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OPEDIOOD
मागमोद्धारक-ग्रन्थमालायाः त्रिपञ्चाशं रत्नम् ।
णमोत्थु ण समणस्स भगवो महावीरस्स । ५० पू० आगमोद्धारक आचार्यप्रवर श्रीआनन्दसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।
गणिचन्द्रकीर्तिसम्पिण्डितः
निःशेषसिद्धान्तविचार-पर्यायः
संशोधक : प० पू० गच्छाधिपति
आचार्यश्रीमन्माणिक्यसागरसूरीश्वरशिष्यः शतावधानी पंन्यास लाभसागरगणि:
विक्रम सं. २०२९
वीर स. २१९९ प्रतयः ३०० ]
आगमो स. २४ [ मूल्यम् ५-..
: प्राप्तिस्थान : श्री जैनानंद-पुस्तकालय, गोपीपुरा, सुरत.
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आगमोद्धारक -ग्रन्थमालायाः त्रिपञ्चाशं रत्नम् ! णमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स । प० पृ० आगमोद्धारक आचार्यप्रवर श्री आनन्दसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः । गणिचन्द्रकीर्ति सम्पिण्डितः
निःशेषसिद्धान्तविचार - पर्यायः
वीर सं. २४९९ प्रायः ३०० ]
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संशोधक : प० पृ० गच्छाधिपति
आचार्यश्रीमन्माणिक्य सागर सुरीश्वर शिष्यः शतावधानी पंन्यास लाभसागरगणि:
विक्रम सं. २०२९
आगमो सं.
२४
[ मूल्यम् ५-००
: प्राप्तिस्थान :
श्री जैनानंद - पुस्तकालय, गोपीपुरा, सुरत.
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( १ )
प्रस्तावना
अनंतानंतकालथी एक सनातन नियम छे के शासननी स्थापना पूर्वे द्वादशांगीनी रचना, त्यारबाद शासन संघनी स्थापना । आधीज समजाय के जैन-शासननी भव्य इमारतना तांबाना पायारूपे जैनागम छे । संपूर्ण शासननी सुदृढ व्यवस्था आगमज्ञान पर छे। पटलु अ नहिं पण तेनी प्राप्ति माटे : अनेकविध तपयोगवहन करी ते ज्ञान मेलववानी योग्यता मेलवे छे। अने ते ज्ञानमात्रा वधतां पुण्यवान् आत्माओ आचार्य पद पर आरूढ यह त्रिकालाबाधितशासननु सुकान संभालवा भाग्यशाली बन्या छे । श्रीजिनागमनुं अध्ययन निःश्रेयसपद प्राप्तिना भव्य आदर्शने वरेला . आत्माओने अणमोल साधन छे । तेमां कशी अतिशयोक्ति नथी अ । श्री आगमज्ञान प्राप्तिनी पद्धति अने संरक्षणता ।
पूर्वकालमा आगमशास्त्रांनु अध्ययन मौखिक तु तु । बुद्धिना सागर साधुभगवंता तेने यथावत् याद राखता हता.. | कदाच स्खलना थाय तो बीजी या श्रीजी वार सांभलीने- अध्ययन करीने स्वनामवत् ते महामूला आगमरत्नोने हृदयमंदिरमां पधरावी जीवनने धन्य बनावता दता । आ ज्ञाननी प्राप्ति माटे लांबा लांबा वार थता दूर दूर देशोमां अनेक मुश्केलीओ वेठीने जता, अने अनेक वाचनाओनो लाभ लेतो हता। तो पण दुःषमकालना विषमप्रभावे मेघावी मुनिवृंदनी मेघानेा दिनानुदिन क्षीणताना अनुभव यतां शासनना शिरताज अने उत्सर्ग - अपवादना जाणकार पूज्य देवगिणिक्षमाश्रमण भगवंते वलभीपुरमां ते समयना मुख्य मुख्य ५०० आचायेने भेला करी, अनेकविध पाठोथी मेलवी श्री आगमाने पुस्तकारूढ करवानु महान् कार्य कर्यु । आधी आगमज्ञानप्राप्ति सुलभ बनी पटलुंज नहिं पण श्री जिनागमज्ञानप्राप्तिनी सरवाणी निरंतर बहेती चालु राखी । तेओश्रीनु आ कार्य जैनशासनमां प्राण पूरवासमान थयुं एम कहीए तो वधु पडतु नधी ज ।
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( २ )
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लघुग्रथना परिचय
आ पवित्रतम आगमोनुं ज्ञान सुलभताथी मेलववाना अवदात आशये भाष्य नियुक्तिओ चूर्णि टीका टवा आदिनु निर्माण थयुं तुं, यह रहयु छे अने थशे आवा ज भव्य आसये आ लघुकाय ग्रंथ निर्माण लगभग ११ मी सदीमां थयु । अने तेरमी सदीमां ताडपत्र पर अंकित था, तेनु मुद्रण वि. सं. २०२९ था रह छे ते आपणा संघनु परम सौभाग्य छे ।
&
आ ग्रंथ नाम निःशेषसिद्धांतविचारपर्याय ' छे ।
आगमना मननीय विचारणीय सूक्ष्मतर कतिपय पदार्थों उपर ऊंडाणथी चिंतन अने मंथन साथे जे निष्कर्ष निहाल्या तेने संस्कृतभाषाबद्ध करीने संपिंडित ( संकलित ) कर्या छे ते प्रथम खंडमां छे. अवशिष्ट अंशने परिशिष्टमां मूकी प्रथम खण्ड पूर्ण कर्यो छे ।
श्री आगमाना विषम पदेना कठीन अने गूढ अर्थाने सरल संस्कृत भाषामा संकलित कर्या तेने बीजा खण्डमां स्थान आपवामां मन्यु छे ।
प्रथनाममीमांसा
6
आ ग्रंथनी प्रशस्तिमां स्वयं ग्रंथकार ( १ ) सिद्धांत विचार पर्याय ' आ मुजबनु नाम लखे छे, (२) १३ मी सदीमां जे ताडपत्र पर या ग्रंथ पूर्ण थयेा, तेना अंत भागमां ' सिद्धांत सारोद्धार ' मा मुजब नाम लहिया देवप्रसाद लखे छे अने प्रतना मुखपृष्ठ उपर ' निशेष सिद्धांतविचारपर्याय ' छे ।
संपादन वखते विचार थथे। के नाम शुं राखवु १ आ प्रश्ननी मीमांसा समये एक तर्क उठ्यो के-श्री जैनागमामां छेदसूत्रो वाईभूत छे छेवसूत्रोधी शासननी व्यवस्था सुचारुरूपे रहे छे तेथी
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ज छेदसूत्रोने ' श्रुतपुरुष' नी रचनामां मस्तिष्कमा स्थान अपायु छे। माथी आ छेदत्रो तमाम सिद्धातामा सारभूत गणषामां मावे ते सुयोग्य छे अने अहिंआं मुख्यताए छेदना विचारे। ने पर्यायो छे । पम मानीने मुखपृष्ठ उपर 'नि:शेषसिद्धांतषिचार' पर्याय' लख्यु होय ! आ तर्कना आधारे आ प्रथनु गुणनिष्पक्ष माम मुखपृष्ठ उपर राख्यु योग्य गणाय ।
ग्रंथ विषय परिचय परिमाणमा नाना देखाता पण अर्थथी अने विषयथी अगाध, मा प्रथा बीजा बीजा आगमोना अर्थ तथा विचाराने अल्पस्थान आपया साथे छेदनथोना विचार अने अथेने मुख्य स्थान आप्यु छ । नाना नाना घणा विषयाने प्रकाश आपता ग्रंथकारे अनुधर्म उपर सारो प्रकाश फेक्यो छे ।
धर्तमानमा घणांओ पेपर आदि द्वारा एकवार नहिं यण अनेकवार उच्चारी के लखी चूक्या छे के- 'भगवाननु कहेलु करवानु छे करेलु नहिं ' तेओ प्रथना प्रथम खण्डनु ३८ मुं पत्र बांधी जाय, वधु खुलासा माटे निशीथचूर्णिनी ४८५५ मी गाया, तेमज यतिजीतकल्प, बृहत्कल्प ने जोइ सत्यनो स्वीकार करे एज इच्छा ।
जे जे विचारा संपिंडित (संकलित ) कर्या छे ते ते अंगेना मूलन थनी गाथाओ तथा अर्थने यथावत् उद्धत करी तेना पर पोते निष्कर्षरूपना टू का संस्कृत वाक्या मूक्या छ । जेथी आ गाथानो शो आशय छे ? ते अल्प बुद्धिवालापण तूर्त समजी जाय तेम छ । माज कारणे संग्रहनो प्रयास घणोज स्तुत्य छे अने वर्तमानसमये मुद्रणनो प्रयास पण अल्प उपकारक नथी।
সুগন্ধা-ববি मा लगुकायग्नथना कर्तानो परिचय मेललवा मुख्य साधन
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रूपे प्रांतभागमा लखेल प्रशस्ति छ। तेना आधारे जणाय छे के१२ मी आपेल सदीभां जे पूज्य आचार्य श्री धर्मघोषसूरि भगवंत थया हता। तेओथी पासेथी पूज्य आचार्यश्री विमलसूरि महाराजाना विद्वान् शिष्य-रत्न पूज्य श्री चंद्रकीर्ति गणिवरश्रीए पोताना स्वाध्याय माटे आगमना पर्यायोनी नोंध करी हती, ते नांध केवी रीते हस्तलिखित थइ ते माटे हवे पछीना पेरेग्राफमां
ग्रंथलेखनकाल मादिजे समये ग्रंथकर्ता यया तेज समये पारवाडवंशना शेठ धनदेव तथा शेठाणी इन्दुमतिने त्यां यशोदेव नामना महान् पुण्यात्मानो जन्म थयो हतो तेमने सतीओमा गणना पामेली तेवी पतिव्रता आंबी अर्धांगना हती अने तेओने उद्धरण-आंबीग-वीरदेव नामना प्रण पुत्ररत्नो तथा सोली, लोली अने सोखी नामनी प्रण पुत्रीओ हती। आखुकुटुंब घणुज धार्मिक हतु । श्री जिनवचनना पाननी अने श्रुत उपासनानी घणीज लगनी हती। आथी तेओए घणाज ग्रंथो लखाव्या हता। प्रस्तुतग्रंथनी प्रशस्तिमा निर्मापिता' मामनो ‘ण्यंत' प्रयोग तेमनी श्रुतभक्तिनी तालावेलीनी साक्षी पूरे छ । श्री जिनशासनभक्त आ श्राद्धवये आ ग्रंथनी प्रत लखावी इती। अने तेना परथी वि० सं० १२१६ मां लहिया देवीप्रसादे मा प्रय ताडपत्र पर लख्या, तेना परथी सुश्रावक नगीनदास भाईए प्रेसकोपी करी हती।
ग्रंथनी उपयोगिता ___ आ 'निःशेषसिद्धांतविचारपर्याय' प्रथमां मोटा भागना छेदग्रंथनी गूढविचार अने गूढपदो खारांशता अने कृतिनीपण लगभग ९०० वर्षयी वधु प्राचीनता छे, अने वर्तमानकालना श्रुतधरोमां अग्रस्थानने शोभावनार मूर्तिमंत आगमस्वरूप पूज्य गच्छाधिपति आचार्यभगवंतीनी पुण्यदृष्टिथी परिपूतता आ त्रिवेणी
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योगथी आ ग्रंथनी उपयोगिता घणीज वधी अशे ते नि:शंक छ । आ ग्रंथ नानकडा 'आगमिक कोश' रूपे काममा आवशे तेवी मारी धारणा साचीज ठरशे ।
__ आ गथमा अशुद्धिपत्रक साये ते ते विषयोनी अनुक्रमणिका पण मुद्रित करी छ । जेथी वाचक प्रथम ग्रंथमा रहेली अशुद्धिओने शोधी ते ते विषयोने सांकलियाथी सरलताथी मेलवी शकशे।
मुद्रणकार्यमा क्वचित् क्षति नजर पर तरे पण ते प्रेस आदिना कारणे छे तो वाचको ते समक्ष नजर न नांखता अंदरना तत्त्व सामे दृष्टिने राखे तेज विनंति छ ।
नेमचंद मेलापचंद जैन उपाश्रय,
सुरत. वि० सं० २०२९ महावद-८ रवीवार
ह:- पूज्यपाद् आगमोद्धारक ध्यानस्थस्वर्गत आचार्यदेषश्री मानंदसागरसूरीश्वर्गशष्याणु
सूर्योदयसागर
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( ६ )
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प्रकाशकीय निवेदन
"
आ 'निःशेषसिद्धांतविचारयपय नामना ग्रंथने आगमीद्वारक ग्रंथमालाना ५३ मा रत्न तरीके प्रगट करता अमने बहु हर्ष थाय छे।
आना प्रकाशनमां पूज्य गणिवर्यश्री अभय सागरनी महाराजे ( हाल पंन्यास ) आपली प्रेसकोपीनां उपयोग कर्यो छे ।
आनी प्रेसकोपी मुनिराजश्री लावण्यसागरजी म. करी हती अने संशोधन पू. गच्छाधिपति आचार्यश्री माणिक्यसागर सूरीश्वरजी म. नी पवित्र-दृष्टि नीचे शतावधानी (हाल पंन्यास ) श्री लाभसागरजी गणिए करेल हे । ते बदल तेजश्रीने तेमज जेओए आना प्रकाशनमां द्रव्य तथा प्रेसकोपी आपवानी सहाय करी छे ते बधा महानुभावाना आभार मानीप छीप
लि.
प्रकाशक
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पत्राङ्ग
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विषयानुक्रमणिका
-
प्रथमखण्ड - विषयः
मासकल्प वर्षाकल्पानन्तरं न स्येयम् ।
गुरी गन्धपूजा |
चतुर्दशी पक्षान्तो न भवति ।
आलोचना श्रावकाणाम् ।
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$
अष्टाविचारः कल्याणकानि ।
यादृशं प्रतिक्रमण साधोः तादृशं श्रावकस्य । साधुभिः वस्त्रं प्रावरणीयम् । taffesi प्रतिक्रामति गौतमः ।
पक्षे- अर्धमासे भवं पाक्षिकम् ।
जन्मकल्याणकम् । श्रावकस्य चैत्यवन्दनम् । प्रमार्जनं वस्त्राञ्चलादिना ।
श्रावकस्वरूपम् ।
गृहिप्रायश्चितम् ।
मुखवस्त्रका श्रावकस्य उत्तरीयबस्त्रम् । श्रावकमुखांतिका ।
प्रदक्षिणाविचारः । चैत्यचन्दनाविचार |
देवद्रव्यविचारः
वस्तु मूल्यविचारः । प्राभातिक प्रतिलेखनम् । प्रावरणविचारः । सीसकणनिषेधः ।
( ७ )
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(८)
तकाम्बिल। पर्वक्रमः । एकाकीस्त्री था । आधाकमविचारः। पर्युषणाविचारः । वर्षाकाले क्षेत्रमान प्रथमपौरुष्यां गृहीतं चतुर्या न शुद्धयति । यत् तीर्थकाराचीर्ण तदन्यैराचरणीयं तीर्थकरकल्प विना । संयत्या वस्त्राणि स्वयं न गृह्णन्ति । गुरुसंस्तारकस्थाने पादो न भोक्तव्यः । स्थापना । आलोचना दिनानि । रजोहरणम् । निषद्याविचार:। मासविचार: । प्रतिष्ठाविचार::। मासद्वयविचारः । कल्पविचारः । वर्षातिकमे उपधिग्रहणविचारः । मास कल्पान्तरोपधिग्रहणविचारः । अस्वाध्याय न भवति । गर्भाप्टमविचारः । देवद्रव्यविचारः । आचार्यादिपदविचारा: । इत्थापना विषयः । सधस्वरूपम् ।
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पत्रात
विषयः त्रयोदशगुण वर्षाक्षेत्रम् । कालचारिणीसाध्वीस्वरूपम् । आचार्यवर्णनम् । अवग्रहकालः । आचार्योपाध्याययोः पञ्च अतिशेषाः । आचार्येण बहिभूमौ न गन्तव्यम् । आचार्येण न भिक्षणीयम् । पाक्षिकविचारः । प्रतिष्ठाविचारः । लिङ्गिकारितादिजिनचैत्यवन्दनविचारः। जिनगृहनिवासनिषेधस्य स्तुतित्रयस्य च विचारः । वर्षाप्रवेशादिविचारः । अष्टविधा गणिसम्पद् । तपोविचारः । जीविचारः । पुलाकादिविचारः । प्रावरणविचारः । स्थितास्थितकल्पविचारः । अनुशास्तिः । प्रावरणविचार: । रसत्यागविचारः । देवद्रव्यविचारः । प्रावरणविचारः। कालातिक्रमवसनविचारः । सम्भोगविचारः । महालंदगादिविचारः । 'चित्रं बर्थयुक्तम् ।
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( १० )
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पत्राङ्क
परिशिष्टम् - १
१
१-७१ ७१
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सोपधित्वं जिनानाम् ।
थेरस्स आवली | गणविचारः ।
शाखास्वरूपम् । प्रतिष्ठाविधिः ।
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प्रायश्चित्ते । सम्प्रदायलिखितम् । भिक्षाकायोत्सर्गे नमस्कारः । बिम्बप्रतिष्ठास्वरूपम् ।
विषयः
प्रेक्षणकदर्शन विचारः ।
,
' संवच्छर ' इत्यादिनाथाव्याख्या | श्रमणोपासकानां पर्युपासना |
'रुप्प टंकं' इत्यादि गाथाव्याख्या | मासादिस्वरूपम् ।
,
'पगाह कूडाइच ' व्याख्या ।
द्वितीय खण्ड:
पर्यायाः । प्रशस्तिः ।
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.6em
छुभंति
शुद्धिपत्रकम् (प्रथमखण्डः ) पृष्ठम् पक्तिः अशुद्धम्
शुद्धम् अस्थार्थ:
अस्यार्थः व्याख्या
व्याख्या चेद
वेद विषपे
विषये पचविहमि
पंचविहमि दुविहा
दुविहो च्छुभंति टुंति
ठंति निज्जूढ़
निज्जुद्ध (द्वितीयखण्ड:) संसिद्धेः
सम्बुद्धिः षणबीसाए
पणवीसाए याश्वार्थम्
याचनार्थम् पणउ
पणओ मुप्पाउ
मुप्पाओ इत्येके
इत्येक सिस्नादर
सिशोदर (प्रकाशकीयनिवेदन) म० करी म० अने बालमुनिश्री
महाबलसागरजी म० करी (विषयानुक्रम) स्थैर्य
स्थैर्य विचार।
विचारः। शुद्धयति ।
शुद्ध्यति ।
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णमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स ५० पू० आगोद्धारक-आचार्यप्रवर-श्रीआनन्दसागरसूरीश्वरेम्यो नम:
___ कृतिवर-गणि-चन्द्रकीर्तिसम्पिण्डित:
| निःशेषसिद्धान्त विचारपर्याय: । | प्रथमः खण्ड: विचारास्तु लिख्यन्ते-यथा
'अह सा भमरसन्नि कुञ्चफणगपसाहिए ।
सयमेव ढुंचइ केसे धिइमंता वस्सिया' ॥ इत्युत्तरा० ॥ २२ ॥ (आचारस्य) 'से आगंतारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा जे भयंतारो उउबद्धियं वा वासावासियं वा कप्पं उवाइणित्ता तत्थेव भुजो संवसंति । अयमाउसो ! कालाइकंतकिरिया वि भवइ' । अर्थस्तु-आगन्तारादिषु ये भगवन्तः 'ऋतुबद्ध 'मिति शीतोष्णकालयोर्मासकल्पमुपनीय - अतिवाह्य वर्षासु वा चतुरो मासानतिबाह्य तत्रैव पुन: कारणमन्तरेण आसते । अयमायुष्मन् ! कालातिक्रान्त-वसतिदोष: सम्भवति । इति मासकल्प-वर्षाकल्पानन्तरं न स्थातव्यम् ।
‘से आगंतारेसु वा ४ जे भयंतारो उडुबद्धियं श वासावासियं बा कप्पं उबाइणित्ता तं दुगुणादु (ति) गुणेण वा अपरिहरित्ता तत्थेव भुजो संवसति । अयमाउसो ! इयरा उवाणकिरिया' इत्याचारे (श्रुतस्कन्ध २, अध्ययन २) ___अह पुणेवं जाणेजा चत्तारि मासा वासावासाणं वीइकंता हेमंताण य पंच दस राइकप्पे परियुसिए, अंतरा से मग्गे बहुपाणा जाव संताणगा नो जत्थ बहवे समण जाव उवागमिस्संति, सेवं नचा नो गामाणुगाम दुइजिजा । अर्थस्तु-अथैवं जानीयात् यथा चत्वारोऽपि मासा प्रावृट्कालसम्बन्धिनोऽतिक्रान्ताः, कार्तिकचातुर्मासकमतिकान्तमित्यर्थः । तत्रोत्सर्गतो यदि न वृष्टिः, ततः प्रतिपद्येवान्यत्र
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निःशेषसिद्धान्तविचार- पर्याये
गत्वा पारणं विधेयम् । अथ वृष्टिः ततो हेमन्तस्य पञ्चसु दशसु वा दिनेषु पर्युषितेषु गतेषु गमनं विधेयं । तत्रापि यद्यन्तराले पन्थानः साण्डा यावत्ससन्तानका भवेयुः, न च तत्र बहवः श्रमणब्राह्मणादयः समागताः समागमिष्यन्ति वा । ततः समस्तमेव मार्गशिरं ) यावत् तत्रैव स्थेयं, तत ऊर्ध्वं यथा तथाऽस्तु न स्थेयम् | ( इत्याचारे) | तित्थगराण भगव पवयणपावर्याणि अइसइड्ढीणं । अहिगमणनमणदरिसण कित्तणसंपूरणा थुणणा । (आ० ३३० ) गाथार्थस्तु
प्रवचनस्य द्वादशाङ्गस्य प्रावचनिकानाम् आचार्यादीनां तथाऽतिशायिनाम् ऋद्धिमतां यदभिगमनं गत्वा च दर्शनं तथा गुणोत्कीर्त्तनं, सम्पूजनं गन्धादिना, स्तोत्रैः स्तवनम् इत्यादिका दर्शनभावना इत्यनया आचारनिर्युक्तिगाथातः गन्धपूजा गुरोरांभगमनं च समर्थ्यते ।
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जे से गिम्हाणं चउत्थे मासे अट्टमे पक्खे आसाढसुद्धे तस्स णं असाढसुद्धस्स हट्टीपक्खेणं हत्थुतराद्दि न क्खत्तेणं जोगमुवागरणं ' इत्याद्याचारालापकेन चतुर्दशी पक्षान्तो न भवति ।
" तेणं बहूई वासाई समणोवासगपरियायं पालइत्ता छण्हं जीवनिकायाणं सारक्खणनिमित्तं आलोइत्ता निदित्ता गरहित्ता भत्तं पञ्चकखाइत्ता अपच्छिमाए मारणंतियार संलेहणाप झुसियशरीर। कालमासे कालं किच्या तं सरीरं विष्पजहित्ता अच्चर कप्पे देवत्ताए उववन्ने वीरमाय पियरे इति शेषः " इत्यनेन आचारसूत्रालापकेन आलोचना श्रावकाणां भणिता ।
सूत्रकृत:- जे धम्मलद्धं विनिहाय भुंजे वियडेण साह य जो सिणाई | जो धोवइ लूसयइ व वत्थं अहाहु से नागणियस्स दूरे ॥
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सूत्रकृताङ्गस्य विचारा: अस्थार्थ:-ये केचन शीतलविहारिण: धर्मेण मुधिकया लब्धम् उद्देशिकक्रीतकृतादि-दोषरहितमित्यर्थः । तदेवंभूतमप्याहारजातं विनिधाय-व्यवस्थाप्य सन्निधिं कृत्वा भुञ्जते । तथा ये विकटेनप्रामुकोदकेनापि सङ्कोच्याङ्गानि प्रासुक एव प्रदेशे देशसर्वस्नानं कुर्वन्ति । तथा यो वस्त्रं धाति-प्रक्षालयति । तथा लूषयति-शोभार्थ दीर्घ सत् पाटयित्वा इस्वं कराति हस्व वा सन्धाय दीर्घ करोति इत्येवं लूषयति स निर्ग्रन्थमावस्य-संयमानुष्ठानस्य दूरे वर्तते, न तस्य संयमो भवतीत्यर्थ: । एवं तीर्थकर-गणधरादय आहुरिति सूत्रकृताङ्गे कुशीलाध्ययने उक्तम् । कम्मं परिण्णाय दगंसि धीरे वियडेण जीविजय आइमुक्खं । से बीयकंदाइ अभंजमाणे विरए सिणाणाइसु इत्थियासु ॥ २२ ॥ धीर उदकसमारम्भे सति कर्मबन्धी भवतीत्येवं परिज्ञाय किं कुर्यात् ? इत्याह-विकटेन-प्रासुकोदकेन सौवीरादिना जीव्यात्, आदि:- संसारः तस्मात् मोक्ष आदिभोक्षः संसारविमुक्तिं यावदिति सूत्रकृताङ्गकुशीलाध्ययने उक्तम् ।
आयरियपरंपरपण आगयं जो उ छेयबुद्धोए । कोवेइ हेयवाई जमालिनासं स णासिहिति ॥ १५ ॥ इति सूत्रकृताङ्गयाथातथ्याध्ययने नियुक्तायुक्तम् ।।
चाउद्दसमुद्दिट्टपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसह सम्मं अणुपालेमाणे' इति । 'आलोइयपतिकता समाहिपत्ता' इति आहारपरिज्ञाध्ययने सूत्रकृदङ्गस्य श्रावकं प्रत्युक्तं, साधु प्रति तु चाउजामाओ धम्माओ पंचमहत्वइयं सपडिक्कमणथम्म उवसंपजित्ताणं विहरइ उदकसाधुरितिशेषः । ततो यादृशं प्रतिक्रमणं साधो: तादृशं श्रावकस्यानुमीयते। एतदपि सूत्रकृति । 'चाउद्दसट्टमुदिट्टपुण्णमासिणीसु' इत्यस्यार्थो यथा-चतुर्दश्यष्टम्यादिषु तिथिषु उद्दिष्टासु-महाकल्याणसम्बन्धितया पुण्यतिथित्वेन प्रख्यातासु तथा पौर्णमासीषु च तिसृष्वपि चतुर्मासकतिथिषु इत्यर्थः । एवम्भूतेषु धर्मदिवसेषु
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निःशेषसिद्धान्तविचार- पर्याये
सुष्टु-अतिशयेन प्रतिपूर्णो यः पौषधः-त्रताभिग्रहविशेषः तं सुप्रतिपूर्णम् आहारशरीरसत्कारब्रह्मचर्या व्यापाररूपं पौषधम् मनुपालयन् सम्पूर्ण श्रावकधर्मअनुचरतीति व्याख्या सूत्रकृति कृतां केचन मन्यन्ते ।
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( स्थानस्य ) ' तिहि ठाणेहिं मायी मायं कट्टु नो आलोएज नो पडिक मेजा नो निदेजा नो गरहेजा नो विउट्टेजा नो विसाहेजा नो अकरणयाए अब्भुट्टेजा नो अहारिहं पायच्छित्तं तवोकमं पडिवजेजा । तं० अकरिंसु वाहं करेमि वाहं करिस्सामि वाहं ' इति जीवाधिकारे सामान्येन भणितं त्रिस्थानकतृतीयांशके आलोचनाभिधायकम् ।
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अस्यार्थस्तु - आलोचनं- गुरुनिवेदनं, प्रतिक्रमणं - मिथ्यादुष्कृतदानं, निन्दा - आत्मसाक्षिका, गर्दा गुरुसाक्षिका, वित्रोटनं तदध्यवसायविच्छेदनं विशोधनं- आत्मनश्चरित्रस्य वाऽतिचारमलक्षालनम् अकरणताऽभ्युत्थानं - पुननैतत्करिष्यामीत्यभ्युपगमः स्थानाङ्के (सू०१६८) तिहिं ठाणेहिं वत्थं धारेजा, तं जहा-हिरिवत्तियं दुर्गुछावत्तियं परिसद्दवत्तियं धारेजा - उवभुंजेज्जा । यतः 'धारणया उपभोगां परिहरणे हाइ परिभोगो' । ततः साधुभिः प्रावरणीयमिति सिद्धम् । वृत्तिः : पुनरस्थ-ही-लज्जा संयमो वा प्रत्ययो - निमित्तं यस्य धारणस्य तत्तथा, जुगुप्सा-प्रवचनखिसा विकृताङ्गदर्शनेन मा भूदित्येतत् प्रत्ययो यत्र तत्तथा, परीसहाः - शीतोष्णदंशमशकादयः प्रत्ययो यत्र तत्तथा स्थानाङ्गसूत्रमिदम् (सू० १७१ ) असढेण समाद्दण्णं जं कत्थइ केणई असावज्जं । न निवारियमण्णेहिं बहुमणुमय मेयमायरियं ॥ अवलंबिऊण कज्जं जं किची आयरंति गीयत्था । थैवावराह बहुगुण सव्वेसि तं पमाणं तु ॥ पञ्चवस्तुके
"
( भगवत्या: )
पास' इत्यादि ।
,
'चा उद्दसमुद्दी पुण्णमासिणी पडिपुन्न इहोद्दिष्टा - अमावास्या भगवत्यां
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भगवतीविचारा: द्वितीयशते उक्तम् । (सू०१०६) 'हाया कयलिकम्मा' इति कृतं बलिकर्म यैः स्वगृहदेवतानां ते तथा इति । श्रावकवर्णके भगवत्यां शते २ (सू० १०८)।
समणस्स भगवओ महावीरस्त्र अदरसामंते गमणागमणाए पडिक्कमह, गौतम इति शेषः । इति भगवत्या (सू० ११०)
किंपत्तियं णं भंते ! असुरकुमारा देवा नंदीसरवरदीवं गया गमिस्संति य? गो० जे इमे अरहता भगवंतो एएसिणं जम्मणमहेसु बा निक्खमणमहेसु वा नाणुप्पायमहिमासु वा परिनिव्वाणमहिमासु वा' इति भगवत्यां शते ३ (सू. १४१) इत्यनेन कल्याणकान्युक्तानि ।
जेणं निगंथो वा निगंथी या जाव साइमं पढमाए पोरिसीए पडिग्गाहित्ता पच्छिमं पोरसी उवाइणावित्ता आहारं आहारेइ, एस ण गोयमा ! कालाइकते पाणभोअणे । जे णं निग्गंथो वा निग्गंधी वा जाव साइमं पड़िगाहित्ता पर अद्धजोयणमेराए विइकमावित्ता आहारमाहारेइ, एस णं गी० ! मग्गाइकंते पाणभोयणे । भगवत्याम् (सू० ६८)
आगमेणं सुरण आणाए धारणाए जीएणं इच्चेपाह पंचर्हि यवहार पट्टवेजा । भगवतीसूत्रे (३३९) । तए ण सा देवाणंदा माहणी पंचविहेण अभिगमेण अभिगच्छइ त सचित्ताण दव्वाण विउसरणयाप, अचित्ताण दवाण अविमोयणयाए, विणओणयाए गायलट्ठीए, चक्खुफासे अंजलिपगहेण, मणसा एगत्तीभावकरणेण समण भयवं महाधीरं वदइ वंदित्ता उसभदत्तं माहणं पुरओ कट्ट ठिवा चेव सपरिवारा सुस्वसमणी इत्यादि । ठिया चेवत्ति ऊर्ध्वस्थानस्थितैव अनुपविष्टेत्यर्थः । भगवत्यां (सू० ३८०) । 'सए ण समणे भयवं महावीरे देवाणदं माहणि सयमेव पवावेइ, सयमेव पन्यावेत्ता सयमेव अजचंदणाए अजाए
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निःशेषसिद्धान्तविचार- पर्याये
सीसिणीत्ताए दलयइ । तए णं सा अजचंदणा अज्जा देवाणदं माहणि सयमेव पव्वावे मुंडावेइ सयमेव सेहावर ' ( सू० ३८२ ) भगवत्यां पुन: विशेषाधानार्थम् ।
'पव्वावणा' ग्रहणम्
तथा
तर ण जमाली खत्तियकुमारे पुप्फतंबोलाउडमा इयं पाणहाओ य विसज्जे, पाणहाओ विसजित्ता एगसाडियं उत्तरासंगं करे. उत्तरासंग करेत्ता आयंते चोक्खे परमसूइभूए अंजलिमउलियहत्थे जेणेव समणे भयवं महावीरे तेणेव उषागच्छद्द उवागच्छित्ता समण भयवमित्यादि । ' आयंते ' त्ति शौचार्थकृतजलस्पर्श: । 'चाक्खे' त्ति आचमनादपनीताशुचिद्रव्यः । भगवत्यां (सू० ३८४) 'पभट्टउत्तरिजा' प्रभ्रष्टं व्याकुलत्वादुत्तरीयं वसनविशेषो यस्याः सा जमालिमातेत्यर्थ' इत्यनेन उत्तरिजशब्देन उत्तरीयम् - उत्तरासङ्गवस्त्रमुक्तम् (सू० ३८४ ) । पभू णं भंते ! चमरे असुरिंदे चमरचंचाए रायहाणी सुहम्माद सभाप चमरंसि सीहासण सि तुडिपण सद्धितुटितं वर्ग:, दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित ? नो इण्डे समट्ठे । से केणट्टेण भंते १ मो पभू जाव विहरित्तर ? अक्षां चमरस्स णं चमरचचाए रायहाणीए सभाष सुहम्माप माणवQ चेयखेभे वइरामपसु गोलवट्टसमुग्गपेसु बहूओ जिणसकहाओजिनसक्थीनि सन्निक्खित्ताओं चिट्ठेति, जाओ णं चमरस्स ३ अनसिं च बहूणं असुरकुमाराण देवाण य देवीण य अच्चणिजाओ चन्दनादिना बंदणिजाओ स्तुतिभिः नमसिणिज्जाओ प्रणामत: . प्रयणिज्जाओ पुष्पैः सकारणिजाओ वस्त्रादिभिः सम्माणणिजाओ प्रतिपत्तिविशेषैः, कलाण मंगलं देवयं घेइयं पजवासणिज्जाओं भवंति से तेणद्वेण अजो ! एवं बुच्चद्द-नो पभू चमरे जाव विहरितप इति भगवत्यां दशमशतपञ्चमोदेशके आशातनापरिहार उक्तः ।
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इत्यष्टशविचारः । अनवगतावगम
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भगवतीविचारा: तस्स संखस्स अयमेयारूवे अभत्थिए जाव समुप्पजित्था० सेयं खलु मे पोसहसालाए पोसहियस्स बंभयारिस्स उम्मुक्कामणिसुवण्णस्स ववगयमालावन्नगविलेवणस्स निक्खित्तसत्थमुसलस्स एगस्स अबिइयस्स दभसंथारोवगयस्स पक्खियं पोससह पडिजागरमाणस्स विहरित्तए । पक्षे-अर्द्धमासे भवं पाक्षिकम् । इति द्वादशशते भगवत्यां (२० ४३८)। अस्मिन्नेव शते-पोसहसालं पमजइ पोसहसालं पमजइत्ता उच्चारपासवणभूमि पडिलेहेइ शकश्रावक इति शेषः ।
तए णं सा उप्पला समणोवासिया पोक्खलिं समणोवासयं एजमाणं पासइ. पासइत्ता हट्टतुट्ठा आसणाओ अन्भुट्टेइ, सत्तट्टपयाई अणुगच्छइ, सत्तटुपयाई अणुगच्छित्ता पोक्क्खलि समणोवासगं वंदइ नमसइ घंदित्ता नमंसित्ता आसणेण उवनिमतेइ, आसणेण उवनिमंतेत्ता एवं वयासी-संदिसंतु देवाणुप्पिया ! किमागमणप्पयाअण? इत्यादि । तथा तए ण से पोक्खली जेणेव पोसहसाला जेणेव संखे समणांवासए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता गमणागमणाए पडिक्कमइ, गमणागमणाए पडिक्कमित्ता संखं समणोवासगं वंदर नमंसइ'इत्याद्यपि द्वादशशते भगवत्यां (सू० ४३८) गमणागमणाए पडिक्कमइत्ति ईपिथिको प्रतिकामतीत्यर्थः ।
बउसे णं पुच्छा गो० ! जहन्नेणं अट्ठपवयणमायाओ उक्कोसेणं दस पुवाई अहिज्जेज्जा । वृत्तिर्यथा-अष्टप्रवचनमातृपालनरूपत्वा
चारित्रस्य, सद्वतोऽष्टप्रवचनमातृपरिज्ञानेनाऽवश्यंभाव्यं, ज्ञानपूर्वकत्वाच्चारित्रस्य, तत्परिज्ञानं च श्रुताद् । अत अष्टप्रवचनमात्रप्रतिपादनपरं श्रुतं बकुशस्य जघन्यतोऽपि भवतीति । तच्च अट्टण्ह पवयणमाईण' इत्यस्य यद् विवरणसूत्र तत्सम्भाव्यते । यत्पुनरुत्तराध्ययनेषु प्रवचनमातृनामकमध्ययन तद् गुरुत्वात् विशिष्टतर
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निःशेषसिद्धान्तविचार-पर्याये श्रुतत्वाच्च जघन्यतो न सम्भवति, बाहुल्याश्रय चेदं धृतप्रमाण । तेन न माषतुषादिना व्यभिचार इति । भगवत्या: सूत्र' (७५७) व्याख्या च ।।
। इति भगवती-विचार: । __"तं सेयं खलु मम पोसहसालाए पोसहियस्स बंभयारिस्स उम्मुक्कमणिसुवण्णस्स ववगयमालावन्नावलेवणस्स निक्खित्तसत्थमुसलस्स एगस्स अबीइयस्स दभसंथायगयस्स" इति ज्ञातधर्मकथायाम् (सू० १६) अभयकुमारवक्तव्यतायाम् । सीयं दुरूढस्स समाणस्स इमे अट्ठमंगलया पुरआ अहाणुपुवीए संपत्थिया । तं जहा-'सोस्थिय १ सिरिवच्छ २ नंदियावत्त ३ वद्धमाणग पुरुषारूढः पुरुष इत्यन्ये । इति ज्ञातधर्मकथायां सू०२४) मेघकुमारस्य । "जाव नंदीसरवरे दीवे महिमा' इति (सू०६६) जन्मकल्याणं कृत्वा नन्दीश्वरे महिमानं कुर्वते इत्यर्थः । मल्लिवक्तव्यतायाम् । 'मल्लिस्स अरहओ निक्खमणमहिमं करिति करित्ता जेणेव नंदीसरे० अट्टाहियं करंति करेत्ता पडिगया । (सू० ७७) ।
सुद्धपावेसाई मंगलाई वत्थाई पवरपरिहिया मजणधराओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेष जिणघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जिणधरं अणुविसइ, अणुविसाता जिणपडिमाणं आलोए पणामं करेइ करेत्ता लोमहत्थयं परामुसा एवं जहा सूरियाभो जिणपडिमाओ अश्वेइ तहेव भाणियब्वं, जाव धूवं डहइ डहित्ता वाम जाणुं अंचेइ, दाहिणं जाणुं धरणितलंसि निहट्ट तिक्खुत्तो मुद्धाण धरणीतलंसि नमेइ, नमेत्ता ईसि पच्चुन्नमा, पच्चुन्नमित्ता करयल जाव कट्ट एवं वयासी-नमोत्थु णं अरहताणं भगवंताणं जाव संपत्ताणं वंदा नमंसह वंदित्ता नमंसित्ता जिणघराओ पडिनिक्खमित्ता जेणेव
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ज्ञातधर्मकथाविचारा: अंतेउरे तेणेव उवागच्छइ' इति शातधर्मकथा सू० (११९) । वृत्तिस्तु यथा-'जाव धूवंडहित्ता जिणघराओपडिनिखमइति यावत्करणादर्थत इदं दृश्य-लोमहस्तकं परामृशति. ततस्तेन जिनप्रतिमा: प्रमार्टि, सुरभिणा गन्धोदकेन स्नपयति, गोशीर्षचन्दनेनानुलिम्पति, वस्त्राणि निवासयति, ततः पुष्पाणां माल्यानां-ग्रथितानां गन्धानां चूर्णानां वस्त्राणामाभरणानां चारोपणं करोति स्म । मालाकलापावलम्बन पुष्पप्रकरं तन्दुलैर्दर्पणाद्यष्टमङ्गलकालेखनं च करोति । ततो वाम अंचेइ-उत्क्षिपतीत्यर्थः । दाहिणं धरणितलंसि निहट्ट-निहत्य-स्थापयित्वा निवेशयति निवेसेइ इत्यस्य पर्यायः । 'वंदइ नमसइ' त्ति । तत्र वन्दते-चैत्यवन्दनविधिना प्रसिद्धेन, नमस्थति पश्चात् प्रणिधानादियोगेनेति वृद्धाः । न च द्रौपद्याः प्रणिपातदण्डकमा चैत्यवन्दनभिहितं इत्यन्यस्यापि श्रावकादेस्तावदेव तदिति मन्तव्यं. चरितानुवादरूपत्वादस्य । न च चरितानुवादवचनानि विधिनिषेधसाधकानि भवन्ति, अन्यथा सूरिकाभादिदेववक्तव्यतायां बहूनां शस्त्रादिवस्तूनामर्चनं श्रूयते । किं चाऽविरतानां प्रणिपातदण्डकमात्रमपि चैत्यवन्दनं सम्भाव्यते । यतो वन्दते नमस्यतीति पदद्वयस्य वृद्धान्तरव्याख्याममेवमुपदर्शितं जीवाभिगमवृत्तिकृता-विरतिमतामेव प्रसिद्धचैत्यवन्दनविधिर्भवति, अन्येषां तथाभ्युपगमपुरस्सरकायोत्सर्गाद्यसिद्धेः, ततो वन्दते सामान्येन, नमस्करोति-आशयवृद्धःप्रीत्युत्थानरूपनमस्कारेणेति । किञ्च-'समणेण सावपण य अवस्स कायव्ययं हवइ जम्हा । अंतो अहोनिसिस्स य तम्हा आवस्सयं नाम' ॥ तथा 'जणं समणो वा समणी वा सावओ वा साविया वा तच्चित्ते तम्मणे उभओ कालं आवस्सए चिट्ठइ, तण लोउत्तरीए भावावस्सए' इत्यादेरनुयोगद्वारवचनात् । तथा सम्यग्दर्शनसम्पन्न: प्रवचनभक्तिमान् पइविधावश्यकनिरतः षट्स्थानकयुक्तश्च श्राधको भवतीत्युमास्वातिवाचकवचनाच श्रावकस्य षड्विधावश्यकस्य सिद्धावावश्यकान्तर्गतं
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निःशेषसिद्धान्तविचार- पर्याये
प्रसिद्धं चैत्यवन्दनं सिद्धमेव भवतीति । इति ज्ञातधर्मकथाय द्रौपदीस्वयंवरामण्डपवक्तव्यतायाम् उक्तम् । सिहासणाओ अब्भुट्टे, अब्भुट्ठित्ता पायपीढाओ पञ्चाइ, पच्चरुहित्ता पाउयाओ आमुयइ, आमुद्दत्ता तित्थयराभिमुही सत्तट्ठपयाई अणुगच्छछ, अणुगच्छित्ता वामं जाणुं अंचे, अंचित्ता दाहिणं जाणु धरणितलंसि निद्दट्ट तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणितलसि निवेसेइ निवेसित्ता' इति फालीदेवी चमरचंचाए राहाणी करोतीति शेषः । ज्ञातधर्मकथायाम् । ( । ( सू० १४८ ) तर णं से काली कुमारी पासं अरिहं वंदइ नमसइ, नमसित्ता उत्तरपुरच्छिमं दिसिभागं अवकमइ, अवक्कमित्ता सयमेव आभरणमलालंकार ओमुयइ, ओमुयित्ता सयमेव लोयं करेइ जेणेव पासे अरहा तेणेव उवागच्छछ' इति अष्टाविचारो ज्ञातायाम् ।
6
' अपमजिय - सेजासंधारे' इति सूत्रपदवृत्तौ शय्या शयनं, तदर्थः संस्तारक : - कुशकम्बलफलकादिः शय्यासंस्तारकः' इति उपासक दशायां श्रावकसंस्तारकविचारः । एवं अप्रमार्जितदुःप्रमार्जितशय्यासंस्तारकोऽपि नवरं प्रमार्जनं वसनाञ्चलादिना । इति उपासकदशावृत्तौ श्रावकं प्रति विचार: ।
,
" नो खलु मे भंते ! कप्पर अज्जप्पभिइ अण्णउत्थिया वा अण्णउत्थियदेवयाणि वा अण्णउत्थियपरिम्गहियाई वा चेहयाई वंदित्तर नमसित्तर वा पुत्रि अणालत्तपणं आलवित्तए वा, तेसिं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दाउँ वा अणुष्पयाडं वा । नण्णत्थ रायाभिओगेणं गणाभिआगेणं देवयाभिओगेण गुरुनिग्गहेण् वित्तीकतारेण । कप्प मे समणे निम्गंथे फासूपण एसणिज्जेण असण- पाण- खाइम - साइसेणं वत्थपडिग्गहकंबलपाय पुंछणेणं पीठफलगसेज्जासंथारपण ओसहभेसज्जेण य पडिला भेमाणस्स विहरित्तए " इति । उपासक इशायां श्रावकस्वरूपम् ।
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उपासकदशाविचारा: 'अस्थि ण आणंदा ! गिहिणो जाव समुप्पजइ, नो चेव ण ए महालऐ, तं ण तुमं एयरस ठाणस्स आलोएहि निंदाहि गरिहाहि अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवजाहित्ति । (सू० १६) गौतमेनोक्तम् आनन्दं प्रति । आलोचनाविचारोऽयम् ।
जेणेव कुल्लाए सन्निवेसे, जेणेव मित्तनाइनियगसंबंधे परियणे, जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता पोसहसालं पमजइ, पमजइत्ता उच्चारपासवणभूमि पडिलेहेइ ब्भसंथारयं संथरइ दब्भसंथारयं दुरुहा, पोसहसालाए पोसहिए दम्भसंथारोवगए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मपण्णतिं उवसंपजित्ता णं विहरइ, आणंद इतिशेषः । उपासकदशायाम् ।
तए ण सा भद्दा समणोवासयं चुलणीपियं एवं वयासी-नो खलु केइ पुरिसे तव जाव कणीयसं पुत्तं साओ गिहाओ निणेइ, निणेइत्ता तव अग्गओ घाएइ, एस ण केइ पुरिसे तव उवस्सगं करेइ । एस ण तुमे विदरिसणे दिटे तण्णं तुम इयाणि भग्गवए भग्गनियमे भग्गपोसहे विहरसि, तं ण तुमं पुत्ता ! एयस्स ठाणस्स आलोपाहि पडिकमाहि निंदाहि गरिहाहि विउट्टाहि विसोहेहि अकरणयाए अब्भुट्टेहि अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवजाहि, तएण से चुलणीपिया समणोवासए अम्मगाए भद्दाए समणोवासियाए तहत्ति एयमट्ठविणएणपडिसुणेइ पडिसुणेत्ता तस्स ठाणस्स आलोएइ जाव पडिवज्जइ इति । वृत्तिस्तु यथा-एस ण तए विदरिसणे विटुत्ति । एतच्च त्वया विदर्शन-विरूपाकार बिभीषिकादि दृष्टम् इति । एनमर्थ आलोचय-गुरुभ्यो निवेदय, पडिक्कमाहि-निवर्तस्व, निंदाहि-आत्मसाक्षिकं कुत्सां कुरु, गरिहाहि-गुरुसाक्षिकं कुत्सां विधेहि, विउट्टाहि वित्रोट्य तद्भवानुबन्धविच्छेदं विधेहि, विसोहेहि-अतिचारमलक्षालनेन, अकरणयाए अब्भुट्टेहि-तदकरणाभ्युपगमं कुरु, अहारिहं तवोकम्म
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नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये पायच्छित्तं पडिवजाहि'त्ति प्रतीतम् । एतेन च निशीथादिषु गृहिण: प्रायश्चित्तस्याऽप्रतिपादनात् न तेषां प्रायश्चित्तमस्तीति ये प्रतिपद्यन्ते, तन्मतमपास्त, साधूद्देशेन गृहिप्रायश्चित्तस्य जीतव्यवहारानुपातित्वादिति । उपासकदशा-तृतीयाध्ययने (सू० ३९)।
'तए ण' से कुण्डकोलिए समणोवासए अण्णया कयाइ पुवावरण्हकालसमयंसि जेणेव असोगवणिया जेणेव पुढविसिलापट्टए नामामुद्दगं च उत्तरिजगच पुढविसिलापट्टए ठवेइ ठवेइत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मपण्णत्ति उवसंपजित्ता ण विहरइ' इत्यर्थात् मुखवस्त्रिका श्रावकस्य उत्तरिजगं-उत्तरीयवस्त्रं उत्तरिज्जेण आसं पेहेइ त्ति सर्वत्र दृष्टत्वात् उपासकदशासु (सू० ३६)
कृतवलिकर्मा बलिकर्म-लोकरूढं ‘कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्ता' कौतुक-मषीपुण्ड्रादि मङ्गलं-दध्यक्षतचन्दनादि, एते एव प्रायश्चत्तमिव प्रायश्चित्तं दुःस्वप्नादिप्रतिघातकत्वेन अवश्यकार्यत्वादिति । उपासकदशावृत्तिव्याख्या । उत्तरीयकम्-उपरितनवसनं उपासकदशाष्टमेऽध्ययने।
तए ण सा देवई देवी ते अणगारे इजमाणे पासइ, पासित्ता हट्ट जाव हियया आसणाओ अब्भुटेइ अध्भुटेइत्ता सत्तटुपयाई तिखुत्तो आयाहिण-पयाहिण करेइ, करेइत्ता वंदइ नमसइ'त्ति प्रदक्षिणाविचार: अन्तकृद्दशासु । 'तए णं सा पउमावई उत्तरपुरच्छिमे दिसीमाए अवक्कमइ, सयमेव पवावेइ पवावेत्ता सयमेव मुंडावेइ, सयमेव जक्खिणीर अजाए सिस्सिणि दलयइ' कृष्णभार्या इति शेषः । अन्तद्दशासु अष्टाविचारः ।
नापि पूजनया- तीर्थ निर्माल्यदानमस्तकगन्धक्षेपमुखवस्त्रिकानमस्कारमालिकादानादिलक्षणया भक्ष्यं गवेषणीयमिति शेषः । इति प्रश्नव्याकरणवृत्तौ श्रावकं प्रति मुखपोतिकाविचार: षष्ठेऽध्ययने ।
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रायपसेणइयविचारा: 'विदिण्णे य गुरुजणेणं उवविढे संपर्माजऊण ससीसं काय तहा कायलं' इति सूत्रं । वृत्तिस्तु-उपविष्ट उचितासने, सम्प्रमृज्य मुखवस्त्रिका-रजाहरणाभ्यां सशीई हाय-समस्तकं शरीरं तथा करतलं-हस्ततलं च इति । भोजनसमये साधुना मुखवस्त्रिका प्रत्युपेक्षणीया । वजेयत्वो य सम्वकालं अचियत्तघरपवेसो अचियत्तभत्तपाणं अचियत्तपीढफगजासंधारगवत्थपत्तकंबलदंडगरउहरणनिसेजचीलपट्टगमुहपोत्तियपायपुंछणाई भायणभंडोवहिउवगरणं । वृत्तियथा-अचियत्तपीठफलकशय्यासंस्तारकवस्त्रपत्रिकंबलदण्डकरजोहरणनिषद्याचोलपट्टकमुखपोतिकापादप्राञ्छनादि प्रतीतमेव । किमेवंविधभेदमित्याह-भाजन - पात्र माण्ड वा तदेव मृन्मयम् उपधिश्व-वस्त्रादि: पत एवापकरणमिति समासः । तद्वर्जयितव्यम् इति प्रक्रम: । इति मुखत्रिकाक्षराणि प्रश्नव्याकरणे । ' जिणपडिमाओ सुरभिणा गंधोदएण पहाणेइ हाणित्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाई अणुलिंपइ अणुलिंपइता० जिणपडिमाणं अहयाई देवदृसजुगलाई नियंसेइ नियंसेइत्ता पुष्फारुहणं मल्लारुहण चुण्णारुहण गंधारहण वत्थारुहण आभरणारुहण करेइ इति । रायपसेणइए (सू० ४४) ।
जिणपडिमाण पुरओ अच्छेहि सण्हेइ सेएहि रययमपहि तंदुलेहिं अष्टमंगले आलिहइ इति । रायपसेणइयस्स ।
'जहण्णेण सत्तरयणीए' त्ति सप्तहस्ते उच्चत्वे सिद्ध्यन्ति महावीरवत् । 'उकासेण पंचधणुस्सये' ति ऋषभस्वामिवत् । एतच्च यमपि तीर्थकरापेक्षयोक्तम् । अतो द्विहस्तप्रमाणेन कूर्मापुत्रेण न व्यभिचारो, न वा मरुदेव्या सातिरेकपश्चधनुःशतप्रमाणया इति । औपपातिके (सू० ४३) । ननु नाभिकुलकरः पञ्चविंशत्यधिकपश्चधनुःशतमान: प्रतीत एव । तद्भार्यापि मरुदेवी तत्प्रमाणैव 'उच्चत्तं चेव कुलगरेहि सममिति वचनात् । अतस्तदवगाहना
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नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये उत्कृष्टाऽवगाहनोतोऽधिकतरा प्राप्नोतीति कथं न विरोध: । अत्रोच्यते-यद्यप्युच्चत्वं कुलकरतुल्यं तद्योषितामित्युक्तं तथापि प्रायिकत्वादस्य स्त्रीणां च प्रायेण पुस्यो लघुलरत्वात् पञ्चैव धनुःशतानि असावभवत् वृद्धकाले वा सङ्कोचात् पञ्च धनुःशतमाना साऽभवत् उपविष्टा वाऽसौ सिद्धा इति न विरोध: । औपपातिकोक्तं (सू०४४)
सिद्धाययण अणुप्पयाहिणी करेमाणे करमाणित्ता पुरथिमिलेण दारेण अणुपविसइ । वृत्तिस्तु-सिद्धायतनमागच्छति वि:प्रदक्षिणां करोति । ततः पूर्वद्वारेण प्रविशति इति जीवाभिगमे (सू० १४२) प्रदक्षिणाविचार: विजयदेववक्तव्यतायाम् । तथा लोमहत्थपण पमजइ पमजित्ता सुरभिणा गंधोदएण पहाणेइ पहाणेहत्ता दिवाए सुरभीए गंधकासाईए गायाई लूहेहिं लूहेत्ता सरसेण गोसीसचंदणेण गायाई अणुलिंपइ अणुलिंपित्ता जिणपडिमाण अहयाई सेयाई दिवाई देवदूसजुयलाई नियंसइ नियंसइत्ता अग्गेहि वरेहि य गंधेहि मल्लेहि य अञ्चेइ अञ्चहत्ता पुप्फारुहर्ण मल्लारुहण गंधारुहण वण्णारुहण चुण्णारहण आभरणारुहण करेइ० । तथा अच्छरसा तंदुलेहि जिणपडिमाण पुरओ अट्ठमंगलगे आलिहइ इत्यपि विजयदेववक्तव्यतायां जीवाभिगमे (सू० १४२) ।
महावित्तेहि अट्ठसय विसुद्धगंथजुत्तेहि अत्थजुत्तेहि अउणरुत्तेहिं संथुणइ संथुणइत्ता सत्तट्ठपयाई ओसरइ ओसरइत्ता वामं जाणुं अंचेइ अंचित्ता दाहिण जाणुं धरणितलंसि निवाडेइ तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणितलंसि निवाडेइ निवाडेइत्ता पच्चुन्नमइ पच्चुन्नमइत्ता कडयतुडियर्थभियाओ भुयाओ पडिसाहरइ पडिसाहरइत्ता करयलपरिग्गहिय सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट एवं वयासी-णमोत्थु णं अरहंताण भगवंताण-जाव - सिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपत्ताणं तिकट्ट वंदइ नमंसइ । इति सूत्रदण्डकः । वृत्तिस्तु-विधिना प्रणाम कुर्वन् प्रणिपातदण्डकं पठति यथा-णमोत्थु ण अरिहंताण इत्यादि याचनमो
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निशीथविचारा:
जिणाणं'ति दण्डकार्थः । चैत्यवन्दनविवरणादवसेयः 'वंदइ नमसइ ' चन्दते ताः प्रतिमाः चैत्यवन्दनविधिना प्रसिद्धेन, नमस्करोति पश्चात् प्रणिधानादियोगेनेत्येके । अन्ये तु विरतिमतामेव प्रसिद्ध: चैत्यवन्दनविधिरन्येषां तथाऽभ्युपगमे [ पुरःसर ] कायन्युत्सर्गासिद्धेरिति वन्दते - सामान्येन, नमस्करीत्याशयवृद्धेः व्युत्थाननमस्कारेण इति तत्वमत्र भगवन्तः परमर्षयः केवलिनो विदन्ति इति जीवाभिगमे ( सू० १४२ ) चैत्यवन्दनाविचारः । तत्थ णं बहवे भवणवइ-वाणमंतरजोइसिय-वेमाणिया देवा चाउम्मासिय- पाडिवपसु संवच्छ रिपलु य अण्णेसु बहुसु जिणजम्मण-निक्खमण नाणुष्पाय परिनिव्वाणमाइपसु य देवकज्जेसु य देवसमुदयेसु य देवसमिसु य देवपयोयणेसु य एगंतओ सहिया समुवागया समाणा पमुइय-पक्कीलिया अट्ठाहियाओं महामहिमाओ करेमाणा पालेमाणा सुहंसुहेण विहरति इति जीवाभिगमे ( सू० १८३ ) भणितम् । निशीथविचारा यथा - " साहमियत्थलीसु जाय अदन्ते भणावणगिहीसुं । असई पगासगहण बलवइ दुट्ठेसु छण्णंपि । ( गा० ३४५) चूणिस्तु असिवगाहिए वि सति असिवगहिया वा साहू असंथरता असिवगहिया वि सउतिन्ना वा दुल्लभभत्ते देसे पत्ता असंथरंता साहमियाथली - देवद्रोणी 'जाय'त्ति आरहंत-पासत्थ परिगडिया देवद्रोणी पुत्रं जाययंतीत्यर्थः । इति देवद्रव्यविचारः ॥ अद्धा श्रान्तस्य पादादिदेशस्नानं सर्वस्नानं वा कर्त्तव्यं वादिनां वादिपर्षद गच्छतः पादादिदेशस्नान सर्वस्नानं वा आचार्यस्य अतिशयमितिकृत्वा देशस्नानं सर्वस्नान वा |
मुल्लजुय पुण तिविहं जहण्णय मज्झिमं तु उक्कोसं । जहण्णेण अट्ठारसगं सयसाहस्स च उक्कोस ॥ दो सोभरगा दीविच्चगाउ सो उत्तरावहे पक्को ।
१५
दो उत्तरावहा पुण पाडलिपुत्ते हवइ एक्को ॥ ( ९५७-९५८) साभरको नाम रूपकः । इति वस्तुमूल्यविचारः ॥ चीराचरियाए
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नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये निग्गओ आयरिओ जान नियत्ता ता दसाआ न छिजति ( ९७४ गाथाचूर्णिः ।) इति सूरिणा वस्त्रग्रहणाय गन्तव्यम् । चाउम्मामातीय वासासु उउबद्ध मासतीय वा धुझा वामातीयं वसमाणे कालउ निरुपम ॥ इति मासकल्पाक्षराणि । सेसं मंडलिराइणि सुब्भी दुभिवब्याविरोहण करंबेडं मंडलिए भुंजलि, एवं सव्वेसिं समया भवइ । गाथा तु
तम्हा विहिर भुजे दिण्णभि गुरुण सेस राइणिओ । भुयइ करंबेऊण एवं समया उ सव्वेसि || सागारिउत्ति को पुण काहे कइविही व सो पिंडी । असेजायरी व काहे परिहरियो व सो कस्सा ॥ दोसा वा के तस्सा कारणजाए व कप्पए कम्हि । जयणाए वा काए पगमणेगेसु घेत्तव्यो । (११३८-९) सेन्जायरो पह वा पहुसंदिट्ठो ध हाइ काययो ।। एगमणेगी व पहु पहुसंदिट्ठो वि पभेव (११४४ ) । जइ जग्गति सुविहिया करिति आवस्सगं तु अण्णस्थ । सेन्जायरी न होइ सुत्ते व कप व सो हाइ ।।
अण्णत्थ व सोऊणं आवस्सग चरिममन्नहिं तु करे । दोणि वि तरा भवंति सत्थाइसु अन्नहा भयणा (११४८-९) इदं च प्रायश: सार्थादिषु सम्भवति इत्यर्थः । असइ वसहीए वीसुं वसमाणाणं तराउ भइयत्वा ।
तत्थण्णत्थ व वासे छत्तछायं च वजाति (११५) तण-डगल-छार-मल्लग-सेजा संथार-पीठ-लेवाइ । सेजायरपिंडो सो न होइ सेहो व सोहिओ ।। आपुच्छियमुग्गाहिय वसहीआ निगहोगहे एगो ।
पढमाई जाव दिवसं बुच्छे वज्जेजऽहोरत्तं ॥ (११५४-११५५) एकशब्द: प्रत्येकं सम्बध्यते ॥ 'पढमाइ जाव दिवसं 'ति अणुग्गए सूरे निग्गओ सूरोदयाओ असेजायरमिच्छइ । अन्नो भणइ सूरुग्गमे
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निशीथविचारा: निग्गयाण जाव पढमपहरो ताव सेजायरो इत्यादि विकल्पा: ॥ एए सब्वे अणाएसा । इमो आएसो वुच्छे वज्जेजहोरत्त' न पहरविभागपकप्पणाऐ विसेसा कोइ अस्थि ॥
लिंगत्थस्स च वजो तं परिहरओ व भुंजतो वावि ।
जुत्तस्स अजुत्तस्स व रसावणो तत्थ दिटुंतो। (गा० ११५८ साहुगुणजिओ जो लिंग धरेइ तस्स ओ सेजायरो तस्स पिडं सो भुंजउ मा वा भुजउ तहावि वजो साहुगुणेहि जुत्तस्स अजुत्तस्स इत्यर्थः ॥
तित्थयरपडिकुट्टो आणा अन्नाय उग्गमो वि य न सुज्झे । अविमुत्ति अलाघवया दुल्लहसेजाए वोच्छेओ (गा० ११५९) पुर-पच्छिमवजेहिं अवि कम्मं जिणवरेहिं सवेहिं । भुत्तं विदेहएहि य नो सायरियस्स पिंडो उ ॥ (गा० ११६०) दुविहे गेल नंमी निमंतणा दव्वदुल्लभे असिवे ।
ओमोयरिय पओसे भए य गहणं अणुण्णायं ॥ (गा० १९६९) विहं गेलण्णं आगाढमणागाढं। सागारियं अपुच्छिय पुत्वं अगवेसिऊण जे भिक्खु । पविसइ भिक्खस्सट्टा सो पावइ आणमाइणि ॥ (गा० १२०६) वर्षातु काष्ठसंस्तारकादिभावे ।
पाणा सीयल कुंथू उप्पायग दीहगोम्हि सुसुणाए । पणए य उवहि कुच्छणमल उदगवही अजीराई (गा० १२४५) वासाणं एगयरं संथारं जो उवाइणे भिक्खू
दसरायाओ परेणं सो पावइ आणमाईणि || गा० १२७८ ) दशरात्रपरात् यो भिक्षुः उवाइणे अर्पयति इत्यर्थः । 'उग्गहणंतग' ति जोणिदुवारस्स सामइकी संज्ञा तस्स ण तउ आच्छादकवस्त्रम् ।
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नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये छाएइ अणुकुइए गंडे पुण कंचुओ असिवियओ । एमेव य उक्कच्छिग सा नवरं दाहिणे पासे ॥ (गा० १४०४) इति । गाथार्थो यथा-अणुकुंचिया अनुक्षिप्ता इत्यर्थ: । गंड इति स्तनाः । अहवा' अणुकुंचिय'त्ति अनु:-स्वल्पं कुश्च स्पन्दने' कञ्चकाभ्यन्तरे सप्रविचारा: न गाढमित्यर्थः । गाढपरिधाने प्रतिविभागे विभक्ता जनहार्या भवन्ति, तस्मात् कञ्चकस्य प्रशिथिलं परिधानमित्यर्थः । स च कंचुगो दीहत्तणे सहत्थेण अड्ढाइडाहत्थो, पुहत्तेण हत्थो, कच्छाए समीवं उवकच्छ वकारलोप काउं तं आच्छादयतीति उक्कच्छिका पमेव य उक्कच्छियाए प्रमाण वाच्यं । सा य समचउरंसा सहत्थेण दिवइढहत्था उरं दाहिणपासं पट्टि च छायंती परिहिजइ, खंधे वामपासे य जोत्तपडिबद्धा भवइ इति गाथार्थः ।
अक्खा संथारो य एगमणेगंगिओ य उक्कोसे ।
पोत्थगपणगं फलग बिइयपए होइ उक्कोसा ॥ १४१६ ॥ समोसरण-अक्खा । संथारगो एगंगिओ अणेगंगिओ य । फलगं जत्थ पढिजइ, मंगलफलग वा जं वुड्ढवासियो । एस बिइयपपण उकासो उवग्गहिओ।
वासत्ताणे पण चिलिमिलिपणग दुगं च संथारे ।
दंडाईपणगपुण मत्तगतिग पायलेहणिया ॥ १४१४ ॥ गाथार्थो यथा-वासत्ताणे पणग-वाले सुत्ते सुई पलास कुडसिसगछत्तए य । वालः-कम्बलः. सुत्ते पटी, शूची तालपत्राणां, पलास छत्रं, कुडसिसगछत्तय, सिरिवन्नि पकं । चिलिमिलीपणग-पोत्ते वाले रज य कडग दंडमई । संथारगदुगं-झुसिरो अज्झुसिरो य । दंडपणग-दंडे विदंडे लट्टी विलट्ठी नालिया य । मत्तयतियं-खेल काइय सन्ना य ।
मुहपोत्तिगरयहरणे कप्पतिग-निसेज-चोलपट्टो य ।
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निशीथविचारा: संथारुत्तरपट्टे व पेक्खिए जहुग्गमे सूरो || इति प्राभातिकपडिलेहणगाथा (१४२५) पतेसु प्रेक्षितेसु यथा रविः उदेति । चउफलं मोकल वा खंधे करेइ दुवार इति सीसवारिया करेइ । दो वि बाहाओ छाइतो संजह पाउरणेण पाउरह ॥ एगओ दुहओ वा कप्पअंचला खंधाराविया गरुलपक्ख पाउणइ । इति ( १५५५) प्रावरणविचारः।
भिक्खुवियार विहारे दुइजले व गाममणुगामं ।
सीसदुवारं भिक्खू जे कुजा आणमाईणि ।। १५२४ ।। अनेन सीसढकणनिषेधः ।
जल्लो उ हाइ कम मला उ हत्थाइघट्टिो सडइ । पंको पुण सेउल्लो चिक्खला वावी जो लग्गा ॥ १५२२ ॥
सक्कमहा इंदमही आइसदाओ सुगिम्हगाइ, जो व जत्थ महामही एपसु मा पमत्तं देवया छलेजा । तेण अणागाढजेोगनिक्खेवो । किश्चाऽन्यत-तेसु य सक्कमहादिदिवसेसु विगइलोभा भवइ, ताओं दुब्बलसरीरा भुजति, ताहे पीणिजन्ति (बलिनो भवन्तीत्यर्थः) । इसरे नाम आगाढजोगवाही ते जोग वहंति, न तेसिं उद्देसो न वा पुवुद्दिटुं पढ़ति (१६०८) इत्यक्षरेरनध्याये योगाद्वहननिषेध: । तक्काइ एगोगियं भुजइ इति (१६०७) तकाम्बिलाक्षराणि ।
विगई विगईभीओ विगइगय जो उ भुजए भिक्खू ।। विगई विगइसहावा विगई विगई बला नेह ॥ १६२२ ॥
व्याख्या-घृतादिविगई, बिइयविगइगहणेण कुगई । विगईए कयं विगइकयं जहा विस्संदणं, विगई वा गय जम्मि दवे तं दधं विगइगय', जहा दध्यादनः । विगईए भुत्ताए साहु विगयसहावो भवइ, सा य विगई भुत्ता विगई नरगाइयं बला नेइ इत्यर्थः ।
विगइमणट्ठा भुजइ न कुणइ आयंबिल न सहहह ।
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निःशेषसिद्धान्तविचार-पर्याये एसो उ सयभंगा देसे भंगा इमो तत्थ ॥ १५९५ ॥ काउस्सग्गमकाउं भुजा भाऊण कुणइ वा पच्छा । सय काऊण व भुजइ तत्थ लहू तिन्नि उ विसिट्टा ॥ १५९॥ जावच्चिय कालगया ताहे विय दाण्णि तिणि वा दिवसे । गच्छेज संजइणं अणुसट्टि गणहरो दाउं ॥ १७५१ ॥ पडिणीय-मेच्छ सावय-गय-महिसा तेण साणमाईसु ।
आसन्ने उवस्सग्गे कप्पड़ गमण गणहरस्स ॥१७३४॥ संयतीवसतौ इत्यर्थः ।
पियधम्मा दढधम्मो मियवाई अप्पकाऊहल्लो य ।
अज्जं गिलाणियं खलु पडिजग्गइ एरिसो साहू ॥ १७५१ ॥ जेण पहेण पक्खियाइसु आगच्छन्ति, तम्मि पहे दंडाइ उवगरण न मुंचंति इतिशेषः । ( उ०४ सू०२४)
पासित्ता भासित्ता सेोउं सरिऊण धावि जे भिक्खू । विष्फालित्ताण मुहं सवियारकह कह हसइ ॥ १८२३ ॥ पासवणुच्चारं वा जे भिक्खू वासिरेज अविहीए ।
सो आणा अणवत्थं मिच्छत्तविराहण पावे ॥ १८५६ ॥ पट्टीवंसो दा० इत्यादि गाथा, वंसगकडणुकं वण० इत्यादि गाथा ।
तम्हा सव्वाणुन्ना सबनिसेही य पवयणे नस्थि । आयव्वयं तुलेन्जा लाहाकंखि व्व वाणियओ ॥ २०६७ ॥ जो चेव य उवहिरिम गमा उ सा चेव हाइ भत्तपाणम्मि ।
भुजण वज्जमणुन्ने तिष्णि दिणे कुणइ पाहुण्ण ॥ २०९८ ॥ जत्थ संजईओ संजयाण किइकम्म करंति, तत्थ सवं उद्धट्टिया सुत्तावत्ताइ करति, न मुद्धाण (उ) ठिए रयहरणे पाडिति । केइ आयरिया भणति-उद्धट्टिया चेव रओहरणे सिरे पणमंति त चेव तेसिं मुद्धाणति । संयतीविचारः (२११७ गाथा चू०)।
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२१
निशीथविचारा:
वद्धमाणस मिस्स सिस्सो सुहम्मो, तस्स जंबुनामा, तस्सवि प्रभवो तस्स सेज भवा, तस्सवि सिस्सा जसभहो, जसभहस्स सिस्सा संभूओ, संभूयस्स थूलभद्दो, थूलभद्दं जाव सव्वेसिं एकसंभेागेा आसि । थूलभद्दस्स जुगप्पहाणा दा सीसा अजमहागिरी अजसुहत्थी य । इति पर्वक्रम उक्तः ( २१५४ गाथाचूर्णि: ) ।
जे भिक्खू सुहुमाई करेज रयहरणसी सगाई च । सो आणा अणवत्थं मिच्छत्तविराहणं पावे ॥ २१७१ ॥ यद्दरणसी सगाणि- - रयहरणदसाओं ।
तिण्डुवरि बंधाणं दंडतिभागस्स हेड उचरिं वा । दौरेण असरिसेण व संतरं बंधंत आणाइ ।। २१७८ ।। असरिसो अतज्जाओ इत्यर्थः ।
नाणाइसंघणट्टा वि सेविया ने उप्पदं विगई ।
किं पुण जो पडिसेवइ विगहूं वण्णाइणं कज्जे ॥ २२८४ ॥ जे भिक्खू आगंतागारेसु जाव परियावसहेसु वा एगो इत्थीर सद्धि विहारं वा करेइ सज्झायं वा करे, असणं वा पाण वा खाइमं वा साइमं वा आहारेइ, उच्चारं पासवणं वा परिट्ठवेद, अण्णयरं वा अणारियं निडुरं असमणपाओगे कहं कहे कहतं वा साइज्जइ ( उ० ८ सू० १) । जे उज्जाणसि वा उज्जाणगिहंसि वा पगो पाप - इत्थिय सद्धिं जाव कहेइ, कहंत वा साइज्जइ ( उ० ८ सू० २ ) इत्येका किस्त्रीकथाविचारः ।
अवि मायर पि सद्धिं कहा उ पगाणियस्स पडिसिद्धा । किं पुण अणारगाई तरुणित्थीहिं सह गयस्स | २३४४ ॥ अनावि अप्पसत्था थीसु कहा किमु अणारि असम्भा । चकमणज्झायभोयण उच्चारेसुं तु सविसेसा || २३४५ ।। चक्की वीसह भागं सव्वेवि य केसवाओ दस भागं । मंडलिया छब्भागं आयरिया अद्धमद्वेण ।। २३५५ ॥ पापेन गृह्यन्ते इतिशेषः ।
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२२
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निःशेषसिद्धान्तविचार- पर्याये
रोहेड अट्टमासे वासासु सभूमिए निवा जंति । रुद्रेण तेण नगरे हावंति न मासकष्प तु ।। २३७५ ।। गुत्तागुत्तदुवारा कुलपुत्ते सत्तमंतगंभीरे । भीयपरिसे महविप अजासेज्जायरे भणिए ।। २४५७ ।। घणकुड्डा सकवाडा सागारिय भगिणि माउ पेरंता । निष्पञ्चवाय जोग्गा विच्छिन्न पुरोहडा वसही || २४५५ ।। संयतीशय्यागाथे ।
जो मुद्धा अभिसित्तो पंचहि सहिओ अ भुंजय रज्जं । तस्स उ पिंडी वजां तव्विवरीयम्मि भयणा उ ॥ २४९७ ॥ सेणावइ- अमच - पुरोहिय- सेट्ठि-सत्थवाहेडिं पंचहि सहिओ । मुदिर मुद्धभिसिते मुद्दओ जो होइ जोणिसुद्धो उ । अभिसित्तो उ परेहिं सयं च भरहो जहा राया ॥ २४९८ ॥ असणाईया चउरो वत्थे पाप य कंबले चेव । पाउँछणए य तहा अट्टविहो रायपिंडो उ || २५०० ॥ जे भिक्खु राईण निगच्छंताण अहव निताणं । चक्खुवडियाप पयर्मावि अभिधारे आणमाईणि ।। २५३९ ।। जइ खलु पुरिमं संघ उद्दिसई मज्झिमस्स तो कप्पे ॥ २६७० ॥ अस्या अर्थो यथा-रिसभसामिणो तित्थे जे समणा समणीओ वा ते उद्दिसिउं करे, तो तेसिं अकप्पं, मज्झिमाण पुण कप्पं, तेसिं मज्झिमाण कर्ड दोण्डवि पुरिम-मज्झिमाण अकप्पं इत्यर्थः । इत्याधाकर्मविचारः |
गुरुणो जावज्जीवं सुद्धमसुद्वेण होइ कायव्य ।
सहे बारस वासा अट्ठारस भिक्खुणो मासा || २६८६ ॥ बस - उपाध्याये इत्यर्थः ।
जह भमरमहुयरिगणा निवयंति कुसुमियभि वणसंडे । तह होइ निवश्यव्वं गेलपणे कइवयजढेण ॥ २९७१ ॥
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निशीथविचारा: तेगिच्छगस्स इच्छाणुलोमण जो न कुज सइ लामे ।
असंजमस्स भीओ अलस पमाई च गुरुगा से ॥ ३०६२॥ सेगिच्छगो-गिलाणपडिजागरक: ।
खंतिखमं मदवियं असढमलोलं च लधिसंपन्न । दक्खं सुभरमसुविरं हिययग्गाहिं अपरितंतं ।। ३१०५॥ सुत्तत्थापडिबद्धं निजरपेही जिइंदियं दंत । कोउहलविप्पमुकं अणाणुकित्तिं सउच्छाहं ॥३१०६॥ आगाढमणागाढे सहहगनिसेवगं च सट्टाणे ।
आउरवेयावचे परिसयं तु निउजेजा ॥३१०६॥ असुविरो-अनिहालु, सुत्तस्थापडिबद्धो-गृहीतसूत्रार्थः । को अन्नो एवं काउ' समत्थो, तुज्झ वा परिसं तारिसं मए कयंति एवं जो नवि कथयति सो अणाणुकित्ती । पर्युषणाविचारो यथा-पन्जोसवणाए अक्खराइ हुँति उ इमाईगोण्णाई ।
परियागववत्थवणा पजोसवणा य पागइया ॥ ३१३८ ॥ परिवसणा पज्जुसणा पज्जोसवणा य वासवासो य ।
पढमं समोसरणं ति य उवणा जेट्रोग्गहेगट्टा ॥३१३९ ॥
जम्हा पज्जोसवणादिवसे पव्वज्जापरियागो पत्तिया मम परिसा उहावियस्स तम्हा परियागववत्थणा भण्णइ ।
ऊणाइरित्तमासे अट्ठ विहरिऊण गिम्हहेमंते । एगाह पंचाहं मास व जहा समाहीए ॥ ३१४४ ॥ पडिमापडिवनाण एगाहो पंचाहो तहाऽलंदे ।
जिणसुद्धाण मासो निकारणओ य थेराण ॥३१५७ ॥ 'जिणसुद्धाणं'ति जिणकप्पियाण थेराण चेत्यर्थः । कहं पुण ऊणा आइरित्ता वा उउबद्धिया मासा भवंति ? इत्याह
काऊण मासकप्पं तत्थेव उवागयाण ऊणाउ । चिक्खल्लवासरोहेण वा बितीए ठिया नूण ॥ ३१४५ ।।
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२४
नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये जत्थ खेत्ते आसाढमासकप्पो कओ, तत्थेव खेत्ते वासावासत्तेण उवागया एवं ऊणा अट्ट मासा । अहवा सचिखल्ला पंथा, वासं वा अज्जवि नो विरमइ, नगरं वा रोहियं, बाहिं वा असिवाइ कारण, तेण मगसिरे सव्वे ठिया, अओ पोसाइआ आसाढ़ता सत्त विहरणकाला भवंति । इयाणिं जह अइरित्ता अट्ट मासा विहारो तहा भण्णइ
वासाखेत्तालभे अद्धाणाइसु सत्थवसगा वा । वासगवाघाएण व अपडिकमि जइ वति ॥ ३१४६ ॥
अर्थो यथा-आसाढे सुद्धवासावासपाओग्गं खेत्तं मगंतेहिं न लद्धं ताव जाव आसाढचाउमासाओ परओ सविसइराए मासे अइक्कते लद्धं, ताहे भद्दवयजोण्हपंचमीए पज्जोसियं, नव मासा एवं, एवं च अट्ठ मासा अइरित्ता । अहवा साहू अद्धाणपडिवन्ना सत्थवसेण आसाढचाउम्मासाओ परेण पंचाहेण दसाहेण वा पक्खेण वा जाव वीसइराए वा मासे वासाखेत्तं पत्ताण अइरित्ता अट्ठ मासा विहारो भवइ । अहवा वासवाघाए अणावुट्टीए आसोए कत्तिए निग्गयाण अट्ट अइरित्ता भवंति । वसहिवाघाए वा कत्तियचाउम्मासियस्स आरओ चेव निग्गया। आयरियाणं कत्तियपुण्णिमाए परओ वा साहस नक्खत्तं न भवइ, अन्नं वा रोहादिकं जाणिऊण कत्तियचाउम्मासिय अपडिक्कमि जया वयंति तया अइरित्ता अट्ट मासा भवंति । वासावासे कम्मि खेत्ते कम्मि काले पविसियव्वं ? इत्याह
आसाढपुण्णिमाए वासावासातु होइ ठायव्वं । __ मग्गसिरबहुलदसमीओ जाव पक्कम्मि खेत्तम्मि ॥ ३१४९॥ कहं पुण वासापाउग्ग खेत्तं पविसंति ? इत्याहबाहिठिया वसभेहिं खेत्तं गाहित्तु वासपाउम्ग ।
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निशीथविचारा: कप्प' कहित्तु ठवणा सावणबहुलस्स पंचाहे ॥ ३१५० ।।
अर्थ:-आसाढपुण्णिमाए पविट्टा, पडिवयाओ आरम्भ पंच दिणाई संथारग-तण-डगल-छार-मल्लगाईय गेण्हति ।
एत्थ उ अणभिग्गहियं वीसइरायं सवीसई मासं । तेण परमभिग्गहियं गिहिनायं कत्तिओ जाव ॥ ३१५१ ॥ अर्थ:-इत्थ आसाढपुणिमाए सावणबहुलपंचमीए वासपजोसविए वि अप्पणी अणभिग्गहियं । अहवा जइ गिहत्था पुच्छंति अजो! तुब्भे एत्थ वरिसाकालं ठिया अह न ठिया? एवं पुच्छिपहि अणभिहियं ति संदिद्धं वक्तव्यं । वीसरायं सवीसइरायं मासं। जा अभिवढियवरिसं तो वीसइरायं जाव अणभिग्गहियं । अह चंदवारसं तो सवीसइराय मास जाव अणभिग्गहिय तत्कालात् परतः भिगृहीतं 'इह व्यवस्थिता' इति पुच्छताण कहंति ।
असिवाइकारणेहिं अहवा वासं न सुट्ट आरद्धं ।
अभिवइढियमि वीसा इयरेसु सविसईमासो ॥ ३१५२ ॥ अर्थः-असिवाइएहि कारणेहिं जइ अच्छइ तो आणाइया दोसा। अह गच्छंति तो गिहत्था भणति-एए सवण्णुपुत्तगान किचि जाणंति, मुसावायं च भासंति । ठियामो त्ति भणित्ता जेण निगया । तम्हा भिवढियवरिसे वीसहराए गए गिहिनाय करिति । तिसु चंदररिसेसु सवीसइराए मासे गप गिहिनायं करिति । अत्थ अहिगमासगो पडइ-(चटति) वरिसे तं अभिवढियवरिस भण्णइ । जत्थ न पडइ तं चंदवरिसं । सो य अहिगमासगो जुगस्स अंते मज्झे वा भवइ । जइ अंते तो नियमा दो आसाढा भवंति अह मज्झे तो दो पोस।। सीसी पुच्छइ-कम्हा अभिवइढियवरिसे वीसतिराय चंदवरिसे सवीसइमासो ? उच्यते-जम्हा अभिवइढियवरिसे गिम्हे चेव सो
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नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये मासो अदक्कतो तम्हा वीस दिणा अणभिग्गहिय कीरइ, इयरेसु तितु चंदवरिसेसु सवीसइमास इत्यर्थः ।।
पत्थ उ पणग पणग कारणियं जाव मवीसईमासी । सुद्धदसमीठियाण व आसाढी पुणिमोसमणा ॥ ३१५३ ॥ अर्थः-अहवा जत्थ आसाढमासकप्पो को तं वासपाउग खेत्तं, अन्नं च नत्थि वासपाउग ताहे तत्थेव पजामविति । पकारसीआ आढवेउं डगलाइयं गेण्हंति, पजोसवणाकप्पं च कहिंति, ताहे आसाढपुण्णिमाए पजासविति । एस उस्सग्गो । सेस काल पजोसविताण सव्वा अववाओ । अववापवि सवीसइराइमासाओ परेण अइक्कमेन वट्टइ । सवीसइराए मासे पुण्णे जइ वासखेत्तं न लब्भइ तो रुक्खहेट्ठा वि पन्जोसवेयव । तं च पुण्णिमाए पंचमीर दसमीए एवमाइएतु पव्वेसु पन्जोसवियव नो अपव्वेसु । सीसी पुच्छइ-इदाणिं कहं चउत्थीए-अपव्वे पजोसविजइ ? । आयरिओ भणइ-कारणिया चउत्थी अजकालगायरिएण पत्तिया । ताहे रण्णा भणियं-तदिवस मम लोगाणुवत्तिए इंदा अणुजाएयव्यो होहित्ति साध चेइए न पजवासिस्सं, ता छट्ठीर पजोसवणा कजउ ? । आवरिपण भणियं-न वट्टइ अइक्कामे, ताहे रण्णा भणियं-एवं ती अणागय चउत्थीए पज्जासविजउ । आयरिपण माणयं-एवं भवउ । ताहे चउत्थीए पजोसविय। एवं जुगप्पहाणेहिं चउत्थी कारणे पवत्तिया । सा चेवाणुमया सव्वसाहूणं । रण्णा य अंतेउग्गिा मणिया-तुम्हे अमावासाए उववासं काउ' पडिवयाए सबखजभोजविहीहिं साहू उत्तरपारणए पडिलाभित्ता पारेह, पजोसवणाए अट्ठमंति काउं पडिवयाए उत्तरपारणय भवइ । तं च सव्वलोगेणवि कयं, तओ पभिइ मरहट्टविसए 'समणपूय' त्ति छणो पयडेइ ।
इयाणि पंचगपरिहाणिमधिकृत्य कालावग्रह उच्यते
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निशीथविचारा: इय सत्तरी जहण्णा असिई नउई दसुत्तरं च सय ।
जइ वासइ मसिरे दसराय तिणि उक्कोसा ॥ ३१५४ ॥ अर्था यथा-'इय' त्ति उपप्रदर्शने । जे आसाढचाउमासियातो सवीसइराए मासे गए पन्जोसविति तेसिं सत्तरि दिवसा जहण्णओ वासकालुगगहा भवइ । कहं सत्तरि ? उच्यते-चउमासाण वीसुत्तरं दिवससयौं भवइ, सवीसइ मासा पण्णासं दिवसा, ते वीसुत्तरसयमझाओ साहिआ सेसा सत्तरि । जे भद्दवयस्स बहुलदसमीए पजोसविति तेसिं असीइ दिवसा मज्झिमा वासकालेोग्गहा भवइ । जे सावणपुण्णिमाए पज्जासविति तेसिं नउई दिवसा मज्झिमा चेव वासकालोगहा भवइ । जे सावणबहुलदसमीए पज्जोसर्विति तेसिं दहुत्तरसयौं मज्झिमा चेव वासकालाग्गहा भवइ । जे आसाढपुण्णिमाए पज्जोसविति तेसि वीउत्तरं दिवससयं जेट्टो वासकालाग्गहा भवइ । सेसंतरेसु वि दिवसपमाण वत्तव्वं । एवमाइपगारेहि वरिसारत्तं एगखेत्ते अच्छित्ता कत्तियचाउमासियपडिवयाए अवस्सं निग्गंतव। अह मगसिर मासे वासइ चिखल्लजलाउला पंथा तो अववाएण पकं उकासेगा तिण्णि वा दसराया जाव तंमि खेत्ते अच्छंति । मार्गसिर पूर्णमासी यावत् इत्यर्थः । मग्गसिरपुणिमाए परओ जइ वि सचिखला पंथा वा वा गाढं अणुवरय' वासह जइ विप्लवंतेहिं तहावि अवस्म निगंतव्वं । अह ण णिग्गच्छति तो चउगुरुगा एवं पंचमासिओ जेट्ठोग्गहा जाओ । तथाहि
पण्णासा पाडिजइ चउण्ह मासाण मज्झआ । तओ उ सत्तरी (जहण्णा) हाइ जहण्णा वासुवगहा ॥३१५५॥ तथा काऊण मासकप तत्थेव ठियाणऽतीयमग्गसिरो । सालंबयाण छम्मासिओ अ जेटोग्गहा हेाइ ॥ ३१५५॥ जइ अस्थि पयविहारो चउ पाडिवयंमि हेाइ निग्गमण । अहवा वि अणितस्सा आरोवण पुवनिहिट्ठा ॥ ३१५७ ।।
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नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये अर्थो-वासाखेत्ते निविग्घेण चउरो मासा अच्छिउं कत्तियचाउम्मासं पडिकमिउं मग्गसिरबहुलपडिवयाए निग्गंतवं एस चेव चउपाडिवओ । तथा
काइयभूमि संथारए य संसत्त दुल्लभे भिक्खे । एपहिं कारणेहिं अप्पत्ते हाइ निग्गमण ।। ३१५९ ॥ राया कुंथू सप्पे अगणि गिलाणे य थंडिलस्स असई । एएहि कारणेहि अप्पत्ते हेाइ निग्गमण ॥३१५८ ॥ वासं व न उ विरमइ पंथा वा दुग्गमा सचिखल्ला ।
एएहिं कारणेहिं अइकते हेाइ निग्गमण ॥ ३१६० ॥ एष पर्युषणाविचारः । वर्षाकाले खेत्ते ठवणा जहा
उभओ वि अद्धजोयण अद्धकासं तह हवइ खेत्तं ।
हाइ सकोसं जायण मेत्तूर्ण कारणज्जाए ॥ ३१६२ ॥ अर्था-पुवावरेण दक्खिणुत्तरेण वा । अहवा उभओत्ति सव्वओ समंता अद्धजायणं सह अद्धकेासेण एगदिसाए खेत्तापमाणं भवइ । उमओ वि मेलिउ गमागमेण वा सासं जायणं भवइ । 'कारणजाएण'त्ति अववायकारणं मेोत्तूण एरिसं उस्सग्गेण खेत्तं भवइ । वासासु एरिसं खेत्तठवण ठवेइ । तथा
उड्ढमहे तिरियमि य सकोसं हवइ सवओ खेत्तं ।
इंदपयमाइएसू हिसि सेसेसु चउ पंच ॥ ३१६३ ॥ नइमादिजलेसु इमा विही ।
दगघट्ट तिणि सत्त व उउवासासु न हणंति ते खेत्तं । चउरट्ठाइ हणंती जंघद्धको वि य परेणं ॥३१५५ ।। वर्षाकाले चउच्चारपासवण खेलमत्तए तिण्णि तिणि गिह्नति । संजमओएसट्टा भिजेज्ज व सेस उज्झति ॥ ३१७२ ।। धुवलोओ उ जिणाण निच्च थेराण वासवासासु । असहू गिलाणगस्स व त रयणि तू नइक्कामे ॥ ३१७३ ।
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निशीथविचारा: अर्थो-थेराण वि वासासु धुवलोओ चेव । असहू गिलाणाणं तु पजोसवणराई नाइकमंति ।
वर्षासुच-मोत्तुं पुराण-भावियसड्ढे सञ्चित्तसेसपडिसेहो ।
मा होहिति निद्धम्मो भायणमाए य उड्डाहो ॥ ३१७४ ॥
अर्था यथा-जइ सो भण्णइ-बरसंते मा नीहि, आउकायविराहणा भवइ । ताहे सो भणाइ-जइ एए जीवा तो निसगमाणे किं भिक्खं गिण्हह ? विशारभूमि वा गच्छह ? कहं वा तुम्भे अहिंसगा साहवो य बासातु चलणे न धोति पायलेहणियाप निलिहंति ? ताहे सो भणाइ-असुई चिक्खलं महिऊण पाया न धोवंति, असुइणो एप समलस्स य कओ धम्मो? | पवं विप्परिणओ निक्खमइ । सागारियं ति काउं साधवा पाप धांति तो असामायारी पाउसदोसो य । वासे पडते अभाविए सेहे वसहीओ अनिते जइ मंडलीए भुंजइ तो उहाहं करेइ, पाणा इव एए परोप्परं संसद्रं भुजति । अहपि णेहि बिट्टालिआ ताहे विप्परिणमइ । अह मंडलीए न भुंजइ ताहे असमायारी । जइ वा ते साहवा निसग्गमाणे मत्तपसु उच्चारपासवणाई आयरंति, सो य तं दट्ट विप्परिणामेजा । वर्षालु च-मणवयणकायगुत्तो दुचरियाई च निच्चमालोए ।
अहिगरणे उ दुरूवग पज्जोओ चेव दमओय ॥३१७९॥ प्रतिष्ठाविषयो यथा-ताहे सो विजमाली भणाइ-इयाणिं किं मया काय ? अच्चुयदेवेण भणियं बोहिनिमित्तं जिणपडिमावयारं करहि । तओ सो विजमाली अट्टाहियामहवंते गंतुं चुहिमवंत गोसीलदारुमयं पडिमं देवयाणुभावेण निव्वत्तेइ, रयणविचित्ताभरणेहिं सवालंकारविभूसियं करेइ । तया ताहे पभावई पहाया कयकोउयमंगला सुकिलवासपरिहाणपरिहिया बलिपुष्फधूवकडच्छ्यहत्था गया । तओ पभावईए सव्वं बलिमादि काउं भणियं-'देवाहिदेवो महावीरवद्धमाणसामी तस्स पडिमा कीरउ'
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नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये त्ति पहराहि वाहिओ कुहाडो, एगघाए चेव दुहा जायं, पेच्छंति य पुवनिवत्तिय-सव्वालंकारविभूसियं भगवओपडेम, सा णेउं रण्णा घरसमीवे देवाययणं काउं तत्थ ठविया । तत्थ किण्हगुलिया नाम दासचेडी देवसुस्सूसाकारिणी निउत्ता । अमि-चाउद्दसीसु य पभावई देवी भत्तिरागेण सयमेव (राउ) नट्टोवहारं करेइ । राया वि तयाणुवित्तीए मुरये पवाएइ । अण्णया पुणावि पभावईए पहायकयकोउयाए दासचेडी वाहित्ता देवयगिहपवेसा सुद्धवासा आणेहि त्ति भणिया । ते य सुद्धवासा आणिज्जमाणा कुसुंभरागरत्ता इव अंतरे संजाया । इति श्वेतधौतिकबलिप्रतिष्ठाविचारः ।
चंपानगरी अणंगसेणो सुवण्णकारी, विजमाली जक्खो, नाइलो सावओ, किण्हगुलिया, उदायणो । उज्जेणी विइन्भयाओ असीइ जोयणाई चंडपजोआ राया । दिसुयमणुभूयं जं वत्तं पंचसेलए दीवे नलगिरी सुवण्णगुलिया।
पुवाधीयं नस्सइ नवं च छाओ न पञ्चलो घेत्तं ।
खमगस्स व पारणए वरिसति असहू य बालाई ॥३२०७॥ वर्षतिभिक्षां कुर्वति ।
धुवलोओ उ जिणाणं वरिसासु य होइ गच्छवासीणं । उडु तरुणे चउमासी खुर-कत्तरि छलहू गुरुगा ॥३२१३॥ पढमंमि समोसरणे वत्थं पायं च जो पडिगाहे । सो आणा अणवत्थं मिच्छत्त-विराहणं पाये || ३२२२ ।। पजोसवणे केसे गावीलोमप्पमाणमेत्ते वि । जो भिक्खू वाइणावती सो पावइ आणमाईणि ॥ ३२१० ॥ डगलग-ससरक्ख कुडमुह-मत्तगतिगलेव-पायलेहणिया । संथारफलगपीढग निजोगो चेव दुगुणी उ ॥ ३२३८ ।।
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३१
निशीथविचारा:
पुरिमा उ उसभसामिणो सिस्सा, चरिमा वद्धमाणसामिणो । पर्सि एस कप्पो चेव । जं वासासु पज्जोसविजंति, वासं पडउ वामा वा । मज्झिमयाणं पुण भइयं-पज्जोसविंति वा न वा । जइ दोसी अस्थि तो पज्जोसविंति इहरा नो । मंगलं च वद्धमाणसामितित्थे भवइ । जेण य मंगलं तेण सव्वजिणाणं चरियाई कहिज्जंति, समोसरणाणि य, सुहम्माइयाण थेराणं आवलिया कहिज्जति ।
"
पढमंमि समोसरणे जावश्यं पत्त-चीवरं गहियं । सव्वं वोसिरियव्वं पायच्छित्तं च वोढव्वं ॥ ३२५३ ॥ पुण्णमि निम्गयाणं साहम्मियखेत्तवजिए गहणं । संविग्गाण सकोसं इयरे गहियंमि गिद्धति ॥ ३२५८ ॥ सखित्ते परखित्ते दो मासे परिहरन्तु गिति । जं कारणं न निग्गया तंपि बहिं झोसियं जाणे ॥ ३२६० ॥ चिक्खल्ल - वास-असिवाइएस जहिं कारणेसु उ न निंति । दिते पडिसेहित्ता गेङ्खति उ दोसु पुण्णेसु ॥ ३२६१ ॥ fare व समोसरणे मासा उक्कोसगा दुवे हुंति । ओमंथगपरिहाणी य पंच पंचेग य जहण्णे ॥ ३२६६ ॥ मासकल्पे इत्यर्थः । इति वर्षादिविचारः । जइ वि य फालुगदव्वं कुंथू - पणगादि तहवि दुष्पस्सा | पञ्चकखणाणिणो वि हु राईभत्तं परिहरति ॥ ३४११ ॥ जइ वि य पिपीलिगाई दिसंति पईव - जोइउजोए । as वि खलु अणाइणं मूलवयविराहणा जेण ॥ ३४१२ ॥ उवाइयं अणोवाइयं वा जं पुण्णभद्द- माणिभद्द-सव्वाण - जक्ख महुडिमाइयाण निवेइज्जर, सो दुविहो- निस्समनिस्साकडो य । इति बलिः ।
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नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये अट्ठारस पुरिसेसुं वीसं इत्थीसु दस नपुंसेसु ।
पव्वावणा अणरिहा अनला अह एत्तिया भणिया ॥३५०५ ॥ अनला:-प्रव्रज्याया अयोग्या: ।।
बाले वुड्ढे नपुंसे य जड्डे कीवे य वाहिए । तेणे रायावयारी य उम्मत्ते य अदंसणे ॥ ३५०६॥ दासे दुटे य मूढे अणत्ते जुगिए इय ।
उवद्धए य भयए सेहे निप्फेडियाइय ॥ ३५०७ ॥ एते अष्टादश पुरुषा:प्रवाजयितुं न कल्पन्ते । एत पवाष्टादशभेदाः गुर्विणी-बालवत्साभ्यां सहिताः स्त्रीपक्षे विंशतिर्भेदाः। परं नपुंसकदारे विसेसी इत्थीणं, इत्थीनपुंसिया इत्थीवेदो वि से नपुंसगदपि वेएइ । अदसणी--अन्धः । अणत्ते-रिणवान् । जुंगिओ-जात्यादिदृषित: कुण्टमण्टो वा । उवसंपयं बद्धो ओबद्धो । भइउ-मूल्यकर्मकर: । सेहनिप्फेडिउ-अट्टवरिसाइउ माइमाईहिं अमुकलिओ। नपुंसकभेदा यथा
पंडए वाइप कीवे कुंभी ईसालए इय । सउणी तक्कम्मसेवी य पक्खियापक्खिए इय ॥ ३५६१ ॥ सोगंधिए य आसत्ते वद्धिए चिप्पिए इय ।। मंतोसही उवहए इसिसत्ते देवसत्ते य ॥ ३५६२ ॥ गाथाद्वयम्। अर्थस्तु-पंडगो-नपुंसकः । वातिगी-जस्स वायवसेण लिंग उड्ढे चेव चिट्ठइ । कुंभी-जस्स वसणा सुजंति । यस्येा उत्पद्यते अभिलाषः स ईर्ष्यालुः । उक्कडवेयत्तणाओ सउणी व सउणी । तकम्मपडिसेवी-जया बीयनिसग्गो तया साणो इव जीहाए लिहइ । सुक्कपक्खे सुक्कपक्खे अईव मोहुम्भवो 'अपक्ख'त्ति कालपक्खो तत्थ अप्पो भवइ स पक्खियापक्खिओ। सुभ-सागारियस्स गंधं मण्णइ त्ति सोगंधी । आसत्तो-इत्थीसरीरे । वद्धिओ-बधितः । जस्स जायमेत्तस्स अंगुट्टपएसिणीमज्झिमाहि चमढिज्जति स चाप्पओ इत्यर्थः ।
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३३
निशीथविचारा:
ऊणट्टे नत्थि चरणं पव्वावितो वि भस्सई चरणा । मुलावरोहिणी खलु नारभई वाणिओ चेहूं ॥ ३५३२ ॥ न्यूनेषु अष्टवर्षेषु न प्रव्रज्येत्यर्थः । मागद्दद्धविसयमासानिबद्धं अमाग | अट्टविहां वाही
जर - सास-कास- दाहो अइसार भगंदले य सूले य । तत्तो अजीरायग आसु विरेचा हि रोगविही ॥ ३६४७ ॥ उलूगच्छी-रयहरणाओ अयोमयं कीलयं कढिऊण दोवि अच्छीणि उद्धरित ढोक्केद । इति रजोहरणे लोहकीलिकाक्षराणि । पच्छाव हुंति विगला आयस्यित्तं न कप्पई तेसिं । सीसी ठावयव्या काणगमहिसो व निम्नमि ॥ ३७१० ॥ अर्थ- जइ पच्छा सामण्णभावडिओ सरीरजुंगिओ हवेज, सां अपरिवजा । जर सो आयरियगुणांवेओ तहा वि आयरिओ न कायव्यां । अब पच्छा आयरिओ विगला होज तेण सीसी ठत्रेयव्वो, अपणा अप्पमासभावी चिट्टइ । जो चायरिओ स काणगमहिसां । जहा सा अपगासे चिर, तहा गुरुवि ।
इमे गुब्विणी दोसा-उक्कांसेण द्वादश वर्षाणि गर्भत्वेन तिष्ठतीत्यर्थः । हस्तपादकर्णनासाक्षिवर्जितं बिंबं मृगावतीपुत्रवत्, वैकृतं सर्पादिवत् भवेत् ।
पुवं जाहे सत्यपरिण्णा सुत्तओं अहिया, ताहे उबट्टावणापत्तो भवइ । दसवेयालिय उपपत्तिकालओ पुण जाहे छजीवणिया अहिया । जद्दिवसं उबट्ठावि तदिवस केसिंचि अभत्तट्टां भवद्द, केसिंचि आयंबिले, केसिंचि निव्वितियं । केसिंचि न किंचि, जस्स वा जं आयरियपरंपरागयं छट्टट्टमाइयं कराविजइ । ( ३७५३ गाथा चूर्णैी) जं एगंगियं खुद्दापसमणे असमत्थं आहारे य अईइ, तं आहारेण संजुत्तं असंजुत्तं वा आहारो चैव नायव्त्रां । जहा असणे लोणं हिंगूजीrangi मंड च असणं । ( ३७९० गाथाचूणों )
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निःशेषसिद्धान्तविचार- पर्याये
जे मे आणति जिणा अवराहा जेसु जेसु ठाणेसु । तेह अलोएड उवडिओ सव्वभावेणं ॥ ३८७३ ॥ जह सुकुसलो वि वेज्जो अण्णस्स कहे अप्पणी वाहिं । वेजस्स य सो सोउं तो पडिकम्मं समारभए || ३८६० || जाणतेण वि एवं पायच्छित्तविहिमप्पणी निउणं । तह वि य पागडतरगं आलोपयच्वगं होइ ॥ ३८६१ ।। तणकंबल पावारे कायवतूली य भूमिसंथारे । एमेव अणहियासे संथाग्गमाइ पलुंके ॥ ३९०७ ॥ पतानि अनशनिन: कल्पन्ते इतिशेषः ।
य
जति ताव सावया कुलगिरिमंदरविसमकडगदुग्गे | साहति उत्तिम घितिधणियसहायगा धीरा ।। ३९१२ ।। किं पुण अणगारसहायपण अण्णाण्णसंगहवलेण । परलीइओ न सकइ साहेउं उत्तिमो अट्ठी ॥ ३९१३ ॥ सव्वाहिं विद्धीद्धिं सव्वे वि परीसहे पराइत्ता । Had a तिगरा पाओवगया उ सिद्धिगया ॥ ३९१६ ॥ अवसेसा अणगारा तीतपडुप्पण्णणागता सब्वे । केई पाओगता पच्चक्खाणिगणिं केई || ३९१७ ॥ सव्वाओ अजाओ सव्वे वि य पढमसंघयणवज्जा | सवे य देसविरता पच्चकखाणेण उ मरति ।। ३९१८ ।। सव्वसुहृप्पभावाओ जीवितसारातां सव्वजणितातां । आहाराती न तरणं न विजती उत्तिमं लाए ॥ ३९१९ ।। विगहगते य सिद्धे मात्तु लायंमि जत्तिया जीवा । सव्वे सव्वावत्थं आहारे हुंति उवउत्ता || ३९२० ।। तं तारिसगं रयणं सारं जं सव्वलोगरयणाणं । सव्वं परिचचत्ता पाओवगता परिहरति ।। ३९२१ ।। as परीसदेहिं वाउलीउवेतद्धती वा वि ।
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निशीथविचारा: आभासिज कयाती पढमं बितियं व आसज्ज ॥ ३९२३ ॥ हंदी परीसहचमू जाहेयब्वा मणेण कापणं ।
तो समरदेसकाले कवयतुल्लो उ आहारो ॥ ३९२५ ॥ इति गाथाद्वयम् अनशने भक्तदानार्थम् । कम्ममसंखेजभचं खवेइ अणुसमयमेव आउत्तो ।
अन्नतरगमि जोगे वेयावच्चे विसेसेणं ।। ३९०४ ।। चाउजायं-जाइफलं कालयं कप्पूर लवंग ।
जइ तेसिं जीवाणं तत्थ गयाणं तु लोहियं हाजा । पीलिजंते धणियं गलेन्ज तं अक्खरे फुसिउ ।। ४००७॥ जहा तिलेसु पीलिज्जतेस तेसु तेलं नीति तहा जइ तेसिं रुहिरं हाजा, तो पोत्थगबंधणकाले तेसिं जीवाणं सुट्ट पीलिज्जंताणं अक्खरे फुसि हिरं गलेज इत्यर्थ: ।।
दुप्पडिलेहियदृसं अद्धाणाई विवित्त गेण्हंति ।
घेप्पइ पोत्थगपणगं कालिगनिजत्तिकोसट्टा ॥ (४०२०) मेहाउगहणधारणाइपरिहाणि जाणित्ता कालियसुयट्टा कालियसुयनित्तिनिमित्त वा पात्थगपणगं घेप्पड़, कासा त्ति समुदाय इत्यर्थः ।
साहूणं दाहामि त्ति मलिणं धावा विहि अजाणतो धाउमाइसु रत्तं का दलाइ रयगसजियं निप्पंककयं च चक्खिं अमुइमुवलितं धाउ सुई एयावत्थं कयं साहूणा पडिसिद्धं पुरःकर्मत्वादितिशेषः । (नाथा चू० ४१०७)
पुवाए भत्तपाण घेत्तूण जे उवाइणे चरिमं ।
सो आणा अणवत्थं मिच्छत्तविराहण पावे ॥४१४१ ।। उवाइणइ-अतिक्रामति । निस्संचया उ समणा संचइउ गिही उ होंति धारिता ।
संसत्त अणुवभागा दुक्खं च विगिचिउं होइ ॥ ४१५४॥ गाथाद्वयेन प्रथमपौरुष्यां गृहीतं चतुर्थ्यां न शुद्ध्यति ।
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नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये जे भिक्खु उघगरण वहावे गिहि अहव अपणतिथीहि ! आहारं वा देजा पडुञ्च तं आणमाईणि ॥ ४२०४ ।। सत्त उ वासासु भवे दगघट्टा तिणि होति उउबद्रे । जे उन हर्णति खेत्तं भिक्खाचरियं च न हरीति ॥ ४२४ । थेरुवमा अकंते मत्ते रत्ते घ जारिसं दुक्खं । पमेय य अव्वत्ता वियणा एगिदियाण तु ॥ ४२६३ ।। गिहिनिक्खमण-पवेसे आवाह विवाह विक्कयकए वा
गुरुलाघवं कहिते गिहिणो खलु संपसारीआ ॥ ४३६२ ।। संपसारकः स साधुः स्यादित्यर्थः ।
जाई कुले विभाठा इत्यादि (४८१२) गाथायां'तुनाइ सिप्प णावजग च कस्मेयावज्जति । व्याख्या-अनावर्जकं कर्म, इतरत् आवर्जक शिल्पमित्यर्थः ।
उम्गाइकुलेसु वि एमेव गणे मंडलप्पवेसाई । देउलदरिसणमासा उवणयणे इंडमाई वा ॥ ४४१५ ॥ व्याख्या-प्रथमं पदं गतार्थम् । मंडलमालिहियं दट्ट सल्लाइगणेस्तु हीणाहियं विवरीयं वा तत्थ वि अप्पाण जाणावेइ । गणांत गयं । सिप्पे अहिणघडण चिरकय वा सिप्पयं दट्टाइ-अहो : देवकुलस्स उवणओ उवसंघारी संवरणेत्यर्थः । पहाणी वा अपहाणा त्ति । अहो ! आयामवित्थरे दटुं भणाइ--एचइए दंडे यस्स उ त्ति । इद दंडो हस्त उच्यते । इति गाथार्थ: ।
कत्तरि पोयणावेक्ख वत्थु बहुवित्थरेसु एमेव । करमेन य सिप्पेसु य सम्ममसम्से सूइयरा ॥ ४४२६॥ गाथार्थो यथा-करि-एप का. पयोयण-कारणं दविणं तं च अवेक्ख-दृष्ट्वा बत्थु (खा) उस्लियाइ बहुवित्थर-अणेगभेयं । एतानि दृष्टा सूयया असूयया वक्तीत्यर्थः ।।
निग्गंथ सक तावस गेश्य आजीव पंचहा समणा । तेसिं परिवेसणाए लोभेण बणेज को अयं ॥ ४४२० ॥
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निशीथविचारा: अर्था यथा-निगथा-साह खमणा वा, सक्का-रत्तापडा, तावसावणवासिणो, गेरुया - परिवायगा, आजीविगा -- गोसालगसिस्सा पंडरभिक्खुया वि भन्नति । इति गाथार्थः ।
'पएण मज्झ भावो विद्धो लोगे पणातहयजमि'त्ति (४४२८) गाथापूर्वाद्धव्याख्या-पणातहज्जंमि इमंति लोगे जो मणोगयं भावं जाणइ तस्स लोगो आउट्टइ । विशुद्धो ना इत्यर्थ: ।
'छिन्नमछिन्ने दुविहे' इत्यादि (४५०९) गाथायां-तदुलघयाई जत्थ परिमाण-परिच्छिन्ना दिज्जति सो छिनो भण्णइ । तप्पडिवक्खो अछिन्ना इत्यर्थः ।
हत्थस्स छन्भाया-जहा अंगुलीणं अग्गपव्वा पढमभागो, बीओ मझापार भागा, तइओ अंगुलीमूले भागा, आउरेहाए चउत्थो भागो, अंगुट्टस्स अभिंतरकोडिए पंचमी भागो, सेसो छ8ो भागो । एवं हस्ते भागा: षट् ।
देसो व सोवसम्गो वसणी व जहा अजाणगनरिंदो। रज्ज विलुत्तसारं जह तह गच्छोवि निस्सारो ॥ ४७९६ ॥ इत्थी जूयं मज्जं मिगव्व वयणे तहा फरुसया य । दंडफरूसत्तमत्थस्स दूसणं सत्त वसणाणि ॥ ४७९९ ॥ पण्णवणिजा भावा अणतभागो उ अणभिलप्पाणं । पण्णवणिजाणं पुण अणंतभागा सुनिबद्धो ॥४८२३॥ जं चउदसपुव्वधरा छटाणगया पराप्परं हुंति ।। तेण उ अणंतभागो पण्णवणिजाण जं वुत्तं ॥ ४८२४ ॥ अक्खरलंभेण समा ऊहिया हुति मइविसेसेण । ते वि य मइविसेसा सुयनाणभतरे जाण ॥ ४८२५ ॥ जायणसयं तु गंता अणाहारेण तु भंडसंकंती । वाया अगणी धूमेहि य विद्धत्थ हाइ लेोणाई ॥४८३२॥ हरियालमणासिलिं पिप्पली य खज्जर मुद्दिया अभया । आइण्णमणाइण्णा तेवि हु एमेव नायवा ॥ ४८३४ ॥
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नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये खजरादयो अणाइण्णा इत्यर्थ: । सामण्ण परिणामकारण जहा--
आरुहणे आरुहणे निसियण गाणाइणं च गाउम्हें । भूमाहास्च्छे ओ उपक्रमेण तु परिणामो ॥ ४८३'५ ।। उचक्कमण-स्वकायपरकायशस्त्रम् ।
पत्ताण पुष्फाण सरदुफलाण तहेव हरियाण । विटमि मिलाणंमी नायव्वं जीवविप्पजढं ॥ ४८४० ॥
जे तरुणं बट्टियं अबद्धट्टियं वा जाव कामलं ताव सरदुफल भण्णा, वत्थुलाइ हरिय वा । जइ जं जं गुरूहि चिण्ण' तं तं पच्छिमेहि अणुचरियव्वं, तो तित्थगरेहिं पाहुडिया साइजिया पागारतिय देवच्छंदओ पीढं च अइसया य एय तेहि उवजीविय अम्हवि एवं किं न उवजीवामो ? उच्यते-न सबहा अणुधम्मो, यतो गुरुः तीर्थकर: अतिशया: तस्यैव भवन्ति नान्यस्य । अनुधर्मताडत्र न चिन्त्यन्ते 'सो तित्थयरजीयकप्पी त्ति काउ' तीर्थकरकल्पत्वादेव । (४८५५ गाथा चूर्णा)
जे भिक्खु वत्थाई दिजा गिहि अहव अण्णतित्थीण । पडिहारगच तेसि परिच्छए आणमाईणि ॥ ४९.८० ।। बहूणि वा वत्थाणि उप्पाएयव्याणि ताहे पिडपणं सब्वे उटुंति । गणित्ति आयरिओ त मोत्तूग, आयरिया पुण जइ अप्पणा हिंडति तो चउगुरुगा उभावण दोसे हि आयरिउ हुतउ अप्पणा हिंडइत्तूण एयस्स आरयत्तणपि एयारिसं चेव चीराणेपि णाहइ ।
पगई पेलवसत्ता लोभिजइ जेण तेण वा इत्थी ।
अवि य हु मोहो दिप्पइ तासिं सइरं सरीरेलु ॥ ५०७३ ।।
अथा-जेण तेण वत्थमाइणा लोभिजइ, दाणलोभिया य अकज्जपि करेइ, अविय ताओ बहुमोहाओ, तेसिं च पुरिसेहिं संलाचं करतीर्ण दाणं च गेहतीणं पुरिससंपकाओं माहो दिप्पइ सहरं सरीरसु । तत: संयत्या वस्त्राणि स्वयं न गृह्णन्ति इतिशेषः ।
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निशीथविचारा: नवभागकए पत्थे चउसु वि कोणेसु होइ वत्थस्स । लामी विणासमन्ने अंते मज्झेसु जाणाहि ॥ ५०८६ ।। नवभागकप वत्थे चउसु, तम्मन्झेसु य दोसु एपसु छन् अंतविभागेसु लाभी भवइ । 'विणासमन्ने'त्ति अन्ने मज्झिल्ला तिन्नि विभागा तेमु विणाम जाणिहीत्यर्थ: ।
अंजण खंजणकद्दमलित्ते मूसगभक्खिय अम्भिविदड्ढे ।
तुण्णिय कोट्टिय पजव लीढे होइ सुहोअसुरो वा ।। ५०८७ ।। पजवलीढ-चवितम् ।
चउरा य दिविया भागा दोणि भागा य माणुसा । आसुरा य दुवे भागा मज्झे वत्थस्स रक्खसो ।। ५०८८ ॥ देवेनु उत्तमा लामो माणुसेनु य मज्झिमा । आसुरेसु य गेलपण मज्झे मरणमाइसे ।। ५०८९ ॥ उस्सग्गेण निसिद्धाणि जाणि इव्वाणि संथरे मुणिणो । कारणजाए जाए सवाणि वि ताणि कप्पंति ।। ५२४५ ।। नवि किंचि अणुण्णायं पडिसिद्ध वावि जिणवरिंदेहिं ।
एसा तेसिं आणा कज्जे सच्चेण होयव्वं ।। ५२४८ ।। इमाओं सत्त पिंडेसणाओ-दायगो असंसद्धेहिं हत्थमत्तेहिं देहित्ति असंसट्टा, संसद्धेहिं हत्थमत्तेहिं संसट्टा, जत्थ उवक्खाडिय' भायणे ताओ उद्धरिय' देइ छब्वगाइसु एस उद्धडा, जस्स दिजमाणस्स दववस्स निष्फावचणगाइगस्स लेवो न भवइ सा अप्पलेवा, जं परिपसगेण पडिसेवणाए परस्स कडच्छुवाइणा आणियं तेण य तं पडिसिद्धं तं तहुक्खित्तं चेव साहुस्स देइ पस उवाहिया, जं असणाइगं भोउकामेण कंसाइभायणे गहियं भुंजामि त्ति असंसट्टिए चेव साहू आगओ तं चेव देइ एस उग्गहिमो, जं असणाइगं गिहि उझिउकामो साहू य उवट्टिओ तं तस्स देइ न य तं कोइ अण्णो दुपयाइ अहिलसइ एस उझियधम्मो ।
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नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये ओसण्णो वि विहारे कम्मं सिदिलेइ सुलभयोहीओ। चरणकरणं विसुद्धं उववूहेतो परूवेतो ॥ ५४३६ ॥ छम्मासे उवसंपय जहण्ण बारस समा उ मज्झिमिया ! आवकहा उक्कोसे पडिच्छसीसे तु जाजीवं ॥ ४५२ ॥ सुयसुहदुक्खे खेत्ते मग्गे विणणे य होइ बोद्धवे । उवसंपया य एसा पंचविहा देसिया मुत्ते ।। .५२१ ॥ पडिलेह दिय तुययण निक्खिवणायाण विणय सज्झाए ।
आलोय-ठवण-भत्तट्ट-भास-पडलग-सेजायराईसु ।। ५५५५॥ अथों-पक्खियाइसु आलोयणं न पउंजति भत्ताइ वा न आलोपंति, संखडीए वा भत्तं आलोपंति निरीक्षन्ते इत्यर्थः । ठवणकुलाणि न ठविति, विसंति भत्तटुं, मंडलिए न भुंजंति, गुरुणो वा आलोगे न भुजंति, अगारभासाहि भासंति, पडलपहिं आणिय अभिहडं भुजंति सेजायरपिंडं वा भुंजति आइम्गहणेणं उग्माइ न सोहिंति इति गाथार्थः । राइ सद्दे आएस दुर्ग-संझा राई संझावगमो राई ।
सो रायावंतिवइ समणाणं सावओ सुहियाण । पच्चंतियरायाणो सन्वे सद्दाविया तेण ॥ ५७५२ । कहिओ य तेसिं धम्मो सवित्थरो गाहिया य सम्मत्तं । अप्पाहियाय बहुसो समणाण सावगा होइ ॥ ५७.३ ॥ अणुयाणे अणुजाई पुष्फारुहणाइ उक्खिरणगाणि ।। प्रयं च चेइयाण ते वि सरज्जेतु कारिति ॥ ५७५४ ॥ जह मं जाणह सामि समणाण पणमहा सुविहियाण । दव्वेण मे न कजं एयं खु पियं कुणह मज्झं ॥ ५७५५ ॥ वीसजिया य तेणं गमणं घोसावणं सर ज्जेसु । साहण सुहविहारा जाया पञ्चतिया देसा ॥ ५७५६ ॥ समण भडमाविएसुं तेसु रज्जेसु एसणाईहि । साह सुहपविहरिया तेणं चिय भद्दगा ते उ ॥ ५७५७ ॥
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निशीथ-विचाराः चूर्णियथा-तेण संपइणा रण्णा विसज्जिया, सरज्जाणि गंतुं अमाघायं घोसिंति, चेश्यहरे करिति रहजाणे य। अंधदमिडकुदुकमरहट्टया एए पञ्चंतिया, संपइकालाओ आरम्भ मुहविहारा जाया । संपइणा साहू भणिया-गच्छह एए पञ्चंतविसए बोहिता हिंडह, तओ साहूहिं भणियं-एए न किंचि कप्पाकप्पं वा एसणं वा जाणंति कहं विहरामो? ताहे तेण संपदणा 'समणगाहे' इत्यादि । प्रतिष्ठाविचार: षोडशांद्देशे। रहगओ पुप्फफले खजगे य कवडगवत्थमाई उक्खिरणे करेइ । तकंतपरंपरओ पलोट्टछिन्ने य भेय कायवहो ।
हिमुसलालविच्छुग संचयदोसा पसंगो य ॥५७६६ ॥ अस्थानमुक्ते भक्तादो।।
आहार उवहिदेहं गुरुणो संघट्टियाण पाएहिं ।
जे भिक्खू न खामेह सो पावर आणमाईणि ॥ ५७८१ ।। गुरुसंस्तारकस्थाने न पादो मोक्तव्यः, यत: - कमरेणु अबहुमाणो अविणय परियावणा य हत्थाई ।
संथारगहणमतो उच्छुवणस्सेव वह रक्खा ॥ ५७८३ ॥ यथा वृतिरक्षायां इक्षुवनं रक्षितमेव । एवं गुरुसंस्तारके रक्षिते मुरखोपि रक्षिता इत्यर्थः।
कप्पा आयपमाणा अडाइजा य वित्थडा हत्था । एयं मज्झिममाण उक्कोसं हुंति चत्तारि ॥ ५७९४ ॥
उक्कोसेण चत्तारि हत्था दीहत्तणेण, एयं पमाणं अणुग्गहत्थं औराण भवइ, पुहुत्ते वि छ अंगुला समहिया कन्जंति । दढो जो चोलपट्टो सो दीहत्तणे दो हत्था वित्थारेण हत्थो सो दुगुणो कओ समचउरंसो भवइ । ज । दढदुब्बलो सो दीहत्तणेण चउरो हत्था सो वि चउगुणो कअ हत्यमेत्तो चउरंसो भवह चोलपट्ट इत्यर्थः ।
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नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये वारत्तपुरं नगरं तत्थ अभग्गसेणो राया, तस्स अमञ्चगो बारत्तगो नाम सो घरसारं निसिउं पव्वइओ, तस्स पुत्तेण पिउभत्तीए देवकुलं काराविय, रयहरणमुहपोत्तियपरिग्गहधारी पिउपडिमा तत्थ ठाविया । इति स्थापनाचाविचारः ।
पढमुस्सेइममुदयं अप्पकप्पं च होइ केसिंचि । तं तु न जुजइ जम्हा उसिणं मीसं तु जा वंडो ॥ ५९७१ ।। मरेज्ज सह विजाए कालेणं आगए विऊ । अपत्तं च न बाए जा पत्तं च न विमाणए ॥६२३०॥
गिहि अन्नपासंडि वा पधज्जाभिमुहं सावगं वा छज्जीवणीय त्ति जाव सुत्तओ, अस्थओ जाव पिंडेसणा, एस गिहत्थाइसु अववाओ।
पंचविहो मासो-नक्खत्तो, चंदो, उऊ, आइची, अभिवडिओ य। तथाहि -
अहोरत्ते सत्तवीसं तिसत्त सट्टिभाग नक्खनो । चंदो अउणत्तीसं बिसटि भागा उ बत्तीसं ॥६२८४ ।। उ उमासी तीसदिणो आइञ्चो होइ तीस अद्धं च । अभिवड़िओ बि मासो पगतं पुण कम्ममासेणं ॥ ६२८५॥ एक्कतीसं च दिणा दिणभागसयं तहेक्कवीसा य । अभिवडिओ उ मासो चउत्रीससएण छेएणं ॥ ६२८६ ।।
चूर्णियथा-नक्खत्तमासो सत्तावीसं अहारत्तो तिसत्त'त्ति एकवीसं च सतसट्टि भागा, पस लक्खणी परिमाणओ य नक्खत्तमासो । चंदमासी अउणत्तीसं अहारत्ते बत्तीसं च बिसटिभागा। उउमासो तीसं चेव पुन्ना दिणा। आइच्चमासो तीसं दिणा दिणाद्धं च । अभिडिओ अहिमासगो भण्णइ । एएसि पंचण्ड मासाणं इह 'पगति अहिगारो कम्ममासेणं, कम्ममासी त्ति उउमासी । अभिवाडयरस इम पमाण-पकतीसं दिवसा दिवसस्स य चउवी
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निशीथ - विचारा:
समयखंडियस्स एगवीसुत्तरं ३१-१२१/१२४ च भागसयं अहिमासगयमाणंति कालमासे अहेगारा तत्थ वि उउमासेण, सेसा सीसस्स विकोचणट्टा संणिया । कम्ममासे सावनमासो उउमासो इत्येकार्थाः | परि संच्छर उक्कीसं बारसण्ड वरिसाणं । समपुन्ना आयरिया फगवइया वि विगति ॥ ६३१३ ॥ इत्यालोचनादिनानि ।
अत्थ ॥ ६६१४ ॥ कुणइ ।
गच्छे ॥ ६६९५ ॥
जीका विहितो ण भद्दओ जन्थ सारणा नत्थि । दंडे व ताडिती स भद्दओ सारणा जब सम्णमुवगयाणं जीवियववरोवणं नरो एवं सारणियाणं आयरिओ अचाइओ दुविन खलइ जो पंथे सो समे कहं खलइ । कज्जे विऽवज्जबज्जी से कहं सेवेज दप्पेणं ? ॥ ६६९८ ॥ अम्हे व एम्मा आसी वर्द्धति जत्थ सोयारा । इइ गारवल हुकरणं कहए न य सावए लज्जा ॥ ६६९९ ॥ इति निशीथविचारा: समर्थिताः । सुभाषितगाथा निशीथे सूईपयप्पमाणाणि पर छिद्दाणि पाससि । अपणो बिलमेत्ताणि पासंतो वि न पाससि || सिरिय मइमं तुस्से अइसिरिं नो उपत्थए । अतिसिरिमिच्छंतीय थेरीए विणासिओ अप्पा ॥ उत्तरगुणा इमे -
पिंडस जा विसोहि समिइओ भावणा तवो दुविहो । पडमा अभिग्गा वि य उत्तरगुणमो वियाणाहि || ६५३४ | पञ्च वर्द्धति कौन्तेय ! सेव्यमानानि नित्यशः आलस्यं मैथुनं निद्रा क्षुधा क्रोधश्च पञ्चमः ॥ दर्शनविषपे
सुलमा अमूढदिट्ठी सेणिय उवजूद थिरकरण साढो । बच्छलंमिय वहरा पभावगा अट्ठ पुण हुँति ॥ ३२ ॥ अइसेस इडि धम्महि कवि वाइ आयरिय खमग नेमित्ति । विजा राया गणसंभया य तित्थं पभाविति ॥ ३३ ॥
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नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये पुवं अपासिऊणं छूटे पायमि जं पुणो पासे । न य तरइ नियत्ते पायं सहसाकरणमेयं ।। २.७ । जंघद्धा संघट्टो नाभी लेवो परेण लेवुवरि ।
एगो जले थलेगी निप्पगलणतीरमुसगी ।। १९५ ।। एगो जले थलेगो-गगने इत्यर्थः । भाष्यगाथाकंजिय आयामासह संसट्टसुणोदगेसु वा असई । फासुगमुदगं तसजदं तस्सासइ तसेहि जं रहियं ॥२०० ।। कजियं देसीभासाए आरनालं, आयाम-अवस्सामणं, संसट्ठोदगंगोरसादिभाजनधावनं ।
जा चेट्टा सा सवा संजमहेउं तु होइ समणाणं । संसत्तुरस्सए पुण पञ्चक्खमसंजमकरी मो ॥ • ६२ ।। तद्दिवसकयाण उ सत्तुयाण गहियाण चक्खुपडिलेहा । तेण परं नववारे असुद्धे निसिरेतरे भुंने ! २८० ।। प्रथमदिनादनन्तरदिनेषु नव वारा: प्रत्युपेक्षणीयाः इत्यर्थः ।
उड्डाहरक्खणट्ठा संजमहेउं व बाहिगे तेणे ।
खेत्तंमि व पडिणीए सेहे वा खिप्पलोए वा ।। ३२१ ।। रूपगत-रूपसहगतमैथुनस्य लक्षणं यथाजीवरहिओ उ देहो पडिमाओ भूसणेहिं वावि जुयं । स्वमिह सहगयं पुण जीवजुयं भूसणेहि वा ॥ ३५४ ॥ कारणपडिसेवा वि य सावज्जा निच्छए अकरणिजा । बहुसो वियाहत्ता अधारणिज्जेसु अत्थेसु ॥४५९॥
असिवाइकारणेसु उप्पण्णेसु जइ अण्णो नत्थि नाणाइसंधणीवाओ तो वियारेऊण अप्पबहुतं अधारणिज्जेसु अर्थेषु प्रवर्तितव्यमित्यर्थः । कामोपशमार्थ गाहानिविगइ निन्दले ओमे तव उद्धट्ठाणमेव उम्भामे । वेयावच्चाहिंडण मंडलि कप्पट्टियाहरणं ।। ५७४ ।।
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कल्पविचारा यथा
बृहत्कल्पस्य विचारा:
निर्बलं चणकादीत्यर्थः । आम-ऊनोदग्तेत्यर्थः । उभामे - ग्रामादौ । मंडलि- सूत्रस्येत्यर्थ: । चिलिमिलीगाथा यथा
इत्थपणगं तु दीहा निहत्थ-दोनिया असई खोमा । एयमाणं गणणेकमेक्कगच्छ च जा वेढे ॥ ६५२ ॥ सूची गाथा --
उवगाहिया सूयाइया तु पक्ककए गुरुरुसेव । गच्छं च समासजा अणाय सेसेक्कसेसेसु
॥ ६६३ ॥
सूई पिप्पलउ नहलेयणं कन्नसोहणं उवग्र्गाहिओवगरण पप य पक्केका गुरुस्स भवंति । सेसा तेहि चेव कज्ज करंति । महलगच्छ व समासज्ज अणायसा-अलोद्दमया वंससिंगमई वा सेससाहूण पक्केक्का भइ ।
तिष्णि हत्था दंडा दाणि उ हत्थे विदंड होई | लट्ठी आयपमाणा विलट्ठि चउरंगुलेणूणा ॥ ७०० ॥ तिदुपरि फालियाणं वत्थ जो फालियां तु संसीवे । पंचण्ड' एगयरे सा पावर आणमाईणि ॥ ७८७ ॥ वेलुम वेत्तमओ दारुम वावि दंडओ तस्स । रयाण पमाणमेत्ता तस्स दसा हुति भइयच्चा ॥ ८३० ॥ जोहरणगाथेयम् । सेव गमो नियमा समणीण पायपुच्छणे दुविहे । नवरं पुण णाणत्तं चप्पडउ दंडओ तासि ॥ ८४४ ॥ पता अपि निशीथगाथा: ।
सम्मत्ते पुण लद्धे पलियपुहुत्तेण सावज हो । चरणांव समखया पुण सागरसंसंतरा हुंति ॥ १०६ ॥ एवं अपरिवडिए सम्मत्ते देवमणुयजम्मे । अण्णयर सेदिवज एगभवेण व सव्वाई ॥ १०७ ॥ उवसामग सासायण खयोवसमियं च वेयय खइयं । सम्मत्तं पंचविह जह लग्भइ त तहा वोच्छं ॥ ९० ॥
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नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये 'देसकुलजाइरूवी' त्यादिगाथासु अणासंसी-न सायारेहिता घस्थाईणि आसंसइ । आसन्नलद्धपइभी-परवाइणा आभट्ठो लहु उत्तरं दाहिइ । सिवो-अकोहणो सामी-अघोरदिट्टी ।
तं पुण चेइयनासे तद्दबविणासणे दुविहभेए । भत्तावाहियोच्छेर अभिवायण-बधघायाई ।। ३८९ ॥
अर्थो यथा-त शृङ्गकार्य 'नेइयनासत्ति । लोउत्तरघरपडिमविणासे चेइयदव्यविणासे । दुविहभेय त्ति । मारणे उ पच्चावणे य जो वा भत्तं ति-भिक्ख वारेइ, उहि वा वारइ, जहा वा कोइ भणेजा बंभणे अभिवाएह, जो वा बंधइ, जो वा पहारहि पिट्टावेह । आइग्गहणेणं जो वा निविसए आणवेइ ।
पट्टिवंसो दो धारणा य चत्तारि मूलवेलीओ। मूलगुणेहि उवहया जा सा उ अहाकडा वसही ॥५८२॥ वंसगकडणुक्कंबण छायणा लेवण दुवारभूमी य । सप्परिकम्मा बमही एसा मूलुत्तरगुणेनु ॥ ५८३ ॥ दृमिय धूमिय वासिय उज्जोइय बलि कडा अवत्ता य । सित्ता संमट्टा वि य विसोहिकोडिगया वसही ॥५८४ ॥ कालाइकंतीवट्ठाणा अभिकंत अणभिकता य । वजा य महावजा सावज महप्पकिरिया य ॥ ५९२ ॥ उउवासासमईया कालाईया उ सा भवे सेजा । सा चव उवट्ठाणा दुगुणादुगुणं अजित्ता ॥ ५९॥ जावंतिया उ सेन्जा अन्नेहिं निसेविया अभिकता। अन्नेहिं अपरिभुत्ता अभिकंता उ पविसंते ॥ ५९६ ।। अत्तट्टकड दाउं जईण अन्नं करिति वजा उ । जम्हा त पुव्वकर्ड वज्जति तओ भवे वजा ॥ ५९७ ॥ पासंडकारणा खलु आरंभो अहिणवो महावजा । समणा सावजा महसावजा य साहूण ॥ ५९८ ॥
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५१
वृहत्कल्पस्य विचारा:
जा खलु जहुत्तदासहि वजिया कारिया सयट्ठाए । परिकम्मविमुक्का सा वसही अपकिरिया उ ॥ ५९९ ॥ उउबद्धे मासी वासावासासु चत्तारि मासा । एवं दुगुणा दुगुण अपरिहरता जत्थ पुणा पंति सा उवङ्काणसेज्जा भवइ । यदुक्तंउउबजे दो मासे वासा अट्टमासे अवजिता एइ । अग्ने भणतिजत्थ वासावासं ठिया तीए दो वासारत्ते अण्णत्थ काउं जइ पइ तो उट्टाणा न भवइ ।
देविद-स
द- राय - गहवाइ उग्गद्दों सागारिए य साहस्मि | पचविहमि परुचिप नायव्वो जो अहिं कमइ ॥ ६६९ ॥ अण्णाए वि सव्वंमि उग्गहे घरसामिणा । तावि सीमं छिंदति साहू तप्पियकारिणो ॥ ६७९ ॥ गीत्थाय विहारो बीओ गीयत्थनिस्सिओ भणिओ । पत्ता तइयविहारी नाणुण्णाओ जिणवरेहिं ॥ ६८८ ॥ आयारपकप्पधरा चउदसवी य जे य त मज्झा | तन्निस्सार विहारों सबालबुड्ढस्स गच्छस्स ॥ ६९३ ॥ पति वा दोसु वा जत्तिएहि वा कप्पेहि बेट्टउ सुह वायणं देह तेत्ति कप्पेडिं निलज्जा कीरइ । इति निषद्याविचारः । पते पीठिकायाः ।
नक्खत्ती खलु मासी सत्तावीसं भवंतऽहोरता । भागा य एकवीस सत्तट्टिकपण छेपणं ॥ ११२८ ॥ अणत्तीस चंदो बिसट्टि भागा य हुंति बत्तीस । कम्मो तीस दिवसो तीसा अद्धं च आहच्चो ॥ ११२९ ॥ अभिर्वाड एकतीसा चउवीस भागस्य च तिगहीणं । भावे मूलाइजुओ पगयं पुण कम्ममासेणं ॥ ११३० ॥ चूर्णिर्यथा- पत्थ कालमासेणं अहिगारी । तत्थ वि उउमासेण स एव कम्ममासी भण्णइ । एस सो मासां जो सपरिक्खेवंसि अबाहिरियंस कप्पs निग्गंथाण वा निमांधीण वा मासं वत्थए । इति मासविचारः ।
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निःशेषसिद्धान्तविचार--पर्याये आहावसी पहावसी मम चावि निरिक्खसि । लक्खिओ ते मए भावाजवं पत्थेस गहभा! ॥ १८५७ ॥ इउ गया इउ गया मग्गिज्जती न दीसई ।। अहमेयं विजाणाम अगडे छूढा अडोलिया ।। १२५. ।। सुकुमालग भद्दलया रत्ति हिंडणसीलया । भय ते नस्थि मंमूला दीहपट्ठाओ ते भय ॥ ११.९ ॥ सिक्खियव्यं मणुस्सेण अवि जाग्सि तारसं।
पेच्छ मुद्धसिलोगेहिं जीविय परिक्खियं ॥ १९६० ॥ उज्जेगी जवराया, गद्दभिल्लो जुवराया, दीपिट्ठा प्रमच्चा, अडालिया भगिणी ।
भमरेहिं महुयरीहिं य सूतिजइ अप्पगो य गंधनं । पाउसकालकलंबो जति वि णिगूढो वर्णानगुजे ॥११४४॥ कत्थ व न जलइ अग्गी कत्थ व चंदा न पागडा होइ । कत्थ वरलक्खणधरा न पागडा होति सप्पुरिसा ।। १२४५५ '! वासावासे अइक्कते अट्टसु उउद्धिएसु मासेसु चारी भवइ । मासे मासेऽन्यत्र गममित्यर्थः । इति मासः । देवकुल चईयाई बंदित्ता घरचेइयाई वंदियबाई । तत्थ काह व जह सद्धि आयारी वंदओ जाइ । इयरे भिक्खं चेव हिंडंता बंदिहिति । तत्थ जइ फासुपणं आयरिओ निमंतिजइ तो घेत्तव्वं ।
एमेव य सन्नीण वि जिणाण पडिमासु पढमपट्टवणे ।
मा परवाई विग्धं करेज वाई अओ विसइ ।। २७९२ ।। चूर्णियथा-सावओ कोइ पढम जिणपडिमाए पइट्ठवण करेह । इति कल्पे प्रतिष्ठाविचार: ।
निस्सकडमनिस्सकडे वावि चेइए सव्वहिं थुई तिन्नि । वेलं व चेइयाणि य नाउँ एक्केक्किया बावि ॥ १८०४ ।।
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बृहत्कल्पस्य विचारा: निस्सकडे ठाइ गुरू कइवयसहिएयरा वए वसहि। जत्थ पूण अनिस्सकडं प्ररिति तहिं समोसरणं ॥ १८०५ ।। संविग्गेहि य कहणा इयरेहि अपञ्चओ न ओवसमो। पवज्जाभिमुहा वि य तेसु वए सेहमाई वा ॥ १८८६॥ पुरिति समोसरण अन्नासह निस्सचेइएखं पि । इहरा लोगविरुद्ध सद्धाभंगो य सड्ढाणं ।।१८०७।। एसेव कमो नियमा सपरिक्खेवे सबाहिरीयमि ।
नवरं पुण नाणत्तं अतो मासो बहिं मासो । २०३४ ।। बहिर्वसमानलोके क्षेत्रे मासद्वय क्रियते इति । कोटसहिते मासद्वयविचार: कल्पे ॥ .
पुरओ य मग्गओ या थेरीओ मज्झ हुँति तरुणीओ । अहामणे निगमणे पस विही होइ काययों ॥ २०८९ ॥ चूर्णिः- पुरओ थेरीओ, मग्गओ वि थेरीओ, मज्झ तरुणीओ, एवं बहुईणं । जहण्णेणं पुण तिणि निग्गच्छति । एत्थ एगा थेरी पुरओ, एगा माओ, तरुणी मज्झे ।
मसाइपेसिसरिसी वसहिखेत्तं च दुल्लभ जोग्ग ।
एपण कारणेणं दो दो मासा अवरिसासु ॥२९०४॥ वतिनीनामिति शेषः । कल्पः ।
ओली निवेसणे वा वजि-तु अटंति जत्थ व पविट्ठा । न य वदण न नमण न य संभोसो न वि य विट्ठी॥२२१६॥ ओलीप्रभृतिषु गृहेषु यत्र साधवः प्रविष्टा: तेषु न संयत्यः अन्ति इत्यर्थः । 'सो रायावंतिवइ समणाण' ॥३२८३ ॥ इत्यादि कल्पभाष्येऽपि । इति कल्पप्रथमाद्देशकविचारा: ।। द्वितीयस्य
उवसगपडिसगसेज्जा आलयवसही निसीहिया ठाणे ।
एगट्ठवंजणाइ'...........॥ ३२९५ ॥ उपाश्रयस्येत्यर्थः । 'सागारिउ त्ति को पुण काहे वा कइविहो व से पिंडो' ३५१९ ॥ इत्यादि कल्पद्वितीयादेशकेऽपि अस्ति । जो तरुणो बलवंतो तरस कप्पा आयपमाणा, जो पुण थेरो सो रखीणबलोन सक्केइ संकुंचिउ सुविउँ ताहे तस्स आयपमाणाउ छ अंगुलाणि अभहियं कीरइ ।
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५४
नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये पेहुल्लेण वि अड्ढाइज्जे हत्थेहिंतो छ अगुलाणि अभहियाणि कीरति । इति कल्पविचारः ॥
कप्पा आयपमाणा अइढाइजा उ वित्थडा हत्था । एयं मज्झिममाण उक्कोसं इंति चत्तारि ॥ ३९६९ ॥ संथारुत्तरपट्टा अइढाइजा उ आयया हत्था । तेसि विक्खंभो पुण हत्थं चउरंगुल चेव ॥३९८०॥ तिण्णि कसिणे जहण्णे पंच य दढ दुबलाई गेण्हेजा। सत्त य परिजुण्णाई एयं उक्कोसग गहण ॥ ३९८६ ॥
वस्त्राणीति शेषः ॥ अक्खा संथारो या दुविहो एगंगिएयरो चेव । पोत्थगपणगौं फलग बिइयपए होइ उक्कोसो ॥ ४०९९ ॥ इति सामान्येन उत्कृष्ट उपधिर्भणित: कल्पे । भाष्यस्य चूणौँ तुअक्खा संथारो दुधिहो एगंगिओ अणेगंगियो य । ज वा अणिदिसित्ता कीयंत जइ कीय संत भणइ इमाणि मम होहिंति, इमाणि सेसाण साहूणं देमि त्ति दलमाणस्स कप्पा । अह निद्दिट्ट असाहूणं अणुवट्ठा बियगस्स दिति असइ सेहे मणिच्छमाणे वा परिट्टावेयन्वो। इति प्रव्रज्याग्रहीतुरुपकरणविचार: ॥
समणीण नाणत्तं निजोगा तासि अप्पणो चउरो ।
चउरो पंच व सेसा आयरियाईण अट्टाए ॥ ४२३४॥ प्रवअितुकामाया तिन्या उपकरणसझ्येयं ज्ञेया ॥ पर्युषणादिविचार: -
आषाढपुणिमाए वासावासासु होइ अतिगमण । मग्गसिरबहुलदसमीउ जाव पगंमि खेत्तमि ॥४२८० ॥ 'मम्गसिरबहुलदसमीउ' इत्याद्यर्थो यथा घूर्णी उक्तः - ताहे आसाढपुण्णिमाए अइंगंतु पंचहि दिवसेहि पजोसवणाकप्प कहित्ता सावणबहुलपक्खस्स पंचमीए पजोसविती, पजोसवित्ता
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बृहत्कल्पस्य विचारा: उक्कोसेण मग्गसिरबहुलदसमीउ जाव तत्थ अच्छियव्व', किं कारण एश्चिरं कालं घसंति ? अइ चिक्खल्लो वास वा पडइ तेण इधर, इहरा कत्तियपुण्णिमाए चेष निगंतव्यं ॥
एत्थ उ पणगपणग' कारणिग जा सविसईमासो। सुद्धदसमीठियाण व आसाढीपुणिमोसरणं ॥ ४२८४ ।। काऊण मासकप्पं तत्थेव ठियाणऽतीते मग्गसिरे । सालंबणाण छम्मासिओ उ जेट्ठोग्गहो होइ ॥ ४२८६ ।। अह अस्थि पयविचारो चउ पाडिवयंमि होइ निगमण।
अहवा वि अणिताणं आरोवण पुष्वनिहिट्ठा ॥ ४२८७ ॥ तथा 'सवीसइराए मासे पजोसवित्ता कत्तियपुण्णिमाए पडिक्कमित्ता बिइयदिवसे निग्गयाणं पंचसत्तर' इत्यादि पर्युषणादिको विचारः ॥ वर्षातिकमे उपधिग्रहण-विचार:पुण्णमि निग्गयाणं साहम्मियखेत्तवजिए गहण । संचिग्गाण सकोस इयरे गहियमि गेहति ॥ ४२८८ ॥ चूर्णियथा-जत्थ साहम्मिपहिं न कओ वासारत्तो तत्थ गेहंति वत्थाई। अत्थ पुण की वासारत्तो तत्थ सकोसे जोयण परिहरित्ता गेण्हति । 'इयरे'त्ति-पासस्थाईतेहिं जत्थ को वासारत्तो तत्थ तेहिं गहिए गेण्हंति । किं कारणम् ? उच्यते
वासातु वि गेण्हंती नेव च :नियमेण इयरे विहरती । तेहि उ सुद्धमसुद्ध गहिए गेहति सेसं ॥ ४२८९ ॥ सक्खेत्ते परखेत्ते वा मासा परिहरि-तु गेण्हति । जकारण न निगय तंपि बहिं झोसिय जाण ॥४२९० ॥
इति वर्षातिकमे उपधिग्रहणविचारः ॥ मासकल्पानन्तरोपधिग्रहणविचारः - बिइयंमि समोसरणे मासा उक्कोसगा दुवे इंति । ओमत्थग परिहाणिय पंच पंचेव य जहण्णे ॥ ४२९७ ।।
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नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये चूर्णिस्तु-जत्थ मासकप करिति तत्थ उपहिं उपायंति, तओं निग्गएहि दो मासे परिहरित्ता गेण्हियवं आगंतव्यं वा । इति मासकल्पानन्तरोपधिग्रहणविचारः ॥
प्रावरणविचारः -- पाणदयानिमित्त मसगाइणं जयणा भवउ त्ति पाउणइ सीए वि पाउणइ । इति प्रावरणविचार:।।
आयरियस्स आयरियं पाहुणयमागय अणभुद्वितस्स, आयरियस्स वसभं पाहुणयमागयं अणभुट्टितस्स पक । भिक्खु अणभुद्वितस्स खुड्डयं भिन्नमासो ।।
जहि नत्थि सारणा वारणा य पडिचोयणा य गच्छंमि । सो उ अगच्छो गच्छो संजमकामीहि मोत्तवो ॥ ॥ असढेण समाइण्णं जं कत्थइ कारणे असावज । न निवारियमन्नेहि य बहुमणुमयमेयमाइण्ण ॥ ४४९९ ॥ थुइमंगलंमि गुरुणा उच्चारिए सेसगा थुई बेति । पम्हट्रमेरसारण विणओ य न फेडिओ एवं ॥ ४५०१॥ उप्पन्नकारणमि किइकम्म जो न कुज दुविहं पि । पासस्थाईयाणं उग्घाया तस्स चत्तारि ॥ ४५४०॥ अणवट्टिया तहि हुँति उग्गहा रायमाइणो चउरो। पासाणंमि व लेहा जा तित्थ ताव सक्कस्स ॥ ४७७८ ॥ देविंदराय-उग्गह गहवइ सागारिए य साहम्मी । पंचविहमि परुविए नायव्वं जं जहिं कमइ ॥ ४७८४॥ अक्खेत्तं केरिसं? इत्याह भाष्यकार: - इंदक्खीलमणुग्गहो जत्थ य राया अहिं व पंच इमे । सेट्रि अमञ्च पुरोहिय सेणावह सत्थवाहो य ॥ ४८५३॥ आयरिओ अप्पबिइओ [अप्पबिइओ] गणावच्छेइओ य अप्पतइओ गच्छो एरिसा तिन्नि गच्छा, एते पण्णरस उउबद्धे जहणणेणं अत्थ संतरंति । पोसासु सत्तउ गच्छो आयरिओ अप्पतइओ गणावच्छेइओ अप्पचउत्थो एस सत्तउ गच्छो ।
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बृहत्कल्पस्य विचारा: अप्पतइओ गणावच्छेइओ अप्पचउत्थो एस सत्तउ गच्छो ।
उग्गमादि असुद्धं जइ आउट्टियाए गेण्हइ, अप्पणा भोक्खामि सेहस्स चा दाहामि :जेण दोसेण असुद्धं तमावजइ । पय:जत्थ अणाभागेण गहिय, तं जइ अजयणाए देइ तो इमे दोसा । इति सेहं प्रति विचारः।
खमणे य असज्झाए रायणिय महानिनाय नियए वा । सेसेसु नस्थि खमणं नेव असज्झाइय होइ ॥ ५५५० ॥
दिवंगतेविति शेषः । दीहाइमाइसु उ विजबंधं कुब्वंति उल्लोय कर्डच पोतिं । कप्पासईए खलु सेसगाणं मात्तु जहन्नेण गुरुस्स कुजा ॥ ५६८१ ॥ उल्लोचो बध्यते इति शेषः । एते कल्पचतुर्थीद्देशकविचारा: । पश्चमस्य यथा
आवस्सिग्गा निसीहिय अकरिति असारणे तमावज्जे । परलोइयं च न कयं सहायगत्तं उवेहाए ॥ ५६९५॥ ज वा भुक्खत्तस्स उ संकममाणस्स देइ अस्साय ।
सव्वो सो आहारो अकामऽनिर्ल्ड चणाहारो ॥ ६०८३॥ जं वा तमि चबिहे अईइ अन्नं लोणाई एस आहारो। पञ्चमोद्देशके । षष्ठे यथा
सामाइए य छेए निविसमाणे तहेव निविटे । जिणकप्पे थेरेसु य छविह कप्पट्टिइ होइ ॥ ६२५७ ॥ सेसा वेढियपात्तं नइ उयरणमि नग्गय बेंति । जुण्णेहिं नग्गिया मी तुर सालिय! देहि मे पोतं ॥ ६३६६॥ जुण्णेहि खंडिह य असव्वतणुपाउएहिं न य निच्चं । संतेहिं वि निगंथा अचेलगा हुंति चेलेसु ॥ ६३६७॥ सवाहिं संजईहिं किइकम्म संजयाण कायव्वं । पुरिसुत्तरिओ धम्मो सर्वाजणाणं पि तित्थेसु ॥ ६२९९ ॥ तओ पारंचिआ वुत्ता अणवट्टप्पा य तिपिण उ । दसणमि य वंतमि चरित्तमि य केवले ॥ ६४१०॥
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५८
निःशेषसिद्धान्तविचार-पर्याये अदुवा चियत्तकिच्चे जीवकाए समारभे ।
सेहे दसमे वुत्ते जस्सुवट्ठावणा भणिया ॥ ६४११॥ अपवादपदे कृत्वा तत: पुन: करोतीत्यर्थः । केवलगहणा कसिण जइ वमई दसण चरितं वा । तो तरस उवटवणा देसे वंतमि भयणा उ ॥६४१५॥ अप्पच्छित्ते पच्छित्तं पच्छित्ते अश्मत्तया । धम्मस्सासायणा तिन्वा मग्गस्स य विराहणा ॥ ६४२२ ॥ सपडिक्कमणो धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स । मज्झिमयाण जिणाणं कारणजाए पडिक्कमणं ॥ ६४२५॥ गमणागमणवियारे सायं पाओ य पुरिमचरिमाणं । नियमेण पडिकमणं अइआरो होउ वा मा वा ॥ ६४२६ ॥ ठवणाकप्पो दुविही अकप्पठवणा य सेहठवणा य । पढमो अकप्पिएणं आहाराई न गेण्हावे ॥६४४२॥ अकल्पिकेन आहारादिकं न ग्राहणीयम इत्येकः ।
अट्ठारसेव पुरिसे वीसं इत्थीओ दस नपुंसा य । दिक्खेइ ओ न एए सेहठवणाए सो कप्पो ॥६४४३ ॥
द्वितीयोऽयम् । खेत्तकप्पो जहा-सिंधुविसर पाउपहिं हिंडिजइ, वासावासे मासकप्पेण वा पाउएहिं हिंडिजा, अभाविओ सेहो सो पाउए हिंडइ जाव भाविजइ, असहू सीयं नाहियासेइ उण्हे वा काले पच्चूसे पविसंतो भिक्खाइसु अट्टाए अद्धाण दंडरिहारेण पाउया जइ सागारियपडिबद्ध वि या तेण पए पाउया निगगच्छति । इति कल्पचूर्णी षष्ठोद्देशके । समाप्ता: कल्पविचारा इति । व्यवहारविचारा यथाजं जस्स व पच्छित्तं मायरियपरंपराए अविरुद्धं । ओगा य बहुविगप्पा एसो खलु जीयकप्पो उ॥ १२ ॥
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व्यवहारस्य विचाराः चूर्णियथा-जहा अपञ्चक्खाणे अन्ने निविइय, अन्ने आयंबिलमिच्छति । जोगा य बहुविहा य त्ति । जहा नाइलकुलवियण आयाराओ आढवेत्ता जाव दसाओ ताव नस्थि आयंबिलं, निन्विगईएणं पढ़ति, विहीए आयरियाणुण्णायकाउस्सगं काउं परिभुजंति विगई, तहा कप्पववहाराण केसिंचि आगाद जोग केसिंचि अणागाढं इत्यर्थः । पंचविहो ववहारो-आगमे, सुप, आणा, धारणा, जीए । पडिसेवणापच्छित्तस्स इमे भेया। ___ आलोयणपडिक्कमणे मीसविवेगे तहा विउस्सग्गे ।
तव छेय मूल अणवट्टया य पारंचिए चेव ।। ५३ ॥ अर्थो-यावान् कश्चिदतिचार: आलोचनया शुद्ध्यति स आलोचनारिह इत्युच्यते, परस्य प्रकटीकरणमित्यर्थः ।।
गुत्तीसु य समिईसु य पडिरूवजोगे तहा पसत्थे य । वइक्कमेऽणाभोगे पायच्छित्तं पडिकमणं ॥६०॥
मीसपायच्छित्तं इत्थं कृतं नवेत्यादिकं । पक्खियाइसु चेइयवंदओ गंतु इरियावहियाए पडिकमित्ता विस्समा अविस्समंतस्स गमणागमणं ।
गमणागमवियारे सुत्ते वा सुमिणदसणे रामओ। नावानइसंतारे पायच्छित्तं विउस्सग्गो ॥११॥ चशब्देन एएसु चेव अट्टमीपमुहेसु इतिशेषः । चेहयाई साहुणो वा जे अन्नाए वसहीए ठिया ते न वंदइ मासलहु, जइ चेइयघरे ठिया वेयालियं काल पडिकंता अकए आवस्सए गोसे य कप मावस्सए चेइए न वदति तो मासलड्डु इति । तपसः क्रमो यथा
निव्वीए पुरिमड्ढे एक्कासणयंविले चउत्थे च ।। पणगं दस पण्णरसा वीसा तह पण्णवीसा य ॥ १६४॥ मासो लहुओ गुरुओ चउरो मासा हवंति लहुगुरुगा । छम्मासा लहुगुरुगा छेओ मूलं तह दुर्ग च ॥ १६५ ॥
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नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये संभोइयो आयरिया पविखए आलोयति, उमो रायणिस्स आलोएइ, रायणिओ वि उमरायणियस्स आलोपइ, जइ सो रायणिओ नत्थि असइ चाउमासिए (तत्थवि) असइ संवच्छरिए उक्कोसेणं बारसहिं वरिसेहिं दुराओ वि आगंतु आलोएयवं । फड्डगवइया वि आगंतु पक्खियाइसु मूलायरियस्स आलायति ।
सच्छंदत्त । सो भणइ-सन्नाभूमि पि पगाणियस्स गमणं पडिसेहति तं असहमाणो आगओ हं । विवरीय नाम पर रयहरणं निपच्छिम पडिलेहेइ, अवरण्हे पढम रयहरण पडिलेहेइ।
पिंडस्स जा विसोही समितिओ भावणा तवो दुविहो । पडिमा अभिग्गहा वि य उत्तरगुणमो वियाणाहि ॥ २८९ ॥ बायाला अटेव य पणवीसा बार बारस य चेव ।।
वव्वाइचउभिग्गह भेया खलु उत्तरगुणाण ।। २९० ॥ काइगाइभूमिपि न पडिलेहंति, सज्झायं या न करिति, अपट्टविए वा परियट्टति, आवस्सय वा न करिति, पाउया वा करित, दंडगाईण गहण-निक्खेवेसु न पडिलेहणपमजणाई दुप्पडिलेहियाई वा करिति, विणय वा अहा-वत्थुन करिति, राय निगच्छमाण इत्थिं वा सुअलंकिय एजमाणि पलोपंति, नहं वा आघसंति, नहवीणिय वा करिति, कंदप्पकोकुइयत्तणं करिति, पपसु वट्टमाणा पडिसेहेयव्वा । यथा-आउत्ता लेहगा सव्वं लिहति अविस्सरणनिमित्त, एवं सो नायओ हियए सव्वे अवराहे लिहिता आयरियाणां कहेइ, आयरिओ, तं सोउं तं निप्फन्नं पच्छित्तं देइ ।
गर्भाष्टमविचार:- 'गिहत्थरियाओ जहन्नेण घगुणतीसं वरिसाणि । कहं पुण? गम्भट्टमो पवइओ इत्यक्षराणि गर्भाष्टमविषये ।।
अहाछदस्वरूपं यथा- सच्चेव मुहपोत्तिया सच्चेव पडिलेहणिया भवइ, दोहि अइरेगो भवइ, जो चेव मत्तओ सो चेव पडिगगहा होउ कि दोहि? सो चेव चोलपट्टमो सो चेव उत्तरपट्टा होउ इत्यादिकम् ।
खेत्तओ बिमम्गेजा जाव उ छ सत्त जोयणसयाई। बारस समाउ कालओ उकासेण विमग्गेजा ।। आलोचनादाता निरीक्षणीयः इति शेषः ।
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व्यवहारस्य विचारा: एवं पि विमग्नतो जान लाभा उ गीयसंविगं । पासत्थाइसु तओ वियडे अपितुं पि ॥ तस्सऽसह सिद्धपुते पच्छाडे चेव हाइ गीयत्धे। आवकहाए वि लिंगे गेण्हाकिय अणिच्छरुत्तरियं ॥ ॥ तेसि पि य असईए ताहे आलाए देवयसगासे। किइकम्म मिसेजविही तहेव सामाइयं नस्थि ॥ ॥ अरहंतडिमाणं आलोएइ सो पायच्छित्तं जाणओ आलोपत्ता सयमेश पायच्छित्तं पडिवजइ। असइ पाइन्नाइ अभिमुहो अरहंतसिद्धाणं अंतिए आलोएइ ।
गीयत्था य विहारी बीओ गीयत्थनिस्सिओ भणिो । पत्तो तइयविहारी नाणुण्णाओ जिणवरेहिं ॥ २० ॥ वायपरायण कुविओ चेइय-तद्दब्व-संजइग्गहणे ।
पुन्धुत्ताण चउण्ड वि कज्जाण हवेज अण्णयरं ॥ २५२ ॥ 'तद्दव्व' इत्यनेन देवदन्यविचार: । व्यवहारद्वितीयोद्देशके । तृतीयोद्देशके यथा--
गणहारिस्साहारा उवगरणं संथवो य उक्कोसो ।
सकारो सीसपडिच्छएहिं गिहि-अण्णतित्थीहिं ॥ ४६ ॥ गणभृतः आहारादि उत्कृष्टं देयं, ततश्च सत्कारः स्यात् शिष्यादिभिरित्यर्थः ।
हत्थे पाये कण्णे नासार?हिं वजिय जाणे । वामणगमडभकाढिय काणा तह पंगुला चेव ॥ ९४ ॥ दिक्खि पि न कप्पंति जुगिया कारणे वि दोसा वा । अण्णायदिक्खिए वा नाउ न करिति आयरिए ॥ ९५ ॥ पच्छा वि हुँति विगला आयरियत्तं न कप्पह तेसिं । सीसो ठावियवो काणगमहिसो व्व निन्नंमि ॥ ९६ ॥ पुवं चउदसपुवी इण्डिं जहण्णो पकप्पधारी उ । मज्झिमग पकप्पधारी किं सो उ न होइ गीयत्थो?॥ १७३ ॥
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निःशेषसिद्धान्तविचार- पर्याये
प्रकल्पो निशीथः तद्धारी जघन्यगीतार्थः । कल्पधरो मध्यम
इत्यर्थः ।
पुव्वं सत्यपरिणा अहीयपढियार होउ उबटूवणा । afia जीवणिया किं सा उ न होउ उबटूवणा ? ॥ १७५ ॥ आयारस्स उ उवरिं उत्तरायणाउ आसितु । दसवेयालिय उवरिं इयाणि किं ते न हुंती उ ? ॥ १७६ ॥ व्यवहार तृतीय देशके । आचार्यादिपदविचारःतिवासपरियागस्स उवज्झायन्तं कप्पर, तस्स अप्पपरियागस्स नत्थि खेयबहुओ जेण आयरियतं पि काहि पत्रवासपरियागस्स उवज्झायत्तं आयरियत्तं पि कप्पर, बहुतरवासपरियावत्ते खेयसहतराउ तेण तस्स दो ठाणाणि कप्पंति, छन्द वासाणं परेण विय gateपरियाओ भइ, तस्स सव्वाणि वि सङ्घाणाणि कति उवज्झायत्तं आयरियत्तं गणित्तं पवत्तित्तं थेरतं गणावच्छेइयत्त (१८३) इत्याचार्यादिपदविचारः ।
राइत्थी जाए ताए अग्गमहिसीए कुलकण्णगाए वा पयासु तिसु वि पारंचिओ, अमच्चीए अणवट्टो, विहवाए अविसेसियाप पागइत्थी य [ अवसेसियाए] मूलं, लम्हा एयाओ परिहरियव्वाओं I ( २४९ - २५० ) इति उत्थापनाविषयः ।
संघो गुणसंघाओं संघायविमोयओ य कम्माणं । रागोसविमुको होइ समो सव्वजीवाणं ॥ ३२२ ॥ परिणामियबुद्धीए उबवेओ होइ समणसंघो उ । कज्जे निच्छियकारी सुपरिच्छियकारओ संघो ॥ ३२३ ॥ दुक्खेण लभइ बौहि बुद्धां वि य न लभइ चरितं तु । उमादेसणार तित्थयरासायणाए य ॥ ३३५ ॥
चतुर्थोद्देशके यथा-
जाओ य अजाओ वा दुविदो कप्पो उ होइ नायव्वो । एक्केको वि यदुविहो समत्तकप्पो य असमत्तो ॥ १५ ॥
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व्यवहारस्य विचारा:
गीयत्थो जायकप्पो अगीओ खलु भवे अजाओ उ । पणगं समत्तकप्पो तदृणगो होइ असमत्तो ॥ १६ ॥ मes वियारभूमी विहारभूमी य सुलभवित्तीय । सुलभा वसही य जहिं जहण्णतं वासखेत्तं तु ॥ ४० ॥ चिक्खल - पाण- थंडिल बसही-गोरस जणाउलो वेज्जो । ओसह-निचयाऽहिवई पासंडा भिक्ख सज्झाए ॥ ४१ ॥ त्रयोदश गुणा वर्षाक्षेत्रे | तरुणे वसहीपाले
कपट्टिसलिंगमाइ आउभया 1 उपसज्जति अकपिए दोखिमे अपने ॥ ६० ॥ अपि च साधौ दोषाः ।
अह न संथरंति ताहे आयरिओ हिंss तमि वाडए वसहि पलोती हिंड | परिमियं नाम इयरे साहू जावइयं उद्धडाउ ऊ आणिति तावइयं अज्झापूर डिंडित्ता आयरिओ खिष्पं संनियट्ट | वासावासे वीसुंति पिहपिहं ठिया असमत्तकपिया य ते 'अमणु'ति । न परोपर उवसंपन्ना नत्थि तेसिं उग्गहो समं जइ दोणि समन्तकपिया एज्ज तेसिं साहारणं खेतं ।
एगो एगस्स पाले आवस्सयं अहिजर, आवस्सगवायणायरिओ पुण आवस्सगपडिपुच्छास्स सगासे दसवेयालियं अहिजद, दसवेयालियवागणायरिओ हरइ । एवं जाव दिट्टिवाओ । एवं सुत्ते अत्थे वि एवं चेव, नवरं उवरिम अत्थायरियाणं छेयसुयअत्थायरिओ ers | इति वर्षाक्षेत्रे आभाव्यव्यवहारः । गाथाश्च भाष्यस्य यथावासासु अमगुण्णा असभत्ता जे ठिया भवे वीतुं । तेसिं न होइ खेत्तं हृ पुण समणुष्णा य करिति ॥ ९१ ॥ ता तेसि होइ खेत्त को उ पहू तेसि जो उ रायणिओ । लाभो पुण जो तत्था सो सव्वेसिं तु सामण्णो ॥ ९२ ॥ अह अह वीस वीसु ठियाओ असमत्तकपिया होज्जा । अण्णो समत्तकपी एजाही तस्स तं खेत्तं ॥ ९३ ॥
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निःशेषसिद्धान्तविचार- पर्याये
अहवा दोष्णि व तिष्णि व समग पत्ता समत्तकष्पीओ । सव्वेसि तु तेसि तं खेत्तं होइ साधारणं ॥ ९४ ॥ पडिभग्गेसु भएसु व असिवाइकारणेसु फिडिया वा । एएण उ पगागी असमत्ता वा भवे घेरा ॥ ७१ ॥ इंदकीलमणोग्गाहो जत्थ व राया जहि व पंच इमे अमच्च पुरोहिय सेट्टी सेणावइ सत्थवाहो य ॥ ७८ ॥ यत्रेन्द्रकीलः तत्रानवग्रह इत्यर्थः ।
·
सारूवी जा जीवं पुत्रायरियस्स जे य पव्त्रावे । अपव्वाविप स छंदो इच्छाए जस्स सो देइ ॥ १४० ॥ जो पुण गित्थमुंडे अहवा मुंडेा उ तिण्ड वरिसाणं । आरेणं पव्वावे सयं च पुव्वायरिये सव्वं ॥ १४१ ॥ अपवाविए सछंदा तिन्हं उवरिं तु जाणि पव्यावे । अपव्वावियाणि जाणिय सो वि य जरिसच्छप तस्त ॥ १४२ ॥
तओ वत्तव्वं एयस्स गणहरत्तं अणुण्णार्थ, वायाए न सके वो ताहे तस्स उवरिं चुन्नानिच्छुभंति एस गणहरी ठविओ त्ति ।
एग व दो व दिवसे संघाडट्ठाए सो पडिच्छेजा । असई एगाणी उ जयणा उवही न उबहम्मे ।। २९३ ||
सङ्घाटका एवं द्वे वा दिने प्रतीक्षेत असति यतनया एकाकिनोsपि नेोपन्यते इति तात्पर्यार्थः ।
>
ताओ संजईओ दुबिहाओ - कालचारिणीओ अकालचारिणीओ य । तत्थ कालचारिणीओ जाओ पक्खियासु एंति एयव्वइरित्तेसु एजमाणीओ अकालचारिणीओ, ताओ पुण अकालचारिणी ओ सज्झायट्टाए वा पंति, भत्तं पाणं वा दाउँ गेण्उि या इंति, कंदप्पट्टाए वा इंति, अकालचारिणीसु बहुदोसा वसही ।
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व्यवहारस्य विचारा: संमिसेजागयं दिस्स सिस्सेहिं परिवारियं । कोमुईजोगजुत्त वा तारापग्वुिड ससिं ॥ २७३ ॥ गिहत्थपरतिस्थीहिं संसयत्थीहिं निच्चसो । सेविज्जत विहंगेहिं सर व कमलुज्जल ॥ २७४ ॥ खग्गूडे अणुसासंत सद्धावंत समुजए । गणस्स अगिला कुव्वंतं संगह विसए सए ॥ २७५ ॥
आचार्यमिति शेषः । अहवा गुरुणो जावजीवं फासुअ-अफासुएण तेइच्छं । वसमे बारस वासा अट्ठारस भिक्खुणो मासा ॥ ३०३ ॥
चिकित्सा इयम् । फासुय आहारो से अहिंडतो उ गाहए सिक्ख । ताहे उ उवट्ठावण छज्जीवणियं तु पत्तस्स ॥ ३१० ॥
षड्जीवनिकाध्ययन ज्ञेयम् । अपत्ते अकहित्ता अर्णाहगय अपरिच्छ अइकमे वा से । पक्केके चउगुरुगा चोयगसुत्तं तु कारणियं ॥ ३११ ॥ इइ खलु आणाबलिया आणासारो य गच्छवासो उ ।
मोत्तं आणापाणु सा कजा सव्वहिं जोगे ॥ ३४७ ॥ गिम्हाइसु जे अणागाढजोगडिवन्ना तेसिं जोगो निक्खिप्पड़ मा पमत्तं देवया छलेज तेण निक्खिप्पइ, तेहिं दिवसेहिं विगइओ लभंति, ते आहारित्ता दुब्बला अप्पाइजति एपण कारणेणं निक्खिप्पइ जोगो । इतरे नाम आगाढजोगवाही तेसि न निक्खिप्पड जोगो न पुण उदिसई न वा पढंति । ४१० ।।
ओसन्नाण बहूण वि गीयमगियाण उगहो नत्थि । सच्छंदीय गीयाण असमत्त अणीसगीए पि ॥४९॥ तिविहो उग्गहकालो-उउबद्ध वासारत्ते बुड्ढवासे, उउबद्ध पक मास उस्सग्गेण वासानु चत्तारि मासा गेलन्नं पडुश्च सोलस वरिसा घमासा वा ।
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निःशेषसिद्धान्तविचार-पर्याये खेत्तेण अद्धजोयण कालेणं जाव भिक्खवेलाओ । खेत्तेण य कालेण य जाणतु सपरकम थेर ॥ ५३७ ॥ जो गाउय समत्थो सूरादारभ भिक्खवेलाओ । विहरउ एसो सपरक्कमो उ ना विहरे तेण पर॥ ५३८॥ भागे भागे मास काले वी जाव एकहिं सव्वं । पुरिसेवि सत्तण्ह असईए जाव एकउ [सहाओ]॥५५८ ॥ थिरमउयस्स उ असई अप्पाडहरियम्स चेव वच्चंति । बत्तीस जोयणाणि वि आरेण अलब्भमाणमि ॥ ५५७ ॥
काष्ठसंस्थारके इतिशेषः । आसज्ज खेत्तकाले बहुपाउगा न संति खेत्ता वा । निच्च व विभत्ताणं सच्छंदाइ बहूदोसा ॥ ५७० ॥
चूर्णिर्यथा- आसज त्ति पडुच्च अण्णेसु खेत्तेतु असिवाईणि कालो जहा-संपयं नस्थि अण्णाणि खेत्ताण जेसु संथरंति, महायणपाओग्गाणि वा नस्थि खेत्ताणि पिहस्प्रिहं च जइ टुंत सच्छदाई दोसा भवति । एएहि कारणेहि उउ-बासाइयाम एगखेत्ते जयणाप अच्छेज, इति व्यवहाराक्षरैः केचिन्नित्यवास समर्थयन्ति । वल्पचतुर्थोद्देशकस्यैते । पञ्चमे यथा
अवि य विणा सुत्तेणं ववहारे ऊ अपञ्चओ होइ । तेणं उभयधरो उ गणहारी सो अणुण्णाओ ॥ ३१ ॥ ता जाव अजरक्खिय आगमववहारिणो वियाणित्ता । न भविस्सइ दोसु त्ति तो वायंती उ छेयसुयं ॥ ६२ ॥ आर्यिकाः छेदश्रुत पाठयन्तीत्यर्थ: । षष्ठोदशके यथा- चरणकरणस्स सारी भिक्खायरिया तहेव सज्झाओ । एत्थउ उजयमाणं तं जाणसु तिव्वसंविगं ॥ ३९ ॥ आयरिय-उवज्झायगणंसि पंच अइसेसा पण्णत्ता, तं आयरियउवज्झायस्स उच्चारपासवणं अंतो उवस्सयस्स य निग्गिज्झिय निगझिय पप्फोडेमाणे वा पमज्जेमाणे वा नाइकमइ, आयरिय
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व्यवहारस्य विचाराः उवज्झाए अंतो उवस्सयस्स उच्चार पासवणं वा विगिंचमाणे वा विसोहमाणे वा नाइकमइ, आचार्यश्वासावुपाध्यायश्च आयरियउवज्झाए एसो केसिंचि आयरिओ केसिंचि उवज्झाओ नियमेण पुण सो आयरिओ कुलाइकज्जेणं निग्गओ पडियागओ उस्सग्गेण ताव वसहीए बाहिं चेव पाए पष्फोडेइ, निकारणे पाए बाहिं न पष्फोडेइ, पंच राईदियाणि । जइ बाहिं सागारिय होज तो वसहिं पविसित्ता पप्फोडणा, तत्थ विहीए पप्फोडेयव्वं पडिलाभित्ता पमजित्ता। सो अभिग्गहिओ आयरियसंतिएणं रयहरणेण आयरियस्स पाया पमज्जइ । अहव उनिओ पायपुंछणो तेण वा ।
सुखवंतमि परियारवं च वणियंतरावणुट्टाणे ।
दुवार्णानगममी य हाणि य परमुहावन्नो ॥ ९७ ॥ इत्याचार्येण बहिभूमौ न गन्तव्यम् । उप्पण्णनाणा जह नो अडंती चोत्तीसबुद्धाइसया जिणिंदा । एवं गणी अट्टगुणोववेओ सत्था व नो हिंडइ इइदिमं तु ॥ १२५॥ इत्याचार्येण न भिक्षणीयम् ।
सुत्तस्स मंडलीए नियमा उटुंति आयरियमाई । मोत्तूण पवायंतं न उ अत्थे दिक्खण गुरुपि ॥ १९८ ॥
अनुयोग इति शेषः । भत्ते पाणे धोवण पसंसणा हत्थपायसोए य । आयरिए अइसेसा अणाइसेसा अणायरिए ॥ २२९ ॥ कालसभावाणुमयं भत्तं पाणं अचित्तं खेत्ते । मलिणा मलि य जाया चोलाइ तस्स धोवेति ॥ २३०॥ परवाईण अगम्मो नेव अवण्णं करति सुयसेहा । जइ अकहिउ वि नजइ एस गणी ओजपरिहीणो ॥ २३१ ॥ एए पुण अइसेसे उवजीवेयावि कोवि दढदेहो। निदरिसणंपत्थभवे अजसमुद्दा य मंगू य ॥ २३९ ॥
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नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये करचरणनयणदसणाइ-धोवणं पंचमो उ अइसेसो। आयरियस्स उ सययं कायचो होइ नियमेण ॥ २३६ ॥ अवि य निग्गयभावो तहवि य रक्खिजए स अण्णेहिं । वंसकडिल्ले छिन्नो वि वेणुओ पावए न महिं ॥ २४९ ॥ विजाण परिवाडी पव्वे पव्वे य दिति आयरिया । मासद्धमासियाण पदव पुण होइ मज्झं तु ॥ २५१ ॥ पक्खस्स अट्टमी खलु मासस्स य पक्खियं मुणेयव ।
अण्णं पि होइ पव्व उवरागो चंदसूराण ॥ २५२ ॥ चूणिर्यथा- 'पक्ख पव्वस्स मज्झं अट्टमि बहुलाइया मास त्ति का मासस्स मज्झे पक्खिय किण्हपक्खस्स चउद्दसीए विजासाहणोवयारो' इति पाक्षिकविचारः ।
अइ उम्घाडपोरिसीए इंतववंताण पोरिसीभंगो भवइ तो आयरिपण चेव अकयसुयाण सगासं गंतवं, अह मायरिओ बुड्ढत्तणेणं गेलण्णेण वा न सकेइ गंतुं ताहे अकडसुत्ता मज्झे आयरियसगासमागंतु आलोइंति' इति अन्यत्र उषितानां प्रभातादौ आलोयणकस्य विचारः।
जहा य अंबुनाहमि अणुबंधपरंपरा । वीई उप्पजए एवं परिणामो सुभासुभो ॥ ३१६ ॥
षष्ठस्यैते समाप्ताः ।
सप्तमे तु यथाधम्मकहनिमित्तेहि य विजामतेहिं चुण्णजोगेहिं । इन्भाई जोसियाण संथवदाणे जिणाययण ॥ ३ ॥ संबोहणट्टयाए विहारवत्ती व जिणवरमहे वा। महयरिया तत्थ गया निजरणं भत्तवत्थाणं ॥ ४ ॥
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व्यवहारस्य विचारा: अणुसट्टउजमंती य विवज्जते चेइयाण सारवए । पतिवज्जति अविज्जंतए उ गुरुया अभत्तीप ॥ ५ ॥ चूर्णियथा- कस्सइ आयरियस्स सिस्तिणी सा सुत्तत्थाणि घेत्तं धम्मकहाओ व पढित्ता निमित्ताणि य घेत्त आइग्गहणेण विजाओ मंताणि चुण्णजोगा य जाणित्ता निग्गया गच्छाओ ताहे सा इन्भइणं इस्थियाओं आउट्टावेत्ता संथवेण जिणाययण कारित्ता विउल सकारसमुदय अणुभवइ । अहण्णया सा महत्तरिया से तीसे संबोहणटाए वा विहारपत्तियं वा चेइयमहे वा तत्थ गया। तओ सा सिस्सिणी तीसे परितुहा मयहरियाए विरूवरूव असणाइ वत्थाणि य महारिहाणि निजरावेइ इन्भाइघरेलु । अणुमट्टगाहा । ताहे सा महत्तरियाए, अणुसट्टा । किं अज्जे ! पासत्थत्तणेणं अच्छसि ? उज्जमाहि अहवा अप्पणा चेव उजमिउकामा एवं तीर उवट्टियाए जइ चेश्याण अण्णो सुस्सूसओ अस्थि तो पडिक्कमाविन्जा तस्स ठाणस्स । अह अण्णा नवि चेहयाणं सुस्सूलओ तो जइ ताओ पडिकामित्ता णिति तो चउगुरुय तासिं चेइयाणं अभत्तिनिमित्तं । इति प्रतिष्ठाविचारः लिंगिकारितादिजिनचैत्यवंदनादिविचारश्चेति । अह नवर पक्खियाइसु अजाओ चेयवंदियाओ पट्टियाओ इति । तिणि दिणे पाहुण्णं सन्वेसिं असइ बालवुड्ढाणं । जे तरुणा सग्गामे वत्थवा बाहि हिंडंति ॥ ८६ ॥ अट्टमि पक्खिए मोत्तुं वायणाकालमेव य । पुखुत्ते कारणे वावि गमणं होइ अकारणे ॥२२९॥ न्यवहारे सप्तमस्य समर्थिताः । अष्टमे तु यथाउचार पासवणं, अणुपंथे चेव आयरतस्स। लहुओ य होइ मासो, चाउम्मासो य वित्थारो॥ (व्यव० भा० १७७) नवमे यथा-- चेयव्व विभया करेज कोई नरो सयट्टाए । समण वा सोवतिय, विक्केजा संजयट्टाए ॥ ६२ ॥ चूर्णियथा'चेश्यदव हत्वा चोरा विभएज । तत्य कोई अप्पणग भाग
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नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये समणाण' देज जो वा संजय सोवहियं विक्किणित्ता तं फासुग समणाण देज तं कि कप्पइ न कप्पइ वा? उच्यते इत्याह यथा
चेइयदव्व विभया करेज कोई नरो सयट्टाए । समण वा सोहिय, विकेजा संजयद्राए ॥ एयारिसंमि दवे समणाण विष्णु कप्पप घेतु ? । चेइयदवेण कयं मोलेग वज्जं सुविहियाण ॥ तेणपडिच्छा लोए वि गरहिया उत्तरे विमंग पुण । चेइय अइ पडिणीए जो गेण्हइ सो वि हु तहेव ॥ (६३, ६४) जा तित्थयराण कया वंदण आवरिसणाइ पाहुडिया। भत्तीए सुरवरहिं समणाण तहिं कहं भणिय ? ॥ (६६) चूणियथाउच्यते (भगवतः) प्रवचनातीतत्वात् कल्पते । किं चान्यत् जह समणाण न कप्पा, पथं एगाणिना जिणवरिंदा । गणहरमाई समणा अप्पर वेब चिटुंति ॥ ६७ ॥ तम्हा कप्पइ ठउ जह सिद्ध माटाणाम होइ अविरुद्धं । जम्हा उन सामी सत्था अम्ह तओ कप्पे ॥ ६८ ॥ चूर्ण्यक्षराणि यथा
जत्थ निस्सा नस्थि तत्थ कम्पा सिद्धाययणे ठाइउ, किं कारणं ? उच्यते--
साहम्मियाण अटला चउविही लिंगओ जह कुटुंबी । मंगलसासयभत्तीए ज कयं तत्थ आएसो ॥ ६९ ॥ पूर्वेक्ता कल्पे। ऐसा जत्थ निस्सा नत्थि तस्थ वि चेयधरे न कल्पते ठाउं, इमेण कारणेण
जइवि न आहाकम्म भत्तिकय तह वि वजयंतेहि। भत्ती खलु होइ कया जिणांण लोगे वि दिटुं तु ॥ बंधित्ता कासवओ वयण अट्टपुडसुद्धपोत्तीए । पत्थिवमुवासप खलु वित्तिनिमित्त भया चेव ।। (७०, ७१) चूर्णिस्तु एवं-रायस्थाणीयस्स तित्थगरपडिमाभत्तिनिमित्त । मा चाउनिसगो उस्सासनिस्सास निया (निग्गमा) विस्संति तेण न
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पवहारस्य विचारा:
कप्पइ चेइयघरे ठाउं। अत्र कारणं
दुब्भिगंधपरिस्सावी तणुरप्पेसऽण्हाणिया । दुहा वाउवहो चेव तेण टुंति न चेइए ॥ तिणि वा कढए जाव थुइओ तिसिलोइया ।
ताव तत्थ अणुण्णाय कारणमि परेण वि (७२, ७३) इति व्यवहारे देवद्रव्यस्य तीर्थकरनिमित्तं कृते समवसरणे साधूनां कल्पते इत्यस्य च जिनगृहनिवसनिषेधस्थ स्तुतित्रयस्य च विचारः नवमोद्देशके। ( वर्षाप्रवेशादिविचार:)
चउग्गुणीववेयं तु खेत्त होइ जहण्णय' । तेरसगुणमुकोसं दोण्ह मज्झमि मज्झिमग ॥ ६७ ॥ महई विहारभूमी विधारभूमी य लुलभवित्ती य ।
सुलभा वसही य जहिं जहण्णगं वासखेतं तु ॥ ६८ ॥ चिखल्ल १ पाण २ थंडिल ३ वसही ४ गोरस ५ जणाउले ६ वेज्जे । ओसह ८ निचया ९ हिवई १० पासंडा ११ भिक्ख १२ सज्झाए ॥ ६९॥
खेत्ताण अणुण्णवणा जेट्ठा मूलस्स सुद्धपडिवए । अहिगरणो माणो मा मणसंतावा न होहिंति ॥ ७१ ॥ जयणाए. समणाण अणुण्णवित्ता वसंति खेत्तवहिं । वासावासट्टाणं आसाढे सुद्धदसमीप ॥ ९३ ॥ संविग्गबहुलकाले एसा मेरा पुराउ आसी य । इयरबहुले उ संपइ पविसंति अणागयं चेव ॥ ९८ ॥
॥ व्यवहारे दशमोद्देशके वर्षाप्रवेशादिविचारः ॥ अष्टविधा गणिसंपद्
अट्टविहा गणिसंपय एकेका चउविवहा उ बोद्धव्वा । एसा खल बत्तीसा ते पुण ठाणा इमे हति ॥ २५२॥ आयार १ सुय २ सरीरे ३ वयणे ४ वायण ५ मई ६ पओगमई ७। एएसु संपया खलु अट्टमिगा ८ संगहपरिण्णा ॥ २५३ ॥
आयारसंपयाए संजमधुवजोगजुत्तया पढमा १।। बिइय असंपनगहिया २ अनिययवित्ती भवे तइया ३ ॥ २५५॥
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नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये तत्तो य वुड्ढसीले आयारे संपया चउद्धेसा ४ । चरणं तु संजमो ऊ तहियं निश्चतु उवओगी ॥ २५६६ बहुसुय १ परिजियसुत्ते २ विवित्तमुत्ते य हाइ बोद्धब्वे ३ । घोसविसुद्धिकरे या४ चउहा सुयसंपया होइ ॥२५९ ॥ घोसा उदात्तमाई तेहिं विसुद्ध तु घोसपरिसुद्ध। एसा सुओषसंपय सरीरसंपयमओ वाच्छ ॥ २६२ ॥ आरोह-परीणाहो १ तह य अणुत्तप्पया सरीरंमि २। पडिपुण्णमिदिएहि य ३ थिरसंघयणो य बोद्धव्वो ४॥ २६३॥ तपु लज्जाए धाऊ अलजणीओ अहीणसव्वंगी । होइ अणुत्तप्पेसो अविगलइंदी उ पडिपुण्णो ॥ २६५॥ वचनसंपत् यथा
आदेज १ महुरवयणे २ अनिसियवयणो ३ तहा असंदिद्धों। आदेज गज्झवको अत्थवगाढ भवे महुरं॥ २६७॥ वायणभेया चउरो विजिओहिसणा १ समुहिसणओ अ २ ।
परिनिव्वयनिवायाए ३ निजवणा चेव अत्थस्स ॥ २७० ।। 'विजिय'त्ति परीक्ष्येत्यर्थः। निजवओ अत्थस्स जो उ वियाणाइ अत्थत्तस्स । अत्थेण वि निव्वहई अत्थं पि कहेइज' भणियं ॥ २७५ ॥ मइसंपय चउभेया उग्गह १ ईहा २ अवाय ३ धारणया ४ । उग्गहमइ छब्भेया तत्थ इमा होइनायव्धा ॥ २७६॥ खिप्प १ बहु २ बहुविह' च ३ धुव ४ अणिस्सिय ५ तह य होइ असंदिद्ध। ओगिण्हइ एवीहा अवायमविधारणा चेव ।।२७७।। एत्तो उपओगमई चउव्विहा होइ आणुपुवीए । आय १ पुरिसच २ खेत्तं ३ वत्थु वि य पउंजए वायं ॥ २८३॥ बहुजणजोगं खेत्तं १ पेहे तह फलगपीढमाइण्णं २ । पासासु पए ३ दोषिण वि काले य समाणप कालं ४॥ ॥ इति द्वात्रिंशत् स्थानानि । ततश्च--
जा भणिया बत्तीसा तं छोडूण विणयपडिवति । चउभेयं तो होइ छत्तीसा एस ठाणाणं ॥ ३०१ ।।
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व्यवहारस्य विचारा:
विनयश्चतुर्द्धा यथा
मायारे १ सुतविणए २ विक्खेवण चेव होइ बोधव्वे ३। .. दोसस्स य निग्याए ४ विणए चउहेस पडिवत्ती॥३०३॥ आयारे विणओ खलु चउबिहो होइ आणुपुब्बीए । संजमसामायारी १ तवे य र गणविहरणा ३ चेव ॥३०४॥ सुत्त अत्थ २ च तहा हिय ३ निस्सेस ४ तहा पवाएइ । एसो चउविहो खलु सुयविणओ होइ नायबो ।।३१२॥ विक्खेवणा-विणओ जहा
अदिट्ट दिटुं खलु १ दिटुं साहम्मियत्तविणपण २।
चुयधम्म धम्मे ठावे ३ तस्सेव हियट्ठमभुढे ४॥३१५॥ दोषनिर्धातविनयो यथा--- कुद्धस्स कोहविणयण १ दुट्ठस्स दोसविणयणं जं तु २ । कंखिए कंखछेओ ३ आयप्पणिहाण चउहेसो ४॥३२३ ॥
इति अट्टविहा गणिसंपया ॥
इति व्याख्यात व्यवहारे दशमोद्देशके । (तपोविचारः)
पक्खियपोसहिए, कारेइ तवं सयं कारविय। भिक्खायरिए तहा नियुंजइ पर सयं वावि ॥१॥ अर्थस्तु पाक्षिकं पाक्षिकमेव, पोसहिय तु पोसहदिणं अट्ठमीचउहसीलक्खणं । इत्यक्षराणि पाक्षिकविषये। दशविध पायश्चित्तं यथा
आलोयण १ पडिकमणे २ मीस.३ विवेगे . तहा विउस्सग्गे ५। तव ६ छेय ७ मूल ८ अणवट्ठया य ९ पारंचिप १० चेव ॥३५२ ॥
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७४
नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये दस जा अणुसज्जति चउद्दसपुधिए पढमसंघयणं । तेण परेणऽट्टविहीं जा तित्थ ताव हाहिती ( बोधव्वं ) ॥३५३ ॥
एगाहं नाम अभत्तट्टो तम्मि सेविए पंचराइंदियाणि देज बहुतर वा । पंचाह वा सेवित्ता एगाह देज आयंबिलं घा पुरिमइदं वा पगासणं वा निध्वियं वा पोरिसिं वा नमोकार वा, सा पुण बुड्ढी वा हाणी वा रागदोसवेरग्गभावणाईहिं पुवभणिएहि भवति ।
॥ इति तपोविचारः ॥
न विणा तित्थ नियं?हिं नियंट्ठा व अतिस्थया । छक्कायसंजमो जाव ताव अणुसजणा दोण्ह ॥ ३८९ ॥ तस्स य चरिमाहारो इट्टो दायत्वो तण्डछेयट्टा । सवस्स चरिमकाले अईव तण्हा समुप्पज्जे ॥ ४९६ ॥ सरीरमुज्झिय जेण को संगो तस्स भोयणे। समाहिसंधणाहेउ दिजए सो उ अंतए ॥ ५४४ ॥ कप्पस्सय निज्जुत्ति ववहारस्स य परमनिउणस्स। जो अत्थओ विजाणइ ववहारी सो अणुण्णा आ॥ ६०७ ॥
कुलाइकजववहारे आए जौं भगवया भद्दबाहुणा सुत्तं निज्जूढं कप्पववहारा तं सुत्तं उच्चारित्ता तस्स अत्थं भाणिऊणं निदिसइ ।
वत्तणुवत्तपवत्तो बहुसो अणुवत्तिओ महाणेण । एसो उ जीयकप्पो पंचमओ होइ नायव्यो । ६९३ ॥ वत्तो नाम एक्कासि अणुवत्तो जो पुणो बितियवार । तइयवार पवत्तो परिग्गदिओ महाणेणं ॥६९४ ।।
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व्यवहारस्य विचारा:
७५
चूर्णिणस्तु वत्तं नाम एक्कसिं तेण ववहरियं, अणुवत्तो दुण्णि वाराओ तेण ववहारेण ववहरियं, पवत्तो त्ति तिणि वारा तेण ववहारेण ववहरिय।
'बहुसो बहुस्नुपहिं जो वत्तो न य निवारिओ होइ । वत्तणुवत्तपमाणं जीएण कय हवइ एयं ॥
जं जीय सावज न तेण जीएण होइ ववहारो। जं जीयमसावज तेण उ जीएण ववहारो ॥ ७१५ ॥ जं जीयमसोहिकर पासत्थपमत्तसंजयाईणं । जइ वि महाजणाइण्णं न तेण जीएण ववहारो ॥ ७२० ॥ जं जीय सोहिकर संविग्गपरायणेण दंतेणं । एगेण वि आइण्णं तेण उ जीएण ववहारो ॥ ७२१ ॥
॥ इति जीतविचारः॥
मणपरमोहिपुलाए ३ आहारग ४ खवग ५ उवसमे ६ कप्पे ७ । संजमतिय ८ केवलि ९ सिझणा य १० जंबुम्मि युच्छिण्णा ॥ ६९९॥
'खवग'त्ति । उवसामगसेढिदुगं, 'कप्पत्ति । जिणकप्पो, 'संजमतियं' ति । सुद्धपरिहारियसंजमो सुहुमसंपरायसंजमो अहक्खायसंजमो।
संघयण संठाण च पढमगच २ जो य पुषउवओगो ३ । पए तिणि वि अस्था चउदसपुस्विम्मि वोच्छिण्णा ॥ ७०० ॥ संघयणसंठाणाणि पढमाणि पुघउवओगो। एए तिण्ण वि (अत्था) भद्दवाहुम्मि वोच्छिण्णा ॥ ॥
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७६
नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये
व्यवहारसूत्र (१०) यथा
नो कप्पइ निगंथाण वा निग्गंथीण वा ऊणटुवासजाय खुड्डय वा खुड्डियं वा उवट्ठावित्तए । भाष्यं तु
ऊण?ए चरित्तं न चिट्ठए चालणीए उदयव । बालस्स य जे दोसा भणिया आरोवणाए सा ॥ ९४ ।।
॥ उद्देशके दशमे ॥
॥ इति व्यवहारविचाराः समाप्ता: ॥ पञ्चकल्पविचारा यथा
भद्रबाहुना दशाकल्पव्यवहारनिशीथमहाकल्पसूत्राद्या: प्रवचनाभिहिता निर्जूढा: । जम्हा तेण भगवया आयारपकप्पो दसाकप्पववहारा य नवमपुबनीसंदभूया निर्जूढाः ।
सामाइय छेओवट्ठावणं च परिहारसुद्धिय चेव । तत्तो य सहुमरागं अहखाय चेव बोधव्वं ॥ ७९ ॥ कस्सेय चारित्तं नियंठ तह संजयाण ते कइहा ? | पंच नियंठा पंचेव संजया हुँतिमे कमसो॥ ८३ ॥ पुलए बउस कुसीले होइ नियंठे तहा सिणाए य । एपसि पकेको पंचविहो होइ बोधयो। । ८४ ॥ नोणपुलाए तह दसणे य चारित्तलिंग अहसुहुमे । एसो पंचविहो खलु पुलगनियंठो मुणेयव्वा ।। ८५ ॥ आभोगमणाभोगे तह संयुडमसंवुडे अहासुहुमे। एसा पंचविहो ऊ बउसनियंठा मुणेयवो ॥ ८६ ।। दुविहो होइ कुसीलो पडिसेवणया तहा कसाए य । एकेको पंचविहा परूवणा तस्सिमा हाइ ।। ८७ ॥ नाणपडिसेवणाए दसणचरणे य लिंग अहसुहुमे । पडिसेवणाकुसीले। पंचविही एस नायवो ॥ ८८ ॥
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पश्वकल्पस्य विचारा:
७७
नाणकसायकुसीले दसणचरणे य लिंग अहसुहुमे । एस कसायकुसीले पंचविहो ऊ मुणेयवो ॥ ८९॥ पढमगसमयनियंठे १ अपढम २ चरिमे य ३ अचरिमए चेव ४। तत्तो अहासुहुमे पंचमए होइ नायवो ॥ ९० ॥ पंचविहसिणाए ऊ अच्छवि तह असवले अकम्मंसे । संसुद्धनाणदंसणधरे य होई चउत्थे उ ॥ ९१ ॥ अरहा जिणे उ केवलि अपरिस्साई य होइ पंचमए । पए पंच विगप्पा सिणायस्स तो हुँति नायव्वा ।। ९२ ॥ पंचविह संजया वी सामाइयछेउबट्टपरिहारे । सुहुमे य अहक्खाए एकेके ते पुणो दुविहा ॥ ९३ ॥ इत्तरिए आवकही सामाइयसंजए भवे दुविहे । दुविहे य छेउवढे सइयारे निरइयारे य ॥ ९४ ॥ परिहारविलुद्धीए निविसमाणे तहेव निविबढे । दुविहे य सुहुमरागे संकिस्संते विसुझंते ॥ ९५ ॥ अहखाओ वि य दुविहो छउमत्थो चेव केवली चेव । एसो उ संजओ खलु पंचविहो होइ नायव्यो ॥ ९६ ॥ सामाइयम्मि उ कर चाउजाम अणुत्तरं धम्मं । तिविहेण वि फासिंतो सामाइयसंजओ स खलु ॥९७॥ छनण उ परियागं पोराणं तो ठवेइ अप्पाणं । धम्मम्मि पंचजामे छेआंवट्ठावणो स खलु ॥ ९८ ॥ परिहरइ जो विसुद्ध पंचज्जामं अणुत्तरं धम्म । तिविहेण फासयंतो परिहारियसंजओ स खलु ॥ ९९ ।। लोभमणुं वेयंती जो खलु उवसामओ व खमओ वा । सो सुहुमसंपराओ अहक्खाया ऊणओ किंचि ॥१०॥
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नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये उपसंते खीणमि व जो खलु कम्ममि मोहणिज्जमि । छउमत्थो व जिणो वा अहखाओ संजओस खलु॥१०१ ।।
इति पुलाकादिविचारगाथाः ॥ आहारे उवहिमि य उवस्सए तह य पस्सवणए य । सेजानिसेजठाणे दंडे चम्मे चिलिमिणी य ॥ ७२३ ॥ अवलेहणिया कण्णाण सोहणे दंतधोवणे चेव । पिप्पलगसूइनखाण छेयणे चेव सोलसमे ॥ ७२४ ॥
इति षोडशक उपधिः ॥ पुत्तं जणेज कोई आरिओ मज्झ अपरिवारो त्ति । तेसि सहाओ होहिइ पवावे तु सो कप्पे ॥ ७८२ ॥ एमेव य पच्छाया पुरिसं खेत्तं च कालमासज्ज।। तिण्णादी जा सत्त तु परिजुण्णा पाउणेजाहि ॥ ८८० ॥ पुरिसो असहू कालो सिसिरो खेत्तं व उत्तरपहाई । गिम्हे वि पाउणिजातारिसयं देसमासज्ज ॥ ८०१ ॥
इति प्रावरणविचार: पञ्चकल्पे । कप्पा दुब्बलसंघयण णं सीयपरीसहवारणनिमित्तं । हिरिपच्छायणनिमित्तं वत्थगाहणं अणुष्णायं ॥ ॥ अजाण पुण पंच वसहीओ घेत्तवाओ। कम्हा? जम्हा तासिं दुमासो कप्पो, नवगगहणं तु सेप्ताणं संजयाण बुड्ढावासे अइकते उउवद्धे मासे अहए वासावासे चउम्मासे अइए ओग्गहो तिविहो न भवइ । निक्कारणियाण सचित्ताचित्तमीसओ । अह पुण विसु द्धेसु आलंबणेसु अइथिए वि काले अच्छंति ताहे ओग्गहो भवइ । काणि पुण ताणि आलंबणाणि? नाणदंसणचारित्ताणि जाव तं कर्ज न घोच्छिन्जद ताव ओग्गहो न लब्भइ । वोच्छिण्णे तम्मि कज्जे असिवालु वा विरहिए नस्थि ओग्गहो । इति अवग्रहविचारः ।
लीहालेढुगमाई जो य पढंतो न करइ वक्खेव । अव्यक्तित्तो पसो आउत्तो अणण्णमणसो उ ॥ १२४६ ॥
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पञ्चकल्पस्य विचारा:
दसठाठिओ कप्पो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स ।
कयरे दस ठाणा ऊ ? भण्णइ चेलगाइ इमे ॥ १२७०॥ आचेलुकद्देसिय २ सेन्जायर ३ रायपिंड किकम्मे ५। बय ६ जेटु ७ पडिक्कमणे ८ मासं ९ पजोसवणकप्पे १० ॥१२७१॥ एपहिं दसाह ठिओ ठियकप्पी होइ उ मुणेयव्यो । (दार)। चहिं ठिओ छहिं आठओ अठियकप्पो पुण इमेहि ॥१२७२ ।। सेजायरपिंडे या १ किकम्मे २ चेव चाउजामे य३ । रायणियपुरिसजेट्ठी ४ च उसु वि एरसु होति ठियो । १२७३ ।। आचेलुकद्देसिय २ निवपिंडे चेव ३ तह पडिक्कमणे ४ । मासं ५ पज्जोसवणा ६ छप्पेए अणवटिया कप्पा ।।१२७४॥
दुविहा होति अचेला संताचेला असंतचेला य । तित्थयर असंतचेला संताचेला भवे सेसा ।।१२७५ ।। पत्तो सावजाई चेलाई संजमोबधाईणि । वजित्ता विहरंतो होइ अचेलो अपरिजुण्णो ।। १२८१ ॥ निहियरागदोसो अणवज्जेहिं अहापरित्तेहिं । अप्पेहि वि विहरंतो होइ अचेलो उ परिजुण्णो॥१२८२ ॥
इति स्थितास्थित-कल्पविचारः ॥ संखेत्ता विवपवहे जह वड्ढ वित्थरेण वच्चंती। उदहितेण वरनई तह तह सीलगुणेहि वड्ढाहि ।।१४०६॥ सुस्सूसगा गुरूणं चेत्यभत्ता य विणयजुत्ता य । सज्झाप आउत्ता साहूण य वच्छला निच्चं ॥१५.९ ।। एस अखंडियसीलो बहुस्सुओ य अपरोवतावी य । चरणगुणसुटिओत्तियधण्णा णयरीइ घोसणयं ॥१४१०॥
इति अनुशास्तिः ।।
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नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये
ते भगवंतो रागदोसनिग्गहपरा मा य पडिमाए वा पाउयाण वा रागहोसा न भवति ।
इति प्रावरणविचारः ।। रसपरिच्चागं न करेइ निश्चमेव विगइपडिबद्धो कार्याकलेसन करेइ ठाणासणमोणाईणि पायच्छित्तं विसंभोगा वा।
इति रसत्यागविचार: ॥ चोए चेइआणं खेतहिरण्णाइ गामगावाई। लग्गतस्स व जइणो तिगरणसाही कहं नु भवे ? ॥ १५६९ ।। भण्णइ एत्थ विभासा जो एयाई सयं विमग्गेजा। न हु तस्स होइ सोही अह कोइ हरेज एगाई ॥१५७०।। तत्थ करित उवेहं जा सा भणिया तु तिगरणविसोही।
सा य न होइ अभत्ती य तस्स तम्हा निवारेजा ।। १५७१॥ उपेक्षां कुर्वाणे त्रिकरणशुद्धिर्न भवति अभक्तिश्च कृता स्यात् तस्माभिधारयेदित्यर्थो ज्ञेयः ।
सव्वत्थामेण तहिं संघेणं होइ लग्गियव्यं तु । सचरित्तऽचरित्ताण उ सम्वेसिं एय कज तु॥१५७२ ।। चूणिस्तु-रुप्प हिरण्णवण्णाइ साहुणा आयठिरण तवनियमजुत्तेण चेयनिमित्तं रुप्पाहरण्णसुवणं अव्वं उपाएइ, तस्स माणदरिसणचरित्तमणोकरणाइया तिगरणसोही न भवइ । जया पुण पुवपवत्ताणि खेत्तहिरण्ण-दुपयचउप्पयाई जइ भंड वा चेइमाणं लिंगत्था वा चेइयदव्वं राउलबलेण खायंति, रायभडाइ वा अच्छिदेजा, तया तवनियमसंपउत्तो वि साहू जइ न मोपइ वावार वा न करेइ, तया तस्स नाणाइसुद्धी न भवइ, आसायणा य भवइ । एवं समुप्पन्ने कज्जे रायाईणं पुवं अणुसट्ठी करेइ, धम्मो वा से कहिजर, अणिच्छंतस्स अंतद्धाणेण वा अवहरति ।
इति देवद्रव्यविचार: पञ्चकल्पे ॥
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८१
पञ्चकल्पस्य विचारा: चरित्तमणोकरणाइया तिगरणसोही न भवइ । जया पुण पुखपवत्ताणि खेतहिरण्ण-दुपयचउप्पयाई जइ भंडं वा चेइमाण लिंगत्था वा चेश्यदव्वं राउल बलेण खायांत, रायभडाइ वा अच्छिदेजा, तया तनियमसंपउत्तो वि साहू जइ न मोएइ वाचार वा न करेइ, तया तरस नाणाइ सुद्धी न भवइ, आसायणा य भवइ । एवं समुप्पन्ने कज्जे रायाईणं पुत्र अणुसट्टी करेइ, धम्मो वा से कहिजई अणिचछंतस्स अंतद्धाणेण वा अपहरांत ।
ति देवद्रयविचारपञ्चकल्पे ॥ तत्थेगडिग्गहए भत्तं लेवार्ड पि गेण्हति । एगत्थ दवं मत्तग दाह' पी रित्तगपकप्पो ॥ १५९३॥ मात्रकं द्वाभ्यामपि रिक्त कार्य इत्यर्थः । चूणिस्तु --- दाण्ड वि हिंडताण एगपडिग्गहे कूर, एगपडिग्गहे
पाणय मत्तया रित्तया । कालपमाणाइकमे कुजा पाउरणग अकाले वि । दार। वसई कालाईयौं असिवादणुवासणं एय॥ १६२५ ॥
इति प्रावरणविचार:॥ गम्भाणं आयाणं करेइ तह साडण च गम्भाणं । अभिजोगवसीकरणे विजाजोगाइहिं कुणइ ॥ १६५४॥ विच्छिगर्माच्छगभमरे मंडुक्के मच्छए तहा पक्खी । संमुच्छा वेमाई जा जाणीपाहुडेण च ॥१६५५॥ एमाइ अकर्राणज्ज निकारणे जो करेइ ऊ भिक्खू । सब्बो सो उक्कप्पो । दारं । पतोऽकप्पं तु वोच्छामि । इति ॥१६५७। गच्छो सकारणो त्ती गिलाण धुड्ढे य बालमसहाई। सेसट्टा अइरेगं घेप्पइ.मा होज दुलभं ति ।। १८८२ ॥ जस्सेव अभिमुहत्ती जं चेव य काउ विहरए पुरओ। आयरिय उवज्झाया तस्सेव य त तु आलोए । १९३० ॥
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नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये उस्सग्गेण विहारो संथरमाणोण नवउ खेत्तेसु ।
तो सत्रुग्यादुवही न वि ले आव दगः ।। -०.९ ॥ तेषु एव उत्पादयेत् उपधि नप, क्षेत्र अष्टौ ऋतुबद्धाः वर्षा-- कालाश्चेत्यर्थ:।
दुलर्भमि वत्थपाए ऊहिएतु वि नवलु गच्छेजा । एमेव विहारी वि हु खेत्ताणऽसई मुणेययो । २०११ ॥ पगत्थ उ गामाइसु जहियं संथरंति तहि अच्छे । सव्वेसि तहिं उग्गही साहारण होइ जद नगरे ॥ २४.७ ॥ जइ पुण बहिया हाणी तहिं वढि गुणाण तत्थ अच्छति। के पुण गुणाइ भणिया भण्णइ नाणाइया हुति ॥ २४७३ ।। कालाईए दोसा दब्यक्खओ होइ अच्छमाणाण । तम्हा उ न चितुजा अरित्तं दुविहकालाम्म ॥ ४७४ ।। मा होज चरणभेमो पुण्णाइयंमि संवसंताण । अइचिरसंवासेण सिणेहमाईहि दोसेहिं ॥ २४७९ ॥
इति कालातिक्रमवसनबिचारः ॥ अइहमदे से य तहा कारणियगयाण सिसिरकालम्मि । परिभुजंताण य का विवाद चरणे अणुवघामा ॥ २५९९ ॥
इति प्रावरणविचार: ॥ संभुणा विरु द्धा उवग्गहं कुणइ नाणचरणाण । संभुजणा असुद्धा चरित्तभेयं वियाणाहि ॥ २.०६ ॥
इति संभोगविचार: ॥ अहलंदियाग गच्छे अप्पडिबद्धाण जह जिणाणतु ।
नवरं कालविसेसो उडुवासे पणग चउमासो ।। २५.८ ॥ चूणिस्तु-नधरि काले छब्भागे गामो कीरइ । एगेगे भागे पंच दिवस भिक्ख हिंडंति तत्थेव वसंति । वासासु एगत्थ चाउम्मासो इत्यर्थः ।
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दशा श्रुतस्कन्धस्य विचारा:
गच्छे पडिबद्धाण अहलंदीण तु अह पुण विसेसो । उगहो जो तेसि तू सो आयरियाण आभयइ ॥ २५५९ ॥ एगवसहीए पणगं छवीही ओ व गाम कुवंति । दिवसे दिवसे अण्ण अडंति वीहीय नियमेण ।। २५६० ॥ परिहाविलुद्धीण जहेव जिणकप्पियाण नवरतु ।
आयंबिल तु भत्त गेण्हंती वासकप्पं च ॥ २५६९ ॥ चूणिर्यथा-परिहारियाण वि जहा जिणाण नवरं आयबिलेण मासी सो सञ्चो विदाइ ति ।
जिणप्पि-अहालंदी-परिहारविसुद्धियाण जिणकप्पो । थेराणं अजाण य बोधव्या थेरकप्पो उ ॥ २५६४ ॥
___इति अहालंदगादिविचार: ॥
इति पञ्चकल्पविचारा: समाप्ता : ॥ दश श्रुतस्कन्धविचारा यथाअत्थेण वा विचित्तं सुयं, अहवा सप्तमयपरसमयेहि उस्तगाववाएहि वा, उक्तं च - चित्रं बर्थयुक्तम्' इति स्तुतियुगलसूचा चतुर्थदशायाम् ।
'पक्खियपोसहिएसु' इति । चूर्णिणयथा-पक्खियं पक्खियमेव, पक्खिए पोसही पक्खियपोसही चाउसिमदुमीतु य । इति पाक्षिकविचारः पञ्चमदशायाम् । उहिट्टा-अमावासा पश्चमदशायाम् ।
तत्थ णं जे से पावाए मज्झिमाए हस्थिपालरण्णो रज्जुयसभाए मच्छिमं अंतरावास वासावास उवागए, तस्सणं अंतरावासस्स जे से वासाणं चउत्थे मासे सत्तमे पक्खे कत्तियब हुले, तस्स ण कत्तियबहुलस्स पण्णरसी पक्खेण जा सा चरिमा रयणी, तं रयणि
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निःशेषसिद्धान्तविचार- पर्याये
चणं समणे भयवं महाबीरे कालगए वीरकंते समुज्जाप छिण्णजाइजरामरणबंधणे सिद्धे बुद्धे मुत्ते परिनिव्युए' इत्यादि । तथा, जं रयणि चणं समणे भगव महावीरे कालगए जाव सव्वदुक्खपहीणे साण रयणी बहूहिं देवेहिं देवीहि य ओवयमाणेहि य उप्पयमाणेहि य उज्जीविया आवि होत्था । तथा जं स्यणिं च णं समणे भगव महावीरे कालगए तं स्यणि जेट्टस्स अंतेवासिस्स गोयमस्स इंदभूइरस अणगाररस अंतेवासिस्स नायर पेजबंधणे वांच्छिण्णे अनंते अणुत्तरे जाघ समुप्पण्णे । जं स्यणि चणं समणे भगवं महावीरे कालगर तं स्यणि नव मलई नव लेच्छई कासीकासलगा अट्ठारस गणरायाणो अमावासार पाराभाष पोसहोपवास पहुविसु । गए से भावुज्जीप दव्युज्जायं करिस्सामा । जं स्यणि चणं समणे भयव महावीरे कालगए तं स्यणि च णं खुद्दाए भासरासी नाम महग्गहे दीवास सहरसाठई भगवओ जम्मनक्खत्तं सकते । जप्यभिइ चणं से खुद्दार भासरासी महग्गहे दोवाससहरसाठई समणस्स भगवओ महावीरस्स जम्मनक्खत्तं संकंते तप्पभि च णं समणाणं निग्गंथाण निधीण थ उइए पूयासक्कारे नी पवत्तइ । जया णं से खुद्दार भासरासी महम्गहे दोवाससहस्सटिई भगवओ जम्मनखत्ताओ बीते भविस्सा तया णं समणाणं निग्गंथाण उइए पूयासककारे पवन्तिस्स । जं स्यणि च णं समणे भयवं महावीरे कालगए जाव तं स्यणि कुंभू अणुद्धरी नाम समुपपन्ना जा ठिया अचलमाणा छउमत्थाणं निग्गंथाण वा निगंधीण नो चक्खुफास हव्त्रमागच्छइ । जा अठिया चलमाणा छउमत्थाणं निग्गंधाण वा निग्गंधीण वा चक्खुफास हब्वमागच्छा, जं पासित्ता बहूहिं निग्गंथेहि य निम्गंधी हि य भत्ताई' पञ्चकखायाई, किमाहु भंते ! अजपभिई दुराराहए सामण्णे भविस्सा |
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दशाश्रुतस्कन्धस्य विचाराः चूण्णा तु-तम्मि नायए पेजबंधणं नेहो तं वोच्छिण्ण । गोयनो भगवया पट्टविओ अमुगग्गामे अमुग बोहेहि । तहिं गओ वियालो य जाओ तत्थेव वुच्छा नवरि पेच्छा रत्ति देवसंनिवार्य उवउत्ती नाय जहा भयव कालगओ। ताहे चितेह-अहो! भयवं निश्पिवासी कहं वा वीयरागाण नेहो भवइ नेहरागेण य जीवा संसार अडंति। पत्यंतरे नाण उपनं । बारस वासाणि केवली विहरइ जहेव भयवं। नवर अइसय हा धम्मकहणा परिवारों य तहेव पच्छा अजसुहम्मस्स निसिरह गण दीहाउ त्ति काउं, पच्छा अजसुहम्मस्स केवलनाणं समुप्पन्नं । सा वि अटुवासे विहरित्ता केलिपरियारण अजजंबुनामस्स गण दाउं सिद्धि गओ इति ।
वीरस्स पकारस गणहरा नव गणा, दोण्ह दोण्ड पच्छिमाण पक्का गणा, जीवंते चेव भट्टारए नव गणहरोहिं अजसुहम्मस्स गणा निश्खित्तो दीहाउगोत्ति नाउ ।
इमीले औसप्पिणीए दूसमसमाए समाए बहुवीइकताए तिहिं वासेहिं अद्धनवमेहि य मासेहिं सेसेहिं पायाए मज्झिमाए हस्थिपालरण्णो रज्जुगसभाए एगे अबीए छ?ण भत्तेण अपाणएण साइणा नकावत्तेण जागमुवागरण पच्चूसकालसमयंसि संपलियंकनिसपणे पणपण्ण अज्झयणाई कल्लाणफलविवागाई पणपण्ण अज्झयणाई पावफलविवागाई छत्तीसं च अपुट्टवागरणाई वागरित्ता पहाण नाम अज्झयणं विभावेमाणे विभावमाणे कालगए जाव सवदुक्खप्पहीणे इति ।
अट्टमेण भत्तेण अपाणपण विसाहनक्खत्तेण जोगमुवागएण एग देवदूसमादाय तिहिं पुरिससरहिं सद्धि मुंडे भवित्ता अगाराओ मणगारिय पम्वइए पासेण अरहा इति 'सोपधित्व जिनानाम्' ।
सयमेव पंचमुट्टियं लोय करे २ छट्रेण भत्तेण' अपाणपण चित्ताहि नक्खत्तेण जोगमुवागरण पगं देवसं गहाय एगेण
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नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये पुरिससहस्सेण सद्धि मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वाए अरहा गं अरिटनेमी इति ‘सोपधित्व जिनानाम् ।
तेण कालेण तेण समएण भगवी महावीरस्स एकारस वि गणहरा रायगिहे नगरे मासिएण भत्तेग अपाणपण कालगया । जे इमे अजत्ताप समणा निगंथा विहरति सम्वे विणं एत्ता अजसुहम्मस्स आवच्चेजा अवसेता गगहरा निरवचा परिनिया । समणे भयवं महावीरे कासवगात्तण भगवओ महावीरस्स कासवगोत्तस्स अंतेवासी थेरे अजसुहम्मे अग्गिवेसायणे गातेण । थेरस्त अजसुहम्मस्स अतेवासी थेरे अजजंबुनामे कासवगोत्तेणं । अजजनामस्स कासवगात्तस्स अंतेवासी थेरे अजपभवे कच्चायणगाते थे। थेरस्स गं अजपभवस्स अंतेवासी थेरे अजसेज्जंभवे मणगपिया वच्छसगोत्तेणं । थेरस्त अजसेजभवस्स अंतेवासी थेरे अजजसभहे तुंगियायणगोत्तेण । थेरस्सण अजजसभदस्त अंतेवासी दुवे थेरे अजभद्दबाहू पाईणसगोत्त थेरे अजसंभूयविजए माढरसगात्तेण । थेरस्सणं अजसंभूयविजयस्स अंतेवासी थेरे अजथूलभद्दे गायमगोत्ते णं । थेरस्स णं अजथूलभहस्स दुवे थेरे, थेरे अजमहागिरी एलाबबसगाते ण अजसुहस्थी वासिट्ठसगोत्ते ण इत्यावली ।।
भगवओ महावीरस्स नव गणा एक्कारस गणहरा होत्था । से केण?ण भंते ! एवं बुच्चइ० जेट्टे इंइभूई गोयमगोत्ते ण पंच समणलयाई वापा, मज्झिमे अगिभूई गायमगाते ण पंव समसयाई वापर । थेरे वाउभूई कणि? पंच समगलयाई वाएइ, प्रयोऽपि सोदरा: इत्यर्थशेषः । थेरे अजवियत्ते भारहार गत्ते ण पंच समणसयाई वापा । थेरे अज हम्मे अगिवेसायणे गाते ण पंच समणसयाई वापर, थेरे मंडियपुने वासिष्टे गोत्ते णं अट्ठाईसमणसयाई वापइ । थेरे मोरियपुत्ते कासवे गोत्ते ण अट्ठाई समणसयाई वाएइ । थेरे अकंपिए गोयमे गोत्तेण थेरे अयलभोया हारियणे गोत्ते णं पए
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दशाgत स्कन्धस्य विचारा:
दोनिवि थेरा तिन्नि तिनि समणसयाई वाति, थेरे अजमेइज्जेथेरे अजपभासे पर दुण्णि वि थेरा काडिन्नागत्तिण तिनि समणसयाई वाति । से एपणट्टेणं एवं युच्च समणस्स भगवओ महावीरस्स नवगणा एक्कारस गणहरा हात्था इति गणविचारः ।
C
रस्स ण अजसुद्दत्थिस्स वासिट्सगोत्तस्स अंतेवासी दुवे थे। सुट्टियपडिबुद्धा कोडियका कंद्रगा वग्धावश्चसगोत्ता । थेराणं सुट्टियसुपडिबुद्धाणं काडियकाकंदगाणं वग्घ वच्चसत्ताणं अंतेवासी थे अजददिने कोसिए गतिणं । थेरस्स णं अजइंददिन्नस्स को सियसगात्तस्स अंतेवासी थेरे अजदिने गोयमगत्तिणं । थेरस्स णं अजदिनरस गोयमसगात्तस्स अंतेवासी थेरे अजसीदगिरी। अजसीह गिरिस्स अंतेवासी थेरे अजवइरे, अजवइरस्स अंतेवासी चत्तारि थेरा-थेर अजनाइले, थेरे अजप मिले, थेरे अजजयंते, थेरे अज्जतावसे । थेराओ णं अजनाइलाओं नाइलसादा निगगया । थेराओ णं अजपोमिलाओ पोलिसाहा निग्गया । थेराओ णं अजजयंताओ जयंतीसाहा निगया । थेराओ णं अजतावासाओं तावसीसाहा निग्गया ।
इति शाखास्वरूपम् ।
भूमीप अणंतरे संधारण कप अवेहासे पिवीलिगाइसत्तवहं । दीहजाईओ वा डॅसेज तम्हा उच्चो कायव्वा । वर्षासु संस्तारक इति शेषः ।
ओ परं पजोसवणोओ अहिगरणं वयर सो अकप्पा अमेरा निज्जूडियन्वो गणाओ तंबोलपत्रनायवत् ।
नो sour निर्माण वा निमगंथीण वा गोलोममेत्ता वि केसा तं रयणि उवाइणावेत्तप । अष्टमदशायामेते ।
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नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये दशम्यां तु-तपणं सेणिए राजा जाव सीहासणाओ अब्भुट्टे इ पायपीढाओ पञ्चोरुहइ २ जाव करयलसिरसावत्तं दसणहमत्थए अंजलि कट्ट एवं वयासी-नमोत्थु ण अरहताणं जाव सिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपत्ताणं । नत्थु णं समणस्स भगवा महाधीरस्स आइगरस्स जाव संपाविउकामस्स मम धम्मायरियस्स धम्मेवएसगस्स ।
तए सा चेलणादेवी जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छा २ समण भगवं पंचविहेण अभिगमेणं अभिगच्छद । सेणियरायं पुरमओ कट्ट ठिया चेव तिविहार पन्जुवासणाए पज्जुवासह ।
॥ इति दशाश्रुतस्कन्ध विचारा: समर्थिता: ॥ स्नातो लिप्तश्च गन्धी धृतसदशयुगो विद्यया कलप्तरक्षो मुद्रावान् दिक्पतिभ्यः प्रचुरतरबलि संयतः सम्प्रदाय । नन्दावत्तस्य पूजां तदनु वितनुते देवताककणारी पञ्चाङ्गो मन्त्रपाठो मलयजतिलकः पुष्पमालाधिरोप: ॥१॥ सप्तधान्यकरत्नाम्बु पश्चधात्वंऽगघर्षणम् । मृत्कषायाम्बुमाङ्गल्यमूलीवाष्णकमजनम् ॥ २ ॥ प्रतिष्ठादेवताहवान स्नानं आतिफलादिभिः । स्नान सौषधि स्नानी वासचन्दनकुङ्कुमैः ॥ ३ ॥ कर्पूरस्नानमुद्रासुरभिकरयुगालेप्यगोत्रानुलेप: पुष्पारोप: सपुष्पः प्रतिसरकरण वासनिक्षेपण च । वेदीन्यासोऽथ कृत्यः सदशयुगधृतासपिरापूर्णदीपा: देयाः सार्दा यवारास्तदनु बलिसरावाणि पूर्णो बलिश्च ॥ ४ ॥ देयो दिग्देवताभ्यो बलिरुदकयुतो भूतसाथै सधूप: वस्त्रच्छादस्तदन्तेऽञ्जलिभिरथ तथा सप्तशस्याभिषेक: ।। पुष्पारोपा विधेयस्तदनु पुनरिहारत्रिकं वन्दनं स्यात्यानां चाधिवास्य प्रतिकृतिविषयः स्यात्तथोत्सर्गमार्ग: ॥ ५ ।।
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प्रतिष्ठाविधिः
श्रुतदेव्यादि देवीनां कायोत्सर्गान् विधाय च । तत: पातालमित्यादि पठन् पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् ॥ ६ ॥
अयं अधिवासना-विधिः । कृत्वा शान्तिबलिं प्रणम्य च जिनान् धूपं क्षिपेदादरादांसादस्तदनन्तरं चलजिने दर्भाद्यधः स्थापयेत् । अन्यस्यास्तु कुलालचक्रकमृदा युक्तं च रत्नासन स्थाप्य मन्त्रयुत स्थिरीकृतिकृते मन्त्रं न्यसेदादरात् ॥ ७॥
सौवीरमधुसर्भीि रूप्यकञ्चालकस्थितैः । नेत्रोन्मीलन कुर्यात् सूरिः स्वर्णशलाकया ॥ ८ ॥ धूतपूरितकचोलकदधिभाण्डादर्शदर्शन चैव ।
सौभाग्यमन्त्रपवन मुद्रासौभाग्यपदपूर्वा ॥ ९ ॥ कपूरचन्दनसमालभन प्रतिष्ठा
मन्त्राभिमन्त्रितमथापि च पुष्परोपः । वासान् क्षिपेत् तदनु धूपविधि विध्यान्
मन्त्र न्यसेत् पुनरिय खलु चक्रमुद्रा ॥ १० ॥ धूपोग्राहणबहुर्षालचन्दनतिलका भवन्ति कर्तव्या: । दध्यक्षतावमिणने कार्य चतुरादिभिः स्त्रीभिः ॥११॥ कर्तव्या लवणावतारणविधिः पश्चात्तथाऽऽरत्रिक भतेभ्य: प्रचुरो बलि: पुनरधो रत्नासनस्थापनम् । अस्मिंश्वोपविशन्तु तीर्थपतयो जातप्रतिष्ठां पठन् पुष्पाणोमिह चाञ्जलि प्रतिक्षिपेदेव पठश्चादरात् ॥ १२ ॥ इदं पुष्पं गृह्णन्तु जिना इदं पुष्पं गृह्णन्तु जिना इति । श्रुतदेव्यादिदेवीनां कायोत्सर्गान् कुर्यात् । जह सिद्धाणं पट्टा तिलायचूडामणिमि सिद्धिपए । आचंदसूरिय तह होउ इमा सुपट्ट त्ति ॥
॥ अयं प्रतिष्ठाविधिः समर्थितः ।
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निःशेषसिद्धान्तविचार- पर्याये
'जे छेए सागारियं न सेवइ, एवमवि आणओ विइया मंदस्स वालया' इति । वृत्तिस्तु रहसि मैथुनं कृत्वा पुनर्गुर्वादिना पृष्टः सन्नपलपति, तस्य चैवमकार्यमपलपतोऽविज्ञापयतो वा द्वितीया मन्दस्य - अबुद्धिमतः एकमकार्यासेवनमियं बालता - अज्ञता, द्वितीया तदपह्नवन मृषावादः । आचारपञ्च माध्ययन प्रथमोद्देशके ।
जाणिय त टणपण हुइ विसुत्तस्स मैथुनि पावइया मूलु । श्रावापरायर आरवणजा तह उववासु । परदारि अवधूतियह जाता पकवार दस उववासा । कुलवहु परदारियह सउ उववासु । आणिउ लाकि वित्तहसउ । प्रधानकुलपुत्री राजपुत्रीमद्दत्तमपुत्री सार्थवाहयेष्ठिपुत्री लोकि अजाणियउं असिउ सउ उववासह । लोकि टणपण उहूयउ मूलु । परिग्गहि नवहि ठाहेहि जाणंतर अतिक्रम करइ नवहि ठापहि उव० १० । सव्वा विभंजर उब० १२० । रात्रिभोजन असणखाइम जाणतउ निक्कारणि करइ परिभोगु उव० ३ पावईया मुकसंनिहि छ । आर्द्रसंनिधि कांठउ देारउ मुद्दतीत्रेपणइ पात्राबंधि पात्र खरडियर वासियह उव० १ । सोलहि परिसिद्दि उबवासु । अहि पुरिमइदेहि उव० १ । इति प्रायश्चिरो ।
( सम्प्रदाय लिखितमिदम् )
पश्चवस्तुकस्य यथा
चिदण १ रयहरणं २ अट्टा ३ सामाइयस्स उस्सगे ४ । सामाइयतियकढण ५ पयाहिणं चेव तिक्खुत्तो ॥ १२५ ॥
मुहपोत्तिय १ रयहरणं २ दोणि निसेजाउ ४ चालपट्टो य ५ । संथारुत्तरपट्टो ७ तिष्णि य कप्पा मुणेयव्वा १० ॥
केई भांति एक्कारसमा दंडओ ।
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पशवस्तुकस्य विचारा: अप्पडिलेहिय दोसा आणाई अविहिणा वि ते चेव ।
तम्हा उ सिक्खियव्वा पडिलेहा सेवियव्वा य ॥ २६२ ॥ 'द्रव्यपरिच्छेदपूर्वक' मिति द्रव्य-वासा: । मा हासिष्ट 'ओहाक त्यागे' मा योगे सिच अद्यतन्यां प्रयोगः । 'गलप्रव्रजिताऽविधिपरिपालनादिना' इति । मिष्टान्नादिना गलप्रवजितस्य अविधिपालनादिना । नि!हक:-गवाक्षः ‘पहवते' प्रभवति विद्यमाने । 'तानऽन्विषतो' तानऽन्तान् । किकिसिंघाण-जीवविशेषः । 'अम्हं पुण नत्थि' एतन्मतमिति शेषः । भाणकाणा:-पात्रबन्धकाणा: । 'ताहे उवओगं बच्चा पंचहि' इति । पञ्चभिः- पूर्वोक्तैः स्थानः । 'मुहणंतपण अंतो तिणि वारे पमजइ' त्ति । मुहतणंपणं-केसरियाए । तिणि बारे-त्रिगुणान् । धारण पात्रस्येति आत्मप्रत्यासन्नीकरण । 'रयत्ताणं च विटणय संवलित्ता धारिजा' आत्मसमीपे ध्रियते । 'न निक्खिप्पड़' त्ति न निक्खिप्प दूरे व्यवस्थाप्यते। ऋतुबद्धे कोले । 'वर्षासु पुनः अबन्धन उपधेः स्थापना च पात्रस्य' दूरे विराधनादि तश्च प्राप्नोति निक्षिप्तेन दुरे व्यवस्थापितेन । बाहिरकप्प-कम्बलम् ।
'जस्त य जोगा' त्ति जई न भणंति न कप्पई तओ अण्णं ।
जोग्ग पि वत्थमाई उवग्गहकर पि गच्छमि ॥ २९५ ॥ कालोचितानुकुलानपायित्वात् यस्य च योग इति । यस्य च घनादेर्योग:- प्रवचनोक्तेन विधिना सम्बन्धः-प्राप्तलक्षणः ।
हिडंति तओ पच्छा अमुच्छिया पसणाए उवउत्ता । - दवादभिग्गहजुया मोक्खट्टा सव्वभावेण ॥ २९७ ॥ 'आवश्यिक्या यस्य च योग' इति भणित्वा ततो निर्गच्छन्ति । पसतिप्रवेशे।
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नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याय
पायपमजण १ निसीहिय २ अंजलि ३ दंडुवहिमक्खिण ४ विहिणा । साहिं च करिति तओ उवउत्ता जायसंवेगा ॥३११॥ एवं च पडुप्पण्णे पविसओ य तिणि उ निसीहिया इंति । अग्गहारे मज्झे पवेसणे पायऽसांगरिए ॥ ३१२ ॥
एलुगा-उबर । ताडाआ-ठाणाओ । यतेरेकस्मिन् पात्रे भक्तं द्वितीये पात्रे जलं ग्राह्य, तृतीये तु मात्रके संसक्तभक्तादिशुद्धिः । ओलंबयं-मात्रकं । ओगाहणय-पात्रं । प्रतिसेवना-लघवः प्रथम आलोच्यन्ते, ततो गुरव इति लक्षणा । पुनरकरणरूपा विकटना तु आलोचना । कायिकादीयोपथिका-योगात्सर्गादिका । अकारकदोषः अपरिणतिदोषः अप्रावृतोपघात इति पश्चाद् भाग: अप्रावृतो यत इति पृष्ठावलोकनं कार्यम् ।
'चउरंगुलमप्पत्तं जाणु हेट्ठाऽछिवावरिं नाभि ।
उभओ कोप्परधरिय करज पट्ट व पडलं वा' ।। ३१८ ॥ भिक्षाकायोत्सगे नमस्कारः । 'जह मे अगुग्गई कुजे' त्यादि गाथा वा ।
'इच्छेन्ज न इच्छेज व तह वि य पयओ निमंतए साहू । परिणामविसुद्धीप निजरा हाअगहिए वि' ॥ ३४६ ॥ लाटपञ्जिका-घयनमात्रम् । धम्म कहण्ण कुज्ज संजमगाह च नियमओ सव्वे ।
पदहमेत्तं वऽण्ण सिद्धं न मि तिमि ॥ ३५२ ॥ भाषाऽऽसण्णा-असहत्वं । 'ओगाहित्ता पाणयं गिण्हइ' त्ति । मात्रकम् अवगृह्य । महति वैक्रिये इन्द्रिये-लिङ्गलक्षणे । तत्रान्यत्र वा पुञ्छेत्अधः स्थानिका निर्लेपनं कुर्यात् । मत्तग विसोहावणनिमित्त लूहेवं इति शेषः । तृतीयपौरूष्यां 'घ्राणाशीसि' नासिकायां स्युरित्यर्थः ।।
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कालो गायरचरिया जिल्ला पत्थपत्ताडिलेहा । संभरऊ सो साहू जस्स व ज किचि गुवउत्तं ॥ ४४५ ॥
यत् किश्चिनुपयुक्तं तत् स्मरन्तु इत्यर्थः । विगिचणयापारिद्वापणिया । उपस्थापना गाथा यथा
हिंगय णाउस.ग्ग बामगपासंमि वय तिगेवक । . पायाहिणं निवेयण गुम्गुणादसि दुविह तिविता वा ॥ ६६७ ॥ मभिगतं शात्वा शिष्यं कायोत्सर्ग कुर्वन्ति गुरवः वामपार्श्व शिष्य स्थापयित्वा श्रीन् वारान् एकै पन्ति, पुनः प्राक्षिण्य नमस्कापाठेन, निवेदनं-युष्माभिरपि महावतान्यारोपितानि इत्यादिलक्षण, गुरुगुणैः वर्द्धस्व सूरवचः, विकद्विधा त्रिधा घा। अन्यकरणापपत्तेःपार्श्वस्थानमित्तकरणोपपत्तेः ॥
'सारणमाइविउत्तं गच्छ पि हु गुणगणेण परिहीणं ।
परिचत्तनावग्गे। चपज तं सुविहिणा ' ॥ ७०० ।। स्पर्शनानुपघातात - वनस्पर्शेन लिविकारलक्षणस्य उपघातम्याभावात् । 'वेटवेधादिना वातिके च उच्छ्ने' इति क्वापि देशे विण्टकेन विध्यते लिइगं। मातृग्राम:-स्त्रीजन: । 'माऽप्रयोगे सुखशीलतया, असम्यग् योगश्चायोगतोपि अपर:-पापीयानि 'ति असम्यगनुयोगोऽननुयोगादाप पापीयानित्यर्थः । आवश्यकादिसूत्रस्य यावत् सूत्रकृतं द्वितीयमङ्गं तापदि' ति सूत्रकृतं यावत् सामान्योऽपि पाठ्यते इत्यर्थः । नालबद्धवलिः-स्वजनवर्गः । निरुवस्य-निरोधस्य तपाविशेषस्य । प्रज्ञापकथन भावारिति : वाख्य तृव्याख्येयया: लक्षणमित्यर्थ । काय सगै कुवं यनुयागना म्भार्य तत् समाप्तो च सर्वेऽपि पुनरपि गुरुमेव धन्दन्ते, अन्ये पुनः प्राः ज्येष्ठार्थोऽपि पन्दनीयः य: चिन्तनां कारपतीति शेषः ।
बिम्बप्रतिष्ठा स्वरूपं यथानिफण्णस्स य संमं तस्स पट्टावणे विही एसो । सट्टाणे सुजांगे अश्विासणमुचियपूयाए ॥ ११३२॥
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चिइर्वदण थुखुड्ढी उस्सग्गो साहु सासणसुराए । ययसरणपूयकाले ठवणा मंगलपुवा उ ॥११३३ ॥ (भव्य इत्यर्थः) विविहनिवेयणमारत्तिगाह धूवथयवंदण विहिणा ।
जहसत्ति गीयवाइय नश्चणदाणायं चेव ॥ ११४२ ॥ (नैवेद्यमित्यर्थः) 'विशेषपूजाया दिगादिगताया' इति । पकाचार्यस्य धर्मप्रतिबोधकादेः या पूजा सा दिगादिगता ।
जइणो वि हु दश्वत्थयभेओ अणुमोयणेण अस्थित्ति । पयं च इत्थ नेयं इय सिद्ध तंतजुत्तीए ॥ १२१० ॥ मोसरणे बलिमाई न चेहज भयवयावि पडिसिद्धं ।
ता एस अणुण्णाओ उचियाण गम्मई तेण ॥ १२१३ ॥ उचितानां गम्यते तेन द्रव्यस्तषः । अनेन पलिरुक्तः । अग्राहार: द्विजग्रामः ।
'धण्णा निवेसिजद धण्णा गच्छति पारमेयस्स । गंतुं इमस्स पार पार दुक्खाण वर्षति' ॥ १३४८ ॥ इयरे वाऽऽणा उ चिय गुरुमाइ निमित्तओ पदविणं पि । दोसं अपेच्च्छमाणा अडंति मज्झत्थभावेण ।। १४७६ ।।
। प्रतिदिन मिति दोषः ॥ सुयबझायरणरया पमाणयंता तहाविहं लोयं । भुवणगुरुणो वरागाऽपमाणयं नावगछति ॥ १७०८ ॥
॥ इति पञ्चवस्तुकस्य गाथा: पर्यायाश्च समाप्ताः ॥
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परिशिष्टम् पत्तो य लहुयबंधू रहनेमी नाम नेमिनाहस्स । अरिष्टनेमि-चरिते । तम्हा सिद्ध य न कारवेजा अणुवरणमिलका (१) । निशीथचूौँ ।
वंदेण इति निभी जुव मरू थेर इस्थिजोपणं । न य ठंति नाडप जे अह ठंति न पेहगाई (१) ॥
प्रेक्षणकदर्शनविचारः। 'संवच्छर वावि परं पमाण' इत्यादिगाथाव्याख्या यथासंवत्सरं वाऽवि। अत्र संवत्सरशब्देन वर्षासु चातुर्मासिको ज्येष्ठावग्रह उच्यते । तमप्यपिशब्दान् मासमपि पर प्रमाण वर्षाऋतुबद्धयो: उत्कृष्टमेकत्र निवासकालमानमेतत् । द्वितीयं च वर्ष चशब्दस्य व्यवहित उपन्यास: । द्वितीय वर्ष वर्षालु चशब्दान्मासं च ऋतुबद्ध न तत्र क्षेत्रे वसेत् । यत्रैको वर्षाकालो मासकल्पश्च कृतः । अपि तु संगदोषात् द्वितीयं तृतीय च परिहृत्य वर्षादिकाल ततस्तत्र घसेदित्यर्थः । दशवैकालिकम्।।
तत्थ णं तुंगियाए नगरीए बहवे समणोवासया ण दित्ता जाव अपरिभूया अहिगयजीवाजीचा उवलद्धपुण्णपावा जाव बहूहि सीलवयगुणांवरमण-पञ्चरखाण-पोसहावयासेहि च उद्दसट्र-- मुहिट्ठपुण्णमासिणीलु पडिपुण्णं पोसह सम्मं अणुपालेमाणा समणे निगंथे फासुयएसणिज्जे ण जाव पडिलाभेमाणा विहरति । तए णं पासावञ्चिजा थेरा भगवंतो जाव पंचसयपरिवारसहिया तुंगियाए मयरीए पुष्फवइए चेइए जाव समोसढा । तए ण ते समणोवासया जाव व्हाया जाव सुद्धपावेसाई मंगल्लाई वत्थाई पवराई परिहिया जाव साओ साओ गिहाओ निग्गच्छति निग्गच्छित्ता एगओ मिलाइंति मिलाइत्ता पायविहारचारेण निग्गच्छति जाव थेरा भगवंतो पंचविहेण अभिगमेण अभिगच्छंति, तं जहा- सचित्ताण दवाणं विउसरणयाए, अचित्ताण अविउसरणयाए, पगसाडीपण उत्तरोसंगकरणेणं, चक्खुफासे अंजलिपगहेणं, मणसो एगत्तीभावकरणेणं ।
अड्ढा
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परिशिष्टम् जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छंति उवाच्छित्ता तिक्त्तो आयाहिण पयाहिण करति करित्ता वंदति नमसंति जाव तिविहाए पज्जुघासणाए पज्जुवासंति । भगवइए भणियं । एवं उवाइए राप्रपसेणए नायधम्मकहाए एवमाइ बहुएदि गंथेहिं भणियं ।
दारवइए नयरीए कण्हे वासुदेवे जाव भगव' अस्टुिनेमी पुच्छिओ अढारसमणसाहस्सीओ कारेण वंदणे वदामि । दुबालसावत्तेणं वंदाहि । आवस्सगचुणी भणय सोयरीए नयरीए पपसीराया केसिं कुमारसमण पंचविहेण अभिगमेण वंदइ खामेइ । एवमाइ अण्णे बहवे समणोबासया पंचविहेण अभिगमेण बंदति नमसति ।
जे भिक्खू सगणेच्चियाय वा परगणेच्चियाप वा निगंथीए सद्धि गामाणुगाम दुइजइ आवजाइ चउमासियं परिहारट्टाणं ।
सयमेव आभरणालंकार ओमुयइ ओमुयत्ता सपमेव चउहि अट्टाहि लोयं करित्ता हटेण भत्तेण उस भेणं अरहा संवच्छर साहिय चीवरधारी होत्था । तेण पर अचेलए । जंबुद्दीवपण्णत्ती ।
पच्छिमे तिभाए पण्णरस कुलगरा- संमुई, पडिलुई, सीमंकरे सीमंधरे, खेमंकरे, खेमंधरे, विमलवाहण, जसम,ऽभिचंदे, चंदाभे, पसेणइ, मरुदेवा, नाभी, उसमे। हनीई मा ठि जंबृद्दीवपण्णत्तीप ।
रुप्पं टकं विसमाहयक्खरं नवि य रुवओ छेओ। दोण्हपि समाओगे रूवो छेयत्तणमुवेइ ॥ उस्सग्गेण जहिं ब्यलिंगं भावलिंगं च अस्थि सो वंदणिज्जी। जहा-रूवर्ग, जत्थ सुद्धं टंक समक्खर सो छेको भवति । रुप्प जत्थ सुद्धं रंक विसमाहयक्खर सो वि रूवगो छेओ न भवइ, रुप्प जत्थ असुद्धं टंकपि असुद्ध सोपि सुतरां छेओ न भवइ किंतु जत्थ दुण्णि वि सुद्धाणि सो छेओ । एवं सो संव्यवहार्य इत्यर्थः । जत्थ उभयमवि अस्थि । एत्थ य
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বিত্তি रुप्प पत्तेयबुहा टंकं जे लिंगधारिणो समणी । दबस्स य भावस्स य छेओ समणो समाओगे ॥११३९।। एत्थ य रुप्पगत्थाणीया पत्तेयवुहा जया वा दवलिंग नत्थि त्ति न कोइ ते पणमेइ । भणियं च
दिह लिंगमप्पमाणं ? उप्पण्णे केवले विजं नाणे ।
न नमति जिण देवा सुविहियनेवत्थपरिहीणं ॥ 'किह लिंगमप्पमाण ?' गाहा- जया वा दवलिंग गहियं तया नमिजंति । टंकशाणीया निण्हगा । सबर्ग तेवि रयहरणगोच्छपडिग्गहधारी तहवि मिच्छविही जे पासत्थाइ तेहि भगवओ लिंगं गहियं न पुण सव्वं अणुशालिति त्ति । विसमाहयक्खरा अहवा संविग्गा वि जया निकारणे पाउयाहिं हिंडंति । एवमाइ तो विसमाहयक्खरा एवमाइ विभासा । आवस्सगचुणि ।
दिवसउ पाउओ हिंडइ । पंचकल्पचूर्णिः । गिहत्थवेसे मूलं पकार वा राए गिहालिंगे। कल्पे । अद्धंसका एकं संजइपाउएवं सीसदुवारियाए.......मासो भण्णा पगं अहोरत्त बुद्धीप बावट्रिभागे छेत्ता तस्स पगसटिभागा चंदगइए तिहीसमत्तीए ? भवइ । कह पुण एय उच्यते जाह अट्ठारसहि अहोरत्त सएहि सपहि।
.......या तीसुत्तरा लभंति तो एकेन अहोरत्तेण किं लभामो ?। एवं समीयकम्मए कप आगयं । एसट्टि बावटिभागा अहोरत्तस्स य। सा एगसट्ठी तीसा तिहीहिं मासो भवइत्ति तीसाए गुणेयव्वा ताहे इमो रासी जाओ। १८३० । एयरस एगसट्ठीए भागो हायवो लद्धा तीस तिही । एवं एसो उउमासो निष्फनो । एस चेव कम्ममासो सावनमासी य लब्भइ । एस चेव रासी बावट्ठीहिए चंदमासो वि लम्भइ । निशीथग्रंथे ।
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परिशिष्टम् निरयावलीश्रुतस्कन्धपर्याया यथा--विहर इ-आस्ते । अदरसामंते. न च दुरे न च समीपे । उड्ढे जाणु-उत्कुटुकासन: । 'वंदइ नमसइ'त्ति । धन्दते स्तुत्या, नमस्यति प्रणामत: ।
'चंदगस्स रणो सपक्ख' इति । समानपक्ष समानपाधै समवामेतरपार्श्वतया । सपडिदिसिं-सप्रतिदिक् । अभिमुखागमेन हि परस्परस्य समावेव दक्षिणवामपावों भवतः ।
'एगाह कूडाहच्च' इति । अकैव आहत्या हननं-प्रहारो यत्र तत् अकाहत्य कूटस्येव-पाषाणमयमहामारणयन्त्रस्येव आहत्या हननं यत्र । सोल्लिएहि य पक्कैः । तलि अहि य-स्नेहेन पक्वैः । भजिओहि य-भृष्टैः । पसन्न-द्राक्षादिजन्यासव-प्रसत्तिहेतुः । ओलग्गाअवरुग्णाभग्नमनोवृत्ति: उलग्गसरीरा-भग्नदेहा, नित्तेया-गतकान्तिः । दीणविमणवयणादीना विमनोवदना । पंडुल्लुयमुही-पांडुलितमुखी । ओमथिय-अधोमुखीकृतं, रुहिर अप्पकप्पियंति-आत्मसमीपस्थं । दारगस्स अणुपुन्विणं ठिइपडियं चेति। स्थितिपतितं-कुलक्रमागतं पुत्रजन्मानुष्ठान।
घातेउकामेण अम्मो इति । हतुकामः । पीइ अलोवेमाणा अलोपयन्तः। खंडयाविहूणो-छात्ररहितः। मित्तनाइनिययादओ विउलेणं ति । मित्राणिसुहृदः, नातयः-समानजातय, निजका:-पितृव्यादयः सम्बन्धिनःश्वसुरपाक्षिका: । भोगभोगाई भुंजमाणीत्ति। अतिशयवन्त:शब्दादीन् । अजाहि अणाहहिया इति । यो बलात् हस्तादौ गृहीत्वा प्रवर्तमान निवारयति सोऽपघट्टकः तदभावात् अनपघट्टकः ।
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द्वितीयः खण्डः ।
पर्याया लिख्यन्ते यथा-आचारे शस्त्रपग्शिायाः उद्दे० ४मुक्तक-मुत्कलम् । उद्दे० -ज्योतिष्मती-कांगुणी। 'मरणदुक्खमाभा' इति अभयमित्यर्थ: उद्दे० ६-'संवर्तितलेोकप्रतरासङ्ख्येयभागवर्ति प्रदेशराशिपरिमाणाःत्रसपर्याप्ता:'। एतच्च मानं स्वावगाहनया द्रष्टव्यम् अन्यथा विरोधप्रसङ्गात् । गुदकीलिका-हग्सि । शीतिका-ऊटिका । सामिदग्धनगरम् - अर्द्धदग्धम् । केसराणि-कुङ्कुमकेसरव्यतिरिक्तं हट्टद्रव्य समाप्तं प्रथमाध्य्यनम् । द्वितीयेऽध्य यने प्र० उद्दे०-स्यात्पदरूपं यत्सयं (यदव्ययं) तेन लाञ्छिता:। जातिरसः-सहजरसः । हृषीकानि - इन्द्रियाणि । कलम्बुकापुप्पंकाहलिका । न ताव रिको-न निराकुलः । उद्दे० २-मुक्तोली-मोट्टा। उ० ५-सिता-शर्करा । अबस्कन्दादिना-धाटीप्रभृतिना। तृतीयाध्ययने उद्दे० २-कालप्रष्ठादय: म्लेच्छादयः । पुषीफलनिबन्धनं-कटुकककटीविष्टम् । अध्ययने ५० उ० १-देशे आम्रवृक्ष: वेणुर्वा' स्वक सारत्वादनयो: । कुरुकुचादिभि:-गण्डूषैः । कल्कतपसा-शठतपसा। उ०२-पस्य बत्वं-पकारस्य वत्वम् । चकति-बिभेति । स्तेनकुलिङ्मादीनां-चौरकुलिङमादीनां । उ०४-जाम्बाल.-मूत्रपुरीषदभवं कदमम् । गदागदकल्पस्य-मान्द्यौषधीकल्पस्य । 'जहा दियापायमपक्खजायं' इत्यादि-गाथार्थो यथा-दियापायं-द्विजपातम्, अजातपक्ष स्वाश्रयात् उत्पतितुकामं तं पक्षिणं, अचाइया-अशक्नुवन्त, तरुणं-बालम् । अ.वील:-तम्बोलः। अनपाचीनमार्ग:-उत्तममार्गः । अधीतान्विक्षिकीकस्य अधीततर्कादिविद्याश्रयस्य । षष्ठाध्ययने उद्दे० १-एकान्तरिते-एकेन 'उयरि चे' त्यनेन पदेनान्तरिते मूई (यं चेत्यस्मिन् पदे मूक इति ज्ञेयम् । विच्युशब्देन ककलासाकृतयः जीवा उच्यन्ते । अम्बरीषाभाण्डः । उ०२-'अपरिमाणाये' त्यव्ययं दीर्घकालार्थे यथा चिरायेति । दीप्तजिह्वादयः-शृगाल्यादयः । उ० ३
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निःशेषसिद्धान्तविचार-पर्याये 'निम्माणेइ परो चिय अप्पाणउ न वेयणं सरीराणं । अप्पाणुच्चिय हिययस्स न उण दुक्खं परो देइ ' ॥१॥
अस्या अर्थो यथा-निर्मापयति वेदनां परः सरीराणं-शरीरस्यैव आत्मनस्तु न वेदनां परः क-तुं समर्थ: । हृदयस्य तु 'अप्पाणुच्चिय' आत्मैव दु:खं ददाति न तु पर इति गाथार्थ: । सपुटं-विषमोन्नतम् । 'आँ' इति एवंपर्यायः । अवरुग्णवाहनानां-भग्नवाहनानाम् । मीमांसाअविचारणा । उ०. ४-कृत्स्नं वाङ्मयमित' इति । इतो-मत्सकाशात् निर्गतमिति जल्पति । 'क्रीउनकमीश्वराणां' गर्वाध्मातजल्पक: क्रीडनकं जायते । 'गन्तुं तत्थऽचय तेो' अशक्नुवन् । उ०. ५क्षीबा इव-मत्ता इव । अष्टमाध्ययने उ०१ ऐतिह्यम्-अनादिवार्ता । ' अथवा अलोकोऽस्ति न च लेोको भवति, लोकोऽपि नामास्ति, न च लोका लोकाभाव इत्येवं स्यादनिष्टं चैाद'त्यत्रार्थो यथा-अथवेति पूर्वोक्ताद्विपर्य येणायोज्यते-पूर्व हि लोकोऽस्ती'त्युक्तं अत्र 'त्वलोकाऽस्ती' त्युच्यते । ततश्चात्रापि अस्तिना सहसामानाधिकरण्यात् यदस्ति तत्सर्वमलोक: स्यात् 'नच लेोका भवतीति कश्चनापि न प्राप्नोतीत्यर्थः। अथवा अलोकप्रतिपक्षभूतो 'लोकोऽपि नामास्ति' परं न स लेोकः प्राप्नोति किं तर्हि लोकाभाव अलोक एव स्यादित्यर्थ: । अथवा 'न चेति पाश्चात्येन पदेन सह सम्बध्यते, तद्यथा-लोकोऽपि नामास्ति परं न भवतीति तर्हि किं स्यादित्याह-'लोका लेोकाभाव' इति । लोकः सत्रलोक एव स्यादित्यर्थ: तस्याप्यस्तित्वेन व्याप्तत्वादित्यर्थ:। किश्चास्य व्याप्यस्य व्यापकत्वे सति लोकस्येत्यर्थः । द्विवचनबहुवचने अप्यायोज्ये वक्ष्यमाणसूत्रजाते इति शेषः । अध्ययने ९- किमिय.कस्यायं किमिय: । उपपति:-पारदारिक : ।
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द्वितीयः खण्डः गई भदृष्टान्तोऽपि यथा
सुश्रान्तोऽपि वहेद् भारं शीतोष्णं च न विन्दति ।
सन्तुष्टश्च भवेनित्य - माचरेत्त्रीणि गर्दभात् ॥ १ ॥ पटवासा-देवगन्धविशेषाः । निःश्रेोत्रम्-औषधविशेषः । मथु:-बदरचूर्णादिकम् । द्वितीयश्रुतस्कन्धकदशमोद्देशके-' तं नो वि (हि)त्ति वएज्जा नो हं दह (अणिहि) त्ति वएज्जा' इत्येतौ शब्दौ परुषार्थों 'अन्नं वा फरुसं न वइज्ज' त्ति चूण्णिवचनात् । उपचर:-चौरसमीपस्थः । संस्तारकमपवर्तकम् उटकं इत्येकार्थाः । दूमियवसही-धवलिता । अंतेण वा-अन्ते इत्यर्थः । मझेण वा-मध्ये । तृतीये सप्तककेसेचनपथो निक्का कुल्ही इत्येकार्थाः । प्रलेह्या गवादनी खाणस्थानमित्येकार्थाः । पात्रं समाधिस्थानं विष्ठामूत्रभाजनमित्येकार्थाः । 'चरियाणि' - गृहप्राकारान्तराणि 'डिंबाणि' - डमरविशेषाः । 'संतसावएग्ज'-सत् स्वापतेयं संवलकमित्यर्थः ।
॥ इत्याचाराङ्गस्य पर्याया: समाप्ताः ॥ सूत्रकृताङ्गपर्याया यथा-सवामगंधं-आधार्मिकम् । पुद्गला: संस्कारा: क्षेत्रशा आत्मान इत्येकार्थाः । जहन्भपडलस्स-अब्भोडिङ्गकस्येत्यर्थः ।
'सत्तऽद्धतरू विसमे न मेहया ताण छट्ट नहजलया ।
गाहाए पच्छद्धे भेओ छट्ठोत्ति एक्ककलो' ॥ एतद् गाथालक्षणम् अंशन्यसनेन ज्ञेयम्, अर्थस्तु यथा-सप्त मात्रा गणा ज्ञेयाः, अर्द्ध तरुगुरुच्यते, स च भवति, विषमे न मेधकागुरवः षष्ठे स्थाने किन्तु नभोजलदा: लघुगुरवः इत्यर्थ: । वाममागोंदर्शनविशेषः । सूर्यसम्भेदिनोऽन्ये-सूर्यादुपरि स्वर्ग यान्तीत्यर्थः । त्रैराशिका-गोशालकमतानुसारिण एवोच्यन्ते । अध्ययने द्वितीये वैतालीयम्
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निःशेषसिद्धान्तविचार- पर्याये
वैतालीयं लगनेधनाः पडऽयुपादे समे चलः । न समोऽत्र परेण युज्यते मेतः षट् च निरन्तरा युजाः ॥ अंशकान् न्यस्य ततो मात्राभिर्वैतालीयलक्षणं ज्ञेयम् । अर्थस्तु-लगरा- लघुगुरवः सर्वत्र निधने कार्याः षट् च कला: अयुकूपादे - विषमपादे, अष्टौ तु मात्रा: समे पादे कार्या: । तथा ल-लघुः समःसमपादोद्भवो न परेण युज्यते लघुना सह न हतां हेतो: पट् निरन्तरा लघवः कार्या युजी. - समपादयोरिति वैतालीयलक्षणार्थ: । समीतरुपत्र : - समीतरुपत्रवत् स्तकिमुपायैते पुण्यं शाकतरुपत्रवन्त्र बहुतरं पातं गच्छति । उत्प्रेरक (क्ष) ण: - आभाषकः । कुकुटसाध्यः - मायासाध्यः ' दंडकलियं करिता' इत्यादिगाथार्थो यथा-दंडकलि - दण्डरीतिं कुर्वाणाः । यथा कोलिकदण्डे व उद्वेष्टयते निखिलमपि तथा आयुरुद्वेष्टयन्तः वासरा प्रयान्तीत्यर्थ: । कण्हस्स पिउच्छपितृष्वसा । पियपुत्तभायकिडगा - कृतक यात्रादिव्यपदेशतः पते प्रच्छनपत इत्यर्थः । ' न य तुष्पिज्जइ घयं व तेलं वा न तुष्पिजइन चोपडिजइ । टकवस्तुल इति नाम । 'लोहिकुंथुरुबाई ' ति । लेकुिन्वा जन्तुविशेषाः । समबयरमाणा-आलिप्यमाणाः । क्षौद्रेणचूर्णविशेषेण | सौंडीयम् - आपद्यऽविषण्णता । द्वितीयभूतस्कन्धेडिव :- परानीकशृगालिका भयमित्येकार्थाः । डमरं स्वराष्ट्रक्षोभः । पुष्करिणी- तामरूपा । धर्मलाभादिकं द्रम्मादिकम् । यूरिया का खुलका इति जङ्घाद्यवयवधिशेषाः । दशार्द्ध गुरुजी माष: । (खड्ग ) खेटको असिफरकों । खविशदमभ्यवहार्ये - सुकुमारिका मोदकादि । अर्भकः - बालः । कुहणककरदुकादयः- प्रत्येक वनस्पतिविशेषाः वर्षाछत्रादयः । गंडी - अविरणि काष्ठम् । अन्भवालुय - अभ्रक मिश्रबालुका । अध्ययने ४- अपूर्वाया अभावात् अपूर्व जीवोत्पत्तेरभावात् । अध्ययने ६- अत्यङ्गानि - प्रधानानि । 'संसारमोचकादीनामपि इति । ये
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द्वितीयः खण्डः मारितोऽयं वृद्धादिः सुखी भविष्यतीति वुद्ध्या व्यापादयन्ति तेषां म्लेच्छादीनाम् । आततायिनशब्देन गोधातकादयः षद उच्यन्ते । 'अकल्ककुहकाजीवनं' कलकः-पापं कुहक:-मायागोलकादिकः ताभ्याम् आजीवनं यत्र नास्तीत्यर्थः । 'व्रतेश्वरयागविधानेने 'ति । व्रतार्थम् ईश्वरस्य यागविधानं तेन । अध्ययने ७-'गतं न गम्यते तावदगतं नैव गम्यते' इत्यादिश्लोकार्थस्तु यथा-अतीतगमनक्रियं वस्तु न वर्तमानक्रियायुक्तं भवति, अगतम् अनागतक्रियं न वर्तमानक्रियं भवतीत्यर्थः । इति सूत्राकृताङ्गपर्यायाः॥ स्थानपर्याया यथा-वैशा-जाड्यम् । आश्रवणक्लेदने लालानिर्गमार्द्रताकृत् अम्ल इत्यर्थः। रिषभसेनःपोण्डरीकः । ठाणे २-खण्ड: सण्डः कलहोडकः । उक्षा-सम्बन्धनम् । अत्थवावणं-अर्थव्यापनम् । 'गणहरथेराइकयं' इत्यादिगाथायां यथासङख्यं, यथा गणधरकृतं धृवं थेरकृतं चलं २, तथा आदेशात् कृतं ध्रुव १ मुक्तव्याकरणकृतं चलमिति । तथा ध्रुवम्-अङ्गप्रविष्टं १ चलम्-अनङ्गप्रविष्टम् २ ।
'कर्मकर्तृप्रयोगोऽयं' कर्मवभावादित्यर्थः । ततो 'भवति सम्पद्यते' इत्यर्थः । 'असज्ञिनश्च नारकादिषु व्यन्तरावसाने त्पद्यन्ते, न ज्योतिष्कवैमानिकेष्विति तेषामसज्ञित्वाभावादिहाग्रहणं' इत्यस्य वाक्यस्य तात्पर्यार्थो यथा-असज्ञिन: ज्योतिष्कवैमानिकेषु नोत्पद्यन्ते इति तेषां ज्योतिष्कवैमानिकानाम् असज्ञित्वाभावादग्रहणं । त्रिसोपानप्रतिरूपका:-यत्र दिक्त्रये सोपानानि प्रतिद्वारं स्युः । पूषा चेतीश्वरा भाना' भानामिति नक्षत्राणां । गेंदुकः-दण्डक: । 'दृष्टिगोचरातिसूक्ष्मद्रव्यासङ्ख्येयभागमात्रसूक्ष्मपनके' त्यादेरर्थो यथा-यत् दृष्टिगोचरम् अतिसूक्ष्मद्रव्यं तस्याऽसङ्ख्येयभागमात्रे पनकजीवो य: तच्छरीरासङ्ख्यातगुणखण्डीकृतवालाग्रभृत इत्यर्थः । एत्तो अद्धाइ
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निःशेषसिद्धान्तविचार-पर्याय नियमेण 'मिति द्वादशवर्षसंलेखनाया अर्धादिनियमता विधेयमित्यर्थः । 'तत्र नारकाः कति कति-सङ्ख्याता: सङ्ख्याता एकैकसमये ये उत्पन्ना: सन्तः सञ्चिता: कत्युत्पत्तिसाधात् बुद्ध्या राशीकृता: ते कतिसञ्चिता' इत्यस्य तात्पर्य-यथा कति कति इत्यस्य पर्यायोऽयं सङ्ख्याता: सङ्ख्याता एकस्मिन् एकस्मिन् समये ये उत्पन्ना: ते भिन्नभिन्नस्थानापन्ना अपि सङ्ख्यातोत्पत्तिसाधात् कतिसञ्चिता उच्यते-सङ्ग्यातसञ्चिता उच्यन्ते इत्यर्थ: । मेहनं-पुरुषलिङ्ग । भत्तोसह-भक्त्तोषधं । 'गुत्तो समियत्तणमि भइयव्या' यतः संवृतकायत्वेन गुप्ताऽपि मनसा दुष्टं चिन्तयन् न समित: । ' तवजणवावारपरी' तपःसमुपार्जने व्याप्त इत्यर्थः । शुद्धचातुर्थिकादयः- चतुर्थभागग्रहीतारः कर्मकरादयः । नालिकबद्धकुसुमानि - वृन्तयुक्तानि । लेखाचार्या: - पाठयितारः । त्रिस्थानकद्वितीयांद्देशके तु 'पुबोवठ्ठपुराणे' पूर्चशिक्षितो यः पुराण: भ्रष्ट: जात इत्यर्थ: । 'संविग्गां उज्जुओ य तेयसी 'ति । सांवग्गआदयवचनः । तेजस्वीत्यर्थ: । 'बहुसो पयासी य' दुराचारस्य बहुप्रकाशक इत्यर्थ: । 'अणइसेसी से' अनतिशायीत्यर्थ: । 'आसयपोसयसेवी-मुखापानयो: सेवकः । 'वइ नयावि ओवाए' न चोपकार वर्तते इत्यर्थ: । हस्तिकल्पनं-हस्तिप्रगुणीकृतिः । चतु:स्थानकेषु – 'अइसंधणपरस्स-वञ्चनापरस्य । 'सुहदुक्खबहुसईयं' सुखदुःखबहुउत्पत्तिकम् । ‘मोत्तूण सगमबाह' स्वकं-निजं । तम्हा स कालकालो' स मरणकाल इत्यर्थ: । 'ओयरियावाओ'-ओदरिकवादः । ‘कलनी -दाली। ' अस्थिताम्रफलानि'-आथीतानीत्यर्थः । 'षट्प्रज्ञकगाथादिरूप' इति । षट्प्रनको ग्रन्थविशेषः । अध्यय० ५'देसविरई पडुच्च दोण्हवि पडिसेहण कुजे' ति । देशविरतिं प्रतीत्य द्वयोः सर्व द्रव्यपर्यायया: प्रतिपेधनं कुर्यादित्यर्थः ।
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k
द्वितीयः खण्डः
'तदद्दिगदो सनिबत्तीफलं 'ति । अणुव्रतादिकदोषनिवृत्तिः फलं महात्रतकथने फलमित्यर्थः । 'दोषान्नभुनि ति । रात्रिपर्युषितभोजीत्यर्थः । ओमंथियति । अधोमुखं । पाल' त्ति पार्श्वेन । तृतीयं तूत्तानं ।
6
एत्थ पसिद्धी
"
आहारा - तन्तुका उत्तरं । ओघसणं ( ओसगणं ) बुड्डनं 'माणुस्मे आभिओगे य मानुषोपसर्गाः बलात् कर्म कार्यते इत्यादयः । कालांतरसवीजा पडिसिद्धी विसर - प्रविशति । ' भाजनं संमार्ष्टि ' भव्यरीत्या करोति । 'अज्जाघरे ' चामुण्डागृहे । प्रत्यगिरां स्खलितादिरूपाम् । बम्बाडिय मुद्दमक्कडिया । पडिसिद्धेसुय दोसे-द्वेषे । ' दहनाद्यं ऋक्षक' मिति । कृत्तिकाद्यमित्यर्थः । 'मैत्र्यादिकम् ' - अश्विन्यादिकम् 'यानुशायां गच्छतो दिशीत्यर्थः । 'परिघाख्या मनिल दद्दनदिग् रेखां इत्यस्यार्थो यथा इयं पूर्वोक्त्ता नक्षत्रपद्धतिः परिघाख्या भण्यते, तत इमां परिवाख्यां नक्षत्रपद्धतिमतीत्य - उल्लङ्घ्य किंविशिष्टाम् ? अभिलेन - वातेन प्रज्वालितदहना दिग् रेखेव तां । अध्य० ८- पउमुत्तरो पढमो पुब्विमसीउत्तरे कूले इति । पूर्वदिवर्त्तिन्याः सीताया उत्तर कुले इत्यर्थः । अध्य० ९साजीर्णे भुज्यते यत्तु तदऽध्यसनमुच्यते ' इति । सह अजीर्णे न भुज्यते यत् तत् साजीर्णम्- अजीण मित्यर्थः, अध्यसनं चोच्यते । इडा दक्षिणा नाडी वामा तु नाडी पिङ्गला । वैद्यकृष्टकः वैद्यसेवकः । चिलातक्षेत्रे म्लेच्छक्षेत्रे । चातुर्वर्ण्य ब्राह्मणादिकं । 'समुहाइ समुस्सिओ व जो नवओ' इति । स्वमुखानि -द्वादशाङ्गुलप्रमाणनिजमुखानि यस्य देहे नवगुणानि स्युः, अनरशता गुलोच्छ्रयदेह इत्यर्थः । प्रातिवेशिकराजः - प्रत्यासन्ना राजा । ' ओमव्वयभिक्खवियरणं 'ति । दुः कालात्यये । पुनर्नवा साटडी आग्नेयं कृत्तिका, आदित्य नक्षत्रपुनर्व' सुरुच्यते । ब्राहम्यं - अभिजित भृगुः - शुक्रः ' भरणी स्वात्याग्नेयं' इत्यादिश्लोकेषु त्रीणि त्रीणि नक्षत्राणि प्रायः एकैकस्यां वीथ्यां योजनीयानि, यतः क्वापि चत्वारि नक्षत्राणि एकवीथ्यां सन्ति ।
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नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये अध्य० १० - 'सतन्त्रीककरटिका' इति । करटिकायां हि तव्यो भवन्ति । 'परिणामो ह्यर्थान्तरगमन' मित्यादिश्लोकः द्रव्यार्थनयस्य मतेन । सत्पर्य येण नाशः इत्यादिश्लोकस्तु पर्यायनयमतेन । 'वेमाय' विमात्रया । 'जहण्णवज्जो विसमा समो व 'त्ति । जघन्यगुणवर्ज: जघन्यस्निग्धवर्ज: विषमः समो वा बन्धो भवत्येवेत्यर्थः। अधपटलस्येव' अभीडिंगस्येवेत्यर्थः । 'सइकरणं'ति स्मृतिकरणं । 'जम्मणविणीय उज्झा' इत्यादि-गाथार्थ: यथासङ्ख्येन ज्ञेयो वृत्तिं परिभाव्य अग्रतः पश्चाच्च द्वादशचक्रिणां वृत्तायुक्तत्वात् । 'सिलनिचओ रायहाणि' त्ति सिलनिचयः पर्वतः । 'पढमबीयदुओ' इति । प्रथमद्रत: क्षुधाद्रुतः, द्वितीयद्रतः पिपासाद्रतः । अनामिका-वृहदगुलिकाया लघुतरा । मधुमुखा:-भट्टाः । 'मावल्ला:'-प्रकृतिविशेषाः । 'एगे भवं दुवे भवं' भवानित्यर्थः । स्थानाङ्गपर्याया: समाप्ता: ।
समवायपर्याया यथा-'वाणमंतराणं सोहम्माओं सभाओ' तेषामपि सभानामतन्नाम । 'शरीरावयवप्रमाणस्पन्दितादि-विकार - फलोदभावकमिति - शरीरावयवप्रमाणस्य स्पन्दितादिविकारस्य च स्पन्दितं-चलनं । छदै:-पत्र: । 'संतो हाइ अलोगो' इति-सान्तोऽलोकः प्राप्नोति । 'विमाणावाससयसहस्सा' इति-विमानावासशतसहस्र णीत्यर्थः । प्रकीर्णक:-चामरः । 'जायणसहस्स पढमं वाहलेणं च' इति-बाहल्यम् उच्चत्वमत्र ज्ञेयम् । 'पुढवावलवइरसकरा पढमंतिपृथ्वीउपलवनशर्करामयः प्रथम इत्यर्थः । विभाजितं-विभाग: व्यवस्थितं समांशं-समविभाग योजनायेकषष्टिभागानां मध्यात् पट्पञ्चाशत् भागप्रमाणं चन्द्रमण्डलमित्यर्थ: । 'पण्णरसभागेण य' चन्द्रं कृत्वा राहुः पनरसमेव पञ्चदशभिर्भाग: तं चन्द्रं चरति । 'कालो वा जोण्हा वा' इति-कृष्णो वर्ण: ज्योत्स्ना वा । 'सर्वेषां नक्षत्राणां सीमाविष्कम्भः सप्तपादया भाग: भाजित: समांश:
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द्वितीय: खण्ड:
समच्छेदः प्रज्ञप्त' इति - समांशता तु
उक्तव्यतिरिक्तभागाभावात्
समांशता न तु भागसमतयैव । 'सत्तट्ठि खंडिए अहोरते भागाओ एकवीसं'ति - सप्तषष्ट्या खण्डोरात्रे एकविंशतिर्भागा भवन्तीत्यर्थः । ' एतदेव द्विगुणं षट्पञ्चाशतो नक्षत्राणा' मितिद्विगुणत्वं च नक्षत्रयोर्द्वयत्वात् । 'न बाधते' इति अबाधा-कर्मणोऽनुदय इत्यर्थः । तदेष चतुरशीत्या लक्षैर्गुणितं पूर्वमुच्यते ' इति पूर्वमिति सङ्ख्याविशेषः । ' तच्च स्थानम्' इत्यत्र पदछेदः कार्यः । ' स्थानान्तरमित्येवम्' इति स्वस्थान-स्थानं इति प्राग् व्याख्यातं, स्थानान्तरं तु एवं वक्ष्यमाणन्यायेन, तथाहि पूर्व्वं स्वस्थानं तदेव चतुरशीत्या
गुणितम् अनन्तरस्थानं त्रुटिताङ्गं भवतीति । 'चउदस नामाओ अंगसंजुता' इति 'पुव्वनुडियाऽडड' इत्यादीनि चतुर्दश नामानि अङ्गसंयुक्तानि कार्याणि । ततोऽष्टाविंशतिः सङ्ख्याविशेषाः स्थानलक्षणा लभ्यन्ते । शीर्षप्रहेलिकायां चतुर्नवत्यधिकं स्थानशतम् अङ्कस्थानशतं स्यादित्यर्थ: । 'छेदेन अष्टादशलक्षणेन ' इति । छेदेनअंशेन । 'पगूणपन्नासइमे मंडलगए अड्डाणउइ एसट्टिभाए मुहुत्तस्स दिवसखेत्तस्स निवुड्डेत्ता ' इति । प्रकोनपञ्चाशत्तमे मण्डले तिष्ठन् विः यैरकपटिभ मुहूर्त्तो भवति तेषां भागानां अष्टानवतिं भागान् दिनक्षेत्रस्य हानिं नयतीत्यर्थः । धणूवि अंगुलानि ९६ । मालिया - दण्डपकरणविशेषः जुगं-यूपं अक्षः शकटसम्बन्धी, मुशलम् एतानि सर्वाणि हस्तचतुष्टयम् इति तात्पर्यम् । 'द्रव्यादिभेदात् वा विंशतिर्वा ' इति द्रव्यक्षेत्रकालभावाः पञ्चसु इन्द्रियेषु चत्वारः प्रत्येकं योज्यन्ते, ततो विंशतिरिन्द्रियाणीत्यर्थः । एत्थ य समलक्खणाइया जम्हा | नवनाययसंबद्धा अक्खाइयमाइया तेणं || तो सोहिज्जति फुर्ड' इत्यस्य गाथाशकलस्य व्याख्या यथा-समलक्षणाः- समस्वरूपाः नवज्ञातसम्बद्धा अख्यायिकाद्याः तेन कारणेन शोध्यन्ते ततो 'वेगलानां' उद्धरितानां 'पुनरुक्त्तवर्जितानां अर्द्धचतुर्था एव
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निःशेषसिद्धान्तविचार- पर्याये
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कथानककोट्यो भवन्तीति तात्पर्यार्थः । ' अनशनिनां भक्तद्वयछेदो भवती' ति दुव्यासनकापेक्षया । 'तृतीय कप्रणायक भेद' इति । तृतीयप्रतिपादकभेदस्य सूचनार्थ इत्यर्थः । बोधनं प्रज्वालनं । 'शेषमूलगुणाः ' प्राणातिपातादिपूर्वोक्तमूलगुणापेक्षया शेषाः मूलगुणाः । पको य होइ सव्वट्टे ' लक्ष इति शेषः । ' दर्दरेण चपेटाभिघातेन' इति । चपेटाभि: भित्तिषु दत्तपञ्चाङ्गुल्यः । ' ओगाहित्ता' अवगाह्य-ऽधो गत्वेत्यर्थः । मनुष्याणां आवासाः शरीरलक्षणा एव । ' ऊर्ध्वम् अच्युतं यावत्' इत्यादिवाक्येऽर्थो यथा-इह मनुजलो के उत्पद्यमानस्य अच्युतादिति तात्पर्यार्थ । ततः अच्युतमनुष्यलोकयोः अन्तरम् ऊर्ध्व लोक इहोक्तः । नरके सामान्यापेक्षया द्वादश मुहूर्त्ताः सर्वनरापेक्षया, यतः द्वादशमुहूर्त्तानन्तरं सप्तानामेकत्रावश्यं नारकोत्पत्तिः ॥ समवायपर्यायाः समाप्ताः ॥
सख्यात
प्रदेशा:
अलोक
श्रेणयः
भगवतीपर्याया यथा-शते ७३०२ ' तिरियाणं चारितं इत्यादिगाथार्थो यथा-तिरश्चां पश्चमद्दा व्रतारोपणं स्यात् अष्टादशपापस्थानोच्चारणे सति इत्यर्थः । उ० ९- तृणशूकं तृणसिलः । समुत्पन्ने प्रयोजने ये गणं कुर्वन्ति ते गणप्रधाना राजानो गणराजा: - सामन्ताः । शते २५. उ० ३. स्थापना
ब्रह्मलोकतिर्यग् मध्यप्रान्तश्रेणयः । अधोलोककोणश्रेणयः ।
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'तिरहं सहसपुहत्तं' इति । त्रयाणां सम्यक्त्व - श्रुतदेश विरतिसामाथिकानां । तद्वयस्य भावात् ' साधुसाध्वीद्वयस्य भावात् ' "विंशतिरेव तेषां साधुसाध्वीनां श्रूयते ।
॥ इति भगवतीपर्यायाः समाप्ताः ॥
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द्वितीयः खण्डः
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प्रश्नव्याकरणपर्याया यथा सूत्रं व्यवस्थाप्यमता विमृश्य व्याख्यानकल्पादित एव नैव' इति व्यारव्यानकल्पात् प्रज्ञाशास्त्रपुस्तकादिलक्षणात् इतः पूर्वोक्तात् नैव सूत्रं व्यवस्थाप्यमित्यर्थः । 'संसारमोचका:' इति । वृद्धोऽयं अन्धोऽयं इति भणित्वा ये मारयन्ति ते संसारमोचका: । वणे श्वयथुरायासात् ' श्वयथु:शोफः । इति प्रश्नव्याकरणपर्यायाः ॥ जीवाभिगमस्य यथा - 'सत: सम्भूतभावस्य चारु रूपं फलं च यद्' इति, सतः - आप्तात् सम्भूतभावस्य - शास्त्रस्येत्यर्थः, चारु रूपं फलम् - अभिधेयमित्यर्थः । 'वचनाजिनसंसिद्धेः तन्नैरर्थक्यमन्यथा' । तन्नैरर्थक्यं वचननैरर्थक्यम् । 'सर्वशादपि हि श्रोतुः तदन्यस्यार्थदेशने' इति । श्रोतु:, किंविशिष्टस्य ? तदन्यस्याऽसर्वज्ञस्येत्यर्थ: । 'तदाधिपत्यादाभासः सत्त्वार्थेषूपजायते' इति, सत्त्वार्थेषु - पुरुषार्थेषु इत्यर्थः । जीवाभिगमपर्यायाः समाप्ताः ॥
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ܝ.
૧૧
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प्रज्ञापनाऽष्टादशपदे- 'देशतोऽपि स्वावगाहनातत प्रदेशोऽयमनाहारकः' अयं केवली स्वावगाहनया कृत्वा विस्तृतप्रदेशोऽनाहारक: स्यादित्यर्थ: । विशतितमपदे- 'मुहतूरए चैव'ति । मुखवाद्यानि डिम्भानामिव । गोविसो - गोवृषः । 'घयणुव्व छले' इति । घयणोभाण्ड उच्यते । घाटि - भैक्ष्योपजीवि (नः) त्रिदण्डिन: धाडीवाहा भण्यन्ते । त्रयोविंशतितमपदे- 'स सर्वशत्वाच्च भवति' इति । स व्याबाधाभावः । व्याबाधाभावो नुः स्वस्थस्य ज्ञस्य ननु स सुखं' इति । व्याख्या यथा - सुखं किं भण्यते ? स व्याबाधाऽभावः कस्य ? नु:पुरुषस्य किविशिष्टस्य ? स्वस्थस्य पुनः ज्ञस्य अहा ? | शरीरसम्बन्धात् 'अगुरुलघु आत्मानं नमयति शरीरं न गुरु नापि लध्विति' शरीरं कर्तृ आत्मानं कर्मतापन्न नमयतीति तात्पर्यम् । 'खद्योतबुध्नादिषु इति । बुध्नं- गुदप्रदेशादि । 'बेइंद्रियजाइना मेणं पुच्छा । गो० १
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नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये
जहण्णेणं सागरोषमस्स नव पणतीसतिभागा पलिआवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणगा' । अर्थस्तु-यैः पञ्चत्रिशभिर्भाग: सागरीपमं स्यात् तेषां भागानां मध्यात् नव भागा इत्यर्थ: । 'चागुकोसटिईणं मिच्छत्तुकोसपण जलद्धं' इत्यादिगाथा व्याख्या-वर्गोत्कृष्टस्थितिनां त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटिप्रमुखानां मिथ्यात्वोत्कृष्ठस्थितिना सप्र्तातसागरोपमकोडाकोडिलक्षणया गुणने यत् लब्धं शेषाणाम अयं जधन्यः स्थितिकाल: पल्योपमासङ्ख्येयभागीन इतिगाथार्थः । 'जहण्णेणं सागरोवम पणवीसाए तिनि सत्त भागा' इति । अस्य वृत्तिः-एए चेव सत्त भागा बेइंदियठिइबंधे षणवीसाए गुणिन्ति । द्वयोरपि भावाथो यथा-सागरोपमसप्तभागा: पञ्चविंशत्या गुण्यन्ते, तत: सप्तभागानां पञ्चविंशत्या गुणितानां ये त्रयो भागा: ते गृह्यन्ते, पल्योपमासख्येयभागानाः प्राक्तनसप्तमागेभ्यः एते स्थूलतरा इत्यर्थ: । 'दरिसणावणिज्जादो' दर्शनावरणीयादा इत्यर्थः । 'असंखेप्पऽद्धपविटे' असइक्षेप्यकालप्रविष्ट इयर्थः । 'गा० ? जेणं जीवे असंखेऽद्धपवि? सबनिरुद्ध सेसे आउए सेसे' इति सूत्रानन्तरं पदच्छेदो ज्ञेयः तदनन्तरं सब्वमहंतीए आउयबंधऽद्धाए इत्यादि सूत्रं ज्ञेयम् । 'कम्मभूमग-पलिभाणी-गम्भिणियाऽवाहियकम्मभूमित्थिजाआ जाइस्सरणाइणा भावलिगं पडिवज्जत्ति । अर्थो यथा-कर्मभूमिजाया: अपहृताया: स्त्रियो जातः पुरुषः भावलिङ्ग प्रतिपद्यते यः स कम्मभूमगपलिभागी पुरुष उच्यते । पदे २८-'चुक्खलितन्यायादविरहित: यनिरन्तर-मनाभोगाज्जायते आहारादि तत् चुकखलिय'ति भण्यते । पदे ३३-जवनालिया-कन्याचोलकः । 'नेरइयाणं भंते ! ओहिस्स किं अंतो बाहिं' इति । किं अन्त:-अविच्छिन्नः सन्ततः, बाहिं ति विच्छिन्न इत्यर्थः ।
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द्वितीयः खण्डः
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'कृत्वेत्थमेतां यदवापतमत्र पुण्यं मया तेन भवन्तु भव्याः । प्रज्ञापनार्थावगमान्न, पत) शुद्ध-भावान्विताः सत्त्वहिताय नित्यम् ॥'
॥ इति प्रज्ञापनापर्यायाः समाप्ताः ॥
निशीथचूणिप्रभृतिपर्याया यथा ' अत्थेण कारणं
अत्थेण - भाष्येन । कारति रुचिः । 'लोमसियाणं' ति चिन्भडी । ओसन्न - प्रायः । गोथुभो - वायसविशेषो मेषो वा । उग्घाडापोरसीद्वितीयप्रहरः । 'कोकार सद्दभिहाणेण य'त्ति कोशब्देनेत्यर्थः । समावतीए - समीपे । आणखेऊण - विज्ञाय | वाहिता - आकार्य । 'तओ उठिपण' त्ति-रोगादुत्थितेन । सहज्झियथेरी - प्रातिवेशिकस्थेरी । कुडिया - शरीरं । अंबग्गहणपरिच्छडो-आम्रगोच्छकादि । गोज्जो - नटः । पढउमावा हे विद्यां परावर्तयति । न वहइ-न भवति । 'गोयारिया' पतत्प्रत्यन्तेन । 'वंजणसंजोगा व्यक्त ' इति । पञ्चमी ज्ञेया । 'दासु माओ दुमत्ति, दोसु पुढवीए आगासे च । 'कलिदावरणे भंगाणत्ति | प्रथमद्वितीययोरित्यर्थः । 'घडस्स दंडादमति । वैधर्म्यदृष्टान्त: । 'मासकणफोडिय'त्ति । बग्घारिया कण कुंडगा तिउ डेरा । मोयं मूत्रं । सहोढः -सलोड: । वल्लिकरंतुम्बं । समाहिसु-मत्तपसु । 'बुक्कन्नहि 'ति घांटिकया । 'अणुक्करिसणवक्कं दट्टव्वं'ति । अजघन्यमित्यर्थः, उत्कृष्टं पाराञ्चितं । 'च' अणुक्करिसणे 'ति । अमूढविट्टीयत्ति यश्चकारः । 'पाहाडिय ( वाडहिय) संजइत्ति गर्भवती । निक्केइया-प्रसूता । अप्पा हेइ यभणति च । कालिया - रात्रौ । ईलएण- दात्रेण | 'मणोहिय असय अझयणाय'ति । मनः पर्यवज्ञानावधी । 'वाचाचावल्लफरुसपिसुणे'त्यादि । वाचश्चापल्यादिषु प्रवर्त्तननिग्रहकरणं । मोणेण वासणंति ।
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१४
नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये
आसणमिति ज्ञेयम् । नसणं-न्यसनं । 'तणुगइकिरिय समिई' तनगतिक्रिया ईर्यासमितिर्भवति । 'मायापवयण'त्ति । प्रवचनमातरः। वीरियं पि तदंतम्गयमेव' तपश्चरणान्तर्गतमेव । 'भट्ट'त्ति-भडत्रं । 'वेयणोदीरणेवि वियलत' अविचलत्वं इत्यर्थः । अप्पजत्तगोत्ति । अप्पजत्तग' इति पाठे अपर्याप्ताङ्गोऽपरिपूर्णाङ्ग इत्यर्थः । 'सीअग्गि'त्ति । ईषद् विध्यातोऽग्निः कोऊ वा। कन्नसं-चेटांगुली। सत्तट्टाणे-शत्रस्थाने । पिट्टिमो-पश्चिमः । 'उवचारणेव पंचम अग्गंति भाष्ये । उपचारेण-पाठक्रमेणेत्यर्थः । प्रकर्षाद्वा कल्पनंविरचनमित्यर्थ: । 'सुर्याजयकरण'त्ति । कृताभ्यासा:। गंडी-काष्टविशेष । 'सीहकण्णपासाय'त्ति । प्रासादविशेषः । 'पट्रकरणथं'ति । स्पष्टीकरणार्थ । उदकचलणी-गडुलकर्दमः । कम्मगंठी विगयइविद्राति । 'आयाराइ-निक्खेवदारगाहा गय'त्ति 'आयारे निक्खेवा' इत्यादिका । 'बीयगाहाए य आयारमाइयाइति गयं' 'नवबंभचेर' इत्यादिगाथापेक्षया द्वितीयगाथयेत्यर्थ: । ‘स कत्ता तकरणेहि पयत्तं कुव्वाणो तदत्थं कजमभिनिष्फाएइ'त्ति । स कर्ता कुम्भकारादिः, तक्करणेहि-मृद्दण्डचक्रादिभिः, तयत्थं-घटाद्यर्थ, कर्ज घटादिकं । पण्णवग आह-प्रज्ञापक आहेत्यर्थ: । 'पडिसेवणं पडिसेवयतीति प्रतिसेव्यं वस्तु इयर्थ: । सेवत्थे-श्रयणीयार्थे । भयं-भज । 'अपवायसहिए कप्पे दठियत्ति । स्थविरकल्पे इत्यर्थ: । 'अट्ठमोसंघयणभेओ' तत्त्वार्थ सूत्रापेक्षया । 'अणेगवायामजोग्ग'ति । एकस्यैव व्यायामस्य योग्यां क्रियां । ज जत्थ खेत्ते अञ्चियं-उत्कृष्टमित्यर्थ: । 'कमोवण्णत्थाणं' क्रमोपन्यस्तानाम् । 'कहं ? दर्पिकाया' इत्यादि । एतदव्याख्यानायाह-'कहमि'त्यादि । 'पुवं जयणपडिसेवण भणंति'त्ति । कल्पिकप्रतिसेवनं । 'जइणा असणाइकिरियपवत्तेणं'
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द्वितीयः खण्डः साधुना अशनाद्य क्रियाप्रवृत्तेने यर्थ: । तं च किं असंजमो' निर्वाह: । अग्गद्धस्स-प्रथमार्द्धस्य । सामते(सोमले)राणं-देशविशेषोदभवानाम् । 'छेयमूलदुग' मितिभाध्ये, दुर्ग अनवस्थाप्यपाराश्चितलक्षणं । 'गेहीओ साइजणा' अभिष्वङ्गः । 'ददरचोरा' घायगा इत्यर्थ: । 'चारिया-भण्डिया'हेरिका एकार्था: । 'विगिच्चमाणो' उत्कर्त्यमानः। 'संझोवासणं' प्रतिक्रमण । 'वियडण चरिमाए भायणाणि'त्ति । पादोनप्रहरप्रत्युपेक्षणायामित्यर्थ: । 'एगत्थपतिवायगोदाहरणाणति । एकार्थस्य प्रतिवाचकोदाहरणानाम् । 'हत्थिणा पक्खित्तो' ग्रहीतुमारब्धः। 'तहवि से लिंगं न दिजा तस्स वा अन्नस्स वा' इति । तस्य गृहीतव्रतस्य, अन्यस्य-अगृहीतव्रतस्य । 'सण्हतंदुल'सि । श्लक्ष्णतंदुला: । 'एवचिरं थोविंधण'ति । इयन्मात्रम् ।
बोहिगा-मानुषापहारिणः चौरा: । 'छगणछिप्पोली वरिसोवट्ठाविया' इति । छिप्पोली-छाणी, वरिसावट्ठाविया-वृष्टयवृष्ट-1 खित्तादिनिमित्तं-प्रथिलादिनिमित्तं । भूधरोव्वरो-भूमिगृहापवरकः । 'एस आदिसहो वक्खाओ'त्ति, 'दीहाइय' इत्यत्र 'कुइडमाई' इत्यत्र वा यः । 'उवहिनिष्फन्नं सठाणाओ'त्ति । लघुपणकादे: । ' उदसिभावियपोत्तया वा' इति, उदस्विता-तक्रेण भावितानि । वरणो-सेतुबन्धः । संडेवगो-पाषाण: । आरपारमागमणं-अर्वाग् पारागमनम् । गवंगरसभायणनिक्केयण-गोरसभाजनधावनम् । सल्लोयणो-शाल्योदनः। 'धम्मकरगाइ परिपूर्य'ति । मुखनिविडबद्धगलनकेन अधश्छिद्रितघटेन यत् गल्यते तस्य धम्मकरगपरिपूयमिति सञ्ज्ञा । 'पडिणीयाउटणं काउकामो करणं'ति, वाउल्लगादि । विषोपयुक्तेतरभुक्तेमोदकादौ भुक्ते । 'जोई-उदित'ति । जाज्वल्यमानो वह्निः । 'अगणीए छेयणगा निवडंति' वस्त्रपक्षमविशेषाः । 'असंपत्तो वा
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नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये जाणुकोप्परेहिति । वाशब्दात् प्राप्तजानुकूर्पराभ्यां जा धरए जोईत्ति भवति । 'सूलाइ तावेउ'ति । शूलादिकां व्याधिं तापयित्वा । विलेवी-जवागूः । 'तेण वा अप्पमाणे' अपूर्यमाणे इति भावः । खद्धम्गिणा-प्रचुराग्निना । 'ते पुण लोए चुंपा(चोप्पा)लया भण्णंति' जालिकायुक्ता भित्तिः । तुमुरुली वसुलीति प्रसिद्धा । 'सिय अभिष्पाओ' स्याद् इत्यर्थ: । सव्वरिवायस्स-रात्रिवातस्य । फिडिया-च्युता: । 'एयस्स चिरायणगाहापायस्स' चिरन्तनगाथापादस्येत्यर्थः । 'अगीएसु विकरणाणि काऊणं'ति । विकरणानिछेदनानीत्यर्थ: । 'प्रयातः पंथेत्ति । प्रयातुमारब्धः । ऐलुगस्सथलही । 'सि(मित्ति)फलगाण'त्ति । निश्रेणीफलकानाम् । 'अजयं परिहरंतो' भुजान: । भत्तट्ठाइकरणनिमित्तं-भक्तार्थादिनिमित्तं । निवज ति-शेरते । भुई ददंति । भस्म इत्यर्थः । 'धन्नकारित्ति । भ्रमरिका यासां गृहाणि भित्यादिषु दृश्यन्ते । 'न रयत्ताण विकप्पणाऽवस्थाप्ये ति । न रजस्त्राणे निक्षिप्य निरीक्षणीयाः । 'सहिणा सत्तुगा'लक्षणा: । ऊरणीश-ईलिकाः । 'जइ उउपासालु संसत्तावि वसही पुव्वाभिहियपमाणेणेव असंसत्ता भवति । यदि ऋतुबद्धवर्षालु संसक्ता वसति: पूर्वाभिाहतप्रमाणेनैव प्रमार्जिता सती असंसक्ता भवति तदा तावन्मात्रैव वसति: प्रमार्जनीया । 'अणंतरीय पाउणि तर्हि संकामेति'-अ(न्वं) तरवस्त्रं प्रावृत्य वाहासत्का: चटन्तीत्यर्थः । 'पिउडं पुणं उज्झ' किल्विषं कचवरी गवादीनामुदरोद्भवः । 'मज्झत्थपुरिसधन्नमवणं'मीयते धान्यमित्यर्थः । सरिसवावणं-युगपद्वपनम् । 'परिपूय परिसोहिय' सर्वमलापनीतानीत्यर्थ: । वालुगं-कोटीभिडकं । डोवेहि-मिठिलेहि । गोदहा-नटाः । 'पयंगसेणा इव भूबिलाओ' यथा पतासेना भूबिलात् निर्गच्छति । तेणम्हि उच्छित्ती-तेनास्मि उत्रासितः । तिलचलणी-तिलपङ्कः ।
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१७
द्वितीयः खण्डः मासपायवे-मासपादप । धाराधरणट्टयाए-गझगांधाराधरणार्थम् । सामिागह-स्कन्दकगृहम् । 'बालगांते कुडियगीवाए'त्ति बालगपुच्छं तदन्ते । महसेणं-स्कादकं । 'ओलंवियं' सिंटितं हारितं 'जंबुशहि छापहि' वुभुक्षितैः । महिसिछिप्पा छ । 'उदग्गभोयणमं डालत्ति उदग्ना-संपूर्णा 'परिवेस परिचियं राहुणा ग्रस्यमानं । 'सहोढपच्चुत्तप्पयाण'ति, सलोद्रचोरस्येव उत्तरप्रदान । आमंति इत्यादिकं । दिसावहा वा-शिष्यापहारं । भूमियं-थवियं । कुडमुहो-कंठओ । 'न खेत्तिए' परक्षेत्रिकसाधुषु । 'सामछण कोभत्त'मिति भाष्यवचने सामच्छण-पर्यालोचनं । सिद्धपुत्तो-मुक्तव्रत: । 'देवद्रोणी जाय'त्ति यस्यां पाश्च स्थादयः अर्हतामादानानि भुञ्जते सा देवद्रोणी । जोगच्छित्ति । निहत्थेहि-अधिकारिग्रहस्थैः । आसुकारिण:विनाशका: । 'नकुलद्यादि औषधं' नकुला-औषधी महिष्यादीनां घातापाहरणार्थ दीयते । तच्चणिगि रत्तपडी' परिव्राजिका । 'साझिया समोसइया' प्रातिशिका इत्येकार्थाः । तइओ नपुंसगवेओ-स्त्रीपुरुषाभिलाषलक्षणः । अणुठोभगो-ऑष्ठहीन: । 'पुचभणियं तु कारगगाहा' इति, उक्तगाथेयं ज्ञेया। कम्मिवि निओएआवसथे । 'न लुटुप्पगासे' अल्पप्रकाशे इत्यर्थ: । 'सगो ताओ पारांचएवि करिजा' नि:सारयतीत्यर्थः । 'नीए वासे सेवेज' स्वजनानित्यर्थः । 'खड्डाकुमा(सा)रो' इति । जत्थ पोल्लारभूभीए पाओ खुप्पइ एस कुमारः । अकालघायगो गरः । 'झरणे तकितपरंपरओ'त्ति, बिन्दुपाते मक्षिका याति, तस्यां घिरोलिका, तस्यां तु मार्जारी इत्यादिका ज्ञेया । 'सञ्जक्खयाओ' सद्यः क्षतानि । 'उकोऽयं सूलं' कादाचित्कं । 'अग्गिए वा वाहिमित्ति, भस्मकः 'उद्दद्दरे सुभिक्खे' धान्यसंभृत कुशूले सुभिक्षे आपिवनं । 'अईयत्तीपहिवा'
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नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये इति, वाहनतप्तिकारका मूलसार्थवाहेन नियुक्ताः। एत्थेवेदं गाहापुम्वद्ध भावेयवं' इति, 'एस गमो वंजणमीसपण' इत्यादिक: । 'अज्झपूरय गिण्हउ'त्ति, आत्मपूरकं । 'भत्तमीसोवक्खड' कच्चरिप्रभति । 'निम्मीसोवक्खड" केवलमन्न । 'अद्धाणकप्पमायण' रात्रिभोजन । • उहाइयाए' मारीए । 'जहा गंड पिलागवा' इत्यादिगाथाव्याख्या-पिलाग-फोडिया 'विण्णवणाथीसु-विज्ञा-- पनास्त्रीषु । ' हा दुटु कयं कारगगाहा' उक्तगाथेत्यर्थः । 'मूलं भवतीति चारित्रशुद्धमित्यर्थ: । सुद्धा पडिसेवणा अजयणाए निष्फन्नं पच्छित्तं भवतीति शुद्धः पाठः । 'चुडलियं व (चुडलि) वंदणागारेणे'ति, उत्सुकमिवेत्यर्थ: । कयलगमादी-कदलीफ-- लादीनीत्यर्थ: । वाडेन-वेगेन । पक्वतंबूलं-शटितताम्बूलः । एत्थ पव्वयओ अपव्ययंतेसु य इति पाठः । विद्धि लक्खणं-जानीहि । 'तंतुगार-लोहगाराइ' इति । तंतुगारा:-कुविन्दगाः । ओमजणाइसुउजणादिषु । विवयं-बीवकामांत रूढम् । 'निलेवगाइ कार्य निव्वत्तेइ' इति । निल्लेवगा-छिपगाइणी ते कायं-पुत्तलकादिकं विम्बेन निवर्तयन्तीत्यर्थः । 'लाउनालो' वोडी तुचकनालमित्येकार्था: । 'संजई वा मा हत्थकम्म'-विंटस्य योनिप्रवेशरूपम् आवरिसंतो-- छटकादिदानेन वर्षन्त इत्यर्थः । उड्डंचगो-वश्चकः । काट्टीयं-- हास्यादि । विहिनिग्गया-अरण्यनिर्गता । साहीणभत्तारा-स्वाधीनभर्तृका । माउलदुहिया आभवा-आभजइजा इत्यर्थः । अप्फुन्नाव्याप्ता । 'ववहारा वि तेणंति । राजकुलादों व्यवहारः कार्य: । 'वाइयजोएणं'ति । वाचं वक्तीत्यर्थः । 'अभिसेगारयत्ति, अभिसेगो-उवज्झाओ। "अंतपए दोषि गुरुगा'तपःकालाभ्यां । दोद्धियनालियं-तुबकबि । वेत्रमाइसलागा-त्राकुप्रभृति । परिसाडनिमित्तं-पडणनिमित्तं । 'ओमुत्तितल्यं वा' सप्पादिमूत्रेण
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द्वितीयः खण्डः खरपिटतं । 'खयं वा'--क्षतं वा' । गंध-वासलक्षणं । "असंनिहियऽपरिम्गहेसु-अपरिग्रहेषु । 'अड्ढोकंतीए' गृहीतमुक्तन्यायेन । 'पायावच्चपरिग्गहे' पदातिपरिग्रहे। 'धरणिपुत्तो'-कुम्भकार: उड्डो वा। 'भायगुलियाण' भौता:-भस्मिका: । सेहासिहेति लोकरूढा । कापण-काउडीए । 'आइमा चउरो' दंडादयः। 'मच्छियडोलाइ'ति, डोला:-तिड्डाः । उक (उज्झं) खणी-सजलवाउली । 'अंतोबहि कसिण इयरं वा' इति, कसिणं-प्रधानम् अन्तः, इतरम्-अप्रधानं बहिः । पासगं विलं-नकयं । 'धुयावणं' दवावेइ' मोल्लं । 'परिघट्टणं निमायणं' बहिर्गतान्तर्गत चकमलाद्यपसारणम् । 'एकैकवचनं निगमनवाक्यमाहु' रिति । दार्थादिकमेकैकं न तु जघन्यादि । सुत्तद्धति । चतुः-सूत्रेभ्यः सूत्रद्वयं व्याख्यातमित्यर्थ: । किन्तु अपजत्तियं-लघु । मुद्दियावन्धस्थापना यथा xxxxxxxxxxxxx । नावाबन्धस्थापनाwv | कुयवा-बरकोउ जटिलकंबल: । 'ओज्झाइयया परिहरिया'दुर्वर्णवं परिहतं भवतीत्यर्थः । 'स्वखाइसु' रवः-कणिका तस्या अक्ष:-चालनिका । 'पयालणी कसा' तस्या: सेवनी । निभंग:पट्टिया उट्टणी । दुक्खीला-पाणहसेवणी । एगखीला-वहंतसेवणी । गोमुत्ता-कंथाइलु । ज्झसडा-खजूरी । 'विसरिया सरडो भन्नई' गाण सीवणी भन्नइ । अतजाएणं गयेजा-सीवयेत् । 'घरधूमे सुत्तनिबंधी तज्जाइयसूयणट्ठा कओ' इति सूत्रे गृहधूमग्रहणं तजाइयस्स-कुष्ठस्य सूचनार्थ कृतम् । 'पाणगपुरीसं'ति, सुरापायिविष्ठा । पडियाणिया-थीगलं । फुडयं संठवेइ-चुल्येकादशः । 'एष एव गतार्थो रन्धनकल्पेषु' इति, एवं स्थितार्था पूतिर्शातव्या । काले वासति-वर्षति । 'वग्धारियबुठिकायंमि' प्रचुरवृष्टिकाले । उत्तणेसु-उत् ऊर्ध्व तृणेषु । ओसाए-अवश्यायेन, विसुयावेइउग्गवेइ । 'पुव्वे अवरंमि यत्ति भाष्ये, उत्सर्गपदे अपवादपदे च ।
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૨૦.
नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्शये भाष्ये-सिन्हाए ऊसाए । भाष्ये-उंडाय पमतेत्ति, रजोहरणाग्रेषु मलग्रन्थय: । उग्गमियं-लब्धं । पयडिमयं-नालिकेरिछल्ली । 'सयण-- समोसिगाइ' समोसिगा-प्रातिनिवेशिका: । 'वक्ष्यमाणषोडशभंगमध्यात् अमी अष्टौ घटमानाः शेषा अघटमाना:' । पाइन्न लहुसपणं' गाहा इत्यादिकः सर्वोऽपि नाथः, एतद् भगाष्टकं घोडशभइनमध्यात् लिखित्वा ज्ञेयं, तथाहि - ( आचीण-लघुस-कारण-देशः प्रथम:) 'तृतीय आ० ल० का० दे० शुद्धः । चतुर्थपञ्चम- । । १ ।। | 5 ७० षष्ठभाग-
5 | ३/0555/ १५० विपर्यास. 5 |
११ | 015555 २६/४ प्रदर्शित:' ऽ
ऽ ऽ १२४] शून्यादिप्रायः इत्यस्यार्थो । ऽ । ५0 चित्तानि यथा-अष्टानां घटमानानां भङ्गानां मध्ये तृतीयः एकादशाङ्कयुक्त: । चतुर्थ: द्वादशाकसंयुतः । पञ्चमः पञ्चकाङ्कसंयुत: । षष्ठः सप्तकाङ्कयुक्त: ज्ञेयः । एवग्रहणेन च तृतीयादिभगानां विपर्यासः सूचितः । यत: तृतीयादयो भङ्गा: षोडशभङ्गानां मध्यात् व्यतिक्रमेणाऽत्र लिखिताः । लहुसनिःपनी द्वौ एकादश-द्वादशौ लहुसनिःपन्नभङ्गकसमीपे द्रष्टव्यो । पञ्चमपष्ठभङ्गको बहुत्वनिःपन्नौ बहुत्वनिःपन्नघटमानपञ्चदशषोडशसमीपे द्रष्टव्यौ इति सर्वगर्भार्थ: प्रतिपादितः । 'अंते वा' इति, रोगावसाने । 'किढियादि सढिया' वृद्धा । 'खपुसा पदाणि चकपातिका च' इति, खपुसाशब्देन पदानि मण्यन्ते, चकपातिका च' उपान विशेष उच्यते । अन्ये तु सर्वेऽपि भेदाः, व्याख्या पुनग्ग्रे ज्ञेया। इयाणि पायच्छित्तं भण्णइ । 'सगलकसिणं गाह'त्ति, चूर्णिण: भाष्येऽ
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द्वितीयः खण्डः पीयमित्थं न दृश्यते, एतदर्थसंवादिनी तु 'लहुगो' इत्यादिगाथा दृश्यते इत्यर्थः । कमणी-उपानतू । पदकर:-चर्मकारः । तेणेहि ओदुब्भति-उपद्रयते । 'समं मसिणं फलं मोडियं घा' कलं मनोरममुच्यते, मोडियं-मोटितं, सर्वेऽपि अमी समशब्दपर्यायाः । भाष्ये-'भावओ वण्णमाउक' वर्णमृदुत्वे इत्यर्थः । भाष्ये- 'अद्धंगुलज पुचं' इत्यादिका प्राक्तनगाथाल्लिाना शेया । 'जहन्ने य मुल्लकसिणे तिविहे मासलहुँ 'ति, मूल्यकिअं किल त्रिधा तत्रापि जघन्यके मासलघु इत्यर्थ: । 'सकलकसिणे पमाणाइरित्ते' इति । द्रव्यकिअं किल द्विधोक्तं प्राक् । 'उवादाणं भवत्ति, आजीविकोपाय: । भाष्ये-'घट्टयसंवियाणं पुवि जमियाण'त्ति । घट्टियं निम्मोयणसंदठवियाण मुहकरणं जमियाण समकरणं । भाष्येनियएण पायलेहणी। 'चीरायरियाए'-वस्त्रचर्यया । 'जा न नियत्तइ' यावद्वसतो नागम्यते तावद्दशा न छिद्यन्ते । 'ओमाइसु केवडियहेउ" रूपकहेतोः। 'जो गिहत्थो पाय गवेसाधिज्जइ' स निजत्वेनाधिष्यते साधोयस्य च तत् पात्रमस्ति गृहिण' इति, न केवलं साधोनिजत्वेन अन्विष्यते यस्य तत् पात्रमस्ति गृहिण: तस्याऽपि निजत्वेन अन्विष्यते इत्यर्थः । भत्तठो-परिप्रण भोजनम् । प्रथमपादोत्तरं 'दाहामित्ति य भणिए' ज्ञेयम् । 'द्वितीयपादोत्तरमाहेति. 'तं केवइयं च केवचिर वा वित्तिलक्षण । 'नेतिउत्ति काउ' निकाचितमिति कृत्वा । 'कालदुगे तीताणि' मासकल्पवर्षाकालरूपे । 'ने वट्टइ' नोऽस्माकम् । 'प्रथम वयसि निविट्ठो' परिणीतः । 'निविसमाणो वा' परिणयनयोग्यः । कुथु भरी-वेसण । संताण
ट्ठया वा-संत्राणाय । सण्णीण दसणस्थ श्रावकदर्शनार्थ । 'स्वतन्त्र अविरुद्ध' स्वसिद्धान्ताविरुद्ध । 'जोग'-मांसादिरहितं 'खुलखेत्त'-घृष्टक्षेत्र । 'पुइयघराओ' प्रातिवेशिकगृहात् । 'समिइमे' मंडकान् । आजीवका:-गोशालकशिष्या: । वृद्धश्रावका:-तापसा: ।
HEATRE
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निःशेषसिद्धान्तविचार- पर्याये
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'दारमपत्यादिसमुदायो कुल' मिति, कुलशब्दस्य व्याख्यानमिदम भाई- भार्या । सत्तुय ओयणकओ क्रयः । 'अह संजओ वलडिओ' अलब्धिकः । ' अह भद्देवि एस कमी' अभडे इत्यर्थः । उड्ड - चकादयः-ऊघटाः । भादुदुओं' भराक्रान्तः । 'मायाम'डली ' मातृमंडली - भोजनमंडली | सरीरमहिमाए ' शरीरसत्कारे | 'ओमच्छगपरिहाणीहिंडियाण' अमछटेत्यादिक्रमेण हिंडियाण इत्यर्थः । ताहे 'सखेत्ते' क्रोशपञ्चकमध्यरूपे । 'अवोचत्थं क्रमेण । 'मूलभेदो गणो' प्रथमाचार्यविश्लेषः । 'कविणे सुत्तपरिसि काउ'त्ति प्रभातसमये । 'जे सुविउ गया' स्वपनाय गताः । 'लाडाचार्याभिप्रायात्' मथुराचार्याभिप्रायेण । 'परओ राईए चिंता' अस्माकं अचिन्तेत्यर्थः । ' एप स एवं चाई' राज्यचिन्तावादिनां द्रष्टव्या: । जे पुण पढमाइपहरविभागेण असेज्जायरमिच्छति तेसि सुरत्थमणविणिग्गयाण' इति, कह असेज्जायरो भवतीति योग: रात्रावग्रहणादिति भावः । 'रयणीए चउरो जामति से जायरो ज्ञेयः । 'ओलजायको' श्येन: । 'निसज्जणसं व सणभया' पुतस - घर्षणभयात् । ' सइकाल देक्खति' सकृत्कल' वीक्ष्यन्ते । 'भारिय कज्ज' गुरु इत्यर्थः । ' एगमि वा अणेगहा उपत्ति, गृहे पुत्रादयों विभक्ताः स्थिता इत्यर्थः । निगडागणि मायाम्नी भाष्ये । माध्ये 'जेठाइ व जइ व' इति, यावन्तः । समाणा-1 --मिलिता: | 'पियपुत्तथेरप वा सरछोडगाहा अनतिक्रमणीयचचनेष्वित्यर्थः । 'किं वोऽसुभेहिं'ति, अकारों ज्ञेयः । 'तां वि से सां बज्जी' (त्त, तथापि से तस्स सोऽर्द्धा वर्जनीयः । 'घर' पडिणीयं ' - गृह प्रति नीतम् । पट्टिआ-दत्तप्रयाणा: । 'कच्छपुडओ- -जस्स कक्ख | परसे पुडी स कच्छपुडो' । एवं कप्पागं ठवित्तु' नायक स्वामिनम् । 'मद्दो निस्साए कुभेज'त्ति, अणेसणीय दद्यात्। उवाओं-परिश्रान्त:
7
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यतः ।
इत्यस्यार्थो - भङ्गरूपे तथाहि'सत्तमभंगे तइयभंगे वा' इति, बहुगृहस्थस्वाधीनां 'ओहारकं बीओ' बहुगृहेभ्यो मीलिता: । 'अणविणणं संभवइ' बहुगृहसत्कत्वात् तासां विकरणं करिति बंधादिछोटनं । तस्स निवेएइ स्वामिनः । 'अहो अकयन्नू' अकारो ज्ञेयः ।
द्वितीयः खण्डः
सन् । पच्चरेण खीलियाए । 'सुत्ताइमगाहा गतार्था raण दधिमधनवदिति मन्थानः चतु:कोण:, रवकश्चाष्टकोण:, यथा वकेण दधि मध्यते येन अनया व्युत्पत्या मन्थानको गतार्थ एवमेवापि गाथा गतार्था 'अत्थेण निसिद्ध 'त्ति, निर्युकयेत्यर्थः । 'जस्स दालिओ न फिडिय'त्ति, राजयः । 'अओ बुच्चत्थं'विपर्यस्तम् । उचाइणावेइ' स्वामिने न समर्पयति । उवरिसेजतिमिज । भाष्ये- 'धम्मका पणियलोभियंति, धर्मकथैव पणितं - पुण्य | भाष्ये' सोउ हिंडणकहणं 'ति, विष्परिणामण पि ज्ञेयम् । 'पज्जोसवणाकाले घेच्छामो' वर्षाकाले इत्यर्थः । अत्थो उ कारणे' इति भाष्ये इत्यर्थ: । 'सत्ती य व सो विहु न तेन न निव्विसइ' इति भाष्ये, न निवारयति अपि तु प्रस्थापयतीत्यर्थः । ' सपरिक्खेवे foयाणं' प्राकारादिवेष्टिते स्थाने । 'उड्डाहविरु भणे' हस्तादिकर्त्तने । 'यथा तत्र तेनाहड'त्ति एवं इत्यर्थ: । 'मीरा-मेराकडणं' कुजकरणं । 'सहीणे वा पडिचरिउ'' हरिउ' । 'परिसीए कडाए' मर्यादया | 'संथारे घेण्साणे गाणेगवयणे अट्ठविह भंगभयणा कायव्वा'
एकसा०
एकगृह एकसंथार
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इत्यष्टौ भंगा ज्ञेयाः ।
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नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये 'विहाइ निग्गयाण' अद्धाणे निग्गयाण । 'छेवइओ वा' इति, चौरः। 'नासाऽरिसाओ' हरिसो नासिकायां । 'निक्केयणं' पसघणं । 'दव्यओ वंजणजाओ' जातानि व्यञ्जनानि कूर्चादीनि यस्य । वट्टमि ठविजए बट्टो' इति, गोलकस्योपरि कथं गोलकः स्थाप्यते? । भूणगस्स-पुत्तस्स । 'अहवा उउवं उगिण्हईति, आतवं । तच 'तनुपर्यन्ते' पर्यन्ते तनु-सूक्ष्मं कार्य । 'मा उन्भूया जणहास'त्ति, वातेन उतिक्षप्ता । 'खलुगो' संखोडओ । 'उभयवेच्छिनिकाइयाए' इति, वैकक्षमुत्तरासाइन्गः, उभयपाचे उत्तरासगनिबद्धया । 'सव्वो वेस उवही' वेष इति सम्भाव्यते । 'गणं पीठग'ति, वेहवत्यां भूमौ वर्षाकाले वा ध्रियते संयतीभिश्चाभ्यागतसाधुनिमित्तं । 'निसेजा
ओनिया खोमिया य' निषीदनार्थ । 'दंडपमजणीय' दण्डकपुछनाभिधाना । 'चाले'त्ति, वाल: कम्बललक्षण: । 'सूई' तालपत्राणां पलाशपत्राणां छत्रं वंशमयं । 'कुडसीसगछत्तयं सिखिन्निखुपकं'। 'संनाहणट्टो' दोरिया ज्ञेया। 'उड्डाहपच्छायणवारओ' जलवारकः । 'अहऽभत्तट्टी' अकारो ज्ञेयः । 'वत्थं अंताओ'त्ति, वस्त्राञ्चलान् । 'तओ अंतो निसेला' सूत्रमयी 'बाहिरनिसेजा' पादप्रोञ्छनरूपा । 'चरिमाए पडिगगहंति, प्रथमपौरुष्या: चरमा इति सज्ञा । 'दात्रसंधी' कार्तिकमास: । दोसु वि मीसेसु परंपरे लहुगुरु पणगं' इति । दोसु वि मीसेसु परंपरे लहु अणंतरेसु दोसु वि गुरुपणगं' । 'अट्टसु जोयणेसु मूलं भिक्खुणो सपयं' मूललक्षणं सपदमित्यर्थः । 'उवज्झायस्स चउगुरुगाओ अट्टसु अणधट्टो' इति, उपाध्यायस्य चतुगुरुकादारभ्य अट्टमे स्थाने अणवट्ठो भवतीत्यर्थः । 'आयरियस्स छलहुगाओ अट्टसु चरिमंति, आचार्यस्य षड्लघुकादारभ्याष्टमे चरिमे इत्यर्थ: । 'कावोडी संकाई' एकाौँ । 'अथंडिलाओ वा' अथंडिले इति ज्ञेयः । 'उब्वायस्स'-श्रान्तस्य । मयदंतिया मेती ।
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निशीथचूणिपर्याया:
'अपनवओ' अशक्तस्य । 'तिक्वसंहिणधारं' ति, तीक्ष्णलक्ष्णधार । 'चन्द्रा ?' इति पादयोः । 'सुक तुंडे' इति हस्तयो: । पोमेगवां रोमे। 'पउमे' कुसुंभकिट्टिकायां । 'मंसूचियुगे' श्मश्रूयुते ओष्ठे । 'उत्तरमाणो अच्छो रेणू या' अकारो ज्ञेयः। 'संजया न तडफडेज' इति नकारोऽयं । 'सीयाणं' श्मशानं । गिरिवडे छप्परे । 'मुत्तसकराए य' ककराभिर्युतं मूत्रं । 'महासहिया'-गईभी । 'विनुवावेइ वा इति-उववेइ इति भणियं होइ । 'तत्व उत्त'ति, पीठोक्तसङ्घ । खारतेलं-तिलतैलं । खाडाहडो-पिण्डिकारूप: । 'जमि जोगे जंतणा' नियन्त्रणा । 'तकाइ पगंगियं' आयंबिलं । 'पणिय विलेवी' जाउलिया । 'पच्चक्खाणे' ति, संवरणं । "थूग्लंभे' बहुलामे। 'तस्य पूर्व न भवतीत्यर्थ' इति प्रवेश इत्यध्याहारः । 'पहाणिया सोहगा' वेढा सोहगा' पदकरा-चर्मकरा:। 'निल्लेवा'रजकाः। अन्नत्थ अजुंगिया' अकारो ज्ञेयः । 'सोरुत्तिया' यवध्रियककारिणः । सिम्गा' श्रान्ता । 'जावसिया' चारिवाहका: । 'मोयगमाइयं' ति कदली। 'एवं आसोहपिच्छ' ति, हरितं । कडपूरेण उदरपूरेण । हिंगुदद्दरिय-हिंगुमिस्साई डरी। 'उल्लोएण' सामान्येन । 'अप्पायणट्टा' स्फाईओप्यायी आप्यायनाय । 'नेकंतिओ' नित्यपिण्डः। 'समिइमा' मण्डका: । 'भत्तटुस्स अबढ़हुँ' भक्ताद्धमित्यर्थ: । एक दिजा शांचेत । 'विवकराइदोसा' विपत्करा दोषा: । ससवत्तियं-ससऊकं इत्यर्थः । डिडिमहेउगर्भहेतुः । ‘पम्हट्ठाइयाण भायणं' समपणं । अहिगरणं-भण्डी । 'संजमसारं ठवेउ' संथिलीकृत्य । 'वसहीए पुरोहडे' पच्छा। गणिणीमहत्तरा । अभान्जा-अयोग्या। 'पत्तीदंतेण पौत्ती-चिलिमिलिसमीपेन। 'एवं सवे' पुत्तशब्दो योज्य: । इमं चिन्तन्ति संयत्यः । ‘पन्नप्पइ'नीरोगी करोति । किरियासज्झाए-क्रियासाध्याया: । समोसियगोप्रातिवेशिकः। 'गोवालकंचुको' गायत्री । जो आंतो-यत् ओजः
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नि:शेषसिद्वान्तविचार-पर्याये
सामर्थ्य । 'सागारियासेवणा' लिङ्गासेवना । 'घोडिय'त्ति, मित्राणि । कणयं-नाराचं । 'अहं पिते किं न भाउ' काक्वा । 'चिनाडिकाकारवत्' विकृतानाड्यो यत्र सन्ति साविनाडिका-अवगायिका। निवेसणस्सघरस्स । तेण गहियं ति, तेन हेतुना सूने गृहीतं पासवणग्रहणं । 'जहा उच्चारे' जहा उच्चार आयमय न तहा पासवणे । 'विट्टलेहि' जहि । 'सव्यसाहहि (सह) समाति,सर्वसहस्य सनाणं यथोक्त। 'स चलओ' पृथक कृत: । माय-'अलिगाए सोहिकरणेण वा वि' त्ति
अलिकान्यायेन पापं क्षीणमित्यर्थ:। भाष्ये-इश्वय-दैवः । भाष्ये 'दिवसितेविऽणा' अणटा अकारो शेय: । पञ्चमोद्देशकस्य-यथा-पडछाडगा-ग्रन्थभेदकाः । विलिएण देससवण्हाणं ति खलिए. जुगुप्सादिके। 'परियासिउ-वासयित्वा । सिंहे-सिंभे। पवहण वावरणं । 'उड्ढोरगी' स्थलजयः । पाद्धं पतकडं । मंगवालीए दर्भतोरणं । 'विकरणमपि' अचेतनं । विचित्ता मुषिताः । भाष्ये 'उद्दद्दरे' इति, कोष्ठादिगतं धान्यं प्रचुरमस्ति न च तेषां स्थगनमस्ति । भाष्ये 'पुख्छे अबरंमि य पयमि' त्ति, उत्सर्गपदे अपवादपदे चेत्यर्थ: । 'कलमापिका वंशदण्डवदि' ति । कलनाधिका स्थानविशेषः । कायनाणमंडवा-कवाण मण्डप इति ख्यात: । 'पुबण्हे अपविए' स्वाध्याये । बहुकारा वाहारी। उल्लीइयं-धवलितं । 'कुलिया कुड' मि.येकार्थे । 'सीतभरोसाय उज्झं क्खणी भन्नई' त्ति । सीतसरा-जलकणाः ऊसाय तत: जलकणिका ऊसयुक्तो वात: लोके उज्ॉक्खणी भन्नइ । भाष्ये 'अहवऽविसुद्ध' अकारो ज्ञेयः । अणिसेज्ज-यो निषद्यां गुगीन करोति। 'एगट्ट भोयणं' ति, सह भोजनं एगट्ठा इत्युच्यते । ओलवणा-उपशमनं । परियतिसूत्रं परावर्तयन्ति। भाष्ये बारस यचउन्बीसा' इत्यादिगाथायां द्वादश द्वाभ्यां गुणिता: चतुर्विशतिः, द्वादश त्रिभिर्गुणिता: षट्त्रिंशत्
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निशीथचूर्णिपर्याया:
इत्यादिका भावना कार्या । दुट्टाई दुदाता सिंसवादि शिंशपा । 'रयणहरणं दंडिय' वृत्तां, 'सविटं वा लाउयं' सवृन्तं तुम्बकं । 'सइढीयरो' भागिनेय: महागिरेः । 'कांसंबाहा' कोसंबदेसं । 'साहहि वि सि;' कथितम् । 'अंबा दमिला ' देशविशेषा: । 'ओयविया' साधिता:। 'रहागुजाणे' रथयात्राया । वादिसा उज्जेगी । 'पूश्या' कंदोइया । भं' भजिऊण । 'पोरप्पमाण' अंगुष्ठपर्वणि अङ्गुलिकायां दत्तायां यत्स्यात् । 'उंडया' मलग्रन्थयः । अणायचज्जाए-अज्ञातचर्यया । 'जलहर पलंबणे' ति, दोभावा । बाहिरनिसेज्जाए' ति, उपविशन् पादपुज्छने इ । 'अवसव्वाइ' ति. अपसव्यादि वामावर्तादीत्यर्थः । 'मुंजपिच्च' मित्येकं पदम् । अंचियं-पूजितम् 'आउग्गहाउ परेण' यत् हस्तेन न प्राध्यते । वलवा-वेसरी ‘अड्ढोकतीए' गृहीतमुक्तन्यायेन । सिज्झिलिया-गुरुभगिनी। पभायवरिसे प्रभाते वर्षे वर्षाविरमे । संजोगमवेक्खइ मुखौष्ठादिम् । 'आउस्सद्ध सब्बाउ-वीसइभाग सहियं' ति । सर्वायुषार्विशतितमभागेन सहितम् । 'पाणाइणामलस्स'त्ति, पाणं । 'तंतुम्गय' अभिनववस्त्रम् । 'गोमिया' आरक्षका: ।नो पलिंधइ परिहइ । 'ओचूला' अवधूला: । 'कायाणि' मणिप्रभारलतडागजलरक्तानि 'द्रते वा कार' काचे । 'दुगुल्लाउ अभंतरहिते' इति, पूर्वोक्तात् वृक्षविशेषात् प्रधानपट्टसूत्रे इत्यर्थः। 'कोयवोवस्खोओ' वक्खा रूढा । पारसासंज्ञा: कम्बला: । 'वघाइणं चित्तगचम्म' एकार्थे । भाष्ये 'आहारमंतभूस' त्ति, अन्तर्भूषा इत्यर्थः । 'भली-घरकहणं' यथा विष्णुभल्लिना हतः तादृशं च तीर्थमस्ति सोमनाथे । 'कूरचारगो' नाम राया संवठंतमि उच्चाले । संवटे-नवावासे । 'कप्पुवरि' कम्बलोपरि । 'वारवारगेण' वेलया वारया। 'चड्डगा' कमढगा। 'ओमेण' क्षुल्लकेन । 'तया विसाइणा' त्वचा। 'उद्दित्तगादि' पलीवणाइ । 'पडालीए' पत्राडीए।
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विकरणं-लवनम् । 'ईसत्थं' धनुःशास्त्रम् । 'उक्खंदो' धाडी। सपच्चवायमागासे' यत इत्यध्याहारः । दारिटुं-द्वारस्थ । मतट्टियाभुक्ताः । 'नित्थरं' निरंतरम् । 'जाउप्पन्ना' जात्युत्पन्ना: । 'एगयरोविए' एकतरभद्रके। 'अणुप्पए' अनुप्रगे प्रभाते । 'कप्पट्ठगस्स नियंसेइ' कप्पट्ठगे उवगरणपरिहणविहि दंसेइ । 'पुरोहडा' छिडी । 'लोयकरा' पहाविया । 'आउज्जोवण वणियाइ' त्ति अप उद्योत वणिजादयः । 'मुइओ' जातिसुद्धो । 'निभमेत्तं' निम्मं । भाष्ये 'पडिणीयउ गिहीणं मल्लियइ गिहिं व आणइ' त्ति, प्रत्यनीकसंभवे गृहिषु संश्लिप्यते गृहस्थो वा आनीयते । दिब्वे देह जुए' मनुष्यादिशरीरं मृतं व्यन्तराधिष्ठितम् । भाष्ये-'निवसंसी' नृपस्यांशो भागः । निवनीससामन्नो-नृपनिश्रासामान्य: । 'उच्छुढ' त्ति, क्षिप्तानि । रण्णो वाऽविइए-अविदिते । उज्झाइमओ मि-मलिनोऽस्मि । 'विलेवा विरोहि' रब्बाया: विरोधि । पोग्गलं-पिसितं । भाष्ये 'उब्बा (च्चा) ऊ पढविणे बिइया एगेसि तो पंच' इति, एकेषां मते पढमदिणे उचाओ-श्रान्त: तेन द्वितीयादीनि दिनानि गृह्यन्ते ततः पञ्च जायन्ते इत्यर्थः। उइ
खंति-पडिक्खंति। 'अकयदारसंग्गहा'-(अ) कृतदारसंग्रहाः । 'बृहत्तरा रक्तपादा-बट्टा' मार्गात् बृहदन्तरा रक्तपादा: वट्टा जन्तवः भण्यन्ते। मार्गात् अल्पान्तरा: (अल्पतरा) लावगा उच्यन्ते । सिलोकः-श्लाघा । 'वरमम एयाओ आयट्टा भावियाओ' इति, आत्मार्थमद्यापि अभाविता अतस्तासां विश्वासार्थ मलिनवस्त्रा व्रजति । 'भोइय घाड़िय' त्ति, भोगिका-ठकुरा: घाडिया-तन्मित्राणि । 'घट्टमी निच्च उरि' दीर्घा वयं इत्यर्थः । अकर्णश्रुतेन-अश्रुतेनेत्यर्थः । 'हि (तादि) त्ति' न याणसि तुम हियमाहियं वा इत्यर्थः । भाष्ये 'अम्हे खमणा न गणी' ति, क्षपका वयं न गणयः । 'अल्लगफलाइ वा कुभारिपत्राणि । 'दव्वाहा
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निशीथचूर्णिपर्याया:
घणु आहियं जीवा आरोविया' इति पाठः । भाष्ये 'तजाइपण' तजातदोषेण । अब्भुच्चओ-अतिसंस्कर: । अमणुग्गइया पञ्चाणी निग्गमणं एकार्था:' । 'आसियाविओ' हृतः । 'आन्मान्तेन' आत्मसम्मुखम् । वच्छा विवाहेंउलो' भयालुः । सपच्चवा-सार्वज्ञः । 'तहावि साह'-भव्यम् । 'जे पढमिलेनु नितु भंगेसु अव्वत्ता तिण्णि भणिया' इति, आश्रयणीयचतुर्भइन्यऽक्षया एषां प्राथम्यं न तु स्वस्थानापेक्षया इत्यर्थः । 'ओहाइयं' त्यक्तलिङ्गम् । 'तम्हा असं. विम्गेसु न निक्खिवे' अकारो ज्ञेयः । 'मुयमाभियं ति, मा मृतमाडिम्भक इव । भाध्ये 'न मे गुरू सो उ' इत्युल्लेखेन स्वयमपहारः स्यात् । चंडिओ-हेरिकः । विफालिए-पृष्टः। हिजो- प्रभाते । 'एकुणं कोहि' पकाया । विउ-वेदयितुम् । अपोहंत-अपहुवंतं । 'जाइसरणं' जाति: किमिति न स्मारितेत्यर्थः । भाष्ये 'समीखल्लएहिं' खीजडिपत्रः ।...मच्छियं आलोच्य । 'अवहडो' असारः । अत्र 'गण असंभाइय' ति, अकारो शेयः । बारसाहार' द्वारशाखायाम् । 'पच्चासे' प्रत्याक्रोशेत् 'साहाणुसाही' महाराजः । 'आकोप्यमाणं' आकोण्यमज्ञा (मान) । पहिदुगदेसं-पादचारदेश लत्ताहि य-पट्टयाहि । 'गीओमहं' ति, गीतार्थोऽहं । अरुहा जोग्याः । 'वट्टमाणि' वार्ताम् । धरितेसि त्रिभि: । 'नाए' ज्ञाते । 'अंचियकाले' दुभेदे । 'मजियकूर' सिक्खरणि कूरी । 'पणावेई' ढोकयति । 'तेवत्थेण' पाद्रेण । तिसु लहुगो गुरुगो' त्ति गतार्थमिति, एतत् गाथापदं व्याख्यातप्रायमित्यर्थः। अह उड्ढेण अट्ट घरय तिरियं चउरो इत्यादिकाया ग्रन्थपद्धतेर्भावनार्थ यन्त्रकमिदं लिखितं झयम् । तिसु लहुओ गुरु एगो तीसु य गुरुओ य' इत्यादिगाथार्थो यन्त्रके भावनीयः। 'लहुगो गुरुगो मासो चउरी लहुगाय हुंति' इत्यादिगाथापि यन्त्रकात् ज्ञेया 'आयाणस्स' आद्रहण
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नि:शेषसिद्धान्तबिचार-पर्याय
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जग्ग.१
. २
विग०३ | आइयण
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जयण अजयण | पत्तमू अपत्तभू दुजायण
उजा अओग बारजा०
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स्थ आए न य पच्छित्तं' आपिवेत् न च प्रायश्चित्तं । मिव्ययमवुद्धीए' नि:काशनदध्या । अन्येषामर्थपौरुप्या शिष्यं व्यापारोल इत्यर्थः। 'अस्थपोरसीप सीसं वावारित्त' इत्यस्यावि हि। कप्पागो-अनुष्ठानकारापक: । 'मायाणुयवाददसरिच्छा' अज्ञाः । 'अणोभट्ट' अमग्गियं । 'उच्चउण्हे' उच्चे दिने । अहहे.........यगे वा अद्धसीसी। भाष्ये 'मइलकुवेले' इत्यादि गाथायां साणा-मन्दपायो भरः शुष्क क्ल)पादो बा। काणिघरे वा...विते इत्यथः । चोप्पगसमीवाओ-हेरिकात् । 'तवस्सिणां वि गवं' तपस्विनोऽपि गर्वन् । केवगा-रूपका: । 'भइ भत्तं' मूल्यम । 'सूयगेहिं' पिशुनै: । अहिन्नवसा खली वंझा वा' इति, खलीव खडीपर्यायः ततः आहन्नवसाशब्देन च खडी वंझा वा उच्यते । 'पलालखेला' निःसारपलालम् । 'कइय' क्रयिकः । संगच्छावणेद्रव्येण समाधिकरणे । कंटामदावणिय-धूलिछड्डावणं । चीरेण दहरिय-बंधित्वा । वमला-द्रम्माः । विटा-देवकुलिकाः। थली-देवद्रोणी । आसाढो-पढमपाउसो मतान्तरेण भण्यते । भोमोदगं-भौम जलम् । 'उभिज-बीय-सावपहिं' ति कांद्रविया चूडइल्ला: तासां
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निशीथचूर्णिपर्यायाः
चयैः । उवइगउद्दे हया । 'पडायारो' परिग्रहः । 'सवीसइराइमासदिवसेतु' त्ति, सवीसतिरात्रिकदिनेषु इत्यर्थः । साहगं नक्खत्तं' भव्यं । "चंदवरिसं' अनभिवर्द्धितमासं वर्षम् । 'अहिगमासगो पडई' चटतीत्यर्थ: । 'गाहो' नरः । 'भाणगा' मंभिओ। सस्से-धान्यानि । 'हत्थप कापीका' याकुलः । 'संभट्ठो' सम्भाषित: । 'अवज' त्ति, अवज्ञा । 'आवकप्पे' आपत्करपे । भाष्ये 'अविडियफलं' अनालोचितफर। सरसरस्स-अतिशीघ्रन् । असिएण-दात्रेण । डालीओराजिका: । भाष्ये 'नवि सिंगपुंबाला' इत्यादि गाथायां सिंगादीनि संस्थानानि । 'उजवसनीरांगाया:' सुचारिताया नीरोगायाश्च गो: तानि माणि न दृष्यानि 'सेसंगरुहाणि हाणीए' त्ति, शेषागरूहाणां हानिः बाटन कार्यमिति गाथार्थः । वब्भामगा-हिण्डका: । 'पदुप्पाईति' पश्यन्ति । चासकप्पं-गलइकम्बल इत्यर्थः । 'समप्पावणियं' समाप्त्यर्थम् । छिन्नाच्छिन्नद्धाण' त्ति छिन्नः-परिमित:, अच्छिन्नी-महीयान् । 'भट्टिमाइयासु' : रज्जकद्रव्यविशेषः । वालिभद्दगंडियाए' त्ति, वृक्षविशेषः । 'कारणे न निग्गया' न । 'उमंत्थग पणग' त्ति, पश्चात् । ललक-प्रारम् । काहावणा-द्रम्मा: । 'उब्भामगखेत्तं तमि' त्ति, विहारक्षेत्रे । 'विहरते चेव भायण' त्ति, विहारं कुर्वाणः । पुब्बदारियं' पूर्वदिकद्वारकम् । 'असिव अवणयणेण' अशिवापनयेन । कुवोसहाइया -कुपोषधादि । थलीसु-देवद्रोणीषु । 'खाउसयाए' बलिष्ठया । 'कोवणयविइजा' कौपीनद्वितीया:-कच्छोटकद्वितीया इत्यर्थः । 'पजालिय विज्झावणे' उज्झवणे । 'हारितिगराइणो' अपहरतराक्षः । 'लोलगे काउं' निगोलकान् पिण्डकान् । मत्तगा वट्ठाविया भृताः। 'अट्रकुलवमेत्तसमियाए' कुडवमात्रकणिकया । भाष्ये-'उभयपगासो पटमो आई अंते य सव्वतमो' इति-पश्चार्द्धव्याख्या-उभयपगासो
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नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये
पढमो, यत: दिवा गृहीतं दिवा भुक्तं, द्वितीयो दिवा भुक्तत्वात् आदौ प्रकाशः, तृतीयो अन्ते प्रकाशः, चतुर्थः सर्वतमः सन्धिकारः रात्रो गृहीतभुक्तत्वात् । 'विवित्ता' मुषिताः । चक्कय(ध)।' दर्शनविशेष:। “अद्धाणकप्पाइ' मार्गावकरणानि । 'पलंवाइविकरणा' फलकर्त्तनानि । केवयादिडम्मा । 'आइत्तियाण' त्ति, जेसिं सत्थी
आइत्तो ते आइत्तिया । 'नंदी-हरिसो' येन भक्षितेन शक्तिः स्यात् । 'लुंटागा' लूषकाः। भाष्ये-'कड़वाला' गृहरक्षकाः। भाप्ये-धडागाठी भाष्ये-अत्थारिया ल्हासिया 'तकितपरंपरा' भक्षकजन्तुपरम्परा यथा-मक्षिकाया गृहकोकिला तस्या मार्जार इत्यादिका । 'करुडुगाई' कारख्यं । 'निवेयणचस्ववएसेणं' ति, चरुः-पाक: मुक्तव्याकरणवत् -तथाविधोच्छवलवाक्यवत् । 'जहा निती जीवदयत्थं पमजह जाव छन्नं' ति, यावत् छन्नम्-आच्छादितं उपरि स्यात् तावत् प्रमार्जयभिर्गन्तव्यमिति स्थितिः । 'गिहिमत्तसेवणे' गृहिभाजनसेबने । 'ईदृशप्रमाणस्य दृषणे न दोष' मिति, नञ् । 'पीहगाई' स्तन्यादि । आवस्सगकरणं-पडिकमण । 'अजा संकामितो नरिथ घुड्ढो असंको तो संकामिस्सइ त्ति, अआ पव्वाविति' अग्ने अशङ्कः आर्यासङ्क्रामको वृद्धो नास्तीति तो-तत: प्रव्राजयन्ति । 'समाउक' चोरवं । 'भूणिया' पुत्री। 'उवगरणोवघाए' जलधरोपधाते । थिबुयेहि यबिन्दुभिः । कचिच्चो-नपुंसओ। वडवगो-वडहंड:। 'अपरिहत्थोअदक्खो । परियति-धारयन्ति । 'कग्गिसंनिकरिसे विलयइ' अग्निसमीपे विलीयते। भाष्ये-छेवगा असिवं । महुरकुंडइला-जातिविशेषः । भाध्ये 'कोहिवं' सिम्नम् । अन्नहा वि चारिज ते उक्तव्यत्यायन । भाष्ये 'कण्हवणिया' महिसी । दोश्चविरुद्धं'-दौत्यविरुद्धम् । सेल्लयंभजिया । 'अइरुदो रसवीरियं' अतिरौद्रो रसधीर्यम् । 'सिज्झियाइसु'
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निशीथचूर्णिपर्याया:
पाडोसिणी। 'सो वि पडिबद्धो' घाइओ। करणीव-करकस्य ग्रीवा । चकियादि-घंचिओ। झंझडिये अदीयमाने रिणे वणिएहि इत्यर्थः । अवंजणजायं-अजातकूर्चम् । असाविए' अश्राविते । 'फासुगाहारं घरांति साधुमिति शेषः। 'साहूण निवेयाविजइ'-पवेयाविजा । 'महव्वयं अइकाइ' उच्चरइ। 'महत्वए सगि कढित्ता' सकृत् । संचिक्खाविजाइ' पडिक्खाविजइ । 'पवजाए अलो'-समत्थो । पिंडाइ कप्पिओ'-भक्तादेशयिता । 'अंबाइएसु फलेसु सुत्तं' आचाम्लं आछणं । सुंठीए गुलो-गुडसुंठिरित्यर्थ: । 'बिहेलयहरितकी' बहेडक हरीतकी । 'सहसरूया'-सहसात्कारराोण । 'विज्जूखायं'-विद्युत्कृतगर्ता । एसकालं पडुच्चा' एप्यत्कालं-भविष्यन्तम् । भाष्ये 'निस्सटुगलधरणं' तैलस्य । 'पढदिइएहिं छडडे' श्रुधापिपासाभ्याम् । कल्लाणयं-चक्रवर्तिभोजनम् । 'जागं करेमी' योग्यं भोजनम् । भाष्ये 'समाहिए' समाधिनिमित्तम् । 'परिकोसो य जायणे' याचने क्लेशः । भाष्ये 'परिछिया' परीक्षा। भाष्ये 'मा तुर' मा त्वगे भव । हिंडिउ बहले काप' बलीबई कोपोती च । भाष्ये 'मज्झे दवे' मेधार्ह द्रव्यम् । 'समाहिकामाण उवहणिउं' ढाकित्वा। भाग्ये-झुसिओ सेवित: । 'झोसिजइ' दीयते। 'नवतगजीणं संवरंति' प्रत्याख्यापयन्ति । विलंगिओ-कृतहस्तादिविनाशः । भाष्ये-'पढमे पगयं सिया बिदएँ-प्रथमे भक्ते कदाचित् द्वितीये पाने। भाष्ये निसानिदेसे' कढि विकड्ढी। भाष्ये :अणुलोमा पाडलोमा दुगं तु उभयसहिया तिगं होइ' अनुलोमप्रतिलोमापसी द्वयं उभयसंयोगे निक्षिप्ते त्रयं स्यात् । भाष्ये 'पुरिसहेसिणि कन्ना रायविइन्ना ण गेण्हेज्जा' पादपोपगतं प्रकटशरीरं सलक्षणं धीक्ष्य पुरुषद्वेषिणी कन्या राजवितीर्णा न गृह्णीतेत्यर्थः । कालासगवेसिओ नाम मोमगल्लो' नाम शैलु। 'खाओ
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नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये
तिरत्तेणं' प्रहरत्रयेण रात्रेरित्यर्थः । 'बाधीसमाणुपुव्विं' उपसर्गा इति शेष: । बत्तीस घडा' गोठीत्यर्थः । तन्नाईहि-वसादिभिः । 'मिगेनु य' अगीतार्थेषु । साएइ आस्वादयति । 'तस्सोपरि गंडपरसे' गल्ले । सूइमाणभेया-सकुमारभेदा: मेहायुगहण त्ति, मेधायुः । 'प्रमाणप्रमाणेन तिपमाणा' वक्ष्यमाणेनेत्यर्थ: । 'उफोसणाई' अब्भोगी। उक्कइमाइणा' उकुहियाइणा। 'आहारेइ-पंडुरोगाइ संभवे' खउियाइपुढवि आहार पंडुरोगादिकं स्यात् । 'घंटिकरडाइ' कराडिया। पकभाम' भाण्डम् । भाष्ये 'सव्वे वि लोहपाया, तसनिफन्न' पुरुषोहस्य उत्पाद्यमानत्वात् त्रसनिःपन्नत्वं, पक्वभौमेऽपि त्रसनि.पन्न पुरुषेपार्यमाणत्वात् । भाष्ये 'वखुरे य' तुरगमः । दरभुत्ते-ईषदभुक्ते । अवहे पाणिणं ति-अवहंते गृहिणोऽन्यासनग्रहणे प्राणिवधः । दारेण वा' द्वारेण । वई या-बाडी वृति: । 'अट्ठापदं देइ' परमार्थवृत्त्या वैद्यमुपदिशतीत्यर्थः । तस्संदिट्ठो-सामिसंदिट्ठी । 'लवंतीओ' हसन्त्यः । 'उद्दिकवई' पडिक्खइ ततो गृह्णातीत्यर्थः तृतीयादिपु न प्रतीक्षगीयं-जैव ग्राह्यमित्यर्थः । मुहकाणुयाप-मुखकाणिना । 'वियर्ड' प्रकाश: मंडवः । निक्का-कूल्हः । करट:-काकः । धावेवाहियालीए 'भंसुरलाए' धूलहडी । 'गिडुगाइसु दडाइसु । बहुवरपरियाणं' वधूवरगमनम् । 'आसयते' इत्यादि व्याख्यानं 'साइज्जई' इत्यस्य । 'भारवियावडी' भारव्यापृतः । 'वडछल्लिमाई तुवरा' ताहितुवराः स्युः । 'लाउपन्नी/हे' तुंबकैः तृणविशेषैश्च । थामे-स्थाने। 'घाडिएण' मित्तेण । 'तरपन्नं तरणपण्यम् । 'पासाणजलं' पाषाणजलम् । 'संडे वा' उत्तारपाषाणादयः । गारागारिसरिसगाणि' त्ति, यकाभिर्गहं लिप्यते तत्सदृशानि । 'पाडिपहिय' प्रातिपथिकः । तं वेठावेइ-परिभावयति । 'एगाभांगण' एकत्रमीलनेन । 'सगडमादेसेण' शकटादिव्यूहादेशेन । “छिद्रगुडों' द्रव्यगुडः। सुत्तं
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निशीथचूर्णिपर्यायाः
मज्जे' आचाम्लम् | 'अमणुग्गइवाइ' त्ति, पच्चोणीशब्दस्यायं पर्याय: संमुखगमनम । 'सिउ - समोसिओ' पाडोसिउ इत्यर्थः । ' पण्णत्तो' नीरोगीभूत: । ' कण्हवेण्णा' इति वा भीम भीमसेनवत् । 'संकरजडमउडे' ति, भाषार्थऽयं चन्द्र तेन कृतेयं चूर्षिण: । 'अइस' प्ति, सार्थततिकारक: । 'ओहारगसंखडीए' मीलन संखडीए । 'उलंवगपायें' उद्धतिपात्रम् | 'जाला गद्दहो' लूता । 'मंदक्खेणं' लज्जाए । कुलालं कुंडं । दिट्टाभट्टां परिचितः । गंमुणिगाइफला - ग्रामणी - तृणविशेषफ लानि । 'मायरस मुहस्स अवणणं तुंवगगिरस्स । न वा अडाडाप अडुमड़ेग । 'मीराए' चुल्लीए । 'सोया तं करीसखमि मिलिया' श्रोत्राः प्रतिगर्त्ताः तां करीषखड्डां मिलिताः । ' वच्चंतस्स भंगरयणभैया इमे दिया गच्छद्द पंथेण उवउत्तां सालंवां । पएहि चउहि पहि' इत्यादिग्रन्थस्य 'अट्टगचउक्कदुग एकगं च लहुगा य हुंते गुरुगा य' इति भाष्यगाथा पूर्वार्द्धस्य च भावना एभिर्भर्विधेया- 'एवं बितीय
दि. पं. उ. सा
चतुलताभिर्भङ्गाः षोडश
185 1
505
अट्टगेवि एगंतरा सुद्धा' इति 1 पोडशमध्यात् । द्वितीयाष्टके येवमित्यर्थ: । 'बिश्यतइयपंचमनव| ११७ Ss १२s मेसु एकं संठाण पछित्तं भवइ' | १३७ 5 त्ति, षोडशानां मध्ये द्वितीय5 १४८ S तृतीयपञ्चमनवमेष्वित्यर्थः । 'छद्दिss | १५5ss | सिया' इति, ऊर्ध्वाध: पूर्वादिषु | SSSRES SS S गमनसम्भवात् विदिशिगमनस्याऽसम्भवात् एकपरमाणुत्वात् । 'पच्छाकडो जिओ' पराजित इत्यर्थः । 'वाजोगपउत्तेन' वाग्योगप्रयुक्तेन । 'डिंगरा - पायमूलिया' पाउलाणीत्यर्थः । 'विलंकेण' मांसेन । सोंडोमद्यपायी । वाउलणा - व्यावर्त्तना । 'धिधिक्कओ निछूढा' धिक् धिक्
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S S
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निःशेषसिद्धान्तविचार- पर्याये
कृतः । 'दारुदंडयं पाय उणं' रजोहरणं दारुदण्डयुक्तम् | 'चियत्ताओ' रोचकाः । विसप्पियं' विकोपितम् | 'समिया' कणक्का | 'सुसियप्पपसियं' कणका सुषिता सती अप्रदेशिका जाता । 'विधियं' चिह्नितम् | 'उन्भामगं' पारदारिकम् । भाष्ये 'आणादिरसत्ति' आज्ञादयः रसवृद्धिश्च स्यात् । इत्वराभिषेकेन आचार्यपदे अभिषिक्तः यः स इत्वराभिषेकः कियत् कालं यावत् । 'अज्झवपूरयं' उदरपूरणम् । उग्घाइयं-प्रासुकम् । कुसीलयाण ते तव सत्कवादयितृणाम् असमाणोअसमीपस्थ: । अभिओएज-मंताहिट्टियं करेज | 'कथं काऊण जलेनेति शेषः । भाष्ये 'अम्नट्टबणट्ट जुन्ना' अन्याया: स्थापनार्थे जीर्णा । पञ्चदशं. देशे पर्यन्तगाथाया अर्थो भावा सुतेन कृता चूणिः । पतः रविकिरणनाम भाः, अकचटतपयसा इति वगैः सप्तमवर्गान्ताझरो 'वा' इति नाम गृह्यते । पंचसयभोइ अगिणी' भो-भार्या । सप्तधारा नाम तीर्थ । भाष्ये 'पुच्छअच्छीणि' मर्दय । निकाएहनिकाचयति । 'दलियं' ति, शिष्यलक्षणं द्रव्यम् । 'सुहदुक्खीवसंपन्नो' अस्मिन् ग्रामादौ सुखेन दुःखेन वा स्थास्यामः इति यो वदति । फेणओ-झावकः । मग्गोव संपन्नो' मार्ग यावत् सुखदुःखयुक्तः भवदुभि: सह यास्यामः | 'गुरुसज्झिलए सज्यंतिए य' इत्यादिगाथा - व्याख्या- गुरुसज्झिलओ-पितृव्यः सज्यंतिओ खाता, गुरुगुरु-पितामहः गुरुस्स नत्तू - पोत्रक: । 'माउमाया' इत्यादौ मातुः सत्का माता, पिता, वाता, भगिनीत्यर्थः । वंडगो-भागः । 'आयरियं अभिधार' चित् कृत्वेत्यर्थः । 'खलुगो' - संखांडओ । गुलिगमा ईहि-गुटिकादिभिः । 'पत्थ छत्तीसुत्तरसयदिवसे पारंचियं पावर' त्ति । तथाहि सत्तदिणे पंचल, ततः पश्चगुरु, दशलघु, दशगुरु, लघुपञ्चदश, गुरुविंशति, लघुविशति, गुरुपञ्चविंशति, लघुपञ्चविंशति, गुरु, लघुमासु, गुरुमासु,
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निशीथचूर्णिपर्याया:
चउलहु. चउगुरु, छलहु, छग्गुरु ततः चउगुरुओ, छलहछेओ, छग्गुरूछेओ एतेषु एकोनविंशतिपदेषु प्रत्येकं सप्त सप्न दिनानि. ततः त्रयस्त्रिंशदुत्तरं शतं, मूलाऽनवस्थाप्यपारश्चितानां च एकैकं दिनं ततः षट्त्रिंशदुत्तर शतं ज तमित्यर्थः । पिन्नाओ-खलः । 'अणागओमासियसुत्तत्थेण' अनागत आमकालाश्रितसूत्रार्थेन सूत्रस्य तत्कालप्राक्तनचात् । मोडाणि-ककारगाणि । भाष्ये 'समणि सत्तट्ट' सप्तमं प्रायश्चित्तम् टमं चेत्यर्थः। दुपुयं-चलम् । कुरिटो-मुंडहस्तः । बाहुसीसं-स्कन्धः । कलाईण-कलाचिकाभि: । सोस्थियागारी-स्वस्तिकाकारः। माष्ये 'तिन्नि कसिणे जहन्ने' इत्यादिगाथायां जघन्येन कल्पा: त्रयः, मध्यमाः पञ्च, सप्त पुन: उत्कृष्टा इत्यथः । बोसट्टणं ति । टकार पाठः । 'पढमदोचंगाई' प्रथमशालनकानि । वाहतेणव्याधा: चाराश्च । 'सपडिग्गहमायाए' सुप्रतिग्रहकमात्रया । 'अगणिकाइयाणि' दड्ढाणि । 'वग्धापियवासे' अतिवृष्टिः । 'अयोगडो' अविशेषितः । 'दढसाहिएण' दृढसौहृदेन। वाताहरा(डा)-आगन्तुकाः। बहिफांडा-बहुभक्षकाः। परिमंथिय(पदसंधियं)-शीतलीकृतम् । दीविगा-आहारविशेषः । डिंडका-उत्तका: । 'लंबेऊगुत्तविहिं' उक्तविधिम् । उझिमिया-परिसाटिः । नायमाइणा-ज्ञाताधर्मकथादिना । एक्का निसेजा-आसनम् । उवाइणविइ-लङ्घयांत 'कप्पे वा उझियं ति, वस्त्रे । पंच उस्सासकालियं-नमस्कारपदपञ्चकं चिन्तयतीत्यर्थः । 'मासी त्ति सकुंता-पक्षिविशेषः । 'ओमे न पुच्छह' लघुः । पालकुंचइ-अन्यथा कथयति । 'अदिनाए गारस्थिगभासाए' अगारभाषया तीर्थकृभिरदत्तयापि । 'वर्ल्ड वारं खुजा अंबिलिया' इत्यादि असम्बद्धवचनानि, न किञ्चित् सिद्धान्तमध्ये इत्यर्थः । मासथंबो-माषस्तम्बः । 'सतसट्टि चुण्णियाओय' चूर्षिणता इत्यर्थः ।
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निःशेषसिद्धान्तविचार - पर्याये
तीसाए तिहीहिं' अत्र तिथिशब्देन वारा अभिप्रेतः । 'तीसं तिही' बारा । वसतुला इति, बलिवईतुल्याः । 'मूलुत्तरागाहे' त्यत्र 'मूलुत्तर तह चेव य आलोयण नवरि विगडिए इमं तु' चूर्पिण अनुसारेणायं पाठ: सम्भाव्यते । छुडकिकंटक - रिंगीणीकण्टकम् | 'इसिया कंडकं' सरवन्निसरः । भाष्ये - 'सो हेऊ अत्ती जेणालियं बूया' इति, आप्तां येन अलीकं न वदेत् । सई नाम विशिष्टा शस्य समृद्धि: । तिचउपणअट्ठमबग्गे तिपणगतितिगक्खरा व ते तेसिं' इति, तृतीयः चवर्ग:, चतुर्थ: टवर्गः, पञ्चमः तवर्गः, अष्टमः शषसहेति एतेषु यथासङ्ख्यं तृतीयपञ्चमतृतीयतृतीयाक्षराणि गृह्यन्ते जणदसरूपाणि, पतानि व 'तिदुसरजुपहिं' ति, तृतीयस्वर इकारः, द्वितीयस्वर आकार:, आभ्यां युतानि क्रियन्ते । ततो जिणदास इति नामायातम् ।
। इति निशीथपर्यायाः समाप्ताः ।
कल्पपर्याया यथा- - निर्न (र्ण) य इत्यर्थः पतत् विभाषा इत्येतस्य पर्यायः । अथवाऽस्मिन्नेव गच्छाधिवासे । अस्मिन् कल्पाध्ययनवेदिनि । तं एगविहमेव भण्णा न वि इति आदौ पृच्छतां [ता] नवीति प्रतिषेधः । कुचिकरस तत्कथायामित्यर्थः । वयांगयं वचोगतम् 'साहुणो वि पवचंति' ति । मंसाया मांसादा इत्यर्थः । आओदेसस्स आहोश्विदित्यर्थः । कप्पोसियं-लौकिकं शास्त्रम् । मायारपहिं - इन्द्रजालिकैः । उत्तरायणाणं तणगाणि सत्कानि । शुक्तं तीमनं । अणिचिहूंअनुपार्जितम् | उंडीया - मुद्रा 'नवविश्ववहारेणं' ति व्याख्या-गिम्हां लुक्खो कालो | साहारणी हेमन्ती । वासारत्तो निद्धां । गिम्हे तिविही तवो जहण्णा चउत्थं, मज्झिमो छटुं, उक्कांसो अट्टमं | हेमंते वि जहण्णमज्झिमुकोसे छट्टट्टमदसमाई । वासारते वि जहणमज्झिमुकोसे
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कल्प-पर्यायाः
अट्टमदसमबारसमाई । इइ नवविहो ववहारो। सुयववहारो वा नवविहो-गुरुओ गुरुतरो अहागुरु, लहुगो लहुतरो, अहालहु, लहुसो लहुसतरो अहालहुसो । लओ-संकुञ्चिताङ्गोपाङ्गः । किणु हु-कि इत्यर्थः। भाष्ये 'तारदरे' त्यत्र अलङ्कारे । भाष्ये 'आवायं पुरिसेयर त्ति । नपुंसकः। भाष्ये 'महजणणाए'त्ति, महाजनः बहवःसाधवः यान्तीत्यर्थः । उंडियाए चेव-मुद्रिकव लेखः । लहुं च उस्मारेइ-परावर्त्तयति। अस्थिचर्मशिलापृष्ठं वृद्धा-इयं वृद्धा अस्थिचर्मणो: शिलापृष्ठमिव । निद्देसदोसी-परपवित्तिदोसी । तोखाइ-तर्हि । ओहारपणं परमनंसाधारणम् । संजूहो-ग्रन्थरचना । न मंदक्खं करेइ लजाम् । ओग्गाहणपाउ-यत्र तज्जलमानीयते । जाव न ताव उगाहइ-नायाति । तो
ओगाहाप वि-आयातायामपि गच्छति । अव्वकालियलेवो-अक्किालिकः । सद्रवनिक्षेपपरिहारं इच्छन्तो-सद्रवं-सा तस्य भूमौ निक्षेपो न कार्य: । 'परिखुत्थए त्ति काउं' जुन्नमिति कृत्वा । अतिछडाणं- अत्रिछटितानाम् । भिगूहि राईहिं अमिओ-बहुः । भाष्ये 'छारेण अक्कमित्ताणं' ति । रक्षा उपरि दीयते जीवपातनिषेधाय । भाष्ये 'ओमस्थियस्स भाणस्स काउं चीरं उवरि' इत्यादी अधोमुखस्य भाजनस्य उपरि वस्त्रं दत्वा वनोपरि कर्पासतूलं दत्त्वा ततो लेपपुट्टलिका क्रियते । 'अलिंपिऊण भाणं' ति लेपपुट्टलिकया रसं भरन्त्या लिप्यते, पाषाणेन च वेलाद्वयं यं वा घlते, 'अनोई अंकमि उ' उत्सङ्गे 'रएउं अभत्तट्ठी' लेपयित्वा जलं गृह्यते । 'अम्भत्तट्टियाण दाउं अन्नेसिं या' इति लेपितम् अन्येषां समर्पयित्वा मात्मना हिण्डति । उविष्टसाधोरभावे अरइयं-अलेपितं गृहीत्वा हिण्डति । संजमभूइनिमित्त-व्रतस्फातिनिमित्तम्। छाणिय छारोछाणाणां छारो चीरेण बंधिऊणं ततो उण्हे तापे उर्सनादि विधीयते ।
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निःशेषसिद्धान्तविचार- पर्याये
'पत्ताबंधं अबंधगं कुजा' तिसुणहाइणा गंडीप कड्ढीयाए जेण पत्तं सरिसं चैव जाइ तेण वज्जणिजा गंडी । अट्टगहेउं लेवाडिगं तु-लेपाधिकं तूलादिकम् अट्टकार्थे कुनीयम् । वासासारखट्टा-वृष्ट्या - रिक्षार्थी साणक (व) रक्षार्थं च 'जुत्तिलेवो' कट्टकुट्टने । खंजणवा सगडे | चिरं आयारग्गपिडेसणाए- पूर्व आचारपिण्डेपणा: पठ्यमाना आसीरन् इयाणिं दसालियपिंडेसणाओं पठ्यन्ते । उक्कट्टकरणं अनंसेणं- कुट्टितेन । दिखाओ - रेखा: । मालवतेणा-मनुष्यापहारिणः । संनिरे शाकपत्रे । केसिं चि नत्थि तीए महनिज्जुत्तीय- शय्यासूत्रं नास्ती - त्यर्थः । उड्डुंग - घटा । आपस - प्राघूर्णका: । निक्कयणं प्रसवनम् । 'विहार पावर अन्नं' विहाइ मार्गे । 'इति च नीय' त्ति, निजकाः । 'संसत्तंमिय छक्क' इत्याद्युत्तरार्द्धस्य व्याख्यामग्रेतनगाथया करिष्यति भाष्ये 'आउजितो परिक हेइ' उपकरणे उपयोगं कुर्व्वन् । भाष्ये 'अच्छुलुढे जलणे' अतिरूढे । भाष्ये 'भय सेवणार, घाउ' त्ति, भज थिंग् सेवायां धातुः । वीराणं पि नाढाइ-दाद्रियते । आणकखेयव्वाउपरि भावनीयाः । अधिकूडत्तेहि अविकुट्टभिः । पाककृत्तणंअग्रेसरत्वम् । मंदक्खेणं- लज्जया । ततं विततं च-ततं ताणओ. विततं बाणउ । उफोसेज - रोमाणि कुर्यात् । चडुओ पत्रडिका । अलेत्रिया मात्रकम् । नामऽऽड्ढयं-वाचक इति नाम्ना आढयं पुस्सालं वनप्रायमैतत् चिन्त्य एतत् । संभाइजेज्जा न पहुच्चेजा ताहे निजरावेइलोको ददातीत्यर्थः । उक्केलयं ऊहियम् । अबिलबीयाणि - अबिलस्य कारणानि ढुंढणकणादीनि । 'भद्रबाहोरपीति' भद्रबाहुसम्बन्धी सूत्रा
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योग: । नामनिष्पन्न निक्षेपोपोद्घातेऽभिहितं पञ्चककल्पे इत्यर्थः । उस्सारकपिओ- -यस्य उत्क्रमेण छेदशास्त्रभावाः कथ्यन्ते । भाष्ये 'तुरियं वाइज्जते नेव चिरं जोगजुंजिया हुंति' त्ति, त्वरिते वाच्य
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कल्प-पर्याया:
माने नैव योगतपः प्रयुक्तं स्यात् , महाशब्दश्च लब्धः, कि पश्चात् पठितेन । दवमिओ सांवग्गो-द्रव्ये मृगः संविग्न उच्यते । पारण. बाउवेइ-पठति । गरुडपश्खियं-पंगुरणविशेषः । नंदीए कढियाएनमस्कार । 'नया वि ते सावहिप हे' तेषानुपधि न प्रत्युपेक्षते । 'भूयावायं न आनेण' ति. भूयावादो-दृष्टिवाद: । भाष्ये 'गुरुमाइणं बाउण्ह' ति, सूरिवृषभभिक्षुचलकानान् । भाष्ये 'सुत्तं बिल' त्ति, सुत्तं तकार । 'आमे ताले तहा पलंबे थ' त्ति, तालं अअप्रलम्ब पलंबे मूलप्रलम्बन् । मी मग्गा सात्री दोणि उच्छिन्न: । घाडिय स्स-मित्रस्य । गवसणे-गृहे । साही-गृहपक्तिः । भाईए-भार्यायाः । मंडी-गन्त्री। दाढोरुबट्टाह-दात्रीभिः । आसियाइजइ-अपहियते । अगि सारे-यत्र स्वतो ज्वलत्यग्निः निजामेण पडइ-निघातेन । अक्खेवपाह-हस्तपादनिक्षेपैः । संचिखऽत्तगवेसए' त्ति-संचिक्खसहेत । भाष्ये अगत्र उकयएक्कग चे त्यादिगाथार्थो-अढगच उक्कादयो मिलिता: पञ्चवश षोडशस्तु प्रथमो ज्ञेयः । प्रथमाहिताः शेषा: त्रयो ज्ञेया: प्रथमस्तु शुद्ध: । 'भंगपमाणायामो' इत्यादिगाथायां भागप्रमाणमङ्कगणनातः कार्य, ततो भूमौ अनिक्षेप: गुरुः लघु. रिति न्यायेन तत: आरओ-पश्चानुपूा द्विगुणः प्रस्तारे निक्षेपः कार्यः इत्यर्थ: । पयसमदुगमऽभासो' इतिगाथायामप्युक्तः । कुवणओ-लगुडः । भाष्ये 'परेण बलसाहिए' बलात्कारेण आहृते । पच्चांगराको प्रत्युत अपकारकर्ता। गंडी-गंठमाला। 'इयरथ य निद्दओ सुद्धे' सुद्धे इत्यस्य छूढे पर्याय: । भाष्ये 'पवायसरडूय' त्ति प्रम्लानं अवद्धास्थिकं चेत्यर्थः । पलिउखायति-अग्निना दग्ध्वा । आदुक्कियं-छिन्नम् । सुत्तआसुरिमाईहि' त्ति, जुत्तं खायं । आसुरीराजिका । 'भरतर्षभवदिदमपदिष्टं' इति । यथा भारते भरतर्षभ इति
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नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये
पदं स्थाने स्थाने प्रयोजनाभावादपि प्रयुज्यते तथात्रापि राग इति, रागद्वेषयां: संतुलितत्वात् । गाजूइंगयाणं चाहं । 'सुंडओ' सुंडा-सुरा ऐयमस्यास्तीति सौंडिकः । विलंका-सालनकम् । चिभिडवन्निया-- काचरीचनकाश्च । खारियगाइणि-लवणकरीराणि । 'पंचगव्वं वा दिनं' ति, मूत्रछगणदुग्धद्धिघुनानि । सीसई वेव-कथ्यते । उठवेना तं पएसं । शेषादिना शल्यस्थानं ज्ञात्वा । अत्थेण न कप्पा भाष्येण । सुद्धझवप्पूरो द्रवः । तस्स सुद्धस्स अज्झवपूरयं गेण्हइ-केवलोदनस्य न्यूनपूरकम् । असइसग्गामे मिश्रोपस्कृतस्य । आलि संदया-चवला । हरीयगा-मुदगा: । हंसाहाप तेनाहई। भाष्ये 'अणुवासर' अनुपासकः। भाष्ये 'हवइ जओ' प्रयत्नपरः। तित्थस्स-पढमगणहरस्स । अतिनियं-अनियन्त्रितम् । परंगियओ चेडरूवी-प्रचक्रमणशक्तियुक्तः । निउयंइछइ निजोक: । पासाणेहिं जहा बारवईपन-वर्णधातुपाषाणैः । 'जइ तित्थयरो रूववं' ति, जइ-किं इत्यर्थः । आरं दुगुणेणं-संसारं रागद्वेषाभ्यां, पारं एगगुणेणं-मोक्ष संयमेन । 'आयरित्ताऽभविए भयणा' अभाविनि । 'कहयइ यऽभासियाणवि' अकारो ज्ञेयः । 'होइ जओ' परिचयः । वासावजविहारी-वर्षावर्ज विहरतीति । 'हाणाइसमोसरणे' इत्यादिगाथायां अटृत्ति आचार्योऽन्यं साधु 'अढे लोए परजुन्ने' इत्यादि कूटं सूत्रं पठन्तं श्रुत्वा प्रेरितवान् 'अट्टे लोए' इति पाठं भण इत्यर्थः । सिरपरिरयाय-शिरोतिः। इंदियजोम्गायरिओ-इन्द्रियसमाधिशिक्षाचार्यः । 'पुब्बि निसि निगमेनु' इत्यादिगाथायां पुचि गृहवासे विसहिंसु-विसाढवन्त: 'घोरे य संगाम' ये च संग्रामे प्रविष्टवन्तस्तेऽपि सहन्ते इति शेषः । भांगजढे-निर्जने। द्वारकोष्ठाभ्यां बांहभूतो देशः अलिन्दकः । तणुसायि-अल्पशायी। रोमं चुम्भेय-उद्वेग: । 'खामे अगणी उ केवलं' ति, अगणिनं-अना
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कल्प- पर्यायाः
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४३
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चार्यम् | मज्जाररसियं-प्रथमं वृहत् ततो लघु । 'उवसंपर्यं च गिहिसु' गृहिy उपसम्पत्-वसतिग्रहणलक्षणा । उच्यते तदवस्थमेवेति, मम वचनमिति शेषः । स्वविषये शक्त्यपरिज्ञानात्, पूर्वपक्षवादिन इति शेषः । 'संविग्गा तिण्हट्ट' त्ति वक्ष्यमाणायाः आयपरोभयगाथायाः पश्चाद्धेऽवयवे संस्पर्शः । निक्खुरो निक्किट्टो मोहेण य मुज्झइत्ति वाक्यशेषः । अस्यार्थो उम्मग्गदेसणेत्यादिद्वारगाथांपात्ते पदे अयमध्याहारः कार्यः । केषु मुह्यते ? इत्याह-ज्ञानान्तरादिषु । संपिणंप्रावरणम् । कार्य दीहा मत्ता लक्खणगाहा इति अग्गहइ ति ह्रस्वमपि अग्गहई ति दीर्घमात्रया व्याख्यातमनेन प्राकृतलक्षणेनेत्यर्थः । 'पूइयं कप्पर छट्टे' भक्तवत् अस्य व्याख्या द्रष्टव्या इति शेषः । 'शरदादिर्भवत' इति शरत्-मार्गशीर्षादिरिति भगवत्याम् । 'विसं गरी वा दिज्जइ' विषं स्वाभाविकं गरः सांयोगिकः । 'हरियपत्ती' भिन्नं पदम् । पिकछायं पनं - आपांडुरम् । 'सत्तवइयं पलावमित्तं भव' शिप्रा येन सार्द्धं सप्तपदान्यपि गच्छति, तेन सह मित्रत्वं कुरुते एतदसत्यं जातमित्यर्थः । ' वइयंऽणाए गए दिवसे' व्ययितं अनया | भाष्ये 'धम्मेण उ पडिवज्जइ' धर्मध्यानेन प्रतिपद्यते, पच्छा इयरेसु वि झाणेसु । 'अन्नेसु विवतोऽतीयनयं बुच्चई पप्प' अतीतनयं प्राप्य । 'तुमतुमा य कलहे य' त्ति, त्वं त्वमिति कृत्वा रदन्ति 'वक्करय' भाटकेन दत्ता । विकएण-विक्रीणीते । 'पडिच्छाहिगरण तेणे' त्ति, पडिच्छा-प्रतीक्षणं कार्य यतीनाम् । 'तबसोसिय उठवाया' इत्यादी उब्वाया- श्रान्ता: 'खुलु लुक्खाहार दुब्बला' खिल-क्षेत्ररूशाहारकुशा । अप्पाइया - आप्यायिताः । 'विंटियउक्खेवणया' ओहिकासु - ऊर्ध्वकृतासु । नो ओस्सप्पिणि नो उसप्पिणिकालो महाविदेहे उत्थपलिभागश्च तत्र समसूसमलक्षणः । वेओ तिधिहो वि
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निःशेषसिद्धान्तविचार-पर्याये
पडिवजमाणए इत्यत्र छेदः । पुवपडिबन्ने । अवेओ वि इति छेदः । अविक्कितो हिंडइ-अवक्रयन् । जया उवग्गाणि-निकटीभूता न । 'सुहुमकाइया' एक पुष्पाणि । 'तिगमाईया गच्छा' इत्यादी ज्यादयो गच्छा: पुण्डरीकस्य आसीरन् । 'संखुन्ना जेणंता' इति, संक्षुण्णानि मिलितानि अन्त्राणि येन । 'अदागं पंच्छह' त्ति पुतलक्षणं गृहस्था भणन्तीति । उभजी विजउ काथिली एकार्थाः । विहीबपुर-अस्तमने । ओवियभोजन-संसट्ठें। पिह सोयाणि-पृथक्शाचानि । पिउडझं । 'सेसएसुं च'त्ति । घए महुंमि मंसे ये अवयवाः । घयघट्टीतापितघृतकिट्टम् । सूमालिय-साण्ही । खो नु-वितर्के । मुडुयरेवृहदुदरः बहुभक्षको वा 'पडिणीए न ते जिणे' न ते साधुं जयन्ति। सजणं-मष्टीकरणन् । 'जत्थ साहुनिस्सा नत्थि' निश्रा-यथा-अयं प्रदेशो गुरूपविशनार्थमित्यादि । पिटंततंतूहि-अपानतन्तुभि: । फासुण विजिओ-प्रासुकेन पायित: । सत्थुनिमित्तं-शास्तृनिमित्तम् । जीयमणुयत्ती जीतं-आचरितम् । भाष्ये 'सी पुरिसा तं वनं' तां वा पंक्ति अन्यां वा । निव्वेसगवुद्धीए-निःसारणबुध्या । बद्धपलालिओ-बहुभाषकः । अत्थबोहो-आगमार्थमूर्खः । अह हिरिया नामंत ओ-हया नमन् 'पनत्ते समाणे' प्रगुणीभूते सति । वाहिज्जंति कंटगमद्दावणं धूलिझाडावणं । भइए भणिया वृत्ति: । असइवेकणा कणिका । गिलाणनिमित्तं तो सनं-संकेतम् । लोगप्पायणं-लागप्रत्यायनम् । 'रोगविहि' त्ति, रोगविधिं वाचयन् । केवडिए-रूपकात् । भाष्ये 'सूयगा वा हेरिका वा भवेयुः । अंतरपल्ली-पर्यन्तपाटकः । वसभगामा-मुख्यग्राम:, पडिवसभा-आसन्नवतिलघुग्रामा: । भाष्ये 'पच्चंगिरो' सलोद्रचोरः । भाध्ये 'णतनिमंतण' त्ति, नंतं वस्त्रम् । दुक्खणओ-व्याकुलः । सो य अंतोलित्तो मात्रकः। जमलमाइसरिसी-पुत्रयुगलमातृसदृशी। छु,
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कल्प-पर्यायाः
कमढए भागसुद्धम् । भाप्ये 'पुलएज' प्रलोकयेत् । सामत्थं करेपर्यालचियति । परिवच्छेइ-उपधि प्रगुणीकगति । भाष्ये 'पालंक लहसांगा मुगक.यं च' हाने, पालंक फलविशेषः, लट्टा प्रसिद्धा यच्च मुद्गकृतं । एतानि गोरसोनिमश्राणि संसज्यन्ते : भाष्ये 'अविहार्ड' असमर्थ मिहान् । सददलपोइयाओ-त्रासिता: । तण्णगाई-वत्साम् । सज्जति वाहिओ-बन्ध्या: । 'तलपन्नावर' त्ति, चप्पुडियाकालेण पन्नविया चहारिया भण्यते । भाष्ये 'कस्सइ विराहणा' कूर(ल)वालक्रस्येव । दुग्नए. अभेउ वा यउ कोससंनिधानेपि 'सगडालिमणो' थूलभद्रस्य मनः धीमान । 'तह वीओ कि न रुभिंसु' कूर(ल)वालकः इति गाथार्थ: । 'सइकाल' त्ति, भिक्षाकालः। आवायभदओ-आगन्तुकान् प्रति भद्रकः । भाष्ये 'सेणाणुमाणेण' स्वेन अनुमानेन । अवेयवच्चाण-अपगतवाच्यानाम । सभावओ उच्चो-थलो । खंडिओ छिडिओ। खुड्डियाओं रयेण ठायति, अर्वाग् दिशि । 'आवण रच्छगिहे वा' इत्यादिगाथाया: 'सव्वेसु वि चउगुरुगा' इत्यादिगाथायाश्च स्थापनेयं-यथा-अर्थो यथा-सव्वेसु वि चउगुरुगं अविसेसियं । आपण रथ्या. त्रिक. शून्य. उद्या. | अहवा भिक्खुणिमाईण इमा सोही०० ०० ०० ०० ६भि | भिक्खुणीए एपसु ठाणेसु चउही ही ही ही गुरुगं तवकालविसेसियं । छलह०० ०० ०० ०० दी।ग | ए ठाइ । गणावच्छेदणीप गुरुप ६ ६ ६ ६ ठाई । पवित्तिणीए छठाई ०० ०० ०० ०० छ। प्र इत्यर्थः । 'मुहदत वासि' त्ति,
ही ही ही ही विशिष्टो दन्तच्छदः । दिस्सदृष्ट्वा । 'होणे' इति, अस्माकमभूवनीदशा: इति काश्चित चिन्तयन्ति । 'छिन्नाइवाहिराणं' छिन्न आदिर्यासां ता: छिन्नाइया वेश्याः ।
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नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये
भाष्ये-दोच्च-दौत्यम् । पत्थारा-कटः । भाष्ये 'ढति वंगुरिं' ति, पिधीयमाने उद्घाट्यमाने च । भाष्ये 'अन्नतूहेण' अन्यतीर्थेन । भाग्ये-दव्यकरण-शून्यक्रिया । कजं पडिप्पहइ-तित्रभवति-साधयतीत्यर्थ: । 'मा उहुंचएऊ घटा जत्थ गं' गाहा न दृश्यते । उदए पडिजा गर्तायाम् । जूवओ नाम पीडं विट । इंदकुमारियाहि-पादुकाभिः । खद्धपेत्तिए-वृहल्लिगे। तिविहपरिग्गहिए तइयादि पूर्ववदिति । अर्था यथा 'चउगुरुगे' त्यादिगाधाक्ततृतीयपदात् षड्गुरुकलक्षणादारभ्येत्यर्थः । उकसे वि पूर्ववन्, अर्थो यथा-अपरिगृहीते ६६६। छेदाः, परिगृहीते तु 'तवछेओ लहु' इत्यादिगाथोक्ततृतीयपदात् षड्ल घुछेदलक्षणादारभ्येत्यर्थः । भाष्ये-दारठा-दौवारिकाः । भाष्ये-पत्थारी-कटमईनम्। जीवियदोच्चा-जीवितभयात् । सो अणुप्पेहेइ-चित्तमध्ये परावर्त्तयति । अब्भा वासे वि अल्पवर्षे । उवगाणंसमीपागतानामस्माकम् । अवतासेन्जा-आश्लिष्यते। 'थेराइतिए अहया पंचग पण्णरस मासलहुओ य' इत्यादिगाथायाः स्थापनात अर्थो ज्ञेयः । यथा-छेओ मज्झत्थाहतु-मध्यवय आभरणप्रियादिपु छेदः पञ्चकादिविशेषितो ज्ञेयः । काथिके तरुणविशेषिते चतुर्लघु छेदसहितमिति
मध्यव० | आभ०] कंद० काथि० | गाथार्थः । चउत्थपयं तु वि. थे। छे ५/छे ५/छे ५/छे १५ दिन्नं-अनुशातम् । पुमंसमम छे १५ छे १५ छे १५ छे .स्सिया जे उ पुरुषाश्रिताः। त छे छे छे छे ५/ कियकरणे' करणं-सजामः । असामाणिओ-अप्रत्यासन्नः । नियं--अत्यर्थम् । गुम्मासेडियगवल्लिविशेषः । सेजायरचुंणिया-पुत्री । रिठा--मंकेत: । ममसल्ली-- भार्या । आयठिया-संयमस्थिताः । सामाणिए भोयए-सन्निहिते । पडिणीयं च न पडिदेजा न प्रतिनीतं च न प्रतिदद्यात् । अवेसिप
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कल्प-पर्याया:
अगलाए । उछुद्धाणि-प्रचुराणि । जहा कठस्स कथानकम् । पारसु विचञ्चिगा-विगिचिया वाओ । करमात्तीए गुरुचक्खडिया । खयकाई खंपओ । मिगपच्चयनिमित्तं-मूर्खप्रत्ययाय । वियडखोलाणि-धात्रीप्रभृतिछल्लयः। कडपालए वा-गृहरक्षकान् । भाष्ये-सनुदाणं-भिक्षाटनम् । कप्पासकाउ-फर्तयितुम् । भाष्ये-भिंगारेण न दिन्ना-भृङ्गारेण जलाञ्जलिपूर्वमित्यर्थ: । अरिठा-मर्यादा। आसियावेह-आस्वादयति। घंटिक्करेषु-बाटकेषु । तेहि हुँ कज्जं भाजनैः । छेप्पी-पुछडी। नीलीरागखसद्माख्यानं, यथा-नीलीखरण्टित: शृगालः खसद्मनामाहमिति वदति, ततो नादं कुर्वन् ज्ञातः शृगालः इति विनाशितश्वेत्यर्थ: । दव्वारिया-नामण-धोवणाइ-नमनधावनयोग्यद्रव्याणि । एयं अणागउमासियं भणियं अनागताऽवश्रितं भणितं संपइकथानकमित्यर्थः । अजाविओ-आशित: । भाष्ये 'नंग्गलिपासपणं' मूलादौ वेष्टनं कृत्वा । भाष्ये कांव जंतयं पुवं' ति। कोपः, ततो यन्त्रे मां पूर्व निक्षिप सूरियच: । 'बंध चिरिक' त्ति बद्धः-शोणेन उत्रेडितः । प्रथमोद्देशकम्य समाप्ता: । द्वितीयस्य तु-ना पंचकमित्यर्थ: । दस ना-पंचदस इत्यर्थः । अथिरेसु थ-विंशतिरित्यर्थ: । 'उस्सग्गेण निसिद्धा' गाहा इयं इत: स्थानान्नवमी झया। भाष्ये 'तेणऽपियर
खणट्ठा' अप्रीतिरक्षणाय । भाष्ये-'अवेइय हि एव' इत्यत्र 'अवेइय' त्ति अज्ञातपर्याय:। 'अब्बोगडो उ भणिओ' अव्याकृतोऽविशेषित इत्यर्थः । 'कास अगीयस्थ सुत्तं तु' कस्येत्यर्थः । निग्रोलियं च पल्लं-रिक्तीकृतम् । अस्साए चउलहू प्रद्वेषे । किं पुण जा अतोया' प्रचुरशीतलादकरहिताः । सएऊपसु-प्रातिवेशिकेषु । पुवलगं सोट्टावियं पाडिजइ' सोट्टावियं-उपरि स्थितं शुष्ककाष्ठम् । फेल्लो जाओ दरिद्रः । परिसाइणियावलिः । भुत्तसेसं पडिणीयं-प्रत्यानी
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नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये
तम् । विट्टला जात्या दश विशोपका: । भाष्ये 'वणिए घडा वए वेव' इत्यत्र घडावए गोष्ठयाम् । भाष्ये-किलिबोऽहवायं-क्लीबोऽपवायं । भाष्ये-'कडीवलुग्गे' कट्यां वातः प्रविशति । 'सीयाइ ज ।' साथेरि पूजा । 'जते रसो गुलो वा' यन्त्रारम्भे रसं गुडं वा ददाति । ते चक्रमितेलु वा जंतू'-चाक्रिकेषु तैलं । समान्ताः कल्पद्वितीयोद्देशकस्य । तृतीयस्य यथा-भाष्ये 'घोडेहि व धुत्ते ६ व' घोडै:-चाटैः । भाष्ये-'सेन्जायर मामाए पउिकुट्ट देसिए पुच्छा' एषां पृच्छा कार्या । 'बट्टाखुरे संका' हये । दोच्चा जाया भयम् । भाष्येकरोत्या इत्यक्षरे: वृत्तं सूचितम् अत्रेतनं, करोत्यादौ तावत्सघृणहृदय इत्यादिकम् । पाओ उ समाउको-समार्दवः । भाष्ये 'हिच्छसे जति न ते उ दुर' अथेच्छसि यान्ति न ते दूरम् 'सांखोभिया से हऽवरे वयंति' तै: संक्षोभिता अपरे यान्ति । डिडिया वाया अग्नाचार्या: एकार्थाः । भाष्ये-कसिणा दुया दो-चतुर्गु व इत्यर्थः। भाष्ये-'भाणप्पमाणगहेणे-भाजनप्रमाणे गेलनऽभुज' अभाजने । भाप्ये दोस? पि हु' भृतमित्यर्थः । भाष्ये 'पूग-लसिगा पूयं रसिका च'। भाष्ये 'बज्झए तेहिं' पट्टकैः अरुगं-अरईयओ-निच्चाला-नित्याः । घदे धिगहो-वदेत् धिम् अहो इत्यर्थः । भाष्ये-'असई अणंतगस्सपणवण्णुत्तिन्निगा व न उ गिण्हे' । पञ्चवर्णादिकं न ग्राह्यमित्यर्थः । भाष्ये-जा उ विहिम्मिया सई सवश्चयामेइ' सापायाता 'मधुमुहे जणे' मिष्टभाषिणि । 'अणागए चेव सइकाले' भिक्षाकाले । 'वाणओं उ पराजिओ' इत्यादौ व्रणित: पराजित इत्यादि नेयम् । उज्झतु चीरे' इत्यादो मुश्च चीराणि इत्युक्ते 'उच्छरिया नडी'-आच्छादिता नटी 'दीसह कुप्पासगाइहि' कञ्चुगादिभिः । 'जा थणं पियई' यावत् स्तनं पिबति बालकः । 'केसि-सच्चईणं' ति । केशि: शुक्रसमन्वि
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कल्प - पर्याया:
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૪૯
तकेशेभ्यः समुत्पन्नः । 'नालबद्ध किढफासुं' स्वकृतेन प्रासुकेन च । अवधणिओ - मुक्तस्तन: । 'विश्यपप न गेण्हेज्जा' विउग्गहणंतकं । असईप वत्धस्स | वाहाडिया - गर्भवती । उयह पश्यत । वइयं नीयं व हसियं वा तं नीतं वा हसितं वा । पयारो-उपधिः । भाष्ये 'समणस्स वि पंचगं भंडं' पञ्चभिः दीणारैर्जघन्यतः श्रमणस्य भाण्डमुपकरणं स्यात् । भाग्ये 'दुओर ओले व गेलुनं' उदरवृद्धिः ग्लानिश्च । 'कारणिग पंच रत्ता सम्बेसि मलगाईणं' कारणात् पञ्चरात्रं यावत् मलुगादीनां ग्रहणं वर्षाकाले मध्येऽपि । 'चारणवारे वणीणं' ति । चारणसङ्घाते । 'असद्दहंतो कुत्तियावणाओ भूयं ममई' इत्यादि कथायां भूतं मार्गयति वणिजः समीपे भृगुकच्छायातां नरः । तेण चिन्तियं कुत्रिकापणवणिजा । देभि भूयं ते पंचरती कओ कुत्रिकापणवणिजा पञ्चरात्रं याचितं ग्राहकसमीपे । तेण देवो पुच्छिओ-कुत्रिकापणवणिजा । उच्छाए हिइ छलिजासि । जाब नावलोपसि ताव तलागं भवइ' ति । भृगुकच्छीयनरेण अश्वमारुह्य पश्चादागमन मवलोकयता द्वादशयोजनान्याक्रान्तानि भूततडागं च तत्र जातमिति कथार्थः । उद्दद्दुओ-भृतः । परिभट्टया-परिव्राजकाः । निक्कारणे घेतं जर गेण्हs - ग्रहीतुं न वर्त्तत इत्यर्थः । अहालहुसं पच्छित्तं भिन्नमास इत्यर्थः । ' पच्छाअणेहि पर्वतेहि पि निम्गंतव्वं' ति । पभिः पवमानरपीत्यर्थ: । 'अणपुच्छा तिविध सांहि नवमं वा' इति । जघन्यमध्यमोत्कृष्टरूपा त्रिविधा शुद्धिः नवमं वा प्रायश्चित्तमित्यर्थः । 'अणुहसंवदिय कक्कसंगा गेण्हति जं अन्ने न तं सहामो' इति । न तत् सहामहे यत् अनुष्णवर्द्धिताः कर्कशाङ्गा गृह्णन्ति । भाध्ये- 'जा लयाओ वाया लया इव कम्पन्ते । उभओ पक्खच्चओ घोरो' संयतीसंयत पक्षात्ययः । भाष्ये 'भाविणऽमहियमसुगाओ' अधिकं भावि
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५०
नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये
अस्मात् वस्तुनः । 'भत्तटिप-बोसिरिया-नस्तार्थिनः सज्ञां व्युत्सृ ज्य । भाणसझाए-भक्तार्थने भोजने । अकंठगमणाई अश्रोतःषु गमनं धान्यस्य । 'फिडियऽन्नोन्नाऽऽगारण' त्ति । नानाम् अन्योऽन्याssकारणम् 'तवावणं मूसिगा जं च' त्ति । साधु तप इत्याद्युपहासः 'मूसिगा ज च'त्ति यथा भूरिका भ्रान्त्वा धान्या स्वस्थाने प्रयाति तथा एतेऽपि वेश्यादिके स्थाने यान्ति । चिलीण सेहन्नहाभावा-अपवित्र चिलीणं तत्र शिक्षकान्यथाभावः स्यात् । 'गमणे पत्ते अ इंते य' इति गमने प्राप्ते आगच्छति च। पुवाठियाऽसइ-गच्छन्ति पूर्वस्थितानां साधूनाममात-अभावे । पुंछ चिलिमिली दारे' इति डाउंछणं चिालेमिली दोरकं गृहीत्वा गन्तव्यम् । 'कंचुक तह दारुडे य' कञ्चुकंगात्रिकां कृत्वा दारुड-हंडाउंछण च गृहीत्वा । 'असारियं चेव कहयंते' इति । सागरिकव्याक्षेपः कृता भवति । इयरे गहियंमि गेण्हन्ति पतयः । जोपंत पकं न उ पकटेणं' नि। गोजयन्ति न दर्पिष्ठं दर्पिष्ठेन सूरह(व)गस्स सुन्हडस्स । 'हशु दाणि अक्खमंणे' हणु एवं इदानीं अक्षम नोऽस्माकं । तेण य ते अवणीया-तेन ते अपनीताः। दुवक्खरएण-दासेन । निजरा चोच्च-निर्जराच उच्चगात्रं च । 'फाई दोसी गच्छइ' स्फाति । सायाई माणसा-मनांगुति: । मझिमचंदणएखामणवंदणए । 'सिंगं पुण कुंजगनिवाओ' इति शृङ्ख हस्तिकुम्भनिपतनमिव । 'जा दुचरिम त्ति ता होइ बंदणं तीरिये' इत्यादी यावचरिमं साधुद्वयं तावद्वन्दनं देयम् 'आइन्नं पुण तिण्है' कथं ? गुरा: साधुद्वयस्य चेति त्रयम् । 'मझिल्ले न करिती सो चेव करेइ तेर्सि तु' मझिल्ले-क्षामणावन्दने रत्नाधिकाः न कुर्वन्ति वन्दनम् । 'जइ नामऽपूइआमित्ति वजिओ' इत्यादौ यदि नामाऽपूजितोऽस्मि इति वर्जितोऽन्यैः इति वि हु सुहशीलजणो-एवमपि सुखशीलजन: परिवर्जनी
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कल्प- पर्याया:
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योऽनुमतिर्मा भवत्विति । जह न होइ से मन्नु अपराधः । कुलाइकज्जेसु जहा अभिवायणे' इति । राज्ञा धिग्जातीयानां प्रणामकरणे । फेज(टा) बंदणणं-खमासमणेणं । व्रतसमितिकत्रयाणां आर्या' इति । 'व्रतसमितिकषायाणां धारणरक्षणविनिग्रहाः सम्यक् । दण्डेभ्यश्चोपर मो धर्मः पञ्चेन्द्रियदमश्च' इत्यार्या ज्ञेया । 'अकयमुह ! फलयमाणय जा ते लिक्खंतु पंचग्गा' इति । हे ! अकृतमुख ! मूर्ख फलकं आनय यावत्ते लिख्यन्तां पंचपञ्चाक्षराणि । 'संघियकढणे' त्यादौ संहिता प्रथमं ततः कर्षणं । भाष्ये- 'भइणि अवतासितो' इति आश्लिष्यमाणः तं चैव मज्झ सखी' हे पच्चक्खमेव साक्षी । कीरई अच्चा - प्रतिमा, 'सच्चेव चिकिया छिवि' ति । सा चैव प्रतिष्ठिता प्रतिमा कृता मस्तकेनापि स्प्रष्टुं श । न पुत्रिपुत्ता-न पुत्रपौत्रकाः न उ विउत्तान पुनः वियुक्ताः । 'मंदक्खेणं न तस्स' ति । लज्जया । दिज्जते वि तया च्छिऊण अप्पेमु यत्ति नेऊणंति । दीयमानमपि तदा अनिच्य ऊपयष्याम इति ज्ञात्वा । भच्छा - गता: । 'दिन्नां भवव्विहेणेव एस नारिहसि न दाउ जे' इति । णेऽस्माकं नाहींस- न दातुमपि अर्हसि । कि पुण मन्नुप्पहरणेसु-मन्युप्रहरणेषु । जतियकयं वायन्त्रितकृतं वा । असामाणियत्तणेण न याणांत - अन्यत्र गतत्वेन । अखेत्ते ई लाइए, यत्र इन्द्रकीलादिकं भवति तत् क्षेत्रं न कस्यापि आभजने प्रत्यक्षेत्रमुच्यते । भाष्ये- 'दद्धुं व अचक्खुस्सं' अप्रियं । 'निद्दिट्ठसंनि अब्भुवगरयरे अड्ड लिंगिणो भंगा' इत्यत्र निeिrसंनिअब्भुवगय इति पदत्रयस्याष्टौ भङ्गाः । माउम्माया य पिया भाया भगिणी य एव पिउणावि । भायाइ पुत्त-धूया सोलस छकं च बावीसा' ॥ इति गाथाया अर्थो यथा मातु: सत्का माता, पिता, खाता, भगिनी पते चत्वारः पितुरपि चत्वारः इत्यष्टों, तथा भ्रातुः
પા
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नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याय
पुत्रः, धूया इति द्वौ, भगिन्या अप्येतो द्वो, पुत्रस्यापि पता द्वो, दुहितुरप्येतौ द्वौ इति सर्वेऽपि षोडश पूर्वतनाश्च पट् इति द्वाविंशतिः। संगार:-सङ्केतः । अणुमोययइ सो हिंसं-स हिंसामनुमोदयति । 'निद्दिट्टमणिादृट्ट अब्भुवगलिंगि नो लभइ अन्नो' इति अभ्युपगतलिगिनं न लभतेऽन्यः । निंई बा-नश्यम तिलाशः। 'सा चव उग्गहो खल, चिट्ठइ काले उ लंदक्खा' काले तु लन्दाच्या भवती त्यर्थः । सज़ालमालाचोप्यालं-शोभायुक्तं । सेफल्ला जाया-निर्द्धनाः । उंवरिय घेप्पड झंपिया। तेण र सेणासुत्ते-तेन हेतुना रपूरणे सूत्रे सेनाग्रहणं कृतं । 'अन्नाए परलिंग उवओगद्धं तुलेत्तु' इत्यत्र उपयोगाद्धां यावत् अवधि प्रयुञ्जयति प्रथममुत्पन्नो देवः तावन्न परलिंग क्रियते । अणुसट्टाईण अपडिसेहो- अप्रतिषेधः । 'ओहिकाले अईते' प्रथमोत्पन्नस्यावधौ । अनम्मि व पेजंता-पाययन्त पानीयं । 'सेल्लए परिक्खइ-सेल्लय-वालमयी रज्जुः । (चतुर्थस्य) 'कुवणयमाई भेओ' कुवणओ-दण्डः । कस्स गच्छपए वणयं लद्धं शालनकं । 'पड़िहाररूवि भण रायरूवि' इत्यादो हे प्रतीहाररूप-हे प्रतीहार ! भण राज़रूपिणं-राजानमित्यर्थः । त्वां संयमरूपी द्रष्टुमिच्छति । यत्र नृपस्तत्र तं प्रवेशयति । ___ 'पको य दोन्नि दोन्नि य मासा चउवीस हुँति छन्भागे। देस दोपहवि पयं वहेज मुश्चेज वा सवं' गाथार्थो यथा-स्थापनात:आशातनापारंची आशातना पा० प्रतिसेवनापारची वहेत् मुञ्चेत् वेषमासेत्या म.मा. वरि.
त्येकगृहकार्थः । ध्यात् षष्ठ मासं ६ मा-१ १ मा-२ द्वितीयगृहकार्थवर्षमध्याद्वा षष्ठ व.
व.
स्तु यथा-प्रतिभाग मासद्वयल-| १ मा-२ । १२ मा-२४ क्षिण लेवनापारश्ची
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कल्प- पर्याया:
मा.
६ दिन १८
वर्षस्य मध्यात् षष्ठं भागं मासद्वयलक्षणं । द्वादशवर्षमध्यात् पुन: षष्टं भागं चतुर्विंशतिमासलक्षणं वहेत् मुञ्चेद् वा इति गाथार्थः ।
प्रतिसेवनापारची
वर्ष
'अट्टारस छत्तीस दिवसा छनीसमेव बरिसं च | बावन्तरिं न दिवसा दसभाग बहेज वा बिइओ' ॥ प्रकारान्तरेण अनया गाथया आशातनापारची प्रतिसेवनापारञ्च च यन्त्रकात् ज्ञेयः । तथाहि--मासपकमध्यात् दशमभागे दिनानि अष्टादश । वर्षमध्यात्तु दशमभागे दिनानि षट्त्रिंशत् इत्येकगृहकार्थः । द्वितीयस्य यथा - वर्षमध्यात् आशातनापारची दिनानि षट्त्रिंशत् दशमभागे । द्वादशवर्षाणां तु मध्यात् दशमभागे वर्षमेकं दिनानि च द्विसप्त१ दिन ३६ तिरितिगाथार्थ: । 'तइयस्स दोनि मोतुं वे भावे य' इत्यादौ सूत्रापेक्षया तृतीयः सोऽपि त्रिधा तस्य द्वे । एसमं केरिस-अस्मिन् संवत्सरे । 'खड्डे गल्ले वा' खड़ेकूर्चस्थाने | 'न तस्स गओ संभव' त्ति । तस्स आयरियरस सत्थेसु नत्थि खेओ - परिश्रमः । 'खेत्तोव संपयाए बावीस संयुया य मेत्ता य' इत्यत्र द्वाविंशतिः पित्रादयः पूर्वोक्ताः मित्राणि च । 'चेइयघरे वा उवस्सए वा' इति । चैत्यगृहं यदि हस्तशतमध्ये स्यादित्यर्थः । भाष्ये ' तज्जाइयरे य संडेवा' इति । संडेवा: - पाषाणा: । 'लत्तगपहे य' इत्यत्र अलक्तकमात्रम् । जो छेवई तस्स छिन्नो वि' इति छेवइ अशिवगृहीत: तस्य छिन्नोऽपि उपधिस्त्यज्यते । दीहाइमाईसु उ विज्जबंध इत्यादौ विद्याबन्धो विधीयते 'उल्लोयकडे वा पोत्तिं' उल्लोचो बध्यते इत्यर्थः ।
कल्पचतुर्थ पर्याया:- 'अड्ढाजा मासा पकखे अहि मासा हवंति
घर्ष १ दिन ३६
૫૩
व. वर्षमेकं १२ दिन. ७२
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५४
निःशेषसिद्धान्तविचार-पर्याये
वीसं तु' इत्यादि व्याख्या-दिने दिने पञ्चकवृध्या पक्षान्ते सार्द्धा द्वौ मासो भवत: । पक्षाष्टके तु पञ्चकवृद्ध्या विशतिर्मासा भवन्ति । क्शकवृद्ध्या दिने दिने पक्षे चत्वारो मासा भवन्ति । पक्षाष्टके तु दिने दिने दशकवृदध्या चत्वारिंशत् मासा भवन्ति । इत्यादि विभाबनीयं गाथात्रयेऽपि । सूत्रे-गणस्स पडिनिजायब्वे सिया' प्रत्यर्पणीयः स्यात् । पाडियस्स य पाईह-उपाश्रयरक्षयित्रीभि: । सच्चेव हि लालग्गइ हेवाकः। सिवियं व सुकं सिवियं वस्त्रं, सुकं शुक्लं रुखदुर्ग कडिल्लं भण्यते । एगपारिसीए उवियं भत्तं-लमित्यर्थः । इति कल्पपर्यायाः समाप्ताः ।
व्यवहारपर्याया-यथा-अप्पापमाणाए धुवलंभो त्ति । अल्पापमानायां । खलियाइसु-अपशकुनादिषु सक्खुणिओ.........निराकुलः । आइग्गहणेणं गहणं गहनमित्यर्थः । खाइभंगो-प्रथमनगरनिवेशः । 'हाडहडा नाम मासाई' गाहा इति पुनरप्यत्राप्यावर्त्तनीया । तालपलंबा गाहा निशीथगायेयं ज्ञेया। जम्हा तेहि आयया आगाढा: । आहारमुहा-उद्वलिउ मना: । भाष्ये-जा खायइ अट्टियाइं पि' यावत् अस्थीन्यपि भक्षयति । 'गेहत्थपरियाओं जहन्नेणं एगुणतीसं वरिसाणि' इत्यत्र गृहस्थपर्यायेण सह एकोनविंशातर्वर्षाणि । वलायमीणेव्युत्क्रमेण । निकारणे संथारपसु कविएतु । रायारूवबरक्खाय जलारा इत्यर्थः । अहएडग काउं भाजनं । अट्टचालो अभ्युत्राता। भाष्ये'दसुदेसे' अनार्यदेशे बत्तीस सहस्साई हवंति उकासओ एस-उत्कृयोऽयं गच्छः । तद्दागणा विरागो-तद्दर्शनात् । अलकाय खइओहक्कियसुणहेण डंकिओ । तृतीयोद्देशके यथा-पलिच्छन्नो-परिकरित: । कालपुत्तीप-कुलपुत्रतया । पन्नागारं थइया । 'चउसु वि जणेसु नस्थि दोसो' बालवृद्धप्राममूषु । 'जइ जं (जं जह) सुत्ते भणियं'
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व्यवहार- पर्याया:
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Vi
इत्यनेन पूर्वार्द्ध सूचितम् । 'किं कालिया' इत्यनेन पश्चार्द्धम् । अहवा'कुलाइथेरा डिंति' कुलस्थविरादय इत्यर्थः । वीसुंभिषमृते । 'तहेव असंजयहि जाहि चिट्ठलु ताहि वा सिलोगे' इति तद्देवाऽसंजयं धीरो' इत्यादी दशकालिकश्लोके इत्यर्थः । 'पहि जाहि' इत्यादिना श्लोकतत्त्वार्थः कथितः । भाष्ये- 'पलिया जा होई दिट्टिबाउ' ति । पालिया - परिपाटी । तणवेराईसु-तृणस्थानेषु । गोविसो- गोवृषः प्रधानबलीवर्द: । सूत्रे - 'एगराइयाप पडिमाए' प्रतिज्ञया । पभाय संच्छर-वर्षापर्यन्ते इत्यर्थः । एस समुक्कसेयव्वे-स्थापनीयः । सां कुटुक्क - कुडुक्कदेशीयः । आरोगसाला- ओषधादिशाला । कलहमित्ता- वार्त्तापरिग्रहः । एगंगियं-कट्टमूलं कट्टउलं | वायंतिय deer- वाचनिको व्यवहारः । चतुर्थस्यैते - निच्छियं व विभा रिथं द्रव्यं । विसुविसु मत्तवसु ऊगाणेसु । चाउद्दसीगहो होइ कोइ अहवा वि सोलसिग्गहणं । वत्तं तु अनज्जते होइ दुरायं तिरायं वा || अस्या अर्थो यथा - कस्यापि मन्त्रस्य चतुर्दश्यां ग्रहणं भवति, अथवा सोलसी- प्रतिपत् तस्यां ग्रहणं कस्यापि भवति, व्यक्तमज्ञायमाने भवति द्विरानं त्रिगात्रं वा इत्यर्थः । ' ' वा रुद्रेण चिरंपी महापा(या)णाई नाउं अच्छेजा । ओयविए भर हमी जह जाया चक्कवट्टाई' | अर्थो यथा नाउं अच्छेजा ज्ञात्वा । यथा ओयविष-प्रसाधिते भरते यथा राजा चक्रवयदि द्वादशवर्षाणि राज्याभिषेकं प्राप्त इत्यर्थः । 'जे जत्थ अहिगया खलु अस्ससेणसमासिया रनो । तेसिं भरं नसिऊणं भुंजर भोप अडडाइ' ॥ अर्थो यथा - अस्स सेणसमासिया- अश्वसेनापत्यादयो ये तेषु भरं न्यस्य भुङ्क्ते भोगान् अडडाई विस्तराविना इत्यर्थः । ' इय पुव्वपयाहीए बाहुसनामो वेयं मिणे पच्छा । पियइत्ति व अत्थपर मिणइति व दोवि अविरुद्धा' || गाथार्थो यथा- पूर्व
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निःशेषसिद्धान्तविचार- पर्याये
पदाधीते बाहुसनामा - भद्रबाहुस्वामी पतद्अधीतं मिणे- परावर्त्तयति, 'मिणे' अस्य व्याख्या पश्चार्द्धेन यथा- 'पियइ ति व अत्थपदे मिणइत्ति व दोवि अविरुद्धा' अर्थपदानि पिबति मिणइति वा द्वौ एका इत्यर्थः । अगडसूया - अकृतश्रुताः । भाष्ये- 'सिन्हाइ परिताण इत्यत्र सिन्हा - ओसा । 'गोमहिसिमाईणं वालोंह कयं गालणाइ अट्ठाए वालेये' इत्यादिकं सूत्रपाठान्तरस्य व्याख्यानमिदं सम्भाव्यते । भाये - 'अह सा हीरमाणं तु वट्टेउ जो उ दावप' इत्यर्थो यथा-सा हीरमाणं दीयमानं बट्टे परीसेड परीसवणार्थमित्यर्थः ततां यां दापयेत् इत्यर्थः । 'भत्तडिओ व खमओ इयरक्षिणे तासि होइ पट्ट ओ । चरिमे असद्धवं पुण होइ अभत्तट्ठमुज्जवणं' ॥ इति गाथार्थ यथा- पूर्वदिने भक्तार्थी भुक्तः खमओ-क्षपको वा सन् इतरदिने - द्वितीयदिने भवति पट्टबको तपः प्रारम्भकः । चरिमदिने पुनः अश्रद्धावान् उपोषितो भवति ततो अभक्तार्थ- सोपवासं उद्योतनकमेतदित्यर्थः । 'पच्चक्खागमसरिसो होइ परोक्खो वि आगमां जस्से' त्यादों आगमः - परिच्छेदः । 'नवपुत्वीयगंधहत्थी य' इत्यत्र गन्धहस्तिन इव गन्धहस्तिन: । 'अंबेव न कुम्भई खी' ति । यथा अम्बिलामध्ये क्षीरं पतितं विनश्यति । न उ मइलिंति निसेजाइ पीठादिग्रहणे इत्यर्थः । निर्यवकैः - प्रतिजागरकैः । दुगुछियं वा इगाह सुरप्रभृतीत्यर्थः । ' पंचविहो ववहारी दुबालसंगस्स नवणीयं ति सार इति तात्पर्यम | 'नक्खत्ते भे पीला चउमासतवं कुणसु सुक्के' इत्यस्यार्थो यथा-यदि प्राणातिपातादीनां श्रवणेन शब्देन हस्तकर्मणा वा पीडा जाता, ततः चतुर्मासतपः शुकं लघु कुरु इत्यर्थः । अथ च श्रवणं नक्षत्रमपि हस्तोऽपि नक्षत्रं । 'तित्थोक्काली पत्थं वत्तव्वा होइ आणुपुव्वीप' इति तित्थुक्का (म्गा) ली ग्रन्थविशेषः । 'धीरपुरिसपन्नत्तां
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पञ्चकल्प - पर्याया:
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पंचमओ आगमी उपसत्थो' इत्यत्र आगमां जीतं ज्ञेयम् । भाध्ये'मुहणत फिडियपाणगे' त्यत्र फिडियाऊ - संघट्टिया मुहुपती । पाणगसंवरणं - दिनान्तप्रत्याख्यानम् । 'एगिदिनंत - बाजे' इत्यत्र अनन्तकायवर्जितानाम् एकेन्द्रियाणां । 'नेयव्वं जाय खमणं तु' खमणं-उपवासः । भाष्ये 'कारहडिमाला' इत्यादी भाषिकानाम् आचीर्णमिदं ज्ञेयं । भाष्ये- 'उभयमवलम्बमाणं कामं तु गंपि पूपमी' इत्यत्र उभयं गच्छो धर्मश्चेत्यर्थः । 'वंजणओ बस्थिरोमाणि अपानरोमाणीत्यर्थः । भाष्ये'वेजयश्चेत्र' इति वैयावृत्यं । इति दशमे उद्देशके व्यवहारस्य । इति व्यवहारपर्यायाः समाप्ताः ।
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पञ्चकल्पपर्याया यथा-दशविधोऽप्याचारः आलोचनादिः । मालसणाणि - मालायोग्य पुष्पाणि । 'उवट्टवियारलेवपिडे य' इत्यत्र उबट्ठेउपस्थापना | अथवा भैक्ष्यं कल्प्यं गर्हितादगर्दिताद्वा 'गर्हितं द्रव्य - मित्यादि लोकसूचा इयं । 'वागए अयसिसणदुकुलाई' इत्यत्र छेदः, 'म्मे अत्थुरणतलिमकोसाइ' इत्यत्र छेदः, 'पट्टे सन्नाह पल्लत्थि पट्टाइ ' इत्यत्र छेद:, 'पम्ए कप्पासाई' इत्यत्र छेदः, किमिए मलय' इत्यत्र छेदः, 'पट्टे अंसुगाइ' इत्यत्र छेदः । पिच्चइ - कुत्र्यते । किच्चर-कुत्तिय । साछि- श्रांष्यति । ' अहवा तिठाणार' त्रिवर्षपर्यायस्यातिचपलत्वात् श्रुतं न दीयते । जीवपदार्थोऽपदिष्टः कथितः । भाष्ये 'वागेहिं निष्फ नं वागजं सणअक्कमाइयं' इति वल्कलजं सणअर्कादिनिःपन्नं । तिरीडांवृक्षविशेषः । भाष्ये 'मक्खुंडियाईयं' वस्त्रमित्यर्थः । भाध्ये 'लेवग माइमयम्मि' इत्यत्र छेवगं - असिवं । 'पीहगाइया' इति पीहको-स्तनदुग्धं । कोट्टिवं अवाच्यस्थानं । चूणिया-पुत्रिका । घोडमाईहिं-स्थानपालकादिभिः । इहेस कच्चिच्चा-नपुंसकः । 'चए गुरुण सव्वाइयं' ति सर्वमापीतं । आउट्टा-निवृत्त: । 'कासह देद्दित्थ अलियउ' कस्यापि ।
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५८
नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये
फेल्लस्स-दरिद्रस्य । इक्षुकरणे-इनुक्षेत्रे । 'पिटकादिषु' ग्रन्थविशेषः । वरडाइ गंछकादि 'महाजण-पाउमाणि' त्ति । महाजनी-गच्छः । डिंद्रियबंधो-गर्भाधानं । 'ठाणं गाहेई' आसनं कोविं-योनिः । 'भांडछिन्नेण' लिनेन । पडिगमणाइ-व्रतमोचनादिकं । सिरिदिरि-अवाच्यसेवनं । बिटुं तो तूहे पडिसेवियाओ तूह-अवाच्यं । वढुंवओईश्वरपुत्रः । 'करगया तरंगवइमाई' करगया-कथाविशेषः। अह-नारा एइ-न प्राप्नोति । अंतरवई पउमावई-गर्भवती । 'सेसं च पणयं अणायरणजोग्गं' षण्णां मध्यात् प्रथम वर्जयित्वा शेषा: पञ्च तत: पत्र। 'पुरिसो य उग्गमंतो' इति । वस्त्रोत्पादको नरः । भाष्ये-'पच्छायतिग उम्गही' इति उग्गहो-पात्रं भाष्ये-'फुडियविविच्चिनहंगुलि' इति । विर्गिचिया वातः । 'लेवाडअरइ सारियरक्खट्टा गेण्ह सोहण' इति । सारियरक्खट्टा-सागारिजनरक्षार्थ । 'ससरक्खाए पुढवीए अवेसणिया भरिज्जंति' अवेसणिया-वृषणा: । लाडपरीवाडीर-लाइवाचनायाम् इत्यर्थः । 'दुगचउभंगाइ चारणिया' इति द्विकसंयोगे चत्वारः त्रिकसंयोगे अष्टौ इत्यादिकम् । भाष्ये-'वासाजोगं तु अंतरा वास' इति वासं-क्षेत्रं । 'बार समाओ तत्तिय' त्ति द्वादशवर्षाणि तावन्ति । भाष्ये-'भंगपमाणायामो-विस्तरः ।' भाष्ये-'सुत्तं बार समाओं तेत्तियामेत्ता य अत्थो वि' इति द्वादशवर्षाणि सूत्रम् । भाग्ये'निक्खमणं खलु सरए' इत्यादौ निक्खमणं- निर्गम: । भाष्ये-'इयरं थीबालवुइढाई' इति । इतरं-प्राकृतं । भाष्ये-'मीसेइ कोलिपयसं वा' कोलिकपाने । 'गज्जमि य पयसंखा' गद्ये पदसङ्ख्या । 'अन्ती वि होइ भयणा ओमे' इत्यादिगाथायां अन्त:-मध्ये गच्छस्य वसतामपि भजना, यथा-अवमस्य वन्दनं प्रायश्चित्तापत्रस्य च संयत्याश्च सेहस्य च न वन्दनं देयं । 'बाहिं पि होइ' इति । बहिरपि गच्छाद
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पञ्चकल्प - पर्याया:
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बसत भजना, यथा-अजापालकवाचकस्य शिष्यस्य वन्दनं दत्तम् । 'हेट्टट्ठाणडिओ वि हु पावयणि' इत्यादिगाथायां अधःस्थानस्थितस्य संयमपतितस्य प्राचचनिकाद्यर्थन् । अपरपदे - अपवादे कृतयोगी संनिसेवते आद्यनिर्ग्रन्थ इव पूज्यः सः । भाष्ये- 'संभुंजणा निसिरणा य' इति । निसिरणा- दानम् । एसो वि कालकष्पो, काउस्सगे साथ सयं गांमद्धे एमो वि कालकप्पो' इत्यादि प्रथमे एसो वि कालपी इत्यत्र परिच्छेदः । तथा कायोत्सर्गे सायं सख्यायां शतम् उच्छ्वासकानां यतः ज्ञान-दर्शन-चाग्त्रि सर्व कायोत्सर्गेषु शतम् उच्छ्वासकानां भवति । 'लोगस्स उज्जोयगर' चतुष्टये एसो वि कालकल्पो ज्ञेयः । गोसद्धं' इति प्रभाते अर्द्ध-शतार्द्ध ज्ञेयम् । 'निकाचयतीति अपाहते च' इति एकार्थे। ज्ञेयो । 'वीरलसउणओ परसीयाणं' इति । सींचाणकः, परसिया-आखेटककर्त्तारः । अर्द्ध सकडी यथा- लिङ्गिप्रावरणन् । गरुलपक्खियं स्कन्धद्वये वस्त्राञ्चलद्वयक्षेपः । यथा एकत्र स्कन्धे एकः, द्वितीये द्वितीय: । 'खंधपुवत्थं' इति । एकत्र स्कन्धे द्वयोरपि वस्त्राञ्चलयोर्निक्षेप: । 'आयामेण वंदइ संभागो वायप अतरमाणा' इति वचनेन वन्दनां कुर्वन् अशक्त: आयामेण - शरीरप्रणामेन वन्दते इत्यर्थ: । 'तरमाणो न वन्दद्द' तरमाणो- शक्तः । 'उस्सारकप्पलोगाणुओग' इत्यत्र उस्सारकप्पो व्यतिक्रमेण सूत्रदानं । 'सीमडिओ वामयाहा बा' इति सीमस्थितो वा हत्वा वा इत्यर्थः । भाष्ये - 'मत्तगभांगो अट्टाए' इति । मात्रकभोगो निरर्थकां न कार्यः । 'इंडियभामाइ नावहि' इति उण्डिया वर्णकवृत्ति: । 'चाउरकेण गोखीरेण' गोक्षीरविशेषोऽयं । 'अन्नत्थयगओ ताहे कपियारीओ भणई' इति । कप्पियारीआ - परिवेषकः । भाष्ये- 'भो खत्तिय ! सहुत्रग्गो' इति । भोक्ष्यति असहवर्ग: । भाष्ये- 'पढमं ठागुस्सग्गो तेणं तू नवसु
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नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये
होइ ठाणेसु' इति । प्रथमन्-उत्सर्गपदं तेन नवसु-अष्टौ ऋतुबद्धमासा नवमो वर्षाकाल:। भाष्ये-'खेत्तं कालाध्यं समगुम्नायं पकप्पम्मि' कालातीतमपि क्षेत्रम् अनुज्ञातं द्विगुणं त्रिगुणं चतुर्गुणं यापीत्यर्थः । भाष्ये-'ते अग्गीयऽबहुस्सुय तिण्ह समाणारओ तरुणां' इति । अणीतार्थोऽबहुश्रतश्चेत्यर्थ: । तरुणस्तु त्रयाणां वर्षाणां आरत: । भाप्ये'अन्नं वेलं न सज्जं भिक्खु हाईविं संसत्तं' ति । स्नानादि संसक्तम् अन्यस्यां वेलायां न सद्यः स्मारयन्ति । 'फुडरुक्खे अचियत्तं गोणे तुइउब्वमाहु पेलेजा' इति । स्फुट रूक्षवचनैः अचियत्तं-अप्रीतिं करोति प्राजनतुदितगौरिव । 'सज्ज अउ न भन्नई' अत: सद्यो न भण्यते । ऊल्लोलछगणहारी न मुच्चई जायमाणो वि' इति । अग्रेतनगोणादे: न तस्य अशुष्केऽपि छगणे पुन: चोर्य यः करोतीत्यर्थः । भन्नइ घट्टिज्जतं तुत्थं दुटुं तह तुमंपि' इति । यथा तुत्थ-औषधविशेष: घट्यमानं दुष्टं स्यात्तथा त्वमपि । भाष्ये-'पाणी सो संयुत्तो अरुचिय कुंकुम तइयं' इति । य: स्मार्यमाणोऽपि न प्रपद्यते, स पाण इव-चण्डाल इवेत्यर्थः । यथा चाऽतिघृष्टं कुङ्कम विनश्यति तथा सोऽपि । 'आइपणगं तु तुल्लंति जाण सेन्जाइ जाव साहारंति । शय्या-उपधि-स्वाध्याय-आहार-अनुकम्पालक्षणं झेयम् । अहवादिपणगमूलंगुण पंचेप हुति दोण्ह तुल्लाउ' इति । पश्चाद्या: मूलगुणा: पञ्चमहाव्रतरूपा: अनुस्वारस्तु प्राकृतत्वात् । वाई पुण उत्तरावहाइन्न । वाई विकट-मदिरा। 'दुगुणतिगुणच उग्गुण बहुगुणा वा खेत्तकालाइकमा' इति । कारणे मासादेरुपर्यवि कल्पते इत्यर्थ: । अंतद्धाणहंसाईहि वा उप्पाइंति हंसाईहिं-हिंसादिभिः । आलंबणविशुद्धे सत्तदुप परिहारेजा' इति । 'पट्टीवंसा दो धारणाइ' इत्येकं सप्तकं, 'वंसगकडणुकंवणे'त्यादि द्वितीयं सप्तकं इत्यर्थः । 'संलीढाए वोसिरणे योसट्टाए वा' इति ।
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दशाश्रुतस्कन्ध-पर्यायाः
संलिखितायाः व्युत्सर्गसमये वा सर्वस्य कृतव्युत्सर्गाया वा अनुशास्तिनिमित्तं इत्यर्थः । चउवग्गो त्ति। असणाइ न य पवयणपीला भवइ-न च प्रवचनपीडा भवति । 'अणाइन्ने पुण वियडाइसु अणुयाइसु मइलणा' अनुचितेषु विकटादिषु इत्यर्थ: । 'अप्पणा अणिवित्ता' अनिवृत्ता इत्यर्थ: । 'गीयत्यहाइन्ना तं देसीओ न जाणामि' इति । गीतार्थैराचीर्णा समिति:तां विदेशोऽहं न जाणामि । सीयघरसमो य होइ । माभाई' इति । माभाई-अभयदाता । खाई-तर्हि । भाष्ये'आयरियप्पमाणा गुणप्पमाण च समणाणं' इति । आयरियप्पमाणाआचारप्रकल्पप्रामाण्यात् । भाये-'निय अणुकंपाए गिहिणं तो नामन वसहा तुम्भे' इति । निर्दयत्वेन अनुकम्पया च गृहिणां विधीय. मानया नामन वृषभा भवन्त इति प्रेरकवचनम् । 'भण्णइ सरिसेऽहिगेहि च' इति । सदृशैरधिकैश्च उज्जुयारेइ-उज्जालयति । 'मासाईए अणुहि वासाईए भवे उचही' इति । मासादृवं अनुपधि:-ज उपधिर्मासादृर्व ग्राह्यः । 'वासाईए भवे उवहीं' ति । वर्षाकालेऽतीते तु उपधिर्नाहाः मासद्वयस्यामित्यर्थः । 'सुत्तत्थतदुभयाई संधि अहवा वि पडिपुच्छेप' इति संधिविस्मृतस्य सन्धान प्रतिपृच्छन्ति वा पते । 'वसणं वाजीमाई' इति । वाजीकरणादिकं-कामोद्रेककरणमित्यर्थः । कुहंडी-अंबिका । इति पञ्चकल्पपर्यायाः समाप्ताः ।
दशाश्रुतस्कन्धपर्याया-यथा-'द्वाभ्यां कलितो बाल' इति । बालत्वयुवत्वाभ्यामित्यर्थः । 'भोयणदारगरायदिटुंतेण मा वोच्छिजिस्संति' इति । यथा-भोजनादग्रती बालानां विनष्टप्पादि दीयते इत्यर्थः तथा राजदृष्टान्तो यथा-राजा दुर्भिक्षे लोकानां धान्यं प्रयच्छति इत्यर्थः । 'न याहारोवहिसेजई' इति न च आहारादिनिमित्तं निर्जूढाः । मिस्सठाणं समाभरियाण-अलङ्कतनराणां । खंघखणियवायपडिसेहणधं
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नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये
स्कन्धक्षणिकवादप्रतिषेधार्थ । गोणसमृगादि-गोनसमृगादि । चक्कय रदंडगो-कुम्भकारदण्डी हि मृत्तिकासवलो भवति । तुतीयवशायांकालियाए रात्रौ । 'अगारगं वा भुंजमाणस्स' भक्तरुचि विनेत्यर्थ: । 'ओसन्ने सवपयाणि वि' अवज्ञादीनि कार्याणि । संघट्टित्ता नाणुजाणेइ-न अणुजाणावेइ। चतुर्थदशायां-यथा उपगृह्णातीति उपग्रह:परिपालनं 'दवपलित्थयस्स' त्ति द्रव्य-शरीरं । 'गोहि गामि।' इति । गोभिर्गोमान् गोसङ्ख्यां करोति ! 'छप्पन्नं पंचसंजोगा सव्वत्थ बत्तीसं बत्तीसं भंगा' इति पञ्चकसंयोगा: षट्पश्चाशत् भवन्ति इत्यर्थः । 'अहवा बहुस्सुओ अभिंतर-बाहिरएहि' इति स्वसमयसूत्रं परसमयसूत्रं चेत्यर्थः । 'चित्रं बर्थयुक्तं' इत्यत्र छेदः । लिहइ पहारेइ गणेइ' त्ति । पाहाडे गणेइ इत्यर्थः । पञ्चमदशायां तु 'जहा तीसे कम्मकारियाए घुसलंतीए महत्तरघूयं जायइ' इत्यादि कर्मकरी काचित् घुसलंतीविरोलंती पादाधी न्यस्तद्रव्यमाहात्म्यात् स्वकीयपुत्रार्थ महत्तरस्यठकरस्य सत्का पुत्रीं याचते इत्यर्थ: । कभल्ले गांवेइकमल-कर्मकाराटिः। मिच्छादसणसल्ले आयजोगीण' ति । एतनिवृत्तये आत्मनो हितास्तेषां । षष्ठ्यां यथा-सीहपुच्छिति-यथा सिंहस्य मैथुने लिङ्गच्छेदः स्यादाकर्षतः । थामियाण-बलिष्ठयोः छिन्ननेत्री भवइ-छिन्नलिङ्गो भवति । एवं तस्स पुत्तयाहेत्तु पौड़ा इत्यर्थः । सप्तम्यां तु 'सभिक्खुए य अहिगारो' इति । सभिक्खु अध्ययनं दशकालिके । 'वेयावश्चकिलंता अभिधरोमो य आयासे' इति । अवश्यकर्त्तव्ये अभिन्नगरोम इव । 'संकमाहणे इच्छा' इत्यादिकं 'पच्छित्ते आपसा संकिय' इत्यादिना व्याख्यातमेव । का दुणु इमस्स इच्छा अभितरमहिगउ जीय-का इच्छा अस्य साधा: यया इच्छया मध्ये प्रविष्ट इत्यर्थः । 'असुइणा वागाए किंचि सउणगाइणा' इत्यादि शकुनिगृहखरण्टित: समुद्देशे च
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दशाश्रुतास्कन्ध-पर्यायाः
क्षालनं करोतीत्यर्थः । अष्टमदशायां-'जइ अस्थपयवियारो' गाहा कंठा 'कुत्तनिहिडा निसीहे' इति । कुत्र निर्दिष्टा गाथा ? निशीथे इत्यर्थ: । 'चयणाईणं छह वत्थूण' च्यवनादीनि पञ्च षष्ठस्तु गर्भापहारः । 'पणियभूमि वजभूमि' इति । पणियभूमि इत्यस्य पर्यायो बजभूमिरिति । भूमिशब्देन काल उच्यते । पुरिसंतरकालो युगतरकालश्चेत्येकाचा । 'पणपन्नं पावा पणपन्नं कल्लाणा' इति । पञ्चपञ्चाशदध्ययनानि पापकर्मप्रतिपादकानि पञ्चपञ्चाशश्च कल्याणप्रतिपादकाति अध्ययनानीत्यर्थः । तत्रैकत्र मरुदेवीवक्तव्यताइत्यादि ज्ञेयं । 'वेसमणकुंडधारिणो तिरियजंभगा देवा' इति कुण्डधारिण इति तेषां नाम ज्ञेयम् । पावाए मज्झिमाए-एकार्थे । ततः हस्तिपालकस्य राज्ञः सत्कायां रज्जुकसभायां लेखकसभायामित्यर्थः । चंद्रसंवच्छग्मधिकृत्यापदिश्यते 'जेण जुगाई सो' इति । येन कारणेन स संवत्सरः युगस्यादो वर्तते । 'वासाणं सवीसइराए किं निमित्तं ? पाएण सयऽहाए कडियाई पासहिंतो कंबियाणि' इति । अर्थस्तु वर्षाकालस्य सत्के सवीसइरापसु दिनेषु गतेषु किंनिमित्तं पर्युषणा क्रियते ? यत: प्रायेण स्वार्थ कृतानि गृहाणीत्यर्थः । 'जहन्नलंद उद उल्लं-उदकाई सत् यावता शुष्यति तावान् काल इत्यर्थः । 'भगक्या जमनरखतं संकंते' इति । भगवतो जन्मनक्षत्रं सक्रान्त: तत्रोदय इत्यर्थः । अचलमाणा-अचलंती । अणुत्तरोववाइयसंपया होत्था' -ये अनुत्तरविमानेषु उत्पत्स्यन्ते इत्यर्थः । 'समणस्स णं भगवओ महावीरस्स नव वाससयाई वीइकताई, दसमस्स य वाससयस्स अयं तेणउइमे संवच्छरे गच्छद' इत्यस्यार्थो यथा-यदा किल पर्युषणा चतुर्थ्यां जाता, ततः पूर्व कालमानमिदमिति वदन्ति वृद्धाः, तवं पुनः केवलिनो विदन्ति इति भावार्थ:। आहोहिएण-अभ्यन्त
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नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याय
रावधिना । 'पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणियस्स कालगयस्स दुवालस वाससयाई वीइकंताई, तेरसमस्स य वाससयस्स अयं तेयालीसइमे संवच्छरे गच्छई' इत्यस्यार्थी यथा-महावीर कालमानं प्रोक्तं ९९३ पतन्मध्ये जिनान्तरं पार्श्वनाथसत्कं प्रक्षिप्यते इदं २५० ततो यथोक्तं मानं भवति १२४३ अङ्कस्वरूपमिति भावार्थः । अरहओ णं अरिष्टनेमिस्स कालगयस्स चउरासीई वाससहस्साई वीइकंताई, पंचासीइमयस्स वाससहस्सस्स नव वाससयाई वीइकंताई, दसमस्म य वाससयस्स अयं तेणउइमे संवच्छरे गच्छई' इत्यस्यार्थी यथापार्श्वनाथमान १२४३ अस्य मध्ये नेमिपार्वान्तरं क्षिप्यते इदं ८३७.० ततो ययोक्तं मानं भवति ८५९९३ अङ्कस्वरूपत इत्यर्थः । बायालीसवाससहस्सेहिं ऊणिया गच्छद्' इत्यत्र ऋषभकालात् प्रभृति चतुर्थीप्रवृत्तपर्युषणादिनं यावत् कालमानमित्यर्थः । कोडियकाकंदवम्बावञ्चसगोत्ताणं' ति कोडियकाकन्दयोः वग्यावञ्चं गोत्तं । 'अज्जत्ताप समणा निग्गंथा' इति । साम्प्रतं ये विहरन्तीत्यर्थः। 'अंतरा वि से कप्पड़ पज्जीसवित्तए' पञ्चभिः पञ्चभि: दिनैः कृत्वा इत्यर्थः । 'अत्थेगइयाणं एवं वुत्तपुव्वं भवइ दाए भंते' इति सूत्रस्य व्याख्या-केनापि भिक्षां गच्छता एवं पूर्वम् उक्तं स्यात् यथा-अन्यस्य वास्यामि भक्तं न तु स्वयं प्रतिग्रहीष्यामि इत्येको भङ्गक इत्यादिका चतुर्भङ्गी शेया । चूर्ण तु-'अत्थेगझ्या आयरिया दाए भंते ! दावे गिलाणस्स मा अप्पणी पडिग्गाहे चाउम्मासगाइसु' इत्यस्यार्थी यथा-सन्ति केचिदाचार्या: ततः शिष्यः प्राह-तान् प्रति-'दाए भंते' इति । अस्यार्थस्तु ग्लानस्य दास्यामि न स्वात्मना ग्रहीष्यामि चतुर्मासकादिषु इति चतुर्भङ्गी ज्ञेया इत्यर्थः । 'तुम पित्थ भोक्खसि ओयणं दवं पाहिसि' इति । त्वयाऽपि भोक्तव्य आंदनः जलं च पातव्यं ततो बहुतरमपि गृह्णा
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दशाश्रुतस्कन्ध-पर्यायाः
णेत्युक्ते गृह्णातीत्यर्थः । 'अदक्खु वइत्तए' इति । कुलानि विद्यन्ते श्रावकाणां कृतादिविशेषणोपेतानि येषु श्रमणानां नो कल्पते 'अदक्खु वइत्तए' (अ)दृष्ट्वा किञ्चनापि भोजनजातं उदितुं याञ्चार्थम् यतः। पूर्वक्वथिते जले औदनं क्षिपित्वा तत्क्षणादेव ओदनं नि:पाद्य यच्छन्तीत्यर्थः । 'वासावासं प०' इत्यत्र पकारे पयुषितस्येति ज्ञयम् । ससित्थे आहारे दोसा अपरिपूण कट्टाइ अगलिते जले काष्ठादि स्यात् । संनिवत्तिउं आत्मानं अन्यत्र चरितुं चारएइ इति 'संनित्तिउं' इत्यस्य व्याख्यान 'अन्यत्र चरितुं चारएई' इत्येतत् Fप्तभ्यः अभिग्रहीकृतगृहेभ्यो अन्यत्र भिक्षां कृत्वा पुनः सप्तसु भिक्षा कतै न कल्पते इत्यर्थः । भिगुपुडियालीमृत्तिकापुटानीत्यर्थः । 'पारणगं वा संधुक्खणाइ अस्थि' संधुक्खणं-येन उदराग्नि: दृढः स्यादित्यर्थ: । 'अहासंनिहिया अणतावणे कुच्छणं पणउ' इति । साई उपधिर्यदि संनिहिते स्थाने न ताप्यते ततः कुत्सनं पनको वा ऊलि: स्यात् । 'अडगेहिं बंधई' बन्धविशेषः । अहिगरणकलहः । बल बाउया-बलव्यापृता: । 'जाणप्पवरे आइटुं भई तव दुरुहाहि' इति । जानप्रवर: आदिष्टं भद्रं तव समारुह इत्यर्थ: । विगाहापरिव्राजकवत् कश्चित् परिव्राजको ज्ञेयः । 'एगंतरमुप्पाउ अन्नोन्नावरणक्खए जिणाण' ति । पर: प्राह-एकत्र क्षणे ज्ञानं प्राप्नोति द्वितीये तु दर्शनं अन्योन्यावरणक्षये सति इत्यर्थः । गिलाणवेसं अद्देई' करीतीत्यर्थ: । कोडिल्लगमासुरक्खाइ कहेइ' कथाविशेषो । 'सहजायगा मित्ताई' सहजाता: सहजमित्राणि भण्यन्ते । कम्मंता कम्मठाणाएका । पूर्वकृत्यमिति सी यमुद्यत् इत्यादौ गृहस्थावस्थायां गृहिणां कृत्यम् इदं यथा-घोररणमुहं दारभरणं-भार्यापोषणं । पेयकिञ्च-श्राद्धादिकं एतत् स्वरूपेषु स्वर्गपु कीदृशेषु ? 'देहपूयणचिरजीवणदाणति. न्थेसु' देहपूजनं रणे इत्येके तीर्थ, चिरजीवनं भार्या प्रति इति द्वितीय
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निःशेषसिद्धान्तविचार- पर्याये
तीर्थ, प्रेतकृत्ये दानं देयमिति तृतीयम् । अथवा अपत्योत्पादनं कृत्यं । न तस्मात् सांसारिकभावात् जीवांऽर्थान्तरभूतां मृतस्य 'जातिसरणं' ति । यतो मृतस्य जातिर्जन्मधारणं आश्रय इत्यर्थः । ' संजमघाइमूला: क्रमेण उत्तरगुणा' इति । संयमं घ्नन्ति मूलगुणा: तत्क्षणात् उत्तरगुणास्तु क्रमेण घ्नन्ति । 'असुभा मियापुत्ते य गोत्तासे' मृगापुत्रो गोत्राकश्च | 'तहागएसु दसहा नियाणाणि' तथाप्रकारवस्तूनां विषये दशधा निदानानि ब्रह्मदत्तादीनां । 'गहतित्थादिसु वा वीयारणे' दिति ब्राह्मणानां । 'मालानक्खत्तमालादि' - आभरणविशेषोऽयं । 'बुंभलगाईणि' आभरणविशेषः । वव्वीसनादिट्ठे खरीप्रभृति 'निदाने य भवइ' निदानं तत् स्यादित्यर्थः । ' nose रस्सिय' त्ति । संजया तापसविशेषा इत्यर्थः । 'सिस्नोदरकृते पार्थ' इत्यादी सिस्नादर - मैथुनं । 'जाब पुणो पुत्ते पादिति केचित्तापसाः बालत्वे पञ्च षड् वा वर्षाणि यावत् तपः कृत्वा परिणयन्ति पुत्रकाममुत्पाद्य तानेव पाठयन्ति । 'अन्नयस्स अइयमाणस्स वा' आगच्छत इत्यर्थः । वेलपेला इव सुसंपरिमुयावस्त्रपेटा इवेत्यर्थः । 'तेलकेला इव सुसं पडिरुवेणं' सुकेण शुल्केनमूल्येन इत्यर्थः । संबलिथालिया इव-सिंवलिवृक्षफलमिव । 'एस मे आयाम परियाए एस नीहाराए' इति - आत्महिताय परितापाय च गृहमोचनाय चेत्यर्थः । 'पेप्तियं दायं पडिवज' पैत्रिकपदमित्यर्थः । 'सव्वेसिपि नयाणं' गाहा ज्ञेया । निर्युक्तौ तु कहिया जिणेहिं लोगपगासिया भारिया इमे बंधा । साहुगुरुमित्तबंधवसेट्टी सेणा व इबहेसु' इत्यत्र लोकप्रकटा भारिका इमे साधुगुरुमित्रबान्धवश्रेष्ठि सेनापतिवधेषु इत्यर्थः । मंगलं इति दशाश्रुतस्कन्धपर्यायाः समाप्ताः इति ।
गुरुसम्प्रदायत: - 'दविणासणे दुविहभेए' इत्यस्य व्याख्यानगाथा यथा-जोगं अइयभावं मृत्युत्तर भेयओ अहद कहूं | जाणाहि दुवि
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जीतकल्प-पर्यायाः
हमेयं सपरख--परपक्खमाई वा ।।१॥ योग्यं-नवम्, अतीतं-पुराणं, मूलं-स्तम्भादिकं । उत्तरं-वंशादिकं । सपक्षद्रव्यं जिनसत्कं, परपक्षद्रव्यं-तीर्थान्तरीयाणाम् इति गाथार्थ: । कलिका हस्तिटगकः।
जीतकल्पपर्याया: यथा-आद्य त्रिपु स्कन्दक छन्दः । 'जस्स मुहनिज्झरामयमयवसगंधाहिवासिया इव भमरा' इति । यन्मुखनिर्झरामृतमयवशगन्धाधिवासिता: साधवी भ्रमरा इव इत्यर्थः । 'विसेसाविसेसियावस्सयंमि' ति विशेषावश्यके । 'अप्पत्तापत्तब्वत्ततितिणिय' त्ति । अपात्र-अप्राप्त-अव्यक्त-तिन्तिणिकादीनामित्यर्थः । तहिं वा अहिगरणभूए इति । पथुच्चंति जीवादओ पयत्था इतिशेषः । 'पढमं ठाणं दप्पो, दप्पो चिय तस्स वी भवे पढम' ति । दर्पः प्रथम स्थानं, तस्यापि प्रथमभेदो दर्प एव, तत: प्रथमे दर्पपदे व्रतषट्क-कायषट्क -अकल्पादिपटकसञ्चारणेन अष्टादश गाथा: । अकल्पनिरालम्बादिपदेष्वपि प्रत्येकम् अष्टादश गाथा ज्ञेया इत्यर्थः । कल्पिकाया: दर्शनशानादीनि चतुर्विशतिः पदानि, तेषु प्रत्येकं व्रतषट्ककायषट्क-अकल्पादिषट्क सञ्चारणात् दर्शने अष्टादश गाथा: । एवं ज्ञाने अष्टादश गाथा: ततः सर्वेऽपि अष्टादशका: चतुर्विशतिसङ्ख्या : भवन्ति । 'अणुमजिय तं सुओवएसेण' त्ति । विचिन्त्य । 'नक्खत्ते भे पीला' इति । नक्षत्रे श्रवणहस्तलक्षणे श्रुतं हस्तकृतं वा किश्चित् स्यादित्यर्थः । 'सुक्के मासे' लघुमासे । 'एवं तायुग्घाए' इति लघूनि, अनुदाते तु गुरूणि । 'छिदित्तु तयं भाणं' इत्यादौ तत् स्थानं सछिद्य इत्यनेन छेदः प्रतिपादितः, गच्छंतु तवस्स साहुणो मूलं' इत्यनेन मूलं भणितम् 'अव्वावडा व गच्छे' अव्यावृता: गच्छे सन्तु इत्यनेन अनवस्थाप्यम् 'अब्बीया धावि विहरंतु अद्वितीया विहरन्तु इत्यनेन पारं
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निःशेषसिद्धान्तविचार - पर्याये
चियं भणितं । 'छभागंगुलपणगे' इत्यादौ मासस्य अङ्गुलेति नाम, ततश्च दिनपञ्चके अपनीते अङ्गुलावान्तरनामकस्य मासस्य मध्यात् पड्भागाङ्गुलं छेदो भण्यते । यतः मासः प्रविभागः क्रियते पञ्चकेन पञ्चकेन दिनानां ततः मासमध्ये पञ्चकषट्कं भवति इत्यनेन 'छब्भागंगुलपणगे' इति व्याख्यातं । 'दसराप तिभाग' इति । दशरात्रे छेदे त्रिभागों मासस्यापनीयते इत्यर्थः । ' अद्ध पन्नरसे' इति । अर्धछेदे पञ्चदश दिनानि अपनीयन्ते । 'श्रीसाए तिभागूण' ति । विंशतितम छेदे त्रिभागो दिनदशकलक्षणोऽपनीयते इत्यर्थ: । 'छभागूणं तु पशुवीसे' पञ्चविशतितमे छेदे पष्ठ भागः पञ्चदिनलक्षणोऽपनीयते इति गाथार्थ: । ' मासचउमासछके' इत्यादी मासछेदः चतुर्मासछेदः पट्छेदः एषां नामानि यथासङ्ख्यं अलं मास नाम, चतुर्मासस्य चउरो इति नाम, छकस्य छक्केति नाम, एते सर्वेऽपि छेदपर्याया इत्यर्थः । 'आउत्तनमांकारा' इति । नमस्कारोपयुक्तैर्भाव्यं न किमपि प्रायश्चितमित्यर्थः । 'अब सेसाऽसूयायांगस्स' अनिष्ठितश्रुतानुयांगस्य । 'पलिउंचियमपलिउंचियं वा' इति आवश्यं अनावर्त्य वा इत्यर्थः । 'दस्तुमिलकबु बहियमालवाइ- सकासाओ' इति । दस्युकलेच्छमानुषापहारकमालवा: चौरविशेषाः, मालवास्तु मालवकदेशपलि वासिचोरा: । 'विहारी-सज्झायनिमित्तं जं अन्नन्थ गमणं' स्थण्डि arat | 'घडगोलंकयवारगाइट्रियस्स' इति । घटउलकवारकस्थितस्य | पगलाण' ति । निश्चिय० १ ० १ एगा० १ आयं० १ अभ० १ द्विकल्याणादों तु नि० २ ० २ ० २ ० २ अ० २ इत्यादिक्रमेण ज्ञेयं । सुकसंनिहिए- शुष्कभक्तसन्निधौ । 'हतं पदमभंगी सेसा तिनिभंगा इति । दिवा गहिये दिवा भुक्तं इत्यादयश्चत्वारः । 'पिठ
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जीतकल्पपर्यायाः कुक्कसकुक्कसी उकंठचिचाई' इति । कुक्कसकुक्कसी सूक्ष्मकणिका इत्यर्थः । 'पिहिए चउभंगा' इति गुरुगुरुणा गुरुलघुना लघुगुरुणा लघुलघुना इति चतुर्भङ्गी इत्यर्थः । 'अचित्ते अचित्त साहरिए' इति दोषसम्भवात् । 'अह गुरुसाहरिए' इति गुरुगुरुणि संहियते इत्यर्थ: । 'उद्देसिय चरमतिए' इत्यादि गाथा १ 'सोलस उग्गमदासा' इत्यादि गाथा २ 'अइरै अणंत' इत्यादि गाथा ३ एतस्मिन् गाथात्रये सोलस उग्गमदोसा इति संग्रहगाथा ज्ञेया । अन्यत्त गाथायुगलं 'एयाओ दुवि गाहाओ' इत्यनेन सूचितम् । 'अइरं' ति अनन्तरम् इत्यर्थः । करणपूईउपकरणपूति: । ‘पमेय' त्ति पामिचं 'संथवतिग' त्ति संस्तवत्रिक 'संनाहपट्टो' उपकरणस्योपरि हृदये बध्यते। विचए पडिए-विच्युतं पतितम एकार्थो । 'उगमेउं न निवेपइ' उत्पाद्य वस्त्रादिकं न गुरूणां निवेदयति । 'सयोवहि वा अदिन्नं परिभुजई' अदत्त गुरुभिरित्यर्थः । 'पुरि मत्तए वा चरिमाए' इति । पुरि-पौरुष्यां, मत्तए-मात्रके, चरिमाए-चतुर्थपौरुष्यां । पणगं लहुगं-अढाइजा दिणा । गुरुगं-पञ्च दिनानि । दसगं लहुगं-अद्धसत्तमदिणा । गुरुगं दशैव । पन्नरसगं लहुगं-सड्ढबारस दिणा । गुरुगं पञ्चदशैव । वीसगं लहुगं-सङ्घसत्तरस । गुरुगं विंशतिरेव । पंचवीसं लहुगं-सड्ढबावीस । गुरुगं पञ्चविंशतिः । लहुमासो सडूढसत्तवीस । गुरुमासो त्रिंशदेव । एतानि दिनानि शेयान परमार्थ तु प्रायश्चित्तस्य पवमादे: चिरन्तना जानन्ति । सो य इमो अहागल्याइ तृतीयभेदोऽपि आदो कृतः । 'लहुससुद्धा वा' इत्यत्र शुद्ध पवन किश्चिद्दीयते 'लहुमास भिन्नमासो वीसलहु पक्खुकोसमज्झिमजहन्ना' यथासङ्ख्येन तपी ज्ञेयम् । 'पन्नरस दसमं पणगं लहुसुक्कोसाइ तिविहेसो' इति । लहुसपक्षे उत्कृष्टमध्यमजघन्यतया पञ्चदशदशमपञ्चका नियोज्यन्ते । 'असहुस्सेगेमहासणया' असहस्य एकैकहासः क्रियते । ठाणकमेण-स्थानाङ्गप्रोक्तक्रमेण । 'अट्ठमभत्तं अंतो निन्धीयमाई' इति । यन्त्रकोक्तेषु प्रायचित्तषु सर्वेषु निर्विकृतिकाद्यं अष्टमभक्तान्तं तपो दीयते इत्यर्थः ।
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निःशेषसिद्धान्तविचार- पर्याये
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'तिरियाय तेरसघरए काउं हेट्ठा हुत्तो जाव नव घराई पुन्नाई ' इति । तिरश्चीनाः त्रयोदशगृहकात्मका ओलीरूपेण नव श्रेणयो लिख्यन्ते । 'एएसि नवण्हं जाईं दाहिणेण अन्ते द्वियाणि दोन घाई' इति । त्रयोदशगृहकात्मक नवमश्रेणेरधः एकादशगृहात्मका श्रेणी, ततो नवगृहात्मका अधस्तात् श्रेणी, एवं गृहद्वयं गृहद्वयं पुंवद्भिः विद्वदभि: श्रेणी लिखितव्या यावत् एकगृहात्मका श्रेणी स्वहस्तदक्षिणभागापेक्षया दक्षिणं गृहद्वयं गृहद्वयं उत्सार्यते इत्यर्थः । स्थापना चेयं पत्रान्तरे लिखिता विद्यते । जं पयं जहिं अवराहे ठाविय तहिं चेव अवराहे ताप पंतीए पुरिसावेकखाथ सव्वे पछितपया चारेयव्वा' इति । यत्पदं प्रायश्चित्तलक्षणं यत्रापराधे निरपेक्षादौ तस्मिन्नैव अपराधे तत्र तस्यां पक्तों पुरुषापेक्षया सर्वप्रामवित्तपदानि चारयितव्यानि । यथा निरपेक्षपदे सर्वाणि प्रथमपदप्रायश्चित्तानि यज्यन्ते इत्यर्थः । ' विरse पुरिसविभागेण पणगाई छम्मासावसाणे निव्विइयाई अट्टमभन्त्ततं पुण्वभणियमेव ' इति सर्वप्रायश्चित्तानां पणगं आदौ छम्मासा अवसाणे । ततः सर्वत्र पणगादौ छम्मासान्ते निर्विकृतिकाद्यम् अष्टमभक्तान्तं दीयते इत्यर्थः । 'अत्थादाणोनेमित्ति उसन्नायरियरुचगपरिभगवणिय पेसणरुवगस उणी' इति । अवसन्नाचार्यो नैमित्तिकः तस्य रुचगो - भागिनेयः भग्नव्रतः वणिजां समीपे प्रेषणं व्यवहरकेण उक्तं किं रूपकान् शकुनिका हगति ? इत्येक: । ' बिइओ भंडोलगन उलगं ' इति । द्वितीयेन द्रम्म-नउलकः दत्तः । ' एगो घयगुलमंतो अन्नो वसतणकट्ठा बाहिं ' इति । एकेन सूरिभणितेन घृतगुडादिकम् अन्तः- मध्ये ग्रामस्थ क्षिप्तम् । अन्येतृणकाष्ठ बहिः क्षिप्तानि ग्रामदाहे उपकृतानि, अन्तस्तु घृतादीनि दग्धानि । 'अंतो उ सउणिनिमित्तं ' इति । अन्तर्दग्धे गुडादौ पश्चात् सूरिणा उक्तं किं निमित्तं शकुनिका व्युत्सृजति | .. पुव्वीभिलासि उवरि सुत्तो 'वावर' इति । व्यापार करोति इत्यर्थः । अन्नोन्नाहिठाण सेवणन्ति भणियं होइ इति पुतसेवा इत्यर्थः ।
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पावण-पावनं । इति जीतकल्पपर्यायाः समाप्ताः ।
पाक्षिकवृत्तौ- पक्खसंधी-अमावास्या । तो कह निज्जुत्तीप णुमइ' इति । आवश्यकनियुक्तिः । 'उत्सन्नवधादिलिङ्गगम्य' मिति । उत्सन्न-बाहुल्यतः । अत्र वृद्धसम्प्रदायः-हत्थुत्थरणं-खरडं १ कोयवओ-बूरठिया २ पावारो-सलोमपडओ ३ नवओ-जीणं ४ दढगालिधोयपात्ती सदसवत्थं ति भणियं होइ । रालग-कंगू।
संवत् १२१२ आषाढ वदि १२ गुरौ लिखितेयं सिद्धान्तोद्धारपुस्तिका । ग्रंथान १६७० द्वितीयखण्डः ।
प्रशस्ति:। शिष्याम्भोजवनप्रबोधनरवेः श्रीधर्मघोषप्रभोः वक्त्राम्भोजविनिर्गता कतिपया: सिद्धान्तसत्का अमी। पर्याया गणिचन्द्रकीर्तिकृतिना सञ्चिन्त्य सम्पिण्डिताः स्वस्य श्रीविमलाख्यसूरिंगणभृच्छिष्येण चिन्ताकृते ॥१॥ अस्ति श्रीमदखर्वपर्वततिभिः सर्वोदयः मातले छायाछन्नदिगन्तरः परिलसद्भव्यावलीसकुलः । सेवाकारिनृणां नवीनफलदोऽप्यश्रान्तसान्द्रद्युतिनिश्छिद्रः सरलत्वकेतुनिकरः प्राग्वाटवंशः सताम् ॥२॥ मौक्तिकहारसङ्काशः समा....व नीहिलः । श्रावकगुणसंयोगान्नराणां हृदये स्थितः ॥३॥ समजनि धनदेवः श्रावकस्तस्य सूनुः प्रथितगुणसमुद्रोऽमन्दवाणीविलासः । गगनवलयरङ्गत्कीर्तिचन्द्रोदयेऽस्मिन् लगति न च कलङ्कः रञ्जनं यस्य सत्के ॥ ४ ॥
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तस्य च भार्येन्दु........मती........पुत्र: गुणरत्नैकरोहणाचल: धर्मचटनद्रुममलयकीर्ति-सुधाधवलितसमस्तविश्ववलयो यशोदेवश्रेष्ठीतस्य च 'आम्बीति नाम्ना जनवत्सलाऽभूद्, भार्या यशोदेवगृहाधिपस्य । यस्याः सतीनां गुणवर्णनाया माद्यैव रेखा क्रियते मुनीन्द्रः ॥ तयोश्च पुत्रा उद्धरण आम्बीगवीरदेवाख्या वभूवुः । सोलीलोलीसोखीनामानश्च पुत्रिकाः सञ्जझिरे । अन्यदा च सिद्धान्तलेखनबद्धादरेण जिनशासनान्वरजितचित्तेन यशोदेवश्रावकेण सिद्धान्तविचारपर्यायपुस्तिका लेखयामास ।
पूज्यश्रीविमलाख्यसूरिंगणभृच्छिष्यस्य चारित्रिणों योग्याऽसौ गणिचन्द्रकीर्तिविदुषो विद्वज्जनानन्दनी । शास्त्रार्थस्मृतिहेतवे परिलसज्ज्ञानप्रपा पुस्तिका भक्तिप्राश्चितयत्युपासकयशोदेवेन निर्मापिता ॥ १४॥ यावञ्चन्द्ररवीनभस्तलजुषौ यावच्च देवाचलो यावत्सप्तसमुद्रमुद्रितमही यावन्नभोमण्डलम् । यावत्स्वर्गविमानसन्ततिरियं यावच्च दिग्दन्तिनस्तावत् पुस्तकमेतदस्तु सुधियां व्याख्यायमानं मुदे ॥१॥
इति प्रशस्तिः समाप्ता ।
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प्रकाशक : मागमोद्धारकग्रंथमालाना एक कार्यवाहक
शा. रमणलाल जयचन्द्र कपडवंज (जि. खेडा)
द्रव्यसहायक :
रु. २५००-०० श्री शांतिनाथजी जैन देहरासर दृस्ट,
नवापरा सुरत.
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मुद्रक : सहयोग प्रिन्टिंग प्रेस, जवाहर रोड-बीलीमोरा.
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gynam Mandir प्रकाशक: मागमोद्धारकग्रंथमालाना एक कार्यवाहक शा. रमणलाल जयचन्द्र कपडवंज (जि. खेडा) च्यसहायक: रु.२५००-०० श्री शांतिनाथजी जैन देहरासर ट्रस्ट, नवापरा सुरत. मुद्रक : सहयोग प्रिन्टिंग प्रेस, जवाहर रोड-बीलीमोरा. For Private And Personal Use Only