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“અહો! શ્રુતજ્ઞાનમ્” ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર ૧૯૩
ન્યાયબિંદુ સટીક
: દ્રવ્ય સહાયક : શ્રી પ્રેમ-ભુવનભાનુસૂરિજી સમુદાયની દીક્ષાદાનેશ્વરી પૂ. આ. શ્રી ગુણરત્નસૂરીશ્વરજી મ.સા.ના આજ્ઞાનુવર્તિની પ્રવર્તિની પૂ. સા. શ્રી પુણ્યરેખાશ્રીજી મ. ના શિષ્યા પુ. સા. શ્રી ગુણજ્ઞરેખાશ્રીજી મ.ની પ્રેરણાથી
શ્રી મલ્લીનાથ એપાર્ટમેન્ટ, શાહીબાગ શ્રાવિકા ઉપાશ્રયના જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી
: સંયોજક : શાહ બાબુલાલ સનેમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૫ (મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543
સંવત ૨૦૭૧
ઈ. ૨૦૧૫
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
પૃષ્ઠ
___84
___810
010
011
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६५ (ई. 2009) सेट नं.-१ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। ક્રમાંક પુસ્તકનું નામ
ता-टी515ार-संपES | 001 | श्री नंदीसूत्र अवचूरी
| पू. विक्रमसूरिजी म.सा.
238 | 002 | श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी
| पू. जिनदासगणि चूर्णीकार
286 003 श्री अर्हद्गीता-भगवद्गीता
प. मेघविजयजी गणि म.सा. 004 | श्री अर्हच्चूडामणि सारसटीकः
पू. भद्रबाहुस्वामी म.सा. | 005 | श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं
पू. पद्मसागरजी गणि म.सा. | 006 | श्री मानतुङ्गशास्त्रम्
| पू. मानतुंगविजयजी म.सा. | 007 | अपराजितपृच्छा
श्री बी. भट्टाचार्य 008 शिल्प स्मृति वास्तु विद्यायाम्
श्री नंदलाल चुनिलाल सोमपुरा 850 | 009 | शिल्परत्नम् भाग-१
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री 322 शिल्परत्नम् भाग-२
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री 280 प्रासादतिलक
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
162 | 012 | काश्यशिल्पम्
श्री विनायक गणेश आपटे
302 प्रासादमजरी
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
156 014 | राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र
श्री नारायण भारती गोंसाई
352 | शिल्पदीपक
श्री गंगाधरजी प्रणीत
120 | वास्तुसार
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई दीपार्णव उत्तरार्ध
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
110 જિનપ્રાસાદ માર્તણ્ડ
શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલ સોમપુરા
498 | जैन ग्रंथावली
श्री जैन श्वेताम्बर कोन्फ्रन्स 502 | હીરકલશ જૈન જ્યોતિષ
શ્રી હિમતરામ મહાશંકર જાની 021 न्यायप्रवेशः भाग-१
श्री आनंदशंकर बी. ध्रुव 022 | दीपार्णव पूर्वार्ध
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 023 अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-१
पू. मुनिचंद्रसूरिजी म.सा.
452 024 | अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-२
श्री एच. आर. कापडीआ
500 025 | प्राकृत व्याकरण भाषांतर सह
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
454 026 | तत्त्पोपप्लवसिंहः
| श्री जयराशी भट्ट, बी. भट्टाचार्य
188 | 027 | शक्तिवादादर्शः
| श्री सुदर्शनाचार्य शास्त्री
214 | क्षीरार्णव
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
414 029 | वेधवास्तु प्रभाकर
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
___192
013
454 226 640
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030
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053
054
शिल्परत्नाकर
प्रासाद मंडन
श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-१ | श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-२ श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-३
(?)
श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय - 3 (२)
(૩)
श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय -५ વાસ્તુનિઘંટુ
તિલકમન્નરી ભાગ-૧
તિલકમન્નરી ભાગ-૨
તિલકમન્નરી ભાગ-૩
સપ્તસન્ધાન મહાકાવ્યમ
સપ્તભઙીમિમાંસા
ન્યાયાવતાર
વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક સામાન્યનિર્યુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક સપ્તભઙીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા
નયોપદેશ ભાગ-૧ તરઙિણીતરણી
નયોપદેશ ભાગ-૨ તરઙિણીતરણી
ન્યાયસમુચ્ચય
સ્યાદ્યાર્થપ્રકાશઃ
દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ
બૃહદ્ ધારણા યંત્ર
જ્યોતિર્મહોદય
श्री नर्मदाशंकर शास्त्री
पं. भगवानदास जैन
पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
पू. लावण्यसूरिजी म.सा. પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી
પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી
સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ
શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા)
શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા)
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. દર્શનવિજયજી
પૂ. દર્શનવિજયજી
સં. પૂ. અક્ષયવિજયજી
824
288
520
578
278
252
324
302
196 190
202
480
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60
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190
138
296
210
274
286
216
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113
112
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શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર
સંયોજક – બાબુલાલ સરેમલ શાહ
શાહ વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન हीरान सोसायटी, रामनगर, साबरमती, महावाह - 04.
(मो.) ९४२५५८५८०४ (ख) २२१३२५४३ ( - भेल) ahoshrut.bs@gmail.com
अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ भर्णोद्धार संवत २०५५ (६. २०१०) - सेट नं-२
પ્રાયઃ જીર્ણ અપ્રાપ્ય પુસ્તકોને સ્કેન કરાવીને ડી.વી.ડી. બનાવી તેની યાદી. खा पुस्तो www.ahoshrut.org वेवसाइट परथी पए। डाउनलोड sरी शडाशे. પુસ્તકનું નામ
ईर्त्ता टीडाडार-संचा
ક્રમ
055 | श्री सिद्धम बृहद्वृत्ति बृहद्न्यास अध्याय-६ 056 | विविध तीर्थ कल्प
057
ભારતીય જૈન શ્રમણ સંસ્કૃતિ અને લેખનકળા | 058 सिद्धान्तलक्षगूढार्थ तत्त्वलोकः
059 व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका
જૈન સંગીત રાગમાળા
060
061 चतुर्विंशतीप्रबन्ध ( प्रबंध कोश)
062 | व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय
063 | चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी
064 | विवेक विलास
065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध
066 | सन्मतितत्त्वसोपानम्
ઉપદેશમાલા દોઘટ્ટી ટીકા ગુર્જરાનુવાદ
067
068 मोहराजापराजयम्
069 | क्रियाकोश
-
070 कालिकाचार्यकथासंग्रह
071 सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका
072 | जन्मसमुद्रजातक
073 मेघमहोदय वर्षप्रबोध
074
જૈન સામુદ્રિકનાં પાંચ ગ્રંથો
ભાષા
सं
.:
सं
सं
सं
गु.
सं
श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी
श्री रसिकलाल एच. कापडीआ
श्री सुदर्शनाचार्य
पू. मेघविजयजी गणि
सं/गु. श्री दामोदर गोविंदाचार्य
सं
F
सं
सं
सं
पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
पू. जिनविजयजी म.सा.
शुभ.
सं
सं/ हिं
सं.
सं.
सं/हिं
सं/हिं
शुभ.
पू. पूण्यविजयजी म.सा.
| श्री धर्म
श्री धर्मदत्त
पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा.
पू. लब्धिसूरिजी म.सा.
पू. हेमसागरसूरिजी म.सा.
पू. चतुरविजयजी म.सा.
श्री मोहनलाल बांठिया
श्री अंबालाल प्रेमचंद
श्री वामाचरण भट्टाचार्य
श्री भगवानदास जैन
श्री भगवानदास जैन
श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी
પૃષ્ઠ
296
160
164
202
48
306
322
668
516
268
456
420
638
192
428
406
308
128
532
376
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'075
374
238
194
192
254
260
| જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૧ 16 | જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૨ 77) સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી 13 ભારતનાં જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પ સ્થાપત્ય 79 | શિલ્પ ચિન્તામણિ ભાગ-૧ 080 | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૧ 081 બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૨
| બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૩ 083. આયુર્વેદના અનુભૂત પ્રયોગો ભાગ-૧
કલ્યાણ કારક 085 | વિનોરન શોર
કથા રત્ન કોશ ભાગ-1
કથા રત્ન કોશ ભાગ-2 088 | હસ્તસગ્નીવનમ
238 260
ગુજ. | | श्री साराभाई नवाब ગુજ. | શ્રી સYTમારું નવાવ ગુજ. | શ્રી વિદ્યા સરમા નવીન ગુજ. | શ્રી સારામારું નવીન ગુજ. | શ્રી મનસુબાન મુવામન ગુજ. | શ્રી નન્નાથ મંવારમ ગુજ. | શ્રી નન્નાથ મંવારમ ગુજ. | શ્રી ગગન્નાથ મંવારમ ગુજ. | . વન્તિસાગરની ગુજ. | શ્રી વર્ધમાન પર્વનાથ શત્રી सं./हिं श्री नंदलाल शर्मा ગુજ. | શ્રી લેવલાસ ગીવરાન કોશી ગુજ. | શ્રી લેવલાસ નવરીન લોશી સ. પૂ. મેનિયની સં. પૂ.વિનયની, પૂ.
पुण्यविजयजी आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी
114
'084.
910
436 336
087
2૩૦
322
(089/
114
એન્દ્રચતુર્વિશતિકા સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05.
अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार- संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। पुस्तक नाम संपादक / प्रकाशक मोतीलाल लाघाजी पुना
क्रम
कर्त्ता / टीकाकार
91 स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१
वादिदेवसूरिजी
92 स्याद्वाद रत्नाकर भाग-२
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना
93
मोतीलाल लाघाजी पुना
स्याद्वाद रत्नाकर भाग-३
वादिदेवसूरिजी
94
मोतीलाल लाघाजी पुना
स्याद्वाद रत्नाकर भाग-४
वादिदेवसूरिजी
95 स्याद्वाद रत्नाकर भाग-५
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना
96 | पवित्र कल्पसूत्र
पुण्यविजयजी
साराभाई नवाब
टी. गणपति शास्त्री
टी. गणपति शास्त्री
वेंकटेश प्रेस
97 समराङ्गण सूत्रधार भाग - १
98 | समराङ्गण सूत्रधार भाग - २
99 भुवनदीपक
100 गाथासहस्त्री
101 भारतीय प्राचीन लिपीमाला
102 शब्दरत्नाकर
103 सुबोधवाणी प्रकाश
104 लघु प्रबंध संग्रह
105 जैन स्तोत्र संचय - १-२-३
106 सन्मति तर्क प्रकरण भाग १,२,३
107 सन्मति तर्क प्रकरण भाग-४, ५
108 न्यायसार न्यायतात्पर्यदीपिका
109 जैन लेख संग्रह भाग - १
110 जैन लेख संग्रह भाग-२
111 जैन लेख संग्रह भाग-३
112 | जैन धातु प्रतिमा लेख भाग - १
113 जैन प्रतिमा लेख संग्रह
114 राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह
115 | प्राचिन लेख संग्रह - १ 116
बीकानेर जैन लेख संग्रह
117 प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग - १
118 प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग - २
119 गुजरातना ऐतिहासिक लेखो - १
120 गुजरातना ऐतिहासिक लेखो २ 121 गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-३
122 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल - १ 123 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-४ 124 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-५ 125 | कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत इन्स्क्रीप्शन्स 126 | विजयदेव माहात्म्यम्
भोजदेव
भोजदेव
पद्मप्रभसूरिजी
समयसुंदरजी
गौरीशंकर ओझा
साधुसुन्दरजी
न्यायविजयजी
जयंत पी. ठाकर
माणिक्यसागरसूरिजी
सिद्धसेन दिवाकर
सिद्धसेन दिवाकर सतिषचंद्र विद्याभूषण
पुरणचंद्र नाहर
पुरणचंद्र नाहर
पुरणचंद्र नाहर
कांतिविजयजी
दौलतसिंह लोढा
विशालविजयजी
विजयधर्मसूरिजी
अगरचंद नाहटा
जिनविजयजी
जिनविजयजी
गिरजाशंकर शास्त्री
गिरजाशंकर शास्त्री
गिरजाशंकर शास्त्री
पी. पीटरसन
पी. पीटरसन
पी. पीटरसन
पी. पीटरसन जिनविजयजी
भाषा
सं.
सं.
सं.
सं.
सं.
सं./अं
सं.
सं.
सं.
सं.
हिन्दी
सं.
सं./गु
सं.
सं,
सं.
सं. सं.
सं./हि पुरणचंद्र नाहर
सं./हि
पुरणचंद्र नाहर
सं./हि
पुरणचंद्र नाहर
सं./ हि
जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार
सं./हि
अरविन्द धामणिया
सं./गु
सं./गु
सं./हि
सं./हि
सं./हि
सं./गु
सं./गु
सं./गु
अं.
सुखलालजी
मुन्शीराम मनोहरराम
हरगोविन्ददास बेचरदास
हेमचंद्राचार्य जैन सभा
ओरीएन्ट इन्स्टीट्युट वरोडा
आगमोद्धारक सभा
अं.
अं.
अं.
सं.
सुखलाल संघवी
सुखलाल संघवी
एसियाटीक सोसायटी
यशोविजयजी ग्रंथमाळा
यशोविजयजी ग्रंथमाळा
नाहटा धर्स
जैन आत्मानंद सभा
जैन आत्मानंद सभा
फार्बस गुजराती सभा
फार्बस गुजराती सभा
फार्बस गुजराती सभा
रॉयल एशियाटीक जर्नल
रॉयल एशियाटीक जर्नल
रॉयल एशियाटीक जर्नल
भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपा.
जैन सत्य संशोधक
पृष्ठ
272
240
254
282
118
466
342
362
134
70
316
224
612
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250
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354
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656
122
764
404
404
540
274
414
400
320
148
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
754
194
3101
276
69 100 136 266
244
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६८ (ई. 2012) सेट नं.-४ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम | पुस्तक नाम
कर्ता / संपादक
भाषा | प्रकाशक 127 | महाप्रभाविक नवस्मरण
साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 128 | जैन चित्र कल्पलता
साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 129 | जैन धर्मनो प्राचीन इतिहास भाग-२
हीरालाल हंसराज गुज. हीरालाल हंसराज 130 | ओपरेशन इन सर्च ओफ सं. मेन्यु. भाग-६
पी. पीटरसन
अंग्रेजी | एशियाटीक सोसायटी 131 | जैन गणित विचार
कुंवरजी आणंदजी गुज. जैन धर्म प्रसारक सभा 132 | दैवज्ञ कामधेनु (प्राचिन ज्योतिष ग्रंथ)
शील खंड
सं. | ब्रज. बी. दास बनारस 133 || | करण प्रकाशः
ब्रह्मदेव
सं./अं. | सुधाकर द्विवेदि 134 | न्यायविशारद महो. यशोविजयजी स्वहस्तलिखित कृति संग्रह | यशोदेवसूरिजी गुज. | यशोभारती प्रकाशन 135 | भौगोलिक कोश-१
डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात बर्नाक्युलर सोसायटी 136 | भौगोलिक कोश-२
डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी 137 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-१,२
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 138 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी । जैन साहित्य संशोधक पुना 139 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-१, २
जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 140 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 141 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-१,२ ।।
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 142 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 143 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-१
सोमविजयजी
गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 144 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-२
सोमविजयजी
| शाह बाबुलाल सवचंद 145 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-३
सोमविजयजी
गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 146 | भाषवति
शतानंद मारछता सं./हि | एच.बी. गुप्ता एन्ड सन्स बनारस 147 | जैन सिद्धांत कौमुदी (अर्धमागधी व्याकरण)
रत्नचंद्र स्वामी
प्रा./सं. | भैरोदान सेठीया 148 | मंत्रराज गुणकल्प महोदधि
जयदयाल शर्मा हिन्दी | जयदयाल शर्मा 149 | फक्कीका रत्नमंजूषा-१, २
कनकलाल ठाकूर सं. हरिकृष्ण निबंध 150 | अनुभूत सिद्ध विशायंत्र (छ कल्प संग्रह)
मेघविजयजी
सं./गुज | महावीर ग्रंथमाळा 151 | सारावलि
कल्याण वर्धन
सं. पांडुरंग जीवाजी 152 | ज्योतिष सिद्धांत संग्रह
विश्वेश्वरप्रसाद द्विवेदी सं. बीजभूषणदास बनारस 153| ज्ञान प्रदीपिका तथा सामुद्रिक शास्त्रम्
रामव्यास पान्डेय सं. | जैन सिद्धांत भवन नूतन संकलन | आ. चंद्रसागरसूरिजी ज्ञानभंडार - उज्जैन
हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार २ | श्री गुजराती श्वे.मू. जैन संघ-हस्तप्रत भंडार - कलकत्ता | हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
274 168
282
182
गुज.
384 376 387 174
320 286
272
142 260
232
160
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
| पृष्ठ
304
122
208 70
310
462
512
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६९ (ई. 2013) सेट नं.-५ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | क्रम | पुस्तक नाम
कर्ता/संपादक विषय | भाषा
संपादक/प्रकाशक 154 | उणादि सूत्रो ओफ हेमचंद्राचार्य | पू. हेमचंद्राचार्य | व्याकरण | संस्कृत
जोहन क्रिष्टे 155 | उणादि गण विवृत्ति | पू. हेमचंद्राचार्य
व्याकरण संस्कृत
पू. मनोहरविजयजी 156 | प्राकृत प्रकाश-सटीक
भामाह व्याकरण प्राकृत
जय कृष्णदास गुप्ता 157 | द्रव्य परिक्षा और धातु उत्पत्ति | ठक्कर फेरू
धातु संस्कृत /हिन्दी | भंवरलाल नाहटा 158 | आरम्भसिध्धि - सटीक पू. उदयप्रभदेवसूरिजी ज्योतीष संस्कृत | पू. जितेन्द्रविजयजी 159 | खंडहरो का वैभव | पू. कान्तीसागरजी शील्प | हिन्दी | भारतीय ज्ञानपीठ 160 | बालभारत पू. अमरचंद्रसूरिजी | काव्य संस्कृत
पं. शीवदत्त 161 | गिरनार माहात्म्य
दौलतचंद परषोत्तमदास तीर्थ संस्कृत /गुजराती | जैन पत्र 162 | गिरनार गल्प
पू. ललितविजयजी | तीर्थ संस्कृत/गुजराती | हंसकविजय फ्री लायब्रेरी 163 | प्रश्नोत्तर सार्ध शतक पू. क्षमाकल्याणविजयजी | प्रकरण हिन्दी
| साध्वीजी विचक्षणाश्रीजी 164 | भारतिय संपादन शास्त्र | मूलराज जैन
साहित्य हिन्दी
जैन विद्याभवन, लाहोर 165 | विभक्त्यर्थ निर्णय गिरिधर झा
संस्कृत
चौखम्बा प्रकाशन 166 | व्योम बती-१
शिवाचार्य
न्याय
संस्कृत संपूर्णानंद संस्कृत युनिवर्सिटी 167 | व्योम वती-२
शिवाचार्य न्याय
संपूर्णानंद संस्कृत विद्यालय | 168 | जैन न्यायखंड खाद्यम् | उपा. यशोविजयजी न्याय संस्कृत /हिन्दी | बद्रीनाथ शुक्ल 169 | हरितकाव्यादि निघंटू | भाव मिथ
आयुर्वेद संस्कृत /हिन्दी | शीव शर्मा 170 | योग चिंतामणि-सटीक पू. हर्षकीर्तिसूरिजी
| संस्कृत/हिन्दी
| लक्ष्मी वेंकटेश प्रेस 171 | वसंतराज शकुनम् पू. भानुचन्द्र गणि टीका | ज्योतिष
खेमराज कृष्णदास 172 | महाविद्या विडंबना
पू. भुवनसुन्दरसूरि टीका | ज्योतिष | संस्कृत सेन्ट्रल लायब्रेरी 173 | ज्योतिर्निबन्ध ।
शिवराज
| ज्योतिष | संस्कृत
आनंद आश्रम 174 | मेघमाला विचार
पू. विजयप्रभसूरिजी ज्योतिष संस्कृत/गुजराती | मेघजी हीरजी 175 | मुहूर्त चिंतामणि-सटीक रामकृत प्रमिताक्षय टीका | ज्योतिष | संस्कृत अनूप मिश्र 176 | मानसोल्लास सटीक-१ भुलाकमल्ल सोमेश्वर ज्योतिष
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट 177 | मानसोल्लास सटीक-२ भुलाकमल्ल सोमेश्वर | ज्योतिष संस्कृत
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट 178 | ज्योतिष सार प्राकृत
भगवानदास जैन
ज्योतिष
प्राकृत/हिन्दी | भगवानदास जैन 179 | मुहूर्त संग्रह
अंबालाल शर्मा
ज्योतिष
| गुजराती | शास्त्री जगन्नाथ परशुराम द्विवेदी 180 | हिन्दु एस्ट्रोलोजी
पिताम्बरदास त्रीभोवनदास | ज्योतिष गुजराती पिताम्बरदास टी. महेता
264 144 256 75 488 | 226 365
न्याय
संस्कृत
190
480 352 596 250 391
114
238 166
संस्कृत
368
88
356
168
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७१ (ई. 2015) सेट नं.-६
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं।
क्रम
| विषय
पहा
पुस्तक नाम काव्यप्रकाश भाग-१
कर्ता/संपादक पूज्य मम्मटाचार्य कृत
| भाषा संस्कृत
181
364
182
काव्यप्रकाश भाग-२
222
183
काव्यप्रकाश उल्लास-२ अने३
संस्कृत संस्कृत संस्कृत
330
संपादक / प्रकाशक पूज्य जिनविजयजी पूज्य जिनविजयजी यशोभारति जैन प्रकाशन समिति श्री रसीकलाल छोटालाल
श्री रसीकलाल छोटालाल | श्री वाचस्पति गैरोभा | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री
184 | नृत्यरत्न कोश भाग-१
156
248
पूज्य मम्मटाचार्य कृत उपा. यशोविजयजी श्री कुम्भकर्ण नृपति श्री कुम्भकर्ण नृपति श्री अशोकमलजी श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव
संस्कृत संस्कृत /हिन्दी
504
185 | नृत्यरत्न कोश भाग-२ 186 | नृत्याध्याय 187 | संगीरत्नाकर भाग-१ सटीक 188 | संगीरत्नाकर भाग-२ सटीक 189 संगीरनाकर भाग-३ सटीक
संस्कृत/अंग्रेजी
448
440
616
| श्री सुब्रमण्यम शास्त्री श्री सुब्रमण्यम शास्त्री श्री सुब्रमण्यम शास्त्री | श्री मंगेश रामकृष्ण तेलंग
190
संगीरत्नाकर भाग-४ सटीक
संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत गुजराती
| श्री सारंगदेव
632
नारद
84
191 संगीत मकरन्द
संगीत नृत्य अने नाट्य संबंधी
जैन ग्रंथो 193 | न्यायबिंदु सटीक
192
श्री हीरालाल कापडीया
मुक्ति-कमल-जैन मोहन ग्रंथमाला ।
श्री चंद्रशेखर शास्त्री
220
संस्कृत हिन्दी
194 | शीघ्रबोध भाग-१ थी ५
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
422
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
304
पूज्य धर्मोतराचार्य पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य गंभीरविजयजी
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
195 | शीघ्रबोध भाग-६ थी १० 196| शीघ्रबोध भाग-११ थी १५ 197 | शीघ्रबोध भाग-१६ थी २० 198 | शीघ्रबोध भाग-२१ थी २५
446
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
| 414
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
409
199 | अध्यात्मसार सटीक
476
एच. डी. वेलनकर
संस्कृत/गुजराती | नरोत्तमदास भानजी संस्कृत सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ संस्कृत/गुजराती | ज्ञातपुत्र भगवान महावीर ट्रस्ट
200| छन्दोनुशासन 200 | मग्गानुसारिया
444
श्री डी. एस शाह
146
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
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प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची।
पृष्ठ 285
280
315 307
361
301
263
395
क्रम
पुस्तक नाम 202 | आचारांग सूत्र भाग-१ नियुक्ति+टीका 203 | आचारांग सूत्र भाग-२ नियुक्ति+टीका 204 | आचारांग सूत्र भाग-३ नियुक्ति+टीका 205 | आचारांग सूत्र भाग-४ नियुक्ति+टीका 206 | आचारांग सूत्र भाग-५ नियुक्ति+टीका 207 | सुयगडांग सूत्र भाग-१ सटीक 208 | सुयगडांग सूत्र भाग-२ सटीक 209 | सुयगडांग सूत्र भाग-३ सटीक 210 | सुयगडांग सूत्र भाग-४ सटीक 211 | सुयगडांग सूत्र भाग-५ सटीक 212 | रायपसेणिय सूत्र 213 | प्राचीन तीर्थमाळा भाग-१ 214 | धातु पारायणम् 215 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-१ 216 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-२ 217 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-३ 218 | तार्किक रक्षा सार संग्रह
बादार्थ संग्रह भाग-१ (स्फोट तत्त्व निरूपण, स्फोट चन्द्रिका, 219
प्रतिपादिक संज्ञावाद, वाक्यवाद, वाक्यदीपिका)
वादार्थ संग्रह भाग-२ (षट्कारक विवेचन, कारक वादार्थ, 220
| समासवादार्थ, वकारवादार्थ)
| बादार्थ संग्रह भाग-३ (वादसुधाकर, लघुविभक्त्यर्थ निर्णय, 221
__ शाब्दबोधप्रकाशिका) 222 | वादार्थ संग्रह भाग-४ (आख्यात शक्तिवाद छः टीका)
कर्ता / टिकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक | श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री मलयगिरि | गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ.श्री धर्मसूरि | सं./गुजराती | श्री यशोविजयजी ग्रंथमाळा श्री हेमचंद्राचार्य | संस्कृत आ. श्री मुनिचंद्रसूरि श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ. श्री वरदराज संस्कृत राजकीय संस्कृत पुस्तकालय विविध कर्ता
संस्कृत महादेव शर्मा
386
351 260 272
530
648
510
560
427
88
विविध कर्ता
। संस्कृत
| महादेव शर्मा
78
महादेव शर्मा
112
विविध कर्ता संस्कृत रघुनाथ शिरोमणि | संस्कृत
महादेव शर्मा
228
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हरिदाससंस्कृतग्रन्थमालासमाख्यकाशीसंस्कृतसीरीजपुस्तकमालायाः
बौद्धन्यायविभाग(१)प्रथमपुष्पम् ।
बौद्धाऽऽचार्यश्रीधर्मकीर्तिप्रणीतः - न्यायविन्दुः
श्रीधर्मोत्तराचार्यकृतटीकासमेतः ।
. ....: स चागं काशीहिन्दूविश्वविद्यालयस्याध्यापकेन काव्यसाहित्यतीर्थाचार्य : श्रीचन्द्रशेखरशास्त्रिणा हिन्दीभाषायामनुवादितः भूमिकया
विषमस्थलटिप्पण्या च संयोज्य सम्पादितः।
काश्यां
चौखम्बासंस्कृतप्रन्थमालाप्रकाशक-श्रीयुतहरिदासगुप्तात्मज-श्रेष्ठिश्रीजयकृष्णदासगुप्त
महाशयेन स्वकीये 'विद्याविलास'नाम्नि यन्त्रालय मुद्रयित्वा प्रकाशितः ।
१९२४.
Page #12
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हमारे यहां हर तरह की छपाई तथा जिल्द साजी का कार्य भी होता है। हर तरह के संस्कृत ग्रन्थ तथा भाषा भाष्य पुस्तकों के मिलने का पता
जयकृष्णदास हरिदासगुप्तः
चौखम्बा संस्कृतसीरीज आफिस, विद्याविलास मेस, गोपालमंदीरलेन,
बनारस सिटी |
Sred
Page #13
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KASHI-SANSKRIT-SERIES;
(HARIDAS SANSKRIT GRANTHAMÂLÂ. )
22
Buddhist Nyâya Section No. I.
NYAYA BINDUH By Dharma Kirti
With a Commentary Srhidharmottaracharya.
Chandra Shekhar Shastri,
AG
BY/
ya-tirthacharya
Professor Benares Hindu University with his own Sanskrit notes, Hindi Translation and Preface.
1924,
Printed Published & sold by JAYAKRISHNA DÂSS GUPTA,
at the Vidya Vilas Press, Gopal Mandir Lane,
Benares.
Page #14
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.
Printed-Published & sold by JAI KRISHNA DAS GUPTA, : The Chowkhamba Sanskrit Series Office,
VIDYA VILAS PRESS, Gopal-Mandir-Lane,
BENARES,
LAMA
1
i
1
Page #15
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निवेदन । बौद्धदर्शनके प्रेमियोंके सन्मुख मैं न्यायबिन्दुका यह हिन्दी अनुवाद लेकर उपस्थित हो रहा हूँ। अनुवाद कैसा है यह पाठक ही बतला सकेंगे। क्योंकि मुझे इस विषयमें कहने काकुछ अधिकार नहीं है। यह अवश्य है कि इस अनुवादके करने में बौद्धोंके पारिभाषिक शब्दोंकी व्याख्या करना तो दूर उनके समझनेमें भी मुझे महीनों उलझना पड़ा है। आशा है कि पाठकोंको उनमें अब विशेष न उलझना पड़ेगा। . ग्रन्थकी भाषाके लिये मुझे सबसे प्रथम क्षमा प्रार्थना करनी है। क्योंकि न्यायका कोई भी ग्रन्थ हिन्दीमें न होनेसे मुझे इसके लिये स्वयं ही ढंग सोचना पड़ा है। भाषा सम्बन्धी त्रुटिया निकालने वालोंसे मुझे यह प्रार्थना है कि उनको जिस वाक्यमें भाषासम्बन्धी त्रुटि जान पड़े उसको प्रथम स्वयं ठीक करके ही दूसरोंको दिखलावें। ऐसा करनेसे उन्हें इस सम्बन्धमें मेरी कठिनताका बहुत कुछ आभास हो जावेगा। उचित तो यह होता कि कुछ संस्कृत न्याय तथा कुछ हिन्दी साहित्यके विद्वानोंकी एक समिति न्यायकी भाषा को निश्चित करती, किन्तु यह न होता देखकर मैंने स्वयं ही इस विषय पर लेखनी उठायी है। आशा है कि इसके लिये हिन्दी भाषाके विद्वान् मुझे क्षमा करेंगे। __यदि मूल संस्कृत ग्रन्थका शाब्दिक अनुवाद ही किया जाता तो वह किसी कामका भी न होता। अतएव वाक्य पूरा करनेके लिये मुझको दूसरे शब्द डालने पड़े हैं जो [ ] ऐसे कोष्टकमें रखे गये हैं । भावको स्पष्ट करने वाले शब्द सादे कोष्ठकमें रखे गये हैं।
संस्कृत टीकामें मूलके सब पाठान्तर हम नहीं दे सके हैं, सो इस पुस्तकमें दे दिये गये हैं। इस पुस्तकका पाठ भी उसकी अपेक्षा बहुत शुद्ध है। .. आशा है कि इस ग्रन्थसे हिन्दी साहित्यके दर्शन विभागको कुछ उत्तेजना मिलेगी।
.. भदैनी, बनारस . .) ता० २८ जून १९२४. ई०) ..
चन्द्रशेखर शास्त्री।
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भूमिका।
(१) प्राथमिक निवेदन। हर्षका विषय है कि आजकलके विद्वानोंका हृदय क्रमशः धार्मिक विषयोंमें उदार विचारोका होता जा रहा है। भिन्न २ मत वाले विद्वानोंके द्वारा भिन्न २ मतकी पुस्तकोंका सम्पादन उसीका! परिणाम है। यद्यपि प्राचीन कालके भारतीय विद्वान् भी भिक मतोंके ग्रन्थोंका अध्ययन करते थे तथापि उनका अध्ययन प्राउन ग्रन्थोका खन्डन करनेके उद्देश्यसे होताही था, जैसा कि स्वामी शङ्कराचार्य, जैन न्यायके उद्धारक श्री अकलदेव आदिके ग्रन्थोंको देखनेसे पता चलता है। हर्षकी बात है कि आजकलके बहुतसे विद्वानोंका यह मत हो गया है कि प्रत्येक धर्ममें अधिक परिमाणमें सत्य विद्यमान है। पश्चिमीय विद्वानोंके विचार इस विषयमें बहुत ही प्रशंसनीय हैं। हमारे बहुतसे ग्रन्थोंको और बौद्ध साहित्यके अधिकांश ग्रन्थोंको संसारके प्रकाशमें लानेका श्रेय उन्हींको प्राप्त है। प्रस्तुत ग्रन्थ और उसके कर्ता आचार्य धर्मकीर्ति और धर्मोंत्तरके विषयमें भी हमको पहिली पहल उन्हींसे विदित हुआ था। यद्यपि आचार्य धर्मकीर्ति और न्यायबिन्दुका नाम सर्वदर्शनसंग्रह इत्यादि हिन्दग्रन्थों और प्रमेयकमलमार्तड आदि जैन ग्रन्थोंमें विद्यमान होनेके कारण भारतीय विद्वानोंको पहिलेसे ही विदित था, किन्तु अनुसन्धानप्रियताके अभावके कारण उनका जानना न जानना एक सा ही था। हमको पहली पहल 'अचार्य धर्मोत्तर' का नाम बतलानेवाला पश्चिमीय विद्वान् (W. Wassiljew) डब्ल्यू वैसिलज्यू नामका एक रूसी विद्वान् था । यह विद्वान् सन् १८४० से १८५० तक ( दस वर्ष तक ) पेकिनमें रहा । यह चीनी और तिब्बी दोनों भाषाओका अच्छा पण्डित था । इसने इन भाषाओंके मानसे बहुतसे बौद्ध ग्रन्थोंका पता लगाया।
उन्होंने अपने सबसे पहिले ग्रन्थ 'बुधिज्म, इटस् डाग्मस, हिस्ट्री ऐण्ड लिटरेचर' ( Buddhism, its Dogmas, History& Literature ) में धर्मोत्तरके विषयमें बहुत कुछ बतला दिया है।
Page #17
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भूमिका
न्यायबिन्दुको पहिली पहल प्रो. पीटर्सन साहिवने १८८९ में निकाला था। यह संस्करण उन्होंने उक्त ग्रन्थकी दो हस्तलिखित प्रतियों ( Manuscripts ) की सहायतासे सम्पादन किया था, जिनमें से एक उनको काम्बे के शान्तिनाथके जैन मन्दिरमें ताड़ पत्र पर लिखी हुई मिली थी। ( पीटर्सन साहबने इस प्रतिका नाम (A) और हमसे (क) रखा है। ) और दूसरी रायल एशियाटिक सोसायटी की बम्बई शाखाके भाऊ दाजीके हस्तलिखित ग्रन्थोंके संग्रहमें भगवान दास केवलदास की सूचनाओं से मिली थी। ( पीटर्सन साहबने इसका नाम (B) और हमने (ख) रखा है। ) क. और ख. दोनों पुस्तकोमे धर्मोत्तराचार्य की न्यायबिन्दु टीका थी, किन्तु धर्मकीर्ति का मूल ग्रन्थ केवल ख. में ही था ।
'हमने पाठोंके परिवर्तन क. और ख. से चिन्हित किये हैं । छपी पुस्तकको हमने अपनी टिप्पणीमें मुद्रित पुस्तक ही लिखा है और हमारी सम्मतिमें जहाँ मुद्रित पुस्तकका पाठ बदलने योग्य था उसको भी हमने टिप्पणीमें दिखला दिया है। यद्यपि हमने पोटर्सन साहिबकी सभी अशुद्धियोंको बतलाया है तथापि हमारे प्रथमें अफ सम्बन्धो बहुतसी अशुद्धियां अनुभव हीनताके कारण हो गई हैं, जिनका अधिकांश शुद्धिपत्रमें दे दिया गया है। आशा है कि विद्वज्जन मुझको इसके लिए क्षमा करते हुए उनको सुधार कर पढ़ेगे।
(२) बौद्धन्यायके इतिहास पर एक दृष्टि । ___ यद्यपि दर्शनशास्त्रके आरंभिक कालमें भी बहुतसे शास्त्रार्थ हुमा करते थे सथापि उस समय न्यायकी ओर किसीका विशेष लक्ष्य न था। बुद्धके निर्वाणके समयकी पुस्तकोंमें भी इसका कुछ विवरण नहीं है । गौतमका न्यायसूत्र उस समय तक बन चुका था। किन्तु बौद्ध और जैन दार्शनिकोंका ध्यान अभी तक उधर आकर्षित नहीं हुआ था। यद्यपि सुत्तपिटकके दिघनिकायके भाग ब्रह्मजाल सुत्त, मज्झिमनिकायके भाग अनुमान सुत्त और खुद्दकनिकायके भाग उदान तथा पिनयपिटकके परिवार और पातिमोक्ख तथा अभिधम्मपिटकके कथावत्थुप्रकरण आदि ग्रन्थोंमें न्यायके कुछ शब्द तथा निर्णय करनेके कुछ नियम मिलते हैं किन्तु हमारी सम्मतिमें उनपर भी गौतमके न्यायसूत्रोंकी छाप पूर्ण रूपसे लगी हुई है।
Page #18
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________________
भूमिका
क्योंकि उनमें 'उपनय' तथा 'निग्रह' का भी कुछ वर्णन किया गया है । नीति ( अथवा न्याय ) शब्दका उल्लेख पालीके केवल एक ग्रन्थ सन्दिप हमें ( जो कि भिक्षुसूत्र भी कहलाता है ) मिलता है । इससे भली प्रकार पता चल सकता है कि उस समयके बौद्ध आचा ने इस विषयपर कितना प्रकाश डाला है ।
ईस्वी सन्के आरम्भ में भारत पर कुशान, तुरुष्क अथवा सीथियन लोगों के आक्रमण हुए। उनके एक सरदारका नाम कनिष्क था । उसने काशमीर, पल्हव और देहलीको विजय किया । उसके विषय में कहा जाता है कि उसीने ईस्वी सन् ७८ में एक सम्वत् की नींव डाली। उसने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया और बौद्धोंकी एक नयी सम्प्रदाय महायानको स्थापित किया । तबसे पाली तिपिटकमें वर्णित प्राचीन सम्प्रदाय हीनयान कही जाने लगी। महायान क्रमशः नेपाल तिब्बत, मंगोलिया, चीन, जापान और कोरिया आदिमें फैल गया और हीनयान सिंहल और वहाँ से वर्मा, और श्याम आदिमें फैल गया । भारतमें दोनों ही सम्प्रदाय चलते रहे ।
कनिष्क के संरक्षण तथा पार्श्व ( या पूर्णक ) और वसुमित्र के निरीक्षण में ५०० बौद्ध भिक्षुओंकी एक वृहत्सभा जालन्धर में हुई । जिसमें पालीके सुत्त, विजय तथा अभिधम्म इन तिपिटकोंकी टीका स्वरूप क्रमशः सूत्र उपदेश, विनय विभाषा और अभिधम्म विभाषा बनाये गये । महायान सम्प्रदाय के साहित्य में सबसे प्राचीन यही ग्रन्थ हैं।
यद्यपि कनिष्क से पहिले भी संस्कृतमें कुछ बौद्ध ग्रन्थोंकी रचना हो चुकी थी ( उदाहर गके लिये अभिधर्म विभाषा अथवा अभिधर्म महाविभाषा शास्त्र जिसकी रचना कनिष्ककी सभा में की गई थी, कात्यायनी पुत्रके अभिधर्म ज्ञान प्रस्थान शास्त्र ( यह पाली अभिधम्म पिटककी टीका है और बुद्धके निर्वाणके ३०० वर्ष पश्चात् तथा कनिष्क से १०० वर्ष पहिले बनाया गया था) के ऊपर टीका है । ) तथापि संस्कृतको बौद्धसाहित्यकी भाषा बनानेका श्रेय उसीको प्राप्त है। उसके समय से लगाकर असंख्य संस्कृत बौद्धग्रन्थोंकी रचना हुई है, जिनमेंसे नवधर्म संज्ञक नौ ग्रन्थ महायान सम्प्रदाय के विशेष रूपसे पूज्य हैं।
Page #19
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________________
भूमिका
नव धर्म यह हैं
(१) अष्ट साहस्रिका प्रज्ञापारमिता (२) गंडव्यूह, (३) दशभूमीश्वर, (४) समाधिराज, (५) लंक्रावतार, (६) सद्धर्मपुण्डरीक, (७)तथागतगुह्यक, (८) ललितविस्तर और (९) सुवर्णप्रभास । इनमें अनेक स्थलों पर न्यायका भी उल्लेख किया गया है। .. ___ बुद्धने अपना उपदेश पाली अथवा मागधी भाषामें किया था। उसके पश्चात् उसकी शिक्षायें बौद्ध भिक्षओं की तीन सभाओंमें एकत्रित की गई। ये सभायें राजगृह, वैशाली और पाटलिपुत्रमें क्रमसे राजा अजातशत्र, कालाशोक, और अशोकके संरक्षणमें हुई थीं। पहिली सभा ईसासे ४१० वर्ष, दूसरी ३९० वर्ष तथा तीसरी २५५ वर्ष पूर्व हुई थी । ( पहिली सभा बुद्धके निर्वाणके संवत्में, दूसरी उसके १०० वर्षपश्चात् और तीसरी अशोकके शासनकालके १७वें वर्ष में हुई थी। अशोक ईसासे २७२ वर्ष पूर्व सिंहासनपर बैठा था)। जो भिक्षु प्रथम सभामें एकत्रित हुए थे वह (१) थेरा कहे जाने लगे। वैशालीकी द्वितीय सभाके निर्णयसे दस सहस्र भिक्षु थेरावादके कुछ नियमोंका उल्लंघन करनेके कारण थेरा संघसे प्रथक कर दिये गये । ये निकाले हुए धर्मगुरु (२) महासांघिक कहलाये। मूल बौद्ध धर्ममें से प्रथक होने वाली पहिली सम्प्रदाय यही थी। उन्होंने थेरावादमें कुछ नियम घटाये तथा कुछ बढ़ा दिये। इसके पश्चात् बुद्धके निर्वाणके २०० वर्षोके भीतर मूलधर्मसे प्रथक् ( Heretical ) सोलह और सम्प्रदायें चलीं, उनके नाम यह हैं-(३) गोकुलिका, (४) एकम्बोहारिक, (५) पण्णति, (६) बाहुलिक (७) चेतिय, (८) सब्बत्थि, (९) धर्मगुत्तिक, (१०) कस्सपीय, (११) संकतिक, (१२) सुत्त, (१३) हिमवत, (१४) राजगिरीय, (१५) सिद्धत्यिक, (१६) पुब्बसेलिय, (१७) अपरसेलिय, (१८) वजिरिय ।
तीसरी सभाके पश्चात् लगभग ईसाके २५५ वर्ष पूर्व अशोकके पुत्र महिन्दने तिपिटकों की शिक्षाका सिंहलमें प्रचार किया। जहाँ के पुरोहितोंने इसको कण्ठ रख २ कर चलाये रखा । महावंश अ. ध्याय ३३ के अनुसार प्रथम ही ये राजा वत्तगामणिके समयमें लिखे गये, जिसने ईसासे १०४ वर्ष से ७६ वर्ष पूर्व तक सिंहलका राज्य किया था। तिपिटकके अतिरिक्त अन्य भी बहुतसे ग्रन्थ पाली में लिखे गये थे जिससे पाली साहित्य बहुत विस्तीर्ण हो गया। :
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कुछ समय के पश्चात् उपरोक्त १९ सम्प्रदायोंमें से कुछ लोप हो गई तथा कुछ नयी उत्पन्न हो गई। इसके परिणाम स्वरूप कनिकके समय में चार समुदायोंमें निम्नलिखित १८ सम्प्रदाय थे१. आर्य सर्वास्तिवाद
(१) मूल सर्वास्तिवाद
(२) काश्यपीय
(३) महीशासक
(४) धर्मगुप्तीय (५) बहुश्रुतीय (६) तामरथारीय 1. (७) विभज्यवादिन् २. आर्य सम्मतीय
(८) कुरुकुलक (९) आवन्तिक (१०) वात्सीपुत्रीय
३. आर्य महासांघिक (११) पूर्व शैल
(१२) अपर शैल (१३) हैमवत
(१४) लोकोत्तरवादिन् (१५) प्रतिवारिन्
४. आर्य स्थविर
(१६) महाविहार (१७) जेतवनीय, ओर (१८) अभयगिरिवासिन्
यह सब वैभाषिक दर्शन के सिद्धान्त वाले हैं।
यह दार्शनिक विचारों में सौत्रान्तिक सम्प्रदाय के हैं ।
उपरोक सब सम्प्रदायें हीनयानकी हैं, यद्यपि पीछेसे यह महायान में भी मिल गयी थीं। इनके दार्शनिक विचार क्रमसे वैभाषिक और सौत्रान्तिक मत के हैं। कनिष्क के स्थापित किए हुए महायानने माध्यमिक और योगाचार नामके दो और दार्शनिक सम्प्रदायों की नींव रखी। अब बौद्धों में चार दार्शनिक सम्प्रदायें हो गई. - (१) वैभाषिक, (२) सौत्रान्तिक, (३) माध्यमिक, और (४) योगाचार ।
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भूमिका . वैभाषिक सर्वास्तिवाद सम्पदायका ही पीछे का नाम है, जो अपने नामके अनुसार संसारकी आन्तरिक और बाह्य वास्तविकताको स्वीकार करता है। वैभाषिक कहता है कि हमारा ज्ञान और ज्ञेय ( उस ज्ञानके विषय ) दोनों ही वास्तधिक हैं। इस सम्प्रदायका मुख्य ग्रन्थ अभिधर्मज्ञान प्रस्थान शास्त्र अथवा केवल ज्ञान प्रस्थान शास्त्र है, जो बुद्धके ३०० वर्ष पश्चात् बना था। इसका दूसरा ग्रन्थ अभिधर्म महाविभाषा शास्त्र अथवा केवल विभाषा है, जो सन् ७८ ईस्वीके लगभग कनिष्ककी सभामे बनाया गया था। इस सम्प्रदायका नाम वैभाषिक इसी विभाषासे आया है। क्योंकि विभाषाका अर्थ टीका है। ऐसा प्रतीत होता है कि बुद्धकी शिक्षाओपर निर्भर करनेकी अपेक्षा टीकाओंपर ही निर्भर करनेके कारण यह सम्प्रदाय वैभाषिक कहलाता है । संघभद्रका न्यायानुसार शास्त्र अथवा कोशकारक शास्त्र, (जो ४८२ ईस्वीके लगभग बना था ) इस सम्प्रदायका बड़ा विद्वत्तापूर्ण ग्रन्थ है।
सौत्रान्तिक ज्ञान और बाह्य विषयोंकी सत्ताको अनुमानके द्वारा स्वीकार करता है । सौत्रान्तिक शब्द सूत्रान्तसे निकाला गया है, जिसका अर्थ सूत्रका अन्त है । सम्भवतः टीकाओंकी अपेक्षा बुद्धकी शिक्षाओं परही निर्भर करने के कारण यह सम्प्रदाय सौत्रान्तिक कहलाता है । वह मूल जिसके आधार पर सौत्रान्तिक दर्शन बना है आर्यस्थविर ( अथवा पालीके अनुसार थेराओं) और महासांघिको के सम्प्रदायसे सम्बन्ध रखता है। यह कहा जाता है कि इस सम्प्रदायके दार्शनिक सिद्धान्तोको एक धर्मोत्तर या उत्तरंधर्म नामके आचार्यने कनिष्कके समयमें सन् ७८ ई० के लगभग कश्मीरमें बनाया था। परन्तु चीनी यात्री हुएन्सांग ( जो भारतमें ७ वीं शताब्दीके आरम्भमें आया था ) के अनुसार इस सम्प्रदायका संस्थापक तक्षशिलाका प्रसिद्ध अध्यापककुमारलब्ध था, जिसने इस विषय पर बहुतसे अमूल्य ग्रन्थ लिखे थे। कुमारलब्ध नागार्जुन, आर्यदेव और अश्वघोषके समकालीन थे, अतएव उनके सन् ३०० ई० के लगभग होनेका अनुमान किया जाता है। दूसरे अत्यन्त प्रसिद्ध अध्यापक श्रीलब्ध थे, जिन्होंने सौत्रान्तिक सम्प्रदायके विभाषाशास्त्र को लिखा था । हुएनसांगने अयोध्या संघारामके वह खंडहर देखे थे जिनमें श्रीलब्ध रहते थे। ......
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भूमिका
योगाचारका सिद्धान्त है कि बाह्य पदार्थ तो वास्तविक नहीं हैं किन्तु हमारे ज्ञानकी वास्तविकताका निषेध नहीं किया जा स कता | योगाचार शब्द योग और आचार दो शब्दों से बना है। योग करने को योगाचार कहते हैं । भूमियों ( बौद्ध पूर्णताकी १७ श्रेणियों) की प्राप्तिका असाधारण कारण केवल योगको ही कहने के कारसे यह योगाचार कहलाता है । योगाचार प्रतिपादित किया हुआ मुख्य सिद्धान्त आलय विज्ञान है । यह चेतनात्मक ( Conseious ) अवस्थाओं का मूल है और हमारे 'आत्मा' के समान है । इस सम्प्रदाय के संस्थापकका कुछ भी पता नहीं चलता । परन्तु तिब्बत और चीनकी पुस्तकों में लंकावतार सूत्र, महासमय सूत्र, बोधिसत्त्वचर्यानिर्देश और सप्तदश भूमिशास्त्र योगाचार्यको इस संप्रदाय के प्राचीन तथा प्रामाणिक ग्रन्थ माना है । मैत्रेयनाथ और आर्य असङ्ग इसके आरंभिक अध्यापक थे। ऐसा प्रतीत होता है कि योगाचार की स्थापना लगभग सन् ३०० ई० के हुई थी, जब कि लंकावतार सूत्र आदि बनाये गये थे ।
माध्यमिकका सिद्धान्त है कि हमारा विज्ञान और उनके विषभूत बाद्यपदार्थ न तो पूर्ण रूपसे वास्तविक और न पूर्ण रूपसे काल्पनिक ही हैं । माध्यमिक शब्द मध्यम से बनता है । मध्यम बीच को कहते हैं । दोनों अन्तके सिद्धान्तोंको छोड़नेके कारणसे यह माध्यमिक कहलाता है । अर्थात् यह न तो सर्वास्तित्ववादी ही है और न सबके अस्तित्वका निषेध ही करता है । किन्तु इसने एक बीचका मार्ग चुनकर निश्चय किया कि संसारकी एक वैकल्पिक सत्ता (Conditional existence ) थी । यह कहा जाता है इसके संस्थापक नागार्जुन २५०-३२० ईस्वी तक हुए हैं । किन्तु वास्तव में इसके सिद्धान्त उससे प्राचीन ग्रन्थ प्रज्ञापारमितामें मिलते हैं । नागार्जुनकी माध्यमिककारिका, बुद्धपालितकी मूल माध्यमवृत्ति आर्यदेवका हस्तबल, भव्यकी मध्यमहृदयकारिका, कृष्णकी मध्यम प्रतीत्यसमुत्पाद, चन्द्रकीर्तिकी माध्यमिक वृत्ति और जयानन्तकी माध्यमिकावतार टीका माध्यमिक सम्प्रदायके मुख्य ग्रन्थ हैं। नागार्जुनके एक मूल माध्यमिक वृत्ति अकुतोभयका तिब्बी भाषामे अनुवाद मिलता है । जिसके अन्त में माध्यमिक दर्शन के इन आठ प्रचारकों (Expounders ) के नाम दिये हुए हैं-१ आर्य नागार्जुन,
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भूमिका
स्थविर बुद्धपालित, ३चन्द्रकीर्ति, ४देवशर्मा, ५गुणश्री, ६गुणमति, ७स्थिरमति और भव्य ( या भाव विवेक ) |
उपर्युक्त चारोंदार्शनिक सम्प्रदायोंके साथ ही साथ बौद्ध जनता में न्यायके अध्ययनका भी विकाश होने लगा । अब चारों ही सम्प्र दायों के नेता अपने सिद्धान्तके मंडन और दूसरोंके सिद्धान्तके खंडन के लिये न्यायको उपयोगी समझने लगे । जैसा कि माध्यमिक सम्प्र दायके नागार्जुन, और आर्यदेव तथा योगाचार सम्प्रदायके मैत्रेय, असंग और वसुबन्धुके लेखोंसे स्पष्ट है। अपने पक्षके मण्डन और पर रक्षके खण्डन करनेके लिये उपयोगकी हुई युक्तियोंने अक्षपादके प्राचीन न्यायका प्रचार और बौद्धोंमें बहुतसे नैयायिकोंको उत्पन्न कर दिया ।
बौद्धोंमें न्यायके ऊपर विस्तारसे प्रथम विचार करने वाला माध्यमिक सम्प्रदायका प्रवर्तक आर्य नागार्जुन यह था महाकौशल देशके विदर्भ 'नगर में आन्ध्र राजा सद्वाह अथवा सातवाहनके समय उत्पन्न हुए थे । इन्होंने कृष्णा नदीके तटपर श्रीपर्वतकी गुफा में बहुत सा समय ध्यान करनेमें व्यतीत किया था । ये 'शरह' के शिष्य थे। कहा जाता है कि इन्होंने एक बड़े शक्तिशाली राजा भोजदेवको बौद्ध बनाया था । बौद्धग्रन्थों के अनुसार यह बुद्धके निर्वाणके ४०० वर्ष पश्चात् अथवा ईसासे ३३ वर्ष पूर्व हुए थे । किन्तु म. म. डाक्टर सतीशचन्द्र विद्याभूषणकी सम्मतिमें इनका समय कुछ पीछे है। इन्होंने अपनी माध्यमिक कारिकामें प्राचीनन्यायके परिभाषिक शब्द पुनरुक्त, सिद्धसाधन, साध्यसम और परिहारका प्रयोग और अक्षपादके सिद्धान्त प्रमाणके दीपकके समान स्वपर प्रकाशकत्वका निराकरण किया है । इन्होंने अपने ग्रन्थ विग्रहव्यावर्तनीकारिकामें भी अक्षपादके सिद्धान्तकी समालोचना की थी । प्रमाण विटेतन या प्रमाणविध्वंसन और उपायकौशल्यहृदयशास्त्र इनके न्याय पर स्वतन्त्र ग्रन्थ हैं । किन्तु इनपर प्राचीन न्यायका पूरा प्रभाव पड़ा हुआ है । क्योंकि इनमें इन्होंने नैयायिकों के १६ पदार्थ माने हैं | कार्यहेतु स्वभावहेतु, और अनुपलब्धि हेतुका बर्णन भी इन्होंने किया है ।
आर्यदेव ( लगभग ३२० ई०) मैत्रेय ( लगभग ४०० ई ) आर्य असंग ( लगभग ४०५ - ४७० ई० तक ) और वसुबन्धु ( लगभग ४१० से ४९० तक ) ने भी बौद्धन्याय पर स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखे हैं ।
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भूमिका
किन्तु इनके ग्रन्थों पर भी प्राचीन न्यायका पूरा प्रभाव देखनेमें आता है। ये ग्रन्थकार बौद्धन्यायकी आदिम अवस्थाके थे।
सारांश यह है कि ईसासे पूर्व छटी शन्तादीमें बौद्ध धर्मकी स्थापनासे ईसाकी चौथी शताब्दीमें इसका चार दार्शनिक संप्रदायोंमें विकाश होने तक बौद्धन्यायके ऊपर कोई भी क्रमबद्ध (Systematic) ग्रन्थ नहीं था। केवल दार्शनिक और धार्मिक ग्रन्थोंमें न्यायका यतः ततः आभास देखनेमें आताथा । नागार्जुनने लगभग ३०० ई० के न्यायपर एक स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखा। किन्तु यह केवल प्राचीन न्यायके सिद्धान्तोंकी आलोचना मात्र थी। ई० ४०० से ५०० तक मैत्रेय असंग और वसुबन्धुने भी न्यायको चलाया, किन्तु उनका लेख केवल आकस्मिक ( Incidental ) था। क्योंकि वह योगाचार और वैभाषिकके सिद्धान्तोंसे मिला हुआ था। हुएनसांगके बतलाये हुए वसुबन्धु कृत तीनों ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं। अतएव उनके विषयमें कुछ भी नहीं कहा जा सकता। ४५० ई० से वह समय आया जब न्याय साधारण दर्शनसे विलकुल प्रथक हो गया। और बहुतसे बौद्ध लेखकोका ध्यान इधर पूर्णरूपसे आकर्षित हुआ। इनमें दिग्नागका नम्बर सबसे पहिला है। .. दिग्नागको आधुनिक बौद्धन्यायका पिता कहना अनुचित न होगा। क्योंकि अधिकांश बौद्धन्यायके सिद्धान्तोकी नींव इसीने डाली है। उन्होंने नालन्द, उड़ीसा, महाराष्ट्र, और दक्षिण (मदरास) की यात्रा की थी। ये जहाँ गये वहाँ इनको अपने विरोधियोंसे शास्त्रार्थ ही करना पड़ा। उनका सम्पूर्ण जीवन चोटें करने और सहने में ही व्यतीत हुआ। उनके मरने पर भी कालीदास, उद्योतकर, वाचस्पतिमिश्र, मल्लिनाथ, कुमारिल भट्ट और पार्थसारार्थ मिश्रने उनके ऊपर कम आक्रमण नहीं किये । वेदान्ती और जैनी भी उनपर आक्रमण करनेसे न चूके । यहाँ तक कि बौद्धसाधु धर्मकीर्तिने भी उनका विरोध करनेका प्रयत्न कर ही डाला। दिग्नागके ग्रन्थोंसे उनकी सार्वतोमुखी प्रतिभाका खूब परिचय मिलता है। प्रमाणसमुच्चय, न्यायप्रवेश, हेतुचक्रहमरु, प्रमाणसमु. श्चयवृत्ति, प्रमाणशास्त्र न्यायप्रवेश, आलम्बन परीक्षा, आलम्बन परीक्षावृत्ति, और त्रिजालपरीक्षा इनके न्यायपर स्वतन्त्र ग्रन्थ हैं । इन मे से इनका प्रमाणसमुश्चय सबसे प्रधान है और यही बौद्धन्यायका पथप्रदर्शक है । इसमें छह अध्याय हैं-(१) प्रत्यक्ष, (२) स्वार्था
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भूमिका
नुमान, (३) परार्थानुमान, (४) हेतु दृष्टान्त, (५) अपोह और (६) जाति।
दिग्नागके पश्चात् परमारथ (४९८ ई० से ५६९ ई. तक) हुए। इन्होंने कुछ बौद्धग्रन्थोंका चीनी भाषामें अनुवाद किया। इन्होंने एक न्यायभाष्य भी लिखा था।
शंकरस्वामिन् ( लगभग ५५० ई०) आचार्य दिग्नागके शिष्य थे। कहा जाता है कि शंकरस्वामिन् और अन्य दश आचार्योके द्वारा न्यायशास्त्र दिग्नागसे शालिभद्र तक पहुंचा था। इन्होंने एक ग्रन्थ न्यायप्रवेशशास्त्र या न्यायप्रवेशतर्क शास्त्र नामका लिखा था। ___ धर्मगल ( लगभग ६०० से ६३५ ई. तक ) कांचीपुर ( वर्तमान कंजीवरम् ) के राजमंत्रीके ज्येष्ठ पुत्रथे । यह धर्मकीर्तिके गुरु थे। इन्होंने बाल्यावस्थामें ही वैरान्य ले लिया था। आरम्भमें यह नालन्द विश्वविद्यालयमें पढ़ने गये किन्तु पीछेसे यह उस विद्यालयके प्रधान बना दिये गये । यह योगाचार मतावलम्बी थे । इन्होंने आलम्बन प्रत्यय ध्यान शास्त्रव्याख्या, विद्यामात्र सिद्धिशास्त्र व्याख्या और शत-शास्त्र वैपुल्य व्याख्या आदि ग्रन्थ लिखे थे।
शालिभद्र (६३५ ई० ) बंगालके राजा समतटके, कुटुम्बके थे। ये ब्राह्मण थे। नालन्द विश्वविद्यालयमे यह धर्मपालके शिष्य थे। जिसके यह उनके पीछे प्रधान हो गये थे । चीनी यात्री हुएनसांग (सन् ६३५ ई०) इनका शिष्य था । शालिभद्र बड़े भारी विद्वान् और नैयायिक थे।
आचार्य धर्मकीर्ति (लगभग ६३५ से ६५०ई०तक) इनके विषयमें आगे विस्तारसे विचार किया जावेगा। . देवेन्द्रवोधि ( लगभग ६५० ई०) धर्मकीर्तिके समकालीन थे। इन्होंने प्रमाणवार्तिकपंजिका बनाई थी। कहा जाता है कि धर्मकीतिने अपने पुमागवार्तिकके ऊपर टीका लिखनेके योग्य देवेन्द्रबोधिको ही चुना । तदनुसार देवेन्द्रबोधिने टीका बनाकर धर्मकीर्तिको दिखलाई किन्तु उसने उसको धो डाली । देवेन्द्रबोधिने फिर बनाकर दिखलाई इसबार धर्मकीर्तिने उसको जला दी। किंतु तीसरीबार देखनेपर धर्मकीर्तिने उसको रहने दी। - शाक्यबोधि ( लगभग ६७५ ई०) ने जो कि देवेन्द्रबीधिका शिष्य था एक टीका प्रमाणवार्तिक पंजिका पर बनाई। जिसका नाम उन्होंने
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. भूमिका एमागवार्तिक ( पंजिका) टीका रक्खा । - न्यायबिन्दुटीका (धर्मकीर्तिका न्यायबिन्दु ), हेतुबिन्दु (धर्मकीर्विका ) टीका, वादन्याय (धर्मकीर्तिकृत ) व्याख्या, सम्बन्धपरीक्षा (धर्मकीर्तिकृत ) टीका, आलम्बनपरीक्षा (दिग्नागकृत । टीकाऔर सन्तानान्तरसिद्धि (धर्मकीर्तिकृत) टीकाके कर्ता विनीतदेव ( लगभग ७०० ई०) राजा गोविन्दचन्द्र के पुत्र राजा ललितचन्द्र के समयमें नालन्दमें रहते थे । धर्मकीर्तिका मृत्यु भी गोविन्दचन्द्र के समय में हुई थी। गोविन्दचन्द्र के पिता विमलचन्द्रका विवाह भर्तृहरि ( जो मालवेके पाचीन राजवंशके थे । ) की बहिनले हुआ था। यदि हम भर्तृहरि और इस नामके वैयाकरणीको जो ६५१ या ६५० ई० में परलोक गये एक ही व्यक्ति मानले तो हम उनके समकालीन गोविन्दचन्द्रको ७ वीं शताब्दीके मध्यमें रख सकते हैं। धर्मकीर्तिकी मृत्युका भी यही समय है। इससे परिणाम निकाला जा सकता है कि गोविन्दचन्द्र के पुत्र ललितचन्द्र ७ वीं शताब्दीके अन्तमे हुए होंगे। अतएव ललितचन्द्र के समकालीन विनीतदेव भी उसी समय हुए होंगे। क्योंकि यह विचार धर्मकीर्तिके समयसे भी मिलता है (जिसकी उसने टोका की थी।) ... रविगुप्त ( लगभग ७२५ ई०.) काश्मीरमें उत्पन्न हुए थे। यह वारेन्द्र के गजा भर्षके समकालीन थे और न्यायमंजरीकार जयन्तसे पूर्व उत्पन्न हुए थे।ये अवश्य ही सातवीं शताब्दीके पूर्व में रहे होंगे। क्योंकि उनका शिल्य प्रसिद्ध तांत्रिक साधु सर्वज्ञ भित्र उस शताब्दी के मध्यमें था । गुप्त सम्बत् ४३५ ( ७५४ ई० ) में वसन्तसेनके लेखोंमें उनको सर्वदण्डनायक और महापुतिहार कहा गया है । उन्होंने धर्मकीर्तिके पमाणवर्तिक पर प्रमाणवार्तिक वृत्ति बनाई थी।
विशालामलवती नाम प्रमाण समुच्चयटीकाके लेखक जिनेन्द्रवोधि (लगभग ७२५ ई०) थे । सम्भवतः यह वही व्यक्ति हैं जिन्होंने ८ वीं शताब्दीने पाणिनि व्याकरणके ऊपर प्रसिद्ध न्यास लिखा था।
शान्तरक्षित ( ७४९ ई.) जहूर (बंगालमें या लाहोरके पास) के राजवंशमें उत्पन्न हुए थे। यद्यपि इनका समय अनिश्चित ही है तथापि यह कहा जाता है कि वह गोपाल (जिसने ७२५ ई० तक राज्य किया ) के समयमें जन्मे और धर्मपाल ( जो ७६५ में राजा हुआ) के समयमे मरे थे। वह स्वतन्त्र माध्यमिक मतके अनुयायी और नालन्दके अध्यापक थे। यह राजा खीस्रानडीत्सानKhri-Sron.
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भूमिका
१२
dea-tsan (जो७२८ ई० में उत्पन्न और ८६४ ई० में मरा) के निमन्त्रणपर तिब्बत गये थे। राजाने शान्तरक्षितकी. सहायतासे ७४९ ई० में समय के विहार ( Monastery of Sam-ye) को बनवाया था जो मगधके उदन्तपुर विहारके जैसा बनाया गया था। तिब्बतमें समये सबसे पहिला निययित (Regluear) विहार यहीथा और शान्तरक्षित उसका पहिला महन्त थे । उन्होंने तिब्बतमे १३ वर्ष तक अर्थात् ७६२ ई० तक कार्य किया।वह वहाँ आचार्य बोधिसत्त्वके नामसे प्रसिद्ध थे। वह निम्नलिखित ग्रन्थोंके कर्ता थे-वादन्यायवृत्ति विपंचितार्थ, धर्मकीतिके वादन्याय की टीका और तत्त्वसंग्रहकारिका-यह ३१ अध्यायों का अमूल्य दार्शनिक ग्रन्थ है। इसमें सांख्य जैन आदिका खंडन
न्याय बिन्दु पूर्वपक्षे संक्षिप्त (धर्मकीर्तिके न्यायबिन्दुकी समाः लोचनाओं का संक्षेप) और तत्वसंग्रह पंजिका ( शान्तरक्षितके तत्वसंग्रह की टीका ) के कर्ता कमलशील ( लगभग ७५० ई०) शान्त रक्षित के अनुगामी थे। इन्हों ने तिब्बतमें महायान होशंग नामक चीनी साधुको पराजित करके बड़ा नाम कमाया था। ' सर्वसिद्धि कारिफा, बाह्यार्थसिद्धिकारिका, श्रुतिपरीक्षा, अन्याः पोहविचार कारिका और ईश्वरभंग कारिकाके कर्ता कल्याण रक्षित धर्मोत्तराचार्यके गुरु थे। ये राजा धर्मपालके समकालीन थे। जिनका देहान्त ८२९ ई० में हुआ था। . धर्मोत्तराचार्य (लगभग ८४७ ई.)
धर्मोत्तर, जिसका वर्णन 'तारानाथकी गेस्चिच्टे देव बुधिजूमस घाँन शीफनर' के पृ० २२५ और 'ड्पाग-बसाम-बजान के पृ०१४४ में किया गया है। जिनको आचार्य धर्मोत्तर या धर्मोत्तराचार्य भी कहते हैं। तिब्बी भाषामें 'चॉस-मचांग' के नामसे प्रसिद्ध हैं। ये कल्याणरक्षित और कश्मीरके धर्माकरदत्तके शिष्य थे। यह प्रतीत होता है कि राजा वाणपालके बंगालमें राज्य करनेके समय में ही यह कश्मीरमें हुए थे। ब्राह्मण नैयायिक श्रीधर (लगभग ९९१ ई०) ने अपने ग्रन्थ न्यायकन्दली (पृ० ७६ विजयानगरम् सेरीज़ ) में, धर्मोत्तरटिप्पणकके कर्ता जैन दार्शनिक मल्लिवादिन्ने लगभग ९६२ ई०. के धर्मोत्तरकी न्यायबिन्दुटीकाकी टीका.. धर्मोत्तर टि
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१३
भूमिका प्रणको और प्रसिद्ध स्याद्वादरत्नाकरावतारिका के कर्ता रत्नप्रभसूरि ने १९८१ ई० में इनके नाम का उल्लेख किया है।
(मल्लिवादिनके ग्रन्थ में उसका संवत ८८४ पड़ा हुआ है । यदि इसे विक्रम माना जावे तो यह ८२७ अथवा यदि इसे शक माना नावे तो यह ९६२ ई० होता है । एक प्रकारके विद्वानोंका मत है कि मल्लिवादिन् धर्मोत्तरके समकालीन थे किन्तु दूसरे प्रकारके विद्वान् उनका समय एक शताब्दी पीछे निर्धारित करते हैं। .. धर्मोत्तराचार्यके बनाये हुए निम्नलिखित ग्रन्थों का पता चलता है
१. न्यायबिन्दुटीका-धर्मकीर्तिके न्यायबिन्दुपर विस्तृत टीका। यह अपनी मूल अवस्थामें छप कर पाठकोंके हाथ में है। इसका तिब्बी अनुवाद भी मिलता है।
धर्मोत्तराचार्यके निम्नलिखित ५ ग्रन्थोंका और पता चला है। किन्तु उनका संस्कृत लुप्त है। केवल तिब्बी अनुवाद मिलता है। वह ग्रन्थ यह हैं
२. प्रमाणपरीक्षा, ३. अपोह नाम प्रकरण, ४. परलोकसिद्धि, ५. क्षणभङ्गसिद्धि, और ६. प्रमाणविनिश्चय टीका-यह धर्मकीर्तिके प्रमाणविनिश्चयकी टीका है।
धर्मोत्तराचार्यके पश्चात् बौद्ध न्यायके अन्य भी अनेक विद्वान् हुए हैं । किन्तु उन्होंने न्यायबिन्दुके ऐसा कोई ग्रन्थ नहीं लिखा । अतएव अपना प्रयोजन निकल जानेसे हम इस विषयको यहीं समाप्त करके अब न्यायबिन्दुकार धर्मकीर्तिके ऊपर विचार करते हैं।
(३) धर्मकीर्ति । .: (धर्मकीर्तिके विषयमें अनेक ग्रन्थों में खोजने पर भी हमको डाक्टर सतीशचन्द्र विद्याभूषणके इतिहाससे विशेष कहीं भी नहीं मिला । अतएव यहां उन्हींका अविकलं अनुवाद दिया जाता हैं-)
जीवन चरित्र । - धर्मकीर्ति दक्षिणके चूडामणि ( सम्भवतः यह चोल देशका नाम है ) राज्यमें उत्पन्न हुए थे, यद्यपि इस नामका कोई भी देश नहीं है तथापि सभी प्रकारके विद्वान् त्रिमलयको धर्मकीर्तिकी जन्मभू.
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भूमिका
१४ मि कहते हैं। सम्भव है कि त्रिमलयका ही प्राचीन नाम चूडामणि रहा हो । उनके पिता ब्राह्मण जातिके तीर्थ थे। (बौद्धलोग अपने और जैनधर्मके अतिरिक्त शेष भारतीय धर्मवालोंको तीर्थकहते थे।) उनका नाम परिव्राजक कुरुनन्द था। धर्मकीर्ति बाल्यावस्थासे ही बडे बुद्धिमान और प्रतिभाशाली थे। अतएव ये शीघ्र ही वेद, वेदाङ्ग, वैद्यक, व्याकरण आदि तीर्थों के सभी सिद्धान्तोंमें दक्ष हो गये। १६ या १८ वर्षकी अवस्थामे ही यह तीर्थोके दर्शनशास्त्रके अच्छे विद्वान पंडित हो गये। ये प्रायः बौद्धधर्म के न्याख्यान भी सुना करते थे अन्त में इनको विश्वास हो गया कि बौद्ध सिद्धान्त बिलकुल निर्दोष हैं । अब, ये पूर्णरूप से बौद्ध धर्मकी ओर - झुकने लगे। इन्होंने अपना वेष बौद्ध उपासकों का सा बनाया । जब ब्राह्मगोने इनसे इसका कारण पूछा तो इन्होंने. बौद्धधर्मकी प्रशंसा की । यह इसी बात पर जातिच्युत कर दिये गये। इसके पश्चात ये मध्यदेशमे आये । (यद्यपि तिब्बतदेशीय साहित्यमें मध्यदेश मगध को कहा है परन्तु मनुजी ने उत्तर में हिमालय, दक्षिणमें विन्ध्याचल, पूर्वमें प्रयाग और पश्चिममें सरस्वती ही के बीचके देशको मध्यदेश कहा है । जैसाकि कहा है-"हिमवद्विन्ध्ययोर्मध्ये यत् प्राग् विनशादपि । प्रत्यगेव प्रयागाच्च मध्यदेशः प्रकीर्तितः॥ मनु०॥२॥ २१॥") यहां इनको आचार्य धर्मपालने संघमें प्रविष्ट कर लिया। इन्होंने यहाँ त्रिपिटकोंका अध्ययन किया। अब इनको ५०० सूत्र धारणी कण्ठ याद होगई।
धर्मकीर्ति और कुमारिल। ये तीर्थमतके गुप्त सिद्धान्तोंके जानने की अभिलाषासे दासोंका सा वेष बना कर दक्षिण की ओर गये । यहाँ इनको पूछनेसे विदित हुआ कि ब्राह्मण कुमारिल उक्त विषयके अद्वितीय विद्वान् थे । भारतीय ग्रन्थ कुमारिलके धर्मकीर्तिका चाचा होने की किम्बदन्ती का समर्थन नहीं करते । कुमारिलके पास राजा की दी हुई बड़ी भारी सम्पत्ति थीं। इनके पास बहुतसे चावलोंके खेत, ५०० दास, ५०० दासियां और कई सौ आदमी थे। जब धर्मकीर्तिने उनके यहां सेवाकार्यमें प्रवेश पा कर बाहर और भीतर के ५० दालोका काम संभाल लिया तो कुमारिल और उनकी स्त्री सन्तुष्ट हो गये। अब धर्मकीर्तिको गुप्त सिद्धान्तोंके सुननेकी आज्ञा मिल गई ।
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भूमिका
धर्मकीर्तिने कुमारिलले गुप्तशिक्षाका ज्ञान प्राप्त करके उनका घर छोड़ दिया । कुमारिलसे उसको अपनी विशेष सेवा के बदले में कुछ धन भी मिला था। जिससे उसने अपनी यात्राकी रात्रिमें ब्राह्मणों को एक बड़ा भोज दिया ।
अब उसने कणाद के मत वाले कणादगुप्त और तीर्थमतके अन्य अनुयायियों को शास्त्रार्थके लिए आह्वान किया और उनसे शास्त्रार्थ करने लगा । शास्त्रार्थ बराबर तीन मास तक होता रहा जिसमें उसने अपने सभी विपक्षियोंको पराजित कर दिया और उनमें से बहु
सो को बौद्ध बना लिया । इसपर कुमारिलको बड़ा क्रोध आया वह ५०० ब्राह्मणों को लेकर शास्त्रार्थ के लिये अग्रसर हुआ । कुमारिलने पुस्ताव किया कि शास्त्रार्थमें जो पराजित हो वह मार डाला जावे । किन्तु धर्मकीर्तिने जो कुमारिल की मृत्यु नहीं चाहता था आग्रह किया कि पराजित व्यक्ति विजेताके धर्म को स्वीकार कर ले | इस पुकार धर्मको पारितोषिकके रूपमें रखकर दोनों शास्त्रार्थमें भिड़ गये किन्तु विजयश्री अन्तमें धर्मकीर्तिके ही हाथ रही । कुमारिल और इसके ५०० अनुगामी बौद्ध हो गये ।
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उसकी दिग्विजय |
धर्मकीर्ति ने इसके पश्चात् निर्ग्रन्थ ( दिगम्बर जैनी ) रघुवतिन् और दूसरों पर जो विन्ध्याचल में रहते थे विजय पायी । उसने द्रवली ( द्राविड) को लौटते हुए घोषणा करादी कि जो तयार हो आकर शास्त्रार्थ करे । तीर्थ लोगोकी अधेकांश संख्या भाग गयी और कुछने बिलकुल स्वीकार कर लिया कि वह युद्धमें उनके समान नहीं थे । उसने उस देश की उन सब धार्मिक संस्थाओं का जो अवनत दशा मे पड़ी हुई थीं, उद्धार किया और फिर गहन बनमें जाकर एकान्त सेवन करने लगा और ध्यान करने लगा ।
धर्मकीर्ति ने अपने जीवन की समाप्तिके दिनोंमें कलिंग देशमें एक विहार बनवाया और बहुतसे लोगोंको अपने धर्ममें दीक्षित कर परलोक वासी हुआ । उसके वह शिष्य जिनकी आत्मा ब्रह्मके समान हो गयीथी उसको दाहसंस्कार के लिये स्मशानभूमिमें ले गये । वहाँ एक पुष्पोंकी भारी बृष्टि हुई और सात दिन तक सारा देश सुगन्ध और रागों से भरा रहा।
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भूमिका
१६
यह आचार्य ( धर्मकीर्ति ) और तिब्बतका राजा स्त्रोत्संगम्पो समकालीन कहे जाते हैं, जो कि प्रमाणरूपमें माना जा सकता है ।
धर्मकीर्तिका समय ।
इस कथन में यह स्पष्ट है कि धर्मकीर्ति धर्मपालका शिष्य था । और इस वासते कि धर्मपाल ६३५ ई० में जीवित था ( जैसा कि हुएनसांग के लेखों से स्पष्ट है ) तो धर्मकीर्ति भी उस समयके लगभग अवश्य रहा होगा । यह समय धर्मकीर्तिके राजा स्त्रोत्संगम्पो का समकालीन होनेके भी अविरुद्ध है, जो ६२७-६९८ तक जीवित रहा । ऐसा प्रतीत होता है कि ६३५ ई० में धर्मकीर्ति बहुत छोटा था, क्योंकि हुएनसांगने उसका नाम नहीं लिया है। इसके विरुद्ध इत्सिंग, जिसने भारतमें ६७१-६९५ ई० तक यात्राकी दिग्नागके पश्चात् 'धर्मकीर्तिने न्यायमें आगे कैसे उन्नति की' का वर्णन प्रभावपूर्ण शब्दों में करता है । धर्मकीर्तिने ब्राह्मण नैयायिक उद्योतकर पर आक्षेप किया है, इसके विरुद्ध वृहदारण्यकवार्तिक के रचयिता मीमांसक सुरेश्वराचार्य और असहस्रीके रचयिता दिगम्बर जैन विद्यानन्दिने धर्मकीर्ति कृत प्रत्यक्षके लक्षणकी समालोचना की है । धर्मकीर्ति अन्य ग्रन्थोंमें केवल कीर्ति भी कहा गया है । वाचस्पतिमिश्र ने भी धर्मकीर्तिकी समालोचना करनेके लिये उनका नाम लिया है ।
धर्मकीर्तिकी रचनायें ।
धर्मकीर्तिने निम्नलिखित ग्रन्थ बनाये
१. प्रमाणवार्तिककारिका -- यह ग्रंथ मूल संस्कृतमें तो लुप्त है । किन्तु इसका तिब्बी भाषामें अनुवाद मिलता है । इस ग्रन्थके बनाये जानेकी कथा भी बड़ी रोचक है। कहते हैं कि एक दिन धर्मकीर्ति दिग्नागके शिष्य ईश्वरसेनके यहां गये। वहां इन्होंने दिग्नागका प्रमाणसमुच्चय सुना । धर्मकीर्ति उसको प्रथम बार सुननेसे ईश्वरसेनके समान उस ग्रन्थके विद्वान् बनगये । उन्होंने उसको दोबारा फिर सुना इस बार वह दिग्नाग के समान बन गये । और तीसरी बार सुनने पर उन्होंने उसमेंकी कई गलतियां निकालीं । उन्होंने वह अशुद्धियां ईश्वरसेमको बतलायीं । जिसने गुरुनिन्दापर अप्रसन्न होनेके स्थानमें उनसे एक समालोचनात्मक टीका बनानेको कहा। उसी परिश्रमका फक
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भूमिका स्वरूप यह ग्रन्थ हैं। इसमें चार अध्याय है-जिनमेसे प्रथममें स्वार्थानुमान, द्वितीयमें प्रमाणसिद्धि, तृतीयमें प्रत्यक्ष और चतुर्थमें परार्थ वाक्यका वर्णन है।
२ प्रमाणवार्तिकवृत्ति-यह प्रमाणवार्तिककारिकाकी टीका है। इसका भी मूल लुप्त होकर तिब्बी अनुवाद ही शेष है। ..३ प्रमाणविनिश्चय-इसमें न्यायबिन्दुके ही समान प्रत्यक्ष, स्वर्थानुमान और परार्थानुमान नामके तीन परिच्छेद हैं। इसका भी सम्भवतः मूल लुप्त और तिब्बी अनुवादही शेष है । . . .
४ न्यायबिन्दु-यह ग्रन्थ पाठकोंके सामने है। इसका वर्णन आगे किया जावेगा।
५ हेतुबिन्दुविवरण-इसमें तीन अध्याय हैं, जिनमें क्रमसे स्वभावहेतु, कार्यहेतु, और अनुपलब्धिहेतु का वर्णन किया गया है।
६ तर्कन्याय या वादन्याय-मूल इसका भी सम्भवतः लुप्त ही है। ७ सन्तानान्तरसिद्धि८ सम्बन्धपरीक्षाऔर ९ सम्बन्धपरीक्षा वृत्ति-यह सम्बन्ध परीक्षाकी टीका है।
(४) धर्मकीर्तिकी संप्रदाय । यद्यपि धर्मकीर्तिके विषयमें ऊपर (इस छोटीसी भूमिकामें ) कम नहीं लिखा गया तथापि उसकी सम्प्रदायको जाने बिना यह विषय अधूरा ही रह जाता है । इस विषयमें सब एक मत हैं कि वह माध्यमिक नहीं था क्योंकि माध्यमिक दर्शन शून्यवाद है और धर्मकीर्तिके ग्रन्थोंमें स्थान २ पर अनेक पदार्थ देखनेमें आते हैं। अतएव माध्यमिक न होनेसे वह या तो वाह्यार्थास्तित्ववादी (सौत्रान्तिक और धैभाषिक ) ही हो सकता है या विज्ञानाद्वैतवादी ( योगाचार) ही हो सकता है । अवएव अब हम इसीपर विचार करेंगे कि वह इन दोनों से किस मतका अनुयायी था। : यह पीछे दिखलाया जा चुका है कि धर्मकीर्ति धर्मपालका शिष्य था और यह भी बतला दिया गया है कि धर्मपाल योगाचार (विज्ञानाद्वैतवाद) मतावलम्बी था। अतएव जो मत गुरुका हो वही शिष्यका भी होना चाहिये। किन्तु न्यायबिन्दुमे स्थान पर ऐसे वाक्य आये हैं जिनसे बाह्य अर्थका अस्तित्व स्पष्ट प्रतीत होता है। उदाहरण के लिये पेसे कुछ वाक्य दिये जाते हैं- ..... ...
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भूमिका
"इन्द्रियज्ञानम्” पृष्ट १७ ..
"स्वविषयानन्तरविषयसहकारिणेन्द्रियज्ञानेन समनन्तरप्रत्ययेन जनितं तन्मनोविज्ञानम्" पृष्ट १७
"सर्वचित्तवेतानामात्मसंवेदनम्" पृ० १९
"भूतार्थभावनाप्रकर्षपर्यन्तजं योगिज्ञानं चेति" पृ० २० इ. त्यादि ।
न्यायबिन्दुके इस प्रकारके वाक्यही इस प्रश्नको उपस्थित करते हैं कि वह वाह्याङस्तित्ववादी था. या विज्ञानाद्वैतवादी ? क्योंकि यद्यपि योगाचार बाह्य अर्थको नहीं मानता तथापि उपचारसे उसको वह भी मानता ही है । यदि हम धर्मकीर्तिको विज्ञानाद्वैतवादी मानले तो न्यायबिन्दुके बाह्यास्तित्ववाचक शब्दोंको औपचारिक मानना पड़ेगा। किन्तु उन वाक्योंके ढंगसे ऐसा प्रतीत नहीं होता। यदि उक्त वाक्य औपचारिक होते तो उनमेसे किसीमे तो उपचारवाचक शब्द अवश्यही होता किन्तु ऐसा कोई शब्द न्यायबिन्दुमें उपलब्ध नहीं है अतएव धर्मकीर्तिको विज्ञानाद्वैतवादी मानना युक्तिसंगत नहीं है। - इसके अतिरिक्त एक बात यह भी है कि धर्मकीर्ति पहिले तीर्थमतका था उसके दिग्विजयसे प्रतीत होता है कि उसका मनन वैशेषिक आदि मतोंका विशेष था। वेदान्तियोंसे उसकी किसी भी भिड़न्तका पता नहीं चलता है । अतएव बौद्ध होनेसे पूर्व वह बाह्य
और आन्तर दोनों प्रकारके पदार्थके अस्तित्वको माननेवाले किसी दर्शनका अनुगामी होगा । सो दोनोंके अस्तित्वको माननेवालेकी दूसरी सीढ़ी एककोही मानना या न मानना हो सकती है और वह सीढ़ी बाह्यार्थास्तित्ववाद है। अतएव धर्मकीर्ति बाह्यार्थास्तित्ववादी था । .. - तीसरी बात यह भी है कि नैयायिक प्रायः कमसे कम बाह्य अर्थ को माननेवाले होते हैं । जैन यद्यपि बाह्य और आन्तर दोनों अर्थ को मानते हैं तथापि शास्त्रार्थकी झंझटोंको दूर करने और विपक्षीको आक्षेपका मौका न देनेके लियेही उनको मतिज्ञान रूप परोक्षज्ञानको सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहना पड़ा है। अतएव ऐसी दशामें यह आशा नहीं की जा सकती कि बौद्ध न्यायका उद्धार कर्ता धर्मकीर्ति बाह्य अर्थ तकका स्पष्ट रूपसे अस्तित्व न मानता होगा। ..........
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भूमिका
(५) धर्मकीतिका घौद्ध न्यायमें स्थान । धर्मकीर्तिके बौद्धन्यायमें स्थानको लिखनेसे पूर्व यह प्रश्न उपस्थित होता है कि धर्मकीर्तिका बौद्ध दर्शनमें क्या स्थान है ? किन्तु उसके बनाये हुए किसी भी दार्शनिक ग्रन्थके सामने न होनेसे हम इस विषयपर लिखने में असमर्थ हैं। क्योंकि केवल न्यायके ग्रन्थ के आधारपर दार्शनिक विषयकी समालोचना करना हम योग्य नहीं समझते। - यह पीछे पुगट किया जा चुका है कि आचार्य दिग्नाग आधुनिक बौद्ध न्यायके जन्मदाता थे। किन्तु गौतम न्यायसूत्रके वात्स्यायन भाष्यकी टीका न्यायवार्तिकके रचयिता उद्योतकरने अपने ग्रन्थ में उनकी खूब समालोचनाकी। उस समय इस समालोचनासे ब्राह्मणोंका प्रभाव बहुत कुछ बढ़ गया और बौद्धोका घट गया। दिग्नागसे धर्मकीर्ति तकके बीचमें कोई भी ऐसा बौद्ध नैयायिक नहीं हुआ जो उस उखड़ी हुई पतिष्ठाको जमाता। किन्तु धर्मकीर्तिने स्थान २ पर शास्त्रार्थ करके बौद्धमतका इतना प्रचार किया कि उसके पीछेके पायः सभी दर्शनोंके न्यायवालोंने उसकी समालोचना करनेमें ही अपना गौरव समझा । इन्होंने न्यायवार्तिककी भी समालोचना खूब की थी। इनके पश्चात् बौद्ध नैयायिकोंमें ऐसा दमदार कोई नैयायिक नहीं हुआ। इस वास्ते जबकि हम दिग्नागको आधुनिक न्यायका जन्मदाता कहते हैं तो धर्मकीर्तिको बौद्धन्यायका उद्धारक कहना बहुत योग्य होगा। .. (६) धर्मकीर्ति कृत दिग्नागका खंडन । • प्रमाणवार्तिककारिकाके बननेके वर्णनमें कहा जा चुका है कि धर्मकीर्तिने दिग्नागके ग्रन्थमे उसकी गलतियां पकड़ीं। यद्यपि हमारे सामने प्रमाणवार्तिककारिका उपस्थित नहीं है तथापि न्यायविन्दु टीकासे दिग्नागसे धर्मकीर्तिका मतभेद स्पष्ट पुगट हो जाता है । यद्यपि डाक्टर सतीशचन्ड विद्याभूषणने इस विषयपर भी काफी लिखा है किन्तु इस स्थलपर उस विषयमें न लिखना भी अनुचित होगा अतएव हम यहां पर वही विषय डाक्टर साहिबसे अभिन्न सम्मति रखते हुए लिखते हैं
इष्टविघातकृत् विरुद्ध । हेतुके साध्यके विरुद्ध होनेको दिग्नाग और धर्मकीर्ति दोनोंने ही हेत्वाभास माना है। किन्तु दिग्नागने अपने न्यायप्रवेशमें हेतुके
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भूमिका
अभिलषित ( Implied ) साध्यके (जिस समय साध्य अनिश्चित अथवा संदिग्ध हो) विपरीत होनेको पृथक् हेत्वाभास माना है जिसको उन्होंने इष्टविघातकृत् विरुद्ध नाम दिया है। किन्तु धर्मकोति ने अपने ग्रन्थ न्याय बिन्दु में इस सम्मतिको यह कह कर अग्राह माना है कि दूसरा विरुद्ध हेत्वाभास पृथममें हीं गर्भित हो जाता है। (तत्र च तृतीयोऽपि इष्टविघातकृत्विरुद्धः ?"स इह कस्मान्नोक्ता अनयोरेव अन्तर्भावात् । अयं च विरुद्धः आचार्यदिग्नागेनोक्तः । स कस्मात् वार्तिकारककारेणं सता त्वया नोक्तः । न्या० पृष्ठ १०३, १०४ भाषा पृ० २५) इष्टविद्यात्कृत् विरुद्धका एक उदाहरण दिया जाता है
नेत्र आदि दूसरेके उपयोगके वासते हैं। क्योंकि वह संघात रूप हैं। जैसे-शयन, आसन आदि। - यहाँ साध्य दूसरेके वासते अनिश्चित या संदिग्ध है । क्योंकि वह संघात ( उदाहरणके लिये शरीर ) और असंघात ( उदाहरणके लिये जीध ) दोनोंको ही बतला सकता है। यदि वक्ता 'दूसरेके लिये' शब्दको असंघात अर्थमें प्रयोग करे जिसको श्रोता संघात अर्थमें समझ जाये तो उस समय साध्य हेतुके विरुद्ध हो जावेगा। उस समय वह हेतु इष्टविघातकृत् विरुद्ध कहलाता है।
धर्मकीर्तिने अपने ग्रन्थ न्यायबिन्दुमें इसको पहिले विरुद्धका ही उदाहरण माना है। क्योंकि अनुमान वाक्यमें प्रयोग किये हुए साध्य वाचक शब्दका एक ही अर्थ हो सकता है। और यदि कहे हुए और समझे हुए अर्थोमें सन्देह हो तो प्रकरणसे पहिले वासतविक अर्थ निश्चय कर लेना चाहिये । यदि प्रयोग किया हुआ अर्थ वासतविक होगा तो साध्या और हेतुमें स्वाभाविक विरोध होगा।
विरुद्धाव्यभिचारी। ". दिग्नागने एक और हेत्वाभास 'बिरुद्धव्यभिचारी भी माना है। जिसको उसने सन्देहका कारण कहा है। यह ऐसे स्थानपर होता है जब दो विरुद्ध परिणाम एक ही हेतु ( Valid truth reasons.) से पुष्ट किये जाते हैं। उदारणके लिये-एक वैशेषिक दार्शनिक कहता है - .
शब्द अनित्य है क्योंकि वह उत्पन्न होता है। SA-मीमांसक उत्तर देता है+..... .. ... ... ... ... ... .
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भूमिका
- शब्दनित्य है क्योंकि वह श्रव्य (बुनने योग्य ) है।
उपरोक्त मामलों (Cases) में काममें लाये हुए दोनों हेतु क्रमसे वैशेषिक और मीमांसाके सिद्धान्तके पुष्ट करनेके कारणसे उन २ दर्शनकारों द्वारा ठीक माने जाते हैं। किन्तु दो विरुद्ध परिणामोपर लेजानेसे वह अनिश्चित ( Uncertain ) हैं। और इसी वासते वह हेत्वाभास है। ... धर्मकीर्तिने न्यायविन्दुमे विरुद्धाव्यभिचारी हेत्वाभासका निषेध (न्या पृ० १११-११४ भाषा० पृ० २७-२९) किया है । इसका कारण उन्होंने यह दिया है कि यह न तो अनुमानके विषयमें उठता ही है और न शास्त्र ही इसका आधार है। हेतुका साध्यमें स्वभाव, कार्य या अनुपलब्धि रूपमें रहना आवश्यक है। और उसके द्वारा ठीक परिणाम निकलना चाहिये। . परस्परविरोधी दो परिणाम ऐसे हेतुओंसे पुष्ट नहीं हो सकते जो ठीक ( Valid ) हैं। परस्पर विरुद्ध दो परिणामोंके सिद्ध करने में दो शास्त्र उसी प्रकार सहायता नहीं कर सकते हैं जिस प्रकार एक शास्त्र प्रत्यक्ष और अनुमानको पुष्ट नहीं कर सकता ( Cannot over-ride ) और वह केवल बुद्धिके न पहुँचने योग्य विषयोंमें ही प्रमाण होता है । इस वासते विरुद्धाव्यभिचारी असंभव है।
दृष्टान्तका कार्य। दिग्नागके विरोध धर्मकीर्ति ( त्रिरूपो हेतुरुक्तः । तावतैव अर्थ प्रतीतिरिति न प्रथग दृष्टान्तो नाम साधनायवः कश्चित् । तेनास्य लक्षणं पृथग [न] उच्यते गतार्थत्वात् । (न्या० पृ० ११७, ११८ भाषा० पृ. २९) सम्भवतः 'न' भूलसे छूट गया है। तिब्बी अनुवादमें 'न' मिलता है। ) कहता है कि 'दृष्टान्त' नामका कोई साधनका अवयव नहीं है। क्योंकि इसका हेतुमे अन्तर्भावहो जाता है। जैसे
पर्वतमें अग्नि है क्योंकि वहाँ धूम है । जैसे पाकशाला में। । . इस वाक्यमें दृष्टान्त पाकशाला और उसी प्रकारकी अन्य वस्तुएं हेतु में ही आजाती हैं। अतएव 'दृष्टान्त' पाकशालाको प्रथक कहना व्यर्थ है। धर्मकीर्ति कहता है कि इतना होने पर भी दृष्टान्त का यह मूल्य है ही (.....................उक्तम् अभेदेन...पुनर्विशेषेण दर्शनीयावुक्तौ।) कि यह हेतुके द्वारा साधारण रूपसे कथन लिये हुए को विशेषरूपसे बतला देता है । इस प्रकार साधारण कथन 'सब धूम वाली वस्तु अग्नि वाली होती हैं' को विशेष दृष्टान्त
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भूमिका पाकशाला ने अधिक जोरदार बना दिया जो कि धूम वाली भी है और अग्नि वाली भी है।
(७) न्यायबिन्दु तथा उसका न्याय । : इस बातको प्रमाणित करने की अब कोई अवश्यकता नहीं रह गई है कि प्राचीन कालमें सब दर्शनकारोंने अपनी २ प्रमाण व्यवस्था प्रथक् ही खड़ी की थी। यद्यपि यह आवश्यक नहीं था कि उन सबकी व्यवस्थाएं एक दूसरेसे भिन्न ही हो तथापि अपनी मानी हुई वस्तुके स्वरूपको बतलाने तथा अपनी युक्तियोंको सिद्ध करनेके लिये प्रथक् ही प्रमाणकी आवश्यकता थी। जहाँ दर्शन पदार्थों का वर्णन करता है वहाँ न्याय उन पदार्थोको सिद्ध करने वाली युक्तियोंका वर्णन करता है। इस प्रकार दर्शन और न्याय दोनों सापेक्ष हैं । प्रमाण सामान्यका लक्षण तो एक प्रकारसे विशुद्ध दार्शनिक विषय है अतएव इस पर हम प्रथक विचार करेंगे।
यह पीछे प्रमाणित किया जा चुका है कि यद्यपि बौद्धन्याय गौतमके न्याय दर्शनके पीछे बना.है तथापि भारतके दार्शनिकोको विशुद्ध न्यायके ही ग्रन्थोंको लिखनेका मार्ग बौद्ध नैयायिकोंने ही दिखलाया है। गौतमीय न्याय अथवा प्राचीन न्याय, दर्शन और न्यायका मिला हुआ ग्रन्थ है। किन्तु बौद्धोंने अपने न्यायग्रन्थोकी स्वतन्त्र रचना करके उस समय भारतपर अपना सिक्का जमा लिया। ब्राह्मणोके पास तो पहिलेसे ही न्याय दर्शन था। अतएव उन्होंने उसकी ही टीका प्रटीकाओं तथा उसी ढंगके अन्य ग्रन्थोपरही भरोसा रखा किन्तु जैन नैयायिकों से यह सहन न हुआ । अस्तु उन्होंने भी बौद्धोंके समान न्यायके ऊपर स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखने आरम्भ किये। भारतका मध्यकालीन दार्शनिक इतिहास जैन और बौद्ध धर्मों के ही शास्त्रार्थो से भरा पड़ा है । धीरे २ काल योगसे ब्राह्मणोंका फिर प्राबल्य हुआ। उससमय अपनी कुछ आन्तरिक निर्बलताओं तथा कुछ जैन और ब्राह्मणोंके धक्कसे बौद्ध धर्म पर तो ऐसा आघात पहुंचा कि वह भारतसे अदृश्य ही हो गया। किन्तु जैन धर्म किसी प्रकार सबकी चोटें सहता हुआ अभी तक भारतवर्षमें फेल ही रहा है। मिथला तथा नवदीपके नैयायिकोने अभी लगभग छह सौ वर्ष पूर्व प्राचीन न्यायका परिष्कार करके एक नव्य न्याय खड़ा किया है किन्तु यह प्राचीन न्यायका ही
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भूमिका
रूपान्तर है। अतएव मुख्य न्याय तीन ही हैं। गौतमीय न्याय, जैन न्याय और बौद्धन्याय । किन्तु इससे यह न समझ लेना चाहिये कि अन्य दर्शनकारोंने न्यायपर कुछ लिखा ही नहीं। क्योंकि उनके ग्रन्थों में भी न्यायके बहुतसे अङ्गोंपर बहुत कुछ प्रकाश मिलता है। ___ आचार्य धर्मकीर्तिने न्यायविन्दुको तीन परिच्छेदोंमें विभक्त किया है। जिनमेसे पुथम परिच्छेदमें प्रत्यक्ष, द्वितीयमें स्वार्थानुमान
और तृतीयमें परार्थानुमानका वर्णन है। आचार्य धर्मोत्तरने इसी क्रमको अनुसरण करते हुए इसके ऊपर एक विस्तृत टीका बनाई है जो कि पाठकोंके हाथमें है। । यद्यपि यह टीका बहुत अच्छी है और इसमें प्रत्येक बातको भलीप्रकार समझाया है तथापि यह टीका अपने असली रूपमें केवल उन्हींके कामकी रह गई है जो बौद्ध दर्शनके विद्वान् हैं। क्योंकि यदि गौतमीय और जैन न्यायके कोई विद्वान् विना सौद्ध दर्शनका अभ्यास किये इसको स्वयं पढना चाहे तो उनके लिये भी इसका पढ़ना बहुत कष्ट साध्य है। क्योंकि इसमें कुछ ऐसे बौद्ध परिभाषिक शब्द आगये हैं जिनका अर्थ लाख प्रयत्न करनेपर भी बिना बतलाये हुए समझमें नहीं आ सकता। हमने इस त्रुटिको यथाशक्ति अपनी संस्कृत टिप्पणी और भाषाटीकामें दूर करनेका प्रयत्न किया है। किन्तु यह कहना कठिन है कि हम इस प्रयत्नमें कहाँ तक सफल हुए हैं।
अब हमको यह देखना है कि न्यायबिन्दुके पथक् २ परिच्छेदोंमें क्या कहा गया है
पथमपरिच्छेद। हम पीछे कह आये है कि प्रमाण सामान्य एक दार्शनिक विषय है अतएव पृथम यहाँ उसीके लक्षणपर विचार किया जाता है
सांख्यदर्शनमें कहा है. 'द्वयोरेकतरस्य वाप्यसन्निकृष्टार्थपरिच्छित्तिः पुमा तत्साधकतमं यत्तत् त्रिविधं प्रमाणम् ।' अध्याय १ सूत्र ८७।। । अर्थात् असनिकृष्ट ( पुमातामें अपाप्त ) अर्थका निश्चय करना पुमा है। वह पुमा चाहे बुद्धि और पुरुष दोनों की धर्म हो, अथवा बुद्धिकी ही धर्म हो, अथवा पुरुषकी ही धर्म हो । जो उस पुमाका साधकतम ( फलका एकमात्र और अभिन्न कारण ) हो वह पमान होता है। वह तीन प्रकारका है।
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भूमिका
२४
यहां यदि प्रमारूप फलको पुरुषमें रहनेवाला माना जावे तो बुद्धि वृत्ति प्रमाण होगी। क्योंकि पुरुषजन्य पूमा बुद्धिवृत्ति से ही हो सकती है अन्यसे नहीं हो सकती । अथवा यदि प्रमारूप फलको बुद्धिमेंही रहने वाला माना जावे (क्योंकि पुरुष तो ज्ञानसे बिलकुल पृथक् है ) तो इन्द्रियवृत्ति सन्निकर्ष आदि ही प्रमाण होंगे। क्योंकि तो मा पुरुष का साक्षी है उसको प्रमाता कहने में उसमें कर्तृत्वका आरोप करना पड़ेगा अथवा यदि पौरुषेयबोध और बुद्धिवृत्ति दोनोंको ही पुमा कहा जावेगा तो उक्त दोनोंको ही प्रमाण मानना पड़ेगा।
योगदर्शन के पातंजल भाष्यमें प्रथम मत ही स्त्रीकार किया गया है । किन्तु सांख्यका प्राचीन मत उपरोक्त मत्तोंमेंसे दूसरा प्रतीत होता है । इस प्रकार सांख्य तथा योग दर्शनका प्रमाण अस्वसंवित और अचेतन है ।
प्रमाणका लक्षण न्यायदर्शन या वात्स्यायमभाष्य किसीमें भी नहीं मिलता । न्यायभाष्यकी टीका न्यायवार्तिकमें निम्नलिखित वाक्य मिलते हैं
इन्द्रियं खलु अर्थप्रकाशकत्वात् पुमाणं....... . उपलब्धिहेतुः प्रमाणम् ।...... प्रमाणोत्पत्ताविन्द्रियार्थसन्निकर्षमपेक्षमाणाभ्यां पामातृपूमेया प्रमाणं जन्यते ।
अर्थात् अर्थकी प्रकाशक होने से इन्द्रियही प्रमाण है। क्योंकि उपलब्धिका हेतु प्रमाण होता है । और प्रमाणकी उत्पत्तिमें इन्द्रिय और अर्थके सन्निकर्षकी अपेक्षा करनेवाले. पुमाता और प्रमेय ज्ञानके जनक होते हैं ।
किन्तु अन्य ग्रन्थों को परिशलिन करनेसे पता चलता है नैयायिक मतमे भी सन्निकर्ष को ही प्रमाण माना है ।
वैषेषिक दर्शन के प्रशस्तपाद भाष्य में लिखा है
बुद्धिरुपलब्धिर्ज्ञानं प्रत्यय इति पर्यायाः । 'तस्या सत्यप्यवेकवित् समासतो द्वेबिधे विद्या चाविद्या चेति । विद्यापि चतुर्विधा । प्रत्यक्ष लैङ्गिकस्मृत्यार्ष लक्षणा ।
अर्थात् बुद्धि, उपलब्धि, ज्ञान और प्रत्यय ये सब ही एकार्यवाची हैं। उसके (बुद्धिके ) अनेक भेद होने पर भी संक्षेपसे दो भेद है। विद्या और अविद्या । विद्याके भी चार भेद हैं । प्रत्यक्ष, अनुमान, स्मृति और आर्ष ।
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प्रथमपरिच्छेदः
तच्चानुमानस्य ग्राह्यं दर्शयितुमाह-सोऽनुमानस्य विषयः ।
सोऽनुमानस्य विषयो ग्राह्यरूपः । सर्वनाम्नोऽभिधेयवल्लिङ्गपरिग्रहः । सामान्यलक्षणम् । अनुमानस्य विषयं व्याख्यातुकामेनायं स्वलक्षणस्वरूपाख्यानग्रन्थ आवर्त्तनीयः स्यात् । ततो लाघवार्थं प्रत्यक्षपरिच्छेद एवानुमानविषय उक्तः । विषयावप्रतिपत्तिं निराकृत्य फलविप्रतिपत्तिं निराकर्तुमाह-तदेव च प्रत्यक्षं ज्ञानं प्रमाणफलमर्थप्रतीतिरूपत्वात् ।
१५
यदेवानन्तरमुक्तं प्रत्यक्षं तदेव प्रमाणस्य फलम् । कथं प्रमाणफलमित्याह । अर्थस्य प्रतीतिरवर्गमः । सैव रूपं यस्य प्रत्यक्षज्ञानस्य तदर्थप्रतीतिरूपम् । तस्य भावः । तस्मादेतदुक्तं भवति । प्रापकं ज्ञानं प्रमाणं । प्रापणशक्तिश्व न केवलादर्थाविनाभावित्वाद्भवति । बीजाद्यविनाभाविनोप्यङ्कुरादेरप्रापकत्वात् । तस्मादर्थादुत्पत्तावप्यस्य ज्ञानस्यास्ति कश्चिदवश्यकर्त्तव्यः प्रापकव्यापारः । येन कृतेनार्थः प्रापितो भवति । स एव च प्रमाणफलम् | यदनुष्ठानात्मापकं भवति ज्ञानम् । उक्तं च पुरस्तात्प्रवृतिविषयप्रदर्शनमेव मापकस्य प्रापकव्यापारो नाम | तदेव च प्रत्यक्षमर्थप्रतीतिरूपमर्थदर्शनरूपम् । अतस्तदेव प्रमाणफलम् । यदि तर्हि ज्ञानं प्रमितिरूपत्वात्प्रमाणफलं किं तर्हि प्रमाणमित्याह
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अर्थसारूप्यमस्य प्रमाणं ।
अर्थेन सह यत्सारूप्यं सादृश्यमस्य ज्ञानस्य तत्प्रमाणमिह ।
१ पुनः कथनीयः स्यात् । ३ अवगमो ज्ञानम् ।
२ अर्थात्, ख० प्राथादर्थात् ।
३ अर्थदर्शन०, ख० अर्थप्रदर्शन० ।
४ सादृश्यम्, ख० यत्सादृश्यम् ।
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न्यायविन्दुः यस्माद्विषयाज्ज्ञांनसुदेति तद्विषयसशं तद्भवति । यथा नीला दुत्पद्यमानं नीलसदृशम् । तच्च सारूप्यं सादृश्यमाकार इत्याभास इत्यपि व्यर्पदिश्यते । .- न च बानादब्यतिरिक्तं सादृश्यम् । तथा च सति तदेव ज्ञानं प्रमाणम् । तदेव प्रमाणफलम् । न चैकं वस्तु साध्यं सा. धनं चोपपद्यते । तत्कथं सारूप्यप्रमाणमित्याह--
. तदशादर्थप्रतीतिसिद्धेरिति ।
तदिति सारूप्यं तस्य वशात्सारूप्यसामर्थ्यात् । अर्थस्य प्रतीतिरवरोधस्तस्याः सिद्धिः । तत्सिद्धेः कारणात् । अर्थस्य प्रतीतिरूपं प्रत्यक्षं विज्ञानं सारूप्यवशासिध्यति प्रतीतं भवतीत्यर्थः । नीलनिर्भासं हि विज्ञानं यतस्तस्मात्रीलस्य प्रतीतिरवसीयते । येभ्यो हि चक्षुरादिभ्यो विज्ञानमुत्पद्यते न तद्वशातज्ज्ञानं नीलस्य संवेदनं शक्यतेऽवस्थापयितुम् । नीलसदृशं त्वनुभूयमानं नीलस्यं संवेदनमवस्थाप्यते । न चात्र जन्यजनकभावनिबन्धनः साध्यसाधनभावः येनैकस्मिन्वस्तुनि विरोधः स्यात् । अपि तु व्यवस्थाप्यव्यवस्थापकभावेन । तत एकस्य वस्तुनः किंचिद्रूपं प्रमाणं किंचित्प्रमाणफलं न विरुध्यते । व्यवस्थापनहेतुर्हि सारूप्यम् । तस्य ज्ञानस्य व्यवस्थाप्यं च नीलसंवेदनरूपम् । व्यवस्थाप्यव्यवस्थापकभावोऽपि कथमेकस्य
१शानं, ख. विज्ञानम् ।
२ विज्ञानमर्थजनितमर्थाकारमर्थस्य च ग्राहकमिति यदुक्तं पुरस्ताइस्माभिः । ३ 'सारूप्यम्' इति पदं ख० पुस्तक एवोपलभ्यते ।
४ कथ्यते। ५ तत्सिद्धः, ख० ततः सिद्धेः। ६ विज्ञानम् , ख० शानम् ।
७ यत्र त्वेकस्मिन्नेष वस्तुनि जन्यजनकभावनिबन्धनः साध्यसाधनभावो भवति तत्र विरोध आपद्यते। अत्र तु व्यवस्थाप्यव्यवस्था पकभावोऽस्ति । अत एवात्र न कश्चिद्विरोकः।
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भूमिका
- यद्यपि बौद्ध दर्शनमें आत्मा या जीव नामका कोई पदार्थ नहीं है तथापि सुख दुःख आदिमें 'मैं सुखको भोगता हूँ' अथवा 'मैं दुःखको भोगता हूँ' आदि प्रत्यय होते ही हैं। इस अनुभवको ही स्वसंवेदन प्रत्यक्ष या आत्मसंवेदन कहते हैं। : योगिप्रत्यक्ष स्पष्ट ही है वह योगियोंके ही होता है। : प्रत्यक्षका विषय भी एकक्षणवर्ती पदार्थ है। किन्तु अनुमानका विषय सामान्य लक्षण हैं । अर्थात् अनुमानके द्वारा अनेक क्षणोंकी बातको भी जान सकते हैं। ..
प्रत्यक्ष प्रमाणका फल प्रत्यक्ष ज्ञान है और ज्ञानका पदार्थके समान बनजाना ही प्रमाण है । क्योंकि उसीसे पदार्थका ज्ञान होता है । (न्या० पृ० २२ की नं० ३ की टिप्पणी)
. द्वितीय परिच्छेद ।
... आचार्य धर्मकीर्तिने जिस प्रकार प्रथम परिच्छेदमें प्रमाणका लक्षण किये बिना ही उसके भेद कर डाले हैं उसी प्रकार यहाँ भी अनुमानका लक्षण किये बिना ही पहिले अनुमानके स्वार्थानुमान और परार्थानुमान दो भेद ही किये हैं। हमारा अनुमान है कि यह बात धर्मोत्तराचार्य को भी अवश्य खटकी थी किन्तु प्रथम परिच्छेद में उन्हों ने इसको प्रगट न करते हुए स्वयं ही प्रमाणका लक्षण कह दिया है। क्योंकि उसमें लक्षण कहनेके लिये भेदवाले वाक्यसे पहिले एक और भी वाक्प था। किन्तु इस परिच्छेदमे पहिले ही वाक्यसे भेद चल पड़े। यहाँ टीकाकारको अपनी खटक शंकाके रूपमें प्रगट करनी ही पड़ी ( न्या० पृ० २९ पं०४) किन्तु आगे चलकर उन्होंने इसका स्वयं ही समाधान किया है कि भेदका कहना ही लक्षणका कहना है । क्योंकि दोनोंके लक्षण बिलकुल प्रथक २ होनेसे उनका एक लक्षण सम्भव नहीं है । ( न्या० पृ० २९ पं०५) किन्तु युक्तिसे विचारनेसे धर्मोत्तराचार्य की यह दलील कमजोर बैठती है। क्योंकि उन दोनोंके अत्यन्त पृथक् होते हुए भी अनुमानकी अपेक्षा तो उनमें एकता ही है। आचार्य धर्मकीर्तिने दोनों अनुमानोंके यह लक्षण किये हैं... 'तत्र स्वार्थ त्रिरूपालिङ्गाधनुमेये ज्ञानं तदनुमानम्' । न्यायबिन्दु प०२९ 'त्रिरूपलिङ्गाख्यानं परार्थानुमानम्' न्यायविन्दु पृ० ६१ ।
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भूमिका
अर्थात् जो ज्ञान अनुमेयमें (न्या० पृ० ३३ ) त्रिरूपलिङ्गसे उत्पन्न होता है उसे स्वार्थानुमान कहते हैं ।
तथा त्रिरूपलिङ्गका कहना परार्थानुमान है ।
यद्यपि इन लक्षणोंसे स्वार्थानुमानका ज्ञानरूप तथा परार्थानुमान का वचन रूप होना स्पष्ट है तथापि इन दोनोंका एक लक्षण हो सकता था। क्योंकि यद्यपि यह दोनों ज्ञान तथा वचन रूप हैं तथापि दोनों ही त्रिरूपलिङ्गसे उत्पन्न होते हैं । अतएव आचार्य धर्मकीर्ति अथवा धर्मोत्तर अनुमानका लक्षण 'त्रिरूपलिङ्गत्वमनुमानम्' कर सकते थे । जैसा कि प्राचीन न्यायके नये ग्रन्थ सिद्धान्तमुक्तावली, तर्कभाषा तथा तर्कसंग्रहकारने भी किया है । इन सबने ही ज्ञानात्मक स्वार्थानुमान तथा वचनात्मक परार्थानुमान माना है । तथापि 'लिङ्गपरामर्श' दोनोंमें समान होनेसे इन्होंने 'लिङ्गपरामर्शो ऽनुमानम्' अनुमानका लक्षण कहा है।
जैनियोंका अनुमानका लक्षण इन सबसे अधिक परिष्कृत है वह यह है
'साधनात्साध्यविज्ञानमनुमानम्' ( परीक्षामुखसूत्र उद्देश ३ सूत्र ९ ) अर्थात् साधन या हेतुसे साध्यका ज्ञान होना अनुमान है। इसमें यह बात ध्यान रखने योग्य है कि जैनी ज्ञानको हो अनुमान मानते हैं। परार्थानुमान भी उनके यहाँ ज्ञान रूप ही है । अन्तर दोनों अनुमानोंमें केवल इतना ही है कि स्वार्थानुमान बिना किसीके उपदेशके अनुमाता ( अनुमान करने वाला ) स्वयं करता है । किन्तु परार्थानुमानका ज्ञान अनुमाताको दूसरेके बचनसे होता है । आचार्य धर्मकीर्तिका भी परार्थानुमानसे सम्भवतः यही आशय था किन्तु उस समय योग्य शब्द स्मरण न आनेसे वह सीधे आचार्य दिग्नागके पीछे ही चले गये । क्योंकि परार्थानुमानके लक्षणकी पुष्टिमें उन्होंने हेतु यह दिया है 'कारणे कार्योपचारात्' ( न्या० पृ० ६१ ) 4 अर्थात् यहाँ कारण 'वचन' में कार्य 'ज्ञान' का उपचार करलेनेसे वचन ही परार्थानुमान माना गया है ।
ऐसा विदित होता है कि अनुमानके स्वार्थ और परार्थभेद बौद्ध: नैयायिकोंके आविष्कार थे। क्योंकि न तो उनका सिद्धसेन दिवाकर (संगभग ४८० - ५५० ई० ) से पहिलेके जैन न्यायके ग्रन्थोंमें ही उल्लेख है और न न्याय दर्शनमें ही है । विरुद्ध इसके न्याय दर्शन
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भूमिका
उसके और ही पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट नामके तीनर भेद उपलब्ध होते हैं। . ऊपर न्यायविन्दुकथित स्वार्थानुमानका लक्षण कहा जा चुका है। यदि सूक्ष्म दृष्टिसे विचार किया जावे तो बौद्धोका 'तत्र स्वार्थ त्रिरूपाल्लिङ्गाद्यदनुमेये शानं तदनुमानम्' और जैनियोंका 'साधना त्साध्यविज्ञानमनुमानम्' एक ही बात है। क्योंकि अनुमेय साध्य होता ही है ( न्या० पृ० ३३ पं० १४) और त्रिरूपलिङ्ग भी हेतुके अतिरिक्त और कुछ नहीं है । जैसा कि न्यायबिन्दुके बहुतसे स्थलोंसे प्रगट होता है। इसी वास्ते स्वार्थानुमानके लक्षणके पश्चात् न्यायबिन्दुमें पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व और विपक्षा.
व्यावृत्ति नामक त्रिरूपलिङ्गका वर्णन किया गया है। यदि विस्तारसे कहना हो तब तो मध्यकालीन नैयायिकोंके समान इनमें अबाधितविषयत्व और असत्प्रतिपक्षत्त्व और बढ़ाये जा सकते हैं किन्तु बौद्धोंने तीन ही रूप रखकर हेतुका कथन किया है। इस अवसर पर हमको फिर जैनियोंका हेतुका लक्षण स्मरण हो आता है जो इनसे अधिक परिष्कृत, संक्षिप्त तथा युक्तिपूर्ण है । वह यह है__'साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतुः' । (परीक्षामुख उद्देश ३ सूत्र १५) " अर्थात् जिसका साध्य (अनुमेय) के साथ आविनाभावी सम्बन्ध निश्चित हो वह हेतु होता है।
वास्तवमें विचार किया जावे तो त्रिरूपलिङ्ग अविनाभावनियम अथवा व्याप्तिके अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
इस प्रकार न्यायबिन्दुकारने हेतुके लक्षणका वर्णन करके फिर उसके भेदोका वर्णन किया है। किन्तु उन बेचारोको अपना अभिप्राय प्रगट करने योग्य पर्याप्त शब्द यहाँ भी नहीं मिले हैं। क्योंकि कभी वह पक्षधर्मत्व आदिको त्रिरूपलिङ्ग कहते हैं तथा कभी वह हेतुके भेद अनुपलब्धि, स्वभाव लिङ्ग और कार्यलिङ्गको त्रिरूपलिङ्ग कहते हैं । इसी मुसीबतमें पड़ जानेसे उन्होंने त्रिरूपलिङ्गको एक स्थानपर 'त्रैरूप्य' ( न्या० पृ. ३० पं०१६) तथा दूसरे स्थान पर भेदोको 'त्रिरूपलिङ्ग' कहा है (न्या० पृ० ३५ पं० १०) ... अब थोड़ा विचार बौद्धोंके इन तीनों हेतुओंपर भी करलें। प्राचीन नैयायिकोंने तो हेतुके भेद करनेपर विशेष ध्यानही नहीं दिया है।
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भूमिका हां, जैन नैयायिकोंमें हेतुके भेद वौद्धोसे भी अधिक किये हैं। किन्तु विषयान्तर हो जानेसे हम यहाँ केवल बौद्धोंके ही हेतुके भेदोंपर विचार करेंगे। ___ यह पीछे दिखलाया जा चुका है कि बौद्धोंने हेतुके तीन भेद माने हैं
स्वभाव, कार्य और अनुपलब्धि। . . जो पदार्थ उपलब्ध हैं वह अनुपलब्ध नहीं हो सकते अतएव उपलब्ध होना पदार्थका स्वभाव है। स्वभाव लिङ्गम पदार्थों की यह उपलब्धि ही हेतु रूपमें उपस्थित की जाती है । जैसे-'यह वृक्ष है, क्योंकि यह शीशम है। - कार्यलिङ्ग अनुमेय ( साध्य ) के कार्यको देखकर उसकी उपलब्धिका अनुमान करता है। जैसे किसीने धुआँ देखकर कहा कि-'यहाँ अग्नि है। क्योंकि यहाँ धुआँ है।' . पदार्थका न मिलना अनुपलब्धि है। बौद्धोंने इसको भी हेतु माना है। जैसे-देवदत्तको उसके घरमें अनुपस्थित देखकर कोई कहे'देवदत्त घरमें नहीं है। क्योंकि वह वहाँ अनुपलब्ध है।
इन तीनों हेतुओंमेसे स्वभाव और कार्य वस्तु की उपस्थिति और अनुपलब्धि अनुपस्थितिको साधन करते हैं।
इसके पश्चात् कुछ इन हेतुओंका ही वर्णन करके अनुपलब्धिके भेद बतलाकर द्वितीय परिच्छेद समाप्त किया गया है। अनुपलब्धिके भेदोंको हम विस्तारके भयसे यहां नहीं लिख रहे हैं।
तृतीय परिच्छेद। .. इस परिच्छेदमें परार्थानुमानका वर्णन है । आरंभमें उसकी परिभाषा दी हुई है, जिसका पीछे वर्णन कर आये हैं। इसके पश्चात् उसके साधर्म्यवत् और वैधर्म्यवत् दो भेद बतलाकर स्वयं ही कह दिया है कि इनमें अर्थसे कोई भेद नहीं है केवल प्रयोगका भेद है ( न्या० पृ०६३ पं०५)। अतएव इन दोनोंके विषयमें हम यहाँ कुछ नहीं लिखेंगे। . इन दोनों ही प्रयोगोंमें पक्षका अवश्य ही निर्देश किया जाना चाहिये। अतएव परार्थानुमानके भेदोंके पश्चात् पक्षका वर्णन किया मया है। जो कि लगभग सभी न्यायोंमें एक ही प्रकारसे कहा गया है। यहाँ सामान्य रूपसे परार्थानुमानका वर्णन समाप्त हो गया है।
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भूमिका - इसके पश्चात् हेत्वाभासोका वर्णन है। यह पीछे बतलाया जा चुका है कि बौद्ध हेतुमें पक्षधर्मत्व आदि तीन बातोंका होना आवश्यक मानते हैं । अतएव उन तीनों रूपों से एक भी रूपके न होने अथवा संदिग्ध होनेपर हेत्वाभास हो जोता है । अतएव त्रिरूपलिङ्ग माननेसे बौद्धोको तीन ही हेत्वाभास भी मानने पड़े हैं। जो कि यह हैं
असिद्ध, विरुद्ध और अनैकान्तिक । - पीछे दिखलाया जा चुका है कि मध्यकालीन नैयायिक हेतुमें पाँच बातोंका होना आवश्यक मानते थे। अतएव उनके मतके अनुसार इन्हीं तीनमें बाधितविषय, और सत्प्रतिपक्ष ये दो और जोड़ देनेसे पाँच हेत्वाभास होते हैं। ___ न्याय दर्शनमें सव्यभिचार, विरुद्ध, प्रकरणसम, साध्यसम और कालातीत ये पांच हेत्वाभास माने हैं, जो कि ऊपर वालोंसे अविरुद्धही हैं। ___ जैनियों ने असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक और अकिञ्चित्कर ये चार हेत्वाभास माने हैं। जिनमें अकिञ्चित्कर हेत्वाभास नया हेत्वाभास है। . न्यायबिन्दुमें इनके भेद प्रभेद भी बहुतसे दिखलाये हैं जो अन्य नैयायिकोसे विशेष भिन्न नहीं है।
हेत्वाभासोंके पश्चात् दृष्टान्त और दृष्टान्ताभासोंका वर्णन है।
हम पीछे बतला आये हैं कि आरंभिक बौद्धन्यायपर गौतमीय न्यायकी पूरी छाप लगी हुई है। न्यायबिन्दुको देखनेसे पता चलता है कि वह छाप इतनी पक्की हो गई थी कि धर्मकीर्तिभी उसकी उपेक्षा न करसके । और इसी कारणसे उन्होंने ग्रन्थ समाप्त करते २ विशेष आवश्यक न होने पर भी दूषणा, जाति और जात्युत्तरका थोड़ा सा वर्णन कर ही डाला । जिनमें से जाति न्यायदर्शनका एक मुख्य विषय है। न्यायबिन्दुकी समालोचनाको समाप्त करते हुए इतना लिख देना और आवश्यक प्रतीत होता है कि न्यायबिन्दु पद्य तो है ही नहीं, किन्तु यह सूत्र या वार्तिक भी नहीं है। सूत्र किसी अपेक्षासे इसको कह भी सकते हैं। किन्तु लेखके बीचमें नम्बर इत्यादिका बिलकुल अभाव होनेसे इसको सूत्र समझना भी कठिन है । हमारी सम्मतिमें यह बौद्ध न्यायके ऊपर एक स्वतन्त्र
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भूमिका
निबन्ध है जो कि विचारकर ऐसे ढंगसे लिखा गया है कि उसका प्रत्येक वाक्य सूत्र सा प्रतीत होता है। ___ न्यायबिन्दु टीकामे पृष्ठ ६९ पं० १६ में 'तस्यैवेति' पाठ है किन्तु उसका मूल उपलब्ध नहीं है । यद्यपि 'तस्यैव' को अगले वाक्पमें मिला देनेसे वह वाक्य (तस्यैव तत्स्वभावत्वात्स्वभावस्य च हेतुत्वात् ) पूरा हो जाता है तथापि चित्तमें यह खटका बना ही रहता है कि न जाने और कहाँ २ पाठ छूट गया हो।
न्यायबिन्दुसे प्रगट होता है कि आचार्य धर्मकीर्ति और धर्मोत्तर दोनों अन्य भारतीय दर्शनोंके भी धुरन्धर विद्वान् थे। क्योंकि दृष्टान्तामासके वर्णन तथा अन्य ऐसे ही स्थलों पर उन्होंने थोड़े। शब्दोंमें अन्य दर्शनोंके सिद्धान्तोंका अच्छा वर्णन किया है। ___ आचार्य धर्मकीर्तिने न्यायबिन्दु पृ० १२६ पं० १८ तथा पृ० १२८ पं० १९ में जैनियोंके तीर्थंकर ऋषभका उल्लेख दोनों स्थल पर तथा वर्धमानका उल्लेख प्रथम स्थलपर किया है। इससे प्रगट होता है कि उनके समय आठवीं शताब्दीमें भी जैनेतर विद्वान् जैनधर्मका प्रथम उपदेश देने वाला भगवान् ऋषभदेवको ही समझते थे न कि भगवान् वर्धमानको । जैनधर्मका प्रथम उपदेष्टा भगवान् महावीर या पार्श्वनाथको कहने की धारणा पाश्चात्य ऐतिहासिकोंके ही मस्तिष्ककी उपज विदित होती है। ___ न्यायबिन्दु जैसा क्लिष्ट ग्रन्थ है वैसीही प्रचुर संख्यामें इसकी टीकार्य नहीं मिलती। यद्यपि टीकायें इसकी भी कम नहीं बनीं तथापि उनमेंसे अधिकांश का मूल संस्कृत लप्त हो गया है, केवल उनका तिब्बी अनुवाद शेष है। न्यायविन्दुको निम्नलिखित काय बनी हैं
१.न्यायबिन्दुपिण्डार्थ-आचार्यजिनमित्र (लगभग १०२५ ई०) . कृत । इसमें न्यायबिन्दुका सारांश है।
२. न्यायबिन्दुपूर्वपक्ष संक्षिप्त-आचार्य कमलशील (लगभग ७५० ई०) कृत । इसमें न्यायबिन्दुकी समालोचनाओंका संक्षेप है। . ३-धर्मोत्तरटिप्पणक-श्वेताम्बर जैन आचार्य मल्लवादिन ( लग भग ८२७ ई० ) कृत । धर्मोत्तरकृत न्यायबिन्दु टीका की टीका । यह अनहिलवाड़ा पाटनमें ताड़पत्र पर लिखी हुई रखी है। . . . . .
४-न्यायाधन्दुटीका-आचार्य विनीतदेव ( लगभग ७०० ई.) कृत, यह न्यायविन्दुके ऊपर विस्तृत टीका है। . ........
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३३
भूमिका
५ - न्यायबिन्दुटीका - आचार्य धर्मोत्तर (लगभग ८४७ ई०) कृत । यह पाठकोंके हाथों में विद्यमान है। यह भी न्यायबिन्दुके | ऊपर विस्तृत टीका है ।
८. न्यायबिन्दु बौद्धदर्शनके सिद्धान्त ।
raft न्यायबिन्दु विशुद्ध न्यायका ही ग्रन्थ है तथापि प्रसङ्ग यश कहीं २ आचार्यने उसमें ऐसे वाक्य भी लिखे हैं जिनसे बौद्ध सिद्धान्तोंकी बहुत कुछ झलक मिलती है। हमने ऐसे वाक्योंको यथाशक्ति प्रयत्न करके न्यायबिन्दुमें से निकाला है ओर उनके अन्दर से हमारी सम्मतिमें जो दार्शनिक सिद्धान्त निकाले जा सकते हैं उन को नीचे दिया है
( १ ) जहाँ सांख्य सत्से सत् की उत्पत्ति मानता है वहाँ बौद्ध असत्की उत्पत्ति और सत्का निरन्वय विनाश मानता है । जैसा कि कहा है
'परस्य चासत उत्पाद उत्पत्तिमत्त्वम् । सतश्च निरन्वयो विनाशो ऽनित्यत्वं सिद्धम्' | ( न्या० पृ० ९१ पं० ३ )
( २ ) बौद्धोंने विज्ञान, इन्द्रिय और आयुके निरोधको ही मरण माना है । जैसा कि धर्मकीर्तिने कहा है
मरणस्यानेनाभ्युपगमात् ।
( न्या० पृ० ८९ पं० १३ )
(३) बौद्धदर्शन वृक्षोंमं विज्ञान आदिका सद्भाव नहीं मानता । अतएव मरने या जीनेका उनमें विकल्प ही नहीं है
'तस्य च विज्ञानादिनिरोधात्मकस्य तरुष्वसंभवात्' । ( न्या० पृ० ९० पं० ३ )
( ४ ) बौद्ध सुख आदिको अचेतन मानते हैं। जैसा कि धर्मकीर्ति के निम्नलिखित वाक्य से प्रगट होता है
'विज्ञानेन्द्रियायुर्निरोधलक्षणस्य
'अचेतनाः सुखादय इति साध्य उत्पत्तिमत्त्वमनित्यत्वं वा सांख्यस्य स्वयं वादिनोऽसिद्धम्' । ( न्या० पृ० ९० पं० १५, १६ )
( ५ ) बौद्ध आत्माको नहीं मानता। जैसा कि टीकामें कहा गया है'तदिह बौद्धस्यात्मैव न सिद्धः । ( पृ० ९२ पं० २२ ) तथा 'बौद्धनोक्तं नास्त्यामा' । ( पृ ८३ पं० २ )
( ६ ) पीछे बतला दिया है कि बौद्ध दर्शन विज्ञान, इन्द्रिय और आयुके निरोधको मरण मानता है किन्तु आत्माको नहीं मानता।
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' भूमिका
यहाँ यह शङ्का होती है कि जब आत्मा ही नहीं है तो मरण किसका होता है। उसका समाधान यह है कि बौद्ध वासतवमें मरण नहीं मानता किन्तु निरोध ( रुकना ) मानता है । बौद्ध प्राण आदिको मानता है किन्तु अनात्मवादी होनेसे न तो उनको सात्मक ही मानता है और न निरात्मक ही मानता है। जब तक विज्ञान आदि शरीरमें रहते हैं तब तक शरीर जीता है जब नहीं रहते तो मर जाता है। इस वासते प्राण आदि जीवित शरीर सम्बन्धी हैं। जैसा कि धर्मकीर्तिने कहा है
सात्मकत्वेन निरात्मकत्वेन वा प्रसिद्ध प्राणोदरसिद्धिः । (पृ० १०७ पं०१)। तथा 'तस्माज्जीवच्छरीरसम्बन्धी प्राणादिः'। (पृ० १०७ पं० २०)
(७) कर्मको अन्य दर्शनकारोंके समान बौद्धने भी अनित्व ही माना है। जैसा कि टीकामें कहा है___ 'साध्यविकलं कर्म तस्यानित्यत्वात् । पृ० १२२ पं० १०)"
(८) परमाणुको बौद्ध भी मूर्त मानता है। जैसा कि टीका में कहा है
'असर्वगतं द्रव्यपरिमाणं मूर्तिः । असर्वगताश्च द्रव्यरूपाश्च परमाणवः। (पृ० १२२ पं० १२)
(९) घटको अनित्य भी माना है और मूर्त भी माना है । जैसा . कि कहा है- . .. 'घटस्तूभयविकलः । अनित्यत्वान्मूर्तत्वाञ्च घटस्येति । (पृ०१२२
(१०) बौद्ध दर्शनमें जो पदार्थ विद्यमान हैं वह सब अनित्य हैं । जैसा कि धर्मकीर्तिने कहा है
'यत्सत्तत्सर्वमनित्यं यथा घटादिरिति'। (पृ० ६५५ ९)
(११) बौद्ध दर्शनमें साध्य और साधनको विलकुल अभिन्न मान कर उनका तादात्म्य सम्बन्ध माना है। उनमें भेद समारोप जनित है । जैसा कि कहा है_ 'साध्यसाधनयोस्तादात्म्यम् । समारोपितस्तु साध्यसाधनयोभेंदः' । (पृ० ७० पं०७) हमने न्यायबिन्दुके उपरोक्त वाक्योंमें से स्थूल सिद्धान्तोंको ही निकाला है । सूक्ष्म सिद्धान्तोंको निकालनेका काम अपने लिये असाध्य समझकर विशेष विद्वानोंके लिये छोड़ दिया है।
पं०१४)
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१५
भूमिका
धन्यवाद ।
...इस भूमिकाको समाप्त करनेके पूर्व मुझे एक और कर्तव्यका पालन करना है। सबसे प्रथम मुझे डाक्टर सतीशचन्द्रजी विद्याभूarat धन्यवाद देना है जिनकी पुस्तकसे मैं इस भूमिकामें ऐतिहासिक अंश देनेमें सफल हुआ हूँ । यद्यपि हमने इस विषयके अन्य भी कई ग्रन्थ देखे, किन्तु उनसे कुछ भी विशेष लाभ न हो सका। दूसरे मुझे हिन्दू विश्वविद्यालयके फिलासोफीके प्रोफेसर तथा सहायक रजिस्ट्रार पं० इन्द्रदेव जी तिवारी एम० ए० को देना है जिनसे मुझ को समय २ पर योग्य सम्मति तथा अनेक प्रकारकी सहायता मिली है । वास्तव में आपकी सहायताके बिना मेरा काम अत्यन्त गुरुतर हो जाता । गवर्नमेन्ट संस्कृत कालेजके प्रिंसिपल तथा संस्कृत परीक्षाओके रजिस्ट्रार पं० गोपीनाथजी कविराज एम० ए० की सहायता का तो मैं अत्यन्त आभारी हूँ, जिन्होंने अपने अमूल्य समयको नष्टकर मुझे विविध प्रकारकी सहायता दी है।
भदैनी, बनारस । ता० २८ जून १९२४ ई० ।
चन्द्रशेखर शास्त्री । काव्य साहित्यतीर्थाचार्य ।
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न्यायबिन्दोर्विषयानुक्रमणिका
भूमिका।
११.
विषय (१) प्राथमिक निवेदन .. (२) बौद्धन्यायके इतिहासपर एक दृष्टि
धर्मोत्तराचार्य (३) धर्मकीर्ति
उसका जीवन चरित्र धर्मकीर्ति और कुमारिल उसकी दिग्विजय उसका समय
उसकी रचनायें (४) धर्मकीर्तिकी सम्प्रदाय (५) धर्मकीर्तिका बौद्ध न्यायमें स्थान (६) धर्मकीर्ति कृत दिग्नागका खण्डन
इष्टविघातकृत् विरुद्ध विरुद्धाव्यभिचारी .
दृष्टान्तका कार्य (७) न्यायबिन्दु तथा उसका न्याय
प्रथम परिच्छेद द्वितीय परिच्छेद । स्वभाव, कार्य और अनुपलब्धि तृतीय परिच्छेद । . ....
असिद्ध, विरुद्ध और अनैकान्तिक , (८) न्यायबिन्दु में बौद्ध दर्शनके सिद्धान्त
धन्यवाद
२१
२२
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कल्पनायाः लक्षणम्
प्रत्यक्षस्य चातुर्विध्यम्
इन्द्रियज्ञानम्
मनोविज्ञानम्
स्वसंवेदनप्रत्यक्षम् योगिप्रत्यक्षम्
प्रत्यक्षस्य विषयः
( २ )
न्यायबिन्दुटीकाअब प्रमः परिच्छेदः ।
( यक्षपरिच्छेदः)
विषय
मङ्गलाचरणम् ग्रन्थस्याभिधेयप्रयोजनम् अभिधेयादीनामावश्यकताप्रदर्शनम् ४
सम्यग्ज्ञानस्य लक्षणम् प्रमाणसामान्यवर्णनम् सम्यग्ज्ञानस्य द्वैविध्यम्
प्रत्यक्षलक्षणम्
स्वलक्षणम् परमार्थसत्
सामान्यलक्षणम् अनुमानस्य विषयः
प्रमाणफलम्
प्रमाणम्
संस्कृतटीका
पृष्ठम्
१
L
अनुमानस्य द्वैविध्यम् स्वार्थानुमानम्
१०
११
१३
१७
"
"
१९
२०
२१
२३
99
२४
२५
93
33
पंकिः
४
इति प्रथमः परिच्छेदः ।
33
१६
१२
१४
ક
१६
१
११
११
अथ द्वितीयः परिच्छेदः ।
( स्वार्थानुमानपरिच्छेदः )
२९
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१६
भाषाटोका
पृ० पं०
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13 ६
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अनुपलब्धिः
: : संस्कृतदीका भाषाटीका विषय
पृष्टम् पंकिः पृ० पं. अनुमानस्य फलम् भैरूप्यम् पक्षधर्मत्वम् सपक्षसत्वम् विपक्षाद्यावृत्तिः
३२८
, २९ अनुमेयः
१४२५ सपक्षः असपक्षः त्रिरूपलिङ्गानि
.:२२ उपलब्धिलक्षणप्राप्तिः स्वभावविशेषः कार्यस्योदाहरणम् त्रिरूपलिङ्गानामेव हेतुत्वम् . ४० स्वभावकार्ययोरेव तादात्म्यतदुत्पत्ती४३ :: ७.. "स दृश्यानुपलब्धिः
। ४४ अनुपलब्धेः प्रकारमेदप्रदर्शनम् स्वभावानुपलब्धिः कार्यानुपलब्धिः ।
४८ .५ :९. ४ : व्यापकानुपलब्धिः स्वभावविरुद्धोपलब्धिः विरुद्धकार्योपलब्धिः विरुद्धव्याप्तोपलंब्धिः
, .. १८... २२ कार्यविरुद्धोपलब्धिः
९ ." :२९ व्यापकविरुद्धोपलब्धिः कारणानुपलब्धिः कारणविरुद्धोपलब्धिः कारणविरुद्धकार्योपलब्धिः ५४ तासां स्वभावानुपलब्धावन्तर्भावः ५५ , १२ .....२१९ विप्रकृष्टविषयानुपलब्धिः ५९ २२मा
. . इति द्वितीयः परिच्छेदः।
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.
६७
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अथ तृतीयः परिच्छेदः। - (पर्शथानुमानपरिच्छेदः)
. संस्कृतटीका भाषाटीका विषय
पृटम् पंक्तिः पृ० पं० परार्थानुमानस्य लक्षणम् ६१ २ १२ २ तस्य द्वैविध्धम् समययंवत्
६३ २३. . ". स्वभावहेतोःप्रयोग शुद्धस्य स्वभावहतो प्रयोगः स्वभावभूतधर्मभेदेन स्वभावस्य .. प्रयोग: कृतकत्वम् प्रत्ययभेदभेदित्वोदयः साध्यधर्मः साधनस्य स्वभावः तस्मिन्नेव विषये हेतुः वस्य प्रतिमार्थकदेशहेतुत्वस्या ..परिहारः... कार्यहेतो प्रयोगःवैधय॑वतः प्रयोगः स्वभावहेतोवैधर्म्यप्रयोगः कार्यहेतोर्वधर्म्यप्रयोगः साधयेणापि प्रयोगेऽर्थाद्वैधय॑मतिः,, वैधयेणाप्यन्वयगतिः । ७४ स्वभावप्रतिबन्धस्य द्वैविध्यम् ।। पक्षस्य लक्षणम् प्रत्यक्षनिराकृतः अनुमाननिराकृतः प्रतीतिनिराकृतः : स्ववचननिराकृतः हेत्वाभासः .. .. द ११ २० २६ असिद्धहेत्वाभासः ।
, १२ २१ ४.. संदिग्धासिद्धः .....१५... : .. ९ , २७
2. www -20 rsmar
-2322 -
.
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संस्कृतटीका भाषाटीका . विषय ..
- पृष्टम् पंक्तिः पृ० पं० स्वात्मना संदिह्यमानः
,
१५ २२ १ आश्रयणासिद्धः धर्मिणः सिद्धावप्यसिद्धः अनैकान्तिको हेत्वाभासः अविकलकारणस्य भवतोऽन्यमावो
नाम प्रथमो विरोधः ९६ परस्परपरिहारस्थितलक्षणता नाम: - द्वितोयो विरोधा
९८ ... २१ २४: ५ . विरुद्धहेत्वाभासः दिग्नागेनाभ्युपगत इष्टविघातकविरुद्धः
१०३ १ धर्मकीर्तिना तस्य निराकरणम् १०४ संदिग्धोऽन्वयः
१०५ १० दिग्नागेनाभ्युपगतो विरुद्धाव्यभि
चारी हेतुः तस्य धर्मकीर्तिना निराकरणम् विरुधाव्यभिचारिण्युदाहरणम् ११३ अस्य स्वभावहेतुत्वम् दिग्नागेनाभ्युपगतस्य दृष्टान्तस्य
साधनावयवत्वस्य निराकरणम् ११७ दृष्टान्ताभासाः
१२२ १ दूषणा
. .१३२ जातयः
१३३ २ , जात्युत्तराणि
इति तृतीयः परिच्छेदः। .. टीकाकारकृतमन्तिममङ्गलम् , १२ .. ग्रन्थसमाप्तिः
१३५ ४ ,
इति न्यायबिन्दोविषयानुक्रमणिका।...
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विशेष-सूचना।
हमारे यहां हर तरह की संस्कृत पुस्तकें मै भाषा टीका के हरवक्त तैय्यार रहती हैं इसके ! अलावे हर तरह की छपाई तथा जिल्द के बंधाई का कार्य भी होता है।
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नीचे लिखे पते पर पत्र व्यवहार करें। ... जयकृष्णदास-हरिदासगुप्तःचौखम्बा संस्कृत सीरीज आफीस । विद्याविलास प्रेस, गोपालमंदिर लेन ।
बनारस सिटी।
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नमः सर्वज्ञाय
न्यायबिन्दुः
प्रथमपरिच्छेदः
--**जयन्ति जातिव्यसनप्रबन्ध
प्रसूतिहेतोर्जगतो विजेतुः। रागाधरातेः सुगतस्य वाचो
मनस्तमस्तानवमादधानाः ॥ १ तत्र विदुषामग्रणी श्रीधर्मोत्तराचार्यः न्यायविन्दुं व्याचिल्यासः प्रारिप्सितग्रन्थस्य निर्विघ्नपरिसमाप्त्यर्थ शिष्टाचारपरिपालनार्थ वा स्वमतं स्थापयन् भगवतो बुद्धस्य गुणसंस्तवनं करोति । "जयन्ति" इत्यादिना । सुगतस्य भगवतो बुद्धस्य वाचः वाण्यः जयन्ति । कथम्भः तस्य बुद्धस्यत्यत आह-जातीनाम् प्राणिसामान्यानां । “जातिर्जात. च सामान्यम्" इत्यमरः । व्यसनस्य विपदः “व्यसनं विपदि भ्रंशे दोष कामजकोपजे" इत्यमरः । प्रवन्धस्य सन्दर्भस्य परम्परायाः इत्यर्थः। या प्रसूतिः श्च्योतः क्षरणं नाश इत्यर्थः । "प्रसूतिः प्रसवेश्च्योते" इत्यमरः। तस्या हेतु: कारणभूतस्तस्य । एतेन संसारस्य दुःखमयत्वं बुद्धस्य तद्विनाशे कारणत्वञ्च प्रदर्शितम् । जगतः संसारस्य विजेतुः जयकर्तुस्तस्मिननासक्तस्येत्यर्थः । एतेन बुदस्य संघसंसा. सम्बन्धिविकारेषु जयित्वं जगतस्तरणत्वच चितम् । रागादीमाम
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प्रथमपरिच्छेदः
सम्यग्ज्ञानपूर्विकेत्यादिनास्य प्रकरणस्याभिधयप्रयोजनमुच्यतेसम्यग्ज्ञानपूर्विका सर्वपुरुषार्थसिडिरिति तद्व्युत्पाद्यते।
द्विविधं हि प्रकरणशरीरं शब्दोऽर्थश्चेति । तत्र शब्दस्य स्वाभिधेयमतिपादनमेव प्रयोजनम् । नान्यत् । अतस्तन निरूप्यते । अभिषयं तु यदि निष्प्रयोजनं स्यात्तदा तत्प्रतिपत्तये शब्दसन्दर्भोऽपि नारम्भणीयः स्यात् । यथा काकदन्तप्रयोजरागद्वेषलोभमोहादिसंसारसम्बन्धिभावानामरातिश्शत्रुस्तस्य । एतेम तस्य वीतरागित्वं घोतितम् । एतादृशः सुगतस्य बुद्धस्य वाचः जयन्ति । कथम्भूता वाचः इत्यत आह -मनः इत्यादि । मनसो य. समस्तस्य तानवं तनोः भावस्त कार्यमादधानाः सम्पादयन्त्यः । एतेन बुद्धस्य वाचि ज्ञानप्रदत्वं प्रकटीकृतम्।
सौगताः "बुद्ध परमेश्वस्यावतार" इति नाभिमन्यन्ते । किन्तु तेषां मते सर्वसंसारिजीवानामिव बुद्धोऽप्यस्मिन्नेव संसारऽनादिकाला. दारभ्य संसरति स्म । पश्चात्काललब्धिवशात्-शुभकर्म करवा काश्चिच्छभगतीः प्राप्तवान् । क्रमेण च स शुद्धोदनगृहे सिद्धार्थों बभूव तत्र कानिचिदिनानि यौवनसुखमनुभूय तेष्वसन्तुष्टः सन् यौवनावस्थायामेय सकलत्रपुत्रादिगृहं परित्यज्य सुदुष्करं तपश्च. कार । क्रमेण च संसारकारणीभूतरागादिभावान् त्यत्का वुद्धो बभू. व । तदनन्तरं स सर्वसंसारजीवान् दुःखनिवृत्युपायं बोधयित्वा निर्वाणं प्राप्तवान् । अयमेव भावो टीकाकारेण श्लोकेऽस्मिन् प्र. दर्शितः। १ "सम्यग्शनपूर्विका सर्वेत्यादिना" इति पाठान्तरम् "क" पुस्तके । २ "चेति" इति पदं "ख" पुस्तके न विद्यते। ३ "स्वाभिधेय०" इत्यस्य स्थाने "अभिधेयः” इति पाठो वि. चते 'ख' पुस्तके। ४ सर्वेषां शब्दानां स्वाभिधेयप्रतिपादनपरत्वात। 'न' इति पदं "क". पुस्तके न विद्यते । ५ "अभिधेये तु निःप्रयोजने तत्प्रतिपत्तये" इति पाठान्तरं "ख" पुस्तके।
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न्यायपिन्दुः . नाभावान तत्परीक्षारम्भणीया प्रेक्षावता । तस्मादस्य प्रकरणस्यारम्भणीयत्वं दर्शयताभिधययोजमनेनोच्यते । यस्मात्सम्यरज्ञानपूर्विका सर्वपुरुषार्थसिद्धिस्तस्मातत्यविपत्यर्थमिदमारभ्यत इत्ययमत्र वाक्यार्थः । ____ अत्र च प्रकरणाभिधेयस्य सम्यग्ज्ञानस्य सर्वपुरुषार्थासद्धिहेतुत्वं प्रयोजनमुक्तम् । अस्मिंश्चार्थ उच्यमाने सम्वन्धप्रयोजनाभिधेयान्युक्तानि भवन्ति । तथा हि-पुरुषार्थोपयोगि सम्यग्ज्ञानं व्युत्पादयितव्यमनेन प्रकरणेनेति ब्रुवता सम्यग्ज्ञानमस्य शब्दसंदर्भस्याभिधेयं, तद्व्युत्पादनं प्रयोजनं, प्रकरणं चेदमुपायो व्युत्पादनस्येत्युक्तं भवति । तस्मादभिधेयभागप्रयोजनाभिधा. नसामर्थ्यात्सम्बन्धादीन्युक्तानि भवन्ति । न विदमेकं वाक्यं सम्बन्धमाभिधेयं प्रयोजनं च वक्तुं साक्षात्समर्थम् । एकं तु वदअयं सामाद्दशर्यति । तव तदित्यभिधेयपदम् । व्युत्पाद्यत इति प्रयोजनमिदम् । प्रयोजनं चात्र वक्तुः प्रकरणकरणव्यापारस्य चिन्त्यते श्रोतुश्च श्रवणव्यापारस्य । तथा हि-सर्वे प्रे: क्षावन्तः प्रवृत्तिप्रयोजनमन्धिष्य प्रवर्तन्ते । तताऽऽचार्येण १ "तत्प्रतिपत्तये” इति पाठान्तरम् "ख" पुस्तके। २ यतः-सिद्धार्थ सिद्धसम्बन्धं श्रोतुं श्रोता प्रवर्तते । शास्त्रादी तेन वक्तव्यः सम्बन्धः सप्रयोजनः ॥१॥ यावत् प्रयोजनेनास्य सम्बम्धो नाभिधीयते । असम्बद्धप्रलापित्वाद्भवेत्तावदसङ्गतिः ॥२॥ तस्मात् व्याख्याङ्गामिच्छाद्भिः सहेतुः सप्रयोजनः । शास्त्रावतारस. म्बन्धो वाच्यो नान्योऽस्ति निष्फलः ॥३॥ ३ "उपायो व्युत्पादनस्य" इत्यस्य स्थाने "उपयोग्युत्पादनस्य" इति पठान्तरम् "ख" पुस्तके । ४ "वाच्यं" इति पाठान्तरम् "ख" पुस्तके। . ५ "सामर्थ-एकं तु वदत्" इति पाठान्तरं "ख" पुस्तके । "क" . पुस्तके नैतान्यक्षराणि जीर्णतयाऽवलोकितुमहाणि । धन प्रयोजनपदं। सम्यक्प्रकारेणानुसन्धाय । " इति पर्व"क" पुस्तके म विषते ।
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प्रथमपरिच्छेदः प्रकरणं किमर्थ कृतं श्रीहभिश्च किमर्थ श्रूयत इति संशयव्युत्पादनं प्रयोजनमाभिधीयते । सम्यग्ज्ञानं व्युत्पाद्यमानानामात्मानं व्युत्पादक कर्तु प्रकरणमिदं कृतं; शिष्यैश्वाचार्यप्रमुक्तामात्मनो व्युत्पत्तिमिच्छद्भिः प्रकरणमिदं श्रूयत इति प्रकरणकरणश्रवयोः प्रयोजनव्युत्पादनम् । सम्बन्धप्रदर्शनपदं तु न विद्यते । साम
ादेव तु स प्रतिपत्तव्यः । प्रेक्षावता हि सम्यग्ज्ञानव्युत्पाद. नाय प्रकरणमिदमारब्धवतायमेवोपायो नान्य इति दर्शित एवोपायोपेयभावः प्रकरणप्रयोजनयोः सम्बन्ध इति ।
न च प्रकरणश्रवणात्प्रागुक्तान्यप्यभिधेयार्दानि प्रमाणाभावात्मेक्षावद्भिर्न गृह्यन्ते तत्किमेतैरारम्भप्रदेश उक्तैः । सत्यम् । अश्रुते प्रकरणे कथितान्यपि न निश्चीयन्ते उक्तेषु त्वप्रमाणकेष्वप्यभिधेयादिषु संशय उत्पद्यते संशयाच प्रवर्तन्ते । अर्थसंशयोऽपि हि प्रवृत्त्यङ्गम् प्रेक्षावताम् । अनर्थसंशयो निवृत्यङ्गम् । अत एव शास्त्रकारेणैव पूर्वसम्बन्धादीनि युज्यन्ते वक्तुम् । व्याख्यातृणां हि वचनं क्रीडाद्यर्थमन्यथापि सम्भाव्यते । शास्त्रकृतां तु प्रकरणप्रारम्भे न विपरीताभिधेयायभिधाने प्रयोजनमुत्पश्यामो नापि प्रवृत्तिम् । अतस्तेषु संशयो युक्तः । अनुक्तेषु तु प्रतिपनृभिर्निष्प्रयोजनमाभिधेयं संभाव्यतास्य प्रकरणस्य काकदन्तप१प्रयोजनस्य लक्षणामिदम्। २ बोध्यमानान् शिष्यान् प्रति । ख. व्युत्पाद्यमानानाम् । ३ विशेषेणोत्पादयत्यर्थमिति व्युत्पादकः बोधक इति यावत् । दमि ति पदं ख पुस्तके न विद्यते । ५ ज्ञातव्यः । ६ ननुपदेन.
ते सर्वत्र। ७“अपि" इति पदं "ख" पुस्तके न विद्यते। ८ प्रदशः" इत्यशुद्धः पाठो विद्यते मुद्रितपुस्तके। ९ सत्यमित्यर्द्धस्वीकारे। १० "ख" पुस्तके "अपि" इत्याधिको पाठो विद्यते ।
११ ख. "आख्यातणां टीकाकाराणाम् ।" १२ क. “कीडार्थ" १३यथार्थप्रयोजनाभावात १४ सम्बन्धादिषु । १५तेषु सम्बन्धादिषु ।
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न्यायविन्दु रीक्षाया इव, मशक्यानुष्ठानं वा ज्वरहरतक्षकचूहारत्नालङ्कारोपदेशवत् , अनभिमतं वा प्रयोजनं मातृविवाहक्रमोपदेशवत् , अंतो वा प्रकरणारलघुतर उपायः प्रयोजनस्य, अनुपाय एव वा प्रकरणं सम्भाव्येत । एतासु चानर्थसम्भावनास्वेकस्याम प्यनर्थसम्भावनायां न प्रेक्षावन्तः प्रवर्तन्ते । अभिधेयादिवर्थसम्भावनाऽनर्थसम्भावना विरुद्धोत्पद्यते । तया तु प्रेक्षावन्तः प्रवर्तन्ते । इति प्रेक्षावतां प्रकृत्यङ्गमर्थसम्भावनां कर्तुं सम्बन्धादीन्यभिधीयन्त इति स्थितम् ।।
__ अविसंवादकं ज्ञानं सम्परज्ञानम् । लोके च पूर्वमुपदार्शतमर्थ प्रापयन्सम्वादक उच्यते तद्वज्ज्ञानमपि स्वयं प्रदर्शितमर्थ प्रापयत्संवादकमुच्यते । प्रदर्शिते चार्थे प्रवर्तकत्वमेव प्रापकत्वम् । नान्यत् । तथा हि-न ज्ञानं जनयदर्थ प्रापयति । अपि त्वर्थे पुरुषं प्रवर्तयत्प्रापयत्यर्थम् । प्रवर्तकत्वमपि प्रवृत्तिविषयप्रदर्शकत्वमेव । न हि पुरुष हटात्मवर्तयितुं शक्रोति विज्ञानम् । अत एव चौर्थाधिमतिरेव प्रमाणफलम् । अधिगते" चार्थे प्रवर्तितः पुरुषः प्रापितश्चार्थः । तथा च ससाधिगमात्समाप्तः प्रमा.
१ ख. "ज्वरहतक्षक." २ ख, पुस्तकस्य "भावाप्रकरणात्" इति पाठान्तरमशुद्ध प्रतीयते ।। ___३ ख. पुस्तके संख्यावाचीशब्दः ५” अपि दृश्यतेऽत्र । चतुर्णा पूर्वाणामप्यने संख्या हश्यन्ते । । ४ ख. पुस्तके "त्तक्तेषु" पाठान्तरमुपलभ्यते । यश्चाशुद्धत्वात्
"उक्तेषु" इत्यस्य स्थाने प्रयुक्तमिववालोक्यते । । ५“तु" इति पदं ख. पुस्तके न विद्यते।
६ स्व. "अभिसंवादसंज्ञानं" इति पाठान्तरमशुद्धं प्रतीयते । . ७न खुलु पूर्वमुपदर्शितेऽर्थे प्रवर्तकत्वमपि त्वपूर्वमुपदर्शितेऽर्थे प्रवर्तकत्वं संवादकत्वम् । ८ "स्वयं' इति पदं "क" पुस्तके न विद्यते । . ९उत्पत्तिक्षण एव। . १० ख.ज्ञानम् । , ११ "च" इति पदं स. पुस्तके नैवोपलभ्यते। .. १२.शाते.
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________________ प्रथमपरिच्छेदः णव्यापारः / अत एवानषिमतविषयं प्रमाणम् / येनैव हि ज्ञाने न प्रथममधिगतोऽर्थस्तेनैव प्रवर्तितः पुरुषः प्रापितश्चार्थः / तत्रैवार्थे किमन्येन ज्ञानेनाधिक कार्यम् / ततोऽधिगतावषयमप्रमाणम् / तत्र योऽर्थो दृष्टत्वेन ज्ञातः स प्रत्यक्षण प्रवृत्तिविषयीकृतः / यस्माद्यस्मिन्नर्थे प्रत्यक्षस्य साक्षात्कारित्वव्यापारो विकल्पेनानुगम्यते तस्य प्रदर्शकं प्रत्यक्षम् / तस्मादृदृष्टतया ज्ञातः प्रत्यक्षदर्शितः / अनुमानन्तु लिङ्गदर्शनानिश्चिन्वत्प्रवृत्तिविषयं दर्शयति / यथा च प्रत्यक्ष प्रतिभासमानं नियतमर्थं दर्शयति, अनुमानं च लिङ्गसम्बद्धं नियतमर्थ दर्शयति / अत एते नियतस्यार्थस्य प्र. दर्शके / तेन ते प्रमाणे / नान्यद्विज्ञानम् / प्राप्तुं शक्यमर्थमादसंयत्प्रापकम् / प्रापकत्वाच्च प्रमाणम् / आभ्यां प्रमाणाभ्यामन्येन च ज्ञानेन प्रदर्शितोऽर्थः कश्चिदत्यन्तविपर्यस्तः / यथा मरीचिकामु जलम् / स चासत्त्वात्प्राप्तुमशक्यः / कश्चिदनियतो भावाभावयोः / यथा संशयार्थः / न च भावाभावाभ्यां युक्तोऽर्थो जगत्यस्ति / ततः प्राप्तुमशक्यस्तादृशः / सर्वेण चालिङ्गजेन विकल्पेन नियामकमदृष्ट्वा प्रवृत्तेन भावाभावयोरनियत एवार्थो दर्शयितव्यः / स च प्राप्तुमशक्यः / तस्मादशक्यप्राप. णमत्यन्तविपरीत" भावाभावनियतं चार्थ दर्शयदप्रमाणमन्यज्ज्ञा. नम् / अर्थक्रियार्थिभिश्चार्थक्रियासमर्थार्थप्राप्तिनिमित्तं ज्ञानं मृग्यते / यच्च तैर्मग्यते तदेव तेन शास्त्रे विचार्यते / ततोऽर्थक्रिया: 1 "च" इत्यधिकं पर ख. पुस्तके। 2 ख. तत्रैव चार्थे”। , 3 प्रत्यक्षाएत्वेन। 4 ख. प्रवृत्तिविषयः। 5 निश्चयं कुर्वत् / / " 6 क. पुस्तकस्य "लिङ्गसम्बन्धम्" इति पाठोऽशुद्धो प्रतीयते / 7 ख. नियतार्थस्य"। 8 ख. "उपदर्शयत्' 9 ख. “दर्शिः”। 10 विरुद्धः 11 ख. पुस्तकस्य "अत्यन्तविपरीतभावाभादानि" इति पाठोऽशुद्धो प्रतीयते / 12 "अर्थक्रियासमर्थ" इति पाठो ख. पुस्तके न विद्यते / / 13 "तेन" इति पदं क० पुस्तके नैवोपलभ्यते /
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________________ न्यायविन्दु सपर्थवस्तुप्रदर्शकं सम्यग्ज्ञानम् / यच तेन प्रदर्शितं तदेव मापणीयम् / अर्थाधिगात्मकं हि प्रापकमित्युक्तम् / तत्रं प्रदर्शितान्यद्वस्तु भिन्नाकारं भिनदेशं भिनकालं च / विरुद्धधर्मसंसगाख्यन्यद्वतु / देशकालाकारभेदश्च विरुद्धधर्मसंसर्गः / तस्मादन्याकरिवद्वस्तुग्राहि नाकारान्तरवति वस्तुनि प्रमाणम् / यथा पीतशतग्राहि शुक्ले शङ्ख / देशान्तरस्थग्राहि च न देशान्तरस्थे प्रमाणम् / यथा कुम्बिकाविवरदेशस्थायां मणिप्रभायां मणिग्राहि ज्ञानं नापवरकदेशस्थे मणौ / कालान्तरयुक्तग्राहि च न का. लान्तरवति वस्तुनि प्रमाणम् / यथार्द्धरात्रे मध्यान्हकालवस्तु. ग्राहि स्वप्मज्ञानं नार्द्धरात्रकाले वस्तुनि प्रमाणम् / ननु च देश. नियतमाकारनियतं च प्रापयितुं शक्यं यत्कालं तु परिच्छिमं तत्कालं न शक्यं प्रापयितुम् / नोच्यते यस्मिन्नव काले परिच्छि. द्यते तस्मिन्नेव काले प्रापयितव्यमिति / अन्यो हि दर्शनकालो. ऽन्यश्च प्राप्तिकालः / किं तु यत्कालं परिच्छिन्नं तदेवं तेन प्रापणीयम् / अभेदाध्यवसायाच संतानगतमेकत्वं द्रष्टव्यमिति / सम्यग्ज्ञानं पूर्व कारणं यस्याः सा तथोक्ता / कार्यात्पूर्व भवत्कारणं पूर्व मुक्तम् / कारणशब्दोपादाने तु पुरुषार्थसिद्धेः साक्षात्कारणं मन्यते / पूर्वशब्दे तु पूर्वमात्रम् / द्विविधं च सम्य 1 1 ख. अर्थाविजियासमर्थवस्वधिगमात्मकत्वम् / 2 अर्थाधिगमे। 3 क. पुस्तकस्य "संसद्मः" ख० पुस्तकस्य च "संसर्गः" इति ठावशुद्धौ। 4 ख. "अन्वाकारवस्तु"। ५क० "कुंधिका"। 6 "च" इति पदं क० पुस्तके न विद्यते / 7 "तेन" इति पदं क० पुस्तके न विद्यते। 8 अध्यवसायो ज्ञानं। ९क० ख० शब्दापादाने। 10 ख० पुस्वकस्य “गम्यत" इति पाठोऽशुद्धोऽस्ति /
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________________ प्रथमपरिच्छेदः ज्ञानम् / अर्थक्रियानि सम् , अर्थक्रियासमर्थे च प्रवतकम् / त. योर्यत्प्रवर्तकं तदिह परीक्ष्यते / तच्च पूर्वमात्रम् / न तु साक्षाकारणम् / सम्यग्ज्ञाने हि सति पूर्वदृष्टस्मरणम् / स्मरणादभिलाषः / अभिलाषात्प्रवृत्तिः / प्रवृत्तेश्च प्राप्तिः / ततो न साक्षाद्धेतुः / अर्थक्रियानिौसे तु यद्यपि साक्षात्पत्तिस्तथापि तन्न परीक्षणीयम् / यत्रैव हि प्रेक्षावन्तोऽर्थिनः साशङ्कास्तत्परीक्ष्यते / अर्थक्रियानि से च ज्ञाते सति सिद्धः पुरुषार्थः / तेन तत्र न साशङ्का अर्थे ज्ञाते / अतस्तन्न परीक्षणीयम् / तस्मात्प. रीक्षाईमसाक्षात्कारणं सम्यग्ज्ञानमादर्शयितुं कारणशब्दं परित्यज्य पूर्वग्रहणं कृतम् / पुरुषस्यार्थः / अर्थ्यत इत्यर्थः / काम्यत इति यावत् / हेयोऽर्थ उपोदयो वा / हेयो ह्यर्थो हातुमिष्यते / उयोदेयोऽप्युपादातुम् / न च हेयोपादेयाभ्यामन्यो राशिरस्ति / उपेक्षणीयो प्यनुपादेयत्वाद्धेय एव / तस्य सिद्धिहोनमुपादानं च / हेतुनिवर्धना हि सिद्धिरुत्पत्तिरुच्यते / ज्ञाननिवन्धना तु सिद्धिरनुष्ठान. म् / हेयस्य हानमनुष्ठानम् / उपादेयस्य चोपादानम् / ततो हेयोपादेययोर्हानोपादानलक्षणानुष्ठितिः सिद्धिरित्युच्यते / ____ सर्वा चासौ पुरुषार्थसिद्धिश्चेति / सर्वशब्द इह द्रव्यका. स्न्ये वृत्तो न च प्रकारकात्स्न्र्थे / ततो नायमर्थः / द्विप्रकारापि 1 मध्ये' इत्याधिक ख० पुस्तके। 2 कामना / .3 "ख" अर्थ कियानि सात् / 4 ख० "प्राप्तिः" / 5 क० "झाने"। 6 खः "आर्थनः"। 7 "अपि" पदं क० पुस्तके न विद्यते / 8 हेतुरास्त निबन्धन कारण यस्याः। 9 ज्ञानमस्ति निबन्धनं यस्याः / 10 'इति' इति पदं खा पुस्तके न विद्यते / 11 कृत्स्नस्तु सम्पूर्णः / कृत्स्नस्य भावः काय॑न्यस्तस्मिन् / 12 "च" इति पाठः क. पुस्तके न विद्यते।
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________________ प्रथमपरिच्छेदः सिद्धिः सन्यग्ज्ञाननिवन्धनेति / अपि स्वयमर्थः / या काचित्सि. दिः सा सर्वा कृत्स्नैवासौ सम्यग्ज्ञाननिबन्धनैवेति / मिथ्याज्ञानाद्धि काकतालीयापि नास्त्यर्थसिद्धिः / तथा हि-यदि प्रदर्शित. मर्थ प्रापयत्येवं ततो भवत्यर्थसिद्धिः / प्रदार्शतं च प्रापयत्स. म्यग्ज्ञानमेव / प्रदर्शितं चाप्रापयन्मिथ्याज्ञानम् / अप्रापकं च कथमर्थसिद्धिनिबन्धनं स्यात् / तस्माद्यन्मिध्याज्ञानं न ततोऽर्थसिद्धिः / यतश्चार्थसिद्धिस्तत्सम्यग्ज्ञानमेव / अत एव सम्यग्ज्ञानं यत्नतो व्युत्पादनीयम् / यतस्तदेव पुरुषार्थसिद्धिनिबन्धनम् / ततो यावद्देयात्पुरुषार्थसिद्धिः सम्यग्ज्ञाननिबन्धनैवेति ता. वदुक्तं सर्वा सौ सम्यग्ज्ञानपूर्विकेति / इति शब्दस्तस्पादित्य. स्मिन्नर्थे / यत्तदोश्च नित्यमभिसम्बन्धः / तदयमर्यो यस्मात्सम्यरज्ञानपूर्विका सर्वषुरुषार्थसिद्धिस्तस्मात्तव्युत्पाद्यते / यद्यपि च समासे गुणीभूतं सम्यग्ज्ञानं वथाह प्रकरणे व्युत्पादायतव्यस्वात्प्रधानम् / ततस्तस्यैव तच्छन्देन सम्बन्धः / व्यु-पाद्यते इति विपतिपत्तिनिराकरणन प्रतिपाद्यते व्युत्पाद्यत इति / . चतुर्विधा चात्र विप्रतिपत्तिः / संख्यालक्षणगोचरफलविष१ "एव" इति पाठः ख० पुस्तके नैवोपलभ्यते / २"सिद्धि" इत्यस्य स्थाने “सिद्धेः" इति पाठः स्व. पुस्तके। 3 ख. पुस्तकस्य "यावद्भया" इति पाठोऽशुद्धः प्रतीयते / क.. "या काचित्पुरूष०-सम्यग्ज्ञान." ख० “सा सम्यग्ज्ञान"। 4 ख० पुस्तके "सा" इति पदं न विद्यते। ५"तव्युत्पाद्यते" इत्यस्य स्थाने "तत्सम्यग्ज्ञान युत्पाद्यते". इति पाठः ख०पुस्तके। 6 व्युत्पाद्यते' इति पदं ख० पुस्तके न वर्तते / 7 गोचरस्तु विषयः।
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________________ 10 न्यायविन्दुः / या। तत्र संख्याविप्रतिपत्तिनिराकतुर्माह द्विविधं सम्यग्ज्ञानम् / ____ द्वौ विधौ प्रकारावस्येति द्विविधम् / संख्याप्रदर्शनद्वारेण च व्यक्तिभेदो दार्शतो भवति / द्वे एव सम्यग्ज्ञानव्यक्ती इति / व्यक्ति भेदे प्रदर्शिते प्रतिव्यक्तिनियतं सम्यग्ज्ञानलक्षणमाख्यातुं शक्यम् / अप्रदर्शिते तु व्यक्तिभेदे सकलव्यत्यनुयायि सम्यग्ज्ञानलक्षणमेकं न शक्यं वक्तुम् / ततो लक्षणभेदकथनाङ्गमेव संख्याभेदकथनम् / अप्रदर्शिते तु व्यक्तिभेदात्मके संख्याभेदे लक्षणभेदस्य दर्शयितुमशक्यत्वात् / लक्षणनिर्देशाङ्गत्वादेव च प्रथमं संख्याभेदकथनम् / किं पुनस्तद्वैविध्यमित्याह प्रत्यक्षमनुमानश्च / प्रतिगतमाश्रितमक्षम् / अत्यादयः क्रान्ताद्यर्थे द्वितीययेति समासः / प्राप्तापन्नालङ्गतिसमासेषु परवल्लिङ्गप्रतिषेधात् / अभिधेयवल्लिङ्गे सति सर्वलिङ्गः प्रत्यक्षशब्दः सिद्धः / अक्षा. 1 विपत्तिपत्तिस्तु विवादः। 2 ख. द्वे विधे। 3 “एव" इति पाठः क० पुस्तके न विद्यते। 4 क. "व्यक्तिभेदे" / ख. "भेदे"। 5 "सकलव्यक्त्यनुयायि" इति पदं ख० पुस्तकादानतिं / क०पुस्तक इदन्न सुपाच्यम् / 6 'तु' इति पाठोऽधिको विद्यतेऽत्र ख० पुस्तके / 7 "वैविध्य" इति पाठः क० पुस्तके ख० पुस्तके च विद्यते। '. मुद्रितपुस्तकस्य सम्पादकस्य सम्मतौ "द्विविधं" इति भवितव्यम् / x अस्माकं मते तु प्रकृतः पाठः एव शोसनम् /
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________________ प्रथमपरिच्छेदः श्रितत्वं च व्युत्पत्तिनिमित्तं शब्दस्य / न तु प्रवृत्तिनिमित्तम् / अनेन त्वलक्षाश्रितत्वेनैकार्थसमवेतमर्थसाक्षात्कारित्वं लक्ष्यते / तदेव शब्दस्य प्रतिनिमित्तम् / ततश्च यत्किंचिदर्थस्य साक्षाकारिज्ञानं तत्सत्यक्षमुच्यते / यदि त्वक्षाश्रितत्वमेव प्रवृत्तिनि. मिसं स्यादिन्द्रियज्ञानमेव प्रत्यक्षमुच्यत / न मानसादि / यथा गच्छतीति गौरिति गमनक्रियायां व्युत्पादितोऽपि गोशब्दो गमनक्रियोसलक्षितमेकार्थसमवेतं गोत्वं प्रवृत्तिनिमित्तीकरोति / तथा च गच्छत्यगच्छति च गवि गोशब्दः सिद्धो भवति / मीयतेऽनेनेति मानम् / करणसाधनेन मानशब्देन सारूप्य. लक्षणं प्रमाणमभिधीयते / लिङ्गग्रहणसम्बन्धस्मरणस्य पश्चा. न्मानमनुमानम् / गृहीते पक्षधर्म स्मृते च साध्यसाधनसम्बन्धेऽनुमानं प्रवर्तत इति पश्चात्कालभाव्युच्यते / चकारः प्रत्यक्षा. नुमानयोस्तुल्यबलत्वं समुच्चिनोति / यथार्थाविनाभाविवादर्थ प्रापयत्प्रत्यक्ष प्रमाणम् / तद्वदर्थाविनामावित्वादनुमानमपि परिछिम्नमर्थ प्रापयत्प्रमाणमिति / तत्र कल्पनापोढमभ्रान्तं प्रत्यक्षम् / तत्रेति सप्तम्यर्थे वर्तमानो निर्धारणे वर्तते / ततोऽयं वाक्यार्थः / तत्र तयोः प्रत्यक्षानुमानयोरिति समुदायनिर्देशः / प्रत्यक्षमित्येकदेशः / तत्र समुदायात्प्रत्यक्षत्वजात्यैकदेशस्य पृथक्करणं निर्धारणम् / तत्र प्रत्यक्षैत्वमनूद्य कल्पनापोढत्वम 1 "अक्षाश्रितत्वेन" इत्यशुद्धः पाठः मुद्रितपुस्तकस्य / 2 ख. 'लभ्यते'। 3 ख० 'विज्ञानम्'। 4 कथ्यते / 5 ख० "गृहीत."। 6 ख० "एकदेशनिर्देशः"। 7 क० “प्रत्यक्षं"।
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________________ न्यायबिन्दुः भ्रान्तत्वं च विधीयते। यत्तद्भवतामस्माकचार्थेषु साक्षात्कारिज्ञानं प्रसिद्धं तत्कल्पनापोढांभ्रान्तत्वयुक्तं द्रष्टव्यम् / न चैतन्मन्तव्यं कल्पनापोढाभ्रान्तत्वं चेदप्रसिद्धं किमन्यत्प्रत्यक्षस्य ज्ञानस्य रूपमवशिष्यते / यत्प्रत्यक्षशब्दवाच्यं सदनद्यतेति / यस्मादिन्द्रियान्वयव्यतिरेकानुविधाय्यर्थेषु साज्ञात्कारिज्ञानं प्रत्यक्षशब्दवाच्यं सर्वेषां सिद्ध / तदनुवादन कल्पनापोढाभ्रान्तत्वविधिः। कल्पनाया अपोढमपेतं कल्पनापोढम् / कल्पनास्वभावरहितमिसर्थः / अभ्रान्तमक्रियाक्षमे पस्तुरूपेऽविपर्यस्तमुच्यते / अर्थक्रियाक्षमं च वस्तुरूपं सन्निवेशोपाधिधर्माल्मकम् / तत्र यन्न भ्राम्यति तदभ्रान्तम् / एतच्च लक्षणद्वयं विप्रतिपत्तिनिराकरणार्थम् / न त्वनुमाननिवृत्त्यर्थम् / यतः कल्पनापोढग्रहणेनैवानुः मानं निवर्तितम् / तत्रासत्यभ्रान्तग्रहणे गच्छदृक्षदर्शनादि प्र. त्यक्षं कल्पनापोढत्वात्स्यात् / ततो हि प्रवृत्तेन वृक्षमात्रमवाप्यत इति संवादकत्वात्सम्यग्ज्ञानम् / कल्पनापोढत्वाच्च प्रत्य. क्षमिति स्यादाशङ्का / तन्निवृत्त्यर्थमभ्रान्तग्रहणम् / तद्धि भ्रा. न्तत्वान्न प्रत्यक्षम् / त्रिरूपलिङ्गजवाभावाच नानुमानम् / न च प्रमाणान्तरमस्ति / अतो गच्छवृक्षदर्शनादि मिथ्याज्ञानमित्युक्तं भवति / यदि मिथ्याज्ञानं कथं ततो वृक्षावीप्तिरिति चेत् , न ततो वृक्षवाप्तिः / नानादेशगामी हि वृक्ष. स्तेन परिच्छिन्नः एकदेशनियतश्च वृक्षोऽवाप्यते। ततो यदेशो 1 'च' इति पदं ख० पुस्तके न विद्यते / 2 ख० तत्कल्पनापोढभ्रान्तत्व। 3 प्रकटीक्रियेत / 4 ख० प्रसिद्धं / 5 ख तदनकल्पना०। 6 रहितम् / 7 अविरुद्धम् / 8 "च" इति पद क० पुस्तके नैवोपलभ्यते। ९क० ख० वर्णात्मकम् / 10 ख० निरासार्थम् / 21 प्राप्तिाप्तिरित्यर्थः / 12 प्राध्यते शायत इत्यर्थः / -
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________________ प्रथमपरिच्छेदः गच्छवृक्षो दृष्टस्तद्देशो नावाप्यते / यद्देशश्चावाप्यते स न दृष्ट इति / न तस्मात्कश्चिदर्थोऽवाप्यते / ज्ञानान्तरादेव तु वृक्षा. दिरर्थोऽवाप्यते / इत्येवमश्रान्तग्रहणं विप्रतिपत्तिनिरासार्थम् / भ्रान्तं हनुमानम् / स्वतिभासेऽनर्थेऽध्यवसायेन प्रवृत्तत्वात् / प्रत्यक्षं तु ग्राह्य रूपे न विपर्यस्तम् / न त्वविसंवादकमभ्रान्त. मिह ग्रहीतव्यम् / यतः सम्यग्ज्ञानमेव प्रत्यक्षम् / नान्यत् / .. तत्र सम्यग्ज्ञानत्वादेवाविसम्वादकत्वे लब्धे पुनरविसम्बादकग्रहणं निष्प्रयोजनमेव / एवं हि वाक्यार्थः स्यात् / प्रत्यक्षाख्यं यदविसम्वादकं ज्ञानं तत्कल्पनापोढमविसम्वादकं चेति / न चानेन द्विरविसम्वादग्रहणेन किश्चित् / तस्माद्द्यावेऽर्थक्रियाक्षमे वस्तुरूपे यदविपर्यस्तं तदभ्रान्तमिह चेदितव्यम् / कीदृशी पुनः कल्पनेह गृह्यत. इत्याहअभिलापसंसर्गयोग्यप्रतिभासप्रतीतिः कल्पना तया रहितम् / अभिलप्यतेऽनेनेति अभिलापो वाचकः शब्दः। अभिलापेन संसर्ग अभिलापसंसर्गः / एकस्मिज्ञानेऽभिधेयाकारस्याभिधानाकारेण सह ग्राह्याकारतया शीलनम् / ततो यदेकस्मि: 1 ख०च। मीलनम - 2 "( विप्रतिप्रत्तिनिरासार्थ ) तथाऽभ्रान्तग्रहणेनाप्यनुमाने विर्तित कल्पनापोडग्रहणं विप्रतिपत्तिनिरासार्थम्" इत्यधिको पाठो द्यते ख० पुस्तक इति ज्ञातव्यम्। 3 ख. स्वप्रतिभासो (? स्वप्रतिभासे) थैर्थाध्यावसायेन। ४ज्ञातव्यम्। ५ख अभिलप्यते। . . 6 “अभिलापसंसर्गः" इति पदं क० पुस्तके न विद्यते। 70 ख० मीलनम् !
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________________ 14 न्यायविन्दुः ज्ञानेऽभिधेयाभिधानयोराकारौ संनिविष्टी भवतस्तदा संसृष्टेऽभिधानाभिधेये भवतः। अमिलापसंसर्गाय योग्योऽभिधेयाँभासो यस्यां प्रतीतौ सा तथोक्ता / तत्र काचित्प्रतीतिरभिलापेन संसृष्टाभासा भवति / यथा व्युत्पन्नसंकेतस्य घटार्थकल्पना घटशब्दसंसृष्टार्थावभासा भवेति / काचित्वभिलापेनासंसृष्टाप्यभिलापसंसर्गयोग्याभासाभवति / यथा बालकस्याव्युत्पन्नसंकेतस्य कल्पना। तत्राभि. लापसंसृष्टाभासा कल्पनेत्युक्तावव्युत्यन्नसङ्केतस्य न संगृहाते / योग्यगृहणे तु सापि संगृह्यते / यद्यप्यभिलापसंसृष्टाभांसा न भवति तदहेजातस्य बालकस्य कल्पना अभिलापसंसर्गयोग्यपतिभासा तु भवत्येव / या चाभिलापसंसृष्टा सापि योग्या / तत उभयोरपि योग्यगृहणेन सङ्ग्रहः। असत्यभिलापसंसर्गे कुतो योग्यतावासतिरिति चेत् / अनियतप्रतिभासत्वात् / अनियतप्रतिभासत्वं च प्रतिभासनियमहेतोरभावात् / ग्राह्यो ह्यर्थो विज्ञानं जनयन्नियतप्रतिभासं कुर्यात् / / यथा रूपं चक्षुर्विज्ञानं जनयन्नियतप्रतिभासं जनयति / विकपविज्ञानं त्वर्थानोत्पद्यते / ततः प्रतिभासनियमहेतोरभावादनि. यतप्रतिभासम् / 1 ख० आभिधानाभिधेययोः। 2 ख. निविष्टौ। 3 ख० अभिधेयाकारभासः / 4 ख० अभिलाप० / 5 "भवति" इति पदं ख० पुस्तके न विद्यते। .. 6 संसृष्टाभासा, ख० संसृष्टप्रभासा ( ? * संसृष्टप्रतिभासा ) / 7 स्व० संगृह्यते। ८०आभासा, ख० प्रतिभासा। 9 इदं पदं क० पुस्तके न विद्यते / 10 अभिलापसंसर्गयोग्यप्रतिभासाऽभिलापसंमृयोः। .. 11 योग्यता, ख. योग्यत्यः / 12 स्थानम् / 13 प्रतिभासत्वे
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________________ प्रथमपरिच्छेदः कुतः पुनरेतद्विकल्पोऽर्थानोत्पद्यत इति / अर्थसंनिधिनिरपेक्षत्वात् / बालोऽपि. हि यावश्यमानं स्तनं स एवायमिति पूर्षदृष्टत्वेन न प्रत्यवमृशति तावन्नोपरतरुदितो मुखमर्पपत्ति स्तने / पूर्वदृष्टापरदृष्टं चार्थमेकीकुर्वद्विज्ञानमसन्निहितविषयम् / पूर्वदृष्टस्यासन्निहितत्वात् / असन्निहितविषयं चार्थनिरपेक्षम् / अनपेक्षं च प्रतिभासनियमहेतोरभावादनियतप्रतिभासम् / सादृशं चाभिलापसंसर्गयोग्यम् / इन्द्रियविज्ञानं तु समिहि तमात्रग्राहित्वादर्थसापेक्षम् / अर्थस्य च प्रतिभासनियमहेतुत्वानियतप्रतिभासम् / ततो नाभिलापसंसर्गयोग्यम् / अत एव स्वलक्षणस्यापि वाच्यवाचकभावमभ्युपगम्यैतदविकल्प कत्वमुच्यते। यद्यपि हि स्वलक्षणमेव वाच्यं वाचकं च भवेत्तथाप्यभि. लापसंमृष्टार्थ विज्ञानं सविकल्पकम् / न चेन्द्रियविज्ञानमर्थेन नियमितप्रतिभासत्वादभिसापसंसर्गयोग्यप्रतिभासं भवतीति निर्विकल्पकम् / श्रोत्रज्ञानं तर्हि शब्देस्वलक्षणग्राही / शब्दस्व. लक्षणं किञ्चिद्वाच्यं किञ्चिद्वाचकमित्यभिलापसंसर्गयोग्यप्रतिभासं स्यात् / तथा च सविकल्पकं स्यात् / नैष दोषः / सत्यपि वलक्षणस्य वाच्यवाचकभावे सङ्केतकालदृष्टत्वेन गृह्यमाणं बलक्षणं वाच्यं वाचकं च गृहीतं स्यात् / न च सङ्केतकालभा. दर्शनविषयत्वं वस्तुनः सम्प्रत्यस्ति / यथा हि सङ्केतकालभाविदर्शनमद्य निरुद्धं तद्वत्तद्विषयत्व. 1 विकल्पविक्षानम्। 2 स्मरति / 3 सन्निहितमात्र० ख० संनिहिताथमात्र / .4 ख० श्रोत्रविज्ञानं / 35 "शब्द"इति पाठो ख० पुस्तके न विद्यते / 6 शद्वस्वलक्षणं, ख० शब्दे स्वलक्षणं च। ..
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________________ न्यायविन्दु मप्यर्थस्याच नास्ति / ततः पूर्वकालदृष्टत्वमपश्यच्छोत्रज्ञानं न वाच्यवाचकमावग्राहि / अनेनैव न्यायेन योगिज्ञानमपि सकल. शब्दार्थावभासित्वेऽपि सङ्केतकालदृष्टत्वाग्रहणानिर्विकल्पकम् / तया कल्पनपा कल्पनास्वभावेन रहितं शून्यं सज्ज्ञानं यदभ्रा. न्तं तत्प्रत्यक्षमिति परेण सम्बन्धः। कल्पनापोढत्वाभ्रान्तत्वे परस्परसापेक्षे प्रत्यक्षलक्षणं न प्रत्येकमिति दर्शयितुं तया रहितं यदभ्रान्तं तत्प्रत्यक्षमिति लक्षणयोः परस्परसापेक्षयोः प्रत्यक्ष. विषयत्वं दर्शितमिति / तिमिराशभ्रमणनौयानसंक्षोभाधनाहितविभ्रमं ज्ञानं प्रत्यक्षम् / तिमिरमणाविप्लवः / इन्द्रियगतमिदं विभ्रमकारणम् / आशुभ्रमणमलातादेः / मन्दं हि भ्रम्यमाणेऽलातादौ न चक्रभ्रान्तिरुत्पद्यते / तदर्थमाशुगृहणे न विशेष्यते भ्रमणम् / एतच्च विषयगतं विभ्रमकारणम् / नावा गमनं नौयानं / गच्छन्त्यां नावि स्थितस्य गच्छदृक्षादिभ्रान्तिरुत्पद्यत इति यानग्रहणम् / एतच्च बाह्याश्रयस्थितं विभ्रमकारणम् / संक्षोभो वातपित्तश्लेप्मणाम् / वातादिषु हि क्षोभं गतेषु ज्वलितस्तम्भादिभ्रान्ति रुत्पद्यते / एतच्चाध्यात्मगतं विभूमकारणम् / सर्वैरेव च विभू. 1 ज्ञानं, ख० विज्ञानं / . 2 ख. पुस्तके 'सूत्रेण ( लिखितपुस्तके मूत्रेण)' इत्याधिको 4 ठो विद्यते। नेत्रयोः। 4 ख० भ्रम / 5 'हि' इति पदं ख० पुस्तक एवोपलभ्यते / 6 ख० भ्राम्यमाणे / 70 भ्रम / 8 ज्वलित०, ख० ज्वलितरूपं / ९ख० आध्यात्मिकं भ्रान्तिकारणम् /
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________________ प्रथमपरिच्छेदः .. 17 मकारणैरिन्द्रियविषयबाह्याध्यात्मिकायगतैरिन्द्रयमेव विकर्तमम् / अविकृत इन्द्रिय इन्द्रियभान्त्ययोगात् ।एते संक्षोभपर्यन्ता आदयो येषां ते तथोक्ता / आदिग्रहणेन काचकामालादय इन्द्रियस्था गृहन्ते / आशुनयनानयनादयो विषयस्थाः / आशुनयनानयने हि कार्यमाणेऽलातादावाग्निवर्णदण्डाभासा भ्रान्तिर्भवति / हस्तियानादयो बाह्याश्रयस्था गाढमर्मपहारादय आध्या. त्मिकाश्रयस्था विभ्रमहेतवो गृह्यन्ते। तैरनाहितो विभ्रमो यस्मिस्तत्तथाविधं ज्ञान प्रत्यक्षम् / / तदेवं लक्षणमाख्याय यैरिन्द्रियमेव द्रष्टु कल्पितं मानस. प्रत्यक्षलक्षणे च दोषउद्भावितः स्वसंवेदनं च नाभ्युपगतं योगिज्ञानं च तेषां विप्रतिपत्तिनिराकरणार्थ प्रकारभेदं प्रत्यक्षस्य दर्शयन्नाह-- + तच्चतुर्विधम् / सः इन्द्रियज्ञानं स्वविषयानन्तरविषयसहकारिणेन्द्रयज्ञानेन समनन्तरप्रत्ययेन जनितं तत् / इन्द्रियस्य मानमिन्द्रियज्ञानम् / इन्द्रियाश्रितं यत्सत्प्रत्यक्ष. / / मानसप्रत्यक्षे पैरों दोष उद्भावितस्तं निराकर्नु मानसप. यक्षलणमाह। स्व आत्मीयो विषय इन्द्रियज्ञानस्य तस्यानन्तरः / १"इन्द्रिय" इति पाठो ख० पुस्तके नैवोपलभ्यते। / 2 'हि'इति पदं ख० पुस्तके नैवोपलभ्यते। ३ख० भलाते। / 4 ख० एतैः। 5 अनाहितः दूरीकृतः। 6 ख. निरासार्थम् / 7 ख० मानसे च प्रत्यक्षे। 8 अन्यवादिभिः। 9 प्रकटीकृतः। 10 ख. विज्ञानस्य।
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________________ न्यायविन्दुः न विद्यतेऽन्तरमस्येत्यनन्तरः। अन्तरं च व्यवधानं विशेषश्वोच्यते / ततश्चान्तरे प्रतिषिद्धे समानजातीयो द्वितीयक्षणभाव्युपादेय क्षण इन्द्रियविज्ञानविषयस्य गृह्यते / तथा च सतीन्द्रियज्ञानविष यक्षणादुत्तरक्षण एकसन्तानान्तभूतो गृहीतः / स सहकारी यस्येन्द्रियविज्ञानस्य तत्तथोक्तम् / द्विविधश्च सहकारी / परस्परोपका. री एककार्यकारी च / इह च क्षीणके वस्तुन्यतिशयाधानायोगा. देककार्यकारित्वेन सहकारी गृह्यते / विषयविज्ञानाभ्यां हि मनोविज्ञानमेकं क्रियते यतस्तदनयोने परस्परसहकारित्वम् / ईदृशेनेन्द्रियविज्ञानेनालम्बनप्रत्ययभूतेनापि योगिज्ञानं जन्यते / तनिरासार्थ समनन्तरप्रत्ययग्रहणं कृतम् / समश्चासौ ज्ञानत्वे. नानन्तरश्वासावव्यवहितत्वेन स चासौ प्रत्ययश्च हेतुत्वात्समन. न्तरप्रत्ययः तेन जनितम् / मनोविज्ञानम् / सदनेनैकसन्तानान्तर्भूतयोरेवेन्द्रियज्ञानमनोज्ञानयोजन्यजन कभावे मनोविज्ञानं प्रत्यक्षमित्युक्तं भवति / ततो योगिज्ञानं परसन्तानवर्ति निरस्तम् / यदा चेन्द्रियज्ञानविषयादन्यो विषयो मनोविज्ञानस्य तदा गृहीतगृहणादासर्जितोप्रामाण्यदोषो नि 1 "अनन्तरः" इति पदं ख० पुस्तक एवोपलभ्यते। 2 विषयविज्ञानाभ्यां हि मनोविज्ञानं, ख० विषयविज्ञानाभ्यां म नोविज्ञानाभ्यां मनोविज्ञानम्। 3 तदनयोन परस्परसहकारित्वं, ख० तदनयोः परस्परस्य सह कारित्वम् / 4 'कृतम्' इति पदं ख० पुस्तके नैवोपलभ्यते। 5 इदं पदं ख० पुस्तके न विद्यते / 6 'इति' इति पदं ख० पुस्तके न विद्यते / 7 अपाकृतं खाण्डितमित्यभिप्रायः। प्राप्तः /
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________________ 19 प्रथमपरिच्छेदः रस्तः / यदा चेन्द्रियज्ञानविषयोपादेयभूतः क्षणो गृहीतस्तदे. न्द्रियज्ञानेनागृहीतस्य विषयान्तरस्य ग्रहणादन्धबधिरायभाव. दोपप्रसंगो निरस्तः / एतब मनोविज्ञानमुपरतव्यापारे चक्षुषि प्रत्यक्षमिष्यते / व्यापारवति तु चक्षुषि यद्रूपज्ञानं तत्सर्वं च. क्षुराश्रितमेव / इतरथा चक्षुराश्रितत्वानुपपत्तिः कस्याचदपि विज्ञानस्य / एतच्च सिद्धान्तप्रसिद्धं मानसं प्रत्यक्षम् / न त्वस्य प्रसाधकमास्त प्रमाणम् / एवंजातीयकं तयदि स्यान्न कश्चिदोषः स्यादिति वक्तुं लक्षणमाख्यातमस्येति / . स्वसंवेदनमाख्यातुमाह सर्व चित्तचत्तौनामात्मसंवेदनम् / चित्तपर्थमात्रग्राहि / चैत्ता विशेषावस्थाग्राहिणः सुखादयः। सर्वे च ते चित्तचैत्ताश्च सर्वचित्त,त्ताः। सुखादय एव स्फुटानुभव. त्वात्स्वसंविदिताः / नान्या चित्तावस्थेत्येतदाशङ्कानिवृत्यर्थः सर्वग्रहणं कृतम् / नास्ति सा काचिचित्तावस्था यस्यामात्मनः संवेदनं न प्रत्यक्षं स्यात् / येन हि रूपेणात्मा वेद्यते तद्रूपमामलंवेदनं प्रत्यक्षम् / इह च रूपादौ वस्तुनि दृश्यमानेऽन्तरः सुखाद्याकारस्तुल्यकालं संवेद्यते / न च गृह्यमाणाकारो नीलादिः मातादिरूपो वेद्यते इति वक्तुं शक्यम् / यतो नीलादिः सात १ख. ज्ञानस्य / 2 बाह्यास्तित्ववादिनां सौत्रान्तकानां मते प्रत्येकं बस्तु इविधम्। बाह्यमान्तरञ्च / बाह्यं पुनर्द्विविधम् / भूतं भौतिकश्च। आन्तरपि द्विविधम् / चित्तं चैत्तञ्च / चैत्तं चैत्तिकमपि कथ्यते। भूतं पृथि•ादयश्चत्वारः परमाणवः / भौतिक रूपादयश्चक्षुरादयश्च / चित्तं. शानम् / चैत्तिक रुपविज्ञानवेदनासंज्ञासंस्कारसंशकाः पञ्चस्कन्धाः। झानं पुनर्द्विविधम् / आलयविज्ञानमहमित्याकारकम् / प्रवृत्तिविज्ञा. मेन्द्रियादिजन्यं रूपादिविषयम्। ३वक्तुं शक्यं,ख० शक्यं वक्तुं /
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________________ न्यायविन्दुः रूपेणानुभूयत इति न निश्चीयते। यदि हि सातादिरूपायं नीलादिरनुभूयत इति निश्चीयेत स्यात्तदा तस्य सातादिरूपत्वम् / यस्मिन्रूपे प्रत्यक्षस्य साक्षात्कारित्वव्यापारो विकल्पेनानुगम्यते तत्प्रत्यक्षम् / न च नीलस्य सातरूपत्वमनुगम्यते / तस्मा. दसातानीलाधर्थादन्यदेव सातमनुभूयते नीलानुभवकाले / सच्च ज्ञानमेव / ततोऽस्ति ज्ञानानुभवः / तच्चे ज्ञानरूपं वेदनपात्मनः साक्षात्कारि निर्विकल्पकमभ्रान्तं च तस्मात्प्रत्यक्षम् / योगिप्रत्यक्षं व्याख्यातुमाह-- भतार्थभावनाप्रकर्षपर्यन्त योगिज्ञानं चेति / भूतः सद्भूतोऽर्थः / प्रमाणेन दृष्टश्च सद्भूतः / यथा चत्वार्यार्यसत्यानि / भूतार्थस्य भावना पुनः पुनश्चेतसि विनिवशनम् / भावनायाः प्रकर्षों भाव्यमानार्थाभासस्य ज्ञानस्य स्फु. टामत्वारम्भः / प्रकर्षस्य पर्यन्तो यदा स्फुटाभत्वमीषदसम्पूर्ण भवति / यावद्धि स्फुटामत्वमपरिपूर्ण तावत्तस्य प्रकर्षगतिः / सम्पूर्ण तु यदा तदा नास्ति प्रकर्षगतिः / ततः सम्पूर्णावस्थायाः प्राक्तन्यवस्था स्फुटाभत्वाकर्षपर्यन्त उच्यते / तस्मात्पर्य १सातरूपेण, ख० सातानुरूपेण / 2 सातादिरूपः, ख० सतरूपः / / 3 'तदा' इति पदं ख० पुस्तक एवोपलभ्यते। . 4 तश्च शानरूपं वेदनं, ख. तत्वज्ञानस्वरूपवेदनम् / 5 चत्वार्यार्यसत्यानि दुःखसमुदयानरोधमार्गसंशकानि / विनिवेशनं स्थापनम् / 7 "भावनायाः" इत्यस्य स्थाने ख० पुस्तकस्य 'भावनयों' सं पाठोऽशुद्धो प्रतीयते / 8 आभासस्य, ख० अवभासस्य / 9 गतिः , ख. गमनम्।
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________________ प्रथमपरिच्छेदः न्ताधज्ज्ञातं भाव्यमानस्य संनिहितस्येव स्फुटतराकारग्राहि ज्ञानंयोगिनः प्रत्यक्षम् / तदिह स्फुटाभत्वारम्भावस्था भावनाप्रकपः / अभ्रकव्यवहितमिव यदा भाव्यमानं वस्तु पश्यति सा प्रकर्षपर्यन्तावस्था / करतलामलकवद्भाव्यमानस्यार्थस्य यद्दर्शनं तद्योगिनः प्रत्यक्षम् / तदि स्फुटाभम् / स्फुटाभत्वादेव च निर्विकल्पकम् / विकल्पविज्ञानं हि सकेतकालदृष्टत्वेन वस्तु गृहच्छन्दससंगयोग्यं गृह्णीयात् / संकेतकालदृष्टत्वं च संकेतकालोत्पन्नज्ञानविषयत्वम् / यथा च पूर्वोत्पन्नं विनष्टं ज्ञानं सम्प्र. त्यसत् / तद्वत्पूर्वविनष्टज्ञानविषयत्वमपि सम्प्रति नास्ति वस्तुनः / तदसद्रूपं वस्तुनो गृहदसंनिहितार्थग्राहित्वादस्फुटाभम् / अस्फुटाभत्वादेव च सविकल्पकम् / ततः स्फुटाभत्वानिर्विकल्पकम् / प्रमाणशुद्धार्थग्राहित्वाच्च संवादकम् / अतः प्रत्यक्षम् / इतरप्रत्यक्षवत् / योगः समाधिः / स यस्यास्ति स योगी। तस्य ज्ञान प्रत्यक्षम् / इति शब्दः परिसमाप्तयर्थः / इय. देव प्रत्यक्षमिति / तदेवं प्रत्यक्षस्य कल्पनापोढत्वाभ्रान्तत्वयुक्तस्य प्रकारभदं अतिपाद्य विषयविमतिपत्तिं निराकर्तुमाह तस्य विषयः स्वलक्षणम् / तस्य चतुर्विधप्रत्यक्षस्य विषयो वोद्धव्यः / स्वलक्षणम् / 1 यस्मिन् काले संकेत उत्पद्यते तस्मिन्नेव काले तस्य ज्ञानवियित्वं संकेतकालोत्पन्नशानाविषयत्वम् / , 2 'अर्थ' इति पाठो स्व० पुस्तके न विद्यते / 3. 'एव च' इति पाठो ख० पुस्तक एवोपलभ्यते। 4 परिसमाप्त्यर्थः, ख० परिसमाप्तिवचनम् / 5 चतुर्विध०, ख० चतुर्विधस्य /
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________________ 12 न्यायबिन्दु स्वमसाधारणं लक्षणं तत्त्वं स्वलक्षणम् / वस्तुनो धमाधारणं च तत्त्वमस्ति सामान्यं च / यदसाधारणं तत्प्रत्यक्षग्राह्यम् / द्विविधो हि प्रमाणस्य विषयो ग्राह्यश्च यदाकारमुत्पद्यते / पापणीयश्च यमध्यवस्यति / अन्यो हि ग्राह्योऽन्यश्चाध्यवसेयः / प्रत्यक्षस्य हि क्षण एको ग्राह्यः / अध्यवसेयस्तु प्रत्यक्षवलोत्पमेन निश्चयेन संतान एव / संतान एव च प्रत्यक्षस्य प्रापणीयः / क्षणस्य प्रापयितुमशक्यत्वात् / तथानुमानमपि स्वप्रतिभासेऽनर्थेऽनयाध्यवसायेन प्रवृत्तेरनर्थग्राहि / स पुनरारोपितोऽर्थो गृह्यमाणः स्वलक्षणत्वेनावसीयते यतस्ततः स्वलक्षणमध्यवसितं प्रवृत्तिविषयोनुमानस्य / अनर्थस्तु ग्राह्यः / तदत्र प्रमाणस्य ग्राह्य विषयं दर्शयता प्रत्यक्षस्य स्वलक्षणं विषय उक्तः / 1 प्रमाणस्य विषयः, ख० विषयः प्रमाणस्य / 2 अध्यवस्यति शास्यत्यित्यर्थः। 3 बौद्धनये विज्ञानमर्थजनितमाकारमर्थस्य ग्राहकम्। तदुत्पत्ति मन्तरेण विषयं प्रति नियमायोगात् / घटज्ञानं घटादेवोत्पद्यत इत्यर्थ ।जनि वं विज्ञानस्य प्रमाणस्य वा। प्रमाणस्य ग्रायो विषय एव तस्यार्थाकारत्वम् / तस्य प्रापणीयो विषय एव तस्यार्थग्राहकत्वम् / 4 अध्यवसेयोऽर्थः / 5 बोद्धमते यत्सत्तत्सर्व क्षणिकम् / यदेकास्मि क्षणे विद्यते तद् द्वितीये क्षणे विनश्यते / जीवस्य विषयेऽयि त इत्यमेव प्राहुः / एक स्मि प्राणिन्येकस्मिन्क्षणे यो जीवा विद्यते स क्षणान्तरमेव विनश्यते। द्वितीयक्षणे तस्य सन्तानमात्रमवशिष्यते / आदानप्रदानादीनां स्मृ तिरूपव्यवहारस्तु संस्काराजायते / ६न कोऽपि प्रत्यक्षेण क्षणं प्रापयितुं शक्यः / तस्यात्यन्त धमत्वात् / अत एवाविद्याप्रत्ययेन पूर्ववदिवावभासयन्सन्तान एव प्रत्यक्षस्य प्रापणीयः। 7 अनर्थाध्यवसायेन, ख० अर्थाध्यवसायेन /
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________________ प्रथमपरिच्छेदः कः पुनरसौ विषयो' ज्ञानस्य यः स्वलक्षणं प्रतिपत्तव्य इत्याहयस्यार्थस्य संनिधानासंनिधानाभ्यां ज्ञान. प्रतिभासभदस्तत्स्वलक्षणम् / अर्थशब्दो विषयपर्यायः / यस्य ज्ञानविषयस्य / समिधानं निकटदेशावस्थानम् / असनिधानं दूरदेशावस्थानम् / तस्मात्सनिधानादसनिथानाच ज्ञानप्रतिभासस्य ग्राह्याकारस्य भेदः स्फुटत्वास्फुटत्वाभ्याम् / यो हि ज्ञानस्य विषयः सन्निहितः सन्स्फुट. माभास ज्ञानस्य करोति / असन्निहितस्तु योग्यदेशावस्थित एवास्फुटं करोति तत्स्वलक्षणणम् / सर्वाण्येव हि वस्तूनि दुरादस्फुटानि दृश्यन्ते / समीपे स्फुट नि / तान्येव स्वलक्षणानि / कस्मात्पुनः प्रत्यक्षविषय एव स्वलक्षणम् / तथा हि विक. ल्पविषयोपि वह्निदृश्यात्मक एवासीयत इत्याह-- तदेव परमार्थसतु / परमार्थोऽकृत्रिममनारोपितं रूपम् / तेनास्तीति परमार्थस। य एवार्थः सविधानासन्निधानाभ्यां स्फुटमस्फुटं च प्रति. जासं करोति परमार्यसन्स एव / स एवं च प्रत्यक्षाविषयो यततस्मात्तदेव स्वलक्षणम् / कस्मात्पुनस्तदेव परमार्थसदित्याह-- ___ अर्थकियासामथ्यर्लक्षणत्वाद्वस्तुनः / अर्थ्यत इत्यर्थः / हेय उपादेयश्च / हेयो हि हातुमिष्यत १ज्ञातव्यः। 2 ज्ञानस्य, ख० शान / 3 सन् , ख० स / 4 निश्चीयते। 5 एवं' इति पदं ख. पुस्तक एवोपलभ्यते /
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________________ * न्यायविन्दुः उपादेयश्चोपादातुम् / अर्थस्य प्रयोजनस्य क्रिया निष्पत्तिस्तस्या सामर्थ्य शक्तिस्तदेव लक्षणं रूपं यस्य वस्तुनस्तदक्रियासाम. Wलक्षणम् / तस्य भावः / तस्माद्वस्तु शब्दः परमार्थसत्पर्यायः / तदयमर्थो यस्मादर्थक्रियासमर्थ परमार्थसदुच्यते सनिधानासन्निधानाभ्यां च ज्ञानप्रतिमासस्य भेदकोऽर्थोऽर्थक्रियासमा र्थः / तस्मात्स एव परमार्थसत् / तत एव हि प्रत्यक्षविषयादर्थक्रिया प्राप्यते / न विकल्पविषयात् / अत एव यद्यपि विकल्पविषयो दृश्य इवावसीयते तथापि न दृश्य एव / ततोयकियाभावात् / दृश्याच भावात् / अतस्तदेव स्वलक्षणं.न विकल्पविषयम् / अन्यत्सामान्यलक्षणम् / एतस्मात्स्वलक्षणाचदन्यत्स्वलक्षणं यो न भवति ज्ञानवि; पयस्तत्सामान्यलक्षणम् / विकल्पविज्ञानेनावसीयमानो ह्यर्थः सन्निधानासन्निधानाभ्यां ज्ञानप्रतिज्ञासं न भिनत्ति / तथा ह्यारोप्यमाणो वहिरारोपादस्ति / आरोपाच्चदूरस्थो निकटस्थश्व | तस्य समारोपितस्य सन्निधानादसन्निधानाच ज्ञानप्रतिभासस्य न भेदः स्फुटत्वेनास्फुटत्वेन वा / ततः स्वलक्षणादन्य उच्यते / सामान्येन लक्षणं सामान्यलक्षणम् / साधारणं रूपमित्यर्थः / समारोप्यमाणं हि रूपं सकलवीहसाधारणम् / ततस्तसामान्यलक्षणम्। 1 यदेवार्थक्रियाकारी तदेव परमार्थसत् / नित्यं नार्थक्रियाक रीतन्त्र तत्परमार्थसत्। 2 तत्सामान्यलक्षणम् , ख. तस्मात्सामान्यलक्षणम् / 3 नीश्चीयमानः। 4 ततस्तत्समान्यलक्षणम् , ख. ततस्तस्मात्सामान्य लक्षणम्
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________________ प्रथमपरिच्छेदःसच्चानुमानस्य ग्राह्यं दर्शयितुमाह-- सोऽनुमानस्य विषयः / . सोऽनुमानस्य विषयो ग्राह्यरूपः / सर्वनाम्नोऽभिधेयवल्लिङ्ग परिग्रहः / सामान्यलक्षणम् / अनुमानस्य विषयं व्याख्यातुकामेनायं स्वलक्षणस्वरूपाख्यानग्रन्थ आवर्तनीयः स्यात् / ततो लाघवार्थ प्रत्यक्षपरिच्छेद एवानुमानविषय उक्तः / विषयावप्रतिपतिं निराकृत्य फलविप्रतिपत्तिं निराकर्तुमाह-- तदेव च प्रत्यक्ष ज्ञानं प्रमाणफलमर्थप्रतीतिरूपत्वात् / यदेवानन्तरमुक्तं प्रत्यक्षं तदेव प्रमाणस्य फलम् / कथं प्रमाणफलमित्याह / अर्थस्य प्रतीतिरवर्गमः / सैव रूपं यस्य प्रत्यक्षज्ञानस्य तदर्थप्रतीतिरूपम् / तस्य भावः। तस्मादेतदुक्तं भवति / प्रापकं ज्ञानं प्रमाणं / प्रापणशक्तिश्च न केवलादर्थाविनाभावित्वाद्भवति / बीजाद्यविनाभाविनोप्यरादेरमापकत्वात् / तस्मादादुत्पत्तावप्यस्य ज्ञानस्यास्ति कश्चिदवश्यकर्त्तव्यः मापकव्यापारः / येन कृतेनार्थः प्रापितो भवति / स एव च प्रमागफलम् / यदनुष्ठानात्तापकं भवति ज्ञानम् / उक्तं च पुरस्ता. प्रवृतिविषयप्रदर्शनमेव मापकस्य प्रापकव्यापारो नाम / तदेव च प्रत्यक्षमर्थप्रतीतिरूपमर्थदर्शनरूपम् / अतस्तदेव प्रमाणफलम् / / यदि तर्हि ज्ञानं प्रमितिरूपत्वात्प्रमाणफलं किं तर्हि प्रमाणमित्याह अर्थसारूप्यमस्य प्रमाणं / अर्थेन सह यत्सारूप्यं सादृश्यमस्य ज्ञानस्य तत्प्रमाणमिह / १पुनः कथनीयः स्यात् / 3 अवगमो शानम् / .. 2 अर्थात् , ख० प्राथादर्थात् / . 3 अर्थदर्शन०, ख० अर्थप्रदर्शन। ४सादृश्यम् , ख० यत्साहश्यम् / .
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________________ न्यायविन्दुः यस्माद्विषयाज्ज्ञांनमुदेति तद्विषयसदृशं तद्भवति / यथा नीलादुत्पद्यमानं नीलसदृशम् / तञ्च सारूप्यं सादृश्यमाकार इत्याभास इत्यपि व्यपदिश्यते / .. ननु च ज्ञानादव्यतिरिक्तं सादृश्यम् / तथा च सति तदेव ज्ञानं प्रमाणम् / तदेव प्रमाणफलम् / न चैकं वस्तु साध्यं सा. धनं चोपपद्यते / तत्कथं सारूप्यप्रमाणमित्याह तहशादर्थप्रतीतिसिद्धेरिति / तदिति सारूप्यं तस्य वशात्सारूप्यसामर्थ्यात् / अर्थस्य प्रतीतिरववोधस्तस्याः सिद्धिः / तत्सिद्धेः कारणात् / अर्थस्य प्रतीतिरूपं प्रत्यक्षं विज्ञानं सारूप्यवशासिध्यति प्रतीतं भवतीत्यर्थः / नीलनिर्भासं हि विज्ञानं यतस्तस्मानीलस्य प्रतीतिरवसीयते / येभ्यो हि चक्षुरादिभ्यो विज्ञानमुत्पद्यते न तद्वशातज्ज्ञानं नीलस्य संवेदनं शक्यतेऽवस्थापयितुम् / नीलसदृशं त्वनुभूयमानं नीलस्य संवेदनमवस्थाप्यते / न चात्र जन्यजनकभावनिबन्धनः साध्यसाधनभावः येनैकस्मिन्वस्तुनि विरोधः स्यात् / अपि तु व्यवस्थाप्यव्यवस्थापकभावेन / तत एकस्य वस्तुनः किंचिद्रूपं प्रमाणं किंचित्प्रमाणफलं न विरुध्यते / व्यवस्थापनहेतुर्हि सारूप्यम् / तस्य ज्ञानस्य व्यवस्थाप्यं च नील. संवेदनरूपम् / व्यवस्थाप्यव्यवस्थापकभावोऽपि कथमेकस्य 1 ज्ञानं, ख. विज्ञानम् / 2 विज्ञानमर्थजानतमर्थाकारमर्थस्य च ग्राहकमिति यदुक्तं पुरस्तादस्माभिः / 3 'सारूप्यम्' इति पदं ख० पुस्तक एवोपलभ्यते / 4 कथ्यते। 5 तत्सिद्धः, ख० ततः सिद्धेः। 6 विज्ञानम् , ख० शानम् / 7 यत्र त्वेकस्मिन्नेव वस्तुनि जन्यजनकभावनिबन्धनः साध्यसाधनभावो भवति तत्र विरोध आपद्यते। अत्र तु व्यवस्थाप्यव्यवस्था पकभावोऽस्ति / अत एवात्र न कश्चिदिरोगा।
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________________ 27 प्रथमपरिच्छेदः झानस्येति चेदुच्यते / सदृशमनुभूयमानं तद्विज्ञानम् / यतो नीलस्य ग्राहकमवस्थाप्यते निश्चयप्रत्ययेन / तस्मात्सारूप्यमनुभूतं व्यवस्थापनहेतुः / निश्चयप्रत्ययेन च तज्ज्ञानं नीलसंवेदनमव. स्थाप्यमानं व्यवस्थाप्यम् / तस्मादसारूप्यव्यावृत्या सारूप्यं ज्ञानस्य व्यवस्थापनहेतुः / अनीलवोधव्याच्या च नीलबोधरूपत्वं व्यवस्थाप्यम् / व्यवस्थापकश्च विकल्पप्रत्ययः प्रत्यक्षबलोत्पन्नो द्रष्टव्यः। ननु निर्विकल्पकत्वात्प्रत्यक्षमेव नीलबोधरूपत्वेनात्मानमव. स्थापयितुं शक्नोति / निश्चयप्रत्ययेनाव्यवस्थापितं सदपि नील. बोधरूपं विज्ञानमसत्कल्पमेव / तस्मानिश्चयेन नीलबोधरूपं व्यवस्थापितं विज्ञानं नीलबोधात्मना सद्भवति / तस्मादध्यवसायं कुर्वदेव प्रत्यक्षं प्रमाणं भवति / अकृते त्वध्यवसाये नीलबोधरूपत्वनाव्यवस्थापितं भवति विज्ञानम् / तथा च प्रमाणफल. मर्थाधिगमरूपत्वमनिष्पन्नम् / अतः साधकतमत्वाभावात्प्रमा. णमेव न स्याज्ज्ञानम् / जनितेन त्वध्यवसायेन सारूप्यवशात्रीलबोधरूपे ज्ञानेऽवस्थाप्यमाने सारूप्यं व्यवस्थापनहेतुत्वात्यमाणं सिद्धं भवति / यद्येवमध्यवसायसहितमेव प्रत्यक्ष प्रमाणं स्यान केवलमिति चेत् / नैतदेवम् / यस्मात्प्रत्यक्षबलोत्पनेनाध्यवसायेन दृष्टत्वेनाऽर्थोऽवसीयते नोत्प्रेक्षितत्वेन / दर्शनं चार्थसाक्षात्करणाख्यं प्रत्यक्षन्यापारः / उत्प्रेक्षणं तु विकल्पव्यापारः / 1 'इति' इति पदं ख० पुस्तक एवोपलभ्यते / 2 रूपत्वं, स्व० रूपम् / 3 अवस्थाप्यमाने, ख० व्यवस्थाप्यमाने / 4 दर्शनं, ख० अदर्शनं ( 0 त्वेनादर्शनं ) / 5 'तु' इति पाठो ख० पुस्तके नैवोपलभ्यते।
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________________ न्यायबिन्दुः तथा हि परोक्षमर्थ विकल्पयन्त उत्प्रेक्षामहे न तु पश्याम इत्यु. प्रेक्षात्मकं विकल्पव्यापारमनुभवादवस्यन्ति / तस्मात्स्वव्यापार तिरस्कृत्य प्रत्यक्षव्यापारमादर्शयति / यत्रार्थे प्रत्यक्षपूर्वकोऽध्य. वसायस्तत्र प्रत्यक्षं केवलमेव प्रमाणम् // इति न्यायविन्दुटीकायां प्रथमः परिच्छेदः समासः / / ARH Ent Thair MORA 1 अवस्यन्ति, ख० अध्यवस्यान्त / 2 'मङ्गलमस्तु' इत्यधिको पाठो विद्यते क० पुस्तके / ख० "इति आचार्यधर्मोत्तरविरचितायां न्यायविन्दुटीकायां प्रत्यक्षपरिच्छेदः प्रथमः।"
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________________ अथ द्वितीयपरिच्छेदः / एवं प्रत्यक्ष व्याख्यायानुमानं व्याख्यातुमाह अनुमानं द्विधा। द्विप्रकारकम् / अथानुमानलक्षणे वक्तव्ये किमकस्मात्प्रकारभेदः कथ्यते / उच्यते / परार्थानुमानं शब्दात्मकं स्वार्थानुमान तु ज्ञानात्मकम् / तयोरत्यन्तभेदान्नकं लक्षणमस्ति / ततस्तयोः प्रतिनियतं लक्षणमाख्यातुं प्रकारभेदः कथ्यते / प्रकारभेदो हि व्यक्तिभेदः / व्यक्तिभेदे च कथिते प्रतिव्यक्तिनियतं लक्षणं शक्यते वक्तुम् / नान्यथा / ततो लक्षणनिर्देशाङ्गमेव प्रकारभेदकथनम् / अशक्यतां च प्रकारभेदकथनमन्तरेण लक्षणनिर्देशस्य ज्ञात्वा प्राक्प्रकारभेदः कथ्यत इति / किं पुनस्तदैविध्यामित्याह-- स्वार्थ परार्थं च / स्वस्मायिद स्वार्थम् / येन स्वयं प्रतिपद्यते तत्स्वार्थम् / परस्मायिदं परार्थम् / येन परं प्रतिपादयति तत्परार्थम् / / तत्र स्वार्थं त्रिरूपाल्लिङ्गाद्यदनुमेये ज्ञानं तदनुमानम् / ___ तत्र तयोः स्वार्थपरार्थानुमानयोर्मध्ये स्वार्थ ज्ञानं किंविशिटमित्याह-त्रिरूपादिति / त्रीणि रूपाणि यस्य वक्ष्यमाणलक्षणा. नि तत्रिरूपम् / लिङ्यते गम्यतेऽनेनार्थ इति लिङ्गम् / तस्मा 1 व्याख्यातुकामः / 4 कथयितुम् / 2 विभिन्नत्वात् / ५निर्देशार्थमेव / 3 निश्चितम् /
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________________ न्यायविन्दुः त्रिरूपाल्लिङ्गाधज्जातं ज्ञानमिति / एतद्धतुद्वारण विशेषणम् / तत्रिरूपाच लिङ्गात्तिरूपलिङ्गालम्बनमप्युत्पद्यत इति विशिनष्टि / अनुमेय इति / एतच्च विषयद्वारेण विशेषणम् / त्रिरूपाल्लिङ्गाधदुत्पन्नमनुमेयालम्बनं ज्ञानं तत्स्वार्थमनुमानमिति / लक्षणविप्रतिपत्तिं निराकृत्य फलविप्रतिपत्तिं निराकर्तुमाह-- प्रमाणफलव्यवस्थात्रापि प्रत्यक्षवत् / . प्रमाणस्य यत्फलं तस्य या व्यवस्थात्रानुमानेऽपि प्रत्यक्षवत्प्रत्यक्ष इव वेदितव्या / यथा हि नीलसरूपं प्रत्यक्षमनुभूयमानं नीलबोधरूपमवस्थाप्यते / तेन नीलसारूप्यं व्यवस्थापनहेतुः प्रमाणम् / नीलबोधरूपं तु व्यवस्थाप्यमानं प्रमाणफलम् / तद्वदनुमानं नीलाकारमुत्पद्यमानं नीलबोधरूपमवस्थाप्यते / तेन नीलसारूप्यमस्य प्रमाणम् / नीलविकल्पनरूपं त्वस्य प्रमाणफ. लम् / सारूप्यवशाद्धि तन्नीलप्रतीतिरूपं सिध्यति / नान्यथेति / एवमिह संख्यालक्षणफलाविप्रतिपत्तयः / प्रत्यक्षपरिच्छेदे तु गोचरविप्रतिपत्तिनिराकृता / लक्षणनिर्देशप्रसङ्गेन तु त्रिरूपं लिङ्गं प्रस्तुतम् / तदेव व्याख्यातुमाह-- त्रैरूप्यम् पुनः। लिङ्गस्य यश्वरूप्यं यानि त्रीणि रूपाणि तदिदमुच्यत इति शेषः। 1 प्रत्यक्षवत्प्रत्यक्ष इव / लिखितपुस्तकयोः प्रत्यक्ष इव प्रत्यक्षवत्। सम्भवतोऽनावश्यकतयायं पाठः न संस्कृतः। 2 पदमिदं ख० पुस्तके न विद्यते / 3 यद्यपि सूत्रमिदमपरिपूर्णमिवावलोक्यते, तथापि नात्र द्वितीयं सूत्रं स्थापयितुं शक्नुमस्तावमात्रस्यैव त्रैरूप्यत्वाभावात् /
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________________ द्वितीयपरिच्छेदः किंपुनस्तत्ररूप्यामित्याह-- लिङ्गस्यानुमेये सत्त्वमेव / अनुमेयं वक्ष्यमाणलक्षणम् / तस्मिंल्लिङ्गस्य सत्त्वमेव निश्चितमेकं रूपम् / यद्यपि चात्र निश्चितग्रहणं न कृतं तथाप्यन्ते कृतं प्रक्रान्तयोयोरपि रूपयोरपेक्षणीयम् / यतो न योग्यतया लिङ्गं परोक्षज्ञानस्य निमित्तम्। यथा बीजमङ्कुरस्य / अदृष्टाळूमादग्नरप्रतिपत्तेः / नापि स्वविषयज्ञानापेक्षं परोक्षार्थप्रकाशन. म् / यथा प्रदीपो घटादेः / दृष्टादप्यानश्चितसम्बन्धादप्रतिपत्तेः। तस्मात्परोक्षार्थनान्तरीयकतया निश्चयनमेव लिङ्गस्य परोक्षार्थप्रतिपादनव्यापारः। नापरः कश्चित् / अतोऽन्वयव्यतिरेकपक्षधर्मत्वनिश्चयो लिङ्गव्यापारात्मकत्वादवश्यकत्र्तव्य इति सर्वेषु रूपेषु निश्चितग्रहणमपेक्षणीयम् / तत्र सत्त्ववचनेनासिद्धं चाक्षुषत्वादि निरस्तम् / एवकारेण पक्षैकदेशॉसिद्धः निरस्तो हेतुः / यथा चेतनास्तरवः स्वापादिति।पक्षीकृतेषु तरुषु पत्रसंकोचलक्षणः स्वाप एकदेशेन सिद्धः। न हि सर्वे वृक्षा रात्रौ पत्रसंकोचभाजः। किं तु कोचदेव / सत्ववचनस्य पश्चात्कृतेनैवकारेणासाधारणो धर्मो निरस्तः / यदि हनुमेय एव सत्त्वमिति कुर्याच्छ्रावणत्वमेव हेतुः स्यात् / निश्चितग्रहणेन संदिग्धासिद्धः सर्वो निरस्तः / ___.. सपक्ष एव सत्त्वम् / / सपक्षो वक्ष्यमाणलक्षणः / तस्मिन्नेव सत्त्वं निश्चितं द्वितीयं रूपम् / इहापि सत्त्वग्रहणेन विरुद्धो निरस्तः / से हि नास्ति सपक्षे / एवकारेण साधारणानकान्तिकः / अनित्यः शब्दः प्रमे१ "तत्" इति पदं क० पुस्तके नैवोपलभ्यते / 2 निरस्तम् ,ख० निषिद्धम् / 3 "निरस्तो हेतुः" इति पाठः ख• पुस्तक एव विद्यते / 4 कुर्यात् , ख० ब्रूयात् / 5 विरुद्धः।
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________________ न्यायविन्दुः. यत्वात् / स हि न सपक्ष एवं वर्तते किं तूभयत्रापि / सत्त्वग्रहणात्पूर्वावधारणवचनेन सपक्षच्यापिसत्ताकस्यापि प्रयत्नानन्त. रीयकस्य हेतुत्वं कथितम् / पश्चादवधारणे त्वयमर्थः स्यात् / सपक्षे सत्त्वमेव यस्य स हेतुरिति प्रयत्नानन्तरीयकत्वं न हेतुः स्यात् / निश्चितवचनेन संदिग्धान्वयोऽनैकान्तिको निरस्तः। यथा सर्वज्ञः कश्चिद्वक्तृत्वात् / वक्तृत्वं हि सपक्षे सर्वज्ञे संदिग्धम् / असपक्षे चासत्त्वमेव निश्चितम् / / असपक्षो वक्ष्यमाणलक्षणः / तस्मिन्नसत्त्वमेव निश्चितं तृतीय रूपम् / तत्रासत्वग्रहणेन विरुद्धस्य निरासः / विरुद्धो हि विपक्षेऽस्ति / एवकारेण साधारणस्य विपक्षैकदेशवृत्तेनिरासः / निर्त्यः शब्दः कृतकत्वात् खंवत् / प्रयत्नानन्तरीयकत्वे साध्ये ह्यनित्यत्वं विपक्षकदेशे विद्युदादावस्त्याकाशादौ नास्ति / ततो नियमेनास्य निरासः। असत्त्ववचनात्पूर्वस्मिन्नवधारणेऽयमर्थः स्यात् / विपक्ष एव यो नास्ति स हेतु / तथा च प्रयत्नानन्तरी 1 वाक्यमिदं ख० पुस्तक एवोपलभ्यते / 2 साधारणानकान्तिकः। 3 पक्षे सपक्षे च / 4 क० पुस्तके 'सपक्षव्यापिसत्ताकस्य' इत्यस्य स्थाने 'सपक्ष ऽव्यापिसत्ताकस्य' इति पाठो विद्यते / यच्च मुद्रितपुस्तकस्य सम्पादकस्य सम्मतौ "सपक्ष" इत्यस्य “सपक्षा" इति संस्कृतरूपोऽस्ति / अस्माकं सम्मतौ तु ''इति चिह्नो ऽसावधानतयैव केनचिल्लेखकेन प्रयुक्तः। 5 तु. क. हि / 6 निश्चितवचनेन, क० निश्चयवचनेन / 7 यद्यत्त्यमरकोशे “सर्वशो सुगतो बुद्धो” इत्येवमादि लिखितमस्ति, तथापि प्रत्यक्षानुमानप्रमाणवादिनस्ते बौद्धाः न कश्चित्सर्व. शमामनन्ति / 8 बाक्यमिदं ख० पुस्तक एवोपलभ्यते। 9 आकाशयत् / 10 असत्त्ववचनात् ,ख० असत्त्वशब्दात् /
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________________ प्रथमपरिच्छेदः 33 यकत्वं सपक्षेऽपि सर्वत्र नास्ति / ततो न हेतुः स्यात् / ततः पूर्व न कृतम् / निश्चितग्रहणेन संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकोऽनैकान्तिको निरस्तः / ननु च सपक्ष एव सत्चमित्युक्ते विपक्षेऽसत्त्वमेवेति गम्यत एव / तत्किमर्थं पुनरुभयोरुपादनं कृतम् / तदुच्यते / अन्वयो व्यतिरेको वा नियमवानेव प्रयोक्तव्यो नान्यथेति दर्शयितुं द्वयोरप्युपादानं कृतम् / अनियमे हि द्वयोरपि प्रयोगेऽयमर्थः स्यात् / सपक्षे योऽस्ति विपक्षे च नास्ति स हेतुरिति / तथा च सति स श्यामस्तत्पुत्रत्वादृश्यमानपुत्रवदिति तत्पुत्रत्वं हेतुः स्यात् / तस्मानियमवतोरेवान्वयव्यतिरेकयोः प्रयोगः कर्त्तव्यः / येन प्रतिबन्धो गम्येत साधनस्य साध्येन नियमवतोश्च प्रयोगेऽवश्यकर्तव्ये द्वयोरेक एव प्रयोक्तव्यो न द्वाविति नियमवानेवान्वयो व्यतिरेको वा प्रयोक्तव्य इति शिक्षणार्थ द्वयोरुपादनमिति / - त्रैरूप्यकथनप्रसङ्गेनानुमेयः सपक्षो विपक्षश्वोक्तः / तेषां लक्षणं वक्तव्यम् , तत्र कोऽनुमेय इत्याह अनुमेयोऽत्र जिज्ञासितविशेषो धर्मी / अत्र हेतुलक्षणे निश्चेतव्ये धर्म्यनुमेयः / अन्यत्र तु साध्यप्रतिपत्तिकाले समुदायोऽनुमेयः / व्याप्तिनिश्चयकाले तु धर्मोऽ 1 इदं पदं ख० पुस्तके नैवोपलभ्यते। 2 तदुच्यते, ख० उच्यते / 3 'अपि' इति पदं खः पुस्तके नैवोपलभ्यते / 4 अनियमे, ख० नियते। 5 प्रयोक्तव्यः, क० कर्तव्यः / 6 स्वार्थानुमानलक्षणे। ___7 पर्वतोऽयमग्निमान्धूमवत्त्वात्' इत्यास्मिन्ननुमाने धूमलक्षणोधर्मी वह्निरनुमेयः साध्यत्वात् / / 8 'शब्दो नित्यः कृतकत्वात्' इत्यस्मिन्ननुमाने शब्दे नित्यत्वं सा. ध्यते / अत एवात्र 'शब्दो नित्यः' इति समुदायोऽनुमेयः साध्यत्वात्।
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________________ न्यायबिन्दुः / नुमेय इति दर्शयितुमत्रग्रहणम् / जिज्ञासितो ज्ञातुमिष्टो विशेषो धर्मो यस्य धर्मिणः स तथोक्तः / __का सपक्षः... साध्यधर्मसामान्येन समानोऽर्थः सपक्षः / समानोऽर्थः सपक्षः / समानः सदृशो योऽर्थः पक्षेण से सपक्ष उक्त उपचारात् / समानशब्देन विशेष्यते / समानः पक्ष: सपक्षः / समानस्य च सशब्दादेशः / स्यादेतत् / किं तत्पक्षसपक्षयोः सामान्यं येन समानः सपक्षः पक्षणेत्याह / साध्यधर्मसामान्येनेति / साध्यश्वासावसिद्धत्वाद्धर्मश्च पराश्रितत्वात्साध्यधर्मः / न च विशेषः साध्यः / अपि तु सामान्यम् / अत इह सामान्यं साध्यमुक्तम् / साध्य धर्मश्चासौ सामान्यं चेति साध्य. धर्मसामान्येन समानः पक्षण सपक्षः इत्यर्थः / कोऽसपक्ष इत्याह- . न सपक्षोऽसपक्षः। न सपक्षो ऽसपक्षः / सपक्षो यो न भवति सोऽसपक्षः / कश्च सपक्षो न भवति - ततोऽन्यस्तद्विरुद्धस्तदभावश्चेति / ततः सपक्षादन्यः / तेन च विरुद्धः / तस्य च सपक्षस्याभावः / सपक्षादन्यत्वं तद्विरुद्धत्वं च न तावत्प्रत्येतुं शक्यं याव १'यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्र वह्निः, यत्र वह्निनास्ति तत्र धूमोऽपि नास्ति' इति व्याप्ती धूमसद्भावेऽग्निसद्भावो साध्यः / धूमोऽत्र वढेधमोऽस्ति / स एवात्र साध्यः। अत एव व्याप्तिनिश्चयकाले धर्मोज्नुमेयः। २इदं पदं क० पुस्तके न विद्यते। 3 सामान्यम् ,ख० साम्यम् / , 4 "च" इति पदं स्व. पुस्तके न विद्यते / .. 5 तद्विरुद्धत्वं, ख० च विरुद्धत्वम् /
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________________ प्रथमपरिच्छेदः सपक्षस्वभावाभावो न विज्ञातः / तस्मादन्यत्वविरुद्धत्वप्रतीति. सामर्थ्यात्सपक्षाभावरूपौ प्रतीतावन्यविरुद्धौ / ततोऽभावः साक्षा. सपक्षाभावरूपः प्रतीयते / अन्यविरुद्धौ तु सामर्थ्यादभावरूपौ . प्रतीयते / ततखयाणामप्यसपक्षत्वम् / त्रिरूपाणि च। उक्तेन त्रैरूप्येण त्रिरूपाणि च त्रीण्येव लिङ्गानीति चकारो वक्तव्यान्तरसमुच्चयार्थः / त्रैरूप्यमादौ पृष्टं त्रिरूपाणि च लिङ्गानि परेण। तत्र त्रैरूप्यमुक्तम् / त्रिरूपाणि चोच्यन्ते / . त्रीण्येव च लिङ्गानि त्रीण्येव त्रिरूपाणि लिङ्गानि / त्रयस्त्रिरूपलिङ्गप्रकारा इत्यर्थः / कानि पुनस्तानीत्याह- . अनुपलब्धिः स्वभावकार्ये चेति / प्रतिषेध्यस्य साध्यस्यानुपलब्धिस्त्रिरूपा / विधेयस्य साध्यस्य स्वभावस्त्रिरूपः / कार्य च। अनुपलब्धिमुदाहर्तुमाह-- तत्रानुपलब्धिर्यथा न प्रदेशविशेषे क्वचिद्घट . __ उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्यानुपलब्धेरिति / यथेत्यादि / यथेत्युपप्रदर्शनार्थम् / यथेयमनुपलब्धिस्तथान्यापि / न त्वियमेवेत्यर्थः / प्रदेश एकदेशः। विशिष्यत इति विशेषः प्रतिमत्तृप्रत्यक्षः / तादृशश्च न सर्वः प्रदेशः। तदाह क्वचिदिति / प्रतिपतृप्रत्यक्षे क्वचिदेव प्रदेश इति धर्मी / न घट इति साध्यम् / उपलब्धिर्ज्ञानम् / तस्या लक्षणं जनिका / 1 उपलब्धिानम् / तस्या लक्षणं जनिका सामग्री, कल उपल विधवानं तस्य लक्षणं / जानका सामग्री। -
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________________ न्यायविन्दुः सामग्री / तया बनुपलब्धिलक्ष्यते / तत्माप्तोऽर्थो जनकत्वेन सामग्रथन्तर्भावादुपलब्धिलक्षणप्राप्तो दृश्य इत्यर्थः / तस्यानु पलब्धेरित्ययं हेतुः / अथ यो यत्र नास्ति स कथं तत्र दृश्यः / दृश्यत्वसमारोपादसन्नपि दृश्य उच्यते। यश्चैवं संभाव्यते ययसावत्र भवेदृश्य एव भवेदिति स तत्राविद्यमानोऽपि दृश्य: समारोप्यः / कश्चैवं संभाव्यः / यस्य समग्राणि स्वालम्बनदर्शनकारिणानि भवन्ति / कदा च तानि समग्राणि गम्यन्ते / यदैकज्ञानसंसर्गिवस्त्वन्तरोपलम्भः / एकेन्द्रियज्ञानग्राह्य लोचनादि. प्रणिधानाभिमुखं वस्तुद्वयमन्योन्यापेक्षमेकज्ञानसंसर्गि कथ्यते / तयोहि सतो कनियता भवति प्रतिपत्तिः। योग्यताया द्वयोरप्यविशिष्टत्वात् / तस्मादेकज्ञानसंसर्गिणि दृश्यमाने सत्येकस्मित्रितरत्समग्रदर्शनसामग्रीकं यदि भवेश्यमेव भवेदिति संभा वितं दृश्यमारोप्यते। तस्यानुपलम्भो दृश्यानुपलम्भः / तस्मा स एव घटविविक्तप्रदेशस्तदालम्बनं च ज्ञानं दृश्यानुपलम्भनिश्चयहेतुत्वादृश्यानुपलम्भ उच्यते / यावद्धयेकज्ञानसंसर्गि वस्तु न निश्चितं तज्ज्ञानं च न तावश्यानुपलम्भनिश्चयः / ततो वस्त्वप्यनुपलम्भ उच्यते तज्ज्ञानं च / दर्शननिटीत्तमात्रं तु स्वयमनिश्चितत्वादगमकम् / ततो दृश्यघटरहितः प्रदेशस्त. ज्ज्ञानं च वचनसामर्थ्यादेव दृश्यानुपलम्भरूपमुक्तं द्रष्टव्यम् / का पुनरुपलब्धिलक्षणप्राप्तिरित्याह-- उपलब्धिलक्षणप्राप्तिरुपलम्भप्रत्ययान्तरसाकल्यं स्वभावविशेषश्व / 1 कथ्यते, ख० गम्यते / 2 दृश्यं, ख० दृश्यत्वम् / 3 घटविविक्त० , ख. घटादिविविक्त / 4 वस्तु न निश्चितं तज्ज्ञानं च, ख० वस्तु तज्ज्ञानं चा (अशुद्धः) न निश्चितम् / 5 ततो दृश्यघटरहितः, ख० ताशघटरहितः /
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________________ प्रथमपरिच्छेदः उपलब्धिलक्षणप्राप्तिरुपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वं घटस्य / उपलम्भप्रत्ययान्तरसाकल्यमिति / ज्ञानस्य घटोऽपि जनकः / अन्ये च चक्षुरादयः / घटादृश्यादन्ये हेतवः प्रत्ययान्तराणि / तेषां साकल्यं संनिधिः / स्वभाव एव विशिष्यते तदन्यस्मादिति विशेषो विशिष्ट इत्यर्थः / तदयं विशिष्टः स्वभावः प्रत्ययान्तरसाकल्यं चैतद्वयमुपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वं घटादेष्टव्यम् / कीदृशः स्वभावविशेष इत्याह-- यः स्वभावः सत्स्वन्येषूपलम्भप्रत्ययेषु यत्प्रत्यक्ष ___ एव भवति स स्वभावः / सत्स्वित्यादि / उपलम्भस्य यानि घटादृश्यात्प्रत्ययान्तः राणि तेषु सत्सु विद्यमानेषु यः स्वभावः सन्प्रत्यक्ष एव भवति स स्वभावविशेषः / तदयमत्रार्थः / एकप्रतिपत्तपेक्षमिदं प्रत्यक्षलक्षणम् / तथा च सति द्रष्टुं प्रवृत्तस्यैकस्य द्रष्टुदृश्यमान उभयवान्भावः / 1 / अदृश्यमानास्तु देशकालस्वभावविप्रकृष्टाः स्वभावविशेषरहिताः प्रत्ययान्तरसाकल्यवन्तस्तु / यैर्हि प्रत्ययैः स द्रष्टा पश्यति ते संनिहिताः / अतश्च संनिहिताय द्रष्टुं प्रवृत्तः सः / 2 / द्रष्टुमप्रवृत्तस्य तु योग्यदेशस्था अपि द्रष्टुं ते न शक्याः / प्रत्ययान्तरवैकल्यवन्तः स्वभावविशेषयुक्तास्तु / 3 / दूरदेशकालास्तूभयविकलाः / 4 // तदेवं पश्यतः कस्यचित्र प्रत्ययान्तरविकलो नाम / 1 / स्वभावविशपविकलस्तु भवेत् / 2 / अपश्यतस्तु शक्यो द्रष्टुं योग्यदेशस्थः प्रत्ययान्तरविकलः 1 उपलम्भप्रत्ययान्तरसाकल्यस्वभावविशेषवान् / 2 क० पुस्तकस्य "आतश्च” इति पाठो ऽशुद्धोः प्रतीयते / ख. अतश्च सन्निहिता यद्रष्टुं प्रवृत्ताः (अशुद्धः) स। 3 पश्यतः कस्यचित् पुरुषस्य न प्रत्ययान्तरविकलत्वं भवति /
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________________ 38 न्यायविन्दुः / / अन्ये तूभयविकला इति / 4 / अनुपलब्धिमुदाहृत्य स्वभावमुदाहर्तुमाहस्वभावः स्वसत्तामात्रभाविनि साध्यधर्मे हेतुः / स्वभावो हेतुरिति सम्बन्धः। कीदृशो हेतुः साध्यस्यैवे स्वभाव इत्याह / स्वस्यात्मनः सत्ता सैव केवला. स्वसत्तामात्रम् / तस्मिन्सति भवितुं शीलं यस्येति / यो हेतोरात्मनः सत्तामपेक्ष्य विद्यमानो भवति न तु हेतुसत्ताया व्यतिरिक्त कश्चिद्धेतुमपेक्षते से स्वसत्तामात्रभावी साध्यः / तस्मिन्साध्ये यो हेतुः स स्वभावः / तस्य साध्यस्य नान्यः / उदाहरणम् यथा वृक्षोऽयं शिंशपात्वादिति / ___अयमिति धर्मी / वृक्ष इति साध्यम् / शिशपात्वादिति हेतुः / तदयमर्थो वृक्षव्यवहारयोग्योऽयं शिंशपाव्यवहारयोग्यत्वादिति / तत्र प्रचुरशिंशपे देशेऽविदितशिंशपाव्यवहारो जडो यदो केनचिदुचां शिंशपामुपदिश्र्योच्यते अयं वृक्ष इति तदासौ जाड्याच्छिशपाया उच्चत्वमपि वृक्षव्यवहारनिमित्तमवस्यति / तदा 1 ख० पुस्तकेऽत्राङ्काः न विद्यन्ते / 2 साध्यस्यैव स्वभाव, ख० साध्यस्य भावः / 3 इदं पदं क० पुस्तके नैवोपलभ्यते / 4 शिंशप०, क. प्रथमस्थाने "सिंसप" द्वितीयस्थाने च "शिशप" इति लिखति / द्वितीयपंक्तावप्यिदमेव, “प्रचुरसिंसपे" किन्तु "अविदितशिंशपा।" 5 यदा, ख० यथा / 6 उपादय, ख० उपदर्य / ७वृक्षव्यवहारनिमित्तं, ख० वृक्षव्यवहारस्य निमित्तम् /
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________________ द्वितीयपरिच्छेदः यामेवानुच्चा शिंशपां पश्यति तामेवावृक्षमवस्यति / स मूढः शिंशपात्वमात्रनिमित्ते वृक्षव्यवहारे प्रवर्त्यते / नोचत्वादि निमित्तान्तरमिह वृक्षव्यवहारस्य / अपि तु शिंशपात्वमा निमित्तं शिंशपागतशाखादिमत्त्वं निमित्तमित्यर्थः / कार्यमुदाहर्तुमाह-- कार्य यथाग्निरत्र धूमादिति / अग्निरिति साध्यम् / अत्रेति धर्मी / धूमादिति हेतुः / कार्यकारणभावो लोके प्रत्यक्षानुपलम्भानिवन्धनः प्रतीत इति न स्वभावस्येव कार्यस्य लक्षणमुक्तम् / ननु त्रिरूपत्वादकमेव लिङ्गमयुक्तम् / अथ प्रकारभेदान्दः। एवं सति स्वभावहेतोरेकस्यानन्तप्रकारत्यानित्वमयुक्तमित्याह-- अत्र द्वौ वस्तसाधनौ। अत्रेति एषु त्रिषु हेतुषु मध्ये द्वौ हेतू वस्तुसाधनौ विधेः सधिनौ गमको। एकः प्रतिषेधहेतुः / एकः प्रतिषेधस्य हेतुर्गमकः / प्रतिषेध इति चाभीवोऽभा. १शिंशपां पश्यति, ख० पश्यति शिशपाम् / 2 अवृक्षं, क० अवृक्षत्वम् / 3 ख० पुस्तके 'स मूढः' इत्यस्यानन्तरं ''इति विरामः प्रयुक्तः। 4 अग्निरिति, क० वहिरिति / 5 प्रत्यक्षानुपलम्भनिबन्धनः, ख० प्रत्यक्षानुपलंभः निबन्धनम् / 6 'युक्तम्' इति पाठो क० पुस्तक एव विद्यते / सर्वत्रान्यत्र तु 'अयुक्तं' इत्येव पाठः / मुद्रितपुस्तकस्य सम्पादकेनापि 'अयुक्त' एव प्रयुक्तम् / अस्माकं सम्मतौ तु "अयुक्तं" अत्रायुक्तमेव / 7 अत्रेति एषु, ख० अत्रेति अत्र / .8 इदं पदं स्त्र पुस्तके न विद्यते। ९इदं पदं ख० पुस्तके न विद्यते /
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________________ 40. न्यायविन्दुः वव्यवहारश्चोक्तो द्रष्टव्यः / तदयमों हेतुः साध्यसिद्ध्यर्थत्वासाध्यागम् / साध्यं प्रधानम् / अतश्च साध्योपकरणस्य हेतोः प्रधानसाध्यभेदानेदो न स्वरूपभेदात् / साध्यश्च कश्चिद्विधिः कश्चित्प्रतिषेधः / विधिप्रतिषेधयोश्च परस्परपरिहारेणावस्थानात्तयोंहेतू भिन्नौ। विधिरपि कश्चिद्धतोभिन्नः कश्चिदभिन्नः / भेदाभेदयोरप्यन्योन्यत्यागेनात्मस्थितेभिनौ हेतू। ततः साध्यस्य परस्परविरोधाद्धेतवो भिन्ना न तु स्वत एवेति / / कस्मात्पुनस्रयाणां हेतुत्वं कस्माचान्येषामहेतुत्वमित्याशक्य यथा त्रयाणामेव हेतुत्वमन्येषां चाहेतुत्वं तदुभयं दर्शयितुमाह-- स्वभावप्रतिबन्धे हि सत्यर्थोऽथ गमयेत् / . स्वभावेन प्रतिबन्धः स्वभावप्रतिबन्धः / साधनं कृतेति समासः / स्वभावप्रतिबद्धत्वं प्रतिबद्धस्वभावत्वमित्यर्थः / का. रणे स्वभावे च साध्ये स्वभावेन प्रतिबन्धः कार्यस्वभावयोरविशिष्ट इत्येकेन समासेन द्वयोरपि संग्रहः / हिर्यस्मादर्थे / यस्मास्वभावप्रतिबन्धे सति साधनार्थः साध्यार्थ गमयेत्तस्मात्त्रयाणां गमकत्वमन्येषामगमकत्वम् / कस्मात्पुनःस्वभावप्रतिबन्ध एव सति गम्यगमकभात्रो नान्यथेत्याह-- तदप्रतिबद्धस्य तदव्यभिचारनियमाभावात् / तदिति स्वभाव उक्तः / तेन स्वभावेनाप्रतिबद्धस्तदप्रतिबद्धः / यो यत्र स्वभावेन न प्रतिबद्धस्तस्य तदप्रतिबद्धस्य त. दव्यभिचारनियमाभार्वेस्तस्याप्रतिवद्धविषयस्याव्यभिचारस्तद. 1 परस्पर, ख०परस्परम्। 2 हेतवः, ख० हेतवोऽपि / 3 कारणे, ख० कारण। .4 अभावः, ख० अभावात् / 5 अप्रतिबद्ध०, ख० अप्रतिबन्धः।
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________________ प्रथमपरिच्छेदः . . 41 व्यभिचारस्तस्य नियमस्तदव्यभिचारनियमस्तस्योभावात् / अयमर्थः / न हि यो यत्र स्वभावेन ने प्रतिबद्धः स तमप्रतिबद्धविषयमवश्यमेव न व्यभिचरतीति नास्ति तयोरव्यभिचारनियमः। अविनाभावनियमः / अव्यभिचारनियमाच्च गम्यगमकभावः / नहि योग्यतया प्रदीपवत्परोक्षार्थप्रतिपत्तिीनमित्तमिष्टं लिङ्गम् / अपि त्वव्यभिचारित्वेन निश्चितम् / ततः स्वभावप्रतिवन्धे सत्यविनाभावनिश्चयः / ततो गम्यगमकभावः। तस्मात्स्वभावप्रति. बन्धे सत्यर्थोऽर्थगमेयनान्यथेति स्थितम् / ननु च परायत्तस्य प्रतिबन्धोऽपरायत्ते / तदिह साध्यसाध नयोः कस्य के प्रतिबन्ध इत्याहस च प्रतिबन्धः साध्येऽर्थे लिङ्गस्य वस्तुतस्ता ___ दात्म्यात्साध्यादुत्पत्तेश्च / स च स्वभावप्रतिबन्धो लिङ्गस्य साध्येऽर्थे / लिङ्गं परायत्तत्वात्पतिवद्धम् / साध्यस्त्वर्थोऽपरायत्तत्वात्मतिबन्धविषयो न प्रतिबद्ध इत्यर्थः / तत्रायमर्थस्तादात्म्याविशेषेऽपि यत्प्रतिबद्धं तद्गमकम् / यत्प्रतिबन्धविषयस्तद्गम्यम् / यस्य च धर्मस्य यानियतः स्वभावः स तत्प्रतिबद्धो यथा प्रयत्नानन्तरीयकत्वाख्योऽनित्यत्वे / यस्य तु स चान्यश्च स्वभावः स प्रतिवन्धविषयः / न तु प्रतिबद्धः / यथानित्यत्वाख्यः प्रयत्नानन्तरीयकत्वाख्ये / निश्चयापेक्षो हि गम्यगमकभावः / प्रयत्नानन्तरीयकत्वमेव चानिन्यस्वभावं निश्चितम् / अतस्तदेवानित्यत्वे प्रतिबद्धं, तस्मानियतविषय एवं गम्यगमकभावो नान्यथेति / कस्मात्पुनः 1 इदं पदं ख०पुस्तके न विद्यते। 2 अप्रतिबद्ध०ख०मप्रतिबंध। 3 अविनाभावनिश्चयः , ख० अविनाभावित्वनिश्चयः / 4 क, ख० कः / 5. अस्माकं सम्मतौ“वस्तुतः," अन्यत्र तुवस्सुनः' /
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________________ 42 न्यायबिन्दुः स्वभावप्रतिबन्धो लिङ्गस्य न वस्तुन इत्याह / वस्तुत इत्यादि। स साध्योऽर्थ आत्मा स्वभावो यस्य तत्तदात्मा तस्य भावस्ता. दात्म्यं तस्मादेतोर्यतः साध्यस्वभावं साधनं तस्मात्ततंत्र स्वभावपतिबद्धमित्यर्थः / यदि साध्यस्वभावं साधनं साध्यसाधनयोरभेदात्पतिज्ञार्थंकदेशो हेतुः स्यादित्याह वस्तुत इति। परमार्थसता रूपेणाभेदः / तयोर्विकल्पर्विषयस्तु यस्समारोपितं रूपं तदपेक्षः साध्यसाधनभेदः / निश्चयापेक्ष एव हि गम्यगमकभावः / ततो निश्चयारूढरूपापेक्ष एव तयोर्भेदो युक्तो वास्तवस्त्वभेद इति / न केवलं तादात्म्यादपि तु ततः साध्य दादुत्पत्तिर्लिङ्गस्य तदुत्पत्तेश्च साध्येऽर्थे स्वभावप्रतिवन्धो लिङ्गस्य / __ कस्मानिमित्तद्वयात्स्वभावप्रतिबन्धो लिङ्गस्य नान्यस्मा. दित्याहअतत्स्वभावस्यातदुत्पत्तेश्च तत्राप्रतिबद्धस्वभावत्वात् / स स्वभावोऽस्य सोऽयं तत्स्वभावः / न तत्स्वभावोऽतत्स्वभावः / तस्मादुत्पत्तिरस्य सोऽयं तदुत्पत्तिः न तथातदुत्पत्तिः / यो यत्स्वभावो यदुत्पत्तिश्च न भवति तस्यातत्स्वभावस्यातदुत्पे. तेश्च / तत्रातत्स्वभावेऽनुत्पादके चाप्रतिबद्धः स्वभावोऽस्येति सोऽयमप्रतिबद्धस्वभावस्तस्य भावोऽप्रतिबद्धस्वभावत्वं तस्मादप्रतिबद्धस्वभावत्वात् / यद्यतत्स्वभावेऽनुत्पादके च कश्चित्प्रति. बद्धस्वभावो भवेत् , भवेदन्यतोऽपि निमित्तात्स्वभावप्रतिबन्धः / १'न वस्तुनः' इति पाठो ख० पुस्तक पवोपलभ्यते / २'अर्थ आत्माइति पाठो ख० पुस्तके न विद्यते / 3 तादात्म्य, ख० तादात्म्यं तत्स्वभावत्वम् / 4 इदं पदं ख० पुस्तक एवोपलभ्यते / / 5 धर्मधर्मीसमुदायो प्रतिक्षा / तदेकदेशो धो धर्मी वा। 6 निश्चयापेक्ष एव, ख० निश्चयापेक्षया एवं। -7 लिङ्गस्य, ख० लिङ्गस्य स्यात् /
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________________ प्रथमपरिच्छेदः. प्रतिबद्धस्वभावत्वं हि स्वभावप्रतिबन्धो न चान्यः कश्चिदायत स्वभावः / तस्मात्तादात्म्यतदुत्पत्तिभ्यामेव स्वभावप्रतिबन्धः / भवेतु नाम तादात्म्यतदुत्पत्तिभ्यामेव स्वभावप्रतिबन्धः कार्यस्वभावयोरेव तु गमकत्वं कथमित्याहते च तादात्म्यतदुत्पत्ती स्वभावकार्ययोरेवेति . ताभ्यामेव वस्तुसिद्धिः / इतिस्तस्मादर्थे / यस्मात्स्वभावे कार्य एव च तादात्म्यतदुत्पत्ती स्थिते तन्निबन्धनश्च गम्यगमकमावस्तस्मात्ताभ्यामेव कार्यस्वभावाभ्यां वस्तुनो विधेः सिद्धिः / अथ प्रतिषेधसिद्धिरदृश्यानुपलम्भादपि कस्मान्नेष्टेत्याहप्रतिषेधसिद्धिरपि यथोक्ताया एवानुपलब्धेः / प्रतिषेधव्यवहारस्य सिद्धियथोक्ता या दृश्यानुपलन्धिस्तत एव भवति यतस्तस्मादन्यतो नोक्ता.। ततस्तावत्कस्माद्भवतीत्याह-- सति वस्तुनि तस्या असंभवात् / ___ सति तस्मिन्पतिषेध्ये वस्तुनि यस्मादृश्यानुपलम्धिन संभ. पति तस्मादसंभवामतः प्रतिषेधसिदिः / अथ तत एव कस्मादित्याहअन्यथा चानुपलब्धिलक्षणप्राप्तेषु देशकालस्वभावविप्र कृष्टेष्वात्मप्रत्यक्षनिवृत्तेरभावनिश्चयाभावात् / सति वस्तुनि तस्या अदृश्यानुपलब्धेः संभवादित्यन्यथा ब्दार्थः / एतस्मात्कारणानान्यस्या अनुपलब्धेः प्रतिषेधसिहै। कुत एतत्सत्यपि वस्तुनि तस्याः संभव इत्याह / अनुपल
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________________ 44. न्यायबिन्दुः ब्धिलक्षणप्राप्तेष्वित्यादि / इह प्रत्ययान्तरसाकल्यात्स्वभावविश पाचोपलब्धिलक्षणप्राप्तार्थः उक्त। घोरेकस्याप्यभावेऽनुपलब्धिलक्षणप्राप्तोऽर्थ उच्यते / तदिहानुपलब्धिलक्षणप्राप्तेष्विति प्रत्ययान्तरकैवल्यवन्त उक्ताः / देशकालस्वभावविप्रकृष्टेष्विति / स्वभावविशेषविप्रकृष्टा उक्ताः / देशश्च कालश्च स्वभावश्च तेर्विप्रकृष्टा इति विग्रहः / तेष्वभावनिश्चयस्याभावात् / सत्यपि वस्तुनि तस्याभाव इष्टः / कस्मानिश्चयाभाव इत्याह / तेषु प्रतिपत्तुरात्मनो यत्प्रत्यक्षं तस्य निवृत्तेः कारणान्निश्चयाभावः / यस्मादनुपलब्धिलक्षणमाप्तेष्वात्मप्रत्यक्षनिवृत्तेरभावनिश्चयाभावस्तस्मात्सत्यपि वस्तुन्यात्मपत्यक्षनिवृत्तिलक्षणाया अदृश्यानुपलब्धेः संभवः / ततो यथोक्ताय एव प्रतिषेधसिद्धिः / अथेयं दृश्यानुपलब्धिः कस्मिन्काले प्रमाणं किंस्वभावा किंव्यापारा चेत्याहअमूढस्मृतिसंस्कारस्यातीतस्य वर्तमानस्य च प्रतिपत्तृ.. प्रत्यक्षस्य निवृत्तिरभावव्यवहारसाधनी / प्रतिपत्तुः प्रत्यक्षो घटादिरर्थर स्य निवृत्तिरनुपलब्धिस्तदभावस्वभावेति यावत् / अत एवाभावो न साध्यः स्वभावानुपलब्धे. सिद्धत्वात् / अविद्यमानोऽपि च घटादिरेकज्ञानसंसगिणि भूतले भासमाने समग्रसामग्रीको ज्ञायमानो दृश्यमानतया संभावितत्वात्प्रत्यक्ष उक्तः / अत एकज्ञानसंसर्गी दृश्यमानोऽर्थ. स्तज्ज्ञानं च प्रत्यक्षनिवृत्तिरुच्यते / ततो हि दृश्यमानादात्तबु. 1 "एकस्य" इति पाठा ख० पुस्तक एव विद्यते / क० पुस्तके मुद्रितपुस्तके च “एकैकस्य" इति पाठ उपलभ्यते। .2 स्वभावविशेषविप्रकृष्टाः, ख. स्वभाव विशेषरहिताः / 3 सातुः। 4 इदं पदं ख० पुस्तक एवोपलभ्यते / 5 'दृश्यमानतया" इति पाठो ख० पुस्तक एवास्ति / अन्यत्र सर्वत्र तु "डश्यतया" इत्येव पाठः। 6 संसर्गी, खसंसर्गात् /
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________________ प्रथमपरिच्छेदः द्धेश्व संमग्रदर्शन सामग्रीकत्वेन प्रत्यक्षतया संभावितस्य निवृत्तिरवसीयते / तस्मादर्थज्ञान एव प्रत्यक्षस्य घटस्याभाव उच्यते / न तु निवृत्तिमात्रमिहाभावो निवृत्तिमात्रादृश्यनिवृत्त्यनिश्चयात् / ' ननु च दृश्यनिवृत्तिरवसीयते दृश्यानुपलम्भात् / सत्यमेवैतत् / केवलमेकज्ञानसंसर्गिणि दृश्यमाने घटो यदि भवेददृश्य एव भवेदिति दृश्यः संभावितस्ततो दृश्यानुपलब्धिनिश्चिता / दृश्यानु. पलब्धिनिश्चयसामर्थ्यादेव च दृश्याभावो निश्चितः। यदि हि दृश्यस्तत्र भवेदृश्यानुपलम्भो न भवेत् / अतो दृश्यानुपलम्भनिश्चयाददृश्याभावः सामर्थ्यादवसितो न तु व्यवहृत इति दृश्यानुपलम्भेन व्यवहर्तव्यः / तस्मादन्तिरमेकज्ञानसंसर्गि दृश्यमानं तज्ज्ञानं च प्रत्यक्षनिवृत्तिनिश्चयहेतुत्वात्प्रत्यक्षनिवृत्तिरुक्तं द्रष्टव्यम् / यथा चैकज्ञानससंगिणि प्रत्यक्षे घटस्य प्रत्यक्षत्वमारोपितमसतोऽपि तथा तस्मिन्नेकज्ञानसंसर्गिण्यतीते वर्तमाने चामूद. स्मृतिसंस्कारे च घटस्य तद्रूपमारोपितमसत इति द्रष्टव्यम् / अनेन दृश्यानुपलब्धिः प्रत्यक्षघटनिवृत्तिस्वभावोक्ता / सा च सेद्धा तेन न घटाभावः साध्योऽपि त्वभावव्यवहार इत्युक्तम्। ___अमुढोऽभ्रष्टो दर्शनाहितः स्मृतिजननरूपः संस्कारो यस्मिघटादौ स तथोक्तः / तस्यातीतस्य प्रतिपत्तृप्रत्यक्षस्येति सम्बन्धः / वर्तमानस्य च प्रतिपत्तृप्रत्यक्षस्यति सम्बन्धः / पमूढस्मृतिसंस्कारग्रहणन्तु नं वर्तमानविशेषणम् / यस्मादतीते टविविक्तप्रदेशदर्शने स्मृतिसंस्कारो मुढो दृश्यघटानुपलम्भे. श्ये च घटेऽमूढो भवेति / वर्तमाने च घटरहितप्रदेशदर्शने ' स्मृतिसंस्कारमोहः / अत एव न घटानुपलम्भे नापि घटे मो। 1 समप्र, ख० समय / 2 'तु' इति पाठो ख० पुस्तके नैवोपलभ्यते। 3 'न' इति पाठो ख० पुस्तके नवोपलभ्यते / ४स्मृतिसंस्कारः। ५इदं पदं ख० पुस्तके न विद्यते /
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________________ न्यायविन्दुः हः / तस्मान वर्तमान निषेध्यविशेषणममूढस्मृतिसंस्कारग्रहणम् / स्मृतिसंस्कारव्यभिचाराभावाद्वर्तमानस्यार्थस्य / अत एव वर्त. मानस्य चेति / चशब्दः कृतो विशेषणरहितस्य वर्तमानस्य विशेषणवतातीतेन समुच्चय यथा विज्ञायतेति। तदयमर्थोऽतीतोऽनुपलम्भः स्फुटं स्मर्यमाणः प्रमाणं चर्तमानश्च / ततो नासीदिह घटोऽनुपलब्धत्वान्नास्त्यनुपलभ्यमानत्वादिति शक्यं ज्ञातुम् / न तु न भविष्यत्यत्र घटोऽनुपलप्स्यमानत्वादिति शक्यं ज्ञातुम् / अनागताया अनुपलब्धेः सत्वसन्देहादिति / काल. विशेषोऽनुपलब्धेाख्यातः / . व्यापारं दर्शयति / अमावस्य व्यवहारो नास्तीत्येवमाकारं ज्ञानं शब्दश्चैवमाकारो निःशङ्कं गमनागमनलक्षणा च प्रवृत्तिः कायिकोऽभावव्यवहारः / घटाभावे हि ज्ञाते निःशङ्कं गन्तुमागन्तुं च प्रवर्तते / तदेवमेतस्य, त्रिविधस्याप्यभावव्यवहारस्य दृश्यानुपलब्धिः साधनी प्रवर्तिका / यद्यपि च नास्ति घट इति ज्ञानमनुपलब्धेरेव भवत्ययमेव चाभावनिश्चयस्तथापि यस्मा प्रत्यक्षेण केवलः प्रदेश उपलब्धस्तस्मादिह घटो नास्तीत्येवं च प्रत्यक्षव्यापारमनुसरत्यभावनिश्चयः / तस्मात्प्रत्यक्षस्य केवलप्र. देशग्रहणव्यापारानुसार्यभावनिश्चयः प्रत्यक्षकृतः। किश्च / दृश्यानुपलम्भनिश्चयकरणसामर्थ्यादेव पूर्वोक्तया नीत्या प्रत्यक्षेणैवाभावो निश्चितः। केवलमदृष्टानामपि सत्त्वसंभवात् / सत्त्वशङ्कया न शाकोत्यसवं व्यवहर्तुम् / अतोऽनुपलम्भोऽभाँवं व्यवहारयति / १'इति' इति पाठो स्व. पुस्तके न विद्यते। 2 स्फुट, क० स्फुटः। 3 अनुपलपस्यमानत्वात, क० अनुपलभ्यमानत्वात् / 4 निःशकं गमनागमन, खनिःशकगमागमः। 5 तदेवमेतस्य, ख. तदेव तस्य / 6 व्यवहारस्य, क व्यवहार० 17 इदं पदं क० पुस्तके नैव विद्यते।
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________________ द्वितीयपरिच्छेदः .47 दृश्यो यतोऽनुपलब्धस्तस्मानास्तीत्यतो दृश्यानुपलम्भोऽभावज्ञानं कृतं प्रवर्तयति न त्वकृतं करोतीत्यभावनिश्चयोऽनुपलम्भात्पत्तोऽ पि प्रत्यक्षेण कृतोऽनुपलम्भेन प्रवर्तित उक्त इत्यभावव्यवहारप्रवर्तिन्युपलब्धिः / कस्मात्पुनरतीते वर्तमाने चानुपलब्धिमिकेत्याह तस्या एवाभावनिश्चयात् / तस्या एव यथोक्तकालाया अनुपलब्धेरभावनिश्चयात् / अनागता ह्यनुपलब्धिः स्वयमेव संदिग्धस्वभावा / तस्या असिद्धाया नाभावनिश्चयोऽपि त्वतीतवर्तमानाया इति / संप्रत्यनुपलब्धेः प्रकारभेदं दर्शयितुमाह-- सा च प्रयोगभेदादेकादशप्रकारा / सा चैषानुपलब्धिरेकादशपकारा एकादश प्रकारा अस्या इत्येकादशप्रकारा / कुतः प्रकारभेदः प्रयोगभेदात् / प्रयोगः प्रयुक्तिः शब्दस्याभिधानव्यापार उच्यते / शब्दो हि साक्षात्कचिदर्थान्तराभिधायी क्वचित्प्रतिषेधान्तराभिधायी / सर्वत्रैव तु दृश्यानुपलब्धिरशब्दोपात्तापि गम्यत इति वाचकव्यापारभेदादनुपलम्भप्रकारभेदो न तु स्वरूपभेदादिति यावत् / प्रकारभेदानाह-- स्वभावानुपलब्धिर्यथा / नात्र धम उपलब्धि१ 'प्रवर्तिमी' इत्ययमेय पाठो ख० पुस्तके विद्यते। क० पुस्तके स्पष्टरूपेण 'प्रवर्त्तनमुपल' इति लिखितं यश 'प्रवर्त्तन्युपल.' इत्य. शुद्ध रूपे विकारितम्। __ 2 ख० पुस्तके 'एकादशप्रकारा एकादश प्रकारा अस्य इत्ये. कादशप्रकारा' इति लिखितम् / मुद्रितपुस्तके क० पुस्तके च एकादश प्रकारा अस्या इत्येकादशप्रकारा' इति पाठः। भेदात् , क. भेद।
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________________ 48 न्यायविन्दुः लक्षणप्राप्तस्यानुपलब्धेरिति / प्रतिषेध्यस्य यः स्वभावस्तस्यानुपलब्धिः / यथेति / अत्रेति धर्मी न धूम इति साध्यम् / उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्यानुपलब्धेरिति हेतुः / अयं च हेतुः पूर्ववद्याख्येयः // 1 // कार्यानुपलब्धियथा। नेहाप्रतिबद्धसामर्थ्यानि धूम कारणानि सन्ति धूमाभावात् / प्रतिषेध्यस्य यत्कार्य तस्यानुपलब्धिरुदाहियते / यथेति / इहेति धर्मी / अप्रतिबद्धमनुपहतं धूमजननं प्रति सामर्थ्य येषां तान्यप्रतिबद्धसामर्थ्यानि न सन्तीति साध्यम् / धूमाभावादिति हेतुः / कारणानि च नावश्यं कार्यवन्ति भवन्तीति कार्या दर्शनादप्रतिवद्धसामर्थ्यानामेवाभावः साध्यः / न त्वन्येषाम् / अप्रतिबद्धशक्तीनि चान्त्यक्षणभावीन्येवान्येषां प्रतिबन्धसंभवात् / कार्यानुपलब्धिश्च यत्र कारणमदृश्यं तत्र प्रयुज्यते / दृश्ये तु कारणे दृश्यानुपलब्धिरेव गमिका / तत्र धवलगृहोपरिस्थितो गृहाङ्गणमपश्यन्नपि चतुर्यु पार्थेष्वङ्गणभित्तिपर्यन्तं पश्यति / भित्तिपर्यन्तसमं चालोकसंज्ञकमाकाशदेशं धूमविविक्तं पश्यति / तत्र धूमाभावनिश्चयाउद्देशस्थेन वहिना जन्यमानो धृमस्तद्देशः स्यात् / तस्य च वन्हेरप्रतिबद्धसामर्थ्यस्याभावः प्रतिपत्तव्यः / तद्गृहाङ्गणदेशेन वन्हिना जन्यमानो धूमस्तद्देशः स्यात् / तस्मात्तद्देशस्य वढेरभावः प्रतिपत्तव्यः / तद्गृहाङ्गणदेशं 1 धवलगृह, ख०क्वलगृहस्य / 2 ख. पुस्तके नायं पाठो दृश्यते / 3 का तहांगणदेशेन भ ( अशुद्धः ) वह्निना / ख० तङ्ग्रहांगणन च / 4 'तद्देशः, इति पाठो ख• पुस्तके "तादृशः" इवावलोक्यते / स्थे
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________________ प्रथमपरिच्छेदः भित्तिपरिक्षिप्तं भित्तिपर्यन्तपरिक्षिप्तेन चालोकात्मना धूमविविक्तेनाकाशदेशेन सह धर्मिणं करोति / तस्माद्देश्यमानादृश्यमानाकाशदेशावयवः प्रत्यक्षाप्रत्यक्षसमुदायो वन्यभावप्रतीतिसाम. •यातो धर्मी न दृश्यमान एव / इहति तु प्रत्यक्षर्निर्देशो ह. श्यमानभागापेक्षो न केवलमिहैव दृश्यादृश्यसमुदायो धर्म्यपि त्वन्यत्रापि / शब्दस्य क्षणिकत्वे साध्ये कश्चिदेव शब्दः प्रत्यक्षोऽन्यस्तु परोक्षस्तद्वदिहापि | यथा चात्र धर्मी साध्यप्रतिपत्त्य. धिकरणभूतो दृश्यादृश्यावयवो दर्शितस्तद्वदुत्तरेष्वपि प्रयोगेषु स्वयं प्रतिपत्तव्यः // 2 // व्यापकानुपलब्धिर्यथा / नात्र शिंशपा वृक्षाभावादिति। प्रतिषेध्यस्य व्याप्यस्य यो व्यापको धर्मस्तस्यानुपलब्धि. रुदाहियते। यथेति / अत्र धर्मी। न शिंशपेति शिंशपाभावः साध्यः। वृक्षस्य व्यापकस्याभावादिति हेतुः / इयमप्यनुपलब्धिा . 'प्यस्य शिंशपांत्वस्यऽदृश्याभावे प्रयुज्यते / उपलब्धिलक्षणमाप्ते तु व्याप्ये दृश्यानुपलब्धिर्गमिका / तत्र यदा पूर्वापरावुपश्लिष्टौ समुन्नती देशौ भवतस्तयोरेकस्तरुगहनोपेतोऽपरश्चैकशिलाघटितो निक्षकक्षः / द्रष्टापि तत्स्थान्वृक्षान्पश्यनपि शिंशपादिभेदं नै यो विवेचयति / तस्य वृक्षत्वं प्रत्यक्षमप्रत्यक्ष शिंशपात्वम् / स हि निर्वृक्ष एकशिलाघटिते वृक्षाभावं दृश्यत्वादृश्यानुपलम्भादवस्यति / शिंशपात्वाभावं तु व्यापकस्य वृक्षस्याभावादिति / तादृशे विषयेऽस्या अभावसाधनाय प्रयोग // 3 // स्वभावविरुद्धोपलब्धिय॑था। नात्र शीतस्पर्शोऽग्नेरिति / 1 दृश्यमानादृश्यमानाकाशदेशावयवः, क. दृश्यमानाकारी अशुद्धः) देशावयवः। २शिंशपात्वस्य, ख. शिंशपात्व०। न यः, ख० योन।. ४.ताशे, क० तारश।
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________________ न्यायविन्दुः प्रतिषेध्यस्य स्वभावेन विरुद्धस्योपलब्धिरुदाहियते / यथेति / अत्रेति धर्मी / न शीतस्पर्श इति शीतस्पर्शप्र. तिषेधः साध्यः / वन्हेरिति हेतुः / इयं चानुपलब्धिस्तत्र प्रयो. क्तव्या यत्र शीतस्पर्शोऽदृश्यः। दृश्ये दृश्यानुपलब्धिप्रयो. गात् / तस्माद्यत्र वर्णविशेषाद्वान्हदृश्यः शीतस्पर्शो दूरस्थत्वात्स. अप्यदृश्यस्तत्रास्याः प्रयोगः // 4 // विरुद्धकार्योपलब्धिय॑था / नात्र शीतस्पर्टी धूमादिति / प्रतिषध्येन यद्विरुद्धं तत्कार्यस्योपलब्धिमिका / यथेति / अत्रेति धर्मी) न शीतस्पर्श इति शीतस्पर्शाभावः साध्यः / धूमादिति हेतुः / यत्र शीतस्पर्शः सन्दश्यः स्यात्तत्र दृश्यानुपलब्धिर्गमिका / यत्र विरुद्धो वह्निः प्रत्यक्षस्तत्र विरुद्धोपलब्धिः / योरपि तु परोक्षत्वे विरुद्धकार्योपलब्धिः प्रयुज्यते / तत्र संमस्तापवरकस्थं शीतं निवर्तयितुं समर्थस्याग्नेरनुमापकं यदा विशिष्टं धूमकलापं निर्यान्तमपवरकात्पश्यति तदा विशिष्टाद्वद्वेरनुमिताच्छीतस्पर्शनिवृत्तिनुमिमीते / इह दृश्यमानद्वारप्रदेशसहितः सर्वावरकाभ्यन्तरदेशो धर्मी साध्यप्रतिपत्त्यनुसरणात्पूविद्रष्टव्यः // 5 // विरुडव्याप्तोपलब्धिर्यथा / न ध्रुवभावी भतस्यापि भावस्य विनाशो हेत्वन्तरापेक्षणादिति / १पाठोऽयं ख० पुस्तके नैवोपलभ्यते। २क० पुस्तके 'इति' इत्यसंगृह्य 'न शीतस्पर्श' इत्यशुद्धो पाठो विद्यते। 3 दृश्ये, क० दृश्यो, ख० दृश्ये तु / 4 दूरस्थत्वात्, ख० दूरत्वात्। 5 विरुद्ध का विरोधः। 6 तत्र, क० यत्र / ७निवृत्तिमनुमिमीते, क० निवृत्तिर. तुमीयते। 8 सर्वापवरक, ख० सर्वेपवर /
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________________ प्रथमपरिच्छेदः - प्रतिषेध्यस्य यद्विरुद्धं तेन व्याप्तस्य धर्मान्तरस्योपलब्धिरुदार्तिव्या / यथेति / ध्रुवमवश्यं भवतीति ' ध्रुवभावी नेतिध्रुवमावित्वनिषेधः साध्यः / विनाशो धर्मी / भूतस्यापि भावस्येति धर्मिविशेषणम् / भूतस्य जातस्यापि विनश्वरः स्वभावो नावश्यंभावी किमुताजातस्येत्यपि शब्दार्थः / जननी. देतोरन्यो हेतुत्वन्तरं मुद्रादि तदपेक्षते विनश्वरः / तस्यापे. क्षणादिति हेतुः / हेवन्तरापेक्षणं नामांध्रुवभावित्वेन व्याप्तम् / यथा वाससि रागस्य रोनादिहेत्वन्तरापेक्षणध्रुवभावित्वेन व्यातम् / ध्रुवभावित्वविरुद्धं चाध्रुवभावित्वम् / विनाशश्च विनश्व. रस्वभावात्मा हेत्वन्तरापेक्ष इष्टः / ततो विरुद्धव्याप्तहेत्वन्तरापेक्षणदर्शनाद्धृवभावित्वनिषेधः / इह ध्रुवभावित्वं नित्यत्वमध्रुवभावित्वं चानित्यत्वम् / नित्यत्वानित्यत्वयोश्च परस्परपरिहारेणावस्थानादेकत्र विरोधः / तथा च सति परस्परपरिहारवतोदेयोर्यदैकं दृश्यते तत्र द्वितीयस्य तादात्म्यनिषेधः कार्यः। तादा. त्म्यनिषेधश्च दृश्यतयाभ्युपगतस्य संभवति / यत एवं तादात्म्यनिषेधः क्रियते यद्ययं दृश्यमानो नित्यो भवेनित्यरूपो दृश्येत। न च नित्यरूपो दृश्यते / तस्मान्न नित्यः / एवं च प्रतिषेध्यस्य नित्यत्वस्य दृश्यमानात्मत्वमभ्युपगम्य प्रतिषेधः कृतो भवति / वस्तुनोऽप्यदृश्यस्य पिशाचादेर्यदि दृश्यघटात्मत्वनिषेधः क्रियते 1 पाठोऽयं ख. पुस्तके न विद्यते। 2 जननात्, ख० जनकात् / 3 विनश्वरः / तस्य, क० विनश्वरस्य / 4 नामाध्रुव० ख० माध्रुव० / 5 रअनादि०, ख० रजकादिः / 6 इदं पदं ख० पुस्तके न विद्यते / 7 दृश्यतया, क० तया। 8 यतः, क० यः। 9 दृश्यमानात्मत्वं, ख० दृश्यमानात्मकत्वम। 10 यदि,ख' यदैव / 11 दृश्यघटात्मत्व,ख. दश्यघटात्मकत्व.
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न्यायविन्दुः दृश्यात्मत्वमभ्युपगम्य कर्तव्यः । यद्ययं दृश्यमानः पिशाचात्मा भवेत्पिशाचो दृष्टो भवेत् । न च दृष्टस्तस्मान्न पिशाच इति दृश्यात्मत्वाभ्युपगमपूर्वको दृश्यमाने घटादौ वस्तुनि वस्तुनोऽवस्तुनोवा दृश्यस्यादृश्यस्य च तादात्म्यनिषेधः । तथा च सति यथा घटस्य दृश्यत्वमभ्युपगम्य प्रतिषेधो दृश्यानुपलम्भादेव तद्वत्सर्वस्य परस्परपरिहारवतोऽन्यत्र दृश्यमाने निषेधो दृश्यानुपलम्भा. देव । तथा चास्यैवंजातीयकस्य प्रयोगस्य स्वभागनुपलब्धावन्तर्भावः ॥ ६॥ कार्यविरूद्धोपलब्धिय॑था। नेहाप्रतिबद्धसामनि
शीतकारणानि सन्त्यग्नेरिति । प्रतिषेध्यस्य यत्कार्य तस्य यद्विरुद्धं तस्योपलब्धेरुदाहरणम्। यथेति । इहेति धर्मी । अप्रतिबद्धं सामर्थ्य येषां शीतकारणानां शीतजननं प्रति नै तानि सन्तीति साध्यम् । वढेरिति हेतुः । यत्र शीतकारणान्यदृश्यानि शीतस्पोऽप्यदृश्यस्तत्रायं हेतुः प्रयोक्तव्यः । दृश्यत्वे तु शीतस्पर्शस्य तत्कारणानां वा कार्यानुपलब्धिदृश्यानुपलब्धिर्वा गमिका । तस्मादेषाप्यभावसाधनी । ततो यस्मिन्देशे सदपि शीतकारणमदृश्यं शीतस्पर्शश्व दृस्स्थत्वा. त्पतिपत्तुर्वद्विर्भास्वरवर्णत्वाद्र्ादपि दृश्यस्तत्रायं प्रयोगः ॥७॥ व्यापकविरूद्धोपलब्धिर्यथा। नात्र तुषारस्पर्शोऽग्नेरिति ।
प्रतिषेधस्य ययापकं तेन याविरुद्धं तस्योपलब्धिरुदाईतव्या । यथेति । अत्रेति धर्मी । तुषारस्पर्शो नेति साध्यम् । वैवेरिति हेतुः। यत्र व्याप्यस्तुषारस्पर्शो व्यापकश्च च शीतस्पर्शी न दृश्यस्त. १ यद्ययं, ख० यद्ययं घटः। २ प्रतिषेधः, ख० निषेधः । ३ न तानि सन्तीति, ख. तानि न संती ( अशुद्धः)। ४ बढेः, ख० अग्नेः।
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प्रथमपरिच्छेदः त्राय हेतुः । तयोदृश्यत्वे स्वभावस्य व्यापकस्य चानुपलब्धियतः प्रयोक्तव्या । तथा चं सत्यभावसाधनीयम् । दूरवर्तिनश्च प्रति. पत्तुस्तुपारस्पर्शः शीतस्पर्शविशेषः । शीतमात्रं च परोक्षम् । वद्विस्तु रूपविशेषाद्रस्थोऽपि प्रत्यक्षः। ततो वह्नः शीतमात्रामा वः । ततः शीतविशेषतुषारस्पाभावनिश्चयः । शीतविशेषस्य शीतसामान्यन व्याप्तत्वादिति विशिष्टविषयेऽस्याः प्रयोगः ॥८॥ कारणानुपलब्धियथा । नात्र धूमोऽग्न्यभावादिति ।
प्रतिषेध्यस्य यत्कारणं तस्यानुपलब्धेरुदाहरणम् । यथेति । अत्रेति धर्मी। न धूम इति साध्यम् । वन्ह्य सत्वादिति हेतुः। यत्रकार्य सदपि दृश्यं न भवति तत्रायं प्रयोगः । दृश्ये तु कार्ये दृ. श्यानुपलब्धिमिका । ततोऽयमप्यभावसाधनः । निष्कन्पाय. तसलिलरिते हृदे हेमन्तोचितवाप्पोद्गमे विरले संध्यातमसि सति सन्नपि तत्रं धूमो न दृश्य इति कारणानुपलब्ध्या प्रतिषध्यते । वद्भिस्तु यदि तस्याम्भस उपरि प्लवमानो भवेज्ज्वलितो रूपविशेषादेवोपलब्धो भवेत् । अज्वलितस्त्विन्धनमध्यनिविष्टो भवेतत्रापि दहनाधिकरणामिन्धनं प्रत्यक्षमिति स्वरूपेणाधाररूपेण वा दृश्य एव वहिरिति तत्रास्याः प्रयोगः ॥ ९ ॥ कारणविरुद्दोपलब्धिय॑था । नास्य रोमहर्षादिविशेषाः
संनिहितदहनविशेषत्वादिति ।
१ पदमिदं ख० पुस्तक एव दृश्यते। २ पदामिदं ख० पुस्तके न दृश्यते। ३ विशिष्ट, ख० विशिष्टे । ४ दृश्यं न भवति, ख० अदृश्यं भवति । ५ पदमिदं ख० पुस्तके न विद्यते । ६ दृश्यः, ख. दृश्यते। ७ प्रतिषेध्यते, ख० प्रतिषिध्यते । ८ ज्वलितः, ख. प्रज्वलितः। ९ इन्धन, ख० वन ।
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५४. न्यायविन्दुः
प्रतिषेध्यस्य यत्कारणं तस्य याविरुद्धं तस्योपलब्धेरुदाहर णम् । यथेति । अस्येति धर्मी । रोम्गां हर्ष उद्भेदः स आदिर्येपां दन्तवीणादीनां शीतकृतानां ते विशिष्यन्ते तदन्येभ्यो भयश्रद्धादिकृतेभ्य इति रोमहर्षादिविशेषाः । ते न सन्तीति साध्य. म् । दहन एव विशिष्यते तदस्मादहनाच्छीतनिवर्तनसामर्थ्यनेति दहनविशेषः । कश्चिद्दहनः सन्नपि न शीतनिवर्तनक्षमो यथा प्रदीपः । तादृशनिवृत्तये विशेषग्रहणम् । संनिहितो दहनविशेषो यस्य स तथोक्तस्तस्य भावस्तस्मादिति हेतुः । यत्र शीतस्पर्शः सन्नप्यदृश्यो रोमहर्षादिविशेषाश्चादृश्यास्तत्रायं प्रयोगः । रोमहर्षादिविशेषस्य दृश्यत्वे दृश्यानुपलब्धिः प्रयोक्तव्या । शीतस्पर्शस्य दृश्यत्वे कारणानुपलब्धिः । तस्मादभावसाधनोऽयम् । रूपविशेषाद्विदूरादहनं पश्यति । शीतस्पर्शस्त्वदृश्यो रोमहर्षादिविशेषाश्च । तेषां कारणविरुद्धोपलब्ध्याभावः प्रतिपद्यत इति । तत्रास्याः प्रयोगः ॥ १०॥ कारणविरुद्धकार्योपलब्धिर्यथा । न रोमहर्षादिविशेष
युक्तपुरुषवानयं प्रदेशो धूमादिति । प्रतिषेध्यस्य यत्कारणं तस्य यद्विरुद्धं तस्य यत्कार्यं तस्योपलब्धिरुदाहर्तव्या । यथेति । अयं देश इति धर्मी । योगो युक्तं रोमहर्षादिविशेषैर्युक्तं रोमहर्यादिविशेषयुक्तम् । तस्य सं.
१ विशिष्यन्ते, ख० विशेष्यन्ते । २ विशिष्यते, ख० विशेष्यते । ३ पदमिदं ख० पुस्तके नैवोपलभ्यते । ४ दहनविशेषस्यैव शीतानवृत्तौ कारणत्वात् ,न दहनसामान्यस्य । ५ क० भाव ( अशुद्धः ), ख० भावम् । ६ कार्य, मुद्रितपुस्तक 'कार्थे' ( अशुद्धः ) ७ देशः, ख० प्रदेशः । ८ पदमिदं ख० पुस्तके नोपलभ्यते ।
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द्वितीयपरिच्छेदः बन्धी पुरुषो रोमहर्षादिविशेषयुक्तपुरुषः । तद्वान्न भवतीति सा. ध्यम् | धृमादिति हेतुः । रोमहर्षादिविशेषस्य प्रत्यक्षत्वे दृश्यानुपलब्धिः । कारणस्य शीतस्पर्शस्य प्रत्यक्षत्वे कारणानुपलब्धिः । वन्हेस्तु प्रत्यक्षत्वे कारणविरुद्धोपलब्धिः प्रयोक्तव्या । त्रयाणामप्यदृश्यत्वेऽयं प्रयोगः । तस्मादभावसाधनोऽयम् । तत्रं दूरस्थस्य प्रतिपत्तुदहनशीतस्पर्शगेमहादिविशेषा अप्रत्यक्षाः स. न्तोऽपि धूमस्तु प्रत्यक्षो यत्र तत्रैतत्प्रमाणम् । धूमस्तु यादृश. स्तस्मिन्देशे स्थितं शीतं निवर्तयितुं समर्थस्य वन्हेरनुमापकः स इह ग्राह्यः । धूममात्रेण तु वन्हिमात्रेऽनुमितेपि न शीतस्पर्शनिवृत्तिर्नापि रोमहर्षादिविशेषनिवृत्तिरवसातुं शक्यते न धूममात्रं हेतुरिति द्रष्टव्यमिति ॥ ११ ॥
यद्येकः प्रतिषेधतुहेतुरुक्तः कथमेकादशाभावहतव इत्याहइमे सर्वे कार्यानुपलब्ध्यादयो दशानुपलब्धिप्रयोगाः
___स्वभावानुपलब्धौ संग्रहमुपयान्ति ।
इमेऽनुपलब्धिप्रयोगाः । इदमानन्तरप्रयोगान्ता निर्दिष्टाः । तत्र कियतामपि ग्रहणे प्रसक्त आह । कार्यानुपलब्ध्यादय इति । . कार्यानुपलब्ध्यादीनामपि त्रयाणां चतुर्णा वा ग्रहणे प्रसक्ते सत्याह । दशेति । दशानामप्युदाहृतमात्राणां ग्रहणप्रसङ्गे सत्याह । सर्व इत्येतदुक्तं भवति । अप्रयुक्ता अपि प्रयुक्तोदाह
१ विशेषयुक्त०, ख. विशेषगुणयुक्त । २ रोमहर्षादि०, ख० रामहर्ष। ३ तत्र, क. यत्र । ४ तस्मिन्देशे, ख० तदेशे। ५ पदमिदं क. पुस्तके न विद्यते । ६ 'विशेष' इति पाठो ख. पुस्तके न विद्यते । ७ पाठोऽयं क० पुस्तके नास्ति। ८ प्रयोगान्ताः, क० प्रयोक्तांन ( अशुद्धः ), ख. प्रक्रांता। ९ सत्याह, क. त्याह ( अशुद्धः)। १० ख० पुस्तके 'सति' इति पाठो न विद्यते ।
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न्यायबिन्दुः रणसदृशाश्च सर्व एवेति दशग्रहणमन्तरेण सर्वग्रहणे क्रियमाणे प्र. युक्तोदाहरणकात्स्न्यै गम्येत । दशग्रहणातूदाहरणकात्स्न्येऽवगते सर्वग्रहणमतिरिच्यमानमुदाहृतसदृशकात्यावगतये जायते । ते स्वभावानुपलब्धौ संग्रह तादात्म्येन गच्छन्ति । स्वभावानु. पलब्धिस्वभावा इत्यर्थः।
ननु च स्वभानुपलब्धिप्रयोगाद्भिद्यन्ते कार्यानुपलब्ध्यादयस्तत्कथमन्तर्भवन्तीत्याह
पारंपर्येणार्थान्तरविधिप्रतिषेधाभ्यां प्रयोगभेदेऽपि प्रयोगदर्शनाभ्यासात्स्वयमप्येवं व्यवच्छेदप्रतीतिर्भवतीति स्वार्थेऽप्यनुमानेऽस्याः प्रयोगनिर्देशः। ___ प्रयोगभेदे ऽपि । प्रयोगस्य शब्दव्यापारस्य भेदेऽपि अन्त. भवन्ति । कथं प्रयोगभेद इत्याह । अर्थान्तरविधीत्यादि । प्रतिषेध्यादैर्थादर्थान्तरस्य विधिरुपलब्धिः । स्वभाविरुद्धायुपलब्धिप्रयोगेषु प्रतिषेधः । कार्यानुपलब्ध्यादिप्रयोगेष्वर्थान्तरविधिनार्थान्तरप्रतिवेधेन च प्रयोगा भिद्यन्ते । यदि प्रयोगान्तरे. वर्थान्तरविधिप्रतिषेधौ कथं तन्तिर्भवन्तीत्याह । पारम्पर्ये. णेति । प्रणालिकयेत्यर्थः । एतदुक्तं भवति । न साक्षादेते प्रयोगा दृश्यानुपलब्धिमभिदधति । दृश्यानुपलब्ध्यव्यभिचारिणं त्वर्थान्तरस्य विधिनिषेधं वाभिदधति । ततः प्रणालिकयामीषां स्वभावानुपलब्धौ संग्रहो न साक्षादिति । यदि प्रयो. गभेदेन भेदः परार्थानुमाने वक्तव्य एषः । शब्दभेदो हि प्रयो.
१ दशग्रहणात्तूदाहरण, ख० दशग्रहणोदाहरण । २ अर्थान्तरविधीत्यादि, लिखितपुस्तकयोः, अर्थान्तरविधीति । ३ प्रतिषेध्यादर्थादर्थान्तरस्य, ख० प्रतिषेध्यादर्थान्तरस्या।
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द्वितीयपरिच्छेदः गभेदः। शब्दश्च परार्थानुमानमित्याशङ्कयाह । प्रयोगदर्शनेत्यादि। प्रयोगाणां शास्त्रघटितानां दर्शनमुपलम्भः । तस्याभ्यासः पुनः पुनरावर्तनम् । तस्मानिमित्तात्स्वयमपीति मतिपत्तुरात्मनोऽप्येवमित्यनन्तरोक्तेन क्रमेण व्यवच्छेस्य प्रतिषेधस्य प्रतीतिर्भवतीति। इति शब्दस्तस्मादर्थे । तदयमर्थः । यस्मात्स्वयमप्येवमनेनोपायेन प्रतिपद्यते प्रयोगाभ्यासात्तस्मात्स्वप्रतिपत्तावप्युपयुज्यमानस्यास्य प्रयोगभेदस्य स्वार्थानुमान निर्देशः । यत्पुनः परप्रतिपत्तावेवोपयुज्यते तत्परार्थानुमान एव वक्तव्यमिति ।
ननु च कार्यानुपलब्ध्यादिषु कारणादीनामदृश्यानामेव प्रतिषेधः दृश्यनिषेधे स्वभावानुपलम्भप्रयोगप्रसङ्गात् । तथा च सति न तेषां दृश्यानुपलब्धेनिषेधस्तत्कथमेषां प्रयोगाणां दृश्यानुपलब्धावतभाव इत्याह
सर्वत्र चास्यामभावव्यवहारसाधन्यामनुपलब्धौ येषां स्वभावविरुद्धादीनामुपलब्ध्या कारणादीनामनुपलब्ध्या च प्रतिषेध उक्तस्तेषामुपलब्धिलक्षणप्राप्तानामेवोपलब्धिरनुपलब्धिश्व वेदितव्या ||४||
अभावश्च तस्य च व्यवहारोऽभावव्यवहारौ । स्वभावानुपलब्धावभावव्यवहारः साध्यः । शिष्टेष्वभावः । तयोः साधन्यामनुपलब्धौ । सर्वत्र चेति चशब्दो हिशब्दस्यार्थे । यस्मासर्वत्रानुपलब्धौ सत्यां येषां प्रतिषेध उक्तस्तेषामुपलब्धिलक्षण
१ शब्दश्च, ख० शम्दस्तु। २०घटितानाम् , ख० परिघटितानाम् । ३ इति पदं ख०पुस्तके न विद्यते। ४ प्रतिषेधः, ख० निषेधः। ५ तस्य च व्यवहारः, सन्तपहार। पदामिदं खं० पुस्तके नैवोपलभ्यते ।
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न्यायविन्दुः
५८
प्राप्तानां दृश्यानामेव से प्रतिषेधस्तस्मादृदृश्यानुपलब्धावन्तर्भावः । कुत एतद्दृश्यानामेवेत्याह । स्वभावेत्यादि । अत्रापि चकारो हेत्वर्थः । यस्मात्स्वभावविरुद्ध आदिर्येषां तेषामुपलब्ध्या कारणमादिर्येषां तेषामनुपलब्ध्या प्रतिषेध उक्तस्तस्मादृदृश्यानामेव प्रतिषेध इत्यर्थः । यदि नाम स्वभावविरुद्धाद्युपलब्ध्या कारणाद्यनुपलब्ध्या च प्रतिषेध उक्तस्तथापि कथं दृश्यानामेव प्रतिषेध इत्याह । उपलब्धिरित्यादि । अत्रापि चकारो हेत्वर्थः । यस्माद्ये विरोधिनो व्याप्यव्यापकभूताः कार्यकारणभूताश्च ज्ञातास्तेषामत्रश्यमेवोपलब्धिरुपलब्धिपूर्वा चानुपलब्धिर्वेदितव्या । उपलब्ध्यनुपलब्धी च द्वे येषां स्तस्ते दृश्या एव । तस्मात्स्वभावविरुद्धायुपलब्ध्या कारणाद्यनुपलब्ध्या चोपलब्ध्यनुपलब्धिमतां विरुद्धादीनां प्रतिषेधः क्रियमाणो दृश्यानामेव कृतो द्रष्टव्यः । बहुषु चोद्येषु प्रक्रान्तेषु परिहारसमुच्चयार्थश्चकारी हेत्वर्थो भवति । यस्मादिदं चेदं च समाधानमस्ति तस्मात्तत्तच्चोद्यमयुक्तमिति चकारार्थः ।
कस्मात्पुनः प्रतिषेध्यानां विरुद्धादीनामुपलब्ध्यनुपलब्धी वेदितव्ये इत्याह
अन्येषां विरोधकार्यकारणभावासिद्धि: ॥ ४९ ॥ उपलब्ध्यनुपलब्धिमद्भ्योऽन्येऽनुपलब्धा एव ये तेषां विशेधश्व कार्यकारणभावश्च केनचित्सहाभावश्च व्याप्यस्य व्यापकस्याभावेन सिध्यति यस्मात्ततो विरोधिकार्यकारणभावाभावासिद्धेः कारणादुपलब्ध्यनुपलब्धिमन्त एव विरुद्धादयो निषेध्याः । उभयवन्तश्च दृश्या एव । तस्माद्द्श्यानामेव प्रतिषेधः । तदयमर्थः । विरोधैः कार्यकारणभावश्च व्यापकाभावे व्याप्याभावश्व
१ दृश्यानामेव, ख० दृश्यमानानामेव ।
२ पदमिदं स्व० पुस्तके न विद्यते । ३ विरोधः, ख० विरोधश्च ।
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द्वितीयपरिच्छेदः दृश्यानुपलब्धेरेवेति । एकसंनिधावपराभावप्रतीतौ ज्ञातो विरोधः। कारणाभिमताभावे च कार्याभिमताभावप्रत्ययेऽवसितकार्यकारण. भावः । व्यापकाभिमताभावे च व्याप्याभावे निश्चिते निश्चितो व्याप्यव्यापकभावः। तत्र व्याप्यव्यापकभावप्रतीतेनिमित्तमभावः प्रतिपत्तव्यः। इह गृहीते वृक्षाभावे हि शिंशपात्वाभावप्रतीतौ प्रतीतो व्याप्यव्यापकभावः । अभावप्रतिपत्तिश्च सर्वत्र दृश्यानुपलब्धेरेव । तस्माद्विरोधं कार्यकारणभावं व्याप्यव्यापकभावं च स्मरता विरोधकार्यकारणभावव्याप्यव्यापकभावविषयाभावप्रतिपत्तिनिबन्धनं दृश्यानुपलब्धिः स्मर्तव्या । दृश्यानुपलब्ध्यस्मरणे विरोधादीनामस्मरणम् । तथा च सति न विरुद्धादिविधिप्रतिपेधा. भ्यामितराभावप्रतीतिः स्यात् । विरोधादिग्रहणकालभाविन्यां घ दृश्यानुपलब्धाववश्यस्मर्तव्यायां तत एवाभावप्रतीतिः । तत्र यद्यपि संप्रति नास्ति दृश्यानुपलब्धिर्विरोधादिग्रहणकाले त्वासीत् । या दृश्यानुपलब्धिः संप्रति स्मर्यमाणा सेवाभावप्रतिपत्तिनिबन्धनम् । ततः संप्रति नास्ति दृश्योपलब्धिरित्यभावसाधनस्वेन श्यानुपलब्धिप्रयोगाद्भिद्यन्ते कार्यानुपलब्ध्यादिप्रयोगाः। विरुद्धविधिना कारणादिनिषेधेन च यतो दृश्यानुपलब्धिराक्षिसा ततो दृश्यानुपलब्धेरेव कालान्तरवृत्तायाः स्मृतिविषयभूताया अभावप्रतिपत्तिः । अमीषां च प्रयोगाणां दृश्यानुपलब्धावन्तर्भावः । तदेनन सर्वेण दृश्यानुपलब्धावन्तभावो दशानामनुप. लब्धिप्रयोगाणां पारंपर्येण दर्शित इति वेदितव्यम् ।
उक्ता दृश्यानुपलब्धिरभावेऽभावव्यवहारे साध्ये प्रमाणम् । अदृश्यानुपलब्धिः किंस्वभावा किंव्यापारा चेत्याह
विप्रकृष्टविषयानुपलब्धिः प्रत्यक्षानुमानानिवृत्ति१ पदमिदं स्व. पुस्तके न विद्यते । .२ सम्प्रति नास्ति, ख. सम्प्रतितनी।
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भ्यायविन्दुः
लक्षणा संशयहेतुः प्रमाणनिवृत्तावप्यर्थाभावासिद्धेरिति ।
विप्रकृष्टस्त्रिभिर्देशकालस्वभावविपकर्यस्याविषयः सा विप्रकृष्टविषयेति संशयहेतुः । किस्वभावा सेत्याह। प्रत्यक्षानुमाननिवृत्तिलक्षणं स्वभावो यस्याः सा प्रत्यक्षानुमाननिवृत्तिलक्षणा ज्ञानज्ञेयस्वभावेति यावत् । ननु च प्रमाणात्ममेयसत्ताव्यवस्था । ततः प्रमाणाभावात्प्रमेयाभावप्रतिपत्तियुक्तेत्याह । प्रमाणनिवृत्तावपीत्यादि । कारणं व्यापकं च निवर्तमान कार्य व्याप्यं च निवर्तयेत् । न च प्रमाणे प्रमेयस्य कारणं नापि व्यापकमतः प्रमाणयोनिवृत्तावप्यर्थस्य प्रमेयस्य निवृत्तिर्न सिध्यति । ततोऽ सिद्धेः संशयहेतुरदृश्यानुपलब्धिः । न निश्चयहेतुः । यत्पुनः प्रमाणसत्तया प्रमेयसत्ता सिध्यति तयुक्तम् । प्रमेयकार्य हि प्रमाणम् । न च कारणमन्तरेण कार्यमस्ति। न तु कारणान्यवश्यं कार्यवन्ति भवन्ति । तस्मात्ममाणात्प्रमेयसत्ता व्यवस्थाप्या । न प्रमाणाभावात्ममेयाभावव्यवस्थेति ॥
इति द्वितीयः परिच्छेदः इति न्यायविन्दुटीकायां द्वितीयः परिच्छेदः समाप्तः ।
१ पदमिदं ख० पुस्तके नैवोपलभ्यते। २ लक्षणा, क. लक्षणा।नशान। ३ नतु, बन च।
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A
अथ तृतीयपरिच्छेदः। स्वार्थपरार्थानुमानयोः स्वार्थ ब्याख्याय परार्थ व्याख्यातुकाम आह
त्रिरूपलिङ्गाख्यानं पराथोनुमानम् । त्रिरूपलिङ्गाख्यानमिति । त्रीणि रूपाण्यन्वयव्यतिरेकपले, धर्मत्वसंज्ञकानि यस्य तत्तिरूपम् । त्रिरूपं च तल्लिङ्ग च तस्याख्यानम् । आख्यायते प्रकाश्यतेऽनेनेति त्रिरूप लिङ्गमित्याख्यानम् । किं पुनस्तद्वचनम् । वचनेन हि त्रिरूपं लिजमाख्यायते । परस्मायिदं परार्थम् ।
ननु चं सम्यग्ज्ञानात्मकमनुमानमुक्तम् । तत्किमर्थ संप्रति वचनात्मकमनुमानमुच्यत इत्याह ।
___ कारणे कार्योपचारात् । कारणे कार्योपचारादिति त्रिरूपलिङ्गाभिधानात्तिरूपलिङ्गस्मृतिरुत्पद्यते स्मृतेश्चानुमानम् । तस्यानुमानस्य परंपरया त्रिरूपलिङ्गाभिधानं कारणम् । तस्मिन्कारणे वचने कार्यस्यानुमानस्योपचारः समारोपः क्रियते । ततः समारोपात्कारणं वचनमनुमानशब्देनोच्यते । औपचारिकं वचनमनुमानं न मुख्यमित्यर्थः । न च यावत्किचिदुपचारादनुमानशब्देन वक्तुं शक्यं तावत्सर्व व्याख्येयम् । किं त्वनुमानं व्याख्यातुकामेनानुमानस्वरूपस्य व्याख्येयत्वानिमित्तं व्याख्येयम् । निमित्तं च त्रिरूपं लिङ्गम् । तच्च स्वयं वा प्रतीतमनुमानस्य निमित्तं भवति परेण १ तल्लिङ्गं, क० लिङ्गं । २ पाठोऽत्र क० पुस्तके नैवोपलभ्यते । ३ औपचारिकम् , क० औपचारकम् ।
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६२
न्यायविन्दुः वा प्रतिपादितं भवेति । तस्माल्लिङ्गस्य स्वरूपं व्याख्येयं त. प्रतिपादकश्च शब्दः । तत्र स्वरूपं स्वार्थानुमाने व्याख्यातम् । प्रतिपादकः शब्द इह व्याख्येयः । ततः प्रतिपादकं शब्दमवश्यं धक्तव्यं दर्शयन्ननुमानशब्देनोक्तवानाचार्य इति परमार्थः । परार्थानुमानस्य प्रकारभेदं दर्शयितुमाह
तद्विविधं प्रयोगभेदात् ।। तद्विविधमिति'। तदिति परार्थानुमानम् । द्वौ विधौ प्रकारौ यस्य तद्विविधम् । कुतो द्विविधमित्याह । प्रयोगस्य शब्दव्यापारस्य भेदात् । प्रयुक्तिः प्रयोगोऽर्थाभिधानम् । शब्दस्यार्थाभिधानव्यापारभेदाद्विविधमनुमानम् । तदेवाभिधानव्यापारनिबन्धनं द्वैविध्यं दर्शयितुमाह
साधर्म्यवद्वैधर्म्यवच्चेति । समानो धर्मो यस्य सोयं सधर्मा तस्य भावः साधर्म्यम् । विसदृशो धर्मोऽस्य विधर्मा विधर्मणो भावो वैधर्म्यम् । दृष्टान्तधर्मिणा सह साध्यधर्मिणः सादृश्यं हेतुकृतं साधर्म्यमुच्यते । असादृश्यं च हेतुकृतं वैधय॑मुच्यते । तत्र यस्य साधनवाक्यस्य साधर्म्यमभिधेयं तत्साधर्म्यवत् । यथा यत्कृतकं तदनित्यं यथायघटः । यथा च कृतकः शब्द इत्यत्र कृतकत्वकृतं दृष्टा
१ पदमिदं व पुस्तक एवोपलभ्यते । २व्याख्येयम्, ख० च व्याख्येयम् । . ३ पाक्यमिदं ख० पुस्तके नोपलभ्यते । ४ साधर्म्यवद्वैविध्यवञ्चति । ५ धर्मोऽस्य, क. "यव्य" (अशुद्धः ) “यस्य" इत्यस्य स्थाने, ख० धर्मोस्य।
६ ख० पुस्तके मध्यस्थं पाठं त्यक्त्वा 'साधर्म्यमभिधेयं यस्य तु वैधय॑मभिधेयम् ।' इति पाठो विद्यते ।
७क० शब्दः। त्यत्र।
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तृतीयपरिच्छेदः न्तसाध्यधर्मिणोः सादृश्यमभिधेयम् । यस्य तु वैधर्म्यमभिधेयं तद्वैधर्म्यवत् । यथा यन्नित्यं तदकृतकं दृष्टं यथाकाशम् । शब्द. स्तु कृतक इति । कृतकत्वाकृतकत्वकृतं शब्दाकाशयोः साध्यदृष्टान्तधर्मिणोरसादृश्यमिहाभिधेयम् । ___ यद्यनयोः प्रयोगयोरभिधेयं भिन्नं कथं तर्हि त्रिरूपं लिङ्गमभिन्न प्रकाश्यमित्याह- नानयोरर्थतः कश्चिद्भेदोऽन्यत्र प्रयोगभेदात् ।
नानयोरर्थत इति । अर्थः प्रयोजनं प्रकाशयितव्यं वस्तु यदुद्दिश्यानुमाने प्रयुज्यते । ततः प्रयोजनार्दनयोन भेदः कश्चित् । त्रिरूपं हि लिङ्गं प्रकाशयितव्यम् । तदुद्दिश्य द्वे अप्यते प्रयुज्येते । द्वाभ्यामपि त्रिरूपं लिङ्ग प्रकाश्यत एव । ततः प्रकाशयितव्यं प्रयोजनमनयोरभिन्नम् । तथा च न ततो भेदः कश्चित् । अभिधेयभेदोऽपि तर्हि न स्यादित्याह । अन्यत्र प्रयोगभेदादिति। प्रयोगोऽभिधानं वाचकत्तम् । वाचकत्वभेदादन्यो भेदः प्रयो. जनकृतो नास्तीत्यर्थः । एतदुक्तं भवति । अन्यदभिधेयमन्यत्मकाश्यं प्रयोजनम् । तत्राभिधेयापेक्षया वाचकत्वं भिद्यते । प्रका. श्यं त्वभिन्नम् । अन्वये हि कथिते वक्ष्यमाणेन न्यायेन व्यतिरेकगतिर्भवति । व्यतिरेके चान्वयगतिः । ततस्विरूप लिङ्गं प्र. काश्यमभिन्नम् । न च यत्राभिधेयभेदस्तत्र सामर्थ्यगम्योऽप्यर्थो भिद्यते । यस्मात्पीनो देवदत्तो दिवा न भुते। पीनो देवदत्तो रात्रौ भुत इति । अनयोर्वाक्ययोरभिधेयभेदेऽपि गम्यमानमेकमेव । तद्वदिहाभिधेयभेदेऽपि गम्यमानं वस्त्वेकमेव । तत्र साधर्म्यवद्यदुपलब्धिलक्षणप्राप्तं सन्नोपलभ्यते सो
ऽसद्व्यवहारविषयः सिद्धः । १ ख० 'अर्थः प्रयोजनं यत्प्रयोजनं प्रकाशयितव्यं वस्तु उद्दिश्य' । २ कर 'प्रकाशयितव्यस्तु ।' ३ अनयोः, ख० नानयोः ।
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. न्यायविन्दुः तत्रेति । तयोः साधर्म्यवैधर्म्यवतोरनुमानयोः साधर्म्यव. तावदुदाहरणमुदाहर्तुमनुपलब्धिमाह । यदित्यादिना । यदुपल. ब्धिलक्षणप्राप्तं यदृश्यं सन्नोपलभ्यत इति । अनेन दृश्यानुपलम्भोऽनूयते । सोऽसद्वयवहारस्य विषयः सिद्धः। तदसदिति व्यवहर्तव्यमित्यर्थः । अनेनासद्वयवहारयोग्यत्वस्य विधिः कृतः । ततश्वासद्व्यवहारस्य योग्यत्वे दृश्यानुपलम्भो नियतः कथितः। दृश्यमनुपलब्धमसद्व्यवहारयोग्यमेवेत्यर्थः । साधनस्य च साध्ये. ऽर्थे नियतत्वकथनं व्याप्तिकथनम् । यथोक्तम् । व्याँप्तिापकस्य तत्र भाव एव व्याप्यस्य चे तत्रैव भाव इति ।
व्याप्तिसाधनस्य प्रमाणस्य विषयो दृष्टान्तस्तमेव दर्शयितु. तुमाह
यथान्यः कश्चिदृष्टः शशविषाणादिः । यथान्य इति । साध्यधर्मिणोऽन्यो दृष्टान्त इत्यर्थः । दृष्ट इति प्रमाणेन निश्चितः । शशविषाणं हि न चक्षुषा विषयीकतम् । अपि तु प्रमाणेन दृश्यानुपलम्भेनासद्व्यवहारयोग्यं विज्ञातम् । शशविषाणमादिर्यस्यासद्व्यवहारविषयस्य स तथोतः । शशविषाणादौ हि दृश्यानुपलम्भमांत्रनिमित्तोऽसद्व्यवहारः प्रमाणेन सिद्धः । तत एव प्रमाणादनेन वाक्येनाभिधी. यमाना व्याप्तिोतव्या । । संप्रति व्याप्ति कथयित्वा दृश्यानुपलम्भस्य पक्षधर्मत्वं द. शयितुमाह-- नोपलभ्यते च कचित्प्रदेशविशेष उपलब्धि
लक्षणप्राप्तो घट इति । १ 'उदादरणमुवाहतुं इति पाठो ख.पुस्तक एवोपलभ्यते,अन्यत्र तु 'उदाहरन्' इत्यवास्ति। २ पदमिदं ख० पुस्तके नोपलभ्यते ।
३ योग्यत्वस्य, ख. योग्यत्वे। ४ व्याप्तिः, क० व्याप्ति। ५च, क० घा। ६ शशविषाणादिः। ७मात्र, ख० मात्रः।
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तृतीयपरिच्छेदः ... नोपलभ्यते चेति । प्रदेश एकदेशः पृथिव्याः । स एव विशिष्यतेऽन्यस्मादिति विशेषः। एकः प्रदेशविशेष इत्येकस्मिन्प्रदेशे क्वचिदिति । प्रतिपत्तुः प्रत्यक्ष एकोऽपि प्रदेशः स एवाभावव्यवहाराधिकरणं यः प्रतिपत्तुः प्रत्यक्षो नान्यः । उपलब्धिलक्षणप्राप्त इति दृश्यः। यथा चासतोऽपि घटस्य समारोपितमुपलब्धिलक्षणप्राप्सत्वं तथा व्याख्यातम् । स्वभावहेतोः साधर्म्यवन्तं प्रयोगं दर्शयितुमाह
तथा स्वभावहेतोः प्रयोगः
यत्सत्तत्सर्वमनित्यं यथा घटादिरिति । तथेति । यथानुपलब्धेस्तथा स्वभावहेतोः साधर्म्यवान्प्रयोग इत्यर्थः । यत्सदिति सत्त्वमनूद्य तत्सर्वमनित्यमित्यनित्यत्वं विधीयते । सर्वग्रहणं च नियमार्थम् । सर्वमनित्यं न किंचिनानित्यं यत्सत्तदनित्यमेवानित्यत्वादन्यत्र नित्यत्वे सत्वं नास्तीत्येवं सत्त्वमनित्यत्वे साध्ये नियतं ख्यापितं भवति । तथा च पति व्याप्तिप्रदर्शनवाक्यमिदम् । यथा घटादिरिति । व्याप्तिसाधनस्य प्रमाणस्य विषयकथनमेतत् ।
शुद्धस्य स्वभावहेतोः प्रयोगः । शुद्धस्येति । निर्विशेषणस्य स्वभावस्य प्रयोगः।। सविशेषणं दर्शयितुमाह
यदुत्पत्तिमत्तदनित्यामिति । यदुत्पत्तिमदिति । उत्पत्तिः स्वरूपलाभो यस्यास्ति तदु. १ बौद्धनये यत्सत्तत्सर्वमनित्यं घटादिवत् । न किचिवस्तु तेषां ते नित्यमस्ति। २ प्रयोगः। सविशेषणं, ख० प्रयोगस्य विशेषणम् । ३ यस्य, ख० स यस्य ।
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न्यायविन्दुः त्पत्तिमत् । उत्पत्तिमत्त्वमनूद्य तदनित्यमित्यनित्यत्वविधैः । तथा च सत्युत्पत्तिमत्त्वमनित्यत्वे नियतमाख्यातम् ।
स्वभावभूतधर्मभेदेन स्वभावस्य प्रयोगः । स्वभावभूतः स्वभावात्मको धर्मस्तस्य भेदेन भेदं हेतूकृत्य प्रयोगः । अनुत्पन्नेभ्यो हि व्यावृत्तिमाश्रित्योत्पन्नो भाव उच्य. ते । सैव व्यावृत्तिः । यदा व्यावृत्त्यन्तरनिरपेक्षा वक्तुमिष्यते तदा व्यतिरेकिणीव निर्दिश्यते । भावस्योत्पत्तिरिति । तया च व्यतिरिक्तयेवोत्पत्त्या विशिष्टं वस्तूत्पत्तिमद्रुक्तम् । तेन स्वभा- . वभूतेन धर्मेण कल्पितभेदेन विशिष्टः स्वभावः प्रयुक्तो द्रष्टव्यः ।
यत्कृतकं तदनित्यमित्युपाधिभेदेन । यत्कृतकमिति । कृतकत्वमनूद्यानित्यत्वं विधीयत इति । अनित्यत्वे नियतं कृतकत्वमुक्तमतो व्याप्तिरनित्यत्वेन कृतकस्य दर्शिता । उपाधिभेदेन स्वभावस्य प्रयोग इति संबन्धः । उपा. धिर्विशेषणम् । तस्य भेदेन भिन्नेनोपाधिना विशिष्टः स्वभावः प्रयुक्त इत्यर्थः । इह कदाचिच्छुद्ध एवार्थ उच्यते । कदाचिदव्यतिरिक्तेन विशेषणेन विशिष्टः । कदाचियतिरिक्तेन । देवदत्त इति शुद्धः। लम्बकर्ण इत्यभिन्नकर्णद्वयविशिष्टः । चित्रगुरिति व्यतिरिक्तचित्रगवीविशिष्टः । तद्वत्सत्वं शुद्धमुत्पत्तिमत्त्वमव्यतिरिक्तविशेषणम् । कृतकत्वं व्यतिरिक्तविशेषणम् ।
ननु च चित्रगुशब्दे व्यतिरिक्तस्य विशेषणस्य वाचकश्चित्रशब्दो गोशब्दश्वास्ति । कृतकशब्दे तु निर्विशेषणवाचिनः शब्दस्य प्रयोगोस्तीत्याशङ्कयाह ।
१ उत्पत्तिमत् ।, क० उत्पत्तिमत् । यदुत्पत्तिमदिति । २०विधेः , ख० विधिः। ३ नियतं व्याप्तमित्यर्थः। ४ अनित्यत्वे, क० अनियतत्वे।
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________________ तृतीयपरिच्छेदः अपेक्षितपरव्यापारो हि भावः स्वभावनिष्पत्तौ कृतक इति / अपेक्षितेति / परेषां कारणानां व्यापारः स्वभावस्य नि. पत्तौ निष्यत्यर्थमपेक्षितः परव्यापारो येन स तथोक्तः / हीति यस्मादर्थे / यस्मादपेक्षितपरव्यायारः कृतक उच्यते तस्माद्यति. रिक्तेन विशेषणेन विशिष्टः स्वभाव उच्यते / यद्यपि व्यतिरिक्तं विशेषणपदं नं प्रयुक्तं तथापि कृतकशन्देनैव व्यतिरिक्त विशेष णमन्तर्भावितमत एव संज्ञाप्रकारोयं कृतकशब्दः / यस्मात्संज्ञायामयं कन्प्रत्ययो विहितः / यत्र च विशेषणमन्तर्भाव्यते तत्र विशेषणपदं न प्रयुज्यते / कचित्प्रतीयमानं विशेषणं यथा - त इत्युक्ते हेतुभिरित्येतत्प्रतीयते / तत्र चे हेतुशब्दः प्रयुज्यते / कदाचिन वा प्रयुज्यते / प्रयुज्यमानस्वशब्दश्च यथा प्रत्येयभेदभदिशब्दे प्रत्ययभेदः। एवं प्रत्ययभेदभेदित्वादयो द्रष्टव्याः / यथा च कृतकशब्दो भिन्नविशेषणस्वभावाभिधाय्येवं त्ययभेदभेदित्वमादिर्येषां प्रयत्नानन्तरीयकत्वादीनां तेऽपि वभावहेतोः प्रयोगा भिन्नविशेषणस्वभावाभिधायिनो द्रष्टव्याः / त्ययानां कारणानां भेदो विशेषस्तेन प्रत्ययभेदेन भेत्तुं शीलं स्य स प्रस्ययभेदभेदी शब्दस्तस्य भावः प्रत्ययभेदभेदित्वम् / तः प्रत्ययभेदभेदित्वाच्छब्दस्य कृतकत्वं साध्यते / प्रयत्नान. 1 कृतकस्य लक्षणमिदम् / 2 न, ख० न च / 3 विशेषणं, ख विशेषणपदम् / 4 इदं पदं ख० पुस्तके न विद्यते / ५प्रत्ययभेदभेदिशब्दे, स्व. प्रत्ययभेवशम् /
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________________ .. . - न्यायविन्दुः न्तरीयकत्वादनित्यत्वं साध्यते / तत्र प्रत्ययभेदशब्दो व्यति. रिक्तविशेषणाभिधायी प्रत्ययभेदभेदिशब्द प्रयुक्तः / प्रयत्नानन्तरीयकशब्दे च प्रयत्नशब्दः / तदेवं त्रिविधः स्वभावहेतुप्रयोगो दर्शितः / शुद्धोऽव्यतिरिक्तविशेषणो व्यतिरिक्तविशेषणश्च / एवमर्थं चैतदाख्यातम् / वाचकभेदान्मा भूत्कस्यचित्स्वभावहे. सावपि प्रयुक्त व्यामोह इति / सन्नुत्पत्तिमान्कृतको वा शब्द इति पक्षधर्मोपदर्शन। . सर्व पते साधनधर्मा यथास्वं प्रमाणैः सिद्धसाधनधर्ममात्रानुबन्ध एव साध्यधर्मेऽवगन्तव्याः / अव किमेते स्वभावहेतवः सिद्धसंबन्धे स्वभावे साध्ये प्रयोतव्याः,आहोस्विदसिद्धसंबन्ध इत्याशङ्कय सिद्धसंबन्धे प्रयोक्तव्या इति दर्शयितुमाह / सर्व एत इति / गमेकत्वात्साधनानि पराश्रितत्वाच धर्माः साधनधर्मा एत साधनधर्ममात्रम् / मात्रशब्देनाधिकस्यापेक्षणीयस्य निरासः। तस्यानुबन्धोऽनुगमनमन्वयः सिद्धः साधनधर्ममात्रानुबन्धो यस्य स तथोक्तः। केन सिद्ध इत्याह / यथा स्वं प्रमाणेरिति / यस्य साध्यधुर्मस्य यदात्मीय प्रमाणं तेनैव प्रमाणेन सिद्ध इत्यर्थः / स्वभावहेतूनां च बहुभे. दत्वात् / संबन्धसाधनान्यपि प्रमाणानि वहूनीति प्रमाणैरिति 1 पदमिदं ख० पुस्तके नैवोपलभ्यते / २०प्रयोगः, ख ०योगः / 3 एवमथे, ख० एतदर्थम् / 4 किञ्चिदपि टीकाकारणास्योपरि न लिखितम् / / 5 गमकत्वात् , क. गमत्वात् / / 6 इति' इति पाठः ख० पुस्तके नोपलभ्पते / ७पाठोऽयं ख० पुस्तके नोपलभ्यते /
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तृतीयपरिच्छेदः
बहुवचननिर्देशः । गमयितव्यत्वात्साध्यः पराश्रितत्वाच्च धर्मः साध्यधर्मस्तदयं परमार्थः । न हेतुः प्रदीपवद्योग्यतया गमको ऽपि तु नानन्तरीयकतया विनिश्चितः । साध्याविनाभावित्वनिश्वयनमेव हि' हेतोः साध्यप्रतिपादन व्यापारो नान्यः कश्चित् । प्रथमं वाधकेन प्रमाणेन साध्यप्रतिबन्धो निश्चेतव्यो हेतोः पुनरनुमानकालेन साधनं साध्यानन्तरीयकं सामान्येन स्मर्तव्यम् । कृतकत्वं नामानित्यत्वस्वभावमिति सामान्येन स्मृतंमर्थं पुनर्विशेषे योजयतीदमपि कृतकत्वं शब्दे वर्तमानमनित्यस्वभावमेवेति । तत्र सामान्यस्मरणं लिङ्गज्ञानम् । विशिष्टस्य तु शब्दग तकृतकस्यानित्यत्वस्वभावस्य स्मरणमनुमानज्ञानम् । तथा च सत्यविनाभावित्वज्ञानमेव परोक्षार्थप्रतिपादकत्वं नाम । तेन निश्चितन्मात्रानुबन्धिसाध्यधर्मे स्वभावहेतवः प्रयोक्तव्या नान्यत्रेत्युक्तम् ।
यद्येवं संबन्धो निश्वेतव्यः । साध्यस्य साधनेन सह | साधनधर्ममात्रानुबन्धस्तु साध्यस्य कस्मान्निश्चितो मृग्यत इत्याह । तस्यैवेति । सिद्धसाधनधर्ममात्रानुबन्धस्य |
तत्स्वभावत्वात्स्वभावस्य च हेतुत्वात् ।
अ
तत्स्वभावत्वादिति । साधनधर्मस्वभावत्वात् । यो हि साध्यधर्मः साधनधर्ममात्रानुबन्धवान्स एव तस्य साधनधर्मस्य - स्वभावो नान्यः । भवत्वीदृश एव स्वभावः । स्वभाव एव तु साध्ये कस्माद्धेतुप्रयोगः । स्वभावस्य हेतुत्वात् । स्वभाव
१ 'हि' इति पाठः ख० पुस्तके नैवोपलभ्यते ।
२ स्मृतमर्थम्, ख० स्मृतमर्थाय ।
३ नायं 'तस्यैवेति' मूलेऽवलोक्यते । तस्मादस्माकं सम्मतौ कि. शिब्छब्दं वाक्यं वाऽऽत्र परित्यक्तम् मूलपुस्तकस्य
लेखकेन प्रमा
वशात् ।
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'न्यायविन्दुः
इंह हेतुः प्रक्रान्तः । तस्मात्स एव साध्यः कर्तव्यः । यः साध. नस्य स्वभावः स्यात्साधनधर्ममात्रानुवन्धेश्च स्वभावो नान्यः । ___ यदि साध्यधर्मः साधनस्य स्वभावः/प्रतिज्ञार्थंकदेशस्तर्हि हेतुः स्यादित्याह । वस्तुतस्तयोस्तादात्म्यात्तन्निष्पत्तावनिष्पन्नस्य तत्स्वभा
वत्वाभावाद्व्यभिचारसंभवाच्च । वस्तुत इति । वस्तुतः परमार्थतः साध्यसाधनयोस्तादा. त्म्यम् । समारोपितस्तु साध्यसाँधनयोर्भेदः । साध्यसाधनभावो हि निश्चयारूढे रूपे । निश्चयारूढं च रूपं समारोपितेन भेदेनेतरव्यात्तिकृतेन भिन्नमित्यन्यत्साधनमन्यत्साध्यम् । दूराद्धि शाखादिमानर्थो वृक्ष इति निश्चीयते न शिंशपेति । अथ च स एवं वृक्षः । सैव शिंशपा । तस्मादभिन्नमपि वस्तु निश्चयो भिन्नमादर्शयति व्यावृत्तिभेदेन । तस्मानिश्चयारूढरूपापेक्षयान्यत्साधनमन्यत्साध्यम् , अतो न प्रतिज्ञार्थंकदेशो हेतुर्वास्तवं च तादात्म्यमिति । कस्मात्पुनः साधनधर्ममात्रानुबन्ध्ये साध्यः स्वभावो नान्य इत्याह । तनिष्पत्ताविति । यो हि यन्नानुबध्नाति स तनिष्पत्तावनिष्पन्नः । तस्य तन्निष्पत्तावनिष्पन्नस्य साधनस्वभावत्वमयुक्तम् । यतो निष्पत्यनिष्पत्ती भावाभावरूपे । भावा. भावौ च परस्परपरिहारेण स्थितौ। यदि च पूर्वनिष्पन्नस्यानि
१ इह, ख. एव । २ अनुबन्धश्च स्वभावः, ख० ०अनुबन्धवांश्च भावः। ३ साध्यसाधनयोः, ख० साध्यसाधनभेदः।
४ 'अर्थो'इत्यस्य स्थाने मुद्रितपुस्तके 'अयो' इति पाठः विद्यते । यश्चास्माकं सम्मती अशुद्धः एव ।
५ अनुबन्ध्येव, ख० अनुबंधे च । ६ क० स तन्निष्पत्तावनिष्पन्नस्य साधन।
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तृतीयपरिच्छेदः पत्रस्य चैक्यं भवेत् , एकस्यैवार्थस्य भावाभावौ स्याता युगपन च विरुद्धयोर्भावाभावायोरैक्यं युज्यते । विरुद्धधर्मसंसर्गात्मकत्वादेकत्वाभावस्य । किं च पश्चादुत्पद्यमानं पूर्वनिष्पनाद्भिन्नहेतुकम् । हेतुभेदपूर्वकश्च कार्यभेदः । ततो निष्पनानिपन्नयोविरुद्धधर्मसंसर्गात्मको भेदो भेदहेतुश्च कारणभेद इति कुत एकत्वम् । तस्मात्साधनधर्ममात्रानुबन्ध्यव साध्यः स्वभावो नान्यः । मा भूत्पश्चानिष्पन्नः पूर्वजस्य स्वभावः । साध्यस्तु कस्मान भवतीत्याह । पूर्वजेन पश्चानिष्पत्रस्य व्यभिचार: परित्यागो यस्तस्य संभवाच । न पूर्वनिष्पन्नस्य पश्चानिष्पन्नः साध्यः । तस्मात्साधनधर्ममात्रानुबन्ध्येव स्वभावः । स एव च साध्यः । तथा च सिद्धसाधनधर्ममात्रानुबन्ध एव स्वभावहेतबा प्रयोक्तव्या इति स्थितम् ।
कार्यहेतोरपि प्रयोगः यत्र धूमस्तत्राग्निर्यथा महानसादावस्ति चेह धूम इति । इहापि सिद्ध एव । कार्यकारणभावे कारणे साध्ये कार्यहेतुर्वक्तव्यः ।
कार्यहेतोः प्रयोगः साधर्म्यवानिति प्रकरणादपेक्षणीयम् । यत्र धूम इति । धूममनूय तत्राग्निरित्यग्नोर्वधिः । तथा च नियमार्थः पूर्ववदनुगन्तव्यः । तदनेन कार्यकारणभावनिमित्ता व्याप्तिर्दर्शिता । व्याप्तिसाधनप्रमाणविषयं दर्शयितुमाह । यथा महानसादाविति । महानसादौ हि प्रत्यक्षानुपलम्भाभ्यां कार्यकारणभावात्माविनाभावो निश्चितः । अस्ति चेहेति । साध्यध
१ स्वभावः। स एव च साध्यः । तथा च सिद्धसाधन, ख० या स्वभावः स एव च साध्यस्वभावः सिद्धसाधन०।
२ स्वभावहेतवः, ख. स्वभावे स्वभावहेतवः। ३ अने, ख. अग्नि।
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७२
न्यायबिन्दुः
र्मिणि पक्षधर्मोपसंहारः । इहापीति । न केवलं स्वभावहताविहापि कार्य सिद्ध एवेति । निश्चिते कार्यकारणत्वे कार्यकारणत्वनिश्रयो वश्यकर्तव्यः । यतो न योग्यतया हेतुर्गमकोऽपि तु नान्तरीयकत्वादित्युक्तम् । साधर्म्यवान्स्वभावकार्यानुपलम्भानां प्रयोगो दर्शितः । वैधर्म्यवन्तं दर्शयितुमाह
वैधर्म्यवतः प्रयोगो यत्सदुपलब्धिलक्षणप्राप्तं तदुपलभ्यत एव । यथा नीलादिविशेषः । न चैवमिहोपलब्धिलक्षणप्राप्तस्य सत उपलब्धिर्घटस्येत्यनुपलब्धिप्रयोगः ।
वैधर्म्यवत इति । यत्सदुपलब्धिलक्षणप्राप्तमिति । यत्सदृश्यमित्यस्तित्वानुवादः । तदुपलभ्यते इति उपलम्भविधिः । तदनेन दृश्यस्य सखं दर्शनविषयत्वेन व्यासं कथितमसत्वनिवृत्तिश्च । सच्चनुपलम्भनिवृचिचोपलम्भः । तेन साध्यनिवृत्यनुवादेन साधननिवृत्तिर्विहिता । तथा च साध्यनिवृत्तिः साधननिवृत्तौ नियतत्वात्साधन निवृत्या व्याप्ता कथिता । यदि च धर्मिणि साध्यधर्मो न भवेद्धेतुरपि । हेत्वभावेन साध्याभावस्य व्याप्तत्वात् । अस्ति च हेतुरतो व्यापकस्य साधनाभावस्याभावाद्वयायस्य साध्याभावस्याभाव इति साध्यनिश्चयो भवति । ततो वैधर्म्यप्रयोगे साधनाभावे साध्याभावो नियतो दर्शनीयः सर्वत्रेति न्यायः ।
१ कार्यहेतो, ख० कार्यहेतोः” ।
२ कार्यकारणत्व०, ख० कार्यकारणभाव० ।
३ 'हेतुरपि' इति पाठः क० पुस्तके नोपलभ्यते । ४ नियतः ख० नियमः ।
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तृतीयपरिच्छेदः . स्वभावहेतो_धर्म्यप्रयोगमाह.. असत्यनित्यत्वे नास्त्रि सत्वमुत्पत्तिमत्त्वं कृतकत्वं वा । असंश्च शब्द उत्पत्तिमान्कृतको वेति स्वभावहेतोः प्रयोगः ।
असत्यनित्यत्व इति। इहानित्यत्वस्य साध्यस्याभावो हेतोरभावे नियंत उच्यते । तेन हत्वभावेन साध्याभावो व्याप्त उक्तः । त्रिष्वपि स्वभावहेतुषु सन्नुत्पत्तिमान्कृतको वा शब्द ति त्रयाणामपि पक्षधर्मत्वप्रदर्शनम् । इह च साधनाभावस्य यापकस्याभाव उक्तः । ततो व्याप्योपि साध्याभावो नित्त ति साध्यगतिः ।
कार्यहेतोवैधयप्रयोगमाहअसत्यग्नौ न भवत्येव धमोऽत्र चास्तीति कार्य
• हेतोः प्रयोगः। ... असत्यग्नाविति । इहापि वह्नयभावो धूमाभावेन व्याप्त
। अस्ति चात्र धूम इति व्यापकस्य धूमाभावस्याभाव । ततो व्याप्यस्य वह्नयभावस्याभावे साध्यगतिः। ननु च साधर्म्यवेति व्यतिरेको नोक्तः। वैधर्म्यवति चा.
तत्कथमेतत्तिरूपलिङ्गाख्यानमित्याहधम्र्येणापि हि प्रयोगेऽर्थाद्वैधर्म्यगतिरिति । असति ... तस्मिन्साध्ये न हेतोरन्क्याभावात् । . . , साधयेणेति। साधम्र्पणाप्यभिधेयेन युक्त प्रयोगे क्रियमाणेऽ मुद्रितपुस्तकस्य 'नित्वस्य' इति पाठोऽशुद्धः प्रतीयते । नियतः ख० नियमः। ३ निवृत्तः, स्व. निवर्तते । वैधुर्म्यप्रयोगम, म वैधय॑वत्प्रयोगम् । साधर्म्यवति व्यतिरैकः, ख० साधर्म्यव्यतिरेकः । ।
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७४
न्यायविन्दुः र्थादिति सामर्थ्याद्वैधर्म्यस्य व्यतिरेकस्य गतिर्भवतीति । हीति यस्मात् । तस्मात्रिरूपलिङ्गाख्यानमेतत् । यदि नाम व्यतिरेको ऽन्वयवति नोक्तो तथाप्यऽन्वयवचनसमादेवावसीयते । क; थम्? असति तस्मिन्व्यतिरेके बुद्धयध्यवसिते साध्येन हेतोरन्वयस्य बुद्धावसितस्याभावात् । साध्ये नियतं साधनमन्वय वाक्यादवस्यता साध्याभावे साधनं नाशङ्कनीयम् । इतरथा साध्यनियतमेव न प्रतीतं स्यात्साध्याभावे च साधनाभावगतिर्व्यतिरेकगतिः । अतः साध्यनियतस्य साधनस्याभिधानसामर्थ्यां दन्वयवाक्येऽवसितो व्यतिरेकः । तथा वैधयेणाप्यन्वयगतिः । असति तस्मिन्सा
ध्यभावे हेत्वभावस्यासिद्धेः । तथेति । यथान्वयवाक्ये वथार्थादेव वैधhण प्रयोगेऽन्त्रयस्यानभिधीयमानस्यापि गतिः । कथमसति तस्मिन्नन्वये बु. द्धिगृहीते ते सोध्याभावे हेत्वभावस्यासिद्धेरनवसायात् । हेत्वभावे साध्याभावं नियतं व्यतिरंकवाक्यादवस्यता हेतुसंभवे साध्याभावो नाशङ्कनीयः । इतरथा हेत्वाभावे नियतः साध्याभावो न स्यात्प्रतीतः । हेतुसत्त्वे च साध्यसत्त्वगतिरन्वयगतिः । अतः साधनाभावनियतस्य साध्याभावस्याभिधानसामोद्यतिरेकवाक्येऽन्वयगतिः ।
यदि नामाकाशादा साध्याभावे साधनाभावस्तथापि कि
१ 'इति' इति पाठो ख० पुस्तके नैवोपलभ्यते । २ख० तथाप्यन्वयवचनसामांत। ३ क० व्यतिरेक० । ४ ख० वुद्ध्यवसितस्य। ५ पदमिदं ख० पुस्तके नाक्लोक्यते । ६ क० साध्यसरवं ।
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तृतीयपरिच्छेदः मिति हेतुसंभवे साध्यसंभव इत्याह. न हि स्वभावप्रतिबन्धे सत्येकस्य निवृत्तावप- रस्य नियमेन निवृत्तिः ।
नहीति । स्वभावेन प्रतिबन्धो यस्तस्मिन्नसत्येकस्य साध्यस्य निवृत्या नापरस्य साधनस्य नियमेन युक्ता नियमवती निवृत्तिः । स च द्विप्रकारः । सर्वस्य तादात्म्यलक्षणस्तदुत्प
त्तिलक्षणश्चेत्युक्तम् । स च स्वभावप्रतिबन्धो द्विप्रकारः सर्वस्य । तादात्म्य लक्षणं निमित्तं यस्य स तथोक्तः । तदुत्पत्तिलक्षणं निमित्तं यस्य स तथोक्तः । यो यत्र प्रतिबद्धस्तस्य स प्रतिबन्धविषयोऽर्थः स्व. भावः कारणं वा स्यात् । अन्यस्मिन्प्रतिबद्धत्वानुपपत्तेः। तस्माहिमकारः स इत्युक्तम् । स च साध्येऽर्थ लिङ्गस्येत्यत्रान्तरेऽभिहितः । तेन हि निवृत्तिं कथयता प्रतिबन्धों दर्शनीयः ।
हिर्यस्मादर्थे । यस्मात्स्वभावप्रतिबन्धे निवर्त्यनिवर्तकभावस्तेन साध्यस्य निवृत्तौ साधनस्य निवृत्तिं कथयता प्रतिबन्धो निवर्त्यनिवर्तकयोदर्शनीयः। तस्मान्निवृत्तिवचनमाक्षिप्तप्रतिबन्धोपदर्शनमेव भवति ।
यदि हि साधनं साध्ये प्रतिबद्धं भवदेवं साध्यनिवृत्ती तंत्रियमेन निवर्तेत । यतश्च तस्य प्रतिबन्धो दर्शनीयस्तस्मा. साध्यनिवृत्तौ यत्साधननिवृत्तिवचनं तेनाक्षिप्त प्रतिवन्धोपदर्श१ ख. सर्वस्य प्रतिबद्धस्य । २'तत्' इति पदं ख. पुस्तके नोपलभ्यते । ३ ख० तेनाक्षिप्तं प्रतिबन्धोपदर्शनम् तदेवान्वयवचनम् ।
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न्यायबिन्दुः नम् । यञ्च तदाक्षिप्तमतिबन्धोपदर्शनं तदेवान्वयवचनम् प्रतिबन्धश्चेदवश्यं दर्शयितव्यः । न वक्तव्यस्तयन्वयः ।
यच्च प्रतिबन्धोपदर्शनं तदेवान्वयवचनमित्येकेनापि वाक्येनान्वयमुखेन व्यतिरेकमुखेन वा प्रयुक्तेन सपक्षासपक्षयोर्लिङ्गस्य सदसत्त्वख्यापनं कृतं भवतीति नावश्यवाक्यद्वयप्रयोगः ।
यस्मादृष्टान्ते प्रमाणेन प्रतिबन्धो दर्यमान एवान्वयो नापरः कश्चित्तस्मानिव-निवर्तकप्रतिबन्धो ज्ञातव्यः । तथा चान्वय एव ज्ञातो भवति । इतिशब्दो हेतौ । यस्मादन्वये व्य. तिरेकगतिर्व्यतिरेके चान्वयगतिस्तस्मादेकेनापि सपक्षे चासपक्षे च सत्त्वासत्वयोः ख्यापनं कृतम् । अन्वयो मुखमुपायोऽभिधेयत्वाधस्य तदन्वयमुखं वाक्यम् । एवं व्यतिरेको मुखं यस्येति । इति हेतौ । यस्मादेकेनापि वाक्येन द्वयगतिस्तस्मा. देकस्मिन्साधनवाक्ये द्वयोरन्वयव्यतिरेकवाक्ययोरवश्यमेव प्रयोगो न कर्तव्यः । अर्थगत्यर्थो हि शब्दप्रयोगः । अर्थश्चेदव. गतः किं शब्दप्रयोगेण । एकमेव त्वन्वयवाक्यं व्यतिरेकवाक्यं वा प्रयोक्तव्यम् ।
अनुपलब्धावपि यत्सदुपलब्धिलक्षणप्राप्तं तदुपलभ्यत एवेत्युक्तेऽनुपलभ्यमानं तादृशमसदिति प्रतीतेरन्वयसिद्धिः।
अनुपलब्धावपि व्यतिरेकेणोक्तेनान्वयगतिः। यत्सदुप१ निवर्त्यनिवर्तक०, ख० निवर्त्य निवर्तकयोः । २ अन्वये, ख० अन्वयेऽपि। ३ क० इतिकरणो हेतौ। ४ "तु" इति पदं ख० पुस्तके नास्त्येव । ५ उक्तेन, ख० युक्तेन ।
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तृतीयपरिच्छेदः लब्धिलक्षणप्रासमिति । साध्यस्यासद्वयवहारयोग्यत्वस्य निवृत्तिदृश्यसत्वरूपमाह । तदुपलभ्यत एवेति । अनुपलम्भस्य नि. वृत्तिमुपलम्भरूपामाह । तदनेन साध्यनिवृत्तिः साधननिवृत्या व्याप्ता दर्शिता। यदि च साधनसंभवेऽपि साध्यनिवृत्तिर्भवेन साधनाभावेन व्याप्ता भवेत् । अतो व्याप्ति प्रतिपद्यमानेन साधनसंभवः साध्यसंभवेन व्याप्तः प्रतिपत्तव्यः । अत एवाहानुपलभ्यमानतादृशमिति । दृश्यमसदिति प्रतीतेः संप्रत्ययादन्व. यसिद्धिरिति ।
द्वयोरप्यनयोः प्रयोगेऽवश्यं पक्षनिर्देशः ।
यतश्च साधनं साध्यधर्मप्रतिवद्धं तादात्म्यतदुत्पत्तिभ्यां प्रतिपत्तव्यं द्वयोरपि प्रयोगयोस्तस्मात्पक्षोऽवश्यमेव न निर्देश्यः। . यत्साधन साध्यनियतं प्रतीतं तत एव साध्यधर्मिणि दृष्ट्वा साध्यप्रतीतिरतो न किंचित्साध्यनिर्देशेनेत्येवमेवार्थमनुपलब्धिप्रः योगे दर्शयति । यस्मात्साधर्म्यवत्प्रयोगेऽपि यदुपलब्धिलक्षणप्राप्त
सन्नोपभ्यते सोऽसद्व्यवहारविषयः । . साधर्म्यवति प्रयोगेऽपि सामर्थ्यादेव नेह घट इति भवति । किं पुनस्तत्सामर्थ्यमित्याह । यदुपलब्धिलक्षणप्राप्तमिति । अनुपलम्भानुवादः सोऽसद्वयवहारविषय इत्यसयवहारयोग्यत्वविधिः । तथा च सति दृश्यानुपलम्भोऽसद्वयवहारयोग्यत्वेन १० व्याप्तिप्रतिपद्यमानेन ।
२ पदमिदं क० पुस्तके न विद्यते । . ३ ख. पुस्तकस्य पाठः 'प्रयोगयोः' इत्यस्मादारभ्य 'घट इति प्रवति' पर्यन्तं न सम्यक्पठयते । । ४ यदुपलब्धिलक्षणप्राप्तमिति, ख० यदुपलब्धिलक्षणप्रासं स. होपलभ्यत इति ।
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न्यायविन्दुः व्याप्तो दर्शितः। नोपलभ्यते चात्रोपलब्धिलक्षणप्राप्तो घट इत्युक्ते
सामर्थ्यादेव नेह घट इति भवति । नोपलभ्यत इत्यादिना साध्यधमिणि सत्वं लिङ्गस्य दर्शितम् । यदि च साध्यधर्मस्तत्र साध्यधामणि न भवेत्साधनधर्मोनि न भवेत् । साध्यनियतत्वात्तस्य साधनधर्मस्येति सामर्थ्यम् । - तथा वैधर्म्यवत्प्रयोगेऽपि यः सद्वयवहारविषय उपलब्धिलक्षणप्राप्तः स उपलभ्यत एव न तथात्र तादृशो घट उपलभ्यत इत्युक्ते सामर्थ्यादेव नेह सद्व्यवहारविषय इति भवति ।
यथा साधर्म्यवत्प्रयोगे तथा वैर्धम्यवत्प्रयोगेऽपि सामर्थ्यादेव नेह सद्व्यवहारविषयोऽस्ति घट इति भवति । सामर्थ्य दर्शयितुमाह । यः सद्वयवहारविषय इति । विद्यमानः। उपलब्धिलक्षण प्राप्त इति । दृश्यः । इत्येषा साध्यनिवृत्तिरुपलभ्यत एवेति साधननिवृत्तिरित्यनेन न साध्यनिवृत्तिः साधननिवृत्त्या व्याप्ता दर्शिता । न तथेति । यथान्यो दृश्य उपलभ्यते न तथात्र प्रदेशे तादृश इति दृश्यो घट उपलभ्यत इत्यनेन साध्यनिवृत्तेापिका साधननिवृत्तिरसती साध्यधर्मिणि दार्शता ।
कीदृशः पुनः पक्ष इति निर्देश्यः । यदि च न साध्यधर्मः साध्यधामणि भवेत्साधनधर्मोऽपि न भवेदस्ति च साधनधर्म इति सामर्थ्यात्ततः सामर्थ्यान्नास्त्यत्र घट इति प्रतीतेने पक्षनिर्देशः । एवं कार्यस्वभावहेत्वोरपि सामत्सिंप्रत्यय इति न पक्षानिर्देशः ।
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तृतीयपरिच्छेदः
૭૧
कीदृशः पुनरर्थः पक्ष इत्यनेन शब्देन निर्देश्यो वक्तव्य
इत्याह ।
स्वरूपेणैव स्वयमिष्टो ऽनिराकृतः पक्ष इति । स्वरूपेणैवेति । साध्येत्वनैव स्वयमिति वादिना इष्ट इति नो वापि विष्टोऽपीत्यर्थः । एवंभूतः सन्प्रत्यक्षादिभिरनिराकृतो योऽर्थः स पक्ष इत्युच्यते । अथ यदि न पक्षो निर्देश्यः कथमनिर्देश्यस्य लक्षणमुक्तम् । न साधनवाक्यावयवत्वादस्य लक्षणमुक्तमपि त्वसाध्यं केचित्साध्यं साध्यं चासाध्यं म तिपन्नाः । तत्साध्यासाध्य विप्रतिपत्तिनिराकरणार्थ पक्षलक्षणमुक्तम् ।
स्वरूपेणेति साध्यत्वेनेष्टः । स्वरूपेणैवेति साध्यत्वेनेष्टो न साधनत्वेनापि ।
स्वरूपेणेष्ट इत्यस्य विवरणम् । साध्यत्वेनेष्ट इति पक्षस्य साध्यत्वान्नापरमस्तिरूपम् । अतः स्वरूपं साध्यत्वमिति । एवशब्दं विवरीतुमाह । स्वरूपेणैवेति ।
ननु चैवशब्दः केवल एव प्रत्यवमष्टव्यस्तत्किमर्थ स्वरूपशब्देन सह प्रत्यवमृष्टः । उच्यते । एवशब्दो निपातो द्योतकः । पदान्तराभिहितस्यार्थस्य विशेषं द्योतयतीति पदान्तरेण विशेष्यवाचिना सह निर्दिष्टः । न साधनत्वेनापीति । यत्साधन
१ मुद्रित पुस्तकस्य 'इष्टो निराकृतः' इति पाठोऽशुद्धः प्रतीयते । २ क० साध्यत्वेनैवास्वयमिति ।
३ अर्थः, ख० अर्थो यः ।
४ असाध्यं केचित्साध्यं साध्यं चासाध्यं प्रतिपन्नाः ख० अ साध्यं किंचित्साध्यं साध्यं चासाध्य केचित्प्रतिपन्नाः ।
५ तत्किमर्थम्, ख० तत्कथम् ।
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न्यायबिन्दुः त्वेन निर्दिष्टं तत्साधनत्वेनेष्टमसिद्धत्वाचं साध्यत्वेनापीष्टं तस्य निवृत्त्यर्थ एवशब्दः तदुदाहरति ।
यथा शब्दस्यानित्यत्वे साध्ये चाक्षुषत्व हेतुः । यथेति । शब्दस्यानित्यत्वे साध्ये चाक्षुषत्वं हेतुः ।।
शब्देऽसिद्धत्वात्साध्यं न पुनस्तदिह साध्यत्वेनवष्टं साधनत्वनाप्यभिधानात् ।
शब्देऽसिद्धत्वात्साध्यमित्यनेन साध्यत्वेनेष्टिमाह । तदिति । चाक्षुषत्वमिहेति शब्दे न साध्यत्वनैवेष्टमिति । साध्यत्वेने. ष्टिनियमाभावमाह । साधनत्वेनाभिधानादिति । यतः साधनत्वेनाभिहितमतः साधनत्वेनापीष्टम् । न साध्यत्वेनैवेति ।
स्वयमिति वादिना यस्तदा साधनमाह । एतेन यद्यपि कचिच्छास्त्रे स्थितसाधनमाह । तच्छास्त्रकारेण तस्मिन्धर्मिण्यनेकधर्माभ्युपगमेऽपि यस्तदा तेन वादिना धर्मः स्वयं साधयितुमिष्टः स एव साध्यो नेतर इत्युक्तं भवति । ___ स्वयमित्यनेन स्वयंशब्दं व्याख्येयमुपक्षिप्य तस्यार्थमाह । वादिनेति । स्वयंशब्दो निपातः । आत्मन इति षष्ठयन्तस्यात्मनेति च तृतीयान्तस्यार्थे वर्तते । तदिह तृतीयान्तस्यात्मशब्दस्यार्थे वृत्तः स्वयंशब्दः । आत्मशब्दश्च सम्बन्धिशब्दो वादी च प्रत्यासन्नभूतो यस्य वादिन आत्मा तृतीयार्थयुक्तः स एवं • १ च' इति पदं ख० पुस्तके नैवावलोक्यते । २ उदाहरति, ख० उदाहरति यथेति । ३ तृतीयान्तस्यार्थे वर्तते, ख० तृतीयान्तस्यार्थेन युक्तः। ४ एव' इति पदं ख० पुस्तके न विद्यते ।
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८१ .
तृतीयपरिच्छेदः तृतीयार्थयुक्तो निर्दिष्टो वादिनेति । ननु स्वयंशब्दस्य वादिनेत्येष पर्यायः । कः पुनरसौ वादीत्याह । यस्तदेति । वादकाले साधनमाह । अनेकवादिसम्भवेऽपि स्वयंशब्दवाच्यस्य वादिनो विशेषणमेतत् यद्येव वादिन इष्टः साध्य इत्युक्तम् । एतेन च किमुक्तेन । अनेन तदा वादकाले तेन वादिना स्वयं यो धर्मः साधयितुमिष्टः स एव साध्यो नेतरो धर्म इत्युक्तं भवति । वा. दिनोऽनिष्टधर्मसाध्यत्वनिवर्तनमस्य वचनस्य फलमिति यावत् । अथ कस्मिन्सत्यन्यधर्मसाध्यत्वसंभवो यनिवृत्यर्थ चेदं वक्तमित्याह । तच्छास्त्रकारेणेति । बसावं तेन बादिनाभ्युपगतं तच्छास्त्रकारेण तस्मिन्साध्यामध्यनेकस्य धर्मस्याभ्युपगमे सत्यन्यधर्मसाध्यत्वसंभवः । तथा हि शास्त्र येनाभ्युपगत तत्सिद्धो धर्मः सर्व एव तेन साध्य इत्यस्ति विप्रतिपत्तिरनेनापास्यते । अनेकधर्माम्युपगमेऽपि सति स एव साध्यो यो वादिन इष्टो नान्य इति ।
ननु च शास्त्रानपेक्षं वस्तुवलप्रवृतं लिङ्गम् । अतोऽनपेक्षणीयत्वान्न शास्त्रे स्थित्वा वादः कर्तव्यः । सत्यम् । आहोपुरु. षिकया तु यद्यपि कचिच्छास्त्रे स्थित इति किंचिच्छास्त्रमभ्युपगतः साधनमाह । तथापि य एव तेस्येष्टः स एव साध्य इति ज्ञापनायेदमुक्तम्
इष्ट इति यत्रार्थे विवादेन साधनमुपन्यस्तं तस्य सिद्धिमिच्छता सोऽनुक्तोऽपि वचनेन साध्यस्तदाधिकरणत्वाद्विवादस्य ।
१ 'अपि' इति पदं ख० पुस्तके नास्त्येव । २ इदं पदं ख. पुस्तके न विद्यते।। ३ साध्यत्व० ख० साध्यत्वस्य । .. ४ वेद, ख० चैतत। . ५ 'तस्य' इति पदं ख० पुस्तके न विद्यते ।
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न्यायविन्दुः । इष्ट इति । इष्टशब्दसुपक्षिप्य व्याचष्टे । यत्रार्थ आत्मनि विरुद्धो वादः प्रक्रान्तो नास्त्यात्मत्यात्मप्रतिषेधवाद आत्मसशावादविरुद्धो विधिप्रतिषेधयोर्विरोधात् । तेन विवादन हेतुना साधनमुपन्यस्तम् । तस्यात्मार्थस्य सिद्धिं निश्चयामिच्छता वादिना सोऽर्थः साध्य इत्युक्तं भवतीष्टशब्देन । यत्तदित्युक्तं भवतीतिग्रहणमन्ते तदिहापेक्ष्य वाक्यं परिसमापयितव्यम् । यद्यपि परार्थानुमान उक्त एव साध्यो युक्तोऽनुक्तोऽपि तु वचनेन साध्यः सामोक्ततत्वात्तस्य । कुत एतदित्याह । तदित्यादि । तदिति । सोऽधिकरणमाश्रयो यस्य स तदधिकरणो विवादस्तस्य भावस्तत्वं तस्मादित्येतदुक्तं भवति । यस्माद्विवादं नि. राकर्तुमिच्छता वादिना साधनमुपन्यस्तं तस्मावदधिकरणं वि. वादस्य तदेव साध्यम् । यतो विरुद्धं वादमपनेतुं साधनमुपन्यस्तम् । तच्चेन साध्यं किमिदानी जगति नियतं किंचित्साध्यं स्यादिति । अनुक्तमपि परार्थानुमाने साध्यमिष्टं तदुदाहरति
यथा पराश्चिक्षुरादयः संघातत्वाच्छयनासनाद्यङ्गवदिति । अत्रात्मार्था इत्यनुक्तावप्यात्मार्थता. नेनोक्तमात्रमेव साध्यमित्युक्तं भवति । ___परार्था इति । चक्षुरादियेषां श्रोत्रादीनां ते चक्षुरादय इति धर्मी । परस्मायिमे परार्था इति साध्यम् परार्यम् । संघातत्वादिति हेतुः । व्याप्तिविषयप्रदर्शनं शयनासनाद्यङ्गवदिति । शयनमासनं च ते आदी यस्य तच्छ्यनासनादि पुरुषोपभोगाङ्ग संघातरूपम् । तद्वदत्र । यत्प्रमाणे यदप्यात्मार्थाश्च
१ 'तत्' इति पदं ख० पुस्तके न दृश्यते । २ 'ते' इति पदं ख० पुस्तक नोपलभ्यते ।
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तृतीयपरिच्छेदः क्षुरादय इत्यात्मार्थता नोक्ता । अनुक्ताप्यात्मार्थता साध्या । तथा हि । सांख्येनोक्तमस्त्यात्मा । तद्विरुद्धं बौद्धेनोक्तं ना. स्त्यात्मेति । ततः सांख्येन स्ववादविरुद्धं बौद्धवादं हेतूकृत्य विरुद्धवादनिराकरणाय स्ववादप्रतिष्ठापनाय च साधनमुप. न्यस्यम् । अतोऽनुक्ताप्यात्मार्थता साध्या तदाधिकरणत्वाद्विबादस्य । शयनासनादिषु हि पुरुषोपभोगाङ्गेष्वात्मार्थत्वनान्वयो न प्रसिद्धः संघातत्वस्य । परार्थमात्रेण तु सिद्धः । ततः परार्था इत्युक्तम् । चक्षुरादय इत्यत्रादिग्रहणाद्विज्ञानमपि परार्थ साधयितुमिष्टम् । विज्ञानाच्च पर आत्मैव स्यात् । परस्यार्थकारि विज्ञानं सेत्स्यतीति सामर्थ्यादात्मार्थत्व सिध्यति चक्षुरादीना. मिति मत्वा परार्थग्रहणं कृतम् । तेनेष्टसाध्यवचनेन नोक्तमात्रमपि तु प्रतिवादिनो विवादास्पदत्वाद्वादिनः साधयितुमिष्टमुक्तमनुक्तं वा प्रकरणगम्यं साध्यमित्युक्तं भवति--
अनिराकृत इति । एतल्लक्षणयोगेऽपि यः साधयितुमिष्टोऽप्यर्थः प्रत्यक्षानुमानप्रतीतिस्ववचनैर्निराक्रियते न स पक्ष इति प्रदर्शनार्थम् । ____ अनिरोकृत इति व्याख्येयम् । एतदित्यनन्तरप्रकान्तं य. त्पक्षलक्षणमुक्तं साध्यत्वेनेष्टेत्यादि । एल्लक्षणेन योगेऽप्यों न पक्ष इति प्रदर्शनार्थ प्रदर्शनायानिराकृतग्रहणं कृतम् । कीदृशोऽर्थो न पक्षः साधयितुमिष्टोऽपीत्याह । यः साधयितुमिष्टोऽर्थः
१'अनुक्ता' इति पाठः ख० पुस्तके न विद्यते । २ शयनासनादिषु, क० शयनादिषु । ३क० आत्माथत्वन प्रसिद्धः। ४ 'परस्य' इति पदं स्व० पुस्तके नोपलभ्यते । ५ अनिराकृतः, क. अनिकृतः। ६ प्रदर्शनाय, ख० प्रतिपादनाय ।
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८४
न्यायविन्दुः प्रत्यक्षं चानुमानं च प्रतीतिश्च स्ववचनं चैतैर्निराक्रियते विपरीतः साध्यते न स पक्ष इति
तत्र प्रत्यक्षनिराकतोयथा-अश्रावण शब्द इति। तत्रेति । तेषु चतुर्पु प्रत्यक्षादिनिराकृतेषु प्रत्यक्षनिराकृतः कीदृशः । यथेति । यथायं प्रत्यक्षनिराकृतस्तथान्येऽपि द्रष्टव्या इति यथाशब्दार्थः । श्रवणेन ग्राह्यः श्रावणः । न श्रावणोऽश्रावणः श्रोत्रेण च ग्राह्य इति प्रतिज्ञार्थः । श्रोत्राग्राह्यत्वं शब्दस्य प्रत्यक्षसिद्धन श्रोत्रग्रायलेन बाध्यते
अनुमाननिराकृतो यथा-नित्यः शब्द इति ।
अनुमाननिराकृतः । नित्यः शब्द इति शब्दस्य प्रतिज्ञातं नित्यत्वमनित्यत्वेनानुमानसिद्धन निराक्रियते
प्रतीतिनिराकृतो यथा-अचन्द्रः शशीति । प्रतीत्या निराकृतः । अचन्द्र इति । चन्द्रशब्दवाच्यो न भवति शशीति प्रतिज्ञातार्थः । अयं च प्रतीत्या निराकृतः । प्रतीतोऽर्थ उच्यते । विकल्पविज्ञानाविषयः प्रतीतिः । प्रतीतत्वं विकल्पविज्ञानविषयत्वमुच्यते । तेन विकल्पविज्ञानविषयत्वेन प्रतीतिरूपेण शशिनश्चन्द्रशब्दवाच्यत्वं सिद्धमेव । तथा हि । यद्विकल्पज्ञानग्रायं तच्छन्दाकारसंसर्गयोग्यम् । तत्सांके तिकेन शब्देन वक्तुं शक्यम् । अतः प्रतीतिरूपेण विकल्पविज्ञा. नविषयत्वेन सिद्धं चन्द्रशब्दवाच्यत्वमचन्द्रत्वस्य बाधकं द्रष्टव्यम् । स्वभावहेतुश्च प्रतीतिः । यस्माद्विकल्पविषयत्वमात्रानु.
१ न स पक्षा, ख० स न पक्षः। २ 'प्रत्यक्ष' इति पाठः ख० पुस्तके नोपलभ्यते । ३ विकल्पविज्ञानविषयत्वेन, का विकल्पविज्ञानेन । ४०विकल्पज्ञानप्राचं, क० सानग्राह्य ।
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तृतीयपरिच्छेदः
पन्धिनी सांकेतिकशब्दवाच्यता ततः स्वभावहेतुसिद्धं चन्द्रशब्दवाच्यत्वमवाच्यत्वस्य बाधकं द्रष्टव्यम्- ..
स्ववचननिराकृतो यथा-नानुमानं प्रमाणम् । स्ववचनं प्रतिज्ञार्थस्यात्मीयो वाचकः शब्दस्तेन निराकृ. तः । प्रतिज्ञार्थो न साध्यः । यथा नानुमानं प्रमाणम् । अत्रानुमानस्य प्रामाण्यनिषेधः प्रतिज्ञार्थः । स नानुमानं प्रमाणमित्यनेन स्ववाचकेन वाक्येन बाध्यते । वाक्यं होतत्प्रयुज्यमानं वक्तुः शाब्दस्य प्रत्ययस्य सदर्थत्वमिष्टं सूचयति । तथाहि । मद्वाक्यायो. ऽर्थसंपत्ययस्तवोत्पद्यते सोऽसत्यार्थ इति दर्शयन्वाक्यमेव नो. चारयेद्वक्ता । वचनार्थश्चेदसत्यः परेण ज्ञातव्यो वचनमपार्थकम् । पोऽपि हि सर्व मिथ्या ब्रवीमीति वक्ति सोऽप्यस्य वाक्यस्य प्रत्यार्थत्वमादर्शयन्नेव वाक्यमुच्चारयति । तद्येतद्वाक्यं सत्यार्थदार्शतम् । एवं वाक्यान्तराण्यात्मीयान्यसत्यार्थानि दार्शनि भवन्ति____एतदेव तु यद्यसत्यार्थमन्यान्यसत्यानि न इर्शितानि भवन्ति ।
ततश्च न किंचिदुच्चारणस्य फलमिति मोचारयेत् । तस्मा. क्यप्रभवं वाक्यार्थालम्बनं विज्ञानं सत्यार्थ दर्शयन्नेन वक्ता क्यमुच्चारयति । तां च सति बाद्यवस्तुनान्तरीयकं शब्दं यता शब्दजं विज्ञानं सत्यार्थ दर्शयितव्यम् । ततो बाह्याकार्याच्छब्दादुत्पन्नं विज्ञानं सत्यार्थमादर्शयेता कार्यलिङ्गज१ ब्रवीमीति वक्ति, ख० ब्रवीति वक्ति । २ 'तद्येतद्' इति पाठः क० पुस्तक एव विद्यते । भन्यत्र सर्वत्र घेतद' इति पाठः एव । ३ क. असत्यानि । ४ सथा, क० यथा। ५ आदर्शयता, क. आदर्शयिता।
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८६
न्यायबिन्दुः मनुमानं प्रमाणं शान्दं दर्शितं भवति । तस्मान्नानुमानं प्रमाणमिति ब्रुवता शाब्दस्य प्रत्ययस्यासन्यायं उक्तोऽसदर्थत्वमेव ह्यप्रामाण्यमुच्यते । नान्यत् । शब्दोच्चारणसामर्थ्याच्चार्थाविनाभावी स्वशब्दो दर्शितः । तथा च सन्नर्थो दर्शितः । ततः कल्पितादर्थकार्याच्छब्दाच्छाब्दप्रत्ययार्थस्यानुमितं सत्वं प्रतिज्ञायमानमसत्त्वं प्रतिबध्नाति । तदेवं स्ववचनानुमितेन सत्वेनासत्त्वं वाच्यमानं स्ववचनेन बाधितमुक्तमित्ययमत्रार्थः ।
अन्ये त्वाहुः । अभिप्रायकार्याच्छद्वाज्जातं ज्ञानमभिप्रायालम्बनं सदर्थमिच्छतः शब्दप्रयोगः । तेनाप्रामाण्यं प्रतिज्ञातं बाध्यत इति । तदयुक्तम् । यत इह प्रतीतेः स्वभावहेतुत्वं स्ववचनस्य च कार्यहेतुत्वं काल्पतमिष्टम् । न वास्तवम् । अभिप्रायकार्यत्वं च वास्तवमेव शब्दस्य । ततस्तदिह न गृह्यते । किं च यथानुमानमनिच्छन्वन्धव्यभिचारित्वं धूमस्य न प्रत्येति । तथा शब्दस्याप्यभिप्रायाव्यभिचारित्वं न प्रत्येष्यति । बाद्यवस्तुप्रत्यायनाय च शब्दः प्रयुज्यते । तन्न शब्दस्याभिप्रायाविनाभवित्वाभ्युपगमपूर्वकः शब्दप्रयोगः । अपि च न स्वाभिप्रायनिवेदनाय शब्द उर्चायते । अपि तु बाद्यवस्तुसत्त्वप्रतिपादना. य । तस्माद्धाद्यवस्तुविनाभावित्वाभ्युपगमपूर्वकः शब्दप्रयो. गः । ततः पूर्वकमेव व्याख्यानमनवद्यम् - इति चत्वारः पक्षाभासा निराकृता भवन्ति । १ शाब्दस्य, ख० शब्दस्य ।। २ख० असन्तों ग्राह्य, क० असन् ग्राह्य । ३ शाब्दप्रत्ययार्थस्य, क० शब्दप्रत्ययार्थस्य ।
४ ख. पुस्तके 'अपि च' इत्यस्मादारभ्य 'शब्दप्रयोगः' इत्ये। तावत्पर्यन्तं द्वे पंक्ती परित्यक्ते। संभवतः लेखकस्य दृष्टिः प्र. थमं 'शब्दप्रयेगः' इति पदं दृष्ट्वा भ्रमेण द्वितीयस्य 'शब्दप्रयोगः' इ. त्यस्योपरि पतिता। ५ शब्दः, क० टब्दः ।
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तृतीयपरिच्छेदः एवं च सत्यनिराकृतग्रहणेनानन्तरोक्ताश्चत्वारः पक्षव. दाभासन्त इति पक्षाभासा निरस्ता भवन्ति ।
संपति पक्षलक्षणपदानि येषां व्यवच्छेदकानि तेषां व्यबच्छेदेन यादृशः पक्षार्थी लभ्यते तं दर्शयितुं व्यवच्छेद्यान्संक्षिप्यदर्शयति ।
. सिद्धस्यासिद्धस्यापि साधनत्वेनाभिमतस्य स्वयं वादिना तदा साधयितुमनिष्टस्योक्तमात्रस्य निराकृतस्य च विपर्ययेण साध्यस्तेनैव स्वरूपेणाभिमतो वादिन इष्टोऽनिराकृतः पक्ष इति पक्षलक्षणमनवा दर्शितं भवति । ___एवमित्यनन्तरोतक्रमेण सिद्धस्य विपर्ययेण विपरीतत्वेन हेतुना साध्यो द्रष्टव्यः । यस्मादात्सिद्धोऽर्थो विपरीतः स साध्य इत्यर्थः । सिद्धश्च विपरीतोऽसिद्धस्य । तस्मादसिद्धः साध्यः । असिद्धोऽपि न सर्वोऽपि तु साधनत्वेनोक्तस्यासिद्धस्यापि विपर्यण स्वयं वादिना साधयितुमनिष्टस्यासिद्धस्य विपर्ययेण । थोक्तमात्रस्यासिद्धस्यापि विपर्ययेण तथा निराकृतस्यासिद. यापि विपर्ययेण साध्यः । यश्चायं पञ्चभिर्व्यवच्छेद्यै रहितोर्थोऽसिद्धोऽसार्धनम् । वादिनः स्वयं साधयितुमिष्ट उक्तोनुक्तो
प्रमाणैरनिराकृतः साध्यः । स एवासौ स्वरूपेणैव स्वयमिष्टो नेराकृत एतैः पदैरुक्त इत्यर्थः । यश्चायं साध्यः स पक्ष उच्यते ।
१'च' इति पाठः ख० पुस्तक एव विद्यते । २ मुद्रितपुस्तकस्य 'अवा' इति पाठोऽस्माकं सम्मतावशुद्धोत। ३ अनन्तरोक्तक्रमेण, ख० अनन्तरोक्तेन क्रमेण । ४ असाधनं, क० असाधनं २। ५ वा, क० वा ४। ६ निराकृतः, निराकृतः ५।
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न्यायविन्दुः इतिशब्द एवमर्थे । एवं पक्षलक्षणमनवद्यामति । अविद्यमानमवचं दोषो यस्य तदनवद्यम् । दर्शितं कथितम् । - त्रिरूपलिङ्गाख्यानं परिसमापय्य प्रसङ्गागतं च पक्षलक्ष. णमभिधाय हेत्वाभासान्वतुकामस्तेषां प्रस्तावं रचयति । त्रिरूपेत्यादिना ।
त्रिरूपलिङ्गाख्यानं परार्थानुमानमित्युक्तम् ।
एतदुक्तं भवति । त्रिरूपलिङ्गाख्यानं वक्तुकामेन स्फुटं तद्वक्तव्यम् । एवं च तत्स्फुटमुक्तं भवति । यदितच तत्प्रतिरूपक बोध्यते । हेयज्ञाने हि तद्विविक्तमुपादेयं सुज्ञातं भवतीति । त्रिरूपलिङ्गाख्यानं परार्थानुमानमिति प्रागुक्तम् ।
तत्र त्रयाणां रूपाणामेकस्यापि रूपस्यानुक्तौ साधनाभास उक्तावप्यसिद्धौ संदेहे वा प्रतिपाद्यप्रतिपादकयोरेकस्य रूपस्य धर्मिसंबन्धस्यासिद्धौ संदेहे चासिद्धो हेत्वाभासः। ____तत्रेति । तस्मिन्सति त्रिरूपलिङ्गाख्याने परार्थानुमाने सतीत्यर्थः। त्रयाणां रूपाणां मध्य एकस्याप्यनुक्तौ। अपिशब्दाहयोरपि । साधनस्याभासः सदृशं साधनस्य न साधनमित्यर्थः । त्रयाणां रूपाणां न्यूनता नाम साधनदोषः । न केवलमनुक्तावुक्तावप्यसिद्धौ संदेहे वा कस्येत्याह । प्रतिपाद्यस्य प्रतिवा. दिनः प्रतिपादकस्य च वादिनो हेत्वाभासः । अथ कस्य
१ एतद्, तद् । २ प्रतिरूपकं, ख० प्रतिरूपम् । ३ का विवक्तम्। ४ कस्य, ख. कस्यैकस्य ।
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८९
तृतीयपरिच्छेदः रूपस्यासिद्धौ संदेहे वो किंसंज्ञको हेत्वाभास इत्याह । एकस्य रूपस्यति । धर्मिणा सह सम्बन्धः धर्मिसंबन्धः । धर्मिणि सत्वं हेतोः । तस्यासिद्धौ संदेहे वाऽसिद्धसंज्ञको हेत्वाभासः । असिद्धत्वादेव च धर्मिण्यप्रतिपत्तिहेतुर्न साध्यस्य न विरुद्धस्य न संशयस्य हेतुरपि त्वप्रतिपत्तिहेतुर्न कस्यचिदतः प्रतिपत्ति. रिति कृत्वा । अयं चार्थोऽसिद्धसंज्ञाकरणादव प्रतिपत्तव्यः ।
उदाहरणमाह--
यथा-अनित्यः शब्द इति साध्ये चाक्षुषत्वमुभयासिद्धम् ।
यथेत्यादि। अनित्यः शब्द इत्यनित्यत्वविशिष्टे शब्दे साध्ये चाक्षुषत्वं चक्षुधित्वं शब्दे द्वयोरपि वादिप्रतिवादिनोरसिद्धम् ।
चेतनास्तरव इति साध्ये सर्वत्वगपहरणे मरणं प्रतिवाद्यसिद्धं विज्ञानन्द्रियायुर्निरोधलक्षणस्य मरणस्यानेनाभ्युपगमात्तस्य च तरुष्वसंभवात् ।
चेतनास्तरव इति तरूणां चैतन्ये साध्ये सर्वा त्वक्सर्वत्वक् । तस्या अपहरणे सति मरणं दिगम्बरैरुपन्यस्तम् । प्रतिवादिनो बौद्धस्यासिद्धम् । कस्मादसिद्धमित्याह । विज्ञानं चेन्द्रियं चायुहै । रूपादिविज्ञानोत्पत्या यदनुमितं कायान्तर्भूतं चक्षुर्गोलकादेस्थितरूपं तदिन्द्रियम् । आयुरिति लोके प्राणा उच्यन्ते । न वागमसिद्धमिह युज्यते वक्तुम् । अतः प्रमाणस्वभावमायुरि१वा किं०, क. वाक्यं ।। २ अनित्यः, ख० निस्यः।। ३ख०द्वयोद्धयोरपि । ४ चायुश्च, ख० चायुश्च तत्रविज्ञान (अशुद्धः) चक्षुरादि यित ( अशुद्धः)। ५ख कार्यान्तभूतं । . . ६ ख० उच्यते । ७ आयुरिह । तेषां, स्व० आयुः । इह तेषां ।
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न्यायविन्दुः ह । तेषां निरोधो निवृत्तिः । स लक्षणं तत्त्वं यस्य तत्तथोक्तम् । तथाभूतस्य मरणस्यानेन बौद्धन प्रतिज्ञातत्वात् । यदि नामवं तथापि कथमसिद्धमित्याह । तस्य च विज्ञानादिनिरोधात्मकस्य तरुष्वसंभवात् । सत्तापूर्वको निरोधः । ततश्च यो विज्ञाननिरोधं तरुष्विच्छेत्स कथं विज्ञानं नेच्छेत् । तस्माद्विज्ञाना. निष्टेनिरोधोपि नेष्टस्तरुषु । ननु च शोषोऽपि मरणमुच्यते । स च तरुषु सिद्धः । सत्यम् । केवलं विज्ञानसत्तया व्याप्त यन्मरणं तदिह हेतुर्विज्ञाननिरोधश्च । तत्सत्तैया व्याप्तो न शोषमात्रम् । ततो यन्मरणहेतुस्तत्तरुष्वसिद्धम् । यत्तु सिद्धं शोषात्मकं तदहेतुः । दिगम्बरस्तु साध्येन व्याप्तमव्याप्तं वा मरणमविविच्य मरणमात्रं हेतुमाह । तदस्य वादिनो हेतुभूतं मरणं न ज्ञातम् । अज्ञानात्सिद्धं शोषरूपम् । शोषरूपस्य मरणस्य तरुषु दर्शनात् । प्रतिवादिनस्तु ज्ञातमतोऽसिद्धम् । यदा तु वादिनोऽपि ज्ञातं तदा वादिनोप्यसिद्धं स्यादिति न्यायः ।
अचेतनाः सुखादय इति साध्य उत्पत्तिमत्त्वमनित्यं वा सांख्यस्य स्वयं वादिनोऽसिद्धम् । ___ अचेतनाः सुखादय इति । सुखमादिर्येषां दुःखादीनां ते सुखादयः। तेषामचैतन्ये साध्य उत्पत्तिमत्त्वमनित्यत्वं वा लिङ्गमुपन्यस्तम् । य उत्पत्तिमन्तोऽनित्या वा तेन चेतना यथा रूपादयः । तथा चोत्पत्तिमन्तोऽनित्या वा सुखादयस्तस्मादचेतनाः। चैतन्यं तु पुरुषस्य स्वं रूपम् । अत्र चोत्पत्तिमत्त्वम
१ असंभवात् , ख० अभावात् । २ विज्ञानसत्तया' । क०मुद्रितपुस्तके च 'विज्ञानसत्ताया। ३ सत्तया, क० मुद्रितपुस्तके च 'सत्ताया' ४ ततः क० तत्र। ५ हेतुभूतं, क० हेतुशात्ततं ( अशुद्धः)।
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तृतीयपरिच्छेदः नित्यत्वं वा पर्यायेण हेतुर्न युगपत् । तच्च द्वयमपि सांख्यस्य वादिनो न सिद्धम् । परार्थो हि हेतूपन्यासः । तेन यः परस्य सिद्धः स हेतुर्वक्तव्यः । परस्य चासत उत्पाद उत्पनिमखम् । सतश्च निरन्वयो विनाशोऽनित्यत्वं सिद्धम् । ताशं च द्वयमपि सांख्यस्यासिद्धम् । इहाप्यनित्यत्वोत्पत्तिमत्त्वसाधनाज्ञानाद्वादिः नोऽसिद्धम् । यदि त्वनित्यत्वोत्पत्तिमत्त्वयोः प्रमाणं वादिनो ज्ञातं स्यात् । वादिनोपि सिद्धं स्यात् । ततः प्रमाणापरिज्ञानादिदं वादिनोऽसिद्धम् । संदिग्धासिद्धं दर्शयितुमाह
तथा स्वयं तदाश्रयणस्य वा संदेहेऽसिद्धः । स्वयमिति । हेतोरात्मनः संदेहेऽसिद्धः । तदाश्रयणस्य चेति । तस्य हेतोराश्रयणमाश्रीयतेऽस्मिन्हेतुरित्याश्रयणं हेतोव्यतिरिक्त आश्रयभूतः साध्यधर्मी कथ्यते । तत्र हि हेतुर्वर्तमानो गमकत्वेनाश्रीयते । तस्याश्रयणस्य संदेहे संदिग्धः।। स्वात्मना संदिह्यमानमुदाहर्तुमाह___ यथा वाष्पादिभावेन संदिह्यमानो भूतसंघातोऽ निसिद्धावुपदिश्यमानः संदिग्धासिद्धः ।
यथेति । बाष्प आदिर्यस्य स बाष्पादिस्तद्भावेन वाष्पादिवेन संदिह्यमानो भूतसंघात इति । भूतानां पृथिव्यादीनां संघातः समूहः। अग्निसिद्धावग्निसिद्धयर्थमुपादीयमानोऽसिद्धः। तदुक्तं भवति । यदा धूमोऽपि वाष्पादित्वेन संदिग्धों विति । तदासिद्धो गमेकरूपानिश्चयाडूमतया निश्चितो वह्निन्यत्वाद्गमकः । यदा तु संदिग्धस्तदा न गमक इति । असिद्धख्यो दोषः। १ परार्थो हि, ख० परार्थादि । २ प्रमाणं, ख० प्रामाण्यं ।। । स्यात् , ख० स्यात्तदा । ४ क० वाष्पादिह्यमाना। ५ का गंक।
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न्यायबिन्दुः
आश्रयणासिद्धमुदाहरति
यथेह निकुञ्जे मयूरः केकायितादिति ।
यथेति । इह निकुञ्ज इति धर्मी । पर्वतोपरिभागेन तिर्यइनिर्गतेन प्रच्छादितो भूभागो निकुञ्जः । मयूर इति साध्यम् । कायितादिति हेतुः । कायितं मयूरध्वनिः ।
कथमाश्रयणासिद्ध इत्याहतदापातदेशविभ्रमे ।
तदापति इति । तस्य केकायितस्यापात आगमनं तस्य देशः स उच्यते । यस्माद्देशादागच्छति केकायितम् । तस्य विभ्रमेव्यामोहे सत्ययमाश्रयणासिद्धः । निरन्तरेषु बहुषु निकुखेषु सत्सु यदा केकायितापातविभ्रमः किमस्मान्निकुञ्जत्केकाचितमागतमाहोस्विदस्मादिति तदाश्रयणासिद्ध इति ।
धर्मिणो सिद्धावप्यसिद्धत्वमुदाहरति
-
धर्म्यसिद्धावप्यसिद्धो यथा सर्वगत आत्मेति
साध्ये सर्वत्रोपलभमानगुणत्वम् ।
यथेति । सर्वस्मिन्गतः स्थितः सर्वगतो व्यापीति यावत् । व्यापित्व आत्मनः साध्ये सर्वत्रोपलभ्यमानगुणत्वं लिङ्गम् । सर्वत्र देश उपलभ्यमानाः सुखदुःखेच्छाद्वेषादयो गुणा यस्यात्मनस्तस्य भावस्तत्त्वम् । न गुणा गुणिनमन्तरेण वर्तन्ते । गुणानां गुणिनि समवायात् । निष्क्रियश्चात्मा । ततश्च यदि व्यापी न भवेत्कथं दक्षिणापथ उपलब्धाः सुखादयो मध्यदेश उपलभ्येरन् । तस्मात्सर्वगत आत्मा । तदिह बौद्धस्यात्मैव न सिद्धः किमुत
१ क० तघात |
२ के कायितापातविभ्रमः, ख० केकायितापात निकुंजे विभ्रमः । ३ अस्मात्, ख० अन्यस्मात् ।
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तृतीयपरिच्छेदः सर्वत्रोपलभ्यमानगुणत्वं सिध्येत् । तस्येत्यसिद्धौ हेत्वामासः। पूर्वमाश्रयणसंदेहेन धर्मिणि संदेह उक्तः । संप्रति त्वसिद्धो धर्म्युक्त इत्यनयोर्विशेषस्तदेवमेकस्य रूपस्य धर्मिबद्धस्यासिद्धावसिद्धो हेत्वाभासः। ___तथैकस्य रूपस्यासपक्षेऽसत्त्वस्यासिद्धावनैकान्तिको हेत्वाभासः।
तथा परस्यैकस्य रूपस्यासपक्षेऽसत्त्वाख्यस्यासिद्धावनै. कान्तिको हेत्वाभासः । एकोऽन्त एकान्तो निश्चयः । स प्रयो. जनमस्येत्यैकान्तिकः । नैकान्तिकोऽनैकान्तिकः । यस्मान सा. ध्यस्य न विपर्ययस्य निश्चयोऽपि तु तद्विपरीतः संशयः। साध्येतरयोः संशयहेतुरनैकान्तिक उक्तः । तमुदाहरति___ यथा शब्दस्यानित्यत्वादिके धर्मे साध्ये प्रमेयत्वादिको धर्मः सपक्षविपक्षयोः । सर्वत्रैकदेशे वा वर्तमानस्तथास्यैव रूपस्य संदेहेऽप्यनैकान्तिक एव । ___ • यथेत्यादिना । अनित्यत्वमादिर्यस्य सोऽनित्यत्वादिको धर्मः। आदिशब्दादप्रयत्नानन्तरीयकत्वं प्रयत्नानन्तरीयकत्वं नित्यत्वं च परिगृह्यते प्रमेयत्वमादिर्यस्य स प्रमेयत्वादिकः । आदिशब्दादनित्यत्वं पुनरनित्यत्वममूर्तत्वं च गृह्यते । शब्दस्य धर्मिणोनित्यत्वादिके धर्मे साध्ये प्रमेयत्वादिको धर्मोऽनैकान्तिकः । चतुर्णामपि विपक्षेऽसत्त्वमसिद्धम् । तथाहि । अनित्यः शब्दः प्रमेयत्वादाकाशवद्धटवदिति प्रमेयत्वं सपक्षविपक्षव्यापि । १ मुद्रितपुस्तकस्य 'सत्त्वस्य' इति पाठोऽशुद्धः प्रतीयते । २ पदमिदं व. पुस्तके नोपलभ्यते। । ३ गृहाते, ख० गृद्यते ।
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न्यायविन्दुः
अप्रयत्नानन्तरीयकः शब्दोऽनित्यत्वाद्विद्युदाकाशवंद्धटव चेत्यनि त्यत्वं सपक्षैकदेशवृत्ति विद्युदादावस्ति नाकाशादौ । विपक्षव्यापि प्रयत्नानन्तरीयके सर्वत्र भावात् । अनित्यत्वात्प्रयत्नानन्तरीयकः शब्दो घटवद्विद्युदा का शव च्चेत्यनित्यत्वं विपक्षैकदेशशब्दवृत्ति वि खुदादावस्ति नाकाशादौ । सपक्षव्यापि सर्वत्र प्रयत्नानन्तरीयके भावात् । नित्यः शब्दोऽमृर्तत्वादाकाशपरमाणुवत्कर्मघटवञ्चेत्यमूर्तत्वमुभयैकदेशवृत्ति । उभयोरेकदेश आकाशे कर्मणि च वर्तते । परमाणौ तु सपक्षैकदेशे घटादौ च विपक्षैकदेशे न वर्तते । मृर्तत्वाद्वट परमाणु प्रभृतीनाम् । नित्यास्तु परमाणवो वैशेषिकैरभ्युपगम्यन्ते । ततः सपक्षान्तर्गताः । अस्य चतुर्विधस्य पक्षधर्मस्यासच्चमसिद्धं विपक्षे । ततोऽनैकान्तिकता । यथा चास्य रूपस्यासिद्धावनैकान्तिकस्तथास्यैव विपक्षेऽसच्चाख्यस्य रूपस्य संदेहेऽनैकान्तिकः । :
I
1
तमुदाहरति
९४.
www.
यथाऽसर्वज्ञः कश्चिद्विवक्षितः पुरुषो रागादिमान्वेति साध्ये वक्तृत्वादिको धर्मः संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकः । सर्वत्रैकदेशे वा सर्वज्ञो वक्ता नोपलभ्यते इति ।
यथेति । सर्वज्ञ इति । असर्वज्ञत्वं साध्यम् । कश्चिद्विविक्षित इति वक्तुरभिप्रेतः पुरुषो धर्मी । राग आदियर्स्य द्वेषादेः स रागादिः स यस्यास्ति स रागादिमानिति द्वितीयं साध्यम् । वाग्रहणं रागादिमत्वस्य पृथक्साध्यत्वख्यापनार्थम् । ततोऽसर्वज्ञत्वे रागादिमवे वा साध्ये प्रकृते वक्तृत्वं वचनशक्तिस्तदादिर्यस्योन्मेषनिमेषादेः स वक्तृत्वादिको धर्मोऽनैकान्तिकः । संदिग्धा विपक्षाच्यावृत्ति
१ क० विद्युदाकाशघटवत् ।
२ लेखकस्य प्रमादेन ख० पुस्तके 'नाकाशादौ' द्वयमध्यस्थः पाठः परित्यक्तः । ३ संदिग्धा, ख० संदिग्ध० ।
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तृतीयपरिच्छेदः र्यस्य स तथोक्तः । असर्वज्ञत्वे साध्ये सर्वज्ञत्वं विपक्षः । तत्र पचनादेः सत्त्वमसत्वं वा संदिग्धम् । अतो न ज्ञायते वक्ता सर्वज्ञ उतासर्वज्ञ इत्यनैकान्तिकं वक्तृत्वम् ।
ननु चे सर्वज्ञो वक्ता नोपलभ्यते तत्कथं वचनं सर्वथे संदिग्धम् । अत एव सर्वज्ञो वक्ता नोपलभ्यत इति ।
एवं प्रकारस्यानुपलभ्यस्यादृश्यात्मविषयत्वेन संदेहे हेतुत्वात् । ___ एवंप्रकारस्यैवंजातीयस्यानुपलम्भस्य संदेहहेतुत्वात् । कुत इत्याह । अदृश्यात्मा विषयो यस्य तस्य भावोऽदृश्यात्मविषयत्वं तेन संदेहहेतुत्वम् । ___ असर्वज्ञविपर्ययावक्तृत्वादेर्व्यावृत्तिः संदिग्धा । वक्तृत्वसर्वज्ञत्वयोर्विरोधाभावाच्च ।
यतोऽदृश्यविषयोऽनुपलम्भः संशयहेतुर्न निश्चयहेतुस्ततोऽसर्वज्ञविपक्षात्सर्वज्ञाद्वक्तृत्वादेर्व्यावृत्तिः संदिग्धा । नानुपलम्भात् । सवैज्ञे वक्तृत्वमसद्रुमोऽपि तु सर्वज्ञत्वेन सह वक्तृत्वस्य विरोधात् । एतन्न सर्वज्ञत्ववक्तृत्वयोर्विरोधो नास्ति । विरोधाभावाच कारणाव्यतिरेको न सिध्यतीति सम्बन्धः । व्याप्तिमन्तं व्यतिरेकं दर्शयति । ___ यः सर्वज्ञः स वक्ता न भवतीत्यदर्शनेऽपि व्यतिरेको न सिध्यति । संन्देहात् ।
१ पदमिदं स्व० पुस्तके नोपलभ्यते।। २एवंजातीयस्य, ख० एवंजातीयकस्य । ३ संशयहेतुः, स्व० संदेहेतुः (अशुद्धः) ४ सर्वशे, ख० संदिग्धे ।
५ मुद्रितपुस्तकस्य संम्पादकेन 'संदेहात' इति हेतुवाक्पं द्वि. विधमित्याग्रमवाक्ये निवद्धम् ।
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न्यायविन्दुः __यः सर्वत्र इति । साध्याभावरूपं सर्वज्ञत्वमनूध न स वक्ता भवतीति साधनस्य वक्तृत्वस्याभावो विधीयते । तेन साध्यामा वः साधनाभावे नियतत्वात्साधनाभावेन व्याप्त उक्त इति व्या. तिमानीदृशो व्यतिरेको विरोधे सति वक्तृत्वसर्वज्ञत्वयोः सिध्येत् । न चास्ति विरोधः। तस्मान्न सिध्यति । कुत इत्याह । संदेहात् । यतो विरोधाभावस्तस्मात्संदेहः । संदेहायतिरेकासिद्धिः। कथं विरोधाभावः।
द्विविधो हि पदार्थानां विरोधः ।
हीति । यस्माविविध एव विरोधो नान्यः । तस्मान वक्तृत्वसर्वज्ञत्वयोर्विरोधः । कः पुनरसौ द्विविधो विरोध इत्याह ।
अविकलकारणस्य भवतोऽन्यभावे Aahe - अविकलकारणस्येति । अविकलानि समग्राणि कारणानि यस्य स तथोक्तः । यस्य कारणवैकल्यादभावो न तस्य केन. चिदपि विरोधगतिः । तदर्थमविकलकारणग्रहणम् ।
ननु च यस्यापि कारणसाकल्यं तस्यापि निवृत्तिरशक्या केनचिदपि कर्तुं तत्कुतो विरोधगतिः । एवं तर्हि । - अभावाद्विरोधगतिः। - अविकलकारणस्यापि यत्कृतात्कारणवैकल्यादभावः । तेन विरोधगतिः । तथा च सति यो यस्य विरुद्धः स तस्य किंचि१न स वक्ता, ख० स वक्तान। २ साधनाभावेन, ख. साधर्म्यभावेन । ३.सिध्यति, ख०सिध्यतीति। ४ हीति यस्मात् , ख० हिर्यस्मात् ।
-
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तृतीयपरिच्छेदः
९७ कर एव । तथा हि । शीतस्पर्शस्य जनको भूत्वा शीतस्पर्शान्तरजननशक्तिं प्रतिबध्नशीतस्पर्शस्य निवर्तको विरुद्धः। तस्मादेतुवैकल्यकारी विरुद्धो जनक एव । निवर्त्यस्य सहानवस्थानविरोधश्चायम् । ततो विरुद्धयोरेकस्मिन्नपि क्षणे सहावस्थानं परिहर्तव्यम् । दूरस्थयोर्विरोधाभावाच निकटस्थयोरेव निवर्त्यनिवर्तकभावः । तस्माद्यो यस्य निवर्तकः स तं यदि परं तृतीये क्षणे निवर्तयति। प्रथमे क्षणे सन्निपतनसमर्थावस्थानयोग्यो भव। ति । द्वितीये विरुद्धमसमर्थ करोति । तृतीये त्वसमर्थे निवृत्ते तद्देशमाक्रामति । तत्रालोको गतिधर्मा क्रमेण जलतरंगन्यायेन देशमाक्रामन्यदान्धकारे निरन्तरमालोकक्षणं जनयति, तदालोकसमीपवर्तिनमन्धकारमसमर्थ जनयति । ततोऽसामर्थ्य तस्य यस्य समीपवालोकः । असामर्थ्ये निवृत्ते ताशो जायत आ. लोक इत्येवं क्रमेणालोकेनान्धकारोऽपनेयः । तथोष्णस्पर्शन शीतस्पर्शो निवर्तनीयः । यदा त्वालोकस्तत्रैवान्धकारे देशे जन्य. ते तदा यतः क्षणादन्धकारदेशस्यालोकस्य जनकक्षण उत्पद्यते तत एवान्धकारोऽन्धकारान्तरजननासमर्थ उत्पन्नः । ततोऽसम
वस्थाजनकत्वमेव निवर्तकत्वम् । अतश्च यस्मिन् क्षणे जनकस्ततस्तृतीये क्षणे निवृत्तो विरुद्धो यदि शीघ्र निवर्तते । ज. न्यजनकभावाच संतानयोर्विरोधो न क्षणयोः। यद्यपि च न संतानो नाम वस्तु तथापि संतानिनो वस्तुभूताः । ततोऽयं पर
१ आक्रामन् , ख० आक्रामयन् । २ असामर्थ्य, क० असमये, ख० असमर्थे ।
३ अन्धकारान्तरजननासमर्थः, क०अन्धकारान्तरासमर्थः, स्व० अन्धकारान्तराजनना समर्थः।
४ असमर्थावस्था०, ख० असामर्थ्यावस्था । ५ संतानयोः, क. संतनयोः ।।
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न्यायविन्दुः मार्थः न क्षणयोर्विरोधः । अपि तु बहूनां क्षणानां । यतः सत्सु दहनक्षणेषु प्रवृत्ता अपि शीतक्षणा निवृत्तिधर्माणो भवन्तीति । संतानयोनिवर्त्यनिवर्तकत्वनिमित्ते च विरोधे स्थिते सर्वेषां प. रमाणूनां सत्यप्येकदेशावस्थानाभावेन विरोध इतरेतरसंतानानिवर्तनात्तेषां गतिधर्मा चालोको यो दिशमाक्रामति तदिग्वति. नो विरोधिसंतानान्निवर्तयति । ततोऽपवरकैकदेशस्था प्रदीपप्र. भान्धकारनिकटवर्तिन्यपि नान्धकारं निवतयति । अन्धकाराक्रान्तायां दिश्यालोकक्षणान्तरजननासामर्थ्यात् । कारणासामर्थ्यहेतुकृतं संताननिष्ठमेव विरोधं दर्शयता भैवतेति कृतम् । भवतः प्रबन्धेन वर्तमानस्य शीतस्पर्शसंतानस्याभावोऽन्यस्योष्णस्पर्शसन्तानस्यामावे सतीति ।
ये त्वाहुन विरोधो वास्तव इति ते इदं वक्तव्याः । यथा न निष्पन्ने कार्ये कश्चिज्जन्यजनकभावो नाम दृष्टोऽस्ति । कार. णपूर्विका तु कार्यप्रवृत्तिरतो वास्तव एव । तद्वन्न निवृत्ते वस्तुनि कश्चिदिष्टो नाम विरोधोऽस्ति । दहननिमित्तं तु शीतस्पर्शस्य क्षणान्तरासापयमतो विरोधोऽपि वास्तव एव । उदाहणमाह ।
शीतोष्णस्पर्शवत् । शीतश्चोष्णश्च तावेव स्पर्शी तयोरिव । शीतोष्णस्पर्श योहि पूर्ववद्विरोधो योजनीयः ।
द्वितीयमपि विरोध दर्शयितुमाह । परस्परपरिहारस्थितलक्षणतया वा भाववत् ।
१ तदिग्वर्तिनः, क० तद्विवर्तिनः। २ अन्धकाराकान्तायां, क. अन्धकारायाक्रान्तायां । ३ हतुकृतं, ख० हेतुत्वकृतं । ४ भवता, काख० भवतः।
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तृतीयपरिच्छेदः परस्परपरिहारः परित्यागस्तेन स्थितं लक्षणं रूपं ययोस्तद्भावः परस्परपरिहारस्थितलक्षणता तया । इह यस्मिन्परिच्छि. • द्यमाने ययवच्छिद्यते तत्परिच्छिद्यमानमवच्छिद्यमानपरिहारेण स्थितरूपं द्रष्टव्यम् । नीले च परिच्छिद्यमाने ताद्रूप्यप्रच्युतिरव. च्छिद्यते तदव्यवच्छेदे नीलापरिच्छेदप्रसङ्गात् । तस्माद्वस्तुनो भावाभावौ परस्परपरिहारण स्थितरूपौ। नीलांतु यदन्यद्रूपं तन्नीलाभावाव्यभिचारि । नीलस्य दृश्यस्य पीतादावुपलभ्यमाने ऽनुपलम्भादभावनिश्चयात्। यथा च नीलमभावं परिहरति तद्वदभावाव्यभिचारि पीतादिकमपि । तथा च भावाभावयोः साक्षाद्विरों: धौ वस्तुनोस्त्वन्ये न्याभावाव्यभिचारित्वाद्विरोधः । कस्य चान्यत्राभावावसायो यो नियताकारोऽर्थस्तस्य । न त्वनियताकारोऽर्थः क्षणिकत्वादिवत् । क्षणिकत्वं हि सर्वेषां नीलादीनां स्वरूपात्मकम् । अतो न नियताकारम् । यतः क्षणिकत्वपरिहारेण न किंचिदृश्यते । यद्येवमभावोऽपि न नियताकारः । कथं न । नियताकारो नाम यावता वस्तुरूपविविक्ताकारः कल्पितोऽभावः । ततो दृष्टं कल्पितं वा नियतं रूपमन्यत्रासदवसीयते नानियतम् । एवं नित्यत्वे पिशाचादिरपि नियताकारः कल्पितो द्रष्टव्यः । एकात्मकत्वविरोधश्चायम् । ययोहि परस्पर परिहारेणावस्थानं तयोरेकत्वाभावः । अतएव लाक्षणिकोऽयं विरोध उच्यते । लक्षणं रूपं वस्तूनां प्रयोजनमस्येति कृत्वा । वरोधेन ह्यनेन वस्तुतत्वे विभक्तं व्यवस्थाप्यते । अतएव श्यमाने रूपे यनिषिध्यते तदृश्यमेवाभ्युपगम्य निषिध्यते । था हि । अभावोऽपि पिशाचोऽपि यदा पीते निषेधुमिष्यते
१ विरोधौ, ख० विरोधो।
२ कः कस्य । ३ नित्यत्वे, ख० नित्यत्व । ४ परस्परपरिहारेण, ख. परस्परेण । ५ वस्तुतत्त्वं, क० स्तुतत्त्वं ।
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१००
न्यायबिन्दुः तदा दृश्यात्मतया निषेध्य इति दृश्यत्वमभ्युपगम्य दृश्यानुप लब्धेरेव निषेधः । तथा च सति रूपे परिछिद्यमान एकस्मिस्त दभावो दृश्यो व्यवच्छिद्यते । ततः स्वप्रच्युतिवत्मच्युतिमन्तोऽपि व्यवच्छिन्ना इति ये परस्परपरिहारस्थितरूपाः सर्वे तेऽनेन निषिद्धैकत्वा इति सत्यपि चास्मिन्विरोधे सहावस्थानं स्याद पि । ततो भिन्नव्यापारौ विरोधौ । एकेन विरोधेन शीतोष्णस्पर्शयोरेफत्वं वार्यते । अन्येन सहावस्थानं भिन्नप्रवृत्तिविषयौ च । सकले वस्तुन्यवस्तुनि च परस्परपरिहारविरोधः । वस्तुन्येव कतिपये सहानवस्थानविरोधः । तस्माद्भिन्नव्यापारौ भिन्न विषयौ च । ततो नानयोरन्योन्यान्तर्भाव इति । स च द्विविधोऽपि विरोधो वक्तृत्वसर्वज्ञत्वयोर्न संभवति।
स चायं द्विविधोऽपि विरोधो वक्तृत्वं च सर्वज्ञत्वं च तयोने संभवति न ह्यविकलकारणस्य सर्वज्ञत्वस्य वक्तृत्वभावादभावगतिः । सर्वज्ञत्वं ह्यदृश्यम् । अदृष्टस्य चाभावो नावसीयते । ततो नानेन विरोधगतिर्भवति । न च वक्तृत्वपरिहारेण सर्वज्ञत्वमवस्थितम् । काष्ठादयोऽपि वक्तृत्वपरिहतास्तेषामपि सर्वज्ञत्वप्रसङ्गात् । नापि सर्वज्ञत्वपरिहारेण वक्तृत्वम् । काष्ठादीनामपि वक्तृत्वप्रसङ्गात् । तत एवाविरोधाद्वक्तृत्वविधानेन सर्वज्ञत्वनिषेधः । ___ स्यादेतत् । यदि नास्त्येव विरोधो घटपटयोरिव । स्यादपि तयोः सहावस्थितिदर्शनम् । अदर्शनात्तु विरोधगतिः । विरोधाचाभावगतिरित्याशंक्याह
१ 'प्रवृत्ति' इति पाठः ख० पुस्तके नोपलभ्यते । २ सहानवस्थान०, ख० सहावस्थानं । ३ द्विविधा, क. द्विरोधः। . ४ 'च' इति पदं ख० पुस्तके नोपलभ्यते ।
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तृतीयपरिच्छेदः
१०१
न चाविरुद्धविधेरनुपलब्धावप्यभावगतिः । रा गादीनां वचनादेश्व कार्यकारणभावासिद्धेः ।
न चाविरुद्धविधेरिति । अनुपलब्धावपि नायं विरुद्धवि धिः । यद्यपि च सहावस्थानानुपलम्भस्तथापि न तयोर्विरोधो यस्मान्न सहानुपलम्भमात्राद्विरोधोऽपि तु द्वयोरुपलभ्यमानयोर्निवर्त्यनिवर्तकभावावसायात् । तस्मादनुपलब्धावपि न वक्तृत्वविरोधिविरुद्धविधिः । अतोऽस्मान्नान्यस्याभावगतिस्तथा नवक्तृत्वाद्रागादिमत्त्वगतिः । यतो यदि वचनादि रागादीनां का
स्याद्वचनादे रागादिगतिः स्याद्रागादिनिवृत्तौ वचनादिनिवृत्तिः स्यात् । न च कार्यम् । कुतः । रागादीनां वचनादेश्व कार्यकारणभावस्यासिद्धेः । कारणान्न कार्यमतोऽस्मान्न गतिः ।
माभूद्रागादिकार्यं वचनम् । सहचारि तु भवति । ततो रागोदौ सहचारिण निवृत्ते निवर्तते वचनमित्याशङ्कयाह
अर्थान्तरस्य वा कारणस्य निवृत्तौ न वचनादेर्निवृत्तिरिति संदिग्धव्यतिरेकोऽनैकान्तिको वचनादिः ।
अर्थान्तरस्य वा कारणस्य निवृत्तौ सहचारित्वदर्शनमात्रेण नान्यस्य वचनादेर्निवृत्तिः । अतो वक्तृत्वं भवेद्रागादिवि[चेति । इति शब्दस्तस्मादर्थे । तस्मादसर्वज्ञत्वविपर्ययाद्विपक्षात्सर्वज्ञत्वाद्रागादिमत्त्व विपर्ययादरागादिमत्वात्संदिग्धो व्यतिको वचनादेः । अतोऽनैकान्तिको वचनादिः ।
१ निवर्त्य० क० निर्वर्त्य ० ।
9
२ वचनादि०, ख० वचन० ।
३ 'तस्माद सर्वशत्वविपर्ययाद्विपक्षात्' आदि, ख० 'तस्मादसर्वस्वावीतरागत्वविपर्ययात् ( अशुद्धः ) तिपक्षात्सर्वज्ञत्वावीतरागामत्त्वात्संदिग्धः' आदि ।
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१०२
न्यायविन्दुः एवमेकैकरूपादिसिद्धिसंदेहे हेतुदोषानाख्याय द्वयोयोरूपयोरसिद्धिसंदेहे हेतुदोषान्वक्तुकाम आह ।
हयो रूपयोर्विपयर्यसिद्धौ विरुद्धः । द्वयो रूपयोविपर्ययसिद्धौ सत्यां विरुद्धः ।। त्रीणि च रूपाणि सन्ति ततो विशेषज्ञापनार्थमाह
कयोईयोः सपक्षे सत्वस्यासपक्षे चासत्त्वस्य यथा कृतकत्वं प्रयत्नानन्तरीयकत्वं च नित्यत्वे साध्ये विरुद्धो हेत्वाभासः । ___ कयोयोरिति । विशिष्टे रुपे दर्शयति । सपक्षे सत्त्वस्यासपक्षे चासत्त्वस्य विपर्ययसिद्धाविति सम्बन्धः । कृतकत्वमिति स्वभावहेतुः । प्रयत्नानन्तरीयकत्वमिति कार्यहेतोः । प्रयत्नानन्तरीयकशब्देन हि प्रयत्नानन्तरं जन्मज्ञानं च प्रयत्नानन्तरीयकमुच्यते । जन्म जायमानस्य स्वभावः । ज्ञानं ज्ञेयस्य कार्यम् । तदिह प्रयत्नानन्तरं ज्ञानं गृह्यते । तेन कार्यहेतुः । एतौ हेतू नित्यत्वे साध्ये विरुद्धौ हेत्वाभासौ।
कस्मात्पुनरेतौ विरुद्धावित्याह__ अनयोः सपक्षेऽसत्त्वमसपक्षे च सत्त्वमिति
विपर्ययसिद्धिः । अनयोरिति । सपक्षे नित्ये कृतकत्वप्रयत्नानन्तरीयकत्वयोरसत्त्वमेव निश्चितम् । अनित्ये पिपक्ष एव सत्त्वं निश्चितमिति विपर्ययासिद्धिः।
कस्मात्पुनर्विपर्ययसिद्धावप्येतौ विरुद्धावित्याह__एतौ च साध्यविपर्ययसाधनाद्विरुद्धौ ।
एतौ च साध्यस्य नित्यत्वस्य विपर्ययमनित्यत्वं साधयतः साव्यविपर्ययसाधनाविरुद्धौ ।
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तृतीयपरिच्छेदः
१०३
यदि साध्यविपर्ययसाधनाद्विरुद्धावेतायुक्तं न परार्थानुमाने साध्यं न त्वमुक्तम् । इष्टं चानुक्तमतोऽन्य इष्टविघातकृदाभ्यामिति दर्शयन्नाह -
―
तत्र च तृतीयोऽपीष्टविघात क्रुद्विरुद्धः ।
ननु च तृतीयोऽपि विरुद्ध उक्तः । उक्तविपर्यसाधनौ द्वौ तृतीयोऽयमिष्टस्य शब्देनानुपात्तस्य विधानं करोति विपर्यसाध नादिति । इष्टविद्यातकृत् ।
तमुदाहरति
यथा परार्थाश्चक्षुरादयः संघातत्वाच्छयनाशनाद्यङ्गवदिति ।
यथेति । चक्षुरादय इति धमीं । परोऽर्थः प्रयोजनं संस्काउपकर्तव्यो येषां ते परार्था इति साध्यम् । संघातत्वात्संचितरूपस्वादिति हेतुः । चक्षुरादयो हि परमाणुसंचितरूपाः। ततः संघातरू॥ उच्यन्ते । शयनमासनं चादिर्यस्य तच्छयनासनादि । तदेवाङ्गं गुरुपोपभोगाङ्गत्वात् । अयं व्याप्तिप्रदर्शन विषयो दृष्टान्तः । अत्र हे पारार्थ्येन संहतत्वं व्याप्तम् । यतः शयनासनादयः संघात रूपाः पुरुषस्य योगिने भवन्त्युपकारका इति परार्था उच्यन्ते । कथमयमिष्टविघातकुदित्याह ।
E
| तदिष्टासंहतपारार्थ्यविपर्ययसाधनाद्विरुद्धः
तदिष्टासंहतपारार्थ्यविपर्यसाधनादिति । असंहते विषये रामसंहतपारार्थ्यम् । तस्य सांख्यस्य वादिन इष्टमसंहतसिंहारार्थ्यं तस्य विपर्ययः । संहतपारार्थ्यं ना: तस्य साधनाद्विरुद्धः । आत्मास्तीति ब्रुवाणः सांख्यः । कुत तदिति पर्यनुयुक्तो बौद्धेनेदमात्मनः सिद्धये प्रमाणमाह । तपादसंहतस्यात्मन उपकारकत्वं साध्यं चक्षुरादीनाम् । अयं
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न्यायविन्दुः तु हेतुनिपर्ययव्याप्तः । यस्माद्यो यस्योपकारकः स तस्य जनकः । जन्यमानश्च युगपत्क्रमण वा भवति संहतः । तस्मात्प राथाश्चक्षुरादय इति संहतपरार्थी इति सिद्धम् ।
स इह कस्मान्नोक्तः । अयं च विरुद्ध आचादिग्नागेनोक्तः। स कस्माद्वार्तिककारेण सता त्वया नोक्तः। इतर आह
अनयोरेवान्तर्भावात् ।। अनयोरेव साध्यविपर्ययसाधनयोरन्तर्भावात् ।
ननु चोक्तविपर्ययं न साधयात तत्कथमुक्तविपर्ययसाधनयोरेवान्तर्भाव इत्याह । न ह्ययमाभ्यां साध्यविपर्ययसाधनत्वेन भिद्यते ।
नद्ययमिति । हीति यस्मादर्थे । यस्मादयमिष्टविघातकृदा. भ्यां हेतुभ्यां साध्यविपर्ययसाधनत्वेन न भिद्यते । यथा तौ सा. ध्यविपर्ययसाधनौ तथायमप्युक्तविपर्ययं तु साधयतु वा मा वा किमुक्तविपर्यसाधनेन । तस्मादनयोरेवान्तभावः ।
ननु चोक्तमेव साध्ये तत्कथं साध्यविपर्ययसाधनत्वेनाभेद इत्याह -
नहीष्टोक्तयोः साध्यत्वेन कश्चिद्विशेष इति द्वयो रूपयोरेकस्यासिद्धावपरस्य च संदेहेऽनैकान्तिकः । __ नहीति । यस्मादिष्टोक्तयोः परस्परस्य साध्यत्त्वेन न क. श्चिद्विशेषे भेद इति । तस्मादनयोरेवान्तर्भावः इत्युपसंहारः । प्रतिवादिनो हि यज्जिज्ञासितं तत्मकरणापन्नम् । यच्च प्रकर. 'णापन्नं तत्साधनेच्छया विषयीकृतम् साध्यामष्टमुक्तमनुक्तं वा।
१ परस्परस्थ, क० परस्परस्मात् ।
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तृतीयपरिच्छेदः
१०५
ननूक्तमात्रमेव साध्यं तेनाविशेष इति । द्वयो रूपयारसिद्धौ विरुद्ध उक्तः । अनयोर्द्वयोर्मध्य एकस्यासिद्धावपरस्य च संदेहेऽनैकान्तिकः । कीदृशोऽसावित्याह
यथा वीतरागः कश्चित्सर्वज्ञो वा वक्तृत्वादिति । व्यतिरेकोऽत्रासिद्धः । संदिग्धोऽन्वयः ।
यथेति । विगतो रागो यस्य स वीतराग इत्येकं साध्यम् । सर्वज्ञो वेति द्वितीयम् । वक्तृत्वादिति हेतुः । व्यतिरेकोऽत्रासि द्धः इति स्वात्मन्येव सरागे चासर्वज्ञे च विपक्षे वक्तृत्वं दृष्टम् । अतोऽसिद्धो व्यतिरेकः ।
संदिग्धोऽन्वयः कुत इत्याह
सर्वज्ञवीतरागयोर्विप्रकर्षाद्वचनादेस्तत्र सत्त्वमसत्वं वा संदिग्धमनयोरेव द्वयो रूपयोः संदेहेऽनैकान्तिकः ।
सपक्षभूतयोः सर्वज्ञवीतराग योर्विप्रकर्षादित्यतीन्द्रियत्वाद्वचनादेरिन्द्रियगम्यस्यापि । तत्रातीन्द्रिययोः सर्वज्ञत्ववीतरागयोः सत्वमसत्त्वं वा संदिग्धम् । ततश्च न ज्ञायते किं वक्तृत्वात्सर्वझउतं नेत्यनैकान्तिक इति । .
--
संप्रति द्वयोरेव संदेहेऽनैकान्तिकं वक्तुमाह । अनयोरेवान्वयव्यतिरेकरूपयोः संदेहात्संशयहेतुः ।
उदाहरणम् -
सात्मकं जीवच्छरीरं प्राणादिमत्त्वादिति ।
सहात्मना वर्तते सात्मकमिति साध्यम् । शरीरमिति धर्मी । नीवगुणं धर्मिविशेषणम् । मृते ह्यात्मानं नेच्छति । प्राणा आश्वासादय आदिर्यस्योन्मेषनिमेषादेः प्राणिधर्मस्य स प्राणादिः ।
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न्यायविन्दुः स यस्यास्त तत्प्राणादिमजीवच्छरीरम् । तस्य भावस्तत्वम् । तस्मादित्येष हेतुः । अयमसाधारणः संशयहतुरुपपादायतव्यः । पक्षधर्मस्य द्वाम्यां कारणाभ्यां संशयहेतुत्वम् । संशयविषयो यावाकारौ ताभ्यां सर्पस्य वस्तुनः संग्रहात् । तयोश्च व्यापकयोराकारयोरेकत्रापि वृत्यनिश्चयायकाभ्यां ह्याकाराभ्यां सर्व वस्तु न संगृह्यते । तयोराकारयोर्न संशयः । प्रकारान्तरसम्भवे हि पक्षधर्मो धर्मिणमवियुक्तं द्वयोरेकेन धर्मेण दर्शयितुं न शक्नु. यादतो न संशयहेतुः स्यात् । द्वयोर्धमयोरनियतं भावं दर्शयन्सं. शयहेतुईयोस्त्वनियतमपि भावं दर्शयितुमशक्तोऽप्रतिपत्तिहेतुर्नियतं भावं दर्शयन्हेतुर्विरुद्धो वा स्यात्तस्माद्यकाभ्यां सर्व वस्तु सं. गृह्यते तयोः संशयहेतुर्यदि तयोरेकत्रापि सद्भावनिश्चयो न स्याद । सद्भावनिश्चये तु यद्येकत्र नियमसत्तानिश्चयो विरुद्धो हेतु. वा स्यात् । अनियतसत्तानिश्चये तु साधारणानकान्तिकः । संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिका संदिग्धान्वयोऽसिद्धव्यतिरेको वा स्यात् । एकत्रापि तु वृत्यानश्चयादसाधारणानकान्तिको भवति ।
ततोऽसाधारणानैकान्तिकस्यानैकान्तिकत्वे हेतुद्वयं दर्शयितुमाह
न हि सात्मकनिरात्मकाभ्यामन्यो राशिरस्ति । यत्र प्राणादिवर्तते ।
न हीति । सहात्मना वर्तते सात्मकः । निष्क्रान्त आत्मा यस्मात्स निरात्मकः । ताभ्यां यस्मान्नान्यो राशिरस्ति । किं. भृतो यत्रायं वस्तुधर्मः प्राणादिर्वतते । तस्मादयं तयोर्भवति संशयहेतुः।
१यकाभ्यां, क. याभ्यां। २ साधारणानकान्तिकः, क. साधारणानकान्तिक०। ३ च्यावृत्तिकः, क. व्यावृत्तिकः२।
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तृतीयपरिच्छेदः
१०७
कस्मादन्यराश्यभाव इत्याह ।
आत्मनो वृत्तिव्यवच्छेदाभ्यां सर्वसंग्रहात् । आत्मनो वृत्तिः सद्भावो व्यवच्छेदोऽभावस्ताभ्यां सर्वस्य वस्तुनः संग्रहात्कोडीकरणात् । यत्र सात्मास्ति तत्सात्मकम् । तदन्यनिरात्मकम् । ततो नान्यो राशिरस्ति संशयदलुत्व कारणम् ।
प्रकाराभ्यां सर्वसंग्रहं प्रतिपाद्य द्वितीयमाह । नाप्यनयोरेकत्र वृत्तिनिश्चयः ।
नाप्यनयोः सात्मकानात्मकयोर्मध्य एकत्र सात्मकेऽनात्मके वा वृत्तेः सद्भावस्य निश्वयोsस्ति । द्वावपि राशी त्यक्त्वा न वर्तते प्राणादिर्वस्तुधर्मत्वात् । ततश्चानयोरेव वर्तत इत्येतावदेव ज्ञातम् । विशेषे तु वृत्तिनिश्चयो नास्तीत्ययमर्थः ।
तदाह
सात्मकत्वेन निरात्मकत्वेन वा प्रसिद्धे प्राणादेरसिद्धिः ।
सात्मकत्वेनानात्मकत्वेन वा विशेषेण युक्ते प्रसिद्धे निश्चिते वस्तुनि प्राणादेर्धर्मस्यासिद्धेरनैकान्तिकोऽनिश्चितत्वात् । तदेवमसाधारणस्य धर्मस्यानैकान्तिकत्वे कारणद्वयमभिहितम् । पक्षधर्मश्च भवन्सर्वः साधारणोऽसाधारणो वा भवत्यनैकान्तिकः । तस्मादुपसंहारव्याजेन पक्षधर्मत्वं दर्शयतितस्माज्जीवच्छरीरसम्बन्धी प्राणादिः ।
तस्मादित्यादिना जीवच्छरीरस्य सम्बन्धी पक्षधर्म इत्यर्थः । यस्मात्तयोरेकत्रापि न निवृत्तिनिश्चयस्तस्मात्ताभ्यां नव्यतिरिच्यते ।
१ भवन्सर्वः, क० भवत् सर्गः
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१०८
न्यायबिन्दुः वस्तुधर्मो हि सर्ववस्तुव्यापिनोः प्रकारयोरेकत्रनियतस. दावो निश्चितः प्रकारान्तरानिवर्तेत । तत एवाह
सात्मकादनात्मकाच्च सर्वस्माद्यावृत्तत्वनासिद्धः ।
सात्मकादनात्मकाच सर्वस्माद्वस्तुनो व्यावृत्तत्वेनासिद्धेरि ति । प्राणादिस्तावत्कुतश्चिद्धटादेर्निवृत्त एव । ततः एतावदवसातुं शक्यं सात्मकादनात्मकाद्वा कियतो निवृत्तः । सर्वस्मात्तु नि. तो नावसीयते । ततो न कुतश्विद्यतिरेकः । यद्येवमन्वयोऽस्तु तयोनिश्चित इत्याइ
ताभ्यां न व्यतिरिच्यते न तत्रान्वेति । न तत्र सात्मकेऽनात्मके वार्थेऽन्वेत्यन्वयवान्प्राणादिः । कुत इत्याह
एकात्मन्यप्यसिद्धेः । एकात्मनि सात्मकेऽनात्मके वासिद्धेः कारणात् । वस्तुधर्मतया तयोर्द्वयोरेकत्र वा वर्तते इत्यवसितः प्राणादिने तु सा. त्मक एव निरात्मक एव वा वर्तत इति कुतोऽन्वयनिश्चयः ।
ननु न प्रतिवादिनो न किंचित्सात्मकमस्ति । ततोऽस्य हेतोर्न सात्मकेऽन्वयो न व्यतिरेक इत्यन्वयव्यातरेकयोरभावनिश्वयः । सात्मके न तु सद्भावसंशय इत्याह
नापि सात्मकान्निरात्मकाच्च तस्यान्वयव्यतिरेकयोरभावनिश्चयः।
नापि सात्मकाद्वस्तुनस्तस्य प्राणादरन्वयव्यतिरेकयोरभावनिश्चयः । नापि च निरात्मकात् । सात्मकादनात्मकादिति च पञ्चमी व्यतिरेकशब्दापेक्षया द्रष्टव्या।
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तृतीयपरिच्छेदः
कथमन्वयव्यतिरेकयो भावनिश्चय इत्याह
एकाभावनिश्चयस्यापराभावनान्तरीयकत्वात्। एकस्यान्वयस्य व्यतिरेकस्य वा योऽभावनिश्चयः सोऽ परस्य द्वितीयस्य भावे निश्चयनान्तरीयको भवति । निश्चयस्याव्यभिचारी तस्य भावस्तत्त्वम् । तस्माद्यत एकाभावनिश्चयोऽपरभावनिश्चयेनान्तरीयकस्तस्मान द्वयोरेकसाभावनिश्चयः।
कस्मात्पुनरेकस्याभावनिश्चयोऽपरसद्भावनिश्चयाव्यभिचारीत्याह
अन्वयव्यतिरेकयोरन्योन्यव्यवच्छेदरूपत्वात् । अन्वषव्यतिरेकयोरन्योन्यव्यवच्छेदरूपत्वादिति । अन्योन्यस्य व्यवच्छेदोऽभावः स एव रूपं ययोस्तयोर्भावस्तत्त्वं तस्मात्कारणात् । अन्वयव्यतिरेको भावाभावौ । भावाभावौ च परस्परव्यवच्छेदरूपौ । यस्य व्यवच्छेदेन यत्परिछिद्यते तत्तत्परिहारेण व्यवस्थितम् । स्वभावव्यवच्छेदेन च भावः परिच्छिद्यते । तस्मात्स्वाभावव्यवच्छेदेन भावो व्यवस्थितः। अभावो हि नीरूपो यादृशो विकल्पेन दर्शितः। नीरूपतां च व्यवच्छिद्य रूपमाकारवत्परिछिद्यते। तथा च सत्यन्वयाभावो व्यतिरेको व्यतिरेकाभावश्चान्वयः। ततोऽन्वयाभावे निश्चिते व्यतिरेको निश्चितो भवति । व्यतिरेकामावे च निश्चितेऽन्वयो निश्चितो भवति । तस्माद्यदि नाम सात्मकमवस्तु निरात्मकं च वस्तु तथापि न तयोः प्राणादेरन्वयव्यतिरेकयोरभावनिश्चयः । एकवस्तुन्येकवस्तुनो युगपद्भावाभावविरोधात् । तयोरभावनिश्चयायोगाद । न च प्रतिवाद्यनुरोधात्सात्मकानात्मके वस्तुनी सदसती किंतु
१'निश्चयन' इति पाठः क० पुस्तके नोपलभ्यते। २निश्चयायोगात, खनिश्चययोगात्।। ..
.
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न्यायबिन्दुः प्रमाणानुरोधादित्युभे संदिग्धे । ततस्तयोः प्राणादिमावस्य सदसत्त्वसंशयः।
. अत एवान्वयव्यतिरेकयोः सन्देहादनैकान्तिकः । .. यत एवं कचिदन्वयव्यतिरेकयोने भावनिश्चयो नाप्यभावनिश्चयस्तत एवान्वयव्यतिरेकयोः संदेहः । यदि तु कचिदप्यन्वयव्यतिरेकयोरेकस्याप्यभावनिश्चयः स्यात्स एव द्वितीयस्य भावनिश्चय इत्यन्वयव्यतिरेकसंदेह एव न स्यात् । यतश्च न कचिद्भावाभावनिश्चयस्तत एवान्वयव्यतिरेकयोः संदेहः । संदेहाचानैकान्तिकःकस्मादनैकान्तिक:
साध्येतरयोरतो निश्चयाभावात् । साध्यस्येतरस्य च विरुद्धस्यातः संदिग्धान्वयव्यतिरेकान्निश्चयाभावात् । सपक्षविपक्षयोहि सपदत्वसंदेहेन साध्यस्य न विरुद्धस्य सिद्धिः । न च सात्मकानात्मकाभ्यां च परः प्रकारः संभवति । ततः प्राणादिमत्त्वाद्धर्मिणि जीवच्छरीरे संवायः । आत्मभावाभावयोरित्यनैकान्तिकः प्राणादिरिति ।
त्रयाणां रूपाणामसिद्धौ संदेहे च हेतुदोषानुपपायोपसंहरनाह___एवं त्रयाणां रूपाणामेकैकस्य द्वयोईयोर्वा रूपयोरसिद्धौ संदेहे च यथायोगमसिद्धविरुद्धानैकान्तिकास्त्रयो हेत्वाभासाः।
सन
१ प्राणादि० क प्रमाणादि। २ ख. पुस्तके साध्यस्ये योर्हि' लिखित्वा पंक्तिरेका परित्यक्ता । ३.मिलिः ० असिद्धिः।
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वृतीयपरिच्छेदः १११ एवमित्यनन्तरोक्तेन क्रमेणैषां मध्य एकैकं रूपं यदसिद्धं संदिग्धं वो भवति । दे द्वे कासिद्ध संदिग्धे वो भवतः । तदा. सिद्धश्च विरुद्धश्चानैकान्तिकच ते हेत्वाभासाः। यथायोगामिति । यस्यासिद्धौ संदेहे वा यो हेत्वाभासो युज्यते स तस्यासिद्धेः संदेहाच्च व्यवस्थाप्यत इति यस्य यस्य येन येन योगो यथायोगमिति ।)
विरुद्धाव्यभिचार्यपि संशयहेतुरुक्तः । स इह कस्मान्नोक्तः । . ननु चाचार्येण विरुद्धान्यभिचार्यपि संशयहेतुरुतः। हेत्वन्तरसाधितस्य विरुदं यत्तत्र व्यभिचरति स विरुदाव्य. भिचारी । यदि वा विरुद्धश्चासौ साधनान्तरसिद्धस्य धर्मस्य विरुद्धसाधनादन्यभिचारी च स्वसाध्यान्यभिचाराविरुदाव्यभिचारी। सत्यमुक्त आचार्येण । मयात्विह नोक्तः । कस्मादित्याह
अनुमानविषयेऽसंभवात् ।। अनुमानस्य विषयः प्रमाणसिद्धं त्रैरूप्यम् । यतो पनुमानसद्भावः सोऽनुमानस्य विषयः। प्रमाणसिदाच त्रैरूप्या. दनुमानसद्भावस्तस्मात्तदेवानुमानविषयः तस्मिन्प्रक्रान्ते न विरुद्धाव्यभिचारिसंभवः । प्रमाणसिद्धो हि त्रैरूप्ये प्रस्तुते स एव हेत्वाभासः संभवति यस्य प्रमाणसिदं रूपम् । न च विरुदाव्यभिचारिणः प्रमाणसिद्धमस्तिरूपम् । अतो न संभवः । सोऽसंभवो नोक्तः ।
१ पदमिदं ख. पुस्तके न विद्यते ।
२ पदमिदं ख० पुस्तके न विद्यते । . ३ पदमिदं क० पुस्तके नोपलभ्यते । “बिरुवं वद, दिक्वं ।
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११२
न्यायबिन्दुः
कस्मादसंभव इत्याहन हि संभवोऽस्ति कार्यस्वभावयोरुक्तलक्षणयोरनुपलम्भस्य च विरुद्धतायाः । न चान्योऽव्यभिचारी |
नहीति । यस्मा संभवोऽस्ति विरुद्धतायाः । कार्य च स्वभावश्व तयोरुक्तलक्षणयोरिति । कार्यस्य कारणाज्जन्मलक्षणं तत्रम् | स्वभावस्य च साध्यव्याप्तत्वं तत्त्वम् । यत्कार्य यथ स्वभावः स कथमात्मकारणं व्यापकं च स्वभावं परित्यज्य भवेद्येन विरुद्धः स्यात् । अनुपलम्भस्य चोक्तलक्षणस्येति । दृश्यानुपलम्भत्वमनुपलम्भलक्षणम् । तस्यापि च स्वभावाव्य. भिचारित्वान्न विरुद्धत्वसंभवः स्यात् । एतेभ्योऽन्यो भविष्यतीत्याह । न चान्य एतेभ्योऽव्यभिचारी त्रिभ्योऽत एव तेष्वेव हेतुत्वम् ।
क तर्शाचार्यदिनागेनायं हेतुदोष उक्त इत्याह । तस्मादवस्तुदर्शनबलप्रवृत्तमागमाश्रयमनुमानमाश्रित्य तदर्थविचारेषु विरुद्धाव्यभिचारी साधनदो
ष उक्तः ।
यस्माद्वस्तुबलप्रवृत्तेऽनुमाने न संभवति तस्मादागमाश्रयमनुमानमाश्रित्य विरुद्धाव्यभिचार्युक्तः । आगमसिद्धं हि यस्यानुमानस्य लिङ्गत्रैरूप्यं तस्यागम आश्रयः ।
ननु चागमसिद्धमपि त्रैरूप्यं प्रमाणसिद्धमित्याह । अवस्तुदर्शनबलप्रवृत्तमिति । अवस्तुनो दर्शनं विकल्पमात्रं तस्य बलं सामर्थ्यम् । ततः प्रवृत्तमप्रमाणाद्विकल्पमात्राव्यवस्थितं - रूप्यमागमसिद्धमनुमानस्य । न तु प्रमाणात् ।
१ स्यात्, ख० स्यादेति तत् ।
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तृतीयपरिच्छेदः तत्तीनुमानेनागमसिद्धत्रैरूप्यं काधिकृतमित्याह । तदर्थे। ति । तस्यागमस्य योऽर्थोऽतीन्द्रियः प्रत्यक्षानुमानाभ्यामविषयी. कृतः सामान्यादिस्तस्य विचारेषु प्रक्रान्तेष्वागमाश्रयमनुमानं संभवति । तदाश्रयो विरुद्धाव्यभिचार्युक्त आचार्येणेति । कस्मात्पुनरागमाश्रयेऽप्यनुमाने संभव इत्याह ।
शास्त्रकाराणामर्थेषु भ्रान्त्या विपरीतस्य स्वभावोपसंहारसंभवात् ।
शास्त्रकता विपरीतस्य वस्तुविरुद्धस्य स्वभावस्योपसंहारो दौकनमर्थेषु तस्य संभवाविरुद्धाव्यभिचारिसंभवः । भ्रान्त्येति विपर्यासेन । विपर्यस्ता हि शास्त्रकाराः सन्तमसन्तं स्वभाव. मारोपयन्तीति । .
यदि शास्त्रकृतोऽपि भ्रान्ता अन्येष्वपि पुरुषेषु क आश्वास इत्याह
न द्यस्य संभवो यथावस्थितवस्तुस्थितिष्वात्मकार्येषूपलम्भेषु ।, __नहीति । न हेतुषु कल्पनया हेतुत्वव्यवस्थापि तु वस्तुस्थित्या । ततो यथावस्थितवस्तुस्थितिष्वात्मकार्यानुपलम्भेष्वस्य संभवो नास्ति । अवस्थितं परमार्थसद्वस्तु तदनतिक्रान्ता यथापस्थिता वस्तुस्थितिव्यवस्था येषां ते यथाव स्थितवस्तुस्थितयः। ने हि यथावस्तुस्थितं तथास्थिता न कल्पनयातस्तेषुः न प्रान्तेरवकाशोऽस्ति येन विरुद्धाव्यभिचारिसंभवः स्यात् । तत्र विरुद्धाव्यभिचारिण्युदाहरणम् -
तत्रोदाहरणं यत्सर्वदेशावस्थितैः स्वसम्बन्धिभिः १ पाठोऽयं क० पुस्तके नोपलभ्यते। २ क मागमाश्रयो।
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न्यायविन्दुः संबध्यते तत्सर्वगतं यथाकाशमभिसंबध्यते सर्वदेशावस्थितैः स्वसंम्बन्धिभियुगपत्सामान्यमिति । ___यत्सर्वस्मिन्देशेऽवस्थितैः स्वसंबन्धिभिर्युगपदभिसंबध्यते तत्सर्वदेशावस्थितैरभिसंबध्यमानत्वं सामान्यस्यानूध सर्वगत्वं विधीयते । तेन युगपदभिसंबध्यमानत्वं सर्वगतत्वे नियतं तेन व्याप्तं कथ्यते । इह सामान्यं कणादमहर्षिणा निष्क्रियं दृश्यमेक चोक्तम् । युगपञ्च सर्वैः स्वैः स्वैः सम्बन्धिभिः समवायेन संबद्धम् । तत्र पैलुकेन कणादशिष्येण व्यक्तिषु ब्यक्तिरहितेषु च देशेषु सामान्य स्थितं साधयितुं प्रमाणमिदमुपन्यस्तम् । यथाकाशमिति । व्याप्तिपदर्शनविषयो दृष्टान्तः । आकाशमपि हि सर्वदेशावस्थितैर्वृक्षादिभिः स्वसंयोगिभियुगपदमिसंवध्यमानं सर्वगतं चाभिसम्बध्यते च सर्वदेशावास्थितैः स्वसंवन्धिभिरितिहेतोः पक्षधर्मत्वप्रदर्शनम्
अस्य स्वभावहेतुत्वं प्रयोजयितुमाह -
तत्संबन्धिस्वभावमात्रानुबन्धिनी तद्देशसंनिहितस्वभावता।
तत्संबन्धीति । तेषां सर्वदेशावस्थितानां द्रव्याणां संबन्धी सामान्यस्य स्वभावः स एव तत्संबन्धिस्वभावमात्रम् । तदनुबध्नातीति तदनुबन्धिनी । कासावित्याह । तदेशसंनिहितस्वभावता । तेषां संबन्धिनां देशस्तदेशस्तद्देशे संनिहितः स्वभावो यस्य तत्तद्देशेसानहितस्वभावं तस्य भावस्तत्ता । यस्य हि येषां संबन्धी स्वभावस्तनियमेन तेषां देशे संनिहितं भवति । तत
१ एकं, ख० एव । २ संबन्धिभिः, ख. स्वसम्यन्धिभिः । ३च, ख० वा।
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तृतीयपरिच्छेदः
स्तत्संवन्धित्वानुबन्धिनी तदेशसंनिहितता सामान्यस्य । ननु च गवां संबन्धी स्वामी । न च तदेशे संनिहितस्वभावः स्वामी । तत्कथं संबन्धित्वात्तदेशत्वमित्याह -
११५
न हि यो यत्र नास्ति स तद्देशमात्मना व्याप्नोतीति स्वभावहेतुप्रयोगः ।
न हीति । यो यत्र देशे नास्ति स देशो यस्य स तदेशस्तं न व्याप्नोत्यात्मना स्वरूपेण । इह सामान्यस्य तद्वतां च समवायलक्षणः संबन्धः । स चाभिन्नदेशयोरेव । तेनं यत्र यत्सम - वेतं तत्तदात्मीयेन रूपेण क्रोडीकुर्वत्समवायिरूपदेशे स्वात्मानं निवेशयति । तद्देशरूपनिवेशनमेव तत्क्रौडीकरणम् । ततस्तत्समवायः । तस्माद्यद्यत्र समवेतं तत्तद्द्रव्यं व्याप्नुवदात्मना तदेशे संनिहितं भवति । तदयमर्थः । तदेशस्थवस्तु व्यापनं तद्देशस्रतया व्याप्तम् । तदेशसत्ताभावे तयापनाभावाद्व्यापनलक्षणः समवायसंबन्धों न स्यात् । अस्ति च व्यापनम् । अतस्तदेशे संनिहितत्वमिति । तदयं स्वभावहेतुः ।
पैठरप्रयोगं दर्शयन्नाह
द्वितीयोऽपि प्रयोगो यदुपलब्धिलक्षणप्राप्तं सन्नोपलभ्यते न ततंत्रास्ति । तद्यथा क्वचिदविद्यमानो घटः । द्वितीयोऽपीति । यदुपलब्धेर्लक्षणतां विषयतां प्राप्तं दृश्यमित्यर्थः । एतेन दृश्यानुपलब्धिमनूद्य तत्र्त्तत्तत्रास्तीत्यसद्व्यवहा
१ समवायलक्षणः, क० समवायलक्षण० ।
२ तेन, ख० अनेन ।
३ तत्कोडी० ख० न क्रोडी० ।
४ तद्दशसन्ताभावे, ख० तद्देशसत्ताया अभावे ।
५ तत्तत्तत्र, क० ततत्तत्र ख तत्तत्र ।
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न्यायविन्दुः यत्वं विहितम् । ततो व्याप्यदृश्यानुपलब्धेर्व्यापकमसव्यवहार्यत्वं दर्शितम् । तद्यथेति । कचिदसन्घटो दृष्टान्तः । . पक्षधर्मत्वं दर्शयितुमाह
नोपलभ्यते चोपलब्धिलक्षणप्राप्तं सामान्य व्यक्त्यन्तरालेष्विति ।
नोपलभ्यते चेति । व्यक्तेरन्तरालं व्यक्त्यन्तरं च व्यक्तिशून्यं चाकाशं दृश्यमपि कस्यांचियक्तौ गोसामान्यमश्वादिषु व्यक्तियन्तरेषु व्यक्तिशून्ये चाकाशे चोपलभ्यते । तस्मान तेष्वस्तीति गम्यते ।
अयमनुपलम्भप्रयोगः स्वभावश्च परस्परविरुद्धार्थसाधनादेकत्र संशयं जनयतः ।
अयमनुपलम्भः पूर्वोक्तश्च स्वभावः परस्परविरुद्धौ यावर्थों तयोः साधनात्तावेकस्मिन्धर्मिणि संशयं जनयतः । न ोकोऽर्थः परस्परविरुद्धस्वभावो भवितुमर्हति । एकेन चात्र व्यक्तंयन्तरेषु व्यक्तिशून्ये चाकाशे सत्त्वम् । अपरेण चानुपलम्भेनासत्त्वं साध्यते । न चैकस्यैकदैकत्र सत्त्वमसत्त्वं च युक्तं तयोविरोधात् । तदागमसिद्धस्य सामान्यस्य सर्वगतत्वाँसर्वगतत्वयोः साध्ययोरेतौ विरुद्धाव्यभिचारिणौ जाती । यतः सामान्यस्यैकस्य युगपत्स. देशारस्थितैरभिसंबन्धित्वं चाभ्युपगतं दृश्यत्वं च । ततः सर्व
१ व्यक्ति शुन्ये, क० शून्ये। २ पदमिदं स्व० पुस्तके नोपलभ्यते ।
३ तदागमसिद्धस्य, क० तदागममसि० ( अशुद्धः ) ख० तस्मा. दागमः।
४ सर्वगतत्वासर्वगतत्वयोः, ख० सर्वगतत्वयोः । ५ अभिसंबन्धित्वं, ख० अभिसंबद्धत्वं ।
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तृतीयपरिच्छेदः
११७
सम्बन्धित्वात्सर्वगतत्वं दृश्यत्वादन्तरालानुपलम्भादसर्वगतत्वं । ततः शास्त्रकारेणैव विरुद्धव्याप्तत्वमपश्यता विरुद्धव्यासौ धर्मावक्त्वां विरुद्धाव्यभिचार्यवकाशो दत्त इति । न चे वस्तुन्यस्य संभवः । इत्युक्ता हेत्वाभासाः ।
ननु च साधनावयवत्वाद्यथा हेतव उक्तास्तत्प्रसङ्गेन हेत्वाभासास्तथा साधनावयवत्वा दृष्टान्ता वक्तव्यास्तत्प्रसङ्गेन च दृष्टाः न्ताभासास्तत्कथं नोक्ता इत्याह
त्रिरूपों हेतुरुक्तः ।
त्रिरूपोहेतुरुक्तस्तत्किं दृष्टान्तैः ।
स्यादेतत्तावता नार्थप्रतीतिरित्याह
तावतैवार्थप्रतीतिरिति न पृथग्दृष्टान्तो नाम साधनावयवः कश्चित् ।
तावतैवेति । उक्तलक्षणेनैव हेतुना भवति साध्यप्रतीतिः । अतः स एव गमकस्तद्वचनमेव साधनम् । न दृष्टान्तो नाम साधनस्यावयवः । यतश्चायं नावयवस्तेन नास्य दृष्टान्तस्य लक्षणं हेतुलक्षणात्पृथगुच्यते । कथं तर्हि हेतोर्व्याप्तिनिश्चयो यद्यदृष्टान्तको हेतुरिति चेत् । नोच्यते हेतुरदृष्टान्तक एवापि तु न हेतोः तो नाम | हेत्वन्तर्भुत एव दृष्टान्तः ।
तेन नास्य लक्षणं पृथगुच्यते ।
१ उक्ता विरुद्ध ०, ख० उक्तौ । इह बिरुद्ध० । २ न च वस्तुन्यस्य, ० न वस्तुन्यस्य हेतोः । ३ 'उक्तः' इति पदं ख० पुस्तकं नोपलभ्यते । ४ तावतैवेति, क० तावता चेति ।
५ अतः, ख० ततः ।
६ तद्वचनं, ख० ततस्तद्वचनम् ।
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११०
न्यायबिन्दुः अत एवोक्तं नास्य लक्षणं पृथगुच्यत इति । न त्वेवमुक्त नास्य लक्षणमुच्यत इति । . यद्येवं हेतूपयोगिनोऽपि लक्षणं वक्तव्यमेवेत्याह ।
गतार्थत्वात् । गतार्थत्वात् । गतोऽर्थः प्रयोजनमभिधेयं वा यस्य दृष्टान्तलक्षणस्य तत्तथा तस्य भावस्तत्त्वं तस्मात् । दृष्टान्तलक्षणं युच्यते दृष्टान्तप्रतीतिर्यथा स्यात् । दृष्टान्तश्च हेतुलक्षणादेवावसितः । ततो दृष्टान्तलक्षणस्य यत्प्रयोजनं दृष्टान्तप्रतीतिस्तद्गतं निष्पन्नम. भिधेयं वा । गतं ज्ञानं दृष्टान्ताख्यम् ।
कथं गतार्थत्वमित्याह
हेतोः सपक्ष एव सत्त्वमसपक्षाच्च सर्वतो व्यावृत्तो रूपमुक्तमभेदेन पुनर्विशेषेण कार्यस्वभावयोर्जन्म तन्मात्रानुबन्धौ दर्शनीयावुक्तौ ।
हेतो रूपमभेदेनोक्तं सामान्येन साधारणं कार्यस्वभावानुपलम्भानामतल्लक्षणमित्यर्थः । किं पुनस्तत्सपक्ष एव येत्सत्त्वं विपक्षाच सर्वस्मायावृत्तियों रूपद्वयमेतदभेदेनोक्तम् । न च सामान्यमुक्तमपि शक्यं ज्ञातुम् । अतस्तदेव विशेषनिष्ठं वक्तव्यम् । अतः पुनरपि विशेषेण विशेषवन्तौ जन्मतन्मात्रानुबन्धौ दर्शनीयावुक्तौ। कार्यस्य जन्म ज्ञातव्यमुक्तम् । जन्मनि हि विज्ञाते कार्यस्य सपक्ष एव सवं विपक्षाच सर्वस्माद्यात्तिर्माता
१ पदमिदं ख० पुस्तके नोपलभ्यते । २ पदमिदं ख० पुस्तके नोपलभ्यते । ३ पदमिदं क० पुस्तके नोपलभ्यते । ४ अभेदेनोक्तं, ख० उक्तमभेदेन । ५ 'यत्' इति पदं ख. पुस्तके नोपलभ्यते । ६ विशाते, स्व.शाते।
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तृतीयपरिच्छेदः भवति । स्वभावस्य तन्मात्रानुबन्धो दर्शनीय उक्तः । तदिति साधनं तदेव तन्मानं साधनमात्रं तस्यानुबन्धोऽनुगमनं साधन- - मात्रभावे भावः साध्यस्य । तन्मात्रभावित्वमेव हि साध्यस्य तादात्म्यम् । साधनस्य यदा स्वभावो ज्ञातो भवति तदा स्वभावहतोः सपक्ष एव सत्त्वं विपक्षाच सर्वस्माद्यावृर्तिर्वाता भवति । तदेवं सामान्यलक्षणं विशेषात्मकं ज्ञातव्यं नान्यथा ततो विशेषलक्षणमुक्तम् । किमतो यदि नामैवमित्याह
तच्च दर्शयता यत्र धूमस्तत्राग्निरसत्यग्नौ न कचिडूमो यथा महानसेतरयोः । ___ तत्र सामान्यलक्षणे दर्शयितुकामेन विशेषलक्षणं दर्शयतैवं दर्शनीयमिति संबन्धः । यत्र धूमस्तत्राग्निरिति कार्यहेतोाप्तिदर्शिता । व्याप्तिश्च कार्यकारणभावसाधनात्प्रमाणानिश्चीयते । ततो यथा महानस इति दर्शनीयम् । असत्यग्नौ न भवत्येव धूम इति व्यतिरेको दर्शितः । स च यथेतरस्मिनिति दर्शनीयः । वहिनिवृत्तिर्हि धूमनिती नियता दर्शनीया । सा च महानसादितरत्र दर्शनीया।
यत्र कृतकत्वं तत्रानित्यत्वमनित्यत्वाभावे कृतकत्वासंभवो यथा घटाकाशयोरिति दर्शनीयम् ।
यत्र कृतकत्वं तत्रानित्यत्वमिति स्वभावहेतोयाप्तिदर्शिता। अनित्यत्वाभावे न भवत्येव कृतकत्वमिति व्यतिरेको दर्शितः। त्र्याप्तेश्व साधकं प्रमाणं साधर्म्यदृष्टान्ते दर्शनीयम् । प्रसिदव्या.
१ तस्य, ख० साधनमात्रस्य । २ एवं, स्व० एवं च। ३ इतरत्र, कइतरत्रेति। ४ साधर्म्य० ख० साधम्र्य ।
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१२०
न्यायबिन्दुः प्तिकस्य च हेतोः साध्यनिवृत्तौ निवृत्तिर्दशनीया । तदवश्यं यथा घटे यथाकाशे चेति दर्शनीयम् । कस्मादेवमित्याह
न ह्यन्यथा सपक्षविपक्षयोः सदसत्त्वे यथोक्तप्रकारे शक्ये दर्शयितुम् । ___न हीति । यस्मादन्यथा सामान्यलक्षणरूपे सपक्षविपक्षयोः सदसत्त्वे यथोक्तप्रकारे इति नियते । सपक्ष एव सत्त्वं विपक्षेऽसत्त्वमेवेति नियमो यथोक्तप्रकारः । तेने शक्ये दर्शयितुम् । विशेषलक्षणे हि दर्शिते यथोक्तप्रकारे सदसत्त्वे दर्शिते भवतः । न च विशेषलक्षणमन्यथा शक्यं दर्शयितुम् ।
तत्कार्यतानियमः कार्यलिङ्गस्य स्वभावलिङ्गस्य च स्वभावेन व्याप्तिः ।
तस्य साध्यस्य कार्य तत्कार्य धृमस्तस्य भावस्तत्कार्यता सैव नियमो यतस्तत्कार्यतया धूमो दाहेन नियतः सोऽयं तत्कार्यतानियमो विशेषलक्षणरूपोऽन्यथा दर्शयितुमशक्यः। स्वभावलिङ्गस्य च स्वभावेन साध्येन व्याप्तिर्विशेषलक्षणरूपा न शक्या दर्शयितुम् । यस्मात्कार्यकारणभावस्तादाम्यं च महानसे घटे च ज्ञातव्यं तस्माद्याप्तिसाधनं प्रमाणं दर्शयता साधर्म्यदृष्टान्तो दर्शनीयः । वैधHदृष्टान्तस्तु प्रसिद्ध तत्कार्यत्वे कारणाभावे का भावप्रतिपत्त्यर्थम् । तत एव नावश्यं वस्तु भवति । कारणाभावे कार्याभावो वस्तुन्यवस्तुनि वा भवति । ततो वस्त्ववस्तु वा वैधHदृष्टान्त इष्यते । तस्मादृष्टान्तव्यतिरेकेण
१ सदसत्वे, क० सदसत्त्वे २। २ साधर्म्य०, ख० साध्य० । ३ दृष्टान्यव्यतिरेकेण, ख० दृष्टान्तमन्तरेण ।
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तृतीयपरिच्छेदः
१२१
हेतोरन्वयो व्यतिरेको वा न शक्यो दर्शयितुम् । अतो हेतुरूपाख्यानादेव हेतोर्व्याप्तिसाधनस्य प्रमाणस्य दर्शकः साधर्म्यदृष्टान्तः । प्रसिद्धव्याप्तिकस्य साध्याभावे हेत्वभावप्रदर्शनाद्वैधर्म्य - दृष्टान्त उपादेय इति च दर्शितं भवति ।
अस्मिश्चार्थे दर्शिते दर्शित एव दृष्टान्तो भवति ।
अस्वार्थे दर्शिते दर्शित एव दृष्टान्तो भवति । योऽयमर्थो व्याप्तिसाधनप्रमाणप्रदर्शिनः कश्चिदुपादेयो निवृत्तिप्रदेर्शनश्चेत्यस्मिन्नर्थे प्रदर्शिते दर्शितो दृष्टान्त इत्याह
एतावन्मात्ररूपत्वात्तस्येति ।
·
एतावन्मात्रं रूपं यस्य तस्य भावस्तत्त्वं तस्मादिति । एताचदेव हि रूपं दृष्टान्तस्य । यदुत व्याप्तिसाधनप्रमाणदर्शनत्वं : नाम साधर्म्यदृष्टान्तस्य प्रसिद्धाप्तिकस्य वा साध्यनिवृत्तौ साधननिवृत्तिप्रदर्शकत्वमित्येतद्वैधर्म्यदृष्टान्तस्य । तच्च हेतुरूपा - ख्यानादेवाख्यातमिति किं दृष्टान्तलक्षणेन ।
एतेनैव दृष्टान्तदोषा अपि निरस्ता भवन्ति । एतेनैव च हेतुरूपाख्यानादृष्टान्तत्वप्रदर्शनेन दृष्टान्तस्य दोषा दृष्टान्ताभासा कथिता भवन्ति । तथाहि । पूर्वोक्तसिद्धये उपादीयमानोऽपि दृष्टान्तो' न समर्थः स्वकार्य साधयितुं स दृष्टान्तदोष इति सामर्थ्यादुक्तं भवति ।
१ तो
न, ख० न तो ।
२ प्रदर्शन:, क० प्रदर्शिन, ख० दर्शकः । ३ प्रदर्शित, ख० दर्शिते ।
४ 'वैधर्म्यदृष्टान्तस्य तत्' इति पाठो ख० पुस्तके नोपलभ्यते । ५ दृष्टान्तस्य दोषाः, क० पुस्तकस्य 'दोषा' मलिनत्वेन न पठ्यते । ख० दृष्टान्तदोषा । ६ पदमिदं ख० पुस्तके नोपलभ्यते ।
७ उक्तं भवति, ख० इत्येतदुक्तं भवति ।
१६
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१२२
न्यायविन्दुः - दृष्टान्ताभासानुदाहरतियथा-नित्यः शब्दोऽमूर्तत्वात्।कर्मवत्परमाणुवढटवदिति। • यथेति । नित्यः शब्द इति । शब्दस्य नित्यत्वे साध्येऽमूतत्वादिति हेतुः । साधर्पण कर्मवत्परमाणुवद्धटवदित्येते दृष्टान्ता उपन्यस्ताः । __ एते च दृष्टान्तदोषाःसाध्यसाधनधर्मोभयविकलास्तथा संदिग्धसाध्य
धर्मादयश्च । साध्यं च साधनं चोभयं चेति तैर्विकलाः । साध्यविकलं कर्म तस्यानित्यत्वात् । साधनविकलः परमाणुमूर्तत्वात्परमाणू. नाम् । असर्वगतं द्रव्यपरिमाणं मूर्तिः । असर्वगताश्च द्रव्यरूपाश्च परमाणवः। नित्यास्तु वैशेषिकैरिष्यन्ते । ततो न साध्यविकलः । घटस्तूभयविकलः । अनित्यत्वान्मूर्तत्वाच्च घटस्येति । तथा सं. दिग्धः साध्यधर्मो यस्मिन्स संदिग्धसाध्यधर्मः स आदिर्येषान्ते तथोक्ताः । संदिग्धसाध्यधर्मः। संदिग्धसाधनधर्मः । संदिग्धोभयः।
उदाहरणम्यथा-रागादिमानयं वचनाद्रथ्यापुरुषवत् ।
रागादिमानिति रागादिमत्त्वं साध्यम् । वचनादिनि हेतुः । रथ्यापुरुषवदिति दृष्टान्तः । रागदिमत्त्वं संदिग्धम् । मरणधर्मोऽयं पुरुषो रागादिमत्त्वाद्रथ्यापुरुषवत् ।
मरणं धर्मोऽस्येति मरणधर्मा तस्य भावो मरणधर्मत्वं साध्यम् । अयं पुरुष इति धर्मी। रागादिमत्त्वादिति हेतुः । रथ्यापुरुषे दृष्टान्ते संदिग्धं साधनं साध्यं तु निश्चितं मरणधर्मत्वामिति ।
१ शब्दस्य नित्यत्वे साध्ये, ख० नित्यत्वे साध्ये शब्दस्य ।
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१२३
तृतीयपरिच्छेदः असर्वज्ञोऽयं रागादिमत्वाद्रथ्यापुरुषवदिति ।। - असर्वज्ञ इति । असर्वज्ञत्वं साध्यम् । रागादिमत्यादिति हेतुः । तदुभयमपि रथ्यापुरुषे दृष्टान्ते संदिग्धम् । असर्वज्ञत्वं रा. गादिमत्वं चेति ।
- अनन्वयोऽप्रदार्शतान्वयश्च ।
तथानन्वय इति । यस्मिन्दृष्टान्ते साध्यसाधनयोः संभवमात्रं दृश्यते न तु साध्येन व्याप्तो हेतुः सोऽनन्वयः । अप्रदर्शितान्वयश्च यस्मिन्दृष्टान्ते विद्यमानोऽप्यन्वयो न प्रदर्शितोवत्रा सो ऽप्रदर्शितान्वयः ।
अनन्वयमुदाहरति । यथा-यो वक्ता स रागादिमानिष्टपुरुषवत् ।
यथेति । यो वक्तेति वक्तृत्वमनूद्य स रागादिमानिति रागादि. मत्त्वं विहितम् । ततो वक्तृत्वस्य रागादिमत्वं विहितम् । ततो वक्तृत्वस्य रागादिमत्त्वं प्रति नियमस्तेन व्याप्तिरुक्ता । इष्टपुरुषवदिति । इष्टग्रहणेन प्रतिवाद्यपि गृह्यते वाद्याप । तेन वक्तृत्वरागादिमत्त्वयोः सत्त्वमात्रमिष्टे पुरुषे सिद्धम् । व्याप्तिस्तु न सिद्धा । तेनानन्वयो दृष्टान्त इति । __ अनित्यः शब्दः कृतकत्वाइटवदिति।
अनित्यः शब्द इत्यनित्यत्वं साध्यम् । कृतकत्वादिति हेतुः । घटवदित्यत्रं दृष्टान्तेन प्रदर्शितोऽन्वयः । इह यद्यपि कृत. कत्वेन घटसदृशः शब्दस्तथापि नानित्यत्वेनापि सदृशः प्रत्येतुं शेक्योतिप्रसङ्गात् । यदि तु कृतकत्वमनित्यत्वस्वभावं विज्ञातं
१ रागादिमत्वं, क० रागादिमत्व । . २ गृह्यते, ख० संगृह्यते। ३ वाद्यपि, क० विद्यपि। ४ 'अत्र' इति पदं ख० पुस्तके नोपलभ्यते । ५ शक्यः, ख० शक्यते । ६ मनिस्यत्व०ख० अनित्य
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न्यायविन्दुः भवत्येवं कृतकत्वादनित्यत्वप्रतीतिः स्यात् । तस्माद्यत्कृतकं तदनित्यमिति । कृतकत्वमनित्यत्वनियतमभिधाय नियमसाधनायान्वयवाक्यार्थप्रतिपत्तिविषयो दृष्टान्त उपादेयः । स च प्रदर्शितान्वय एव । अनेन त्वन्वयवाक्यमनुत्त्वैव दृष्टान्त उपात्तः । ईदृशश्च साधर्म्यमात्रेणैवोपयोगी । नच साधर्म्यात्साध्यासिद्धिः । अतोऽन्वयार्थो दृष्टान्तस्तदर्थश्चानेन नोपात्तः । साधार्थचोपा. तो निरुपयोग इति वक्तृदोषादयं दृष्टान्तदोषः। वक्त्रा ह्यत्र परः प्रतिपादयितव्यः । ततो यदि नाम न दुष्टं वस्तु तथापि वक्त्रा दुष्टं दर्शितमिति दुष्टमेव ।
तथा विपरीतान्वयः । तथा विपरीताऽन्वयो यस्मिन्टष्टान्ते स तथोक्तः । तमेवोदाहरति
यदनित्यं तत्कृतकम् । यदनित्यं तत्कृतकमिति । कृतकत्वमनित्यत्वनियतं दृष्टान्ते दर्शनीयम् । एवं कृतकत्वादनित्यत्वगतिः स्यात् । अत्र त्वनित्यत्वं कृतकत्वे नियतं दर्शितम् । कृतकत्वं त्वनियतमेवानित्यत्वे । ततो यादृशमिह कृतकत्वमनियतमनित्यत्वे प्रदर्शितं तादृशानास्त्यनित्यत्वप्रतीतिः । तथा हि । य. दनित्यमित्यनित्यत्वमनूद्य तत्कृतकमिति कृतकत्वं विहितम् ।
अतोऽनित्यत्वं नियतमुक्तं कृतकत्वे न तु कृतकत्वमनित्यत्वे । ततो यथानित्यत्वादनियतात्प्रयत्नानन्तरीयकत्वेन प्रय. नानन्तरीयकत्वप्रतीतिस्तद्वत्कृतकत्वादनित्यत्वप्रतिपत्तिर्न स्यात् । अनित्यत्वेऽनियतत्वात्कृतकत्वस्य । यद्यपि च कृतकत्वं वस्तु. स्थित्यानित्यत्वे नियतं तथाप्यनियंत वादर्शितम् । अतस्तत्स्व
१ अनित्यत्व० ख० अनित्यत्वे । २ 'तथाप्यनियते' इति पाठः क० पुस्तके नोपलभ्यते ।
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तृतीयपरिच्छेदः १२५ यं न दुष्टमपि वक्तुंर्दोषाददुष्टम् । तस्माद्विपरीतान्वयोऽपि वक्तरपराधान्न वस्तुतः । परार्थानुमाने च वक्तुरपि दोषश्चिन्त्यते ।
इति साधर्म्यण । इति साधर्येण नवे दृष्टान्तदोषा उक्ताः ।
वैधयेणापि न दृष्टान्तदोषान्वक्तुमाहवैधयेणापि परमाणुवत्कर्मवदाकाशवदिति साध्या
द्यव्यतिरेकिणः । नित्यत्वे शब्दस्य साध्ये हेतावमूर्तत्वे परमाणुवद्वैधयंदृष्टान्तः । साध्याव्यतिरेकी नित्यत्वात्परमाणूनाम् । कर्म साधना. व्यतिरेकि । अमूर्तत्वात्कर्मणः । आकाशमुभयाव्यतिरेकि । नि. त्यत्वादमूर्तत्वाच । साध्यमादिर्येषां तानि साध्यादीनि साध्यसाधनोभयानि तेषामव्यतिरेको वृत्यभावः स येषामस्ति ते साध्यायव्यतिरेकिणः । ते चोदाहृताः । अपरानुदाहर्तुमाह
तथा संदिग्धसाध्यव्यतिरेकादयः । तथेति । साध्यस्य व्यतिरेकः साध्यव्यतिरेकः संदिग्धः साध्यव्यतिरेको यस्मिन्स संदिग्धसाध्यव्यतिरेकः स आदिर्येषां ते तथोक्ताः ।
१ वक्तुर्दोषात् , क वक्तु दोषात् , ख० वक्तुदोषात् । २ नव दृष्टान्त०, ख० तदृष्टान्तः। ३ मुद्रित पुस्तके 'द्वैधयण' । ४ पदमिदं ख० पुस्तके नोपलभ्यते । ५ वक्तुमाह, ख० वक्तुकाम आह । ६ परमाणुवत् , ख० परमाणु०। ७ घृत्यभावः,ख. निवृत्ताभावः (अशुद्धः)
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न्यायविन्दुः संदिग्धसाध्यव्यतिरेकमुदाहर्तुमाह
यथाऽसर्वज्ञाः कपिलादयोऽनाप्ता वा । अविद्यमानसर्वज्ञताप्ततालिङ्गभूतप्रमाणातिशयशासनत्वादिति । ___ यथेति । असर्वज्ञा इत्येकं साध्यम् । अनाप्ता अक्षीणदोषा इति द्वितीयम् । कपिलादय इति धर्मी। अविद्यमानसर्वज्ञतेत्या. दिहेतु । सर्वज्ञता चाप्तता च तयोलिङ्गभूतः प्रमाणातिशयो लिङ्गात्मकः प्रमाणविशेषः। अविद्यमानः सर्वज्ञताप्ततालिङ्गभूतः प्रमाणातिशयो यस्मिस्तत्तथोक्तं शासनं । तादृशं शा. सनं येषां ते तथोक्तास्तेषां भावस्तत्त्वं तस्मात्प्रमाणातिशयो ज्योतिर्ज्ञानोपदेश इहाभिप्रेतः । यदि हि कपिला. दयः सर्वज्ञा आप्ता वास्युस्तदा ज्योतिर्ज्ञानादिक कस्मान्नोपदिष्ट. वन्तः । नचोपदिष्टवन्तः । तस्मान्न सर्वज्ञा आप्ता वा । अत्र प्रमाणे वैधोदाहरणम् - . अत्र वैधयोदाहरणं यः सर्वज्ञ आप्तो वा सज्यो
तिर्ज्ञानादिकमुपदिष्टवान् । यः सर्वज्ञ आप्तो वा स ज्योतिर्ज्ञानादिकं सर्वज्ञताप्ततालिङ्ग. भूतमुपदिष्टवान् ।
तद्यथा । ऋषभर्वर्धमानादिरिति । यथा ऋषभो वर्धमानश्च तावादौ यस्य स ऋषभवर्धमानादिदिगम्बराणां शास्ता सर्वज्ञ आप्तश्चेति ।
१ 'यथाऽसर्वशाः' इति पाठोऽस्माकं सम्मतौ । मुद्रितपुस्तके तु 'यी सर्वज्ञाः' इति पाठ एव ।
२ जैनानां चतुर्विशतितीर्थकरमध्ये प्रथमस्तीर्थकरः। ३ तेषामेवान्तिमः । यश्च 'महावीरः' इत्यभिख्यामपि लभते ।
४ 'दिगम्बरः' जैनानां सम्प्रदायविशेषोऽस्ति । यद्यपि चतुर्वि. शतिरेव तीर्थकराः श्वेताम्बरादिभिरपि मन्यन्ते तथापि 'प्रन्थकर्तृस.
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तवीयपरिच्छेदः
१२७ तत्रासर्वज्ञतानाप्ततयोः साध्यधर्मयोः संदिग्धो
व्यतिरेकः । तदिह वैधयॊदाहरणादृषभादेरसर्वज्ञत्वस्यानाप्ततायाश्च व्यतिरेको व्यावृत्तिः संदिग्धा । यतो ज्योतिर्ज्ञानं चोपदिशेदसर्वज्ञश्च भवेदनाप्तो वा । कोऽत्र विरोधः । नैमित्तिकमेतज्ज्ञानं व्यभिचारि न सर्वज्ञत्वमनुमापयेत् ।।
__ संदिग्धसाधनव्यतिरेकः । संदिग्धः साधनव्यतिरेको यस्मिन्स तथोक्तः । तमुदाहरतियथा-न त्रयीविदा ब्राह्मणेन ग्राह्यवचनः कश्चि
. पुरुषो रागादिमत्त्वादिति । यथेति । ऋक्सामयजूंषि त्रीणि त्रयी तां वेत्ति त्रयीवित् । तेन न ग्राह्यं वचनं यस्येति साध्यम् । विवक्षित इति कपिलादिधर्मी । रागादिमत्वादिति हेतुः ।
अत्र वैधयॊदाहरणम् । ... अत्र प्रमाणे वैधोदाहरणम् । साध्याभावः साधनाभावेन व्याप्तो यत्र दर्श्यते तद्वैधर्योदाहरणम् । ... ये ग्राह्यवचना न तेरागादिमन्तस्तद्यथा गौतमा
दयो धर्मशास्त्राणां प्रणेतार इति गौतमादिभ्योरागादिमत्त्वस्य साधनधर्मस्य व्यावृत्तिः। .
ग्राह्यं वचनं येषां ते ग्राह्यवचना इति साध्यनिवृत्तिमनूध न ये न श्वेताम्बरास्लर्वसाधारण यन्तेस्म' इत्यपि कथायितुं नुवन्ति । १ व्याप्तो यत, ख० यत्र व्याप्त
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१२८
न्यायबिन्दुः ते रागादिमन्त इति साधनाभावो विहितः। गौतम आदिउँषां ते तथोक्ता मन्वादयो धर्मशास्त्राणि स्मृतयस्तेषां कर्तारः । त्रयीविदा हि ब्राह्मणेन ग्राह्यवचना धर्मशास्त्रकृतो वीतरागाश्च । त इति धर्मी । व्यतिरेकविषयो गौतमादय इति गौतमादिभ्यो रागादिमत्वस्य साधनस्य निवृत्तिः संदिग्धा । यद्यपि ते ग्राह्यवचनास्त्रेयीविदा तथापि कि सरागा उत वीतरागा इति संदेहः।
संदिग्धासंदिग्धोभयव्यतिरेकः । सन्दिग्ध उभयोर्व्यतिरेको यस्मिन्स तथोक्तः । तमुदाहरतियथा ऽवीतरागाः कपिलादयः परिग्रहाग्रहयोगादिति ।
यथेति । अवीतरागा इति रागादिमत्त्वं साध्यम् । कपिलादय इति धर्मी । परिग्रहो लभ्यमानस्य स्वीकारः प्रथमः । स्वीकारावं यद्गाय मात्सर्य स आग्रहः । परिग्रहश्चाग्रहश्च ताभ्यां योगात् । कपिलादयो लभ्यमानं स्वीकुर्वन्ति स्वीकृतं न मुञ्चन्तीति ते रागादिमन्तो गम्यन्ते ।
अत्र वैधये॒णोदाहरणम् । अत्र प्रमाणे वैधर्योदाहरणम् । यत्र साध्याभावे साधना. भावो दर्शयितव्यः ।
यो वीतरागो न तस्य परिग्रहाग्रहो यथा-ऋषभादेरिति । ऋषभादेरवीतरागत्वपरिग्रहाग्रहयोगयोः साध्यसाधनधर्मयोः संदिग्धो व्यतिरेकः ।
यो वीतराग इति साध्याभावमनूध न तस्य परिग्रहाग्रहाविति १ रागादि०, ख० रोगादि। २ त इति, ख. त इतीह । ३ त्रयीविदा, ख. त्रयोविदः ।
mamme
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१२९
तृतीयपरिच्छेदः साधनाभावो विहितः । यथा ऋषभादेरिति दृष्टान्तः । एत. स्मादृषभादेदृष्टान्तादवीतरागत्वस्य साध्यस्य परिग्रहाग्रहयोगे. स्य च साधनस्य निवृत्तिः संदिग्धा । ऋषभादीनां हि परिग्रहाग्रहयोगोऽपि संदिग्धो वीतरागत्वं च । यदि नाम तसिद्धान्ते वीतरागाश्च निष्परिग्रहाश्च पठ्यन्ते तथापि संदेह एव । अपरानपि त्रीनुदाहर्तुमाह
अव्यतिरेको यथाऽवीतरागो वक्तृत्वात् । - अविद्यमानोऽव्यतिरेको यस्मिन्सोऽव्यतिरेकः । अवीतराग इति रागादिमत्त्वं साध्यम् । वक्तृत्वादिति हेतुः । इह व्यतिरेकमाह- अ वैधर्योदाहरणं यत्र वीतरागत्वं नास्ति स वक्ता यथोपलखण्ड इति । यद्यप्युपलखण्डादुभयं
व्यावृत्तया सों वीतरागो न वक्तेति ... ___ व्याप्त्या व्यतिरेकासिद्धेरव्यतिरेकः ।
यत्रावीतरागत्वं नास्तीति साध्याभावानुवादः । तत्र वक्तृत्वमपि नास्तीति साधनाभावविधिः । तेन साधनाभावेन साध्याभावो व्याप्त उक्तः। दृष्टान्तो यथोपलखण्डेति । कथमयमव्यतिरेको यावतोपलखण्डादुभयं निवृत्तम् । किमतो यापलखंण्डा. दुभयं व्यावृत्तं सरागत्वं च वक्तृत्वं च तथापि व्याप्त्या व्यतिरेको यस्तस्यासिद्धेः कारणादन्यतिरेकोऽयम् । कीदृशी पुन
ाप्तिरित्याह । सर्वो वीतराग इति साध्याभावानुवादः । न वक्तेति साधनाभावविधिः । तेन साध्याभावः साधनाभावनियतः ख्यापितो भवतीति । ईशी व्याप्तिस्तया व्यतिरेको न १. योगस्य, क • योगत्वस्य । २ ख्यापितः, क० स्थापितः । ३'इति' इति पदं ख० पुस्तके नोपलभ्यते। .
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१३०
न्यायबिन्दुः सिद्धोऽस्य चार्थस्य प्रसिद्धये दृष्टान्तस्तत्स्वकार्याकरणादुष्टः । अप्रदर्शितव्यतिरेको यथा-अनित्यः शब्दः कृतकत्वा
दाकाशवदिति । ___ अप्रदर्शितो व्यतिरेको यस्मिन्स तथोक्तः । अनित्यः शब्द इत्यनित्यत्वं साध्यम् । कृतकत्वादिति हेतुः । आकाशवदिति वैधर्मेण दृष्टान्तः । इह परार्थानुमाने परस्मादर्थः प्रतिपत्तव्यः । स शुद्धोऽपि स्वतो यदि परेणाशुद्धः ख्याप्यते । स तावद्यथा प्रकाशितस्तथा न युक्तो यथा युक्तस्तथा न प्रकाशितः । प्रका. शितश्च हेतुः । अतो वक्तुरपराधादपि परार्थानुमाने हेतुर्दृष्टान्तो वा दुष्टः स्यादपि । न च सादृश्यादसादृश्याद्वा साध्यप्रतिपत्तिरपि तु साध्यनियतादेतोः । अतः साध्यनियतो हेतुरन्वयवाक्येन व्यतिरेकवाक्येन च वक्तव्यः । अन्यथा गमको नोक्तः स्यात् । स तथोक्तो दृष्टान्तेनं सिद्धो दर्शयितव्यः । तस्माद्द. ष्टान्तो नामान्वव्यतिरेकवाक्यार्थप्रदर्शनः । न चेह व्यतिरेक. वाक्यं प्रयुक्तम् । अतो वैधHदृष्टान्त इहासादृश्यभावेन साधक उपन्यस्तः । न च तथा साधको व्यतिरेकविपयत्वेन । स साधको न च तथोपन्यस्त इति । अतोऽप्रदर्शितव्यतिरेको वक्तुरपराधादृष्टः । वैधयेणापि विपरीतव्यतिरेको यथा यदकृतकं
तन्नित्यं भवतीति । विपरीतो व्यतिरेको यस्मिन्वैधर्म्यदृष्टान्ते स तथोक्तः । तमुदाहरति । यदकृतकमित्यादि । इहान्वयव्यतिरेकवाक्याभ्यां
. १ दृष्टान्तेन सिद्धः. ख० दृष्टान्तेनासिद्धः।
२ अतः, ख० अयं ।
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तृतीयपरिच्छेदः
१३१
साध्यनियतो हेतुर्दर्शयितव्यः । यदा च साध्यनियतो हेतुर्दर्शयितव्यस्तदा व्यतिरेकवाक्ये साध्याभावः साधनाभावे नियतो दर्शयितव्यः । एवं हि हेतुः साध्यनियतो दर्शितः स्यात् । यदि तु साध्याभावः साधनाभावे नियतो नाख्यायते साधनसत्तायामपि साध्याभावः संभाव्येते । तथा च साधनं साध्यनियतं न प्रतीयेते । तस्मात्साध्याभावः साधनाभावे नियंतो वक्तव्यः । विपरीतव्यतिरेके च साधनाभावः साध्याभावे नियत उच्यते । न साध्याभावः साधनाभावे । तथा हि । यदकृतकमिति साधनाभावमनूय तन्नित्यमिति साध्याभावविधिः । ततोs यमर्थः । अतको नित्य एव । तथा च सत्यकृतकत्वं नित्यत्वे साध्यभावे नियतमुक्तं न नित्यत्वं साधनाभावे । ततो न साध्यः नियतं हेतुं व्यतिरेकवाक्यमाह । तथा च विपरीतव्यतिरेकोsपि वक्तुरपराधाद्दुष्टः ।
दृष्टान्तदोषानुदाहृत्य दुष्टत्वनिबन्धनत्वं दर्शयितुमाहन ह्येभिर्दृष्टान्ताभासैर्हेतोः सामान्यलक्षणं सपक्ष एव सत्त्वंविपक्षे च सर्वत्रासत्त्वमेव निश्चयेन शक्यं दर्शयितुं विशेषलक्षणं वा ।
न भिरिति । साध्यनियतहेतुप्रदर्शनाय दृष्टान्ता वक्तव्याः । एभिश्व हेतोः सपक्ष एव सवं विपक्षे च सर्वत्रासत्वमेव यत्सा - मान्यलक्षणं तन्निश्चयेन न शक्यं दर्शयितुम् । ननु च सामान्यलक्षणं विशेषनिष्ठमेव प्रतित्तव्यं न स्वत एवेत्याह । विशेषलक्षणं वा । यदि विशेषलक्षणं प्रतिपादयितुं शक्येत । स्यादेव
१ ख० संभाव्यते ।
२ ख० प्रतीयते ।
३ ० प्रदर्शनाय, ख० प्रदर्शना हि ।
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१३२ - न्यायविन्दुः सामान्यलक्षणप्रतिपत्तिः । विशेषलक्षणमेव तु न शक्यमेभिः प्र. तिपादयितुम् । . तदर्थापत्त्यैषां निरासो वेदितव्यः । - तस्मादर्थापत्या सामर्थ्येनेति' तेषां निराकरणं द्रष्टव्यम् । साध्यनियतसाधनप्रतीतय उपात्ताः । तदसमर्था दुष्टाः स्वकार्यकरणादिति सामर्थ्यम् । इयता साधनमुक्तम् । . . दूषणं वक्तुमाह
दूषणा न्यूनतायुक्तिः। दृषणा का द्रष्टव्या । न्यूनतादीनामुक्तिरुच्यते । न येत्युक्तिर्वचनं न्यूनतादिर्वचनम् ।
दृषणं विवरीतुमाह - ये पूर्व न्यूनतादयः साधनादोषा उक्तास्तेषामुद्भावनं
दूषणम् । ये पूर्व न्यूनतादयोऽसिद्धविरुद्धानकान्तिका उक्तास्तेषामुद्भावनं यद्वचनं तदुषणम् ।
ननु च न्यूनतादयो न विपर्यसाधनास्तत्कथं दृषणमित्याह
तेन परेष्टार्थसिद्धिप्रतिबन्धात् । । तेन न्यूनतादिवचनेन परेषामिष्टश्चासावर्थश्च तस्य सिद्धिनिश्चयस्तस्याः प्रतिबन्धानावश्यं विपर्ययसाधनादेव दुपणं विरुदवदपि तु परस्याभिप्रेतनिश्चयनिबन्धानिश्चयाभावो भवति ।
१ मुद्रितपुस्तके 'इति न तेषां' इति पाठोऽस्ति । किन्त्वस्माकं सम्मतो 'न' इति पदं नात्र युज्यते ।
२ प्रतीतये, ख० प्रतिपत्तये।
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तृतीयपरिच्छेदः
निश्चयविपर्यय इत्यस्ति विपर्ययसिद्धिरिति ।
दृषणाभासास्तु जातयः। उक्ता दक्षणाभासा इति । दूषणेवदाभासन्त इति दृषणाभासाः । के ते जातयः। जातिशब्दः सादृश्यवचन उत्तरसदृशानि जात्युत्तराणीति । उत्तरस्थानप्रयुक्तत्वादुत्तरसदृशानि जात्युत्तराणि । तदेवोत्तरसादृश्यमुत्तरस्थानप्रयुक्तत्वेन दर्शयितुमाह
अनुभूतदोषोद्भावनानि जात्युत्तराणीति ।
अभूतस्यासत्यस्य दोषस्योद्भावनानि । उद्भाव्यत एतैरित्युद्भावनानि वचनानि तानि जात्युत्तराणि । जात्या सादृश्येनोत्तराणि जात्युत्तराणीति ।।
इति तृतीयः परिच्छेदः समाप्तः । कतिपयपदवस्तुव्याख्यया यन्मयाप्त कुशलममलमिन्दोरंशुवन्यायविन्दोः । पदमजरमवाप्य ज्ञानधर्मोत्तरं य. ज्जगदुपकृतिमात्रव्यापृतिः स्यामतोऽहम् ।। ...
१ अस्ति, ख० मस्त्येव । २ दूषणवत्, बं० दृषणावत ।
३'इति' इति पदं ख० पुस्तके न विद्यते। - ४ अथ श्रीधर्मोत्तराचार्यः म्वाभिप्रायप्रकाशपुरःसरं कृतिमुप
संहरबाह-कतिपयेति। यत् । मया धर्मोत्तराचार्येण। इन्दोश्चन्द्र स्य । अंशुवत् किरणवत् । न्यायबिन्दोन्यायविन्दुः नाम अस्य प्र. न्थस्य । कतिपयान्यमूनि पदानि तान्येव वस्तूनि तेषां व्याख्या तया न्यायबिन्दुटीकया इत्यर्थः । कुशलं निर्विघ्नं । अमलं निर्मलं । अजरं अनश्यं । पदं । अवाप्य प्राप्य । यत्। झानं च धर्म च शानधर्मे ता.
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१३४
न्यायबिन्दुः
न्यायबिन्दुः समाप्तः । समाप्तेयं न्यायविन्दुटीका कृतिराचार्यधर्मोत्तरस्य।० सहस्रमेकं श्लोकानां तथा शतचतुष्टयम् । सप्तसप्ततिसंयुक्तं निपुणं परिपिण्डितम् ।।
भ्यां, उत्तरं श्रेष्टं शानधर्मोत्तरं । अथवा अनेन पदेन आचार्येण स्वनाम 'धर्मोत्तराचार्यः' प्रदर्शितम् , आचार्यस्य क्षानकारणत्वात् । आप्तं प्राप्तं । अतोऽस्मात् न्यायविन्दुटीकारूपकार्यात् । जगतः उपकृतिरूपकारस्तन्मात्रमेव व्यापृतिः व्यापारो यस्य स । अहं धर्मोत्तरा. चार्यः । स्याम् ।
१ 'समाप्तेयं आदि; ख० आचार्यधर्मोत्तरपादविरचितायां न्या. यबिन्दुटीकायां तृतीयः परिच्छेद समाप्तः ॥ ...२ ग्रन्थस्यास्य परिमाणं १४७७ श्लोकप्रमितिमात्रमस्ति। श्लोके ऽत्र द्वात्रिंशदक्षराणि शेयानि ।
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बौद्ध न्यायबिन्दु
4. हिन्दी अनुवादकाव्यसाहित्यतीर्थाचार्य श्री चन्द्रशेखर शास्त्री कृत ।
प्रथम परिच्छेद ।
सम्यग्ज्ञानपूर्षिका सर्वपुरुषार्थसिद्धिरिति तयुस्पायते ।
सभी पुरुषार्थोकी सिद्धि सम्यग्ज्ञान पूर्वक होती है, अतएव [इस प्रन्थमें ] उसीका वर्णन किया जाता है ।
द्विविधं सम्यम्झानम्सम्यग्ज्ञान दो प्रकारका होता है
. प्रत्यक्षमनुमानश। प्रत्यक्ष और अनुमान ।
तत्र कल्पनापोढमभ्रान्तं प्रत्यक्षम् । उनमेंसे कल्पनारहित निर्धान्त नानको प्रत्यक्ष कहते हैं। . अभिलापसंसर्गयोग्यप्रतिभासप्रतीतिः कल्पना तया रहितम् ।
अभिलाप (वाचकशब्द) से संसर्ग ( एक शानमें अभिधेयाकारका अभिधानाकारके साथ ग्रहण करने योग्य हो जाना। जो कहा जावे उस अभिधेय तथा कहने या नाम को अभिधान कहते हैं ) के योग्य प्रति. भासकी प्रतीतिको कल्पना कहते हैं। ('वृक्ष' इस शब्दके कहते ही हृदयमें इस शब्दके संसर्ग से इस शब्दके योग्य स्कन्ध और शाखादिमान् पदार्थका प्रतिभास होने लगता है। उस पदार्थकी प्रतीतिको कल्पना कहते हैं। ) प्रत्यक्षबान उस कल्पनासे रहित होना चाहिये। तिमिराशुभ्रमणनौयानसंक्षोभाधनाहितविभ्रमं ज्ञानं प्रत्यक्षम् ।
जिस ज्ञानमें अन्धकार, [ अलात आदिका ] शीघ्र २ घूमना, नौ. कापर जाना और [घात पित्त भौर श्लेष्मके] संक्षोभ आदिसे वि.
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न्यायविन्दु भ्रम नहीं हुआ है ऐसा [कल्पना रहित और निभ्रान्त ] ज्ञान ही प्रत्यक्ष होता है।
तच्चतुर्विधम् । प्रत्यक्षमान चार प्रकारका होता है
१ इन्द्रियज्ञान, २ मनोविज्ञान, ३ आत्मसंवेदन ( स्वसंवेदन ) और ४ योगिप्रत्यक्ष ( योगिज्ञान)।
इन्द्रियज्ञानम् । इन्द्रियोंके ज्ञानको इन्द्रियज्ञान कहते हैं। स्वविषयानन्तरविषयसहकारिणेन्द्रियज्ञानेन समनन्तर.
प्रत्ययेन जनितं तत् मनोविज्ञानम् । अपने विषयके पश्चात् , विषयके सहकारी, समनन्तरप्रत्ययरूप इन्द्रियज्ञानसे उत्पन्न होनेवाले ज्ञानको मनोविज्ञान कहते हैं। ___ (बौद्ध दर्शनमें ज्ञानके ४ प्रत्यय (कारण) माने हैं। नेत्रसे घटको देख. नेमें पहला कारण स्वयं घट है। अतएव विषय होनेसे इसको आलम्बन प्रत्यय कहते हैं। दूसरा कारण आलोक है । क्योंकि उसकी सहायताके बिना इन्द्रियाँ किसी विषयको ग्रहण नहीं कर सकतीं। अतएव उसको सहकारीप्रत्यय कहते हैं। तीसरा कारण इन्द्रिये हैं उनको अधिपतिप्रत्यय कहते हैं । और चौथा कारण ग्रहण करने अथवा वि. चार करनेकी वह शक्ति है जिसका उपयोग न होन से हम प्रायः दे. खते हुए भी नहीं देख सकते, शब्द होते हुए भी नहीं सुन सकते । बौद्धतर दर्शनोंकी अपेक्षा इसको मन कहना उपयुक्त होगा । इसको समनन्तरप्रत्यय कहते हैं।)
सर्वचित्तचैत्तानामात्मसंवेदनम् । सभी चित्त ( अर्थमात्रको ग्रहण करने वाले ) और चैत्तों ( वि. शेष अवस्थाको ग्रहण करने वाले सुख आदि ] का आत्माको प्रकट करना आत्मसंवेदन है।
( वाद्यार्थास्तित्ववादी वौद्धोंके मनमें प्रत्येक वस्तुके दो भेद हैं
१. पीटर्सन साहब की पुस्तक में विरामाचन्ह 'इन्द्रियज्ञानम्' के पश्चत् न देकर अगल वाक्य में 'तत्' के पश्चात् दिया गया है । जिससे 'स्वविषय .' आदिके इन्द्रियज्ञान का लक्षण होने का भ्रम होता है । संस्कृतटीका के सम्पादन में हम इस भ्रम से नहीं बच सके ।
२. पहिली पुस्तक का 413 'सर्व चित्त-' आदि है । किन्तु वह अशुद्ध है ।
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भाषाटीका सहित
बाह्य और आन्तर । बाह्य के फिर दो भेद हैं-भूत और भौतिक । आन्तरके भी दो भेद हैं-चित्त और चैत्त । चैत्तको चैत्तिक भी कहते हैं । भूत पृथ्वी आदि चार परमाणु हैं । भौतिक रूप आदि और चक्षु आदि हैं । चित्त विज्ञान है। चैत्तिक रूप, विज्ञान, वेदना, संज्ञा, और संस्कार संज्ञा वाले पाँच स्कन्ध हैं। विज्ञानके फिर दो भेद हैं-आ लयविज्ञान जो 'अहं' या 'मैं' इस आकारका है । प्रवृत्तिविज्ञान इन्द्रिय आदि से उत्पन्न होता है और रूप आदि को विषय करता है । )
M
भूतार्थभावनाकर्षपर्यन्तजं योगिज्ञानं चेति ।
सभूत अर्थ के प्रकर्ष तक होने वाले ज्ञानको योगिज्ञान कहते हैं । ( योगिप्रत्यक्ष सद्भूत अर्थका ही हो सकता है। असभूतका नहीं हो सकता, और वह भी थोडा बहुत नहीं होता किन्तु प्रकर्ष अर्थात् चरम सीमा तक होता है । )
A
तस्य विषयः स्वलक्षणम् ।
प्रत्यक्ष का विषय स्वलक्षण है । [ जो कि क्षण है । ] यस्यार्थस्य संनिधानासंनिधानाभ्यां ज्ञानप्रतिभासभेदस्तत्खलक्षणम्, तदेत्र परमार्थसत्, अर्थक्रियासामर्थ्यलक्षणत्वाद्वस्तुनः ।
जिस विषयकी समीपता और असमीपतासे ज्ञानके प्रतिभासमें भेद हो वह स्वलक्षण है। और वही परमार्थ सत् है । क्योंकि बड़ी वस्तु अर्थक्रिया कराता है ।
अन्यत्सामान्यलक्षणम्, सोऽनुमानस्य विषयः ।
स्वलक्षणसे भिन्न सामान्यलक्षण होता है । वह अनुमानका विषय होता है ।
तदेव च प्रत्यक्षं ज्ञानं प्रमाणफलमर्थप्रतीतिरूपत्वात् ।
वह प्रत्यक्ष ज्ञान ही अर्थ प्रतीतिरूप होनेसे प्रमाणका फल है । अर्थसारूप्यमस्य प्रमाणं, तद्वशादर्थप्रतीतिसिद्धेरिति ।
इस ज्ञानका अर्थके समान बन जाना प्रमाण है। क्योंकि उसीसे अर्थकी प्रतीतिकी सिद्धि होती हैं ।
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न्यायधिन्दु द्वितीय परिच्छेद ।
अनुमानं द्विधाअनुमान दो प्रकारका होता है
स्वार्थ परार्थ च । स्वार्थ और परार्थ।
तत्र स्वार्थ त्रिरूपाल्लिङ्गाघदनुमे ये ज्ञानं तदनुमानम् । त्रिरूपलिंग से होने वाले अनुमेयके शानको स्वार्थानुमान क.
प्रमाणफलव्यवस्थात्रापि प्रत्यक्षवत् । प्रमाणके फलकी व्यवस्था यहां भी प्रत्यक्षके ही समान है।
त्रैरूप्यम् पुन:लिङ्गस्यानुमेये सत्त्वमेव,
सपक्ष एवं सत्वम्,
असपक्षे चासत्वमेव निश्चितम् । भैरूप्य (त्रिरूपलिंग ) यह है(१) अनुमेयमें लिङ्गकी विद्यमानता
(लिङ्ग शब्दका अर्थ चिन्ह है । जैसे-दूरसे देखनेवाले के लि. ये अग्निका चिन्ह या लिङ्ग धूम है । धूम ही हेतु है । इस को धर्म भी कहते हैं । ) (२) लिङ्गका सपक्षमें अवश्य रहना । और (३) लिङ्गका विपक्षमें किसी अवस्थामें भी न रहना।
अनुपेयोऽत्र जिज्ञासितविशेषो धर्मी । जिस धर्मीको अनुमानके द्वारा जाननेकी इच्छा की जाती है उसे अनुमेय कहते है।
(जिस गुण या लक्षणको दिखला कर वस्तु ( अनुमेय ) सिद्ध की जाती है उसे धर्म कहते हैं। जिस वस्तु ( अनुमेय ) में वह धर्म रहे उसे धी कहते हैं। जिसे सिद्ध किया जावे उसे साध्य कहते हैं।)
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भाषाटीका सहित
साध्यधर्म सामान्येन समानोऽर्थः सपक्षः ।
जो पदार्थ साध्यधर्मके समान हो उसे सपक्ष कहते हैं । (बौद्धग्रन्थों में 'धर्म' शब्द के चार अर्थों में चार प्रयोग मिलते हैं( १ ) Scriptural Texts या मूल धार्मिक पुस्तकें | ( २ ) Quality या गुण ।
( ३ ) Cause या हेतु । और
( ४ ) Unsubstantial and Soullsss या निसत्त्व और नि: जव । इसको पाली में 'निसत्त निजीव' कहते हैं । हमारी सम्मति में न्यायबिन्दु के समासों में 'धर्म' शब्द का तीसरे अर्थ में प्रयोग किया गया है ।)
न सपक्षोsसपक्षः ।
जो सपक्ष नहीं होता उसे विपक्ष या असपक्ष कहते हैं । ततोऽन्यस्तद्विरुद्धस्तदभावश्चेति ।
जो वस्तु सपक्षसे भिन्न हो या सपक्षके विरुद्ध हो अथवा जिसमें सपक्षका अभाव हो वह असम्पक्ष होती है ।
त्रिरूपाणि च ॥
[ ऊपर कहे हुए ] त्रिरूप हैं । त्रीण्येव च लिङ्गानि - अनुपलब्धिः स्वभावकार्ये चेति ।
लिङ्ग भी तीन ही होते हैंअनुपलब्धि स्वभाव और कार्य ।
तत्रानुपलब्धिर्यथा- न प्रदेशविशेषे क्वचिदुपट उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्यानुपलब्धेरिति ।
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उनमें से अनुपलब्धि इसप्रकार है
जैसे - किसी विशेष स्थान में घट नहीं है। क्योंकि घटके उपलधिलक्षणप्राप्त होने पर भी उसकी वहां अनुपलब्धि है ।
( घट स्वभाव से ही विद्यमान है । अर्थात् घटके अस्तित्वमें स्व. भाव के अतिरिक्त अन्य कारण नहीं है । अतएव घट उपलब्धि (मिलना ) लक्षण वाला है । घटमें उपलब्धिलक्षण है अतएव वह उपलब्धिलक्षणप्राप्त है । घटका उपलब्धिलक्षणप्राप्तपना उसकी उपलब्धिलक्षणप्राप्ति है । अनुपलब्धि न मिलनेको कहते हैं । )
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न्यायविन्दु
उपलब्धिलक्षणमाप्तिरुपलम्भप्रत्ययान्तरसाकल्प
. स्वभावविशेषश्च । उपलब्धिलक्षणप्राप्ति उपलम्भप्रत्ययान्तरसाकल्य और स्वभाव. विशेष [ यह तीनों एकही हैं।] ( पीछे उपलब्धिके चार प्रत्यय बत. ला दिये हैं। यहाँ प्रत्यान्तर शब्द आलम्बनप्रत्ययके अतिरिक्त अन्य प्रत्ययोंका वाचक है । साकल्य सम्पूर्णताको कहते हैं। उपलभ्भके प्रत्ययान्तरोंकी एकत्रित सम्पूर्णताको उपलम्भप्रत्ययान्तरसाकल्य कहते हैं।) यः स्वभावः सत्स्वन्येषूपलम्भप्रत्ययेषु यत्प्रत्यक्ष
एव भवति स स्वभावः। [आलम्बनप्रत्ययके अतिरिक्त शेष उपलम्भप्रत्ययोंके रहते हुए जो स्वभावसे प्रत्यक्ष होता है वह स्वभाव है । ( यह स्वभाव विशे. षकी परिभाषा है।) स्वभावः स्वसत्तामात्रभाविनि साध्यधर्म हेतुः ।
यथा-वृक्षोऽयं शिंशपात्वादिति । [जो पदार्थ अपने हेतुके अस्तित्वकी अपेक्षाकरके विद्यमान होता है और हेतुसत्तासे भिन्न अन्य किसी हेतुकी अपेक्षा नहीं करता वह स्वसत्तामात्रभावी साध्य है। ] उस स्वसत्तामात्रभावी सा. ध्यधर्ममें जो हेतु है वह स्वभाव हेतु है। जैसे-यह वृक्ष है, क्योंकि यह शीशम है ।
कार्य पथामिरत्र धूमादिति । कार्यका उदाहरणजैसे-यहाँपर अग्नि है, क्योंकि यहाँ धूम है। __अत्र द्वौ वस्तुसाधनों, एकः प्रतिषेधहेतुः । इन तीन हेतुओंमें (अनुपलब्धि, स्वभाव और कार्यमें) से दो हेतु ( स्वभाव और कार्य ) वस्तुकी विधिको बतलाते हैं । और एक (अ. नुपलब्धि ) प्रतिषेधको बतलाता है।
स्वभावप्रतिबन्धे हि ससर्थोऽर्थ गपयेत् । स्वभावप्रतिबन्ध ( स्वभावसे एक स्थानमें नियत होना ) होने
१. पूर्व छची पुस्तक में विराम चिन्ह '-साधन' के पश्चात है । 'प्रनिषेधहेतुः' के पश्चात् कोई चिन्ह न देकर उसे अगले वाक्य में मिला दिया है, जिससे अर्थ बिलकुल गड़बड़ा जाता है।
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भाषाटीका सहित पर ही साधन अर्थ साध्य अर्थको बतलाता है। [इस कारणसे यह तीन ही साध्यको सिद्ध कर सकते हैं अन्य नहीं ]
तदप्रतिबद्धस्य तदव्यभिचारनियमाभावात् । क्योंकि जो जहाँ पर स्वभावसे प्रतिबद्ध नहीं होता उसका अप्रतिबद्धविषयमें अव्यभिचारके नियमका अभाव होता है । [अतएव स्व. भावसे अप्रतिबद्धो अव्यभिचारनियम अथवा अविनाभावनियम नहीं बन सकता। गम्यगमकभाव अव्यभिचारनियम से ही होता है । लिङ्ग योग्यतासे दीपकके समान परोक्ष अर्थको प्रकाशित करनेका निमित्त भी नहीं माना जा सकता । बिरुद्ध इसके वह अव्यभिचारीपने से ही निश्चय किया जाता है । अतएव स्वभावप्रतिबन्ध होने पर ही अ. विनाभाव का निश्चय होता है। और गम्यगमकभाव अविनाभावसे ही होता है । अतएव स्वभावप्रतिबन्ध होने पर ही अर्थ अर्थको बत. लाता है अन्य प्रकार नहीं बतलाता।] स च प्रतिबन्धः साध्येऽर्थे लिङ्गस्य वस्तुतस्ता.
दात्म्यात्साध्यार्थीदुत्पत्तेश्च । स्वभावप्रतिबन्ध साध्य अर्थ लिंगका होता है। ( पराधीन होने से लिङ्ग प्रतिबद्ध होता है । साध्य अर्थ पराधीन न होनेसे प्र. तिबन्धका विषय अथवा प्रतिबन्धविषय होता है किन्तु प्रतिबद्ध नहीं होता)। क्योंकि वास्तवमें साध्य और लिङ्गका तादात्म्य है और साध्य अर्थसे लिङ्गकी उत्पत्ति होती है। ( अर्थात् तादात्म्य और तदुत्पत्तिसे ही स्वभावप्रतिबन्ध होता है) ___ अतत्स्वभावस्यातदुत्पत्तेश्च तत्रापतिबद्धस्वभावत्वात् ।
क्योंकि जिसका वह स्वभाव न हो तथा जिसकी उससे उत्पत्ति न हो उसमें प्रतिबद्धस्वभावता नहीं होती है । ते च तादात्म्यतदुत्पत्ती स्वभावकार्ययोरेवेति'
ताभ्यामेव वस्तुसिद्धिः । तादात्म्य और तदुत्पत्ति स्वभाव और कार्य में ही होती हैं । अ. तएव कार्य और स्वभावसे ही वस्तुकी ( अथवा विधिकी) सि. द्धि होती है। १. पू. पुस्तक में वस्तुतः' यह पाठ है। किन्तु हमारी सम्मति में यह प्रशुद्ध है। २ः पूर्वपुस्तक में 'इति' के पश्चात् विराम दे दिया है।
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न्यायविन्दु - प्रतिषेधसिद्धिपि यथोक्ताया एवानुपलब्धेः ।
सति वस्तुनि तस्या असंभवात् । प्रतिषेध व्यवहार की सिद्धि भी पूर्वोक्त दृश्यानुपलब्धि से ही होती है।
[क्योंकि प्रतिषेध्य ] वस्तुके विद्यमान होनेपर दृश्यानुपलब्धि नहीं हो सकती। अन्यथा चानुपलब्धिलक्षणप्राप्तेषु देशकालस्वभावविप्रः
कृष्टेष्वात्मप्रत्यक्षनिवृत्तेरभावनिश्चयाभावात् । अनुपलब्धिलक्षणप्राप्त ( जिसकी उपलब्धिका कोई कारणविशेष उपस्थित नहीं है ) देशकालस्वभावविप्रकृष्ट पदार्थोंका आत्मप्रत्यक्ष न हो सकनेसे. उनका अभाव नहीं कह सकते। (देशविप्रकृष्ट-जैसे. भारतसे अमेरिका । कालविप्रकृष्ट-जैसे-भूतकालमें रामचन्द्र । स्व. भावविप्रकृष्ट-जैसे-मदारीका अपने मुखमें से अग्नि निकालना)
[अदृश्यानुपलब्धि वस्तुके विद्यमान होते हुए भी ही होसकती है। जिसप्रकार अन्धेको सब वस्तुएं अदृश्य होनेसे अनुपलब्ध हैं। अतएव प्रतिषेध सिद्धि अदृश्यानुपलब्धिसे न होकर रश्यानुपलब्धिसे ही होती है। अमृढस्मृतिसंस्कारास्यातीतस्य वर्तमानस्य च प्रतिपत्त. प्रत्यक्षस्य निवृत्तिरभावव्यवहारसाधनी ।
तस्या एवाभावनिश्चयात् । यह दृश्यानु'लब्धि जानने वालेके पूर्व अनुभूतप्रत्यक्ष ( जिस प्रत्यक्ष शानका उसके द्वारा पहिले अनुभव किया जा चुका है) और वर्तमानकालके प्रत्यक्षकी निवृत्तिके अभावके व्यवहारको बत. लाने वाली है।
क्योंकि अतीत और वर्तमानकालीन अनुपलब्धि ही अभावको निश्चय करती है।
सा च प्रयोगभेदादेकादशप्रकारा। अनुपलब्धि प्रयोगके भेदसे ग्यारह प्रकारकी होती हैस्वभावानुपलब्धिर्यथा । नात्र धूमः उपलब्धि
लक्षणमासस्यानुपलब्धेरिति ।
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भाषाटीका सहित
स्वभावानुपलब्धि (प्रतिषेध्य के स्वभावकी अनुपलब्धि)जैसे - यहां धूम नहीं है, क्योंकि वह उपलब्धिलक्षणप्राप्त होने पर भी अनुपलब्ध है ॥ १ ॥
कार्यानुपलब्धिर्यथा | नेहा प्रतिबद्धसामर्थ्यानि कारणानि सन्ति धूमाभावात् ।
धूम
कार्यानुपलब्धि (प्रतिषेध्य के कार्यकी अनुपलब्धि ) - जैसे- यहां अप्रतिबद्धसामर्थ्य वाले ( जिस धूमकी गतिकी सामर्थ्य रुकी न हो ) धूमके कारण नहीं है, क्योंकि यहां धूमका अ भाव है ॥ २ ॥
पकानुपलब्धिर्यथा । नात्र शिंशपा वृक्ष (भावादिति । व्यापकानुपलब्धि (प्रतिषेध्यके व्याप्यके व्यापक धर्मकी अनु पलब्धि ) -
जैसे - यहां शिशपा ( शीशमका वृक्ष ) नहीं है, क्योंकि इस स्थान में वृक्षका अभाव है ॥ ३ ॥
स्वभावविरुद्धोपलब्धिर्यथा । नात्र शीतस्पर्शोऽप्रेरिति । स्वभावविरुद्धोपलब्धि ( प्रतिषेध्य के स्वभावसे विरुद्धकी पलब्धि ) --
जसे- यहाँशीतस्पर्श नहीं है, क्योंकि यहाँ अग्नि है ॥ ४ ॥ विरुद्धकार्योपलब्धिर्यथा । नात्र शीतस्पर्शो धूमादिति । विरुद्धकार्योपलब्धि ( प्रतिषेध्यसे विरुद्ध कार्य की उपलब्धि )जैसे - यहां शीतस्पर्श नहीं है, क्योंकि यहां धुआं है ॥ ५ ॥ विरुद्धव्यासोपलब्धिर्यथा । न धुत्रभावी भूतस्यापि भावस्य विनाशो हेलन्तरापेक्षणादिति । विरुद्धव्याप्तोपलब्धि ( प्रतिषेध्यके विरुद्धसे व्याप्त धर्मान्तर की उपलब्धि )----
जैसे - उत्पन्न हुई वस्तुका भी नाश अवश्यंभावी नहीं है (अनुत्पन्नका तो कैसे कह सकते हैं ), क्योंकि वह हेत्वन्तर की अपेक्षा रखती है ॥ ६ ॥
कार्यविरुद्धोपलब्धिर्यथा । नेहाप्रतिबद्धसामर्थ्यानि
शीतकारणानि सन्यप्रेरिति ।
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न्यायविन्दु काविरुद्धोपलब्धि ( प्रतिषेध्यके कार्यके विरुद्धको उपलब्धि )
जैसे-यहां पर अप्रतिबद्ध सामर्थ्यवाले शीतके कारण नहीं हैं। क्योंकि यहां अग्नि है ॥७॥ व्यापकविरुद्धांपलब्धियथा । नात्र तुपारस्पर्शोऽग्रेरिति ।
व्यापकविरुद्धोपलब्धि ( प्रतिषेध्यके व्यापकसे विरुद्धकी उ. पलधि )जैसे-यहां तुषारका स्पर्श नहीं है। क्योंकि यहां अग्नि है ॥ ८ ॥
कारणानुपलब्धियंथा । नात्र धूपोऽसभ्यभावादिति । कारणानुपलब्धि ( प्रतिषेध्यके कारणकी अनुपलब्धि )जैसे-यहां पर धूम नहीं है क्योंकि यहां अग्निका अभाव है ॥२॥ कारणविरुद्धोपलब्धियथा । नास्य रोमहर्षादिविशेषाः
संनिहितदहनविशेषत्वादिति । कारणविरुद्धोपलब्धि (प्रतिषेध्यके कारणके विरुद्धकी उपलब्धि)
जैसे-इस पुरुषको रोमहर्ष आदि नहीं हो रहे हैं। क्योंकि उसके पास अग्निविशेष है ॥ १० ॥ कारणविरुद्ध कार्योपलब्धिर्यथा । न रोमहर्षादिविशेष.
युक्तपुरुषवानयं प्रदेशो धृमादिति । कारणविरुद्धकार्योपलब्धि ( प्रतिषेध्यकारणके विरुद्धके कार्यकी उपलब्धि )
जैसे-इस प्रदेशमें रोमहर्ष आदिसे युक्त पुरुष नहीं है; क्योंकि पहां धूम है ॥ ११॥ इमे सर्वे कार्यानुपलब्ध्वादयो दशानुपलब्धिपयोगाः
स्वभावानुपलब्धौ संग्रहमुपयान्ति । यह सब कार्यानुपलब्धि आदि दश अनुपलब्धिके प्रयोग स्वभावानुपलब्धि ही आ जाते हैं। पारंपर्येणार्थान्तरविधिप्रतिषेधाभ्यां प्रयोगभेदेऽपि प्रयोगदर्शना
भ्यासात्स्वपमप्येवं व्यवच्छंदातीतिर्भवतीति
स्वार्थेऽप्यनुमानेऽस्याः प्रयोगनिर्देशः । [ कार्यानुपलब्धि आदिमें यद्यपि [ अर्थान्तरसे विधि और प्रतिषेधसे प्रयोगभेद है तथापि परम्परासे ] स्वभावानुपलब्धिम अन्त
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भाषाटीका सहित भूत हो जाते हैं। हम लोगोंको इन ] प्रयोगोंको देखनेके अभ्याससे स्वयं ही व्यवच्छेद ( प्रतिषेध) की प्रतीति होती है। इसी वासते इनका प्रयोग स्वार्थानुमानमें भी किया गया है। ___ सर्वत्र चास्यामभावव्यवहारसाधन्यामनुपलब्धौ येषां स्व. भावविरुद्धादीनामुपलब्ध्या कारणादीनामनुपलब्ध्या च पतिषेध उक्तस्तेषामुपलब्धिलक्षणपाप्तानामेवोपलब्धिरनुपलब्धिश्च वे. दितव्या ! अन्येषां विरोधकार्यकारणभावासिद्धिः।
इस अभाव और अभावकों साधन करने वाली अनुपलब्धिमें जिन स्वभावविरुद्ध आदिकोंकी उपलब्धि और कारणादिकोंकी अनुपलब्धिसे प्रतिषेध कहा गया है उन्हीं उपलब्धिलक्षणप्राप्तोंकी उपलब्धि और अनुपलब्धि जाननी चाहिये । क्योंकि इसरोंके विरोध और कार्यकारणभावकी सिद्धि नहीं हो सकती।
विश्कृष्टविषयानुपलब्धिः प्रत्यक्षानुमानानित्तिलक्षणा संशय हेतुः प्रमाणनिवृत्तावप्यर्थभावासिद्धरिति ।
संशयको कारण विप्रकृष्टविषयानुपलब्धि (अदृश्यानुपलब्धि) प्रत्यक्ष अनुमानकी निवृत्ति ( उसमें प्रत्यक्ष और अनुमान दोनोंकी गति नहीं है ) लक्षम वोली है । (शानशेयस्वभाव वोली है )। क्योंकि प्रमाणकी निवृत्ति होनेपर भी अर्थका अभाव असिद्ध ही है।
इति द्वितीयः परिच्छेदः।
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न्यायविन्दु तृतीय परिच्छेद।
त्रिपलिङ्गाख्यानं परार्थानुमानम् । शिकपलिङ्गका कहना पगानुमान है।
कारणे कार्योपचारात् । क्योंकि यहाँ कारणमें कार्यका उपचार किया जाता है।
(त्रिरूपलिङ्ग के कहने से त्रिरूपलिङ्गकी स्मृति उत्पन्न होती है। स्मृति से अनुमान होता है। अतएव विरूगलिङ्ग का कहना अनु. मान का परमरासे कारण है। उस कारगवचनम कार्यअनुमान का उपचार ( समारोप) किया जाता है। ____सहकारी आदि होनेके कारणसे अतद्भाव ( जो उस स्वरूप न हो ) में तत् ( उसी स्वरूप के समान ) के कहने को उपचार कहते हैं।)
___ सद्विविध प्रयोगभेदात् । परार्थानुमान के प्रयोग के भेद से दो भेद होते हैं
साधर्म्यत्रद्वैवर्यवञ्चति । साधर्म्यवत् और वैधय॑वत् ।
नानयोरर्थतः कश्चिद्भदोऽन्यत्र प्रयोगभेदात् । इन दोनोंमें भेद केवल प्रयोगसे ही है अर्थ से कुछ भी नहीं है । तत्र साधर्म्यवद्यदुपलब्धिलक्षणमाप्तं सन्नापलभ्यते
सोऽसद्व्यवहारविषयः सिद्धः । उसमें से साधर्म्यवत्
जो उपलब्धिलशगप्राप्त होता हुआ भी उपलब्ध नहीं होता वह असद्व्यवहारका विषय होता है ( अर्थात् उसका अभाव होता है )। यह सिद्ध है।
यथान्यः कश्चिदृष्टः शशविषाणादिः'। जैसे खरहे के सींग आदि कोई अन्य ( साध्यधी से ) दृष्ट (प्रमाण से निश्चित ) है।
१.पोटर्सन संस्करण में शशविषादिः' के पश्चन् विरामनिह न देकर उसे अगले दा. काम मिला कर -विप दिनधि -' कर दिया।
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भाषाटीका सहित
नोपलभ्यते च कचित्पदेशविशेष उपलब्धिलक्षणप्राप्तो घट इति ।
[ दृश्यानुपलम्भके पक्षधर्मत्वको दिखलाते हुए कहते हैं- ] किसी प्रदेशविशेष में उपलब्धिलक्षणप्राप्त घट उपलब्ध नहीं होता। तथा स्वभावहेतोः प्रयोगः |
यत्तत्सर्वमनित्यं यथा घटादिरिति ।
१३
तथा स्वभावहेतुका प्रयोग
जो सत् होता है वह सब अनित्य होता है । जैसे-घट आदि । शुद्धस्य स्वभावहेतोः प्रयोगः । यदुत्पत्तिमतदनित्यमिति ।
शुद्ध स्वभावहेतु का प्रयोग
जो उत्पत्तिमान् होता है वह अनित्य होता है । ( यह अव्यतिरिक्तविशेषणाला प्रयोग है । )
स्वभावभूतधर्मभेदेन स्वभावस्य प्रयोगः | यत्कृतकं तदनित्यमित्युपाधिभेदेन ।
स्वभावभूतधर्मके भेद से स्वभाव का प्रयोगजो कृतक होता है वह अनित्य होता है ।
इस प्रकार उपाधिके भेदसे । स्त्रमावहेतु का प्रयोग कहा । ] अपेक्षित परव्यापारो हि भाव: स्वभावनिष्पत्तौ कृतक इति ।
जो वस्तु अपने स्वभावकी निष्पत्ति (उत्पत्ति ) में दूसरी वस्तु के व्यापारको आवश्यकता रखें उसे कृतक कहते हैं ।
एवं प्रत्यय भेद मेदित्वादयो द्रष्टव्याः ।
उसी प्रकार प्रत्यय भेदिभेदित्व प्रयत्नानान्तरीयकत्व आदि भी समझलेने चाहियें।
(जिसमें प्रत्यय अथवा कारजके भेदसे भेद निकाला जा सके उसे प्रत्यय भेदभेदी कहते हैं । नान्तरीयक व्याप्तको कहते हैं । अर्थात् जो जिसके रहनेपर रहे और न रहने पर न रहे उसे उससे व्याप्त या नान्तरीयक कहते हैं। जैसे सूर्य के होने पर मैदान में प्रकाश अवश्य होता है और उसके न होने पर नहीं होता । जो प्रय जसे व्याप्त होता है वह अनित्य होता है । जो प्रत्ययभेदभेदी होता है वह कृतक होता है ।
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भ्यायविन्दु सन्नुत्पत्तिमाकृतको वा शब्द इति पक्षधर्मोपदर्शनम् । अथवा शब्द सत् उत्पत्तिमान् और कृतक है । इस प्रकार पक्षधर्म को दिखला दिया।
( धमों को पक्ष भी कहते हैं । यहाँ धर्माशब्दमें पक्षके धर्म सत्त्व उत्पत्तिमत्त्व और कृतकत्व दिखलाये हैं। उनमें से सत्व वस्तु से बिलकुल अप्रथक होने से शुद्ध विशेषण है। उत्पत्तिमत्व से प्रगट होता है कि वस्तुमें उसके अन्दरही अन्दर कुछ परिवर्तन हुआ है । अतएव यह अन्यतिरिक्तविशेष ग है। कृतकत्वसे प्रगट होता है कि करने वाला स्वयं वस्तुसे भिन्न है । अतः यह व्यतिरिक्त विशेषण है।)
(शङ्का ) यह स्वभावहेतु सिद्धसम्बन्ध स्वभावके साध्यमें प्रयोग किये जाने चाहिये अथवा असिद्धसम्बन्धके ।
(उत्तर ) सिद्धसम्बन्ध प्रयोग किये जाने चाहिये। (यही दिखलाते हुए कहते हैं) सर्व एते साधनधर्मा यथास्वं प्रमाणः सिद्धसाधनध
ममात्रानुबन्ध एव साध्यधर्मेऽवगनव्याः । यह स्वभावहेतु ( साधनधर्म ) निश्चितसाधनधर्ममात्रानुवन्धिसाधनधर्म में ही प्रयोग किये जाने चाहिये । अन्यत्र नहीं।
(गमक होनेसे साधन और पराश्रित होनेसे धर्म कहा जाता है। साधन धर्ममात्रसे अभिाशय केवल साधनधर्मसे ही है। अनुबन्ध अन्वयव्याप्तिको कहते हैं। जैसे-धूम पावकानुबन्धि (अनुबन्धि-अनुबन्धवाला। है। जो अपने अनुरूप प्रमाणोसे सिद्ध हो उसको यहां निश्चित कहा है। अतएव स्वभावहेतुका प्रयोग ऐसे निश्चितसाधनधर्ममात्रको अनुबन्ध करने वाले साधनधर्म में ही किया जाना चाहिये। )
तत्स्वभावत्वात्स्वभावस्य च हेतुत्वात् । क्यिोंकि जो साध्यधर्म साधनधर्ममात्रानुबन्धि है ] वह ही उस साधनधर्मका स्वभाव है। और स्वभावही हेतु है।
यद्यपि साध्यधर्म साधनका स्वभाव होता है, तथा साधन हेतु होता है तथापि साधन प्रतिज्ञार्थंकदेशहेतु नहीं हैं। ]
(धर्म और धर्मी के समुदायको प्रतिज्ञा कहते हैं। एकदेश एक भाग को कहते हैं । यदि प्रतिज्ञा (धर्म और धर्मी ) के ही किसी भाग को ( धर्म या धर्मी को) हेतु बनाया जावेगा तो यह प्रयोग साध्यको १. पीटर्मन मस्करण में यह भी विरम न देकर इसके मारले. या में भला दिया है।
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भाषार्टीका सहित सिद्ध न कर सकनेके कारण से हेतु का एकदोष हो जाताहै । जैसे'अग्नि उष्ण है; क्योंकि वह उष्ण है' में 'उष्णत्व' हेतु प्रतिज्ञार्थंकदेशहेतु है।) वस्तुतस्तयोस्तादात्म्यात्तनिष्पत्तावनिष्पमस्य तत्स्वभा
वत्वाभावाद् व्यभिचारसंभवाच । क्योंकि वास्तवमेंसाध्य और साधन का तादात्म्य होता है। और जोतनिष्पत्तीमें अनिष्पन्न है (जो जिसका नियमसे कारण नहीं होतो वह तनिष्पत्ति(उसकी उत्पत्ति) में अनिष्पन्न (उत्पन्न न होने वालो) होता है) पहाउस स्वभावधाला नहीं होता और उसमें व्यभिचार भी आता है।
कार्यहेतोरपि प्रयोगः । यत्र धृमस्तत्रानिर्यथा महान. .. सादावस्ति चह धूम इति । इहापि सिद्ध एव । कार्यहेतु का प्रयोग
जहाँपर धूम होता है वहां अग्नि होती है ; जैसे पाकशाला आदिमें। उसी प्रकार यहाँ भी धूम है। इस वासते यहाँ भी अग्नि सिद्ध ही है।
कार्यकारणभावे कारण साध्ये कार्यहेतुर्वक्तव्यः । कार्यकारणभाव में कारण के साध्य होनेपर, कार्य को हेतु कहना चाहिये।
वैधय॑वतः प्रयोगो यत्सदुपलब्धिलक्षणमाप्तं तदुपलभ्यत एन । यथा नीलादिविशेषः । न चैवमिहोपलब्धिलक्षणप्राप्तस्य सत उपाधघंटस्येत्यनुपलब्धिप्रयोगः । वैधर्म्यवत् का प्रयोग__ जो सत् और उपब्धिलक्षणप्राप्त होता है वह अवश्य उपलब्ध होता है। जैसे-जील आदि विशेषां उसी प्रकार यहाँ उपलब्धिलक्षणप्राप्त सत् घट की उपलब्धि नहीं है । अतएव यह अनुपलब्धि प्रयोग है। __ असत्यनित्यत्वे नास्ति सत्वमुत्पत्तिमचं कृनकत्वं वा।
असंश्च शब्द उत्पत्तिमान्कृतको देति स्वभावहेतोः प्रयोगः । [स्वभावहेतुके वैधयंप्रयोगको कहते हैं-] असत्यग्नौ न भवत्येव धूमोऽत्र चास्तीति कार्यहतोः प्रयोगः ।
अग्निके न होने पर धूमभी नहीं होता,उसीप्रकार यहां है । (अर्थात् अग्निके न होनेसे धूम नहीं है )। यह कार्यहेतु का प्रयोग है। .
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न्यायविन्दु साधयेणापि हि प्रयोगेऽर्थाद्वधर्म्यगतिरिति । असति
__ तस्मिन्साध्येने हेतोरन्वयाभावात् । साधर्म्य (अन्वय, के प्रयोगसे वैधर्म्य ( व्यतिरंक ) अर्थात् ही आ जाता है । क्योंकि व्यतिरेकके अभावमें हेतुका साध्यसे अन्वय न होसकेगा।
(व्याप्तिके दो भेद हैं। एक अन्वयव्याप्ति, दूसरी व्यतिरेकव्याप्ति । एकके होने पर दूसरे का नियमसे होना अन्वय है। जैसे-धूमके सद्भावमें अग्निका सद्भाव अवश्य होनेके कारण धूमका अग्निके साथ अन्वय है। एकके न होने पर दूसरेका भी नियमसे न होना व्यतिरेक है । जैसे-अग्निके अभावमें धूम का अभाव । तथा वैधय॑णाप्यन्वयगतिः । असति तस्मिन्सायां
भावे हेत्वभावस्यासिद्धेः । उसीप्रकार वैधर्म्य (व्यतिरेक) से भी अन्वय स्वयं ही आ जाता है। क्योंकि अन्वयके न होनेपर साध्यके अभावमें हेतुका अभाव भी सिद्ध न होगा। न हि स्वभावप्रतिबन्धे ससे कस्य निवृत्तावप.
रस्य नियमेन निनिः ।। स्वभावप्रतिबन्धके होनेपर एककी निवृत्तिमें दूसरेकी निवृत्ति नियमसे नहीं होती। स च द्विप्रकारः । मर्वस्य तादात्म्यलक्षणस्तदन्प.
तिलक्षणश्वेत्युक्तम् । वह स्वभावप्रतिवन्ध ( सब प्रतिबद्धका ) दो प्रकारका होता हैतादात्म्यलक्षण और तदुत्पत्तिलक्षण ।
तेन हि नितिं कथयता प्रतिबन्धो दर्शनीयः ।। [ स्वभावप्रतिबन्ध होनेपर निवयंनिवर्तकभावके होनेके कारण से वह साध्यकी निवृत्तिमें साधनकी निवृत्तिको कहनेवाले [निवर्त्यनिवर्तकमें ) प्रतिबन्धको देखे ।
१. पीटर्सन संस्करण में साध्ये न' पाठहै। संस्कृत टोका में भी यही कर दिया गया है । कि नु विचार करने से यह पाठ रखने पर अर्थ उलटा हो जाता है।
२. टिर्सन संस्करण सा-यभावे' पाठहै ! संस्कृत टका में भी हैं। कर दिया गया है। किन्तु विचार करने से पाटने पर अर्गा जाना है।
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न्यायविन्दु तस्माभिवृत्तिवचनमाक्षितपतिबन्धोपदर्शनमेव भवति । [साधनके साध्यमें प्रतिबद्ध होनेसे साध्यकी निवृत्ति होनेपर साधनकी निवृत्ति भी हो जाती है ] अतएव [ साध्यकी निवृत्तिमें साधनकी ] निवृत्तिका कहना उस प्रतिबन्धका दिखलाना ही हो जाता है। ___ यच्च प्रतिबन्धोपदर्शनं तदेवान्वयवचनमित्येकेनापि वाक्ये. नान्वयमुखेन व्यतिरेकमुखेन वा प्रयुक्तेन सपक्षासपक्षयोर्लिङ्गस्य सदसवख्यापनं कृतं भवतीति नावश्यवाक्यद्वयप्रयोगः ।
और वह प्रतिबन्धोपदर्शन ही (प्रतिबन्ध का दिखलाना ही) अन्वयवचन है। इस प्रकार प्रयोग किये हुए एक ही अन्वयमुख अथवा व्यतिरेकमुख वाक्यसे सपक्षमें लिङ्गका सत्त्व अथवा असत्त्व कहा जाता है, इस प्रकार दो वाक्योंके प्रयोगकी कोई आवश्यकता नहीं रहती। अनुपलब्धावपि यत्सदुपलब्धिलक्षणप्राप्तं तदुपलभ्यत एवेत्युक्तेऽ
नुपलभ्यमानं तादृशमसदिति प्रतीतेरन्वयसिद्धिः । अनुपलब्धिमें भी 'जो उपलब्धिलक्षणप्राप्त है वह उपलब्ध होता ही हैं' ऐसा कहने पर उसी प्रकारका 'अनुपलभ्यमान ( न मिलनेवाला) पदार्थ असत् है' ऐसी प्रतीति हो जानेसे अन्वयकी सिद्धि हो जाती है।
द्वयोरप्यनयोः प्रयोगेऽवश्यं पक्षनिर्देशः। . इन दोनों प्रयोगोंमें पक्षका निर्देश (कहना ) अवश्य होना चाहिये। . यस्मात्साधवत्लयोमेऽपि यदुपलब्धिलक्षणप्राप्त
सन्नोपभ्यते सोऽसद्यवहारविषयः । क्योंकि साधर्म्यवत् प्रयोगमें भी जो उपलब्धिलक्षणप्राप्त होता हुआ भी उपलब्ध नहीं होता वह असत् व्यवहारका विषय है। नोपलभ्यते चात्रोपलब्धिलक्षणप्राप्तो घट इत्युक्त
सामर्थ्यादेव नेह घट इति भवति । 'यहां उपलब्धिलक्षणप्राप्त घट नहीं है' ऐसा कहनेपर 'यहां घट नहीं है' यह सामर्थ्यसे ही आ जाता है ।
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भाषाटीका सहित तथा वैधयवस्मयोगेऽपि 'यः सयवहारविषय उपलब्धि. लक्षणप्राप्तः स उपलभ्यत एव, न तथात्र तादृशो घट उपल. भ्यत' इत्युक्ते सामर्थ्यादेव नेह सब्यवहारविषय इति भवति ।
उसीप्रकार वैधर्म्यवत् प्रयोगमें भी 'जो सद्व्यवहारका विषय और उपलब्धिलक्षगप्राप्त है वह उपलब्ध होता ही है इसीप्रकार यहां वैसा घट उपलब्ध नहीं है। यह कहनेपर सामर्थ्यसे ही यहां पर घट सद्व्यवहारका विषय नहीं है' यह हो जाता है।
कीदृशः पुनः पक्ष इति निदश्यः । 'अब पक्ष कैसा होता है' यह कहा जाता है।
खरूपणैव स्वयमिष्टो ऽनिराकृतः पक्ष इति । जो स्वरूपसे ही स्वयं इष्ट और अनिराकृत हो उसे पक्ष कहते हैं।
स्वरूपेणेति साध्यत्वेनेष्टः । स्वरूपेणैवेति साध्यत्वेनेष्टो न साधनत्वेनापि। . यथा शब्दस्यानियत्वे साध्ये चाक्षुषत्वं हेतुः ।
'स्वरूपसे इष्ट' शब्दसे पक्षको साध्य बतलाया है। स्वरूपसे ही साध्यरूपसे ही माना गया है साधनरूपसे भी नहीं माना गया।
जैसे-शब्दकी अनित्यताको साध्य करनेमें चाक्षुषत्व ( नेत्रसे उत्पन्न होना ) हेतु देना।
शब्देऽसिद्धत्वात्साध्यं न पुनस्तदिह साध्यत्वेनैवेष्टं साधनत्वेनाप्यभिधानात् ।।
वह शब्दमें असिद्धहोनेसे साध्य है। उसको यहां केवल साध्य ही नहीं माना है। क्योंकि उसे साधन भी कहा है। 'स्वयं इस पदका समर्थन__स्वयमिति वादिना यस्तदा साधनमाह । एतेन यद्यपि कचिच्छास्त्रे स्थितः साधनमाह । तच्छास्त्रकारेण तस्मिन्धर्मिण्यनेकधर्माभ्युपगमेऽपि यस्तदा तेन वादिना धर्मः स्वयं साध. यितुमिष्टः स एव साध्यो नेतर इत्युक्तं भवति ।
१. पीटर्सन संस्करण का निराकृतः' पाठ अशुद्ध है। २. पीटर्सन संस्करण का स्थितसाधनमा ह' पाट हमार सम्मति में अशुद्ध है।
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न्यायबिन्दु जो स्वयं वादीसे माना गया हो [ पक्ष वही होगा ] । जो वादके समयमें साधनको कहे उसे वादी कहते हैं, इससे यद्यपि वादी किसी शास्त्रमें स्थिर रहकर साधनको कहता है [ तथापि ] उस शास्त्रकारके उसधर्मीमें माने हुए अनेक धर्मोमें से भी वादी जिस धर्मको साधना चाहे वही साध्य होता है, अन्य नहीं। 'इष्ट' पदकी सार्थकता
इष्ट इति यत्रार्थे विवादेन साधनमुपन्यस्तं तस्य सिद्धिमि. च्छता सोऽनुक्तोऽपि वचनेन साध्यस्तदधिकरणत्वाविवादस्य ।
वादीने विवादके द्वारा सिद्ध करनेकी इच्छा रखते हुए जिस अर्थमें साधन दिया है वह अर्थ वचनसे न कहा जानेपर भी साध्य है, क्योंकि विवादका अधिकरण वही है।
यथा पराश्चिक्षुरादयः संघातत्वाच्छयनासनाद्यनवदिति । अत्रात्मार्था इत्यनुक्तावप्यात्मार्थतानेनोक्तमात्रमेव साध्यमित्युक्तं भवति ।
जैसे-चक्षु आदि पदार्थ (दूसरेके वासते ) हैं। क्योंकि वह शयन, आसन आदि अङ्गोंके समान संघातरूप हैं। यहां पर 'आत्मार्थ ( आत्माके वासते) यह न कहे जानेपर भी तात्पर्यसे निकलने वाली आत्मार्थता ही साध्य है, ऐसा कहा जाता है। 'अनिराकृत' इस पदका समर्थन
अनिराकृत इति । एतल्लक्षणयोगेऽपि यः साधयितुमिष्टो ऽप्यर्थः प्रयक्षानुमानप्रतीतिस्ववचनैनिराक्रियते न स पक्ष इति प्रदर्शनार्थम् । .
जिस अर्थको सिद्ध करना चाहते हैं उसमें उपरोक्त सब लक्षणोंके होनेयर भी यदि वह प्रत्यक्ष, अनुमान, प्रतीति और स्ववचनसे निराकृत (निराकरणकिया हुआ) हो तो वह पक्ष नहीं हो सकता। [ अनिराकृत पद ] यह दिखलानेके लिये दिया गया है। .
तत्र प्रत्यक्षनिराकृतो यथा-अश्रावणः शब्द इति । प्रत्यक्षनिराकृत (जिसका प्रत्यक्ष प्रमाणसे निराकरण किया जावे)जैसे-शब्द कर्ण इन्द्रियका विषय नहीं है।
२. पीटर्सन संस्करण में यहाँ विराम चिन्ह नहीं है।
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अनुमाननिराकृतो यथा - नित्यः शब्द इति ।
अनुमाननिराकृतजैसे - शब्द नित्य है ।
प्रतीतिनिराकृतो यथा- अचन्द्रः शशीति ।
प्रतीतिनिराकृत
जैसे शशी चन्द्रशब्दका वाच्य नहीं है । स्ववचननिराकृतो यथा - नानुमानं प्रमाणम् ।
स्ववचन निराकृत
जैसे- अनुमान प्रमाण नहीं है ।
एतदेव तु यद्य सत्यार्थमन्यान्यसत्यार्थानि न दर्शितानि भवन्ति । यदि इसीको असत्यार्थ कहें तो अन्य थचन असत्यार्थ नहीं कहे जा सकते ।
इति चत्वारः पक्षाभासा निराकृता भवन्ति । इस प्रकार चारों पक्षाभास निराकरण किये जाते हैं । सिद्धस्यासिद्धस्यापि साधनत्वेनाभिमतस्य स्वयं वादिना तदा साधयितुमनिष्टस्योक्तमात्रस्य निराकृतस्य च विपर्ययेण साध्यस्तेनैव स्वरूपेणाभिमतो वादिन इष्टोऽनिराकृतः पक्ष इति पक्षलक्षणमनवद्यं दर्शितं भवति ।
3
जो पदार्थ सिद्ध (विपरीत हेतुसे सिद्ध किया हुआ भी साध्य हो सकता है ) अथवा असिद्ध भी साधनरूपसे माना गया हो, तथा स्वयं वादीको अनिष्ट न हो और उपरोक्त प्रत्यक्ष आदि निराकृतों से विपरीत हो तथा वादीके द्वारा साध्य माना गया हो, तथा जो इट और अनिराकृत हो वह पक्ष होता है । यह पक्षका निर्दोष लक्षण है । त्रिरूपलिङ्गाख्यानं परार्थानुमानमित्युक्तम् ।
इस प्रकार त्रिरूपलिङ्गका अभिधान रूप परार्थानुमान कहा गया । तत्र त्रयाणां रूपाणामेकस्यापि रूपस्यानुक्तौ साधनाभास | उक्तावप्यसिद्धौ संदेहे वो ।
९. पीटर्सन संस्करण का 'निराकृतः ' पाठ अशुद्ध है ।
२. पी० सं० में यहाँ विराम न होने से हेत्वाभास सामान्य और असिद्ध हेत्वाभास का लक्षण निकालने में बड़ी कठिनता पड़ती है ।
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न्यायविन्दु तीनों रूपोंमेंसे एकके भी न कहनेसे साधनाभास या हेत्वाभास हो जाता है। [अथना तीनों रूपोंके] कहे जानेपर भी हेतुके असिद्ध होने या उसमें संदेह होनेसे ही हेत्वाभास हो जाता है।
प्रतिपाद्यप्रतिपादकयोरेकस्य रूपस्य धर्मिसम्बन्धस्यासिद्धौ संदेहे चासिद्धो हेत्वाभासः।
प्रतिपाद्य और प्रतिपादकमेंसे धर्मीसम्बन्धी एकरूप ( पक्षधमत्व ) के सिद्ध न होनेपर अथवा उसमें संदेह होनेपर असिद्धहेत्वाभास होतो है। .
यथा अनित्यः शब्द इति साध्ये चाक्षुषत्तमुभयासिद्धम् ।
जैसे-'शब्द अनित्य है, क्योंकि वह चाक्षुष (चक्षुका विषय) है' में चाक्षुषत्व हेतु उभयासिद्ध है। (जो वादी और प्रतिवादी दोनों के लिये असिद्ध हो उसे उभयासिद्ध कहते हैं)।
चेतनास्तरव इति साध्ये सर्वत्वगपहरणे मरणं प्रतिवाद्यः सिद्धं विज्ञानेन्द्रियायुर्निरोधलक्षणस्य मरणस्यानेनाभ्युपगमात्तस्य च तरुष्वसम्भवात् । ___'वृक्ष सजीव होते हैं, क्योंकि वह सब छालके उतर जाने पर मर जाते हैं ( सूख जाते हैं )। इसमें वृक्षका सब छालके उतर जाने पर मरजाना प्रतिवादी ( बौद्ध) को असिद्ध है। [ अतः यह प्रतिवाद्यसिद्ध हेत्वाभास है। ] क्योंकि बौद्धदर्शन विज्ञान, इन्द्रिय और आयुके निरोध होनेको ही मरण मानता है, जिसका होना वृक्षोंमें असम्भव है। ____ अचेतनाः सुखादय इति साध्य उत्पत्तिमत्त्वमनित्यं वा सांख्यस्य स्वयं वादिनोऽसिद्धम् ।
'सुख आदि अचेतन हैं, क्योंकि वह उत्पत्तिमान् अथवा अनित्य हैं। इसमें उत्पत्तिमत्व अथवा अनित्यत्व स्वयं वादी अर्थात् सांख्यको ही असिद्ध है। [ अतः यह हेतु वाद्यसिद्ध है।] .
तथा स्वयं तदाश्रयणस्य वा संदेहेऽसिद्धः । तथा स्वयं उस साध्यधर्मीके संदिग्ध होनेसे हेतु संदिग्धासिद्ध भी है। [ अपने आप संदेह किये हुएका उदाहरण-]
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यथा वाष्पादिभावेन संदिह्यमानो भूतसंघातोऽग्रिसिद्धावुप. दिश्यमानः संदिग्धासिद्धः।
जैसे-वाप्प आदि भावसे सन्देह कियो हुआ पृथ्वी आदिका समूह अग्निकी सिद्धिके लिये ग्रहण किये जानेपर संदिग्धासिद्ध है। (कहीं दूरपर धूल आदिको उड़ती हुई देखकर उसको धूम समझकर उससे अग्निको सिद्ध करने लगनेसे अभिप्राय है।) [आश्रयासिद्धका उदाहरण - यथेह निकुञ्ज मयूरः केकायितादिति ।
तदापातदेशविभ्रमे । जैसे-इस निकुञ्जमें मोर है। क्योंकि इधरसे ही मोरका शब्द आ रहा है। उस शब्दके आनेके स्थानमें विभ्रम हो सकनेसे यह आश्रयणासिद्ध है।
धर्यसिद्धावप्यसिद्धो यथा सर्वगत आत्मेति साध्ये सर्वत्रोपलभमानगुणत्वम् । धर्मीके सिद्ध होनेपर भी असिद्ध
जैसे-'आत्मा सर्वगत ( सर्वत्रव्याप्त ) है' इस साध्यमें सर्वत्र उपलब्धहोनेका गुण असिद्ध है। तथैकम्य रूपस्यासपक्षेऽसत्वस्यासिद्धावनैकान्तिको हेत्वाभासः ।
तथा एकरूप ( असपक्षमें असत्त्व ) की असिद्धिमें अनैकान्तिक हेत्वाभास होता है। __यथा शब्दस्यानियत्वादिक धर्मे साध्ये प्रमेयत्वादिको धर्मः सपक्षविपक्षयोः। . जैसे-शब्दके अनित्यत्व आदि धर्मके साध्यमें प्रमेयत्व आदि धर्म सपक्ष और विपक्ष दोनोंमें रहते हैं। सर्वत्रैकदेशे वा वर्तमानस्तथास्यैव रूपस्य संदेहेऽप्यनैकान्तिक एन । ___ अथवा सर्वत्र या एकदेशमें रहने वाले इसी रूप ( असपक्षमें असत्त्व ) के संदेहमें भी अनैकान्तिक ही है।
१. पी० सं० का 'सत्वस्य' पाठ अशुद्ध है।
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न्यायबिन्दु
२३
यथाऽमज्ञः कश्चिद्विवक्षितः पुरुषो रागादिमान्वेति साध्ये वक्तृत्वादिको धर्मः संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकः । सर्वत्रैकदेशे वा सर्वज्ञो वक्ता नोपलभ्यते इति ।
जैसे - 'कोई विवक्षित पुरुष सर्वज्ञ अथवा रागादिमान् है' इस साध्य वक्तृत्व आदिधर्म संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिवाले हैं । [ क्योंकि ] सर्वज्ञवक्ता सर्वत्र अथवा एकदेशमें कहीं भी उपलब्ध नहीं है । एवं प्रकारस्यानुपलम्भस्यादृश्यात्मविषयत्वेन संदेहे हेतुत्वाद | क्योंकि अदृश्यात्मविषय वाला ( जिसका विषय अदृश्यात्मा है ) अनुपलम्भ संदेहमें कारण है । असर्वज्ञविपर्ययाद्वक्तृत्वादेव्यविचिः संदिग्धा । वक्तृत्वसर्वज्ञत्वयोर्विरोधाभावाच्च ।
सर्वज्ञका विपर्यय होनेसे वक्तृत्व आदिकी व्यावृत्ति संदिग्ध है [ निश्चय नहीं है । ] क्योंकि सर्वज्ञत्व और वक्तृत्वमें विरोधाभाव भी है।
[ व्याप्तिमान् व्यतिरेकको बतलाते हैं- ]
यः सर्वज्ञः स वक्ता न भवतीत्यदर्शनेऽपि व्यतिरेकी न सिध्यति, सन्देहात् ।
जो सर्वज्ञ होता है वह वक्ता नहीं होता । इस प्रकार सर्वज्ञवक्ता के न देखे जाने पर भी व्यतिरेक सिद्ध नहीं होता । क्योंकि उसमें सन्देह है।
द्विविधो हि पदार्थानां विरोधः ।
पदार्थो का विरोध दो ही प्रकारका होता है । [ जिनमेंसे प्रथम विरोध दिखलाया जाता है ]
―
अविकलकारणस्य भवतोऽन्यभावः ।
अविकल ( सम्पूर्ण ) कारणवाले । जिसके सब कारण उपस्थित हो ) विद्यमान पदार्थका अन्यभाव होना ( विद्यमानसे अन्यभाव अर्थात् अभाव होना । )
अभावाद्विरोधगतिः ।
१. पी० [सं० में 'संदेहात् ' के पश्चात् विरामचिन्ह न देकर उसकी अगले वाक्य में सन्धि करदी है, जिससे उसको अर्थ कुछ नहीं बैठता ।
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अभाव से ही विरोध चल सकता है । शीतोष्णस्पर्शवत् ।
जैसे -- शीतस्पर्श और उष्णस्पर्श का विरोध है । अब दूसरे विराधको दिखलाते हैं
२४
परस्परपरिहारस्थितलक्षणतया वा भाववत् ।
परस्परपरिहारस्थितलक्षणतासे भावके समान विरोध है । ( जो एक दूसरेका परिहार करके अथवा उसका अभाव करके स्थित हो वह वस्तुएं परस्परपरिहारस्थितलक्षण घाली हैं । जैसे-2 और अभाव । )
-भाव
स च द्विविधोऽपि विरोघ वक्तृत्व सर्वज्ञत्वयोर्न सम्भवति । वह दोनो ही प्रकारका विरोध वक्तत्व और सर्वज्ञत्वमें संभव नहीं है ।
न चाविरुद्ध विधेरनुपलब्धावप्यभावगतिः । रागादीनां वचनादेश्व कार्यकारणभावासिद्धेः ।
अविरुद्धविधिकी अनुपलब्धिर्मे भी अभाव नहीं हो सकता । क्योंकि राग आदिकों और वचन आदिका कार्यकारणभाव असिद्ध है । अर्थान्तरस्य वा कारणस्य निवृत्तौ न वचनादेर्निवृत्तिरिति संदिग्धव्यतिरेकोऽनैकान्तिको वचनादिः ।
अथवा अर्थान्तरकारणकी निवृत्ति में ( सहचारिके दर्शनमात्र से ) वचन आदि की निवृत्ति नहीं होती । अतएव सर्वज्ञमें वचन आदि संदिग्धव्यतिरेक अनैकान्तिक हैं ।
द्वयोरूपयोर्विपययसिद्धौ विरुद्धः ।
दो रूपोंके विरुद्ध सिद्ध हो जानेपर विरुद्ध हेत्वाभास होता है । कयोर्द्वयोः ? सपक्षे सत्वस्यासंपक्षे चासत्त्वस्य । यथाकृतकत्वं प्रयत्नानन्तरीयकत्वं च निसत्वे साध्ये विरुद्ध हेत्वाभासः ।
किन दो के ? सपक्षमें सत्त्व और असपक्षमें असत्त्व के । जैसे - नित्यत्वके सिद्ध करनेमें कृतकत्व और प्रयत्नानान्तरीयकत्व विरुद्ध हेत्वाभास हैं ।
१. पी० [सं० का 'सपक्षे' पाठ ठीक नहीं है।
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न्यायविन्दु अनयोः सपक्षेऽसवमसपक्षे च सत्वमिति विपर्यसिद्धिः।
इन दोनोंके सपक्षमें न रहने और असपक्षमें रहनेसे विपर्ययकी सिद्धि होती है।
एतौ च साध्यविपर्ययसाधनाविरुदौ । यह दोनों साध्य ( नित्यत्व ) के विपरीत ( अनित्यत्व ) का साधन करनेसे विरुद्ध हैं।
तत्र च तृतीयोऽवीष्टविघातकद्विरुद्धः । एक तीसरा इष्टविघातकृत् विरुद्ध भी है। . यथा परार्थोश्चक्षुरादयः संघातवाच्छयना.
शनाद्यङ्गवदिति । जैसे-चक्षु आदि परार्थ हैं। क्योंकि वह शयन, आसन आदि पुरुषके उपभोगके अंगोंके समान संघात ( परमाणुसंचितिरूप ) हैं।
तदिष्टासंहतपारायविपर्ययसाधनाविरुद्धः । वह [वादी सांख्यके ] इष्ट असंहत (विषय ) की परार्थताके विपरीत को साधन करनेसे विरुद्ध है।
स इह कस्मान्नोक्तः ? वह यहां क्यों नहीं कहा गया ?
___ अनयोरेवान्तर्भावात् । क्योंकि उसका इन दोनों में ही अन्तर्भाव हो जाता है।
न ह्ययमाभ्यां साध्यविपर्ययसाधनलेन भिद्यते । क्योंकि यह इष्टविघातकृत् इन दोनों हेतुओंसे साध्यविपर्ययसाधनताकी अपेक्षा भिन्न नहीं है।
न हीष्टोक्तयोः साध्यत्वेन कश्चिद्विशेषः इति द्वयो रूपयोरेकस्यासिद्धावपरस्य च संदेहेऽनै कान्तिकः ।
क्योंकि इष्ट और उक्तमें [एक दूसरेका साध्य होनेसे ] कोई विशेष नहीं है । अतएव दो रूपोंमेसे एकके असिद्ध होने तथा दूसरेके संदिग्ध होनेसे अनैकान्तिकर्ता आती है।
यथा वीतरागः कश्चित्सर्वो वा रक्तृत्वादिति ।. ... .. - व्यतिरेकोऽत्रासिद्धः । संदिग्धोऽदया। ...
..
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२६
भाषारीका सहित जैसे-कोई वीतराग अथवा सर्वज्ञ है, क्योंकि वह वक्ता है । यहाँ पर व्यतिरेक असिद्ध और अन्वय संदिग्ध है।
सर्वज्ञवीतरागयोर्विप्रकर्षाद्वचनादेस्तत्र सत्त्वमसचं वा सं. दिग्धमनयोरेव द्वयो रूपयोः संदेहेऽनैकान्तिकः ।
सर्वज्ञ और वीतरागके विप्रकर्ष ( दूर ) होनेसे वहां वचन आदिका होना या न होना संदिग्ध है। अतएव इन दोनों रूपोमें संदेह होनेसे वक्तृत्व हेतु अनैकान्तिक है।
सात्मकं जीवच्छरीरं प्राणादिमत्वादिति । जैसे-जीवित शरीर आत्मासहित है, क्योंकि उसमें प्राण आदि हैं। न हि सात्मकनिरात्मकाभ्यामन्यो राशिरस्ति ।
यत्र प्राणादिवर्तते । सात्मक और निरात्मकसे भिन्न ऐसी कोई राशि नहीं है जहां प्राण आदि हो।
__ आत्मनो वृत्तिव्यवच्छेदाभ्यां सर्व संग्रहात् । आत्माके सद्भाव और अभावसे सबका संग्रह करनेसे [ अन्यराशिका अभाव है।]
नाप्यनयोरेकत्र वृत्तिनिश्चयः ।। इन दोनों [ सात्मक और निरात्मक J में एक स्थानमें सद्भावका निश्चय नहीं है।
सात्मकत्वेन निरात्मकत्वेन वा प्रसिद्ध प्राणादेरसिद्धिः ।
क्योंकि सात्मक अथवो निरात्मक रूपसे प्रसिद्ध होनेसे प्राण आदिकी असिद्धि हो जावेगी।
तस्माज्जीवच्छरीरसम्बन्धी प्राणादिः । अतएव प्राण आदि जीवितशरीर सम्बन्धी हैं ।
सात्मकादनात्मकाच सर्वस्माद्यावृत्तत्वेनासिद्धः । क्योंकि सात्मक और निरात्मक सबसे व्यावृत्त होनेसे असिद्ध है।
ताभ्यां न व्यतिरिच्यते न तत्रान्वेति । उसका न तो उन दोनोंसे व्यतिरेक और न अन्वय ही है। क्योंकि वह ( दोनों) एक आत्मामें भी सिद्ध नहीं हो सकते।
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न्यायविन्दु
एकात्मन्यप्यसिद्धेः। नापि सात्मकाभिरात्मकाञ्च तस्यान्वयव्यतिरे. ..
कपोरभावनिश्चयः। सात्मक और निरात्मकसे भी उसके अन्वय और व्यतिरेकके अभावका निश्चय नहीं होता।
एकाभावनिश्चयस्यापराभावनान्तरीयकत्वात् । क्योंकि एक के अभावका निश्चय दूसरेके अभावके निश्चय का अव्यभिचारी होता है।
__ अन्वयव्यतिरेकयोरन्योन्यव्यवच्छेदरूपत्वात् । क्योंकि अन्वय और व्यतिरेक अन्योन्यव्यवच्छेद रूप हैं ।
अत एवान्वयव्यतिरेकयोः सन्देहाद नैकान्तिकः । अतएव अन्वय और व्यतिरेकमे सन्देह होनेसे अनैकान्तिक है।
साध्येतरयोरतो निश्चयाभावात् । क्योंकि इससे साध्य और उसके विरोधीके निश्चयका अभाव है।
एवं त्रयाणां रूपाणामेकैकस्य द्वयोर्द्वयोर्वा रूपयोगसिदौ संदेहे च यथायोगमसिद्धविरुद्धानकान्तिकास्त्रयो हेत्वाभासाः।
इसप्रकार तीनों रूपों में से एक २ अथवा दो २ रूपों के असिद्ध अथवा सन्दिग्ध होने पर यथायोग असिद्ध विरुद्ध और अनैकान्तिक ये तीन हेत्वाभास होते हैं। . विरुद्धाव्यभिचार्यपि संशयहेतुरुक्तः। स इह कस्मानोक्तः ?
(शंका) विरुद्धाव्यभिचारी भी संशयका कारण कहा गया है। उसको यह क्यों नहीं कहा?
( जो हेत्वन्तरसे सिद्ध किये हुए के विरुद्ध होता है वह व्यभिचारको प्राप्त नहीं होता । वही विरुद्धाव्यभिचारी है। अथवा जो वि. रुद्ध होते हुए अन्य साधनसे सिद्ध किये हुए धर्मके विरुद्ध साधन करनेसे व्यभिचारी हो वह अपने साध्यसे, व्यभिचरित न होनेसे विरुद्धाव्यभिचारी होता है। जैसे हेत्वन्तर धूमसे सिद्ध किये हुए अग्नि युक्त पर्वत के जल युक्त तालाब विरुद्ध है। अतएव तालाब पर्वत में व्यभिचरित नहीं हो सकता। अथवा जो विरुद्ध होते हुए अन्य साधन धूम से सिद्ध किये हुए धर्म अग्नि के विरुद्ध जल को सिद्ध न करनेसे
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भाषाटीका सहित उसमें अव्यभिचारी हो वह अपने साध्यसे व्यभिचरित न होनेसे विरुडाव्यभिचारी है।)
__ अनुमानविषयेऽसंभवात् । ___ (उत्तर ) अनुमान के विषय ( रूप्य ) में असम्भव होनेसे उसका कथन यहाँ नहीं किया गया।
न हि संभवोऽस्ति कार्यस्वभावयोरुक्तलक्षणयोरनुपल. म्भस्य च विरुद्धतायाः । न चान्योऽव्यभिचारी। . __ क्योंकि उक्त लक्षण (त्रैरूप्य) वाले कार्य, स्वभाव और अनुपलम्भ की विरुद्धता सम्भव नहीं है । और [ उनसे भिन्न ] अन्य कोई अव्यभिचारी भी नहीं है, [ अतएव उन्हीमें हेतुता है।]
[ तब आचार्य दिग्नागने इस हेतुदोषको किस स्थल पर कहा है ? इसके लिये कहते हैं-] तस्मादवस्तुदर्शनवलप्रयत्तमागमाश्रयमनुमाश्रित्य तदर्थवि.
चारेषु विरुद्धाव्यभिचारी माधनदोष उक्तः । अवस्तु के दर्शन के बलसे प्रवृत्त हुए आगमाश्रय अनुमानका आश्रय लेकर उसके अर्थके विचारोंमें विरुद्धाव्यभिचारी साधन दोष कहा है। शास्त्रकागणामर्थेषु भ्रान्त्या विपरीतस्य स्वभावोपसंहारसंभवात् ।
क्योंकि अर्थ में भ्रान्ति हो जानेसे शास्त्रकारोंका विपरीतको स्वभाव कह देना सम्भव है। न ह्यस्य सम्भवो यथावस्थित वस्तुस्थितिष्वात्मकार्येषूपलम्भेषु ।
यह यथावस्थितवस्तुकी स्थिति और आत्मकार्यों के उपलम्भ में सम्भव नहीं है।
तत्रोदाहरणं यत्सर्वदेशावस्थितैः स्वसम्बन्धिभिः सम्बध्यते तत्सर्वगतं यथाकाशमभिसंबध्यते सर्वदेशावस्थितैः स्वसम्बन्धिभिर्युगपत्सामान्यमिति । - इसका उदाहरण-जो सर्वदेशावस्थित (सब स्थानों में रहने वाले) अपने सम्बन्धियों से सम्बन्धित होता है वह सर्वगत है। जैसेआकाश सर्वदेशावस्थित स्वसम्बन्धियों से एक साथ सामान्य हो सम्बन्धित होता है।
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।
न्यायविन्दु तत्संबन्धिस्वभावमात्रानुबन्धिनी तद्देशसंनिहितस्वभावता ।
तद्देशसंनिहितस्वभावता तत्सम्बन्धिस्वभावमात्रको कारण करने वाली है। · न हि यो यत्र नास्ति स तदेशमात्मना व्यामो
तीति स्वभावहतुप्रयोगः । 'जो जहाँ पर नहीं है वह उस प्रदेशको अपने द्वारा व्याप्त भी नहीं करता' यह स्वभावहेतु का प्रयोग है। • द्वितीयोऽपि प्रयोमो यदुपलब्धिलक्षणप्राप्तं सनोपलभ्यते न
तत्तत्रास्ति । तद्यथा-कचिद विद्यमानो घदः । • दूसरा प्रयोग-जो उपलब्धि लक्षण प्राप्त होता हुआं भी उपलब्ध नहीं होता वह वहाँ पर नहीं है । जैसे-कहीं अविद्यमान घट । नोपलभ्यते चोपलब्धिलक्षणपात सामान्य व्यक्त्यन्तरालेष्विति ।
न्यक्तियों के अन्तराल में उपलब्धिलक्षण प्राप्त सामान्य उपलब्ध नहीं होता। अयमनुपलम्भप्रयोगः स्वभावश्च परस्परविरुद्धार्थ
साधनादेकत्र संशयं जनयतः ।। यह अनुपलम्भप्रयोग और स्वभाव परस्पर विरुद्ध अर्थको साधन करने से एक स्थान में संशय को उत्पन्न करते हैं।
त्रिरूपो हेतुरुक्तः। इस प्रकार त्रिका हेतु कह दिया। तावतवार्थप्रतीति न पृथग्दृष्टान्तो नाम साधावयवः कश्चित् । .' तेन नास्य लक्षणं पृथगुच्यते,
गतार्थत्वात् । उतनेसे ही अर्थको प्रतीति हो जानेसे दृष्टान्त नामवाला कोई पृथक अवयव साधन में नहीं है। इस वासते उसका लक्षण प्रथक नहीं कहा [क्योंकि उतने से ही ] अर्थ विदित हो जाता है।
हेतोः सपक्ष एव सत्वमसपक्षाच सर्वतो व्यावृत्तो रूपमुक्त
१. पी० सं० में 'न' नहीं है । डाक्टर सतीशचन्द्र विद्याभूषण के लेखसे विदेत होता है कि ग्यावबिन्दु के तिब्बती भाषा के अनुवाद में 'न' है। हमारी सम्मति में भी यहाँ इसका होना था
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भाषाटीका सहित मभेदेन पुनर्विशेषेण कार्यस्वभावयोर्जन्मत
मात्रानुबन्धौ दर्शनीयावुक्तौ । क्योंकि हेतु का सपक्ष में ही रहना और सब विपक्षोंका उससे शुन्य रहना के दोनों रूप कह दिये । विशेष अभेदसे कार्य जन्म [ ज्ञातव्य ] और स्वभाव का तन्मात्रानुबन्ध दर्शनीय कह दिया। तच्च दर्शयता यत्र धृमस्तत्राग्निरससग्नौ न कचि
द्धृमो यथा महानसेतरयोः। . . __ उसको दिखलाते हुए 'जहाँ धूम होता है वहाँ अग्नि होती है। अग्नि के अभाव में धूम भी नहीं होता । जैसे पाकशाला और तालाब में।' यत्र कृतकत्वं तत्रानित्यत्वमनित्यत्वाभावे कृतकत्वासंभवो
यथा घटा काशयोरिति दर्शनीयम् । जहाँ कृतकत्व होता है वहाँ अनित्यत्व होता है। अनित्यत्व के अभाव में कृतकत्व असम्भव है। जैसे घट और आकाश में। यह सब देखना चाहिए। न ह्यन्यथा सपक्षविपक्षयोः सदसत्त्वे यथोक्त.
प्रकारे शक्ये दर्शयितुम् । तत्कार्यतानियमः कार्यलिङ्गस्य स्वभावलिङ्गस्य
च स्वभावेन व्याप्तिः । क्योंकि अन्यथा यथोक्तप्रकार के सपक्ष और विपक्ष में सत्व और असत्व और कार्य लिङ्गका तत्कार्यतानियम और स्वभाव लिङ्ग की स्वभाव से व्याप्ति नहीं दिखलायी जा सकती।
अस्मिंश्चार्थे दर्शिते दर्शित एव दृष्टान्तो भवति । इस अर्थ के समझ जाने पर दृष्टान्त समझ में आ ही जाता है।
एतावन्मात्ररूपत्वात्तस्येति । क्योंकि वह केवल उतना ही है।
एतेनैव दृष्टान्तदोषा अपि निरम्ता भवन्ति । इससे ही दृष्टान्तदोषों का भी निराकरण हो जाता है। यथा-नित्यः शब्दोऽमूर्तत्वात् , कर्मवत्परमाणुउद्घटवदिति । जैसे-शब्द नित्य है, क्योंकि वह कर्म, परमाणु, और घटके समा.
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- न्यायषिन्दु ... न अमूर्त है। . साध्यसाधनधर्षोभयविकलास्तथा सन्दिग्धसाध्यधर्मादयश्च ।
साध्यधर्मविकल साधनधर्मविकल, उभयविकल, तथा सन्दि. ग्धसाध्यधर्म आदि ( सन्दिग्धसाधनधर्म तथा सन्दिग्धोभय ) [दृष्टान्त दोष हैं । (इनमें से कर्म साध्यविकल, परमाणु साधनविकल और घट उभयविफल दृष्टान्त हैं।)
यथा रागादिमानयं वचनाद्रध्यापुरुषवत् । जैसे-यह राग आदि से युक्त है, क्योंकि मार्गमें चलनेवाले पुरुषके समान बोलता है ( यह संदिग्धसाध्यधर्म का उदाहरण है।)
मरणधर्मोऽयं पुरुषो रागादिमत्वाद्रथ्यापुरुषवत् । यह पुरुष मरणधर्मवाला है, क्योंकि यह मार्ग में चलने वालों के समान रागादिमान है । ( यह संदिग्धसाधनधर्म दृष्टान्त है। ).
असर्वज्ञोऽयं रागादिमत्वाद्रथ्यापुरुषवदिति । यह असर्वज्ञ है क्योंकि यह रथ्यापुरुष (मार्ग में चलने वाले पुरुष ) के समान रागादिमान है। ( यह सन्दिग्धोभय दृष्टान्त है।
अनन्त्रयोऽप्रदर्शितान्वयश्च । - अनन्वय और अप्रदर्शितान्वय भी [ दृष्टान्त दोष हैं। ]
(जिस दृष्टान्तमें साध्य और साधनमें सम्भवता ही दिखलाई दे किन्तु साध्यसे व्याप्त न हो वह अनन्वय है। जिस दृष्टान्त में . अन्वय के होते हुए भी उसे कहने वाले ने दिखलाया न हो उसे अप्रदर्शितान्वय कहते है।)
यथा यो वक्ता स रागादिमानिष्टपुरुषवत् । जैसे-जो वक्ता होता है वह इष्ट पुरुष के समान रागादिमान होता है। ( यह अनन्वय का उदाहरण है।) •
अनित्यः शब्दः कृतकत्वाद्धटवदिति । शब्द अनित्य है। क्योंकि वह घटके समान कृतक होता है । (यह अप्रदर्शितान्वय का उदाहरण है।)
तथा विपरीतान्त्रयः। तथा विपरीतान्वय
यदनित्यं तत्कृतकम् । . जो अनित्य होता है यह कृतक होता है।
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भाषाटीका सहित
इति साधर्म्येण ।
यह साधर्म्य से [ नौ दृष्टान्त दोष कह दिए । ] वैधर्म्येणापि परमाणुवत्कर्मवदाकाशवदिति साध्याद्यव्यतिरेकिणः। वैसे भी 'परमाणु, कर्म और आकाशके समान' ये साध्याव्यतिरेकि आदि दृष्टान्त दोषों के उदाहरण हैं ।
( इसमें परमाणु साध्याव्यतिरेकि, कर्म साधनाव्यतिरेकि और आकाश उभयाव्यतिरेकि दृष्टान्त हैं । )
तथा संदिग्धसाध्यव्यतिरेकादयः ।
तथा संदिग्धसाध्यव्यतिरेक आदियथाज्ञाः कपिलादयोऽनाप्ता वा । अविद्यमान सर्वज्ञतासतालिङ्गभूतप्रमाणातिशयशासनत्वादिति ।
जैसे -- कपिल आदि असर्वज्ञ अथवा अनाप्त हैं, क्योंकि उनमें सज्ञता का लिङ्गभूत प्रमाणातिशयशासन नहीं है ।
अत्र वैधम्र्योदाहरणं यः सर्वज्ञ आप्तो वास ज्योतिर्ज्ञानादिकमुपदिष्टवान् ।
३२
यद्यथा । ऋषभवर्धमानादिरिति ।
इस प्रमाण वैधर्म्य उदाहरण
:
जो सर्वज्ञ या आप्त होता है वह ज्योतिर्ज्ञात आदि का उपदेश देता है। जैसे—ऋषभ और वर्धमान आदि [ जैन तीर्थंकर । ] तत्रासर्वज्ञतानातयोः साध्यधर्मयोः संदिग्धो व्यतिरेकः । क्योंकि साध्यधर्म असर्वज्ञता और अनाप्तता में व्यतिरेक सन्दिध है।
संदिग्ध साधनव्यतिरेकः ।
यथा- न त्रयीविदा ब्राह्मणेन ग्राह्यवचनः कश्चित्पुरुषो रामादिमत्वादिति ।
सन्दिन्धसाधन व्यतिरेक
कोई पुरुष त्रयीवित ( जो ऋक्, यजुः, और साम इन तीनों वेदों को जानता है ब्राह्मणसे ग्राह्यवचनवाला (जिसका वचन ग्रहण किये जाने योग्य हो ) नहीं हैं। क्योंकि पुरुष राग आदि से युक्त होता है ।
१. पी० [सं० में 'सर्वज्ञा' पाठ है, जो अशुद्ध है ।
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न्यायबिन्दु
अत्र वैधम्र्योदाहरणम् ।
ये ग्राह्यवचना न ते रागादिमन्तस्तद्यथा गौतमादयो धर्मशास्त्राणां प्रणेतार इति गौतमादिभ्यो रागादिमत्त्वस्य साधनधर्मस्य व्याहृतिः। उसमें वैधम्र्योदाहरण
जो ग्राह्यवचन वाले होते हैं वह रागादिमान् नहीं होते। जैसेगौतम आदि धर्मशास्त्रोंके बनानेवाले । इस प्रकार गौतम आदि से रागादिमत्व साधनधर्म की व्यावृत्ति की ।
संदिग्धा संदिग्धोभयव्यतिरेकः ।
३३
यथा वीतरागाः कपिलादयः परिग्रहाग्रह योगादिति । संदिग्धासंदिग्धोभयव्यतिरेक
जैसे - कपिल आदि वीतराग नहीं है; क्योंकि उनमें परिग्रह और आग्रह है ।
अत्र वैधर्म्येणोदाहरणम् ।
यो वीतरागो न तस्य परिग्रहाग्रहो यथा - ऋषभादेरिति । ऋषभादेरवीतरागत्वं परिग्रहयोगयोः साध्यसा - धनधर्मयोः संदिग्धो व्यतिरेकः ।
इसमें वैधम्यदारण
जो वीतराग होता है उसके परिग्रह और आग्रह नहीं होता । जैसे - ऋषभ आदि । ऋषभ आदि के साध्यधर्म अवीतरागत्व और साधनधर्म परिग्रह और आग्रहके योगमें व्यतिरेक संदिग्ध है । अव्यतिरेको यथाऽवीतरागो वक्तृत्वात् ।
अव्यतिरेक
वक्ता होनेसे वीतराग नहीं है ।
वैधम्र्योदाहरणं यत्र वीतरागत्वं नास्ति स वक्ता । यथोपलखण्ड इति । यद्यप्युपलखण्डादुभयं व्याष्टत्तया सर्वो वीतरागो न वक्तेति व्याप्त्या व्यतिरेकासिद्धेरव्यतिरेकः । वैधयोदाहरण
जिसमें वीतरागता होती है वह वक्ता नहीं होता। जैसे -- पाषाणखण्ड । यद्यपि पाषाणखण्डसे दोनों की व्यावृति हो जानेसे 'सभी "वीतराग वक्ता नहीं होते' इस व्याप्तिसे व्यतिरेकके सिद्ध न होनेसे अव्यतिरेक है ।
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भाषाटीका सहित अमदर्शितव्यतिरेको यथा-अनियः शब्दः . कृतकत्वदाकाशवदिति ।। अमदर्शितभ्यतिरेक
जैसे-शब्द अनित्य है; क्योंकि वह आकाश के समान कृतक है। वैधयेणापि विपरीतव्यतिरेको यथा यदकृतकं तन्नित्यं भवतीति । वैधय॑से भी विपरीतव्यतिरेक
जो कृतक नहीं होता वह नित्य होता है। न मिष्टान्ताभासहेतोः सामान्यलक्षणं सपक्ष एव सत्वं विपक्ष च सर्वत्रासत्त्वमेव निश्चयेन शक्यं दर्शयितुं विशेषलक्षणं वा ।
इन दृष्टान्ताभासों से हेतुका सामान्यलक्षण, सपक्षमें ही रहना और विपक्षमे सर्वत्र अभाव अथवा विशेषलक्षणको निश्चय रूपसे दिखला ही नहीं सकते।
तदर्थापत्यैषां निरासो वेदितव्यः । अतएव उनका निरकरण अर्थापति ( सामर्थ्य ) से ही जान लेना चाहिये।
दूषणा न्यूनतायुक्तिः। न्यूनता का कहना दूषणा है।। ये पूर्व न्यूनतादयः साधनदोषा उक्तास्तेषामुद्भावनं दूषणम् । जो पहिले न्यूनता आदि साधनदोष कहे हैं उनका कहना दूषण है। . तेन परेष्टार्थसिद्धिपतिबन्धात् । क्योंकि उससे दूसरेके इष्ट अर्थ की सिद्धि में रुकावट होती है।
दूषणाभासास्तु जातयः । दूषणाभास जातियाँ हैं।
अभूतदोषोद्भावनानि जात्युत्तराणीति । अभूत दोषका प्रकट करना जात्युत्तर है।
इति तृतीयः परिच्छेदः समाप्तः ।
न्यायविन्दुः समाप्तः । इति तृतीय परिच्छेद समाप्त।
न्यायविन्दु समाप्त ।
१. मुद्रित पुस्तक में 'अनुभूत०' पाठ है। किन्तु टीका से हमारे ही पाठ की पुष्टि होती है। इसके अतिरिक्त पहिले पाठ से अर्थ भी ठीक नहीं बैठता ।
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पृ०
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१६
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දී
२४
टिप्पण्यनुगत सटीक न्यायबिन्दोः
शुद्धिपत्रम् ।
१९
१०
१०
१३
२२ 'इदमि' ति पदं ख
११
प्राययत्सं०
१४
२४
८
१५
a oc
१३
१४-१६
१६-१७
अशुद्धयः प्रसवेन्योते
०तस्मिनना०
१८
बुद्ध परमेश्वस्या० काश्चिच्छु०
सम्वन्ध०
पठान्तरम् निवृत्यक्रम
हटात् मुद्रितंपुस्तकस्य ● मर्क्षक्रिया वृक्षवाप्तिः । न त्ववि०
० संसृयोः । सन्निहि
एब
० विकल्प
०दभिसाप० ● प्राही ।
शुद्धयः प्रसवे ज्योते ०तस्मिन्नना०
बुद्धः परमेश्वरस्या
कांश्चिच्छ्र०
-सम्बन्ध०
पाठान्तरं
निवृत्यङ्गम्
'इदम्' इति पदं स०
प्रापयत्सं०
हठात् .मुद्रित पुस्तकस्य ०मर्थक्रिया०
: वृक्षावाप्तिः । अपि त्ववि०
संसृष्टयोः । समिहि
एव
० विकल्प - ०दभिलाप०
ग्राहि ।
कल्पनया
गृहणेन
कल्पनपा
"
० गृहणे न इन्द्रियज्ञानं । स्वविष..... इन्द्रियज्ञानम् । ............जनितं तत् । इन्द्रियस्य ज्ञानमि इन्द्रियस्य ज्ञानमिन्द्रिय - न्द्रियज्ञानम् ।
ज्ञानम् ।
यत्तत्प्रत्यक्षम् । मानस यत्तत्प्रत्यक्षम् । प्रत्यक्षे मानसप्रत्यक्षे: ●त्यक्षलणमाह । स्व आत्मी • त्यक्षलक्षणमाह
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पृ०
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४१.
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४२.
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१०
१३
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१६
२०
१२-१४ तेन जनितम् ।
११
२०
१४
१९
२५
१३
२४
११
२२
No
११
f
शुद्धिपत्रम्।
अशुद्धयः यो विषय
मनोविज्ञानम् ।
'गृहीतगृहणा० सर्व चित्त
तदनेनैकंसन्तानान्त०
o निवृत्यर्थ
मते प्रत्येकं वस्तु
जनि वं
विषयेऽयि
प्रतिभासे भदः स्फुटनि
●त्वाद्वस्तुन:। ● प्रतिज्ञासं
:
सकलवीहसाधा०
ततस्तत्समान्य०
रूपेत्वना० यद्यत्यमरकोशे प्रथमपरिच्छेदः साध्य धर्मश्चासौ प्रथमपरिच्छेदः C विशषश्च प्रथमपरिच्छेदः
साध्यसाधनयोः
सधनं
विषयस्तु साध्यदर्था० ●प्रातधो
शुद्धयः स्वविषयानन्तरवि . षय सहकारिणेन्द्रि यज्ञानेन समनन्तर प्रत्ययेन जनितं तमनोविज्ञानम् ।
स्व आत्मीयो विषय
तेन जनितम्। तद्नेनेोकसन्तानान्त०
ग्रहीतग्रहणा० 'सर्वचित्त० Softवृत्यर्थे मते वस्तु
जनितत्वं
विषयेऽपि
प्रतिभासभेदः
स्फुटानि
•
त्वाद्वस्तुनः ।
०प्रतिभासं
सकल वह्निसाधा०
ततस्तत्सामान्य०
रूपत्वेना०
arathi
द्वितीयपरिच्छेदः
साध्यधर्मश्चासौ
द्वितीयपरिच्छेदः ofवशेषश्च द्वितीयपरिच्छेदः
साध्यसाधनयोः
साधनं
● विषयस्तु साध्यादर्था०
● प्रतिबन्धो
ચ
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शुद्धिपत्रम्।
पं० अशुद्धयः : शुद्धयः । २० मिमित्तत् . . निमित्तात्
प्रथमपरिच्छेदः द्वितीयपरिच्छेदः भवेतु
भवतु प्रथमपरिच्छेदः द्वितीयपरिच्छेदः यस्मा
यस्माप्रथमपरिच्छेदः द्वितीयपरिच्छेदः ९ .. कार्यविरूद्धो०, कार्यविरुद्धो
प्रथमपरिच्छेदः . द्वितीयपरिच्छेदः स्वभानुपलब्धि० ... स्वभावानुपः
लब्धि० . भावाभावासिद्धेः भावासिद्ध २० तदेनन
तदनेन उपलब्धिललक्षण उपलब्धिलक्षण व्याख्यातम्। व्याख्यातम्। ०व्यायारः
व्यापार::. १८: विशेप:
विशेषः ।
५९
।
१३
२
.
३६
साध०
. साधन प्रमाणेरिति प्रमाणैरिति ०भावत्व __०भावित्व० ०साध्यधम
साध्य करमाळेतुप्रयोगः । कस्माद्धतुमसोगः । सत्त्वनुप० ... सत्त्वमनुप० हत्वभावेन .. हेत्वभावेन साध्ये न
साध्येन तस्मात्रिरूप० . तस्मानिरूप ध्यभावे
ध्याभावे • भवदेवं .. . भवेदेवं .. साध्यस्वनैवेष्ट साध्यत्वेनैवेष्ट स्थितसाधन स्थितः साधन दर्शयन्नन .. दर्शयन्नेक.
कार्याच्छद्वाजावं, कार्याच्छन्दाजातं - उर्यायते. उचार्यते :
७४
२०
८. ८६ . १५
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PC
पृ०
૩૭
૯.
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१
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३
१२
. १६
४
..१३
२५.
शुद्धिपत्रम्।
अशुद्धयः इष्टोनिराकृतः प्रदितच्च:
०भास
घा
ख० प्रामाण्यं ।
०गृह्य 'हीति यस्मात् विरुद्वयो०
बिरोध
बक्तव्याः
३ ६तुकृतं,
●स्त्वन्ये न्याभावा●
रा
रागादीनां का
रागोदौ
आह ।
० कृदित्याह ।
तदिष्टसं० हेतुनपर्यय
इत्याह ।
महीष्ट०
इति
पक्षधर्मस्य द्वाभ्यां नियमसत्तानियो
ननु न व्यस्यभावे
जन्मज्ञानं
सत्वमिति -
पिपक्ष 'इष्टविद्यातकृत
इष्टविघातकृत्
परमाणु संचितरूपाः । परमाणुसंश्चितिरूपाः ।
योगिने
C
शुद्धयः निराकृत
सपदख०
-यत्, यद्विरुद्धं ।
- यदि तच्च
०भासः ।
वा ।
ख० प्रमाण्यं ।
ख० गृह्यते ।
हीति । यस्मात विरुद्धयोο
विरोध
वक्तव्याः
३ हेतुकृतं,
'० स्त्वन्योन्याभावा०
द
रा.
रागादीनां का रागादौ
आह- :
जन्म शान
सत्वमिति
विपक्ष
भोगिनो
कृदित्याह -
तदिष्टासं०
तविपर्यय
इत्याह
नहीष्ट० :
इति ।
पक्षधर्मस्य च द्वाभ्यां नियतस्तानिश्चयो
ननु च व्यस्याभावे
सदसत्व०
यत, ख० यद्विरुद्धं
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qo ११३
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४
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१३१
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.२१
२३
१२
२४
१६
. २५
शुपित्रम् ।
अशुद्धयः यथावस्तुस्थितं यथास्थिता
सर्वगत्वं व्यक्तिरहितेषु तत्तद्देशेसानहित०
त्रिरूपां हेतु०
०न वस्तु०
तेन
'दाहेन
०नादृष्टान्तत्व ०
क० प्रदर्शिन
वचनादिनि
क० रागादिमखं |
नवोपदिष्टवन्तः ।
यत
सरविपक्षे
अनुभूतः
अनश्वं
शुद्धयः
"यथा वस्तु स्थितं
तथा स्थिता सर्वगतत्वं व्यक्तिरहितेषु तत्तद्देशसंनिहित त्रिरूपां हेतु०
ख० न वस्तु०
ते न
'दद्दने
०नाष्टान्तत्व० क० प्रदर्शिन वचनादिति
क० रागादिमध्ये |
न चोपदिष्टवन्तः ।
यत्र
सत्वं विपक्षे
अभूत० अनाश्यं
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________________ REPO000000000000000000000000000000000000000 विशेष-सूचना। . हमारे यहां हर तरह की संस्कृत पुस्तकें मै भाषा टीका के हरवक्त तैय्यार रहती हैं इसके अलावे हर तरह की छपाई तथा जिल्द के बंधाई का कार्य भी होता है। 000000000MA 10000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 SC030000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 नीचे लिखे पते पर पत्र व्यवहार करें। जयकृष्णदास-हरिदासगुप्त:चौखम्बा संस्कृत सीरीज आफीस / विद्याविलास प्रेस, गोपालमंदिर लेन / * बनारस सिटी। 20100000000000000000000000000000000000000000