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“અહો ! શ્રુતજ્ઞાન” ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર ૧૮૫
નૃત્યરત્ન કોશ ભાગ - ૨
: દ્રવ્ય સહાયક : શ્રી કચ્છવાગડ સમુદાયના
અધ્યાત્મયોગી પૂ. આ. શ્રી કલાપૂર્ણસૂરીશ્વરજી મ.સા.ના શિષ્ય પૂ. આ. શ્રી કલાપ્રભસૂરીશ્વરજી મ.સા. ના આજ્ઞાવર્તિની પૂ.સા.શ્રી સુલોચનાશ્રીજી મ. ના શિષ્યા પૂ.સા.શ્રી શીલગુણાશ્રીજી ની પ્રેરણાથી રાજ ફ્લેટ, સાબરમતી
શ્રાવિકા ઉપાશ્રયના જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી
: સંયોજક :
શાહ બાબુલાલ સરેમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર
શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન
હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૫
(મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543
સંવત ૨૦૭૧
ઈ. ૨૦૧૫
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
પૃષ્ઠ
___84
___810
010
011
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६५ (ई. 2009) सेट नं.-१ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। ક્રમાંક પુસ્તકનું નામ
ता-टी515ार-संपES | 001 | श्री नंदीसूत्र अवचूरी
| पू. विक्रमसूरिजी म.सा.
238 | 002 | श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी
| पू. जिनदासगणि चूर्णीकार
286 003 श्री अर्हद्गीता-भगवद्गीता
प. मेघविजयजी गणि म.सा. 004 | श्री अर्हच्चूडामणि सारसटीकः
पू. भद्रबाहुस्वामी म.सा. | 005 | श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं
पू. पद्मसागरजी गणि म.सा. | 006 | श्री मानतुङ्गशास्त्रम्
| पू. मानतुंगविजयजी म.सा. | 007 | अपराजितपृच्छा
श्री बी. भट्टाचार्य 008 शिल्प स्मृति वास्तु विद्यायाम्
श्री नंदलाल चुनिलाल सोमपुरा 850 | 009 | शिल्परत्नम् भाग-१
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री 322 शिल्परत्नम् भाग-२
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री 280 प्रासादतिलक
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
162 | 012 | काश्यशिल्पम्
श्री विनायक गणेश आपटे
302 प्रासादमजरी
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
156 014 | राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र
श्री नारायण भारती गोंसाई
352 | शिल्पदीपक
श्री गंगाधरजी प्रणीत
120 | वास्तुसार
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई दीपार्णव उत्तरार्ध
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
110 જિનપ્રાસાદ માર્તણ્ડ
શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલ સોમપુરા
498 | जैन ग्रंथावली
श्री जैन श्वेताम्बर कोन्फ्रन्स 502 | હીરકલશ જૈન જ્યોતિષ
શ્રી હિમતરામ મહાશંકર જાની 021 न्यायप्रवेशः भाग-१
श्री आनंदशंकर बी. ध्रुव 022 | दीपार्णव पूर्वार्ध
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 023 अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-१
पू. मुनिचंद्रसूरिजी म.सा.
452 024 | अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-२
श्री एच. आर. कापडीआ
500 025 | प्राकृत व्याकरण भाषांतर सह
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
454 026 | तत्त्पोपप्लवसिंहः
| श्री जयराशी भट्ट, बी. भट्टाचार्य
188 | 027 | शक्तिवादादर्शः
| श्री सुदर्शनाचार्य शास्त्री
214 | क्षीरार्णव
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
414 029 | वेधवास्तु प्रभाकर
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
___192
013
454 226 640
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288
30 | શિન્જરત્નાકર
प्रासाद मंडन श्री सिद्धहेम बृहदवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-१ | श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-२ श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-३
श्री नर्मदाशंकर शास्त्री | पं. भगवानदास जैन पू. लावण्यसूरिजी म.सा. પૂ. ભાવસૂરિની મ.સા.
520
034
().
પૂ. ભાવસૂરિ મ.સા.
श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-3 (२)
324
302
196
039.
190
040 | તિલક
202
480
228
60
044
218
036. | श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-५ 037 વાસ્તુનિઘંટુ 038
| તિલકમન્નરી ભાગ-૧ તિલકમગ્નરી ભાગ-૨ તિલકમઝરી ભાગ-૩ સખસન્ધાન મહાકાવ્યમ્ સપ્તભફીમિમાંસા ન્યાયાવતાર વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વલોક
સામાન્ય નિર્યુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક 046 સપ્તભીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ
વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા નયોપદેશ ભાગ-૧ તરષિણીકરણી નયોપદેશ ભાગ-૨ તરકિણીતરણી ન્યાયસમુચ્ચય ચાદ્યાર્થપ્રકાશઃ
દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ 053 બૃહદ્ ધારણા યંત્ર 05 | જ્યોતિર્મહોદય
પૂ. ભાવસૂરિની મ.સા. પૂ. ભાવસૂરિન મ.સા. પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) પૂ. લાવણ્યસૂરિજી. શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. દર્શનવિજયજી પૂ. દર્શનવિજયજી સ. પૂ. અક્ષયવિજયજી
045
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(04)
210
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286
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|
શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર
ભાષા |
218.
|
164
સંયોજક – બાબુલાલ સરેમલ શાહ શાહ વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન
हीशन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, महावाह-04. (मो.) ८४२७५८५८०४ (यो) २२१३ २५४३ (5-मेल) ahoshrut.bs@gmail.com महो श्रुतज्ञानमjथ द्धिार - संवत २०७5 (5. २०१०)- सेट नं-२
પ્રાયઃ જીર્ણ અપ્રાપ્ય પુસ્તકોને સ્કેન કરાવીને ડી.વી.ડી. બનાવી તેની યાદી.
या पुस्तsी www.ahoshrut.org वेबसाईट ५२थी ugl stGirls sी शाशे. ક્રમ પુસ્તકનું નામ
ता-टी815२-संपES પૃષ્ઠ 055 | श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहदन्यास अध्याय-६
| पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
296 056 | विविध तीर्थ कल्प
प. जिनविजयजी म.सा.
160 057 लारतीय टन भए। संस्कृति सनोमन
पू. पूण्यविजयजी म.सा. 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्त्वलोकः
श्री धर्मदत्तसूरि
202 059 | व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका
श्री धर्मदत्तसूरि જૈન સંગીત રાગમાળા
श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी | 306 061 | चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश)
| श्री रसिकलाल एच. कापडीआ 062 | व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय |सं श्री सुदर्शनाचार्य
668 063 | चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी
सं पू. मेघविजयजी गणि
516 064| विवेक विलास
सं/. | श्री दामोदर गोविंदाचार्य
268 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध
| पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा.
456 066 | सन्मतितत्त्वसोपानम्
| सं पू. लब्धिसूरिजी म.सा.
420 06764शमाता वही गुशनुवाह
गु४. पू. हेमसागरसूरिजी म.सा. 638 068 | मोहराजापराजयम्
सं पू. चतुरविजयजी म.सा. 192 069 | क्रियाकोश
सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया
428 070 | कालिकाचार्यकथासंग्रह
सं/. | श्री अंबालाल प्रेमचंद
406 071 | सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका | सं. श्री वामाचरण भट्टाचार्य
308 072 | जन्मसमुद्रजातक
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
128 मेघमहोदय वर्षप्रबोध
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
532 on જૈન સામુદ્રિકનાં પાંચ ગ્રંથો
१४. श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी 376
060
322
073
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075
076
સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી
077
1 ભારતનો જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પસ્થાપત્ય
079
શિલ્પ ચિન્તામણિ ભાગ-૧ 080 बृह६ शिल्प शास्त्र भाग - १
081 बृह६ शिल्प शास्त्र भाग - २
જૈન ચિત્ર કલ્પબૂમ ભાગ-૧
જૈન ચિત્ર કલ્પવ્રૂમ ભાગ-૨
082 ह शिल्पशास्त्र भाग - 3
O83 आयुर्वेधना अनुभूत प्रयोगो भाग-१
084 ल्याए 125
ORS विश्वलोचन कोश
086 | Sथा रत्न छोश भाग-1
0875था रत्न छोश भाग-2
હસ્તસગ્રીવનમ્
088
089
090
એન્દ્રચતુર્વિશનિકા
સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા
गुभ.
शुभ,
गुभ.
गुभ.
शुभ
श्री साराभाई नवाब
श्री साराभाई नवाब
श्री विद्या साराभाई नवाब
श्री साराभाई नवाब
सं.
श्री मनसुखलाल भुदरमल
श्री जगन्नाथ अंबाराम
शुभ.
शुभ.
शुभ.
शुभ,
गु४.
सं.हिं श्री नंदलाल शर्मा
गुभ.
गुभ.
सं
सं.
श्री जगन्नाथ अंबाराम
श्री जगन्नाथ अंबाराम
पू. कान्तिसागरजी
श्री वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
पू. मेघविजयजीगणि
पू.यशोविजयजी, पू. पुण्यविजयजी
आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी
374
238
194
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05.
अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार- संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। पुस्तक नाम संपादक / प्रकाशक मोतीलाल लाघाजी पुना
क्रम
कर्त्ता / टीकाकार
91 स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१
वादिदेवसूरिजी
92 स्याद्वाद रत्नाकर भाग-२
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना
93
मोतीलाल लाघाजी पुना
स्याद्वाद रत्नाकर भाग-३
वादिदेवसूरिजी
94
मोतीलाल लाघाजी पुना
स्याद्वाद रत्नाकर भाग-४
वादिदेवसूरिजी
95 स्याद्वाद रत्नाकर भाग-५
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना
96 | पवित्र कल्पसूत्र
पुण्यविजयजी
साराभाई नवाब
टी. गणपति शास्त्री
टी. गणपति शास्त्री
वेंकटेश प्रेस
97 समराङ्गण सूत्रधार भाग - १
98 | समराङ्गण सूत्रधार भाग - २
99 भुवनदीपक
100 गाथासहस्त्री
101 भारतीय प्राचीन लिपीमाला
102 शब्दरत्नाकर
103 सुबोधवाणी प्रकाश
104 लघु प्रबंध संग्रह
105 जैन स्तोत्र संचय - १-२-३
106 सन्मति तर्क प्रकरण भाग १,२,३
107 सन्मति तर्क प्रकरण भाग-४, ५
108 न्यायसार न्यायतात्पर्यदीपिका
109 जैन लेख संग्रह भाग - १
110 जैन लेख संग्रह भाग-२
111 जैन लेख संग्रह भाग-३
112 | जैन धातु प्रतिमा लेख भाग - १
113 जैन प्रतिमा लेख संग्रह
114 राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह
115 | प्राचिन लेख संग्रह - १ 116
बीकानेर जैन लेख संग्रह
117 प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग - १
118 प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग - २
119 गुजरातना ऐतिहासिक लेखो - १
120 गुजरातना ऐतिहासिक लेखो २ 121 गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-३
122 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल - १ 123 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-४ 124 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-५ 125 | कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत इन्स्क्रीप्शन्स 126 | विजयदेव माहात्म्यम्
भोजदेव
भोजदेव
पद्मप्रभसूरिजी
समयसुंदरजी
गौरीशंकर ओझा
साधुसुन्दरजी
न्यायविजयजी
जयंत पी. ठाकर
माणिक्यसागरसूरिजी
सिद्धसेन दिवाकर
सिद्धसेन दिवाकर सतिषचंद्र विद्याभूषण
पुरणचंद्र नाहर
पुरणचंद्र नाहर
पुरणचंद्र नाहर
कांतिविजयजी
दौलतसिंह लोढा
विशालविजयजी
विजयधर्मसूरिजी
अगरचंद नाहटा
जिनविजयजी
जिनविजयजी
गिरजाशंकर शास्त्री
गिरजाशंकर शास्त्री
गिरजाशंकर शास्त्री
पी. पीटरसन
पी. पीटरसन
पी. पीटरसन
पी. पीटरसन जिनविजयजी
भाषा
सं.
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सं.
सं.
सं.
सं./अं
सं.
सं.
सं.
सं.
हिन्दी
सं.
सं./गु
सं.
सं,
सं.
सं. सं.
सं./हि पुरणचंद्र नाहर
सं./हि
पुरणचंद्र नाहर
सं./हि
पुरणचंद्र नाहर
सं./ हि
जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार
सं./हि
अरविन्द धामणिया
सं./गु
सं./गु
सं./हि
सं./हि
सं./हि
सं./गु
सं./गु
सं./गु
अं.
सुखलालजी
मुन्शीराम मनोहरराम
हरगोविन्ददास बेचरदास
हेमचंद्राचार्य जैन सभा
ओरीएन्ट इन्स्टीट्युट वरोडा
आगमोद्धारक सभा
अं.
अं.
अं.
सं.
सुखलाल संघवी
सुखलाल संघवी
एसियाटीक सोसायटी
यशोविजयजी ग्रंथमाळा
यशोविजयजी ग्रंथमाळा
नाहटा धर्स
जैन आत्मानंद सभा
जैन आत्मानंद सभा
फार्बस गुजराती सभा
फार्बस गुजराती सभा
फार्बस गुजराती सभा
रॉयल एशियाटीक जर्नल
रॉयल एशियाटीक जर्नल
रॉयल एशियाटीक जर्नल
भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपा.
जैन सत्य संशोधक
पृष्ठ
272
240
254
282
118
466
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362
134
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316
224
612
307
250
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454
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354
372
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336
364
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656
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764
404
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540
274
414
400
320
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
754
194
3101
276
69 100 136 266
244
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६८ (ई. 2012) सेट नं.-४ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम | पुस्तक नाम
कर्ता / संपादक
भाषा | प्रकाशक 127 | महाप्रभाविक नवस्मरण
साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 128 | जैन चित्र कल्पलता
साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 129 | जैन धर्मनो प्राचीन इतिहास भाग-२
हीरालाल हंसराज गुज. हीरालाल हंसराज 130 | ओपरेशन इन सर्च ओफ सं. मेन्यु. भाग-६
पी. पीटरसन
अंग्रेजी | एशियाटीक सोसायटी 131 | जैन गणित विचार
कुंवरजी आणंदजी गुज. जैन धर्म प्रसारक सभा 132 | दैवज्ञ कामधेनु (प्राचिन ज्योतिष ग्रंथ)
शील खंड
सं. | ब्रज. बी. दास बनारस 133 || | करण प्रकाशः
ब्रह्मदेव
सं./अं. | सुधाकर द्विवेदि 134 | न्यायविशारद महो. यशोविजयजी स्वहस्तलिखित कृति संग्रह | यशोदेवसूरिजी गुज. | यशोभारती प्रकाशन 135 | भौगोलिक कोश-१
डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात बर्नाक्युलर सोसायटी 136 | भौगोलिक कोश-२
डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी 137 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-१,२
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 138 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी । जैन साहित्य संशोधक पुना 139 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-१, २
जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 140 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 141 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-१,२ ।।
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 142 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 143 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-१
सोमविजयजी
गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 144 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-२
सोमविजयजी
| शाह बाबुलाल सवचंद 145 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-३
सोमविजयजी
गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 146 | भाषवति
शतानंद मारछता सं./हि | एच.बी. गुप्ता एन्ड सन्स बनारस 147 | जैन सिद्धांत कौमुदी (अर्धमागधी व्याकरण)
रत्नचंद्र स्वामी
प्रा./सं. | भैरोदान सेठीया 148 | मंत्रराज गुणकल्प महोदधि
जयदयाल शर्मा हिन्दी | जयदयाल शर्मा 149 | फक्कीका रत्नमंजूषा-१, २
कनकलाल ठाकूर सं. हरिकृष्ण निबंध 150 | अनुभूत सिद्ध विशायंत्र (छ कल्प संग्रह)
मेघविजयजी
सं./गुज | महावीर ग्रंथमाळा 151 | सारावलि
कल्याण वर्धन
सं. पांडुरंग जीवाजी 152 | ज्योतिष सिद्धांत संग्रह
विश्वेश्वरप्रसाद द्विवेदी सं. बीजभूषणदास बनारस 153| ज्ञान प्रदीपिका तथा सामुद्रिक शास्त्रम्
रामव्यास पान्डेय सं. | जैन सिद्धांत भवन नूतन संकलन | आ. चंद्रसागरसूरिजी ज्ञानभंडार - उज्जैन
हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार २ | श्री गुजराती श्वे.मू. जैन संघ-हस्तप्रत भंडार - कलकत्ता | हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
274 168
282
182
गुज.
384 376 387 174
320 286
272
142 260
232
160
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05.
अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार
क्रम
विषय
संपादक/प्रकाशक
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। पुस्तक नाम 154 उणादि सूत्रो ओफ हेमचंद्राचार्य 155 | उणादि गण विवृत्ति
कर्त्ता / संपादक पू. हेमचंद्राचार्य
पू. हेमचंद्राचार्य
156 प्राकृत प्रकाश-सटीक
157 द्रव्य परिक्षा और धातु उत्पत्ति
158 आरम्भसिध्धि सटीक
159 खंडहरो का वैभव
160 बालभारत
161 गिरनार माहात्म्य
162 | गिरनार गल्प
163 प्रश्नोत्तर सार्ध शतक
164 भारतिय संपादन शास्त्र
165 विभक्त्यर्थ निर्णय
166 व्योम वती - १
167 व्योम वती - २ 168 जैन न्यायखंड खाद्यम् 169 हरितकाव्यादि निघंटू 170 योग चिंतामणि- सटीक 171 वसंतराज शकुनम् 172 महाविद्या विडंबना 173 ज्योतिर्निबन्ध 174 मेघमाला विचार 175 मुहूर्त चिंतामणि- सटीक
176 | मानसोल्लास सटीक - १ 177 मानसोल्लास सटीक - २ 178 ज्योतिष सार प्राकृत
179 मुहूर्त संग्रह
180 हिन्दु एस्ट्रोलोजी
भामाह
ठक्कर फेरू
पू. उदयप्रभदेवसूरिजी
पू. कान्तीसागरजी
पू. अमरचंद्रसूरिजी दौलतचंद परषोत्तमदास
पू. ललितविजयजी
पू. क्षमाकल्याणविजयजी
मूलराज जैन
गिरिधर झा
शिवाचार्य
शिवाचार्य
संवत २०६९ (ई. 2013) सेट नं. ५
- -
यशोविजयजी
व्याकरण
व्याकरण
व्याकरण
धातु
ज्योतीष
शील्प
प्रकरण
साहित्य
न्याय
न्याय
न्याय
उपा.
न्याय
भाव मिश्र
आयुर्वेद
पू. हर्षकीर्तिसूरिजी
आयुर्वेद
ज्योतिष
पू. भानुचन्द्र गणि टीका
ज्योतिष
पू. भुवनसुन्दरसूरि टीका शिवराज
ज्योतिष
ज्योतिष
पू. विजयप्रभसूरी रामकृत प्रमिताक्षय टीका
ज्योतिष
भुलाकमल्ल सोमेश्वर
ज्योतिष
भुलाकमल्ल सोमेश्वर
ज्योतिष
भगवानदास जैन
ज्योतिष
अंबालाल शर्मा
ज्योतिष
पिताम्बरदास त्रीभोवनदास ज्योतिष
काव्य
तीर्थ
तीर्थ
भाषा
संस्कृत
संस्कृत
प्राकृत
संस्कृत/हिन्दी
संस्कृत
हिन्दी
संस्कृत
संस्कृत / गुजराती
संस्कृत/ गुजराती
हिन्दी
हिन्दी
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत / हिन्दी
संस्कृत/हिन्दी
संस्कृत / हिन्दी
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत/ गुजराती
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत
प्राकृत / हिन्दी
गुजराती
गुजराती
जोहन क्रिष्टे
पू. मनोहरविजयजी
जय कृष्णदास गुप्ता
भंवरलाल नाहटा
पू. जितेन्द्रविजयजी
भारतीय ज्ञानपीठ
पं. शीवदत्त
जैन पत्र
हंसकविजय फ्री लायब्रेरी
साध्वीजी विचक्षणाश्रीजी
जैन विद्याभवन, लाहोर
चौखम्बा प्रकाशन
संपूर्णानंद संस्कृत युनिवर्सिटी
संपूर्णानंद संस्कृत विद्यालय
बद्रीनाथ शुक्ल
शीव शर्मा
लक्ष्मी वेंकटेश प्रेस
खेमराज कृष्णदास सेन्ट्रल लायब्रेरी
आनंद आश्रम
मेघजी हीरजी
अनूप मिश्र
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट
भगवानदास जैन
शास्त्री जगन्नाथ परशुराम द्विवेदी पिताम्बरदास टी. महेता
पृष्ठ
304
122
208
70
310
462
512
264
144
256
75
488
226
365
190
480
352
596
250
391
114
238
166
368
88
356
168
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७१ (ई. 2015) सेट नं.-६
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं।
क्रम
| विषय
पहा
पुस्तक नाम काव्यप्रकाश भाग-१
कर्ता/संपादक पूज्य मम्मटाचार्य कृत
| भाषा संस्कृत
181
364
182
काव्यप्रकाश भाग-२
222
183
काव्यप्रकाश उल्लास-२ अने३
संस्कृत संस्कृत संस्कृत
330
संपादक / प्रकाशक पूज्य जिनविजयजी पूज्य जिनविजयजी यशोभारति जैन प्रकाशन समिति श्री रसीकलाल छोटालाल
श्री रसीकलाल छोटालाल | श्री वाचस्पति गैरोभा | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री
184 | नृत्यरत्न कोश भाग-१
156
248
पूज्य मम्मटाचार्य कृत उपा. यशोविजयजी श्री कुम्भकर्ण नृपति श्री कुम्भकर्ण नृपति श्री अशोकमलजी श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव
संस्कृत संस्कृत /हिन्दी
504
185 | नृत्यरत्न कोश भाग-२ 186 | नृत्याध्याय 187 | संगीरत्नाकर भाग-१ सटीक 188 | संगीरत्नाकर भाग-२ सटीक 189 संगीरनाकर भाग-३ सटीक
संस्कृत/अंग्रेजी
448
440
616
| श्री सुब्रमण्यम शास्त्री श्री सुब्रमण्यम शास्त्री श्री सुब्रमण्यम शास्त्री | श्री मंगेश रामकृष्ण तेलंग
190
संगीरत्नाकर भाग-४ सटीक
संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत गुजराती
| श्री सारंगदेव
632
नारद
84
191 संगीत मकरन्द
संगीत नृत्य अने नाट्य संबंधी
जैन ग्रंथो 193 | न्यायबिंदु सटीक
192
श्री हीरालाल कापडीया
मुक्ति-कमल-जैन मोहन ग्रंथमाला ।
श्री चंद्रशेखर शास्त्री
220
संस्कृत हिन्दी
194 | शीघ्रबोध भाग-१ थी ५
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
422
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
304
पूज्य धर्मोतराचार्य पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य गंभीरविजयजी
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
195 | शीघ्रबोध भाग-६ थी १० 196| शीघ्रबोध भाग-११ थी १५ 197 | शीघ्रबोध भाग-१६ थी २० 198 | शीघ्रबोध भाग-२१ थी २५
446
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
| 414
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
409
199 | अध्यात्मसार सटीक
476
एच. डी. वेलनकर
संस्कृत/गुजराती | नरोत्तमदास भानजी संस्कृत सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ संस्कृत/गुजराती | ज्ञातपुत्र भगवान महावीर ट्रस्ट
200| छन्दोनुशासन 200 | मग्गानुसारिया
444
श्री डी. एस शाह
146
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com
शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७२ (ई. 201६) सेट नं.-७
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची।
पृष्ठ 285
280
315 307
361
301
263
395
क्रम
पुस्तक नाम 202 | आचारांग सूत्र भाग-१ नियुक्ति+टीका 203 | आचारांग सूत्र भाग-२ नियुक्ति+टीका 204 | आचारांग सूत्र भाग-३ नियुक्ति+टीका 205 | आचारांग सूत्र भाग-४ नियुक्ति+टीका 206 | आचारांग सूत्र भाग-५ नियुक्ति+टीका 207 | सुयगडांग सूत्र भाग-१ सटीक 208 | सुयगडांग सूत्र भाग-२ सटीक 209 | सुयगडांग सूत्र भाग-३ सटीक 210 | सुयगडांग सूत्र भाग-४ सटीक 211 | सुयगडांग सूत्र भाग-५ सटीक 212 | रायपसेणिय सूत्र 213 | प्राचीन तीर्थमाळा भाग-१ 214 | धातु पारायणम् 215 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-१ 216 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-२ 217 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-३ 218 | तार्किक रक्षा सार संग्रह
बादार्थ संग्रह भाग-१ (स्फोट तत्त्व निरूपण, स्फोट चन्द्रिका, 219
प्रतिपादिक संज्ञावाद, वाक्यवाद, वाक्यदीपिका)
वादार्थ संग्रह भाग-२ (षट्कारक विवेचन, कारक वादार्थ, 220
| समासवादार्थ, वकारवादार्थ)
| बादार्थ संग्रह भाग-३ (वादसुधाकर, लघुविभक्त्यर्थ निर्णय, 221
__ शाब्दबोधप्रकाशिका) 222 | वादार्थ संग्रह भाग-४ (आख्यात शक्तिवाद छः टीका)
कर्ता / टिकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक | श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री मलयगिरि | गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ.श्री धर्मसूरि | सं./गुजराती | श्री यशोविजयजी ग्रंथमाळा श्री हेमचंद्राचार्य | संस्कृत आ. श्री मुनिचंद्रसूरि श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ. श्री वरदराज संस्कृत राजकीय संस्कृत पुस्तकालय विविध कर्ता
संस्कृत महादेव शर्मा
386
351 260 272
530
648
510
560
427
88
विविध कर्ता
। संस्कृत
| महादेव शर्मा
78
महादेव शर्मा
112
विविध कर्ता संस्कृत रघुनाथ शिरोमणि | संस्कृत
महादेव शर्मा
228
Page #11
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राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला
प्रधान सम्पादक – फतहसिंह, एम. ए., डी. लिट. [निदेशक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर ]
प्रन्थाङ्क २५
चित्रकूटाधिपति-कुम्भकर्ण-नृपति-प्रणीत
नृत्यरत्न कोश
द्वितीय भाग ( शोधपूर्ण भूमिका तथा परिशिष्टों सहित )
सम्पादक
- प्रा. रसिकलाल छोटालाल परीख अध्यक्ष, गुजरात विधासभातर्मत सो से उच्चामान . . . संतोषन विद्या मन्दिर,
प्रकाशक
राजस्थान राज्य संस्थापित राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान
गोषपुर (राजस्थान) ... RAJASTHAN ORIENTAL RESEARCH INSTITUTE, JODHPUR प्रथमावृत्ति १०००
. .. मूल्य ६.७५
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राजस्थान पुरातन बन्यमाला
राजस्थान राज्य द्वारा प्रकाशित
सामान्यत: अखिलभारतीय तथा विशेषतः राजस्थानदेशीय पुरातनकालीन संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, राजस्थानी आदि भाषानिबद्ध विविध वाङ्मयप्रकाशिनी विशिष्ट - प्रन्थावली
:: प्रधान सम्पादक
फतहसिंह, एम. ए., डी. लिट्. निदेशक, राजस्थान- प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर
ग्रन्थाङ्क २५.
चित्रकूटाधिपति कुम्भकर्ण - नृपति-प्रणीत
नृत्य रत्न कोश
द्वितीय भाग
ܐ
( शोधपूर्ण भूमिका तथा परिशष्टों सहित )
प्रकाशक:
- राजस्थान राज्याज्ञानुसार
निदेशक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान
. जोधपुर ( राजस्थान )
१९६६ ई०
वि० [सं० २०२४
भारतराष्ट्रिय शकाब्द १८६९
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प्रधान-सम्पादकीय वक्तव्य
प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रथम भाग का प्रकाशन सन् १९५७ में इसी प्रतिष्ठान की पुरातन ग्रन्थमाला के अंतर्गत हुआ था। उस समय से निरंतर इसके द्वितीय भाग की मांग होती रही है। हमें खेद है कि हमारे पाठकों को द्वितीय भाग के लिए ११ वर्ष तक प्रतीक्षा करनी पड़ी। वस्तुतः ग्रन्थ के द्वितीय भाग का मुद्रण भी सन् १९५७ में हो चुका था, परंतु किन्हीं कारणों से इसका प्रकाशन अब तक रुका रहा । प्रन्थ के प्रकाशन में इस अत्यधिक विलम्ब के लिए क्षमायाचना करते हुए, प्रतिष्ठान इस ग्रन्थ को सहृदय पाठकों के हाथों में देते हुए संतोष का अनुभव करता है ।
नत्य रत्नकोश मेवाड़ाधिपति महाराणा कुम्भा की सुप्रसिद्ध कृति संगीतराज का एक भाग है । संगीतराज में नुत्यरत्नकोश (जो कि ग्रन्थ का चतुर्थ कोश है) के अतिरिक्त पाठयरत्नकोश, गीतरत्नकोश, वाद्यरत्नकोश और रसरत्नकोश भी हैं। सर्वप्रथम डा०- श्री सी. कुन्हन राजा ने इस ग्रन्थ के पाठयरत्नकोश को प्रकाशित किया था। तत्पश्चात् डा. प्रेमलता शर्मा ने पाठयरत्नकोश के साथ गीतरत्नकोश को मिलाकर एक विद्वत्तापूर्ण भूमिका के साथ प्रकाशित करवाया। इनमें से पाठयरत्वकोश को पुन: इस प्रतिष्ठान द्वारों प्रकाशित करने का निश्चय सन् १९६४ में किया गया था और श्रीगोपालनारायण बहुरा द्वारा संपादित होकर वह ग्रन्थ सन १९६५ में मुद्रित भी हो गया था, परन्तु अभी तक उसकी भूमिका प्राप्त न होने से वह प्रकाशित नहीं हो सका। हर्ष हैं कि वह भी संपादक को विद्वत्तापूर्ण भूमिका के साथ अब प्रकाशित हो रहा है। ... महाराणा कुम्भा की इन अमरकृति के दो भाग वाद्यरत्नकोश तथा रसरत्नकोश प्रकाशित होने के लिए फिर भी रह जाते हैं। योग्य सम्पादक मिलने पर उन दोनों का प्रकाशन भी प्रतिष्ठान द्वारा हाथ में लिया जायगा, जिससे कि इस बहुमूल्य ग्रन्थ की समग्रता सुविज्ञ पाठकों के सामने प्राजाय और उसका अध्ययन तथा अनुशीलन योग्य व्यक्तियों द्वारा किया जा सके। - कुछ विद्वानों ने संगीतराज को संगीतरलाकर पर प्राधारित, माना है । संगीतरत्नाकर में सात अध्याय हैं जिनमें क्रमशः स्वर,, राम प्रकीर्ण, प्रबन्ध, ताल, वाद्य और नृत्य विषयों की चर्चा है. परन्तु संगीतराज और संगीतरत्नाकर के सूक्ष्म तुलनात्मक अध्ययन के विना, यह कहना असंभव है कि संगीतराज के ५
1.
T
t
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________________
[ २ ]
कोशों के मन्तर्गत उक्त सातों मध्यायों का विषय 'पूरी तरह समाविष्ट होता है या नहीं। इस महाग्रन्थ के विषय में इसी प्रकार की ओर भी सम्मतियां व्यक्त की जाती रही हैं। प्रो० एस. एन. दास गुप्ता प्रोर डा० एस. के. डे ने इस ग्रन्थ के रसरत्नकोश को अलंकार - शास्त्र का एक नगण्य कृति मात्र माना है ।" पं० वी. एन. भातखण्डे ने इस ग्रन्थ का नाम ही संगीतराजरत्नकोश माना है ।" इसी प्रकार महामहोपाध्याय कविराज श्यामलदान ने वीरविनोद में इसे संगीतराजवार्तिक नाम दिया है और कुछ अन्य विद्वानों ने महाराणा कुंभा के संगीतराज तथा संगीतमीमांसा को दो भलग-अलग ग्रन्थ माना है, यद्यपि अब सिद्ध हो चुका है कि ये दोनों नाम वस्तुतः एक ही ग्रन्थ के हैं। स्पष्ट है कि. इस प्रकार की सम्मतियां समग्र ग्रन्थ के प्रध्ययन पर आधारित न होने से भ्रामक हो जाती हैं; अतः संगीतराज के लेखक की मौलिकता का मूल्यांकन करने के लिए, हमें ग्रन्थ के सभी कोशों के प्रकाशन के लिए प्रतीक्षा करना भावश्यक है ।
अब तक संगीतराज के विषय में जो भी मत विद्वानों द्वारा व्यक्त किये गये हैं, उनमें डा० प्रेमलता शर्मा का सर्वाधिक अधिकारपूर्णं तथा महत्त्वपूर्ण कहा जा सकता है। उनका कहना है कि
"संगीतराज पाठक को कई दृष्टियों से प्राश्चर्यजनक तथा उत्कृष्ट कृति प्रतीत होता है। वह संगीत की जटिल समस्याओंों की व्याख्या की दृष्टि से परिपूर्ण है, विस्तार तथा उदाहरणों को समृद्धि की दृष्टि से उल्लेखनीय है तथा बृहत्संगीत की परिभाषाओंों का वैदिक-दर्शन की पूर्व एवं उत्तरमीमांसा के परिभाषाओं के साथ समन्वय करने में सक्षम है । अतः दोनों प्रकार की परिभाषात्रों के बीच पूर्ण आदान-प्रदान को स्थापित करके संगीतराज सचमुच एक उपवेद कहलाने का अधिकारी हो सकता है । 'उपवेद के रूप में संगीतराज केवल संगीत और नृत्य पर एक पाठ्य-पुस्तक मात्र न होकर, वस्तुतः वेद की उद्देश्यपूति के लिए लिखा गया है। इस उपवेद के यह दोहरे उद्देश्य की पूर्ति संगीतराज में पूर्णतया होने की भाशा
१. हिस्ट्री ऑफ संस्कृत लिट्र ेचर, जिल्द १, पृ० ५६६ ।
२. ए कम्पेरेटिव स्टेडी प्रॉव सम प्रॉव दी लीडिंग म्यूजिकल सिस्टम प्रॉफ दी १५, १६,
१७, १८ वीं शताब्दी, पृ० ३ ।
३. जिल्द १, पृ० ३३५ |
डॉ. गौरीशंकर हीराचंद मोझा कृत उदयपुर का इतिहास, पु० ३१, ६२५ इरिविलास शारदा कृत महाराणा कुंभा, पृष्ठ १६६ ।
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की गई थी, क्योंकि उसके लेखक का यह दावा है कि इस ग्रन्थ के प्रणयन में उसका लक्ष्य नाटयवेद की प्राचीन-परंपरा का पुनरुद्धार करना है।"
डा. प्रेमलता शर्मा का यह अभिमत भारतीय संगीत के श्राद्याचार्य भरतमुनि' के उस कथन की याद दिलाता है जिसके अनुसार नाट्यवेद का एकमात्र उद्देश्य वेद-व्यवहार को सार्ववणिक बनाना होता है। अत एव संगीतराज का अध्ययन जहां भारतीय संस्कृति की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है वहां वह एक अत्यन्त कठिन कार्य भी है। जैसा कि डा० प्रेमलता शर्मा ने कहा है, संगीतशास्त्र तथ वैदिक-दर्शन की द्विविध दृष्टि से इस ग्रन्थ की सम्यक् व्याख्या करना एक स्वतंत्र शोध का विषय हो सकता है। डा. शर्मा के शब्दों में "इसमें कोई संदेह नहीं कि भारतीय संगीतशास्त्र के ग्रन्थों में संगीतराज का प्रमुख स्थान होमा. और कई दृष्टियों से, इस विषय के अन्य सभी पूर्ववर्ती ग्रन्थ इसके सामने श्रीहीन हो जायेंगे........इसके कई विषय संभवत: रोष विद्यार्थियों के लिए जो कि संगीत और वेद दोनों से पूर्णतया परिचित हैं, निरन्तर सामग्री मिलती रहेगी।"
महाराणा कुम्मा इस दृष्टि से संगीतराज के कर्ता को मारतवर्ष के इतिहास में, न केवल एक प्रसिद्ध शासक होने के नाते, अपितु एक महान् लेखक एवं प्रतिभावान् विचारक के रूप में भी महत्त्वपूर्ण स्थान मिलना चाहिए। महासणा कुम्भा के व्यक्तित्व के विषय में 70 मौरीशंकर हीराचंद ओझा, श्रीहरविलास शारदा, डा. प्रेमलता शर्मा और इस अन्य के विद्वान सम्पादक में बहुत कुछ कहा है, जिसकों फिर से दुहराना व्यर्थ होगा, परन्तु यहां पर इतना कहना अनुचित न होगा कि महाराणा कुम्मा का व्यक्तित्व अत्यन्त असाधारण था और उसका मूल्यांकन असाधारण स्तर पर ही किए जाने की आवश्यकता है क्योंकि इस प्रकार के व्यक्तित्वको साधारण मापदंड से देखने में भूल हो जाना निश्चित है। महाराणा कुम्भा के व्यक्तित्व की सर्वोत्कृष्ट विशेषता उनकी बहुमुखी जिज्ञासा में निहित है जिसको मानने से कोई भी पालोचक इनकार नहीं कर सकता। यदि यह भी मान लिया जाय कि उसमें कोई भी अन्य नहीं लिखा, तो भी यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि कुम्मा ने नाट्यशास्त्र, स्थापत्य, काव्यशास्त्र, धर्म,
१. संगीतराम, जिल्द १, भूमिका पृ० १ । २. नाट्यशास्त्र, प्रथम अध्याय, पद्य १२ ।
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[ ४ ]
दर्शन, चित्रकला, मूर्तिकला आदि विषयों के अनेक विद्वानों को न केवल प्रश्रय ही दिया अपितु उनके सत्संग से भी लाभ उठाया। इसके अतिरिक्त ' राजस्थान भारती' के कुम्भा विशेषांक पृ० १२६ से १४३ तक में कुंभा के जिन अलोकिक गुणों का उल्लेख किया गया है, उनसे प्रतीत होता है कि उसमें योगी होने के नाते अनुपम शक्ति और सामर्थ्य निहित थी । श्रतः कीर्तिस्तम्भ के अभिलेख में उल्लिखित संस्कृत के अतिरिक्त महाराष्ट्र, तैलंग और कर्णाटकी भाषात्रों में रचना करना कुम्भा जैसे अलौकिक व्यक्ति के लिए असंभव नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसकी असाधारण जिज्ञासा को देखते हुए उसके लिए यह स्वाभाविक ही
कि वह अपने राज्याश्रित विविध भाषाभाषी पंडितों से उनकी भाषायें सीखने के लिए प्रयत्नशील होता ।
कुछ लोगों ने संदेह प्रकट किया है कि कुंभा जैसे राजकाज में व्यस्त एवं निरन्तर युद्धरत व्यक्ति के लिए ग्रन्थ रचना करने के लिए समय मिलना कैसे संभव हो सकता है, परन्तु इस विषय में यह विचारणीय है कि महाराणा कुंभा एक अत्यन्त धार्मिक व्यक्ति था और ऐसे प्रमाण मिलते हैं कि वह दूसरों की कृतियों को अपनी कृति कहने के लिए कदापि लालायित नहीं था । उसके प्राश्रय में अनेक लेखकों ने विविध विषयों में रचनायें कीं । उदाहरण के लिए, अकेले स्थापत्य पर लिखने वाले प्रसिद्ध सूत्रधार मण्डन की ही निम्नलिखित रचनायें कही जाती हैं । १. प्रासाद मण्डन, २. रूपमण्डन, ३. वास्तुमण्डन, ४. वास्तुशास्त्र, ५. वास्तुसार, ६. रूपावतार, ७. देवतामूर्तिप्रकरण, ८. राजवल्लभ । मण्डन के पुत्र गोविन्द के भी उद्धारधोरणी, कलानिधि श्रौर द्वारदीपिका- नामक रचनानों का और मण्डन के भाई नाथा की वास्तुमंजरी का उल्लेख भी मिलता है । कुम्भा द्वारा निर्मित मन्दिरों, भवनों, स्तम्भों, गढ़ों श्रादि के उत्कृष्ट निर्माणकार्य इतने अधिक हैं कि उनके आधार पर कुम्भा के अनुपम स्थापत्य प्रेम को स्वीकार करना ही पड़ता है । ऐसी स्थिति में यदि कुम्भा सचमुच लेखक बनने की महत्वाकांक्षा को अर्थबल से ही पूर्ति करना चाहता तो यह असंभव नहीं था कि वह इन लेखकों के कृतित्व को खरीद कर स्वयं इन ग्रन्थों का कर्त्ता बन जाता । इसी प्रकार अत्रिभट्ट, महेश तथा कन्हव्यास आदि अनेक कवियों द्वारा रचित ग्रन्थ भी अभी तक उन्हीं लेखकों के नाम से चले आ रहे हैं । अतः डा० प्रेमलता शर्मा के शब्दों में "ये तथ्य इस बात को प्रमाणित करते हैं कि कुम्भा
१. प्रोझा : उदयपुर का इतिहास, पू० ६२७ ।
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[५] की कोई ऐसी नीति नहीं थी कि वह उत्कृष्ट ग्रन्थों के कृतित्व को पैसे से खरीद. कर स्वयं उनका लेखक बन जाता।"
___ संगीतराम का कर्तृत्व फिर भी संगीतराज के कर्तृत्व के विषय में कुछ विचारणीय तथ्य रह जाते हैं। कुम्भा और कालसेन के बीच इस ग्रन्थ के कर्तृत्व को लेकर विद्वानों का जो मतभेद चल रहा था, उसको तो अब समाप्त ही समझना चाहिए। ग्रन्थ की जिन पाण्डुलिपियों में कुम्भा के स्थान पर कालसेन का नाम लिखा गया है उनमें भी डा० प्रेमलता शर्मा ने एक ऐसे श्लोक को उद्धृत पाया है जिसमें कुम्भकर्ण का नाम प्रच्छन्न रूप से अभिप्रेत है, परन्तु उसको उक्त पाण्डुलिपि में ज्यों का त्यों रखा गया है। उसी प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ के सम्पादक ने भी पाठ्यरत्नकोश के एक इसी प्रकार के पद्य का उल्लेख किया है। इसके अतिरिक्त अन्य शक्तिशाली तकों के आधार पर भी कालसेन के कर्तृत्व को पूर्णतया प्रसत्य ठहराया जा सकता है। फिर भी एकलिंग-माहात्म्य के कर्ता कन्ह व्यास के पक्ष में निम्नलिखित तथ्य विचारणीय हो जाते हैं१. एकलिंग-माहात्म्य में ५ ऐसे श्लोक मिलते हैं जो कि संगीतराज में भी
पाये हैं । २. एकलिंग-माहात्म्य और संगीतराज की भाषा एवं शैली में साम्य देखा ... जा सकता है।
३. एकलिंग-माहात्म्य के कर्ता कन्ह व्यास ने अपने को 'मर्थदास' कहा है।
इन तथ्यों के माधार पर यह अनुमान किया जा सकता है कि संगीतराज कुंभा की कृति न होकर कन्ह व्यास की ही कृति होगी, परन्तु इस अनुमान के मार्ग में मुख्य बाधा यह पाती है कि संगीतराज का लेखक नैतिक मोर दार्शनिक दष्टि से जिस ऊंचाई पर आसीन दिखाई पड़ता है उसको ध्यान में रखते हुए यह तो संभव हो सकता है कि वह अपने नाम और यश की चिन्ता न करे, परन्तु यह सम्भव नहीं कि पैसे के लोम में अपने कर्तुत्व को बेच दे। इसके अतिरिक्त
१. संगीतराज, जिल्द १, पृ० ५६ । २. वही, पृ० ३३ । ३. देखिये, नृत्यरत्नकोश को भूमिका, पृ०४ ।
४. देखिये, डॉ. प्रेमलताकृत संगीतराज की भूमिका, पृष्ठ २९-१५; प्रॉ० रसिकलाल ... परीस, प्रस्तुत ग्रम्प की भूमिका ।
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.
.
.
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सम्पूर्ण महाग्रन्थ में जो सुविचारित योजना, व्यापक सांस्कृतिक सूझबूझ तथा नैपुण्य युक्त कार्यदक्षता के दर्शन होते हैं । उसके आधार पर डा० प्रेमलता शमा का यह कथन ठीक प्रतीत होता है कि, "ग्रन्थ रचना की प्रवृत्ति, रचना की स्वरूपयोजना तथा उसकी रूपरेखा का निर्माण, सामग्री का चयन, संकलन-सम्बन्धी जटिल समस्याओं का समाधान, प्राचीन ग्रन्थ के मूल्यांकन को दृष्टि का निर्धारण तथा लेखक को अपनी निजी दृष्टि का प्राकलन" आदि जो भी इस ग्रन्थ में दृष्टिगोचर होते हैं उस सबं का श्रेय स्वयं कुंभा को जाना चाहिए। यह स्वाभाविक है कि इस ग्रन्थ-रचना के महाप्रयत्न में उसने कन्ह व्यास जैसे अनेक विद्वानों से न केवल सामग्री संकलनादि में, अपितु ग्रन्थ को लिपिबद्ध करने तथा भाषा, छन्द प्रादि की दृष्टि से संशोधन करने में भी सहयोग प्राप्त किया होगा। ऐसी अवस्था में यह प्रसंभव नहीं है कि किसी विद्वान् ने अपनी किसी रचना के कुछ श्लोकों को किसी भी अवस्था में सम्मिलित कर दिया हो। इसके अतिरिक्त यह भी संभव है कि एकलिंगमाहात्म्य स्वयं एक संकलन ग्रन्थ हो (जैसा कि वह सरसरी दृष्टि से देखने पर प्रतीत होता है) जिसमें कन्ह व्यास ने अपनी रचनाओं के साथ-साथ संगीतराज सहित अन्य ग्रन्थों से पद्य संकलित किये हों। इसी आधार पर कुंभाकृत रसिकप्रिया (गीतगोविन्द की टोका) के श्लोक का एकलिंगमाहात्म्य में सम्मिलित होना संभव हो सकता है, क्योंकि रसिकप्रिया में लेखक की जिस क्रान्तिकारी दृष्टि का परिचय मिलता है वह व्यास जैसे शुद्ध परम्परावादी के लिए उपयुक्त नहीं प्रतीत होता। रसिकप्रिया में गीतों के लिए जिन रागों, वालों आदिका विधान किया गया है, वे जयदेव के गीतगोविल में प्रयुक्त रागों, तालों प्रादि से भिन्न हैं और परम्परा के इस प्रतिक्रमण के लिए कुम्भा की कट्टर परम्परावादी संगीत' अब भी आलोचना करते हैं। ऐसी स्थिति में कन्ह व्यास का अपने लिए अर्थदास शब्द का प्रयोग करना केवल यही प्रकट करता है कि उसके हृदय में वैराग्य की भावना होते हुए भी वह विरक्त न होकर, राज्यसेवा में लगा रहा। संगीतराज और एकलिंगमाहात्म्य की शैली और भाषा के सादृश्य पर बहुत महत्त्व नहीं दिया जा सकता क्योंकि इस सादृश्यं का कारण यह भी हो सकता है कि कुम्भा ने भाषा तथा छन्द-रचना का ज्ञान कन्ह व्यास से प्राप्त किया हो अथवा निकट सम्पर्क के कारण उसका अनुकरण किया हो । यह भी संभावना है कि बहुत से छन्दों में अभिव्यक्त अर्थ को स्वयं कुम्भा ने अपने शब्दों में कह दिया हो और कन्ह व्यास ने उस अर्थ को स्वनिर्मित छन्दों में
१. तुलना करो, स्वामी प्रज्ञानानन्द, हिस्टोरिकल डवलपमेंट मॉब इन्डियव म्यूजिक, पृ. २३१
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[७: । वित किया हो । यह संभावना कम से कम एकलिम-माहात्म्य के उन ५० श्लोकों के लिए तो हो ही सकतो है जिसका सास-अर्थ कुम्मा द्वारा प्रदत्त तथा कन्हध्यास द्वारा कोतित हुआ है और संभवत: इसी भाव से कन्ह व्यास ने स्वयं को अर्थदास कहा है। सम्बन्धित पंक्तियां निम्नलिखित है-.... .
श्रीकुम्भदत्तसर्वार्था गीतगोविन्दसत्पथा । 'पञ्चाशिकायंदासेन कन्हव्यासेन कीतिता ॥
नत्यरत्नकोश प्रस्तु, महाराणा कुम्भा-कृत संगीतराज के एक अंश के रूप में नृत्यरलकोश के प्रस्तुत प्रकाशन की उपादेयता तो नत्यकलाममंज्ञ हो समझ सकेंगे, परन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि ग्रन्थकार ने विभिन्न प्राचीन ग्रन्थों से संकलन-सामग्री जुटाने हुए भी. ग्रन्थ की समग्रता में एक अद्भुत मौलिकता को प्रस्तुत करने का प्रयत्त किया है । भरतमुनि के अनुसार नाटयवेद के ४ अंग क्रमशः पाठ्य, गीत, अभिनय तथा रस होते थे', जिनमें से अभिनय के अन्तर्गत नृत्य को रखा जा सकता है। भरत ने हस्तपाद-समायोग को नृत्य का करण कहा है', और इसके अनेक करणों के आधार पर बने ममतका, अंमहार, कलापक, षण्डक, संघातक का उल्लेख करते हुए १०८ करणों का वर्णन किया है परन्तु नृत्यरत्नकोश के उल्लास १, परीक्षा में संभवत: इन सब का चार प्रकारों में ही वर्गीकरण कर दिया है जिनको क्रमशः आवेष्टित, उद्वेष्टित, प्रावर्तित तथा परिवर्तित नाम दिया गया है। इसी प्रकार कुम्भा की मौलिकता ग्रन्थ के विविध अंगों और उपांगों में देखी जा सकती है ।
ग्रंथकार के अनुसार (१,१,४.६) 'पाठ्यादि के उपयोगार्थ ही नृत्य का प्रणयन किया गया है, क्योंकि उसके प्रभाव में सभी कुछ निर्जीव-सा प्रतीत होता है । नृत्य के समान दृश्य अथवा श्रव्य अन्य कुछ भी नहीं है, क्योंकि चतुर्वर्ग के फल की प्राप्ति नृत्य से ही कही गई है। नत्य के द्वारा ब्रह्मादि कुछ लोगों ने धर्म, कुछ ने अर्थ, कुछ ने काम तथा कुछ ने मोक्ष की प्राप्ति की है।' परन्तु प्राश्चर्य की बात यह है कि पाठयरत्नकोश' में ब्रह्मचारी के विषय में नृत्य-निषेध को स्वीकार किया गया है। संभवतः यह निषेध नृत्यविद्या को
--
१. नाटपशास्त्र, प्रथम अध्याय, श्लोक १७ २. वही ४/३० ३. ४, २, २७ (राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, बोषपुर द्वारा प्रकाशित संस्करण) :
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[८] सीखने के लिये नहीं अपितु नृत्य के उस प्रतिशय प्रयोग के लिये है जिसको नत्यरत्नकोश में ही "यूनां शृंगारसर्वस्वम्"" कहा गया है। निःसंदेह महाराणा कुंभा ने नृत्य समेत संपूर्ण नाटयवेद को काम नामक पुरुषार्थ से प्रत्यक्षतः सम्बद्ध मान करके भी 'विषस्य विषमौषधं' के आधार पर नृत्य द्वारा काम-दहन की योग्यता प्रदान करने वाला माना है क्योंकि, जैसा कि गीतरत्नकोश में चक्रों का निरूपण करते हुए लेखक ने बतलाया है । वस्तुतः इन सभी कलानों को अन्तिम परिणति सोम-चक्र अथवा सहस्रदल-कमल के अमृत-पान में ही होती है । इस प्रकार नृत्य प्रादि कलाओं को भारतीय दर्शन से सम्बद्ध करने का सफलतम प्रयास कुंभा के संगीतराज में ही देखा जा सकता है।
इस ग्रन्थ के सम्पादन में प्रा० रसिकलाल छोटालाल परीख ने जो परिश्रम किया है वह उनकी विद्वत्तापूर्ण भूमिका से स्पष्ट है। उन्होंने ग्रंथकार के कर्तृत्व प्रादि के विषय में जो ऊहापोह प्रादि की है वह बड़े महत्त्व की है। प्रा० परीख का यह प्रतिष्ठान अन्य कई दृष्टियों से भी उपकृत है। प्रतिष्ठान की ओर से में उनको हार्दिक धन्यवाद अर्पित करता हूँ। आशा है, विद्वान् सम्पादक का यह प्रयत्न सम्बन्धित-शास्त्र में गवेषणा को प्रोत्साहन प्रदान करेगा और उससे लाभ उठाकर शोष-छात्र भारतीय साहित्य की श्रीवृद्धि करेंगे।
फतहसिंह
माघ-शुक्ला अष्टमी, सं० २०२४
जोधपुर ,
१. यूनां गारसर्वस्वं मानो मानवतामिदम् । (११)....
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नृत्यरत्नकोश - द्वितीय भाग
अनुक्रम
तुतीयोल्लासे
१४५ १६४
१७२
प्रथम परीक्षणम् द्वितीयं परीक्षणम् तृतीयं परीक्षणम् चतुर्ष परीक्षणम् प्रथमं परीक्षणम् द्वितीयं परीक्षणम् तृतीयं परीक्षणम् चतुर्थ परीक्षणम्
चतुर्थोल्लासे
......
१५४ १९४
१९९ २२०
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Contents
Introduction Nộtyaratnakosa Critical Apparatus Authorship of the Nrtyaratnakosa Kalasena's Prasastis. Name Genealogy of Kälasena Mother Chief Queen Nikumbha-vamsa The earlier time-limit of the author of Sangitamimāṁsā Identification of Some Contemporaries Identity of place-names Conclusion Kumbhakarapa Appendix 1 रत्नकोश वाद्यरत्नकोश पाठघरत्नकोश Appendix 2 Index
'15
.
38-43
38
42 43-44 45-52
श्लोक .
श्लोक
१-२३२
नृत्यरत्नकोशः प्रथमोल्लासे प्रथमं परीक्षणम् मङ्गलम् नाटयशास्त्रस्य निष्पत्तिः नाटयशास्त्रस्य पारम्पर्यम् शास्त्रसग्रहः नाटयशालानिर्माणम् सभापतिलक्षणम् सभासन्निवेशः पूर्वरङ्गः
पूर्वरङ्गाङ्गसंग्रहः प्रत्याहार: अवतरणम् আমাণা प्रारम्भः चक्रपारिणः परिघट्टना संघोटना मार्गासारितम् प्रसारितम
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[ २ ]
श्लोक
श्लोक
६
पाठवनियुक्तियुक्तमासारितम् । उत्थापना परिवतिनी नान्दी शक्कापकृष्टा पूर्वरङ्गविधिः अभिनयनत्यम् लास्यम्
५ प्ररालः ६ मुष्टिः ७ शिखर:
कपित्यः ६ खटकामुखः १० शुकतुण्ड: ११ काङ्गल १२ पाकोशः १३ प्रलपल्लवः १४ सूचीमुखः १५ सर्पशिराः
YOG
४८
४६
२
0
५२
सामान्याभिनयः चित्राभिनयः पाहार्याभिनयः भारत्यादिवृत्तयः सास्विकभावपरीक्षा चतुर्वशषिषं शिर. १ समम् २ धुतम् ३ विधुतम् ४ माघूतम् ५ प्रवधूतम् ६ कम्पितम्
७ माकम्पितम् .८ उरिक्षप्तम्
६ अधोगतम् १० लोलितम् ११ निहञ्चितम् १२ परावृतम् १३ परिवाहितम् १४ अञ्चितम् वेणीषम्मिल्लः २४ प्रसंयुतहस्ताः १ पताक: २ त्रिपताक: ३ अर्षचन्द्रः ४ कर्तरीमुखः
१७ मृगशीर्षः १८ हंसास्यः १६ हंसपक्षः २० भ्रमरः २१ मुकुलः २२ ऊर्मनाभः २३ संबंशः । २४ साम्रचूरः २५ उपधानः २६ सिंहास्यः २७ कदम्ब २८ निकुञ्चः २० संयुतहस्ताः
१ मञ्जलिः २ कपोलः ३ कर्कटः ४ स्वस्तिकम् ५ खटकावर्षमान: ६ उत्सङ्गः ७ निषषः ५दोल: ६ पुष्पपुटः १० मकरः
५३
५३
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________________
श्लोक
श्लोक
६३
FFFF
६
५७
५७
११ गमवन्तः १२ प्रयहित्यः १३ वर्धमानः १४ प्रयोगप्रका १५ मालिङ्गनः
१६ द्विशिखर . १७ कलाप:
१८ किरीटः १९ चषक: २० लेखनः ३२ नत्यहस्तकाः १ चतुरस्रो २ उद्धृत्ती ३ तलमुखो ४ स्वस्तिको ५ विप्रकीर्णको ६ अरालखटकामुखो ७ प्राविद्धवक्री ८ सूच्यास्यो
रेचितो १० अरेचितो ११ अर्धचतुरस्रो १२ उत्तानवञ्चितो १३ नितम्बो १४ पल्लवो . १५ केशबन्धी १६ लताकरो १७ करिहस्तः १८ पक्षवञ्चितो १९ पक्षप्रद्योतको २० वण्डपक्षो २१ गारपक्षी २२ ऊर्ध्वमण्डलिनी २३ पावमण्डलिनी २४ रोमण्डलिनी
५९
२५ उर: पाश्वधिमण्डलो २६ मुष्टिकस्वस्तिको २७ नलिनीपनकोशी २८ प्रलपनो २९ उल्वणी १. पलितो ३१ ललिती ३२ वरदाभयो १ प्रजनः २चन्द्रकान्तः
जयन्तः पञ्चषा वक्षः . १ समम् २ मामुग्नम् ३ निर्भुग्नम् ४ प्रकम्पितम् ५ उवाहितम् प्रय स्तनो पञ्चविषं पाश्वम् १ उन्नतम् २ नतम् ३ प्रसारितम् ४ वितितम् । ५ अपसृतम् पञ्चविधा कटी
१ विवृत्ता . २ रवाहिता
३ चित्रा ४ कम्पिता ५ रेधिता प्रयोदशचरणाः १ समः २ पञ्चितः ३ कुञ्चितः . ४ सूची
५६
५९
०९.
UN
.
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________________
श्लोक
पृ. सं. ।
श्लोक
७३
س
س
س
७४
७५
७५
५ अग्रतलसञ्चः ६ उपट्टित: ७ वाटितः ८ घटितोत्सेधः ९ घट्टितः १० महितः ११ अप्रगः १२ पाठिणगः १३ पाश्र्वगः प्रथमोल्लासे द्वितीयं परीक्षणम् ७०-८२ प्रत्यङ्गानि पञ्चषा स्कन्धो १ लोलितो २ उच्छितो ३ स्रस्तो ४ एकोच्ची
५ कर्षलग्नो 'नवविधा ग्रीवा
समा २ निवृत्ता ३ वलिता ४ रेचिता ५ कुञ्चिता ६ अञ्चिता ७ व्यत्रा
नता ६ उन्नता बाहवः . १ अस्यिः २ षोषवत्रा ३ तिर्यक ४ अपविद्यः ५ प्रसारितः ६ अञ्चितः ७ मण्डलमतिः
८ स्वस्तिक: ६ उद्वेष्टितः १० पृष्ठनुसारी ११ मावितः १२ कुञ्चित: १३ उत्सारितः १४ सरल: १५ प्रान्दोलितः १६ नम्रः वर्तना . १ पताकावर्तना २ परालवर्तना ३ शकतडाख्यवर्तना ४ अलपल्लववर्तना ५ खटकामुखपतना ६ मकरवर्तना ७ ऊर्ध्ववर्तनिका ८ माविद्धवर्तना
रेचितवर्तना १. नितम्बवर्तना ११ केशबन्धवर्तना १२ फालवर्तनिका १३ कक्षावर्तना १४ उरोवर्तनिका १५ खङ्गवतंनिका १६ पपवर्तना १७ बमवर्तना १८ पल्लववर्तना १६ अर्षमण्डलवर्तना २० पासवर्तनिका २१ ललितवर्तना २२ वलितवर्तना २३ गात्रवर्तिता २४ प्रतिवर्तनिका पृष्ठम्
-
. ७६
-
७७
७८
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________________
श्लोक
पृ. सं.
२२
जठरम् चतुर्दोदरम्. १ पूर्णम् २ सल्लम् ३ रिक्तपूर्णम् ४ क्षामम् पञ्चधोरः १ वलितः २ कम्पितः
श्लोक ५ अपंकुञ्चितम् ९२ ६ संहतम् ७ कुञ्चितम्
८२ प्रथमोल्लासे तृतीयं परीक्षणम ८२-१०२
उपाङ्गानि दृष्टिप्रकरणम् १ स्निग्धा २ हष्टा
८३ ३ दीना
८२
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५२ .
६३.
७९
७९
७
८३
७९
८३.
७8
.
T
४ उर्तितः ५ निवर्तितः बाषा जङ्घा १ क्षिप्ता २ उहाहिता ३ परिवत्तिता ४ प्रावर्तिता ५ नता ६ नि:स्ता ७ बहिर्गता ८ परावृत्ता ६ तिरश्चीना १. कम्पिता पञ्चषा मरिणबन्धः १समः २ माकुञ्चितः ३चल: ४ निकुञ्चः ५ भ्रमितः करभो सप्तविषं जानु १ समम् २ नतम् ३ विवृतम् ४ उन्नतम्
०००
५ हता ६ भयान्विता . ७ जुगुप्सिता ८ विस्मिता १कान्ता २ हास्या ३ करुणा ४ रोद्री ५ वीरा , ६ भयानका ७बीभत्सा
अद्भता १ शून्या २ मलिना ३ श्रान्ता ४ लज्जिता ५ शङ्किता ६ मुकुला ७ अर्षमुकुला ८ ग्लाना ৫ লিখ। १० कुञ्चिता ११ वितकिता १२ प्रभितप्ता १३ विषण्णा
ammmmmmmxxx
5 .
.
.
८७
U
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________________
श्लोक
श्लोक
८७
६७.
८७
१४ ललिता १५ माकेकरा १६ विशोका १७ विभ्रान्ता १८ विप्लुता १९ प्रस्ता २० त्रिविधा मदिरा सप्तषाभ्रः
VUVI
अष्टो वर्शन नि १ समम् २ साचि ३ अनुवृत्तम् ४ अवलोकितम् ५ विलोकितम् ६ उल्लोकितम् ७ मालोकितम् ८ प्रविलोकितम् षट्कपोललक्षणम्
८८
२ पतिता ३ उत्क्षिप्ता
१ समो
दह
५ कुञ्चिता ६ भृकुटी ७ चतुरा नवधा पुटो १ समो २ कुञ्चितो ३ प्रसृतो ४ स्फुरितो ५ वितितो ६ निमेषिती ७ उस्मेषितो ८ पिहितो ९ विताडितो नवताराकर्माणि १ प्राकृतम् २ प्रवेशनम् ३ बलनम् ४ भ्रमणम् ५ पातः ६ चलनम् ७ विवर्तनम् ८ समुत्तम् १ निष्क्रामः
२ फुल्लो ३ कुञ्चितो ४ पूणी ५ क्षामो ६ कम्पिती षोढा नासा १ स्वाभाविकी २ मन्दा . विकूणिता ४ मता ५ विकृष्टा ६ सोच्छवासा नवधा अनिल: १ प्रब: २ स्खलितः ३ निरस्तः ४ विस्मितः ५ उल्लासितः ६ विमुक्तः ७ प्रसृतः ८ चलो
९ स्वस्थौ | वायुः । १ समः
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________________
[ ७ ] पृ. सं... |
श्लोक
श्लोक
8
१००
६ सकवानुगा अष्टषा चिबुकम् १ व्यावीणम् २ श्वसितम् ३ वक्रम् ४ संहतम् ५ चलसंहतम्
१०० ६ स्फुरितम् ७ चलितम् ८ लोलम् षोढा वदनानि १ ब्याभुग्नम् २ भुग्नम् ३ उद्वाह
१०१ ४ विधुतम्
१०१ ५ विवृतम् ६ विनिवृत्तम् पाठिणगुल्फ कराङ्ग लिभेदाः पञ्चधा घरगाङ्ग लिभेवाः १ प्रधःक्षिप्ता २ उत्क्षिप्ता
१०२ ३ कुञ्चिता ४ प्रसारिता
१०२ ५ संलग्ना
१०२ प्रथमोल्लासे चतुर्थ परोक्षणम् १०२-१०८ माहार्याभिनयः नेपथ्यम्
१०३ प्रलङ्कारः
१०३ प्रङ्गरचना
६७
२ भ्रान्तः ३ लीनः ४ प्रान्दोलितः ५ कम्पितः ६ स्तम्भितः ७ उछ्वासः ८ निश्वासः ६ सूत्कृतम् १० सीत्कृतम् ব १ विवर्तितः २ कम्पित: ३ विसृष्टः ४ विनिगृहितः ५ संदष्टः ६ समुद्गः ७ उवृत्तः ८ प्रायतः
विकाशी १० रेचितः अष्टो बन्तकर्माणि १ कुट्टनम् २ खण्डनम् ३ छिन्नम् ४ चुविकतम् ५ ग्रहणम् ६ समम् ७ दष्टम
निष्कर्षणम् षोढा जिह्या १ ऋज्वी २ उन्नता ३ लोला ४ अषलेहिनी
१०१
७.७७७.
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88
पुस्तः
सजीवम् चतुर्धा मुख रागः .१ स्वाभाविक २ प्रसन्नः
१०५
BN
१०५
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________________
श्लोक
४ श्यामः
हस्तप्रचारा: चत्वारि करणानि
१ प्रावेष्टितम्
२ उद्वेष्टितम्
३ प्रावतितम्
४ परिवर्तितम्
मङ्गलम् स्थानकानि
षट् पुरुषस्थानकानि
१ नवम्
२ समपादम्
३ वंशाखम्
करकर्माणि
१०६
हस्तक्षेत्राणि
१०६
द्वितीयोल्लासे प्रथमं परीक्षणम् १०६-११८
१०६
१०६
४ मण्डलम्
५ प्रालीहम्
६ प्रत्यालीढम् सप्त स्त्रीस्थानकानि
१ प्र यतम्
२ प्रवहित्यम्
३ प्रश्यन्तम्
४ गतागतम्
५ पलितम्
६ मोटिसम्
७ विनिर्याततम्
त्रयोविंशतिर्देशी स्थानकानि
१ स्वस्तिकम्
२ वर्धमानम्
३ नन्द्यावर्तम्
४ सहतम्
५ समपादम्
६ एकपादम् ७ पुष्ठानसम्
पृ.सं.
१०५
१०५
१०६
१०६
१०६
१०६
११०
१११
१११
१११
१११
११२
११२
११३
[ ]
११३
११३
११३
११३
११३
११४
११४
११४
११४
११४
११४
११४
श्लोक
८ चतुरखम्
६ पाणिविद्धम्
१० पाणिपार्श्वगतम्
११ एकपाश्वगतम्
१२ एकानुनतम्
१३ परावसम्
१४ समसूचि
१५ विषमसूचि
१६ खण्डसूचि
१७ ब्राह्मम्
१८ वैष्णवम्
१९
२० गारुडम्
२१ कूर्मासनम्
२२ नागबन्धम्
: ३ वृषभासनम्
नथोपविष्टस्यानानि
१ स्वस्थम्
२ मदालसम्
३ क्रान्तम्
४ विष्कभितम्
५ उत्कटम्
६ खस्तालसम्
७ जानुगतम्
८ मुक्तजानु
६ विमुक्तकम्
षट् सुप्तस्थानकानि
पु. सं.
११४
११५
११५
११५
११५
११५
११५
११५
११५
११५
११५
११६
११६
११६
११६
११६
११६
११६
११७
११७
११७
११७
११७
११७
११७
१ समम्
२ प्रांकुचितम्
३ प्रसारितम्
४ विवर्तितम्
५ छाहितम्
६ नम् ११५ द्वितीयोल्ला से द्वितीयं परीक्षणम् ११६-११५ ११६
चारी
११८
११६
११८
११८.
ܐܐ
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________________
. इलोक
.
द्वात्रिंशन मार्गच यः षोडश भोभ्यश्चायः १ समपावा २ स्थितावा
शकटास्या ४ विध्यवा र प्रध्याधिका ६ चापतिः ७ एलकाकोडिता
समोत्सरितमत्तल्लो ६ मतल्ली . १. उत्खण्डिता ११ डिता १२ स्पन्दिता १७ अपस्पन्दिता
-
-
-
१२२
पृ. सं. । श्लोक
पृ. सं. १२. द्वितीयोल्लासे तृतीयं परीक्षणम् १२६-१३८ १२० १२. देशीचार्य:
पञ्चविशीमचार्यः (देश्य:)
१ रषचका १२१
२ परावृत्ततला
३ नपुरविद्धिका १२१
४ तिपंड मुखा १२१
५ मराला १२१
६ करिहस्सा ... १२१ ७ कुलोरिका १२२
१२७ १२२ ६ कातरा
१२७ १२२
१० पाणिरेचिता
११ करताडिता १२२ १२ करवेणी १२२ १३ तलोहता १२२ १४ हरिपत्रासिका १२८
१५ पर्षमण्डलिका १२८ १६ तिर्यक्कुञ्चिता १२८ १७ मदालसा
१२८ १२३ १८ सञ्चारिता
१२६ १२३ १६ उत्कुञ्चिता
१२६ २० स्तम्भकोडनिका १२९ १२४ २१ लतमा १२९ १२४ २२ स्फुरिता
१२६ १२४ २३ अपकुञ्चिता १२६ २४ संघट्टिता
१२९ १२४ २५ खुत्ता १२४ २६ स्वस्तिकः
१२९ २७ तलदर्शिनी
१२९ १२५ २८ पुराटी
२६ मर्षपुराटी ३० सारिका
१३० १२५ ३१ स्फुरिका
१५ जनिता १६ अरुक्क्त्ता माकाशिक्यश्चार्य: १ प्रतिक्रान्ता २ अपक्रान्ता ३ पाश्वंक्रान्ता ४ मृगप्नुता ५ ऊध्वजाग: ६मलाता ७ सूचि ८ नूपुरपालिका ९ दोलापावा १० दण्डपावा ११ विच भ्रान्ता . १२ भ्रमरी १५ भुजङ्गात्रासिता १४ माक्षिप्ता १५ भाविता १६. दत्ता
१२३
१२४
१२६
१२४
११०
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________________
श्लोक
श्लोक
१३१
१३७
[ १. ]
प.सं. । ३२ निकुट्टकः
१३०
८ पाश्वंद्वयचारी १३५ ३३ लताक्षेपः
१३० ६ उमरुकुट्टिता ३४ अड्डस्खलितिका १३०
१० इमायकुट्टिता १३६ ३५ समस्खलितिका
११ पुरःक्षेपनिकुट्टिता एकोनविंशतिराकाशचार्यः (देश्यः)
१२ पश्चारक्षेपनिकुट्टिता . १ विद्यमान्ता . १३० १३ पावक्षेपकुट्टिता २ पुरःक्षेपा
१३० १४ चतुष्कोणकुट्टिता ३ विक्षेपा
१३१ १५ मध्यस्थापनकुट्टिता ४ हरिणप्लुता
१६ तिरश्चीनकुट्टा ५ अपक्षेपा
प्रपंप्रसारिकावा ६ उमरी
१७ पृष्ठलुठिता ७ दण्डपावा
१३१ . १८ पुरस्ताल्लुठिता ८ प्रध्रिताडिता १३१ १९ अनुलोमविलोमा ९ जद्धालङ्घनिका
२० प्रतिलोमविलोमिका
१३७ १० प्रलाता
२१ समपावनिकुट्टिता ११ मावर्ता
२२ चऋकुट्टनिका १२ वेष्टनम्
१३२ २३ मध्यलुठिता १३ उद्वष्टनम्
१३२ २४ वक्त्रकुट्टनिका १४ उत्क्षेपः
१३२
२५ मध्यचका १५ पृष्ठोत्क्षेपः
१३२ द्वितीयोल्लासे चतुर्थ परीक्षणम् १३८-१४४ १६ सूची
मण्डललक्षणम् १७ विद्धा
वश भौममण्डलानि १८ प्रावृतम् .
१ भ्रमरम् १६ उल्लालः
२ प्रास्कन्दितम् कलानिधेख तं रेचकवेशीचार्यादि- १३३ ३ प्रावर्तम्
१३६ विषयकं प्रकरणम् .
४ शकटास्यम् ५ प्रड्डितम्
१५६ (पञ्चविंशतिः) वेशीचार्यः १३४
६ समोत्सरितम्
१४० १ पुरःपश्चास्सरा १३५
७ मध्यर्षम्
१४. २ पश्चात्पुरःसरा
८ एलकाकोडितम् ३ त्रिकोणचारी
९ पृष्ठकुट्टम् ४ एकपादकुट्टिता
१० चाषगतम् ५ प.वद्वयकुट्टिता
बशाकाशिकमण्डलानि १४. ६ पादस्थितिनिकुट्टिता
१ प्रतिक्रान्तम् ७ क्रमपादनिकुट्टिता १३५
२ बण्डपावम्
रेचफलम
१४.
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्लोक
३कान्तम्
४ ललितसञ्चरम्
५ सूचीबद्धम्
६ धामषिद्धम्
७ विम्ि
तिम्
६ पलातम्
१० ललितम्
मङ्गलम् शुद्धकरणानि
प्रष्टोसरशतं करणानि
१४१
१४१
१४२
१४२
१४२
१४३
१४३
१४३
तृतीयोल्लासे प्रथमं परीक्षणम् १४५ - १६४
१४५
१४५
१ तलपुष्पपुटम्
२ लीनम् ३ वर्तितम्
४ वलितोरू
५ मण्डलस्वस्तिकम्
६ वक्षः स्वस्तिकम्
७ स्वस्तिकम्
८ ग्रक्षिप्त रेचितम्
६ पृष्ठस्वस्तिकम्
१० अर्धस्वस्तिकम्
११ दिवस्वस्तिकम्
१२ उन्मत्तम्
१३ समनखम्
१४ प्रषिद्धम्
१५ श्रञ्चितम्
१६ स्वस्तिकरेचितम्
१७ निकुट्टम्
१८ निकुट्टम्
१९ कटीछिन्नम्
२० कटोसमन्
प.सं.
२१ विक्षिप्ताक्षिप्तिकम्
२२ भुजङ्गश्रासितम्
२३ मातम
१४७
१४७
१४७
१४७
१४७
=
१४८
१४८
૪૬
१४८
१४९
१४६
१४६
१४६
૪૨
१५०
१५०
१५०
१५०
१५०
। ११ ]
१५१
eve
१४१
श्लोक
२४ निश्चितम्
२५ घूर्णितम्
२६ अर्धरेचितम्
२७ ऊर्ध्वजान
२८ प्रमतल्लि
२६ रेचकनिकुट्टितम्
३० मतल्लि
३१ ललितम्
३२ वलितम्
३३ वण्डपक्षम्
३४ नूपुरम्
३५ पादपविद्धम्
३६ भुजङ्गत्रस्तरेचितम्
३७ भुजङ्गाञ्चितम्
३८ छिन्नम्
३९ भ्रमरम्
४० दण्डरेचितम्
४१ चतुरम्
४२ कटान्तन्
४३ व्यंसितम्
४४ कम्तिम्
४५ वैशाखरेचितम्
४६ पार्श्वनिकुट्टितम्
४७ चकमण्डलम्
४८ वृश्चिकम्
४१ वृश्चिकम्
५० वृश्चिककुट्टितम्
५१ प्रक्षिप्तम्
५२ प्रलम्
५३ वृश्चिक रेचितम्
५४ उरोमण्डलम्
५५ प्रावर्त
५६ तलविलासितम्
५७ ललाटतिलकम
५८ बोलावाव
.पू. सं.
१५१
१५२
१५२
१५२
१५२
१५२
१५२
१५३
१५३
१५३
१५३
१५३
१५३
१५३
१५४
१५४
१५४
१५४
१५४
१५४
१५५
१५५
१५५
१५५
१५५
१५५
१५५
१५६
१५६
१५६
१५६
१५६
१५६
१५६
१५६
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्लोक
५६ कुञ्चितम्
६० विवृत्तम्
६१ विनिवृत्तम् ६२ पार्श्वकान्तम्
६३ निशुम्भितम्
६४ विद्य भ्रान्तम्
६५ प्रतिक्रान्तम् ६६ विक्षिप्तम्
६७ विततम्
६० गजोडनकम्
६९ गण्डसूची
७० गरुडप्लुतम ७१ संस्फोटितम्
७२ पार्श्वजानुः
७३ गृध्रावली कम्
७४
विद्धम्
७५ सूचि
७६ अर्धसूची
७७ हरिप्लुतम्
७८ परिवृतम्
७६ दण्डपादम्
८० मयूरललितम्
८१ प्रेङ्खोलितम्
८२ सन्ततम् ८३ सर्पितम्
८४ करिहस्तम्
८५ प्रसर्पितम्
८६ प्रपक्रान्तम्
८७ नितम्बम्
८८ स्खलितम्
सिंहविक्रीडितम्
६०. सिहाकषितम्
१ स्थि
२ निवेश
६३ एलकाकोडितम्
पू. सं.
१५७
१५७
१५७
१५७
१५७
१५७
१५७
१५०
१५८
१५६
१५०
१५८
१५८
१५८.
१५६
१५६
१५६
१५६
१५६
१५६
१५६
१६०
१६०
१६०
१६०
१६०
१६०
१६०
१६१
१६१
१६१
१६१
१६१
१६१
१६२
[ १२ ]
६४ उद्वृत्तम्
१५ जनितम्
६६ तल संघट्टितम्
६७ विष्णुक्रान्तम्
६८ अपसृतम्
११ लोलितम्
१०० मदवलितम्
१०१ वृषभक्रीडितम्
१०२ संभ्रान्तम्
१०३ उद्घट्टितम
१०४ विष्कुम्भम्
१०५ शकटास्यम्
१०६ म्
१०७ नागासम्
१०८ गङ्गावतरणम्
तृतीयल्ला से द्वितीयं परीक्षणम्
मङ्गलम्
त्रिशत् वेशीकरणानि
१ मञ्चितम्
२ एकचरणाञ्चितम्
३ भैरवाञ्चितम्
४ दण्डप्रणामाञ्चितम्
५ कर्तर्यञ्चतम्
६ तियंगचितम्
७ समपादाञ्चितम्
८ भ्रान्तपादाञ्चितम्
६ अलग
१० कूर्मालयम
११ ऊलगम्
१२ अन्तरालगम्
१३ लोहडी
१४ एकपादलोहडी
१५ कर्तरी लोहडी
१६ वर्षसरणम्
१७. जलशयनम्
पू. सं.
१६२
१६२
१६२
१६२
१६२
१६२
१६२
१६३
१६३
२६३
१६३
१६३
१६३
१६४
१६४
१६५
१६५
१६५
१७५
१६६
१९६६
१६६
१६६
१६६
१६६
१६६
१६६
१६६
.१६७
१६७
१६७
. १६७
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६७
१७४
१६७
१७४ १७४
U
IS
१७
१७५
१६८
१७५ १७६
१६६
पृ. सं. । श्लोक श्लोक १८ नागबन्धम्
मङ्गहाराः १६ कपालचूर्णितम्
१६७ चतुरनमानेनाङ्गहारः २० नंतपृष्ठम्
१६७ १ स्थिरहस्तः २१ मत्स्यकरणम्
२ पर्यस्तक: २२ करस्पर्शनम् ।
३ भ्रमरः २३ एणप्लुतम्
४ अपसपितः २४ तिर्थक्करणम्
१६८ ५ प्राक्षिप्तिक: २५ तिर्यक्स्वस्तिकम्
६ परिच्छिन्नः २६ स्कापभ्रान्तम्
७ वंशाखरेचितः २७ सूच्यन्तम्
८ पाश्वंस्वस्तिक: २८ बाह्यभ्रमरी
१६८ ६ सूचीविद्धः . . २६ मन्तभ्रंमरी
१६८ १. अपराजितः ३. छत्रभ्रमरी
११ मविलसितः . ३१ तिरिषभ्रमरी
१६८ १२ मत्ताकोड: ३२ प्रलगभ्रमरी
१३ मालीढः ३३ चक्रभ्रमरी
१४ माच्छुरितः ३४ उचितभ्रमरी
१५ पाचच्छेदः ३५ शिरोभ्रमरी
१६९ १६ विद्यभ्रान्तः ३६ विग्भ्रमरी
ज्यस्त्रमानेनाङ्गहारा: मानन्दसञ्जीवनाद् उद्धृतं भ्रमरी
१ विष्कम्भापसृतः विषयकं प्रकरणम्
२ मत्तस्खलितः १ हृदयंगमाः
३ गतिमण्डल २ शीर्षपल्लवाद्वयम् -
४'अपषित: ३ कुञ्चिता
१७० ५ विष्कुम्भः ४ भूमिपल्लवा
१७० ६ उद्घटितः ५ चक्रवतिनी
१७० ७ प्राक्षिप्तरेचितः ६ लास्यमण्डलिका
८ रेचितः ७ तिर्यग्मण्डलिका
९ अर्षनिकुट्टक: ८ सिंहासना
१० वृश्चिकापसृतः ६ परिमण्डली
११ प्रलातका १० न्युम्जकृता
१२ परावृत्तः ११ तलवशिका
१३ परिवृत्तरेचितः १२ मेलापनी
१४ वत्तः १३ मयः
१७२ १५ संभ्रान्तः तृतीयोल्लासे तृतीयं परीक्षण
१६ स्वस्तिकरेचित:
१७६
१७७
.१७७ १७७
१७८
१७९
१७६
१७९
१७६
१८० १८०
१८०
१८.
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ पृ.सं. .
१४ ] ।
श्लोक
श्लोक
१८१
१२
हंसकलासत्रयम्
१९२ उपाध्यायलक्षणम्
१९२ प्राचार्यः ।
१६३ मट: वैतालिका
१९३ चतुर्षोल्लासे द्वितीयं परीक्षणम् १९४-१९८ मङ्गलम् मष न्यायाः
१९४ १ भारतः
१९४ २ सास्वतः
१९४ ३ वागम्य ४शिक:
१९५ पेरणीलक्षणम्
१९५ १ परिव २ चापश्पः
१६५ ३ शिरिपिटी
१९. - ४ प्रलग पाट:
१९६ ५ शिरिहिरम्
१८५
१७ गोविन्दप्रियः
१८० १५ माघप्रियः । मङ्गहारविषिः सतीयोल्लासे चतुर्थ परीक्षणम् १८१.१८४ रेचकलक्षणम् १ कररेचकः रणरेचकः
१८२ ३ कटिरेचकः
१०२ ४ कण्ठरेचकः
१८२ चतुर्षोल्लासे प्रथम परीक्षणम् १८४.१६४ भारती
प्ररोचना २ प्रामुखम् ३ वीषीप्रहसने सास्वती १उस्थापकः २ परिवर्तक: ३ संलापक: ४ संघास्यक: कैशिकी । १ नमस्फोटः . .. १८६ २ नम॑गर्भः ३ नमस्पुजः
१८६ ४ नर्म
१८६ मारभटी १ वस्तूस्थापनम्
१८७ ३ संफेटक:
१८७ ३ संक्षिप्तः
१०७ ४ प्रवपात:
१८७ द्वाविंशतिकलासकरणानि विस्कलासस्य षड्भवाः १८८ खङ्गकलासचतुष्टयम्
१८९ मगकलासः
१८६ बककलासचतुष्टयम् मंडूककलासचतुष्टयम्
१८५
१८६
७ इन्धक: चित्रका
१९७ पञ्चका
२९७ विषमम्
१९७ गीतम् कधिचारक: भाषाधयः पेरणीपद्धतिः
१९८ कोह्लाटिक:
१९८ चतुर्थोल्लासे तृतीयं परीक्षणम् १९९-२१६
द्वादशमार्गलास्याङ्गानि ।
१ स्थितपाठ्यम् २ हिमूहम्
२०. त्रिमूहम्
२०१ || ४ पुष्पमणिका
२०१
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्लोक
५ प्रच्छेदकः
६ शेषपदम्
७ श्रासीनम्
संन्धधम्
उक्तप्रत्युक्तम् १० उत्तमोत्तमकम्
११ वैभाविकम्
१२ चित्रपदम् षड्विंशत् - देशीलास्याङ्गानि
१ सौष्ठवम्
२ स्थापना
३ तलः
४ लढि :
५ चाल
६ चलाचलि:
७ सुकलासः
८ थरहरम्
६ किन्तु
१० उल्लासः
११ उरोङ्गणम्
१२ ढिल्लायो
१३ त्रिकलित:
१४ भाव:
१५ देशीकारम्
१६ निजापणम्
१७ अङ्गहारः
१८ मनः
१६ ठेवा
२० लयः
२१ मुखरसः
२२ यसकः
२३ वितरम् २४ शङ्क २५ नोकी
-२६ नमसिका
पू. सं.
२०१
२०१
२०२
२०२
२०३
२०३
२०३
२०३
२०४
२०४
२०४
२०४
२०५
२०५
२०५
२०५
२०५
२०५
२०६
२०६
२०६
२०६
२०६
२०६
२०६
२०६
२०७
२०७
२०७
२०७
२०७
२०७
२०७
[१५]
=
श्लोक
२७ विवर्तनम्
२८ मसृणता
२६ विहसी
३० गीतवाद्यता
३१ विलम्बितम्
३२ अभिनयः
३३ श्रनङ्गानङ्गम्
३४ कोमलिका
३५ तूकम्
३६ उयार:
नातिप्रचारनत्यम्
देशी नृत्यभेदाः
१ शिवप्रियम्
२ रासकनृत्यम्
३ नाटघरा सकम्
४ दण्ड रासकम्
५ चच्च नृत्यम्
६ बोकनृत्यम् देशीनृत्यपरिभाषा नृत्याङ्गानि देशी गीतनृत्यविधिः
१. प्राप्तिनृत्यम्
२ मण्डकन त्यम्
३ रूपकनृत्यम्
४ प्रडुतालः
५ यतिनृत्यम्
६ प्रतितालनृत्यम्
नवरसा:
१ शृङ्गाररसः
२ हास्यः
३ कदरणः
४ रौद्रः
५ वीरः
६ भयानकः
७ बीभत्स:
पं. सं.
२०७
२०७
२०६
२०८.
२०६
२०८
२०५
२०६
२.०८
२०८
२०६
२११
२११
२११
२१२
२.१२
२१२
२१२
२१३
२१३
२१३
२१३
२१४
२१४
२१४
२१५
२१६
२१७
२१७
२१७
२१७
२१८
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक
पृ.सं.
श्लोक
अद्भुतः
२१८ ६.शान्त:
२१८ चतु पोल्लासे चतुर्क परीक्षणम् २२०-२३२ पात्रलक्षणम
२२० रेखा पात्रगुणाः
२२१ पात्रदोषाः पात्रमण्डनानि संप्रदायलक्षणम् संप्रदायगुणदोषो
शुद्धपतिः
२२५ गोण्डलीविधिः
२२६ धमधिषिः
२२८ परिशिष्ट १,२,३ (१) श्लोकानुक्रमणिका १-३२ (२) पारिभाषिक शन्दानुक्रमः ३३-७२ (३) अन्धकारनिविष्टप्रधानां प्रन्थकुत्रा चाकाराधनुक्रमणी ७३-७४ Bibliography
७५-७६ Errata शुद्धिपत्रक
७८
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
भागद्यस्य विषयानुक्रमः
पृष्ठ
प्रथमोल्लासे प्रथमं परीक्षण १७० मङ्गलम् नाटपशास्त्रस्य भितिः माटपशास्त्रस्य परम्पर्यम् शास्त्रसंग्रहः नाटयशाला निर्माणम् सभापतिलक्षणम् सभासनिवेशः । पूर्वरङ्गः पूर्वरङ्गाङ्गसंग्रहः प्रत्याहारः अवतरणम् पाश्रावणा प्रारम्भः बक्त्रपाणिः परिघट्टना संघोटना मार्गासारितम् प्रासारितम् पाठवृद्धियुक्तियुक्तमासारितम् उत्थापना परिवतिन
भारत्यादिवृत्तयः सास्विकभावपरीक्षा शिरसो भेवा: वेणीषम्मिल्लः प्रय हस्तप्रकरणम् असंयतहमला: संयुतहस्ता: .. नत्यहस्ताः अथ वक्षः अथ स्तनो प्रय पाश्चम अप कटी अथ चरणः प्रथमोल्लासे द्वितीयं परीक्षणम् ७०-८२ प्रत्यंगानि कन्धों
ग्रीवा
वर्तना पृष्ठम् अठरम
शुरुकापकृष्टा पूर्वरंगविधिः
मणिवायः करभो
अभिनयनृत्यम्
जानु
लास्यम् ताण्डवम् सामान्याभिनय: चित्राभिनयः पाहार्याभिनयः
प्रथमोल्लासे तृतीयं परीक्षणम् ८२.१०२ उपांगानि प्रय दृष्टिप्रकरणम्
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
ताराकर्माणि
द्वितीयोल्लासे द्वितीयं परीक्षणम्
१४६-१२५
कपोलो
१० १२०
अनिलः वायुः
माचार्यः भोम्यश्चार्य: प्राकाशिषयश्चार्य: द्वितीयोल्लासे तृतीयं परीक्षण
१२३
पन्तकौणि
चिबुकम्
बदमम् पाणिगुल्फकरांगुलिमेवाः धरणांगुलिभेवाः प्रथमोल्लासे चतुर्थ परीक्षणम्
१०१
१०२-१०८
माहार्याभिनयः
मैपथ्यम्
प्रलंकार: मरचना
10॥
.
.
मङ्गलम्
१२६ वेशीवार्यः
१२६ वेश्यो भोमचार्यः देश्य प्राकाशचार्य: कलानिधेरुद्धतं रेचकदेशीचार्यादि
विषयकं प्रकरणम् १३३-१३८ रेचकलक्षणम् देशीचार्य: द्वितीयोल्लासे चतुर्थ परीक्षणम्
१३८-१४४ मण्डललनवम् भोममण्डलानि प्राकाशिकमण्डलानि तृतीयोल्लासे प्रथमं परीक्षणम्
१४५-१६४ मङ्गलम्
१४१ सुरकरणानि तृतीयोल्लासे द्वितीयं परीक्षणम्
- १६४.१७२ मनवम्
१६४ वेशीकरणानि मानन्दसजीवनाद् उखतं भ्रमरीविषयकं
प्रकरणम् १६६-१७२ | तृतीयोल्लासे तृतीयं परीक्षणम्
१७२-१८१
बस्त्रकर्म मनोवम् मुखरागः .. हस्तमचाराः करणानि करफर्माणि हस्तक्षेत्राणि द्वितीयोल्लासे प्रथमं परीक्षणम्
१०५
१०६
स्थानकानि पुरुषस्थानकानि स्त्रीस्थानहानि देशीस्थानकानि उपविष्टस्थामानि सुप्तस्थानकानि
११२
११६
११०
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
_
पृष्ठ
मङ्गहारा:
चतुरस्रमानेनाङ्गहारा: अयस्त्रमानेनाङ्गहारा: अङ्गहारविधिः तृतीयोल्लासे चतुर्थ परीक्षणम्
१७२ १७३ १७६ १८१
प्रय न्यायाः पेरणीलक्षणम पेरणीपद्धतिः
१९७ कोह्लाटिक: चतुर्थेल्लासे तृतीयं परीक्षणम् ।
१९६-२१६
१८१-१८४
१८१
१४
१८४
मङ्गलम् रेचकलक्षणम्
१०२ चतुर्थोल्लासे प्रथमं परीक्षणम्
१८४-१९४ मङ्गलम् भारती सास्वती
१८५ कैशिकी प्रारभटी
१८७ कलासाः
१८७ विध कलासा: खङ्गकलासा:
१८१ भगकलासा
१८६ बककलासा: मण्डूककलासाः हंसकलासा:
१९२ उपाध्यायलक्षणम् प्राचार्य:
१९३
प्रय [मार्ग] लास्याङ्गानि १६९ देशीलास्याङ्गानि नानागतिप्रचारनृत्यम्
२०६ देशीनृत्यभेदाः
२११ देशोनत्यपरिभाषा
२१२ नृत्याङ्गानि
२१३ बेशीगोतनत्यविधिः
२१३ नवरसा: (रसनत्यं च) २१४ चतुर्थोल्लासे चतुर्थं परीक्षणम्
२२०-२३२ থাগজ
२२०
१८८
२२१
१६२
पात्रगुणाः पात्रदोषाः गुणदोषपरीक्षा पात्रमण्डनानि संप्रदायलक्षणम् संप्रदायगुणदोषो शुद्धपतिः गोण्डलोधिषिः अमविधि:
२२१ २२२ २२२ २२३ २२४ २२५
नर्तकः
१९३ तालिक:
१९३ चतुर्थोल्लासे द्वितीयं परीक्षणम्
१९४-१९८
२२५ २२६
२२८
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
INTRODUCTION
Nṛtyaratnakosa :
Nṛtyaratnakosa, published in two parts in the Rajasthāna Purātana Granthamālā, is a part of a bigger work called Samgitarāja, which is described in the colophons as a Samgita-mimāṁsā consisting of 16,000 verses (S'odaşasahasri). The Saṁgitaraja contains the following Ratnakosas: (1) Pathyaratnakos'a, (2) Gitaratnakosa, (3) Vädyaratnakosa, (4) Nṛtyaratnakos'a and (5) Rasaratnakosa. Of these, Pathyaratnakoşa edited by Dr. C. Kunhan Raja was published in Bikaner in Ganga Oriental Series, as No. 4, in 1946.
I
Critical Apparatus:
The present edition of Nṛtyaratnakos'a is based on the following three manuscripts :
M8. A.
Place of deposit - Anup Sanskrit Library, Bikaner.
Material -
Paper.
Folios 144.
Size - 7-3/4"x3-1/2"; A page contains about 8 lines and a line about 44 letters.
-
Extent - Four Ullasas. Each Ullasa contains four Parikṣaṇas. Script Devanagari
Date not mentioned. Appears to be about 300 years old.
-
No. 3518.
Ms. B..
Place of deposit - Oriental Institute, Baroda, No. 9931
Material Paper
Folios 144
Size 10-1/2" X 4-1/2"; A page contains about 8 lines and a line
about 43 letters.
Extent Four Ulläsas, each with four Parikṣaņas.
Script - Devanagari.
Date Not mentioned. Appears to be about 300 years old.
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
INTRODUCTION
M. C.
Place of deposit - Anūp Library, Bikaner, No. 3519 Material - Paper Folios - 110. Folios 52 and 53 newly substituted; hand-writing differs in folios 66, 67, 84, 105, 110, Size - 7-3/4x3-1/4": A page contains about 9 lines and a line about 36 letters. Extent - Four Ullāsas, each with four Parikșaņas. Script - Devanāgari Date - Not mentioned. Appears to be about 300 years old.
A comparative study of these three Mss. shows that Mss. A & B mostly agree in their readings, whereas Ms. C has importan variants. These variants of C, bave provided correct readings in several places where the readings of A & B are unsatisfactory. We have tried to emend many other incorrect readings with the help of the readings from the chapters of the Nāțyasāstra of Bharata on the same subject, and Sargitaratnākara of Sārngadeva as well as from the quotations from several works on Nstyas'āstra given in the Bharatakosa prepared by M. Ramakrishna kavi. However a number of readings still remains unsatisfactory.
We have, in the footnotes, noted the various readings of the Mss. and given the quotations from other works with whose help we have emended the text. This will give to the critical scholar material to make his choice of the readings. The Sanskrit translation of Prakrit verses (Ullāsa 4, Pariksan. 3) has also been given in the footnotes.
At the end of the second part of the text, that is this voloume, we have appended alphabetical indexes of verses, of important technical words and of the works and authors referred to in the text.
II
Authorship of the Nityaratanakosd:
Who is the author of the Samgitarāja-Samgitamimārsā of sixteen thousand verses? Two kings - Kumbhakarņā and Kālasena - claim the title. The anomaly arises from the fact that some Mss. of the work in their colophons as well as the body of the text mention Kumbhakarna as the author, while some others, Kālasena. The statistical evidence of the Mss. of the Pāțhyaratnakosa is more confusing than enlightening. Dr. Kunhan Raja, on the strength of this type of evidence comes to the rather amusing conclusion that because the majority of the Mss. examined by him mention Kālasena as the author, the work
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
NRTYARATNAKOS'A
[ 3
should be given as by Kalasena and that - a very careful examination of the position leaves no doubt that the author is definitely Mahārāṇā Kumbha of Mewar.1
Let us now examine the evidence supplied by the three Mss. of Nṛtyaratnakosa.
Ms. A. mentions Sri Kumbhakarna as the author of the work in each of the Parikṣaṇas as well as the Ullasas. In the body of the text also, Kumbhakarna is referred to.
Ms. B. also has identical references with one exception. At the end of the first Parikṣana of the first Ullasa, there is vacant space for about two lines. This is a bit surprising, because at the end of the other Parikṣaṇas and Ullasas, the space is completely written. A minute observation of the vacant space appears to suggest that some writing has been erased, probably for writing something else. May this not suggest that the person who wanted to change the name of the author from the colophons of the Ms. commenced his work by blotting out the old writing but for some reason or other could not finish his job?
Ms C. The position regarding the names of the author in the Ms. C. is as follows:
Ullasa I
در
ور
29
III
21
".
29
IV
19
Parikşana
I
2
3
4
I
2
3 4
I
2
3
4
I
2
Name of the author Kalasena
S'ri Kumbhakarna
21
Kālasena
S'ri Kumbhakarna
16
Kālasena
S'ri Kumbhakarna
Kālasena
S'ri Kumbhakarna
..
(1)
(1)
(2)
(2)
(3)
(4)
(5)
(3)
(6)
(7)
(8)
(4)
(9)
(10)
1. Sangitaraja Vol. I - Pathyaratnakos'a, Preface pp. XXII-XXIII. "Although the author is Kumbhakarna, still I must respect the manuscripts which formed the basis of this edition and I must accurately present the manuscript material. So I have given the work as by Kalasena and I have given the name of Kumbha. karna only in the Title page and that within brackets. "For a detailed discussion see pp.IXL-L.
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INTRODUCTION
17
Ullasa
Parīkşana Name of the author IV
3
Sri Kumbhkarņa (11)
Kālasena (5) Thus Kumbhakarņa is mentioned 11 times, and Kālasena 5 times. In the body of the text, however, the Ms. C refers to Kumbhakarna as follows: Ullasa Parīkşana Sloka Mention of the Name
Kumbhaņrpopadhiḥ . 96 Sri Kumbhakarņa-Sangita
Gitagovinda, etc.
102 Kumbhabhūbhujā IV.
159 Kumbhagvāmi Thus as far as the three Mss. of Nộtyaratnakosa are concerned, the majority of the references gives to Kumbhakarņa the title of authorship.
We have also consulted the other Ratrakos/as in the Samgitarāja Ms. belonging to the library of the Oriental Institute of the M.: University, Baroda. They uniformly mention in their colophons Kumbhakarna as the author."
The crucial evidence, however, is the mention of Kumbha in Ms. C. in the body of the text of Pariksaņa i of Ullāsa I (p. 3. v, 17. p. 9 v. 96.) whose colophon gives Kālasena as the name of the author. Here, one may say, the scribe has been caught napping.
The colophon of the second Pariksaņa of the fourth Ullasa of Pāțhyaratnakosa mentions Kālasena as the author of the work. The verse preceding the colophon, however, is as follows:
न्यस्य लक्षणसंघातं यस्मिन् मेने कृतार्थताम् ।
aya: Fatu dari sat ASTUTİNE: 11 09 (9.60) Here is a veiled reference to the author. There can be no doubt that the act of depositing (+297) can be properly done in a Kumbha (a jar) and not in Kāla (time or black colour). We, therefore, think that Kumbha is indicated in this verse and not Kāla. If the reference is to the myth of the drinking of the ocean by Agastya, it would also be suggestive of Kumbha, because Agastya is called Kumbhsambhava.
In the light of the evidence discussed above it is reasonable to conclude that as between Kālasena and Kumbhakarna, the authorship of Nrtyaratnakos'a should be assigned to Kumbhakarna.
1. See Appendix I to the Introduction.
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NRTYARATNAKOSA
(5
This, however, raises another question : how to explain the attribution of authorship of the work to Kālasena? Dr. Kunhan Raja guesses that Mahārāṇā Kumbha had the name Kālasena also, and that in a particular Ms. the name Kumbha was suppressed deliberately and that this other name was put in the place. His reason for this rather queer procedure is that someone was using the copy for dancing girls and he was purposely concealing the name. But this explanation leaves other related questions unsolved. Kālasena has a geneology of his own which is different from that of Kumbhakarņa, has a different mother and a different queen. As we shall see the several places mentioned in the colophons of Kālasena are different and situated in the Marhatta country round about the region of Nasik and Tryambak. So there is no doubt that Kālasena is a person different from Kumbhakarna, and so this double attribution of authorship remains unexplained,
A comparative study of Nrtyaratnakosa and Sargitaratnākara of Sārñgadeva shows that the former is based upon the latter. Not only that, but a long quotation from Kalānidhi (of Kallinātha) a commentary on Samgitaratnākara is given in the Nịtyaratnakosa (p. 134). This shows that whoever wrote N. R. he was well-versed in Samgitaratnākara and its commentary Kalānidhi. In the colophon of Kumbhakarna, we are told that he wrote a drama in Telugu also. Kumbhakarna's proficiency in Sanskrit and Prakrit, it is possible to accept; but it is straining our credulity to accept that he was proficient in Telugu also This, however, would be possible for Kālasena or Kāluji as he is often called. Familiarity with Samgitaratnākara and Kalānidhi, though possible in both, can be more easily accepted for Kālasena. Still, however, the atribution of Saṁgītamimāṁsā to Kumbhakarņa being supported by stronger evidence cannot be shaken by these corsiderations. So the only way in which we can explain this plagiarism is to take it as rather a transference of authorship. Some southern Pan ta or Panditas who wrote the Telugu play and Samgitarimāṁsā, fitst presented the authorship to Kumbhakarņa and then transferred it to Kālasena.? But we must state that there is no solid evidence to support this guess and so for the present we must leave the question here. Kalasena's Prasastis :
The main argument, as we have said, against the identity of Kālasena with Kumbhakarna is that the Pars'astis of Kālasena prove him to be an altogether different person from Kumbhakarņa. Let us examine these
1. See pp. XLVII-XLIX, Introduction, Samgita Rāja, Vol. I. 2. Some such view is held by Sri Ramakrisna Kavi. See p. X. Introduction,
Bharatakos'a.
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6]
INTRODUCTION
Prasastis' and the introductory verses of the Pāțhyaratnakosa and see what facts can be ascertained from them.
Name :
The Ms. C. of Nrtyaratnakosa gives to this person only one name - Kālasena. But in the printed text of Pāțhyaratnakos'a we find such variants of Kālasena as Kālajit", Kāluji“, Krşņa and Tamarājie. Mention of Kāma seems to be a misprint for Kāla".
Geneology of Kālasena:
In the Pāthyaratnakosa, Kālasena refers to his dynasty as Vyāghrac mikaravaṁs'a. We can gather the following geneology of Kālasena from his Pras'astis :
Tāmarāja – (1)
Āmodarāja
Rāmarāja Penkarāja (Peņa] P. R. K. P. 3, V. 12. Mhāmarāja (Hmānga] P. R. K. V. 13. (Queen Padmāvati), Tāmarājendra (Tāmarāja] P. R. K. P. 5. V. 16.
Kālasena
The second Tâmarāja is described as Mahārājādhirāja-Mahārāņā. Srimțgānka - Tāmarājendra. It is not clear as to what is suggested by Srimrgānka. Mrgānka means the moon. Tämarājendra can be taken to mean Tāma, the great king.
1. The Ms. C. of Nityaratnakos'a gives short, long and very long Pras'astis of Kālasena as under :
P. 70 - a Pras'asti of two lines; pp. 107, 144, 183, Prasastis with 26 titles, and pp. 230-231 a very long Pras'asti with 105 titles. Similarly the Pathyaratnakos'a gives short Pras'astis on pp. 13, 14, 23, 33, 41, 45, 53, 69; a long one on pp 8,
18, 38, 55 and a very long one on pp. 72-75. 2. Päthyaratnakos'a, Pp, 2-5, verses 6-34. We have tried to collect our information
from these and also stray verses in the Pathyaratnakos'a.
P. 37, verse 33. 4. P. 6, V. 37, 38, 42; P. 9, V. 7: P. 58. V. 10. 5. P. 59. V. 16; P. 60. V. 20 ; P.66, V. 48. 6. P.15, V.3; P. 25, V. 13; P. 63, V. 40. 7. P 38, V. 37. 8. P. 2, V. 6.
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NRTYARATNAKOSA
Mother :
The name of the mother of Kālasena was Jasamāmbikā.
Chief Queen:
His chief queen's name was Sri-Karmavati-Lasumā (or Lakbumā) Devil. She came from the family of Nikumbha-chieftains.
We have some evidence regarding the existence of the Nikumbhaars'a. Two inscriptions of this family- one of the Slaka year 1075= 1153 A. D. of Govana - III and the other of the Saka year 1128=1206 A. D. mentioning a grant of a village to a college for the study of the works of Bhāskaräcārya, - have been published. From these two inscriptions the following pedigree is given by Bühler,
Nikumbhavamsa 1. Kļņarāja - 1 ( about 1000 A. D.) 2. Govana - I
Govind rāja
4. Govana - II
5.
Krsnarāja - II
6. Indrarāja - married Sridevi of the Sāgara race, regent after his
death, 7. Govana - III .
8. Sonhaďadeva 9. Hemādideva (S'aka 1128=1206-7 A. D.“)
From an inscription of Sonhadadeva we learn that the Nikumbhavamsa was a feudatory family of the Yādavas of Devagir The Yādava
1. The name in the three Pras'astis of the P. R. K. pp. 18 34 and 55 is Laghu.
mādevi, but in the every long Pras'asti (p.75) the name is Lukhumādevi as above. 2. A grant of a prince named Prithivivallabha-Nikumbhallas'akti of Sendraka
family was issued from Bagumra of Baroda territory on the 8th August, A.D.655 He was in charge of Lāța. See B. G. Vol. I, Part II, pp. 311 and 360. We cannot say whether this Nikumbhallas'akti has anything to do with the Nikumbba.
vams'a. 3. Indian Antiquary Vol. III 1879 pp. 39-42 and Journal of the Royal Asiatic
Society: N. S. Vol. I pp. 414-418 respectively. 4. There is a misprint in the I, A. The years are given as 1216-17 A.D The
mistake has been repeated in the Khandesh and Nasik Gazetteers. After describing in the first seven verses Bhāskarācārya (1-3), the Yadu-vas'a (4) Bhillama and Jaitrapāla (5) and Singhapa (6-7) the inscription proceeds: q araganu 11 TH HIFATatry etc. J. R. A. S; N. S. Vol. I pp. 414-15,
5.
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.
8 ]
INTRODUCTION
princes that are referred to in it are Bhillama, Jaitrapāla and his son Singhaņa. Hemādideva seryed Singhaņa (verse 15). This Singhaņa must be Sirishaņa II, son of Jaitugi and grandson of Bhillama.?
Both the inscriptions inform us that the Nikumbhavamsa belonged to the Bhāskarayamsa that is the Solar dynasty.
Now the title No. 68 of Kālasena is reqatagjasitta71777154FFETT9796151817," meaning 'one who had undertaken firmly the task of setting up the kingdom of Indrasenarāja of the Solar dynasty.' Considering the fact that Lakhumādevi belonged to the Nikumbha family we can reasonably indratify the Süryavass'iya Indrasenarāja with Indrarāja in the geneolo y of the Nikumbha family. If we take the words 'satata- parābhū a' as qualifying Indrasenarāja it would mean 'Indrasenaraja who was constantly overpowered.' in which case Kālasena becomes a contemporary of Indrasenarāja. This would put Kālasena in the twelfth century A. D. But this is not possible in case of our Kālasena who is a claimant to the authorship of Sargitamimāṁsā, as we shall see. We should therefore, as we have done, take 'satataparābhūta' as qualifying 'rājya' and understand it to suggest that the king. dom was known in the time of Kālasena as one of Indrasenarāja who must have remained famous till then. This Kingdom of Indrasenarāja after him might have been constantly overpowered by the Musalman kings and Kālasena as a son-in-law or a brother-in-law of the family might have belped it to retain or regain the kingdom.
The earlier time-limit of the author of Samgitamimamsā :
Before we consider the names of some of the rulers whom Kālasena is supposed to have subdued, we should fix the earlier time limit of the author of Samgitamimāṁsā. It would help in identifying some of these rulers. As we have said, whoever wrote the Samgitamimāṁsā he was well-versed in the Samgitaratnākara of Sarngadeva and its commentary Kalanidhi by Kalliñātha, Sārngdeva lived in the time of Yadaya King Singhana (1240-1247 A. D.%). Kumbhakarņa, as we shall see. reigned between 1433 to 1468 A, D. The Samgitaratnākara was thus about two centuries old for Kumbhakarņa, and must have reached a position of authority, so that one can understand its being utilized by him. But the adoption in Nętyaratnakos'a (p. 124) of a passage from
1. See the geneology of the Yadavas of Devagiri (No. XVIII), Sources of Karnatak
History Vol, I., S. Srikantha Sastri, M.A. The University of Mysc re, Mysore, 1940. 2. See B. G. Vol. XII. Khanadesh pp. 241-42 and B. G. Vol. XVI Nasik p. 186 and
foot-note 1. 3. S. R. Anandās'rama Series p. 40.,
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NRTYARATNAKOSA
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the Kalānidhi of Kallinātha might appear as a difficulty. Let us therefore consider Kallinātha's date.
Pandit Mangesh Ramkrishna Telang in the Sanskrit introduction to his edition of Sañgitaratnākara says that Kallinātha might have lived in Vijaynagar between 1400 to 1600 A.D. Mr. Alain Danielou in his foreword to the fourth volume of the Sañgitaratnākara published in the Adyar Library Series (1953) says that Kallinātha wrote his 'Kalānidhi' at the end of the 15th century (p.v.). But this span of a century does not help in fixing the priority of Kalānidhi to Nộtyaratnakosa. Prof. K. A. Nilakanta Sastri who is of the opinion that Kallinātha flourished under Mallikarjuna? narrows down the time-span, because Mallikārjuna, according to Nilakanta Sastri's dating, reigned between 1447-65 A. D. This would make Kallinātha almost a contemporary of Kumbhakarna. However, from the Prasasti introducing the author, we learn that Kallinātha was a member of the learned assembly of Immadi-Devarāya-son of the Yādava Praudha Devarāya who was the son of Vijaya. There is some controversy about the immediate successor of Praudha Devarāya or Devarāya II. It appears that this Prasasti of Kallinātha is not taken notice of by Sewell or
1. Anandasrama Series p. 4.. 2. and his grandson Räma Amātys. p. 354. A History of South India, second edition
1958, Oxford University Press. 3. ibid. pp. 261-2, p. 300. 4. See appendix 3 to the Introduction. 5. There seems to be some confusion about this Immadideva or Devarāya. Sewell
says, "An inscription bearing a date corresponding to Saturday, August 2, A.D. 1449, at Conjeevaram records a grant by a king called Virapratapa Praudha-Immadi. Deva Raya to whom full royal titles are given,'. Though Nuniz omits the name of the successor Deva Raya II., Sewell thinks that there had been a Deva Raya III reigning from A.D. 1444 to 1449, though he regards the point as yet to be settled (see A forgotten Empire-pp. 79-80, See also appendix c. p. 404). If however, this Pras'asti of Kallinātha had been consulted there would have been no doubt about Devarāya the III who is called 'Pratäpavän Immadi-Devarāya' by Kallinätha, and Vira-Piatäpa Praudha Immadi Deva Raya' in the inscription of 1449. It is not clear why Prof. K.A. Nilakanta Sastri says that Kallinātha flourished under Mallikärjuna and his grandson Rāma Amatya. who wrote the Svara-melakalanidhi, In the geneology given by Sewell, Mallikarjuna is given after a hypothetical heir who succeeded Devaraya II whose reign is given the period between (?) 1444-1449, while Mallikarjuna is given the period between 1452-53-1464-65 (Appendix 'C' P-404 Ibid). Prof. Nilakanta Sastri gives the following table of the geneology of the Sangama dynasty:--
Devarāya - 1
(1406-22)
Rāmachandrarāya
(1422)
Vijaya Rāya-I (1422-26) (?)
Praudha Devarāya or Devarāya-II (1426-46)
(?) Vijayarāya- II
(1446-47)
Mallikarjuna
(1447-65)
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10 ]
INTRODUCTION
Prof. Nilakanta Sastri. Any way Kallinātha seems to be a contemporary of Mallikarjuna's predecessor Pratāpavān Immadi Devarāya. If this is so, it gives some appreciable priority in time to Kalānidhi over the Nrtyaratnakosa. The Nrtyaratnakosa must have, therefore, been composed circa 1450 A.D.
If, therefore, Kālasena was the author of the Nộtyaratnakosa he must have lived about this time or after it. We should, therefore, look for his contemporaries in the 15th century A.D.
Identification of some contemporaries :
Now let us consider the names of some of the rulers whom Kālasena is reported to have conquered in his Prasasti. In tity No. 92 Mahmmad Sultan of Gujarat is mentioned, in 39 Tujāras ja or "khāna, in 45 Ajimkhān, in 36 Baggularāja and in 37 Bedurabh jāla. The 'matchless Mallika' is mentioned in title No. 102. The Prasasti in the Pathyaratnakosa gives Boddhurabhūpāla in place of Bedurabhūpāla, and Bujārakhāna in place of Tujārakhāna (p. 73). The text also mentions 'Mahammada.'
As to the name 'Mahammada' we must bear in mind that in Sanskrit and vernaculars it would stand for both Muhammad and Mahmud. Amongst the Sultans of Gujarat we find many such names e.g. Muhammad I (1403 A.D. Tātārakhāna). Muhammad II (1442-51), Mahmud I Begada (Fath Khan 1458-1511), Mahmud II (Nasirkhāna) 1526, Mahmud III (1538-1554), and Muhammad III. Thus all these Sultans flourished from the beginning of the 15th century to the latter half of the 16th. As to the two other Muslim names, Ajimklāno can be identified with Āzam Khan who was appointed at Warangal, by Muhmmad III Bahamani, to administer the western division of Telingana about 147980 A.D. If this identification proves to be correct, one can transliterate 'Ananya Mallika' (102 title) as Hasan Malik who was appointed by the same king to administer the eastern or Rajamundry division of Telingana at the same time.?
The geneology given by Kallinātha-'Vijaya- Praudha Sri Devarāja-Pratāpavān Immadi Devarāga'-enables one to put Immadi Devarāya in place of Vijayarāya II with a question mark just as it would have enabled us to fill in the lacuna after
Devaraya II in Sewell's geneology. 1. See pp. 19-28, etc. Beginnings of Vijayanagar History by the Rev. H. Heras.
S. J. M. A. Indian Historical Research Institute 1929. 2. See the Geneology-Table of the Sultans of Gujarat. P. 564. History of Gujarat
Vol. I by M. S. Commissariat M.A.I.E.S., Longmans, Green & Co., Ltd., Bombay.
1938. 3. Cambridge History of India, Vol. III pp. 417-18.
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NRTYARATNAKOSA
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Tujarkhan may be identified with Malik-ut-Tujjar who was a governor of Daulatabad at the time of Ala-ud-Din Ahmed Bahmani who establishes his authority in Konkan in 1437 A. D. This Malik-utTujjar was a leader of the foreigners in the Court.1 If all these identifications prove to be correct. 'Gurjarādhisa-Maba
tle 92) may be identified with either Muhammad II (1442-51) or Mahmud I, Begada (1458-1511).
There is a reference to 'Manira' or 'Manira-Vira' (Title 16) who was harassed by Kālasena in the neighbourhood of many caverns surrounded by Sthāna.' If this Sthāna can be identified with the fort of Thalner in Khānadesh, and Manira can be transliterated as Miran, we can identify the Manira-Vira with either Miran Adilkhan (1437- 1441 A.D.) or Miran Muharik (1441-1457).*
The title number 36 refers to one Baggularāja. The name Baggula is equivalent to Bāgula. The Rāstraudha varsa Mahākāvya of Rudrakavi which narrates the exploits of the Bāgulas of Mayūragiri says that the tenth king Gopacandra who was the younger brother of some Kālasena was called Bāgula by the goddess Bhavāni. According to Mr. C. D. Dalal, the learned editor of the work, Baglan seems to mean the country of Bagulas. In the fifteenth century it was subordinate to the Sultans of Gujarat. Every chief of Bāglan is called Babarji. Mr. Dalal thinks that the word may be from Bhairava. In the geneology of the Bāgulas the name of the last king is Bhairav sena."
The title number 37 refers to one Bedura-Bhüpāla. This Bedura can be identified with Belur in the Belur taluka of Hassan District, Mysore. Belur or Velāpura was connected with the Hoyasalas.5.
The complete subjugation of the Hoyaşala kingdom and the annexation of it to the empire of Delhi were not effected in the reign of Muhammad Tughlak till A.D. 1327. Vira Ballāla III was liberated and he continued for a short time longer the semblance of a reign at the original capital of Belur and afterwards he retired to Tondanur-the modern Toņņur near Seringapatan.
Later on we hear of Ere Krishnappa Nayak who is called the foun
1. Ibid pp. 404-407 and 675. 2. B. G. Vol. XII Khandesh p. 245 and pp. 473-477. 3. R. M. K. Canto 2, verse 27 G. O. S. Baroda. 4. Ibid : Introduction p.XIII f, No. 2 & p. XVII f. n. 1 and p. XXIII see also B, G, XVI
Nasik pp. 401-404. 5. B. G. Vol.'I part 2 p. 491; see also C. H. I. Vol. III, PP. 471-474. 6. Ibid. p. 510
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12 ]
INTRODUCTION
der of Bellur family. At the time when the empire of Vijayanagar flourished, Bellur was one of the petty states of Karnatak, and Ere Krishnappa Nayaka, its chief. He appears to have been enfoffed by Krishna Deva Rāya in 1524. Ere Krishnappa Nāyak was the son of Baippa Nayaka and Kondommā.
It is likely that the king of Bedura or Belur mentioned in the Kālasena's Pras'asti might have been Baippa Nāgaka or probably his son Eri Krishnappa Nāyaka.
Thus this inquiry about the times of the kings mentioned in the Prasastis of Kālasena leads us to put him somewhere between 14301530 A.D. Identity of place-names :
Now let us see if we can locate Kālasena by identifying some of the place-names mentioned in his Prasastis. The main difficulty in understanding these place-names lies in the Sanskritization of current names and in some cases coining Puranic substitutes for these places. Still it is possible in some cases to restore the original names and identify their present locations. Our first business is to locate Kälasena, and so we shall first take those place-names which are relevant to this purpose.
The title number 93 calls him 'Trisañdhyakşetrasamudra-sambhavarohiņi-ramaña'. This means 'moon born out of the sea of Trisañdhyaksetra or according to the P.R. K. Sri-Trisañdhyā. Now, what place is hidden under this name? In a mythical account of the river Godavari we find that Devi lives in the form of Trisañdhyā at the source of this river. We can therefore regard Trisandhya or (dhyā) Kþetra as the region round about the Tryambaka mountain in which the Godavari has its source. Brahmagiri is an old name of this mountain and so Godavari is called Brahmädrijātā. This also properly explains his title No. 7 S'ri Brahmadri-vibhu, which means 'lord of Brahmādri'. Title no 51 describes him as one who has constructed a beautiful road leading to Brahmagiri and no. 66, as one who has performed many sacrifices near Brahmagiri, while title no. 50, as one who has raised a Kirtistambha-Tower of Victory near Tryambakes'wara--the temple of Tryambaka. Title No. 41 refers to him as one who has conquered Añja. nādri surrounded by the peaks of the Astādas'agiri. This Añjanādri is the Añjaneri hill four miles from Tryambaka town and about four
1. The Arvindu Dynasty of Vijayanagara, Rev. Hena y Heras. S.J. M. A. B.G. Paul &
Co. Publishers, Madras 1927, p. 9. 2 Ibid. pp. 184-185. 3. Sabdakalpadruma:
इयमेव ( गोदावर्येव ) पीठस्थानविशेषः। अत्र देवी त्रिसन्ध्यामूर्त्या विराजते। यथा, देवीभागवते। ७.३०.६८ गोदावयाँ त्रिसन्ध्या तु गंगाद्वारे रतिप्रिया।
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[ 13
NRTYARATNAKOS'A
teen miles from Nasik.' What place is meant by Aṣṭādas'agiri is not clear.
Thus we can locate Kalasena in the Nasik district somewhere near Tryambaka. In the Pathyaratnakos'a (p. 69 verse 12) he is called 'Janas thanavanibhṛt' that is the 'king of Janasthana'. This region is to be identified with a region which includes Pañcavați and Nasik. Nandlal De describes it as Aurangabad and the country between the Godavari and the Krishna. The title No. 4 of the Pras'asti refers to him as 'one who has rescued Janasthāna of twelve thousand and other parts of the earth'.
So from these titles we can guess that Kālasena was a chief ruling in the Nasik district and region round about.
Now let us see what other place-names can be identified. Title No. 9 represents him as having destroyed all enemies from Agastipura. This Agastipura can be identified with Igatpuri about thirty miles south-west of Nasik.3 Title No. 15 mentions Kalyāṇapura. Fleet identifies Kalyanapura with the modern Kalyāņi in the erstwhile Nizam's Dominions. But it might be Kalyāņa in the Thana district. Sthana in the title No. 16 we have already identified with the fort of Thaner. It may be Thāņā near Bombay also. Sripura in the title No. 17 can be identified with S'irpur in the Ahmadnagar district.5 Title No. 18 mentions Vātikācala and Acala. The latter may be identified with the Achala fort in the Nasik district-the west-most point in the Chandor range, and the former perhaps with Tringalawāḍi.6
Madanpura in the title No. 19 may be the Madangad of the Nasik district. Suvarnagiri of the title No. 20 may be the Suvarnadurga in the Konkan.8 Navasari and Ghanadevi can be identified with the modern Navasari and Ganadevi in the Surat district. So also Pațali of the title No. 22 with the modern Pațaḍi. the town of the same name near Bombay. there seems to be a reference to Sanjñā-the is also called Rājñi or Randel in Gujarati. Thus Sanjnapura is equi
Tarapura of No. 23 with In Sanjñāpura of No. 25, queen of the Sun-who
1. Nasik p. 416.
2. Geographical Dictionary of Ancient and Medieval India, p. 80.
3. Geographical Dictionary of Ancient and Medieval India, p. 2 and Nasik p. 444.
It is derived from Vigatpuri (?Vikaṭapuri) meaning a city of difficulty.
4. See B. G. Vol. I Part II p. 335 f. n. 1.
5. Abmadnagar p. 738.
6. Nasik p. 414 and 441.
7. Nasik p. 450.
8. B. G. Vol. I Part II p. 75.
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INTRODUCTION
valent of Rāṇipura or the modern Rander town. Punyastambha of No. 28 is Pụntamba in the Ahmadnagar district and Sangamanira of No. 29 is Sangamaner in the same district. S'uklapura of No. 30 may be the place of the same name on the Narmada near Broach in Gujarat. Giripura Dungara of No. 31 may be the modern Dungerpur now in Rajasthan. Damanapura of 32 may be the modern Damman. Baggula of No. 36, we have placed in Bāglān in the Nasik district, and Bedura of No. 37, we have identified with Bellur Naräna of No. 38 may be identified with the Narnāla, hill fort in the Akola district in Berar. 3 Mahārāsțra of No. 42 and Gurjara of No. 43 are well known. Mahoragapura of No. 44 may be the present Nagpur. Vasti and Sopara of No. 47 can be identified with Vasai (Bassain) and Sopārā near Bombay. Triyambaka of No. 50 is Tryambak in the Nasik district. Brahmagiri of No. 51, we have already identified as the mountain which is the source of the Godavari.
There are some place-names in the titles which still remain obscure. But from what we have shown above it is clear that Kālasena had much to do with the regions of the Nasik, Khandesh, and Ahmadnagar districts and the adjacent area. Conclusion :
Our examination of the longest Prasasti of Kālasena has shown that Kālasena was the lord of Brahma giri-the mountain which is the source of the Godavari river, and that he lived sometime between 1430 to 1550 A. D. His vars'a or family was known as Vyāghra-Cāmikara or more probably Suvarna-Vyāghra, The 'golden tiger' might have been the emblem on their flag. His father's name was Mţgāņka Tāmarāja and mother's Jasamāmbikā. He was married to Karmāyati Lashumädevi of the Nikumbha family. He had helped his in-laws in regaining or retaining the kingdom of their ancestor Indrarāja. Unless this Prasasti is a complete fraud or fabrication, we must say that such a prince must have ruled Janasthāna in the Nasik district in the fifteenth or the sixteenth century. Inspite of our best efforts, however, we have not been able to obtain any other corroborative evidence.
Even the name of Kālasena is something rare, for we have met with only one instance of that name, viz. Kālasena, the elder brother of
1. Surat p. 299. 2. Ahamadnagar p. 733 and p. 736 respectively. 3. I G. XVIII 3-p. 379-380. 4. See B. G. Vol. I. Part II. Suvarna Garuga-Dhvaja was the emblem of the
Yadavas of Devagiri p. 577, Silābāras p 538, 544, Ratas p. 552, Suvarnavęsabhadhvaja was the emblem of the Kalacuris p. 469,
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Gopacandra Bāgula. But his geneology is so different from that of our Kalasena that he cannot be identified with him. In addition, there is the reference that Kālasena took away the treasures of Baggularāja.
There is mention of one Kālu-ā-deva in the history of Orissa. He was a son of Pratäparudra and might have reigned after him for a year or so in 1540-41."
Considering his relation with the Nikumbhavamsa and the fact that it was subordinate to Yādavas of De vagiri, we may hazard the guess that he might have belonged to some less known branch of these Yādavas and might have ruled in the Nasik district. "The Devagiri Yādavas continued overlords of south and east Nasik till they were conquered by the Musalmans at the close of the thirteenth century." Or he might have belonged to one of the feudatory families of fhe Deccan. Towards the end of the 15th century a Maratha chief seized the fort of Gālnā in Malegaon and plundered the country round. About 1487 Malik Wagi and Malik Ashraf-the governors of Daulatabad retook Gālnā. But in the disturbances that followed the murder of Malik Wagi, the Nasik chiefs again became independent. We are tempted to guess that Kālasena might have been one of these chiefs. But we cannot say anything definitely until we have more information about these Nasik Chiefs; or other feudatory families of the Daccan. Kumbhakarņa
INC Coming to Kumbhakarna popularly known as Kumbhā Rāņā or simply, Kumbha or Kumbho, we find that we do not suffer from any dearth of sources of information regarding him. We have coins and inscriptions of his reign. There are pras'astis or panegyrics in colophons of his literary works, references in the Ekalinga māhātmya and similar works. All this is in Sanskrit. We have Khyāts and poems in old Rājasthāni. In addition we have Muslim historians like Ferista writing about him in Persian.
This abundance of sources, however, presents problems which are difficult to solve. The information gathered from Sanskrit and Rajasthani sources does not, on some important events, tally with the one
1. Rastraudha-Vanşa-Maha-Kavya Intro. p. XXII. 2. History of Orissa Vol. 1, pp. 337-38, R. D. Banerji, Calcutty, 1930. 3. Nasik pp. 186-188. 4. See Bibliography in the Maharana Kumbha by Harbilas Sarda, Second Edition,
1932, Ajmer. This work and the chapter dealing with Kumbha in the Rajputaneka-Itihasa, Vol. II by M, M. Gaurishankar Ojha are good modern works on the subject.
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from Persian accounts. Also, the Khyāts in old Rajasthani of different families present different and sometimes contradictory accounts of events when their respective heroes are concerned.
In spite of these difficulties, however, we are able to gather much reliable information about Kumbhakarna and his times. It gives us the picture of a great warrior and ruler, a patron of arts and learning and a builder of magnificent monuments.
Mahārāṇā Kumbha's life was full of storm and stress, even for those stormy times. He was with his father Mahārāņā Mokal when the latter had started on a campaign to fight Sultan Ahmad Shah of Gujarat who, according to the Vir Vinod had, in 1432 A. D., proceeded to Mewar with a large army and was passing, through Jheelwara-a part of Mewar-and was plundering the country and breaking temples (M.K. pp. 29-30).1
According to the S'ṛngirs'i inscription of V.S. 1485 (A.D. 1429) Mokal had defeated Ahamad once before, when he had come to espouse the cause of Firojkhan of Nagor. However Mahārāṇā Mokal, before he could meet Ahamad was, in A.D. 1433, assassinated, when encamped at Baga, by his uncles Chacha and Maira-natural sons of his grandfather Khetsingh by a woman of the carpenter class. They interpreted an innocent inquiry about the name of a particular tree by Mokal as a reflection on their birth and so made a conspiracy with Mahipā to kill Mokal.
Kumbha as the heir-apparent to the throne had to reach Chitor quickly, which he could do with great difficulty on account of the ensuing fray. His life was also aimed at (p.32) by the conspirators, who pursued him to Chitor, where, however, they found that the gates were closed against them. Chacha, Maira and Mahipa returned to Madaria, where Chacha was proclaimed as the Mahārāņa of Mewar, Mahipa becoming his Diwan (pp.32-33). But they received no support and had to run away to the hills of Pai Kotra with their families. They threw themselves into the stronghold of Rätākot which they fortified against Kumbhā.
Kumbhakarna ascended the throne of Mewar at Chicor in 1433 A.D. He was the eldest son of Mahārānā Mokal2 by his Paramāra queen
1 The page-numbers in this section of the Introduction refer to the Kumbhā Rāņā, by Harbilas Sarda, Second edition, when not otherwise specified.
2 Mokal had in all seven sons-Kumbhakaran, Kshemakaran, Shiva, Satta, Nathsingh, Viramdeva, Rajdhar (p. 33) and a daughter named Lalbai-married to Achalsingh the Khuchi Chief of Gagroon. It was to help this son-in-law that Mokal had to start on an expedition in which he was eventually murdered (p. 29).
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Saubhagyadevi-daughter of Rājā, son of Jaitmal, the ruler of Runkot in Marwar (p. 3). The year of his birth has not been ascertained.
The first concern of Kumbha after he became the ruler of Mewar must have been to avenge the assassination of his father Mahārānā Mokal. It was, however Ranmal Rathod of Mandor in Marwar, the maternal uncle of Mokal, who took the lead in the matter. On hearing the news of the murder of his nephew, he threw off his turban and putting on a 'phenta' vowed that he would not wear a turban till he had taken full revenge. This was one of the traits of Rajput character. After presenting the Nazar to the new Mahārāņā he started in pursuit of Chacha, Maira and Mahipa towards Pai hills. After strenuous effort Ramal Rathod succeeded in attacking his enemies in the fort and defeat them-killing Chacha and Maira. But Mahipā and Chacha's son Ekkā escaped and went to Mandu the Capital of Malwa at the time and sought the protection of the Sultan of Malwa, Mahmud Khalji (p. 39).
Kumbha asked Mahmud Khalji to surrender the traitors to him which, however, the latter refused to do. This started hostilities between Mewar and Malwa which lasted for several years.
Kumbha sent an army said to consist of a hundred thousand horsemen and fourteen hundred elephants. It was under the command of the valiant Rathod Ranmal. The action took place near Sarangpura place between Chitor and Mandsaur in A.D. 1437 (p.50). Mahmud Khalji's army was routed and the Sultan fled and shut himself up in the fort of Mandu. Ranmal's army besieged the fort. When Mahmud Khalji found that he could not hold the fort, he asked Mahipa to go away. Mahipa escaped to Gujarat. Kumbha took the fort by storm and Ranmal captured Sultan Mahmud Khalji. Kumbha returned to Chitor in great triumph, carrying the captive Sultan with him. Mahmud was kept as a prisoner for six months in Chitor and then released without any ransom. There have been many comments on this magnanimity which turned out to be misplaced2.
The construction of a Jaya-Stambha (Pillar of Victory) at Chitor was started to commemorate this victory (51).
There seems to be no contradictory evidence as far as this major event the victory over the Sultan Mahmud Khalji of Malwa-is concerned.
But this was not the only fight in which he was engaged in
1 ibid p.50. ibid pp. 51-52.
2 See pp. 52-57 M K.
3 ibid p. 51. See for an opposite account C.H. I. Vol. III P. 528.
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these years. Taking advantage of the turmoil caused by the assassination of Mokal and engrossment of the new Mahārāṇā in avenging the murder of his father, Sahas Mal the Rao of Sirohi on the eastern side and the Maha Rao of Bundi on the western side tried to take slices out of the territory of Mewar.
Kumbhā sent a force under Doqiyā Narsingh, son of Rao Shalji against Sahas Mal. "Narsingh captured the stronghold of Abu, seized Basantgarh and Bhula and annexed the whole of the eastern part of Sirohi territory to Mewar” (p. 79). This victory was obtained before A. D. 1437, as can be inferred from a reference in a copperplate of A. D. 1437, lying in the Rajputana Museum, Ajmer, which mentions a grant of land in the village Chavarli in the Ajari Pargannah of Sirohi (p. 79).
But the Khyat of Sirohi has a different tale to tell. According to it Kumbhā had usurped Abu where he was allowed to take refuge by Maharao Lākhā of Sirohi when attacked by the Sultan of Gujrat. This account of Sirohi, however, is not trustworthy in as much as Mahara, Lākhā came to the throne of Sirohi in A.D. 1451, while Abu was taken, as noted just before, in A.D. 1437. From a reference in Mirat-i-Sikandari it also becomes clear that Abu was in possession of Kumbhā in A.D. 1456 (p. 80). Similarly the Haras of Chauhan family. so called after Har Rai
so called after Har Raj of Bundi, threw away their allegiance to Mewar and conquered the fort of Amargarh and molested the Rajputs of Mandalgarh (p.83). But Kumbha marched against them and took back Amargarh as well as annexed Bamboda, Bundi, Khatgarh and Mandalgarh. Thus the Haras were subdued, though on payment of 'Fauj Kharch' the Mahārao was allowed to keep Bundi. This victory over Bundi must have been achieved in or before the year A.D. 1439, as it is referred to in the Ranakpur Temple-inscription of V.S. 1496, A.D. 1439.
A feud between the Sisodia and Rathod Sardars at the court of Chitor resulted in the conquest and occupation of Marwar.
Ranmal the great general of Maharāņa Kumbha, was the eldest of the fourteen sons of Rao Chonda of Mandor and, therefore, the rightful heir to the throne of Marwar. But Rao Chonda at the instigation of his Mohil queen expressed a desire to him that he would like to give the kingdom of Marwar to Kanha-son of Mohil. Like a dutiful son, he left Mandor with soo horsemen for Chitor. Maharana Lāk ha bestowed a jagir of forty villages on him. Rao Chonda died in A.D. 1410 and Kanhā succeeded him (p. 17). Kanhä died without leaving a son and so there was a quarrel amongst the brothers of Kanhã and their
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sons for the kingdom of Marwar. Eventually Ran Mal who was provided with a large army by his nephew Maharana Mokal succeed. ed in recovering his rightful inheritance and reigned at Mandor (p. 25). But on hearing of the assassination of his nephew and benefactor he, as we have noted, went to Chitor to lead Kumbha's men to take vengence on the murderers of Rāṇā Mokal.
After his success, he preferred to stay in Chitor to living in the the arid desert of Marwar. Takinga dvantage of his position he surrounded himself and the young Maharānā Kumbha with Rathods. In course of time his influence at the court created jealousy amongst other nobles of Mewar, particularly Kumbha's uncle Raghavadeva, who was his hated rival. Ran Mal managed to get Raghvadeva murdered by a ruse. This created a great undercurrent of indignation against the Rathods (pp. 40-41). But Ran Mal's brilliant victory over the Sultan of Malwa increased his influence and power in Mewar. It, however, raised apprehensions in the minds of Sisodia nobles and Sardars of Kumbha. Kumbha was warned against Ran Mal's iufluence and power with his Rathods everywhere. This might result, he was told, in the usurpation of the throne of Mewar by Rathods. Kumbha, however, was too sure of the loyalty of Ran Mal to suspect him. But in course of time he also became suspicious and he welcomed the return of his old uncle Chonda- the elder brother of Raghavadevato Chitor from Malwa.
But on
This Chonda who was the eldest son of Mahārānā Lākhā and therefore the rightful heir to the throne of Mewar had given Ran Mal a promise to give up his right to the throne in favour of the son that may be born to his sister Hamsabai at the time of her marriage with Mahārāṇā - Lakha, a promise which he loyally fulfilled (p. 19). When Hamsabai's son Mokal ascended the throne Chonda was at the head of affairs in Mewar. account of zenana and court intrigues instigated by Ran Mal, he left Chitor with his brother Ajja and others for Mandu, making his other brother Raghavadeva responsible for the care of the young Rāņā Mokal (pp. 23-24). The Sultan of Malwa gave him the district of Hallar as a Jagir, but when he asked Chonda to lead his army against his nephew Kumbha, Chonda refused. (p. 5o)
This was the man who had returned to Chitor to guard his nephew against Ran Mal and his Rathods. The old Rao of Mandor saw danger, but was too brave a man to yield or escape. He, however, sent away his sons Jodha (who later founded Jodhpur), Kandhal and others from Chitor, asked them to live in the 'taleti', be on their guard and not to come in the fort of Chitor even when he himself called them (p. 63). But the Sisodia nobles of Mewar were determined to remove him and Ran Mal was killed by a ruse just as he
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INTRODUCTION bad managed to kill Rāghavdeva (p. 65). This event is commemoTated in a couplet :
चुंडा प्रजमल आविया, माढूं हुं धक प्राग ।
Fartu4a #fur, 1 AT HIT !! (p. os) Jodhā and his seven hundred Rathods mounted their horses and made for Marwar. Chonda burning with rage at the wrongs done to him by Ran Mal relentlessly pursued Jodhā and his Rathods. He arrived at Mandawar (Mandor) close on Jodhā's heels. Jodhā was unable to make a stand there and escaped to the village of Kāhuni, ten miles from Bikaner (p. 67).
Kumbhā's forces under his uncle Rawat Chonda took possession of Marwar and established Thāṇās-military and administrative posts all over the land.
The inscription in the temple at Ranakpur, of A. D. 1439. mentions the occupation of Mandor by Kumbhā.
In the year 1438 A. D. after the murder of Ran Mal the Rathods were expelled from Mewar. The same year saw the passing of Marwar into the hands of Mahārāṇā Kumbhā. (p. 68).
Thus within six years of coming to the throne Kumbhā had consolidated his kingdom of Mewar by defeating Chauhan families of Sirohi and Bundi and showed his prowess to the neighbouring Sultan of Malwa by imprisoning him for six months in Chitor. The feud between his uncles and the maternal uncle of his father, Sisodia sardars and Rathods, got him the possession of Marwar, but also lost him his great general and brave warrior Rao Ran Mal Rathod.
In the Rankpur Jain Temple inscription of y. S. 1496 (A. D. 1410-40), summarizing, so to say, the military career of Kumbha before this date, there are historically important references about places which Kumbhā had conquered and persons who had sued for peace with him. The places which are referred to are as follows: (1) Sarangpur (in Malwa). (2) Nagpur (Nagor), (3) Gagaran (in Kota), (4) Narāvaka (Narana in Jaipur), (s) Ajayameru (Ajmer), (6) Mandor (Mandonar in Marwar), (7) Mandalakara (Mandalagadha), (8) Bundi. (9) Khatu (three Khatus- two Badi Khatus and one Chhoti Khatu in Jodhpur and one in Jaipur. Here the reference is probably to Khatu in Jaipur), (10) Chatsu (Chaksu in Jaipur), and (11) Jāna (unidentified)
The most important reference in this Jain inscription, however, is to his title 'Hindu Suratrāņa' --given by the Sultans of Delhi (Sayyad Mohammad A. D. 1434-1444). and Gujarat (Ahmedshah I. A. D. 1411-1442). As an insignia of this recognition he was given an
1 Later on at the intercession of his grand mother Hansabai, Kumbhä сonnived at the
re-conquest by Jodhā of Mandor in AD 1445 after seven years occupation pp. 71.76. 2. See Ojha's History of Rajaputana, pp. 607-8.
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Ātapatra-royal umbrella. This indicates some early encounters with Delhi and Ahmedabad, in which the Sultans must have made peace with him by recognizing him as an equal, giving him the title of 'Hindu Suratrāņa'-'Hindu Sultan.'
In these six years, Kumbhā was foresighted enough to repair old fortresses, build new ones and generally strengthen the defences of his kingdom (p. 57). This foresight served him well. Even though he had subdued the chiefs of Sirohi and Bundi, they remained more or less turbulent. But the real danger to his authority and security was from Mahmud Khalji of Malwa who was too ambitious and powerful a man to forget his first defeat and detention in Chitor.
There was a rebellion in Haravati in A.D. 1443 and Kumbhā had to go there to punish the rebels. When he was thus engaged Mahmud of Malwa attacked Mewar and came as far as Kumbhalgarh. There was a fortified temple of Bān Mātâ in the village of Kailwara at the foot of the hill. Mahmud attacked this place which was valiantly defended by Thakur Dipsingh for seven days. On the seventh day Dipsingh was killed and Mahmud destroyed the temple. From there he proceeded to Chitor. But he was intercepted at Mandalgarh by Kumbhā who had run post-haste from Hārāvati on hearing news of Mahmud's expedition. The result of the first meeting of the armies was not decisive, but a few days later, in a night attack by Kumbha, Mahmud was defeated and obliged to return to Mandu (pp. 85-87).
According to Ferishta, in the first battle which took place on the 26th April 1443, Mahārāna Kumbhā day Mahmud returned to Mandu with some loot (p. 87 f. n.).
After more than three years, Mahmud of Malwa led another expedition against Mewar. According to Ferishta, on the 11th of October, 1446 A.D. Mahmud went towards Mandalgarh with a large army. While he was crossing the river Banas, Kumbha's armv attacked his and after a fierce fight Mahmud was again defeated and compelled to return to Mandu. According to Ferishta, however, the Sultan returned after taking Najarānā and soon after sent Tajkhan with eight thousand cavalry and twenty clephants to attack Chitor (p. 88)
In A. D. 1454, Mahmud of Malwa again attacked Chitor and, according to Hindu sources, was defeated by Kumbhā before he could come near Chitor and was obliged to retreat. According to Ferishta, however, Mahmud of Malwa attacked Chitor, threatened Kumbhā with appointing his own governor, founded a town named Khaljipur, subdued Kumbhā and at the approach of rainy season 1. Ferishta, Vol. IV, p. 215.
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returned to Mandu with some gold (pp. 88-89).
In the same year Mahmud of Malwa, at the invitation of the Mussalman residents of Ajmer who complained of religious persecution, invaded the place. Ajmer, the ancient heritage of the Chauhans, was added to the domains of Mewar by Rannall Rathod with the aid of the forces of Mewar in the time of Maharana Mokal (p. 90). Gajadhar Singh the governor of the fort of Ajmer valiantly defended it for four days, then came ou open. He was, however, killed in the action and Mahmud got the possession of the fort. But while going to Mandalgarh Kumbha's army attacked him as he came near the river Banas. He sustained a heavy defeat and had to fly to Mandu (pp. 91-92). According to Ferishta, however, the retreat was mutually sounded'. The remark of Mr. Briggs on this point Ts : "The drawn battle mentioned by the Malwa historians must be deemed a defeat” (p. 93).
Idar and Nagor involved Kumbh a in a war with the Sultans of Gujarat.
Leaving alone the semi-legendary account of the connection of Idar with Bāpā Rāval, the founder of Guhelot dynasty of Mewar, the geographical position of Idar in relation to Gujarat and Mewar. made it a sort of buffer state between these kingdoms. In fact 'Idar was the Portico of Mewar'.3 In spite of the fact that the Rathods of Idar were matrimonially related to the Sisodias of Mewar, there were frequent feuds between the two for supremacy.
Rana Hammir (A.D 1326-1364) defeated Jaitrakarņa of Idar. According to the inscription of A. D. 1400 on the Kirtista mbha of Chitor Kshetrasimgha or Khetā (A. D. 1364-1382), the great grand father of Kumbhā (p. 4), conquered Idar and imprisoned its ruler Rājā Ran Mal (A D. 1346-1404) who was supposed to have defeated Jafar Khan-the first Sultan of Gujarat, The inscription of A.D. 1485 at Ekalingji informs us that he later on placed Ran Mal's son on the the throne of Idar (p. 7). Mokal (A.D. 1420-33) (p. 26) the father of Kumbhā, was aided by Sanwaldas--the Raja of Idar in his expedition against the Sultan of Gujarat (p. 31).
1. Ibid, Vol. IV, p. 222. 2. C.H.I., Vol. III, p. 523. 3. See the Letter from Raja Jai Singh of Amber to Rana Sangram of Mewar regarding
Idar written in S. 1784 (A.D. 1728), published as appendix in Todd's Rajasthan,
Vol. III, P 1825. 4. Rajputane-ka-Itihasa (Hindi), p. 550. 5. Idar räjya no Itihāsa (Guj.). Part I, by Jogidas Ambalal Joshi, (pp. 97-104). 6. Jemal alias Punjaji A.D. 1404.1428, ibid. pp. 104-109. 7. Sanwaldas was another name of Rao Bhana. He was the younger brother of Rao
Punja to whom he succeeded in A.D. 1482 (Ibid p. 111). So in the reign of Mokal he was not the ruler, but must have been sent by his brother Narandas.
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According to Mohamadan historians Zafar Khan led a campaign against the Rajput state of Idar and subdued it in A. D. 1400 (C.H.I., Vol. III, p. 295). In A. D. 1418 Ahmad Shah had to march against the combined forces of the Rajas of Idar, Champaner, Mandal and Nandol as well as Hushang of Malwa. The Sultan of Malwa, however, fled away before the battle took place at Modasa. The forces of the Rajas were, somehow, dispersed (C.H.I. Vol. III, p.297). From 1425 until 1428 Ahmad Shah carried on his fights with Idar, which ultimately ended in the reduction of Hari Rai, the raja, to the condition of a vassal of Gujarat (C.H.I. Vol. III, p. 298). It was Rao Jemal alias Punja who was the rular of Idar at the time of the confederation. Hari Rai seems to be a synonym of Narandas.
Naturally the powerful Ranas of Mewar could not tolerate the subjugation of Idar, the portico to Mewar, by the Sultans of Gujarat and so engaged themselves in hostilities against them whenever there were opportunities,
Kshetrasingh or Kheta (A.D.1364-82) is credited by the bards with a victory over one Humayun. Col. Tod mistook him to be the Delhi monarch Hymayun (Vol. I, p. 321). The Humayun of the bards could not be the Mughal emperor Humayun who was more than a century later than Kheta (C.H.I. Vol III, p. 526). M M. Gaurishanker Oza and Shri Harbilas Sarda identify him with Amin Shah who has become Humayun Shah in some manuscripts (R. I, Vol. R. p.565, M.K.p.s). There is, however, another possibility which can explain the traditions of the bards. Zafar Khan who later became the first Sultan of Gujarat under the name of Muzaffar Khan (A.D. 1392-1410) was addressed as 'Azam Humayun' by the Delhi Sultan on the occasion of his signal victory over Farhat Mulk at Kambhoi in January 1392 A.D. But Kshetra could not have fought with this Zafar but most probably with Zafar Khan of Sonargaon who was the governor of Gujarat from A.D. 1363-1372 in the time of Muhmmad Tughlak. Kshetra Singh could have only fought with him. The mistake of the bards lies in applying the title of Humayun to Zafar of Sonargaon a title which belonged to Zafar who became the Sultan of Gujarat. It is easy to understand this mistake, caused as it was by the identity of the name.
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There is another reference which goes to show that Kshetra Singh must have fought with some of the Muslim chieftains of Gujarat.
1. See Commissariat's History of Gujarat, Vol. I, p. 53.
2. There were three governors bearing the title Zafar Khan in Gujarat in the fourteenth century. The first was Malik Dinar who served under Sultan Ala-udDin's son Kutub-ud-din Mubarak, being the brother-in-law of the latter. See History of Gujarat by Commissariat Vol. I, pp. 45-46). The other two are men tioned above.
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There is a reference in the Kumbhalgaḍha pragasti to the effect that Kshetrasingh made kings 'Sadala and others' (ref:) abandon their cities. M.M. Ojhaji is not sure as to who this king Sadala was; but guesses that he might have been the King Satala of Toda who was a contemporary. But the reference in Kumbhalgadha-prasasti is to a number of kings begining with Sadala.' This reference may very well apply to 'Amiran-e-Sadah' the foreign nobles whose revolts in Gujarat were suppressed by Sultan Muhammad Tughlak personally. This term was applied to these leaders of mercenary troops by Persian historians who called them Yuzbashis also. They were something like chiefs in such cities as Baroda, Dabboi, etc. having sway over the whole districts. We think that the reference to 'Sadaladika Nrp'ah, being made to abandon their cities is to these 'Amiran-i-Sadah' a term which has been rendered in English as 'Amirs of hundred' or 'centurions'.2
If this view is correct, it would show that Kshetrasingh must have had many occasions of fighting with Gujarat. The reference in the inscription of the Chitod Kirtistambha calling Sri Ranamalla 'Gurjaramandales'vara', as also the one in the inscription at Kumbhal gadha saying that Ragamalla blunted or weakened Dafar Khan (Zafar Khan) the lord of Pattana (Anahi lwar Patan) (यं षा (खा) नः पत्तनेशो दफर इति समासाद्य कुण्ठीबभूव । ) point to the same facts
Rāṇā Mokal (A.D. 1420-1433) according to Shringirishi inscription of A.D. 1428, defeated Padshah Ahmed--the Sultan of Gujarat (A.D. 1411-1442, the founder of Ahmedabad)-irresistible in battle and made him run for his life ( पात्साहो ददुःसहोऽपिसमरे etc.) 4.
It was, however, Nagor (Nagaur) which particularly antagonized the Sultans of Gujarat to the Maharanas of Mewar. This place played a conspicuous part in the history of medieval India. It was held by Prithviraj Chauhan and after his defeat had passed into the hands of Mahmodan rulers. But Chonda Rathod had conquered and added
1. See History of Rajputana, Vol. II. pp. 567-68.
2. See Commissariat's History of Gujarat, Vol. I, pp. 30-31.
3. History of Rajputana, Vol. II. pp. 565-6. This Zafar Khan must be taken to be the Zafar Khan of Sonargaon-the governor of Gujarat (A.D. 1363-72).
4. Maharana Kumbha (p. 27 and p 205.). Sir Wolsely Haig, however, says "Mokal's reign was not distinguished by any feats of arms. The bards attribute to him a victory over the king of Delhi, but no such contemporary king of Delhi was in a position to attack the Rana of Chitor, and if there is any foundation for the bard's story Mokal must be suspected of refusing an asylum to Mahmud the last of the Tughluq dynasty, when he was fleeing from Delhi, after his defeat by Timur" (C.H.I. Vol III., pp. 527-98)
5. See I.G.I., Vol. XVIII, pp. 297-8. Nagor is a town in Rajasthan and a district, 75 miles north east from Jodhpur city (Comm. History of Gujarat Vol. I. p. 48).
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to his dominions this important city and the district of Nagaur, a Muslim stronghold which the dissolution of the kingdom of Delhi, following Timur's invasion of India, enabled him to acquire. But in his fight with Bhāțis Tānā and Mira—sons of Raningadeo whom Chonda had slain-he was killed at the gate of the city. Tānā and Mirā, who had accepted Islam, had obtained a force from Khizir Khan, then governor of Multan,with which they attacked their enemy.
The death of Chonda occured in 1408 and Nagaur was then lost to the Rathods" (CHI Vol III, p. 522). It again came under the rule of Delhi Sultans. Prince Firuz the heir apparent to the throne of Sultan Muhmmad Tughluq married the beautiful sister of Sadhu and Saharan (Sadharani who were Tank Rajputs. These two brothers accompanied their sister to Delhi and later acce creed of Islam. Saharan got the title of Wajih-ul-Mulk (the suppo of the state) of Didwana. He became governor of Nagaur. Majsul-Mulk had two sons--Zafar Khan (born at Delh and Shams Khan (Comm. History of Gujarat, Vol. I, p. 48). In 1396 Muhamud Shah, the youngest son of Firuz appointed Zafar Khan to the government of Gujarat who later on became the first Sultan of Gujarat under the name of Muzaffar Shah (1396). Shams Khan his brother became governor of Nagaur after his father Wajih-ulMulk. It appears that when Muzaffar Shah become an independent ruler the region of Nagor also cane under Gujarat. So the Sultans of Gujarat could not put up with the depredations of the Rathods of Marwar and the Sisodias of Mewar.
We have noted that Chonda Rathod was killed in 1408 at Nagor and that the place was lost to the Rathods But according to Mehta Nainsi's Khyat, Ran Mal- the eldest son of Chonda recovered the place and took up his residence there. But this does not appear to be true, because according to the Samiddhes'vara Mahādeva Temple inscription (A.D. 1429) Mahārāņā Mokal had to invade Nagor. He defeated Firoz Khan son of Shams Khan, and compelled him to accept his suzerainty. It must have been this event which involved Mokal in a fight with Ahamado who could not tolerate the defeat of his uncle's son.
So when Maharana Kumbhā came to the throne of Mewar there was something like a state of war between Gujarat and Mewar and
1. C.H.I.. Vol. III, p. 294. 2. According tu Sarda, Sadharan, was the name of Zafar Khan when he was a Hindu.
p. 43. Maharana Kumbha. 3. Sarda says, 'Shams Khan had obtained from his elder brother Muzaffar Shah, the
first Sultan of Gujarat, the province of Nagor' p. 44., Maharana Kumba. 4. According to Sarda 1410 A.D. (p. 24). 5. Ibid, p. 25. 6. Sarda, Mabarana Kumbha p. 27.
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INTRODUCTION
Nagor was the principal cause. As Ferishta says "Rana's (Kumbha's) family had long wished for an opportunity to humble the chief of Nagoor."1 This opportunity came to him on account of a family
feud for succession between the two sons of Feroz Khan who died in A.D. 1455. Shams Khan his elder son (named after his grandfather) succeeded him, but as Ferishta says, "Mujahid Khan, brother of Feroz Khan, having expelled Shums Khan, kept possession of the estate." So the nephew Shams Khan immediately applied to Rāņā Kumbha of Chitor for aid. Kumbha agreed to help him on condition that Shams Khan acknowledge his supremacy by demolishing a part of the battlements of the fort of Nagor. To this Shams Khan agreed. Mujahid Khan was defeated and he had to fly to Gujarat. Shams Khan after he was placed on the throne of his father by Kumbha did not carry out the condition of demolishing a part of the fort but later strengthened the fort. This breach of faith brought back Kumbha with a big army to Nagor. Shams Khan was driven out of the fort which was then demolished by Kumbhā.
Shams Khan naturally ran to his kinsman Sultan Qutb-ud-din at Ahmedabad. The Sultan espoused his cause and sent a large army under Rai Ram Chandar and Malik Gaddai to take back Nagor. The Gujrat army was, however, defeated by Kumbha and only remnants returned to Ahmedabad to carry the news of the disaster.
Sultan Qutb-ud-din himself, then, marched against Kumbha who had advanced to Abu to meet him. This was an opportunity for the Rao of Sirohi to seek the aid of Qutub-ud-din to get back Abu from Kumbha who had wrested it from him. Qutub-ud-din sent Malik Shaaban Imad-ul-Mulk to help the Rao of Sirohi and himself marched to Kumbhalgarh. Kumbha, knowing of this ruse, attacked and defeated Imad-ul-Mulk with great slaughter and with forced marches forestalled Qutub-ud-din by reaching Kumbhalgarh before him. Imadul-Mulk joined Qutub at Kumbhalgarh but they could not take the fortress and so defeated returned to Gujarat. According to Ferishta, however, the Rana was defeated and he sued for peace, consenting to pay a large sum in specie and a quantity of jewels; after which Kootab Shah returned to Ahmedabad. But if Qutub-u-din was really victorious it is difficult to understand why he agreed immediately after wards to enter into an offensive alliance with Mahmud Khalii-the Sultan of Malwa aginst Kumbha. Ferishta says, "On his road to Gujarat he was met by Taj Khan, an ambassador from the court of Malwa, who had been sent to propose an offensive alliance against Rāņā Kumbha of Chitor, whose country, it was agreed,
1. p. 40, Ferishta, Vol. IV.
2. Sarda, pp. 94-99.
3. Ferishta, Vol. IV., p. 41.
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should be divided between the allies. All the towns to the southward and lying contiguous to Gujarat, were to be attached to the kingdom of Kootb Shah, while the districts of Mewar and Ahurwara should be reduced and retained by the Malwa forces. The treaty was solemnly signed by the respective envoys at the town of Champanere, in the latter end of the year 860 (A.D. 1456)'1.
This was the most formidable struggle in the generally stormy military career of Rāņā Kumbhā. Mahmud Khalji of Malwa, till now, had made five attempts to avenge his defeat by Kumbha in A.D. 143738 (Sarda p. 93), but Kumbha had proved too powerful for him. When he must have come to know that even the powerful Sultan of Gujarat Qutub-ud-din could not have a clear victory over Kumbha, Mahmud must have thought of forming an alliance with Qutub-uddin. This, according to Mirat-e-Sikandari, he did in the name of Islam to defeat the infidel. (History of Rajputana, Vol. II, P. 616. Mirat-e-Sikandari Baily's History of Gujarat, p. 150).
In pursuance of this treaty of Champaner, Qutub-ud-din in AH. 861, A.D. 1457, matched towards Chitor from the Gujarat side via Abu and Mahmud Khalji from Malwa. According to Ferishta, "The Rana was desirous of opposing the Malwa army first, but Kutub-Shah's approaches were so rapid, that he reached Sirohy and entered the hills, compelling the Rana to come to a general action, in which the Rajput army was entirely defeated; he was defeated a second time, and fled to the hills, whence he deputed an ambassador, and purchased the retreat of the king of Gujarat by the payment of fourteen maunds of solid gold, and two elephants" (Ferishta, Vol. IV, p. 42).
About Mahmud Khalji also, Ferishta says that he was induced to retreat to Malwa by a reasonable donation2.
This account scarcely fits in with the object of the treaty of Champaner which was to divide the kingdom of Mewar between the Sultans of Gujarat and Malwa. It seems rather strange that both the Sultans should have been satisfied with merely rich Nazarānās. It seems that they had failed to achieve their object in spite of their ccombined forces, one attacking Mewar from the west and the other froms the east. The accounts of Rasika-priya and the Chitor Kirtistambha, (Sarda, p. 103) which say that the combined armies of Gujarat and Malwa were defeated by Kumbha, are, therefore, more
credible.
Thus by the end of A.D. 1457, Kumbha was able to consolidate his kingdom of Mewar, containing the Sultans of Gujarat and Malwa to the limits of their respective kingdoms; though the
1. Ferista, Vol. III, pp. 41-42.
2. Ferista, Vol. IV, p. 42.
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affairs of Nagor again involved him in a fight with Qutub-ud-din of Gujarat who after this adventure suddenly died in A. D. 1459 (May 25, Sarda, p. 104).
So for we have reviewed the career of Kumbhā as a warrior and general and as a consolidator of his vast dominion. His claim to greatness, however, does not depend upon his military achievements and martial spirit only. He was also a great builder-builder of fortresses and temples, one who raised the great Jayastambha, Tower of Victory, at Chitor. What is, however, remarkable about him is that he is credited with the authorship of several works in Sanskrit. There was no doubt that he was a great patron of learning.
We shall, first, briefly notice the monuments that be built and encouraged also the prosperous Jain community of his kingdom to build.
Col. Tod, relying probably on some current tradition, says, "Of eighty four fortresses for the defence of Mewar thirty two were erected by Kumbha" (p. 336, Vol. I). We cannot say how far this tradition of thirty two is right, but we get definite information about three forts from inscriptions and references in literary works. For example, the pras'astis at the end of each Ullasa of N. R. K. mention two forts—Kumbhala-meru and Chitrakūța (Chitod).
The first he almost built anew and therefore Kumbhā is described S 'Srimat-Kumbhala meru-navina-nirmita-parāfita-Su-meruņā (p. 107) one who has defeated the excellent Meru mountain by the new construction of resplendent Kumbhalameru'. Naturally the fort was named after him and it has remained fapious in tradition and history as Kumbhala-gaờha or Kumbhalamer. 'According to tradition the original fort was built by the Jain king Samprati the grand son of Asoka Maurya. Considering the tradition about Mauris or Mauryas in Meward there may be some truth in this. There is no doubt, however, that as Tod says, it was 'on the site of a more ancient fortress' (p. 336). Its natural position and the works that Kumbhā raised made it impregnable. That Kumba saw its great strategical importance in those times of constant warfare, particularly, with Mohamadan rulers who were spreading their power around him, shows his insight as a general.
Kumbhā started the construction of the fortress in V.S. 1900, A.D. 1443-44. It was completed on the 13th of the dark half of Chaitra V. S. 1515, A.D. 1458-59. The architect of Kumbhalameru was Mandana--that famous writer on Vāstu-Sāstra - Science of architecture (Sarada, p. 128).
I See Tod's Annals of Rajasthan, Vol. I, p. 265. History of Rajputana, Vol. I..
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As to Chittodgadh, he strengthened its defences and built seven Polas or Pratolis (gates) named Rāma, Hanumān, Bhairava, Lakşmi; Cāmundā; Tārā; and Rajapolas. He constructed a road over which carriages could easily go upto the fort. Before his time there was only a foot-path (Sarda, p. 138). Kumbhā seems to have attached great importance to this road because the reference to Chitod in his pras'astis of N.R.K. pertains to its building. The road going up the ascent to the fort is compared to a 'path leading up to heaven', and therefore Chitod which is an earthly paradise is truly made so by it ( S'rimate - Chitrakūta · Bhauma Svargatā-Yatharthikaraṇa-cărutarapathena).
After conquering Abu from the Parmārs, he built there also a fortress in V. S. 1509, A. D. 1452-53. It has become famous as Achalgadh. On the descent from Achalgadh to Delvādā there are four statues—an equestrian statue of Kumbhā, two of two other Mahārāṇās and the fourth, bigger than these, of the Purohita or family priest of Kumbhā (p. 123).
Chitod is famous for its two magnificent towers : one the Tower of glory-Kirtistambha and the other Tower of Victory--Jayastambha. This Jayastambha is also popularly known as Kirtistambha. The first, fornierly known as 'S'ri-Állata's and locally known as Kaitān Rāņi's was erected by Jija - a Bagherwal Mahajan of the Jain community and dedicated to the first Jain Tirthankara Ādinātha. Most probably it belongs to the 12th century A.D.2
The second Jayastambha was erected by Mahārāṇā Kumbha to celebrate his victory over Sultan Mahmud Khilji I of Mandu (Malwa) in A. D. 1438. The Tower was completed, according to the Pras'asti of the Jayastambha, on Māgha Suda roth Puşya Nakșatra V. S. IS05. A. D. 1449. An inscription in the perforated window in the second storey of the Tower shows that the second storey was completed in V. S. 1499, A. D. 1442-43 (Sarda p. 139). Thus it took about six years to build from the third to the topmost ninth storey. So it may be reasonably guessed that the first two stories might have taken about two to three years and so the foundation of the Tower must have been laid in about 1439–40 A. D. This means that Mahārāņā, Kumbhā, after a year or so of his victory, started building his Jaya-Stambha, may be even earlier, in the first flush of his great victory.
The remarks of Sir Wolseley Haig (Chapter IVX of the Cambridge History of India, Vol. III (P. 361) ) on Kumbhā's Tower of Victory require to be considered here. Estimating the achievements
1 Pp. 107, 229 In some references we have tanvikarana-meaning-'a road making it
easy to reach the earthly paradise - Citrakūta. 2 Fergusson's History of Indian and Eastern Architecture - Vol. II, p. 118; see also Percy Brown's Indian Architectur? Vol. I, 2nd Edn. pp. 149-50.
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of Mahmud Khalji I of Malwa, he says "He (Mahmud) earned a reputation as a builder, and one of his works was a column of victory at Mandu erected to commemorate his success against Rānā Kumbhā of Chitor. The more famous column of victory at Chitor is said to commemorate victories over Mahmud of Gujarat and Mahmud of Malwa. If this is so 'it, like some tall bully lifts its head and lies'. Mahmud I failed to capture Chitor but the Rana never gained any important victory over him."1
The Bombay gazeteer, Vol. I, gives a connected view of these two towers of victory. As far as architectural evidence is concerned 'there stands a paved ramp crowned by a confused ruin facing the east entrance to the great Mosque of Hoshang Ghori. As late as A. D. 1843, this ruin is described as a square marble chamber. Each face of the chamber had three arches, the centre arch in two of the faces being a door. Above the arches the wall was of stone faced with marble. Inside the chamber the square corners were cut off by arches. No roof or other trace of superstructure remained. This chamber seems to be the basement of the column of victory which was raised in A. D. 1443 by Mahmud I (A.D. 1432-1469) in honour of his victory over Rana Kumbha of Chitor.'
According to the writer of the above account the special interest of Mahmud's column lies in being 'if not the original, at least the cause of the building of Kumbhā Rana's still uninjured Victory Tower which was completed in A. D. 1454 at a cost of £ 900,000 in honour of his defeat of Mahmud' (p. 361).
The authorities for Mahmud's Tower of victory are Ferishta's History, Abul Fazal's Ain-i-Akari and Memoirs of Jahangir. But none of these authorities says that it was built to commemorate Mahmud's victory over Rāṇā Kumbhā in A. D. 1444. Ferishta says, "Sooltan Mahmud, having ordered public prayers to be read on this occasion, determined to defer the siege of Chitor till the next year, and returned without molestation to Mandoo, where he built a beautiful pillar seven stories high, in front of a college, which he founded opposite the musjid of Sooltan Hooshang” (p. 210).
It is quite clear that this is not a description of a victory which requires to be commemorated by a column of victory. The originai Persian text of Ferishta no where calls it a 'Fateh Minara' as it would have been, if it were a tower of victory. Nor do Abul Fazal
give it any such name. All of them call it 'Minara-eHaft Manzari'-'a minaret with seven aspects or sides', an octagonal structure. It is not even called a building with seven stories as it is
and Tabangir
and dualSIL SIVCL an
1 According to Sir W. Haig-The successes of the Gahlots against Malwa were gained
by Sangram Singh, not by Kumbha, against Mahmud II, not Mabmud I (p. 361 C. HI, Vol IIl Ch. IVX).
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wrongly translated by Briggs, though the structure had seven stories. But the point mentioned just now that no where a word like 'Fateh' is associated with this Minaret is important. For we find that usually such a word is found associated with a thing if it is done to commemorate a victory. For example, Akbar calls the village of Sikri 'Fathabad' (town of victory) after his conquest of Gujarat, which was soon exchanged in both popular and official use for the synonymous Fathpur (V. Smith-Akbar the great Mogul, p. 75). Similarly Khăn Khaanān after his victory over the ex-Sultan Muzaffar III in 1584 called the garden that he laid out on the site of the battle, near Sar. khej 'Fateh Bagh' (Commissariat's History of Gujrat, Vol. II, p. 29). Mandelslo in his Travels in Western India (A. D. 1638–3 a p. 47) also refers to this event and calls the garden Zyreit bag' (Jitbag) or 'Fateh Wadi' garden of victory. The place is still known as Fateh-Wadi.
Thus, as far as we know, there is no clear evidence to call this ‘Minaret' a Minaret of Victory. Considering the description of Ferishta it would be highly incongruous of Mahmud Khilji to call it a tower of victory. He must have had a greater sense of propriety than his modern English historians would credit him with.
As to Mahmud's Tower being 'the cause of the building of Kumbha's Jayastambha, the dates would go against it. As we have seen the second storey of the Jaya Stambha was completed in A. D. 1442-43 and so the foundation of the Jayastambha must have been laid in A. D. 1410-40, if not earlier. So, if at all, Mahmud meant this ‘Haft-Manzir' to be a tower of victory, he must have taken his inspiration from Kumbhā's Jaya Stambha which was in course of construction in A. D. 1444. So we must conclude that there is no basis for the reinark of Sir W. Haig that the Jaya-stambha of Kumbha like some tall buily lifts its head and lies'.
The Jaya-Stambha of Kumbha has been graphically described by Tod in his Annals of Rajasthan. He compares it to the Kutb-Minár of Delhi which though much higher, is, in his opinion of a very inferior character' (Vol. III, pp. 1819-1820). James Fergusson compares it with 'Trajan at Rome.' and says that the Jayastambha is in infinitely better taste as an architectural object than the Roman example, though in sculpture it may be inferior' (p: 59). Fergusson's description may be quoted here, as it succintly describes this monument. "It stands
1 Percy Brown taking Haft Manjir to be a Tower of Victory. however, says, "It is interesting to note that a little earlier the Chitor Rana himself had erected that famous and beautiful tower, the Jaya Stambha at Chitor to celebrate bis Vicotry over Mahmud, a fact which evidently inspired the latter to counter this when the opportunity occured, with his own triumphal column" (Indian Architecture. Islamic Period, p. 63). James Fergusson is of the opinion that "Muhammadans adopted the plan of ere. cting towers of victo:y to commemorate their exploits. So also did the Chinese whose nine storyed pagodas are almost literal copies of these Indian towers, transe lated into their own peculier mode of expression" (His. of Indian and Eastern Architecture, Vol., II p. 60).
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on a basement, 47 ft. sq. and 10 ft. high, being nine storeys in height each of which is distinctly marked on the exterior. A stair in the interior communicates with each and leads to the two upper storeys, which are open, and more ornamental than those below. It is 30 ft. wide at the base, and 122 ft. in height; the whole being covered with architectural ornaments and scluptures of Hindu divinities to such an extent as to leave no plain parts, while at th: same time this mass of decoration is kept so subdued, that it in no way interferes either with the outline or the general effect of the pillar” (p. 60)
Vincent Smith calls this Jaya-Stambha 'an illustrated dictionary of Hindu mythology' because it contains all the denizens of the Hindu pantheon, with their names attached'. It has also 'images representing the seasons, rivers, weapons and other things unpublished.' Smith thinks 'that whenever this series of sculptures shall be reproduced it will be invaluable as a key to Brahmanical iconography.' In his opinion, however, it is not likely to contribute much to the history of art, because, the better class of art in Rajputana dates from an earlier period ending with the twelfth century' (p. 127 A History of Fine Art in India and Ceylon. Second Edition, Oxford, 1930).
From the inscription in the second storey of the Jaya-Stambha referred to above, it appears that the architect of this magnificent edifice was one Jaitra, assisted by his two sons Nāpā and Punjā (p. 139-Sarda). Whether the Nāpā mentioned here is the same as Nāthā—brother of Mandana is not clear (Sarda p. 137 f.n.).
A treatise on the architecture of Jaya-Stambhas attributed to Kumbhā was engraved on stone-tablets and fixed in the lower part of this Jaya-Stambha (p. 108).
The Pras'asti of this Jaya-Stambha was engraved on several black marble tablets (Tod, p. 1819). Of these only two are now in existence-the first and the last but one containing verses I to 28. & 168 to 187 respectively. We know from a transcript of this prasasti by a Pandit in V.S. 1735, A.D. 1678 that many more slabs existed at the time. Kesava Jhoting-son of Narahari of the Burgu family was entrusted with the composition of the pras'asti, but he died before it was completed. The latter part was composed by his son Mahesa on Monday the sth day of the dark half of Mārgas'ișa, V. S. IS17 (A.D. 1460-61). This Prasasti is a fine historical poem
1 "The dome that now crowns this tower was substituted for an older dome since I
sketched it in 1839" P. 60. Fergusson. 2 A part of the first tablet, found at Chitor and since deposited in the Udaipu Museum, gives Maharana Kumbhakaran's description of the characteristic features
of Towers according to Jaya and Aparajit" (MK, p. 161). 3 This manuscript was in possession of M.M. Gaurishanker Oza. See his History of
Rajputana Vol. II p.631.
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[ 33 giving us the geneology of the Gohils and a detailed account of the achievements of Kumbhā-political, literary and architectural.
Kumbhā was a deeply religious man and built several grand temples. In Chitor, Kumbhalgarh and Abu, in cach of these, he built a temple known
of Kumbhasvāmi. Of these the magnificent temple at Chitor was built in V S. ISOS, A.D. 1448-49.
In Kumbhalgarh he built a temple known as Māmdeva temple in A. D. 1458. It is in the gorge below the fort of the brow of the mountain overlooking the pass. It contains a pras'asti inscribed on immense slabs of black marble which together with the pras'asti on the Jaya-Stambha in Chitor gives us important material for the family of Guhil (p. 135).
Kumbha also renovated several other temples, particularly the temple of Ekalingji-his tutelary deity,
He also built several Kuņdas and stepwells more or less near the temples. Near the Mamadeva temple in Kumbhalgarh he constructed a Kunda (a reservoir) at whose edge he met his death.1
Colnel James Tod refers to the long repose and high prosperity enjoyed during the reign of Hamir, the great-great-grand father of Kumbhā, by the subjects of Mewar, judging by their magnificent public works, when a triumphal column (the Jain Kirtistambha) must have cost the income of a kingdom (p. 320 Vol. I). This remark holds equally good for the reign of Kumbhā also. Not only did he himself build magnificent structures but encouraged his subjects to do the same by giving all sorts of facilities. For example, Shah Gunaraj, a favourite of Kumbhā built temples in Ajahari (Ajari), Pindaryāțaka, and Salera. He also renovated many old temples. Vela-son of Shah Kela--built a temple dedicated to Santinätha, the sixteenth Jain Trithankara, in Chitor. He also built the graceful and richly carved Singar Chauri or Vedi near the Jaya Stambha (pp. 160-161. M. K.).
A Saiva temple on a hill near the Sema village, not far from Ekalingji, and Jain temples in Vasantpur, Bhula, and other places were built by Kumbha's subjects.?
The most magnificent of the temples built in Kumbha's reign is the Jain temple at Ranakpur. This place is about six miles to the south of Sadari. The temple is situated in a valley piercing the western flank of Aravalli. The choice of the site itself shows a fine sense of natural beauty.
1 See Oza's History of Rajputna, Vol. II pp. 620-625). 2 M K.P., 161, See also Oza's History of Rajputana, Vol. II, p. 625 f, n. 1)
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From the inscription on a stone-slab built up in a pillar to the left of the entrance into the temple, dated V. S. 1496 A D. 1439-40, we learn that it was built by Kumbha's favourite Sanghapati Dharanaka. It was dedicated to the first Jain Tirthankar Adinatha. To quote"...by his (Kumbhakarna's) favourite Sanghapati Dharanaka... [by] "Ratna his (Dharanakas) elder brother, being directed by the king Rāņā Shri Kumbhakarna, the temple, founded in his (Kumbhakarna's) own name, of the first lord of the Yuga-Sri Chaturmukha-called Trailokyadipaka, was by his order and favour, bulit in the city of Ranapura and was consecreated by Sri Somasundara Sūri.........This is made by the architect Depäka" (p. 117-Bhavanagar Inscription.)1
This Trailokya-Dipaka built by the architect Depaka for Dharanaka and Ratna is one of the most outstanding pieces of Hinduarchitecture.2
James Fergusson says "Indeed, I know of no other building in India, of the same class, that leaves so pleasing an impression or affords so many hints for the graceful arrangement of columns in an
interior.3
Now we come to the literary works attributed to Kumbha."
The very first epithet of Kumbha in the Pragastis of N. R. K as well as Rasika Priya (p 174 ) is - - श्री सरस्वती रससमुद्रसमुद्भूतकै रवोद्यान नायक०' 'leader in the garden of lotuses growing out of the water of Sarasvati.' So he liked to be known first and foremost as a leader amongst men of learning. The Ekalingamāhātmya would credit him with the knowledge of the Vedas, Smrtis, two Mimamāmsās, Nāṭyas'astra of Bharata with its four Bhasyas Ratanakara, other works on music and dancing, Arthas'astra, the eight grammars, Upanisads, the Darsanas, and Literature in general. It calls him Sarvajna omniscient, but more appropriately Prajna-sphurat-Kesari-a lion throbbing with intellect' (M. K. p. 223, vs. 172, 173, 202).
This same work attributes to him the authorship of a commentary on Gitagovinda, four dramas in the languages of Karnataka, Medapata and Mahārāṣṭra.
The Prasasti on the Jayastambha of Chitod confirms all this and mentions as his works Sangita-raja, Suda-prabandha, and a comme
. राणा श्री कुंभकरणं सर्वोर्वीपतिसार्वभौमस्य विजयमानराज्ये तस्य प्रसादपात्रेण... प्राग्वाटवंशावतंससं० सागरसुत सं० कुरपाल भा० कामलदे पुत्र परमाहंत्त सं० धरणाकेन ज्येष्ठभ्रातृसं० रत्ना भा० रत्नादे पुत्र सं० लाषा. जावड़ा दिप्रवर्द्धमानसंतानयुतेन राणपुरनगरे राणा श्रीकुंभकर्णनरेन्द्रण स्वनाम्ना निवेशिततदीयसुप्रसादादेशतस्त्र लोक्यahaniभिधानः श्रीचतुर्मुखयुगादीश्वरविहारः कारितः प्रतिष्ठितः श्री सोमसुन्दरसूरिभिः gafa¿ a ga¶à¶ etc. pp. 114-115 Bhavanagar Inscriptions.
2 It is a pleasure to note that the temple has been appropriately and carefully reno vated so as to maintain its original beauty by the Jain Community under the able leadership of Seth Kasturbhai Lalbhai of Ahmedabad.
3 For the description of the temple, its plan and views, see Fergussons's History of Indian and Eastern Architecture, Vol. II, pp. 45-48.
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NỘTYARATNAKOS'A
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ntary on Candi-g'ataka. It also calls him a master-poet and expert Viņā player, a dramatist who wrote all the ten varieties of Rūpakas mentioned by Bharata. In dancing he followed the school of Nandikesvara and propitiated S'iva in that way (M. K. pp. 219-220, 156-160, 166-168) that is by dancing before him or causing dance performences in that style. He has thus the title of Abhinava-Bharatā. cārya which is mentioned in the pras'astis of Samgita mimāṁsā including N. R. K. His work on the architecture of Jayastambhas inscribed on the slabs of his Jayastambha at Chitor has already been mentioned.
Thus Kumbha has to his credit two commentaries-one on Gitagovinda called Rasik apriyā and the other on Candis'ataka, four dramas in Mewadi, Kannad, Maharaştri and Rūpakas illustrating different types of drama and a work on architecture and also Sangita mimāmsā. Of these, manuscripts of Samgitamimāmsā, Gitagovinda commentary Rasika priyā, and a slab bearing a portion of his work on architecture are discovered. The Rasikapriyā has been published in the Kavyamala series of Nirnaya Sagara Press. The first volume of Samgitamiinamsā Pathya Ratna Kosa has been published in the Ganga Oriental series and the N. R. K. is being published in R. P. S.
Like most of us, Shri Harabilas Sarda marvels as to how could Kumbhā find leisure to study all this and time to write these works, engaged constantly as he was in warfare, building forts, defending and ruling his kingdom (p. 163). There have been kings in Indian History like Harsa, Bhoja etc. who were supposed to be learned and authors of literary works. (But as to Harșa, his authorship of the three plays had been suspected even in old times and it was supposed that a poet named Dhoyi wrote them). We have seen that the authorship of Samgitam māmsā is contested, between Kālasena and Kumbhakarņa. We have advanced a guess that probably the author was some pandita who first dedicated it to Kunibhakarna and later to Kāla-sena whose identity, however, we are not able to discover. The Ekalinga māhātmya was composed in the time of Kumbha and we find the following verses common in Pāțhyaratnakoșa and Ekalinga Māhātmya :
यः श्रुत्वा भरतं चतुभिरिखिलर्भाष्यश्च रत्नाकर सोपायं बहुशो विलोक्य निखिलानाट्यागमान् वीक्ष्य च । गौरीनन्दिमते, मतङ्ग शिवसंगीते सशार्दूलके दृष्टवा दंतिलदुर्गशक्तिभरिणतीस्ता नारदोक्तीरपि ॥
(91. 7. . q. & fatto 3€; pafaş HEIFT)
(Fatto P08 quoted in M. K. p. 223) A comparative study of Samgitamimāņsā and Ekalinga Māhā.
1 Pandit Amritlal Bhojak cf Patan informs me that he has in his possession a manuscript of the commentary on Candi s'ataka,
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INTRODUCTION tmya might show many such common verses, but as the E. M. is not published we could not investigate the matter. The author of this Māhātmya is also not known. Any way, for the present, we may ascribe the authorship of all these works to Kumbhā until evidence for a contrary opinion is found.
Whatever might have been the fact as to his literay authorship, there is not doubt that Kumbhā was a great patron of learning, and fine arts, such as music, dancing and acting, poetry and drama as well as architecture, sculpture and painting. We have names of (wo poets-Atri and Mahesa father and son who composed the pras'asti of his Jaya Stambha. Mandana--the architect of Kumbhalmeru wrote eight books on architecture (1) Devatāmūrti prakaraṇa, (2) Prtās. ada mandana, (3) Rāja-vallabha, (4) Rūpa-mandana, (s) Vāstu. maņdana, (6) Vāstu S'āstra, (7) Vāstu-Sāra and (8) Rūpavtāra. This Mandana was a son of Sri Slekhara and was a native of Gujarat and brought to Mewar by Mahārāņā Mokala (M. K. p. 167 f. n. I). Mandana's son Govinda wrote Uddhāra-dhoraņi, Kalanidhi, and Dvāra Dipkiā. Maņdana's brother Nāthā wrote Västumanjari.
Thus the reign of Kumbha was glorious not on account of his military achievements only but also on account of the great creative activity in literature, arts and music as well as in building magnificent forts, temples, wells and chiselling of fine sculptures and carvings. It was one of those periods of Indian History which encourage great cultural activities. This period may be compared with the times of Siddharāja and Kumārapāla of Gujrat, and Munja and Bhoja of Malwa. X
Mahāranā Kumbha was murdered by his eldest son Udaysingha when he was seated on the masonry of a tank near the temple of Māmadeva (Kumbhasvamin) in Kumbhalameru. This last event of a tempestuous life took place in A.D. 1468 (M. K. p. 110, p. 107). It appears that about that time Kumbhā was not normal in his behaviour. It is said that Kumbhā one day saw near the temple of Ekalingji a cow dancing, and making a long loud sound, usually made by cows when they feel satisfied. He said nothing at the time but after returning to Kumbhalameru he began to repeat constantly PT. aisa afxq' "Kamadhenu dances'. A Charana composed a stanza purporting that the Gāyatri in the form of the cow who was very unhappy on account of the terror of Muslims began to dance for joy at the door of Sankara when Kumbha killed them :
कुमेण राण हणिया कलम, आजस उर डर उतरिय । तिण दीह द्वार शंकर तण, कामधेनु तंडव करिय ।।
(M. K. p. 109) This story of the Chārana seems to be a later fabrication but the abnormality of Kumbha's mind in his last days seems to be a fact.
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Whether this was insanity or a sort of religious frenzy, it is difficult to say. Possibly the mental stress and strain that Kumbha must have undergone in his unusually stormy life coupled with his emotional temparament might have resulted in a sort of softening of the brain, or probably his deeply religious nature, coupled with a sort of megalomania mnight have seen in the ordinary behaviour of a cow, the dance of the Divine Cow which plays such a great part in the mythology pertaining to Bāpā given in the Ekalinga Purāņa. Whatever it may be, it was a tragic sequel of such an eventful and splendid life
His political career started with a flight for life when his father Mahās rāņa Mokal was murdered by his uncles Chāchā and Māira. He witnessed the court-intrugues which resulted in the murder of his uncle Rāghava who was something like his guardian, the sequel of which was the murder of his brave general Rathod Ranmall. To this was added the constant anxiety of keeping down rebellions in his own dominion and warding off the invasions of his two powerful neighbours, the Sultan of Malwa on the East and the Sultan of Gujrat on the West. That he was equal to this task shows that he possessed intelligence, courage and valour to an uncomṁon degree. But the strain and stress involved in keeping down the court-intrigues and ambitions of his own sons as well as that of fighting external enemies might have ultimately broken even his strong nerves. It is possible to guess that the intrigues of his sons must have been the last straw. The provocation to the parricide Udaysingha requires to be sought out. The explanation
in the court-intrigues in which the Mahārāna sons were involved..
Whatever that may be, it is tragic to note that Mahārāna Kumbhā's regin started with the murder of his father by his uncles and ended with his murder by his son.
The estimate of Mahārāna Kumbhā's personality cannot be better expressed than in the words of Colnol Tod who says that he had the energy of Hamir, Lakha's taste for the arts, and a genius comprehensive as either and more fortunate (p. 334 Vol. I). In accordance with the Hindu ideal of a hero, he has been thus described by the poet of the Jaya-Stambha-prasasti :
धीरोद्धतं समिति संसदि धीरशान्तं मित्रेषु भूपतिषु भूपमुदारधीरम् । कान्तासुधीरललितं कलयन्ति सन्तो ये नायकावलिगुण[व्रज] जन्मभूमिम् ।। १६५
: (quoted in M. K. p. 220)
prob
1 This inscription and the Rasika priyä mention the names of two queens of Kumbha
Kumbhaldevi and Apūrvadevi,
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APPENDLX I
रसरत्न-कोश (Ms. 9933. Central Library, Baroda)
पत्र ३ k. इति श्रीराजाधिराजश्रीकुंभकर्णविरचिते संगीतराजे षोडशसाहस्र यां संगीतमीमांसायां रसरत्नकोशे रसलक्षणोल्लासे रसस्वरूपनिरूपणं नाम प्रथमं परीक्षणं ।
पत्र ७ a. इति श्रीराजाधिराजश्रीकुंभकर्णमहीमहेन्द्रण विरचिते संगीतराजे षोडशसाहस्र यां संगीतमीमांसायां रसरत्नकोशे रसलक्षणोल्लासे रससत्त्वनिरूपणं [नाम] द्वितीयं परीक्षणम् ।।
पत्र ८ b. इति श्रीमहाराजाधिराजश्रीकुंभकर्णविरचिते संगीतराजे षोडशसास्र यां संगीतमीमांसायां रसरत्नकोशे रसलक्षणोल्लासे रसाश्रये परीक्षणं तृतीयम् ।। . .
पत्र १५, १६. इति श्रीराजाधिराजश्रीकुंभकर्णविरचिते संगीतराजे षोडशसाहस्र यां . संगीतमीमांसायां रत्नकोशे रसोल्लासे विभाषादिपरीक्षणं नाम चतुर्थ परीक्षणं ।। श्री ॥
इति श्रीसरस्वतीरससमुद्भूतकरवोद्याननायकेन, अभिनवभरताचार्येण मालवांभोधिमाथमंथमहीधरेण, योगिनीप्रसादासादितयोगिनीपुरेण, मंडलदुर्गोंद्धरणोद्धृतसकलमंडलाधीश्वरेण, अजयजयाजयविभवेन, यवनकुलकालकालरात्रिरूपेण शाकंभरीरमणपरिशीलनपरिप्राप्तशाकंभरीतोषितशाकंभरीप्रमुखशक्तित्रयेण, नागपुरोद्ध लनधर्षितनागपुरेण, अर्बुदाचलग्रहणसंदर्शिताचलाद्भुतप्रतापेन, गुर्जराधीश[धीर]त्वोन्मूलनप्रचंडपवनेन, श्रीमत्कुंभलमेरुनवीन निर्मितसुमेरुणा, श्रीचित्रकूटभीमस्वर्गयथार्थीकृतरचितचारुतरपथेन श्रीमेदपाटसमुद्रसंभवरोहिणीरमणेन, अरिराजमत्तमातंगपंचाननेन, प्ररुढपत्रयवनदवदहनंदवानलेन, प्रत्यर्थिपृथिवीपतितिमिरततिनिराकरणप्रौढप्रतापमार्तडेन वैरिवनितावैधव्यदीक्षादानदक्षोडकोदंडदंडमंडिताखंडभुजदंडेन भूमंडलाखंडलेन, श्रीचित्रकूटविभुना, अध्युष्टतमनरेण गज-नरतुरगाधीशराजत्रितयतोडरमल्लेन, वेदमार्गस्थापनचतुराननेन, याचककल् मेण, वसुंधरोद्धरणादिवराहेण परमभागवतेन, जगदीश्वरीचरणकिंकरेण, भवानीपतिप्रसादाप्तापसादवरप्रसादेन, राजगुर्वादिविरुदावलीविराजमानेन राजाधिराजमहाराजश्रीमोकलनंदनेन राजाधिराजश्रीकुंभकर्णमहीमहेंद्रेण विरचित उल्लासः पूर्णः॥ उल्लासश्च समाप्ति समगादिति विततमतीनामभिमर्तासद्धिरस्तु ।। श्री। __ पत्र २० a. इति श्रीराजाधिराजश्रीकुंभकर्णमहीमहेंद्रेण विरचिते संगीतराजे षोडशसाहस्र यां संगीतमीमांसायां रसरत्नकोशे विभावोल्लासे नायकभेदवर्णनं नाम प्रथमं परीक्षणं ' समाप्तं ।।
पत्र ३१ b. इति श्रीराजाधिराजश्रीकुंभकर्णेन विरचिते संगीतराजे षोडशसाहस्र यां संगीतमीमांसायां[रस] रत्नकोशे विभावोल्लासे नायिकावर्णनं नाम द्वितीयं परीक्षणं समाप्तं ॥
पत्र ३५ ३. इति श्रीमहीमहेंद्रश्रीकुंभकर्णविरचिते संगीतराजे षोडशसाहान यां संगीतमीमांसायां रसरत्नकोशे विभावोल्लासे चेष्टादिविभावनं नाम तृतीयं परीक्षणं समाप्तं ।।
पत्र ३८ a. इति श्रीसरस्वतीरससमुद्भूतकरवोद्याननायकेन, अभिनवभरताचार्येण मालवांभोधिमाथमंथमहीधरेण, मंडलदुर्गाद्धरणोद्ध तसकलमंडलाधीश्वरेण, अजयजयाजय
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[ 39 ] विभवेन, यवनकुलकालरात्रिरूपेण शाकंभरीरमणपरिशीलनपरिप्राप्तशाकंभरीरमणपरि. शीलनपरिप्राप्तशाकंभरीतोषितशाकंभरीप्रमुखशक्तित्रयेण, नागपुरोद्धू लनर्षितनागपुरेण, इत्यादि बिरुदावलीविराजमानेन श्रीमहाराजाधिराजमहाराणश्रीकुंभकर्णमहीमहेंद्रविरचिते संगीतराजे षोडशसाहस्र यां संगीतमीमांसायां रसरत्नकोशे उद्दीपनविभावपरीक्षणं नाम चतुर्थ समाप्तं ।। उल्लासश्च समाप्तः ।।
पत्र ४७ ३. इति श्रीसरस्वतीरससमुद्भूतकरवोद्याननायकेन, अभिनवभरताचार्येण, मालवांभोधिमाथमंथमहीधरेण, अजयमेरुजयाजयविभवेन, यवनकुलकालकालरात्रिरूपेण, शाकंभरीरमणपरिशीलनपरिप्राप्तशाकंभरीतोषितशाकंभरीप्रमुखशक्तित्रयेण, नागपुरोळू लन धर्षितनागपुरेण, अर्बुदाचलग्रहणसंदर्शिताचलाद्भुतप्रतापेन, गूर्जराधीशधीरत्वोन्मूलनप्रचंडपवनेन, श्रीमत्कुंभलमेरुनवीननिर्मितसुमेरुणा, श्रीचित्रकूटभौमस्वर्गीकृतयथार्थीकरणरचितचारुपथेन, प्ररूढपत्रयवनदवदहनदवानलेन, मेदपाटसमुद्रसंभवरोहिणीरमणेन, अरिराजमत्तमातंगपंचाननेन प्रत्यर्थिपृथिवीपतिविमिरततिनिराकरणप्रौढप्रतापमार्तडेन, वैरिवनितावैधव्यदीक्षादानदक्षोइंडकोदंडदंडमंडिताखंडभुजदंडेन, भूमंडलाखंडलेन, श्रीचित्रकूटविभुना, अध्युष्टतमनरेश्वरेण, गजनरतुगाधीशराजत्रितयतोडरमल्लेन, वेदमार्गस्था[प] नचतुराननेन, याचककल्पनाकल्पद्र मेण, वसुंघरोद्धरणादिवराहेण, परमभागवतेन, जगदीश्वरीचरणकिरेण भवानीपतिप्रसादादाप्तापसादप्रसादेन, राजगुर्वादिविरुदावलीविराजमानेन, राजाधिराजमहाराणश्रीमोकलनंदनेन ॥ इति श्रीराजाधिराजश्रीकुंभकर्णमहीमहेंद्र ण विरचिते संगीतराजे षोडशसाहस्र यां संगीतमीमांसायां रसरत्नकोशे अनुभावकोल्लासे प्रथमं नाम तृतीयं अनुभाव. परीक्षणं॥
५० B. इति श्रीराजाधिराजकुंभकर्णमहीमहेंद्रेण विरचिते संगीतराजे षोडशसाहस्र यां संगीतमीमांसायां रसरत्नकोशे अनुभावोल्लासे अवस्थानिरूपणं नाम तृतीयं परीक्षणं समाप्तं ।
पत्र ५३ b. इति श्रीराजाधिराजश्रीकुंभकर्णविरचिते संगीतराजे षोडशसाहस्र यां संगीतमीमांसायां रसरत्नकोशे अनुभावोल्लासे सात्त्विकभावपरीक्षणं तृतीयं समाप्तं ।।
पत्र ५५ a. इति श्रीसरस्वतीरससमुद्भूतकैरवोद्याननायकेन, अभिनवभरताचार्येण, मालवांभोधिमाथमंथमहीधरेणः योगिनीप्रासदासादितयोगिनीपुरेण, मंडलदुर्गोदरणोद्धृतसकलमंडलाधीश्वरेण, अजयमेरुजयाजयविभवेन, यवनकुलकालरात्रिरूपेण, शाकंभरीरमणपरिशीलनपरिप्राप्तशाकंभरीप्रमुखशक्तित्रयेण, नागपुरोळू लनधर्षितनागपुरेण, अर्बुदाचलग्रहणसंदर्शिताचलाद्भुतप्रतापेन, गुर्जराधीशधीरत्वोन्मूलनप्रचंडपवनेन, श्रीमत्कुंभलमेरुनवीननिर्मित सुमेरुणा, श्रीचित्रकूटभौमस्वर्गीकृतयथार्थीकरणरचितचारुतरपथेन, मेदपाटसमुद्रसंभवरोहिणीरमणेन, अरिराजमत्तमातंगपंचाननेन, प्ररूढ पत्रयवनदहनदवानलेन, प्रत्यर्थिपृथिवीपतितिमिरततिनिराकरणप्रौढप्रतापमार्तण्डेन, वैरिवनितावैधव्यदीक्षादानदक्षोडकोदंडदंडमंडिताखंडभुजदंडेन, भूमंडलाखंडलेन, श्रीचित्रकूटविभुना, अध्युष्टतमनरेश्वरेण, गजनरतुरगाधीशराजत्रितयतोडरमल्लेन वेदमार्गस्थापनचतुराननेन, याचककल्पनाकल्पद्र मेण, वसुंधरोद्धरणादिवराहेण, परमभागवतेन, जगदीश्वरीचरणकिंकरेण, भवानीपतिप्रसादाप्तापसादवरप्रसादेन राजाधिराजश्रीमहाराज महाराणाश्रीमोकलनंदनेन राजाधिराजश्रीकुंभकर्णेन विरचिते संगीत
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- [ 40 ] राजे षोडशसाहस्र यां संगीतमीमांसायां रसरत्नकोशे अनुभावोल्लासे प्रवासाद्यनुभाववर्णनं चतुर्थ परीक्षणं ।। उल्लासश्च समाप्तः ।। श्री __ पत्र ६१ b. इति श्रीकुंभकर्णमहीमहेंद्रण विरचिते संगीतराजे षोडशसाहस्र यां संगीतमीमांसायां रसरत्नकोशे व्यभिचारिसंज्ञकोल्लासे निर्वेदादिरसनिरूपणं प्रथमं परीक्षणं ॥ ___ पत्र ६२ b. इति श्रीराजाधिराजमहामंडलेश्वरमहाराणाश्रीकुंभकर्णमहीमहेंद्रेण विरचिते संगीतराजे षोडशसाहस्र यां संगीतमीमांसायां रसरत्नकोशे अनुभावोल्लासे प्रतिरसं भावावस्थानसूचकं नाम द्वितीयं परीक्षणं समाप्तं ।।
पत्र ६५ b. इति श्रीराजाधिराजश्रीकुंभकर्णमहीमहेंद्रेण विरचिते संगीतराजे षोडशसाहस्र यां संगीतमीमांसायां रसरत्नकोशे व्यभिचारिभावोल्लासे रससंकरादिनिरूपणं तृतीयं परीक्षणं ।। पत्र ६६ b. यं प्रासूत समस्तरान[]शिरोरत्नं नृपो मोकलः
सौभाग्यैकनिकेतनं गुणवतीसौभाग्यदेवीसुतः । आचंद्रार्कमुद(? दे)हेतुरधिकं संगीतराजश्चिरं जीयात् कुंभनर रेश्वरेण रचितस्तेन (? नो)विकल्पाश्रु(ल्पद्र) णा ॥ १४ । श्रीमद्विक्रमकालतः परिगते नंदाभ्रभूत्तत्क्षितो (तक्षितौ)।
[१५०६) वर्षेऽक्षाद्रयनलेंदुशाकसमये १३७४ संवत्सरे च ध्रुवे । ऊर्जे मासि तिथौ हरे रविदिने हस्तक्षयोगे तथा योग (गे) चाभिजिति स्फुटोऽयमभवत्संगीतराजाभिधः ॥ १५ ग्रंथेऽत्र पञ्चोत्तररत्नकोशा उल्लाससंज्ञा खलु विंशतिश्च । परीक्षणानां गदिता ह्यशीतिः संख्यासहस्राणि च षोडशात्र ॥ १६ ॥ चंडीशश तक व्याकरणेन गीतगोविंदवृत्त्या सुकृतं यदत्र ।
संगीतराजेन च तेन चंडी हरिहरः प्रीतिमवाप्नुवन्तु ॥ १७ ॥ इति श्रीसरस्वतीरससमुद्भूतकरवोद्याननायकेन अभिनवभरताचार्येण मालवांभोधिमाथमंथमहीधरेण योगिनीप्रसादासादितयोगिनीपुरेण मंडलदुर्गोद्धरणोद्ध तसकलमंडलाधीश्वरेण अजयजयाजयविभवेन यवनकुलाकालकालरात्रिरूपेण शाकंभरीरमणपरिशील[न] परिप्राप्तशाकंरीप्रमुखशक्तित्रयेण नागपुरोद्ध लनषितनागपुरेरण अर्बुदाचलग्रहणसंदर्शिताचलाद्भुतप्रतापेन गूर्जराधीशधीरत्वोन्मूलनप्रचंडपवनेन श्रीमत्कुंभलमेरुनवीननिर्मितसुमेरुणा श्रीचित्रकूटभौमस्वर्गीकृतयथार्थकरणरचितचारुतरपथेन मेदपाटसमुद्रसंभवरोहिणीरमणेन अरिराजमत्तमातंगपंचाननेन प्ररूढपत्रयवनदवदहनदवानलेन प्रत्यथिपृथिवीपतितिमिरततिनिराकरणप्रौढप्रतापमार्तडेन वैरिवनितावैधव्यदीक्षादानदक्षोडकोदंडमंडिताखंडभुजादंडेन भूमंडलाखंडलेन श्रीचित्रकूटविभुना अध्युष्टतमनरेश्वरेण गजनरतुरगाधीशराजत्रितयतोडरमल्लेन वेदमार्गस्थापनचतुराननेन याचककल्पनाकल्पद्रु मेण वसुंधरोद्धरणादिवराहेण परमभागवतेन जगदीश्वरीचरणकिंकरेण भवानीपतिप्रसादाप्तापसादवरप्रसादेन राजगुर्वादिबिरुदावलीविराजमानेन राजाधिराजमहाराजमहाराणाश्रीमोकलनंदेन राजाधिराजश्रीकुंभकर्णेन विरचिते संगीतराजे षोडशसाहस्र यां सगीतमीमांसायां रसरत्नकोशे संचारिभावोल्लासे ग्रंथसमाप्ति (?:) परीक्षणं चतुर्थ समाप्तं ॥ शिवमस्तु । श्री
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वाद्यरत्नकोश
(Ms. 9934. Central Libarary, Baroda)
पत्र E a. इति राजाधिराज श्री कुंभकर्ण मही महेंद्र ण विरचिते संगीतराजे षोडशसाहस्रयां संगीतमीमांसायां वाद्य रत्नकोशे ततोल्ला से एकतंत्री लक्षणं प्रथमं परीक्षणं समाप्तं ॥
पत्र १३ ३. इति श्रीराजाधिराज श्री कुंभकरणं मही महेंद्रण विरचिते संगीतराजे षोडशसाहस्रयां संगीतमीमांसायां वाद्य रत्नकोशे ततोल्लासे नकुलादिपरीक्षणं समाप्तं ।।
पत्र २४ ३. इति श्रीराजाधिराजश्री कुंभकर्णम ही महेंद्र विरचिते संगीतराजे षोडशसाहस्रयां संगीतमीमांसायां वाद्यरत्नकोशे तंतोल्लासे मत्तकोकिलालक्षणं तृतीयं परीक्षणं ॥
पत्र ३७ ३. इति श्रीसरस्वती रससमुद्भ तकैरवोद्याननायकेन, अभिनवभरताचार्येण, मालवांभोधिमाथमंथमहीधरेरण, योगिनीप्रसादासादितयोगिरणी पुरेण, मंडलदुर्गोद्धरणोद्धृतसकलमंडलाधीश्वरेण, अजयमेरुजयाजेयविभवेन, यवनकुलाकालकालरात्रिरूपेरण, शाकंभरीरमरणपरिशीलनपरिप्राप्तशाकंभरीप्रमुख शक्तित्रयेण, नागपुरोद्ध लनर्धार्षतनागपुरे, अर्बुदाचल ग्रहरणसंदर्शिताचलाद्भुतप्रतापेण, गूर्जराधी [ शधी ] रत्वोन्मूलन प्रचंडपवनेन श्रीमत्कुंभलमेरुनवीननिर्मित पराजित सुमेरुरणा, श्रीचित्रकूट भौम स्वर्गतायथार्थीकरण रचितचारुपथेन, मेदपाटसमुद्रसंभव रोहिणीरमरणेन श्ररिराजमत्तमातंगपंचानेन प्ररूढपत्रयवनदवदहन दवानलेन, प्रत्यथि पृथिवीपतितिमिरतति निराकरण प्रौढप्रतापमार्तंडेन, वैरिवनिता वैधव्यदीक्षादानदक्षोद्द डकोदंडदंड मंडिताखंडभुजा दंडेन, भूमंडलाखंडलेन, श्रीचित्रकूटविभुना, प्रध्युष्टतमनरेश्वरेण, गजनरतुरगाधीश राजत्रितयतोडरमल्लेन, वेदमार्गस्थापनचतुरानने [न], याचककल्पना कल्पद्र ुमे, वसुंधरोद्धरणादिवराहेण, परमभागवतेन, जगदीश्वरीचरण किंकरेण, भवानीपतिप्रसादाप्तापसादवरप्रसादेन, राजगुर्वादिबिरुदावलीविराजमानेन, राजाधिराजश्री मोकलेन्द्रनंदनेन, राजाधिराजश्री कुंभकर्ण महीमहेंद्र णं विरचिते संगीतराजे षोडशसाहस्रयां संगीतमीमांसायां वाद्यरत्नकोशे ततोल्ला से किनरी परीक्षणं चतुर्थ समाप्तं । ततोल्लासः समाप्तः ॥
पत्र ४२ b इति श्री राजाधिराजश्री कुंभकर्णविरचिते संगीतराजे षोडशसाहस्रयां संगीतमीमांसायां वाद्यरत्न कोशे सुशि (षि) रोल्ला से वंशनिरूपणपरीक्षणं प्रथमं समाप्तं ॥
पत्र ५२ a. इति श्रीकुंभकर्णविलासे (? विरचिते ) संगीतराजे षोडशसाहस्र यां संगीतमीमांसायां वाद्य रत्न कोशे सुशि (षि) रोल्ला से वंश संबंधिस्वरोत्पत्तिपरीक्षणं द्वितीयं समाप्ति समगादिति || श्री ॥
पत्र ५३ a. इति श्रीराजाधिराजश्री कुंभकर्णविरचिते संगीतराजे षोडशसाहस्र यां संगीतमीमांसायां वाद्यरत्नकोशे सुशि (षि) रोल्लासे दोषपरीक्षणं तृतीयं ॥
पत्र ५५ ३. इति श्रीसरस्वती रससमुद्भूतकैरवोद्याननायकेन, अभिनवभरताचार्येण, मालवाभोधिमाथमहीधरेण, योगिनीप्रसादासादितयोगिनी पुरेण, खंडलदुर्गोद्धरणोद्धृतसकलमंडलाधीश्वरेण, अजयमेरुंजयाजयविभवेन, यवनकुलाकालकालरात्रिरूपेण, शाकंभरीरमरणपरिशीलनपरिप्राप्तशाकंभरीतोषितशाकंभरीप्रमुख शक्तित्रयेण, नागपुरोद्ध लनघर्षितनागपुरे, अर्बुदाचलग्रहरणसंदर्शिता चल । द्भुत प्रतापेण, गौर्जराधीशधीरत्वोन्मूलनप्रचंडपवनेन, श्रीमत्कुंभल मेरुनवीन निर्मित पराजित सुमेरुरणा श्री चित्रकूटभौमस्वर्गतायथार्थीकरणरचितचारुतरपथेन, मेदपाटसमुद्रसंभव रोहिणीरमणेन, अरिराजमत्तमातंगपंचानेन प्ररूढपत्र यवन दवदवा -
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[ 42 ]
नलेन, प्रयथ पृथिवीपतितिमिरततिनिराकरण प्रौढप्रतापमार्त डेन, वैरिवनिता वैधव्य दीक्षादान दक्षोद्दण्डकोदंडदंडमंड मंडिताखंडभुजादंडेन, भूमंडलाखडनेन श्रीचित्रकूट विभुना, अध्युष्टतमनरेश्वरेण, गजनरतुरगाधीश राजत्रितयतोडरमल्लेन, राजगुर्वादिबिरुदावली विराजमानेन, राजाधिराजश्रीकुंभकर्ण महीमहेंद्रण विरचिते संगीतराजे वाद्यरत्नकोशे सुशि (षि) रोल्ला से पादादिपरीक्षणं चतुर्थं समाप्तं । उल्लासश्च समाप्तः ॥
पत्र ६३ b. इति श्रीराजाधिराजमही महेंद्रश्री कुंभकर्णविरचिते संगीतराजे वाद्यरत्नकोशे घनोल्ला से मार्गतालपरीक्षणं प्रथमं समाप्तं ॥
N.B. Three Parikṣaņas of this Ullasa are wanting. So does the whole of Avanaddhollāsa. The Ms. at the beginning and at the end is named Ghanollāsa-pustakam.
पाठ्यरत्नकोश
( Ms. 9932. Central library, Baroda )
पत्र ५ b. इति श्रीराजाधिराजश्री कुंभकर्णविरचिते संगीतराजे पाठ्यरत्नकोशे अनुक्रमणिकोल्लासे कर्तृ प्रशंसानाम प्रथमं परीक्षणं ।।
पत्र ८ . इति श्रोराजाधिराजमहीमहेंद्रश्री कुंभकर्ण विरचिते पाठ्यरत्नकोशे अनुक्रमरिणकोल्ला से प्रारंभसमर्थनं नाम द्वितीयं परीक्षणं ॥
पत्र ८ b. इति श्रीराजाधिराजमही महेंद्रविरचिते संगीतराजे पाठ्यरत्नकोशे अनुक्रमणिकोल्लासे संगीतस्तुतिर्नाम तृतीयं परोक्षरणं ॥
पत्र १० b. सरस्वती रससमुद्भूतकै रवोद्याननायकेनाभिनवभरताचार्येण, मालवांभोधिमाथमंथमहीधरेण मेदपाटसमुद्रसंभव रोहिणी रमणेन, अरिराजमत्तमातंगपंचाननेन प्रारुढ - पत्रयवनदवदहन दवानलेन, प्रत्यर्थिपृथिवीपतितिमिरततिनिराकरण प्रौढप्रतापमार्तण्डेन, वैरिवनितावैधव्यदीक्षादानदक्षो दंड कोदंड दंडमंडिताखंडभुजादंडेन भूमंडला खंडलेन, श्रीचित्रकूटविभुना अध्युष्टतमनरेश्वरेण गजनरतुरगाधीश राजत्रितयतोडरमल्लेन, वेदमार्गस्थापन चतुराननेन, याचककल्पनाकल्पद्र ुमेरण, वसुंधरोद्धरणादिवर। हेरण, परमभागवतेन, जगदीश्वरीचरणकिक रेण, भवानीपतिप्रसादाप्तापसादवरप्रसादेन, राजगुर्वादिबिरुदावलीविराजमानेन, राजाधिराजश्री - कुंभकर्णविरचिते श्रीसंगीतराजे पाठ्यरत्नकोशेऽनुक्रमणिकोल्लासेऽनुक्रमणिको नाम चतुर्थ परीक्षणं ॥ उल्लासश्च प्रथमः समाप्ति समगादिति विततमतीनामभिमतसिद्धिरस्तु ॥
पत्र १३ . इति श्रीराजाधिराज • पदोल्लासे पदपरीक्षणं प्रथमं ।
पत्र १४ . इति श्रीराजाधिराजश्रीकुंभकर्णं० वाक्यपरीक्षणं नाम द्वितीयं समाप्तं ॥ पत्र २० ३. इति श्रीराजाधिराजश्रीकुं० पदोल्लासे रसपरीक्षणं तृतीयं समाप्तं ॥ पत्र २३ b. इति श्रीराजाधिराजश्रीकुं० परिभाषानाम चतुर्थ परीक्षणं परिपूर्ण पदोल्लासश्च समाप्तः ॥
पत्र २५ ३. इति श्रीराजाधिराजश्रीकुं० छंदउल्लासेऽनुष्टुप्परीक्षणं प्रथमं समाप्तं ॥
Page #83
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[43]
पत्र २६ b. इति श्रीमहाराजाधिराजश्रीकुं० छंद उल्लासे वृत्तशासनं परीक्षणं नाम द्वितीयं समाप्तं ||
पत्र ३१ b. इति श्रीराजाधिराजश्रीकुंभकर्णविरचिते तत्त्वप्रदीपे पाठ्यरत्नकोशे छंद उल्लासे आर्यावलोकनं नाम तृतीयं परीक्षणं ॥
पत्र ३२ a. इति श्रीराजाधिराजमहीमहेंद्रश्री कुंभकर्णविरचिते छंद उल्लासे प्रस्तारपरिपाटी नाम चतुर्थ परीक्षणं ॥ छंद उल्लासश्च तृतीयः समाप्तः ।।
पत्र ३२ b. इति श्रीमहाराजाधिराजाश्री कुंभकर्णविरचिते संगीतराजे पाठ्यरत्नकोशेऽलंकारोल्लासे उद्देशपरीक्षणं प्रथमं समाप्तं ।
पत्र ३८ ३. इति श्रीराजाधिराजश्री कुंभकर्ण महीमहेंद्र विरचिते संगीतराजे सहस्रयां संगीतमीमांसायां पाठ्यरत्न कोशेऽलंका रोल्लासे लक्षणपरीक्षरगं द्वितीयं ॥ पत्र ३६ a इति श्रीमहाराजाधिराजश्रीकुंभ० शब्दालंकारपरीक्षणं तृतीयं ॥
पत्र ४१ a. इति श्री राजाधिराजन (?) प्ररिराज मत्तगजसिंहेन, मेदपाटसमुद्रसंभव रोहिणी रमणेन, अभिनवभरतेन, अश्वषति- नरपति- गजपति राजत्रयतोडरमल्लेन, राजगुरु चाप गुरु-सेलगुरु इत्यादिबिरुदावलीविराजमानेन, महीमहेंद्र श्री कुंभकर्णेन विरचिते संगीतराजे षोडशसाहस्त्रयां संगीत मीमांसायां पाठ्यरत्नकोशे अलंकारोल्लासे दोषगुणोल्लासः पाठ्य रत्न कोशश्च समाप्ति समगादिति विततमतीनामभिमतसिद्धिः ॥
The portion of the Ms. from Folios 51 to 87 appears to be Gitarat nakosa. There is no puspika or colophon giving the name or titles at the end. Kumbha and Citrakuța are mentioned in stray verses.
APPENDIX II
श्रास्ते करर्णादेशः सुविमलयशसा पूरिताशः पृथिव्यां कावेरीकृष्णवेणीतरलतरतरङ्गार्द्रदक्षोत्तरांसः ।
हृष्टः संश्लिष्टपूर्वापरनिजवपुषा प्राच्यपाश्चात्यवेले पाथोनाथप्रसत्ति प्रवलितनिखिलस्वाङ्गसौभाग्यलक्ष्मीः ।। ५ ।।
भोगिस्थिता भोगवती च नित्यं
सुपर्व रम्या दिविजस्थलीव । चकास्ति
पुरीह विद्यानगरी
तुङ्गातरङ्गरभित पवित्रा ॥ ६ ॥ एतां शास्ति प्रशस्तप्रतिभटमुकुटप्रोतनिर्यत्न निर्यद्रत्नज्योतिः प्रवालावनमनचटुल| टोपतापप्रतापः । कर्णाटाघाटलक्ष्मी चरणपरिलसत्पौरुषोत्कर्षशाली प्रौढ : श्रीदेवराजो विजयनृपसुतो यादवानां वरेण्यः ॥ ७ ॥
Page #84
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________________
[ 44 ]
विश्वंभराभाग्यकृतावतार
स्तस्यास्ति पुत्रो यशसा पवित्रः ।
संगीतसाहित्यकलास्वभिज्ञः प्रतापवा निम्मडदेव एषः ।। ८ ।। सुधर्मेव सभा यस्य समुल्लासिकलाधरा । गान्धर्वगुणगम्भीरा विद्याधरविनोदिनी ॥ ६ ॥ वाचा गेयेन नित्यं समुचितकुसुमैस्तोषितार्घाङ्गयोषः कीर्त्या व्याप्तस्त्रिलोकीमभिनवभरताचार्य लक्ष्मप्रपूर्व्या । पादाग्रे वीरभूषामणिगणविलसत्सर्ववाग्गेयकारस्तस्यामस्ति प्रशस्तश्रुतिगणचतुरः कल्लिनाथार्यवर्यः ॥ १० ॥ [ संगीतरत्नाकरः । चतुरकल्लिनाथविरचितकलानिध्याख्यटीकासवं लितः । संपादको मङ्गेशशर्मा आनन्दाश्रमसंस्कृतग्रन्थावलिः ग्रन्थाङ्कः ३५, पूना ख्रिस्ताब्दाः १८९ ६|
NOTE : Samgitarāja was completed in V. S. 1509, Saka 1374, on Kārtika darkhalf 11 (month ending in Pürnima), Sunday, October 8. 1452 A.D: (See p. 40). The day and the date given in the M. K. (p. 208) Wednesday the 13th day of the dark half of Kārtika...... Ith October, 1456 A.D.'-are not correct.
Page #85
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INDEX
(The numbers refer to pages of the Introduction; 'n' refers to Foot Note.)
Abhinava Bharatācārya, a title,
35 n.
Abu, 18, 26, 27, 29, 33. Abul Fazal 30.
Acala (Achala), fort of, 13. Achalgaḍb, fort of, 29.
Achal Singh, the Khichi Chief of Gagroon, 16 n.
Agastipura, 13.
Ahamad, 16, 25.
Ahmadnagar, district of, 13, 14.
Ahmad Shah, 13.
Ahmedabad, 21, 24, 26.
Ahmedshah I, of Gujarat, 20.
Ahurwara, 27.
Ajari (Ajahari), in Sirohi, 18, 33. Ajayameru (Ajmer), 20.
10.
Ajim Khan,
Ajja, 19.
Akbar, 31.
Akola, district of, 14.
Alain Danielou, 9.
Ala-ud-Din Ahmed Bahmani, 11.
Allața, 29.
Amargarh, fort of, 18.
Amiran-e-Sadah, 24.
Āmodaraya, 6.
Aminshah, 23.
Amritlal Bhojak, 25 n
Anahilwar Patan, 24. Ananya Mallika, Añjanādri, 12.
IQ.
Apurvadevi, a queen, 37 n.
Aparajit, 32 n.
Aravalli, 33.
Arvind, dynasty of, 12. Aṣṭādas'agiri, 12, 13.
Asoka, 28.
Atri, author of Jaya Stambha prasāsti, 36. Aurangabad, 13.
Azam Humayun, 23. Azam Khan, 10.
Baggularāja, 10, 11, 15. (Baglan
Bāglān, II, 14.
(Bagula,
Baggula,
II, 14.
Bagumra, 7 n.
Baharji, 11.
Bayley, author of the 'History of Gujarat', 27. Bamboda, 18. Baippa Nayaka,
12.
Bana Māta, temple of, 21. Bāpā Rāval (Bāpā), 22, 37. Baroda, 24.
Basantgarh, 18.
Beḍura, II.
Beḍura-Bhūpāla, also Boddhura
bhūpāla, 10, II.
Belur, 11.
Bellur, 12, 14.
Berar, 14. Bhairavasena,
II.
Bhana, 22 n.
Bharata, author of 'Natyas astra'
2, 35
(Bharatakos'a Bharatakos'a, 2,5 n. Bhaskaracarya, 7.
Bhaskaravaṁs'a, 8.
Bhavanagar-inscriptions of,
Bhavani, II.
34, 34 n.
Page #86
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________________
[ 46 ]
Bhillama, 7 n. 8. Bhoja, 35, 36. Bhula, 18, 33. Bikaner, 20. Brahmagiri, 12, 14. Brahmādrijātā, 12. Briggs, 22, 31. Broach, 14. Bombay, 13, 14, 30. Bujārakhāna, 10. Bundi, 18, 20, 21.
Devarāya II, 9. Dhoyi, 35. Didwana, 25. Dipsingh, 21. Dodiyā Narsingh, 14. Dungerpur, 14.
Candi-Sataka, 35, 35 n. Chācbā, 16, 17, 37 (Champaner Champanere, 23, 27. Chandor, 13. Chatsu (Chaksu), 20. Chhoti Khatu, 20. Chitod, 24, 29, 34. Chitor, 16, 17, 19, 20, 21, 22, 24
n, 26, 27, 28, 30, 31 n, 33, 35. Chittodgadh, 29.: | Chitrakāța (Chitod) Citrakūta 28, 29 n. 43 Chavarli, 18. Chonda, of Mandor, 18, 19, 29 Chonda, 20. Chonda, Rathod, 24, 25, Commissariat, 23 n, 24 n, 31.
Ekalingji, temple and inscrip
tion of, 22, 33, 36. Ekalinga Purāņa, 37 Ekka, son of chachã, 17. Ere Krishnappa Nayak, founded the Bellur family of South,
II, I2. Farbat Mulk, 23. Fath Khan (Fatah Khan), 10. Fathpur, '31. Fateh Wadi, 31. Fergusson, James, 29, 31, 31 n,
32 n, 34, 34 n. Ferishta (Ferista), 15, 21, 21 n,
22, 26, 26 n, 27, 27 D, 30. Firuz, heiß-apparent of
Mohammed Tughlug, 25
Dabboi, 24. Dafar Khan, 24. Dalal, C.D., II. Damanpura, 14. Damman, 14. Daultabad, II, 15. Delhi, II, 20, 21, 23, 24, n, 25. Delvāda, 29. Depāka, 34. Devagiri, the Yādavas of, 8, 14
n, 15. Devarāya I, 9 n.
Gagaran, in Kota, 20. Gagaroon, 16 n. Gahlots, 30 n. Gajadhar Singh, 22. Gâlnā, fort of, 15. Gañadevi, 13. Ghanadevi, 13 Giripura Dungara, 14. Gitagovinda, of Jaideva, 34,35. Gitaratnakoşa or Gitaratnakosa
1, 43 Godāvari, a river, 12, 13, 14. Gopacandra, Gopacandra Bāgula
11, 15 Gaurishanker ojba, oza, ojhaji,
23, 24, 32 n. Govana I, 7. Govana II, 7. Govana III, 7.
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________________
Govindaraja, 7. Govinda, 36.
Guhelot, 22.
Gurjara, 14.
Gujrat, Gujarat, 14, 17, 20, 22, 23, 23, n. 24, 25 n, 26, 27, 28, 31, 36, 37.
Hallar, district of, 19.
Hamir-Rāņā, 33, 37. Hamsabai
Hansabai, sister of Chonda, 19,
20 n.
Haras, a family, 18.
Haravati,
Hārāvati, 21.
Harbilas Sārdā, 23, 35.
Hari Rai,
23. Har Raj, 18.
Harṣa, 35. Hasan Malik, 10. Hassan, a district, Hemadideva, 7, 8. Heras, H, 10 n, 12 n.
(Hindu Sultan,
Hindu Suraträna, a title earned by Kumbha, 21.
[ 47 ]
II.
Hoyasalas, a royal family, 11.
Humayun Shah, 23.
Hushang, of Malwa, 23.
Idar, 22, 23.
Igatpuri, 13. Imad-ul-Mulk, 26.
Immaḍi-Devaraya, 9, 10.
Indrarāja, 7, 14. Indrasenarāja, 8.
Jafar Khan, of Gujarat, 22. Jahangir, his Memoirs, 30. Jaisingh, of Amber, 22 n. Jaitmal, 17.
Jaitrakarna, of Idar, 22. Jaitrapala, 7 n, 8.
Jaitra, architect of the Jayastambha, 32.
Jasamāmbika, mother of
Kalasena, 7, 14.
Jaya, 32 n. Jayastambha 17, 28, 29, 31 31 n, 32, 33, 34, 35, 36. Jaya-stambha-prasasti, 37. Jemal-Rao, 22 n, 23. Jheelwara, 16.
Jain Community, 29.
Jija, Jodha
Jodha, 19, 20.
Jodhpur, 24 n.
Jogidas Ambalal Joshi, 22 n.
20.
Kāhuni, a village, Kailwara, a village, 21. Kambhoi, battle of, 23. Kaitan Rāņi, 29.
Kalajit, 6.
Kalanidhi, of Kallinatha, 5, 8, 9, 36.
Kālasena, 2, 3, 4, 5, 6, 8, 11, 12, 13, 14, 15, 33. Kallinätha, 5, 9, 10, Ion. Kalasena, 3, 3 n, 4, 5, 6, 10. Kalacuris, the emblem of, 14 n. Kalu-a-deva, 15.
Kāluji, 5, 6.
Kalyāṇa, 13.
Kalyāṇapura, 13.
Kanha, son of Mohil, 18. Kandhal, 19.
Karmavati Laṣumā (or Lakhumā),
chief queen of Kalasena, 7, 14.
{
Kannad, 35.
Kesava Jhoting 32.
Khāna, 10.
Khaljipur, 21.
Karnatak
Karnataka, 8 n, 12, 34.
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________________
JKhandesh
Khanadesh. 7 n, 8 n. II, 14.
Khan Khānā, 31.
Khatgarh, 18,
Khatu. 20.
Kheta, 23. Khetsingh, 16.
Khizir Khan, 25.
Khuchi, 16.
Kirtistambha, a Jain pillar, 12,
22, 24, 29, 33. Kondommā, 12. Konkan, 11, 13. Kootb Shah
Kootab Shah
Kutub Shah, 26, 27.
Krishņā, 13.
Krishna Deva Raya, 12,
Kṛṣṇarāja I, 7.
Kṛṣṇarāja II, 7.
Kshetra
{
Kshetrasingha or Kheta, 22,
[ 48 ]
Kshemakaran, 16 n.
Kumarapala, 36.
Kumbhakaran, 16 n, 32 n. Kumbhalgarh, 21, 26, 33. Kumbha, 3,4,5,15,15,16,17,20,
21, 22, 24, 25, 26, 28, 30 n, 31, 33, 34, 35, 36, 37, 43. Kumbha-Rāņā, 18, 19, 20, 20 n,
21, 25, 26, 27, 28, 29, 30, 33. 34, 35, 36, 37, 37 n.
Kumbhalgaḍha Kumbhalagadha, 24, 28.
Kumbhala-meru, 28, 36.
23, 24.
Kumbhabhubhujā, 4.
Kumbhakarna, 2, 3, 3n, 4. 5, 8, 9,
15, 16, 34, 35.
Kumbhaldevi, 37 n.
Kumbhasambhava, 4
Kumbhanṛpa, 4.
Kumbhasvami, 4, 33.
Kumbho, 15.
Kunhan Rājā, Dr C, 1, 2, 5. Kutb-Minar, 31.
Kutub-bu-din-Mubarak, 23.
Lakha
Lakha, Maharānā, 18. 19, 37. Laghumadevi, chief queen of
Kalasena, 7 n, 8.
Lakha, of Sirohi, 18.
Laksmi, 29.
Lalbai, daughter of Mokal, 16n.
Madangad, 13.
Madanpura, 13
Madaria, 16.
Mahesa, 32, 36.
Mahipa, 16, 17.
Mahmmad
Mahmud, of Gujarat, 10, 30. Mahmud, of Malwa, 21, 22, 30. Mahmud Khalji I, of Malwa, 17 21, 27, 30.
Mahmud, 21,22,24 n, 30,31,31 n. Mahmud I Begda, 10, 11. Mahmud I, 30, 30 n.
Mahmud II, 10, 30 n.
Mahmud III, 10.
Mahmud Khalji
{
Mahmud Khilji, 27, 28, 31.
Mahoragpura, 14.
Maira, Maira 16, 17, 37.
Malegaon, 15. Malik Wagi, 15. Malik Ashraf, 15.
Malik Dinar, 23n.
Malik Gaddai, 26.
Malik ShaabanImad-ul-Mulk, 26.
Mallika, 10.
Mallikarjuna, 9, 10. Malik-ut-Tujjar, 11.
Page #89
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________________
[ 49 ] Malwa 17, 19, 20, 21, 22, 23, 26,
Mujahid Khan, 26. 27, 30 n, 36, 37.
Multan, 25. Māmadeva
Munja, 36. Mämdeva-temple of, 33, 36.
Muzaffar Khan, 23. Mandal, 23.
Muzaffar Shah, 25, 25 n. Mandu
Muzaffar III, 31. Mandu
Mysore, 11. (Mandoo, 17, 21, 22, 30. Mandana, 28, 36.
| Nagour Mandelslo, 31.
Nagour Mandalgarh
(Nagoor 16,22,24,241, 25, 25 n,
26,28,20, Mandalagadha (Mandalagara, 18, 20, 21
Nagpur,. 14 (Mandor,
Nandlal De, 13. Mandawar
Nandol, 23. (Mandovar, 17, 18, 19, 20, 2on. Nāpā, 32. Mandu, 19.
Narahari, 32. Mandsaur, 17.
(Narānaka Mangesh Ramkrishna Telang, 9. (Narana, in Jaipur, 20. Manira (Manira-Vira), 11.
Narnāla, a hill fort, 14. Mayūragiri, II.
Narandas, 22 n, 23. Mehta Nainsi, his Khyat, 25.
Narsingh, 18. Mewar, 16, 17, 18, 19, 20, 21, 22, Narmada, in Gujrat, 14. 23, 24, 25, 27, 28, 33, 36.
Nasik, 5, 13, 14, 15. Mhāmarāja (Hmānga), 6.
Nasirkhāna, IC. Mira, 25.
Nātbā, bis Vāstumanjarz, 36. Miran, 11.
Nathsingh, 16 n. Miran Adilkhan, it.
Navasari, 13. Miran Mubarik, 11.
Nikumbh-vamsa, 7, 8, 14, 15. Mirat-i-Sikandari, 18, 27.
Nilakanta Sastri, K.A., 9, 10. Minara-e-Haft-Manzari. 30.
Nộtyaratna-kosa, 1, 2, 3, 4, 5, 6, Modasa, 23.
8, 9, 10. Mokal
Nętyas'āstra, 2. Mokalev, Maharana, 16, 18, 19, Nātyas'āstra, of Bharata, 2, 34. 22, 24, 24 n. 25, 36, 37.
Nuniz, en. Mohil, 18. Mohammada, 10.
Orissa, 15. Mrgāņka-Tāmarāja, 14.
Padmāvati, 6, Muhammad I, 10..
Padshah Ahmed, founded Muhammad II, 10, 11.
Ahmedabad, 24. Muhammad III, 10, Sultans of Pai hills, 17.
Gujarat. Pai Kotra, 16. Mahmud Shah, son of Firuz, 25. Pañcavati, 13. Muhammad Tughlak, 11, 23, 24. Paramāra, 16
Page #90
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________________
Parmārs, 29.
Pāṭadi, 13. Paṭali, 13.
Pathyaratnakosa, 1, 2, 3 n, 4, 6,
Pattana, same as Anahilwar
(Punjaji Punja
Punja, 22 n, 23, 32.
Puntamba, 14.
Punyastambha, 14.
10, 13, 35.
Peńkarāja (Peda), 6. Percy Brown, author of 'Indian
Architecture', 29 n, 31 n.
Pindarvātaka, 33. Prataparudra, 15.
Prithviraj Chauhan, 24.
Prithvivallabha, 7 n.
Qutub, 26.
Qutub-ud-din, of Gujarat,
Raghava, 37. Raghavadeva, 19, 20. Rai Ramchandar, 26.
Rajamundry, 10.
Rājapolas, 29.
[ so ]
Patan, 24.
Rāmarāja, 6.
Rātākot, 16.
Rājā, 17.
Rajdhar, 16 n.
Rāma, 29.
Rāma Amatya, 9 n.
Ramachandraraya, 9 n.
Ramakrishna Kavi, 2, 5n.
Ratanakara, 34.
Ratnakos'as, 1, 4.
Runkot, 17.
Rūpavatāra, 36.
Ranapura, 34.
Ranakpur, a temple,
27,28.
18, 20, 33.
Rändel, 13.
Rander, a town, 14. Raningadeo, 25.
Ranipura, 14.
(Ranmal
Ranamalla, 17, 18, 19, 20, 22, 24, 25, 37.
Rasik-priya, 27, 34, 35, 37 n. (Raṣṭrauḍhavams'a Mabākāvya
Raṣṭraudha-Vanṣa-Mahākāvya.
Rasaratnakosa, I.
Sabdakalpadruma, 12. Sādala, 24.
Sādari, 33.
Sādhu, 25.
Sahāran (Sadhāran), 25, 25.
Sahas Mal, of Sirobi, 18, Salera, 33.
(Saṁgitamimāmsā
(Samgitamimāmsā, 1, 2, 5, 8, 35. (Saṁgitarāja
Sangitarāja
Samgitaraja, 1,2, 3, 4, 5, 5, 8,
43, 440,
11, 15.
Samgitaratnakara of S'arngadeva,
2, 5, 8, 9
Sanghapati Dharanaka, 34. Samiddhevs'ara Mahadeva,
(Sanjñā
Sajñāpura, 13.
S'ankara, 36.
a temple, 25.
Samprati, a Jain king, 28. Sangamaner, 14.
Sangamanira, 14.
Sangram, of Mewar, 22n Sangram Singh, 30 n.
S'antinatha, 33.
Sanwaldas, 22, 220.
S'arngadeva
Särngadeva, author of
Samgitaratnakara, 2, 5, 8
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Sarangpur, in Malwa, 20. Sarda, Har Bilas, 25n
Sarkhej 'Fateh Bagh', 31. Sātala, 24.
Satta, 16.
Saubhagyadevi, 170.
Sayyad Mohammad, 20.
S'ekhara, 36.
Sema, a village, 33..
Seringapatan, II.
26n, 27, 28.
Sewell, 9.
Shah Gunaraj, 33. Shalji, 18.
Seth Kasturbhai Lalbhai, of
Ahmedabad, 34 n.
Shamskhan
Shumskhan, 25, 25, 26.
Shiva, 16 n.
Silāhāras, 14.
Singhana, 7n, 8.
Shringirishi-Inscription of, 24.
Sikri 'Fathabad', 31.
[ SI ]
jSirohi
Sirohy, 18, 21, 27, 26, 20.
S'irpur, 13.
Sisodia of Mewar, 19, 20.
Sohanadeva of Nikumbhavamsā,
Sonargaon, 23, 24.
Sooltan Hooshang, 30.
Sooltan Mahmud, 30.
Somasundara Sūri, 34.
Sopārā, 14.
Sridevi, 7.
Sripura, 13.
S'ingirsi, Inscription of 16.
Sthāna, II.
7.
Suḍa-prabandha, 34.
S'uk lapura, 14.
Sultan Ala-ud-din, 23n. Sultan Muhammad Tughluq, 25.
Sultan Qutb-ud-din, 26. Surat, a district, 13. Suvarnadurga, 13. Suvarna Garuda-dhvaja, 14. Suvarnarṣabha-dhvaja 14n, Suvarna-Vyaghra, 14. Svara-Melakalanidhi, on.
Tajkhan, 21,26.
Tamarajendra (Tamarāja), Tamarāji (Tamaraja), 6. Tānā, 25.
Tank Rajputs, 25. Tārā, 29.
Tārāpura, 13.
Tātārakhāna, 10.
Telingānā, 10.
Thalner, II.
Thana, 13.
Thana, a fort, 13.
Timur 24n, 25.
Tod, Col. James, 28, 31, 32.
Toḍā, 24. Toṇḍanur, II.
Toņņur, II,
Trajan, in Rome, 31. Tringalawaḍi, 13. Trisandhya, 12.
Trisandhyakṣetra, 12. (Triyambaka Tryambak (Tryambaka, 5, 12, 13, 14. Tryambakes'wara. 12.
Tughluq dynasty, 24n. Tujārakhana, 10, 11n. Tujāraṣāna. 10.
Udaysingha, 36, 37. Uddhara-dhorani, 36.
Vadyaratnakosa, I. Vasai (Bassain). 14. Vasantpur, 33. Vastumanjari, 36.
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________________
[52]
Vyāghra-Cāmikara, a dynasty,
6, 14.
Vastu-Sāra, 36. Vastusastra, 21, 36. Vātikācala, 13. Velāpura, II. Vijaya, father of Praudha
Devarāya, 9. Vijayanagar, 9; 12. Vijay Rāya I, 9n. Vincent Smith, 31, 32. Vigatpuri, 13n. Vikațapuri, 13n. Viramdeva, 16n. Vira Ballala III, 11. Vir Vinod, 16.
Wajih-ul-Mulk, 25. Wolsely Haig, 24n. 29, 30n. 31.. Yadavas, 14, 15. Yuga-S'ri-Chaturmukha, also
called Trailoky adīpaka, 34. Yuzbasbis, 24.
Zafar, 23 Zafar Khan, 23, 238, 24, 25, 250, *Zyreitbag’, Jitbag, 31.
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________________
मेदपाटदेशाधीश्वर-श्रीकुम्भकर्णनृपति-विरचितः
नत्य रत्न कोशः।
10
तृतीयोल्लासे प्रथमं परीक्षणम् ।
[मङ्गलम् ।] यस्मिन् समस्तकरणानि न कारणानि योऽनङ्गहारविजयी च नवाङ्गहारः। यश्चाङ्गहाररुचिरामलनृत्यकारी नारीकृतार्थतनुमीशमहं नुवे तम् ॥ करणान्यथ वक्ष्यन्ते नृत्यस्य करणानि वै । शुद्धानि भरतोक्तानि वसुखेन्दु' १०८ मितानि च ॥ करपादाद्यङ्गकस्य क्रिया रसनिरन्तरा । सविलासानुकरणं नृत्यादि करणं तु तत् । अथोदेशं वदे तेषां लक्षणं च सविस्तरम् ॥
. [शुद्धकरणानि ।] तलंपुष्पपुटं लीनं वर्तितं वलितोरु च । मण्डलखस्तिकं वक्षःस्वस्तिकं खस्तिकं ततः॥ आक्षिप्तरेचितं पृष्ठस्वस्तिकं चार्धपूर्वकम् । खस्तिकं दिक्खस्तिकं चोन्मत्तं समनखं ततः॥ अपविद्धं सञ्चितं च तथा स्वस्तिकरेचितम् । निकुद्दमर्धनिकुटुं कटिच्छिन्नं कटीसमम् ॥ विक्षिप्ताक्षिप्तकं नाम भुजङ्गत्रासितं तथा। अलातं निकुश्चितं च घूर्णितं चारेचितम् ॥ ऊर्ध्वजान्वर्धमत्तल्लि स्याद्रेचकनिकुहितम् । मत्तल्लि ललितं चैव वलितं दण्डपक्षकम् ॥
-
.. ... 1 AB put १०८ after वसु। 2 AB °त्याद। 3 0 °देशवदे। 4 B मतः । 5AB उन्नतं ।
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10
१४६
नृ०र० को०-उल्लास ३, परीक्षण १ [शुद्धकरणानि नूपुरं पादापविद्धं भुजङ्गत्रस्तरेचितम् । .[भुजङ्गाश्चितछिन्ने च भ्रमरं दण्डरेचितम् ।। चतुरं च कटिभ्रान्तं व्यंसितं क्रान्तमित्यपि ॥ वैशाखरेचितं पार्थनिकुटुं चक्रमण्डलम् । ' वृश्चिकं लतावृश्चिकं तथा वृश्चिककुट्टितम् ॥ अथाक्षिप्तं चार्गलं च तथा वृश्चिकरेचितम् । उरोमण्डलमावर्त तथा तलविलासितम् ॥ ललाटतिलकं दोलपादकं कुश्चितं तथा । विवृत्तं विनिवृत्तं च पार्श्वक्रान्तं निशुम्भितम् ॥ विद्युद्भान्तमतिक्रान्तं विक्षिप्तं च विवर्तितम् । गजक्रीडितकं गण्डसूचि स्याद्गरुडप्लुतम् ॥ तलसंस्फोटितं पार्श्वजानु गृध्रावलीनकम् । सूचीविद्धं सूचि चार्धसूची स्यारिणप्लुतम् ॥ परिवृत्तं दण्डपादं मयूरललितं ततः । प्रेडोलितं सन्नतं च सर्पितं करिहस्तकम् ॥ प्रसर्पितमपक्रान्तं नितम्बं स्खलितं ततः। सिंहविक्रीडितं सिंहाकर्षितं चावहित्थकम् ॥ निवेशमेलकाक्रीडमुवृत्तं जनितं तथा।' तलसंघट्टितं विष्णुकान्तं चोपसृतं तथा ॥ लोलितं मदस्खलितं वृषभक्रीडितं ततः। संभ्रान्तमुद्घाटितं च विष्कुम्भं शकटास्यकम् ॥ ऊरूवृत्ताभिधं चैव नागापसर्पितं तथा । गङ्गावतरणं चेत्थमष्टोत्तरमुदीरितम् ॥ करणानां शतं पूर्णमङ्गहारोपयोगिकम् । अन्यानि सन्ति भूयांसि गतिस्थित्यादियोगतः॥ अङ्गानां मेलके तानि खयमूह्यानि पण्डितः । प्रायेण व?न)र्तनारम्भे समौ पादौ लताकरौ । चातुरख्यं शरीरे च विशेषोऽथो यथास्थितः।
चारीमध्यर्धिकामेते दक्षिणे चरणेऽग्रगे॥
...1 AB क्लीडनकम् । 20 तथा । 3 AB करह। 4 A. Natyasastra and dtilo? works such as S. R. give Viskambha; but Monier Williams on the authority of Vopadeva gives विष्कुम्भ. also.
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लीनम् ]
नृ० १० को ० - उल्लास ३, परीक्षण १
व्यावृत्त्य दक्षिणं पार्श्वमागते करयोर्युगे । परिवर्तनतो वामं पार्श्व सन्नतमाश्रिते ॥ कुक्षेत्रं श्रितो यत्र हस्तः पुष्पपुटो भवेत् । तलपुष्पपुढं तत् स्यात् पादेऽग्रतलसञ्चरे ॥ रङ्गे पुष्पाञ्जलिक्षेपे लज्जिते योषितामपि । यदान्यकरणादेतदनु स्यात् करणं तदा । एतत् करक्रियां त्यक्त्वा ग्राह्या तत् करणानुगा ॥ ॥ इति तलपुष्पपुटम् ॥ १ ॥
*
ग्रीवानतांसकूटं च भवेद्यत्र निहञ्चितम् । ऊर्ध्वमण्डलिनौ हस्तौ विधाय हृदयेऽञ्जलिः । यत्र तत्करणं लीनं वल्लभाभ्यर्थने स्मृतम् ॥ ॥ इति लीनम् ॥ २ ॥
*
हृदयाभिमुखौ हस्तावाश्लिष्टमणिबन्धकौ । समं स्वस्तिकतां नीतौ व्यावृत्तपरिवर्तितौ ॥ उत्तानौ पातयेदूर्वोर्यत्र तद्वर्तितं मतम् । पताकौ पातयेत्तौ हि यत्रासूया प्रयुज्यते ॥ क्रोधेऽधोवदनौ स्यातां निघृष्टौ तौ तथाविधौ । विनियोगवशादन्ये शुकतुण्डादिका इह ॥ ॥ इति वर्तितम् ॥ ३ ॥
*
व्यावृत्तिपरिवृत्तिभ्यां समं वक्षसि चेत् करौ । कृत्वाक्षिप्तिकया चार्या परिवर्त्य च संहतौ ॥ 'वक्षो नीत्वा निधीयेते शुकतुण्डावधोमुखी । एवं कृत्वा ततश्चारीं बद्धां कृत्वा स्थितिर्यदा । क्रियते वलितो स स्यान्मुग्धस्त्रीव्रीडिते स्मृतम् ॥ ॥ इति वलितोरु ॥ ४ ॥
*
मण्डलं स्थानकं कृत्वा चतुरस्रौ करौ ततः । विदध्याद्विच्यवां चारीमूर्ध्वमण्डलितौ करौ ॥ उद्वेष्टितेन कृत्वा तौ विदध्यात् स्वस्तिकाकृती । मण्डलस्वस्तिकं तत् स्यात् प्रसिद्धार्थावलोकने ॥ ॥ इति मण्डलस्वस्तिकम् ॥ ५ ॥
*
1 ABO वक्षौ ।
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१५
नृ० २० को०-उल्लास ३, परीक्षण १ वक्षस्वविमान वक्षःस्थितौ करौ कृत्वा रेचितौ चतुरस्रिती । आभुग्ने वक्षसि पुनर्यत्र व्यावर्तितेन तौ ॥ आनीय खस्तिकीभूतौ स्वस्तिकौ चरणौ तथा ॥ अंसयुग्ममनाभुनं तद्वक्षःस्वस्तिकं मतम् । लज्जानुतापयोस्तज्ज्ञैर्विनियोगोऽस्य कीर्तितः॥
॥ इति वक्षःस्वस्तिकम् ॥ ६॥ उद्वेष्टितेन निष्क्रम्य पाणी व्यावर्तिताश्चितौ । सममुत्प्लुत्य कुरुते कराशिखस्तिकं यदा ॥ तदा खस्तिकमाख्यातं परान्वेषणभाषणे । तथा निषेधराभस्ये कचिद्युद्धपरिक्रमे ॥
॥ इति स्वस्तिकम् ॥७॥ वक्षाक्षेत्रे करौ कृत्वा व्यावर्तनमधोर्ध्वगौ। पार्श्वयोश्च ततः क्षिप्त्वा द्रुतभ्रममधोमुखम् ॥ हंसपक्षं करं चान्यं वक्ष आनीय तादृशम् । निष्कामयेत्ततः सूचीपादौ यत्र प्रयोजितौ ॥ आक्षिप्तरेचितं तत् स्यादनेनाभिनयेत् सुधीः। परिग्रहस्याचरितं तथा त्यागपरम्परा ॥
॥ इत्याक्षिप्तरेचितम् ॥ ८॥ उद्वेष्टनक्रियां कृत्वा विक्षिप्येते करौ यदा। चारी विधायापकान्तां रच्यमानेऽपवेष्टने ॥ कृत्वान्यचरणं सूची यत्राभिकरसंभवम् । खस्तिकं रचयेत् तत् स्यात् पृष्ठखस्तिकसंज्ञकम् । विनियोगे स्वस्तिकोक्ते नियोज्यं नृत्यकोविदैः ॥
॥ इति पृष्ठस्वस्तिकम् ॥९॥ करिहस्तो दक्षिणः स्यादितरः खटकामुखः । पादौ हृत्वस्तिको यत्र तदर्धवस्तिकं भवेत् ॥ केचित् करिकरस्थाने पक्षवश्चितकं जगुः । कटिस्थमर्धचन्द्रं च पक्षप्रद्योतकं न वा ॥
॥ इत्यर्धस्वस्तिकम् ॥१०॥
18
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पिस्वस्तिकम् ] नृ० र० को०-उल्लास ३, परीक्षण १
करागिरचितो यत्र खस्तिको त्रुटिताङ्गकः । अग्रतः पृष्ठतः पार्श्वे तद् दिक्खस्तिकमुच्यते ॥ स्याद्गीतपरिवर्तेऽस्य विनियोगः प्रकीर्तितः। खस्तिकोत्त्यन्तरेषु स्यात् स्वस्ति[क]प्रक्रिया त्वियम् ॥ ४७
॥ इति दिक्वस्तिकम् ॥ ११॥
आविद्धां रचयन् चारी पादमश्चितमाचरेत् । करौ क्रमाद्रचिती स्तो यत्रोन्मत्तं तु तद्भवेत् । सौभाग्यादिसमुद्भूते गर्वे विद्वद्भिरीरितम् ॥
॥ इत्युन्मत्तम् ॥ १२॥ लताहस्तौ समनखौ चरणौ संयुतौ मिथः । देहः खाभाविकः प्राक् प्रवेशे समनखं तु तत् ॥
॥ इति समनखम् ॥ १३॥ चतुरस्रं समास्थाय हस्तौ तु चतुरस्रितौ। व्यावर्त्य दक्षिणं हस्तं मुहुनिष्काशयन् भजेत् ॥ आक्षिप्तमथ तं हस्तं शुकतुण्डाकृतिं नयन्। पातयेद्दक्षिणस्योरोरुपर्यत्रापरः करः॥ वामे दक्षस्थितो यत्र खटकामुखसंज्ञकः । अपविद्धं तदेव स्यात् कोपासूयार्थदर्शने ॥
॥ इत्यपविद्धम् ॥ १४ ॥
नासादेशं गतो यत्र व्यावर्तपरिवर्तनम् । कृत्वा धत्तेऽलपद्मत्वं करिहस्तस्तदाश्चितम् । खस्यातिकौतुकाद्योज्यं सम्मुखप्रेक्षणे हि तत् ॥
॥ इत्यञ्चितम् ॥ १५ ॥
विधाय चतुरस्रः सन् हंसपक्षौ द्रुतभ्रमौ । शीर्षादूर्ध्वमधो नीत्वा व्यावर्तपरिवर्तितः॥ .......५४23 आविद्धवक्रौ तावेव वक्षसि खस्तिकीकृतौ । कव्यां नीत्वा ततः पक्षप्रद्योतकविधानतः॥ चारी तदशगां कृत्वा बहित्थं स्थानकं ततः।
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.१५०
5
10
15
20
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नृ० २० को०- उल्लास ३, परीक्षण १
कुर्यात्तदा प्रविज्ञेयं बुधैः स्वस्तिकरेचितम् । वृत्ताभिनयने तच्च प्रहर्षादौ नियोजितम् ॥ ॥ इति स्वस्तिकरेचितम् ॥ १६ ॥
*
मण्डलं स्थानकं कृत्वा चतुरस्रं समाश्रितः । स्कन्धशीर्षे करं नीत्वा दक्षमुद्वेष्टनाञ्चितम् ॥ पतन्तेत्पतनाविष्टकनिष्ठाङ्गुलित्रयम् । अलपद्मीकृत्य तथोद्धतेि च दक्षिणे ॥ आविद्धवक्रतां नीते चतुरस्त्रीकृते ततः । अनेनैव यथा वामपाङ्गी यत्र तद्विदा ॥ क्रियते तत्र विज्ञेयं करणं तु निकुट्टितम् । आत्मसंभावनाख्यानपरे वाक्ये प्रकीर्तितम् ॥
॥ इति निकुट्टम् ॥ १७ ॥
*
*
तदेवार्धनिकुहं स्यादेकेनाङ्गेन निर्मितम् । तत्रैवार्था ( ? ) नियुज्येताप (? प्र ) रूढबचनोक्तिके ॥ ॥ इत्यर्धनिकुट्टम् ॥ १८ ॥ विधाय भ्रम पार्श्वे मण्डलस्थानमाश्रितः । छिन्नां कीं विधायैकां बाहुशीर्षे च पल्लवम् ॥ करं कृत्वाङ्गान्तरेण यत्रैवं क्रियते पुनः । एवं त्रिचतुरावृत्त्या कटीछिन्नं तु विस्मये ॥ ॥ इति कटीछिन्नम् ॥ १९ ॥
*
वैष्णवस्थानके स्थित्वा चारीमाक्षिप्तिकां चरन् । अपक्रान्तां ततः कृत्वा स्वस्तिकं च करद्वये ॥ दक्षिणो नाभिदेशस्थः खटकामुखसंज्ञकः । अर्धचन्द्रस्तथा कव्यां कृतं पार्श्वे च सन्नतम् ॥ अन्यदुद्वाहितं यत्रावृत्तयोगान्तरैस्तथा । तत् कटीसममादिष्टं जर्जरस्याभिमन्त्रणे ॥
॥ इति कटीसमम् ॥ २० ॥
*
व्यावर्त्यते करो यस्तु तत्पक्षेऽह्निं बहिः क्षिपेत् । अन्यस्तु चतुरस्रः स्यात् पूर्वोऽथ परिवर्त्यते ॥
[ निकुम्
५६
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५८
५९
ဝ
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*
भुजङ्गवासितम्] नृ० र० को०-उल्लास ३, परीक्षण १
हस्त आक्षिप्यते चाटिरेवमेवाङ्गकं पुनः। अपरं क्रियते यत्र विक्षिप्ताक्षिप्तिकं तु तत् ॥ विनियोज्यं गतौ चैतदागतौ च विचक्षणैः। प्राधान्याचरणस्येदं न तथा मन्वते परे ॥ यतो वाक्यार्थधीहस्ताभिनयस्यानुसारिणी। प्राधान्यतो हस्तकानां नृत्यमात्रपरं त्विदम् ॥ अन्यदङ्गमतस्तालानुसंधाने चिकीर्षतः। अन्तरालानुसंधाने गतीनां च परिक्रमे । योज्यं करणमेतादृगिति तद्वेदिनां मतम् ॥
॥ इति विक्षिप्ताक्षिप्तिकम् ॥ २१ ॥ भुजङ्गत्रासितां चारी विधायाक्षिप्य कुञ्चितम् । अधिं विधायोरुकटीजानु त्र्यत्रं विवर्तयेत् ॥ एकदोलाकरं कृत्वा तथान्यं खटकामुखम् । व्यावृत्तिपरिवृत्तिभ्यां भुजङ्गत्रासितं तु तत् ॥
॥ इति भुजङ्गत्रासितम् ॥ २२ ॥ नितम्बश्चतुरस्रो वा करोऽलाता च चारिका । दक्षिणाङ्गे तथा वामे तूर्ध्वजानुस्तथैव चेत् । अङ्गान्तरं तदालातं ललिते नृत्त ईरितम् ॥
. ॥ इत्यलातम् ॥ २३ ॥ वृश्चिकं चरणं कृत्वा तत्पक्षस्थं करं पुनः । अरालं शीर्ष आधाय वेगानासाप्रदेशतः ॥ कृतो वक्षस्यरालोऽन्यस्तद्विख्यातं निकुश्चितम् । योज्यमुत्पतनोन्मुख्ये वितर्कादौ च सूरिभिः। एके पताकसूच्यास्यावपि नासाग्रगौ जगुः ॥
___॥ इति निकुञ्चितम् ॥ २४॥
____ 1 After अलातम् ॥ २३ ॥ ABO give the following description of विक्षिप्त which has its proper place after अतिक्रान्तम् ॥ १५ ॥ The meaning of the verses is the same but readings differ: विपद्धान्तां दण्डपादां क्रमाञ्चार्यों विधाय चेत् । उद्वेष्टितं तदा चापवेष्टितं करयोः क्रमात् ॥ एकमार्गयोः कृत्वा रेचयेदग्रपृष्ठयोः । पार्श्वयोर्विक्षेपे तो हि विक्षिप्तं तु तदा भवेत् । अभिनेयस्तथैतेन वीरोद्धतपरिक्रमः ॥
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[पूर्षित
नृ०२० को०-उल्लास ३, परीक्षण १ पार्थक्षेत्राभाम्यमाणे ऊर्ध्व व्यावर्तनेन तु । .' परिवर्तनतोऽधश्च करे चरणयोः पुनः॥
जवास्वस्तिकतः पश्चादपक्रान्तां विहाय च । तहिक्स्थे चरणे वामः करो दोलाभिधो यदा। करणं घूर्णितं प्रोक्तं तदा नृत्यविशारदैः ॥
॥ इति घूर्णितम् ॥ २५॥
मण्डलं स्थानकं कृत्वा हृदिस्थं खटकामुखम् । सूचीमुखं चापसार्य यदा तस्यान्तिके नयेत् ॥
उद्घटितोऽङ्गिपार्श्व च सततं त्वपसारणे।। 10 तदोर्ध्वरेचितं प्रोक्तमसमञ्जसचेष्टने ॥
॥ इत्यर्धरेचितम् ॥ २६॥ चरण कुश्चितं कृत्वोर्ध्वजार्नु चारिकां यदा। १. कृत्वा तदिग्भवं हस्तमलपद्मं विधाय वा ॥ । अरालं चोर्चवदनं पक्षे वश्चितकं तथा ।
कृत्वा जानु स्तनक्षेत्रे नीत्वा हस्तस्तथापरः। खटकाख्यस्तदेवोर्ध्वजानुसंज्ञं प्रजायते ॥
॥ इत्यू जानु ॥ २७ ॥ रेधितो यत्र वामः स्यात् करः कव्यामथेतरः। पादावुपेतापमृतौ तदा करणमीरितम् । अर्धमत्तल्लिसंज्ञं च नियुक्तं तरुणे मदे ॥
॥ इत्यर्धमत्तल्लि ॥ २८ ॥ रेचितो दक्षिणो हस्तः पादः सव्यो निकुट्टितः। दोला चैव भवेद्वामस्तद्रेचकनिकुट्टितम् ।।
॥ इति रेचकनिकुट्टितम् ॥ २९॥ गुल्फी च खस्तिकीकृत्य पादौ यत्रापसर्पयेत् । ___ करयोर्युगपद्यत्रोद्वेष्टनं चापवेष्टनम् । एवं मुहुर्मुहुर्यत्र तन्मत्तल्लि मदे स्मृतम् ॥
॥ इति मत्तल्लि ॥ ३०॥
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49
सालितम्] नृ० र० को०-उल्लास ३, परीक्षण १
नितम्बकेशहस्तादिवर्तना दक्षिणे परे। षद्धोऽन्यः करिहस्तः स्यात् पादश्चोद्धट्टितस्तथा । अङ्गान्तरं चेल्ललितं नृत्ये स्यातां विलासिनि ॥
... ॥ इति ललितम् ॥ ३१ ॥ सूचीमुखकरे देहक्षेत्राहरेऽपसर्पति । सूचीपादेऽप्यपमृते चारी चेड्रमरी भवेत् । क्रमादङ्गान्तरेऽप्येवं वलिते वलितं मतम् ॥
॥ इति वलितम् ॥ ३२॥ ऊर्ध्वजानुर्यदा चारी करौ चैव लताभिधौ। इच्छयैकं तयोय॑स्येदुपर्ध्वस्य जानुनः। अङ्गान्तरे पुनश्चैवं दण्डपक्षे प्रकीर्तितम् ॥
॥ इति दण्डपक्षम् ॥ ३३॥ चारी च भ्रमरी कृत्वा ततो नूपुरपाटिकाम् । एकेनैव तु पादेन रेचयेत्तद्गतं करम् । द्वितीयं चेल्लताहस्तं तदा नूपुरमादिशेत् ॥
॥ इति नूपुरम् ॥ ३४ ॥ खटकास्यौ नाभिदेशे हस्तौ स्यातां परावुखौ। सूचीपादोऽन्येन युक्त्वा चार्यापकान्तया युतः। तथैव स्यात् परः पादस्तदा पादापविद्धकम् ॥
॥ इति पादा[प]विद्धम् ॥ ३५ ॥ भुजङ्गत्रासितां चारी कृत्वा हस्तौ च रेचयेत् । वामपार्थे तु तत् ख्यातं भुजङ्गत्रस्तरे' चितम् ।।
॥ इति भुजङ्गनस्तरेचितम् ॥ ३६॥ भुजङ्गवासिता चारी दक्षेशी दक्षिणः करः। रेचितोस्थालताहस्तो भुजङ्गाञ्चितकं भवेत् ॥
॥ इति भुजङ्गाश्चितम् ॥ ३७॥
1 ABO रेचिरम्। 2 ABO स्योलता।
१० नृ० रन.
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10
15
नृ० र० को०-उल्लास ३, परीक्षण १ वैशाखं स्थानकं छिन्ना कटी यत्र क्रमात् करौ। अलपद्मौ कटीपार्श्वे तच्छिन्नं करणं भवेत् ॥
॥ इति छिन्नम् ॥ ३८॥ समयाक्षिप्तिका चारी करचोद्वेष्टितो भवेत्।। वलितं च त्रिकं कृत्वा पादयोः स्वस्तिकं तथा ॥ कुर्यात्तद्वद् द्वितीयान्तं (१झं) करौ साकं तथोल्वणौ।। करणं भ्रमरं नाम तद्वद्वत(? तचोद्धत) परिक्रमे ।
॥ इति भ्रमरम् ॥ ३९॥ दण्डपक्षौ करो कुर्याद्दण्डपादां विधाय च । चारी प्रमोदनृत्ये स्यात् करणं दण्डरेचितम् । केचित् प्रयोगमप्याहुरस्योद्धतपरिक्रमे ॥
॥ इति दण्डरेचितम् ॥ ४० ॥ पाणी वक्षास्थितौ तत्र वामश्चेदलपल्लवः । चतुरो दक्षिणोविस्तूद्धहितश्चतुरं भवेत् । अनेनाभिनयेत् सूची विस्मये कचकिस्थिताम् ॥
॥ इति चतुरम् ॥४१॥. विधाय वामे सूची च द्रुतापसरणान्विताम् । तत्पार्श्वे दक्षिणं न्यस्य कटिरेचितमाचरेत् ॥ अथवा भ्रमरी कुर्वन् व्यावृत्तपरिवर्तितौ। करौ कृत्वा चातुरख्यं नर्तको विदधाति चेत् ॥ कटिभ्रान्तं तदा ज्ञेयं यतीनां परिपूरणे। तालान्तरालगानां तु तथा गतिपरिक्रमे । नियोगः प्रोच्यते सद्भिः कटिभ्रान्तविधानगः॥
॥इति कटिभ्रान्तम् ॥ ४२ ॥ उद्वेष्टितविधानेनाधो यात्येकः परस्परः। ऊर्ध्वं यायाद्विप्रकीर्णौ ताहगावृत्तिपेशलौ ॥ उत्तानरेचितश्चैको वक्षाक्षेत्रगतस्ततः। परोग्धोमुखगो यत्र रेचितः स्थानकं गतः (१ ततः)। आलीढं व्यंसितं योज्यं महाकपिपरिक्रमे ॥
॥ इति व्यंसितम् ॥४३॥
30
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सृ० २० को ० - उल्लास ३, परीक्षण १
अतिक्रान्तागतं पादं पात्यमानं तु कुश्चयेत् । तदैव हस्तं व्यावर्त्य ततो निष्क्रामयेदथ || आक्षिप्य परिवर्त्तेन कुर्यात्तं खटकामुखम् । वक्षः क्षेत्रे त्वेवमेव कुर्यादङ्गं द्वितीयकम् । इति कान्तमिदं ज्ञेयमुद्धतस्य परिक्रमे ॥ ॥ इति क्रान्तम् ॥ ४४ ॥
**
काल्तम् ]
वैशाखं स्थानकं हस्तौ पादौ ग्रीवा (? वां) कटीमपि । रेचयेद्यत्र तद् ज्ञेयं तज्ज्ञैर्वैशाखरेचितम् ॥ ॥ इति वैशाखरेचितम् ॥ ४५ ॥
*
पाणी च स्वस्तिकीकृत्य तयोरेकस्तदूर्ध्वतः । मुखपार्श्वनिकुहः स्यादन्योऽधोवदनो भवेत् ॥ निकुट्टितस्तद्वदेव पादो यत्र भवेदिदम् । तत् प्रकाशनसञ्चाराभ्यासे पार्श्वनिकुट्टितम् ॥ ॥ इति पार्श्वनिकुट्टितम् ॥ ४६ ॥
*
यत्रातां विधायाथो दोलायां चक्रवद्धमेत् । गात्रमन्तर्गत कृत्वा तत् प्रोक्तं चक्रमण्डलम् । सुरपूजाविधौ कार्य तथोद्धतपरिक्रमे ॥
॥ इति चक्रमण्डलम् ॥ ४७ ॥
*
हस्तौ करिकरौ यत्र पृष्ठे वृश्चिकपुच्छवत् । पादः समुन्नतं पृष्ठं दूरे तद्वृश्चिकं विदुः । व्योमगैरावणादीनां विमाने विनियुज्यते ॥ ॥ इति वृश्चिकम् ॥ ४८ ॥
*
वामो लताकरो यत्र चरणो यत्र वृश्चिकः । तल्लतावृश्चिकं नाम गगनोत्पतने स्मृतम् ॥ ॥ इति लतावृश्चिकम् ॥ ४९ ॥
*
चरणं वृश्चिकं कृत्वा बाहुशीर्षेऽलपद्मकौ । क्रमाद्यदा निकुव्येते तदा वृश्चिककु हितम् ॥ ॥ इति वृश्चिककुट्टितम् ॥ ५० ॥
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१०३
१०४
१०५
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१०७
१०८
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११०
१११
10
15
20
25
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[आदित
नृ० र० को०-उल्लास ३, परीक्षण १ विधायाक्षिप्तिकां चारी क्षिप्यते खटकामुखः। . चतुरो वा तदाक्षिप्तं विदूषकपरिक्रमे ॥
॥ इत्याक्षिप्तम् ॥५१॥ वामस्याओं कनिष्ठायाः समीपे स्यात् प्रसारितः । तदैव स्तन्धबाहुः सन् वामः स्यादलपल्लवः ॥ वामेतरः करः किश्चित् प्रसृताग्रोऽर्गलं तथा। परिक्रमेऽङ्गादादीनां विनियोगोऽस्य कीर्तितः॥
॥ इत्यर्गलम् ॥ ५२॥ चरणो वृश्चिको यत्र स्वस्तिको रेचितौ करौ । 10 विच्युतौ च तदाकाशयाने वृश्चिकरेचितम् ॥
॥ इति वृश्चिकरेचितम् ॥ ५३॥ बद्धामथ स्थितावर्ती चारों कृत्वा करौ यदि। - उरोमण्डलिनौ कुर्यात्तदुरोमण्डलं मतम् ॥
॥ इत्युरोमण्डलम् ॥ ५४॥ चारी चापगतिर्यत्र दोलाख्यौ च यदा करौ ।
उद्वेष्टितौ ततश्चापवेष्टितौ च क्रमाद्यदा। .:: तदावर्त भवेदेतत् साध्वसादपसर्पणे ॥
॥ इत्यावर्तम् ॥ ५५॥ ऊर्ध्वाङ्गुलितलः पाद ऊर्ध्वपार्श्वे प्रसारितः। तदप्रपृष्ठतः कार्यमेवमङ्गान्तरेऽपि चेत् । सूत्रधारगतावेतदुक्तं तलविलासितम् ॥
॥ इति तलविलासितम् ॥५६॥ वृश्चिकाङ्ग्रेर्यदाङ्गुष्ठो ललाटे तिलकं लिखेत् । तदा ललाटतिलकं विद्याधरगतौ स्मृतम् ॥
॥ इति ललाटतिलकम् ॥ ५७ ॥ ऊर्ध्वजानुं विधायाथ दोलापादां यदाचरेत् । दोलापादौ करौ यत्र दोलापादं तदेरितम् ॥
॥ इति दोलापादम् ॥ ५८॥
।
25
-
-
1 B0 यदेरितम्।
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कुचितम्] नु० २० को-उल्लास ३, परीक्षण १
वामपार्थेऽलपद्मः स्यादुत्तानो दक्षिणः करः। यवा तत् कुञ्चितं पादे सव्येऽग्रतलसंचरे। . आनन्दनिर्भरसुरानन्दाभिनयने मतम् ॥
॥ इति कुञ्चितम् ॥ ५९॥ पादमाक्षिप्तचारीकमाक्षिप्याक्षिप्य हस्तकौ । व्यावृत्तिपरिवृत्तिभ्यां ततो भ्रमरिकाविधौ । रेचितौ चेत् करौ स्यातां विवृत्तमुद्धते गमे ॥
॥ इति विवृत्तम् ॥ ६० ॥ पाणिंखस्तिकयुक्त्याऽदः सूचीपादेन जायते । निवर्तते विवृत्याथ प्रत्यावृत्याथ पार्श्वतः॥. त्रिकं स्याद्विनतं चारी बद्धा पाणी द्रुतभ्रमौ । यत्र तद्विनिवृत्तं स्यात्तदुद्धतपरिक्रमे ॥
॥ इति विनिवृत्तम् ॥ ६१ ॥ पार्धाकान्ताहचार्या वै कुर्यात् पादानुगौ करौ । पार्श्वकान्तं तदा यद्वाभिनेयवशगौ करौ। परिक्रमेऽतिरौद्रस्य भीमसेनादिकस्य तत् ॥
॥ इति पार्श्वक्रान्तम् ॥ ६ ॥ एकस्याङ्के पार्णिभागे समुन्नततरः परम् ।
कुश्चितश्चेद् द्वितीयः स्यात् खटकाख्यस्य मध्यमा ॥ . वक्राङ्गुली तिलकयेल्ललाटं तनिशुम्भितम् । अथवा हस्तकोऽत्र स्यादृश्चिकोऽत्र महेश्वरः। अभिनेय इति प्राहुर्नृत्यशास्त्रविशारदाः ॥
॥ इति निशुम्भितम् ॥ ६३ ॥ चतुर्दिकं शिरक्षेत्रे पृष्ठतो भ्रामितं द्रुतम् । भ्रामयेचरणं चेत् स्यात् विद्युद्धान्तं तदाद्भुतम् । एतदप्यौद्धते प्रोक्तं नृत्यविद्भिः परिक्रमे ॥
॥ इति विद्युद्धान्तम् ॥ ६४ ॥ अतिक्रान्ताख्यचारीकमनिमग्रे प्रसारयेत्। .... चेत् प्रयोगानुगौ हस्तावतिकान्तं तदोच्यते ॥
॥ इत्यतिक्रान्तम् ॥ ६५ ॥
15
*
20
-
1 ABO इत्यभिक्रान्तम् ।
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[विक्षितम्
नृ०र० को०-उल्लास ३, परीक्षण १ विद्युड्रान्तां दण्डपादां चारी कृत्वा क्रमादिह ।
उद्वेष्टितौ तथा चापवेष्टितौ रेचयेत् करौ ॥ .... एकमार्गगतावग्रे पृष्ठतः पादयोः क्षिपेत् । विक्षिप्तमभिनेयः स्यात्तेनोद्धतपरिक्रमः॥
॥ इति विक्षिप्तम् ॥ ६६ ॥ , आक्षिप्य हस्तचरणं त्रिकं यत्र विवर्तयेत् । - करं च रेचयेदन्यं तद्वदन्ति विवर्तितम् ॥
॥ इति विवर्तितम् ॥ ६७ ॥ दोलापादाख्यचार्या चेत् कर्णे स्यात् करिहस्तकः।. 10 क्रियापरः करो यत्र गजक्रीडनकं तदा ॥ .
॥ इति गजक्रीडनकम् ॥ ६॥ वक्षःस्था कटकः पादः सूचीपार्श्व ततं यदा। गण्डक्षेत्रे यदा वामो हस्तः स्यादलपल्लवः॥
सूचीपादोऽथ वा सूचीमुखो वा नृत्यहस्तकः । 15 गण्डसूची तदा प्रोक्त[1] कपोलालङ्कृती भवेत् ॥
॥ इति गण्डसूची ॥ ६९॥ वृश्चिकोतिर्यदा हस्तौ लतारेचितकावुरः । समुन्नतं तदान्वर्थ करणं गरुडप्लुतम् ॥
॥ इति गरुडप्लुतम् ॥ ७० ॥ 20 चार्यातिकान्तया यद्वा दण्डपादाख्यया द्रुतम् ।
उत्क्षिप्य पात्यमानेऽनौ सशब्दं तालिकां करौ । कुरुतो यत्र तत् प्रोक्तं तलसंस्फोटितं बुधैः ॥
॥ इति तलसंस्फोटितम् ॥ ७१ ॥ समस्या रूपृष्ठे निहितः चरणः परः। वक्षःस्थलो मुष्टिहस्तः स्यादर्धचन्द्रः कटीतटे । करणं पार्वजानुः स्यात् प्रोक्तं युद्धनियुद्धयोः॥ १३८
॥ इति पार्श्वजानुः ॥ ७२ ॥
१३६
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शुभ्रावलीनकम्] नृ० र० को०-उल्लास ३, परीक्षण १
भूमिश्लिष्टलताहस्ताङ्गुष्ठावनिस्तु पृष्ठतः। .., प्रसृतश्चेन्महापक्षिबुद्धौ (? युद्धे) गृध्रावलीनकम् ॥ १३९
॥ इति गृध्रावलीनकम् ॥ ७३ ॥ कव्यां यदार्धचन्द्रः स्यात् पक्षवश्चितकोऽथवा । वक्षःस्थः खटकाहस्त परपाणिस्थितोऽपरः। सूचीपादस्तदा सूचीविद्धं सूच्यादिषु स्मृतम् ॥
॥ इति सूचीविद्धम् ॥ ७४ ॥ कुञ्चितं पादमुत्क्षिप्य स्थापयेभूमिमस्पृशन्। .. तद्दिक: खटको हस्तो वक्षसि स्यात्तथा परः॥..१४१ शिरःक्षेत्रेऽलपद्मश्च तथैवाङ्गान्तरं क्रमात् ।
10 करणं सूचिसंशं तद्गदितं विस्मये विदा ॥
, ॥ इति सूचि ॥ ७५ ॥ तदैवांकांग(? वैकाङ्ग)रचितमधुसूचीति सूचितम् ॥ १४३ ।।
॥ इत्यर्धसूची-॥ ७६ ॥
१४२
16
करौ खटकदोलाख्यौ चारी च हरिणप्लुता । हरिणप्लुतमेतत् स्याद्धरिणस्य प्लुते गते ॥ ...१४४ ।
॥ इति हरिणप्लुतम् ॥ ७ ॥ षद्धा चारी तथा हस्तादूर्ध्वमण्डलसंज्ञितौ । अधिः सूची विवृत्तं च त्रिकं भ्रमरिकाश्रितम् । करणं परिवृत्तं तत् कीर्तितं नृत्यपण्डितैः॥
१४५20 ॥ इति परिवृत्तम् ॥ ७८ ॥ दण्डपादां द्रुतं चारी कृत्वा नूपुरपादिकाम् । दण्डवद्यत्र हस्तः स्याद्दण्डपादं तदुच्यते ॥
॥ इति दण्डपादम् ॥ ७९ ॥ रेचयित्वा करावूर्वोgश्चिकाचिं निकुञ्य च। ...... भ्रमरी क्रियते चेत्स्यात्मयूरललितं तदा ॥
॥ इति मयूरललितम् ॥ ८ ॥
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नृ० र० को०-उल्लास ३, परीक्षण १ [लोलितम् दोलापादां विधायान्येनाङ्गिणा चेत् करोत्ययम्। . उत्प्लुत्य भ्रमरी तूर्णं भवेत् प्रेडोलितं तदा ॥ १४८
॥ इति प्रेडोलितम् ॥ ८१॥
मृगप्लुतां विधायाङ्गिः स्वस्तिकोऽग्रे विरच्यते। हस्तौ स्तो' दोलौ संनतं तदधमस्य गतौ मतम् ॥ १४९
॥ इति सन्नतम् ॥ ८२॥ एकतश्चरणावडीव(१ श्राव)श्चितेऽपसरत्यथ । शिरः स्यान्नामितं तस्य पार्श्वे स्यादुचितं (१ तः) करः॥ १५० एवमङ्गान्तरं यत्र तत्सर्पितमुदाहृतम् । ... नियोज्यमेतन्मत्तस्योन्मत्तस्य परिसर्पणे ॥ - १५१
॥ इति सर्पितम् ॥ ८३॥
वक्षस्युद्वेष्टितो वामः करः स्यात् खटकामुखः। त्रिपातका करः कर्णे पादश्चेदश्चितः कृतः। अग्रे प्रसार्यते यत्र करिहस्तमिदं विदुः॥
॥ इति करिहस्तम् ॥ ८४ ॥ रेचिताद्धस्ततो पादस्तद्दिको हस्तघर्षणात् । गच्छेत् पादान्तरान्मन्दमन्दमन्यो लताकरः। तदा प्रसर्पितं ज्ञेयं व्योमयानगती मतम् ॥
॥ इति प्रसर्पितम् ॥ ८५॥ कृत्वा बद्धामपक्रान्तां चारी च करयोः पुनः । तत्तत् प्रयोगानुगयोरपक्रान्तं प्रकीर्तितम् ॥
॥ इत्यपक्रान्तम् ॥ ८६॥ पताको चेदधोवक्त्राङ्गुलीको शिरसः स्थलम् । परिवृत्त्या समानीय निष्क्राम्योसियोर्द्वयोः । अन्योन्याभिमुखौ कृत्वा खदेहाभिमुखाङ्गुली । नितम्बाख्यौं विधीयेते नितम्बं तु तदा मतम् ॥
॥ इति नितम्बम् ॥ ८ ॥
20
1 AB0 स्तौ। 2 ABO °ख्यौर्विधीयते ।
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स्खलितम्] नृ० र० को०-उल्लास ३, परीक्षण १
दोलापादस्य गमनागमने हंसपक्षकः। अन्वेत्यङ्गान्तरं यत्र स्खलितं तत् प्रकीर्तितम् ॥
॥ इति स्खलितम् ॥ ८८ ॥
१५७
१५८
१५९०
१६०
अलातां चारिकां कृत्वा न्यस्येदद्धिं द्रुतं पुरः। चपेटवत् कृतो हस्तस्तथान्याङ्गविधानतः। सिंहविक्रीडितं नाम भवेद्रौद्गताविदम् ॥
॥ इति सिंहविक्रीडितम् ॥ ८९ ॥ पद्मकोशौ[वोर्णनाभौ करावतिस्तु वृश्चिकः। प्राचौ भकत्वापरे पादे 'वृश्चिके तादृशौ पुनः । कृती सिंहाकर्षितकं सिंहाभिनयने मतम् ॥
॥ इति सिंहाकर्षितम् ॥९०॥ जनितं चरणं कृत्वा ह्यरालं चालपल्लवम् । ललाटे हृत्पदेशे च हस्तावभिमुखाङ्गुली ॥ क्रमादुद्वेष्टितेन स्तो व्यावृत्त्या पार्श्वगौ ततः। परिवृत्त्यापवेष्टेन वक्षोदेशे च तादृशौ ॥ मिथोऽभिमुखतां प्राप्तौ निघीयेते यदा तदा। अवहित्थं बुधैः प्रोक्तं विनियोगोऽस्य कथ्यते। गोपनप्रायवाक्याथै केचिदन्ये प्रचक्षते ॥
॥ इत्यवहित्थम् ॥ ९१ ॥ मण्डलस्थानके स्थित्वा निर्भुग्ने हृदये यदा। विन्यस्तो खटकावको निवेशं गजवाहने ।
___॥इति निवेशम् ॥९२॥ एलकाक्रीडितौ पादौ हस्तौ खटकदोलको । वलितं सन्नतं गात्रमेलकाक्रीडितं तदा। अभिनेतव्यमेतेनाधमप्राणिप्रसर्पितम् ॥
॥ इत्येलकाक्रीडितम् ॥ ९३ ॥
१६१1।
*
१९४३
*
1 of वृश्धिकोऽधिः पद्मकोशौ वोर्णनाभौ यदा करौ । सं. र. अ. श्लो. ७१८. 2 ABO मिशेवं।
२१
.रा.
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[उत्तम
० र० को०-उल्लास ३, परीक्षण १ प्रसार्य पुनरानीतौ हस्तौ पादौ यदा पुनः । गात्रमुत्तचारीकमुद्रुतं तत् प्रकीर्तितम् ॥
__इत्युत्तम् ॥ ९४॥ चारी च जनितां कृत्वा करं कुर्याल्लताभिधम् । अन्यं वक्षास्थितं मुष्टिकरणं जनितं तदा। क्रियारम्भोऽभिनेतव्य एतेन महतां नृणाम् ॥
॥ इति जनितम् ॥ ९५॥
.. १६७
10.
करौ संघहिततलौ रचयित्वा पताकको । दोलापादां भजेचारी वैष्णवस्थानके स्थितः॥ दक्षिणं कटिदेशस्थं वामं रेचितमाचरेत् । तलसंघटितं तत् स्यादनुकम्पार्थगोचरम् ॥
॥ इति तलसंघट्टितम् ॥ ९६॥ आकाशाभिमुखो यत्र कुञ्चितश्चरणो व्रजेत् । रेचितौ च करौ विष्णुकान्तं स्यात् क्रमणे हरेः॥
॥ इति विष्णुकान्तम् ॥ ९७ ॥ विधाय चारीमाक्षिप्तां वामतस्तदनन्तरम् । हस्तं विधाय व्यावृत्तं परिवर्तनकारकम् ॥ अरालतां नयेदेनं नते दक्षिणपार्श्वके । एतचापसृतं ज्ञेयं विनयेनो(? ना)पसर्पणे ॥
॥ इत्यपसृतम् ॥ ९८॥
15
वैष्णवे स्थानके पाणिरेको वक्षसि रेचितः। अन्योऽलपल्लवः शीर्ष लोलितं पार्श्वयोर्द्वयोः । विश्राम्यति यदा प्राहुर्लोलितं करणं तदा ॥
॥ इति लोलितम् ॥ ९९॥ क्रमेण खस्तिकौ पादौ तथैवापसृतौ शिरः । परिवाहितमानीतो दोलौ हस्तौ यदा तदा। मदस्खलितकं प्राहुः प्रयोज्यं मध्यमे प(?मोदे ॥
. . ॥ इति मदस्खलितम् ॥ १०॥
25
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वृषभक्रीडितम् ] नृ० १० कौ० - उल्लास ३, परीक्षण १
हस्तरेचितकं कुर्वन् कुर्याच्चारीमलातिकाम् । कुश्चितौ च करौ कृत्वा व्यावर्तनविधानतः ॥ कृत्वालपद्मौ न्यस्येते करौ चेद्वाहुशीर्षयोः । वृषभक्रीडितं प्राहुस्तदा करणमुत्तमम् ॥ ॥ इति वृषभक्रीडितम् ॥ १०१ ॥
*
चार्यामाविद्धसंज्ञायां व्यावृत्तपरिवर्तितम्' | अलपद्मं करं न्यस्येदूरूपृष्ठे यदा तदा । ससंभ्रमगती योज्यं सभ्रान्तं करणं भवेत् ॥ ॥ इति संभ्रान्तम् ' ॥ १०२ ॥
*
*
चारी संघहितां कृत्वा पार्श्वे तत्संनतिं नयेत् । करौ समुद्यतौ कर्तुं तालिकां च यदा तदा । उद्धहितं प्रयोक्तव्यं नृत्ये तज्ज्ञैः प्रमोदकैः ॥ ॥ इत्युद्धट्टितम् ॥ १०३ ॥ सूचीमुखो नृत्यहस्तो दक्षिणश्चेदपेत्य च । उपव्रजेत् करं वामं सोऽविमो निकुट्टकः ॥ एवमङ्गान्तरेऽपि स्यात् सूच्यनिर्दक्षिणः करः । दक्षिणोऽप्यलपद्मः स्यात् वामहस्तोऽपि पूर्ववत् । एवं पुनः पुनर्यत्र विष्कुम्भं तत् प्रकीर्तितम् ॥ ॥ इति विष्कुम्भम् ॥ १०४ ॥
*
चारी तु शकटास्या स्यादेको हस्तः प्रसारितः । अङ्घ्रिणा सह हस्तोऽन्यो वक्षःस्थः खटकामुखः । तत् शकटास्यं स्यात् प्रयोज्यं बालखेलने ॥ ॥ इति शकटास्यम् ॥ १०५ ॥
*
अरालखटको हस्तौ यत्र व्यावर्तनान्वितौ । सहोरुद्वत्तया चार्या निदध्यादूरुपृष्ठयोः । ऊरूत्तं प्रेमकोपप्रार्थनेर्ष्यासु कीर्तितम् ॥ ॥ इति ऊरुद्वृत्तम् ॥ १०६ ॥
*
२६३
१७४
१७५
१७६
१७७
१७९
१७८15
१८०
१८१
5
1 ABC परिवृत्तितम् | 2 ABC repeat ससंभ्रमगतौ योज्यं from the Samb hrānta karana. 3 ABC खेदने ।
10
20
25
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*
नृ०२० को-उल्लास ३, परीक्षण २ नागापसर्पित हस्तौ रेचयेच्छीर्ष परिवाहितमाचरेत् । खस्तिकापसृतौ कुर्यात् पादौ नागापसर्पिते।। प्रयोज्यमेतदिच्छन्ति प्रायेण तरुणे मदे ॥
॥ इति नागापसर्पितम् ॥ १०७॥ अङ्कावुत्क्षिप्यमाणेऽपि तथा निक्षिप्यमाणके। त्रिपताको भजेतां चेदनु प्रोन्नतिसंनताम् ॥ तद्वदेव शिरश्चेत् स्याद्गङ्गावतरणं तदा। गङ्गावतारे निर्दिष्टं मुनिना सर्वदर्शिना ॥
॥ इति गङ्गावतरणम् ॥ १०८ ॥ प्रायो वक्षास्थितः कार्यो वामस्तु करणे करः । दक्षिणस्तु करस्तत्तत्करणस्यानुगः स्मृतः॥ तलपुष्पपुदस्यादी प्रयोगाद् ज्ञायते किल । पुष्पैः स्याद्देवतापूजामङ्गलार्थतयेति च ॥ गङ्गावतरणस्यान्ते कीर्तनान्मङ्गलान्तता। सर्वकार्येषु विज्ञेयेत्यवदद्भरतो मुनिः॥
॥ हत्यष्टोत्तरशतं करणानि ॥ १०९ ॥ श्रीमत् कुम्भलमेरावर्तुदशिखरे च चित्रकूटे च। .. . दुर्गवरौ वरपदवी यत्करणं राजते जगति ॥ १८८ ___ इति श्रीराजाधिराजश्रीकुम्भकर्णमहीमहेन्द्रेण विरचिते सङ्गीतराजे षोडशसाहस्यां 20 सङ्गीतमीमांसायां नृत्यरत्नकोशे करणोल्लासे शुद्धकरणाभिधानं प्रथमं परीक्षणं [समामम् ।]
15
तृतीयोल्लासे द्वितीयं परीक्षणम् ।
[ मङ्गलम् ।] यमन्तःकरणेष्वाद्या नित्यामारोप्य तन्वतः। विचिन्तयन्ति तं वन्दे करणातीतमीश्वरम् ॥ अथ देशीपूर्वकाणि बृहद्देशीविदांवरः। करणानि समाचष्टे कुम्भकर्णो धराधिपः ॥ अन्चितं चैकक(?चोरणाचितं स्याङ्गैरवाश्चितम् । दण्डप्रणामाश्चितं च कर्तर्यश्चितमेव च ॥ 1 A0 स्तिकोप। 2 ABC याम।
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अञ्चितम् ]
नृ० २० को० - उल्लास ३, परीक्षण २
तिर्यगश्चितकं तद्वत् समपादाञ्चितं तथा । भ्रान्तपादाञ्चितं च' करणं स्यात्ततः परम् ॥ अलगं कूर्मालगं चोर्ध्वालगं चान्तरालगम् । लोहडीं च तथा चान्यैकपादलोहडी तथा ॥ कर्तरी लोहडी चैव स्यादर्पसरणं तथा । जलादिशयनं नागबन्धं कपालचूर्णनम् ॥
तपृष्ठं तथा मत्स्यकरणं च प्रकीर्तितम् । करस्पर्शनसंज्ञं च तथैवैणप्लुतं मतम् ॥ तिर्यक्करणसंज्ञं च तिर्यक् स्वस्तिकमेव च । स्कन्धभ्रान्तं खण्डसूचि समसूचि ततः परम् ॥ ततो विषमसूचीति बाह्यभ्रमरिका ततः । अन्तर्भमरिका चैव छत्रभ्रमरिका तथा ॥ तिरिपभ्रमरी चाथ लगभ्रमरिकेति च ।
भ्रमरिका नामोचितभ्रमरिका तथा ॥ शिरोभ्रमरिका चैव तथा दिग्भ्रमरीति च । एवमुतपूर्वाणि षट्त्रिंशत्संमितानि च । करणानि समासेन लक्षिष्यन्ते यथागमम् ॥
स्थित्वा वै समपादेनोत्तानश्चेदुत्प्लुतेन्नटः । तदाश्वितं स्यात् करणम् ।
॥ इत्यञ्चितम् ॥ १ ॥
*
एकपादाञ्चितं तथा ॥ यद्येतदेकपादेन निर्मितम् ।
भैरवाञ्चितम् ॥
॥ इत्येकक (? च) रणाञ्चितम् ॥ २ ॥
*
भैरवाञ्चितमूरुपृष्ठे स्थितैकाङ्केरुत्तौ ॥
॥ इति भैरवाञ्चितम् ॥ ३ ॥
यदाञ्चितवत्सुत्य निपतेद्भुवि' दण्डवत् । दण्डप्रणामाञ्चितकं वदति नृत्यकोविदः ॥
॥ इति दण्डप्रणामाञ्चितकम् ॥ ४ ॥
*
१६५
८10
१०
११
१२
5.
१४
1 AB चैव करणं | 2 ABC निपतेद्भुवि । यदाचितवदुत्य दण्डवनृत्यकोदिरः । दण्डप्रणामाञ्चितकं ।
15
१३ 25
20
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नु० र० को०-उल्लास ३, परीक्षण २ कर्तशितम् कर्तर्यश्चितमेव च। चरणाभ्यां खस्तिकाभ्यामश्चिते परिकीर्तितम् ॥
॥ इति कर्तर्यश्चितम् ॥५॥ समपादात् परं तिर्यगुत्प्लुतौ तिर्यगश्चितम् ॥
___॥इति तिर्यगञ्चितम् ॥६॥ विधाय पादावूर्वाग्रौ समौ स्कन्धेन भूतलम् ।
आक्रम्योल्लालयेत्पादौ परिवर्तनमाचरेत् । तिर्यग्यत्र क्रमादेतत् समपादाञ्चितं विदुः॥ .
॥ इति समपादाश्चितम् ॥ ७॥ दक्षिणा िभ्रामयित्वा तदीयतलपृष्ठतः। वामानिजङ्घामध्यं चेदवष्टभ्याश्चितं ततः॥ कृत्वा धरित्रीं स्कन्धाभ्यामधिष्ठाय विवर्तनम् । विधायोल्लालयेत्पादौ भ्रान्तपादाश्चितं तदा ॥
॥ इति भ्रान्तपादाञ्चितम् ॥ ८॥ उत्लुत्याधोमुखोऽग्रे च पतित्वा कुक्कुटासनम् । यत्र पनाति तत्मोक्तमलगं करणोत्तमम् ॥
॥ इत्यलगम् ॥९॥ यदि स्यादलगे कूर्मासनं कूर्मालगं तदा ॥
॥ इति कूर्मालगम् ॥ १० ॥ 20 समानेरूद्मसंस्थाने पतित्वो_लगं भवेत् ॥
__॥ इत्यू;लगम् ॥ ११॥ कृत्वालगं निपत्योामुत्तानोरःस्थलं स्थितः । पृष्ठतः शिरसा श्रोणि स्पृशेच्चेदन्तरालगम् ॥
॥ इत्यन्तरालगम् ॥ १२ ॥ यत्र कृत्वा समौ पादौ विवृत्य त्रिकमुत्प्लुतेत् । तिर्यक् तल्लोहडीसंज्ञम् ।
॥ इति लोहडी' ॥१३॥
लोहडीलुण्ठितं भुवा॥ २४ PHPritput लोहडी after भुवा । But लोहडी लुण्ठितं भुवा seems to be a part of tierdefinition of एकपाद लोहडी.
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एकपादलोहडी] न र० को०-उल्लास ३, परीक्षण २ एकपादप्रयुक्तेयमेकपादादिलोहडी ॥
॥ इत्येकपादलोहडी ॥ १४ ॥ एकपादलुठितं वा। लोहड्येव खस्तिकाविरचिता लोहडी(? कर्तरी )मता॥
॥ इति कर्तरीलोहडी ॥ १५॥ दर्पसरणं प्रोच्यतेऽधुना। वैष्णवं स्थानमास्थाय पृथ्व्यां चेत् पार्श्वतः पतेत् ॥
॥ इति दर्पसरणम् ॥ १६ ॥ जलशायिवदेतत् स्यादासने जलशायिकम् ॥
॥ इति जलशयनम् ॥ १७ ॥ तदेव नागबन्धं स्यान्नागबन्धवदासने ॥
॥ इति नागबन्धम् ॥ १८॥ समपादस्थितो भूमौ शीर्णा संस्पृश्य भूतलम् । परावृत्तिं वितनुते कपालचूर्णितं हि तत् ॥
॥ इति कपालचूर्णितम् ॥ १९ ॥ कपालचूर्णेन जाते वक्षस्युत्तानिते नते। नतपृष्ठं परैरुक्तं वंकोलं करणं त्विदम् ॥
.. ॥ इति नतपृष्ठम् ॥२०॥ कृत्वोत्प्लवनमावर्त्य मध्यं पार्श्वेन मत्स्यवत् । वामेन परिवर्तेचेत्त(?तत)न्मत्स्यकरणं भवेत् ॥
॥ इति मत्स्यकरणम् ॥ २१॥ अलगं विधाय करणं हस्तेनाश्रित्य नर्तकी भूमिम् । परिवर्तेत यदेदं स्पर्शनमुक्तं कराधं तत् ॥
॥ इति करस्पर्शनम् ॥ २२॥ कृत्वोत्लवनं सूचीमन्यतमां खे विधाय चेजते । भूमावूलस्थानं यदोत्कटासनं तदाप्लुतं चैणम् ॥
॥ इत्येणप्लुतम् ॥ २३॥
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नृ० १० को०- उल्लास ३, परीक्षण २
तिरश्चैकेन पादेन समुत्प्लुत्य निपत्य चेत् । एकपादेन पृथ्व्यां चेत्तिष्ठेत्तिर्यक्कतिस्तदा ॥ ॥ इति तिर्यकरणम् ॥ २४ ॥
तिर्यक्वस्तिकमुत्य स्यात्तिर्यक् स्वस्तिके कृते ॥ ॥ इति तिर्यक्स्वस्तिकम् ॥ २५ ॥
*
पृथ्व्यां स्थित्वांसयुग्मेन कृत्वा चैवोत्कटासनम् । करणं चाञ्चितं कृत्वा धृत्वाङ्गान्तरमम्बरे ॥ बाहुभ्यां भुवमाक्रम्य भ्रामं भ्रामं च पूर्ववत् । तिष्ठेत् प्रतिदिशं यत्र तत् स्कन्धभ्रान्तमुच्यते ॥ ॥ इति स्कन्धभ्रान्तम् ॥ २६ ॥
*
सूचीनां त्रितयं प्रोक्तं तद्विधा परिकीर्तितम् । भौमाकाशविभेदेन समाद्यन्यतमां यदि ॥ करणानि दधत्यन्ते सूचीं प्राकथितानि तु । सूच्यन्तानि तदा तानि जायन्त इति सूरयः ॥ ॥ इति सूच्य[न्त ] म् ॥ २७ ॥
*
सव्येतरेण पादेन स्थित्वा सव्याहिकुञ्चनात् । सव्यावर्त भ्रमेद्यत्र सा बाह्यभ्रमरी मता ॥ ॥ इति बाह्यभ्रमरी ॥ २८ ॥
*
अस्या एव विपर्यासादन्तर्भमरिका भवेत् ॥ ॥ इति अन्तर्भ्रमरी ॥ २९ ॥
*
स्थित्वैकेनाङ्गिणा भूमौ दण्डवच्चोत्क्षिपेत् परम् । सव्यावर्त भवेद्यत्र सा छत्रभ्रमरी मता ॥ ॥ इति छत्रभ्रमरी ॥ ३० ॥
अङ्घ्रिस्वस्तिकमाधाय तिर्यग्भ्रमणतो भवेत् ॥
॥ इति तिरिपभ्रमरी ॥ ३१ ॥
*
[ तिर्यकरणम्
३५
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४४
1 Khandasūci, Viśamasūci and Samasūci- all the three seem to be described here.
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नृ० १० को ० -उल्लास ३, परीक्षण २
वैष्णवं स्थानकं कृत्वा तिष्ठेत् सव्याङ्क्षिणा ततः । देहं भ्रामयतस्तिर्यगलगभ्रमरी भवेत् ॥ ॥ इत्यलगभ्रमरी ॥ ३२ ॥
2:
अणभ्रमरी ]
*
खण्ड सूच्या भ्रमाच्चक्रवच्चक्रभ्रमरी भवेत् ॥ ॥ इति चक्रभम्ररी ॥ ३३ ॥
देहस्य तिर्यग् भ्रमणात् समपादादनन्तरम् । उचितभ्रमरी नाम ब्रूते शङ्करकिङ्करः ॥ ॥ इति उचितभ्रमरी ॥ ३४ ॥
*
सा शिरोभ्रमरी ज्ञेया शिरसैव भुवि स्थिता । पादावृवकृतौ विभ्रत् त्रिशो भ्रमणतो द्रुतम् ॥ ॥ इति शिरोभ्रमरी ॥ ३५ ॥
*
भ्रामं भ्रामं सकृत् प्राग्वद्यत्र हस्तघृतक्षिति | चतुर्द्दिक्चक्रमात्तिष्ठेत्तदा दिग्भ्रमरी मता ॥ ॥ इति दिग्भ्रमरी ॥ ३६ ॥
*
अन्येऽपि सन्ति भूयांसो भेदाः करणसंश्रयाः । स्वयं बुद्धिमतोद्यास्ते न प्रोक्ता विस्तराद्भिया ॥ उच्चैर्यदीयकरणानि मनोहराणि
तत्तत्खदेश ललनालपनेषु चित्रम् । तेन त्रिलोकपरितोषकराणि राज्ञा देशप्रसिद्ध करणानि विनिर्मितानि ॥
[ आनन्दसञ्जीवनाद् उद्धृतं भ्रमरीविषयकं प्रकरणम् । ] अथ आनन्दसंजीवनमध्यात्'
चारीहस्तकसङ्गात् करणानि विदुर्बुधाः । प्रभवन्ति भिदास्तेषां भेदास्ते रससंमिताः ॥ कचिच्चावशाना (? न्ना) म कचिद्धस्तकपूर्वकम् । प्रसादे क्रियमाणे स्यात् कर्तव्यं नाट्यपण्डितैः ॥
1 BG ॥ श्री ॥
२२ न०रन०
ZAR
४६
४७
४८०
५१२०
इति श्रीराजाधिराजश्रीकुम्भकर्ण महीमहेन्द्रेण विरचिते सङ्गीतराजे षोडशसाहरूयां सङ्गीतमीमांसायां नृत्यरत्नकोशे करणोल्ला से देशीकरणनिरूपणं नाम द्वितीयं परीक्षणं समाप्तम् ॥२॥
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५०
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من
नृ० १० को०- उल्लास ३, आ० सं० प्रकरणम्
यथा गीते सदाभोगः शिखरत्वे निरूपितः । तथा नृत्ये च तासां तु नर्तनं कलशोपमम् ॥ आभोगनर्तने प्रोक्ता भ्रमर्यो मुख्यतो बुधैः । विशेषाङ्गमकादीनां सुप्रभास्ताः प्रकीर्तिताः ॥ भरतोक्ता अपि त्यक्त्वा अल्पाल्पाः करणे खके । ताभ्यः कियत्यो वक्ष्यन्ते कामसंजीविकास्तु याः ॥
wwwww
*
पताकं हृदये न्यस्य करेऽन्यस्मिन् प्रसारिते । तदेवानं बहिः क्षिश्वा भ्रमणाद् हृदयङ्गमाः । भ्रमे यत्र स्मृतोऽभ्याससुहृद्भिस्त्रिः पुरःसरम् ॥ ॥ इति हृदयंगमाः ॥ १ ॥
*
बाहोः पताको संन्यस्य भ्रमणादङ्कमौलिका | शिरः पल्लविका चाथ द्वितीया कथ्यतेऽधुना ॥ ललाटे तु पताकः स्या[द्] भवेदन्यः प्रसारितः । बाहोः प्रसारणं कृत्वा करौ स्यातां द्रुतभ्रमौ । नर्तनाच शिरोदेशे द्वितीया शीर्षपल्लवा ॥ ॥ इति शीर्षपल्लवाद्वयम् ॥ २ ॥
*
एका कुञ्चितं कृत्वा द्वितीये पाष्णितः स्थिते । यथोल्लासकरौ तस्यां भ्रमणात् कुञ्चिता मता ॥ इति कुञ्चिता ॥ ३ ॥
*
साले ताले कुञ्चिता स्यात् तथैवाङ्गस्थिता सती । कुञ्चिताया द्रुतस्पर्शा विज्ञेया भूमिपल्लवा ॥
॥ इति भूमिपल्लवा ॥ ४ ॥
*
प्रसार्य बाहुयुगले समे वाङ्गिद्वये स्थिता । तत्र वेगभ्रमणतो विज्ञेया चक्रवर्तिनी ॥
॥ इति चक्रवर्तिनी ॥ ५ ॥
*
सकृद्रेचितहस्तश्चेत् त्यक्त्वा स्थानं व संभ्रमात् । मण्डला सापि निर्दिष्टा द्विधाऽन्या सा प्रकीर्तिता ॥
[ हृदयंगमाः
११
१२
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सिवालिका] नृ० १० को०-उल्लास ३, आ. सं. प्रकरणम्
लास्ये तु या भुवस्त्यक्तं वस्तु गृह्णातु पण्डितः। मुहुर्मुहुः भ्रमी या सा लास्यमण्डलिका तु सा॥
॥ इति लास्यमण्डलिका ॥६॥ तिर्यक् स्वास्फालनेनैव भ्रमणाल्लम्बहस्तयोः । तिर्यग मण्डलिका नाम द्वितीयेयं प्रकीर्तिता ॥
॥ इति तिर्यग्मण्डलिका ॥ ७ ॥ सकृत् पाणिंगता भ्रान्त्वा चक्रवद्वेगिता सती। तथैवोपविशेद्भूमौ लयात् सिंहासना मता ॥
॥ इति सिंहासना ॥ ८॥ भ्रमती मण्डले या सा त्वराभ्रमणसंगता । पाणिजभ्रमरीत्युक्ता मुहुः सा परिमण्डली'।
॥ इति परिमण्डली ॥९॥ धूनयती करौ स्वीयौ पादयोः कुञ्चिताग्रयोः । न्युजं तिर्यग् ययोः कुर्याद् मुहुस्तिर्यकृते मते ॥
॥ इति न्युजकृता ॥ १० ॥ स्थित्वा चैकाङ्गिणा चान्यं दण्डवच प्रसारयेत् । यथा भ्रमति सा तस्माद्विज्ञेया तलदर्शिनी॥
__ ॥ इति तलदर्शिका ॥११॥ तिर्यपताके चोत्ताने त्वन्येनाच्छादिते सति । यथा भ्रमयी भ्रमरी प्रोक्ता मेलापनी बुधैः॥
॥ इति मेलापनी ॥ १२॥ बाहयचान्या भवन्त्येताः सव्यजा अपसव्यजाः। लास्येनेष समुद्भता धन्यास्ता अन्यतोऽधमाः॥ एतद्राज्ञां पुरंध्रीणामुद्दिष्टं यन्मयाधुना। नात्र ग्राम्यकृता भावा योज्यास्ते नाव्यकोविदैः॥ मस्तका अमरी विद्यादथो न्युनादिपातनम् । . अभूमेश्च यो योगः स च नैसर्गिको मतः।
अन्याङ्गेन समायोगो न कार्यश्च नरैः सदा ॥ 130 परीमंडली। 2 ABC repeat भ्रामरी। .. .........
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提
नृ० १० को ० - उल्लास ३, परीक्षण ३
उच्चैर्यदीयकरणानि मनोहराणि
तत्तत्खदेशललनालपमे ( ? ने) षु चित्रम् । तेन त्रिनेत्रपरितोषकरेण राज्ञा देशप्रसिद्धकरणानि विनिर्मितानि ॥ ॥ इति भ्रमर्यः ॥ १३ ॥
तृतीयोल्लासे तृतीयं परीक्षणम् ।
किमङ्गहारस्तव नागराजः किं नागराजस्य हतिस्तबाङ्गे । इत्थं ह सोक्तो नगराजकन्यया ननर्त देवः सकलाङ्गहारकैः ॥ १
*
२३
[ अङ्गहारा: । ]
न व्यग्रैः करणैर्दृष्टमदृष्टं वा प्रसाध्यते । अतस्तद्वयसंपत्त्यै तत्समूहं ब्रुवेऽधुना ॥
च्छिरः प्रमुखाङ्गानां प्रदेशमुचितं प्रति । प्रापणं सविलासं तदङ्गहारोऽभिधीयते ॥ अङ्गप्रयोगयोगेन ये हारा हरनिर्मिताः । मध्यस्थपदलोपेन तेऽङ्गहाराः स्मृता बुधैः ॥ 'औचित्यान् मेलनेऽङ्गानां प्रयोगः क्रमपेशलः । करणं कीर्त्यते तज्ज्ञैस्तद्वयं मातृकाः स्मृताः ॥ त्रिभिः कलापकस्तैश्च चतुर्भिः खण्डको मतः । संघातः पश्चभिस्तैश्च संज्ञाभेदा इतीरिताः ॥ तत्समूहविशेषश्चाङ्गहारस्तत्परः स्मृतः । तिसृभिः पञ्चभिर्वा स्यान्नवभिर्वा यथोदितम् ॥ अङ्गहारो मातृकाभिरेकः स्यान्मुनिनोदनात् । करणन्यूनताधिक्यं यत्र नो दूषणाय तत् ॥ मुनिनैव स्वयं सूत्रे विकल्पस्यानुशासनात् । परिभाषाङ्गहाराणां मयैवादौ प्रदर्शिता ॥ अथोद्देशपरं लक्ष्म यथाशास्त्रं प्रदर्श्यते । 1 ABC ऊचित्यानेलने ।
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रामानेनाङ्गहाराः] नृ० र० को ० - उल्लास ३, परीक्षण ३
स्थिरहस्तोsथ पर्यस्तो भ्रमरश्वापसर्पितः ॥ आक्षिप्तोऽथ परिच्छिन्नस्तथा वैशाखरेचितः । पार्श्वस्वस्तिकसंज्ञध सूचीविद्धोऽपराजितः ॥ मदाद्विलसिताख्यश्च मत्ताक्रीडस्ततः स्मृतः । आलीढश्चाच्छुरितकः पार्श्वच्छेदाभिधस्ततः ॥ विद्युद्धान्त इति प्रोक्ता अङ्गहारास्तु षोडश । मानेन चतुरस्त्रेण मानदानविपश्चिता ॥ विष्कुम्भापतो मत्तस्खलितो म ( ? ग ) तिमण्डलः । अपविद्धश्च विष्कुम्भोद्भहिताक्षिप्तरेचिताः ॥ रेचितोऽर्धनिकुश्च वृष्णि ( श्चि) कापसृतस्ततः । अलातकः परावृत्तः परिवृत्तकरेचितः ॥ उद्वृत्तश्चैव संभ्रान्तस्ततः स्वस्तिकरेचितः । षोडशैते व्यस्रमाना द्वात्रिंशदुभयेऽप्यमी ॥ करणव्रात संदर्भविशेषश्चाङ्गहारकः । इत्युक्ते स्यात्तदानन्त्यं ग्रन्थवैचित्र्यहेतुकम् ॥ प्राधान्यं विनियोगस्य समाश्रित्येयतां कृता गणना गुम्फवैचित्र्यात् खयमूह्याः परैप (? रस्प) रैः ॥ लीनं समनखं कृत्वा व्यंसितं च निकुट्टकम् । ऊरूद्वृत्तं विधायाथ स्वस्तिकाक्षिप्तके तथा ॥ नितम्बं करिहस्तं च कटीछिन्नमिति क्रमात् । दशभिः करणैः प्रोक्तः स्थिरहस्तो महीभृता । द्वात्रिंशदङ्गहारेषु ज्ञेयमन्तमवस्थितम् ॥
[ चतुरस्रमानेनाङ्गहाराः । ] अनुक्तमपि तत्त्वज्ञैः कटीछिन्नं तु लक्ष्मगम् । विधाय लक्ष्म सूत्रस्थं करणद्वन्द्वमादितः ॥ चतुर्द्दक्षु ततोsन्यानि करणानि क्रमेण च । नृत्यवैचित्र्यमाधातुमङ्गहारेषु वर्तयेत् ॥
॥ इति स्थिरहस्तः ॥ १ ॥
तलपुष्पपुढं तद्वदपविद्धं च वर्तितम् । निकुमूरुद्वत्ताख्यमाक्षिप्तं तदनन्तरम् ॥
1 BO वर्तते ।
६
3
११
१२० :
१३
१४
१५
१६
१७ 15
१८
१९
२०
10
२२
20
२३30
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*
m : न० २० को०-उल्लास ३, परीक्षण ३
उरोमण्डलमास्थाय नितम्ब करिहस्तकम् ।
दशभिः करणैरेभिः कार्यः पर्यस्तकाभिधः॥ ...
॥ इति पर्यस्तकः ॥२॥ नूपुरं च तथाक्षिप्तं छिन्नं सूचीनितम्बकम् ।
करिहस्तं तथा चोरोमण्डलक्रमतोऽष्टभिः। . एभिस्तु करणैः प्रोक्तो भ्रमरो भ्रमपेशलः ॥
॥ इति भ्रमरः ॥ ३॥ अपक्रान्तं व्यंसितस्य केवलं करजाः क्रियाः।
करिहस्तं चार्धसूचि विक्षिप्तं च ततः परम् ॥ 10. कटीछिन्नं तथा चोरुद्वृत्तमाक्षिप्तकं पुनः। .
करिहस्तमिति प्रोक्तं नवकं करणोद्भवम् । . अपसर्पितसंज्ञे स्यादङ्गहारे हरप्रिये ॥
॥ इत्यपसर्पितः॥४॥ : नूपुरं चैव विक्षिप्तमलताक्षिप्तके ततः। 18 उरोमण्डलकं चैव नितम्बं करिहस्तकम् ॥ - करणैरष्टभिः प्रोक्तो बुधैराक्षिप्तिकोऽत्र च । विक्षिप्तालातकाक्षिप्तान्यत्र केचिद् द्विरभ्यधुः॥
॥ इत्याक्षिप्तिकः ॥५॥ कृत्वा समनखं छिन्नं संभ्रान्तं दक्षिणाङ्गतः। वामतो भ्रमरे चार्धसूच्यतिक्रान्तमेव च ॥ भुजङ्गत्रासितं पश्चात् करिहस्तं क्रमादिति । नवभिः करणैः प्रोक्तः परिच्छिन्नोऽङ्गहारकः ॥
॥ इति परिच्छिन्नः ॥६॥ अङ्गद्वयेन वैशाखरेचितं चाथ नूपुरम् । भुजङ्गबासितोन्मत्ते मण्डलखस्तिके ततः॥ निकुहमूरुद्वृत्तं चाक्षिप्तोरोमण्डले तथा। करिहस्तं क्रमादेतैरेकादशभिरुच्यते । वैशाखरेचितो नाम विशाखे पितृसेविना ॥
॥ इति वि(?)शाखा(?ख)रेचितः ॥ ७॥
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____1 The reading may be विशाखेऽपि नृसेदिना । The meaning in both the cases is not clear,
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पायलस्तिक] नृ०र० को०-उल्लास ३, परीक्षण ३
दिकखस्तिकं विधायैकेनाङ्गेनार्धनिकुट्टकम् । पुनर्दिकवस्तिकं कृत्वाऽन्याङ्गेनार्धनिकुद्दकम् ॥ अपविद्धमूरूवृत्तं चाक्षिप्तं च नितम्बकम् । करिहस्तमिति प्रोक्तो दशभिः करणैरयम् । पार्श्वस्वस्तिकसंज्ञोऽयमङ्गहारो हरार्चने ॥
॥ इति पार्श्वस्वस्तिकः ॥ ८॥ अर्धसूच्यथ विक्षिप्तमावर्त च निकुद्दकम् । अथोरूवृत्तमाक्षिप्तमुरोमण्डलकं ततः। करिहस्ते तथा सूचीविद्धोऽभून्नवभिः स्फुटः॥
॥ इति सूचीविद्धः ॥९॥ अपराजितसंज्ञे स्याद् दण्डपादं ततः परम् । व्यंसितं प्रसर्पितं च निकुद्यार्धनिकुट्टके । आक्षिप्तोरोमण्डले च करिहस्तमितीरितैः । नवभिलक्षणं प्रोक्तं मुनभिर्भरतादिभिः॥
॥ इत्यपराजितः ॥ १०॥ बहुशचित्रगुम्फानि मदस्खलितकं तथा। मतल्लिकरणं चैव तलसंस्फोटितं तथा ॥ कृत्वैतानि निकुटुं चोरुद्वृत्तं करिहस्तकम् । आचत्रिकद्विरभ्यासादस्मिन् तानि तथा दश ॥ चतुःपञ्चादिकान् केचित् त्रिकेऽभ्यासान् विदुर्बुधाः । मवाद्विलसिते तच लक्षणस्थं मयोदितम् ॥
॥ इति मदविलसितः॥११॥ दक्षिणान रचयेद् भ्रमरं नूपुरं तथा। भुजङ्गात्रासितं चैव ततो वाम(मे)न चैव हि ॥ वैशाखरेचिताक्षिप्तच्छिन्नानि भ्रमरं तथा। उरोमण्डलसंज्ञं च नितम्ब करिहस्तकम् । एकादशभिरेव स्यान्मत्ताकीडोऽङ्गहारकः॥
॥इति मत्ताक्रीडः ॥ १२॥ वामतो व्यंसितं कुर्याग्निकुटुं चतुरं ततः।
जारका ।।
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[ी .
नृ० २० को०-उल्लास ३, परीक्षण ३ द्वि[:] कृत्वालातकाक्षिप्ते उरोमण्डलकं तथा। .... अष्टभिः करणैरत्रालीढः सकरिहस्तकैः॥
॥ इत्यालीढः ॥ १३॥ नूपुरं भ्रमरं कृत्वा व्यंसितालाताके तथा । नितम्बसूचिसंज्ञं वाच्छुरिते कर(?रि)हस्तकम् । अष्टभिः करणैरस्मिन् लक्ष्म प्रोक्तं मनीषिभिः ॥
॥ इत्याच्छुरितः ॥ १४ ॥ ..पार्श्वच्छेदे च करणं कुर्याद्वृश्चिककुहितम् ।
ऊर्ध्वजानु तथाक्षिप्त खस्तिकं च ततः परम् ॥ परिवर्त्य त्रिकं चोरोमण्डलं च नितम्बकम् । करिहस्तेन सहितं करणाष्टकमीरितम् ॥
॥ इति पार्श्वच्छेदः ॥ १५ ॥ अर्धसूचि तु वामाङ्गे विद्युद्धान्तं च दक्षिणे । पुनरंसे विपर्यासाद् द्वयं छिन्नं ततः परम् ॥ अतिक्रान्तं वामतोऽथ लतावृश्चिकसंज्ञकम् । अष्टभिः करणैरेष विद्युद्धान्तः प्रकीर्तितः॥
॥ इति विद्युद्भान्तः ॥१६॥ ॥ इति चतुरस्रमानेन षोडशाङ्गहाराः ॥
[त्र्यसमानेनाङ्गहाराः।] 20 अथ त्र्यरेण मानेन षोडशान्यान् प्रचक्ष्महे ।
निकुहार्धनिकुट्टे च भुजङ्गवासितं तथा ॥ सतोऽपि करणं कार्य भुजङ्गन्नस्तरेचितम् ।
आक्षिप्तोरोमण्डले च क्रमात् कृत्वा लताकरम् । . विष्कुम्भापसृते ज्ञेयं करणानां तु सप्तकम् ॥
॥ इति विष्कुम्भापसृतः॥१॥ मतल्लि गण्डसूचि स्याल्लीनं चाप्यपविद्धकम् । चत्वारि द्रुतमानेन तलसंस्फोटितं ततः। करिहस्तं च सप्त स्युर्मत्तस्खलितसंज्ञके ॥
॥ इति मत्तस्खलितः॥२॥
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गतिमण्डल] नु०र० को उल्लास ३, परीक्षण ३
'मण्डलखस्तिकं छि] निवेशा(शो)न्मत्तके ततः। उद्धहितं मतल्लिः स्यादाक्षिप्तमतः परम् । उरोमण्डलकं चाष्टगतिमण्डलसंज्ञके ॥
॥इति गतिमण्डलः ॥३॥ अपविद्ध कटिच्छिन्नं सूचीविद्धमथो करौं । उद्वेष्टितौ ततश्चारी बद्धा च वलितं त्रिकम् ॥ ऊरूवृत्तं च करणमुरोमण्डलकं तथा । पश्चैव करणानि स्युरन्तिमेन सहात्र तु॥
॥ इत्यपविद्धः॥४॥
विष्कुम्भे नवकं ज्ञेयं निकुद [च निकुश्चितम् । अश्चितं च क्रमादूरू वृत्तमर्धनिकुट्टकम् ॥ भुजङ्गात्रासितं का? हस्तावुद्वेष्टितौ ततः। भ्रमरं करिहस्तं चेत्येभिलक्षणगैः क्रमात् ॥
॥ इति विष्कुम्भः ॥५॥ पञ्चैवोहिते तानि निकुटाख्यमतः परम् । स्थादुरोमण्डलं चैव नितम्ब करिहस्तकम् ॥
॥ इत्युद्धट्टितः॥६॥ आक्षिप्तरेचिते कार्यमाद्यं स्वस्तिकरेचितम् । पृष्ठखस्तिकसंज्ञं तु दिक्खस्तिकमतः परम् ॥ कटीसमं चूर्णितं च भ्रमरं च ततः परम् । स्यावृश्चिकरेचितं च ततः पार्श्वनिकुद्दकम् ॥ उरोमण्डलसंज्ञं च संनतं च ततः परम् । सिंहाकर्षितकं नागापसर्पितसमाह्वयम् ॥ अत्र वक्षःखस्तिकं च वैकल्पिकमुदीरितम् । दण्डपक्षं च करणं ललाटतिलकं ततः॥
- ६२७
1 मण्डलस्वस्तिकादूर्ध्वं निवेशोन्मत्तसं झिके । उद्घटिताख्यं मत्तल्लिः स्यादामितमृतः परम् ॥ उरोमण्डलकं छिन्नं कठ्यादिगतिमण्डले । इत्यष्टौ करणानि सरिति निःशङ्कभाषितम् ॥ सं. र. अ.७ श्लो. ८४३-४४. 2 ABO चाथ । 3 ।' 4 c उद्वेष्टितो। 5 AB ललितं। 6 ABO °रूद्वर्त्त । 7 B0 चार्य। ..!
२३ नृ० रन
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शु० र० को०-उल्लास ३, परीक्षण ३ [इत्याक्षिप्तरेचितः षोडशं करणं ज्ञेयमथो तलविलासितम् । निशुम्भितं विद्युद्धान्तं गजक्रीडितकं ततः॥ " नितम्बविष्णुकान्ताख्योरुद्धृत्ताक्षिप्तकानि च ।
उरोमण्डलसंज्ञं तु नितम्बं करिहस्तकम् ॥ कटीछिन्नमिति प्राहुः सप्तविंशतिरत्र वै। वैकल्पितं कटीछिन्नं केचिदाक्षिप्तरेचितम् ॥ इच्छन्ति तन्मतेऽत्र स्युर्विंशतिः पञ्च चैव हि । नितम्बोरोमण्डलयोरावृत्तिं ये च मन्यते ॥
करणानि मते तेषामत्र स्युः सप्तविंशतिः। 10 ये वक्षाखस्तिकं चात्र कटीछिन्नं च नो जगुः। .. पञ्चविंशतिरेव स्युस्तदा वृत्त्यापि तन्मते ॥..
इत्याक्षिप्तरेचितः॥७॥
.
रेचिते करणं पूर्व कुर्यात् खस्तिकरेचितम्। अर्धरेचितकं पश्चाद्वक्षःस्वस्तिकमेव च ॥ .. उन्मत्तसंज्ञकं पश्चात् कुर्यादाक्षिप्तरेचितम् ।
अर्धमत्तल्लिकरणं स्याद्रेचकनिकुद्दकम् ॥ .. । विधायैतानि कार्य च भुजङ्गत्रस्तरेचितम् ।
नूपुरं करणं कृत्वा कार्य वैशाखरेचितम् ॥ भुजङ्गाञ्चितकं दण्डरेचितं चक्रमण्डलम् । वृश्चिकं रेचितं कृत्वा कुर्याद् व्यंसितमेव च ॥ , विवृत्तं विनिवृत्तं च वर्तितं गरुडप्लुतम् । मयूरललितं चैव सर्पितं स्खलिताभिधम् ॥ प्रसर्पितं च करणं तलसंघट्टितं तथा। वृषभक्रीडितं कुर्याल्लोलितं च ततः परम् ॥ षड्विंशतिरितीमानि परिवृत्तिप्रकारतः। . विधाय विषमै गै[:] पर्यायादिक्चतुष्टये। उरोमण्डलकाधं च ततः कुर्याद् द्विकं सुधीः॥
॥ इति रेचितः ॥ ८॥ पुरं च विवृत्तं च निकुहार्धनिकुट्टके। अर्धरेचितकं पश्चात् स्याद्रेचकनिकुट्टकम् ॥
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निकुट्टकः ]
० १० को० - उल्लास ३, परीक्षण ३
ललिताख्यं च वैशाखरेचितं चतुरं ततः । दण्डरेचितकं पश्चात् कार्य वृश्चिककुट्टितम् ॥ पार्श्वनिकुहकं पश्चात् संभ्रान्तोद्घटितेऽपि च । उरोमण्डलकं पश्चात् करिहस्तं सहान्तिमम् ॥ एवमर्धनिकुट्टे स्युर्द्दश सप्त च संख्यया । ॥ इति अर्धनिकुट्टकः ॥ ९ ॥
*
वृश्चिकासृते कार्य लतावृश्विकमादितः ॥ निकुञ्चितं मतलिः स्यान्नितम्वं करिहस्तकम् । षडेतानि महान्त्येव नितम्बस्ना (?स्था) नके परे ॥ इच्छन्ति भ्रमरं तानि तन्मतेऽपि षडेव हि ।. ॥ इति वृश्चिकासृतः ॥ १० ॥
स्वस्तिकं व्यंसितं तु द्विरलाताख्योर्ध्वजानुनी ॥ निकुञ्चितार्घसूच्याख्यविक्षिप्तोद्वर्तकान्यथ । आक्षिप्तं करिहस्तं चैकादश स्युरलातके ॥ व्यंसितं द्विः प्रयुज्येत तदैकमधिकं भवेत् । ॥ इत्यलातकः ॥ ११ ॥
परावृत्ते दक्षिणाङ्गे जनितं शकटास्यकम् ॥ अलातं भ्रमरं चाथ गण्डे करनिकुट्टकम् । करिहस्तं क्रमात् षङ्कं करणानामिहेरितम् ॥ निकुडनमिहाङ्गस्य नमनोन्नमनं मतम् । ॥ इति परावृत्तः ॥ १२ ॥
*
परिवृत्तेऽङ्गहारे तु नितम्बं करणं ततः ॥ करणानुक्रमणे चैव कुर्यात् खस्तिकरेचितम् । विक्षिप्ताक्षिप्तकमथो लता वृश्विकमेव च ॥ उन्मत्तं करिहस्तं च भुजङ्गत्रासितं तथा । आक्षिप्तिकं नितम्बं च नितम्बान्तान्यमून्यथ । नवभ्रमरकाख्येन परिवृत्त्या समाचरेत् । दिगन्तरमुखस्थित्येत्यावर्त्यापरयोर्दिशोः ॥ करिहस्तकटीछिन्ने विदध्यादाद्यदिक्स्थितः ।
1 ABC 'क्षिति' ।
र
७६
७७
४
७८
७९
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८०
८१
5
*15
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0:20
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१
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परिवृत्तीका
सु० २० को०-उल्लास ३, परीक्षण ई अङ्गहारान्तरेष्वेव परिवर्त्य विधिस्त्वयम् ॥ मुक्त्वाऽन्त्यकरणद्वन्द्वं केचिदाद्यं विमुच्य च। आहुः पुरातनाचार्या भट्टाभिनवपूर्वकाः॥
॥इति परिवृत्य(?त्त)रेचितः ॥ १३ ॥ चतुरं करणं कृत्वा भुजङ्गाश्चितकं ततः। गृध्रावलीनकं कार्यमङ्गद्वन्द्वे पृथक् ततः॥ विक्षिप्ते करणे कार्ये उद्वृत्तं सूचिसंज्ञकम् । नितम्बं करणं पश्चाल्लतावृश्चिकमेव च ॥ नवभिः करणैः प्रोक्त उद्धृत्तः पूर्वसूरिभिः। विक्षिप्तोवृत्तके द्विश्वेदधिकं तवयं भवेत् ॥
॥ इत्युकृत्तः॥१४॥ विक्षिप्तमञ्चितं चैव गण्डसूचि ततः परम् । गङ्गावतरण पश्चादर्धसूचि ततः परम् ॥ दण्डपादं च वामाङ्गे साधयेत्तदनन्तरम् । चतुरं भ्रमरं चाथ नूपुराक्षिप्तके तथा ॥ अर्धवस्तिकसंशं च नितम्बं करिहस्तकम् । उरोमण्डलकं चैवेत्येवं पश्चदशाब्रुवन् । अङ्गहारे च संभ्रान्ते करणानि मनीषिणः ।
॥ इति संभ्रान्तः ॥ १५॥ वैशाखरेचितं चैव वृश्चिकं द्विः प्रयुज्य च ।। निकुहकाभिधं कुर्यात्ततः कार्यों लताकरौ । अन्तिमेन सहैतानि षट् स्युः स्वस्तिकरेषिते ॥
॥ इति खस्तिकरेचितः ॥ १६ ॥ कटिभ्रान्तमर्गलं च पार्श्वजानु तथैव च । हरिणप्लुतकं कार्य ततः प्रेडोलितं पुनः॥ . अवाहित्थं चापसृतं छिन्नं च कटिपूर्वकम् । करणं नवमं कार्य नवीनभरतोक्तितः। गोविन्वप्रियसंज्ञोऽयं कार्यों गोविन्दपूजने ॥
॥ इति गोविन्दप्रियः॥ १७ ॥
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वि.] नु० र० को-उल्लास ३, परीक्षण ३ करणं वलितोरुः स्याद्वलितं च ततः परम् । पादापविद्धं च ततो दोलापादां समाश्रयेत् ॥ पार्श्वक्रान्तं परिवृत्तं सिंहविक्रीडितं ततः। एलकाक्रीडितं पश्चात् कटीछिन्नमतः परम् ॥ नवभिः करणैरेभिर्निर्मितः कुम्भभूभुजा। माधवप्रियसंज्ञोऽयं प्रयुक्तो माधवाचने ॥
॥ इति माधवप्रियः ॥ १८ ॥ ॥ इति व्यस्रमानेनाष्टादशाङ्गहाराः॥
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[अङ्गहारविधिः। विनियोगोऽङ्गहाराणां पूर्वरङ्गाङ्गगो बुधैः। ज्ञातव्यो मुरजाद्यैश्च वाद्यैस्ताललयानुगैः ॥ वर्धमानासारितेषु पाणिका गीतिकादिषु । उत्थापनादिषु प्रायः श्रेयः परमकाटिभिः ॥ अङ्गहाराङ्गतायां तु करणानामपीरितः। विनियोगः फलं वापि पृथक्त्वेन प्रयोगतः ॥
॥इति द्वात्रिंशदङ्गहारलक्षणम् ॥ १॥ स्थिरहस्तो दानविधौ पर्यस्तश्चापसर्पितोऽरिजनः ।
आक्षिप्तो येन रणे विद्युद्रातः परं षड्जः॥ इति श्रीराजाधिराजश्रीकुम्भकर्णमहीमहेन्द्रेण विरचिते संगीतराजे षोडशसाहरूया संगीतमीमांसायां नृत्यरत्नकोशे करणोल्लासे अङ्गहार]परीक्षणं तृतीय समाप्तम् । 20
तृतीयोल्लासे चतुर्थ परीक्षणम् । उदृत्तोऽपि न संभ्रान्तो विषयैर्योऽपराजितः। - मत्ताकीडोऽपरिच्छिन्नप्रभावस्तं भजे शिवम् ॥
अथ भरतमुनीश्वराभिमत्या
निगदति रेचकलक्षणं नरेशः।
करचरणकटीषु कण्ठदेशे . पुनरुदिता तदवस्थितिर्मुनीन्द्रैः ॥ .10 अंगहारान् गतानां तु । न. र. को. in भ. को. पृ.७1 2 Bo drop वतीये।
-25
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(४५
० ० को०-उल्लास ३, परीक्षण ४ [रेचकलेक्षण यदपि च गदितोऽङ्गहारमध्ये
मुनिविभुना ननु रेचकः समस्तः । तदपि च पृथगुच्यते यतोऽयं फलजनने गदितः पृथक् समर्थः॥
[रेचकलक्षणम् ।] स भवति कररेचकः क्रमाद् या । भ्रमणततिः परितोऽति तूर्णजाता। विरचितवरहंस हंस] पक्षाकृतित इति प्रचुरोपनृत्यकीं ॥ .. ..
॥ इति कररेचकः ॥ १॥ स भवति चरणोद्भवः प्रयत्ना- .
नमनमथोन्नमनं झटित्युपेतः। अतिचलचरणाप्रदेशभूतो य इह चलाचलपाणिभागजातः॥
॥ इति चरणरेचकः ॥२॥ भ्रमणमिह करोति सर्वदिक्षु यदिह कटी कटिरेचकं तमाहुः।
॥ इति कटिरेचकः ॥ ३॥
प्रसृत विरलिताङ्गुलेस्तिरश्चा
भ्रमणलयेन गलस्य याति शीघ्रा ॥ गलगतविधुतभ्रमिः प्रदिष्टो
मुनिविभुना किल कण्ठरेचकोऽयम् । ....... ॥इति कण्ठरेचकः ॥ ४॥ इति समुदितरेचकैश्च नृत्यं : भवति मनोहरणं मुनीश्वराणाम् ॥
॥ इति रेचकलक्षणम् ॥
- 1 ABO वरहंसपक्षाकृति । In भ. को. पृ. ८१३ विरचितवरहंसहसपक्षाहति । HIB रेचितः। 3 B प्रसूति ।
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चकलक्षण
नु०र० की ० - उल्लास ३, परीक्षण ४
यः शतैधैर्यगांभीर्यैर्न केनाप्यति रे (रि) च्यते । : तेन श्री. कुम्भकर्णेन कृतं रेचक [ल]क्षणम् ॥
इति सरस्वतीरससमुद्भूतकैरवोद्याननायकेन अभिनवभरताचार्येण मालकाम्भोविमाथमन्थमहीधरेण योगिनीप्रसादासादितयोगिनी पुरेण मण्डलदुर्गोद्धरणोद्धृतसकलमण्डलाधीश्वरेण अजयमेरुजयाजेयविभवेन यवनकुलाकाल कालरात्रिरूपेण शाकंभरीरमण - 5 परिशीलनपरिप्राप्तशाकंभरीतोषितशाकंभरीप्रमुखशक्तित्रयेण नागपुरोद्धूलनप्रचण्डपवनेन अर्बुदाचलग्रहणसंदर्शिताचलाद्भुतप्रतापेण गूर्जराधीराधीरत्वोन्मूलन प्रचण्डपवनेन श्रीमत्कुम्भलमेरुनवीननिर्मितसुमेरुणा श्रीचित्रकूट भौमस्वर्गतातन्वीकरणचारुतरपथेन मेदपाटसमुद्रसंभवरोहिणीरमणेन अरिराजमत्तमातङ्गपश्चाननेन प्ररूढपत्र यवनदवदहन दवानलेन प्रत्यर्थिपृथिवीपतितिमिरतति निराकरणप्रौढप्रतापमार्तण्डेन वैरिवनितावैधव्यदीक्षादान - 10 दक्षोद्दण्डकोदण्डमण्डिताखण्डभुजादण्डेन भूमण्डलाखण्डलेन श्रीचित्रकूटविभुना अध्युष्टतमुनरेश्वरेण गजनरतुरगाधीशराजत्रितयतोडरमल्लेन वेदमार्गस्थापन चतुराननेन याचक-1-1 कॅल्पनाकल्पतरुणा वसुन्धरोद्धरणादिवराहेण परमभागवतेन जगदीश्वरीचरणकिङ्करेण भवानीपतिप्रसादाप्ताप (१ तत्र ) सादवरप्रसादेन राजगुर्वादि बिरुदावलीविराजमानेन राजाधिराज महाराणा - श्रीमोकलेन्द्रनन्दनेन राजाधिराज श्रीकुम्भकर्णमहीमहेन्द्रेण विरचिते 15 संगीतराजे षोडशसाहरूयां संगीतमीमांसायां रत्नकोशे करणोल्लासे रेचकपरीक्षणं चतुर्थं समाप्तम् ॥
॥ उल्लासश्च समाप्ति समगादिति विततमतीनामभिमतसिद्धिरस्तु ॥
10 यश्शौर्यवीर्यगांभीर्यै न (?) केनाप्यतिरिच्यते । तेन श्रीकालसेनेन कृतं रेचकलक्षणम् ॥
१८३
20
इति श्रीजगदीशवनदेवनिजगणेन ॥ १ ॥ जगदीश्वरी - कामेश्वरीचरणकिङ्करेण ॥ २ ॥ श्रीब्रह्माद्रिविभुना || ३ || अध्युष्टतमनरेश्वरेण || ४ || श्रीभीष्मपुरजयानीतानेकराजकन्यारत्नेन ।। ५ ।। श्रीपुरग्रहणसंवर्द्धितयशोभरेण || ६ || वाटिकाचलग्रहणजनितकीर्त्तिपूरपराजिताचलनायकेन ॥ ७ ॥ संगमनीरदुर्गोद्धरणोद्धृत सकलमण्डलाधीश्वरेण ॥ ८ ॥ दमनपुरविध्वंसनबंदीकृतयवनीनिचयेन || ९ || महिषमेरुजयाजेयविभवेन 25 ॥ १० ॥ शाकम्भरीरमणपरिशीलनपरिप्राप्तशाकम्भरीपरितोषितशाकम्भरीप्रमुखशक्तित्रयेण ॥ ११॥ अष्टादशगिरिविजयविख्यातवीर्यगर्वेण ॥ १२ ॥ महदंबमातृकापूरोद्भूलनधर्षिता( ? त ) महोरगपुरेण ॥ १३ ॥ वनदेवस्वामिप्र ( (प्रा) सादरचनापरपरमेश्वरेण ॥ १४ ॥ त्र्यंबकेश्वरसन्निधिकीर्त्तिस्तंभोन्नतजयस्तंभेन ॥ १५ ॥ श्रीब्रह्मगिरिभौमस्वर्गतायथार्थीकरणंरचितचारुपथेन ।। १६ ।। श्रीकामक्षा गिरिनवीननिर्मितिपराजितसुमेरुणा ।। १७ ।। 30 श्रीमहिषाचलोपरिश्रीहरिशरणरचिताचलदुर्गेण || १८ || अभिनवभरताचार्येण ॥ १९ ॥ वीणावादनप्रवीणेन ॥ २० ॥ यवनकुलाकालकालरात्रिरूपेण ॥ २१ ॥ त्रिसंध्यक्षेत्रसमुद्र
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१८४ नु०र० को०-उल्लास ४, परीक्षण १ [ ] संभवरोहिणीरमणेन ॥ २२ ॥ परमभागवतेन ॥२३॥ श्रीमहाराजाधिराजमहाराणा श्रीतामराजेन्द्रनन्दनेन ॥२४॥ महाराज्ञीश्रीसौभाग्यवतीजसमांबिकाहृदयनन्दनेन ॥२५॥ सकलसीमंतिनीशिरोमणिनिकुंभराजन्यवंशावतंसमहाराज्ञीश्रीकर्मवतीलघुमादेवीषयाधिनावेन ॥२६॥ महाराजाधिराजकालसेनमहीन्द्रेण विरचिते सङ्गीतराजे षोडशसार 5 सङ्गीतमीमांसायां नृत्यरत्नकोशे करणोल्लासे रेचकपरीक्षणं चतुर्थ समाप्तम् ॥ .
॥ उल्लासश्च तृतीयः समाप्ति समगादिति विततमतीनामभिमतसिद्धिरस्तु ॥]
10.
चतुर्थोल्लासे प्रथमं परीक्षणम् । 'ऋग्वेदादितनार्यस्माद्भारत्या वास्तु वृत्तयः । जज्ञिरे तमहं वन्दे वाचो वृत्तिप्रकाशकम् ॥ वृत्तयश्च कलासाश्चोपाध्यायाचार्यलक्षणम् । 'नटनर्तकयो(तालिकचारणलक्षणम् ॥ परीक्षणे वार्तिकेषु क्रमादेतन्निरूप्यते । वृत्तीनां लक्षणं 'पूर्व सामान्येन प्रदर्शितम् ॥ विशेषलक्षणं तासामथ ब्रूमः समासतः। एकार्णवे पुरा विश्वे शेषशायिनि माधवे ॥ मद वीर्यवलोन्मत्तावसुरी मधुकैटभौ । बहुभिः परुपैर्वाक्यैर्जानुभिर्मुष्टिभिस्तथा ॥ तर्जयामासतुर्देवं क्षोभयन्ताविवार्णवम् । तौ दृष्ट्वा द्रुहिणो भीतो मुरारिं वाक्यमब्रवीत् ॥
[ भारती।] भारती सृज देवेश नयेमौ निधनं यतः। ततः शुद्धैरविकृतैः" साङ्गहारस्तदाङ्गकैः ॥ युयुधे भगवान् ताभ्यां युद्धमार्गविशारदः । पादन्यासैस्तदायत्तैरतिभारोऽभवद्भुवः ॥ तत्रेयं भारती वृत्तिनिर्मिता लोकभाविना ।
तीबैर्वीसिकरैः शार्ङ्गधनुषो वलितैरथ ॥ . 10 ऋग्वेदितनो । 2 AB भारताद्या । 3 0 वाच्ये । 4 0 प्रकाश 50 नटनर्तकयोश्चैव लक्ष्म वैतालीकस्य च । 6 AB केत्र करमादे170। 80 मदो। 9 AB 'तोसुरारि, c तोऽसु । 10 ABO तीस। 11 AB बत। 120 drops from तैः to भुवः।
..
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25.
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प्रयोजना] नृ०र० को०-उल्लास ४, परीक्षण १
सास्वती निर्मिता वृत्तिरिति सत्त्वैरसंभ्रमैः । लीलाभावैरङ्गहारैर्विचित्रैः सुकुमारकैः॥ यद्ववन्ध शिखापाशं तत्र जाता तु कैशिकी। विचित्रैयुद्धकरणैर्नानाचारीसमुद्भवैः॥ संरम्भावेगबहुला संजाताऽऽरभदी तदा । एवं तदा हतौ दृष्ट्वा दानवौ द्रुहिणोऽब्रवीत् ॥ न्यायसंज्ञा भविष्यन्ति शस्त्रमोक्षे सदा इमाः। ऋषिभिस्तास्तथा दृष्ट्वा कृताः पाव्या(?व्या)भिसंयुताः॥ नाट्यवेदसमुत्पन्ना वागङ्गाभिनयात्मिकाः। भारत्या अभवन् भेदाश्चत्वारोऽङ्गत्वमागताः॥ प्ररोचनाऽऽमुखं चैव वीथी प्रहसनं तथा। तत्र प्ररोचना पूर्वरङ्गे पापनाशिनी ॥ जयाभ्युदयमाङ्गल्या विघ्नप्रध्वंसकारिणी।
॥ इति प्ररोचना ॥१॥ प[]रिपार्धादिका यन्त्र सूत्रधारेण कुर्वते ॥ 'आमुखं तत्र विज्ञेयं बुधैः प्रस्तावनाभिधम् । उद्घाटका कथोद्धातः प्रयोगातिशयस्तथा ॥ . प्रवृत्तिकावगलि(?लगि)ते आमुखाङ्गानि पञ्च वै ।
॥ इत्यामुखम् ॥ २॥ वीथी प्रहसनं चैव दशरूपकगोचरे ॥
... ॥ इति वीथीप्रहसने ॥३॥
॥ इति भारती ॥
[सात्त्वती।] तत्र सत्त्वगुणोत्कर्षा हर्षशौर्यगुणोत्तराः। त्यागशौर्यविशोकाद्या वृत्तिः स्यात् सात्त्वती शुभा ॥ १९० उत्थापकपरिवर्तकसंलापसंघात्यनामधेयाश्च । चत्वारः स्युर्भेदाः सात्त्वत्या मुनिवरेणोक्ताः॥ उत्थापनस्तु संहर्षो,
Mm
॥ इत्युत्थापकः ॥१॥
____1A line seems to be missing here or the reading may be: संलापमासुखं ज्ञेयं । of. ना. शा. अ. २०. श्लो. ३०-३३. (G.0.0.). 2 ABo put the Verse after इति भारती.
१४ न.रज.
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5
10
15
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25
१८६
नृ० १० को०- उल्लास ४, परीक्षण १
आरब्धार्थपरित्यागात्,
साधिक्षेपवचोभङ्गी,
॥ इति परिवर्तकः ॥ २ ॥
*
अन्ययोगः परिवर्तिकः ।
॥ इति संलापकः ॥ ३ ॥
*
*
1 ABO मर्म ।
संलापः प्रोच्यतेऽधुना ॥ २१
आत्मनो दोषयोगाद्यैः संघाते भेदकृद्वचः ॥ ॥ इति संघात्यकः ॥ ४॥ ॥ इति सात्वती ॥
स तु संघात्यको मतः ।
[ कैशिकी ।] कामोपभोगप्रचुरा लक्ष्णनेपथ्यशालिनी । विचित्र नृत्यगीताया कैशिकी वृत्तिरिष्यते ॥ नर्मस्फोटो नर्मगर्भो नर्मस्पुञ्जोऽथ नर्म च । कैशिकीसंभवा भेदाश्चत्वारः परिकीर्तिताः ॥ नानाभावरसैर्युक्तः समग्ररसपेशलः । 'नर्मस्फोटन विज्ञेयो विशेषबहुताकुलः ॥ ॥ इति नर्मस्फोटः ॥ १ ॥
*
नायको यत्र कार्यार्थवशाद्भुतैर्गुणैरिह । नर्मगर्भो भवेदेष रूपसंभावनादिभिः ॥
॥ इति नर्मगर्भः ॥ २ ॥
[ परिवर्तकः
नवसंगमसंभोगरतिरागसमुद्भवैः । नर्मस्पुञ्जो भवेदत्रावसान भयसंमुखः ॥ ॥ इति नर्मस्पुञ्जः ॥ ३ ॥
*
शृङ्कारास्थापकं हास्यं बहुलं करणाश्चितम् । आत्मोपक्षेपकं नर्म विप्रलम्भरसोज्वलम् ॥ ॥ इति नर्म ॥ ४ ॥
॥ इति कैशिकी ॥
*
2
९२
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भारण्टी] १० २० को०-उल्लास ४, परीक्षण
. [आरभटी।] मायेन्द्रजालबहुला चित्रयुद्धनियन्त्रिता। विज्ञेयाऽऽरभटी वृत्तिः कपटैबहुभिवृ(?)ता ॥ वस्तूत्थापनसंफेटौ संक्षिप्तकावपातको । एते भेदास्तु चत्वार आरभव्याः प्रकीर्तिताः॥ कार्य विभाव्यते यत्र सविद्रवमविद्रवम् । अनेकरससंयुक्तं तद्वस्तूत्थापनं मतम् ॥
॥ इति वस्तूत्थापनम् ॥ १॥ शस्त्रप्रहारबहुलो युद्धसंरम्भसंकुलः। संफेटो नाम विज्ञेयो निर्भेदकपटाकुलः॥
३२10 ॥ इति संफेटकः ॥२॥ अन्वर्थक(?शिल्पसंयुक्तो बहुसुस्तपवोयु(?पुस्तोपयोग)तः। संक्षिप्तवस्तुविषयो ज्ञेयः संक्षिप्तको बुधैः॥
॥ इति संक्षिप्तः ॥ ३॥ भयहर्षसमुत्थानां विनिपालससंभ्रमः। प्रवेशनिर्गमायुक्तः सोऽवपात इति स्मृतः ॥
॥ इत्यवपातः॥४॥
॥ इत्यारभटी॥ एताः प्रोक्ताश्चतस्रस्तु वृत्तयः काव्यसंश्रयाः। युद्धे नियु(ब?)द्धे काव्ये ता उपयोगं व्रजन्ति वै॥ वृत्तिर्वापि रसो वापि भावो वापि प्रयोगतः। पुष्पावकीर्णाः कर्तव्याश्चित्रमाल्यानुकारिणः ॥
॥ इति चतस्रो वृत्तयः॥
[अथ कलासा लक्ष्यन्ते । यद्यपि भेदा लोके भूयांसः करणमार्गगास्तदपि। तानिह विमुच्य यत्नात् कलासकरणानि वक्ष्यन्ते ॥ ३७ विद्युत्खड्गौ मृगषल(?क)संज्ञौ प्लवसंज्ञमपरमपि द्वितयम् ।। एते हि षट् प्रभेदाः पृथग्विभिन्नाः कलासकरणस्य ॥ ३८ 1 नाशा समुत्थान (अ. २०, श्लो. ६९. G. 0. S.) 2 ABO कारिणैः।
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मुं० २० को०-उल्लास ४, परीक्षण १ [विद्युत्कंलासा विद्युत्खड्गी लुततो गुरुणा द्वौ मृगषको च मण्डूकः। लघुना द्रुतेन हंसः परिमीयन्ते क्रमात् षडमी॥ विद्युत्कलास इष्टः षोढा खड्गश्चतुर्विधः कृतिभिः। एको मृगककलासो बकसंज्ञः स्याचतुर्धाऽत्र ॥ दर्दुरकोऽपि चतुर्धा हंसकलासस्तु विधा ज्ञेयः। एवं द्वाविंशतिधा कलासभेदाः समासेन ॥
[विद्युत्कलासाः।] वर्षासु जलदराजिषु सचमत्कारं यथाऽचिरविलासा । विलसति तथा पताकप्रमुखाः लुतमानतस्तिर्यक ॥ यस्मिन्नूलमधोऽधः प्रकाशमायान्ति हस्तकाः सततम् । विद्युदिव चञ्चलस्तं वदन्ति विद्युत्कलासमिह ॥ पताकं वामहस्तं तु नत्वा दक्षिणकर्णगम् । वक्षं पुनः कटीं वामां वामजवां तथाविधम् ॥ एतद्विपर्ययाद्धस्तद्वन्द्वं कृत्वा ततो नु च । . मुखसन्मुखमानेयमित्यायो भेद इष्यते ॥
॥ इति प्रथमः॥१॥ अर्धचन्द्रं करं कृत्वा दक्षिणं तं स्वसंमुखम् । आनीय कार्मुकाकारं जानु कुर्याद् द्वितीयके ।
॥ इति द्वितीयः ॥२॥ अञ्जलिं हस्तमाधाय समदृष्टिस्तदङ्गुली। प्रसार्य शिखरं कृत्वाने भुजौ सारयेत्परे ॥
॥ इति तृतीयः ॥ ३॥ केशवन्धौ करौ कृत्वाऽलिके सव्येतर करम् । वामं कृत्वा मूर्ति कुर्यात् पताकौ च चतुर्थके ॥
॥ इति चतुर्थकः ॥ ४॥ . हस्तं पुष्पपुटं कृत्वा विलोक्य च ततः पुनः। कृत्वोत्सङ्गं स्पृशेत् पश्चाद् दक्षिणं चरणं नटः॥ हस्तेन दक्षिणेन प्राग्वामानि वामकेन तु। इति पञ्चमभेदोऽयं सम्यगत्र प्रदर्शितः॥
॥ इति पञ्चमः ॥५॥
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लासाः] म०र० को०-उल्लास ४, परीक्षण १ अधो मकरमाधाय हस्ताभ्यां यत्र नृत्यति। सप्तैश्चरणन्यासै दः षष्ठोऽयमीरितः॥
॥ इति षष्ठः॥६॥ ॥ इति विद्युद्धि(?त् क)लासस्य षड्भेदाः॥ .
[खड्गकलासाः।] चकितेव निरीक्षन्ती पश्चाद्वामेतरं मुहुः। प्रचारं धृतखड़े व तन्वन्ती विविधं द्रुतम् ॥ प्लुतमानादसंघाचं विदधाति करानपि । यत्राधेचन्द्रप्रभृतीन स खड्गांद्यः कलासकः। कव्यां वामं विधायाथ सखङ्गं दक्षिणं करम् ॥
। [॥१॥] कृत्वार्धचन्द्रमास्ते चेत् सकम्पं भेद आदिमः । ऊवं कपोतमाधायाधस्तान्मुष्टिकरं तथा। पताकं तिर्यगाधाय ततः खङ्गं भिदाऽपरा ॥
[॥२॥] . त्रिपताको करौ कृत्वा पश्च(श्चाद्) यश्चरणः स तम् । घातयन्निव योऽने चेद् योजयेदिति तत्परः।
[॥३॥] खस्तिकं कर्कटं चैव मुष्टिकं च पताककम् । चतुरः क्रमतः कुर्यात् करान् यत्र तु नर्तकी । धृती मोहे तथा घाते पाते स स्थाचतुर्थकः ॥
[॥४॥] घातस्तत्र चतुर्धा स्यादूर्ध्वाधः पार्श्वयोर्द्वयोः । खगपूर्वकलासस्य भेदा एते चतुर्विधाः॥
॥ इति खड्गकलासचतुष्टयम् ॥
[मृगकलासः।] पादाङ्गुलीभिराक्रम्य भूमिमुत्थाय जानुनी। मुहुरापातयेद्यत्र मृगशीर्षकराञ्चिता ॥ 1 ABỌTER I 2 ABOUT I 3 ABO EF I 4 ABO ENTI
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D० र० को०-उल्लास ४, परीक्षण १ विकलासा गर्भखिन्ना मृगीवेयं लास्याङ्गैर्नृत्यतत्परा । हरिणप्लुतया चार्या गुरुमानेन चेत्ततः। त्रिविधां-लुतिमाधत्ते तदा मृगवि(क)लासकः॥
॥ इति मृगवि(१क)लासः॥
[ बककलासाः।] पार्श्वे विधुन्वती यत्र बकवत् सजलौ छदौ । कुर्वती हस्तकाँश्चैव संदंशमुकुलादिकान् ॥ आसनं च यथोत्थानं गुरुमानेन तन्वती। नरीनर्ति नटी यत्रानल्परूपविशेषवत् ॥ कलासो बकसंज्ञोऽयं विज्ञेयो नृत्यकोविदः। .. विधाय भ्रमरी काश्चित् संहतस्थानके स्थिता॥ अलपल्लवसंज्ञौ च कृत्वारालौ करौ क्रमात् । यत्राटी तत्र तौ नीत्वा युगपत् क्रमतोऽपि वा॥ अङ्गं विधुन्वती चित्रं सवारि (संचारि)गरुताविव । । मत्स्यग्रहार्थं वकवत् कृत्वा मुकुलहस्तकम् ॥ मन्दं मन्दं पुरस्ताच पश्चाच प्रपदेन या। याति यस्मिन् कलासे सा विज्ञेया प्रथमा भिदा ॥
[॥१॥] निपताको करौ कृत्वा विषमासनमास्थिता । मण्डिको चरणौ कृत्वा यथाखं च पदे पदे ॥ नयन्ती हस्तकी चित्रं संदंशमथ तन्वती। पश्यन्ती पार्श्वयोरग्रे चकितेव यदा नटी। कुरुते नृत्यमेषाऽसौ बकभेदो द्वितीयकः ॥
20
[॥२॥]
सव्ये तदितरे भागे वामे वामेतरं यदि । आपातयेद् द्रुतं जानु सवेगं चरणी भुवि ॥ निवधाति तदा प्रोक्ता मण्डिका नृत्यकोविदैः । मुकुलं हस्तकं कृत्वा शनैः पश्चाद् द्रुतं पुरः॥ गच्छन्ती प्रस्खलत्येव पद्यत्यमु?पतत्यनु)पदं यथा । 10 संसवा।
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मककलासाः] नृ०र० को०-उल्लास ४, परीक्षण १
धृतमुक्ते षको मत्स्येऽनुपदं हस्तकानपि ॥ अलपममरालं च मुकुलं चापि तन्वती। चित्रं नृत्यति यत्रैषा भेदः प्रोक्तस्तृतीयकः॥ .
[॥३॥] उत्तानवश्चिती हस्तौ यथा कृत्वार्द्धचन्द्रकम् । कव्यां निवेश्य हस्तं च प्रपदाभ्यामथारभेत् ॥ नानागतिविशेषांश्च धनुर्वत् पृष्ठतः पुरः। वक्राकृतिः पदाङ्गुष्ठपाणिसंस्पर्शलालसा । प्रनृत्यति यदा चित्रं भेदः प्रोक्तश्चतुर्थकः॥
[॥४॥] ॥ इति बककलासचतुष्टयम् ॥
[ मण्डूककलासाः। त्रिपताकं करं कृत्वोत्लुत्योत्प्लुत्य समे पदे । सर्वतो दधती चित्रं विषमासनमास्थिता॥ यत्र नृत्यति स प्रोक्तः कलासः प्लवसंज्ञकः। त्रिपताको पताको वा नाभौ कृत्वा करौ ततः॥ . प्रयाति पद्धयां पश्चात्तालस्यानुगुणं यदा। तदायमाद्यभेदः स्यात्प्लवस्य मुनिसंमतः॥
- [॥१॥] त्रिपताको करौ कृत्वा वामपादं पुरःसरम् । हस्तं च वाममेवं स्याल्लघुमानेन वामतः॥ गत्वा तत्रासनं कृत्वा समं विषममेव वा। ततः स्थानात् समुत्प्लुत्य गच्छेच्चेत्तुल्यपादिकाम् । मण्डूकस्य द्वितीयोऽयं भेदः प्रोक्तस्तदा बुधैः॥
[॥२॥] त्रिपताको करौ कृत्वा समं वा विषमासनम् । स्थित्वा स्थित्वा समुत्प्लुत्य चरणौ दधती क्षितौ ॥ पुरो गच्छति पश्चाच लघुमानेन चेत्तदा । पश्यन्ती धरणी प्रोक्तः प्लवभेदस्तृतीयकः ॥
[॥३॥]
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समास
नृ० र० को०-उल्लास ४, परीक्षण १ पुरतः पृष्ठतश्चैव व्युत्क्रमक्रमयोगतः। वामदक्षिणयोर्नृत्यं चतुर्धा यत्र जायते । मण्डूकस्य तदा भेदश्चतुर्थः कीर्तितो बुधैः॥
[॥४॥] ॥ इति मंडूककलासमेदचतुष्टयम् ॥
10
[हंसकलासाः।] ललितैश्चरणन्यासैर्यत्र हंसीव हस्तकौ । हंसास्यौ संविधायाथ विचित्रगतिपेशलम् ॥ यत्र नृत्यति स प्रोक्तः कलासो हंससंज्ञकः। । मकरं वक्षपार्श्वस्थं पताकं वामहस्तकम्। । .. पुरतो यत्र हंसीव याया दः स आदिमः॥ .
. [॥१॥] . मुकुलं हस्तमारभ्य पादाभ्यां पृष्ठतो व्रजेत् । 18 विचित्रलास्यभेदज्ञा हंसीवासौ द्वितीयकः॥
[॥२॥] हस्तं हंसास्यमाधाय पार्श्वयोर्ललितां गतिम् । ... आलापवर्णतालानां क्रमतो यत्र नृत्यति । हंसीवासौ तृतीयोऽयं भेदः प्रोक्तः पुरातनैः॥
[॥३॥] ॥ इति हंसकलासत्रयम्॥ ॥ इति द्वाविंशतिकलासकरणानि ॥
[उपाध्यायलक्षणम् ।]
अथोपाध्यायलक्षणम्- रूपखी निजसंप्रदायधिषणो मोक्षग्रहज्ञः क्षमी'
मेधावान् ध्वनितत्त्ववित्सुनिपुणस्ताले लये कोविदः । शिष्यं शिक्षयितुं नवीनरचनावाद्यप्रवन्धे सुधीः
उद्रेत्ताऽखिलनृत्यभङ्गिभणिते व्यागमे पारगः॥ स्थायानामधिकोनतासुकुशलो माधुर्यवित्सुध्वने ।
वायेज्थो मुखवायजे निपुणधीः स्यामृत्यगीतादिनः । 1 30 क्षौ । 2 ABO सुर्वने. Kumbha in भ० को. सुध्वने पृ. ८०६,
१
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भा ] नृ० र० को०-उल्लास ४, परीक्षण १ साक्षात् स्थापयिता स्थिती जनमनोहारी स्वयं रक्षका
पात्रस्यापि हृदेव रूपकविधौ निर्माणकर्मोद्धरः॥ 'नृत्यस्याखिलन(?कृत्यवित् सममुखप्रा(? स्था)यग्रहज्ञानणी
र्दोषाणामपिधानवित् खयमसौ स्थानृत्यगीतादिनः। प्राप्तप्रौढिसुशस्तवाक्यविदुरो धीरो गुणोद्भासको नाट्ये शुद्धगुणार्णवो निगदितस्तज्ज्ञैरुपाध्यायकः॥ ३
॥ इत्युपाध्यायलक्षणम् ॥
[ आचार्यः।] आचार्यः श्रुतिकोविदः पटुमतिर्वाक्ये सुवेषो रसे
ज्ञाता लक्षणलक्ष्यतत्त्वविषये पू(तू)र्यत्रये पण्डितः। 10 हास्यज्ञो नृपसंसदि प्रगुणधीरास्योद्भवे वादने . नानादेशविचित्रकाकुरचनाप्रावीण्यविद्याध्वगः ॥ ४
. ॥इत्याचार्यः॥
[ नटः।] . प्रोक्तश्चात्र नटो नवीनरचने भाषादिनस्तत्त्ववित् ..चित्तज्ञश्च चतुर्विधाभिनयविन्नाव्यागमे पारगः।
॥ इति नटः॥
. [नर्तकः।। संप्रोक्तोऽपि च नर्तको निशितधीर्मार्गाख्यनृत्ये परं विख्यातोत्र कृतश्रमोऽङ्गचलने दक्षः खकीये स्मृतः॥ ५४०
॥ इति नर्तकः ॥
[वैतालिकः ।] मर्मज्ञोऽखिलरागराजिषु परं वेदी पुनः किङ्किणी
वाये चापि धृतोऽत्र नर्तकगणैर्दक्षो मतश्चारणः । भाषाशेषविशेषवित्पटुमतिर्लोकापवादे नृणाम् सर्वेषामपि नर्मशर्मकरणे वक्षोऽत्र बैतालिकः॥
. इति वैतालिकः ॥ - 1 480 'सा'। 2 ABO 'गुणेर्णव । 3 ABC चेही. Kumbha in . को. बेदी पृ. ९४७:
15
२५ नृ० रन.
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नृ०र० को०-उल्लास ४, परीक्षण २ [न्यायाः यद्वृत्तिं भुञ्जते विप्राश्चतुर्दिक्षु गृहे स्थिताः।
आचार्यश्च स्वयं योरिविनयाचारशिक्षणे॥ इति श्रीराजाधिराजश्रीकुम्भकर्णमहीमहेन्द्रेण विरचिते सङ्गीतराजे नृत्यरत्नकोशे
प्रकीर्णकोल्लासे वृत्त्यादिलक्षणं नाम प्रथमं परीक्षणं [समाप्तम् ।]
चतुर्थोल्लासे द्वितीयं परीक्षणम् ।
[मङ्गलम् ।] यं न्यायप्रविचारेणोपपत्त्यागमगोचरम्। अक्षपादादयो नित्यं मन्वते तं नुमः शिवम् ॥
अथ न्याया:संगरेषु परशस्त्रवचनं खीयशस्त्रपरितापनं रिपौ। संविधातुमुचिता शरीरजा न्यायशब्दगणनात्र वर्तना ॥ २ भारतः स खलु सात्वतो परो वार्षगण्य इह कैशिकस्तथा । तद्भिदास्तु किल वेदसंमिता वृत्तिषु क्रमतया निदर्शिताः॥ ३ तस्य लक्षणविचारशुद्धये महेऽत्र सकलान् प्रविचारान् । चारिकानिगदितास्तु विचित्रा याः पुरा च गतयः परिक्रमाः॥४ भारते निगदिताः प्रविचाराः शस्त्रमोक्षणविधानगोचराः। वामकेन विभृयात् फलकान्तं दक्षिणेन तु कृपाणमादरात्॥५ तौ करावुपसृतौ विनिधायाक्षिप्य तौ च तत एव शिक्षितः। भ्रामणं च फलकस्य विदध्यातूभयोरथ सपार्श्वयोः सुधीः ॥ ६ भ्रामयेच्च परितः शिरसस्तत् खगिनं त्वथ शिर कपोलयोः अन्तरा च मणिबन्धतस्तथोद्वेष्टयेच विधिना प्रयत्नवान् ॥ ७ भ्रामणं च फलकस्य विदध्यात् संभ्रमेदुपरि मस्तकं यथा। भारते विधिरयं मुहुर्मुहुः शस्त्रपात उचितः कटीतटे ॥ ८
· ॥ इति भारतः ॥ [१॥] सात्वतेऽपि विधिरेष' शस्यते पृष्ठतो भ्रमणमत्र शस्त्रगम् । शस्त्रपातविधिरत्र पादयोः कीर्तितो भरतमुख्यसूरिभिः॥ ९
॥ इति सात्त्वतः ॥ [२]
20
ॐ
___i ABO विधेरेष। 2 ABO सावितः।
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वागण्यः] नृ० २० को०-उल्लास ४, परीक्षण २
वार्षगण्यविषयोऽपि दृश्यतेऽप्येवमेव फलकस्य संभ्रमः। पृष्ठतो निगदितस्त्विहाधिकः स्कन्धदेश अथ वक्षसि स्फुटम् ॥१० शस्त्रहस्तविषयं तथा किलोद्वेष्टनं निगदितं तथा पुनः। हृत्पदेशविषयं च तद्विदा शस्त्रपातनमिहोदरीकृतम् ॥ ११
॥ इति वार्षगण्यः ॥ [३॥] भारतेन गदितस्तु कैशिकः शस्त्रपातनविधिस्तु मूर्द्धनि ।
॥ इति कैशिकः ॥[४॥] सौष्ठवान्विततनुःसुशिक्षितो न्यायवर्गममुमाश्रितो नटः ॥१२ शक्तितोमरशरासनादिकान्यायुधान्यपि समाचरेत् सुखम् ।। सौष्ठवं वरमुशन्ति तद्विदो येन तेन हि विना कृताः परम् ॥१३ 10 युद्धकर्मणि च नर्त्तनेऽपि वा नैव भान्ति निखिलाः प्रविचाराः। न प्रहारविधिरत्र वास्तवः संज्ञयैव निखिलो विधीयते ॥ १४ तं प्रहारमथवान दर्श[ये]दैन्द्रजालिकमथात्र मायया। एते न्यायाः प्रयोक्तव्याचारीभिः शस्त्रमोक्षणे ॥
॥ इति न्यायलक्षणम् ॥
[पेरणीलक्षणम् ।] श्वेतचन्दनकर्पूरभमायक्तकलेवरः। शिखावान् मुण्डितशिरा लसत्पुष्पावतंसकः ॥ कणर्घरिकाजालजङ्घाजङ्घालविभ्रमः । लयतालकलाभिज्ञः पञ्चाङ्गज्ञानपण्डितः॥ जितश्रमोऽश्लथश्लिष्टसंधिस्ताण्डवपण्डितः। दक्षः कलासु सर्वासु सभाजनमनोहरः॥ सुरेखो नृत्यशास्त्रज्ञश्चण्डः शारीरपेशलः। सभावरससंयुक्तं यो नृत्यते(?ति) स पेरणी ॥ घर्घरो विषमं गीतं कविचारस्तथैव च । भावाश्रयश्च व्याचष्ट पञ्चाङ्गानि पोत्तमः ॥ तत्र घर्घरिका वाद्ये वहनिर्घर्घरो मतः। तस्य भेदाः पडेवात्र पडिवाडस्तदादिमः॥ 1 ABC जिताश्रमी।
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०२० को०-उल्लास ४, परीक्षण २
t ततचापडपश्चैव शिरिपिट्यपि संज्ञितः। सतश्चालगपाटः स्यात्ततः शिरिहिराहयः॥ ततः खुलहल(?लहुलु)श्चेति तल्लक्ष्म व्याहरेऽधुना । प्रपदेन भुवि स्थित्वा पाया पाणिदूयेन वा॥ क्रमेण कुट्टनं भूमेः पडिवाड इति स्मृतः।
॥ इति पडिवाडः॥१॥ भूमेनिकुहनं पादतलाचापडपो भवेत् ॥
इति चापड[प] ॥२॥ मूलनतलपादस्य सरणं यत्पुरो भवेत्। । : ... सथापसरणं पश्चान्मुहुः शिरिपिटी भवेत् ।।
॥ इति शिरिपिटी ॥३॥ क्रमेण पादयोयोनि कोमलं यत् प्रकम्पने। . सबलगवाड(पाटा)स्यादित्युक्तं नृत्यकोविदः॥
॥ इत्यलगवाडः (१ पाटः)॥४॥ विधायैकं समं पादमङ्किरन्यः पुरो यदि। प्राहुः शिरिहिरं धीरास्तदा केचन तद्विदः॥
॥ इति शिरिहिरम् ॥५॥ प्रपदस्थितवामाले पार्योर्यत् कुट्टनं भुवः।
तद्वत् स्थितस्य चान्यस्य भ्रमः सव्यापसव्यतः॥ 20 .. योऽसौ खुलहुलुः प्रोक्तो घर्घरो नृत्यकोविदः।
॥ इति खुलहुलुः ॥६॥ सरतो युगपचत्र प्रपे(?पोदे स तु रुन्धकः ।
॥ इति रुन्धकः ॥७॥ इखादयः प(१)धानेन धर्धराः शोभयान्विताः। 25
तालानुगामिनस्तूघाः सर्व एव विपश्चिता ॥ सुची च नागवन्धश्च मुखबन्धोऽम्बुजासनम् । स(उ)न्मुखावाचुखी चैव पुनश्चैव हि सन्मुखी ॥
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नृ० २० को० - उल्लास ४, परीक्षण २.
पादास्फाली विलम्बी च हृदिगा जानुगा तथा । चिरं विलोकितव्येति कला द्वादश कीर्तिताः ॥ चित्रका पञ्चकारूढेत्येवं रेखा त्रिधोदिता । सर्वगात्रेषु शिथिलो यदा नृत्यति केवलम् । चक्षुषा श्लाघ्यते वाद्यं (2) रेखा स्याचित्रिका तदा ।। ॥ इति चित्रका ॥
*
घर्घरो मुद्रितं चैव बहुधा चाङ्गचालनम् । प्रचुरा हस्तचालिश्चेद्रेखेयं पञ्चका मता ॥ ॥ इति पञ्चका ॥
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गीताक्षरक्रमाद्वाद्यं तालमानेन वादयेत् । घर्घरा गृह्यते सर्वा रूढा रेखा तु सा मता ॥ ॥ इति रूढा ॥
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*
स्यादत्रोत्प्लुतिपूर्वं यत्करणं विषमं हि तत् । ॥ इति विषमम् ॥ गीतं सालगमत्र स्याद्यदुक्तं गोण्डलीविधौ ॥ ॥ इति गीतम् ॥ नायको वर्ण्यते यत्रोत्तमः स कविचारकः । ॥ इति कविचारकः ॥
*
*
भावाश्रयो बुधैर्ज्ञेयो विकृतार्थानुकारवान् ॥ ॥ इति भावाश्रयः ॥ ॥ इति पेरणीलक्षणम् ॥
*
अथ पेरणितः सम्यग् वक्ष्ये पद्धतिलक्षणम् । संप्रदायविदो रङ्गभूमिदेशमुपागताः ॥ गोण्डलीविधिवचात्र कुर्युधिधिधिधीतितैः । गम्भीरध्वनिमातोद्यवादनं मिलिताच ते ॥ ततो विलम्बितलयं रिगोण्युटवणाश्रयम् । पादत्रयं वादयेयुर्द्विर्द्विनिःसारुतालतः ॥ ततो विकृतवाग्वेषभूषो रङ्गभुवं विशेत् । मोडकः प्राज्यहास्यैकरसस्तस्मिन् प्रनृत्यति ॥
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मृ०२० को०-उल्लास ४, परीक्षण २ [पेरणिपति रिगोण्युपशमेनाथ अनृत्यन् पेरणी विशेत् । ततः शान्तेषु वाद्येषु सहतालधरैः परम् ॥ गारुको वाद्यमानेऽथ ताले निपुणवादके। यद्वा सरखतीकण्ठाभरणे मलादिनः॥ मनोहरे तालरसे(?रसे ताले) ध्वनौ च व्याप्तिमृच्छति । पेरणी प्रारभेणा(?ता)थ 'घर्घरान् पूर्वसूचितान् ॥ ततो निबद्ध कविते कूटे वर्णसरेण वा। निःसारुणा च तालेन विषमं नृत्यमाचरेत् ॥ नृत्यन् सालगसूडेन रेखां च स्थापनं तथा। हृद्यां च वहनी गीतनर्तनं दर्शयेत् क्रमात् ॥ विषमं च प्रहरणानुगमाभोगवादने ।। कविचारान् प्रकुरुते तथा भावाश्रयानपि । लोकमार्गानुसारेण ततोऽन्यानपि दर्शयेत् ॥
॥ इति पेरणीपद्धतिः॥ वायेषु वाद्यमानेषु करणैरश्चितादिभिः । दुष्करैः शस्त्रधाराथ(?प)वञ्चनैभ्रमणैरपि ॥ प्रांशुवंशोपरिगतैर्वरत्राचित्रचंक्रमैः । उच्चैः पक्षिवदुड्डीनैर्मृदङ्गपरिवर्तनैः॥ नर्त्तनैर्विषमैरेवमादिकैर्नृत्यमाचरन् । शस्त्रसंकटसंपाते छुरिकानर्तनादिषु ॥ भ्रमर्यादिषु च प्रौढो रज्जुसञ्चारचक्षुकः । भारस्य भूयसो वोढा बुधैः कोहाटिकः स्मृतः॥
॥ इति कोह्राटिकः ॥ पेरणीव नटो नारी नर्तयन्नतकोऽपि च ।
कोहाटिका प्लुतिं कुर्वन् यद्वैरी स्यात्पलायनात् ॥ इति श्रीराजाधिराजश्रीकुम्भकर्णविरचिते सङ्गीतराजे नृत्यरत्रकोशे प्रकीर्णकोल्लासे
न्यायादिपरीक्षणं द्वितीयं [ समाप्तम् ]
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1 Kumbha in भ. को. पृ. ८९० पेरणी पारमेनाट्यं धर्धरान् पूर्वसचितान् । ततो निबद्ध कविते गूठे वर्णसरेण वा ॥ 2 AB डां।
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लास्याहानि] नृ०र० को०-उल्लास ४, परीक्षण ३
चतुर्थोल्लासे तृतीयं परीक्षणम् । येनालादयितुं विश्वं ससुरासुरमानवम् । शिक्षिता पार्वती लास्यं तमानन्दघनं नुमः ॥
[अथ लास्याङ्गानि ।] स्थितपाव्यं द्विमूढाख्यं त्रिमूढं पुष्पमण्डिका । प्रच्छेदकः शेषपदमासीनं सैन्धवं तथा ॥ उक्तप्रत्युक्तकं तद्वदुत्तमोत्तमकं तथा। वैता(?भा)विकं च त्रिपदं लास्याङ्गानि दशद्वयम् ॥ विरहानलतप्ताङ्गीमदनोन्मीलनीकृता। पठेत् प्राकृतमासीना स्थितपाठ्यं तदीरितम् ॥ .
यथा'यं एसो विरहप्पहावजणिओ अग्गी तणुं तावए जं पंकेरुहचंदचंदणरसा व(?वे)दंति नो शीयला। जं इहि मह मन्महेण हिययं मोहंदकूमेव(धकूवेठि?)दं तं एवं सह वल्लहेण चरिदं संच्छा(ठाणसंदंशितं ॥ ६18 'मयणप्पहुकोवताविदाए मह सीदाइं(?भीदाए) कुरंगलोअणाए। सहि वल्लहसंगवंचिदाए शरणं पुम्मदलाई जीयसा(स्स)॥ ७
'अंगाई पुंखिदशिलीमुहजजराई • जं निम्मियाइं मयणेण महाउहेण । एअस्स पावहियअस्स महप्पसाओ चित्तूण दोसमलियं पय(इ)णो गयासी ॥
४10
1 80 दीरि यथा। 2 य एष विरहप्रभावजनितोऽनिस्तनुं तापयति यत् पकेरुहचन्द्रचन्दनरसा वेदयन्ति नो शीतलाः । यदिदानीं मम मन्मथेन हृदयं मोहान्धकूपे स्थितं तदेतत्सह वल्लमेन चरितं संस्थानसंदर्शितम् ॥ 3 मदनप्रभुकोपतापिताया मम भीतायाः कुरालोचनायाः।
सखि वल्लभसङ्गवञ्चिताया:शिरणं पदलानि जीवस्य(१)॥ 4 अगानि पुजितशिलीमुखजर्जराणि .. यनिर्मितानि मदनेन महायुधेन ।
एतस्य पापहदयस्य महाप्रसादः गृहीत्वा दोषमलीकं पतेः गताऽऽसीत् ॥
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नृ० र० को०-उल्लास ४, परीक्षण ३ 'अंगाइ शुंखलिद कंपविमोहचिंता
निदातणुत्तकुसुमाउहकंसिदाइ । एसा वि तत्थ रयणी शशिकालकूटं
दंसेइ किं सहि कुणेमि पिवप्पदा(वा?)से ॥ 'मोणं करिऊण मया
शहियण मज्झम्मि रक्खियो अप्पा। तहवि हले मह वयणे महु[अ]रचरिओ पया(व)सए दुअणो॥ १०
॥ इति स्थितपाव्यम् ॥१॥ श्लिष्टंभावपरं वाक्यं तथा युक्तपदक्रमम् । मुखप्रतिमुखोपेतं विचित्रार्थ द्विमूढकम् ॥
यथाअङ्करितां मम हृदये प्रेमलतां रमणजलघरो मुदितः। सिञ्चति जीवनरचनैरिह वचनैरुन्नति नेतुम् ॥ नीरक्षीरितचुम्बितानि रचयनुत्तालचेतोभुवा,
दन्तग्राहमनिन्दिताधरपुटे दष्टो मया वल्लभः। ग्रामीणः परिहत्य मामुपवने यातस्ततोऽनन्तरम्, __मातर्मूर्च्छति मीलति प्रचलति प्रोत्कम्पते मे मनः॥ १३
॥ इति द्विमूढम् ॥२॥ यद्वाक्यं नैकभावार्थ समवृत्तमलकृतम् । ललिताक्षरवन्धं च त्रिमूढं तत् प्रकीर्तितम् ॥
यथाभयहर्षरोषरोदनवदनसंभेदनानि कुर्वाणौ । मरसङ्गरसंगमिनौ जितमिति नौ मन्मयो हसति ॥ १५ 1 अङ्गानि शृंखलितानि कम्पविमोहचिन्तानिद्रातनुत्वकुसुमायुधकर्षितानि । एवापि तत्र रजनी शशिकालकूट दंशयति किं सखि करोमि प्रियप्रवासे ॥ 2 मौनं कृत्वा मया सखिजनमध्ये रक्षित आत्मा।
तथापि हले मम वदने मधु[कारचरितः प्रविशति दुर्जनः ॥ 3 ABO °क्षिरित।
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पुष्पमण्डिका] नृ० र० को०-उल्लास ४, परीक्षण ३ कुचोनमनचातुरीचलितकचुलीवन्धया,
कपोलपुलकावलीकलितयाऽऽयतापाङ्गया। विमोटनविवर्त्तने विदितसन्धया संगमे त्वयाभिलषिते कथं सुमुखि मानमालम्बते(से)॥
॥ इति त्रिमूढम् ॥ ३॥
१६
*
i
नर्तक्या विविधं यत्र गीतं वाद्यं च नर्तनम् । नमो(?मनोवाकायचेष्टाभिहीनं स्यात् पुष्पमण्डिका ॥ १७
[॥ इति पुष्पमण्डिका । ४॥] चन्द्रिकातपसंतप्तास्त्यक्तलज्जाः सुलोचनाः ।
प्रियान् कृतापराधान् वै यान्ति प्रच्छेदकस्तु सः॥ १८० यथा
सखि स्फुरति यामिनी शशिनमुन्नमय्यांशुभिः __ ज्वलद्भिरिव मामयं स्पृशति मानमुन्मूलयन् । अतो विगतलजया सुरतसंगरे सज्जया __ ममापि विदितागसं प्रियमुपासितुं गम्यते ॥ असौ हरिणलाञ्छनच्छलविकाशिहव्याशनो
वा(?व )नान्तरमिवान्तरं मम विलीलमा(नतामं?)गति । अतोऽन्यवनितारतं रमणमप्रियेऽपि स्थितम् व्रजामि सखि रोधिनीमपनयामि लज्जामपि ॥
॥ इति प्रच्छेदकः ॥५॥ यत्रासने सुखासीनास्तव्यांद्यातोद्यवादने । गायन्ति गायकाः खैरमाहुः शेषपदं हि तत् ॥
॥ इति शेषपदम् ॥ ६॥ चिन्ताशोकाकुलत्वेन वाक्ये च (?चा)न्तिनयेऽपि च ।
विमूढाः खण्डिताः कान्तास्तदासीनमिहोच्यते ॥ . २२ 25 यथा
प्रसरति दिनमणितेजसि विगलति तमसि प्रकाशिते नभसि। अपनीताधररागं पश्य वयस्य ममागते रमणम् ॥ २३ 1 ABO त्वयमि।
२६ नृ०रा०
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नृ० ० को ० - उल्लास ४, परीक्षण ३
ता (भा)ले लक्तकमञ्जिताधरमुरः कर्पूरमुद्रं वहन निःशङ्कं पतिरभ्युपैति वियति प्रत्यग्रसूर्योदये । . चिन्ता सागरसंनिमग्नमनसा नीता मया यामिनी किं कुर्वे सखि कैतवं कलयता मुग्धामुना वञ्चिता ॥ ॥ इत्यासीनम् ॥ ७ ॥
यथा
यथा
*
यत्र पाठ्यं विना नाट्यं भाषा सैन्धवदेशजा । पात्रमुत्समयं यत्र तत् सैन्धवमिहोदितम् ॥ ॥ इति सैन्धवम् ॥ ८ ॥
*
साधिक्षेपपदं यत्र स विचिन्त्रार्थगीतकम् । प्रसादकं मर्षितस्येत्युक्तप्रत्युक्तकं मतम् ॥
प्राप्तो वसन्तसमयः समयानभिज्ञ रोषं परित्यज भजख मयि प्रसादम् । उत्तुङ्गपीवर कुचद्वय भूरिभारा
माराधितोऽपि न हि रक्षितुमीहसे माम् ॥ उदेति हिमदीधितिर्वहति गन्धहारी हरिअरन कुमुदकानने [स्मरपयोनिधिर्वर्धते । इमं समय मुल्बणं परिकलय्य मां व्याकुलां प्रसीद चरणानतां कठिन कातरां पालय । ॥ इति उक्तप्रत्युक्तम् ॥ ९ ॥
[सैन्धवम्
यत्राभिनयबाहुल्यं नानाभावमनोहरम् । वाक्यं नैकरसं चित्रमुत्तमोत्तमके भवेत् ॥
सहर्षमवलोकनं विहित भीतमालिङ्गनं सरोषमपि भाषणं सजललोचनं रोदनम् । इति प्रथमसंगमे चतुर चित्तचेतोहरो विचित्ररससंकरो जयति कोऽपि वामवः ॥
वेषे लेप्यनितम्बिनीमनुहरत्यम्भोजिनीं नेत्रयोः भ्रूभङ्गे स्मरकार्मुकं कुचयुगे तत् कुम्भिकुम्भद्वयम् ।
1 ABO रोचनं । 2 ABC repeat चित्त ।
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वैमाविकम्] नृ०र० को०-उल्लास ४, परीक्षण ३
२०३ वाण्यामन्यभृतां तथा च धरणीं श्रोण्या मियं भामिनी सृष्टिर्मन्मथनिर्मिता रसमयी बाभाति भूमण्डले ॥ ३१
॥ इति उत्तमोत्तमकम् ॥ १० ॥ कान्ते खमोपलब्धेऽपि यत्र कामवशं गता। विभावान् विविधान् यत्र कुर्याद्वैता(भा)विकं हि तत्॥ ३२० यथाअद्याकर्णय नैशिकं सखि मया कान्तश्चिरं प्रोषितो
नेत्रा(?निद्रा)मुद्रितनेत्रयापि शयने साक्षादिवावेक्षितः। मायासङ्गमभङ्गभी रुतरयेवोन्मज्य लज्जाजलात्
कण्ठग्राहमनन्दितः परिवृतःप्रोल्लासितोमोदितः॥ ३३10 उचति(?उचित) माचरितं मम निद्रया शशिशरीरसमाहितमुद्रया। अथ सजातजनाकथितः पतिः परपुरादपहृत्य समर्पितः॥ ३४
॥ इति वैभाविकम् ॥ ११॥ आकारमपि कान्तस्य पश्यन्ती कामपीडिता। यन्त्र खिद्यति दुश्चित्ता प्रिया चित्रपदं हि तत् ॥ ३५० यथाकान्तं चित्रपदे(?टे) विलिख्य विदधे यावत्तवालापनं
लब्धो जीवन वासरैः कतिपयैस्त्यक्ष्यामि न त्वामिति । तावन्मजन (?द) नल्पबाष्पसलिले संभिन्नभिन्नाक्षरम्
क्षे(?खे)दखेदकपाटकोटिघटितं कण्ठे विशीर्ष(?ण) वचः॥३६ 20 मया सखि विलोकितो रमणसन्निवेशं वहन् - इतो विषमसायकः कचन शिल्पिना कल्पितः। ततः स मयि रोषवानथ विभाव्यमानोऽथ वा महेशकृतिरीदृशी विरहितो(?ता) मोहिनी जृम्भते ॥ ३७
___॥ इति चित्रपदम् ॥ १२॥ ॥ इति द्वादशमार्गलास्याङ्गानि ॥
[देशी लास्याङ्गानि ] सौष्ठवं स्थापना तालो लढिश्चालिश्चलाचलिः ।
सुकलासं थरहरं किंतूल्लासं उरोङ्गणम् ॥ ___ 1 AB श्रोग्यां । 2AB भावाति । 3 AB0 °भङ्गमभीरु। 4 ABC अथ सजनजनाकथितः पतिः। 5 ABO अकार। 6 B0 स्थापयेना।
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नृ० १० को० - उल्लास ४, परीक्षण ३
ढिल्ला त्रिकलिर्भावो देशीकारं निजापणम् । अङ्गहारो मनष्ठेवा लयो मुखरसस्तथा ॥ थसको वितडं शङ्का नीकीनमनिकापि च । विवर्त्तनं मसृणता विहसी गीतवाद्यता ॥ विलम्बिताभिनयावङ्गानङ्गं कोमलिकापि च । तूकम्यार एतानि षट्त्रिंशत्संमितानि च । देशीयास्यकाङ्गानि राजराजो न्यरूरुपत् ॥ • सौष्ठवं यत् पुरा प्रोक्तं तस्य पात्राङ्गुलैस्तु या । चतुभिरष्टभिचैव यद्वा द्वादशभिस्त्रिधा ॥ खर्वता जानुक ट्यूरुकण्ठेष्वीष्येच्छ्याथ वा । तत्तदेशानुसारेण तत् सौष्ठवमिहोदितम् ॥ ॥ इति सौष्ठवम् ॥ १ ॥
*
यच सामग्र्यसंपत्ती कुतपे प्रगुणीकृते । स्वस्थाने स्थापयेदङ्गं नर्त्तकी स्थापना तु सा ॥ ॥ इति स्थापना ॥ २ ॥
*
ईषन्मन्दानिलचलत्पद्मपत्रोद बिन्दुवत् । यत्राङ्गनाङ्गसंचारो भाति तालः स उच्यते ॥ ॥ इति तालः ॥ ३ ॥
*
सुकुमारं सुमधुरं सविलासं च चालनम् । युगपत् बाहुक ट्यूरु' त्र्यस्रत्वे लढिरुच्यते ॥ केचिदानन्दसंदोहं सङ्गीतप्राप्तिसंभवम् । सौन्दर्यातिशयोपेतं' कर्माहुढिसंज्ञितम् ॥ ॥ इति लढिः ॥ ४ ॥
युगपन्नाभिकट्यूरुपादानां सविलासकम् । नातिमन्दतं तालसाम्यान्माधुर्यपेशलम् । चालनं चालिरित्युक्ता त्वचलस्थिति भूभृता ॥
1 ABO 'ट्योरू । 2 ABO
॥ इति चालिः ॥ ५ ॥
*
सौन्द
[सम्
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बलाचलिः] नृ०र० को०-उल्लास ४, परीक्षण ३ चलाचलिश्च सैवोक्ता शैध्यसांमुख्यनिर्भरा।
॥ इति चलाचलिः ॥ ६॥
लास्याङ्गानि सचारीणि पादादीनां च चालनम् ॥ कृत्वातिप्रौढितो यत्र गीतवाद्यादिमेलनम् । मध्ये मध्ये नटी कुर्यात् सुकलासं तदा स्मृतम् ॥ केचित् स्थानकचारीणां हस्तकाद्यङ्गकस्य च । गीतवाद्यलये मेलं कलासमभणन् बुधाः॥
॥ इति सुकलासः॥ ७॥
नृत्यन्ती नर्तकी यत्र भुजावधि विलासिनी । कुचयो कम्पनं कुर्याच्छीघं थरहरं तु तत् ॥
॥ इति थरहरम् ॥ ८॥
गीततालसमं यन्त्र कटिकुं(?कु)चभुजादिनः। नर्तकी चालनं कुर्यात् लास्थाङ्गं किन्तु तत्स्मृतम् ॥
॥ इति किन्तु ॥९॥ भावप्रकाशकैर्य'त्र(? श्लथै)'रङ्गोल्लासैर्मुहुर्मुहुः । सूक्ष्मैर्द्विस्त्रिगुणैर्वापि द्रुततालाग्निरूपितात् । स उल्लासो यत्र पात्रं मनो हरति दर्शयत् ॥
.. ॥ इत्युल्लासः ॥ १०॥ अग्रतः पृष्ठतोऽधस्तादूर्ध्व वा चालनं भवेत् । तालमानेन कुचयोः स्कन्धयोयुगपत् क्रमात् ॥ विलम्बेनाविलम्बेन तदुरोङ्गणमुच्यते। विलम्बितं द्रुतं वापि ललितं यत् कुचांशयोः। ललिते चालने तिर्यक् केषांचित्तदुरोंगणम् ॥
. ॥ इत्युरोङ्गणम् ॥ ११॥ .. . . . यत्राङ्गं नर्तकी नृत्ये सहेलाभावमन्थरम् ।
1 B0 यवर्तुलिगो। 2 OF नर्तक्यास्त्वरया तालाद् द्विगुणत्रिगुणैस्तदा । भावाभिव्यञ्जकैः सूक्ष्मैललितैः श्लथबन्धिभिः । अङ्गैरुल्लसनैर्युक्तमुल्लासं संप्रचक्षते । वेमः in भ. को. पृ. ८५.
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नु० १० को०- उल्लास ४, परीक्षण ३
किञ्चित् सौष्ठवमाधुर्यविलासं भावभाविता । कुरुते कथिता सा तु ढिल्लायी लास्यकोविदैः ॥ ॥ इति ढिल्लायी ॥ १२ ॥
*
लयतालानुगैर्यत्र शिरोभिः पञ्चभिर्नटी । विधुताकम्पितधुतपरिवाहित कम्पितैः ॥ चाय वा स्थानके वापि प्रेक्षकाणां मनो यदा । ततं कुरुते सोक्ता त्रिः कलिः कलिनोदिना ॥ ॥ इति त्रिकलितः ॥ १३ ॥
*
यत्र नृत्यानुगं गीतं नाट्यं च लयसुन्दरम् । पश्यन्ती हर्षमासाद्य पुष्यतीव कलाङ्कुरान् । स्वभावं सालसं नृत्ये स भावो भावनोदितः ॥ ॥ इति भावः ॥ १४ ॥
*
अग्राम्यं सुन्दरं नानादेशरीतिसमन्वितम् । तत्तदेशानुसारेण देशीकारं तु नर्तनम् ॥
॥ इती देशीकारम् ॥ १५ ॥
*
रेखासौष्ठवसंयुक्तं हस्तकानुगदृष्टिकम् । नायकेच्छानुगं नृत्यं निजापणमिति स्मृतम् ॥ ॥ इति निजापणम् ॥ १६ ॥
*
पूर्वोत्तरार्ध योदेहे चापवल्ललितानतिः । तालमानसमायुक्तो सोऽङ्गहारः स्मृतो बुधैः ॥ ॥ इति अङ्गहारः ॥ १७ ॥
*
हस्ताद्यङ्गक्रियायोगादभ्यस्खा ( ?स्ता) दन्य एव यः । कोsप्यपूर्वी गुणः सूक्ष्मो लयन्त्रितयपेशलः । नानाभावयुतस्तज्ज्ञैर्मन इत्यभिधीयते ॥
॥ इति मनः ॥ १८ ॥
*
कटाक्षौ यत्र नर्त्तक्याः सोत्तरङ्गौ स्वभावतः । नानाभावालिङ्गिताङ्गी नृत्ये ठेवेति कीर्त्तिता ॥
॥ इति ठेवा ॥ १९ ॥
*
[त्रिकलितः
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लयः] मुं० २० को०-उल्लास ४, परीक्षण ३
नृत्यन्ती यल्लये कापि वेगाचेदपरौ लयौ । साश्चर्य योजयेनृत्ये नर्तकी स लयः स्मृतः॥
॥ इति लयः॥२०॥ यद्रसं तनुते नृत्यं तद्रसानुगुणं सुखम् । पात्रं वर्णविपर्यासात् कुर्यान्मुखरसस्तदा ॥
॥ इति मुखरसः ॥२१॥ थसकः स्यात् सललितं स्तनाधोनयनं लयात् ।
॥ इति थसकः ॥ २२॥ यचारीकरणाद्यं स्यात् खभावाल्ललितं बलात् ॥ कुरुते कठिनं तद्धि वितडं कीर्तितं बुधैः। .
॥ इति वितडम् ॥ २३॥ पूर्वमौद्धत्यतो यत्र व्यापाङ्गिानि नर्तकी । सविभ्रमं पुनस्तानि पुरतः पार्श्वयोरपि । आहरन्ती वश्चयते जनं शङ्का तदोदिता ॥
॥ इति शङ्का ॥ २४ ॥ त(य)दा स्यानर्तकी नीकी सङ्गीते सलये तदा। स्खलितावर्जिता रङ्गे नृत्यनीतिविदो विदुः॥
॥इति नीकी ॥ २५॥ सोक्ता नमनिका यस्यां प्रयासेन विना नतिः । दुष्करेषु प्रयोगेषु नर्तक्यङ्गेषु दृश्यते ॥
॥ इति नमनिका ॥२६॥ हस्तकैमरीभिश्च चारीभिः करणैरपि । वाद्यप्रबन्धवर्णानां समत्वेनैव नर्तकी । कुर्यान्नत्यमिदं प्रोचुर्नृत्याभिज्ञा विवर्तनम् ।
॥ इति विवर्तनम् ॥ २७॥ तवा ममृणता यत्र शृङ्गाररससंभृता। दृष्टिः प्रकाश(१श्य)ते नव्या नृत्यहस्तकसंयुता॥
॥ इति मसृणता ॥२८॥
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. १०० को०-उल्लास ४, परीक्षण ३ विहसी स्यात् स्मितं वकं पद्मसौन्दर्यपेशलम् ।
॥ इति विहसी ॥ २९ ॥ सा गीतवाद्यता नृत्येन्नर्तक्यनुगुणं यदा ॥ .. वर्णानां च लयस्यापि तथा च गीतवाद्ययोः।
॥ इति गीतवाद्यता ॥ ३० ॥ यत्र विश्रम्य विश्रम्य लङ्घयन्ती मुहुर्मुहुः॥ वाद्यस्यावयवान्नृत्ये नर्तकी तद्विलम्बितम्।
॥ इति विलम्बितम् ॥ ३१॥ भावसंसूचकैरङ्गैर्नर्तकी यत्र नृत्यति ॥ यथावत् करणैरुक्तोऽभिनयो नयकोविदा ।
॥ इत्यभिनयः॥३२॥
अङ्गं लास्याङ्गकं प्रोक्तं ताण्डवागमनङ्गकम् ॥ यत्र नृत्ये द्वयोर्योगस्तदङ्गानङ्गसंज्ञकम् ।
॥ इत्यङ्गानङ्गम् ॥ ३३ ॥
ज्ञेया कोमलिका यत्राङ्गानां स्याद्बलनादिभिः ॥ क्रियाभिश्चेतसो यत्र दृश्यते तु परार्द्रता।
॥ इति कोमलिका ॥ ३४॥
लयेन चलनं यत्र लसल्लीलावतंसकौ ॥ चलत्वेनाचलत्वेन हावप्रचुरतायुतम् । यत्र की प्रकुर्वाते तत्तूकं मुनयोऽवदन ॥
॥ इति तूकम् ॥ ३५ ॥ शोभावलितसर्वाङ्गा नृत्यस्यावयवा यदा । पूर्वपूर्वमुपक्रान्ता वर्तेरनुत्तरोत्तरम् । तालप्रयोगचातुर्यात् स उयारो बुधैः स्मृतः॥
॥ इति उयारः ॥ ३६॥ अन्या अपि भिदाः सन्ति देशीलास्यासंभवाः । न ता इहोपदिश्यन्ते यतः साध्याः खबुद्धिभिः॥
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मानागतिप्रचारनृत्यम् ] नृ० २० को०-उल्लास ४, परीक्षण ३
यथा यथा भवेद्रक्तिः पश्यतां सचमत्कृतिः। तथा तथा विधातव्यं सङ्गीतमिति सङ्ग्रहः ॥
॥ इति देशीलास्याङ्गानि ॥
[नानागतिप्रचारनृत्यम् ।] 'अथ नानागतिप्रचारनृत्यम् । यथा चाह भगवान् श्रीभरताचार्य:
तत्रोपवहनं कृत्वा भाण्डवाद्यपुरस्कृतम् । यथामार्गरसोपेतं प्रकृतीनां प्रवेशने ॥ ध्रुवायां संप्रवृत्तायां पटे. चैवापकर्षिते । कार्यः प्रवेशः पात्राणां नानार्थरससंभवः॥
रङ्गे विकृष्टे भरतेन कार्यो
गतागतैः पादगतिप्रचारः। यस्रस्त्रिकोणे चतुरस्ररङ्गे
गतिप्रचारश्चतुरस्र एव ॥ ऋषय ऊचुः
यदा मनुष्या राजानस्तेषां देव गतिः कथम् । अथोच्यते कथं नेया गती राज्ञां भविष्यति ॥ इह प्रकृतयो दिव्या तथा च दिव्यमानुषी। मानुषी चेति विज्ञेया नाव्यवृत्तक्रियां प्रति ॥ देवानां प्रकृतिर्दिव्या राज्ञां वै दिव्यमानुषी। या त्वन्या लोकविदिता मानुषी सा प्रकीर्तिता॥ देवांशजास्तु राजानो वेदाध्याये सुकीर्तितम् । एवं देवानुकरणे दोषो यत्र न विद्यते ॥ दूतीदर्शितमार्गस्तु प्रविशेद्रङ्गमण्डलम् । तस्याद्य ( स्माच) प्रकृति ज्ञात्वा भावं कार्य च तत्त्वतः। गतिप्रचारं विभजेन्नानावस्थान्तरात्मकम् ॥ 1 ABO अथ देशीनृत्यभेदाः। A has the same reading but there are marks of delition on it. 2 ABO ताण्ड of भाण्डवायपुरस्कृतम् ना. शा. अ. १२ श्लो. २(G.0. S.). 3 ABC °पेत प्र° of यथामार्गरसोपेतं ibid. 4 ABO सुरतेन . कायो। of रङ्गे विकृष्टे भरतेन कार्यो । ना. शा. अ. १२ श्लो. २० (G. 0. S.). 5 ABO यथा । of अ. १२ श्लो. २५ । 6 ABC वेद । of यदा मनुष्या राजानस्तेषां देवगतिः कथम् । ना. शा. अ. १२ श्लो. २५ (G. O. S.). 7 ना. शा. नैषा। 8 inserted from ना. शा. अ. १२ श्लो. २५-२६. नि. सा. ५ तस्मात्तु । ना. शा. अ. १२ श्लो. १४२ (G.0. S.).
२७ नृ० रन.
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मु० २० को०-उल्लास ४, परीक्षण ३ [नांनागतिप्रचारनृत्यम् म्लेच्छानां 'जातयो यास्तु पुलिन्दाद्या द्विजोत्तमाः। तेषां देशानुरूपेण कार्य गतिविचेष्टितम् ॥ पक्षिणां श्वापदानां च पशूनां च द्विजोत्तमाः। .. खखजातिसमुत्थेन भावेन प्रतियोजयेत् ॥ सिंहर्कवानराणां च गतिः कार्या प्रयोकृभिः। या कृता नरसिंहेन विष्णुना [प्रभविष्णुना ] ॥ आलीढं स्थानकं कृत्वा गात्रं तस्यैव चानुगम् । जानूपरि करं त्वेकमपरं चैव खस्थितम् ॥ अवलोक्य दिशः सर्वाश्चिबुकं बाहुमस्तके। गन्तव्यं विक्रमैर्विप्राः पञ्चतालान्तरोत्थितः॥ शेषाणामर्थयोगेन गतिं स्थान प्रयोजयेत् । .. शेष स्थान प्रयोगेषु रङ्गावतरणेषु च ॥ . एवमेते प्रयोक्तव्या नराणां गतयो बुधैः । नोक्ता याश्च मया ह्यत्र ग्राह्याश्चापि हि लोकतः॥ अतः परं प्रवक्ष्यामि स्त्रीणां गतिविचेष्टितम् । स्त्रीस्थानकानि कार्याणि गतिष्वाभाषणेषु च ॥ आयतं चावहित्थं च अश्वक्रान्तमथापि वा। स्थानकं तावदेव स्याद्यावचेष्टा प्रवर्त्तते। भग्नं च स्थानकं नृत्ये चारी च समुपस्थिता॥ यो विधिः पुरुषाणां हि कार्यो नाट्यप्रयोक्तृभिः। स्त्री पुंसः प्रकृति कुर्यात् स्त्रीभावं पुरुषोऽपि वा ॥ धैर्योवार्येण सत्त्वेन बुद्धया तद्वच्च कर्मणि । स्त्री पुंभावमभिनयैदिशेद् वाक्यविचेष्टितैः॥ स्त्रीवेषचरितैर्युक्तः प्रेक्षिताप्रेक्षितैस्तथा। मृदुमन्तर्गतैश्चैव पुमान् स्त्रीनृत्तमाचरेत् ॥ गतिप्रका(?चा)रस्तु मयोदितोऽयं
नोक्तश्च योऽभ्यासवशेन साध्यः। अतः परं रङ्गपरिक्रमस्य वक्ष्यामि कक्षान्तरसंविधानम् ॥
॥ इति नानागतिप्रचारनृत्यम् ॥
1 ABO जायते। of म्लेच्छानां जातयो यास्तु । ना. शा. अ. १२ श्लो. १५१. (G.O. S.). 2 inserted from. ना. शा. अ. १२ श्लो. १५४. (G. O.S.).
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शिवप्रियम्] नृ०र० को-उल्लास ४, परीक्षण ३
[देशीनृत्यभेदाः । अथ देशीनृत्यभेदाः प्रदर्यन्तेऽत्र केचन । आतोद्यैर्वाद्यमानेषु यतिप्रहरणादिषु । रुद्रभक्ताः स्त्रियो यद्वा पुमांसः सौष्ठवान्विताः॥ १९ 'रुद्राक्षवलया भस्मत्रिपुण्ड्राः शिवरूपिणः । कोणान् दक्षिणवामेन सर्पान् कांस्यादिनिर्मितान् ॥ १०॥ बहुसङ्गमि(?भङ्गिम)नोहारि गायन्तः श्रेणिभिः शिवम् । कदाचित्सम्मुखीभूय लास्याङ्रुपबृंहितम् । यत्र नृत्यन्ति तत् प्रोक्तं शिवप्रियमिह स्फुटम् ॥
॥ इति शिवप्रियम् ॥१॥ नर्तनं यन्मया प्रोक्तमासारिताभिधं पथि। चारीभिर्मण्डलैश्चापि लास्याङ्रुपबृंहितैः॥ देशीतालैश्च संयोज्य तच्चेदत्र प्रवर्त्यते । तदा रासकसंज्ञं स्यादिति नृत्यविदो विदुः ॥ - [॥ इति रासकनृत्यम् ॥२॥] यत्र स्त्रीभिर्वसन्ततॊ नृत्यतेऽभिनयात्मकम् । वसन्तरागसंबद्धैर्गीतैरौद्धत्यवर्जितम् । चरितैश्चित्रितं राज्ञस्तदुक्तं नाट्यरासकम् ॥
. [॥ इति नाट्यरासकम् ॥ ३] यत्र राज्ञः पुरो नार्यश्चतस्रोऽष्टाथ षोडश। द्वात्रिंशद्वा चतुःषष्टिराधाय करपङ्कजैः॥ दण्डौ सुवृत्ती महणौ सुवर्णादिविनिर्मितौ। अरनिसंमितौ दैर्घ्य स्थौल्येनाङ्गुष्ठसंमितौ ॥ अथ देशानुरागेण गृहीत्वा दण्डचामरे । दण्डक्षौमाञ्चले यद्वा च्छुरिकादण्डकावथ ॥
११४ 26 चतुर्भिः पञ्चभिर्घातैर्यद्वा खग(?षक)प्रहारजैः। सशब्दं घातभेदैश्च युग्मीभूय वियुज्य च ॥ १९५ अग्रतः पृष्ठतो वापि पार्श्वसंगतयापि च । 1 ABO "द्राख्य । 2 ABO °तभिदांपथि of ताभिधां पथि Kumbha in भ. को. पृ. ९२४.
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२१२ नृ० र० को०-उल्लास ४, परीक्षण ३ [चर्चरीनुस्यम्
घातभेदान् वितन्वन्त्यचारीभ्रमरिकादिभिः॥ ११६ चित्रैः सव्यापसव्येन मुहुर्मण्डलसंस्थया। लयतालानुगं यत्र प्रनृत्यन्ति वराङ्गनाः। तदुक्तं नृत्यतत्त्वज्ञैईण्डरासकनर्तक(? न )म् ॥
॥ इति दण्डरासकम् ॥ ४॥ द्विपद्या वर्णतालेन चर्या वा मनोहरैः। सलास्यैर्गतिभेदैश्च मण्डलीभूय सर्वशः॥ यत्र नार्यः प्रनृत्यन्ति प्राप्ते वासन्तिकोत्सवे ।
तालिकाभिरलं हृष्टा देशभूषाविभूषिता। 10 तदुक्तं चर्चरीनृत्यं रसरागलयानुगम् ॥ . ..
॥ इति चचरीनृत्यम् ॥५॥ यत्र सौराष्ट्रदेशीया नार्यो नृत्यन्ति सुन्दरम् । तत्तद्देशीयभूषाढ्या सिचयान्तावगुण्ठिताः ॥ मृदङ्गहारसुभगा देशकाकुभिरश्चितान् । रागेनेष्टेन गायन्त्यो दोहकान रसनिर्भरान् ॥ चारीभिर्धमरीभिश्च चरणैरुद्धतक्रियैः। ललितैः पदविन्यासैहस्तकैबहुभङ्गिभिः । यत्र तदोहकाख्यं स्थानर्तनं नर्तकप्रियम् ॥
॥ इति दोहकनृत्यम् ॥६॥ अन्येऽप्युत्प्रेक्षितुं शक्या भेदा देशीयनृत्यजाः। राजराजोपदेशेन खयमूह्या बुधैश्च ते ॥
॥ इति देशीनृत्यमेदाः ॥
[देशीनृत्यपरिभाषा । केचित् सालगसूडस्य भेदमन्यं प्रचक्षते। ध्रुवो मण्ठो 'रूपकं चाडतालों' यतिरेव च ॥ १२४ प्रतितालस्तथा चैकतालीत्येवं स सप्तभिः। तत्र कल्पस्तथा तालग्रहन्यासाभिधानको । यः पदादौ पदान्ते वा यतीतः स्पर्शरञ्जितः। स कल्पो भण्यते विद्भिः पदाधन्यस्य च ग्रहः ॥ १२॥ 1 80 मूडूपकं । 2 ABG तालौ।
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नृत्यानानि] नृ०र० को०-उल्लास ४, परीक्षण ३
य उद्घहादिधातूनां समाप्तिं ज्ञापयेदय । तालताडनभेदोऽसौ ताल इत्यभिधीयते ॥ गीतादौ तु भवेत् कल्पस्तालः कल्पसमापने । मध्ये कलासो विज्ञेयः कैश्चिदेष विधिः स्मृतः॥
॥ इति देशीनृत्यपरिभाषा ॥
[नृत्याङ्गानि । श्रुतितिं कलासश्च तालश्चेति चतुष्टयम् । 'इति देशीविदः प्राहुर्नृत्याङ्गानि समासतः॥
॥ इति नृत्याङ्गचतुष्टयम् ॥
[ देशीगीतनृत्यविधिः।] आलप्त्यादिविभेदेन देशीनृत्यविधिक्रमः। पृथक् प्रदर्शितः कैश्चित् स एवात्रोपदिश्यते ॥ रङ्गप्रवेशे सञ्जाते पार्श्वयोश्चतुरः करान् । 'अग्रत[:] षोडश त्यक्त्वा नर्तक्या गायकैस्ततः॥ १३१ आलप्तौ क्रियमाणायां नर्तकी वामपाणिना। धृत्वा चेलाञ्चलं दक्षे पताकं दधती करे। कलासैहावभावाभ्यां युतं भ्रमणमाचरेत् ॥
॥ इत्यालप्तिनृत्यम् ॥ १ ॥ अथानक्षरताले तु प्रवृत्ते गीतमानतः। संदंशं त्रिपताकाभ्यां नर्तकी नृत्यमाचरेत् ॥ ध्रुवनृत्ये यथौचित्यं षट् चत्वारोऽथ पञ्चधा। धातुद्वये द्विताली स्यात् कलासो हस्तकस्तथा ॥ १३४ खेच्छयात्र प्रकर्तव्य इति गीतविदो विदुः। षडक्ता मन्त(?ण्ठ)का येऽत्र त्रिताली तेषु संस्थिता ॥ १३५
॥ इति मण्ठकनृत्यम् ॥२॥ पताकाद्याः कपित्थान्ता रूपकेष्टकरा ध्रुवम् । ध्रुवे लयान् विलम्बादीनुद्वाहाभोगयो१तः ॥
॥ इति रूपकनृत्यम् ॥३॥
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1 Kumbha inभ. को. (पृ.८५४) drops this line. 2. ABO दृश्यते। 3 अप्रतः षोडशः पञ्च नर्तक्यो गायकैः सह । Kumbha in भ. को. (पृ०५७). 4 B0 संमतिः। 5. ABO °गयोद्रु।
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नृ०० को-उल्लास ४, परीक्षण ३ [अड्तालः उद्घाहादिष्वडुताले लयः कार्यो विलम्बितः । विकल्पतः कलासाः स्युः खटकामुखपूर्वकाः। सूच्यन्ता हस्तका द्वित्राः कार्या सर्वे ध्रुवे पदे ॥ १३७
॥ इत्यडतालः॥४॥ यती लयास्त्रयः प्रोक्ता हस्तकाः षोडश क्रमात् । पनकोशादिदोलान्ताः,
॥ इति यतिनृत्यम् ॥५॥
प्रतिताले तु हस्तकाः॥ कार्याः पुष्पपुटाद्यास्तु चतुरस्रावसानकाः ।... 10 द्रुतो लयोऽथ मध्यो वा,
॥ इति प्रतितालनृत्यम् ॥ ६॥
___ तथा स्यादेकतालिके ॥ १३९ उत्तानवश्चिताचं तु,
नलिनीपाकोशकम् । अथ(१व)साने विधायैतद्धस्तषोडशकं परम् ॥ संयुतैर्वियुतैर्वाथ करैर्नृत्यं समाचरेत् । । मध्ये मध्ये भ्रमरिकां गीतान्ते च प्रदक्षिणम् ॥ निसारुरासकं वाद्यास्तालाः खेच्छाकरः करः। आलापोऽपि सहस्तः स्याल्लयो हस्तानुगः स्मृतः॥ दूरे पादप्रचारः स्याद् झम्पायामिति तद्विदः । डोम्बडे हस्तको ज्ञेयः खेच्छयानुलयास्त्रयः॥ षट्खेतेषु च गीतेषु कलासः स्याद्विकल्पतः। कल्पतालविधि यो मण्ठकस्येव सूरिभिः॥
॥ इति देशीगीतनृत्यविधिः ॥
। [नवरसाः।] अथ नवा(१व) [रसा] लिख्यन्ते।
जीयाद्विसदृशी काचिदपूर्वेव सरखती। यस्यां समभवचित्रं काव्यरत्नाकरो महान् ॥ ननु कोऽयं रसो नाम पदार्थस्तद्विचार्यते । रस्यते वा सहृदयैः खयं वारस्यते रसः॥
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शकारः] न०र० को०-उल्लास ४, परीक्षण :
२१५ विभावर्जनितो भावोऽनुभावैरनुबोधितः। व्यभिचारिभिरास्फीतो रस इत्यभिधीयते ॥ १४७ नटोऽनुकरणत्वेन भावुका पात्रमुच्यते । सभ्यनायकयोस्तस्याश्रयत्वं मन्यते परे ॥ इति सर्वमिदं सम्यग् रमणीयतरं मतम् । . एवं सति नृपेणोक्तो नृप एव रसाश्रयः ॥ एवं रसाश्रयं सम्यग् राजा सर्वरसाश्रयः।
नाग्र(?अग्रे)स्फुरत्सर्वरसः सम्यगेवं न्यरूपयत् ॥ अथ शृङ्गाररसः।
शृङ्गारहास्यकरुणा रौद्रवीरभयानकाः।
बीभत्साद्भुतशान्ताश्व नव नाट्ये रसाः स्मृताः॥ यथा चाह भगवान् भरताचार्यः सूत्रेण
"विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः।" मन्ये गुणागुणविशेषविवेकदक्षः
शृङ्गारमेव सकलेषु रसेषु मुख्यम् । यत् खीयमर्धमु(?म)पहाय तनोबंभार
तत्राद्रिराजतनयाममोच्यमीशः॥ धर्मार्थकामाः सममेव सेव्या
इतीतिहासस्य च मूलमेषः। शृङ्गारनामा रस इत्यतोऽय
मादौ मया लक्षणमुच्यतेऽस्य ।। पुंनार्योश्चेष्टितं यच्च रत्युत्थं स्यात्परस्परम् । तदाहुः केपि शृङ्गारं केऽपि त्वपरथा जगुः ॥ १५५ सुखप्रायेष्टसंपन्न ऋतुमाल्यादिसेवकः । पुरुषः प्रमदायुक्तः शृङ्गार इति संज्ञितः॥
१५५ ऋतुमाल्यालङ्कारैः प्रियजनगान्धर्वकाव्यसेवाभिः। उपवनगमनविहारैः शृङ्गाररसः समुद्भवति ॥ १५६ . नयनवदनप्रसादैः स्मितमधुरवचोधृतिप्रमा(?मो)दैश्च ।। मधुरैश्चाङ्गविकल्पैस्तस्याभिनयः प्रयोक्तव्यः ॥ १५७ संभोगे(गो) विप्रलम्भेन विना न रतिकारकः। कषायिते हि वस्त्रादौ भूयान रागो यतो भवेत् ॥
1 ABO सर्वसर्वरसः। 2 Verse: 159-161 from. ना. शा. A-6. verses 46-48 (N, S.).
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० ० को०-उल्लास ४, परीक्षण ३ हास्या अथ देवादिविषयरतेरुदाहरणम्
सत्यं सन्ति जगत्रयीपरिसरे ते ते मुदा(१)धीश्वरा- स्तेषां संस्मृतिमात्रमत्र फलदं खर्गापवर्गादिनः। अस्माकं तु यदादि चित्तफलके संकल्पकल्पद्रुमं
कुम्भखामिपदारविन्दमुदितं तेनैव सर्वाप्तयः॥ .. १५९ रूपसंपन्नमग्राम्यं प्रेमप्रायं प्रियंवदम् । कुलीनमनुकूलं च कलत्रं केन लभ्यते ॥ संपत्तौ च विपत्तौ च मरणे या न मुञ्चति । खामीयाता(?खामिनं तत्)पतिप्रेम जायते पुण्यकारिणः ॥ १६१ स्तम्भः खेदोऽथ रोमाञ्चः खरभङ्गोऽथ वेपथुः। वैवर्ण्यमश्रु प्रलय इत्यष्टौ सात्त्विका मताः॥ निर्वेदोऽथ तथा ग्लानिशङ्कासूयामदश्रमाः। आलस्यं चैव दैन्यं च चिन्ता मोहः स्मृतिधृतिः॥ ब्रीडा चपलता हर्ष आवेगो जडता तथा। गर्यो विषाद औत्सुक्यं निद्रापस्मार एव च ॥ सुप्तं विबोधोऽमर्षश्च अवहित्थमयोऽग्रता। मतियोधिस्तथोन्मादस्तथा मरणमेव च ।
त्रासश्चैव वितर्कश्च विज्ञेया व्यभिचारिणः॥ भावप्रगल्भा यथा20 न जाने संमुखायाते प्रियाणि वदति प्रिये । सर्वाण्यङ्गानि [किं यान्ति] श्रोत्रतामुत नेत्रताम् ॥ १६६
॥ इति शङ्गारः ॥ १॥ अथ हास्यः।
विपरीतालङ्कारैविकृताचाराभिधानवेषैश्च । __25. [विकृतैरङ्गविकारैर्हसतीति [रसः स्मृतो हास्यः॥ १६७
तस्य ओष्ठनासाकपोलस्पन्दनदृष्टिव्याकोशाकुञ्चनखेदास्यरागपार्श्वग्रहणादिभिरनुभावैरनुभवः (१ भिनयः) प्रयोक्तव्यः । स्मितमथ हसितं विहसितमुपहसितं चापहसितमतिहसितम् । द्वौ द्वौ भेदौ स्यातामुत्तममध्याधमप्रकृतौ ॥
१६८ ____ 1 inserted from Amarusataka verse 64. 2 ABO "तां श्रममभ्यामप्र cf ना. शा. अ. ६. श्लो. ५२. 1 (G. 0. S.).
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पः॥२॥
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करुणः]
० ० को०-उल्लास ४, परीक्षण ३ विकृताचार्वाक्यैरङ्गविकारैश्च] विकृतवेषैश्च । हासयति जनं यस्मात् तस्माद् ज्ञेयो रसो हास्यः॥ १६९
॥ इति हास्यः ॥२॥ अथ करुणो रसः। इष्टवध दर्शनाद्वा विप्रियवचनस्य संश्रयाद्वापि । एभिर्भावविशेषैः करुणरसो नाम संभवति ॥ सवनरुदितैर्मोहागमैश्च परिदेवितैरनेकैश्च। अभिनेयः करुणरसो देहायासाभिघातैश्च ॥
॥ इति करुणो रसः ॥ ३॥ अथ रौद्ररसः। युद्धप्रहारपातनविकृतच्छेद[न] विदारणैश्चैव । एभिश्वार्थविशेषैरस्याभिनयः प्रयोक्तव्यः॥
॥ इति रौद्ररसः॥४॥ अथ वीरः। स्थितिधैर्यवीर्यगर्वैरुत्साहपराक्रमप्रभावैश्च । वाक्यैश्चाक्षेप कृतैर्वीररसः सम्यगभिनेयः ॥ उत्साहाध्यवसायादविषादित्वादविस्मितान्मोहात् । विविधादर्थविशेषाद्वीररसो नाम संभवति ॥ १७४
॥ इति वीररसः॥५॥ अथ भयानकः। विकृतरससत्त्वदर्शनसंग्रामारण्यशून्यगृहगमनात् । गुरुनृपयोरपराधात् कृतकश्च भयानको ज्ञेयः॥ १७५ 'गांत्रमुखहष्टिभेदैरुरुस्तम्भाभिवीक्षणोद्वेगैः । सन्नमुखशोष'हृदयस्पन्दनरोमोद्गमैश्च भयम् ॥ एतत् खभाषजं सत्त्वसमुत्थं तथैव कर्तव्यम् । पुनरेभिरेव भावैः कृतकं मृदुचेष्टितैः कार्यम् ॥
1 ABO हासयन्ति । of हासयति. ना. शा. अ. ६. श्लो. ५०. (G.O.S.) 2 ABC बन्धुद। 3 ABO मनुजैर्दै । 4 A50 श्वापेक्ष। 5 ABC मामुत्र। 6 ABC °म्भा.. त्री ...17 ABO शोष....."स्प०। 8 ABO.....मि......5-8 readings taken from. ना. शा. अ. ६. श्लो. ७०-७२. (G. 0. S.)
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२८ नृ०रन.
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२१८.
नृ० १० को ० -उल्लास ३, परीक्षण ३
करचरणवेपथुगात्रस्तम्भसंकोचहृदय कम्पनेन । शुष्कोष्ठ तालुकण्ठैर्भयानको नित्यमभिनेयः ॥ ॥ इति भयानकः ॥ ६ ॥
[T]भिमतदर्शनेन गन्धरसस्पर्शशब्ददोषैश्च । उद्वेजनैश्च बहुभिर्बीभत्सो रसः सम्यगभिनेयः ॥ मुखनेत्र विकूणन नासाप्रच्छादना [व] नमितास्यैः । अव्यक्तपाद' पतनैर्बीभत्सः सम्यगभिनेयः ॥ ॥ इति बीभत्सो रसः ॥ ७ ॥
*
अथाद्भुतो रसः । यस्त्वतिशयार्थयुक्तं वाक्यं शिल्पं च कर्मरूपं च । तत् सर्वमद्भुतरसे विभावरूपं हि विज्ञेयम् ॥ स्पर्शग्रहोल्लकुसनैर्हाहाकारैश्च साधुवादैश्च । वेपथुगद्गदवचनैः स्वेदाद्यैरभिनयस्तस्य ॥ ॥ इति अद्भुतो रसः ॥ ८ ॥
*
अथ शान्तो रसः । शमस्थायी भवेच्छान्तः सर्वत्र समदर्शनः । तच्च ज्ञानाद्गतो (? ते )च्छः स तमोरागपरिक्षयात् ॥ प्रत्यक्षभूमिश्रितयोपारूढत्वेन नर्त्तकः लोकस्यैव स्वभावस्य वासनारूपभेदतः ॥ स्तम्भादिभिः प्रयोज्योऽत एवं शान्तरसात्मता । एतेषामनुभावास्तु ज्ञेया राजोपदेशतः ॥
॥ इति शान्तो रसः ॥ ९ ॥
[ बीभत्सः
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*
श्यामः सितः कपोतश्च रक्तो गौरः सितस्तथा । नीलः पीतस्तथा शुक्लो रसवर्णाः क्रमादमी ॥ मूलं तु (तो) त्रिकस्यास्य रसमिच्छन्ति तद्विदः । त्रिभिर्नटस्थैर्यो भावा(?वोऽनुभावव्यभिचारिभिः । दाभि (विभावैर्व्यज्यते स्थायी स याति रसतां सदा ॥ १८७ शृङ्गाराज्जायते हास्यः करुणो रौद्रसंभवः ।
अद्भुत वीरसंभूतो बीभत्साञ्च भयानकः ॥
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1 ABC कण्ठता । 2 ABO पाप | 3 ABC त्सरसः । 4 ABC कयल्पं ।
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नवरसाः] नृ० २७ को-उल्लास ४, परीक्षण ३
परस्यानुरागेण शृङ्गारो जायते रसः। उक्तिप्रत्युक्तिभेदेन हास्यस्तत्रैव दृश्यते ॥ अत्याकुलतया बाला यदा रोदति मैथुने । करुणस्तत्र विज्ञेयो रौद्रो निष्ठुरताडनात् ॥ नखदन्तकराघातैर्वीरो धीरजनप्रियः। भयाद्विन्दुनिपातस्य भयानकः स उच्यते ॥ लाला स्वेदः श्रमो मूर्छा बीभत्सो जायते रसः। अद्भुतोऽद्भुतसौख्यत्वात् शान्तो बिन्दुनिपातनात् ॥ १९२
॥ इति नवरसाः॥ ॥ रसनृत्यं च ॥
10 यं प्रभु नैकदेशीयनानानृत्यभिदाविदः।
राजकन्या रञ्जयन्ति सदानन्दैकमन्दिरम् ॥ इति श्रीराजाधिराजश्रीकुम्भकर्णमहीमहेन्द्रेण विरचिते संगीतराजे षोडशसाहस्रयां संगीतमीमांसायां नृत्यरत्नकोशे प्रकीर्णकोल्लासे लास्याङ्गपरीक्षणं तृतीयं [ समाप्तम् ।]
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चतुर्थोल्लासे चतुर्थं परीक्षणम् ।
[पात्रलक्षणम् ।] पात्रस्य लक्षणं रेखा गुणा दोषाश्च मण्डनम् । लक्षणं संप्रदायस्य गुणदोषाश्च तस्य च ॥ विशुद्धा पद्धतिश्चात्र तथा श्रमविधिः' शुभः। गोण्डल्याश्च विधिः सम्यक् पात्रलक्षणसंज्ञिते। . परीक्षणे क्रमेणैव निरूप्यन्ते यथार्थतः॥
नर्त्तनाश्रय इहोदितं विदा ___ पात्रमेतदुचितं तु नर्तकी। मुग्धमध्यभिदयोः प्रगल्भता ..
भेदतस्त्रिविधमत्र तत् स्मृतम् ॥ यौवन(?न) त्रितयलक्षणं क्रमात् । तस्य लक्षणमिहाभिधीयते। तेन तत्त्रितयमत्र लक्ष्यते
यनिरूपित इहास्ति लक्षितम् ।। श्रीफलोपमकुचाधरलीला
भृत् कपोलजघनोरुविभ्रमम् । प्रीतिपूर्वसुरतं प्रति तत् सो
त्साहमत्र गदितं मयाऽऽदिमम् ॥ पीवरोरुजघनं कठिनोचैः ।
पीनमूलघनसंभ्रमस्तनम् । मन्मथस्य मृतजीवनौषधं
यौवनं निगदितं द्वितीयकम् ॥ तत्परं तु मदनोन्मदिष्णुता
हेतुकं परमशोभयान्वितम् । कामशिक्षितसुभावसंभृत
प्रौढनैपुणरति तृतीयकम् ॥ तुर्यमत्र गदितं तु कैश्चनो
न्मन्दमन्मथरसं द्वितीयतः। म्लाल(?न)ताद्युपचिताङ्गसंभ्रमं
तत्प्रगल्भविभवोद्धताद(दि)तः॥ 1-2 ABO विधि।
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रेखा ]
नृ० १० को ० - उल्लास ४, परीक्षण ४
पात्रमत्र गणितं न तूचितं यज्जराभिमुखमेतदीरितम् । शोभया च रहितं विदांगणेनहतं रतिपराङ्मुखं यतः ॥
बालमप्यविदिताङ्गसंभ्रमं तन्मनोविरहितं न संमतम् । यन्न रञ्जयितुमेतदर्हति प्रायशो जनमनांसि संसदि ॥ ॥ इति पात्रलक्षणम् ॥
*
[ रेखा ।]
या शिरोडकरनेत्रपङ्कजायङ्गमेलनविधौ सति स्फुटम् । के (?का) चिदत्र [च] दिश (हशा) मनोहरा सा स्थितिर्निगदितात्र रेखिका ॥
॥ इति रेखा ॥
*
[ पात्रगुणाः ।] सौष्ठवं विशदकान्तदन्तता रूपसंपदमलातिविस्तरे । कर्णयोश्च लतिके विशालता नेत्रयोरधरविम्बचारुता ॥
कम्बुसुन्दरसुकण्ठता लसत्-. पद्मतालसमकान्ति बाहुता ।
मध्यदेशतनुता विशालता
स्यान्नितम्बफलकेऽतिपेशला ॥
उच्चता न तु न खर्वता तथा
पीनता न न सिरालता तनौ । कान्तिमत्त्वमविचार्य धैर्यतौ
दार्यता त्वतितरां प्रगल्भता ॥ histar तरुणिमोद्गमः स्तनौ कापि चारुकरभोरुतापि च ।
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नृ० ८० को० -उल्लास ४, परीक्षण ४
कापि वक्रकमलस्य माधुरी स्वर्णरङ्गकृतभङ्गगौरता ॥ श्यामतापि च चतुर्विधा पुनः लिष्टसंधिसमता सुपाणिता' । मत्तदन्तिगमना मदालसा चन्द्रजित्वरमुखी सुसंहता ॥ कामबाण इव विश्वजित्वरं (१रः) पात्रगो गुणगणोऽयमीरितः । कोमलैर्यदिह गात्रविभ्रमक्षेपकैर्विलसदस्यसल्लयैः ॥ प्रोरित किमु नु गीतवाद्ययोरक्षराणि सुघटैश्च सुतालैः । चाक्षुषत्वमिह चानयद् ध्वनेगीतवाद्यजनितं निजाङ्गकैः ॥ स्त्रीयगात्रनिचये सुपूर्णतामादधत् कुसुमसञ्चये यथा ।
नृत्यतीत्थमिदमुत्तमं वदत्युत्तमः सकलराजसंसदि ॥ [ ॥ इति पात्रगुणाः ॥ ]
*
[ पात्रदोषाः । ] एतदुक्तगुणराशिसमस्तव्यस्तवर्गणविधेर्विपर्ययः । दोषराशिरुदितोऽत्र पात्रगो दोषराशिरहितेन भूभृता ॥ ॥ इति पात्रदोषाः ॥
एतदर्थमिह नृत्यकोविदैः
कार्यमेव गुणदोषवीक्षणम् । यत्कृतेऽत्र किल जायते परा
[ पात्रदोषाः
नृत्यसंसदविचार (१पदपि चारी) सुन्दरा ॥
1 ABC put here इति पात्रगुणाः ।
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पात्रमण्डनानि] नृ०र० को०-उल्लास ४, परीक्षण ४
२२३ यत् पुराणमुनिसंमतं त्विदं
नाट्यसिद्धिरखिला चरूप्यताः(निरूपिता) ॥ २१ मार्कण्डेयपुराणोक्ता नृत्ते पात्रैकतन्त्रता। नृत्तेनालम(एमल)रूपेण सिद्धिर्नाट्यस्य रूपतः। चार्वधिष्ठानं यन्नृत्यमन्यद्विडम्बनेति च ॥
२२ 5 [॥ इति गुणदोषपरीक्षा' ॥]
[पात्रमण्डनानि ।] स्निग्धविस्तीर्णधम्मिल्लः सविलासनिवेशितः। लसत्कुसुमसंभारसंभृतः शुचिरुज्वलः। ग्रन्थिविलुलितः स्कन्धे सौरभाकृष्टषट्पदः॥ विकाशिमल्लिकामोदिपुष्पपुष्प(?)दलिक्षिका। वेणी वा ललिता रत्नरचनागुम्फपेशला ॥ हेमपट्टगता चित्रलेखेवाधिकशोभिनी । विभ्राजते पृष्ठदेशे लुण्ठती जनमोहिनी ॥ मुक्ताजालमनोहारि कुन्तलैभूषितं शिरः। लिग्धसिन्दूररुचिरो रतिसञ्चारमार्गवत् । मुक्तादामविभूषाढ्यः सीमन्तः लिग्धसुन्दरः॥ विचित्रतिलको भालः कस्तूरीचन्दनादिना । कर्णयोः कामतूणीरतर्जकाववतंसकौ ॥ मुक्तताटङ्कसुभगौ नीलेन्दीवरसुन्दरौ । तन्वञ्जने च नयने कुङ्कुमायैर्विनिर्मिता ॥ कपोलयोः पत्र भङ्गिरचना मदनप्रभोः । निवेशाय स्वस्तिकाली रत्येव विनिवेशिता ॥ स्फुरद्रश्मिप्रभाजाले रदनावलिनिर्गतैः । अकस्माद्भासयन्तीव रङ्गभूमि समन्ततः॥ इयत् (? ईषत्) स्मितमनोहारी पद्मरागांशुपेशलः। ताम्बूलरागसुभगोऽधरो जनमनोहरः॥ प्रभाप्राग्भारशोभाव्यरत्नग्रैवेयकाश्चिता। ग्रीवा कम्बुकृतत्रासा वासवेश्म मनोभुवः ॥ 1 ABo put here इति पात्रदोषाः ।
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नृ० २० को०- उल्लास ४, परीक्षण ४.
कामलीला गृहप्रांशुसुवर्णवलयोज्वलौ' । प्रोल्लसद्रनभिन्नमुद्रिकाभिरलङ्कृताः ॥ अङ्गुल्यो दश पचेषुबाणाः किं द्विगुणीकृताः । चरणौ रत्नमञ्जीरहंसकध्वनिसुन्दरौ ॥ कर्पूरपूरकाशीरचन्दनैर्धूसरं वपुः । तत्तदेशानुसारेण वस्त्रं कार्पासकं तनु ॥ क्षीरोदकादिकं चेति चेलं वा समकञ्चुकम् । मण्डितं मौक्तिकालीभिर्नानापक्षिकृताकृति । एतन्मण्डनमत्रोक्तमन्यद्वा रुचितोऽञ्चितम् ॥ श्यामगौरविभागेन यत्र यद्वर्णपोषकम् । देशकालवयोवर्णानुसारेण प्रकल्पयेत् ॥ ॥ इति पात्रमण्डनानि ॥
*
[ संप्रदायलक्षणम् । ] यत्रैको मुखरी वरः प्रतिमुखी युक्तस्तथा द्वौ परौ प्रोक्तावावजधारिणौ षडथवा मार्दङ्गिकाः शोभनाः । द्वात्रिंशद्गदितास्तथा च करटाधत्रो (?) र्युगं च द्वयं स्फूर्जत्तालभृतोर्द्वयं निगदितं तत् काहलीधारिणोः ॥ ३८ अष्टौ कांस्यजतालधारिण इह द्वौ वांशिकी सुस्फुटौ सुव्यक्तप्रचुरध्वनी व रसिकौ रक्तिप्रदी शृण्वताम् । चत्वारो भुकरास्तयोर्मधुरसुध्वानास्तथा गायनौ
द्वौ मुख्यौ सह गायनैर्निगदितावष्टाभिरेतद्वतैः ॥ ३९ मुख्ये गायनिके तथाष्ट सह गायिन्यस्तयोः कीर्त्तिताः पात्रं सर्वगुणान्वितं निगदितं त्वेकं समुल्लासकम् । तेषां सर्व इमे सुरूपविभवाः सद्भूषणालङ्कृता गीतार्थे निपुणाश्च साम्यकरणे हर्षोल्लसच्चेतसः ॥ तस्मादुत्तम एष मे निगदितः सत्संप्रदायो जने
ख्यातः कुट्टिलसंज्ञयार्धगणितः स्यान्मध्यमोsस्मात् पुनः । अस्यार्धेन मितः कनिष्ठ इति वै म्लेच्छान्तकेनामुना
राज्ञायं निरगादि राजनिवहमीत्यै चिरायास्तु सः ॥ ४१ ॥ इति संप्रदायलक्षणम् ॥
www
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[ संप्रदायलक्षणम्
1 Here a line mentioning gt seems to be missing.
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संप्रदायगुणदोषा] नु० र० को०-उल्लास ४, परीक्षण ४
२२५ [ संप्रदायगुणदोषौ ।] चत्वारोऽथ गुणास्तु कुटिलगतास्तालानुवृत्तिर्लय
स्तेषामप्यनुवृत्तिरामुखरिणस्तन्यूनवृत्तिः खरा। दोषाः स्युर्गुणप[य]येण निखिला वास्तु ये यत्ततः संवीक्ष्य(१क्ष्यैव) च संप्रदायरचनां कुर्वन्तु राजाग्रतः॥ ४२ ।
॥ इति संप्रदायगुणदोषौ ॥
[ शुद्धपद्धतिः।] भूमीन्द्रेऽखिलदानमानकुशले सिंहासनाधिष्ठिते
प्रेक्षार्थ समुपस्थिते बुधगणैः सङ्गीतविद्भिः समम् । पूर्णा रङ्गभुवं प्रविश्य निखिलै रङ्गोपहारैः समं
तिष्ठन्तोऽखिलरङ्गकार्यविदुराः सत्संप्रदायान्तराः॥ ४३ वाद्यानां समतां विधाय सकलां नादस्य साम्यं तत
स्तञ्चित्ताः परिवादयेयुरतुलं मेलापकं तत्परम् । संपूर्ण गजरं ततो जवनिकामन्तःप्रसूनाञ्जलिं
धृत्वा पात्रमवाप्य सौष्ठवमथोऽधिष्ठाय सुस्थानकम् ॥ ४४ 15 अन्तर्धानपटेऽपसारित इहारब्धे विधानादथो
खण्डे चोपशमाह्वये जनमनांस्येकाग्रतामानयन् । पात्रं रङ्गभुवं विशेदथ समन्ताद्वाद्यमाने समं
खण्डे चोपशमाख्यके सविधिना पुष्पाञ्जलिं मध्यतः॥४५ पात्रं मुश्चति रङ्गपीठधरणौ यस्मात् सुरग्रामणी
मध्येरङ्गमधिष्ठितः स्वयमसौ तं पूजनायोचितम् । तस्मात् 'संमदसंभृतं त्वविकलैर्नृत्याङ्गकैः केवलै
ोयेनोपशमेन नृत्यति परं पात्रं मनःसंयुतम् ॥ ४६ [ मो] तावत्सरिगोणिकाच तुडिकाः स्यात्तत्पदं तत्परम्
साङ्गन्तं मलपं तथा च कवितं वाद्यप्रबन्धैरिमैः। 25 पर्यायेण च वा क्रमाद् बहिरथो खेच्छाकृते वादने...
सामस्त्येन लयाश्चितैश्च विषमैर्नृत्याङ्गकैनर्तनम् ॥ .. ४७ 1 Kumbha in भ. को. gives only तस्मात् समद to मनः संयुतम् and drops पात्रं to °योचितम् । p. 881. 2 Kumbha in भ. को. gives the reading तावत् संकुलगोपिकाश्च तुडिका etc. p. 881. We have adopted 'मोता' from सं. र..अ. ७. श्लो. १२६६. पदमोता च कवितं etc.
२९ नृ० रा.
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नृ०२० को०-उल्लास ४, परीक्षण ४ [गौण्डलीविधिः शुद्धैश्चाप्यथ रूपकै रुचिवशात्तैर्गीयमानैश्चिरं
पात्रं नैकविधं विधाय निपुणं नृत्यं ततः संत्यजेत् । रङ्गे यत्र न वादयन्ति गजरान् पश्चाच ते वादकाः
खण्डं तूपशमाभिधं खलु तदा पात्रं पदे प्राविशेत् ॥ ४८ उक्तत्थं किल पद्धतिः परिपडि प्रोच्यते तद्विवां - वृन्दैः साखिलराजराजिमुकुटालङ्कारहीरेण हि । वाद्यं चासमहस्तमत्र निगदन्त्येके प्रवेशात् पुरः
पाटेर्वा समहस्तकादिभिरिह स्यात् सर्वतोऽथेष्टतः॥ ४९ स्थानं वा समपादमत्र निगदन्त्येके प्रवेशे बुधाः .. केचित् केवलयोः प्रयोगमभणन् तं गीतवाद्यानुगम् । गीतादेरिह वाञ्छितैः परमसावेकैकशः कैश्चनेत्येवं पद्धतिरीरिता सुविमला शुद्धा त्रिधा भूभृता ॥ ५०
॥ इति शुद्धपद्धतिः॥
• [ गौण्डलीविधिः।] गीतः सालगसूडैश्चै डस्थैः] प्रबन्धैश्च ध्रुवादिभिः । लास्याङ्गैः केवलैरेव तथाङ्गैरपि कोमलैः । वाद्यप्रबन्धः कठिनैः शुद्धैरेलादिभिर्विना । स्वयं नृत्यति यत्पात्रं स्वयं गायति च स्फुटम् । वादयेत् त्रिवली वाद्यं स्वयं तद्गौण्डली विदुः॥ स्कन्धदेशे स्त्रिया वाद्यं ग्राम्यतासूचकं यतः। अतोऽस्य वादनं केचित् तद्विदो नैव मन्वते । गायेच्छारीरबुद्धया सा मूकत्वस्य जिहीर्षया ॥ कर्णाटदेशसंभूतं तस्या मण्डनमिष्यते। आश्रित्य गौण्डलीलक्ष्म तन्ननिमिहोदितम् । अत्र या पद्धतिः प्रोक्ता सैवोक्ता गौण्डलीविधिः ॥ देशी पद्धतिरेवेयं प्रोच्यते तत्क्रमोऽधुना। कर्णाटालहतियुताः स्युरस्मिन् सांप्रदायिकाः॥ आतोचजातमत्रापि समनादं स्मृतं बुधैः । एकताल्या पादयेयुरथ मेलापकं ततः ॥ येन केनापि तालेन गजरे वादिते सति ।
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स
गौण्डलीविधिः] न०० को०-उल्लास ४, परीक्षण ४
निःसारुणा वैकताल्योपशमेऽस्य प्रचारिते। प्रविश्य रङ्गं तन्मध्ये पत्रं पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् ॥ अङ्गान्याविष्कुर्वदिव पुरो दक्षिणवामयोः । गजरोपशमेनैव नृत्येदविकलं ततः ॥ अडतालं च निःसारु तथा चैकतालिकम् । रिगोणीसंश्रिता या तु तथा सर्वाङ्गनर्त्तनम् ॥ कृत्वा ततः क्रमात्तालनियमेन विना कृतौ । अवश्यकवितौ ताभ्यां क्रमानर्तनमारभेत् ॥ ततश्चोटवणोपेतरिगोण्या चित्रनर्तनम् । निवारितेषु वाद्येषु सह गायनसंयुतैः॥ वांशिकैरवकाशे च वितीर्णे सं(? सोति गोण्डली । उच्चार्य स्थायिनं कुर्यात् रागालप्तिं चतुर्विधाम् ॥ काचिद्रा(? द्वा) गायिनी मुख्यालप्तिं नानाविधामिह । कुर्यान्मण्ठेन तालेन प्रतिमण्ठेन वा पुनः॥ अन्येन केनचिद्वापि ध्रुवकं सकलं युतम् । गीत्वा तु वाद्यमानायां ढकायां मानसंयुतम् ॥ श्लक्ष्णा ध्रुवाख्यखण्डेन चित्तव्यक्तिमनोहरम् । . नर्तनं मेलकोपेतं विदध्याद्गायकैः समम् ॥ अथानयोरुपरमे विहिते गानवाद्ययोः । स्थायान् विधाय विविधान् मुहुर्बुवपदं ब्रजेत् ॥ पूर्वमेव विधायाथ स्थायान् रक्तिसमन्वितान् । नातीव ह्रखदीर्घाश्च गमकप्रौढिपेशलान् ॥ प्रान्ततः प्रोल्लसत्तालान् ध्रुवखण्डे कलासयेत् । कलासे वादकाः कुयुः सममातोद्यवादनम् ॥ विलीनमिव तत्पात्रं कलासे तत्र जायते । चित्रं चित्रार्पितमिव प्रेक्षकैरुपलभ्यते ॥ नृत्यस्य प्रक्रियां कृत्वा धनेन विधिना पुनः । पूर्ववद् ध्रुवकाभोगखण्डे गायनसत्तमैः॥ गीयमाने वाद्यमाने वादकैस्तद्वदेव च । खण्डे प्रहरणाख्ये च पुनर्नृत्यं यदृच्छया ॥ किश्चित् कृत्वाथ च त्यागे सति संनिहिते पुनः । विचित्रप्रौढचारीभिः पात्रं नृत्यं समाचरेत् ॥
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२२८ नृ० र० को०-उल्लास ४, परीक्षण ४
[श्रमविधिः अत्र वाद्यं प्रहरणमाभोगेऽपि च तन्मतम् । वाद्यसाम्येन च त्यागं कृत्वा विश्रान्तिमाचरेत् ॥ ध्रुवेणैवं विधायाथ विधिवनतनं तथा। ध्रुववद् मण्ठकाद्यैश्च प्रारभेन्नर्तनं सुधीः ॥ परं तेषु विशेषो यः सोऽत्र सम्यग् निरूप्यते । ध्रुवखण्डनमण्ठादेः केवलं नर्तनं स्मृतम् ॥ प्रारम्भे मण्ठतालेन मण्ठो नर्त्तनमाचरेत् । ततः क्रमादेकताल्या मण्ठके नर्त्तनं भवेत् ॥
प्रतिमण्ठादिषु प्रोक्तं खतालेनैव नर्त्तनम् । 10 प्रायः सालगसूडस्थे गीतं कुर्याद्रुते लये ॥
ताण्डवे पण्डितैरुक्तो लयः प्रायो विलम्बितः । नर्त्तित्वा सालगे सूडे त्वेकताल्यन्तरूपकैः । त्यागो' यत्र भवेदेष विज्ञेयो गौण्डलीविधिः॥
॥ इति गौण्डलीविधिः॥
[श्रमविधिः । नमस्कृत्य गणाधीशं तथा देवी सरस्वतीम् । ब्रह्मविष्णुमहेशांश्च रङ्गदैवतकैः सह ॥ क्रमात्तालं वाद्यभाण्डमुपाध्यायं तथा पुनः ।
नृत्तकन्याः स्तम्भयुग्मं दण्डिकां च प्रपूजयेत् ॥ 20 चन्दनागरुकर्पूरमृगनाभिमुखैः शुभैः।
विलेपनैश्च सामोदैः सौरभ्येण मनोहरैः॥ पुष्पैश्च विविधै पैरारात्रिकसमन्वितैः । नानाविधैश्च नैवेद्यैर्वस्त्रैर्वर्णविभूषितैः ॥
बलिपूजोपहारैश्च प्रार्चयेद्रङ्गदेवताः। 26 ततः शुभे मुहूर्ते च प्रारभेत श्रमं सुधीः॥
कन्यां हृदयदनां च दण्डिकां तिर्यगायताम् । स्तम्भद्वयोपरि स्थाप्यां हस्तग्राह्यां सुयन्त्रिताम् ॥ अवलम्बाय तस्याश्च दृढां श्लक्ष्णां समां तथा। ततोवाचतश्चाल)यित्वा चलनं शुभ्रमादाय कझुकम् ॥ ८५ 10°गे।
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श्रमविधिः ]
नृ० ८० को० - उल्लास ४, परीक्षण ४
दृढं तामवलम्व्याधोऽभ्यस्येदङ्गविवर्त्तनाः । भूत्वा च सुमनाः कन्या शिक्षाभ्यासपरायणा ॥ पूर्वोक्तमङ्गनिचयं लास्याङ्गान्यखिलान्यपि । स्थापनं चलनं रेखां तालसाम्यं लयानपि । गीतवाद्यानुगमनं शिक्षि (? क्षे ) तानुदिनं शुचिः ॥ ॥ इति श्रमविधिः ॥
*
ये खैः करणैर्दिगन्तरनृपाः खे पूर्वजास्तैर्नवप्रोदश्च चरणैरनुद्धतकरैः संतर्पणात्तीर्थिकाः । शुभ्रैस्तैः परमङ्गहारनिचयैरुल्लासिताः खे' सभोदेशास्तेन नृपेण नृत्यनिगमस्योल्लास उल्लासितः ॥
२२९
1 AB स्ते । 2 B drops 'वा°। स्वतीनां संगीतराजनृत्यरत्नकोशपुस्तकम् ।
८६
८७०
6410
इति श्रीसरस्वतीरससमुद्भूतकैरवोद्याननायकेन अभिनवभरताचार्येण मालवाम्भोधिमाथमन्थमहीधरेण योगिनीप्रसादासादितयोगिनीपुरेण मण्डलदुर्गोद्धरणोद्धृतसकलमण्डलाधीश्वरेण अजयजयाजेयविभवेन यवनकुलाकालकालरात्रिरूपेण शाकम्भरीरमणपरिशीलनपरिप्राप्तशाकम्भरीतोषितशाकम्भरीप्रमुखशक्तित्रयेण नागपुरोडूलनप्रचं [ ड] धर्षितनागपुरेण श्रीमत्कुंभलमेरुनवीन निर्मित सुमेरुणा श्रीमच्चित्रकूट भौमस्वर्गतायथार्थी करणचारुत- 15 रपथेन मेदपाटसमुद्रसंभवरोहिणीरमणेन अरिराजमत्तमातङ्गपञ्चाननेन प्ररूढपत्रयवनदवदहनदवानलेन प्रत्यर्थिपृथिवीपतितिमिरततिनिराकरणप्रौढप्रतापमार्त्तण्डेन वैरिवनितावैधव्यदीक्षादानदक्षोद्दण्डकोदण्डदण्डमण्डिताखण्डभुजादण्डेन भूमण्डलाखण्डलेन श्रीचित्रकूटविभुना अध्युष्टतमनरेश्वरेण गजनरतुरगाधीशराज त्रितयतोडरमलेन वेदमार्गस्थापनचतुराननेन याचककल्पद्रुमेण वसुंधरोद्धरणादिवराहेण परमभागवतेन जगदीश्वरीचरणकिक - 20 रेण भवानीपतिप्रसादाप्तापसादवरप्रसादेन रायंगुरुचायंगुरुसेलगुरुवांगगलांशयाचायुहयनेयु ( ? )स्त (? स्तु ) त्यादिबिरुदावलीविराजमानेन राजाधिराजमहाराणा श्रीमोकलेन्द्रनन्दनेन राजाधिराज श्रीकुम्भकर्णमहीमहेन्द्रेण विरचिते संगीतराजे षोडशसाहस्यां संगीतमीमांसायां नृत्यरत्नकोशे प्रकीर्णकोलासे पात्रलक्षणं नाम चतुर्थ परीक्षणम् ॥ उल्लासश्च समाप्तिं समगादिति विततमतीनामभिमतसिद्धिरस्तु ॥
॥ इति नृत्यरत्नकोशे प्रकीर्णकोल्लासे चतुर्थं परीक्षणं समाप्तम् ॥ ॥ समाप्तश्चायं चतुर्थोल्लासः ॥
3 B श्रीसर्वविद्यानिधान कवीन्द्राचार्य सर
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नु० २० को०-उल्लास ४, परीक्षण ४ NOTE—In ms. c there is an entirely different and a very long praśasti about the autheor of this work. It is given below:
इति निःशंकनिर्भयमल्लेन ॥१॥ सकलभूवलयैकवीरेण ॥२॥ कलाकल्याणकुशलेन]श्रीकालसेनेन ॥३॥ द्वादशसहस्रजनस्थानप्रभृतिवसुन्धरासमुद्धरणैकधीरेण 5॥४॥ श्रीजगदीशवनदेवनिजगणेन ॥५॥ श्रीकामेश्वरीचरणकिङ्करेण ॥६॥ श्रीब्रह्माद्रिविभुना ॥ ७॥ प्रथमप्रख्याततामराजआमोदराजरामराजकराजम्हामराजतामराजेन्द्रप्रभृतिसकलमहीपालमौलिमाणिक्यरचितसिंहासनादिसमस्तप्रशस्तराजचिह्नाधिष्ठातनरेश्वरेण ॥८॥ अगस्तिपुरनिरस्तसमस्तवैरिवर्गेण ॥९॥ कामाक्षाप्रसादासादितकुन्ती
पुरेण ॥ १० ॥ शुद्धोद्धतोद्धतपति निपातपटुतरतरवारिधारेण ॥ ११ ॥ उद्धतपुरीनारी10नयननीरनिरन्तसारिणीसमाप्यायितशौर्यतरुवरेण ॥ १२॥ श्रीभीष्मपुरजयानीतानेकराजकन्यारत्नेन ॥ १३॥ मणिपुरमर्दनादर्शितशौर्येण ॥ १४ ॥ कल्याणपुरजयाजितजामदग्न्येन ॥ १५ ॥ स्थानवलयितानेकदरीपरिसरपरित्रासितमनीरवीरेण ॥ १६ ॥ श्रीपुरग्रहणसंवर्द्धितयशोभरेण ॥ १७ ॥ वाटिकाचलग्रहणजनितकीर्तिपुरपराजिता
चलनायकेन ॥ १८ ॥ [मदनपुर] विध्वंसनचारुचापरचितेन ॥ १९ ॥ सुवर्णगिरि15 खण्डनावनिवज्रहस्तेन ॥ २० ॥ नवसारीधनदेवीयुवतीजनवदनयामिनी[नाथ]सिंहिकासुतमानकरालवालेन ॥ २१ ॥ पाटलीरणधरणिधीरधनुर्धकारमुखरितत्रिभुषनेन ॥ २२॥ तारापुरप्रज्वालनसमुद्भूतधूममलिनीकृतसकलवैरिवदनेन ॥ २३॥ कुलमपुरजयदर्शितसिंहविक्रमेण ॥ २४॥ संशापुरोपार्जितरत्नेन ॥ २५ ॥ वेदिकागिरिनिर्दलनदारुणेन ॥ २६ ॥ कुरङ्गगिरिकोटविघट्टनलम्पटोरुनाशीरेण ॥ २७ ॥ 20 पुण्यस्तम्भोदूलनोबूताद्भुतशौर्येण ॥ २८ ॥ संगमनीरदुर्गाद्धरणोद्धृतसकलमण्डला
धीश्वरेण ॥ २९ ॥ शुक्लपुरसमूलोन्मूलनप्राप्तजयश्रिया ॥ ३० ॥ गिरिपुरडुंगरग्रहणसार्थकीकृतोग्राग्रहेण ग्रहेण ॥ ३१॥ दमनपुरविध्वंसनबन्दीकृत्ययवनीनिचयेन ॥ ३२॥ आमर्दकगिरिशिखरो[परि]परिभावितशकनिकरेण ॥ ३३॥ महिषमेरुजयाजेयविभवेन ॥ ३४ ॥ शाकम्भरीरमणपरिशीलनपरिप्राप्तशाकम्भरीपरितोषितशाकम्भरीप्रमुखशक्ति25 त्रयेण ॥ ३५॥ निजभुजशौर्यवशीकृतबग्गुलराजप्रमुखमहानिधानेन ॥ ३६॥ बेडुर
भूपालराजकृतसंस्थापनेन ॥ ३७॥ नराणरणकर्मकर्मठेन ॥ ३८ ॥ तुजारषा(खा)नमानमर्दनगृहीतराज्यलक्ष्मीसकलभाण्डागारनिचयेन ॥ ३९ ॥ अलङ्गगिरिगहनगह्वरकुहरविहारिवैरिवीरसिन्धुरमर्दननिर्दयकण्ठीरवेण ॥ ४०॥ अष्टादशगिरिशिखरपरिवारिताअनाद्रिविजयविख्यातवीर्यगर्वण ॥४१॥ सप्तविंशतिसहस्रमहाराष्ट्रधराविधून30 नप्रलम्बप्रभञ्जनेन ॥ ४२ ॥ सप्ततिसहस्रगूर्जराम्भोधिमाथमन्थमहीधरेण ॥ ४३ ॥
महदम्बमातृकापुरोलनधर्षिता(? त)महोरगपुरेण ॥ ४४॥ पलायमानअजीमषा(खा)नसकलगृहीतजयश्रिया ॥४५॥ जाङ्गलस्थलजलधितरत्तुङ्गतरङ्गसंरंभकुम्भसंभवेन ॥ ४६ ॥ वस्तिसोपारकलहकलितकुन्तजनितकुन्दावदातकीर्तिधवलितदिगन्तरेण
॥४७॥ शशकगिरिलुण्ठनपटुतरेण ॥ ४८ ॥ श्रीवनदेवस्वामिप्र(? प्रा)सादरचना35 परपरमेश्वरेण ॥ ४९॥ त्रियम्बकेश्वरसन्निधिकीर्तिस्तंभोन्नतजयस्तम्भेन ॥ ५० ॥
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ने०र० को०-उल्लास ४, परीक्षण ४ श्रीब्रह्मगिरिभौमवर्गतायथार्थीकरणरचितचारुपथेन ॥५१॥ श्रीकामाक्षागिरिनवीननिर्मितिपराजितसुमेरुणा ॥ ५२ ॥ श्रीमहिषाचलोपरिश्रीहरिशरणरचिताचलदुर्गेण ॥ ५३॥ रायंगुरु चायंगुरु सेलगुरु रायांचापरगुरु वागाङ्गलारायांचामुहवनरायहिंसक्लरायमाचलपूर्वपश्चिमउत्तरदक्षिणचतुर्दिशां रायांचा-आंबुला-इत्यादि-बिरुदावलीविराजमानेन ॥ ५४ ॥ अध्युष्टतमनरेश्वरेण ॥ ५५ ॥ सबलराजस[मू]न्मूलना-5 चार्येण ॥ ५६ ॥ दुर्बलराजसंस्थापनाचार्येण ॥ ५७ ॥ पितृवैरसमुद्भूतरोषपोषणमहीपतिमत्तमातङ्गमस्तकाशेन ॥ ५८ ॥ अभिनवभार्गवेण ॥ ५९॥ राजभुजबलभीमेन ॥ ६० ॥ हिन्दूकराजगजपतिना ॥ ६१ ॥ आसनसिंहासनसितातपत्रमाणिक्यमालामण्डितवातान्दोलितजयपताकाकनकदण्डचन्द्रावदातचलचामरयुगलमकरध्वजादिराजराजालङ्करणावलोकनमत्सरितमानसेतरनृपालमौलिनिहितवामचरणेन ॥६२॥ नल-10 नहुषधुंधुमारभरतभगीरथमान्धातृमेधातिथिप्रभृतिचिरराजरत्नोदात्तचरितेन ॥ ६३॥ वेदमार्गस्थापनचतुराननेन ॥ ६४॥ सर्वदात्र्यम्बकादिगोदाविमुक्तिसमस्तामुक्तिप्रवितीर्णमुक्तमुक्ताकलापेन ॥ ६५ ॥ श्रीब्रह्मगिरिसन्निधिकृतयुगधर्मानुवृत्तिब्रह्मवृन्दाधिष्ठितानेकयज्ञाद्यखिलसुकृतकृत्यसत्यलोकेन ॥६६॥ परमभागवतेन ॥ ६७ ॥ अभिनवभरताचार्येण ॥ ६८॥ सङ्गीतमीमांसानिर्माणापरप्रभाकरेण ॥ ६९॥ प्रबन्धराजश्रीगीत-15 गोविन्दनिर्माणपरितोषितराधामाधवेन ॥ ७० ॥ कामाक्षास्तुतिकरणाराधितकामेश्वरीचरणकमलेन ॥ ७१ ॥ श्रीगीतगोविन्दटीकारचनवर्णितसाङ्गशृङ्गाररसेन ॥ ७२ ॥ सकलराजवाग्गेयकारतोडरमल्लेन ॥७३॥ सकलकविराजचक्रचूडामणिना ॥७४॥ वीणावादनप्रवीणेन ॥ ७५॥ सुशारीरशालिना ॥ ७६ ॥ पद्मनगरजनस्थानगोदावरीविराजमानम्लेच्छोच्छेदितचिरकालधर्मसंस्थापनेन ॥ ७७॥ संस्कृतभाषामहाराष्ट्रभाषा-20
लिङ्गकर्णाटभाषाचतुष्टयविरचितनाटकराजचतुष्टयेन ॥ ७८ ॥ याचकजनकल्पनाकल्पद्रुमेण ॥ ७९ ॥ वसन्तसमयसमागतसमस्तसामन्तसीमन्तिनीशिरोमणिसीमन्तसिन्दूरपूरदूरोभूलनप्रकटितप्रौढप्रतापेन ॥ ८० ॥ निसर्गदुर्ग्रहदुर्गवर्गदुर्गमप्र(? प्रा). कारपरिखापरिपातपरिखिद्यमानपरिशङ्कितपरिजनपरिवीतप्रत्यर्थिनितम्बिनीलुटाकार्गलादीर्घभुजायुगलेन ॥ ८१॥ धीरोदात्तधीरशान्तधीरोद्धतधीरललितचतुर्विधनायक- 25 गुणग्रामविचारचातुरीचतुराननेन ॥ ८२॥ अष्टविधनायिकाहावभावविवेकोहामोही. पितस्मरविलोकनानुभूयमानशृङ्गाररससान्तरनिरन्तरान्तरानन्देन ॥ ८३ ॥ नाटकनाटिकाख्यायिकाप्रलेहि(? हेलि)काकलाकलापकौशल्येन ॥ ८४॥ भारतीयरसदृष्टिभावष्टिभावितभावनाभिनवभरताचार्येण ॥ ८५ ॥ नन्दिकेश्वरमतानुवर्तनाराधितत्रिनयनेन ॥ ८६ ॥ परमपराक्रमार्जुनेनाथ बृहन्नटेन ॥ ८७ ॥ सतताराधितधर्मेणाथ 30 वृकोदरेण ॥ ८८ ॥ श्रीसरस्वतीरससमुद्भूतकैरवोद्याननायकेन ॥ ८९॥ यवनकुलाकालकालरात्रिरूपेण ॥ ९० ॥ सततपराभूतसूर्यवंशीन्द्रसेनराजराज्यसंस्थापनहढाङ्गीकारेण ॥ ९१॥ गूर्जरधराधीशमहमदसुलताणधीरत्वोन्मूलनप्रचण्डपवनेन ॥९२॥ त्रिसंध्यक्षेत्रसमुद्रसंभवरोहिणीरमणेन ॥ ९३ ॥ अरिराजमत्तमातङ्गपञ्चाननेन ॥ ९४ ॥ प्ररूढपत्रयवनदवदहनदावानलेन ॥ ९५ ॥ प्रत्यर्थिपृथिवीपतितिमिरततिनिराकरण-35 प्रौढप्रतापमार्तण्डेन ॥ ९६ ॥ वैरिवनितावैधव्यदीक्षादानदलोहण्डकोदण्डमण्डिता.
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नृ० २० को ० - उल्लास ४, परीक्षण ४
खण्डभुजादण्डयुगलेन ॥ ९७ ॥ भूमण्डलाखण्डलेन ॥ ९८ ॥ गजनरतुरगाधीशराजत्रितयतोडरमल्लेन ॥ ९९ ॥ वसुन्धरोद्धरणादिवराहेण ॥ १०० ॥ भवानीपतिप्रसादातापसादवरप्रसादेन ॥ १०१ ॥ अनन्यमल्लीकगर्वखण्डनमुशलहस्त बलभद्रपराक्रमेण ॥ १०२ ॥ महाराजाधिराज महाराणाश्री मृगाङ्कताम राजेन्द्रनन्दनेन ॥ १०३ ॥ श्रीमहा6 राशीश्री सौभाग्यवतीजस माम्बिकाहृदयनन्दनेन ॥ १०४ ॥ विविधविज्ञानविज्ञचमत्कारिचातुरी धुरीण सकलसीमन्तिनी शिरोमणिरूपलावण्यलजालक्ष्मीनिधानश्टङ्गारसरसीशतराजकन्याप्रवरनिकुंभराजन्य वंशावतंस महाराशी - श्रीकर्मवर्ती लघुमादेवीहृद
5
नाथेन || १०५ ॥ श्रीमहाराजाधिराज कालसेन - महीमहेन्द्रेण विरचिते सङ्गीतराजे षोडशसाहख्यां सङ्गीतमीमांसायां नृत्यरत्नकोशे प्रकीर्णकोल्ला से पात्रलक्षणं नाम 10 चतुर्थे परीक्षणं नृत्यरत्नकोशश्चतुर्थः समाप्तिं समागादिति विततमतीनामभिमतसिद्धिरस्तु ॥ शुभं भवतु ॥ श्रीरस्तु ॥
॥ इति नृत्यरत्नकोशः समाप्तः ॥
२३२
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परिशिष्ट
श्लोकानुक्रमणिका
श्लोक
प्रञ्चितं चरणं नीत्वा प्रचलिश्च कपोतश्च अंकुरितां मम हृदये अंकुरेण चतुर्थस्य अंकुरेण पुनः कुर्युः पंकुरोऽप्यङ्ग व्यापारो अप्रतः पृष्ठतोऽधस्तादूर्व अग्रतः पृष्ठतो वापि
अग्रदेशेन चेल्लग्ना० अप्रजो मुखजश्चैव प्रण चाथ पृष्ठेन प्रणांहः कुञ्चितेन प्रग्ने वेत्रधरा नपेङ्गित० मंगाई कुंखिदशिली० अंगाइ शंखलिद .. अंगुष्ठो मध्यमानेण प्रङ्गतालं च निःसार अंगुल्यो वश पञ्चेषु० अड्डस्खलितिका तिर्यक् प्रङ्गहाराङ्गतायां तु अङ्गहारे च संभ्रान्ते प्रङ्गहारो मातृकाभिरेकः अङ्गद्वयेन वैशाखरेचितं . अङ्गाधभिनयस्येव यो अङ्गानां मेलके तानि मङ्गप्रयोगयोगेन ये अंघ्रावुक्षिप्यमाणेऽपि मङ्ग विधुन्वती चित्रं अंगुष्ठः कुञ्चितो यत्र
क्रमांक पृष्ठांक | श्लोक
क्रमांक पृष्ठांक ५० १२४ अंगुष्ठः प्रसृतो यस्या०८०४ ६६ ५११ ४२ अंगुष्ठा (नुगतं जिह्मोष्ठा ?) १३९ ९E
१२ २०० मंगुष्ठो च तथा गुल्फो ५७ ११४ ११७
मंगुल्योऽनुक्रमेणव ३७ १०६ १६० १७ अंगुल्यग्रः स्वस्तिक: ५५८ ४५ ४४० ३६ अगुल्यो यत्र करयोरन्यो० ६४५ ५३
५५ २११ अंगुल्यो वितता: श्लिष्टा ५४३ ४४ ११६ २१२ अंगोपाङ्गचयस्तत्र ११६ २११ अचलस्थितिसंयुक्तं २२ ११०
अलि हस्तमाधाय ४७ १८८ ६२५ ५१ मञ्चितं चैकक (?) ३२ १२२
रणाञ्चितं . ३९ १३० मजनमूर्वमुत्क्षेपः ७८३ ६६ १२१ ११ अत्यन्तचञ्चलोवृत्त २८ ५५
८ १६६ प्रत्याकुलतया बाला १६० २१९
९ २०० प्रतस्तेनैव शोभन्ते २५ १०४ ६३२ ५२ प्रतिक्रान्तस्ततो वाम०४३ १४१ ५६ २२७ प्रतिक्रान्ताख्यचारी० १२६ १५७ ३४ २२४ प्रतिक्रान्तागतं पादं • १०३ १५५
प्रतिक्रान्तां चरेद्वाम ६० १४३ १०५ १८१ प्रतिकान्तं वामतोऽय ४६ १७६ १६१८० प्रतिक्रान्तां विधायाम ५४ १२४ ८
अतिप्रयत्नसाध्येऽर्थे ३२ १७४ अतिसंकुचिता हास्मे ९९९४ ३१६ २८ अतीवोत्फुल्लपुटका १०० ६४ २१ १४६ अतो भूतानुग्रहाच्चाष्टधा ४२० ३५
अतो यदेकवचनं १८३ १६४ ६४ १६०
अतः कायमनोवाग्भिः ३३२ २६ ५५४ ४५ प्रतः प्रयत्नतः सर्वान २६५ २६
७२६
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[ २ ]
श्लोक
क्रमांक पृष्ठांक
श्लोक
क्रमांक पृष्ठांक
प्रतः परं प्रवक्ष्यामि ध्रुवा० २१३ १६ प्रतः परं प्रवक्ष्यामि स्त्रीणां १०० २१० प्रत्र प्रयत्ननिर्वत्यै समाने ४३३ ३६ प्रत्र वकाङ्गान्तमाहुः १६४ १५ अत्र वाद्य प्रहरणमा० ७३ २२८ प्रत्र वक्षः स्वस्तिकं
६२ १७७ अत्राकृतिप्रधानत्वे ७२८ ६१ प्रत्राङ्गाभिनयः साक्षाद् ४६७ ३८ प्रवाश्रावणिकाद्य यदङ्ग १४३ १३ प्रश्वक्रान्तं तदा ज्ञेयं ४८ ११३ अथ ध्याण मानेन ५० १७६ अथ क्रमालमणमुच्यते ३२ ७४ प्रथ करुणो रसः १७० २१७ अथ देवादिविषयरते. १५६ २१६ अथ देशानुरागेण गृहीत्वा ११४ २११ अथ देशीनृत्यभेदाः १०६ २११ अथ देशीपूर्वकाणि
२१६४ अथ नवा(?व) रिसाः] १४५ २१४ अथ नानागतिप्रचार ८५ २०६ अथ निर्धार्यते सम्यगा. २ १०२ अथ प्रत्यङ्गसंपन्नः अथ प्रतीत्युपायत्वाद ४३५ ३६ अथ प्रयत्ननिवृत्त्याः ३३५ २६ प्रथ पादनिकुट्टाख्य० अथ पेरणितः सम्यग ३८ १९७ अथ भयानकः
१७५ २१७ अथ भरतमुनीश्वराभिमत्या २ १८१ अथ रौद्र रसः
१७२ २१७ अथवाऽन्योन्यलग्ना० ७५२ ६३ अथ वर्तना-संगीतरत्नाकर० २७ ७४ प्रयवा भ्रमरी कुर्वन् ९९ १५४ अथवा शिखरी मुष्टी ७४४ ६३ अथवा हृदयाप्रस्थः ६६४ ५८ अथ विशतिरुच्यन्ते
३२ ८५ प्रथ वीरः
१७३ २१७
अथ शान्तो रसः १८३ २१८ अथ श्रृंगाररसः १५१ २१५ अथ स्थानानि वक्ष्यामो अथ सर्वासु नर्तक्यः १६६ १८ अथ हास्यः विपरीता १६७ २१६ प्रथानयोहपरमे
६६ २२७ मथानक्षरताले तु प्रवृत्ते १३३ २१३ प्रयाद्भुतो रसः १८१ २१८ प्रथाभिधास्यते सम्यक् १३६ १३ अथासारितमत्र स्यान्मार्गा० १६६ १६ प्रथाक्षिप्तं चागंलंच ११ १४६ प्रथोद्दिशामः खलु ताः प्रथोद्देशपरं लक्ष्म १० १७२ प्रथ व्योमभवा चार्यों ४१ १२३ अद्याकर्णय नैशिकं
३३ २०३ . अधस्तलो तदाविद्धवको ६९७ ५८ अधस्तात् सकदानीत ४८२ ३६ अधस्तादङ्गलं त्रस्तं प्रधः सञ्चारिणी तारो. ४४ ८७ प्रधः सञ्चारिणी तत्र अधोगता तु पतिता ६१ ८६ अधोगतं स्यादन्वर्थ ४८८ ४० अधो मकरमाधाय ५१ १८६ अघोवकं दक्षिणं ६६१ ५८ अघ्रिणा लयते ५१ १३१ प्रधिको भवन्यामो १२ १३६ मध्यष्ट (? अष्टधा)पाणि० १५२ १०१ प्रनधिष्ठाय सहसा ३८३ ३२ अन्तर्धानपटेऽपसारित ४५ २२५ अन्तनिविष्टतारा या ४१ ८६ अन्तर्बहिर्गामिक० ३० ८५ अन्तर्बहिनिसूत्रादर्धन ५७ ६ अनेन स्थापितान् स्तम्भान ६४ ६ अनाश्लिष्टा मध्यमायाः ५४६ ४५ अनामिकाकनीयस्या० ५७० ४७
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श्लोक
क्रमांक पृष्ठांक अनावशेषु भावेषु अनुक्तमपि तत्त्वज्ञः २१ १७३ अनुव्रजन्नप्रवेशं
१६ ७२ अनुवृत्तं दर्शनं स्याद् વહ હર अनुसारेणानुगाम्ये ४३१ ३६ अनेकार्थेषु शब्देषु ५०५ ४२ अन्यवङ्गमतस्तालानुसंधाने ७१ १५१ अन्यदुद्वाहितं यत्रावृत्त०६६ १५० अन्यपानिजं पाव २३ ७३ अन्यपाश्वं नयेत्पा ५७ १२५ प्रन्यस्य पाष्णिदेशे
५२.१२४ अन्या अपि भिवाः ८३ २०८ अन्याङ्गमप्रधानं स्यावतो ३२१ २८ अन्याश्च कथिताः सप्त • ६४ ७८ अन्या स्याबाह्य वस्तूनां ४५८ ३७ अन्येऽपि सन्ति भूयांसो ५० १६६ अन्येऽप्युत्प्रेक्षितुं १२३ २१२ अन्ये कनिष्ठिकामीषद० ६०० ४६ अन्येन केनचिद्वापि ६४ २२७ अन्येष्वासारितेब्वेष प्रन्योऽन्याभिमुखी . १५६ १६० अन्योन्याभिमुखौ स्यातां ६५१ ५४ अन्योन्यं मिलिता: प्राग्वत् १९४ १८ अन्वर्थक (शि?)ल्पसंयुक्तो ३३ १८७ अपकान्तस्ततो वामः ४५ १४२ अपक्रान्ता दक्षिणे तु ५८१४३ अपक्रान्तं व्यंसितस्य २६ १७४ अपराजितसंज्ञे स्यात् ३७ १७५ प्रपरे खटकावको शिरः ७५४ ६४ अपरे नाटयकति १८ ११० अपविद्ध कटिच्छिन्नं ५४ १७७ अपविद्धमूख्दवृत्तं
१३५ १७५ अपविद्ध सञ्चितं च अपसृत्य द्वितीयाथ १८८ १७ अपि संघट्टिता खुत्ता
श्लोक
क्रमांक पृष्ठांक अभ्यन्तरे कनिष्ठाद्या ३५ ७५ अभ्यासात् युगपद्धति ७४० ६२ अभिनेयपरां शोभा काञ्चित् ३२८ २६ अ[न]भिमत दर्शनेन १७९ २१८ अमीभिरेव स्तम्भाधर्नाट्ये ४०८ ३४ प्रयमों मया यावदुपयोगं ४२१ ३५ प्रयमेवालपद्मः स्यात् ५८२ ४८ प्ररालखटको हस्ती १८१ १६३ परालतां नयेदेनं नते १७१ १६२ परालाल्यो पताको वा ६४६ ५४ प्ररालाङ्ग.ष्ठतर्जन्यो ६२४ ५१ परालौ हंसपक्षी वा ७३४ ६२ अराल चोर्ध्ववदनं पक्षे ८२ १५२ परालं दधदन्येन अर्धचन्द्रं करं कृत्वा ततो ७७६ ६५ अर्धचन्द्रं करं कृत्वा दक्षिणं ४६ १८८ अर्धन्यत्रो यत्र पादौ ३० १२१ अर्धस्वस्तिकसंज्ञच - ६५ १८० प्रर्षसूच्यथ विक्षिप्तमावत ३६ १७५ मर्षसूचि तु बामाङ्ग ४८ १७६ अलकस्यापनयने ५३६ ४४ अलगं कर्मालगं चोर्ध्वा० ५ १६५ अलग विधाय करणं प्रलक्तकादि वस्तूनां ६३० ५२ प्रलक्तकादिना पादरञ्जने ५५० ४५ प्रलपामरालं च
७१ १६१ प्रलपद्यानुल्षणी च ५२० ४३ प्रलपल्लवसंज्ञो च
६३ १६० अल्पस्पन्दा सद्वितीयायता ६६ ८६ अलमेतेन चेन्नैवं लोका० ४२४ ३५ अलसा निपततारा ३५.८६ अलातां चारिकां कृत्वा १५८ १६१ प्रलातं भ्रमरं चाथ
८३ १७९ प्रभिनेयार्थतादात्म्यपटुः १२५ १२ प्रव(?थ)देशी (?श)स्थ० २ १२६
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________________
श्लोक
क्रमांक पृष्ठांक
..साहित्य
ܕܘܐ
प्रवनम्रा नता कन्ठा ११ ७२ प्रवलम्बाय तस्याश्च ८५ २२८ अवलोक्य दिशः
९७ २१० प्रवाहित्थं चापसृतं ६६ १८० अष्टावशाङ्गलं यत्र
११४ अन संमार्जने नेत्र० ५४२ ४४ अस्या एवं विपर्यासाद ४२ १६८ अस्यामाद्याश्चतस्रः २३६ २१ अस्मिन् करिस्मतेहेतो ७२२ ६१ असो हरिणलाञ्छन० २० २०१ असंबद्धप्रलापे स्याद् बहिः ५५६ ४५ असंयतोवंगामिभ्याम० ५४७ ४५ अष्टो कांस्यजतालधारिण ३६ २२४ महंभावः स्मृतो गर्वः ४९५ ४० अंसयुग्ममनाभुग्नं ३६ १४८ अंहिः कनिष्ठयाङ्ग ल्या ३१ १२१ प्राकारमपि कान्तस्य ३५ २०३ प्राकाशस्यानुग्रहे तु ४१२ ३४ प्राकामेन्मण्डलं पूर्ण २२८ २० पाकेकरा विशोका च प्राकाशाभिमुखो यत्र १६६ १६२ पाकुञ्च्य मध्ये ८०२ ६९ पाकुञ्चितपुटामन्द० २३ ८४ प्राकुञ्चितावहो पाकुञ्चितोऽन्तनिम्नः ८२ ८१ माकुञ्चितं स्यावाविद्धजानु ८७ ११८ प्रांघ्रिस्वस्तिमाषाय पाचमने स्यादुत्तान ६१३ ५० प्राचम्य प्रेक्ष्य कर्तव्यं २२६ २० प्राचार्यः श्रुतिकोविदः प्रातोग्रजातमत्रापि ५६ २२६ प्रातोद्यवादनं तत्र
२२ २५१ मादर्श याचने श्लक्ष्णः ५२५ ४१ [प्रावी ?] सम्यक नान्द. ३ २० प्रानन्दोऽप्येवमेवेष्टः ४१७ ३५
श्लोक
क्रमांक पृष्ठांक प्रान्दोलितः स्यादन्वर्थ २५ ७४ प्रान्दोलितः कम्पितस्तु ११५ १६ पानीय स्वस्तिकोभूतो ३५ १४८ पापीउघ पाणिना पृथ्वी ८०७ ६६ अभिमुख्याग्निवर्तेत अभोगनर्तने प्रोक्ता प्रामुखं तत्र विज्ञेयं . १७ १८५ आभुग्नं शिथिलं निम्नं ७८१ ६६ मायातं चावहित्यं प्रायान्ती शीघ्रमूर्ध्वाध: ५०५ प्रायामे तेऽष्टहस्ताः आयामे परिगाहे च पायातं चावहित्थं प्रायतं स्थानकं तत्तु ३७ ११२ आलोकितं यत् सहसा. ६२ ६३ पालप्त्यादि विभेदेन १३० २१३ पालप्तो क्रियमाणायां १३२ २१३ पालीढं स्थानकं तत्त प्रालीढं स्थानकं कृत्वा १६ २१० प्रावर्तितं कनिष्ठाद्य० ३८ १०६ प्रावतं शकटास्याख्यं ३ १३८ प्राविद्धवको तावेव ५५ १४६ प्राविद्धवको सूच्यास्यो ५१६ ४२ प्राविद्धभ्रामितभुजी ७३७ ६२ प्राविद्धवक्रता नीते ५६ १५० प्राविद्धोऽभ्यन्तराक्षिप्तः २१ ७३ प्राविद्धा रचयन् चारी ४८ १४६ प्रावृत्तिभिः सप्तभिर्वा ५७ १४३ आवेष्टितं स्यादागच्छेदा० __ ३६ १०५ प्रावध्यं कुण्डलादोह १० १०३ आशीर्वाचनसंयुक्तं २६१ २३ प्रासनानि प्रकल्प्यानि पासनं च यथोत्थानं ६१ १९० प्रासनं संश्रितस्त्वेकः ७८ ११६ प्रासार्यन्त इति प्रोक्ता १६ १७०
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________________
श्लोक क्रमांक पृष्ठांक श्लोक
क्रमांक पृष्ठाक इच्छन्ति तन्मनेऽत्र
६६ १७८ उच्चर्यदीयकरणानि २३ १७२ इच्छन्ति भ्रमरं तानि ८० १७९ उच्च थ सृजाङ्गहार इति कीर्तिधरस्त्वाह ४८ ७६ उक्तप्रत्युक्तकं तद्वदु. इति देशीस्थानकानां १० १०६ उक्ता गवेष्यमाणेयं ७६१ ६४ इति भरतमतेन मार्गचारी० ६३ १२५ उत्प्लुत्याधोमुखोऽग्रे २० १६६ इति सर्वमिदं सम्यग् १४६ २१५ उत्थापक परिवर्तक २० १२५ इत्यष्टौ दृष्टयः प्रोक्ता २० ८४ उत्थापनस्तु संहर्षो २१ १८५ इत्याचार्यमते ख्यातं ६ १०६ उत्थापनी प्रयोगे [च] १४२ १३ इत्यादवोऽध्यवसाया ३६५ ३१ उत्थापयन्ति रङ्गेऽस्मिन् २१४ १९ इत्यादिकं तथा स्तम्भाविकं ३५५ ३० उत्पाटनेऽन्योन्यमुखं ४३ ५२६ इत्याद्यनेकशश्चैव ज्ञातव्याः ५०४. ४१ उत्पद्यन्ते नत्यभेदाः ३८ ४६६ इत्युक्ता दृष्टयो लोकवृष्टि० ५८ ८८ उत्तरे तु प्रवालं स्याद् १०५ इत्येवं नवधा प्रोक्तो ६८ ८९ उत्साहाध्यवसायाव० १७४ २१७ इदं स्थानं प्रयुज्याथ . ४४ ११२ उत्तानश्च ततः पार्श्व ३० १०५ इत्यादयः प(?प्र)धानेन ३० १९६ उत्तानपावयं(उत्तानःस्यादयं ?)५४ ६५२ इममेव परे प्राहुः ६४२ ५३ उत्तानरेचितश्चको १०२ १५४ इयत् (? ईषत्) स्मितमनोहारी।
उत्तानवञ्चितायं तु १४. २१४
३१ २२३ उत्तानञ्चिती हस्तो. ७२ १६१ इयत्तायाः परिच्छेदेऽङ्गलिः ६४४ ५३ उत्तानवदनं सुप्तं
८६ ११८ इयमुत्थापनो व्यस्रा २३५ २१ उत्तानाङ्ग लिरग्रस्थ: ५५३ ४५ इह कश्चिद्विपश्चिद्य० . ७५८ ६४ उत्तानोऽलिकदेशादि ६०८ ५० इह प्रकृतयो दिव्या ८६ २०६ उत्तानोऽयं नगादाने ५७१ ४७ इह भाषा रसाश्चैव - २९८ २६ उत्तानो व्यक्तसंश्लिष्ट इहाभिदधिरे केचिद् २५८ २३ उत्तानो वामहस्तश्चेत् ६८१ ५७ ईश्वराणां विलासश्च ८ २ उत्ताने नयनौपम्ये ६०४ ४६ ईषत्कुञ्चितपक्ष्मानभ्रू पुटा ४३ ८७ उत्तानो पातयेोः २८ १४७ ईषदाकुञ्चितं पाद० ५० १३१
उत्क्षिप्य कुञ्चितं ४६ १२३ ईषव्वक्रपुटापाङ्गा तिरंग० ४८ ८७ उत्क्षिप्तकुञ्चितस्याघ्रः ४७ १२३ ईषन्मन्दानिलचलत्पम० ४५ २०४ उरिक्षप्य दक्षिणं पावं २४२ २१ उक्तं द्विवचनान्तत्वं ७१९ ६० उत्क्षिप्ता पतितोत्क्षिप्त १५१ १०१ उच्चता न तु न खर्वता १४ २२१ उत्क्षिप्तांसं किञ्चिदिव ४६.० ४० उचति(उचित?)माचरितं ३४ २०३ उक्तत्थं किल पद्धतिः ४९ २२६ उच्यते मण्डलगतिः १८ ७३ उद्घटितोऽङ घ्रिपाश्वं च ८० १५२ उच्चावापाण्डुरौ श्यामौ ७८५ ६६ उदृत्तश्चैव संभ्रान्तः १६ १७३ उच्चर्यवीयकरणानि ५१ १६६ | उद्घाटितस्ततो बद्धः १९ १३६
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________________
श्लोक
उवृत्तोऽपि न संभ्रान्तो
उद्भूतास्त इव ग्राह्यगुण उद्वृत्तरचरणो मूर्तिः
उवृत्तत्वं चैष
वृत्तस्यैकपादस्य
उद्वृतो विद्य ुद्भ्रान्तश्च
उद्वेष्टितक्रियो वक्षोदेश०
उद्वेष्टनक्रियां कृत्वा
उद्वेष्टनं वेष्टयित्वा
उद्वेष्टित विधानेनाधो
उद्वेष्टितेन कृत्वा तो
उद्वेष्टितेन निष्क्रम्य
उद्वष्टितेन निष्पन्नौ
ase: कार्यो
उद्ग्राहादिष्वडुताले उदेति हिमदीधितिः उद्ध (ऊर्ध्व ? ) वर्तनिका
उद्घृतं पतिताग्रं
उन्मत्तसंज्ञकं पश्चात् उन्नतौ वोलितश्चैव
उन्नतं च नतं चैव उम्मेषितौ च विश्लेषा ०
उपाङ्गता वाऽमीषां स्यात्
उपाङ्गसेवकाः सिंहासन उपाङ्गानि द्वादशेति उपाङ्ग (ङ्गे?) यस्य शोभेते
उपक्रमे गीतकानां
उपधानः सिंहमुखः
उपर्युतानितोऽन्द उभयं स्मृतमारोहे उरोमण्डलमास्थाय
क्रमांक पृष्ठांक
१ १८१
३४५ ३०
५६ १३२
५२ १४२
३६ १३०
२० १३६
७४६ ६३
४२ १४८
५४ १३२
१०१ १५४
३३ १४७
३७ १४८
५८ ७७
६०२ ४६
१३७ २१४
२८ २०२
२६ ७४
१५६ १०२
६६ १७८
७१५ ६०
७८६ ६७
७४ ६०
३२५ २८
१ १०२
३ ८२
१ ८२
१७२ १६
५१० ४२
५४४ ४४
२०७ १५
२४ १७४
६१ १७७
[६]
उरोमण्डलसंज्ञं च संनतं
उरोमण्डलसंज्ञ' च नितम्बं ४३ १७५ उरोमण्डलिनो ताभ्याम् ५१६ ४३ उरोबर्तनिकां विद्यादुरो० ४७ ७६
श्लोक
ऊर्ध्वाङ्ग, लितल: पाद ऊर्ध्वजान्वधंमतल्लि
ऊर्ध्वजानुयंदा चारी ऊर्ध्वजानुरलाता च ऊर्ध्वजानुं विधायाथ
ऊध्वं व्रजन् शिरोदेशा०
ऊर्ध्वाधिः कम्पनाच्छीघ्रं
ऊर्ध्वाभिमुखमुत्क्षिप्तं ऊर्ध्वास्थोऽधोमुखस्तियंग् ऊर्ध्वाकृती तदा हस्तौ
ऊरूद्वृत्ताडिते चार्यों ऊर्ध्वं गच्छन्नु स्मृतेषु
ऊर्ध्वप्रसारितो स्कन्धा०
ऊरूवृत्तोऽड्डितश्चैव ऊरूत्ताभिधा चारी
ऊरूद्वृत्तेत्यथ ब्रूमः
regod eqicfa ऊरूवृत्तं च करण
वृत्ताभिधं चैव
ऊरू वेणी तलोद्वृत्ता
ऋग्वेदादितनोर्यस्माद् ऋजु श्लिष्टाङ्ग ुलिज्ञेयः ऋजुः प्रसारिताः स्तब्धाः
ऋतु माल्यालङ्कारैः
एकत्वे सरोव
एकतश्चरणावङग्रीव
एकतालान्तरौ त्र्यत्रो
एकतालान्तरी पादौ
एकदीलाकरं कृत्वा
एकपादलुठितं वा
एकः पादः समस्त्वन्यः
एकः पादः समस्तस्य
एकपादाञ्चितं तथा
एक पार्श्वगतं तस्माद् एकपादप्रयुक्तेन
क्रमांक पृष्ठांक
११८ १५६
८१४५
८८ १५३
१५ १२०
१२० १५६
१४. ७२
४८३ ३९
४८६ ४०
१२ ७२
६०७ ५०
१४. १३९
५२७ ४३
७५० ६३
५० १४२ ४० १२२
१४ १२०
४७ १३१
५५ १७७
१९ १४६
४ १२६
१ १८४
५२३ ४३
१५८ १०२
१५६ २१५
५८४ ४८
१५० १६०
२६ १११
२५ १११ .
७३ १५१
२६ १६७
५२ ११३
४७ ११३
१३ १६५
८ १०६
२५ १६७
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________________
[ ७ ] श्लोक क्रमांक पृष्ठांक श्लोक
क्रमांक पृष्ठांक एकमन्येन पादेन ५३ १३२ एभिरङ्गः प्रयुक्तः स्यात् २७५ २४ एकमार्गगतावये १३१ १५८ एलकाकोडितो पादौ . १६४ १६१ एकस्याङघेः पाणिभागे १२६ १५७ एवमङ्गान्तरेऽपि स्यात् १७६ १६३ एकं कृत्वा समं पाव० ७१ ११५ एवमङ्गान्तरं यत्र १५१ १६. एक निधाय सममस्य
एवमर्षनिकुट्ट स्युः ७८ १७९ एकः पादः समो यत्र १५ ११० एवमन्येऽपि विज्ञेयाः ७७८ ६६ एकाङ घ्रि कुञ्चितं कृत्वा
एवमन्येष्वपि तथा २७ ३०७ एकैकमग्रतः पादौ २८ १२८ एवमस्तीति नारीणां
६५० ५४ एक कोत्तरवृद्ध्या च ४२ ५ एवमाहार्यविधयो २१ १०४ एकव चलितोक्षिप्ता ६३ ८६ एवमेकोनपञ्चाशत् ४०२ ३४ ऐक्यावामूलमैक्ये ७७० ६५ एवमेते मया प्रोक्ता ३०४ २७ एत एघ प्रयत्नेन
३३६ २६
एवमेते प्रयोक्तव्या ९९ २१० एतत्करविपर्यासात्
७०५ ५६ एवमुक्तात् त्रिः प्रकारात् ४०० ३४ एतत् कि जलमाङ्गिकं - २ एवं चतुदिंगीशानां २४४ २२ एतत्पादविपर्यासाद० ४५ ११२ एवं तत्र समग्रलक्षण १२४ ११ । एतत् स्वभाव सत्त्व १७७ २१७ एवं तृतीयाऽभिनये १९२ एतत् स्त्रीस्थानकं कार्य ४२ ११२ एवं ते भरतात्मजा १४ २ एतदर्थमिह नृत्यकोविदः २१ २२२ एवं द्वादशभियुक्ता २६४ २३ एतद्गाथाभिरातोद्यवादनं १६३ १५ एवं प्रकीर्तिताश्चार्य ३७ १३८ एतदाभाषणे कार्य ३६ ११२ एवं पादद्वयकृता
१७ १३५ एतद्राज्ञां पुरंध्रीणाम् २१ १७१ एवं रसाश्रयं सम्यग १५० २१५ एतद्विपर्ययात्प्रत्यालीढं. ३५ ११२ एवं लोकस्य या वार्ता एतद्विपयंयाद्वाथ
३६ १२२ एवं व्यवस्थिते राजा । २८४ २५ एतद्विपर्ययाद्धस्त
४५ १८८ एवं विधान संयुक्तं ११३ १० एतदुक्तगुणराशि
२० २२२
एवं शिष्टानुरोधेन ३८ ४७१ एतच्चोर्ध्वनिरीक्षायां २६ १११ एवं समासतः पुंसां १३ ११० एतस्यैव यदा वक्रा० ५३३ ४४ एषवाङ्गविपर्यासात् ३४ १२२ एतावेवाचलो मूर्धक्षेत्रगौ ६० ७७ प्रौचित्यान्मेलनेऽङ्गानां ५ १७२ एतावेव यदा पाश्र्वाभि० ७३१ ६१ क्वचिच्चारीवशा ना(?)म • १६६ एतेऽभिनयविशेषाः . ३०१ २६ कटयां यदार्धचन्द्रः स्यात् १४० १५६ एते पञ्चदर्शवात्र . ३२ १०५ कटाक्षौ यत्र नर्तक्याः ६५ २०६ एते विशतिसंख्याका: ६८२ ५७ कटिक्षेत्र सर्पशीषों
६६७ ५५ एतेषां विनियोगस्तु २६ ७४ कटिभ्रान्तं तदा शेयं १०० १५४ एताः प्रोक्ताश्चतस्रस्तु ३५ १८७ कटिभ्रान्तमर्गलं च ९८ १५० एभिश्चतुभिः सहिता ६३६ ५३ कटीछिन्नमिति प्राः ६५ १७८
Page #188
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________________
श्लोक
eetfgi तथा चोरू०
कटजानुविवर्तनानं
कटीजानु समासनं
कटीतटे ततः पादो
कटीपञ्चविधा प्रोक्ता
aatei चूर्णितं च कथं वा रतिनिर्वेदादि
कनिष्ठाङ्गष्ठको
कन्यां हृदयदनां
कपालचूर्णेन जाते
कपित्थो हस्तको वापि
कपोलयोः पत्रभङ्गिरचना कपोलदेशे विधूतश्चिन्ता कपोलौ षड्विधौ प्रोक्तौ
कमलादेः प्रार्थनायां
कम्ब सुन्दर सुकण्ठता
करन रणवेप०
करणाव्रातसंदर्भ०
करणाङ्गहारनिचयै०
करणाङ्गहारराहित्यं
करणान्यथ वक्ष्यन्ते
करणानि दधत्यन्ते
करणानि मते तेषा०
करणानां शतं पूर्ण०
करणानुक्रमणे चंव
करणं वलितोरः स्याद्वलितं
करणरञ्चित यंत् करणैरभिनिर्वृत्ता करणैरष्टभिः प्रोक्तो
करपादाद्यङ्गकस्य क्रिया
करभौ मलिनौ स्वच्छा ०
करस्तदानयोर्योगे द्वित्वो०
करं कृत्वाङ्गान्तरेण राङ्गिरचितो यत्र afreenast
क्रमांक पृष्ठांक
२७ १७४
५६ १२५
२१ ११०
२४ १४०
७६२ ६७
६० १७७
३५४ ३०
६३६ ५२
६४ २२५
३१ १६७
६५६ ५५
२६ २२३
६१६ ५०
६३ ९३
६२० ५१
१३ २२१
१७८ २१८
१७ १७३
१२६ १२
१३७ १२
२ १४५
४० १६८
६७ १७८
२० १४६
८५ १७६
१०० १८१
२६३ २६
३ २४
२६ १७४
३ १४५
८४ ८१
७२५ ६१
६३ १५०
४६ १४६
६४१ ५३
८]
क्रमांक पृष्ठांक
करिहस्तत्वमुचितमुदितं
७२४ ६१
करिहस्तो दक्षिणः स्यादितरः ४४ १४८
करिहस्तकटीछ
८८ १७६
१४४ १५९
१६७ १६२
७७ ७
५६७ ४८
६ १६६
१५ १६६ ३५ २२४
५४ २२६
८७ १२
२४३ २१ ५७ ६७६ ५७ २२६ २०
६२ १६०
२७४ २४
३० ७४
६३ २२७
४६४ ४०
३६ २०३
७ ८३
३२ २०३
१७ २२२
३३ २२४
५६० ४६
२३ १८६
८ १०३
५३० ४३ ८७
5
३१ १८७
१३६ २१४
१७ ३
५२ ५
श्लोक
करौ खटकदोलायो
करौ संघट्टिततली
करः षोडशभिः सम्यग ०
कर्णावतंसे कर्णान्तं
कर्तरी लोहडी चंव
कर्त्तश्चतमेव च -
कर्पूरपूरकाशीरचन्दनंः
कर्णादेशसंभूतं तस्या
कर्माण्येतानि कथ्यन्ते
कलाद्वयेन गमनमिय०
कलाप एव शीर्षत्य: (? स्थः) ६७८ कलापं हस्तकं प्राहुः कलाभिः स्यात् षोडशभिः कलासो बकसंज्ञोऽयं
कविनाम्नालंकृतं च
कक्षावर्तनिकोरस्थे
चिद्रा (? द्वा) गायिनी
कान्तस्तुतिकथालाप० कान्तं चित्रपदे (?)
कान्ता हास्या च करुणा
कान्ते स्वप्नोपलब्धेऽपि
कामबाणइव विश्व ०
कामलीला गृहप्रांशु कामिनीनां केशबन्धे
कामोपभोगप्रचुरा
कायस्थालङ कृतिर्येन
कार्यं पताकाद्वितयं
कार्या मूर्द्धसु तेषां
कार्य विभाव्यते यत्र
कार्याः पुष्पपुटाद्यास्तु
कालेनाथ पुनविलीनमिव
काषायवसनाatri
Page #189
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________________
[६] इलाक
क्रमांक पृष्ठांक श्लोक किञ्चित् कृत्वाथ च ७२ २२७ कूपराधिष्ठितक्षोणि किञ्चित्कुञ्चत्पुटा तिर्यक ४२ ९६ कूपरी पावलग्नो किञ्चित् पावनतो कायो ५६१ ४८ कुर्यादङ्गस्य रचनां किञ्चित् श्लेिष्टभुजावेव ६७५ ५६ कुर्यानृत्यमिदं प्रोच. किञ्चि
५७ २०६ कुर्यात्तद्वद् द्वितीयान्तं किञ्चिद्दत्तो(? दृष्टो)वं १२७ ६७ कुरुते कठिनं तद्धि किञ्चिद् बाष्पकले नेत्रे ७६ १६६ कुर्वन्ति सुखदुःखे ये किञ्चिद्विवलितं गात्रं
कुशाङ्क शधनुर्वल्ली किञ्चिदुप्लुत्य पततो २७ १२१ कुसमाञ्जलिमाकीर्य किमङ्गहारस्तव नागरामः ११७२ कूपरस्वस्तिकाकार. किं तु दृष्टाथं संपत्त्यः ७७२ . ६५ कृतो वक्षस्यरालो० कुचक्षेत्र धितो यत्र २४ १४७ कृत्वा कुर्युस्तालयुक्तं कुञ्चितश्चरणो यत्र ४८ १३१ कृत्वा ततः ऋमात्ताल. कुञ्चितोवा गुलिद्वन्द्वः ५३४ ४४ कृत्वातिप्रोठितो यत्र कुञ्चितं पादमानीयोद्ध्वं ४४ १२३ कृत्वा तं पातयेद्भूमो कुञ्चितं पावमुक्षिप्य ४४ १३० कृत्वार्धचन्द्रमास्ते चेत् · कुञ्चितं पावमुक्षिप्य स्था० १४१ १५६ कृत्वा धरित्री स्कन्धा० कुट्टितश्चरणः पूर्व पुरतो २२ १३५ कृत्वान्यचरणं सूची . कुटितश्चरणः पूर्व पुरः २५ १३६ कृत्वा बदामपक्रान्तां कुट्टितश्चरणः पूर्व लुठितो २० १३६ केचित् करिकरस्थाने कुञ्चि (?ट्टि)तश्चरणः पृष्ठे २८ १३७ केचित् स्थानकचारीणां कुञ्चितं पादमुत्क्षिप्य पाव. ५१ १२४ केचित् सालगसूडस्य कुञ्चितं पापमुक्षिप्या ४६ १२४
कृत्वालगं निपत्यो कुञ्चितं पादमन्योरुमूल. ५५ १२५
कृत्वालपद्यौ न्यस्येते कुचोन्नमनचातुरी १६ २०१
कृत्वा समनखं छिन्न कुट्टितोंगुलिपृष्ठे
१६ १३५
कृत्वा सूचीभवन् कुट्टितं चरण पश्चात् ३३ १३७
कुत्वोत्प्लवनमावर्त्य कुट्टितश्च स्वपार्वे
कृत्वोत्प्लवनं सूचीमन्य० कुट्टितः प्रथमं पावः २६ १३६
कृत्वतानि निकुट्ट कुटिलायां गतौ कार्या ५९८ ४६ कुट्टयित्वा च विन्यस्य ३५ १३७
केचिदानन्दसंदोहं कुट्टयित्वा च विन्यस्य
केचिदुत्तानप्रसृतो कुट्टयित्वा च विन्यस्य
केनचित्त्वथवा कार्य: कुण्डलमण्डितगण्डयुगं २५३ २२
केशबन्धे प्रकीर्तिता कुतपस्य प्रजायेत १०८
केशबन्धो करौ कृत्वा
क्रमांक पृष्ठांक
९० ११५ ६८० ५७ १६ १०४ ७४ २०७ ९५ १२४ ६६ २०७ ४२७ ३५ ५६७ ४६ २०२ १८ ६१ ७७ ७६ १५१ १६० १५ ६० २२७ ५० २०५ ५, १२५ ५४ १८६
४३ १४८ १५४ १६० ४५ १४८ ५१ २०५ १२४ २१२
२३ १६६ १७५ १६३ ३० १७४
३२ १६७ ३४ १६७ ४० १७५ ४७ २०४ ७०३ ५९ ३७३ ३२
४८ १८८
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श्लोक
क्रमांक पृष्ठाक श्लोक
क्रमांक पृष्ठांक केशाकर्षेऽर्ध वीक्षायां .. १० ७२ खण्डसूचि ततो ब्राह्म केषां च न मते सर्प० . ७०१ ५६ खण्डसूच्या भ्रमाच्चक० ४६ १६६ कश्चिद् ब्रह्मादिभिर्धर्मः ६ १ खङ्गादिधारणे नास्य २२ ७३ कोऽप्यसो तरुणिमोद्गमः १५ २२१ खर्वताजानुकट्यू०
४३ २०४ कोणेषु परितश्चापि १५३ १४ गङ्गातरङ्गपरिधोतजटम् २१६ १६ कोणं वासप्रतिद्वारं ६२ ८ गङ्गावतरणस्यान्ते १८७ १६४ क्रमेण स्वस्तिको पादौ १७३ १६२ गच्छन्ती प्रस्खलत्येव ७० १६० क्रव्यादमत्स्यमकर०
ग(?य)दोद्धृतो नृत्यहस्ता० ३८ ७५ क्रमात् सूचा च भ्रमरः ४४ १४२ गत्यापकुञ्चिता ज्ञेया .३१ १२४ क्वणद्घघरिकाजालजङ्घा १७ १६५ गत्वा तत्रासनं कृत्वा ७६ १६१ क्रमाज्जाताश्चतस्रस्तु
३३० २६
गतिप्रका(?चा)रस्तु १०५ २१० क्रमात् कुर्वनङ्ग लोभ्यां ५४० ४४ गति कर्तुं समुदिता ५० ११३ क्रमात्ताक्तं वाद्यभाण्ड ८० २२८ गर्भखिन्ना मगीवेयं ५६ १६० क्रमादशीतिरेवं स्युः ५२२ ४३ गम्भीरशब्दवान् मन्द० १०७ ६ क्रमादूर्वमस्तिर्यक्कटि० ५४१ ४४ गलगतविधुतभ्रमिः प्रदिष्टो ७ १८२ क्रमादेवं नटो भ्रान्त्वा २५ १४० ग्लान्यालस्य श्रमाद्यासु(?स्तु) ३० ३५१ क्रमादुद्वेष्टितेन स्तो १६१ १६१ गाम्भीर्यमाधुर्यविलासशोभा २७ ८५ क्रमेण कुट्टनं भूमेः २४ १९६ गारुको वाधमानेऽथ ४३ १९८ क्रमेण तिर्यग्नमितं
गात्रमुखदृष्टिभेदरून० १७६ २१७ क्रमेण सह वोक्षेपादु० ६२ ८६ गात्रस्य प्रातिलोभ्येन ६३ ७८ क्रमेण पादयो?म्नि २६ १९६ गीततालसमं यत्र कटि० ५३ २०५ क्रमेणोल्लालयेद्यत्र ६० १३२ गीतादौ तु भवेत् कल्प० १२८ २१३ क्रियते तत्र विज्ञयं
६० १५० गीताक्षरक्रमाद्वाद्य तालमानेन ३५ १९७ क्रियते नृत्यविद्भिर्यस्त० ३४ १०५ गीतः सालगसूडेश्च० ५१ २२६ क्रियाभिश्चेतसो यत्र ८० २०८ गीयमाने वाद्यमाने ७१ २२७ क्रीडितः पूर्णभ्रमरै[श्च] २६ १४० गुल्फो च स्वस्तिकीकृत्य ८५ १५२ क्रुद्धा स्थिरोवृत्तपुटा
गोण्डलीविधिवच्चात्र ३६ १६७ क्रोधाद्या अपि दृश्यन्ते ३८१ ३२ गौणत्वं भणितं तत्तै ७२६ ६१ क्रोधेऽधौ धदनो स्याता २६ १४७ गौ लो ग्लो लास्त्रयो २१५ १६ क्षितिस्थित बहिः पाश्र्वा ८० ८० ग्रोवानतांसकटं च २६ १४७ क्षीरोदकादिकं चेति
३६ २२४ प्रोवोक्ता विद्युतभ्राता(?न्ता) ६ ७१ खटकत्रिपताकान्यतरः ७२७ ६१ घट्टयन् पाणिना ८०६ ६६ खटकामुखयो भिक्षेत्र ___३६ ७५ घट्टयन्नग्रपाणिभ्यां
८०८ ६६ खटकामुख्यहस्तस्य ५८३ ४८ घट्टितो महितश्च ७९९६८ खटकास्यो नाभिदेशे ६० १५३ । घातस्तत्र चतुर्धा ५७ १८६
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श्लोक
११२ ६५
[ ११ ] क्रमांक पृष्ठांक श्लोक
क्रमांक पृष्ठांक घर्घरो मद्रितं चैव ३४ १९७ चरणं वृश्चिकं कृत्वा १११ १५५ घर्घरो विषमं गोतं २० १६२
चरणान्तरपाश्वं चेन्नीत्वा० १९ १२० घ्राणेन मन्दमापीतो १०६ ९५ चरणाङ्ग लिपृष्ठेन १५ १३५ घूर्णन्तौ यत्र कुर्वाते २६ १२१ चरणो वृश्चिको यत्र ११५ १५६ चकितेव निरीक्षन्ती ५२ १८६ चरणो स्वस्तिकी कृत्य १३ १२१ चञ्चद्रत्नमयोरनपुर० १२० ११
चरणौ स्वस्तिकीकृत्येक ५८ १३२ चत्वारोऽथ गुणास्तु ४२ २२५ चरणी वर्धमानस्थो ५६ १३४ चतुरस्त्रामष्टकलां
२५५ २२ चलत्किशलये दीप० ५८६ ४० चतुरस्त्र व्यस्त्रभेदाद १३६ १२ चलपादं च तत्
२३ ११० चतुरस्त्रभिदास्तिन १६२ १५ चलत्वेनाचलत्वेन ८१ २०८ चतुरस्त्री स्वस्तिको वा ५६ ६६८ चलानगा ज्ञातप्रश्ने ५६४ ४६ चतुरस्त्रं च यद् दीर्घ ३६ ४ चलाचलिश्च सैवोक्ता ४६ २०५ चतुरस्त्रं समास्थाय ५० १४६ चलावुक्तौ तु तो चतुरस्त्रस्तथा यत्रः १३८ १३ चलितः कम्पितः स्तब्ध ७० ७६ चतुरस्त्रावयोवृत्तावन्यो ४२ ५१५ चव्य॑माणादिरूपेणो ३६६ ३४ चतुरस्त्रं समं कृत्वा १११२६ चातुरस्त्र्या विशेष ६६३ ५८ चतुरं करणं कृत्वा ६. १८० चातुरस्त्र्यं शरीरे च २२ १४६ चतुर्थे परिवर्तेऽथ २३२ २१ चारी डमरूकुट्टाल्या . ६१३४ चतुर्थ वस्त्वभिनयेवङ्गहारं १६६ १८ चारी च पृष्ठलुलि(?s)ता ८ १३४ चतुर्दिकं शिरः क्षेत्रे १२८ १५७ चारी चाषगतियंत्र ११७ १५६ चतुर्दिक्षु ततोऽन्यानि . २२ १७३ चारीपदं तत्रचरेहि २ ११६ चतुर्धा च विधा
३६ ४३७ चारी तु शकटास्या १८० १६३ चतुः पञ्चाविकान् केचित् ४१ १७५ चारीभिभ्रंमरीभिश्च १२२ २१२ चतुभिः करणः शोभा ४५४ ३७ चारीविवक्षया ज्ञ यश्चरणो० ८ १३८ चतुभिश्चरणरेवं
२५४ २२ चारी हस्तकसङ्गात् ११६६ चतुभिः पञ्चभितिर्यद्वा ११५ २११
चारी च अनितां कृत्वो० ४६ १४२ चतुर्वर्णानि कुसुमान्या० २४८ २२ चारी च जनितां कृत्वा १६६ १६२ चतुविधं तु नेपथ्यं ६१०३ चारी तद्वशगां कृत्वा० .५६ १४६ चतुविधं तु विज्ञयं ६१०३ चारी च भ्रमरी कृत्वा ८६ १५३ चतुर्विशतिरित्यते हस्तकाः ४२ ५०६ चारी संघट्टितां कृत्वा १७७ १६३ चतुस्स्तम्भसमायुक्ता
चातुर्विध्यात् स्वहेतोः २८१ २५ चतुर्हस्तो भवेद् दण्डो
चार्यातिकान्तया यद्वा १३७ १५८ चन्दनागरकर्पूरमग० ८१ २२८
चार्यापविद्धया हस्तेना० ४५५ ३७ चन्द्रिकातपसंत०
१८ २०१ चार्यामाविद्धसंज्ञायां चरणं कुञ्चितं कृत्वो० ८१ १५२
चार्या वा स्थानके वापि ५६ २०६
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[
क्रमांक पृष्ठांक
५६३ ४६
२२ २०१
३३ १६७
११७ २१२
४११ ३४
३३६
२२
चुक्कतं जृम्भणे दन्तपङ्क्त्यो १३२
१६
काभिनये तद्वच्चिबुक ०
५७७
૪૭
६२३ ५१
चौर्येण वस्तुग्रहणे कुष्ठा छादनीयं प्रयत्नेन जङ्घा पञ्चविधा क्षिप्तो
श्लोक
चिकुरापन यस्वेदापनये चिन्ताशोकाकुलत्वेन चित्रका पञ्चकारूढेत्येवं
चित्रैः सव्यापसव्येन
चित्तवृत्तिगण बाह्य चिराचिरस्वरूपेण
बङ्घालङ्घनिकालाता
जङ्घा स्वस्तिकतः
जर्जरग्रहणं कार्यं
जठरं सैव बोद्धव्यं
जनितं चरणं कृत्वा जनितः स्पन्दितश्चैक ० जलशायिवदेतत् स्यादासने
जयाभ्युदयमाङ्गल्या
जं इहि मह मन्महेण
जानुनी भूमिसंलग्ने जानुनी भूमिसंस्थे चेत् जितश्रमोऽश्लथ श्लिष्ट
जिह्वाथ षड्विधा ऋज्ज्यु ० जिह्वावलेहिनो ज्ञेया जुगुप्सिताऽवश्यदृष्टा०
ज्ञेयः कुतपविन्यास: ज्वालाद्यूर्ध्वाभिनयने ढिल्लायी त्रिकलिर्भावो
लण्डना निर्मिते नृत्ये
ततश्चापढपश्चैव
ततश्चारीसंज्ञं समं
ततरचोटवणोपेत
तत श्राश्रावणापाणि
तत् सप्रपञ्चवाक्यादि
८ 气
૪
Ge
१२६
७८. १५२
२३० २१
६६ ७८
१६० १६१
२६ १४०
२८ १६७
१६ १८५
६ १६६
७६ ११६
८३ ११७
१८ १६५
१३५ ६६
१३७ εε
१८ ८४
१४९ १३
५२६ ४३
३६ २०४
२६१ २६
२२ १९६
२७१ २४
६१ २२७
१५८ १.४
२६६ २४
११
]
श्लोक
तत्पूर्व भागे नेपथ्यभवनं
तत्परं तु मवनोन्मदि० तत्पारिपार्श्वको स्यातां
तत्प्राणभूभ्यां प्रसृत तत्समूहविशेषश्चाङ्ग०
ततः खुलहल (? लहुलु) श्चेति
ततः पुनः प्रयोक्तात्र
ततः स्वल्पेष्ववहितेष्व०
ततः सङ्गत्य पिण्डीस्था:
ततः सूत्रं दृढं
ततो जवनिकां हित्वा
ततो निवद्धे कविते कटे
ततो विकृतवाग्वेषभूष
ततो विलम्बितलयं
ततो विषमसूचीति
तथा च नृत्यशब्दार्थं
तथापि नृत्ये चार्यादी
तथापि शिरसोऽङ्गानां
तथा सुधा निधेयात्र
क्रमांक पृष्ठांक
७ १७२
२३ १९६
१४७ १३
१५६ १४
१२५ १८
३७ ४
१४६ १३
४५ ११८
४१ १६७
४० १६७
१९६५
१२७ १२
४७२ ३५
४६६ ३८
६० फ
२६ ३३७
४०४ ३४
७६२
૬૪
३९१०६
७१८ ६०
५३१ ४३.
४१४ ३५
१८४ १६४
१०० &
७१६ ६० ६५८ ५४
तदा स्वस्तिकमाख्यातं
३० १४८
तदा स प्रसरत्येव
३८४ ३२
त (?) वा स्यानर्तकी नीकी ७१ २०७ तदीयसपत्त्युचितात्र
१० ११२
तद्वृत्तिरिव या वृत्तिः
३२८ २९
तथा हि विवदन्तेऽत्र
तथा ह्येते प्रोततया तथा हि योक्ता युक्त्युत्था
तथैव कनिष्ठा ( ? ) [का] ०
तथैव मुनिनात्रेव तथाविधः शनैघर्षन्
तदत्रान्तर्मनोरूपत्वाख्या ०
तद्वदेव शिरश्चेत् तदधश्चोतरचापि
८१ ७
७ २२०
तदा करिकराकारत्वेनोक्तः तदास्याभिवधो हस्त
२२२ २०
३८६ ३३
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श्लोक
क्रमांक पृष्ठांक तदुत्को संगृहीतः ४१० ३४ तदुत्कं पूर्वमस्माभि. १७३ १६ तत्राङ्गिकोऽङ्गनिवृत्तः २५२ २५ तत्राघ्रिणकेन हि जायमाना ४११६ सत्राङ्गानि शिरो हस्तो तत्राङ्गानि शिरो हस्तौ २९६ २६ तत्रावक तत्र घर्धरिका वाद्य २१ १९५ तत्र सत्त्वगुणोत्कर्षा १९ १८५ सत्रावलम्बते प्राणं तत्रेयं भारती वृत्ति तच्च रङ्गोत्तरस्यां स्यात् १५१ १४ तजन्यङ्ग ठमध्याःस्युसन/० ५७६ ४७ तर्जन्यङ्ग.ष्ठमध्याः स्युर्यत्र • ६०६ ५० तर्जन्यायङ्ग लीना ३३ ७४ तर्जन्यनाभिकेऽत्यन्तव० ५७३ ४७ तर्जयामासतुर्देवं
६१८४ तवेव चारु चातुर्याद् १८६ १७ तदेव तालसंज्ञं स्यादिति २०११० तवेव नागबन्धं
२९ १६७ तदेवार्थ निकुट्ट स्यादे०६१ १५० तदेवांकांग(?वैकांग) रचित० १४३ १५६ तदोवृत्ती समाख्यातो ६८५ ५७ तन्निपात्य ततो भूमो ६१ १२५ तन्मार्गजा देशभषा ६ ११६ तन्मांस (?) विश्वरूपाभ्यां ३८० ३२ तन्त्र्योजः करणार्थ १६५ १५ तन्त्रीभाण्डसमायोगान् १६७ १५ तन्मता सप्तषष्टिस्तान ७६० ६४ तरुणे क्षामनयना ५७ ८ तिलपुष्पपुटस्यादौ १८६ १६४ तलपुष्पपुटं तदपविद्ध २३ १७३ तलपुष्पपुटं लीनं वतितं ४ १४५ तलमध्याप्रसंलग्नाङ्ग ल्यः ५६३ ४६ तलसंस्फोटितं पार्वजानु १४ १४६ तलेऽङ्घ्रयोः स्वस्तिकीकृत्य २३ १२८
श्लोक
क्रमांक पृष्ठांक सलेन चान्यपादस्याथ २९ १२४ तद्वदेव शिरश्चेत् १८४ १६४ त्वरितप्रश्नवाक्ये च राज्ञा ४६४ ३६ तस्य दक्षे मौखरिको १५० १४ तस्य लक्षणविचारशुद्धये तस्यास्तु बहवो भेदा २१३४ तस्मादनन्यमनसो जायन्ते ३५७ ॥ तस्मादुत्तमःएष मे
४१ २२४ तस्मात् शुष्कापकृष्टेयं २६८ २४ तस्मात् सर्वचित्तवृत्ति० ४.१ ३४ तवं रतिनिवप्रमुखा ४०१ ३४ ताण्डवे पण्डितरुक्तो ७२ १२८ ताण्डवं तद्भवेद्यत्तु प्राधान्येन २९० २६ ताड़नं तोलनं छेदभेदी ४११०६ ता(?भा)लेऽलक्तकर्माजता० २४ २०२ तादृशो मस्तकावं ५३८ ४४ ताभिरष्टो संनिपाताः २४० २१ तामात्मस्थां व्यनक्त्यत्र २६ १०४ तामवस्थां परिप्राप्तो ताराकर्माष्टकमथो
८५ १२ तारकाणां विभेदा येते ७७ १० सारकाः स्यस्तत्परितो १५५ १४ तालत्रयं ततः सूच्या
२२४ २० ताले ताले कुञ्चिता स्यात् १० १७० तालो मृदङ्गस्तन्त्री तावेव पार्श्वविन्यस्तो ७३६ ६२ तावेव विप्रकीर्णाख्यो ६८६ ५८ तावतंव तु कालेन
२२७ २० तिरश्चीनां तर्जनी च ५९६ ४६ तिरश्चकेन पादेन समुत्प्लुत्य ३५ १६८ तिरिपभ्रमरी चाथ १० १६५ तिर्यक स्वास्फालनेनैव १४ १७१ तिर्यकरगसंज्ञं च तिर्यक तिर्यस्वस्तिकमुप्लुत्य सिर्यपताके चोत्ताने १६ १७१
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[ १४ ] श्लोक क्रमांक पृष्ठांक | श्लोक
क्रमांक पृष्ठांक तिर्यगञ्चितकं तद्वत्
त्रिविधा प्रपि विज्ञेया ७७४ ६५ तिथंगूढ़ सकृनीतमाधूतं . ४८० ३६ त्रिविधा मदिरा दृष्टि० ५४ ८८ तिर्यङ्मुखा मराला च
यात्रपमस्थयोर्यत्र २८ १११ तियंञ्चौ चरणो पाणि ५५ ११४ व्यस्तं चेति पुनर्मध्यं ३८४ तिर्यञ्चं पादमाकुञ्च्य २५ १२८ त्रासोद्धमत्पुटा प्रस्ता ५३ . ८८ तिसध्वन्यासु वर्तन्ते ३३१ २९ त्रिंशत्सपञ्चाः किल भौम्य ८ ११९ तृतीयं वस्त्वभिनयेत् २०० १८ थसको वितडं शङ्का ४० २०४ तुल्यांश (?स)कूपरी ६८७ ५७ यसक: स्यात् सललितं ६८ २०७ तुर्यमत्र गदितं तु
८ २२० दृढं तामवलम्ब्याथो० ८६ २२६ तेच सत्त्वे प्राणमये ३६२ ३३ दण्डपक्षो करो कुर्याद् ६६.१५४ तेनान्तरालिकेन स्यात् ४२६ ३५ वण्डपादं च वामाने ६४ १८० तेनेदं च विराटराजदुहिता १६ ३ दण्डपादां द्रुतं चारी १४६ १५६ तेषां महानुभावानां ३७४ ३२ दण्डौ सुवृत्तो मसृणो ११३ २११ ते स्युर्वक्षिणतो विभोर्नव० ११८ ११ दण्डश्चतुभिर्वाभ्यां ते स्यन्टगताना तु ३५६ ३१ दर्दरकोऽपि चतुर्धा ४१ १८८ तैर्वा चतुर्भिस्त्रिभिरेव
वन्तलमणसिद्धयर्थ १२८ ९८ तो करावुपसृतो
६ १६४ दन्तानां फिचिवाश्लेषः १३३ १८ तं प्रहारमथवात्र दर्श[य] १५ १६५ दन्तानां श्लेषविश्लेषों १३० १८ [A] अयस्त्रयोऽसंभूय
दन्तर्दष्टोऽधरः कोधे १२४ ९७ त्रिकोणचारी या चारी ३० १३७ दृप्ता विकसिता सत्त्वमु० १६ ८३ त्रिकं स्याद्विनतं चारी १२४ १५७ दृष्ट (?ष्टि)पुटताराश्च त्रिनयनमभिनवमृषभगत २३८ २१ वृष्टयस्त्रिविधास्तत्र त्रिपताकेऽप्यरालोक्तं ५६२ ४६ दृष्टा निमेषिणी १३ ८३ त्रिपताको कटीशीर्षे
दृष्टि राकेकरा दूरालोके ४६ त्रिपताको करौं कृत्वा
वृष्टिः स्याद्विकृते स्त्रीणां ३४ ८५ त्रिपताको तिरश्चीना०
दष्टं निकर्षणं चेति १२६ १८ त्रिपताको करौ कृत्वा
वक्षपाश्र्वगतं यदा ६५४ ५४ पश्च (? श्चाद)
५५ १८६ दक्षिणश्चरणः सूची त्रिपताको करो कृत्वा विषमो० ६६ १६० दक्षिणाङ्गन रचये ४२ १७५ त्रिपताको करौ कृत्वा वामपादं ७७ १९१ दक्षिणाघ्रि भ्रामयित्वा १८ १६६ त्रिपताको करौ कृत्वा समं ७६ १६१ दक्षिणे जनितां कुर्याद 8 १३८ त्रिपताकं करं कृत्वो०७४ १६१ दक्षिणे जनितां कृत्वा त्रिपुंड्राविविधो कार्यों ६१४ ५० दक्षिण भ्रमरी वामे १० १३८ त्रिभिः कलापकस्तश्च ६ १७२ दक्षिणे(? गा)घ्रि तालमात्रं २५ १२१ त्रिरष्टभिस्तु विस्तारे
दक्षिणो दण्डपादोऽय ३८ १४१
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श्लोक
क्रमांक पृष्ठांक
श्लोक
क्रमांक पृष्ठांक
दक्षिणोत्तरपाश्वस्थ दक्षिणो नाभिदेशस्थः ६५ १५० दक्षिणो भ्रमरोवामो० दक्षिणो जनितो वामः १३ १३६ दक्षिणो जनितो भूत्वा १७ १३६ दक्षिणो जनितां कुर्यात् ३३ १४१ दक्षिणं कटिवेशस्थं १६८ १६२ दक्षिणां तु यदा जङ्घां ७५ ११६ द्वात्रिंशता तथा हस्त० ७४ ७ विक्चतुष्टयसंयुक्त० दिक स्वस्तिकं विधायके० ३४ १७५ द्विजेभ्यो भोजनं दद्यात् द्विदंवत्ये दिने शस्ते दिव्यास्त्राणां प्रयोगे च ४८७ ४० द्विविधानि तथा नृत्त द्विःप्रयुक्तं कम्पितं दीना पतिताध्वस्थ० १४ दीर्घः सशब्दनिष्क्रान्तो० १११ ९५ दु:खे क्षामाववनतो द्रुतोत्प्लुतोऽपसृत्येव २६ १२१ दूती दर्शितमार्गस्तु
६२ २०६ दूरमुत्क्षिप्तमत्र स्यात् . २२ २४५ दूरे पावप्रचारः स्यात् १४३ २१४ देवतानामृषीणां च राजा ३१० २७ देवानां प्रकृतिदिव्या ६० २०६ देवाशजास्तु राजानो ६१ २०६ देवेन्द्राभिनये सा स्या० ५६५ ४६ देवेभ्योऽस्तु नमस्कृति० २६२ २३ देशनृत्तविधिद्वैधा तथा २५ ३ देशी पद्धतिरेवेयं . ५५ २२६ देशे देशेषु यत्कीति०६१ १३२ बेहक्रियाप्रयत्नेच्छादय० ४०७ ३४ देहस्य तिर्यग् भ्रमणात् ४७ १६६ देहात्ममानिनां तेन ४१८ ३५ देहः स्वाभाविको यत्र . ५८ ११४
देशीतालश्च संयोज्य , ११० २११ देशीयलास्यकाङ्गानि ४२ २०४ दोऽष्टहस्तकासे देयें विस्तरतस्तत्
४४ ५ दोलापादस्य गमनागमने १५७ १६१ दोलापादास्यचार्या १३३ १५८ दोलापावां विधाया० . १४८ १६० बोले श्लयांसो कर्तव्यो ६६१ ५५ दोलः पुष्पपुरश्चंव
५१२ ४२ दोबरदूषिता भूमिः द्वौ द्वौ स्तम्भौ समा० ६७ ६ द्रव्ययोस्तत्र संबन्धो ७६५ ६४ द्वात्रिंशदेते संप्रोक्ताः द्वावडघ्री पाणिजङ्घो०६७ ११५ द्विः स्याच्चाषगतिक २१ १३६ द्विपद्या वर्णतालेन ११८ २१२ धर्मार्थकामाः सममेव . १५३ २१५ ध्यानं वैष्णवमन्वहं ६२ ११८ धान्यपुष्पफलादीनां ६६४ ५५ धारणे कुन्तवज्रादेः ५६६ ४६ धार्यः क्रमात् शोष्णि ६४० ५३ घिगिस्यक्तौ तु रोषण ६२८ ५१ धुतमेव भवेच्छीघ्र ४७६ ३९ ध्र वनत्ये यथोचित्यं १३४ २१३ ध्र वायां संप्रवृत्तायां ८६ २०६ धं वेणवं विधायपि ७४ २२८ ध्र वेयं चतुरस्त्रा स्यादस्यां २२० २० धूनयती करो स्वीयो १७ १७१ धूमविधूसरवदनप्रकृति० ३८६ ३३ घर्यलीलाङ्गहारः स्यात् ३०८ २७ धैर्योवार्येण सत्त्वेन १०३ २१० नखवन्तकराघातर्वीरो १६१ २१६ न च शक्यं हि लोकस्य ३१३ २७
न चातिव्यग्रमनसा । न जाने संमुखायते १६६ २१६
.
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[ १६ ] श्लोक क्रमांक पृष्ठान
क्रमांक पृष्ठान नटस्यातत्स्वरूपस्य कि ३३४ २६ नवासने च षट् सप्तो १४ ११० नटोऽनुकरणत्वेन भावुकः १४८ २१५ नवोढालज्जिते तूर्ध्वक्षेपादु. १५७ १०२ नक्षत्रेऽभिजितित्वं २३१ २१ न व्यः करणदष्ट २ १७२ नतपृष्ठं तथा मत्स्यकरणं १६५ न्यायसंज्ञा भविष्यन्ति १३ १८५ नतबाहुनितम्बांसं
न ह्यङ्गाभिनयात् कश्चित् २६९ २६ नतं महोगतं ज्ञेयं
न संस्कार विशेषत्वात् ३२२ २८ नता अद्धा नमज्जानु.
नाम्नव कृतलक्ष्मारणो १५५ १०१ नत्वा देवानय क्षिप्त्वा २७८ २५ नाटयधर्म(? मी) लोकधर्मी० ४५२ ३७ नत्वं नाहं न मे कृत्य. ५७५ नाटघधर्मी द्विधा तत्र ४५३ ३७ नन्यावर्तस्थितावाघ्री १७ नाटयप्रकाराः कथिता ३१५ २७ नन्यावर्तस्यपादौ चेत् . १६ १२७
नाटघमार्गोपाविभिन्न २८५ २५ नन्याधर्तासमाङघ्री चेत् १५ १२७ नाटयमार्गोपाधिभिन्न ४४८ ३७ नन्वत्र प्रत्यत्यैकार्थे ४४६ ३७ नाटयवेदसमुत्पन्ना
१४ १८५ ननु कोऽयं रसो नाम १४६ २१४ नाटयशालागत तत्र न नत्येन समं किञ्चिद्
नाटचादि त्रितयं ततः १२ २ . नभस्यूरू निषण्णो चेत् २७ १११ नाट्याभिप्रायमाश्रित्य ४२२ : ३५ न भेवः कल्प्यतां विद्वन् ७६६
नाट्यनाभिनयं नत्यशब्देन १२८ १२ नमस्कृत्य गणाधीशं ७९ २२८ नाट्यं मागं च देशीयम् २८६ २५ नयन्ती हस्तको चित्रं
नाट्यं मागं च वेशीय ४५६ ३७ नयमवदनप्रसादः स्मित. १५७ २१५ नानातिविशेषांश्च
७३ १९१ नये वदनदेशेऽसौ
नान्दीपदान्तरेष्वेवमेवं २६५ २३ नर्तक्या विविध पत्र १७ २०१ नानादेशसमुद्भवाश्च ललना० १५ २ नत्तनाश्रय इहोदितं
३ २२० नानादेशविचारचारुमतयो १२३ ११ नर्तनविषमैरेव.
५० १९८ नानादेशेषु यं देव० नर्तनं यन्मया प्रोक्त० १०६ २११ नानाप्रहरणाद्याश्च ते १७ १०४ नर्तक्यो मिलिताः पश्चाल्लता १९३ १७ नानाभाघरसंयुक्तः २५ १८६ नर्तक्यःषोडशवं सुकुसुम० २११ १६ नामाविषयथा पुष्पं० नमस्फोटो नर्मगर्भो १८६ २४ नानाशीलाः प्रकृतयः ३१४ २७ नलिनीपनकोशौ तो ७४६ ६३ नाभिक्षेत्रादूर्ध्वगामी ५५६ ४६ न लोकादेककादेव ४५६ नाभिनेतुं क्षमं तस्माहि ४३२ ३३ नव तत्र स्वनिष्ठानि ७८ १० नायको यत्र कार्यार्थ० . २६ १८६ नवभ्रमरकाख्येन परिवृत्या ८७ १७६ नायको वर्ण्यते
३७ १९७ नवभिःकरणः प्रोक्त १२ १८० नायिकानायकोपेत० नवभि करणैरेभिनिमितः १०२ १८१ नारिंगी चव धम्मिल्लः नवसंगमसंभोगरति. २७ १८६ । नासानानुगता साना २४५४
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[ १७ ] श्लोक क्रमांक-पृष्अंक श्लोक
क्रमांक पृष्ठांक नासादेशं गतो यत्र ३१४६ निवाविभाववर्गगणने ३६९ ३१ नासानिलेन व्याख्यातो. ११८ ९६ निसा इति विज्ञेयाः ३९३ ३३ नासापि षड्विषा
विवर्तितोऽन्तम (? गं)तया ७३ ७६ नासिकानेवतः कार्यः ५५१ ४५ निवेशमेनकाकोडमडतं १७ १४६ निश्चितं मतल्लिः ७९१७९ निवेश्य(वेशितो स्वनिकृञ्चितासूच्याख्य ८११७९
.१४ १३५ निकुट्टकाभिषं कुर्यात्ततः १७१८० निश्चतबास्ततश्चंते निकुट्टका लतानेपा०
मिष्कान्ते सूत्रधारेश्य २७७ २५ निकुट्टनमिहाङ्गस्य ६४ १७९ मिलियः स्तम्य इत्युक्तो ७२ ७९ निकुट्टमूतं चाक्षि.
विकाको निष्कर्षणं ५४ ६ मिट्टनं तु पादेन
निम्मत्तिाट्यशास्त्रस्य
। निकुट्टितस्ततवेव पादो
निष्पत्तिर्नाट्यशास्त्रस्य २९ ४ निकुट्टितो समो पायो ३२ १३७ नियन्यो गगने तत् नितम्बकेशहस्तावि०
निषेधे नवमित्युक्ती नितम्ब विष्णुकान्ता. ६४ १७८ निसाहरासकं वाचास्तामा १४२ २१४ नितम्बश्चतुरस्त्रो वा. ७४ १५१ निःश्वासोनुशयानो स्यात् ११६९६ नितम्बांसभुजे०
निःश्वासोच्छवासमबत्वे ६८ ६४ नितम्बो पल्लवाल्यो
निहञ्चितं परावृत्तं . ४७५ ३६ नितम्ब करिहस्तं
२० १७३ निहतेऽज्यस्य पावस्य २८ १२१ निवषाति तथा प्रोक्ता
नोरमोरित चुम्बितामि १३ २०० निपतेता समुस्लिप्य
नीलमुत्पमित्येष निम्नपुष्ठं च निर्भग्नं ७५२ ६६ नूपुरं च तवाक्षिप्त २५ १७४ निमेषितो तु पुटयोः ।
नूपुरं च विवृत्तं
७५ १७८ नियुक्तो वेदनासूया.
नूपुरं चंब विक्षिप्त २८ १७४ नियुक्तो लोलितो तत्र
नपुरं भ्रमरं कृत्वा
४५ १७६ नियोग्यः स्वरगमने ७९७९ नूपुरं पारापविद्ध ६ १४६ निरपेक्षा या सर्वो.
नृत्तधमविषिस्तत् २८ ४ निश्चिरमाभुक्तो
नृत्यन् सासमसूरन ४६ १९८ निरूपयन्ति यत् ७२० ६१ नृत्यन्ती मतंकी यत्र ५२ २०५ निर्गच्छदिव यन्मन्
नृत्यन्ती यल्ममे वापि ६१ २०७ निगंब्यति महर्वक्त्रा० १०७
नृत्यस्य प्रकियां कृत्वा ७. २२७ नि यन्ते प्रेक्षकश्च
नृत्यस्याडिसन (?)त्यविन् ३ १९३ निर्दिष्टं तत् प्रबोट
नृत्यानुगं वर्षमाने २०६ १६ निवेदोऽप.तया ग्लानि० १६३ २१६ नृत्याभिषेऽङ्गाभिनये निवर्णना तु सा मेया . १० १२ । नत्ये प्रसारिता पाये ७९८०
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श्लोक
क्रमांक पृष्ठांक
८१०
६६५ ५५
श्लोक
क्रमांक पृष्ठांक नृत्तस्य धोक्तं करणात् ५ ११६ नृसिंहाभिनये वक्रा १३८ ११ नेत्र निमीलिते पादो ८० ११७ नेपथ्यजो विधिः सर्व नेपथ्यवेश्मनस्तत्र ९७१ नेपथ्यशम्बवाच्यस्तु ..५ १०२ नेपभ्यस्य गृहीतस्य नेयं चारीप्रचारं રહ ર૪ नैतहरितगृहिणीषिवाहो. ३७१ ३२ नवमेवं विषस्यापि ३७२ ३२ नवं नटानामन्योन्यं ३६१ ३१ पङ्किलोामप्रगः
७० पङ्को षोडशमात्राभि० . २५६ २२ पञ्चषा मणिबन्धः स्यात् ५१ ८१ पञ्चषा सममाभुग्नं ७७६ ६६ पञ्चमे वाथ षष्ठे वा १०६ पञ्चतालान्तरं तिर्यग० ३३ पञ्चविंशति संख्या[श्व १० १३४ पञ्चहस्तमितायामान् पञ्चहस्तोन्नतां कुर्यात् १९२ पञ्चाप्यङ्ग लयो यत्र ६२२ ५१ पञ्चवोट्टिते तानि पतवङ्ग लिराह्वाने ५५७ ४५ पतन्तेत्पतनाविष्ट पततः क्रमतो यस्याः ५२ ८८ पताकस्य न तन्मूलं . ६१२ पताङ्ग.ठको यत्र ६३८ पताकाखाः कपित्यान्ता १३६ २१३ पताकारालयोः पूर्व २८ ७४ पताको निम्नमध्यो -५९७ ४६ पताको विरलाङ्ग.. ६३५ ५२ पताको चेदयोवक्त्रा० पताको चेझमेदूवं. पताको त्रिपताको वा पताको त्रिपताकोवा ७१२ ६०
१२२
पताको त्रिपताको था पताको त्रिपताको वा ७३३ ६२ पताको मणिबन्धस्यो १४ ७७ पताको स्वस्तिकोभूय ६६० ५८ पताकं हृदये न्यस्य ६१७० पताकं वामहस्तं तु ४४ १८८ पतितोलपटा दृष्टिः ३८ ६ पयकोशो [वोर्णनाभो] १५६ १६१ पनकोशाभिषो हस्तो ४६ ७६ पयकोशावथोदस्यिो ६६२. ५८ पयकोशौ प्रकुर्वीत ७४७ ६३ परचकभयं तस्मात् परस्परोपरिगती परस्परं संहताः स्य: ८८ ८ परस्यानुरागेन भङ्गारो १८६ २१६ परामुखतलः किञ्चिन० ६४६ : ५३ पराक मुखोऽनतो गच्छन् ५४५ ४४ परामुखः पाश्वतलः ३१ १०५ परावृत्तं तु तच्छीर्ष ४९८ ४१
४९८ परिवर्तवयं चात्र २३४ २१ परिवत्वं त्रिकं चोरो० परिवर्तास्तु चत्वारः २१८ २० परिवर्तितमित्येतत् ३५ १०५ परिवर्तिनी ध्रुवाऽस्या २३७ २१ परिवर्तनतोऽङ्गाना ५३ ११३ परिवर्तेषु शेषेषु २६० २७ परिवृत्तं दण्डपावं १५ १४६ परीक्षणे पातिकेषु
३१८४ पश्चात् क्षेपाच्च सा प्रोक्ता २३ १३६ पश्चास्यस्य पुरस्ताच्च ४० १३० परं तेषु विशेषो० ७५ २२८
७५ पल्लवो चापरे प्राहः पश्चात् क्षेपाच्च सा २३ १३६ पक्षप्रद्योतको दण्डपक्षी
४७
१५५ १६०
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| १७
:
श्लोक
क्रमांक पृष्ठांकः ।' श्लोकः
क्रमांक पृष्ठांक
पक्ष्मान्तल्लीनतारंच ८९: ११ परिष्णा स्वापवानांच २४.२२०: पश्चानस्य पुरस्ताच्च ४०.१३. पाठमा (? नाटपा) रुप० ४ १६ पाणी व स्वस्तिको० १०६.१५५ः पाणी वक्षास्थिती तयार ९७:११४ पात्रस्य लक्ष रेखा १.२२०. पात्रमत्र गणितं
९:२२१ पात्रं मुञ्चति रङ्गपीठ. ४६:२२५४ पावाचाङ्गमिपृष्ठेन १२:१३॥ पाबद्वयकृता सा पायनिकुट्टाल्या पावमाकुञ्चितं पृष्ठे. ५५१३२. पावमाविवारीकमन्यो ६.१२५ पानमाक्षिप्तचारीक. १२२-१५७ .. पावशिक्षा कर्तव्या ११ १३५:: पाबाझ लीभिराक्रम्य ५८ १९ पावावग्रेङ्गलो पृष्ठभाग २२.१२८., पावास्फाली विलम्बी ३२ १६७ पायोऽय स्वस्तिकाकार ३३६ १२६: पादो यदा बहिनीतो - २४:१३८ पार्श्वकान्तस्ततो पामो ४२ १४१ पार्वक्रान्सो दक्षिणस्तु ६१ १४१ पार्वकान्तं परिवत्तं १०१ १८९ पार्वतश्च पुनःोपात् २४.१३६ पाश्र्वतो विनती ५०१ ४१ पाश्वतः स्यात्पार्श्वमुखो ६२६ ५१ पाश्र्वद्वयं पुरस्ताच्च ४२ १०६ पावनिकुट्टकं पश्चात् ७७१७ पाश्वमण्डलिनोः पाण्यो० . ४ . पावस्याभिबखे यद्वा ६४ पार्यक्षेत्राभ्राम्यमाणे पावक्षेपनिकुट्टा च ७:१३४ पाकिान्ताचार्या १२५ १५७ पापर्धाभ्यां यत्र धरणाor २१९१२ ।
पहा विधुन्वती पोन्मुखी तु या पाणिप्रेमपतल. ३८.१२२. पान्विरेकमदे स्थाने २९.१२. पाणिः पाश्र्वान्तर० पाला समो परावृत्ते पर्वमावि भवेत् ६२-१९९. पाविस्वस्तिक पिण्डाकारे विज्ञ यः २०५ १८. पिणीवनमा अवश्यन्ते। १७६ १६ पिण्डी बालिका चंक २९३, १८.. पिन बध्नन्ति १५, १७. पिहितातिसंलग्नपुटी. . . पीठस्यास्य पुरः पोत रक्तस्तथा पीकरोरजपनं कठिनो ६.२२१. पुढो विताडितो जेया. ७६ ७. पुलिसम्बदेशे तु . .४२, ७५. पुनः पुनर्वहिल लिप्ता० ५१. ४६.. पुनः पुनदिनिष्कम्य ७३.६. 'बार्योश्चेष्टितं यच्च १४.२१५ पुमारित्वं दक्षपावं २४६ २२० पुरतः पृष्ठतश्चय .. ८१. १९२. पुरस्ताच्च कृता सैव . २६ १३७ पुरस्तादहिमस्तिप्य ४३-१३०. पराटिका मिर्थोऽह्नि ३४६ १३०, पुरो गच्छति पश्चाच्या ८० १६१ पुरा किञ्चित् प्रसार्याको ४२६ १२.३० पुर:पश्चातारा नाम पुस्खस्तु त्रिविषो शेयो ७:१०३, पुसा सःसध्यते नाटयः १३:१०३. पुल्पामा महले नान्दी पुण्यश्च विविषय पूर्वसो द्वारमेवं स्यात् पूर्वमेव विणायाय. ६७:२२७
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[ २० ] श्लोक क्रमांक पृष्ठांक | श्लोक
क्रमांक पृष्ठाक पूर्वववङ्गपीठस्य
प्रथमेवा द्वितीय वा २२१ २० पूर्व पताको कर्तव्यो ७०० ५९ प्रथमो पोहनस्यार्थ १८४ १७ पूर्वरङ्गे प्रयुजीत १४८ १३ प्रथमं वस्त्वभिनयेत् २०१. १८ पूर्वोक्तमङ्गनिधयं ८७ २२६ प्रपदस्थितवामाङ्ग्रेः २८ १९६ पूर्वोत्तराधयोहे ६३ २०६ प्रदर्शयन्स्यङ्गहारः १९१ १७ पूर्ण खल्लं रिक्तपूर्ण ६७ ७८ पदभूमियुतः सूचीविशाल्पं २८ १४० पृष्ठकुटुंबापगतं ४१३८ प्रनृत्येवङ्गहारेण चतलो १८६ १७ पृष्ठं प्रसृतपादस्य
४८ १२४ प्रबद्धः स्खलितश्चंय १०२ ६४ पृष्ठतो वलितं शीर्ष ५३१२४ प्रभाप्राग्भारशोभावय ३२ २२३ पृष्ठतोऽस्मिन् प्रयुक्ते ५६ १३२ पर्यवस्यन्ति तेषां च ४०३ ३४ पृष्ठतो गमनात् पृष्ठा. २० ७३ प्रयत्नेनाभिनित्यं ३७७ ३२ पृष्ठतो दर्शनं यत्तत्
पर्यस्तकाबङ्गाहारः १८३ १७ पृष्ठानुसारी चावियः १३ ७२ प्रयाति पदभ्यां पश्चाच्चे० ७६ १६१ पृष्ठे चास्य वराङ्गाना ११६ ११ प्रयोगोऽयं यतो रङ्ग १३३ १२ पृषककटोनाभिचरी २४ ११० प्रयोगस्य फलं शेवं २७६ २४ पृथ्व्या स्थित्वासयुग्मेन ३७ १६८ प्रयोगः पूर्वमेवोक्तः २८८ . २५ पेरणीव नटो नारी ५२.१९८ प्ररोचनाऽमुखं चैव १५ १८५ प्रकटीकुरुते तस्मावर्य २४ १०४ प्रविष्टेष्वपि प्रात्रेष प्रकृतस्यैव कार्यस्य - २७३ २४ प्रस्तावनेति कथितान्यता० १४१ १३ प्रकृतिस्पस्थ संलापे० १७ ११० प्रसन्नश्च तथा रक्तः २७ १०५ प्रकोष्ठपहले चापि ५६५ ४६ प्रसन्न वदनं हस्तो ३८ ११२ प्रोप्यं नूपुरं विद्या
प्रसरति विनमणितेजसि. २३ २०१ प्रचारो हस्तयो० २२ ३ प्रसपितमपक्रान्तं प्रणामे मस्तकगतः ५३५ ४४ प्रपितंच करणं
७३ १७८ प्रत्यङ्गालक्मोपाङ्गाना
प्रसारितकनिष्ठां च ६३४ ५२ प्रत्यङ्गानि स्कन्धो
प्रसारितभुजोऽन्यस्तु ५३ ७७ प्रत्यङ्गमालिङ्गति ८६ ९२ प्रसारित भुजामेका. ८८ ११८ प्रत्यक्षभूमिश्रितयो० १८४ २१८ प्रसारितोत्तानतलो ७०२ ५६ प्रतिकोणं यषा कोण. ३ ८ प्रसारितो भवेत्र २१ १२० प्रतितालस्तथा चंकतालि० १२५ २१२ प्रसारितं तूभयतो ७८६ ६७ प्रतिमण्ठादिषु प्रोक्तं ७७ २२८ प्रसायं पुनरानीतो १६५ १६२ प्रतिवस्तु तदा वृत्ति० २०८ १९ प्रसार्य बाहुयुगले ११ १७० प्रवृत्तिकावगलि (लगि)ते १८ १८५ प्रसूतावायतो प्रोक्तो ७०. १० प्रविशेयस्ततः सूत्रधारः २२३ २० प्रागल्भ्यमप्रगल्भाना प्रथमे परिवर्ते तु २५६ २३ प्रामुखो भटकावतो ६.३ ५७
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श्लोक
प्राचां चतुर्णामेतेषां प्राणभूते सत्वरूपे
प्राणभूमौ तु विभान्ता
प्राणाद्यनुग्रहाले स्युः
प्राणिनः प्रथमे तत्र
प्राणिसंज्ञाः कृता होते
प्राणो मुखान्तनिहितः
प्राधान्यं विनियोगस्य
प्रान्तत: प्रोल्लसतालान्
प्राप्तो वसन्तसमयः
प्रायेण तु बहिर्गीत
प्रायेषां नियोगस्तु प्रायो वक्षः स्थितः कार्यों
प्रारम्भे मण्ठतालेन
प्रांशुवंशोपरिगर्त
प्रेरणायां प्रहारे च
प्रेक्षागृहा
प्रोक्तश्चात्र नटो नवीन
प्रोगरत् किमु नु
[ २१ ]
प्लुतमानादसंवा
फुल्लाब्जेन्सी व राव तु वसामय स्थितावत
७ १३८
१८५ १६४
• ७६ २२८
४१ १६८ ५२४४३
४६ ५
५ १६३
१५ २२२
५३ १८६
५६० ૪૭
११६ १५६
बलिपूजोपहारंश्च
८३ २२८
बह्वपश्चान्या भवन्त्येताः
२० १७१
बहिर्गताङ्ग ुलिः स्थूल०
६४७ ५३
८३ ८१
बहिनतो निकुचः बहिर्भ्रमणस्य चरणस्याङ ० ५२ १३१
बहिः प्रसारितो बस
६६६ ५६
१२ १२७
बहिश्चेत् प्रसूतः पाद० बहुश्चाषगतिभिश्चरमैः
३२ १४०
बहुश चित्रगुम्फानि
३६ १७५
२११
बहुसङ्गभि ( ? भङ्गिम) नोहारि १०८ बालमप्यविदिताङ्गसंभ्रमं
१०. २२१
क्रमांक पृष्ठांक
३६ ११२
३६७ ३३
४१५ ३५
४२५ ३५
२० १०४
१६ १०४
१२३ ६७
१८ १७३
६८ २२७
२७ २०२
१४५ १३
बाह्यघूमादिहेतुत्था
४२८ ३५
बाह्यभ्रमरकं यत्र वामसङ्ग ३५ १४१
क्रमांक पृष्ठांक
३४६ ३०
३६० ३३
बाह्यार्थ विषयक्रोधाविकानां ३४९ ३०
३८ १६८
बाहुभ्यां भुवमाक्रम्य पaret संन्यस्य
७ १७०
ब्राह्मणाविचचुः स्तम्भा० ब्राह्मणाद्युपधिय
भट्टाभिनवगुप्तेश्च
श्लोक
बाह्यवस्तुविशेषाभि०
बाह्याख्यजडरूपेण
भट्टोद्भट्टादयः श्वासोच्छ्वासा० ३३८
भयहां रोष रोवनववन ०
भयहर्ष समुत्थान
भयानके रसे प्रोक्तं
भरतोक्ता अपि त्यक्त्था भवन्ति यत्र विज्ञेय०
भवेवपसृतं पा भवेतां सर्पशिरसो
भारस्यभ्यहिता यत्र वृत्ति:
भारती सात्वती चैव
भारती
सूज
देवेश
भारतेन गवितस्तु कैशिकः भारते निर्मादिता: प्रविचाराः
भारतः स खलु सास्वतो भावप्रकाशकयंत्र (? इथं ) ० भाव्यते तद्गतो भेदो भावोपसर्जनो यत्र
भावः स्वसुखदुःखाभ्यां भाषाः स्युः सात्त्विका ० भाषणे सद्वितीये स्यात्
१०१ €
८२ ८
७२३ ६१
२९
१५ २००
३४ १८७
८३ ११
५ १७०
५५५ ४५
७६१ ६७
६०६ ५०
३२७ २८
३२६ २८
७ १८४
१२ १६५
५ १६४
३ १६४
५४ २०५
४४३ ३६
४४६ ३७
३४१ २९
३७६ ३२
६३१ ५२
५७ १७७
७२ १५१
१६ १२०
९१ १५३
७१ १७८
६२ १५३
६६६ ५८
भुजङ्गत्रासितं कार्यो
भुजङ्गत्रासितां चारों
भुजङ्गवासिता क्षिप्ता
भुजङ्ग त्रासितां चारों भुजङ्गाञ्चितकं दण्डरेचितं
भुजङ्गता चा भुजाग्रकूपरसेषु
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[ २२ ] श्लोक क्रमांक पृष्ठांक | श्लोक
क्रमांक पृष्ठांक भवमित्य विभज्याष ५०० ५ मतस्लि गडचि० . ५२ १७६ भवा स्वाक्रान्तया साकं . ६६ ६ मत्सल्लिज्रभरश्चंव धामोऽयो २२१३९ भूत्वोत्तानावषोवक्त्रो ७०८ ६० मत्तल्लिभ्रंमरश्चंव दक्षिा २७ १४०. भूपानामभिषेचने १० २ मत्तवचन-वरणावित० २६ १२८ भूम्या चरणाग ३२ १२९ मदवीर्यवलोमत्ता
५१८४. भूमिश्लिष्टलताहस्ता १३६ १५९ मनाभिनये कार्यो. ६०३ ४६ भूमिपातो विमुक्तं
११७ मदाद्विलसिताख्यश्च १२ १७३ भूमिलग्नाङ्ग लीपृष्ठः ६० ११४. मवे दुःखे श्रमे सस्तो ५ ७५ भूमीन्द्रेऽखिलवानमाणकुशले ४३:२२५ मध्यमामध्यमो यत्र ५९६ ४९ भूलानतलपारस्य २४ १९६ मध्यमासारिता-जाता भूवनादिरिहाहायं० २१ २५ मध्यपापोस्तु ये पावती ७२ ७. भूषाप्रसङ्गतः किञ्चिन्ने २२ १०४ मध्यस्य चलनाच्छिमा ७५ ६८' भूस्पृशौ पादपाश्वों ३० १२६ मध्ये किञ्चिभ्रमसारा ५६. ८८ भूसंलग्नोरुपाणिः
६९१११ मध्ये कोष्ठचतुडकेऽस्या ८० ७. भैरवी नैऋते कामगामिनी १५६ १४ मध्ये महेश्वरः पार्वे . १५४ १४ भौमाकाशिकचारीणां ६ १३८ मम्योपम्य (?स्थे) तथा ५४६ ४५ भ्रमणमिह करोति ६१८२ मनस्यन्यपरेऽकस्माद० १०८ ६५ भ्रमति मण्डले या सा १६ १७१ मनसा सहितं चास्य भ्रमन्ती मण्डलाकारं । ५९.४. मन्द मन्दं पुरस्ताच्च ६३. १९० भ्रमर्यादिषु च प्रौठो ५१ १९८" मनः संवेदनं तस्य धान्तः स चान्तन(न्ती) ११४ १६ मनु?सा तु)चारी घरमतो १८ १२०० भ्रामवेच्च परितः . ७ १९४ मनोहरे तालरसे भ्रामणं च फलकस्य
मन्ये पुणागुणविशेष०. १५२ २१५ भ्रामं भ्रामं सकृत्
१६९ मर्मज्ञोऽखिलरागराणिषु ६१९३ मङ्गल्यं जनताप्रियं. ११ २' मयणप्पहुकोवताविवाए ७ १९९ मण्डलस्थानके स्थित्वा १६३ १६१ मया सखि विलोकितो. ३७ २०३ मण्डलस्वस्तिकं [fr] ५३ १७७ मल्लयुद्धे खङ्गकुन्तनि० ५६४. ४६ मण्डलावृत्तिवितता ७३५ ६२ मल्लयोरिव को स्याता ७६६ ६४ मण्डलेन ततोऽप्येव ५७ ७७ मल्लानां च भुजास्फोर्ट ५९८ ४६ मण्डलं स्थानकं कृत्वा ३२ १४७ म्लेच्छाना जातयो वास्तु १३ २१० मण्डलं स्थानकं कृत्वा -
मलिना किञ्चदाकुञ्चत् ३३ ८५. मंडलं स्थानकं कृत्वा ७६१५२ मस्तका भ्रमरी विवाद २२ १७३ मणिवधाद्विनिःसृत्य १६ ७३ मस्तकं मण्डलाकार ४९९ ४१ मभिवन्धावधिभ्रान्ती ४१ ७५ महाभारस्योद्वहने मणीनां वेधने चापि ६२९ ५१ । मार्कण्डेयपुराणोक्ता २२.२३
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[ २३ ] श्लोक
क्रमांक पृष्ठांक श्लोक ... क्रमांक पृष्ठांक मानसैकाग्य हेतुत्वे
यच्च सामग्यसंपत्तो ४४ २०४ माने मोट्टायिते गर्वे ४९१ ४० यच्छिरः प्रमुखाङ्गानां ३ १७२ मायेन्द्रजालबहुला २६ १८७ यतश्चार्यादिकं सर्व
३१०६ मिथः परामुखौ सन्तो ५० ७६ यत्पक्तिद्वितयं पार्वे ७१ ७ मियोऽभिमुखता प्राप्ती १६२ १६१ यतः प्रकृतयः पूर्व मियो युक्तो वियुक्तौ १५३ १०१ यतः [फर] पृषक्त्वेन ७६३ ६४ मिथः श्लिष्टकनिष्ठी ५४ ११४ यत् परब गीतं मीननाथ उत्तरस्यां १५७ १४ यतो नाटीकते मानं ७५६ ६४ मोलल्लोलचलत्पमा २९ ८५ यतो मोलेस्तु मनुजा ४७० ३८ मीलितार्षपुटा किञ्चित् ४० ९६ यतोऽलंकार्यशेषत्व. ३१९ २८ मुक्तमानत्कटस्यव ८४.११७ यतो वाक्यार्थीहंस्ता० ७० १५१ मुक्तताटङ्कसुभगौ २८ २२३ यतो लतास्त्रयः १३८ २१४ मुक्ताकलाविवेधे च ६११ ५० यत्र कृत्वा समो पादो २४ १६६ मुक्ताबालमनोहारि २६ २२३ पत्र नार्यः प्रनृत्यन्ति ११९ २१२ मुकुल हस्तमारभ्य ५४ १९२ यत्र नृत्यति स प्रोक्तः ७५ १९१ मुखनेत्रविकूणननासा० १८० २१८ यत्र नृत्यति स प्रोक्तः ८३ १९२ मुख्या पावक्रिया . ३७ १२२ यत्र नृत्यानुगं गोतं . ६० २०६ मुख्य गायनिक तथाष्ट० ४० २२४ यत्र नृत्ये योर्योग० ७६ २०८ मुखरागाश्च करयोः .. ४ १२ पत्र पाठपं विना नाटप २५ २०२ मुखप्रदेशमागच्छन् ५२८ ४३ यत्र राज्ञः पुरो नार्य ११२ २११ मुखोरिक्षप्ततयोवृत्तः . १२६ १७ यत्र विस्तारितावंही ४६ १३१ मुक्त्वाऽनत्यकरणतन्ढे ८६ १८० यत्र शुष्काक्षररेव २६७ २४ मुनिनैव स्वयं सूत्रे ११७२ यत्र स्त्रीभिर्वसन्ततों १११ २११ मूलं तु(?तो)यं त्रिकस्यास्य १८७ २१८ यत्र सौराष्ट्रदेशीया १२० २१२ मुहुः प्रसायं चरणमग्रतो ४५ १३१ पत्राभिनयबाहुल्य ..२६ २०२ मुहर्तेनानुकूलेन मूलेन ५५. ६ यत्रासने सुखासीना २१ २०१ मुनि तेषां विचित्राणि ८६ ८ यत्राहिता विषायापो १०८ १५५ मोणं करिऊण मया १० २०० यत्रको मुखरी वरः ३८ २२४ [मो] तावत्सरिगोषिकाश्च ४७ २२५ यथा गीते सदाभोगः मगप्लुतां विषायाज घ्रिः १४९ १६० यथाचलो गिरिमर० मृगशोषों हंसपक्षावधवा ६७१ ५६ यथावतु करणरक्तो ७८ २०८ मृदङ्गापटहाधेश्च ५१ ५
यथाषतादिके मूनि
३२४ २८ मृबङ्गहारकरणचारी० ४६२ .३८ यथा यथा भवेद्रक्तिः ८४२०३ मवङ्गहारसुभगा १२१ २१२ यथोचितवारवेश० . १३ य उप्रहाविधातून .. १२७ २१३ यद्गतागतविधान्तिक ... २२
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[ २४ ] श्लोक क्रमांक पृष्ठांक | श्लोक
क्रमांक पृष्ठांक यत्ति भुञ्जते विप्रा . १९४ युखकमपि च नर्तनेऽपि १४ १६५ यदपि च गवितो०
ययषे भगवान् ताभ्यां ८ १८४ यद्यपि भेदा लोके ३७ १८७ यूनां शङ्गारसर्वस्वं यद्यप्यत्र प्रधानत्वे . ४६८ ३० येन केनापि तालेन ५७ २२६ यद्वबन्ध शिखापाशं .११ १६५ येन स्वैःकरणदिगन्तर० ८८ २२६ पदभ्यासबावज्जु २६२ २६ येनाम्नाय षडङ्गः ८११ ७० यद्वाक्यं नकभावार्थ १४ २०० येनालायितुं विश्वं १९९९ यदाकृष्टं बलात् पुम्भिनं ३५ ४ येनाहार्य जगति ४३ याञ्चितबधुत्प्लुत्य १४ १६५ योऽशो खुलहलः २९ १९६ यहा तु मकरो हस्तः ३७ ७५ योगप्रदाखिङ्गनायो ५१३ ४२ यथान्येनाहिणाऽन्यों २७ १२८ यो निर्गच्छति दुःखेन १०६ ९५ यदा मनुष्या राजान० ८८ २०९ यो मण्डल इव भ्रान्त्या १५ ७२ यदि स्यादलगे कूर्मासनं २१ १६६ यो विषिः पुरुषाणां. १०२. २१० यद्रसं तनुते नत्यं
६७ २०७ यौवन(?)त्रितयलक्ष . ४ २२० यहा द्वात्रिंशता हस्त.
र(?)त्युचलतया . . ४१६ ३५ यमण्डलं भूर्भुवः
रङ्गे पुष्पाञ्जलिक्षेपे २५ १४७ यमन्तः करणेष्वाचा
रङ्गामध्ये पुष्पमोक्षः २२५ २० यस्मात् सर्वक्षितीशः २१२ १६ रङ्गशब्वेन तत् कर्मोपते १३४ १२ यस्यां विन्यस्य
५७ १३२ रङ्गप्रवेशे सजाते १३१ २१३ यस्मिध्यमषोऽधः ४३ ११८ रजावतरबारम्भे पुष्पाञ्चसि ४० ११२
११०२ रङ्गे विकृष्टे भरतेन . ६७ २०६ यस्मिन् समस्तकरणानि ११४५ रज्यते वै सहृदयः १३२ १२ यं एसो विरहप्पहा. - ११९१ रत्नानि चात्र देयानि १०४. । यंप्रभुं नकदेशीय० । १९५ २१९ रत्याश्य इव स्वीयवलनेन ३४ ३० यः पवावी पदान्ते १२६२१२ रत्यादयश्चित्तवृत्तिनिर्यात् ३७१ ३२ यः सतर्यगांभीर्यः
रत्यादि केनातिचय॑मान. ३६१ ३३ यावृशं विशि यस्या
रपचकाभिनयने ५८६ ४८ पाम्यवोचमहं पूर्व
रम्भोवंशीप्रभृतिभिदिव्यं ३१७ यानि वाच्यस्तु न वयात् ३०५ २७ रसाभिधायकं नाट्यशने १२६ गानि शास्त्राणि ये धर्मा ३१२ २७ रसेऽद्भुते प्राकृतं तु मा मस्य लीला नियता
रसे वीरेप रोद्रेच ८२ या शिरोधिकरनेत्र० ११ २२१ रसे वीरेच रौद्रे च . . ८४ ९१ युगपच्चरणौ यत्र ४२ १३० रसोपसर्जनीभूतो ४४७ ३७ युगपत् पुरतः पश्चात् ६८ ११५ रामाय तमनायक० ११४ १० युगपन्नाभिकटघ रुपादाना ४८ २०४ | राष्ट्र वास्तु निरामय २३ २६३
यस्मिन्नविजयाहार्य
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[ २५ ] श्लोक
क्रमांक पृष्ठांक मक पक श्लोक
क्रमांक पृष्ठांक रिगाण्युपशमेनाथ
४२ १९८ लागलोल्लिखिता शस्ता ३२ ४ रुद्राक्षवलया भस्मत्रि० १०७ २११
लाघवे च प्रकाशेच ३८८ ३३ रूपस्वी निजसंप्रदाय
लाला स्वेदः श्रमो मूर्धा १९२ २१६ रूपस्थी परचित्तविद् ११५ १० लास्यताण्डवभेदेन २८७ २५ रूपसंपन्नमग्राम्यं
१६० ३१६
लास्यं चास्य पुरः . १३ २ कक्षोग्रा भृकुटी भीमा २५ २४ लास्याङ्गाना तथा २६ ३ रेखा सौष्ठवसंयुक्त ६२ २०६
लासः स्त्रीपुंसयो० ४६१ ३८ रेचके भ्रमणे भूमिताउने ५०५ ६६
लास्ये तु या भुव० रेचयित्व
१४७ १५९ लीनं समनखं कृत्वा
१६ १७३ रेचिते करणं पूर्व
६८ १७८
लीलासुक्षिप्तमुवाहि १४७ १०१ रेचिताद्धस्ततो पाद. १५३. १६०
लोकधर्मी विषा शेया ४५७ रेचिते दक्षिणे हस्ते ७०४ ५९
लोको वेदस्तयाध्यात्म० ३०६ रेचितो दक्षिणो हस्तः ८४ १५२
लोलिता वृच्छितो रेचितोऽर्धनिकुट्टश्च . १५ १७३३
लोलितं मवस्खलितं रेचितो यत्रचामः
८३ १५२
लोलितं मन्दमन्दं स्यात् ४८६ ४० रेचितं विवधाते तो ७०६ ६०
वाङ्गलो तिलक १२७ १५७ रेचितश्चेति दशधा १२० ९७
धक्षसः स्वस्वपाश्व. ७३६ ६२ रोमाञ्चादि यथा बाह्य० ४२३ ३५
वास्युद्वेष्टितो वामः . १५२ १६० रोमाञ्चिते भये शोते ९५ वक्षः स्थः कटकः पादः रौद्री पाञ्चावनी तद्वत् १६१ १५
वक्षस्थः कम्पितः कार्यः ६४३ ५३ लक्षणं रेचकस्याथ . २७
वास्थितो करो ३४ १४० लक्ष्मप्रकरणे पूर्व
२१३८
वास्थो मुष्टिको हस्तः ३६ १२२ लग्नौठं चञ्चलं नारी० १४३ १००
बमाक्षेत्रे करौ कृत्वा ३९ १४० लज्जिताऽन्योऽन्यतः
वक्षःक्षेत्रं श्रयत्येको ५२ ७७ लताख्यो यो करौ तौ ५२१ ४३
पक्षोदेशाच्छिरो गत्वा १७ ७३ लताख्यो बलितो शेयो ७५१. ६३
पक्षो नीत्वा निधीयेते ३१ १४७ लताहस्तो समनखो ४९ १४६ वक्ष्येतोऽभिनया० २७६ २५ लयतालानुगैर्यत्र
५८ २०६ बन्दनानि प्रकुर्वन्ति १८० १७ लयतालावसानस्य
व्याजः सूत्राकर्षणाचं ललनाललितरङ्ग ४६० म्योम्नि वामो निषष्मोकः ३२ १११ ललाटतिलकं बोल. १२
धनांचलयस्यापि ७६ २०८ ललाटे तु पताकः स्याद्
वर्तना मागबन्धः स्यात् ६५ ७८ ललिताख्यं च वैशाख ७६ १७६. वर्षमानासारितेषु पाणिका १०४ १८१ ललितश्चरपन्यासयंत्र ८२ १९२ वर्षमान समास्थाय १४ १२७ ललितं वक्षसः क्षेत्रे ७७५ ६५ बल्गापहे पत्रवृन्त० ५७२ ४७
१२ ४१६
१७०
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[ २६ ] क्रमांक पृष्ठांक श्लोक
श्लोक
क्रमांक पृष्ठांक
वलनं व्यत्रगमनं
८१ ९१ वलिता मात्रपूर्वा धलितो पल्लवो चापि ७५३ ६४ घर्षधारादिकेतेऽभिनेये ३७८ ३२ वर्षासु जलदराजिसु ४२ १८८ वस्तूत्थापनसंफेटो ३० १८७ पाक्यगाथादिभिर्गम्या ३६० ३१ वागङ्गाभिनयोपेतमिति २७० २४ वाङमयानीह शास्त्राणि
३०० .२६ वाधिकोऽपि भवेदर्थ वाद्यप्रबन्धः कठिनः ५२ २२६ धावृत्तिविभागाथं धाधषु वाबमानेषु ४८ १९८ वाद्यस्यावयवानुत्ये ७७ २०८ वाद्यानां समतां विधाय २२५ वामतो व्यंसितं
१७५ वामदक्षिणभागस्थो घामपाश्र्वेऽलपमः १२१ १५७ वामस्तु स्पन्दितो भूत्वा १८ १३६ वामस्तु स्पन्दितां
५१ १४२ वामस्याङघ्रः कनिष्ठायाः ११३ १५६ घामेऽलातां तदादक्षे ३७ १४१ वामे दक्षस्थितो यत्र ५२ १४६ धामेतरः करः किञ्चित् । ११४ १५६ वामे विधाय मकरं ७७७ ६५ वामोऽग्ने कुञ्चितः पश्चाद० ७३ वामोऽलातो दक्षिणस्तु ५४ १४२ वामो लताकरो यत्र ११० १५५ वामः पादो दक्षिणांहः २३ वामः समः परः पृथ्व्या० ८०३ ६६ धामः समः परो० ७४ ११६ वामः सूची च भ्रमरो० ४० १४२ वामिवेगेऽधो०
५३२ ४३ वांशिकरवकाशे
६२ २२७ वार्षगण्यविषयोऽपि १० १६५
वासनाभिनय तद् ३४० २६ विकारो जायते देहे ३८२ ३२ विकाशिन्यनिमेषा ५० ८७ विकाशिमल्लिकामोदि० २४ २२३ विकीर्य पुष्पनिचयं १८५ १७ विकृताचारवियरङ्ग. १६६ २१७ विचारस्यासहत्वेन ३३३ २६ विचित्रचित्रसंयुक्ता ९४८ विचित्रजङ्घाचरणो० ३ ११६ विचित्रतिलको भालः २७ २२३ विचित्रविहृतर्येनातिकान्तं . ६२ १४३ विच्युतो समपादात(?या). २२ १२१ विच्यवोत्खण्डिते कुर्वन् ५३ १४२ विकितेऽपराधे च ५५२ ४५ विदधाति कटी यो ७६३ ६७ विदूषकः सूत्रधारस्तथा २७२ २४. विधाय बद्ध्वां चारों चेत् ४३ १२३ विधाय क्रमतो हस्ताव० ७४३ ६३ विधाय चारोमाक्षिप्तां १७० १६२ विधाय भ्रमरों पावें ६२ १५० विधाय चतुरस्त्रः सन् ५४ १४६ विधाय पादावूर्वाग्रो १७ १६६ विधाय वामे सूची च १८ १५४ विधायाक्षिप्तिका चारी ११२ १५६ विधायक समं पाव० २७ १६६ विधार्यतानि कार्य च ७० १७८ विधतं विनिवृत्तं च ७२ १७८ विधेयो स्वस्तिकाकारो ६०५ ४६ विद्धा प्रावृतमुल्लाल १० १२६ विद्य कलास इष्ट: षोढा ४० १८८ विद्युत्खड्गो प्लुततो गुरुणा ३६ १८८ विद्युत्खड्गी मृगबल (क)संज्ञो ३८ १८७ विध भ्रान्तमतिक्रान्तं विद्य भ्रान्त इति प्रोक्ता १३ १७३ विध भ्रातां दण्डपादां १३० १५८
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________________
श्लोक
[ २७ ] क्रमांक पृष्ठांक श्लोक
क्रमांक पृष्ठांक विद्य भ्राम्ता पुरःक्षेपाः ८ १२६ विशुद्धा पद्धतिश्चात्र २ २२० बिनम्रोवंपुटा दृष्टि० ३६ ८६ विशेषलभ सासामथ ४ १५४ विनियोगोऽङ्गहाराणां १०३ १८१ विशेष्यते तथा नीलं ७६८ ६५ विनियोज्यं गतौ चैतदा० . ६९ १५१ विशेष्यं नानुयात्यन्य० ७६७ ६५ विनिवृत्तं तु तत् प्रोक्तं १५० १०१ विष्कुम्भापसृतो मत्त० विनिष्क्रान्तो विसृष्टः . १२२ ९७ विष्कुम्भे मवकं ज्ञेयं ५६ १७७. विपरीतप्रचारा सा ३१ १३७ विष्णुदेवतमेतत् स्याद् १६ ११० विपर्यासे चरणयोमि० ७७ ८० विषमं च प्रहरणानु० ४७ १९८ बिम्बोको वाञ्छितार्थस्य ४६२ ४० विषम विकटं लम्वित्यत्र : ४६३ ३८ विभागादेरभिव्यक्ते ३२३ २८. विस्मिता दूरविस्फार १६ ८४ विभावर्जनितो भावो० १४७ २१५ विक्षिप्ताक्षिप्तकं नाम मुखा. ७ १४५ विभु-राष्ट्र-प्रयोक्ता
विभिप्तमञ्चितं चैव ६३ १५० विभ्रान्ता क्वचिदश्रान्त० ५१ ८८ विक्षिप्ते करणे कार्य ९१ १५० वियोजिते वियोगे तु. ५९२ ४८ विक्षेपवेधौ रचयन् २४१ २१ विरहानलतप्ताङ्गी० ४ १९६
विहसी स्यात् स्मितं
७५ २०८ विरूपवेवावयवव्यापार ४६४ . ३५ धीक्षणे गादीनां ३१ १११ विरोधित्वसमत्वाभ्यां ४३० ३६ व्रीडा चपलता हर्ष १६४ २१६ विलम्बेनाविलम्बन
५६ २०५ वीररौद्रकृतं मल्लसंघर्वा० ३४ १११ विलम्बिताभिनयावङ्गाननं ४१ २०४ पोरा संकुचितापाङ्गा २६ ८५ विलम्बितलयेऽभीष्टमान . १७७
वेणीकृतास्तथा मुक्ता ५०२ ४१ विलीनमिव तत्पात्रं ६९ २२७ वेषभावालयोपेता १८१०४ पिलोकतेऽलसं भ्रान्ते ४५ ८७ वेषे लेप्यनितम्बिनी.. ३१, २०२, २०३ विवंतिकत्रिक पाव. ७६०
वैतालङ्गिकरित्यादि ६६, ७८, ७९ विवतितो समुद्वत्तो
वैशाखरेचितं पावनिकुट्ट १० १४६ विवर्तितः कम्पितश्च
वैशासं स्थानकं छिना ९३ १५४ विवक्षावशतोते ४५० ३७ वैशाख स्थानकं हस्तौ १०५ १५५ विषमा चात्र शोभायां ४५१ ३७ वैष्णवस्थानके स्थित्वा ६४ १५० विवाहस्थाननयने तथा ६६९ ५६ वैष्णवे स्थानके पामिरेको १७२ १६२ विवेकशालिनां चान्तन ४१६ ३५ वैष्णवं स्थानकं कृत्वा ४५ १६६ विश्वार्थाभिनयप्रपञ्च० ११७ १० वैष्णवं स्थानमास्थाय २७ १६७ विश्लिष्टा हरिणप्लुतानि १ ११६ वैष्णवं समपादं च
४ १०६ विश्लिष्यं पाणिविद्याया० १८ १२७ वैशाखरेचितेनासामेका १८२ १७ विश्लिष्यान्योन्यमाद्याभ्यां १८ १९८ व्यजनग्रहणायना०
३५३ ३० विंशतिः करकर्माणि ४० १०६ व्यञ्जयर
२८० २५ विशीफलवानोक्तफलः ३७५ ३२ व्यजनग्रहणाच्चापि ३७०
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श्लोक
व्यभिचारिषु सर्वेषु व्यादोणं श्वसितं वक्रं
व्याधिते तुन्दिले चैव
व्याभुग्नं किञ्चिदायामि
व्याभुग्नं भुग्नमुद्वाहि
ध्यामूढे वाच्यता
व्यायामे ताण्डवे प्रोक्तो०
व्यावर्तनक्रियोपेता०
व्यात्तास्यस्थशता जिह्वा
व्यावत्तिताख्यं करणं
व्यावर्त्यते करो यस्तु
व्यावर्ततेन हस्तश्चेवल ० व्यावर्तते नालपद्मीभवन्
व्यावर्तितोऽन्तर्गात्रं व्यावृत्तिपरिवृत्तिभ्यां व्यावृत्तिपरिवृत्तिभ्या० व्यावृत्य दक्षिणं पाश्वं ०
व्यावृत्त्या वक्षसो भालं व्युत्क्रमेण प्रयोगेऽपि
वृश्चिकाङ, दाङ्ग ष्ठो वृश्चिकोऽङ प्रिर्यदा हस्तौ
वृश्चिकं चरणं कृत्वा वृत्तयश्च कलासाश्चो० वृत्तिर्वापि रसो वापि
व्यंसितं द्विः प्रयुज्येत
शकटास्यो भवेद्वामो०
शकटास्यां भजन् चारी० शक्तितोमरशरासनादि० शक्तोऽस्मीत्यभिमाने
शङ्खस्याभिनयो ज्ञेयो० शंखस्य धारणे कार्यों ०
शतौ द्विद्विकलौ सं
शश्वद्राजकुलोद्भवाः श्यामगौरविभागेन श्यामतापि च चतुविधा
[ २८ ]
क्रमांक पृष्ठांक
१० ८३
१४० ६६
६८ ७८
१४६ १०१
१४५ १००
३७ ८६
७६ ८०
७४५
६३
१३६ ६६
५८१ ४८
६७ १५०
५५ ७७
७४१ ६२
६२ ७८
३० १४७
७४८ ६३
२३ १४७
४४ ७६
७५७ ६४
११६ १५६ १३६ १५८
७५ १५१
२ १८४
३६ १८७
८२ १७६
१६ १३६
१५ १३६
१३ १९५
४८१ ३६
૧૪૬ ૪ર્
६४८ ५३
२१७ १९
१२२ ११
२७ २२४
१६ २२२
श्लोक
श्यामः सितः कपोतश्च
शरच्चन्द्रप्रतीकाशोऽथवा
शरीरमलसं नेत्रे
शशताता रासं द्विः
शशताशा सन्निपातौ
शस्त्र प्रहारबहुलो०
शस्त्रहस्तविषयं तथा
शस्त्रक्षतादिके सुप्त •
शाखा चैवाङ कुरो नृत्तं
शाखा नृताङ, कुरोपाधि० शास्त्रार्थस्य स्वीकरणे
शिरोवेशे [ चन्द्र ? ]. शिरोभ्रमरिका संय तथा
शिरः क्षेत्रेऽलपद्मश्च
शिष्यानोपयिका तत्र
शीघ्रये विश्वासकार्ये शीघ्रं गतागतैर्युक्ता
शीतक्लेशे प्राह्यवाय
शुकतुण्डश्च काड़ गूल० शुकतुण्डको वक्षःस्था०
शुकतुण्डाय घोवषत्रो
शुद्धश्चाप्यथ रूपकं ०
शुद्ध सत् तन्मते
शूद्रा विहीनवर्णानां शून्यतायामनाश्वासे
क्रमांक पृष्ठांक
१८६ २१८
१५२ १४
८२ ११७
२५७ २३
२३३ २१
३२ १८७
११. १६५
८६ ११८
४४२३६
४३८ ३६ ६६० ५५
३ १
११ १६५
१४२ १५९
३६२ ३१
६३३ ५२
७६६ ६८
११७ ६६
५०७ ४२
३४ ७५
६७० ५६
४८ २२६
३४७ ३०
४०
४
४७८
शून्या च मलिना श्राता (न्ता ?) ८ श्वेतचन्दनकर्पूर भस्मा०
शृङ्गाराद्भुतहास्येषु शृङ्गाराज्जायते हास्यः
शृङ्गारास्थापकं हास्य
शृङ्गारादिरविष्टा श्लक्ष्णा ध्रुवाख्यखण्डेन शेषत्वाद्गुणनापत्तेर्न
शेषाणामर्थ योगेन
शोभावलित सर्वाङ्गा
३६
८३
१६ १६५
२८ १०५
१५८ २१८
२८ १५६
३१ ८५
६५ २२७
३२० २८
८ २१०
८२ २०८
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________________
११
[ २६ ] श्लोक क्रमांक पृष्ठांक श्लोक
क्रमांक पृष्ठांक इलणाध्रुवाख्यखण्डन ६५ २२७ स्तम्भाना स्थापनं कुर्याललग्ने ५६ ६ श्लपणे मृदुनि नि:सारे ६१० ५० स्तम्भितोच्छासनि:श्वास. १०४ १४ श्लिष्टभाषपरं वाक्यं ११ २०० स्तम्भः स्वेदोऽय. १६२ २१६ श्लिष्टोमियश्चेच्छिखरी
स्तनदेशागतं जानूनतं ८७ ८२ श्रब्य श्रवणयोगेन ३०६ २७ सत्पुस्तकोल्लसितपाणि २४६ २२ श्रीकुम्भकर्णसङ्गीत-गीत० ६६ सप्तते हस्तका सन्ति ५१४ ४२ श्रीफलोपमकुचापरलीला० ५ २२० सत्त्वमित्युच्यते सांख्य. ३८५ ३२ श्रीमत्कीतिघराचार्यो० ६७३ ५६ सत्त्वं रजस्तम इति ३८७ ३३ श्रीमत् कुम्भलमेरा० १८८ १६४ स्तब्धतारानिमेषाखा ४६ ८७ अतिर्गीतं कलासश्च १२९२ २१३ स्थानेन समपादेन १७ १२० षट्स्वेतेषु च गीतेषु
स्थानं वा समपावमत्र ५० २२६ द्विशन्मिलिता: सर्वा
स्थापयेत् कुम्भिकाशीर्षे ६१ ६ षड्दारुकयुतं तस्य
स्थायानामधिकोनता० २१९२-१९३ षड्विंशतिरितीमानि ७४ १७८ सद्वितीयकिका वापि ६४ ८६ पोशं करणं ज्ञेयमयो. ६३१७८ सप्तषष्ठिरिती यायं ७७१ ६५ स एव सूचीसंज्ञः ४४१ ३६ स्पर्शग्रहोल्लकुसने०१ २ २१८ स एव त्र्यनः किञ्चिच्चेत् १६ ११० सर्पशीषों पताको वा ६५३ ५४ स एवो कृताङ्गष्ठः ५६६ ४६ स्फुरश्मिप्रभाजाले० ३० २२३ स्कन्धकूपरयोर्मध्य० ६५७ ५४ स्फुरितो स्पन्विती ७१ ९० स्कन्धवेशे स्त्रिया वावं ५३ २२६ स्फुरितं कम्पितं प्रोक्तं १४४ १०० स्कन्धाभिमुखमाविधी ५६ ७७ स भवति कररेचकः ४१८२ स करो भ्रमरो यत्र - ६१७ ५० स भवति चरणोद्भवः ५१८२ सङ्गीणं तद्भवेन्नत्यं . . . ४६५ स्वभावावस्थितं स्त्रीणां ४६७ . ४१ सकृद्रेचितहस्तश्चेत् १२ सभाभ्यां चरणाभ्यां ३८ १३० सकृत् पाणिगता १५ १७१ सभ्रूक्षेपकटाक्षा स्यात् २१ ८४ सकृन्मनः प्रयुज्यापि ३५६ ३० सभूक्षेपस्मितापाने
४७ ८७ सखि स्फुरति यामिनी १६ २०१ समन्तावष्टहस्तं १०२ ६ सङ्गीतपरिक्लेशा नित्यं ३१८ २८ समपादनिकुट्टा सञ्चारितोत्कुञ्चिता ५१२६ समपावस्थितो भूमी
३० १६७ स चेष्ट देवतारूपो० २०४ १८ समपादं चैकपावं . ७ १०६ स चेष्टितः स्यात् सजीवो०. १५ १०४ समपादं समास्थाय २३ १४० स्तम्भावावपि सा तुल्य० ३६७ ३१
समपावाप्रतः किञ्चिद० स्तम्भादि कारयन्ति ३५० ३० स्तम्भाविभिः प्रयोज्योस० १८५ २१८
समपाक्षात् परं तियंगु० स्तम्भावीनां तु बाह्यानां ३४३ ३०
समपादा स्थितावर्ता १२ १२० स्तम्भावभिनये कायों ६१५ ५० सममाकुञ्चितं स्थान १२१०६
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[ ३० ] श्लोक क्रमांक पृष्ठांक श्लोकः
क्रमांक पृष्ठांक समयाक्षिप्तिका धारी १४ १५४ सव्यापसव्यं भ्रमणात् । ५५ १४२ समस्याङ घेरुपृष्ठे १३८ १५८ सव्येतरेण पादेन
४१ १६८ समस्याघ्रस्तु सव्यस्य ७२ ११६ स्वस्तिकाद्विच्युतो हस्तौ ४० ७५ समस्याङः परः पावः ७० ११५ स्वस्तिकीकृत्य जो १३५ २२ समस्य चरणस्यान्य. ६५ ११५ स्वस्तिकीकृत्य विश्लिष्टे ५६ १२५ समस्यैकस्य पादस्य ५६ ११४ स्वस्तिकेन धिना भूतो ६७२ ५६ समं पतं च विधुत. ४७४ ३८ स्वस्तिको कुञ्चितो हस्तौ ५१ ७६ सम नतं च विवृत.
स्वस्तिको चरणौ यत्र . ३४ १२६ समं साच्यनुवृत्ता ८६ ६२ स्वस्तिकं कर्कटं चैव ५६ १८९ समं स्वभावाभिनये ४७६ ३९ स्वात्मानं तन्मयं कुर्वन्भिव १३० १२ समः स्वभाषाभिनवे ८०० ६८ स्वार्धाक्रान्तभुवी स्थाप्यो ६८ ६ समाश्चततश्चतुरा १७८ १६ स्वाभाविकेच संलापे ४६ ११२ समा निवृत्ता वलिता
सविभ्रम पुनस्तानि ७० २०७ समाषा वायवोऽन्वर्थ
सविलासं तथा हस्ते ७३२ ६२ सभाधीशमुखं हस्तं
सव्ये तरितरे भागे ६५ १९० समाघेवसंस्थाने
स्वेच्छयात्र प्रकर्तव्य १३५ २१३ समां कृत्वा भुवं तत्र
सर्वेष्वभिनयेष्वत्र २९४ २६ समुद्गः कथ्यते चोष्ठ० १२५ १७ सशब्दं वदनाधस्तु १०५ ९४ समवृत्तं च निष्काम० ___७६ ६१ सस्वनवितर्मोहागमेश्च १७१ २१७ समोऽञ्चितः कुञ्चितश्च ७६८ ६८ ससौष्ठवं समं ज्ञेयं ७८० ६६ समोत्सरितमत्तल्ली० १३ १२० सहजा पतितोक्षिप्ता ६० ८८ समौ कुञ्चितो प्रसृती ६७ ८९ सहर्षमवलोकनं विहित० ३० २०२ समी पादावासनं
८१ ११७ साङ्गुष्ठान लयो यत्र ६१८ ५१ सरलोक्षिप्तमाकम्प. ७८४ ६६ साङ्ग ठाङ्ग लयः सरलः पाश्वयोरूध्वं. २४ ७३
किञ्चित्कु०
५७८ ४७ स्थावत्रोत्प्लुतिपूर्व
३६ १९७ सात्वती निर्मिता वृत्ति० १० १८५ स्यादारितकेऽप्येष ६२१ ५१ सास्वतेऽपि विधिरेष. १९४ स्याद्गीतपरिवर्तेऽस्य ४७ १४६ सात्त्विका प्राङ्गिकेज्वेव ४३४ ३६ स्युरेवं भित्तिकर्मायो०
सात्त्विकान्तः पातित्वेन ३५२ ३० स्वर्णताम्ररूप्यलोह०
सा द्वितीया यदा मूलादु. ६५ ८६ स्वस्थाविति नबोच्छ्वास. १०३ १४ साधंतोलान्तरत्वेन
२४ १२१ सर्वविक्ष भ्रमणतो. ७६७
साधावर्थ लास्यशब्दः २८६ २५ स्वपाश्व नीयते
२० १२० साधिक्षेपपदं यत्र २६ २०२ स्वपाश्र्वेऽरालता प्राप्तो० ७४२ ६३ साषिक्षेपवचोभङ्गी
२२ १८६ स्वल्पामारोपितं यच्च ७२१ ६१ । साधीना मुखगिस्य २३ १०४
२२
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[ ३१ ] श्लोक क्रमांक पृष्ठांक श्लोक
क्रमांक पृष्ठांक सापराधे प्रिये धू ता० ५७४ ४७ सूचीवक्षस्तथा चामो० ४६ १४२ सा पार्श्वदण्डपादेति ४५ १२३ सूचीवक्षिणपादः स्यात् ३१ १४० सामान्याभिनयो नाम २९७ २६ सूचीनां त्रितयं प्रोक्तं ३६ १६८ सारिका सा सरत्येक ३७ १३० सूचीपादोऽथ वा सूचीमुखो० १३५ १५८ सा शिरोभ्रमरी ज्ञेया ४८ १६९ सूचीमुखकरे देह
७ १५३ साष्टहस्तान्तरान् विद्वान् ७८ ७ सूचीमुखो नृत्यहस्तो १७८ १६३ स्थितपाठ्य विमूढाख्यं २ १९६ सूचया षट्कलं कुयु १८७ १७ स्थित्वा चैका घ्रिणा १८ १७१ सूचीविखं वामविवं ५ १३८ स्थित्वा पावाग्रतो० ८०६ ६६ सूत्रधाराञ्जलो पुष्पमोक्षं २५० २२ स्थित्वा व समपावे० १२ १६५ सूत्रधार. पूर्वरङ्ग १३१ १२ स्थित्वकेनाघ्रिणा भूमी ४३. १६८ सूत्रभृत्प्रमुखा अस्या २३६ २१ स्थितस्तम्भानुसारेण ६६ सूत्रभुन्नर्तको तद्वत् २५२ २२ स्थिरहस्तो दानविधी १०६ १८१ सूक्ष्मप्रसूनावचये ६२७ ५१ सितरक्तनीलकृष्ण , ५४ ५
सुश्लिष्टाग्रो पताको ६७४ ५६ सितरक्तश्यामपीता
सुकुमारं सुमधुरं
४६ २०४ स्निग्धविस्तीर्णधम्मिल्लः २३ २२३ सुखप्रायेष्टसंपन्न १५५ २१५ स्निग्धा विकाशिनी १२ ८३ सेयं प्रविष्टा द्विविधेह ७११९ स्निग्धा हृष्टा तथा दीना ६ ८३ सैव पश्चात् पुरः क्षेपात् १३ १३५ सिंहलवानराणां च गतिः ९५ २१० सोऽर्षजानुः ससूचीको० ४१ १४१ सीदत्यस्मिन् मनः ३६४ ३३ सोऽपि तावत् कलस्तावान् २१९ २० स्वीयगात्रनिचये
१६ २२२ सोक्ता नमनिका यस्या ७२ २०७ स्रस्तालसं जानुगतं
२२ १०६ सोच्छवासाकृष्टपवना १०१ ६४ स्री विष्णुः पुरुषः शम्भुः २४७ २ सोद्वाहिता कटी ज्ञेया ७९४ ६८ १०४ २१० सोपोहनास्तद्विमा
१३५ १२ सुधाधवलितं शुभ्रं ११० १० सौख्यानुभावेऽप्यधर ४६६ ४० सुप्तं विबोधोऽमर्षश्च० १६५ २१६ सौष्ठवं विशवकान्तवन्तता १२ सुप्तं सस्तकरद्वंद्व० ६१ ११८ सौष्ठवं स्थापना तालो ३८ २०३ सुमुखी च सुनन्दा १७५ १६ सौम्ये सप्तापरां० सुरार्चने भोजने च ६१९ ५१ संश्लेषः स्याद् दृढश्छिन्नं १३१ ९८ सुरेखो नृत्यशास्त्रज्ञश्चण्डः १६ १९५ संगरेषु परशस्त्रवञ्चनं २ १६४ सुलयमनुसरामि स्थानकं . ३६४ ३१ संजल्पतोनिवृत्तः ३६६. ३३ सूची च नागबन्धश्च ३१ १९६ संवर्भान् ब्रह्मणाप्येताः ५६ ८८ सूची च भ्रमरश्चव ३४ १४१ संवंशो भेषको रूपं २०६ १८ सूची च समरी वामे ५६ १४३ संनिवेशः सभायाश्च सूचीवक्षस्तपापामो०
संपत्तीच विपत्तीच १६१ २१६
स्त्रीवेषचरितैर्युक्तः
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[ ३२ ] श्लोक क्रमांक पृष्ठांक श्लोक
क्रमांक पृष्ठांक संपादयति तां सांस ४.६ ३४ हस्तरेचितकं कुर्वन्
१७४ १६३ संभ्रमे गवंगमने कर्तव्यः ६६२ ५५ हस्ताङ्गः क्रियायोगाप०६४ २०६ संभोगे(?गो) विप्रलम्भेन १५८ २१५ हस्तावूरू कटिन्यस्तो ७७ ११६ संयुता वियुता वक्राः १५४ १०१ हस्तेन दक्षिणेन प्राग ५०. १८८ संयुतवियुतैर्वाय. १४१ २१४ हस्ती करिकरो यत्र संरम्भावेगबहुला १२ १८५ हस्तो रेचयेच्छीर्ष १८२ १६४ संलग्नाः पञ्चषा ज्ञेया० १५६ १०१ हस्तं पुष्पपुटं कृत्वा ४६ १८८ संशये क्रमतोऽगुल्यो० ५३७ ४४ हस्तं हंसास्यमाषाय .. ६५ १३२ संस्मृतो नृत्यशब्नेना.
होरोवेासु जानूक्तं ८८ ८२ संसाध्या भूमिरायामे
हृदयाभिमुखो हस्तो. २७ १४७ संहताङ गुल्यो यत्र ६३७ ५२ हृदयासललाटाना ७०७ ५६ संहतं मीलितमुखं १४२ १०० हेतुः समानकालीनो० ३५८ ३१ संहतं स्थानमास्थाय १६ १२७ हेमपट्टगता चित्रलेखे० २५ २२३ हर्षेऽनुमोदने क्रोधे ५०० ४१
हंसपक्षकराश्लिष्ट०६८ ५५ हर्षकोधाभिलाषादेः ४९३ ४० हंसपक्षं कर चान्यं
४० १४८ हस्त प्राक्षिप्यते चाङ् ध्रि० ६८ १५१ हंसपक्षाल्य करयोः
६८४ ५७ हस्तकद्वयनिष्पाये ७१७ ६० हंसपक्षावरालो वा ७३८ ६२ हस्तकंभ्रमरीभिश्च
हंसपक्षीकृतो तो तु ६८६ ५७ हस्तप्रचरणाधीनं
२६ १०५ हंसास्यो हंसपक्षश्च ५०८ ४२
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________________
परिशिष्ट २
पारिभाषिक - शब्दानुक्रमः
मक्ष ५० प्रक्षपात ४७ प्रक्षवलय १ अखिल ४६, १९२ अगर २२८ अग्रग ४१, ६८,७०,१०५ प्रन १०२ अग्रणी १२४ अग्रतल ६६, १५७ अग्रता २१६ प्रग्राम्य २०६ प्रकर १७, १८, ३६, ४२, ४६, ७४ . प्रङ्ग ३,१०, १३, १५, १७, ३६, ३८,
४०,६४, ७१, ७७, १०४,२०८,
२११, २२६, २२६ मङ्गक १४५, २२५ . अङ्गद्वन्द्व १८०
१५३, १६४, १६५, १६६, १७७, १७८, १८०, १९८, २११, २१२
२१३, २२५ अणु ४ प्रतिक्रान्त ६६, १२३, १३८, १४१,
१४३, १४६, १५७, १७४, १७६ अतिशय १८५ प्रतिहसित २१६ प्रत्युच्च ११० अथर्वण २६ अद्भुत ८३, ८५, ८८, ६१, ६२, ६५,
१००,१०५, २१३, २१५,२१८, २१९ अधम २५, ३८, ८८, १६०, २१६ प्रधर ४०,८२,६६, २२३ प्रधः १०६ प्रधःक्षिप्त १०१ अधस्तल १०५
धि २ अधिक ११६ अधिष्ठान २२३ अधोगत ४० अधोगति ३८ अधोगतः १०५ अधोमुखग १५४ अधोवदन १०५, १५५ भषोवक्त्र १६० अध्यवसाय २१७ अध्यधिक १३६, १४०, १४६ मध्यषिकता १३६ अध्यर्ष १४० अध्यात्म २७ अध्याय २०६ अनन्त ६५
मङ्गमूख ८८
मङ्गरचना २, १०३. . अङ्गविकार २१६, २१७ मङ्गविज्ञान ३८ अङ्गहार ३, ५, १२, १७, १८, २५,
२६, ३६, १२३, १३३, १४२, १४५ १७२, १७३, १७५, १७६, १८०,
१८२, १८५, २०६, २०८, २२९ प्रङ्गहारक १७४, १७६
प्रङ्गानङ्ग २०४ प्रङ घ्रि १५६ अञ्चल २१९, २१३ अञ्चित ३६, ४१, ६८, ७१, ७२,७३, ।
७६,९३, १४६, १४७, १४८, १४६
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________________
[ ३४ ]
मनावर ४०, ४४, ७३, १०१ अनामिका ४७ अनिल ४४,६६ अनिष्ट ८७ अनुकरण ४१, ६६, १४५, २०६ अनुकम्प ६७, १६२ अनुकृत ७३ अनुकृति ३५ अनुग १६,४०, ९E अनुगत ११७ अनुगा ९९ अनुचरित १०६ अनुताप १४८ अनुभाव २७, ४०, ५०, २१५, २१८ अनुमोदन ४१ . अनुराग २११, २१६ अनुराधा ६ अनुरूप २१० अनुरोष ३८, १२६ अनुलोम १३४, १३७ अनुवत्त ६२ अनुवृत्ति २२५ अनुशायिनी १०४ अनुसारत ४८ अनुसारी ७२ अनुसारेण २०४, २०६ নু ৮, अनत ४८ अनेककार्यान्तर ११० - अन्वित ११०
अन्योशकोणगा १४ • अपक्रान्त १२३, १३६, १४२, १४३,
१४६, १४८, १५०, १५२, १६०,
१७४ अपकृष्ट २४ अपक्षेप १३१
अपदं १३ अपनयन ४५, ४९, ५० अपराजित १७५ अपराध ४५, ४७ अपसर्पण ६७, १५६, १६२ अपसपित १४६, १६४, १७४, १७७ अपसरण ४१ अपसारित २२५ अपसृत १६२, १६४, १७३, १७६, १७६
१५० अपविद्ध (क) १४५, १४६, १७३, १७५
१७६, १७७, १८१ अपवेष्टन १४८, १५२, १६१ अपस्मार ८६, २१६ अपहसित २१६ अपाङ्ग २६, ८५ . अप्सरस्(शतेन) २ अपिधानवित् १९३ अपिहित ८६, ६० अप्रस्तुत १०४ अन्ज ४७ अभय ८१ अभ्यर्थन १४७ अभ्यर्थना २ अभ्यास ११०, १५५, २२६ अभिज्ञ ११ अभिज्ञा ८४ अभिध ३७, ५६, १७८, १८०, १८५,
अभिषा १६, ३७, ७४, ७८, ८३, ११३
१२० अभिधान २१२ अभिनय ३, १७, १९, २४, २५, २६,
२७, २८, २९, ३१, ३६, ३७, ३६, ४२, ४३, ४५, ४७, ४८, ४९, ५१, ५२, ६५,६६,६८,८९, ९४,६९, १०२, १०६, ११६, १५०, १५७,
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________________
[ ३५ ) १६१, १८५, १६३, २०२, २०८, । अर्घसूची १४६, १७४, १७५, १७६, २१०, २१५, २१७, २१८
१७६, १८० अभिनन्दन ६७
अर्षस्वस्तिक १४० अभिनेय ६५
अधिका १२० अभिनेतव्य १६२
पराल(कर) ४५ अभिप्राय ३५, ४१
अलग १६५, १६६, १६७ मभिभ्रमण १५.
अलपन १५४ मभिमान ३९
मलङ्कार ७२, १०२, १०३, २१५, अभिमुख ६२, १६२, २२१ . अभिरुच्यते १७४
मला कृति २२६ अभिलाष ८३, ११२, ११३
अलातक १७३ अभिषेचन (भूपानाम्) २
मलाता १२०, १२४, १२६, १३१ अभिष्टाप्ति २
मलातं १३८, १४१, १४२, १४३, १४५, अभ्युदय १८५
१५१, १६१, १७६ अभ्युपगम ५४
मलातिक १४१ अमर ४६
अलिक ३५ अमर्ष ११२, २१६
प्रवकोणं १८७ अम्बर १६८
अवगुण्ठित २१२ अम्बुजासन १९६
प्रवचय ४७ पराल ४२, ४७, ५८, ६२, ६३, १५२, अवतरण (रङ्ग) १३, १४, ११२, १४६ १६१,१६८
, (गङ्गा) १६४, १८०, २१० अर्गलं १४६, १५६
अवतार (गङ्गा) १६४ प्रचंन ५.१, ११७
अवतंसको २२३ अर्थ १, १०, ३९, ४०, ४३, ४७, ४६, अवधूत ३० . ५२, १०४, २१५
अवपात १८७ प्रर्थकीर्तन ३
प्रवरोह १८ अर्थगोचर १६२
अवलम्बन ११२, ११३ अर्थ (परित्यागात्) १८६
प्रवलेहिनी ६९ अर्थप्रकाशन ४०
अवलोक ७२ अर्थसंपत्ति १०४
अवलोकन ८७, ११३ अवलोकन १४७
अवलोकित २६, ६२ अथिसम्प्रदान ५५
अवस्था ५३, ९५, ११३ . अपचन्द्र ३७, ४२, ४४, ६५, १४८, अवस्थित ३६,४१, ८१, १८१ १५८, १५६, १८८, १८६
प्रवाहित्य ५४, १०६, ११२, १४६, १४६ अर्धनिकुट्टक १७५, १७८
१६१, १८०, २१०, २१६ अर्धमत्त १५२
भवाच्या ११६ अपरेचितकं ५६, १७८
হিন
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________________
[ ३६ ] मशीति (हस्तकाः) ६४
मन्तःकरण ३० प्रश्वक्रान्त १०६, ११३, २१०
अन्तर्भूतं (उद्वाहितं) ३६ प्रश्वस्य ११३
अन्तर्गता (पाष्णि) १०१ अश्वानाम् १११
अन्तरालगम् १६५, १६६ अश्विनी १५
अन्तर्भाव ३९ अश्विनी १५
अन्तर्धारका १६५ मधु ३६, २१६
अन्तःकरण ३० अष्ट (वन्तकर्माणि) ९८
अन्वेषण १४८ प्रष्ट (दृष्टयः) ८३, ८४, ८५
माकरौ ६० अष्ट (चिबुक) १६
माकर्षण ४७, ६७ प्रष्ट (हस्त)
प्राकर्षित १४६,. १६१ अष्ट(करणानि) १७४
प्राकर्षितक १७७ प्रष्ट (देशीलास्याङ्गानि) २०४
प्राकार ५८, ६२, १८८ प्रष्टकर २१३
प्राकाश ५४, १२०, १३२, १३८,१५६ अष्टगुणम् ५ अष्टधा(प्राणादि) ३५
माकम्पित ३१, ४०, २०६ प्रष्टोत्तर (करणानि) १४६
प्राकाशजा ११६ प्रसारितेषु १८१
पाकाशिक्य १२६ मसूया ८६, ८७, ८६, १४, १७, १०१,
प्रोकुञ्चन २१६ १४७, १४६, २१६
माकुञ्चित, ८१, १०, १०१, ११० प्रसंबद्ध (प्रलाप) ४५
माकुल २१० प्रसंबन्ध ४७
प्राकृति ५०, १४७ असंयत: ४१
माकृति: १९१ प्रस्त्र ४४
पाकेकरा ८७ प्रङ्क रान् २०६
प्राक्षिप्त १०३, १२५, १५७, १७३, अङ्क रान् (फल) २०६
.. १७५, १७६, १७७, १७८, १८०,
१८५, १८६, २५६ प्रङ्गिका २२४ अङ्गीकार ३६
प्राक्षिप्तक १५१, १७३, १७८, १७६ अङ्गीकृत ३६
प्राक्षिप्ताम् १६२
माक्षिप्तिकाम् १५० मङ गुल्यः उपाङ्गानि) २
प्राक्षिप्तिकिका २२ मङ्गलं (प्रमाणं) ४
माख्यान १५० मङ्ग.लि ५६, ७७, १०१, ११२, २२४,
मागम ११, ३५, १६२, १९३ प्रङ्ग ष्ठ ५२, ४६, १०२, १५६
प्राग्रह ४७,७३ अङ्ग(नर्तकी) २०७
माघ्राण ९६ अञ्जन ६५, २२३ अञ्जलि २२, २५, ४२, ५३, ५५, । माङ्गिक १, २५, २६, २८, २९, ३६, १४७, १८, २२५
. ३७,३८
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________________
[ ३७ ]
प्राचमन ५० मावरन् १९८ पाचरेत २१३ प्राचार २१७ प्राचार्य ३, १२, १४, ४६, ४९, ५४,
१३८, १३६, १०, १८४, १९३,
१६४ प्राच्छुरित १७६ भातुर ७८ मातोद्य २२, २११ मातोद्यवादन १५, २०१, २२७ प्रारमा १८ प्रात्मिका १८५ मावश ६, ४३ माधूत ३८ मानत ४१ मानन १११ मानन्द ३५, १६, १६९ मान्दोलित ९६ माप्लुत १६७ प्रोवन्ध १८३ पाभरण ४५, १०३ . माभुग्न. १४८ माभोगनर्तन १७० माभ्रम ६८ प्रामिष (सिंहाच :) ४८ प्रामुख ४२, ४८, ५४, ५८, ७५, ७७,
१५०, १५२, १५६, १६१, १८५,
२१४ प्रायत ६७, ११२, २१० प्रायताम् २२८ प्रायात १०६ मायामिति २१४ पारभटी २९, ३६, १८५, १८७ . प्रारम्भ १३, २४, ११२, ११३, १४६ मारात्रिक ४१
प्रारुढ १९७ प्रारोप्य १०३ प्रारोप्यकं १०३ प्रारोह १८ प्रारोहण ९६, ११३ मात ११८ मालगपाट १६६ मालप्ति (नृत्य) २१३ मालम्ब ७२, १७१ मालस्य ३०,६६, ११८, २१६ पालात १७६ मालातक १७४ मालातको १४३ पालाप ४०, २१४ मालापन ३६ प्रालिङ्गन ५०, ५६ पालीढ़ १०१, १११, १५४
१७३, १७६, २१० प्रालेख्य ४५ मालोक ६६, ८७ पालोकित ६२, ६३ पावर्त १३८, १४६, १७५ प्रावर्ता (जङ्घा) १२६ प्रावर्तन ४४, १०० प्रातित ७९, १०६ प्रावृत्ति १६, १४३, १५४ प्रावाहन ४० प्राविद्ध ५८, ७२, ७३, १४६, १६३ प्राविध(वर्तना) ७५ प्राविद्धा १२५, १४६ मावेध्यं १०३ मावेश ४०, १०० मावेष्टित ३७, १०५, १०६ आशिष १११ प्राशीर्वाद ४५ प्राश्लेष ७१. माधम ६
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________________
माश्रय १३६, १६५, २१५, २२० मासन १०, ८०, १२, ११७, १६६, . १६७, १६८, १९०, १९१ प्रासय ३९ प्रासारित १३, १६, १७ प्रासीन १६९; २०१ मासंगत १६ मास्कन्दित १३८, १३९ प्राल्लाद ८६ माहान ३९, ४०, ४४, ४५, ५२, ८१,
१०६, ११२ आहार १३ पाहार्य १, २५, १०२, १०४ माहित १३० इच्छा २०४ इच्छानुगम २०६ इति ४८, ५१, ५६, १०१, २१३ इतिहास २१५ इत्थं २२२ इन्द्राभ्यर्थना २ इन्दीवर २२३ इन्दु १८५ इष्यते ८३, ८४ ईक्षण ८७ ईप्सित ३६ ईश ६३, २१६ ईश्वर १०, ५७, १४२, १६४ ईर्षा १० ईर्ष्या ४७, ८२, ९७, १०१, १६३ उप८७ उच्च (ता) ६६, ७०, २०१ उच्छ्वास ६६, १४,६६ उच्छित ७०, ७१ उच्यते ११६ उज्ज्वल ३५ उत्कट १०६, १०६, ११७, १६७ उत्तान २१, १४७, १५७ २१४
उत्तानवञ्चित २१४ उत्क्षिप्त ३८, ४०, ८८, १९, १०१,
१०२ . उत्क्षेप ४६, ८६, १२६, १३२ उत्खण्डित १२०, १२२, १४२ उत्तम १०, १५, २५, ३४, ३७, १६३,
२१६, २२२ उत्तमोत्तमक १६६, २०२ उत्तरोत्तर १११ उत्ष २१६ उस्थान १८७ . उत्थापक १८६ उत्थापन १३, १८५, १८७ उत्पतन १५१, १५५ उत्पीडन ४६ उत्प्लवन १६७ . उत्प्लुति ३, १६५ उत्सङ्ग ४२, ५४ उत्सरित १२०, १२१, १३८, १३६,
१४० उत्सव ३२, २१२ उत्सारण ७३ उत्साह १, ४५, ६३, २१७, २२० उत्सेध ६८ उदक २२४ उदर ७० उद्घट्टित ६८, ६६, १५३, १६३, १६४
१७२ उद्धत २६, १५४, १५५, १५७, १५८ उद्धरण ५१
उद्भव ६६, १६३ उद्वहन ५५ उयार २०४, २०८ उद्वाहि १००, १०१ उद्वाहित ८० उद्वाहिता ६७
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________________
[ ३६ ] उधत ४२, ५७, ६१, १०२, १३६, | ऊर्णनाभः ५१
१४१, १४२, १६२, १७३, १५० ऊर्ध्वग १०५ उद्देश १२६, १३४, १४५, १७२
ऊर्ध्वज १२० उवृत्त ३७, ६७
ऊर्ध्वजानु १७६, १७६ उद्वेजन २१८
ऊध्वंस्थान १६७ उद्वेष्टन १४८, १२६
ऊर्ध्वालगं १६५, १६६ उद्वेष्टित १४७, १५४, १७७
ऋक् २६ उन्नत ६७,७१, ७२, ८१, ८२, ६६ ऋग्वेद १८४ उन्मत्त १४५, १४६, १६०,१७६ . उन्मत्तक १७७
ऋज्वी ६९ उन्माद ८८,२१६
ऋतु २१५ उन्मुख २१, १९६
ऋषि १८५, २०६ उन्मेषित ८६,९०
एकगोचर(नाटय) ११२ उपजीवि ३५
एकजानुनत १०६ उपदेश ४०, ४६
एकतन्त्र २२३ उपधान ४२, ५२
एकताल २१४ उपवहन २०६
एकदेश (नृत्य) ३७, २१९ उपविद्धि ३७
एकपञ्चाशत् (स्थानकानि) ११० उपविन्यास १३ .
एकपाद १०६, ११४, १३५ उपविष्टस्थानक १०६
एकपार्श्वगत १०१ उपशम २२५, २२६, २२७ .
एकोनपञ्चाशत् (भावाः) ३४ उपसर्पण ६७
एकोनपञ्चाशत् (कोष्ठकाः) ८ उपसृत ६७
एलकादि १०४ उपहसित २१६ . . .
ऐकतालिकम् २२७ उपहार २२५
ऐन्द्रजालिक: १६५ उपाङ्ग ३, २८, १२, १०२
प्रोज ८५ उपादान २०४
मोदन ६६ उपाध्याय(क) ३, ६, १८४, १९३, प्रोत्सुक्य ५६; १४, १५; १००, १९६,
२१६ उपाय ३६
प्रौदार्य ८५ उपासक १२६
प्रौद्धत १५७ उपाश्रित ८८
औद्धत्यतः २०७ उपोहन १७, १८
प्रौपम्य ४६ उरःपावर्षि (मण्डल) ४३
कक्षवर्तनिका ७६ उरूद्वत्त १७५
कक्षान्तर २१० उरोमण्डल ४३, ६२, १७५, १७६
कचः ४१ उाम् ७०
कञ्चुकि १२३, १५४
२८८
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
| ४. ]
कञ्चुली २०१ कटक ४५ कटाक्ष ८४ कटाक्षिणी ३ कटि १०६ कटिच्छिन्नं १४५, १७७ कटिदेश १६२ कटिपूर्वक ८० कटिरेचकं १३४ कटी ६७, १३३, १५०, १५४, १८१ कटीतर १५८ कटोरेचक १३३ कटीसम १४५, १७७ कटय र २०४ कण्डिका १६ कण्डूय ४८, ५१ कण्ठ २०४ कण्ठरेचक १३३ कण्ठस्थ ७२ कर्ण ४५, १०६ कर्णपूर ५० कर्णाटदेश २२६ कर्णावतंस ४५ कथा ४० कथोद्धात: १८५ कदम्ब ४२, ५२ कनक कनिष्ठ ४७, ५२, २२४ कन्या २२८, २२६ कन्यावर १११ कपट १८७ कपित्थ ४२,४६, ५५, ६३, २१३ कपोत ४२, ५३, १८६, २१० कपोल ५०, ५६, ८२, ६३ कर्पास ४, २१६ कमल ६७ कम्पन ६
कम्पित ३६, ४०, ६६, ६७, १८, ७६,
८०, ६३, १४, १७, २०६ कर ६५, ११०, १३३, १४७, १५६,
१९८, १९०, १६१, २१४, २२१,
२२६ करचरण १८१ करज १७४ करटा २२४ करण २, ३, १२, १५, २१, २६, ३६,
३८, ५४, ८२, १०४, १०५, ११६, १४०, १४१, १४५, १५२, १५८, १६२, १६४, १६५, १६७, १६८, १७२, १७४, १७५, १७६, १७८, १७६, १८०, १८१, १८७, १६८,
२०७, २०८, २२६ करणोद्भव १७५ . करभ ८१ कररेचक १३३ कराघात २१९ कराङ्ग नि १०१ कराञ्चित १८९ कराध (स्पर्शनमुक्त) १६७ करि १७८, १८० करिकर १५५ करिहस्त १४८, .१४६, १५३, १७३, .१७४, १७५, १७७, १७६ करिहस्तक १७७ करिहस्तत्वम् ६१ करुण ८३, ८४, ९१, १०५, २१५ करुणरस २१७ करुणा ८४ कर्कश ४२ कर्कट ५३, १८६ कर्तृ ११० कर्तृक ११७, १२३ कर्तरी १६५, १६७ कर्पूर १६५, २२४, २२८
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म ४५, ५१, ५२,८२,८७,८८,
२, ६८, १००, १११, ११२, १६५
कर्मठ ६, १३२
कर्माणि ६०
कर्मरूप २१८ कर्मोपाधिका ६०
कलत्र २१६
कलश ६
कलशोपम १७०
कलस ४५
कला ८४, १६७
कलानिधि १३३
कलाप ३४, ५७
कलापक १७२
कलाभिज्ञ १६५
कलास ३, १८४, १८७, १८८, १६०,
१६१, १२, २१३, २१४, २१८,
२२७
कलातक १८६
कलासकरण १८७
कलिनोविना २०६
कलेवर १६५
कवि १०, २४, १४१
कविचार १५, १६५
कविचारक १६७
[ ४१ ]
कविता १६८, २२५
कशित ७८
कषायित २१५
कर्षण १०२
काकु २१२
काजल ४२, ४७
कातरा १२६, १२७
कान्त ४०, ६५, १९४, २२१
कान्ता ३१, ८३, ८४
काम १,४६, ६६, २१५, २२३
कामिनी ४६
कामोपभोग १८६
कारक २१५ कार्पासक २२४ कार्मण २
कार्य ५२, ५३, ७१, ११०, २०६
काल २२४
काव्य १८७
काव्यसंश्रय १८७
काव्यार्थ निष्ठा १०
काशी २२४
काश्यं ५६
कांस्यज २२४
काहली २२४
किङ्किणी १९३
किलकिञ्चित ४०, ८६, १०१
किरोट ४२, ५७
कीर्ति १
किशलय ४८
कुक्कुट १६६
कुङ्कम ४७, २२३
कुञ्चित ६७, ६८, ७१, ७२, ८१, ८२,
८३, ८७, ८८, ६०, ६३, १०१, १०२, १२६, १२६, १५१, १६३
१६२,
कुट्टन ६६, ६८, १३४, १९६ कुट्टनिका (चक्र) १३४, १३७ कुट्टमित ४०
कुट्टाख्या ( मध्यस्थापन ) १३४, १३६
कुड्मल ५१
कुण्डल १०३
कुतप १३, २०४
कुतूहल १११
कुन्त ४६, ७१
कुन्तल ४१, २२३
कुर ५५
कुब्ज ६८, ११०
कुम्भ १६४ कुम्भकर्ण १८३
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ४२ ] कुम्भिका ६
कौतुक १४ कूट १९८
कन्द ११७ कूर्मक ५३
क्रम १४३ कूर्मालग १६५, १६६
क्रमण १६२ . कूर्मासन १०६, ११६
क्रमपाद १३४, १३५ कृतक २१७
ऋव्याद ५५ कृतान्न ६
कान्त १०६, ११७, १२०, १३८, १४१, कृतिः २०३
१४६, १५५, १५८, १६२, १७८ कृपाण ११४
क्रिया ६५, २१२ कृशरा ६
क्रियारम्भ १६२ कृष्टाङ्ग १३
क्रीड(मत्ता) १७५ कृष्टि १०६
क्रीडनक १५८
क्रीडनिका १२६, १२६ केलि १३२ केलिज १०३
क्रीडित १२०, १३६, १४०, १४२, १४६,
१६१, १६३, १८१ केवल २२६
क्रीडितक १४६, १७८ केश ४०, १५३ केशबन्ध ४५, ६०, ७६, १८८
क्रोध ३२, ३३, ३४, ३५, ३६, ४१,
८७, ६० ६४, ६७, १११, १४७ केशाकर्ष ७२ क्लेश ६६
क्षत ११८ कैतव ४६
क्षरताल २६३ कंशिक १९५
क्षाम ७८, ७६, ६३ कंशिकी २८, ३६, १८५, १८६
क्षालन ४३ कोण ६,८,२११
क्षितीश १०६ कोणास्य १३४
क्षिप्त ७६,१२०, १४६ कोप ८९,१००, १४६
क्षिप्रा ८०,१०१ कोपेष्ट ६६
क्षिप्तिका १५६ . कोमलिका २०८
क्षिप्य १०३ कोविद १०, ५४, ५६, ६६, ७६, ८८,
क्षुधा ७८ । १३१, १६५, १६३, २०६, २०८, क्षेत्र १०६, १५५ २२२
क्षेपण(कट) १२० कोश ४८, ५१, ६०, ६३
क्षेपनिकुट्टिता १३४ कोष्ठ(अष्टक) ७, १०
क्षोभ १०० कोष्ठक ८६
खन ४६, ८१, १६३, १८७, १८८, कोसाटिकः १६८
१८६ कोलान्टिक ३
अङ्गिन १९४
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
खञ्ज ६५
खटक ४७, ५७, ५६, ६१, ६३
७४, ७६, १६१, १६३
खटका १५२
खटकदोलक १६१
खटकाख्य १५७
खटकामुख ४२, १४८, १४९, १६०,
१६३
खटकावऋ १६१
खटकास्य १५३
काहस्त १५६, १६६
खण्ड ११६, २२५, २२६, २२७, २२८ खण्डक १७२
खण्डन ६६, ६८
खण्डसूचि १०६, ११५,
खण्डित २०१
खरा २२५
वर्वता २०४, २२१
खलित ६४, ६५
खल्ल ७५
खिन १६०
खत्ता १२६
खुलहुल १६६
खेडका ४२
खेद ४४, ५५, २१६
गङ्गा १
गङ्गावतरण १६४
गज ६२
गजर २२५, २२६
गजवाहन १६१
गण २२२
गणग्रामणी ३
गणवर २
गणाधीश २२०
[ ४३ ]
गण्ड १७६
गण्डक्षेत्र १५८, १७६
गण्डसूचि १५८, १७६, १८०
गतागत १०६, ११३
गति ११२, ११६, १५१, १५६ गतिमण्डल १७७
गन्ध ८६, ६५, २१८
गन्धर्व १०४ गन्धर्वलोक २
गमन ५५, ६८, ७६, ८०
गरुड ४३, ६२, १४६
गरुडप्लुत १५८
गरुडवाहन १११
गर्व ३६, ४०, ४३, ४५, ५४, ६६,
७१, ८७, ६३, १०१ ११२, १४६, २१६, २१७
गलित ११३, १८१
गवादयः (चतुष्पादाः) १०४
गाथा १५
गान २२७
गान्धर्व १४
गामिनी १४
गाम्भीर्य ४५, ५४, ८५, ११२
गायक १४, २०१, २१३, २२७
गायन २२४, २२७ गायनिक २२४
गायिनी २२४, २२७
गारुक १६८
गारुड १०६. ११६
गिरिसुता २
गीत १३, १७, १७०, १९५, २०१,
२०६, २११, २१३, २१४, २२४, २२८, २२६
गीतज्ञ १०
गीतनर्तन १६८
गीतवाद्य २०५, २०५
गीतविद् २१३
गीतादि १६२
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
गीतार्य २२४ गीतिका १८१ गुडोदन ६ गुण ४, ६४, २२० गुणाः(चत्वारः) २२५ गुणोत्कर्ष १८५ गुरु ५३, ५५ गुल्फ ८२, १०१
गृहित ६७ गमावलीनक १४६, १५६, १८० गृहम् (ब्राह्मणादेः) ४ गृहिणी ३२ गृहीत ११७ गेय ५ गोण्डली (विधिः) १९७, २२६, २२८ गोपीगण २ गोप्यगोपन ११३ गोरक्ष १४ गोबिन्दप्रिय १८० गोविन्दपूजन १८० गोमुख ५ गौर २१८, २२४ गौरी ४ प्रथन ५४ प्रन्थि ४१, २२३ ग्रह ४६, ४७, ५५, ७३, ८१, १०२ ग्रहण २१, ३०, ३१, ४६, ४७, ४६,
५१,५४, ५६, १८ प्रहार्थ १९० अन्धवैचित्र्य १७३ ग्रामणी २२५ ग्राम्य २१६ प्राम्यता २२६ प्रामीणः २००
प्रास ४७ ग्रीवा (नवविधा) ७१ ग्लानिः ३०, ११७, २१६ घट्ट १३ घट्टित ६८, ६६ घर्घर १९५, १६६, १६७,१६८ घरिका ८०, १९५ घर्षण ५१,१६. घात ८७, १८६, २११ घ्राण ८९ पूणित १९२ चकष ४२ चकित ७१, १६० चक्र ४६,४८, १३४, १५५ चक्रकुट्टनिका १३४, १३७ चक्रभ्रमरिका १६५ चक्रवर्तन ६६ चक्रवतिनी १७० चङक्रम ७६ चञ्चल १००, ११० चञ्चु १३१ चतुर ४२, ४६, ५७, ५६, ७८, ८३,
११६, १३३, १४६, १५४, १५६, १७५, १७६, १८०, १८६, २१३ चतुरस्त्र ४, १२, १३, २०, ११०,११४
१४७, १४६, १५१, २०६ चतुरस्रकम्( निकृष्टवेश्म) ४ चतुस्त्रितौ १४८, १४६ चतुरा ८८, ८६ चतुर्णाम् (प्राचाम्) ११२ चतुर्थिका १८ चतुर्दश(शिरसः भेदाः) ३६ चतुर्धा(मुख रागः) १०५ चतुर्भुज (महेश्वरः) १४ चतुर्मुख (महेश्वर) १४ चतुर्वर्ग (नृत्याः ) १
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ४५ ]
चतुर्विध (माभरण) १०३ चतुःषष्टिः (हस्तकाः) ६५ चतुष्कोण १३६ चतुष्पाद १०४ चन्दन १६५, २२३, २२४, २२८ चन्द्र ४०, ६५, ८२, १५० चन्द्रचूड २४ चन्द्रमा १४ चपेटवत् १६१ चम्पक ४७ चरण ३८, १०१, १४३, १४८, १५१,
१६२, १८६, १९०, १९२, २०७,
२१२ चरणोद्भय १८२ चर्चरी २१२ धर्म १०३, १०४ चलन ६०, ६१, २२८, २२६ चलालि २०३, २०५ चलित ७६.६९, १०० चषक ५७ चाप २०६ चापग ४६ चापड १६६ चापडप १९६ . . चापल ५८ चामर ११, १०२ चार १०१ चारण १८४, १९३ चारि ८५ नारिका १२४, १२६, १३६, १५१,
१६४ चारी १, ३, १३, २४, २५, ३८, ११६
१२२, १२६, १३७, १४२, १४३, १४६, १४७, १४६, १५१, १५६, १५६, १६०, १६२, १६३, १६६, १८५, १६०, १९५, २०६, २०७, २१०, २११, २१२
चारीपद ११६ चारीपद्धति १३२ चारीबद्धा १७७ चारु ११ चालन १९७ चालि २०४, २२३ वाषगत १३८, १४० चाषगति १२०, १२१, १३८, १३६,
१४०, १५६ चित्त १७ चित्तज्ञ १६३ चित्तवृत्ति ३७ चित्त १५, १९८ चित्रका १६७ चित्रकूट १६४ चित्रपद ३०२ चित्रलेखा २२३ चित्रा ४ चित्रिका १९७ चित्रित ३२ चिन्ता ४१, ५०, ५२, ६४, ६५, ११२ चुक्कित ६८ चुचुक ४६ चूड ४२, ५२ चूडामणि २ चूर्ण १६५, १६६ चूणित १६७, १७७ चेलं २२४ चेष्टा २०१, २१० चेष्टित १०४, २१५, २१७ चौर्य ५१ छुरितक १७३ जगती २१ जन ७०, ७६, १३१ जाख्या १२६ गङ्गाधर्ता १३१ जठर ७८
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
चडता ८६, २१६
चन २
जनताप्रिय २
जनमोहिनी २२३
जनसंघ ४५
ननित ४६, १२०, १२२, १३६, १४०, १४२, १४६, १६१, १६२, १७६
बनिता १३८, १३६, १४१, १४२ जप ३६, ७१, ६०, ११७
जम्बुक ६४
जय ८३, १५६
जयन्त ६५
जरा ६८
जर्जर २०, २४, १५०
जर्नर २२
जलशायिक १६७
जलादि १६५
जल्प १११
जवनिका १३, २२५
ज्वर ६३, १००
वरित ३६
नात २१०
नाति १०४
जानु ७०, ८१, १४५, १८८, २०४
जानुगत १०६
नानुगा १६७
जानुनत ११५
जानुत्कट ११७
नाल १८७, २२३
नितश्रम १९५
जिह्म ८२
जिह्मा ८३, ८६
जिह्वाय ९९
जीवनम् ११०
जीवबन्ध १०४
[ ४६ ]
जुगुप्सा ८६, ६४
नूटकः ४१
जृम्भ ६६, ७६, ६e जृम्भण ६८
ज्ञान ८०, १६५ ज्ञेय ३६
ठेवा २०४, २०६
डमरी १२६, १३१
डमरु १३४, १३६
•
डमरुद्वय १२६
डोम्बड २१४
ढक्का २२७
ढिल्लायी २०४, २०६
तट ३५
तटम् २६
तत्त्व १२, ३१, १६२
तत्त्वज्ञ २१२
तत्त्ववित् १९३
तत्तूक २०८
तप्त ८३
तमस् ३३
तमोराग २१८
तरुण ८८, १२१, १५२, १६४
तरुशाखा ११३
तल ६८, ८२, १०२, १०६ तदशिनी १७१
तलमुखी ७८
तलोद्वृत्त १२६, १२८ तंकित ४५
तर्जन ३६, १०६, ११२
तर्जनी १५, ४७, ५०, ५२, १०५
तर्पण ४६
तण्डु २
ताटङ्क २२३
ताडन ६६, १०६, २१३
ताडित ८६, १२६, १२८, १३१, १३६
ताम्र ६
तारा ८२
तारका १४, ३१, ६०
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
ताल १६, १६२, २०३, २०४, २०६,
२११, २१२, २१३, २१४, २२१. २२६, २२८
तालधर १६८
तालपत्र ५०
तालसंज्ञ ११०
तालिका १६३, २१२, २२७
ताण्डव २, २४, २५, २६, २८, ६०, २०८, २२८
ताम्बूल ५४, २२३
तिरश्चीन ५६, ८०, १०२, १३४ - तिरिपभ्रमरो १६५
तिलक ४४, ७८, १४६१५६, २२३ तिर्यक् १५१, १६८
तिर्यग् ७२
तिर्यङ मुख १२६, १२७
तिर्यग्नमित ३६, ४१
तीथिका २२६
तीव्र ८८
तुच्छ ४४
तुङ्ग ६६, ७२
तुडिका २२५
तुण्ड ४२, ५६, ७४, ७५
तुण्डाकृति १४६
तुन्विल ७८
तुर्य २२०
तुर्यत्रिक २१८
[ ४७ ]
तुष्ट ११२
तूणीरर्जककाम २२३ तृतीय ( रङ्गा)
१७ तृतीयकं (प्रौढपुणम्) २२०
तेजस् ३४
तोमर १६५
तोलन १०६.
त्याग १६६ त्याज्य ६६
त्रस्त ८८, १७६, १७८
प्रस्तर १४६, १५६
त्रस्ता ८३
विशति (देशीयस्थानकाः ) ११०
त्राटित ६८, ६६
त्रास १०२, ११७, २१६ त्रासिका ( हरिण ) १२६
त्रासित १२०, १२५, १४०, १४३, १४५, १५१, १७४, १७६, १७६, त्रासिता १४१, १४२, १५१, १५३ त्रिकलि २०४, २०६ त्रिकोण २०६
त्रिकोणचारी १३४, १३५
त्रिगत १३, २४
त्रितय (नृत्य ३८ )
त्रितय (सूची) १६८
त्रिताली २१३
त्रिपताक १६०, १८६, १६०, १६१
त्रिपद १६६
त्रिपातक १६०
पुण्ड्र (भस्म) २११
त्रिमूढ १६९, २०० त्रिवली २२६
परहरं २०३
यसकः २०४, २०७
वक्ष ८०
दक्षिण ३, ८०, १३६, १८८, २२७
दक्षिणेतर १४३
दघ्न २२८
दण्ड ५, १४६, २११
दण्डचामर २११
aण्डपक्ष १५३, १५४, १७७
दण्डपाद १२६, १३८, १४१, १४२.
१४६, १५८, १५६, १७६
दण्डपादाचारी १३१
दण्डपादात १४१
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--------------------------------------------------------------------------
________________
दण्डवत् १७१ दण्डवतंना ७४
दण्डिका २२८
बन्त ४२, ५५
दन्तोष्ठ २६
बृप्ता ८३
दर्पसरण १६५ दंष्ट्र ४८
दान ५१, ८१
दानव १०४
दारुक ६
दारुज ८
दरिचय प
दिग्भ्रमरी १६६
दिङ्गनाथ २१
दिव्य २८, २०६
दिशा १६, ४०
दीन ८३
दीपशिखा ४८
दीप्तिकर १८४
दीर्घ ४
दु:ख ७१,८८, १३
दुःखार्त ६५
दुर्गाधिदैवत ११२
बुन्बुभि ५
दूरालोक ८७
दृढ २२५ वृढा ४
दृश्यकाव्य १
दृष्ट ६८
वृष्टि २६, ३७, ८२, ८३, ८४
दृष्टिविव् ८४
देव १०४, १७२
देवता ४५, ५३, २२८
देवतागार ४
देवतापूजा १६४ देवी २२५
[ ४६ ]
देश ११, ३९, ४६, ५०, १०४, १८१, १५, २१०, २२४
वेशभूषा २१२
देशी ३७, १०६
देशीकार २०४, २०६
देशीचारी १३४
देशीचार्य ( चतुःपञ्चाशत् ) १३२
देशीवृत्त ३
देशीपूर्व १६४
देशीय २५, ३७, २०४, २१२
देशस्थ १२६
देशस्थानक १०१
देशीयस्थानक ११०
देशीविद् ६२, १२२, १६७, २१३ तिनीवद् १५
दैत्य २१६
दैवत ११०, १११, ११३, २२८ देवती ४
दोल ४२, ५५, १५६, १६०, १६२
दोला १५५, १६०, १६२
दोलाकर १५१
दोलख्य १५६
दोलापाद १२४
दोलाभिष १५२
दोलित ७२, ७४, ६४
दोष ४, २१२, २२०, २२२, २२५
वोहक २१२
दोहन ४६
दौर्बल्य ५६
द्रव्य ४४, ६४
द्रुस २१४, २२८
द्रुहिण १८५
द्रुतभ्र १४५
द्वात्रिंशत् (स्वस्तिकरेचिताः ) १७३ द्वात्रिंशत् (अङ्गहारेषु ) १७३
द्वादश (पात्राङ्गलिः) २०४
द्वार ८
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ४६ ]
द्वितीय(पौवनम) २२० द्वितीय (मण्डूकभेदः) १९१ द्वितीयक (प्रङ्ग) १५५ द्वितीयकः(हंसीवासः) १९२ विषा(अलंकार) १०३
द्विपद्या (वर्णतालेन) २१२ विपाद १०४ विफलक ४१ विमूह १६९ द्विमूढक २०० हो(वांशिको) २२४
.
धनुर्वत् १६१ धनुष १८४ धम्मिल ४१, २२३ ध्यान ३६,५१,७१, ११७, ११८ धरणी ८, ९८, १६१ धरा ९० धर्म १, २७, ३७, ७७, २१५ धर्मि (नाटय) ३५ . धर्मी ३७, १०४ धवलित १० ध्वज ४५ ध्वजा १०४ ध्वनि ५८ धाग्य ५५, १९५ ध्यान २६, ५१, ७१, ११७, ११८ धारण.४४,४५, ४७, ५३, ७३, ८१ धारादि ४३ घावन ४६ घुत ३८, ३६, २०६ . घुतादिक २८ घूनन १०६ धूम ३०,६० धूसर ८५ पति ४५, १८६. २१६
धैर्य २१७ ध्रुव १६, २४, २१२, २२८ ध्रुवक २२७ ध्रुषपद २२७ ध्र वा ३, २२, २०६, २२६ ध्र वायत १२ ध्र वेयं २० नखक्षत ६६ नखदन्त २४६ नग६ नट ३, ३०, ३१, ३२, ३५, १०३,
१२०, १३२, १४०, १४३, १६५,
१८८, १६३, १९८, २१५, २१८ नटनर्तक १८४ नटी २२, १६०, २०७ नटनर्तक १८४ नटी २२, १६०, २०७ नत १, ६७, ७२, ११, १०१, ११८,
१६७ नता ७६, ८०, ९४ । नतोन्नत ४१ नतोन्मत ४१ नन्यावर्त १०६, ११४, १२७ नपुंसक २२ नमनिका २०४, २०७ . नमस्कृत ५३, ८१ नन्न ७२, ७४ मयन ४६, २२३ नरसिंह २१० नर्तक ३, १६४, १९८, २१२, २१८ नर्तकगण १९३ . नर्तकप्रिय २१२ नर्तकी १९, २२, २५, ११३ १६७, . १८६, १९३, २०१, २०४, २०५,
२०६, २०७, २०८, २१३, २२० नर्तन ११२, १३१, १३५, १५८, १७०,
१६५, २०१, २०६, २११, २१२, २२५, २२६, २२७, २२८
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
नर्म १८६ नमंग १८६
नलिनी ४३, ७६,२१४
नव
१७५
नव ( श्रासन ) ११०
नव (करण)
नव ( रसाः ) २१५
नव ( उपविष्टस्थानक) १०६
१७४, १८०
नवधा (पुट) Ge
नवोढा लज्जिता १०२
नाकिन (वेश्म ) ५
नागबन्ध ७८, १०६, ११६, ११८, १६५, १६७, १६६
नागदन्त
नाटक ८, ६७, १०२
नाटघ २, १२, २५, २६, २७, २८, ३७
१०२, १०३, ११२, २०२, २०६
नाटयकोविद १७१
नाटयपण्डित १६६
नाटयवेद १८५
नाटयवेदि ५३
नवेश्म ५
Treaser ४
नाटयशाला ३, ४
नाटयशास्त्र ३, ४
नाव २२५
नानागति २०६
नानानृत्य २१६
नानाभाव २०२
नानामत (हस्तप्रचाराः ) १०५
नान्वी ३, १३, २३, २४, ४७
नामोचित ( भ्रमरिका ) १६५
[ ५० ]
नायक ८, १०, १८६, २१५ नायिका
नारिंगी ४१
नारी ११, ५४, १६८, २१२
नासा २१६
नासिका ८२
निकम्प ८५
निकर्षण ६८
निःकास ४४
निकुट्ट १३०, १३४, १३७, १४५, १४६ १६२, १७३, १७४, १७५, १७७, १६६
निकुट्टक १२६, १३०, १४६, १६३,
१७३, १७५, १७७, १७८, १७६ निकुट्टा १७५, १७६
निकुट्टित १३५, १५०, १५३, १५५ निकुञ्च ८१
निकुञ्चक ४२, ५२
निकुञ्चित ८१, ८६, १४५ १५१,
१७७, १७६
निखिल ११६
निगम ११६, २२६
निगूहित ६७
निग्रह १०६
निघृष्ट १४७
निचय १७
निज (दर्शन)
निजापण ( वेशीलास्याङ्ग ) २०४, २०६ नितम्ब ४२, ६०, ७४, ७५, ८२, १४६,
१५३, १६०, १६३, १७३, १७४,
१७५, १७७, १७६, १८०
नितम्बक १७६
नितम्बिनी २०२
निद्रा ४०, ८६, २१६
निपात २१६
निबन्ध ११९
निमेषित ८६, ६०
निम्नः ८१.
नियुद्ध १२३, १५८, १८७
नियोग ४६, १३८
निरन्तर १४५
निरस्त ६५
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[
५१ ]
नृत्त (हस्त) ५७ नत्तकरण ३
नृत्तश्रम ४
निरीक्षा १११ निरूपण ५१ निर्णीत १२ निर्घर्घर १९४ निजित ११७ निर्दय ९६ निर्देश ३६, ४३, ७६ निर्माण ४, १६३ निमिति (नाटघशाला) ३ निर्भर १५७ निर्भुग्न ६६, १६२ निर्वर्ण ६२ निवर्तन ६७ निवतित ७६ निवृत्त ७१, १५७ निर्वेद ३०, ३१, १४, १००, ११६,
निवेश ३, १४६, १६१, निम्भितम् १४६, १७८ निषध ४२, ५४, ५५ निस्त्रिश ४६ निषण्ण ११० निषिध ५५, १०१ . निषेध.१४८ निष्कर्ष ४६, ९६ निष्ठर २१६ निःसारणा १६८, २१४, २२७ निःश्वास ५६, ७६, ६६ नोको २०४, २०७ नीच ३५ नोति १३८, २०७ नील (रस वर्ण) २१८ नूपुर ६६, १२४, १४६, १६३, १७४,
१७५, १७६, १७८ नूपुरपादिका १२०, १२४, १५६ नूपुरविद्धिका १२६, १२७ नृत्त ३, २५, ३६, ३७, ६०, ११६, १५१, २२३
नृत्य १, २, २६, ३७, ३८, ४३, ६०,
६४, ६७, ७१, ८०, १०५, ११२, १५४, १६३, १७०, १८२, १८५, १९०, १९४, २०६, २०८, २१०, २११ २१२, २१३, २१४, २२५.
२२६, २२७ नृत्य (त्रितय) २५ नृत्यकी १८२ नृत्यकोविद १२८, १४६, १९०, १९६ नृत्यज २१२ नृत्यज्ञ १७, ६२ नृत्यन् (शिव:) १ नृत्यङ्गि १९२ नृत्यम् १४५, १५१, २०७ नृत्यवर्ग ७० नृत्यविद् १०१, ११०, १२५, २११ नृत्यवैचित्र्य १७३ नृप २१५, २२६ नृपति १२५ नसिंह ५६ नेतयः १४३ नेत्र २२१ नपथ्य ५, ७, ९, १०२, १०३, १०४, .
१८५ नैऋत १४ नैवेद्य २२८ न्याय ३,१६४ न्यायसंज्ञा १८५ न्यास २१२ न्युब्ज १७१ पक्ष १४६ पक्ष (प्रद्योतकः) ६१ पक्षिन् १०४, १११, १९८, २१० पडूज २२१
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________________
।
५२ ]
पञ्च(प्रामुखाङ्गानि) १८५ पञ्च (गुल्फ) ७६, ११, १०१ पञ्चकलं १७ पञ्चका १६७ पञ्चवश करसंश्रया(अङ्गहार) १७५, १८० पञ्चधा(मणिबन्ध) ८१ पञ्चपदी २०, २१ पञ्चविध(स्कन्धाः) ७० पञ्चविंशति (मार्यः) १३८ पञ्चादिकं (अभ्यास) १७५ पञ्चविद्या(जङ्घा) ७६ पट २०६ पटह ५ पट्टिका ८ पडिवाड १६५, १६६ पण्डित १५६, १७१, १९३, १९५ परिपडि २२६ पतन ४५ पताक ४२, ४३, ४४, ४६, ६०, ६५,
७४, १५१, १६२, १६४, १७०,
१७१, १८८, १८९, २१३ पताका ५८, ५६, ६०, ६१, ७६, ७७, १४७, १६०, १७०, १८८, १९१,
२१३ पताका(वर्तना) ७४ पतित ८८, १०१ पतिता ८९ पत्र ४९ पत्रभङ्गिरचना २२३ पद २२, २१४, २२६ पदादौ २१२ पदान्त २१२ पद्धति २२०, २२६ पम ७४, ७७, १५२, १५७, १५९,
पद्माधिदेवत ४३, ११२ पद्मीकृत्य १५० । पन्नग १०४ पर ७७ परचक्र ६ परम २२७ परम्परा १४८ पराक्रम २१७ पराङ मुख १०५, २२१ पराङवक्त्र ६१ पराजित १७३ पराद्रता २०८ परावृत्त ३६, ४१, १०६, ११५, १२६,
१२७, १७२ .. परावृत्ता. ७६, ८० परावृत्ति १६७, १७९ परिक्रमः ८०, १४८, १५४,
१५६, १५७, २१० परिक्षयेत् २१६ परिग: ६१ परिगति १९८ परिग्रह १०६ परिघट्टना १५ परिच्छिन्न १७३, १७४ परिच्छेद ५३ परिणाह ७ परिदेवित २१७ परिपूरण १५४ परिभाषा १७२ परिमण्डली १७० परिवडिः ३ परिवर्त १२, २०, २१, १४६ परिवर्तक १८५ परिवर्तन १७, १६६, १९८ परिवर्तित १०६, १४७, १५४ परिवतिनी २१ परिवाहित ३६,४१, १६२, १६४
पप्रकोश ४३, १५५ पास्व १४६
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ५३ ]
परिवृत्त १५६, १८१ परिवृत्ति १४७, १५७, १६१, १७८,
१७६ परिसर्पण १६० परीक्षण ६५, ७४, १२५, १८४, २२०,
२२६ पर्याय २२६ परोक्ष ५० पल्लव(प्रल) ४२, ४८, ६०, ६३, ७५,
७७, १५०, १५४, १५६, १५८, १६१, १६२, १९० पल्लववर्तना ७७ पल्लविका (शिरः) १७० पल्बलं ४३ पशु २१० पश्चात्पुरःसरा १३४ पश्चात्क्षेप १३६ पश्चात्पुरः १३५ पश्चात्सरः १३४, १३५ प्लव १६१ प्लवसंज्ञ १८७ प्लुत ११६, १५६, १७८, १८८, १६० प्लुति २४, १६६, १९७ पाट २२६ . . . पाटिका १६३ पाञ्चाली १५ . पाठकाः(नान्दी) १६ पाठय ५, ११६, २०२ पाणि २०,८२ पाणिका १८१ पाण्डु ६६ पात ७३, ६०, ६१, १६९, १६५ पातक १८७ पातन १६५ पात्र ५५, ५७, ६८, १९३, २०६,
२१५, २२०, २२५, २२६, २२७ पात्रग २२२
पात्रलक्ष्म ३ पाद २६, ८२, ११०, १२०, १४४,
१४६, १४८, १५३, १५७, १५८, १५६, १६०, १६१, १६२, १६५,
१६६, १८० पादगति २०६ पादचारी १२४, १२८ पादद्वय १३४,१३५ पादनिकुट्ट १३४ पादन्यास १८४ पादप ४५ पादरेचक १३२ पावहीन १०४ पावास्य ११४, १४१, १५६ पादाङ्ग २७ पादापविद्ध १४६ पादास्फाली १९७ पायस ६ पारग (नाटयागमे) १९२, १९३ पारम्पयंकीर्तन ३ पारिपार्श्व २३ पार्वती २, १६९ पाव २६, ३८, ६२, ६३, ६७, १०६,
१५५ पार्श्वक २०, २४, २५ पार्श्वक्रान्त १२३, १४१, १४२, १४३,
१५७, १८१ पाश्चक्षेप १३४, १३६ पाश्वंग ६८,७०, १०५, १३१ पार्श्वगत ११५ पाश्र्वग्रहण २१६ पावच्छेद १७३ पार्वजान १४३, १८० पाश्वतः १०५ पार्वतल १०५ पार्श्वक ७२ पाश्वंदण १२३
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--------------------------------------------------------------------------
________________
पुंभावम् २२३ पूजन ११८ पूजा ३६, २२८
पार्श्वद्वयं १३४, १३५ पार्श्वमण्डल ४३ पाश्वस्थ ३६. पाठिणः ७६, ८२, १०१, १६३ पाणिग ६८, ७० पाण्डि ५ पाठिणगता १७१ पाणिपाश्र्वगत १०१ पाणिरेचिता १२७ पाणिविद्ध १०१, ११५ पाणी ७६ पालन ७४ पिड १७,४७ पिण्डी ८, १० पितृसेविन् १७४ पिण्डदान ४७ पिपासा ६९ पीठ(रङ्ग) ६, १० पीडन ५५ पीत १०३, २१८ पीनता २२१ पुट १७, ४२, ५५, ८२, ८५, ८६,
पूरण १३६ पूर्ण ७८, ६३ पूर्णभ्रमर १४० पूर्वरङ्ग १२, ११२, १८५ पूर्वरङ्गाङ्ग १८१ पूर्वालाप १५ पेरणी ३, १९५, १९८ पेशल १५४, १८६, १६५, २२७ . पेषण ४७ प्रकारतः १७८ प्रकाशः ३३ प्रकाशिन् ८५, १५५ प्रक्रिया १४६, २२७ प्रकीर्ण ६८ प्रकृति १०२, १०४, ११०, २०६
२१०, २१६ , प्रक्षेप्य १०३ प्रगल्भ २२०, २२१ प्रचरणहस्त १०५ प्रचलाङ्ग लि ४३ प्रचार ३, २४, २०६, २१४ प्रचारित २२७ प्रचुर १९७ प्रच्छेदक १६६, २०१ प्रणयज ४० प्रणव ६ प्रणाम ४०, ४४, ५३, ५४, १६४,
१६५ प्रताप ४३ प्रतिद्वार - प्रतिनिधि १० प्रतिमण्ठेन २२७ प्रतिलोम १३४, १३७
पुण्याहवाचन ४ पुराटी १२६ पुराटिका १३० पुराण ८५, २२३ पुरातन १८० पुरुष २२, ११२, २१०, २१५ पुरंध्री १७१ पुरक्षेपः १२६, १३०, १३४, १३६ पुरःसर १३४ पुलिन्द २१० पुष्प ४७, १४५, १६५ पुष्पपुट १४७, १६४, १७३ पुष्पाञ्जलि १४७, २२५ पुस्तः १०३
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[
५५ ]
प्रविचार १६५ प्रविलोकित ६२, ६३ प्रवीण ११ प्रवृत्ति ३६, १०२, १०४, २०६, २१०,
प्रतिषेष ३६, ४३ प्रतिषेधन ११२ प्रत्यक्ष ५० प्रत्यङ्गः ३,७० प्रत्यालीढ १०६, १११ प्रत्याहार ३, १३ प्रत्युक्तक १६६, २०२ प्रथम (प्रियसङ्गम) ६६ प्रदक्षिणा ४५ प्रदेश ५९ प्रयोत ४३, ६१, १४६ प्रद्योतक १४८ प्रधान ४३ प्रनाशिनी १८५ प्रनत्यति १६७ प्रपञ्च १० प्रपद १९६ प्रबद्ध ६४ प्रबन्ध ८, १९२, २०७
२२६ प्रभाषण ५१ प्रभेद १८५ प्रभृति ३८ प्रमदा २७ प्रमाण २७ प्रमार्जन ४४ प्रमुख १८ प्रमोदक ११. प्रमोदास्पद २ प्रयोग १२, ४२, ५६, १०२, २१० प्रयोगतः १८७ प्रयोज्य २१८ प्रयोक्त ४, २६० प्ररोषन १८५ प्ररोचना २४, १८५ प्रलय ३४, २१६ प्रवाल
प्रवृत्तिका १८५ प्रवेश ३, १२, २०, १०, ११, ११२,
१४६,२०९, २१३ प्रवेशन १०४, २०६ प्रशंस ४३ प्रश्न ३९, ४०, ४६ प्रसङ्ग १०४ प्रसन्न १०५ प्रसरण ८१ प्रसर्पित १४६, १६०, १६१, १७५,
१७८ प्रसाद ८५, १४३ प्रसादन ११७ प्रसारिका १३६ प्रसारित ६७, ७२, १०१, १०२, १०६,
प्रसिद्ध १४७, १७२ प्रसृत ८६, ६०, ९४, ९५, १०१ प्रस्तावना १३ प्रस्थ (स्थि)ते ४६ प्रहरण १०४, २११, २२७ प्रहर्ष ९३ . प्रहसनम् १८५ प्रहार ४३, ७१, ७३ प्राक १४९ प्राकृत ९०, ९१ प्रागल्भ्य १ प्राक मुख ५३ प्राची ११२ प्राणायाम ९५ प्रागिन् १०४ प्राणिसंज्ञा १०४
แฝด
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--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रान्त ४४
प्रार्थना १६३
प्राधान्य १३८, १७३
प्रायः १६१
प्रावादुका २६
प्रावेशिक २
प्रावृत्त १२६, १३२
प्रासाद १०४
प्रिय ८७, १८१
प्रियतमा ११२ प्रियसङ्गम ९३ प्रीति ३१
पृष्ठ ७०, १६२
पृष्ठकुट्टम् १३८, १४०
पृष्ठतः ४१
पृष्ठोत्तानतल १०६
पृथक् १८२
प्रेक्षक ३६, २०६, २२७
प्रेक्षण ६०
प्रेक्षागृह ४, ५
प्रेक्षायं २२५
प्रेक्षित ८७, २१०
प्रेङ्खलित १४६, १६०, १८०
प्रेमकोपतः ४७
प्रेमकोप १६२
प्रेरण ६६
प्रेरणा ४३, ४६
श्रेष्ठ २
प्रोक्त १७४
फणीश ५७
फल ४७, ५५
फलक १६५, २१६
फलादान ७२
फुलगला ८३
फुल्ली (कपोलो) ३
फूल्कार ६७ बैंक १९१
[ ५६ ]
बककलास १६०
बकवत् १६०
बकसंज्ञ १८८
बद्ध १२२. १५६, १६०
बद्धी ४१, १२०, १५७, १५६
बन्दि
११
बन्ध ५, १६, १७, १८, ४२, ४६, ७४,
७६
बन्धन ७२
बन्धनीय १०३
बल ४५
बलि ५
बलिकर्मणि ५१
बहित्य ४२
बहिर्गत ७६, ८०, १०१
बहिर्जीत १३
बहुताकुल १८६
बाण २२२, २२४
बाल २१२
बालक ४६
बालखेलन १६३
बाला २१९
बाष्प ३५
बाहु ७०, ७२
बाहुल्य २७२
बिडाल ४७
बिब्बोक ७, १०१
बीभत्स ८३, ८५, ६१, ११६, २१५,
२१८, २१६
बुध ४५
बोडक १९७
ब्रह्मा १,२२,२२८
ब्राह्म ११५
ब्राह्मण ६,५२
बाह्य भ्रमरी १६८
भक्त २११
भक्ति २०६
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
भक्ष ६६
भग्न २१०
भङ्ग ७१, २१६
भङ्गि १०, ८
भय ३३, ३४, ४३, ५३, ८३, ६३,
४, १०१, १०६, १८७, २००,
२१७, २१६
भयानक ८३, ८४, ६५, ६१ ६२,
१०५, २१५, २१७, २१८, २१६
भरणाख्य ८
भरत २, २६, २०६
भर्तृ ३६
भत्र्सन ५२
भस्म १६५, २११
भाण्ड १५, २०, २०६
भाण्डकृतं ( ( तन्त्री) १३
भार ( स्कन्ध ) ७१
भारत १३, १४, १९५
भार्या ११३
भाल ४५, २२३
भालक्षेत्र ५०
भाव ११, २६, २७, ३७, ४०, ६६,
८०, ८३, ८४,८८, १८७, २०६,
२०६, २१०, २१.८
भावज्ञ १०
भाषा २७, २१०
भावुक २१५
भावेन २२०
भाषण ५२, ५४, ११२,१४८, २१०
भाषा ७४, १२५, २०२
भिति ८, ६, १०
भीत ३६, ८०, १००.
भीति १७१ भीर ६७ भुकराः ( चत्वारः ) २२४
भुग्म ६६, १००
भुजग १०४
[ ५७ ]
भुजङ्ग १२५, १५३, १७६, १८० भुजा ५६
भुव ३६, २२५
भूत ४१, १४८
भूतार्थ (कथन) ४६
भूपती ४
भूमि ४, १६, १९, २२३ भूमिका १
भूमिजाता ११६
भूमिपल्लव १७०
भूरि ९४, ११३
भूषण १०३
भूङ्गि ७८
भेद २६, ३८, १०६, १६६, १८८,
११, १५, २११, २१२
भेव (तृतीय) १९२
भेदत्रय (नृत्यस्य) २६
भेद्यक १८
भैरवी १४
भोग २१३, २२८
भोजन ५१, ७३
भौम १६८
भौमी ११६
भौम्य ११६, १२६
भ्रमण २६, ३८, ६६, ८१, ६०, ६१, १४०, १६८, १९६८, २१३ भ्रमणततिः १८२
भ्रमर ४२, १३८, १३६, १४०, १४१, १४२, १४६, १५४, १७४, १७५, १७६, १७७, १७६, १८०
भ्रमरक १२५, १२६, १४१ भ्रमरिका १३८, १४३, १५७, १५६,
१६५, १६८, २१२, २१४ भ्रमरी १२४, १३८, १४१, १४२,
१४३, १५०, १५३, १५४, १५६, १६०, १६६, १७१, १६०, २०७, २७२
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
भ्रमित ८१ भ्रमी १७१
भ्रान्त ६४, ६६, १२०, १२४, १२६, १३०, १३६, १४५, १५४, १५७, १६५, १६८, १७३, १७४, १७६, १५०
भ्रुकुटी ८८
८८
भूपुट८६
मकर ५५, ६५, ७४, १८६, १६२ मकरवर्तन ७५
मङ्गल (वैवाहिकः ) २ मङ्गल्य २
मङ्गल्य (सर्वकर्म) २
मङ्गलान्त १६४
मङ्गलार्थ १३४
मञ्जीर २२४
मणिबन्ध ४७, ७०, ८१, १६४
[ ५८ ]
मष्ठ २१२, २२८
मण्ठक २१४
मण्डन २२०, २२६
मण्डप ६
मण्डल १, ३, २०, ४३, ७२, ७३,७७, १०१,१११, ११६, १३८, १३६, १४०, १४१, १४२, १४३, १४६, १४७, १५०, १५५, १५६, १७४, १७२, १७६, १७८, १७६, २११
मण्डलार्थी १४२
मण्डलिका १२६, १२८, १७१ मण्डलेश्वर : १४२
मण्डिका १६०, १६, २०१
मण्डूक १८८, १६१, १९२
मति ३७, १७३, २१६
मत्त १८१
मतल्लि १२०, १२१, १३६, १४०,
१४२, १४५, १५२, १७०, १७५, १७८, १७६
मत्तवारणी
मत्स्य ५५, १६०, १६७, १६१
मद ४०, ४१ ५५, ७१, ८८, ११६, ११७, १२१, १५२, २१६ मदविलसित १७५
मदाद्विलसित १७३
मदालसा १०६, १२६, १२८
मदिरा ८३
मधु १०३
मधुकैटभ १८४
मध्य ४, ४१, १०२, २२०
मध्यग २२
मध्यचका १३७
मध्यम ५, २५, ३७, ६८, १११
मध्य १३८
मध्य लुठिता १३७
मनः २०१, २०४, २०६ मनीषि ६२, १७६
मनुज ३८
मनुष्य २०६ मध्य ४७
सन्द ४०, ६४
मन्दा ६३, ६४
मन्मथ ८७, २२०
मयूर १५६
मरण ४५, २१६
मराला ( चारी) १२६, १२७
मदन ४३, ४६
मर्दल १६८
मदित ६५, ६९
मलिन ८१, ८३, ८५
मल्ल ६४
मल्लयुद्ध ४६
मल्ल संघर्ष १११
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ५६ ]
मल्लिका २२३ मस्तक ४१, १७१, २१० मसूणता २०४, २०७ महत्(पूर्विका) १३ महाकवि १५४ महेश २२८ महेश्वर १४, १५७ माङ्गल्य १८५ मातृका १७२ मात्र ३५ माधव १८४ माषवार्चन १८१ माधुर्य ८५ मान २, ४६, ६४, ६६, २२५ मानदान १७३ मानिनी ११७ मानुष १०४ मानुषी २०६ माया १८७, १६५ मारत ६४,६६ मार्ग २५, ३३, ३७, ४५, ८८, १०६,
मुक्त ५१, १६७, १६१ मुक्तजान १०६, १३१ मुक्ताफल ५० मुख ११, ४२,५१, ५८, ५६, ७१, ७२,
१४७, १५१, १५५, २२४ मुखबन्ध १६६ मुखप्रति २०० मुखराग १०४ मुख्य(रसः) ३७ मुग्ष २०२, २२० मुग्धस्त्री (वीडित) १४७ मुडुप १३४ मुडपसंज्ञिका १३४ मुण्डित १६५ मुद्रिका २२४ मुनि २३, २६, १३८, १६४, २०८ मुनीन्द्र ११६, १८१ मुनीश्वर १८२ मुरारि १८४ मुशलपादिका १२२ मुहूर्त ५२, ७१, २२८ मुष्टि ४२, ४६, ७१ मुष्टिक ६२,७६, १८६ मूर्छा ४०, ४१, ६६ मूछित १० मूल ६, ४३, १०१ मूलप्रन्थि ४१ मग ११७ मगकलास १५८, १८६ मृगप्लुता १२०, १२३, १६० मृगबलकसंज्ञ १८७ मृगशीर्ष ५०, १८६ मृबङ्ग ५, १६, २१२ . मेह६ मेल २०५ मेलका १२१, १३८ १४.
मार्गवारी १२५ मार्गजा ११६ . . मार्गजाता ११६ मार्गदेशीय १३२ मार्गाख्य १६३ मार्गाभिष २ मार्जन ४३ माईलिक १४ माल्यानुलेपन ६, १८७, २१५ मित ४०,४७,६४, ८६ मियोयुक्त १०१ मिथ्या ४८ मीननाथ १४ मुकुट २८ मुकुल ४२, ५१, ८३, ८६, १६०, १९१,
१९३
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ६० ]
योग ५६, ८६, ९५, ११७ योगप्रद ४२ योगी ३५ योनि ८३ योषिता १४७ यौवन २२० रक्त १६, १०३, १०५, २१८ रक्तिप्रद २२४ रक्षण १०६ रक्षिजन १० रङ्ग १२, १४, २५, २७, १०४, १४७,
२०२, २०७, २२५, २२६, २२७ रङ्गकार्य २२६ .
रङ्गपीठ ५, ७, १४, १७, १९७, २२५ रङ्गभूमि १४, १६, १६७ रङ्गमण्डल २०६
मेलन ५२, ५६ मेलनविधि (मङ्ग) २२१ मेलापक २२५, २२६ मेलापनी १७१ मंथुन २१९ मोक्ष १,४६, ९६ मोक्षण १०६,१११, १३८, १९५ मोचन ११२ मोटक ४१ मोटन १०६ मोट्टन १०२ मोट्टायित १ मोटित १०६ मोह ४१, १८६, २१६, २१७ मोहित ११६ मोहिनी २०३ मोखरिक १४ . मोन ४१ मोलि ३८ म्लेच्छ २१०, २२४ यक्ष १०४ यजुः २६ यति ८७, १६४, २११, २१२, २१४ यमक २८ यज्ञादिपूतेषु २ पावन ११७ याचना ४३ यात्रा २ युक्त ६५, १०१ युक्ति ४३, ४४, ४५, ४७ युग्म २२८ युत ६४ युति ४६ युद्ध ६२, १२३, १३८, १५८, १८७ युद्धमार्ग १८४ यूका ४, २६ यूनोः ५४
रचना १९२ , रजस् ४, ३२ रञ्जक १६३ रञ्जन १७ रति ३० रत्ल 8 रत्नाकर २१४ रथचक्र १२६ रन्ध्र रम्भ २८,७३ रस १२, ३७, ४३, ६६, ६१, १८६,
२०७, २१४, २१५, २१८, २१६ रसमा ८२ रसना ४४ रसनिष्पत्ति २१५ रसभाव ९२ रसवर्ण २१८
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
रससंमित १६६ रसात्मिका १०४
रसिक २२४ रहित १०४
राक्षस १०४
राग २६, ८२, १०४, २१५
रागालप्ति २२७
राज ८१
राजकन्या २१६
राजराज ४३
राजा १६, २५, ३६, ५३, ५५, ८२,
२०६
राज्यं (षडङ्गम्) ७० राशि २२२
राष्ट्र ६
रासक ३, २११, २१४
रुग्म ६८
रुचिर ८६
ज (बुश) ६०
चद्राक्षवलय २११
रुद्राधिदेवत ११२ erus (पेरणी) १९६
रूठा (रेखा) १६७
रूप ८, ६०, ६२.
रूपक ६, २१२, २१३, २२६, २२८
रूप्य ६
रेखा १६७, १८, २२०, २२६
रेखासौष्ठव २०६
रेखिका २२१
रेचक ३, ६८, ६६, १३२. १३८, १४५,
१५२, १८२ रेचकलक्षण १८१
[ ६१ ]
रेचित ५६, ६०, ६३, ६७, ७१, ७४, ७५, ८६, ६७, ६८, १२२, १२६, १४०, १४६, १४८, १४९, १५२, १५४, १५८, १६२, १६३, १७०, १७३, १७४, १७५, १७७, १७८, १७६, १८०
रोग ६५ रोदन ७६, २००
रोम ३५, ९३ रोमन्यावर्तन १००
रोमाञ्च ३६, २१६
रोष ३६, ४०, ४९, ५४, ९४, ६७,
१०१, २००
रोहिणी ६
रोद्र ८३, ६१, १०५, १११, २१५,
२१८, २१६
रौद्रगत १६१
रोवरस २१७
रौद्रो १५
लक्षण ३८, ७४, ८२, १४३, १४५,
१७७, १८३, १५४, १६१, २१५, २२०
लक्ष्म १७२
लक्ष्मी ८२
लगभ्रमरिका १६५
लग्न ७१,१०२
लग्नक ७०
लङ्घनिका १२६,१३१ ति १२६, १२
लज्जा ४०, ६६, ९४, १००, १२२, १४६ लहि: २०३, २०४
लता ८, १७६
लताकर १५५, १६०, १७६, १८०
लताक्षेप १२६, १३०
लताख्य ४२, ४३
लताबन्ध १८
लताभिष १६२
लघु २६, २८ लम्बित ४१
लय २०, १८१, १८२, २०४, २०५, २०७, २१३, २१४, २२५, २२८, २२६
ललाट १०६
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
ललाटतिलक १७७
ललित २७, ४३, ६४, ७७, ८६, ११३,
१३८, १४९, १४५, १४६, १५३,
१५६, १७८, १७६, १६२, २१२
ललिता ४०, ८७, १५१ लाङ्गल ४
लाघव ३३
लालित्य ८५
लास २५, ३८
मास्य २, २२६
लिक्षा ४
लिङ्गवति १११
लिप्सा ६४
लीन १६, १४५, १४६, १७६
लीला ४०, ४६, ५४, ८६, १०१, ११३,
११८
लीलागृह २२४
लोलाङ्ग २७
लुठित १३७
लुठिता १३४
[ ६२ ]
सुण्ठित १६६
लुलिता १३४
लेखन ५७
लेपन ६, ४२
लेहिनी ६६
लोक २७, ४३, १३४
लोकत: ४६, २१०
लोकदृष्टि८८
लोकपाल २१
लोकमार्ग १६८
लोकशास्त्र ४२
लोला ( जिह्वा ) ९९, १०० लोला ( प्रीवा)
७२
लोलित ३८, ४०,६६, ७०, ७१, १४६, १६२, १७८
लोह ६, ८
लोहडी १६५, १६६, १६७ लौकिक ३०
ars १३, ५०, ५८, ६०
चक्र ४१, ४२, ६६, १०० वक्रता १५०
वक्त्रपाणि १५
वा ६६, १०१
वक्ष २६, ३८, १४८
वक्षः क्षेत्र १५४ वचनोक्ति १५०
वचोभङ्गी १८६
वज्र ६, १११
वञ्चित ४२, ५६, ६१, १४८, १५२,
१५६, १६०, १६१
चदन ६६, ८२, १००, १४७, २०० वधू ५५
चन्दन १७
वय १०४, २२४
घर ४७, ८२
वरद ६
वरदा ४३
घराङ्गना ११,२१२
वरुण ८१
वर्गण ( नृत्य ) १३२
जित ६४, २११
वर्ण १०४, २०७, २२४, २२=
वर्णक &
वर्णसर १६८
वर्णाश्रय १६७
वर्तन ६२, ७४, ७५, ७६,७७, ७८
वर्तना ३६, ७४, १९४
वर्तनिका ५६, ७४, ७६,७७, ७८
वर्तित ७८, ७६, ८०, १०५, १४७,
१४८, १७३, १७८
वर्धमान १३, १६, १६, ४२, ५६, १०२, ११४ वर्धमानक ११४
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--------------------------------------------------------------------------
________________
धर्म १०४ घल्गन १०० वलित ७१, ७४, ७६, १०१, १४५,
१५३, १७० घलिता ७४, १०१ चलितोर १४५, १८१ बल्लभ १० चल्ली ४६ वशगा १४६ वसन(काषाय) ५ वसन्तराग २११ घस्तु १७, १६, १२ वस्तुनिर्देश ४० वस्त्र ६, १०३, १९८, २२४ वस्त्रधारण ११३ वहनी १९८
ह्निकोण ७ वंकोल १६ वाक ३६, १६७ वाक्काय २०१ वाक्य ५३, ६६, १५०, २१७, २१८ वाक्यार्थ १५१ वागङ्ग २४, २६, १८५ वाचन ४५ धाचिका १, २५, २६, ३६ वात २१,६० वातायन ८, ९, ५६ वार्ता २७ पातिक १८४ बाद (साधु) ४८ पादक २२६, २२७ धादन १५, १६, ४८, ७१, ७३, १९७, . २२५ पाच १८१, १६२, १६३, १९८, २०१,
२०४, २०५, २०७, २०८, २०६
२२५, २२६, २२७, २२८, २२६ वाद्यम (मुख) १९२
वानर २१० पाम ८०, १४२, १६२ वामन ६८ वामपाद १४२ घामपाश्र्व १५७ वामा १५० बामाङ्ग १७६, १८० वायु ३२ वार्षगण्य १९५ वाल ४ वासनारूप २१८ वास्तव १६५ वाहन(प्रश्वानां) १११ विकट २६, ३८ विकल २२७ विक्रम २१० विकार ६५ विकाशित ९७ विकाशिनी १३ विकीर्ण ४६ विक्रोडित १४६, १६१,१८१ विकृणित (ता) ६३, ६४ विकृत ९५, १०० विकृष्ट ४,९४, २०६ विकृष्टि १०६ विक्षिप्त १४५, १४६, १५८, १७४,
१७५, १७६, १८०, १८५, १८६ विक्षेप ८०, १२६. १३१ विचक्षण ६५, १०१ विचार ११, ४१, ४६, ११२ विचित्र ६, १३८, १४२ विचित्ररस २०२ विचेष्टित २१० विच्छन्न १४ विच्छेदन ८७ वियव १२१, १४२ विघ्यवा १२० विच्युत ५०, १५६
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ६४ ] विजयोत्सव २
विमान १०३, १११ विज्ञान १६,८७
विमुक्त ६४, ६५, १०१ वितकं ३६, ५८, ८६, १५१, २१६ विमुक्तक १०१ वितकिता ८७
विमूढ २०१ वितड २०४, २०७
विमोटन २०१ विताडित ९.
वियुक्त १०१ विद्या १३२
वियुत २१४ विद्यभ्रान्त १७६
वियता १०१ विद्धोवृत्त १२०
विरश्चि २२ विधाता २
विरह ११६ विधि १८०, १९४, १६५, २१०, २१३
विराटराजहिता ३ २२८ .
विलम्ब २१३ विधूत ३६, २०६
विलम्बित १९५, २०४, २२८ विधृत १००
विलास २, ४०, ८५, ८६, १७, ११३ विनय ४६, ५३
विलासित १४६, १५६, १७८ विनिवतित १०६, ११३
विलीन १४ विनिवृत्त १०१, १४६, १७८
विलेपन २२८ विनियोग ७४, १०१, १२०, १४८, विलोकम ११३ १६१, १७३, १८१
विलोकित ६२, १९७ विन्यास १३
विलोम १३४ . विपद ११६
बिलोमिका १३७ विपश्चित १७३
विवर्त ६७ विपश्चिता १६६
विवर्तन ६७, ६०, ६१, २०४, २०७, विप्रकीर्ण ४२
२२६ विप्रलम्भ २१५
विर्तित ६७, ८६, ६०, ९७, १०१, विप्लुत ८३, ८८
११८, १४६, १५८ विबोध २१६
विवर्षनी (काम) ८४ विन्वोक ३६, ४०
विवाह ३२, ४५ विभक्त १६
विविध २१७ विभजन ४३
विवेकशाली ३५ विभाव २१५, २१८
विवृत ८१, १०१, १४६, १५७, १५६. विभाधन १७
१७८ विभु ४, १८२
विशवकान्तवन्तता २२१ विभूषित २२८
विशारद ६०, १५२ विभ्रम ५०, ८८, ११३
विशाल १६ विभ्रान्ता ८३, ८८
विशुद्ध २२०
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________________
[ ६५ ] विशेष १०, ८३, ८५, १०५, १३४, वीर ८३, ८५, ११, १११, २१५, २१७ १८४,२१७
.२१८, २१९ विशेषण ६५
वीररस १६ विशेष्य ६५
वीडा २१६ विशफ ८७, १८५
वीडित १४७ मान्ति २२८
वृत्त ६३, १००, १२२ विश्वकर्मा ४
वृत्ति १२, १५. ३४, ३५, ३६, ३७, विश्लिष्ट १२६
१०४, १८४, १८५, १८६, १८७, विश्लेख १०६
१९४ विषकुम्भ १७७
बुन्त ४७,५७ विषण्ण ८३,८७
वृन्तक ४१ विषम २६, ३८, ११६, १२६, १४०,
बन्द २ १९१, १९४, १९७, २२५
वृश्चिक १४६, १५१, १५५, १५६, विषमसूचि १०१, ११५
१५७, १५८, १५६, १६१, १७६, विषाद ३६, ६६, ७६, ८७, २१६
१७८, १७६, १८० विष्कम्भित १०६, ११७
वृषभक्रीडित १७८ विष्कुम्भ १४६, १६२, १७३
वृषभासन १०१ विष्टयादि ४
वृष्टि ६ विष्णु २२, २१०, २२८
वृष्णिका १७३ विष्णुकान्त १४६
वेग ८८ विसर्ग ११२
वेगवान १११ विसर्जन ४७, १०६, ११४
वेणी २२३ विस ११२
वेणीकृत ४१ विसृष्ट ...
वेताल ६९ विस्तीर्ण ५४
वेत्रधारा ११ विस्मय ३६, ४१, ६६, २४, ८६, १०,
वेद २७ १४, ११३, १५०, १५४, १५६
वेदना ९६, ९७ विस्मापन ८४
वेदसंमित १६४ विस्मित ८३, ८४,९४, ९५, २१७
वेदि ७८ विहङ्ग १११
वेविका १० विहसित २१६
वेपय २१६ विहस्त २०४, २००
वेश ९३ विहित २२७
वेशभूषा १६७ विहत १३८
वेश्म (माटय, शूद्रावि) ५, ८, १०, २२३ धीक्षण ७१, १११, ११३ धीमा(म) ७२
वेष १०४, २१७ वोपी १५
वेषचरित २१०
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--------------------------------------------------------------------------
________________
वेष्टक ८ वेष्टन १२६ वेष्टित १०६, १५८, १६१ वैकल्पिक १७७ वणिक १४ वैतालिक ३, २६३, १९६,
२०३ बंदूर्य देवये २१६ वैवाहिक(मङ्गल) २ वैशाख १७, १०१, १११, १५४, १५५,
१७३, १७५, १७८ वश्य ६ वैष्णव ७८, १०१, ११०, ११५, १६२
१६७, १६६ वंकोल(करण) .१६७ वंश १९८ व्यथा ८७,९७ व्यभिचार ३४,८३, २१५, २१६, २१८ व्याकोश २१६ व्याघ्र ५५ व्याज १०३ ध्यादीर्ण ६६ व्याधि ४१, ६६, ७८, ९६, ११७, व्यायाम ६८, ८०, ९७ ध्यावर्तन १६३ व्यावृत्त ११२, १४७, १५४ व्यावृत्ति १४७, १५७ व्योम ४० व्योमग १५५ व्योमयान १६० व्यसित १४६, १५४, १७३, १७५,
१७६, १७८, १७६ वृषभासन ११६ शकट १६३ शकटास्य १३६, १४०, १४१, १४२
शक्ति ४६, १६५ शङ्कर १०२ शका २०७, २१६ शङ्कित ८३, ८६ . शङ्क ५, १३६ शत/प्रप्सरवन्व) २ शतं (मङ्गहार) १४६ शब्द ६, १२, ५७, १०२, २१८ शयन ५६ शरन्मथाकर्षण ४७ शराकर्ष ४६ शरासन १९५ शरीर १४६ . शरीरिण १०४ शस्त्र ९६, १११ शस्त्रपात १६४ सस्त्रमोक्ष १८६ शस्त्रमोक्षण १९४ शम्भु १, २, ३, १९, २२ शाखा ३६, शान्त २१५, २१८, २१९ शान्तरस २१० शान्तिपाठ६ शालभजिका शास्त्र (नाटय) २७ शास्त्र(पानिष्ठानि) २६ शास्त्र (समय) ५५ शास्त्रार्थ ५५ शिक्षा २२६ शिखर ४२, ४६, ५६, ६३, १५८ शिखरत्व १७० शिखापाश १८५ शिखायान १६५ शिर २६, ३८, ३६, ४२, ४६, १०६,
१६२, २०६, २२१, २२३ शिरपिटी १६ शिरिहिर १६६
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________________
[ ६७ ] शिरोभ्रमरिका १६५
शृङ्गाररस २०७ शिरोभ्रमरी १६९
शृङ्गारी १० शिला ५६
शेषपद १९६, २१० शिल्प २७, २१८
शेषशायिनी १८४ शिल्पि ७, २०३
शल १०४ शिव १, २, २२, ९२,१०६
शेष १०१, ११६, ११८ शिवरूपी २११
शोक ९५, १०१, ११७ शिवप्रिय २११
शोकज ३५ . शिवम् १८१, १९४
शोभा ८५, २२१ शिशु ४७
शोभाढय २ शिशिर ७१
शौर्य १८५ शिष्टाचार ३८
श्याम ६६, १०३, १०५, २१० शिष्या(राज) १५
श्यामता २२२ शीघ्र ५२
श्रम ३०, ६६, ७१, ७६, ८६, २९, शीत ३६, ५४, ६६, ६३, .६७, १८, ११८, २१६, २१९, २२८
अमविधि २२० शीर्ष ५, ६, ४५, ५४, ५५, ५६, ७१, श्रवण ६, १३, ४८, ८६, १०३ ११०
धान्त ९६,६५ शीर्षक ४२. १०६
धावण १३, १४ शीर्षपल्लव १७०
श्रीफल १६ शुक ४७
अति . शुकतुण्ड १४७
गि २११ शुकतु (वर्तना) ७५
श्रोणि १०३ शुकास्य ६६ ...
श्वापद १९, २१० शुक्ल २१८
श्वास ३६ शुख २२६
इलक्षण २२८ मुखता १८
श्वास ३६ शुद्धा ३७, २२६
श्लेष १०६ शुष्क १३
श्वसित ६९, १००
षट् (पुंसां स्थानानि) ११० शूद्रादि (वेश्म) ४ शून्य ८३, ८५
षत्रिंशत् (देशीलास्याङ्गानि) २०४ शून्यता ३१ शृङ्खला १७ .
पोरश(नर्तक्यः) १९ शवलिका १८
षोडशधा(बाहवः) १७३ शुङ्गार २, ८६,९१,१०५, २१५,
षोडशधा(हस्तकाः) २१४ २१९
षोडा(पादतल) १०२
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--------------------------------------------------------------------------
________________
सङ्कम २ सङ्गीत २०६ सजीव १०३, १०४ सजन ११७ सञ्चय २२२ सञ्चर १४१ सञ्चार १६८, २२३ सञ्चारित १२६ सञ्चित १४५ सत्तम २२७ सत्त्व २६, २९, ३०, ३१, ३२, ८५,
१८५, २१७, २२२ स्तम्भवय २२४, २२८ । सदाभोग: १७० सनत १४६, १६१ . सन्नम् ११० . सम्मुख १६३ सर्प २११ सपित १४६, १६०, १७३, १७८ सप्त (स्त्री स्थानकानि) ११० सप्तविष (जानु) १ सभा(संनिवेश) ३ . सभापति सभापति(निवेश) ३ सभास्तरण १० सभास्पद ५ सभङ्गारक २० सभ्य १२, २१५ समं ४, १६, ३८, ३६, ६६, ६८, ७१,
८१, ८६,६२, ६३, १४,९८, १०१,
११८, १५०, १९१, २२५, २२६ समनख १४५, १४९,१७३, १७४ समनाद २२६ समपार १०१, १११, १६२, १६७,
२२६ समय ५५, ६५ समर्थ १८२
समर्पण ५५ ।। समसू .. समापन २१३ समुद्भव २ समुद्भूत १४६ समुद्र १७ सरल ७२,७३ सरस्वती १४, २१४, २२८ . सरिका १२६ . सरोष ५२ सविता १३८ . . . सर्व २२४ सर्वाङ्ग २२७० सर्वात्मन १२६ सव्याध १५ सव्यावर्त १६० सहजा ८८ सहृदय २१४ सागर ५४ साङ्ग २ . सामन्त २२५ साङ्गहार १८४ साङ्गठ १०२ साचि २ सात्वत १९४ सास्वती ३६, १८५ सात्विक १, २५, २६, ३०, ३१, ३२,
३३, ३४, ३५, ३६, २१६ साधारण १०५ साध्य ७९ साध्यषिका १२१ साम २९ सामग्री २०४ साम्य २२५, २२८, २२६ सारिका १३० सालग १९७, २२६, २२८ सालगसूर २१२
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ६६ ] सावज्ञ ४७
१६७, १६३ सिचयान्त (अवगुण्ठितः) २१२
सूचीदक्ष १४१ सित ४,१०३, २१८
सूचीपाद १५३ सिद्धि १०४, २२३
सूचीमुख १५२, १६३ सिरालता २२१
सूचीमुखकर १५३ सीत्कृत ९६
सूचीवाम १४१, १४३ सीमन्त २२३
सूचीवित १३८, १४०, १४१, १४२, सीवन ४६
१४३, १४६, १५६, १३, १७५, सुकलास २०३, २०५ सुषा ८
सूच्यान्त १६८, २१४ सुषालेप ८
सूत्र.५, ७, २२, २४, १०३, २१५ सुषी १९२
सूत्रधार १२, १९, २२, २३, १५६, सुनन्द १६
१८५ सुन्दर ५०, २०६
सूत्रमत् २१ सुपीन (स्तन) ६६
सूत्राकर्षण १०३ . सुप्त ९९, ११०, ११८, २१६
सूत्राङ्गद १०३ सुप्तस्थान १०१
सूर्योदय ५४ सुभग २२३
सेवा ३६ सुमना २२६ .
सैन्धव १६६, २०२ सुमुखी १६
सोपोहना ३, १२ सुर ३८
सौख्य २१६ सरगम २.
सौदामिनी ४८ सुरत ६६
सौभाय १, ११३ सुरपूजा १५५ . . .
सौम्य ४ सुरानन्द १५७
सौरभ ६४ सुरेख १६५ .
सौष्ठव ११०, २०४, २२१ सुलय ३१
संकट १९८ सुवेष १०
संकीणं. ६, ३० सुस्थानक २२५ ।
संकोच २१८ सुस्फुट २२४
संक्षिप्त १.७ सूर १९८, २२६
संखोटना १५ सूचन ४५
संग्रह ३८ सूचिका १२६
संघ १२, १०२ सूची १७, १८, २०, ४, ५६, ६८,
संघदित १४६, १६२, १७९ ६९, ११६, १२०, १२६, १३२,
संघट्टिता १२६, १२६ १४१, १४२, १४३, १४६, १४८, संघात १७२, १८६ १५१, १५४, १५६, १६३, १६५, संघात्मक १२५, १०६
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[७]
संवाहन ४६ संविद ३२ संश्रय १०५ संश्लिष्ट ४७, १०१ संसद ३१, १९३, २२१ संसूय २०८ संस्कृत संस्कृति १०३ संस्था २१२ संस्फोटित ४७, १०१, १४६, १५८,
संधिम १०३ संघोटन १३ संघोटना १५ संजीविका १७० संज्ञा ४० संदिग्ध १५ संत २११ संबष्ट ६७ संदेश १८, ४२, ५१ संदोह २०४ संबंश ४२, ५१, ६५, १९०, २१३ संषि १०३ संधिक ८ संध्या ११७ संनतं १७७ संनिवेश(सभायाः) ३ . संपत्ति २०४ संपद २२१ संप्रदाय ४, २३, २२४, २२५ संफेट १८७ संबंध ४६ संभव २०,१८६, २०८ संभावना १५० संभाष ५३ संभूय ४३ संभेद २०० संभोग २१६ संभ्रम ५५, ६६, ६८, ७६, ८८, १६३,
१८५ संभ्रान्त १४६, १६३, १७३, १७४,
१७६, १८१ संमार्जन ४४ संमित १६५, २०४ संमुख १०५, १४६ संयत ५७, २१४, २१७ संयुता ४२, १०१ संलग्न १०१, १०२ संलाप १७, १८५, १८६
संहत ८१, ८२, ६६, १००, १०१,११४ संहर्ष १८५ सांख्य.३२ सान्तवन ११७ सांप्रता ५० सांप्रदायिक २२६ सिंदूर २२३ सिंह ५५, २१० सिंहमुख ४२ . सिंहासन १० सिंहासना १७१ स्कन्ध ७०,७२, १०६ स्कन्धवेश २२६ स्खलित ११३, १२६, १४६, १६१,
स्खलितक १७५ स्खलितिका १३० स्तन ४० स्तब्ध ७६ स्तबक ११३ स्तम्भ ६,७,८, ३०, ३१, ३४, ४०,
६६, १००, १०२, २१६, २१८ स्तम्भित ९४, १६ स्तुति ४०, ७४ स्त्री २२, २१० स्त्रीनृत्त २१० स्त्रीभाव २१०
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--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थान ६, ५६, ६९, ७३, ८०, १०६, १२०, १२६, १४८, २१०, २२६ स्थानक ३, २०, २५, ३१, ३६, १०१, ११२, १२६, १४७, १४९, १५०, १५४, १६१, १६२, १६९, ११०, २१०
स्थायान् २२७
स्थायिन ३१, ३४, २१८, २२७
स्थित ४७
स्थितपाठच १६६
स्थितावर्त १३६, १५६
स्थिति १३४, २१७, २२१
स्थिर ६५
स्थिरहस्त १७३ स्थिरा ४
स्थूल ७८
स्थेयं २ ४५, ५४, ८५
स्निग्ध ८३
स्नेह ८७
स्पन्दन : २१६
स्पम्बित १२०, १२२, १३८, १३६,
१४२
स्पर्श४३, ४४, ८६, २१२, २१८
स्पर्शनं १६५, १६७
स्फटिक ε
स्फुट १६
स्फुरिका १२६,१३०
स्फुरित ३१, १००, १२६
स्फोट १११,१८६
स्फोटन १०६
स्मित ४१, ९७, २१६
[ ७१ ]
स्मृत १०२
स्मृति २१६
स्वग्वन १११
खस्त ७०
नस्तालसं २०६ स्वगोपन ७१
स्वच्छ ८१
स्वभाव ७१, १४, २१८ स्वाभाविक १०४, १०५, ११२
स्वरूप १८
स्वर्ण ६
स्वशास्त्रतः ४२
स्वस्तिक ४२, ४३, ५४, ५६, ५८, ५२, ६३, ६४, ७२, ७३, ७६, १०१, ११४, १२६, १२६, १४५, १४७, १४८, १४९, १५०, १५२, १५४, १५६, १६०, १६२, १६४, १६६, १६७, १६८, १७३, १७४, १७५,
१७६, १७७, १७८, १७६, १८०, १८६, २२३
स्वस्थ ε४, ५, १०१, ११६
स्वाङ्ग ११३
स्वाद ५२, १०२ स्वाभाविक १०४
स्वीकार १११
स्वेद ३१, ४६, ५०, ५२, २१६, २१६ हरनिर्मित १७२
हरप्रिय १७४
हराचन १७५ हरिण १३१
हरिप्लुत १२६, १४६, १५६
हरिणप्लुतक १८०
हरिणी १३१
हवन ११७
हर्ष ३४, ३५, ४१, ७१, ६०, १८५, १८७, २००, २१६
हसित २१६
हस्त २६, ३८, ४३, १६०, १६१, १६३, १८८, १६५, १६७, २१४
हस्त ( करि ) ६०, ६१, १६०, १७४,
१७५, १७६, १७६
हस्त ( खटकदोल) १६८ हस्त (चपेटवत्) १६१
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ७२ ]
हस्त(दोल) १६०, १६२ हस्त(नृत्य) ५७, १६३ हस्त (प्रचारः)३ हस्त(भ्रमणाल्लम्ब) १७१ हस्त (मकरउद्धृत्त) ७५ हस्त(मराल) १२६ हस्त (लता) १०६, १४६ हस्तक ३, ११, ४२, ४३, ६०, ६४,
६५, १४६, १५८, १६९, १७४, १७५, १७६, १७६, १९०, २०७,
२१२, २१३, २१४, २२६ हस्तकर्म ३, १७५, १७९ हस्तक्षेत्र ३ हस्तग्राह्य २२८ हंस १८८ हंसक २२४ हंसपक्ष १३३, १४८, १८२ हंसपक्षक १६१ हंसीवास १९२ हानि ११७ हार १२, ५७, १०३, १७२
हावभाव २१३ हास ६६, ८६ हास्य ७१, ७६, ८३, ८४, ६१, १४,
९७, ६९, १०१, १०५, १८६, २१५,
२१६, २१७, २१८, २१६ ... हास्ययन १६३ हिक्का ६६ हित ३९, ७९, ११८, १५० हित्य ३४ हीरा २२६ हेतुक ३५ हेलन १७ हेला ४०,८९
होम ११० हृदय ८६ हृदयकम्पन २१८ ह्रदयङ्गम १७० हदिगा १९७ हृष्ट ८३ , हीरोष ८२
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--------------------------------------------------------------------------
________________
१३४
परिशिष्ट ३ प्रन्थकारेण निर्दिष्टानां पन्थानां ग्रन्यकृतां चाकाराधनुक्रमणी पक्षपादादि १९४
भट्ट (ग्भ ट) २९ पास्थितिभूभृत् २०४
भट्ट (तमु) ७४ अभिनव १०
भट्ट (लोल्लट) २९ मभिनवगुप्त (भट्ट) ६१
भट्टाभिनवगुप्त ६१ मभिनवभारतिका १२५
भट्टाभिनवपूर्वकाचार्य १८० प्राचार्य ६१,६४, ६५, १०६
'भरत २, २४, १०४, १२०, १२५, प्राचार्य (केचिद्) १४ .
१३१, १३४, १४०, १४५, पानम्बसंबोधन १६६
भरतमुख्यसूरि १९४ उत्तरा (विराजराजदुहिता) ३
भरतमुनि १८१ उभट (भट्ट) २९ ।
भरतात्मन २ उवा (नापारमजा) २
भरताचार्य १२, २६, ३८, ६४; २१५ कलानिषि (सङ्गीतरत्नाकर-टीका) ७४,
भरतादि ६६. १७५
भवभूति ३० कोतिषर ७६ कोतिषराचार्य १६, ६०
भारत (माटयशास्त्र) १३ कुम्भकर्ण १६४, १५
भारत (मत) १०६ कुम्भनुप ३
भूमृत् २२२, २२६ कुम्भभूभुज् १८१
महीभृत् ११४, १७१
मार्कण्डेयपुराण २२३ कुम्भस्वामिन् (शिव) २१६ काहल १४, १४
मुनि ६०, ६१, ६४,९३, १०१,
११०, १११, ११६, १६४, १७२ गीतगोविन्द चित्ररथ २
मुनिवर १५३, १८५ तण्डु २,२६
मुनिषि १८२
म मिश्रेष्ठ ११४ तमु (भट्ट) ७४,७७ मरेश ११
रत्नाकर ६४ नवीनभरत १८०
रत्नाकरकृत् ६४ नृपोत्तम १९५ ..
राजन् (कुम्भ) २२४ पार्ष२
राबराज २०४, २१२
राजेन्द्र (कुम्भ) १९ पुराणमुनि (मरत) २२३
राजोपदेश २१८ पूर्वसूरि ३० बाणात्मजा (उषा) २ .
लोल्लट (भट्ट) २६ बृहद्देशी ४२
वात्स्यायन बृहदेशीविद् ४२, १६४
श-किकूर (कुम्भकर्ण) १६६
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[
:
शंकु ३२ धीकुम्भकर्ष संगीत-गीतगोविन्द अोभरताचार्य २०६ श्रीमस्कोत्तिषराचार्य ५५
४ ]
संगीतगीतगोविन्द । संगीतरत्नाकरटीका (कलानिषि) ७४ साकल ३.. . . . सौराष्ट्रयोषा २ .
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BIBLIOGRAPHY
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[ ७६ ] प्राचोन लेखमाला भाग १
मुम्बई "
भाग २ "
भाग ३ भावनगर प्राचीन शोध संग्रह-पजेशंकर गौरीशंकर, राजकोट १८८७ पाठ्यरत्नकोश
सं० कुन्हन राजा भरत-नाट्यशास्त्र गायकवाड संस्कृत सिरीज बह राष्ट्रौढ वंश महाकाव्य शब्दकल्पद्रुम संगीत-रत्नाकर भाग ७ मानन्दाश्रम सं. सिरीज़
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________________ शुद्धिपत्रक पृष्ठ पवित. पशुख निर्माणम ०पटहाश्च स्यावन्तभूतं 43 मिमाणम् निकृष्टं ०पटवाद्यश्व स्यादन्त भूतं after line 4 Add heading 46 15 प्रस्य (?स्थि) ते 57 25 इत्युक्त्ती : सूचीमुखावत्र 76 चलितः . . . 11 .अपलक्षण 102 मघोडा लम्मिते জাবির কলিতা 131 20 बालकनिका सोऽधंजानुः स सूचीको 147 24 पलितोस 153 13 : नूपुरंपाटिकाम् 11 स्तवा वृत्यापि 176 24 लता वृश्चिकमेव : श्रेयः परम वि भ्रातः 2 Add sto. no. 8 प्रस्थके इत्यदत्तो सूचीमुखावत्र पलितः अपभक्षण. . नवोढालन्जिते এখনিন কলিতা जङ्घालनिका सार्घजानुः ससूचीको पलितो नूपुरपाविकाम् •स्तदावृत्यापि लतावृश्चिकमेव श्रेयापरम० विमान्तः