहाता है, ला. अ. की ओर स्थित, निचला, नीचे वाला, तुच्छ, हीन, निकृष्ट - गहराई तक जाकर ज्ञान पाता है, निष्णात बनता है, पूरी चा स्त्री, प्र. वि., ब. व. - उच्चावचा चेतनका भवन्तीति तरह से डूब जाता है - विसुद्धं सो हि सङ्घग्गिं कथं खणे खणे उप्पज्जमाना चेतना उच्चापि अवचापि उप्पज्जन्ति, नामावगाहति, सद्धम्मो. 383; - न्ति ब. व. - नावगाहन्ति जा. अट्ठ. 7.202; - चं स्त्री., द्वि. वि., ए. व. -- उच्चावचाति चित्तग्गिं नरकग्गिं व नीरजा, सद्धम्मो. 370; - हितुं निमि. अजेसु ठानेसु पणीतं उच्च वुच्चति, हीनं अवचं, स. नि. कृ. - केवलं परसत्तत्थं को समत्थोवगाहितुं, सद्धम्मो. 37; अट्ठ. 1.111; - य स्त्री., तृ. वि., ए. व. - ताय चेताय
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अवचन
604
अवच्छिद्द (छिद्दावच्छिद्द)
उच्चाय अवचाय वा पटिपदाय न पारं दिगुणं यन्ति, सु. नि. अट्ठ. 2.195; - कम्म नपुं., कर्म, स., छोटा मोटा कर्म, घटिया या तुच्छ काम, हलका साधारण या गौण कार्य - म्म प्र. वि., ए. व. - अवचकम्मं नाम पादधोवनमक्खनादिखुद्दककम्म, अथ वा चेतिये सुधाकम्मादि उच्चकम्मं नाम, तत्थेव कसावपचनउदकानयनकुच्छकरण निय्यासबन्धनादि अवचकम्म नाम, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).295. अवचन' नपुं., वचन का निषे., अनुपयुक्त कथन या वचन, कुछ भी नहीं कहना - नं प्र. वि., ए. व. - तादिसं रूपं न वुत्तं, अवचनं येव युत्ततरं सद्द. 1.161; - ने सप्त. वि., ए. व. - सच्चं, अवचने कारणं अत्थि, तं सुणाथ मूलाय पटिकस्सेय्य, सद्द. 1.135; - कारण नपुं., नहीं बोलने या कुछ भी न कहने का कारण - णं द्वि. वि., ए. व. - अथरस अवचनकारणं आचिक्खन्ती देवता चतत्थपञ्चमगाथा अभासि. जा. अट्ठ. 3.270. अवचन त्रि., ब. स., वचनकर का निषे. [अवचनकर]. बात
को न मानने वाला, आज्ञा का पालन न करने वाला - रा पु., प्र. वि., ब. व. - न अा चित्तं उपट्टपेन्ति, अनस्सवा अवचनकरा पटिलोमवृत्तिनो, अ नेव मुखं करोन्ति, महानि. 27; अवचनकराति सुणमानापि वचनं न करोन्तीति अवचनकरा, महानि. अट्ट. 89. अवचनीय त्रि., विच के सं. कृ., वचनीय का निषे. [अवचनीय].
शा. अ. कुछ भी नहीं कहे जाने योग्य, वर्णन न किए जाने योग्य, ला. अ. नहीं डाटने फटकारने योग्य, अनिन्दनीय, आज्ञा नहीं दिए जाने योग्य - यं पु., द्वि. वि., ए. व. - कथन्हि नाम आयस्मा छन्नो भिक्खुहि सहधम्मिकं वच्चमानो अत्तानं अवचनीयं करिस्सतीति .... पारा. 278; अहमेव अत्तनो अत्थं वा अनत्थं वा जानिस्सामी ति अत्तानं अवचनीयं अकासि, जा. अट्ठ. 3.426; - त्ता नपुं, भाव., प. वि., ए. व. [अवचनीयत्व], नहीं कहने योग्य होना, अकथनीयता - उदपादीति आख्यातेन अवचनीयत्तचक्खं उदपादीति, सद्द. 1.126. अवचरक त्रि., ओचरक के अन्त. द्रष्ट.. अवचरण नपुं., अव + Vचर से व्यु., क्रि. ना. [अवचारण], शा. अ. किसी क्षेत्र-विशेष में द्रष्ट क्रियाशीलता, किसी काम पर लगा होना, ला. अ. किसी काम से सुपरिचय - तो प. वि., ए. व. - त्वं पवत्तसम्पहारं सङ्गामं महित्वा अवचरणतो सङ्गामावचरो .... जा. अट्ट. 2.78; यथा पन
सङ्गामे अवचरणतो सङ्गामावचरोति लद्धनामको नागो नगरे चरन्तोपि सङ्गामावचरो त्वेव वुच्चति, ध. स. अट्ठ. 108. अवचरति/ओचरति अव + Vचर का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अवचरति], क. एक सुनिश्चित क्षेत्र में क्रियाशील होता है, आलम्बन-विशेष से सुपरिचित होता है - कामोवचरतीत्येत्थ, कामेवचरतीति वा ठानूपचारतो वापि, तं कामावचरं भवेति. अभि. ध. वि. 78; एवहि नो सुत्ते ओचरतीति, म. नि. 2.180; - रन्तं वर्त. कृ., द्वि. वि., ए. व. -- एवमिदं अञ्जत्थ अवचरन्तम्पि कामावचरमेवाति वेदितब्बं. .... ध. स. अट्ठ. 108; ख. घटिया या हीन आचरण करता है -- वाचरी अद्य, प्र. पु., ए. व. - अवाचरी पट्टवसानुगस्स, जा. अट्ठ. 5.441; अवाचरीति अनाचारं चरि तदे; ग. विचार-विमर्श करता है - रित्वा पू. का. कृ., छानबीन करके -- ... ओचरका जनपदं ओचरित्वा आगच्छन्ति, स. नि. 1(1).96%3B ओचरित्वाति अवचरित्वा वीमंसित्वा, तं तं पवत्तिं ञत्वाति अत्थो , स. नि. अट्ठ. 1.132. अवचारयति/अवचारयेति अव + /चर के प्रेर. का वर्त, प्र. पु., ए. व., किसी को सुनिश्चित क्षेत्र के अन्दर कार्य करने अथवा विचरण करने हेतु प्रेरित करता है - अपिच कामभवसङ्खाते काम पटिसन्धि अवचारेतीतिपि कामावचरं, ध. स. अट्ठ. 108. अवछादन नपुं.. [अवछादन]. ढक देने वाला ढक्कन, अदृश्य बना देने वाला आवरण या पर्दा, छत, चादर - पच्चुपट्ठान त्रि., ब. स., आवरण को खड़ा कर देने वाला - नो पु., प्र. वि., ए. व. - परगुणमक्खनलक्खणो मक्खो, तेसं विनासनरसो, तदवच्छादनपच्चुपट्ठानो, म. नि. अट्ठ, (मू.प.) 1(1).113. अवच्छिद्द (छिद्दावच्छिद्द) त्रि., केवल द्व. स. में छिद्द के उ. प. के रूप में ही प्रयुक्त [छिद्रावछिद्र], केवल छेदों ही छेदों से भरा हुआ, बुरी तरह से कटा या फटा हुआ, पूर्ण रूप से विदीर्ण - दो पु., प्र. वि., ए. व. - रुक्खो ओभग्गो खाणुमत्तो छिद्दावच्छिद्दोव हुत्वा वाते पहरन्ते आकोटितो विय सई निच्छारेन्तो अट्ठासि. ध. प. अट्ठ. 1.161; जा. अट्ठ. 3.434; - इं नपुं., प्र. वि., ए. व. - तस्मा छिद्दावछिदं घरावासं तत्थ सन्थरन्तीतिपि, सन्थागारो, स. नि. अट्ठ. 3.85; दुच्छन्नन्ति विरळच्छन्नं छिद्दावछिद, ध, प. अट्ट, 1.71; बेळुवमत्ता हुत्वा पभिजिंसु, सकलसरीरं छिद्दावछिदं अहोसि, ध. प. अट्ठ. 1.181.
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अवच्छिन्दति/ओच्छिन्दति
605
अवजीयति
अवच्छिन्दति/ओच्छिन्दति अव + छिद का वर्तः, प्र. पु., ए. व. [अवछिनत्ति, काट फेंकता है, छोटे छोटे टुकड़ों में कर देता है, विनष्ट कर देता है, काट देता है - अयं काळकण्णी सिङ्गाली मरह मग्गं ओछिन्दती ति, लेड्डदण्ड गहेत्वा मातरं पलापेत्वा अटविं पटिपज्जि, जा. अट्ठ. 2.319; - न्दित्वा पू. का. कृ. - कालं कत्वा पुत्तसिनेहेन सिङ्गाली हुत्वा तव मरणभयभीता मग्गं ते ओच्छिन्दित्वा तं वारेसि, जा. अट्ट, 2.320; यस्स पन किस्मिञ्चिदेव ठाने अवच्छिन्दित्वा खन्धगतं पातेतुकामस्स सतो यं ठानं मनस्सानं सप्पटिभयं, ... तत्थेव अविच्छिन्दित्वा पातेति, अयं कूटो नाम, म. नि.
अट्ठ. (म.प.) 2.5. अवच्छेदकं अ., क्रि. वि., कवलावच्छेदकं जैसे मुहावरों में
ही प्राप्त (छोटे छोटे भागों या निबालों में) विभाजित करके - न कबळावच्छेदकं भुञ्जिस्सामीति सिक्खा करणीया ति ..., पाचि. 264; कबळावच्छेदकन्ति कबळ अवच्छिन्दित्वा
अवच्छिन्दित्वा, पाचि. अट्ठ. 154. अवजात त्रि., अव + /जन का भू. क. कृ. [अवजात], शा. अ. अधम या नीच वंश में जन्म लेने वाला, ला. अ. नीच स्वभाव या आचरण वाला - तो पु., प्र. वि., ए. व. - कतमे तयो? -- अतिजातो, अनुजातो, अवजातोति, इतिवु. 47; अवजातोति गुणेहि मातापितूनं अधमो हुत्वा जातो, तेहि हीनगुणोति अत्थो, इतिवु. अट्ठ. 195; अनुजातोति तयो पुत्ता अतिजातो च अनुजातो च अवजातो चाति, अनुप्पन्न यसं उप्पादेन्तो अतिजातो कुलभारो अवजातो कुलपवेणिरक्खको पन अनुजातो, जा. अट्ठ. 6.210; - त संबो., ए. व. -- पुरिसन्त कली अवजात, मा बहभाणिध नेरयिकोसि, सु. नि. 669; अवजात बुद्धस्स अवजातपुत्त, सु. नि. अट्ठ. 2.180; - दारक पु., कर्म. स., नीच कुल में उत्पन्न बालक, बुरी प्रकृति वाला बालक - को प्र. वि., ए. व. - अम्भो मह गेहे एवरूपो एको अवजातदारको अस्थि, अ. नि. अट्ट. 1.314; - पुत्त पु., कर्म स., उपरिवत् - एको मे अवजातपुत्तो अत्थि, तं तव सन्तिकं पेसेस्सामि, ध, प. अट्ट, 1.103; अयं मे अवजातपुत्तो इमं मारेचा वच्चकूपे खिपतु ध प. अठ्ठ 1.104. अवजानन नपुं., अव + Vञा से व्यु., क्रि. ना. [अवजानन]. अपमान, तिरस्कार, नीची निगाह से देखना - नं प्र. वि., ए. व. - परिभवे अवजाननं अवमति दहरो ति न उआतब्बो, सद्द. 3.882; तत्तायं अधिप्पायो - यं तं पटिजाननञ्च अवजाननञ्च, तस्स पटिच्छादनत्थं पाचि. अट्ठ.2.
अवजानना स्त्री., उपरिवत् क. अपमान, तिरस्कार - ना प्र. वि., ए. व. - अत्तावाति अत्तानं अवजानना, विभ. अट्ठ. 458; - नं द्वि. वि., ए. व. - इस्सरियत्थिकेन पन वुत्तप्पकारं अवजाननञ्च परिभवनञ्च अकत्वा पुब्बुढायिपच्छानिपातितादीहि, उपायेहि खत्तियकुमारो तोसेतब्बो, स. नि. अट्ट, 1.119; ख. अस्वीकृति, खण्डन, निषेध - ... वत्तब्बेति अवजानना परवादिस्स, कथा. अट्ठ. 109; अवजाननञ्च तस्स युत्तन्ति निग्गहो च न कातब्बो, ... अवजाननेनेव निग्गहं दस्सेति, कथा. मू. टी. 50. अवजानाति अव + Vञा का वर्त., प्र. पु., ए. व. [अवजानाति], तिरस्कार करता है, उपेक्षा करता है, हीन या तुच्छ समझता है, अस्वीकृत करता है - दत्वा अवजानाति, संवासेन अवजानाति, अ. नि. 2(1).155; तमेनं दत्वा अवजानातीति अयं दिन्नं पटिग्गहेतुमेव जानातीति एवं अवमति, अ. नि. अठ्ठ. 3.51; तं नित्तण्हं मुनि चरन्तं नावजानाति सदेवकोपि लोकोति, उदा. 160; - मि उ. पु., ए. व. - अत्तानञ्च नावजानामी ति, स. नि. 1(2).47; अतानञ्च नावजानामीति अत्तानञ्च न अवजानामि, स. नि. अट्ट.2.57; - न्ति प्र. पु.. ब. व. - अप्पातोति नं बाला, अवजानन्ति अजानता, थेरगा. 129; - नमाना स्त्री., वर्त. कृ., प्र. वि., ए. व. - अवजानमाना भणति, स. नि. अट्ठ. 2.156; - नेय्य विधि., प्र. पु., ए. व. - परं वा अवजानेय्य, किमअत्र अदस्सनाति, सु. नि. 208; - नित्वा पू. का. कृ. - अम्हेहि सद्धि सल्लपन्तो अवजानित्वा पटिजानिस्सति, पाचि. 2; - अवय्या स्त्री., सं. कृ., प्र. वि., ए. व. - अवजाति अवजेय्या अवजानितब्बाति वुत्तं होति. पे. व. अट्ठ. 153; द्रष्ट. अवज्ञत्ति, अवज्ञात, अवञ्चित तथा अवा. अवजानापेति अव + Vा के प्रेर. का वर्त०, प्र. पु., ए. व., तिरस्कार या उपेक्षा कराता है, अननुमोदित या प्रतिषिद्ध कराता है - अथ वा परिभावापेतीति हीळापेति अवजानापेति, सद्द. 1.5; - सि अद्य., प्र. पु., ए. व. - उज्झापेसीति अवजानापेसि, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).5. अवजानीयते अव + vञा के कर्म. वा. का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अवज्ञायते], तिरस्कृत या अपमानित किया जाता है, अभिभूत किया जाता है - अथ वा परिभवीयतेति हीळीयते अवजानीयते, सद्द. 1.6. अवजीयति अव + जि के कर्म. वा. का प्र. पु., ए. व., (युद्ध अथवा क्रीड़ा आदि में) जीत लिया जाता है, खो दिया जाता है, समाप्त कर दिया जाता है - यस्स जितं नावजीयति,
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अवजीयन
606
अवञ्झ
जितं यस्स नो याति कोचि लोके, ध. प. 179; यस्स अनपनीतकसावं, अ. नि. अट्ठ. 2.218; तं होति जातरूपं सम्मासम्बुद्धस्स तेन तेन मग्गेन जितं रागादिकिलेसजातं धन्तं सधन्तं निद्धन्तं अविद्धन्तकसावं, न चेव मुदु होति न पुन असमुदाचरणतो नावजीयति, दुज्जितं नाम न होति. च कम्मनियं, अ. नि. 1(1).286. ध, प. अठ्ठ. 2.113; न तं जितं साधु जितं, यं जितं अवज्झ त्रि., क, Vवध के सं. कृ. वज्झ (वध्य) का निषे. अवजीयति, तं खो जितं साधु जितं, यं जितं नावजीयति, [अवध्य], वध नहीं करने योग्य, नहीं मार डालने योग्य - जा. अट्ट, 1.300.
ज्झो पु., प्र. वि., ए. व. - अवज्झो ब्राह्मणो दूतो, चेतपुत्त अवजीयन नपुं., अव + जि के कर्म. वा. से व्यु., क्रि. ना., सुणोहि मे, जा. अट्ठ. 7.291; एतेहि तीहि ठानेहि, अवज्झो जीत लिया जाना - तो प. वि., ए. व. - तं जितं साधु जितं होति ब्राह्मणो, जा. अट्ठ. 7.45; - ज्झा ब. व. - अवज्झा नाम न होति, कस्मा? पुन अवजीयनतो, ... कस्मा? पुन ब्राह्मणा आसु अजेय्या धम्मरक्खिता, सु. नि. 290; ते एवं नावजीयनतो, जा. अट्ठ. 1.300..
नमस्सियमाना लोकेन अवज्झा ब्राह्मणा आसुं न केवलञ्च अवज्ज 1. त्रि.. Vवद के सं. कृ., वज्ज का निषे. [अवद्य]. अवज्झा , सु. नि. अट्ठ. 2.46; - रूप त्रि.. ब. स.
शा. अ. वह, जिसके बारे में कुछ अच्छा न कहा जा सके, [अवध्यरूप], अवध्य स्वरूप वाला. (कवच धारण करने के ला. अ. निन्दनीय, तुच्छ, अधम - पतिकिट्ठ निकि8 च कारण) वध न करने योग्य शरीर वाला - पो पु., प्र. वि., इत्तरावज्जकुच्छिता, अभि. प. 699; - ज्जानि नपुं.. प्र. वि., ए. व. - दुक्खेन फुट्ठस्सुदपादिसा , अरहद्धजो सब्मि ब. व. - न अवज्जानि अनवज्जानि अनिन्दितानि अवज्झरूपो ति, जा. अट्ठ. 5.43; मि. प. 209; अरहद्धजो अगरहितानीति, वुत्तं होति, खु. पा. अट्ठ. 112; 2. त्रि०, नाम सभि पण्डितेहि अवज्झरूपो, जा. अट्ठ. 5.44; ख. त्रि. Vवज्ज के सं. कृ. का निषे. [अवर्ण्य], शा. अ. नहीं वर्जित (अवन्ध्य) वह, जो बांझ न हो, उत्पादक, फलप्रद, सफल किए जाने योग्य, ला. अ. वर्जनीय पापकर्मों आदि से इतर -- ज्झा स्त्री, प्र. वि., ए. व. - अवज्झा मय्हपब्बज्जा, (पुण्य-कर्म) - ज्जं नपुं.. द्वि. वि., ए. व. - वज्जञ्च थेरगा. 789. वज्जतो अत्वा, अवज्जञ्च अवज्जतो, ध. प. 319; -- ज्जे __ अवज्झायति/अवझायति अव + vझा का वर्त, प्र. पु., ए. सप्त. वि., ए. व. - अवज्जे वज्जमतिनो, ध. प. 318; व., अत्यधिक चिन्ता करता है, शोक करता है- अक्खच्छिन्नोव अवज्जे वज्जमतिनी, वज्जे चावज्जदस्सिनी, थेरीगा. 107; झायति, स. नि. 1(1).70; अक्खछिन्नो वझायतीति अवज्जे वज्जमतिनीति न्हानुच्छादनदन्तकट्ठखादनादिके अक्खच्छिन्नो अवझायति बलवचिन्तनं चिन्तेति, स. नि. अनवज्जे सावज्जसी , थेरीगा. अट्ठ. 119; तत्थ अवज्जेति अट्ठ. 1.102; विसमं मग्गमारुय्ह, अक्खछिन्नोव झायति, मि. दसवत्थुकाय सम्मादिट्ठिया, तस्सा उपनिस्सयभूते धम्मे च. प. 70; - न्ति ब. व. - तस्मा ते खीणपत्ता कोञ्चा विय ध. प. अट्ठ. 2.281; - दस्सी त्रि., एत्थेव बज्झित्वा अवझायन्तीति, ध. प. अट्ठ. 2.73. [अवय॑दर्शिन् /अवद्यदर्शिन], कोई भी दोष न देखने अवञ्चन त्रि., Vवञ्च से व्यु., क्रि. ना. वञ्चन का निषे. वाला/वाली - स्सिनी स्त्री०, प्र. वि., ए. व. - वज्जे [अवञ्चन], चलने फिरने में असमर्थ गमन करने में अक्षम चावज्जदस्सिनी, थेरीगा. 107; वज्जे चावज्जदस्सिनीति - ना पु., प्र. वि., ब. व. - सन्ति पादा अवञ्चनाति पादापि मानमक्खपलासविपल्लासादिके सावज्जे अनवज्जदिट्ठी, मे अत्थि, तेहि पन वञ्चितु पदवारगमनेन गन्तुं न सक्काति थेरीगा. अट्ठ. 119; सञिता स्त्री., भाव. [अवद्यसंज्ञात्व]. अवञ्चना, जा. अट्ठ. 1.211; चरिया. 401. दोषरहित होने की संज्ञा या समझ का होना - ता प्र. वि.. अवञ्झ त्रि, वञ्झ का निषे., तत्पु. स. [अवन्ध्य], वह जो, ए. व. - वज्जे वज्जसिञता वज्जे अवज्जसञिता, महानि. बांझ न हो, उत्पादक, उत्पन्न करने में सक्षम, फलप्रद, 158; अवज्जे वज्जसञ्जिताति निदोसे दोससञ्जिता, वज्जे सफल - ज्झो पु.. प्र. वि., ए. व. - तथागतस्स परिनिबुतरस अवज्जसञ्जिताति सदोसे निदोससञिता, महानि. अट्ठ. असादियन्तरसेव कतो अधिकारो अवञ्झो भवति सफलो, 259.
मि. प. 108; 112; - वादी पु.. प्र. वि., ए. व. अवज्जिकसाव त्रि., ब. स. [अवर्जितकषाय]. वह, जिसका [अवन्ध्यवादिन], वह, जिसके वचन निष्फल या अलाभप्रद चित्त काषायों (कलुषित विचारों) से मुक्त नहीं है - वं पु.. न हो, सफल एवं लाभप्रद बात बोलने वाला -- अवझवादी द्वि. वि., ए. व. - अनिद्धन्तकसावन्ति अनीहतदोसं अतुलो अब्भुतोरुगुणाकरो, सद्धम्मो. 345.
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अवचत्ति
607
अवड्डि/अवद्धि/अबुद्धि
अवज्ञत्ति स्त्री., [अवज्ञप्ति]. असम्मान, द्रष्ट, अनवत्ति चतुपच्चयसन्तोसे अवहितो सप्पच्चयं नामरूपं परिगहेत्वा के अन्त...
..... उदा. अट्ठ. 166; - ता नपुं.. प्र. वि., ब. व. - अवज्ञा स्त्री., [अवज्ञा], अपमान, तिरस्कार - ज द्वि. वि.. समवद्विताति सम्मा अवहिता आभोगं कत्वा ठिता, सु. नि. ए. व. - उभयेहिपि दुन्निक्खित्तानं दारुभण्डादीनं तेसु अट्ठ. 2.73; - वाद त्रि., ब. स. [अवस्थितवाद], दृढ़ वाद
अवमज अकत्वा अत्तना .... म. नि. अट्ट (मू.प.) 1(2)289. का प्रतिपादक या अनुयायी, स्थिर या लचीलेपन से रहित अवजात/ओञात त्रि., अव + Vा का भू. क. कृ. मत का प्रतिपादक - दा पु., प्र. वि.. ब. व. - सकायने [अवज्ञात], तिरस्कृत, अपमानित, पराभूत - तं नपुं.. प्र. दळहवादा थिरवादा बलिकवादा अवहितवादाति सकायने वि., ए. व. - तेसु तेसु वा पन जनपदेसु ओञातं अवज्ञआतं तत्थ दळ्हं वदाना, ... महानि. 221; - सभाव त्रि.. ब. स. हीळितं परिभूतं अचित्तीकतं, एतं हीनं नाम नाम, पाचि.8; [अवस्थितस्वभाव], स्थिर प्रकृति वाला, अचञ्चल स्वभाव - तो पु., प्र. वि., ए. व. - अवज्ञातो च होतीध मज्जपायी वाला - वो पु., प्र. वि., ए. व. - ठितधम्मोति ठितसभावो पुरा नरो, सद्धम्मो. 88; - कुलज त्रि., तत्पु. स., तिरस्कृत अवहितसभावो. उदा. अट्ठ. 244; - समादान त्रि., ब. स., अथवा असम्मानित कुल में जन्म लेने वाला - जो पु.. प्र. दृढ़ता के साथ किसी काम को ग्रहण करने वाला या हाथ वि., ए. व. - थद्धो, वातकुलजो जळो अपरिपुच्छको, में लेने वाला - नो पु., प्र. वि., ए. व. - अवस्थितसमादानो सद्धम्मो. 90.
कायसुचरिते वचीसुचरिते मनोसुचरिते दानसंविभागे अवञित त्रि., अव + Vा के नियमित भू. क. कृ. अवज्ञात सीलसमादाने उपोसथुपवासे मत्तेय्यताय.... दी. नि. 3.108; के स्थान पर अप. [अवज्ञात], असम्मानित, अपमानित, दळ्हसमादानो अस्स अवस्थितसमादानोति वीरियपक्कम दळ्हं पराभूत - अवञ्जितावगणिता परिभूतावमानिता, अभि. प. करेय्य, महानि. 368. 756.
अवद्विति स्त्री., [अवस्थिति], सुदृढ़ स्थिति, स्थिरता, दृढ़ता, अवट्टम त्रि., ब. स. [अवमन्, बिना मार्ग वाला, भार्ग-रहित । अचपलता - अरियसावकरस अरियजाणं उप्पन्नं होति, अथ - मे नपुं.. सप्त. वि., ए. व. - नो अनन्तके, सकोटिये, नो चतुन्नं इन्द्रियानं... पे..... अवद्विति होति. स. नि. 3(2). अकोटिये, सवसमे, नो अवटुमे, सपरियन्ते, नो अपरियन्ते, 303; या तस्मिं समये चित्तस्स ठिति सण्ठिति अवद्विति सुप्पमत्ते वा सरावमत्ते वा, विसुद्धि. 1.120.
अविसाहारो अविक्खेपो अविसाहटमानसता समथो अवट्ठान/अवत्थान नपुं., अव + vठा से व्यु.. क्रि. ना. समाधिन्द्रियं समाधिबलं ..., ध. स. 570; महानि. 269; [अवस्थान], स्थिरता, अचल स्थिति - नं प्र. वि., ए. व. विचिकिच्छासहगतन्ति इमेसु सत्तरससु चित्तेसु दुब्बलत्ता -- तेनस्स पहटकुकुटस्सेव मुहत्तम्पि कम्पमानस्स अवत्थानं सण्ठिति अवद्वितिआदीनि न लमन्ति, ध, स. अट्ठ. 328. नाम नाहोसि. जा. अट्ट, 1.484; अवत्थानं अधिट्टानं हितचरिया निद्देसवारे चित्तस्सेकग्गतानिद्देसे ताव सण्ठिति अवद्वितीति, मेत्ताभावना ति, सु. नि. अट्ठ. 1.42; - याचना स्त्री०, तत्पु. ध. स. अट्ठ. 292. स. [अवस्थानयाचना], अचल स्थिति या स्थिरता के लिए अवड्ढन नपुं., Vवड्ड से व्यु., क्रि. ना., वड्डन का निषे. याचना - य च. वि., ए. व. - तिठ्ठतु भगवा कपान्ति [अवर्धन], वृद्धि का न होना, वृद्धि का अभाव, नहीं बढ़ना
सकलकप्पं अवडानयाचनाय यदिदं ..., उदा. अट्ठ. 264. - वस नपुं., नहीं बढ़ने का कारण - सेन तृ. वि., ए. व. अवत्थापनवचन नपुं, तत्पु. स. [अवस्थापनवचन], स्थिरता - अद्विकसा अवड्डनवसेन अविभूताति वुत्ता, विसुद्धि. अथवा निर्धारण को प्रकाशित करने वाला वचन -- नं प्र. 1.109. वि., ए. व. - अद्धाति एकंसवचनं निस्संसयवचनं अवड्डि/अवद्धि/अवुटि स्त्री., वड्डि का निषे., तत्पु. स. निक्कवावचनं ... अवत्थापनवचनमेतं अद्धाति, महानि. 2; [अवृद्धि]. वृद्धि या विकास का अभाव, हानि, कमी, सङ्कट, अवत्थापनवचनमेतन्ति एतं वचनं ओतरित्वा पतिद्वितं विपत्ति- अयं सकलत्स यूथरस अनयो अवुद्धि महाविनासो सन्तिद्वापनं ठपन, महानि. अट्ठ. 15.
कतोति, जा. अट्ठ. 3.315; अभुम्मेति भूति वडि, अभूति अवद्वित/अवस्थित त्रि., अव + Vठा का भू. क. कृ.. अववि, विनासो मय्हन्ति अत्थो, म. नि. अट्ट (म.प.) 2.118; [अवस्थित]. दृढ़ता के साथ स्थित, सुप्रतिष्ठित, स्थिर, दृढ़ - या तृ. वि, ए. व. - तस्स अभवेन अवुड्विया पुत्तदारस्स - तो पु.. प्र. वि., ए. व. - एवं सुपरिसुद्धसीलो वा परिजनस्स वा तथारूपं पारिजुज दिवा वा सुत्वा वा न
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अवडित 608
अवण्ण नन्दति, दी. नि. अट्ठ. 3.121; - मुख नपुं., तत्पु. स., हानि व. -- दुविधा ... ते हि द्वे हुत्वा उरे जाता वण्टस्स अभावा का कारण - खे सप्त. वि., ए. व. - उय्योगमुखेति अवण्टा , जा. अट्ठ. 5.151; - वटं नपुं. द्वि. वि., ए. व. - परिहानिमुखे, अवुद्धिमुखे च ठितोसीति अत्थो, ध. प. अट्ठ पसन्नचित्तो सुमनो, अवट अददि फलं अप. 1.323; अप. 2.41; 2.195; - कर त्रि., [अवृद्धिकर], हानिकारक, अहितकारक अवण्टक त्रि., उपरिवत् - कानि' नपुं.. प्र. वि., ब. क. -- - रानि नपुं., प्र. वि., ब. व. - असप्पायानीति अवडिकरानि अखीलकानि च अवण्टकानि, हेट्ठा नभ्या कटिसमोहितानि, आरम्मणानि, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.36; - काम त्रि., जा. अट्ठ. 5.193; - कानि नपुं.. द्वि. वि., ब. व. - वाक [अवृद्धिकाम], वृद्धि, प्रगति या हित की कामना न करने वा रज्जु वा दिगुणं कत्वा नत्थ अवण्टकानि नीपपुप्फादीनि वाला, भला होने की चाह न रखने वाला - स्स पु., ष. वि., पवेसेत्वा पटिपाटिया बन्धन्ति, पारा. अट्ठ. 2.183-84. ए. व. - अनत्थकामस्साति अवडिकामरस, जा. अट्ठ. 3.93. अवण्टफलदायक पु., एक स्थविर का नाम - इत्थं सुदं अवड्डित त्रि., Vवड्ड के प्रेर., भू, क. कृ. वढित का निषे. आयस्मा अवण्टफलदायको थेरो इमा गाथायो अभासित्थाति, [अवर्धित], नहीं बढ़ाया हुआ, विकसित न किया हुआ - ते अप. 1.323. नपुं.. सप्त. वि., ए. व. - यो पन अवडिते आरम्मणे पवत्तो, अवण्टफलवग्ग पु., अपदान के 39वें वग्ग का शीर्षक, अप. अयं परितारम्मणो, विसुद्धि. 1.87; - कसिण त्रि०, ब. स. 1.323-331. [अवर्धितकृत्स्न], कसिण का विकास न करने वाला - अवण्टफलिय पु., एक स्थविर का नाम- इत्थं सुदं आयस्मा णस्स पु., ष. वि., ए. व. - अवडितकसिणस्स तं कसिणं अवण्टफलियो थेरो इमा गाथायो अभासित्थाति, अप. 2.41अत्ताति च लोकोति च गहेत्वा एवं होति. ..., म. नि. अट्ट 42; 87-88. (उप.प.) 3.14; चक्कवाळपरियन्तं कत्वा वडितकसिणो पन अवण्ण' त्रि., ब. स. [अवर्ण्य], अप्रशंसनीय, प्रशंसा न करने अनन्तसञी होति, दी. नि. अट्ठ. 1.98.
योग्य - पणे सप्त. वि., ए. व./द्वि. वि., ब. व. - चोरा अवड्डिनिस्सित त्रि., तत्पु. स. [अवृद्धिनिःश्रित], दुर्भाग्य से गोघातका लुद्धा, अवण्णे वण्णकारका, जा. अट्ट, 5.262; पीड़ित, अभागा - ता पु., प्र. वि., ब. व. - अपानुभाति तत्थ अवण्णे वण्णकारकाति पेसुञकारका, जा. अट्ट. 5. अवविनिस्सिता मानथद्धा, अ. नि. अट्ठ. 3.29.
269. अवडिभूत त्रि., [अवृद्धिभूत], अवृद्धि या अमङ्गल बना हुआ, अवण्ण' पु., वण्ण का निषे., तत्पु. स. [अवर्ण], अपयश, अहितकर - ता स्त्री., प्र. वि., ए. व. - अवभूतावाति अकीर्ति, अयश, अप्रशंसा, निन्दापरक वचन – एणो प्र. वि., अवविभूता अवमङ्गलभूतायेव, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.318. ए. व. - सक्कियो होति पापस्मि, अवण्णो चस्स रूहति, अवड्डेत्वा विड्ड के पू. का. कृ. वड्ढत्वा का निषे. इतिवु. 50; अस्स वा पुग्गलस्स अवण्णो अभूतोपि [अवर्धयित्वा], नहीं बढ़ाकर, विकास नहीं कराकर - पापजनसेविताय रुहति विरुन्हि वेपल्लं आपज्जति पत्थरति, पटिभागनिमित्तं चक्कवाळपरियन्तं अववेत्वा तं... उद्धमधो इतिवु. अट्ठ. 212; - ण्णं द्वि. वि., ए. व. - समणरस अवजेत्वा पन तिरियं ववेत्वा उद्धमधो अन्तसञ्जी, दी. नि. गोतमस्स अवण्णं उप्पादेत्वा लाभसक्कारं नासेस्सामा ति. अट्ठ. 1.98; तं निमित्तं पत्तववनपूववड्डनभत्तवडनल- ध. प. अट्ठ. 2.102; - ण्णे सप्त. वि., ए. व.- तस्स सत्थुनो तावड्वनदुस्सवड्ढनयोगेन अवड्डत्वा, विसुद्धि. 1.147.
तस्स दिडिया... तस्स आदायस्स अवण्णे भञ्जमाने अत्तमनो अवण त्रि., ब. स. [अव्रण], 1. बिना घाव वाला, व्रण से होति... सङ्घस्स वा अवण्णे भञ्जमाने कुपितो होति, महाव. रहित, व्रण या घाव उत्पन्न न करने वाला - णो पु.. प्र. 90; - काम त्रि., ब. स. [अवर्णकाम], निन्दा करने की वि., ए. व..... को मे असत्थो अवणो, सल्लमब्भन्तरपस्सयं, इच्छा रखने वाला - मा पु., प्र. वि., ब. व. - आयस्मन्तो थेरगा. 757; 2. बेदाग, दागों से रहित - णे पु., सप्त. वि., अवण्णकामा बुद्धस्स अवण्णकामा धम्मरस अवण्णकामा सङ्घरस, ए. व. - पथविं खणित्वा पक्खलन्ता विय अवणे वेरियमणिम्हि अ. नि. 3(1).32; -- भय नपुं.. तत्पु. स. [अवर्णभय], निन्दा वणं उप्पादेन्ता विय, उदा. अट्ठ. 89.
का डर, अपयश के फैलने का डर - या प. वि., ए. व. अवण्ट/अवट त्रि., ब. स. [अवृन्त], क. पत्ते के डण्ठल - अवण्णहारिकाति एवं मे अवण्णभयापि दस्सतीति गेहतो या डण्डी से रहित, बिना डण्ठल वाला (ताड़ वृक्ष या फल). गेहं, विभ. अट्ठ. 457; विसुद्धि. 1.28; - भासक त्रि०, ख. बोड़ी या अग्रभाग रहित (स्तन) - ण्टा पु., प्र. वि., ब. [अवर्णभाषक], निन्दा की बातें बोलने वाला, अपयश के
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अवण्णनीयसोभ 609
अवति वचन कहने वाला - केसु पु., सप्त. वि., ब. व. - तेसु कर्णाभूषण - को प्र. वि., ए. व. - उत्तंसो सेखरा वेळा अवण्णभासकेसु, तस्मिं वा अवण्णे तुम्हे भवेय्याथ चे, यदि मुद्धमाल्ये वटसको, अभि. प. 308; उत्तंसो त्ववतंसो च भवेय्याथाति अत्थो, दी. नि. अट्ठ. 1.49; - वादी त्रि., कण्णपूरे च सेखरे, अभि. प. 870; - टंसा प्र. वि., ब. व. [अवर्णवादिन]. दूसरों के बारे में बुरा बोलने वाला, निन्दा - विरोचन्ति परिक्खित्ता, अवटसा सुनिम्मिता, अप. 2.249; करने वाला -- दि पु., द्वि. वि., ए. व. - तत्रापि अवण्णवादिं थेरीगा. अट्ठ. 76; - टंसं/टंसकं द्वि. वि., ए. व. - मोलिं अपस्सन्तो अत्तनो गुणकथमेव सुत्वा हिमवन्तपदेसे नु खो। वटंसं पामङ्गभिङ्गारं हरिचन्दनं म. वं. 11.28; वटंसं ति कथान्ति .... जा. अट्ठ. 3.94; - विरहित त्रि., तत्पु. स. कण्णपिलन्धनं वटसकं ति वुत्तं होति, म. वं. टी. 11.28; - [अवर्णविरहित], निन्दारहित, अनिन्दित, अपयश का अपात्र सको पु., प्र. वि., ए. व. - वटसकोति कण्णस्स उपरि - स्स पु., ष. वि., ए. व. - बुद्धस्स अवण्णं भासतीति पिळन्धनत्थं कतपुष्फविकति, सो च वटसो ति वुच्चति, वि. अवण्णविरहितस्स अपरिमाणवण्णसमन्नागतस्सापि बुद्धस्स वि. टी. 263; - सका ब. व. - वटसका वातधुता, वातेन भगवतो, दी. नि. अट्ठ 1.36; - संयुत्त त्रि., तत्पु. स. [अवर्णसंयुक्त], अपयश या निन्दा का पात्र, निन्दित - त्ता अवतत/ओतत/ओत्थत त्रि., अव + Vतन का भू, क. पु., प्र. वि., ब. व. - अवण्णसंयुता जहन्ति जीवितं, इतो कृ. [अवतत/अवस्तीर्ण], ऊपर की ओर फैलाया हुआ, विमुत्तापि च यन्ति दुग्गतिं, जा. अट्ठ. 3.390; अवण्णसंयुता आच्छादित, ढका हुआ - त्थतं नपुं., प्र. वि., ए. व. - यस्स जहन्तीति अधम्मिका लोलराजानो अवण्णेन युत्ता हुत्वा अच्चन्तदुस्सील्य, मालुवा सालमिवोत्थतं, ध. प. 162; पाठा. जीवितं जहन्ति, जा. अट्ठ. 3.391; - संसग्गभय नपुं.. ओत्थत; खेत्ते सुविरुळ्हं धञबीजं सम्मा पवत्तमानेन वस्सेन तत्पु. स. [अवर्णसंसर्गभय]. निन्दनीय हो जाने का डर - ओततविततआकिण्णबहुफल हुत्वा सस्सुहानसमयं पापुणाति, या प. वि., ब. व. - सुखीपि हेके न करोन्ति पापं. मि. प. 282. अवण्णसंसग्गभया पुनेके, ... यसदायकस्स सामिकस्स अवतरण नपुं., अव + Vतर से व्यु., क्रि. ना. [अवतरण], अपरज्झन्तान अवण्णो भविस्सतीति अवण्णसंसग्गभया न नीचे उतरना, नीचे की ओर जा रहा उतार - णे सप्त. वि०, करोन्ति, जा. अट्ठ. 6.203; 204; -- हरण नपुं.. तत्पु. स. ए. व. - अवतारोवतरणे तित्थरिम विवरे प्यथ, अभि. प. [अवर्णहरण], अपयश का प्रसार, बदनामी का फैलाव - 981. गेहतो गेहं, गामतो गाम, जनपदतो जनपदं अवण्णहरणं, अवतरति अव + Vतर का वर्त., प्र. पु., ए. व. [अवतरति]. विभ. अट्ठ. 457; विसुद्धि. 1.28; - हारिका स्त्री., तत्पु. स. नीचे उतर कर आता है, डुबकी लगाता है, प्रवेश करता है [अवर्णहारिका], अपयश का प्रसार एवं प्रचार करने वाली - यदि चतूसु अरियसच्चेसु अवतरति, किलेसविनये - सविपना पापना सम्पापना अवण्णहारिका परपिट्टिमंसिकता, सन्दिस्सति, नेत्ति. 20-21. विभ. 405; अवण्णहारिकाति एवं मे अवण्णभयापि दस्सतीति अवतार पु., अव + Vतर से व्यु. [अवतार], 1. उतार, वह गेहतो गेह... अवण्णहरणं विभ. अट्ट, 457; विसुद्धि. 1.28; स्थान, जहां, नीचे उतर कर आ सके, नहाने का घाट, विवर - ण्णारह त्रि.. [अवर्णाह], निन्दनीय, निन्दा किए जाने --रो प्र. वि., ए. व. - अवतारोवतरणे तित्थस्मिं विवरे प्यथ, योग्य - स्स पु.. ष. वि०. ए. क. - अननविच्च अपरियोगाहेत्वा । अभि. प. 981; 2. प्रारम्भिक प्रवेशद्वार, भूमिका, स. उ. प. अवण्णारहस्स वण्णं भासति, अ. नि. 1(1).107; अ. नि. के रूप में ही प्राप्त - रं द्वि. वि., ए. व. - अभिधम्मावतारन्तु 1(2).3; इध, पोतलिय, एकच्चो पुग्गलो, अवण्णारहस्स मधुरं मतिवड्चन, अभि. अव. 2; अभिधम्म ओतरन्ति अनेनाति अवण्णं भासिता होति, अ. नि. 1(2).115..
अभिधम्मावतारं नाम पकरणं, अभि. अव., अभि. टी. 1.1303; अवण्णनीयसोभ त्रि.. ब. स. [अवर्णनीयशोभा], वर्णन न बालावतारं भासिस्स, बाला. 65. करने योग्य शोभा वाला, अत्यन्त श्रेष्ठ शोभा से युक्त - भं अवति' अव (रक्षा करना) का वर्त, प्र. पु., ए. व. - अवति नपुं, प्र. वि., ए. व. - तं सुवण्णरूपकं जिव्हाय अवण्णनीयसोभं अहोसि, जा. अट्ठ. 5.274.
अवति ।उ (शब्द करना) का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अवते], अवतंस/अवट सक/ वटस/ वटंसक पु./नपु., शब्द करता है - उ सद्दे, अवति अवन्ति अवसि, सद्द. [अवतंस/अवतंसक], फलों से बना कान का आभूषण, 2.322.
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अवतिट्टति
610
अवस्थापित अवतिट्ठति अव + vठा का वर्त.. प्र. पु., ए. व. [अवतिष्ठति], आवुधानि गहेत्वा अवत्थरणकाले केन नु खो ते कारणेन ठहरता है, टिक जाता है, लम्बे समय तक बना रहता है चित्तुत्रासमत्तम्पि न उप्पन्न न्ति पुच्छन्तो पठम गाथमाह, - सद्धा दुतिया पुरिसस्स होति, नो चे अस्सद्धियं अवतिकृति, जा. अट्ट. 2.278; रो अवत्थरणभावं अत्वा दधिघट स. नि. 1(1).29; यत्थ भयं नावतिद्वति, तेन मग्गेन वजन्ति विरसज्जेसि, जा. अठ्ठ. 2.85; अत्तनो अवत्थरणभावं अत्वा भिक्खवो ति, थेरगा. 21; - स्थासि अद्य., प्र. पु., ए. व. - पटिवचनं न दरसतीति जानाति, दी. नि. अट्ठ. 1.221. दण्डको पतित्वा खन्धे अवत्थासि, जा. अट्ट. 4.185. अवत्थरति/ओत्थरति अव + vथर का वर्त, प्र. पु., ए. अवतिण्ण त्रि., अव + Vतर का भू. क. कृ. [अवतीर्ण], व. [अवस्तृणाति], ढक देता है, ऊपर ढेर लगा देता है, उतरा हुआ, अन्दर तक प्रविष्ट, प्रभावित, डूबा हुआ - ण्णो अत्यधिक भर देता है, ऊपर फैला देता है - अप्पहरिते कतो पु.. प्र. वि., ए. व. - उप्पथं अवतिण्णो भवं, न हि भवं हरितं ओत्थरति, आपदासु उम्मत्तकस्स आदिकम्मिकस्साति, अम्हाकं वचनत्थं जानाति, सद्द. 1.136.
पाचि. 281; तेसहि सरीरतो तेजो मम सरीरं ओत्थरति, मम अवत्तब्बता स्त्री., Vवद के सं. कृ., वत्तब्ब के भाव. का निषे. सरीरतो तेजो तेसं सरीरं न ओत्थरति, ध. प. अट्ठ. 1.239; [अवक्तव्यता], वचनों द्वारा कहने योग्य न होना, वचनों --न्ति ब. व. - तस्स हदये अपस्मारवाता अवत्थरन्तीति का अविषय होना - य तृ. वि., ए. व. - तम्हि ... अत्थो , जा. अट्ठ. 4.75; - न्तो पु०. वर्त. कृ.. प्र. वि., ए. अवत्तब्बताय अनक्खातं नाम, ध. प. अट्ठ. 2.169.
व. - सामणेरहि तस्मिं काले सिनेरुना अवत्थरन्तोपि मारेतुं अवत्थ' त्रि., ब. स. [अवस्त्र], वस्त्ररहित, नग्न - त्थो पु.. समत्थो नाम अस्थि ध. प. अट्ठ 1.384; - न्ता ब. व. - प्र. वि., ए. व. - नग्गो दिगम्बरो'वत्थो, घरमरो तु च ते नगरं अवत्थरन्ता विय तस्स गेहं गन्त्वा ..., जा. अट्ठ. 4. भक्खको, अभि. प. 734.
169; -- मानो उपरिवत् ए. व. - सोपि खो अग्गि एकधूमो अवत्थ त्रि., अस के भू. क. कृ. से व्यु. [अपास्त], दूर हत्वा एकजालो अवत्थरमानो आगच्छतेव, जा. अट्ट. 1.209; फेंक दिया गया, छोड़ा हुआ - त्थं स्त्री.. द्वि. वि., ए. व. - मानं उपरिवत्, वि. वि., ए. व. - तयोपि जने अवत्थरमानं - छिन्नं वने खत्तियेहि अवत्थं सिङ्गालसङ्घा परिकद्धिस्सन्ति, गेहं पति, ध, प. अट्ठ. 1.392; - रित्वा पू. का. कृ. -- ता
जा. अट्ठ. 5.292; अवत्थन्ति छडितं, जा. अट्ठ. 5.293. इथियो तूरियभण्डानि अवत्थरित्वा निद्दायन्तियो ..., जा. अवत्थत/ओत्थत/अवत्थट त्रि., अव + vथर का भू. अट्ठ. 1.71; बोधिसत्तो कुलावके निपन्नकोव गीवं उक्खिपित्वा
क. कृ. [अवस्तृत], आच्छादित, खचित, अत्यधिक भरा अवत्थरित्वा आगच्छन्तं अग्गिं दिस्वा चिन्तेसि, जा. अट्ट. हुआ - तो पु., प्र. वि., ए. व. - सुखुमालताय भत्तकाजेन 1.210. अवत्थतो पतति, जा. अट्ठ, 5.284; वलिग्गाही देवपुत्तो ओ अवस्था स्त्री., [अवस्था], दशा, स्थिति, स्थायीपन, जीवन तेजेन ओत्थतो, म. वं. 21.30; सो असनिया मत्थके अवत्थटो की अवधि - तो प्र. वि., ए. व. - तासं येव च नामानि विय मा म, आवुसो, नासेहि, नत्थि मय्ह एवरूपन्ति, ध. प. अवत्थातो इमानि पि, सद्द. 2.363; - सु सप्त. वि., ब. व. अट्ट, 2.31; - तं द्वि. वि., ए. व. - तं भत्तकाजेन ओत्थतं - अथ वा सम्मा गतत्ताति तीसुपि अवस्थासु सम्मापटिपत्तिया दिस्वा चिन्तेसि, जा. अट्ट, 5.284.
गतत्ता, सुप्पटिपन्नत्ताति अत्थो, उदा. अट्ठ. 70; तस्मा अवत्थद्ध त्रि., अव + Vथम्भ का भू. क. कृ. [अवस्तब्ध]. तीसुपि अवत्थासु सब्बसन्तेसु समानरसाय तथाय महाकरुणाय निर्भर, आश्रय लेने वाला - त्थद्धो पु., प्र. वि., ए. व. --- सकललोकहिताय गतो पटिपन्नोति तथागतो, उदा. अट्ठ. सके सिप्पे अवत्थद्धो, अगमं काननं अहं, अप. 1.232; पाठा. 106; - त्थादिविभाग पु., तत्पु. स. [अवस्थादिविभाग], अपत्थट्ठो.
अवस्था या स्थिति आदि की दृष्टि से प्रभेद या विभाजन - अवत्थन्तरभेद पु., तत्पु. स. [अवस्थान्तरभेद], विभिन्न गेन तृ. वि., ए. व. - कामतण्हादिवसेन अट्ठसतभेदा मनोदशाओं का विभाजन - तो प्र. वि., ए. व. - समथोति अवत्थादिविभागेन अनन्तभेदा च. उदा. अट्ठ. 174. च निष्ठिा अवत्थन्तरभेदतो, सद्धम्मो. 457.
अवस्थापित त्रि., अव + Vठा के प्रेर. का भू. क. कृ. अवत्थरण/ओत्थरण नपुं., अव + Vथर से व्यु., क्रि. ना. [अवस्थापित], व्यवस्थित या सुनिश्चित किया हुआ, [अवस्तरण], क. आच्छादन, ढक लेना, ख. अचानक सुनिर्धारित - ताय स्त्री., त. वि., ए. व.- देसनाति तस्सा हमला कर अभिभूत कर लेना- सम्म, तथादारुणानं चोरानं मनसाववत्थापिताय पाळिया देसना, पारा. अट्ठ. 1.18.
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अवत्थापीयति
611
अवदेहक
अवत्थापीयति अव + vठा के प्रेर. का वर्त., प्र. पु., ए. व., कर्म. वा. [अवस्थाप्यते]. स्थापित कराया जाता है, बैठाया जाता है, निर्धारित कराया जाता है - तेन सोतेन हेतुभूतेन, करणभूतेन वा अवधीयति अवत्थापीयति अप्पीयतीति सोतावधानं पटि. म. अट्ठ. 1.11. अवत्थारक पु. केवल स. उ. प. के रूप में प्राप्त [अवस्तारक], आच्छादन, चादर - को प्र. वि., ए. व. - पटिआय कारेतब्ब, येभुय्यसिका, तस्सपापियसिका, तिणवत्थारकोति, पाचि. 283; इदं कम्मं तिणवत्थारकसदिसत्ता तिणवत्थारको ति वुत्तं, चूळव, अट्ठ. 39; - केन तृ. वि., ए. व. - एवरूपं
अधिकरणं तिणवत्थारकेन खूपसमेतुं, चूळव. 192. अवत्थु नपुं.. वत्थु का निषे., तत्पु. स. [अवस्तु]. आधार का अभाव, उपयुक्त कारण का अभाव, अयथार्थता - स्मिं सप्त. वि., ए. क. - अनापत्तिकानं अवत्थुस्मिं अकारणे पातिमोक्खं ठपेतब्बं, चूळव. 398; येन कारणेन हेतुसमुग्घाते अहेतुस्मिं अवत्थुस्मिं दिब्बचक्खु उप्पज्जति, मि. प. 126; - क त्रि.. [अवस्तुक], निर्मूल, कारण-रहित, आधार-रहित वास्तविक आधार से रहित - कं नपुं.. द्वि. वि., ए. व. - कायवत्थुकम्पि इतरवत्थुकम्पि अवत्थुकम्पीति कायिकचेतसिक विपाकसुखं अनुगच्छति, ध. प. अट्ठ. 1.25; उद्दिस्सकं अवत्थुकं ममायनमत्तमेव होति. जा. अट्ठ. 4.204; - पक्क त्रि., कर्म. स. [अवस्तुकपक्व]. उचित रूप में नहीं पकाया हआ - क्का स्त्री, प्र. वि., ए. व. - उच्छुरसं उपादाय अपक्का वा अवत्थुकपक्का वा सब्बापि अवत्थुका उच्छुविकति फाणितन्ति वेदितब्बा, पारा. अट्ठ. 1.267. अवदञ्जू त्रि., वदञ्जू का निषे. [अवदान्य], अशिष्ट, विनम्रता से रहित, घमण्डी, कृपण, कङ्ग्स - असद्धो कदरियो अवदञ्जू मच्छरि पेसुणियं अनुयुत्तो, सु. नि. 668; - अता स्त्री., भाव. [अवदान्यता], शा. अ. दान जैसे कुशल कर्मों से सम्बद्ध वचनों से अनजान होना, ला. अ. कृपणता, अहंभाव, अशिष्टता - पञ्च मच्छरियानि- आवासमच्छरियं ... कदरियं कटुकञ्चुकता अग्गहितत्तं चित्तस्स - अयं वुच्चति अवद ता, विभ. 432; अवदताति थद्धमच्छरियवसेन देहि, करोहीति वचनस्स अजानता, विभ. अट्ठ. 471; - य तृ. वि., ए. व. - मच्छरियेन अवद ताय समन्नागता जना पमत्ता, महानि. 26; अवद तायाति सब बुद्धानम्पि कथितं अजाननभावेन, महानि. अट्ठ. 88. अवदन्त त्रि., विद के वर्त. कृ., वदन्त का निषे. [अवदत्]. नहीं बोल रहा, नहीं कह रहा - न्तं पु., द्वि. वि., ए. व.
- एवं मं अवदन्तं यो एवं पच्छेय्य - किस्स न खो, भन्ते, विआणहारो ति, एस कल्लो पञ्हो, स. नि. 1(2).14. अवदमान त्रि., Vवद के वर्त. कृ., वदमान का निषे. [अवदमान], उपरिवत् - मानो पु., प्र. वि., ए. व. - तेसु एक लेडु अभिरुहित्वा अट्टासि अवदमानो, स. नि. अट्ट. 3.231. अवदातक/ओदातक त्रि., [अवदातक], उजला, सफेद, धवल - कं पु., द्वि. वि., ए. व. - तित्थियानं धज केचि, धारिस्सन्त्यवदातकं थेरगा. 965; - तनुत्तच त्रि., ब. स., उज्ज्व ल, धवल एवं कोमल त्वचा वाला - चं पु., द्वि. वि., ए. व. - हेमयोपचितङ्ग, अवदाततनुत्तचं, अप. 2.125. अवदानिय त्रि., [अवदान्य]. अनुदार, कङ्ग्स, कृपण, उदारतापूर्वक दान न देने वाला - या पु.. प्र. वि., ब. व. - कामेसु गिद्धा पसुता पमूळहा, अवदानिया ते विसमे निविट्ठा, सु. नि. 780; महानि. 25; अवदानियाति अवगच्छन्तीतिपि अवदानिया, मच्छरिनोपि वच्चन्ति अवदानिया, महानि. 26. अवदारण नपुं.. 1. अव + /दर के प्रेर. से व्यु., क्रि. ना. [अवदारण], नीचे तक खोदना, विदारण या तोड़फोड़ - णे सप्त. वि., ए. व. - खणु अवदारणे, सद्द. 2.397; 2. क. ना., खोदने वाला यन्त्र, खन्ती, फावड़ा, कुदाल - णं प्र. वि., ए. व. - लेडुत्तो मत्तिकाखण्डो, खणित्तीत्थ्यवदारण,
अभि. प. 447. अवदिसितब्ब/अपदिसितब्ब त्रि., अव/अप + दिस का सं.क., सङ्केतित या व्यवस्थापित किए जाने योग्य, ठीक से विनिश्चित कराया जाना चाहिए - ब्बा पु.. प्र. वि., ब. व. - अपदिसितब्बा विसुं कातब्बा ववत्थपेतब्बा, विपेंहि गारव्हा भवेय्याथाति वुत्तं होति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).99; पाठा.
अवदिहति अव + दिह का वर्त., प्र. पु.. ए. व., परिपूर्ण करता है, भर देता है - उदरं अवदिहति उपचिनोति परिपूरेतीति उदरावदेहकं लीन. (दी. नि. टी.) 3.222. अवदेहकं अ., क्रि. वि., केवल 'उदरावदेहक के रूप में प्राप्त, केवल उदर को अत्यधिक भर देने हेतु - उदरावदेहक भुत्वा, सयन्तुत्तानसेय्यका, थेरगा. 935; उदरं अवदिहति उपचिनोति परिपूरेतीति उदरावदेहकं लीन. (दी.नि.टी.) 3.222; ब्राह्मणा यावदत्थं उदरावदेहकं भुजित्वा अवसेसं. ..., अ. नि. 2(1).208.
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अवदेहन
612
अवन्ती
अवदेहन नपुं., अव + vदिह से व्यु., क्रि. ना., अत्यधिक ए. व. - पञ्चम्यवधिस्मा, पदत्थावधिस्मा पञ्चमी विभत्ति भरपूर कर देना, परिपूर्ण कर देना - तो प. वि., ए. व. - होति, मो. व्या. 2.28. तम्हि उदरं अवदेहनतो उदरावदेहकन्ति वुच्चति, दी. नि. अवधीयति अव + vधा के कर्म. वा. का वर्त., प्र. पु., ए. अट्ठ. 3.195.
व. [अवधीयते], व्यवस्थापित या निर्धारित किया जाता है, अवधारण नपुं., अव + vधर के प्रेर. से व्यु., क्रि. ना. प्रयोग में उतारा जाता है - करणभूतेन वा अवधीयति [अवधारण], निश्चय, निर्धारण, संपुष्टि, समर्थन, परिसीमित अवत्थापीयति अप्पीयतीति सोतावधानं, पटि. म. अठ्ठ. 1.11. कर देना - णे सप्त. वि., ए. व. - स्वप्पे वधारणे मत्तं, अवनत/ओणत अव + निम का भू. क. कृ. [अवनत], अपचित्यच्चने खये, अभि. प. 1117; हा खेदे सच्छि पच्चक्खे, नीचे की ओर सिर को झुकाया हुआ, विनम्र- अवनतं सिरो धुवं थिरावधारणे, अभि. प. 1159; अवधारणे निच्छयो, सद्द. यस्स, सो यं अवंसिरो, सद्द. 1.102. 3.885; याव, इति, एवं, खो, नो, एव जैसे निपा. के अर्थों की अवनति स्त्री., स. प. में प्रयुक्त [अवनति], नीचे की ओर सीमा को निश्चित करने के अर्थ में अत्यधिक प्रयुक्त, याव झुकना, पतन, हास, निराशा - पब्बतो अनुन्नतो अनोनतो, - याव सद्दोवधारणे... अवधारणमेत्तकता परिच्छेदो ... एवमेव खो, महाराज, योगिना योगावचरेन उन्नतावनति न अवधारणे ति कि, याव दिन्नं ताव भुत्तं नावधारयामि कित्तकं करणीया. मि. प. 356. मया भुत्तं, मो. व्या. 3.4; अथो - अथोति निपात्तमत्तं. अवनथ त्रि., ब. स., तृष्णा से मुक्त, तृष्णारहित - थो पु., अवधारणत्थे वा, महाराज, ते आगतं दुरागतं न होति, पे. व. प्र. वि., ए. व. - वनथं न करेय्य कुहिञ्चि, निब्बनथो अट्ठ. 218; इति - इच्चस्स वचनीयन्ति आदिसु अवधारणे, अवनथो स भिक्खु, थेरगा. 1223; यो हि सब्बेन सब्ब सद्द. 2.317; एव - एवावधारणे जेय्य, यथत्तं तु यथातथं, नित्तण्हो, ततो एव कत्थचिपि नन्दिया अभावतो अवनथो, अभि. प. 1152; एवं - एवं नो एत्थ होती ति आदीसु थेरगा. अठ्ठ 2.439. अवधारणे, स्वायमिध आकारानिदस्सनावधारणेसु दहब्बो, दी. अवनी स्त्री.. [अवनी], पृथ्वी, धरती - पुथवी जगती भूरी भू नि. अट्ठ. 1.28; च - चकारो अवधारणत्थो, एवकारो वा अयं । भूतधरावनी, अभि. प. 182; छमा वसुमती उब्बी अवनी कु
सन्धिवसेनेत्थ एकारो नट्ठो, सु. नि. अट्ट, 1.61; - णत्थ त्रि., वसुन्धरा, सद्द. 1.81; - निं द्वि. वि. ए. व. - कुट्ठी एको ब. स. [अवधारणार्थ], विनियमन या परिसीमन के प्रयोजन पकुप्पित्वा हत्थेन आहनियावनिं, चू. वं. 37.153; - निपाल वाला - त्थो पु., प्र. वि., ए. व. -- चकारो अवधारणत्थो, पु., तत्पु. स. [अवनिपाल], राजा, शासक - लो प्र. वि., सु. नि. अट्ठ. 1.61; - त्थं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - ए. व. - सुचिरं अवनिपालो सञमं अज्झुपेतो, दा. वं. चसद्दग्गहणमवधारणत्थं..., क. व्या. 79; - फलत्त नपुं. 4.5; - पति/पती पु.. उपरिवत - विसालतेजो विजयस्सिरि भाव., निश्चायन अथवा परिसीमन का सङ्केतक होना - त्ता तदा लभी परक्कन्तिभुजो वनीपति, चू, वं. 83.52; अथावनिपती प. वि., ए. व. - सब्बानिपि वाक्यानि एवकारत्थसहितानियेव गन्त्वा अनुराधपुरं तहिं, चू. वं. 88.80; - निस्सर पु., तत्पु. अवधारणफलत्ता, इतिवु. अट्ठ. 20; सब्बानि हि वाक्यानि स. [अवनीश्वर]. पृथ्वी का स्वामी, राजा - अथोपकार एवकारत्थसहितानियेव अवधारणफलता तेसं... उदा. अट्ट, 11. संबुद्धसासनस्सावनिस्सरो, चू. वं. 81.40. अवधारित त्रि., अव + Vधर के प्रेर. का भू. क. कृ.. अवन्ततण्ह त्रि., वन्ततण्ह का निषे. [अवान्ततृष्ण], वह, [अवधारित], निश्चित किया गया, निर्धारित किया गया - जिसकी तृष्णा शान्त नहीं हुई है, अशान्त तृष्णा वाला - गमने विस्सुते चावधारितोपचितेसु च, अभि. प. 797; - ते ण्हा पु., प्र. वि., ब. व. - अवीततण्हा अविगततण्हा पु., सप्त. वि., ए. व. - हत्थदाढनरिन्देन तस्मिं अत्थेवट अचत्ततण्हा अवन्ततण्हा, महानि. 34-35; - हासे उपरिवत् रिते. चू. वं. 47.4.
- हीना नरा मच्चुमुखे लपन्ति, अवीततण्हासे भवाभवेसु. सु. अवधारेत्वा अव + Vधर के प्रेर. का पू. का. कृ. [अवधार्य], नि. 782; अवीततण्हासेति अविगततण्हा, महानि. अट्ठ. 123. सुनिश्चित करके - अयं सम्पत्ति पापणितान्ति च अवधारेत्वा अवन्ती 1. स्त्री., एक जनपद या नगर - वेदे भिन्दित्वा, सु. नि. अट्ठ. 2.50.
कालिङ्गा वन्तिपञ्चाला वज्जी गन्धार-चेतयो, अभि. प. 184; अवधि पु., [अवधि], किसी भी क्रिया के किए जाने का एवं अवन्ती अवन्तियो ति आदिना पि नामिकपदमाला प्रारम्भिक बिन्दु, बिलगाव का बिन्दु या स्थल -स्मा प. वि., योजेतब्बा, सद्द. 1.205; - सु सप्त. वि., ए. व. - आयस्मा
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अवन्दि
613
अवभास
महाकच्चानो अवन्तीसु विहरति, स. नि. 2(1).9; ततिये अवपतित त्रि., अव + /पत का भू. क. कृ. [अवपतित]. अवन्तीसूति अवन्तिदक्षिणापथसङ्खाते अवन्तिरतु. स. नि. नीचे गिरा हुआ, नीचे की ओर मुख करके गिरा हुआ - तं अट्ट. 2.228; 2. पु., ब. व., अवन्ती नामक जनपद के पु., वि. वि., ए. व. - हत्थिक्खन्धावपतितं, कुञ्जरो चे निवासी - महेसयं अवन्तीनं, सोवीरानञ्च रोरुक, दी. नि. अनुक्कमे, थेरगा. 194; तत्थ अवपतितन्ति अवमुखं पतितं 2.172; - जनपद पु., तत्पु. स., अवन्ती नामक क्षेत्र - दे उद्धपादं अधोमुखं पतितं, थेरगा. अट्ट, 1.345. सप्त. वि., ए. व. - महाकच्चाने अवन्तिजनपदे कुरघरं अवपत्त त्रि., ब. स. [अवपत्र], पत्तों से रहित, बिना पत्तों निस्साय पवत्तपब्बते विहरन्ते, ध. प. अट्ट, 2.340; - वाला - त्तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - ओपत्तन्ति अवपत्तं निप्पत्तं दक्खिणापथ पु., कर्म. स. [अवन्तिदक्षिणापथ]. दक्षिणापथ पतितपत्तं, जा. अट्ठ. 3.438. का अवन्ती क्षेत्र - थो प्र. वि., ए. व. - तेन खो पन समयेन अवबुज्झति अव + vबुध का वर्त, प्र. पु., ए. व. अवन्तिदक्षिणापथो अप्पभिक्खुको होति, महा. 269; - थे [अवबुध्यते], समझता है, जानता है, किसी के विषय में सप्त. वि., ए. व. - काळदेविलो नाम इसि अवन्तिदक्षिणापथे सचेत होता है, चित्त का आलम्बन बनाता है - खुरव एकग्घनसेलं निस्साय अनेकसहस्सइसिपरिवारो वसि, जा. मधुना लित्तं उल्लिहं नावबुज्झति, थेरगा. 737; भयमन्तरतो अट्ठ. 3.408; अप्पेव नाम भगवा अवन्तिदक्षिणापथे जातं, तं जनो नावबुज्झति, इतिवु. 61; - सि म. पु., ए. गुणगुणूपाहनं अनुजानेय्य, महाव. 269; - दक्खिणापथक व. - एतं मे याचमानानं, अञ्जलिं नावबुज्झसि, - न्ति प्र. त्रि., दक्षिणापथ में स्थित अवन्ती नामक स्थान में रहने पु., ब. व. - करोन्ता नावबुज्झन्ति, अ. नि. 2(2).235; - थ वाला - का पु., प्र. वि., ब. व. - अट्ठासीतिमत्ता अद्य., प्र. पु., ए. व. - अजा सो नावबुज्झथ, जा. अट्ठ. अवन्तिदक्षिणापथका भिक्खू .... चूळव. 468; - कानं ष. 3.355; - ज्झितुं निमि. कृ. - न सक्का सुखेन अवबुज्झितुं वि., ब. व. - काकण्डपुत्तो पावे य्य कानञ्च म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).77. अवन्तिदक्षिणापथकानञ्च भिक्खूनं सन्तिके दूतं पाहेसि, अवबोध पु., [अवबोध], पूर्णज्ञान, साक्षात् ज्ञान, गम्भीर ज्ञान, तदे.; - पुत्त पु.. [अवन्तिपुत्र], अवन्ती का राजकुमार -- प्रायः स. प. में प्राप्त- धानुभावदीपक त्रि., तत्पु. स., तो प्र. वि., ए. व. - अथ खो राजा माधुरो अवन्तिपुत्तो पूर्णज्ञान के प्रभाव को प्रकट करने वाला - कं नपुं., द्वि. भद्रानि भद्रानि यानानि योजापेत्वा .... म. नि. 2.280; वि., ए. व. - ... अवबोधानुभावदीपकं उदानं उदानेसीति अवन्तिपुत्तोति अवन्तिरढे रुओ धीताय पुत्तो, म. नि. अट्ट अत्थो, उदा. अट्ट. 39. (म.प.) 2.227; - महाराज पु., तत्पु. स. [अवन्तिमहाराज], अवबोधति अव + Vबुध का वर्त., प्र. पु., ए. व. अवन्ती का राजा - जा प्र. वि., ए. व. - अतीते अवन्तिरढे [अवबोधति], अनुभव करता है, प्रत्यक्ष अनुभूति करता है, उज्जेनियं अवन्तिमहाराजा नाम रज्जंकारेसि, जा. अट्ट ध्यान देता है, विश्वास करता है - न्ति प्र. पु., ब. व. - 4.350; - र? नपुं., तत्पु. स. [अवन्तिराष्ट्र], अवन्ती नामक ये वाचं सन्धिभेदस्स, नावबोधन्ति सारथी ति, जा. अट्ठ. राष्ट्र - टु' प्र. वि., ए. व. - अस्सकावन्ती अस्सकरलु वा 3.129; नावबोधन्तीति न सारतो पच्चेन्ति, जा. अट्ठ. 3.130; अवन्तिटु वा, जा. अट्ठ. 5.309; - 8 द्वि. वि., ए. व. -- --धामि उ. पु., ए. व. - ततो सकस्स चित्तस्स नावबोधामि अवन्तिरलु भुञ्जन्तो पितरा दिन्नमत्तनो, म. वं. 13.83; कञ्चिनं, जा. अट्ठ. 5.204; -धेतुं अव + Vबुध का निमि. असोककुमारस्स उपराजद्वानं च अवन्तिरद्वं च.म. वं. टी. 283. कृ., प्रेर. [अवबोधयितु], सम्यक ज्ञान कराने के लिए, अवन्दि विन्द का अद्य., प्र. पु., ए. व., वन्दना की - अवन्दि अवबोध या यथार्थज्ञान कराने हेतु - परं अवबोधेतुं चोरो सुगतस्स पादे, थेरगा. 869.
सुखावबोधनत्थं इदमारद्धन्ति वेदितब्बं, अ. नि. अट्ठ. अवन्दिय' त्रि., Vवन्द के सं. कृ., वन्दिय का निषे. [अवन्द्य], 2.281(रो.); पाठा. अवबोधे उतुम्पीति 2.158 (वि.वि.वि.). वन्दना नहीं करने योग्य, प्रणाम या अभिवादन न करने अवबोधन नपुं., अव + Vबुध से व्यु., क्रि. ना. [अवबोधन], योग्य - न्दिया पु.. प्र. वि., ब, व, - इमे खो, भिक्खवे, दस अनुभूति, प्रत्यक्ष ज्ञान, विश्वास - ने सप्त, वि., ए. व. - अवन्दिया, चूळव. 291; कथं अवन्दिया बुद्धा, अप. 2.204. .... आवबोधने, धा. मं. 118; सद्द. 2.350. अवन्दिय पु.. व्य. सं., एक तमिल शासक का नाम - अवभास पु., ओभास का उत्तरकालीन रूप, केवल स. उ. मनाभरणमहाराजव्हो अवन्दियरायरो, चू, वं. 76.146. प. के रूप में ही प्राप्त [अवभास], प्रकाश, चमक, कान्ति;
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अवभासति/ओभासति
614
अवय
गम्भीर. आदि के अन्त. द्रष्ट. - क त्रि., [अवभासक]. नि. अट्ठ. 2.53; - ञिस्सति भवि., प्र. पु., ए. व. - एस प्रकाश बिखेरने वाला, चमकाने वाला, प्रकाशित कर देने दासो, तस्मा तं पगब्भताय एवं वदेतीति अवमञिस्सति, वाला, सिद्धिमग्गावभासक के अन्त. द्रष्ट..
जा. अट्ठ. 7.164. अवभासति/ओभासति अव + vभास का वर्त, प्र. पु., ए. अवमञन नपुं., अव + Vमन से व्यु., क्रि. ना. [अवमानन], व., ओभासति रूप में ही प्राप्त [अवभासति], प्रकाशित होता अपमान, तुच्छ समझना, हीन मानना - नं प्र. वि., ए. व. है, चमकता है - ओभासति ताव सो किमि, उदा. 156; - - मक्खं असहमानोति एत्थ पन अत्तनि परेहि कतं अवमञनं भासित त्रि., भू. क. कृ. [अवभासित, किसी के द्वारा मक्खोति वुच्चति, सद्द. 2.523. प्रकाशित किया हुआ या प्रदीप्त किया हुआ - ता पु.. प्र. अवमद्दन नपुं.. अव + Vमद्द से व्यु., क्रि. ना. [अवमर्दन]. वि., ब. व. - सब्बञाणसतरंसिपज्जोतेनावभासिता, कुचल देना, प्रहार करना, तोड़ देना, मर्दन कर देना - ने सद्धम्मो. 590.
सप्त. वि., ए. व. - अञ्चपूजागते वञ्च गमने किञ्चावमद्दने, अवमुञ्जति अव + 'भुज का वर्त., प्र. पु.. ए. व. [अवभुक्ते], धा. मं. 9.. अपङ्ग के समान अनुचित रूप में या घटिया रूप में खाता अवमयूर त्रि०, मयूरों से भरा हुआ, अत्यधिक मयूरों वाला - है, हीन रूप में उपभोग करता है - भोत्तुं निमि. कृ.-. रं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अवकुटुं कोकिलाय वनमवकोकिलं. .. स्वाहं एवं अवभोत्तुं न उस्सहामीति वदति, जा. अट्ट अवमयूरं, मो. व्या. 3.13. 3.239; - भुत्त त्रि., भू. क. कृ. [अवभुक्त], अनुचित रूप अवमान पु.. [अवमान]. असम्मान, अपमान - अवमानं में भोग किया गया - त्तं द्वि. वि., ए. व. - रुओ हि किच्चं तिरोक्कारो परिभवोप्यनादरो, अभि. प. 172; - नो प्र. वि.. अनिप्फादेन्तो तं अवभुत्तं भुञ्जति, तदे...
ए. व. - अदु पुत्तेहि अवमानो कतो, जा. अट्ठ. 5.381; - नं अवभूत त्रि., अव + भू, भू. क. कृ. [अवभूत], घटिया, हीन, द्वि. वि., ए. व. - ... कस्मा इमस्स दुट्ठमक्कटस्स अवमानं तुच्छ, निकृष्ट - ता स्त्री, प्र. वि., ए. व. -- अवभूताव अयं । सहसि, जा. अट्ट, 2.317; - प्पत्त त्रि., ब. स. [अवमानप्राप्त]. धनजानी ब्राह्मणी .... म. नि. 2.433; अवभूतावाति अवद्धिभूता असम्मान का विषय, वह, जिसे असम्मान मिला है - त्ता अवमङ्गलभूतायेव, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.318; अवभूताति स्त्री, प्र. वि., ए. क- सा अवमानपत्ता हुवा...ध. प. अट्ठ. 1.398 अधोभूता अधोभावो सत्तानं अवड्डि अवमङ्गलन्ति आह - अवमानित त्रि., [अवमानित], अपमानित, तिरस्कृत - ता
अवधिभूता अवमङ्गलभूतायेवाति, लीन. (म.नि.टी.) 2.209. पु., प्र. वि., ब. व. - अवञ्जितावगणिता परिभूतावमानिता, अवमङ्गल त्रि., [अपमङ्गल], बुरे लक्षणों वाला, अपशकुनो से अभि. प. 756; - तो पु., प्र. वि., ए. व. - सो भरियाय भरा, दुर्भाग्य का सूचक, अमङ्गलजनक - लं नपुं.. प्र. वि.. अवमानितो निबिन्नमानसो अझं कझं आनेसि, पे. व. ए. व. - इदहि अवमङ्गलं काळकण्णिसदिसं.... जा. अट्ठ. अट्ठ. 31. 1.355; सब्बकल्याणधम्मानं, अवमङ्गलमुहितं, ना. रू. प. अवमानेत्वा अव + /मन के प्रेर. का पू. का. कृ., अपमानित 1304 - वत्थ नपुं, कर्म. स. [अवमङ्गलवस्त्र], अमङ्गलसूचक करके - ... अवमानेत्वा रहा पब्बाजेसि, जा. अट्ठ. 5.235. वस्त्र, कफन, मृतशरीर को आच्छादित करने वाला वस्त्र - अवमुख त्रि., ब. स. [अवमुख]. अधोमुख, नीचे की ओर त्थं प्र. वि., ए. व. - सिवेय्यकं नाम उत्तरकुरुसु सिवथिकं मुख को किया हुआ - खं नपुं., द्वि. वि., ए. व. - तत्थ अवमङ्गलवत्थं, महाव. अट्ठ. 376.
अवपतितन्ति अवमुखं पतितं उद्धपादं अधोमुखं पतितं. थेरगा. अवमञ्जति अव +/मन का वर्त., प्र. पु., ए. व. [अवमन्यते]. अट्ठ. 1.345. अपमान भरी दृष्टि से देखता है, तुच्छ समझता है, तिरस्कार अवमोचन नपुं.. [अवमोचन]. ढीला करना, मुक्त करना, करता है, बुरा व्यवहार करता है - परिभवे अवजाननं, स्वतन्त्र करना - ने सप्त. वि., ए. व. - सुत्त अवमोचने, अवमति , सद्द. 3.882; - तु अनु०, प्र. पु., ए. व. - सद्द. 2.540.
ओचिनायतूति 'नीहरथेतं काळकण्णिन्ति अवमञ्जत, अवय त्रि., ब. स. [अव्यय]. किसी भी प्रकार की अल्पता या अवजानातूति अत्थो, जा. अट्ठ.6.4; - थ/ञि अद्य, प्र. न्यूनता से रहित, व्यय या क्षति से रहित - या पु.. प्र. वि., पु., ए. व. - पतिं भरियावमञथाति भरिया च ... पति ब. व. - समवयसढेसनोति एत्थ अवयाति अनूना, दी. नि. अवमञ्जथ, परिभवि अवमञि न सक्कच्चं उपट्ठासि, सु. अट्ट, 3.215; अ. नि. अट्ठ. 2.292.
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अवयव
615
अवरुद्ध/ओरुद्ध अवयव पु., व्यु. अनिश्चित [अवयव, अव + vयु + अच्], पु., प्र. वि., ब. क. - परोपराति वरावरा सुन्दरासुन्दरा, सु. 1. शरीर का अङ्ग या भाग - वो प्र. वि., ए. व. - अङ्गं नि. अट्ठ. 123; - ज त्रि., [अवरज], बाद में जन्म लेने त्ववयवो वुत्तो, अभि. प. 278; - वेहि तृ. वि., ब. व. - वाला छोटा भाई - जे पु., सप्त. वि., ए. व. - उभो प्यवरजे
सब्बगत्तेहीति सब्बेहि सरीरावयवेहि सकलेहि अङ्गपच्चङ्गेहि निजे, चू. वं. 88.19; - मत्तक त्रि., ब. स. [अवरमातृक], ...., वि. व. अट्ठ. 41; - वा पु., प्र. वि., ब. व. - गत्ताति बहुत कम मात्रा वाला - केन नपुं., तृ. वि., ए. व. - सरीरावयवा, पे. व. अट्ट, 183; 2. शरीर, - वे पु., सप्त. ओरमत्तकेनाति अवरमत्तकेन अप्पमत्तकेन, अ. नि. अट्ट. वि., ए. व. - सरीरन्ति सरीरभूतं धातुं अवयवे चायं 3.163. समुदायवोहारो, वि. व. अट्ठ. 169; 3. कारण, किसी भी बात अवरज्झति/अपरज्झति अव + (राध का वर्त०, प्र. पु.. ए. का हिस्सा - वेहि तृ. वि., ब. व. - चतूहि अङ्गेहीति चतूहि व. [अपराध्यते], क. उपेक्षा करता है, असफल होता है, कारणेहि अवयवेहि वा, सु. नि. अट्ठ. 2.112; 4. किसी भी छोड़ देता है - ज्झिस्सं भवि., उ. पु., ए. व. - करिस्सं अनुमान वाक्य का घटक या अङ्ग जो, प्रतिज्ञा, हेतु, दृष्टान्त, नावरज्झिस्सं. थेरगा. 167; नावरज्झिस्सन्ति तमहं दानि उपनय और निगमन नामक पांच अङ्गों या घटकों के रूप करिस्सं न विराधेस्सं. थेरगा. अट्ठ. 1.317; ख. अपराध में रहता है - यदज्ञ पटिञादीहि अवयवेहि नामादीहि करता है - ज्झाम वर्त.. उ. पु.. ब. व. - तत्थ नापरज्झामाति पदेहि... समन्नागतं वाचं सुभासितान्ति मञ्जन्ति, सु. नि. मारेन्तो अपरज्झति नाम, मयं न मारेम, जा. अट्ठ. 5.371. अट्ठ. 113; - विनिमुत्त त्रि.. तत्पु. स. [अवयवविनिर्मुक्त]. अवरपुर/अपरपुर त्रि., नगर से पश्चिम दिशा की ओर अङ्गों के अतिरिक्त कुछ और - त्तो पु., प्र. वि., ए. व. - स्थित - रे पु., सप्त. वि., ए. व. - एक समयं भगवा समूहोतिपि अवयवविनिमुत्तो परमत्थतो अविज्जमानोपि... वेसालियं विहरति बहिनगरे अपरपुरे वनसण्डे, म. नि. 1.99. अवयवानं आधारभावेन पापीयति, उदा. अट्ट, 19; - अवरुज्झन्ति अव + रुध का वर्त, प्र. पु., ब. व., विरोध विसेसवन्तु त्रि., ब. स. [अवयवविशेषवत्], विशेष प्रकार करते हैं, अवरोध खड़ा करते हैं - नावरुज्झन्ति ते वचोति, के अवयवों या भागों वाला - वन्तो पु., प्र. वि., ब. व. - जा. अट्ठ. 4.386. ये हि वेदिकाय निरन्तर दिता अवरुद्ध/ओरुद्ध त्रि., अव + रुध का भू, क. कृ. [अवरुद्ध], सुसण्ठितघटकादिअवयवविसेसवन्तो थम्भकसमुदाया, ..., वि. नियन्त्रित अथवा संयत कर दिया गया, नियन्त्रित करा व. अट्ठ. 231-232; - सहावट्ठान नपुं.. तत्पु. स., अवयवों दिया गया-द्धा पु., प्र. वि., ब. व. - अवरुद्धत्थाति रखतो या विभिन्न भागों की एक साथ स्थिति- नं प्र. वि., ए. व. पब्बाजिता हुत्वा .... जा. अट्ठ. 7.351; -द्धानं पु., ष. वि., - अवयवसहावट्ठानमेव हि समूहो, उदा. अट्ठ. 17; - ब. व. - अवरुद्धानं, महाराज, अर जीवसोकिनन्ति, जा. सम्बन्ध पु.. तत्पु. स. [अवयवसम्बन्ध], विभिन्न भागों का अट्ठ. 7.368; ख. किसी के द्वारा खड़े किए गए अवरोध या आपसी सम्बन्ध - न्धे सप्त. वि., ए. व. - रत्तियाति रुकावट से युक्त, बाधायुक्त, बन्द कर दिया गया-द्धो पु.. अवयवसम्बन्धे सामिवचनं, उदा. अट्ठ. 30; - वादिसम्पन्न प्र. वि., ए. व. - ... गोणो किट्ठादो दामेन वा बद्धो वजे वा त्रि., तत्पु. स., विभिन्न तार्किक अङ्गों से युक्त - न्ना स्त्री., ओरुद्धो, अ. नि. 2(2).101; -द्धा ब. क. - बुद्धधम्मोरुसेलेहि प्र. वि., ब. व. - अवयवादिसम्पन्नापि हि... वाचा, सु. नि. अवरुद्धा समन्ततो, सद्धम्मो. 592; - द्धे पु.. द्वि. वि., ब. अट्ठ. 2.113.
व. - ओरुद्ध भिक्खवो दिस्वा, सेतुं गङ्गाय कारयि, अप. अवर/अपर त्रि.. [अवर, अपर], क. आयु में छोटा, ख. 2.269; ग. विद्रोही, वैरी, शत्रु-द्धा पु., प्र. वि., ब. व. - बाद का, पश्चवर्ती, समय या स्थान की दृष्टि से पिछला, ते खो ते, मारिस, अमनुस्सा महाराजानं अवरुद्धा नाम ग. अनुवर्ती, उत्तरवर्ती, घ. कम, घटिया, ड. अन्तिम, पासवुच्चन्ति, दी. नि. 3.154; अवरुद्धा नामाति पच्चामित्ता वाला, च. पश्चिम की ओर वाला - रे नपुं., सप्त. वि., ए. वेरिनो, दी. नि. अट्ठ. 3.136; अवरुद्धा होन्तीति पटिविरुद्धा व. - अपरपुरेति पुरस्स अपरे, पच्छिमदिसायन्ति अत्थो, म. होन्ति, पाचि. अट्ठ. 147; - क' त्रि., अवरुद्ध से व्यु.. क. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).334; - रं पु., वि. वि., ए. व. - बाहर निकाल दिया गया, निष्कासित - को पु., प्र. वि., ए. परोवरं अरियधम्म विदित्वा, सु. नि. 355; तत्थ परोवरन्ति व - अवरुद्धकोति रडा पब्बाजितो अरओ वसन्तो, जा. .... सुन्दरासुन्दरं दूरे सन्तिकं वा, सु. नि. अट्ठ. 2.75; - रा अट्ठ. 7.355; ख. शत्रु, वैरी, विरोधी - द्धे पु., द्वि. वि.. ब.
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अवरुन्धति/ओरुन्धति
616
अवलेखन/अपलेखन
व. - नीहरित्वा यक्षगणे पिसाचे अवरुद्धके, दी. वं. 21 लाया जा रहा - ना स्त्री., प्र. वि., ए. व. - गेहे पन ... -- क' पु., व्य. सं., एक यक्ष का नाम - द्धको प्र. वि., ए. सुवण्णपाति भाजनन्तरे निक्खित्ता दीघरत्तं अवलजियमाना व. - एको पन अवरुद्धको नाम यक्खो... आगन्त्वा अट्ठासि, मलग्गहिता अहोसि. जा. अट्ठ. 1.118... ध. प. अट्ट, 1.378.
अवलम्ब अव+Vलम्ब का पू. का. कृ. [अवलम्ब्य], सहारा अवरुन्धति/ओरुन्धति अव + रुध का वर्तः, प्र. पु., ए. लेकर, किसी पर टिक कर या आश्रित होकर - नावाय च व. [अवरुणद्धि], क. बन्द कर देता है, घेरे के अन्दर कर त्वं अवलम्ब तिट्ठसि, पे. व. 443; अवलम्बाति अवलम्बित्वा देता है, नियन्त्रित कर देता है - गावमवरुन्धति वजं. मो.. अपस्सेनं अपस्साय, पे. व. अट्ठ. 164. व्या. 2.2; ख. बाहर कर देता है, निष्कासित कर देता है अवलम्बक/ओलम्बक त्रि., किसी के सहारे लटका हुआ -द्धसि म. पु., ए. व. - अवरुद्धसीति रट्ठा नीहरसि, जा. (सीका आदि) - कं पु., द्वि. वि., ए. व. - सुवपोतको तं अट्ठ. 7.261.
सुत्वा ... साखायं ओलम्बकं ओतारेन्तो विय.... जा. अट्ठ. अवरोज पु., व्य. सं., विपस्सी बुद्ध के समकालीन एक 6.222. गृहस्थ तथा उसके भाजे का नाम - विपस्सीबुद्धकाले किर अवलम्बन नपुं., अव +Vलम्ब से व्यु.. क्रि. ना. [अवलम्बन], एस अवरोजस्स नाम कुटुम्बिकस्स भागिनेय्यो... अवरोजोक. आधार, सहारा, आश्रय, ख. नीचे की ओर लटक रहा नाम अहोसि.ध. प. अट्ठ. 2.211.
- अवसंसनं अवलम्बनं, सद्द. 2.406. अवरोध/ओरोध पु., अव + रुध से व्यु., क्रि. ना. अवलित्त त्रि०, अव+लिप का भू. क. कृ. [अवलिप्त], शा. [अवरोध], अन्दर बन्द कर देना, घेरा-बन्दी करना, - धं अ. लीपा हुआ, पोता हुआ, अन्दर और बाहर में की गई द्वि. वि., ए. व. - ... तेपि सङ्घारखन्धपरियापन्नत्ता एत्थेव लिपाई पोताई से युक्त, ला. अ. आसक्त - त्ता पु., प्र. वि., अवरोधं गच्छन्ति, विभ. अट्ट, 29;- तो प. वि., ए. व. - ए. व. - कुटि नाम उल्लित्ता वा होति अवलित्ता वा .... तस्मा अजेसं तदवरोधतोपि पञ्चेव वुत्ताति, तदे; -धो प्र. पारा. 229. वि., ए. व. - ... सब्बपञत्तनीञ्च विज्जमानादीसु छसु अवलेखति/ओलेखति अव + लिख का वर्त., प्र. पु., ए. पञत्तीसु अवरोधो, उदा. अट्ठ. 13.
व. [अवलिखति], शा. अ. रगड़ कर या खरोंचकर मिटा अवलक्खण त्रि., अमङ्गलसूचक, अपशकुन का सङ्केतक - देता है, ला. अ. क. स्नानगृह में अपने मैल को रगड़ कर णो पु., प्र. वि., ए. व. - येसं हत्थतो लाभं न लभति, तेसं साफ कर देता है - न्ति ब. व. - फरुसेनपि कद्वेन असिं अवलक्खणोति गरहति, जा. अट्ठ. 1.435; तुल. अवलेखन्ति, चूळव. 366; - खेय्य विधि., प्र. पु.. ए. व. - अवमङ्गल.
नावलेखेय्य फरुसेनुहतञ्चापि धोवये खु. सि. 22; - खितब्ब अवलज त्रि., Vवळजि से व्यु., सं. कृ. का निषे., परिभोग त्रि., सं. कृ. - न फरुसेन कडेन अवलेखितब्बं चूळव. नहीं करने योग्य, व्यावहारिक प्रयोग में न लाए जाने योग्य, 366; ख. पेड़ की छाल को छीलकर उतार देता है - खेय्य लुञ्ज-पुञ्ज, नहीं चलने-फिरने योग्य - जो पु., प्र. वि. विधि., प्र. पु., ए. व. - अवलेखनमत्तकेन अवलिखेय्य, अ. ए. व. - आवुसो नङ्गलत्थेर, तव विचरणमग्गो अवळञ्जो नि. अट्ठ. 2.368; ग. केशों को काट देना या मूड़ देता है विय जातो, ध. प. अट्ठ. 2.349; - जं पु., द्वि. वि., ए. व. - खिस्सन्ति भवि., प्र. पु., ब. व. - केसे मे ओलिखिस्सन्ति, - ... आहारं थम्भेत्वा मग्ग अवलज करोति, म. नि. अट्ठ. थेरगा. 169; ... 'मम केसे ओलिखिस्सं कप्पेमी ति केसादीन (मू.प.) 1(2).271; - जे नपुं, द्वि. वि., ब. व. - सेतुसङ्कमनानि । छेदनादिवसेन कप्पनतो कप्पको ... म उपगच्छि, थेरगा. च अवलजे अकंसु. वि. व. अट्ठ. 35.
अट्ठ 1.322. अवलञ्जन नपुं./त्रि., वलञ्जन का निषे०, अप्रयोग - नट्ठ अवलेखन/अपलेखन नपुं., अव + लिख से व्यु., क्रि. पु., तत्पु. स., अप्रयोग का अर्थ- द्वेन तृ. वि., ए. व. - ना., छीलना, खरोचना, रगड़कर साफ कर देना, रगड़ कर इमस्मि सुत्ते अवळञ्जनद्वेन पुराणमग्गो"त, स. नि. अट्ठ. मिटा देना - कट्ठ नपुं.. तत्पु. स. [अवलेखनकाष्ठ], 2.104.
खरोंचने या रगड़ने के लिए प्रयुक्त काष्ठ का उपकरण - अवलजियमान त्रि., Vवलजि के कर्म. वा. के वर्त. कृ. का टुं नपुं., प्र. वि., ए. व. - न अवलेखनकट्ठ वच्चकूपम्हि निषे., किसी के द्वारा अप्रयुक्त, व्यावहारिक उपयोग में नहीं पातेतब्बं, चूळव. 366; अनुजानामि, भिक्खवे, अवलेखनकट्ठ
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अवलेप 617
अवसर चूळव. 263; - पीठर पु., तत्पु. स., खरोंचने के लिए ए. व. - अनवत्थितचारिकन्ति अववत्थितचारिक अ. नि. प्रयुक्त काष्ठखण्डों को रखने वाला पात्र - रं द्वि. वि., ए. अट्ठ. 3.83. व. - अनुजानामि, भिक्खवे, अवलेखनपिठरन्ति, चूळव. अवस त्रि., ब. स. [अवश], क. पराधीन, बेवश, अस्वतन्त्र, 263; - रो प्र. वि., ए. व. -- अवलेखनपीठरोति परतन्त्र - सो पु., प्र. वि., ए. व. - विवसो त्ववसो भवे, अवलेखनकवानं ठपनभाजनविसेसो, वि. वि. टी. 2.223; - अभि. प. 743; अवसोनुभविस्सामि निरये पापजं फलं, सत्थक नपुं.. तत्पु. स. [अवलेखनशस्त्रक], काटने, छीलने सद्धम्मो. 290; ख. स्वतन्त्र, दूसरे के वश में न रहने वाला, या खरोंचने का औजार या उपकरण - केन त. वि., ए. स्वाधीन - अनिच्चतावसमवसो उपागतो, म. वं. 2.33; व. -- अवलेखनसत्थकेन तेलसिङ्गलिखन्तो विय सरीरमंसं सब्बस्स समारकस्स सब्रह्मकस्स लोकस्स ओतारेत्वा दस्सामि, जा. अट्ठ, 4.360.
इस्सरियवसमनुपगमनेन अवसोति वुच्चति, म. वं. टी. अवलेप पु., अव + लिप से व्यु., क्रि. ना. [अवलेप], शा. 107(ना.). अ. लीपना, पोतना, अलङ्करण - पो प्र. वि., ए. व. - अवसक्कति अव + /सक का वर्त, प्र. पु., ए. व., पीछे की लेपगब्बेस्ववलेपो, अभि. प. 1079; ला. अ. गर्व, अहङ्कार, ओर जाता है, काम से उपरत होता है - दळहपहारं अभिमान - पो प्र. वि., ए. व. - धम्मे ठितो अभिकङ्घमानो, अवसक्कती दस्सति सुप्पहारन्ति, जा. अट्ठ. विगतकोधमदावलेपो, तेल. 1; अवलेपोति अहङ्कारो, सद्द. 3.71. 2.473.
अवसट/ओसट/अवस्सट त्रि., अव + /सर का भू. क. अवलोकन नपुं., अव + Vलोक से व्यु., क्रि. ना. [अवलोकन], कृ. [अवसृत], शा. अ. प्रवेश कर चुका, आ पहुंचा हुआ, अवलोकन करना, करुणापूर्वक देखना या दृष्टि डालना, ला. अ. किसी एक धार्मिक संप्रदाय को छोड़ दूसरे दृष्टि में रखना, पर्यवेक्षण करना - नं प्र. वि., ए. व. - सम्प्रदाय में पहुंचा हुआ - टं पु., द्वि. वि., ए. व. - तमेनं अवलोकनन्ति नागावलोकितं, सद्द. 2.520.
मनसाकटतो तावदेव अवसट मनसाकटस्स मग्गं पुच्छेय्यु. अवलोकित त्रि., अव + Vलोक का भू. क. कृ. [अवलोकित], दी. नि. 1.224; तस्मा तावदेव अवसटन्ति आह, तवणमेव देखा हुआ, दृष्टि, नजर - तं नपुं. प्र. वि., ए. व. - निक्खन्तन्ति अत्थो, दी. नि. अट्ठ 1.305; - टा स्त्री., प्र. अवलोकनन्ति नागावलोकितं, सद्द. 2.520.
वि., ए. व. - यदा च सा तिता वा अस्स... अवस्सटा वा. अवलोकेति/ओलोकेति/अपलोकेति अव + Vलोक का पाचि. 291; अवस्सटा नाम तित्थायतनं सङ्कन्ता वुच्चति, वर्त, प्र. पु., ए. व. [अवलोकयति], करुणा भरी दृष्टि से । पाचि. 292. दृष्टिपात करता है, नीचे की ओर देखता है, पर्यवेक्षण अवसनाकार पु., तत्पु. स., नहीं बसने देने की योजना - करता है - सो न उद्धं उल्लोकेति न अधो ओलोकेति, म. रो प्र. वि., ए. व. - 'इमस्मि विहारे एतस्स अवसनाकारो नि. 2.346; नटुं काकणिक वा मासकं वा परियेसन्तो विय मया कातुं वट्टती ति तेन उपहानवेलाय आगतेन सद्धि न अधो ओलोकेति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.275; - केय्याथ । किञ्चि न कथेसि, जा. अट्ठ. 1.233. विधि., म. पु.. ब. व. - विजानेय्य सकं अत्थं, अवलोकेय्याथ अवसन्नसम्मासङ्कप्पचित त्रि., ब. स. पावचनं, थेरगा. 587; ... तस्मा तस्स वादो निय्यानिको ति [अवसन्नसम्यक्संकल्पचित्त], वह, जिसके चित्त के सम्यक् सत्थु सासनमहन्ततं ओलोकेय्याति अत्थो, थेरगा. अठ्ठ. 2.178. संकल्प निराशा से भरे हैं - त्तो पु., प्र. वि., ए. व. - अववत्थान नपुं., वि + अव + Vठा के क्रि. ना., ववत्थान संसन्नसंकप्पमनोति तीहि मिच्छावितक्कोहि सुद्ध का निषे. [अव्यवस्थान], अनिर्धारण, अनिश्चय, काल आदि अवसन्नसम्मासङ्कप्पचित्तो, ध. प. अट्ठ. 2.236. का सुनिश्चित न रहना - तो प. वि., ए. व. - अनिमित्ततोति अवसमान त्रि., Vवस के वर्त. कृ. का निषे०, नहीं बसने अववत्थानतो, परिच्छेदाभावतोति अत्थो, विसुद्धि. 1.227, वाला, नहीं निवास कर रहा - नो पु.. प्र. वि., ए. व. - अववत्थानतोति कालादिवसेन ववत्थानाभावतो, विसुद्धि. अनाचेरकुलं वसन्ति आचरियकुलेपि अवसमानो, जा. अट्ठ. महाटी. 1.276. अववत्थितचारिका स्त्री., कर्म. स. [अव्यवस्थितचारिका]. अवसर पु.. [अवसर], समय प्रसङ्ग, सुविधा का समय, मौका, अनिश्चित प्रकृति की चारिका (जीवनवृत्ति) - कं द्वि. वि., प्रस्ताव - रो प्र. वि., ए. व. - पत्थावो वसरो समा, अभि.
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अवसरि/ओसरि 618
अवसिट्ठ प. 770; - रं द्वि. वि., ए. व. - सीहलानं महाखग्गप्पहारावसरं अनत्तलक्खणन्ति दहब्बं विसुद्धि. महाटी. 2.412. ततो. चू, वं. 76.165; तुल०, प्रस्तावः स्यादवसर; अमर. अवसवत्ती त्रि., वसवत्ती का निषे. [अवशवर्तिन्], क. अपने 535.
वश में न रहने वाला, आत्म-नियन्त्रण की क्षमता से रहित, अवसरि/ओसरि अव + Vसर का अद्य., प्र. पु., ए. व.. ख. चित्त के वश में न रहने वाला, स्वच्छन्द अनियन्त्रित अन्दर प्रवेश किया, समीप जा पहुंचा - अनुपुब्बेन चारिक - त्तिता स्त्री॰, भाव., स्वाधीनता - दुक्खा अवसवत्तिता, चरमानो येन वेसाली तदवसरि पारा. 11; तत्थ गङ्ग नदि अनत्ताति तिलक्खणं, खु. सि. 67; --त्तिनी स्त्री, प्र. वि., उत्तरित्वा येन बाराणसी तदवसरि तेन अवसरि तदवसरि ए. व. - अलद्धा चेतसो सन्तिं चित्ते अवसवत्तिनी, थेरीगा. पारा. अट्ठ. 1.154; - वासरिं उ. पु., ए. व. - सो मासखेत्तं 37; चित्ते अवसवत्तिनीति वीरियसमताय अभावेन मम तुरितो अवासरि वि. व. 1166; अवासरिन्ति उपगच्छि, भावनाचित्ते न वसवत्तिनी, थेरीगा. अट्ठ. 48; - त्ती पु., प्र. पाविसिं वा, वि. व. अट्ठ. 264; एत्थ च सो मासखेत्तं तरितो वि., ब. व. - अवसवत्ती तेविज्जा ब्राह्मणा कायस्स भेदा पर अवासरिन्ति उपगच्छिं उपविसिं वा, सद्द. 2.426.
मरणा वसवत्तिस्स ब्रह्मनो सहब्यूपगा भविस्सन्तीति, दी. अवसल त्रि., वसल का निषे., तत्पु. स. [अवृषल]. वह, जो नि. 1.224; तत्थ अरहा अनिस्सरो अस्सामी अवसवत्तीति, अधम या हीन जाति में उत्पन्न नहीं हुआ है, उत्तम या उच्च मि. प. 237. जाति में उत्पन्न - लो पु., प्र. वि., ए. व. - अब्राह्मणो अवसान'/ओसान नपुं, अवसान], उपसंहार, समाप्ति, अवसलो असक्यधीतरा अमातापितरसंवड्वो, सद्द. 3.759; न अन्त को प्राप्त होना, अन्त, विराम – ने सप्त. वि., ए. व. ब्राह्मणो अब्राह्मणो, न वसलो अवसलो, क. व्या. 328; -- अन्तो नित्थि समीपं चावसाने पदपूरणे, अभि. प. 791; अब्राह्मणो, अवसलो, अभिक्खु, अपञ्चवस्सो, अपञ्चगवं, क. अवसाने उपेक्खासहगतो. विसुद्धि. 1.85... व्या. 335.
अवसान' त्रि., अन्तिम, चरम - नो पु., प्र. वि., ए. व. -- अवसवत्तक त्रि., वसवत्तक का निषे. [अवशवर्तिन्], अपने तस्सायं पच्छिमकोति तस्स खीणासवस्स अयं समुस्सयो वश में न रहने वाला, अपने नियन्त्रण से बाहर - त्तिके पु., अत्तभावो अवसानो, महानि. अट्ट, 71; - ने पु., सप्त. वि., सप्त. वि., ए. व. - तत्थ का परिदेवनाति एवं अवसवत्तिके ए. व. - अन्तिमे भवेति अवसाने उपपत्तिभवे, तदे. अवसाने संसारपवत्ते मरणं पटिच्च का नाम परिदेवना, पे. व. अट्ठ, 54. उपेक्खासहगतो, विसुद्धि. 1.85; अवसानेति द्वीसुपि नयेसु अवसवत्तन नपुं., वसवत्तन का निषे. [अवशवर्तन], अपने परियोसानज्झाने, विसुद्धि, महाटी. 1.104: -- गाथा स्त्री., वश या नियन्त्रण में न रहना, अपने अधीन न होना - तो तत्पु. स. [अवसानगाथा], अन्तिम गाथा - अवसानगाथा प. वि., ए. व. - अवसवत्तनतो, अवसवत्तनाकारो पन सङ्गीतिकारेहि ठपिता, स. नि. अट्ट, 1.183; - पिण्डपात अनत्तलक्खणं विसुद्धि. 2.275; अनत्तसआ सण्ठातीति पु., कर्म. स., भिक्षा में प्राप्त अन्तिम भोजन - चन्दस्सपि असारकतो अवसवत्तनतो परतो रित्ततो तुच्छतो सुञतो च. अपरभागे अवसानपिण्डपातो किर मया दिन्नो, धम्मसीसं उदा. अट्ठ. 191; - नट्ठ पु., तत्पु. स., वश में नहीं रहने किर मया गहितं. उदा. अट्ठ. 329. का अर्थ- द्वेन तृ. वि., ए. व. - अस्सामिकतुन सुञतो अवसाय पु., [अवसाय, अव + Vसो + घन], उपसंहार, अवसवत्तनतुन अनत्ततो. ..., अ. नि. अठ्ठ. 3.276; न सक्काति अन्त, समाप्ति - यो प्र. वि., ए. व. - अवसायीति अवसायो अवसवत्तनद्वेन अनत्ता अत्तसुञा अस्सामिका अनिस्सराति वच्चति अवसानं निवानं... अनुत्तरं योगक्खेम पत्थयमानाति, अत्थो, ध. प. अट्ठ. 2.234; - नाकार पु., तत्पु. स. थेरीगा. अट्ठ. 21. [अवशवर्तनाकार]. अपने वश में नहीं रहने वाला आकार अवसायी त्रि., अवसाय से व्यु. [अवसायिन], सुदृढ़-संकल्प या स्वरूप - रो प्र. वि., ए. व. - अवसवत्तनतो वाला, अडिग-निश्चय वाला/वाली - यी स्त्री.. प्र. वि., ए. अवसवत्तनाकारो अनत्तलक्खणं, विसुद्धि. 2.275; -रं द्वि. व. - छन्दजाता अवसायी, मनसा च फुटा सिया ... तत्थ वि., ए. व. - अनत्ताकारन्ति अवसवत्तनाकारं महानि. अट्ठ. छन्दजाताति अग्गफलत्थं जातच्छन्दा, अवसायीति अवसायो 312; - नाकारसङ्घात त्रि., तत्पु. स. वुच्चति अवसानं निडानं. .... थेरीगा. अट्ट. 20-21. [अवशवर्तनाकारसंख्यात], अस्वाधीन रूप में ज्ञात - तो अवसिट्ठ त्रि., अव + सास का भू. क. कृ. [अवशिष्ट]. शेष पु.. प. वि., ए. व. - ... अवसवत्तनाकारसङ्घातो अनत्ताकारो बचा हुआ, छोड़ा हुआ. बाकी बचा हुआ - द्वानं पु.. प. वि.,
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अवसित/ओसित
619
अवसेस
ब. व. - ञातीनं वावसिट्टानं, उभिन्न जीवितक्खये, जा. अट्ठ. 5.333; - हा स्त्री॰, प्र. वि., ए. व. - न चस्स काचि
ओदनमिजा मुखे अवसिट्ठा होति, म. नि. 2.347; - टुं नपुं॰, प्र. वि., ए. व. - यं ते, चुन्द, सूकरमद्दवं अवसिट्ट, तं सोडमे निखणाहि, दी. नि. 2.97; - हानि ब. व. - अवसिस्सन्तीति अवसिद्वानि भविस्सन्ति, स. नि. अट्ठ. 2.71; - क त्रि., उपरिवत्, उच्छिष्ट भोजन, जूठा भोजन - कं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - तुम्हे सीहानं व्यग्घानं, वाळानञ्चावसिट्ठक, जा. अट्ठ. 3.273; तत्थ वाळानञ्चावसिट्टकन्ति सेसवाळमिगानञ्च अवसिट्टकं उच्छिट्ठभोजनं जा. अट्ठ. 3.273; - का पु.. प्र. वि., ब. व. - मग्गो फलं पहीना च, किलेसा अवसिद्धका, अभि. अव. 166. अवसित/ओसित त्रि., अव+सि का भू. क. कृ. [अवश्रित]. समाप्त, पूरा किया हुआ, निश्चित किया हुआ, अच्छी तरह से निर्धारित, ज्ञात - तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - तीसु त्ववसितं जाते अवसानगते मतं, अभि. प. 963; - ता स्त्री., प्र. वि., ए. व. - नदि अन्वावसिता बाराणसी सारिपुत्तं पञवा, सद्द. 3.715. अवसित्तवण्ण/ओसित्तवण्ण त्रि., ब. स., अप + सिच का भू, क. कृ. [अवसिक्तवर्ण], उड़ेला या ढाला हुआ, पानी की धार जैसा तर किया हुआ या भिगोया हुआ, नीचे तक उड़ेला हुआ या टपकाया हुआ - ण्णं नपुं., द्वि. वि., ए. व. - ओसित्तवण्णं परिदयह सोभसि, जा. अट्ठ. 5.396;
ओसित्तवण्णन्ति अवसित्तउदकधारवण्णं दिब्बदुकूलं, तदे.. अवसिर त्रि., ब. स., नीचे की ओर सिर को झुकाया हुआ - सा तृ. वि., ए. व. --- सब्बाभि वसिरसा सिरसा नमामि, सद्द. 1.39. अवसिस्सति अव + Vसास का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अवशिष्यते], बचा हुआ रह जाता है, शेष बचता है - नामयेवावसिरसति, अक्खेय्यं पेतस्स जन्तुनो, सु. नि. 814; अथापरं विज्ञाणयेव अवसिस्सति परिसुद्ध परियोदातं, म. नि. 3.291; अवसिरसतीति अयम्पेत्थ पाटियेक्को अनुसन्धि, म. नि. अट्ट. (उप.प.) 3.219; - स्सन्ति ब. व. - सरीरानि अवसिस्सन्तीति पजानाति, स. नि. 1(2).74; अवसिस्सन्तीति अवसिट्ठानि भविस्सन्ति, स. नि. अट्ठ. 2.71; - स्सेय्यु विधि., प्र. पु., ब. व. - तत्त यायं उरमा सा तत्थेव वूपसमेय्य, कपल्लानि अवसिस्सेय्यु, स. नि. अट्ठ. 2.71; - स्सतु अनु., प्र. पु.. ए. व. - कामं तचो च न्हारु च, अहि च अवसिस्सतु, सु. नि. अट्ठ.2.108.
अवसिस्सन नपुं., अव + Vसास से व्यु., क्रि. ना., शेष बचा रह जाना, बचा हुआ होना - नं प्र. वि., ए. व. -
अवसिस्सनमहिस्स मंसलोहितसुस्सनं, अभि. प. 157. अवसीकत त्रि., वसीकत का निषे. [अवशीकृत], अपने वश में नहीं किया हुआ - तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अप्पगुणन्ति
पञ्चहि वसिताहि अवसीकतं, ध. स. मू. टी. 100. अवसीदति/ओसीदति अव + /सद का वर्तः, प्र. पु., ए. व. [अवसीदति], शा. अ. नीचे की ओर डूब जाता है, ला. अ. कष्ट में फंस जाता है, विषाद से ग्रस्त हो जाता है - अतिभारं समादाय, अण्णवे अवसीदति, जा. अट्ठ. 7.120; -- दित्वा पू. का. कृ. - निसीदित्वा निसीदित्वान निसीदितूनं निसीदिय निसीदियान संसीदित्वा अवसीदित्वा ओसीदित्वा, सद्द. 2.384. अवसीन त्रि., अव + Vसा का भू. क. कृ., सुनिर्धारित, अच्छी तरह से स्थापित - नो पु., प्र. वि., ए. व. - तिण्णं तेसं आवसिनेत्थ एको गन्धब्बकायूपगतो वसीनो, दी. नि. 2.202; (आवसिनेत्थ एकोति तत्थ हीने काये एकोयेव आवासिको जातो. दी. नि. अट्ट, 2.271); - ने पु., वि. वि., ब. व. - अथद्दसं भिक्खवो दिद्वपुब्बे, गन्धब्बकायूपगते, वसीने, दी. नि. 2.200; गन्धब्बकापगते वसीनेति गन्धब्बकायं आवासिको हुत्वा उपगते, दी. नि. अट्ट. 2.269. अवसुस्सति/अवसुच्छति अव + vसुस का वर्त., प्र. पु.. ए. व. [अवशुष्यति]. नीचे तक सूख जाता है - अड्डरते व रत्ते वा, नदीव अवसुच्छति, जा. अट्ठ. 7.321; अवसुच्छतीति
अप्पोदका कुन्नदी अवसुस्सति, जा. अट्ठ. 7.322. अवसूर त्रि., ब. स., सूर्य के अस्त हो जाने के समय वाला, सूर्य के नीचे की ओर रहने के समय वाला - रं नपुं., द्वि. वि., ए. व. - अनावसूरं चिररत्तसंसितं उच्चावचं चरितमिदं पुराणं, जा. अट्ठ. 5.49; अनावसूरन्ति न अवसूरं, अनत्थङ्गतसूरियन्ति अत्थो, तदे... अवसेक पु.. [अवसेक], भरपूर छिड़काव, ऊपर तक छलकते रहना, अत्यधिक परिपूर्ण होना - को प्र. वि., ए. व. - तं अवसेकोति वुच्चति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2),100; अ. नि. अट्ठ. 3.71; यथा हि यं तेलादिमिनितब्बवत्थु मानं गहेतुं न सक्कोति, विस्सिन्दित्वा गच्छति, तं 'अवसेको ति वच्चति. सारस्थ. टी. 1.87. अवसेस' पु., [अवशेष], बचा हुआ हिस्सा, छोड़ा हुआ भाग, बाकी, असमाप्त - सेन तृ. वि., ए. व. - अवसेसेन वच्छको यापेति, अ. नि. 1(2).237; - दोही त्रि., [अवशेषदोहिन्],
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अवसेस
620
अवस्सिक
(बछड़े के पीने के बाद) शेष बचे हुए को ही दुह लेने वाला - गोचरकुसलो होति, सावसेसदोही च होति. म. नि. 1.287; - मंसलोहितयुत्त त्रि., तत्पु. स., बचे हुए मांस एवं रक्त से युक्त - त्तं द्वि. वि., ए. व. - समंसलोहितन्ति सावसेसमंसलोहितयुत्तं, दी. नि. अट्ठ. 2.325. अवसेस त्रि., [अवशेष], शेष बचा हुआ, अवशिष्ट, अन्य, दूसरा - से पु., वि. वि., ब. व. - मेथुनधम्मतो अवसेसेपि सुन्दरे च असुन्दरे च पञ्च कामगुणे हित्वा, सु. नि. अट्ठ. 2.192; - सा' पु., प्र. वि.. ब. व. - इतो मुत्ता पन अवसेसा चतुहि सतिपट्टानेहि उपसन्ता, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.3; - सा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - तस्स ओनमनेन अवसेसा जनता ओनमति अपचितिं करोति, मि. प. 220; - सानि नपुं.. प्र. वि., ब. व. - अवसेसानि यानि कानिचि विविधानि पुष्फजातानि, मि. प. 177; - सेहि तृ. वि., ब. व. - अवसेसेहि समुहानेहि भगवतो वेदना उप्पज्जति, मि. प. 139; - सानं पु., ष. वि., ब. क. - अवसेसानं देवमनुस्सानं पूजा करणीया, मि. प. 173; - सेसु पु., सप्त. वि., ब. व. - अवसेसेसु पन अप्पमा सत्तपञत्तियं पवत्तन्ति, अभि. ध. स. 65. अवस्सं अ., क्रि. वि. [अवश्यं], आवश्यक रूप से, अनिवार्य रूप से, निश्चय ही, सर्वथा, बिना किसी सन्देह के -
अन्तरेनन्तरा अन्तोवस्सं नूनं च निच्छये, अभि. प. 1150. अवस्सक त्रि., अवस्स से व्यु. [आवश्यक], जरूरी, अनिवार्य, अपरिहार्य - अवस्सक अधमिण इच्चेतेस्वत्थेस णीप्पच्चयो होति किच्चा च, क. व्या. 638; अवस्सक अधमिण इच्चेतेस्वत्थेसु णीप्पच्चयो होति, सद्द. 3.862; - त्त नपुं.. भाव., आवश्यकता, जरूरत, अनिवार्यता - त्तं द्वि. वि., ए. व. - एवं सन्ते पि अवस्सकतं आविकातुं अवस्सन्ति वुत्तं, सद्द. 3.862. अवस्सकारी त्रि., [अवश्यकारिन], निश्चित रूप से काम को करने वाला - क्रियत्था णी होति सीलादिसु पतीयमानेसु उण्हभोजी, खीरपायी अवस्सकारी सतन्दायी, मो. व्या. 5.53. अवस्सजति अव+ सज का वर्त., प्र. पु.. ए. व. [अवसृजति], ढीला कर देता है, मुक्त कर देता है, स्वेच्छानुसार काम कर देता है, छोड़ देता है, शिथिल कर देता है - न्ति ब. व. - पप्पोन्ति पदमजरामरं चिराय, संक्लेसं सकलमवस्सजन्ति धीरा, ना. रु. प. 1791; - स्सजी अद्य., प्र. पु., ए. व. - सुदुक्करं पोरिसादो अकासि, जीवं गहेत्वान अवरसजी म.
जा. अट्ठ. 5.481; - स्सह त्रि., भू. क. कृ., मुक्त कर दिया गया, शिथिल कर दिया गया - टुं नपुं॰, प्र. वि., ए. व. - किलेसाभावेनेव कम्मं अप्पटिसन्धिकत्ता अवस्सलु नाम होतीति एवं किलेसप्पहानेन कम्म पजहि, उदा. अट्ठ. 269; - स्सट्ठभवसङ्घार त्रि.. ब. स. [अवसृष्टभवसंस्कार], वह, जिसका भवसंस्कार शिथिल हो चुका है - रो पु., प्र. वि., ए. व. - इति बोधिमूलेयेव अवस्सट्ठभवसद्धारो भगवा वेखमिस्सकेन विय, .... उदा. अट्ठ. 269. अवस्सन नपुं.. Vवस्स से व्यु., क्रि. ना., वस्सन का निषे०, बोलने का अभाव, नहीं मिमियाना - नत्थाय पु.. च. वि., ए. व., तत्पु. स., नहीं मिमियाने देने के लिए - दिवा अरुले खादिस्सामा ति तस्सा अवस्सनत्थाय मुखं बन्धित्वा वेलुगुम्बे ठपेसु. जा. अट्ठ. 4.224. अवस्संभावी त्रि.. [अवश्यंभाविन्], अवश्य ही घटित हो जाने वाला, निश्चित रूप से हो जाने वाला - सावकभावं उपगन्तुकामो, अरियसावको वा अवस्संभावी, इतिवु. अट्ठ. 222; - विनी स्त्री., प्र. वि., ए. व. - निरयादिका दुग्गति
इच्छितब्बा, सा अस्स अवस्सभाविनी, अ. नि. अट्ठ. 2.186. अवस्सय पु., [अपश्रय], सहारा, शरण, आश्रय, आधार क. आश्रय भूत वस्तु, स्थल, क्षेत्र या कर्म - यो प्र. वि., ए. व. - चत्तारो महापदेसा यावज्जदिवसा भिक्खून पतिट्ठा च अवस्सयो च. म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.22; इधलोकपरलोकेसु दानसदिसो अवस्सयो पतिट्ठा आलम्बनं ताणं लेणं गति परायणं नत्थि, उदा. अट्ठ. 229; इदहि अवस्सयद्वेन रतनमयसीहासनसदिसं तदे; ख. आश्रय या शरणस्थल के रूप में मनुष्य - अहमरस अवस्सयो भविस्सामी ति केवट्टानं सन्तिकं गन्त्वा, जा. अट्ठ. 1.208; इमिस्सा ठपेत्वा में अओ अवस्सयो भवितुं समत्थो नाम नत्थी ति, ध. प. अट्ठ. 1.393; - कम्म नपुं.. कर्म. स. [अपश्रयकर्मन]. आश्रय या सहारा के रूप में कर्म - म्म द्वि. वि., ए. व. -- यावाहं बुद्धपूजादि अत्तनो अवस्सयकम्मं करोमी ति, म. नि. अट्ठ, (उप.प.) 3.177. अवस्सयिं अव/अप + सि का अद्य.. उ. पु.. ए. व., आ गिरा, आ पड़ा, बस गया, सहारा लिया - इति पङ्के अवस्सयिन्ति इमिना कारणेनाहं इमरिमं कद्दमे अवस्सयिं निपज्जि, वासं कप्पेसिन्ति अत्थो, जा. अट्ठ. 2.66; इति पङ्के अवस्सयिन्ति इदं एतस्स अत्थस्स साधकं वचनं, सद्द. 1.85. अवस्सिक त्रि., वस्सिक का निषे. [अवर्षिक], क, वर्षा-ऋतु के साथ नहीं जुड़ा हुआ, वर्षाकाल से भिन्न काल वाला
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अवरिसत
सङ्केत त्रि. वर्षा ऋतु के चार मासों के अतिरिक्त अन्य आठ मासों का सङ्केत देने वाला ते पु.. द्वि. वि. ब. व. - अनुजानामि, भिक्खवे, अह मासे अवस्सिकसते मण्डपे वा रुक्खमूले सेनासनं निक्खिपितु न्ति, पाचि. 59; अवस्सिकरातेति वस्सिकवस्सानमासाति एवं अपञ्ञते. अड्ड मासेति अत्यो, पाचि अड. 33 ख उपसम्पदा ग्रहण करने के समय के बाद एक वर्ष पूरा न करने वाला, वह, जिसने उपसम्पदा लिए हुए एक वर्ष भी पूरा नहीं किया है।
पु. प्र. वि., ए.व. उपसम्पन्नकाले पन अवस्सिकोव समानो तिपिटकधरो अहोसि पारा. अट्ट. 1.31: अवस्सिकोव समानोति उपसम्पदतो पट्ठाय अपरिपुण्णएकवस्सो अधिष्यायो, सारत्थ. टी. 1.110 दहर पु.. कर्म. स. एक वर्ष पूरा न किया हुआ श्रामणेर, वह श्रामणेर, जिसने एक वर्षावास भी पूर्ण नहीं किया है रानं ष. वि., ए. व. अवस्सिकदहराने सन्तिकं गन्त्वा म. नि. अड्ड. (म.प.)
-
621
2.98.
अवस्थित त्रि, अव + √सि का भू॰ क. कृ. [अवश्रित / अधिश्रित] सहारा, आश्रय या अवलम्बन लिया हुआ, किसी के सहारे टिका हुआ तो पु. प्र. वि. ए. व. अनरियधम्ममवस्सितो, जा. अट्ठ. 5.371; ता ब. व. सब्बे व किब्बिसा चण्डा मदमाना अवस्सिता, दी. नं. 25. अवस्सुत त्रि अ + √सु का भू. क. कृ. [अवस्रुत], शा. अ. क. बाहर निकल कर वह रहा, रिसाव से युक्त, टपक रहाते पु.. सप्त. वि. ए. व. विरत्थु पूरे दुग्गन्धे, मारपक्खे अवस्सुते, थेरगा. 279; अवस्सुतेति सब्बकालं तहिं तहिं असुचिनिस्सन्दनेन च अवरसुते, थेरगा. अड्ड 2.10; ख. भीगा हुआ, गीला, आर्द्र तं नपुं. प्र. वि., ए. व.- कूटागारे दुच्छन्ने कूटम्पि अरविखतं होति... कूटम्पि अवस्सुतं होति, अ. नि. 1 (1) 295 ला. अ. क. दूषित वासनाओं से ग्रस्त, राग से रञ्जित, इच्छाओं में डूबा हुआ
अरक्खितकायकम्मन्तस्स.... कायकम्मम्पि अवस्सुत होति..., अ. नि. 1 (1). 295; यो सो पुग्गलो दुस्सीलो पापधम्मो ... अन्तोपूति अवस्सुतो... न तेन सह संवसति, अ. नि. 3 ( 1 ) 41-42... कसम्बुजातो अवस्सुतो पापो विसुद्धि. स्स पु०, ष. वि., ए. व. छहि द्वारेहि रागादिकिलेसानुवरसेन तिन्तत्ता अवस्सुतस्स, विसुद्धि. महाटी. 1.80 तानं पु. ष. वि. व. व. अवस्सुतानन्ति किलेसेन तिन्तानं, महानि, अट्ठ. 208; ख. अन्य पुरुष या नारी के प्रति कामवासना से ग्रस्त चित्त वाला / वाली - तो पु०, प्र०
1.54;
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अवहनन
वि., ए. व. - अवस्सुतो नाम सारतो अपेक्खवा पटिबद्धचित्तो, पाचि. 287: कायकम्मन्त त्रि०, ब० स०, प्रदूषित अथवा कलुषित शारीरिक, वाचिक एवं मानसिक कर्मों वाला स पु. ष. वि. ए. व. तस्स अवस्सुतकायकम्मन्तरस कायकम्मम्पि प्रतिक होति. अ. नि. 1 (1). 295 चित्त त्रि.. ब. स., रागयुक्त अथवा कलुषित चित्त वाला - तं पु०, द्वि० कि.. ए. व. कस्मा पन भगवा अवस्सुतचितं आयस्मन्तं नन्द अच्छरायो ओलोकापेसि, उदा. अट्ठ 139; - परियाय पु. व्य. सं. स. नि. के षळायतन संयुक्त्त के एक सुत्त का शीर्षक, जिसमें भिक्खु महामोग्गल्लान ने चित्त के अवस्सुत या रागरञ्जित तथा प्रदूषित होने के कारणों पर उपदेश दिया है. स. नि. 2 ( 2 ) 184-188 यं द्वि. वि. ए. व. - आयस्मा महामोग्गल्लानो एतदवोच अवस्सुतपरियायञ्च वो आयुसो, देसेस्सामि अनवरसुतपरियायञ्च स. नि. 2 ( 2 ). 185; भाव पु०, तत्पु० स०, राग का भाव, कामवासना का भाव वे सप्त वि., ए. व. भिक्खुनिया चेव पुरिसस्स च कायसंसग्गरागेन अवस्सुतभावे सतीति अत्थो, पाचि. अ.
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163.
अवस्तुति स्त्री, मैथुन-क्रिया, शारीरिक सम्बन्ध तिं द्वि. वि., ए. व. - पितुनो च सा सुत्वान वाक्यं, रत्तिं निक्खम्म अवस्सुतिं चरीति, जा. अड. 7.155; तत्थ अवस्सुतिन्ति, भिक्खवे, सानागमाणविका पितु वचनं सुत्वा पितरं अस्सासेत्वा, अञ्जनगिरिं गत्वा अवस्सुतिं चरि किलेसअवस्युतिं मतुपरियेसनं चरीति अत्थो, तदे
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अवहत / ओहट त्रि. अव + √हर का भू. क. कृ. [अबहूत ]. 1. शा. अ. दूर ले जाया गया, हटा दिया गया, ला. अ. चुरा लिया गया टा पु०, प्र. वि., ब. व. इमिना देव पुरिसेन मय्हं अम्बा अवहटा ति मि. प. 45 - टेसु पु. सप्त वि. ब. व. यस्सोधेन सब्बकुणपेसु अवहटेसु सुद्धवालुकवस्सं वस्सि, जा. अट्ठ. 5.129 टं नपुं. प्र. वि. ए. व. - अवहारकेन हि गया इदं नाम अवहट न्ति, पारा. अड. 1.244; 2. कर्तृ. वा. में टो पु. प्र. वि., ए. 4. यो अवहटो सो पाराजिको ति पारा. 76. अवहनन नपुं, अव + √हन से व्यु, क्रि. ना. [ अवहनन]. अधोगमन, नीचे की ओर जाना पु. तत्पु, स. [ अवहननार्थ], अधोगमन का अर्थ, नीचे की ओर बहने का आशय या तात्पर्य द्वेन तु वि. ए. व. सब्बोपि चेस - अवहननद्वेन रासद्वेन च ओघोति वेदितब्बो, अवहननद्वेनाति अद्योगमनईन, स. नि. अड. 1.17: किञ्च भिय्यों
व.
"
ran
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अवहरण
622
अवहार
अवहननढेन ओघोति च आजवनडेन आजवन्ति च, सु. नि. अट्ठ. 2.259. अवहरण नपुं., अव + Vहर से व्यु., क्रि. ना. [अवहरण].
शा. अ. दूर ले जाना, ला. अ. चोरी करके या छीन कर ले जाना - णं प्र. वि., ए. व. - अवहरणं चोरिकाय गहणं वासेति वासयति वसा, सद्द. 2.567; - चित्त त्रि., ब. स., मन में चोरी करने की भावना रखने वाला, चोरी की भावना से भरे चित्त वाला - त्तो पु., प्र. वि., ए. व. - थेय्यसङ्घातन्ति थेय्यचित्तो अवहरणचित्तो, पारा. 52; - णाधिप्पाय त्रि., ब. स. [अवहरणाभिप्राय], उपरिवत् – प्पायो पू. प्र. वि., ए. व. - न अवहरणाधिप्पायो नापि विनासाधिप्पायोति अत्थो पे व अट्ठ. 196... अवहरति अव + Vहर का वर्त., प्र. पु., ए. व. [अवहरति],
शा. अ. दूर ले जाता है, ला. अ. चुरा कर ले जाता है, चोरी छिपे ले जाता है, बिना अनुमति के ले जाता है - सो तं भण्डं अवहरति, आपत्ति उभिन्न पाराजिकस्स, पारा. 60; सो आणत्तो अहं तया ति, तं भण्डं अवहरति, मूलट्ठस्स अनापत्ति, पारा. 62; - रामि उ. पु., ए. व. - इमस्स अम्बे अवहरामि, मि. प. 45; - रन्तो पु., वर्त. कृ., प्र. वि., ए. व. - आदियन्तो हरन्तोवहरन्तो इरियापथं, विन. वि. 39; -- हर अनु., म. पु., ए. व. - इत्थन्नाम भण्डं अवहराति, पारा. 60; ध. स. अट्ठ. 136; - हरे विधि., प्र. पु.. ए. व. - कायेन यो नावहरे, वाचाय न मुसा भणे, जा. अट्ठ. 3.75; - रिस्सति भवि०, प्र. पु., ए. व. - एवं महासारं नाम पिळन्धनं अवहरिस्सती ति परिभासिंस, जा. अट्ठ. 1.367; - स्सामि उ. पु., ए. व. - भूम8 भण्डं अवहरिस्सामीति थेय्यचित्तो दुतियं वा परियेसति, पारा. 543; - स्सथ म. पु., ब. व. -- कथम्हि नाम तुम्हे, आवुसो, रजकभण्डिक अवहरिस्सथ, पारा. 51; - रिस्साम उ. पु., ब. व. -- संविधावहारो नाम असुकं नाम भण्डं अवहरिस्सामा ति संविदहित्वा संमन्तयित्वा अवहरणं, कङ्खा. अट्ठ. 121; - वाहरि अद्य., प्र. पु., ए. व. - तस्स सा वसमन्वेतु, या ते अम्बे अवाहरी ति, जा. अट्ठ. 3.118; तथारूपं पतिलभतु, ये ते अम्बे अवाहरीति, तदे; -- वहरि उपरिवत - न खो सो, महाराज, तानि अम्बानि अवहरि, यानि तेन रोपितानि, मि. प. 77; - वाहरु अद्य., प्र. पु.. ब. व. - चतुरो जना संविधाय, गरुभण्ड अवाहरु परि. 400; - रित्थ म. पु., ब. व. - किस्स तुम्हे, आवुसो, रजकमण्डिकं अवहरित्था ति?, पारा. 51; - रित्वा पू. का. कृ. - भिक्खू रजकत्थरणं गन्त्वा रजकभण्डिकं अवहरित्वा आरामं हरित्वा भाजेसुं. पारा. 51.
अवहवन नपुं., अव + vहु से व्यु., क्रि. ना., आवाहन, पुकारना - नं प्र. वि., ए. व. - अवहुति अवहवनं, तेन निबत्तं ओहाविम, क. व्या. 6463; सद्द. 3.866. अवहसन्ति/ओहसन्ति अव + Vहस का वर्त., प्र. पु., ब. व. [उपहसन्ति], उपहास करते हैं, खिल्ली उड़ाते हैं - अथस्स अमच्चा अञ्जमझं अवहसन्ति, जा. अट्ठ. 5.105; - सन्तो पु., वर्त. कृ., प्र. वि., ए. व. - वत्वा अवहसन्तो पक्कामि, पे. व. अट्ठ. 155; अवहसन्तमिवाति अवहासं कुरुमानं विय, सारत्थ. टी. 1.51; - हसमाना स्त्री., वर्त. कृ., प्र. वि., ए. व. - सा बालसूरियरस्मिकलापसिरि अवहसमाना विय सुरत्तसुद्धसिनिद्धपवाळमया होति, दी. नि. अट्ठ. 2.188; - सिंसु अद्य०, प्र. पु., ब. व. - मिगो उहाय वातवेगेन पलायि, अमच्चादयो राजानं अवहसिंसु, जा. अट्ठ. 3.286; - सीयति कर्म, स., वर्त.. प्र. पु., ए. व., दूसरों द्वारा उपहास किया जाता है या खिल्ली उड़ाई जा रही है - सियमानो पु., कर्म स., वर्त. कृ., प्र. वि., ए. व. - ततो अमच्चेहि अवहसियमानो मारेत्वा नं आहरिस्सामी ति, जा. अट्ट, 4.241; तत्थ ऊहसतीति अवहसति, ऊहसीयमानोति
अवहसीयमानो, सद्द. 2.443. अवहाय अव + हा का पू. का. कृ. [अवहाय], छोड़कर, उपेक्षा कर, अवज्ञा कर, परवाह न करकेमंसकाजं अवहाय, गोधं अनुपतामह, जा. अट्ठ. 5.54; उजुमग्गं अवहाय, कुम्मग्गमनुधावति, जा. अट्ठ. 7.121. अवहार पु., अव + Vहर से व्यु., क्रि. ना. [अपहार], ग्रहण, प्राप्ति, उपलब्धि - रो प्र. वि., ए. व. - यत्थहि एकेकेन पदेन अवहारो सिज्झति, ... पदेहि एकोयेव अवहारो, पारा. अट्ठ. 1.243; वातेनेव सा हटा होति, पुग्गलस्स नत्थि अवहारो, पारा, अट्ठ. 1.266; - रा प्र. वि., ब. व. - पञ्च अवहारा - थेय्यावहारो, पसय्हावहारो, परिकप्पावहारो पटिच्छन्नावहारो, कुसावहारो, परि. 253; - क त्रि०, [अपहारक], अपहरण करने वाला, दूर ले जाने वाला, चुरा लेने वाला - स्स पु., ष. वि., ए. व. - अवहारकरस आपत्ति पाराजिकस्स, पारा. 61; - केन पु., तृ. वि., ए. व. - तत्थ वत्थुन्ति भण्डं, अवहारकेन हि मया इदं नाम अवहटन्ति, पारा. अट्ट, 1.244; - रङ्ग नपुं.. तत्पु. स. [अपहाराङ्ग], अपहरण कर्म का अङ्ग, चोरी का अङ्ग - ङ्गानि प्र. वि., ब. व. - परपरिग्गहितञ्च होती ति आदिना नयेन अवहारङ्गानि वुत्तानि, पारा. अट्ठ. 1.242.
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अवहास
623
अवाहन
न्तो पु., प्र. वि., ए. व. - अवायमन्तोति वायाम चेतसिक वीरियं अकरोन्तो, स. नि. टी. 1.290; अवायामन्ति अवायमन्तो. स. नि. अठ्ठ. 1.297; - तो/न्तस्स पु., च०/ष. वि., ए. व. - तस्स अनुढ़हतो अघटतो अवायमतो लाभाय लाभो उप्पज्जति, अ. नि. 3(1).121; घरा नानीहमानस्साति ...
अवायमन्तस्स घरा नाम नत्थि, जा. अट्ठ. 2.195. अवायाम त्रि., ब. स. [अव्यायाम]. दृढ़-पराक्रम या प्रबलवीर्य से रहित, प्रयास न करने वाला - मं नपुं०, वि. वि., ए. व., क्रि. वि. - अनुट्ठहं अवायाम, सुखं यत्राधिगच्छति, स. नि. 1(1).250. अवायिम त्रि., नहीं बुना हुआ - मं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - सन्थतं नाम सन्थरित्वा कतं होति अवायिम पारा.
340.
अवहास पु., अव + Vहस से व्यु., क्रि. ना. [उपहास], मजाक, खिल्ली, मखौल - सं द्वि. वि., ए. व. - अवहसन्तमिवाति अवहासं कुरुमानं विय, सारत्थ. टी. 1.51. अवहितसोत/ओहितसोत त्रि., ब. स. [अवहितस्रोतस]. ध्यान के साथ सुनने वाला, चैतन्य श्रवणशक्ति वाला - ता पु., प्र. वि., ब. व. - ओहितसोताति अवहितसोता, सुद्ध
ठपितसोता, उदा. अट्ठ. 316. अवहीयसि/ओहीयसि अव+ Vहा के कर्म. वा. का वर्त., म. पु., ए. व., पीछे छोड़ दिए जाते हो, पीछे रह जाते हो - कि एको अवहीयसि, जा. अट्ठ. 5.335; अवहीयसीति
ओहीयसि, जा. अट्ठ. 5.337. अवहूति स्त्री., अव+vहु से व्यु., आवाहन, पुकार - अवहूति
अवहननं, क. व्या. 646; सद्द. 3.866. अवाकयिरा अव + आ + Vकर का विधि., प्र. पु., ए. व., छिन्न-भिन्न कर दे, नष्ट कर दे, काट दे - यो च दत्वा अवाकयिरा, जा. अट्ठ. 3.299; अवाकयिराति तं पटिञातमत्थं ददन्तो तस्मिं लोभं अवाकरेय्य छिन्देय्य, जा. अट्ठ. 299300. अवाचयिं Vवच के प्रेर. का अद्य., उ. पु., ए. व., मैंने बचवाया, मैंने किसी दूसरे से कुछ कहलवाया - निरयनरदेवेसु, उपपन्ने अवाचथि, अप. 2.149. अवातपानक त्रि., ब. स. [अवातायनक], बिना खिड़कियों वाला, झरोखों से रहित - का पु.. प्र. वि., ब. क. - तेन
खो पन समयेन विहारा अवातपानका होन्ति .... चूळव. 274. अवातातपहत त्रि., तत्पु. स. [अवातातपहत], हवा एवं गर्मी द्वारा अप्रभावित - तानि नपुं., द्वि. वि., ब. व. - सो तत्थ सुखेत्ते सुभूमे... बीजानि पतिट्टपेय्य अखण्डानि अपूतीनि अवातातपहतानि ..., दी. नि. 2.260; अवातातपहतानीति वातेन च आतपेन च न हतानि, निरोजतं न पापितानि स. नि. अट्ठ. 2.241. अवादित त्रि., विद के प्रेर. के भू. क. कृ. का निषे. [अवादित], नहीं बजाया गया (सङ्गीतवाद्य)- ता स्त्री॰, प्र. वि., ब. व. - तन्तिबद्धा वीणा ... केनचि अवादिता सयमेव वज्जिसु, दी. नि. अट्ठ. 2.28. अवापुरेत्वा अव + आ + vपुर का पू. का. कृ., खोलकर, उद्घाटित कर के - अथरस अमच्चा... नगरद्वारं अवापुरित्चा तं परिवारेत्वा निक्खमिंसु, जा. अट्ठ. 2.18, अवायमन्तु त्रि., वि + आ + vयम के वर्त. कृ., वायमन्तु का निषे., प्रयास नहीं कर रहा, दृढ़ प्रयत्न न करने वाला -
अवारित त्रि., [अवारित], अप्रतिविद्ध, अवर्जित, नहीं ढका हुआ - तो पु., प्र. वि., ए. व. - अनोवटोति अपिहितो
अवारितो अप्पटिक्खित्तो, पाचि. अट्ठ. 58. अवारियजातक नपुं., जातक संख्या 376 का शीर्षक, जा.
अट्ठ. 3.200-204. अवारियपिता पु., तत्पु. स., अवारिया नामक युवती का पिता, जो गङ्गा नदी में नाविक था- अवारियपिता नाम, अहु
गङ्गाय नाविको, जा. अट्ठ. 3.201. अवारियवग्ग पु., जा. अट्ठ. के छठे निपात का एक वग्ग जिसके अन्तर्गत दस जातक कथानक रखे गए हैं, जा. अट्ठ. 3.200-241. अवारिया स्त्री., व्य. सं., गङ्गा के एक नाविक की पुत्री - अवारिया नाम तस्स धीता, तस्सा वसेन अवारियपिता नाम जातो, जा. अह. 3.202. अवावट त्रि., [अपावृत], शा. अ. उन्मुक्त, आवरण से रहित, अबाधित, ला. अ. विवाह के बन्धन से मुक्त अथवा अविवाहित नारी-टा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - अवावटा यदि वा अत्थि भत्ता, जा. अट्ठ. 5.202; अवावटाति अपेतावरणा अपरिग्गहा, तदे.. अवास पु., वास का निषे., [बौ. सं. अवास]. निवास-रहित कर देना, वास या बसने के स्थान का अभाव, उजाड़ - साय च. वि., ए. व.- भिक्खूनं अवासाय परिसक्कति, महाव. 106; अवासायाति किन्ति इमस्मिं आवासे न वसेय्यन्ति परक्कमति, महाव. अट्ट. 279. अवाहन त्रि., ब. स. [अवाहन], शा. अ. बिना वाहन वाला, ला. अ. किसी हाथी पर आरुढ न रहने वाला-नानं पु.,
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अवाहयि
624
अविकिण्ण
ष. वि., ब. व. - महासत्तो अवाहनानं राजूनं वाहनानि दत्वा अविकम्पमान त्रि., वि + ।कम्प के वर्त. कृ., विकम्पमान का उय्योजेसि. जा. अट्ठ. 5.502.
निषे. [अविकम्पमान]. सुदृढ, आत्मविश्वास से भरपूर - नो अवाहयि Vवह के प्रेर. का अद्य., म. पु., ए. व., शा. अ. पु., प्र. वि., ए. व. - तीसु विधासु अविकम्पमानो, सु. नि. बहाया, ला. अ. क. अन्दर लाकर बहाया या गिराया, ख. 848; वरस्सु सम्म अविकम्पमानो, जा. अट्ठ. 5.489; तत्थ दूषित कर दिया - किच्छाकतं उदपानं कथं सम्म अवाहयीति, अविकम्पमानोति अनोलीयमानो, तदे.. जा. अट्ट. 2.294; ... त्वं अवाहयि मुत्तकरीसेन अज्झोत्थरि अविकम्पयन्तु त्रि., वि + ।कम्प के वर्त. कृ. का निषे. दूसेसि, तं वा मुत्तकरीसं एत्थ अवाहयि पातेसीति, तदे... [अविकम्पयत्], कम्पन रहित, स्थिर, दृढ़ - पयं पु., प्र. अवि पु., [अवि], मेष, भेड़ - अब्भो मेण्डमेसा च उरणो अवि वि., ए. व. - अविकम्पयं धम्मसभाय मज्झे, जा. अट्ठ. एळको, अभि. प. 501; एत्थ अजो ति एळको, इमानि पनस्स 7.222. परियायवचनानि, अजो एलको उरब्भो अवि मेण्डको ति, अविकम्पित त्रि., वि + ।कम्प के भू. क. कृ. का निषे. सद्द. 2.345; -- स्त्री., [अवी, भिन्नार्थक], मादा भेड़ - अवीति [अविकम्पित], नहीं हिलने-डुलने वाला, निर्भीक, बेखौफ, रत्ता एलका, विसुद्धि. महाटी. 543.
विश्वस्त - तो पु., प्र. वि., ए. व. - योपि याचेय्य मं चक्ष अविकत्थी त्रि., विकत्थी का निषे०, बढ़-चढ़कर डींग न ददेय्यं अविकम्पितो, चरिया. 376; एतेहि यदि ते अत्थो, हांकने वाला, धोखाधड़ी वाली मातें न करने वाला, यथार्थपरक दस्सामि अविकम्पितो, अप. 1.334. वचन बोलने वाला - अक्कोधनो असन्तासी अविकत्थी अविकम्पी त्रि.. [अविकम्पिन]. उपरिवत् - पिनं पु., द्वि. अकुक्कुचो. सु. नि. 856; अविकत्थीति सीलादीहि वि., ए. व. - तमानिसंसं पब्रूमि, पुच्छितो अविकम्पिनं सु. अविकत्थनसीलो, सु. नि. अट्ट, 2241; ... कत्थना विकत्थना नि. 958. आरतो विरतो पटिविरतो... चेतसा विहरतीति अविकत्थी, अविकलचक्खु त्रि., ब. स. [अविकलचक्षु], सही सलामत महानि. 158.
दृष्टि वाला, दोषरहित आंखों वाला - क्खु पु., द्वि. वि., ए. अविकप्पना स्त्री., विकप्पना का निषे., सही अथवा ठीक व. - एवं देहीति यथा तं अविकलचक्खं सिवयो परिवारेय्यू नहीं होना, विनय-नियमों के अनुरूप नहीं रहना, अप्रतिरूपता, एवं बाहिरधनमेवस्स देहि, मा अक्खीनि. जा. अट्ठ. 4.363. अतिरिक्त चीवर, भिक्षापात्र तथा परम्पर भोजन आदि का । अविकलता स्त्री., अविकल का भाव. [अविकलता], सम्पूर्णता, नियम संगत न होना - पञ्च पिण्डपातिकस्स भिक्खुनो अन्यूनता, कमी या गड़बड़ी का न होना - तं द्वि. वि., ए. कप्पन्ति - अनामन्तचारो, गणभोजनं, परम्परभोजन, व. -- अनूनतन्ति हत्थादीहि अविकलतं, चरिया. अट्ठ. 201. अनधिद्वानं अविकप्पना, परि. 253; अविकप्पना नाम या अविकलिन्द्रिय त्रि., ब. स. [अविकलेन्द्रिय], सक्षम एवं परम्परभोजने विकप्पना वृत्ता, तस्सा अकरणं परि. अट्ट, 173. दोषरहित इन्द्रियों वाला - यं पु., द्वि. वि., ए. व. - अविकप्पित त्रि., विकप्पित का निषे., अन्य भिक्षु द्वारा अहीनिन्द्रियन्ति सण्ठानवसेन अविकलिन्द्रियं दी. नि. अट्ठ. अननुमोदित (चीवर या पात्र) - तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - 1.179. अतिरेकचीवरं नाम अनधिद्वितं अविकप्पितं, पारा. 303. अविकार त्रि., ब. स. [अविकार], विकारों से रहित, शुद्ध, अविकम्पन नपुं., वि + ।कम्प से व्यु., क्रि. ना., विकम्पन स्वच्छ - रं पु., द्वि. वि., ए. व. - पच्चत्थिकास्स दुखिता
का निषे. [अविकम्पन], नहीं कांपना, स्थिरता, दृढ़ता - नं भवन्ति, दिस्वा मुखं अविकारं पुराणं, अ. नि. 2(1).52; जा. प्र. वि., ए. व. -- केन पनेतं अविकम्पनन्ति आह मूलजाताय अट्ठ. 3.177. सद्धाया ति, वि. व. अट्ठ. 182; - पच्चुपट्ठान त्रि., ब. स. अविकिण्ण त्रि., वि + vकिर के भू. क. कृ. का निषे. [अविकम्पनप्रत्युपस्थान), दृढता या स्थिरता के रूप में अविकीर्ण], शा. अ. नहीं बिखरा हुआ, नहीं छितराया व्यक्त होने वाला - नो पु., प्र. वि., ए. व. - एत्थ पन हुआ, ला. अ. स्वभाव की शिथिलता से रहित, नियन्त्रित, अविक्खेपलक्षणो समाधि... अविकम्पनपच्चुपट्टानो, विसुद्धि. संयमित - ण्णं स्त्री., द्वि. वि., ए. व. - अविकिण्णं मितं 1.83; उद्धच्चे अविकम्पनवसेन पच्चुपतिद्वति, सम्पयुत्तानं वा वाचं, पत्ते काले उदीरये, जा. अट्ट. 7.190; - वचनव्यप्पथ तं पच्चुपडपेतीति अविकम्पनपच्चुपट्टानो, विसुद्धि. महाटी. त्रि., ब. स., नियन्त्रित अथवा संयमित वाणी बोलने वाला 1.101.
- थो पु., प्र. वि., ए. व. - न सम्फप्पलापं न मुद्धतं,
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625
अविकोपन
अविक्खिपमान अविकिण्णवचनब्यप्पथो अहोसि, दी. नि. 3.132; मनुस्सभूतेन पच्चत्थिकेन पच्चामित्तेन, दी. नि. 3.108; अविकिण्णवचनानं विय पुरिमबोधिसत्तानं वचनपथो अस्साति अक्खम्भियोति अविक्खम्भनीयो, दी. नि. अट्ट. 3.94. अविकिण्णवचनव्यप्पथो, दी. नि. अट्ट. 3.110; - वाच त्रि.. अविक्खित्त त्रि., वि + खिप के भू, क. कृ. का निषे. ब. स. [अविकीर्णवाक]. उपरिवत् - चो पु., प्र. वि., ए. व. [अविक्षिप्त], शा. अ. नहीं बिखराया हुआ, इधर उधर नहीं - यो अकुतूहलो अविकिण्णवाचो मन्तं न भिन्दति, जा. अट्ठ. छितराया हुआ, ला. अ. नहीं बिखरे हुए चित्त वाला, चित्त 1.370; अचपलो अमुखरो अविकिण्णवाचो उपढिस्सति, पु. के बिखराव से रहित - तं नपुं, प्र. वि., ए. व. - समाहित प. 142; - चा ब. व. - ये गुरहमन्ता अविकिण्णवाचा, मे चित्तं अविक्खित्तं, नेत्ति. 73; - त्तेन त. वि., ए. व. -- दळहा सदत्थेसु नरा दुजिव्ह, जा. अट्ठ. 5.77; - सुख नपुं., सुसण्ठितेन इरियापथेन अविक्खित्तेन चित्तेन हद्वेन उदग्गेन कर्म स. [अविकीर्णसुख], स्थिर या अचल सुख - खं विप्पसन्नेन थेरं नागसेनं उपसङ्कमित्वा .... मि. प. 102; - नपुं., प्र. वि., ए. व. - किलेसेहि अनवसित्तसुखं त्तेहि ब. व. - बहि अविक्खित्तेहि अन्तो अनुपविद्वेहेव
अविकिण्णसुखन्तिपि वुत्त, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).114. पञ्चहि इन्द्रियेहि ..., अ. नि. अट्ठ. 3.175; - चित्त त्रि., ब. अविकोपन नपुं., विकोपन का निषे., नाश या हानि का न स. [अविक्षिप्तचित्त], स्थिर चित्त वाला, चञ्चलता से रहित होना, अक्षति, अविनाश, अविखण्डन - नत्थ पु., तत्पु. स., चित्त वाला, चित्त के बिखराव से मुक्त - त्तो पु., प्र. वि., क्षति अथवा हानि नहीं होने का प्रयोजन - त्थं द्वि. वि., ए. ए. व. - सो अविक्खित्तचित्तो समानो भब्बो अयोनिसोमनसिकार व. - भूतगामसिक्खापदरस हि अविकोपनत्थमेत वुत्तं, म. पहातं. अ. नि. 3(2).123; सुपरिसुद्धकायवचीपयोगो हि नि. अट्ठ. 1(1).101.
विप्पटिसाराभावतो अविक्खित्तचित्तो परियत्तियं विसारदो अविकोपिय त्रि., वि+vकुप के सं. कृ. का निषे. [अविकोप्य]. होति, उदा. अट्ट, 14; - ता स्त्री., अविक्खित्त का विनाश न किए जाने योग्य, बाधित या रूपान्तरित न होने भाव. [अविक्षिप्तता], शा. अ. बिखराव का अभाव, ला. अ. योग्य -- यो पु., प्र. वि., ए. व. - मेत्ताविहारी हि पुग्गलो । चित्त में बिखराव या चञ्चलता का न होना - य तृ. वि., सब्बेसं पियो होति परूपक्कमेन अविकोपियो, जा. अट्ठ.. ए. व. - अपमुस्सताय उजु, अविक्खित्तताय अनुद्धट, 4.68.
पतिद्धितताय अचपलं. जा. अट्ठ. 5.196; - भोजित्ता अविकोपी त्रि., विकोपी का निषे. [अविकोपिन], नहीं । स्त्री., भाव., बिखराए या इधर उधर फैलाए बिना हिल-डुल रहा, अबाधित, बाधित या रूपान्तरित नहीं भोजन करना - विसं विसुंभाजनेस ठितानि ब्यञ्जनानि किए जाने योग्य - पिनो पु., प्र. वि., ब. व. - गण्हतो तत्थ तत्थ साभोगताय सिया विक्खित्तभोजिता, सत्तिमे सस्सता काया, अच्छेज्जा अविकोपिनो, जा. अट्ठ. ... वुत्तं अविक्खित्तभोजिता ति, विसुद्धि. महाटी. 1.90; - 7.109, अविकोपिनोति विकोपेतुं न सक्का, जा. अट्ठ. मन त्रि., ब. स. [अविक्षिप्तमनस्], बिखराव या चञ्चलता 7.110.
से रहित मन वाला - मनो पु., प्र. वि., ए. व. - अविक्खम्भित त्रि., वि + खम्भ के भू, क. कृ. का निषे०, अविक्खित्तमनो होमि, सब्बारक्खेहि रक्खितो, अप. 1.341; प्रतिबन्ध, रुकावट या नियंत्रण से रहित, नहीं निरुद्ध, --- सोत त्रि., ब. स. [अविक्षिप्तस्रोतस्], केन्द्रित ध्यान निष्क्रिय या निष्प्रभावी नहीं बनाया हुआ - समथविपस्सनानं से युक्त श्रवणशक्ति वाला, ध्यान लगाकर सुनने वाला - ता अञ्जतरवसेन अविक्खम्भितकिलेसजातं चित्तसन्ततिमनारुळ्हं पु.. प्र. वि., ब. व. - ओहितसोताति वा अविक्खित्तसोता, उप्पत्तिनिवारकस्स हेतुनो, अभावा अविक्खम्भितुप्पन्नं नाम, उदा. अट्ठ. 316. सु. नि. अट्ठ. 1.7; .. तुप्पन्न त्रि., कर्म स., अबाधित अविक्खिपमान त्रि., वि + खिप के वर्त. कृ. का अथवा अनिरुद्ध होने के कारण उत्पन्न - नं नपुं., प्र. वि., निषे., बाधित नहीं होने वाला, चञ्चल न होता हुआ, अस्थिर ए. व. - हेतुनो अभावा अविक्खम्भितुप्पन्नं नाम, सु. नि. या अशान्त नहीं हो रहा - ना पु., प्र. वि., ब. व. - अट्ट, 1.7.
एकारम्मणे चित्तचेतसिका समं सम्मा च अविक्खिपमाना अविक्खम्भिय त्रि., वि + Vखम्भ के सं. कृ. का निषे., अविप्पकिण्णा च हुत्वा तिट्ठन्ति, विसुद्धि. 1.83; बाधित न किए जाने योग्य, अभिभूत नहीं किए जाने योग्य अविक्खिपमानाति न विक्खिपमाना वूपसममाना, विसुद्धि. - यो पु., प्र. वि., ए. व. - अक्खम्भियो होति केनचि महाटी. 1.101.
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अविक्खेप
626
अविगत
अविक्खेप पु., विक्खेप का निषे०, तत्पु. स. [अविक्षेप]. चित्त में अशान्ति या बेचैनी का न होना, चित्त में चञ्चलता का अभाव, चित्त की शान्त अवस्था, एकाग्रता - पो पु., प्र. वि., ए. व. - एकग्गता तु समथो अविक्खेपो समाधि च, अभि. प. 155; नेक्खम्मवसेन चित्तस्स एकग्गता अविक्खेपो समाधि, पटि. म. 87; चित्तस्स एकग्गता अविक्खेपोति एकग्गस्स भावो एकग्गता, नानारम्मणे न विक्खिपति तेन चित्तन्ति अविक्खेपो, चित्तस्स एकग्गतासङ्घातो अविक्खेपोति अत्थो, पटि. म. अट्ठ. 1.253; - पं द्वि. वि., ए. व. - चित्तस्स एकग्गतं अविक्पं पजानतो उप्पज्जति पीति पामोज्जं पटि. म. 178; - पेन तृ. वि., ए. व. - अविक्खेपेन उद्धच्च हिरीयतीति - हिरिबलं, पटि. म. 344; - खन्ति स्त्री., तत्पु. स. [अविक्षेपक्षान्ति], चित्त की एकाग्रता से प्राप्त क्षान्ति या शान्त अवस्था -- अविक्खेपखन्ति उद्धच्चेन सुआ, पटि. म. 358; - पट्ठ पु.. तत्पु. स. [अविक्षेपार्थ]. अविक्षिप्तता का अर्थ, एकाग्रता का आशय - @ो पु.. प्र. वि., ए. व. - समाधिन्द्रियस्स अविक्खेपट्ठो अभिनेय्यो, पटि. म. 15; - द्वेन तृ. वि., ए. व. - अविक्खेपद्वेन सम्मासमाधि रूपरागा अरूपरागा, पटि. म. 64; तेनायं विहारो समाधीति वृत्तो, न अविक्खेपद्वेन, उदा. अट्ठ 158; - पटिलाभ पु.. तत्पु. स. [अविक्षेपप्रतिलाभ], चित्त की एकाग्रता का लाभ - भो प्र. वि., ए. व. - अविक्खेपपटिलाभो उद्धच्चेन सुञो, पटि. म. 357; - पटिवेध पु., तत्पु. स. [अविक्षेपप्रतिवेध]. चित्त की एकाग्रता का ध्यान-भावना द्वारा व्यावहारिक अनुभव - धो प्र. वि., ए. व. - अविक्खेपप्पटिवेधो उद्धच्चेन सुओ, पटि. म. 357; - परिग्गह पु., तत्पु. स. [अविक्षेपपरिग्रह], चित्त की स्थिरता या एकाग्रता की प्राप्ति - हो प्र. वि., ए. व. - अविक्खेपपरिग्गहो उद्धच्चेन सओ, पटि. म. 357; - परियोगाहन नपुं.. तत्पु. स. [अविक्षेपपर्यवगाहन], एकाग्रता में पूरी तरह डूब जाना, एकाग्रता की आन्तरिक एवं प्रत्यक्ष अनुभूति - णं प्र. वि., ए. व. - अविक्खेपपरियोगाहणं उद्धच्चेन सुझं पटि. म. 358; - परिसुद्धत्त नपुं॰, भाव., एकाग्रता से सम्बद्ध पूर्ण शुद्धि, एकाग्रता द्वारा पूर्ण रूप से विशुद्ध हो जाना - त्ता प. वि., ए. व. - अविक्खेपपरिसुद्धत्ता आसवसमुच्छेदे पा आनन्तरिकसमाधिम्हि आणं, पटि. म. 87; - मण्ड पु., तत्पु. स. [अविक्षेपमण्ड], चित्त की शान्ति या एकाग्रतारूपी मांड - ण्डं द्वि. वि., ए. व. - उद्धच्चं कसट छड्डेत्वा समाधिन्द्रियस्स अविक्षेपमण्ड पिवतीति-मण्डपेय्यं, पटि.
म. 268-69; - लक्खण 1. नपुं., तत्पु. स., एकाग्रता या चित्त की शान्ति वाला लक्षण - णं प्र. वि., ए. व. - चित्तेकग्गताय अविक्खेपलक्खणं, दी. नि. अट्ठ. 1.60; - णेन तृ. वि., ए. व. - कतिविधो समाधीति अविक्खेपलक्खणेन ताव एकविधो, विसुद्धि. 1.84; 2. अविक्षेप या चित्त-उपशम के लक्षण वाला - णो पु., प्र. वि., ए. व. - अविक्खेपलक्खणो समाधि, विसुद्धि. 1.83; - णा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - ... अविक्खेपलक्खणा चित्तेकग्गताति इमे पञ्च धम्मा वत्तन्ति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).243; - विमुत्ति स्त्री., ब. स., चित्त के उपशम या एकाग्रता द्वारा प्राप्त विमुक्ति, एकाग्रता या समाधि के द्वारा प्राप्त विमुक्ति - अविक्खेपविमुत्ति सम्मासमाधि, पटि. म. 319; - विराग त्रि., ब. स., समाधि या चित्त की एकाग्रता को रागमुक्ति के उपाय के रूप में ग्रहण करने वाला - गो पु., प्र. वि., ए. व. - अविक्षेपविरागो समाधिसम्बोज्झङ्गोपटि. म. 317; - सीस त्रि., अविक्षेप या चित्त की एकाग्रता की मुख्यता या प्रधानता वाला -- सं पु., प्र. वि., ए. व. - अविक्खेपसीसञ्च समाधि, पटि. म. 94; - पाधिट्ठान नपुं.. तत्पु. स. [अविक्षेपाधिष्ठान], चित्त की एकाग्रता या समाधि के लिए दृढ़ संकल्प - नं प्र. वि., ए. व. - अविक्खेपाधिट्टान उद्धच्चेन सुझं पटि. म. 358; - काभिसमय पु., तत्पु. स. [अविक्षेपाभिसमय], चित्त की एकाग्रता एवं उपशम की प्राप्ति - यो प्र. वि., ए. व. - अविक्खेपाभिसमयो सम्मासमाधि, पटि. म. 385; - पेसना स्त्री., तत्पु. स., चित्त की एकाग्रता के लिए प्रयास - ना प्र. वि., ए. व. -
अविक्खेपेसना उद्धच्चेन सुआ. पटि. म. 357. अविगत त्रि., वि+गम के भू. क. कृ. का निषे. [अविगत]. शा. अ. दूर नहीं गया हुआ, नष्ट नहीं हो चुका, ला. अ. आवश्यक अङ्ग से युक्त - तो पु., प्र. वि., ए. व. - अनओ अविगतो सन्धावतीति, कथा. 36; अविगतो एकेनापि आकारेन अविगतोति अत्थो, कथा. अट्ठ. 123; - तेन पु.. तृ. वि., ए. व. - अविगतेनाति वा पाठो, तस्सत्थो कदाचि अविच्छन्तेनाति, अ. नि. टी. 1.195; - ते पु., सप्त. वि., ए. व. - चक्खुपथे अन्धकारे अविगतेयेव हेट्ठामञ्चकतो निक्खमित्वा .... ध. प. अट्ठ. 1.277; - छन्द त्रि., ब. स. [अविगतछन्द]. तृष्णा से मुक्ति नहीं पाया हुआ, इच्छाओं या आसक्तियों से मुक्त न होने वाला - न्दो पु., प्र. वि., ए. व. - भिक्खु कामेसु अवीतरागो होति अविगतच्छन्दो अविगतपेमो, दी. नि. 3. 190; म. नि. 1.146; - तोह त्रि., ब. स. [अविगततृष्णा].
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अविग्गह
627
अविचल
वह, जिसके चित्त से तृष्णा नष्ट नहीं हुई है - हा पु.. प्र. अविघात पु.. विघात का निषे. [अविघात], हानिरहितता, वि., ब. व. - अवीततण्हा अविगततण्हा अचत्ततण्हा दुःख का अभाव, स्वस्थता, कुशलता - तो पु., प्र. वि., ए. अवन्ततण्हा , महानि. 34-35; - पच्चय पु., कर्म. स. व. - यस्मा च खो, आवुसो, कुसले धम्मे उपसम्पज्ज [अविगतप्रत्यय], नष्ट नहीं हुआ कारण या प्रत्यय-यो प्र. विहरतो, दिढे चेव धम्मे सुखो विहारो अविघातो..., स. नि. वि., ए. व... पञ्चविधो होति अस्थिपच्चयो अविगतपच्चयो 2(1).8; तत्र अविघातोति निढुक्खो , स. नि. अट्ठ. 2.228; - च, अभि. ध. स. 59; - यता स्त्री., भाव., प्र. वि., ए. व. तं नपुं., द्वि. वि., ए. व., क्रि. वि. - दिडेव धम्मे सुखं [अविगतप्रत्ययता]. प्रत्यय या कारण का समाप्त न होना, विहरति अविघातं अनुपायासं अपरिळाह, अ. नि. 1(1).234; प्रत्यय का विद्यमान रहना - अत्थिपच्चयभावोति नत्थि - पक्खिक/पक्खिय त्रि., [अविघातपक्षीय], सुख या निब्बानस्स सब्बदा भाविनो अस्थिपच्चयता, अभि. ध. वि. कल्याण के पक्ष के साथ जुड़ा हुआ - को पु., प्र. वि., ए. 219; - पेम त्रि., ब. स. [अविगतप्रेमन], वह, जिसका प्रेम व. -- पावुद्धिको अविघातपक्खिको निब्बानसंवत्तनिको, मिटा नहीं है, प्रेम को जारी रखने वाला - मो पु., प्र. वि., म. नि. 1.164; न दुक्खकोट्ठासाय संवत्ततीति ए. व. - ... आयतिञ्च सिक्खासमादाने अविगतपेमो, अ. नि. अविघातपक्खिको, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).396; - क्खिका 2(2).166; दी. नि. 3.199; -विमति त्रि., ब. स. [अविगतविमति], ब. व. -- ... सत्त बोज्झङ्गा चक्खुकरणा जाणकरणा पञआबुद्धिया सन्देह या शङ्का को नहीं नष्ट किया हुआ, संशयालु, शङ्कालु - अविघातपक्खिया निब्बानसंवत्तनिकाति, स. नि. 3(1).119. ती पु., प्र. वि., ब. व. - ते पत्वाख्यातसद्दे अविगतविमती होन्ति । अविघातव त्रि., वि + Vहन के प्रेर. का निषे., हानि से रहित,
आणी पि, सद्द. 1.13 -- सोक त्रि., ब. स. [अविगतशोक], वह, बाधाओं से मुक्त, विक्षेप रहित, एकाग्रचित्त, सुखमय, समाहित जिसके चित्त का शोक अभी तक नहीं मिटा है, शोक से पीड़ित - सतो च होति अप्पिच्छो, सन्तहो अविघातवा, थेरगा. 899; मन वाला - कानं पु, ष. वि., ब. व. -- जीवसोकिनन्ति चित्तस्स विघातकरं विक्खेपं पहाय अविघातवा अविक्खित्तो अविगतसोकानं अरसे वसन्तानं.... जा. अट्ठ. 7.368. समाहितो, थेरगा. अट्ठ. 2.291. अविग्गह 1. पु., विग्गह (कलह) का निषे०, तत्पु. स. अविघाती त्रि., विघाती का निषे. अविघातिन]. विक्षेप न [अविग्रह], अकलह, झगड़ा झंझट का अभाव - हो प्र. वि., करने वाला, चित्त की व्याकुलता न लाने वाला, बाधाओं से ए. व. -- इति अभण्डनं इति अविग्गहो इति अकलहो, स. रहित, प्रतिघात न करने वाला - अविघाती दिसा सब्बा, नि. 1(1).259; 2. त्रि., विग्गह (शरीर) का निषे., ब. स. सीलगन्धो पवायति, विसुद्धि. 1.55; अविघातीति अप्पटिघाती, [अविग्रह], शा. अ. अशरीरधारी, अनङ्ग, ला. अ. कामदेव विसुद्धि. महाटी. 1.80. - हो पु.. प्र. वि., ए. व. - अविग्गहो तु कामो च मनोभू अविचक्खण त्रि., विचक्षण का निषे॰ [अविचक्षण], अचतुर, मदनो भवे, अभि. प. 42; - क त्रि., ब. स., द्वेषभाव से मन्द बुद्धि, मूर्ख -- णो पु., प्र. वि., ए. व. - अवकुज्जपओ रहित, कलह से मुक्त, शरीररहित, अशरीरी, अभौतिक - कं पुरिसो दुम्मेधो अविचक्खणो, अ. नि. 1(1).154; नपुं., द्वि. वि., ए. व. - उपेति चाविग्गहकम्पदं पदं, अभि. अविचक्खणोति संविदहनपञआय रहितो, अ. नि. अट्ठ. अव. 174; अविग्गहकम्पदं पदं अविग्गहकं सरीररहितं पदं । पटिपज्जितब्बं ञातब्बं पदं निब्बानं उपेति पापुणाति च, अविचल त्रि.. [अविचल], शा. अ. नहीं हिलने डुलने अभि. अव. पु. टी. 114; अविग्गहकम्पदन्ति विग्गहञ्च वाला, अचल, ला. अ. स्थिर चित्त, चित्त की चञ्चलता से कम्पञ्च न देतीति अविग्गहकम्पदन्ति अत्थो, अभि. अव. रहित - लाय स्त्री., तृ. वि., ए. व. - तेसु अविचलाय अभि. टी. 2.270.
मेत्ताय पुब्बकारिनो होन्ति, विसद्धि. 1.315; अविचलायाति अविग्गहीत त्रि., विग्गहीत का निषे. [अविगृहीत], अलग- पटिपक्खेन अकम्पनीयाय, विसुद्धि. महाटी. 1.368; - अलग करके उदित न होने वाला, अविभिन्न, एक पिण्ड के लाधिद्वान त्रि., ब. स. [अविचलाघिष्ठान], सुदृढ़ या रूप में एकीकृत - तट्ठ पु., अलग-अलग न होने का अर्थ अडिग संकल्प वाला - ना पु., प्र. वि., ब. व. - तेसं - तद्वेन तृ. वि., ए. व. - चित्तं पन नो हितद्वेन निरन्तरतुन हितसुखाय अविचलाधिट्टानाति होन्ति, विसुद्धि. 1.315; अविग्गहढेन समग्गटेन एकमेवाति दस्सेति, म. नि. अट्ठ. अविचलाधिट्ठानाति यथासमादिन्नेसु दानादिधम्मेस निच्चलाधि (मू.प.) 1(2).139.
द्वायिनो अचलसमादानाधिद्वाना, विसुद्धि. महाटी. 1.368.
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अविचार
628
अविजात
अविचार त्रि., ब. स. [अविचार]. विचार से रहित, विचार नामक चेतसिक से मुक्त - रा पु., प्र. वि., ब, व. - कतमे धम्मा अविचारा, ध, स. 1278; - भूमि स्त्री., तत्पु. स. [अविचारभूमि], विचार नामक चेतसिक से रहित चित्त की भूमि - यं सप्त. वि., ए. व. - अविचारभूमियं कामावचरे रूपावचरे ... इमे धम्मा अविचारा, ध. स. 1278. अविचारेत्वा वि + vचर के प्रेर. के पू. का. कृ., विचारेत्वा का निषे. [अविचार्य], विचार न करके, बिना सोचे-विचारे - सहसा समेच्चाति सहसा आदीनवानिससे अविचारेत्वा ..., वि. व. अट्ठ. 285. अविचालिय त्रि., वि + चल के प्रेर. के सं. कृ. का निषे. [अविचाल्य], ऐसी दृढ़ आधारभूमि, जहां से कुछ भी हिलायाडुलाया न जा सके - या स्त्री., प्र. वि., ए. व. - सुगतीनम्महामग्गा पतिद्वा अविचालिया, सद्धम्मो. 444. अविचिकिच्छ त्रि., ब. स. [अविचिकित्स्य], विचिकित्सा से मुक्त, सन्देह से भरी मनोवृत्ति से रहित - च्छो पु०, प्र. वि., ए. व. - सो अविचिकिच्छो समानो भब्बो राग पहात अ. नि. 3(2).123. अविचिन्तिय त्रि., वि + चिन्त के सं. कृ. का निषे. [अविचिन्त्य], चिन्तन का अविषय, चिन्तन या विचार करने के क्षेत्र से बाहर वाला - यं नपुं॰, प्र. वि., ए. व. - पारत्थिकं फलं यन्तं फलं व अविचिन्तियं सद्धम्मो. 273. अविच्चं अ., क्रि. वि., व्यु. संदिग्ध, खुले रूप में, नहीं छिपा कर, खुल कर, किसी भी रहस्य या गोपनीयता के बिना - नीच भासति, अविच्चं भासति, विविच्चं भासति, जा. अट्ट. 5.431; ध. प. अट्ठ. 2.396; अविच्चन्ति बहुजनमज्झे अप्पटिच्छन्नं, जा. अट्ठ. 5.434. अविच्छिज्ज वि + छिद के पू. का. कृ. विज्छिज्ज का निषे., [अविच्छिद्य], बिना किसी रुकावट के, लगातार, बीच में व्यवधान न करके - एकेनेव पयोगेन, अविच्छिज्ज सचे पन, विन. वि. 1659. अविच्छिन्न त्रि., वि + छिद के भू. क. कृ. विच्छिन्न का निषे. [अविच्छिन्न], बिना रुकावट वाला, बीच में किसी भी रुकावट या बाधा से रहित - न्ने पु.. सप्त. वि., ए. व. - तेन अविच्छिन्नेयेव तत्थ भगवतो विहारे इदमधिकारन्तरं उदपादीति दस्सेति, खु. पा. अट्ठ. 91-92; - त्थ पु., तत्पु. स. अविच्छिन्नार्थ, निरन्तरता या लगातारपन का अर्थ - त्थे सप्त. वि., ए. व. - अथ इति कत्थचि । पहानन्तरियाविच्छिन्नाधिकारन्तरेसु पि. ... अथ नं आह:
अविच्छिन्नत्थे, सद्द. 3.891; - धार त्रि., ब. स. [अविच्छिन्नधार], अखण्ड धारा वाला, लगातार बह रहे प्रवाह वाला - रं नपुं., द्वि. वि., ए. व., क्रि. वि. - भगवा हि यथानिक्खित्ताय मातिकाय अच्छिन्नधारं कत्वा आकासगङ्ग ओतोरन्तो विय देसनं देसेसियेव, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.222; - पवत्ति स्त्री., कर्म. स. [अविच्छिन्नप्रवृत्ति], लगातार चल रही क्रिया - याव तस्मिं भवे सन्तानस्स अनुप्पबन्धो अविच्छिन्नप्पवत्ति होति, सारत्थ. टी. 2.241. अविच्छेद पु., विच्छेद का निषे. [अविच्छेद], अखण्डता, लगातारपन, निरन्तरता, सातत्य - देन तृ. वि., ए. व. - धम्मस्स अविच्छेदेन पवत्तीति अत्थो, सारत्थ. टी. 1.75; - दाय च. वि., ए. व.- तस्स तस्स सत्तस्स उप्पन्नधम्मानं अनुप्पबन्धवसेन अविच्छेदाय .... म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).215; - करणं नपुं.. तत्पु. स., प्र. वि., ए. व. [अविच्छेदकरण]. निरन्तरता या लगातारपन को उत्पन्न करना - सन्तानकिरिया नाम पबन्धकिरिया अविच्छेदकरण, सद्द. 2.540; - त्थे पु., तत्पु. स., सप्त. वि., ए. व. [अविच्छेदार्थ], निरन्तरता या लगातारपन के अर्थ में - अथाति अविच्छेदत्थे खोति अधिकारन्तरनिदस्सनत्थे निपातो, खु. पा. अट्ठ. 91. अविजहन्तु त्रि., वि + Vहा के वर्त. कृ. का निषे. [अविजहत्], नहीं त्यागता हुआ, रिक्त नहीं होता हुआ - न्तो पु., प्र. वि., ए. व. - अप्पमत्तोति कम्मढ़ाने सति अविजहन्तो. उदा. अट्ठ. 140: - न्ता ब. व. -- चित्तीकारं अविजहन्ता अविक्खित्तचित्ता हुत्वा, पे. व. अट्ठ. 23. अविजहित त्रि., वि + vहा के भू. क. कृ. का निषे०, नहीं छोड़ा हुआ, अनुपालन किया गया, कभी भी नहीं त्यागा गया, सभी अवसरों के लिए अनिवार्य - तं नपुं.. द्वि. वि., ए. व. - सब्बबुद्धानं अविजहितं उदानं उदानेसि, जा. अट्ट. 1.85; - तो पु., प्र. वि., ए. व. - अविजहितोति बुद्धानं तथानिसज्जाय अनञत्थभावीभावतो अपरिच्चत्तो, लीन. (दी.नि.टी.) 2.14; -द्वान नपुं., कर्म. स., अचल स्थान - इदं किर ठानं सब्बबुद्धानं अविजहितद्वानमेव, जा. अट्ठ. 1.103; - गन्ध-तेलप्पदीप त्रि., ब. स., सुगन्धित तेल से भरे दीपक से कभी भी रहित न होने वाला, सदा सुगन्धित तेल से भरे दीपक वाला - समोसरितगन्धदाममालादामं
अविजहितगन्धतेलपदीपं होति, जा. अट्ट. 1.179. अविजात त्रि., वि + जिन के भू. क. कृ. विजात का निषे. [अविजात], नहीं उत्पन्न, जन्म को ग्रहण नहीं किया हुआ
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अविजानन्त
ता स्त्री० प्र० वि०, ब० व अत्तभावे अभिनिम्मिनित्वा कुमारियो अविजाता, सकिविजाता, दुविजाता मज्झमित्थियो जा. अ. 1.88; - पुत्त त्रि, ब० स० [ अविजातपुत्र ], पुत्र को जन्म न देने वाला त्ता स्त्री. प्र. वि. ए. व. - अपगतगमाति अविजातपुत्ता, वि. वि. टी. 2.221 वण्ण नपुं. तत्पु, स, सन्तान को जन्म न देने वाली तरुण नारी का स्वरूप ण्णं द्वि. वि., ए. व. - ततो भगवा अविजातवण्णं, सकिविजातवण्णं... सु. नि. अ. 1.205 ण्णसत नपुं. कर्म, स., सन्तान उत्पन्न न करने वाली नारी के एक सौ स्वरूप एकसतं एकसतं अविजातवण्णसतं अभिनिम्मिनित्वा येन भगवा तेनुपसङ्गमं स. नि. 1 (1).147. अविजानन्त त्रि वि + √ञा के वर्त कृ. विजानन्तु का निषे. [अविजानत् ] नहीं जान रहा, नहीं समझने वाला, अज्ञानी नता पु. तृ. वि. ए. व. न त्वेविदं कुसीतेन बालेनमविजानता, इतिवु. 75: चत्तारि सच्चानि यथाभूतं अविजानता, इतिवु, अड. 286 नतो ष वि.. ए. व. अनवद्दितचित्तस्स, सद्धम्म अविजानतो प. प. 38 नन्ता प्र. वि. ब. ब. यदा च अविजानन्ता इरियन्त्यमरा दिय थेरगा. 276 नतं पु. ष०. वि. व. व. दीघो बालानं संसारो, सद्धम्मं अविजानतं थ. प. 60. अविजित त्रि वि + जि के भू. क. कृ. विजित का निषे. [ अविजित ], शा. अ. नहीं जीता हुआ, ला. अ. किसी अन्य राजा के अधीन न आने वाला क्षेत्र तं नपुं. प्र. वि. रञ पसेनदिस्स कोसलस्स अविजितं. म. नि.
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ए. व. 2.338.
अविज्जक्खण नपुं तत्पु. स. [अविद्याक्षण] अविद्या से भरे हुए चित्त की विद्यमानता का क्षण णे सप्त. वि., ए. व. अविज्जाक्खणे मग्गपञ्ञ नत्थि, मग्गपञ्ञाक्खणे अविज्जा नत्थि, अ. नि. अ. 2.27. अविज्जण्डकोस पु०, तत्पु० स० [अविद्याण्डकोश ], अविद्या का अण्डकोश, अविद्या रूपी अण्डे का खोल - संद्वि. वि., ए. व. अविज्जागताय पजाय अण्डभूताय परियोनद्वाय अविज्जण्डकोसं पदालेत्वा, पारा 4; अविज्जण्डकोसं पदालेत्वाति तं अविज्जामयं अण्डकोसं भिन्दित्वा, पारा. 31. 1.102; सानं प. वि. व. व. उपादानपञ्ञति सब्बञ्ञताय, पदालनापञ्ञत्ति अविज्जण्डकोसानं, .... नेत्ति.
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अविज्जन्धकार पु. तत्पु. स. [ अविद्यान्धकार] अज्ञान का अंधेरा, अविद्या का अंधकार रं द्वि. वि. ए. व. पञ्ञा
अविज्जा
महाराज, उप्पज्जमाना अविज्जन्धकारं विधमेति, मि. प. 37; रेन तृ. वि. ए. व. महता व अविज्जन्धकारेन पिहितं मि. प. 286; रे सप्त वि. ए. व. अन्धकारेति अविज्जन्धकारेन सकलेन किलेसन्धकारेन व अन्धकारे लोके वि. व. अट्ठ, 85; रस्सष. वि., ए. व. देसनापञ्ञति अविज्जन्धकारस्स वेवचनपञ्ञत्ति च, नेति 52: परियोनद्ध त्रि, तत्पु० स० [अविद्यान्धकारपर्यवनद्ध], अज्ञान के अधेरे में फंसा हुआ द्वा पु. प्र. वि. ब. व. तं तं एवं पटिक्कूलम्पि समानं अविज्जन्धकारपरियोनद्वा अत्तसिनेहरागरता, विसुद्धि. 1.186 रावरण त्रि.. ब. स. [ अविद्यान्धकारावरण], अविद्या के अन्धकार की चादर या आच्छादन - णो पु०, प्र. वि., ए. व. - अविज्जन्धकारावरणो लोकसन्निवासो अण्डभूतो किलेसपञ्जरपक्खितो पटि म.
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116; उदा. अड्ड. 113.
मप
अविज्जमान त्रि.. विद के वर्त. कृ. विज्जमान का निषे. [ अविद्यमान ] शा. अ. नहीं विद्यमान अस्तित्व में नहीं आया हुआ, ला. अ. मिथ्या अवास्तविक असत् नो फु.. प्र. वि., ए. व. - धातुयो विज्जमाना, पुरिसो अविज्जमानो म. नि. अनु. (उप.प.) 3.217 नेन नपुं. तु. वि., ए. व.- तस्मिं पुग्गले अविज्जमानेन अन्तिमवत्थुना अनुवदति चोदेति, पारा. अ. 2.68; ना स्त्री. प्र. वि. ए. व. एवमादिप्यभेदा पन परमत्थतो अविज्जमानापि अभि. घ. स. 60; - नज्जतन त्रि. ब. स. [ अविद्यमानाद्यतन ], आज के बीते हुए समय से असम्बद्ध ने पु०, सप्त. वि., ए. व. • अविज्जमानज्जतने भूतेत्ये वत्तमानतो कियत्था आ आदयो होन्ति, मो० व्या 6.5; ता स्त्री. भाव [अविद्यमानता ]. विद्यमान न रहना, अस्तित्व में न आना - तं द्वि. वि., ए. व. अतीते अत्तनो विज्जमानत अविज्जमानतञ्च कङ्क्षति, म. नि. अ. (मु.फ.) 1 (1) 74 त नपुं. भाव. [अविद्यमानत्व], उपरिवत् ता प. वि. ए. व. अत्तनि अविज्जमानता ति गोत्तभूति दुच्चति, सद. 1.78 पञ्ञति स्त्री. तत्पु. स. [अविद्यमानप्रज्ञप्ति ], जो वास्तव में सत्ता वाली वस्तु नहीं है, उसके बारे में कुछ कहना या बतलाना, असत् का प्रज्ञापन तथा अविज्जमानस्स लोकनिरुतिमत्तसिद्धस्स इत्यिपुरसादिकस्स पज्ञापना अविज्जमानयज्ञति नाम पु. प. अ. 26 अविज्जमानेन अविज्जमानपञ्ञत्ति चेति छव्विधा होति, अभि. प. स. 61.
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अविज्जा स्त्री० [अविद्या], शा. अ. विद्या या ज्ञान का अभाव, ला. अ. चार आर्यसत्यों, प्रतीत्य-समुत्पाद तथा
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अविज्जा
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अविज्जा
तिलक्खण के विषय में ज्ञान एवं दर्शन का अभाव, मिथ्यारूप में संसार को देखना, संसार का मूल कारण, भवचक्र या संसारचक्र का मूल कारण- मोहोविज्जा तथा आणं, अभि. प. 168; तं अविन्दियं विन्दतीति अविज्जा... तं विन्दियं न विन्दतीति अविज्जा... सच्चानं तथट्ठ अविदितं करोतीतिपि
अविज्जा... चतुब्बिध अत्थं अविदितं करोतीतिपि अविज्जा .... न जवतीति अविज्जा, अपिच चक्खविआणादीनं ... धम्मानं छादनतोपि अविज्जा, विसुद्धि 2.155-56; न विजानातीति अविज्जा ... विज्जमाने वा न जवापेतीति अविज्जा, अभि. ध. वि. 207; विज्जाय पटिक्खभावतो न विज्जाति अविज्जा, ध. स. अट्ठ. 294; अविज्जाति दुक्खादीसु अजाणं, दी. नि. अट्ठ. 3.145; अविज्जा हायं महामोहो, येनिदं संसितं चिरं सु. नि. 735; तत्थ यस्मा चतूसु सच्चेसु अआणभूता अविज्जा संसारस्स सीसं तस्मा अविज्जा मुद्धाति आह, सु. नि. अट्ठ. 2.275; - ज्जं द्वि. वि., ए. व. - अविज्जं दालयिस्सामि, निसिन्नो नगमुद्धनि, थेरगा. 544; अविज्जं तेन पजहति, न तत्थ अविज्जानुसयो अनुसेतीति, म. नि. 1.385; - ज्जाय' तृ. वि., ए. व. - अविज्जाय निवृतो कायो, चतुगन्थेन गन्थितो, थेरगा. 572; - ज्जाय? प. वि., ए. व. - अविज्जाय मानानुसया अविज्जानुसया .... चित्तं विचित्तं होति, महानि. 20; - ज्जाय ष. वि., ए. व. - अविज्जायत्वेव असेसविरागनिरोधा सङ्कारनिरोधो, महाव. 2; - कोट्ठास पु., तत्पु. स. [अविद्याकोष्ठांश], अविद्या नामक शीर्षक - से सप्त. वि., ए. व. - अविज्जाभागे अविज्जाकोडासे वत्तन्तीतिपि अविज्जाभागिनो, ध. स. अट्ठ. 97; -. खन्ध पु., तत्पु. स. [अविद्यास्कन्ध]. सञ्चित राशि के रूप में अविद्या, अविद्या की सञ्चित राशि - न्धं द्वि. वि., ए. व. - भिक्षु महन्तं अविज्जाक्खन्धं पदालेति, अ. नि. 1(1).321; - न्धेन तृ. वि., ए. व. - अविज्जाखन्धेन जयसेनो राजकुमारो आवुतो नित्तो ओफुटो परियोनद्धो, म. नि. 3.172; - गत त्रि., तत्पु. स. [अविद्यागत], अज्ञान से ग्रस्त, वह, जिसकी अविद्या नष्ट नहीं हुई है, अविद्या में फंसा हुआ - तो पु., प्र. वि., ए. व. - बकं ब्रह्मानं एतदवोच - अविज्जागतो वत, भो, बको ब्रह्मा, म. नि. 1.409; अविज्जागतोति अविज्जाय समन्नागतो अप्पहीनाविज्जोति अधिप्पायो, विसुद्धि, महाटी. 2.250; अविज्जागतोति अविज्जाय गतो समन्नागतो अञआणी अन्धीभूतो, म. नि. अट्ट (मू.प.) 1(2).298; - तस्स ष. वि., ए. व. - अविज्जागतस्स, भिक्खवे, अविद्दसुनो मिच्छादिहि पहोति. स. नि. 3(1).2; --
ग्गहण नपुं.. तत्पु. स. [अविद्याग्रहण]. अज्ञान की पकड़, अविद्या की उत्पत्ति - णेन तृ, वि., ए. व. - अविज्जाग्गहणेन हि अवसेसकिलेसवट्टञ्च कम्मादीनि च बाल पलिबोधेन्ति, विसुद्धि. 2.210; तत्थ अविज्जाग्गहणेनाति अविज्जाय उप्पादने न, अप्पहानेन वा, अत्तनो सन्ताने सन्निहितभावकरणेनाति अत्थो, विसुद्धि महाटी. 2.315; - जातिक त्रि., ब. स. [अविद्याजातिक]. अज्ञान से उत्पन्न होने वाला, अविद्या से उदित होने वाला - तिका पु., प्र. वि., ब. व. - सङ्घारा अविज्जानिदाना अविज्जासमुदया अविज्जाजातिका अविज्जापभवा, म. नि. 1.98; स. नि. 1(2).13; - तम नपुं., तत्पु. स. [अविद्यातमस्], अविद्या का अन्धकार, अज्ञान का अंधेरा - मसा तृ. वि., ए. व. - अयं अन्धबाललोको अविज्जातमसा परिवारितो, उदा. अट्ठ. 314; - धातु स्त्री., तत्पु. स. [अविद्याधातु]. अविद्या का मूलभूत तत्त्व, जवन-नामक चित्त क्षण में उदित अविद्या - अस्थि, भिक्खवे, मनो, अत्थि धम्मा, अस्थि अविज्जाधातु. स. नि. 2(1).43; अविज्जाधातूति जवनक्खणे अविज्जा, स. नि. अट्ठ. 2.239; - निदान त्रि., ब. स. [अविद्यानिदान]. अविद्या के कारण उत्पन्न होने वाला - दाना पु०, प्र. वि., ए. व. - सङ्कारा अविज्जानिदाना अविज्जासमुदया अविज्जाजातिका अविज्जापभवा, म. नि. 1.98; पटि. म. 290; - निरोध पु., तत्पु. स. [अविद्यानिरोध], अविद्या का निरोध, अज्ञान की समाप्ति - धो प्र. वि., ए. व. - अविज्जानिरोधो, भिक्खवे, आसवनिरोधो, अ. नि. 2(2).118; यदिदं- अविज्जानिरोधा सङ्घारनिरोधो... विज्ञाणनिरोधो. उदा. 70; - धा प. वि., ए. व. - अविज्जानिरोधाति अरियमग्गेन अविज्जाय अनवसे सनिरोधा ... अच्चन्तसमुग्घाटतीति अत्थो, उदा. अट्ठ. 38-39; -निवुत त्रि., तत्पु. स., अविद्या से अभिभूत, अविद्या द्वारा प्रवञ्चित - ते पु., सप्त. वि., ए. व. - अविज्जानिवुते लोके, अन्धकारेन ओत्थटे, अप. 1.85; - नीवरण 1. त्रि., ब. स., अविद्या के नीवरण या आच्छादन से युक्त, अज्ञान से अभिभूत - णस्स पु., ष. वि., ए. व. - अविज्जानीवरणस्स. भिक्खवे, बालस्स तण्हाय सम्पयुत्तस्स एवमयं कायो समुदागतो, स. नि. 1(2).22; - णानं ब. स. - अविज्जानीवरणानं खो, आवुसो, सत्तानं तण्हा संयोजनानं तत्रतत्राभिनन्दना .... म. नि. 1.374; 2. नपुं, तत्पु. स. [अविद्यानीवरण], अविद्या या अज्ञान की चादर या आच्छादन - णं प्र. वि., ए. व. - दुक्खे अजाणं... मोहो अकुसलमूलं
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अविज्जा
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अविज्जा
- इदं वुच्चति अविज्जानीवरणं, ध. स. 1168; छ नीवरणा - कामच्छन्दनीवरणं ... अविज्जानीवरणं ध. स. 1158; अविज्जापरियुट्ठानं अविज्जासंयोजनं अविज्जानीवरणं, कथा. 148; - ज्जानुसय पु., तत्पु. स. [बौ. सं. अविद्यानुशय], अचेतन चित्त में विद्यमान अनुशय के रूप में अविद्या, सात अनुशयों में से एक - यो प्र. वि., ए. व. - अविज्जोघो अविज्जायोगो अविज्जानुसयो ... अकुसलमूलं,ध. स. 390; द्रष्ट. अनुसय; - पच्चय पु., कर्म. स. [अविद्याप्रत्यय], अविद्या-रूपी कारण - यो प्र. वि., ए. व. - अविज्जा च सा पच्चयो चाति अविज्जापच्चयो, विसुद्धि. 2.156; - या ब. व. - अविज्जापच्चया, भिक्खवे, सङ्घारा, सङ्घारपच्चया विज्ञाणं, स. नि. 1(2).2; - पटलुद्धार त्रि., स. प. के अन्त. प्राप्त, अज्ञान-रूपी मोतियाबिन्द या दृष्टिबाधा को हटाने वाला - अविज्जापटलुद्धारविज्जानेत्तोसधं वरं ना. रू. प. 1126; - पटिच्छन्न त्रि., तत्पु. स. [अविद्याप्रतिच्छन्न], अज्ञान के द्वारा ढका हुआ या आच्छादित, अज्ञानग्रस्त - न्ना पु.. प्र. वि., ब. व. - अविज्जानिवुटाति अविज्जापटिच्छन्ना, चूळव. अट्ठ. 134; - पद नपुं., तत्पु. स. [अविद्यापद], अविद्याशब्द । - दं प्र. वि., ए. व. - जरामरणा पवाय याव मूलभूतं अविज्जापदं स. नि. अट्ठ. 2.10; - पभेद पु., तत्पु. स. [अविद्याप्रभेद], अज्ञान का विघटन, अविद्या का उच्छेद - दं द्वि. वि., ए. व. - सो अविज्जाप्पभेदं मनसि करोति, अ. नि. 1(2).192; अविज्जाप्पभेदं मनसि करोतीति अट्ठस ठानेस अजाणभूताय गणबहलमहाअविज्जाय पभेदसवातं अरहत्तं मनसि करोति, अ. नि. अट्ठ. 2.351; - परियुट्ठान नपुं.. तत्पु. स. [अविद्यापर्यवस्थान], अविद्या द्वारा अभिभूत हो जाना, अविद्या से पीड़ित होना या ग्रस्त होना - नं प्र. वि., ए. व. - अविज्जानुसयो अविज्जापरियुट्टानं अविज्जालङ्गी मोहो अकुसलमूल, ध. स. 390; विज्जाय पटिपक्खभावतो न विज्जाति अविज्जा ... चित्तं परियट्ठाति, अभिभवतीति परियुट्ठान, ध. स. अट्ठ. 294; - पळिघ पु., तत्पु. स. [अविद्यापरिघ]. अविद्या-रूपी अर्गला, अविद्या की बाधा, विघ्न या रुकावट - घस्स ष. वि., ए. व. - इदं सब्बम्पि छिन्दित्वा ठितं अविज्जापलिघस्स अक्खित्तत्ता उक्खित्तपलिघं ..... सु. नि. अट्ठ. 2.170; - पहान नपुं.. तत्पु. स. [अविद्याप्रहाण], अविद्या से छुटकारा, अविद्या का उच्छेद - नं प्र. वि., ए. व. - अविज्जापहानं भावितं बहुलीकतं पञआधिट्टानं परिपूरेति, नेत्ति. 99; - बन्धन नपुं.. तत्पु. स. [अविद्याबन्धन], अविद्या का बन्धन - ना प. वि., ए. व.
एवं किर सम्मा बन्धना विप्पमोक्खो होति, यदिदं अविज्जाबन्धना. म. नि. 2.245; - भवतण्हामयनाभि त्रि., ब. स., अविद्या एवं भवतृष्णा-रूपी नाभि वाला (संसारचक्र) - यञ्चेतं अविज्जाभवतण्हामयनाभि पुञआदिअभिसङ्घारारं ..... विसुद्धि. 1.190; - भाग पु., तत्पु. स. [अविद्याभाग]. अविद्या का भाग या हिस्सा - गे सप्त. वि., ए. व. - अविज्जाभागे अविज्जाकोट्ठासे वत्तन्तीतिपि अविज्जाभागिनो, ध. स. अट्ठ. 97; - भागी त्रि., अविद्या के साथ जुड़ा हुआ - गिनो पु., प्र. वि., ब. व. - सम्पयोगवसेनेव अविज्जं भजन्तीति अविज्जाभागिनो, ध. स. अट्ठ. 97; - भाव पु.. तत्पु. स. [अविद्याभाव], अविद्या का अभाव, अज्ञान का अन्त - वे सप्त. वि., ए. व. - अविज्जाभावे भावतो, विसुद्धि. 2.160; --भिभूत त्रि., तत्पु. स. [अविद्याभिभूत], अविद्या द्वारा ग्रस्त, अज्ञान के वश में आया हुआ - तो पु., प्र. वि., ए. व. - यस्मा अविज्जाभिभूतो पुथुज्जनो, विसुद्धि. 2.155; -स्स ष. वि., ए. व. - अविज्जाभिभूतस्स च दन्धा अभिञा होति, ध. स. अट्ठ. 228; - मूलक त्रि., [अविद्यामूलक]. ऐसा धर्म, जिसका मूल या जिसकी जड़ अविद्या में हो - का पु., प्र. वि., ब. व. - ये केचि अकुसला धम्मा सब्बे ते अविज्जामूलका अविज्जासमोसरणा अविज्जासमुग्घाता, स. नि. 1(2).240; - के सप्त. वि., ए. व. - तत्थ यदेतं सब्बपठमे अविज्जामूलके नये पच्चयचतुक्क विभ. अट्ठ. 191; - योग पु., तत्पु. स. [अविद्यायोग], अविद्या का (संसार के साथ) जोड़ने वाला बन्धन, भवबन्धन के रूप में अविद्या - अविज्जा अविज्जोघो अविज्जायोगो अविज्जानुसयो, .... अकुसलमूलं, ध. स. 390; - योगविसंयोग पु., तत्पु. स. [अविद्यायोगविसंयोग], अविद्या द्वारा बनाए गए बन्धन का खुल जाना या छूट जाना - गो प्र. वि., ए. व. - चत्तारो मे भिक्खवे, विसंयोगा, ... कामयोगविसंयोगो ... अविज्जायोगविसंयोगो, अ. नि. 1(2).12; - विनय त्रि., ब. स., अविद्या पर नियन्त्रण हो जाने वाली स्थिति से सम्बद्ध, अविद्या को हटा देने वाली अर्हत्व की अवस्था से सम्बन्धित - ये पु., सप्त. वि., ए. व. - सा तथागतेन अविज्जाविनये धम्मे देसियमाने ... चित्तं उपट्टपेति, अ. नि. 1(2).150; अविज्जाविनयेति अविज्जाविनयो वच्चति अरहत्तं, तंनिस्सिते धम्मे देसियमानेति अत्थो, अ. नि. अट्ठ. 2.330; - विराग पु., तत्पु. स. [अविद्याविराग]. अविद्या से छुटकारा, अविद्या का बिलगाव - गा प्र. वि., ए. व. - ... सो अविज्जाविरागा विज्जुप्पादा नेव कामुपदानं उपादियति, म. नि. 1.98; -
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अविज्जा
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अविज्जा
विसदोस पु., कर्म, स. [अविद्याविषदोष], अविद्या रूपी विष का दोष, विष की गड़बड़ी के रूप में अविद्या - सो प्र. वि., ए. व. - तण्हा खो सल्लं समणेन वुत्तं
अविज्जाविसदोसो, छन्दरागव्यापादेन रुप्पति, म. नि. 3.41; ... एत्थ सउपादानसल्लुद्धारो विय अप्पहीनो अविज्जाविसदोसो दहब्बो, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.36; - विसदोसलित्त/ दोससंलित्त/दोससल्लित त्रि., तत्पु. स., अविद्या रूपी विष के दोषों से युक्त, अज्ञान के विष की हानियों से भरपूर - त्तो पु., प्र. वि., ए. व. - अविज्जाविसदोससंलित्तो, किलेसकललीभूतो रागदोसमोहजटाजटितो, ..., उदा. अट्ठ. 113; - संयोजन नपुं., तत्पु. स. [अविद्यासंयोजन], सात प्रकार के मानसिक बन्धनों में से एक, अविद्या का बन्धन -- नं प्र. वि., ए. व. - अविज्जापरियुट्टानं अविज्जासंयोजनं अविज्जानीवरणं, कथा. 148; सत्तिमानि, भिक्खवे, संयोजनानि ... अनुनयसंयोजनं ... भवरागसंयोजनं अविज्जासंयोजनं. अ. नि. 2(2).158; - समतिक्कम पु., तत्पु. स. [अविद्यासमतिक्रमण], अविद्या को लांघ जाना या पार कर जाना, अविद्या को जीत लेना, अविद्या का पराभव - क्कमा प. वि., ए. व. - ये रागदोसविनया अविज्जासमतिक्कमा, स. नि. 1(1).272; अविज्जासमतिक्कमाति चतुसच्चपटिच्छादिकाय वट्टमूलकअविज्जाय समतिक्कमेन, ...., स. नि. अट्ठ. 1.307; - समुग्घात त्रि., तत्पु. स. [अविद्यासमुद्घात], अर्हत्वमार्ग से अविद्या का नाश होने पर नष्ट होने वाला, अविद्या को पूर्ण रूप से ध्वस्त कर देने से नष्ट हो जाने वाला - ग्घाता प्र. वि., ए. व. - ... सब्बे ते अविज्जामूलका अविज्जासमोसरणा अविज्जासमुग्घाता, सब्बे ते समुग्घात गच्छन्ति, स. नि. 1(2).240; अविज्जासमुग्घाताति अरहत्तमग्गेन अविज्जाय समुग्घातेन ...., स. नि. अट्ठ. 2.198; - समुदय पु., तत्पु. स. [अविद्यासमुदय], अविद्या का उदय, अविद्या की उत्पत्तिया' प्र. वि., ब. क. - सङ्घारा अविज्जानिदाना अविज्जासमुदया अविज्जाजातिका अविज्जापभवा, म. नि. 1.983; - या प.. वि. ए. व. - अविज्जासम्दया रूपसमुदयोति - पच्चयसमुदयढेन रूपक्खन्धस्स उदयं पस्सति, पटि. म. 49; अविज्जासमुदया सङ्घारसमुदयो, अविज्जानिरोधा सङ्कारनिरोधो, म. नि. 1.69; - समोसरण त्रि., तत्पु. स. [अविद्यासमवसरण], अविद्या से ग्रस्त चित्त में जमावड़ा करने वाला या एक साथ आ जुटने वाला (अकुशल-धर्म) - णा पु., प्र. वि., ब, व. - ये केचि अकुसलाधम्मा सब्बे
ते अविज्जामूलका अविज्जासमोसरणा अविज्जासमुग्घाता, सब्बे ते समुग्घातं गच्छन्ति, स. नि. 1(2).240; - सम्पयुत्त त्रि, तत्पु. स. [अविद्यासम्प्रयुक्त], अज्ञान के साथ जुड़ा हुआ - त्तो पु., प्र. वि., ए. व. - अविज्जापच्चया सङ्घारो
अविज्जासम्पयुत्तो, सङ्घारपच्चया विज्ञाणं सङ्घारसम्पयुत्तं, विभ. 159; - सम्फस्सज त्रि., तत्पु. स. [अविद्यासंस्पर्शज], अविद्या से जुड़े हुए स्पर्श नामक चेतसिक से उत्पन्न -- जेन नपुं., तृ. वि., ए. व. - अविज्जासम्फस्सजेन, भिक्खवे, वेदयितेन फुट्ठस्स अस्सुतवतो पुथुज्जनस्स अस्मीतिपिस्स होति, स. नि. 2(1).43; अविज्जासम्फस्सजेनाति अविज्जासम्पयुत्तफरसतो जातेन, स. नि. अठ्ठ. 2.239; - सम्भूत त्रि., तत्पु. स. [अविद्यासम्भूत], अविद्या के कारण उत्पन्न - तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - चक्खु अविज्जासम्भूतन्ति ववत्थेति, पटि. म. 69; - सम्मूळ्हत्त नपुं॰, सम्मूळ्ह का भाव. [अविद्यासम्मूढत्व], अविद्या के कारण उत्पन्न मूढ़ता या मोहग्रस्तता - त्ता प. वि., ए. व. - अविज्जासमूळ्हत्ताति भवादीनवप्पटिच्छादिकाय अविज्जाय सम्मूळ्हत्ता, विसुद्धि. महाटी. 2.270; - ज्जासव पु., तत्पु. स. [अविद्यास्रव], चार प्रकार के आस्रवों में से एक, अविद्या का आस्रव, जिसके कारण चार आर्य सत्यों का ज्ञान-दर्शन नहीं हो पाता - वो प्र. वि., ए. व. - अनुप्पन्नो वा अविज्जासवो न उप्पज्जति, उप्पन्नो वा अविज्जासवो पहीयति, म. नि. 1.11; अविज्जासवोति चतूसु सच्चेसु अजाणं. म. नि. अट्ट. (मू.प.) 1(1).73; विशेष द्रष्ट. आसव के अन्त०; - सहगतकिलेस पु., कर्म. स. [अविद्यासहगतक्लेश], अविद्या के साथ जुड़ा हुआ क्लेश, अविद्या के साथ रहने वाला क्लेश - से सप्त. वि., ए. व. - अविज्जाय च अविज्जासहगतकिलेसे च खन्धे च न कम्पति न चलति न वेधतीति, पटि. म. 91; अविज्जा सहगतकिलेसे चाति यथायोग अविज्जाय सम्पयुत्तलोभदोसमानदिट्ठिविचिकिच्छाथिनउद्धच्चअहिरि-कअनोत्तप्पकिलेसे च..... पटि. म. अट्ठ. 1.257; - सीस नपुं., तत्पु. स. [अविद्याशीर्ष], सिर के रूप में अविद्या, शीर्षक के तौर पर अविद्या - सेन तृ. वि., ए. व. - अथ च पन पञ्जायति इदप्पच्चया अविज्जाति एवं अविज्जासीसेन कथिता, दी. नि. अट्ठ. 2.87; अविज्जासीसेनाति अविज्ज उत्तमङ्ग कत्वा, अविज्जामुखेनाति अत्थो, लीन. (दी.नि.टी.) 2.99; - सोत पु./नपुं.. तत्पु. स. [अविद्यास्रोतस], अविद्या का झरना या प्रपात - तण्हासोतो दिविसोतो... अविज्जासोतो ति आदीसु
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अविञ्ञत्त
तण्हादीसु पञ्चसु धम्मेसु पटि. म. अट्ठ. 1.11; सेय्यथीद तण्हासोतो दिट्ठिसोतो किलेससोतो दुच्चरितसोतो अविज्जास्रोतोंति आदीसु तण्हादीसु पञ्चसु धम्मेसु सह 2.492 हेतुक त्रि. ब. स. [ अविद्याहेतुक] अविद्या के कारण से उत्पन्न को पु०, प्र. वि., ए. व. - अविज्जापच्चया सद्दारो अविज्जाहेतुको सङ्घारपच्चया विज्ञाणं सङ्कारहेतुकं विभ. 158; ज्जुपक्किलि त्रि. तत्पु. स. [अविद्योपक्लिष्ट], अविद्या द्वारा कलुषित कर दिया गया, अज्ञान के कारण अविशुद्ध कर दिया गया - लिट्ठा स्त्री०, प्र. वि., ए. व. - रागुपक्किलिट्टं वा अविज्जुपक्कि लिट्टा वा पञ्ञा न भावीयति, अ. नि. 1 ( 1 ). 77, अविज्जुपविकलिद्वा वा पञ्ञा न भावीयतीति अविज्जाय उपक्किलिङत्ता मग्गयज्ञा न भावीयतीति दस्सेति, अ० नि० अट्ठ 2.27; - ज्जुपनिस त्रि. ब. स., अविद्या को सर्वप्रमुख बनाकर उत्पन्न, अविद्या के कारण से उत्पन्न सापु०, प्र. वि., ब.व. इति खो, भिक्खवे, अविज्जुपनिसा सङ्घारा सङ्घारूपनिसं विज्ञाणं विञ्ञाणूपनिसं नामरूपं, स० नि० 1 (2). 29 - ज्जूपसम पु०, तत्पु० स० [अविद्योपशम ], अज्ञान का उपशमन, अविद्या की समाप्ति मा प.वि., ए. व. - तदा अविज्जुपसमा उपसन्तो वरिस्तीति विभ अट्ट 142 - ज्जोघ पु.. तत्पु० स० [ अविद्यौघ], चार प्रकार के ओघों में से एक, बाढ़ के रूप में पुञ्जीभूत अविद्या, चित्त में अविद्या का समुच्चय - घो प्र. वि., ए. व. - कामोघो, भवोघो दिट्ठोघो, अविज्जोघो
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इमे खो, आवुसो, चत्तारो ओघाति, स. नि. 2 (2). 251; ओधमतरीति एत्थ चत्तारो ओघा, कामोघो भवोघो दिद्वोघो अविज्जोघोति, स. नि. अट्ठ. 1.17.
633
अविञ्ञत्त त्रि. विञ्ञत्त का निषे [ अविज्ञप्त], कायविज्ञप्ति एवं वचीविज्ञप्ति द्वारा अप्रकाशित, अनुमोदन न किया हुआ तं नपुं० द्वि. वि., ए. व. अविज्ञत्तं निवासेमिचीवरं पच्चयञ्चहं, अप. 1.296.
अविञ्ञत्ति स्त्री विज्ञत्ति का निषे [अविज्ञप्ति ] विज्ञप्ति (कायविज्ञप्ति या वचीविज्ञप्ति) का अभाव अविञ्ञत्ति दुस्सिल्यन्ति? अविज्ञति दुस्सिल्यन्ति, कथा, कथा, 358359; इदानि अविञ्ञत्ति दुस्सील्यन्तिकथा नाम होति. कथा. अ. 221 जनत्त नपुं. भाव. [ अविज्ञप्तिजन्यत्व], काय अथवा वाणी के द्वारों से प्रकाशित विज्ञप्ति द्वारा उत्पन्न नहीं होना - त्ता प. वि., ए. व. अविञ्ञत्तिजनत्ता हि अविपाकसभावतो अमि, अव 8 ता जनेन्तीति विश्ञतिजना, न विज्ञतिजना अविञ्ञत्तिजना, तेसं भावो
अविञ्ञातवादी
अविज्ञतिजनल तस्मा अविज्ञसिजनता कायविञ्ञत्तिवचीविञ्ञत्तिसङ्घातानं कम्मद्वारानं अजनकत्ता अभि. अव. पु. टी. 10.
अविज्ञाण त्रि. ब. स. [ अविज्ञान] चेतनारहित बिना विज्ञान वाला णो पु. प्र. वि. ए. व. अयं सो अरूपी अवेदनो असजी असद्वारो अविज्ञाणो तथागतोति समनुपस्ससीति, स. नि. 2 (1).102; कत्रि०, ब० स० [अविज्ञानक], निर्जीव, निष्प्राण, निश्चेतन को पु०, प्र० वि. ए. व. अत्ताति वा सविज्ञाणको खन्धसन्तानो, अविज्ञाणको लोको, उदा. अड्ड. 281 कं नपुं. प्र. कि.. ए. व. सब्बे अत्तनो सन्तकं सविज्ञाणकं अवित्र्ञाणक मज्झे भिन्दित्वा उपड्डूमेव अदासि, जा० अट्ठ. 1.445; त्त नपुं. भाव. [अविज्ञानकत्व] निश्चेतनता, निर्जीवता त्ता प. वि. ए. व. तथापि तानि अविज्ञाणकत्ता तदत्थानं इत्थिदब्बेसु वत्ततीति वत्तुं न युज्जति, सद्द० 1.212; कासुम नपुं. कर्म. स. [ अविज्ञानका शुभ] ध्यान का निर्जीव अशुभ आलम्बन भेसु सप्त. वि., ब. व. उद्धमातक विनीलकं विपुब्बकं... अट्टिकन्ति दससु अविञ्ञाणकासुभेसु भरता विय... विसुद्धि. 1.171; अविञ्ञाणकासुभेसूति इदं उद्धमातकादीनं सभावदस्सनवसेन वुत्तं विसुद्धि. महाटी.
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1.189.
अविज्ञात त्रि वि + के भू. क. कृ. का निषे. [ अविज्ञात] नहीं जाना हुआ, ठीक से नहीं समझा हुआ - तं नपुं. द्वि. कि. ए. व. न तुम्हे अदिन असुतं अमुतं, अथो अविज्ञातं किञ्चनमत्थि लोके सु. नि. 1128; न तरस अदिवमिधत्थि किञ्चि, अथो अविज्ञातमजानितब्य, महानि. 265; अविञ्ञातन्ति अतीतकालिकं अविञ्ञातं नाम किञ्चि धम्मजातं नाहोसीति पाठसेसो महानि, अनु 314 ते सप्त वि. ए. व. अविज्ञाते अविज्ञातवादी होति. अ. नि. 1(2).259.
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अविज्ञातु पु. वि + ञ के क. ना. विज्ञातु का निषे. [अविज्ञातृ], ठीक से नहीं जानने वाला, अज्ञानी - तारेसु सप्त. वि. ब. व. जनपदेसु पच्चाजातो होति मिलक्खेसु अविज्ञातारेसु दी. नि. 3210: अथ खो एतेव सत्ता बहुतरा ये पच्चतिमेसु जनपदेसु पच्चाजायन्ति अविज्ञातारेसु मिलक्खेसु. अ. नि. 1 (1) 48. अविञ्ञातवादी त्रि, [ अविज्ञातवादिन्], नहीं जानने की बात बोलने वाला दी पु.. प्र. वि. ए. व. अविज्ञाते अविज्ञातवादी होति., अ. नि. 1 (2). 259 - दिता स्त्री..
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अविञापितत्थ
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अवितक्कित
भाव. [अविज्ञातवादिता], नहीं जानने की बात बोलना - मुते अमुतवादिता, विआते अविज्ञातवादिता, अ. नि. 3(1).131. अविज्ञापितत्थ त्रि., ब. स. [अविज्ञापितार्थ], वह, जिसे धर्म के तात्पर्य की शिक्षा नहीं दी गई है, धर्म के सही अर्थ की शिक्षा को प्राप्त न किया हुआ - त्था पु., प्र. वि., ब. व. - अविआपितत्था चम्ह सद्धम्मे, न च नो केवलं परिपूर ब्रह्मचरियं आविकतं होति, दी. नि. 3.90; अविञापितत्थाति
अबोधितत्था, दी. नि. अट्ठ. 3.84. अवि त्रि., विज्ञ्जू का निषे. [अविज्ञ]. बुद्धिहीन, परिपक्व बुद्धि से रहित - अविद्दसूति अविज्यू, ध. प. अट्ठ. 2.227; महानि. अट्ठ. 147; - अता स्त्री॰, भाव. [अविज्ञता], बुद्धिहीनता, अज्ञानता -- तं द्वि. वि., ए. व. - गामदारकानं वा अवि तं पत्तानं सावेति, पारा. अट्ट. 1.204 - अस्स ष. वि., ए. व. - अविञ्जुस्स सावेति, अपच्चक्खाता होति सिक्खा, पारा. 30; अविझुस्स सावेतीति महल्लकस्स वा
पोत्थकरूपसदिसस्स, गरुमेधस्स वा समये अकोविदस्स ..... पारा. अट्ट, 1.204. अवित त्रि., अव का भू. क. कृ., रक्षित, रक्षा किया हुआ - रक्खितं गोपितं गुत्तं तातं गोपायिताविता, अभि. प. 754; तुल०, त्राणं त्रातं रक्षितमवितं गोपायितं च गुप्तं च, अमर. 3.1.105. अवितक्क 1. पु., वितक्क का निषे., तत्पु. स. [अवितर्क]. वितर्क का अभाव - क्कं द्वि. वि., ए. व. - अवितक्क समापन्नो, सम्मासम्बुद्धसावको, थेरगा. 650; तत्थ अवितक्कं समापन्नोति, वितक्कविरहितं दुतियादिझानं समापन्नो, थेरगा. अट्ठ. 2.204; - स्स ष. वि., ए. व.- निसिन्ना रुक्खमूलम्हि, अवितक्कस्स लाभिनी, थेरीगा. 75; अवितक्कस्स लाभिनीति सा अहं एवं पमादविहारिनी समाना अज्ज इदानि अय्यस्स, ... अग्गफलस्स अधिगमेन अवितक्करस लाभिनी अम्हीति योजना, थेरीगा. अट्ठ. 87; 2. त्रि., ब. स., वितर्क से रहित (चित्त या द्वितीय तथा अनेक आगे वाले ध्यानों की अवस्था) - क्को पु., प्र. वि., ए. व. - अवितक्कोम्हि अविचारो, अज्झत्तं सतिमा सुखमस्मीति पजानाति, स. नि. 3(1),233; यदपि अवितक्क अविचारो समाधि तदपि समाधिसम्बोज्झङ्गो, स. नि. 3(1).131; - क्कं नपुं, द्वि. वि., ए. व. - एकोदिभावं अवितक्कं अविचारं समाधिज पीतिसुखं दुतिय झानं उपसम्पज्ज विहासिं. पारा. 4; अवितक्कं अविचारन्ति भावनाय पहीनत्ता एतस्मिं एतस्स वा वितक्को नत्थीति
अवितक्क पारा. अट्ठ. 1.109; - क्कं नपुं.. प्र. वि., ब. क. - यं चे अवितक्कं अविचारं ये अवितक्के अविचारे ते पणीततरे, दी. नि. 2.205; - सुत्त नपुं., व्य. सं., स. नि. के खन्धवग्ग के सारिपुत्तसंयुत्त का दूसरा सुत्त, जिसमें वितर्क एवं विचार से रहित द्वितीय ध्यान का उल्लेख है, स. नि. 2(1).233; - अविचार त्रि., ब. स. [अवितर्काविचार], वितर्क एवं विचार से रहित - रो पु., प्र. वि., ए. व. -
अवितक्कविचारमत्तो समाधि, अवितक्कअविचारो समाधि, मि. प. 306; रूपक्खन्धो अवितक्कअविचारो ... सिया
अवितक्कअविचारा, विभ. 510; - झायी त्रि., अवितक्क + Vझा से व्यु., क्रि. वि. [अवितर्कध्यायिन], वितर्क से रहित ध्यान की भावना करने वाला - अञआय धम्म अवितक्कझायी, न कुप्पति न सरति न थिनो, स. नि. 1(1).149; अवितक्कझायीति अवितक्केन चतुत्थज्झानेन झायन्तो, स. नि. अट्ठ. 1.165; - विचारमत्त त्रि., ब. स. [अवितर्कविचारमात्र], पांच रूपध्यानों की पद्धति में दूसरा ध्यान, जिसमें वितर्क का अभाव रहता है तथा विचारमात्र रहता है - त्तो पु.. प्र. वि., ए. व. - तयो समाधी ... अवितक्कविचारमत्तो समाधि, दी. नि. 3.175; पञ्चकनयेन दुतियज्झानसमाधि अवितक्कविचारमत्तो, दी. नि. अट्ठ. 3.168; - त्तं द्वि. वि., ए. व. - सो अवितक्कविचारमत्तं समाधि पटिलभति, विसुद्धि. 1.85; - सहगत त्रि, तत्पु. स. [अवितर्कसहगत], वितर्क से रहित, वितर्क के साथ न रहने वाला (द्वितीय ध्यान) - ता पु., प्र. वि., ब. व. - अवितक्कसहगता सामनसिकारा समुदाचरन्ति, पटि. म. 31; विसुद्धि. 1.87; अवितक्कसहगताति दुतियज्झानारम्मणा, पटि. म. अट्ठ. 1.119; - काविचार त्रि., ब. स. [अवितर्काविचार], वितर्क एवं विचार से मुक्त (तृतीय ध्यान) - रो पु., प्र. वि., ए. व. - किलेसवितक्कविचारेहि
अवितक्काविचारो, स. नि. अट्ठ. 3.236. अवितक्कित त्रि., वि + Vतक्क के भू. क. कृ. का निषे. [अवितर्कित], 1. कर्म. वा. में, अचिन्तित, वह, जिसके विषय में सोचा न गया हो- तो पु., प्र. वि., ए. व. - तेसं अवितक्कितो अचिन्तितोपि मरणफस्सो आगच्छतीति दरसेति, जा. अट्ठ. 4.241; 2 कर्तृ. वा. में, चिन्तन न करने वाला, सोच विचार न करने वाला - विकता पु.. प्र. वि., ब. व. - बहू हि फस्सा अहिता हिता च, अवितक्किता मच्चुमुपब्बजन्ति, जा. अट्ठ. 4.241; जा. अट्ठ, 6.50%; अवितक्किताति अवितक्कितारो अचिन्तितारो, जा. अट्ट, 6.51.
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अवितथ
635
अविदित
अवितथ त्रि., वितथ का निषे. [अवितथ], सही, सत्य, यथार्थ, पूर्ण, वह, जो झूठा न हो, सच्चा - थं नपुं., प्र. वि., ए. व. - सम्मा'व्ययं चा वितथं सच्चं तच्छं यथातथं, अभि. प. 127; भूतं तथं अवितथं तिपुक्खलं तं नयं आह, नेत्ति. 5; सभावस्स अमोघताय अवितथं स. नि. अट्ट, 3.328; - थानि ब. व. - तथानि अवितथानि अनञ्जथानि, ... तथमेतं अवितथमेतं अनाथमेतं इमानि खो, भिक्खवे, चत्तारि तथानि अवितथानि अनथानि, स. नि. 3(2).493; म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).54; - था स्त्री., प्र. वि., ए. व. - भगवता अभिसम्बुद्धोति एवम्पि अभिसम्बोधि तथा अवितथा अनजथा, उदा. अट्ठ. 120; - ग्गाहक त्रि., [अवितथग्राहक], यथार्थ या सत्य का ग्रहण करने वाला, सच्चाई को पकड़ लेने वाला - कस्स नपुं., ष. वि., ए. व. - अरियाणस्साति अरियस्स अवितथगाहकस्स आणस्स तेन पटिवेधञाणं विय पच्चपेक्खणजाणम्पि गहितं होति, विसुद्धि. महाटी. 2.181; - ता स्त्री., भाव. [अवितथता], यथार्थता, सच्चाई, झूठा या मिथ्या न रहना, अविसंवादिता - या तत्र तथता अवितथता अनञथता इदप्पच्चयता, स. नि. 1(2).24; सामग्गिं उपगतेसु पच्चयेसु मुहत्तम्पि ततो निब्बत्तानं धम्मानं असम्भवाभावतो अवितथाताति, स. नि. अट्ठ. 2.37; विसुद्धि. 2.147; - नाम त्रि०, ब. स. [अवितथनामन्]. यथार्थ नाम वाला, गुणों या लक्षणों के अनुरूप नाम वाला - मो पु.. प्र. वि., ए. व. - सच्चनामोति तच्छनामो भूतनामो आगुं अकरणेनेव नागोति एवं अवितथनामो, अ. नि. अट्ठ. 3.114; - भाव पु., [अवितथभाव], झूठे या दूसरे रूप का न होना, यथार्थता, सत्यता - वेन तृ. वि., ए. व. - अवितथभावेन सच्चानि चाति अरियसच्चानि, इतिवु. अट्ठ. 75; - वचन त्रि., ब. स. [अवितथवचन], यथार्थ या सत्य वचन बोलने वाला, अपनी कही बात को न काटने वाला, सत्यवादी - तो प. वि., ए. व. - अवितथवचनतो सच्चवादीति एवमत्थो दहब्बो, सु. नि. अट्ट, 1.89; - वादी त्रि., [अवितथवादिन]. सत्यवादी, सच बोलने वाला - ननु भगवा सच्चवादी कालवादी भूतवादी तथवादी अवितथवादी अनजथवादीति?, कथा. 64; ... अवितथवादीति सङ्घयं गच्छेय्य, पारा, अट्ट, 1.97. अवितिण्णकंख त्रि., ब. स. [अवितीर्णकांक्ष], सन्देह या शङ्का के ऊपर नहीं उठा हुआ, संशयालु, शङ्का भरी मनोवृत्ति वाला - लो पु., प्र. वि., ए. व. - इधेव धम्म अविभावयित्वा, अवितिण्णकडो मरणं उपेति, सु. नि. 320; सयं अजानं अवितिण्णकङ्को, किं सो परे सक्खति निज्झपेतं. स. नि.
322; -ङ्ख पु., द्वि. वि., ए. व. - मन्ताहुती यज्ञमुतूपसेवना, सोधेन्ति मच्चं अवितिण्णकडं सु. नि. 252; अवितिण्णकवन्ति किलेससुद्धिया वा भवसुद्धिया वा अवितिण्णविचिकिच्छं...
सु. नि. अट्ठ. 1.266. अवित्थनता स्त्री., अवित्थन का भाव., कठोरता या भारीपन का अभाव, हलकापन, भारीपन का न होना - ता प्र. वि., ए. व. - सङ्कारक्खन्धस्स लहुता लहुपरिणामता अदन्धनता अवित्थनता, ध. स. 42, 43; अवित्थनताति मानादिकिलेसभारस्स अभावेन अथद्धता, ध. स. अट्ठ. 194. अवित्थायन्तु त्रि., वर्त. कृ. [अविस्त्यायत्], नहीं घबड़ा रहा, मोहग्रस्त या संशयग्रस्त नहीं हो रहा - यन्तेन पु., तृ. वि., ए. व. - न हि सक्का अखीणासवेन असम्बद्धन अवित्थायन्तेन पदीपसहस्सं जालेन्तेन विय, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).255; तेसु कत्थचिपि असम्मुव्हनतो अवित्थायन्तेन ..., म. नि. टी. (म.प.) 2.258. अवित्थार पु., वित्थार का निषे. [अविस्तार], विस्तार का अभाव, संक्षेप - रेन तृ. वि., ए. व. - पुट्ठो खो पन पहाभिनीतो हापेत्वा लम्बित्वा अपरिपूरं अवित्थारेन परस्स वण्णं भासिता होति, अ. नि. 1(2).90... अविदित त्रि., विद के भू. क. कृ. का निषे. [अविदित, नहीं जाना हुआ, अज्ञात, अनुभव में न आया हुआ - तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - नत्थि किञ्चि ब्रह्मनो अविदितं, नत्थि किञ्चि ब्रह्मनो असच्छिकतान्ति, दी. नि. 1.202; अय्यो देवदत्तो महानुभावो, एतस्स अविदितं नाम नत्थी ति, दी. नि. अट्ट, 1.115; - तो पु., प्र. वि., ए. व. - यमहं सत्थु अनारोचेत्वा सब्रह्मचारीहि च अविदितो इध यथानिसिन्नोव परिनिब्बायिस्सामि, उदा. अट्ठ. 348; - ता ब. व- न आगता वा गता वा अस्सासपस्सासा अविदिता होन्ति, पटि. म. 165; - कम्मापदान त्रि., ब. स. [अविदितकर्मापदान], वह, जिसके गुण या उत्कृष्ट कर्म विदित न हों, अप्रकट गुणों एवं कर्मों वाला - तत्थ अज्ञातोति अपाकटगुणो अविदितकम्मावदानो, जा. अट्ठ. 7.186; - तग्ग त्रि., ब. स. [अविदिताग्र], अज्ञात आदि एवं अन्त वाला, वह, जिसके प्रारम्भ एवं अन्त का ज्ञान न हो - अनमतग्गोयन्ति अयं संसारो अविदितग्गो, चूळनि. अट्ट. 31; वस्ससतं वस्ससहस्सं जाणेन अनुगन्त्वापि अनमतग्गो अविदितग्गो, स. नि. अठ्ठ. 2.139; - त्त नपुं., भाव. [अविदिताग्रत्व], आदि या प्रारम्भ का अज्ञात होना - त्ता प. वि., ए. व. - आणेन अनुगन्वापि अमतग्गत्ता अविदितग्गत्ता इमिना दीघेन अद्धना सत्तानं
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अविदित 636
अविनट्ठ संसरतं, .... थेरीगा. अट्ठ. 312; - तादि त्रि., ब. स. ति वुत्तं, सद्द. 1.107; - मग्ग पु., तत्पु. स. [अविदूरमार्ग], [अविदितादि], अज्ञात प्रारम्भ वाला, वह, जिसके प्रारम्भ का पास वाला रास्ता, निकट में स्थित मार्ग - ग्गेन तृ. वि., ज्ञान नहीं है - दि नपुं., प्र. वि., ए. व. - सोकादीहि ए. व., क्रि. वि. -- अविदूरे अतिक्कमन्तीति अविदूरमग्गेन अविज्जा, सिद्धा भवचक्कमविदितादिमिदं ... कथमिदं भवचक्कं नगरं पविसन्ति, स. नि. अट्ठ. 1.131. अविदितादि, कथं कारकवेदकरहितं, विसुद्धि. 2.2093; अविदूरेनिदान नपुं, जा. अट्ठ. का वह भाग, जिसमें अविदितादि मिदन्ति मकारो पदसन्धिकरो, विसुद्धि. महाटी. तुसितभवन में बोधिसत्त्व के निवास से लेकर बोधिमण्डप में 2.314.
बोधिज्ञान की प्राप्ति का विवरण है, जा. अट्ठ. 1.58-85; इति अविदू त्रि., विदू का निषे॰ [अविद्वत्], अविद्वान्, अपण्डित, तुसितपुरतो पट्ठाय याव अयं बोधिमण्डे सब्बतप्पत्ति, अज्ञानी, मूर्ख - यं सो अविदू अन्धबालो लोभजञ्च दोसजञ्च एतकं ठानं अविदूरेनिदानं नामाति वेदितब्ब, जा. अट्ठ. मोहजञ्चाति कम्मं करोति, अ. नि. अट्ठ. 2.115; - दुनो 1.85; ... ताव पवत्तो कथामग्गो अविदूरेनिदानं नाम, जा. पु., ष. वि., ए. व. - यथा तं अविद्दसुनोति यथा अविदुनो अट्ठ. 1.3. बालस्स अन्धपुथुज्जनस्स. म. नि. अट्ठ. (मू.प.) अविद्दसू त्रि., [अविद्वत्], अविद्वान, अज्ञानी, मूर्ख - सु पु., 1(2).269.
प्र. वि., ए. व. - न मोनेन मुनी होति, मूळहरूपो अविद्दसु, अविदूर त्रि., विदूर का निषे. [अविदूर], वह, जो बहुत दूर ध. प. 268; अविद्दसूति अवियू ध. प. अट्ठ. 2.227; - में स्थित नहीं है, समीपवर्ती, पास में मौजूद - अविदूर च सुनो पु, ष. वि., ए. व. - सा पनावुसो, निट्ठा विद्दसुनो सामन्तं सन्निकट्ठमुपन्तिकं, अभि. प. 706; - रं नपुं.. प्र. उदाहु अविद्दसुनो ति?... सा निट्ठा अविद्दसुनोति, म. नि. वि., ए. व. - तस्मिं कुलावकरस अविदूरं अभिरुळहे सरे 1.95; तथापि एवं तिद्वन्ति जातयो अविद्दसुनोति अधिप्पायो, निमुज्जित्वा, ..., जा. अट्ठ. 4.260; - तो प. वि., ए. व. - पे. व. अट्ठ. 16. पच्चुग्गता में तिट्ठन्ति, अस्समरसाविदूरतो. जा. अट्ठ. अविद्धकण्ण त्रि., ब. स. [अविद्धकर्ण], वह, जिसका कर्णवध 7.331; - रे सप्त. वि., ए. व. - अयं, भन्ते, रम्मकस्स या कान छेदने का संस्कार नहीं किया गया है, नहीं छिदे ब्राह्मणरस अस्समो अविदूरे, म. नि. 1.219; कस्सपस्स हुए कानों वाला - ण्णो पु., प्र. वि., ए. व. -- अविद्धकण्णो भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स अविदूरे आरामो, म. नि. वा योनकजातिको पन परिसदूसको न होति, महाव. अट्ट. 2.249; - रम्हि सप्त. वि., ए. व. - इस आगच्छतोरेन, 294; सचे अविद्धकण्णो, तम्पि अविद्धकण्णन्ति एवं सब्बाकारह अविदूरम्हि गायतु, जा. अट्ठ. 4.426; - गत त्रि., तत्पु. स. तेन सदिसमेव होति, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 2.184. [अविदूरगत], बहुत दूर नहीं पहुंचा हुआ, समीप में ही अविदवन्तु त्रि., केवल प्र. वि., ए. व. में ही प्राप्त [अविद्वत्]. स्थित - तं स्त्री., द्वि. वि., ए. व. - इन्दसालगुहा, अविद्या या अज्ञान से ग्रस्त, अज्ञानी, मूर्ख- तत्थ अविद्वाति पियङगुहा सेरीसकन्तिआदिका अविदूरगतं उपनिधाय.... पु. अविद्दसु, विसुद्धि. महाटी. 2.250. प. अट्ठ. 28; - गतूपनिधा स्त्री., समीप वाली वस्तु अविधेय्यता स्त्री., अविधेय्य का भाव. [अविधेयता], किसी के आधार पर दिया गया नाम, आठ प्रकार की उपनिट भी विधान, आज्ञा या नियम का विषय न होना- य प. वि., प्रज्ञप्तियों में से एक - अविदूरगतं उपनिधाय वुत्तताय । ए. व. - अवसताय, अविधेय्यताय च परतो, विसुद्धि. 2.246; अविदूरगतूपनिधा नाम, पु. प. अट्ठ. 28; - गमन नपुं.. अविधेय्यतायाति मा जीरथ, मा मीयथा ति आदिना विधातं तत्पु. स. [अविदूरगमन], बहुत दूर नहीं जाना, पास में ही असक्कुणेय्यतो, विसुद्धि. महाटी. 371. जाना - नेन तृ. वि., ए. व. - अप्पिच्छा अप्पचिन्ताय, । अविनट्ठ त्रि., वि + vनस के भू. क. कृ. का निषे. [अविनष्ट], अदुरगमनेन च, जा. अट्ठ. 3.275; अदूरगमनेन चाति वह, जो नष्ट या समाप्त नहीं हुआ है, विद्यमान, जीवित - असुकस्मि नाम ठाने मधुरं लभिस्सामी ति चिन्तेत्वा ट्ठो पु., प्र. वि., ए. व. - चिरकालसमङ्गितो तया, अविनट्ठो अविदूरगमनेन च, तदे.; - त्त नपुं., भाव. [अविदूरत्व], दूर पुनरन्तरं चिरं अप. 2.69; - लुम्हि/टे पु., सप्त. वि., ए. में स्थित नहीं होना, समीपवर्ती रहना - त्ता प. वि., ए. व. व. - विनये अविनहम्हि, पुन तिद्वति सासन, महाव. 1253; - तासं अविदूरत्ता 'उत्तरापो तिपि वुच्चति, सु. नि. अट्ठ गतमग्गे पदवलजे अविनडेयेव मच्चु नलाटेनादाय आगता, 2.145; सद्द, 1.109; तासं अविदूरत्ता सो जनपदो उत्तरापो जा. अट्ठ. 5.294.
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अविनय
637
अविनिब्भुत्त अविनय पु.. [अविनय], दुराचार, विनय का अभाव, असंयत __- न त्रि., ब. स., कभी विनष्ट न होने वाला, अविनाशी
आचरण - यो प्र. वि., ए. व. - पुरे अविनयो दिप्पति स्वभाव वाला - नं पु., द्वि. वि., ए. व. - पविभत्तं इमं थेर विनयो पटिबाहिय्यति, चूळव. 453; पारा. अट्ट, 1.6; - यं सद्धम्म अविनासनं, दी. वं. 4.21. द्वि. वि., ए. व. - ये ते, भिक्खवे, भिक्खू अविनयं विनयोति अविनासितज्झान त्रि., ब. स. [अविनाशितध्यान], वह, दीपेन्ति, अ. नि. 1(1).25, धम्म धम्मोति वदामि, अविनयं जिसने ध्यान को भग्न या विनष्ट नहीं किया है, ध्यान को अविनयतोति वदामि, चूळव. 464; - ये सप्त. वि., ए. व. न त्यागने वाला - नो पु., प्र. वि., ए. व. - बहि -- यो च अविनये विनयसञी, यो च विनये अविनयसञी. अनीहटज्झानो, अविनासितज्झानो वा, नीहरणविनासत्यहि अ. नि. 1(1).103; - कम्म नपुं.. तत्पु. स. [अविनयकर्मन्]. इदं निराकरणं नाम, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).166; - ना विनय नियमों से विपरीत आचरण, विनय-विरुद्ध कार्य - ब. व. - अनिराकतज्झानाति बहि अनीहतज्झाना म्म प्र. वि., ए. व. - अधम्मकम्मं तं उपालि, अविनयकम्मन्ति, अविनासितज्झाना वा. इतिवु. अट्ठ. 147. महाव. 424, - म्मानि ब. व. - अविनयकम्मानि पवत्तन्ति अविनिच्छयञ्ज त्रि. विनिच्छयञ्जू का निषे. [अविनिश्चयज्ञ]. विनयकम्मानि नप्पवत्तन्ति, ... अविनयकम्मानि दिप्पन्ति, अ. निश्चय करने में असमर्थ, निर्णय में अक्षम - अविनिच्छयञ्ज नि. 1(1),90; - धारिता स्त्री., भाव. [अविनयधारित्व], अत्थेसु, मन्दोव पटिभासि में, जा. अट्ठ. 5.361. विनय-नियमों में अशिक्षित होना, विनय को धारण न करना अविनिच्छित त्रि., वि + नि + चि के भू. क. कृ. का निषे. - य त. वि., ए. व. -. अविनयधारिताय मजे त्वं अजानन्तो [अविनिश्चित], निश्चय नहीं किया हुआ, अनिर्णीत, एवं वदेसी ति, ध. स. अट्ठ, 30; - वादी त्रि.. [अविनयवादिन], समाधान नहीं किया गया, उलझन भरा - सकलजम्बुदीपे विनय के विपरीत बातें बोलने वाला - भिक्खू एवमाहंसु- किर अविनिच्छितो पहो मम सन्तिकं आगतो, जा. अट्ठ. 5.59. अधम्मवादी देवदत्तो, अविनयवादी देवदत्तो, पारा. 2743; अविनिपातधम्म त्रि., विनिपातधम्म का निषे. अकालवादी अभूतवादी अनत्थवादी अधम्मवादी अविनयवादी, अविनिपातधर्मन]. नरक जैसी दुखदायक अधोगतियों में म. नि. 1.360; - दिनो ब. व. -- पुरे अविनयवादिनो जन्म न लेने वाला - म्मो पु०, प्र. वि., ए. व. - सो बलवन्तो होन्ति, विनयवादिनो दुब्बला होन्तीति, चूळव. सोतापन्नो अविनिपातधम्मो नियतो सम्बोधिपरायणोति, पारा. 453; - सजी त्रि., [अविनयसंज्ञी], (किसी काम को) 10; अविनिपातधम्मोति विनिपातेतीति विनिपातो, नास्स विनय के विपरीत समझने वाला - ञी पु, प्र. वि., ए. व. विनिपातो धम्मोति अविनिपातधम्मो, पारा. अट्ठ. 1.149; - - यो च अविनये अविनयसी , यो च विनये विनयसञी. म्मा ब. व. - अतिरच्छानगामिनोति देसनामत्तमेत, अ. नि. 1(1).103.
अविनिपातधम्माति अत्थो, स. नि. अट्ठ. 1.194. अविनास पु., विनास का निषे०, तत्पु. स. [अविनाश]. अविनिपातसभाव त्रि., ब. स. [अविनिपातस्वभाव], नरक विनाश का अभाव, नित्यता - क त्रि०, विनासक का निषे०, जैसी अपायभूमियों में न उत्पन्न होने वाले स्वभाव से युक्त ब. स. [अविनाशक]. विनाश न करने वाला, धन का - चतूसु अपायेसु अविनिपातनसभावोति अत्थो, स. नि. अट्ठ. अपव्यय न करने वाला/वाली - के पु., द्वि. वि., ब. व. 3.311. -- अनक्खाकितवे तात, असोण्डे अविनासके, जा. अट्ट. अविनिब्भुजन्त त्रि., वि + नि + vभुज के वर्त. कृ. का निषे. 5.111; अविनासकेति तव सन्तकानं धनधनादीनं अविनासके [अविनिर्भुजत्], अवगाहन या गहन अनुचिन्तन न करने जा. अट्ठ. 5.113; -- सिका स्त्री॰, प्र. वि., ए. व. -- तत्थ वाला, स्पष्ट प्रभेद या विभाजन नहीं कर रहा, अलग अलग च होति अधुत्ती अथेनी असोण्डी अविनासिका, अ. नि. करके नहीं दिखा रहा - मुजं पु.. प्र. वि., ए. व. - 3(1).94; - कायो ब. व. - तत्थ च भविस्साम अधुत्ती अथेनी बहुस्सुतं अनागम्म, धम्मट्ठ अविनिभुजं. जा. अट्ठ. 5.117; असोण्डी अविनासिकायो ति, अ. नि. 2(1).33;-धम्म त्रि., अविनिभुजन्ति अत्थानत्थं कारणाकारणं अनोगाहन्तो अतीरेन्तो विनासधम्म का निषे. [अविनाशधर्मन्], अविनाशी, कभी न कोचि पञ्ज अधिगच्छति, ताताति, जा. अट्ठ. 5.118. विनष्ट न होने वाला (निर्वाण), अविनश्वर स्वभाव वाला - अविनिब्भुत्त त्रि., वि + नि + vभुज के भू. क. कृ. का निषे. म्म नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अच्चन्तसङ्घातं अविनासधम्म [अविनिर्भुक्त, बौ. सं. अविनिर्भूत]. अन्य से पृथक् न किया निब्बानं निट्ठा अरसाति अच्चन्तनिट्ठो, अ. नि. अट्ठ. 3.342; हुआ, अन्य से अलग न करने योग्य, अवियुक्त, अविभाजित
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अविनिभोग
- त्ता स्त्री. प्र. वि. ए. व. तदा अविनिष्णुत्ता तेहि धम्मेहि अयं सञ्ञा, सज्ञा, इदं विश्राणं विसुद्धि 2.64; अविनिष्युत्ताति अवियुक्ता विसुद्धि महाटी. 2.72: त्तानं पु. ष. वि., ब. व. लक्खणादीहि पन अत्तना अविनिभुत्तानं धम्मानं अनुपालनलक्खणं जीवितिन्द्रिय, ध.
....
स. अट्ठ. 168.
-
अविनियोग 1. पु. वि नि + √भुज से व्यु. क्रि. ना. का निषे [ अविनिर्भोग], अपृथक्करण एक से दूसरे को अलग नहीं करना, अविभाजन गो प्र. वि. ए. व. विसु अभावो अविनियोगो विसुद्धि. महाटी. 2.238 अविनियोगवसेन रूपं एतेसं अत्थीति रूपिनो, ध० स० अट्ठ. 94 2. त्रि विभाजन या बिलगाव से रहित, दूसरे से अलग न किया हुआ, अविभाजित - गं नपुं, द्वि. वि., ए. व. - रूपवेदनादीसु कञ्चि एकधम्मम्पि अविनिभोगं कत्वा.... विभ, अट्ठ. 487; - गानि ब. क. एक घंटे अविनिष्भोगानि कत्वा निविखपति पारा. अट्ठ. 2.267-68; पच्चुपद्वान त्रि. ब. स. [अविनिर्भोगप्रत्युपस्थान], विभाजन के अभाव को प्रकट करने वाला, अविभाजन का प्रकाशक नं नपुं. प्र. वि., ए. व. नमन लक्खणं नाम, सम्पयोगरस अविनिब्भोगपच्चुपट्ठानं विञ्ञाणपदद्वानं, विसुद्धि. 2.157; रूप नपुं. कर्म. स. [ अविनिर्भोगरूप], ऐसे रूपधर्म, जो एक दूसरे से अलग-अलग होकर क्रियाशील नहीं होते, समूह में रहकर क्रियाशील रूपधर्मपं नपुं. प्र. वि., ए. व. वण्णो गन्धो रसो ओजा भूतचतुक्कञ्चेति अद्वविधम्पि अविनियोगरूपं अभि. घ. स. 44 अविनियोगरूपमेव जीवितेन सह जीवितनवकन्ति पवुच्चति, अभि. घ. स. 46: अविनियोगरूपं कत्थचिपि अञ्ञमञ्यं विनिभुज्ञ्जनस्स विसुं विसुं पवत्तिया अभावतो, अभि. ध. वि. 183; - सद्द पु. कर्म, स. [अविनिर्भोगशब्द ], रहस्यमय शब्द या आवाज, सुस्पष्ट रूप से न पहचानने योग्य शब्द, ऊँचा शब्द हं द्वि. वि. ए. व. पत्थटत्ता महन्तं अविनिब्भोगसद करोन्ता, म. नि. अट्ट (म.प.) 2.123; अङ्करत्तसमये सुतं निरानक अविनियोगसदं आरम्भ कथेसि,
-
-
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जा. अट्ठ. 3.379.
अविनीत त्रि वि + √नी के भू. क. कृ. विनीत का निषे. [अविनीत], अनियन्त्रित, नियन्त्रण के बाहर, वश में न रहने वाला, दमन न किये जाने योग्य अप्रशिक्षित ता पु. प्र. वि., ब. व. द्वे हत्थिदम्मा वा अस्सदम्मा वा गोदम्मा वा अदन्ता अविनीता, म. नि. 3.171; तं नपुं. प्र. वि., ए.
अविपक्कन्त
व. यानं अदन्तं अकारितं अविनीतं उप्पथं गण्हाति, महानि. 106 तो पु०, प्र. वि., ए. व. अतना अदन्तो अविनीतो अपरिनिब्बुतो परं दमेस्सति विनेस्सति परिनिब्यापेरसती ति म. नि. 1.56: असिक्खितविनयताय अविनीतो म.नि. अड. (मु.प.) 1 ( 1 ).202. अविन्दन्त त्रि, √विद के वर्त. कृ. का निषे [ अविन्दत्], प्राप्त न करता हुआ, नहीं पाता हुआ, अनुभव न करता हुआ न्तो पु. प्र. वि. ए. व. अनिब्बिसं तं जाणं अविन्दन्तो अलभन्तोयेव सन्धाविरसं संसरि ध. प. अड. 2.71 न्तियो स्त्री. प्र. वि. ब. व. ता तस्स सरीरसम्फस्स अविन्दन्तियो हुत्वा .... जा. अट्ठ. 6.10. अविन्दित्त्वा विद के पू. का. कृ. का निषे, नहीं प्राप्त कर के अलवा अलभित्वा अनधिगत्या अविन्दित्या अप्पटिलभित्वाति, ... चूळनि० 235.
"
"
अविन्दिय त्रि., √विद के सं. कृ. का निषे。, नहीं प्राप्त करने योग्य यं नपुं. द्वि. वि. ए. व. तं अविन्दियं विन्दतीति - अविज्जा विसुद्धि. 2.155; धम्मे धरमानकदेव खीणासव विञ्ञाणवसेन इन्दादीहि अविन्दियं वदामि म. नि. अट्ट (मू.प.) 1(2). 22.
अविन्देय्य त्रि, उपरिवत् य्यो पु. प्र. वि. ए. व. अननुविज्जोति असविज्जमानो वा अविन्देथ्यो वा म. नि. अट्ठ. ( मू.प.) 1 (2). 22. अविपक्क त्रि वि + √पच के भू० क० कृ० का निषे. [ अविपक्व ] नहीं पका हुआ अकुसलकम्मसमादानं उपचितं अविपक्कं विपाकाय पच्चुपट्ठितं, नेत्ति 81; अविपक्कन्ति न विपक्कविपाक नेति, अड. 288 विपाक त्रि ब. स. [अविपक्वविपाक] परिपक्व होने की अवस्था को अप्राप्त विपाक को अप्राप्त कं नपुं. प्र. वि., ए. व. पुब्बे पापकम्म कतं अविपक्कविपाक अ. नि. 1 ( 2 ) 228 - का पु. प्र. वि. ब. क. अतीता अविपक्कविपाका धम्मा एकच्चे अत्थि, कथा. 131; अविपक्कविपाकधम्मा एकच्चेति इदं यस्मा येसं सो अविपक्कविपाकानं अत्थितं इच्छति... एकदेसं अविपक्कविपाकाति विप्पकतविपाका वुच्चन्ति .. ताव तं विप्यकतविपाक नाम होति. कथा. अड. 152-53. अविपक्कन्त त्रि वि + + कम के भू० क० कृ० का निषे. [ अविप्रक्रान्त], कहीं दूसरी ओर नहीं गया हुआ, अचल, स्थिर - न्ता पु०, प्र. वि., ब. व. - सकेसु सकेसु आसनेसु ठिता अविपक्कन्ता दी. नि. 2.154; अविपक्कन्ताति अगता, दी. नि. अट्ठ. 2.208.
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अविपच्चनीकसातता
639
अविपस्सक अविपच्चनीकसातता स्त्री., भाव., विपरीत या विरुद्ध धर्म त्रि., [अविपरीतसंज्ञिन], धर्मों के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान के प्रति आस्वाद या रुचि का अभाव - सोवचस्सता रखने वाला, धर्मों के अनित्य, दुःख और अनात्मक लक्षणों अप्पटिकूलग्गाहिता अविपच्चनीकसातता सगारवता सादरियं का ज्ञान रखने वाला - चिनो पु., प्र. वि., ब. व. - सादरता सप्पस्सिवता, ध. स. 1334; पु. प. 130.
सच्चसञिनो ... याथावसञिनो अविपरीतमना अविपत्ति स्त्री., [अविपत्ति], विपत्ति या संकट का अभाव - अविपरीतसञिनो वदन्ति, महानि. 44, - सभाव पु.. या तृ. वि., ए. व. - दुतिये अजरसाति अजीरणेन, [अविपरीतस्वभाव], धर्मों का वास्तविक स्वभाव - वो प्र. अविपत्तियाति अत्थो, स. नि. अट्ठ. 1.83.
वि., ए. व. - अभिमुखं आणेन सम्मा एतब्बो अभिसमेतब्बोति अविपरिणामधम्म त्रि., ब. स. [अविपरिणामधर्मन], अभिसमयो, धम्मानं अविपरीतसभावो, उदा. अट्ठ. 17; - अपरिवर्तनीय, परिवर्तन न करने योग्य, संसारचक्र में तामिलाप पु., तत्पु. स. [अविपरीताभिलाप], यथार्थ कथन, संसरण से मुक्त, नित्य - म्मो पु.. प्र. वि., ए. व. - सो । सत्य का कथन - पो प्र. वि., ए. व. - धम्माभिलापोति निच्चो धुवो सरसतो अविपरिणामधम्मो सस्सतिसमं तथेव अत्थव्यञ्जनको अविपरीताभिलापो, सारत्थ. टी. 1.69; - ठस्सति, दी. नि. 1.16; जरावसेनापि विपरिणामस्स अभावतो तावबोध पु., कर्म. स. [अविपरीतावबोध], यथार्थ ज्ञान, अविपरिणामधम्मोति, दी. नि. अट्ठ. 1.96; - म्म नपुं., प्र. सही समझ, सम्यक् ज्ञान, भ्रम से मुक्त ज्ञान - धं द्वि. वि., वि., ए. व. - अच्चुतन्ति निच्च धुवं सस्सतं ए. व. - सच्चादिके च सुद्धिमग्गे अत्तनो अविपरीतावबोध अविपरिणामधम्मन्ति निब्बानपदमच्चुतं, चूळनि. 115; निब्बानं सब्बाकारतो विदित्वा .... उदा. अट्ठ. 61. निच्चं धुवं सस्सतं अविपरिणामधम्मन्ति असंहीरं असंकुप्पक, अविपल्लत्थ त्रि., विपल्लत्थ का निषे. [अविपर्यस्त], भीतर चूळनि. 207; इदं निच्चं, इदं धुवं, इदं सस्सतं, इदं । में उलट-पुलट से रहित, अपरिवर्तित, विपरीत अथवा अविपरिणामधम्मान्ति, नेत्ति. अट्ठ. 363.
अवास्तविक रूप में न समझा हुआ - त्था स्त्री, प्र. वि., अविपरीत त्रि., विपरीत का निषे., तत्पु. स. [अविपरीत]. ए. व. - एवम्पिस्स एसा, आनन्द, यथाभुच्चा अविपल्लत्था यथार्थ, वास्तविक, पूर्ण, सत्य, अप्रतिकूल - तो पु., प्र. वि., परिसुद्धा सुञतावक्कन्ति भवति, म. नि. 3.149, 152; - ए. व. - इति सब्बलोकाभिभवने तथो अविपरीतो । चित्त ब. स. [अविपर्यस्तचित्त]. विपरीत रूप में धर्मों का देसनाविलासमयो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).56; - तं द्वि. ग्रहण न करने वाले चित्त से युक्त, यथार्थग्राही चित्त वाला वि., ए. व. - विचक्खणताय अनूनाधिक अविरीतञ्च गहेत्वा - स्स पु., ष. वि., ए. व. - कस्स हि नाम, भन्ते, अबालस्स वित्थारिकं करोति, सु. नि. अट्ठ. 1.199; - दस्सन त्रि., ब. अदुवस्स अमूळहस्स अविपल्लत्थचित्तस्स आयस्मा सारिपुत्तो स. [अविपरीतदर्शन], विपरीत रूप में न देखने वाला, धर्मों न रुच्चेय्या ति. स. नि. 1(1).78. के यथार्थ-स्वरूप को देखने वाला, सम्यक दृष्टि वाला - अविपल्लासवचनलेस पु., विपल्लास का निषे. नो पु., प्र. वि., ए. व. - सम्मादिष्टिको खो पन होति [अविपर्यासवचनलेश], अविपर्यस्त वचन का छोटा सा अविपरीतदस्सनो, म. नि. 1.362; - मन त्रि., खण्ड - सेन तृ. वि., ए. व. - वत्तमानस्स पदावयवभूतरस [अविपरीतमनस्], अविपरीत या सत्य मानने वाला - ना मरहसहस्स अविपल्लासवचनलेसेन तुम्हं त्वममसद्देसु पि पु., प्र. वि., ब. व. --- सच्चसचिनो भूतमना... याथावसचिनो विभत्तिविपल्लासो, सद्द. 1.294. अविपरीतमना अविपरीतसञिनो वदन्ति, महानि. 44; - अविपस्सन्त त्रि., वि + दिस के वर्त. कृ. का निषे. वचन नपुं.. कर्म. स. [अविपरीतवचन], सत्य कथन, [अविपश्यत्]. यथार्थ रूप में नहीं देख रहा, समभाव से भरे यथार्थ वचन, अनुकूल वचन - नं प्र. वि., ए. व. - तं चित्त से सूक्ष्म रूप में न देखने वाला, धर्मों की विपश्यना सभाववचन असेसवचनं ... याथावचनं, अविपरीतवचनं में अक्षम - स्स पु., ष. वि., ए. व. - कुसले धम्मे इसिवचनं ... सम्मासम्बुद्धवचन, मि. प. 203; - सञआ अविपस्सन्तस्स, अनेसन्तस्स अगवेसन्तस्साति अत्थो, अ. स्त्री., तत्पु. स. [अविपरीतसंज्ञा], यथार्थता या वास्तविकता नि. अट्ठ. 3.28. का ज्ञान, अनित्य, दुःख एवं अनात्म, इन तीन लक्षणों का अविपस्सक त्रि., [अविपश्यक]. उपरिवत् - स्स पु., ष. ज्ञान - ञा प्र. वि., ब. व. - तिस्सो अविपरीतसा - वि., ए. व. - अविपस्सकस्स कुसलानं धम्मानं... अननुयुत्तरस अनिच्चसा दुक्खसआ अनत्ता, नेत्ति. 104; - सञी विहरतो, अ. नि. 2(1).65; अविपस्सकरस कुसलानं धम्मानन्ति
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अविपस्सनापादकत
कुसलधम्मे अविपस्सन्तस्स, अनेसन्तस्स अगवेसन्तस्साति अत्थो, अ. नि. अट्ठ. 3.28. अविपस्सनापादकत्त नपुं०, भाव० [अविपश्यनापादकत्व], विपश्यना भावना का व्यावहारिक अभ्यास न करना ता प्र.कि. ए. व. न हि अधिमानिकस्स भिक्खुनो झानं सल्लेखो वा सल्लेखपटिपदा वा होति, करमा ? अविपस्सनापादकत्ता म. नि. अड्ड. (यू.प.) 1(1).194.
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पु.
3.
640
0
अविपाक 1. पु. विपाक का निषे, तत्पु, स. [अविपाक]. विपाक का अभाव, नहीं पका हुआ होना, पकने की अवस्था का न होना, ठीक से हज़म न होना, अजीर्णता केन तृ. वि. ए. व. विसमकोएस्स मन्ददुब्बलगहणिकस्स अविपाकेन जीवितं हरति मि० प० 247; 2. त्रि०, ब० स० [ अविपाक ], विपाक को प्राप्त न होने वाला, फल या परिणाम नहीं देने वाला, अव्याकृत - कं नपुं. प्र. वि., ए. व. अविपाक अव्याकतं अभि, अव. 2 का पु. प्र. वि. व. व. अतीता अविपक्कविपाका धम्मा- ते अत्थिति, कथा. 132; अविपाकाति इदं अव्याकतान वसेन चोदेतु वृतं कथा. अड्ड. 152, जिन पु. विपाकजिन का निषे [बौ. सं. अविपाकजित् ]. अज्ञानी जन, पृथग्जन, कर्मों के विपाक को नहीं जीता हुआ, कामनाओं के साथ कर्म करने वाला नस्सष. वि., ए. पुथुज्जनस्स अनोधिजिनस्स अविपाकजिनस्स अनादीनवदस्साविनो अस्सुतवतो पुथुज्जनस्स. म. नि. 3.266; अविपाकजिनस्साति एत्थपि आयतिं विपाकं जिनित्वा ठितत्ता खीणासवाव विपाकजिनो नाम तस्मा अखीणासवरसेवाति अत्यो म. नि. अ. (उप. प.) 3.196; ता स्त्री. भाव. [अविपाकता], परिपक्व नहीं होना, विपाक से रहित अवस्था य तृ. वि. ए. द. ते पन न अत्तनो पतिमाननस्स अविपाकताय न अदक्षिणेय्यताय. मि. ए. 226 सभाव त्रि. ब. स. [ अविपाकस्वभाव]. स्वभाव से ही विपाक नहीं देने वाला तो प. वि. ए. व. अविज्ञतिजनता हि अविपाकसभावतो, अभि. अब 9... मनोद्वारसङ्घातस्स कम्मद्वारस्स वसेन च अप्पवत्तनतो अविपाकसभावतोच अकम्मभावतो, अभि, अव. पु. टी. 10:
व.
कारह त्रि.. विपाकारह का निषे, [अविपाकार्ह ], किसी भी प्रकार का विपाक उत्पन्न करने में अक्षम हं नपुं. प्र. वि., ए. व. तदुभयविपरीतलक्खणमब्याकतं अविधाकारहं वा अभि. अव. 3. अविपाकारनं विपाकरस अननुच्छविक, अभि.
टी
अव.
अविप्पटिसार
अविष्पकत त्रि वि + प + √कर के भू. क. कृ. का निषे [ अविप्रकृत] समाप्ति तक न पहुंचा हुआ, अपरिसमाप्त, अपरिनिष्ठित वच नपुं. कर्म. स. [ अप्रकृतवचस् ], प्रकृत या वर्तमान समय से भिन्न काल का सूचक वचन अविष्यकतवचो च सियुं अत्थानुरूपतो. सद
1.183.
अविष्पकिष्ण त्रि वि पकिर के भू क. कृ. का निषे. [ अविप्रकीर्ण], नहीं छितराया हुआ, नहीं बिखरा हुआ, स्थिर, एकाग्र ण्णा पु. प्र. वि., ब. व. तस्मा यस्स धम्मस्सानुभावेन एकारम्मणे चित्तचेतसिका सगं सम्मा च अविक्खिपमाना अविप्पकिण्णा च हुत्वा तिट्ठन्ति ... विसुद्धि. 1.83 अविष्यकण्णाति अविसटा विसुद्धि. महाटी 1.101 - ता स्त्री. भाव [अविप्रकीर्णता] स्थिरता, बिखरा हुआ न होना समाधानं समाधि, कायकम्मादीनं सम्मा पयोगवसेन अविप्पकण्णता ति अत्थो, सद्द. 2.479. अविप्पटिसार पु. विप्पटिसार का निषे [ अविप्रतिसार]. शोक या पश्चात्ताप का अभाव रो प्र. वि., ए. व. लोकुत्तरो सीलवतो अविप्पटिसारो जायति, नेत्ति, 56; अधम्मनुदितस्स आवुसो भिक्खुनो पञ्चहाकारेहि अविष्यटिसारो उपदहातब्बों अ. नि. 2 ( 1 ) 182; अविष्यटिसारो उपदहातब्बोति अमहुभावो उपनेतब्बो, अ. नि. अड. 3.61; राय च. वि. ए. व. अल ते अविष्यटिसाराय अ. नि. 2 ( 1 ) . 182 कर त्रि. [अविप्रतिसारकर ], शोक या दुःख को उत्पन्न न करने वाला, पश्चात्ताप के भाव को उत्पन्न न करने वाला - रं नपुं. प्र. वि., ए. व. - पच्छापि अविप्पटिसारकरं भविस्सतीति, चूळव, 400 स्थ त्रि. ब. स. [अविप्रतिसारार्थ] पश्चात्ताप या मानसिक अनुताप के अभाव को लाने वाला, मानसिकप्रमोद को प्रयोजन बनाने वाला स्थानि नपुं. प्र. वि. ए. व. अविष्पटिसारत्थानि ... अविष्यटिसारानिसंसानी ति. अ. नि. 3(2). 2; अमङ्कुभावस्स अविप्पटिसारस्स अत्थाय संवत्तन्तीति, अविप्पटिसारत्थानि, अ. नि. अड. 3.285. विपन्न त्रि. तत्पु. स. [ अविप्रतिसारविपन्न ], मानसिकउल्लास को खो चुका, मानसिक प्रमोद से वञ्चित, मानसिक शीतलता से रहित स्स पु०, ष. वि., ए. व. - अविप्यटिसारे असति अविप्पटिसारविपन्नस्स हतूपनिस होति पामोज्ज, अ. नि. 3 ( 2 ) .4; - रानिसंस त्रि.०, ब० स० मानसिक प्रमोद के लाभ वाला सानि नपुं. प्र. वि., ब० व. अविप्पटिसारत्थानि अविप्यटिसारानिसंसानीति, अ. नि. 3(2)2
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अविप्पटिसारी
641
अविब्मन्त
अविप्पटिसारी त्रि.. विप्पटिसारी का निषे. [अविप्रतिसारिन]. मानसिक अनुताप न करने वाला, पश्चात्ताप के भाव से मुक्त - रिस्स पु., ष, वि., ए. व. - धम्मता एसा, ..., यं
अविप्पटिसारिस्स पामोज्जं जायति, अ. नि. 3(2).3. अविप्पमुत्त त्रि., वि + प + vमुच के भू. क. कृ. का निषे. [अविप्रमुक्त], पूरी तरह से मुक्त न होने वाला, वह, जो पूर्णरूप से मुक्त नहीं हो पाया है - ता पु., प. वि.. ब. व. - सब्बे ते अविप्पमुत्ता भवस्मा ति वदामि. उदा. 105-06; - त्त नपुं.. भाव. [अविप्रमुक्तत्व]. पूरी तरह से मुक्त न होना, छुटकारा न पाना - त्ता प. वि., ए. व. - निरयम्पि गच्छतीति आदि निरयादीहि अविष्पमुत्तत्ता अपरपरियायवसेन तत्थ गमनं सन्धाय वुत्तं, अ. नि. अट्ठ. 2.225. अविप्पयोग पु., विप्पयोग का निषे. [अविप्रयोग]. वियोग या बिछोह का न होना, अपार्थक्य, संयोग - मोदन्ति वत... हितसुखाविपयोगकामता मुदिता, सु. नि. अट्ठ. 1.102; - ता स्त्री॰, भाव. [अविप्रयोगता]. बिछोह या बिलगाव का न होना, अपार्थक्य - ... पियेहि मनापेहि सद्धि अविप्पयोगता दीघायुकताति एवमादीनि फलानि, ..., खु. पा. अट्ठ. 23. अविप्पवसन्त त्रि., वि+प+Vवस के वर्त. कृ., विप्पवसन्त का निषे. [अविप्रवसत्], घर से दूर या बाहर निवास नहीं कर रहा, परदेश में नहीं रह रहा - तो/न्तस्स पु., ष. वि., ए. व. - तरसेव सतो अविष्पवसतो, अञ्जस्सेव सरामि अत्तानन्ति, थेरगा. 118; अविप्पवसतोति न विप्पवसन्तस्स, चिरविप्पवासेन ... अधिप्पायो, थेरगा. अट्ठ. 1.256. अविप्पवास पु., विप्पवास (विप्रवास) का निषे. [अविप्रवास].
शा. अ. दूर या अन्यत्र निवास का न होना, पास में या साथ में विद्यमान होना, ला. अ. बिलगाव का न होना, संयोग, अपार्थक्य, सहभाव - सो प्र. वि., ए. व. - सो पनेस अत्थतो सतिया अविष्पवासो नाम ध, प. अट्ट, 1.130; - सेन त. वि., ए. व. - तेसं सतिया अविप्पवासेन सतानं ..., ध. प. अट्ट, 2.258; अविष्पवासेन अनापत्ति, परि. 398; अविप्पवासेन अनापत्तीति सहगारसेय्याय अनापत्ति, परि. अट्ठ. 240; - सं द्वि. वि., ए. व. - नमस्समानो विवसेमि रत्तिं तेनेव मामि अविप्पवासं सु. नि. 1148; या सा, भिक्खवे, सङ्घन सीमा सम्मता समानसंवासा एकुपोसथा, सङ्घो तं सीमं तिचीवरेन अविप्पवासं सम्मन्नतु, महाव. 137; - सा प. वि., ए. व. - सम्मता... तिचीवरेन अविप्पवासा ठपेत्वा गामञ्च गामूपचारञ्चाति इमिस्सा कम्मवाचाय
उप्पन्नकालतो पट्ठाय भिक्खून पुरिमकम्मवाचा न वट्टति, महाव. अट्ट. 313; - सीमा स्त्री., तत्पु. स. [अविप्रवाससीमा], भिक्षुओं के लिए सङ्घ द्वारा अनुमोदित आवासों की वह सीमा, जिसके भीतर पड़ने वाले विहारों में भिक्षु तीन चीवरों में से किसी एक को छोड़ने हेतु सङ्घ द्वारा अनुमोदित थे, इसी का दूसरा नाम समानसंवाससीमा भी है, पन्द्रह प्रकार की सीमाओं में से एक - यावतिका भिक्खू अन्तोसीमगता तेहि भाजेतब्बन्ति आदिम्हि पन मातिकानिद्देसे सीमाय देतीति ... खण्डसीमा, ..., अविप्पवाससीमा, ... चक्कवाळसीमाति पन्नरस सीमा वेदितब्बा, महाव. अट्ठ, 392; अविप्पवाससीमा पन यत्थ समानसंवासकसीमा, तत्थेव गच्छति, महाव. अट्ठ. 314; - मं द्वि. वि., ए. व. - तत्थ सचे खण्डसीमञ्च
अविप्पवाससीमञ्च जानन्ति, तदे.. अविप्पवुद्ध त्रि., वि + प + Vवस के भू. क. कृ. का निषे. [अविप्रोषित], परदेश में नहीं बसा हुआ, दूर न गया हुआ, समीप में ही विद्यमान, जुड़ा हुआ - 8ो पु., प्र. वि., ए. व. - तेनेव मआमि अविष्पवासन्ति ... अविष्पवासोति तं मामि, अविप्पवुट्ठोति तं मआमि जानामि चूळनि. 199; - सति त्रि., ब. स. [अविप्रोषितस्मृति], जागरुक स्मृति वाला, अविनष्ट स्मृति वाला, अप्रमादी - नो पु, ष. वि., ए. व. - अप्पमत्तरसाति अविप्पवुत्थसतिनो, ध. प, अट्ठ. 1.136. अविप्पसन्न त्रि., विप्पसन्न का निषे. [अविप्रसन्न], मलिन, अशुद्ध, अस्वच्छ - न्ने नपुं.. सप्त. वि., ए. व. - अप्पसन्नेति तायेव आविलताय अविप्पसन्ने, जा. अट्ठ.2.83; - चित्त त्रि., ब. स. [अविप्रसन्नचित्त], मलिन या दूषित चित्त वाला - त्तानं पु.. ष. वि.. ब. व. - अविप्पसन्नचित्तानव्हि इन्द्रियप्पसादो नाम नत्थि अ. नि. अट्ठ. 2.166. अविष्फारिकता स्त्री., अविफारिक का भाव. [अविस्फारितता], विस्तृत किया हुआ न होना, फैलाया हुआ न रहना, सङ्कुचित अथवा मन्द रहना, शिथिलता - य त. वि., ए. व. - लीनन्ति अविप्फारिकताय पटिकुटित, ध. स. अट्ट, 402; तत्थ पीळनं दुक्खसच्चस्स तंसमङ्गिनो हिंसनं अविष्फारिकताकरणं, उदा. अट्ठ. 17; - कभाव पु., उपरिवत् - वो प्र. वि., ए. व. - अनसनन्ति न असनं अविफारिकभावो कायालसियं दी. नि. अट्ट, 3.35. अविस्मन्त त्रि., वि + भिम के वर्त. कृ. का निषे. [अविभान्त]. विभ्रम या भौचक्केपन से रहित, घबराहट से रहित, असंयम से रहित – न्तं नपुं.. द्वि. वि., ए. व. - अथरस... निच्चलं अविमन्तं ... दिस्वा एतं, म. नि. अट्ट. (उप.प.) 3.216;
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अविब्मज्जसेवी
642
अविभेदिय अविअन्तन्ति विभमरहितं निल्लोलुप्पं, म. नि. टी. (उप.प.) अविभाजिय त्रि., विभाजिय का निषे. [अविभाज्य], विभाजित 3.178.
नहीं करने योग्य - या पु., प्र. वि., ब. व. - पञ्चेते अविमज्जसेवी त्रि., [अविभज्यसेविन], बिना किसी भेदभाव अविभाजिया, खु. सि. 324; अविभाजियाति भाजेत्वा न के ही सेवा करने वाला/वाली, विवेक रहित होकर किसी गहेतब्बा .... खु. सि. टी. 164, के सङ्ग रहने वाला/वाली - विनिं स्त्री., द्वि. वि., ए. व. अविभावयित्वा वि + भू के प्रेर. के पू. का. कृ. का निषे. - तं तं असच्च अविभज्जसेविनि, जानामि, मूळहं [अविभाव्य], स्पष्ट रूप से नहीं समझ कर, साफ तौर पर विदुरानुपातिनि, जा. अट्ठ. 5.395; अविभज्जसेविनिन्ति नहीं जानकर - इधेव धम्म अविभावयित्वा, अवितिण्णकडो अविभजित्वा युत्तायुत्तं अजानित्वा सिप्पादिसम्पन्नेपि इतरेपि मरणं उपेति, सु. नि. 320; 322. सेवमानं, तदे..
अविभावित त्रि., वि+vभू के प्रेर. के भू. क. कृ. का निषे०, अविभत्त त्रि., वि+भज के भू. क. कृ. का निषे. [अविभक्त]. [अविभावित], पूर्ण रूप से नहीं जाना हुआ, स्पष्ट रूप से विभाजित नहीं किया हुआ, सूक्ष्म रूप से अपरीक्षित - त्तो नहीं ज्ञात - तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - ... लक्खणं अआतं पु., प्र. वि., ए. व. -- अविभत्तो लोकक्खायिकेहि महासमुद्दो, .... अविभूतं अविभावित, महानि. 250; - तत्थ त्रि., ब. स. मि. प. 289; - तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - यं पनेत्थ अत्थतो [अविभावितार्थक], अस्पष्ट अर्थ वाला - त्थेन पु.. तृ. वि.. अविभत्तं, पे. व. अट्ठ, 66; - स्स ष. वि., ए. व. - वित्थोरेन ए.व.- अप्पनिग्घोसानीति अविभावितत्थेन निग्घोसेन रहितानि, अत्थं अविभत्तस्स, म. नि. 3.94; - त्ता पु.. प्र. वि., ब. व. म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.250; - तत्थ सद्द पु.. कर्म. स. -- ये च मे ... पुग्गला संखित्तेन वुत्ता वित्थारेन अविभत्ता, म. [अविभावितार्थशब्द], अस्पष्ट अर्थ वाला शब्द, निरर्थक नि. 2.375; - लोमभमुक त्रि., ब. स. [बौ. सं. शब्द - दो प्र. वि., ए. व. - अव्यत्तसद्दो अविभावितत्थसद्दो अविभक्तरोमाभ्रमुख], ललाट के रोमों से सटी हुई अथवा निरत्थकसद्दो च, सद्द. 2.326. जुड़ी हुई भौंहों वाला - को पु., प्र. वि., ए. व. - अविभावी त्रि., विभावी का निषे. [अविभाविन], स्पष्ट रूप से मक्कटभमुकोति नळाटलोमेहि अविभत्तलोमभमुको, वि. वि. नहीं जानने वाला, अज्ञानी, साफ तौर पर नहीं समझा हुआ टी. 2.121.
- वी पु., प्र. वि., ए. व. - अविद्वाति अविज्जागतो अआणी अविभत्तिक त्रि., ब. स. [अविभक्तिक], विभक्ति-चिहों से अविभावी दुप्पओ चूळनि. 63; मोमहोति मोहमहो अविज्जागतो रहित, विभक्ति के अर्थविशेष के साथ नहीं जुड़ा हुआ - को अज्ञाणी अविभावी दुप्पओ, चूळनि. 172. पु., प्र. वि., ए. व. -- ... अविभत्तिको निद्देसो कात्तब्बो, सद्द. अविभूत त्रि., विभूत का निषे०, तत्पु. स. [अविभूत], अस्पष्ट, 1.300; पुप्फरुक्खा ति अविभत्तिकनिद्देसो, वि. व. अट्ठ. 135; अविकसित, पूर्ण रूप से अप्रकाशित, धुंधला, कमजोर - तो - कं नपुं०. प्र. वि., ए. व. - अस इति अविभत्तिकं पु., प्र. वि., ए. व. - अतिवाते सद्दो अविभूतो होति. मि. प. नामिकपदं एत्थ च अस समीति होति ति पाळी निदस्सनं. 102; ... अयं कालो मय्ह पटिच्छन्नो अविभूतो न पायति, सद्द. 2.450.
स. नि. अट्ठ. 1.38; - ता पु०, प्र. वि., ब. व. - इमे सवारा अविभत्तियुत्त त्रि., विभत्तियुत्त का निषे. [अविभक्तियुक्त], अञमञ्जमिस्सा आलुळिता अविभूता दुद्दीपना, म. नि. अट्ठ. विभक्ति विधान के साथ नहीं जुड़ा हुआ, विभक्ति-विधान के (मू.प.) 1(2).259 - तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - ... लक्ख णं अननुरूप - त्ता पु.. प्र. वि., ब. व. - ..., एकच्च अविभत्तियुत्ता, अज्ञातं ... अतीरितं अविभूतं अविभावितं. महानि. 250%; तत्थ ये यदग्गेन विभत्तियुत्ता, सद्द. 1.299.
अविभूतन्ति न पाकट महानि. अट्ठ. 301. अविभाग पु., विभाग का निषे. [अविभाग], अविभाजन, अविभूसना स्त्री., साज-सजावट या समलङ्ककरण का अभाव, अपार्थक्य - गो प्र. वि.. ए. व. - एकपदत्थगहणं अविभागो अनलङ्कति - ना प्र. वि., ए. व. - अमण्डना अविभूसना ति अधिप्पेतो, सद्द. 1.38.
वण्णस्स परिपन्थो, अ. नि. 3(2).112. अविभाजित त्रि. विभाजित का निषे. [अविभाजित]. अविभेदिय त्रि., वि+भिद के सं. कृ. का निषे. [अविभेद्य]. खण्डों में विभाजित नहीं किया हुआ - तं नपुं., प्र. वि., ए. विभेद न करने योग्य, टुकड़े-टुकड़े न करने योग्य, फूट न व. - विस्सज्जितमविस्सद्ध, विभत्तमविभाजितं, विन. वि. डालने योग्य, नहीं भेद डालने योग्य - दिया स्त्री, प्र. वि., 2856.
ए. व. - अविभेदियास्स परिसा भवति, दी. नि. 3.130.
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अविमन
643
अविरागी
अविमन त्रि., ब. स. [अविमनस्], अव्यग्र या शान्त मन वाला, मन की बेचैनी से मुक्त - ना स्त्री., प्र. वि., ए. व. - त्वं... इमस्मिं गेहे अविमना अभिरमस्सूति, पे. व. अट्ठ. 239. अविमुख त्रि., विमुख का निषे., तत्पु. स. [अविमुख, अप्रतिकूल, अनुकूल, अविपरीत, काम से मुंह न मोड़ने वाला - खा पु., प्र. वि., ब. व. - दासकम्मकरपोरिसा
अविमुखा कम्मं करोन्ति, अ. नि. 2(1).240. अविमुत्त त्रि., विमुत्त का निषे. [अविमुक्त], विमुक्ति नहीं पाया हुआ, छुटकारा नहीं पाया हुआ - त्तो पु., प्र. वि., ए. व. - उपयो, भिक्खवे, अविमुत्तो, अनुपयो, विमुत्तो, स. नि. 2(1).49; - स्स ष, वि., ए. व. - पुब्बे अविमुत्तस्स विमुत्तासा सा पटिप्पस्सद्धा, अ. नि. 1(1).132; - त्तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - ... अविमुत्तञ्चेव चित्तं विमुच्चति, म. नि. 2.12. अविम्हापक त्रि., विम्हापक का निषे. [अविस्मापक], विस्मय में न डाल देने वाला, भौचक्का न कर देने वाला, धोखा- धड़ी न करने वाला - को पु., प्र. वि., ए. व. - अकुहकोति
अविम्हापको तीहि कुहनवत्थूहि, सु. नि. अट्ठ. 2.241. अवियग्गता स्त्री., वियग्ग के भाव. का निषे. [अव्यग्रता], समरसता, समरूप में क्रियाशीलता, सन्तुलन, सङ्गति - कच्चि यापनियं, भन्ते, वातानमवियग्गता, जा. अट्ठ. 7.106; वातानमवियग्गताति कच्चि ते सरीरे धातुयो समप्पवत्ता, वातानं व्यग्गता नत्थि, तत्थ तत्थ ... अत्थो, जा. अट्ठ. 7.107. अवियत्त त्रि., वियत्त का निषे. [अव्यक्त], अस्पष्ट, स्पष्ट रूप से प्रकाशित न किया गया/की गई - त्तायं स्त्री., सप्त. वि., ए. व. - मिलेछ अवियत्तायं वाचायं सद्द. 2.342. अवियोग पु.. [अवियोग], संयोग, पार्थक्य का अभाव, किसी के साथ जुड़ा रहना या किसी के साथ विद्यमान रहना - गे सप्त. वि., ए. व. - सन्तेपि च नेसं कत्थचि अवियोगे ओळारिकतुन पुब्बङ्गमद्वेन च... चेतसो... वितक्को, ध. स.. अट्ठ. 160. अवियोजित त्रि., वि + Vयुज के प्रेर, के भू, क. कृ. का निषे. [अवियोजित], (किसी से) अलग न किया हुआ, (किसी के साथ) जुड़ा या उसमें मौजूद - तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - रुक्खतो पन अवियोजितं असुक्खं भूतगामो ति वुच्चति, दी. नि. अट्ट, 1.75. अविरज्झनवेधिता स्त्री., भाव. [अविराध्यनवेधित्व], बिना किसी चूक के लक्ष्य को बेध देना, अचूक निशानेबाजी -
ताय तृ. वि., ए. व. - कतहत्थेति अविरज्झनवेधिताय सम्पन्नहत्थे, जा. अट्ठ. 6.277. अविरज्झित्वा वि + Vराध के पू. का. कृ. का निषे. [अविराध्य], कोई चूक किए बिना, बिना त्रुटि के- यथा हि मग्गानन्तरं अविरज्झित्वाव फलं निब्बत्तति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).345. अविरत त्रि., वि + Vरम के भू. क. कृ. विरत का निषे. [अविरत], (से) बिलग न होने वाला, नहीं त्यागने वाला, निरन्तर जारी रखने वाला - तं अ., क्रि. वि., निरन्तर रूप में, लगातार - सततं निच्चमविरतानारतसन्ततमनवरतं च धुवं, अभि. प. 41; कायो रतो अविरतं व्यसनं परेति, तेल. 53; - त्त नपुं॰, भाव. [अविरतत्व], लगातारपन, किसी से बिलग न होना या उसे छोड़ न देना- त्ता प. वि., ए. व. - हत्थगते दण्डे ... पहारदानतो अविरतत्ता अत्तदण्डेस जनेसु निब्बुतं निक्खित्तदण्डं सु. नि. अट्ठ. 2.171. अविरति स्त्री., विरति का निषे. [अविरति]. बिलगाव का अभाव, लगाव - विरतिअविरतिवसेन, विसुद्धि. 1.11; विरमणं वा विरति, न विरतीति अविरति, विसुद्धि. टी. 1.30. अविरद्ध त्रि., वि+vराध के भू. क. कृ. का निषे. [अविराद्ध], नहीं चूक रहा, नहीं छोड़ रहा, नहीं त्यागा हुआ - द्धो पु., प्र. वि., ए. व. - मं विरज्झन्तोपि... सोळस च उस्सदनिरये अविरद्धोयेवाति वत्वा पक्कामि, जा. अह. 1.468; - द्धं नपुं., प्र. वि., ए. व. - तत्थ अपण्णकन्ति एकसिकं अविरद्धं निय्यानिक, जा. अह. 1.111; - कारण नपुं, कर्म. स. [अविराद्धकारण], सही कारण, दोषरहित तर्क - णं प्र. वि., ए. व. - ... पण्डितेहि पटिपन्नं एकांसिककारणं अविरद्धकारणं निय्यानिककारणं जा. अट्ठ. 1.111; - गाह पु., कर्म, स. [अविराद्धग्राह]. अनुकूल रूप में ग्रहण, पूर्ण रूप में ग्रहण - हं द्वि. वि., ए. व. - अपण्णकग्गाहं पन एकसिकग्गाहं अविरद्धग्गाहं गहितमनुस्सा ..., जा. अट्ठ. 1.107; - वेधी त्रि., [अविराद्धवेधिन्], बिना चूके लक्ष्य का वेध करने वाला, अचूक निशानेबाज - नो पु., प्र. वि., ब. व. - अक्खणवेधिनोति अविरद्धवेधिनो, जा. अट्ठ. 4.450. अविरलित त्रि., अविरल से व्यु. [अविरल], एक दूसरे से सटा हुआ, व्यवधान-रहित, सघन - तं नपुं., क्रि. वि., द्वि. वि., ए. व. - अविरलितं उदेनतं धातुया ताय दिस्वा, दा. वं. 4.24. अविरागी त्रि., विरागी का निषे. [अविरागिन]. शा. अ. रंगों से नहीं रंगा हुआ, रंग न बदलने वाला, ला. अ. राग या
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अविराजयन्त
644
अविरुन्हि
लगाव से मुक्त, स्थिर, दृढ़ - गिनी स्त्री.. प्र. वि., ए. व.. - यस्स चित्तं अहालिदं सद्धा च अविरागिनी, जा. अट्ट. 376; सद्धा च अविरागिनीति कम्मं वा विपाकं वा ओकप्पनीयस्स
वा पुग्गलस्स वचनं ... भिज्जति, तदे... अविराजयन्त त्रि., वि + रज के प्रेर., वर्त. कृ. का निषे., आसक्ति या लगाव से स्वयं को मुक्त न करने वाला, विराग से रहित - यं पु., प्र. वि., ए. व. - अनभिजानं ... अविराजयं अप्पजहं अभब्बो दुक्खक्खयाय, स. नि. 2(2).163; चतुत्थे ... अविराजयं अप्पजहन्ति अनभिजानन्तो ... अप्पजहन्तो, स. नि. अट्ठ. 3.6. अविराधित त्रि., वि + vराध के भू. क. कृ. का निषे.. [अविराद्ध], शा. अ. वह, जो कभी असफल नहीं रहा है, कभी भी नहीं चूकने वाला, अचूक, पूर्णतः सफल-तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - पोवानुपोत अविराधितं. स. नि. 3(2).513; ला. अ. सन्देहरहित, सुस्पष्ट - अपण्णकन्ति अविराधितं. म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.147; - वेधी पु., प्र. वि., ए. व., अचूक निशानेबाज, बिना चूक के लक्ष्य का वेध करने वाला - अक्खणवेधीति अविराधितवेधी, जा. अट्ठ. 2.75; - हत्थ त्रि., ब. स. [अविराद्धवेधीहस्त], बिना चूक के लक्ष्य वेध करने वाले हाथ से युक्त, कुशल धनुर्धर - त्थो पु.. प्र. वि., ए. व. - परिचिताति सातच्चकिरियाय सुपरिचिता कता इस्सासस्स अविराधितवेधिहत्थो विय, स. नि. अट्ठ. 1.160... अविराधेत्वा वि + Vराध के पू. का. कृ. का निषे [अविराध्य], असफल न होकर, लक्ष्य के बेधने में चूक न करके - तेन आचरियसन्तिके उग्गहितकम्मट्ठानविधानं अविराधेत्वा ... कसिणं कातब्ब, विसुद्धि. 1.120; अविराधेत्वाति अविरज्झित्वा .... विसुद्धि. महाटी. 1.134. अविरिय/अवीरिय त्रि., ब. स. [अवीर्य], वीर्य या पराक्रम से रहित, शक्तिरहित, बलहीन - रिया पु., प्र. वि., ब. व. - सब्बे सत्ता ... अवसा अबला अवीरिया नियतिसङ्गतिभावपरिणता ... पटिसंवेदेन्ति, दी. नि. 1.47. अविरिळा स्त्री., विरीळा का निषे. [अव्रीडा], अलज्जा, बेशर्मी, लज्जा का अभाव - ळा प्र. वि., ए. व. - अलज्जा
अविरिळा, विसुद्धि. महाटी. 2.139. अविरुज्झमान 1. त्रि., वि + रुध के कर्म. वा., वर्त. कृ.
का निषे. [अविरुध्यमान], अबाधित, अपीड़ित, अप्रतिहत, बाधा या रुकावट से मुक्त - नो पु.. प्र. वि., ए. व. - सब्बेन लोकेन अविरुज्झमानो, एको चरे खग्गविसाणकप्पो, सु. नि. 73; ... अविरुज्झमानोति दससु दिसासु सब्बेन
सत्तलोकेन अविरुज्झमानो, सु. नि. अट्ट, 1.102; 2. क. वा., आत्मने., वर्त. कृ., विरोध नहीं कर रहा, प्रतिकूल नहीं हो रहा - ना पु., प्र. वि., ब. व. - विसेनिकत्वा पन ये चरन्ति, दिट्ठीहि दिद्धिं अविरुज्झमाना, सु. नि. 839. अविरुद्ध त्रि०, विरुद्ध का निषे. [अविरुद्ध]. 1. विरोध में नहीं जा रहा, प्रतिकूल नहीं रहने वाला, सच्चरित्र अहानिकर, मुक्तिदायक-दो पु., प्र. वि., ए. व. - वचसा मनसा च कम्मुना च, अविरुद्धो सम्मा विदित्वा धम्म, सु. नि. 367; 709; ... अविरुद्धोति एतेसं तिण्णं दुच्चरितानं पहीनत्ता सुचरितेहि सद्धि अविरुद्धो, सु. नि. अट्ट, 2.87; अनानुरुद्धो अविरुद्ध केनचि, स. नि. 2(2).77; अनानुरुद्धो अविरुद्धो केनचीति केनचि सद्धि नेव अनुरुद्धो न विरुद्धो भवेय्य, स. नि. अट्ठ. 3.27; - द्धं पु., द्वि. वि., ए. व. - अविरुद्ध विरुद्धसु, अत्तदण्डेसु निब्बुतं. सु. नि. 635; अविरुद्धन्ति आघातवसेन विरुद्धसुपि लोकियमहाजनेसु आघाताभावेन अविरुद्धं, सु. नि. अट्ठ. 2.171; 2. तार्किक एवं व्याकरण के विधानों के अनुरूप रहने वाला - द्धो पु., प्र. वि., ए. व. - अविरुद्धो अपण्णको, अभि. प. 698; - पटिपदा स्त्री., कर्म. स. [अविरुद्धप्रतिपत्], अनुकूल मार्ग, सही रास्ता - दाय तृ. वि., ए. व. - अनुलोमपटिपदायाति
अविरुद्धपटिपदाय, ..., महानि. अट्ट, 50. अविरुळ्ह त्रि०, वि + रुह के भूक. कृ. का निषे. [अविरुढ़]. वृद्धि को अप्राप्त, अविकसित - हे नपुं., सप्त. वि., ए. व. - तदप्पतिद्विते विआणे अविरुळ्हे आयति पुनभवाभिनिब्बत्ति न होति, स. नि. 1(2).58; अविरुळ्हेति कम्म जवापेत्वा पटिसन्धिआकङ्घनसमत्थताय अनिब्बत्तमूले. स. नि. अट्ठ. 2.63; - पक्ख त्रि., ब. स. [अविरुद्धपक्ष]. पूर्ण रूप से विकास को अप्राप्त पंखों वाला - क्खो पु., प्र. वि., ए. व. - कोकिलपोतको काकिया पट्ठो अविरुहपक्खो
अकालेयेव कोकिलरवं रवि, जा. अट्ठ. 3.88. अविरुळ्हि स्त्री., विरुळिह का निषे., [अविरूढ़ि]. विकास
या वृद्धि का अभाव - छन्द त्रि.. ब. स. [अविरूढ़िछन्दस्]. विकास या वृद्धि की इच्छा न रखने वाला - न्दा पु., प्र. वि., ब. व. - ते खीणबीजा अविरुळिहछन्दा, निब्बन्ति धीरा यथाय पदीपो, सु. नि. 238; अविरुळिहछन्दाति विरुळिहछन्दविरहिता, सु. नि. अट्ट, 1.253;-धम्म त्रि., ब. स. [अविरूढ़िधर्मन], असुदृढ़ धर्म वाला - म्मो पु., प्र. वि., ए. व. - चूळपन्थको नाम भिक्खु दन्धो अविरुळिहधम्मो, जा. अट्ठ 1.123; - म्मा ब. व. -- तुम्हे खोत्थ नागा
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अविरुहन
अविरुतिधम्मा इमस्मिं धम्मविनये, महाव. 110
स नपुं.
ताप.
भाव [अविरुद्धधर्मत्व] धर्म का सुदृढ़ न रहना वि. ए. व. अविरुब्धिमत्ता वा मत्थकच्छिन्नतालो विय कताति तालावत्सुकता, पारा. अड. 1.97 भाव पु.. उपरिवत्वं द्वि. वि. ए. व. अथस्स... पण्डुपलासस्स विय अविरुहिभावं दस्सेन्तो आरंभि. म. नि. अड. ( मू०प०) 1 ( 2 ).10.
अविरुहन त्रि, ब० स० [ अविरोह, पु० ], किसी प्रकार के अंकुरण अथवा उदय की प्रक्रिया से रहिता, ऐसा स्थान जहां कुछ भी न उग सके या न बढ़ सकेनं नपुं०, प्र. वि., ए. व. निब्बानं सब्बकिलेसानं अविरुहनं मि. प.
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294.
अविरोध पु. विरोध का निषे [ अविरोध ] शा. अ. विरोध या प्रतिकूलता का अभाव, अनुकूलता, सुसङ्गति, ला. अ. मैत्री भावना, अद्वेष घो प्र. वि. ए. व. अविरोधो दुष्यति मेत्ता म. नि. अ. (म.प.) 2.243 कर त्रि.. विरोध न करने वाला रेसु पु. सप्त वि. ब. व. - अविरोधकरेसु पाणिसु, पुथुसत्तेसु पदुट्टमानसो, पे. व. 480; अविरोधकरेसूति केनचि विरोधं अकरोन्तेसु मिगसकुणादीसु, पे. व. अड. 179, प्यसंसी त्रि. [अविरोधप्रशंसिन्]. शान्तिभावना की प्रशंसा करने वाला, मैत्रीभाव का प्रशंसक
2.282;
सिनं पु. ष. वि. ए. व. दिसा हि मे खन्तिवादानं, अविरोधप्पसंसिन, थेरगा. 875; ... अविरोधप्पसंसिनन्ति केनचि अविरोधभूताय मेत्ताय एव पसंसनसीलानं, थेरगा. अ लक्खण त्रि. ब. स. [अविरोधलक्षण], अविरोध या मैत्री भावना के लक्षणों से युक्त क्खणो पु.. प्र. वि.. ए. व. अविरोधलक्खणो वा अनुकुलमितो विय, अभि. अव. 21; अदोसो अचण्डिक्कलक्खणो, अविरोधलक्खणो वा अनुकूलमित्तो विय. ध. स. अड्ड. 172. अविरोधन नपुं उपरिवत् नं प्र. वि., ए. व. अक्कोध अविहिंसञ्च खन्तिञ्च अविरोधनं जा. अनु.
3.240.
645
अविरोधितापच्चुपद्वान त्रि. ब. स. [ अविरोधित्वप्रत्युपस्थान ]. विरोध के अभाव या मैत्रीभावना के रूप में प्रकाशित होने वाला / वाली - ना स्त्री. प्र. वि. ए. व. सब्बकिरियासु अविरोधितापच्चुपट्टाना, मुदुरुपपदद्वाना, अभि. अब 90. अविलङ्घनिय त्रि वि + √ल के सं. कृ. का निषे. [अविलङ्घनीय], अतिक्रमण नहीं करने योग्य, वह जिसे अभिभूत न किया जा सके या जिसका उल्लंघन न किया
अविवाद
जा सके या स्त्री. प्र. वि. ए. व. वोहारविसयरिमं हि लोकसम्मुति एवं पधाना अविलङ्घनिया, सर 1.72 अविलम्बित त्रि वि + √लम्ब के भू० क० कृ० का निषे... [ अविलम्बित ] विलम्ब न करने वाला, शीघ्रता से काम करने वाला तं नपुं. प्र. वि. ए. व. आसु तुण्णमर चाविलम्बितं तुवटं पि च, अभि. प. 40. अविलुत्त त्रि वि + √लुप के भू. क. कृ. का निषे [ अविलुप्त ]. नहीं लूटा हुआ, नहीं विलुप्त ते नपुं सप्त वि. ए. व.
अविलुत्ते विलुत्तसञ्ञी, पारा. 305; अविलुत्तेति एत्थ पन गव्यं भिन्दित्वा पराव्हावहारवसने अविलुत्तेति वेदित्तबं पारा.
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अड. 2.203.
अविलोपिय त्रि वि + √लुप के सं. कृ. का निषे [ अविलोप्य]. विलोपित या विनष्ट नहीं किए जाने योग्य नहीं लूटने योग्य यं नपुं. प्र. वि. ए. व. अविलोपियमहि अनन्तसुखदायक, सद्धम्मो० 311.
अविलोम नपुं० [अविलोमन् ], भेड़ का बाल - गोलोमाविलोमविसाण-दधितिलपिद्वादीनि च दुब्बा- सरभूतिणकादीन् विसुद्धि.
2.172.
म.
अविलोमेन्त त्रि., विलोम के ना. धा. के वर्त. कृ. का निषे. [अविलोमयत्] नहीं पलटता हुआ, विपरीत रूप में परिवर्तित नहीं कर रहा तो पु०, प्र. वि., ए. व. तस्मा... भगवतो देसनं अविलोमेन्तो लोकसम्मुतियं ठत्वाव चत्तारोमे..... नि. अट्ठ. ( मू०प.) 1(1).149. अविवट त्रि, विवट का निषे [ अविवृत], ढका हुआ, नहीं खुला हुआ, अनुद्घाटित टं नपुं. प्र. वि. ए. व. तस्स ते आयरमन्तो अविवटञ्चैव न विचरन्ति म. नि. 1.285. अविवदमान त्रि वि + √वद के वर्त. कृ. का निषे.. [ अविवदमान] विवाद या कलह न करता हुआ झगड़ा न करता हुआ नो पु.. प्र. वि. ए. क. समग्गो हि सहो सम्मोदमानो अविवदमानो एकुद्देसो फासु विहरतीति, पारा. 271; अविवदमानोति अयं धम्मो, नायं धम्मो ति एवं न विवदमानो, पारा. अट्ठ. 2.175.
अविवाद पु० [ अविवाद], विवाद या कलह का अभाव, सामञ्जस्य सहमति दंद्वि. वि. ए. व. विवाद भयतो - दिस्वा, अविवादञ्च खेमतो, अप. 1.7; दाय च. वि., ए. व.- अयम्पि... सङ्ग्रहाय अविवादाय सामग्गिया एकीभावाय संवत्तति दी. नि. 3.194 - भूमि स्त्री, निषे, स. [अविवादभूमि] विवादों या कलहों से रहित चित्त की अवस्था, निर्वाण की अवस्था मिं द्वि. वि. ए. व. एतम्पि
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अविवित्त
646
अविसट
दिस्वा न विवादयेथ, खेमाभिपस्सं अविवादभूमि सु. नि. 902; खेमाभिपस्सं अविवादभूमिन्ति, अविवादभूमि उच्चति अमतं निब्बानं, महानि. 226; - वड्डनकरी स्त्री., अविवाद या विवाद के उपशमन को बढ़ाने वाली - रिं द्वि. वि., ए. व. - अविवादवङ्घनकरिं सुगिरं भिन्नानसन्धिजननि अभणि, दी. नि. 3.130. अविवित्त त्रि., वि + विच के भू, क. कृ. का निषे. [अविविक्त], क. भरा हुआ, परिपूर्ण, अविरहित, युक्त - तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - दसहि सद्देहि अविवित्तं, अन्नपानसमायुत्तं बु. वं. 2.2; खु. पा. अट्ठ. 89; - त्ता स्त्री. प्र. वि., ए. व. - कुसावती, ... दसहि सद्देहि अविवित्ता अहोसि... रत्तिञ्च, दी. नि. 2.111; ख. अलग या बिलग न किया हुआ, अभिन्न - त्तो पु., प्र. वि., ए. व. -पुथुज्जनो तेधातुकेहि धम्मेहि अविवित्तोति? कथा. 487; - कथा स्त्री., कथा. के एक खण्ड का शीर्षक, कथा. 487; - ता स्त्री., भाव. [अविविक्तता], रहित न होना, विद्यमानता, अस्तित्व - अस्थिभावो ति अत्थिता विज्जमानता अविवित्तता, सद्द. 1.71. अविस त्रि., ब. स. [अविष], विष-रहित, बिना विष वाला, विष के प्रभाव से मुक्त - सो पु., प्र. वि., ए. व. - यो त्वं एवं गतं नागं, अविसो अतिमञ्जति, जा. अट्ठ. 7.39; अविसो अतिमञ्जसीति निबिसोति अवजानासि, जा. अट्ठ. 7.40; - सा ब. व. - सप्पा अजगरा नाम, अविसा ते महब्बला, जा. अट्ठ. 7.263; अविसाति निबिसा, तदे.; मण्डूकभक्खा उदकन्तसेवी, आसीविसं मं अविसा सपन्तीति, जा. अट्ठ. 3.13; - सं नपुं., प्र. वि., ए. व. - बलवता ... अगदं दत्वा ।
अविसं करेय्य, मि. प. 281. अविसंवादक त्रि., वि + सं + Vवद के क. ना. का निषे. [अविसंवादक], अपने वचन पर दृढ़ रहने वाला, अप्रवञ्चक, सत्यवादी, अपनी कही बात के विपरीत आचरण न करने वाला - को पु., प्र. वि., ए. व. - ... सच्चवादी सच्चसन्धो थेतो पच्चयिको अविसंवादको लोकस्साति, दी. नि. 1.4; - स्स पु., ष. वि., ए. व. - मित्तानी वे यस्स भवन्ति सन्तो, संविस्सत्था अविसंवादकस्स. जा. अट्ठ. 4.68; - दिकं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - सच्चन्ति अविसंवादिक, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.308; - दिकानि नपुं., द्वि. वि., ब. व. - ... सच्चानि, अवितथानि अविसंवादकानीति अत्थो, खु. पा. अट्ठ. 64; - हायी त्रि.. [अविसंवादस्थायिन्], विश्वसनीयता या सत्यवादिता में स्थिर रखने वाला -
यिनो पु., प्र. वि., ब. व. - सङ्घन अनुमता पुग्गला पच्चेकट्ठायिनो अविसंवादकट्ठायिनो, परि. 312; ... अविसंवादकट्ठायिनोति इस्सरियाधिपच्चजेट्टकट्ठाने च अविसंवादकट्ठाने च ठिता, परि. अट्ठ. 210. अविसंवादन नपुं., वि + सं + Vवद के प्रेर., क्रि. ना. का निषे. [अविसंवादन], अनुरूपता, वचनपरायणता, कर्तव्यनिष्ठता -- नं प्र. वि., ए. व. - सच्चं .. द्वीहि द्वारेहि अविसंवादनं सच्च, सु. नि. अट्ट, 1.117; - तो प. वि., ए. व. - एवमेतानि ... यथासकविसयस्स अविसंवादनतो तथानि अवितथानि अनञ्जथानि. उदा. अट्ठ. 115; 120; - ता स्त्री., भाव. [अविसंवादनता], वचन पर अडिग रहना, कर्तव्यपरायण होना, वचनपरायणता - ताय तृ. वि., ए. व. - दानेन पेय्यवज्जेन अत्थचरियाय समानत्तताय अविसंवादनताय, दी. नि. 3.144; चतुत्थदिसावारे अविसंवादनतायाति यस्स यस्स नामं गण्हाति, तं तं अविसंवादेत्वा .... दी. नि. अट्ठ. 3.125; - दना स्त्री., उपरिवत् - ना प्र. वि., ए. व. -
अविसंवादना मित्तानं आहारो, अ. नि. 3(2).113. अविसंवादसील त्रि., [अविसंवादशील], स्वभाव से ही अपने कहे वचन पर दृढ़ रहने वाला, विश्वसनीय प्रकृति वाला, सत्यपरायण, अप्रवञ्चक - स्स पु., ष. वि., ए. व. -
अविसंवादकस्साति अविसंवादनसीलस्स, जा. अट्ठ. 4.69. अविसंवादेन्त त्रि., वि + सं + Vवद के प्रेर. के वर्त. कृ. का निषे. [अविसंवादयत्], अपने वचनों के विरुद्ध आचरण न करने वाला, भरोसेमन्द, सच्चा - न्तो पृ., प्र. वि., ए. व. - ... अविसंवादेन्तो एतेसुधम्मं चरति नाम जा. अठ्ठ 5.120. अविसंवादेत्वा पू. का. कृ., अपनी बात के विपरीत न जाकर, नहीं खण्डन कर - तं पनेतं ... पच्चवेक्षण समादानानं कारणभूतं अविसंवादेत्वा लोकनायको यस्मा .... पूरेत्वा, उदा. अट्ठ. 106; तं तं अविसंवादेत्वा ... इदम्पि,
दी. नि. अट्ठ. 3.125. अविसङ्क त्रि., ब. स. [अविशङ्क], शङ्का या सन्देह से मुक्त, हिचकिचाहट से रहित, बेखौफ - ङ्का पु., प्र. वि., ब. व. -
अधिमत्तानि पापानि अविसङ्का चरन्ति ये, सद्धम्मो. 176. अविसङ्केत त्रि., ब. स., विशिष्ट रूप वाले सङ्केत से रहित, सुनिश्चित सङ्केत से अविपरीत - तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - इति यथापरिच्छेदे वा परिच्छेदमन्तरे वा अविसङ्केतं. .... पारा. अट्ठ. 2.65. अविसट त्रि., वि + सर के भू. क. कृ. का निषे. [अविसृत], नहीं बिखरा हुआ, नहीं फैला हुआ, नहीं छितराया हुआ -
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अविसद
647
अविसार
टं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अविसारीति अविसटो, म. नि.
अट्ठ. (म.प.) 2.278. अविसद त्रि., [अविशद], क. अस्पष्ट, अप्रकट, अविशुद्ध,
असुन्दर, अभव्य - दो पु., प्र. वि., ए. व. - इत्थीनहि ...., उपरिमकायो अविसदो, ध, स. अट्ठ. 353; - दा स्त्री., प्र. वि., ब. व. - इत्थियो हि गच्छमाना अविसदा गच्छन्ति, ध, स. अट्ठ, 353;-दं पु., द्वि. वि., ए. व. - पुरिसम्पि हि अविसदं दिस्वा मातगामो विय गच्छति तिट्ठत्ति ... वदन्ति, ध. स. अट्ठ. 354; - दानि नपुं.. प्र. वि., ब. व. - सुखुमम्पि .... इन्द्रियानि जरं पत्तस्स परिपक्कानि आलुळितानि अविसदानि, ध. स. अठ्ठ, 360; ख. अचतुर, मूर्ख, कुशलता या प्रवीणता से रहित - दो पु., प्र. वि., ए. व. - अब्यत्तोति अविसदो अछेको, दी. नि. अट्ठ. 2.361; - ता स्त्री., भाव. [अविशदता], विशेषज्ञता का अभाव, निपुणता का अभाव - य तृ. वि., ए. व. - ... अञआणभावेन मन्दो अविसदताय मोमूहो, पु. प. अट्ठ. 94; - त्त नपुं., भाव. [अविशदत्व]. उपरिवत् - तं द्वि. वि., ए. व. - अविसदत्तं अक्खातुं नयो दिन्नो तिनो रुचि, सद्द. 1.210; - दाकार त्रि., ब. स. [अविशदाकार], अभव्य आकार वाला/वाली - रा स्त्री., प्र. वि., ब. व. - इति यथा इत्थियो येभय्येन अविसदाकारा, ..., सद्द. 1.224; - दाकारवोहार पु., कर्म. स. [अविशदाकारव्यवहार], अभव्य स्वरूप की व्यवहार में अभिव्यक्ति - रो प्र. वि., ए. व. - अविसदाकारवोहारो इथिलिङ्ग, सद्द. 1.216; - ता स्त्री., भाव., असुस्पष्ट स्वरूप का व्यवहार में प्रकाशन - तं द्वि. वि., ए. व. - यथा वा गोसद्दस्स अविसदाकारवोहारतं पटिच्च इथिलिङ्गभावो उप्पज्जति, सद्द. 1.112. अविसम त्रि., विसम का निषे. [अविषम], अकठिन, बराबर, समान, सम - मेन पु., तृ. वि., ए. व. - समेन वत्तेय्याति अविसमेन ... आयेन पवत्तेय्य, पे. व अट्ठ. 114-15, अविसय पु., [अविषय], अपने विशेष क्षेत्र से बाहर वाला, अनुपयुक्त, पहुंच या पकड़ से बाहर का, अगोचर, अदृश्य - यो पु.. प्र. वि., ए. व. - अविसयो एस मय्ह पे. व. अट्ठ. 107; अजेसं अविसयो, बुद्धानमेव विसयोति, ध. स. अट्ठ. 13; - स्मि/ये पु., सप्त. वि., ए. व. - यथा तं, भिक्खवे, अविसयस्मिन्ति, स. नि. 2(2).14; अविसयस्मिन्ति एत्थ तन्ति निपातमत्तं. स. नि. अट्ठ. 3.5; अञत्र पन धातूनं अविसये तद्धितवसेन, सद्द. 2.506; - भूत त्रि., [अविषयभूत]. अपनी शक्ति, पकड़ या पहुंच से बाहर का हो चुका,
अगोचर या अग्राह्य हो चुका - तं स्त्री., द्वि. वि., ए. व. - ... अजेसं अविसयभूतं कथं... ब्याकासी ति, पे. व. अट्ठ. 171; ... तित्थियानं अविसयभूतं बुद्धगोचरं ... दस्सेन्तो, उदा. अट्ठ. 173. अविसय्ह त्रि., वि + Vसह के सं. कृ. का निषे. [अविसह्य], असहनीय, असाध्य, अत्यधिक भारी, न उठाने योग्य - यह नपुं.. प्र. वि., ए. व. - सचस्स होति अविसव्ह, म. नि. 1.271; अविसरहन्ति उक्खिपितुं असक्कुणेय्यं, अतिभारियं, म. नि. अठ्ठ. (मू.प.) 1(2).141; सचे च जआ अविसरहमत्तनो, न ते हि महं सुखागमाय, जा. अट्ट, 4.202; सचेति यदि अत्तनो दुक्खं अविसयह अत्तनो वा... जानेय्य, जा. अट्ठ 4.203; - साही त्रि., असहनीय को सहन करने वाला - हि पु., संबो., प्र. वि., ए. व. - अज्ञातमेतं अविसय्हसाहि अत्तानमम्बञ्च ददामि ते तं, जा. अट्ठ, 5.8; अविसरहसाहीति राजानो नाम दुस्सहं सहन्ति, तेन नं आलपन्ती एवमाह, जा. अट्ठ. 5.9. अविसहन्त त्रि., वि + Vसह के वर्त. कृ. का निषे. [अविसहत्]. सक्षम नहीं हो रहा, सहन करने में अक्षम - न्तो पु., प्र. वि., ए. व. - ... बह्मचरियं चरितुं सो अविसहन्तो सिक्खं ..... हीनायावत्तो ति, दी. नि. 3.4; ... अद्धा अविसहन्तो
असक्कोन्तो ब्रह्मचरियं चरितुं दी. नि. अट्ठ. 3.3; - न्ती स्त्री. प्र. वि., ए. व. - ... भिक्खुसङ्घस्स पत्ते पतिद्वापेतुं अविसहन्ती अट्ठासि, वि. व. अट्ठ. 54. अविसहन नपुं, वि + /सह से व्यु., क्रि. ना., सक्षम या समर्थ न होना, सहन न कर पाना - तस्मिं दुक्खसासनारोचने वत्तुं अविसहनवसेन किलमन्तं मं... अस्सासेन्त, सद्द. 1.21. अविसहमान त्रि., वि + Vसह के वर्त. कृ. का निषे. [असहमान], सहन नहीं कर पा रहा, सक्षम या समर्थ नहीं हो रहा - नो पु., प्र. वि., ए. व. - सोपि... पत्तं गण्हथाति वत्तुं अविसहमानो विहारंयेव अगमासि, जा. अट्ठ. 1.100. अविसार पु., विसार का निषे. [अविसार], फैलाव का अभाव, बिखराव का न रहना, अप्रसार अविक्षेप - रो पु०, प्र. वि., ए. व. - अविसारो अत्तनो एव अविसरणसभावो, विसुद्धि. महाटी. 2.132; - रट्ठ पु.. तत्पु. स., अप्रसार या अविक्षेप का अर्थ - @ो प्र. वि., ए. व. - अविसारट्ठो अभिज्ञेय्यो, पटि. म. 15; - द्वेन तृ. वि., ए. व. - अविसारठून समाधि, पटि. म. 43; - लक्ख ण त्रि., ब. स. [अविसारलक्षण], बिखराव या विक्षेप के अभाव वाले लक्षण से युक्त (समाधि) - णो पु., प्र. वि., ए. व. - सो
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अविसारद
648
अविस्सजन्त
अविसारलक्खणो, अविक्खेपलक्खणो वा, अभि. अव. 20; -द्धा स्त्री॰, प्र. वि., ए. व. - साललट्ठि बहिद्धा सुपरिकम्मकता विसुद्धि. 2.91.
अन्तो अविसुद्धा. अ. नि. 1(2).230; - स्स नपुं., ष. वि., ए. अविसारद त्रि., विसारद का निषे. [अविशारद], सुदृढ़ व. - अयमस्स ... अविसुद्धस्स चित्तस्स विसुद्धिया ... विश्वास से रहित, शङ्कालु, संशयालु - अविसारदो उपसङ्कमति परियोदपनाय, अ. नि. 2(1).197; -द्धानं ब. व. - सब्बेसञ्च मङभूतो, दी. नि. 2.67; अविसारदोति गहट्ठो ताव ..., दी. ..... अविसुद्धानं सद्धादीनं विसुद्धिकरणवसेन ... संवत्तति, नि. अट्ठ. 2.115; - दा पु.. प्र. वि., ब. व. - ... युद्धेसु उदा. अट्ठ. 179-180. अविसारदा भविस्सन्ति, जा. अट्ठ. 1.327; - ता स्त्री॰, भाव. अविसुद्धिधम्म त्रि., ब. स. [अविशुद्धिधर्मन्], विशुद्धि अथवा [अविशारदता], शङ्कालु या संशय भरा होना, आत्मविश्वास निर्वाण को प्राप्त न करने वाला – म्मो पु., प्र. वि., ए. व. से भरपूर न रहना - य तृ. वि., ए. व. - एकच्चे - परो बालो ... परित्तो असुद्धिधम्मो अविसुद्धिधम्मो अविसारदताय ..., ध, प. अट्ठ. 2.227; - त्त नपुं॰, भाव. अपरिसुद्धिधम्मो अवोदातधम्मोति, महानि. 222. [अविशारदत्व]. उपरिवत् - त्ता प. वि., ए. व. - अविसेस पु. विसेस का निषे., तत्पु. स. [अविशेष], सामान्यता, अपरिसावचरोति अविसारदत्ता परिसं ओतरितुं न सक्कोति, अप्रभेद, एकरूपता - सेन तृ. वि., ए. व., क्रि. वि., दी. नि. अट्ठ. 3.17.
सामान्यरूप से, किसी विशेष सङ्केत के बिना - तत्थ ... अविसारी त्रि., [अविसारिन]. नहीं बिखरा हुआ, इधर उधर अविसेसेन सबम्पि चतुभूमिकचित्तं, वुच्चति, ध, प. अट्ठ. नहीं छितराया हुआ, अविक्षिप्त-री पु., प्र. वि., ए. व. - 1.24; अविसेसेन पन सरीरट्ठकस्सेतं गहणं, ध. स. अट्ठ. ब्रह्मनो सनकुमारस्स ... बिन्दु च अविसारी च गम्भीरो च 368; - तो प. वि., ए. व., क्रि. वि., उपरिवत् - अविसेसतो निन्नादी च, दी. नि. 2.156; अविसारीति सुविसदो पन अाणन्ति एतेन सभावतो निद्दिद्वाति आतब्बा, म. नि. अविप्पकिण्णो , दी. नि. अट्ठ. 2.209.
अट्ठ. (मू.प.) 1(1).233; - कर त्रि., [अविशेषकर], विशेष अविसाहट त्रि., वि + सं + Vहर के भू, क. कृ. का निषे. प्रभेद को सूचित न करने वाला, प्रभेद न करने वाला-रो [अविसहत], नहीं बिखरा हुआ, अचञ्चल, अव्यग्र, शान्त - पु.. प्र. वि., ए. व. - अविसेसकरो नेरु, हन्द नेलं जहामसेति, चित्त त्रि., ब. स. [अविसंहृतचित्त], अचञ्चल या अविक्षिप्त जा. अट्ठ. 3.217; - रे पु., सप्त. वि., ए. व. - न तत्थ चित्त वाला - त्ता पु., प्र. वि., ब. व. - मनसि करोमाति सन्तो वसन्ति, अविसेसकरे नरे, जा. अट्ठ. 3.217; - रा एकग्गचित्ता अविक्खित्तचित्ता अविसाहटचित्ता निसामेम, स्त्री., प्र. वि., ब. व. - सिखीरिव... येनकामंचरा नेरु विय महाव. 131; -- मानसता स्त्री॰, भाव., शान्त चित्तवाला अविसेसकरा विसरुक्खो विय निच्चफलितायोति, जा. अट्ठ. रहना, अविक्षिप्त चित्त से युक्त रहना - ता प्र. वि., ए. व. 5.421; - कारी त्रि.. [अविशेषकारिन्], प्रभेद न करने ... या तस्मिं... अविसाहारो अविक्खेपो अविसाहटमानसता वाला, विशेष का सङ्केत न देने वाला - रितो पु., प. वि.,
समथो समाधिन्द्रियं समाधिबलं सम्मासमाधि,ध. स. 11; ए. व. - अविसेसतो ... दुरासदतो अकत ततो ... अविसाहटस्स मानसस्स भावोति अविसाहटमानसता, ध. अविसेसकारितो अनन्तदोसूपद्दवतोति... वेदितब्बा, स. नि. स. अट्ठ. 189.
अट्ठ. 3.58; - ञ् त्रि., [अविशेषज्ञ], विशिष्टता या प्रभेदक अविसाहार पु., अविसंहार के स्थान पर अप. [अविसंहार]. लक्षण को न जानने वाला - ब्रुनो पु., प्र. वि., ब. व. अविक्षेप, अचञ्चलता, बिखराव का अभाव, स्थिरता, एकाग्रता, - अविसेसचुनो हि एवमादिविभागं अजानन्ता... विराधेन्ति, शङ्का का अभाव - रो प्र. वि., ए. व. - या तस्मिं समये सद्द. 1.104; - ता स्त्री॰, भाव. [अविशेषता]. विशिष्टता का चित्तस्स ठिति सण्ठिति अवद्विति अविसाहारो अविक्खेपो अभाव, दूसरों से अलग करने वाले विशिष्ट प्रभेदक धर्मों का अविसाहटमानसता ... होति, ध. स. 11; अभाव - य तृ. वि., ए. व. - निग्गुणो अविसेसताय, मि. उद्धच्चविचिकिच्छावसेन पवत्तस्स विसाहारस्स पटिपक्खतो। प. 175; - त्त नपुं., भाव. [अविशेषत्व]. उपरिवत् - त्ते अविसाहारो, ध. स. अट्ठ. 189.
सप्त. वि., ए. व. - अविसे सत्ते सति कथं तेस अविसुद्ध त्रि., वि + vसुध के भू, क. कृ. का निषे. [अविशुद्ध]. पुमिथिलिङ्गववत्थानं सिया, सद्द. 1,208. शुद्ध नहीं किया हुआ, मलिन, मलों से दूषित - द्धो पु., प्र. अविस्सजन्त त्रि., वि + Vसज के वर्त. कृ. का निषे. वि., ए. व. - भिक्खु अविसुद्धो ताहि आपत्तीहि, चूळव. 163; [अविसृजत्], व्यय नहीं करता हुआ, त्याग नहीं कर रहा,
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अविस्सज्जनिय 649
अविहत हाथ से न छोड़ता हुआ - जं पु., प्र. वि., ए. व. - अददं अविस्सासिक त्रि., विस्सासिक का निषे., आत्मविश्वास से
अविस्सजे भोग, सन्धि तेनस्स जीरति, जा. अट्ठ. 3.221. रहित, दूसरों पर विश्वास न करने वाला - को पु., प्र. वि., अविस्सज्जनिय त्रि., वि + सज के सं. कृ. का निषे. ए. व. - यो कोचि अविस्सासिको अत्तनो पटिविरुद्धो पिच [अविसर्जनीय], नहीं त्यागने योग्य, समाधान न करने मित्तो नाम भवेय्य, सद्द. 2.494; - केन पु., तृ. वि., ए. व. योग्य, अचिन्तनीय - यो पु., प्र. वि., ए. व. - बुद्धविसयो - ... अविस्सासिकेन दिन्नकम्पि मारेतियेव, जा. अट्ठ. अविसज्जनीयो, नेत्ति. 150; - या स्त्री., प्र. वि., ए. व. - 1.370. पुग्गलपरोपर ता अविसज्जनीया, नेत्ति. 150.
अविस्सासिय त्रि., [अविश्वास्य], विश्वास न करने योग्य - अविस्सज्जित त्रि०, वि + vसज के भू. क. कृ. का निषे.. यो पु०, प्र. वि., ए. व. - एवं ... अविस्सासियो परित्तो [अविसृष्ट]. नहीं छोड़ा हुआ नहीं त्यागा हुआ, नहीं दान जीवितस्स अद्धाति ... अनुरसरितब्ब, विसुद्धि. 1.229, दिया किया हुआ, समाधान न किया हुआ, अचिन्तित - अविस्सासियो अविस्सासनीयो, विसुद्धि. महाटी. 1.278. तानि नपुं.. प्र. वि., ब. व. - विस्सज्जितानिपि अविह पु., [बौ. सं. अवृह, क. देवताओं का एक विशेष वर्ग अविस्सज्जितानि होन्ति, चूळव. 301.
- हा प्र. वि., ब. व. - अविहा, अतप्पा, सुदस्सा, सुदस्सी, अविस्सज्जित्वा वि + सज के पू. का. कृ. का निषे. अकनिट्ठा, दी. नि. 3.189; अविहा देवा .... म. नि. 3.145; [अविसृज्य], नहीं छोड़कर, अन्तर्भूत कर - नामरूपं -- हेहि त. वि. ब. व. - अविहेहि देवेहि सद्धि येन अतप्पा अविस्सज्जित्वाव नेसं धम्म देसेतुं वदृतीति, ध. प. अट्ठ. देवा तेनुपसङ्कमि, दी. नि. 2.40; - हानं ष. वि., ब. व. - 2.339;
अविहानं देवानं ..., कथा. 176; - हेसु सप्त. वि., ब. व. अविस्सट्ठ त्रि., वि + सज के भू. क. कृ. का निषे. - अयं वुच्चतीति अयं एवरूपो पुग्गलो अविहेसु ताव [अविसृष्ट], क नहीं छोड़ दिया गया, तिलाञ्जलि नहीं कप्पसहस्सप्पमाणस्स आयुनो .... पु. प. अट्ठ. 48; ख. दिया गया, नहीं भेज दिया गया, जाने हेतु अनुमति नहीं नपुं./पु., अवृह नामक देववर्ग का लोक - हं द्वि. वि., ए. दिया गया - टो पु., प्र. वि., ए. व. - परलोक न्ति एवं व. - तिण्णं धम्मानं अतित्तो, हत्थको अविहंगतो ति, अ. नि. अम्हेहि अविस्सटो, पे. व. अट्ठ. 54: ख, अस्पष्ट, अव्यक्त __ 1(1).314; अविहं उपपन्नासे, विमत्ता सत्त भिक्खवो, स. नि. - टुं नपुं., प्र. वि., ए. व. - अविसट्टम्पि होति अविद्येय्यं 1(1).40; - तो प. वि., ए. व. -- तत्थ यो अविहतो पट्ठाय तरमानस्स भासितं. म. नि. 3.283; --कम्मट्ठान त्रि., ब. स. चत्तारो देवलोके सोधेत्वा... अकनिहगामी नाम, पु. प. अठ्ठ [अविसृष्टकर्मस्थान], ध्यान के कर्मस्थान को नहीं छोड़ने 49; - हा प्र.वि., ए. व. - अविहा चुतो अतप्पंगच्छतीतिआदीस वाला, कर्मस्थान को नहीं त्यागने वाला - द्वानो पु., प्र. वि., अविहे कप्पसहस्सं वसन्तो... गच्छति, पु. प. अट्ठ. 48; - ए. व. - एको किर ... पटिपन्नको योगावचरो हाब्रह्मलोक पु.. [अवृहब्रह्मलोक], अवह देववर्ग का लोक
अविस्सडकम्मट्ठानो हुत्वा... चरन्तो... चलि. जा. अट्ठ. 1.290. - के सप्त. वि., ए. व.- कालङ्कतो च पन अविहाब्रह्मलोके अविस्सत्थ/अविस्सह त्रि., विस्सत्थ (विश्वास) का निषे. निब्बत्ति, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.226. [अविश्वस्त], विश्वास न करने योग्य, संदिग्ध आचरण । अविहञ्जमान त्रि., वि + हन, कर्म. वा., वर्त. कृ. का निषे. वाला- त्थे पु., सप्त. वि., ए. व. - न विस्ससे अविस्सत्थे, [अविहन्यमान], मानसिक बेचैनी से पीड़ित न रहने वाला, विस्सत्थेपि न विस्ससे, जा. अट्ठ. 1.371; - त्थो पु.. प्र. वि., मानसिक पीड़ा से मुक्त - नो पु.. प्र. वि., ए. व. - ता सुद ए. व. - यो पुब्बे सभयो अत्तनि अविस्सत्थो अहोसि, तस्मि .... सम्पजानो अधिवासेसि अविहञमानो, दी. नि. 2.77; अविस्सत्थे, जा. अट्ठ 1.371; - स्सट्ठा ब. व. - भिक्खू अविहञमानोहि वेदनानुवत्तनवसेन अपरापरं परिवत्तन अविस्सट्ठा परिभुञ्जन्ति, महाव. 288.
अकरोन्तो अपीळियमानो अदुक्खियमानोव अधिवासेसि, दी. अविस्सासनीय त्रि., वि + Vसस के सं. कृ. का निषे. नि. अट्ठ. 2.122. [अविश्वसनीय], विश्वास न करने योग्य -- यो पु., प्र. वि., अविहत त्रि., वि + Vहन या इहर के भू. क. कृ. का निषे. ए. व. - ... अकत मित्तदुभी अविस्सासनीयो, जा. अठ्ठ. [अविहत, अविहत], क. वह, जिस पर प्रहार नहीं किया 3.418; चारो मे पुराणसहायोति अविस्सासनीयो. म. नि. गया है या जिसे मारा नहीं गया है, ख. वह, जिसे दूर नहीं अट्ठ. (म.प.) 2.236.
ले जाया गया है या जिसे हटाया नहीं गया है - खाणुकण्टक
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अविहिंसक
650
अविहेठकजातिक
त्रि., ब. स. [अविहतस्थाणुकण्टक], ऐसी जगह, जिसमें से ढूंठ और झाड़ियां निकाली या नष्ट नहीं की गई हैं, बिना साफ किए हुए ढूंठों और कांटो से भरा - के नपुं., सप्त. वि., ए. व. - सो तत्थ दुक्खेत्ते दुभूमे अविहतखाणुकण्टके बीजानि पतिट्ठापेय्य... असुखसयितानि, दी. नि. 2.260; - योब्बन त्रि., ब. स. [अविहतयौवन], वह, जिसकी युवावस्था अभी तक समाप्त या नष्ट नहीं हुई है, युवावस्था में विद्यमान - ना स्त्री, प्र. वि., ए. व. - दसक्खत्तुं विजातापि
खो पन सकिं विजाता विय अविगतयोबनायेव होति, ध. प. अट्ट, 1.217; - सक्कायदिहिक त्रि., ब. स. [अविहतसत्कायदृष्टिक], वह, जिसके चित्त में सत्कायदृष्टि अथवा आत्मा की नित्यता की मिथ्या धारणा नष्ट नहीं हुई है - पुथु अविहतसक्कायदिष्टिकाति पुथुज्जना, ध. स. अट्ठ.
378.
अविहिंसक त्रि., विहिंसक का निषे. [अविहिंसक], हिंसा से परिपूर्ण मनोवृत्ति न रखने वाला, मैत्रीभावना से युक्त चित्तवाला - का पु., प्र. वि., ब. व. - मयमेत्थ अविहिंसका
भविस्सामा ति सल्लेखो करणीयो, म. नि. 1.53. अविहिंसना स्त्री., विहिंसना का निषे., हिंसामयी मनोभावना का अभाव, दयालुता, मैत्रीभाव, करुणा का भाव - अविहेसाति अविहिंसना, पारा. अट्ठ. 1.230. अविहिंसन्त त्रि, वि + हिंस के वर्त. कृ. का निषे. [अविहिंसत], किसी की हिंसा न करने वाला, किसी को पीड़ा या कष्ट न देने वाला - न्तो प., प्र. वि., ए. व. -
अहेग्यं चरन्ति अविहिंसन्तो चरमानो, स. नि. अट्ठ. 1.57. अविहिंसा स्त्री., विहिंसा का निषे. [अविहिंसा], हिंसामयी मनोभावना का अभाव, दयालुता, मैत्रीभाव, करुणा का भाव - साधु धम्मचरिया ... पुञ्जकिरिया साधु अविहिंसा साधु भूतानुकम्पाति, दी. नि. 2.22; अविहिंसाति करुणाय पुब्बभागो, दी. नि. अट्ट, 2.42; - सं द्वि. वि., ए. व. - सोरच्च अविहिंसञ्च, खन्तिञ्चापि अवण्ण| सु. नि. 294; अविहिंसाति पाणिआदीहि अविहेसिकजातिकता सकरुणभावो, सु. नि. अट्ठ. 2.48; - य तृ. वि.. ए. व. - खन्तिया, अविहिंसाय, मेत्तचित्तताय, अनुदयताय ... परं रक्खतो, स. नि. 3(1).244; अविहिंसायाति सपुब्बभागाय करुणाय, स. नि. अट्ठ. 3.254; - यं सप्त. वि., ए. व. - ... अक्कोधे अविहिंसायं सच्चे सोचेय्य, मि. प. 123; - छन्द पु., तत्पु. स., करुणा या मैत्रीभाव से सम्बन्धित इच्छा - न्दं द्वि. वि., ए. व. - अविहिंसाछन्दं पटिच्च उप्पज्जति अविहिंसापरिळाहो,
स. नि. 1(2).135; - धातु स्त्री., तत्पु. स. [अविहिंसाधातु]. प्राणियों के प्रति अहिंसा या करुणा का चेतसिक तत्त्व - तु प्र. वि., ए. व. - तिस्सो कुसलधातुयो नेक्खम्मधातु, अब्यापादधातु, अविहिंसाधातु, दी. नि. 3.172; या सत्तेसु करुणा... करुणाचेतोविमुत्तीति अयं अविहिंसाधातु, दी. नि. अट्ठ. 3.154; - तुं द्वि. वि., ए. व. - अविहिंसाधातुं, ..., पटिच्च उप्पज्जति अविहिंसासा , स. नि. 1(2).135; - पच्चुपट्ठान नपुं.. तत्पु. स. [अविहिंसाप्रत्युपस्थान], अहिंसा के रूप में प्रकाशित होने वाली/वाला प्रकट होने वाला/वाली - ... करुणा, ..., अविहिंसापच्चुपट्टाना, .... अभि. अव. 23; - पटिसंयुत्त त्रि., तत्पु. स. [अविहिंसाप्रतिसंयुक्त], अहिंसा के साथ जुड़ा हुआ, अहिंसा में अन्तर्भूत - त्तो पु., प्र. वि., ए. व. - अविहिंसापटिसंयुत्तो तक्को वितक्को सङ्कप्पो अप्पना ब्यप्पना ... सम्मासङ्कप्पो, विभ. 97; - त्ता स्त्री.. प्र. वि., ए. व. - अविहिंसापटिसञ्जत्ता सा अविहिंसासा , महानि. अट्ठ. 135; - परिळाह पु.. तत्पु. स. [अविहिंसापरिडाह]. अहिंसा के लिए उत्कण्ठा, अभिलाषा या ललक - हो पु., प्र. वि., ए. व. - अविहिंसाछन्द पटिच्च उप्पज्जति अविहिंसापरिळाहो, स. नि. 1(2).135; - परियेसना स्त्री, तत्पु. स. [अविहिंसापर्येषण]. अहिंसाभावना की खोज या उसे पाने की उत्कण्ठा - अविहिंसापरिळाहं पटिच्च उप्पज्जति अविहिंसापरियेसना, स. नि. 1(2).135%; - वितक्क पु., तत्पु. स. [अविहिंसावितक]. चित्त में अहिंसा की भावना का अभिनिरोपण - क्कं द्वि. वि., ए. व. -- अविहिंसावितक्कं बहुलमकासि, म. नि. 1.165; - संकप्प पु., तत्पु. स. [अविहिंसासंकल्प]. तीन संकल्पों में से एक, अहिंसा-विषयक संकल्प .. प्पा प्र. वि., ब. व. - तयो कुसलसङ्कप्पा - नेक्खम्मसङ्कप्पो, अब्यापादसङ्कप्पो, अविहिंसासङ्कप्पो, दी. नि. 3.172; - सज्ञा स्त्री., तत्पु. स. [अविहिंसासंज्ञा], अहिंसा-विषयक संज्ञास्तरीय ज्ञान, तीन कुशलसंज्ञाओं में एक-तिस्सो कुसलसञ्जा- नेक्खम्मसआ, अब्यापादसा , अविहिंसासा , दी. नि. 3.172; - सारितक्ख त्रि., ब. स. [अविहिंसासारिताक्ष], अहिंसा द्वारा घुमाई जा रही धुरी से युक्त - क्खो पु.. प्र. वि., ए. व. - अविहिंसासारितक्खो, संविभागपटिच्छदो, जा. अट्ठ. 7.142; अविहिंसासारितक्खोति अविहिंसामयेन सारितेन सुद्ध परिनिहितेन अक्खेन समन्नागतो, जा. अट्ठ. 7.143. अविहेठकजातिक त्रि.. विहेठकजातिक का निषे. [अविहेठकजातिक], स्वभाव से ही किसी को पीड़ा न देने
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अविहेठन/अविहेठना
651
अवीचि
वाला, अहिंसक या अनुत्पीड़क प्रकृति वाला - को पु., प्र. वि., ए. व. - तथागतो पुरिम जाति ... सत्तानं अविहेठकजातिको अहोसि पाणिना वा... सत्येन वा, दी. नि. 3.124. अविहेठन/अविहेठना पु./स्त्री., [अविहेठना], अहिंसा, अनुत्पीड़न, पीड़ा न देना, कष्ट न पहुंचाना, अविहिंसन, अहानि - नत्थ पु., तत्पु. स., हानि नहीं होने का प्रयोजन - त्थाय च. वि., ए. व. - एवमस्सा सीहादीनम्पि अविहेठनत्थाय आरक्खं .. आणापेसुं. जा. अट्ठ. 7.329; - ना स्त्री.. प्र. वि., ए. व. - अहिंसाति परेसं अविहेसा अविहेठना, जा. अट्ठ. 2.45. अविहेठयन्त त्रि., वि + vहेठ का वर्त. कृ. का निषे. [अविहेठयत्], पीड़ित न करता हुआ, चोट न पहुंचा रहा, हानि नहीं कर रहा - यं पु., प्र. वि., ए. व. - सब्बेसु भूतेसु निधाय दण्डं, अविहेठयं अञ्जतरम्पि तेसं. सु. नि. 35;
अविहेठयन्ति अविहेठयन्तो, सु. नि. अट्ठ. 1.52. अविहेसिकजातिकता स्त्री॰, भाव., अहिंसक प्रकृति का होना, कष्ट या पीड़ा न देने वाले स्वभाव का होना - ता प्र. वि., ए. व. - अविहिंसाति पाणिआदीहि
अविहेसिकजातिकता सकरुणभावो, सु. नि. अट्ठ. 2.48. अविहेसा स्त्री., विहेसा का निषे. [अविहिंसा]. प्राणियों के प्रति हिंसक मनोवृत्ति का अभाव, प्राणियों के प्रति अनुकम्पा या उनका कल्याण करने का भाव - तस्स मोघपरिसस्स पाणेसु अनुद्दया अनुकम्पा अविहेसा भविस्सति, पारा. 48%3B अविहेसा ति अविहिंसना, एतेहि करुणापुब्बभाग दस्सेति, पारा. अट्ठ 1.230; अहिंसाति परेसं अविहेसा अविहेठना, जा. अट्ट. 2.45; - सं द्वि. वि., ए. व. - अविहेसं खो पनस्स मनसिकरोतो... विमुच्चति, अ. नि. 2(1).225; - य च. वि., ए. व.- ... अविहेसाय चित्तं पक्खन्दति पसीदति सन्तिट्ठति विमुच्चति, अ. नि. 2(1).225; - धातु स्त्री., तत्पु. स. [अविहिंसाधातु]. धातु या मूल-तत्त्व के रूप में अहिंसा की भावना - छयिमा ..., धातुयो- कामधातु ..., अविहिंसाधातु, म. नि. 3.109; - वन्तु त्रि., [अविहिंसावत्], अहिंसा की भावना से युक्त, अनुकम्पा से भरा हुआ - वा पु., प्र. वि., ए. व. - अविहेसवा होति, अविहेसासहगतेन चेतसा विहरति. म. नि. 3.98. अवीचि' त्रि., वीचि का निषे., ब. स. [अवीचि, पु./स्त्री.]. बिना अन्तराल वाला, लगातार चल रहा, सतत् रूप में प्रवर्तित, व्यवधानरहित, चि नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अवीचीति
अविरळ, महानि. अट्ठ. 62; पुन अवीचि सवीचीति एवम्पि दुविधा होति,ध. स. अट्ट, 360; - क त्रि.. ब. स. [अवीचिक]. लगातार चल रहा/रही - का स्त्री., प्र. वि., ए. व. - विसदिसचित्तपवत्तिसजाताय वीचिया अभावेन अवीचिका, चित्तसन्तति, विसुद्धि. महाटी. 2,450; - कं द्वि. वि., ए. व. - ... अवीचिकं चित्तसन्ततिं अनुप्पबन्धमानं तथेव सङ्घारे आरम्मणं कत्वा उप्पज्जति पठमं जवनचित्तं विसुद्धि. 2.306; - जरा स्त्री., कर्म स., लगातार रूप से चल रही जीर्णता, निरन्तर विद्यमान जरा, लगातार हो रहा रूपान्तरण - अन्तरन्तरा वण्णविसेसादीनं दुविजेय्यत्ता जरा अवीचिजरा नाम, ध. स. अट्ठ. 360; - मनुसम्बन्ध त्रि., अवीचि + अनुसम्बन्ध, व्यवधान से रहित क्रम, लगातार चल रहा सिलसिला - अवीचिमनुसम्बन्धो, नदीसोतोव वत्ततीति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).271. अवीचि पु., (निरय के तात्पर्य में) स्त्री॰ [अवीचि त्रि.], आठ प्रकार के महानरकों में से एक - पतापनो अवीचि त्थी संघातो तपनो इति, अभि. प. 657; - चि प्र. वि., ए. व. - ... अयं लोको अवीचि मजे..... अ. नि. 1(1).186; अवीचीव निरस्सादं लोक अत्वा दुखद्दितं. सद्धम्मो. 37; - चिं द्वि. वि., ए. व. - ... बहिजेतवने पथविया विवरे दिन्ने अवीचि पाविसि, जा. अट्ठ. 4.179; -- ना तृ. वि., ए. व. - हेट्ठा च अवीचिना परिच्छिन्ने लोकसन्निवासे एतं... नत्थी ति, जा. अट्ठ. 1.350; - तो प. वि., ए. व. - अयं पन अवीचितो याव भवग्गा पत्थट किलेसोघं... आह. स. नि. अट्ठ. 1.17-183; - म्हि सप्त. वि., ए. व. - अथ रुक्खं ... एकप्पहारेनेव कालं कत्वा अवीचिम्हि निब्बत्ता महादुक्खं अनुभवन्ति, स. नि. अट्ठ. 1.100; - चम्गि पु., तत्पु. स., अवीचि-नरक की जलाने वाली आग - यस्मिञ्च जायमानस्मि अवीचग्गि न पज्जलि, अप. 1.159; - निरय पु.. तत्पु. स. [बौ. सं. अवीचिनिरय], अवीचि नाम वाला एक नरक - यो प्र. वि., ए. व. - एवं अवीचिनिरयो, हेट्ठा उपरि पस्सतो, महानि. 300; - यं द्वि. वि., ए. व. - अवीचिनिरयं पत्तो, चतुद्वार भयानकं चूळव. 343; - ये सप्त. वि., ए. व. - ... न जच्चबधिरो, ..., न अवीचिनिरये, .... न अचं चक्कवाळ सङ्कमति, सु. नि. अट्ट. 1.41-42; - परायण त्रि., तत्पु. स., अवीचि-नामक नरक में जाने वाला - तस्माति यस्मा चेतियराजा छन्दागमनेन अवीचिपरायणो जातो, जा. अट्ठ. 3.406; - परियन्त त्रि., ब. स. [बौ. सं. अवीचिपर्यन्त]. अवीचि-नामक नरक की सीमा वाला, अवीचि नरक तक
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अवीत
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अवीतिक्कमन
जाने वाला - न्तं नपुं., क्रि. वि., द्वि. वि., ए. व. - तत्थ ब. स. [अवीतद्वेष], द्वेष से अमुक्त, द्वेषयुक्त - सो पु., प्र. इदं रूपं नाम हेट्ठा अवीचिपरियन्तं कत्वा उपरि वि., ए. व. - अज्जापि नून समणो गोतमो अवीतरागो अकनिद्वब्रह्मलोक ... वत्तति, स. नि. अट्ठ. 3.106; - अवीतदोसो अवीतमोहो, म. नि. 1.29; - सा ब. व. - महानिरय पु०, कर्म. स. [बौ. सं. अवीचिमहानिरय], मयम्पि हि चक्खुविजेय्येसु रूपेसु अवीतरागा अवीतदोसा अवीचि नामक महान नरक - तथा असुरभवन अवीतमोहा, म. नि. 3.353-54; - परिळाह त्रि., ब. स. अवीचिमहानिरयो जम्बुदीपो च, सु. नि. अट्ठ. 2.150; - स्स [अवीतपरिदाह], चित्त में जल रही अग्नि से अमुक्त, चित्त ष. वि., ए. व. - जालरोरुवोति पन अवीचिमहानिरयस्सेपेतं की व्याकुलता से युक्त - हो पु.. प्र. वि., ए. व. - ... नाम, स. नि. अट्ठ. 1.73; -- तो प. वि., ए. व. - तावदेव अवीतरागो होति... अविगत परिळाहो अविगततण्हो, अ. नि. अवीचिमहानिरयतो अग्गिजाला निक्खमित्वा तं ... गहि, 3(1).265; - मोह त्रि.. ब. स., मोह से ग्रस्त चित्त वाला जा. अट्ठ. 1.308; - ये सप्त. वि., ए. व. - उण्हेन रुप्पन - मयम्पि हि चक्खुविज्ञेय्येसु रूपेस अवीतरागा अवीतदोसा अवीचिमहानिरये पाकट होति. स. नि. अट्ठ. 2.258; - अवीतमोहा, म. नि. 3.353-54; - राग त्रि., ब. स. युप्पत्तिसंवत्तनिक त्रि., [बौ. सं. [अवीतराग], राग से अविनिर्मुक्त, राग से ग्रस्त चित्त वाला अवीचिनिरयुत्पत्तिसंवर्तनिक]. अवीचि-नामक नरक में उत्पत्ति - गो पु०. प्र. वि., ए. व. - अवीतरागो कामेसु. यस्स दिलाने वाला, अवीचि नरक की ओर ले जाने वाला - पञ्चिन्द्रिया मुद्, अ. नि. 2(2).84; गं द्वि. वि., ए. व. - एतमत्थं विदित्वाति एतं अवीचिमहानिरयुप्पत्तिसंवत्तनिय यहि ... अवीतरागं इमिना उपक्कमेन उपक्कमेय्याम हदयं कप्पट्टियं अतेकिच्छ ... विदित्वा .... उदा. अट्ठ. 259; - वास्स फलेय्य, स. नि. 1(1).147; -- गा पु., प्र. वि., ब. व. सन्ताप पु., तत्पु. स. [अवीचिमहानिरयसन्ताप], अवीचि- - परिनिब्बुते... अवीतरागा अप्पेकच्चे बाहा परगरह कन्दन्ति, नामक महानरक की गर्मी या तपिश - पो प्र. वि., ए. व. दी. नि. 2.118; अवीतरागाति पुथज्जना चे व - जीवन्तस्सेव अवीचिमहानिरयसन्तापो उपट्टहि, ध. प. सोतापन्नसकदागामिनो च, दी. नि. अट्ट. 2.168; - गे द्वि. अट्ठ. 1.74; - संपत्त त्रि., तत्प. स. [अवीचिसंप्राप्त]. वि., ब. व. - सो अञ सत्ते पस्सामि कामेसु अवीतरागे अवीचि-नामक महानरक में पहुंचा हुआ - तस्मिं खणे । कामतहाहि खज्जमाने ... पटिसेवन्ते, म. नि. 2.184. दक्खिणचक्कवाळं ओसीदित्वा हेट्टा अवीचिसम्पत्तं विय अहोसि. अवीतिक्कन्तपुब्ब त्रि., ब. स., वीतिक्कन्तपुब्ब का निषे. जा. अट्ट. 1.80.
[अव्यतिक्रान्तपूर्व], वह, जिसने पहले या पूर्वकाल में पार अवीत त्रि., वि + Vइ के पू. का. कृ. का निषे०, केवल स. नहीं किया है, अब से पहले पार न किया हुआ, उल्लंघन पू. प. के रूप में ही प्राप्त [अवीत]. दूर नहीं गया हुआ, न किया हुआ- ब्बं नपुं., प्र. वि., ए. व. - अतिण्णपुब्बन्ति तिरोहित नहीं हो चुका - गन्ध त्रि., ब. स. [अवीतगन्ध], इमिना दीघेन अद्धना सुपिनन्तेनपि अवीतिक्कन्तपुब्ब, सु. वह, जिसकी सुगन्ध नष्ट नहीं हुई है, सुगन्ध से युक्त - नि. अट्ठ. 2.37. धं नपुं॰, प्र. वि., ए. व. - पदुमं यथा कोकनदं सुगन्धं पातो अवीतिक्कमन्त त्रि., वि + अति + किम के वर्त. कृ. का सिया फुल्लमवीतगन्धं स. नि. 1(1).99; यथा कोकनदसवातं निषे. [अव्यतिक्रान्त], उल्लघंन नहीं करता हुआ, अतिक्रमण पदुमं पातोव फुल्लं, अवीतगन्धं सिया, स. नि. अट्ठ. 1.134; नहीं करता हुआ - न्तो पु., प्र. वि., ए. व. - तस्मिञ्च -- च्छन्द त्रि., ब. स. [अवीतछन्दस्]. वह, जिसकी इच्छा सिक्खापदे अवीतिक्कमन्तो सिक्खतीति, पारा, अट्ठ. 1.193.
या तृष्णा समाप्त नहीं हुई है - न्दो पु., प्र. वि., ए. व. - अवीतिक्कम पु., [अव्यतिक्रम]. अनुल्लंघन, अतिक्रमण या .... अवीतरागो होति अविगतच्छन्दो..., अ. नि. 3(1).265; - अनाचार का अभाव, सदाचार - सोरच्चनिद्देसे कायिको तण्ह त्रि., ब. स. [अवीततृष्ण], वह, जिसके मन की तृष्णा अवीतिक्कमोति तिविधं कायसुचरितं, ध. स. अट्ट, 1.417; का निरोध या क्षय नहीं हुआ है - हो पु., प्र. वि., ए. व. ... कायिको अवीतिक्कमो वाचसिको अवीतिक्कमोति सीलमेव - अवीततण्हो हि पापिच्छो..., उदा. अट्ठ. 51; - ण्हा ब. सोरच्च न्ति वुत्तं, स. नि. अट्ठ. 1.224. व. - राजा च अखे च बहू मनुस्सा, अवीततण्हा मरणं अवीतिक्कमन नपुं.. [अव्यतिक्रमण], अनुल्लंघन, अनाचार उपेन्ति, थेरगा. 778; - ण्हासे ब. व. - हीना नरा मच्चुमुखे का व्यवहार में अप्रयोग - नं प्र. वि., ए. व. - पाणातिपातस्स लपन्ति, अवीततण्हासे भवाभवेसु, सु. नि. 782; - दोस त्रि., अवीतिक्कमनं अवीतिक्कमो सील, विसुद्धि, महाटी, 1.72.
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अवीतिवत्त
653
अवुत्थ
अवीतिवत्त त्रि., वि + अति + Vवत के भू. क. कृ. का निषे. अवुट्टिका स्त्री., अवुट्टिक से व्यु., बिना वर्षा वाली, वर्षा से [अव्यतिवृत्त], शा. अ. पार नहीं किया हुआ, ला. अ. वश रहित - य तृ. वि., ए. व. - ईतीनिपातेन अवुट्टिताय वा, में न किया हुआ, नहीं जीता हुआ - त्तो पु., प्र. वि., ए. न किञ्चि विन्दन्ति, जा. अट्ठ. 5.396. व. - हीनाति अञ ततो सब्बमाह तरमा विवादानि अवीतिक्त्तो, अदुट्ठित त्रि., वि + उ + Vठा के भू, क. कृ. का निषे. सु. नि. 802; तस्मा विवादानि अवीतिवत्तोति तेन कारणेन [अव्युत्थित], अभी तक नहीं उठा हुआ - तेन पु., तृ. वि., सो दिट्ठकलहे अवीतिवत्तोव होति, सु. नि. अट्ठ. 2.222; - ए. व. - भुत्ताविना पवारितेन आसना अवुट्टितेन कतं होति. ता ब. व. - अवीतिवत्ता सक्कायं जातिमरणसारिनो, थेरीगा. पाचि. 114; आसना अवुट्टितेनाति एत्थ पन असम्मोहत्थं अयं 199; ततो एव अवीतिवत्ता सक्कायं निस्सरणाभिमुखा अहुत्वा । विनिच्छयो, पाचि. अट्ठ. 85-86; - ताय स्त्री., सप्त. वि., सक्कायतीरमेव अनुपरिधावन्ता... अनुस्सरन्ति, थेरीगा. अट्ट. ए. व. - अवुट्टिताय परिसाय, महाव. 162. 191.
अवुत्त त्रि., Vवद के भू. क. कृ. का निषे. [अनुक्त], क. नहीं अवीमंसित त्रि., वीमंसित का निषे. [अविमृष्ट]. अपरीक्षित, कहा गया, नाम लेकर नहीं पुकारा गया, अनिर्दिष्ट, असङ्केतित अचिन्तित, ठीक से नहीं परखा गया - तं नपुं.. प्र. वि., ए. - त्तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अलमेतं सब्बन्ति अवुत्तं होति. व. - एवमेव अ सम्पि येसञ्चेतं असङ्घातं अवीमंसितं, जा. पाचि. 114; अत्तनो ... तेन वुत्तञ्च अवुत्तञ्च ... उप्पादयिंसु, अट्ठ. 4.5.
जा. अट्ठ. 7.8; ख. अनामन्त्रित, स्वतःस्फूर्त, दूसरों द्वारा अवीरपुरिस पु., वीरपुरिस का निषे. [अवीरपुरुष], कायर, नहीं कहा गया - त्ता स्त्री., प्र. वि., ए. व. - ..., अवुत्ता बलहीन पुरुष - सो प्र. वि., ए. व. - न अवीरपुरिसो विय धोवतीति, उद्देसाय वा ओवादाय वा आगता किलिन्नं चीवरं अप्पमत्तकेनपि सीतेन चलति कम्पति कम्मट्टानं विजहति, दिस्वा ... देथ, पारा. अट्ठ. 2.219; - काल पु., कर्म. स. अ. नि. अह. 3.130.
[अनुक्तकाल], समीप में विद्यमान काल, वर्तमान काल, अवीवदात त्रि., वीवदात का निषे०, तत्पु. स. [अव्यवदात], अनिर्धारित काल - लो प्र. वि., ए. व. ... अनुं समीपे अस्वच्छ, अपवित्र, मलों से भरा हुआ- ता पु., प्र. वि., ब, वुत्तोकालो अनुत्तकालो, पच्चुप्पन्नकालो ति अत्थो, न उत्तकालो व.- पकप्पिता सङ्घता यरस धम्मा, पुरक्खता सन्ति अवीवदाता, ति वा अनुत्तकालो, क. व्या. 417 पर क. व. - ले सप्त. सु. नि. 790; अवीवदाताति अवोदाता, सु. नि. अट्ठ. 2.216. वि., ए. व. - अत्थो अवुत्तकाले ति तस्स आयति मे मति, अवुट्ठापनीय त्रि., वि + उ + Vठा के प्रेर. के सं. कृ. का सद्द. 1.51; - नय त्रि.. ब. स. [अनुक्तनय], पूर्व में निषे. [अव्युत्थापनीय], नहीं हटाए जाने योग्य, नहीं निकाल प्रकाशित न किए गए स्पष्टीकरण वाला, वह, जिसका बाहर कराने योग्य - या पु., प्र. वि., ब. व. - न भिक्खवे स्पष्टीकरण पहले नहीं किया गया है - यं पु., वि. वि., ए. भण्डागारिको वट्ठापेतब्बोति एत्थ अञपि अवठ्ठापनीया व. - यतो तानि अानि च तथाविधानि छड्डेत्वा अवुत्तनयमेव जानितब्बा, महाव. अट्ठ. 381.
वण्णयिस्साम, सु. नि. अट्ठ. 2.71; - पुब्ब त्रि., ब. स. अवुट्ठि स्त्री., वुट्ठि का निषे०, [अवृष्टि], वर्षा का अभाव, सूखा [अनुक्तपूर्व], पूर्व में नहीं कहा गया, पूर्व में अकथित - बं - अतिदुट्ठिआदि पु., सूखा या अतिवृष्टि इत्यादि - दीहि नपुं., द्वि. वि., ए. व. - ... अग्गिकभारद्वाजस्साति यं यं पु., तृ. वि., ब. व. - विपज्जमानन्ति अवुद्धिअतिवुद्विआदीहि अवुत्तपुब्बं तं तदेव वण्णयिस्साम, सु. नि. अट्ठ. 1.139; - कसिकम्म, ..., म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.312.
विकप्पनत्थ पु., कर्म. स. [अनुक्तविकल्पार्थ], नहीं कहे अवुद्विक त्रि., [अवृष्टिक], बिना वर्षा वाला/वाली - का। गये विकल्प के अर्थ का प्रकाशक - वा-सद्दो अवृत्तविकप्पनत्थो
स्त्री., प्र. वि., ए. व. - अवुट्टिका दिसा नत्थि, सन्तत्ता ..... वि. वि. अट्ठ. 2.202; - सिद्ध त्रि., स्वतः-प्रकाशित, बिना कुथितापि च, अप. 2.190; - मेघसम त्रि., ब. स. कहे हुए ही स्पष्ट - द्धं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - तत्थ [अवृष्टिकमेघसम], वर्षा रहित मेघ जैसा, बरसात न करने परिचारकारकानं ब्याकरणं अवुत्तसिद्ध, लीन. (दी.नि.टी.) वाले बादल के समान - मो पु., प्र. वि., ए. व. - छठे 2.187. अवुद्धिकसमोति अबुद्धिकमेघसमो. इतिवु. अट्ट. 209; - समो अवुत्थ त्रि., Vवस के भू. क. कृ. का निषे. [अनुषित], पु., ब. स., प्र. वि., ए. व. [अवृष्टिकसम], उपरिवत् - वर्षावास पूरा नहीं किया हुआ - त्थो पु., प्र. वि., ए. व. पुग्गलो अवुद्धिकसमो होति, इतिवु. 48.
- वुत्तहि खुद्दसिक्खावण्णनाय "अवुत्थोति पच्छिमिकाय
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अबुद्धि
उपगतो अपरिनिद्वितता अयुत्थोति दुच्चतीति, विन. कि. टी. 2.188 पुब्ब त्रि. ब. स. [ अनुषितपूर्व ] पूर्वकाल में एक साथ निवास नहीं किया हुआ ब्बं पु. द्वि. वि., ए. व.- तत्थ असन्धुतन्ति एकाहद्वीहम्पि एकतो अयुत्थपुब्बं
जा. अट्ठ. 7.208.
अवुद्धि स्त्री, वुद्धि का निषे [ अवृद्धि], पतन, पराभव - द्वि प्र. वि. ए. व. अभवो ति अबुद्धि, सद. 1.248द्धिं द्वि. कि.. ए. व. पराभवतीति पराभवो होति व्यसन आपज्जति अवुद्धिं पापुणाति सद. 14 क त्रि अवुद्धि से व्यु. [अवृद्धिक], बिना वृद्धि वाला, विश्वास या वृद्धि से रहित - का स्त्री. प्र. वि., ए. व. तनोति तनुते ति अवुद्धिका सह
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BAA
2.550.
अवुसित त्रि वस के भू. क. कृ. का निषे [ अनुषित ]. ठीक से पालन न किया गया, उचित रूप में आचरण नहीं किया गया तेन पु. तृ. वि. ए. व. असितेन मे एत्थ सितं, म. नि. 2. 193; अवुसितेनेव ब्रह्मचरियेन वुसितं नाम होति. म. नि. अ. (म.प.) 2.163 त नपुं भाव. [ अवुषितत्त्व], उचित रूप में आचरण या पालन नहीं किया जाना ताप. वि. ए. व. अम्बट्टो मानवो.. अनुसितत्ताति दी. नि. 1.79; वन्तु त्रि. (अनुषितवत्] पालन या आचरण नहीं करने वाला वा पु०, प्र. वि., ए. व. आचरियकुले अवुसितवा... असिक्खितो... समानो, दी. नि. अट्ठ. 1.206; वाद पु. तत्पु. स. अप्रतिपालक या आचरण न करने वाले के रूप में कथन देन तृ. वि., ए. व. अयुसितवादेन दुच्चमानो कुपितो दी. नि. 1.79. अनुपच्छेद / अवूपच्छेद पु.. [अव्युच्छेद], व्यवधान का अभाव, निरन्तरता दो प्र. वि. ए. व. यत्थ अनुपच्छेदो तत्थ सन्तति नेति 66.
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"
अवूपसन्त त्रि वि + उप + √सम के भू. क. कृ. का निषे. [अव्युपशान्त), अशान्त, सङ्कटों या विपदाओं से भरपूर तो पु.. प्र. वि. ए. व. उद्धतो लोको अवूपसन्तोति पटि. म. 116; तं नपुं. प्र. वि., ए. व. घट्टितं चलितं भन्तं अनूपसन्त, महानि, 369: अनुपसन्तन्ति अनिब्बुत महानि, अट्ठ 374 न्ता पु. प्र. वि. ब. व. अवूपसन्ता अज्झतं
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अच्छति, थेरगा. 936 - चित्त ब० स० [अव्युपशान्तचित्त ]. अशान्त चित्त वाला, उद्विग्न चित्त वाला, राग द्वेष आदि से दूषित मन वाला त्ता पु०, प्र. वि., ब० व. अज्झत्तं अqपसन्तयिता म. नि. 3.353: न्ताकार पु., कर्म. स., अशान्त अवस्था, अशान्ति, व्याकुलाहट से पु. प्र. वि.,
654
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अवेच्च
ए. व.
अवूपसमो नाम अवूपसन्ताकारो म. नि. अट्ठ(मू०प०) 1 (1). 295. अनूपसम पु. [अव्युपशम] चित्त में शान्ति का अभाव, चित्त में राग एवं द्वेष आदि के कारण उत्पन्न व्याकुलता या व्यग्रता मो प्र. वि. ए. व. चेतसो अवूपसमो, स. नि. 3 ( 1 ) .82 मे सप्त वि. ए. व. - 3(1).82; चेतसो अनूपसमे अयोनिसोमनसिकारेन... उप्पादो होति, म. नि. अट्ठ. ( मू.प.) 1 (1) 295 लक्खण त्रि. ब. स. [अव्युपशम-लक्षण]. अशान्ति या चञ्चलता के लक्षणों से युक्त णं नपुं. प्र. वि. ए. व. तं अनुपरामलक्खणं वाताभिघातचलजलं विय अभि. अव. 25.
अवेकल्ल त्रि०, ब० स० [ अवैकल्य], विकलता से रहित, अविचल, दृढ़ता से परिपूर्ण ल्लं नपुं., द्वि. वि., ए. व. जष्णु अवेकल्लं करोति मि. प. 391 ता स्त्री. भाव. [ अविकलता ], पूरी तरह से सही-सलामत होना या सक्षम होना, परिपूर्णता - इन्द्रियानं अवेकल्लता दुल्लभा लोकस्मिं, अ. नि. 2 (2).141; - नाम त्रि. व. स. [ अवैकल्यनाम]. अविकलता या परिपूर्णता के अनुरूप नाम पाने वाला मं पु.. द्वि. वि. ए. व. अनोमनामन्ति सब्बगुणसमन्नागतत्ता अवेकल्लनाम स. नि. अ. 1.76 बुद्धि स्त्री. कर्म. स. [ अविकलबुद्धि], परिपूर्ण बुद्धि बुद्धिसम्पन्नोति अवेकल्लबुद्धिसम्पन्नो, जा. अड्ड. 7.192. अवेक्खति अब + √इक्ख का वर्त. प्र. पु. ए. व. [बौ. सं. अवीक्षते ], करुणा के साथ अवलोकन करता है, बिना विशेष प्रयास के ही दिव्यचक्षु द्वारा देखता है, अवेक्खति जातिजराभिभूतन्ति इतिवु. 25. पब्बतमुद्धनि ठितो भूमिय ठिते... अकिच्छेन अवेक्खति, तथा सोपि धीरो .... बाले चवन्ते च उपपज्जन्ते व अकिछेन अवेक्खतीति ध. प. अट्ठ. 1.147.
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अविचिकिच्छ त्रि, ब० स० [अविचिकित्स], सन्देह या विचिकित्सा से मुक्त च्छो पु.. प्र. वि. ए. व. - अविचिकिच्छो समानो भब्बो रागं पहातु, अ. नि. 3(2).123; च्छी पु. प्र. वि. ए. व. अकङ्क्षी होति अविचिकिच्छी निदुङ्गतो सद्धम्मे अ. नि. 1 ( 2 ) 203.
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अवेच्च अo, अव + √इ का पू. का. कृ. [बौ. सं. अवेत्य ]. अच्छी तरह से जान कर गम्भीर रूप में प्रवेश करके ठीक से जान कर यो अरियसच्चानि अवेच्च परसति, सु. नि. 231: यो अरियसच्चानि अवेच्च परसतीति यो चत्तारि अरियसच्चानि पञ्ञाय अज्झोगाहेत्वा पस्सति, सु. नि. अ.
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अवेति
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अवेर
,
"lo
1.247; सब्ब तुवं आणमवेच्च धम्म, सु. नि. 380; अनवसेसं अवेच्च पटिविज्झित्वा, सु. नि. अट्ठ. 2.90; - प्पसन्न त्रि., [बौ. सं. अवेत्यप्रसन्न], गम्भीर ज्ञान पर आधारित प्रसन्नता या श्रद्धा से युक्त - न्ना पु., प्र. वि., ब. व. - ये केचि, भिक्खवे, मयि अवेच्चप्पसन्ना, अ. नि. 3(2).99%; अवेच्चप्पसन्नाति अचलप्पसादेन सम्पन्ना, अ. नि. अट्ठ. 3.315; - प्पसाद पु., अचल श्रद्धा या ज्ञान पर आधारित श्रद्धा - देन तृ. वि., ए. व. - बुद्ध अवेच्चप्पसादेन समन्नागता, दी. नि. 2.160; अवेच्चप्पसादेनाति अचलप्पसादेन, दी. नि. अट्ठ.2.214; धम्मे, अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो, म. नि. 1.59; - प्पसादे सप्त. वि., ए. व. - सङ्के अवेच्चप्पसादे
समादपेतब्बा निवेसेतब्बा, अ. नि. 1(1).253. अवेति अव + (इ का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अवेति]. शा. अ. नीचे तक उतर कर जाता है, ला. अ. जानता है, ठीक से समझ लेता है - यो वेतीति यो अवेति अवगच्छति, अ. नि. अट्ठ. 2.146; यो अवेति जानातीति अत्थो, स. नि. अट्ठ. 1.229. अवेदन त्रि., ब. स. [अवेदन], किसी भी प्रकार की वेदना
या अनुभव से रहित, दुःख की वेदना का अनुभव न करने वाला - नो पु.. प्र. वि., ए. व. - तं कि मसि . ... अयं सो अरूपी अवेदनो असञ्जी... तथागतोति समनुपस्ससीति, स. नि. 2(1).102; - क/निक ब. स. - का पु., प्र. वि., ब. व. - असञ्जसत्ता देवा अहेतुका ... अफस्सका अवेदनकाति वचनतो, खु. पा. अट्ठ. 60. अवेदनीय त्रि., विद के प्रेर. के सं. कृ. का निषे. [अवेदनीय],
अनुभव नहीं किए जाने योग्य, अनुभव में नहीं आने योग्य, विपाक के रूप में वेदना को उत्पन्न न करने वाला - यं नपुं., प्र. वि., ए. व. - यं कम्मं अवेदनीयं, अ. नि. 3(1).197; अवेदनीयन्ति विपाकवेदनाय अदायकं अ. नि. अट्ठ. 3.263. अवेदयित त्रि., विद के प्रेर, के भू. क. कृ. का निषे. [अवेदित], वेदना से मुक्त, दुखात्मक अनुभव से मुक्त - सुख नपुं., कर्म. स., वेदना या अनुभव का अविषयीभूत सुख - खं प्र. वि., ए. व. - निरोधो अवेदयितसखं नाम, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.82; इति वेदयितसुखं वा होत अवेदयितसुखं वा, तदे. सुखं उपलब्मतीति वेदयितसुखं वा अवेदयितसुखं वा उपलब्मति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.83. अवेदि विद का अद्य., प्र. पु., ए. व. [अवेदीत्], जाना, समझा - यतो खयं पच्चयानं अवेदी ति, उदा. 70;
इममतिमधुरं अवेदि यो यो... सकलं अवेदि सो सो, अभि. अव. 74; - देसि म. पु., ए. व. - तथेव त्वं अवेदेसि, जा. अट्ठ. 3.372; तथेव त्वं अवेदेसीति तथेव त्वं अञआसि, तदे. - वेदं प्र. पु., ब. व. - न चापि मे अप्पियतं अवेदु, जा. अट्ठ. 4.29; - वेदयु प्रेर., अद्य. का प्र. पु., ब. व. - पङ्कोति हिनं अवेदयु, थेरगा. 495. अवेधधम्म त्रि.. ब. स. [अवेध्यधर्मन], अचल या दृढ़-स्वभाव वाला, दूसरों से प्रभावित न होने वाला, अकम्पनीय - म्मो पु.. प्र. वि., ए. व. - बहुस्सुतो होति अवेधधम्मो, स. नि. 324; अवेधधम्मोति अट्ठहि लोकधम्मेहि अकम्पनियसभावो, सु. नि. अट्ठ. 2.58. अवेधमान त्रि., विध का वर्त. कृ., आत्मने.. शा. अ. अकम्पमान, ला. अ. अविचलित, अप्रभावित - नं पु., वि. वि., ए. व. - निन्दापसंसासु अवेधमानं, सु. नि. 215; निन्दापसंसास पटिघानुनयवसेन अवेधमानं, सु. नि. अट्ठ. 1.220. अवेभङ्गिय/अवेभङ्गिक त्रि., वि + (भज के सं. कृ. का निषे. [अविभाज्य], अविभाज्य, विभाजित करके नहीं रखने योग्य, अविभाजित - कं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - चातुद्दिसरस सङ्घस्स अविस्सज्जिकं अवेभङ्गिकन्ति, महाव. 397; - ङ्गियानि प्र. वि., ब. व. - पञ्चिमानि... अवेभङ्गियानि न विभजितब्बानि, चूळव. 302. अवेर' त्रि., ब. स. [अवैर], वैरभाव से मुक्त, द्वेष-भाव न रखने वाला - रं' पु., द्वि. वि., ए. व. - अथाह दिद्वेव धम्मे अवेरं अब्यापज्झं अनीघं सखिं अत्तानं परिहरामीति, अ. नि. 1(1).222; - रं नपुं., द्वि. वि., ए. व. - अवेर अब्यापज्जं मेत्तचित्तं भावेति, दी. नि. 1.151; अवेरन्ति दोसवेरविरहितं, दी. नि. अट्ठ. 1.266; - रेन नपुं., तृ. वि., ए. व.- महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्यापज्जेन फरित्वा विहरति, दी. नि. 3.36; - रा पु., प्र. वि., ब. व. -- अवेरा अदण्डा असपत्ता ... विहरेमु, दी. नि. 2.203; अवेराति
अप्पटिघा, दी. नि. अट्ठ. 2.278. अवेर नपुं., निषे. तत्पु. स. [अवैर], वैर का अभाव, द्वेष का अभाव, मैत्रीभाव -- रं द्वि. वि., ए. व. - सत्तानं अभयं देति अवरं देति, अ. नि. 3(1).77; - रेन तृ. वि., ए. व. - अवेरेन च सम्मन्ति ... सनन्तना, ध. प. 5; अवेरेन च सम्मन्तीति .... अवेरेन खन्तिमेत्तोदकेन ... अभावं गच्छन्ति, ध. प. अट्ठ. 1.32; - चित्त ब. स. [अवैरचित्त], वैरभाव या द्वेष-भाव से मुक्त चित्त वाला, मैत्रीभाव से परिपूर्ण चित्त वाला- तो पु.,
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2.177.
अवेरी
अव्यग्ग प्र. वि., ए. व. - सवेरचित्तो वा अवेरचित्तो वाति अवेरचित्तो. मुनि, सु. नि. 952; पुब्बे वुत्ता तिविधापि सच्चा अवोक्कम्म दी. नि. 1.223; अरियसावको एवं अवेरचित्तो एवं ... मोनेय्यप्पत्तिया मुनीति सङ्घयं गतो. सु. नि. अट्ठ. 2.260; विसुद्धचित्तो, अ. नि. 1(1).221; अवेरचित्तोति एवं उच्चनीचकुलं अवोक्कम्म पिण्डाय चरति, सु. नि. अट्ठ. अकुसलवेरस्स च ... नत्थिताय अवेरचित्तो, अ. नि. अट्ठ. 1.139; - चारी त्रि., घरों को चुने बिना एक-एक घर में
क्रमशः भिक्षाटन करने वाला-री पु., प्र. वि., ए. व. - अवेरी त्रि., वेरी का निषे. [अवैरिन], वैरभाव या द्वेषभाव न सपदानचारीति अवोक्कम्मचारी अनुपुब्बचारी, सु. नि. अठ्ठ. रखने वाला- रिनो पु., प्र. वि., ब. व. - वेरिनेसु अवेरिनो 1.94. ... विहराम अवेरिनो, ध, प. 197; अब्यापज्जा विहरेम ___ अब्बोच्छिन्न त्रि., वि + अव + vछि के भू. क. कृ. का निषे. अवेरिनो ति इति, दी. नि. 2.203; केनचि सद्धि अवेरिनो [अव्यवच्छिन्न]. व्यवधान-रहित, निरन्तर रूप में विद्यमान - विहरेय्याम, दी. नि. अट्ठ. 2.278.
न्तो पु., प्र. वि., ए. व. - अज्जापि तु अब्बोच्छिन्नो अवेला स्त्री., वेला का निषे. [अवेला], अनुपयुक्त समय, पुब्बाचरियनिच्छयो, खु. पा. अट्ठ. 2. अनिर्धारित समय, असमय - अज्ज ताव अवेला, जा. अट्ठ. अवोदात त्रि., वोदात का निषे. [अव्यवदात]. अस्वच्छ, 6.179; - य सप्त. वि., ए. व. - चिन्तेत्वा अवेलाय उज्वलता से रहित, मलिन, धूमिल - ता पु.. प्र. वि., ब. अन्तमसो, जा. अट्ठ. 4.213; वेलाय वा अवेलाय वा .... व. - अवीवदाताति अवोदाता, सु. नि. अट्ठ. 2.2163; आगमिस्सामि, जा. अट्ठ. 1.93; - यं उपरिवत् - यस्स हि अवीवदाताति... अवोदाता अपरिसुद्धा संकिलिट्ठा, महानि. अवेलायं उद्धमातकनिमित्तट्ठानं गन्त्वा ... ओलोकन्तरसेव तं 52; तुल. अवीवदात (ऊपर); - धम्म त्रि., ब. स. मतसरीरं ... उपट्टाति, विसुद्धि. 1.179; अवेलायन्ति [अव्यवदातधर्मन]. अपवित्र या मलिन प्रकृति वाला - सञ्झावेलादि अयुत्तवेलायं, विसुद्धि. महाटी. 1.196.
असुद्धिधम्मो ... अवोदातधम्मोति, महानि. 222. अवेहासकुटी स्त्री., कर्म स., भूमि पर (आकाश के नीचे) अवोसितत्त/अव्योसितत्त नपुं.. वि + अव + Vसो के भू. निर्मित कुटी या पर्णशाला - टिया सप्त. वि., ए. व. - क. कृ. के भाव, का निषे॰ [अव्यवसितत्व], पूर्णता (पूर्ण अवेहासकुटिया सीसघट्टाय हेटा अपरिभोगं होति. पाचि. 683; विमुक्ति) की अवस्था को प्राप्त न करना, अर्हत्व फल की अवेहासकुटियाति भूमियं कतपण्णसालादिसु अनापत्ति पाचि. अप्राप्ति की अवस्था - त्ता प. वि., ए. व. - अब्योसितत्ता अट्ठ. 43.
हि भवाभवेसुथेरगा. 784; अब्योसितत्ता हीति अनधिगतनिहत्ता, अवेहासविहार पु., कर्म. स., भूमि पर निर्मित विहार - रे। थेरगा. अट्ठ. 2.253.
सप्त. वि., ए. व. - अवेहासविहारे वा, विन. वि. 1103. अवोहारकुसल त्रि, वोहारकुसल का निषे. [अव्यहारकुशल]. अवोक्कमन्त त्रि., वि+ अव + कम के वर्त. कृ. का निषे. व्यापार आदि व्यावहारिक कार्यों में अकुशल - ला पु.. प्र. [अव्यपक्राम्यत्], विशेष रूप से (सही मार्ग का) अपक्रमण वि., ब. व. - अवोहारकुसला इमे गामिका, ध. स. अट्ठ. या उल्लंघन नहीं कर रहा, सन्मार्ग या उत्तम आचरण की 248. उपेक्षा नहीं कर रहा - न्तो पु., प्र. वि., ए. व. - अव्यग्ग स्त्री., व्यग्ग का निषे. [अव्यग्र], व्यग्रता या घबराहट सच्चवाचाय अवोक्कमन्तो, सम्मादिडिया अवोक्कमन्तो, अरिया से रहित - ग्गो पु., प्र. वि., ए. व. - अब्यग्गो मनो यस्स, अट्ठङ्गिका मग्गा अवोक्कमन्तो, महानि. 320; अवोक्कमन्तो सद्द. 1.122; - ता स्त्री., अव्यग्ग का भाव. [अव्यग्रता], समया सका च, पटि. म. अट्ट. 1.2; - न्तेन पु., तृ. वि., बेचैनी या व्याकुलाहट का अभाव - अब्यग्गता निक्कमनञ्च ए. व. - ... सकसमयं अवोक्कमन्तेन, विसुद्धि. 2.151; .... काले, जा. अट्ठ. 3.6; - निमित्त नपुं.. तत्पु. स. कथावत्थुम्हि पटिक्खित्ते पुग्गलवादादिके च वदन्तो सकसमयं [अव्यग्रनिमित्त], मानसिक बेचैनी के उपशमन हेतु वोक्कमति नाम, तथा अवोक्कमन्तेन विसुद्धि. महाटी.. समाधि में चित्त की एकाग्रता हेतु गृहीत आलम्बन -- त्तं 2.226.
नपुं.. प्र. वि., ए. व. - समथनिमित्तं अब्यग्गनिमित्तं. स. नि. अवोक्कम्म अ., वि + अव + कम के पू. का. कृ. का निषे. 3(1).125; -- मनस त्रि., ब. स. [अव्यग्रमनस]. स्थिर या [अव्यपक्रम्य]. अपक्रमण नहीं करके, अपने सिद्धान्त, मार्ग एकाग्र चित्त वाला, चञ्चलता से मुक्त चित्त वाला - सो पु., या उत्तम आचरण से नहीं हटकर - सच्चा अवोक्कम्म प्र. वि., ए. व. - अब्यग्गमनसो नरो, स. नि. 1(1).115;
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अव्यञ्जन / अब्यञ्जन
अब्यग्गमनसोति एकग्गचितो स. नि. अड. 1.144: मानस त्रि.. ब. स. उपरिवत् सो पु. प्र. वि. ए. व. अव्यग्गमानसो नरो, अ. नि. 1 (1).155. अव्यञ्जन / अव्यञ्जन त्रि.. ब. स. [अव्यञ्जन] ध्वनियों के कारण अस्पष्ट, असुस्पष्ट ना स्त्री. प्र. वि., ए. व. अभावतो अब्यञ्जना नाम देसना, म. नि. अट्ठ. ( मू.प.) 1(2).104.
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-
-
-
1.33;
बालस्स अब्यत्तस्स
अव्यत्त / अब्यत्त त्रि वि + √अञ्ज के भू० क० कृ० का नि.. [अव्यक्त ]. क. मूर्ख, अकुशल, अज्ञानी, अविवेकी त्तो पु. प्र. वि. ए. व. बालो होति अब्यत्तो.... अनपदानो, महाव. 419: तेन पु. तृ. वि. ए. व. अव्यत्तेन च साम स. नि. 1(1).9: अव्यतेनाति बालेन स. नि. अड्ड तस पु, ष. वि., ए. व. भणितेन, पु, प. 141 सा स्त्री. प्र. वि. ए. व. त्ता' उपासिका बाला अब्यत्ता... अम्मकसञ्ञा, अ. नि. 2 (2).63; - त्ता' पु०, प्र. वि., ब.व. बाला अब्यत्ता... परेसं वण्णं वा.म.नि. 2.323 ता स्त्री. भाव [अव्यक्तता] मूर्खता. अकुशलता ताथ तृ. वि. ए. व. त्वं अत्तनो अव्यत्तताय बालभावेन जा. अड. 1.473 ख अस्पष्ट, धूमिल सद पु.. कर्म. स. [अव्यक्तशब्द] अस्पष्ट अर्थ वाला शब्द, निरर्थक शब्द दो प्र. वि. ए. व. हिक्क अव्यत्तसदे अव्यत्तरादो अविभावितत्थसदो निरत्थकसो च सद. 2326 - हे सप्त वि. ए. व. सळ अव्यत्तरादे सळति साळिको द्दे साठिका सद. 2461 तक्खर त्रि. ब. स. [अव्यक्ताक्षरक]. असुस्पष्ट अक्षरों या ध्वनियों वाला क्खरं द्वि. वि. ए. व. - अव्यत्तक्खरं तिक्खतु... गज्जि उदा. अड्ड. 54. राग त्रि. ब. स. [ अव्यक्तराग], रक्तिम, रक्ताभ, ललछौंहा गे पु., सप्त. वि., ए. व. अरुणो रसिदे चाव्यत्तरागे थ लोहिते, अभि. प. 980 - विलाप पु.. कर्म. स. [अव्यक्तविलाप ] अस्पष्ट स्वर में विलाप या रोना-धोनापं द्वि. वि. ए. व. अव्ययतं विलपसीति त्वं अव्यत्तविलापं विलपसि, जा. अट्ठ 1.473.
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-
अव्यथ / अन्यथ फु. [अव्यथ. त्रि.] पीड़ा, विपत्ति या थकावट का अभाव, अनुत्पीड़न थो प्र. वि. ए. व. अत्थब्यापत्ति अव्यथोति जा. अड्ड. 3.411 तदा अव्यथो अकिलमन चतुत्थं साधु, तदे... अव्यभिचारवोहार / अव्यभिचारवोहार' पु.. कर्म. स. [अव्यभिचारव्यवहार] सर्वथा युक्तिसङ्गत व्यावहारिक वचन प्रयोग या अभिव्यक्ति प्र. वि., ए. व. धम्मे
657
अव्ययीभाव / अव्ययीभाव च सभावनिरुत्ति अव्यभिचारवोहारो अभिलापो, उदा. अड.
109.
अव्यमिचारिवोहार / अव्यमिचारिवोहार पु. कर्म. स. [अव्यभिचारिव्यवहार] निर्दुष्ट या युक्तियुक्त तार्किक स्थापना, दोषरहित लक्षण रो प्र. वि., ए. व. धम्मे च या सभावनिरुत्ति अव्यभिचारिवोहारो, पटि. म. अड्ड. 14. अव्यय'त्रि. ब. स. [अव्यय ]. शा. अ. अपरिवर्तनशील, अविनाशी, अखण्डित. ला. अ. (व्याकरण में). ऐसा शब्द जिसके मूल स्वरूप में लिंग, विभक्ति या वचन के कारण कोई विकार या परिवर्तन नहीं होता यं नपुं. प्र. वि., सदिसं तीसु लिनेसु सब्बासु च विभत्तिसु वचनेसु च सब्बेसु यन्न व्येति तदव्ययं सद. 1.299 में उदधृत या पु०, प्र. वि., ब.व. तानि वुच्चन्ति अव्यया, सद्द. 3.746; त्त नपुं., भाव. [अव्ययत्व], अव्यय अथवा विकार-रहित त्ते सप्त वि. ए. व. अव्ययत्ते पन्
-
ए.
व.
होना
सद्द०
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2.451.
अव्यय' / अव्यय पु. व्यय का निषे, तत्पु. स. [अव्यय ]. व्यय या हानि का अभाव, अविकार, अविनाश येन तू. वि. ए. व.. क्रि. विशे. मुधाति अव्ययेन काकणिकमत्तम्पि व्ययं अकत्वा खु. पा. अड. 146 सु. नि. अड. 1.247 - पद नपुं. कर्म, स. [अव्ययपद] अव्यय के रूप में प्रयुक्त पद, ऐसा पद, (शब्द) जिसका प्रयोग यदा-कदा 'अव्यय' के रूप में किया जाता हो दं नपुं. प्र. वि. ए. व.. एत्थ अत्थी ति अव्ययपदमिव सद्द. 2.451; - दानि ब. व. एवं अव्ययपदानि सर 3.321 पदसदिस त्रि. तत्पु. स. [अव्ययपदसदृक] उपरिवत् सं नपुं. प्र. वि. ए. व. एको एकाया ति इदं अव्ययपदसदिसं, सद्द० 1.264; पुब्बक त्रि. ब. स. [अव्ययपूर्वक]. ऐसा समास, जिसके पूर्वपद में कोई अव्ययपद रहेको पु. प्र. वि. ए. व. अव्ययपुब्बको अव्ययीभावो अव्ययपुरेचरो अव्ययप्पधानो .... होति, सद्द. 3.746.
अव्ययत नपुं. भाव [अव्यक्तत्व], अस्पष्ट, अविशद तं द्वि. वि. ए. व. क्रि. वि. असुस्पष्ट रूप से अव्ययतं विलपसि जा. अड. 1.473: अव्ययतं विलपसीति त्वं अब्यत्तविलापं विलपसि, तदे, पाठा. अब्ययतं. अव्ययीभाव / अब्ययीभाव पु० [ अव्ययीभाव], वह समास, जिसका समास से पूर्व का अव्ययभिन्न पद भी समास होने पर अव्यय बना दिया जाए, चार प्रमुख समास-भेदों में से एक समास सज्ञो पु. ब. स. प्र. वि. ए. व.
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अब्यसनीयता
658
अव्याधि/अब्याधि
[अव्ययीभावसंज्ञको], अव्ययीभाव नाम वाला - उपसग्गनिपातपुब्बको समासो अब्ययीभावसओ होति, क. व्या. 321; - समासो पु०, कर्म स., प्र. वि., ए. व. [अव्ययीभावसमास], अव्ययीभाव नाम वाला समास - सो अव्ययीभावसमासो नपुंसकलिङ्गो व दहब्बो, क. व्या. 322. अब्यसनीयता स्त्री., व्यसनीय के भाव. का निषे., लम्पटता या कामुकता का न होना, दुराचारमयी प्रवृत्ति का अभाव - य तृ. वि., ए. व. - अनाकुला कम्मन्ता नाम काल ताय .... अब्यसनीयताय च ... आकुलभावविरहिता ... कम्मन्ता,
खु. पा. अट्ठ. 111. अव्याकत/अब्याकत त्रि., वि + आ + vकर के भू. क. कृ. का निषे. [अव्याकृत], क. अनिर्णीत, अव्याख्यात, निश्चित उत्तर दिए बिना ही छोड़ दिया गया, अनुत्तरित - तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - मया अब्याकतं असस्सतो लोको, दी. नि. 1.167; - तानि ब. व. - यानिमानि दिट्ठिगतानि भगवता अब्याकतानि... पटिक्खित्तानि, म. नि. 2.97; ख. अनिश्चित प्रकृति वाला (धर्म), जिसे कुशल या अकुशल के सुनिश्चित वर्गों के अन्दर न रखा जा सके, अनियत, अनेकांशिक - तं नपुं, प्र. वि., ए. व. -- दिद्विगतं अब्याकतान्ति, कथा. 407; अविपाकं अब्याकतं, अभि. अव. 2; -- तो पु.. प्र. वि., ए. व. - कुसलो फरसो अकुसलो फस्सो अब्याकतो फस्सो, महानि. 37; - तेन पु., तृ. वि., ए. व. - अव्याकतेन मग्गेन भवितब्ब, ध. स. अट्ठ. 272; - ता' स्त्री., प्र. वि., ए. व. -- अब्याकता वेदना सुखुमा, विभ. 4; - ता' पु.. प्र. वि., ब. व. - कतमे धम्मा अब्याकता, ध. स. 431; न व्याकताति अब्याकता, ध. स. अट्ठ. 87; अविपाकलक्खणा अब्याकता, तदे.; - ते पु., द्वि. वि., ब. व. - यावता अब्याकते धम्मे ..., पटि. म. 120; - तानं ष. वि., ब. व. - अब्याकतानं पर अनुप्पत्तिहानरस अभावा, पट्ठा. अट्ठ. 335; - कथा स्त्री., कथा. के एक खण्ड-विशेष का शीर्षक, कथा. 407408; - पदनिद्देसो पु., तत्पु. स., प्र. वि., ए. व. [अव्याकृतपदनिर्देश], 'अव्याकत' शब्द का प्रयोग या उल्लेख - अब्याकतपदनिदेसो उत्तानत्थोयेवाति, ध. स. अट्ठ. 376; - पुच्छा स्त्री., तत्पु. स. [अव्याकृतपृच्छा], अव्याकृत धर्मों के विषय में प्रश्न - तिस्सो पुच्छा-कुसलपुच्छा, अकुसलपुच्छा, अब्याकतपुच्छा, महानि. 251; अब्याकतपुच्छाति तदुभयविपरीतधम्मपुच्छा, महानि. अट्ट. 302; - मूल क. नपुं.. तत्पु. स., प्र. वि., ए. व. [अव्याकृतमूल], अव्याकृत धर्मों का मूल आधार - अलोभो अब्याकतमूलं ... पे. ....
अदोसो अब्याकतमूलं... इमे धम्मा अब्याकता, ध. स. 5763; ख. त्रि., ब. स., अनिश्चित मूल वाला, ऐसा धर्म, जिसका मूल आधार कुशल या अकुशल के रूप में नियत न रहे - ला पु., प्र. वि., ब. व. - ये केचि अब्याकता धम्मा, सब्बे ते अब्याकतमूला. यम. 1.5; - वग्ग पु., अ. नि. के एक वर्ग का शीर्षक, अ. नि. 2(2).211-235; - वत्थु नपुं., कर्म स. [अव्याकृतवस्तु], ऐसा धर्म, जिसे बुद्ध ने 'कुशल' या 'अकुशल' जैसे नियत वर्गों में नहीं रखा है - त्थूसु सप्त. वि., ब. व. - सुतवतो अरियसावकस्स ... अब्याकतवत्थूसु ...., अ. नि. 2(2).211; अब्याकतवत्थूसूति एकसादिवसेन
अकथितवत्थूसु. अ. नि. अट्ठ. 3.173; - विपाक त्रि., ब. स. [अव्याकृतविपाक], ऐसा धर्म, जिसका विपाक 'कुशल' या 'अकुशल' वर्गों में सुनिश्चित न रहे - अब्याकतं विपाक किरियं रूपं निब्बानन्ति, ध. स. अट्ठ. 300; पाठा. अव्याकतविपाक; - संयुत्त नपुं.. स. नि. का एक संयुक्त, स. नि. 2(2).344; स. नि. अट्ठ. 3.150-152; -- हेतु पु.. तत्पु. स. [अव्याकृतहेतु], अव्याकृत धर्मों का कारण - तयो अब्याकतहेतू ..., ध. स. 1059. अव्याकरणधम्म/अब्याकरणधम्म त्रि., ब. स. [अव्याकरणधर्मन्], नियत रूप में धर्मों की व्याख्या न करने की प्रकृति वाला - म्मो पु., प्र. वि., ए. व. - एवं पस्सं एवं
अब्याकरणधम्मो होति, अ. नि. 2(2).211. अव्याकुल त्रि., व्याकुल का निषे॰ [अव्याकुल], व्याकुलता से रहित, अविस्खलित, स्थिर, शान्त - ला पु., प्र. वि., ब. व. - ... पदनिक्खेपो च अब्याकुला होन्ति, सु. नि. अट्ठ. 2.235. अव्यादिण्ण/अब्यादिण्ण त्रि.. वि + आ + दा के भू. क. कृ. का निषे. [अव्यादत्त], नहीं छितराया या बिखरा हुआ, अविक्षिप्त, नहीं फैला हुआ - ण्णो पु., प्र. वि., ए. व. - ... अविसटो अब्यादिण्णो दूरङ्गमो... हारहारी च. ..., अ. नि. 2(1).60. अव्याधि/अब्याधि क. त्रि, निषे. ब. स. [अव्याधि], रोग से मुक्त व्याधिरहित, स्वस्थ, नीरोग, कुशल-क्षेम से परिपूर्ण - धि पु., प्र. वि., ए. व. - अव्याधि विसदो होमि, अप. 1.347; - धिं नपुं., वि. वि., ए. व. - अब्याधि अनुत्तरं योगक्खेमं निब्बानं, अ. नि. 1(2).284; ख. स्त्री., निषे. तत्पु. स., रोग का अभाव, स्वस्थता - धि प्र. वि., ए. व. - अब्याधि अभिओय्यो, पटि. म. 11; - क त्रि., ब. स. [अव्याधिक], बीमारी से रहित, स्वस्थ - का पु.. प्र.
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अब्यापज्ज/अव्यापज्झ/अव्याबज्झ
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अव्यापज्झाधिमुत्त/अब्यापज्झाधिमुत्त वि., ब. व. - अब्याधिका अरोगा मम सन्तिके, मि. प. वि., ए. व. - यथाहं आकासोव अब्यापज्जमानो, सु. नि. 233.
___1071; अब्यापज्जमानोति नानप्पकारतं अनापज्जमानो, सु. अब्यापज्ज/अव्यापज्झ/अव्याबज्झ 1.क. त्रि., वि + नि. अट्ठ. 2.283.
आ + /पद या बाध के सं. कृ. का निषे. अव्यापज्झत्थिक त्रि., ब. स. [अव्यावाधार्थिक], स्वास्थ्य या [अव्याबाध्य/अव्यापद्य], हानि न पहुंचाने योग्य, क्षति नहीं नैरोग्य को लाने वाला - कं नपुं. द्वि. वि., ए. व. - करने योग्य, दुखरहित, बाधारहित - ज्जो पु., प्र. वि., ए. अव्यापज्झत्थिक सेवे भेसज्ज स्नेहवज्जितो, सद्धम्मो. 397. व. - अयं सत्तो अरोगो होतु अब्यापज्जो ति एवं तस्मिं अव्यापज्झन/अब्यापज्झन नपुं., व्यापज्झन का निषे. मेत्ताभावना कातब्बा, जा. अट्ठ. 3.82; - ज्जं उपरिवत् - [अव्यावाध], पीड़ा या दुख का अभाव, हानि का अभाव, अब्यापज्जं सुखं लोकन्ति ... अब्यापज्जं निढुक्खे, इतिवु. किसी तरह की बाधा-विपत्ति का न होना - ज्झनं प्र. वि., अट्ठ.69; - ज्झं द्वि. वि., ए. व. - अब्यापज्झं सुखं लोकं ए. व. - अब्यापज्झनं कस्सचि अदुक्खनं अव्यापज्झो. इतिवु. 13; 1. ख. हानि न पहुंचाने वाला, क्षति नहीं करने इतिवु. अट्ठ. 130. वाला, हिंसक मनोभाव से रहित - ज्जो पु., प्र. वि., ए. व. अव्यापज्झपरम/अब्यापज्झपरम त्रि., ब. स. [अव्यावा- सब्यापज्जाय पजाय अब्यापज्जो विहरति, अ. नि. धापरम], बाधामुक्त या दुखरहित अवस्था में परिणत होने 2(2).7; - ज्झं वि. वि., ए. व., क्रि. विशे. - अब्याबज्झं वाला/वाली - मं पु., द्वि. वि., ए. व. - अब्याबज्झपरमाह सिया एवं जा. अट्ठ. 7.180; - ज्झं स्त्री., वि. वि., ए. व. ... वेदनानं अस्सादं वदामि, म. नि. 1.124; - ता स्त्री., - अब्याबज्झंयेव तस्मिं समये वेदनं वेदेति, म. नि. 1.124; भाव., दुख से विमुक्ति में परिणत होने की अवस्था - य - ज्झा पु., प्र. वि., ब. व. - द्वेधम्मा अब्याबज्झा'ति, अ. च. वि., ए. व. - यावदेव उप्पन्नानं वेय्याबाधिकानं वेदनानं नि. 1(1).118; - ज्झे न नपुं., तृ. वि., ए. व. - अवेरेन पटिघाताय, अब्याबज्झपरमताय, म. नि. 1.14. अब्याबज्झन फरित्वा विहासि. म. नि. 2.273; 2.क. नपुं., अव्यापज्झरत/अब्यापज्झरत त्रि, तत्पु. स. [अव्यापादरत], भाव., दुख से मुक्ति की अवस्था, दुखविमुक्ति (निर्वाण). क्षेम अव्यापाद या अद्वेष की भावना को पाने हेतु लगा हुआ, की अवस्था - दुक्खक्खयोव्यापज्झं च विवट्ट खेम-केवलं, अद्वेष-भाव के सेवन में रत - तो पु., प्र. वि., ए. व. - अभि. प.8; -- ज्जं प्र. वि., ए. व. - अव्यापज्ज सुखं लोके, तथागतो अब्यापज्झरतो, इतिवु. 24; अब्यापज्झे रतो उदा. 79; अब्यापज्जन्ति अकुप्पनभावो..., उदा. अट्ठ. 803; सेवनवसेन निरतोति अब्यापज्झरतो, इतिवु. अट्ठ. 130. - ज्झं नपुं., द्वि. वि., ए. व. - अवेरं दत्वा अव्याबज्झंदत्वा, अव्यापज्झलक्खण/अब्यापज्झलक्खण त्रि., ब. स. अ. नि. 3(1).77; 2.ख. पु., उपरिवत् - ज्जो प्र. वि., ए. [अव्यापादलक्षण], अहिंसा, अद्वेष या मैत्री-भावना के लक्षण व.- अब्यापादो अब्यापज्जो अदोसो, ध. स. 33; से युक्त - अव्यापज्झलक्खणो अदोसो, नेत्ति. 25. कोधदुक्खपटिपक्खतो न ब्यापज्जोति अब्यापज्जो, ध. स. अव्यापज्झसुख नपुं, तत्पु. स. [अव्यापादसुख], अविहिंसाअट्ठ. 194; - गामी त्रि., [अव्याबाध्यगामिन], दुख से भाव या अद्वेष की मनोवृत्ति से उत्पन्न सुख - खं द्वि. वि., विमुक्ति की अवस्था (निर्वाण) की ओर ले जाने वाला - मि ए. व. - अवेरं अभयञ्चापि अव्यापज्झसुखम्पि च, सद्धम्मो. पु., द्वि. वि., ए. व. - देसेस्सामि अब्यापज्झगामिञ्च मग्गं, 338; अव्यापज्झसुखञ्चापि ... ब्रवि, सद्धम्मो. 339. स. नि. 2(2).342; - चित्त त्रि., ब. स. [अव्याबाध्यचित्त], अव्यापज्झाधिमुत्त/अब्यापज्झाधिमुत्त त्रि., ब. स. हिंसक मनोवृत्ति से मुक्त चित्त वाला, द्वेषमुक्त चित्तवृत्ति [अव्यापादाधिमुक्त], अद्वेष या अविहिंसा के मनोभाव को वाला - त्तो पु., प्र. वि., ए. व. - अरियसावको एवं ... प्रत्यक्ष रूप से देख रहा अर्हत्, राग, द्वेष एवं मोह के अब्यापज्झचितो ... विसुद्धचित्तो, अ. नि. 1(1).221; क्षय को स्वयं अनुभव कर रहा (अर्हत्) - त्तो पु., अब्याबज्झचित्तोति... निढुक्खचित्तो, अ. नि. अट्ठ. 2.177. प्र. वि., ए. व. - अब्यापज्झाधिमुतो होति, महाव. 255; ... अव्यापज्जमान/अब्यापज्जमान त्रि., वि + आ + Vबाध खीणासवो, भन्ते, ... खया रागस्स... खया दोसस्स... खया के वर्त. कृ. का निषे. [अव्यापद्यमान/ अव्याबाधमान], मोहस्स वीतमोहत्ता अब्यापज्झाधिमुत्तो होति, महाव. 255व्यावाधित या रूपान्तरित नहीं होता हुआ, अपरिवर्तनीय, 56; अब्यापज्झाधिमुत्तोति अब्यापज्जं अरहत्तं व्याकरोतीति अनेक स्वरूपों को ग्रहण नहीं करने वाला - नो पु., प्र. अत्थो , महाव. अट्ठ. 345; - त्तस्स पु., ष. वि., ए. व. -
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अव्यापज्झाराम/अब्यापज्झाराम
660
अव्यापार/अब्यापार
अब्यापज्जाधिमुत्तस्स उपादानक्खयस्स च, महाव. 257. अव्यापज्झाराम/अब्यापज्झाराम त्रि., [अव्यापादाराम]. अव्यापाद या अद्वेष में आनन्द अनुभव करने वाला, दुःख से पूर्ण विमुक्ति की अवस्था में रमने वाला - मो पु., प्र. वि., ए. व. - अब्यापज्झारामो होति, अ. नि. 2(2).132; अब्यापज्झे निढुक्खभावे रमतीति अब्यापज्झारामो, अ. नि. अट्ठ. 3.141;
अब्यापज्झारामो... तथागतो अब्यापज्झरतो, इतिवु. 24. अव्यापन्न/अब्यापन्न त्रि., वि + आ + पद के भू. क. कृ. का निषे. [अव्यापन्न], क. वह, जो दुर्भाग्य, विपत्ति या दुख से पीड़ित नहीं है, वह, जो विक्षिप्त या अस्त-व्यस्त नहीं है, ख. द्वेष या हिंसा के भाव से मुक्त - न्नो पु., प्र. वि., ए. व. - अब्यापन्नो सदा सतो, अ. नि. 1(2).37; - न्नं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - चित्ते गहपति, अब्यापन्ने कायकम्मम्पि अब्यापन्न होति, अ. नि. 1(1).297; - चित्त त्रि., ब. स. [अव्यापन्नचित्त], व्यापाद या हिंसामयी वृत्ति से मुक्त शुद्ध चित्त वाला - त्तो पु., प्र. वि., ए. व. - व्यापादपदोसं पहाय अब्यापन्नचित्तो विहरति, दी. नि. 1.63; - चेतस त्रि., ब. स. [अव्यापन्नचेतस्], उपरिवत् - सो पु., प्र. वि., ए. व. - अप्पतिट्टितचित्तो अदीनमानसो अब्यापन्नचेतसो, ..., स. नि. 3(1).90; अब्यापन्नचेतसोति दोसवसेन अपूतिचित्तो, स. नि. अट्ठ. 3.182. अव्यापाद/ अब्यापाद पु., वि + आ + पद के क्रि. ना.
का निषे. [अव्यापाद], अद्वेष, अहिंसक मनोभाव, द्वेष या हिंसा के अकुशल मनोभावों का अभाव, मैत्री-भावना - दो प्र. वि., ए. व. - अदुस्सितत्तं अब्यापादो ..., ध. स. 33; अब्यापादो अविहिंसा, विवेको यस्स आवुधं, स. नि. 3.16; अब्यापादोति मेत्ता च मेत्तापुब्बभागो च, स. नि. अट्ठ. 3.158; - दं द्वि. वि., ए. व. - अब्यापादं... मनसिकरोतो अब्यापादे चित्तं... विमुच्चति, दी. नि. 3.191; - देन त. वि., ए. व. - अब्यापादेन मेत्तापि ..., अभि. अव. 18; - खन्ति स्त्री., तत्पु. स. [अव्यापादक्षान्ति], द्वेषभाव से मुक्त क्षान्ति या सहनशीलता का भाव - अब्यापादखन्ति ब्यापादेन सुआ, पटि. म. 358; - धातु स्त्री., तत्पु. स., अद्वेष या मैत्रीभावना से प्रतिसंयुक्त तर्क, वितर्क, संकल्प आदि - अब्यापादपटिसंयुत्तो तक्को वितक्को... सम्मासङ्कप्पो - अयं वुच्चति अब्यापादधातु, विभ. 97; - पच्चय पु., तत्पु. स. [अव्यापादप्रत्यय], अद्वेष का कारण - या प. वि., ए. व. - अब्यापादपच्चया च दुक्खं दोमनस्सं पटिसंवेदेति, म. नि.
1.396; - पटिलाभ पु., तत्पु. स. [अव्यापादप्रतिलाभ]. अद्वेषभाव की प्राप्ति या लाभ - भो प्र. वि., ए. व. - अब्यापादपटिलाभो ब्यापादेन सुओ, पटि. म. 357; - पटिवेध पु., तत्पु. स. [अव्यापादप्रतिवेध], अद्वेष के विषय में अन्तर्दृष्टि - धो प्र. वि., ए. व. - अब्यापादप्पटिवेधो ब्यापादेन सुओ, पटि. म. 357; - परिग्गहो पु., तत्पु. स., प्र. वि., ए. व. [अव्यापादपरिग्रह], अद्वेष-भाव का पूर्ण रूप से ग्रहण - अब्यापादपरिग्गहो ब्यापादेन सुओ, पटि. म. 357; - परियोगाहण नपुं., तत्पु. स. [अव्यापादपर्यवगाहन], अद्वेषभाव में पूर्ण रूप से निमग्न होना या उसमें डूब जाना - णं प्र. वि., ए. व. - अब्यापादपरियोगाहणं ब्यापादेन सुज, पटि. म. 358; - वितक्क पु., तत्पु. स. [अव्यापादवितर्क], अद्वेष के विषय में मानसिक चिन्तन - क्को प्र. वि., ए. व. - अब्यापादवितक्को... निब्बानसंवत्तनिको, इतिवु. 60; - संकप्प पु., तत्पु. स. [अव्यापादसङ्कल्प]. अद्वेष या मैत्रीभाव के लिए लिया गया दृढ़-संकल्प - प्पो प्र. वि., ए. व. - ब्यापादतो निस्सटोति अब्यापादसङ्कप्पो, विभ. अट्ठ. 110; - सज्ञा स्त्री., तत्पु. स. [अव्यापादसंज्ञा], अद्वेष के विषय में संज्ञास्तरीय ज्ञान - अब्यापादधातुं भिक्खवे, पटिच्च उप्पज्जति अब्यापादसा , स. नि. 1(2).134; - सहगत त्रि., तत्पु. स., अद्वेष के साथ जुड़ा हुआ - तेन नपुं.. तृ. वि., ए. व. - अब्यापादसहगतेन
चेतसा विहरति, म. नि. 3.98; - दाधिट्ठान नपुं., तत्पु. स. [अव्यापादाधिष्ठान], अद्वेष के विषय में चेतना, अद्वेष या मैत्री-भावना के विषय में दृढ़-संकल्प - नं प्र. वि., ए. व. - अब्यापादाधिट्टानं ब्यापादेन सुझं पटि. म. 358; - दाधिपतत्त नपुं.. भाव. [अव्यापादाधिपतित्व], अद्वेष-भाव द्वारा सुनिर्धारित या नियन्त्रित होना, अद्वेष-भाव की प्रधानता - तत्ता प. वि., ए.व.- अब्यापादाधिपतत्ता पञआ ब्यापादतो सञआय विवद्वतीति... पटि. म.99; - देसना स्त्री., तत्पु. स. [अव्यापादेषणा], अद्वेष-भाव की तलाश - अब्यापादेसना ब्यापादेन सुआ, पटि. म. 357. अव्यापार/अब्यापार त्रि., ब. स. [अव्यापार], बिना काम काज वाला, बेकार, निरर्थक, काम में न आने योग्य - रो पु., प्र. वि., ए. व. - कायदण्डो निरीहो अब्यापारो, तथा वची दण्डो, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.41; - नय पु., तत्पु. स., चार प्रकार के अर्थनयों (अर्थ-निश्चायक पद्धतियों) में से तृतीय नय - यो प्र. वि., ए. व. - यस्मा पनेत्थ एकत्तनयों नानत्तनयो अब्यापारनयो, विभ. अट्ठ, 188; -
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अव्याबाधन/अब्याबाधन
661
अव्हयति/अव्हायति/अव्हेति पच्चुपट्ठान त्रि., ब. स. [अव्यापारप्रत्युपस्थान], क्रिया के अव्यासेक/अब्यासेक त्रि., ब. स., निषे. [बौ. सं. अव्यासेक], अभाव में भी उदित होने वाला/वाली - ना स्त्री., प्र. वि., शा. अ. असेचन, अत्यधिक आसिञ्चन से रहित, दृढ़ ए. व. - अनाभोग र सा अब्यापारपच्चु पट्टाना प्रभाव से मुक्त, ला. अ. अकुशल धर्मों से अलिप्त या पीतिविरागपदट्ठानाति, ध. स. अट्ठ. 218.
पूर्णतया मुक्त, क्लेश-धर्मों की मलिनता से रहित, वेदाग, अव्याबाधन/अब्याबाधन नपुं., [अव्यावाधन], बाधा का विशुद्ध - कं नपु., प्र. वि., ए. व. - अभाव, हिंसक मनोवृत्ति या द्वेषभाव का अभाव - नत्थ पु., चित्तक्खिपीतिजननमब्यासेकमसेचनं, अभि. प. 697; - का तत्पु. स. [अव्यावाधनार्थ], अद्वेषभाव या बाधा नहीं पहुंचाने पु., प्र. वि., ब. व. - अब्यासेका अमुखरा, थेरगा. 926%; का प्रयोजन - अञमजे अब्याबाधनत्थं... विहरितब्बन्ति, अब्यासेकाति सतिविष्पवासाभावतो किलेसब्यासेकरहिता, थेरगा. उदा. अट्ठ. 84.
अट्ठ. 2.298; - सुख नपुं., कर्मस. [अव्यासेकसुख]. अव्यामिस्स/अब्यामिस्स त्रि., व्यामिस्स का निषे. विशुद्ध सुख, काम भोगों से प्राप्त सांसारिक सुख से [अव्यामिश्र], मिलावट से रहित, अपने आप में परिपूर्ण या अमिश्रित आध्यात्मिक सुख - खं द्वि. वि., ए. व. - अज्झत्तं अखण्ड - स्सो पु., प्र. वि., ए. व. - केवलो अब्यामिस्सो अब्यासेकसुखं पटिसंवेदेति, दी. नि. 1.62; अब्यासेकसुखन्ति सकलो ... भिक्खुधम्मो कथितो, सु. नि. अट्ठ. 2.96; - ता .... अब्यासेकं असम्मिस्सं परिसद्धं... पटिसंवेदेतीति, दी. स्त्री., भाव. [अव्यामिश्रत्व, नपुं.1, व्यामिश्रित नहीं रहना, नि. अट्ठ. 1.150. अपने आप में परिपूर्ण या अखण्ड होना - ता प्र. वि., ए. अव्हयति/अव्हायति/अव्हेति आ + हु का वर्त, प्र. पु., व. - एवमादीसु अब्यामिस्सता, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) ए. व. [आह्वयति], क. आह्वान करता है, बुलाता है, 1(2).30.
निमन्त्रित करता है, उत्तेजित करता है, चुनौती देता है, अव्यायिक/अब्यायिक त्रि., [अव्ययिक], व्यय नहीं होने पुकार कर बुलाता है - नामसंकित्तनं कत्वा परिदेवनवसेन वाला, विनष्ट न होने वाला, परिवर्तित न होने वाला - को अव्हायति, पे. व. अट्ठ. 142; - न्ति प्र. पु., ए. व. - तत्थ पु., प्र. वि., ए. व. - अब्यायिको होति सतं समागमो, अ. अव्हयन्ति वरावरन्ति वरतो वरं नच्चञ्च गीतञ्च करोन्तियो नि. 1(2).58; अब्यायिको होतीति अविगच्छनसभावो, अ. नि. पक्कोसन्ति, जा. अट्ठ. 7.183; - न्ता पु., वर्त. कृ., प्र. पु.. अट्ठ. 2.298.
ब. व. - अव्हयन्तेव गच्छन्तं, जा. अट्ठ. 7.292; - यस्सु अव्यावट/अवावट/अब्यावट त्रि., वि + आ + Vवर अनु., म. पु., ए. व. - अव्हायस्सु मं भद्दन्ते, जा. अट्ठ. अथवा (पुर के भू. क. कृ. का निषे. [अव्यापृत], क. 6.21; अव्हायस्सूति एहि पब्बजाहीति पक्कोसस्सु, तदे. - व्यापार अथवा क्रिया-कलाप से मुक्त, पापमय काम-काज में व्हेय्य विधि., प्र. पु., ए. व. - ओरिमे तीरे ठितो तीरं नहीं उलझा रहने वाला, बुरे कामों को करने में उत्सुकता अव्हेय्य, दी. नि. 1.221; अव्हेय्याति पक्कोसेय्य, दी. नि. न रखने वाला - टेन पु., तृ. वि., ए. व. - समणेन अट्ठ. 1.303; - व्हयेसि अद्य., म. पु., ए. व. - ते त्वं भवितब्बं अब्यावटेन, पारा. 202; समणेन नाम ईदिसेस दलिदो कथमव्हयेसीति, जा. अट्ठ. 7.165; - व्हेत्थ अद्य., कम्मेसु अब्यावटेन अब्यापारेन भवितब्ब, पारा. अट्ट, 2.127; प्र. पु., ए. व. - अव्हेत्थ यक्खो अविकम्पमानो, जा. अट्ठ. - स्स पु., ष. वि., ए. व. - अब्यावटस्स भद्रस्स, न 7.164; ख. देवता का आवाह्न करता है, भूत-प्रेतों को पापमुपलिम्पती ति, जा. अट्ठ. 3.55; अब्यावटस्साति एवं बुलाता है (मन्त्रों द्वारा) - व्हायन्ति वर्त, प्र. पु., ब. व. -- सन्ते पापकम्मकरणत्थाय अब्यावटस्स उस्सुक्कं अनापन्नस्स, अकुसलं भयभेरवं अव्हायन्ति, म. नि. 1.22; भयभेरवं अत्तनि ...., तदे. ख. उदासीन, तटस्थ, निरपेक्ष - टो पु., प्र. वि., ... अव्हायन्ति पक्कोसन्ति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).121; ए. व. - अनुस्सुक्को अवावटो हुत्वाति अत्थो, म. नि. अट्ठ. - व्हयन्तो पु., वर्त. कृ., प्र. वि., ए. व. - कालेनाति (म.प.) 2.152; - टा' पु., प्र. वि., ब. व. - अब्यावटा तुम्हे अव्हयन्तो च कालो, स. नि. अट्ठ. 1.207; ग. नामकरण होथ तथागतस्स सरीरपूजाय, दी. नि. 2.107; तेसं गहणे करता है, नाम दे देता है, नाम लेकर पुकारता है - यन्ति अब्यावटा भवेय्यामाति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).66; - वर्त, प्र. पु., ब. व. - अनूननामो इति मव्हयन्ति, जा. अट्ठ. टा' स्त्री., प्र. वि., ब. व. - मातु निवेसने वसिस्सती ति 7.165; - यमानो पु., वर्त. कृ., प्र. पु., ए. व. - अब्यावटा अहेसु. जा. अट्ठ. 7.33.
कण्हसिरिव्हयोति... च अव्हयमानो, सु. नि. अट्ठ. 2.187;
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अव्हयन
662
असन्त
घ. उत्तेजित करता है, उकसाता है, चुनौती देता है, अवज्ञा करता है - सो मं रङ्गम्हि अव्हेति, जा. अट्ठ. 2.211; - यन्तु अनु०, प्र. पु., ब. व. - अव्हायन्तु सुयुद्धेन, जा. अट्ठ. 7.37; अव्हायन्तूति अव्हायन्तो, तदे.; - मानो पु., वर्त. कृ., प्र. वि., ए. व. - भेकोवरले अहिमव्हायमानो, जा. अट्ट. 4.222; - व्हयेसि विधि., म. पु., ए. व. - ते त्वं दलिदो कथमव्हयेसी ति, जा. अट्ठ. 7.165; ङ. विनय के विशेष सन्दर्भ में, भिक्षुसङ्घ में पुनर्वास प्रदान करता है, वापस बुलाता है - मेय्य विधि., प्र. पु., ए. व. - एकेनपि चे ऊनो वीसतिगणो भिक्खुसको तं भिक्खु अब्भेय्य, पारा. 290; - हमेतब्बो पु., सं. कृ., प्र. वि., ए. व. - तत्थ सो भिक्खु अब्भेतब्बो, पारा. 290; अब्भेतब्बोति ... अमानकम्मवसेन
ओसारेतब्बोति वुत्तं होति, पारा. अट्ठ. 2.193. अव्हयन नपुं.. [आह्वयन], नाम, अभिधान - नं प्र. वि., ए.
व. - जिघञ्जनामव्हयनं दिसं पति, जा. अट्ठ. 5.397. अव्हा स्त्री., [आह्वा], नाम, संज्ञा - सआख्या व्हा समआ
चाभिधानं नाममव्हयो, अभि. प. 114. अव्हात/अव्हित/अमित त्रि., आ + Vव्हे का भू. क. कृ., केवल स. उ. प. के रूप में ही प्राप्त [आहूत], (नाम से) पुकारा गया, बुलाया गया, आमन्त्रित, आहूत - अन. पु., निषे०, प्र. पु., ए. व. - अनव्हितो ततो आगा, जा. अट्ठ.
3.142. अव्हान नपुं., आ + Vव्हे से व्यु., क्रि. ना. [आह्वान]. क. बुलावा, आमन्त्रण, पुकार, ख. नाम, अभिधान - निवासाव्हानगहणकिच्छे सत्थनिवत्तिसु, अभि. प. 1181; - नं' प्र. पु., ए. व. - एहीति च अव्हानम्पि लद्धन्ति, ध. प. अठ्ठ. 2.351; अव्हानं निरत्थक, स. नि. अट्ठ. 1.207; - नं2 द्वि. वि., ए. व. - अव्हानं नाभिनन्देय्य, सु. नि. 715; - नेन तृ. वि., ए. व. - सच्चेनेव अव्हानेन नामेन युत्तो, सु. नि.. अट्ठ. 2.297. अव्हायन नपुं.. उपरिवत् [आव्हान]. पुकार, बुलावा, आमन्त्रण, नाम, अभिधान - नं प्र. वि., ए. व. - अव्हायनं पक्कोसनं, सद्द, 2.456; आमन्तणं अव्हायनं पक्कोसनं, सद्द. 2.558; - तो प. वि., ए. व. - उपरूपरि अव्हायनतो ये. ... धम्मिकसमणब्राह्मणा ..., जा. अट्ठ. 3.205; - हेतु च. वि. के अर्थ में प्रयुक्त अ. [आव्हानहेतु], पुकारने के लिए - अपि नु तस्स पुरिसस्स अव्हायनहेतु वा ..., दी. नि. 1.221. अव्हायिक त्रि., [आह्वायक], पुकारने वाला, निमन्त्रण देने वाला, दूत, सन्देशवाहक, प्रेरणा देने वाला - यिका पु., प्र.
वि., ब. व. - अव्हायिका ....... ... तम्पि दिसं वदन्ति, जा. अट्ठ. 3.205; अव्हायिकाति... पक्कोसनका, तदे.. अव्हित त्रि., आ + Vव्हे का भू. क. कृ. [आहूत], पुकारा गया, बुलाया गया - तो पु., प्र. वि., ए. व. - अव्हितो अनव्हितो ततो आगा, सद्द. 2.456. अस'/ असु एक धातु, अनेक धातुओं के अन्तर्गत, विविध अर्थों की प्रकाशक [Vअस्/ अश], क. खाना, भोजन करना - अस भोजने वुत्तानं फलमस्नाति, सद्द. 2.501; क्रि. रू. के लिए द्रष्ट.; अस्नाति के अन्त; ख. व्याप्त होना - असु व्यापने, असुणाति, अस्सु, सद्द. 2.494; क्रि. रू. के लिए द्रष्ट.; असुणाति के अन्त.; ग. होना, अस्तित्व में रहना - अस भुवि अस्थि, अस, सद्द. 2.450; क्रि. रू. के लिए द्रष्ट.; अत्थि के अन्त. (ऊपर); घ. फेकना - असु खेपे, सद्द. 2.490. अस त्रि, निषे. तत्पु. [अस्व/असत्]. क. स्वामी-रहित, पति-रहित, वह, जिसे कोई भी अपना न कहे - सा स्त्री., प्र. वि., ब. व. - असा लोकित्थियो नाम, जा. अट्ठ. 5.4463; असाति असतियो लामका, जा. अट्ठ. 5.447; ख. त्रि., ब. स. [अस्व], अकिंचन, निर्धन, अपनी निजी संपत्ति से रहित, हीन, तुच्छ - कामेसु हि असकामा, थेरीगा. 508; असकामाति कामा नामेते असन्तो हीना लामकाति अत्थो, थेरीगा. अट्ठ. 315. असन्त त्रि., अस के वर्त. कृ. का निषे. [असत्], शा. अ. अविद्यमान, वह, जिसका अस्तित्व न हो, ला. अ. क. सत्ताहीन, अवास्तविक, मिथ्या, असत्य, ख. बुरा, दुष्ट, पापी, असज्जन - न्तो/न्ता पु., प्र. वि., ब. व. - असन्तो निरयं यन्ति, स. नि. 1(1).22; असन्तस्स पिया होन्ति, सु. नि. 94; - न्ते पु., द्वि. वि., ब. व. - हित्वा असन्ते न जहाम सन्ते, जा. अट्ठ. 4.47; - न्तं पू., द्वि. वि., ए. व. - असन्तं वा अज्झत्तं कामच्छन्दं 'नत्थि मे अज्झत्तं कामच्छन्दो ति पजानाति, म. नि. 1.78; असन्तन्ति असमुदाचारवसेन वा पहीनत्ता वा अविज्जमानं, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).291; - सतं पु., ष. वि., ब. व. - असतं धम्म रोचेति, सु. नि. 94; - सता/सन्तेन पु./नपुं., तृ. वि., ए. व. - असता च न सोचति, सु. नि. 956; ध. प. 367; असता च न सोचतीति अविज्जमानकारणा असन्तकारणा न सोचति, सु. नि. अट्ठ. 2.260; असताति असन्तेन, म. नि. अट्ट (मू.प.) 1(2).22; - सति/सन्ते पु./नपुं., सप्त. वि., ए. व. - 'सिया नु खो, भन्ते, बहिद्धा असति परितस्सना ति, म. नि.
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असंयम 663
असंवास 1.189; बहिद्धा असतीति बहिद्धा परिक्खारविनासे ..., म. असंयोजनिय त्रि., सं+ युज के प्रेर. के सं. कृ. का निषे. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).17; - सब्मि पु., तृ. वि., ब. व. - [असंयोजनीय], संयोजनों (बन्धनों) में नहीं बांधे जाने योग्य मानातिमानो च असब्भि सन्थवो, सु. नि. 248; असभि (धर्म) - या पु., प्र. वि., ब. व. - असंयोजनिया धम्मा, ध. सन्थवोति असप्पुरिसेहि सन्थवो, सु. नि. अट्ठ. 1.264; - स. 21; न संयोजनिया असंयोजनिया, ध. स. अट्ठ. 95. सन्तानं/सतं पु./नपुं., ष. वि., ब. व. - असतं धम्म असंवट्टन नपुं., संवट्टन का निषे., तत्पु. स. [असंवर्त], रोचेति, सु. नि. 94; असतं धम्मो नाम द्वासट्टि दिद्विगतानि (पृथ्वी आदि महाभूतों के) विनाश या प्रलय का अभाव - दसाकुसलकम्मपथा वा, सु. नि. अट्ठ. 1.134; ये तुम्हे पथविया... असंवट्टनभावं वा तथतो जानित्वा ..., जा. अट्ठ. असन्तानं अनागतानं दुक्खानं पहानाय वायमथाति, मि. प. 3.65. 89; - सा/सती स्त्री., प्र. वि., ए. व. - असती किरायं, असंवत्तनिक त्रि., [असंवर्तनिक, विनाश या प्रलय की ओर भो, वीणा नाम, स. नि. 2(2).195; - सतिं स्त्री., द्वि. वि., नहीं ले जाने वाला, समाप्त न कराने वाला, अनुच्छेदए. व. - मरह अयन्ति असतिं असतं, जा. अट्ठ. 3.467; कारक - का स्त्री., प्र. वि., ए. व. - असमाधिसंवत्तनिकाति असतिं असञतन्ति इमं असतिं असप्परिसधम्मसमन्नागतं. अप्पनासमाधिस्स वा उपचारसमाधिस्स वा असंवत्तनिका, ... जा. अट्ठ. 468; - न्तिया/तिया स्त्री., ष./सप्त. वि., ध, स. अट्ठ. 417; अनिब्बानसंवत्तनिकाति निब्बानत्थाय
ए. व. - किं ते सच्चबलं अत्थि चोरिया धुत्तिया असतिया असंवत्तनिका, स. नि. अट्ठ. 3.188. ..... मि. प. 128; असन्तिया आपत्तिया तुण्ही भवितब्बं असंवर पु., संवर का निषे., तत्पु. स. [असंवर], शा. अ. महाव. 130; - सतियो स्त्री., प्र. वि., ब. व. - विनस्सथ पूरी तरह से बन्द न कर देना, ला. अ. (इन्द्रियों पर) तुम्हे वसिलियो चोरियो धुत्तियो असतियो..., जा. अट्ठ. नियन्त्रण का अभाव, असंयम, असहिष्णुता - रो प्र. वि., ए. 5.413; - सतीनं स्त्री., ष. वि., ए. व. - मा च वसं व. - दसमे असंवरोति अनधिवासकभावो, अ. नि. अट्ठ. असतीनं निगच्छे, जा. अट्ठ. 7.207.
3.145; एवं खो भिक्खवे असंवरो होति, स. नि. 2(2).1893; असंयम पु., संयम का निषे. [असंयम], संयम का अभाव, -रं द्वि. वि., ए. व. - उद्धच्च पहातुं असंवर... दुस्सील्य नियन्त्रण का अभाव, करुणा या दया-जैसे सदगुणों का पहातुं ..., अ. नि. 3(2).120; - रेन तृ. वि., ए. व. - अभाव, दुःशील, दुराचार - मो प्र. वि., ए. व. - अनुट्ठानं वाचसिकेन असंवरेन समन्नागतो अहोसिं, पे. व. अट्ठ. 10; असंयमो, स. नि. 1(1).50; - मा प. वि., ए. व. - विरम - रस्स ष. वि., ए. व. - दुब्भरतादीनं वत्थुभूतस्स असंवरस्स पाणवधा असंयमा, पे. व. 482; असंयमाति असंवरा दुस्सील्या. अवण्णं निन्दं गरह भासित्वाति अत्थो, पारा. अट्ठ. 1.171; - पे. व. अट्ठ. 179.
रा पु., प्र. वि., ए. व. - असंयमाति असंवरा दुस्सील्या, पे. असंयुत्त त्रि., सं+युज के भू. क. कृ. का निषे. [असंयुक्त]. व. अट्ठ. 179; - रे सप्त. वि., ए. व. - असंवरे सति द्वारम्पि नहीं जुड़ा हुआ, असम्बद्ध, अतुलनीय, अनुपयुक्त - अगुत्तं होति, ध. स. अट्ठ. 421; - द्वार नपुं.. तत्पु. स. त्ता स्त्री., प्र. वि., ए. व. - मिगी पक्खी असञ्जत्ता, जा. [असंवरद्वार], असंयमित या अनियन्त्रित इन्द्रियद्वार - अट्ठ. 3.233; असत्ताति जयम्पतिका भवितुं अयुत्ता रानि प्र. वि., ब. व. - अट्ठ च असंवरद्वारानि कथितानि, असम्बन्धा, तदे; - त्तं पु., वि. वि., ए. व. - तं विवाह ध. प. अट्ठ. 2.330-331; - राभिरत त्रि.. तत्पु. स. असंयुत्तं. .... जा. अट्ठ. 7.6; असंयुत्तन्ति अयुत्तं... अननुच्छविक, [असंवराभिरत], असंयम की प्रवृत्ति से युक्त, असंयमी, तदे..
संयम या आत्मनियन्त्रण में नहीं लगा हुआ - ता पु., प्र. असंयोग पु., संयोग का निषे., तत्पु. स. [असंयोग]. बिलगाव, वि., ब. व. - पटिक्खिपनाधिप्पाया असंवराभिरता ते किसी भी तरह के सम्बन्ध का अभाव - गाय च. वि., ए. सम्परायिकेन वट्टभयेन तज्जेन्तो .... पारा. अट्ठ. 1.172. व. - असंयोगाय सन्तिके... अनुपादानाय सन्तिके ति, म. असंवास 1. पु., निषे०, तत्पु. स. [असंवास], शा. अ. एक नि. 2.81.
साथ नहीं रहना, सहवास का अभाव, आपसी सङ्गति का असंयोगन्त त्रि., ब. स. [असंयोगान्त], ऐसा स्वर, जिसके अभाव, समागम का अभाव - सेन तृ. वि., ए. व. - बाद में संयुक्त व्य ञ्जन न हो - स्स पु., ष. वि., ए. व. -- असंवासेन जीरति, जा. अट्ठ. 5.197; असंगन्तु ... बुद्धादिसरस्स वासंयोगन्तस्स सणे च, क. व्या. 402. असमागमसङ्गातेन असंवासेन जीरति, जा. अट्ठ. 5.198; ला.
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असंवासिक
664
असंसग्ग अ. भिक्षुसंघ से निष्कासन (पाराजिक नामक अपराध होने असंविभागरत त्रि., तत्पु. स. [असंविभागरत], अनुदार, पर) - सो पु., प्र. वि., ए. व. - ... पाराजिको होति दान देने से विरत, कृपण, कङ्ग्स - ता पु., प्र. वि., ब. असंवासो, पारा. 24, 25; असंवासो भिक्खूहि च भिक्खुनीहि व. - अदानाधिमुत्ता असंविभागरताति अत्थो, सु. नि. अट्ठ. च, परि. 398; असंवासोति उपोसथपवारणादिना संवासेन 1.264. असंवासो, परि. अट्ठ. 240; 2. त्रि., ब. स. [असंवास्य]. असंविभागी त्रि., सं+ वि + vभज से व्यु., क्रियार्थक विशे. शा. अ. साथ में निवास न करने योग्य (व्यक्ति), सहवास का निषे. [असंविभागी], उदारतापूर्वक दान न देने वाला, के लिए अनुपयुक्त, ला. अ. भिक्षुसंघ से निष्कासन-योग्य कृपण, अनुदार - असंविभागी च सुखं न विन्दती ति, जा. (भिक्षु)- सा पु., प्र. वि., ब. व. - असंवासा इमे सियु, विन. अट्ठ. 5.393. वि. 3111; - सा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - असंवासाति संवासो ___ असंविहित त्रि., सं. + वि + vधा के भू. क. कृ. का निषे. नाम एककम्म एकुद्देसो समसिक्खता एसो संवासो नाम। सो [असंविहित], क. कर्म. वा., स. प. में ही तैयार नहीं किया ताय सद्धि नत्थि, तेन वुच्चति असंवासाति, पाचि. 288; हुआ, ठीक से नहीं किया हुआ, ख. कर्तृ. वा. में उचित असंवासा यथा पुरे, खु. सि. 3; - पुग्गल पु.. कर्म स., पद्धति नहीं अपनाने वाला, भिक्षुसंघ के समक्ष अपनी बात साथ में न रखने योग्य अथवा संघ-कर्म में सम्मिलित न को उपयुक्त रूप से प्रस्तुत न करने वाला - ता पु.. प्र. होने योग्य भिक्षु - लं द्वि. वि., ए. व. - कत्वासंवासपुग्गलं, वि., ब. व. - अधिकरणकारका असंविहिता तं आवास विन. वि. 2606; - सारह त्रि., तत्पु. स. [असंवासार्ह], आगच्छन्ति, महाव. 247; असंविहिताति संविदहनरहिता ... साथ में निवास नहीं करने योग्य, संघ में पुनः प्रवेश नहीं अकतसंविदहिता, महाव. अट्ठ. 341; - कम्मन्त त्रि., ब. स. देने योग्य - असंवासारहसंवासारहविभागकारणपरिदीपनं [असंविहितकर्मान्तक], पापपूर्ण या अनुचित कायकर्म, वाक्कर्म उदानं उदानेसि. उदा. अट्ठ. 249.
एवं मानसिक कर्म करने वाला, कायद्वार आदि से पापकर्म असंवासिक त्रि., भिक्षुसंघ में संवास नहीं देने योग्य - को करने वाला - न्तं पु.. द्वि. वि., ए. व. - असंविहितकम्मन्तं पु., प्र. वि., ए. व. - असंवासिको चाति..., खु. सि. 28;- बालं दुम्मन्तिमन्तिनं, जा. अट्ठ. 5.95; - साखापरिवार का ब. व. - ... इमेपि असंवासिका ति वृत्ता, खु. सि. पु. टी. त्रि., ब. स., ठीक से तैयार किए गए बाड़ा या घेराबन्दी से 142; - निद्देस पु., तत्पु. स., खु. सि. के उस खण्ड-विशेष रहित, बाड़ा-रहित - रं नपुं., प्र. वि., ए. व. - का शीर्षक, जिसमें संघ में पुनः प्रवेश न देने योग्य व्यक्तियों असंविहितसाखापरिवारमिव सस्सं विसुद्धि. 1.34. की सूची दी गई है, खु. सि. 28.
असंवुत त्रि., सं+ Vवु के भू. क. कृ. का निषे. [असंवृत], असंवासियत्त नपुं, असंवासिय का भाव. [असंवास्यत्व]. शा. अ. नहीं ढका हुआ, खुला हुआ, नीचे या ऊपर कहीं साथ में निवास करने योग्य नहीं होना, किसी (अनुशासन से भी अनाच्छादित, सर्वथा उन्मुक्त - ता पु.. प्र. वि., ए. या माग) में साथ साथ रहने की इच्छा वाला न होना - त्ता व. - अघा असंवुता अन्धकारा अन्धकारतिमिसा, दी. नि. प. वि., ए. व. - पापेहि असंवासियत्ता जिनसासनस्स, .... 2.9; असंवुताति हेट्ठा उपरि च केनचि न पिहिता, लीन. मि. प. 234; - भाव पु., उपरिवत् - वं द्वि. वि., ए. व. (दी. नि. टी.) 2.23; ला. अ. नियन्त्रण में नहीं लाया हुआ, - पापेहि असंवासियभावं दस्सेन्ति, मि. प. 234.
सुरक्षित करके नहीं रखा गया, बन्द करके नहीं रखा गया असंविदित त्रि., सं + विद के भू. क. कृ. का निषे. - ता पु.. प्र. वि., ब. व. - पापका असंवुता अहिरिका [असंविदित], अनुभूत नहीं किया हुआ, ठीक से नहीं जाना ... पब्बजन्ति , मि. प. 235; - तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - हुआ - तं नपुं. द्वि. वि., ए. व. - यं असंविदितं कत्वा, .... यं एवं असंवुतं महतो अनत्थाय संवत्तति .... अ. नि. आभतं पन तं बहि, विन. वि. 1864.
1(1).10; चक्खुन्द्रियं असंवुतं विहरन्तं... पापका अकुसला, असंविन्दन्त त्रि., सं + विद के वर्त. कृ. का निषे. धम्मा अन्वास्सवेय्यु, ध. स. 1352; चक्खुन्द्रियं असंवुतं [असंविन्दत्], प्राप्त न करता हुआ, लाभ न पाता हुआ, अपिहितचक्खुद्वारं हुत्वा .... ध. स. अट्ठ. 420. अनुभव न करता हुआ - न्दं पु., प्र. वि., ए. व. - ममत्तं । असंसग्ग पु., संसग्ग का विलो., निषे. तत्पु. स. [असंसर्ग]. सो असंविन्द, थेरगा. 717; असंविन्दं असंविन्दन्तो अलभन्तो लगाव या आसक्ति का अभाव, अपरिग्रह, विराग, अनासक्तिअकरोन्तो, थेरगा. अट्ठ. 2.229.
भाव - ग्गेन तृ. वि., ए. व. - असंसग्गेन छिज्जति. स. नि.
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असंसह
665
1(2).139; असंसग्गेन छिज्जतीति एकतो ठाननिसज्जनादीनि अकरोन्तस्स असंसग्गेन अदस्सनेन छिज्जति, स. नि. अट्ट 2.126; - ग्गस्स ष. वि., ए. व. - असंसग्गरस च वण्णवादी, म. नि. 1.278; - ग्गो प्र. वि., ए. व. - अलोभो अनभिसङ्गो अपरिग्गहलक्खणो मुत्तप्पवत्तनरसो असंसग्गोति गरहति, ना. रु. प. 91; - कथा स्त्री., तत्पु. स. [असंसर्गकथा], अनासक्ति-भाव या विराग के विषय में कथन, विराग-विषयक संलाप - अप्पिच्छकथा... असंसग्गकथा ... सीलकथा, अ. नि. 3(1).172; - ग्गरामता स्त्री., भाव., अनासक्तिभाव के प्रति अभिरुचि होना - कतमे अट्ठ ... इन्द्रियेसु गुत्तद्वारता ... असंसग्गारामता निप्पपञ्चारामता, अ. नि. 3(1).152. असंसट्ठ त्रि., सं+सिज के भू. क. कृ. का निषे. [असंसृष्ट], नहीं घुला-मिला हुआ, अलिप्त, संसर्ग-रहित, अलग-थलग, अमिश्रित - टुं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - असंसर्ट गहडेहि, सु. नि. 633; असंसट्ठन्ति... अभावेन असंसट्ठ उभयन्ति गिहीहि च अनगारेहि ... असंसट्ट, सु. नि. अट्ठ. 2.171; - 8ो पु. प्र. वि., ए. व. -- असंसट्ठो कुले गणे, अप. 2.16; असंसट्ठो गहढहि, थेरगा. 581; असंसट्ठोति दस्सनसवनसमुल्लपन- सम्भोगकायसंसग्गानं अभावेन असंसट्ठो यथावृत्तसंसग्गरहितो, थेरगा. अट्ठ. 2.175. असंसप्प पु., [असंसर्पण, नपुं.], शा. अ. फिसलन या स्खलन का अभाव, ला. अ. हिचकिचाहट का अभाव, दृढ़संकल्प - प्पो प्र. वि., ए. व. - अधिमोक्खो असंसप्पो ..., ना. रू. प. 83. असंसप्पनरस त्रि., ब. स., अविचलित बनाने का कृत्य करने वाला, हिचकिचाहट से रहित कर देने वाला (अधिमोक्ष) - सो पु.. प्र. वि., ए. व. - सन्निट्ठानलक्खणो असंसप्पनरसो .... सन्निट्ठातब्बधम्मपदट्ठानो, ध. स. अट्ठ. 178. असंसय क. त्रि., ब. स. [असंशय], सन्देह से मुक्त, संशय
से रहित - स्स पु., ष. वि., ए. व. - असंसयस्स कुसलस्स ..., म. नि. 2.54; - या स्त्री., प्र. वि., ए. व. - असंसया बहुजनपूजिता अहं वि. व. 146; असंसयाति... विचिकिच्छाय पहीनत्ता अपगतसंसया ... असंसिया ति केचि पठन्ति, वि. व. अट्ठ. 67; ख. नपुं., संशय का अभाव, निश्चय - ये पु.. - चर असंसये चरेति चरयति, सद्द. 2.559; - यं द्वि. वि., ए. व., क्रि. वि., निश्चित रूप से- असंसयं जातिखयन्तदस्सी, जा. अट्ठ. 3.384; असंसयं सो निरयं उपेति, जा. अट्ठ. 4.43
असकिं असंहारिम त्रि., संहारिम का निषे०, नहीं हिलाने-डुलाने योग्य, स्थिर, अचल, दृढ़ - मे पु., सप्त. वि., ए. व. - एवं खाणके बन्धित्वा ठपितमञ्चादिम्हि असंहारिमे फलके वा पासाणे वा न रूहतियेव, पाचि. अट्ठ. 100; अनापत्ति आपुच्छा गच्छति असंहारिमे गिलानाय... आदिकम्मिकायाति, पाचि. 373; असंहारिमेति थाममज्झिमेन पुरिसेन असंहारिये, सारत्थ. टी. 3.63. असंहारिय त्रि., सं + हर, प्रेर. के सं. कृ. का निषे. [असंहार्य], किसी के भी द्वारा नहीं हिलाने-डुलाने योग्य, अचल, अत्यन्त दृढ़ - या स्त्री॰, प्र. वि., ए. व. - ... तथागते सद्धा निविट्ठा मूलजाता पतिट्टिता दळहा असंहारिया समणेन वा ब्राह्मणेन वा... केनचि वा लोकस्मि, दी. नि. 3.62; असंहारियाति सुनिखातइन्दखीलो विय केनचि चालेतुं असक्कुणेय्या, दी. नि. अट्ठ. 3.44; - यो पु., प्र. वि., ए. व. - असंहारियो नाम च होति पण्डितो, थेरगा. 372; ... सो तादिसो पुग्गलो किलेसेहि देवपुत्तमारादिसु वा केनचि असंहारियताय असंहारियो नाम होति, थेरगा. अट्ठ. 2.66; - ये पु., सप्त. वि., ए. व. - असंहारिमेति थाममज्झिमेन पुरिसेन असंहारिये, सारत्थ. टी. 3.63. असंहीर त्रि., सं + Vहर, कर्म. वा. के सं. कृ. का निषे. [असंहिय], नहीं हिला-डुला सकने योग्य, अकम्प्य, दृढ़, स्थिर - रा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - यावजीवं असंहीरा, इतिवु. 56; - रो पु., प्र. वि., ए. व. - विनये ... ठितो होति असंहीरो, अ. नि. 2(2).269; विनये... विनयलक्खणे पतिद्वितो होति, असंहीरोति न सक्का होति गहितग्गहणं विस्सज्जापेतं अ. नि. अट्ठ. 3.190; - रा पु., प्र. वि., ब. व. - धम्मदसा ठिता असंहीरा, थेरगा. 1252; असंहीराति केनचि असंहारिया हुत्वा पतिहिता, थेरगा. अट्ठ. 2.445; - रं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - असंहीरं असंकुष्पं, थेरगा. 649; असंहीरन्ति न संहीर .... रागेन अनाकड्डनियं, थेरगा. अट्ठ. 2.204; - चित्त त्रि., ब. स. [असंहियचित्त], अविकम्प्य चित्त वाला, दृढ़ चित्त वाला - त्ता स्त्री., प्र. वि., ए. व. - अत्तभावे मयि ससिनेहा असंहीरचित्ता ... भवेय्य, जा. अट्ठ. 4.252. असक त्रि., ब. स. [अस्वक], वह, जो अपना नहीं है, पराया - कट्ठ पु., तत्पु. स., अपने से भिन्न का अर्थ - द्वेन तृ. वि., ए. व. - असकद्वेन परतो..., म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.105. असकिं अ., निपा. [असकृत्], अनेक बार, बार-बार - सरूपानं पदब्यञ्जनानं एकसेसो होति असकि, क. व्या. 390.
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असक्कच्चं
666
असक्यधीतु
lo 3.47.
असक्कच्चं अ, सत + Vकर के पू. का. कृ. का निषे. [असत्कृत्य], ठीक से न करके, असावधानी, उपेक्षा या अवज्ञा के साथ, बिना सोचे विचारे, तिरस्कारभाव के साथ, अनुचित रूप में - सक्कच्च व पहारं देति नो असक्कच्चं, अ. नि. 2(1).114; सक्कच्च व देति नो असक्कच्चन्ति अनवआय अविरज्झित्वाव देति, नो अवआय विरज्झित्वा, अ. नि. अट्ठ. 3.42; असक्कच्चं देति ... अनागमनदिट्टिको देति, अ. नि. 2(1).161; असक्कच्चं देतीति न सक्करित्वा सुचिं कत्वा देति, अ. नि. अट्ठ. 3.54; असक्कच्चन्ति अनादरं कत्वा देय्यधम्मस्स असक्कच्चकरणं... न सक्करित्वा सुचिं कत्वा देती, अ. नि. टी. 3.47. असक्कच्चकारी त्रि., बिना सोचे-विचारे ही काम करने वाला, अविवेक के साथ काम करने वाला - न समाधिस्स वुट्ठानकुसलो होति असक्कच्चकारी च होति... असप्पायकारी च, अ. नि. 2(2).129. असक्कच्चकिरियता स्त्री., भाव., विवेकसङ्गत व्यवहार या आचरण का अभाव, सोचे-विचारे बिना ही कार्य करने की प्रवृत्ति - कुसलानं वा धम्मानं भावनाय असक्कच्चकिरियता ... अनासेवना अभावना अबहुलीकम्मं अनधिट्टानं अननुयोगो पमादो, विभ. 401; असक्कच्चकिरियताति एतेसं दानादीनं कुसलधम्मानं भावनाय पुग्गलस्स वा देय्यधम्मस्स वा असक्कच्चकरणवसेन असक्कच्चकिरिया, विभ. अट्ठ. 443. असक्कच्चदान नपुं., अविवेक या असावधानी के साथ दिया गया दान - असक्कच्चदानपच्चवेक्खणधम्मसवनादीसु ....
पवत्तिकाले परित्तारम्मणा, ध. स. अट्ठ. 430. असक्कत त्रि., सक्कत का निषे.. तत्पु. स. [असत्कृत], अपूजित, असम्मानित, उचित रूप में अविचारित - ता पु.. प्र. वि., ब. व. - असक्कता चस्म धनञ्जयाया ति, जा. अट्ठ. 3.84; असक्कता चस्माति अन्नपानं न लभाम, तदे; परिब्बाजका असक्कता होन्ति अगरुकता ... अनपचिता, उदा. 81. असक्करियमान त्रि., सत + (कर, कर्म. वा. के वर्त. कृ. का निषे. [असक्रियमाण], असम्मानित, अपूजित - ना पु., प्र. वि., ब. व. - अम्हेहि असक्करियमाना ... अपूजियमाना असक्कारपकता पक्कमिस्सन्ति वा ... भगवन्तं वा पसादेस्सन्तीति, महाव. 475. असक्कार पु.. सक्कार का निषे., तत्पु. स. [असत्कार]. असम्मान, सत्कार का अभाव - रेन तृ. वि., ए. व. - यस्स
सक्करियमानस्स असक्कारेन चूभयं ..., इतिवु. 54; - पकत त्रि., ब. स. [असत्कारप्रकृत], असम्मान के प्रभाव से प्रभावित - ता पु., प्र. वि., ब. व. - एवं इमे अम्हेहि असक्करियमाना... असक्कारपकता पक्कमिस्सन्ति वा... पसादेस्सन्ती'ति, महाव. 475. असक्कुणेय्य त्रि., Vसक से व्यु., सं. कृ. का निषे. [अशक्य], नहीं किये जाने योग्य, असंभव - य्यो पु., प्र. वि., ए. व. -हितपटिपत्तिया वा दुन्नयो होति नेतुं असक्कुणेय्यो, जा. अट्ठ. 4.217; - य्ये पु., सप्त. वि., ए. व. - बोधेतुं असक्कुणेय्ये अरूपभवे निब्बत्तिस्सामी ति दिस्वा ..., जा. अट्ठ. 1.65; असक्कुणेय्ये हदयब्भन्तरे मम खन्ति पतिहिता, जा. अट्ठ. 3.35; - त्त नपुं., भाव. [अशक्यत्व], असंभव होना, कर सकने योग्य न रहना - त्ता प. वि., ए. व. - मतस्स पुन जीवापेतुं असक्कुणेय्यत्ता इद्धिमतो. जा. अट्ट. 3.144; - ता स्त्री., भाव., उपरिवत् - य तृ./प्र. वि., ए. व. - वसे वत्तेतुं असक्कुणेय्यताय ... निष्फादेतीति अत्थो, उदा. अट्ठ. 169; भोजनेन ओनमितुं असक्कुणेय्यताय अनोनमनदण्डो, अ. नि. टी. 1.203; - भाव पु.. उपरिवत् - वं द्वि. वि., ए. व. - पूजनीयवानस्स सक्कुणेय्यभावं
जानाथाति, जा. अट्ठ. 4.204. असक्कोन्त त्रि., सक के वर्त. कृ. का निषे. [असक्नुवत्], सक्षम न होता हुआ, अक्षम, कर सकने में असमर्थ - न्तो पु., प्र. वि., ए. व. - असम्भुणन्तोति असक्कोन्तो, सु. नि. अट्ठ. 2.97. असक्खर त्रि., ब. स. [अशर्कर], कंकड़ों-पत्थरों से रहित, मृदु - रा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - असक्खरा चेव मुदू सुभा च, जा. अट्ठ. 5.162; असक्खराति ... पासाणसक्खररहिता मुदु सुभा, तदे; - रो पु., प्र. वि., ए. व. - असक्ख रो ति
आदिना नयेन ... मग्गकथं कथेसंधप. अट्ठ. 2.231. असक्खिक त्रि., ब. स. [असाक्षिक], बिना साक्षी वाला, बिन गवाह का - कं पु., द्वि. वि., ए. व. - असक्खिक अडे करोन्तो विय च, ध. स. अट्ठ. 32. असक्य त्रि., Vसक के सं. कृ. का निषे. [अशक्य], नहीं किए जा सकने योग्य, असंभव - क्यो पु., प्र. वि., ए. व.
- अफलो च असक्यो च वायामो, सु. नि. अट्ठ. 1.7. असक्यधीतु स्त्री., कर्म. स. [अशाक्यदुहित], अननुरूप बौद्ध भिक्षुणी, ऐसी भिक्षुणी, जो बुद्धधर्म के अनुरूप आचरण न करती हो - ता प्र. वि., ए. व. - अस्समणी होति असक्यधीता, पाचि. 288.
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667
असक्यपुत्तिय
असंकेत असक्यपुत्तिय त्रि., [अशाक्यपुत्रीय], बुद्धधर्म के अनुरूप - पोराणा असंकिण्णा असंकिण्णपुब्बा, अ. नि. 1(2).33; आचरण न करने वाला भिक्षु/भिक्षुणी - यो पु., प्र. वि., असंकिण्णा अविकिण्णा अनपनीता, अ. नि. अट्ठ. 2.269. ए. व. - ... पटिसेवित्वा अस्समणो होति असक्यपुत्तियो, ___ असंकित त्रि., [अशङ्कित], शङ्का से मुक्त, घबराहट या भय महाव. 123; यंनूनाहं अस्समणो... असक्यपुत्तियो अस्सन्ति से रहित - असंकितो अजयूथं उपेति, जा. अट्ठ. 5.230; वदति विज्ञआपेति, पारा. 26; - धम्म पु., निषे, तत्पु. स. कादम्बनदिया तीरे ठपेत्वान असङ्कितो, म. वं. 22.53. [अशाक्यपुत्रीयधर्म], शाक्यपुत्र बुद्ध के धर्म से इतर दूसरा असंकिय त्रि., (सङ्क के सं. कृ. का निषे. [अशक्य], शङ्का धर्म - म्मो पु., प्र. वि., ए. व. - धारेय्यासि अस्समणधम्मो नहीं करने योग्य, निर्भय, आशङ्काभाव से मुक्त - असतियोम्हि असक्यपुत्तियधम्मोति, स. नि. 2(2).311; - भाव पु., निषे०, गामम्हि, जा. अट्ठ. 1.319; ... अहं गामे वसन्तोपि ... तत्पु. स. [अशाक्यपुत्रीयभाव], बुद्ध के मार्ग का अनुगमन असडियो निब्भयो निरासोति दीपेति, तदे.. न करने की अवस्था, बौद्ध भिक्षु से भिन्न होने की स्थिति- असंकिलिट्ठ त्रि., सं. + किलिस के भू. क. कृ. का निषे० वं द्वि. वि., ए. व. - पत्थयमानो... पे.... असक्यपुत्तियभावं [असंक्लिष्ट], मलिन या अविशुद्ध नहीं किया गया, विशुद्ध, पत्थयमानो, पारा. 27; - वेवचन नपुं.. तत्पु. स., शाक्यपुत्र मलों से रहित (निर्वाण) - टुं नपुं., वि. वि., ए. व. - (बुद्ध) के प्रति श्रद्धावान न रहने की बात को प्रकाशित असंकिलिट्ठ अनुत्तरं योगक्खेमं निब्बानं परियेसति, अ. नि. करने वाले वचन का एक प्रकार - नानि प्र. वि, ब. व. 1(2).284; - हा पु., प्र. वि., ब. व. - असंकिलिट्ठा धम्मा - अस्समणवेवचनानि वा असक्यपुत्तियवेवचनानि वा, पारा. न वत्तब्बा किलेसा चेव संकिलिट्ठा चातिपि, ध. स. 1576; 30; - नेन पु./नपुं.. तृ. वि., ए. व. - एवमादि - चित्त त्रि., ब. स. [असंक्लिष्टचित्त], मलिनता से मुक्त असक्यपत्तियवेवचनेन सिक्खापच्चक्खानं होति, पारा. अट्ठ. विशुद्ध चित्त वाला - असंकिलिट्ठचितो ब्रह्मा ..., दी. नि. 1.202.
1.224; ... संकिलेसेहि असंकिलिट्ठचित्तो सुपरिसुद्धमानसो, असग्गुणविभावी त्रि., [असद्गुणविभाविन], दुर्गुणों को प्रकाशित दी. नि. अट्ट, 1.304. या प्रकट करने वाला - विनो पु., ष. वि., ए. व. - तस्स असंकिलेसक त्रि., संकिलेसिक का निषे. [असंक्लेशिक]. निल्लज्जराजस्स असग्गुणविभाविनो, सद्धम्मो. 382.. मलिनता से मुक्त, विशुद्ध - का पु., प्र. वि., ब. व. - असंकच्चिक/असंकच्चिका त्रि., संकच्चिक का निषे.. असंकिलेसिका धम्मा न वत्तब्बा, ध. स. 1574. तत्पु. स. [बौ. सं. असङ्कच्छिका], कटिपरिधान या कमर पर असंकुचितचित्त त्रि., ब. स. [असंकुचितचित्त], वह, जिसका लपेटी हुई पट्टी से रहित - का स्त्री., प्र. वि., ए. व. - चित्त सङ्कुचित या अनुदार न हो, उदार चित्त वाला - असङ्कच्चिका गाम पिण्डाय पाविसि. पाचि. 478.
अनोलीनोति .... दाने असङ्कचितचित्तोति अत्थो चरिया. अट्ठ. 23 असङ्कमनिय/असंकमनीय त्रि., सं + ।कम के प्रेर. के सं. असंकुप्प त्रि., सं. + (कुप के सं. कृ. का निषे. [असंकम्प्य], कृ. का निषे. [असंक्रामणीय], एक स्थान से दूसरे स्थान इधर से उधर नहीं ले जाए जाने योग्य, अविचाल्य, स्थिर, पर नहीं हटाए जाने योग्य, अविचाल्य - यायो स्त्री., द्वि. दृढ़ - प्पं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - असंहीरं असंकुष्पं ..., वि., ब. व. - पादुका धुवट्ठानिया असङ्कमनियायो, महाव. थेरगा. 649. 264; असङ्कमनीयायोति भूमियं... असंहारिया, महाव, अट्ठ, 347. असंकुसकवुत्ति त्रि., ब. स. [असंकुसकवृत्ति], वह, जिसका असंकमान त्रि., (संक के वर्त. कृ. का निषे. [अशङ्कमान]. स्वभाव हठी या जिद्दी नहीं हो, अप्रतिकूल जीवन-वृत्ति वाला, शङ्का नहीं करने वाला, भय-रहित, - ना पु., प्र. वि., ब. व. अनुकूल प्रकृति वाला - असङ्कुसकवुत्तिस्स स राजवसतिं - असङ्कमाना अभिनिब्बुत्तता, जा. अट्ट, 2.315.
वसे, जा. अट्ठ. 7.193; असङ्कसकवुत्तिस्साति अप्पटिलोमवृत्ति असंकर त्रि., ब. स., शा. अ. अमिश्रित, ला. अ. संभ्रम से अस्स, तदे.. रहित, सन्देहमुक्त - तो प. वि., ए. व. - असङ्करतो वा असंकेत पु., संकेत का निषे. [असङ्केत], अनिर्धारण, इशारा ठपेति, नेत्ति. अट्ठ. 247.
या सुझाव का अभाव - तेन तृ. वि., ए. व., क्रि. विशे., असंकिण्ण त्रि., सं + किर के भू. क. कृ. का निषे. निर्धारण किए बिना - अनुपरिवेणियं पातिमोक्खं उदिसन्ति [असंकीर्ण], शा. अ. आपस में मिलावट से रहित, ला. असङ्केतेन, महाव. 134; असङ्केतेनाति सङ्केतं अकत्वा, महाव. अ. विशुद्ध, भ्रमरहित, अभ्रान्त - ण्णा पु., प्र. वि., ब. व. अट्ठ. 312.
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असंखत
668
असंखिय
असंखत त्रि., सं. +vकर के भू. क. कृ. का निषे. [असंस्कृत], शा. अ. हेतु एवं प्रत्ययों से उत्पन्न नहीं किया हुआ, ला. अ. हेतु-प्रत्ययों से अनुत्पन्न तथा स्वयं भी विपाक को उत्पन्न न करने वाला लोकोत्तर धर्म निर्वाण (मार्ग, प्रतीत्यसमुत्पाद एवं आकाश) - तं' नपुं., प्र. वि., ए. व. -- असङ्घतं शिवममतं सुदुद्दसं, अभि. प. 7; असङ्घतं अमतं अनासवञ्च, नेत्ति. 46; - तं पु./नपुं., द्वि. वि., ए. व. - असङ्घतञ्च ... देसेस्सामि असङ्घतगामिञ्च मग्गं, स. नि. 2(2).334; - तस्स पु., ष. वि., ए. व. - तीणिमानि, भिक्खवे, असङ्घतस्स असङ्घतलक्खणानि ... न उप्पादो पआयति, न वयो पञआयति, न ठितस्स अञथत्तं पञ्चायति .... अ. नि. 1(1).177; अट्ठमे असङ्घतस्साति पच्चयेहि समागन्त्वा अकतस्स. अ. नि. अट्ठ. 2.135; - तो पु., प्र. वि., ए. व. - निरोधो असङ्घतो, नेत्ति. 15; - ता स्त्री., प्र. वि., ए. व. - विमुत्त्यसङ्घता धातु सुद्धि-निब्बुतियो सियुं, अभि. प.9;-गामी त्रि., [असंस्कृतगामिन], असंस्कृतधर्म निर्वाण की ओर ले जाने वाला - मिं पु., द्वि. वि., ए. व. - असङ्घतञ्च, वो, भिक्खवे देसेस्सामि असङ्घतगामिञ्च मग्गं, स. नि. 2(2).334; - तत्त नपुं., भाव॰ [असंस्कृतत्व], हेतु-प्रत्ययों द्वारा उत्पादित न होना - त्ता प. वि., ए. व. -- असङ्कतत्ता धम्मस्साति, मि. प. 251; - धातु स्त्री., कर्म. स. [असंस्कृतधातु]. हेतु प्रत्ययो द्वारा अनुत्पादित - वे इमा... धातुयो सङ्खताधातु असङ्घताधातु, म. नि. 3.110; - पञ्जत्ति स्त्री., तत्पु. स. [असंस्कृतप्रज्ञप्ति]. असंस्कृत धर्मों का प्रकाशन या अभिव्यक्ति - असङ्घतधम्मस्स पञआपना असङ्घतपत्ति नाम, पु. प. अट्ठ. 29; भूमिपति असङ्घतपत्ति च विज्जमानपञत्तियेव, पु. प. अट्ठ. 29; - संयुत्त नपुं., स. नि. के उस संयुत्त का शीर्षक, जिसमें असंस्कृत धर्म निर्वाण तथा उसका साक्षात्कार कराने वाले मार्ग का उपदेश दिया गया है, लोकोत्तर-धर्म तथा उसकी ओर ले जाने वाले मार्ग का प्रकाशक स. नि. का एक खण्ड, स.. नि. 2(2).334-344; लोकुत्तराति लोकुत्तरत्थदीपका असङ्घतसंयुत्तादयो, स. नि. अट्ठ. 3.320; - तारम्मण त्रि., ब. व. [असंस्कृतालम्बन], असंस्कृत धर्म निर्वाण को अपना आलम्बन बनाने वाला - णो पु., प्र. वि., ए. व. - विमोक्खो असङ्घतारम्मणो च ... निब्बानधातूति, नेत्ति. 104. असंखरान त्रि., सं + कर के वर्त. कृ. का निषे.
[असंस्कुर्वाण], तीन प्रकार के कर्म अभिसङ्घारों में से किसी एक से भी अभिसंस्कृत न करने वाला - नो पु., प्र. वि., ए. व. - असङ्घरानो सतिमा अनोको, स. नि. 1(1).148; असङ्घरानोति तयो कम्माभिसङ्घारे अनभिसङ्घरोन्तो, स. नि. अट्ठ. 1.165. असंखात त्रि., सं. + Vख्या के भू. क. कृ. का निषे. [असंख्यात], सम्यक् रूप में अविचारित, उचित रूप में अचिन्तित - येसञ्चेतं असवातं, जा. अट्ठ. 4.4; अ सम्पि येसञ्चेव असङ्घातं अवीमंसितं, जा. अट्ठ. 4.5. असंखार त्रि., संखार का निषे., ब. स. असंस्कार], शा. अ. संस्कार-स्कन्ध से रहित - रो पु.. प्र. वि., ए. व. - अयं सो अरूपी अवेदनो असञी असङ्खारो... समनुपस्ससी ति, स. नि. 2(1),102; ला. अ. स्वतःस्फूर्त चित्त, स्वतःप्रवृत्त - रं नपुं., वि. वि., ए. व. - असङ्घारं ससङ्घार-विपाकानि न पच्चति, अभि. ध. स. 38; - रेन तृ. वि., ए. व. - . .. इध असङ्खारेना ति अवुत्तेपि असङ्घारिकभावो वेदितब्बो, ध. स. अट्ठ. 116; - परिनिब्बायी त्रि., [बौ. सं. अनभिसंस्कारपरिनिर्वायिन]. अनागामी नामक आर्यश्रावक का तृतीय प्रभेद, ऊपर के पांच संयोजनों के प्रहाण के लिए विशेष प्रयास की आवश्यकता न रखने वाला अनागामी आर्यपुद्गल - यी पु., प्र. वि., ए. व. - सो असङ्खारेन अरियमग्गं सजनेति उपरिद्विमानं संयोजनानं पहानाय अयं वुच्चति पुग्गलो असङ्घारपरिनिब्बायी, पु. प. 123; असङ्खारेन अप्पदुक्खन अधिमत्तपयोग अकत्वाव किलेसपरिनिब्बानेन परिनिब्बानधम्मोति असङ्कारपरिनिब्बायी. पु. प. अट्ठ. 48. असंखारिक/असंखारिय त्रि., असङ्घार से व्यु. [असांस्कारिक], अपनी चित्त सन्तति के पूर्वक्षणों की प्रवृत्ति द्वारा स्वतः-प्रवृत्त (चित्त) - कं नपुं., प्र. वि., ए. व. --- .... चित्तस्स तिक्खभावसङ्घातो विसेसोविध सङ्खारो, सो यस्स नत्थि तं असङ्घारं तदेव असङ्घारिक, अभि. ध. स. 79; -- केन त. वि., ए. व. -- असद्धारिकेन पणीतानीति... हीनादितापि
चाति, खु. पा. अट्ठ. 26. असंखिय त्रि., [असंख्य], गणना न करने योग्य, माप-जोख न करने योग्य - यं नपुं., प्र. वि., ए. व. -- गणनातो असडियं, अप. 1.73; - यो पु., प्र. वि., ए. व. - गणनातो असलियो, बु. वं. 27.8; - या स्त्री., प्र. वि., ब. व. - परिच्चत्ता असतिया, अप. 2.256; - ये नपुं., द्वि. वि., ब. व. - चत्तुरो च असलिये, बु. वं. 2.1.
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669
असंखुब्भ
असच्छिकत असंखुम त्रि., सं+ खुभ के सं. कृ. का निषे. [असंक्षोभ्य], असंगन्तु, जा. अट्ठ. 5.197; असंगन्तु असमागच्छन्तस्स ... संक्षुब्ध न करने योग्य, शान्त, निर्विकार, अविचलित - असंवासेन जीरति विनस्सति, जा. अट्ठ. 5.198. अनिलजसासभो... असड्डियो, अप. 1.113.
असंगमानस त्रि., ब. स., आसक्ति या लगाव से विमुक्त मन असोय्य/असङ्ग्येय्य त्रि., सं +ख्या के सं. कृ. का वाला - सा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - न च पज्जित्थ निषे. [असंखेय], असंख्य, गणना न करने योग्य, अप्रमेय, __असंङ्गमानसा, थेरीगा. 398; - सो पु., प्र. वि., ए. व. - अगण्य - य्यो पु.. प्र. वि., ए. व. - असङ्ख्येय्यो अप्पमेय्यो कुलेसु कामेसु असङ्गमानसो, थेरगा. 1122. महापुञ्जक्खन्धो, स. नि. 3(2).462; - य्या स्त्री., प्र. वि., असङ्गह पु., सङ्गह का निषे. [असङ्ग्रह], अनन्तर्भाव, अन्तर्भूत ए. व. - असङ्खय्या अप्पमेय्या दक्षिणा पाटिकवितब्बा. म. न होना - हो प्र. वि., ए. व. - तेकालिकाख्यातपदे नि. 3.305; - य्येन पु., तृ. वि., ए. व. - असङ्घयेय्येन कालातिपत्तिया पन असङ्गहो वा होती ति, सद्द. 1.55; - क गुणेन परिसुद्धञ्च लहुकञ्च, मि. प. 115; - य्ये पु., द्वि. त्रि.. [असंग्राहक]. क. संग्रह न करने वाला, सङ्कलन न वि., ब. व. - संवच्छरे असङ्घय्ये, जा. अट्ठ. 5.258; - य्यं करने वाला, ख. अकृपालु, सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण से नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अपरिमितअसङ्घयेय्य अप्पमेय्यगणं रहित - को पु., प्र. वि., ए. व. - असङ्गाहको आजीविकभयस्स वरं, मि. प. 321; - य्यानि नपुं.. प्र. वि., ब. व. - भायेय्य, अ. नि. 3(1).183. चत्तारिमानि भिक्खवे कप्पस्स असोय्यानी ति, अ. नि. 1(2). असङ्गहित त्रि., सं + (गह के भू. क. कृ. का निषे. 164; - य्येहि नपुं.. तृ. वि., ब. व. - चतूहि च असङ्घयेय्येहि [असंगृहीत], क. अन्तर्भूत नहीं किया हुआ - तं नपुं॰, प्र. कप्पानं... च एत्थन्तरे, मि. प. 218; - य्यानं पु./नपुं., वि., ए. व. - सङ्गहितेन असङ्गहितं, धातु. 1; ख. ष. वि., ब. व. - चतुन्नं असङ्खयेय्यानं मत्थके ... .... अनुकम्पापूर्वक ग्रहण नहीं किया हुआ, अनुग्रह का पात्र नहीं अमरवती नाम नगरं अहोसि, जा. अट्ठ. 1.3.
बनाया गया - तेसं असङ्गहितमनुस्सानं वसेन नस्सन्ति, जा. असंख्य पु., अव्यय, वह, जिसमें संख्या आदि के प्रभाववश अट्ट. 5.113. कोई रूप-परिवर्तन नहीं होता है - या प्र. वि., ब. व. - असंगाहना स्त्री., सं + Vगाह से व्यु., क्रि. ना. [असंगाहन, ... तथा हि असंख्या ति च अव्यया ति च, सद्द. 1.299; - नपुं], शा. अ. अन्दर तक जाकर प्रवेश न करना, ला. सद्द पु., कर्म, स., अव्यय के रूप में प्रयुक्त शब्द - इंद्वि. अ. पूरी तरह से नहीं समझना - असम्बोधो अप्पटिवेधो वि., ए. व. - ... उपसग्गनिपातसङ्घाते असंख्यसद्दे सन्धाय असंगाहना अपरियोगाहना,ध. स. 390.
वुत्तं न एकेकं असंख्यासदं सन्धाय ..., सद्द. 1.299. असङ्गी त्रि., [असङ्गिन्], शा. अ. साथ सङ्ग न करने वाला, असङ्ग त्रि., ब. स. [असङ्ग], शा. अ. सङ्गरहित, लिपटा कर ला. अ. आसक्ति या लगावरहित, निर्बाध, बाधा या रुकावट या सटा कर न रखने वाला, ला. अ. विषयभोगों के प्रति से रहित - ङ्गिने पु., द्वि. वि., ब. व. - आवेळिने सद्दगमे मानसिक लगाव या आसक्ति से मुक्त - ङ्गो पु., प्र. वि., असङ्गिने, जा. अट्ठ. 5.404; पाठा. असङ्गिते. ए. व. - असङ्गो अनिलो यथा, अप. 2.107; - ङ्गा ब. व. - __असङ्घट्ट त्रि., [असंघृष्ट], पीड़ा या व्यथा न देने वाला, असङ्गा अतुलगुणा अतुलयसा, मि. प. 311; - चारी त्रि., अकष्टदायक, संत्रास उत्पन्न न करने वाला-हो पु., प्र. [असङ्गचारिन्], आसक्ति से मुक्त या लोभरहित मन के वि., ए. व. - अक्कोधनो असङ्घट्टो, जा. अट्ठ. 7.190; साथ विचरण करने वाला - रिनो पु., प्र. वि., ब. व. - असङ्घट्टोति परं असङ्घद्देन्तो, तदे... मगा विय असङ्गचारिनो, स. नि. 1(1).231; - चित्त त्रि., ब. असच्च त्रि., ब. स. [असत्य], झूठा, सत्य नहीं बोलने वाला, स. [असङ्गचित्त], आसक्ति-रहित चित्त वाला, लगावमुक्त धोखेबाज - स्स पु., ष. वि., ए. व. - किञ्च तुम्हें मन वाला- तो पु., प्र. वि., ए. व. - असङ्गचित्तो निक्लेसो, असच्चस्स, जा. अट्ठ. 5.369; असच्चस्साति वचीसच्चरहितरस अप. 2.16.
..., जा. अट्ठ. 5.370; - च्चं स्त्री., द्वि. वि., ए. व. - तं तं असंगन्तु त्रि., सं + गम के कर्तृ. ना. का निषे. [असंगन्त]. असच्चं अविभज्जसेविनि, जा. अट्ठ. 5.395; असच्चन्ति ... संगमन न करने वाला, (प्रियजनों या परिचितों के पास) सच्चे ... असच्चं उत्तमभावरहितं, तदे.. बहुत कम आने-जाने वाला, साथ न रहने वाला, संवास न असच्छिकत त्रि., सच्छिकत का निषे. [असाक्षात्कृत], स्वयं करने वाला - न्तु पु., ष. वि., ए. व. - स्वेव मित्तो सीधे अनुभव नहीं किया हुआ, स्वयं आन्तरिक रूप में नहीं
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असज्जन्त
देखा गया - तं नपुं. प्र. वि., ए. व. नत्थि किञ्चि ब्रह्मनो असच्छिकतन्ति, दी. नि. 1.202; अञ्ञातं ... असच्छिकतं अनभिसमेतं, अ. नि. 3 ( 1 ) . 199; ते सप्त. वि., ए. व. असच्छिकते सच्छिकतसज्ञिनो पारा 111 कत्वा पू का. कृ. साक्षात् न देखकर, प्रज्ञा की आंख से न देखकर पञ्ञाय असच्छिकत्वा सुद्धेन सद्धामत्तकेनेव... म.नि. अट्ठ. ( मू०प०) 1(2). 74. असज्जन्त त्रि. सज के वर्त कृ. का निषे [असज्यत्]. आसक्त या लगाव से भरपूर न रहने वाला, अनासक्त, निर्लिप्त, लगाव-रहित मन वाला न्तो पु०, प्र. वि., ए. व. अरज्जन्तो असज्जन्तो असोचन्तो भिक्खु नाम होती ति
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ध. प. अट्ठ. 2.339.
असज्जमानो त्रि. क. उपरिवत् नो पु०, प्र. वि., ए. व. - तिरोभावं तिरोकुट्ट - असज्जमानो गच्छति दी. नि. 1.89, वातोव जालम्हि असज्जमानो सु. नि. 71 ना पु. प्र. वि. ब. व. असज्जमाना विचरन्ति लोके, सु, नि. 470 नं पु. द्वि. वि. ए. व. तं नामरूपस्मिमसज्जमानं ध. प. 221 असज्जमानन्ति अलग्गमानं ध. प. अट्ट 2.174; ख. हिचकिचाहट से रहित, हकलाहट से मुक्त रहता हुआ नो पु०, प्र. वि., ए. व. थेरो पुच्छितपुच्छित पहें असज्जमानोव कथेसि विभ. अड. 462. असज्झायकत त्रि.. [अस्वाध्यायकृत] आवृत्ति नहीं किया हुआ, नहीं दुहराया गया, पूर्व में अभ्यास नहीं किया हुआ - ता पु. प्र. वि. ब. व. सज्झायकतापि मन्ता... पगेव असज्झायकता, स० नि० 3 (1).142. असज्झायमल त्रि०, ब० स०, ( स्वाध्याय या पुनः पुनः ) आवृत्ति न किए जाने के कारण अपवित्र या मलिन बन जाने वाला ला पु०, प्र० वि०, ब० व. असज्झायमला मन्ता, ध. प. 241; याकाचि परियत्ति वा सिप्पं वा यस्मा असज्झायन्तरस .... विनस्सति ... तस्मा असज्झायमला मन्ता'ति वृत्तं ध० प० अट्ठ. 2.201. असञ्चरण त्रि., नहीं चलने-फिरने योग्य, व्यवहार में न लाए जाने योग्य णं पु. द्वि. वि. ए. व. तथागतो सन्तं येव मग्गं लुग्गं.. असञ्चरणं सम्पस्समानो उप्पादेसि मि.
प. 207.
असञ्चरणकारण नपुं तत्पु, स. नहीं जा पहुंचने का कारण, सञ्चरण न करने का कारण किं नु खो इमस्स मोरराजस्स पादे पासस्स असञ्चरणकारण न्ति, जा. अट्ठ.
4.298.
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असञ्जात
असञ्चरणकपास पु., कर्म, स., सञ्चरण न करने वाला पाश या बन्धन, पास न जाने वाला बन्धन सत्त वस्ससतानि असञ्चरणकपासो.... जा. अड. 4.299. असञ्चरणभाव पु., कर्म. स. पास नहीं पहुंच पाना, सञ्चरण सो गन्त्वा बोधिसत्तेन अक्कन्तद्वानेपि
न कर सकना
पासस्स असञ्चरणभावं ..... जा. अट्ठ. 2.29.
असञ्चालित त्रि. सं. + √चल के भू० क० कृ० का निषे.
"
[असञ्चलित ]. नहीं हिल-डुल रहा, नहीं कांप रहा, दृढ़तं नपुं. प्र. वि. ए. व. अकम्पितं असञ्चालित सुसण्ठित मि. प. 211. असञ्चारिम त्रि., सञ्चारिम का निषे, नहीं हिलाए डुलाए जाने योग्य, अविचाल्य, दृढ़, दूर तक फेंक कर नहीं चलाए जाने योग्य मेन नपुं. तृ. वि. ए. व. असञ्चारिमेन उपकरणेन मारेतुकामस्स पारा. अड. 2.37. असञ्चारिमुपाय पु.. कर्म. स. असञ्चरणशील (जाल या गड्डा जैसे ) उपाय येन तृ. वि. ए. व. असञ्चारिमुपायेन मारणत्थं परस्स च, विन. वि. 247.
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असञ्चिच्च 1. अ. सं. + √चिन्त के पू. का. कृ. का निषे. [असंचिन्त्य ] सोच-विचार न करके किसी निश्चित अभिप्राय के बिना, चेतना के बिना अनापति असञ्चिच्च..... पाचि. 168; पारा 125; 2. त्रि. पू. का. कृ. का ही अनियमित रूपान्तरण, चेतना से असम्प्रयुक्त, विशेष अभिप्राय न रखने वालाच्चो पु. प्र. वि. ए. व. असञ्चिच्च अहं पारा. 95; असञ्चिच्चोति अवधकचेतनो विरद्धपयोगो हि सो, पारा. अट्ठ. 2.56 कथा स्त्री कथा. के एक खण्ड विशेष का शीर्षक, कथा 477-79. असञ्चेतनिक त्रि., [असञ्चेतनिक ], क. चेतना के बिना या मन में सोचे विचारे बिना ही हो जाने वाला कर्म, एक प्रकार का कर्मविपाक कं नपुं. प्र. वि. ए. व. असञ्चेतनिक, भन्ते, निगण्ठो नाटपुतो नो महासावज्जं पञ्ञपेतीति म. नि. 2.45; ख चेतना के द्वारा सोच कर कर्म न करने वाला / वाली, बिना चेतना के ही कर्म करने वाला / वाली का स्त्री. प्र. वि., ब. व. ता पठमं असञ्चेतनिका हुत्वा कम्मुना न बांसु, ध. प. अड.
"
"
1.128.
असञ्जात त्रि, सं + √जन के भू० क० कृ० का निषे. [असंजात], वह जिसे अभी तक उत्पन्न नहीं किया गया है, अनुत्पन्न, अप्रकटीकृत, अप्रादुर्भूत स्स पु.. ष. वि. ए. असञ्जातस्स मग्गस्स सञ्जनेता, स. नि. 1 (1).221;
व.
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असञ
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असञी असञ्जातस्साति इदं अनुप्पन्नवेवचनमेव, स. नि. अट्ठ ... कम्मं करोन्तानं दुस्सीलानं, जा. अट्ठ. 2.102; - तं स्त्री., 1.244; - तं द्वि. वि., ए. व. - असञ्जातञ्च सजनी, अप. द्वि. वि., ए. व. - मह अयन्ति असतिं असतं. जा. अट्ठ. 2.240; - ता पु.. प्र. वि., ब. व. - ये धम्मा... असञ्जाता 3.467; - तासु स्त्री., सप्त. वि., ब. व. - अच्चन्तसीलासु अनिब्बत्ता, ध. स. 1042; - तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - यं असञ्जतासु, जा. अट्ठ. 5.445; -- ता स्त्री., प्र. वि., ए. व. रूपं अजातं अभूतं असञ्जातं अनिब्बत्तं, विभ. 2.
- मज्जमंसनिरता असञता, जा. अट्ठ. 5.450; - परिक्खार असञ त्रि., ब. स. [असंज्ञ], क संज्ञाहीन, होश-हवाश से त्रि., ब. स., जीवन की आधारभूत आवश्यकताओं (चीवर, रहित, मूर्च्छित, बेहोश -- नं नपुं., प्र. वि., ए. व. - तत्थ । पिण्डपात, निवास एवं औषधि) के विषय में ध्यान न देने असञ्जा असझं करोति, दी. नि. अट्ठ. 2.143; ख. पु./नपुं... वाला अथवा इनके प्रयोग में संयम न बरतने वाला, चीवर अस्तित्व की वह कोटि जिसमें अन्तर्भूत प्राणी संज्ञाहीन रहते आदि के विषय में असंयत - रं पु., वि. वि., ए. व. - हैं, असंज्ञी-भव- ज प्र. वि., ए. व. - एतं सन्तं एतं पणीतं असञतपरिक्खारं भिक्खं आरभ कथेसिध. प. अट्ठ. 2.9; यदिदं असञन्ति , म. नि. 3.18; - ञ पु., प्र. वि., ब. - परिक्खारभिक्खुवत्थु नपुं.. ध. प. अट्ठ. का एक व. - असझे च अरूपिब्रह्मानो च ठपेत्वा .... ध. प. अट्ठ. कथानक, जिसमें चीवर आदि आवश्यक वस्तुओं के प्रयोग 2358; - क त्रि., ब. स. [असंज्ञक], संज्ञाहीन चित्त में असंयत एक भिक्षु की कहानी है, ध. प. अट्ठ. 2.9-10; वाला, असंज्ञीभाव में विद्यमान प्राणी - का पु., प्र. वि., ब. - वचन त्रि., ब. स. [असंयतवचन], बोलने में असंयत, व. - असञ्जका ... अचित्तका पातुभवन्ति, विभ. 491; - बेलगाम बातचीत करने वाला - ना पु., प्र. वि., ब. व. - कथा स्त्री., कथा. के एक खण्ड-विशेष का शीर्षक, जिसमें विकिण्णवाचाति असंयतवचना, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) असंज्ञी भव से सम्बन्धित मत का परीक्षण किया गया है, 1(1).161. कथा. 218-220; - काय पु., कर्म. स. [असंज्ञकाय], असञत्ति स्त्री., सञत्ति का निषे०, तत्पु. स. [असंज्ञप्ति], संज्ञाहीन या चित्तहीन शरीर - यं द्वि. वि., ए. व. - ठीक से जानकारी न देना, असंज्ञापन, सही-सही रूप में अनिन्द्रियबद्धमसञकायं जा. अट्ठ. 7.53; असञकायन्ति नहीं बतलाना - असञ्जत्तिबलाति असञ्जत्तियेव बलं एतेसन्ति अनिन्द्रियबद्ध अचित्तकायञ्च समानं एतं. जा. अट्ठ. 7.55%; असञ्जत्तिबला, अ. नि. अट्ठ. 2.47-48; - बल त्रि., ब. स. - भव पु., तत्पु. स. [असंज्ञीभव], असंज्ञी (संज्ञाहीन, [असंज्ञप्ति], असंज्ञापनरूपी बल से युक्त, वह, जो बातों चित्तरहित) प्राणियों का क्षेत्र - वे सप्त. वि., ए. व. - को ठीक तरह से नहीं बतला सके - ला पु., प्र. वि., ए. असजिनोति असञभवे निब्बत्ते अचित्तकसत्ते दस्सेति, जा. व. - असञ्जत्तिबला अनिज्झत्तिबला अप्पटिनिस्सग्गमन्तिनो, अट्ठ. 1.452; - सत्त पु., कर्म. स. [बौ. सं. असंज्ञिसत्त्व], अ. नि. 1(1).90. संज्ञा से रहित प्राणी, पञ्चम सत्त्वावास वाले अरूपी ब्रह्मा- असञा स्त्री., सजा का निषे, तत्पु. स. [असंज्ञा]. 1. शा. देवों का एक वर्ग - त्ता प्र. वि., ब. व. - असञिनो अ. संज्ञाहीनता, मूर्छा, बेहोशी, संज्ञा से शून्य होना, अज्ञान, वुच्चन्ति ... असञ्जसत्ता नपि सो निरोधसमापन्नो, नपि मोह - ञा प्र. वि., ए. व. - असा सम्मोहो, म. नि. 19; असञसत्तो, महानि. 204; सेय्यथापि देवा असञसत्ता, अ. असा सम्मोहोति निस्सञभावो नामेस सम्मोहद्वानं, म. नि. 3(1).211; - त्तेसु सप्त. वि., ब. व. - असञ्जसत्तेसु नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.12; 2. ला. अ. स्त्री., नौ प्रकार की सा अत्थीति? आमन्ता, कथा. 219.
आकाशीय विद्युतों में से वह बिजली, जो अपनी गर्जना और असञत त्रि., सं. + Vयम के भू. क. कृ. का निषे. तीब्र जगमगाहट से प्राणियों को संज्ञाहीन बना देती है - [असंयत], नियन्त्रणरहित, नियन्त्रण के अधीन न रहने ञा प्र. वि., ए. व. - नवविधा हि असनियो असआ, वाला, असंयमी - तो पु., प्र. वि., ए. व. - परपाणरोधाय विचक्का, ... असा असझं करोति, दी. नि. अट्ठ. 2.143; गिही असञतो, सु. नि. 222; सो लुद्दको गिही - अं द्वि. वि., ए. व. - असझं करोति, यो तस्सा सद्देन, परपाणरोधाय ... असंयतो, सु. नि. अट्ठ. 1.228-229; - ता तेजसा च अज्झोत्थटो, लीन. (दी. नि. टी.) 2.152. ब. व. - ये इध कामेसु असञता जना, सु. नि. 246; - असञी त्रि., सञी का निषे.. तत्पु. स. [असंज्ञिन्], क. तानं पु., ष. वि., ब. व. - सहसा करोन्तानमसञतानं. संज्ञा से रहित, चेतना से रहित, बिना संज्ञा वाला, ख. जा. अट्ठ. 2.101; सहसा करोन्तानमसञतानन्ति सहसा असंज्ञी भव में उत्पन्न प्राणी, ग. संज्ञावेदयित् निरोध की
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असत्तु पिक
समापत्ति को प्राप्त व्यक्ति ञ्ञी पु०, प्र. वि., ए. व. - नोपि असञ्ञी न विभूतसञ्ञी, सु. नि. 880; नोपि असञ्ञीति सञ्ञाविरहितोपि न होति निरोधसमापन्नो वा असञ्ञसत्तो वा, सु. नि. अड. 2.245; महानि० अट्ठ 287 - ञ्ञिनो पु०, प्र. वि., ब. व. ये केचि पाण भूतथि सञ्जिनो वा असज्जिनो अप. 1.90 तुल, असञ्ञ' (ऊपर) गम त्रि ब. स., गर्भ में संज्ञा से रहित रहने वाले, पशु एवं वनस्पति जैसे प्राणी जो निश्चेतन होते हुए भी उत्पादक होते हैं। मापु.. प्र. वि. ब. व. सत्त असज्ञीगढमा दी. नि. 1. 48. सत्त असज्ञीगभाति सालिवीहियवगोधूमकडुवरककुसक सन्धाय वदति दी. नि. अन. 1.135 विलो. सज्ञीगमा: द्रष्ट. आगे भव पु. तत्पु. स. [असंज्ञीभाव], संज्ञा से शून्य ब्रह्मा जैसे प्राणियों का लोक या संज्ञाशून्य सत्वों का लोक वो प्र. वि. ए. व. आजीवकानं अनन्तमानसो ति एवं परिकपितो असज्जीभवो म नि अह (भू.प.) 1 (1).322 बाद पु. तत्पु, स. [असंज्ञीवाद], मृत्यु के उपरान्त संज्ञाहीन आत्मा के अस्तित्व को प्रतिपादित करने वाला (आजीवकों का) सिद्धान्त दो प्र. वि. ए. व. - असजीवादो सञ्ञीवादे आदिम्हि युतानं द्विन्नं चतुक्कानं वसेन वेदितब्बो, दी. नि. अट्ठ. 1.102. असज्ञसत्तुपिक [असंज्ञीसत्त्वोपग]. संज्ञाहीन प्राणियों के भव की अवस्था की ओर ले जाने वाला का स्त्री०, प्र.
वि. ए. व. सआवेदयितनिरोधसमापत्ति असज्ञसतुपिकाति
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कथा. 419; काकथा स्त्री, कथा के एक खण्ड का शीर्षक, कथा. 419-420.
असठ त्रि., सठ का निषे, तत्पु० स० [अशठ], निष्ठावान्, सज्जन, ईमानदार, धोखाधड़ी न करने वाला ठो पु०, प्र० वि. ए. व. असठो अमायो, मि. प. 323; असठो होति अमायावी. अ. नि. 2 (1).61: छेन नपुं. तृ. वि. ए. व.. क्रि. विशे, बिना छल के धोखाधड़ी के बिना परसन्तु नोते असठेन युद्ध. जा. अ. 7.173. असण्ठितत्र संठा के भू. क. कृ. का निषे. [असंस्थित] अप्रतिष्ठित, दृढ़तापूर्वक नहीं स्थित ता पु.. प्र. वि. ब. व.- अरूपेसु असण्ठिता, इतिवु. 46; अरूपेसु असण्ठिताति अरुपरागेन अरूपभवेसु अप्पतिदृहन्ता, इतिवु, अट्ठ. 195; 2. संद के भू. क. कृ. का निषे [ अश्रन्थित ], वह, जो ढीला या शिथिल न हो, सुदृढ़, अशिथिल, - तं नपुं. प्र. वि., ए. व.- अच्छातं असण्ठितं....न परितरसेय्य म. नि. 3271 अज्डात असतितन्ति गोवरज्झत्ते निकन्तिवसेन असण्ठितं
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असत्त
म. नि. अ. (उप.प.) 3.200 - तं पु. द्वि. वि. ए. व. सभाव चिन्तयन्तरस, अकम्पितमसण्ठित चरिया 379; असण्डितन्ति सङ्कोचरहितं चरिया, अट्ठ. 77. असतासम्पजञ्ञ नपुं. असति + असम्पञ्ञ का समा० द्व. स. [ अस्मृत्यसम्प्रजन्य ] स्मृति एवं सम्प्रजन्य का अभाव, चित्त की जागरुकता का अभाव द्वि. वि., ए. व. अयोनिसोमनसिकारो परिपूरो असतासम्पजज्ञ परिपूरेति अ. नि. 3(2).94.
असति' अस (खाना) का वर्त. प्र. पु. ए. व. [ अश्नाति ]. 1. खाता है असती ति असको, क. व्या 643; असतीति आसको, सद्द 3.865; - न्ति ब. व. रमन्तातं असन्ति भक्खन्तीति पि रसो, सद्द 2.585; 2. त्रि०, ब० स० [अस्मृतिक], स्मृति या चित्त की जागरुकता से रहित, भुलक्कड़, अज्ञानी
तियो स्त्री. प्र. वि. ब. व. विनस्सथ तुम्हे वसिलियो चोरियो धुत्तियो असतियो... जा. अड. 5.413 3. स्त्री. सति का निषे, तत्पु० स० [अस्मृति], स्मृति का अभाव, चित्त की जागरुकता का अभाव, स्मृति विप्रमोष, प्रत्युत्पन्नमति न रहना ति प्र. वि. ए. व. अननुस्सति अप्पटिस्सति असति... सम्मुसनता ध. स. 1356; असतीयेव पापियाति
लोकस्मिं पन असतियेव पापिया, असतिकरणयेव हीनं • जा. अ. 2.146; - तिया तृ. / प्र. वि., ए. व., क्रि. वि., बिना सोचे-विचारे अपि चाहं अरसतिया पविडोति, महाव. 390; अस्सतिया भगवन्तं न पुच्छिं, चूळव. 457; पाठा. अस्सतिया,
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असति' अस के वर्त. कृ., सन्त के निषे, असन्त का सप्त वि. ए. व. विद्यमान न रहने पर अभाव में न होने की हालत में असति पुरतो निक्खमनमुखे केन निक्खमेच्या ति. मि. प. 272 पुब्बन्तानुविद्वीन असति. - अपरन्तानुविद्वीन असति स. नि. 2 ( 1 ) 42. असत्त त्रि. सज के भू. क. कृ. का निषे. [ असक्त ], शा. अ. नहीं लिपटा हुआ, नहीं जुड़ा हुआ, ला. अ. कामभोगों में मन का लगाव न रखने वाला, सभी तरह की आसक्तियों से मुक्त तो पु. प्र. वि. ए. व. आकासो अलग्गो असत्तो अप्यतिद्वितो अपलिबुद्धो मि. प. 356: तं पु.. द्वि. वि. ए. व. अकिञ्चनं कामभवे असत्तं, सु. नि. 178; 1065; दुविधे कामे तिविधे चे भवे अलग्गनेन कामभवे असतं. सु. नि. अ. 1.184 त्ता पु. प्र. वि. ब. व.
असता विचरन्ति लोके, सु. नि. 494; तत्व असत्ताति रागादिसहवसेन अलग्गा सु. नि. अड. 2.128.
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...
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असत्तगोदावर
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न
सं नपुं. एवं अज्ञमञ्ञअसदिसं भिक्खुसहस्सं
असत्तगोदावरं अ०, अव्ययी. स० [असप्तगोदावर], वह क्षेत्र, जहां गोदावरी, सात शाखाओं में विभक्त नहीं हुई है सत्तगोदावरं असत्तगोदावर क. व्या. 328; सद्द. 3.759. असत्य नपुं सत्य का निषे, तत्पु, स. [अशस्त्र] शस्त्र का अभाव, बिना शस्त्र के - त्थेन तृ. वि., ए. व. अदण्डेन असत्थेन, दमेसि उत्तमे दमे, अप. 1.355. असत्थाराम / अस्सत्थाराम पु०, एक आराम का नाम महि सप्त. वि. ए. व. पियदस्सी मुनिवरो अस्सत्थारामम्हि निबुतो. बु. व. 15.27. असत्थावचर त्रि.. [अशस्त्रावचर] शस्त्रों का प्रयोग न करने वाला शस्त्रों के प्रति अभिरुचि न रखने वाला रा स्त्री०, प्र. वि., ब.व. ता च खो अदण्डावचरा असत्थावचरा, इति... अकलहो, स. नि. 1 ( 1 ) . 259. असदिस त्रि. ब. स. [ असदृश ]. क. 1. भिन्न असमान, दूसरी तरह का दूसरे से नहीं मिलता-जुलता द्वि. वि., ए. व. मापेसि, ध. प. अ. 1.141 सो पु. प्र. वि., ए. व. सब्बो हि सदिसो होति, नत्थि कामे असादिसो जा. अड. 6.248; क. 2. अद्वितीय, बेजोड़ अनुपम सो पु०, प्र. वि., ए. व. अनुत्तरो असदिसो अपटिभागोति, ध. प. अड. 1.237; असमो... असदिसो अतुलो... मि. प. 302 तेज - त्रि, ब० स० [असदृशतेजस्], अतुलनीय तेज से युक्त - जो पु. प्र. वि. ए. व. असमत्थतेजो असदिसतेजो तव अग्गि न तप्पेय्य, जा. अट्ठ. 7.54; ता स्त्री. भाव [असादृश्य, नपुं. ], अतुलनीयता, अनुपम या बेजोड़ होनाअगेधता ... दुरनुबोधता दुल्लभता असदिसता बुद्धधम्मस्स मि. ए. 257 दान नपुं. कर्म, स. अतुलनीय दान, अनुपम दान ने सप्त वि. ए. व. असदिसदाने पनेस लाभो मत्यक पत्तो, दी. नि. अ. 2.221 दानवत्थु नपुं.. ध. प. अ. की एक कथा, ध. प. अट्ठ. 2.105-108; त्रि.. ब. स. [असदृशरूप] अनुपम स्वरूप वाला, दूसरों से भिन्न विशिष्ट स्वरूप वाला पं पु०, द्वि॰ वि॰, ए. व. अञ्ञेहि पासादेहि असदिसरूपं ... पासाद..., ध. प. अह. 2.74 पो पु. प्र. वि. ए. व. असदिसरूपो नाथो, आरूपं यं चतुविधं आह घ. स. अ. 253 वग्ग पु.. जा. अट्ठ का एक वर्ग, जा. अट्ठ. 2.72-93; वचन त्रि. ब. स., अतुलनीय अर्थ का सूचक, अद्वितीय (अकेला) अर्थ का प्रकाशक नो पु. प्र. वि. ए. व. एकसद्दोहि सङ्घावचनो च होति असदिसवचनो च, सद्द० 1.283;
रूप
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OFF
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असद्धम्म
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संयोग पु तत्पु, स० [असदृशसंयोग] दो असमानों के बीच संयोग या मेल - गे सप्त. वि., ए. व. - असदिससंयोगे चनो उप्पन्ना पुत्ता.. पापुणिस्सन्ति दी. नि. अड. 1.210: ख. पु०, व्य० सं०, एक राजकुमार का नाम तस्स नामग्गहणदिवसे असदिसकुमारो ति नाम अकंसु जा. अड. 2.72; - कुमार पु०, एक राजकुमार, उपरिवत्; जातक नपुं.. एक जातक कथा का शीर्षक: जा० अट्ठ. 2.72-75. असद त्रि. ब. स. [अशब्द] शब्दरहित, कोलाहलरहित, शान्त नीरव कल्लअसदे असदो निस्सदो... सद. 2.437. असद्दहन नपुं., श्रद्धा का अभाव, अश्रद्धा, अविश्वास - नं द्वि. वि., ए. व. रज्ञ असदहनं आरम्भ कथेसि, जा, अङ्ग
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4.45.
असद्धम्म पु. सद्धम्म का निषे, तत्पु. स. [असद्धर्म]. क. मिथ्या- सिद्धान्त, भ्रान्त धारणा, ख. लोभ, द्वेष एवं मोह आदि अकुशल धर्म पापमयी मनोवृत्तियां म्मेहि तृ. वि. ब. व. तत्थ असद्धम्मेहीति असतं धम्मेहि, असन्तेहि वा धम्मेहि, इतिवु, अड. 244 असद्धम्मेहि अभिभूतो परियादिन्नचित्तो
अर्तकिच्छा इतिवु 62 म्मा प्र. वि. ब. व इमे खो भिक्खवे चत्तारो असद्धम्मा, अ. नि. 1 (2) 54 सत्तविधेन पापं सत्त असद्धम्मा, जा. अट्ठ. 3.254; ग. मैथुन-धर्म असद्धम्मो च बसलधम्मो मीळहसुखं पिच सद. 2.408: गामधम्मो असद्धम्मो व्यवायो मेथुनं रति अभि. प. 317म्मं पु.. द्वि. वि. ए. व. तत्थ नाम त्वं मोधपुरिस, यं त्वं असद्धम्मं गामधम्मं... समापज्जिस्ससि, पारा 22; असद्धम्मन्ति असतं नीचजनानं धम्मं पारा अड. 1.170;म्मेन पु.. तृ. वि., ए. व. मातुगामोपि ते असद्धम्मेन निमन्तेन्ति म. नि. 2.121: असद्धम्मेन निमन्तेन्तीति... मेथुनधम्मेन निमन्तेन्ति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.117; पटिसेवन नपु.. [असद्धर्मप्रतिसेवन], मैथुन का सेवन, मैथुनक्रिया में आनन्द - नाय च. वि. ए. व. सायन्हे पनस्सा असद्धम्मपटिसेवनाय चित्तं नमति, स. नि. अ. 3.124 पूरण त्रि.. तत्पु, स.. भ्रान्त धारणाओं या मिथ्या सिद्धान्तो का प्रचारक णा पु.. प्र. वि. ब. क. यथा यथा असद्धम्मपुरणा पूरणादयो, स 1.58; - रत त्रि. तत्पु. स. [ असद्धर्मरत] दुराचार या अकुशल कर्मों के करने में लगा हुआ असमाहित सङ्कयो असद्धम्मरतो मगो. अ. नि. 1 ( 2 ) 27 युत त्रि. दुराचार के साथ जुड़ा हुआ, बुरे आचार-विचार से जुड़ा हुआ अस्थि सद्धम्मसंयुक्त्ता, असद्धम्मयुतापि च उत्त. वि. 438 सज्जत्ति स्त्री. तत्पु. स. मिथ्या या भ्रान्त धर्म की शिक्षा अयञ्च
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असद्धिय/अस्सद्धिय
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असनि
.... पच्चनीकता असद्धम्मसञत्ति अत्तुक्कसना परवम्भना, म. नि. 2.72; - समन्नागत त्रि., तत्पु. स., पापमय आचरण से परिपूर्ण - अस्सद्धम्मसमन्नागतो होति. म. नि. 3.69; अस्सद्धसमन्नागतोति पापधम्मसमन्नागतो, म. नि.. अट्ठ. (उप.प.) 3.55. असद्धिय/अस्सद्धिय त्रि., सद्धिय का निषे. [अश्रद्धेय], अविश्वसनीय, अविश्वासजनक - ये पु.. सप्त. वि., ए. व.. - दुतिये अस्सद्धिये अकम्पनढेन सद्धाबलं. अ. नि. अट्ठ. 2.337. असद्धेय्य त्रि., [अश्रद्धेय], अविश्वसनीय - समुद्दो नाम
असद्धेय्यो अनेकन्तरायो, स. नि. अट्ठ. 3.23. असन 1. पु.. [असन], पीतसाल नाम का वृक्ष - असनो पियके कण्डे मक्खने खिपने सनं, अभि. प. 1004; - ना प्र. वि., ब. व. - उद्दालका सोमरुक्खा, अगरुफल्लिया बहू पुत्तजीवा च ककुधा, असना चेत्थ पुप्फिता. जा. अट्ठ. 7.294; - रुक्ख पु., तिस्सबुद्ध के लिए परिकल्पित बोधिवृक्ष - तस्स भगवतो खेमं नाम नगरं अहोसि ... असनरुक्खो बोधि, जा. अट्ठ. 1.50; 2. नपुं, अस (खाना) से व्यु., क्रि. ना. [अशन], आहार, भोजन, स्वाद लेना, रस चखना - अथासनं, आहारो भोजनं घासो, अभि. प. 465; असनं भत्तपरिभोगो, खादनं पूवादिभक्खणं सद्द. 2.440; एत्थ असनन्ति आहारो, सो हि असीयति भुञ्जीयतीति असनन्ति वच्चति, सद्द. 2.501; पवारितो नाम असनं पायति, पाचि. 113; 3. क. नपुं, अस (फेकना) से व्यु., क्रि. ना., अस्त्र, ऐसा हथियार, जिसका प्रयोग फेंक कर किया जाए, बाण, भाला, बर्छा - नं प्र. वि., ए. व. - बाणो कण्डमुसु द्वीसु खुरप्पो तेजना सनं, अभि. प. 388; - नेन तृ. वि., ए. व. - ... लहुकेन असनेन अप्पकसिरेनेव..... म. नि. 1.116; असनेनाति अन्तो सुसिरं कत्वा ... सल्लहुककण्डेन, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).364; ख. नपुं॰, वह, जिसके द्वारा (कुछ) फेंका जाए या चलाया जाए -- करणे च-नुदति अनेना ति नूदनं ... असन, क. व्या. 643; 4. नपुं, अस (व्याप्त होना) से व्यु., क्रि. ना., व्याप्ति, फैलाव, प्रसारण, अनालस्य -- अनसनन्ति न असनं अविफारिकभावो कायालसियं, लीन. (दी. नि. अठ्ठ.) 3.35; - पदर पु., तत्पु. स., पीतसाल पेड़ की लकड़ी से बनी हुई पट्टी - रं द्वि. वि., ए. व. - चतुरङ्गुलबहलं असनपदरं विनिविज्झति, जा. अट्ट. 2.75; - फलक नपुं., तत्पु. स., उपरिवत् -- कं द्वि. वि., ए. व. - चतुरङ्गुलबहलं असनफलकं विनिविज्झित वट्टतीति, अ. नि.
अट्ठ. 2.126; - बोधिय पु., एक स्थविर का नाम - यो प्र. वि., ए. व. - इत्थं सुदं आयस्मा असनबोधियो थेरो इमा गाथायो अभासित्थाति, अप. 1.110; - रुक्ख पु.. तत्पु. स. [असनवृक्ष], पीतसाल नामक वृक्ष - असनरुक्खो बोधि,
जा. अट्ठ. 1.50. असनि स्त्री., [अशनि], बिजली का ठनका, इन्द्र का वज, चमक और आवाज के साथ आकाश से भूमि पर गिरने वाली आकाशीय विद्युत् - तङ्क्षण व तस्मिं पासाणपिढे असनि पति, जा. अट्ठ. 1.169; - नि द्वि. वि., ए. व. - ... असनिं पातेन्तो विय खन्धे पहरित्वा रथं आदाय अगमासि, जा. अट्ठ. 1.336; - यो प्र. वि., ब. व. - नवविधा हि असनियो ... दी. नि. अट्ठ. 2.143; - या सप्त. वि., ए. व. - ... विज्जुल्लतासु निच्छरन्तीसु असनिया फलन्तिया नेव पस्सेय्य, दी. नि.2.99; असनिया फलन्तियाति नवविधाय असनिया भिज्जमानाय विय महारवं रवन्तिया .... दी. नि. अट्ठ. 2.143; -- अग्गि पु., आकाश से गिर रही बिजली की आग - ... असनिअग्गि वा पतित्वा डहति, ध. प. अट्ठ. 2.40; - घोस पु., तत्पु. स. [अशनिघोष]. बिजली गिरने की आवाज, ठनका, वज्रपात की आवाज - सेन तृ. वि., ए. व. - ... असनिघोसेन घोसिता विय धम्म कथेन्तापि ..., स. नि. अट्ठ. 1.308; - पात पु., तत्पु. स. [अशनिपात]. वज्रपात, आकाश से बिजली का गिरना - ततो अञत्थ पथवियं... मत्थके असनिपातो विय अत्तनो उपरि पतति, पे. व. अट्ठ. 39; -- पातठ्ठान नपुं., तत्पु. स. [अशतिपातस्थान], बिजली के गिरने वाला स्थान, वह स्थान, जहां वजपात हुआ है - नं प्र. वि., ए. व. - असनिपातद्वानं विय महानिखादनेन खतसन्धिमुखं विय च होति, स. नि. अट्ठ. 3.53; - विचक्क नपुं.. तत्पु. स. [अशनिविचक्र], आकाशीय बिजली का झुण्ड या तांता, बिजली का मण्डल या घेरा - क्कं प्र. वि., ए. व. - असनिविचक्कं आगच्छतु ..., असनि विचक्कन्ति खो, .... लाभसक्कारसिलोकस्सेतं अधिवचनं, स. नि. 1(2).208; तं असनिविचक्कं विय आकासे भेरवसई करोन्तं धूमायन्तं पज्जलन्तं ... निपति, स. नि. अट्ठ. 1.284; - वेग पु., तत्पु. स. [अशनिवेग]. बिजली का वेग या बिजली जैसी तेजी - गेन तृ. वि., ए. व. - तेनेवासनिवेगेन तत्थ कालङ्कतो अहं, अप. 1.104; - सद्द पु., तत्पु. स. [अशनिशब्द], बिजली की कड़क, बिजली गिरने की आवाज, ठनका - इंद्वि. वि., ए. व. - ततो अनिवत्तन्ता पुरतो असनिसबं विय सुणिस्सथ, जा. अट्ठ. 4.135.
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असन्त
675
असन्तुलेय्य असन्त त्रि., [अशान्त], शान्ति-रहित, अनुपशान्त, व्याकुल व. - असन्तसन्निवासञ्च वो, भिक्खवे, देसेस्सामि चित्त वाला - न्तेसु पु., सप्त. वि., ब. व. - सन्तो असन्तेसु सन्तसन्निवासञ्च, अ. नि. 1(1).93; एकादसमें उपेक्खको सो, अनुग्गहो उग्गहणन्ति मजे सु. नि. 918. असन्तसन्निवासन्ति असप्पुरिसानं सन्निवासं अ. नि. अट्ठ. 2.50. असन्तक त्रि., सन्तक का निषे०, तत्पु. स. [अनन्तक], असन्तसम्पग्गाहक त्रि., तत्पु. स. [असन्तसंप्रग्राहक], दुष्टअनन्त, वह जिसका कोई अन्त न हो - कं नपुं., प्र. वि., जनों को प्रोत्साहित करने वाला, असज्जन लोगों को ए. व. - सन्तकं वा होति नो असन्तकं, स. नि. 3(2).344. समर्थन करने वाला - का पु., प्र. वि., ब. व. - असन्तजातिक त्रि., ब. स., अविद्यमान प्रकृति वाला/वाली असन्तसम्पग्गाहका विनासं पापुणन्तीति, जा. अट्ठ. 1.486. -- असन्तजातिका ति हि तेसं अत्थो, सद्द. 1.177.
असन्तसम्भावना स्त्री, तत्पु. स., अप्राप्त लोकोत्तर धर्मों के असन्तत्त त्रि., सन्तत्त का निषे. [असंतप्त]. अनुष्णीकृत, अपने पास होने का कथन या दावा - य तृ. वि., ए. व. गर्म नहीं किया हुआ - उदपत्तो अग्गिना असन्तत्तो - यस्मा तं उल्लपित्वा असन्तसम्भावनाय उप्पन्ने पच्चये अनुक्कुधितो अनुस्सदकजातो, अ. नि. 2(1).216.
गण्हाति, पारा. अट्ठ. 2.70; एवं असन्तसम्भावनाय वा असन्तदीपन नपुं, तत्पु. स. [असद्दीपन], जो कुछ विद्यमान कुलदूसककम्मेन वा... न अञस्स वट्टन्ति, पारा, अट्ठ. 2. नहीं है, उसका कथन या उससे युक्त रहने का दावा - ने 246-47; असन्तसम्भावनायाति अत्तनि सप्त. वि., ए. व. - पञ्चेत्थ अङ्गानि असन्तदीपने खु. सि. अविज्जमानउत्तरिमनुस्सधम्मारोचनं सन्धाय वृत्तं, सारत्थ. 4(1.15); असन्तदीपनेति उत्तरिमनस्सधम्मारोचनपाराजिकति टी. 2.370. अत्थो , खु. सि., पु. टी. 78.
असन्तासी त्रि., सन्तासी का निषे. [असंत्रासिन]. नहीं डरने असन्तपग्गह पु.. तत्पु. स. [असन्तप्रगृह], असज्जन या वाला, राग एवं भय से मुक्त - सी पु., प्र. वि., ए. व. - अयोग्य व्यक्ति पर अनुग्रह, अपात्र पर अनुकम्पा, बुरे लोगों अक्कोधनो असन्तासी, अविकत्थी अकुक्कुचो, सु. नि. 856; का समर्थन - ग्गहं द्वि. वि., ए. व. - ... अजातसत्तुस्स असन्तासीति तेन तेन अलाभकेन असन्तसन्तो, सु. नि. रओ असन्तपग्गहं आरब्भ कथेसि, जा. अट्ठ. 1.484. अट्ट, 2.240; निद्वङ्गतो असन्तासी....ध. प. 351; असन्तासीति असन्तभाव पु., तत्पु. स. [अशान्तभाव], शान्ति-रहित अवस्था, अब्भन्तरे रागसंतासादीनं अभावेन असन्तसनको, ध. प. चित्त की अशान्त-अवस्था - पापिच्छता तस्स असन्तभावो, अट्ठ. 2.321. विन. वि. 311; तुल. असन्तता (ऊपर).
असन्तुट्ठ त्रि., [असन्तुष्ट], सन्तोषभाव से रहित, सन्तोष न असन्तसन्त त्रि., सं + Vतस के वर्त. कृ. का निषे. करने वाला, आनन्द अनुभव न करने वाला - 8ो पु., प्र. [असंत्रस्यत्]. संत्रास या भय से मुक्त, भयरहित रहने वि., ए. व. - सेहि दारेहि असन्तुट्ठो, सु. नि. 108; - स्स वाला, नहीं डर रहा - असन्तसं जीवितसङ्घयम्हि, एको चरे पु., ष. वि., ए. व. - असन्तुट्ठस्स, भिक्खवे, अनुप्पन्ना चेव खग्गविसाणकप्पो, सु. नि. 74; असन्तसं जीवितसङ्घयम्हीति अकुसला धम्मा उप्पज्जन्ति, अ. नि. 1(1).15. सो पच्चेकसम्बुद्धो जीवितपरियोसाने असन्तासी अनुत्रासी असन्तुट्ठिता स्त्री., असन्तुट्टि का भाव., असंतोष या लोभ - ... अभीरु ... विहरतीति, चूळनि. 274; - न्तो उपरिवत् - असन्तुट्टिता च कुसलेसु धम्मेसु अप्पटिवानिता च पधानस्मि सीहोव सद्देसु असन्तसन्तो, वातोव जालम्हि असज्जमानो, दी. नि. 3.171; चतुत्थे असन्तुहिताति असन्तुढे पुग्गले... सु. नि. 71; असन्तासीति तेन तेन अलाभकेन असन्तसन्तो, उप्पन्नो असन्तोससङ्घातो लोभो, अ. नि. अट्ठ. 1.61. सु. नि. अट्ठ. 2.240.
असन्तुट्ठिबहुल त्रि., ब. स. [असन्तुष्टिबहुल], अत्यधिक असन्तसनक त्रि., भयमुक्त, संत्रासरहित - असन्तासीति असन्तोष या लोभ से पूर्ण - लो पु., प्र. वि., ए. व. - अब्भन्तरे रागसन्तासादीनं अभावेन असन्तसनको, ध. प. ... वेदबहुलो च असन्तुट्ठिबहुलो च अनिक्खित्तधुरो च ... अट्ठ. 2.321.
पतारेति, अ. नि. 2(2).133; असन्तुट्टिबहुलोति कुसलधम्मेसु असन्तसन्तगाथा स्त्री., सु. नि. की 71वीं गाथा, सु. नि. असन्तुट्ठो, अ. नि. अट्ठ. 3.141. अट्ठ. 1.100.
असन्तुलेय्य त्रि., सं + Vतुल के सं. कृ. का निषे., नहीं असन्तसन्निवास पु., तत्पु. स. [असत्सन्निवास], असज्जन तौले जा सकने योग्य, नहीं खरीदे जाने योग्य - य्यो पु., लोगों का साथ-सङ्ग, दुष्ट लोगों का साथ - सं द्वि. वि., ए. प्र. वि., ए. व. - असन्तुलेय्यो मम सो धनेन, जा. अट्ठ.
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असन्थत
7.176: असन्तुलेप्यो... सत्तविधेन रतनेन सद्धिं न तुलेतब्बोति, तदे..
असन्थत त्रि., सन्धत का निषे [असंस्तृत], शा. अ. नहीं ढका हुआ, नहीं बिछाया या फैलाया हुआ नहीं लपेटा हुआ ताय पु. च. कि. ए. व. मुख अभिनिसीदेन्ति सन्धतस्स असन्थताय, पारा 37; ला. अ. वस्त्र या गलीचे द्वारा नहीं ढका हुआ, खुला हुआ ते पु, सप्त, वि. ए. व. अतीता नवुति कप्पा.. नाभिजानामि निविखत्ते पादे भूम्या असन्धते, अप. 1.327. असन्थम्मनभाव पु.. [असंस्तम्भभाव] शरीर को सख्त या कड़ा नहीं बनाना, शरीर में ऐंठन या जड़ता उत्पन्न न करना, अनम्यता, कड़ापन का अभाव वो प्र. वि., ए. व.
अब्भोकासवासो विय कार्य न सन्धम्भेतीति कायस्स असन्थम्भनभावो पञ्चमो, जा. अट्ठ. 1.13. असन्धव पु.. सन्धव का निषे [असंस्तव], जान-पहचान या घनिष्टता का अभाव, अपरिचय, घनिष्टता या मेल-जोल का न होना वा पु. प्र. वि. ब. व. अपिहा नून 'मयिपि तव पुत्तकेपि अपिहा असन्धवा मज्जे, थेरगा. अड. 2.45: वं नपुं. प्र. वि., ए. व. - अनिकेतमसन्थवं, एवं वे मुनिदस्सनं, सु. नि. 209; सन्धवपटिक्खेपेन च असन्धवं वेदितब्ब, सु. नि. अड. 1.215; सत्तसङ्कारवत्थुकस्स तण्हासन्थवस्स अभावा असन्धवो नाम, तं अनिकेत असन्धर्व को हनिस्सतीति अधिप्पायो, जा. अट्ठ 6.74. असन्धुत संथ के पू. का. कृ. का निषे, [असंस्तुत ]. अपरिचित, अनजान, संसर्ग में नहीं आया हुआ - तं द्वि. वि. ए. व. - असन्धुतं मं चिरसन्धुतेन, निमीनि सामा अधुवं धुवेन जा. अड. 3.53: तत्थ असधुतन्ति अकतसंसग्गं तदे विस्सासी त्रि. [असंस्तुतविश्वासिन्] अपरिचित जनों पर विश्वास करने वाला, अनजान लोगों पर भरोसा रखने वाला असन्धवविस्सासीति अत्तना सद्धि सन्धर्व अकरोन्तेषु विस्सास अनापज्जन्तेसुयेव विस्सासं करोति, 31. f. 31. 3.45. असन्दिद्विपरामासी त्रि, सन्दिद्विपरामासी का निषे. [अस्वदृष्टिपरामर्शिन् ] केवल अपने ही मत को पकड़कर न रहने वाला, मिथ्या-दृष्टि से रहित मयमेत्थ असन्दिद्विपरामासी अनाधानग्गाही सुप्पटिनिस्सग्गी भविस्सामा ति सल्लेखो करणीयो, म. नि. 1.54. असन्दिद्ध त्रि [असंदिग्ध] सन्देहरहित सुस्पष्ट इं नपुं द्वि. वि. ए. व.. क्रि. वि., सुस्पष्ट रूप से, बिना किसी
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असन्निधिकारपरिभोगी
संदेह के असंदिग्रञ्च भणति, अ. नि. 3 (1).38: असन्दिद्धन्ति निस्सन्देहं विगतसंसयं, अ. नि. अट्ठ. 3.216; असन्दिट्ठ वियाकासि, उपतिस्सेन पुच्छितो, अप. 2.129. असन्देह पु. सन्देह का निषे, तत्पु, स. [असन्देह ] निश्वय, सन्देह का अभाव हेन तृ. वि. ए. व. क्रि. वि., बिना सन्देह के तत्थ निस्संसयन्ति असन्देहेन एकन्तेनाति अत्थो, उदा. अट्ठ. 129. असन्दोसधम्म त्रि., ब० स० [अद्वेषधर्मन् ], द्वेष से रहित चित्तवृत्ति से युक्त, द्वेषमुक्त जीवनवृत्ति वालाम्मं नपुं. प्र. वि. ए. व. असन्दोसधम्मं मे चित्तन्ति पञाय चित्तं सुपरिचित होति. अ. नि. 3 ( 1 ) 212. असन्धिता स्त्री असन्धि का भाव [असन्धित्व] सन्धि, जोड़ या मेल-जोल का अभाव ता प्र. वि., ए. व. नाहं असन्धिता पक्खो, न बधिरो असोतता, जा. अट्ठ. 6.19; तत्थ असन्धिताति सन्धीनं अभावेन जा. अड. 6.20. असन्धिमित्ता स्त्री. व्य. सं. सम्राट अशोक की पटरानी
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यच. वि., ए. व. - द्वे घटे अग्गमहेसिया असन्धिमित्ताय, पारा. अट्ठ. 1.31.
असन्धेय्य त्रि. सं + √धा के सं० कृ० का निषे. [असन्धेय]. पुनः एक साथ न जोड़ने योग्य पुनः न जोड़ सकने योग्य •य्यो पु. प्र. वि. ए. व. असन्धेय्योव सो जेथ्यो, देवा भिन्नसिला विय, विन. वि. 242.
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असन्नत त्रि, सं. + √नम के भू. क. कृ. का निषे. [ असन्नत], शा. अ. नहीं झुका हुआ, ला. अ. सम्मान व्यक्त न करने वाला, उद्दण्ड ता पु०, प्र. वि., ब.व. मानिनो ब्राह्मणा वापि गुरूसूपि असन्नता, सद्धम्मो 417. असन्निद्वानचरण नपुं. कर्म. स. अनियमित भिक्षाटनणं द्वि. वि. ए. व. अनवद्वितचारिकन्ति असन्निद्वानचरणं महानि, अड. 316. असन्निधिकत त्रि. निषे तत्पु, स. [असन्निधिकृत ] सञ्चय न किया हुआ, जुटाकर या बटोर कर न रखा गया - तेन नपुं०, तृ. वि., ए. व., क्रि. वि., सञ्चित न किए जाने से असन्निधिकतेन अत्थतं होति कथिनं, महाव. 332. असन्निधिकारक त्रि. निषे, तत्पु० स० [असन्निधिकारक], जोड़-बटोर कर या संग्रह करके न रखने वाला प्र. वि., ब. व. ये हि निक्खित्तजातरूपरजता असन्निधिकारकाव हुत्वा केवले... अहेसु सु. नि. अड्ड. 2.45. असन्निधिकारपरिभोगी त्रि. चीजों का संग्रह करके भोग न करने वाला सञ्चित भोगसाधनों का उपभोग न करने
का पु०,
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असन्निधिभक्ख
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वाला - गिना पु., तृ. वि., ए. व. - योगिना योगावचरेन
असन्निधिकारपरिभोगिना भवितब्बं मि. प. 372. असन्निधिभक्ख त्रि., संग्रह न करके भोग करने वाला - क्खो पु., प्र. वि., ए. व. - सीहो असन्निधिभक्खो, मि. प. 372. असन्निपात पु., सन्निपात का निषे., तत्पु. स. [असन्निपात]. एक साथ इकट्ठा न होना, संपर्क, संगम या मेल-जोल का न होना - तो प्र. वि., ए. व. - ततो एतस्सापि गेहद्वारा ब्राह्मणानं असन्निपातो भविस्सति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.293. असपत्त पु./नपुं., ब. स. [असपत्न], वैरी-रहित, शत्रु- रहित, बाधा या विरोध रहित - त्ता पु., प्र. वि., ब. व. - अवेरा अदण्डा असपत्ता अब्यापज्जा विहरेमु अवेरिनो ति .... दी. नि. 2.203; असपत्ताति अपच्चत्थिका, दी. नि. अट्ठ. 2.278; - त्तं नपुं., द्वि. वि., ए. व. - असपत्तन्ति विगतपच्चत्थिक, सु. नि. अट्ठ. 1.166. असपत्ति/असपत्ती स्त्री., विशे. [असपत्नीका], सौत-रहित, बिना-सौतों वाली - त्ति/त्ती प्र. वि., ए. व. - असपत्ति अगारं अज्झावसन्ती पुत्तवती अस्सन्ति, स. नि. 2(2).243; असपत्ती हुत्वा एकिकाव घरे वसेय्यन्ति एवमस्सा चित्तं
अभिनिविसतीति असपत्तीभिनिवेसा, अ. नि. अट्ठ. 3.122. असपत्तीभिनिवेसा स्त्री., ब. स., सौत-रहित होने की प्रबल इच्छा से जुड़ी हुई नारी - सा प्र. वि., ए. व. - इत्थी ... पुरिसाधिप्पाया... असपत्तीभिनिवेसा इस्सरियपरियोसानाति, अ. नि. 2(2).76; असपत्ती हुत्वा एकिकाव घरे वसेय्यन्ति एवमस्सा चित्तं अभिनिविसतीति असपत्तीभिनिवेसा, अ. नि. अट्ठ. 3.122. असप्पथ पु., कर्म. स. [असत्पथ], अनुचित मार्ग, गलत रास्ता - थं द्वि. वि., ए. व. - तस्मा असप्पथं अनोतरित्वा भो पुरिसा इति वचनेन दूरहस्स च अदूरद्वस्स च पुरिसस्सालपनं भवति, सद्द. 1.91. असप्पाय त्रि., सप्पाय का निषे., व्यु. संदिग्ध [बौ. सं. असाम्प्रेय], विषम, अकुशल, अनुपयुक्त, अपथ्यकर (भोजन आदि के रूप में) अहितकर, अवृद्धिकर, अस्वस्थता लाने वाला - यो पु., प्र. वि., ए. व. - अयं असप्पायो, विसुद्धि. 1.124; - यानि नपुं., वि. वि., ब. व. - मा ते असप्पायानि भोजनानि भुजतो वणो अस्सावी अस्स, म. नि. 3.42; असप्पायानीति अवडिकरानि आरम्मणानि, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.36; - यं नपुं, द्वि. वि., ए. व. - अलुद्धो हि
असप्पुरिस लोभनीयम्पि असप्पायं न सेवति, तेन खो अरोगो होति, ध. स. अट्ठ, 173; अहितन्ति यं एतं तव कटुकभण्डसवातं पिप्फलि, एतं मय्ह अहितं असप्पायन्ति, जा. अट्ठ. 3.74; गारव्हं, आवुसो, धम्म आपज्जि असप्पायं पाटिदेसनीयं, पाचि. 232; - कारी त्रि., [बौ. सं. असाम्प्रेयकारिन्], अपथ्यकारी या हानिकारक भोजन लेने वाला - री पु., प्र. वि., ए. व. - असप्पायकारी होति, महाव. 394; - किरिया स्त्री., तत्पु. स. [बौ. सं. असाम्प्रेयक्रिया], स्वास्थ्यलाभ के लिए अहितकर उपचार, अस्वास्थ्यकर जीवनवृत्ति - या प्र. वि., ए. व. - असप्पायकिरिया आरोग्यस्स परिपन्थो, अ.नि. 3(2).112. असप्पुरिस त्रि., कर्म. स. [असत्पुरुष], असज्जन पुरुष, निम्न श्रेणी का पुरुष, दुर्जन, अनार्य - सो पु.. प्र. वि., ए. व. - जानेय्य ..., असप्पुरिसो असप्पुरिसं- असप्पुरिसो अयं भवन्ति , म. नि. 3.69; - स्स पु., ष. वि., ए. व. - खम देव असप्पुरिसस्स...., जा. अट्ठ. 4.38; एतस्स असप्पुरिसस्स खमथाति अत्थो, तदे.; - सा पु., प्र. वि., ब. व. - एते असप्पुरिसा लोके. ..., जा. अट्ठ. 5.229; - कम्मन्त त्रि., ब. स., असज्जन जैसा काम करने वाला, दुष्टजनों द्वारा किए जाने वाले अनुचित कर्मों को करने वाला - तो पु., प्र. वि., ए. व. - असप्पुरिसभत्ति होति.... असप्पुरिसकम्मन्तो होति असप्पुरिसदिट्टि होति, असप्पुरिसदानं देति, म. नि. 3.69; - चिन्ती त्रि., असज्जनों जैसा विचार रखने वाला - न्ती पु..
प्र. वि., ए. व. - असप्पुरिसो... असप्परिसचिन्ती होति ...., म. नि. 3.69; - तर त्रि., तुल. विशे. [असत्पुरुषतर], दूसरे दुर्जनों से बढ़-चढ़ कर दुष्ट - रो पु., प्र. वि., ए. व. - अयं वुच्चति, भिक्खवे, असप्परिसेन असप्पुरिसतरो, अ. नि. 1(2).247; - दान नपुं., तत्पु. स. [असत्पुरुषदान], असज्जन की तरह दान, असज्जन द्वारा किया गया दान - असप्पुरिसो, ... असप्पुरिसदिट्टि होति, असप्पुरिसदानं देति, म. नि. 3.69; - दिट्ठि त्रि., ब. स. [असत्पुरुषदृष्टि], दुष्ट या अनार्य पुरुष द्वारा गृहीत मिथ्या-दृष्टि से युक्त - ट्ठि पु., प्र. वि., ए. व. - असप्पुरिसो ... असप्पुरिसदिष्टि होति .... म. नि. 3.69; - धम्म क. पु., तत्पु. स. [असत्पुरुषधर्म], असज्जन का धर्म या अनैतिक व्यवहार - म्मो प्र. वि., ए. व. - कतमो च, भिक्खवे, असप्पुरिसधम्मो, म. नि. 3.85; ख. त्रि., ब. स., अनार्यजनों के स्वभाव वाला - म्मो पु., प्र. वि., ए. व. - असप्पुरिसधम्मो सो. .... जा. अट्ठ, 5.221; - भत्ति त्रि., ब. स. [असत्पुरुषभक्तिक],
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असबल
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असम
दुष्ट लोगों के प्रति भक्तिभाव रखने वाला - त्ति पु., प्र. वि., ए. व. - असप्पुरिसो असप्पुरिसभत्ति होति, म. नि. 3. 69; - मन्ती त्रि., [असत्पुरुषमन्त्रिन्], असज्जन की तरह मन्त्रणा या परामर्श देने वाला - न्ती पु., प्र. वि., ए. व. - असप्पुरिसो ... असप्पुरिसमन्ती होति, म. नि. 3.69; - वाच त्रि., ब. स. [असत्पुरुषवाक्], असज्जन के समान वाणी बोलने वाला -- चो पु., प्र. वि., ए. व. -- असप्पुरिसो ... असप्पुरिसवाचो होति, म. नि. 3.69; - संसग्ग पु., तत्पु. स. [असत्पुरुषसंसर्ग], असज्जन लोगों का साथ या संगति, दुष्ट लोगों से मेल-जोल - ग्गो प्र. वि., ए. व. - असप्पुरिससंसग्गो, दुक्खन्तो कटुकुद्रयो ति, जा. अट्ठ. 5.229; - संसेव पु., तत्पु. स. [असत्पुरुषसंसेवन, नपुं.]. असज्जनों के साथ मेल-जोल - वो प्र. वि., ए. व. - असप्पुरिससंसेवो परिपूरो असद्धम्मस्सवनं परिपूरेति, अ. नि. 3(2).94; -- सम्भत्ति त्रि., ब. स. [असत्पुरुषसंभक्तिक], असज्जनों का साथ करने वाला - नो पु., प्र. वि., ब. व. - ..., असप्पुरिससम्भत्तिनो, ..., भिक्खवे, निगण्ठा, अ. नि. 3(2).124. असबल त्रि., सबल का निषे., तत्पु. स. [अशबल], धब्बों से रहित, अमिश्रित, विशुद्ध, खण्डों या भागों में अविभक्त, अखण्ड - लेहि नपुं., तृ. वि., ब. व. - अरियकन्तेहि सीलेहि समन्नागतो होति अखण्डेहि अच्छिद्देहि असबलेहि अकम्मासेहि... समाधिसंवत्तनिकेहि, दी. नि. 2.74; स. नि. 2(2).265. असब्बकालिकत्त नपुं, भाव. [असार्वकालिकत्व], सभी कालों से सम्बद्ध न रहना, सदा विद्यमान न रहना - त्ता प. वि., ए. व. - असब्बकालिकत्ता पन न गहिता, अ. नि. अट्ठ. 3.272. असब्बञ्जू त्रि., सब्बभू का निषे०, तत्पु. स. [असर्वज्ञ], सर्वज्ञ न होना, सभी कुछ के ज्ञान की शक्ति से रहित होना - पु., प्र. वि., ए. व. - तेन हि, भन्ते नागसेन, बुद्धो असब्बञ्जूति, मि. प. 112; - क्षुता स्त्री., भाव. [असर्वज्ञता], सर्वज्ञ न होना, सर्वज्ञता का अभाव - य तृ. वि., ए. व. - उदाहु असब्बञ्जताय ओसक्कितं, मि. प. 218. असब्बत्थगामी त्रि., सब्बत्थगामी का निषे०, तत्पु. स. [असर्वत्रगामिन्], सदा एवं सर्वत्र लागू न होने वाला, एक से अधिक सन्दर्भो में लागू न होने वाला/वाली-मिं स्त्री., द्वि. वि., ए. व. - असब्बत्थगामि वाचं, बालो सब्बत्थ भासति, जा. अट्ठ. 1.429; या वाचा ओपम्मवसेन सब्बत्थ न
गच्छति तं असब्बत्थगामि वाचं बालो दन्धपुग्गलो सब्बत्थ भासति, जा. अट्ठ. 1.430. असब्बधातुक त्रि., सब्बधातुक का निषे., व्याकरण में प्रयुक्त पारिभाषिक शब्द [असार्वधातुक], आख्यात विभक्तियों में वर्तमान, अनुज्ञा, विधि एवं अनद्यतन भूत की चार विभक्तियां 'सब्बधातुक' कहलाती हैं, इनके अतिरिक्त शेष विभक्त्यिां असब्बधातुक कही गई हैं, सार्वधातुक से भिन्न (आख्यातविभक्तियां) - के पु., सप्त. वि., ए. व. - असरसेव धातुस्स भू होति वा असब्बधातुके परे, क. व्या. 509; सद्द. 3.834. असब्बनाम नपुं., सब्बनाम का निषे., तत्पु. स., व्याकरण में
ही प्रयुक्त [असर्वनाम], सब्ब जैसे सर्वनामों से भिन्न (शब्द) - मेसु सप्त. वि., ब. व. - इदानि असब्बनामेसु सङ्गहो वुच्चते, सद्द. 1.271; - त्त नपुं., भाव. [असर्वनाममत्व], सर्वनाम न होना - त्ता प. वि., ए. व. - असब्बनामत्ता च सब्बथा पिपरिसकचित्तनयेन एव योजेतब्बो, सद्द. 1.271. असब्बनामिक त्रि., [असार्वनामिक], सर्वनाम शब्दों के अन्तर्गत न आने वाला (शब्द) - केसु पु., सप्त. वि., ब. व. -
सब्बनामेसु गम्हन्ति असब्बनामिकेसु पि, सद्द. 1.271. असब्बप्पयोग पु., सब्बप्पयोग का निषे. [असर्वप्रयोग], सर्वत्र न होने वाला प्रयोग, आंशिक प्रयोग, बचा हुआ या अवशिष्ट विषयों पर प्रयोग - गे सप्त. वि., ए. व. - सिस असब्बप्पयोगे, सद्द. 2.567. असब्बसङ्गाहकवचन नपुं., सब्बसङ्गाहकवचन का निषे०, तत्पु.
स. [असर्वसंग्राहकवचन], सभी का संग्रह न करने वाला वचन, सीमित आशय वाला वचन - नं प्र. वि., ए. व. -
असब्बसङ्गाहकवचनं इदं गावीसद्देन इत्थिया येव गहेतब्बत्ता तिचे ..., सद्द. 1.211. असब्बसाधारण त्रि., सब्बसाधारण का निषे. [असर्वसाधारण], असामान्य, विशिष्ट - णं नपुं., प्र. वि., ए. व. - ... छन्नवुतिया वचनेहि सब्बसाधारण असब्बसाधारणञ्च पदमालानयं ब्रूम, सद्द, 2.318. असब्भ त्रि., सब्भ का निषे., तत्पु. स. [असभ्य], सभा के बीच नहीं करने या नहीं बोलने योग्य, शिष्ट या भद्रजनों के लिए अनुपयुक्त, अभव्य, अकुशल - डमो पु., प्र. वि., ए. व. -- मातुगामो नामेस असब्भो अकतञ्जू जा. अट्ठ. 3.465; - डमा प. वि., ए. व. - ओवदेय्यानुसासेय्य, असभा च निवारये, ध. प. 77; असभा चाति अकुसलधम्मा च निवारेय्य,
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असब्मि 679
असमत्त ध, प. अट्ठ. 1.311; - माहि स्त्री., तृ. वि., ब. व. - ... -- का पु., प्र. वि., ए. व. - ... अगारवा अप्पतिस्सा असमाहि फरुसाहि वाचाहि अक्कोसन्ति परिभासन्ति, .... असभागवुत्तिका विहरन्ति, चूळव. 290. उदा. 82; तत्थ असब्भाहीति असभायोग्गाहि सभायं असभायोग्ग त्रि., सभायोग्ग का निषे., तत्पु. स. [असभायोग्य]. साधुजनसमूहे वत्तुं अयुत्ताहि, दुवल्लाहीति अत्थो, उदा. सभा में न कहे जाने योग्य, सभा में सम्मिलित न होने अट्ठ. 89.
योग्य, असभ्य - ग्गाहि स्त्री., तृ. वि., ब. व. - तत्थ असब्मि व्यु. संदिग्ध क. असन्त का पु., तृ. वि., ब. व. असभाहीति असभायोग्गाहि सभायं साधुजनसमूहे वत्तुं [असद्भिः ], असज्जनों द्वारा - नासभि बहु सङ्गमो, जा. अयुत्ताहि, उदा. अट्ठ. 89. अट्ठ. 5.478; नासब्भीति असप्पुरिसेहि पन ..., तदे.; असब्भि असम' त्रि., [असभ्], क. ऊबड़-खाबड़, असमतल, कहीं हेतं..., उपञातं यदिदं अकतञ्जता अकतवेदिता, अ. नि. ऊंचा तो कहीं निचला - मं पु.. वि. वि., ए. व. - अन्धोव 1(1).78; यो पन अम्हहि पदमालाय सब्भीति अयं सद्दो विसमं मग्गं, न जानाति समासमं, जा. अट्ठ. 4.170; ख. ततिया-पञ्चमीबहुवचनवसेन योजितो, सो च खो सन्त इति अनूठा, बेजोड़, अनुपम, अतुलनीय, भिन्न - मो पु.. प्र. वि., अकारन्तपकतिवसेन, सद्द. 1.174-75; ख. त्रि., संभवतः ए. व. - यं तथागतो बोधिसत्तो समानो असमो लोकेन असब्भ/असभिय का परिवर्तित रूप [असभ्य], अशिष्ट, ...... मि. प. 125; मेत्ताय असमो होहि बु. वं. 2.157; - मा अनुत्तम, असत्पुरुष - अञत्थ पन सभी ति ब. व. - असमा उभोदूरविहाखुत्तिनो .... सु. नि. 222; - मं इकारन्तपकतिवसेन योजेतब्बो, तत्थ हि सभी ति सप्पुरिसो नपुं.. प्र. वि., ए. व. - तस्सापि असमं सील, बु. वं. 10.2; निब्बानञ्च सुन्दराधिवचनं वा, .... सद्द. 1.175 - ब्मि पु., तत्थ असमं सीलन्ति अजेसं सीलेन असदिसंबु. वं. अट्ठ. संबो. ए. व. - बहुम्पेतं असभि जातवेद, जा. अट्ठ. 1.471; 204; - ता स्त्री., भाव. [असमता], विषमता, अन्तर, प्रभेद असभीति असप्पुरिस, असाधुजातिक, जा. अट्ठ. 1.472; - - तं द्वि. वि., ए. व. - अजेहि धम्मेहि असमतं वत्वा इदानि ब्मं स्त्री.. वि. वि., ए. व. - ... वाचं अभासि फरुसं असमें तेसं सत्तानं ..., खु. पा. अट्ठ. 1.143. पे. व. 460; - कारण नपुं.. कर्म. स., अनुपयुक्त कारण असम पु., ब. व. में प्रयुक्त होने पर, क, देवताओं का विशेष - णं प्र. वि., ए. व. - असब्मिकारणं, यं पुत्तदार याचन्ते वर्ग - मा प्र. वि., ब. व. - वेण्ड्दे वा सहलि च, असमा च अत्तानं ददेय्य, मि. प. 260; - जातिक त्रि., ब. स. दुवे यमा, दी. नि. 2.191; असमा च दुवे यमाति असमदेवता [असभ्यजातिक], अशिष्ट स्वभाव वाला - को पु., प्र. वि., च द्वे च यमका देवा, दी. नि. अट्ठ. 2.254; ख. पु., प्र. वि., ए. व. - सो नरदेवयक्खाबाधो असभिजातिको लामको, ए. व. में प्रयुक्त होने पर, असम देव-वर्ग का एक देव - . जा. अट्ठ. 6.217; - रूप त्रि.. ब. स. [असभ्यरूप], अशिष्ट ... असमो च सहलि च नीको च अकोटको वेगभरि च या अज्ञानी प्रकृति वाला - पो पु.. प्र. वि., ए. व. - ...... स. नि. 1(1).80. अनरियरूपो पुरिसो जनिन्द, असम्मोदको थद्धो असभिरूपो, असम पु.. एक चक्रवर्ती राजा - मो प्र. वि., ए. व. - इतो जा. अट्ठ. 6.241; 217; तत्थ असभिरूपोति तेसहिमे कप्पे, असमो नाम खत्तियो, सत्तरतनसम्पन्नो, अपण्डितजातिको, तदे.; - वाद पु., तत्पु. स. [असभ्यवाद]. चक्कवत्ती महब्बलो, अप. 1.249. अशिष्ट जनों या अज्ञानी लोगों का सिद्धान्त, अनुपयुक्त असम पु., सोभित बुद्ध का अग्रश्रावक या अग्रसेवक - मो सिद्धान्त - दं द्वि. वि, ए. व. - कितवोपमं आहरित्वा उपरिवत् - भिय्यो चेव असमो च, अहेसु अग्गुपट्ठका, बु. वं. नानप्पकारक असभिवादं वदमाना वाचाय घट्टयिंस. स. नि. 10.23. अट्ठ. 1.60.
असमत्त त्रि., सं. + आप के भू, क. कृ. का निषे. असमाप्त]. असभाग त्रि., ब. स. [असभाग], असमान, असदृश, भिन्न समाप्त नहीं किया गया, पूरा न किया गया, आधा अधूरा, प्रकृति का, एक ही श्रेणी के अन्दर न आने वाला - गाय अपूर्ण - त्ता पु., प्र. वि., ब. व. - ... अकेवली ते, असमत्ता स्त्री., तृ. वि., ए. व. - ततियस्स पठमे असभागवत्तिकोति ते, महानि. 220; - त्ते पु., द्वि. वि., ब. व. - ... ते, भगवा असभागाय विसदिसाय जीवितवुत्तिया समन्नागतो, अ. नि. असमत्ते ओवदति, यथा पुण्णञ्च गोवतिक अचेलञ्च अट्ठ. 3.6-7; - दुत्तिक त्रि., ब. स. [असभागवृत्तिक], कुक्कुरवतिक नेत्ति. 81; असमत्तेति कम्मे असम्पुण्णे, ते आपस में प्रेमभाव या शिष्टाचार-परायणता न रखने वाला असम्पुण्णे वा, नेत्ति. अट्ठ. 289.
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असमत्थ
680
असमवेक्खित्वा
असमत्थ त्रि, समत्थ का निषे, तत्पु. स. [असमर्थ], अक्षम, सामर्थ्य से रहित - त्थो पु., प्र. वि., ए. व. - मुट्ठस्सति उपायापरिच्चागे अनुपायापरिग्गहे च असमत्थो होति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).254; यथा बलिबद्दस्स युगनङ्गलादीनि वहितुं असमत्थो एसोति.... ध. प. अट्ठ. 2.70; - ता स्त्री., भाव. [असमर्थता], अक्षमता, सामर्थ्य का अभाव - तं द्वि. वि., ए. व. - एतमत्थं विदित्वाति एतं ... केवलं तरितुं असमत्थतं ..., उदा. अट्ठ. 343; - पञ त्रि., ब. स. [असमर्थप्रज्ञ], क्षमता से रहित प्रज्ञा वाला, अविकसित बुद्धि वाला - नं पुद्वि. वि., ए. व. - दहरि कुमारिं असमत्थपञ्ज यं तानयिं आतिकुला सुगत्ते, जा. अट्ठ. 4.32, तत्थ असमत्थपञ्जन्ति कुटुम्ब विचारेतु अप्पटिबलपञ्ज
अतितरुणिजेव समानं तदे... असमधुर त्रि., निषे., ब. स. [असमधुर], अनुपम भार को ढोने वाला, दूसरों द्वारा नहीं ढोए जा सकने योग्य भार को ढोने वाला - रो पु., प्र. वि., ए. व. - तथागतो नाम असमधुरो, तथागतेन वुळ्हधुरं असो वहितुं समत्थो नाम नत्थि , जा. अट्ठ. 1.192; - रं पु., द्वि. वि., ए. व. - एवं असमधुरं पण्डितं नाहं दकरक्खस्स दस्सामीति, जा. अट्ठ. 6.309; - स्स पु., ष. वि., ए. व. - सोहं न सोस्सं
असमधुरस्स धम्म, सु. नि. 699. असमनुपस्सनलक्खण त्रि., ब. व. [असमानुपश्यनलक्षण]. गहराई या सूक्ष्मता के साथ अनुपश्यना न किए जाने के स्वभाव वाला, वह, जिसने सूक्ष्मता के साथ अनुपश्यना नहीं की है - क्खणा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - सङ्घतलक्खणानं धम्मानं असमनुपस्सनलक्खणा निच्चसआ, नेत्ति. 25. असमन्नागत त्रि., समन्नागत का निषे. [असमन्वागत], पूरी तरह से अपने पास न रखने वाला, (से) रहित - तो पु., प्र. वि., ए. व. - अनुलोमिकाय खन्तिया असमन्नागतो सम्मत्तनियामं ओक्कमिस्सती ति नेतं ठानं विज्जति, अ. नि. 2(2).142. असमन्नाहार त्रि., ब. स. [असमन्वाहार], शा. अ. एक साथ नहीं लाना, ला. अ. चित्त की एकाग्रता का अभाव, एकाग्रता के साथ अनुचिन्तन का अभाव - तो प. वि., ए. व. - असमन्नाहारतोति पठवीधातु चेत्थ अहं पठवीधातूति वा... न जानाति, विसुद्धि. 1.360; - ता स्त्री., भाव., सूक्ष्म अनुचिन्तन के अभाव की दशा - ... एते धम्माति हेट्ठा धातूनं असमन्नाहारता दस्सिता एव .... विसुद्धि. महाटी. 1.425.
असमपेक्खण नपुं., निषे०, तत्पु. स. [असम्प्रेक्षण]. संप्रेक्षण
का अभाव, सूक्ष्मता के साथ या समभाव के साथ धर्मों को चित्त द्वारा ग्रहण न करना - णा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - रूपे खो, ... असमपेक्खणा, वेदनासमुदये, .... स. नि. 2(1).260; न समं पेक्खतीति असमपेक्खणा, ध. स. अट्ठ. 294; - ने सप्त. वि., ए. व. - असमपेक्खने मोहो उप्पज्जति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).265; पाठा. असमपेक्खन, असमय पु., समय का निषे., तत्पु. स. [असमय]. अनुपयुक्त
समय, अनुपयुक्त काल - यो प्र. वि., ए. व. - अकालो .... भगवन्तं दस्सनाय.... मनोभावनियानम्पि भिक्खूनं असमयो दस्सनाय म. नि. 2.224; - या ब. व. - पश्चिमे भिक्खवे असमया पधानाय, अ. नि. 2(1).61; - येन तृ. वि., ए. व. - ... असमयेन भुत्तं अनोजवन्तं होति, अ. नि. 2(1),240; - प्पत्त त्रि., समयप्पत्त का निषे., तत्पु. स. [असमयप्राप्त], अपने निर्धारित समय को न पा सकने वाला, निर्धारित जीवनावधि तक न पहुंचने वाला - त्तो पु., प्र. वि., ए. व. - वातेन पटिपीळितो सो वलाहको असमयप्पत्तो येव विगतोति. मि. प. 280. असमयविमुत्त त्रि., तत्पु. स., हेतु-प्रत्ययों के बिना ही विमुक्ति को पाने वाला अर्हत्, सुनिश्चित विमुक्ति से विमुक्त, पूर्णरूप से निर्वाण को प्राप्त अर्हत् - त्तो पु., प्र. वि., ए. व. - भिक्खु असमयविमुत्तो करणीयं अत्तनो न समनुपस्सन्ति कतस्स वा पतिचयं, अ. नि. 3(2).303; असमयविमुत्तो ति असमयविमुत्तिया विमुत्तो खीणासवो, अ. नि. अट्ठ. 3.343. असमयविमुत्ति स्त्री., कर्म. स., सुनिश्चित विमुक्ति, अर्हत् द्वारा प्राप्त विमुक्ति - या प्र. वि., ए. व. - असमयविमोक्खं आराधेति, अट्ठानमेतं. ... यं सो भिक्खु ताय असमयविमुत्तिया परिहायेथ म. नि. 1.260. असमयविमोक्ख पु., कर्म. स., चार आर्य-मार्ग, श्रमणजीवन के चार फल एवं निर्वाण - क्खं द्वि. वि., ए. व. - असमयविमोक्खं आराधेतीति, कतमो असमयविमोक्खो? चत्तारो च अरियमग्गा, .... म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).130. - क्खो प्र. वि., ए. व. - चतारि च सामञ्जफलानि, निब्बानञ्च,
अयं असमयविमोक्खो ति, पटि. म. 226; असमवेक्खित्वा सं. + अव + (इक्ख के भू. क. कृ. का निषे. [असमवेक्ष्य], अच्छी तरह से अचिन्तित या अविचारित, ठीक से सोच-विचार न कर - असमवेक्खित्वा पारिमं तीर म. नि. 1.290.
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असमसम
681
असमान
असमसम त्रि., ब. स., अनुपम, बेजोड़, अतुलनीय, अनुपमेय बुद्धों जैसा, वह, जिसके जैसा कोई और न हो - मो पु.. प्र. वि., ए. व. - ... अप्पटिपुग्गलो असमो असमसमो द्विपदानं अग्गो ति, अ. नि. 1(1).29; असमसमोति असमा वुच्चन्ति अतीतानागता सब्ब बुद्धा, तेहि असमेहि समोति असमसमो, अ. नि. अट्ठ. 1.94; - मं पु., द्वि. वि., ए. व. - तदापाहं असमसम, ससई, सपरिज्जनं, बु. वं. 11.14. असमा स्त्री., 1. पदुम बुद्ध की माता - मा प्र. वि., ए. व. - चम्पकं नाम नगरं, असमो नाम खत्तियो, असमा नाम जनिका, पद्मस्स महेसिनो, बु. वं. 10.16: 2. पदुमुत्तर बुद्ध की दो अग्रशिष्याओं में से एक - मा प्र. वि., ए. व. -
अमिता च असमा च, अहेसं अग्गसाविका, बु. वं. 12.25. असमादानचार पु., भिक्षु के लिए निर्धारित तीन चीवरों को बिना लिए ही भिक्षाटन के लिए विचरना - रो प्र. वि., ए. व. - ... अनामन्तचारो, असमादानचारो, गणभोजनं, ..., महाव. 331; असमादानचारोति तिचीवरं असमादाय चरणं, चीवरविष्पवासो कप्पिस्सतीति अत्थो, महाव. अट्ठ. 366. असमाधि स्त्री., समाधि का निषे०, तत्पु. स. [असमाधि]. चित्त में समभाव एवं एकाग्रता का अभाव - धि प्र. वि., ए. व. - इति खो, भिक्खवे, समाधि मग्गो, असमाधि कम्मग्गो ति, अ. नि. 2(2),123; - संवत्तनिक त्रि., समाधि या चित्तसमता एवं चित्त की एकाग्रता की ओर न ले जाने वाला/वाली - का स्त्री, प्र. वि., ए. व. - या सा वाचा अण्डका ... असमाधिसंवत्तनिका, म. नि. 1.360; असमाधिसंवत्तनिकाति अप्पनासमाधिस्स वा उपचारसमाधिस्स वा असंवत्तनिका, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).227; - सुख नपुं.. निषे., तत्पु. स., समाधि में अनुभूत सुख से भिन्न दूसरा सुख- खं प्र. वि., ए. व. - द्वेमानि, भिक्खवे, सुखानि, कतमानि वे?
समाधिसुखञ्च असमाधिसुखञ्च, अ. नि. 1(1).97. असमान त्रि.. ब. स. [असमान], भिन्न, दूसरा, जन्य, असदृश - ने पु., सप्त. वि., ए. व. - असमाने कत्तरि पयोगो, सद्द. 1.312; - कत्तुक त्रि., ब. स. [असमानकर्तृक], भिन्न कर्ता वाला - कानं पु. प. वि., ब. क. - असमानकत्तुकानं त्वादिसदप्पयोगो, सद्द. 1.313; - कालिक त्रि., समानकालिक का निषे० [असमानकालिक], भिन्न-भिन्न कालों से जुड़ा हुआ - का पु., प्र. वि., ब. व. - सासनस्मि हि केचि सद्दा ... असमानकालिका असमानपदजातिका च भवन्ति, सद्द. 1.31; - गतिकत्त नपुं., भाव. [असमानगतिकत्व], एक
समान स्थिति का न रहना - त्ता प. वि., ए. व. - तेहि असमानगतिकत्ताति कारणं दस्सितं होति, सद्द. 1.182; - जातिक त्रि., ब. स. [असमानजातिक]. भिन्न वर्ग या समूह वाला, भिन्न प्रकृति वाला - को पु०, प्र. वि., ए. व. - इत्तरजच्चोति अञजातिको, मया सद्धिं असमानजातिको लामकजातिकोति अत्थो, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.200; - तता स्त्री॰, भाव. [असमानात्मता], पक्षपात से रहित न होना - य तृ. वि., ए. व. -- कतेन अदानेन वा अप्पियवचनेन वा अनत्थचरियाय वा असमानत्तताय वा यतो कुतोचि चरियं ... न सुतपुब्बं मि. प. 159; - नत्थ त्रि., ब. स. [असमानार्थ]. भिन्न अर्थ वाला - त्था पु.. प्र. वि., ब. व. - समानसुतिका पि असमानत्था चेव होन्ति असमानविभत्तिका च, सद्द. 1.31; - न्त त्रि., ब. स. [असमानान्त], भिन्न-भिन्न प्रत्ययों में अन्त होने वाला, अलग अलग विभक्तिचिह्नों वाला - न्ता पु., प्र. वि., ब. व. - ... केचि सद्दा ... असमानन्ता ... भवन्ति, सद्द. 1.31; - न्तिक त्रि., ब. स., उपरिवत् - न्तिका पु., प्र. वि., ब. व. - काचि असमानसुतिका काचि असमानन्तिका, सद्द. 2.461; - पदजातिक त्रि., ब. स. [असमानपदजातिक], भिन्न भिन्न पद-प्रभेद वाला - का पु., प्र. वि., ब. व. - ... केचि सद्दा... असमानपदजातिका ... भवन्ति, सद्द, 1.31; - प्पवत्तिनिमित्त त्रि., ब. स., भिन्न भिन्न रूप से व्युत्पन्न श्रुतिसम या समध्वनिक पद - त्ता पु., प्र. वि., ब. व. - ... केचि सद्दा... असमानप्पवत्तिनिमित्ता .... भवन्ति, सद्द. 1.31; - लिङ्ग त्रि., ब. स. [असमानलिङ्गिन]. भिन्न भिन्न लिङ्गों के साथ सम्बद्ध - ङ्गा पु., प्र. वि., ब. व. - ... केचि सद्दा... असमानलिङ्गा... भवन्ति, सद्द. 1.31; - वचनक त्रि.. ब. स. [असमानवचनक]. भिन्न भिन्न वचनों का सूचक - का पु., प्र. वि., ब. व. - ... केचि सद्दा ... असमानवचनका... भवन्ति, सद्द. 1.31; - विभत्तिक त्रि., ब. स. [असमानविभक्तिक], भिन्न भिन्न विभक्तियों में प्रयुक्त - का पु.. प्र. वि., ब. व. - ... केचि सद्दा ... असमानविभत्तिका ... भवन्ति, सद्द. 1.31; - सुतिक त्रि., ब. स. [असमानश्रुतिक], असमान या भिन्न भिन्न ध्वनियों से युक्त, असमश्रुति - का स्त्री., प्र. वि., ब. व. - ... काचि असमानसुतिका काचि असमानन्तिका, सद्द. 2.461; - नासनिक त्रि., ब. स. [असमानासनिक], भिन्न प्रकार के आसन (मञ्च या पीठ) रखने वाला - केहि पु., तृ. वि., ब. व. - तेन खो पन समयेन भिक्ख असमानासनिकेहि सह दीघासने निसीदितुं कुक्कुच्चायन्ति, चूळव. 299.
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असमापत्ति
682
असमुदाचार असमापत्ति स्त्री., समापत्ति का निषे, तत्पु. स. [असमापत्ति, नो दमेतीति, तदे; ख. त्रि., ब. स. [असमृद्धिक], दरिद्र, अप्राप्ति, अलाभ, आध्यात्मिक प्रगति का अलाभ - त्ति प्र. धन एवं समृद्धि से रहित - द्धिं पु., द्वि. वि., ए. व. - वि., ए. व. - एत्थ दानि आयस्मन्तो इदञ्च वेय्याकरणं अनिद्धिनन्ति, महाराज, अनिद्धि असमिद्धि दलिद्दपुरिसं नाम इमेसञ्च धम्मानं असमापत्ति, स. नि. 1(2).108.
साव ... दमेति, जा. अट्ठ. 7.368. असमापन्नपुब्ब त्रि., ब. स., पूर्वकाल में अप्राप्त, पहले नहीं असमुग्घात पु., समुग्घात का निषे०, तत्पु. स. [असमुद्घात], पाया हुआ -- ब्बा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - न च सा समापत्ति जड़ से उखाड़ फेंकने का अभाव, समूल उन्मूलन का सुलभरूपा या तेन भिक्खुना असमापन्नपुब्बा, स. नि. अभाव, नहीं उखाड़ फेंकना - तो पु.. प्र. वि., ए. व. - यत्थ 1(2).253.
असमुग्घातो तत्थ अनुसयो, नेत्ति. 66; - गत त्रि., असमास पु.. [असमास], समास या संक्षेपण का अभाव, [असमुद्घातगत], जड़ के साथ नहीं उखाड़ फेंका हुआ, व्यास, विस्तार, असंक्षेपण - स्स ष. वि., ए. व. - भवन्तो सम्पूर्णरूप से अभी तक नष्ट न किया गया - ता पु.. प्र. भवमिच्चत्थं असमासस्स भासये, सद्द. 1.249; - क त्रि., ब. वि., ब. व. - तासु तासु भूमिसु असमुग्घातगता किलेसा स. [असमासक], समासरहित, असमस्त - कं नपुं.. प्र. भूमिलद्धप्पन्नाति संत गच्छन्ती ति, अ. नि. अट्ठ. 1.372. वि., ए. व. - समासकपदञ्चेव असमासकमेव च, सद्द. ___ असमुग्घातित त्रि, [असमुद्घातित], अनुत्पातित, जड़ से 1.249; - विसय त्रि., निषे., ब. स. [असमासविषय], नहीं उखाड़ा गया, पूर्णरूप से विनष्ट न किया गया - समासों के क्षेत्र से बाहर वाला - ये पु., सप्त. वि., ए. व. किलेस पु., कर्म. स., नष्ट नहीं किया गया क्लेश - सा - असमासविसये तोपच्चयो च ..., सद्द. 1.141.
प्र. वि., ब. व. - मग्गेन असमग्घातितकिलेसा पन भवग्गे असमाहित त्रि., सं + आ + vधा के भू. क. कृ. का निषे. निब्बत्तस्सापि उप्पज्जन्तीति पुरिमनयेनेव वित्थारेतब्ब, अ. [असमाहित], शा. अ. ठीक से एकजुट बनाकर नहीं रखा नि. अट्ठ. 1.372; - तुप्पन्न त्रि., कर्म. स. गया, असंगृहीत, ला. अ. आत्मनियन्त्रण से रहित, अशान्त, [असमुद्घातितुत्पन्न], पूरी तरह से नष्ट न किए जाने के अस्थिर, एकाग्रता या समाधि करने में अक्षम - तो पु.. प्र. कारण उत्पन्न - न्नं नपुं., प्र. वि., ए. व. - ..... वि., ए. व. - समाहितो आराधको होति नो असमाहितो. अ. अविक्खम्भितुप्पन्न असमुग्घातितुप्पन्नन्ति, अ. नि. अट्ठ. नि. 3(2).296; न खो पनाहं असमाहितो विभन्तचित्तो ....
1.372. म. नि. 1.26; - ता ब. व. - ये खो केचि समणा वा । असमुच्छिन्दन नपुं., समुच्छिन्दन का निषे०, तत्पु. स. ब्राह्मणा वा असमाहिता विब्भन्तचिता ..., म. नि. 1.26; - [असमुच्छेदन], पूर्णरूप से नहीं काट दिया जाना, सम्पूर्ण सङ्कप्प त्रि०, ब. स. [असमाहितसङ्कल्प], असुदृढ़ संकल्प रूप से विनष्ट न किया जाना - तो प. वि., ए. व. - न वाला, शिथिल सङ्कल्प से युक्त - प्पो पु., प्र. वि., ए. व. पन ... किलेसानं असमुच्छिन्दनतो अनिय्यानिकत्ता ... - असमाहितसङ्कप्पो, असद्धम्मरतो मगो, अ. नि. 12).27; अतुल्याकारतो. उदा. अट्ठ. 29.
असमाहितसङ्कप्पोति अट्ठपितसङ्कप्पो, अ. नि. अट्ठ. 2.260. असमुच्छिन्न त्रि., सं+उ+छिद के भू. क. कृ. का निषे. असमिज्झनक त्रि., पूरा न होने वाला/वाली, सफल न। [असमुच्छिन्न], पूर्ण रूप से विनष्ट न किया हुआ - न्ना होने वाला/वाली - का स्त्री., प्र. वि., ए. व. - आसा नाम पु., प्र. वि., ब. व. - भिक्खुस्स वा भिक्खुनिया वा ... असमिज्झनका नाम नत्थि जा. अट्ठ. 3.220.
चेतसोविनिबन्धा असमुच्छिन्ना, अ. नि. 3(2).15. असमिद्ध त्रि., समिद्ध का निषे. [असमृद्ध], धन एवं समृद्धि असमुट्ठित त्रि., सं + उ + vठा के भू. क. कृ. का निषे. से रहित, निर्धन, अकिञ्चन - द्धो पु., प्र. वि., ए. व. - [असमुत्थित], ऊपर उठकर नहीं आया हुआ, अनुत्पन्न, तथा समिद्धो नाथोति वुच्चति असमिद्धो अनाथोति, सद्द. अस्तित्व में नहीं आया हुआ - ता पु., प्र. वि., ब. व. 2.366.
- ... अनुहिता असमुहिता अनुप्पन्ना अनुप्पन्नसेन सङ्गहिता, असमिद्धि क. स्त्री., समिद्धि का निषे., तत्पु. स. [असमृद्धि], ध. स. 1042. अभाव, असफलता, दरिद्रता, अभव्यता- सियाभावा समिद्धीसु असमुदाचार पु., सं+ उ + आ + Vचर के क्रि. ना. का किच्छे चानन्दनादिके, अभि. प. 1169; त्यम्हा अनिद्धिका निषे. [असमुदाचार], क. उचित व्यावहारिक प्रयोग में या दन्ता, असमिद्धि दमेति नो, जा. अट्ठ. 7.368; असमिद्धियेव प्रचलन में नहीं आना, व्यावहारिक प्रयोग का अभाव, ख.
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असमुदानित
683
असम्पटिवेध
शिष्टाचार की उचित क्रिया का अभाव, सक्रियता का अभाव, संबोधित करने की उचित रीति का अभाव - रेन तृ. वि., ए. व. - ... किलेसानं असमुदाचारेन पब्बजितकिच्चं नो निप्फन्न, ध. प. अट्ठ. 2.62. असमुदानित त्रि., सं+ उ + आ + नी के भू. क. कृ. का निषे. [असमुदानीत], उचित रूप में नहीं लाया गया, धर्मपूर्वक अर्जित न किया गया - तं नपुं., द्वि. वि., ए. व. - अलद्धा वित्तं तप्पति, पुब्बे असमुदानितं, जा. अट्ट, 4.158;
असमुदानितं असम्भतं धनं... सोचति, जा. अट्ठ. 4.159. असमुप्पन्न त्रि., सं+ उ + पद के भू. क. कृ. का निषे. [असमुत्पन्न], नहीं उत्पन्न, अस्तित्व को अप्राप्त, जन्मग्रहण न किया हुआ - न्ना पु., प्र. वि., ब. व. - ... अनुप्पन्ना असमुप्पन्ना अनुद्विता असमुहिता अनुप्पन्ना अनुप्पन्नसेन सङ्गहिता, ध. स. 1042. असमूहत त्रि., सं + उ + हन के भू. क. कृ. का निषे. [असमुद्धत], पूर्ण रूप से नष्ट न किया हुआ - तो पु., प्र. वि., ए. व. - ... अस्मीति अनुसयो असमूहतो, स. नि. 2(1).119; - तुप्पन्न त्रि., कर्म स. [असमुद्धतोत्पन्न]. अविनाशित होने के कारण उत्पन्न, पूरी तरह निरुद्ध नहीं रहने के कारण उत्पत्ति को प्राप्त - नं स्त्री., वि. वि., ए. व. - धम्मतं अनतीतन्ति कत्वा असमूहतुप्पन्नन्ति वुच्चति, सु. नि. अट्ठ. 1.7. असमेक्खितत्त नपुं., सं+ आ + Vइक्ख के भू. क. कृ. का निषे. का भाव. [असमीक्षितत्व]. ठीक से समीक्षण नहीं किया जाना, उचित सोच-विचार का न होना-त्ता प. वि., ए. व. - मरीचिधम्मं असमेक्खितत्ता, मायागुणा नातिवदन्ति पज जा. अट्ठ. 7.52; तयिदं असमेक्खितत्ता युत्तायुत्तं अजानन्ता बाला ... उपगच्छन्ति, जा. अट्ठ. 7.54. असमेन्त त्रि., सं+ आ + Vइ के वर्त. कृ. का निषे०, ठीक
से नहीं आना, समग्र रूप में नहीं रहना - न्ते नपुं., सप्त. वि., ए. व. - एकस्मिंफले असमेन्ते... नत्थि, जा. अट्ठ. 2.328. असमोसरण नपुं, सं+ ओ + Vसर से व्यु., क्रि. ना. का निषे. [असमवसरण], आपस में मेल-जोल का अभाव, पारस्परिक संपर्क का अभाव - णेन तृ. वि., ए. व. - अच्चाभिक्खणसंसग्गा असमोसरणेन च, एतेन मित्ता जीरन्ति, जा. अट्ट. 5.221; ... असमोसरणेन च मित्ता जीरन्ति, जा. अट्ठ. 5.222. असम्पकम्पी त्रि., सम्पकम्पी का निषे. [असम्प्रकम्पिन], प्रकम्पित न होने वाला, नहीं हिलने-डुलने वाला, सुदृढ़,
स्थिर - म्पी पु., प्र. वि., ए. व. - ... गम्भीरनेमो सुनिखातो अचलो असम्पकम्पी, स. नि. 3(2).342. असम्पकम्पिय त्रि., सं + प +vकम्प के सं. कृ. का निषे., नहीं हिलाए-डुलाए जाने योग्य, सुदृढ़, स्थिर, विचलित या बेचैन न किए जाने योग्य - यो पु., प्र. वि., ए. व. - यथिन्दखीलो ..., चतुभि वातेहि असम्पकम्पियो, सु. नि. 231; असम्पकम्पियोति कम्पेतुं वा चालेतुं वा असक्कुणेय्यो, सु. नि. अट्ठ. 1.247. असम्पजञ नपुं.. सम्पजञ का निषे. [बौ. सं. असम्प्रजन्य], समभाव से धर्मों के प्रजानन का अभाव, अज्ञान-भाव, चित्त की जागरुकता का अभाव - शं नपुं., प्र. वि., ए. व. - मुट्ठस्सच्चञ्च असम्पजञ्जञ्च, अ. नि. 1(1).115%; असम्पजञ्जन्ति अजाणभावो, अ. नि. अट्ठ. 2.65; -किरिया स्त्री., तत्पु. स. [बौ. सं. असम्प्रजन्यक्रिया], आत्मसंयमरहित क्रिया, समभाव एवं शान्ति से रहित चित्त के द्वारा की गई क्रिया - या प्र. वि., ए. व. -- हत्थस्स कुकतत्ता असंयमो
असम्पजकिरिया हत्थुकुक्कुच्चन्ति वेदितब्बो, लीन. (दी.नि.टी.) 1.193; विशेष तात्पर्य जानने के लिए देखें 'सम्पजन' (आगे). असम्पजान त्रि., सम्पजान का निषे०, ब. स. [असंप्रज्ञान], समभावयुक्त चित्त द्वारा धर्मों का यथार्थ ज्ञान न करने वाला, स्मृति अथवा चित्त की जागरुकता से रहित, चेतना से रहित - ना पु., प्र. वि., ब. क. - मुट्ठस्सती असम्पजाना, म. नि. 1.39; - नो ए. व. - असम्पजानो उपायपरिग्गहे अनुपायपरिवज्जने च सम्मुरहति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).254; अयं असम्पजानो अभिसङ्घरोति नाम, अ. नि. अट्ठ. 2.345; - कम्म त्रि., ब. स., संप्रज्ञान के बिना कर्मों को करने वाला, अपनी चेतना के सम्प्रयोग के बिना ही कर्म करने वाला- म्म नपुं, प्र. वि, ए. व. - तत्थ असम्पजानकम्म एवं वेदितब्बं - दहरदारका मातापितूहि कतं करोमाति चेतियं वन्दन्ति, अ. नि. अट्ठ. 2.345; - मूलिका स्त्री., अज्ञान या असंप्रज्ञान से उत्पन्न - का प्र. वि., ब. व. - असम्पजानमूलिका वीसतीति असीति चेतना होन्ति, अ. नि. अट्ट. 2.346. असम्पटिवेध पु.. सम्पटिवेध का निषे., तत्पु. स. [असम्प्रतिवेध]. प्रतिवेध-ज्ञान का अभाव, गम्भीर आध्यात्मिक ज्ञानदर्शन का अभाव - धो पु., प्र. वि., ए. व. - यत्थ असम्पटिवेधो तत्थ अविज्जा, नेत्ति. 66; द्रष्ट, सम्पटिवेध एवं पटिवेध (आगे);- रस त्रि., ब. स., पूर्ण प्रतिवेधज्ञान न
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असम्पत्त
होने देने का काम करने वाला सो पु.. प्र. वि. ए. व. असम्पटिवेधरसो आरम्मणसभावच्छादनरसो वा ध. स. अड. 289 लक्खण त्रि.. ब. स. [असम्प्रतिवेधलक्षण]. प्रतिवेधज्ञान न कराने के लक्षण से युक्त णा स्त्री. प्र. कि.. ए. व. सब्बधम्मयाथावअसम्पटिवेधलक्खणा अविज्जा नेत्ति. 25.
-
असम्पत्तवयाव
असम्पत्त त्रि., सं + √प + √ आप के भू० क० कृ० का निषे. [ असंप्राप्त], क. अप्राप्त (समय), अभी तक नहीं आया हुआ (समय या बारी) - त्ते पु.. सप्त. वि., ए. व. - यो वे काले असम्पत्ते, अतिवेलं पभासति, जा. अट्ठ. 3.88; तत्थ काले असम्पत्तेति अत्तनो वचनकाले असम्पते जा. अड्ड. 3.89; ख. वह, जो अभी तक पहुंच नहीं सका है या जिसे अभी तक कुछ मिल नहीं सका है असम्पत्तोहि राजानं अहसं सिखिनायक, अप. 1.227; वय त्रि०, ब० स० [असम्प्राप्तवयस्] परिपक्व आयु को अप्राप्त, नाबालिग, अवयस्क या स्त्री० प्र० वि०, ब० व. कुमारियो पुरिसन्तरं गन्त्वा जा. अट्ठ. 1.322. असम्पदान नपुं. सम्पदान का निषे तत्पु, स. [असम्प्रदान), दान न करना, आपस में न बांटना नेन तृ. वि., ए. व. असम्पदानेनितरीतरस्स जा. अड. 1.446 तत्थ असम्पदानेनाति असम्पादानेन जा. अ. 1.447 जातक नपुं., जा. अट्ठ. की एक कथा, जा. अट्ठ. 1.445-448. असम्पदुट्ठ त्रि. सं प + √दुस के भू० क० कृ० का निषे. [असंप्रदुष्ट], नहीं प्रदूषित, अमिश्रित, अप्रभावित, मैत्रीभावना से विशुद्ध द्वो पु. प्र. वि. ए. व. तेसु तुवं वचसा कम्मुना च, असम्पदुट्ठो च भवाहि निच्चं, जा० अ० 7.215;
च निच्चं असम्पदुट्ठो भव... मेत्तचित्तसङ्घातं असम्पदोसं अनुरक्ख तदेद्वं पु. वि. वि. ए. व. कथं हि दुडेन असम्पदुई, सुद्ध... करेण्या ति सु. नि. 90. असम्पदोस पु०, सम्पदोस का निषे. [असम्प्रदोष ], द्वेषभाव का अभाव, अद्वेष, मैत्री भावना संहि. वि. ए. व. एवं तुवं नाग असम्पदोस, अनुपालय वचसा कम्मुना च, जा. अह. 7215; अनुपालयाति मेतचित्तसङ्घातं असम्पदोसं अनुरक्ख, तदे..
असम्पवेधी त्रि, सं० + प + √विध से व्यु० क्रि० विशे. का निषे [असम्प्रवेधिन्], कम्पनरहित, नहीं हिलने-डुलने वाला, अविचलित, स्थिर, दृढ़धी' पु. प्र. वि. ए. क. इन्द्रखीलो... गम्भीरनेमो सुनिखातो अचलो असम्पवेधी, दी. नि. 3.99 धी स्त्री. प्र. वि. ए. व. नगरे एसिका
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असम्बाध
होति गम्भीरनेमा... असम्पवेधी अ. नि. 2(2). 241 धी पु. प्र. वि. ब. क. खिला निखाता असम्पदेधी (इति धनियो गोपो) सु. नि. 28. असम्पादित त्रि. [असम्पादित], पूर्णता की स्थिति तक प्राप्त न कराया गया, शुद्ध रूप में अप्राप्त अनुपार्जित अत्तमावस्स पु. कर्म. स. प. वि. ए. व. पूर्णतया विशुद्ध रूप में अप्राप्त अस्तित्व अकतत्तस्साति असम्पादितअत्तभावरस मित्तदुभिस्स, जा. अड. 5.347. असम्पायन्त त्रि, वर्त. कृ. [ असम्पादयत्], उपयुक्त उत्तर नहीं देने वाला, प्रश्न का उचित रूप में विसर्जन नहीं कर रहा
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न्ता पु०, प्र० वि०, ब० व. असम्पायन्ता कोपञ्च दोसञ्च अप्पच्चयञ्च पातुकरोन्ति, सु. नि. (पृ.) 157. असम्पायन नपुं [असम्पादन] उपयुक्त उत्तर न देना, अनिष्पादन न प्र. वि. ए. क. सो मगस्स विधातोति - नं यं यं पुनपुनं वत्वापि असम्पायनं नाम दी. नि. अड्ड. 1.100. असम्फप्पलापवादिता स्त्री. भाव० [असंप्रलापवादिता], निरर्थक बातें न बोलना, बकवास न करना अपिसुनाफरुसासम्फप्पलापवादिता... खु. पा. अड. 24. असम्फुट्ठ/असम्फुट त्रि, सम्फुट का निषे [असस्पृष्ट]. 1. स्पर्श न किया हुआ, अछूता 2 नहीं भरा हुआ, अपरिपूर्ण, अपरिव्याप्त नपुं. प्र. वि. ए. व. यो आकासो द्वं आकासगतं ... असम्फुदुं चतूहि महाभूतेहि - इदं तं रूपं आकासधातु, ध. स. 724; महाभूतेहीति एतेहि असम्फुट्ठ निज्जटाकारांव कथितं ध. स. अड. 352. असम्बन्ध त्रि., ब० स० [ असम्बद्ध], आपस में नहीं जुड़ा हुआ, एक दूसरे के साथ सम्बन्ध न रखने वाला न्धा पु०, प्र. वि. ब. व. असतात जयम्पतिका भवितुं अयुत्ता असम्बन्धा, जा. अट्ठ. 3.233 - त्त नपुं, भाव. [ असम्बद्धत्व ], सम्बन्ध का न रहना त्ताप.वि., ए. व. एक पन .....अजेहि रुक्खेहि असम्बन्धत्ता उम्मूलेत्या भूमियं पातेसि जा. अट्ठ. 1.313.
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असम्बाध त्रि. ब. स. [असम्बाध] बाधारहित, रुकावटरहित, रोकटोक रहित घं स्त्री. द्वि. वि. ए. व. मेत्तञ्च .... मानसं ... उद्धं ... असम्बाधं अवेरमसपत्तं, सु. नि. 150; असम्बाधन्ति सम्बाधविरहितं सु. नि. अड. 1.166: घर नपुं. प्र. वि., ए. व. असपत्तमसम्बाध .... थेरीगा. 514: किलेससम्बाधाभावतो असम्बाधं थेरीगा. अट्ट. 316:धाय पु. प्र. वि., ए. व. असम्बाधाय गन्धकुटियं विहरन्तो विय.... जा. अट्ठ. 1.88.
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असम्बुद्ध / असम्बुद्धन्त
असम्बुद्ध / असम्बुद्धन्त त्रि.. क. सं. + √बुध के वर्त. कृ. का निषे [असम्बुध्यत्] नहीं जानने वाला, नहीं ग्रहण करने वाला, अज्ञानी पु. प्र. / द्वि. वि. ए. व. - सुमितो च असम्बुद्ध जा. अड. 5.73 असम्बुद्धन्ति असम्बुद्धन्तो अजानन्तो अप्पञ्ञति अत्थो, जा. अड. 5.73; असम्बुध बुद्धनिसेवितं यं ... पारा. अट्ठ. 1.1; ख. सं. + √बुध के सं. कृ. का निषे. [असंबुध्य]. नहीं जानने योग्य, अग्राह्य, समझ के बाहर का गुरहमत्थं असम्बुद्ध सम्बोधयति यो नरो जा. अट्ठ. 5.76; तत्र असम्बुद्धन्ति परेहि अञ्ञातं... परेसं बोधेतुं अयुत्तन्ति अत्यो सद. 2.482. असम्बोध पु०, सम्बोध का निषे, तत्पु० स० [असम्बोध], अज्ञान धो प्रतिव अञ्ञाणं अदस्सनं अनभिसमयो अननुबोध जम्बोधो अप्पटिवेधो
घ. स.
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390; 1067; 1168.
असम्भजन्त त्रि. सं. + भज के वर्त. कृ. का निषे. [असंभजत्] सेवन नहीं कर रहा, साथ सङ्ग न करने वाला तं पु.द्वि. वि., ए. व. असम्भजन्तम्पि न सम्भजेच्य
...
जा. अड. 2.172.
असम्भव पु. सम्भव का निषे, तत्पु. स. [असंभव], वह, जो सम्भव न हो, असम्भावना, असंभाव्यता तो प.वि., ए. व. तस्सीलरसत्थस्स असंभवतो. स. 195 वा उपरिवत् तं भुम्मत्थासम्भवा न युज्जति, खु, पा. अह. 134. असम्भावनेय्य त्रि. सं + √भू(प्रेर) के सं. कृ. का निषे [असंभावनीय] संभव है इस रूप में अचिन्तनीय, असंभाव्य रूप में चिन्तित य्या पु०, प्र. वि., ब.व.
अरूपावचरा पन भुञ्जेय्यन्ति असम्भावनेय्या, सु. नि.
अदु. 1.121.
असम्मिन्न त्रि. सं. मिद का भू. क. कृ. का निषे. [असंम्भिन्न] क नहीं मिटाया हुआ, नहीं हटाया गया, नष्ट नहीं किया हुआ न्नेन नपुं. तृ. वि. ए. व. कालस्सेव असम्भिन्नेन विलेपनेन येन भगवा तेनुपसङ्कमि, पाचि. 158; असम्भिन्नेनाति अमक्खितेन, अनङ्गेनाति अत्यो, सारत्थ, टी. 3.73 ख. 1. अमिश्रित, आपसी मिलावट से रहित, विशुद्ध न्नं नपुं द्वि. वि. ए. व. आमिसेन असम्भिन्न सन्धाय वृत्तं पाचि. अट्ट, 145
असम्भिन्नपायासं पचेत्वा जा. अट्ठ. 1.66, ख. 2. अमिश्रित रक्त वाला, वर्णसाङ्कर्य से रहित, शुद्ध नस्ल वाला, शुद्ध (वंश) - न्ने पु०, सप्त. वि., ए. व. महासम्मतवंसम्हि असम्भिन्ने महामुनि म. वं. 2.23:- न्नाय स्त्री० सप्त. वि. ए. व. सोहि असम्भिन्नाय
-
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685
असम्भोग
महासम्मतपवेणिया ओक्काकवंसे जातत्ता जातिकुलपुत्तो, म.नि. अ. (मू.प.) 1 ( 2 ). 130 नङ्ग नपुं. कर्म. स. पांच प्रकार के धुतङ्ग, भेद-प्रभेद रहित धुतङ्गङ्गानि प्र. वि., ब. य. समासतो तीणि सीसङ्गानि पञ्च असम्भिन्नानीति अद्वेव होन्ति, विसुद्धि. 1.81; असम्भिन्नङ्गानीति के हिचि सम्भेदरहितानि, विसुंयेव अङ्गानीति, विसुद्धि. महाटी. 1.98 ;
- रस बि. स. अमिश्रित स्वभाव वाला, मिलावट से रहित सं हि. वि. ए. व. आमिसेन असम्भिन्न-रसं - द्वि० सन्धाय भासित, विन, वि. 1837 वत्थुक त्रि. ब. स. [असम्भिन्नवस्तुक], अविनष्ट या निरोध को अप्राप्त वस्तु (आधार) वाला का पु. प्र. वि. ब. व. असम्भिन्नवत्युका असम्भिनारम्मणाति असम्भिन्नस्मिं वत्थुस्मिं असम्भिन्ने आरम्मणे उप्यज्जन्ति विभ, 362: असम्भिन्नवत्धुकाति अनिरुद्धवत्युका विभ. अड. 381; - न्नारम्मण त्रि. ब. स. [असम्भिन्नालम्बन], निरोध को अप्राप्त आलम्बन वालापु. प्र. वि., ब. व. असम्भिन्नारम्भणाति असम्भिन्नस्मिं वत्थस्मिं असम्भिन्ने आरम्मणे उप्यज्जन्ति विभ 362
णताय स्त्री. भाव, तृ. वि. ए. व., आलम्बनों के निरुद्ध न होने से असम्भिन्नारम्भणतायपि एसेव नयो, विभ. अड. 381.
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असम्भीत त्रि. सं. नी के भू. क. कृ. का निषे [असम्भीत]. भय से मुक्त नहीं डरा हुआ तो फु. प्र. वि. ए. व. असम्भीतो भयातीतो, अप. 1.351; ता ब. व. सीहराजावराम्भीता, गजराजाय धामवा अप. 1.16: तं पु.. द्वि. वि. ए. व. असम्भीत अनुत्तासिं, मिगराजंव केसरिं
अप. 1.356.
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-
असम्भुणन्तो त्रि. सं.
भू के वर्त. कृ. का निषे. [ असम्भवत्], सक्षम या समर्थ न होने वाला, अक्षम, असमर्थ न्तो पु., प्र. वि., ए. व. असम्भुणन्तो पन ब्रह्मचरिय सु. नि. 398; तत्व असम्गुणन्तोति असक्कोन्तो, सु. नि.
अड. 2.97.
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असम्भूत त्रि., सं. + √भू के भू० क० कृ० का निषे. [असम्भूत], अस्तित्व में नहीं आया हुआ, नहीं उत्पन्न, अजात तं नपुं. प्र. वि., ए. व. अन्तयन्तानि भूतानि असम्भूत अनन्तकं, म. नि. अट्ठ. ( मू०प०) 1 ( 2 ) .306. असम्भोग' पु. सम्भोग का निषे, तत्पु. स. [असम्भोग ], शा. अ. समूह में भोग का अभाव, ला. अ. सामाजिक जीवन से निष्कासन, सामाजिक बहिष्कार गं द्वि. वि., ए. क. सहो छन्नस्स भिक्खुनो, उखेपनीय कम्म करोतु असम्भोगं सङ्खेन चूळव. 45.
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211.
असम्भोग
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असम्मुस्सनता असम्भोग' त्रि., ब. स., सामाजिक जीवन से बहिष्कृत, असम्मासम्बुद्ध पु., सम्मासम्बुद्ध का निषे०, तत्पु. स. सहवास से वञ्चित - गो पु., प्र. वि., ए. व. - ..., [असम्यकसम्बुद्ध], सम्यक् रूप से स्वयं सम्बोधि ज्ञान न असम्भोगो सङ्केन, चूळव. 245.
पाया हुआ व्यक्ति, पूर्णबुद्धत्व को अप्राप्त व्यक्ति - हेसु असम्मग्गत त्रि., सम्मग्गत का निषे. [असम्यग्गत], समुचित सप्त. वि., ब. व. - असम्मासम्बुद्धेसु सम्मासम्बुद्धा ति, स. रूप से गमन न करने वाला, अपूर्ण, अर्हत् अवस्था तक न । नि. 1(2).135; - प्पवेदित त्रि., तत्पु. स. [अगया हुआ, ठीक से नहीं समझने वाला - ग्गतो पु.. प्र. वि., सम्यकसम्बुद्धप्रवेदित], पूर्ण बुद्धों द्वारा अनुपदिष्ट, सम्यकए. व. - सो पुनप्पुनं... सासनस्मिं असम्मग्गतो असभावतो संबुद्ध द्वारा उपदेश न दिया गया - ते पु., सप्त. वि., ए. अक्खायति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).326.
व. - यथा तं... अनुपसमसवंत्तनिके असम्मासम्बुद्धप्पवेदिते असम्मट्ठ त्रि., सं+ मज के भू. क. कृ. का निषे. [असंमृष्ट], भिन्नथूपे अप्पटिसरणो, दी. नि. 3.87. शा. अ. ठीक से स्वच्छ न किया गया, सम्मार्जन-रहित, असम्मिस्स त्रि., [असम्मिश्र], मिलावट-रहित, अमिश्रित, ला. अ. गम्भीररूप से अपरीक्षित, सूक्ष्मरूप से अविचारित विशुद्ध - स्सं नपुं., द्वि. वि., ए. व. - तं सब्द असातं - हट्ठान नपुं., कर्म. स., अचिन्तित स्थल, अविचारित अमधुरं केवलं असम्मिस्सं दुक्खमेव फुसन्ति, जा. अट्ठ. विषय - नं द्वि. वि., ए. व. - अथायस्मा सारिपुत्तो 3.214; - तो प. वि., ए. व. - ... दस्सनेन असम्मिरसतो असम्मट्टहानं सम्मज्जित्वा, ..., जा. अट्ठ. 3.2.
ववत्थानं दस्सितं होति. म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).252. असम्मत त्रि., सं+मन के भू. क. कृ. का निषे. [असम्मत], असम्मुखा अ., निपा., सम्मुखा का निषे॰ [असम्मुखं], सामने सहमति या अनुमोदन न पाया हुआ, अननुमोदित, बिना नहीं, साक्षात् रूप से नहीं - यो... कम्मं असम्मुखा करोति. अनुमति का - ता पु., प्र. वि., ब. व. - असम्मता महाव. 424; तस्स असम्मुखा अनापुच्छायेवरस, ..., मि. प. अनुसासन्ति, महाव. 119; - तो ए. व. - उपसम्पन्नं ... असम्मतो नाम सम्मतेन वा सङ्घन वा भारं कत्वा ठपितो असम्मुखीभूत त्रि., निषे०, तत्पु. स. [असन्मुखीभूत], सामने वेदितब्बो, पाचि. अट्ठ. 62.
नहीं आया हुआ, अविद्यमान, गैरहाजिर, अनुपस्थित – तानं असम्मत्तकारी त्रि., अक्षम, असमर्थ, उचित विचार या चिन्तन पु., ष. वि., ब. व. - कथहि नाम छब्बग्गिया भिक्खू न करने वाला - रीनं पु., ष. वि., ब. व. - मा चायं असम्मुखीभूतानं भिक्खूनं कम्मानि करिस्सन्ति, चूळव. 173. सारधम्मो वरधम्मो असम्मत्तकारीनं हत्थगतो ओजातो असम्मुट्ठ त्रि., सं + ।मुस के भू, क. कृ. का निषे. अवजातो ... भवतु, मि. प. 184.
[असम्मुषित], चुराकर दूर नहीं ले जाया गया, दृष्टिपथ से असम्मा अ०, निपा. सम्मा का निषे०, क्रि. वि. [असम्यक]. ओझल नहीं किया हुआ, सामने उपस्थित, अविनाशित - अनुपयुक्त रूप से, नहीं ठीक से - अनुजानामि, ... ट्ठा' स्त्री., प्र. वि., ए. व. -- उपट्टिता सति असम्मुट्ठा, पारा. असम्मावत्तन्तं पणामेतुं, महाव. 60.
4; - द्वा' पु.. प्र. वि., ब. व. - येसं धम्मा असम्मुट्ठा, स. असम्मान पु., सम्मान का निषे., तत्पु. स. [असम्मान]. नि. 1(1).5; असम्मुट्ठाति पाय पटिविद्धभावेनेव अनट्ठा, सम्मान का अभाव, अपमान, तिरस्कार, अवहेलना – ने स. नि. अट्ठ. 1.24. सप्त. वि., ए. व. - अभिरूपक अभिरूपका ति आदीसु असम्मुव्हन नपुं.. सं + vमुह से व्यु., क्रि. ना. का निषे०, मोह असम्माने, ... आमेडितं दट्ठब्ब, सद्द. 1.40.
से ग्रस्त न होना, सम्यक्-प्रजानन - नं प्र. वि., ए. व. - असम्मानित त्रि, सम्मानित का निषे., तत्पु. स. [असम्मानित]. अभिक्कमादीस पन असम्मुरहनं असम्मोहसम्पजज. म. नि. सम्मान को अप्राप्त, अपमानित, तिरष्कृत - माता पिता । अट्ठ. (मू.प.) 1(1).270. समणब्राह्मणा च असम्मानिता यस्स सके अगारे जा. अट्ठ. असम्मुस्सनता स्त्री॰, भाव., प्र. वि., ए. व., 4.92; असम्मानिताति असक्कता, जा. अट्ठ. 4.93.
अविक्षिप्तता, स्मृति के विप्रलोप का अभाव, स्मृति की असम्माभासन नपुं.. [असम्यकभाषण], अनुचित रूप से जागरूकता - ... सति सरणता धारणता अपिलापनता बोलना, अनुपयुक्त भाषण - ने सप्त. वि., ए. व. - सठ असम्मुस्सनता सति सतिन्द्रियं सतिबलं सम्मासति, ध. स. असम्माभासने, .... न सम्मा भासती ति अत्थो, सद्द. 52; चिरकतचिरभासितानं असम्मुरसनभावतो असम्मुस्सनता, 2.533.
ध. स. अट्ठ. 191.
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असम्मूळ्ह
असम्मूळह त्रि. सं. + √मुह के भू० क० कृ० का निषे. [असंमूढ़], मोह से मुक्त, मोह-रहित, मन की स्वच्छता एवं उज्ज्वलता से युक्त कहो पु. प्र. वि. ए. व. सीलवा सीलसम्पन्नो असम्मूहो काल्रोति दी. नि. 2.68 अ. नि. 1 ( 1 ) .74; - भाव पु.. [असंमूढभाव], मोहयुक्त अवस्था वाय च. कि. ए. क. सोनूने असम्मूहभावाय सद 1.179: विहारी त्रि. [असंमूढविहारिन्] मोह रहित होकर, जीने वाला रिनं पु. द्वि. वि. ए. व. तीहि विज्जाहि सम्पन्न, असम्मूळ्हविहारिनं अ. नि. 1 (1) 192. असम्मोदक क्रि, सम्मोदक का निषे [असम्मोदक ]. प्रसन्नता या मानसिक आनन्द न देने वाला, अमैत्रीपूर्ण व्यवहार करने वाला, अविनम्र, को पु०, प्र. वि., ए. व. असम्मोदको धद्धो असभिरूपो जा. अ. 6.241दिका स्त्री असम्मोदक से व्यु [असम्मोदिका ]. अमैत्रीपूर्ण मनोवृत्ति, आनन्द उत्पन्न न करने वाली बातचीत, सम्मोद न उत्पन्न करने वाली य तृ० / च. वि., ए. व. भिन्ने, भिक्खवे, सङ्घ अधम्मियायमाने असम्मोदिकाय वत्तमानाय ...... 462: असम्मोदिकाय वत्तमानाय, सम्मोदनकथाय अवत्तमानायाति अत्थो, महाव. अट्ठ. 407. असम्मोदिय नपुं., अप्रिय भाव, सम्मोद या प्रसन्नता को न लाने वाला यं प्र. वि., ए. व. - असम्मोदियम्पि वो अस्स, अच्चन्तं मम कारणा, जा० अट्ठ. 7.277; असम्मोदियन्ति असामग्गिय, तदे...
महाव.
-
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असम्मोस पु०, सम्मोस का निषे, तत्पु० स० [अविप्रमोष ], (स्मृति का ) अनाश, अतिरोभाव या अलोप विलुप्त नहीं हो जाना, अदृश्य नहीं होना साप. वि. ए. व. - सतिया असम्मोसा ते देवा तम्हा काया न चवन्ति दी. नि. 1.17; सद्धम्मस्स ठितिया असम्मोसाथ अनन्तरधानाय संवत्तति यथयिद अ. नि. 1 ( 1 ) 23: असम्मोसाय अनन्तरघानायाति वुत्तपरिपक्खनयेनेव वेदितब्ब, अ. नि. अट्ठ 1.69; - सिं वि. ए. व. सुतन्ति वचनेन सुतस्स असम्मोस दीपेति दी. नि. अ. 1.30; - सेन तृ. वि., ए. व. सेन तृ. वि. ए. व. असम्मोसेन पन सतिसिद्धि दी. नि. अड. 1.30. असम्मोसनरस त्रि., लोप या विनाश न होने देने के कार्यों को करने वाला / वाली सा स्त्री. प्र. वि. ए. व. - अपिलापनलक्खणा सति असम्मोसनरसा थ. स. अड. 167, असम्मोह पु.. सम्मोह का निषे, तत्पु, स. [असम्मोह], मोह या संभ्रम का अभाव, अज्ञान का अभाव, अमूढभाव - हं द्वि. वि., ए. व. तण्हाक्खयाधिमुत्तस्स, असम्मोहञ्च चेतसो,
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असयंकार
अ. नि. 2 ( 2 ) .89: एत्थ व एवन्ति वचनेन असम्मोहं दीपेति, दी. नि. अट्ठ 1.30; तो प.वि., ए. व. असम्मोहतो न विसयतो सु. नि. अड्ड. 1.19
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करण ि
....
ब. स., अमोह को या मोह के निरोध को लाने वाला, मोहनाशक - रं नपुं. प्र. वि., ए. व. - असम्मोहकरं ठानं, नेत्तिधम्मानुलोमिक, परि, 187 ता स्त्री भाव [असंमोहत्व, नपुं.]. मोह के अभाव की दशा, मूढ़ता का न रह जाना - प्र. वि., ए.व. अमत्तता अप्पमत्तता असम्मोहता अच्छाम्मिता असारम्भिता खु. पा. अ. 24 धम्म त्रि.. ब. स. [असम्मोहधर्मन् ], मोह का अविषयीभूत, स्वभाव से ही मोह का शिकार न बनने वाला म्मो पु०, प्र. वि., ए. व. असम्मोहधम्मो सत्तो लोके उप्पन्नो बहुजनहिताय ... देवमनुस्सानन्ति म. नि. 1.27; घुर नपुं. कर्म. स. उत्तम या विशिष्ट भाव के रूप में अमोह, कुशल धर्मों में अग्रगण्य धर्म के रूप में अमोह - रं प्र. वि., ए. व. - तयिदं महासीवत्थेरेन वुत्तं असम्मोहधुरं इमस्मिं सतिपद्वानसुते अधिप्पेत म नि. अड. (भू.प.) 1 ( 1 ) . 280 सम्पजञ्ञ नपुं. कर्म. स. सम्प्रजन्य के चार प्रभेदों में चौथा, जिसमें साधक खड़े रहते, घूमते-फिरते आदि में मोह से रहित रहता है या सम्प्रजाननयुक्त रहता है प्र. वि. ए. व. तत्थ सात्थकसम्पजञ्ञ सप्पायसम्पजज्ञं गोचरसम्पजञ्ञ असम्मोहसम्पञ्ञन्ति चतुब्बिधं सम्पजञ्ञ, म. नि. अ (मू.प.) 1 ( 1 ) .264 अभिक्कमादीसु असमुव्हनमेव सम्पजज्ञ असम्मोहसम्पजञ्ञ, म. नि. टी. (मू०प०) 1 ( 1 ) 316; हात्ति त्रि. ब. स. [असम्मोहाधिमुक्त], सम्मोह नष्ट हो जाने के कारण अर्हत् अवस्था को प्राप्त अधिमुक्ति के छः स्थानों में एक तो पु०, प्र. वि., ए. व. - नेक्खम्माधिमुत्तो होति, ... असम्मोहाधिमुत्तो होति, महाव. 255; सम्मोहाभावतो असम्मोहोति च बुच्चति, महाव, अट्ठ. 344. असयंवसी त्रि., सयंवसी का निषे [अस्वयंवशी], स्वयं अपने वश में न रहने वाला, अपने सहारे न जीने वाला, पराधीन, परनिर्भर, अनाथ सी पु. प्र. वि., ए. व. तदा सो पच्चुदावत्ति, सङ्क्रुद्धो असयंवसे, दी. नि. 2.193; सङ्कुद्धो असयं वसेति... असक्कोन्तो असयंवसे असयंवसी अत्तनो वसेन अकामको हुत्वा निवत्तो, दी. नि. अट्ठ. 2.257; - सी 2 पु., प्र. वि., ब.व. महल्लका अनाथा असयंवसी. जा.
D
अट्ठ. 1.322.
असयंकार त्रि, सयंकार का निषे [अस्वयंकार ], स्वयं अपने द्वारा नहीं निर्मित स्वयं अपने द्वारा अनुत्पादित,
-
तञ्च पन
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असयंपाचक
अस्वयंकृत रो फु. प्र. वि. ए. व. पु., प्र. वि., ए. व. - असयंकारो अपरंकारो अधिच्चसमुप्यन्नो अत्ता च लोको च दी. नि. 3.103; असयंकारोति आह असयंकतो ति यादिच्छिकत्ताति अधिप्पायो, लीन. ( दी. नि. टी.) 3.87. असयंपाचक त्रि सयंपाचक का निषे.. तत्पु. स. [ अस्वयंपाचक] अपने लिए स्वयं न पकाने वाला का पु. प्र. वि. ब. व. असामपाकाति असयंपाचका, लीन. ( दी. नि.टी.) 1.271.
"
असरह' त्रि. [अस], नहीं सहे जाने योग्य एवं तीव्र दुःख से पीडित - तिब्बदुक्खाभिभूता पु. प्र. वि. ब. क.. उपरिवत् अराष्टतिब्बदुक्खाभिभूता अताणा असरणा.... मि. प. 149.
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CORA
असय्ह' पु०, व्य. सं. (क) एक प्रत्येकबुद्ध - असय्हो खेमाभिरतो च सोरतो. म. नि. 3.116 महासेट्ठी पु. एक श्रेष्ठी या व्यापारी हि प्र. वि. ए. व. तेन समयेन रोरुवनगरे असहमहाद्रि नाम अहोसि पे व अड. 98.
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असहसाही त्रि. नहीं सहने योग्य को सह लेने वाला, दूसरों द्वारा अपराजेय को पराजित कर देने वाला हिनं पु., द्वि. वि., ए. व. तथागतं बुद्धमसय्ह साहिनं, दुवे वितक्का समुदाचरन्ति न इतिवु, 24 अज्ञेहि सहितुं वहितुं असक्कुणेय्यत्ता, असय्हस्स सकलस्स बोधिसम्भारस्स च सहनतो वहनतो तथा अञ्जेहि सहितुं अभिभवितुं दुक्करता
असहसाहिन इतिवु. अड्ड 132 हिनो पु, ष, वि.. ए. व. बुद्धरस पुत्तोम्हि असम्हसाहिनो, थेरगा. 536:हिनं ब. क. जयो कलिङ्गानमसहसाहिन जा. अड. अट्ठ 3.5: तत्थ असव्ह साहिनन्ति असम्हं दुस्सहं सहितुं समत्थानं तदेहिता स्त्री० भाव, नहीं सहे जाने योग्य को सहन करने की क्षमता यतृ. वि. ए. व. असहसाहिताय विसह जा. अड. 3.12. असय्हसीत त्रि०, ब० स० [असह्यशीतक ] न सहने योग्य ठण्डक वाला (क्षेत्र, लोक), अत्यधिक शीतलता से युक्त (स्थान) ते पु.. सप्त. वि. ए. व. तिब्बन्धकारे व असम्हसीते, लोकन्तरे ये असुरेसु दुक्ख विसुद्धि 2.129; विभ. अ. 91. असरण त्रि. ब. स. [अशरण] बिना शरण वाला आश्रय या सहारा न देने वाला णो पु०, प्र. वि., ए. व. असरणो लोकसन्निवासोति पटि. म. 116; असरणोति निस्सितानं न भयसारको न भयविनासको पटि म. अड्ड. 2.14 णा ब. व. अताणा अलेणा असरणा असरणीभूता, महानि.
7
...
688
असल्लीन
-
अताणतो अलेणतो असरणतो
304 तो प. वि. ए. व. रित्ततो तुच्छतो सुञतो महानि० 38; निस्सितानं भयसारकत्ताभावेन असरणतो, महानि, अट्ठ. 132. असरणभाव पु., [अस्मरणभाव], विस्मरण की स्थिति, भुलक्कड़पन वं द्वि. वि., ए. व. कस्मा पनस्स सत्था असरणभाव अकासीति ? ध. प. अ. 2.67. असरणीभूत त्रि. [अशरणीभूत] उपरिवत् ता पु., प्र. वि., ब. व. अताणा अलेणा असरणा असरणीभूता महानि, 304.
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असरूप त्रि., ब० स० [असरूप] शा. अ. भिन्न स्वरूप वाला, ला. अ. उच्चारण-स्थान या मात्रा आदि की भिन्नता वाला (स्वर) - पा पु०, प्र. वि., ए. व. वा परो असरूपा, सरम्हा असरूपा परो सरो लोपं पप्पोति वा, क. व्या० 13;
सद्द. 2.613.
असल्लक्खण नपुं०, सल्लक्खण का निषे० तत्पु० स० [असंलक्षण ], संलक्षण या सूक्ष्म निरीक्षण का अभाव, गहरे दृष्टिपात का अभाव, ठीक से नहीं देखा जाना क्खणा प.वि., ए. व. रूपे खो, वच्छ, असल्लक्खणा... वेदनाय खो, स.नि. 2 (1). 259. असल्लक्खेत्वा अ. सल्लखेति के पू. का. कृ. का निषे.
"
[असंलक्ष्य ] ठीक से सोचे-विचारे बिना जल्दबाजी में, हड़बड़ाहट में - असल्लक्खेत्वापि निवेसनं पविसन्ति, चूळव. 358; अहं असल्लक्खेत्वा अक्कमि मा कुज्झीति वुत्तपि कुज्झियेव, जा. अट्ठ. 1.207.
"...
असल्लीन त्रि., सं + √ली के भू० क० कृ० का निषे. [असंलीन] उत्साह भरे चित्त वाला, अशिथिल, पूर्ण रूप से विकसित, असङ्कीर्णनं नपुं. प्र. वि., ए. व. आरद्ध वीरियं अहोसि असल्लीनं पारा 4 आरद्वत्तायेव च मे तं असल्लीनं अहोसि, पारा अट्ठ 1.103; नेन तू. वि.. ए. व. असल्लीनेन चित्तेन, वदेनं अज्झवासयि, स. नि. 1 (1). 186; असल्लीनेनाति अनल्लीनेन असङ्कुचितेन सुविकसितेनेव चित्तेन स. नि. अड. 1.197 त 1. नपुं. असलीन का भाव [असंलीनत्व] निरुत्साह या शिथिलता से रहित होना त्ताप. वि. ए. व. असल्लीनत्ता पहितत्तातिपि पठन्ति पटि म. अड्ड. 1.38 2. क्रि. ब. स. [असंलीनात्मन् ] निरुत्साह से रहित आत्मा वाला, असङ्कचित या उदार आत्मा वाला तो पु०, प्र. वि., ए. व. असल्लीनत्तपहितत्तपग्गहट्टे पञ्ञा वीरियारम्भे आणं, पटि. म. 3. तत्थ असल्लीनत्तपहिततपग्गहद्वेति कोराज्जवसेन
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14
असल्लेख 689
असहित असल्लीनो असङ्कुचितो अत्ता अस्साति असल्लीनत्तो, पटि. अ. उचित सम्मानभाव के बिना ही - असहत्था दानं देति, म. अट्ठ. 1.37.
म. नि. 3.70; असहत्थाति अत्तनो हत्थेन न देति, असल्लेख पु., सल्लेख का निषे., तत्पु. स. [बौ. सं. दासकम्मकारादीहि दापति, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.56. असंलेख], अनियन्त्रण, अनियमपरायणता - स्स ष. वि., असहन नपुं.. Vसह के क्रि. ना. का निषे. [असहन], क्षान्ति ए. व. - ... असन्तुट्ठिया असंलेखस्स चुप्पन्नस्स निवारणे, या सहनशीलता का अभाव, डाह, मात्सर्य, नहीं सह पाना, म. नि. अट्ठ (मू.प.) 1(1).103.
ठीक न लगना - नं नपुं., प्र. वि., ए. व. - ... कतस्स असवण्ण त्रि., निषे., तत्पु. स. [असवर्ण], असमान रूप अपराधस्स असहनं नाम न युत्तान्ति, जा. अट्ठ. 3.17; ... वाला, भिन्न उच्चारण-स्थान एवं प्रयत्न वाला (स्वर)- परेहि साधारणभावासहनलक्खणस्स मच्छरस्स .... पे. व. ण्णं नपुं॰, प्र. वि., ए. व. -- क्चचासवण्णं लुत्ते, सरो खो अट्ठ. 15; - ता स्त्री., भाव., असहनशीलता, अप्रिय परो पुब्बसरे लुत्ते क्वचि असवण्णं पप्पोति, क. व्या. या प्रतिकूल मानसिक संवेदन होना - ता प्र. वि.,
ए. व. - ... परेहि साधारणभावस्स असहनता, विभ. अट्ठ. असस्सत त्रि., सस्सत का निषे., तत्पु. स. [अशाश्वत]. 485. बराबर विद्यमान न रहने वाला, अनित्य, परिवर्तनशील, असहमान त्रि., सह के वर्त. कृ. का निषे. [असहमान], अध्रुव - तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - ..., अहो रूपमसस्सतं. सहन न करता हुआ - नो पु., प्र. वि., ए. व. - अथ खो अप. 2.245; - तो पु., प्र. वि., ए. व. - असरसतोति तमेव सो नागो मक्खं असहमानो पज्जलि, महाव. 29. लोक उच्छिज्जति विन स्सतीति गण्हन्तस्स असहानधम्मता स्त्री., भाव. [अपरिहानिधर्मता], हानिरहित उच्छेदगहणाकारप्पवत्ता दिहि, ध. स. अट्ट, 396; -- भाव स्वभाव वाला - ता प्र. वि., ए. व. - सह हानधम्मेनाति पु., कर्म. स. [अशाश्वतभाव], अनित्यता, परिवर्तनशीलता सहानधम्मो न सहानधम्मोति असहानधम्मो, तस्स भावो, - वेन तृ. वि., ए. व. - अनस्सासिकाति असस्सतभावेन असहानधम्मता, तं असहानधम्मतं, लीन. (दी.नि.टी.) 3.108 अस्सासरहिता, अ. नि. अट्ठ. 3.180.
- तं द्वि. वि., ए. व. - पप्पोति बोधिं असहानधम्मतन्ति, दी. असस्सती/असस्सति त्रि., सस्सती का निषे. नि. 3.124; असहानधम्मतन्ति अपरिहीनधम्म, दी. नि. अट्ठ [अशाश्वतिक], सदा विद्यमान न रहने वाला, अनित्य 3.107. प्रकृति वाला - असस्सतिरिव खायती तिपि पाठो, उदा. असहाय त्रि., ब. स. [असहाय], क. अद्वितीय, अनुपम - अट्ठ. 314.
यो पु., प्र. वि., ए. व. -- अदुतियो असहायो अप्पटिमो, अ. असस्सतिक त्रि., केवल स. उ. प. के रूप में ही प्रयुक्त, नि. 1(1).29; ख. मित्रहीन, अकेला, बिना साथी का - ये एकच्चअसस्सतिक के अन्त. द्रष्ट. [अशाश्वतिक], अनित्य पु., सप्त. वि., ए. व. - ‘एको वूपकट्ठोति आदिसु असहाये, या अधुव बतलाने वाला, एकच्च. कुछ मामलों में अनित्य सद्द. 1.267; - किच्च त्रि., ब. स., साथी की कोई आवश्यकता बतलाने वाला - का पु., प्र. वि., ब. व. - एके समणब्राह्मणा न रखने वाला - च्चो पु., प्र. वि., ए. व. - असहायकिच्चो एकच्चसस्सतिका एकच्चअसस्सतिका एकच्च... सस्सतं सीहो विय, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).56. .... असस्सतं अत्तानञ्च ... वत्थूहि, दी. नि. 1.15.
असहित त्रि., [असहित], साथ में न रहने वाला, रहित, अर्थ असह त्रि., [असह], नहीं सहने वाला, क्षान्ति-रहित, से नहीं सम्बद्ध, अर्थ-रहित - तं नपुं., वि. वि., ए. व. - धैर्यरहित, घबड़ाहट भरे स्वभाव वाला - हो पु., प्र. वि., ए. ... अप्पञ्च भासति असहितञ्च, अ. नि. 1(2).158; नवमे व. - सहति सहो असहो असरहो, सद्द. 2.458.
असहितन्ति अत्थेन असंयुत्तं, अ. नि. अट्ठ. 2.334; सहितं असहन्त त्रि., सिह के वर्त. कृ. का निषे. [असहत्], नहीं मे असहितं ते, दी. नि. 1.7; असहितं तेति तुरह सहने वाला, सहनशीलता न रखने वाला, क्षान्ति-रहित -- वचनं असहितं असिलिट्ठ, दी. नि. अट्ठ. 1.81; - स्स न्तो पु., प्र. वि., ए. व. - विदेहो ... गरह असहन्तो पु., ष. वि., ए. व. - परिसा चस्स कुसला होति पटिपक्खो हुत्वा .... जा. अट्ठ. 3.324.
सहितासहितस्स. अ. नि. 1(2).158; सहितासहितस्साति असहत्था सहत्थ के निषे. का प. वि., ए. व., प्रायः अ०, क्रि. अत्थनिस्सितस्स वा अनिस्सितस्स वा, अ. नि. अट्ठ. विशे, के रूप में प्रयुक्त, शा. अ. अपने हाथ से नहीं, ला. 2.334.
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असा
690
असाधारण
असा स्त्री., द्रष्ट. अस एवं अहा के अन्त. - इथिलिङ्गे वत्तब्बे
असति असा ति रूपानि भवन्ति, सद्द. 1.176. असात त्रि., सात का निषे. [अशात]. दुख देने वाला, कड़वा, अमधुर, तीता, मन में प्रतिकूल संवेदना उदित कराने वाला, दुखभरा (अनुभव)- तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - यं खो, आवुसो, कायिकं दुक्खं कायिकं असातं..., इदं वुच्चतावुसो दुक्खं, म. नि. 3.299; - ता स्त्री.. प्र. वि., ए. व. - ... सारीरिका वेदना दुक्खा... कटुका असाता..., स. नि. 1(1).32; असाताति अमधुरा, स. नि. अट्ठ. 1.71; - तं नपुं. द्वि. वि., ए. व. - असातं अमधुरमेव निब्बत्तेन्ति, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.88; -- ते नपुं., सप्त. वि., ए. व. - तत्थ असातरागोति असाते दुक्खवेदयिते अहो वत मे एतदेव भवेय्या ति रज्जना, कथा. अट्ठ. 236; - तं नपुं.. भाव. [अशातत्व], कड़वापन, अमधुरत्व, मन के लिए अननुकूल संवेदन - त्ताय च. वि., ए. व. - तं तित्तकत्ताय कटुकत्ताय असातत्ताय संवत्तति, अ. नि. 1(1). 45; - सन्निवास पु.. तत्पु. स., अमधुर या स्वादहीन चीजों का साथ - सेन तृ. वि., ए. व. - असातसन्निवासेन, तेनम्बो कटुकप्फलो ति, अ. नि. अट्ठ. 1.357; असातसन्नि- वासेनाति अमधुरनिम्बमूलसंसग्गेन, अ. नि. टी. 1.213. असातच्चकारी त्रि.. [असातत्यकारिन्], रुककर काम करने । वाला, लगातार काम न करने वाला - री पु., प्र. वि., ए. व. - असक्कच्चकारी च होति, असातच्चकारी च, असप्पायकारी च, अ. नि. 2(2).129; असातच्चकारीति न सततकारी, अ. नि. अट्ठ. 3.140. असातच्चकिरियता स्त्री., भाव. [असातत्यक्रियता], निरन्तर क्रियाशील नहीं रहना, बीच बीच में रुककर सक्रिय होना - ता प्र. वि., ए. व. - असक्कच्चकिरियता, असातच्चकिरियता, अनहितकिरियता, खु. पा. अट्ठ. 115. असातमन्त पु./नपुं.. कर्म. स. [अशातमन्त्र]. दुख उत्पन्न कराने वाला मन्त्र - न्तो पु., प्र. वि., ए. व. - तात, उग्गहितो ते असातमन्तो ति, जा. अट्ठ. 1.277; - जातक नपुं., जा. अट्ठ. के इत्थिवग्ग का प्रथम जातक, जा. अट्ठ. 1.275-279. असातराग पु.. तत्पु. स. [अशातराग]. दुख या अननुकूल के प्रति मन का लगाव - गो प्र. वि., ए. व. - अस्थि असातरागोति? आमन्ता, दुक्खाभिनन्दनो सत्ता, कथा. 391; तत्थ असातरागोति असाते दुक्खवेदयिते ... रज्जना, कथा. अट्ठ. 236.
असातरूपजातक नपुं., जा. अट्ठ. की एक कथा का शीर्षक,
जा. अट्ठ. 1.389-392. असादियन्त त्रि., [अनास्वादयत्], स्वाद न लेता हुआ, उपभोग का आनन्द नहीं पा रहा, अनुभव नहीं कर रहा - स्स पु.. ष. वि., ए. व. - परिनिबुतस्स तथागतस्स असादियन्तस्स कतो अधिकारो वञ्झो भवति .... मि. प. 110; अनापत्ति अजानन्तस्स, असादियन्तस्स ..., पारा. 38. असादिस त्रि., [असदृश]. असमान, भिन्न - सो पु., प्र. वि., ए. व. - सब्बो हि सदिसो होति, नस्थि कामे असादिसोति,
जा. अट्ठ. 6.248. असादु त्रि., सादु का निषे., तत्पु. स. [अस्वादु]. स्वादरहित,
बेस्वाद - दुं नपुं.. द्वि. वि., ए. व. - सादुं वा यदि वासादु ..., जा. अट्ठ. 3.124; तत्थ यदि वासादुन्ति यदि वा असादु तदे.; - दु पु., प्र. वि., ए. व. - ... सादु व असादु, यो वा पनओपि अस्थि रसो....ध. स. 629; असादुति अनिट्ठरसो, ध. स. अट्ठ. 353. असाधक त्रि., साधक का निषे., तत्पु. स. [असाधक], सिद्धि में अनुपयोगी, सिद्ध न करने वाला, अप्रभावशाली - धिका स्त्री., प्र. वि., ए. व. - तासु कण्हपक्खउपमा अत्थस्स असाधिका, स. नि. अट्ठ. 2.288. असाधारण त्रि., [असाधारण], असामान्य, दूसरों से अलग, विशिष्ट - णं नपुं., प्र. वि., ए. व. - असाधारणम सं. अचोराहरणो निधि, खु. पा. 10; तत्थ असाधारणमओसन्ति असाधारणो असं, मकारो पदसन्धिकरो..... खु. पा. अट्ठ. 180; - णा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - सामक्कसिकाति सामं उक्कसिका... असाधारणा अजेसन्ति अत्थो, दी. नि. अट्ठ. 1.224; - णेन नपुं., तृ. वि., ए. व. - असाधारणेन आणेन समन्नागतो होति, अ. नि. 2(2).141; - णे नपुं., सप्त. वि., ए. व. - अग्गिआदीहि असाधारणे बुद्धस्स सासने धनं निदहितुं लद्ध, ध. प. अट्ठ. 2.36; - आण नपुं.. कर्म. स. [असाधारणज्ञान], दूसरों में प्राप्त न होने वाला विशेष प्रकार का ज्ञान, बुद्ध का विशिष्ट ज्ञान - णेन तृ. वि., ए. व. - यथाद्दक्खी यथा सामं सच्चाभिसम्बोधेन असाधारणञाणेन च अद्दक्खि , सु. नि. अट्ठ 2.297; - तं स्त्री., भाव., द्वि. वि., ए. व. - भिक्खुनीहि तु भिक्खूनं, असाधारणतं गता, विन. वि. 822; - पञत्त त्रि., [असाधारणप्रज्ञप्त]. विशिष्ट नियम के रूप में बतलाया हुआ - त्ता पु., प. वि., ए. व. - असाधारणपञत्ता, खुद्दका नतिच्छ च, उत्त. वि. 829; - पञत्ति स्त्री., कर्म. स. [असाधारणप्रज्ञप्ति], विशिष्ट
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असाधिय
प्रकार का विनय-नियम सभी भिक्षुओं एवं भिक्षुणियों के लिए सामान्य रूप में लागू न होने वाला नियम - सब्बत्थपञ्ञति, असाधारणपञ्ञतीति ?... उभतोपज्ञ्जति परि. 2 - भाव पु., कर्म. स. [असाधारणभाव], विशिष्टता, असामान्यता वं द्वि. वि. ए. व. असाधारणभावं तु गमितानि महसिना, उत्त वि. 811; 823. असाधिवत्र साथ के सं. कृ. का निषे [असाध्य]. उपचार द्वारा ठीक न होने योग्य, लाइलाज़ - यो पु०, प्र. वि. ए. व. सधिकुम्भसतेनापि व्याधिजातो असाधियो म. वं. 5.218.
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असाधु त्रि, साधु का निषे, तत्पु० स० [असाधु], असज्जन, दुष्ट, दुर्जन, बुरा, गलत घु पु. प्र. वि. व. व. साधूपि हुत्वा न असाधु होन्ति ... थेरगा. 1008 - धूनि नपुं. प्र. वि., ब. व. - सुकरानि असाधूनि अत्तनो अहितानि च, ध॰ प॰ 163; यानि कम्मानि असाधूनि सावज्जानि अपायसंवत्तनिकत्तायेव... ध. प. अट्ठ. 2.86 - धुं पु.द्वि. वि. ए. व. असाधुं साधुना जिने, ध. प. 223 कम्मी त्रि.. [असाधुकर्मिन् ] बुरे काम करने वाला म्मिनो पु.. प्र. वि. ब. व. ये जीवलोकरिणं असाधुकम्पिनो,... जा. अड. 6.133: जातिक त्रि. ब. स. [असाधुजातिक]. असज्जन स्वभाव वाला, दुष्ट प्रकृति वाला क संबो०, व. असभीति असप्पुरिस असाधुजातिक, जा. अड. 1.472; कं नपुं०, द्वि० वि०, ए. व. तत्थ असम्भिरूपन्ति असाधुजातिक लाभकं अकुसलकम्म अकासि जा. अड. 6.216; सन्निवास पु तत्पु, स. [असाधुसन्निवास]. दुष्ट लोगों का साथ-सङ्ग सो प्र. वि., ए. व. असाधुसन्निवासो नाम पापो अनत्थकरो, जा० अट्ठ
ए.
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2.83.
असामग्गिय नपुं, समग्ग के भाव का निषे. [असामग्रय], सहमति का अभाव, असहमति, असामञ्जस्य यं प्र. वि., ए. व. असम्मोदियन्ति असामग्गियं, जा. अड. 7.277. असामञ्ञत्रि समण के भाव का निषे. [अश्रामण्य]. श्रमणों के प्रति अवज्ञापूर्ण या अपमानपूर्ण, श्रमणों के लिए अनुपयुक्त ज्ञ पु. प्र. वि. ए. व. पुरिसो अमतेच्यो अपेत्तेय्यो असामञ्ञ अब्रहाञ्ञ, अ. नि. 1 (1).163 ता स्त्री. भाव. [अश्राम्यत्व, नपुं.], श्रमणों के प्रति तिरस्कारपूर्ण होना, श्रमणों के लिए अनुपयुक्त होना ता प्र. वि., ए. व. - अमतेय्यता अपेत्तेय्यता असामञ्ञता अब्रह्मञ्ञता न कुले जेनापचायिता दी. नि. 3.51.
असार
व.
असामन्तपञ्ञ त्रि., ब० स० [सं०], अनुपम या बेजोड़ प्रज्ञा वालाज्ञो पु. प्र. वि. ए. व. अनभिसम्भवनीयो च सो अज्ञेहीति असामन्तपञ्ञ, अ. नि. अ. 1.400 ता स्त्री. भाव, बेजोड़ प्रज्ञा से युक्त रहना यतृ. वि. ए. गम्भीरपञ्ञताय... असामन्तपञ्ञताय संवत्तति, अ. नि. 1(1).60. असामन्तपञ्ञा स्त्री.. कर्म. स. [सं.] अनुपम प्रज्ञा, बेजोड़ प्रज्ञा, दूसरों में अविद्यमान प्रज्ञा ञ्ञा प्र. वि., ए. व. असामन्तपञ्ञताय संवत्तन्तीति कतमा असामन्तपञ्ञा?, पटि. म. 367; अ. नि. अट्ठ. 1.400.
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असामपाक त्रि. [अस्वयंपाक], स्वयं नहीं पकाने वाला (तापसों का एक वर्ग ) का पु. प्र. वि. ब. व. ये पन किं पब्बजितस्स पविसित्वा पक्कभिक्खमेव गण्हन्ति ते असामपाका नाम, दी. नि. अट्ठ. 1.218; असामपाकाति असयंपाचका, लीन. (दी. नि. टी.) 1.271. असामयिक / असामायिक सामयिक का निषे, तत्पु, स. [बौ. सं. असामयिक], वह जो अस्थायी न हो, स्थायी, निर्धारित समय की सीमा में नहीं बंधा हुआ, लोकोत्तर कं स्त्री. वि. वि. ए. व. उपसम्पज्ज विहरिस्सति असामायिकं वा अकुप्पन्ति म. नि. 3.154; असामायिकन्ति न समयवसेन किलेसेहि विमुत्तं, म. नि. अट्ठ. (उप. प.) 3. 116. असामी पु.. अस्सामिक के अन्त द्रष्ट...
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असार त्रि, ब. स. [असार] सारहीन, मूल्यहीन, बेकार, तुच्छ, खोखला रंनपुं. प्र. वि. ए. व. अथा सारं च फेग्गु च अभि. प. 698; क. खोखला या सारहीन (वृक्ष, पौधा आदि) से पु. प्र. कि.. ए. व. यथा नको असारो - निस्सारो सारापगतो, विसुद्धि. 2291
रेन पु.. तृ. वि. ए. क. कायकलिना असारेन थेरीगा. 72; ख. सारहीन (लोक), सारहीन पांच स्कन्ध, सारहीन धन, सारहीन धारणा, आत्मा एवं आत्मीय जैसे परिकल्पित सारतत्त्व से रहित रं नपुं. प्र. वि. ए. व. रूप असार निस्सारं सरापगतं वेदना... विज्ञाणं... जरामरणं असारं निस्सार विसुद्धि2.290-91 से पु. प्र. वि. ए. व. निरयलोको असारो निसारो... महानि, 303 पच्चया दसवत्थुका मिच्छादिद्वि. तस्सा उपनिस्सयभूता धम्मदेसनाति अयं असारो नाम ध. प. अ. 1.66; रा स्त्री० प्र० वि०, ए. व. असारा निस्सारा सारापगता विसुद्धि. 2291 क त्रि.. ब. स० [असारक], उपरिवत् 1. खोखला, सारहीन ( वृक्ष आदि) केसु पु. सप्त. वि. ब. व.- कट्टरुक्खेसु
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यथा माया
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असारज्जना
692
असाहस
असारकेसु, जा. अट्ठ. 2.135; असारकेसूति निस्सारेसु पालिभद्दकसिम्बलि आदीसु..., जा. अट्ठ. 2.135; - कं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - ... बन्धनेन ... अबलं बन्धन, दुब्बलं बन्धन, पूतिक बन्धनं, असारकं बन्धनान्ति, म. नि. 2.121-122; 2. आत्म एवं आत्मीय-भाव के रूप में परिकल्पित सारतत्त्व से रहित (रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान नामक स्कन्ध, लोक एवं धनसम्पदा आदि)- कं नपुं., प्र. वि., ए. व. - असारक व खायति, स. नि. 2(1).127; - तो प. वि., ए. व. - असारकतो अवसवत्तनतो परतो रित्ततो तुच्छतो सुञतो च सब्बे धम्मा अनत्ता ति, उदा. अट्ठ. 191. असारज्जना स्त्री., सं. + रज से व्यु., क्रि. ना. का निषे. [असंरञ्जन, नपुं.], अनासक्ति, राग से विनिर्मुक्त होना - ज्जना प्र. वि., ए. व. - ... असारागो असारज्जना
असारज्जितत्तं .... ध. स. 32; 312; 315. असारज्जितत्त नपुं॰, भाव. [असंरञ्जनत्व]. अनासक्तिभाव,
राग से मुक्त रहने की अवस्था - तं प्र. वि., ए. व. - .... असारागो असारज्जना असारज्जि तत्तं ध. स. 32, 312, 315. असारत्त त्रि., सं. + रज के भू. क. कृ. का निषे० [असंरक्त], लगावों से मुक्त, राग या आसक्ति से रहित - त्तो पु., प्र. वि., ए. व. -- अविरुद्धो असारत्तो, पाणेसु तसथावरे, सु. नि. 709; अत्तपक्खियेसु असारत्तो, सु. नि.. अट्ठ.2.192. असारद त्रि., सारद का निषे. [अशारद], शा. अ. शरद ऋतु में तैयार न होने वाला, शरद ऋतु में न उगने वाला, ला. अ. निरर्थक या सूखे हुए अनाजों का बीज, पुआल - दानि नपुं.. प्र. वि., ब. व. - बीजानि... खण्डानि पूतीनि वातातपहतानि असारदानि असुखसयितानि, दी. नि. 2.260; असारादानीति तण्डुलसारादानरहितानि पलालानि, दी. नि. अट्ठ. 2.362. असारदस्सी त्रि., [असारदर्शिन]. (किन्हीं धर्मो में) सार न देखने वाला, असार समझने वाला - स्सिनो पु०, प्र. वि., ब. व. - असारे सारमतिनो, सारे चासारदस्सिनो, ध. प. 11; चासारदस्सिनोति दसवत्थुका सम्मादिट्ठी, तस्सा उपनिस्सयभूता धम्मदेसनाति ... तस्मिं 'नायं सारो ति
असारदस्सिनो, ध. प. अट्ठ. 1.66. असारद्ध त्रि, सं. + रभ के भू. क. कृ. का निषे० [असंरब्ध], उद्वेग से रहित, उत्तेजना-रहित, तृष्णा एवं द्वेष से रहित - द्धो पु., प्र. वि., ए. व. - पस्सद्धो कायो असारद्धो, पारा. 4; असारद्धोति सो च खो परसद्धत्तायेव
असारद्धो, विगतदरथोति वुत्तं होति, पारा. अट्ठ. 1.103; यस्मा असारद्धो कायो लहुको होति, विसुद्धि. 1.271; - काय त्रि., ब. स. [असंरब्धकाय], उद्वेग या उत्तेजना से मुक्त शान्त शरीर वाला - यो पु.. प्र. वि., ए. व. -
असारद्धकायो नु खो बहुलं विहरामि, अ. नि. 3(2).78. असारम्भिता स्त्री॰, भाव., उत्तेजित या उद्वेग से युक्त नहीं होना, उद्विग्नता का अभाव, अव्याकुलता - ता प्र. वि., ए. व. - ... अच्छम्भिता असारम्भिता अनुस्सङ्किता .... खु. पा. अट्ठ. 24. असाराग पु., साराग का निषे., तत्पु. स. [असंरञ्जन, नपुं], राग का अभाव, विराग, अनासक्ति -- गो प्र. वि., ए. व. - ... असारागो असारज्जना .... ध. स. 32; 312; 315; -धम्म त्रि., ब. स. [असरञ्जनधर्मन], स्वभाव से ही राग में ग्रसित न होने वाला, रागमुक्त प्रकृति वाला - म्म नपुं.. प्र. वि., ए. व. - असारागधम्म मे चित्तन्ति पआय चित्तं सुपरिचितं होति, अ. नि. 3(1).212; असारागधम्मन्ति न सरज्जनसभावं, अ. नि. अट्ठ. 3.273. असारुप्प क. त्रि., [असारूप्य], असमान या भिन्न स्वरूप वाला, अननुरूप, अलग तरह का, अनुपयुक्त, अनुचित - प्पं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - इधेव मया अक्खीनि उप्पाटेत्वा दातुं असारुप्पन्ति, जा. अट्ठ. 4.362; ख. नपुं.. अनुचित कार्य - प्पेन तृ. वि., ए. व. -- इमिना नं असारुप्पेन वा खलितेन वा सङ्घमज्झे निग्गहिस्सामीति .... ध. प. अट्ठ. 1.309. असाहस' त्रि., ब. स. [असाहस]. दुस्साहस भरे काम न करने वाला, बिना सोचे-विचारे काम न करने वाला, राग, द्वेष एवं मोह के दुष्प्रभाव के वश में होकर काम न करने वाला - सो पु., प्र. वि., ए. व. - अनुन्नतेन मनसा, अपळासो असाहसो, अ. नि. 1(1).229; असाहसोति रागदोसमोहसाहसानं वसेन असाहसो हुत्वा. ..., अ. नि. अट्ठ. 2.182; - सं पु., द्वि. वि., ए. व. - असाहसन्ति धम्मिकविनिच्छये ठितत्तायेव साहसिककिरियाय विरहितं जा. अट्ठ. 3.282. असाहस नपुं., साहस का निषे., तत्पु. स., प्रायः तृ. वि., ए. व. में क्रि. वि. के रूप में प्रयुक्त [असाहसेन], दुस्साहस भरी मनोवृत्ति से बिलग होकर, शील के आचरण से युक्त होकर, धर्म के अनुसार, शान्तभाव के साथ, अहिंसक भाव के साथ - धम्मेन जिस्साम असाहसेन जा. अट्ठ. 7.173; धम्मेनेव नो असाहसेन जयो होतु, तदे.; असाहसेन धम्मेन,
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असाहसिकट्ठ
693
असिक्खित
समेन नयती परे, ध. प. 257; असाहसेनाति अमुसावादेन, ध. प. अट्ठ. 2.220; - से सप्त. वि., ए. व. - दाने अहिंसाय असाहसे रतो, दी. नि. 3.109. असाहसिकट्ठ पु., तत्पु. स. [असाहसिकार्थ], असाहसिक का तात्पर्य या अर्थ-द्वेन तृ. वि., ए. व. - विसुद्धकम्मन्तन्ति तेनेव असाहसिकद्वेन विसुद्धकम्मन्तं ..., जा. अट्ठ. 3.282. असाहसिककम्म नपुं, कर्म. स. [असाहसिककर्म], दुस्साहस भरी मनोवृत्ति के साथ न किए गए कुशल कर्म, राग, द्वेष एवं मोह से मुक्त चित्त द्वारा अभिसंस्कृत अच्छे कर्म - म्मेन तृ. वि., ए. व. - अहं धम्मेन समेन असाहसिककम्मेन
आहट, जा. अट्ठ. 7.154. असाहिय त्रि., असरह का अप. [असह्य], नहीं सहे जाने योग्य - यं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - तस्स तस्सानुरूपं व फलं होति असाहियं सद्धम्मो. 94. असि' अस (होना) के वर्त., म. पु.. ए. व. [असि], 'अस्थि
के अन्त. द्रष्ट.. असि' पु., तलवार, खड्ग, कृपाण - ससति, सत्थं, सत्थं वुच्चति असि, सद्द. 2.443; मण्डलग्गो तु नेत्तिसो असि खग्गो च सायको, अभि. प. 391; - सि प्र. वि., ए. व. - असि तिक्खोव मंसम्हि, पेसुञ्जपरिवत्तति, जा. अट्ट, 3.129; - सिं द्वि. वि., ए. व. - पण्णक तिखिणधार, असिं सम्पन्नपायिनं, जा. अट्ठ. 3.298; - ना तृ. वि., ए. व. - ... असिनापि सीसं छिन्दति, म. नि. 1.121; - क त्रि.. ब. स., स. उ. प. के रूप में प्रयुक्त, तलवार ग्रहण किया हुआ, खड्गधारी उक्खित्ता-पु., प्र. वि., ए. व., खड्ग को उठाकर फेंकने वाला - इध पुरिसो आगच्छेय्य उक्खित्तासिको, म. नि. 2.46; - कलह पु., तत्पु. स. [असिकलह], तलवार से युद्ध, असियुद्ध - हो प्र. वि., ए. व. - असिना कलहो असिकलहो, रूप. 336; - कोट्ठ पु., तलवार द्वारा (चमड़े) को काटने वाला चमार, चर्मकार - ट्ठो प्र. वि., ए. व. - किस्स त्वं, उदायि निसीदनं समन्ततो समञ्छसि सेय्यथापि पुराणासिकोट्ठो ति, पाचि. 225; सेय्यथापि पुराणासिकोट्टोति यथा नाम पुराणचम्मकारोति अत्थो, पाचि. अट्ठ. 143; - कोस पु., तत्पु. स. [असिकोश], तलवार की म्यान - सो प्र. वि., ए. व. - ... गहित असिकोसो विय च सिरीसरुक्खो विय च ..., स. नि. अट्ठ. 3.98; - गाह/ग्गाह पु.. [असिग्राहिन], क. तलवार को धारण करने वाला सिपाही, खड्गधारी रक्षक - हो पु., प्र. वि., ए. व. - असिगाहो असिं अब्बाहेसि, जा. अट्ठ. 2.264; - हा ब. व.
- तंदिस्वा असिग्गाहा कोसतो असिं अब्बाहिंसु, पारा. अट्ठ. 1.41; राजानं विय एकरथे ठिता असिग्गाहछत्तग्गाहा, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.95; ख. सेनापति एवं भण्डागारिक के नीचे के पद वाला तथा राजा की तलवार लेकर चलने वाला राज्याधिकारी - हं द्वि. वि., ए. व. - तथा सेष्टि छत्तग्गाहं, असिग्गाहन्ति सब्बेपि ते लज्जापेसि येव, जा. अट्ठ. 6.46; सिलाकालं असिग्गाहं कत्वा रक्खाय योजयि, चू. वं. 39,54; - गाहकठान नपुं.. खड्गधारी सुरक्षाधिकारी का पद - म्हि सप्त. वि., ए. व. - असिग्गाहकठानम्हि तस्स पुत्तं ठपेसि च, चू. वं. 44.43; - गिलन नपुं.. तत्पु. स., तलवार को मुंह के भीतर निगल जाना - तो प. वि., ए. व. - यदञ्जन्ति इतो असिगिलनतो यं अजदुक्करतर कारणं, ..., जा. अट्ठ. 3.298; - चम्म नपुं, समा. द्व. स. [असिचर्मन]. ढाल और तलवार - असि च चम्मञ्च असिचम्म, क. व्या. 324; - म्मं द्वि. वि., ए. व. - असिचम्म गहेत्वा धनुकलापं सन्नम्हित्वा...म.नि. 1.121; असिचम्मन्ति असिञ्चेव खेटकफलकादीनि च म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).370. असि' पु., [असि], निचले स्थानों पर उगने वाला एक वृक्ष - सी प्र. वि., ब. व. - असी तालाव तिट्ठन्ति, जा. अट्ट. 7.304; असीति एवंनामका रुक्खा सिनिद्धाय भूमिया ठिता ताला विय तिट्ठन्ति, जा. अट्ठ. 7.305. असिक्खित त्रि., सिक्खित का निषे., तत्पु. स. [अशिक्षित]. शिक्षा न पाया हुआ, शिल्पों को न सीखा हुआ - तो पु.. प्र. वि., ए. व. - ... असिक्खितो अकतहत्थो अकतयोग्यो अकतूपासनो..., स. नि. 1(1).117; असिक्खितोति धनुसिप्पे असिक्खितो, स. नि. अट्ठ. 1.145; - क त्रि., [अशिक्षितक]. उपरिवत् - का पु.. प्र. वि., ब. व. - ... अकतबुद्धिनो असिक्खितका च, जा. अट्ठ. 3.49; - त्त नपुं॰, भाव. [अशिक्षितत्व], अशिक्षित होना, शिक्षा प्राप्त किया हुआ न होना - त्ता प. वि., ए. व. - संहीरपञस्साति तस्स असिक्खितत्ता ततो ततो हरितब्बपञ्जरस निच्चं चलबुद्धिनो, जा. अट्ठ. 4.387; - विनयता स्त्री॰, भाव., विनय का अभ्यास नहीं किया जाना, विनय में अप्रशिक्षित रहना - य तृ. वि., ए. व. - असिक्खितविनयताय अविनीतो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).202; - सिक्ख त्रि., ब. स., पूरी तरह से शिक्षा न पाया हुआ - क्खं पु., द्वि. वि., ए. के. - छसु धम्मेसु असिक्खितसिक्खं सिक्खमानं वुढापेन्तीति, पाचि. 435.
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असिञ्चति
694
असितव्यामनी असिञ्चति सिच का वर्त, प्र. पु., ए. व., 'अ' का प्रयोग काला, नीला, गहरे रङ्ग का - तो पु., प्र. वि., ए. व. -
अनियमित [सिञ्चति], सींचता है, पानी देता है - परेसं नीलो कण्हो सितो काळो मेचको सामसामला, अभि. प. 963; भतको पोसो, अम्बाराममसिञ्चति, वि. व. 1151; असिञ्चतीति - ता पु., प्र. वि., ब. व. - दीघस्स केसा असिता, जा. अट्ठ. सिञ्चति, अ-कारो निपातमत्तं, सिञ्चति अम्बरुक्खमुलेसु 6.103; - ते पु., द्वि. वि., ब. व. - ते नूनं मे असिते धुवं जलसेकं करोतीति अत्थो, असिञ्चथा ति च पाठो वेल्लितग्गे, ..., जा. अट्ठ. 5.292; असितेति काळके, जा. सिञ्चित्थाति अत्थो, असिञ्चहन्ति च पठन्ति, वि. व. अठ्ठ. अट्ठ. 5.293; - निचितम् दुक त्रि., द्व. स. 261.
[असितनिचितमृदुक], काला घना एवं कोमल - के पु., असित' नपुं./पु., [वै. असिद, पु., अ. मा., असिय], द्वि. वि., ब. व. - अथ असितनिचितमुदुके, केसे ..., थेरीगा. हंसिया - तं प्र. वि., ए. व. - एको हि पुरिसो असितं गहेत्वा 482. ... सालियो लायति, अ. नि. अट्ठ. 3.256; - तेन तृ. वि., . असित पु., 1. अनेक ऋषियों का नाम, असित देवल या ए. व. - ... दब्बगहनादीनि असितेन लायित्वा ..., जा. अट्ठ. काळ-देवल या कण्हसिरि, जिसने नवजात शिशु सिद्धार्थ 5.41; - ता प्र. वि., ब. व. - असितासु मया नङ्गलासु मया की पूजा की थी तथा जो महामाया देवी के शिक्षक तथा खुद्दकद्दालासु मया असिता सुमया, नङ्कला सु मया ..., शुद्धोदन के पुरोहित थे- तो प्र. वि., ए. व. - असितो इसि थेरगा. 43.
अद्दस दिवाविहारे, सु. नि. 684; - स्स ष. वि., ए. व. - असित त्रि., अस का भू. क. कृ. [अशित], 1.क. कर्म. ... असितस्स इसिनो भागिनेय्यो नालको नाम तापसो.... सु. वा. में, किसी के द्वारा खाया हुआ, उपभोग किया हुआ - नि. अट्ठ. 2.184; अज्ञातमेतं वचनं, असितस्स यथातथं, सु. गिलितो खादितो भुत्तो भक्खिताग्झोहटासिता, अभि. प. नि. 704; - व्हय त्रि., ब. स. [असिताह्वय], असित नाम 757; - तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - असितं भोजनं भवता, क. वाला - स्स ष. वि., ए. व. - दस्सेस पत्तं असितव्हयस्स व्या. 627: ... असितं होति परिभुत्तं, स. नि. अट्ठ. 3.54; सक्या, सु. नि. 691; 2. असित-देवल-नामक एक दूसरा 1.ख, क्रि. ना. के रूप में प्रयुक्त होने पर, भोजन -- ऋषि, जिसने सात ब्राह्मण-ऋषियों के जाति-दर्प का दमन अअत्र असितपीतखायितसायिता..., म. नि. 1.117; - ते किया था - असितो देवलो इसि. म. नि. 2.369. सप्त. वि., ए. व. - असिते पीते ... सम्पजानकारी होति, असित पु., एक माली का नाम - तो प्र. वि., ए. व. - दी. नि. 1.62; ... असितेति पिण्डपातभोजने, दी. नि. अट्ठ. असितो नाम नामेन, मालाकारो अहं तदा, अप. 1.227. 1.162; 2. कर्तृ. वा. में, वह, जो भोजन कर चुका है, वह, असितञ्जननगर नपुं., महाकंस नामक राजा की राजधानी जो संतुष्ट हो चुका है, तृप्त, भोग कर चुका, विपाक का - रे सप्त. वि., ए. व. - ... असितञ्जननगरे महाकंसो नाम फल अनुभव कर चुका - तो पु., प्र. वि., ए. व. - राजा रज्ज कारेसि, जा. अट्ठ. 4.71; 73; पे. व. अट्ठ. 98. गरुमुपासितो देवदत्तो, क. व्या. 628; ..., असितो च घरं असितब्ब त्रि., अस का सं. कृ. [अशितव्य], खाए जाने वजे ति, जा. अट्ठ. 2.207; असितो च घरं वजेति असितो योग्य, खाया जाना चाहिए - असितब्बं भोजनं भवता, क. सुहितो हुत्वा अत्तनो वसनट्ठानं गच्छेय्य, तदे.; असितोति व्या. 627; मुखेन असितब भुजितब्बन्ति मुखासियं ध. स. असितासनो परिभुत्तफलो, जा. अट्ठ. 7.328.
अट्ठ. 361. असित' त्रि., सि के भू. क. कृ. का निषे. [अश्रित]. तृष्णा असितविस त्रि., ब. स., वह, जिसका खाया हुआ सभी कुछ एवं दृष्टि का आश्रय न लेने वाला या उनसे असम्बद्ध, विष बन जाता है, अत्यधिक जहरीला - सा पु., प्र. वि., ब. आश्रय नहीं लिया हुआ, बन्धनों में नहीं जकड़ा हुआ, व. - असितविसाति यं यं एतेहि असितं होति परिभुत्तं तं तं बन्धनमुक्त (बुद्ध एवं अर्हत्) - तो पु., द्वि. वि., ए. व. - विसमेव सम्पज्जति, तस्मा असितं विसं होति ऐतेसन्ति तं बुद्ध असितं तादि, ..., सु. नि. 963; सो तण्हादिट्ठीहि आसीविसा, स. नि. 3.54. अनिस्सितत्ता असितो, सु. नि. अट्ठ. 2.137; तं छिन्नगन्थं असितव्याभङ्गी व्यु. संदिग्ध, संभवतः स्त्री., द्व. स., शा. अ. असितं अनासवं, ..., सु. नि. 221; दिडिया तण्हाय वा हसिया एवं बंहगी, ला. अ. बंहगी लेकर पालकी को ढोने कत्थचि अनिस्सितत्ता असितं, सु. नि. अट्ठ. 1.228. वाला कहार, घास काटने वाला हंसिया एवं घास भरने वाली असित* त्रि., सित का निषे. [असित], जो सफेद न हो, बोरी को धारण करने वाला मजदूर (शूद्र)- प्रिं द्वि. वि.,
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असितव्हय
ए. द. असितळ्याभवित्र्य पन सुद्द सन्धनं अतिमज्ञमानो अकिच्चकारी होति, म० नि० 2.397; असितव्याभङ्गिन्ति तिणलायन असितञ्चैव काजञ्च, म. नि. अट्ठ० (म.प.) 2.300. असितव्याभाति भिक्खवे कुलपुत्तो ओहाय अगारस्या अनगारियं पब्बजितो होति, अ. नि. 2 (1).5; असितव्याभङ्गिन्ति तिणलापनअसितञ्चेव तिणवहनकाजञ्च, अ. नि. अड्ड 3.3 : ... असन्ति लुनन्ति तेनाति असितं दात्तं, विविधा आभञ्जन्ति भारे ओलम्बेन्ति तेनाति व्याभट्टी अ. नि. टी. 3.2: ता स्त्री. भाव, हंसिया एवं घास ढोने वाली बंहगी या बोरी को धारण कर चलने वाले शूद्र की स्थिति, घास काटने एवं घास ढोने की क्रिया करने वाले दास की अवस्था तृ.वि., ए. व. कसिगोरक्खादिना वेस्सो अहं असितव्यामङ्गिताय सुदो अहं विभ. अड्ड. 484 असितव्याभङ्गितायाति दात्तेन काजेन चाति एतेन परिक्खारेन लवनवहनकिरिया वा "असितव्याभङ्गीति वुत्ता, विभ. मू. टी. 233.
असितव्य त्रि. ब. स. [ असिताह्वय] असित नाम वाला स्सष. वि., ए. व. समागते असिताव्हयस्स सासनेति, सु. नि. 703. असितातिग त्रि., [असितातिग] कृष्णपक्ष को पार कर चुका शुक्लपक्ष का चन्द्रमा, कालिमा से मुक्त चन्द्रमा, स्वच्छ एवं धवल चन्द्र गं पु० द्वि. वि. ए. व. दक्खेमोघतरं नाग, चन्दव असितालिग, दी. नि. 2.192 असितातिगन्ति काळकभावातीत चन्द्रव सिरिया विरोचमानं ..... दी.. गो प्र. वि., ए. व. 31. 2.255; असितातिगो काळकभावातीताय सिरिया चन्दो लीन. (दी. नि. टी.) 2.225 असितापङ्ग त्रि. ब. स. [असितापाङ्ग], वह जिसकी आंखों के किनारे कृष्ण-वर्ण के हों, काजल से कजरारे नेत्रों वाला, काले कजरारे नेत्र - कोर वाला ङ्गि स्त्री, संबो. ए. व. तया मं असितापङ्गि, सितानि भणितानि च, जा. अट्ठ. 3.371; असितापनीति तया में असिता अपनि, अक्खिकोटितो अञ्जनसलाकाय नीहरित्या अभिसङ्गतअसितापनि..... जा. 31. 3.371.
"
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असिताभू स्त्री. व्य. सं. [असितभ्रू] वाराणसी की राजवधू का नाम, जिसकी कहानी 234वीं जातक कथा में वर्णित है। मुं द्वि. वि. ए. व. सो असिताभुं नाम अत्तनो देविं आदाय हिमवन्तं पविसित्या... निवास कप्पेसि, जा. अड. 2.192 भुया तृ. वि. ए. व. एवं हायति अत्थम्हा, अहंव असिताभुयाति, जा. अड. 2.193
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जातक नपुं. 234 वें
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CTE
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695
असिद्ध
जातक का शीर्षक, जिसमें वाराणसी की राजपुत्री असिताभू का कथानक दिया गया है, जा. अट्ठ. 2.192-193. असितासन त्रि. व. स. [अशिताशन] भोजन खा चुका, भोजन समाप्त कर चुका व्यक्ति नो पु०, प्र. वि., ए. व. असितोति असितासनो परिभुत्तफलो, जा. अट्ठ.
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7.328.
असितुण्ड नपुं., तत्पु० स० [असितुण्ड ], तलवार की नोक, तलवार का अग्रभाग - ण्डेन तृ. वि., ए. व. आकासे खिपित्वा असितुण्डेन सम्पटिच्छित्वा... जा. अड. 3.155, असित्वा अस (खाना) का पू. का. कृ. (अशित्वा), भोजन या पान ग्रहणकर, खाकर, पीकर ते तं अमतं असित्वा अरोगा दीघायुका सब्बीतितो परिमुच्चेय्यु, मि. प. 164. असिधरु पु तत्पु. स. [ असित्सरु ] तलवार की मूठ सं द्वि. वि., ए. व. चोरस्स हत्थे अस्थि ठपेत्वा
ध. प. अट्ठ. 2.318. असिथिल त्रि, निषे, तत्पु० स० [अशिथिल ], शिथिलता से रहित दृढ स्थिर प्रकृति वाला - लं नपुं. प्र. वि. ए. व.
यथा च ईसापटिबद्ध युगनङ्गलं किच्चकर होति अचलं असिथिल, सु. नि. अ. 1.116 परक्कमता स्त्री भाव. [ अशिथिलपराक्रमत्व], सुदृढ़ पराक्रम से परिपूर्ण रहना, वीरता ता प्र. वि., ए. व. असिथिलपरक्कमता अनिविखतछन्दता अनिक्खितपुरता धुरसम्पग्गाहो वीरियं वीरिविन्दियं विरियबलं सम्मावायामो ध. स. 13:22:289, 571; - पूरको पु०, प्र. वि., ए. व., अपने कर्तव्य को दृढ़ता के साथ निभाने वाला असिथिलपुरको तिब्बच्छन्दो बहलपत्थनो हुत्वाव करोति, म० नि० अट्ठ० (मू.प.) 1(2).295.
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असिद्ध त्रि / साध के भू० क० कृ० का निषे [ असिद्ध], 1.
कच्चा, नहीं पका हुआ - असिद्धदुसिद्धानं डाकादीनं गन्धो आमकगन्धो, ध. स. अट्ठ 352; 2 तर्क द्वारा प्रमाणित न किया हुआ त नपुं भाव [असिद्धत्व], तर्क द्वारा ठीक से स्थापित न हो पाना अस्तित्व की असिद्धि
त्ताप. वि. ए. व.न. अणुआदीनं असिद्धत्ता, विसुद्धि. 2.138 भोजन त्र ब. स. [असिद्धभोजन ]. वह जिसके लिए भोजन तैयार नहीं किया गया है नो पु. प्र. कि.. ए. व. अभिन्नकट्टोसि अनाभतोदको अहापितग्गीसि असिद्धभोजनो, जा. अट्ठ. 5.192; असिद्धभोजनोति न ते किञ्चि अम्हाकं कन्दमूले वा पण्णं वा सेदितं तदे..
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असिधारा
696
असिलाघा
असिधारा स्त्री., तत्पु. स. [असिधारा], तलवार की धार - रा प्र. वि., ए. व. - असवारेन... विय तिखिणा असिधारा, स. नि. अट्ठ. 3.263; - रूपम त्रि., ब. स. [असिधारोपम]. तलवार की धार जैसा काट डालने वाला या तेज धार वाला - मेहि पु./नपुं., तृ. वि., ब. व. - वितुदेन्तीति असिधारूपमेहि तिखिणेहि लोहतण्डकेहि विज्झित्वा... गच्छन्ति, स. नि. अट्ठ. 2.192; तस्स कुसकण्टकेहि विद्धस्स सरपत्तेहि च असिधारूपमेहि ..., स. नि. अट्ठ. 3.107. असिनिद्ध त्रि., सिनिद्ध का निषे॰ [अस्निग्ध], चिकनाईरहित, स्निग्धतारहित, बिना तरलता वाला-द्धो पु०, प्र. वि., ए. व. - अकटयुसन्ति असिनिद्धो मुग्गपचितपानीयो, महाव. अट्ठ. 353; - द्धेसु पु., सप्त. वि., ए. व. - रुक्खो दुमम्हि फरुसासिनिद्धेसु च सो तिसु. अभि. प. 977. असिपत्तपादप पु., कर्म. स. [असिपत्रपादप]. तलवार की धार जैसे तीक्ष्ण एवं नुकीले पत्तों वाला पेड़ - पं द्वि. वि., ए. व. - तमारुहन्तं असिपत्तपादप, जा. अट्ठ.7.139. असिपत्तवन नपुं.. तत्पु. स. [असिपत्रवन], नरकलोक का वह वन, जिसमें तलवार की धार वाले पेड़ रहते हैं - स्स ष. वि., ए. व. - असिपत्तवनस्स समनन्तरा सहितमेव महती खारोदका नदी, म. नि. 3.224. असिपत्ताचित त्रि., तत्पु. स. [असिपत्राचित], तलवार की धार जैसे पत्तों से भरपूर -- ता पु.. प्र. वि., ब. व- ततो निक्खन्तमत्तं तं, असिपत्ताचिता दुमा, जा. अट्ठ. 7.139. असिपासा पु., प्र. वि., ब. व. में ही प्राप्त, मनुष्यों की एक प्रजाति- सिवा वसुदेवा घनिका असिपासा भद्दिप्रताति, मि. प. 184. असिपुत्ती स्त्री., तत्पु. स. [असिपुत्री], चाकू, छुरी- छुरिका
सत्यसिपुत्ति, अभि. प. 392. असिप्प त्रि., ब. स. [अशिल्प], शिल्पों का ज्ञान न रखने वाला, किसी प्रकार की कला या दस्तकारी के ज्ञान से रहित - स्स पु.. ष. वि., ए. व. - किच्छा वुत्ति असिप्परस, ..., जा. अट्ठ, 4.158; - प्पो पु., प्र. वि., ए. व. - कलिमेव नूनं गण्हामि, असिप्पो धुत्तको यथा, जा. अट्ठ. 7.112; - जीवी त्रि., सिप्पजीवी का निषे. [अशिल्पजीविन], दस्तकारी या शिल्पों के ज्ञान के सहारे जीविकोपार्जन न करने वाला - वी पु., प्र. वि., ए. व. - असिप्पजीवी लहु अत्थकामो, उदा. 105; सिप्पं उपनिस्साय जीविकं न कप्पेतीति असिप्पजीवी, उदा. अट्ठ. 166. असिप्पहार पु., तत्पु. स. [असिप्रहार]. तलवार का प्रहार, तलवार द्वारा किया गया घाव - रानं ष. वि., ब. व. -
खमो सत्तिप्पहारानं असिप्पहारानं उसुप्पहारानं..., म. नि. 3.174. असिप्पी त्रि., सिप्पी का निषे., तत्पु. स. [अशिल्पिन्], दस्तकारी या शिल्प को न जानने वाला, शिल्पों में अकुशल - प्पिनो पु., प्र. वि., ब. व. - धीरा च बाला च हवे जनिन्द, सिप्पूपपन्ना च असिप्पिनो च, जा. अट्ठ. 6.184. असिबन्धकपुत्त पु., व्य. सं., गांव के एक मुखिया का नाम - त्तो प्र. वि., ए. व. - अथ खो असिबन्धकप्रत्तो गामणि येन भगवा तेनुपसङ्कमि, स. नि. 2(2).299. असिमालक पु., केवल असिमालकं करोति/कत्वा/कारेसि
जैसे मुहावरों में ही प्रयुक्त, शरीर को तलवार की नोक से टुकड़े-टुकड़े कर देता है, असितुण्ड द्वारा शरीर का खण्डों में विच्छेदन करता है, तलवार द्वारा शरीर के टुकड़ों को माला जैसा पिरो देता है - कं द्वि. वि., ए. व. -- सो तस्स कळेवर आकासे खिपित्वा असितण्डेन सम्पटिच्छित्वा असिमालकं नाम कत्वा महातले विप्पकिरि, जा. अट्ठ. 3.154-155; ... असिमालकं नाम कारेसि, जा. अट्ठ. 3.152; - को प्र. वि., ए. व. - असिमालकोपिकतो, जा. अट्ठ. 3.155. असिमालकम्म नपुं.. तत्पु. स., उपरिवत् - म्मं द्वि. वि., ए. व. - कारापयन्ते असिमालकम्म, दा. वं. 3.35(रो.). असिलक्खण नपुं.. तलवारों के लक्षणों पर प्रकाश डालने वाला शास्त्र - णं प्र. वि., ए. व. - मणिलक्खणं ... असिलक्खणं... कच्छपलक्खणं मिगलक्खणं इति वा इति. दी. नि. 1.8-9;- णं द्वि. वि., ए. व. - सो किर... असिं उपसिद्धित्वा असिलक्खणं उदाहरति, जा. अट्ठ. 1.435; - जातक नपुं.. 126वें जातक का शीर्षक, जा. अट्ठ. 1.435437; - पाठक पु.. असिलक्षणशास्त्र को पढ़ने वाला - कं द्वि. वि., ए. व. - तथेवेकस्स कल्याणन्ति इद, सत्था जेतवने विहरन्तो कोसलरो असिलक्खणपाठक ब्राह्मण आरब्भ कथेसि, जा. अट्ठ. 1.435. असिलट्ठि स्त्री., [असियष्टि], लम्बी एवं पतली तलवार की धार - विं द्वि. वि., ए. व. - असिचम्मन्ति असिलष्टिञ्चेव कण्डवारणञ्च, जा. अठ्ठ. 4.329; - या त. वि., ए. व. - नकुठून कम्मं नाम नढे बन्धाय दीघासिलट्ठिया वा अयमुसलेन वा छेदनभेदनं म. नि. अट्ट (म.प.) 2.92. असिलाघा स्त्री., सिलाघा का निषे., तत्पु. स. [अश्लाघा), अपयश, अकीर्ति, निन्दा - घा प्र. वि., ए. व. - असिलोको अकित्ती च असिलाघा च अत्थुति, सद्द. 2.380.
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असिलिट्ठ
697
असीतितम
असिलिट्ठ त्रि., सिलिट्ठ का निषे. [अश्लिष्ट], शा. अ. (किसी में) लगाव या चिपकाव न रखने वाला, ला. अ. दो अर्थों के परस्पर-मिश्रण के संभ्रम से रहित, सुस्पष्ट - टुं नपुं॰, प्र. वि., ए. व. - असहितं तेति तुम्हं वचनं असहितं असिलिट्ठ, स. नि. अट्ठ. 2.230; - टुं वि. वि., ए. व. - ... युत्तायुत्तं कारणाकारणं सिलिट्ठासिलिट्ठ न जानातीति अत्थो, पु. प. अट्ठ. 72. असिलेसा द्रष्ट, अस्सिलिस (आगे), असिलोक पु., सिलोक का निषे. [अश्लोक], अप्रशंसा, अपयश, निन्दा - को प्र. वि., ए. व. - असिलोकोपि मे अस्स, पापञ्च पसवे बहुं, जा. अट्ठ. 7.240; - भय नपुं.. तत्पु. स. [अश्लोकभय], निन्दा का भय, बदनामी का डर - यं प्र. वि., ए. व. - आजीविकभयं, असिलोकभयं, ... दुग्गतिभयं अ. नि. 3(1).182; असिलोकभयन्ति गरहाभयं, अ. नि. अट्ठ. 3.259. असिलोम त्रि., ब. स. [असिलोम], तलवार की तरह नुकीले रोमों वाला - मं पु., वि. वि., ए. व. - गिज्झकूटा ... असं असिलोमं पुरिसं वेहासं गच्छन्तं, स. नि. 1(2). 233; - पेत पु., कर्म. स. [असिलोमप्रेत], तलवार के समान नुकीले रोमों वाला प्रेत - तस्मा असिलोमपेतो जातो, स. नि. अट्ठ. 2.194; - वत्थु नपुं., स. नि. के एक खण्ड का शीर्षक, स. नि. 1(2).233; स. नि. अट्ठ. 2. 194. असिसदिसविस त्रि., ब. स. [असिसदशविष], तलवार के समान तीक्ष्ण एवं काट देने वाले विष से भरा - सा पु.. प्र. वि., ब. व. - असिसदिसविसाति असिविय तिखिणं ... आसीविसाति एवमेत्थ वचनत्थो वेदितब्बो, स. नि. अट्ठ. 3.54. असिसूना स्त्री., असि एवं सूना का इतरीतर द्व. स., पशु को काटने वाली वधिक की छुरी तथा काटे जा रहे पशु को रखने के लिए प्रयुक्त काठ का पीढ़ा - ... अद्दस
प्रयुक्त काठ का पाढ़ा - ... अद्दस असिसून, असिसूना, भदन्तेति, ..., म. नि. 1.197; असिसूनाति एत्थ, यथा सूनाय उपरि मंसं ठपेत्वा असिना कोटेन्ति, । एवमिमे सत्ता... किलेसकामेहि घातयमाना... किलेसकामेहि कन्तिता कोट्टिता च होन्ति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).38; - नूपम त्रि., ब. स., वधिक की छुरी एवं वध में प्रयुक्त काष्ठपीठिका के समान, दुख से परिपूर्ण - मा पु., प्र... वि., ब. व. - असिसूनूपमा कामा वुत्ता भगवता, म. नि. 1.1833;
असीघचार पु., कर्म. स. [अशीघ्रचार], मन्द-गमन, धीमीचाल - रो पु., प्र. वि., ए. व. - असीघचारो असीधप्पवत्ति, सद्द. 2.394. असीति स्त्री., केवल ए. व. में ही प्रयुक्त [अशीति], अस्सी (80) की संख्या - सत्तरिइच्चादि पि, असीति, असीति, असीतिया, असीतियं, सद्द. 1.297; असीति में, ... वस्सानि पब्बजितस्साति, म. नि. 3.167; - असीति/असीति द्वि. वि., ए. व. - एकपुप्फ चजित्वान, असीतिं वस्सकोटियो,
थेरगा. 96; - तिया' तृ. वि., ए. व. - असीतिया वस्सेहि ....., म. नि. 3.167; - तिया' ष. वि., ए. व. - असीतिया
गामिकसहस्सानं ..., महाव. 252; - तिया' सप्त. वि., ए. व. - असीतिया महासावकेसु. विसुद्धि. 1.96. असीतिक/आसीतिक/असीतिय त्रि., असीति से व्यु. [आसीतिक], क. अस्सी वर्ष की आयु वाला, अस्सी वर्षों का - को पु., प्र. वि., ए. व. - आसीतिको मे वयो वत्तति, दी. नि. 2.78; आसीतिकोति असीतिसंवच्छरिको, दी. नि. अट्ठ. 2.124; - कं स्त्री., वि. वि., ए. व. - आसीतिकं नावुतिकंव जच्चा, जा. अट्ठ. 3.349; आसीतिक... जच्चाति असीतिसंवच्छर वा नवुतिसंवच्छर वा जातिया, तदे. 3.349; अम्भो पुरिस, न त्वं अद्दस मनुस्सेसु इत्थिं वा पुरिसं वा आसीतिक वा नावुतिकं वा ..., अ. नि. 1(1).163; 2. अस्सी स्वर्णमुद्राओं के मूल्य वाला - आसीतिया नावतिया च गाथा, जा. अट्ठ. 5.479; आसीतिया च नावुतिया च सतारहा चापि भवेय्य, जा. अट्ठ. 5.480; 3. स्त्री., एक लता, केवल स. पू. प. के रूप में प्रयुक्त - पब्ब नपुं., तत्पु. स. [अशीतिकपर्वन्], अशीति लता के पोर - ब्बानि प्र. वि., ब. व. - ... आसीतिकपब्बानि वा काळपब्बानि वा, म. नि. 1.114; आसीतिकपब्बानि ... वाति यथा आसीतिकवल्लिया वा काळवल्लिया वा, सन्धिट्ठानेसु मिलायित्वा मज्झे उन्नतुन्नतानि होन्ति, एवं मय्ह अङ्गपच्चङ्गानि ..., म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).362 असीतिकवल्ली/आसीतिकवल्ली स्त्री., तत्पु. स. [अशीतिकवल्ली], उपरिवत् - ल्लिया ष. वि., ए. व. - आसीतिकपब्बानि वा ... यथा आसीतिकवल्लिया वा काळवल्लिया वा .... म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).362. असीतितम त्रि., [अशीतितम]. अस्सीवां - मो पु., प्र. वि., ए. व. - इति ... कते ... सोळसराजको नाम असीतितमो परिच्छेदो, चू. वं. 80.80.
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असीतिनिपात 698
असु असीतिनिपात पु., जा. अट्ठ. के एक समुच्चय का शीर्षक, असीमाति या काचि नदीलक्खणप्पत्ता नदी निमित्तानि कित्तेत्वा जा. अट्ठ. 5.328-503.
एतं बद्धसीमं करोमाति कतापि असीमाव होति, महाव. अट्ठ. असीतिप्पभा स्त्री., कर्म. स. [अशीतिप्रभा]. बुद्ध के प्रभामण्डल 315. के तीन प्रकारों में से एक - भा प्र. वि, ए. व. - तत्थ । असीयति ।अस (भोजन करना) के कर्म. वा. का वर्त, प्र. ब्यामप्पभा वा असीतिपाभा वा सब्बेसं समाना, सु. नि. अट्ठ. पु., ए. व. [अश्यते], खाया जाता है - सो हि असीयति 2.122.
भुञ्जीयती ति असनन्ति वुच्चति, सद्द. 2.501; 583. असीतिमहासावकवयानागाथा स्त्री., ग. वं. की एक । असील त्रि., ब. स. [अशील], शीलों का पालन न करने गाथा, ग. वं. 66(रो.).
वाला, नैतिक आचरण न करने वाला, दुराचारी - स्स पु.. असीतिवस्सवय त्रि., ब. स. [अशीतिवर्षवय], अस्सी वर्षों ष. वि., ए. व. - को दुतियं असीलिस्स, बन्धरस्सक्खि की आयु वाला - यो पु., प्र. वि., ए. व. - आसीतिकोति भेच्छति, जा. अठ्ठ. 3.381; पाठा. असीलिस्स; - लट्ठ त्रि., असीतिवस्सवयो, अ. नि. अट्ठ. 2.42.
[अशीलस्थ], शीलों में अच्छी तरह पैरों को नहीं जमाया असीतिवस्ससहस्सायुक त्रि., ब. स. [अशीतिवर्षसहस्रायुक]. हुआ, शीलों में अप्रतिष्ठित, शील-विपरीत, शीलों पर नहीं
अस्सी हजार वर्षों की आयु तक जीने वाला - का पु., प्र. आधारित - टुं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - इदं ते असारुप्पं, इदं वि., ब. व. - चत्तारीसवस्ससहस्सायुकानं मनुस्सानं ते असीलट्टान्ति, महानि. 381; असीलट्ठन्ति तव पयोगं न असीतिवस्ससहस्सायुका पुत्ता भविस्सन्ति, दी. नि. 3.55; - सीले पतिद्वन्ति असीलट्ठ, सीले ठितस्स पयोगं न होतीति केसु पु., सप्त. वि., ब. व. - असीतिवस्ससहस्सायुकेसु, वुत्तं होति, महानि. अट्ठ. 382; - ता स्त्री॰, भाव., प्र. वि., भिक्खवे मनुस्सेसु ..., दी. नि. अट्ठ. 3.35.
ए. व. [अशीलता], शीलों से रहित होना, शीलों का पालन असीतिसंवच्छर त्रि., ब. स. [अशीतिसंवत्सरिक], अस्सी न करना, प्रातिमोक्ष के संरक्षण से रक्षित न होना - संवत्सरों या वर्षों की आयु वाला - रं पु., द्वि. वि., ए. व. असीलता ति पातिमोक्खसंवरं विना अब्बता नोपि तेन, सु. - आसीतिक नावुतिकव जच्चाति असीतिसंवच्छर वा नि. अट्ठ. 2.237. नवुतिसंवच्छरं वा जातिया, जा. अट्ठ. 3.349; - को पु., प्र. असीसक त्रि., ब. स. [अशीर्षक], बिना शिर वाला, शिर से वि., ए. व. - आसीतिकोति असीतिसंवच्छरिको, दी. नि. रहित - कं पु., द्वि. वि., ए. व. - ... असीसकं कबन्धं वेहासं अट्ठ.2.124.
गच्छन्तं ..., स. नि. 1(2).236; असीसकं अनङ्गळ, सिङ्गालो असीतिहत्थगम्भीर त्रि, तत्पु. स. [अशीतिहस्तगम्भीर]. हरति रोहित न्ति, जा. अट्ठ. 3.295. अस्सी हाथों की गहराई वाला - राय स्त्री., सप्त. वि., ए. असीसघट्ट त्रि., [अशीर्षघर्ष], शिर से न टकराने वाला/वाली व. - तावदेव असीतिहत्थगम्भीराय अङ्गारकासुया .... जा. - हा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - वेहासकुटि नाम मज्झिमस्स अट्ठ. 1.229.
पुरिसरस असीसघट्टा, पाचि. 68; ... असीसघट्टाति या असीतिहत्थमुग्गत त्रि.. [असीतिहत्थोदगत], अस्सी हाथों पमाणमज्झिमरस पुरिसस्स सब्बहेट्ठिमाहि तुलाहि सीसं न की ऊंचाई वाला - तो पु., प्र. वि., ए. व. - उच्चत्तनेन घटेति, पाचि. अट्ठ. 42. सो बुद्धो, असीतिहत्थमुग्गतो, बु. वं. 7.24.
असीह पु., सीह का निषे०, तत्पु. स. [असिंह], सिंह से इतर असीतिहत्थमुब्बेध/असीतिहत्थुब्बेध त्रि., उपरिवत् - (प्राणी), सिंह से भिन्न (प्राणी)- हो प्र. वि., ए. व. - असीहो धो पु., प्र. वि., ए. व. - असीतिहत्थमुब्बेधो, दीपङ्करो सीहमानेन, यो अत्तानं विकुब्बति, जा. अट्ठ. 3.97. महामुनी, जा. अट्ठ. 1.39; असीतिहत्थुब्बेधो रासि अहोसि, असु' पु./स्त्री., सर्व असु का प्र. वि., ए. व. [असौ], यह वि. व. अट्ठ. 52.
(पुरुष या नारी) - असु हि, भो गोतम, अग्गि दुक्खसम्फस्सो असीमा स्त्री., सीमा का निषे., तत्पु. स. [असीमा], शा. अ. चेव महाभितापो च महापरिळाहो चाति, म. नि. 2.185; - सीमा का अभाव, ला. अ. उपोसथ-नामक सङ्घकर्म के अदुं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अदुन्हि, भन्ते अढिकङ्कलं... अनुष्ठान के लिए अनुमोदित सीमा का न होना - मा प्र. निम्मंसं लोहितमक्खिक, अ. नि. 2.29; - मुं नपुं., द्वि. वि., वि., ए. व. - सब्बा, ... नदी असीमा, सब्बो समुद्दो असीमो, ए. व. - अपि नु खो सो कुक्कुरो अमुं अद्विकालं ... सब्बो जातस्सरो असीमो, महाव. 139; सब्बा, भिक्खवे, नदी पटिविनेय्यति, म. नि. 2.29; - क/अमुक त्रि., असु' से
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असु
699
असुचि
व्यु. [असुक/अमुक], यह नाम वाला/वाली, फलाना - असुको असुका, असुकं असुके ति आदिना अमुको अमुका, सद्द. 1.278; - को पु., प्र. वि., ए.व. - असुको नाम तुम्हाकं एवञ्च एवञ्च अगुणं कथेती ति .... ध. प. अट्ठ. 1.225; - का स्त्री., प्र. वि., ए. व. - ननु त्वं पदुमकुमारस्स भरिया असुकरज्ञो धीता, असुका नाम.... जा. अट्ठ. 2.99%; -- कं नपुं., प्र. वि., ए. व. - असुकं नामा ति वुत्ते ..., जा. अट्ठ. 6.220; - कंपु., द्वि. वि., ए. व. - असुकञ्च असुकञ्चाति, जा. अट्ठ. 1.109; - केन पु., तृ. वि., ए. व. - असुकेन मे तेलं पक्कन्ति मा वदित्थ, ध. प. अट्ठ. 1.8; - कस्स पु., ष. वि., ए. व. - आणत्तिको नाम असुकस्स भण्डं अवहराति अझं आणापेति, पारा. अट्ठ. 1.243; - कस्मिं पु./नपुं.. सप्त. वि., ए. व. - अमुकस्मि गामे वा निगमे वा नगरे वा ति, म. नि. 2.100. असु पु.. प्र. वि., ए. व. [असु], प्राण - पाणो त्वसु पकासितो, अभि. प. 407; - म्हि सप्त. वि., ए. व. - असुम्हि च बले पाणो सत्ते हदयगानिले, अभि. प. 945. असुक्क त्रि., सुक्क का निषे., तत्पु. स. [अशुक्ल], अनुज्ज्वल, गन्दा, मलिन, काला (कर्म) - क्कं नपुं., प्र. वि., ए. व. - कम्म अकण्ह असुक्क अकण्हअसुक्कविपाक, म. नि. 2.59. असुक्ख त्रि., vसुस के भू. क. कृ. का निषे॰ [अशुष्क], नहीं सूखा हुआ, हरा-भरा या ताजा - क्खं नपुं॰, प्र. वि., ए. व. - रुक्खतो पन अवियोजितं असुक्खं भूतगामो ति वुच्चति, दी. नि. अट्ट, 1.75. असुख क. त्रि., ब. स. [असुख], सुख का अनुभव न कराने वाला, दुख से भरा, ख, नपुं., निषे. तत्पु. स. [असुख], सुख का अभाव, दुख, मन के लिए प्रतिकूल अनुभव - खाय च. वि., ए. व. - ... बहुजनअहिताय बहुजनअसुखाय अनत्थाय अहिताय दुक्खाय देवमनुस्सानं दी. नि. 3.195. असुखसयित त्रि., तत्पु. स., ठीक से सुखाकर भण्डारण । नहीं किया हुआ, अन्नभण्डार में ठीक से नहीं रखा गया - तानि नपुं., प्र. वि., ब. व. - बीजानि पतिद्वापेय्य खण्डानि ... असुखसयितानि दी. नि. 2.260; असुखसयितानीति यानि सक्खापेत्वा कोडे आकिरित्वा ठपितानि तानि सुखसयितानि नाम एतानि पन न तादिसानि, दी. नि. अट्ठ. 2.362. असुखुम त्रि., सुखुम का निषे.. तत्पु. स. [असूक्ष्म], स्थूल, मोटा-झोंटा, सुव्यक्त - मं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - दुदुल्लन्ति दुद्द च किलेसदूसित थूलञ्च असुखुम, अनिपुणन्ति वुत्तं होति, पारा. अट्ठ. 1.170.
असुङ्कारह त्रि., [अशुल्काह], शुल्क न लगाए जाने योग्य, टैक्स न भरने योग्य - हं नपुं., प्र. वि., ए. व. - चोरानं अनुपकारं सुङ्किकानं असुङ्कारहं मातिकापत्तञ्चेव ..., जा. अट्ठ. 5.243. असुचि त्रि., सुचि को निषे. [अशुचि], शा. अ. अपवित्र, गन्दा, मलिन - सम्भवे चासुचि पुमे अमेज्झे तीस दिस्सति, अभि. प. 1024; - चि पु., प्र. वि., ए. व. - असुचि पूतिलोमोसि, दुग्गन्धो वासि सूकर जा. अट्ठ. 2.10; असुचि दुग्गन्धो सभीरु सप्पटिभयो मित्तदुभी, अ. नि. 2(1).240; - ची ब. व. - इमे चुन्द दस अकुसलकम्मपथा असुचीयेव होन्ति असुचिकरणा, अ. नि. 3(2).234; अत्तद्वपञ्जा असुची मनुस्सा, सु. नि. 75; - चिना/चिया पु./स्त्री., तृ. वि., ए. व. - असुचिना कायकम्मेन ... असुचिया चेतनाय ... असुचिना पणिधिना समन्नागता, चूळनि. 275; ला. अ. 1. नपुं, शरीर के विविध द्वारों से बाहर होकर बहने वाला मल या गन्दगी- अथस्स नवहि सोतेहि, असुची सवति सब्बदा, सु. नि. 199; असुचि सवतीति सब्बलोकपाकटनानप्पकारपरमदुग्गन्धजेगुच्छ असुचियेव सवति, सु. नि. अट्ठ. 1.209; ला. अ. 2. वीर्य, शुक्र - असुचि सम्भवो सुक्कं अभि. प. 274; - चि द्वि. वि., ए. व. - तेसं... ओक्कमन्तानं सुपिनन्तेन असुचि मुच्चति, सेनासनं असुचिना मक्खियति, महाव. 385; - कपल्लक नपुं.. कर्म. स. [अशुचिकपालक]. गन्दे मल या विष्टा से भरी गगरी - कं द्वि. वि., ए. व. - पथविरसरस्स असुचिकपल्लक सीसेन उक्खिपित्वा विचरणं नाम ..., विभ. अट्ठ. 426; - करण त्रि., [अशुचिकरण], अपवित्र कर देने वाला, गन्दा बनाने वाला- णा पु..प्र. वि., ब. व. - दस अकुसलकम्मपथा असुचीयेव होन्ति असुचिकरणा च, अ. नि. 3(2).234; - कललकूप पु., कर्म. स. [अशुचिकललकूप]. अपवित्र वस्तुओं या मलों से भरा हुआ सालाब, अत्यन्त गन्दा जलाशय - पे सप्त. वि., ए. व. - चन्दनिकायाति असुचिकललकूपे, अ. नि. अट्ठ. 2.141; - कलिमल नपुं.. कर्म. स., अपवित्र एवं काले रंग का मल, आंख का कीचड़ एवं नाक के अन्दर से बह रहा नेटा-लं द्वि. वि., ए. व. - ... नयेन नानप्पकारकं असुचिकलिमलं वमतीति वम्मिको, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).33; - किलिट्ठ त्रि, तत्पु. स., अपवित्र वस्तु द्वारा गीला किया हुआ, मूत्र आदि अपवित्र द्रवों द्वारा भिगोया हुआ -पु., वि. वि., ए. व. - किलिन्न पस्सित्वाति असुचिकिलिट्ठ पस्सित्वा, पारा. अट्ठ. 1.224; -
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असुचि
700
असुत्तमयिक जेगुच्छपटिक्कूल त्रि., द्व. स., अपवित्र, घृणित एवं प्रतिकूल नि. अट्ठ. 3.12; असुचिसुखन्ति कायासुचिसन्निस्सितत्ता - ले पु., सप्त. वि., ए. व. - यथा नाम ... सङ्काररासिम्हि किलेसासुचिसन्निस्सितत्ता च असुचिसन्निस्सितसुखं, अ. असुचिजेगुच्छियपटिकूलेपि सुचिगन्धं पदुमं जायेथ, ध. प. नि. टी. 3.13-14; -- सेदयूस पु., कर्म. स. [अशुचिस्वेदयूष]. अट्ठ. 1.250; - छान नपुं.. कर्म. स. [अशुचिस्थान]. पसीने का अपवित्र बहाव, पसीने का गन्दा पानी - सो प्र. अपवित्र स्थान, गन्दी जगह - ने सप्त. वि., ए. व. - वराहो वि., ए. व. - नवनवुतिया लोमकूपसहस्सेहि असुचिसेदयूसो वासुचिट्ठाने छड्डेत्वा सुद्धभोजनं, सद्धम्मो. 378; - तर त्रि., पग्घरति, विसुद्धि. 1.186. तुल. विशे॰ [अशुचितर], और भी अधिक अपवित्र, अपेक्षाकृत असुञ त्रि., निषे. तत्पु. स. [अशून्य], नहीं खाली, नहीं अधिक अपवित्र - रानि नपुं., प्र. वि., ब. क. - असुचितरानिरिक्त, नहीं रहित, अवियुक्त, जुड़ा हुआ, लगातार रूप में ... दुग्गन्धतरानि च पूतिकतरानि च म. नि. 2.185; भरा हुआ - ओ पु., प्र. वि., ए. व. - असुओ लोको असुचितरानि ... दुग्गन्धानि च पूतीनि च, इदानि पन अरहन्तेहि अस्सा ति, दी. नि. 2.114; असुञो... नळवनं असुचितरानि चेव दुग्गन्धतरानि...., म. नि. अट्ट (म.प.) सरवनं विय निरन्तरो अस्स, दी. नि. अट्ठ. 2.162; - आ 2.156; - निस्सवण त्रि., ब. स. [अशुचिनिस्रवण], मल ब. व. - अविवित्ताति असुञा, उदा. अट्ठ. 346; - गन्ध को या अपवित्र तरल को बहाता रहने वाला, गन्दगी को त्रि., ब. स. [अशून्यगन्ध], किसी विशेष प्रकार की गन्ध से टपकाने वाला - णं पु., द्वि. वि., ए. व. - दुक्खोदयं युक्त, गन्ध से अविरहित - न्धो पु.. प्र. वि., ए. व. - असुचिनिस्सवणं अनत्तं, तेल. 45; - पटिपीळित त्रि., मनुञ्जगन्धेन असुगन्धो, जिना. 83; - त्त नपुं॰, भाव. तत्पु. स. [अशुचिप्रतिपीडित], अपवित्रता से पीड़ित, गन्दगी [अशून्यत्व]. अशून्यता, अशून्य-भाव, अभावरहित होने की से परेशान - तो पु.. प्र. वि., ए. व. - असुचिपटिपीलितो दशा - तं प्र. वि., ए. व. - सुञो ... अस्थि चेविद नाम सो होति माणवको वा माणविका वा, अ. नि. 2(1).210; असुञतं यदिदं- म. नि. 3.148; एकत्तन्ति एकभावं, एक - पिण्ड पु., तत्पु. स. [अशुचिपिण्ड, मल का पिण्ड, असुञतं अत्थीति अत्थो, एको असुञभावो अत्थीति वुत्तं अपवित्रता से भरा पिण्ड - ण्डं द्वि. वि., ए. व. - ... ते होति. म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.111. चक्खुसञ्जितं असुचिपिण्डं गण्ह, थेरीगा. अट्ठ. 282; - असुणन्तो /अस्सुणन्तो ।सु के वर्त. कृ.. पु.. प्र. वि., ए. पुण्ण त्रि., तत्पु. स. [अशुचिपूर्ण], मलों से भरपूर, गन्दगी व. का निषे. [अश्रृण्वत्], नहीं सुनता हुआ - पुच्छव्हि से भरा हुआ - ..., असकिं पग्धरितं असुचिपुण्णं, थेरीगा. किञ्चि असुणन्तो, सुत्वा पहे वियाकते, सु. नि. 1029; - 300; - बीभच्छ त्रि., द्व. स. [अशुचिवीभत्स]. अपवित्र एवं न्तं पु., द्वि. वि., ए. व. - अचेतनं ब्राह्मण अस्सुणन्तं, जा. घृणास्पद, गन्दा एवं घिनौना - च्छं नपुं., द्वि. वि., ए. व. अट्ठ3.20; तत्थ अस्सुणन्तन्ति अचेतनत्ताव असुणन्तं, तदे.. - ततो असुचि बीभच्छंदुग्गन्ध किमिसलं, सद्धम्मो. 603; असुणिं ।सु का अद्य., उ. पु., ए. व., मैंने सुना - एकनपुतितो - भरित त्रि., तत्पु. स., अपवित्रता से भरपूर, मलों से भरा कप्पे, यं धम्ममसुणिं तदा, अप. 1.267. हुआ - तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - तं जण्णुमत्तम्पि असुत्तन्तविनिबद्ध त्रि., तत्पु. स., सुत्तों के अन्दर नहीं रखा असुचिभरितं होति, म. नि. अट्ठ (मू.प.) 1(1).87; - गया, बुद्ध वचनों के अन्तर्गत न आने वाला -द्धं पु./नपुं.. भावमिस्सित त्रि., तत्पु. स. [अशुचिभावमिश्रित], अपवित्रता- ट्वि. वि., ए. व. - ... असुत्तन्तविनिबद्ध पाळिविनिमुत्तं ... भाव से युक्त - ता पु.. प्र. वि., ब. व. - असचिभावमिस्सिताति अत्थो, पारा. अट्ट, 1.172; असुत्तन्तविनिबद्धन्ति सुत्तन्तेसु ताय रसगिद्धिया रसपटिलाभत्थाय अनिबद्ध, पाळिअनारुल्हन्ति अत्थो, सारत्थ. टी. 2.27. नानप्पकारमिच्छाजीवसवातअसुचिभावमिस्सिता. सु. नि. अट्ट असुत्तमय त्रि., [असूत्रमय]. सूतों या धागों से नहीं बना हुआ 1.263; -- सम्मत त्रि., अपवित्र माना गया - तं नपुं.. प्र. - यं नपुं., द्वि. वि., ए. व. - असुत्तमयं पसाधनं रजतेन वि., ए. व. - जरावसानं योब्बलं रूपं असुचिसम्मतं अप. सुत्तकिच्चं करिंसु, ध, प. अट्ठ. 1.221. 2.244; - सुख नपुं.. कर्म, स. [अशुचिसुख], अशुद्धि या असुत्तमयिक त्रि., उपरिवत् - कं पु., वि. वि., ए. व. - ... अपवित्रता में प्राप्त किया गया सुख, मलिन काम-भोगों में असुत्तमयिक सुमनपुप्फपट महारहञ्च ... आहरन्ति, पारा. प्राप्त सुख, क्लेशों आदि की मलिनता से भरा हुआ सांसारिक अट्ठ. 1.32; असुत्तमयिकन्ति कप्परुक्खतो निब्बत्तदिब्बदुस्सत्ता सुख - खं प्र. वि., ए. व. - मीळहसुखन्ति असुचिसुखं, अ. सुत्तेहि न कतन्ति असुत्तमयिक, सारत्थ. टी. 1.111.
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असुद्ध
असुद्ध त्रि, सुद्ध का निषे, तत्पु० स० [ अशुद्ध ], अस्वच्छ, मलिन, गन्दा, नैतिक दृष्टि से अकुशल, आचारहीन - न पु. / नपुं. तृ. वि. ए. व. कथं सुद्धं असुद्धेन समं करेय्या ति सु. नि. 90: कथहि सुतवा... सुद्धं समणत्तयमेवं अपरिसुद्धकायसमाचारतादीहि असुद्धेन ... समं करेय्य ...... सु. नि. अड. 1.131 दो पु. प्र. वि. ए. व. असुद्धो होति पुग्गलो अञ्ञतरं पाराजिक धम्मं अज्झापन्नो, पारा, 259 डाव व अन्तो असुद्धा यहि सोभमानाति स. नि. 1 ( 1 ) 96 अन्तो असुद्धाति अब्भन्तरतो रागादीहि अपरिसुद्धा महानि. अड. 358; कम्म त्रि. ब. स. [अशुद्धकर्मन्]. मलिन कर्मों को करने वाला, अकुशल कर्मों को करने वाला
म्मा पु०, प्र. वि. ब. व. ये सुद्धा..... असुद्ध कम्मा कथिनो ददन्ति, जा. अड. 6.132 असुद्धकम्माति किलिहकायवचीमनोकम्मा जा. अड. 6.133 धम्मत नपुं. भाव. [ अकुशलधर्मत्व], पापमय या अकुशल धर्मों से
युक्त होना त्ताप. वि. ए. व. असुद्धधम्मता
"
अनरियधम्मेसु केराटिकत्ता सर्वसु नस्सति जा. अड्ड. 3.9 मक्ख त्रि. [ अशुद्धभक्षिन्] अशुद्ध पदार्थों को खाने वाला, गन्दी चीजों को खा लेने वाला क्खो पु. प्र. वि.. ए. व. असुद्धभक्खसि खणानुपाती, किच्छेन ते लब्भति अन्नपानं, जा. अड. 3.461. असुद्धि स्त्री, सुद्धि का निषे, तत्पु० स० प्र. वि., ए. व.
[ अशुद्धि] शुद्धि का अभाव, आचरण में पवित्रता का अभाव, अकुशलता सुद्धी असुद्धि पच्चत्तं, ध. प. 165; अकुसलकम्मसद्वाता च असुद्धि... ध. प. अ. 2.89; द्धिं द्वि. वि., ए. व. सुद्धिं असुद्धिन्ति अपत्थयानो. सु. नि. 906 असुद्धिन्ति असुद्धिं पत्थेन्ति, अकुसले धम्मे पत्थेन्ति, महानि. 230. धम्म त्रि०, ब० स० [ अशुद्धिधर्मन् ], विशुद्धि या निर्वाण को प्राप्त न करने योग्य, स्वभाव से ही विशुद्धि-रहित चित्त वाला म्मं पु. हि. वि. ए. व. सयमेव ..... परं वद बालमसुद्धिधम्मं सु. नि. 899 म्मो प्र. वि. ए. व. बालमसुद्धिधम्मन्ति परो बालो हीनो निहीनों ओमको लामको ... असुद्धिधम्मो अविसुद्धिधम्मो ... महानि.
-
-
222.
असुन्दर त्रि.. सुन्दर का निषे तत्पु, स. [असुन्दर] बुरा. प्रतिकूल, मन द्वारा प्रतिकूल रूप में संवेदनीय रो फु.. प्र. वि., ए. व. - असुन्दरो गन्धो यस्स सो दुग्गन्धि, क. व्या. 339 पु.द्वि. वि. ए. क. इध भिक्खु चीवरं लभति, - रं सुन्दरं या असुन्दरं वा दी. नि. अड. 1.166.
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असुभ
-
.
असुभ त्रि. सुभ का निषे तत्पु, स. [अशुभ ], शा. अ. अमङ्गलों को लाने वाला, अमङ्गलकारी, अपवित्र ला. अ. क. क्लेशों के मलों से परिपूर्ण, घिनौना (शरीर एवं सांसारिक सुख आदि) मं' नपुं. प्र. वि. ए. व. सङ्घतमसुभन्ति किलेसासुचिपग्धरणेन असुभन्ति अत्या.... थेरीगा. अड. 280; - मं नपुं., द्वि. वि., ए. व. - असुभं असुभतद्दसु. अ. नि. 1(2):60: तो प. वि. ए. व. असुभतदसुन्ति असुभं असुभतोयेव अद्दसंसु, अ. नि. अट्ठ. 2.299 - भे पु० / नपुं०, सप्त. वि. ए. व. असुभे असुभसज्जिनो, अ. नि. 1 ( 2 ) 60: ला. अ. खत्रि, अशुभ या अपवित्र माने गए दस प्रकार के आलम्बनों पर उपचार-ध्यान अथवा उनकी स्मृति या अनुपश्यना मं द्वि. वि. ए. व. असुभ राहुल भावनं भावेहि म. नि. 2.95; असुभन्ति उद्घुमातकादिसु उपचारप्पन म. नि. अड्ड. (म.प.) 2101 भा स्त्री. प्र. वि. ए. व. रागस्स पहानाय असुभा भावेतब्बा अ. नि. 2 ( 2 ) 145 - य च. वि. ए. क. असुभाय चितं भावेहि सु. नि. 343 असुभाय चित्तं भावेहीति यथा सविञ्ञाणके अविज्ञाणके या कार्य असुभभावना सम्पज्जति, एवं चित्तं भावेहि सु. नि. अट्ठ. 2.69 ला. अ. ग. पु०, अशुभ- भावना के दस प्रकार अथवा चित्त की एकाग्रता के दस अशुभ आलम्बन भा प्र० वि. ब. व. उद्धमातक, विनीलकं, विपुष्बकं विच्छिदक, विक्खायितक, विक्खित्तकं, हतविक्खित्तकं, लोहितकं, पुळुवक, अद्विकन्ति इमे दस असुभा विसुद्धि. 1.108 अभि. ध. स. 62; - भेद्वि. वि., ब. व. - उग्गण्हेय्यासुभे कथं, ना० रु. परि 1069; कथा स्त्री, तत्पु. स. [ अशुभकथा]. शा. अ. अमङ्गल भरी चीजों के बारे में कथन या उपदेश, शरीर एवं विषय-भोगों आदि के अशुभ होने के विषय में उपदेश थं द्वि. वि. ए. व. भगवा भिक्खूनं अनेकपरियायेन असुभकथं कथेति पारा 81 स. नि. 3.390 ला. अ. बुद्धवचन से बाहर की पांच प्रकार की कथावस्तुओं में से एक तिस्सो पन सङ्गीतियो अनारुळ्हं धातुकथा आरम्मणकथा असुभकथा आणवत्थुकथा विज्जाकरण्डकोति स. नि. अनु. 2.177; कम्मट्ठान नपुं, कर्म, स. [बौ. सं. अशुभकर्मस्थान ], ध्यान के चालीस कर्मस्थानों (आलम्बनों) में से एक के रूप में अशुभ नं द्वि. वि., ए. व. रामपरिपक्खं असुभकम्मट्टानं गत्वा म. नि. अड (मू.प.) 1(1).72; तरस रागपटिघाताय असुभकम्गद्वानं अदासि ध. प. अ. 2.243 कम्मट्ठाननिदेस पु. विसुद्धि. के उस खण्ड का शीर्षक, जिसमें फूले हुए मृत शरीर जैसे
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असुभ अशुभ-कर्मस्थानों के ग्रहण करने की विधि का विवेचन है, विसुद्धि. 1.171-188; - कम्मिकतिस्सत्थेर पु., चेतियपर्वत के महातिस्सथेर का ही दूसरा नाम - असुभकम्भिकतिस्सत्थेरसदिसे असुभभावनारते कल्याणभित्ते । सेवन्तस्सापि कामच्छन्दो पहीयति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).292; -- ज्झान नपुं.. कर्म. स. [अशुभध्यान], अशुभ माने जाने वाले कर्मस्थानों पर चित्त की एकाग्रता - नं द्वि. वि., ए. व. - तं असुभझानं भावेति, ध. प. अट्ठ. 2.320; - नानं ष. वि., ब. व. - यदि एवं या असुभज्झानानं अप्पमाणारम्मणता वुत्ता ..., विसुद्धि. 1.109; - दस्सन नपुं.. तत्पु. स. [अशुभदर्शन], अशुभ या अमङ्गलदायक का दर्शन - नं प्र. वि., ए. व. - असुभदस्सनम्पि सात्थं, म. नि. अट्ट. (मू.प.) 1(1).265; - निमित्त नपुं, कर्म, स., चित्त की एकाग्रता लाने में कारण बनने वाला अशुभ आलम्बन - तं प्र. वि., ए. व. - असुभनिमित्तं नाम असुभम्पि असुभारम्मणम्पि, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).292; - भावना स्त्री., तत्पु. स., दस प्रकार के अशुभ कर्मस्थानों में किसी एक का ग्रहण कर की जा रही ध्यानभावना - ना प्र. वि., ए. व. - ब्रह्मविहारभावना असुभभावना आनापानस्सतिभावना च...., म. नि. टी. (म.प.) 2.62; - य तृ. वि., ए. व. - असुभभावनाय वण्णं भासति, स. नि. 3(2).390; - भावनानुयोग पु., तत्पु. स. [अशुभभावनानुयोग], दस अशुभों की आलम्बन को रूप में ग्रहण कर ध्यान-भावना का अभ्यास - गो प्र. वि., ए. व. - अपिच छ धम्मा... असुभभावनानुयोगो इन्द्रियेसु गुत्तद्वारता भोजने मत्तञ्जता कल्याणमित्तता सप्पायकथाति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).292; - भावनारत त्रि., तत्पु. स., अशुभों को कर्मस्थान बनाकर ध्यानभावना में लगा हुआ - ते पु., सप्त. वि., ए. व. - असुभकम्मिकतिस्सत्थेरसदिसे असुभभावनारते कल्याणमित्ते सेवन्तस्सपि कामच्छन्दो पहीयति, दी. नि. अट्ट, 2.331; - लक्ख ण नपुं., तेल. की उन चौदह गाथाओं के समुच्चय का शीर्षक, जिनमें शरीर के अशुभलक्षणों पर प्रकाश डाला गया है, तेल. 64-77; - सज्ञा स्त्री., तत्पु. स. [अशुभसंज्ञा], "यह शरीर अशुभ है" इस प्रकार का संज्ञा ज्ञान, शरीर की अशुभ अनुपश्यना से उत्पन्न ज्ञान, सात संज्ञाओं में से एक - सत्त सञ्जा- अनिच्चसा , अनत्तसा , असुभसा ... निरोधसञ्जा, दी. नि. 3.199; ... असुभानुपस्सनाञाणे सजा असुभसा , दी. नि. अड. 3.203; - सजी त्रि., अशुभ की अनुपश्यना कर 'शरीर अशुभ है, तुच्छ है', इस प्रकार का ज्ञान पाने वाला -
असुर जिनो पु., प्र. वि., ब. व. - ते निब्बापेन्ति रागग्गि, निच्च असुभसञ्जिनो, इतिवु. 66; तत्थ असुभसञिनोति द्वत्तिसाकारवसे न चे व उद्धव मातकादिवसेन च असुभभावनानुयोगेन असुभसञिनो, इतिवु. अट्ठ. 261; - समापत्ति स्त्री., तत्पु. स. [अशुभसमापत्ति], अशुभ कर्मस्थानों को ग्रहण कर ध्यान की प्राप्ति - या ष. वि., ए. व. - आदिस्स आदिस्स असुभसमापत्तिया वण्णं भासति, पारा. 81; - भाकार पु., तत्पु. स. [अशुभाकार], अशुभ या अमङ्गलमय स्वरूप - रं द्वि. वि., ए. व. - ... असुभं असुभाकारं अनुपस्सका हुत्वा विहरथ, इतिवु. अट्ठ. 233; - भानुपस्सी/भानुपस्सिनो पु., प्र. वि., ब. व., शरीर
आदि में अशुभ की अनुपश्यना करने वाले - असुभानुपस्सी, .... कायस्मिं विहरथ, इतिवु. 58; असुभानुपस्सीति असुभं
अनुपस्सन्ता ... कायस्मिं असुभं असुभाकार अनुपस्सका हुत्वा विहस्थ, इतिवु. अट्ठ. 233; असुभानुपस्सी कायस्मि, . ... इतिवु. 59; एथ तुम्हे, ... असुभानुपस्सिनो काये विहरथ. म. नि. 1.420; - पस्सिं पु., द्वि. वि., ए. व. - असुभानुपस्सिं विहरन्तं, ..., ध. प. 8; असुभानुपस्सिन्ति दससु असुभेसु अञ्जतरं असुभं परसन्तं... केसे असुभतो पस्सन्तं ....ध. प. अट्ठ. 1.45; - भारम्मण नपुं., तत्पु. स. [अशुभालम्बन], ध्यान की भावना के क्रम में आलम्बन के रूप में गृहीत अशुभ - णं प्र. वि., ए. व. - असुभनिमित्तं नाम असुभम्पि असुभारम्मणम्पि, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).292; - भावज्जना स्त्री., तत्पु. स., अशुभ आलम्बन पर चित्त की एकाग्रता - नादीहि तृ. वि., ब. व. - ... असुभावज्जनादीहि उपायेहि निवारये, स. नि. अट्ठ. 3.103; -- भासुखभावादि पु., अशुभ एवं असुख आदि से रहित अवस्थाएं या स्थितियां - दीनं ष. वि., ए. व. - सुभसुखभावादीनं पक्खेपस्स, ... असुभासुखभावादीनं अपनयनस्स च पहानं वुत्तं, दी. नि. अट्ठ. 2.313-14; असुभासुखभावादीनन्ति एत्थ पन आदिसद्देन अमनुअनिच्चतादीनं, लीन. (दी.नि.टी.) 2.274. असुर पु.. [असुर], क. (केवल ब. व. में ही प्रयुक्त होने पर) सुरों या देवों के प्रतिपक्षी या शत्रु, दानव, पूर्वकाल में देवता के रूप में रह चुके दैत्य - पुब्बदेवा सुररिपू असुरा दानवा पुमे, अभि. प. 14; ख.1. व्यु., 'हमने सुरा नहीं पी ऐसा कहने के कारण असुर नाम पाने वाले देवता - ... ताता न सुरं पिविम्ह, न सुरं पिविम्हा ति आहंसु, ततो पट्ठाय असुरा नाम जाता, स. नि. अट्ठ. 1.295; ख.2. सुरों अर्थात् देवताओं के शत्रु असुर - सुरा नाम देवा, तेसं पटिपक्खाति
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असुर 703
असुर वा असुरा, उदा. अट्ठ. 243; ख.3. वास्तविक देवों के समान असुरों के समूहों को परास्त करने वाला देवराज शक्र प्रभासित नहीं होने के कारण असुर - पकतिदेवा विय न (इन्द्र)- नो प्र. वि., ए. व. - स देवराजा असुरगणप्पमद्दनो, सुरन्ति, न इसन्ति न विरोचन्तीति असुरा, उदा. अट्ठ. 243; ओकासमाकऋति.... जा. अट्ठ. 5.133; - जेट्ठक पु., तत्पु. ख.4. प्राणियों के अनेक वर्गों में से एक, अन्य प्राणियों से स. [असुरज्येष्ठक], असुरों का मुखिया, असुरों में प्रमुख, भिन्न प्राणियों का एक वर्ग - सुखकामा हि देवा मनुस्सा असुरों का स्वामी - को प्र. वि., ए. व. - तत्थ असुरेसोति असुरा नागा गन्धब्बा ये च सन्ति पुथुकाया ति, दी. नि. असुरो एसो, असुरजेट्टको सक्को एसोति अधिप्पायेन वदति, 2.198; ग.1. असुरों के दो सुस्पष्ट वर्ग क. कालकञ्चिका, जा. अट्ठ. 4.244; - त्त नपुं॰, भाव. [असुरत्व], असुरभाव, ये प्रेतों जैसे स्वरूप वाले तथा प्रेतों के साथ आवाह-विवाह असुर होने की अवस्था - त्ताय च. वि., ए. व. - अयं दिट्टि करते हैं - ननु कालकञ्चिका असुरा पेतानं समानवण्णा ... यक्खत्ताय वा असुरत्ताय वा... देवताय वा, महानि. 52; .... पेतेहि सह आवाहविवाहं गच्छन्ति, कथा. 299; ख. - दन्त त्रि., ब. स. [असुरदन्त], असुरों के दांतों जैसे वेपचित्तिपरिसा, इस वर्ग वाले असुर देवताओं जैसे रूप टिकराल दांतों वाला, मुख से बाहर की ओर निकले हुए वाले होते हैं तथा उन्हीं के साथ वैवाहिक सम्बन्ध भी दांतों वाला - न्तो पु., प्र. वि., ए. व. - ... असुरदन्तो वा स्थापित करते है - नन वेपचित्तिपरिसा देवानं समानवण्णा हेद्रा वा उपरि वा बहिनिक्खन्तदन्तो, महाव. अट्ठ. 295; - .....देवेहि सह आवाहविवाहं गच्छन्तीति, कथा. 299; ग.2. नगर नपुं, तत्पु. स. [असुरनगर], असुरों का नगर, असुरों पु., ए. व. में प्रयुक्त, शा. अ. एक असुर, देवताओं से की राजधानी - रं प्र. वि., ए. व. - द्वे नगरानि ... शत्रुता रखने वाली प्रजाति का एक प्राणी, ला. अ. दुष्ट अयुज्झपुरानि नाम जातानि देवनगरञ्च असुरनगरञ्च, स. प्रकृति वाला असज्जन व्यक्ति, वीभत्स - एवं खो, भिक्खवे, नि. अट्ठ. 1.296; - परिवार त्रि., ब. स. [असुरपरिवार]. पुग्गलो असुरो होति असुरपरिवारो, अ. नि. 1(2),1063; असुरों के समूह के साथ रहने वाला, असुरों से चारों ओर असुरोति असुरसदिसोविभच्छो, अ. नि. अठ्ठ. 2.319; नेसो से घिरा हुआ - रो प्र. वि., ए. व. - पुग्गलो असुरो होति मिगो महाराज, असुरेसो दिसम्पति, जा. अट्ठ, 4.244; तत्थ असुरपरिवारो, अ. नि. 1(2).106; - पुर नपुं.. तत्पु. स. असुरेसोति असुरो एसो, असुरजेटको सक्को एसोति [असुरपुर], असुरों का नगर, असुरों की राजधानी - रं द्वि. अधिप्पायेन वदति, तदे.; - कञा स्त्री०, तत्पु. स. वि., ए. व. - कोटिसतापि कोटिसहस्सापि नागा तेहि सद्धिं [असुरकन्या], असुरों की पुत्री सुजा, जो देवराज इन्द्र की युज्झित्वा ते असुरपुरयेव पवेसेत्वा निवत्तन्ति, स. नि. अट्ठ. भार्या थी - अं द्वि. वि., ए. व. - सो सुजं असुरकज 1.296; - भवन नपुं.. तत्पु. स. [असुरभवन], सुमेरु पर्वत पुरतो कत्वा अपेथ, दी. नि. अट्ठ. 2.289; - काय पु., असुरों के नीचे पाताल में स्थित असुरों का निवासस्थान - नं प्र. का लोक, चार प्रकार की अपाय भूमियों या दुखभरी गतियों वि., ए. व. - सिनेरुस्स हेडिमतले असुरभवनं नाम अत्थि, में एक, अकुशल कर्मों के विपाक के कारण प्राप्त होने वाले म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).198; - भेरी स्त्री., तत्पु. स. दुखद लोक में जन्म - यो प्र. वि., ए. व. - कालङ्कतो च [असुरभेरी], असुरों का ताशा या बड़ा ढोल, असुरों का कालकञ्चिका नाम असुरा सब्बनिहीनो असुरकायो, तत्र नगाड़ा - रियो द्वि. वि., ब. व. - ..., युद्धसज्जा हुत्वा , उपपज्जिस्सति, दी. नि. 3.5; - ये सप्त. वि., ए. व. - असुरभेरियो वादेन्ता महासमुद्दे उदकं द्विधा भेत्वा उद्वहन्ति, देवेसु मनुस्सेसु च, तिरच्छानयोनिया असुरकाये, थेरीगा. स. नि. अट्ट, 1.296; - माया स्त्री., तत्पु. स. [असुरमाया], 477; असुरकायेति कालकञ्चिकादिपेतासुरनिकाये, थेरीगा. असुरों की माया, असुरों की जादुई चाल -- याहि तृ. वि. अट्ठ. 309; - या प्र. वि., ब. व. - दिब्बा वत, भो, काया ब. व. - समायाति सद्धि असुरमायाहि, जा. अट्ठ. 5.18; - परिपूरिस्सन्ति, परिहायिस्सन्ति असुरकाया ति, अ. नि. योनि स्त्री., [असुरयोनि], असुर नामक प्रजाति, असुरों का 1(1).168; असुरकायाति चत्तारो अपाया परिपूरिस्सन्ति, अ. लोक - निं द्वि. वि., ए. व. - असुरकायन्ति नि. अट्ठ. 2.122; - गण पु.. तत्पु. स. [असुरगण]. असुरों काळकञ्जिकअसुरयोनिञ्च वड्डेन्तीति अत्थो, जा. अट्ठ. का समूह, बहुत सारे असुर - णा प्र. वि., ब. व. - तस्मि 5.179; - योनिय त्रि., असुरयोनि में पुनर्जन्म दिलाने वाला काले असुरगणा तावतिंसदेवलोके पटिवसन्ति, म. नि. अट्ठ. - यो पु., प्र. वि., ए. व. - असुरयोनियोति असुरयोनिया (मू.प.) 1(2).198; - गणप्पमद्दन पु., [असुरगणप्रमर्दन]. हितो, असुरजातिनिब्बत्तनकोति अत्थो, नेत्ति. अट्ठ. 254; -
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असुरिन्दकभारद्वाज 704
असूर राज पु., तत्पु. स. [असुरराज], असुरों का राजा, असुरों असुरोप/अस्सुरोप पु., 1. द्वेष या क्रोध से भरा चित्त, का अधिपति - जो प्र. वि., ए. व. - असुराधिपोति यथा जिसमें बोले गए वचन आधे-अधूरे ही रह जाते हैं, परिपूर्ण तावतिंसेहि परिवारितं इन्दं असुरराजा नप्पसहति, जा. नहीं हो पाते, चित्त में उत्तेजना या क्रोध का भाव - ... दोसो अट्ठ. 4.124; - वग्ग पु., अ. नि. के एक वर्ग का शीर्षक, दुस्सना... चण्डिक्कं असुरोपो अनत्तमनता चित्तस्स, ध. स. अ. नि. 1(2),106-116; - वत नपुं.. तत्पु. स. [असुरद्रत], 418; न एतेन सुरोपितं वचनं होति, दुरुत्तं अपरिपुण्णमेव असुरों का व्रत, असुरों द्वारा ग्रहण किया गया व्यवहार - होतीति असुरोपो, ध. स. अट्ट, 297; 2. आंसुओं से भरपूर तं प्र. वि., ए. व. - वतानीति हत्थिवतं वा... यक्खवतं वा क्रोध या उत्तेजना की अवस्था - अपरे पन अस्सुजननतुन असुरवतं वा..., महानि. 66; - वतिक त्रि., [असुरव्रतिक], अस्सुरोपनतो अस्सुरोपोति वदन्ति, ध, स. अट्ठ. 297. असुरों के व्रतों या विधि विधानों का अनुसरण करने असुलभ त्रि., सुलभ का निषे., तत्पु. स. [असुलभ], सरलता वाला, असुरों के कार्यकलापों को ग्रहण करने वाला - का से प्राप्त न होने वाला - भं पु./नपुं., द्वि. वि., ए. व. - पु., प्र. वि., ए. व. - सन्तेके समणब्राह्मणा असुलभमभुतमतुलं निच्च नीरुज असोकमतिसन्तं सद्धम्मो. वतसुद्धिका, ... यक्खवतिका वा होन्ति, असुरवतिका वा 496. होन्ति, ..., महानि. 63-64; - विमान नपुं, तत्पु. स. असुवण्ण 1. त्रि., सुवण्ण का निषे. [असुवर्ण], सोना से [असुरविमान], असुरों का लोक, असुरों का निवासस्थान- भिन्न वह वस्तु, जो सोना से भिन्न हो, रहित हो - ण्णो पु., नं प्र. वि., ए. व. - अथ नेसं पुञानुभावेन सिनेरुनो प्र. वि., ए. व. - इमस्मि करीसमत्ते पदेसे आमलकमत्तोपि हेद्विमतले असुरविमानं नाम निब्बत्ति, ध. प. अट्ठ. 1.1544; - पंसपिण्डो असुवण्णो नाम नत्थी ति, अ. नि. अट्ठ. 1.330; 2. सासन पु., तत्पु. स. [असुरशासन]. शक्र (इन्द्र) की एक नपुं., सुवण्ण का निषे., तत्पु. स., सोना के अतिरिक्त कुछ उपाधि - नो प्र. वि., ए. व. - जम्बारिचेव वजिरहत्थो । अन्य - ण्णं द्वि. वि., ए. व. - सा असुवण्णमेव सुवण्णन्ति असुरसासनो, सद्द. 2.378; - राधिप पु., तत्पु. स. ... दत्वा , जा. अट्ट, 4.12. [असुराधिप], असुरों का स्वामी - पो प्र. वि., ए. व, - असुसानट्ठान नपुं.. सुसानट्ठान का निषे. [अश्मशानस्थान], अमित्ता नप्पसहन्ति, इन्दंव असुराधिपो ति, जा. अट्ठ. 4.123; ऐसा स्थान, जहां श्मशान न हो या जहां कोई मृत व्यक्ति असुराधिपोति यथा तावतिंसेहि परिवारितं इन्दं । की दाहक्रिया न की गयी हो - नं प्र. वि., ए. व. - असुरराजा नप्पसहति, जा. अट्ठ. 4.124; - राधिपति पथवियहि अझापितट्टानं वा असुसानहानं वा ... लर्द्धन पु., उपरिवत् - तिं द्वि. वि., ए. व. - ये मादिसं सक्का ..., जा. अट्ठ. 2.45... असुराधिपतिं नवगूथसूकर विय कण्ठपञ्चमेहि बन्धनेहि असुसिर त्रि., [असुषिर], नहीं खोखला, ठोस - रो पु., प्र. बन्धित्वा निसीदापेन्ति, स. नि. अट्ठ. 3.110; - राभिभू पु., वि., ए. व. - यथा हि एकघनो असुसिरो..., ध. प. अट्ट. शक्र (इन्द्र) की एक उपाधि - गन्धब्बराजा देविन्दो सरिन्दो 1.330. असुराभिभूति, सद्द. 2.378; - रिन्द पु., तत्पु. स. [असुरेन्द], असुस्सूसन्त त्रि., vसु (सुनना) के इच्छा. के वर्त. कृ. का असुरों का राजा या स्वामी - न्देन तृ. वि., ए. व. - निषे. [अशुश्रूषत्], सुनने की इच्छा न रखने वाला - स्सं सकलनगरं बोधिसत्तस्स रूपदस्सनेन धनपालकेन पु., प्र. वि., ए. व. - पञञ्च खो असुस्सूसं, न कोचि पविट्ठराजगहं विय असुरिन्देन पविट्ठदेवनगरं विय च सोभ अधिगच्छति, जा. अट्ठ. 5.117; असुस्सूसन्ति पण्डितपुग्गले अगमासि, जा. अट्ठ. 1.75.
अपयिरुपासन्तो अस्सुणन्तो, जा. अट्ट. 5.118. असुरिन्दकभारद्वाज पु., अक्कोसकभारद्वाज का अनुज - असुस्सूसा स्त्री., सुस्सूसा का निषे., तत्पु. स. [अशुश्रूषा].
जो प्र. वि., ए. व. - असुरिन्दकभारद्वाजो ब्राह्मणो भगवन्तं सुनने की इच्छा का अभाव - सा प्र. वि., ए. व. - एतदवाच-स. नि. 1(1).191; तातय असुरिन्दकभारद्वाजोति असुस्सूसा अपरिपुच्छा पञआय पटिपन्थी, अ. नि. 3(2).113.
अक्कोसकभारद्वाजस्स कनिट्ठो, स. नि. अट्ठ. 1.202. असूयित्थ सु (सुनना) के कर्म. वा. का अद्य., म. पु., ब. असुरियंपस्स त्रि., [असूर्यम्पश्य], सूर्य को न देखने व., सुना गया था- असूयित्था ति वा सुतं. सद्द. 2.491. वाला/वाली - स्सानि नपुं. प्र. वि., ब. क. - असुरियंपस्सानि असूर पु., निषे. तत्पु. स. [अशूर], शूरता एवं वीरता से मुखानि, सद्द. 3.744.
रहित, साहसहीन, कायर, डरपोक - रो प्र. वि., ए. व. -
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असेख/असेक्ख
705
असेचन
नासूरोति न असूरो भीरुकजातिको, जा. अट्ठ. 7.186; ननं असूरो जिनाति, सु. नि. 441; ... एवं तव सेनं असूरो काये । च जीविते च सापेक्खो पुरिसो न जिनाति, सु. नि. अट्ठ. 2.107; - रं द्वि. वि., ए. व. - तं युद्धत्थो भरे राजा, नासूर जातिपच्चया, स. नि. 1(1).118; नासूरं जातिपच्चयाति, अयं जातिसम्पन्नोति एवं जातिकारणा असूरं न भरेय्य, स. नि. 1(1).146. असेख/असेक्ख त्रि., सेक्ख का निषे., तत्पु. स. [बौ. सं. अशैक्ष्य], शा. अ. शिक्षा द्वारा प्रशिक्षित नहीं किया जाने योग्य, ला. अ. 1. अर्हत्, जिसे अब आगे किसी प्रकार की शिक्षा की आवश्यकता नहीं रह जाती है, 2. अर्हत् द्वारा प्राप्त किये जा रहे शील, समाधि एवं प्रज्ञा जैसे सम्प्रयुक्त धर्म - क्खो पु., प्र. वि., ए. व. - असेक्खेन सीलक्खन्धेनाति असेक्खस्स सीलक्खन्धो असेक्खो सीलक्खन्धो नाम, स. नि. अट्ठ. 1.146; खीणासवो त्वसेक्खो च वीतरागो तथा रहा, अभि. प. 10; तयो पुग्गला-सेक्खो पुग्गलो, असेक्खो पुग्गलो, नेवसेक्खोनासेक्खो पुग्गलो, दी. नि. 3.174; खीणासवो सिक्खितसिक्खत्ता पुन न सिक्खिस्सतीति असेक्खो, दी. नि. अट्ठ. 3.164; - क्खा' स्त्री., प्र. वि., ए. व. - अरहतो पञ्जा असेक्खा, दी. नि. अट्ठ. 3.166; - क्खा पु.. प्र. वि., ब. व. - दस असेक्खा । धम्मा, दी. नि. 3.216; असेक्खा सम्मादिट्ठीतिआदयो सब्बेपि फलसम्पयुत्तधम्मा एव, दी. नि. अट्ठ. 3.215; - खं नपुं., प्र. वि., ए. व. - सेखस्स असेखं आणं अत्थीति, कथा. 254; - खेन पु., तृ. वि., ए. व. - असेखेनावुसो, सारिपुत्त, भिक्खुना चत्तारो सतिपट्टाना उपसम्पज्ज विहातब्बा, स. नि. 3.370; - जाण नपुं., तत्पु. स. [बौ. सं. अशैक्ष्यज्ञान], अर्हत् का आज्ञा ज्ञान, “मैंने अर्हत् अवस्था को प्राप्त कर लिया, इस प्रकार का प्रतिवेधज्ञान, आस्रवों के क्षय का ज्ञान - नं प्र. वि., ए. व. - असेखञाणमुप्पन्न, अन्तिमोयं समुस्सयो, स. नि. 2(1),78; असेखजाणन्ति अरहत्तफलञाणं. स. नि. अट्ठ. 2.251; - ञाणकथा स्त्री., कथा. के एक स्थलविशेष का शीर्षक, कथा. 254-255; - त्त नपुं, भाव. [बौ. सं. अशैक्ष्यत्व]. अशैक्ष्य या अर्हत्व के फल के प्राप्ति की अवस्था - त्ता प. वि., ए. व. - सा हि सयं असेक्खत्ता असेक्सविसयं अमआसि, उदा. अट्ठ. 141; - धम्मक्खन्ध पु., तत्पु. स. [बौ. सं. अशैक्ष्यधर्मस्कन्ध], अर्हत् द्वारा प्राप्त पांच प्रकार के धर्म - न्धस्स ष. वि., ए. व. - पञ्चअसेक्खधम्मक्खन्धस्स च भागवा होतीति ... अरहत्तेन देसनाय कूट गण्हीति, ध. प.
अट्ठ. 1.92; - बल नपुं., तत्पु. स. [बौ. सं. अशैक्ष्यबल]. अर्हत् के बल - लानि प्र. वि., ए. व. - दस असेखबलानि? सम्मादिहिं सिक्खतीति सेखबलं, तत्थ सिक्खितत्ता असेखबलं. पटि. म. 347; - भागिय त्रि., [बौ. सं. अशैक्ष्यभागीय]. अर्हत्वफल की लोकोत्तर अवस्था से सम्बन्धित - यं नपुं.. प्र.वि., ए. व. - किं इदं सुत्तं आहच्च वचनं... संकिलेसभागियं ... असेक्खभागियं, नेत्ति. 20; 105; परिनिट्टितसिक्खाधम्मा असेक्खा, असेक्खभावे पवत्तं, असेक्खे भजापेतीति वा असेक्खभागियं, नेत्ति. अट्ठ. 338; - भूमि स्त्री., तत्पु. स. [बौ. सं. अशैक्ष्यभूमि], अर्हत्तव-फल की अवस्था- मि द्वि. वि., ए. व. - तस्मा उत्तरि असेक्खभूमिं पुच्छन्तो दुतिय पहं पुच्छि , म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).178; - मुनि पु.. कर्म. स. [बौ. सं. अशैक्ष्यमुनि], अर्हत्, वह आर्यपुद्गल, जिसके चित्त के सभी आस्रव क्षीण हो चुके है - नीनं ष. वि., ब. व. - एवरूपानं असेखमुनीनं अभिसम्परायो नाम नत्थि, ध. प. अठ्ठ. 2.186; - रतन नपुं.. कर्म. स. [बौ. सं. अशैक्ष्यरत्न], रत्नों की भांति अनुत्तर मूल्यों वाला अर्हत् - नं प्र. वि., ए. व. - असे खरतनम्पि दुविध सुखविपस्सकसमथयानिकवसेन, खु. पा. अट्ठ. 141; - विसय पु., तत्पु. स. [बौ. सं. अशैक्ष्यविषय], अर्हतों के ज्ञान का क्षेत्र - यं द्वि. वि., ए. व. - सा हि सयं असेक्खत्ता असेक्सविसयं अब्मासि, उदा. अठ्ठ 141; सीलक्खन्धमहन्तता स्त्री., भाव., अर्हतों की शीलराशि की उत्कृष्टता या ऊंचाई - य तृ. वि., ए. व. - कुदास्सु नामाहम्पि एवं असेखसीलक्खन्धमहन्तताय सञ्जातक्खन्धो भवेय्यं सु. नि. अट्ठ. 1.82. असेख/असेखिय त्रि., [अशैक्ष्य], अर्हत् से सम्बद्ध सम्यक्दृष्टि आदि कुशल धर्म, शिक्षा प्राप्ति के मार्ग से आगे पहुंच चुके आर्यपुद्गल से सम्बन्धित कुशल धर्म - या पु., प्र. वि., ब. व. - असेखिया धम्मा, ..., असेखा सम्मादिष्ट्टि, . .... असेखा सम्माविमुत्ति - अ. नि. 3(2).189; द्वादसमे असेखियाति असेखायेव, असेखसन्तका वा, अ. नि. अट्ठ. 3.333. असेचन त्रि., अ + सिच (सींचना) का क्रि. ना. अथवा सेचनक का निषे. [बौ. सं. आसेचन], शा. अ. चित्त, आंखों, कानों, जिह्वा तथा काय आदि में प्रीति उत्पन्न कर देने वाला, आनन्द से पूरी तरह सिक्त या भिगोया हुआ, वह, जिसे देखते-देखते जी न भरे, मनोहर, सुन्दर, अपने आप में आनन्दमय, अन्य की अपेक्षा से आनन्दमय बनने
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असेचितब्बक
706
असेस
वाला - नं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - चित्तक्खिपीतिजन- नमव्यासेकमसेचनं, अभि. प. 697; तेन चित्तेन पातब्ब, विमुत्तिरसमसेचनान्ति, मि. प. 377; ला. अ. क. स्वाद में आनन्ददायक - कं नपुं, द्वि. वि., ए. व. - लभेथेव सादुरसं असेचनक, म. नि. 1.162; तञ्च पन अप्पटिवानीय, असेचनकमोजवं स. नि. 1(1),246; असेचकनमोजवन्ति अनासित्तक' ओजवन्तं यथा हि बाहिरानि असम्भिन्नपायासादीनिपि सप्पिमधसक्खराहि आसित्तानि योजितानेव मधुरानि ... न एवमयं धम्मो अयं हि ... न अजेन उपसित्तो, स. नि. अट्ठ. 1.277; ला. अ. ख. उत्तम एवं सुखद सुगन्ध से भरपूर - सो यतो यतो घायेथ... अधिगच्छतेव सुरभिगन्धं असेचनकं, अ. नि. 2(1).218; ला. अ. ग. अपने आप में परिपूर्ण एवं उत्तम अनुभव, (आनापानसति का अभ्यास) - को पु., प्र. वि., ए. व. - अयम्पि खो, भिक्खवे, आनापानस्सतिसमाधि भावितो... असेचनको च सुखो च..., पारा. 83; एत्थ पन नास्स सेचनन्ति असेचनको अनासित्तको अब्बोकिण्णो ..., पारा. अट्ठ. 2.9; नास्स सन्तपणीतभावावहं किञ्चि सेचनन्ति असेचनको, सारत्थ. टी. 2.163; ला. अ. घ. शील आदि में अपने आप में परिपूर्ण (साधक)- को पु., प्र. वि., ए. व. - अजेगुच्छोति सम्पन्नसीलादिताय अजेगुच्छनीयो असेचनको मनापो, सु. नि. अट्ठ. 2.241; - त्त नपुं., भाव. [असेचनकत्व]. मन को आनन्दित कर देना, अपने आप में मनोहारी या सुन्दर रहना - त्ताय च. वि., ए. व. - ... मधुरत्ताय सातत्ताय असेचनकत्ताय संवत्तति, अ. नि. 1(1).45; - फल त्रि., ब. स. [असेचनकफल], अनुकूल फल देने वाला, मन को आनन्दित करने वाले फल को देने वाला - लं नपुं, प्र. वि., ए. व. - ननु दानं इट्ठफलं... असेचनकफलं...., कथा. 179. असेचितब्बक त्रि., सिच (सींचना, भिगोना) के प्रेर. के सं. कृ. का निषे., अतिरिक्त रस या मशाले नहीं डालने योग्य, उचित अनुपात में डाले गए सभी रसों एवं मशालों से युक्त ... कं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - असेचनकन्ति असेचितब्बक, सप्पिफाणितमधुसक्करादीसु इदं नामेत्थ मन्दं इदं बहुकन्ति न वत्तब्बं समयोजितस्सं. म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).392. असेट्ठचरिया स्त्री., कर्म. स. [अश्रेष्ठचर्या]. उत्तम आचरण का अभाव, दुराचार, अब्रह्मचर्य - यं द्वि. वि., ए. व. - अब्रह्मचरियन्ति असेट्ठचरियं, दी. नि. अट्ठ. 1.67.
असेट्ठचारी त्रि.. [अश्रेष्ठचारिन्], उत्तम आचरण से विहीन, अब्रह्मचारी - नो पु., प्र. वि., ब. व. - अब्रह्मचारिनोति मेथुनप्पटिसेविताय असेट्ठचारिनो इमे हि नामा ति हीळेन्ता वदन्ति, उदा. अट्ठ. 210.. असेनासनक/ असेनासनिक त्रि., [अशयनासनिक]. आवश्यक आवासों की सुविधा से रहित, निवासस्थान को न पाया हुआ - केन पु., तृ. वि., ए. व. - असेनासनिकेन वस्सं उपगन्तब्बं महाव. 201; असेनासनिकेनाति यस्स पञ्चन्न छदनानं अञ्जतरेन छन्नं योजितद्वारबन्धन सेनासनं
नत्थि, तेन न उपगन्तब्ब, महाव. अट्ठ. 335. असेल पु., व्य. सं., 1. पाण्डु वासुदेव का पुत्र, 2. मुटसिव का पुत्र - लो प्र. वि., ए. व. - ते गहेत्वा असेलो तु मुटसिवस्स अत्रजो, म. वं. 21.11-13. असेवना स्त्री., सेवना का निषे., तत्पु. स. [असेवन, नपुं.]. सेवासुश्रूषा न करना, उपेक्षा, उचित देखभाल न करना, साथ-सङ्ग न करना - ना प्र. वि., ए. व. - असेवना च बालानं पण्डितानञ्च सेवना, खु. पा. 5.3; तत्थ असेवनाति अभजना अपयिरुपासना, खु. पा. अट्ठ. 99. असेवितब्ब त्रि., सेव (सेवा करना, साथ करना) के सं. कृ.
का निषे. [असेवितव्य], साथ संग न करने योग्य, आचरण न करने योग्य, - तब्बं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - ... कायसमाचारपाहं ... दुविधेन वदामि - सेवितब्बम्पि,
असेवितब्बम्पि, म. नि. 3.94. असेस त्रि., ब. स. [अशेष], समग्र, समूचा, सारा, कुछ भी नहीं छोड़ा हुआ - सं' नपुं॰, प्र. वि., ए. व. - निस्सेसं कसिणासेसं समग्गं च अनूनक, अभि. प. 702; - सं द्वि. वि., ए. व., क्रि. विशे., समूचे तौर पर, पूरी तरह से - यो रागमुदच्छिदा असेस, भिसपुप्फव सरोरुहं विगव्ह, सु. नि. 2-4; असेसन्ति सानुसयं, सु. नि. अट्ठ. 1.15; असेसमेते पजहासि बुद्धो ति, उदा. 111; ... असेसं, अनवसेसं .... उदा. अट्ठ. 192-93; - सा पु., प्र. वि., ब. क. - अरी असेसा दमथं उपेन्ति, दी. नि. अट्ठ. 2.191; - निरोध पु., कर्म. स. [अशेषनिरोध], पूरी तरह से समाप्ति या रुकावट, पूर्णरूप से विनाश - धा प. वि., ए. व. - केचि न निरुज्झन्ति अविज्जाय सावसेसनिरोधा, उदा. अट्ठ. 40; - निस्सेस त्रि., द्व. स. [अशेषनिःशेष], सभी को अपने अन्दर समेटा हुआ, समग्र, समूचा - सा नपुं, प्र. वि., ए. व. - यस्मा एवं दुक्खा पमुच्चति असेसनिस्सेसाति अरहत्तनिकूटेन देसनं निट्ठापेसि, सु. नि. अट्ठ. 1.183; -
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असेत्वा
707
असोक
वचन नपुं., कर्म. स. [अशेषवचन], सभी को अपने में अन्तर्गत करने वाला वचन, यथार्थ-वचन - नं प्र. वि., ए. व. - असेसवचनं इदं, निस्सेसवचनं इदं, निप्परियायवचनं इदं, ..., मि. प. 121; - विरागनिरोध पु., कर्म. स. [अशेषविरागनिरोध], पूरी तरह से बिलगाव और विनाश, विराग के मार्ग द्वारा पूर्ण निरोध - धा प. वि., ए. व. - अविज्जायत्वेव असेसविरागनिरोधा सङ्घारनिरोधो, म. नि. 1.334; असेसविरागनिरोधाति विरागसङ्घातेन मग्गेन असेसनिरोधा अनुप्पादनिरोधा, म. नि. अठ्ठ. (मू.प.) 1(2).204; असेसविरागनिरोधाति असेसं विरागेन निरोधा,
असेसविरागसङ्घाता वा निरोधा, सु. नि. अठ्ठ. 2.201. असेत्वा ।सिस (बाकी बचा रहना) के पू. का. कृ. का निषे.. बाकी कुछ भी बचा हुआ न छोड़कर, अपने पीछे कुछ भी बचा हुआ न छोड़कर - एक सामणेरम्पि विहारे असेसेत्वा भिक्खं अधिवासेथाति, स. नि. अट्ठ. 2.160. असोक 1. त्रि., ब. स. [अशोक], शोक-रहित, शोक-मुक्त (व्यक्ति अथवा चित्त)- को पु., प्र. वि., ए. व. - असोको होति निब्बुतोति, सु. नि. 598; - कं नपुं., प्र. वि., ए. व. - असोकं विरजं सुद्ध, सु. नि. 641; ध. प. 412; तमहं वट्टमूलसोकेन असोक .... सु. नि. अट्ठ. 2.172; - का पु., प्र. वि., ब. व. - असोका ते विरजा अनुपायासाति वदामीति, उदा. 177; 2. पु., शोक का निषे., तत्पु. स. [अशोक], शोक का अभाव, शोक से मुक्त अवस्था, अशोकभाव, निर्वाण की अवस्था - कं द्वि. वि., ए. व. - तस्मा असोकं विरजं पत्थयानो, उदा. 177; ... असोकभावं... असोकं विरजन्ति लद्धनाम निब्बानं, ..., उदा. अट्ठ. 347; 3. पु., [अशोक], एक वृक्ष, लाल फूलों वाला एक प्रसिद्ध वृक्ष - असोको वजुलो चाथ, अभि. प. 573; - का प्र. वि., ब. व. - असोका मुदयन्ती च, वल्लिभो खुद्दपुफ्फियो, जा. अट्ठ. 7.304; अतिमुत्ता असोका च, पुफिता मम अस्समे, अप. 1.12; - कं द्वि. वि., ए. व. - असोकं पुष्फितं दिस्वा, अप. 1.206; 4. पु., एक पर्वत का नाम - को प्र. वि., ए. व. - हिमवन्तस्साविदूरे असोको नाम पब्बतो, अप. 1.376; 5. पु., अनेक व्यक्तियों का नाम, क. अनोमदस्सी बुद्ध का अग्रश्रावक - को प्र. वि., ए. व. - निसभो च अनोमो च अहेसुं अग्गसावका, बु. वं. 323; पाठा. अनोमो; ख. विपस्सी बुद्ध का उपट्ठाक (परिचारक) - विपस्सिस्स, भिक्खवे, भगवतो... असोको नाम भिक्ख उपट्ठाको अहोसि, दी. नि. 2.5; ग. कस्सपबुद्ध के समय का एक ब्राह्मण - कस्सपमुनिनो
काले असोको नाम ब्राह्मणो, म. वं. 27.11; घ. एक भिक्षु - असोको नाम, भन्ते, भिक्खु कालङ्कतो. स. नि. 3.424; ङ, मौर्यवंश का एक प्रसिद्ध राजा, जो पहले चण्डाशोक तथा बाद में धर्माशोक कहलाया - चण्डासोको ति आयित्थ पुरे पापेन कम्मुना, धम्मासोको तिञायित्थ पच्छा पुओन कम्मना, म. वं. 5.189; अनागते पियदासो नाम कुमारो ... असोको धम्मराजा भविस्सति, दी. नि. अट्ठ. 2.182; - कत्रज पु., तत्पु. स. [अशोकात्मज], सम्राट अशोक का पुत्र (महेन्द्र) - जं द्वि. वि., ए. व. - परिपुण्णवीसति वस्सो महिन्दो अशोकत्रजो, दी. वं. 7.21; - कणिका स्त्री., तत्पु. स. [अशोककर्णिका], कानों के आभूषण के रूप में प्रयुक्त अशोक वृक्ष के फूलों का गुच्छा - कं द्वि. वि., ए. व. - अप्पिळयह मञ्जरिन्ति सपल्लवं असोककणिक कण्णे पिळन्धित्वाति वुत्तं होति, जा. अट्ठ. 5.396; - कछुर नपुं०, तत्पु. स. [अशोकाकुर], अशोक के वृक्ष का अङ्कर - रं प्र. वि., ए. व. - असोकडरहि आदितोव तनुरतं होति, विसुद्धि. 2259; -चित्त नपुं.. ब. स. [अशोकचित्त], शोक से रहित चित्त - त्तं प्र. वि., ए. व. - एवं इमिस्सा गाथाय अवलोकधम्मेहि अकम्पितचित्तं, असोकचित्तं, निरजचित्तं, खेमचित्तन्ति चत्तारि मङ्गलानि वुत्तानि, खु. पा. अट्ठ. 124;-धम्मराज पु., कर्म. स. [अशोकधर्मराजन्], मौर्य सम्राट धर्माशोक, धर्मराजा अशोक - रो ष. वि., ए. व. - अनच्छरियञ्चेतं थेरस्स .... सतसहस्सकप्पे पूरितपारमिस्स, असोकधम्मरओ कुलूपको निग्रोधत्थेरो दिवसस्स निक्खत्तुं चीवरं परिवत्तेसि, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.141; - पिण्डी स्त्री., तत्पु. स., अशोक वृक्ष के फूलों की कलियों का गुच्छा - ण्डिया तृ. वि., ए. व. - पुप्फपच्छिकतालपण्णगुळकादीनं पन छिद्दे सु असोकपिण्डिया वा अन्तरेसु पुप्फानि पवेसेतुं न दोसो, पारा. अट्ठ. 2.184; - पुष्फ नपुं., तत्पु. स. [अशोकपुष्प], अशोक वृक्ष का पुष्प - प्फानि द्वि. वि., ए. व. - ... पिण्डीकतानि बहूनि असोकपुप्फानि गहेत्वा आगच्छन्ती.... वि. व. अट्ठ. 143; - पूजक पु.. एक स्थविर, एक भिक्खु - को प्र. वि., ए. व. - इत्थं सुदं आयस्मा असोकपूजको थेरो इमा गाथायो अभासित्थाति, अप. 1.206; - भाव पु.. [अशोकभाव], शोक का अभाव - वं द्वि. वि., ए. व. - तस्मा अत्तनो यथावृत्तसोकाभावेन च असोकं असोकभावं रागरजादिविगमनेन विरजं विरजभावं अरहत्तं ..., उदा. अट्ठ. 347; - मालक/माळक पु., अनुराधपुर महाविहार के बत्तीस क्षेत्रों में से एक क्षेत्र - के सप्त. वि., ए. व. - असोकमाळकति
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असोका
708
अस्नाति/असनाति
असोकनामके माळके, म. वं. टी. 318 (ना.); - मालादेवी स्त्री., व्य. सं., श्रीलङ्का के राजा वट्टगामणी के राजकुमार सालि की रानी - वि द्वि. वि., ए. व. - असोकमालादेविं तं सम्बद्ध पुब्बजातिया, म. वं. 33.3; - रुक्ख पु., तत्पु. स. [अशोकवृक्ष], अशोक का पेड़-क्खं द्वि. वि., ए. व. - .... अन्धवने सपप्फितं असोकरुक्खं दिस्वा... असोकपप्फानि गहेत्वा आगच्छन्ती, वि. व. अट्ठ 143; - वनिका स्त्री., तत्पु. स., अशोक वृक्षों की वाटिका - का प्र. वि., ए. व. --- अयमस्स असोकवनिका, सुपुप्फिता सब्बकालिका रम्मा, जा. अट्ठ. 5.180; अशोकवनिकाति असोकवनभूमि, जा. अट्ठ. 5.181; - सव्हय त्रि., [अशोकसाह्वय]. अशोक के नाम से पुकारा जाने वाला - यो प्र. वि., ए. व. - पुञकम्माभिनिब्बतं, पाहेसि सोकसहयो, दी. वं. 12.4. असोका स्त्री., व्य. सं., अनेक नारियों के लिए प्रयुक्त नाम क. मङ्गलबुद्ध की अग्रश्राविका - का प्र. वि., ए. व. - सीवला च असोका च, अहेसु अग्गसाविका, बु. वं. 314; ख. गौतम बुद्ध के समय की एक भिक्षुणी तथा एक उपासिका - असोका नाम, भन्ते, उपासिका कालङ्कता, स. नि. 3(2). 424; ग. एक चाण्डाल की पुत्री - असोकानामिकाय चण्डालधीतुया सन्थववसेन लग्गो पटिबद्धचित्तो अहोसी ति
अत्थो , म. वं. टी. 559(ना.). असोकाराम पु., मौर्य सम्राट अशोक द्वारा पाटलिपुत्र (पटना) में बनवाया गया एक विहार - मं द्वि. वि., ए. व. - पुन राजा असोकारामं नाम महाविहारं कारेत्वा सविसहस्सानं भिक्खून निच्चभत्तं पट्ठपेसि, पारा. अट्ठ. 1.35; - मे सप्त. वि., ए. व. - असोकारामे सत्तवस्सानि उपोसथो उपच्छिन्जि. पारा. अट्ठ, 1.38. असोकिता स्त्री., भाव., शोक से रहित होना, शोक-मुक्त
अवस्था - पाणातिपाता वेरमणिया चेत्थ अङ्गपच्चङ्गसम्पन्नता .... असोकिता पियेहि मनापेहि सद्धि अविप्पयोगिता दीघायकताति
एवमादीनि फलानि, खु. पा. अट्ठ. 23. असोचन्त/असोच्यन्त त्रि., सुच के वर्त. कृ. का निषे. [अशोचत्], शोक न करता हुआ - चं पु., प्र. वि., ए. व. - सक्का नु खो रज्जं कारेतुं अहनं... असोचं असोचापयं
धम्मेनाति? स. नि. 1(1).137. असोचनकारण नपुं., तत्पु. स. [अशोचनकारण], शोक न करने का कारण, शोकाभाव का कारण - णं द्वि. वि., ए. व. - अथस्स बोधिसत्तो असोचनकारणं कथेन्तो ... जा. अट्ठ. 3.145.
असोचितुं ।सुच (शोक न करना) के निमि. कृ. का निषे.,
शोक न करना - ... न सक्का असोचितुं, जा. अट्ठ. 3.187. असोण्ड त्रि., सोण्ड का निषे., तत्पु. स. [अशौण्ड], नशे में चूर न रहने वाला, मद्यपान में रत न रहने वाला, शराब पीने की लत से मुक्त - ण्डो पु., प्र. वि., ए. व. - दुक्खस्सुदानि पञ्जकरो, असोण्डो अविनासको, जा. अट्ठ. 5.112; - ण्डी स्त्री., प्र. वि., ब. व. - तत्थ च भविस्साम अधुत्ती अथेनी असोण्डी अविनासिकायोति, अ. नि. 2(1).33; असोण्डीति सुरासोण्डतादिवसेन असोण्डियो, अ. नि. अट्ठ. 3.19. असोतता स्त्री०, असोत का भाव॰ [अश्रोतष्कता], कानों या
सुनने की शक्ति का अभाव रहना - ता प्र. वि., ए. व. - ...... न बधिरो असोतता, जा. अट्ठ. 6.19; असोतताति सोतानं
अभावेन, जा. अट्ठ. 6.20. असोतुकम्यता स्त्री., भाव. [अश्रोतुकाम्यता], सुनने की इच्छा का अभाव - तं द्वि. वि., ए. व. - अरियधम्मस्स असोतुकम्यतं अप्पहाय..., अ. नि. 3(2).120. असोधितभाव पु., कर्म. स. [अशोधितभाव], विशोधन का अभाव, सुस्पष्ट नहीं किया जाना, अपरीक्षण - वं द्वि. वि., ए. व. - सो कम्मरस असोधितभावं आचिक्खि , जा. अट्ठ. 4.27. असोभन त्रि., सोभन का निषे. [अशोभन], असुन्दर, अमङ्गलकारी, अशुभ, बुरा - नं नपुं., प्र. वि., ए. व. -- ... अज्ज असोभनं नक्खत्तं, जा. अट्ठ. 1.249. असोमनस्सित त्रि., मन में प्रसन्नता या आह्लाद को न पाने वाला/वाली - स्सिका पु.. प्र. वि., ब. व. - अप्पतीता होन्ति तेन अतुट्ठा असोमनस्सिकाति अप्पच्चयो, दी. नि. अट्ठ. 1.49. असोरत त्रि., सोरत का निषे., तत्पु. स. [बौ. सं. असूरत. उद्धत, दुर्दमनीय, प्रचण्ड, असाध्य - ता पु., प्र. वि., ब. व. - चण्डीति असोरता किब्बिसा, म. नि. अट्ठ. (मू.प.)
40
1(2).5.
अस्नाति/असनाति (अस (खाना) का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अश्नाति], खाता है, निगलता है, आनन्द लेता है, उपभोग करता है - वुत्तानं फलमस्नाति, यो मित्तानं न दुब्भति, जा. अट्ठ. 6.16; अस्नातीति परिभुञ्जति, जा. अट्ठ. 6.17; सो हि घतं अस्नाति, तस्मा घतासनो ति वुच्चति, जा. अट्ठ. 1.451; - तु अनु., प्र. पु., ए. व. - ..., पिण्डमस्नातु भत्तुनो, जा. अट्ठ. 5.373; - थ अनु., म. पु., ब. व. - ... अस्नाथ पिवथ
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अस्म/अम्ह
709
अस्सकण्ण खादथा ति दसमेन सद्देन, दी. नि. 2.128; - अस्निये चतुरस्समुग्गरेन पोथेत्वा ..., ध. प. अट्ठ. 1.73; 5. पु.. विधि., उ. पु., ए. व. - .... तस्मा अदत्वा उदकम्पि [अश्व], घोड़ा - हयो तुरङ्गो तुरगो वाहो अस्सो च सिन्धवो, नास्निये, जा. अट्ठ. 5.393; ... नास्निये न परि भुञ्जिस्सामीति अभि. प. 368; 1102; ... अस्सो भद्रो कसामिवाति, स. नि. इम वत समादिथि, जा. अट्ठ. 5.394; - 1(1).9; अस्सोव जिण्णो निब्भोगो, स. नि. 1(1).205; - असिस्सामि/असिस्सं भवि., उ. पु., ए. व. - नासिस्सं स्सा' प्र. वि., ब. व. -- अस्सा यथा सारथिना सुदन्ता, ध. न पिविस्सामि, थेरगा. 223; किंसू असिस्सामि कुवं वा प. 94; सेता सुदं अस्सा युत्ता होन्ति ..., स. नि. 3(1).4; असिस्सं. सु. नि. 976.
मधुरेनाकारेन अस्सा हसिंसु, उदा. अट्ठ. 119; - स्सा' अस्म/अम्ह पु.. [अश्मन्], पत्थर, चकमक पत्थर - थब्भ स्त्री., घोड़ी- वळवा स्सा, अभि. प. 371; - स्सं द्वि. वि., पासाण स्मोपलो सिला, अभि. प. 605; - स्मा प्र. वि., ए. ए. व. - तत्थ आजञ्जन्ति इमं आजानीयस्सञ्च मणिञ्चाति व. - अस्मा नून ते हदयं आयसं दळहबन्धनं, जा. अट्ठ. ..... अक्खधुत्तोति अस्सं दस्सेत्वा एवमाह, जा. अट्ठ. 7.165. 7.319; अस्मा नून ते हदयन्ति तात, मातापितून हदयं नाम अस्सक' पु.. [अश्मक], क. ब. व. में आन्ध्र-प्रदेश की एक पुत्तेसु मुदुक होति.... तव पन हदयं पासाणो विय मझे, जनजाति अथवा इस जनजाति का क्षेत्र, दक्षिण में एक देश जा. अट्ठ. 7.320; अस्मा कुम्भमिवाभिदाति पासाणो घटं विय. या उस देश के निवासी - कानं ष. वि., ब. व. - अङ्गानं, जा. अट्ठ. 3.25; - अस्मनि सप्त. वि., ए. व. - 'मा पादं मगधानं. ... अस्सकानं, अवन्तीनं, अ. नि. 1(1),242; ख. ए. खलि यस्मनी ति, जा. अट्ठ. 3.383.
व. में, अश्मक प्रजाति का राजा, अश्मक क्षेत्र का शासक अस्मपुष्फ नपुं., तत्पु. स. [अश्मपुष्प], शिलाजीत का पुष्प -- कस्स ष. वि., ए. व. - सो अस्सकस्स विसये, अळकस्स - सेलेय्य मरमपुप्फ च, अभि. प. 591.
समासने, सु. नि. 983; अस्सकस्स च अळकस्स चाति अस्मिमान पु., "मैं कुछ हूं", "मैं महत्वपूर्ण हूं इस रूप से द्विन्नम्पि राजूनं समासन्ने विसये आसन्ने रट्टे द्विन्नम्पि चित्त में “मैं” के सम्बन्ध में मनन या चिन्तन, आत्मदृष्टि - रहानं मज्झेति अधिप्पायो, सु. नि, अट्ठ. 2.271. स्स ष. वि., ए. व. - अस्मिमानस्स यो विनयो, उदा. 80; अस्सक' पु.. [अश्वक], छोटा घोड़ा, भाड़े का टट्ट, मामूली अस्मिमानस्स यो विनयोति इमिना पन अरहत्तं कथितं, घोड़ा - ... अस्सकस्थकादीहि बालकीळनकेहि कीळयमानो उदा. अट्ट, 80; महाव, अट्ठ. 231; - नो प्र. वि., ए. व. - ..., म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.207. अस्मिमानो समुच्छिन्नो, ..., स. नि. 2(1).77; अस्मिमानो अस्सक' त्रि., केवल स. उ. प. में ही प्राप्त [अम्रक/अश्रक], समुच्छिन्नोति नवविधो अस्मिमानो अरहत्तमग्गेन समुच्छिन्नो, कोना, किनारा, - चतुर. चार किनारों वाला, चौकोर - कं स. नि. अट्ठ. 2.250; - नं द्वि. वि., ए. व. - अनिच्चसआ, नपुं॰, प्र. वि., ए. व., क्रि. वि. - ... न चतुरस्सकं कारापेतब्बं ... भाविता... सब्बं अस्मिमानं समूहनति, स. नि. 2(1).139; ...., चूळव. 255. - समुग्घात पु., [अस्मिमानसमुद्घात], 'मैं सम्बन्धी मान्यता अस्सक त्रि., [अस्वक]. 1. दरिद्र, वह, जिसके पास अपनी का नाश - तं द्वि. वि., ए. व. - अनत्तसञी कोई धन-दौलत न हो- को पु., प्र. वि., ए. व. - पुरिसो अस्मिमानसमुग्घातं पापुणाति दिट्टेव धम्मे निब्बानान्ति, उदा. दलिदो अस्सको अनाळिहयो, म. नि. 2.123; अस्सकोति
निस्सको, म. नि. अट्ट. (म.प.) 2.119; 2. नहीं अपना, अस्स/स्स 1. इम (यह) सर्व., का पु., ष. वि., ए. व. बेगाना, सदा अपने साथ न रहने वाला - को पु., प्र. वि., [अस्स], इसका - नास्स कोसा धनं गण्हे, जा. अट्ट, 7.188; ए. व. - अस्सको लोको, सब्बं पहाय गमनीयन्ति, म. नि. यहिस्स, भिक्खवे, संवरं असंवतस्स विहरतो..... म. नि. 2.265; अस्सकोति निस्सको सकभण्डविरहितो, म. नि. 1.13; 2. Vअस (होना) का विधि., प्र. पु., ए. व. [स्यात्], अट्ठ. (म.प.) 2.216. हो, द्रष्ट., अत्थि के अन्त. (ऊपर); 3. नपुं.. [आस्य], मुख अस्सकजातक नपुं.. जा. अट्ठ. की एक कथा, जा. अट्ठ. - स्सं प्र. वि., ए. व. - ... मुखं अस्सञ्च आननं, सद्द. 2128-131. 2.386; 4. पु., स. उ. प. के रूप में प्रयुक्त [अम्र/अश], अस्सकण्ण पु.. [अश्वकर्ण]. 1. एक वृक्ष - ण्णो प्र. वि., ए. कोना, किनारा, प्रान्तभाग - स्सो प्र. वि., ए. व. - अथव, - नेव सालो न खदिरो, नास्सकण्णो कुतो धवो, जा. कोणो स्सो कोटि नारियं, अभि. प. 394; 1102; ... अट्ठ. 4.186; साळो स्सकण्णो सज्जोथ, अभि. प. 4.562; -
110.
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अस्सकर?
710
अस्सजाति ण्णा ब. व. - ..., अस्सकण्णा विभीटका, जा. अट्ठ.2.1333; चौथा सुत्त, जिसमें घोड़ों की आठ कमियों या गड़बड़ियों की ... अस्सकण्णा च विभीटका च रुक्खा दिद्वपुब्बा, तदे.; 2. समानता पर मनुष्य के आठ दोषों का उपदेश है, अ. नि. सिनेरु (सुमेर) पर्वत के अगल-बगल स्थित सात पर्वतों में 1(1).323-325. से एक - नेमिन्धरो विनतको अस्सकण्णो कुलाचला, अभि. अस्सगोणादिक नपुं.. [अश्वगोणादिक], घोड़ा एवं बैल प. 27; युगन्धरो ईसधरो, करवीको सुदस्सनो नेमिन्धरो आदि - कं पु., द्वि. वि., ए. व. - योग्गन्ति युगे युञ्जितब्ब विनतको, अस्सकण्णो गिरि ब्रह्म, सु. नि. अट्ठ. 2.149. ते तव अस्सगोणादिकं जा. अट्ठ. 6.29. अस्सकरट्ठ नपुं.. कर्म. स. [अश्मकराष्ट्र, दक्षिण में स्थित अस्सगन्धा स्त्री., [अश्वगन्धा], एक औषधीय पौधा - एक प्रदेश - टे सप्त. वि., ए. व. - तेन समयेन अस्सकरखे। अधोतक.... अस्सगन्धादिपिट्ठानि च यावजीविकानि, पाचि. पोतलिनगरे अस्सकराजा रज्जं करोति, वि. व. अट्ठ. 2183; अट्ठ. 92. एवं सकलजम्बुदीपं विचरित्वा अस्सकरडे पाटलिनगरं पाणिंसु अस्सगुत्त पु.. [अश्वगुप्त], व्यक्तियों के नाम, भदन्त नागसेन जा. अट्ठ. 3.3.
के एक शिक्षक का नाम - अथ खो आयस्मा अस्सगत्तो अस्सकराज पु., तत्पु. स. [अश्मकराजन्], अश्मक देश का दिब्बाय सोतधातुया मिलिन्दस्स रओ वचनं सुत्वा राजा - जा प्र. वि., ए. व. - ... अस्सकरढे पोतलिनगरे युगन्धरमत्थके भिक्खुसङ्घ सन्निपातेत्वा भिक्खू पुच्छि ... अस्सकराजा रज्जं करोति, वि. व. अट्ठ. 218; - जेन तृ. पटिबलो... पटिविनेतु न्ति, मि. प.6; -- थेर पु., कर्म. स., वि., ए. व. - अयमस्सकराजेन, देसो विचरितो मया, जा. महाकाश्यप की परम्परा का एक स्थविर - स्स ष. वि., ए. अट्ठ. 2.130; ... पुब्बे मया अस्सकराजेन सद्धि विचरितो. व. - ... महाकस्सपत्थेरस्स ... चन्दगुत्तत्थेरस्स, ... तदे. - स्स ष. वि., ए. व. - तत्थ अस्सकाधिपतिस्साति सूरियगुत्तत्थेरस्स, ... अस्सगुत्तथेरस्स. .
अस्सकरट्ठाधिपतिनो अस्सकराजस्स, वि. व. अट्ठ. 219. ... योनकधम्मरक्खितत्थेरस्स ... स. नि. अट्ठ. 3.179-80. अस्सकाधिपति पु., तत्पु. स. [अश्मकाधिपति], अश्मक अस्सगुम्ब पु., तत्पु. स. [अश्वगुल्म], घुड़सवार सेना की देश का राजा - स्स ष. वि., ए. व. - तत्थ टुकड़ी - म्बे सप्त. वि., ए. व. - कदाहं अस्सगुम्बे च,
अस्सकाधिपतिस्साति अस्सकरट्ठाधिपतिनो अस्सकराजस्स सब्बालङ्कारभूसिते, जा. अट्ठ. 6.56... ...., वि. व. अट्ठ. 219.
अस्सगोचर त्रि., ब. स. [अश्वगोचर], घोड़े को अपना अस्सकाय पु., तत्पु. स. [अश्वकाय], घुड़सवार टुकड़ी - शिकार बनाने वाला - रो प्र. वि., ए. व. - यथेव हि सोणो या प्र. वि., ब. व. - इमस्मि राजकुले हत्थिकायापि अस्सगोचरो अस्से डसेन्तोव चरति, तथा सुहनुपि, जा. अट्ठ. अस्सकायापि रथकायापि पत्तिकायापि, ..., म. नि. 2.266. 2.25. अस्सकावन्ती पु., द्व. स. [अश्मकावन्ति], अश्मक एवं अस्सगोपक पु., [अश्वगोपक]. साईस, घोड़े की देखभाल अवन्ति-नामक राष्ट्र या जनपद - न्ती प्र. वि.. ब. व. - करने वाला - को प्र. वि., ए. व. - खिप्पमेवेस अथ वा अस्सकावन्ती, सुमना दम्म ते मयं, जा. अट्ठ. 5.3083; .... अयं सिङ्गारो आचारसम्पन्नो अस्सगोपको में अस्सकावन्ती अस्सकरटुं वा अवन्तिर8 वा, जा. अट्ठ. सिक्खापेतीति ... अनुसिक्खिस्सति, जा. अट्ठ. 2.81; - 5.309.
कानं ष. वि., ब. व. - सो अस्सगोपकानं सन्तिके वड्ढति, अस्सकुणप नपुं., तत्पु. स., घोड़े की लाश - जा. अट्ठ. 4.432. हत्थिकुणपअस्सकुणपगोकुणपमहिंसकुणप ... अस्सछकणपिण्ड नपुं.. तत्पु. स. [अश्वशकृपिण्ड], घोड़े कुक्कुरकुणपानिपि दट्टब्बानि भवन्ति, विसुद्धि. 1.333. की लीद का गोला - ण्डेन तृ. वि., ए. व. - पुन पि अस्सखळु पु., कर्म. स. [अश्वकलङ्क], घोड़े की गड़बड़ी, .... अस्सगोपकवेसेन तं दिस्वा तथेव अस्सछकणपिण्डेन घटिया नस्ल का घोड़ा, काबू में न रखे जाने योग्य घोड़ा, पहरि जा. अट्ठ. 5.277. घोड़े का बच्चा - को प्र. वि., ए. व. - अस्सखलुङ्कोति अस्सजाति त्रि., ब. स. [अश्वजातिक], घोड़े की प्रजाति अस्सपोतो, अ. नि. अट्ठ. 2.235; -के द्वि. वि., ब. व. - वाला - तिं पु., वि. वि., ए. व. - सिमितिन्ति ... दन्तमेव अट्ठ च, भिक्खवे, अस्सखळुड़े देसेस्सामि अट्ठ च अस्सदोसे, गोणजातिं वा अस्सजातिं वा याने योजत्वा नयन्ति, ध. प. अ. नि. 3(1).33; - सुत्त पु., अ. नि. के अट्ठकवग्ग का अट्ठ.2.284.
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अस्सजातिय
711
अस्सत्थर अस्सजातिय त्रि., ब. स. [अश्वजातीय], घोड़े की नस्ल में अस्सति ।अस (फेकना) का वर्त, प्र. वि., ए. व., फेंक देता उत्पन्न - यो पु., प्र. वि., ए. व. - बोधिसत्तस्स जातिया है, त्याग देता है - अस्सति, निरस्सति आदियति च धम्म, जातो बोधिसत्तजातियो, एवं अस्सजातियो हत्थिजातियो, सद्द. 2.490; - अस्सि अद्य., प्र. पु., ए. व. - तथा ते तपे मनुस्सजातियो, क. व्या. 355.
अस्सि निरस्सि पहासि विद्धसेसीति तपस्सी. पारा. अट्ठ. अस्सजि पु.. [अश्वजित्]. 1. पञ्चवर्गीय भिक्षुओं के बीच
1.99. पांचवां, जिसने इसिपत्तन में अर्हत्व प्राप्त किया - स्स ष. अस्सते अस (खाना) के कर्म. वा. का वर्त.. प्र. वि., ए. व. वि., ए. व. -- अथ खो आयस्मतो च महानामस्स आयस्मतो [अश्यते], खाया जाता है - अस्सते असनं, क. व्या. 643. च अस्सजिस्स भगवता धम्मिया ... धम्मचक्खं उदपादि, अस्सत्थ' 1. पु., [अश्वत्थ]. पीपल का पेड़, बोधिवृक्ष - त्थो महाव. 16; 2. छब्बग्गीय भिक्षुओं के दो गणाचार्य स्थविरों प्र. वि., ए. व. - अस्सत्थो बोधि च द्वीसु, अभि. प. 551; - में से एक - जि प्र. वि.. ए. व. - अस्सजिपुनब्बसुकाति स्स ष. वि., ए. व. - अस्सत्थस्सेव तरुणं, पवाळ मातुतेरितं अस्सजि च पुनब्बसुको च छसु छब्बग्गियेसुद्वे गणाचरिया, ...., हदयं मे पवेधति, जा. अट्ठ. 5.322; - त्थे सप्त. वि., म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.133; - पुनब्बसुक पु., द्व. स., ए. व. - अस्सत्थे हरितोभासे .... थेरगा. 217; - त्था प्र. अश्वजित् एवं पुनर्वसु नामक दो गणाचार्य स्थविर - का प्र. वि., ब. व. - हरीतकी आमलका, अस्सत्था बदरानि च, जा. वि., ब. व. - ... अस्सजिपुनब्बसुका नाम भिक्खू कीटागिरिस्मि अट्ठ. 7.293; - त्थं द्वि. वि., ए. व. - अस्सत्थं व पथे जातं. आवासिका होन्ति, म. नि. 2.148; - अस्सजिपुनब्बसुकवत्थु जा. अट्ठ. 7.288; 2. नपुं., पीपल के बीज - स्थानि द्वि. नपुं.. ध. प. अट्ठ. का एक कथानक, ध. प. अट्ठ. 1.310- वि., ब. व. - अस्सत्थानि च भक्खित्वा, ..., जा. अट्ठ. 311.
3.352. अस्सतर पु., [अश्वतर], खच्चर - रो प्र. वि., ए. व. - भेदो अस्सत्थः त्रि., अस्ससति का भू, क. कृ. का निषे. [आश्वस्त]. अस्सतरो तस्सा जानीयो तु कुलीनको, अभि. प. 369; निश्चिन्त, आश्वासन-प्राप्त - त्थं पु., वि. वि., ए. व. - तभेदा सिन्धवो चेव गोजो अस्सतरोपि च, सद्द. 2.417; अस्सत्थमासीनं समेक्खियान, ..., जा. अट्ठ. 7.206; तत्थ इध वळवं गद्रभेन सम्पयोजेय्यु... सो... अस्सतरो होति. म. अस्सत्थमासीनन्ति लद्धस्सासं हत्वा निसिन्न, तदे; अस्सत्थं नि. 2.368; - तरा प्र. वि., ब. व. - वरमस्सतरा दन्ता, नं विदित्वान, ..., जा. अट्ठ. 7.343. आजानीया च सिन्धवा, ध. प. 322; अस्सतराति वळवाय अस्सत्थक त्रि., [अश्वत्थक, पीपल की लकड़ी से बना गद्रभेन जाता,ध. प. अट्ठ. 2.284; - रे द्वि. वि., ब. व. - हुआ - के सप्त. वि., ए. व. - असत्थके फलमये, ..., योजेन्तु वे राजरथे सुचित्ते, कम्बोजके अस्सतरे सुदन्ते, जा. मधुपानकसङ्के च, लभामि थालके अहं, अप. 1.342; पाठा. अट्ठ. 4.419.
अस्सत्थे. अस्सतरी स्त्री., [अश्वतरी], मादा खच्चड़, खच्चड़ी - री। अस्सत्थकपित्थ नपुं., ए. व./पु., ब. व., द्व. स. प्र. वि., ए. व. - सेय्यथापि, भिक्खवे, अस्सतरी अत्तवधाय [अश्वत्थकपित्थं/अश्वत्थकपित्था]. पीपल और कैंथे के गभं गण्हाति .... स. नि. 1(2).218; - रिं द्वि. वि., ए. व. पेड - अस्सत्थो च कपित्थो च अस्सत्थकपित्थं क. व्या. - सक्कारो कापुरिसं हन्ति, गब्भो अस्सतरि यथाति, स. नि. 325. 1(1).180; अस्सतरिन्ति गद्रभस्स वळवाय जातं. स. नि. अस्सत्थपत्त नपुं.. [अश्वत्थपत्र]. पीपल का पत्ता - त्तं प्र. अट्ठ. 1.193; - रथ पु., तत्पु. स. [अश्वतरीरथ], मादा वि., ए. व. - वेधमस्सत्थपत्तंव, पित्त पादानि वन्दति, जा. खच्चरों द्वारा खींचा जा रहा रथ - थेन . वि., ए. व. - अट्ठ. 7.318. पुरतोव सेतेन पलेति हत्थिना, मज्झे पन अस्सतरीरथेन, पे. अस्सत्थर नपुं.. [अश्वास्तरण], घोड़े की पीठ पर व. 73; अस्सतरीरथेनाति अस्सतरीयुत्तेन रथेन पलेतीति बिछाया जाने वाला चादर या बिछावन - रं प्र. वि., ए. योजना, पे. व. अट्ठ. 48; - था प्र. वि., ब. व. - सतं हत्थी व. - आसन्दिं पल्लङ्क गोनकं ... कुत्तकं हत्थत्थर सतं अस्सा , सतं अस्सतरीरथा, स. नि. 1(1).244; - थं द्वि. अस्सत्थरं रथत्थरं... वा इति, दी. नि. 1.7; अस्सत्थरन्ति वि., ए. व. - दासिं दासञ्च सो दज्जा, अस्सं चस्सतरीरथं, हत्थिअस्सपिट्टीसु अत्थरणअत्थरकायेव, दी. नि. अट्ठ. जा. अट्ठ. 7.355.
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अस्सत्थरक
अस्सत्थरक पु., [अश्वास्तरक] घोड़े के चित्र की कशीदाकारी से युक्त चादर या गलीचा हत्थत्थरक- अस्सत्थरकसीहत्थरक- व्यग्धत्थरक-चन्दत्थरक-सूरियस्थारकचित्तत्थरकादीहि म. नि. अड. (म.प.) 2.13. अस्सदमक पु०, [अश्वदमक], घोड़ों को सधाने में चतुर को प्र. वि. ए. व. दक्खो अस्सदमको भद्रं अस्साजानीय लभित्वा पठनेनेव मुखाधाने कारणं कारेति म.नि. 2.118
ब.
केन तृ. वि., ए. व. - अस्सदमकेन, भिक्खवे, अस्सदम्मो सारितो एकज्जेव दिसं धावति म. नि. 3.270. अस्सदम्म पु॰, कर्म, स० [ अश्वदम्य ], नया अप्रशिक्षित घोड़ा, नहीं सधा हुआ बछेड़ाम्मो प्र. वि. ए. व. - अस्सदम्मो सारितो एकज्ञेव दिसं धावति... म. नि. 3270 - म्मा व॰ द्वे हत्थिदम्मा वा अस्सदम्मा वा गोदम्मा वा अदन्ता अविनीता, म. नि. 2.337; 3.171; हत्थिदम्मा वा अस्सदम्मा वा गोदम्मा वाति एत्थ अदन्तहत्थिदम्मादयो विय चित्तेकग्गरहिता पुग्गला वटुब्बा म. नि. अट्ट. (उप. प.) 3.144; - सारथि पु०, कर्म. स. [अश्वदम्यसारथि ], घोड़ों को सधाने में कुशल साईस थि प्र. कि.. ए. क. किंनु खो मं अज्ज अस्सदम्मसारथि कारणं कारेस्सति, किमस्साहं पटिकरोमीति अ. नि. 1 (2) 131; तमेनं दक्खो योग्गाचरियो अस्सदम्मसारथि अभिरुहित्वा..., म. नि. 1.176. अस्सदूत पु.. [अश्वदूत] घुडसवार सन्देशवाहक ते हि. वि०, ब० व.. चतुहिसा अस्सदूते उप्योजेत्वा... महाव. 20. अस्सदृतेति आरुहस्से दूते सारत्थ. टी. 3.177. अस्सदोस पु. तत्पु, स. [अश्वदोष] घोड़े का दोष, घोड़े की गड़बड़ी - सो प्र. वि., ए. व. अट्टमो अस्सदोसो, अ. नि. 3 (1).35. अस्सद्ध / असद्ध त्रि. ब. स. [अश्रद्ध] श्रद्धाहीन, श्रद्धाभाव न रखने वाला द्वा पु०, प्र. वि., ब.व. राजानो अस्सद्धा अप्पसन्ना, महाव, 93: असद्धाति बुद्धादीसु सद्धाविरहिता, विसुद्धि. 1.169- हो पु. प्र. वि. ए. व. असद्धो अकतञ्जू च, ध. प॰ 97; अत्तनो पटिविद्वगुणं परेसं कथाय न सदहतीति अस्सद्धो ध. प. अड. 1.352 - भाव पु.. तत्पु० स० [ अश्रद्धादिभाव], श्रद्धा से रहित होने आदि की वं द्वि. वि., ए. व. मनुस्सानं अस्सद्धादिभावं वा आगम्म.... उदा. अ. 148 भोजी सिद्धभोजी का निषे [ अश्राद्धभोजिन्], श्राद्ध का भोजन न खाने वाला जी पु०, प्र. वि., ए.व. अचन्दमुल्लोकिकानि मुखानि, असद्धभोजी, अलवणभोजी अपुनगेय्या गाथा, सद्द. 3.744.
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अवस्था
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अस्सपिट्ठ
"
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अस्सद्धा स्त्री, सद्धा का निषे, तत्पु० स० [अश्रद्धा ], श्रद्धा का अभाव, अविश्वास द्वं द्वि. वि., ए. व. - विनासयति अस्सद्ध, सद्ध वड्डेति सासने, उदा. अड. 15. अस्सद्धिय क. नपुं० [ अश्रद्धय ] श्रद्धा का अभाव, श्रद्धासम्पदा का अभाव, ख. त्रि., श्रद्धा न करने योग्य, विश्वास न करने योग्य यं नपुं. प्र. वि. ए. व. अस्सद्धियन्तिस्स वचनीय, अ. नि. 3(2).94; अस्सद्धियं खो पन तथागतप्पवेदिते धम्मविनये परिज्ञानमेतं अ. नि. 3(2). 133: अस्सद्वियं कसटो पटि. म. 268; यतो. सद्धा अन्तरहिता होति असद्धियं परियुद्धाय तिद्धति, अ. नि. 2 (1).5: ये सप्त. वि., ए. व. असद्धिये न कम्पतीति सद्भावलं ध. स. अड्ड. 188. अस्सधेनु स्त्री. कर्म, स. [अश्वधेनु], घोड़ी बछेड़े को दूध पिलाने वाली घोड़ी या कोई भी मादा पशु गोधेनु अस्सधेनु मिगधेनु ति धेनुसद्दो सामञ्ञवसेन सपोतिकासु तिरच्छानगतित्थीसु वत्तति, सद्द. 2.393. अस्सनाविकपुत्त पु.. दो तमिल अधिपतियों या प्रमुखों का त्ता प्र. वि., ब. व. - अस्सनाविकपुत्ता द्वे दामिका सेनगुत्तका, म. वं. 21.10. अस्सन्दमान त्रि.. √सन्द के वर्त. कृ. का निषे. [अस्यन्दमान]. नहीं बहता हुआ / हुई - ना स्त्री०, प्र. वि., ब. व. नदियो असन्दमाना अहंसु, जा० अट्ठ. 1.62. अस्सपणीय नपुं. कर्म. स. [ अश्वपण्य] बेचने के लिए रखा गया घोड़ा, विक्रयार्थ पोसा जा रहा घोड़ा - यं द्वि. वि., ए. व. - पुरिसो उदयत्थिको अस्सपणियं पोसेय्य, अ. नि. 1(2):229: अरसपणियं पोसेव्याति पञ्च अस्सपोतसतानि किणित्वा पच्छा विक्किणिस्सामीति पोसेय्य, अ. नि. अड. 2.367.
नाम
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अस्सपन्ति स्त्री, तत्पु० स० [ अश्वपंक्ति ], घोड़ों की लम्बी कतार न्तीहि तृ. वि. ब. व. सब्बं राजङ्गणं निरन्तर अस्सपन्तीहि परिक्खित्तमिवाहोसि, जा. अड. 2.242. अस्सपाल पु॰, व्य॰ सं० [ अश्वपाल ], राजा एसुकारी के पुरोहित का पुत्र, हत्थिपाल, गोपाल एवं अजपाल का भाई लो प्र. वि., ए. व. तरसपि जातकाले अस्सपालो ति नामं करिसु. जा. अड. 4.432: अस्सपालो सारिपुतो जा. अट्ठ. 4.444.
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-
अस्सपिट्ठ नपुं तत्पु, स. [ अश्वपृष्ठ / अश्वपृष्ठि ], घोड़े की पीठ - ट्ठे सप्त. वि., ए. व. हत्थिगीवाय वा निसिन्नो अस्सपिट्टे वा निसिन्नो रथूपत्थरे वा ठितो...दी... 1.90; अस्सपिट्टे निसिन्नोव ... अदासि, ध. प. अड. 2.46;
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अस्सपिट्टि
713
अस्समण्डलिका -त्थरण नपुं.. तत्पु. स. [अश्वपृष्ठास्तरण], घोड़े की पीठ गच्छति अस्सम, जा. अट्ठ, 7.297; 2. गृहस्थ, वानप्रस्थ, पर बिछाया गया बिछावन या गलीचा - चम्म विहनन्ति आदि चार आश्रम, घर-बार छोड़ वन में रहकर बिताया जा एळकस्स, अस्सपिछत्थरस्सुखस्स हेतु, जा. अट्ठ. 6.181. रहा वानप्रस्थ-नामक आश्रम - मं द्वि. वि., ए. व. - अस्सपिट्ठि स्त्री., तत्पु. स. [अश्वपृष्ठ/अश्वपृष्ठि], घोड़े महायचं यजित्वान, पुन पाविसि अस्सम सु. नि. 985. की पीठ - तो प. वि., ए. व. - सो पुण्णको अस्सपिट्टितो अस्समंस नपुं., तत्पु. स. [अश्वमांस], घोड़े का मांस - सं ओरुव्ह .... जा. अट्ठ. 7.164; सो तावदेव अस्सपिडितो द्वि. वि., ए. व. - न, भिक्खवे, अस्समंसं परिभुजितब्ब ओतरित्वा ..., ध, प. अट्ठ. 1.317.
महाव. 295. अस्सपुर नपुं., व्य. सं., अङ्ग जनपद का एक नगर - रं प्र. अस्समण पु., समण का निषे., तत्पु. स. [अश्रमण], श्रमण वि., ए. व. -- अस्सपुरं नाम अङ्गानं निगमो, म. नि. 1.342; या भिक्षुभाव के लिए आवश्यक संयमों से रहित, अयोग्य या अस्सपुरं नाम अङ्गानं निगमोति अस्सपुरन्ति नगरनामेन अनाचारी भिक्षु, भिक्षुभाव से पतित या भ्रष्ट - णो प्र. वि., लद्धवोहारो अङ्गानं जनपदस्स एको निगमो, तं गोचरगाम ए. व. - यंनूनाहं अस्समणो अस्सन्ति, पारा. 26; अस्समणोति कत्वा विहरतीति अत्थो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).208. मंधारेहीति न वेवचनेन पच्चक्खानं पारा. अट्ठ. 1.202; यो अस्सपोत पु., तत्पु. स. [अश्वपोत], बछेड़ा, घोड़े का भिक्ख मेथुनं धम्म पटिसेवति, अस्समणो होति असक्यपत्तियो, अनाड़ी बच्चा - तो प्र. वि., ए. व. - अस्सखळुङ्कोति महाव. 123; - णे वि. वि., ब. व. - ततो पलापे वाहेथ, अस्सपोतो, अ. नि. अट्ठ. 2.235; - क पु., [अश्वपोतक], अस्समणे समणमानिने, सु. नि. 284; - धम्म त्रि., ब. स. उपरिवत् - ... अस्सपोतकप्पमाणो यमसम्पन्नो ..., जा. [अश्रमणधर्मन्], श्रमण-धर्म का पालन न करने वाला, भिक्षु अट्ठ. 1.268; - कं द्वि. वि., ए. व. - वेतनं मे ददमानो के लिए निर्धारित संयम से रहित, दुराचारी भिक्षु - म्मो पु., इमम्पि अस्सपोतकं वेतनतो खण्डेत्वा देही ति आह, जा. प्र. वि., ए. व. - ... धारेय्यासि अस्समणधम्मो असक्यपुत्तियअट्ठ. 2.239; - प्पमाण त्रि., ब. स. [अश्वपोतकप्रमाण], धम्मोति, स. नि. 2(2).311. बछेड़े जैसा - णो पु.. प्र. वि., ए. व. - अस्सपोतकप्पमाणो अस्समणी स्त्री., अस्समण से व्यु. [अश्रमणी], अच्छे आचरणों थामसम्पन्नो .... जा. अट्ठ. 1.268; - णं नपुं॰, प्र. वि., ए. से विहीन भिक्षुणी, असंयत भिक्षुणी - णी प्र. वि., ए. व. - व. - सरीरं पनस्स महन्तं अस्सपोतकप्पमाणं अहोसि, जा. ... अस्समणी होती असक्यधीता, पाचि. 288. अट्ठ. 1.153.
अस्समण्डल नपुं.. [अश्वमण्डल], घोड़ों को दौड़ाने का अस्सबन्ध पु.. [अश्वबन्ध], घोड़े को सधाने में कुशल साईस मैदान, घोड़े को घुमाने-फिराने का मैदान, घुड़सवारी के - न्धं द्वि. वि., ए. व. - हत्थिबन्धं अस्सबन्धं गोपुरिसञ्च अभ्यास करने का मैदान - ले सप्त. वि., ए. व. - ... अस्सं ... सधनमनुपतन्ति नारियो, जा. अट्ठ. 5.446; - न्धो प्र. वि.. आनने गहेत्वा अस्समण्डले परिवत्तेय्य, जा. अट्ठ. 2.81; एवं ए. व. - तस्स गिरिदत्तो नाम अस्सबन्धो.... जा. अट्ठ. 2.81. सब्बदिसासु अस्समण्डले अस्समिव मेत्तासहगतं चित्तं सारेतिपि अस्सभण्डक नपुं., तत्पु. स. [अश्वभाण्डक], घोड़े को पच्चासारेतिपीति, विसुद्धि. 1.298; - तो प. वि., ए. व. - सजाने वाला साजो-समान - केन तृ. वि., ए. व. - ... .... अस्समण्डलतो याव चम्पानगरद्वारा ..., म. नि. अट्ठ.
अस्सभण्डकेन अलङ्करित्वा अस्सं अदासि, जा. अट्ठ. 2.94. (म.प.) 2.5. अस्सम पु.. [आश्रम], 1. तपस्वी या ऋषि-मुनि का वन में अस्समण्डलतित्थट्ठ त्रि., अनुराधपुर महाविहार के बनाया हुआ ऐसा वासस्थान, जिसमें पर्णशाला एवं चंक्रमणपथ अस्समण्डलतीर्थ नामक एक स्थान पर स्थित - 8ो पु., प्र. रहे तथा जो गोचरग्राम से बहुत दूरी पर स्थित न हो; 2. वि., ए. व. - अस्समण्डलतित्थट्ठो कित्तिनामादिपोत्थकी, चू. आश्रम में रहने वाले का जीवन - मो प्र. वि., ए. व. - वं. 72.27. ब्रह्मचारिगहट्ठादो अस्समो च तपोवने, अभि. प. 928; 409; अस्समण्डलिका स्त्री., [अश्वमण्डलिका], घोड़ा को बन्द पदुमकिञ्जक्खरेणूहि, ओकिण्णो होति अस्समो, जा. अट्ठ. करने का गोलाकार बाड़ा, उत्तरापथ के घोड़ों के व्यापारियों 7.294; अथ खो भगवा येन उरुवेलकस्सपस्स जटिलस्स की सराय - सु सप्त. वि., ब. व. - ... उत्तरापथका अस्समो तेनुपसङ्कमि, महाव. 78; अस्समो सुकतो मय्ह, बु. अस्सवाणिजा... अस्समण्डलिकासु भिक्खूनं पत्थपत्थपुलक वं. 2.28; - मं द्वि. वि., ए. व. - अयं एकपदी एति, उर्जु पअत्तं होति, पारा. 7; - यो द्वि. वि., ब. व. -
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अस्समपद
714
अस्सरतन
अस्समण्डलिकायोति पञआयिंसति परिमण्डलाकारेन कतत्ता अस्समण्डलिकायोति पाकटा अहेसुं. सारत्थ. टी. 1.373. अस्समपद नपुं.. तत्पु. स. [आश्रमपद], आश्रम का स्थल, आश्रम की भूमि, आश्रम - दं द्वि. वि., ए. व. - अथ नं अस्समपदं नेत्वा ... पटिजग्गि, ध. प. अट्ठ. 1.96; ... पन्नरसयोजनं अस्समपदं मापेही ति आह, जा. अट्ठ. 1.301; - सम्पत्ति स्त्री., तत्पु. स. [आश्रमपदसंपत्ति], आश्रम के स्थल की समृद्धि या सम्पदा-त्तिं द्वि. वि., ए. व. - तत्थ गन्वा इमं अस्समपदसम्पत्ति पस्सिस्सतीति, जा. अह. 7.293. अस्सममग्गपस्स पु../नपुं.. आश्रम की ओर जाने वाले मार्ग के आस-पास का क्षेत्र - स्से सप्त. वि., ए. व. - अत्रे पन ... च अनुमग्गे मम अस्सममग्गपस्से वसन्ति, जा. अट्ठ. 5.191. अस्समारक पु., [अश्वमारक], एक औषधीय पादप, कनैर
या कनैल - करवीरो स्समारको, अभि. प. 577. अस्समुख' त्रि., ब. स. [अश्वमुख], घुड़मुंहा, घोड़े की तरह मुख वाला - खी स्त्री., प्र. वि., ए. व. - ... एकस्मि पब्बतपादे अस्समुखी यक्खिनी हुत्वा, जा. अट्ठ. 3.444. अस्समुख नपुं., अनवतप्त जलाशय में पानी आने के चार मुहानों में से एक - खं प्र. वि., ए. व. - तत्थ चतूसु पस्सेसु सीहमुखं हत्थिमुखं अस्समुखं उसभमुखन्ति चत्तारि मुखानि होन्ति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.27. अस्समुट्ठिक/अस्ममुट्ठिक त्रि., ब. स. [अश्ममुष्टिक]. पत्थर जैसी कठोर मुट्ठी वाला - का पु., प्र. वि., ब. व. - ये दिवसे दिवसे भिक्खापरियेट्टि नाम दुक्खा पब्बजितस्साति मुट्टिपासाणेन अम्बाटकादीनं रुक्खानं तचं कोर्दृत्वा खादन्ति ते अस्ममुट्ठिका नाम, दी. नि. अट्ठ. 1.219; अस्ममुट्ठिना मुट्टिपासाणेन वत्तन्तीति अस्ममुट्ठिका, लीन. (दी.नि.टी.) 1272 अस्समेण्ड पु., अस्समण्ड का अप., साईस - अस्सारोहाति
सब्बेपि अस्साचरियअस्सवेज्जअस्समेण्डादयो, दी. नि. अट्ठ. 1.131. अस्समेध पु., [अश्वमेघ], एक वैदिक यज्ञ, जिसमें घोड़े की बलि दी जाती थी-धो प्र. वि., ए. व. - अस्समेधो च पुरिसमेधो चेव निरगळो, अभि. प. 413; -धं द्वि. वि., ए. व. - अस्समेधं पुरिसमेधं, सम्मापासं वाजपेय्यं निरग्गळं सु. नि. 305; अस्समेधान्ति आदीस अस्समेत्थमेधन्तीति अस्समेधो, सु. नि. अट्ठ. 2.51; - विकप्प पु., तत्पु. स. [अश्वमेधविकल्प], अश्वमेध यज्ञ का विकल्प या प्रभेद -
स्स ष. वि., ए. व. - नवहि ... अस्समेधे ... वुत्तविभवदक्खिणस्स सबमेध परियायनामस्स अस्समेधविकप्परसेवेतं अधिवचनं. स. नि. अट्ठ. 1.129; इतिवु. अट्ठ. 82. अस्सय/आसय पु., [आश्रय], सहारा, अवलम्बन, शरणस्थल, निवासस्थान - यो प्र. वि., ए. व. - आसयोति वसनट्ठान, स. नि. अट्ठ. 1.91; - ये सप्त. वि., ए. व. - चित्तसालसमीपम्हि महाबोधिपदस्सये, म. वं. 20.52. अस्सयान नपुं., [अश्वयान], सवारी के रूप में प्रयुक्त घोड़ा, घोड़ा की सवारी - नं प्र. वि., ए. व. - भद्दकं वत भो अस्सयानं सचे दमथं उपेय्याति, दी. नि. 2.130; न अस्सयानं. न रथेन यातुं, स. नि. अट्ठ. 1.74. अस्सयी त्रि., [आश्रयिन], आश्रय या सहारा लेने वाला, अवलम्बन लेने वाला - यिनो पु.. प्र. वि., ब. व. - मानस्सिनोति मानस्सयिनो, माननिस्सिताति वुत्तं होति, चूळव. अट्ठ. 108. अस्सयुज' पु., [अश्वयुज], अश्विनी-नामक प्रथम नक्षत्र - अस्सयुजो भरणित्थी कत्तिका रोहिणी येव, अभि. प.58; - नक्खत्त नपुं.. अश्विनी नक्षत्र - त्तेन तृ. वि., ए. व. -
अस्सयुजनक्खत्तेन देवोरोहनन्ति ..., दी. नि. अट्ठ. 2.16. अस्सयुज' पु., [अश्वयुज]. अश्विनी नक्षत्र से युक्त पूर्णिमा वाला आश्विनमास - जा प्र. वि., ब. व. - पोट्टपादास्सयुजा च मासा द्वादस कत्तिको, अभि. प. 75; अस्सयजकत्तिकमासा हि लोके सरदउतूति वुच्चन्ति, इतिवु. अट्ठ. 79. अस्सयुद्ध नपुं., तत्पु. स. [अश्वयुद्ध], मनोरञ्जन के साधन के रूप में घोड़ों का युद्ध - द्धं प्र. वि., ए. व. - . .. हत्थियुद्धं अस्सयुद्धं ... वट्टकयुद्धं ... सेनाब्यूह ... इति,
दी. नि. 1.6. अस्सर त्रि, निषे. ब. स. [अस्वर], स्वरों से रहित (व्यञ्जन) - रं नपुं., द्वि. वि., ए. व. - तत्थ सन्धिं ... अधो ठितं
अस्सरं कत्वा ... वियोजये, क. व्या. 10. अस्सरणता स्त्री., अस्सरण का भाव. [अस्मरणत्व, नपुं.]. स्मरण न रखना, भूल जाना, स्मृति का अभाव - ता प्र. वि., ए. व. - या अस्सति ... अस्सति अस्सरणता अधारणता पिलापनता सम्मुसनता, पु. प. 127. अस्सरतन नपुं., कर्म. स. [अश्वरत्न], उत्तम गुणों वाला घोड़ा, बहुमूल्य घोड़ा, चक्रवर्ती राजा - नं प्र. वि., ए. व. - ... रओ महासुदस्सनस्स अस्सरतनं पातुरहोसि .... दी. नि. 2.130; - नेन तृ. वि., ए. व. - अस्सरतनेन चेवाह,
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अस्सरति
715
अस्सवन
भन्ते, लभेय्यं..., स. नि. 1(1).116; - ने सप्त. वि., ए. व. - अस्सरतनेपि एसेव नयो, स. नि. अट्ठ. 1.144; - नं प्र. वि., ए. व. - सेय्यथिदं - चक्करतनं. ... अस्सरतनं, ..., परिणायकरतनमेव सत्तम, दी. नि. 1.77. अस्सरति आ + सर (रंगना, चलना) के वर्त., प्र. पु., ए.
व. का अप. [आसरति]. अतिक्रमण करता है - ... कत्वा .... अतिच्च अस्सरति एताय सत्तोति अच्चसरा, महानि. अट्ठ. 161; 332. अस्सरथ पु., तत्पु. स. [अश्वरथ], घोड़ों द्वारा खींचा जा रहा रथ - थो प्र. वि., ए. व. - अस्सेन युत्तो रथो अस्सरथो, सद्द. 3.755; - थं द्वि. वि., ए. व. - भरिया मे अरोगा ठिताति चत्तारि सहस्सानि पादासि दासञ्च दासिञ्च अस्सरथञ्च, महाव. 360; अस्सासयि अस्सरथं, ब्राह्मणस्स धनेसिनो ति, जा. अट्ठ. 7.271. अस्सरन्त त्रि., Vसर (स्मरण करना) के वर्त. कृ. का निषे. [अस्मरत्], स्मरण न करता हुआ, नहीं जानता हुआ - न्ता पु., प्र. वि., ए. व. - ब्राह्मणा पोराणं अस्सरन्ता एवमाहंसु. दी. नि. 3.60; अस्सरन्ताति अस्सरमाना, ... अननुस्सरन्ता अजानन्ता एवं वदन्तीति, दी. नि. अट्ठ. 3.41. अस्सराज पु., तत्पु. स. [अश्वराजन्], उत्तम घोड़ा, शाही घोड़ा - जा प्र. वि., ए. व. - ... वलाहको नाम अस्सराजा, दी. नि. 2.130; दी. नि. अट्ठ. 2.56; - जानं वि. वि., ब. व. - ... रमणीये भूमिभागे ठितं कण्डकं अस्सराजानं दिवा ..... जा. अट्ट. 1.72. अस्सरूपक नपुं.. [अश्वसदृश्], घोड़े से समानता - कं द्वि. वि., ए. व. - अस्सरूपकं नो दस्सेही ति गामदारकेहि
वुच्चमानो... लभति, ध. प. अट्ठ. 1.289. अस्सलक्खण नपुं., तत्पु. स. [अश्वलक्षण]. घोड़ों के शुभ लक्षण (को बतलाने वाली विद्या), अट्ठारह महाशिल्पों में से एक - णं प्र. वि., ए. व. - सेय्यथिदं- मणिलक्खणं, ... अस्सलक्खणं ... मिगलक्खणं इति वा इति, दी. नि. 1.8-9. अस्सलण्ड नपुं.. तत्पु. स. [अश्वलण्ड], घोड़े की लीद - ण्डं द्वि. वि., ए. व. - तं अन्तोफरुसताय बहिमढ़ताय हत्थिलण्डं विय अस्सलण्डं विय च होतीति, जा. अट्ठ. 373. अस्सलायन पु., व्यक्तियों का नाम, 1. श्रावस्ती का एक विद्वान युवा ब्राह्मण - तेन खो पन समयेन अस्सलायनो नाम माणवो सावत्थियं पटिवसति दहरो, म. नि. 2.362; अपि ब्राह्मणा सन्ति के चीति इमिना ...
अस्सलायनवासेट्ठअम्बट्ठउत्तरमाणवकादयो दस्सेति सु. नि. अट्ठ. 2.93; 2. स्थविर महाकोट्ठित का पिता - नो प्र. वि., ए. व. - माता चन्दवती नाम, पिता मे अस्सलायनो, अप. 2.129; - सुत्त नपुं., म. नि. का एक सुत्त, जिसमें श्रावस्ती के युवा ब्राह्मण अस्सलायन का भगवान बुद्ध के साथ संवाद वर्णित है, म. नि. 2.362-371; वित्थारो पन अस्सलायनसुत्तानुसारेन वेदितब्बो, सु. नि. अट्ठ. 2.121. अस्सव' त्रि., [आश्रव], आज्ञाकारी, आज्ञापालक, बात को सुनने वाला, विनीत - वो प्र. वि., ए. व. - विधेय्यो तु अस्सवो सुब्बचो समा, अभि. प. 730; सुस्सूसा सेट्टा भरियानं यो च पुत्तानमस्सवो ति, स. नि. 1(1).8; अस्सवोति आसुणमानो, स. नि. अट्ठ. 1.32; भवति परिजनस्सवो विधेय्यो, दी. नि. 3.114; परिजनस्सवोति परिजनो अस्सवो वचनकरो, दी. नि. अट्ठ. 3.100; - वा' पु., प्र. वि., ब. व. -- यक्खापि मे अस्सवा नत्थि केचि, जा. अट्ठ. 4.88; अस्सवाति वचनकारका इच्छितिच्छितदायका .... जा. अट्ठ. 4.89; - वा स्त्री., प्र. वि., ए.व. - गोपी मम अस्सवा अलोला, सु. नि. 22; - वं नपुं., प्र. वि., ए. व. - चित्तं मम अस्सवं विमुत्तं, सु. नि. 23. अस्स/अस्साव पु., [आस्रव], बहाव, स्रवण, पीब से भरा बहाव, घाव से पीब का रिसाव - विधेय्ये अस्सवो तीसु पुब्बम्हि पुरिसे सिया, अभि. प. 1036; यरस कण्डु वा पिळका वा अस्सावो वा थुल्लकच्छु वा वा आबाधो, महाव. 277. अस्सवत नपुं० [अश्वव्रत], (कुछ तपस्वियों द्वारा धार्मिकचर्या के रूप में अपनाया गया) घोड़े की क्रियाओं का आचरण - तं प्र. वि., ए. व. - वतानीति हत्थिवतं वा अस्सवतं वा .... महानि. 66; - तिक त्रि., अस्सवत से व्यु. [अश्ववतिक], घोड़े की क्रियाओं के आचरण का व्रत लेने वाला - तिका पु., प्र. वि., ब. व. - ते हत्थिवतिका वा होन्ति, अस्सवतिका वा होन्ति, ..., महानि. 63; अस्सवतिकादीसुपिलभमानवसेन यथायोग योजेतब्बं, महानि. अट्ठ. 171. अस्सवति आ + vसु का वर्त, प्र. पु., ए. व. [आस्रवति], बहता है, प्रवाहित होता है - वे विधि., प्र. पु., ए. व. - आवेधञ्च न परसामि, यतो रुहिरमस्सवे, जा. अट्ठ. 2.230; यतो रुहिरमस्सवेति यतो मे आवेधतो लोहितं पग्घरेय्य, तं न पस्सामीति अत्थो, तदे... अस्सवन नपुं., सवन का निषे. [अश्रवण], नहीं सुनना, ध्यान न देना, उपेक्षा, अवज्ञा-भाव - पच्छा आगतपरिसं
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अस्सवनीय
716
अस्ससिप्प
अस्सवनसुस्सवन आधारणदळहीकरणादीनि वा सन्धाय तदत्थदीपकमेव च, सु. नि. अट्ठ. 2.114; - भावपटिक्खेप पु. [अश्रवणभावप्रतिक्षेप], नहीं सुनने की स्थिति का निराकरण - तो प. वि., ए. व. - सुतन्ति अस्सवनभावपटिक्खेपतो अनूनाधिकाविपरीतग्गहणनिदस्सन, दी. नि. अट्ठ. 1.29, - ता स्त्री., अस्सवन का भाव., नहीं सुनने की अवस्था, उपेक्षा भाव, आज्ञापरायणता का अभाव - अरसवनता धम्मस्स परिहायन्ति, महाव. 6. अस्सवनीय त्रि., vसु (सुनना) का सं. कृ. का निषे. [अश्रवणीय], नहीं सुने जाने योग्य, कठोर या बहुत ऊंची आवाज वाला - खरसर त्रि., सुनाई देने में कठिन तथा तीक्ष्ण स्वर वाला - दिट्ठविद्देसनीयो चास्सवनीयखरस्सरो, सद्धम्मो. 82. अस्सवस त्रि., सवस का निषे. [अस्ववश], अपनी स्वयं की मदद करने में भी अक्षम, पूरी तरह परावलम्बी - संपु., द्वि. वि., ए. व. - जरावरन्ति जराय किलन्तं अस्सवसं. लीन. (दी.नि.टी.) 2.40. अस्सवाणिज पु., तत्पु. स. [अश्ववाणिज], घोड़ों का सौदागर, घोड़ों के क्रय-विक्रय का व्यापार करने वाला - जा प्र. वि., ब. व. - उत्तरापथका अस्सवाणिजा पञ्चमत्तेहि अस्ससतेहि वेरजं वस्सावासं उपगता होन्ति, पारा. 7; तेन खो पन समयेन उत्तरापथका अस्सवाणिजा .... पारा. अट्ट, 1.133; -क पु., उपरिवत् - का प्र. वि., ब. व. - तेसं अस्सवाणिजका पत्थपत्थपुलकं भिक्खं पञआपेसुंध. प. अट्ठ. 1.333. अस्सवाल पु., तत्पु. स. [अश्वबाल], घोड़े का बाल - लेहि तृ. वि., ब. व. - बाळकम्बलन्ति अस्सवालेहि कतकम्बलं. दी. नि. अट्ट, 1.265; चामरीवालअस्सवालादीहि कतं वालकम्बल, लीन. (दी.नि.टी.) 3.200. अस्सवेज्ज पु., तत्पु. स. [अश्ववैद्य], घोड़े का चिकित्सक -- अस्सारोहाति सब्बेपि अरसाचरियअस्सवेज्जअस्समेण्डादयो,
दी. नि. अट्ठ. 1.130-31. अस्ससति आ + (ससु (श्वांस लेना) वर्त., प्र. पु., ए. व.. 1.क. अन्दर की ओर श्वांस को खींचता है - सो सतोव अस्ससति, सतोव पस्ससति, दीर्घ वा अस्ससन्तो दीघं अस्ससामी ति पजानाति, दी. नि. 2.215; - सामि उ. पु... ए. व. - ... दीघं अस्ससामीति पजानाति, दी. नि. अट्ठ. 2.318; - सन्तो पु., वर्त. कृ. का प्र. वि., ए. व. - मुखं विवरित्वा निपन्नो अस्ससन्तो पस्ससन्तो निदं उपगन्छि, जा. अट्ठ. 2.42; 1.ख. दूसरे को अभिभूत करने, पीडित
करने या उस पर आविष्ट करने हेतु लम्बी सांस खींचता है, आविष्ट कर लेता है - न्ति वर्त., प्र. पु., ब. व. - यक्खा पिसाचा अथवापि पेता, कुपिता ते अस्ससन्ति मनुरसे, न मच्चुनो अस्ससितुस्सहन्ति, जा. अट्ट, 4.448; अस्ससन्तीति अस्सासवातेन उपहनन्ति, आविसन्तीति वा अत्थो, जा. अट्ठ. 4.451; 2. क. फिर से ऊर्जा पाने हेतु दम भर लेता है, थोड़ी सी राहत की सांस ले लेता है - स्सासयित्वा पू. का. कृ., प्रेर., विश्राम करके - मुहुत्तं अस्सासयित्वा, अगमा येन पब्बतो, जा. अट्ठ. 4.84; 2.ख. धीरज रखता है - स्सास अनु., म. पु., ए. व. -- अम्म अस्सास मा सोचि, जा. अट्ठ. 7.35; अस्सास हेस्सामि ते पति, जा. अट्ठ. 7.156; - स्सासत अनु०, प्र. पु., ए. व. - अस्सासतायस्मा, स. नि. 3(2),472; अस्सासतायस्माति, अस्सासत आयस्मा, स. नि. अट्ठ. 3.321; 3. विश्वास करता है, भरोसा करता है - अस्मसे/अस्ससे विधि., प्र. पु.ए. व. - नास्मसे कतपापम्हि, नास्मसे अलिकवादिने नास्मसे अत्तत्थपञ्चम्हि, अतिसन्तेपि नास्मसे, जा. अट्ट. 4.50; तत्थ नास्मसेति नारससे ... न विस्ससेति वुत्तं होति, जा. अट्ठ. 4.51. अस्सपरस्स पु., तत्पु. स. [अश्वापरश्व], घोड़ों के बीच अच्छा घोड़ा, घोड़ों के बीच ऊँची नस्ल वाला या प्रशिक्षित घोड़ा - स्सा प्र. वि., ब. व. - इमे खो, भिक्खवे, तयो अस्सपरस्सा, अ. नि. 1(1).325; नवमे अस्सपरस्सेति अस्सेस परस्से, अ. नि. अट्ठ. 2.235. अस्ससम्मद्द त्रि., ब. स. [अश्वसम्म], बहुत सारे घोड़ों से भरा हुआ - इं नपुं॰, प्र. वि., ए. व. - रुओ राजन्तेपुर हथिसम्म अस्ससम्म रथसम्मई..., पाचि. 212. अस्ससाला स्त्री., तत्पु. स. [अश्वशाला], घुड़साल, घोड़ों के रखने का स्थान, अस्तबल - य सप्त. वि., ए. व. - ... अस्से अस्ससालायं सण्ठापेसि. जा. अट्ठ. 1.130; - निस्सित त्रि०, तत्पु. स. [अश्वशालानिश्रित], घुडसाल के पास में स्थित - तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अस्ससालानिस्सितं
वा होति. पारा. 231. अस्ससित नपुं.. आ + vससु का भू. क. कृ. [आश्वसित], आश्वास, सांस लेना - अस्ससितपस्ससितमत्तेन जीवन्ति, खु. पा. अट्ठ. 99. अस्ससिप्प नपुं.. तत्पु. स. [अश्वशिल्प], घोड़ों को सधाने अथवा नियन्त्रित करने की विद्या - प्पं प्र. वि., ए. व. - अस्ससिप्पं सिप्पानं अग्गन्ति, उदा. 103; ... अस्ससिप्पन्ति एत्थापि एसेव नयो, उदा. अट्ठ. 165.
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अस्सा
717
अस्सादानुपस्सी अस्सा स्त्री., [अश्वा], घोड़ी - वळवा स्सा, अभि. प. 371. नि. 2(2).146; अस्साददिठ्ठीति सरसतदिद्धि, अ. नि. अट्ठ अस्साचरिय पु., तत्पु. स. [अश्वाचार्य], क. राजा के समीप 3.145; - या ष. वि., ए. व. - अस्साददिट्ठिया पञ्चतिंसाय रहने वाला घोड़ों का विशेषज्ञ, घुड़सवारी शिक्षक - यं द्वि. आकारेहि अभिनिवेसो होति, पटि. म. 127. वि., ए. व. - राजा अस्साचरिय आमन्तेत्वा..., स. नि. अट्ठ. अस्सादन नपुं.. [अस्सादन], खाने, पीने, चखने या चाटने 1.32; ख. घुड़सवार सेना का अधिकारी - येहि तृ. वि., ब. में आनन्द या सुख का अनुभव, स्वाद लेना - लिह व. -- गामणीयेहीति अस्साचरियेहि, जा. अट्ट. 7.260. अस्सादने, सद्द. 2.459; रस अस्सादने, सद्द, 2.443; सा अस्साजानीय पु., कर्म. स. [अश्वाजानेय], उत्तम नस्ल अस्सादने, सद्द. 2.482; मोक्खासने अस्सादने, सद्द. 2.522. का घोड़ा - यं द्वि. वि., ए. व. - दक्खो अस्सदमको भद्रं अस्सादना स्त्री., स्वाद लेने की क्रिया, स्वाद का अनुभव - अस्साजानीय लभित्वा पठमेनेव मुखाधाने कारणं कारेति, म. ना प्र. वि., ए. व. - ..., अपि अस्सादना सिया, स. नि. नि. 2.118; तीहि भिक्खवे अङ्गेहि समन्नागतो रुओ भद्रो । 1(1).145; स. नि. 1(1).449; अस्सादनाति सादुभावो, सु. अस्साजानीयो राजारहो होति, अ. नि. 1(1).277; - ये द्वि. नि. अट्ठ. 2.109. वि., ब. व. - तयो च, भिक्खवे, भद्रे अस्साजानीये देसेस्सामि, अस्सादनीय त्रि., आ + स्वद का सं. कृ. [आस्वादनीय]. अ. नि. 1(1).326; अस्साजानीयेति कारणाकारणं जाननके स्वाद प्राप्त करने योग्य, अच्छे स्वाद के पाने योग्य, अस्से, अ. नि. अट्ट, 2.236.
स्वादिष्ट, खाने-पीने में अच्छा लगने योग्य - तो प. वि., अस्साद पु., [आस्वाद]. 1. vचक्ख (चखना), रस (स्वाद ए. व. - सा कथं छसुद्वारेसु तण्हाय पच्चयो होतीति चे? लेना) तथा लिह (चाटना) आदि धातुओं के अर्थों का अस्सादनीयतो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).229. सूचक, खाद्य एवं पेय आदि का रसास्वादन - अस्सादत्थो अस्सादपरियेसना स्त्री., तत्पु. स. [आस्वादपर्येषण], स्वाद पि चक्खुसद्दो भवति, सद्द. 2.332; रस अस्सादसिनेहेसु. सद्द. की तलाश, विषयभोगों में आनन्दमयी अनुभूति का अन्वेषण 2.443; 2. अनुकूल रूप में संवेदनीय रूप, शब्द, गन्ध, रस - नं द्वि. वि., ए. व. - अस्सादपरियेसनं अचरि स. नि. एवं स्पृष्टव्य जैसे इन्द्रिय-विषयों में आनन्द का अनुभव या 1(2).155. उसका उपभोग - दो प्र. वि., ए. व. - एवमेव खो, अस्सादबद्धचित्तता स्त्री॰, भाव. [आस्वादबद्धचित्तता], भोगों महाराज, योगिना... सब्बभवपटिसन्धीसु मानसं उब्बेजयितब्ब, में स्वाद पाने के लिए चित्त का बंधा हुआ रहना - य तृ. अस्सादो न कातब्बो, मि. प. 356; - देन तृ. वि., ए. व. वि., ए. व. - ... ओवदितोपि अस्सादबद्धचित्तताय सचे - पियरूपेसु अस्सादेन गिद्धा ... अत्थो. उदा. अट्ठ. 95; - वृत्तप्पकारो आदीनवो भविस्सति, स. नि. अट्ठ. 2,106. दं द्वि. वि., ए. व. - अलद्धा तत्थ अस्सादं वायसेत्तो अस्सादमत्ता स्त्री.. [आस्वादमात्रा], बहुत थोड़ा सा स्वाद, अपक्कमे, स. नि. 1(1).145; 3. सुख या मौजमस्ती भरी स्वल्प स्वाद, बहुत हल्का मजा - त्ता प्र. वि., ए. व. - होति अवस्था, रसपरिपूर्णता - दो पु.. प्र. वि., ए. व. - सङ्गो एसो चेव काचि सातमत्ता अस्सादमत्ता - यदिदं वणमुखानं परित्तमेत्थ सोख्य, अप्पस्सादो दुक्खमेत्थ भिय्यो, सु. नि. कण्डूवनहेतु, म. नि. 2.185; एवमस्स काचि अस्सादमत्ता 61; अप्पस्सादो दुक्खमेत्थ भिय्योति एत्थ च वायं यं खो, होति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.156. भिक्खवे, इमे पञ्च कामगुणे पटिच्च उप्पज्जति सुखं अस्सादरहित त्रि., तत्पु. स. [आस्वादरहित], बेस्वाद, बिना सोमनस्सं. अयं कामानं अस्सादो ति वृत्तो, सु. नि. अट्ट. स्वाद का - तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - इदहि कसिरञ्च 1.90; यं खो लोकं पटिच्च उप्पज्जति सुखं सोमनस्सं, अयं दुक्खं अस्सादरहितं, जा. अट्ठ. 4.101. लोके अस्सादो, अ. नि. 1(1).292; - चेतना स्त्री., तत्पु. अस्सादसञा स्त्री., तत्पु. स. [आस्वादसंज्ञा, संसार के स. [आस्वादचेतना], विषयभोगों में आनन्दानुभूति की चेतना, विषय-भोगों के आनन्दमय होने का विचार - य तृ. वि., ए. सोलह प्रकार की दृष्टियों में से एक - ना प्र. वि., ए. व. व. - आदीनवदस्सनेन अस्सादसाय पहाणं, म. नि. - सुपिनन्ते अस्सादचेतना अस्थि उपलब्मति, पारा. अट्ठ. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).26. 2.96; - दिट्टि स्त्री., तत्पु. स. [आस्वाददृष्टि]. विषयभोगों अस्सादानुपस्सी त्रि., [आस्वादानुपश्यिन], भोग आनन्द से में सुख एवं सौमनस्य समझने वाली मिथ्याधारणा - ट्ठि प्र. परिपूर्ण या स्वाद से भरे हैं, इस प्रकार की अनुपश्यना या वि., ए. व. - अरसाददिद्धि, अत्तानुदिष्टि, मिच्छादिहि, अ. अनुचिन्तन करने वाला, विषयभोगों को आनन्दमय रूप में
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अस्सादियत्त
718
अस्सास
देखने वाला - स्सी पु.. प्र. वि., ए. व. - संयोजनियेसु भिक्खवे धम्मेसु अस्सादानुपस्सी विहरन्तो रागं न पजहति, अ. नि. 1(1).67; - स्सिनो पु., ष. वि., ए. व. - एवमेव खो, भिक्खवे, उपादानियेसु धम्मेस अस्सादानुपस्सिनो विहरतो तण्हा पवड्ढति, स. नि. 1(2).76; अस्सादानुपस्सिनोति अस्सादं अनुपस्सन्तस्स, स. नि. अट्ठ. 2.72; - स्सिता स्त्री., भाव., प्र. वि., ए. व. [आस्वादानुपश्यित्व, नपुं.]. स्वाद या सुख से परिपूर्ण रूप में देखना -- या च संयोजनिये धम्मेसु अस्सादानुपस्सिता, अ. नि. 1(1).67... अस्सादियत्त नपुं॰, भाव. [आस्वाद्यत्व], आनन्द भरे रूप में अनुभव करने योग्य होना, स्वाद लेने योग्य रहना, सुबोधा. 352. अस्सादेति आ + vसद (स्वाद लेना) वर्त, प्र. पु., ए. व. [आस्वादयति], स्वाद लेता है, आनन्द लेता है, अनुकूल रूप में संवेदन करता है, चखता है, उपभोग करता है - यो हि कोचि ... उप्पन्नं लाभसक्कारसिलोक अस्सादेति निकामेति .... स. नि. 1(2).206; सो तदस्सादेति, तं निकामेति, तेन च वित्तिं आपज्जति, अ. नि. 1(2).143; - न्ति ब. व.. - रसन्ति तं सत्ताति रसो, अस्सादेन्ती ति अत्थो, विभ. अह. 42; - दयतो वर्त. कृ., पु., ष. वि., ए. व. - अथरस तं सम्पत्तिं अस्सादयतो कामवितक्को उदपादि, उदा. अट्ट. 176. अस्सानीक नपुं.. तत्पु. स. [अश्वानीक], घुड़सवार सेना की दुकड़ी - कं प्र. वि., ए. व. - अनीकं नाम हत्थानीक अस्सानीक, ..., पाचि. 146; - का प्र. वि., ब. व. - चुद्दस अस्सानीका, स. नि. अट्ठ. 2.170. अस्सामणक त्रि., [अश्रामणक], किसी भी श्रमण या भिक्षु के लिए अनुचित, भिक्षु के लिए अनुपयुक्त - कं' नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अननुच्छविकं ... अप्पतिरूपं अस्सामणकं अकप्पियं अकरणीयं, महाव. 50; - कं. वि. वि., ए. व. - समणा एवरूपं अस्समणकं अननुच्छविकं करोन्ति, म. नि. अट्ठ, (मू.प.) 1(2).311. अस्सामी पु., सामी का निषे., तत्पु. स., प्र. वि., ए. व. [अस्वामिन], स्वामी या अधिपति न होना, अशक्तता, अक्षमता - तत्थ अरहा अनिस्सरो अस्सामी अवसवत्तीति, मि. प. 236; अत्तनो सन्तकस्स अस्सामिनो हुत्वा .... जा. अट्ठ.. 3.169. असामिक/अस्सामिक' पु., उपरिवत् - के द्वि. वि., ब. व. - सामिके अस्सामिके कातुं ..., म. नि. अट्ठ. (मू.प.)
1(2).111; असामिके सामिके करोन्तो..., जा. अट्ठ. 4.159. असामिक/अस्सामिक त्रि., ब. स. [अस्वामिक], बिना स्वामी का, बिना दावेदार का, बेनामी - कं' नपुं., प्र. वि., ए. व. - यं वा पनञम्पि पथविमहासमुद्दहिमवन्तादिनिस्सितमसामिक रतनं, खु. पा. अट्ठ. 136; - क. द्वि. वि., ए. व. - ... कुटिं कारयमानेन अस्सामिकं अत्तुद्देसं पमाणिका कारेतब्बा, पारा. 229; - कायो स्त्री, प्र. वि., ब. व. -- कुटियो कारापेन्ति अस्सामिकायो ..., पारा. 224; - भण्ड नपुं., कर्म. स. [अस्वामिकभाण्ड], ऐसी संपत्ति, जिसका कोई दावेदार न हो, बेनामी संपत्ति - असामिकभण्ड नाम जो पापुणातीति, जा. अट्ठ. 6.176. अस्सारुह/अस्सारोह पु.. [अश्वारोह], घोड़े पर सवार होने वाला, घुड़सवार, साईस, घोड़े का चिकित्सक, अश्वशिक्षक - हो प्र. वि., ए. व. - अस्सारोहो गामणी, स. नि. 2(2).298; - हा प्र. वि., ब. व. - हत्थारोहा अस्सारोहा रथिका .... दी. नि. 1.45; अस्सारोहाति सब्बेपि अस्साचरियअस्सवेज्जअस्समेण्डादयो, दी. नि. अट्ठ. 1.130-31; - हं द्वि. वि., ए. व. - नागो... हत्थारुहम्पि हनति... अस्सारुहम्पि हनति, अ. नि. 1(2).133-134; - हे द्वि. वि., ब. व. - कदाहं अस्सारोहे च, सब्बालङ्कारभूसिते,
जा. अट्ठ. 6.58. अस्सालङ्कार पु., तत्पु. स. [अश्वालङ्कार], घोड़े को सजाने वाले अलङ्कार या सजावट के सामान - रेहि तृ. वि. ब. व. - परमेहि वा उत्तमेहि दिब्बेहि अस्सालङ्कारेहि अलङ्कता, वि. व. अट्ठ. 62. अस्साव पु., [आस्रव], बाहर निकल कर बह रही पीब या फोड़े की गन्दगी का रिसाव या बहाव - वो प्र. वि., ए. व. - पिळका वा, अस्सावो वा, थुल्लकच्छु वा आबाधो, कायो वा दुग्गन्धो, चुण्णानि भेसज्जानि, महाव. 2773; 387; अस्सावोति अरिसभगन्दरमधुमेहादीनं वसेन असुचिपग्घरणक, महाव. अट्ट, 143. अस्सावी त्रि., [आस्राविन]. पीब को बहा रहा या रिसा रहा घाव - वी पु., प्र. वि., ए. व. - भोजनानि भुजतो वणो
अस्सावी अस्स, म. नि. 3.42; 43. अस्सास पु., [आश्वास], अनेक प्रकार की प्राण-वायुओं में से एक, 1.क. बाहर से भीतर की ओर खींच कर ले जाई गई वायु - सो प्र. वि., ए. व. - अथो अपानं पस्सासो, अस्सासो आनमुच्चते, अभि. प. 39; अङ्गमङ्गानुसारिनो वाता, अस्सासो पस्सासो इति, यं वा पनञ्जम्पि किञ्चि अज्झत्तं पच्चत्तं वायो
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अस्सासक
719
अस्सासपस्सास
वायोगतं उपादिन्नं ..., म. नि. 1.249; अस्सासोति व. - महाराज, धुतगुणं विसुद्धिकामानं जरामरणभीतानं अन्तोपविसननासिकावतो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).127; अस्सासकरणद्वेन ..., मि. प. 320; - रस त्रि., ब. स., विभ. अट्ट, 66; 1.ख. मुख से बाहर निकलने वाली वायु - तसल्ली देने का काम करने वाला, निश्चिन्तता भर देने का अस्सासोति बहि निक्खमनवातो, विसुद्धि. 1.260; 1.ग. कृत्य करने वाला - सं प्र. वि., ए. व. - अच्चुतिरसं. कष्ट या पीडा देने वाली वायु, अस्सासवायु के अन्त., द्रष्ट, अस्सासकरणरसं वा, अनिमित्तपच्चपट्टानं निस्सरणपच्चपट्टानं (आगे); 2.क. खुलकर सांस लेना, चेतना-लाभ - सं द्वि. वाति वेदितब्बं, अभि. अव. 101. वि., ए. व. - अथ तत्थेव सो अस्सासं अलभमानो मरेय्य, । अस्सासकारक त्रि., [आश्वासकारक], ढाढ़स बंधाने वाला, मि. प. 163; - सेहि तृ. वि., ब. व. - तस्मा महन्तेहि तसल्ली या भरोसा भर देने वाला, मन में सुख लाने वाला अस्सासेहि अस्ससति, स. नि. अठ्ठ. 1.134; 2.ख. सुख, - को पु.. प्र. वि., ए. व. - तारको त्वं यथा नावा, राहत, तसल्ली, सन्तुष्टि, प्रोत्साहन, सुरक्षा का भरोसा - सो निधीवस्सासकारको, अप. 1.357. तस्सा वचनेन अस्सासं पटिलभित्वा..., जा. अट्ठ. 6.4; छ अस्सासनीय त्रि., [आश्वासनीय], आश्वासन देने वाला, खत्तिया अस्सासं पटिलभिंसु, जा. अट्ठ. 7.371; - साय च. ढाढ़स बंधाने वाला, तसल्ली देने वाला - येहि पु., तृ. वि., वि., ए. व. - ... अस्सासाय धम्म देसेति, अ. नि. 3(1).28; ब. व. - चतूहि अस्सासनीयेहि धम्मेहि अस्सासेतब्बो, स. 2.ग. आत्मविश्वास, अपने ऊपर पक्का भरोसा - सो ष. नि. 3(2).471; 472. वि., ए. व. - को पनायस्मन्तानं अस्सासो, किं बलं, येन अस्सासपस्सास पु., द्व. स., ए. व. एवं ब. व. में प्रयुक्त तुम्हे आयस्मन्तो एवं वदेथ, म. नि. 1.93; अस्सासो परमो [आश्वासप्रश्वास), वायु को शरीर के अन्दर खींचना एवं कतो, सद्धम्मो. 313; ... अस्सासोति अवस्सयो पतिट्ठा बाहर निकालना - सो प्र. वि., ए. व. - नाह अस्सासपस्सासो, उपत्थम्भो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).320; - सा प्र. वि., ठितचित्तस्स तादिनो, दी. नि. 2.118; - सानं ष. वि., ब. ब. व. - चत्तारो अस्सासा अधिगता होन्ति, अ. नि. व. - एवमस्स अस्सासपस्सासानं सद्दो होति, स. नि. 1(1).221; अस्सासाति अवस्सया पतिट्ठा, अ. नि. अट्ठ. 1(1).126; - सा प्र. वि., ब. क. - चतुत्थं झानं समापन्नस्स 2.177.
अस्सासपस्सास्सा निरुद्धा होन्ति, दी. नि. 3.211; - से' द्वि. अस्सासक' पु.. [आश्वासक], ढाढ़स बंधाने वाला, धीरज वि., ब. व. - आम, महाराज, सक्का अस्सासपस्सासे बंधाने वाला - को प्र. वि., ए. व. - पतिट्ठा भयभीतानं, निरोधेत न्ति, मि. प. 95; - से सप्त. वि., ए. व. - ताणो सरणगामिनं अस्सासको महावीरो, सो मे बद्धो निमन्तितो. निरुद्धपि ओळारिके अस्सासपस्सासे ... पवत्तन्ति, पारा. अप. 1.352; अस्सासको विय बुद्धो, अस्सासो विय धम्मो अट्ठ. 2.18; - सेसु सप्त. वि., ब. व. - मुखतो च नासतो .... खु. पा. अट्ठ. 12.
च अस्सासपस्सासेसु उपरुद्धेस सद्दो होति, म. नि. 1.311; अस्सासक' पु./नपुं.. [आशास्य], आकांक्षा, महत्वाकांक्षा, - सं नपुं., प्र. वि., ए. व. - कायतराह, आनन्द, एतं हार्दिक लालसा, चाह, इच्छा, वाञ्छनीय पदार्थ का प्र. वदामि, यदिदं - अस्सासपस्सासं. स. नि. 3(2).399; - वि., ब. व. - कुमारस्स सतो इमे पञ्च अस्सासका अहेसुं. कम्मिक त्रि., [आश्वासप्रश्वासकर्मिक], श्वास-प्रक्रिया के महाव. 42; अस्सासकाति आसीसना, पत्थनाति अत्थो महाव. नियन्त्रण का अभ्यास करने वाला - को पु., प्र. वि., ए. अट्ठ. 244; - के द्वि. वि., ब. व. - राजा सत्थु सन्तिके व. - तत्थ अस्सासपस्सासकम्मिको इमे अस्सासपस्सासा निसिन्नोयेव पञ्च अस्सासके पवेदेवा .... जा. अट्ठ. 1.92. किं निस्सिता, .... म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).260; - काय अस्सासकर त्रि., [आश्वासकर], आश्वासन देने वाला, पु.. [आश्वासप्रश्वासकाय], भीतर खींची जा रही तथा बाहर ढाढ़स बंधाने वाला - रेहि पु./नपुं., तृ. वि., ब. व. - निकाली जा रही वायु की राशि या समुच्चय - यो प्र. वि., अस्सासनीयेहि धम्मेहीति अस्सासकरेहि धम्मेहि, ..., स. नि. ए. व. - एवमेव काये ... अस्सासपस्सासकायो नाम अट्ठ. 3.321.
नप्पवत्ततीति कायादिनिरोधा अस्सासपस्सासनिरोधोति एवं अस्सासकरण नपुं., तत्पु. स. [आश्वासकरण], आश्वासन परसन्तो ... वुच्चति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).261; -- या तसल्ली देना, तसल्ली देने के काम का साधन -पु., निरोधपञ्ह पु., मि. प. के एक प्रश्न का शीर्षक, जिसमें आश्वस्त कर देने का अर्थ या तात्पर्य - द्वेन त. वि., ए. आश्वास (सांस अन्दर खींचने) और प्रश्वास (श्वास बाहर
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अस्सासप्पत्त
720
अस्सिरीकदस्सन
फेकने) की क्रियाओं के निरोध के विषय में राजा मिलिन्द का प्रश्न है - हो प्र. वि., ए. व. - अस्सासपस्सासनिरोधपञ्हो एकादसमो, मि. प. 95; -- परिग्गाहक त्रि., [आश्वासप्रश्वासपरिग्राहक], श्वासप्रक्रिया पर नियन्त्रण रखने वाला/वाली - हिका स्त्री. प्र. वि., ए. व. - तत्थ अस्सासपस्सासपरिग्गाहिका सति दुक्खसच्च म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).261; - सायत्तदुत्तिता स्त्री., भाव. [आश्वासप्रश्वासायत्तवृत्तित्व], श्वास-प्रक्रिया के अधीन रहने के स्वभाव वाला, श्वसन-प्रक्रिया पर आश्रित या टिका हुआ होना, सांस के सहारे टिका होना - य त. वि., ए. व. - पाणनताय पाणा, अस्सासपस्सासायत्तवृत्तितायाति अत्थो, विसुद्धि. 1.300. अस्सासप्पत्त त्रि., तत्पु. स. [आश्वासप्राप्त], आश्वासन पाया हुआ, आत्मविश्वास से भरा हुआ, सन्तुष्ट - त्तो पु.. प्र. वि., ए. व. - कित्तावता नु खो, आवुसो, अस्सासप्पत्तो होती ति, स. नि. 2(2).248; - त्ता' प्र. वि., ब. व. - सावका विनीता अस्सासप्पत्ता पटिजानन्ति अज्झासयं आदिब्रह्मचरिय, दी. नि. 3.28; अस्सासपत्ताति तुढिपत्ता सोमनरसपत्ता, दी. नि. अट्ठ. 3.17; - त्ता स्त्री., प्र. वि., ए. व. - न नकुलमाता गहपतानी इमस्मिं धम्मविनये ओगाधप्पत्ता पतिगाधप्पत्ता अस्सासप्पत्ता तिण्णविचिकिच्छा .... अ. नि. 2(2).18. अस्सासमत्ता स्त्री., तत्पु. स. [आश्वासमात्रा], राहत या सुख की थोड़ी सी मात्रा, राहत की थोड़ी सी बात, थोड़ी सी राहत - त्ता प्र. वि., ए. व. - अहोसि काचिदेव अस्सासमत्ता - न ताव भगवा परिनिब्बायिस्सति, दी. नि. 2.78; - त्तं द्वि० वि., ए. व. - परिस्सम विनोदेत्वा, अस्सासमत्तं लभित्वा ..., उदा. अट्ठ. 62. अस्सासरत त्रि., तत्पु. स. [आश्वासरत], शा. अ. आश्वास एवं प्रश्वास में आनन्द लेने वाला, ला. अ. अपने बुद्धत्व के फल की प्राप्ति में आनन्द ले रहा - तो पु., प्र. वि., ए. व. - सो झायी अस्सासरतो, अज्झत्तं सुसमाहितो, अ. नि. 2(2).61; अस्सासरतोति नागरस हि अस्सासपस्सासा विय बुद्धनागरस फलसमापत्ति, तत्थ रतो. ..., अ. नि. अट्ठ. 3.115. अस्सासवात पु., [आश्वासवात]. दूसरों को आविष्ट कर लेने वाली प्रेत की श्वास या वायु - तेन तृ. वि., ए. व. - अस्ससन्तीति अस्सासवातेन उपहनन्ति, आविसन्तीति वा
अत्थो, जा. अट्ट, 4.451. अस्सासवार पु., तत्पु. स. [आश्वासवार]. श्वास को भीतर की ओर ले जाने का क्षण या बारी, श्वास
भीतर ले जाने का अवसर - रे सप्त. वि., ए. व. - ... अस्सासवारे पस्सासवारे समापत्तिं समापज्जन्ति, म. नि. अट्ट (मू.प.) 1(2).189; - रं द्वि. वि., ए. व. - कथेन्तो च जनं निरस्सासं अकत्वा तस्स अस्सासवारं देति, ध. प. अट्ठ. 2.123. अस्सासविरहित त्रि., तत्पु. स. [आश्वासविरहित], आश्वासन से रहित, सुख या तसल्ली से रहित, सन्तुष्टि या आनन्द न देने वाला - ता पु., प्र. वि., ब. व. - अनस्सासिकानीति
अस्सासविरहितानि, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.162. अस्सासेतु त्रि., [आश्वासयित], आश्वासन देने वाला, तसल्ली देने वाला, राहत देने वाला - ता पु., प्र. वि., ए. व. -
अस्सासेता यथा चन्दो, सूरियोव पभङ्करो, अप. 2.107; 108. अस्सासेति आ + Vसस के प्रेर. का वर्त., प्र. पु., ए. व. [आश्वासयति], तसल्ली देता है, भरोसा दिलाता है, फिर से प्राणवान् बना देता है - सि/सयि अद्य., प्र. पु., ए. व. - अत्तानं मोचेत्वा खिप्पं आगमिस्सतीति अस्सासेसि, जा. अट्ठ. 7.202; अस्सासयीति परितोसेन्तो निय्यादेसि, जा. अट्ठ. 7.271; - सेसु ब. व. - मयं तयोपि जना ... दिसोदिसं गमिस्सामातिनं अस्सासेसु. जा. अट्ट. 7.35; - सेत्वा पू. का. कृ. - ... गिलाने अस्सासेत्वा, स. नि. अट्ठ. 2.226; - सेतब्बो सं. कृ., पु.. प्र. वि., ए. व. - उपासकेन ... उपासको आबाधिको ... चतूहि अस्सासनीयेहि धम्मेहि
अस्सासेतब्बो, स. नि. 3(2).471. अस्सित त्रि., आ + vसि का भू. क. कृ. [आश्रित], सहारा लिया हुआ, किसी का आश्रय लिया हुआ, किसी पर अवलम्बित रहने वाला, अनुसरण करने वाला, पराधीन, अनुचर - तो पु., प्र. वि., ए. व. - एको अरजे वनवस्सितो मुनि ... कस्मा भवं विजनमरञमस्सितो, स. नि. 1(1). 210-11; वनवस्सितो मुनीति वनं अवस्सितो बुद्धमुनि, स. नि. अट्ठ. 1.233; जनमेवस्सितो... अस्सितो तण्हाय अल्लीनो परिग्गय्हठितो, थेरगा. अट्ट. 1.292. अस्सिरी त्रि., ब. स. [अश्रीक]. शोभा-रहित, अपनी प्रभा या चमक-दमक को खो चुका (व्यक्ति)-री पु., प्र. वि., ए. व. - अस्सिरी विय खायति, नेत्ति. 52; अस्सिरी... अलक्खिको एव हुत्वा उपट्टाति, नेत्ति. अट्ठ. 250. अस्सिरीकदस्सन त्रि., ब. स. [अश्रीकदर्शन]. तेजहीन स्वरूप वाला, शोभाहीन, दिखने में शोभा रहित - नं पु., द्वि. वि., ए. व. - परमदुग्गन्धजेगुच्छं अस्सिरिकदस्सनं नानप्पकारं ... पस्सतीति, खु. पा. अट्ठ. 29.
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अस्सिलिस
721
असुतवादिता
अस्सिलिस पु.. [अश्लेषा], 27 नक्षत्रों के बीच नवां नक्षत्र जिसमें पांच तारे होते हैं - मिगसिरमद्दा च पुनब्बसु फुस्सो
चासिलेसापि, अभि. प. 58; सद्द. 2.359; पाठा. अस्सिलिस. अस्सु' अस (होना) के विधि., प्र. पु., ए. व./प्र. पु., ब.
व. में वैकल्पिक रूप, अत्थि के अन्त., द्रष्ट.. अस्सु सु (सुनना) के अद्य., म. पु., ए. व. का वैकल्पिक रूप, तूने सुनाया- तानिरस कम्मायतनानि अस्सु पुरिसस्स वुत्तिसमोधानताय, जा. अट्ठ. 3.477; तत्थ अस्सुति अस्सोणि. जा. अट्ठ. 3.476. अस्सु' अ., पदपूरणार्थक एवं अवधारणार्थक निपा. [स्म, स्विद], निश्चित रूप से, वास्तव में - विसिट्ठकल्याणितरस्सु रूपतो, वि. व. 319; अस्सूति निपातमत्तं, वि. व. अट्ठ. 111; सहावस्स दस्सनसम्पदाय, तयस्सु धम्मा जहिता भवन्ति, सु. नि. 233; आदित्तस्सु नामज्ज वेदियको पब्बतो झायतिसु नामज्ज ... वेदियको ... अहेसु. दी. नि. 2.195. अस्सु नपुं.. [अश्रु]. आंसू - स्सूनि प्र. वि., ब. व. - वप्पो नेत्तजलास्सूनि, अभि. प. 260; - स्सु प्र. वि., ए. व. - अस्सु सोमनस्सदोमनस्सविसभागाहारउतूहि समुट्ठहित्वा अक्खिकपके पूरेत्वा तिद्वन्ती वा पग्घरन्ती वा आपोधातु, पटि. म. अट्ठ. 1.72; पित्तं सेम्ह पुब्बो लोहितं सेदो मेदो अस्सु वसा खेळो सिङ्गाणिका लसिका मुत्तं, म. नि. 1.247; - ना तृ. वि., ए. व. - ..., अस्सुना पण्णलोचनो, अप. 2.210; - म्हि सप्त. वि., ए. व. - ... एकेकस्सपि अस्सुम्हि थळे रुधिरम्हि च पमाणतो ..., थेरीगा. अट्ठ. 313; - स्सूनि' प्र. वि., ब. व. - तस्स अस्सूनि तेसं ... पतन्ति, जा. अट्ठ. 7.316; - स्सूनि द्वि. वि., ब. व. - अस्सूनि पवत्तयमानो... पक्कामि, महाव. 110; - क नपुं., अस्सु से व्यु. [अश्रुक], आंसू - केन तृ. वि., ए. व. - तासं रोदन्तीनं भगवतो सरीरं अस्सुकेन मक्खितं, चूळव. 458; - किलिन्नमुख नपुं., तत्पु. स. [अश्रुक्लिन्नमुख], आंसुओं से भीगा हुआ मुख - खं द्वि. वि., ए. व. - अज्जेव तव अस्सुकिलिन्नमुखं हासापेन्तोव आगच्छिस्सामीति .... जा. अट्ठ. 3.287; - जनन नपुं.. तत्पु. स. [अश्रुजनन], आंसुओं । को उत्पन्न कर देना - तो नपुं., प. वि., ए. व. - तं अकारणं, सोमनस्सस्सापि अस्सुजननतो. ध. स. अट्ट. 297; - जल नपुं, तत्पु. स. [अश्रुजल]. आंसुओं का पानी - लं प्र. वि., ए. व. - ततो बहु अस्सुजलं अनप्पकं ध. प. अठ्ठ. 1.304. अस्सुणन्त त्रि., (सु (सुनना) के वर्त. कृ. का निषे॰ [अश्रृण्वत्]. नहीं सुन रहा, सुनने में अक्षम - न्तं पु.. द्वि. वि., ए. व.
- अचेतनं ब्राह्मण अस्सुणन्तं, .... जा. अट्ट, 3.20; तत्थ अस्सुणन्तन्ति अचेतनत्ताव असुणन्तं, तदे.. अस्सुत/असुत त्रि., सु (सुनना) के भू. क. कृ. का निषे० [अश्रुत], 1.शा. अ. नहीं सुना गया, न सुना हुआ, वह, जो सुनाई नहीं दिया है, 2.ला. अ. मूर्ख या अज्ञानी, अप्रशिक्षित, वह, जिसने शास्त्र को या धर्म को नहीं सुना है, 3. वह, जिसे सुना नहीं गया है, अज्ञात - तं पु.. द्वि. वि., ए. व. - अस्सुतं सावेन्ति, सुतं परियोदापेन्ति, दी. नि. 3.145; - तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - न तुम्ह अदिळ असुतं अमुतं, .... लोके, सु. नि. 1128; बहुम्पि ते अदिट्ठन्ति तया चक्खुना
अदिष्टुं सोतेन च अस्सुतमेव बहुतरं जा. अट्ठ. 3.205; - ता स्त्री., प्र. वि., ए. व. - यदा ते चिरवासिमाता अदिट्ठा अहोसि, अस्सुता अहोसि, स. नि. 2(2).313; - ते सप्त. वि., ए. व. - असुते सुतवादिता, अ. नि. 3(1).131; - पुब्ब त्रि, ब. स. [अश्रुतपूर्व], पहले नहीं सुना गया/सुनी गई, पूर्वकाल में नहीं सुना हुआ - ब्बा स्त्री., द्वि. वि., ए. व. - ... गाथायो पटिभंसु पुब्बे अस्सुतपुब्बा, महाव. 5; - य तृ. वि., ए. व. - ... अगतपुब्बाय वा दिसाय अस्सुतपुब्बाय वा नामपञत्तिया सम्मुव्हेय्याति, मि. प. 41; - पुब्बता स्त्री., भाव., पूर्वकाल में सुना हुआ न रहना - य तृ. वि., ए. व. - तस्सा वचनं सुत्वा नत्थी ति पदस्स असुतपुब्बताय नत्थिपूवा नाम इदानि भविस्सन्ती ति, ....ध. प. अट्ठ. 2.354; - भाव पु., सुना हुआ न रहना - वं द्वि. वि., ए. व. - पुण्णको अत्तनो वचनस्स अस्सुतभावं ञत्वा जिनकदेवपुत्तस्स सन्तिके अट्ठासि, जा. अह. 7.162. अस्सुतवन्तु त्रि., सु (सुनना) के भू. क. कृ. का निषे. [अश्रुतवत्]. शा. अ. वह, जिसने सुना नहीं है, ला. अ. स्कन्धों, धातुओं, आयतनों तथा स्मृति-प्रस्थानों में पूर्ण ज्ञान को अप्राप्त, अज्ञानी, पृथग्जन - तवा पु., प्र. वि., ए. व. - अस्सुतवाति खन्धधातु आयतनपच्चयाकारसतिपट्टानादीसु उग्गहपरिपुच्छाविनिच्छयरहितो, स. नि. अट्ठ. 2.85; सो आगमाधिगमाभावा जेय्यो अस्सुतवा इति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).23; अस्सुतवा पुथुज्जनो अरियानं अदस्सावी अरियधम्मस्स अकोविदो ... अविनीतो, म. नि. 1(1).1-2; -- वतो पु., ष. वि., ए. व. - तस्मा अस्सुतवतो पुथुज्जनस्स चित्तभावना नत्थीति वदामी ति, अ. नि. 1(1).13. असुतवादिता स्त्री॰, अस्सुतवादी का भाव. [अश्रुतवादित्व, नपुं.]. किसी सुनी बात को भी न सुनी हुई मानना, ज्ञात
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अस्सुतालाप
को अज्ञात मानना, आठ प्रकार के अनार्य-व्यवहारों में से एक ता प्र. वि. ए. व.दिद्वे अदिद्ववादिता सुते असुतवादिता... इमे खो भिक्खने, अट्ठ अनरियवोहारा ति अ. नि. 3(1).131.
अस्सुतालाप त्रि. व. स. [अश्रुतालाप ], वह जिस ने मनुष्यों के आलाप को पहले कभी नहीं सुना है - पा पु०, प्र. वि. ब. व. ब्रह्माणो चस्सुतालापा सम्बुद्धा चापि भासरे मो. प. प. भूमिका, पृ. 2.
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अस्सुतावी त्रि, वह, जिसने पहले शास्त्रों को या धर्म के उपदेशों को सुना ही नहीं है, पृथग्जन, अज्ञानी विनो पु.. प्र. वि. ब. व. बाला. दुम्मेधा अस्सुताविनो, अ. नि. 1 (1). 190; अस्सुताविनोति खेत्तविनिच्छयसवनेन रहिता, अ. नि. अट्ठ. 2.141.
"
...
अस्तुति स्त्री० [अश्रुति], श्रवण-परम्परा का अभाव, अश्रवण, नहीं सुनना - या तृ.वि., ए.व. अदिडिया अस्सुतिया अञाणा, सु. नि. 845; 846. अस्सुत्थ√सु (सुनना) का अद्य, म. पु. ब... तुम लोगों सुना था अस्सुत्य नो, तुम्हे, भिक्खवे, अभिगुस्स भिक्खुनो ब्रहालोके ठितस्स गाथायो भासमानस्सा ति स. नि. 1 (1).184.
अस्सुदं अ सुदं अथवा अस्सु निपा. का परिवर्तित रूप पदपूरणार्थक अथवा निर्धारणार्थक निपा. के रूप में प्रयुक्त, व्यु. संदिग्ध वास्तव में, निश्चित रूप से इमस्सुदं यन्ति दिसोदिसं पुरे जा. अड. 4.308; इमस्सुदन्ति इमे सुदं मया अक्खीनि उम्मीलेत्वा ओलोकितमत्ताव पुब्बे दिसोदिसं, तदे.; द्रष्ट. सुदं के अन्त (आगे). अस्सुध अ. निपा., उपरिवत् नास्सुध कोचि भगवन्तं उपसङ्गमति, स. नि. 3(2).390, नास्सुधाति एत्थ अस्सुपाति पदपूरणमत्ते अवधारणत्थे वा निपातो. स. नि. अड. 3.299; एवं, भन्ते ति खो ते भिक्खू भगवतो पटिस्सुणित्वा नास्सुध कोचि भगवन्तं उपसहमति, पारा. 347. अस्सुधारा स्त्री, तत्पु. स. [अश्रुधारा ] आंसुओं की धारा, आंसुओं का लगातार बहाव प्र. वि., ए. व. अस्सुधारा पवत्तयमाना..., जा० अट्ठ. 4.100; - रार प्र. वि., ब. व. अस्सुधारा पक्तन्ति म. नि. अड्ड. ( मु.प.) 1 (2) 263; - राद्वि. वि., ब. क. अस्सुधारा पवत्तेत्या
ध. प. अट्ठ. 2.289.
अस्सुनेत्त त्रि. ब. स. [अश्रुनेत्र] आंसुओं से भरपूर नेत्रों वाला / वाली त्ता' स्त्री. प्र. वि., ए. व. अस्सुनेता
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अस्मोचन
रुदम्मुखा, अप. 2.235 - त्ता' पु०, प्र. वि., ब. व. अस्सुनेत्ता रुदमुखा, जा. अ. 7.278. अस्सुपग्धरणक्खि त्रि. व. स. [अश्रुप्रधारणाक्ष], लगातार ह रहे आंसुओं से भरी हुई आंखों वाला - क्खि पु०, प्र. वि., ए. व. निप्पखुमक्खि वा अस्सुपधरणक्खि वा समन्नागतक्खि वा महाव. अड. 294,
अस्सुभे सज्जामे सज्जपञ्ह पु. नि. प. में मिलिन्द द्वारा आंसू के निर्मल या समल होने के विषय में पूछा गया एक ञ्हो प्र. वि., ए. व. अस्सुभेसज्जाभेसज्जपहो छट्टो, मि. प॰ 83.
प्रश्न
अस्सुपात पु., तत्पु० स० [अश्रुपात], आंसुओं का टपकना या गिरना तेन तू. वि., ए. व. थेरस्स अस्सुपातेन मुत्तदिवसो नाम अहोसि, म. नि. अड. (मू०प०) 1(2).263. अस्सुपुण्ण त्रि. तत्पु. स. [ अश्रुपूर्ण] ण्णेहि नपुं. तू. वि., व. व. रोदित्वा पक्कामि जा. अड. 7.288; [अश्रुपूर्णनेत्र] आंसुओं से भरे हुए नेत्रों वाला त्ता पु. प्र. वि. ब. व. ते तरस... अस्सुपुण्णनेता हुत्या ध. प. अट्ठ. 1.8.
आंसुओं से भरा हुआ अस्सुपुण्णेहि नेतेहि नेत्त त्रि. ब. स.
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अस्सुबिन्दुघटा स्त्री. तत्पु. स. [अश्रुविन्दुघटा ] आंसुओं की बूंदों की बहुलता या अधिकता टा प्र. वि. ए. व. वारिगणाति अस्सुबिन्दुघटा, जा. अ. 4.415. अस्सुमुख त्रि. ब. स. [अश्रुमुख] आंसुओं से भरपूर मुख वाला / वाली खो पु. प्र. वि. ए. व. पितु मरणेन सोकपरिदेवसमापन्नो अस्सुमुखो... चितकं पदक्खिणं करोति, पे.व. अ. 34; खा ब. व. अज्ञ सोचन्ति रोदन्ति, अज्ञ अस्सुमुखा जना, जा. अड. 3.145; अस्सुमुखा रुदमाना, म. नि. 2.6: खं पु. द्वि. वि. ए. व. अस्सुमुखं रोदमान जा. अड. 3.397 खानं पु. ष. वि. ब. व. अस्सुमुखानं रुदन्तानं दी. नि. 1.116; अस्सूनि मुखे एतेसन्ति अस्सुमुखा, तेसं अस्सुमुखानं दी. नि. अड. 1.229 - खा / खी स्त्री.. प्र. वि., ए. व. सा दक्खिणा अस्सुमुखा सदण्डा, जा. अट्ठ. 4.60; तस्स सन्तिकं गन्त्वा अस्सुमुखी रोदमाना ..... जा. अड. 3.157.
"
अस्सुमेघ पु०, एक प्रत्येकबुद्ध का नाम अथस्सुमेघो अनीघो सुदाठो, म. नि. 3.116.
"
अस्सुमोचन नपुं तत्पु स [अश्रुमोचन] आंसुओं को गिराना, रोना, रुदन नं. प्र. वि., ए. व. तत्थ रुण्णन्ति
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अस्सुम्ह
रुदितं अस्सुमोचनं नहि कातब्बन्ति वचनसेसो, पे. व. अ.
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अस्सुम्ह√सु (सुनना) का अय., उ. पु. व. व. हमने सुना था अस्सुम्ह अभिभूस्स भिक्खुनो ब्रह्मलोके ठितस्स गाथायो भासमानस्स, स. नि. 1 (1). 184. अस्सुरोप / असुरोप पु. सुरोप का निषे, द्वेषभाव दौर्मनष्य, मन में विद्यमान रोष, मन की अप्रसन्नता, वचन की अपरिपूर्णता पो असुरोपो अनत्तमनता चित्तस्स. ध. स. 418; दुरुत्तं अपरिपुण्णमेव होतीति असुरोपो, ध. स.अ. 297 द्रष्ट, असुरोप के अन्त (पीछे). अस्सुविमोचनमत्त नपुं [अश्रुविमोचनमात्र] केवल आंसुओं को गिराना, रोना, कलपना, रुदन तेन तृ. वि., ए. व. -न अस्सुविमोचनमतेन... स. नि. अड. 3.141. अस्सुसमुद्द पु॰, तत्पु॰ स॰ [अश्रुसमुद्र ], आंसुओं का समुद्र, बहुत सारे आंसू हो प्र. वि., ए. व. सोसितो मया अस्सुसमुद्दो, जा. अनु. 3.333. अस्सुसुक्खनकाल पु.. तत्पु. स. [ अश्रुशोषणकाल] आसुओं को सूख जाने का समय लो प्र. वि. ए. व. तेसंयेव एवं रोदन्तानं अस्सुसुक्खनकालो नत्थि जा. अड. 3.345. अस्सोसि सु (सुनना) के अद्य का प्र. पु. ए. व.. सुना अस्सोसि खो वेरजो ब्राह्मणो, पारा. 1.
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723
अह क. अट्ठ. के अनुसार त्रि, तुच्छ, घटिया, हीन, निकृष्ट - अहाति हि लाभकपरियायो अहलोकित्थियों नामा तिआदीसु विय, थेरीगा, अड. 315: ख. पा. टे. सो. के शब्दकोश के अनुसार अ. निपा. [अहो अहह ] आश्चर्य, पीड़ा, अवहेलना, वियोगजनित दुख (का सूचक) शोक, खेद, का सूचक, पा० इ. डि. 91.
व.
अह पु. / नपुं० [ अहन् / अहर] दिन है नपुं. प्र. वि., ए. व. दिवस तु अहं दिनं अभि. प. 67 हो पु. द्वि. वि., ए. व. निकीलितं निच्चमहये च रति जा. अड. 7.210 - हस्स/हुष. वि., ए. व. पुब्बापरज्ज सायमज्डोहि अहस्स अन्तो, मो. व्या. 3.110 द्वे पुण्णमायो तदहु अमज्ञहं दिवान... जा. अड. 5.203 अहं तदहू तस्मिं छणदिवसे
जा. अदु. 5.204; हे / हनि सप्त वि. ए. व. - पञ्चमे तदहूति तस्मिं अहनि तस्मिं दिवसे... उदा. अ. 241; तस्मिं अहनि गोपाला लद्धा एकं चतुप्पदं, म. वं. 10.14; देवपुत्तरस इद्धिया तदहेव सावत्थि पत्वा जेतवनं आरोचेसि, पे, व अह 39 हानि नपुं. प्र. वि. ब. पञ्च अहानि पञ्चाहं, क. व्या. 339.
***
अट्ठ
अहं
अहं उ० पु० सूचक सर्व, अम्ह का प्र. वि., ए. व. [अहं ], 1. मैं - स्मिही ति किमत्थं? त्वं भवसि, अहं भवामि, क. व्या. 139; अहं पठमं झानं समापज्जामीति या स. नि. 2 (1). 232; एतं वो अहमक्खामि सु. नि. 174; तमहं सारथिं ब्रूमि. ध. प. 222 2. अधिक सूक्ष्म अर्थ मैं, मेरी आत्मा. मेरा महत्वपूर्ण व्यक्तित्व लोक में एकमात्र महत्व वाला मैं
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ये वदन्ति न ते अहं स. नि. 1 ( 1 ). 137; इमिनाहं सीलेन देवो वा भविस्सामि देवज्ञतरो वा विसुद्धि. 1.12; मं / ममं / मे द्वि. वि. ए. व.. मुझ को मुझे मं न मं मिगा उत्तसन्ति, जा. अट्ठ. 6.93; न मं वञ्चेसि ब्राह्मणो, सु. नि. 358; - ममं ममं भुत्वा वने वसाति, जा. अट्ठ. 3.47; अलहि ते जग्घिताये, ममं दिस्वान एदिसं, जा. अ. 3.197 मे तत्थ सो मं उहतीति सो मे जहति अयमेव वा पाठो, जा. अट्ठ. 3.449; तं मे तपति नो इदं, जा. अट्ठ. मया / मे तृ. वि., ए. व., मेरे द्वारा, 2.367; मेरे साथ सो मया... पुट्ठो... पटिचरि, म. नि. 2.232; यं मया पकतं कम्मं थेरगा 80 मया / ममतो / मम / मे प. वि. ए. व., मुझ से, क. तुल, विशे के साथ संबद्ध ख. ममतोममतोपि सुरूपिनि, अप. 2.244; ग. मम - भिन्नं वतिदं कुलं ममा ति चिन्तयतो, दी. नि. अट्ठ. 2.279; ममाति मया, अयमेव वा पाठो, लीन. (दी.नि.टी.) 2238 घ. मेन मे समण मोक्खसीति, महाव. 27: महं / ममं / मे / मम क. च. वि., ए. व., मेरे लिए, मुझ को सब्बञ्जतं पियं महं चरिया 1 3 8 अद्धा हि सो भक्खो मम मनापो, जा. अ. 5.495; न सा ममं अप्पिया भूमिपाल, जा. अट्ठ 207: तेन मे समणा पिया थेरीगा. 278; ख. प. वि. ए. व. - मेरा / मेरी पुत्तो ममं ओरसको समानो, जा० अड. 4.42; तं तत्थ अवधी सेनो, पेक्खतो सुधरे ममाति. जा. अड. 6.247; अरोगा मव्ह मातरो, जा. अट्ठ 6.27 पुब्बेव मे, भिक्खवे, सम्बोधा... एतदहोसि, अ. नि. 1 (1).292; मयि सप्त. कि. ए. व., मुझ में, मेरे विषय में किन्ति वो भिक्खये, मयि होति. म. नि. 3.25: सादियतु नु खो महाराज, अथ महापथवी सब्बबीजानि मयि संविरुहन्तूति, मि. प. 110 - मयं / अम्हे / अस्मा / नो प्र. वि. ब. व.. हम - तेदिज्जा मयमस्मुभो, सु. नि. 599; उपसङ्कमित्वा अम्हे एतदवोच स. नि. 1 ( 1 ). 139, मयमस्माम्हरस, मो. व्या. 2.211: अडमासे असम्पत्ते, चतुसच्चं फुसिम्ह नो. अप. 2.265; - अम्हे / अस्मे / अम्हं / अम्हाकं / अम्हानं / नो द्वि. वि. ब. व. हमको हमें हम लोगों को अम्हे च भरिया
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अहकं
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अहट्ट
नातिक्कमन्ति, जा. अट्ठ, 4.47; अस्माभिजप्पन्ति जना अनेकाति, जा. अट्ठ, 3.317; तत्थ त्यम्हन्ति ते दारका अम्हाकं तत्थ अर ....जा. अट्ठ. 7.267; अम्हाकं पस्ससि, अम्हे पस्ससि वा, क. व्या. 162; मा नो अज्ज विकन्तिसु. जा. अट्ठ. 5.363; त्यम्ह तत्थ रमेस्सन्ति, अरुले जीवसोकिनन्ति, जा. अट्ट, 7.267; कच्चायने तुम्हानं अम्हानन्ति च पठमा-दुतिया बहुवचनं, सद्द. 1.289;- अम्हेहि/अस्माहि त. वि., ब. व., हमारे द्वारा - अतिथी खो पनम्हहि सक्कातब्बा । ..... दी. नि. 1.103; अस्माभि परिचिण्णोसि, अप. 2.208; न नो विवाहो नागेहि, कतपब्बो कुदाचन, जा. अट्ठ. 7.6; -- अम्हेहि प. वि., ब. व., हम से, हम लोंगों से, हम लोगों की अपेक्षा से - चत्तारो महाराजानो अम्हेहि अभिक्कन्ततरा च पणीततरा च, दी. नि. 1.199; - अम्हाकं/अस्माकं/ अम्हं/नो च. वि., ब. व., हमारे लिए, हम लोगों के लिए - अम्हाकञ्च कता पूजा, दायका च अनिष्फला, खु. पा. 7.5; दुल्लभो अङ्गसम्पन्नो, खन्तिरस्माक रुच्चती ति, जा.. अट्ठ. 2.174; वने वाळमिगाकिण्णे, हिंसा अम्हं न विज्जति जा. अट्ठ. 7.311; तं नो वद पुच्छितो बुद्धसेट्ट, सु. नि. 385, - अम्हाकं/अस्माकं/अम्हं/अम्हानं/नो ष. वि., ब. व., हमारा, हमारी, हमारे - ये खो पन, भो, केचि... अम्हाक गामखेतं आगच्छन्ति अतिथी नो ते होन्ति ... अतिथि खो पनम्हेहि सक्कातब्बो ... इमिनापङ्गेन न अरहति सो भवं गोतमो अम्हाकं दस्सनाय उपसमित, दी. नि. 1.103; तस्मा हि अम्हं दहरा न मीयरे, जा. अट्ठ. 4.47; न नो सम अस्थि तथागतेन, खु. पा. 6.3; - अम्हेसु/अस्मेसु/ अस्मासु/अस्मसु सप्त. वि.. ब. व., हम लोगों में, हमारे बीच मे - इतिपेतं भूतं, इतिपेतं तच्छ, अत्थि चेतं अम्हेसु. संविज्जति च पनेतं अम्हेसूति, दी. नि. 1.3; त्वं अम्हेसु एकेक खादितुकामोसी ति, जा. अट्ट, 1.218; न चायं किञ्चि रस्मासु, सत्तूव समपज्जथ, जा. अट्ठ. 5.344; यं किच्चं परमे मित्ते, कतमस्मास तं तया, पत्ता निस्संसयं त्याम्हा, भत्तिरस्मासु
या तव. जा. अट्ठ. 5.348. अहकं सर्व., अम्ह का प्र. वि., ए. व., अहं का स्थानापन्न रूप, मैं - सब्बस्स अम्हसद्दस्स सविभत्तिकस्स अहं अहकं इच्चादेसा होन्ति सिम्हि विभत्तियं सद्द. 3.656; अहकन्ति रूपन्तरम्पि इच्छितब्बं सद्द. 1.289. अहंकार पु., अहं + कर से व्यु., क्रि. ना., प्रायः 'ममकार' के साथ प्रयुक्त [अहङ्कार], 1. 'मैं एक नित्य, आनन्दमय एवं चितस्वरूप आत्मा हूं इस प्रकार की मिथ्या धारणा -
रो प्र. वि., ए. व. - मानो अहङ्कारो, सद्द. 554; गब्बो भिमानो हङ्कारो, अभि. प. 171; अहस्मीति मञ्जमानो सो समुन्नतिलक्खणो, केतुसम्पग्गहरसो, अहंकारोति गम्हति, ना. रू. प. 2.112; - रा ब. व. - अहङ्कारा च मे उपरुज्झिस्सन्ति, ममङ्कारा..., अ. नि. 2(2).143; अहंकाराति अहंकारदिद्वि, अ. नि. अट्ट. 3.144; 2. “यह आत्मा और संसार स्वयंकृत है, इस प्रकार की मिथ्या-मान्यता, कर्ता के रूप में, 'मैं' को मानने की भ्रान्त-धारणा, अपने कारकभाव का भ्रम - अहंकारपसुतायं पजा, परंकारूपसंहिता, उदा. 152: ... सयंकतो अत्ता च लोको चाति एवं वुत्तसयंकारसवातं अहङ्कारं ..., उदा. अट्ठ. 282; - दिट्ठि स्त्री., कर्म. स. [अहङ्कारदृष्टि], मैं आत्मा हूं, नित्य व्यक्तित्व हूं, आदि रूप की मिथ्या धारणा, मैं और मेरेपन का भ्रम - डिप्र. वि., ए. व. - अहङ्कारममङ्कारमानानुसयाति अहङ्कारदिष्टि च ममङ्कारतण्हा च मानानुसयो चाति अत्तनो च परस्स च किलेसा, ..., अ. नि. अट्ठ. 2.101-102; - पसूत त्रि., तत्पु. स. [अहङ्कारप्रसूत]. 'आत्मा या लोक स्वयं अपने द्वारा कृत है', इस मिथ्याधारणा से ग्रस्त, अहंकार की मिथ्यादृष्टि में फंसा हुआ -- ता स्त्री., प्र. वि., ए. व. - अहंकारपसुतायं पजा, उदा. 152; तत्थ अहङ्कारपसुतायं पजाति सयंकतो अत्ता च लोको चाति एवं वुत्तसयंकारसङ्घातं अहङ्कारं तथापवत्तं दिहिं पसुता अनुयुत्ता अयं पजा मिच्छाभिनिविट्ठो सत्तकायो, उदा. अट्ठ. 282; - मल नपुं, तत्पु. स. [अहङ्कारमल], नित्य एवं आनन्दमय आत्मा की भ्रान्त-धारणा के कारण उत्पन्न चित्त का मल या अशुद्धि - ... इस्सामच्छरियाहङ्कारादिमलानं सुप्पहीनतं दीपेति, उदा. अह. 200; - रस त्रि., ब. स. [अहङ्काररस], अहंकार के विशिष्ट लक्षण से युक्त - सो पु.. प्र. वि., ए. व. - उण्णतिलक्खणो मानो, अहंकाररसो, उद्घमातभावपच्चुपट्टानो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).114; - वत्थु नपुं., अहङ्कार का भावात्मक अस्तित्व, भाव या वस्तुसत् रूप में अहङ्कार, वस्तुरूप में "मै" की धारणा - त्थु प्र. वि., ए. व. - अथ वा अत्ताति अहङ्कारवत्थु लोकोति ममङ्कारवत्थु, उदा. अट्ट. 280. अहंपब्बिका स्त्री., [अहम्पूर्विका], स्वयं को होड में सबसे पूर्व या प्रथम रखने की मनोवृत्ति, होड़ लगाकर सैनिकों की दौड़, होड़, प्रतियोगिता, डींग, आत्मश्लाघा - का तृ. वि., ए. व. - पुरतो पुरतो चाहपुबिकाय निरग्गलं. चू. वं. 89.29. अहट्ठ त्रि., (हस (हंसना, प्रसन्न होना) के भू. क. कृ. का निषे. [अहृष्ट]. अप्रसन्न, नहीं खिला हुआ, प्रसन्नता से
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अहत
725
अहह
रहित - हानि नपुं.. प्र. वि., ब. व. - इन्द्रियानि अहट्ठानि, सावं जातं मुखं तव, जा. अट्ठ. 7.31; तत्थ अहट्टानीति न विप्पसन्नानि, तदे. - लोम त्रि., ब. स. [अहृष्टलोम], शा. अ. वह, जिसके रोंगटे या रोएं खड़े न हो गए हैं, ला. अ. निर्भय, निडर, आश्वस्त - मो पु.. प्र. वि., ए. व. - अलोमहट्ठोति निभयो अहठ्ठलोमो हुत्वा पुच्छ महाराजाति, जा. अट्ठ. 6.119. अहत त्रि., Vहन (मारना, पीटना) के भू. क. कृ. का निषे० [अहत], शा. अ. नहीं मारा गया, नहीं पीटा गया, ला. अ. (केवल वस्त्र के ही सन्दर्भ में), अभी तक नहीं धोया गया। (वस्त्र, कठिनचीवर), कोरा, नया, अपरिभुक्त, प्रयोग में न आया हुआ - तं नपुं., प्र. वि., ब. व. - अथो वत्थं अहतं ति मतं नवं, अभि. प. 293; - तानं नपुं., प्र. वि., ब. व. - अनुजानामि, भिक्खवे, अहतानं दुस्सानं अहतकप्पानं दिगुणं सङ्घाटिं, महाव. 381; - तेन तृ. वि., ए. व. - अहतेन अत्थतं होति कथिनं, महाव. 332; अहतेनाति अपरिभुत्तेन, महाव. अह. 370; ... रुञो चक्कवत्तिस्स सरीर अहतेन वत्थेन वेठन्ति, दी. नि. 2.107; अहतेन वत्थेनाति नवेन कासिकवत्थेन, दी. नि. अट्ठ. 2.157; - तेहि तृ. वि., ब. व. - ... नेमित्ते ब्राह्मणे अहतेहि वत्थेहि अच्छादापेत्वा .... दी. नि. 2.15; - कप्प त्रि., [अहतकल्प], लगभग नया जैसा (वस्त्र), एक या दो बार धोया हुआ (वस्त्र, चीवर)- प्पेन नपुं.. तृ. वि., ए. व. - अहतकप्पेन अत्थतं होति कथिनं, महाव. 332; अहतकप्पेनाति अहतसदिसेन एकवारं वा द्विक्खत्तुं वा धोतेन, महाव. अट्ठ. 370; - वत्थ नपुं. कर्म. स. [अहतवस्त्र], नया वस्त्र, कोरा वस्त्र, नहीं धोया गया नया कपड़ा - त्थानि द्वि. वि., ब. व. - ... ताता, खिप्पं मं गन्धोदकेन न्हापेत्वा अहतवत्थानि निवासापेत्वा... नावाय धुरे ठपेथा ति, जा. अट्ठ. 4.129; सो ... अहतवत्थानि निवासेत्वा ... गेहं आगन्त्वा निसीदि, ध. प. अट्ठ. 1.362; -- वत्थनिवत्थ त्रि., नए वस्त्र को धारण किया हुआ -- त्थो पु., प्र. वि., ए. व. - सब्बेसं पच्छतो सयं महासेट्टि अहतवत्थनिवत्थो अहतवत्थनिवत्थेहेव पञ्चहि... अब्भुग्गच्छि, जा. अट्ठ. 1.102; - साटक पु., कर्म, स. [अहतशाटक, नया या नहीं धोया हुआ कोरा वस्त्र - के द्वि. वि., ब. व. - सो पुब्बे ... अहतसाटके निवासेतुं... न लभिध. प. अट्ट, 1.362; ते तस्स... सआय अहतसाटके चीवरचकरस दत्वा तं गण्हित्वा गच्छन्ति, जा. अट्ठ. 1.217.
अहत्थ त्रि., ब. स. [अहस्त], बिना हाथ वाला, लूला, बेहाथ - त्थो पु., प्र. वि., ए. व. - भिन्नगलो वा ... अहत्थो वा एकहत्थो वा... गोधागत्तो वा...., महाव. अट्ट, 295; - पास पु., हत्थपास का निषे. [अहस्तपार्श्व], शा. अ. एक हाथ की दूरी, बहुत अधिक समीपता - से सप्त. वि., ए. व. - अहत्थपासे कतं होति, पाचि. 114; कतं अहत्थपासेपि न च भुत्ताविना कतं, उत्त. वि. 643; ला. अ. त्रि., अनिकटवर्ती, पकड़ से बाहर स्थित, अगोचर, अविषय - सो पु.. प्र. वि., ए. व. - अहत्थपासो मारस्स, ..., थेरगा. 888; अहत्थपासो मारस्साति किलेसमारादीनं अगोचरो. थेरगा. अट्ट. 2.284. अहनन्त त्रि., (हन (हत्या करना, मार डालना) के वर्त. कृ. का निषे०, प्राणघात नहीं कर रहा, प्राण नहीं ले रहा, हत्या नहीं कर रहा - नं पु., प्र. वि., ए. व. - ... अहनं अघातयं ... असोचापयं धम्मेनाति, स. नि. 1(1).137. अहन्तु पु., हन (हत्या करना) के क. ना. का निषे. [अहन्त], प्राणि हत्या न करने वाला, प्राणातिपात से विरत - न्तारं द्वि. वि., ए. व. - अहन्तारमहन्तार यो नरो हन्तुमिच्छति, जा. अट्ठ. 3.175. अहमहंकर त्रि., [अहमहङ्कर], होड़ या प्रतियोगिता में पहले में', 'पहले मैं' की इच्छा रखने वाला, होड़ में प्रथम रहने को आतुर - रा पु., प्र. वि., ब. व. - तत्थ अहं पुरेति अहं पुरिमं अहं पुरिमन्ति अहमहंकराति अत्थो, वि. व. अट्ठ. 297. अहमहमिका स्त्री., [अहमहमिका], प्रतिस्पर्धा या होड़ में स्वयं को आगे रखने की ललक, प्रतिस्पर्धा, होड़, ईर्ष्या -
यो हङ्कारोञमञस्स साहमहमिका भवे, अभि. प. 397. अहंमान पु.. [अहंमान], "मैं नित्य एवं आनन्दरूप आत्मा हूं" इस प्रकार की भ्रान्त-धारणा, 'मैं' के विषय में मिथ्याधारणा, अहङ्कार - अत्थन्तरवसेन पन आहितो अहमानो एत्थाति अत्ता अत्तभावो ति च, सद्द. 2.360. अहह 1. नपुं.. बहुत बड़ी संख्या की एक इकाई, एक पर 70
शून्य वाली ऊंची संख्या - हं प्र. वि., ए. व. - निन्नहुतसतसहस्सानं सतं अक्खोहिणी, तथा विन्दु, ..... अहह.... कथानं महाकथानं असङ्केय्यं, क. व्या. 397; अहहं अबबं चेवाटटं सोगन्धिकुप्पलं अभि. प. 475; वीसति अटटानि एक अहह, सद्द. 3.802; 2. पु., एक नरक, जिसमें पापी व्यक्ति को एक अहह वर्षों तक रहना होता है - हो प्र. वि., ए. व. -- सेय्यथापि भिक्खु, वीसति अववा निरया, एवमेको अहहो निरयो, अ. नि. 3(2).147.
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अहहा
726
अहिंसक
अहहा निपा., अ. [अहहा], शोक, खेद, आश्चर्य, दया एवं तरस आदि का सूचक, अरे, हाय-हाय, ओहो हो, उफ - अहहा बाललपना, परिवज्जेथ जग्गतो ति, जा. अट्ठ. 3.397; तत्थ अहहाति संवेगदीपनं तदे... अहापयन्त त्रि., सहा (त्यागदेना) के प्रेर. के वर्त. कृ. का निषे. [अहापयत्], बरबाद न करता हुआ, नहीं छोड़ता हुआ, उपेक्षा या तिरस्कार न करता हुआ - यं पु., प्र. वि., ए. व. - ओवादकारी भतपोसी, कुलवंसं अहापयं, अ. नि. 2(1).39. अहापितग्गि त्रि., ब. स. [अहाविताग्नि], अग्नि में आहुतियां न डालने वाला, अग्नि को प्रज्वलित न करने वाला - अभिन्नकट्ठोसि अनाभतोदको, अहापितग्गीसि असिद्धभोजनो, जा. अट्ठ. 5.192. अहापेत्वा हा (त्याग देना) के प्रेर. के पू. का. कृ. का निषे.. किसी भी चीज को नहीं छोड़कर - पुढो खो पन पहाभिनीतो अहापेत्वा अलम्बित्वा परिपूर वित्थारेन ... होति, अ. नि. 1(2).89; अहापेत्वा ... अपरिहीनं... कत्वा, अ. नि. अट्ठ. 2.311 अहारिय त्रि., Vहर (ले जाना) के सं. कृ. का निषे. [अहार्य], दूर न ले जाए जाने योग्य, हरण नहीं किए जाने योग्य, नहीं चुराने या लूटने योग्य - किंसु नरानं रतनं, किंसु चोरेह्यहारियान्ति, स. नि. 1(1).42. अहारियरजमत्तिक त्रि., ब. स. [अहार्यरजमृत्तिक], वह, जिसके द्वारा राग की धूल और मिट्टी न हटाई जा सके - के पु., सप्त. वि., ए. व. - रहदेहमस्मि ओगाळहो, अहारियरजमत्तिके, थेरगा. 759; - को पु.. प्र. वि., ए. व. - अहारियरजमत्तिकति अपनेतुं असक्कुणेय्यो रागादिरजो मत्तिका कद्दमो एतस्साति अहारियरजमत्तिको, रहदो .... थेरगा. अट्ठ. 243. अहारी त्रि., हारी का निषे. [अहारिन, बाहर की ओर न ले जाने वाला, बाहर की ओर न निकालने वाला - एको उदकमणिको अच्छिद्दो अहारी अपरिहारी, स. नि. 2(2).302; अहारी अपरिहारीति उदकं न हरति न परिहरति, न परियादियतीति अत्थो, स. नि. अट्ठ. 3.142. अहालिद्द त्रि., हालिद्द का निषे. [अहारिद्र], शा. अ. हल्दी
की तरह हल्के रंग से नहीं रंगा हुआ, ला. अ. स्थिर, क्षणक्षण में रंग न बदलने वाला - यस्स चित्तं अहालिदं, जा. अट्ठ. 3.76; यस्स पुग्गलस्स चित्तं अहालिदं हलिदिरागो विय खिप्पं न विरज्जति, थिरमेव होति, तदे..
अहास पु., हास का निषे., तत्पु. स. [अहास], अत्यधिक
खुशी में न फूल जाना, नहीं इठलाना - सो प्र. वि., ए. व. - अहासो अत्थलाभेसु. जा. अट्ठ. 3.411; अहासो अत्थलाभेसूति महन्ते इस्सरिये उप्पन्ने अप्पमादवसेन अहासो अनुप्पिलावितत्तं ततियं साध. तदे.. अहासधम्म पु., हासधम्म का निषे., तत्पु. स. [अहासधर्म]. मौजमस्ती या आनन्द का अभाव - उदके अहसधम्मे
अहसधम्मसी , अनापत्ति, पाचि. 152. अहासि हर (ले जाना, छीन लेना) के अद्य, का प्र. पु., ए. व., उसने छीन लिया, चुरा लिया, लूट लिया - अक्कोच्छि म अवधि में, अजिनि मं अहासि मे, ध. प. 4; अहासि मेति मम सन्तकं पत्तादीसु किञ्चिदेव अवहरि ध. प. अट्ठ. 1.29; पनुण्णकोधो..... यो ब्राह्मणो सोकमलं अहासि, सु. नि. 473-- 74. अहि' अस (होना) के अनु. का म. पु., ए. व., तुम हो, अस्थि
के अन्त. द्रष्ट. (ऊपर).. अहि पु.. [अहि], सांप, सर्प-प्रजाति के अन्तर्गत आने वाला अजगर, नाग आदि -- हि प्र. वि., ए. व. - आसीविसो भुजङ्गो हि भुजगो च भुजङ्गमो, अभि. प. 653; अपदानं अहि मच्छा... तत्थ अहिग्गहणेन सब्बापि अजगरगोनसादिभेदा दीघजाति सङ्गहिता, पारा. अट्ठ. 1.206; - हिं द्वि. वि., ए. व. - अहिं कीळापेन्तो बाराणसियं ... विचरि जा. अट्ठ. 3.171; - ना तृ. वि., ए. व. - तेन खो पन समयेन अञ्जतरो भिक्खु अहिना दट्ठो होति, महाव. 282; - स्स ष. वि., ए. व. - अहिस्स कुणपं अहिकुणपं. म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).159. अहिंसक' त्रि., [अहिंसक]. हिंसा न करने वाला, दूसरे प्राणियों को उत्पीड़ित न करने वाला - को पु., प्र. वि., ए. व. - स वे अहिंसको होति, यो परं न विहिंसती ति, स. नि. 1(1).192; तत्थ अहिंसकोति अहं कस्सचि अहिंसको सीलाचारसम्पन्नो, जा. अट्ठ. 4.405; - का ब. व. - अहिंसका अतीतंसे, छ सत्थारो यसस्सिनो, अ. नि. 2(2).83; अहिंसका अतीतंसेति एते छ सत्थारो अतीतसे अहिंसका अहेसु. अ. नि. अट्ठ. 3.124. अहिंसक पु., 1. अंगुलिमाल का मूल नाम, श्रावस्ती के राजपुरोहित भार्गव का पुत्र, जन्म होते ही राजा का चित्त बेचैन हो गया, अतः इसका नाम हिंसक हुआ, पीछे यही नाम अहिंसक में बदल गया - तस्स नामं करोन्ता यस्मा जायमानो ख्यो चित्तं विहेसेन्तो जातो, तस्मा हिंसकोति
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अहिंसन्त
727
अहिगुण्ठिकजातक कत्वा पच्छा दिट्ठ अदिट्ठन्ति विय अहिंसकोति वोहरिंसु. -य' सप्त. वि., ए. व. - यस्स सब्बमहोरत्तं अहिंसाय रतो थेरगा. अट्ठ. 2.275; अहिंसको ति मे नामं हिंसकस्स पुरे मनो, स. नि. 1(1).241; अहिंसायाति करुणाय चेव सतो, म. नि. 2.315; 2. भारद्वाज का दूसरा नाम, क्योंकि करुणापुब्बभागे च, स. नि. अट्ठ. 1.268; - य तृ. वि., ए. उन्होंने भगवान बुद्ध से अहिंसक के विषय में प्रश्न पूछा था व. - अहिंसाय चर लोके, पियो होहिसि मंमिव, जा. अट्ठ. - नामेन वा एस अहिंसको, गोत्तेन भारद्वाजो, स. नि. अट्ठ. 4.64; अहिंसायाति अहिंसाय समन्नागतो हुत्वा लोके चर, 1.203.
जा. अट्ठ. 4.65. अहिंसन्त त्रि., हिंस (हिंसा करना) के वर्त. कृ. का निषे. अहिंसानिग्गहपञ्ह पु., मि. प. में राजा मिलिन्द द्वारा [अहिंसत्], हिंसा नहीं कर रहा, हिंसक मनोवृत्ति से मुक्त अहिंसा एवं निग्गह-विषयक बुद्धवचनों की असङ्गति के रहने वाला, पीड़ा न पहुंचाने वाला, हानि न पहुंचाता हुआ विषय में पूछा गया प्रश्न - हो प्र. वि., ए. व, - - संपु., प्र. वि., ए. व. - अहिंसं सब्बगत्तानि सल्लं में अहिंसानिग्गहपञ्हो एकादसमो, मि. प. 179-180. उद्धरिस्सति, थेरगा. 757.
अहिंसारतिनी स्त्री., ब. स. [अहिंसारतिका], अहिंसा में अहिंसककुल नपुं.. तत्पु. स. [अहिंसककुल], हिंसा से । रमण करने वाली, अहिंसक चित्तवृत्ति के विकास में लगी बिलग रहने वाला कुल या वंश - ले सप्त. वि., ए. व. - हुई - साहं अहिंसारतिनी, कामसा धम्मचारिनी, जा. अट्ठ. मयं अहिंसककुले जाता, न सक्का आचरियाति, म. नि. 4.285; अहिंसारतिनीति अहिंसासङ्घाताय रतिया समन्नागता, अट्ठ. (म.प.) 2.235.
जा. अट्ठ.4.286. अहिंसकपज्ह नपुं., भारद्वाजगोत्रीय ब्राह्मण द्वारा बुद्ध से अहिक त्रि., अह से व्यु., केवल स. उ. प. के रूप में प्राप्त पूछा गया अहिंसक-विषयक प्रश्न - ऽहं द्वि. वि., ए. व. - [आहिक]. दिनों वाला, एकाहिक, द्वीहिक, पञ्चाहिक, पञ्चमे अहिंसकभारद्वाजोति भारद्वाजोवेस. अहिंसकपञ्हं पन सत्ताहिक आदि के अन्त. द्रष्ट.. पुच्छि, तेनस्सेतं सङ्गीतिकारेहि नाम गहितं, स. नि. अट्ठ. अहिकञ्चुक पु., तत्पु. स. [अहिकञ्चुक]. सांप की केंचुली 1.203; -- सुत्त नपुं.. स. नि. का एक सुत्त, स. नि. या त्वचा - स्स ष. वि., ए. व. - करण्डाति इदम्पि 1(1).191-92; स. नि. अट्ठ. 1.203.
अहिकञ्चुकस्स नाम, न विलीवकरण्डकस्स, अहिकञ्चुको अहिंसकहत्थ त्रि., ब. स. [अहिंसकहस्त], हिंसा न करने हि अहिना सदिसोव होति, दी. नि. अट्ठ. 1.180; तुल. वाले हाथों से युक्त, हिंसाविरत हाथों वाला - त्थो पु.. प्र. करण्ड, वि., ए. व. - अदुब्भपाणीति अहिंसकहत्थो हत्थसंयतो, पे. अहिकुणप नपुं., कर्म. स. [अहिकुणप, त्रि., पु., नपुं.]. व. अट्ठ. 102.
सड़ा-गला सांप, मुर्दे जैसी दुर्गन्ध देने वाला सांप, बदबूदार अहिंसन नपुं., [अहिंसन], हिंसा न करना - नेन सांप का मृत शरीर - पं प्र. वि., ए. व. - तमेनं सामिका त. वि., ए. व. - तत्थ अहिंसाति अहिंसनेन, ध. प. अट्ठ. अहिकुणपं वा कुक्कुरकुणपं वा मनुस्सकुणपं वा, ..., म. नि. 2.229.
1.38; तत्थ कुणपन्ति मतकलेवर, अहिस्स कुणपं अहिकुणपं. अहिंसयन्त त्रि., हिंस के ना. धा. के वर्त. क. का निषे०, म. नि. अट्ठ (मू.प.) 1(1).159; - पेन तृ. वि., ए. व. - हिंसा नहीं कर रहा - यं पु., प्र. वि., ए. व. - अहिंसयं परं इत्थी वा पुरिसो वा ... अहिकुणपेन वा कुक्कुरकुणपेन वा लोके, पियो होहिसि मामकोति, मि. प. 179.
मनुस्सकुणपेन वा कण्ठे आसत्तेन अट्टिमेय्य .... म. नि. अहिंसा स्त्री., हिंसा का निषे., तत्प. स. [अहिंसा], प्राणियों 1.170; अहिकुणपेनातिआदि अतिजेगुच्छपटिकूलकुणपकी हत्या या उन्हें किसी प्रकार की पीड़ा या हानि पहुंचाने दस्सनत्थं वुत्तं, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).404. से चित्त की विरति, करुणा-भावना, करुणा उत्पन्न होने से अहिकुण्ठिक/अहिकुण्डिक/अहिगुण्टिक द्रष्ट. पूर्व करुणा की आधारभूत चित्तवृत्ति - सा प्र. वि., ए. व. अहिगुण्ठिक के अन्त. (आगे). - सभि दानं उपअत्तं, अहिंसा संयमो दमो, स. नि. अहिगुण्ठिक पु., अहितुण्डिक का अप., अहितुण्डिक के 1(1).176; अहिंसाति करुणा चेव करुणापुब्बभागो च, अ. अन्त.. द्रष्ट. (आगे). नि. अट्ठ. 2.134; अहिंसा सब्बपाणानं, अरियोति पवुच्चति, अहिगुण्ठिकजातक नपुं.. अहितुण्डिकजातक के अन्त. द्रष्ट. ध. प. 270; तत्थ अहिंसाति अहिंसनेन,ध. प. अट्ठ. 2.229 (आगे).
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अहिग्गाह
728
अहितुण्डिक/आहितुण्डिक अहिग्गाह प.. [अहिग्राह], सांप को पकड़ने वाला, संपेरा, रहोगता, जा. अट्ठ. 7.282; - ताय च. वि., ए. व. - मा नट- यावतत्थि अहिग्गाहो, मया भिय्यो न विज्जतीति, जा. ते अहोसि दीघरत्तं अहिताय दुक्खाया ति, म. नि. 1.416; - अट्ठ. 7.36.
काम त्रि., [अहितकाम], किसी का अहित करने की इच्छा अहिच्छत्त पु., नागों का एक राजा -- त्तो प्र. वि., ए. व. - रखने वाला, हानि पहुंचाने की कामना करने वाला - मो तं अहिच्छत्तो नाम नागराजा पटिग्गहसि, ध. प. अट्ठ पु., प्र. वि., ए. व. - पुरिसो अनत्थकामो अहितकामो ... 2.139.
मारस्सेतं पापिमतो अधिवचनं, म. नि. 1.167; - मा ब. व. अहिच्छत्तक पु./नपुं.. [अहिच्छत्रक], कुकुरमुत्ता - को प्र. - तस्स ये केचि अहितकामा उपगन्त्वा तं न पस्सन्ति, मि. वि., ए. व. - सेय्यथापि नाम अहिच्छत्तको, एवमेव पावरहोसि. प. 190; - चित्त त्रि., ब. स. [अहितचित्त], दूसरों का दी. नि. 3.64; - कं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - सूकरेहि अहित करने की बात सोचने वाले चित्त से युक्त - त्तो पु., महितप्पदेसे जातं अहिच्छत्तकन्ति, उदा. अट्ठ. 324; - प्र. वि., ए. व. - भिसक्को सल्लकत्तो अहितचित्तो भेसज्जेन कानि ब. व. - तं सुत्वा नागो... एसिकत्थम्भे सोण्डाय अनुलिम्पति, मि. प. 120; - तज्झासय त्रि., ब. स. पलिवेठेत्वा अहिच्छत्तकानि विय लुञ्चित्वा ..., जा. अट्ठ. [अहिताध्याशय], उपरिवत् - या स्त्री, प्र. वि., ए. व. - 2.78; - पिण्डिकवण्ण त्रि., ब. स. [अहिच्छत्रपिण्डिकावर्ण]. पादपरिचारिका नाम सामिकानं हितज्झासया अप्पका, कुकुरमुत्तों के पिण्ड या गोले के स्वरूप वाला - ण्णं नपुं.. अहितज्झासयाव बहुतरा, हितज्झासया... अहितज्झासयाति, प्र. वि., ए. क. - तं वण्णतो सेतं अहिच्छत्तकपिण्डिकवण्णं, जा. अट्ठ. 5.33; - फस्स पु.. [अहितस्पर्श]. हित न करने दधिभावं असम्पत्तदुखीरवण्णन्तिपि वत्तुं वट्टति, विभ. अट्ठ. वाला संपर्क, हानिप्रद स्पर्श-स्सेन त. वि., ए. व. - तेस 231; - मकुल पु., तत्पु. स. [अहिच्छत्रमुकुल], अधखिला फस्सेसु अहितफस्सेन फुट्ठा सत्ता हितफस्सोपि... करोन्ता कुकुरमुत्ता, पूरी तरह से तैयार न होने वाला कुकुरमुत्ता, .... जा. अठ्ठ. 6.51; - विज्ञाण नपुं.. कर्म. स., प्रतिकूल कुकुरमुत्ता की कली - लं द्वि. वि., ए. व. - यथा पन रूप में संवेदनीय धर्म के विषय में चेतना - तो प. वि., अहिच्छत्तकमकुलं पथवितो उद्वहन्तं पंसुचुण्णं गहेत्वाव ए. व. - कथं अहितविज्ञाणतो... ? यम्हि दुक्खापितो, उठ्ठहति, विभ. अट्ठ. 22; - लानि ब. व. - कुद्दालेन अमुकस्मिं एवं दुक्खापितो ति सरति, एवं अहितविआणतो आहताहतहाने अहिच्छत्तकमकुळानि विय कुम्भियो उहहिंसु. सति उप्पज्जति, मि. प. 87; - तानुकम्पी त्रि., अ. नि. अट्ठ. 1.148.
[अहितानुकम्पिन]. हित एवं अनुकम्पा न करने वाला - अहित 1. त्रि., हित का निषे०, तत्पु. स. [अहित], म्पिनी स्त्री., प्र. वि., ए. व. - पट्ठचित्ता अहितानुकम्पिनी, अकल्याणकारक, हित या भलाई न करने वाला, अपथ्यकर, अजेसु रत्ता अतिमञ्जते पति, अ. नि. 2(2).230; - हानिकारक - तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - ..., अहितं मय्ह तापनयन नपुं., तत्पु. स. [अहितापनयन], अहित या पिप्फली ति, जा. अट्ठ. 3.73; अहितन्ति यं एतं तव अमङ्गल का निवारण, जो कुछ हानिकारक हो उसे हटा कटुकभण्डसवातं पिफलि, एतं मय्ह अहितं असप्पायन्ति, देना - यस्मा च हितू पसंहारअहितापनयनजा. अट्ठ. 3.74; - तो पु., प्र. वि., ए. व. - अहितो भवति सम्पत्तिमोदनअनाभोगवसेन चतबिधोयेव सत्तेस मनसिकारो आतीनं, सकुणानंव चेतको, जा. अट्ठ. 3.314; सो हि अहितो ...., ध. स. अट्ठ. 240; - तावहत्त नपुं॰, भाव. [अहितावहत्व], भवति आतीनं, विनासमेव वहति, जा. अट्ठ. 3.315; - ता ब. अहितकारक होना, हानिकारक होना - त्ता प. वि., ए. व. व. - इमे धम्मा हिता, इमे धम्मा अहिता, मि. प. 35; 2. पु.. - कामा हि अहितावहत्ता मेत्तिया अभावेन अमित्ता, थेरी. शत्रु, प्रतिद्वन्दी - पच्चत्थिको परिपन्थी पटिपक्खा हितापरो, अट्ठ. 267. अभि. प. 344; - तो प्र. वि., ए. व. - महाहितं वरददं, अहितुण्डिक/आहितुण्डिक पु., [आहितुण्डिक], बाजीगर, अहितोति विसङ्किता, अप. 2.218; - ते द्वि. वि., ब. व. - संपेरा, ऐन्द्रजालिक जादूगर, सर्प के काटे हए का चिकित्सक तथेव त्वम्पि अहितहिते, समं मेत्ताय भावय, जा. अट्ठ. 1.33; - को प्र. वि., ए. व. - बाळगारहहितण्डिको, अभि. प. 6563; - तेसु सप्त. वि., ब. व. - अहितेसुपि हितेसुपि एकचित्तो अहितुण्डिको ब्राह्मणो ओसधं, खादित्वा ..., जा. अट्ठ. 4.413; भवेय्यासि, जा. अट्ठ. 1.32; 3. नपुं.. हानि, कष्ट, पीड़ा, त्रास यथा वा पन, महाराज बलवता आसीविसेन दट्ठस्स अन्तरायेव - तं द्वि. वि., ए. व. - अहितं वत ते जाति, मन्तयिंस आहितण्डिको अगदं दत्वा अविसं करेय्य, मि. प. 281; ...
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अहिदीप
729
अहिरीक/अहिरिक
यथा नाम छेको अहितुण्डिको सप्पदट्ठविसं तेनेव सप्पेन पुन करधनी, सांप की कमर पट्टी - य त./प. वि., ए. व. - डंसापेत्वा उब्बाहेय्य, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).176; सचे सो... इमाय अहिमेखलाय आकासतो ओरुयह ..., ध, प. अहितुण्डिको गहिस्सति, उदकं लोहितवणं भविस्सती ति अट्ठ. 1.81.. आह. जा. अट्ठ. 4.412; - केन तृ. वि., ए. व. - ... अहिमेखलिका स्त्री., उपरिवत् - य तृ. वि., ए. व. - ... अलक्कमालीति अहितुण्डिकेन कण्ठे परिक्खिपित्वा ठपिताय । देवदत्तो... कुमारकवण्णं अभिनिम्मिनित्वा अहिमेखलिकाय अलक्कमालाय समन्नागतो. जा. अट्ठ. 4.277; - स्स ष. अजातसत्तुस्स कुमारस्स उच्छङ्गे पातुरहोसि. चूळव. 320; वि., ए. व. - एसोपि अहितण्डिकस्स हत्थे अत्तनो अहिमेखलिकाति अहिं कटियं बन्धित्वा, चूळव. अट्ठ. 109. अनुभूतदुक्खमेव सन्धाय एवमाह, जा. अट्ठ. 4.277.
अहिरञ त्रि., ब. स. [अहिरण्य], सोने से रहित, अपने अहिदीप पु.. एक द्वीप, जिसका प्राचीन नाम कारद्वीप था - पास सोना न रखने वाला - ञो पु., प्र. वि., ए. व. - पो प्र. वि., ए. व. - तदा कारदीपो अहिदीपो नाम अहोसि, ... जनपदो अहिरओ अहोसि, जा. अट्ठ. 4.201. जा. अट्ठ. 4.213.
अहिराजकुल नपुं., तत्पु. स. [अहिराजकुल], नागों के अहिनकुल नपुं., समा. द्व. स. [अहिनकुलं]. शा. अ. सांप राजाओं का राजकुल - लानि प्र. वि., ब. व. - चत्तारि
और नेवला, ला. अ. स्वाभाविक बैर - लं प्र. वि., ए. व. अहिराजकुलानि, विरूपक्खं अहिराजकुलं, एरापथं ..., - अहि च नकुलो च अहिनकुलं, क. व्या. 324; सद्द. 3.750. छब्यापुत्तं., कण्हागोतमं अहिराजकुलं, चूळव. 227; - लानं अहिनङ्गट्ठ नपुं., तत्पु. स. [अहिलाल], सांप की पूंछ -ट्टे ष. वि., ब. व. -- ये हि केचि दट्ठविसा, सब्बेते इमेसं चतुन्न द्वि. वि., ब. व. - अहिनङ्गुढे गण्हितुं वायमसि, म. नि. अट्ठ. अहिराजकुलानं अब्भन्तरगताव होन्ति, अ. नि. अट्ठ. 2.308. (मू.प.) 1(1).334.
अहिराजसुत्त नपुं., अ. नि. के चतुक्कनिपात का एक सुत्त, अहिनाग पु., कर्म. स. [अहिनाग]. सर्प का स्वरूप धारण जिसमें नागराजाओं के चार कुलों का वर्णन है, अ. नि. किया हुआ नाग प्रजाति का प्राणी -- गो प्र. वि., ए. व. - दिस्वा इसि पविट्ठ, अहिनागो दुम्मनो पधूपायि, महाव. 30; अहिरीक/अहिरिक 1. त्रि., [अहीक], निर्लज्ज, लज्जाभाव - गं द्वि. वि., ए. व. - नागन्ति समनपुप्फकलापसदिसं से रहित, बेशर्म, बेहया - रिको पु., प्र. वि., ए. व. - महाफणं तिविधसोवत्थिकपरिक्खित्तं अहिनागं अद्दस, म. नि. कतमो च पुग्गलो अहिरिको? .... पु. प. 126; अनातापी अट्ठ. (मू.प.) 1(2).33.
अनोत्तापी, कुसीतो हीनवीरियो, यो थीनमिद्धबहलो, अहिरीको अहिपेत पु., कर्म. स. [अहिप्रेत], सर्प के स्वरूप में एक प्रेत अनादरो, इतिवु. 22; अहिरिको अनोत्तप्पी, सु. नि. 133; - तं द्वि. वि., ए. व. - न हि पापं कतं कम्मन्ति इमं नास्स पापजिगुच्छनलक्खणा हिरी, नास्स उत्तासनतो धम्मदेसनं सत्था वेळुवने विहरन्तो अञ्जतरं अहिपेतं आरभ उब्बेगलक्खणं ओतप्पन्ति अहिरिको अनोतप्पी, सु. नि. अट्ठ. कथेसि,ध. प. अट्ठ. 1.285; - वत्थु नपुं..ध. प. अट्ठ. की 1.145; - केन तृ. वि., ए. व. - सुजीवं अहिरिकेन, ध. प. एक कथा, जिसमें मनुष्य का शिर तथा सर्प का शरीर धारण 244; तत्थ अहिरिकेनाति छिन्नहिरोत्तप्पकेन, ध. प. अट्ठ. किए हुए एक प्रेत का कथानक दिया गया है, ध. प. अट्ठ 2.204; - का पु., प्र. वि., ब. व. - अहिरिका अहिरिकेहि 1.285-288.
सद्धि संसन्दिसु समिंसु. स. नि. 1(2).140; तथा अहिरिका अहिभीरुक त्रि., [अहिभीरुक], सांपों से डरने वाला - को भिन्नमरियादा अलज्जिपुग्गला अहिरिकेहि .... स. नि. अट्ठ. प्र. वि., ए. व. - यथा अहिभीरुको पुरिसो अरओ सप्पेन 2.126; परे अहिरिका भविस्सन्ति, मयमेत्थ हिरिमना अनुबद्धो ... भायतेव .... विसुद्धि. 1.316.
भविस्सामा ति सल्लेखो करणीयो, म. नि. 1.54; - कायो अहिमंस नपुं., तत्पु. स. [अहिमांस], सांप का मांस, रेंगने स्त्री., प्र. वि., ब. व. - छिन्निका धुत्तिका अहिरिकायो, पारा. वाले किसी भी बड़े प्राणी का मांस - सं द्वि. वि., ए. व... 188; अहिरिकायोति निल्लज्जा , पारा. अट्ठ. 2.120; 2. नपुं.. -- ... मनुस्सा दुभिक्खे अहिमसं परिभुञ्जन्ति, महाव. 295%; [आहृीक्य], निर्लज्जता, बेशर्मी - कं प्र. वि., ए. व. - तत्थ अहिमंसन्ति कस्सचि अपादकस्स दीघजातिकस्स मंसं न कतमं अहिरिकं. पु. प. 126; अहिरिकञ्च अनोत्तप्पञ्च, अ. वट्टति, महाव. अट्ठ. 355.
नि. 1(1).67; - केन तृ. वि., ए. व. - ... असिथिला अहिमेखला स्त्री., तत्पु. स. [अहिमेखला], सांप की । अब्बोकिण्णा अहिरिकेन सु. नि. अट्ठ. 1.116; - ता स्त्री.,
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बो रूपी माया पु.. प्र.वि
दी.
अहिवण्ण 730
अहुत्वा भाव. [अहीकता]. लज्जाहीनता, बेशर्मी - ताय तृ. वि., ए. सांप का शरीर - एत्थ च भोगो ति भुजीयति कुटिलं व. - नाहं अलक्ख्या अहिरिक्कताय वा, ..., थेरगा. 1126; कारीयतीति भोगो अहिसरीरं, भोगी ति सप्पो, सद्द. 2.349. अहिरिक्कतायाति यथावज्ज केळि करोन्तो विय निल्लज्जताय. अहीनगामी त्रि.. हीन या दीनताभरी मनोवृत्ति से मुक्त - सु थेरगा. अट्ठ. 2.399; - बल नपुं., तत्पु. स. [अहीकबल], पु., सप्त. वि., ब. व. - दीघायुकेसु अममेसु पाणिसु. निर्लज्जता का बल, शक्ति के रूप में निर्लज्जता ... विसेसगामीसु अहीनगामीसु, नेत्ति. 119; अहीनगामीसूति अहिरिकमेव बलं अहिरिकबल, ध. स. अट्ट. 289; - भाव यथालद्धसम्पत्तीहि यावतायुकं अपरिहीनसभावेसु. नेत्ति. अट्ट. पु., भाव., निर्लज्जता का भाव - वं द्वि. वि., ए. व. - 349-350. हिरीमनापि अहिरीकभावं, जा. अट्ठ. 5.17; - मूलकसुत्त अहीनिन्द्रिय त्रि., ब. स. [अहीनिन्द्रिय], अविकल इन्द्रिया नपुं.. स. नि. का एक सुत्त, जिसमें अहीक आदि के कारण वाला, सक्षम इन्द्रियों वाला - यं पु., द्वि. वि., ए. व. - प्राणियों के दुखग्रस्त होने का उपदेश संगृहीत है, स. नि. बोधिसत्तञ्च ... तिरोकुच्छिगतं पस्सति सब्बङ्गपच्चडिं 1(2).144-146; - सभाव त्रि.. ब. स. [अहृीकस्वभाव], अहीनिन्द्रियं दी. नि. 2.10; पस्सतीति कललादिकालं स्वभाव से ही निर्लज्ज, लज्जाहीन प्रकृति वाला- वो पु.. अतिक्कमित्वा सञ्जातअङ्गपच्चङ्गअहीनिन्द्रियभावं उपगतंयेव प्र. वि., ए. व. - अनरियरूपोति अहिरिकसभावो, जा. अट्ठ. परसति, दी. नि. अट्ठ. 2.25; - यो पु.. प्र. वि., ए. व. - 5.82; - कानोत्तप्पवमन नपु., तत्पु. स. अओ अत्ता दिब्बो रूपी मनोमयो सब्बङ्गपच्चङ्गी अहीनिन्द्रियो, [अहीकानवत्राप्यवमन]. निर्लज्जता एवं दुस्साहस का दी. नि. 1.29; अहीनिन्द्रियोति परिपण्णिन्द्रियो, दी. नि. प्रकाशन - नं द्वि. वि., ए. व. - अहिरिकानोत्तप्पवमनं अट्ठ. 1.103. कारेति, मि. प. 304.
अहीरथ शहर (हरण करना) के अद्य. कर्म. वा. का प्र. पु.. अहिवण्ण पु., तत्पु. स. [अहिवर्ण], सांप का स्वरूप, सर्प के ए. व., हरवाया गया, ले जाया गया - रहे विलुम्पमानम्हि, समान रूप - ण्णेन तृ. वि., ए. व. - मातानं, महाराज, नास्स किञ्चि अहीरथ, जा. अट्ठ. 5.241; अहीरथाति यथा यक्खानं सरीरं कीटवण्णेन वा दिस्सति, ..., अहिवण्णेन वा पब्बतगहनादीहि निक्खमित्वा रटुं विलम्पमानेसु चोरेसु दिस्सति, .... मिगवण्णेन वा दिस्सती ति, मि. प. 253. बहुपरिक्खारस्स अन्तोगामे ठपितं विलम्पति हरति, तथा अहिवातकरोग पु., एक संक्रामक रोग, संभवतः प्लेग या यस्स अधनस्स कायपटिबद्धपटिक्खारस्स न किञ्चि अहीरथ ऐसी महामारी, जिसमें पहले मक्खियां, कीड़े, चूहे आदि तस्स छट्टम्पि भद्रमेव, जा. अट्ठ. 5.243. मरते हैं तथा सबसे पीछे घर में रहने वाले मनुष्य - गो अहीळितत्त नपुं., अहीळित का भाव., अतिरष्कृत होना, प्र. वि., ए. व. - अपरभागे भद्दवतियसेटिनो गेहे अहिवातरोगो अपमानित न होना - त्ता प. वि., ए. व. - अनवञ्जत्तीति पतितो, ध, प. अट्ठ. 1.109; - गेन तृ. वि., ए. व. - ... अनवा परेहि अत्तनो अहीलितत्ता अपरिभूतत्ता, .... इतिवु. अञ्जतरं कुलं अहिवातकरोगेन कालङ्कतं होति, तस्स अट्ठ. 219. पितापुत्तका सेसा होन्ति, महाव. 98; अहिवातकरोगेनाति अहु' अह का स. प. में परिवर्तित रूप, दिन, दिन में - मारिब्याधिना, यत्र हि सो रोगो उप्पज्जति, तं कुलं द्विपदचतुष्पदं अजातसत्तु विदेहिपुत्तो तदहुपोसथे पन्नरसे कोमुदिया सब्बं नस्सति, यो भित्तिं वा छदनं वा भिन्दित्वा पलायति, चातुमासिनिया... रत्तिया... निसिन्नो होति, दी. नि. 1.42; तिरोगामादिगतो वा होति, सो मुच्चति, महाव. अट्ठ. 270- तदहूति तस्मिं अहु, तस्मिं दिवसेति अत्थो, दी. नि. अट्ठ. 71.
1.117. अहिविज्जा स्त्री., [अहिविद्या], सर्प के विष को मिटाने अहु'/अहू राहु (होना) अद्य. का प्र./म. पु., ए. व. वाली चिकित्सा अथवा मन्त्र द्वारा सर्प के आवाहन की विद्या [अभूत्/अभू:], वह हुआ था, तू हुआ था - अहु राजा - ज्जा प्र. वि., ए. व. - अङ्ग... अङ्गविज्जा, ... अहिविज्जा, विदेहानं, सद्द. 2.461; - हुं उ. पु., ए. व., मैं था - अहं विसविज्जा, विच्छिकविज्जा मूसिकविज्जा, ... इति वा इति, केवट्टगामस्मिं, अहं केवट्टदारको, अप. 1.330; मा मे माता दी. नि. 1.8; अहिविज्जाति सप्पदह्रतिकिच्छनविज्जा चेव । तरन्तरस, अन्तरायकरा अहूति, जा. अट्ठ. 4.111. सप्पाव्हायनविज्जा च, दी. नि. अट्ठ. 1.83.
अहुत्वा हु (होना) के पू. का. कृ. का निषे., पूर्वकाल में अहिसरीर नपुं., तत्पु. स. [अहिशरीर], सांप की कुण्डली, अस्तित्व में न रहकर, अभाव में रहकर - एवं किरिमे धम्मा
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अहुवासिं
731
अहेतु
अहत्वा सम्भोन्ति, हुत्वा पटिवेन्तीति, म. नि. 3.75; अहुत्वा सम्भोन्तीति इमिना उदयं परसति, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.61; अहुत्वायेवुप्पज्जन्ति, न कुतोचिपि आगता, ना. रू. प. 1543. अहुवासिं राहु (होना) का अद्य., उ. पु., ए. व., हुआ, था -
अहवासिन्ति अहोसिन्ति, वि. व. अट्ट, 274; सद्द. 2.455. अहुहासिय नपुं.. [अट्टहास], दांत निकाल कर किया गया
अट्टहास, महाहसित, ऊंची आवाज में हंसी -- यं द्वि. वि., ए. व. - कायं एळगळागुम्बे, करोति अहुहासियं, जा. अट्ठ. 3.194; अहुहासियन्ति दन्तविदसकं महाहसितं वुच्चति, जा.
अट्ठ. 3.195. अहेठयन्त त्रि., हेठ (पीड़ा देना, अपमान करना) के वर्त. कृ. का निषे. [अहेठयत्]. पीड़ा न पहुंचाने वाला, कष्ट न देने वाला - यं/न्तो पु., प्र. वि., ए. व. - यथापि भमरो पुर्फ, वण्णगन्धमहेठयं ध. प. 49; ... अहेठयन्तो अविनासेन्तो विचरतीति अत्थो, ध. प. अट्ठ. 1.210; - यानो पु., प्र. वि., ए. व. उपरिवत् .. अनिस्सितो अञ्जमहठयानो, स. नि. 1(1).9; अहेठयानोति अविहिंसमानो, स. नि. अट्ठ. 1.34. अहेतु 1. पु., तत्पु. स. [अहेतु]. हेतु या कारण की अविद्यमानता, हेतु का न होना - ना तृ. वि., ए. व., अहेतु द्वारा - अधिच्च लद्धन्ति अहेतुना लद्धं, जा. अट्ठ. 5.164; - तूहि तृ. वि., ब. व., बिना कारणों से - न हि बुद्धा अहेतूहि, । सितं पातुकरोन्ति ते. अप. 1.19; - स्मिं सप्त. वि., ए. व. - ... हेतुसमुग्घाते अहेतुस्मिं अवत्थुस्मि नत्थि दिब्बचक्खुस्स उप्पादोति सुत्ते वुत्तं मि. प. 125; 2. त्रि., ब. स., बिना हेतु वाला, बिना कारण वाला - तु नपुं॰, प्र. वि., ए. व. - सब्ब तं अहेतु अप्पच्चया ति, विभ. 426; - क त्रि., [अहेतुक], क. बिना हेतु वाला, कारणों से रहित, अकारण, कार्यकारण नियम से सर्वथा मुक्त, (धर्म, रूप, चित्त, प्राणी, योनि आदि) - का पु., प्र. वि., ब. व. - सहेतुका, भिक्खवे, उप्पज्जन्ति पापका अकुसला धम्मा, नो अहेतुका, अ. नि. 1(1).98; सहेतुका धम्मा, अहेतुका धम्मा, ध. स. 2; सम्पयोगतो पवत्तेन सह हेतुनाति सहेतुका, तथैव पवत्तो नत्थि एतेसं । हेतूति अहेतुका, ध. स. अट्ठ. 94; - कं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - सब रूपं न हेतु, अहेतुकं ..., ध. स. 584; - के पु.. द्वि. वि., ब. व. - ... कामावचरस्स विपाकतो अहेतुके चित्तुप्पादे ठपेत्वा.....ध. स. 1441; - का स्त्री., प्र. वि., ब. व. - पटिसन्धिसा पन नेसं तिहेतुकापि द्विहेतुकापि अहेतुकापि होन्ति, दी. नि. अट्ठ. 2.89; - कानं पु.. ष. वि.,
ब. व. - गभसेय्यकानं सत्तानं अहेतुकानं नपुंसकानं उपपत्तिक्खणे चत्तारिन्द्रियानि पातुभवन्ति, विभ. 488; ख. अहेतुवादी, धर्मों को अहेतुक प्रतिपादित करने वाला - का पु., प्र. वि., ब. व. - अहेतुका ये न वदन्ति कम्म, जा. अट्ठ. 4.301; अहेतुका "विसुद्धिया वा संकिलेसस्स वा हेतुभूत कम्म नत्थीति एवंवादा, तदे.; - अपच्चयवादी त्रि., [अहेत्वप्रत्ययवादिन], धर्म हेतु एवं प्रत्ययों के बिना ही उत्पन्न हुए हैं, इस मत को प्रतिपादित करने वाला (आचार्य) - दी पु., प्र. वि., ए. व. - अम्हाकं पाचरियो अहेतुअपच्चयवादी, अ. नि. अट्ठ. 2.153; - किरियाचित्त नपुं.. [अहेतुकक्रियाचित्त], विपाक उत्पन्न न करने वाले तथा (लोभ, द्वेष, मोह, अलोभ, अद्वेष, अमोह नामक) हेतुओं से असम्प्रयुक्त कामावचर भूमि के 3 प्रकार के चित्त - त्तानि प्र. वि., ब. व. - उपेक्खासहगतं पञ्चद्वारावज्जनचित्तं, तथा मनोद्वारावज्जनचित्त, सोमनस्ससहगतं हसितुप्पादचित्तञ्चेति इमानि तीणिपि अहेतुककिरियचित्तानि नाम अभि. ध. स. 3; - कुसलविपाकचित्त नपुं., कर्म. स. [अहेतुककुशलविपाकचित्त], कामावचरभूमि के हेतुओं से असम्प्रयुक्त तथा कुशल विपाक देने वाले आठ प्रकार के चित्त - ... इमानि अट्ठपि कुसलविपाकाहेतुकाचित्तानि नाम, अभि. ध. स. 3 - चित्त नपुं.. कर्म. स. [अहेतुकचित्त]. छ प्रकार के हेतुओं में से किसी एक से भी असंप्रयुक्त कामावचरभूमि के अट्ठारह प्रकार के चित्त, 7 अकुशलविपाक, 8 कुशल-विपाक तथा 3 अहेतुकक्रियाचित्त - त्तानि प्र. वि., ब. व. - इच्चेवं सब्बथापि अट्ठारसाहेतुकचित्तानि समत्तानि, अभि. ध. स. 3; - कट्ठक नपुं.. [अहेतुकाष्टक]. आठ अहेतुक चित्तो का समुच्चय - कं प्र. वि., ए. व. - चक्खुद्वारे तु चत्तारि गहितागहणेनिध सोतधानादिना सद्धि, होतेवाहेतुकट्ठकं अभि. अव. 442; - दिट्ठि स्त्री., प्र. वि., ए. व. [अहेतुकदृष्टि], धर्मों के अहेतुक होने की मिथ्या धारणा - अहेतुकदिट्टि उभयम्पि पटिबाहति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.87; - पटिसन्धि 1. स्त्री., कर्म. स. [अहेतुकप्रतिसन्धि], बिना हेतु के पुनर्जन्म - न्धिं द्वि. वि., ए. व. - ... अहेतुकपटिसन्धिं गहेत्वा उरेन परिसक्कनट्ठाने निब्बत्तोस्मि, ध. प. अठ्ठ. 2.134; 2. त्रि., ब. स., अहेतुक श्रेणी की प्रजाति में जन्म लेने वाला, अपायगति में उत्पत्ति प्राप्त करने वाला - स्स पु., ष. वि., ए. व. - अहेतुपटिसन्धिस्स, न तदारम्मणं भवे, अभि. अव. 444; - योनि स्त्री., कर्म. स. [अहेतुकयोनि]. निकृष्ट श्रेणी की
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अहेवन
732
अहोरत्त
प्रजाति में पुनर्जन्म - यं सप्त. वि., ए. व. - ... एत्तकं नाम कालं समणधम्म कत्वा अहेतुकयोनियं मण्डूकभक्खहाने निब्बत्तोम्ही ति.....ध. प. अठ्ठ. 2.132; - वाद 1. पु., तत्पु. स. [अहेतुकवाद], धर्मों का बिना हेतुओं के ही उत्पन्न बतलाने वाले सिद्धान्त - दो प्र. वि., ए. व. - तेन च अहेतुकवादोपि सङ्गहितो होति, उदा. अट्ठ. 281; 2. त्रि., धर्मों की अहेतुक उत्पत्ति प्रतिपादित करने वाला - दा पु., प्र. वि., ब. व. - अहेसु उक्कला वस्सभा अहेतुकवादा ... नत्थिकवादा, स. नि. 2(1).68; - वादी त्रि., [अहेतुकवादी], धर्म बिना हेतुओं के ही उत्पन्न है, इस प्रकार के सिद्धान्त का प्रतिपादक -दी पु.. प्र. वि., ए. व. - तेसु एको अहेतुकवादी, ... तेसु अहेतुकवादी इमे सत्ता संसारसुद्धिका ति महाजनं उग्गण्हापेसि, जा. अट्ठ. 5.217; -दि पु., द्वि. वि., ए. व. - जानापेस्सामि नेति अहेतुकवादिं ताव आमन्तेत्वा पुच्छि, जा. अट्ठ. 5.224; - ज त्रि., [अहेतुज]. बिना हेतु के उत्पन्न - जं नपुं., प्र. वि., ए. व. - यं लोके अकम्मजं अहेतुजं अनुतुजं, ते मे कथेही ति, मि. प. 250; - दिट्ठि स्त्री., स. प. के रूपों में प्राप्त [अहेतुदृष्टि]. 'धर्म हेतुओं के बिना उत्पन्न है', इस प्रकार की मिथ्या धारणा - पच्चयपरिग्गहेन अहेतुविसमहेतुदिट्ठीनं. ... पहानं, सु. नि. अट्ठ. 1.8. अहेवन नपुं.. उत्तम वन-प्रदेश - नं प्र. वि., ए. व. -
उत्तमाहेवनन्दहोति अहेवनं वुच्चति वनसण्डो, उत्तमं वनसण्डं दहतीति अत्थो, जा. अट्ट, 5.58. अहो अ., निपा. [अहो], निम्नलिखित अर्थों का सूचक, 1. इच्छा, कामना, प्रार्थना (विधि. क्रि.रू. के साथ)- अहो इति पत्थनत्थे, सद्द. 3.898; अहो भवं अस्समं मय्ह पस्से, जा. अट्ठ.5.190; 2. आश्चर्य, हर्ष, प्रशंसा - अहो, नाम, साध इच्चेते पसंसनत्थे, सद्द. 3.897; ... अहो अच्छरियं अहो अभुतान्ति कथं समुढ़ापेसु. जा. अट्ठ. 1.97; ... अभिक्खणं उदानं उदानेसि - "अहो सुखं, अहो सुखान्ति, चूळव. 319; सा "अहो इमिस्सा केसा सोभना, अहो नलाट सोभनन्ति. .. बलवसिनेहा अहोसिध. प. अट्ठ. 2.64; 3. निन्दा या गरे - अहो नाम इच्चेते गरहत्थे, सद्द. 3.897; अहो वत रे अम्हाकं पण्डितक, अहो वत रे अम्हाकं बहुस्सुतक, .... दी. नि. 1.93; 4. निम्नलिखित निपा. के साथ प्रयुक्त-क. नून, आश्चर्य भरी प्रीति एवं अनुस्मरण का सूचक - अहो नून भगवा, अहो नून सुगतो, यो इमेसं धम्मानं सुकुसलोति, म. नि. 2.232; तत्थ अहो नूनाति अनुस्सरणत्थे निपातद्वयं
तेन तस्स भगवन्तं अनुस्सरन्तस्स एतदहोसि अहो नून भगवा, अहो नून सुगतो ति. म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.191; ख. वत (अहो वत) विधि. क्रि. प. के साथ, इच्छा के अर्थ का सूचक - ... अहो इति पत्थनत्थे, सद्द. 3.898; अहो वत में अरजे वसमानं रज्जे अभिसिञ्चेय्यान्ति, तदे; में उदधृत, अहो वत अपि सत्ता इत्थत्तं आगच्छेय्युन्ति, दी. नि. 1.15; ग. अहो वत रे, (1) निन्दा या डांट-फटकार, भर्त्सना - अहो वत रे अम्हाकं पण्डितक, अहो वत रे अम्हाक बहुस्सुतक, दी. नि. 1.93; अहो वताति गरहवचनमेतं रेति इदं हीळनवसेन आमन्तन, दी. नि. अट्ठ. 1.223; (2) प्रशंसा का सूचक - अहो वत रे छेका आचरिया, ईदिसानिपि नाम सिप्पानि करिस्सन्तीति एवं तेसं छेकताय तुस्सति, ध, स. अट्ठ. 251. अहोगङ्ग पु., उत्तर भारत में गङ्गा-तट पर स्थित एक पर्वत,
जो कुछ समय तक सम्भूत साणवासी का निवास स्थान था तथा बाद में मोग्गलिपुत्त तिस्सथेर का भी सात वर्षों तक आश्रयस्थल बना, यहीं पर काकण्डक-पुत्र यश साणवासी थेर से मिलने आए तथा वैशाली के भिक्षओं के विनयविपरीत दस आचरणों पर विचार करने हेतु इस पर्वत पर अर्हतों की एक सभा आयोजित हुई - जो प्र. वि., ए. व. - ... येन अहोगङ्गो पब्बतो, येनायस्मा सम्भूतो साणवासी तेनुपसङ्कमि, चूळव. 468; - ड्ङ्गे सप्त. वि., ए. व. - अहोगङ्गे पब्बते सन्निपतिंसु, चूळव. 468; - ङ्गम्हि सप्त. वि., ए. व. - उद्ध गङ्गाय एको व अहोगङ्गम्हि पब्बते, म. वं. 5.233; - पब्बत पु., उपरिवत् - तं द्वि. वि., ए. व. - ... फासुविहारेन विहरितुकामो अहोगङ्गपब्बतं अगमासि, पारा. अट्ठ. 1.38. अहोपुरिस पु., [अहोपुरुष], शा. अ. अत्यधिक घमण्ड या अहंमन्यता से भरा पुरुष, शेखी बघारने वाला, ला. अ. अपने धन, बल आदि की डींग हांकने वाला पुरुष - तो प. वि., ए. व. - अहोपुरिसतो दप्पने णिको, सद्द. 3.867; - सिका स्त्री., [अहोपुरुषिका, अत्यधिक घमण्ड या अहंमन्यता, डींग हांकना या शेखी बघारना - अहङ्कारदप्पने अहोसद्दपुब्बस्मा पुरिससद्दतो णिकपच्चयो होति, अहोपुरिसिका, सद्द..3.867. अहोरत्त पु., [अहोरात्र], रात-दिन - त्तो प्र. वि., ए. व. - घटिका सट्ठयहोरतो, अभि. प. 74; - त्तं द्वि. वि., ए. व. - अहोरत्तं अनुयुज, जीवित अनिकामयं, स. नि. 1(1).143; ध, प. अट्ठ. 1.243 में उद्धृत; - त्तेन तृ. वि., ए. व. - .... अहोरत्तेन अट्ठचत्तालीसंयोजनसहस्सानि भस्समाना .... मि. प. 90; - त्ता प्र. वि., ब. व. - अच्चयन्ति अहोरत्ता,
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अहोरत्ति 733
अहोसि स. नि. 1(1).129; - त्तानं ष. वि., ब. व. -- ... अहोरत्तानमच्चये, अहोसि ।हु (होना) का अद्य., प्र. पु., ए. व., हुआ- अथ खो स. नि. 1(1).85; - त्तानुसिक्खी त्रि., [अहोरात्रानुशिक्षिन्], मिलिन्दस्स रुञो एतदहोसि, मि. प. 26; विशेष प्रयोगों हेतु स्वयं को रात-दिन प्रशिक्षित करने में लगा हुआ - क्खिना होति के अन्त., द्रष्ट. (आगे); - कम्म नपुं.. अहोसि + कम्म पु.. तृ. वि.. ए. व. - तेनावुसो, भिक्खुना तेनेव पीतिपामोजेन के योग से व्यु. - अहोसिकम्म, अहोसि कम्मविपाको, पटि. विहातब्बं अहोरत्तानुसिक्खिना कुसलेसु धम्मेसु. म. नि. म. 259; के कथन से बना हुआ शब्द, पूर्वकाल में चेतना 1.140; अहोरत्तानुसिक्खिनाति दिवापि रत्तिम्पि सिक्खन्तेन द्वारा अभिसंस्कृत परन्तु कुशल एवं अकुशल विपाक उत्पन्न ...., म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).379; - नुक्खिनं पु.. ष. वि., न करने वाला कर्म, केवल अभिसंस्कृत हो चुका परन्तु ब. व. - सदा जागरमानानं, अहोरत्तानसिक्खिन, ध. प. विपाक को अप्राप्त कर्म - तत्थ यं कम्म अतीते... आयूहितं 226.
अतीतेयेव विपाकवारं लभि.... तं अहोसिकम्म.... अ. नि. अहोरत्ति स्त्री., द्व. स. [अहोरात्र]. रात और दिन - तिं द्वि. अट्ठ. 2.113; अहोसिकम्मन्ति अहोसि एव कम्म, न तस्स वि., ए. व., क्रि. विशे. - अथ सब्बमहोरत्ति, बद्धो तपति विपाको अहोसि अत्थि भविस्सति चाति एवं वेदितब्ब कम्म, तेजसा, ध. प. 387.
अ. नि. टी. 2.94.
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