Book Title: Oswal Gyati Samay Nirnay
Author(s): Gyansundarmuni
Publisher: Gyanprakash Mandal
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir & Rajnal Erdna श्री रत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमाळा पु. नं. ८७. श्री प्रोसवालज्ञाति समय निर्णय. G00900506989 प्रकाशकश्री ज्ञानप्रकाश मण्डळ मुः-रूण (मारवाड) D9869890 ले-मुनिश्री ज्ञानसुन्दरजी. वीर सं. २४५४. प्रथमावृत्ति १५०० ओसवाल सं. २३८५ - - - किम्मत For Private and Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir O==OEDEOSDOEDEOEDEO जन्म वि० सं० १९३७ विजयदशमी. DOEDEOEDEOEDEOEDIO==OED=DEOEODOD जैन दीक्षा वि० सं० १९७२ ढुंढक दीक्षा वि० सं० १९६३. OEDEO=====OEDOEDEOEO===OEO=al मुनिराज श्री ज्ञानसुन्दरजी महाराज। === ==== ===OEDER=" आनंद प्रि.प्रेस-भावनगर. लोहावटसे प्राप्त. For Private and Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री रत्नप्रभाकर शाम पुष्पमाला पु० नं० ८७ श्री रत्नप्रभसूरिपादपद्मभ्यो नमः ओसवाल ज्ञाति समय निर्णय. ओसवाल ज्ञाति की उत्पत्तिके विषय आज जनतामें भिन्न भिन्न मत फैले हुए दीख पडते है कितनेक लोग कहते है कि प्रोसबालोकि उत्पत्ति विक्रम सं. २२२ में हुई कितनेकोंका मत इस झातिकी उत्पत्ति विक्रम पूर्व ४०० वर्ष की है जब कितनेक लोगोंका अनुमान है कि विक्रमकी दशवि शताब्दीमें इस ज्ञातिकी स्थापना हुई। इत्यादि । समयकी भिन्नता होनेपरभी ओसवाल ज्ञातिके प्रतिबोधक आचार्य रत्नप्रभसूरि और स्थान श्रोशियों नगरीके विषयमें सबका एकही मत है अत्यन्त खेदके साथ लिखना पडता है कि अव्वल तों इस झातिका श्रृंखलाबद्ध इतिहासही नहीं मिलता है अगर जो कुच्छ थोडा बहुत मिलताभी है परन्तु यह ज्ञाति विशेष व्यापारी लेनमें For Private and Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१) जैन जाति महोदय प्र० चोथा. होने के कारण इतिहासज्ञानमें इतनी तो पिच्छाडी रही हुई है कि आज पर्यन्त अपनी ज्ञातिका सत्य-प्रमाणिक इतिहास संसारके सन्मुख रखने में एक कदमभी नहीं उठाया इस हालतमें भिन्न भिन्न मतों द्वारा आज जमाना अओसवाल ज्ञातिको सावधान कर रहा हो तो आश्चर्य ही क्या है। एक जमाना वह था कि भारतीय अन्योन्य ज्ञातियोंसे ओसवाज ज्ञातिकी शौर्यता, वीर्यता, धैर्यता, उदारता और देशसेवा चढ वढकेथी इस बातको तों आज संसार एकही अवाजसे स्वीकार कर रहा है। अतएव इस विषयमे यहाँपर अधिक लिखनेकी आवश्यक्ता नहीं है यहाँपरतो मुझे केवल ओसवाल ज्ञातिकी उत्पत्ति समयका ही निर्णय करना है। (१) भाट भोजक सेवग और कितनेक वंसावलि लिखनेवाले कुलगुरु लोग ओसवालोकी उत्पत्ति वि. सं.२२२ में होना बतलाते है इसमें इतिहास प्रमाण तो नहीं है पर यह कहावत बहुत प्राचीन समयसे प्रचलित है इसका अनुकरण बहुतसे जैनेत्तर लोगोनेभी किया और अपने ग्रन्थोंमें यह ही लिखा है कि ओसवाल 'बाये बावीसे' मे हुवे जैसे 'जाति भास्कर' जाति अन्वेषण, जाति विलासादि पुस्तकोंमे लिखा मिलता है इतनाही नहीं बल्के कई राज तवारिखोंमें भी इस ज्ञातिकी उत्पत्तिका समय वि. सं. २२२ का लिखा हुआ है इसी माफिक जनसमुहसे यही सुना जाता है कि ओसवाल 'बीयेषावीसे ' में हुऐ. For Private and Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ओसवाल ज्ञाति समय निर्णय. (३) (२) दूसरा मत जैनाचायों और जैनग्रन्थकारोंका है उसमें ओसवाल ज्ञाति की उत्पत्तिका समय विक्रम पूर्व ४०० वर्षका लिखा मिलता है अतः कतिपय उल्लेख यहां दर्ज कर देते हैं. (१) श्री उपकेशगच्छ चरित्र जो विक्रमकी चौदहवी शताब्दी में संस्कृत पद्यबद्ध लिखा हुआ है जिसमें उकेशवंस ( जिसकों हाल सवाल कहते है ) की उत्पत्ति वीरात् ७० वर्ष अर्थात् विक्रम पूर्व ४०० वर्षका लिखा है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२) उपकेशगच्छ प्राचीनं पट्टावलि जो विक्रम सं. १४०२ में लिखी हुई है उसमें एसे प्रमाण मिलते हैं कि x सप्तत्य (७०) वत्सराणों घरमजिनपतेर्मुक्तजातस्य वर्षे । पंचम्या शुक्लपक्षे सुहगुरु दिवसे ब्रह्मणः सन्मुहूर्ते । रत्नाचायैः सकलगुणयुक्तै, सर्वसंघानुज्ञातैः ॥ श्रीमद्वरस्य बिंबे भवशतमथने निर्मितेयं प्रतिष्ठाः ॥ १॥ x X X उपकेशे च कोरंटे, तुल्यं श्रीवीरबिम्बयोः । प्रतिष्ठा निर्मित्ता शक्त्या, श्रीरत्नप्रभसूरिभिः ॥ १ ॥ इस पट्टावलिका अनुकरण रुपमें औरभी छोटी छोटी पट्टावलिये लिखी हुई मिलती है । इस प्रमाणसे सिद्ध होता है कि वीरात् ७० वर्षे आचार्य रत्नप्रभसूरिने उपकेशपुरमे महावीर मन्दिरकी प्रतिष्ठा कराई थी For Private and Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४ ) जैन जाति महोदय प्र० चोथा. और प्रतिष्ठा करानेवाले उन आचार्यश्री के स्थापन किये हुवे उकेशवंशीय श्रावक थे उस समय कोरंटामेंभी महावीर मन्दिरकी प्रतिष्ठा हुई थी. (३) जैनधर्म विषय प्रश्नोत्तर नामक पुस्तक में जैनाचार्य श्री विजयानंदसुरिने जैन धर्म की प्राचीनता बतलाते हुवे व भगवान् पार्श्वनाथ होनेमें प्रमाण देते हुवे उपकेश गच्छाचार्यो से रत्नप्रभसूरिने वीरात् ७० वर्षे उपकेश नगरी में ओसवाल बनाया लिखा है । (४) गच्छमत प्रबन्ध नामके ग्रन्थ में श्राचार्य बुद्धिसागर - सूरि लिखते है कि उपकेश गच्छ सब गच्छोमें प्राचीन है. इस गच्छ में आचार्य रत्नप्रभसूरिने वीरात् ७० वर्षे उकेशा नगरीमें उकेश वंश ( ओसवाल ) कि स्थापना की थी इत्यादि costyle ( ५ ) प्राचीन जैन इतिहास में लिखा है कि प्रभव स्वामि के समय पार्श्वनाथ संतानिये रत्नप्रभसूरिने वीरात् ७० वर्षे उएस नगर में उएसवंस ( ओसवाल ) की स्थापना की. (६) जैन गोत्र संग्रह नामके प्रन्थ में पं. हिरालाल हंसराज अपने इतिहासिक ग्रन्थ में लिखा है कि वीरात् ७० वर्षे पार्श्वनाथ के छुट्टे पाट आचार्य रत्नप्रभसूरिने उकेश नगर में उकेशवंस की स्थापना की. For Private and Personal Use Only (७) पन्यासजी ललीतविजयजी महाराजने आबु मन्दिरोंका निर्माण नाम की पुस्तक में कोचरों ( ओसवाल ) का इतिहास लिखते हुवे लिखा है कि आचार्य रत्नप्रभसूरिने वीरात् ७० वर्षे उके शपुर म ओसवाल बनाये थे उसमेंकी यह कोचर ज्ञाति भी एक है. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir औसवाल हात समय निर्णय. (५) (८) खरतर यति श्रीपालजीने जैन संप्रदाय शिक्षा नामक . ग्रन्थ में ओसवालों का इतिहास लिखते समय लिखा है कि बीरात् ७० वर्षे आचार्य रत्नप्रभसूरिने उकेश नगरी में ओसवाल वंस के १८ गोत्रों कि स्थापना की। (९) खरतराचार्य चिदानंद स्वामिने स्यावादानुभव रत्नाकर नामक ग्रन्थ में लिखा है कि वीरात् ७० वर्षे प्राचार्य रत्नप्रभसूरिने ओसवाल बनाये। (१०) जैन मतपताका नामक ग्रन्थ में वि. न्या. शान्तिविजयजीने जैन इतिहास लिखते हुवे लिखा है कि वीरात् ७० वर्षे प्राचार्य रत्नप्रभसूरिने उकेस वंस की स्थापना की. (११) खरतर यति रामलालजीने महाजन वंस मुक्तावलि में लिखा है कि वीरात् ७० वर्षे प्राचार्य रत्नप्रभसूरिने ओसवाल बनाये. (१२) जैन इतिहास (भावनगर से प्र०) में लिखा है कि वीरात् ७० वर्षे प्राचार्य रत्नप्रभसूरिने ओसवाल ज्ञाति की स्थापना की। (१३) श्रीमाली वाणिया ज्ञाति भेद नामक किताब में प्रो० मणिलाल बकारभाइने लिखा है कि विक्रम पूर्व ४०० वर्ष उएस -उकेश वंस कि स्थापना आचार्य रत्नप्रभसूरिद्वारा हुई है इस पंडितजीने तो बहुत प्रमाणोंसे यह सिद्ध कर दिया है कि उकेशपुर कि स्थापना ही श्रीमाल नगर से हुई है । For Private and Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१) जैन जाति महोदय प्र० चोथा. . (१४) मुनि श्री रत्नविजयजी महाराज जो ओशियोंमें करीबन १ वर्ष रह कर वहांके प्राचीन स्थानों की शोध खोज कर जैनपत्र में लेख द्वारा प्रकाशित करवाया था कि वीरात् ७० वर्षे प्राचार्य रत्नप्रभसूरिने इस नगरमें उकेश वंस की स्थापना और महावीर प्रभुके मन्दिर की प्रतिष्टा की थी. (१५) ओसवाल मासिक पत्र तथा अन्य वर्तमान पत्रोंमें मोसवाल ज्ञाति कि उत्पत्तिं का समय वीरात् ७० वर्ष अर्थात् विक्रम पूर्व ४०० वर्षका ही प्रकाशित हूवा है इत्यादि. . इसी माफिक और भी अनेक प्रमाण मिल सकते है। जिन जिन जैनाचार्योंने ओसवाल ज्ञाति की उत्पत्ति विषय में जो जो उल्लेख किये है उन उन ग्रन्थोमें यही लिखा मिलता है कि वीरात् ७० वर्षे प्राचार्य रत्नप्रभसूरिने उकेशपुर में उपकेश (भोस वाल) वंस की स्थापना की इनके सिवाय पट्टावलियों और वंसावलियों में तो सेंकडो प्रमाण और प्राचीन कवित वगैरह मिलते हैं वह उसी समयका है कि जिसको हम उपर लिख आये है । (३) तीसरा मत-आज कितनेक लोगों का मत है कि ओसवाल ज्ञाति की उत्पत्ति विक्रम की दशवीं शताब्दीमें हुई जिसके विषय में निम्नलिखित दलीले पेश करते है. (क) मुनोयत नैणसी की ख्यात में आबुके पँवारों की वंसावलि के अन्दर लिखा है कि उपलदेव पँवार ने ओशियों वसाई और उपलदेव पँवारका समय विक्रम की दशवीं सदीका है For Private and Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ओसवाल ज्ञाति समय निर्णय (७) इसपर कितनेक लोगोंने यह अनुमान कर लिया कि ओशियों नगरी ही दशवीं सदी में वसी है तो ओसवालों की उत्पत्ति प्राचीन नहीं है पर इस समयके बाद होनी चाहिये । (च) विक्रम की दशवीं शताब्दी पहिले ओसवाल ज्ञाति का शिलालेख नहीं मिलनेके कारण भी लोगोंने अनुमान कर लिया कि ओसवाल ज्ञाति विक्रम की दशवी शताब्दी के बाद बनी होगी. (ट) ओशियों के महावीर मन्दिर में प्रशस्ति शिलालेख खुदा हुवा है उस का समय विक्रम सं. १०१३ का है इससे यह ही अनुमान होता है कि इस समय के आसपास में ओसवाल ज्ञाति बनी होगी। उपर लिखी तिनों मान्यता अर्थात् वि. सं. २२२ वीरात् ७० वर्ष-और विक्रम की दशवी शताब्दी इन तीनों मान्यता के अन्दर कोनसी मान्यता अधिक विश्वसनीय और प्रमाणिक है इस पर हम हमारे अभिप्राय यहांपर प्रगट करना चाहते हैं ।। (१) भाट भोजक सेवक और कुलगुरुओं की मान्यता वि. सं. २२२ कि है पर इसमें कोइ इतिहासिक प्रमाण नहीं है तथपि इन लोगों की कवितासे कुच्छ अनुमान किया जा सक्ता है जैसे" आभा नगरीथी आव्यो, जगो जगमें भाण । साचल परिचो जब दीयो, तब सिस चडाई आण ।१। जुग जिमाडयो जुगतसु, दीनो दान प्रमाण । देशल सुत जग दीपतों, ज्यारी दुनियों माने आण । २ । छूप धरी चित भूप, सैना ले आगल चाले । अडब For Private and Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८) जैन जाति महोदय प्र. चोथा. पति अपार, खडबपति मिल्या माले । देरासर बहु साथ, खरच सामो कुण भाले । घन गरजे वरसे नहीं, जगो जुग वरसे अकाले ।३। यति सति साथे घणा, राजा राणवड भूप । बोले भाट विरूदावलि, चारण कविता चूप । मिल्या सेवग सामटा, पुरे संख अनूप । जुग जस लीनो दान दै, वो जगो संघपति रूप ।४। दान दीयो लख गाय, लख वलि तुरी तेजाला, सोनो सौ मण सात सहस मोतीयोरी माला । रूपारो नहीं पार सहस करहाकर माला, बीये बावीस भल उगियों श्रोसवंस वड भूपाला " + x अगर यह कविता सत्य हो तो इससे यह सिद्ध होता है कि वि. सं. २२२ पहिलि ओसवाल आभानगरी तक पसर गये थे अर्थात् सचायका देविका परिचय पाकर जगो ओसवाल संघ सहित ओशियामें बडे ही आडंबरसे आया हो, महावीर यात्रा और देविका दर्शन कर सेवग भाट चारण ओर ब्राह्मण वगैरहको बडा भारी दान दिया हो वह दन्त कथा परम्परासे चली आइ हो बाद ये किसी अर्वाचीन कविने कविताके रूपमे संकलित कर लि हो तो वह बन भी सक्ता है कारण कि वीरात् ७० वर्ष और वि. सं. २२२ वीचमें ६२२ वर्ष जितना समय होता है इतनेमे ओसवाल ज्ञाति आभानगरी तक पहुँच गइ हो तो आश्चर्य ही क्या है पर इसमें इतिहासिक प्रमाण न होनेके कारण इसपर हम इतना जौरदार विश्वास नहीं दिला सकते है. (२) दूसरा मत-जो जैनाचार्यों और जैन ग्रन्थोंका है इस For Private and Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री ओसवाल ज्ञाति समय निर्णय. ( ९ ) विषय में आज तक कोई भी इनसे खिलाफ प्रमाण नहीं मिलता है और जबतक खिलाफमे कोइभी प्रमाण न मिले वहाँ तक इसपर पूर्ण विश्वास रखना किसी प्रकार से अनुचित नहीं समझा जावेगा इससे उपर लिखी दन्तकथा भी विश्वसनीय मानी जा सकती है । (३) तीसरा मत जो विक्रमकी दशवी सदी में ओसवाल ज्ञाति की उत्पतिका अनुमान करते है यह केवल भ्रमणा मात्र ही है कारण उन लोगोंने केवल ओसवाल और ओशियों नगरी इस नाम पर आरूढ हो यह अनुमान किया है अगर ओसवाल शब्दके लिये ही माना जावे तो वह सत्य भी हो सकते है कारण उक्त दोनों नामों की उत्पत्ति विक्रम की इग्यारवी शताब्दी मेंही हुइ है परन्तु इससे यह नहीं समझा जावे कि श्रोशियों नगरी व ओसवाल ज्ञातिकी मूल उत्पत्ति उस समय हुईथी इस विषय में हमकों दीर्घ द्रष्टि से विचार करना होगा कि ओशियों नगरी और ओसवाल ज्ञातिका नाम शरूसे यह ही था वह किसी मूल नामका अपभ्रंश हुवा है । प्राचीन ग्रन्थ व शिलालेखों द्वारा यह पत्ता मिलता है कि आज जिस नगरीको हम ओशियों के नामसे पुकारते है उस नगरीका नाम पूर्व जमाने में उएसपुर उकेशपुर-घोर संस्कृत साहित्यमें उपकेशपुर मिलता है । देखिये ओशिया महावीर मन्दिरका शिलालेख जो श्रीमान् बाबु पुरणचंदजीने " जैन लेख संग्रह प्रथम खण्ड " में छपाया है जिस के पृष्ट १९२ लेखांक ७८८ में. + + XX “ समेतमेतत्प्रथितं पृथिव्यमुपकेश नामास्ति पुरं "++ For Private and Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १० ) श्री जैन जाति महोदय प्र० चोथा. इस लेख का समय विक्रम सं. १०१३ का है। इस लेखसे यह सिद्ध होता है कि विक्रमकी इग्यारवी सदी तक तो इस नगरको उपकेशपुर कहते थे। इस विषयमें और भी बहुत प्रमाण मिलते है। बाद उएस-उकेश-उपकेश-का अपभ्रंश-ओशियों हुवा अर्थात् उएस का ओस होना स्वभाविक है एसा होना केवल इस नगरके लिये ही नहीं पर अन्यभी बहुतसे स्थानों के नाम अपभ्रंश हुवे दीख पडते है जैसे: ___“ जाबलीपुरका जालौर-सत्यपुरका साचोर-वैराटपुरका बीलाडा-अहिपुरका नागोर-नारदपुरीका नादोल-शाकम्भरीका सांभर-हंसावलिका हरसोर इत्यादि सेंकडो नगरोंका नाम अपभ्रंश हुवा इसी माफीक उएसका अपभ्रंश अोशियों हुवा । जबसे नगरका नाम फीर गया तब वहांके रहनेवाले जनसमुह के वंस-ज्ञाति का नाम फीर जाना स्वभाविक बात है । उएस का नाम ओशियों हुवा तब उएस वंसका नाम ओसवंस हुवा । श्राज जो ओसवालों में एकेक कारण पाके भिन्न भिन्न गौत्र व जातियां बन गई है । जिन गौत्र व जातियोंके दानवीरोंने हजारों मन्दिर और मूर्तियों बनाइथी जिनके शिलालेख आजभी मौजुद है उन गौत्र व जातियोंकि श्रादिमे उएसउकेश-उपकेश वंस लिखे हुवे मिलते है इसका कारण यह है कि मूलतो उएस-उकेश वंस ही था बाद कारण पाके जातियोंके नाम पड गये है यहाँ पर समय निर्णयके पहले हम यह सिद्ध कर बतलाना चाहते कि उएस-उकेश-उपकेश वंशका हि अपभ्रंश श्रोसवाल नाम हुवा है यह निश्चय होनेपर समय निर्णय करनेमें बहुत सुगमता हो जावेगी यद्यपि उएस वंशके हजारों शिलालेख मुद्रित हो For Private and Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ओसवाल ज्ञाति समय निर्णय. (११) चुके है तथापि हमें यहांपर खास आज जिन जिन जातियों के प्रचलित नाम ओस वंस के साथ बतलाये जाते है उन उन जातियों के शिला* लेखों का वह भाग यहां दे देना ठीक होगा कि उन जातियोंका मूल वंस ओसवाल नहीं पर उएश-उकेश-उपकेश है उनको ही आज ओसवाल कहते है। यद्यपि उनके लेखांक और जाति वंसके साथ उन शिलालेखों के संवत् भी लिखना था. पर हमें यहांपर समय निर्णय के पहिले वंस निर्णय करना है इस हालत में उन शिलालेखों के संवत् लिखना अनुपयोगी समझ मुल्तवी रखा गया है इसपर भी देखनेवाले मुद्रित पुस्तकों से देख सक्ते है । प्राचीन जैन शिलालेख संग्रह भाग दूसरा. __ संग्रहकर्ता--मुनि जिनविजयजी. लेखांक. वंस और गोत्र-जातियों लेखांक वंस और गौत्र-जातियों ३८४ उपकेशवंसे गणधरगोत्रे । २५९ उपकेशवंसे दरडागोत्रे ३८५ उपकेश ज्ञाति काकरेच गोत्रे | २६० उपकेशवंसे प्रामेचागोत्रे ३९९ उपकेशवंसे कहाडगोत्रे । उ० गुगलेचा गोत्रे ४१५ उपकेश ज्ञाति गदइयागोत्रे ३८८ उ० चुदलियागोत्रे ३६८ उपकेशज्ञाति श्री श्रीमालचं- ३९१ उ० भोगर गोत्रे . __ डालिया गोत्रे ३६६, उ० रायभंडारी गोत्रे ४१३ उपकेश ज्ञाति लोढागोत्रे २६५ उकेशवंसिय वृद्धसज्जनिया For Private and Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १२ ) श्री जैन जाति महोदय प्र० चोथा. जैन लेख संग्रह खण्ड पहला-दूसरा. ___ संग्रहकर्ता-श्रीमान् बाबूपुरणचंद्रजी नाहार. लेखांक. वंस और गोत्र-जातियों. लेखांक वंस और गौत्र जातियों. ४ उपकेशवंसे जाणेचा गोत्रे | उपकेशज्ञाति आदित्यनागोत्रे ५) उपकेशवंसे नाहारगोत्रे | चोरवडिया साखायां ६ उपकेशज्ञाति भादडागोत्रे उपकेशज्ञाति चोपडागोने उपकेशवंसे लुणियागोत्रे ५९६ उपकेशज्ञाति भंडारीगोत्रे १० उपकेशवंसे बारडागोत्रे ५६८ ढेढियाग्रामे श्री उएसवंसे २६ उपकेशवंसे सेठियागोत्रे उकेशवंसे कुर्कटगोत्रे ४१ उपकेशवंसे संखवालगोत्रे उपकेशज्ञाति प्रावेचगोत्रे ४७ उपकेशवंसे ढोका गोत्रे ६५९ उपकेशवंसे मिठडियागोत्रे उपकेशज्ञातोश्रादित्यनागगोत्रे ६६४ श्री-श्रीवंसे श्रीदेवा +++ उपकेशज्ञातौ बंबगोत्रे इस ज्ञाति का शिलालेख पार्श्वनाथ की प्रतिमा पर ७४ उ० बलहागोत्रेगंकासाखायां वीरात् ८४ वर्ष का हाल उकेशवंसे गान्धीगोत्रे कि शोधखोज में मिला है १३. उकेशवंसे गोखरू गोत्रे वह मूर्ति कलकता के अजायब घरमें संरक्षित है ( श्वेताबर जैन में ) ९६ उपकेशवंसे कांकरियागोत्रे १०१२ उ० ज्ञाति विद्याधरगोत्रे For Private and Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ओसवाल ज्ञाति समय निर्णय. (१३) १०८ उपकेशवंसे भोरेगोत्रे .१०२५ उए ज्ञा० कोठारीगोत्रे १२६ उकेशवंसे बरडागोत्रे १०६३ उ० ज्ञा० गुदेचा गोत्रे १३० उपकेशज्ञातौ वृद्धसजनिया ११०७/ उपकेशज्ञाति डांगरेचा गोत्रे उपकेशगच्छे तातेहडगोत्रे १२१० उ० सिसोदिया गोत्रे ४७३ उपकेशवसे नाहटागोत्रे १२५५ उपकेशज्ञाति साधुसाखायां ४८० उकेशवसे जांगडा गोत्रे १२५६ उपकेश ज्ञातौ श्रेष्टिगोत्रे ४८८ उकेशवंसे श्रेष्ठिगोत्रे १२७६ उ. ज्ञा. श्रेष्टिगोत्रे वैद्यसाखायां १२७८ उकेश ज्ञा० गहलाडा गोत्रे १३८४ उ०वैसे भूरिगोत्रे (भटेवरा) १२८० उपकेशज्ञातौ दूगडगोत्रे १३५३ उपकेशज्ञातौ बोडियागोत्रे १२८५, उएसवंसे चंडालियागोत्रे १३८६ उ० ज्ञा० फुलपगर गोत्रे १२८७ उपकेशवंसे कटारियागोत्रे १३८६, उपकेश ज्ञाति-बापणागोत्रे १२६२ उपकेशज्ञातियआर्यागोबेलुणा १४ १३ उकेशवंसे भणसाली गोत्रे उत साखायां १४३५) उएसवंसे सुचिन्ती गोत्रे १३०३ उकेशवंसे सुराणागोत्रे १४९४ उपकेश सुचंति १३३४ उपकेशवंसे मालूगोत्रे १५३१ उ.ज्ञातौ बलहागोत्र रांकासा० १३३५ उपकेशवंसे दोसीगोत्रे १६२१ उपकेशज्ञातौ सोनी गोत्रे इत्यादि सेंकडों नहीं पर हजारों शिलालेख मिल सकते है पर यहां परतो यह नमूना मात्र हैं। ..... इन शिलालेखों से यह सिद्ध होता है कि जिस ज्ञाति को आज For Private and Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १४ ) श्री जैन जाति महोदय प्र० चोथा. ओसवाल ज्ञाति के नाम से पुकारी जाति है उसका मूल नाम श्रोसवाल नहीं पर उएस- उकेश - उपकेशवंस था ईसका कारण पूर्व बतला दिया है कि उएस - उकेश और उपकेशपुर में इस वंस कि स्थापना हुई बाद देश विदेश में जाने से नगर के नाम पर से ज्ञाति का नाम प्रसिद्धि में प्राया-जैसे अन्य जातियों का नाम भी नगर के नाम पर से पडा वह ज्ञातियों आज भी नगर के नाम से पहिचानी जाति है जैसे-महेश्वर नगरी से महेसरी - खंडवा से खंडेलवाल - मेडता से मेडतनाल मंडोर से मंडावरा - कोरंट से कोरंटीया - पाली से पल्लिवाल -आग्रा से अगरवाल जालौर से जालौरी - नागोर से नागोरी - साचोर से साचोरा - चित्तोड से चितोडा - पाटण से पटणि इत्यादि ग्रामों पर से ज्ञातियों का नाम पड जाता है इसी माफिक उएस- उकेश उपकेशपुर से ज्ञाति का नाम भी उएस उकेश उपकेश ज्ञाति पडा है इससे यह सिद्ध होता है कि आज जिसको श्रोशीयों नगरी कहते हैं उसका मुल नाम प्रोशियों नहीं पर उपसपुर था. और आज जिसको सवाल कहते है उसका मूल नाम उएस उकेश श्रौर उकेशवंस ही था. जैसे उपकेशपुर से उपकेशवंस का घनीष्ट संबन्ध है वैसे ही उपकेशवंस व उपकेशपुर के साथ उपकेश गच्छ का भी संबन्ध है कारण आचार्य रत्नप्रभरि उपकेशपुर में राजपुतादि को प्रतिबोध दे महाजन वंस की स्थापना की उन संघ का नाम उपकेशवंश हुवा तब से प्राचार्य श्री का गच्छ उपकेश गच्छ के नाम से प्रसिद्धि में श्राया बाद में भी बहुत से गच्छ ग्रामों के नाम परसे उत्पन्न हुए थे जैसे नागपुरसे नागपुरिया गच्छ-नायासे नाणावाल गच्छ- कोरंट से कोरंट गच्छ-संख For Private and Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ओसवाल ज्ञाति समय निर्णय. सरासे संखेशरा गच्छ-वल्लभी से वल्लभि गच्छ-सांडेराव से सांडेरा गच्छ-जीरावला से जीरावला गच्छ इत्यादि-इन से यह सिद्ध होता है कि उपकेशगच्छ कि उत्पति उपकेशपुर से हुई-पहिला उपकेशपुर बाद उपकेशवंस फिर उपकेशगच्छ इनके स्थापक प्राचार्य रत्नप्रभसूरि श्री पार्श्वनाथ भगवान के छढे पाट वीरात् ७० वर्ष अर्थात् विक्रम पूर्व ४०० वर्षो पहिले हुए थे। इन उपरोक्त प्रमाणों से हमने यह सिद्ध कर बतलाया है कि ओशियों ओर ओसवाल मूल नगर व ज्ञाति के नाम नहीं किन्तु उपकेशपुर ओर उपकेश वंस का अपभ्रंश नाम है इस अवार्चीन. नाम परसे इस ज्ञाति कि उत्पत्ति समय विक्रम की दशवीं शताब्दी बतलाई जाति है वह बिल्कूल भ्रम व कल्पना मात्र है। आगे आज कल के इतिहासकार किस कारणसे भ्रममें पड गये उनकी तीनों कल्पनाओं का उत्तर भी यहां लिख देना अनुचित न होगा (१) मुनोयत नैणसी की ख्यात के विषय में-मुनौत नैणसी विक्रम कि सत्तरवी सदी में हुवे वह पुगंणी वातों के अच्छे रसिक थे और चारण भाट भोजकों से पूछ पूछकर संग्रह किया करते थे यद्यपि नैणसी की ख्यात की कितनीक बातें बडी उपयोगी है तथापि उसको सर्वांश सत्य मानने को ऐतिहासिक लोग तय्यार नहीं है. "देखो, काशी नागरी प्रचारिणी सभा से प्रकाशित हुआ नैणसी की ख्यात का पहला भाग" जिसमें प्रकाशक को बहुत स्थानपर विरुद्ध पक्ष से टीपणिऐं लिखनी पड़ी है। दर असल भोसवाल ज्ञातिके विषय भाटों को और नैणसी को भ्रमोत्पन्न For Private and Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री जैन जाति महोदय प्र० चोथा. होने का यह कारण हुवा हो कि विक्रम की सतग्वी सदी में यह वात प्रचलीत थी कि ओशियों उपलदेव पवारने वसाई बाद नैणसीने प्राबु के पँवारो की वंसावलि लिखते समय उपलदेव पँवार का नाम आया हो और पहिली प्रचलीत कथा के साथ जो उपलदेव पवार का नाम सुन रखा था वस नैणसीने लिख दिया कि आबु के उपलदेव पँवार ने ही प्रोशिया वसाई और अाबु के उपलदेव का समय विक्रम की दशवी शताब्दी का होनेसे लोगोंने अनुमान कर लिया कि ओसवाल ज्ञाति इसके बाद बनी है पर यह विचार नहीं किया कि आबु के उपलदेव कि वंसावलि आबु से ही संबन्ध रखती है न कि ओशियों से । उस समय श्रोशीयोंमें पडिहारों का राज था इतना ही नहीं पर पाबु के उपलदेव पँवार के पूर्व सेंकडो वर्ष श्रोशियों मे पडिहारों का राज रहा था. जिसमें वत्सराज पडिहार का शिलालेख आज भी श्रोशियों के मन्दिर में मौजुद है जिस्का समय इ० स० आठवी सदी का है और दिगम्बर जिनसेनाचार्यकृत हरिवंस पुराण में भी वत्सराज पडिहार का वह ही समय लिखा है जब आठवी सदी से तेरहवी सदी तक उपकेश (ोशीयों) मे प्रतिहारों का राज होना शिला लेख सिद्ध कर रहे है तो फिर कैसे माना जावे कि विक्रम की दशवी सदी मे आबु के उपलदेवने श्रोशियों वसाई और आबु के उपलदेव पँवार की वंसावलि तरफ दृष्टिपात किया जाय तो यह नहीं पाया जाता है कि उनने जैन धर्म स्वीकार किया था। दर असल भिन्नमाल के राजा भिमसेनं के पुत्र उत्पलदेवने उएसपुर नगर विक्रम पूर्व ४०० वर्ष पहिळे वसाया था उस उपलदेव के बदले आबु के उपलदेव मानने की For Private and Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ओसवाल ज्ञाति समय निर्णय. (१७) भूल हो गई है वास्ते इस विषय में नैणसी की ख्यातपर विश्वास रखना सिवाय अन्ध परम्परा के और कुच्छ भी सत्यता नहीं हैं. (२) दूसरी दलील यह है कि विक्रम की दशवी सदी पहिले ओसवाल ज्ञाति का कोई भी शिलालेख नहीं मिलता है इत्यादि. अव्वल तो विक्रम कि दशवी सदीके पहिले 'पोसवाल' एसा शब्द कि उत्पत्ति भी नहीं थी वह हम उपर लिख पाये है जिस. शब्द का प्रादुर्भाव भी नहीं उसके शिलालेख ढूंढनाही व्यर्थ है कारण ओसवाल यह उएस वंस का अपभ्रंश विक्रम की इग्यारवी सदी के आसपास हुआ है बाद के सेंकडो हजारों सिलालेख मिल सक्ते हैं इस समय के पहिले उपकेश वंस अच्छी उन्नति पर था जिसके प्रमाण हम आगे चलकर देगे। किसी स्थान व ज्ञाति व व्यक्ति के सिलालेख न मिलने से वह अर्वाचीन नहीं कहला सक्ति है जैसे जैन शास्त्रकारोंने राजा संप्रति जो विक्रम के पूर्व तीसरी सदी में हुवे मानते है जिसने जैन धर्म की बडी भारी उन्नति की १२५००० नये मन्दिर बनाये ६०००० पुगणे मन्दिरों के जीर्णोद्धार कराये इत्यादि महाप्रतापि राजा हुवा था रा. बा. पं. गौरिशंकरजी अोझाने अपने राजपुताना का इतिहास के प्रथम खण्ड में लिखा है कि राजा कुणाल के दशर्थ और सम्प्रति दो पुत्र थे जिसमें संप्रतिने जैन धर्म को बहुत तरक्कीदी इत्यादि आज उन संप्रति राजा का कोई भी शिलालेख दृष्टिगोचर नहीं होता है एसे ही हमारे पवित्र तीर्थाधिराज श्री सिद्धाचलजी बहुत प्राचीन स्थान होनेपर भी For Private and Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १८ ) श्री जैन जाति महोदय प्र० चोथा. आज विक्रम की पन्दरखी सदी से प्राचीन कोई शिलालेख नहीं मिलता है पर आज उनको अर्वाचीन मानने का साहस किसी ने भी नहीं किया है इसका कारण यह है कि जैसे आज प्राचीनता का रक्षण किया जाता है वैसा पूर्व जमाना मे नहीं था इतनाही नहीं बल्के पुरांणा मन्दिरों का स्मारक कार्य पुनः पुनः कराया जाता था उस समय प्राचीनता की बिलकूल गरज न रखते थे । एक जमाना एसा भी गुजर गया था कि मुसलमानों के राजत्व काल में बहुत से मन्दिर मूर्तियों तोड फोड दी गइ थी। उसमें भी प्राचीनता के चिन्ह शिलालेख व शील्पकला नष्ट हो गइ थी । जो कुच्छ रही थी वह स्मारक कार्य कराने मे लुप्त हो गई। इस हालत में प्राचीन शिलालेखादि चिन्ह न मिलने पर उस स्थान व ज्ञातियों को अर्वाचीन नहीं कह सकते है । कुच्छ समय के लिये मान लिया जाय कि घोसवाल ज्ञाति के प्राचीन शिलालेख न मिलने पर उस ज्ञाति को हम अर्वाचीन मानले पर यह तो निश्चय मानना पडेगा कि विक्रम कि दशवी सदी पहिले जैन श्वेताम्बर हजारो आचार्य और लाखों क्रोडो मनुष्य जैन धर्म पालते थे हजारों लाखों जैन मन्दिर थे. जैनाचार्य और जैन मन्दिर विशाल संख्या मे थे तव उनके उपासक विशाल क्षेत्र में होना स्वाभाबिक बात है पर आज हम शिलालेखों पर ही आधार रखे तो किसी भी जैनधर्म पालनेवाली ज्ञातियोंका शिलालेख नही मिलता है इसपर यह तो नहीं कहा जा सकता है कि जिस समय के शिलालेख नहीं मिले उस समय जैन धर्म पालनेवाली कोई भी ज्ञाति नहीं थी या किसीने जैन For Private and Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ओसवाल ज्ञाति समय निर्णय. मन्दिर-मूर्तियों नहीं बनाइ थी। जैसे जैन ज्ञातियोंके प्राचीन शिलालेखों के अभाव है वैसेही मैनेतर ज्ञातियोंकी दशा है, तात्पर्य यह है कि किसी ज्ञातियोंका प्राचीन-अर्वाचिनका आधार केवल शीलालेखपर ही नही होता है पर दूसरेभी अनेक साधन हुआ करते है कि जिसके जरिये निर्णय हो सके। (३) ओशियों मन्दिरके शिलालेखके विषयमें-अव्वलतो वह शिलालेख खास महावीर मन्दिर बनाने का नहीं है पर किसी जिनदासादि श्रावकने महावीर मन्दिरमें रंगमण्डप बनाया जिस विषय का शिलालेख हैं । रंगमंडपसे मन्दिर बहुत प्राचीन है और मन्दिरमें जो महावीर प्रभु कि मूर्ति विराजमान है वह वही प्राचीन मूर्ति है कि जो देवीने गाय के दुद्ध और वेलुरेतिसे बनाइ और प्राचार्य रत्नप्रभसूरिने वीरात् ७० वर्षे उनकी प्रतिष्टा करी थी दूसरा उस लेखमें ओसवाल बनानेका कोई जिक्र तक भी नहीं है अगर उस समय के आसपासमें श्रोसवाल बनाये होते तो जैसे पडिहार राजाओंकि बंसावलि ओर उनके गुण प्रशंसा लिखी है उसी माफिक ओसवाल बनानेवाले श्राचार्योंकि भी कीर्ति वगैरह अवश्य होती पर एसा नहीं वल्के प्रतिष्ठित आचार्यका नामतक भी नहीं है उस शिलालेखसे तो उलटा यह सिद्ध होता है कि उस समय अर्थात् वि. स. १० १३ में उस नगरका नाम श्रोशियों नहीं पर उपकेशपुर था और उपलदेव पँवारका राज नहीं पर सेंकडो वर्षोसे पडिहारोंका राज था. आगे हम ओशियोंका मन्दिर ओर शिलालेखकी तरफ हमारे पाठकोंके चित्तको आकर्षित करते है-पट्टावलियों वंसावलियोंसे या पुराणे चिन्हसे ज्ञात होता है कि यह उपकेशपुर इतना For Private and Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२०) श्री जैन जाति महोदय प्र. चोथा. विशाल था कि हाल ओशियोंसे ६ कोस तीवरी याम है वह उपकेशपुरका तेलिवाडा था ३ कोस खेतार-खत्रीपुरा ३ कोस पंडितजीकी ढाणी पंडित पुरा था १० कोस घटियाला इस नगरका दरवाजा था वहां खोदकाम करते समय कुच्छ पुराणे चिन्ह प्राजभी दृष्टिगत होते है। एक पडिहारों के राजका प्राचीन शिलालेख भी मिला हैं उस विशाल नगरमें ३६० जैन मन्दिर थे जैसे चंद्रावती-कुंभारीयादि प्राचीन स्थानोंमे सेंकडो मन्दिर थे वैसे उपकेशपुरमें भी सेंकडो मन्दिर होना कोइ अतिशय युक्ति नहीं कही जाति हैं । इस समय श्रोशियोंमें एक महावीर मन्दिरके सिवाय ८-१० मन्दिरोंके खंडहर मिल सक्ते है पूज्य मुनिश्री रत्नविजयजी महाराजने वहां शोध खोळ करनेपर एक तुटासा मन्दिरमे मस्तक रहित मूर्ति जिसके चन्द्रका चिन्ह था और एक तुटासा शिलालेख जिसमें वि. सं. ६०२ माघ शु. ३ उकेशवंस आदित्य नागगोत्र इत्यादि इन प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि वि० सं० ६०२ से सेकडो वर्ष पहिले उपकेशपुरमें सेकडो जैनमन्दिर थे हजारों लाखों उपकेशवंशीय (ओसवाल ) उन्ह मन्दिरों कि सेवा पूजा करनेवाले मोजुद थे इस वास्ते श्रोशियां के रंगमगडप बनानेका शिलालेख परसे श्रोसवालों की उत्पत्ति विक्रमकी दशमी शताध्दीमें बतानेवाले वडा भारी धोखा खा रहे है अर्थात् उन अज्ञ लोगोंकी वह कल्पना बिल्कुल मिथ्या है । - अाधुनिक तीनोंदलीलोंका निगकरणके पश्चात् हमको कुच्छ विश्वसनिय इतिहासिक प्रमाण एसे दे देना ठीक होगा कि जैनाचार्य जैनग्रन्थ जैनपट्टावलियों ओर वंसावलियोंमें लिखा हुवा उपकेश वंशो. For Private and Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ओसवाल ज्ञाति समय निर्णय. (२१) त्पत्तिका समय विक्रम पूर्व ४०० वर्ष पर जनता अधिक विश्वास रख सके और उपकेश वंशको प्राचीन माननेमें श्रद्धासंपन्न बने । (१) विक्रमकी बारहवी शताब्दी और इनके पिच्छेके सेंकडो हजारों शिलालेख उपकेश ज्ञातिके मिलते है वास्ते उस समयके प्रमाण यहाँ देने की आवश्यक्ता नहीं है ईसके पूर्वकालिन प्रमाणोंकी खास जरूरत है वह ही यहापर दिये जाते हैं (२) समराइच कथाके सारमें लिखा है कि उएस नगरके लोक ब्राह्मणोंके करसे मुक्त है अर्थात् उपकेश ज्ञातिके गुरु ब्राह्मण नहीं है यह बात विक्रम पूर्व ४०० वर्षकी है और कथा विक्रमकी छठी सदीमें लिखी गई है उस समयसे पूर्व भी यह मान्यता थी. इस लेखसे उपकेश ज्ञातिकी प्राचीनता सिद्ध होती है । यथा तस्मात् उकेश ज्ञातिनां गुरखो ब्राह्मणा नहि। . उएसनगरं सर्वे कर रीण समृद्धिमत् ॥ सर्वथा सर्व निर्मुक्तमुएसा नगरं परम् । तत्प्रभृति सजातमिति लोकप्रवीणम् ॥ ३६॥ (३) आचार्य बप्पभट्टीसूरि जैन संसारमें बहुत प्रख्यात है जिन्होंने ग्वालियरका राजा श्रामको प्रतिबोध दे जैन बनाया उसके एक राणि व्यवहारियाकी पुत्री थीं उसकि सन्तानको श्रोसवंस (उपकेशवंस) में सामिल कर दी उनका गौत्र राजकोष्टागर हुवा जिस ज्ञातिमें सिद्धाचलका अन्तिमोद्धार कर्ता कर्माशाह हुवा जिस्का शिलालेख शत्रुजय तीर्थपर आदीश्वरके मन्दिरमें है वह लेख प्राचीन For Private and Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २२ ) श्री जैन जात्ति महोदय प्र० चोथा. जैन शिलालेख संग्रह भाग दूसरेके पृष्ट २ लेखांक १ में मुद्रित हैं वह बडी प्रशस्ति है जिससे उध्धृत दो श्लोक यहां दे दिये जाते हैx इतश्च गोपाह्न गिरौ गरिष्टः श्री बप्पभट्टी प्रतिबोधितश्च, श्री श्रमराजोऽजनि तस्यपत्नी काचित्व भूव व्यवहारी पुत्री ॥ ८ ॥ तत्कुक्षिजाताः किल राजकोष्टागाराह्न गोत्रे सुकृतैकपात्रे । श्री ओसवसे विशादे विशाले तस्यान्वयेऽभिपुरुषाः प्रसिद्धाः || ९ || भाट्टीसूरि और आमराजा का समय वि० नौवी सदी का प्रारंभ माना जाता है उस समय उकेश वंशिय (ओसवंस) विशादविशाल संख्या में और विशाल क्षेत्र में फले हुवे थे कि आमराजा की सन्तान को जैन बना इस विशाल वंस में मिला दिये एक नगर से पैदा हुई ज्ञाति विशाल क्षेत्र में फल जाने को कमसे कम कइ शताब्दियों तक का समय अवश्य होना चाहिये अस्तु । इस प्रमाण से विक्रम की तीजी चोथी सदि का अनुमान तो सहज ही में हो सक्ता है— राजकोठारी विशाल संख्या में आज मी अपने को आमराजा कि संतान के नाम से पुकारते है । ( ४ ) विक्रम सं. ८०२ पाटण ( अणहिलवाडा ) की स्थापना के समय चन्द्रावती और भिन्नमाल से उपकेश ज्ञाति के बहुत से लोगों को आमन्त्रणपूर्वक पाटण में वसने के लिये ले गये थे उनकी सन्तान आज भी वहाँ निवास करती है जिन्हों के बनाये मन्दिर मूर्त्तियों आज मोजुद है देखों उन की वंसावलियों (खुर्शीनामा ). For Private and Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भोसवाल ज्ञाति समय निर्णय. (२३) - (५) ओशियों मन्दिर की प्रशस्ति शिलालेख में उपकेशपुर के पडिहारराजाओं में वत्सराज की बहुत तारीफ लिखि है जिसका समय इ. स. ७८३-८४ का लिखा है इससे यह सिद्ध होता है कि इस समय उपकेशपुर वडी भारी उन्नति पर था जिस से आबुके उपलदेव पँवारने ओशियों वसाई का भ्रम दूर हो जाता है. (६) पंडित हीरालाल हंसराजने अपने इतिहासिक ग्रन्थ "जैन गौत्र संग्रह" नामक पुस्तक में लिखा है कि भिन्नमाल का राजा भांणने उपकेशपुर के रत्नाशाहा की पुत्री के साथ लग्न किया था इससे यह सिद्ध हुवा कि भांण राजा का समय वि. स. ७९५ का है उस समय उपकेश वंस खुब विस्तार पा चुका था ओर अच्छी उन्नति भी करली थी (७) पं. हीरालाल हंसराज अपने इतिहासिक ग्रन्थ जैन गौत्र संग्रह में भिन्नमाल के राजा भांण के संघ समय वासक्षेप की तकरार होनेसे वि. स. ७९५ में बहुत गच्छो के प्राचार्य एकत्र हो मर्यादाबादी की भविष्यमें जिसके प्रतिबोधित श्रावक हो वह ही वासक्षेपदेवे इस्मे उपकेश गच्छाचार्य सिद्धसूरि भी सामिल थे-इससे यह सिद्ध होता है कि इस समय पहिले उपकेशगच्छ के आचार्य अपनी अच्छी उन्नति करली थी तब उनसे पूर्व बनी हुई उपकेश ज्ञाति विशाल हो उसमें शंका ही क्या है. (८) ओशियों का ध्वंस मन्दिर में वि. स. ६०२ का त्रुटा हुवा शिलालेख मिला उस्मे अदित्यनाग गौत्रवालो ने वह For Private and Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२५) श्री जैन जाति महोदय प्र० चोथा. चन्द्रप्रभु की मूर्ति बनाई थी इससे भी यह ही सिद्ध होता है कि उस समय उपकेश ज्ञाति अच्छी उन्नति पर थी (९) आचार्य हरिभद्रसूरि आदि पाठ आचार्य सामिल मिल के महानिशिथ ' सूत्र का उद्धार किया जिस्मे उपकेश गच्छाचार्य देवगुप्तसूरि भी सामिल थे इसका समय विक्रम की छट्टी शताब्दी का है इस समय पहिला उपकेशगच्छ मोजुद था तो उपकेश ज्ञाति तो उस के पहिले ही अपनि अच्छी उन्नति कर चुकी यह निःशंक है ( देखो महानिशिथ दू० अ० अन्त में ). (१०) आचार्यश्री विजयानंदसूरिने अपने जैन धर्म विषय प्रश्नोत्तर नामक ग्रन्थ में लिखा है कि देवरूद्धिगणि क्षमासमणजीने उपकेशगच्छाचार्य देवगुप्तसूरि के पास एक पूर्व सार्थ और आधा पूर्व मूल एवं दोढ पूर्व का अभ्यास किया था इसका समय विक्रम की छठी सदी के पूर्वार्द्ध है यह ही वात उपकेश गच्छ चारित्र और पटावलि मे लिखी है इससे यह सिद्ध होता है कि छठी सदी मे उपकेशगच्छाचार्य मौजुद थे तो उपकेश ज्ञाति तो इनके पहिला अच्छी उन्नति ओर आबादी मे होनी चाहिये (११) ऐतिहासिज्ञ मुन्शी देविप्रसादजी जोधपुरवालेने राजपुत्ताना की सोध खोज करते हुवे जो कुच्छ प्राचीनता मिलि उनके बारे में " राजपुताना कि सोध खोज" नामक एक पुस्तक लिखी थी जिस्मे लिखा है कि कोटा राज के अटारू नामक ग्राम मे एक जैन मन्दिर जो खंडहर रूपमे है जिसमें एक For Private and Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ___ प्रोसवाल ज्ञाति के समय निर्णमा (२५ ) मूर्ति के निचे वि. सं. ५०८ भैशाशाहा के नाम का शिलालेख है उन भैशाशाह का परिचय देते हुवे मुन्शीजीने लिखा है कि भैशाशाहा के और रोडाविणजारा के आपस में व्यापार संबन्ध ही नहीं पर आपस में इतना प्रेम था कि दोनों का प्रेम चिरकाल स्मरणिय रहे इसलिये भैशा-रोडा इन दोनों के नामपर 'भैशरोडा' नाम का ग्राम वसाया वह आज भी मोजुद है. जैन समाज में भैशाशाहा वडा भारी प्रख्यात है वह उपकेश ज्ञाति आदित्यनाग गोत्र का महाजन था जब वि. स. ५०८ पहिला उपकेश ज्ञाति व्यापार मे भी अच्छी उन्नति करलिथी तो वह ज्ञाति कितनी प्राचीन होनी चाहिये इस्केलिये पाठक स्वयं विचार कर सक्ते है । (१२) वल्लभि नगर का भंग कराने मे जो कांगसीवालि कथा को इतिहासकारोंने स्वीकार करी है वह शेठ दूसरा नहीं पर उपकेश ज्ञाति बलहागोत्र के रांका वांका नाम के शेठ थे और उन कि संतान आज रांका वांका जातियो के नाम से मशूहर है (१३) श्वेतहूण के विषय में इतिहासकारों का यह मत्त है कि श्वेतहूण तोरमाण पंजाब से विक्रम की छट्ठी शताब्दी में मरूस्थल की तरफ आया । और मारवाड का इतिहासिक स्थान भिन्नमाल को अपने हस्तगत कर अपनि राजधांनी भिन्नमाल म कायम की. जैनाचार्य हरिगुप्तसूरिने उस तोरमाण को धर्मोपदेश दे जैनधर्म का अनुरागी बनाया जिस्के फल में तोरमाणने भिन्नमाल मे भगवान् ऋषभदेव का विशाल मन्दिर बनाया बाद For Private and Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २६ ) जैन जाति महोदय प्र. चोथा. तोरमाण के पुत्र मिहिरगुल कट्टर शैवधर्मोपासी हुवा उसके हाथ में राजतंत्र आते ही जैनो के दिन बदल गये, जैन मन्दिर जबरन तोडे जाने लगें जैन धर्म पालनेवाले लोगोंपर अत्याचार इस कदर गुजरने लगे कि सिवाय देशत्याग के दूसरा कोई उपाय नहीं रहा आखिर जैन को उस प्रदेशको त्याग लाट गुजरात कि तरफ जाना पडा उसमें उपकेश ज्ञाति व्यापारी वर्ग में अग्रेसर थी जो लाट गुजरात में आज उपकेश ज्ञाति निवास करती है वह विक्रम की चोथी पांचबी व छट्ठी सदी में मारवाडसे गइ हुई है और उन लोगोंने मन्दिर मूर्तियों कि प्रतिष्ठा कराई जिसके शिलालेखो में मी उपकेश ज्ञाति व उपकेश - स दृष्टिगोचर होते है इस प्रमाणसे विक्रम की पांचवी - छट्ठी सदी पहिला तो उपकेश ज्ञाति अच्छी उन्नति पर थी । (१४) महेश्वरी वंस कल्पद्रुम नाम पुस्तकमें महेश्वरी लोगों की उत्पत्ति विक्रम की पहिली शताब्दी में होना लिखते है इसके पहिले ओसवाल अर्थात् उपकेश ज्ञाति महेश्वरी यो से पहिले बनी थी, इतना ही नहीं पर अपनी अच्छी उन्नति कर लीथी । (१५) विक्रम की दूसरी शताब्दी में उपकेशगच्छाचार्य यक्ष देवसूरि सोपारपटनमें विराजते थे उस समय वज्रस्वामी के शिष्य बज्रसेनाचार्य अपने चार शिष्यों को दीक्षा दे सपरिवार सोपारपट्टण यक्षदेव सूरिके पास ज्ञानाभ्यास के लिये पधारे थे शिष्यों के ज्ञानाभ्यास चलता ही था बिचमें आकस्मात् आचार्य बज्रसेनसूरिका स्वर्गवास हो गया वाद उन चारों शिष्योंको १२ For Private and Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रोसवाल ज्ञाति के समय निर्णय. (१७) वर्ष तक ज्ञानाभ्यास करवाके उनके भी शिष्यसमुदाय विशाल संख्यामें हो जानेपर उन चारों प्रभावशाली मुनियोंको वासक्षेप पूर्व पदार्पण कर बहांसे विहार करवाये बाद उन चारों महापुरुपों के नामसे अलग अलग चार शाखाओं हुई यथा (१) नागेन्द्र मुनि से नागेन्द्र साखा जिस्में उदयप्रभ ओर मल्लिसेनसूरि आदि प्राचार्य महा प्रभाविफ हो शासन की उन्नति की (२) चन्द्रमुनि से चंद्र साखा-जिस्में वडगच्छ तपागच्छ खरतरादि अनेक साखाओं में वडे वडे दिगविजय आचार्य हुऐ. (३) निवृति मुनिसे निवृति साखा--जिस्मे शेलांगाचार्य दूणाचार्यादि महापुरुष हूवे जिन्होनें जैन साहित्य की उन्नति की. (४) विद्याधर मुनि से विद्याधर साखा-जिस्में हरिभद्रसूरि जैसे १४४४ ग्रन्थ के रचयिताचार्य हूवे-यह कथन उपकेश गच्छ प्राचीन पट्टावाल में है और आचार्य श्री विजयानंदसूरिजीने अपने जैन धर्म प्रश्नोत्तर नामक ग्रन्थमें भी लिखा हैं इस से यह सिद्ध होता है कि उस समय उपकेश गच्छ अच्छी उन्नति यर था तो उपकेश ज्ञाति इनके पहिल होना स्वभावीक बात है. (१६) भाट भोजक सेबक और कुलगुरु ओसवालों की उत्पत्ति वि. स. २२२ में बताते है मगर यह बात देशलशाहा के प्रभाविक पुत्र जगाशाहा के साथ संबन्ध रखनेबालि हो तो इस For Private and Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २८) जैन जाति महोदय प्र. चोथा. समय के पहिले उपकेश ज्ञाति अच्छी उन्नति पर व दूर दूर के क्षेत्र में विशाल रूपसे पसरी हुई मानने में कीसी प्रकार की शंका (१७) इस समय पूरातत्त्व कि शोधखोज से एक पार्श्वनाथ भगवान् कि मूर्ति मिली वह कलकत्ते के अजायब घरमें सुरक्षित है उसपर वीरात् ८४ वर्षका शिलालेख है जिस्में लिखा है कि श्री वत्स ज्ञाति के........ ने वह मूर्ति बनवाइ है उसी श्री वत्स ज्ञातिका शिलालेख विक्रम की सोलहवी सदी तक के मिलते है अगर श्री वत्स ज्ञाति उपकेश बंस कि साखा रूपमें हो तो उपकेश ज्ञाति की उत्पत्ति वीरात् ७० वर्षे मानने में कोई भी विद्वान शंका नहीं कर सकेगा । कारण कि जो लेख श्री वत्स ज्ञातिका विक्रम की सोलहवी सदीका मिलता है उसके साथ उपकेश वंस भी लिखा मिलता है बास्ते वह ज्ञाति उ. पकेश ज्ञाति की साखामें होना निश्चय होता है. इस उपरोक्त प्रमाणोंका इसारा लेके हम पट्टावलियों और वंसावलियों को भी किसी अंशसे सत्य मान सकते है यद्यपि वंसावलियों पट्टावलियों इतनी प्राचीन नहीं है तद्यपि उसको बिलकुल निराधार नहीं मान सकते है उसमें भी केइ बातें एसी उपयोगी है कि हमारे इतिहास लिखने में बडी सहायक मानी जाती है । उपकेश ज्ञाति के विषयमें विक्रम की इग्यारवी सादी से वीरात् ८४ वर्ष तक के थोडे बहूत संख्यामें प्रमाण मिलते है For Private and Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ओसवाल ज्ञाति समय निर्णय. (२९) वह यहांपर बतला दीये है अगर फिर भी खोज किजाय तो अधिक संख्यामें भी प्रमाण मिलजाना कोइ बडी बात नहीं है कारण कि विशाल ज्ञाति के प्रमाण भी विशाल संख्या में हुवे करते है पर त्रुटि है हमारे औसवाल भाइयों की कि जिन्होंने अपनी ज्ञाति के इतिहास के लिये बिल्कुल सुस्त हो बेठे है- इस प्रमाणो से यह सिद्ध होता है कि जिस ज्ञातिको आज पोसवाल कहते है उस ज्ञातिका मूल नाम उपकेश ज्ञाति है और उसका मूल स्थान उपकेशपुर है और इस ज्ञाति के प्रतिबोधक प्राचार्य रत्नप्रभसूरि है जिनके गच्छका नाम 'उपकेशपुर व उपकेश ज्ञाति के नामपर' उपकेश गच्छ हुवा है और आचार्य श्री पार्श्वनाथ के छठे पाटपर वीरात् ७० वर्षे इस ज्ञाति की स्थापना की थीं. हम हमारे ओसवाल भाइयोंको सावचेत करनेको सूचना करते है कि जैसे अन्य ज्ञातियों अपनि अपनि प्राचीनताके प्रमाणों कों शोध निकालने में दत्तचित हो तन मन और धन अर्पण कर रही है तो क्या आप अपनि ज्ञाति कि प्राचीनता व गौरवके लिये सुते ही रहोगे ? नहीं नहीं अव जमाना आपको जवरन् उठावेंगा आप अगर सोध खोज करोगे तो आप की ज्ञाती के विषय में प्राचीन प्रमाणों की कमी नहीं है कमी है आप के पुरुषार्थ की निवेदन-जैसे मेरा स्वल्पकालिन अभ्यासके दरम्यान इस ज्ञाति के विषय जितना प्रमाण मिले है वह विद्वानों कि सेवा में रख चुका हुँ इसीमाफीक अन्य महाशय भी प्रयत्न करेंगे तो For Private and Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३०) जैन जाति महोदय प्र० चोथा. विशेष प्रमाण मिल सकेगें साथ में यह भी ध्यान में रखे कि जो जो प्रमाण मिलते जावे वह वह सर्व साधारणके सामने रखते जावे तो उम्मेद है कि इश पवित्र ओर विशाल ज्ञातिका इतिहास लिखनेमें बहुत सुविधा हो जावे गा हम यह भी आग्रह नहीं करते है कि हमने निर्णय किया वह ही सत्य है अगर कोइ इतिहासज्ञ हमारे प्रमाणोंसे अतिरक्त अन्य प्रमाणिक प्रमाण बतलावेगे तो हम माननेको भी तय्यार है. आज छोटी वडी सब जातियों अपनि ज्ञाति की प्राचीनता के लिये तन मन और धनसे प्रयत्न कर रही है तब हमे खेदके साथ लिखना पडता है कि कितनेक व्यक्ति जैन नाम धराते हुवे केवल गच्छ कदाग्रह में पडके जो २४०० वर्ष जितनी प्राचीन जैन ज्ञातियों है जिसकों अर्वाचीन बतलानेका मिथ्या प्रयत्न कर रहे है उन महाशयोंको भी इस छोटासे प्रवन्धको आद्यौपान्त पढके अपने असत्य विचारोको फोरन् बदल देना चाहिये. अन्तमें हम यह निवेदन करना चाहाते है कि ओसवाल ज्ञाति का समय निर्णय करना यह एक महान गंभिर विषय है इस विषय में यह मेरा पहिला पहल ही प्रयत्न है इस्में मति दोषादि अनेक त्रुटियों रहजाना यह स्वभाविक वात है जहाँतक बना वहांतक मेने सावधानीसे यह प्रबन्ध लिखा है फिर भी इतिहास वेत्ता महाशयों से निवेदन है कि अगर हमारे लेखमें किसी प्रकारसे त्रुटि रही हो तो आप कृपया सूचना करे कि द्वितीयावृत्ति For Private and Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ओसवाल ज्ञाति समय निर्णय. ( ३१ ) में सुधारा दी जावे. आशा है कि यह मेरा लिखा हुवा प्रबन्ध किसी न किसी रूपसे जैन जनताको फायदाकारी अवश्य होगा. इत्यलम् । एक दूसरी शङ्का - ओसवाल ज्ञातिके विषय कितनेक अज्ञ लोग जो ओसवाल ज्ञातिके इतिहास से अज्ञात है वह एसी शंका कर बैठते है कि ओसवाल ज्ञातिमें शूद्र वर्ण भी सामिल है इसके प्रमाण में दो दलिलें पेश करते हैं (१) जैनाचार्य रत्नप्रभसूरिने ओशियों नगरी में ओसवाल ज्ञाति कि स्थापना करी थी तब उस नगरी के सबके सब लोग अर्थात् तमाम जातियों ओसवाल बन गइथी जिसमें शूद्र जातियों भी सामिल थीं (२) आज ओसवाल ज्ञातियोंमें चण्डालिया, ढेढिया, बलाई और चामडादि जातियों शूद्रत्व की स्मृति करा रही हैं अर्थात् उक्त जातियों पहिले शूद्र वर्णकी थी वह ओसवाल होनेके बाद भी उनकी स्मृतिके लिये वहका वह पूर्व नाम रखा है- समाधान- इन दोनों दलिलों में कल्पित कल्पनाके सिवाय कोईभी प्रमाण नहीं है कि जिसपर कुच्छ विश्वास रखा जावे । तथापि इन मिथ्या दलीलोंका समाधान करना हम हमारा कर्त्तव्य समकते है - किसी ग्रन्थ व पट्टावलि कारोंने एसा नहीं लिखा है कि उकेशपुर (ओशियों) में सब के सब लोग जैन श्रोसवाल बन गये थे, बल्के इसके विरूद्ध में एसा प्रमाण मिलता है कि आचार्य रत्नप्रभसूरि उपकेशपुर में १२५००० घर राजपुतों को प्रतिबोध For Private and Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३२) जैन जाति महोदय प्र० चौथा. दे जैन बनाया और कितनेक पट्टावलिकारोंका मत है कि ३८४००० घरोंको प्रतिबोध दीया शेष शूद्रादि लोग जो वाममार्गियोंके पक्षमें थे उन्होंने जैन धर्म स्वीकार नहीं किया था कारण जैन धर्म के नियम (कायदा) एसे तो सख्त है कि उसे संसारलुब्ध-अज्ञ जीव पाल ही नहीं सक्ते है. अगर उपर की दोनों पट्टावलियों कि संख्यामें कोइ शंका करे तो उत्तरमें वह समझना चाहिये कि आचार्यश्रीने उकेशपुरमें पहिले पहल १२५००० घरों को प्रतिबोध दिया बाद आसपास के ग्रामोंमें तथा जैन मन्दिर की प्रतिष्टा के समय उपदेश दे जैन बनाया उन सब की संख्या ३८४००० की थी और एसा होना युक्तायुक्तभी है दूसरी बात यह है कि जिस जमाने में शूद्र वर्ण के साथ स्पर्श करनेमें इतनी घृणा रखी जाति थी कि कोई ब्राह्मण लोग जहां शास्त्र पढते हो वहां से कोइ शूद्र निकल जावे या शूद्र के छाया पड जावे तथा दृष्टिपात तक भी हो जावे तो वह शूद्र बडा भारी गुन्हगार समजा जाता था । उस जमानेमें ब्राह्मण राजपुत वगैरह उन शूद्रोंके साथ एकदम भोजन व बेटी व्यवहार करले यह सर्वथा असंभव है अगर एसा ही होता तो जैन धर्मके कट्टर विरोधी लोग न जाने जैन ज्ञातियों के लिये किस सृष्टि की रचना कर डालते पर जैन ज्ञातियों के विरोधीयोंने अपने किसी पुराण व ग्रन्थमें एसा एक शब्द भी उच्चारण नहीं किया कि जैन जातियोंमें शूद्र भी सामिल है अगर एसा होता तो आज संसार भर कि जातियों में जो ओसवाल ज्ञातिका गौरव मान-महस्व इज्जत चढबढके हैं वह स्याद् ही होता । इतना ही नहीं बल्के बडे For Private and Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दूसरी शंका का समाधान. (३३.) बडे राजा महाराजाओंने जो आदर सत्कार और अनेक खीताब जैन ज्ञातियों को दीया है व स्यात् ही अन्य ज्ञातियों के लिये दीया हो, न जाने इनका ही तो फल न हो कि वह ज्ञातियों ओसवालों कि इस आबादी इज्जत को सहन न कर वह आन्तरध्वनी निकाली हो कि ओसवालोंमें शूद्र सामिल है ओसवाल ज्ञातिमें शूद्र वर्ण सामिल होते तो ब्राह्मणाग्रेश्वर संजभव भट्ट, भद्रबाहु, सिद्धसेन दिवाकर, हरिभद्र और बप्पभट्टी आदि हजारों ब्राह्मण जैन धर्म स्वीकार कर इन ज्ञातियोंका आश्रय नहीं लेते और कुमरिल भट्ट तथा शंकराचार्य के समय कितनीक अज्ञात जैन जनोंने, जैन धर्म छोड शैव-वैष्णव धर्म स्वीकार कर लेने पर उनको शूद्र ज्ञातिमें सामिल न कर उच्च ज्ञातियोंमे मिलाली तो क्या उनको खबर नहीं थी कि जैन जातियों में शूद्र सामिल है ? मगर एसा नहीं था अर्थात् जैन जातियां पवित्र उच्च कुलसे बनी हुई है एसी मान्यता उन लोगों की भी थी. अगर उस जमानामें जैनाचार्य शूद्र वर्ण को भी ओसवाल ज्ञातिमें मिला देते तो हमारे पडोसमें रहनेवाले शैव-वैष्णव धर्म पालनेवाले उच्च वर्णके लोग व वडे बडे राजा महाराजा ओसवाल ज्ञातिके साथ जो उच्च व्यवहार रखते थे और रख रहे हैं वह किसी प्रकार से नहीं रखते ? जैसे अधूनिक समय अंग्रेजोंको राजत्व काल में शूद्रोंके साथ पहिला जमाने की जीतनी घृणा नहीं रखी जाति है तथापि शूद्र वर्ण को सामिल करनेसे इसाइयोंका धर्म प्रचार वहाँ For Private and Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन जाति महोदय प्र. चोथा. , ही रूक गया अर्थात् उच्च वर्णवाले लोग इसाइ धर्ममें सामिल होते भटक गये पर जैन ज्ञातियां विक्रम पूर्व चारों वर्षोसे विक्रम की सोलहवीं सदी तक खुब वृद्धि होती गइ इसका कारण यही था कि जैन जातियां पवित्र उच्च वर्णसे उद्भव हुई है दूसरा ओसवाल ज्ञाति में चंडालिया, ढेढिया, वलाइ, चामड वगरह जातियों के नाम देखके ही कल्पना कर लि गई हो कि उक्त ज्ञातियों ही शूद्रताका परिचय दे रही है पर एसी कल्पना करनेवालों की गहरी अज्ञानता है कारण पहिले उक्त जातियों के इतिहासको देखना चाहिये कि वह नाम उस मूल ज्ञाति के है या पीच्छेसे कारण पाके मूल ज्ञातिके शाखा प्रति शाखा रूप उपनाम है जैसे शैव-विष्णु धर्म पालने वाले महेश्वरी ज्ञातिमें मुडदा चंडक भूतडा कबु काबरा बुब सारडादि अनेक जातियों है देखो " महेश्वरी बंस कल्पद्रुम " क्या इनसे हम यह मान लेंगे कि मुडदोंसे व चंडालोंसे उक्त ज्ञातियां बनी है ? ओसवाल ज्ञाति प्रायः पवित्र क्षत्रिय वर्ण से बनी है क्षत्रिय वर्णमें उस समय एसी आचरणाओ थी कि जिस्के लिये आज पर्यन्त भी कहावत है कि " दारूडा पीणा और मारूडा गवाना" अर्थात् राजपुतोंमें मदिरापान की रूढी विशेष थी और ढोलणियों डाढणियों के पास एसे खराब गीत गवाये करते थे और ठठा मश्करी हांसी तो इतनी थी कि जिस्की मार्यादा भी स्यात् ही हो जष जैनाचायोंने उन राजपुतोंको प्रतिबोध दै जैन बनाये तबसे For Private and Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दूसरी शंका का समाधान. ( ३३ ) उनका खानपानादि कीतनीक आचारणा सुधर गई पर हांसी मस्करी ठठा करना सामान्य रूपसे बैसाका तैसा बना रहा जिसके फलरूप ओसवाल ज्ञातियों में एकेक कारण पाके उपनाम पड गये है जैसे (१) सांढ सीयाल नाहार काग बँगला गरूड कुर्कट मिन्नी चील गदइया हंसा मच्छा बोकडीया हीरण बागमार बकरा लुंकड गजा घोडावत् धाडीवाल धोखा मुर्गीपाल वागचार इत्यादि पशुओं के नाम पर सवालों कि ज्ञातियोंके नाम पड गये पर यह तो कदा पि नहीं समझा जावे कि यह ज्ञातियों पशुओंसे पैदा हुई है यह फल केवल हांसी ठठाका ही है । (२) हथुडिया, साचोरा जालौरी सिरोहीया रामसेगा नागोरी रामपुरिया फलोदिया मेडतिया मंडोवरा जीरावला गुदोचा नरवरा संडेरा रत्नपुरा रूणिवाल हरसोरा भोपाला कुचेरिया बोरू दिया भिन्नमाला चीतोडा भटनेरा संभरिया पाटणि खीबसरा चामड ढेढिया चंडालिया पुंगलिया श्रीमाल इत्यादि ज्ञातियों निवास नगर के नामसे ओलखाई जाति है । (३) भंडारी कोठारी खजानची कामदार पोतदार चोधरी पटवारी सेठ मुहता कानुंगा शरवा रणधीरा बोहर। दफतरी इत्यादि जातियों राज के काम करनेसे क्रमशः उपनाम पड गये हैं । (४) घीया तेलिया केसरिया कपुरिया बजाज गुगलिया लुणिया पटवा नालेरिया सोनी चामड गान्धी जडिया बोहरा गुंदिया मणियार मीनारा सराफ झवरी पितलिया भंडोलिया धूपिया For Private and Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३६) जैन जाति महोदय प्र. चोथा. दि ज्ञातियों के नाम वैपारसे पड़ा है। (५) कोटेचा डांगरेचा ब्रह्मेचा वागरेचा कांकरेचा सालेचा प्रामेचा पावेचा पालरेचा संखलेचा नांदेचा मादरेचा गुगलेचा गुदेचा केडेचा सुंघेचा इत्यादि ज्ञातियों के उपनाम दक्षिणकी तरफ गये हुवे ओसवालों के है । - इसी माफीक मालावत् चम्पावत् पातावत् सिंहावत् आदि पिताके नामपर और सेखाणि लालाणि धमाणि तेजाणि दुद्वाणि सीपाणि वैगाणि आसांणि जनाणि निमाणि इत्यादि थलिप्रान्त व गोडवाड प्रान्त में पिताके नामपर ज्ञातियों के नाम पड गये है । ___ इत्यादि अनेक कारणोंसे ओसवालोंकी शाखा प्रति शाखा रूप सेंकडो नहीं पर हजारों जातियों बन गई जो ओसवालों में १४४४ गोत्र कहे जाते है पर अन्तिम " डोसी और गणाइ होसी" इस पुराणि कहावत के बाद भी एकेक गौत्रसे अनेक जातियों प्रसिद्धि में आई थी । यहांपर यह कहना भी अतिशययुक्ति न होगा कि ओसवाल ज्ञाति उस जमाने में साना प्रति साखाफलफूलसे वट वृक्षकी माफीक फाली-फूली थी जबसे आपस कि द्वेषाग्निरूपी फूटके चिनगारियें उडने लगी तबसे इस ज्ञातिका अधःपतन होने लगा जिसकी साखा प्रति साखा तो क्या पर मूल भी अर्धदग्ध बन गया है अगर अबी भी प्रेम ऐक्यता रूपी जलका सिंचन हो तो उम्मेद है कि पुनः इस पवित्र ज्ञाति को हमे कली फूली देखनेका समय मिले । For Private and Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दूसरी शंका का समाधान. ( ३७ ) ar चंडालिया ढेढिया बलाइ आदि ज्ञातियों मूल किस वंस से बनी हैं वह बतलाके हमारे शंका करनेवालों भाइयों के भ्रमकों दूर कर देना ठीक होगा । (१) चंडालिया - मूलक्षत्रिय चौहानवंसी थे जैन होने के बाद सावलि में इन्होंका लुंग गोत्र होना लिखा है इनके पूर्वज चंडालिया ग्राम में रहते थे वहां गुरुकृपा से अपनि कुल देवि को चण्डालनि विद्याद्वारा आराधन की तब वह देवि चंडालनी के रूप से घर में आइ जिस के प्रभाव से घर में अखूट धन और पुत्रादि की वृद्धि हुई जिन्होंने दुष्काल में देश के प्राण बचाये, तीर्थोंका वडे वडे संघ निकाले और अनेक मन्दिर मूर्त्तियां - तलाव कुवा की प्रतिष्टादि शुभ काय कराये पर देवि के रूप को देख लोगोंने चंडालिया कहना शरूकर दिया बाद उस ग्राम को छोड अन्य ग्राम में जाने से ग्राम के नाम से उसको चंडालिया कहने लगे पर मूल यह चौहान राजपुत है । (२) ढेढिये - बलाइ - चामड यह तीनों ज्ञातियों मूल पँवार राजपुत है. इन तीनों ज्ञातियों के पूर्वजोंने मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्टा कराई उन के शिलालेख बहुत संख्या में मिलते है जिसमें इन जातियों के नाम के साथ इनके मूल गौत्र व वंसभी लिखा गया है देखो जैन लेख संग्रह पहला दूसरा खण्ड तथा प्राचीन जैन शिलालेख संग्रह और धातू प्रतिमा लेख संग्रह ॥ ( क ) ढेढिये ग्राम से निकल दूसरे ग्राम में वसने से देढिये नाम पड़ा हैं। देखो जैन लेख संग्रह प्रथम खण्डका लेखांक For Private and Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन जाति महोदय प्र. चोथा. . (ख ) चामडिया ग्राम से अन्य ग्राम में वास करने से चामड नाम पडा हैं । देखों उनकि वंसावलियों. (ग) बलाई-रत्नपुरा ठाकुरों के और बोहारजी के तनाजा होने पर बोहारजीने माल बचाने कि गरजसे अपना माल स्टेट गाडियोंमे डाल रात्रि में गाड़ियों पर ‘खालडे' डाल रवाने हुवे पीछे से ठाकुरों के आदमि आने पर बोहारजीने कह दिया कि हम तो बलाइ है तब से इन के बोहार गोत्र वालोंकों बलाइ नाम से पुकारने लगे इत्यादिक कारणों से वह कीसी के साथ लेन देन वैपार करने पर भी हांसी ठठा में नाम पड़ जाते है इसी माफिक अन्य जातियों के लिये समझना चाहिये । विशेष खुलासा "जैन जाति महोदय" नामक किताब में इन जातियों कि उत्पत्ति और वंसावलि से देखना चाहिये। जैन सिद्धान्त इतना तो उदार और विशाल है कि जैन धर्म पालने का अधिकार विश्वमात्र को दे रखा है इस वास्ते ही जैन धर्म विश्वव्यापि धर्म कहलाता है अगर कोइ शूद्र वर्णवाला जैन धर्म पालना चाहे तो वह खुशी से पाल सक्ता है धर्म का संबंध आत्मा के साथ है और न्याति जाति के बन्धन वर्गों की संकलना वह लौकिक आचरणा है आत्मिक धर्म और लौकिक आचरणा के एसा कोइ नियम नहीं है कि अमुक वर्ण व ज्ञाति का हो वह ही अमुक धर्म पाल सके या अमुक धर्म पालनेवाला अमुक ज्ञाति के साथ संबन्ध रखनेवाला होना ही चाहिये । आज भी ओसवालों के अतिरिक्त और भी राजपुत ब्राह्मण महेश्वरी For Private and Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org दूसरी शंका का समाधान. अगरवाले छीपे पाटीदार आदि अनेक ज्ञातियां जैन धर्म्म पालती है पर उन का न्याति जाति का व्यवहार अपनि अपनि ज्ञाति के साथ में है इस रीती से अगर उकेशपुर ( ओशियों) में कोइ शूद्र जैन धर्म पालनेवालों कि कल्पना कर लि जावे तों भी शूद्र जाति का भोजन व बेटी व्यवहार क्षत्रिय ब्राह्मण के साथ होना अर्थात् ओसवालों के साथ होना सिद्ध नहीं होता है। जैसे शैव-विष्णु धर्म पालनेवाले क्षत्रिय ब्राह्मण वैश्य है वैसे ही शूद्र भी है तो क्या कोई यह कल्पना कर सकेगा कि शैव- विष्णु धर्म पालनेवाले शूद्रों का भोजन व बेटी व्यवहार क्षत्रिय ब्राह्मणों के साथ है ? इसी माफीक जैन धर्म पालनेवालों को भी समझ लेना चाहिये । - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शूद्रादि जातियों जैन धर्म नहीं पालने का कारण यह है कि जैन धर्म के नियम ( कायदा ) आचार खान पान इतने उंचे दर्जे के है कि जिसमें मांस मदिरा अभक्ष अनंतकाय तो सर्वथा ताज्य है सुवां सुतक और ऋजोशलादि का वडा परेज रखा जाता है इत्यादि से सख्त नियम शूद्रादि से पालना मुश्किल होने से ही वह जैन धर्म्म पालन करने मे असमर्थ है अगर कोइ शूद्र पूर्व क्षयोपशम से जैन धर्म के नियमानुसार जैन धर्म पालन करता भी हो तो क्या हरजा हैं कारण जैन सिद्धान्तकारों ने श्रात्मा निमित वासी मानी है, और जैनेत्तर लोगो ने भी अपने धर्मशास्त्रों में लिखा है यथा For Private and Personal Use Only (३१) Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४०) जैन जाति महोदय प्र० चोथा. शूद्रोऽपि शीलसम्पन्नो, गुणवान् ब्राह्मणो भवेत् । ब्राह्मणोऽपि क्रियाहीनः, शूद्रापत्य समा भवेत् ॥ १॥ अर्थ:-शील गुणादि सम्पन्न जो शूद्र है वह ब्राह्मण मानाजा सकता है और जो ब्राह्मण अपनि क्रियासे हीन शूद्रत्व कर्म करता हो वह ब्राह्मण भी शूद्र कहलाता है । इस शास्त्रकारोने वर्ण का आधार कर्म पर रख छोडा है कारण जिस्का कर्म अच्छा है उस का परिणाम अच्छा है जिसका परिणाम अच्छा है वह धर्म का पात्र है। इत्यादि इस प्रमाणिक प्रमाणों द्वारा समाधान से हमारे भ्रम वादियों की शंका मूल से दूर हो जाति है और पवित्र प्रोसवाल ज्ञाति २४०० वर्ष पूर्व पवित्र क्षत्रिय वर्ण से उत्पन्न हुई सिद्ध होती है इत्यलम. ताः १५-४-२८ श्रीमदुपकेश गच्छीय मुनि ज्ञानसुन्दर सादडी (मारवाड) उESS For Private and Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SUPEDGIPTESREMEDGTPSPIRSHIRGY संख्याबद्ध पत्रों का एक ही जवाब, जैन जाति महोदय नामक पुस्तक के लिये पहिले जाहिर खबर निकल चुकी थी उस पर जैन जाति प्रेमियों कि तरफ से संख्याबद्ध पत्र पुस्तक मंगाने के लिये हमारे पास पहुँच गये पर उस पुस्तकके प्रकाशित होने में देरी होने का कारण यह हुवा कि उस समय प्रस्तुतः पुस्तक के प्रथम द्वितीय प्रकरण प्रकाशित करने का इरादा था उसके बदले पहिलदूसरा तीसरा और चोथा एवं चार प्रकरण का प्रथम खण्ड पाठकों की सेवा में भेजने का निर्णय किया गया है उम्मेद है कि पर्युषण के पवित्र दिनों में वह प्रथम खण्ड आप की सेवा मे पहुँच जावेगा पत्ता-श्री रत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमाला. मु. फलोदी ( मारवाड) श्री ज्ञानप्रकाश मण्डल. रूण. पोष्ट खजवाना ( मारवाड) SABAILEELSCALERANCIPLESCALSCALERALS PDATEST For Private and Personal Use Only