Book Title: Nyayaratna Darpan
Author(s): Shantivijay
Publisher: Bhikhchand Bhavaji Sakin
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AaronmenameREAKIRCTOR न्यायरत्न दर्पण. जिसको जैनश्वेतांबर धर्मोपदेष्टा-विद्यासागर-न्यायरत्न महाराज-शांतिविजयजीने मुरतिब किया... मुकाम-सीरपुर-खानदेश. इसमें जहोरी दलिपसिंहजी-साकीन कलकताके पत्र और सवालोके जवाब दर्ज है. जिसकों शेट भीखचंदजी भादाजी साकीन पाचोरा मुल्क खानदेशने फायदे जैन श्वेतांवरसंघके छपवाकर जाहिर किया. प्रथमावृति (२५००) (दोहा.) परालब्ध पहले बनी-पिछे बना शरीर, तोभी यह आश्चर्य है-मनुष्य न धारे धीर. १ को सुख को! दुख देत है-देत कर्म झकझोर, उरजत सुरजत आपही-धजा पवनके जोर. २ अहमदाबाद. धी “ डायमंड ज्यूबिली” प्रिन्टिग प्रेसमें परीख देवीदास छगनलालने छापा. संवत् १९७२. सन् १९१५० Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M [ दिवाचा. ] 1 बनाने शुरुआत किताब. इस किताब के छपनेमे देरी इसलियेहुइकि इनदिनोमे मुजे काम बहुत रहा, कइदिनोतक किताब न्यायरत्नदर्पण लिखी हुइ पडीरही, मेरेनामपर कोइमहाशय सवाल पुछे, या चर्चापत्र लिखे में उसका जवाब बिनादिये नही रहता, कभी बसवव कमफुरसत के जवाब देने में देरी होती है, मगर एसा कभी न होगा कि में किसीके सवालोका जवाब न दं, इन्साफके साथ अछेशब्दों में इबारत लिखना पसंद करताहुं इन्साफीलेख सबको पसंद होते है, इसको पढ़कर पाठकवर्ग फायदाहासिलकरे, जिसमहाशयकों इसपर जो कुछ लिखनाहो शौखसे लिखे, मगर शर्त यह है कि बजरीये अखवार या किताबके छपवाकर जाहिर करे, चीठीका जवाबदेना न देना यह ताल्लुक अपनी मरजीके है. इस किताब के पृष्ट अवलपर पंक्ति (११)मी देखो जहां कलगछ छपा है, वहां कवलगछ जानना. आगे पर्वतिथिके और अधिकमहिने के बारेमें किसकदर उमदादलिले दिइगइहै. ब गौर देखे, मुजे उमेदहैकि चर्चाके ग्रंथपढने के शौकिनोको यह जरुर पसंद होगा, आपलोग इसको पढे, और फायदा हासिल करे. [ ग्रंथकर्त्ता. ] w Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (किताब-न्यायरत्न-दर्पण.) (जिसको.) जैनश्वेतांबर धर्मापदेष्टा विद्यासागर न्यायरत्न महाराज शातिविजयजीने फायदे आमके मुरतिब किइ. इसमे जहोरी दलिपसिंहजी साकीन कलकताके पत्र और सात सवालोके जवाब दर्ज है (दोहा.) नमुदेव अरिहंतको, गुरु नमु निग्रंथ; स्याबादवानी नमुं, यही मुक्तिका पंथ. १ जैनश्वेतांबर मजहबमें इस वख्त, तपगछ, कलगछ, खरतरगछ, अंचलगछ, पार्धचंद्रगछ, लोकागछ और विजयगछ वगेरा कई भेद मौजूद है, चुनाये ! में खुद तपगछ समुदायमें हुं लेकिन ! मेरे सामने सब गछके श्रावक आतेजाते है, और. फायदा धर्मका हासिल करते है. संवत् (१९३६) वैशाख सुदी दशमी मिथुन लग्नके वख्त मुल्क पंजाबमें जबसे मेने दिक्षा इख्तियार किई मुल्कोकी सफर करना शुरु किया, वीश वर्ष तक पैदल विहारसे मुल्क पंजाब, मारवाड, मेवाड, गुजरात, राजपुताना, मालवा वगेरामें फिरना हुवा. संवत् (१९५६) में जब मैरा चौमासा शहर लखनऊमें हुवा और वहांसे जब तीर्थसमेतशिखरकी जियारतको जानेकी तयारी किइ, आगे रैलमें बैठकर सफर करना शुरु किया, वीश Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ न्यायरत्नदर्पण. वर्ष पैदलविहारसे और बाद रैल से मुल्क, मगध, बंग, अंग, कालिंग, कौशल, राजपुताना, मध्यप्रदेश, वराड, खानदेश, मालवा, दखन, तैलंग, कर्णाटक, महीशूर, कोकन, मारवाड, मेवाड, सिंध, पंजाब, कश्मिर वगेरामें कई दफे जाना आना हुवा. जहां जहां जिस जिस गछके श्रावक मिलते रहे अपने अपने गछसमुदायके बर्ताव करते रहे और फायदा धर्मका हासिल करते रहे. मजहबी लेख लिखने में या किसीके सवालोंपर जवाब देनेमें मुताविक धर्मशास्त्रोके और दाखलेदलीलोसें काम लेताहुं, धर्मके बारेमें कोई सवाल पुछे ऊसकामाकुल जवाब देना धर्मगुरुओका फर्ज है. और यह एक तरहकी नेंकी है. चाहे कोई उस बातको मंजुर करे या न करे धर्म और प्रीत जोराजोरी नही होती. अपनी कोंमको धार्मिक फायदा पहुचाना और सबको समझमे आसके ऐसे ग्रंथ बनाना यह भी धर्मगुरुओका एक कर्तव्य कार्य है, मेरी तर्फ से बने हुवे ग्रंथ मानवधर्मसंहिता, जैनसंस्कारविधि, रिसाला मजहब इंढिये, त्रिस्तुतिपरामर्श, बयान पारसनाथ पहाड, जैनतीर्थगाइड और सनमपरस्तियेजैन छपकर जाहिर होचुके है, कई वर्सो जैनपत्र में मेरे लेख छपते है, आम जैनसंघ जानता है. संवत् (१९७०) मे जब मेरा चौमासा शहरपुने मुल्क दखनमें हुवा तारिख (२७) जुलाई सन (१९१३) के जैनपत्र में मेने जहोरी दलिपसिंहजी साकीन कलकताके सवालोके जवाब दिये. ऊन जवाबोको पाकर मुनासिब था बजरीये छापेके ऊनका माकुल जवाब देते. ऊनाने बजरीये चीटियोके मुजसे पुछना शुरू किया, मेरा रवाज है वादविवाद के सवालोका जवाब बजरीये छापेके देना लेना. ताकि आमलोगोको फायदा पहुंचे, जब मेने उनकी चीठियोके जवाब बजरीए चीठीके नही दिया, उनोने कार्तिक वदी (८) संवत् (१९७०) के रौजें सोलह नोकी एक छोटीसी किताब छपवाई Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायरत्नदर्पण. जिसका नाम न्यायरत्नजीकी बेंइन्साफी है, उसमें उनोने अपनी भेजी हुई पांचछह चीठियोंकी नकल और सात सवाल छपवाये उनका जवाब इस न्यायरत्नदर्पण किताबमें देताहूं. सुनिये ! . जहोरी दलिपसिंहजीने अपनी किताबके टाइटल पेजपर लिखा है, न्यायरत्नजीकी बेइन्साफी और ऊत्सूत्रप्ररुपणा. __ (जवाब) न्यायरत्नजीकी बेइन्साफी और उत्सुत्रप्ररुपणा क्याथी ? बतलाना चाहिये था. मेने मेरे तारिख (२७) जुलाइ सन (१९१३)के लेखमें लिखा था कि अधिक महिना चातुर्मासिक वार्षिक और कल्याणिकपर्वके व्रतनियममें गीनतीमें नहीं लेना और हरेक महिनेकी जो बारां पर्वतिथि है, टुट जाय तो तोडना नही, पहलेकी अपर्वतिथिमें उस पर्वतिथिको शुमार करना. हरेक महिनेकी बारां पर्वतिथिदुज पंचमी, अष्टमी, एकादशी, चतुर्दशी, पौर्णमासी इसी तरह वदीमें अमावास्या वगेरा जानना. ए वारां पर्वतिथिमेसे कोईभी टुट जाय तो पीछली तिथिमें यानी दुजपर्वतिथि टुट जाय तो प्रतिपदा के रौज दुज शुमार करना. जहां चतुर्दशी और पौर्ण मासी दो पर्वतिथि शाथ आवे और इनमें से कोई पर्वतिथि टुट जाय तो दोनोको नहीं तोडना. त्रयोदशीको तोडकर दोनो कायम रखना और अगर हरेक महिनेकी बारां पर्वतिथिमें कोई पर्वतिथि बढजाय तो पहेलीकों पर्वतिथि न मानकर अगलीको पर्वतिथि शुमार करना, पर्वतिथि घटे तो पीछलीको मीले और बढे तो अगलीको मीले यह एक इन्साफकी बात है. जैसे तीन शख्श एक पीछे एक चलरहे है, उनमें बीचला शख्श अगर चलताहुवा थक जाय तो पीछलेकों मिलेगा, और अगर वही शख्श चलता हुवा ज्यादा चलजाय तो अगलेको मिलेगा. कहिये ! इसमें बेइन्साफ क्या था? ___ आगे आपनी किताबके पृष्ट अवलपर जहोरी दलिपसिंहजीने लिखा है, श्री जिनाज्ञाभिलाषी सर्व सज्जनोसे निवेदन करताई Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायरत्नदर्पण. कि, न्यायरत्न विद्यासागर मग्जने इल्म जैनधर्मोपदेष्टा प्रमुख विशेषणोंको धारण करनेवाले श्री शांतविजयजी महाराज शास्त्रोके प्रमाणोंसे सबके सवालोके जवाब देते है, तथा ऐसा कौनसा सवाल है कि जिसका उतर महाराज नही दे सकते है, इस मुआफिक बडाइकी बाते अकसर सुनताहुं. (जवाब ) विद्यासागर, न्यायरत्न जब दुसरे महाशयोके सवालोके जवाब देते होंगे जभीतो आप लोगोके सुननेमें ऐसा आया होगा कि हरेकके सवालोका जवाब शांतिविजयजी देते है, और उक्त विशेषणोंको धारण करनेवाले है. ___ फिर जहोरी दलिपसिंहजीने अपनी किताबके पृष्ट (२) पर तेहरीर किया है कि, सूर्य प्रज्ञप्तिकी वृत्तिका पाठ और उमास्वातिजीका वाक्य इन दोनो प्रमाणका विशेष खुलासा करनेके वास्ते पत्रद्वारा उनको लिखा. परंतु ऊसका जवाब न आनेसे दुसरा तीसरा अनुक्रम छह पत्र लिखे, जिसमें एक पत्रकी भी पहुंच न मिली. (जवाब) एक पत्रकी भी पहुंच इस लिये नही मीली कि, बजरीये छापेके क्यों नही पुछा ? जब बजरीये छापेके मेने जवाब दिये थे तो बजरीये चीठीके में खुलासा क्यों लिखु ? सूर्यप्राप्ति वृत्तिकी गाथाके बारेमें सुनिये ! पूर्वपक्ष करके अपने पक्षकी साबीतीके लिये कोई महाशय बजरीये छापेके पाठ देते जाय और बदलेके पाठ मुजसे लेते जाय. दोनो तर्फसे पाठ जाहिर होते रहे तो पढनेवालोको फायदा पहुंचे, मेने मेरे लेखमें पुछाथा कि किसी महिनेमें पुनम या अमावास टुट जाय तो बारह पर्वतिथिमें एक पर्वतिथि कम हुई. फिर बारह पर्वतिथिके रौज व्रत नियम करनेवाले कैसे वर्ताव करे ? क्या ! एक दिनका व्रत कम करे ? इसका कोई जवाब देवे. महाराज ऊमास्वातिजीका वाक्य जो मेने मेरे Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायरत्नदपण. (२७) जुलाई सन (१९१३) के लेखमें आधा दिया था. अब पुरा देता हूँ, सुनिये ! क्षये पूर्वा तिथिःकार्या, वृद्धी कार्या तथोत्तराः वीर निर्वाण कल्याणं, कार्य लोकानुगैरिह. इस पाठके लिये महाशय दलपतसिंहजीने अपनी किताबके (९) में पृष्टपर दुसरे पारिग्राफमें लिखा है, यह वाक्य श्राद्धविधि ग्रंथ भाषांतर में मेरे देखने में भी आया है, बस ! फिर इससे ज्यादा सबुत और क्या होगा ? जब उनोने श्राद्धविधि ग्रंथके भाषांतर में देखा है, तो साबीत हो गया शांतिविजयजीने नया नही बनाया. आगे जहोरी दलपतसिंहजीने लिखा है कि उन छह पत्रोकी नकल करके सातमीवार रजीष्टरी भेजी उसका भी उत्तर न मिला. ( जवाब ) तारिख (५) मी अक्टुबर सन (१९१३) के जैनपत्रमें मेने जवाब दिया है कि आपकी चीठी पर्युषणापर्वकी मिली, पहेलेकी चीठीये भी मिलीथी. ऊनकी नकल जीरी करके भेजी सोभी मीली. महाशय दलिपसिंहजीकी किताब कातिक वदी (८) मी संवत् (१९७०) के रौज छपी. मेने जवाब उसके पेस्तर दिया है. फिर जहोरी दलिपसिंहजीने अपनी किताबके पृष्ट (२) पर इस मजमूनकों पेश किया है कि ऐसे विद्वान् इतने विशेषणोको धारण करनेवाले होकरके भी मेरे प्रश्नोका उत्तर न देकर सब पत्रोको दबा बेठे. ( जवाब ) शांतिविजयजी किसीके पत्रोको दवा बेठे यह हर्गिज न होगा, अगर आप लोग बजरीये छापेके पुछते तो बराबर जवाब मिलता, मेरा रवाज है कि - वादविवाद के सवाल जवाब बजरीये छापे लेना देना याते पढनेवालोंकों भी फायदा पहुंचे. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायरत्नदर्पण. आगे जहोरी दलिपसिंहजीने अपनी किताबके (३) पृष्टपर लिखा है. मुनिश्री शांतिविजयजी योग्य दलिपसिंह जहोरीकी वंदना अवधारियेगा. में आजदिन यहां श्रीवा० जयचंद्रजीगणीसे मिला तो उनोने कहा तुमारे सवालका जवाब मु० श्रीशांतिविजयजीने छपवाये है, तुम क्या उत्तर दिया. तो मेने कहा ऊनोने जो पाठ छापेमें लिखे है उनका प्रमाण पुछा है कि किस ठिकानेका है ? जवाब आनेके पीछे लिखुगा, उसपर ऊनोने कहा. क्या ! जवाब देयगे. इस छापेमें महान् अनर्थ किया है, तीर्थकरोके वचनोको उथापकर अपना और अपने रागी जीवोका संसार बढाया है, इस वास्ते उत्तरकी जगह वो तो मुख छिपावेगे. और तुम आनंद करो, जैसा कहकर बडी हंसी करी-सो कृपाकर जल्दी उत्तर दिजियेगा. (जवाब) जिनको सवालोका जवाब जल्दी लेना हो बजरीये छापेके मुजसे पुछे, मेरे लेखको पढकर कोई हंसी करे या आनंद मनावे ऊस बातसे में नाराज नही. मेरे लेखमें मेने कौनसा अनर्थ किया था? तीर्थंकर देवोके कौनसे वचन जथापन किये थे? वाचक-श्रीजयचंद्रजीगणिने बतलाया क्यों नही ? अबभी कोई बतलावे में जवाब दूंगा, मेरे लेख खिलाफ जैनशास्त्रके नहीं, इस लिये उनपर अमल करनेवालोको फायदा होना संभव है. जवाब देनेमें मेने मुख नही छिपाया है, देखिये ! यह किताब उसके जवाबमेंही लिखी गई है, इसपर जिसको जो कुछ लिखना हो. शौखसे लिखे, में जवाब दूंगा. धर्मकी पुख्तगीके लिये कोइ मिशाल दिइ जाय या दुसरा सवाल पेंश किया जाय जोकि उस बातसे संबंध राखता हो यह विषयांतर नहीं कहा जाता. दरअसल ! सत्यवक्ता सत्यको जाहिर करे. अकलमंदलोग सत्य बातको मंजुरही करते है. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायरत्नर्पण. .....फिर जहोरी दलिपसिंहजीने अपनी किताबके पृष्ट (५) पर लिखा है आजदिन श्री वा. जयचंद्रजीगणीने जंबूद्वीपपन्नतिमे (१३) मासका अभिवर्द्धित संवछरमें एक युगके पांच संवत्सर जिनके (१२४) पक्ष (१८३०) दिन ५४९०० मुहुर्त यह पाठ दिखाया सो इस पाठसे तो अधिकमास गिनतीमें प्रमाण है. ( जवाब ) इस पाठमें अभिवर्द्धित संवत्सरका स्वरुप बतलाया है, मगर ऐसा कहां लिखा है कि चातुर्मासिक, वार्षिक या कल्याणिकपर्वके व्रतनियममें अधिक महिनेकी गिनतीमें लो, अगर आप जंबूद्वीप पज्ञप्तिके पाठसे अधिक महिना गिनतीमें प्रमाण मानते है, तो बतलाइये ! जब दो आषाढ आते है, आपलोग पहिले आषाढमें चौमासा क्यों नही बेठाते? इसका कोई जवाब देवे, चौमासा आपलोगभी दुसरे आषाढमें बेठाते है, अब ख्याल किजिये! आपका अधिक महिना गिनतीमें प्रमाण कहां रहा ? चौमासा चार महिनेका होता है. फाल्गुनसे आषाढ तक जो चौमासा गिने तो पहले आषाढकी चतुर्दशीको चौमासिक प्रतिक्रमण करना चाहिये और करते है दुसरे आषाढकी शुक्ल चतुर्दशीको, इससे साबीत हुवा अधिक महिनेको गिनतीमें नहीं लिया, देखिये ! यह किसकदर मजबूत दलील है कि जिसका जवाब देना दुसवार होगा. .. . दुसरी मिशाल यहहै कि जब दो श्रावण आवे तो बतलाइये! तीर्थकर नेमिनाथजीके जन्मकल्याणिककी तिथि श्रावण सुदी पंचमी आप कौनसे श्रावण महिनेमें कायम करेगे? पहलेमें या दुसरेमे ? अगर पहलेमें करेंगे तो दुसरा श्रावण छुटेगा. और अगर दुसरेमें करेगे तो पहेला छुटेगा, अगर दोनोमे करेगे तो पुनरुक्तता आयगी? इसका कोई खुलासा करे. . .. आगे जहोरी दलिपसिंहजीने उक्त किताबके (५)में पृष्टपर इस मजमूनको पेश किया है कि-आपको तो अपने लेख मानवधर्मसं Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायरत्नदर्पण. हिताके पृष्ट (२४) पंक्ति (२०)पर जो जमालिसंबंधी लिखा है, उसका विचार करके जो छापेमे खोटे लेख छपवाये है, उनका छापेद्वारा मिथ्या दुकृत देकर आत्मशुद्धि करना चाहिये अगर सत्य लेख लिखा है, तो शास्त्रानुसार प्रमाण करियेगा. (जवाब ) मेने मेरे लेख शास्त्रानुसार प्रमाण करदिये है इस किताबको अवलसे अखीरतक कोई देखलेवे. और अगर गलत है तो ऐसा कोई साबीत करबतलावे, विना ऐसा किये मुजे कोई कैसे कहसकते है कि-मिथ्या दुकृत देकर आत्मशुद्धि किजिये, जिसके आत्माकों ऊत्सूत्र प्ररुपणारुपी अशुद्धि लगी नही, उसको शुद्धि करनेकी क्या जरुरत ? मेने मेरी बनाई हुई किताब मानवधर्मसंहितामें जो लिखा है कि-जमालिजीने उत्सूत्र भाषण किया मुताबिक सूत्र आवश्यक और ऊत्तराध्ययनके लिखा है, जिनकों शक हो ऊन सूत्रो में देख लेवे. मेने उत्सूत्र भाषण नही किया अगर किया है तो कोई बतलावे. फिर जहोरी दलिपसिंहजीने अपनी किताबके पृष्ट (६) पर लिखा है ऊपरके छह पत्रोकी नकल रजीष्टरी करके भेजता हुं. इसका जवाब आनेतक छपाना बंद किया है, अबभी कृपा करके उत्तर दिजियेगा, नही तो रजीष्टरीकी नकल मिलनेसे तीन दिन पीछे छपाकर प्रकट करुंगा. आसोज वदी (७) मी संवत् १९७०, दलिपसिंह जहोरी, सिकदरपाडा नंबर (१९) कलकत्ता. (जवाब)में यही चाहता था कि बजरीये छापेके मुजसे जवाब मांगे, अछा हुवा आप लोगोने बजरीये छापेके मुजसे पुछा, मेरे पास कई महाशयोकी चीठी बजरीये डाकके रजीष्टरी होकर आती है, चीठीका जवाब देना या न देना मेरी मरजीके ताल्लुक है. ... आगे जहोरी दलिपसिंहजीने अपनी किताबके (८) में पृष्टपर इस मजमूनकों पेंश किया है सुर्य प्रज्ञप्तिकी टीकाका स्थान मेने पुछा Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायरत्नदर्पण. था, ऊनको बतलाना लाजिमथा, सौं न बताकर इसी छापेमें आप लिखते है, किसी जैन पुस्तकालयसे मंगाकर देखिये, उसको मंगबाना और देखना आपका फर्ज है, सो लिखना अनुचित है. इतने बडे ज्योतिष ग्रंथ देखनेकी मेरी योग्यता नही. दोयम ! यह सूत्र मंगवानेसे मुजे कोई भेजभी नही सकता, आगे यह भी लिखा है कि- इतने बडे गहनार्थसूत्रके देखनेकी मुजे आज्ञा आपने किस आधारसे दिई ? ( जवाब ) इतने बडे सूत्रकी टीका देखनेकी आज्ञा मेने इस आधारसे दिइ कि - श्रावकोंकों टीका और भाषांतर देखनेका हुकम है. हां ! मूलसूत्र के पाठकों बाचनेका हुकम नहीं. यह सूत्र आप अगर किसी जैन पुस्तकालयसें मंगवाते तो भेजनेवाले भेजभी सकते थे. आपको इन बातोंको देखने का शौख था, इस लिये मेरा लिखना अनुचित नही था. फिर जहोरी दलिपसिंहजी ने अपनी किताबके पृष्ट (९) पर लिखा है आप अपने (२७) जुलाईके लेखका जवाब मुजसे छापेद्वारा मांगते है, सो अगर में आपसे शास्त्रार्थ करना चाहता तो आपका लिखना ठीक था, मेने तो अपनी शंका निवर्तनके लिये पुछा था. आगे (१०) मे पृष्टपर आपने लिखा है, आपके लेखका जबाब शास्त्र प्रमाणसे श्री जयचंद्रजीगणी देनेको तयार है. ( जवाब ) तयार है तो अछी बात है बजरीये छापेके देवे, आगे आपने तेहरीर किया है कि सवाल जवाब एकही छापेमें छपे तो ठीक है. जवाबमें मालुम हो अखबार के मालिक अपने अपने अखबार के लिये स्वतंत्र है, चाहे किसीका लेख छापे या न छापे उनकी मरजीकी बात है, जिसके देखने में जवाब नही आयगा वे महाशय तलाश करके ऊस छापेकों मंगवा लेयगें. आगे जहोरी दलिपसिंहजी ने अपनी किताब के पृष्ट ( १२ ) मे पर Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायरत्नदर्पण. ~~~~~~~~~~~~~~~~ इस मजमूनको पेंश किया है कि अगर आप ऊत्सूत्रमरुपणाको छोडे और शुद्ध प्ररुपणा करना मंजुर करेंगे तो आपकोभी गुरु मानुंगा, मेने इस लेखमे धर्मरागसे जो कुछ सख्त लेख लिखा है उसके वास्ते माफी चाहता हुं. __ (जवाब) यह आपकी सजनता है, में किसी बातसे नाराज नही, मेरी उत्सूत्रप्ररुपणा कौनसी थी, बतलाना था, विना बतलाये कहना लाजिम नही, मेने मेरे लेखमें लिखा था कि-अधिक महिना चातुर्मासिक, वार्षिक और कल्याणिकपर्वके व्रत नियममें गिनतीमें नहीं लेना सो ठीक है. आपलोगभी जब दो आषाढ आते है तो पहले आषाढमें चौमासा नहीं बेठाते, और कल्याणिकपर्वके व्रतनियमभी दो दो दफे नहीं करते. फिर बात क्या हुई ? दरअसल! बात वही हुई जो में कहताथा, मुजे कोई गुरु माने या न माने. उनकी मरजीकी वात है. में इस बातसे नाराज नही. [जवाब-जहोरी दलिपसिंहजीके सात सवालोका.] फिर जहोरी दलिपसिंहजीने अपनी किताबके पृष्ट (१२)पर लिखा है कि अब कृपा करके नीचे लिखे प्रश्नोका उत्तर शिघ्रतासे जैनपत्रमें दिजियेगा. (जवाब ) चाहे जैनपत्रमें दुं या अलग हूँ मेरी मरजीके ताल्लुक है, कहिये आपके सवाल क्या है ? सवाल-सूर्य प्रज्ञप्ति टीकाकी गाथा "अहजइ” इत्यादि और उमास्वातिजीका वाक्य-क्षयेपूर्वा इत्यादि ये दो प्रमाण आपने छपवाये है उसका खुलासा शास्त्रोके नाम प्राभृत-अध्ययन-पृष्ट प्रमुखसहित जिसजगहके हो सो लिखीयेगा. __ (जवाब ) महाराज ऊमास्वातिजीके वाक्यका पुरासबुतः इसकितावकी शुरुआतमें देचुका हुं. सूर्यप्रज्ञप्तिकी वृत्तिकी गाथाके Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायरत्नदर्पण. लिये पाठ तारिख (२७) जुलाई सन (१९१३)के लेखमें दे दिया है आप लोगोकी तर्फसें मय शास्त्रसबुतके पाठ जाहिर होते रहे तो बदलेके पाठ मेरी तर्फसे भी जाहिर होते रहेगें, खरतरगछवालोकी तर्फसे जो शुद्ध समाचारी किताब छपी हुई है, उसके पृष्ट (१४६) पर महाराजश्री हरिभद्र सूरिकृत-तत्वविचारसार ग्रंथकी गाथा "भवइ जहिं तिहि हाणि"-तथा ऊमास्वातिजी रचित आचारवल्लभ ग्रंथकी गाथा “तिहि पडणे पुव्वतिहि "-वगेरा दिइ है, आंगे ऊंसी शुद्ध समाचारी किताबके पृष्ट (१५०) पर वही महाराजश्री हरिभद्र सूरिजी कृत तत्व तरंगिणी ग्रंथकी गाथा “तिहि बुढीए पुव्वा "-दिइ है यह गाथा उपर लिखे ग्रंथोके कौनकौनसे अधिकारमें है, इसका मयसबुतके कोई पता लिखे, निहायत उमदाबात हो, क्योंकि दोनोतर्फसे पाठ जाहिर होते रहे तो पढनेवालेकोंभी फायदा पहुचे. (सवाल दुसरा )-आप अधिक मासको कालपुरुषकी चोटी कहकर गिनतीमें लेनेका निषेध करते है, परंतु यहां-मुनिश्री मणिसागरजीके पासमें निशीथचूर्णि हाथकी लिखीके प्रथम उदेशके पृष्ट (२१) में तथा दशवैकालिकहद्वृत्ति छपी हुई किपृष्ट (६४१)में पहेली नरककेश्रीमंत नामा नरकावासेकी पृथवीको तथा हरेक मंदिरो-वा-पर्वतोके शिखरोकों और मेरुके उपरवाले (४०) योजनके भागको और सर्वार्थसिद्ध विमानके उपर सिद्धशिला ईन सबोको क्षेत्रचूला कही है. इसी माफिक बारां मासोके उपर अधिक मासकी तथा रितुमासकी अपेक्षासे साठ वर्समें जो एक वर्स बढे ऊसको और चौथे आरेके अंतके पांचमे छठे आरेकों कालचूला कहकर सर्वकालमानकों गिनतीमें लिया है, जैसे नवकारमंत्रके पांचपदोके (३५) अक्षरोके उपर चार चूलिकाके. (३३) अक्षरोकों सामील करके (६८) अक्षरोके नव पदोकों नव Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ न्यायरत्नदर्पण. कार कहते है, तैसेही बारां महिनोके उपरांत तेरहमे महिनेको गिनती में लेकर अभिवर्द्धित संवत्सर कहा है. ( जवाब ) में पेस्तर भी लिख चुका हूं कि यह अभिव र्द्धित संवत्सरका स्वरुप बयान किया है, मगर इसको चातुर्मासिक, वार्षिक और कल्याणिकपर्वके व्रतनियमकी अपेक्षा गिनती में लो, जैसा इस पाठ कहांलिखा है, चर्चा किसवातपर चलतीथी, और ऊतारते हो - किसपर ? निशीथचूर्णि दशवैकालिकगृहद्वृति, और जंबुद्वीपप्रज्ञप्ति पाठसे यह बात साबीत नही होती, अगर आप - लोग अधिक महिनेकों गिनतीमें लेना प्रमाण मानते हो, तो में इस किताबकी आदिमें पेस्तर लिख चुका हूं. दो आषाढ आवे जब पहेले आषाढमें चौमासा क्यों नही बेठाते ? दो आषाढमे दो चौमासिक प्रतिक्रमण क्यों नही करते ? दो श्रावण, या दो भादवे महिने आवे जब दोदफे पर्युषणपर्व तथा दोदके संवत्सरीक प्रतिक्रमण क्यों नही करते ? आपका अधिक महिना गिनती में जब प्रमाण हो कि दोदोदके उपर लिखे हुवे काम करे. और जब कोइ भी अधिक महिना आवे तो तीर्थकरोके कल्याणिक पर्वकी तिथिके व्रत नियम दो दो दफे क्यों नही करते ? ईसका कोई जवाब देवे . इससे साबीत हुवा कि आप लोगभी उपर लिखे हुवे कामोमें अधिक मास गिनतीमें नही लेते, अभिवर्धित संवत्सरको अगाडी लाकर कहदेते हो. देखो ! अधिक महिना गिनतीमे लिया है. में पूछता हुं फिर आपलोग व मुजब उपर लिखेके बर्ताव क्यों नही करते ? जो अधिक महिना चातुर्मासिक, वार्षिक और कल्याणि - पर्व तिथि रौ व्रत नियमकी अपेक्षा गिनती में नही लेना कहता हुं, सो कल्पसूत्र और समवायांगसूत्रके पाठसे कहता हुँ, सुनिये ! Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायरत्नदर्पण. [पाठ कल्पसूत्रका.] तेणंकालेणं तेणंसमयेणं समणेभगवं महावीरे वा. साणं सविसए-राए-मासे विइकंते वासावासं पजोसवइ, [पाठ समवायांगसूत्रका.] वासाणं सवीसइ-राए-मासे विइकंते सत्तरिएहिं राहदिएाहं सेसेहि, इन दोनों पाठोका माइना यह है कि-चौमासा बेठानेके पचासमे रौज संवत्सरीपर्व करना, और बाद संवत्सरीके (७०) दिन पीछाडी रखना, (५०) और (७०) मिलानेसे (१२०) दिन हुवे, और चौमासा पुरा हुवा, अगर अधिक महिना गिनतीमें प्रमाण होता तो कल्पसूत्र और समवायांगसूत्रके पाठमें जैसाबयान जरुर होता कि यातो संवत्सरीके पेस्तर (८०) दिन रखना, या बाद संवत्सरीके (१००) दिन बाकी रखना. इससे साबीत हुवा कि अधिक महिना चातुर्मासिक-वार्षिक और कल्याणिकपर्व वगेराके व्रतनियमकी अपेक्षा गिनतीमें नहीं लेना, आप लोग जब दो श्रावण या दोभादवे महिने आते है, चौमासेके पचासमें रोज कल्पसूत्रके आधारसे संवत्सरी करलेते हो, मगर बाद संवत्सरीके जो (७०) दिन बाकी रखना समवायांगसूत्रका फरमान है उसपर ख्याल नहीं करते. क्योंकि आप लोगोकी गिनतीसे बाद संवत्सरीके (१००) दिन रहजाते है, इसका कोई जवाब देवे. सवाल-तीसरा, अनादिकालमें अनंतचौविशी बतीत हो गई, ईसमें अनंते अधिक मास हुवे, इसको सभी तीर्थकरोने गिनतीमे लिये है. ___ (जवाब ) अगर सभी तीर्थंकरोने अधिक मास गिनतीमें लिये है, तो तीर्थंकर महावीरस्वामीने चातुर्मासिक, वार्षिक और Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायरत्नदर्पण. कल्याणिकपर्वके व्रतनियममें अधिकमहिना गिनतीमें क्यों नही लिया ? और (१२०) दिनका चौमासा कल्पसूत्र और समवायांगसूत्रके पाठमें क्यौं फरमाया ? तीर्थंकर महावीरस्वामी महाराज भी अतीतकालमें होये हुवे अनंते तीर्थंकरोमें ही है, कुछ जुदे तो है नहीं फिर ऊनोने एकसोपचास दिनका चौमासा क्यों नहीं फरमाया ? इस बातको सौचो ! अगर अनंते तीर्थकरोमें-महावीरस्वामीको गिनते हो तो उनका फरमाना मंजुर करो, यातो कहो ! हम अकेले कल्पसूत्रके पाठपरही चलते है. समवायांगसूत्रके पाठपर अमल नहीं करते, या कहो ! दोनों पाठोपर अमल करते है, अगर दोनोपाठोपर अमलकरोगे तो साबीत होजायगा. चातुर्मासिक, वार्षिक और कल्याणिपर्वके व्रत नियमकी अपेक्षा अधिक महिना गिनतीमें नही लिया जाता, मेरा कहना पहले भी यही था, और अबभी यही है. ____ आगे इसी तीसरे सवालमें जहोरी दलिपसिंहजीने लिखा है कि तीर्थंकरोके कल्याणिक मासवृद्धिसे प्रथम या दुसरे महिनेके पहिले या दुसरे पक्षमें जिसतिथिको हुवे हो ऊसी माफिक माने है. - (जवाब) इस लेखका मतलब यह निकला कि अधिक महिनेमे पनरांदिन पहले महिनेके छोडना, और पनरादिन दुसरे महिनेके छोडना, फिर बात क्या हुई ? बात यही हुई कि एक महिना तो बीचमे छुटही गया, मेरा जो कुछ कहना था वही बात आगई. दरअसल ! आपके अधिक महिनेका भेद यहां खुल गया, निशीथचूर्णि-दशवैकालिकहवृत्ति और जंबूद्वीपप्रज्ञप्तिका पाठ कहां गया ? इधर उधर फिरकर ऊसी बातपर आये, जो शांतिविजयजी कहते थे,-इस लेखसे साबीत होगया कि आप भी कल्याणिकपर्वके व्रतनियममें अधिकमहिना गिनतीमें नही लेते. . - फिर इसी तीसरे सवालमें जहोरी दलिपसिंहजीने लिखा है Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायरत्नदर्पण. कि आपके गुरु महाराजका स्वर्गवास संवत् (१९५३) प्रथम ज्यष्ठके दुसरे पक्षकी (७) मी मंगळवारकों हुवा, तो जब दोज्येष्ठ मास होवेगे तब प्रथमज्येष्ठके दुसरेपक्षमें उनका ओछव होना चाहिये, तो फिर आप पुनरुक्ति दोष बताकर अनंत तीर्थंकरोकी आज्ञा उथापनकरके अपने संयम तथा सम्यक्तको हानिकारक प्ररुपणा क्यों करते है, __ (जवाब) मेरी प्ररुपणा सम्यक्तको हानिकारक नही, और तीर्थकरोके वचनको ऊथापन करनेवाली नहीं, आप लोग अधिक महिनेको गिनतीमें प्रमाण मानते हो, इसलिये आपको तीर्थकरोके कल्याणपर्व दोदोदफे मानना पडेगा. फर्जकरो ! कभी दो पोष महिने आ जाय तब तीर्थकर पार्श्वनाथ महाराजका जन्म कल्याणक बतलाईये ! कौनसे पौषमें करेगे, अगर पहलेपौषमें करेंगे तो दुसरा पौष छुटेगे, अगर दुसरेमें करेंगे तो पहला छुटेगा, अगर दोनोंमें करेंगे तो पुनरुक्त दोष आयगा-अब सुनिये ! मेरे गुरुजीका उत्सव मुताबिक फरमान आपके पहेले ज्येष्टमे किया तो दुसरा ज्येष्ट छुटा, और दुसरेमे किया तो पेहला ज्येष्ट छुटा, आखीरकार महिना एक छुटता ही है, यातो ! पुनरुक्त दोष गिनो या एक महिना छोडो, असलमे (३०) दिन छोडना मंजुर ही रहा, अब अधिक महिना गिनतीमें प्रमाण कहां रहा? ____सवाल चौथा, तारिख (२७) जुलाई सन ( १९१३ )के लेखमें आपने लिखा कि जैनज्योतिषमें तिथिकी हानिवृद्धि दोनों होती है, परंतु यहां मुनिश्री मणिसागरजी कहते है चंद्रप्रज्ञप्ति-ज्योतिषकरंडक वृत्ति-लोकप्रकाश विचारामृतसंग्रहवगेरा शास्त्रोके प्रमाण अनुसार जैनज्योतिषकी गिनतीमें (६१)मी अवमरात्री होकर (६२) मी तिथिका क्षय आता है, और छपाहुवा लोक प्रकाशनामा ग्रंथके स्वर्ग (२८)मा पृष्ट (११२१)से (११३०) तक देखलेना वृद्धिका Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायरत्नदर्पण. सर्वदा अभाव है, तो फिर आपने किस शास्त्रानुसार वृद्धि होनेका लिखा? शास्त्रका पाठ जाहिर किजियेगा. (जवाब) लिजिये ! शास्त्रपाठ जाहिर करता हुँ, सुनिये ! छपे हुवे लोक प्रकाशके पृष्ट (११३१) पर (४४)मे श्लोकमे साफ लिखा है. चंद्रमासविवक्षायां सूर्यमासव्यपेक्षया । कालस्य हानिवृद्धिश्च सूर्यमास विवक्षणे ॥ कर्ममास (यानी) रितुमास और चंद्रमासकी अपेक्षा हानि, और रितुमास सूर्यमासकी अपेक्षा वृद्धि होती है. देखिये ! मेने हानिद्धिके बारेमें जैनशास्त्रका पाठ बतलादिया, सूर्यप्रज्ञप्तिकी वृत्तिमें जहां अवमरात्रीका अधिकार चला है वहां लिखा है कर्म मासकी अपेक्षा सूर्यमासकी गिनतीसे एक अधिक रात्री होती है. (३०) अहो रात्रीका एक कर्ममास (यानी) रितुमास होता है. और साढेतीस अहोरात्रीका एक सूर्यमास होता है. दो महिनेकी एक रितु होती है, इस गिनतीसें छह रितुमें छह अहोरात्र बढे, ख्याल किजिये ! इस अपेक्षा हानिद्धि होना साबीत हुवा या नही ? अकलमंदोको चाहिये, दोनो तर्फके पाठ देखकर उसके नतीजेपर आवे. दुसरी यहबात है कि ग्रहोके परिवर्तनसे अगर कालकी हानिवृद्धि नहोती हो तो महिना कहांसे बढेगा? फिरतो आपका अधिक महिनाही ऊड जायगा, यातो! आप जैनज्योतिषपर चलना कायम करे या लौकिक ज्योतिषपर ! जब दो श्रावण या दो भादवै आते है तो बतलाइए ! जैनज्योतिषमें इन महिनोकी वृद्धि होती है या नहीं ? इसका कोई जवाब देवे. सवाल-पांचमा, इस सवालमें जहोरी दलिपींसहजीने लिखा है कि आप कहते है लौकिक पंचांगके मुजब पर्वतिथिका क्षय हम Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायरत्नदर्पण. नही मानते है, तो संवत् (१९६२)के जोधपुर पंचांगमे भाद्रपद सुदी पंचमीका क्षयथा, उसी मुजब बंबईकी मांगरोल जैनसभाने और भावनमरकी जैनधर्मप्रसारक सभा वगेराके सर्व पंचांगोमें पंचमीका क्षय माना, और आपनेभी खानदेश धुलिया शहरमें चौमासाकरके पंचमीका क्षयमानकर चौथकों खरतरगछवालोके साथ संवत्सरीप्रतिक्रमण क्यों किया? इसका खुलासा दिजियेगा, _(जवाब) सुनिये! खुलासा देताई. दरअसल! तमामजैनो. को मुताबिक जैनज्योतिषके बर्ताव करना चाहिये, और में वैसाही करताहूं. संवत् (१९६२)का पंचांग निकालकर देखिये! वपगछवाले मुताबिक जैनज्योतिषके बर्ताव करते है, भाद्रपद शुक्ल चतुर्थीकी संवत्सरी करना तपगछ खरतरगछवाले दोनो मानते है, इसमें एक दुसरेका साथ क्या किया? शिवायतपगछ खरतरगछके दुसरेभी कईगछ जैनश्वेतांवरसंघमें मौजूद है जो चतुर्थीकी संवत्सरी मानते है. जैसे आपनेकहा खरतरगछवालोका साथ किया वैसे, दुसरे गछवाले कहेगे हमारा साथ किया, असलमें कोई गछवाले हो तमामजैनोको मुताबिक जैनज्योतिषके बर्ताव करना चाहिये. सवाल छठा-देशकालानुसार जो कोई आचरणा प्रभाविक आचार्य करे वो सर्व जैनसंघ मंजुरकरे, उसीके अनुसार सर्वगछोके पूवाचार्योने व्याख्यानके समय मुहपत्ति बांधना शुरु कियाहै, और पूवाचार्योंकी आज्ञा न माने यो मिथ्यात्वी और अनंतसंसारी कहा. (जवाब) किस जैनाचार्यने कौनसे संवत्में व्याख्यानके वख्त मुखपर मुखवस्त्रिका बांधना शुरु किया? इसका सबुत क्यौं नही बतलाया? पूर्वाचार्य कुछ जिनेंद्रोसे ज्ञानमे बडे नही, क्या ! देशकालके जाननेवाले तीर्थंकर देव नही थे ? उनको तो अपने केवलज्ञानमें देशकाल सबकुछ जानपडताथा, रूढी और आचरणा धर्मशास्त्रसे बडी नही, रूढी तो कईतरहकी.चलपडेगी, कहांतक कोई Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायरत्नदर्पण. ऊसपर अमल करेंगे. जो बात धर्मशास्त्रोमे लिखी होगी वही काविलमंजुर करनेके होगी. दरअसल! किसी जैनागममें जैनमुनिको व्याख्यानके वख्त या तमामदिन मुखपर मुखपत्रिका बांधना नही लिखा, अगर लिखा है तो कोईपाठ बतलावे, मेने कईदफे जैनअखबारोमें इसके बारेमें लेख दिये, मगर किसी जैनने जवाब नहीं दिया. औधनियुक्तिशास्त्रमे साफ लिखाहैकि जैनमुनि मुखवत्रिका मुखके आगे रखे. याते कोई रज रेणुं या जंतु मुखमें न आनगिरे, शास्त्रवाचतेवख्त अपने मुखका थुक शास्त्रपर न गिरे, शिवाय इसके दुसरा कोई सबब नही. ... आगे इसी छठे सवालमें जहोरी दलिपसिंहजीने लिखा है: आपके गुरुमहाराजश्री आत्मारामजीने अज्ञानतिमिरभास्करके पृष्ट (३२०)में यह गाथा लिखी है. .. छठठमदसमदुवालसेहिं मासद्धमास खमणेहिं, .... अकरंतो गुरुवयणं अणंतसंसारिओ भणिओ.. · तो फिर आप व्याख्यानसमय मुहपत्ति बांधनेका निषेधकरके गुरुजन पूर्वाचार्योकी आशातनासे अनंतसंसारका कारण क्यों करते हो? • (जवाब ) व्याख्यानके वख्त मुहपर मुहपत्ति बांधना किसी जैनशास्त्रमें नही लिखा, और इसीलिये में निषेध करताहुँ, आप अगर इसका कोईपाठ बतलावे तो मेरा निषेधकरना बंद होसकता है, आचरणा परंपरा या रुढी तीर्थकरोके फरमानसे बडी नही महाराजश्री आत्मारामजी आनंदविजयजी साहबने अज्ञान तिमिरभास्कर ग्रंथके पृष्ट (३२०)पर जो गुरुकी आज्ञा न माने ऊसको अनंतसंसारी कहा, यह उसी गुरुकी अपेक्षा कहाहै, जो मुताबिकफरमान तीर्थकर गणधरोके चलनेवाले हो. मनमानी आचरणा या रूढी चलानेवालोके लिये नहीं कहा. .... Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायरत्नदर्पण. १९ सवाल सातमा . - जहोरी दलिपसिंहजीने इसमें लिखा है, आप कईदफे छापेमें लिखते है रैल हमारे वास्ते नही बनी, तो हमारे बेठने में क्या दोष है ? इससे तो कसाई जीवहिंसा करता है तो किसीका नामलेकर नही करता, फिर मांसखानेवालेको दोष लगे या नही ? वैसेही हलवाई भी सबतरहकी मीठाई बनाता है तो किसीका नामलेकर नहीं बनाता, फिर जैनमुनिकों मौललेकर खानेमें क्या ! दोष है ? अगर आप कहेगे दोषनहीतो साधुके गौचरीके बेतालीश दोषो में क्यों मनाकिया ? और यदि आपकहेगे दोष है तो रैलमेभी दोष क्यों नही ? ( जवाब ) रैलमें बेठनेवाले जैनमुनिको दोष इसलिये नही कि ऊनका इरादा धर्मका है, पांचइंद्रियोकी विषयपुष्टिका नही, कसाईके पाससे मांस मौल लेनेवालेको पाप इसलिये है कि उनका ईरादा पांचइंद्रियोंकी विषयपुष्टिका है, धर्मका नही. हलवाई के बहाँसे मिठाई मौललेनेके बारेमेभी ईरादेपर बात है. जैनमुनि परिग्रहके त्यागी होते हैं. फिर वे हलवाईके पाससे मिठाई मौलकैसे लेयगे ? जैनमुनिकों भिक्षामांगकर अपनागुजरान करना कहा. कोई महाशय चाहे जितनी दलील पेंशकरे, सामने ईन्साफके बेइन्साफी बातोंका गुजर नही. जैनमुनिको विहारके वरुन रास्तेमें नदी आजाय तो नावमें बेठकर पार होना हुकम है, चुनाचे ! नदीमें नाव चलनेसे पानी के जीवोकी हिंसा होती है, मगर इरादा धर्मका होनेसे भावहिंसा नहीं, और विनाभाव हिंसा के पाप नहीं, इसी तरह रैलके लिये भी समजो आजकल कई श्रावक बसबब रैलके अपना बतन छोड़कर दुरदुरके मुल्कोंमें जाबसे हैं, जहांकि जैनधर्मका जाननेवाला उपदेशक नही मिलता, अगर उसजगह कोई जैनमुनि बजरीये रैलके जावे और वहां तालीमधर्मकी देवे, तो धर्मका फायदा है, हां ! Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायरलदर्पण. अगर कोई जैनमुनि शौखसे रैलमें बेठकर मुल्कोकी सफर करे तो बेशक! पाप है. और उसकी मुमानियतभी है, क्योंकि ईरादा उनका धर्मपर नहीं रहा. ___ आगे इसीसातवे सवालमे जहोरी दलिपसिंहजीने लिखा है इसके आलावे रैलमें बैठनेवाले जैनमुनिकों टिकिटखर्चकी चिंता स्त्रीसंघटा रात्रीविहार दीपकका ऊजाला सुखशीलता प्रमाद ग्रामोके चैत्यदर्शनका अभाव वहाँके श्रावकोंकों धर्मोपदेशकी अंतराय तथा टेशनपरसे घोडे गाडीपर सवार होकर रात्रीकों गांवमें जाना, बेटाइमपर गौचरीका अभाव वगेरा दोषोका कारण क्यों करते हो ? सो कृपा करके सब बातका स्पष्ट खुलासा लिखियेगा. _ (जवाब.) सब बातका स्पष्ट खुलासा लिखताहुं सुनिये ! रैलविहारी जैनश्वेतांवर मुनियोके लिये आदमी भेजकर टिकिटखर्चका बंदोबस्त श्रावक लोग करते है, निस्पृही सत्यवक्ता और अपने पूर्वकृत कर्मपर भरुसा रखनेवालोके सब काम ठीक ठीक तौरसे हुवा करते है, जो जो जैनश्वेतांबरमुनि पेतालिस आगमके पुरेजानकार और पंडित है, उनको हरजगह भक्ति करनेवाले श्रावकलोग मिलते है, ज्ञान एक ऐसी उमदा चीज है कि उसकी हरेक सख्सकों जरुर पडती है. इस लिखनेका मतलब यह है कि ज्ञान एक पूजनीक गुण है, दुसरीबात यह है कि हरेक बख्शको अपने लाभांतराय कर्मके दुढनेपर योग्य चीज मीलती है, जैनशाखमें लिखा है कि:..अंतरायक्षयादेव, लाभो भवति नान्यथा; ततश्च वस्तुतत्वज्ञो, नो लाभमदमुद्वहेत्. १ इसका मतलब यह हुषा कि अपने लाभांतरायकर्मके क्षयसे जीवको योग्य चीज मिलती है इस लिये पदार्थज्ञानको जाननेवाले Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायरत्नदर्पण. महाशय फायदा होनेपरभी किसी तरहका मान नही धराते, जलमें नाव चलती है, जमीनपर रैल चलती है, जमीनसे पानीमें ज्यादा जीवहिंसाहोनेका सबब है, इस बातपर कोई गौर करे. . रैलमें बेठनेवाले जैनश्वेतांबरमुनिकों परिग्रहकी वृद्धि होगी ऐसा जो पुछा गया है, उसका जवाब सुनिये ! लोभलालचमें न पडेतो परिग्रहकी वृद्धि नही होसकती, यह एक सिधी सडक है, रैलमें सफर करनेवाले जैनमुनिकों स्त्रीयोका संघटा होगा ऐसा जो पुछा गया है, जवाबमें मालुम हो, उपयोगसे बर्तावकरे या अलगकंपार्टमें बैठे तो स्त्री स्पर्श नही हो सकता, रैलविहारी जैनमुनियोके लिये रात्रीको विहार करनेका और दीयेका चांदना लगनेका जो पुछा. गया है, जवाबमें मालुम हो दिनमें जानेवाली रैलमें सफर करे तो ये दोनों बातें बचसकती है. रैलमें जानेसे सुखशीलता और प्रमाद बढेगा ऐसा जो पुछा गया है जवाबमें मालुम हो, सुखशीलता और ममाद जब बढे कि रैलमें बेठनेवाले जैनमुनि एक गांव या शहरमें बहुत अर्सेतक कयाम करे, में हरवख्त विचरता रहताहुं, में जिसगांव या शहरमें जाताहुं, व्याख्यानधर्मशास्त्रका हमेशां देताहुँ, ग्रंथ बनानेके काममें या किसीके सवालोंपर जवाब देनेमें लगा रहताहुं. जो लोग मेरे सहवासमें आचुके है बखूबी जानते होगें.. ___रैलमें बेठनेवाले जैनमुनिको हरेकगांवोके चैत्यदर्शनका अभाव होगा, ऐसा जो पुछागया है, जवाबमें मालुम हो, पैदलविहारी जैनमुनिकोभी यह अभाव बनारहेगा, जोजो गांव रास्तेमें पडेगें उसजगहके जिनमंदिरोके दर्शन करसकेगें, ईसीतरह रैलबिहारी जैनमुनिभी जहां जिनमंदिरका योगहोगा, उतरकर दर्शन करसकेगें. आपलोगोने जैनशास्त्रोमें कईजगह सुनाहोगा कि पेस्तर जंघाचारण विद्याचारण जैनमुनि अपनी लब्धिसे आसमानमें ऊडतेथे. कहिये! ऊनकोंभी रास्तेमें हरेकगांवके चैत्यदर्शनका अभाव होताथा या Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायरत्नदर्पण. नही ? मगर इससे क्या हुवा? और जब वें अपनी लब्धिसे आस्मानमें ऊडतेथे, तो बतलाइये! उनके शरीरसे जो वायुकायके जीवोकी हिंसा होतीथी, ऊसका पाप ऊनको लगताथा या नहीं ? अमर कहाजाय इरादा धर्मकाथा, इसलिये भावहिंसा नही और विना भावहिंसाके पाप नहीं, तो इसीतरह रैलविहारके लियेभी समजो. : रैलमें बेठनेवाले जैनमुनिको हरेकगांवके श्रावकोकों धर्मोपदेश देनेकी अंतराय रहेगी, ऐसा जो पुछागया है, जवाबमें मालुम हो, जहां पैदलविहारी जैनमुनि नहीं जासकेगें रैलविहारी जैनमुनि जासकेगे, इसलिये उनको धर्मोपदेश देनेकी अंतराय नही, बल्कि! छुट रहेगी. मेने जो किताब जैनतीर्थगाइड बनाई है, उसमे देखो! कहां कहांतक मेराजाना हुवाहै, करीब (६) वर्ष तक जैनश्वेतांबर तीर्थोकी तलाशीमें फिरना हुवा, पुराने शिलालेखोको अपनी नजरसे देखकर बडीमहेनतसे ऊनकी नकल किई, कईमहाशय जैनश्वेतांबरतीर्थकी मरम्मत करवाते है, कई जैनमंदिर बनवाते है, मेने खयाल किया एक किताब ऐसी बनाना चाहिये, जिसमें तमाम जैनश्वेतांबरतीर्थोंकी प्राचीनताका हाल मिलसके. गोया! मजकुर किताब जैनश्वेतांबरतीर्थोंका एक मखजन है, इतनी शोध करनेपरभी मेने किसीपर कुछआसान नहीं किया, अपनेआत्माके अशुभकर्मोकी निर्जराके लिये प्रयत्न किया है, जैनधर्मकी प्राचीनताके लेख मयसबुतके अपनी कोमकेसामने पेशकरना, हरेक जैनका फर्ज है, वहीफर्ज मेने अदा किया है. - संवत् (१९६५) में जब मेराजाना मुल्क दखन हैदराबादके आगे तीर्थ कुल्पाकजीमें हुवाथा, उसवख्त ऊसतीर्थकी किसकदर कमजोरहालत होगईथी, देखनेवाले जानते होगे, मेने वहांपर आये हुवे देखनहैदराबाद और सिकंदराबादके श्रावकोकों जीर्णोद्धारके लिये उपदेश दिया, ऊसीसालमें जीर्णोद्धारका काम जारी हुवा, Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायरत्नदर्पण. २३ और आज उसतीर्थकी कितनी तरक्की हुई है ? कोई जाकर देखे, या दखन हैदराबाद, सिकंदराबादके श्रावकोसें दरयाफत करे, पहले के जैनाचार्योने और जैन मुनियोने जोजो फायदे जैन संघकों पहुचाये ऊनकी बराबरी आपन लोगोसे क्या होसकती है ? मगर जब कोई इस बात का सवाल करे तो सचबात लिखना कोई बेंइन्साफ नही. इसलिये यह बात लिखी गई है. आगे रैलविहारी जैनमुनिको बगीमें बेठकर रात्रीको गांव में जाना पडेगा ऐसा जो पुछा गया है उसके जवाब में मालुम हो, दिनमें जानेवाली रैलमें बेठे और टेशनपरसे दिनमें पैदलविहार से शहेरमें जावेतो जासकते है, रैलमें बेठनेवाले जैनमुनिको कभी बेंटाइम गोचरी जाना पडेगा, ऐसा जो पुछागया है, जवाब में मालुम हो, बेंटाइम गौचरी न जावे, और वख्त होनेपर जावे तो जासकते है, देखिये ! सब बातोंके स्पष्ट खुलासे देदिये है, सात सवालो के जवाब खतम हुवे, इसपर जो कुछ लिखनाहो, शौखसे लिखे फिर जवाब दूंगा. फिर जहोरी दलिपसिंहजीने अपनी किताबके पृष्ट (१५) पर लिखा है कि न्यायरत्नजी महाराजसें विनति करताहुं के इस लेख में लोकी क्षमाकरके आप अन्यअन्य बातोंकी आड और विषयांतर न लेकर इन सात प्रश्नोका शिघ्रता से उत्तर दिजियेगा, इस तस्दीकी माफी किजियेगाजी, आपका उत्तराभिलाषी कृपाकांक्षी दलिपसिंह जहोरी . - ( जवाब . ) यह किताव न्यायरत्नदर्पण बतौर जवाबके दिई जाती है, छह चीठी और सातसवालोके जवाब इसमें दर्ज है, मेने दुसरीबातोकी आड नही लिइ, और न विषयांतर किया है, आपके लेखोको सामने रखकर बराबर जवाब देता रहाहुं. आगे जहोरी दलिपसिंहजीने अपनी किताबकी अखीरमें पृष्ट Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २४ म्यायरत्नदर्पण. (१६) पर लिखा है, सब सज्जनोसे विनति करनेमें आती है के इस पुस्तककों आप बांचे, दुसरोकों बचावे, तथा सर्वमें प्रगट करे, और सत्यकी परीक्षा करे. ___ (जवाब.) इस किताबकोंभी आप देखे, अपने दोस्तोंको दिखलावे, सचबातका इम्तिहान करे, और इसमें दिइ हुई दलीलोपर गौर करे, मुजे उमेद है चर्चाके ग्रंथ पढनेके शौकिनोंको यह किताब जरुर पसंद होगी. __ व कल्म जैनश्वेतांबर धर्मोपदेष्टा विद्यासागर न्यायरत्न मुनि शांतिविजय. Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जिनाय नमः ] [कवि-सुरजमलजी-साकीन-उदयपुर-मुल्क मेवाडकी बनाइहुई लावनी.] cresterrenterresserserirreserien विद्यासागर न्यायरत्न श्री शांतिविजयजी-बडे अणगार, संयमलिनो आपने छोडयो कुटुंबसब धनघरवार, भावनगर गुजरातके माही-शहरबडो भारी उत्तम, धन्यहै धरणी वहांकी जहां मुनिजी लियोहै जनम, धन्य पिता मानकचंदजीको-वे चलते जिनमतको धरम, थे सतवादी जिनके पुत्र कहलाये अनुपम, धन्यवाद लियातकवरकों-माता बुद्धिकी बीअसम, संस्कारसे आप आजन्मे उदयभये निजपूरवकरम, महाजन विशाओशवालथे-जूठवचन नही एकलगार, संयमलीनो आपने छोडयो-कुटुंबसबधनघरबार. विद्या.१ श्रीरी आत्माराममहाराज-जिनोमे लिये आपको है पहिचान, दीक्षालिनी साल उन्नीस और छत्तीसप्रमान, वेशाखशुक्ल दसमी गुरुवारे-हुवेसंयमी चतुरसुजान, मलेरकोट पांचालमुल्कमें जानतहै सब निखिलजहान, धर्मशास्त्रकों पढे मुनिश्वर- व्याकरणकोशको भारीज्ञान, सर्वशास्त्रकों आपने पृथक् पृथक् लिनेसबमान, पंजाब पूरव मारवाड-गुजरात मालवाको दियोतार, संयमलीनो आपने छोड्यो कुटुंब सबधनघरबार विद्या.२ Gooo her oge Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दखनमेंगये आपमुनिजी-जिनमत खूबदिपायाहै, देशदेशमें आपका सुजश बहोतसा छायाहै, मानवधर्मसंहिता एकपुस्तक-बहोत खूब फरमायाहै, प्रश्नपांचको खंडनकरके मजहब रिसाला बनायाहै, तीनथुइका परामर्श एक-तीनथुइमें रचायाहैं, विधि जैनसंस्कार बनाकर तनपरयश उपजाया है, गृहस्थापनमें नाम हटीसिंह-जन्यलग्नमें विदितविचार, संयमलीनो आपने छोड्यो कुटुंब सबधनघरवार. विद्या.३ उन्नीसवर्षकी उमरआपकी-जबसे यह संयम धार्यो, धन्यमुनिजी आपने कामक्रोध रिपुको मार्यो, सकल कामना तजी जग्तकी-लोभपाप पावकजार्यो, धन्यहो स्वामीआपने निजातम कारजसार्यो, विद्यासागर न्यायरत्नमुनि-धर्मधुरंधर पदधाया, देशदेश और नगर गांवमें सुजश आपने विस्तार्यो, सुरजमल्लकी हाथजोडकर-मुनिजीवंदना वारंवार, संयमलीनो आपने छोडयो कुटुंब सबंधनघरबार, विद्या.१ [ दोहा.] - मोहरायके राज्यमें-धर्मराएकी आन, बरतावे चेतन तदा-जीवित जन्मप्रमान. 1 सीजनबरमविधानमारकयात्रा ऊसफीसभातगाडया आजाराहरसौभागमा नपदुइभीप्नजाचाडचापीयाना