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11 37: 11
॥ श्री निश्यावलिकासूत्रम् ॥
जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराज - विरचित - सुन्दरबोधिनीटीका समलंकृतम्
(हिन्दीगुर्जर भाषानुवादसहितम् )
आवृत्तिः प्रथमा
प्रति- १०००
नियोजकौ
साहित्यरत्न सुबोध - पं. मुनिश्री समीरमलजी महाराज: संस्कृत - प्राकृतज्ञ - पं. मुनिश्री कन्हैयालालजी महाराजश्च ।
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एतच्च
श्री श्वे. स्था. जैनशास्त्रोद्धारक समिति ' सेक्रेटरी - पदभूषितेन गुलाबचन्द पानाचन्द मेहता महोदयेन स्वद्रव्यतः
प्रकाशितम्
वीर संवत् २४९४ वि. संवत् २००४ ई. सन् १९४८
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मूल्य:- रु. ७ आ. ८
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:: प्राप्तिस्थानम् ::
गुलाबचन्द पानाचन्द महेता. कोठारीया नाका, मांडविया बिल्डिंग राजकोट. ( काठियावाड )
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स्थानकवासी जैन कार्यालय पंचभाइनी पोळ
अमदावाद.
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: मुद्रक : सरस्वती प्रि. प्रेस राजकोट (सौराष्ट्र )
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મુરબ્બી વડિલ ભાઇશ્રી કપુરચંદ પાનાચંદ મહેતા
– તથા – દુર્ગાદાસ પાનાચંદ મહેતા
તથા વડિલ બહેને રંભા બહેન તથા કસુંબા બહેન
જેમના તરફથી ધર્મ સંબંધી મને ઘણું જાણવાનું આવ્યું છે, તે સ્વર્ગિધ આત્માઓને ઘણુજ માનપૂર્વક નાનાભાઈ તરીકે આ સૂત્ર અર્પણ કરી કૃતાર્થ થાઉં છું. • • • • • •
ગુલાબચંદ પાનાચંદ મહેતા.
રાજકોટ.
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રા જ કા ટ નિ વા સીમ હે તાગુ લા મ ચ`દ પા ના ચંદ ના ધર્મપત્ની અ. સા. પ્રભાકુંવર ગેાપાલજી ભીમજી પારેખ
જેમણે રાસ્રાદ્વાર સમિતિને રૂા. ૩૦૦૧) આપી આ “નિરિયાવલિકા” સૂત્ર
છધા વી
આપેલ છે.
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પ્રકાશકનું નિવેદન
શ્રીમજજૈનાચાર્ય, ” “જૈનધર્મદિવાકર” પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ સાહેબે રચેલી ટીકા સહિત ૩૨ સૂત્ર માટેનું આ શ્રી
નિરયાવલિકા” નામનું “ઉપાંગ સૂત્ર વાચકવર્ગના હાથમાં મૂકતાં અમને અત્યંત આનંદ થાય છે. '
- પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મ. સા. પ્રખર વિદ્વાન છે. તેઓશ્રીનાં જ્ઞાન, દર્શન, ચારિત્ર અને તપથી પ્રમેદ પામીને કરાંચીના સમસ્ત સ્થાનકવાસી જૈન શ્રીસંઘે તથા તેમના અનુયાયી મુનિવરેએ પૂજ્યશ્રીને “જૈનાચાર્ય” તથા “જૈનધર્મદિવાકર” પદની સાથે માનવંતી “પૂજ્ય પદવી સમર્પણ કરી. તથા પૂજ્યશ્રીએ રચેલી સંસ્કૃત-હિંદી-ગુજરાતી ટીકા સાથેનું શ્રી ઉપાસકદશાંગ સૂત્ર” કરાંચી શ્રીસંઘે છપાવીને બહાર પાડયું. આ ઉપરાંત પૂજ્યશ્રીએ રચેલી સંસ્કૃત ટીકાવાળું “શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ભા. ૧ લો લીમડી (જી. પંચમહાલ)ના શ્રી સંઘે છપાવીને બહાર પાડેલ છે. ત્યાર બાદ શ્રી અનુત્તરવવાઈ સૂત્ર શ્રી છે. સ્થા. જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ–રાજકોટ તરફથી પ્રગટ થયેલ છે. અને તે પછી પ્રસ્તુત નિરયાવલિકા સૂત્ર (જેમાં પાંચ સૂત્રને સમાવેશ છે) બહાર પડે છે. આ રીતે આજ સુધીમાં પૂજ્યશ્રીની રચિત ટીકાઓ સાથેનાં ૩૨ પિકી છા સૂત્રે પ્રગટ થઈ ગયાં છે અને હવે પછી “શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રને બીજે ભાગ (જે છપાઈ રહેલ છે) ટુંક સમયમાં પ્રગટ થશે.
રાજકેટ નિવાસી મહેતા ગુલાબચંદ પાનાચંદે આ પુસ્તક છપાવવા માટે રૂ ૩૦૦૧)ની ઉદાર મદદ સમિતિને આપી છે, તે માટે સમિતિ તેઓશ્રીને આભાર માને છે.
આ ઉપરાંત નીચેના ધર્મશાસ્ત્રના પ્રેમી અને ઉદાર ગૃહસ્થોએ એક-એક સૂત્ર છપાવી આપવાનું વચન આપેલ છે. (૧) દેશી પ્રભુદાસ મૂળજીભાઈ રાજકેટ (૨) વસા છગનલાલ હેમચંદ, જામનગર (૩) સંઘવી પીતાંબરદાસ ગુલાબચંદ,
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જામનગર (વાડીલાલ ડાઈગ એન્ડ પ્રિન્ટિંગ વર્કસ-મુંબઈ), (૪) કેડારી હરખચંદ જગજીવન, જામનગર હાલ બેટાદ, ઠા. શ્રી છબીલદાસભાઈ હરખચંદ, તથા શ્રી રંગીલદાસભાઈઆ માટે સમિતિ ઉપકત સર્વ બંધુઓને ધન્યવાદ આપે છે. - અન્ય બંધુઓ અને ધર્મપ્રેમી હેને ઉપરોકત બંધુઓનું અનુકરણ કરીને એક એક સૂત્ર છપાવી આપવાની ઉદારતા બતાવશે તે સમિતિનું પ્રકાશન કાર્ય ઘણું જ હળવું બની જશે અને જેન જનતાને માટે આ કાર્ય મહાન ઉપકારક નીવડશે.
આ સત્રના પ્રફે તપાસવામાં પૂરેપૂરી કાળજી રાખવામાં આવી છે, તેમ છતાં પ્રેસષ કે દૃષ્ટિ દેષથી અથવા છમસ્થપણને કારણે ભૂલ રહી જવા પામી હેય તે વાંચકે સુધારીને વાંચશે અને અમારું ધ્યાન દેરશે તે તે તે ભૂલો બીજી આવૃત્તિ વખતે આભાર સાથે સુધારવામાં આવશે. કિ બહુના સુષુ?
રાજકોટ તા. ૧૧-૫-૪૮ )
મંત્રીઓ, વૈશાખ સુદ ૩ સંવત ૨૦૦૪ Uસ"
છે. સ્થાનકવાસી જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ
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રાજકોટવાસી કાઠારી હરગાવદ જચ દભાઇ જમણ શ્રી સ્થા. જૈન શાસૈદ્ધાર સમિતિને રૂ. ૫૦૦૧) આપેલ છે.
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૧ જેચંદ અજરામર. ૨ વખતબાઈ વલભજી. ૩ શનીલાલ જેચંદ ૪ ઉમેદચંદ જેચંદ. ૫ મણીબહેન જેચંદ (પોરબંદર). ૬ હરગોવિદ જેચંદ
• .. • • • • • વગર (મોરબી) ૮ ભામતી. ૧૦ સવાઈલાલ. ૧૧ દીનેશચંદ્ર. ૧૨ જીતુબાળા
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प्रस्तावना. संसारके सभी जीव परम अमृत समान सुखकी गवेषणा करते हैं, मुखके प्रयत्नमें लगे रहते हैं, सुखके कारणको ढूँढते हैं, सुखके वातावरणको पसंद करते हैं, सुखकी याचना और सुख ही की मिन्नत मानते हैं, तो भी वे परम सुखके बदले परम दुःख ही प्राप्त करते हैं। सभी प्रयत्न सभी कारण और सभी वातावरण दुःखरूप जालमें परिणत होकर आत्मरूप भोले भाले मृगोंको फसाकर दुःखित करते हैं। जिससे आत्मा अपना भान भूलकर अज्ञानरूपी अन्धकारमें गोता खाती है भटकती है, फिर इन्द्रिय रूपी चोर चारों तरफसे आकर दुर्बल आत्माको घेर लेते हैं और अनेक प्रकारकी विडम्बना करते हुए आत्माको हैरान करते हैं । जैसे इन्द्र वज्रसे पर्वतको चूर २ कर डालता है वैसे ही वे आत्माके शम-दम आदि गुणोंको नाश करके आत्माको जड जैसा बनाते हुए दीन होन बनाकर छोडते हैं।
जब आत्मा निर्बल हो जाता है तब मोहरूपी सुभट आत्मराज्यमें प्रवेश करता है, और वहाँ विघ्नपरंपराको उपस्थित कर आत्माका सर्वस्व लूटकर उसको भवरूप कूपमें डालता है। वहाँ आत्माको संयोग वियोगरूप आधिव्याधि रूप दुष्ट जलजंतु हरएक तरहसे कष्ट पहुँचाते हैं, सर्प जैसे मेढकको गिल जाता है वैसे ही जन्म जरा मृत्यु आत्माको गिलती रहती है। फिर किस प्रकार सुखकी आशा की जाय ? ऐसी अवस्थामें तो सुखका स्वप्न भी नहीं मिल सकता, ' हा कष्टम् ' तो भी संसारी जीव सुखकी आशा करते हैं।
फिर अविरति रूपी राक्षसी भाकर आत्माको घेर लेती है और विष समान विषय भोगोंमें फसाकर उसे निःसार बना देती है, आत्माके निज स्वरूपको पल्टाकर विभावदशा उत्पन्न करती है जिससे आत्मा परस्वरूपको अपना स्वरूप समझकर भवभ्रमण रूप परंपराकी और भी वृद्धि करती हुई कष्ट पर कष्ट भोगती है, सुख कैसे प्राप्त हो इसकी तलाशमें घूमती है, इतनेमें कषाय रूप राक्षस विविध प्रकारसे त्रास पैदा करता है, तो भी आत्मा दुःखके निदान रूप उस कषायको ही सुखका निदान समझकर उसमें आसक्त होती है, सुखके जितने भी कारण हैं
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अहिंसा संयम तप आदि; उनको दुःख रूप समझकर उन्हें छोड बैठती है, धर्म अधर्म आत्मा अनात्माके विवेकसे वंचित रहती है, उन्मार्गगामी बनती है, सुमार्गको परित्याग करती है, फिर उसी दुःख परंपराकी जालमें फसती है। इतने में प्रमाद रूपी पिशाच आकर झूमता है और आत्माकी ऐसी छिन्न भिन्न दशा करता है कि आत्मा जड स्वरूप बनकर जड वस्तुओंमें ही आनन्द मानती है।
___इधर अशुभयोग रूप भूत आत्मामें प्रवेश करता है; तब फिर क्या ? कल्पनासे भी बाहर परिस्थिति बन जाती है। अशुभ योगों की अशुभ प्रवृत्तिया अशुभ कार्योकी ओर आत्माको घसीटती हैं। फिर आत्मा परतंत्र बनकर ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मोंको मन्द तीव्र आदि रसमें प्रवृत्त हो बांधती है और एकसौ अडतालीस प्रकृतियों की फासमें फसकर नाना प्रकार का दुष्कृत्य करके नरक निगोद आदि अनन्त दुःखरूपी खड्डेमें गिर जाती है। इस प्रकार अनन्त काल तक आत्माके लिये मनुष्यभव पाना तो दूर रहा, किन्तु निगोदकी अपेक्षा सूक्ष्म एकेन्द्रियसे वादर एकेन्द्रियका भी भव वह नहीं पा सकती।
इस तरह चतुरगतीमें भटकती भटकती भव भ्रमण करती २ आत्मा कदाचित् मनुष्य भवमें आ भी गयी तो मिथ्यात्व अविरति कषाय प्रमाद और अशुभ योगों की प्रवृत्तियां उसको घेर लेती हैं, जिससे वह फिर भवाटवीमें पड़ जाती है और उसो विकल दशाको प्राप्त कर जन्म मरण आदि पाती रहती है।
इस प्रकारको अवस्था सकल संसारी जीवों की भगवानने अपने केवल. ज्ञानरूपी प्रकाशसे अवलोकन करके परम करुणा करते हुए शारीरिक मानसिक दुःखोंको मिटानेवाली जन्म मरण आदिको उच्छेद करनेवाली जिनवाणीको द्वादश अंग द्वारा प्रवचन रूपसे प्रकाशित की है। वह वाणी १ चरणकरणानुयोग २ धर्मकथानुयोग ३ गणितानुयोग और ४ द्रव्यानुयोग रूपमें विभक्त है।
निरयावलिका आदि पाँच उपाङ्ग भगवानकी धर्मकथानुयोग वाणीमें अन्तर्हित हैं। इन पांचों उपाङ्गोंमें (१) निरयावलिका अन्तकृतका उपाङ्ग है, और (२) कल्पावतंसिका अनुत्तरोपपातिकका, (३) पुष्पिता प्रश्नव्याकरण सूत्रका, (४) पुष्पचूलिका विपाकसूत्रका, एवं वृष्णिदशा दृष्टिवादाङ्गका उपाङ्ग है।
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.इनमें निरयावलिका उपाङ्गमें काल आदि दस कुमारोंका वर्णन काल आदि दस अध्ययनोंमें किया गया है। जो संक्षिप्तमें इस प्रकार है
महाराज श्रेणिककी अनेक रानियाँ थीं। उनमें नन्दा, चेल्लना, कालो. मुकाली, महाकाली, कृष्णा, सुकृष्णा, महाकृष्णा, वीरकृष्णा, रामकृष्णा, पितृसेनकृष्णा,
और महासेनकृष्णा, ये उनकी मुख्य रानियाँ थीं। इनमें नन्दाके पुत्र अभयकुमार थे, चेल्लनाके पुत्र कूणिक, वैहल्य, और वैहायस थे । काली आदि दसों रानियोंके पुत्र क्रमशः काल, सुकाल, महाकाल, कृष्ण, सुकृष्ण, महाकृष्ण, वीरकृष्ण, रामकृष्ण, पितृसेनकृष्ण और महासेनकृष्ण थे । इन कुमारोंमें अभयकुमार प्रवजित हो गये । चेल्लनाके पुत्र कूणिकने काल आदि दस कुमारोंको अपनी ओर मिलाकर महाराज श्रेणिकको कैद कर लिया और उन्हें अनेक प्रकारकी तकलीफें देने लगा । एक दिन कूणिक अपनी माताके चरण वन्दनके लिये आया । माताने उसे देखकर अपना मुंह फिरा लिया। यह देख कूणिक हाथ जोड इस प्रकार बोला-हे माता! मैं अपने पराक्रमसे राज्यका सम्राट् बना, यह देखकर भी तुझे आनन्द नहीं होता, तुम्हारे मुखफर खुशीका कोई चिह्न नहीं दिखायी देता, तुम उदासीन हो, क्या यह तुम्हारे लिये उचित है ? भला तुम्ही सोचो, कौन ऐसी मा होगी जो अपने पुत्रकी उन्नति पर खुश न होगी। यह सुनकर महारानी चेल्लनाने कहा-बेटा ! तुम्हारी इस उन्नतिसे मुझे किस प्रकार आनन्द हो ? क्यों कि तुमने अपने पिता महाराज श्रेणिकको कैद कर लिया है, जो तुम्हारे देव गुरुके समान हैं, जिन्होंने तुम्हारे उपर अनेक उपकार किये हैं। उन्हींके साथ तुम्हारा यह व्यवहार समुचित है ! जरा तुम्ही सोचो! - कूणिकने कहा-मा ! जो श्रेणिक राजा मुझे मार डालना चाहते थे, वे मेरे परम उपकारी हैं, यह कैसे ! स्पष्ट बताओ ।
रानीने कहा-बेटा ! जब तुम मेरे गर्भ में आये, उस समय मुझे दोहद उत्पन्न हुआ कि मैं राजा श्रेणिकके उदरबलिका मांस तल भूनकर मदिराके साथ खाऊँ। इसके लिये मैं उदास रहने लगी और दिनानुदिन क्षीण होने लगी। जब
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यह समाचार तुम्हारे पिताको मिला तो उन्होंने इसका कारण शपथ पूर्वक पूछा, तो मैंने अपना दोहद बतलाया । बादमें तुम्हारे पिताने मेरा दोहद :पूरा किया । दोहद पूरा हो जानेके बाद मैंने सोचा-यह बालक गर्भावस्थामें ही पिताका मांस खाया, उत्पन्न होनेपर न जाने क्या करेगा ? इस लिये जिस किसी प्रकार इस गर्भको गिरा देना ही श्रेयस्कर है। पर अनेक प्रकारकी ओषधीसे भी गर्भ न गिरा । फिर नौ महीनेके बाद उस गर्भसे तुम पैदा हुए, मैंने तुम्हें अनिष्ट समझ कर उकरडी पर फिकवा दिया। यह बात तुम्हारे पिताको मालुम हुई, वह तुम्हें खोज कर ले आये और मुझे उन्होंने इस कार्यके लिये बडी भर्त्सना की। तेरी उङ्गलीको उकरडी पर मुर्गेने काट खाया जिससे वह सूज गयी उसमें पोप भर आया, तुझे असह्य वेदना होने लगी, तूं चिल्लाने लगा, उस समय तेरे पिता तुम्हारे पास बैठे रहते थे, दिन रात तुम्हारी परिचर्या करते रहते थे, तुम जब व्रणकी वेदनासे रो पडते थे, उस समय तुम्हारी अर्जुलीको अपने मुंहमे डाल पोप चूसकर थूक देते थे, उससे तुझे शान्ति मिलती थी और तू धीरे २ चंगा हो गया। बेटा ! तूं ही सोच, एसे परम उपकारी पिताके साथ तेरा यह वर्ताब उचित है ? अपनी मां के मुखसे यह सुन कूणिक बहुत दुखी हुआ । परम उपकारी पिताका बन्धन तोड़े इस भावनासे उसी समय हाथमें कुल्हाडी लेकर जिस पिंजरेमें महाराजा श्रेणिक कैद थे, उस पिंजरेको तोडनेके लिये चल पडा। लेकिन राजा श्रेणिकने कूणिको हाथमें कुल्हाडी लेकर आते हुए देख मनमें सोचा-न जाने यह कूणिक मुझे किस कुमौतसे मारेगा ? इस भयसे उन्होंने अपनी अंगूठीमें जडा हुआ तालपुट विषसे अपना अन्त कर लिया। पिताकी मृत्युसे कूणिक अत्यधिक दुखी हुआ, उसे राजगृहकी प्रत्येक वस्तु पिताकी स्मृति दिलाकर दुखित करने लगो, पिताके प्रति किये हुए अन्याय उसकी आत्माको कष्ट देने लगे। वह राजगृहमें नहीं रह सका, राजगृह छोडकर चम्पा नगरीको उसने राजधानी बनायी। वहाँ अपने भाई बन्धुओंके साथ रहने लगा और राज्यको ग्यारह भागोंमें बाँटकरे
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एक २ भाग काल आदि दस कुमारोंको दिया, और ग्यारहवाँ भाग खुद लेकर राज्य करने लगा।
राजा श्रेणिकने सेचनक गन्ध हाथी और रानी नन्दाने अठारह लडीबाला हार कूणिकके छोटे भाई बैहल्यको दिया था। वह हाथो पर बैठ गङ्गा नदीमें अपने अन्तःपुर परिवारके साथ क्रीडा करते थे। उनकी क्रीडा देखकर लोग कहने लगे-वास्तविक राज्योपभोग तो वैहल्ल्य कुमार ही करते हैं। कूणिक तो नाम मात्रके राजा हैं, क्यों कि उनके पास सेचनक गन्ध हाथी नहीं है। धोरे २ वैहल्यको जलक्रीडाका समाचार कूणिक राजाकी रानी पद्मावतीको मालम हुआ, वह वैहल्यसे सेचनक हाथी और अठारह लडीबाला हार ले लेनेके लिये कूणिकको बार बार प्रेरित करने लगी। कूणिक अन्तमें रानीकी बात मानकर अपने भाईसे हाथी और हार मागा। उन्होंने भी राज्यका हिस्सा माँगा, परन्तु कूणिक इस पर तैयार न हो सके। यह देख नैहल्य कुमार मौका पाकर हाथी हार आदि अपनी सभी सामग्री लेकर अपने अन्तःपुर परिवारके साथ पैशाली नगरीमें अपने नाना
चेटकके पास पहुँचे । कूणिकने अपने दूतके द्वारा चेटकको संदेशा दिया कि आप हाथी और हारके साथ पैहल्यको भेजदें। इसपर चेटकने उत्तरमें संदेशा भेजा-यदि तुम राज्यका भाग अहल्यको दो तो इसे हम हाथी और हारके साथ भेज सकते हैं, परन्तु कुणिकको यह शर्त मंजूर नहीं हुई, फल स्वरूप दोनोमें युद्ध हुआ। इधर कुणिककी तरफ काल आदि दस कुमार थे उधर चेटककी और नौ लच्छी नौ मल्लकि ये अक्षरह गणराजा थे। इनमें प्रत्येकके पास तोन २ हजार हाथी घोडे रथ और तीन २ करोड पैदल सैनिक थे । प्रथम दिनको लडाईमें कालकुमार अपने तीन २ हजार हाथी घोडे. रथ और तीन करोड पैदल सैनिकके साथ चेटक राजासे लडनेके लिये आया और चेटकके एक अमोघ बाणसे सैन्य सहित मारा गया। दूसरे दिन सुकालकुमार, तीसरे दिन महाकाल, चौथे दिन कृष्णकुमार, पाँचवें दिन सुकृष्ण, छठे दिन महाकृष्ण, सातवें दिन वीरकृष्ण, आठवें दिन रामकृष्ण, नवमें दिन पितृसेनकृष्ण और दशवें दिन महासेनकृष्ण, अपने २ सैन्य
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1
• सहित चेटक के साथ लडने आये और चेटकके द्वारा ससैन्य मारे गये । और अपने पाप कर्मके प्रभावसे निरय (नरक) गामी हुए । इसी वस्तुको भगवानने गौतम स्वामीको उनके पूछने पर निरमावलिका नामसे फरमाया है ।
कल्पावतंसिका नामक द्वितीय वर्ग में दस अध्ययन हैं, इन दसों अध्ययनोंका नाम क्रमसे - पद्म ( १ ) महापद्म ( २ ) भद्र ( ३ ) सुभद्र ( ४ पद्मभद्र ( ५ ) पद्मसेन ( ६ ) पद्मगुल्म (७) नलिनीगुल्म ( ८ ) आनन्द ( ९ ) और नन्दन (१०) है । प्रथम अध्ययन में पद्मकुमारका वर्णन इस प्रकार है । पद्मकुमार भगवान महावीर स्वामीके पास प्रव्रजित हो पाँच वर्षों तक श्रामण्य पर्याय पाले, अन्तमें मासिकी संलेखना से साठ भक्तोंको छेदित कर काल प्राप्त हुए, और सौधर्म कल्पमें देवता होकर उत्पन्न हुए। वहाँसे व्यव कर महाविदेह क्षेत्रमें जन्म लेंगे और सिद्ध होकर सब दुखोंका अन्त करेंगे। इसी प्रकार महापद्मसे लेकर नन्दन पर्यन्त नौ कुमारों का वर्णन जानना चाहिये। ये सभी भगवानके समीप प्रव्रजित हुए और संलेखनासे अपने शरीरको त्याग कर देवलोक में देव होकर उत्पन्न हुए । वहाँसे च्यव कर महाविदेह वर्षमें जन्म लेंगे और सिद्ध होकर सब दुखोंका अन्त करेंगे । ये पद्म आदि दस कुमार काल आदि दस कुमारोके पुत्र और महाराज श्रेणिकके पौत्र ( पोते ) थे ।
पुष्पिता नामक तृतीय वर्गमें चन्द्र ( १ ) सूर ( २ ) शुक्र ( ३ ) बहुपुत्रिका (४) पूर्ण ( ५ ) मानभद्र ( ६ ) दत्त ( ७ ) शिव ( ८ ) बलेपक (९) अनादृत (१०) इन दसों देवोंका दस अध्ययनोंमें वर्णन है । ये सब भगवान महावीर प्रभुके दर्शन करनेके लिये देवलोकसे अपने २ परिवार के साथ आये और अपनी वैक्रियिक शक्तिसे नाट्य विधि दिखाकर अन्तर्हित हो गये । गौतम स्वामीने उनकी विशाल ऋद्धिके बारेमें भगवानसे पूछा - हे भदन्त ! इन्हें यह ऋद्धि कहाँ से प्राप्त हुई ? भगवानने गौतम स्वामीको चन्द्र आदि देवके पूर्व भवका वर्णन सुनाया और उन्होंने कहा- गौतम ! ये सब देवलोकसे व्यव कर महाविदेह वर्षमें उत्पन्न होकर सिद्ध होंगे ।
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- पूष्पचूलिका नामक चतुर्थ वर्गमें भी दस देवियोंके नामसे दस अध्ययन हैं। उन दसों देवियोंका नाम-श्री ( १ ) ही (२.) घी ( ३ ) कीर्ति (४) बुद्धि (५) लक्ष्मी ( ६ ) इलादेवी (७) सुरादेवी (८) रसदेवी (९) और गन्धदेवी (१०) है। ये दसों देवियाँ भगवानके दर्शनके लिये आयीं और नाट्यविधि दिखाकर अपने २ स्थान पर चली गयीं । गौतम स्वामीने इन देवियोंको ऋद्धि प्राप्तिके बारेमें पूछा । भगवानने इन सबोंके पूर्व भवका वर्णन किया, और कहा-हे गौतम ! ये सभी देवलोकसे च्यव कर महाविदेह क्षेत्रमें जन्म लेंगी और सिद्ध होकर सभी दुखोका अन्त करेंगी।
इसका पाँचवा वर्गका नाम वृष्णिदशा वर्ग है। इसमें बारह अध्ययन हैं। ये बारहों अध्ययन बारह कुमारोंके नामसे हैं। उन कुमारोंका नामनिषध (१) मायनी ( २ ) वह (३) वह ( ४ ) पगता (५) ज्योति (६) दशरथ (७) दृढरथ (८) महाधन्वा (९) सप्तधन्वा (१०) दशधन्वा और शतधन्वा है। इनमें निषधकुमारका वर्णन इस प्रकार है-निषध कुमार राजा बलदेव और रानी रेवतीके पुत्र थे । इनका विवाह पचास राजकन्याओंके साथ हुआ और वह अपने उपरी महलमें सुख पूर्वक रहने लगे। एक समय द्वारकाके नन्दन वन उद्यानमें भगवान अर्हत् अरिष्टनेमि पधारे । भगवानके दर्शनके लिये कृष्ण वासुदेव आदि नन्दन वन उद्यानमें गये । निषधकुमारको भी भगवानके पधारनेका समाचार ज्ञात हुआ। वह भी भगवानके दर्शनके लिये गये । धर्म कथा सुनकर श्रावक धर्म स्वीकार कर अपने घर लौट गये । भगवानका अन्तेवासी वरदत्त अनगार निषधकुमारकी सौम्यता देख मुग्ध हो गये। और निषधकुमारको यह सौम्यता और ऋद्धि आदि कैसे प्राप्त हुई? इस बारेमें भगवानसे पूछा। भगवानने निषधकुमारके पूर्व भवका वर्णन किया। वरदत्तने पूछा-हे भदन्त ! यह निषधकुमार आपके समीप प्रव्रजित होगा? भगवानने कहा-हा, वरदत्त ! यह निषधकुमार मेरे समीप प्रबजित होगा। इसके बाद भगवान जनपदमें विचरने लगे। एक समय निषधकुमार पोषधशालामें दर्मके आसन पर
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बैठे हुए थे। उनके मनमें यह भावना पैदा हुई - यदि भगवान यहाँ आवें तो मैं उनका दर्शन करूँ और उनकी उपासना करूँ । भगवान निषधकुमारके मनकी बात जान ली और अठारह हजार श्रमण के साथ नन्दन वन उद्यानमें पधारे । निषधकुमार भगवानका दर्शन किया, और बादमें माता पितासे पूछकर अनगार हो गये और बयालीस भक्तोंको अनशनसे छेदित कर काल प्राप्त हुए । उनके काल प्राप्त होनेके बाद वरदत्त अनगारने भगवानसे पूछा - हे भदन्त ! आपका अन्तेवासी प्रकृतिभद्रक निषध अनगार इस शरीर का छोडकर कहाँ गये ? भगवानने कहा - हे वरदत्त ! मेरा अन्तेवासी प्रकृतिभद्रक निषध नामक अनगार सर्वार्थ सिद्ध विमानमें देव होकर उत्पन्न हुआ । वहाँ उसकी स्थिति तेंतीस सागरोपम है । वह वहाँ से च्यव कर महाविदेह क्षेत्रके उन्नात नगर में विशुद्ध मातृ पितृ वंशवाले राजकुलमें उत्पन्न होगा, बाल्यावस्था बीत जानेपर स्थविरोंके समीप प्रत्रजित होगा और सिद्ध होकर सभी दुखोंका अन्त करेगा । इसी प्रकार मायनी आदि ग्यारह राजकुमारोंकाभी वर्णन जानना चाहिये । ये सभी भगवान अरिष्टनेमिके समीप प्रत्रजित हुए और अपने नश्वर शरीरको छोड सर्वार्थ सिद्ध विमान में देव होकर उत्पन्न हुए और च्यवकर महाविदेह क्षेत्रमें जन्म लेकर सिद्ध होंगे और सभी दुखोंका अन्त करेंगे यह पाचों उपाङ्गका संक्षिप्त वर्णन है ।
राजकोट १५ मई १९४० J
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इस रियालिका आदि पाचों उपाङ्गों पर जैनाचार्य पूज्य श्री घासीलालजी महाराजने सुन्दरबोधिनी नामकी टोका की है। इस टीकाको विशेषता संस्कृत प्राकृतज्ञ विद्वान मूल और संस्कृत टीकाको देखकर समझ लेंगे । और सकल : साधारण भव्यजन हिन्दी और गुजराती भाषा अनुवादसे इसकी विशेषता समझेंगे । इस पर हम अधिक लिखना उचित नहीं समझते, क्यों कि ' हाथ कङ्गनको आरसी क्या ? ' बस; इसी न्यायसे हम अपना वक्तव्य समाप्त करते हैं । इयम् ।
मुनि कन्हैयालाल.
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विषय
१ मङ्गलाचरण
क्रमाङ्क
२ शास्त्रमारम्भ
३ पृथिवीशिलापट्ट
४ आर्य सुधर्मा
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श्री निरयावलका सूत्रका विषयानुक्रम
( प्रथम अध्ययन )
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आर्य सुधर्माका पधारना, पांच अभिगम
६ जम्बू स्वामीका परिचय
७ जम्बू प्रभव आदि (५२७ ) की दीक्षा ८ जम्बूका शरीर वर्णन
९ जम्बुका प्रश्न
१० शास्त्र परिचय
११ जम्बूका प्रश्न १२ कूणिकराजवर्णन १३ पद्मावती वर्णन
१४ काली वर्णन
१५
सम्यक्त्व प्रशंसा
१६ देवकृतश्रेणिकपरीक्षा
१७ सम्यक्त्व प्रशंसा
१८ अभयकुमार वर्णन
१९ कूणिक वर्णन
२० चेलना वर्णन
२१ कूणिक वर्णन
२२ रथमुशल संग्रामका कारण
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१६
क्रमाङ्क विषयः २३ संग्राम वर्णन
२४ काली रानीके वीचार
“
२५ भगवान ' शब्दका अर्थ
२६ काली रानीके विचार
२७ काली रानीका वन्दनार्थ भगवानके समीप जाना
२८ अठारह देशकी दासियाँ २९ धर्मकथा
३० काली पृच्छा
३१ कालकुमार वृत्तान्त
३२ काली रानीको पुत्रशोक
३३ गौतम प्रश्न
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३४ भगवानका उत्तर
३५ अभयकुमारका वर्णन ३६ चेल्लना रानीका दोहद
३७ श्रेणिक राजाके विचार
३८ चेल्लना रानीका दोहद
३९ चेलना रानीके विचार
४० कूणिक जन्म
४१ चेल्लनाको श्रेणिकका उपालम्भ
४२ कृणिककी अंगुलि वेदना ४३ कूणिकका नाम : करण ४४ श्रेणिकबन्धन
४५ कूणिकको श्रेणिकका परिचय
४६ श्रेणिकमरण
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क्रमाङ्क
विषय
४७ कूणिकको श्रेणिकका परिचय
४८ श्रेणिकमरण
४९ श्रेणिकके साथ कूणिकका पूर्वभव संबन्ध ५० कूणिक श्रेणिकका वैर कारण
५१ वैहल्यका गन्धहाथी पर चढकर क्रीडा करना
५२ वैहल्यका वैशाली नगरी में जाना
५३ चेटक - कूणिकका दूत द्वारा संपाद
५४ राजा कूणिकको दश कुमारोंसे मन्त्रणा
५५ राजा कूणिक - चेटककी युद्ध तैयारियाँ
५६ राजा कूणिक चेटकका युद्ध और कालकुमारका : मरण द्वितीय अध्ययन.
५७ सुकाल ( सुकाली ) कुमारकी मृत्यु
अध्ययन ३ - १०
५८ महाकाल आदि आठ कुमारको मृत्यु
क्रमाङ्क
१
२
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: कल्पातंसिका सूत्रका विषयानुक्रम
विषय
पद्मकुमारका वर्णन
महापद्मकुमारका वर्णन
प्रथम अध्ययत्र
द्वितीय अध्ययन
·
अध्ययन ३-१०
३ भद्रकुमार आदि आठ कुमारका गणे
४ भद्र आदि देवोंकी स्थिति
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१७
पृष्ठाङ्क
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零熱
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पृष्ठाङ्क
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२३८
२४१ २४५
c.
२६६
२६९
पुष्पिता (पुफिया) सूत्र
प्रथम अध्ययन क्रमाङ्क विषय १ चन्द्रदेवका पूर्वभव वर्णन २ चन्द्रदेवका वर्णन ३ अङ्गति गाथापतिका वर्णन
द्वितीय अध्ययन ४ सूर्यका भगवानके समीप आना
तृतीय अध्ययन ५ शुक्रका भगवानके समीप आना ६ सोमिल ब्राह्मणका वर्णन
चतुर्थ अध्ययन ७ बहुपुत्रिका देवीका वर्णन
पञ्चम अध्ययन ८ पूर्णभद्र देवका वर्णन
.छठा अध्ययन ९ माणिभद्र देवका वर्णन
अध्ययन ७-१० १० दत्त, शिव, बल, अनाहतका वर्णन
पूष्पचूलिका सूत्र १ श्री देवीका वर्णन २ ही-गन्धदेवी ९ का वर्णन
वृष्णिदशा सूत्र १ निषधकुमारका वर्णन २ मायनि आदि ११ कुमारोंका वर्णन ३ शास्त्र प्रशस्ति
३८४
३९०
३९४
c
४१५ ४४९ ४५१
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Frer or mr nrs v mr vom rn.
शुद्धिपत्रम् অথরি शुद्धि विषेश विशेष अध्ययननों के अध्ययनों के पडिपुण
पडिपुण्ण भञ्जा
भजा स्वल
खल युद्गल दलो शील शीलदलो वदनक्मल: वदनकमलः बुभुक्षाणा बुभुक्षमाणा संग्राममसङ्गा संग्रामप्रसङ्गं सङामो
सङ्कामो रथ्था रथ्या अपरिभुञ्जन्ती अपरिभुञ्जाना अपरिभुञ्जन्ती अपरिभुञ्जाना झियायमाणी झियायमाणि -एवा गालि- -एचा पाडित्तए वा गालिजन्यदा अन्यदा
खलु सेवनकं सेचनकं सत्करोमि सत्करोति
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२०
____पृष्ठ
१४
पङ्कि
अशुद्धि
२२१
२३८ २३८
२३
२६७
पञ्चप्पिणइ
कूटागारशाला शीर्षक अङ्गति गाथापति शीर्षक: बाति गाथापति शीर्षक अति गाथापति शीर्षक दर बोधिनी
बद्धा
शुद्धि काल्या देव्याः पञ्चप्पिणंति कूटाकारशाला सूरदेव शुक्रदेव सोमिल ब्राह्मण सुन्दरबोधिनी बद्ध्वा
w
w
२६९ २७१-२८७ २९३ २९६ २९६ ३०४ ३०६ ३४६ ३६९ ३९६
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उबलेवणण सं
w
6 occom cons
बवादीद ताडवधिः करिकहेइ पञ्चमध्ययनम् वीरमणस
३८४
उबलेवण सं - एवं -मवादिषुः ताडयद्भिः परिकहेइ पञ्चमाध्ययनम् वीरंगयस्स ऋद्ध द्विचत्वारिंशद् तद्रूपा संग्रहण्य
४२७ ४२७ ४३९ ४४६ ४४८
यसारिशत्
संगाव
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॥ श्री वीवरागाय नमः॥
जैनाचार्य-जैनधर्म-दिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालजीमहाराजविरचित
मुन्दरबोधिनीत्तिसमलङ्कृतम् ॥श्री निरयावलिकासूत्रम् ॥
॥ अथ मङ्गलाचरणम् ॥
(मालिनी छन्दः) सुरमनुजमुनीन्द्रर्वन्धमानापि ,
विदितसकलतस्वं बोधिदं तीर्थनाथम् । कृतभवजलनौकारूपधर्मोपदेशं,
विमलनयनदं तं वर्धमानं प्रणम्य ॥१॥ श्री निरयावलिकासूत्र की सुन्दरबोधिनी टीकाका हिन्दीभाषानुवाद
मङ्गलाचरण जिनके चरणकमल, देव, मनुष्य और मुनिवरोंसे वंदित हैं। जो सर्व तत्त्वोंके ज्ञाता और बोधिको देने वाले हैं। सथा संसार-सागरसे पार होनेके लिये नौकास्वरूप श्रुतचारित्र धर्मके उपदेशक हैं। एवं ज्ञानरूपी नेत्रके दाता हैं, और चतुर्विधसंघरूपी तीर्थके स्वामी हैं। ऐसे त्रिलोकमें प्रसिद्ध (चौवीसवें तीर्थंकर ) श्री वर्धमानस्वामीको नमस्कार करके ॥ १॥ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્રની સુંદરધિની નામે ટીકાનો
ગુજરાતી અનુવાદ,
મંગલાચરણ, જેનાં ચરણ કમળ દેવ મનુષ્ય તથા મુનિવથી વંહિત છે, જે સર્વ તત્વના જાણનારા તથા બેધિ સ્વરૂપને આપવા વાળા છે, જે સંસાર સાગર તરી જવા માટે હેડ રૂપી શ્રુતચારિત્ર ધર્મના ઉપદેશક છે, જે જ્ઞાનરૂપી ચક્ષુના દેનાર છે તથા ચાર પ્રકારના સંઘરૂપી તીર્થને પ્રભુ છે, એવા ત્રણ લેકમાં વિખ્યાત ( ગ્રેવીસમા તીર્થંકર ) શ્રી વર્ધમાન સ્વામીને નમસ્કાર કરીને, (૧)
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निरयावलिका सत्र सकलनिगमदक्षं ज्ञानचक्षुःसमेतं,
... कलितसकललब्धि पूर्वधारं मुनीन्द्रम् । जिनवचनरहस्यद्योतकं दीनबन्धु,
करण-चरणधारं गौतमं चापि नसा ॥२॥
(पृथ्वी छन्दः) सगुप्तिसमिति समां विरतिमादधानं सदा,
क्षमावदखिलक्षमं कलितमञ्जुचारित्रकम् । सदोरमुखवस्त्रिकाविलसिताऽऽननेन्दु गुरु,
प्रणम्य भववारिधिप्लषमपूर्वबोधमदम् ॥ ३॥ तथा सब शास्त्रोके तत्त्व समझाने में दक्ष (चतुर ), ज्ञानदृष्टि से तत्त्वातत्त्व का निर्णय करने वाले, सम्पूर्ण लब्धिवाले, चौदहपूर्वधारक, स्याद्वादरूप जिन-वचनके रहस्यको बताने वाले, षट्कायके रक्षक, और चरण-करणके धारी, मुनियोंमें प्रधान ऐसे श्री गौतमस्वामीको शीश झुकाकर ॥२॥
___ तथा समिति गुप्तिधारक, समदर्शी, विरतिमार्गमें चलने वाले, पृथिवीके समान सब परिषहोपसर्गोको सहन करने वाले, निरतिचार चारित्रवाले, सम्यक् बोध के देने वाले, वायुकाय आदि जीवोंकी रक्षाके लिए डोर सहित मुखवत्रिकासे जिनका मुखचन्द्र देदीप्यमान है, और जो संसारसागरमें तैरनेके लिए नौकाके समान हैं, ऐसे परमकृपाल गुरुदेवको वन्दना करके ॥ ३ ॥
તથા સર્વ શાસ્ત્રોનું તત્વ સમજાવવામાં ચતુર, જ્ઞાનદૃષ્ટિથી તત્તાતત્વને નિર્ણય કરવાવાળા, સંપૂર્ણ લબ્ધીવાળા, ચૌદ પૂર્વ ધારક, સ્યાદવાદરૂપી જિન-વચનનાં રહસ્યને બતાવનાર, છઠાયની રક્ષા કરનાર તથા ચરણ કરણના ધારક, મુનિઓમાં પ્રધાન એવા શ્રી ગૌતમ સ્વામીને મસ્તક નમાવીને, (૨) તથા સમિતિ ગુપ્તિના ધારણ કરનારા, સમદશી, વિરતિ માર્ગમાં વિચરનારા, પૃથ્વીની પેઠે તમામ પરિપહો તથા ઉપસર્ગોને સહન કરવાવાળા, નિરતિચાર ચારિત્રવાળા, સમ્યક્ ઉપદેશ આપવાવાળા, વાયુકાય આદિ ની રક્ષાને માટે દેરા સહિત મુખ વરિકાથી જેનું મુખારવિન્દ શોભી રહ્યું છે. તથા જે સંસારસાગર તરવા માટે એક નાવ समान ..] ५५मा शु३३पने बहन शन, (३).
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सुन्दरबोधिनी टीका शास्त्रपारम्भ
. ..( अनुष्टुप् छन्दः) जैनी सरस्वती नखा लोकालोकमकाशिनीम् ।
निरयावलिकावृत्तिं कुर्वे सुन्दरबोधिनीम् ॥ ४ ॥
छाया
तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे होत्या । रिद्धस्थिमियसमिद्धे ॥१॥
तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नाम नगरम् आसीत् । ऋद्धस्तिमितसमृद्धम् ॥ १॥
टीका'तेणंकालेणं' इत्यादि-तस्मिन् काले = अवसर्पिण्याश्चतुर्थारकरूपे तस्मिन् समये = कालविशेषरूपे हीयमानलक्षणे राजगृहं नाम नगरम् आसीत् । - तद्-(राजगृह)-वर्णनमित्थमाह-' रिद्धस्थिमियसमिद्धे ' इत्युपलक्षणम् , तेन ‘पमुइयजणजाणवए, उत्ताणनयणपेक्खणिज्जे, पासाईए, दरिसणिज्जे,
तथा लोकालोकके स्वरूपको प्रकाशित करने वाली-जिनवाणीको नमस्कार करके मैं घासीलाल मुनि निरयावलिकासूत्र की 'सुन्दरबोधिनी' नामक टीका की रचना करता हूँ ॥ ४ ॥
' तेणं कालेणं' इत्यादि।
उस काल उस समय में अर्थात्-अवसर्पिणीके चौथे आरेके, उसी हीयमान रूप समयमें राजगृह नामका प्रसिद्ध नगर था। जिसमें नभःस्पर्शी ऊँचे-ऊँचे सुन्दर महल थे। जहाँ स्व-पर चक्रका कोई भय नहीं था । और वह धन, धान्यादि ऋद्धियोंसे समृद्ध परिपूर्ण था। जो वहाँ के निवासियोंको तथा देश1 તથા લોકાલોકના સ્વરૂપને પ્રકાશિત કરવાવાળી જિનવાણુને નમસ્કાર કરી હું ઘાસીલાલ મુનિ નિરમાવલિકા સૂત્રની “સુંદરબોધિની” નામની ટીકાની रयन४३ छु. (४)
तेणं कालेणं त्याहि. ते ॥ ते समयमा अर्थात् मक्सपिए (१५) ना ચોથા આરાના હીયમાન (ઉતરતા) સમયમાં રાજગૃહ નામે એક પ્રખ્યાત નગર હતું કે જેમાં ગગનચુંબી ઊંચાં ઊંચાં સુંદર મહાલય હતાં. જ્યાં સ્વ પર ચક્રને ભય ન હેતે તથા તે નગર ધન ધાન્યાદિ ત્રિદ્ધિઓથી પરિપૂર્ણ સમૃદ્ધિવાળું હતું, જે ત્યાંના
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मिरपालिका सत्र अभिलवे, पडिरूवे,' इत्येतेषामपि सङ्ग्रहः । छाया-ऋद्धस्तिमितसमृद्धम् , प्रमुदितजनजानपदम् , उत्ताननयनप्रेक्षणीयम्, मासादीयम् , दर्शनीयम् , अभिलपम् , प्रतिरूपम् ।
'ऋद्धे'-त्यादि-ऋद्धं = नभःस्पर्शिबहुलमासादयुक्तं बहुजनसङ्खलं च स्तिमितं-स्वपरचक्रभयरहितं, समृद्धं हिरण्य-सुवर्ण-धन-धान्यादिपरिपूर्णमिति ऋद्धस्तिमितसमृद्धम् , अत्र त्रिपदकर्मधारयः। 'प्रमुदिते'-ति प्रमुदितजनजानपदयुक्तम् । तत्रत्यास्तत्राऽऽगता देशान्तरीयाच जना हिरण्य-सुवर्ण-धनधान्य-वस्त्रादीनां समर्घलभ्यतया विविधवाणिज्येन वस्वाभीष्टानां पूर्णतया यथानीतिलाभेन च प्रमुदिता भवन्ति । ' उत्ताने'-ति उत्ताननयनप्रेक्षणीयम्= सौन्दर्यातिशयादुन्मीलितनिमेषपातवर्जिताक्षिमिदर्शनीयम् 'मासादीयम् द्रष्टणां चित्तप्रसादजनकखात्प्रमोदजनकम् , दर्शनीयम् दृष्टिमुखदत्वेन पुनः पुनर्दर्शनयोग्यम् । अभिरूपम्-मनोज्ञाकृतिकम् , प्रतिरूपम् अपूर्वचमत्कारकशिल्पकलाकलितत्वेनाद्वितीयरूपम् ॥१॥
देशान्तरसे आनेवालोंको स्वर्ण चांदी रत्नादिके व्यापारसे लाभान्वित करनेके कारण आनन्दजनक था। जिसका अतिशय सौन्दर्य : टकटकी लगाकर अनिमेष दृष्टि से देखनेके योग्य होनेसे वह ' प्रेक्षणीय ' था। जो दर्शकोंका मन प्रफुल्लित कर देनेके कारण 'प्रासादीय ' प्रमोदजनक था। नेत्रोंको देखनेमें बारम्बार सुख देनेवाला होनेके कारण 'दर्शनीय' था। सुन्दर आकृतिका होने के कारण ' अभिरूप' था । अपूर्व-अपूर्व चमत्कार उत्पन्न करने वाली शिल्पकलाओं से युक्त होने के कारण प्रतिरूप अर्थात् अनुपम था ॥१॥
રહેવાશીઓને તથા દેશ પરદેશથી આવવાવાળાને સેનું ચાંદી રત્ન વગેરેના વેપારરોજગારથી લાભકારક હોવાથી આનંદજનક હતું, જેનું અતિશય સૌંદર્ય અનિમેષ દૃષ્ટિથી જોવા લાયક હોવાથી તે પ્રેક્ષણય હતું, જે જોનારનાં મનને પ્રફુલિત કરવાનાં કારણે “પ્રાસાદીય’ પ્રદજનક હતું, આંખેથી જોવામાં વારંવાર સુખ આપનાર હોવાથી દર્શનીય’ હતું, સુંદર આકૃતિવાળું હોવાથી “અભિપ” હતું. નવિન નવિન આશ્ચર્ય ઉપજાવે એવી શિલ્પકલાએવાળું હોવાથી પ્રતિરૂપ” અર્થાત अनुपम तु..
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सुन्दरबोधिनी टीका, पृथिवीशिलापट्ट
। तत्थ उत्तरपुरथिमे दिसीभाए गुणसिलए (नाम) चेहए ( होत्या) वष्णओ । असोगवरपायवे पुढवीसिलापट्टए (होत्था) ॥२॥
छाया___ तत्र उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे गुणशिलकं (नाम) चैत्यम् ( अभवत् ) वर्णकः । अशोकवरपादपः पृथिवीशिलापट्टका ( अभवत् ) ॥ २॥
टीका'तत्थ' इत्यादि-तत्र-राजगृहे, उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे गुणशिलकं (नाम) चैत्यं व्यन्तरायतनमासीत्, कीदृशं चैत्यमिति जिज्ञासायां शास्त्रान्तरे तवर्णनमेवमाह
'चिराईए, पुवपुरिसपन्नत्ते, सच्छत्ते, सज्झए, सघंटे, सपडागे, कयवियद्दीए, लाइयोल्लोइयमहिए' इति, । छाया- चिरादिकम् , पूर्वपुरुषप्रज्ञप्तम् , सच्छत्रम् , सध्वजम् , सघण्टम् , सपताकम्, कृतवितर्दिक , लिप्तोपलिप्तमहितम्, इति ।
'तत्थ ' इत्यादि । . उस राजगृहके ईशान कोणमें गुणशिलक नामका व्यन्तरायतन था। उसका वर्णन अन्यत्र ( दूसरे शास्त्रोंमें ) इस प्रकार है
पूर्व पुरुषोंके कथनानुसार वह प्राचीन कालसे है। उसमें छत्र, ध्वजा, घण्टा, पताका आदि लगे हुए थे और वेदिकाएँ बनी हुई थीं। उसकी भूमि गोमय और मिट्टी से लिपी हुई थी। भीतें खडी चूना आदि से धवलित थीं।
'तत्थ' त्याहि. सन Unisewi गुपति नामनुव्यन्तरायतन હતું જેનું વર્ણન અન્યત્ર (બીજાં શાસ્ત્રોમાં) આવી રીતે છે –
અગાઉના લેના કહેવા પ્રમાણે તે જુના વખતથી છે. તેમાં છત્ર, ધજા, ઘંટા, પતાકા આદિ લાગેલાં હતાં. વેદિઓ બનેલી હતી. તેની ભૂમિ છાણ અને માટીથી લીંપેલી હતી. અને ભીંત ખડી ચુના વગેરે દલિત હતી.
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निरयावलिका सूत्र 'चिरादिकम् ' इति-चिर: बहुकालिकः आदिः-निवेशो यस्य तत् तथा, 'पूर्वपुरुषेति पूर्वपुरुषैः प्राचीनपुंमिः मज्ञप्तम्-उपादेयतया मतिबोधितम्, सच्छत्रम्, सध्वजम्, सघण्टम्, सपताकम्, एतत्सर्व स्पष्टम्, कृतवितर्दिकम्-रचितवेदिकम्, 'लाइये'त्यादि लाइयं-गोमयमृत्तिकादिना भूम्युपलेपनम् च उल्लोइयं-भित्तिसमुदायस्य सेटिकादिभिः संमृष्टीकरणं च; लाइयोल्लोइये; ताभ्यां महित-पूजितं प्रशस्तम् परिष्कृतमिति यावत्, एवम्भूतं चैत्यमासीत् ।।
तत्र व्यन्तरायतनभूमौ अशोकवरपादपः-अशोकाख्यो महावृक्षोऽस्ति, तस्याऽधस्तटे 'पृथिवीशिलापट्टकः' पट्टक इव पट्टकः, आसनरूपेण परिणता पृथिवीशिलेत्यर्थः, अभवत्-आसीत्, तस्य शास्त्रान्तरे वर्णनमित्थमाह
"विक्खंभायामसुप्पमाणे, आइणग-रूय-बूर-नवणीय-तूलफासे, पासाईए, दरिसणिज्जे, अभिरूवे, पडिरूवे " इति । छाया-- विष्कम्भायामसुप्रमाणः, अजिनक-रूत-बूर-नवनीत-तूलस्पर्शः, प्रासादीयः, दर्शनीयः, अभिरूपः, प्रतिरूपः, इति ।
'विष्कम्भे'-ति-विस्तारदैाभ्यां समुचितप्रमाणोपेतः ‘अजिनके' -ति-अजिनमेवाजिनक-मृगचर्म, रूतं-कार्पासः, बूरः स्निग्धवनस्पतिविशेषः, नवनीतं दुग्धविकारविशेषः, तूर अर्क-शाल्मलीवृक्षजातम्, तद्वत्स्पर्शः कोमलस्पर्शः, इत्यर्थः, 'प्रासादीय' इत्यादिपदानां व्याख्या पूर्वोक्तरीत्याऽवगन्तव्या। एवम्भूतः पृथिवीशिलापट्टक आसीत् ॥ २॥
___ वहाँ उसी स्थान पर एक बडा अशोक वृक्ष था । उसके नीचे मृगचर्म, कपास, बूर (वनस्पति), मक्खन और आंकडे (अर्क) की रूई (तूल) के समान स्पर्शवाला, उचित प्रमाण से लम्बा चौडा आसन के आकारसा बना हुआ पृथ्वीशिलापट्ट था, जो दर्शनीय अभिरूप प्रतिरूप था ॥ २॥ .
ત્યાં એ જગ્યા ઉપર એક મોટું અશોક વૃક્ષ હતું. તેની નીચે મૃગચર્મ, કપાસ, બૂર (વનસ્પતિ) માખણ અને આકડાના રૂ જેવું સુવાળું અને ઉચિત પ્રમાણથી લંબાઈ પહોળાઈ વાળું આર્સનના આકાર જેવું પૃથ્વીશિલા૫ટ્ટ હતું જે દર્શનીય અભિરૂપ અને પ્રતિરૂપ હતું. (૨) :
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सुन्दरबोधिनी टीका आर्य सुधर्मा
- तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अज्जमुहम्मे णाम अणगारे जाइसंपन्ने जहा केसी जाव पंचहि अणगारसएहि सद्धि संपरिवुडे पुव्वाणुपुचि चरमाणे (गामाणुगाम दुइज्जमाणे) जेणेव रायगिहे जाव अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेण जाव विहरइ । परिसा णिग्गया धम्मो कहिओ । परिसा पडिगया ॥३॥
. छाया... तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यान्तेवासी आर्यसुधर्मा नामाऽनगारो जातिसम्पन्नो यथा केशी, यावत् पञ्चभिरनगारशतैः सार्द्ध संपरितः पूर्वानुपूर्व्या चरन् (ग्रामानुग्रामं द्रवन् ) यत्रैव राजगृहं नगरं यावत् यथाप्रतिरूपमवग्रहमवगृह्य संयमेन यावद विहरति । परिषनिर्गता । धर्मः कथितः । परिषत प्रतिगता ॥३॥
टीकातेणं कालेणं ' इत्यादि - तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अन्तेवासी-शिष्यः, आर्यसुधर्मा ( स्वामी ) नामाऽनगारः विहरतीत्यन्वयः । अथ तद्वर्णनमाह-जातिसम्पन्न:-सुविशुद्धमातृवंशयुक्तः, 'यथा
' तेणं कालेणं' इत्यादि । __ उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामीके अन्तेवासी (शिष्य) श्री आर्यसुधर्मास्वामी विचरते थे। उनका वर्णन केशी श्रमणके समान इस प्रकार है
माताका वंश विशुद्ध होनेसे जातिसंपन्न थे। पैतृक पक्ष निर्मल (शुद्ध) होनेसे कुलसंपन्न थे। बलसंपन्न अर्थात् संहनन से उत्पन्न पराक्रमसे युक्त थे । वज्रऋषभनाराचसंहननके धारी थे ।
'तेणं फालेणं त्याहि.त समयमा श्रममावान महावीर स्वामीना અન્તવાસી શ્રી આર્યસુધર્મા સ્વામી વિચરી રહ્યા હતા. તેમનું વર્ણન કેશી શ્રમણ સમાન આ પ્રકારે છે –
માતાનું કુળ વિશુદ્ધ હોવાથી જાતિસંપન્ન હતા, પિતાને પક્ષ શુદ્ધ હાવાથી કુળસંપન્ન હતા, બલસંપન્ન હતા, અર્થાત સંહનાનથી ઉત્પન્ન થયેલા પરાક્રમવાળા હતા. વાષભનારાચ સંઘયણધારી હતા. જે આઠ કર્મોને નાશ
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निश्यावलिका बन केशी' ति-केशिनामा श्रमणो गणधरो यथाऽऽसीदित्यर्थः, अत्र यावच्छब्देनैवं केशिविशेषणानि संगृह्यन्ते-तथाहि-'कुलसंपन्ने, बलसंपन्ने, विणयसंपन्ने, लाघवसंपन्ने, ओयंसी, तेयंसी, पयंसी, जसंसी, जियकोहमाणमायालोहे,. जीवियासामरणभयविष्पमुक्के, तवप्पहाणे, गुणप्पहाणे, करणचरणप्पहाणे, निग्गहप्पहाणे, घोरबंभचेरवासी, उच्छूढ़सरीरे, चोदसपुवी, चउनाणोवगए' इति । अस्य च्छाया-"कुलसम्पन्नः, बलसम्पन्नः, विनयसम्पन्नः, लाघवसम्पन्नः,
ओजस्वी, तेजस्वी, वचखो, यशस्वी, जितक्रोधमानमायालोमा, जीविताशामरणभयविप्रमुक्तः, तपःप्रधानः, गुणप्रधाना, करणचरणमधानः, निग्रहमधानः, घोरब्रह्मचर्यवासी, उच्छूढशरीरः, चतुर्दशपूर्वी, चतुर्ज्ञानोपगतः"। इति, जो आठ कौंका नाश करे उसको विनय कहते हैं, वह अभ्युत्थानादि गुरुसेवा स्वरूप है, उससे युक्त थे । लाघवसंपन्न थे अर्थात् द्रव्यसे अल्प उपधि वाले थे और भावसे गौरव-(गारव)-त्रय रहित थे। इन्द्रियोंके सौन्दर्य और तप आदि के प्रभावसे ओजस्वी-प्रतिभाशाली थे । अन्तर 'आत्मप्रभाव ' और बाहर — शरीर प्रभाव' से देदीप्यमान होने के कारण तेजस्वी थे। सब प्राणियोंके हितकारक और निरवद्य (निर्दोष) वचन युक्त होनेसे आदेय (ग्राह्य ) वचन वाले थे। तप और संयमके आराधनसे प्रसिद्धि प्राप्ति होने के कारण यशस्वी थे। उदयावलिकामें आनेवाले क्रोध आदिको निष्फल करनेके कारण कषायोंके विजेता थे। जीनेकी आशा और मृत्युके भयसे रहित थे। अन्य मुनियोंकी अपेक्षा કરે તેને વિનય કહે છે, તે અભ્યસ્થાનાદિ ગુરૂસેવાના લક્ષણ ચુકત વિનયસંપન્ન હતા. લાઘવસંપન્ન હતા અર્થાત દ્રવ્યથી શેઠી ઉપાધિવાળા હતા અને ભાવથી ત્રણ ગૌરવથી રહિત હતા. ઈન્દ્રિયનાં સૌંદર્યથી તથા તપ વગેરેના પ્રભાવથી પ્રતિભાશાળી હતા. અંતર આત્મપ્રભાવ અને બહાર શરીરપ્રભાવથી દેદીપ્યમાન હોવાના કારણે તેજસ્વી હતા. સર્વે પ્રાણુઓના કલ્યાણકારક તથા નિર્દોષ વચન યુક્ત હોવાથી આદેય (ગ્રાહ્ય) વચનવાળા હતા. તપ તથા સંયમની આરાધના કરવાથી પ્રસિદ્ધિ પ્રાપ્ત હોવાને કારણે યશસ્વી હતા, ઉદયાવલિકા એટલે કર્મફળની પરંપરામાં આવવા વાળા ક્રોધાદિને જીતવાથી કક્ષાના વિજેતા હતા. જીવવાની આશા તથા મૃત્યુના ભય રહિત હતા,
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दरबोधिनी टीका आर्यसुधर्मा
पक्षस्तत्सम्पन्नः,
'कुले 'ति - कुलं = पैतृकः उत्तमपैतृकपक्षयुक्तः, 'बले' ति - बलेन = संहननसमुत्थेन पराक्रमेण युक्तः, वज्र - ऋषभ - नाराच संहननवारीत्यर्थ: : 'विनये' ति - विनयति - नाशयति अष्टप्रकारकं कर्म यः स विनयः = अभ्युत्थानादिगुरुसेवालक्षणस्तत्सम्पन्नः । ' लाघवे' ति लाघवं द्रव्यतः खल्पोपषितम्, भावतो गौरवत्रयनिवारणं, तत्सम्पन्नः । ' ओजस्वी 'ति - ओजः सकलेन्द्रियाणां पाटवं तपःप्रभृतिप्रभावात् समुत्थतेजो वा तद्वान्, 'तेजस्वी 'तितेजः = अन्तर्व हिर्देदीप्यमानत्वम् तेजोलेश्यादि वा तद्वान्, ' वचखी' ति - वचः = आदेयं वचनं सकलमाणिगणहितसंपादकं निरवद्यवचनं, तद्वान्, 'यशस्वी' तियशः तपःसंयमाराधनख्यातिस्तद्वान्, 'जिते 'त्यादि - उदयावलिकामविष्टक्रोधादीनां विजयो = विफलीकरणं, तद्वान्, 'जीविते - ' - त्यादि - जीवितं प्राण● धारणं तस्याशा, मरणं = मृत्युस्तस्माद्भयं = त्रासः, ताभ्यां विप्रमुक्त:- वर्जितः, तपः प्रधान ' इति - तपति = दहवि ज्ञानावरणीयाद्यष्टविधकर्माणि इति तपः चतुर्थ - षष्ठाऽष्टमभक्तादिलक्षणं तत्प्रधानः शेषमुनिजनापेक्षया विविधप्रकारकतपोयुक्तः पारणादौ नानाविधाभिग्रहयुक्तः । 'गुणप्रधान' इति गुणः - ज्ञानादिरत्नत्रयं क्षान्त्यादिर्वा तत्प्रधानः, उक्तञ्च–
•
" परोपकार कर तिर्निरीहता, विनीतता सत्यमनुत्यचित्तता ।
विद्या विनोदोऽनुदिनं न दीनता, गुणा इमे सत्त्ववतां भवन्ति ॥ १ ॥” इति । चतुर्थ भक्त आदि तप अधिक करनेसे, और पारणा आदिमें अनेक प्रकारके कठिन अभिग्रह करनेसे, 'तपः प्रधान' थे, सम्यग् ज्ञान आदि रत्नत्रय, और क्षान्ति आदि दसविध यतिधर्म से युक्त होनेके कारण 'गुणप्रधान' थे । कहा भी है:“परोपकारैकरतिर्निरीहता, विनीतता सत्यमनुत्थचिचता ।
विद्या विनोदोऽनुदिनं न दीनता, गुणा इमे सत्त्ववतां भवन्ति ॥” इति ॥
ખીજા મુનિઆના અપેક્ષાએ ચતુર્થ ભક્ત ( ઉપવાસ ) આદિ તપ બહુ કરવાથી તથા પારણાં આદિમાં અનેક જાતનાં કઠિન અભિગ્રહ કરવાથી તપप्रधान' ता.
સમ્યક્ જ્ઞાન આદિ રત્નત્રય તથા ક્ષાન્તિ (ક્ષમા ) આદિ દૃવિધ યતિधर्म थी युक्त होवाथी 'गुष्णुप्रधान' हुता. भयछे :
46
परोपकार कैरतिर्निरीहता, विनीतता सत्यमनुत्यचित्तता "
विद्या विनोदोऽनुदिनं न दीनता, गुणा इमे सत्यवतां भवन्ति " || इति॥
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निरयावलिका
'करणे' ति-करणसप्ततिः, चरणसप्ततिः, तत्पधानः, 'निग्रहप्रधान' इति इन्द्रियनोइन्द्रियनिरोधकरणेन, स्वात्मनोऽपूर्ववीर्यपरिस्फोटनं, तत्पधाना, 'घोरब्रह्मे'-त्यादि-ब्रह्म-कामपरिषेवणत्यागस्तत्र चरणं ब्रह्मचर्य, घोरं च तद् ब्रह्मचर्य घोरब्रह्मचर्यम् अल्पसत्त्वेन दुरनुष्ठेयं, तत्र वस्तुं शीलमस्येति घोरब्रह्मचर्यवासी । 'उच्छूढशरीर' इति-उच्छूढमुज्झितमिव संस्कारपरित्यागाच्छरीरं येन स उच्छूढशरीरः, सर्वथा शरीरसंस्कारवर्जितः । 'चतुर्दशपूर्वी-चतुर्दशपूर्वधारी; चतुर्ज्ञानोपगतः केवलवर्जितमत्यादिचतुर्ज्ञानवान् । केशी श्रमणस्तुमतिश्रुताऽवधिज्ञानत्रयवान् , उक्तञ्च - उत्तराध्ययनसूत्रे त्रयोविंशाध्ययने"ओहिनाणे सुए बुद्ध" इति एतादृशकेशिश्रमणगणधरसदृशः पञ्चमगणधरः
___ अर्थात्-परोपकारमें आनन्द मानना, निःस्पृहता रखना, विनय, सत्य, प्रशान्त भाव, विद्या विनोद, मध्यस्थ भाव और दीनताका त्याग, ये गुण महापुरुषोंमें होते हैं।
तथा करण चरणके धारी थे, इन्द्रिय नोइन्द्रिय (मन) के दमन करने से आत्माका अपूर्व वीर्य स्फोरन करनेके कारण 'निग्रहप्रधान' थे । अल्पसत्त्ववालों से दुश्चरणीय ब्रह्मचर्यके धारक होनेसे 'घोरब्रह्मचारी' थे । शृङ्गारके लिए सर्वथा शरीरसंस्काररहित होनेके कारण 'उच्छूढशरीर' (शरीरममत्वरहित) थे । केशी श्रमण मति, श्रुत, और अवधि, तीन ज्ञानके ही धारी थे । जैसे उत्तराध्ययन सूत्रमें कहा है - " ओहिनाणे मुए बुद्धे ” इति । इस प्रकार केशी श्रमण गणधर.. के समान गुणके धारण करनेवाले चार ज्ञान और चौदह पूर्वके धारी पँचम गणधर
अर्थात् - ५२२५२भा मान मानवी, नि:स्पृहता रामवी, विनय, सत्य પ્રશાંત ભાવ, વિદ્યા વિનાદ, મધ્યસ્થભાવ અને દીનતાને ત્યાગ એ ગુણ મહાપુરૂમાં હોય છે.
તથા તે કરણ ચરણના ધારણ કરવાવાળા હતા, ઈન્દ્રિયોને તથા ઈન્દ્રિય (મન) ને દમન કરવાથી આત્માના અપૂર્વ વીર્ય પ્રગટ કરવાના કારણે “નિગ્રહ પ્રધાન હતા. અલ્પસત્ત્વવાળાથી મુશ્કેલી એ પળાય એવાં બ્રહ્મચર્યને ધારણ કરવાથી ઘરબ્રહ્મચારી” હતા. શ્રૃંગાર માટે શરીરને સર્વથા સંસ્કારરહિત રાખવા હોવાથી ઉઢશરીર (શરીરમમત્વ રહિત) હતા. કેશી શ્રમણ, મતિ શ્રત તથા અવધિ એ ત્રણ જ્ઞાનનાજ ધારી હતા. જેમાં ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રમાં કહ્યું છે
"ओहिनाणे सुए बुद्धे" इति, प्रमाणे अशा श्रम गणुधरनी समान ગુણને ધારણ કરવાવાળા ચાર જ્ઞાન અને ચૌદ પૂર્વના ધારી પાંચમા ગણધર
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सुन्दरबोधिनी टीका आर्यसुधर्मा, पांच अभिगम
श्रीसुधर्मस्वामी पञ्चभिरनगारशतैः पञ्चशतसंख्यकमुनिभिः सार्द्धं - सह संपरिवृतः= पञ्चशतमुनिपरिवारयुक्तः, ' पूर्वानुपूर्व्या ' - तीर्थकरोक्तपरम्परया चरन् = विहरन्, ('ग्रामानुग्रामम् ' एकस्मात् ग्रामात् ग्रामान्तरं द्रवन् गच्छन् यान - वाहनादि विना पदविहारेण ग्रामान्तरमपरित्यजन् अनेनाऽप्रतिबद्धविहारिता सूचिता) ' जेणेव ' इति - यस्मिन्नेव क्षेत्रविभागे राजगृहनामकं नगरमस्ति गुणशिलकं नाम चैत्यं च तस्मिन्नेव स्थाने उपागच्छति, उपागत्य यथामतिरूपं साधुकल्प्यमवग्रहमावसथम् अवगृह्य गृहीत्वा संयमेन तपसा चाऽऽत्मानं भावयन् विहरति स्म ।
११
परिषन्निर्गता = श्रीसुधर्मस्वामिनं वन्दितुं धर्मकथाश्रवणार्थं च परिषद्वृन्दरूपेण जनसंहतिर्नगरान्निर्गता निस्सृता, श्रेणिकभूपोऽपि निर्गतः, पञ्चविधाभिगमपुरस्सरं तत्र समागतः ।
श्रीसुधर्मा स्वामी पाँच सौ मुनियोंके परिवार सहित तीर्थंकरोंकी मर्यादाका पालन करते हुए और ग्रामानुग्राम विचरते हुए, जहाँ राजगृह नगर है, जहाँ गुणशिलक नामका चैत्य ( व्यन्तरायतन ) है वहाँ पधारे, और मुनियोंके कल्पके अनुसार अवग्रह लेकर संयम और तपसे आत्माकों भावित करते हुए रहने लगे ।
श्री सुधर्मा स्वामी यहाँ पधारे हैं, इस बातको सुनकर राजगृहसे परिषद् निकली इसी प्रकार राजा श्रेणिक भी वन्दन करनेके लिए और धर्मकथा सुनने के लिए जनसमूहके साथ पाँच अभिगमपूर्वक आए ।
સુધર્મા સ્વામી પાંચસે મુનિએના પરિવાર સાથે તીર્થંકરોની મર્યાદાનું પાલન કરતા થકા અને ગ્રામાનુગ્રામ વિચરતા થકા જ્યાં રાજગૃહ નગર છે, જ્યાં ગુરુશિલક નામે ચૈત્ય ( વ્યંતરાયતન ) છે ત્યાં પષાર્યાં, તથા મુનિઓના આચાર પ્રમાણે અવગ્રહ લઇને સંયમ તથા તપથી આત્માને ભાવિત કરતા રહેવા લાગ્યા.
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શ્રી સુધર્મા સ્વામી અહીં પધાર્યાં છે, એ વાત સાંભળી પરિષદ્ નિકળી. એજ રીતે શ્રેણિક રાજા પણ વંદના કરવાને તથા ધર્મ કયાનું શ્રવણ કરવા માટે જન સમૂહની સાથે પાંચ અભિગમપૂર્વક આવ્યા.
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. मिरपालिकाका पञ्चविधाभिगमो यथा(१) सचित्ताणं दव्वाणं विउसरणयाए, (२) अचित्ताणं दवाणं अविउसरणयाए, (३) एगसाडिएणं उत्तरासंगकरणेणं, (४) चक्खुप्फासे अंजलिप्पग्गहेणं, (५) मणसो एगत्तीकरणेणं,
'धम्मो कहिओ' इति श्रुतचारित्रलक्षणो धर्मः कथितः उपदिष्टः, 'परिसा पडिगया' इति-परिषत्-जनसंहतिः तत्समीपे सविधिवन्दनपुरस्सरं
__ पाँच अभिगम इस प्रकार हैं :(१) . धर्मस्थान पर नहीं लेजाने योग्य पुष्पमाला आदि सचित्त द्रव्योंका त्याग करना। (२) वस्त्र भूषण आदि अचित्त द्रव्योंका त्याग नहीं करना । (३) सिलाई किया हुआ कपडा न हो ऐसे, अर्थात् अखण्ड वस्त्र-द्वारा मुख पर
उत्तरासंग करना। (४) धर्मगुरुके दृष्टि-पथमें आने पर दोनों हाथ जोडना। (५) मनको एकाग्र करना।
इस मर्यादा से समवसरणमें सुधर्मास्वामी आदि मुनियोको सविधि चन्दन करके स्व-स्व स्थान पर परिषद्के स्थित हो जाने पर श्री सुधर्मा स्वामोने
પાંચ અભિગમ આ પ્રકારના છે –
(૧) ધર્મ સ્થાન પર ન લઈ જવા જેવાં પુષ્પમાલા આદિ સચિત્ત દ્રવ્યોને ત્યાગ કર.
(૨) વસ્ત્ર આભૂષણ આદિ અચિત્ત દ્રવ્યને ત્યાગ ન કરે. (૩) સીવેલું કપડું ન હોય એવાં અર્થાત અખંડ વસ્ત્રથી મુખ ઉપર ઉત્તરા४२. (४) धर्म शु३ नगरे ५stior मे . (५) भनन मे 19 ४२.
આવી મર્યાદાથી સમવસરણમાં સુધર્મા સ્વામી વગેરે મુનિઓને વિધિપૂર્વક વંદના કરીને પિતાપિતાને સ્થાને પરિપદ (મળેલા લેકે) બેસી ગયા પછી શ્રી સુધમાં સ્વામીએ શ્રત ચારિત્ર લક્ષણ ધર્મ સંભળાવ્યો. ધર્મકથા સાંભળી રહ્યા
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सदरपोधिनी टीका जम्बस्वामी धर्मकयां श्रुत्वा यस्या दिशः सकाशात् मादुर्भूता-आगता तामेव दिवं प्रतिगता इति ॥३॥
मूलम् तेणं कालेणं तेणं समएणं अजमुहम्मस्स अगगारस्स अंतेवासी जंबू गाम अणगारे समचउरंसठाणसंठिए जाव संखित्तविउलतेयलेस्से :अजमुहम्मस्स अणगारस्स अदूरसामंते उटुंजाणू जाव विहरइ ॥४॥
छायातस्मिन् काले तस्मिन् समये आर्यमुधर्मणोऽनगारस्य अन्तेवासी 'जम्बू' नामाऽनगारः, समचतुरस्र संस्थानसंस्थितः यावत् संक्षिप्तविपुलतेजोलेश्यः, आर्यसुधर्मणोऽनगारस्य अदूरसामन्ते ऊर्ध्वजानुर्यावद् विहरति ॥४॥
टीका' तेणं कालेणं' इत्यादि-तस्मिन् काले तस्मिन् समये धर्मकयां श्रुत्वा श्रेगिम्भूगादिजनसंहतिप्रतिगमनानन्तरकाले आर्यसुधर्मगः स्वामिनोऽनगारस्यान्तेवासो आर्यजम्बूनामाऽनगारः काश्यपगोत्रोत्पन्नः,
अत्र प्रसङ्गात् जम्बूस्वामिनः परिचयश्चायम्-' राजगृह '-नगर्याम् 'ऋषभदत्त'-नामा इभ्यश्रेष्ठी निवसति स्म, तस्य 'भद्रा' नाम्नी भार्या, श्रुतचारित्रलक्षण धर्म सुनाया । धर्मकथा श्रवण करनेके पश्चात् परिषद् जिस दिशासे आई, पुनः उसी दिशाको चली गई ॥३॥
'तेणं कालेणं' इत्यादि ।
उस काल उस समय श्री आर्यसुधर्मा स्वामी के अंतेवासी काश्यपगोत्रीव श्री आर्य जम्बू स्वामी जिनका परिचय इस प्रकार है -
राजगृह नगरमें ऋषभदत्त नामके इभ्य (उत्कृष्ट धनिक) सेठ रहते थे। उनकी पत्नीका नाम भद्रा था। पंचम देवलोकसे चवकर एक ऋद्धिशाली देवने પછી લેકે જે જે બાજુએથી આવ્યા હતા ત્યાં ત્યાં પાછા ગયા. (૩)
'तेणं कालेष'त्या. तेणेते समये श्री मार्य सुधर्मास्वामीन मन्तवासी (શિષ્ય) કાશ્યપગંત્રી શ્રી આર્ય જંબૂસ્વામી હતા જેમને પરિચય નીચે પ્રમાણે છે:
રાજગૃહ નગરમાં ત્રાષભદત્ત નામના ઇભ્ય (બહુ ધનવાન શેઠ), રહેતા હતા. તેમની પત્નીનું નામ ભદ્રા હતું. પાંચમા દેવલથી એવીને એક વિશાળી
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निरयावलिकास्त्र तत्पुत्रः पञ्चमस्वर्गाच्च्युतो 'जम्बू'-नामा सञ्जातः, मात्रा स्वप्ने जम्बूवृक्षो दृष्टस्तेन तस्य 'जम्बू' इति नाम कृतम् , स पञ्चमगणधरसुधर्मस्वामिनिकटे धर्मश्रवणात् प्रतिपन्नशीलसम्यक्त्वोऽपि पित्रोराग्रहशादष्टानामिभ्यश्रेष्ठिनामष्टौ कन्याः परिणीतवान् , किन्तु कन्यानां हावभावादिभिर्न व्यामोहितः, यतः
“सम्यक्त्व-शील-तुम्बाभ्यां, भवाब्धिस्तीर्यते सुखम् ।
ये दधानो मुनिर्जम्बूः, स्त्रीनदीषु कथं ब्रुडेत् ॥ १॥" इति ॥ उनकी कुक्षिमें जन्म लिया, माताने स्वप्नमें जम्बू वृक्षको देखा इस लिए उनका नाम जम्बू रखा था। उस जम्बू कुमारने पञ्चम गणधर श्री सुधर्मा स्वामी के पास धर्म सुनकर सम्यक्त्व और शीलवत धारण किया । पश्चात् सम्यक्त्व और शीलव्रत धारी होकर भी मातापिताके आग्रहसे आठ इभ्य सेठोंकी आठ कन्याओंके साथ विवाह किया, फिरभी ये कन्याओंके हाव-भाव आदिमें मोहित नहीं हुए ।
कहा भी है :" सम्यक्त्व-शील-तुम्बाभ्यां, भवाब्धिस्तीर्यते सुखम् । - ये दधानो मुनिर्जम्बूः, स्त्रीनदीषु कथं ब्रुडेत् ॥१॥ इति " ... अर्थात् सम्यक्त्व और शीलरूप तुम्बोंके द्वारा भवसमुद्र सुखसे तैरा जाता है। उन्हीं सम्यक्त्व और शीलको धारण करनेवाले जम्बू अनगार स्त्रीरूप नदियों. में कैसे डूब सकते हैं ? अर्थात् कभी नहीं ॥१॥
દેવે તેની કુખે જન્મ લીધો. માતાએ સ્વપ્નામાં જંબૂ વૃક્ષને જોયું તેથી તેનું નામ જંબૂ પાડયું હતું. તે જંબૂ કુમારે પંચમ ગણધર શ્રી સુધર્મા સ્વામીની પાસે ધર્મનું શ્રવણ કરી સમ્યકૃત્વ તથા શીલવ્રત ધારણ કર્યું. સમ્યકત્વ તથા શીલવ્રત ધારી હોવા છતાં પણ માતાપિતાના આગ્રહથી ઇભ્ય શેઠોની આઠ કન્યાઓ સાથે લગ્ન કર્યું પણ તે આઠે કન્યાઓની હાવ-ભાવ આદિ ચેષ્ટામાં મોહિત થયા નહોતા. એમ કહ્યું છે કે –
सम्यक्त्व-शील-तुम्बाभ्यां, भवाब्धिस्तीर्यते सुखम् - ये दधानो मुनिर्जम्बूः, स्त्रीनदीषु कथं ब्रुडेत् ॥ १॥ इति ॥
અર્થાત્ સમ્યકત્વ તથા શીલરૂપ તુંબડીથી સંસાર સાગર સુખેથી તરી જવાય છે તેજ સમ્યક્ત્વ તથા શીલને ધારણ કરી જંબૂ સ્વામી સ્ત્રી રૂપી નદીએમાં કેમ ડૂબી શકે ? અર્થાત્ કદી ન ડૂબે.
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सुन्दरबोधिनी ट्रोका जम्बू प्रभव आदि (५२७) दीक्षा
___ततो रात्रौ ताः प्रतिबोधयन् चौर्यार्थमागतं चतुःशतनवनवति-- तस्करपरिवृतं 'प्रभव ' नामानं तस्कराधिपतिं प्राबोधयत्, ततः मातरेव पञ्चशततस्करभार्याष्टकतजनकजननी-स्वजनकजननीभिः सह स्वयं पश्चशतसप्तविंशतितमो यौतुकागतकनकनवनवतिकोटीः स्वगृहसम्पत्ति च परित्यज्य पात्राजीत् । क्रमेण केवली जातः, षोडश वर्षाणि गृहस्थत्वे, विंशतिवर्षाणि छमस्थावस्थायां, चतुश्चत्वारिंशद्वर्षाणि केवलिपर्याये व्यतीतानि, एवमशीतिवर्षाणि सर्वायुः परिपाल्य श्रीप्रभवं स्वपदे संस्थाप्य सिद्धिमगमत् । उक्तञ्च
विवाहके बाद रात्रिमें उन आठों स्त्रियोंको प्रतिबोध देते हुए जम्बू कुमारने चोरीके लिए आये हुए 'प्रभव'को चार सौ निन्यानवे (४९९) चोरोंके साथ प्रतिबोधित किया। उसके पश्चात् प्रातःकाल ही जम्बू कुमार पाँचसौ चोर, और अपनी आठों भााएँ, उनके मातापिता और अपने मातापिता' इस तरह पाँचसौ सत्ताइस (५२७) जनोंने दीक्षा ग्रहण की। जम्बू कुमारने अपने दहेजमें आई हुई निन्यानवे (९९) कोटि स्वर्ण मोहरोंको तथा घरकी समस्त सम्पत्तिको त्याग कर दीक्षित हुए, और क्रमसे तप संयम आराधन करके केवल ज्ञान पाये । वे सोलह वर्ष गृहस्थावासमें रहे, वीस वर्ष छमस्थ रहे. और ४४ चौवालीस वर्ष केवलपर्यायमें रहे। इस प्रकार ८० अस्सी बरसकी सर्व आयु व्यतीत करके प्रभव स्वामी को अपने पद पर स्थापितकर सिद्धपदको पाये । कहा भी है
વિવાહ પછી રાતમાં તે આઠે સ્ત્રીઓને ઉપદેશ આપતાં જંબુકમારે ચોરી કરવા આવેલા પ્રભાવને ચારસે નવાણું (૪૯૯) ચેરેની સાથે | ઉપદેશ આપ્યો, અને પ્રતિબંધિત કર્યા. તે પછી સવારમાંજ પાંચસો ચોર, પોતાની આઠ સ્ત્રીઓ તથા તેમનાં માતા પિતા તથા પિતાનાં માતા પિતા, અને જમ્મુ पोते. वारीत पांयसो सत्तावीस ( ५२७) मे दीक्षा प्रड 1. प्यू કુમાર પોતાના દાયજામાં આવેલી નવાણું (૯૯) કરેડ સોના મહોરે તથા ઘરની સમસ્ત સંપત્તિનો ત્યાગ કરી દીક્ષિત થયા અને કમથી તપ સંયમ આરાધન કરીને કેવળ જ્ઞાન મેળવ્યું. તેઓ સોળ વરસ ગૃહસ્થાશ્રમમાં રહ્યા. વીશ વરસ છદ્મસ્થ રહ્યા તથા ચુંમાલીસ (૪૪) વરસ કેવલ પર્યાયમાં રહ્યા. આમ એંસી (૮૦). વરસનું સર્વ આયુષ્ય પૂર્ણ કરીને પ્રભવ સ્વામીને પિતાનાં પદ પર રથાપિત કરી પોતે સિદ્ધપદને પ્રાપ્ત કર્યું. કહ્યું છે કે –
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(वसन्ततिलकावृत्तम्) "जम्बूसमो भविसमुद्धरणैकचित्तो,
भूतो न कोऽपि भविता धरणीतलेऽस्मिन् । यस्तस्करानपि चकार शिवाध्वनीनान् .
साधून मियाऽष्टकपिताजननीश्च धीरः ॥१॥ . हित्वा विनश्वरधनं प्रभवोऽपि धन्य
चौराधगोचरमनय॑मवाप्तवान् यः । रत्नत्रयं स्थिरतरं निजबन्ध्वभाज्यं
पाथेयमद्भुतमनन्तसुखावहं च ॥२॥" इति ॥
"जम्बू स्वामी के समान इस संसार में न हुआ न होगा, जिस धीर प्रशंसनीय महापुरुष ने चोरोंको भी संयम मार्गमें आरूढकर, और वैसे ही अपनी आठों भार्याओं, तथा उनके मातापिता और अपने मातापिताको भी संयम मार्गपर आरूढकर मोक्षगामी बनाये ॥१॥ विनश्वर धन आदिका त्याग कर, न जिसको चोर चुरासकते हैं और न जिसकी कीमत हो सकती है, जो अविनाशी है, निजबन्धु भी जिसका भाग नहीं ले सकते, तथा मोक्ष स्थानको पहुँचनेके लिए संवल- (भाता)के समान है, ऐसे अनन्त सुखके देने वाले रत्नत्रयको प्रभवने भी प्राप्त क्रिया इस लिये वह धन्य है ॥ २॥"
જંબૂ સ્વામીના જેવા આ સંસારમાં થયા નથી અને થશે પણ નહિ કે જે ધીર તથા પ્રશંસનીય મહાપુરૂષે ચેરેને પણ સંયમને મા ચડાવ્યા તથા મેશ્વગામી બનાવ્યા. એવી જ રીતે પિતાની આઠ સ્ત્રીઓ તથા તેમનાં માતાપિતાને તથા પિતાનાં (જબૂનાં માતા પિતાને પણ સંયમ માર્ગે ચડાવી મોક્ષગામી બનાવ્યાં. એ ૧ નશ્વર ધન વગેરેને ત્યાગ કરીને, જેને ચાર ચોરી ન શકે, જેનું મૂલ્ય ન થઈ શકે, જે અવિનાશી છે, પિતાના ભાઈ પણ જેમાંથી ભાગ પડાવી ન શકે, તથા મોક્ષ સ્થાને પહોંચવા માટે જે ભાતા સમાન છે. એવું અનંત સુખ ટેવાવાં રત્નત્રયને પ્રાપ્ત કરનાર પ્રભાવને પણ ધન્ય છે ૨
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सुन्दरबोधिनी टीका जम्बूवर्णन
- अथ सूत्रकारो जम्बूखामिनं विशिनष्टि–'समचतुरे' त्यादिना, समाः= तुल्याः अन्यूनाधिकाः चतस्रोऽस्रयो हस्तपादोपर्यधोरूपाश्चत्वारोऽपि विभागाः (शुभलक्षणोपेताः) यस्य (संस्थानस्य) तत् समचतुरस्र-तुल्यारोहपरिणाहं, तच्च संस्थानम्-आकारविशेषः इति समचतुरस्रसंस्थानं, तेन संस्थितः समचतुरस्रसंस्थानसंस्थितः । जाव-(यावत् )-शब्देन 'सत्तुस्सेहे वजरिसहनारायसंघयणे, कणग-पुलग-निघसपम्हगोरे' तथा 'उग्गतवे, तत्ततवे, दित्ततवे, उराले, घोरे, घोरव्वये, संखित्तविउलतेउलेस्से' एतेषां सङ्ग्रहः । एतच्छाया-'सप्तोत्सेधः, वज्रऋषभ-नासचसंहननः, कनकपुलकनिकषपद्मगौरः, तथा-उग्रतपाः, तप्ततपाः, दीप्ततपाः, उदारः, घोरः, घोरव्रतः, संक्षिप्तविपुलतेजोलेश्यः ।
तत्र 'सप्तोत्सेध' इति-सप्तहस्तोच्छ्रयः सप्तहस्तममितोच्छूितदेहः । 'वजे' त्यादि-चक्रंकीलिकाकारमस्थि, ऋषभः तदुपरिपरिवेष्टनपट्टाकृतिकोस्थिविशेषः, नाराचम्-उभयतो मर्कटबन्धः, तथा च-द्वयोरस्नोरुभयतो मर्कटबन्धनेन बद्धयोः पट्टाकृतिना तृतीयेनाऽस्मा परिवेष्टितयोरुपरि तदस्थित्रयं पुनरपि दृढीकर्तुं तत्र निखातं कीलिकाकारं वज्रनामकमस्थि यत्र भवति तद् वज्रऋषभनाराचम् , तत् संहननं-संहन्यन्ते-दृढीक्रियन्ते शरीरपुद्गला येन तत् संहननम् अस्थिनिचयो यस्य स वज्रऋषभनाराचसंहननः ।
. सूत्रकार फिर जम्बू स्वामीका वर्णन करते हैं - जो समचतुरस्र संस्थानवाले थे, जिनके शरीरकी अवगाहना सात (७) हाथकी थी, वज्रऋषभनाराच संहननके धारी थे,
સૂત્રકાર વળી જંબૂ સ્વામીનું વર્ણન કરે છે - જે સમરસ સંસ્થાનવાળા હતા, જેના શરીરની અવગાહના સાત(૭)હાથની હતી, વજ ત્રાષભનાર સંઘયણવાળા હતા,
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निरयावलिकामा 'कनके' त्यादि-कनकस्य सुवर्णस्य पुलका खण्डम् , तस्य निकष:शाणनिघृष्टरेखा, 'पद्म'-शब्देन पद्मकिञ्जल्कं गृह्यते, पद्म पद्मकिञ्जल्लं च, तद्वद् गौरः, इति । यद्वा-कनकस्य सुवर्णस्य पुलका सारो वर्णातिशयस्तत्पधानो यो निकषः शाणनिघृष्टसुवर्णरेखा तस्य यत पक्ष्म बहुलत्वं तद्वद गौर:शाणनिघृष्टानेकसुवर्णरेखावच्चाकचिक्ययुक्तगौरशरीरः, 'उग्रतपा 'इति-उग्रं= विशुद्धं प्रवृद्धपरिणामत्वात्पारणादौ विचित्राभिग्रहत्वाच्च अप्रधृष्यमनशनादि द्वादशविधं तपो यस्य स तथा, तीव्रतपोधारीत्यर्थः । 'तप्ततपा 'इति-येन तपसा ज्ञानावरणीयाद्यष्टकर्म भस्मीभवति तादृशं तपस्तप्तं येन स तथा, कर्म निर्जरणार्थतपस्यावान् । 'दीप्ततपाः' इति-दीप्तं-जाज्वल्यमानं तपो यस्य स तथा वह्निरिव कर्मवनदाहकत्वेन, ज्वलत्तेजस्वीत्यर्थः, उदारः सकलजीवैः सह मैत्रीभावात् , 'घोर' इति-परीषहोपसर्गकषायशत्रुप्रणाशविधौ भयानकः, 'घोरव्रत' इति-घोरं-कातरैर्दुश्चरं व्रत-सम्यक्त्वशीलादिकं यस्य स तथा, 'संक्षिप्तविपुले' त्यादि-संक्षिप्ता शरीरान्तर्गतत्वेन सङ्कुचिता विपुला विशाला अनेकयोजनपरिमितक्षेत्रगतवस्तुभस्मीकरणसमर्थाऽपि, तेजोलेश्या विशिष्टतपोजनितलब्धिविशेषसमुत्पन्नतेजोज्वाला यस्य स संक्षिप्तविपुलतेजोलेश्य:-शरीरान्तीनतेजोलेश्यावान् । एवं गुणगणसमेतो 'जम्बूस्वामी' आर्य
कसौटी पर घिसी हुई स्वर्ण रेखाके समान, तथा कमल-केशरके समान गौर वर्ण थे। उग्र तपस्वी थे। तीव्र तपके करनेवाले देदीप्यमान तपोधारी थे । षट्कायोंके रक्षक होनेसे उदार थे, और परीषहोपसर्ग-कषाय-रूप शत्रुके विजय करनेमें भयानक अर्थात् वीर थे। घोरखतवाले थे अर्थात् कठिन व्रतके पालक थे।
तपके प्रभावसे उत्पन्न होने वाली और अनेक योजन विस्तृत (लम्बे-चौडे) क्षेत्रमें रही हुई वस्तुको भस्म करने वाली अन्तर्जालारूप लब्धिको तेजोलेश्या' कहते हैं, उसको संक्षिप्त करनेवाले, अर्थात् गुप्तरूपसे रखनेवाले थे। इस तरह गुणके
કસોટી ઉપર ઘસેલી સુવર્ણ રેખા સમાન તથા કમલ-કેશર સમાન જેને ગૌર વર્ણ હતો, ઉગ્ર તપસ્વી હતા. તીવ્ર તપ કરવાવાળા દેદીપ્યમાન તપોધારી હતા છ કાયોના રક્ષક હોવાથી ઉદાર હતા, પરિષહ ઉપસર્ગ કષાયરૂપ શત્રુને વિજય ४२वामा लयान अर्थात् वीर (18) तl. S प्रतधारी उता.. मथात् 802 વ્રતનું પાલન કરતા હતા.
તપના પ્રભાવથી ઉત્પન્ન થવાવાળી અને અનેક જન વિસ્તારના ક્ષેત્રમાં રહેલી વસ્તુને ભસ્મ કરવાવાળી અંતર્વાલા રૂપ લબ્ધિને તેજલેશ્યા કહે છે. તેને સંક્ષિપ્ત કરવાવાળા અર્થાત ગ્રસ્તરપમાં રાખવાવાળા હતા. આવી રીતે ગણના
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. सुन्दरबोधिनी टीका जम्बूवर्णन
"
सुधर्मणोऽनगारस्य अदूरसामन्ते - दूरं विप्रकर्षः, सामन्तं समीपं तयोरभावोऽदूरसामन्तं तस्मिन् नातिदूरे नातिनिकटे, उचिते देशे इत्यर्थः । ' उडुंजाणू ' इति - ऊर्ध्वजानुः - ऊर्ध्वे जानुनी यस्य स तथा, जाव - ( यावत् ) - शब्देन 'अहो - सिरे, कयंजलिपुडे, उक्कडासणे, झाणकोट्ठोवगए, संजमेण तवसा अप्पाणं भावेमाणे ' इत्येषां सङ्ग्रहः । अहोसिरे ' इति - अधः शिराः - नतमस्तकः, इतस्ततश्चक्षुर्व्यापारं निवर्त्य नियमित भूमिभागनिहितदृष्टिरित्यर्थः । 'कथंजलिपुढे' इति कृताञ्जलिपुटः – मस्तकन्यस्तसम्पुटीकृतहस्तः, उक्कुडासणे' इति - उत्कुटासनः उत्कुटं = भूमावलग्नपुतम् आसनं यस्य स तथोक्तः भूप्रदेशास्पृष्टपुततयोपविष्ट इत्यर्थः । ध्यानकोष्ठोपगतः - ध्यायते - चिन्त्यतेऽनेनेति ध्यानम्, एकस्मिन् वस्तुनि तदेकाग्रतया चित्तस्यावस्थापनमित्यर्थः, ध्यानं कोष्ठ इव ध्यानकोष्ठस्तमुपगतः, यथा कोष्ठगतं धान्यं विकीर्णं न भवति तथैव ध्यानत इन्द्रियान्तःकरणवृत्तयो बहिर्न यान्तीति भावः, नियन्त्रितचित्तवृत्तिमानित्यर्थः । 'संजमेण ' इति - संयमेन सप्तदशविधेन, ' तबसे 'ति - तपसा - द्वादशविधेन आत्मानं भावयन् विहरति - तिष्ठति, इति ॥ ४ ॥
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१९
भण्डार श्री जम्बू अनगार श्री आर्यसुधर्मा स्वामी के पास उर्ध्वजानु किये हुए, इधर उधर न देखते हुए, दोनों हाथ जोडकर मस्तक झुकाये, उक्कुडासनसे बैठे हुए ध्यानरूपी कोठेमें स्थित, अर्थात् चित्तवृत्तिको एकाग्र करके तप और संयमसे आत्माको भावित करते हुए बैठे थे ॥ ४ ॥
ભંડાર શ્રી જંબૂ સ્વામીએ શ્રી આર્ય સુધર્મા સ્વામીની પાસે ઊર્ધ્વ જાનુ રહીને માજી-ખાજીએ નજર ન નાખતાં બે હાથ જોડીને માથું નમાવી કુડાસને બેઠેલા મનને ધ્યાનરૂપી કાઠામાં સ્થિર રાખીને અર્થાત ચિત્તવૃત્તિને એકાગ્ર કરીને તપ તથા સ ંચમથી આત્માને ભાવિત કરતા થકા બેઠા હતા. ॥ ૪ ॥
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निरपालिकामा
तएणं से भगवं जम्बू जायसड्ढे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासीउवंगाणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं के अढे पण्णते ? एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं एवं उवंगाणं पंच वग्गा पण्णत्ता, तं जहानिरयावलियाओ १, कप्पवडिंसियाओ २, पुफियाओ ३, पुष्फचूलियाओ ४, वहिदसाओ ५ ॥५॥
छायाततः खलु भदन्त ! स भगवान् जम्बूः जातश्रद्धः यावत् पर्युपासीनः एवमवादीत्-उपाङ्गानां भदन्त ! श्रमणेन यावत्संप्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? । एवं खलु जम्बूः ! श्रमणेन भगवता यावत्सम्माप्तेन एवम् उपाङ्गानां पञ्च वर्गाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-निरयावलिकाः (१) कल्पावतंसिकाः (२) पुष्पिताः (३) पुष्पचूलिकाः (४) वहिदशाः (५) ॥५॥
टीका'तएणंसे' इत्यादि-ततः खलु-निश्चयेन सः असौ भगवान् अपूर्वसम्यक्त्वशीलसमाराधनयशोवान् जम्बूः-जातश्रद्धा उत्पन्नमश्वेच्छः, यावच्छब्देन-जातसंशयः उद्भूतसंदेहः, जातकुतूहला उत्पन्नौत्सुक्यः, इति साहो बोध्यः, - 'तएणसे' इत्यादि, . उसके बाद श्री आर्य जम्बू अनगार जो जिज्ञासु थे, जिनमें श्रद्धा थी और जिन्हें जिज्ञासाके कारण कौतूहल (उत्सुकता) हुआ था। श्रद्धा उत्पन्न हुई, संशय उत्पन्न हुआ और कौतूहल हुआ। जिन्हें भली भांति श्रद्धा थी, भली भाँति संशय था ओर भली भाँति कौतूहल था, खडे होकर जहाँ श्री आर्यसुधर्मा स्वामी थे, वहाँ गये । वहाँ जाकर श्री आर्यसुधर्माको अपने दक्षिण तरफसे अंजलिपुट (दोनों हाथ) को
__ 'तएणसे' या.
ત્યાર પછી શ્રી આર્ય જંબુસ્વામી કે જે જીજ્ઞાસુ હતા, જેને સારી રીતે શ્રદ્ધા હતી, સંશય પણ સારી રીતે હતા, અને કુતુહલ પણ સારી રીતે થયું હતું તે ઉભા થઈને જ્યાં શ્રી આર્ય સુધર્મા સ્વામી હતા ત્યાં ગયા. ત્યાં જઈને શ્રી આર્ય સુધર્માને પિતાની જમણી બાજુએથી અંજલીપુટ (બે હાથ) ઘુમાવવા શરૂ કરી ત્રણ વાર પ્રદક્ષિણા
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सुन्दरबोधिनी टोका जम्बूप्रश्न श्रीसुधर्मस्वामिनमुपागत्य सविधिवन्दनं विधायाभिमुखं प्राञ्जलिः पर्युपासीना= सेक्मानः एवम् वक्ष्यमाणमकारेण अवादीत्-अवोचत् अपाक्षीदित्यर्थः- ...
हे भदन्त ! = हे भगवन् ! इदं गुरोः सम्बोधनम्, उपाङ्गानां श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत् आदिकरण, तीर्थकरेण, स्वयंसंबुद्धेन पुरुषोत्तमेन, पुरुषसिंहेन, पुरुषवरपुण्डरीकेन, पुरुषवरगन्धहस्तिना, लोकोत्तमेन, लोकनाथेन, घुमानेरूप तीनवार प्रदक्षिणा पूर्वक वन्दना की, तत्पश्चात् श्री आर्य सुधर्मा स्वामी से न अधिक दूर और न अधिक पास-निकट सेवामें उपस्थित हो युगलकर जोड विधिपूर्वक शुश्रूषा करते हुए, इस प्रकार बोले----
हे भगवन् ! – श्रमण भगवान् महावीर स्वामीने जो स्वशासनकी अपेक्षासे धर्मकी आदि करनेवाले, जिससे संसार-सागर तैरा जाय उसे तीर्थ कहते हैं, वे तीर्थ चार प्रकार के हैं-साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका, ऐसे चतुर्विध संघ रूप तीर्थकी स्थापना करने वाले, स्वयं बोधको पाने वाले, ज्ञानादि अनन्त गुणोंके धारक होनेसे पुरुषोत्तम । राग द्वेषादि शत्रुओंके पराजय करनेमें अलौकिक पराक्रमशाली होनेसे पुरुषोमें केशरीसिंहके समान। समस्त अशुभरूप मलसे रहित होनेके कारण विशुद्ध श्वेत कमल के समान निर्मल। अथवा-जैसे कीचडसे उत्पन्न और जलके योगसे बढा हुआ होकर भी कमल उन दोनों (जल-कीच) के संसर्ग को छोडकर सदा निर्लेप रहता है, और अपने अलौकिक सुगंधि आदि गुणोसे પૂર્વક વંદના કરી ત્યાર પછી શ્રી આર્ય સુધર્મા સ્વામીથી બહુ દુર નહિ તેમ બહુ પાસે પણ નહિ એમ નિકટ સેવામાં ઉપસ્થિત થઈ બે હાથ જોડી વિધિપૂર્વક સેવા કરતાં माममात्या:
હે ભગવન! શ્રમણ ભગવાન મહાવીર સ્વામીએ જે સ્વશાસનની અપેક્ષા ધર્મની આદિ કરવાવાળા, જેથી સંસાર સાગર તરી જવાય તેને તીર્થ કહે છે. તે તીર્થ ચાર પ્રકારનાં છે.-સાધુ, સાધ્વી, શ્રાવક અને શ્રાવિકા એવા ચતુર્વિધ સંઘ રૂપ તીર્થની સ્થાપના કરવાવાળા, પિતે બેધ પામેલા, જ્ઞાન વગેરે અનંત ગુણ સંપન્ન હવાથી પુરૂષોત્તમ, રાગદ્વેષાદિ શત્રુઓને પરાજય કરવામાં અલોકિક પરાક્રમવાળા હેવાથી પુરૂષમાં કેશરીસિંહ સમાન, સમસ્ત અશુભરૂપી મળથી રહિત હોવાથી વિશુદ્ધ, તકમળ સમાન નિર્મળ, અથવા–જેમ કાદવમાંથી ઉત્પન્ન થઈ પાણીના વેગથી વધતું હોવા છતાં કમળ એ બેઉ (પાણી–કાદવ) ના સંસર્ગને
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निरयावलिकासत्र लोकहितेन, लोकपदीपेन, लोकप्रद्योतकरण, अभयदेन, चक्षुर्दैन, मार्गदेन, देव मनुष्यादिकोका शिरोभूषण बनता है, वैसे ही भगवान् कर्मरूपी कीचड से उत्पन्न और भोगरूपी जलसे बढे हुए होकर भी उन दोनोंके संसर्गको त्याग कर निप रहते हैं और केवलज्ञानादि गुणोंसे परिपूर्ण होनेके कारण भव्य जीवों के शिरोधार्य है, जिसका गन्ध सूंघते ही सब हाथी डर के मारे भाग जाते हैं उस हाथीको गन्धहरती ' कहते हैं। उस गन्धहस्तीके आश्रयसे जैसे राजा सदा विजयी होता है, उसी प्रकार भगवानके अतिशय से देशके १ अतिवृष्टि, २ अनावृष्टि, ३ शलभ(तीड), ४ चूहे, ५ पक्षी, ६ स्वचक्र-परचक्र-भय, यह छह प्रकारकी ईति, और महामारी आदि सभी उपद्रव तत्काल दूर हो जाते हैं। और आश्रित भव्य जीव सदा सब प्रकारसे विजयी होते हैं। चौतीस अतिशयों और वाणीके पैंतीस गुणोंसे युक्त होनेके कारण लोगोंमें उत्तम । अलभ्य रत्नत्रय के लाभ रूप योग और लब्ध रत्नत्रयके पालन रूप क्षेमके कारण होने से भव्य जीवोंके नाथ । एकेन्द्रिय आदि सकल प्राणीगणके हितकारक । जिस प्रकार दीपक सबके लिये समान प्रकाशकारी है तो भी नेत्रवाले ही उससे
છોડીને હમેશાં નિર્લેપ રહે છે, તથા પિતાની અલૌકિક સુગંધી આદિ ગુણોથી દેવ, મનુષ્ય આદિના મસ્તકનું ભૂષણ બને છે, તેવી જ રીતે ભગવાન કમરૂપી કાદવમાંથી ઉત્પન્ન અને ભૂગરૂપી જલથી વૃદ્ધિ પામ્યા છતાં તે બેઉના સંસર્ગને ત્યાગ કરીને નિર્લેપ રહે છે, તથા કેવળ જ્ઞાન આદિ ગુણાથી પરિપૂર્ણ હોવાથી ભવ્ય ને શિરોધાર્ય છે. જેનું ગંધ સુંઘતાંજ બધા હાથી બીકથી જ ભાગી જાય છે તેવા હાથીને “ગંધહસ્તી” કહે છે; તે ગંધહસ્તીના આશ્રયથી જેમ રાજા હમેશાં વિજય મેળવે છે, તેવી જ રીતે ભગવાનના અતિશયથી દેશના अतिवृष्टि (१), अनावृष्टि (२), शला (तीs) (3), ४२ (४), पक्षी (५), स्वय પરચક ભય (૬), એ છ પ્રકારની ઈતિ (ઉપદ્રવ) અને મહામારી આદિ સર્વે ઉપદ્રવ તત્કાલ દુર થઈ જાય છે, તથા આશ્રિત ભવ્ય જીવ હમેશાં સર્વ પ્રકારે વિજયી થાય છે. ચૈત્રીશ અતિશય તથા વાણના પાંત્રીશ ગુણોથી યુકત હોવાથી
કેમાં ઉત્તમ, અલભ્ય રત્નત્રયના લારૂપી વેગ, તથા લબ્ધ રત્નત્રયના પાલન રૂપી ક્ષેમનું કારણ હોવાથી ભવ્ય જીવોના નાયક, એકેન્દ્રિય આદિ સર્વ પ્રાણુ ગણુના હિત કરનારા, જેમ દીપક બધાને માટે સર પ્રકાશ કરે છે તે પણ આંખવાળાજ માત્ર તેનાથી લાભ મેળવી શકે છે. નેત્રહીન એટલે
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सुन्दरबोधिनी टीका जम्बूप्रश्न लाभ उठा सकते हैं नेत्रहीन नहीं, उसी प्रकार भगवानका उपदेश सबके लिये समान हितकर होने पर भी भव्य जीव ही उससे लाभ उठाते हैं अभव्य नहीं, अतएव भव्योंके । हृदयमें अनादि कालसे रहे हुए मिथ्यात्व रूप अन्धकार को मिटाकर आत्माके यथार्थ स्वरूपको प्रकाशित करनेवाले । लोक शब्दसे यहाँ लोक और अलोक दोनोंका ग्रहण है अतएव केवलज्ञान रूपी आलोकसे समस्त लोकालोकके प्रकाश करनेवाले। मोक्षके साधक उत्कृष्ट धैर्य रूपी अभय को देनेवाले, अथवा-समस्त प्राणियोंके संकटको छुडाने वाली दया (अनुकम्पा) के धारक । ज्ञाननेत्रके दायक, अर्थात् जैसे किसी गहन वनमें लुटेरोंसे लूटे गये और आखों पर पट्टी बांध कर तथा हाथ पैर पकड कर गड्ढे में गिराये गये पथिकके कोई दयालु सब बन्धनोंको तोड कर नेत्र खोल देता है, इसी प्रकार भगवान भी संसार रूपी अपार कान्तारमें राग-द्वेष रूप लुटेरोंसे, ज्ञानादि गुणोंको लूटकर तथा कदाग्रह रूप पठेसे ज्ञान चक्षुको ढक कर मिथ्यात्व के गडढेमें गिराये गये भव्य जीवोंके उस कदाग्रह रूप पट्टेको दूर कर ज्ञाननेत्रको देने वाले हैं, अतएव सम्यक् रत्नत्रय स्वरूप मोक्षमार्ग, अथवा विशिष्ट गुणको प्राप्त होने वाले, क्षयोपशम भाव रूप मार्गको देने वाले। कर्म शत्रुओं આંધળા નહિ મેળવી શકે, તેમ ભગવાનને ઉપદેશ બધા માટે સમાન હિતકારક હોવા છતાં પણ ભવ્ય જીજ તેને લાભ મેળવી શકશે અભવ્ય નહિ મેળવે. એ રીતે ભવ્યના હદયમાં અનાદિ કાળથી રહેલું મિથ્યાત્વરૂપી અંધારૂં મટાડીને આત્માના યથાર્થ સ્વરૂપને પ્રકાશિત કરવાવાળા. લેક શબ્દથી અહીં લેક અને અલોક બેઉ સમજવાનું છે. આ રીતે કેવળજ્ઞાનરૂપી આકથી તમામ લેક અને અલકને પ્રકાશ કરવાવાળા, મોક્ષના સાધક, ઉત્કૃષ્ટ ઘેર્યરૂપી અભયને દેવાવાળા, અથવા સમસ્ત પ્રાણિઓનાં સંકટ મટાડનારી દયા (અનુકંપા) ના ધારક, જ્ઞાનરૂપી નેત્ર આપનારા અર્થાત્ જેમ કેઈ ગહન વનમાં લૂટારાથી લૂટાઈ ગયેલા અને આંખે પાટા બાંધીને તથા હાથપગ પકડીને ખાડામાં નાખી દીધેલા મુસાફરને કોઈ દયાળુ બધાં બંધને તોડી આંખે ઉઘાડી દે છે તેવી રીતે ભગવાન પણ સંસારરૂપી અટવીમાં રાગ-દ્વેષ રૂપી લટારાથી, જ્ઞાનાદિ ગુણને લૂટી તથા કદાગ્રહરૂપી પાટાથી જ્ઞાનચક્ષુને ઢાંકી દઈ મિથ્યાત્વરૂપી ખાડામાં પાડી નાખેલા ભવ્ય જીવોને કદાગ્રહરૂપી પાટાથી મુક્ત કરી જ્ઞાનરૂપી નેત્ર દેવાવાળા, એટલે સમ્યફ રત્નત્રય સ્વરૂપ મેક્ષમાર્ગ અથવા વિશિષ્ટ ગુણના માપ્ત કરાવવાવાળા શોપશમભાવ રૂપી માર્ગ દેવાવાળા, કર્મશત્રુથી પીડિત
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. २४
निरयावलिकासन शरणदेन, जीवदेन, बोधिदेन, धर्मदेन, धर्मदेशनादेन, धर्मनायकेन, धर्मसारथिकेन, धर्मवर-चातुरंतचक्रवर्तिकेन, द्वीपत्राण-शरण-गतिप्रतिष्ठेन, अप्रतिहत
से दुःखित प्राणियोंको शरण ( आश्रय ) देने वाले, पृथिव्यादि षड्जीव-निकाय में दया रखने वाले, अथवा मुनियोंके जीवनाधार स्वरूप संयमजीवितको देने वाले । शम संवेग आदि प्रकाश, अथवा जिनवचनमें रुचिको देने वाले । धर्मके उपदेशक । धर्मके नायक अर्थात् प्रवर्तक । धर्मके सारथी अर्थात् जिस प्रकार रथपर चढे हुए को सारथी रथके द्वारा सुखपूर्वक उसके अभीष्ट स्थान पर पहुँचाता है, उसी प्रकार भव्य प्राणियोंको धर्म रूपी रथके द्वारा सुखपूर्वक मोक्ष स्थान पर पहुँचाने वाले । दान, शील, तप और भावसे नरक आदि चार गतियोंका अथवा चार कषायोंका अन्त करने वाले, अथवा चार-दान, शील, तप और भाव से अन्त = रमणीय, या दान आदि चार अन्त=अवयव वाले, अथवा दान आदि चार अन्त-स्वरूप वाले श्रेष्ठ धर्म को 'धर्मवरचातुरन्त ' कहते हैं, यही जन्म जस मरण के नाशक होने से चक्र के समान है। अतएव धर्मवरचातुरन्त रूप चक्र के धारक । यहाँ पर 'वर' पद देनेसे राजचक्रकी अपेक्षा धर्मचक्रकी उत्कृष्टता
પ્રાણિઓને આશ્રય દેવાવાળા, પૃથ્વી આદિ છજીવ નિકાર્યમાં દયા રાખવાવાળા, અથવા મુનીના જીવન આધાર સ્વરૂપ સંયમ જીવન દેવાવાળા, શમ સંગ આદિ પ્રકાશ અથવા જિન વચનમાં રૂચિ દેવાવાળા, ધર્મના ઉપદેશક, ધર્મના નાયક અર્થાત પ્રવર્તક, ધર્મના સારથી અર્થાત જેમ રથ ઉપર બેઠેલાને સારથી રવિડે સુખપૂર્વક તેના અભીષ્ટ સ્થાને પહોંચાડે છે તેવી રીતે ભવ્ય પ્રાણિઓને ધર્મરૂપી રથદ્વારા સુખપૂર્વક મેક્ષસ્થાન પર પહોંચાડનાર, દાન, શીલ, તપ તથા ભાવથી નરક આદિ ચાર ગતિઓના અથવા ચાર કષાયના અંત કરવાવાળા, અથવા ચાર-દાન, શીલ, તપ તથા ભાવથી અંત=રમણીય, અથવા દાન આદિ ચાર અન્ત =અવયવવાળા, અથવા દાન આદિ ચાર અન્તઃસ્વરૂપવાળા, શ્રેષ્ઠ ધર્મને ધર્મવરચાતુરન્ત કહે છે, એજ જન્મ જરા મરણના નાશ કરવાવાળા હોવાથી ચક સમાન છે, એટલે ધર્મવરચાતુરન્ત રૂપી ચક્રનો ધારક, અહીં “વર' પદ દવાથી રાજચક્રની અપેક્ષા ધર્મચકની ઉત્કૃષ્ટતા તથા સૌગત (બૌદ્ધ). આદિ ધર્મનું
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सुन्दरबोधिनी टीका जम्बूप्रश्न
२५
वरज्ञानदर्शनधरेण, व्यावृत्तच्छद्यकेन, जिनेन, जायकेन, तीर्णेन, तारकेण, बुद्धेन, बोधकेन, मुक्तेन, मोचकेन, सर्वज्ञेन, सर्वदर्शिना, शिवमचलमरुज -
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तथा सौगत ( बौद्ध ) आदि धर्मका निराकरण किया गया है, क्योंकि राजचक्र केवल इस लोकका साधक है परलोकका नहीं, तथा सौगत आदि धर्म यथार्थ तत्त्वोंका निरूपक न होनेसे श्रेष्ठ नहीं । ' चक्रवर्त्ती ' पद देनेसे तीर्थङ्करों को छह `खण्डके अधिपतिकी उपमा दी गई है, क्योंकि वह चक्रवर्त्ती भी चार सीमावाले, अर्थात् उत्तर दिशामें हिमवान और पूर्व, दक्षिण, पश्चिम दिशाओमें लवण
केवल
समुद्र तक जिसकी सीमा है एसे भरतक्षेत्र पर एक शासन संसार—समुद्रमें डूबते हुए जीवोंके एक मात्र आश्रय होनेसे जीवों के कल्याणकारी होनेसे त्राणस्वरूप अतएव उनके तीनों कालमें अविनाशी स्वरूप वाले । आवरणरहित के धारक । ज्ञानावरणीय आदि कर्मोंका नाश करने राग-द्वेषरूप शत्रुको स्वयं जीतने वाले और दूसरोंको जीताने वाले । भवसमुद्रको स्वयं तैरने वाले और दूसरोंको तिराने वाले । स्वयं बोधको प्राप्त करने वाले और दूसरोंको प्राप्त कराने वाले । स्वयं मुक्त होने वाले और दूसरोंको मुक्त करनेवाले। सर्वज्ञ, सर्वदर्शी तथा निरुपद्रव, निश्चल, कर्मरोगरहित, अनन्त, अक्षय,
४
નિશકરણ કરેલું છે, કેમકે રાજચક્ર કેવળ આ લેાકનું જ સાધન છે પરલેાકનું નહિ, તથા ભૌગત આદિ ધર્મ યથાર્થ તત્ત્વાનાં નિરૂપણુ ન કરતા હૈાવાથી શ્રેષ્ઠ નથી. ‘ચક્રવતિ' પદ આપવાથી તીર્થંકરાને છ ખંડના અધિપતિની ઉપમા દ્વીધી છે, કેમકે તે ચક્રવતી પણ ચાર સીમાવાળા અર્થાત્ ઉત્તર દિશામાં હિમવાન અને પૂર્વ, દક્ષિણ પશ્ચિમ દિશામાં લવણુ સમુદ્ર સુધી જેની સીમા છે એવા ભરતક્ષેત્ર પર એક શાસન રાજ્ય કરે છે. સંસારસમુદ્રમાં ડુબતા જીવાને એકજ આશ્રય હેાવાથી દ્વીપ સમાન, ભવ્ય જીવેાના કલ્યાણકારી હાવાથી ત્રાણુ સ્વરૂપ તેથી તમને રારણુ-આધારસ્થાન, ત્રણે કાળમાં આવરણુરહિત કેવળ જ્ઞાન, કેવળ દર્શનના ધારક, જ્ઞાનાવરણીય આદિ કર્મોના नाश २वावाजा, રાગદ્વેષરૂપી શત્રુને જાતેજ જીતનારા તેમજ બીજાને જીતાવવાવાળા, ભવસમુદ્રને જાતે તરનારા તેમ બીજાને તારનારા, પાતે ખેાધ મેળવનારા તેમજ બીજાને આધ પ્રાપ્ત કરાવનાર, પાતે મુક્ત થવાવાળા તથા ખીજાને મુકત કરવા વાળા, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी तथा उपद्रव वगरना, निश्रस, उर्भरोग रहित, अनन्त, अक्षय,
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राज्य करता
द्वीप समान । भव्य
शरण - आधारस्थान |
ज्ञान, केवल दर्शन
वाले ।
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२६
निरयावलिकासन मनन्तमक्षयमन्यावाधमपुनरावृत्तिकं सिद्धिगतिनामधेयं स्थानं संपाप्तेन; कोऽर्थः शब्दसमुदायात्मकवाक्यतात्पर्यविषयीभूतः को भावः प्रज्ञप्तः परूपितः, कथित इत्यर्थः । जम्बूस्वामिपृच्छानन्तरं सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनं पति माह-हे जम्बूः ! एवम् इत्थम् खलु-निश्चयेन यावत्-उक्तगुणवता सम्माप्तेन-मुक्तिं लब्धवता श्रमणेन भगवता महावीरेण एवं वक्ष्यमाणरीत्या उपाङ्गानां 'पञ्च वर्गाः' इति, अध्ययनसमूहो वर्गस्ते प्रज्ञप्ताः=निरूपिताः, तद्यथा तदेव दयते-निरयावलिकाः (१), अस्योपाङ्गस्य 'कल्पिके 'ति नामान्तरम् , कल्पावतंसिकाः (२), पुप्पिताः (३), पुष्पचूलिकाः (४), वृष्णिदशाः (५), अस्य ' वह्निदशे'ति नामान्त रम् । इह सर्वत्रावयवगतबहुत्वविवक्षायां बहुवचनम् । बाधारहित, पुनरागमनरहित, ऐसे सिद्ध स्थान अर्थात् मोक्षको प्राप्त करने वाले उन प्रभुने उपाङ्गोंका क्या भाव कहा ? । इस प्रकार जम्बू स्वामीके पूछने पर श्री सुधर्मा स्वामीने जम्बू स्वामीसे कहा-हे जम्बू ! इस प्रकार उक्त गुण विशिष्ट यावत् सिद्धि गतिको प्राप्त करने वाले भगवान्ने उपाङ्गोंके पांच वर्ग निरूपण किये हैं वे क्रमशः इस प्रकार हैं :
(१) निरयावलिका, इसका दूसरा नाम ‘कल्पिका, भो है। (२) कल्पावंतसिका, (३) पुष्पिता, (४) पुष्पचूलिका और (५) वृष्णिदशा, इसका भी 'वह्निदशा' दूसरा नाम है । यहाँ सब जगह-अवयवगत बहुत्व विवक्षा से बहु वचन है।
બાધારહિત, પુનરાગમનરહિત, એવા સિદ્ધસ્થાન એટલે મેક્ષને પ્રાપ્ત કરવાવાળા તે પ્રભુએ ઉપાંગોને ભાવ શું કહ્યો છે. એ પ્રકારે જંપૂ સ્વામીએ પૂછવાથી શ્રી સુધમાં સ્વામીએ જંબુ સ્વામીને કહ્યું –હે જ બૂ! એ પ્રકારે કહેલા ગુણવિશિષ્ટ યાવત સિદ્ધિ ગતિની પ્રાપ્તિ કરવાવાળા ભગવાને ઉપાંગોના પાંચ વર્ગ નિરૂપણ ક્યાં છે તે અનુક્રમે નીચે પ્રમાણે છે:
(१) निरयापति, सार्नु मी नाम let' पर छे. (२) ४८५ तसि (3) पुति (४) पु०५यूलिया तथा (५) वृशिशु मानुं पर पनिहा' अj બીજું નામ છે. અહીં બધે ઠેકાણે અવયવગત બહત્વ વિવક્ષાથી બહુવચન વપરાયું છે.
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सुन्दरबोधिनो टोका शास्त्रपरिचय
तत्र. निरयावलिकाः. यत्रावलिकामविष्टाः श्रेणिष्ववस्थिताः इतरे च नरकाऽऽवासाः प्रसङ्गतस्तद्गामिनश्च मनुष्यास्तिर्यञ्चः प्रतिपाद्यन्ते तास्तथा (१), कल्पावतंसिकाःनाम-कल्पावतंसकदेवमतिबद्धग्रन्थपद्धतिः, तास्तथा (२), पुष्पिताः-संयमभावनया पुष्पिताः सुखिताः पाणिनः संयमाऽऽराधनपरित्यागेन ग्लानावस्था प्राप्ताः सङ्कुचिताः सन्तो भूयस्तदाराधनेन पुष्पिता यत्र प्रतिपाद्यन्ते
इन पांचोमेसे प्रथम-(१) निरयावलिका सूत्रमें नरकावासोंका तथा उनमें उत्पन्न होने वाले मनुष्य और तिर्यञ्चोंका वर्णन है ।
(२) द्वितीय-कल्पावतंसिका सूत्रमें सौधर्म आदि बारह देवलोकोमें कल्पप्रधान इन्द्र . सामानिक आदिकी मर्यादायुक्त-कल्पावतंसक विमानोंका. और तप विशेषसे उनमें उत्पन्न होने वाले देवोंका तथा उनकी ऋद्धिका वर्णन है।
(३) तृतीय पुष्पिता सूत्रमें जिन्होंने संयम भावनासे विकसित हृदय होकर संयम लिया, पीछे उसके आराधनाका परित्याग करनेमें शिथिल होनेसे ग्लान अवस्थाको प्राप्त हुए और फिर संयमकी आराधना करके पुष्पित और सुखी बने, उनका वर्णन है।
એ પાંચમાંથી પ્રથમ (૧) નિરયાવલિકા સૂત્રમાં નરકાવાસોનું તથા તેમાં ઉત્પન્ન થનારા મનુષ્ય તથા તિર્યંચોનું વર્ણન છે.
(૨) દ્વિતીય-કલ્પવતસિકા સૂત્રમાં સૌધર્મ આદિ બાર દેવેલેકમાં કલ્પ પ્રધાન ઈસામાનિક આદિ મર્યાદાયુક્ત કલ્પાવતુંસક વિમાનનું તથા તપ વિશેષથી તેમાં ઉત્પન્ન થનારા દેવેનું તથા તેમની અદ્ધિનું વર્ણન છે.
(૩) તૃતીય-પુષિતા સૂત્રમાં જેમણે સંચમ ભાવનાથી વિકસિત હૃદયપૂર્વક સંયમ લીધે, પછી તેની આરાધનાને પરિત્યાગ કરવામાં શિથિલ થઈ જતાં પ્લાન અવસ્થા પ્રાપ્ત થઈ અને ફરી સંયમની આરાધના કરી પુષ્પિત અને સુખી બન્યા તેનું વર્ણન છે.
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૨૮
विरगलिकामा ताः पुष्पिताः (३), 'पुष्पचूलिकाः' पूर्वोक्तार्थविशेषमतिपादिकाः पुष्पचूडाः, ता एव तथा ड-लयोरैक्यात् (४), दृष्णिदशाः-अयं चाऽन्वर्थः-वृष्णिपदेन 'नामैकदेशेन नामग्रहणम्' इति न्यायबलात् अन्धकवृष्णिनराधिपो गृह्यते, तत्कुले ये, जातास्तेऽपि अन्धकवृष्णयो निगधन्ते, तेषां दशाः अवस्थाश्चरितगतिसिद्धिगमनलक्षणा यासु ग्रन्थपद्धतिषु वर्ण्यन्ते तास्तथा (५), तत्र 'अन्तकृद्दशागस्य कल्पिका (निरयावलिका) (१), अनुत्तरोपपातिकदशाङ्गस्य कल्पावतंसिकाः(२), प्रश्नव्याकरणस्य पुष्पिकाः(ताः)(३), विपाकसूत्रस्य पुष्पचूलिका (४), दृष्टिवादस्य वृष्णिदशाः (५) उपाङ्गानि विज्ञेयानि ॥५॥
(४) चौथे पुष्पचूलिका सूत्रमें-पूर्वोक्त अर्थका ही विषेश वर्णन है।
(५) पाँचवें-वृष्णिदशा सूत्रमें अन्धकवृष्णि राजाके कुलमें उत्पाद होने वालोंकी अवस्था-चरित्र, गति और सिद्धिगमनका वर्णन है।
निरयावलिका–अन्तकृद्दशाङ्गका उपाङ्ग है। कल्पावतंसिका अनुत्तरोपपातिक दशाङ्गका। पुष्पिका-प्रश्नव्याकरणका । पुष्पचूलिका–विपाकसूत्रका। और वृष्णिदशा-दृष्टिवादका उपाङ्ग है। ॥५॥
(૪) ચોથાં પુષ્પચૂલિકા-સૂત્રમાં અગાઉ કહેલા અર્થનું જ વિશેષ વર્ણન છે.
(૫) પાંચમાં વૃષ્ણિદશા-સૂત્રમાં અન્ધકવૃણિરાજાના કુળમાં ઉત્પન્ન થનારાની અવસ્થા, ચરિત્ર, ગતિ તથા સિદ્ધિગમનનું વર્ણન છે.
નિરયાવલિકા–અંતકૃતદશાંગનું ઉપાંગ છે, કલ્પાવર્તાસિકા, એ અનુત્તરપાતિક દશાંગનું, પુપિકા પ્રશ્નવ્યાકરણનું, પુષ્પચૂલિકા, એ વિપાક સવનું તથા, વચ્છિદશા, એ દષ્ટિવાદનું ઉપાંગ છે. પા
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सुन्दरबोधिनो टोका जम्वप्रश्न
मूलम्- जइणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं उबंगाणं पंच वग्गा पन्नत्ता तंजहा-निरयावलियाओ जाव वण्डिदसाओ, पढमस्स णं भंते ! वग्गस्स उ गाणं निरयावलियाणं समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं कइ अज्झयणा पन्नत्ता ? ॥६॥
छायायदि खलु भदन्त ! श्रमणेन यावत् संप्राप्तेन उपाङ्गानां पञ्च वर्गाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-निरयावलिका यावत् वृष्णिदशाः, प्रथमस्य खलु भदन्त ! वर्गस्य उपाङ्गानां निरयावलिकानां श्रमणेन भगवता यावत् संप्राप्तेन कति अध्ययानि प्रज्ञप्तानि ? ॥६॥
टीका'जइणं भंते' इत्यादि । अथ सोत्साहं सविनयं जम्बूस्वामी सुधर्मस्वामिनं पप्रच्छ-भदन्त-हे भगवन् ! यदि यदा खलु-निश्चयेन यावद-उक्त गुणवता संप्राप्तेन मुक्तिं लब्धवता, श्रमणेन-दुश्वरतपश्चर्यामसिद्धेन भगवता महावीरेण उपाङ्गानां पञ्च वर्गाः प्रज्ञप्ताः निरूपिताः तयथा तदेव दयतेनिरयावलिका इत्यारभ्य वृष्णिदशापर्यन्ताः, तेषु हे भदन्त हे भगक्न् निरयावलिकानामुपाङ्गानां प्रथमवर्गस्य श्रमणेन भगवता यावत्-उक्तगुणवता सम्पाप्तेन मोक्षंगतेन कति=कियत्संख्यकानि अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि ? ॥६॥
___ 'जइणं भंते' इत्यादि । हे भदंत ! भगवान महावीर प्रभुने निरावलिका से लेकर वृष्णिदशा पर्यन्त उपाङ्गोके पांच वर्ग कहे उनमें भगवानने निरयावलिका के कितने अध्ययन कहे हैं ! ॥ ६ ॥ । 'जहण भते' त्याहत! सन महावीर प्रभु निश्याaastu માંડીને વૃષ્ણિદશા સુધીનાં ઉપાંગેના પાંચ વર્ગ કહ્યા તેમાં ભગવાને નિરયાવલિકાનાં કેટલાં અધ્યયન કહ્યાં છે?.
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निरयावलिकासत्र मूलम्एवं खल्लु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं उवंगाणं पढमस्स वग्गस्स निरयावलियाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता, तं जहा-काले १ सुकाले २ महाकाले ३ कण्हे ४ सुकण्हे ५ तहा महाकण्हे ६ वीरकण्हे ७ य बोद्धव्वे रामकण्हे ८ तहेव य पिउसेणकण्हे ९ नवमे दसमे महासेणकण्हे १० उ ॥७॥
छायाएवं खलु जम्बूः ! श्रमणेन यावत सम्प्राप्तेन उपाङ्गानां प्रथमस्य वर्गस्य निरयावलिकानां दश अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा-कालः (१) मुकालः (२) महाकालः (३) कृष्णः (४) सुकृष्णः (५) तथा महाकृष्णः (६) वीरकृष्णश्च (७) बोद्धव्यः । रामकृष्णः (८) तथैव च पितृसेनकृष्णो नवमः (९). दशमो महासेनकृष्णस्तु (१०) ॥७॥
टीकासुधर्मास्वामी प्राह-एवं खलु' इत्यादि-हे जम्बूः ! एवं खलु यावत्-उक्तगुणवता सम्प्राप्तेन सिद्धिगति गतेन, श्रमणेन-घोरपरीषहोपसर्ग“सहनशीलेन भगवता महावीरेण निरयावलिकानामकोपाङ्गस्य प्रथमस्य वर्गस्य दश अध्ययनानि प्रजातानि तद्यथा-कालः (१), सुकालः (२), महाकालः (३), कृष्णः (४), सुकृष्णः (५), तथा महाकृष्णः (६), वीरकृष्णः (७), रामकृष्णः (८), तथैव च पितृसेनकृष्णः (९), नवमः।दशमस्तु महासेनकृष्णः (१०),
श्री सुधर्मा स्वामी श्री जम्बू स्वामीसे कहते हैं-"एवं खलु' इत्यादि । . ___ हे जम्बू ! श्रमण यावत् मोक्षप्राप्त भगवानने निरयावलिकाके दस अध्ययन कहे हैं उन दस अध्ययननोंके नाम इस प्रकार हैं।-(१) काल, (२) सुकाल, (३) महाकाल, (४) कृष्ण, (५) सुकृष्ण, (६) महाकृष्ण, (७) वीरकृष्ण, (८) रामकृष्ण, (९) पितृसेन कृष्ण, और (१०) महासेनकृष्ण । . श्री सुध स्वामी श्री स्वामीन ४ छ:- ‘एव खलु' त्यादि.
જંબૂ! શ્રમણ યાવત્ મોક્ષપ્રાપ્તિ ભગવાને નિરયાવલિકાનાં દશ અધ્યયન કહ્યાં છે. એ દશ અધ્યયનનાં નામ આ પ્રકારનાં છે
(१) , (२) सुदी, (3) भ (४) ४०], (५) सुन्, (६) भ ७१, (७) वी२४क्ष्य, (८) राम , (e) पितृसेन तथा (१०) भडासन
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सुन्दरबोधिनी टोका जम्बुप्रश्न
,
बोद्धव्य इति सर्वत्रान्वेति विज्ञेय इति तदर्थः । काल्यादिशब्देभ्य ssc कृते कालादयः शब्दाः सिद्ध्यन्ति यथा काल्या : - तन्नाम्न्या महाराज्ञ्या अयं पुत्र इति काल: । एवं सर्वत्र विज्ञेयम् । अत्र 'कुमारे' ति सर्वत्र योजनीयं यथा - ' कालकुमार ' इत्यादि, कालीकुमार इत्यर्थः ॥७॥
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मूलम् -
जणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेण उवंगाणं पढमस्स निरयावलया दस अयणा पत्ता, पढमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स निरयावलयाणं समणेगं जाव संपत्तेग के अट्ठे पन्नत्ते ? ॥८॥
छाया
यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन यावत् संप्राप्तेन उपाङ्गानां प्रथमस्य निरयाबलिकानां दश अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, प्रथमस्य भदन्त ! अध्ययनस्य निश्यावलिकानां श्रमणेन यावत् संभाव्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? ॥ ८ ॥ टीका-
"
जगं भंते ' इत्यादि । यदि खलु भदन्त ! - हे भगवन् ! यावत्
119.11
'काली' आदि शब्दोंसे – उसके सम्बन्धी अर्थमें 'अग्' प्रत्यय किया हैं, जिससे काली महारानीका पुत्र काल कुमार कहा जाता है, उसके चरित्रप्रतिबोधक अध्ययन भी काल- अध्ययन नामसे प्रसिद्ध है । इस प्रकार सब अध्ययनकी योजना समझना चाहिए
जम्बूस्वामीने सुध स्वामीले फिर पूछा- 'जण मंते' इत्यादि ।
કાલી’ આદિ શબ્દોથી તેના સંબંધી અર્થમાં ‘અ’ પ્રત્યય કર્યો છે, જેથી કાલી મહારાણીના પુત્ર કાલકુમાર કહેવાય છે. તેનું ચરિત્રપ્રતિાધક અધ્યયન પણુ કાલ–અધ્યયન નામથી પ્રસિદ્ધ છે. આ પ્રકારે બધાં અધ્યયનની ચેાજના સમજવી જોઇએ ! છતા
यू स्वाभीखे सुधर्मा स्वाभीने वजी पूछयु - 'जइणं भंते' त्याहि
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निरयावलिकासत्र पूर्वोक्तगुणवता संपाप्तेन भुक्तिं लब्धवता, श्रमणेन भगवता महावीरेण निरयापलिकानामकोपाङ्गस्य प्रथमस्य वर्गस्य दश अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि-निगदितानि हे भदन्त ! हे भगवन् ! निरयावलिकानां प्रथमस्य अध्ययनस्य यावत्पूर्वोक्तगुणवता संमाप्तेन मुक्तिं लब्धवता श्रमणेन-भगवता महावीरेण कोऽर्थः पज्ञप्तः प्रतिपादितः ?
__ अत्र सर्वत्र 'श्रमणेन ' ' यावत् ' ' संपाप्तेन' इत्यादिपदानां पुनः पुनरुपादानं भगवद्भक्तिवाहुल्यसूचनाय ।
___ यद्वा-वाक्यभेदेन पुनरुक्तिर्न विज्ञेया । अन्यच्च भगवद्गणानां सन्ततं स्मरणेन भव्यानामन्यविषयतो मनोनिवृत्तिपूर्वकोपादेयविषयावधानार्थ पुनः पुनः कथनं गुण एवेति ॥८॥
__ हे भदन्त ! इन दस अध्ययनोंमें प्रथम-कालकुमार अध्ययनका भगवानने क्या अर्थ कहा !
यहां सर्वत्र श्रमण आदि पदोंका पुनः पुनः उपादान किया है वह भगवानकी अतिशय भक्ति सूचनार्थ है । अथवा वाक्यभेदसे पुनरुक्तिदोष नहीं समझना चाहिए। अथवा भगवान के गुणोंको बार बार स्मरण करनेसे भव्यों का अन्य विषयसे मनोवृत्ति का निरोध होजाता है। उपादेय विषयमें सावधान होनेके लिये पुनः पुनः उन्हीं शब्दोंका उच्चारण किया है अर्थात् उन्हीं पदोंका बार बार मवण करनेसे उपादेय विषय पर चित्त श्रद्धालु होजाता है ॥ ८॥
હે ભદંત, એ દશ અધ્યયનમાં પ્રથમ–કાલકુમાર અધ્યયનને ભગવાને શું અર્થ કહ્યો?
અહીં સર્વત્ર શ્રમણ આદિ પદેનું વારંવાર ઉપાદાન કર્યું છે, તે ભગવાનની અતિશય ભકિત સુચનાર્થ છે. અથવા વાક્ય ભેદથી પુનરૂકિત દેષ ન સમજ જોઈએ અથવા ભગવાનના ગુણોનું વારંવાર સ્મરણ કરવાથી ભવ્યની બીજા વિષયથી મનવૃત્તિનો નિષેધ થઈ જાય છે. ઉપાદેય વિષયમાં સાવધાન થવા માટે ફરી ફરી તે શબ્દનું ઉચ્ચારણ કર્યું છે અર્થાત્ તેના તે શબ્દો વારંવાર શ્રવણ કરવાથી ઉંપાદેય વિષયમાં ચિત્ત શ્રદ્ધાળુ થઈ જાય છે. (૮).
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३३
सुन्दरबोधिनी टीका कूणिकराजवर्णन अथ प्रथमं कालकुमारं वर्णयति-' एवं खलु' इत्यादि ।
मूलम्एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबूद्दीवे दीवे मारहे वासे चंपा नाम नयरी होत्था, रिद्ध०, पुन्नमद्दे चेइए, तत्थणं चंपाए नयरीए सेणियस्स रनो पुत्ते चेल्लणाए देवी अत्तए कूणिए नाम राया होत्था, महया०, ॥९॥
.. छाया
एवं खलु जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे चंपा नाम नगरी अभूत् । ऋद्ध०, पूर्णभद्रं चैत्यम् , तत्र खल चम्पायां नगयो श्रेणिकस्य राज्ञः चेल्लनाया देव्या आत्मजः कूणिको नाम राजाऽभवत, महता० ॥९॥
टीकाहे जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये इहैव अस्मिन्नेव देशतः प्रत्यक्षं दृश्यमाने जम्बूद्वीपे तन्नामकमध्यद्वीपे न पुनर्जम्बूद्वीपानामनन्तत्वादन्यवेति भावः । भारते वर्षे भरतक्षेत्रे भरतक्षेत्रस्य मध्यप्रदेशे चम्पा नाम
यहां प्रथम काल कुमारका वर्णन करते हैंश्री सुधर्मा स्वामी श्री जम्बू स्वामी से कहते हैं-"एवं खलु' इत्यादि।
हे जम्बू ! उस काल उस समय इसी ही-मध्य जम्बू द्वीप में भरत नामका क्षेत्र है, उसके मध्य भागमें चम्पा नामकी नगरी गगनचुम्बी प्रासादों से
-
-
मा पसा भानु वर्णन ४३ छ:
श्री सुधा स्वामी श्री स्वामीन :-'एवं खलु त्या હે જંબૂ! તે કાલ તે સમયે આજ મધ્ય જે ખૂઢીપમાં ભારતનાએ ક્ષેત્ર છે જેના મધ્ય ભાગમાં ચંપા નામની નગરી આકાશસ્પશી” ભવનેથી શોભિત
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३४
- . ,निरयावलिकासूत्र नगरी अभूत् : 'ऋद्धस्तिमितसमृद्धा' ऋद्धा-नमःस्पर्शिबहुलपासादयुक्ता बहुलजनसङ्खला च, स्तिमिता-स्वपरचक्रभयरहिता, समृद्धा-धन-धान्यादिपरिपूर्णा, अत्र त्रिपदकर्मधारयः। ... तत्रेशानकोणे पूर्णभद्रं नाम चैत्यम् व्यन्तरायतनम् उद्यानमिति वा आसीदिति शेषः । तत्र खलु चम्पानगया श्रेणिकस्य तन्नामकस्य, राज्ञः पुत्रः चेल्लनायाः तन्नाम्न्या देव्याः-रायाः आत्मजः अङ्गजातः कूगिको नाम राजा अभवत् । ' महता' शब्देन-'महयाहिमवंतमहंतमलयमंदरमहिंदसारे' अचंतविसुद्धदीहरायकुलवंसमुप्पमूए, निरंतरं रायलक्खणविराइयंगमंगे सीमंधरे मणुस्सिदे, पुरिससीहे, पसंतडिंबडंबररजं पसाहेमाणे , विहरई' इत्यादीनां साहः । छाया- महाहिमवन्महामलयमन्दरमहेन्द्रसारः, अत्यन्तविशुद्धदीर्घराजकुलवंशसुप्रसूतः, निरन्तरं राजलक्षणविराजिताङ्गाङ्गः, सीमन्धरः, मनुष्येन्द्रः, पुरुषसिंहः, प्रशान्तडिम्बडम्बरं राज्यं प्रसाधयन् विहरति ।
राजवर्णनमाह-' महाहिमव'दित्यादिना-महाँश्चासौ हिमवान् महा
अलङ्कृत, स्वचक्र परचक्रका भय रहित और धन धान्य आदि से सम्पन्न थी। उसके इशान कोणमें पूर्णभद्र नामका व्यन्तरायतन था।
उस चम्मानगरीमें श्रेणिक राजाके पुत्र कोणिक राजा राज्य करते थे जो चेलना महारानीके गर्भसे जन्मे थे ।
कोणिक राजाका वर्णन इस प्रकार है-महा हिमवान पर्वतके समान थे સ્વપર ચક્ર ભય રહિત અને ધન ધાન્ય આદિથી સંપન્ન હતી. તેના ઇશાન કેણુમાં પૂર્ણભદ્ર નામે વ્યંતરાયતન હતું.
તે ચંપા નગરીમાં શ્રેણિક રાજાના પુત્ર કેણિક રાજા રાજ્ય કરતા હતા, જે ચેલના મહારાણીના ગર્ભથી જન્મ્યા હતા.
કેણિક રાજાનું વર્ણન આ પ્રકારે છે – મહા હિમવાન પર્વત સમાન હતા અર્થાત્ શેષ અન્ય રાજ રૂપી પર્વતેથી
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- सुन्दरबोधिनी टोका कणिकराजवर्णन हिमवान् स इव महान् शेषराजपर्वतापेक्षया, मलयो मलयाचलः, मन्दरो= मेरुगिरिः, महेन्द्र सुरपतिः पर्वतविशेषो वा, तद्वत्सार प्रधानो यस्तथा, अत्यन्तविशुद्धः अतिनिर्मलः दीर्घः चिरकालीनो राज्ञां कुलरूपो वंशस्तत्र प्रसूतः जातः अतिनिर्मलचिरन्तनराजकुलसमुत्पन्नः, निरन्तरं सर्वदा, राज्ञां लक्षणानि स्वस्तिकशङ्खचक्रादीनि तैः विराजितं-शोभितमङ्गा-प्रत्यङ्गं यस्य स तथा, सामुद्रिकशास्त्रमतिपादितराजलक्षणोपेतशरीर इत्यर्थः, 'सीमन्धरः' राजमर्यादापालकः, 'मनुष्येन्द्रः' मनुष्येषु नरेषु इन्द्र इव ऐश्वर्यवान् , 'पुरुषसिंहः'-पुरुषेषु सिंह इव शूरः शत्रून् प्रति अप्रतिहतवीर्यवान् , 'प्रशान्ते' ति-प्रशान्तानि डिम्बानि अतिवृष्टयनादृष्टिमूषकशलभशुकात्यासन्नराजरूपा विघ्नाः, डम्बराणि-परस्परराजप्रजाविरोधरूपक्लेशा यत्र, तथाभूतं राज्यं प्रसाधयन्=परिपालयन् विहरति-तिष्ठति ॥९॥ अर्थात्-शेष अन्य राजा रूप पर्वतोंसे बढे चढे थे। मलय पर्वत और महेन्द्र पर्वत के समान श्रेष्ठ थे, अत्यन्त निर्मल प्राचीन राजवंशमें जन्मे थे। जिनके शरीर के प्रत्येक अवयवमें स्वस्तिक, शंख, चक्र आदि राजचिह्न यथास्थान स्थित थे। राजमर्यादाके पालक थे। ऐश्वर्यसम्पन्न होनेसे मनुष्योंके इन्द्र थे। और शत्रुओंको अप्रतिहत शक्ति द्वारा जीतनेसे पुरुषमें सिंहके समान थे। जिनका राज्य अतिवृष्टि, अनावृष्टि, मूषक-चूहे, शलभ-टिड्डियाँ, शुक-तोते तथा राजाओं का युद्धादिके कारण गांव के समीप निवास करना, इन छह प्रकार की ईतियों= उपद्रवोंसे मुक्त था। ऐसे राज्यका पालन महाराज कोणिक करते थे। ॥ ९ ॥
મેટા હતા. મલય પર્વત અને મહેન્દ્ર પર્વતના સમાન શ્રેષ્ઠ હતા. અત્યંત નિર્મલ પ્રાચીન રાજવંશમાં જન્મ્યા હતા. જેના શરીરના પ્રત્યેક અવયવમાં સ્વસ્તિક, શંખ, ચક્ર આદિ રાજચિહ્ન એગ્ય ઠેકાણે રહેલાં હતાં. રાજમર્યાદાના પાલક હતા. એશ્વર્યસંપન્ન હોવાથી મનુષ્યના ઈન્દ્ર હતા. તથા શત્રુઓને અપ્રતિહત શક્તિ દ્વારા જીતવાથી પુરૂષમાં સિંહસમાન હતા. જેનું રાજય અતિવૃષ્ટિ, અનાવૃષ્ટિ, મૂષક (ઉંદર), શલભ (તીડે, શક (પિપટ) તથા રાજાઓનાં યુદ્ધ આદિના કારણે ગામની નજીક નિવાસ કરે, એ છ પ્રકારની ઈતિ એટલે ઉપદ્વવથી મુક્ત હતું. એવાં રાજ્યનું પાલન મહારાજ કેણિક કરતા હતા ત્યા
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निरयावलिकासत्र मूलम्तस्स णं क्रूणियस्स रनो पउमावई नामं देवी होत्या, सोमालपाणिपाया जाव विहरइ ॥१०॥
छायातस्य खलु कूणिकस्य राज्ञः पद्मावती नाम देवी अभवत् , सुकुमारपाणिपादा यावत् विहरति ॥ १०॥
टीका. 'तस्सणं' इत्यादि-तस्य कूणिकस्य राज्ञः पद्मावती नाम देवी अभवत् , तस्या वर्णनमाह-' सुकुमारपाणिपादा' सुकुमार-कोमलं पाणिपादं यस्या सा तथा, कोमलकरचरणयुक्ता, अत्र-' यावत् ' शब्देन ' अहीणपचिंदियसरीरा, लक्खणवंजणगुणोववेया, माणुम्माणप्पमाणपडिपुण्णसुजायसव्वंगसुंदरंगा, ससिसोमाकारा, कंता, पियदंसणा, सुरूवा' इत्यन्तविशेषणानामन्यत्रोक्तानां समन्वयो बोद्धव्यः । एषां छाया-अहीनपञ्चेन्द्रियशरीरा,
' तस्सणं'. इत्यादि । . महाराज कोणिकके पद्मावती नामक महारानी थी। 'सुकुमालपाणिपाया' जिसके. हाथ पैर अत्यन्त कोमल थे । ' अहीणपंचिंदियसरीरा' लक्षण और स्वरूपसे.. परिपूर्ण (पूरी.) पाँच इन्द्रियां सहित शरीर वाली थी,. अर्थात् जिसकी चक्षु आदि पांचों इन्द्रियाँ अपने-अपने विषय ग्रहण करनेमें पूर्ण सावधान, तथा यथायोग्य आकार वाली थी।
'तस्सण त्याहि. भ७।२ive legsने पावती नभनी मlued sती. ‘सुकुमालपाणिपाया' ने डाय 41 अत्यंत म हता. :
'अहीणपंचिदियसरीरा', e तथा स्व३५थी परिपूर्ण पाय दियो સંહિત શરીરવાળી હતી અર્થાત્ જેની ક્ષુ આદિ પાંચે ઈદ્રિયે પિત પિતાના વિષય ગ્રહણ કરવામાં પૂર્ણ સાવધાન. તથા યથાગ્ય આકારવાળી હતી
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1. सुन्दरबोधिनी टीका पद्मावतोवर्णन
लक्षणव्य अनगुणोपपेता, शशिसौम्याकारा, कान्ता, भियदर्शना, सुरूपा, इति ।
अथैतानि विशेषणानि प्रतिपदं व्याचक्ष्महे - अहीनानि-लक्षणस्वरूपाभ्यां परिपूर्णानि पञ्च इन्द्रियाणि यस्मिंस्तादृशं शरीरं यस्याः सा अहीनपञ्चेन्द्रियशरीरा - स्वस्वविषयग्रहणसमर्थपूर्णाकारचक्षुरादीन्द्रियविशिष्टेत्यर्थः, 'लक्षणे ' ति लक्ष्यन्ते - चिह्नयन्ते यैस्तानि लक्षणानि स्त्रीचिह्नानि हस्तस्थविद्याधनजीवितरेखारूपाणि वा, व्यज्यन्ते यैस्तानि व्यञ्जनानि - मषतिलकादीनि, गुणाः= सौशील्यपातिव्रत्यादयो, यद्वा- पूर्वोक्तप्रकारैर्लक्षणैर्व्यज्यन्ते इति लक्षणव्यञ्जनास्ते च गुणाः, अथवा-प्रोक्तस्वरूपाणां लक्षणव्यञ्जनानां ये गुणास्तैः, उपपेता - समन्विता अत्र ' उप ' ' अप 'इत्युपसर्गयोः शकन्ध्वादित्वात्पररूपम् ।
,
३७
मानोन्मानप्रमाणपरिपूर्णसुजातसर्वाङ्गसुन्दराङ्गी,
'लक्खणवंजणगुणोववेया' जिनके द्वारा पहचान होती है उनको लक्षण (चिह्न) कहते हैं । अथवा हाथ आदिमें बनी हुई विद्या धन जीवन आदिकी रेखाओंको लक्षण कहते हैं। जिनके द्वारा अभिव्यक्ति ( प्रगटपन ) होती है, उन तिल और मस आदि को व्यञ्जन कहते हैं, सुशीलता पतित्रतता आदि गुण हैं, इन तीनों से जो स्त्री युक्त हो उसे लक्षणव्यञ्जनगुणोपपेता कहते हैं, अथवा लक्षणोंके द्वारा व्यक्त होने वाले गुणोंको लक्षणव्यञ्जनगुण कहते हैं, और इनसे युक्त स्त्रीकोलक्षणव्यञ्जनगुणोपपेता कहते हैं, अथवा - पूर्वोक्त लक्षणों और व्यञ्जनोंके “गुणोंको लक्षणव्यञ्जनगुण कहते हैं, और इनसे युक्त स्त्रीको लक्षणव्यञ्जनगुणोपेता कहते हैं । महारानी पद्मावती इन गुणों से युक्त थी ।
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लक्खणचंजणगुणायवेया' नेनाथी भेजियाय तेने लक्षण आहे . अथवा हाथ આદિમાં બનેલી વિદ્યા ધન જીવન આદિની રેખાઓને લક્ષણ (ચિહ્ન) કહે છે. જેના દ્વારા અભિવ્યક્તિ (પ્રગટપણું) થાય છે તે તલ અથવા મસ આદિને વ્યંજન કહે છે. સુશીલતા પતિવ્રતપણું આદિ ગુણ છે. આ ત્રણેથી જે સ્ત્રી યુકત હાય તેને મા व्यंजन गुणोपेता डे हे अथवा सक्षो द्वारा व्यक्त होवावाजा गुलने लक्षण व्यंजन गुए| उडे छे. तथा तेनाथी युक्त ने स्त्री होय तेने लक्षणव्यञ्ज પપેતા કહે છે અથવા પૂર્વકત લક્ષણા તથા વ્યંજનાના ગુણ उडे . तथा तेनाथी युक्त ने स्त्री होय तेने "हे छे. महाराणी पद्मावतीभां भी गुणी ता.
ગુણ્ણાને લક્ષણ વ્યંજન लक्षण व्यञ्जन गुणा पपैता
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निरयालिकास्त्र - हस्तस्थप्रधानरेखालक्षणानि यथा- ,
" जस्स हवइ बहुरेहो, हत्थो अहवा रहियसयलरेहो । सो अप्पाऊ अहणो, तहा दुही लक्खणबुणिट्टिो ॥१॥ एगेगंगुलिमज्झे, होई पणवीसवच्छरं आऊ । जाणह जीवियरेहं, जा य कणिटुंगुलीमूला ॥२॥ करहाओ धणरेहा, मणिबंधत्तो तहेव पिउरेहा ।।। एया सव्या पुण्या, हवंति चे आउगोत्तधगलाहो ॥३॥" छाया-यस्य भवति बहुरेखो, हस्तोऽथवा रहितसकलरेखः । सोऽल्पायूरधनस्तथा दुःखी लक्षणज्ञनिर्दिष्टः ॥१॥
एकैका लिमध्ये, भवति पञ्चविंशतिवत्सरमायुः । ., जानत जीवितरेखां, या च कनिष्ठाजुलीमूलाद् ॥ २ ॥
हाथ की प्रधान रेखाओंके लक्षण इस प्रकार हैं-जिसके हाथमें बहुत रेखाएँ हों या बिल्कुल रेखाएँ न हों वे अल्पायु वाले निर्धन और दुःखी होते हैं, ऐसे, लक्षणके जानने वाले कहते हैं ॥ १ ॥ - जो रेखा कनिष्ठ अंगुलीके मूलसे निकलती है वह जीवन-आयु की रखा है। एक-एक अंगुलीमें पच्चीस-पच्चीस वर्षकी आयु होती है, अर्थात् यदि आयुकी रेखा एक अंगुली तक है तो (२५)पच्चीस वर्षकी आयु, दो अंगुली तक हो तो (५०)पचास वर्षकी आयु, इस हिसाबसे आगे समझना चाहिये ॥२॥
હાથની મુખ્ય મુખ્ય રેખાઓનાં લક્ષણ આ પ્રકારનાં છે જેના હાથમાં બહુ રેખાઓ હોય અથવા બિલકુલ રેખા ન હોય તે અલ્પ આયુવાળા, નિર્ધન તથા દુઃખી હોય છે. એમ લક્ષણના જાણવાવાળા કહે છે. ૧
જે રેખા ટચલી આંગળીના મૂળથી નીકળે છે તે જવન–આયુની રેખા છે. એક એક આંગળીમાં પચીસ-પચીસ વર્ષની આયુ હોય છે અર્થાત્ જે આયુની રેખા એક આંગળી સુધી હોય તે પચીસ વર્ષની આયુ, એ હિસાબે આગળ सम देवु नये. (२)
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सुन्दरबोधिनी टोका पद्मावतीवर्णन
करभाद्धनरेखा, मणिबन्धात्तथैव पितरेखा। एताः सर्वाः पूर्णा, भवन्ति चेदायुर्गोत्रधनलाभः ॥ ३॥ इति।
. 'माने 'ति-मीयते परिच्छिद्यते पदार्थोऽनेनेति मान, तुला लीप्रस्थादिना तोलनं, यद्वा-जलादिपरिपूर्णकुण्डादिप्रविष्टे पुरुषादौ यदा द्रोणपरिमिदं जलादि निस्सरति तदा स पुरुषादिर्मानवानित्युच्यते तदेव, उन्मानम् ऊर्च मानं, यद्वा-अर्द्धभाररूपः परिमाणविशेषः, प्रमाणे सर्वतो
धन की रेखा करम-गुद्देसे निकलती है और मगिबन्ध ( करके मूल) से पितरेखा फूटती है। यदि ये सब रेखाएँ पूर्ण हो तो आयु गोत्र प्रतिष्ठा और धनका लाभ होता है ॥३॥
“माणुम्माणप्पमाणपडिपुण्णसुजायसव्यंगसुंदरंगा" जिसके द्वारा पदार्थ मापा जाय उसे मान कहते हैं, अर्थात् तराजू अंगुली सेर छटांक आदिके द्वास तौलना, अथवा कोई पुरुष आदि जलसे संपूर्ण भरे हुए कुण्ड ( शरीरप्रमाण गहरा, शरीरप्रमाण लम्बा व शरीरप्रमाण चौडा) आदि में घुसे और उसके घुसनेसे एक द्रोण-(परिमाणविशेष) जल बाहर निकले तो, उस पुरुष आदिको मानयुक्त कहते हैं। मान-शब्दसे इसीका ग्रहण करना चाहिए। मान से अधिकको · अथवा अर्धभारं रूप परिमाण को उन्मान कहते हैं। सर्वतोमान को,
ધનની રેખા કરભ-ગુદાથી નિકળે છે તથા મણિબંધ (કાંડાનાં મૂળથી) પિતૃરેખા ફૂટે છે. જે આ બધી રેખાઓ પૂર્ણ હોય તો આયુ, નેત્ર, પ્રતિષ્ઠા तथा धनन। म थाय छे. (3) . "माणुम्माणप्पमाणपडिगुणसुजायसवंगतुंरंगा” ॥ २॥ पार्थ માપી શકાય તેને માન કહે છે. અથૉત્ ત્રાજવું, આંગળ, શેર, છટાંક આદિના દ્વારા તળવું. અથવા કોઈ પુરૂષ વરે જલથી સંપૂર્ણ ભરેલા કુંડાદિ (શરીર જેટલે ઊંડે તથા લાંબો પહે)માં પેસે અને તેના પેસવાથી એક દ્રોણ (પરિમાણવિશેષ) જલ બહાર નિકળે તો તે પુરૂષ આદિને માનયુક્ત કહે છે. માન શબ્દથી આજ વાત સમજવી જોઈએ. માનથી અધિકને અથવા અર્ધભાર રૂપ પરિમાણને
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निरयापलिकासत्र मान, यद्वा-निजार्जुलीभिरष्टोत्तरशता लिपरिमितोच्छ्रायः, इत्थं च-मानं चोन्मानं च प्रमाणं चेत्येषां द्वन्द्वे मानोन्मानप्रमाणानि, तैः परिपूर्णानि= सम्पन्नानि, अत एव सुजातानि यथोचितावयवसन्निवेशवन्ति, सर्वाणि= सकलानि अङ्गानि अज्यते व्यज्यते ज्ञायते प्राणी यैस्तानि मस्तकादारभ्य चरणान्तानि यस्मिन् शरीरे तत् मानोन्मानप्रमाणपरिपूर्णसुजातसर्वाङ्गम्, अत एव तादृशं सुन्दरम-वपुर्यस्याः सा तथोक्ता, 'शशीति शशी-चन्द्रस्तद्वत् सौम्यः= आहादक आकारः स्वरूपं यस्याः सा, 'कान्ता' कमनीया, चित्तहारिणो,
अथवा अपने अंगुलीसे (१०८) एक सौ आठ अंगुली ऊँचाईको प्रमाण कहते हैं। इन मान उन्मान और प्रमाणसे युक्त होनेके कारण सुजात (यथायोग्य ‘अवयवोंकी रचनासे ... सुन्दर ) जो सर्वाङ्ग-जिसके द्वारा प्राणी व्यक्त होता है-किसी आकृतिके रूपमें दिखाई. देता है उसे, अर्थात् पैरोंसे लेकर मस्तक तकके अवयवोंको अंग कहते हैं। इन सब अंगोंसे सुन्दर अंगवाली महारानी पद्मावती थी।
.. "ससिसोमाकारा” चन्द्रमाके समान शान्त आकारवाली थी कता' जो कमनीया-चित्त हरण करनेवाली हो उस स्त्रीको ‘कान्ता' कहते हैं।
ઉન્માન કહે છે, સર્વતેમાનને અથવા પોતાની આંગળીથી (૧૦) એકસો આઠ આંગળી ઊંચાઈને પ્રમાણુ કહે છે. આ માન ઉન્માન તથા પ્રમાણુથી યુક્ત હવાને કારણ સુજાત (યથાયોગ્ય અવયવોની રચનાથી સુંદર) જે સર્વેગ, જેના દ્વારા પ્રાણી વ્યકત હોય છે-કેઈ આકૃતિના રૂપમાં દેખાય છે તેને. અર્થાત્ પગથી માંડીને માથા સુધીના અવયવોને અંગ કહે છે. આ બધાં અંગોથી સુંદર અંગવાળી भए पद्मावतो ती.
‘ससिसोमाकारा' यद्रमा सभान' t२जी ती 'कंता' २भनीया वित्त १२५ ४२वावाणी डाय ते स्त्रीने ‘कान्ता' छ.
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सुन्दरबोधिनी टोका पद्मावतोवर्णन
' प्रिये 'ति प्रियं = दर्शकजनमनोहादकं दशर्नम् = अवलोकनं यस्याः सा प्रियदर्शना,
यत्तु दर्शनं रूपमिति
व्याख्यातं
तत्पूर्वोत्तरोपात्तविशेषणपौनरुक्त्यापच्या हेयमेव । यत एवंविशेषणविशिष्टाऽतएव सुरूपा = सर्वातिशायिरूपलावण्यवती, रूपेण लावण्यस्याप्युपलक्षितत्वात् ॥ १० ॥
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6
मूलम्
तत्थणं चंपाए नगरीए सेणियस्स रन्नो भञ्जा कूणियस्स रेनो चुल्लुमाया काली नामं देवी होत्था, सोमालपाणिपाया जाव सुरूवा ॥ ११ ॥
छाया
तत्र खलु चम्पायां नगर्यां श्रेणिकस्य राज्ञः भार्या कूणिकस्य राज्ञः क्षुल्लमाता काली नाम देवी अभवत्, सुकुमारपाणिपादा, यावत् सुरूपा ॥११॥ टीका
४१.
— तत्थणं ' इत्यादि–तत्र=तस्यां चम्पायां नगयीं ' खलु ' इति वाक्यालङ्कारे, श्रेणिकस्य राज्ञः भार्या पट्टराज्ञी कूणिकस्य राज्ञः क्षुल्लुमाता = लघुपियदंसणा ' जिसकी दृष्टि दर्शकोंके मनमें आह्लाद उत्पन्न करती हो उस स्त्रीको ' प्रियदर्शना ' कहते हैं । इस प्रकार उक्तगुणविशिष्ट होनेसेवह ' सुरूपा ' श्रेष्ठ रूप लावण्यवती थी ॥ १० ॥
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' तत्थणं ' इत्यादि । उस चम्पा नगरीमें श्रेणिक
राजाकी पटरानी कोणिक राजाकी लघुमाता काली नामकी देवी सुकुमाल कर - चरणवाली यावत् सुरूपा थी । 'पियदसणा' बेनी नगर नाराना भनभां यानं उत्पन्न पुरती होय તે સ્રીને ‘ પ્રિયદર્શના” કહે છે. આ પ્રકારે કહેલા ગુણવિશિષ્ટ હાવાથી તે ' श्रेष्ठ-३पसावश्यवती हुती (१०)
' सुरूपा '
'तत्थनं ' इत्याहि ते यया नगरीमां श्रेष्ठि राजनी पटरा अशि રાજાની લઘુમાતા કાલી નામે તેની સુઢામળ હાથ પગવાળી બહુ સ્વરૂપવાન હતી.
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निरयापलिकासत्र जननी काली नाम देवी सुकुमारपाणिपादेति पूर्ववत् , अभवत् , पुनः सा कीदृशी? ति विशेषवर्णनमाह- कोमुइरयणियरविमलपडिपुन्नसोमवयणा, कुंडलुल्लिहियगंडलेहा, सिंगारागारचारुवेसा' छाया-कौमुदीरजनिकरविमलपरिपूर्णसौम्यवदना, : कुण्डलोल्लिखितगण्डरेखा, शृङ्गारागारचारवेषा, एतेषां विशेषणानामेवं व्याख्या-तथाहि- 'कौमुदी'ति- 'कु'शब्देन मही प्रोक्ता, 'मुद' हर्षे ततो द्वयम् । धातुज्ञैर्नियभैश्चैव, तेन सा कौमुदी स्मृता ॥१॥
फिर इन्हीं काली देवी का वर्णन करते हैं
— कोमुइरयणियरविमलपडिपुन्नसोमवयणा' ___ कौमुदी शब्दका अर्थ इस प्रकार है"'कु' शब्देन मही प्रोक्ता, 'मुद' हर्षे, ततो द्वयम् । धातु नियमैश्चैव, तेन सा कौमुदी स्मृता ॥१॥"
'कु' शब्दका अर्थ पृथिवी है, 'मुद ' शब्दका अर्थ हर्षित करना है, जो पृथ्वीमें रहे हुए जनोंको आनन्द उत्पन्न करे उसको कौमुदी कहते हैं। कौमुदी याने आश्विन कार्तिक मास रूप शरद ऋतुकी पूर्णिमाको उज्वल चन्द्रिका (चाँदनी) उस चन्द्रिकावाला चन्द्रमाके समान निर्मल संपूर्ण रमणीय मुखवालो थी। ' कुंडल्छ વળી તે કાલી દેવીનું વર્ણન કરે છે –
'कोमुइरयणियरविमलपडिपुनसोमययगा' કૌમુદી શબ્દનો અર્થ એવો છે – ___" 'कु' शब्देन मही प्रोक्ता, 'मुद' हर्षे, ततो द्वयम् ।
धातुनियमैश्चैव, तेन सा कौमुदी स्मृता ॥ १॥"
ક” શબ્દનો અર્થ પૃી છે. “મુદ’ શબને આ “હર્ષિત કરવું છે જે " પૃથ્વી ઉપર રહેલાં માણસોને આનંદ કરાવે તેને કૌમુદી કહે છે. કોમુરી અર્થાત આ કાર્તિક માસ રૂપી શરદ ઋતુની પૂર્ણિમાની ઉજવેલ ચંદ્રિકા, તે ચંદ્રિકાવાળા જે ચંદ્રમાં
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* पृथिव्यां मोदत शत न कार्तिकपूर्णिमाचन्द्रिकासा तथा,
सुन्दरप्रोधिको टोका कालोवर्णन को पृथिव्यां मोदत इति अन्तर्भावितण्यर्थत्वाद् हर्षयति प्रागिन इति कुमुदश्चन्द्रस्तस्येयं कौमुदी आश्विन-कार्तिकपूर्णिमाचन्द्रिका, तत्प्रधानो यो रजनिकरश्चन्द्रस्तद्वत् विमलं परिपूर्ण सौम्यं=रमणीयं वदनं मुखं यस्याः सा तथा, 'कुण्डले 'ति-कुण्डलाभ्यां कर्णाभरणविशेषाभ्यां उल्लिखिता-घृष्टा गण्डरेखा= कपोलतलविरचितकस्तूरीरेखा यस्याः सा तथा, 'शृङ्गारे 'ति-शृङ्गारस्य रसविशेषस्य अगारमिव अगारं, तथा चारु:=सुन्दरः वेशो नेपथ्यं यस्याः सा तथा, इति ।
___ पुनः कीदृशी सेत्याह- सेणियस्स रनो इट्टा कंता पिया मणुन्ना नामधिज्जा वेसासिया सम्मया बहुमया अणुमया भंडकरंडगसमाणा तेल्लकेला इव सुसंगोविया चेलपेडा इव मुसंपरिग्गहिया सा काली देवी सेगिएण रना सद्धिं विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणा विहरइ' छाया-' श्रेणिकस्य राज्ञ इष्टा कान्ता प्रिया मनोज्ञा नामधेया वैश्वासिका संमता बहुमता
लिहियगंडलेहा' जिनके घर्षण लगनेसे कपोल पर रही हुई कस्तूरी आदि सुगंधी द्रव्यकी रेखा हट गई है ऐसे विशाल कुंडलको धारण करनेवाली थी। 'सिंगारागारचारुवेसा', शृंगार रसका घर और सुन्दर वेष वाली थी। 'इष्टा' पातिव्रत्य आदि गुणोंसे राजा श्रेणिकके अभिलषित थी। ‘कान्ता' राजा के मनमें आह्लाद उत्पन्न करनेके कारण कान्ता-कमनीय थी। राजाके प्रेम उत्पन्न
समान नि सपूर्ण २भय भुभवाणी ती. 'कुंडलुल्लिहियगंडलेहा' ने ઘસારે લાગવાથી ગાલ પર રહેલી કસ્તુરી આદિ સુગંધી દ્રવ્યની રેખ જતી २० छ मेव qिue aने धारण ४२१॥ पाणी ती. 'सिंगारागारचारुवेसा'
ગાર રસનું ઘર તથા સુંદર વેષ વાળી હતી. અre” પતિવ્રત્ય આદિ ગુણેથી शल श्रेणिनी भानाती ती. 'कान्ता' न भनभ मान उत्पन्न ४२नारी હતી તેથી કાન્તા એટલે કમનીય હતી. રાજાને પ્રેમ ઉત્પન્ન કરવાને કારણે
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निरयावलिकासत्र. अनुमता भाण्डकरण्डकसमाना तैलकेलेव सुसंगोपिता चेलपेटेव सुसंपरिगृहीता सा काली देवी श्रेणिकेन राज्ञा सार्द्ध विपुलान् भोगभोगान् भुञ्जाना विहरति ।
___इष्टा-अभिलपणीया पातिव्रत्यादिगुणबाहुल्यात् , कान्ता-कमनीया, प्रिया-प्रेमवती सदाप्रेमविषयत्वात् किमन्यदर्शनेनेति परिणामजनिका, मनोज्ञा= पतिमनोविनोदिनी, भावतः पतिभाववती, स्वरूपतः शोभना । नामधेया प्रशस्तनामवती, नामधार्या, इति वा छाया, तत्र नाम धार्य हृदि धरणीयं यस्याः सा तथा । वैश्वासिका-सर्वथा विश्वसनीया, सम्मता-सम्मानयोग्या तत्कृतगृहकार्याणां संमतत्वात् , बहुमता=पतिदासीदासादिसकलपरिजनसम्मानिता, अनुमता=सकलकार्यानुमतिग्रहणयोग्यत्वात् सकलकुटुम्बसमदर्शिनी विप्रियकरणेऽप्यनुकूलेत्यर्थः, भाण्डकरण्डकसमाना=आभरणकरण्डकतुल्या भूषणकरण्डकवत्पतिसुरक्षितेत्यर्थः, तैलकेलेव सुसंगोपिता-तैलकेला देशविशेषमसिद्धो मृण्मयस्तैलभाजनविशेषः, सोऽतिसौन्दर्येण दृष्टिदोषसंभवाद् भङ्गभयाञ्च सुष्ठु संगोप्यते, एवं सा, करनेके कारण 'पिया' थी। राजाके मन प्रसन्न करनेके कारण ‘मनोज्ञा' थी तथा प्रशस्त नामवाली थी, उसका नाम हृदयमें धारण करने योग्य था। शील आदि गुणके कारण विश्वास योग्य थी। पतिके मनके अनुकूल कार्य करनेसे संमान योग्य थी. सकल कुटुम्बके हित करनेसे 'बहुमता' थी, सब कार्य पतिकी संमतिसे करनेके कारण 'अनुमता' थी, भूषणकरंडकके समान 'सुरक्षिता' थी। किसी देशमें
"प्रिया' ती. सतर्नु मन प्रसन्न ४२वावाजी पाथी 'ममोशा' ती. तथा प्रशस्त નામવાળી હતી અથવા તેનું નામ હદયમાં ઘારણ કરવા યોગ્ય હતું. શીલ આદિ ગુણે વડે વિશ્વાસપાત્ર હતી. પતિના મનને અનુકૂળ કાર્ય કરવાથી સન્માન... इती. स मनु हित ४२वायी 'बहुमता' ती. मां आर्य पतिनी समतिया राने २'मनुमत' sil: भूष३२४४ (agin ४२°42-URat)- 48
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सुन्दरबोधिनी टीका कालोवर्णन चेलपेटेव सुसंपरिगृहीता=बहुमूल्यवस्वमञ्जूषेव मनागप्यविचलतया स्वायत्तीकृता सा-पूर्वोक्तगुणविशिष्टा काली देवी श्रेणिकेन राज्ञा स्वपतिना साई विपुलान्-बहून् नानाविधान् भोगान्-शब्दादिविषयान् भुञ्जाना=अनुभवन्ती विहरति-आस्ते स्म ॥११॥
मूलम्तीसेणं कालीए देवीए पुत्ते काले नामं कुमारे होत्या, सोमालपाणिपाए जावमुरूवे ॥१२॥
छायातस्याः स्खलु काल्याः देव्याः पुत्रः कालो नाम कुमारोऽभवत् , मुकुमारपाणिपादः यावत् सुरूपः ॥ १२॥
टीका-- 'तीसेणं' इत्यादि । तस्याः काल्या देव्याः पुत्रः कालो नाम मिट्टीका तेलपात्र ऐसा सुन्दर होता है कि जिसको दृष्टिदोषसे बचानेके लिये गुप्त रखते हैं, इसी प्रकार वह सुगोपित थी, बहु मूल्य वस्त्रवाली पेटीके समान सर्वथा सुपरिगृहीता थी। ऐसे विशिष्ट गुणवाली काली महारानी श्रेणिक राजा के साथ अनेक प्रकारके शब्दादि विषयोंका अनुभव करती हुई रहती थी ॥११॥ . 'तीसेणं' इत्यादि । उस काली महारानी के कोमल कर चरण वाम સુરક્ષિત હતી. કોઈ દેશમાં માટીનું તેલ પાત્ર એવું સુંદર હોય છે કે જેને દૃષ્ટિ દેષથી બચાવવા માટે ગુપ્ત રાખે છે તેની પેઠે આ પણ સુગોપિત હતી. કિંમતી વઢવાળી પેટીની પેઠે સર્વથા રાજાથી સુપરિગ્રહીતા હતી. એવા વિશિષ્ટ ગુણવાળી કાલી મહારાણી શ્રેણિક રાજાની સાથે અનેક પ્રકારના શબ્દાદિ વિષયને અનુભવ કરતી રહેતી હતી. ૧૧
'तीसेणत्याहि. astी महारानभाय 41 वाणी, तर
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निरयावलिकासत्र कुमारोऽभवत् , स कीदृशः ? इत्यपेक्षायामाह-सुकुमारपाणिपादः, मुरूपः, इत्यनयोर्व्याख्या पूर्वोक्तदिशाऽवसेया । यावत्करयात् 'पासाइए, दरिसणिजे, भभिरूवे, पडिरूवे, इत्येषां सहो ज्ञेयः । एतच्छाया-प्रासादीयः, दर्शनीयः, अभिरूपः प्रतिरूपः, इति । प्रासादीयः-दर्शकजनमनोमोदजनकः, दर्शनीयः= दृष्टिसुखदत्वेन भूयो भूयो दर्शनयोग्यः, अभिरूपः-मनोज्ञाकृतिकः, प्रतिरूपः= सर्वातिशायिरुपलावण्यवान् इति । अत्र प्रसाशात् श्रेणिक-णिक-वर्णनं, कालकुमारादिवर्णनं च संक्षेपतः कथ्यते
तत्र किल पुत्रवत्प्रजापालस्य श्रेणिकभूपालस्य राज्ये रनद्वयमासीत्देवसमर्पितहारः १, सेचनकहस्ती २ च, यावत् तदीय राज्यस्य मूल्यं ततोऔर सुन्दर रूपवाला 'काल' नामका कुमार था । वह 'कालीमार' के नामसे भी प्रसिद्ध है। जो मनको प्रसन्न करनेवाला, देखनेवालोंके नेत्रको आनन्द देनेवाला, सुन्दर आकृतिवाला और अतिशय रूप लावण्यका धारण करनेवाला था।
यहां प्रसङ्गया. श्रेणिक, ..कूणिक तथा काल कुमारका संक्षिप्त वणन करते हैं
वहां पुत्रके समान प्रजाके पालन करनेवाले श्रेणिक राजाके राज्यमें दो रन थे-(१)-प्रथम देवसमर्पित हार, (२) दूसरा सेचनक हस्ती था।
મુંદર રૂપ વાળ કાલ નામને કુંવર હતો તે “કાલીકુમાર” ના નામથી પ્રસિદ્ધ છે. જે મનને પ્રપન્ન કરવાવાળો, નજરે જોનારાનાં નેત્રને આનંદ આપવા વાળે, સુંદર આકૃતિ વાળે તથા અતિશય રૂપ લાવણ્યને ધારણ કરવા વાળો હતો. . અહીં પ્રસંગવશ રાજા શ્રેણિક, કૃણિક તથા કાલ કુમારને સંક્ષપ્તિ વર્ણન
ત્યાં પુત્રની પેડે પ્રજાનું પાલન કરવા વાળા શ્રેણિક રાજાના રાજ્યમાં બે modi (1). हे २ (२) olg सेयन sil ci.
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सुन्दरबोधिनों टोका सम्यक्प्रशंसा
ऽप्यधिकं मूल्यं तद्रवद्वयस्य । हारोत्पत्तिरग्रे भणिष्यते । कूणिकस्योत्पत्तिः शाकारेण स्वयं विस्तारेण कथायेष्यते, कालादिकुमाराणां च आरम्भसमतो नरकयोग्यकर्मपचवात् तत्प्राप्तिर्मरगवर्णनं चात्रैव शास्त्रे प्रतिपादयिष्यते ।
ऋणिकक्षम्पायां नगर्या प्राज्यं राज्यं चकार । कूणिकस्य चेल्लनाऽङ्गजातावन्यावपि चैहल्य- वैहायसौ द्वौ भ्रातरावास्ताम् ।
अथ कदाचित् प्रथमकल्पे सकलदेवऋद्धिसम्पन्नः सुरवृन्दवन्दितपदा
ये दोनों रत्न इतने मूल्यवान थे कि जो राजाका सम्पूर्ण राज्य भी दे दिया जाय तो भी उनकी कीमत न हो सके । हारकी उत्पत्ति आगे कही जायगी और कूणिक की उत्पत्ति शास्त्रकार स्वयं विस्तार से कहेंगे । कालकुमार आदि कुमारोंके आरंभ और संग्राम से नरकयोग्य कर्मोंके उपचयके कारण उनकी नरकप्राप्तिका और मरणका वर्णन इसी शास्त्र में किया जायगा ।
चम्पा नगरी में कूणिक राजा निष्कंटक राज्य करता था । उस कूणिक राजाके चलना मातासे जन्ने हुए वैहत्य और वैहायस नामके दो भाई थे । एक समय सौधर्म देवलोक में सम्पूर्ण देव ऋद्धिवाले देववृन्दसे वंदित
આ બેઉ રત્ન એવાં કિંમતી હતાં કે તે રાજાનું આખું રાજ્ય પણ ઇ દેવાય તે પણ તેની કિંમત ન ઇ શકે દ્વારની ઉત્પત્તિ વિષે આગળ કહેવામાં આવશે તથા કૃણિકની ઉત્પત્તિ શાસ્રકાર પાતે વિસ્તારથી કહેશે. કાલ કુમાર આદિ કુમારના આરંભ તથા સંચામથી નકયેગ્ય કર્મીના ઉપચયના કારણે તેમની નરકપ્રાપ્તિનું તથા મરણુનું વર્ણન આ શસ્ત્રમાં કરવામાં આવશે.
કૃણિક રાજા ચંપા નગરીમાં નિષ્કંટક રાજ્ય કરતા હતા. તે કૂણિક રાજાને માતા ચેલનાથી જન્મેલા વેલ્થ તથા વેડાયસ નામે એ ભાઈ હતા.
એક સમય સોપમાં દેવ લેકમાં સંપૂર્ણ ઋદ્ધિવાળા દેવબ્રુગ્રંથી તિ ચરણવાલા ઉત્પાડી કેન્દ્ર સુધી સભાની અદર આ પ્રકારે સભ્યત્વની પ્રશસ્રા કરી
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निरयावलिकासत्र रविन्दोऽपास्ततन्द्रः शक्रेन्द्रः सुधर्मसभायां सम्यक्त्रमशंसां चक्रे । तथाहि
" अंतोमुहुत्तमित्तं वि फासियं हुज जेहिं संमत्तं ।
तेसिं अवड पुग्गलपरियट्टो चेव संसारो ॥१॥" " अन्तर्मुहुर्तमात्रमपि स्पृष्टं भवेद् यैः सम्यकत्वम् ।
तेषामपार्द्धयुद्गलपरिवर्तश्चैव संसारः ॥१॥" इति च्छाया,
सम्यक्त्वसद्भावे प्रशमसंवेगादयो गुणाः प्रसभमुदयन्ते तदानीं कथमपि वदुदयं प्रतिरोढुं न कश्चन समर्थो भवति । चरण वाले उत्साही शक्रेन्द्रने सुधर्मा सभाके अन्दर इस प्रकार सम्यक्त्वकी प्रशंसा की, जैसे कहा है:
"अंतोमुहुत्तमित्तं वि फासियं हुज्ज जेहिं संमत्तं । तेसिं अवर्द्धपुग्गलपरियट्टो चेव संसारो ॥ १ ॥"
___ जो भव्य प्राणी अन्तर्मुहूर्त मात्र भी सम्यक्त्वका स्पर्श कर लेता है, वह देशतः न्यून (कम) अर्धपुद्गलपरावर्तनसे अवश्य मोक्ष पाता है। अर्ध पुद्गलपरावर्तनका स्वरूप अणुत्तरोपपातिक सूत्रकी अर्थबोधिनी टीकासे समझ लेना चाहिए . सम्यक्त्वकी प्राप्ति होने पर शम, संवेग आदि गुण आत्मामें सहज उत्पन्न होते हैं. सम्यक्त्वके सद्भावमें गुणोंके विकासको कोई नहीं रोक सकता है। भ ४ह्यु छ :
"अंतोमुहुत्तमित्तं वि फासिवं हुज्ज जेहिं संमत्तं ।
तेसिं अवडपुग्गलपरियट्टो चेव संसारो ॥१॥" જે ભવ્ય પ્રાણી અન્તર્મુહૂર્ત માત્ર પણ સમ્યક્ત્વનો સ્પર્શ કરી લે છે a शत: (थाड) न्यून (मछ।) अ नसपरावर्तनथी अपश्य मोक्ष पामे . અર્ધપુદગલપરાવર્તનનું સ્વરૂપ અનુત્તરપપાતિક સૂત્રની અર્થવ્યાધિની 4थी सभा से नये. ' સમ્યકૃત્વની પ્રાપ્તિ થવાથી શમ સંવેગ આદિ ગુણ આત્મામાં સહજ ઉત્પન્ન
છે. સમ્યફત્વના સમ્રાવમાં ગુણેના વિકાસને કોઈ રોકી શકતું નથી.
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सुन्दरबोधिनी टोका सम्यक्त्वप्रशंसा
(मालिनीछन्दः) " असमसुखनिधानं धाम संविग्नतायाः,
भवसुखविमुखत्वोद्दीपने सद्विवेकः । नरनरकपशुखोच्छेदहेतुर्नराणां
शिवसुखतरुबीजं शुद्धसम्यक्खलाभः ॥१॥" कहा भी है:
" असममुखनिधानं धाम संविग्नतायाः,
भवसुखविमुखत्वोद्दीपने सद्विवेकः । नरनरकपशुत्वोच्छेदहेतुर्नराणां,
शिवसुखतवीनं शुद्धसम्यक्त्वलाभः ॥ १ ॥" अर्थात्-निर्मल सम्यक्त्व अतुल सुखका निधान है, वैराग्यका धाम (घर) है, संसारके क्षणभंगुर और नाशवान सुखोंकी असारता समझनेके लिए सच्चा विवेकस्वरूप है, भव्य जीवोंके मनुष्य तिर्यञ्च सम्बन्धी और नरक निगोद आदि दुःखोंका उच्छेद करनेवाला है और मोक्ष सुखरूपी वृक्षका बीजस्वरूप है ॥ १ ॥ ४युं पर छे है:
" असमसुखनिधानं धाम संविग्नतायाः, भवसुखविमुखत्वोद्दीपने सद्विवेकः । नरनरकपशुत्वोच्छेदहेतुर्नराणां,
शिवमुखतरुबीजं, शुद्धसाम्यक्त्वलाभः ॥ १॥" અર્થાત–નિર્મળ સમ્યકત્વ અતુલ સુખનું નિધાન છે. વૈરાગ્યનું ધામ (ઘર) છે. સંસારનાં ક્ષણભંગુર તથા નાશવાન સુખની અસારતા સમજવા માટે ખરેખર વિવેક સ્વરૂપ છે. ભવ્ય જીવોનાં મનુષ્ય તિર્યંચ સંબંધી તથા નરક નિદ, આદિ દુઃખને ઉચ્છેદ કરવાવાળું છે તથા મેક્ષસુખ રૂપી વૃક્ષનાં બીજ २१३५ छे. (१)
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निरयालिकामा
किश्च
(इन्द्रवज्राछन्दः) " सम्यक्त्वरत्नान्न परं हि रत्नं,
सम्यक्तबन्धोर्न परोऽस्ति बन्धुः। सम्यक्त्वमित्रान्न परं हि मित्रं,
सम्यक्खलाभान्न परोऽस्ति लाभः ॥२॥"
और भी कहा है:--- " सम्यक्त्वरत्नान परं हि रत्नं,
सम्यक्त्वबन्धोर्न परोऽस्ति बन्धुः । सम्यक्त्वमित्रान परं हि मित्रं, . सम्यक्त्वलाभान परोऽस्ति लाभः ॥ २॥"
अर्थात्-संसारमें सभ्यक्त्व रत्नके समान अन्य रत्न नहीं, सम्यक्त्व बन्धु के समान अन्य बन्धु नहीं। सम्यक्त्व मित्रके समान अन्य मित्र नहीं। सम्यक्त्व लाभके समान अन्य लाभ नहीं ॥ २॥ ५ ५५ युं छे :---
“सम्यक्त्वरत्नान परं हि रत्न,, सम्यक्त्वबन्धोर्न परोऽस्ति बन्धुः सम्यक्त्वमित्रान्न परं हि मित्रं,
सम्यक्त्वलाभान परोऽस्ति लाभः ॥२॥" । અર્થાત્ સંસારમાં સમ્યક્ત્વ રત્નના જેવું બીજું રત્ન નથી. સમ્યકત્વ બંધુના જેવો બીજો બંધુ નથી. સમ્યક્ત્વ મિત્રના જે બીજો કોઈ મિત્ર નથી અને સમ્યક્ત્વ લાભના જે બીજે કઈ લાભ નથી. (૨)
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सुन्दरबोधिनी टीका सम्यक्त्वाशंसा
हृदयभूमिकायां सञ्जातः सम्यक्त्वाचारदृढमूलो भावनाजलधारासिच्यमानः श्रुतचारित्रलक्षणधर्मस्कन्धः प्रमाणशाखो नयपतिशाखो दयादानक्षमाधृतिदलोशील भविजनमनो मिलिन्दवृन्दगुञ्जितजिनवचनप्रेमप्रसूनः शास्त्रदृतिकः (कृति-'वाड' इति भाषायाम् ) स्वर्गापवर्गसुखफलो निजात्मकल्याणरसः सम्यक्वमहामहीरुहो मिथ्याखगजेन्द्रादिकृतोपसर्गकुशास्त्रकुतर्कमहावातशतसहखैरप्युन्मूलयितुमशक्यः । .. सम्यक्त्व रूपी महावृक्ष हृदय भूमिमें उत्पन्न होता है सम्यक्त्व का आचार जिसका मूल है, भावना जलसे सींचा जाता है, जिसके श्रुत और चारित्र धर्मरूपी स्कंध हैं, प्रत्यक्ष आदि प्रमाणरूप जिसकी शाखाएँ हैं, नयरूप प्रतिशाखाएँ हैं, दया, दान, क्षमा, धृति और शीलरूप पत्र-पत्ते हैं, जिनवचनका प्रेमरूप सुन्दर पुष्प है, जिसपर भव्य जीयोंके मनरूपी भ्रमरवृन्द गूंज रहे हैं, शास्त्ररूपी वाडसे सुरक्षित है, स्वर्ग और मोक्षके सुखरूप फल है, निज आत्माके कल्याणरूप रस है, ऐसे सुदृढ सम्यक्त्वरूपी महावृक्षको मिथ्यात्वरूपी महागजकृत उपसर्ग और कुशास्त्र कुतर्करूपी हजारों महावायु नहीं उखाड सकता ।
સમ્યકત્વરૂપી મહાવૃક્ષ હૃદયરૂપ ભૂમિમાં ઉત્પન્ન થાય છે. સમ્યકત્વને આચાર જેનું મૂળ છે. ભાવનાજળથી જેનું સિંચન થાય છે. જેનાં કૃત તથા ચારિત્ર ધર્મ રૂપી સ્કંધ (થડ) છે. પ્રત્યક્ષ આદિ પ્રમાણ રૂપ જેની શાખાઓ છે. નયરૂપી પ્રતિ-શાખાઓ છે. દયા, દાન, ક્ષમા, ધૃતિ તથા શીલરૂપ પાંદડાં છે. જિન વચનનાં પ્રેમરૂપી સુંદર પુષ્પ છે. જેના ઉપર ભવ્ય જીનાં મનરૂપી ભમરાનાં વંદ ગુંજન કરી રહ્યાં છે. શાસ્ત્રરૂપી વાડથી સુરક્ષિત છે. સ્વર્ગ તથા મોક્ષનાં સુખરૂપી ફલ છે. પોતાના આત્માનાં કલ્યાણરૂપી રસ છે. એવા સુદઢ સમ્યક્ત્વરૂપી મહાવૃક્ષને મિથ્યાત્વરૂપી મહાગજત ઉપસર્ગો તથા કુશાસ્ત્ર તર્ક રૂપી गरे। भडापात (मांधी) नलि .
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निरयावलिकासन व इति विस्तरेणास्य वर्णनमाचारागसूत्रस्याऽऽचारचिन्तामणिटीकातोऽवसेयम् ।
एवं सम्यक्त्वप्रशंसां कुर्वाणः सुरपतिरवधिज्ञानेन जम्बूद्वीपभरतक्षेत्रे श्रेणिकभूपं ददर्श । सम्यक्त्वगुणशालिनं राजनयपालिनं तं विलोक्य प्रफुल्लवदनक्मलः सम्यकत्वगुणविमलः सादरं भूयो भूयोऽवाप्तसम्यक्त्वादिगुणश्रेणिकं श्रेणिकं सुधर्माख्यायां स्वदेवसभायां प्रशशंस । इत्थं पुरन्दरास्यशैलनिस्मृता श्रेणिकसम्यक्त्वप्रशंसासरित् सकलमुरसदस्यश्रवणसिन्धुमबागाहत ।
सम्यक्त्वका विस्तृत वर्णन आचाराङ्ग सूत्रके चौथे अध्ययनकी आचारचिन्तामणि टीकामें किया गया है।
इस प्रकार सम्यक त्व प्रशंसा करते हुए सुरपति सुधर्मा इन्द्रने अवधिज्ञान द्वारा जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रमें श्रेणिक राजाको देखा । सम्यक्त्वगुणशाली राजनीति को पालनेवाले राजाको देखकर प्रसन्नमुख होकर स्वयं सम्यक्त्व गुणसे निर्मल इन्द्र, आदरके साथ बार बार सम्यक्त्वगुणधारी श्रेणिक राजाको प्रशंसा अपनो सुधर्मसभामें करने लगे।
___ इस प्रकार राजा श्रेणिककी प्रशंसारूपी नदी इन्द्रके मुखरूपी पर्वतसे निकल कर सभा बैठे हुए सब देवोंके कर्णरूपी सागरमें पहुंची।
સમ્યક્ત્વનું વિસ્તારથી વર્ણન આચારાંગ સૂત્રના ચોથા અધ્યયનની આચારચિંતામણિ ટકામાં કરેલું છે.
આ પ્રકારે સભ્યત્વની પ્રશંસા કરતા થકા સુરપતિ સુધમાં ઈન્ડે અવધિજ્ઞાન દ્વારા જંબૂ દ્વીપના ભરત ક્ષેત્રમાં શ્રેણિક રાજાને જોયા. સમ્યક્ત્વગુણશાલી રાજનીતિનું પાલન કરવાવાળા રાજાને જોઈને પ્રસન્નમુખ થઈ પોતે સમ્યક્ત્વગુણથી નિર્મળ ઈન્દ્ર, આદર સહિત વારંવાર પિતાની સુધર્મા સભામાં સમ્યક્ત્વગુણધારી શ્રેણિક રાજાની પ્રશંસા કરવા લાગ્યા.
એ પ્રકારે રાજા શ્રેણિકની પ્રશંસારૂપી નદી ઈન્દ્રના મુખરૂપ પર્વતથી નિકળી સભામાં બેઠેલા સર્વ દેવના કર્ણરૂપી સાગરમાં પહોંચી.
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सुन्दरबोधिनी टीका देवकृतश्रेणिक परीक्षा
देवाश्च तदीयसम्यक्त्वादिगुणगणमहिमानं श्रावं श्रावममन्दानन्दतुन्दिला जातकौतूहलाः श्रेणिकं धन्यममन्यन्त । तदा द्वौ मिथ्यात्विदेव शक्रवचनं न श्रद्दधतुः । श्रेणिकं परीक्षितुं मनुष्यलोके तदन्तिकं समागतौ । उक्तञ्च - "मुदुदिव्वंथिगो हि
66
सग्गा सुरो सेणियरायमागा ।
परिक्खि साहुसुवेसधारी
अज्जासमेओ य सरोतडे सो ॥ १ ॥ "
छाया-
'मुखेन्दुदीव्यन्मुख वस्त्रिको हि
स्वर्गात्रः श्रेणिकराजमागात् ।
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दिव्यमुत्थो हि,
देवता लोग उनके सम्यक्त्व आदि गुणोंकी महिमा सुन-सुन कर अपूर्व आनन्दसे भर गए और आश्चर्यचकित होकर श्रेणिक राजाको धन्यवाद देने लगे उस समय दो मिथ्यात्वी देवोंने इन्द्रके वचनपर श्रद्धा नहीं की और राजा श्रेणिककी परीक्षा लेनेके लिये मनुष्य लोकमें उनके पास आये ।
जैसे कहा है:
सग्गा सुरो सेणियरायमागा ।
५३
દેવતા લેાકેાના તે સમ્યક્ત્વ આદિ ગુણેાના મહિમા સાંભળી સાંભળીને અપૂ આનંદથી ભરપૂર થઈ ગયા તથા આશ્ચર્ય ચકિત થઈને શ્રેણિક રાજાને ધન્યવાદ દેવા લાગ્યા.
તે સમયે એ મિથ્યાત્વી દેવાએ ઈંદ્રના વચન ઉપર શ્રદ્ધા ન કરી અને રાજા શ્રેણિકની પરીક્ષા લેવા માટે મનુષ્ય લેાકમાં તેની પાસે આવ્યા. જેમ કહ્યું छे :
दुग सम्गा सुरो सेणियरायमागा ।
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निरयावलिकासत्र
परीक्षितुं साधुसुवेषधारी,
आर्यासमेतश्च सरस्तटेऽसौ ॥१॥' . ततः साधुरूपधारी सुरो जलाशये जालं वितत्य स्थितः, आयिकारूपधारी तत्र सरस्तीरे तिष्ठति स्म । अत्रान्तरे श्रेणिको राजा पवनसेवनार्थ समागतः । तत्र मत्स्यं हन्तुमुद्यतं साधं विलोक्यावोचत्-किमिति साधुभूत्वा दुराचरसि ?।
परिक्खिउं साहुसुवेसधारी,
अजासमेओ य सरोतडे सो ॥ १ ॥ उन दोनों देवोंने वैक्रिय शक्तिसे साधु और साध्वीका रूप धारण किया मुखपर सदोरक मुखवस्त्रिका बांधी और कक्ष प्रदेश ( कांख ) में रजोहरण लिया, इस प्रकार वेष बनाकर सरोवरके किनारे जा खडे हुए । उनमेंसे एक देव साधुरूप श्रारण किया हुआ जाल फैलाकर सरोवरके तटपर खडा होगया और दूसरा साध्वी रूप धारण किया हुआ वहीं उसके समीपमें खडा हो गया। उसी अवसरपर महाराज श्रेणिक क्रीडाके निमित्त घूमते हुए वहाँ आ पहूँचे उन्होंने मछली मारनेके लिए उद्यत साधुको देखकर कहा ओह ! तुम साधु होकर यह दुष्ट आचरण क्यों करते हो ?
परिक्खिउं साहुसुवेसधारी,
अजासमेओ य सरोतडे सो ॥१॥ તે બન્ને દેએ ક્રિય શક્તિથી સાધુ તથા સાધ્વીનું રૂપ ધારણ કર્યું. સુખ ઉપર દેરાસહિત મુખવસ્ત્રિકા બાંધી તથા કાંખમાં રજોહરણ લીધું. એ પ્રકારને વેષ લઈ તળાવને કાંઠે જઈ ઊભા રહ્યા. એમાંથી એક દેવ સાધુનું રૂપ ધારણ કરીને જાળ ફેલાવી સરોવરના તટ ઉપર ઊભે રહ્યા તથા બીજે સાધ્વીનું રૂપ ધારણ કરી ત્યાંજ તેની પાસે ઊભે રહ્યો. તે વખતે મહારાજ શ્રેણિક ક્રીડા નિમિત્તે ફરતા ફરતા ત્યાં આવી પહોંચ્યા તેમણે માછલી મારવા માટે ઉદ્યત થયેલા સાધુને જોઈને કહ્યું. ઓહ ! તમે સાધુ થઈને આ દુષ્ટ આચરણ શા માટે કરે છે?
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सुन्दरबोधिनी टोका देवकृतश्रेणिकपरीक्षा
___स सरोषं तमुवाच-इयमाथिका दोहदवतीत्यतो मीनमांस बुभुक्षाणाऽस्तीत्येतदर्थ जालं विस्तारयामि, खमितो गच्छ राजन् ! किं ते. प्रयोजनमेतादृशप्रश्नेन ?, इति तद्वचनं राजा श्रुत्वा कोपारुणनयनोऽवदत्निर्लज्ज ! कृत्यमिदं त्यज, अन्यथा देहदण्डं ते दास्यामि । इति श्रुत्वाऽसौ साधुरवोचत्-गौतमादयश्चतुर्दशसहस्रमुनयश्चन्दनवालादयः षट्त्रिंशत्सहस्रार्षिकाच सर्वे अन्तर्दुराचारिणो बहिः साधुवेषधारिणः सन्ति तर्हि किं मामधिक्षिपसि ?।
तब वह साधुवेषधारी क्रोधित होकर बोला-यह आर्या गर्भवती होनेसे इसको मछली खानेका दोहद उत्पन्न हुआ है इस लिए मछलियां मारनेको जान फैलाये खडा हूँ, जाइये-राजन् ! इससे आपका क्या प्रयोजन है ?
ऐसे साधुके वचन सुनकर राजा क्रोधित हो बोले
निर्लज ! छोड इस दुष्कृत्यको, नहीं तो दण्ड दूंगा। यह सुनकर वह साधुवेषधारी बोला ? किसको दण्ड देते हैं ? गौतमादि चौदह हजार मुनि और चन्दनबाग
आदि छत्तीश हजार साध्वियाँ सभी अन्तर दुराचारी और बाहर साधुपनका आडम्बर रखते हैं तो मुझ अकेलेपर ही क्यों आक्षेप करते हो? ।
ત્યારે તે સાધુવેષધારી ક્રોધ કરીને બે--આ આર્યા ગર્ભવતી હોવાથી તેને માછલી ખાવાને ડહોળો થયો છે. આ માટે માછલી મારવાને જાળ કૈલાવીને ઊભો છું. જાઓ રાજન ! એનું આપને શું પ્રોજન છે?
એવાં સાધુનાં વચન સાંભળી રાજા ક્રોધ કરીને બોલ્યા
નિર્લજજ ! છોડી દે આ દુષ્કૃત્યને, નહિ તે દંડ કરીશ. આ સાંભળીને તે સાધુવેષધારી બે –દંડ કેને આપશે? ગૌતમ આદિ ચૌદ હજાર મુનિ તથા ચંદનબાળા આદિ છત્રીસ હજાર સાધ્વીઓ તમામ અખ્તર દુરાચારી તથ બહાર સાધુપણાને આડંબર રાખે છે તે મારા એકલાના ઉપરજ કેમ આક્ષેપ
छ।
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दत्-त्यादृशानां दम्भ, भूयः पश्चिमदिशादियाम्यक्त्वं न
निरयावलिकासत्र ततः श्रेणिकोऽवदत्-त्वादृशानां दम्भं दुराचारं च वीक्ष्य मम धर्मानुरागो नापगच्छति, पृथिवी पातालं गच्छेत्, सूर्यः पश्चिमदिश्युदियात्, चन्द्रो वह्नि वर्षेत्, वह्निः शीतलो भवेत्, अमृतं विषं भवेत् तदपि मम सम्यक्त्वं न प्रचलेत् । ततो देवद्वयमवधिज्ञानेन राजानं सम्यक्त्वधर्मे निश्रलं विज्ञाय पुनः पुनः स्तौति । तथाहि
(इन्द्रवज्रा) " सम्यक्त्वधारी च परोपकारी,
धन्योऽसि राजन् ! कृतपुण्यराशिः । यह सुनकर राजा श्रेणिक बोले-तुम्हारे जैसे दम्भी और दुराचारीको देख कर मेरा धर्मका अनुराग नहीं हट सकता है, अर्थात् जिनवचनपर स्थित मेरी दृढ श्रद्धा नहीं हट सकती है, पृथ्वी पातालमें चली जाय, सूर्य पश्चिममें उदय हो जाय, चन्द्र अग्नि वरसावे, अग्नि शीतल बन जाय, अमृत विष बने तो भी मेरा सम्यक्त्व विचलित नहीं हो सकता।
उसके पश्चात् उन दोनों देवोंने अवधिज्ञान द्वारा राजाको सम्यक्त्व धर्मके अन्दर निश्चल जानकर बारम्बार इस प्रकार स्तुति करने लो
" सम्यक्त्वधारी च परोपकारी,
धन्योऽसि राजन् ! कृतपुण्यराशिः।
-
- આ સાંભળીને રાજા શ્રેણિક બેલ્યા–તમારા જેવા દંભી તથા દુરાચારીને જોઈને મારો ધર્મ ઉપરનો અનુરાગ ડગી શકે નહિ, અર્થાત્ જિનવચન ઉપર મારી દૃઢ શ્રદ્ધા વિચલિત ન થઈ શકે. પૃથ્વી પાતાળમાં ચાલી જાય, સૂર્ય પશ્ચિમમાં ઊગે, ચંદ્ર અગ્નિ વરસાવે, અગ્નિ ઠડો બની જાય, અમૃત ઝેર બની જાય તે પણ મારું સમ્યકત્વ ચલાયમાન થઈ શકે નહિ.
ત્યાર પછી તે બન્ને દેવો અવધિજ્ઞાન દ્વારા રાજાને સમ્યક્ત્વ ધર્મની અંદર નિશ્ચલ જાણીને વારંવાર તેની આ પ્રમાણે પ્રશંસા કરવા લાગ્યા
. सम्यक्त्वधारी : : च परोपकारी,.....
धन्योऽसि राजन् ! कृतपुण्यराशिः।
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सुन्दरबोधिनी टोका सम्यक्त्वप्रशंसा
तुल्यस्त्वया कोऽपि न भूतलेऽस्मिन् ,
सर्व समक्षं त्वयि दृष्टमेतत् ॥ १॥
शार्दूलविक्रीडितम् । “सम्यक्त्वं विमलं परं दृढतरं यद्वर्णितं तावकं,
तुल्यस्त्वया कोऽपि न भूतलेऽस्मिन् ,
सर्व समक्षं त्वयि दृष्टमेतत् ॥ १ ॥ अर्थात्-हे सम्यक्त्वधारी, परोपकारी राजन् , तुम धन्य हो। तुम्हारे जैसा पुण्यवान् अटलसमकितधारी इस भूतल पर अन्य नहीं। जो सम्यक्त्वधारीके गुण होते हैं वे सब तुममें प्रत्यक्ष पाये जाते हैं ॥ १ ॥
फिर भी
सम्यक्त्वं विमलं परं दृढतरं यद्वर्णितं तावकं, हे राजन् ! दान देना, दीन पर दया रखना, जिनवचनके रहस्यको जानना,
तुल्यस्वया कोऽपि न भूतलेऽस्मिन्
सर्वं समक्षं त्वयि दृष्टमेतत् ॥ १ ॥ અર્થા—હે સમ્યક્ત્વધારી પરે પકારી રાજનું તમે ધન્ય છે, તમારા જેવા પુણ્યવાન અટલ સમક્તિધારી આ પૃથ્વી ઉપર બીજા નથી. જે સમ્યક્ત્વધારીના ગુણ હોય છે તે બધા તમારામાં પ્રત્યક્ષ જોવામાં આવે છે. (૧) श ५
सम्यक्त्वं विमलं परं दृढतरं यद्वर्णितं तावकं, હે રાજન ! દાન દેવું, ગરીબ ઉપર દયા રાખવી, જિનવચનનાં રહસ્યને
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VA
-
बिरयालिकासत्र देवेन्द्रेण ततोऽधिकं त्वयि सदा तद् भूपते ! राजते । दानं दीनदयालुता जिनवचोमर्मज्ञता साधुता, धर्मैकमियता गुरौ विनयिता देवेऽनुरागस्तथा ॥२॥
एवं स्तुवन् देवदर्शनममोघं भवतीति प्रसन्न एको देवो हारमपरश्च द्वौ मृगोलको श्रेणिकाय दत्वा स्वस्थानं गतौ । ततः श्रेणिकेन देवदत्तहारश्चेल्लनायै दत्तः, द्वौ मृद्गोलकौ च नन्दायै । नन्दा च 'पतिदत्तं किमपि . वस्तु
देवेन्द्रेण ततोऽधिकं त्वयि सदा तद् भूपते ! राजते। दानं दीनदयालुता जिनवचोमर्मज्ञता साधुता,
धमैकप्रियता गुरौ विनयिता देवेऽनुरामस्तथा ॥२॥ सज्जनता रखना, धर्मका अद्वितीय प्रेम, गुरुजनके साथ विनय और वीतराग देवके प्रति अनुराग इत्यादि जो तुम्हारे दृढतर सम्यक्त्वके निर्मल गुण इन्द्रने वर्णन किये हैं उससे भी अधिक तुम्हारेमें साक्षात् मौजूद है ॥२॥
इस प्रकार राजाकी प्रशंसा करते हुए देवोंने देवदर्शन अमोघ होता है, इस भावसे प्रसन्न होकर उनमेंसे एक देव राजाको हार और दूसरा देव दो मिट्टीके गोले भेट करता है। बाद वे दोनों अपने स्थानपर गये और राजा अपने स्थानपर आया । पश्चात् राजा श्रेणिकने देवसमर्पित हार चेल्लना महारानीको दिया, और दोनों मिट्टीके गोले नन्दा महारानीको दिये । नन्दाने भी ‘पतिकी दी हुई कोई भी
- देवेन्द्रेण ततोऽधिकं त्वयि सदा तद् भूपते ! राजते। "
दानं दीनदयालुता जिनवचोमर्मज्ञता साधुता,
धर्मकप्रियता गुरौ विनयिता देवेऽनुरागस्तथा ॥ २ ॥ જાણવું, સજનતા રાખવી, ધર્મમાં અદ્વિતીય પ્રેમ, ગુરૂજનની સાથે વિનય તથા વીતરાગ દેવમાં અનુરાગ, ઈત્યાદિ જે તમારા દૃઢતર સમ્યક્ત્વના નિર્મળ ગુણ ઈ વર્ણન કર્યા છે તેનાથી પણ વધારે તમારામાં સાક્ષાત્ મેજુદ છે. (૨) - આ પ્રકારે રાજાની પ્રશંસા કરતા થકા દેએ દેવદર્શન અમેઘ હોય છે, એ ભાવથી પ્રસન્ન થઈ તેમનામાંથી એક દેવ રાજાને હાર અને બીજે દેવ બે માટીના ગેળા ભેટ આપે છે. પછી તે બેઉ પિતાના સ્થાને ગયા તથા રાજા પિતાને સ્થાને આવ્યા. પછી રાજા શ્રેણિકે દેવે આપેલે હાર ચેલેના મહારાણને વ્યા. તેમા બેઉ માટીના ગાળા દા. મહારાણીને આપ્યા. નંદાએ પણ પતિએ
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सुन्दरबोfunी टीका अभयकुमारवर्णन
सादरं ग्राह्य' मिति मनसि कृत्वा पातित्रत्यरक्षायै मृद्गोलको जानानाऽपि सपत्नीद्वेषं विहाय सादरमादृतौ । सहर्षोत्कर्ष मञ्जूषायां स्थापनसमये भूषणकरण्डाघातेन तौ भग्नौ । तत्रैकस्मिन् कुण्डलयुगलमपरस्मिन् वस्त्रयुग्मं च वीक्ष्य परं प्रमुदिता जाता ।
अन्यदाऽभयो भगवन्तं महावीरप्रभुं पृष्टवान् - अपश्चिमः को राजऋषिभविष्यति ? | भगवता प्रोक्तम्- अतः परं बद्धमुकुटो नृपो न पवजिष्यतीति श्रुत्वा श्रेणिकभूपेन तातेन दीयमानं राज्यं न स्वीकृतवान् ।
वस्तु आदरसे लेना चाहिए, यह पतित्रताका धर्म है' ऐसा विचारकर अपनी सौत के साथ ईर्षाको छोड़कर आदरसे उन गोलोको लेलिए | और अत्यन्त हर्षके साथ उन . मिट्टी के गोलोको सुरक्षितपनेसे अपनी पेटोमें रखने लगी उस समय भूषणकरडंक की टक्करसे दोनों फूट गए, तब वहां वह देखती है कि एक गोले में कुण्डलको जोडी और दूसरे में दो दिव्य वस्त्र हैं, ऐसा देखकर रानी बहुत प्रसन्न हुई
एक समय अभयकुमारने भगवान महावीर स्वामीसे पूछा कि हे भगवन् ! अंतिम राजऋषि कौन होगा ?
भगवान ने कहा- हे अभयकुमार ! आज पीछे मुकुटबद्ध राजा प्रत्रजित नहीं
આપેલી કાઇ પણ વસ્તુ આદરથી લેવી જોઈએ એ પતિવ્રતાના ધર્મ છે' એમ વિચાર કરી પેાતાની સેાખની સાથે ઇર્ષ્યાને છેાડી આદરથી તે માળા લઈ લીધા અને અત્યંત હર્ષથી તે માટીના ગેાળાને સુરક્ષિત રીતે પેાતાની પેટીમાં રાખવા લાગી. પરંતુ તે રાખતી વખતે આભૂષણના ડાબલાના અથડાવાથી એક ફૂટી ગયા ત્યારે તેના જોવામાં આવે છે કે એક ગાલામાં કું ડલની જોડી છે તથા ખીજામાં બે દિવ્ય વસ્ત્ર છે. આ જોઈને રાણી અહુ પ્રસન્ન થઈ.
!
એક સમય અભયકુમારે ભગવાન મહાવીર સ્વામીને પૂછ્યું કે મ્હેં ભગवान् ! अंतिम ऋषि आशु थशे ?
ભગવાને કહ્યું–હું અભયકુમાર આજ પછી મુગટધારી રાજા પ્રજિત થશે
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६०
निरयावलिकासत्र नन्दया दीक्षाभिलाषिणमभयकुमारं ज्ञाखा कुण्डलयुगलं वैहल्याय दत्तम् , वस्त्रयुग्मञ्च वैहायसाय । तदनु महतोत्सवेन महाराज्ञी नन्दाऽभयकुमारश्चोभौ प्रबजितौ ।
श्रेणिकभूपस्य काली-महाकाली-प्रमुखान्यराजीनामन्ये कालकुमारादयः पुत्रा आसन् । अभये प्रत्रजिते वक्ष्यमाणचरित्रः कूणिकः कदाचित् रहसि होगा। यह सुनकर अभयकुमारने मनमें विचार किया कि-अगर पिताद्वारा मिलने वाले राज्यको स्वीकार करूँ तो मैं भी मुकुटबद्ध राजा बनूं , परन्तु भगवानका वचन है कि मुकुटबद्ध राजा राजऋषि नहीं बनेगा एतदर्थ मैं राज्य नहीं लूंगा । इस लिए पितासे प्राप्त होते राज्यको उनने स्वीकार नहीं किया।
अभयकुमारको दीक्षाभिलाषी जानकर नन्दा महारानीने कुंडल युगल वैहल्य कुमारको दिया और वस्त्रयुगल वैहायस कुमारको दिया और फिर बड़े उत्सवसे नन्दा महारानी और अभयकुमार दोनों प्रव्रजित हुए।
श्रेणिक राजाके 'काली महाकाली आदि अन्य रानियोंके काल महाकाल आदि और भी अनेक पुत्र थे। अभयकुमारके दीक्षा लेने पर कूणिक राजा जिनका चरित्र आगे वर्णन करेंगे उन्होंने एक समय एकान्तमें कालकुमार आदि दस कुम्गरोंके નહિ. આ સાંભળીને અભયકુમારે મનમાં વિચાર કર્યો કે જે પિતા તરફથી મળનાર રાજ્યને સ્વીકાર કરે તે હું પણ મુગટબદ્ધ રાજા બનું પરંતુ ભગવાનનું વચન છે કે મુગટબદ્ધ રાજા રાજઋષિ નહિ બને તે માટે પિતા તરફથી મળનાર રાજ્યને સ્વીકાર નહિ કરું, આમ નિશ્ચય કરીને તેણે રાજ્યને સ્વીકાર ન કર્યો.
અભયકુમારને દીક્ષાભિલાષી જાણીને નંદ મહારાણીએ કંડલનો જેડ વહલ્ય કુમારને આપી અને વસ્ત્રની જેડ હાયસ કુમારને દીધી, તે પછી મોટા ઉત્સવથી નંદા મહારાષ્ટ્ર અને અભયકુમાર એ બન્ને પ્રત્રજિત થયા. ' શ્રેણિક રાજાને કાલી મહાકાલી આદિ બીજી રાણીઓ ના કાલ મહાકાલ આદિ બીજા અનેક પુત્ર પણ હતા. અભયકુમારે દીક્ષા લીધા પછી કૂણિક રાજા કે જેનું ચરિત્ર આગળ વર્ણવવામાં આવશે તેણે એક વખત એકાંતમાં કાલ કુમાર
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सुन्दरबोधिनी टीका कणिकवर्णन कालादिदशकुमारैः सह मन्त्रयति स्म-स्वेष्टमुखविघातकं जनकं बद्ध्वा राज्यस्यैकादश भागान् करोमीति सर्वैः स्वीकृतम् ।
___ छलेन कूणिकेन स्वपूर्वभववैरित्वेन श्रेणिको बद्धो लौहपञ्जरे निक्षिप्तश्च । पूर्वाह्नऽपराह्ने च कशाशतं भृत्यादिना दाप्यते। भूपस्य भोजनादिकं निरुद्धम् । तदा चेल्लना च प्रच्छन्नरीत्या चूडायां खाद्यं वस्तु बद्ध्वा स्वपरिधानवस्त्रमा कृत्य भूपसमीपे गच्छति । चूडास्थभोज्यं वस्त्रनिष्पीडनजलं च भूपाय समर्पयति । साथ इस प्रकार मंत्रणा ( सलाह ) की अपने पिता महाराज श्रेणिक अपने इष्ट सुखके विधातक है इस लिए. इनको बन्धनमें डालकर राज्यका ग्यारह भाग करके सुखपूर्वक राज्यसुखका अनुभव करें। यह बात सब भाइयोंको पसन्द आगई और उन्होंने स्वीकार कर ली।
__ अपने पूर्वभवके वैरसे कूणिकराजाने अपने पिता श्रेणिकको किसी छलसे पकडकर लोहेके पीजरेमें डालकर सुबह शाम अपने भृत्योंके द्वारा सौ-सौ चाबुककी मार महाराज श्रेणिकको दिलवाता था और खान-पान भी रोक दिया था, जब मनमें आता तब खानेको देता था। इस प्रकार राजाको भूख और प्यासकी यातनाले पीडित देखकर चेल्लना महारानी अत्यंत दुःखित हुई और वह खानेकी वस्तु अपनी वेणीमें गुप्त रीतिसे बांध लेती और पानीसे भीगे वस्त्र पहनकर राजाकी पास जाती थी. खाद्य वस्तु अपनी वेणीसे निकालकर राजाको खिलाती और अपने कपडे निचोड
આદિ દશ કુમારની સાથે આ પ્રમાણે મંત્રણા કરી કે-આપણુ પિતા મહારાજ શ્રેણિક આપણુ ઈષ્ટ સુખને નાશ કરનાર છે તેથી તેને બંધનમાં નાખી રાજ્યના અગચાર ભાગ કરી સુખ પૂર્વક રાજ્ય સુખને અનુભવ કરે. આ વાત બધા ભાઈઓને પસંદ પડી અને તેઓએ તેને સ્વીકાર કર્યો.
પિતાના પૂર્વ ભવના વેરથી કૃણિક રાજાએ પોતાના પિતા શ્રેણિકને કઈ કપટથી પકડી લોઢાના પાંજરામાં નાખે અને સવાર સાંજ પિતાના નોકરો દ્વારા સે સે ચાબુકને માર મહારાજ શ્રેણિકને દેવરાવતું હતું તથા ખાવા પીવાનું પણ અટકાવ્યું હતું. પિતાના મનમાં આવે ત્યારે ખાવાને આપતો હતો. આ પ્રકારે રાજાને ભૂખ અને તરસની પીડાથી દુઃખી જોઈને ચેલ્લના મહારાણી બહુ દુઃખી થઈ અને તે ખાવાની વસ્તુ પિતાના અબડામાં છાની રીતે બાંધી તથા પાણીથી ભીંજાવેલાં વસ્ત્ર પહેરી રાજાની પાસે જતી. ખાવાની વસ્તુ પિતાના
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निरवापलिकासन कशाघातप्रबलवेदनाशमनाय भेषजमिश्रितवस्त्रजलेन गात्रं प्रक्षालयति, तत्मभावेन धूपो वेदनां न वेदयति ।
- अथचेल्लनावृत्तान्तं वर्ण्यते-चेल्लना त्रिकालं धर्मक्रियां समाराधयति मनसि विचारयति च-' अहो ! कर्मणां विचित्रा गतिरीदृशशक्तिशालिनोऽपि भूपस्यैतादृशी दशा जाता ?, केन कर्मणा-एताहगवस्था जातेति सर्वज्ञो जानाति, सर्वज्ञमन्तरेण को नाम कर्मगतिं ज्ञातुं शक्नोति । हे आत्मन् ! यदि धर्मो नाराध्यते तदा तवापि तादृशी दुर्दशा भविष्यति । कर उसका पानी पालाती और चाबुककी प्रबल चोटसे उत्पन्न हु वेदनाको शान्त करनेके लिए. औषधसे मिले हुए. वस्त्रजलसे राजाके शरीरको धोती थी, जिससे वेदना कुछ कम पडजाती थी। . अब चेल्लनाके विषयमें कहते हैं-चेल्लना महारानी धर्मात्मा और धर्मपरायणा थी। त्रिकाल ( प्रातःकाल, मध्याह्न और सायंकाल) धर्मध्यान करती थी और अपने पति महाराज श्रेणिकके विषयमें बोलती थी कि अहो ! कर्मोकी कैसी विचित्र गति है, कि जिससे ऐसे शक्तिशाली महाप्रभाववाले भूपकी भी यह 'दुर्दशा हो रही है, किस कर्मसे इनकी ऐसी दशा हुई है इसे तो सर्वज्ञके सिवाय कोई नहीं जान सकता है। हे आत्मन् ! अगर तू धर्मका आराधन नहीं करेगा तो तेरो भी ऐसी ही दुर्दशा होनेवाली है।
અબડાથી કાઢી રાજાને ખવરાવતી તથા પિતાનાં કપડાં નિચોવીને તેનું પાણી પીવરાવતી તથા ચાબુકના સખત ઘાથી ઉત્પન્ન થતી વેદનાને શાંત કરવા માટે ઓષધ લગાડેલાં વસ્ત્રનાં પાણીથી રાજાનાં શરીરને ધોતી હતી જેથી વેદના કંઈક ઓછી પડી જાતી હતી.
હવે ચેલ્લનાનું વૃતાંત કહે છે-ચેલ્લના મહારાણી ધર્માત્મા તથા ધર્મપરાયણ હતી. ત્રિકાલ ધર્મ ધ્યાન કરતી હતી તથા પિતાના પતિ મહારાજ શ્રેણિકની બાબતમાં કહેતી હતી કે અહો ! કર્મોની કેવી વિચિત્ર ગતિ છે જેથી આવા શક્તિશાળી મહાપ્રભાવવાળા રાજાની પણ આવી દુર્દશા થઈ રહી છે. કયા કમથી તેમની આવી દશા થઈ છે તે તો સર્વજ્ઞ સિવાય કંઈ જ શકતું નથી.
હે આત્મન ! અગર જો તું ધર્મનું આરાધન નહિ કરે તો તારી પણ પાવીજ દુર્દશા થવાની છે.
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सुन्दरबोधिनी टोका चेल्लनावर्णन
१३
इत्यादि स्वमनसि विचार्य बेलना निरन्तरं प्रवर्धमानपरिणामेन धर्मक्रियां करोति । नमस्कार पौरुषीप्रभृतिदशविध प्रत्याख्यानसमाचरणं श्रावकव्रतपरिपालनं, मार्यमाणजीवरक्षणं, स्वधर्मिपरिपोषण, दीनानाथाऽन्धपङ्गवादिकरुणाकरणं साधु-साध्वी श्रावक-श्राविकारूपचतुर्विधतीर्थ सेवाकरणमशरणशरण्यतां सकलजीव हितसुखपथ्यकारितां च दधाना, एवं विचित्रधर्मक्रियां कुर्वाणा विहरति, त्रिकालसामायिकं च कुरुते । तथाहि
इत्यादि कर्मकी गहन गतिको और अपने पतिको दुर्दशाको विचारती हुई निरन्तर प्रवर्धमान परिणामसे धर्मक्रिया करती थी । नमस्कार ( नवकारसी ) पौरुषी आदि दस प्रकार के प्रत्याख्यान ( पचखाग ) नित्यप्रति करती थी । श्रावक व्रतोंका पालन करती थी, मारे जाते हुए जीवोंको बचाती थी, साधर्मियोंका पोषण करती थी. और दीन, अनाथ, पङ्गुजनकि ऊपर परम करुणा करके अन्न, वस्त्र, ओषधि आदिक द्वारा उनके दुःखोका निवारण करती थी । साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप चार तीर्थ की सेवा करती थी । निराधारकी आधार थी, कहाँ तक कहें महारानी चेलना सब प्रकारसे सब जीवोंके लिए हितकारी, पथ्यकारी, और सुखकारी थी, और अनेक प्रकारसे धर्मक्रिया करती हुई शीलत्रत आदि आराधन करती हुई तीनों काल सामायिक करती थी। कहा
આ પ્રમાણે કર્મની ગહન ગતિના અને પેાતાના પતિની દુર્દશાના, વિચાર કરતી થકી હંમેશાં પ્રત્ર માત પરિણામથી ધર્મક્રિયા કરતી હતી. નમસ્કાર ( નવકારસી ) પૌરૂષી આદિ દશ પ્રકારના પ્રત્યાખ્યાન ( પચખાણ ) નિત્ય પ્રતિ કરતી હતી. શ્રાવકનાં વ્રતોનું પાલન કરતી હતી. માર્યા જતા જીવાને ખચાવતી હતી. સાધી એનું પેષગુ કરતી હતી તથા દીન, અનાથ, લુલ્લાંપાંગળાં માઝુસાના ઉપર પરમ કા કરીને અન્ન વજ્ર ઔષધ વગેરેથી તેમનાં દુ.ખાનું નિવારણુ કરતો હતી. સાધુ, સાધ્વી, શ્રાવક શ્રાવિકા રૂપ ચાર તીથૅની સેવા કરતી હતી. નિરાધારની આધાર હતી, કયાં સુધી કહીએ ! મહારાણી ચેલના સર્વ પ્રકારે બધા જીવાને માટે હિતકારી, પથ્યકારી અને સુખકારી હતી. તથા અનેક પ્રકારે ધર્મક્રિયા કરતી ચકી શીલવત આદિ આરાધન કરતી થી ત્રણે કાળ સામાયિક કરતી હતી. કર્યું
छे :
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निरयावलिकाव
66
सा वेल्लणा भूमिथलं पमज्ज, वत्थाइ सव्वं पडिलेक्ख भावा ।
बद्धा
सदोरं मुहवत्तिमासे, सामाइयं तं कुणए तिकालं ॥ १ ॥ " छाया - " सा चेल्लना भूमिस्थलं प्रमार्ण्य, वस्त्रादि सर्वे प्रतिलेख्य भावात् । बद्ध्वा सदोरां मुखबस्त्रीमास्ये, सामायिकं तत् कुरुते त्रिकालम् ॥ १ ॥ "
अन्यदा कूणिकः सर्वालङ्कारविभूषितः स्वमातुश्रेल्लनादेव्याश्चरणौ वन्दितुं समागतस्तत्र तामार्त्तध्यानयुक्तां दृष्ट्वा वन्दमानः कूणिकराजः स्वजननीं पृच्छति - हे मातः ! यहं खलु स्वयमेव महाराज्याभिषेकेण विशालराज्य
66
सा चेल्ला भूमिथलं पमज्ज, बन्थाइ सव्त्रं पडिलेक्ख भावा । बद्धा सदोरं मुहवत्तमासे, सामाइयं तं कुणए तिकालं " ॥ १ ॥
वह चलना महारानी विधिपूर्वक पहले प्रमार्जिका ( पूँजनी ) से भूमिको पूँज लेती थी, बाद वस्त्रों की प्रतिलेखना ( पडिलेहणा) करके : मुँहपर सदोरक मुखवत्रिका बांधकर तीनों कालमें सामायिक करती थी ।
1
एक समय कूणिक महाराज सब अलंकार पहिने हुए अपनी माता चेल्लना महारानी के पास चरण - वन्दन के लिए आये । अपने पति के दुःखसे दुःखित आर्तध्यानयुक्त अपनी माता को देखकर कहने लगे - हे जननी ! अभिषेक से अभिषिक्त होकर विशाल राज्यश्रीका
मैं स्वयं बडे राज्यके
अनुभव कर रहा हूँ, इसने तुम्हारे
“सा चेउणा भूमिथलं पमज्ज, वत्थाइ सव्वं पडिलेक्ख भावा । बद्धा सदोरं मुहवत्तिमासे सामाइयं तं कुणए तिकालं ॥ १ ॥”
તે ચેલ્લના મહારાણી વિધિપૂર્વક પહેલાં ગુચ્છાથી ભૂમિને પુંજી પછી વસ્ત્રોની પ્રતિàખના (પડિલેહણુા) કરી માં ઉપર દ્વારા સહિત મુખવસ્તિકા બાંધીને ત્રણે કાલ (સવાર ખપેાર સાંજ) સામાયિક કરતી હતી.
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એક સમય કૂણિક મહારાજ બધા અલંકાર પહેરીને પેાતાની માતા ચેત્લના મહારાણીની પાસે ચરણ વંદન માટે આવ્યા. પાતાના પતિનાં દુ:ખથી દુઃખિત જાત ધ્યાન કરતી પેાતાની માતાને જોઇને કહેવા લાગ્યા. હે જનની ! હું પોતે ગાટા રાજ્યના અભિષેકથી અભિષેક કરાયેલેા હાઈ વિશાલ રાજ્યશ્રીના અનુભવ
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सुन्दरबोधिनी टीका कूणिकवर्णन
६५
श्रियमनुभवामि तेन किं तव मनसि सन्तोष उल्लासः प्रमोदो न वर्त्तते ? तुभ्यं मम भाग्योदयो न रोचते किम् ? । ततला देवी कूणिकराजमेवमवादीत्हे पुत्र ! यत्वं देवगुरुसदृश परमस्नेहानुरागरक्तं निजतातं निगड़बन्धने विधाय स्वयं राज्यश्रियमनुभवसि तत्कथं तादृशेन दुष्कृतेन मम मनसि तुष्टिईषवकाशश्च । ततः कूणिकः पृच्छति - हे मातः ! कथं मयि तातः स्नेहानुरागरक्तः ?, तदा सा जगाद - हे पुत्र ! यश्चोपकुरुते तमेव त्वं द्वेक्षि, पश्य - जन्मानन्तरं मदाज्ञप्तया दास्या वने त्वं विसृष्टस्तदानीं तवेयमङ्गुलिः कुकुटेन तुण्डेन
मनमें क्या संतोष, उल्लास, प्रमोद नहीं हैं ? क्या मेरा भाग्योदय तुझे इष्ट मालूम नहीं देता ? । पुत्रके ऐसे वचन सुनकर महारानी बेल्लना देवी बोली- पुत्र ! तू देव और गुरुके समान परम स्नेहवाले अपने पिताको बन्धनमें डालकर स्वयं राज्यश्रीका अनुभव करता है ऐसे दुष्कृत्य से किस तरह मेरा मन सन्तुष्ट और प्रमुदित हो सकता है ? |
तब कूणिक महाराज बोले- हे जननी ! मेरे पिताका मुझपर किस तरहका अनुराग है ? |
माता बोली- वत्स ! जो तेरे उपकारी हैं, तू उन्हीका द्वेष करता है, देख तेरे जन्म होने के बाद तुझे मेरी आज्ञासे दासीने अशोक वाटिकामें छोड दिया था, उस समय तेरी यह अंगुली कुक्कुट - ( मुर्गे ) ने अपनी तीक्ष्ण चोंच से
કરી રહ્યો છું તેથી તમારા મનમાં શું સંતાપ, ઉલ્લાસ આનંદ નથી થતા? શું મારૂં ભાગ્યદય તમને નથી ગમતું . પુત્રનાં આવાં વચન સાંભળી મહારાણી ચેન્નના દેવી મેલી–પુત્ર! તું દ્રેષ તથા ગુરૂ સમાન પરમ સ્નેહવાળા પેાતાના પિતાને બધનમાં નાખી પાતે રાજ્યશ્રીના અનુભવ કરી રહ્યો છે. એવાં દુષ્કૃત્યથી કેવી રીતે મારૂ મન સંતુષ્ટ તથા આન ંદિત રહી શકે ?
ત્યારે કૂણિક મહારાજ મેલ્યા હૈ જનની ! મારા પિતાના મારા ઉપર કેવી જાતના અનુરાગ છે ?
માતા કહે—વત્સ ! જે તારા ઉપકારી છે તેનેાજ તું દ્વેષ કરે છે. જો તારા જન્મ થયા પછી મારી આજ્ઞાથી દાસીએ તનેમશેાકવાટિકામાં મૂકી દીધા હતા તે વખતે તારી આ આંગળી કુકડાએ પાતાની તીખી ચાંચથી ખંડિત કરી દીધી
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६६
निरयाचलिकास्त्र
,
खण्डिता, अकस्मात्वामुपगतस्त्वदीयतातो गृहमानैषीत् । अङ्गुलित्रणव्यथाव्याकुलस्त्रमुच्चैश्रीत्कुर्वाणो मनागपि शान्ति नावलम्बमान आसीः, करुणया त्वत्पिता बहुविधोपचारेणाङ्गुलिवेदनामपहृत्य त्वां शान्तिमुपनीतवान् एवं प्रकृत्या परमोपकारिणि पितरि कथमथान्यथाभावमाविष्कुर्वन् न लज्जसे ? इति चेल्लनावचनं निशम्य दीर्घ निःश्वस्य सपदि पीठादुत्थाय गृहीतपरशुः खंडित करदी थी और तू अनाथ ( निराश्रित ) होकर पडा -पडा चिल्ला रहा था । अकस्मात् तेरे पिता वहाँ आ पहुँचे और तुझे उठा लाये । तेरी अंगुलीका घाव बढ गया था और तू बडे जोर-जोर से रुदन करता था । जब तेरी अंगुली में पीप भरजाता था तब तुझे अत्यधिक पीडा होती और तनिक भी आराम नहीं मिलता था तब तेरे पिता तेरी तडफन और वेदनाको देख दुःखित हृदय हो करुणासे औषधि - उपचार करते थे और परम स्नेहसे तेरी अंगुलीको मुंहमें ले पीपको चूसकर थूक देते थे और तुझे सब तरहसे आराम पहुँचाते थे । इस तरह स्वभावसे परमोपकारी हितैषी पिताके प्रति तू अब कृतन्न भावको धारण कर दुष्ट व्यवहार करता हुआ क्यों नहीं शरमाता है ।
इस प्रकार माताके मार्मिक और स्नेहभरे शब्दों को सुनकर कूणिकने एक लम्बी साँस ली और उसी समय आसनसे उठ पिताके बन्धन काटनेके लिये हाथमें
હતી અને તું અનાથ (નિરાશ્રિત) થઇ પડયા પડયા રાતા હૅતા. અચાનક તારા પિતા ત્યાં આવી પહોંચ્યા અને તને ઉપાડી લાવ્યા. તારી આંગળી ઉપરના ઘા વધી ગયા હતા અને તું બહુ જોરથી રૂદન કરતા હતા. જ્યારે તારી આંગળીમાં પીપ (પરૂ) ભરાઇ જાતું હતું ત્યારે તને ઘણી પીડા થતી હતી, અને તને જરા પશુ આરામ મળતા નહાતા. ત્યારે તારા પિતા તારા તડફડાટ અને વેદનાને જોઇને દુઃખિત હૃદય થઇ દયાથી ઔષધ ઉપચાર કરતા હતા અને પરમ સ્નેહથી તારી આંગખીને માઢામાં લઇ પરૂને ચુસીને થુંકી દેતા હતા તથા તને સર્વ રીતે આરામ પહોંચાડતા હતા. આવી રીતે સ્વભાવથીજ પરમ ઉપકારી હિતેચ્છુ પિતાના તરફ તું હવે કૃતઘ્ન ભાવને ધારણ કરી દુષ્ટ વ્યવહાર કરતાં કેમ શરમાતા નથી ?
આ પ્રકારે માતાના માર્મિક સ્નેહ ભર્યો શબ્દો સાંભળી કૃણિકે એક લાંખે નિઃસાસા નાખ્યા તથા તેજ વખતે આસન ઉપરથી ઊઠીને પિતાનું બંધન કાપી
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सुन्दरबोधिनी टीका कृणिकवर्णन श्रेणिकबन्धनपञ्जरान्तिकं तदीयबन्धनं सकरुणं छेत्तुमुपक्रामति । श्रेणिकश्च परशुपाणिं कृतान्तमिवायान्तं कूणिकं विलोक्य जातवेपथुः कदुपचारेण परशुमहारेण मम प्राणानघ हरिष्यतीति शङ्कमानो यावदसौ तदन्तिकमुपैति तावद् मुद्रिकानिहिततालपुटविषमवलिह्य प्राणानत्यजत् । ततः कूणिको मृतकृत्यं विधाय निजदुराचारं चिन्तयन्नात्मनि परं ग्लायन् गृहमागतः, राज्यकुल्हाडी ली और जिस पोंजरेमें श्रेणिक थे उस तरफ जाने लगा, जब श्रेणिकने कूणिकको कुठार हाथमें लेकर आते हुए देखा तब भयसे धूजते हुए श्रेणिकको संका हुई कि यह कुठार लिये हुए यमके समान मेरे पास आ रहा है मुझे न जाने किस कुमौतसे मारेगा ?, ऐसा विचार कर जब तक वह समीप आता है उतने ही समयमें उन्होंने अपनी मुद्रिकामें लगा हुआ तालपुट विषको चूसकर अपने प्राणोंको छोड दिया।
बाद यह देखकर कूणिक बहुत दुःखित हुआ और पिताका दाह संस्कार आदि मृतककार्य करके अपने दुराचारोंकी मन ही मन निन्दा करता हुआ विषादयुक्त हो अपने घर आया। राज्यभारको वहन करते हुए उसे कुछ दिनाके बद पिताका
નાખવા હાથમાં કુહાડે લીધે અને જે પીંજરામાં શ્રેણિક હતા તે તરફ જવા માંડયું. જ્યારે શ્રેણિકે કુણિકને યમરાજ સમાન કુહાડી હાથમાં લઈને આવતા છે ત્યારે ભયથી ધ્રુજતા શ્રેણિકના મનમાં શંકા થઈ કે રખે આ કુહાડી લઈને ચમના જે મારી પાસે આવી રહ્યો છે અને મને ન જાણે કેવા કુમોતથી મારશે. એમ વિચારી જ્યાં સુધી તે પાસે આવી પહોંચે તેટલા જ વખતમાં તેમણે પિતાની વિટીમાં લગાડેલ તાલપુટ વિષને ચુસીને પિતાના પ્રાણ ત્યાગ કર્યો.'
બાદ આ જોઈ કૃણિ બહુ દુઃખિત થયે તથા પિતાના દેહને અનિસંસ્કાર આદિ મૃતક કર્મ કરીને પિતાના દુરાચારની મનમાં ને મનમાં નિંદા કરતે શકે છેદયુક્ત થતે પિતાને ઘેર આવ્યો. રાજ્યના ભારને વહન કરતાં થોડા
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निरयालिकामत्र. मारं वहन् कियता कालेन विशोको जातः । परञ्च यदा यदा पितुः शयनासनादीनि वस्तूनि विलोकयति तदा तदा तस्य परमखेदो जायते, तेन राजगृहानिर्गत्य चम्पायां राजधानी चकार । तत्र निजभ्रातृगणसहितः कूणिको राज्यं बुभोज ॥इति कूणिकविवरणम् ॥
कुणिकस्य युद्धे साहाय्यविधायकानां कालादिदशकुमाराणां रथमुशलनामकसङ्ग्रामे प्रचुरजनविनाशकरणेन नरकमायोग्यकर्मसम्पादनहेतोर्निरयगाशोक विस्मृत होने लगा किन्तु जब-जब पिताके शयन, आसन आदि वस्तुओंको देखता तब-तब कूणिक राजाके मनमें बड़ा दुःख उत्पन्न होता, इस कारण राजगृह नगरको छोडकर राजाने अपनी राजधानी चम्पानगरीमें की और वहाँ अपने भाइयों व कुटम्बियोंके सहित रहकर राज्य करने लगे।
इसप्रकार महाराज कूणिकका वर्णन यहां पर समाप्त होता है। रथमुशल संग्रामका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है:---
कूणिक राजाके युद्ध में सहायता करनेवाले कालकुमार आदि दस कुमारोंने रथमुशल संग्राममें बहुत जनोंके विनाश करनेके कारण नरकप्राप्तिरूप कर्मोंका
દિવસો પછી પિતાને શેક ભૂલાવા લાગે પણ જ્યારે-જ્યારે પિતાનું બિછાનું આસન વગેરે વસ્તુઓને જેતે ત્યારે–ત્યારે કૃણિક સજાના મનમાં બહુ દુઃખ થતું હતું, આ કારણથી રાજગૃહ નગરને છેડીને રાજાએ પોતાની રાજધાની ચંપાનગરીમાં કરી અને ત્યાં પિતાના ભાઈઓ તથા કુટુંબિઓ સાથે રહીને રાજ્ય ४२वा वायो.
આ પ્રમાણે મહારાજા કૃણિકનું વર્ણન અહીં સમાપ્ત થાય છે. રથમુશલ સંગ્રામનું સંક્ષિપ્ત વર્ણન આ પ્રકારે છે –
કૃણિક રાજાને યુદ્ધમાં સહાયતા કરવાવાળા કાલકુમાર આદિ દશ કુમારને યમુશલ સંગ્રામમાં ઘણું માણસને વિનાશ કરવાના કારણથી નરકમાસિરૂપ
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सुन्दरबोधिनी टोका रथमुशलङ्काम कारण मित्वेन कालादिदशकुमारविवरणग्रथितस्य प्रथमाध्ययनस्य 'निरयायुः? इति नाम ।
अथ रथमुशलाभिधानसङ्ग्रामाविर्भावे कारणमुच्यते, तथाहि-चम्पायां नगयों कूणिको राजा राज्यशासनं करोति । तदीयावनुजौ वेहल्य-वैहायसौ पितृदत्तसेचनकहस्तिनमारूढौ दिव्यकुण्डलवसनहारालङ्कृतौ विलसन्तौ कूणिक राजमहिषी पद्मावती निरीक्ष्य सेचनकगजमपहर्तुं कूणिकं गैरयत् । कूमिकेनं नैकधा विज्ञाप्यमानाऽपि हस्तिहरणनिषक्तमानसा ततो न निवृत्तां । • उपार्जन किया और नरकगामो बने; उन्हीं दस कुमारोंका वर्णन इस प्रथम अध्ययनमें - है, इस कारण इसका ‘निरयायु' नाम है।
अब रथमुशल संग्रामकी उत्पत्तिका कारण कहते हैं
चम्पानगरीमें कोणिक राजा राज्य करते थे। उनके वैहल्य और वैहायस, ये दो छोटे भाई थे। वे पिताके दिये हुए सेचनक हाथीपर चढकर दिव्य कुण्डल वस्त्र और हारको पहनकर विलास करते थे। उन्हें देखकर पद्मावती रानोने सेचनक हाथीको अपने अधीन करनेके लिये कूणिकको. प्रेरित किया। भ्रातृप्रेमके कारण कृणिकके बहुत समझाने पर भी रानीका मन हाथीसे नहीं हटाः।
કર્મોનું ઉપાર્જન કર્યું તથા નરકગામી બન્યા તેજ દશ કુમારનું વર્ણન આ પ્રથમ અધ્યયનમાં છે. આ કારણથી આનું “નિરયાયુ” નામ છે.
હવે રથમુશલ સંગ્રામની ઉત્પત્તિનું કારણ કહે છે
ચંપાનગરીમાં કૃણિક રાજા રાજ કરતા હતા. તેમને હલ્ય તથા વિહાયસ એ બે નાનાભાઈ હતા. તેઓ પિતાએ આપેલા સેચનક હાથી ઉપર બેસીને દિવ્ય - કંડલ, વસ્ત્રો તથા હાર પહેરીને વિલાસ કરતા હતા. તેમને જોઈને પદ્માવતી રાણીએ સેચનક હાથીને પિતાના કબજામાં લેવા માટે કૃણિકને પ્રેરણા કરી. શ્રતુ પ્રેમને લીધે કૃણિકે બહુ સમજાવી છતાં પણ રાણીનું મન હાથીથી હઠયું નહિ.
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निरयालिफासत्र वतः पद्मावतीपेरितः कूणिको हस्तिनं तौ याचते । हस्तियाचने कृते वैहल्यवैहायसौ सपरिवारौ सान्तःपुरौ कूणिकभयाद् विशाल्यां नगया चेटकनामधेयं स्वमातामहं राजानं प्रपन्नौ ।
कूणिकेन दूतप्रेषणेन स्वकीयानुनौ चेटको याचितः, परश्च चेटकेन सौ न प्रेषितौ, किन्तु दूतद्वारा कूणिकनिकटे संवादः पहितः-राज्यभागमाभ्यां यदि दास्यसि तदाऽम् हारहस्तिनौ च प्रेषयिष्यामीति । ततः कूणिकः कोपारुणनयनयुगलो वाती प्रेषयामास-यदि तौ वैहल्य-वैहायसौ न प्रेषयसि तदा युद्धाय संनद्धो भव । चेटकेनोक्तम्-अहमपि संनद्धोऽस्मि । अन्तमें पद्मावतीकी बात मानकर कुणिक दोनों भाइयोंसे हाथीकी याचना की। हाथीकी याचना करनेपर दोनों भाई भयभीत हो अपने परिवार सहित विशाला नगरीमें अपने नाना चेटक महाराजके पास चले गये। - कूणिकने दूतद्वारा राजा चेटकसे हार और हाथी सहित भाइयोंको मांगा। तब चेटकने दूतद्वारा कूणिकको यह समाचार भेजा-यदि तुम राज्यका भाग इन दोनोंको देते हो तो इनको तथा हार एवं हाथीको भेज सकते हैं। यह सुनकर महाराज कूणिककी आँखें लाल हो गयीं और उन्होने सन्देश भेजा-यदि हार हाथीके साथ वैहल्य और वैहायसको नहीं भेजते हो तो युद्ध के लिए तैयार हो जाओ। चेटकने कहा-हम भी तैयार हैं।
આખરે પદ્માવતીની વાત માનીને કેણિકે બન્ને ભાઈઓ પાસેથી હથો માગે. હાથી માગવાથી બન્ને ભાઈને બીક લાગી અને પિતાના પરિવાર સાથે વિશાલાનગરીમાં પિતાના નાના ચેટક મહારાજની પાસે ચાલ્યા ગયા.
કૃણિકે દૂત દ્વારા રાજા ચેટક પાસે હાર તથા હાથી સહિત ભાઈઓ માંગ્યા ત્યારે ચેટકે દૂત દ્વારા કૃણિકને આ સમાચાર મોકલ્યા “જો તમે રાજ્યને ભાગ આ બન્નેને દેતા હે તે તેઓને તથા હાર તેમજ હાથીને મોકલી શકું.” આ સાંભળી મહારાજ કુણિકની આંખ લાલ થઈ ગઈ તથા તેમણે સંદેશ મોકલ્યજે હાર હાથીની સાથે હિલ્ય અને હાયસને નથી મોકલતા તે યુદ્ધને માટે તથાર થઈ જાઓ. ચેટકે કહ્યું–અમે પણ તૈયાર છીએ.
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सुन्दरबोधिनी टीका त्यमुशलसङ्ग्राम
... ततो युद्धनिश्चयानन्तरं कूषिकेन सह कालप्रभृतयो दश वैमात्रेया अनुजा राजानश्चेटकनृपेण सामायसमुपगताः। तत्रैकैकस्य त्रीणि त्रीणि गजानामश्वानां स्थानां च सहस्राणि, मनुष्याणां च तिस्र : कोटय आसन् ; कूणिकस्यापि तावदेव बलम् ।।
चेटकभूपोऽपि एतादृशं सङ्ग्रामप्रसङ्गा विज्ञायाष्टादशगणराजैः सह सम्मेलनं कृतवान् । कालादीनां प्रत्येकं यावद् गजादिबलपरिमाणं तावदेव चेटकस्यापि । ततो युद्धं प्रवृत्तम् । चेटकराजस्तु युद्धकाले व्रतपरायण
इस प्रकार युद्धका निश्चय होजानेके बाद कोणिकके साथ कालकुमार आदि दसों सौतेले छोटे भाई चेटक राजासे लडनेके लिए आये। उन दसोंमें प्रत्येक साथ तीन–तीन हजार हाथी घोडे और रथ थे तथा तीन-तीन करोड सैनिक थे। कूणिक के साथ भी इतनी ही सेना थी।
चेटक (चेडा) महाराज भी इस प्रकार संग्रामका प्रसङ्ग समझकर अठारह देशके गणराजाओंका संघटन किया। कालादि कुमारोंके प्रत्येकके पास जितनी सेनायें थीं, उतनी ही चेटक आदि प्रत्येक राजाके पास थी। अनन्तर दोनों का युद्ध हुआ। चेटक ( चेडा ) महाराज तो युद्धकालमें व्रतधारी थे, इस लिए युद्धमें एक
છે. આ પ્રમાણે યુદ્ધને નિશ્ચય થયા પછી ણિકની સાથે કાલકુમાર આદિ દશયે ઓરમાન નાનાભાઈ ચેટક રાજા સાથે લડવા માટે આવ્યા. એ દશેયમાં દરેકની સાથે ત્રણ ત્રણ હજાર હાથી ઘોડા તથા રથ હતા અને ત્રણ ત્રણ કરોડ સૈનિક હતા. કૃણિક રાજાની પાસે પણ એવીજ સેના હતી.
ચેટક (ચેડા) મહારાજે પણ આ પ્રકારને લડાઈને પ્રસંગ સમજીને અઢાર દેશના ગણરાજાઓનું સંગઠન કર્યું. કાલ આદિ કુમારની દરેકની પાસે જેટલી સેનાઓ હતી તેટલીજ ચેટ આદિ પ્રત્યેક રાજાની પાસે હતી. ત્યાર પછી બન્નેનું યુદ્ધ થયું. ચેટક (ચેડા) મહારાજ તે યુદ્ધકાલમાં વ્રતધારી હતા. એથી યુદ્ધમાં
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... निरयावलिकास्त्र आसीत्, अतो रणे एकस्मिन् दिने एकमेवामोघं बाणं मुश्चति । तत्र युद्धक्षेत्रे कुणिकसैन्यदले गरुडव्यूहः, चेटकसैन्ये च सागरव्यूहो निर्मित आसीत् । ततश्च प्रथमेऽह्नि कूणिकराजस्य कालकुमारोऽनुजो निजसैन्ययुतः सेनापतिः स्वयं युध्यमानश्चेटकेन निक्षिप्तेनामोधेनैकेन शरेण निहतः । कूणिकसैन्यं च भग्नम् । ततो द्वयोरपि राज्ञोर्बलं निजं निजं स्थान प्राप्तम् ।।
द्वितीयेऽह्नि सुकालो निजसैन्यसमन्वितो रणमुपगतो युध्यमानश्चेटकेनैकेन शरेण निपातितः । एवं तृतीयेऽनि महाकालः, चतुर्थे दिने कृष्णकुमारः, पञ्चमे दिवसे सुकृष्णकुमारः, षष्ठे महाकृष्णः, सप्तमे वीरकृष्णः, दिनमें एकही अमोघ बाण छोडते थे। वहाँ कूणिकके सैन्यमें गरुडव्यूह था और चेटक ( चेडा ) के सैन्यमें सागरव्यूह । उसके बाद पहिले दिनमें कूणिक राजाके छोटे भाई कालकुमार अपनी सेना सहित सेनापति बनकर स्वयं चेटक-( चेडा) महाराजके साथ लडता हुआ उनके अमोध बाणसे मारा गया। और कणिककी सेना नष्ट होगयी। ..
दूसरे दिन सेनासहित सुकालकुमार युद्ध में चेटकके बाणसे मारे गये । इसी तरह तीसरे दिन महाकाल कुमार, चौथे दिन कृष्ण कुमार, पाँचवें दिन सुकृष्णकुमार, छठे दिन महाकृष्ण कुमार, सातवें दिन वीरकृष्ण कुमार,
એક દિવસમાં એકજ અમેઘ બાણ છેડતા હતા. આ તરફ કુણિકના સૈન્યમાં ગરૂડન્યૂડ હતો તથા ચેટક (ચેડા)ના સૈન્યમાં સાગર-બૃહ હતો. ત્યાર પછી પહેલે દિવસ કૂણિક રાજાને નાભાઈ કાલકુમાર પિતાની સેના સહિત સેનાપતિ બનીને પિતે ચેટક (ચેડા) મહારાજની સાથે લડતાં લડતાં તેના અમેઘ બાણથી માર્યો ગયે, અને કૂણિકની સેનાને નાશ થઈ ગયે. - બીજે દિવસે સેના સાથે સંકલકુમાર યુદ્ધમાં ચેટકના બાણથી માર્યો થયા. આવી રીતે ત્રીજે દિવસે મહાકાલ કુમાર, ચોથે દિવસે કૃષ્ણકુમાર, પાંચમે દિવસે સુકૃણ કુમાર, છઠું દિવસે મહાકૃષ્ણ કુમાર, સાતમે દિવસે વિરકૃષ્ણ કુમાર,
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मुन्दरपोधिनी टीका सट्टामवर्णन अष्टमे रामकृष्णः, नक्मे पितृसेमकृष्णः, दशमे दिने पितृमहासेनकृष्णश्च घेटकेनैकैकेन बाणेन प्रत्यहमेकैकशः कालादयो दश कुमारा निहताः । दशसु निहतेषु कूणिकश्चेटकं जेतुं देवाराधनायाऽष्टमभक्तं कृतवान् । ततः शक्रचमरौ द्वौ देवेन्द्रौ प्रसन्नी समागतौ । तत्र शक्र उवाच-चेटको व्रतधारी श्रावकोऽस्तीत्यतस्तं न हनिष्यामि, परं त्वां रक्षितुं शक्नोमि, कूणिकेनोक्तंसंथाऽस्तु, ततः शक्रस्तद्रक्षणाय वज्रकल्पमभेद्यकवचं विकुक्तिवान् ।
आठवें दिन रामकृष्ण कुमार, नवमें दिन पितृसेनकृष्ण कुमार और दसवें दिन पितृमहासेनकृष्ण कुमार चेटकके एक-एक बाणसे मारे गये। दसों कुमारोंके मारे जाने पर 'चेटकको जीर्ते' इस भावसे कूणिक राजाने देवताको आराधन करनेके लिए अष्टमभक्त किया। उसके बाद शक्रेन्द्र और चमरेन्द्र प्रसन्न हुए और कूणिकके पास आये।
उनमेंसे शक्रेन्द्र बोले-हे कूणिक ! चेटक ( चेडा ) राजा व्रतधारी श्रावक है इस लिए हम उसे नहीं मार सकते, पर तेरी रक्षा कर सकते हैं। शकेन्द्रके मुखसे निकले इन वचनोंको श्रवणकर कूणिकने 'तथास्तु' कहा । कूणिकके 'तथास्तु' कहने याने स्वीकार करलेनेके बाद शक्रेन्द्रने कूणिककी रक्षाके लिए वज्रसदृश अभेद्य कवच वैक्रियक्रियासे बनाया ।
આઠમે દિવસે રામકૃષ્ણકુમાર, નવમે દિવસે પિતૃસેનકૃષ્ણકુમાર, તથા દશમે દિવસે પિતૃમહાસેનકૃષ્ણકુમાર, ચેટના એક-એક બાણથી માર્યા ગયા. દશેય કુમારના માર્યા ગયાથી “ચેટકને છતું એવા ભાવથી કુણિક રાજાએ દેવતાનું આરાધન કરવા માટે અઠમ (૩ ઉપવાસ) કર્યો. તેથી શકેંદ્ર તથા ચમરેંદ્ર પ્રસન્ન થયા તથા ણિકની પાસે આવ્યા. તેમાંથી શ બેલ્યા- કૃષિક! ચેટક (ચેડા) રાજા વ્રતધારી શ્રાવક છે તેથી અમે તેને નહિ મારી શકીએ, પણ તારી રક્ષા કરી શકીએ. શદ્રના મુખથી નિકળેલાં આ વચને સાંભળીને કેણિકે “તથાસ્તુ' કહ્યું. કેણિકના “તેથાસ્તુ કહેવાથી એટલે સ્વીકાર કરી લીધા પછી શકે કેણિકની રાને માટે વજના જેવું અલ કવચ સામ કિયાથી બનાવ્યું.
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निरवावलिकास चमरश्च-' महाशिलाकण्टकं ' 'रथमुशलं ' चेति द्वौ सङ्ग्रामौ विकुर्वितवान् , तत्र महाशिलेव प्राणापहारकत्वात् कण्टको 'महाशिलाकण्टक' इत्युच्यते । अथवा-तृणाग्रेणापि हतस्य गजाश्चादेर्महाशिलाकण्टकेन हतस्येव वेदना यत्र भवति स समो ‘महाशिलाकण्टक' इत्युच्यते ।
'रथमुशलं चेति मुशलेन सहितो रथस्तस्माद निस्सरन्मुक्षलो धावमानो जनसमुदाय यत्र विनाशयति स सङ्ग्रामो 'रथमुशल' इति निगद्यते ॥ १२॥
. चमरेन्द्रने महाशिलाकंटक और रथमुशल नामक संग्राम विकुर्वित किया ।
'महाशिलाकण्टक 'जो महाशिलाके समान प्राणोंका कंटक अर्थात् घातक है वह महाशिलाकंटक कहलाता है, अथवा तिनकेकी नोंकसे मारनेपर भी हाथी घोडे आदिको महाशिलाकंटकसे मारने जैसी तीव्र वेदना होती है उस संग्रामको 'महाशिलाकंटक' कहते हैं।
'रयमुशल '-मुशलयुक्त रथको ‘ रथमुशल' कहते हैं, अर्थात्-रथसे निकलकर मुशल बहुत वेगसे दौडकर शत्रुपक्षका विनाश-( संहार ) करता है उस संग्रामको 'रथमुशल' कहते हैं। ॥ १२ ॥ • ચમકે મહાશિલાકંટક તથા રીમુશલ નામે સંગ્રામ વિકર્ષિત કર્યો.
- “મહાશિલાકંટક–જે મહાશિલાના જેવો પ્રાણેને કંટક અથોત ઘાતક છે. તે મહાશિલાકંટક કહેવાય છે, અથવા તણખલાની અણીથી મારવાથી પણ હાથી ઘેડા આદિને મહાશિલાકંટકથી મારવા જેવી તીવ્ર વેદના થાય છે, એ સંગ્રામને
भडाशिक्षues' ४ . . . . . . . . . . . , स्थभुशल-भुशखयुत २थने २५भुश' ४३ छ. मी २यमाथी નીકળી મુશ૦ બહુ વેગથી દેડીને શત્રુપક્ષને વિનાશ (સંહાર) કરે છે. એ
आभने “ २५भुशल" ४९ छ. (१२)
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.सुन्दरबोधिनी टोका कालीरानी के विचार
___ तत्र कूणिकेन सह कालः स्वबलसमन्वितः रथमुशलसङ्ग्राममुपयातः, इत्याशयकं सूत्रमाह-'तएणं से काले' इत्यादि ।
तएणं से काले कुमारे अन्नया कयाइ तिहिं दंतिसहस्सेहिं, तिहिं रहसहस्सेहिं, तिहिं आससहस्सेहि, तिहिं मणुयकोडीहिं गरुडवूहे एक्कारसमेणं खंडेणं कूणिएणं रन्ना सद्धिं रहमुसलं संगामं ओयाए ॥१३॥
छायाततः खलु स कालः कुमारः अन्यदा कदाचित् त्रिभिर्दन्तिसहस्रः त्रिभी रथसहस्रैः, त्रिभिरश्वसहस्रैः त्रिभिर्मनुजकोटिभिः गरुडव्यूहे एकादशेन खण्डेन कूणिकेन राज्ञा सार्द्ध रथमुशलं सगमम् उपयातः ॥ १३॥
. टीका-. 'तएणं से' इत्यादि-ततः सनामनिर्णयानन्तरं सः असौ प्रथमः कालः कालकुमारः अन्यदा=अन्यस्मिन् कदाचित् कस्मिंश्चित् समये त्रिभिः= त्रिसंख्यकैः, दन्तिनां-हस्तिनां सहस्राणि-दन्तिसहस्राणि तैस्तथा, त्रिभी रथसहः, त्रिभिरश्वसहस्रैः, त्रिभिर्मनुजकोटिभिः सह गरुडव्यूहे एकादशेन ... वहां कूणिकके साथ कालकुमार अपनी सेना लेकर रथमुशल संग्राममें उपस्थित हुए, इस आशयका सूत्र कहते हैं-' तएणं से काले' इत्यादि.
संग्रामके निश्चित होजानेके पश्चात् वह कालकुमार नियत समयपर तीन २ हजार हाथी-घोडे-रथ आदि, एवं तीन करोड पैदल सेनाको लेकर गरुडव्यूहमें,
* ત્યાં કુણિકની સાથે કાલકુમાર પિતાની સેના લઈને રથયુશલ સંગ્રામમાં उपस्थित थयां. २ Haend सूत्र ४ छे-'तपणं से काले' त्या ।
સંગ્રામને નિશ્ચય થઈ ગયા પછી તે કાલકમાર નિશ્ચિત વખતે ત્રણ ત્રણ હજાર હાથી ઘોડા રથ આદિ અને ત્રણ કરોડ પાયદળ સેનાને લઈને ગરૂડ બૃહમાં
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निरयावालिकामा खण्डेन अंशेन सहितेन एकादशभागिना कूणिकेन राज्ञा सार्दै स्थमुशलंतदाख्यं सामम् उपयातः-उपगतः पाप्त इत्यर्थः ॥ १३ ॥
तएणं तीसे कालीए देवीए अन्नया कयाइ कुटुंबजागरियं जागरमाणीए अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पजित्था-एवं खलु मम पुत्ते कालकुमारे तिहिं दंतिसहस्सेहिं जाव ओयाए, से मन्ने किं जइस्सइ ? नो जइस्सइ ? जीविस्सइ नो जीविस्सइ ? पराजिणिस्सइ ? णो पराजिणिस्सइ ? काले णं कुमारे णं अहं जीवमागं पासिज्जा ? ओहयमण० जाव झियाइ ॥१४॥
छायाततः खलु तस्याः काल्या देव्या अन्यदा कदाचित् कुटुम्बजागरिकां जाग्रत्सा अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः यावत् समुदपद्यत-एवं खलु मम पुत्रः कालकुमारः त्रिभिर्दन्तिसहस्रैः यावत् उपयातः तन्मन्ये किं जेष्यति ? न जेष्यति ? जीविष्यति ? न जीविष्यति ? पराजेष्यते ? न पराजेष्यते ? कालं खलु कुमारम् अहं जीवन्तं द्रक्ष्यामि ? अपहतमनःसंकल्पा यावत् ध्यायति ॥१४॥
टीका____ 'तएणं तीसे' इत्यादि । ततः युद्धपवर्तनानन्तरम् अन्यदा कदा चित् एकस्मिन् दिने कुटुम्बजागरिकां-कुटुम्बः स्वजनवर्गः पोष्यवर्गादिस्तदर्थ ग्यारहवें अंशके भागी : सजा कूणिकके साथ ' रथशल' संग्राम में उपस्थित हुआ ॥ १३ ॥
___'तएणं तीसे' इत्यादि. . संग्राम आरम्भ होनेपर इधर एक समय कुटुम्बजागरणा करती हुई काली .... અગીયારમા ભાગના ભાગીદાર રાજા કૃણિકી સાથે “રથમુલ” સંગ્રામમાં उपस्थित प्या. (13) “आप तोसे त्याल.
મને આરંભ થતાં એક વખત કબ-જાગરણ કરતી કાળી
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सुन्दरबोधिनो टोका कालोरानोके विचार जागरिकां-जागरणमिन्द्रियैर्विषयज्ञानयोग्यावस्थां जाग्रत्याः यामुवत्याः, तस्याः काल्या देव्याः अयम् एषः एतद्रूप वक्ष्यमाणलक्षणः आध्यात्मिकः= आत्मविषयो विचारः वृक्षस्याङ्कुर इव, यावत्करणात्-" चिंतिए, कप्पिए, पत्थिए, मणोगए संकप्पे" इति संगृह्यन्ते, तदनु चिन्तितः पुनः पुनः स्मरणरूपो विचारः द्विपत्रित इव, ततः कल्पितः=प एव व्यवस्थायुक्तः पुत्रविषयको विचारः पल्लवित इव, प्रार्थितः स एव इष्टरूपेण स्वीकृतः पुष्पित इच, मनोगतः संकल्पः मनसि इष्टरूपेण निश्चयः फलित इव समुदपद्यत-जातः ।
महारानीके हृदयमें वृक्षके अङ्कुरसमान 'आध्यात्मिक' अर्थात् आत्मविषयक विचार उत्पन्न हुआ। वह-चिंतित' अर्थात् बारबार स्मरणसे 'द्विपत्रित' के समाल, 'कल्पित ' वही पुत्रविषयक विचार व्यवस्थायुक्त होनेसे 'पल्लवित ' के समान, 'प्रार्थित ' मनमें विचार स्वीकृत होजानेके कारण 'पुष्पित 'के समान, 'मनोगत संकल्प' वही इष्ट रूपसे मनमें निश्चित होजानेके कारण ‘फलित' के समान अवस्थाको प्राप्त हुआ ।
भावार्थसंग्रामके प्रारम्भ होजाने पर महारानी कालीके हृदयमें पुत्र स्नेहके कारण एक
મહારાણીના હૃદયમાં વૃક્ષના અંકુરની પેઠે આધ્યાત્મિક” અર્થાત્ આત્મવિષયક વિચાર ઉત્પન્ન થયો. તે “ચિંતિત =અર્થાત વારંવાર અરણેથી હિષત્રિત સમાન, “કલ્પિત =તે પુત્ર વિષે વિચાર વ્યવસ્થાયુક્ત થવાથી પલવિત સમાન, પ્રાર્થિત =મનમાં વિચારને સવીકાર થઈ જવાથી પુષિતના સાન્ટ મને ગત સંક૯૫ =તે ઈષ્ટ રૂપથી મનમાં નિશ્ચય થઈ જવાથી ફલિતના સમાન અવસ્થાને પ્રાપ્ત થયે.
.... u- સંગ્રામ શરૂ થઈ જતાં મહારાણી કાલીના હાથમાં પુત્રને હતા અને
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निरयावfontसूत्र
संकल्पखरूपमाह- एवं खल्वि ' - त्यादिना । मम पुत्रः = आत्मजः कालकुमारः त्रिभिर्दन्तिसहस्रैः = त्रिसहस्रसंख्यकगजैः, यावत्करणात् - रथानामश्वानाञ्च त्रिभिः सहस्त्रैर्मनुष्याणां च तिसृभिः कोटिभिः सह उपयातः = सीमाय गतः, तन्मन्ये- तत् संदिहे किं जेष्यति ? सङ्ग्रामे शत्रूनभिभूय प्रतापं
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समय वृक्षके अंकुरके सदृश आत्मिक भाव अंकुरित हुए, पश्चात् वेही विचार बारबारके चिन्तन–स्मरणसे द्विपत्रित अर्थात् जैसे बीजसे अंकुर और अंकुरके कुछ वढने पर दो कोमल किशलय - दो नये पत्ते निकलते हैं, उसी प्रकार विचारोंका स्वरूप बढा, बाद ही वात्सल्यमय विचार 'कल्पित' याने पल्लवित - अधिक पत्रोंके रूपमें अग्रसर हुए, पश्चात् मनमें बढते - पनपते हुए उन विचारोंके ' प्रार्थित ' होजानेपर या अपने विश्वास से स्वीकृत होजाने पर पुष्पित' फूले हुए के समान होगये और अन्तमें जब उनपर दृढ संकल्प होगया तब वे फलितसमान अवस्थाको प्राप्त हुए याने वृक्षके फलके समान फलरूप बन गये ।
"
अब महारानी कालीके - विचारका स्वरूप कहते हैं-' एवं खलु ' इत्यादि । मेरा पुत्र कालकुमार तीन २ हजार हाथी घोडे रथ और तीन कोटि सेनाके साथ संग्राम में गया है । मेरे मनमें इस बातका संशय आ रहा है कि वह
“
એક સમય વૃક્ષના ફગા જેવા આત્મિક ભાવ અંકુરિત થયા. પછી તેજ વિચાર વારંવારના ચિંતન સ્મરણથી દ્વિપત્ર અર્થાત્ જેમ ખીજમાંથી અંકુર અને અંકુર જરા વધવાથી એ કામલ ક્રિસલય-એ નવાં પાંદડાં નિકળે છે તેવીજ રીતે વિચારાનું સ્વરૂપ વધવા ખાદ તેજ વાત્સલ્યમય વિચાર ‘ કલ્પિત · અર્થાત્ પલ્લવિત વધારે પાંદડાંના રૂપમાં આગળ આવે—પછી મનમાં વધતા–વિસ્તાર પામતા તે વિચાર ‘પ્રાર્થિત ’ થઇ જતાં યાને પેાતાનાજ વિશ્વાસથી સ્વીકારાઈ જવાથી પુષ્પિત કૂલની પેઠે થઈ ગયા તથા અંતમાં જ્યારે તેના ઉપર દૃઢ સંકલ્પ થઈ ગયા ત્યારે તે ‘ કુલિત’ જેવી અવસ્થાને પ્રાપ્ત થાય છે વૃક્ષનાં ફળની જેમ લરૂપ થઇ ગયા.
અર્થાત
હવે મહારાણી કાલીના વિચાર (સંકલ્પ)નું સ્વરૂપ કહે
अत्याहि.
एवं खलु
મારા પુત્ર કાલ કુમાર ત્રણ ત્રણ હજાર હાથી ઘોડા રથ તથા ત્રણ કરોડ સેનાની સાથે સગ્રામમાં ગયા છે. મારા મનમાં આ વાતને સશય આવે છે કે
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सुन्दरबोधिनी टोका कालोरानीके विचार पाप्स्यति ?, अथवा-न जेष्यति ?, जीविष्यति ? पाणधारणं करिष्यति ?" अथवा-न जीविष्यति ? पराजेष्यते ?=शत्रुतः परास्तो भविष्यति ? वा न पराजेष्यते ? अहं कालं कुमारं-स्वपुत्रं खलु-निश्चयेन जीवन्तं-माणयुक्तं द्रक्ष्यामि-पेक्षिष्ये, इत्येवम् , ' अपहतमनःसंकल्पा'-अपहतो मलिनीभूतो मनःसंकल्पो-योग्याऽयोग्यविचारो यस्याः सा तथा, यावत्करणात्-'करयलपल्हत्थियमुही, अट्टज्माणोवगया, ओमंथियणयणवयणकमला, दीणविवन्नवयणा, मणोमाणसिएणं दुक्खेणं अभिभूया' एतेषां सङ्गहः । करतलपर्यस्तितमुखी, आर्तध्यानोपगता, अवमथितनयनवदनकमला, दीनविवर्णबदना, मनोमानसिकेन दुःखेन अभिभूता, इतिच्छाया; 'करतले 'तिकरतले हस्ततले पर्यस्तितं स्थापितं मुखं यया सा तथा, 'आर्ते 'ति-ऋत= दुःखं पुत्रविरहजन्यं तत्र भवमात, तच्च ध्यान, तत्रोपगता-पुत्रविरहजन्यदुःखा
युद्धमें शत्रुओं पर विजय पावेगा अथवा नहीं ? । वह जीवित रहेगा या नहीं ? । शत्रु उससे पराजित होंगे या नहीं ? । मैं अपने लाल कालकुमारको जीवितावस्थामें देखेंगी या नहीं है। इस प्रकारके अनेक संशयात्मक विचार करने लगी। ऐसे कर्तव्याकर्तव्यके विचार और उनका निर्णय जब शिथिल अवस्थाको धारण करने लगे तब सहसा रानीका मन मलिन होगया और हथेलीपर अपना मुँह रखकर पुत्र विरहके दुःखसे क्षुब्ध रानी आर्तध्यान करने लगी। अत्यन्त दुःखके कारण कुम्हलाये
તે યુદ્ધમાં શત્રુઓ ઉપર વિજય મેળવશે કે નંહિ? તે જીવિત રહેશે કે નહિ? તેનાથી શત્રુ પરાજીત પામશે કે નહિ ? હું મારા લાલ કાલકુમારને જીવિત અવસ્થામાં જોઈશ કે નહિ ? આ પ્રકારના અનેક સંશયાત્મક વિચાર કરવા લાગી. એવા કર્તવ્ય અર્તવ્યના વિચારે તથા તેના નિર્ણય જ્યારે શિથિલ અવસ્થાને ધારણ કરવા લાગ્યા ત્યારે એકદમ રાણીનું મન મલિન થઈ ગયું તથા. હથેળી ઉપર પિતાનું મેં રાખીને પુત્ર વિરહના દુઃખથી પીડાતી રાણી આર્તધ્યાન કરવા લાગી અત્યંત દુઃખને
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निरयावलिकासूत्र वितध्यानयुक्तेत्यर्थः, 'अवमथिते 'ति-अवमथितानि=अधःकृतानि नयनवदनरूपाणि कमलानि यया सा तथा, प्रबलदुःखेन निम्नम्लाननेत्रमुखकमलेत्यर्थः, 'दीने 'ति-दीनस्य अकिंचनस्येव विवर्ण-कान्तिरहितं मुखं यस्याः सा तथा शोकम्लानवदनेत्यर्थः, 'मनोमानसिकेने 'ति-मनसि भवं मानसिकं दुःखं मनस्येव, न वहिः, वचनादिभिरप्रकाशितत्वात्-यत् तन्मनोमानसिकं, तेन दुःखेन अभिभूता व्याप्ता, शोकसागरप्रविष्टा ध्यायति-आर्तध्यानं करोति, इति ॥१४॥
मूलम्
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसरिए । परिसा निग्गया । तए णं तीसे कालीए देवीए, इमोसे कहाए लट्टाए समाणीए अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था ॥ १५ ॥
छाया-
. .
तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगवान् महावीरः समवसृतः । परिषत् निर्गता । ततः खलु तस्याः काल्याः देव्याः एतस्याः कथायाः लब्धार्थायाः सत्याः अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः यावत् समुदपयत ॥१५॥
हुए कमलके समान नेत्र और मुखको नीचा किये हुए बैठ गई, उसका मुख दीनजनके समान शोकाच्छादित-उदासीन हो गया। वह मानसिक दुःखोंसे घिरी हुई शोकसागरमें डूबी हुई आर्तध्यानपरायणा थी। ॥ १४ ॥
લીધે કરમાઈ ગયેલાં કમળના જેવાં નેત્ર તથા મુખને નીચું કરીને બેસી ગઈ. તેનું મુખ ગરીબ માણસના જેવું કાતિ (દીલગીરીથી છવાઈ ગયેલું) ઉદાસીન થઈ ગયું તે માનસિક દુઃખોથી ઘેરાયેલી શેકના સાગરમાં ડબી જાથી આ धान dl. (१४)
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-सुन्दरबोधिनी दीका कालो रानी के विचार
टीका'तेणं कालेणं' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगवान् महावीरः समवसृतः सदेवमनुष्यपरिषदि भव्यानुपदेष्टुं समुपस्थितः, परिषत्-जनसमुदायः निर्गता=गृहानिस्सृता । ततः परिषनिर्गमनानन्तरं खलु-निश्चयेन तस्याः पूर्वोक्तायाः प्रसिद्धाया वा, काल्या देव्याः एतस्याः= समीपतरवर्तिन्याः कथायाः लब्धार्थायाः-लब्धोऽर्थों यया सा तस्याः माप्तार्थाया इत्यर्थः, अयम् एतद्रूप वक्ष्यमाणस्वरूपः 'आध्यात्मिकः' आत्मनि विचारः यावत्पदगृहीतानां 'चिंतिए, कप्पिए, पत्थिए, मणोगए संकप्पे' एतेषां च व्याख्याऽव्यवहितपूर्वसूत्रोक्तरीत्या विज्ञेया, समुदपधत ॥१५॥ तदेव दर्शयति-' एवं खलु' इत्यादि ।
मूलम्एवं खलु समणे भगवं महावीरे पुन्वाणुपुचि० इहमागए जाव विहरइ, से महाफलं खलु तहारूवाणं जाव विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए, तं -- । तेणं कालेणं' इत्यादि ।
उस काल उस समय श्रमण भगवान महावीर स्वामी उस नगरीमें पधारे । देवता और मनुष्योकी सभामें भव्योंको धर्म-देशना देने लगे। धर्मकथा श्रवण करनेके लिए परिषद निकली। भगवान यहाँ पधारे हैं। ऐसा वृत्तान्त सुनकर काली रानीके मनमें वक्ष्यमाण-आगे कहे जानेवाले विचार उत्पन्न हुए। ॥ १५ ॥
'तेणं कालेणं' या.
તે કાળે તે સમયે શ્રમણ ભગવાન મહાવીર સ્વામી તે નગરીમાં પધાર્યા. દેવતા તથા મનુષ્યોની સભામાં ભવ્યને ધર્મદેશના દેવા લાગ્યા. ધર્મકથા સાંભળવા માટે પરિષદ નીકળી. ભગવાન અહીં પધાર્યા છે એવો વૃતાન્ત સાંભળી કાલી રાણીના મનમાં વક્ષ્યમાણ-આ પ્રમાણે વિચાર ઉત્પન્ન થયા. (૧૫)
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निरयावलिकासन गच्छामि गं समणं जाव पज्जुवासामि, इमं च णं एयाख्वं वागरणं पुच्छिस्सामिति कछु एवं संपेहेइ, संपेहित्ता कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ सदाक्त्तिा एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! धम्मियं जाणप्पवरं जुत्तमेव उवट्ठवेह, उवढवित्ता जाव पञ्चप्पिणंति ॥१६॥
. छाया... एवं खलु श्रमणो भगवान् महावीरः पूर्वानुपूर्व्या० इहागतः यावद् विहरति, तन्महाफलं खलु तथारूपाणां यावत् विपुलस्यार्थस्य ग्रहणतया तद्गच्छामि खलु श्रमणं यावत् पर्युपासे, इदं च खलु एतद्रूपं व्याकरणं प्रक्ष्यामि, इति कृत्वा एवं संप्रेक्षते, संपेक्ष्य कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत्-क्षिप्रमेव भो देवानुपियाः ! धार्मिकं यानप्रवरं युक्तमेव उपस्थापयत, उपस्थाप्य यावत् प्रत्यर्पयन्ति ॥ १६॥
टीका... एवं खलु यत्-श्रमणो भगवान् महावीरः पूर्वानुपूर्वी यथाक्रम, यद्वा-पूर्वेषां तीर्थंकराणां या आनुपूर्वी परिपाटी मर्यादेत्यर्थः, तां चरन्= आचरन् परिपालयन्नित्यर्थः, “गामाणुगामं दूइज्जमाणे "प्रामानुग्रामं द्रवन्
वे विचार ये हैं-' एवं खलु' इत्यादि१. श्रमण भगवान महावीर प्रभु यहाँ पधारे हैं और संयमी लोगोंके कल्पके अनुसार निवासके लिए उद्यानपालकी आज्ञा लेकर संयम और तपसे अपनी आत्माको भावित करते हुए विराजते हैं, तथारूप अरिहन्त अर्थात् सर्वज्ञताके कारण जिनसे
ते पियार ॥ छ:-' एवं खलु' त्याह
શ્રમણ ભગવાન મહાવીર પ્રભુ અહીં પધાર્યા છે તથા સંયમી લોકોના કલ્પને અનુસરી નિવાસને માટે ઉદ્યાનપાલની (વાડીના પાલક કે માળીની) આજ્ઞા લઈને સંયમ તથા તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા બિરાજે છે. તથા રૂપ અરિહંત અર્થાત સર્વજ્ઞતાના કારણે જેનાથી કોઈ વાત અજાણી નથી અને
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सुन्दरबोधिनी टीका कालो रानोके विचार
'ग्रामानुग्रामम् ' - एकस्माद् ग्रामाद् अनु = पश्चाद् यो ग्रामस्तम्, अर्थादनुक्रमेण ग्रामाद्भामान्तरं द्रवन्–विहरन्, इह - अस्यां चम्पानगर्यां विद्यमानं पूर्णभद्रद्यानम् आगतः समन्ताद् विहृत्योपस्थितः यावत्करणात् ' अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे ' एतेषां संग्रहः ।
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छाया- 'यथामतिरूपम् अवग्रहम् अवगृह्य संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् ' इति । 'यथे' - ति - यथाप्रतिरूपं = यथासंयमिकल्पम् अवग्रहम् = निवासार्थमुद्यानपालस्याज्ञाम् अवगृह्य = आदाय संयमेन - सप्तदशविधेन तपसा = द्वादशविधेन आत्मानं भावयन् = वासयन् संयोजयन्निति यावत्, विहरति - विराजते, तत् = तस्मात् महाफलं - महत्-विशालं फलं शुभ परिणामलक्षणम्, अत्र 'अत एवे 'तिशेषः खलु निश्चयेन तथारूपाणां शुभपरिणामरूपमहाफलजननस्वभावानां, यावच्छब्देन – “अरिहंताणं, भगवंताणं, णामगोयस्सवि सवणयाए किमंगपुण अभिगमण-वंदण - णमंसण - पडिपुच्छण - पज्जुवासणाए, एकस्सवि आरियस्स, मिस्स, सुवयणस्स सवणयाए किमंग पुण" एतेषां सङ्ग्रहः । छाया - 'अर्हतां भगवतां नामगोत्रस्यापि श्रवणतया किमङ्ग ! पुनरभिगमन-वन्दननमस्यन - प्रतिमच्छन- पर्युपासनेन, एकस्यापि आर्यस्य धार्मिकस्य सुवचनस्य श्रवणतया किमङ्ग ! पुनः' इति । ' अर्हतां ' - नास्ति रहः = प्रच्छन्नं किञ्चिदपि येषां सर्वज्ञत्वात्तेऽईन्तस्तेषाम् ' भगवतां ' - भगः समत्रैश्वर्यादिगुणः, स विद्यते येषां ते भगवन्तस्तेषाम् । नाम च वर्धमानादि, गुणनिष्पन्नमभिधानं गोत्रं च = कश्यपादि, तयोः समाहारे नामगोत्रं, तस्य श्रवणेनापि महाफलं भवति । किमङ्ग ! पुनः - अभिगमनं - सम्मुखं गमनम् बन्दनं - गुणकीर्तनम् । नमस्यनं= पश्चाङ्गसयत्ननमनपूर्वकनमस्करणम्, प्रतिमच्छन = शरीरादिवार्ताप्रश्नः पर्युपासना = सावद्ययोगपरिहारपूर्वक निरवद्यभावेन सेवाकरणम् - एतेषां समाहारस्तथा, अयं
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निरयावलिकासत्र भावः-भगवन्नामगोत्रश्रवणमात्रेणापि शुभपरिणामरूपं फलं भवति, तर्हि अभिगमनादिना जातं फलं किं पुनः कथनीयम् ? अर्थात् तत्फलमानन्त्याद्वक्तुमशक्यमिति । एकस्यापि आर्यस्य-आर्यप्रणीतस्य धार्मिकस्य-श्रुतचारित्रलक्षणधर्मपतिबद्धस्य सुवचनस्य सर्वप्राणिहितकारकवचसः श्रवणतया श्रवणेन यत् फलं तन् किं पुनर्वाच्यम् ? अर्थात् वक्तुमशक्यम् । विपुलस्य प्रभूततरस्य अर्थस्यभगवद्वचनप्रतिपाद्यविषयस्य श्रुतचारित्रलक्षणस्य ग्रहणतया ग्रहणेन यत्फलं भवति तत् किं पुनर्वाच्यम् ? अर्थात्कथमपि वक्तुं न शक्यम् । कोई बात छिपी हुई नहीं है और सम्पूर्ण ऐश्वर्यके कारण जो भगवान हैं उनके वर्धमान आदि नाम और कश्यप आदि गोत्रके सुननेसे भी शुभ परिणाम स्वरूप महाफल होता है तो सम्मुख जाना, गुण-कीर्तन करना और पाँचों अंगोंको यतना पूर्वक नमाकर नमस्कार करना, शरीर आदिकी सुख-साता पूछना, और भगवानके त्यागी होनेके कारण सावद्यका परिहार-पूर्वक उनकी निरवद्य सेवा करना, इन सबका क्या फल होगा, इसका तो कहना ही क्या ?
और उनका एक भी श्रेष्ठ श्रुत चारित्र धर्म युक्त और समस्त प्राणियोंके हितकारी सुवचनके श्रवणसे जो महाफल मिलता है तो उनका विपुल श्रुत चारित्र रूप जो अर्थ है उसको ग्रहण करनेके फलका तो कहना ही क्या है ?-वह फल तो अकथनीय है। इसलिये मैं श्रमण भगवान् महावीर प्रभुके पास जाऊँ और
સંપૂર્ણ ઐશ્વર્યના કારણે જ ભગવાન છે. તેમનાં વર્ધમાન આદિ નામ તથા કશ્યપ આંદિ વગેરે ગેત્રને સાંભળવાથી શુભ પરિણામ સ્વરૂપ મહાફલ થાય છે–તે સમ્મુખ જવું, ગુણનું કીર્તન કરવું, તથા પાંચ અંગોને યતનાપૂર્વક નમાવીને નમસ્કાર કરવા, શરીર આદિ વગેરેની સુખ-સાતા પૂછવી તથા ભગવાન ત્યાગી હોવાથી સાવધના પરિવાર પૂર્વક તેમની નિરવઘ સેવા કરવી એ બધાંનું શું ફળ डाय तेनु त ४४ शु? .
- તેમનાં વચનનાં આચાર અને તેમનાં એક પણ શ્રેષ્ઠ શ્રુત ચારિત્ર ધર્મ યુક્ત તથા સમસ્ત પ્રાણિઓનું હિતકારી સુચવન સાંભળવાથી જે મહાફળ મળે છે તે તેમના વિપુલ શ્રત ચારિત્ર રૂપી જે અર્થ છે તેનાં ગ્રહણ કરવાનાં ફળનું તો કહેવું જ શું? તે ફળ તે અકથનીય છે. આથી હું શ્રમણ ભગવાન મહાવીર પ્રભુની
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सुन्दरबोधिनी टीका 'भगवान्' शब्दका अर्थ तत्-तस्मात् कारणात् अहं गच्छामि श्रमगं-श्राम्यति-तपस्पतीति श्रमणो द्वादशवर्षाणि घोरतपश्चरणात 'श्रमण' इति प्रसिद्धिं लब्धवान् , तम् । जावशब्देन–' भगवं, महावीरं, वंदामि, नमसामि, सकारेमि, सम्माणेमि,
उनको वन्दन-नमस्कार करूँ; सत्कार सम्मान करूँ जो कल्याण स्वरूप हैं, मंगल स्वरूप हैं, दैवत-इष्ट देव हैं और चैत्य-ज्ञानस्वरूप हैं उन प्रभुकी विनयपूर्वक उपासना करूँ।
अब यहाँ श्रमण भगवान आदि पदोंका विशेष अर्थ करते हैं:
(१) श्रमण साढे बारह बरस तक घोर तपस्या की, इसलिए — श्रमण ' नामसे प्रसिद्ध हैं। (२) भगवान्-भग शब्दके ज्ञानादि दस अर्थ जिनमें हों उन्हें भगवान कहते हैं। ' भग' शब्दके दस अर्थ
( १ ) सम्पूर्ण पदार्थोंको विषय करनेवाला ज्ञान. (२) महात्म्य अर्थात् अनुपम और महान् महिमा. (३) विविध प्रकारके अनुकूल और प्रतिकूल परिषहोंको सहन करनेसे
પાસે જાઉં તથા તેમને વંદન નમસ્કાર કરું, સત્કાર સમ્માન કરૂં જે કલ્યાણ સ્વરૂપ છે. મંગલ સ્વરૂપ છે દેવત અર્થાત ઈષ્ટ દેવ છે તથા ચૈત્ય-જ્ઞાનસ્વરૂપ છે તે પ્રભુની વિનયપૂર્વક ઉપાસના કરૂં.
હવે અહીં શ્રમણ ભગવાન આદિ શબ્દોના વિશેષ અર્થ કરીએ છીએ.
(१) अभा=31 मा२ १२स. सुधी 6 त५वर्या ४ तेथी - श्रा' નામથી પ્રસિદ્ધ છે. (૨) ભગવાન–ભાગ શબ્દના જ્ઞાન આદિ દશ અર્થ જેમાં હોય तेने मान डा. 'A' शहना ६A मर्थ
(१) सपू पान विषय ४११॥ वाणु शान. (२) भारभ्य अथात् मनु५म तथा भान् भडिमा. . (૩) વિવિધ પ્રકારના અનુકૂળ તથા પ્રતિકૂળ પરિષહાને સહન કરવાથી
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निरयालिकामा कल्लाणं, मंगलं, देवयं, चेइयं, विणएणं' इत्येषां साहः । एतच्छाया'भगवन्तं, महावीरं, वन्दे, नमस्यामि, सत्कारयामि, सम्मानयामि, कल्याणं, मङ्गलं, दैवतं, चैत्यं, विनयेन' इति ।
'भगवन्त 'मिति-भगः ज्ञानं, माहात्म्य, यशः, वैराग्यं, मुक्तिः, सौन्दर्यम् , वीर्यः, श्रीः, धर्मः, ऐश्वर्व, सोऽस्याऽस्तीति भगवान् , तम् , उत्पन्न होनेवाली या संसारकी रक्षा करनेवाले अलौकिक भावोंसे उत्पन्न होनेवाली कीर्ति ।
( ४ ) क्रोध आदि कषायोंका सर्वथा निग्रहरूप वैराग्य । (५ ) समस्त कर्मीका क्षयस्वरूप मोक्ष । ( ६ ) सुर-असुर और मानवके अन्तःकरणको हरलेने वाला सौन्दर्य । (७) अन्तराय कर्मके नाशसे उत्पन्न होनेवाला अनन्त बल ।
(८) घातिया-कर्मरूपी पटलके हट जानेसे प्रादुर्भूत होनेवाली अनन्तं चतुष्टय-( ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य-रूप ) लक्ष्मी ।
(९) मोक्षके द्वारको खोलनेका साधन श्रुत चारित्र यथा-ख्यात चारित्र रूप धर्म ।।
(१०) तीन लोकका आधिपत्य रूप ऐश्वर्य । ઉત્પન્ન થનારી અથવા સંસારની રક્ષા કરવાવાળી અલૌકિક ભાવનાથી ઉત્પન્ન થનારી કીર્તિ.
(૪) ક્રોધ આદિ કષાયને સર્વથા નિગ્રહરૂપ વૈરાગ્ય. (५) तमाम ना क्षयस्१३५ भाक्ष. (6) सुर-असुर भने भानवना अत:४२६ने शवावाणु सौ. (૭) અંતરાય કર્મના નાશથી ઉત્પન્ન થનારું અનંત બળ. (૮) ઘાતિયા કર્મ રૂપી પડદે હટી જવાથી પ્રાદુર્ભુત હોવાવાળી અનંત
यतुष्टय (ज्ञान, नि, यारित्र, वीर्य-०५) भी. (૯) મેક્ષનાં દ્વારને ઉઘાડનારું સાધન શ્રુત ચારિત્ર યથાખ્યાત ચારિત્ર
३५ धर्म. (१०) aना आधिपत्य ३५ मेध.
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सुन्दरबोधिनी टोका काली रानी के विचार 'महावीर 'मिति-चीरयति-पराक्रमते मोक्षानुष्ठाने इति वीरः, महाँचासौ वीरो महावीरो-वर्धमानस्वामी चरमंतीर्थंकरस्तम् वन्दे मनःमणिधानपूर्वकं वाचा स्तौमि, नमस्यामि-सयत्नपञ्चाङ्गनमनपूर्वकं नमस्करोमि, सत्कारयामि-अभ्युत्यानादिनिरवद्यक्रियासम्पादनेनाऽऽराधयामि, सम्मानयामि मनोयोगपूर्वकमईदुचितवाक्यप्रयोगादिना समाराधयामि, कल्याणं-कर्मबद्धसकलोपाधिव्याधिबाधाविधुरत्वात् कल्यो मोक्षस्तम् , आ-समन्तात् नयति-पापयतीति ज्ञानादिरत्नत्रयलक्षणमोक्षमार्गोपदेशदानद्वारा (भविजनान् ) कल्यान् जन्मजरादिरोगमुक्तान् आणयति-धातूनामनेकार्थत्वात् सम्पादयतीति वा कल्याणस्तम्,
(३) महावीर-मोक्षके अनुष्ठानमें पराक्रम करनेवाले होनेसे महावीर कहे जाते हैं, ऐसे महावीर वर्धमान स्वामी चरम तीर्थकरकी निर्मल मनके साथ वचनसे स्तुति करूँ। यतना-पूर्वक पाँच अंग नमाकर नमस्कार करूँ। यतना-पूर्वक अभ्युत्थान आदि निरवद्य क्रियासे भगवानका सत्कार करूँ। मनोयोग-पूर्वक अर्हन्तों का उचित वाक्य द्वारा सम्मान करूँ। कर्मबन्धसे उत्पन्न होनेवाली उपाधि-व्याधिके नाशक होनेसे 'कल्य ' को मोक्ष कहते हैं, उसको प्राप्त करानेके कारण भगवान् कल्याण-स्वरूप हैं । अथवा ज्ञानादि रत्नत्रयरूप मोक्ष मार्गके उपदेश द्वारा भव्य जीवोंको जन्म, जरा मृत्युरूप रोगसे मुक्त करते हैं, इस कारण भी कल्याणस्वरूप है।
(3) मावा२-भाक्षना मनुनमा ५२।४५ ४२१/unt मडावीर उपाय. એવા મહાવીર વર્ધમાન સ્વામી ચરમ તીર્થકરની નિર્મળ મનની સાથે વાણીથી સ્તુતિ કરું. યતના-પૂર્વક પાંચ અંગ નમાવીને નમસ્કાર કરૂં યતના-પૂર્વક અભ્યત્યાન આદિ નિરવદ્ય ક્રિયાથી ભગવાનને સત્કાર કરૂં. મનેયેગ–પૂર્વક અહંતોનું ઉચિત વાક્યોથી સમ્માન કરૂં. કર્મબંધથી ઉત્પન્ન થનારી ઉપાધિ અને વ્યાધિના નાશક હોવાથી “કલ્ય” તે મેક્ષ કહેવાય છે. તેને પ્રાપ્ત કરાવનાર હોવાથી ભગવાન કલ્યાણ સ્વરૂપ છે. અથવા-જ્ઞાનાદિ રત્નત્રયરૂપ મોક્ષ માર્ગના ઉપદેશ દ્વારા ભવ્ય જીને જન્મ જરા મૃત્યુ રૂ૫ રેગથી મુક્ત કરે છે. આ કારણથી પણ કલ્યાણ-સ્વરૂપ છે.
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निरयावलकासूत्र
८
•
' मङ्गलं = सकलहितमापकत्वाच्छुभमयं यद्वा-मां गालयति भवान्धेस्वारयतीति मङ्गलः, अथवा - मङ्गते - अजरामरत्वगुणेन भविजनान् भूषयतीति महो मोक्षस्तं लाति = आदत्त इति मङ्गलस्तम् दैवतम् = आराध्य देवस्वरूपम् अत्र ' देवतैव दैवतमिति स्वार्थेऽण् ' चैत्यं चित्ते भवं तदस्यास्तीति यद्वाचित्तिर्विशिष्टज्ञानं तया युक्तमिति, सर्वथा विशिष्टज्ञानवन्तमित्यर्थः, विनयेन = प्रतिपत्तिविशेषेण पर्युपासे = सेवे, तथा ' इमं ' ति इदं मम हृदयस्थम् एतद्रूपं पुत्रविषयकं व्याकरणं - प्रश्नं खलु निश्चयेन प्रक्ष्यामि निर्णेष्यामि, इति कृत्वा = इति मनसि निश्चित्य एवम् अनेन प्रकारेण संप्रेक्षते विचारयति,
सम्पूर्णहितको प्राप्त करानेवाले तथा भवसागर से तारनेवाले हैं इसलिये भगवान मङ्गल स्वरूप हैं । अथवा अजर अमर गुणोंसे भव्यजनोंको भूषित करनेके कारण को मोक्ष कहते हैं, उसे जो प्राप्त करावे वह मङ्गल कहलाता है, इसलिये भगवान भीं मङ्गल हैं । इष्टदेव स्वरूप होनेसे दैवत हैं । विशिष्ट ज्ञान युक्त होनेसे चैत्य हैं । ऐसे भगवानकी विनयके साथ निरवद्य सेवा करूँ, और मेरे हृदयमें स्थित पुत्रसम्बन्धी प्रश्नका निश्चय करूँ । इस प्रकार अपने मनमें विचारकर काली महारानीने अपने कौटुम्बिक (आज्ञाकारी) जनोंको बुलाया और आज्ञा दी ।
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4
मङ्ग
ܕ
સંપૂર્ણ હિતને પ્રાપ્ત કરાવવાવાળા તથા ભવસાગરથી તારવાવાળા છે તેથી ભગવાન મંગલસ્વરૂપ છે. અથવા અજર અમર ગુણેાથી ભવ્ય જનાને ભૂષિત કરવાના કારણે મગને મેાક્ષ કહેલ છે. તેને જે પ્રાપ્ત કરાવે તે મંગલ કહેવાય છે. આથી ભગવાન પણું મંગળ છે. એવા ઈષ્ટદેવ-સ્વરૂપ હાવાથી દૈવત છે અને વિશિષ્ટ જ્ઞાનવાળા હેાવાથી ચૈત્ય છે. એવાં ભગવાનની વિનયપૂર્વક નિરવદ્ય સેવા કરૂ તથા મારા હૃદયમાં રહેલ પુત્રસમધી પ્રશ્નનેા નિશ્ચય-ખુલાસા-કરૂં. આ પ્રકારે પોતાના મનમાં વિચાર કરી કાલી મહારાણીએ પેાતાના કૌટુમ્બિક (આજ્ઞાકારી) જનાને એલાવ્યા તથા આજ્ઞા કરી.
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कालीरानीका वन्दनार्थ गमन संप्रेक्ष्य = विचार्य, कौटुम्बिकपुरुषान् = मधानकर्मकारिपुरुषान् शब्दयति- आहयति कन्दयित्वा = आहूय एवं वक्ष्यमाणम् अवदत् आज्ञापयदिति ।
,
।
किमाज्ञापयत् ? इत्याह- 'क्षिप्रमेवे 'त्यादिना - भो देवानुप्रियाः हे कार्यकरणप्रवीणाः । यूयं धार्मिकं धर्माय नियुक्तं धार्मिक, सात्यनेनेति यानं रयादिकं तत्र पत्ररं श्रेष्ठं शीघ्रगामित्वादिगुणोपेतम् इत्युपलक्षणं तेन चाउग्घंटं, आसरहं' इत्यनयोरपि ग्रहणम् । एतच्छाया - चतुर्घण्टम्, अश्वरयम् इति । चतुर्घण्टमिति - चतस्रः पृष्ठतोऽग्रतः पार्श्वतथ लम्बमाना घण्टो यस्य यस्मिन् वा स चतुर्घण्टस्तम् ' अश्वरथ' मिति - अश्वयुक्तो रथोऽश्वरथः, शाकपार्थिवादित्याः मध्यमपदलोपः तम् - युक्तमेव = अश्वसारथ्यादिसहितमेव न तु द्रहितं क्षिप्रं शीघ्रमेव नतु विलम्बेन, उपस्थापयत प्रगुणीकुरुत, उपस्थाप्य = प्रगुणीकृत्य यात्रच्छदेन कौटुम्बिकपुरुषाः कालीदेव्याज्ञानुसारेण सर्वं कृत्वां तदाज्ञां प्रत्यर्पयन्ति ॥ १६॥
"
क्या आज्ञा दी ?. वह कहते हैं - हे चतुर कार्यकर्ताओं ! तुम लोग रथोंमें श्रेष्ठ-शीघ्र गतिवाला रथ जिसके आगे पीछे और दोनों बाजुओंमें चार घण्टिकायें लगी हुई हैं ऐसा धार्मिक अश्वरथ, सारथी आदिके सहित लाओ । कौटुम्बिक पुरुष काली महारानीकी आज्ञा अनुसार रथ तैयार कर उनसे बोले - हे महारानी ! आपकी आज्ञानुसार जय तैयार है ॥ १६ ॥
હૈ ચતુર કાર્ય કર્તાએ ! તમે લેકે, ઉત્તમ રથ-શીઘ્ર ગતિવાળા રથ જેની આગળ પાછળ તથા ખન્ને ખાજીએએ ચાર ઘટાએ લગાડેલી એવા ધાર્મિક અશ્વરથ, સારથી આદિ સહિત લઈ આવેા. કૌટુમ્બિક પુરૂષોએ કાલી મહારાણીની માના પ્રમાણે રથ તૈયાર કરીને તેને કહ્યું:ન્હે મહારાણી ! આપની આજ્ઞા પ્રમાણે २५ तैयार छे. (१६)
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लिवालिका
वए णं सा काली देवी व्हाया कयबनिकम्मा जाव अपमहन्धामरणालंकियसरीरा बहूहि खुजाहिं जाव महत्तरगविंदपरिक्खिता अंतेउराओ निग्गच्छ, निग्गचित्ता जेणेर बाहिरिया उबढाणसाला जेणेक धम्मिए जागापवरे तेणेव उवागच्छइ, उवाग्गच्छिता धम्मियं जाणप्पवरं दूरुहइ, दूरुहिता नियगपरियालसंपरिबुडा चंपं नयरिं मज्झं-मझेगं निग्गच्छद्द, निग्गच्छिता जेणेव पुत्रभद्दे चेइए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छि ता छत्ताईए जाव धम्मियं जाणप्पवरं ठवेइ, ठविता धम्मियाओ जाणप्पवराओ पचोरुहइ, पञ्चोरुहित्ता बहुहिं खुजाहिं जाव महत्तरगविंदपरिक्खित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुनो वंदइ, वंदित्ता ठिया चेव सपरिवारा सुस्सुसमाणा नमसमाणा अभिमुहा विणएणं पंजलिउडा पजवासइ ॥ १७ ॥
छायाततः खलु सा काली देवी स्नाता कृतबलिकर्मा यावत् अल्पमहामरणाल कृतशरीरा बहीभिः कुन्जाभिः यावन्महतरकान्दपरिसिता अन्तःपुरानिर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैव बाह्या उपस्थानशाला, यत्रैव धार्मिको यानपवरस्तत्रोपागच्छति, उपागत्य धार्मिक यानप्रवरं दरोहति; दूरुह्य निजकपरिवारसंपरितृता चम्म नगरी मध्य-मध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैव पूर्णभद्रश्चैत्यस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य छत्रादिकं यावद् पार्मिक यानप्रवरं स्थापयति स्थापयिखा पार्मिकाद् यानभवराव मत्यवरोहति, प्रत्यवरुद्ध बहीभिः कुब्जामिः यावत्-महत्तरकवृन्दपरिक्षिप्ता यत्रैव श्रमणो भगवान् महावीरस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य श्रमणं भगवन्तं महावीर विकलो वन्दते, वन्दिखा स्थिता चैव सपरिवारा. अश्रूषमाणा नमस्यन्ती अभिमुखी विनयेन प्राञ्जलिपुटा पर्युपास्ते ॥१७॥
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सुन्दरबोधिनी टीका कालो रानौका बन्दनार्थगमन
टीका
' तरणं सा' इत्यादि - ततः तदनन्तरं सा पूर्वोक्ता काली देवी स्नाता - कृतस्नाना कृतबलिकर्मा - स्नाने कृते पशुपक्ष्याद्यर्य कृतान्नभागा, जावशब्देन - 'कयकोउयमंगलपायच्छित्ता सुद्धप्पावेस्साई वत्थाई पवरपरिहिया' इत्येषां सहः । एतच्छाया च- ' कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्ता, शुद्धप्रवेश्यानि वस्त्राणि प्रवरपरिधृता' ' कृतकौतुके 'ति - कृतानि कौतुकानि मषीपुण्ड्रादीनि मङ्गलानि = सर्षपदध्यक्षतचन्दनदुर्वादीनि च प्रायश्चित्तानीव दुःस्त्रप्रादिविनाशायावश्यं - कर्तव्यत्वात्मायश्चित्तानि यया सा तथा, यथा पापविनाशार्थं प्रायश्चित्तमवश्यं क्रियते तथैव दुःस्वप्रदोषशान्त्यर्थं दध्यक्षतादीनि मङ्गलान्यवश्यं त्रियन्त इति तात्पर्यम् । ‘ अल्पमद्दर्घे'-ति-अल्पानि - स्तोकभारवन्ति महार्घाणि= बहुमूल्यानि यानि आभरणानि - भूषणानि तैरलङ्कृतं भूषितं शरीरं यस्याः सा -
6
तरणं सा ' इत्यादि - बाद रानीने स्नान किया और पशु पक्षी आदिके लिये अन्नका भाग निकालनेरूप बलिकर्म किया और दृष्टिदोष ( नजर ) निवारणके लिये मषी ( काजल ) का चिह्न किया और पाप नाश करनेके लिए जैसे प्रायश्चित्त किया जाता है वैसे ही दुःस्वप्न आदि दोषोंके निवारणके लिए मङ्गलरूप सरसों, दही, चावल, चन्दन और दूब आदिको धारण किया, तथा अल्प भार किन्तु बहु मूल्य भूषणोंसे शरीरको भूषित किया और सेवापरायण कुबडी आदि १८ अठारह
'तपणं सा' ४त्याहि पछी रालीये स्नान यु तथा पशु पक्षी माहिने भाटे અન્નના ભાગ કાઢવા રૂપી અલિકર્મ કર્યું તથા દૃષ્ટિાષ (નજર) ના નિવારણુને માટે મષી (કાજળ)નું ચિહ્ન કર્યું તથા પાપનાશ કરવા માટે જેમ પ્રાયશ્ચિત્ત ાય છે તેવીજ રીતે દુઃસ્વપ્ન માદિ દોષોના નિવાણુને માટે મગલરૂપ સરસવ, દહીં, ચાવલ, ચંદન તથા કૂર્તા વગેરેને ધારણ કર્યાં; તથા વજનમાં અદ્રષ પણ કિમ્મતમાં ભારે એવાં ઘરેણાંથી શરીરને શણગાર્યું. સેવાપરાયણ કુબડી
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अल्पमहार्घाभरणालफ़्तशरीरा, बहीमिः प्रचुराभिः, कुब्जाभिः कुजशरीरामिः सेवापरायणदासीभिः. 'जाव' शब्देन-“चिलाईहिं . वामणाहि १, वडहाहि २, बब्बरीहि ३, बउसियाहिं ४, जोंनयाहिं ५, परंहवियाहिं ६, ईसिणियाहिं ७, वासिणियाहिं ८, लासियाहिं ९, लउसियाहिं . १०, दविडीहिं ११, सिहलीहिं १२, आरवीहिं १३, पक्कणीहि १४, बहलीहिं १५, मुरुंडीहिं. १६, सबरीहिं १७, पारसीहिं १८, णागादेसाहिं' इंगियचिंतियपत्थियवियाणियाहि;" इत्येषां सहः ।
चिलातीभिः = अनार्यदेशोत्पन्नाभिः वामनाभिः = ह्रस्वशरीराभिः १, वटभाभिः मडहकोष्ठाभिः २, बर्बरीभिःबर्बरदेशसंभवाभिः ३, बकुशिकाभिः ४, यौनकाभिः ५, पल्हविकाभिः ६, इसिनिकाभिः ७, वासिनिकाभिः ८,
प्रकारकी दासियोंको साथ चलनेका हुक्म दिया। उन दासियोंके नाम इस प्रकार हैं(१) चिलाती' चिलात नामके अनार्य देशमें उत्पन्न होनेवाली 'कुब्जा' कूबडी तथा 'वामना'ठिंगनी दासियों, (२) वटभा'-जिस देशमें छोटे-छोटे पेंटवाले जन्मते हैं उस देशकी, (३) बर्बरी-बर्बर देशकी, (४) 'बकुशिका : बकुश "देशकी, (५) • यौनका -यौन देशकी, (६ ) ' पल्हविका '–पल्ह. देशकी, (७) 'इसिनिका '-इसिनिक देशकी,---(८) 'वासिनिका'-वासिनिक देशकी,
દાસીએ આદિ ૧૮ પ્રકારની દાસીઓને સાથે ચાલવાને હુકમ કર્યો તેનાં નામ આ પ્રકારે છે...(૧) ચિલ્લાત નામના અનાર્ય દેશમાં ઉત્પન્ન થનારી કૂબડી અને કાંગણી દાસીએ(૨) જે દેશમાં નાનાં નાનાં પેટવાળાં જન્મ લે છે. તે દેશની (3) fud शनी. (४) ugu देशमा (1) योन Bat. (क) yes.देशी. ७) h. () पासिनि४ . (e) allestrol. (१०) ag.at
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बोधिनीका १८ - देशको दासियां
छासिकाभिः ९, लकुशिकाभिः १०, द्राविडीभिः ११, सिंहलीभिः १ कोरवीभिः १३, पकणीमिः १४, बहुलीभिः १५, मुण्डीभिः शबरीभिः १७, पारसीमिः १८, नानादेशाभिः = बहुविधदेशोत्पन्नाभिरित्व, इङ्गितचिन्तितप्रार्थितविज्ञायिकाभिः, इङ्गितेन नेत्रवक्त्रहस्तामु ल्यादिचेष्टां
.4
‘(९) ‘लासिका’–लासिक देशकी, (१०) 'लकुशिका' - लकुश देशकी, (११) 'ब्रा विडी 'द्रविड देशकी ( १२ ) सिंहली सिंहल देशकी, (१३) 'आरबी'अरब देशकी, ( १४ ) ' पक्कणी - पक्कण देशकी, (१५) ' बहुली ' - बहुल देशकी ( १६ ) ' मुसण्डी ' -मुसण्ड देशकी ( १७ ) ' शबरी' ' - शबर देशको, और
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(१८) ' पारसी - पारस देशकी दासिया ।
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इस प्रकारकी अनेक देशमें उत्पन्न होनेवाली दासियाँ, जो इङ्गित, चिन्तित, प्रार्थितको जाननेवाली थीं।
,
6
*
इङ्गित ' का अर्थ-नेत्र, मुख, हाथ तथा अंगुली आदिके इशारेसे अभिसमयको जानना ।
32
(११) द्रविड डेशनी. (१२) सिद्ध द्वीप डेरानी (13) मरण देशनी. (१४) पछष्णु देशनी. (१५) बहुत देशनी. (१६) मुसउ देशनी. (१७) शमर देशनी, तथा (१८) पारस દેશની દાસીએ.
राने भालुवा वाणी हुती.
આવી રીતે અનેક દેશમાં ઉત્પન્ન થનારી દાસીઓ ઇગિત, ચિતિત, પ્રામિ
અભિપ્રાણને જાણવા :
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धत्रित ' ना अर्थ, नेत्र, गुण, हाथ तथा मांगणी आहिना उशीरा
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निरवारिकामा दिलण चिन्तितं-हदि भावित, भाषितं -अमिलषितं च विजानन्ति बाखया, तामिः बुध्यमानाभिः, युक्तति शेषः । तथा 'महत्तरे 'ति-अतिपेन महान महत्तरः स एव महत्तरका=अन्तःपुररक्षका, तेषां वृन्दम् नानासोत्पमचेटकसमूहस्तेन 'परिक्षिप्ता' परि-सर्वतः क्षिप्ता मध्ये स्थापिता, वया सती अन्तःपुरात निर्गच्छति-बहिनिःसरति निर्गत्य यत्रैव यस्मिनेव स्थाने बाह्या-बहिर्भवा उपस्थानशाला-उपवेशनमण्डपः यत्रैव-यस्मिन्नेव स्थले पार्मिकयानप्रवर स्थादियानोत्तमः, तत्रैव-तमिनेत्र स्थाने उपागच्छति-समुपति, उपागत्य-धार्मिकयानपवरसमीपमागत्य धार्मिक-धर्माय नियुक्त यानपवरं दरोहति=आरोहति, दूरुह्य-उक्तयानमवरमारुह्य 'निजके ' ति-निजा एवं निजका स्वकीयाः परिवारा:दास्यादयः, तैः संपरिकृता-परिवेष्टिता, चम्पां नगरी मध्यमध्येन-चम्पानगर्या मध्यभागेन निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैव पूर्णभद्र
'चिन्तित '-हृदयके भावको अनुमानसे समझना । 'प्रार्थित '-अभिलषितको अनुमानसे जानना ।
ऐसी दासियोंके साथ अन्तःपुररक्षक पुरुषवृन्दसे तथा अनेक देशमें उत्पन होनेवाले दाससमूहसे घिरी हुई अन्तःपुरसे बारह निकलकर भवनके समा–मण्डपमें निस स्थलपर धार्मिक रथ था वहाँ आई और रथमें बैठी। बाद अपने सब परिवार के साथ चम्पा नगरीके बीच रास्तेसे होकर जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था वहाँ पहुँची।
-
(Afta'-हयना आपने अनुमानथी . .. 'थित '-waalra (४२७ सय ) अनुमानयी ngg.
એવી દાસીઓની સાથે અંત:પુરરક્ષક પુરૂષદી તથા અનેક દેશના ઉત્પન્ન થનારા દાસસમૂહથી ઘેરાયેલી અંત:પુરથી બહાર નીકળીને ભવનના સભાઅહમાં જે ઠેકાણે ધાર્મિક રથ હતું ત્યાં જઈ રથમાં બેઠી. પછી પિતાના સાળા પરિવારની સાથે ચંપા નગરીના મધ્ય રસ્તામાં થઈને ત્યાં પૂર્ણભદ્ર ચત્ય હતો
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परसोधिनी टीका धर्मकथा चैत्यं तत्रैव उपागच्छति-समायाति, उपागत्य 'छत्ताईए' छत्रादिकान 'यावत्'-शब्देन तीर्थकरातिशेषान् पश्यति, दृष्ट्वा धार्मिक यानपवरं स्थापयति, स्थापयित्ता धार्मिकाद् यानप्रवरादधार्मिकरथात् प्रत्यवरोहति-अधस्तादवन रति, प्रत्यवरुह्य अवतीर्य बहीभिः कुब्जाभिः पूर्वोक्तदासीमियुक्ता याव महत्तरकन्दपरिक्षिप्ता पश्चाभिगमपुरस्सरं यत्रैव यस्मिअव पूर्णभद्रोद्याने भगवान् महावीरस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिकृत्वो वन्दते, च-पुनः स्थितैव सपरिवारा शुश्रूषमाणा=सेवमाना नमस्यन्ती अभिमुखी-सम्मुखं स्थिता विनयेन नम्रभावेन प्राञ्जलिपुटा ललाटतटसविनक विन्यस्तकरकमला पर्युपास्ते सेवते ॥१७॥
तए णं समणे भगवं जाव कालीए देवीए तीसे य महतिमहालयाए धम्मकहा भाणियव्वा जाव समणोवासए वा समणोवासिया वा विहरमाणे आणाए आराहए भवइ ॥१८॥
और तीर्थकरके छत्र आदि अतिशयोंको देखकर अपने रथको स्थापित किया और रथसे नीचे उतरी । फिर अपने सब परिवारके साथ पांच अभिगम–पूर्वक जहाँ भगवान विराजते हैं वहाँ पहुँचकर विधिपूर्वक वन्दना नमस्कार किया, और सपरिवार भगवानके सम्मुख नतमस्तक हो विनयके साथ अञ्जलिपुटको ललाटपर रखती हुई खडी होकर सेवा करने लगी ॥ १७ ॥
ત્યાં પહોંચી. તથા તીર્થકરેનાં છત્રાદિ અતિશયેને જોઈને પિતાના રથને ઉમે રાખી નીચે ઉતરી અને પછી પિતાના સઘળા પરિવાર સાથે પાંચ અભિગમ-પૂર્વક જેમાં ભગવાન બિરાજતા હતા ત્યાં પહોંચીને વિધિપૂર્વક વંદના-નમસ્કાર ક્યાં તથી ) સપરિવાર ભગવાનની સન્મુખ માથું નમાવીને વિનયપૂર્વક અંજલિ પુટને (જોડેલા હાથને) લલાટ પર રાખી ઊભી રહીને સેવા કરવા લાગી. (૧૭)
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धर्मकथास्वरूपं
व्याख्यायां विलोकनीयं विशेषजिज्ञासुभिरिति ।
धम्मस्स
छाया
"J
ततः खलु श्रमणो भगवान् यावत् काल्यै देव्यै तस्यां च महाति-महालयायां परिषदि धर्मकथा भणितव्या यावत् श्रमणोपासको वा श्रमणोपासिका वा विहरन् आज्ञाया आराधको भवति ॥ १८ ॥
टीका
C
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1
'तएणं समणे ' इत्यादि - ततः - तदनन्तरं श्रमणो भगवान् महावीरः यावत्-सिद्धिगतिनामधेयं स्थानं सम्प्राप्तुकामः, काल्यै देव्यै तस्यां पूर्वोक्तायां महाति-महालयायां=अतिविशालायां परिषदि धर्मकथा भणितव्या = कथयितव्या, उपासकदशाङ्गसुत्रस्यागारधर्मसंजीविन्याख्यायां
विस्तरत
;
निरयावलिकास
"
" जाव शब्देन - ' एयरस अगारधम्मस्स अणगारसिक्खाए उट्ठिए ' इत्येषां सङ्ग्रहः ।
..एतच्छाया च
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"
तणं सम ' इत्यादि । बाद मोक्षगामी श्रमण भगवान् महावीर स्वामीने "काली महारानीको लक्ष्य करके विशाल परिषदमें धर्मकथा कही । धर्मकथाका विशेष वर्णन जाननेके जिज्ञासुओंको हमारी बनाई हुई उपासकदशाङ्ग सूत्रकी अगारधर्मसंजीवनी नामक टीकामें देखना चाहिये ।
'तपण समणे' इत्याहि माह भोक्षणाभी श्रमायु भगवान् महावीर स्वाभीमे અલી મહારાણીને લક્ષ્ય કરી વિશાલ પરિષદમાં ધર્મ કથા કહી. ધર્મકથાનું વિશેષ नि युवा भोटे ज्ञासुमोको अभारी मनावेही उपासकदशाङ्ग सूत्रनी अमार चर्मसंजीवनी नामनी टीाभां धो ले
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सन्दरपोधिनी टीका कालोपृच्छा एतस्य अगारधर्मस्य अनगारधर्मस्य शिक्षायाम् उत्थित' इति । एतस्यागारधर्मस्यानगारधर्मस्य शिक्षायामुत्थितः-उद्यतः श्रमणोपासका श्रावकः श्रमणोपासिका-श्राविका वा द्वावपि विहरन्तौ आज्ञायाः भगवदाज्ञायाः आराधको भवतः ॥१८॥ अथ कालीवक्तव्यमाह-'तएणं सा' इत्यादि ।
मूलम्तएणं सा काली देवी समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोचा निसम्म हट-जाव-हियया समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव एवं वयासी-एवं खलु भंते ! मम पुत्ते काले कुमारे तिहिं दंतिसहस्से हिं जाव रहमुसलसंगामं ओयाए, से णं भंते किं जइस्सइ ? नो जइस्सइ ? जाव काले णं कुमारे अहं जीवमाणं पासिज्जा ? । कालीति समणे भगवं महावीरे कालिं देवि एवं वयासी-एवं खल्लु काली ! तव पुत्ते काले कुमारे तिहिं दंतिसहस्सेहिं जाव कूणिएणं रना सद्धिं रहमुसलं संगाम संगामेमाणे हयमहियपवरवीरघाइयनिवडियचिंधज्झयपडागे निरालोयाओ दिसाओ करेमाणे चेडगस्स रनो सपक्खं सपडिदिसि रहेणं पडिरहे हव्वमायए ॥१९॥
छायाततः खलु सा काली देवी श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अन्तिके धर्म श्रुखा निशम्य हृष्ट यावत्-हृदया श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिःकुलो
'जाव' शब्दसे अगार अनगार धर्मकी शिक्षामें तत्पर श्रावक और श्राविका को भगवानकी आज्ञाके आराधक जानना ॥ १८ ॥
રા' શબ્દથી અગાર અનાર ધર્મની શિક્ષામાં તત્પર શ્રાવક તથા શ્રાવિકાને ભગવાનની આજ્ઞાના આરાધક સમજવા. ૧૮
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.. निरयावलिकासन यावदेवमवादीत्-एवं खलु भदन्त ! मम पुत्रः कालः कुमारः .. त्रिभिर्दन्तिसंहः यावत्-रथमुशलसङ्ग्रामम् अवयातः, स खलु भदन्त ! किं जेष्यति ? नो जेष्यति ? यावत् कालं खलु कुमारमहं जीवन्तं द्रक्ष्यामि ? कालि ! इति श्रमणो भगवान् महावीरः काली देवीमेवमवादीत्-एवं खलु कालि ! तव पुत्रः कालः कुमारः त्रिभिर्दन्तिसहस्रैर्यावत् कूणिकेन राज्ञा सार्द्ध रथमुशलं सङ्ग्रामं सामयन् हतमथितप्रवरवीरयातितनिपतितचिह्नध्वजपताका निरालोका दिशः कुर्वन् चेटकस्य राज्ञः सपक्षं सपतिदिक् रथेन प्रतिरथं हव्यमागतः ॥ १९॥ . . . टीका
ततः धर्मकथाश्रवणानन्तरं, काली देवी श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अन्तिके समीपे धर्म-श्रुतचारित्रलक्षणं श्रुत्वाकर्णविषयीकृत्य निशम्य हृदयेनाऽवधार्य हृष्ट-यावत्-हृदया-हृष्टतुष्टचित्तानन्दिता हर्षवशविसर्पहृदया सती श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिःकुल-त्रिवारं यावत्-वन्दिला नमस्यित्वा एवं
अब काली रानीके प्रश्नका वर्णन करते हैं-' तएणं सा' इत्यादि । . ' श्रमण भगवान महावीरके समीप श्रुतचारित्रलक्षण धर्म सुनकर और उसे हृदयमें धारणकर प्रफुल्लित हो तीन बार वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार भगवानसे पूछने लगी
rel Nepn Ad पर्युन रे छ.-' तरणं सा' त्याle. શ્રમણ ભગવાન મહાવીરની પાસેથી મૃતચારિત્રલક્ષણ ધર્મ સાંભળીને તથા તેને હૃદયમાં ધારણ કરી પ્રફુલ્લિત થઈ ત્રણ વાર વંદન–નમસ્કાર કરી આવી રીતે ભગવાનને પૂછવા લાગી
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सुन्दरबोधिनी टोका कालकुमार वृत्तान्त
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वक्ष्यमाणम् अवादीत्=अवोचत् - हे भदन्त ! खलु - निश्चयेन एवम् अनेन प्रकारेण मम पुत्रः कालः कुमारः त्रिभिर्दन्तिसहस्रैः - हस्तिसहस्रैः, 'जान' शब्देनत्रिमिस्त्रिभी रथाश्वसहस्रैर्मनुष्याणां तिसृभिः कोटिभियुक्तो रथमुशलं सङ्ग्रामम् अवयातः = समुपागतः, हे भदन्त ! सः = कालः कुमारः खलु - निश्चयेन किं जेष्यति ? वा नो जेष्यति ? यावच्छब्देन - जीविष्यति ? नो जीविष्यति ? पराजेष्यते ? नो पराजेष्यते ? अहं कालं कुमारं खलु - निश्चयेन जीवन्तं द्रक्ष्यामि ? | इति कालीदेवीमनं श्रुत्वा श्रमणो भगवान् महावीरः एवं = वक्ष्यमाणं प्रतिवचनम् अवादीत् = अवोचत् हे कालि ! एवं खलु तव पुत्रः कालः कुमारः त्रिभिर्दन्तिसहसैः यावच्छब्देन युद्धसामग्रीयुक्तः, वृणिकेन राज्ञा सार्द्धं रथमुशलं संग्रामं सङ्ग्रामयन् संग्रामं कुर्वन् 'हतमथिते - ति
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हे भगवन् ! मेरा पुत्र कालकुमार तीन २ हजार हाथी - घोडे - रथ और तीन करोड पैदल सेनाके साथ रथमुशल संग्राम में गया है वह विजयी होगा या नहीं ?, वह जीवित रहेगा या नहीं ?, वह पराभवको पायेगा या जिन्दा देखूँगी या नहीं ?,
जीतेगा ?, मैं उसे
ऐसे काली महारानीके प्रश्नोंको सुनकर, भगवान बोले
1
हे काली महारानी ! तेरा पुत्र कालकुमार तीन २ हजार हाथी-घोडे-रथ और युद्धकी समस्त सामग्री सहित कूणिक राजाके साथ रथमुशल संग्राममें युद्ध
હે ભગવન્ ! મારા પુત્ર કાલકુમાર ત્રણ ત્રણ હજાર હાથી—ઘેાડા—થ તથા ત્રણ કરોડની પાયદળ સેનાની સાથે રથમુશલ સંગ્રામમાં ગયા છે તે વિજયી થશે કે નહિ ?, તે જીવતા રહેશે કે નહિ ?, તે હારી જશે કે જીતશે ?, હું તેને જીવતા हेभी है नहि ?,
આવા કાલી મહારાણીના પ્રશ્નો સાંભળીને ભગવાન ખેલ્યાન્હ કાલી મહા રાણી ! તારા પુત્ર કાલકુમાર ત્રણ ત્રણ હજાર હાથી-ધાડા-રથ તથા સુદ્ધની તમામ સામગ્રી સાથે કૃણિક રાજાની સાથે રથમુશલ સંગ્રામમાં યુદ્ધ તથત સેના
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निरयावलिकामा सैन्यगतहतत्वारोपात् हतः, मानगतमथितत्वारोपात् मथितः, प्रवराश्चते वीराः प्रवरवीराः सुभटाः, घातिताः विनाशिता यस्य स प्रवरवीरघातितः आर्षत्वान्न निष्ठान्तस्य पूर्वप्रयोगः, चिहस्य सैन्यलक्षणस्य ध्वजाः गरुडचिसयुक्ताः केतवः, पताकाच चिह्नध्वजपताकाः, निपातिताः चिह्नध्वजपताका यस्य स निपातितचिह्नध्वजपताकः, हतो मथितः भवरवीरघातितश्चासौ निपातितचिहध्वजपताकः इतमथितप्रवरवीरघातितनिपातितचिह्नध्वजपताका, तादृशः सन् निरालोकाः हतप्रभाः : दिशः कुर्वन्-सर्वदिशः प्रभारहिताः कुर्वन् चेटकस्य राज्ञः सपर्श-समानौ पक्षौ-वामदक्षिणपा: यस्य (आगमनस्य) तत् सपक्षं यथास्यात्तथा आगत इत्यनेनान्वयः, क्रियाविशेषणम् , अतः सामान्ये नपुंसकम् , एवं सप्रतिदिक्-समानाः प्रतिदिशो यस्य तत् सप्रतिदिक् समानप्रतिदिक्त्वेन परस्परमभिमुखं यथास्यात्तथा, इदमपि क्रियाविशेषणम् , रथेन प्रतिरथं-प्रतिगतः संमुखः रथो यस्य तत् प्रतिरथं रथाभिमुखं यथास्यात्तथा हव्यं शीघ्रम् आगतः आयातः, चेटकराजस्य सर्वथा सम्मुख समागत इत्यर्थः ॥१९॥
मूलम्
तए णं से चेडए राया कालं कुमारं एजमागं पासइ, कालं
करता हुआ वह अपनी सेना और सारी रणसामग्रीके नष्ट होजाने पर, बडे २ वीरो के मारे जाने और घायल होने पर तथा ध्वजा पताका आदि चिन्होंके धराशायी होजानेसे अकेला ही अपने पराक्रमसे सभी दिशाओंको निस्तेज करता हुआ रथपर बैठकर चेटक राजाके रथके सामने महावेगसे आया ॥१९॥ તથા રણુસામગ્રી તમામ નાશ પામવા પછી, મોટા મોટા વીરેનાં મરણથી અને ઘાથલ થવાથી તથા ધજા પતાકા આદિ ચિહે જમીનદોસ્ત થઈ જવાથી એકજ પિતાના પરાક્રમથી બધી સિામે નિતેજ કરતો થકે રથમાં બેસીને ચેટક શાના સ્થતી એ બાગી આપે. (૧૯)
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: सुन्दरबोधिनी टीका कालकुमारवृत्तान्त
२०१
एज्जमाणं पासित्ता आरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे धणुं परामुस, परामुसिचा उसुं परामुसइ, परामुसित्ता वइसाहं : ठाणं ठाइ, ठाइत्ता आययकण्णाययं उसुं करे, करिता कालं कुमारं एगाहचं कूडाहचं जीवियाओ ववरोवेइ | तं कालगए णं काली ! काले कुमारे नो चेव णं तुमं कालं कुमारं जी+ माणं पासिहिसि ॥ २० ॥
छाया
1
ततः खलु स चेटको राजा कालं कुमारम् एजमानं पश्यति । कालमेजमानं दृष्ट्वा आशुरुप्तः यावत् मिसमिसन् धनुः परामृशति, परामृश्य इषुं परामृशति, परामृश्य वैशाखं स्थानं तिष्ठति, स्थिता आयतकर्णायत मिं करोति, कृत्वा कालं कुमारमेकाहत्यं कूटाहत्यं जीविताद् व्यपरोपयति । तत् कालगतः खलु कालि ! कालः कुमारः नो चैव खलु त्वं कालं कुमारं जीवन्तं द्रक्ष्यसि ॥ २० ॥
1
-
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टीका
' तरणं से चेडए ' इत्यादि - ततः - कूणिकस्य रणे चेटकसम्मुखगमनान्तरं सः = पूर्वोक्तः प्रसिद्धो वा चेटको राजा एजमानम् = आयान्तं कालं कुमारं पश्यति, एजमानं कालं कुमारं दृष्ट्वा = अवलोक्य आशुरुप्तः = शीघ्रकोपाविष्टः, 'जाब शब्देन - 'रुडे, कुविए, चंडिकिए, ' एतेषां सङ्ग्रहः । एतच्छाया-रुष्टः, कुपितः, चाण्डिक्यितः, इति ॥ रुष्टः रोषयुक्तः, कुपितः - अन्तः स्थित
4
तणं से चेडए ' इत्यादि । तदनन्तर चेटक राजा कालकुमारको अपने सम्मुख आया हुआ देखकर तत्क्षण क्रुद्ध हो उठे, रूष्ट हुए और आन्तरिक कोपके कारण उनके होठ फडफडाने लगे, उन्होने रौद्ररूप एवं क्रोधकी
धारण किया कुमारने पोतानी सम्मुख આંતરિક ક્રોધ ને લીધે ધારણ કર્યું... એવં કોની
'तपण से चेडर' त्याहि त्यार आहे राम આવેલું જોઇને તત્કાળ ક્રેષિત થઈ ગયા, રૂટ થયા તથા તેના હાઢ રડવા લાગ્યા, તેમણે રૌદ્ર (ભયાનક) રૂપ
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निरयावलिकामा क्रोधेन प्रस्फुरदधरः, चाण्डिक्यितःचाण्डिक्यं-रौद्ररूपत्वं संजातमस्येति चाण्डिवियतः प्रकटितरौद्ररूपः, मिसमिसन् देदीप्यमानः क्रोधज्वालया ज्वलन् इत्युपलक्षणम् , तेन 'तिवलियं भिउडि निडाले साह? ' इत्येषामपि ग्रहणम् । त्रिवलिका-भृकुटि नेत्रविकारविशेषं ललाटे संहृत्य-विधाय धनुः= शरासनं परामृशति-सज्जीकरोति, इषु-बाणं परामृशति-धनुषि संयोजयति, उपसर्गबलात्तत्तदर्थों धातूनामनेकार्थवाद्वा, परामृश्य-धनुः शरं च परस्परं संयोज्य वैशाखं स्थानं योधस्थानविशेष तिष्ठति आश्रयति, स्थिवा=योधस्थानमाश्रित्य इषुबाणं आयतकर्णायतम्-आकर्णान्तं करोति=कर्षयति कुता= आकर्णान्तं बाणमाकृष्य कालं कुमारमेकाहत्यम्-एकैवाऽऽहत्या आहननं महारो यत्र (जीवितव्यपरोपणे) तदेकाहत्यं ' क्रियाविशेषणं' तत् , एवं कूटाहत्यं कूटे इव तथाविधपाषाणसम्पुटादौ कालविलम्बाभावसाधाद् आहत्या हननं यत्र तत् कूटाहत्यं, कूटस्येव पाषाणमयमहामारणयन्त्रस्येवाहत्याऽऽहननं वा यत्र तत् कूठाहत्यम् , इदमपि क्रियाविशेषणम् , तद् यथास्यात्तथा जीविताद
ज्वालासे जलने लगे। ललाटपर आवेशसे तोन सल चढाते हुए धनुषको सज्ज किया और उसपर बाण चढाकर युद्ध स्थलमें खडे होगये और बाणको कान तक खींचा, अन्तमें 'चेटकनेकूट, अर्थात् बहुत बड़ा पत्थरका बनाया हुआ — महाशस्त्रविशेष ' जिसके एक वारके
જવાલાથી બળવા લાગ્યા. આવેશથી કપાળ ઉપર ત્રણ રેખા ચડાવીને ધનુષ સજજ કરી તેના ઉપર બાણ ચડાવીને યુદ્ધની જગાએ ઊભા રહ્યા અને બાણને કાન સુધી अभ्यु. भामरे थेट? 'ट' अर्थात् म मोटा ५२र्नु मनाda Heta. વિશેષ જેના એક વારના પ્રહારથીજ પ્રાણ નીકળી જાય તેની પેઠે આણને પ્રબલ
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सुन्दरबोधिनी टीका काली रानीको पुत्रशोक व्यपरोपयति व्यपगमयति इन्तीति यावदिति, हे कालि ! तत्-तस्माद कारणात् खलु-निश्चयेन कालगतः कालवशं प्राप्तः कालः कुमारः। नैव खलु त्वं कालं कुमारं जीवन्तं द्रक्ष्यसि अवलोकयिष्यसि ॥२०॥
. .. मूलम्. तएणं सा काली देवी समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म महया पुत्तसोएणं अप्फुन्ना समाणी परसुनियत्ताविव चंपगलया धसत्ति धरणीयलंसि सव्वंगेहिं संनिवडिया । तएणं सा काली देवी मुहुत्तंतरेणं आसत्था समाणी उठाए उट्टेइ, उद्वित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं बयासी-एवमेयं भंते ! तहमेयं भंते !, अवितहमेयं भंते !, असदिद्धमेयं भंते !, सच्चेणं एसमटे से जहेव तुम्मे वदह,-त्तिकटु समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता तमेव धम्मियं जाणप्पवरं दूरुहइ दूरुहित्ता जामेव दिस पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया ॥ २१॥
छायाततः खलु सा काली देवी श्रमणस्य भगवतो महावीरस्याऽन्तिके एतमय श्रुखा निशम्य महता पुत्रशोकेन आक्रान्ता सती परशुनिकृत्तेव चम्पकलता 'धस' इति धरणीतले सर्वा: संनिपतिता । ततः खलु सा काली देवी मुहूर्तान्तरेण आस्वस्था सती उत्थया उत्तिष्ठति, उत्थाय श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दिखा नमस्थिता एवमवादीत्-एवमेतद् प्रहारसे ही प्राण निकल जाय, उसी प्रकार बाणके प्रबल प्रहारसे कालकुमारके प्राण लेलिये, इस लिए हे काली ! तू कालकुमारको जीवित नहीं देखेगी ॥२०॥ . પ્રહાર કરી કાલકુમારને પ્રાણ લઈ લીધું. આથી હે કાલી! તું કાલકુમારને ofa म न (२०)
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ર
निरयावलिकास्त्र
मदन्त ! तथ्यमेतद् भदन्त ! अवितथमेतद् भदन्त ! असंदिग्धमेतद् मदन्त !, सत्यः खलु एषोऽर्थः तद् यथैतद् यूयं वदथ, इति कृत्वा श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा तमेव धार्मिकं यानप्रवरं दूरोहति, दूरुह्य यस्या दिशः प्रादुर्भूता तामेव दिशं प्रतिगता ॥२१॥ टीका --
,
इत्यादि - ततः = पुत्रवृत्तान्तश्रवणानन्तरं
" तरणं सा सा काली देवी श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अन्तिके - समीपे एतम् = ' कालं कुमारं जीवितं न द्रक्ष्यसी 'ति अर्थवृत्तान्तं श्रुत्वा = आकर्ण्य निशम्य = हृदयेनावधार्य महता - विशालेन पुत्रशोकेन - कालकुमारनामकनिजसुतमरणजन्यदुःखेन
“
6
अण्णा' इति - आक्रान्ता व्याप्ता सती परशुनिकृत्तेत्र - कुठारच्छिन्ना चम्पकलता इव धस ' इति धरणीतले सर्वाङ्गैः समूर्च्छ संनिपतिताः । ततः= तत्पश्चात् सा काली देवी मुहूर्तान्तरेण = अन्तर्मुहूर्तानन्तरम् आस्वस्था=लब्धचैतन्या सती उत्थया कथमपि दास्यादिना उत्थानक्रियया उत्तिष्ठति, उत्थाय श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते, नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवं वक्ष्यमाणम् अवदत् - हे भदन्त ! एतत् = भवद्भाषितम्, एवम् = एवमेवाऽस्ति,
तएणं सा ' इत्यादि - भगवान के समीप अपने पुत्रका ऐसा वृत्तान्त सुनकर और उसे निश्चय स्वरूप समझकर काली महारानी पुत्रमरणके दुःखसे दुःखित होकर कुठारसे कटी हुई चम्पकलताके समान मूच्छित हो घडामसे भूमिपर गिर पडी । कुछ समय पश्चात् सचेष्ट होकर दासी आदिके द्वारा खडी हुई । वाद भगवानको वन्दन नमस्कार करके बोली - हे भदन्त ! जैसा आप कहते हैं, वैसा ही है,
'तपणं सा' छत्याहि भगवाननी पासेथा पोताना पुत्रनुं मे वृत्तांत સાંભળોને તથા તે નક્કી સમજીને કાલી મહારાણી પુત્રમરણના દુઃખથી દુઃખિત ગઈને જેમ કુહાડીથી કપાયેલી ચંપકલતા પડી જાય તેમ સૂચ્છિત થઈને જમીન પર લડાક પડી ગઈ. થાડા વખત પછી ચૈતના આવી તથા દાસીઓની મદદથી ઊભી થઈ. પછી ભગવાનને વંદન નમસ્કાર કરીને માલી હુ સંત જેમ આપ
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सुन्दरबोधिनी टीका गौतमप्रश्न
१०५
"
तथ्यम् = यथार्थम्, हे मदन्त ! अवितथम् = यथार्थस्वरूपनिरूपकम्, हे भदन्त ! 'असंदिग्धम् - संशयविपरीतानभ्यवसायवर्जितम् हे भदन्त ! एषः भवदुक्तः अर्थः = भावः खलु निश्चयेन सत्यः सम्यग्निर्णायकः, तद् यथा येन प्रकारेण यूयमेतद्वदय इति कृत्वा इति भगवत्समीपे निवेद्य श्रमण भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा, नमस्यित्वा तमेव = पूर्वोक्तमेव धार्मिकं नवरं दूरोहति दूरुह्य यस्या दिशः प्रादुर्भूता तामेव दिशं प्रतिगता ॥ २१ ॥
,
कालीराज्ञ्या गमनानन्तरं गौतमः पृच्छति - ' भंतेत्ति ' इत्यादि ।
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मूलम् —
तेत्ति भगवं गोयमे जाव वंदति नम॑सति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-काणं भंते ! कुमारे तिहिं दंतिसहस्सेहि जाव रहमुसलं संगामं संगामेमाणे चेंडएणं रन्ना एगाहचं कूडाहचं जीवियाओ ववरोविए समाणे कालमासे कालं किच्चा कहिं गए ? कहिं उचवन्ने ? । गोयमाइ समणे भगवं महावीरे गोयमं एवं वयासी एवं खलु गोयमा ! काले कुमारे तिहिं दतिसहस्सेहिं जाव जीवियाओ ववरोविए समाणे कालमासे कालं किच्चा चउत्थीए पंकष्पभाए पुढवीए हेमाभे नरगे दससागरोवमहिइएस नेरइएस नेरइयत्ताए उववने ॥ २२ ॥
छाया
भदन्त ! इति भगवान् गौतमः यावद् वन्दते नमस्यति वन्दित्वा यथार्थ है, सन्देह रहित है, सत्य है और सर्वथा सत्य है । ऐसा कहकर भगवान् को वन्दन - नमस्कार करके पूर्वोक्त धार्मिक रथमें बैठकर अपने स्थानपर गयी ॥२१॥
૧૪
કહેા છે. તેમજ છે. યથાર્ય છે. શંકારહિત છે. સત્ય છે તથા સર્વથા સાચું જ છે. એમ કહી ભગવાનને વંદન નમસ્કાર કરી અગાઉ વર્ણવેલા ધાર્મિક રથમાં मेसीने पोताना स्थाने भ४. (२१)
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०६
. निरयावलिकासव नमस्यित्वा एवमवादी-कालः खल भदन्त ! कुमारः त्रिभिर्दन्तिसहस्रयविद् रथमुशलं संग्राम संग्रामयन् चेटकेन राज्ञा एकाहत्यं कूटाहत्यं जीविताद् व्यपरोपितः सन् कालमासे कालं कृत्वा क गतः ? क उपपन्नः ? । गौतम ! इति श्रमणो भगवान् महावीरः गौतममेवमवादीत्-एवं खलु गौतम ! कालः कुमारस्त्रिभिर्दन्तिसहस्रैर्यावद् जीविताद् व्यपरोपितः सन् कालमासे कालं कृत्वा चतुर्थ्यां पङ्कप्रभायां पृथिव्यां हेमाभे नरके दशसागरोपमस्थितिकेषु नैरयिकेषु नैरयिकतया उपपन्नः ॥२२॥
टीकाहे भदन्त ! इति संबोध्य-भगवान् गौतमः यावत् मोक्षगतिप्राप्त श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीहे भदन्त ! कालः कुमारः खलु-निश्चयेन त्रिभिर्दन्तिसहस्रैः यावद् रथमुशलं सामं सामयन् चेटकेन राज्ञा वज्ररूपेण एकेनैव बाणेन जीविताद् व्यपरोपितो मृतः सन् कालमासे-कालावसरे कालं कृत्वा क गतः ? क्क उपपन्नः ?
रानीके चले जानेके बाद श्री गौतम स्वामी भगवानसे पूछते हैं-'भंतेत्ति' इत्यादि। ............... . .
हे भदन्त ! कालकुमार तीन२ हजार हाथी घोडे रथ और अपने सम्पूर्ण सैन्य वर्गके साथ स्थमुशल संग्राममें लडाई करता हुआ चेटक राजाके वज्रस्वरूप एक ही बाणसे मारा गया। वह मृत्युके समय कालप्राप्त होकर कहाँ गया और कहाँ उत्पन्न हुआ ।
राना गया ५४ी श्री गौतम स्वामी मानने पुछे छ:-'भंतेत्ति' त्या. '' હે ભદંત! કાલકુમાર ત્રણ ત્રણ હજાર હાથી-ઘડરથ તથા પિતાના સંપૂર્ણ સન્ય વર્ગ સાથે રથમુશલ સંગ્રામમાં લડાઈ કરતો થકે ચેટક રાજાના વજાસ્વરૂપ એકજ બાણથી માર્યો ગયે. તે મૃત્યુને અવસરે કોલ કરીને ક્યાં ગયે અને જ્યાં ઉત્પન્ન થયે?.
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सुन्दरपोधिनी टीका भगवानका उत्तर
हे गौतम ! इति संबोध्य श्रमणो भगवान् महावीरो भगवन्तं गौतमम्-एवम् वक्ष्यमाणम् अवादी-हे गौतम ! खलु-निश्चयेन एवम्= -उक्तकर्मकारकः कालकुमारः त्रिभिर्दन्तिसहस्रैर्युक्तो यावत् जीविताद् व्यपरोपितः सन् कालमासे कालं कृत्वा चतुर्थी पङ्कप्रभायां पृथिव्यां हेमाभे नामके नरके-नरकावासे दशसागरोपमस्थितिकेषु नैरयिकेषु नैरायिकतया नारकित्वेन उपपन्नः समुत्पन्नः ॥२२॥ गौतमखामी पुनः पृच्छति-'कालेणं भंते' इत्यादि ।
मूलम्कालेणं भंते ! कुमारे केरिसएहिं आरंभेहिं केरिसएहिं समारंभेहिं केरिसएहिं :' आरंभसमारंभेहिं केरिसएहि भोगेहिं केरिसएहिं संभोगेहि केरिसएहिं भोगसंभोगेहिं केरिसरण वा असुभकडकम्मपन्भारेणं कालमासे कालं किच्चा चउथीए पंकप्पभाए पुढवीए जाव नेरइयत्ताए उववन्ने ? । एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे होत्था, रिद्धत्थिमियसमिद्धे । तत्थणं रायगिहे नयरे सेणिए नामं राया होत्या; महया०। तस्स णं सेणियस्स रन्नो नंदा नामं देवी होत्था, सोमाला जाव विहरति । तस्सणं सेणियस्स रो पुत्ते नंदाए देवीए अत्तए अभए नामं कुमारे होत्था, सोमाले जाव सुरूवे साम-दान-भेद-दंड-कुसले जहा चित्तो जाव रज्जधुराए चिंतए यावि होत्या ॥२३॥ ..
भगवान कहते हैं-हे गौतम ! वह क्रूर कर्म करनेवाला कालकुमार अपनी सेना सहित लडता हुआ यहाँसे मरकर पङ्कप्रभा नामक चौथे नरकके अन्दर हेमाभ नामके नरकावासमें दस सागरोपम स्थितिवाला नैरयिक हुआ. ॥ २२ ॥ : - ભગવાન કહે છે—હે ગૌતમ! આવાં ક્રૂર કર્મ કરનાર તે કાલકુમાર પિતાની સેના સહિત લડતે શઠે અહીંથી મરણ પામી પંકપ્રભા નામના ચોથા નરકમાં હેમામ નામના નરકાવાસમાં દસ સાકરેપમની સ્થિતિવાળો નેરયિક નારકી) થ. ૨૨
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शिवालिकामा
छाया• कालः खलु भदन्त ! कुमारः कीदृशैरारम्भैः, कीदृशैः समारम्भैर, कीदृशैः आरम्भसमारम्भैः, की गैः, कीदृशैः संभोगैः, कीदृशैः भोगसंभोगैः कीदृशेन वा अशुभकृतकर्मपागभारेण कालमासे कालं कृत्वा चतुर्थी पङ्कमभायां पृथिव्यां यावत् नैरयिकतया उपपन्नः ?। एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नाम नगरमभूत् ऋद्धस्तिमितसमृद्धम् । तत्र खलु राजगृहे नगरे श्रेणिको नाम राजाऽभूत् महा० । तस्य खलु श्रेणिकस्य राज्ञो नन्दा नाम देवी अभूत सुकुमारा० यावत् विहरति । तस्य खलु श्रेणिकस्य राज्ञः पुत्रो नन्दाया देव्या आत्मजः अभयो नाम कुमारोऽभूत् सुकुमारः यावत् सुरूपः साम-दान-भेद-दण्डकुशलः, यथा चित्तो यावद् राज्यधुरायाचिन्तकोऽभूत् ॥२३॥
टीकाकालकुमारः खलु हे भदन्त ! कीदृशैः आरम्भैः हिंसादिकसावधानुष्ठानैः, समारम्भैः खनादिना पाण्युपमर्दनरूपव्यापारैः, आरम्भसमारम्भैःआरभ्यन्ते विनाश्यन्ते जीवा यैहिंसादिव्यापारैरित्यारम्भास्तेषां समारम्भाः
पुनः श्री गौतम स्वामी पूछते हैं:-'कालेणं भंते' इत्यादि ।
हे भदन्त ! वह कालकुमार हिंसा झूठ आदि सावद्य अनुष्ठानरूप आरम्भसे तलवार आदि शस्त्रोद्वारा प्राणियोंका उपमर्दनरूप समारम्भसे, जिससे प्राणियोंका संहार होता है ऐसे आरम्भके आचरण करनेसे, किस तरहके शब्दादि विषय भोगोंसे तथा
पुन: गौतम स्वामी पुछे छ:-'कालेण भंते 'त्या.
હે ભદંત ! તે કાલકુમાર હિંસા, જુઠ, આદિ સાવદ્ય અનુષ્ઠાનરૂપ આરંભથી, તલવાર આદિ શસ્ત્રોથી પ્રાણિઓને નાશ કરવારૂપ, સમારંભથી, જેનાથી પ્રાણિઓનો સંહાર થાય એવા આરંભનું આચરણ કરવાથી,
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सुन्दरबोधिनी रीका अभयकुमार सम्पादनानि तैः, कीदृशैः भोगैः शब्दादिविषयैः ?, कीदृशैः सम्भोगैः तीव्रा-- मिलाषजनकविषयै ?, कीदृशैः भोगसम्भोगैः महारम्भपरिग्रहरूपविषयामिलापैः ?, कीदृशेन वा अशुभकर्मपाग्भारेण अशुभकर्मसमूहेन कालमासेकालावसरे कालं कुवा चतुर्थी पृथिव्यां यावत् नैरयिकतया उत्पन्नः ?। हे गौतम ! ‘एवं खलु' इत्यादि निगदसिद्धम् ॥२३॥ किस तरहके तीत्र अभिलाषाजनक विषयोंके संभोगोंसे और किस तरहके महारम्भ
और महापरिग्रहरूप विषयोंके अभिलाषारूप भोगोपभोगोंसे और कौनसे अशुभ कर्मोके पुञ्जसे वह काल करके चौथे नरकमें गया ?। भगवान कहते हैं-हे गौतम ! उस काल उस समयमें राजगृह नामक नगर था जो ऋद्धि आदिसे समृद्ध था। उसमें श्रेणिक राजा राज्य करते थे। उनकी रानीका नाम नन्दा था, जो अत्यन्त सुकुमार थी, यावत् अपने पूर्वजन्म उपार्जित पुण्यसे प्राप्त मनुष्य-सम्बन्धी सुखोंका अनुभव करती हुई विचरती थी। उनके अभयकुमार नामक पुत्र था, जो सुकुमार सुरूप तथा सभी लक्षणोंसे युक्त था। साम, दान, दण्ड, भेद आदि नीतिमें निपुण था। चित्तप्रधानके समान राजकार्य दक्षतासे करता था ॥ २३ ॥
કેવી જાતના શબ્દાદિ વિષયભેગથી, કેવી જાતની તીવ્ર અભિલાષા વડે ઉત્પન્ન થતા વિષયના સંગથી, તથા કેવી જાતના મહારંભ અને મહાપરિગ્રહરૂપ વિષયની અભિલાષારૂપ ગોપભેગથી તથા કેવાં અશુભ કર્મોના પુંજથી તે કોલ કરીને (મૃત્યુ પામીને) ચેથા નરકમાં ગયે? ભગવાન કહે છે—હે ગૌતમ! તે કાલે તે સમયે રાજગૃહ નામની નગરી હતી જે ઋદ્ધિ આદિથી સમદ્ધ હતી. તેમાં શ્રેણિક Non rय ४२ता सता. तनी शानु नाम ना रे महु सुभार उती. પિતાનાં પૂર્વજન્મમાં કરેલાં પુણ્યથી પ્રાપ્ત થયેલાં મનુષ્ય-સબંધી સુખને અનુભવ કરતી વિચરતી હતી. તેને અભયકુમાર નામે પુત્ર હતું જે સુકુમાર રૂપવાન તથા બધાં લક્ષણોથી યુક્ત હતે. સામ, દામ, દંડ, ભેદ આદિ નીતિમાં નિપુણ હતા. ચિત્ત પ્રધાનની પેઠે રાજકાર્યને દક્ષતાપૂર્વક કરતે હતે. ૨૩
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निरयावलिकासत्र
.. तस्सणं सेणियस्स रनो चेल्लणा नाम देवी होत्था, सोमाला जाव विहरइ । तएणं सा चेल्लणा देवी अन्नया कयाइं तंसि तारिसगंसि वासघरंसि नाव सीहं सुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा, जहा पभावई, जाव सुमिणपाढगा पडिविसज्जिता, जाव चेल्लणा से वयणं पडिच्छित्ता जेणेव सए भवणे तेणेव अणुपविट्ठा ॥२४॥
छाया
तस्य खलु श्रेणिकस्य राज्ञश्चेल्लना नाम देवी अभूव सुकुमारा यावद् विहरति । ततः खलु सा चेल्लना देवी अन्यदा कदाचित् तस्मिन् तादृशके वासगृहे यावत् सिंहं स्वप्ने दृष्ट्वा खलु प्रतिबुद्धा यथा प्रभावती, यावत् स्वमपाठकाः प्रतिविसर्जिताः यावत् चेल्लना तस्य वचनं प्रतीष्य यत्रैव स्वकं भवनं तत्रैवानुपविष्टा ॥ २४॥ .
... टीका'तस्स णं'' इत्यादि । 'तस्य खलु श्रेणिकस्य राज्ञः' इत्यारभ्य 'तत्रैवानुप्रविष्टा' इत्यन्तस्य व्याख्यानं सुगमम् ॥२४॥
'तस्स णं' इत्यादि। -~~ उस श्रेणिक राजाकी दूसरी रानी चेलना थी, जो सुकुमारता (कोमलता) आदि नारीगुणोंसे सभी तरह युक्त थी। उसने स्वप्नमें एक समय सिंह देखा उसी समय जाग उठी और प्रभावतीके समान राजाको जाकर स्वप्न कहा, राजाने स्वप्नपाठक बुलाये। उन्होंने स्वप्नका फल कहा और राजाने उन्हें प्रीतिदान देकर विसर्जित ( बिदा ) किये। स्वप्नफल सुननेके पश्चात् रानी अपने महलमें गयी ॥ २४ ॥
'तस्सणं' त्याहि. ते नि: शनी बी ए सना ती. २ सुभार (કેમળતા) આદિ સ્ત્રીને લગતા ગુણોથી સર્વ પ્રકારે યુક્ત હતી. તેણે સ્વપ્નામાં એક વખત સિંહને જે અને જાગી ઉઠી. પ્રભાવતીની પેઠે રાજાને સ્વપ્ન કહ્યું આથી રાજાએ સ્વપ્ન પાઠકેને બોલાવ્યા, તેઓએ સ્વપ્નફલ કહ્યું. રાજાએ તેમને પ્રીતિદાન આપીને વિસર્જિત (વિદાય) કર્યા. સ્વપ્નફલ સાંભળ્યા પછી રાણી પિતાના મહેલમાં ગઈ. ૨૪
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सुन्दरबोधिनी टोका चेल्लना रानीका दोहद
मूलम्
तणं तीसे चेल्लाए देवीए अन्नया कयाई तिन्हं मासाणं बहुपडि - gori अमेयारूवे दोहले पाउन्भू - धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव जम्मजीवियफले जाओ णं णियस्स रन्नो उदरवलीमंसेहिं सोल्लेहि य तलिहि य भजिएहि य सुरं च जाव पसन्नं च आसाएमाणीओ जाव परिभाएमाणीओ दोलहं पविर्णेति ॥ २५ ॥
१९९
छाया
ततः खलु तस्याश्रेल्लनाया देव्या अन्यदा कदाचित् त्रिषु मासेषु बहुप्रतिपूर्णेषु अयमेतद्रूपो दोहदः प्रादुर्भूतः - धन्याः खलु ताः अम्बाः यावत् ( तासां) जन्म - जीवित- फलं याः खलु निजस्य राज्ञः उदरवलिमांसैः शूलैश्च तलितैश्च भर्जितैश्च सुरां च यावत् प्रसन्नां च आस्वादयन्त्यो यावत् परिभाजयन्त्यो दोहदं प्रविनयन्ति ॥ २५ ॥
टीका-
'तएणं तीसे' इत्यादि । ततः - तदनन्तरं खलु - निश्वयेन अन्यंदा कदाचित् चेल्लनाया देव्याः त्रिषु मासेषु बहुप्रतिपूर्णेषु अयम्-वक्ष्यमाणः, एतद्रूपः = एतदाकारकः दोहदः प्रादुर्भूतः - समुत्पन्नः-ताः अम्बाः= जनन्यः धन्याः = प्रशंसनीयाः यावत् जन्मजीवितफलं तासां जन्मनो जीवितस्य
4 तणं तीसे ' इत्यादि ।
बाद रानी चेलनाको, गर्भके तीन महिने पूरे होनेपर ऐसा दोहद - ( दोहला ) उत्पन्न हुआ कि-धन्य हैं वे माताएँ, यावत् उन्हीका जन्म और जीवित सफल है जो
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'तपणं तोसे' धत्याहि पछी राणी येसमाने भए महिना पुरा थतां मेव। अब (તીવ્ર ઇચ્છા) થયા કે ધન્ય તે માતાને તેમના જન્મ તથા જીવતર સફલ છે
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--११२
...
निरयावलिकासत्र च फलं-आनन्दरूपम् याः निजस्य राज्ञः-स्वामिनः खलु शूलैः पक्वैः तलितः स्नेहादिना पक्वैः भर्जितैः केवलवह्निपक्वैः उदरवलिमांसः दोहदं प्रविनयन्तीत्यनेन सम्बन्धः, सुरां-मदिरां च यावत् प्रसन्नां च तदाख्यं मुरा विशेषम् आस्वादयन्त्यो यावत् परिभाजयन्त्यः अन्योन्यं ददत्यो दोहदं प्रविनयन्ति-पूरयन्ति, अहमपि स्वपतेः श्रेणिकस्य राज्ञः पक्वतलितभर्जितोदरवलिमांसदोहदं प्रपूरयेयं तदा धन्या किंतु तादृक्करणेऽसमर्थाऽस्मि, इत्यादि ॥२५॥
मूलम्तएणं सा चेल्लणा देवी तंसि दोहलंसि अविणिज्जमाणंसि मुक्का भुक्खा निम्मंसा ओलुग्गा औलुग्गसरीरा नित्तेया दीणविमणवयणा पंडुइयमुही ओमंथियनयणवयणकमला जहोचियं पुप्फवत्थगंधमल्लालंकारं अपरिभुंजमाणी करतलमलियव्य कमलमाला ओहयमणसंकप्पा जाव झियाइ ॥२६॥
छायाततः खलु सा चेल्लना देवी तस्मिन् दोहदे अविनीयमाने शुष्का अपने पतिके 'उदरबलि ( कलेजा )के मांसको शूलपर पकाकर और तेलमें तलकर एवं अग्निमें सेककर मदिराके साथ आस्वादन करती हुई यावत् परस्पर-आपसमें देती हुई अपने दोहद (दोहले )को पूरा करती हैं। यदि मैं भी अपने पति श्रेणिक राजाके पकाये हुवे तले हुवे सेके हुवे उदरवलि ( कलेजा )के मांससे दोहदको पूरा करू तो मैं धन्य बनूँ परन्तु ऐसा करनेमें मैं असमर्थ हूं ॥ २५ ॥ કે જે પોતાના પતિના ઉદરવલિ (કલેજા)ના માંસને શૂળ ઉપર સેકીને તથા તેલમાં તળીને કે અગ્નિમાં સેકીને દારૂની સાથે તેને સ્વાદ લેતી અને અરસપરસ દેતાં પોતાના એ દોહદને પરિપૂર્ણ કરે છે. જો હું પણ મારા પતિ શ્રેણિક રાજાના
ARY .one Pre SRISHTRA અપકાયેલાં તળેલાં અને સેકેલાં કલેજાનાં માંસથી મારે દોહદ પૂરા કરૂં તે ધન્ય મનું પણ તેમ કરવામાં હું અસમર્થ છું. (૨૫)
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सुन्दरबोधिनी टोका चेल्लना रानीका दोहद बुअक्षिता निर्मासा अवरुग्णा, अवरुग्णशरीरा निस्तेजाः दीनविमनोवदना पाण्डकितमुखी अवमन्थितनयनवदनकमला यथोचितं पुष्पवस्त्रगन्धमाल्यालङ्कारम् अपरिभुञ्जन्ती करतलमलितेव कमलमाला उपहतमनःसङ्कल्पा यावद् ध्यायति ॥२६॥
टीका'तएणं सा' इत्यादि-ततः तदनु सा चेलना देवी तस्मिन् दोहदे अविनीयमाने-अपूर्यमाणे सति शुष्का-शुष्कमाया रुधिरपरिशोषणात्, बुभुक्षिता आहाराऽकरणेन बुभुक्षितेव, निर्मासा-मांसरहिता-मांसद्धयभावात् , अवरुग्णा= रोगवतीव मनोवृत्तिभङ्गात् , अवरुग्णशरीरा-भग्नगात्रा, निस्तेजाः शरीरद्युतिरहिता, दीनविमनोवदना-दीनस्येव वि-विगतम्-उत्साहरहितं मनः, कान्ति रहितं वदनं च यस्याः सा तथा-अकिञ्चनवदुत्साहहीनमनोनिष्पभमुखवतीति
'तएणं सा' इत्यादि
उसके बाद वह चेलना रानी दोहद नहीं पूरा होनेसे रक्तके सूख जानेके कारण सूख गयी। अरुचिसे आहार आदि नहीं करनेके कारण भूखी रहने लगी। शरीरमें मांस नहीं रहनेके कारण क्षीणकाय हो गयी, मनको चोट पहुँचनेसे रोगी के समान हो गयी, शरीरकी कांति हट जानेसे तेजरहित हो गयी, उसका मन दीनके समान उत्साहरहित और मुख निस्तेज हो गया, अतएव रानीका चेहरा
'तणं सा' त्याह
ત્યાર પછી તે ચેલના રાણી પિતાને દેહદ (ઈચછા) પુરી ન થવાથી લેહી સૂકાઈ જવાથી શુષ્ક થઈ ગઈ. અરૂચિથી આહાર આદિ ન કરવાથી ભૂખી રહેવા માંડી. શરીરમાં માંસ ન રહેવાથી શરીરે દુબળી થઈ ગઈ મનમાં ઘા લાગવાથી રેગીસમાન થઈ ગઈ. શરીરની કાંતિ ઓછી થતાં તેજરહિત થઈ ગઈ. તેનું મન દીન સમાન ઉત્સાહહિત તથા મહું નિસ્તેજ થઈ ગયું. આમ રાણીને
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निरयाचलिकामत्र भावः । पाण्डुकितमुखी पाण्डुवर्णयुक्तमुखवती, अवमथितनयनवदनकमला=अधः कृतनेत्रमुखकमला, यथोचितं यथायोग्यं . पुष्पवस्त्रगन्धमालालङ्कारम्अपरिभुञ्जन्ती-असेवमाना, करतलमलिता-हस्ततलमर्दिता कमलमालेव कान्तिहीना, उपहतमनःसंकल्पा-कर्तव्याकर्तव्यविवेकविकला यावद् ध्यायतिआर्तध्यानं करोति ॥२६॥
मूलम्- .. तएणं तीसे चेल्लणाए देवीए अंगपडियारियाओ चेल्लणं देवि मुक्कं भुक्खं जाव झियायमाणीं पासंति, पासित्ता जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता करतलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु सेणियं रायं एवं वयासी-एवं खलु सामी ! चेल्लणा देवी न याणामो केणइ कारणेणं मुक्का मुक्खा जाव झियायइ ॥२७॥
छायाततः खलु तस्याश्चेल्लनाया देव्या अङ्गपतिचारिकाश्चेल्लनां देवीं शुष्कां बुभुक्षितां यावद् ध्यायन्ती पश्यन्ति, दृष्ट्वा यत्रैव श्रेणिको राजा तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागत्य, करतलपरिगृहीतं शिरआवर्त मस्तकेऽञ्जलिं कृता फीका पड गया। इस कारण नेत्र और मुखकमलको नीचे किये हुए यथायोग्य पुष्प. वस्त्रादिकको भी नहीं : धारण करती थी, वह हाथसे मली हुई-कुचली हुई कमलकी मालाके समान कान्तिहीन दुःखित मनवाली कर्तव्याकर्तव्यके विवेकसे रहित होकर यावत् आर्तध्यान करती थी ॥२६॥
ચહેરો ફીકો પડી ગયો. આથી નેત્ર તથા મુખ નીચે ઝુકાવીને બેઠો થતી યથાયોગ્ય પુષ્પ-વસ્ત્રાદિ અલંકારો ધારણ કરતી નહોતી. તે હાથના મર્દનથી કરમાયેલી કમલની માળ જેવી. કાંતિ વગરની દુખિત મનવાળી કર્તવ્ય અકર્તવ્ય વિવેકથી हित मनी ने सजा मत भात ध्यानमा यातायती ती. (२६)
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सुन्दरबोधिनी टोका चेल्लना रानोका दोहद श्रेणिकं राजानमेवमवादिषुः-एवं खलु स्वामिन् ! चेल्लना देवी न जानीमः केनापि कारणेन शुष्का बुभुसिता यावद् ध्यायति ॥२७॥
टीका- 'तएणं तीसे' इत्यादि-'झियायइ' इत्यन्तस्य व्याख्या निगदसिद्धा ॥२७॥
मूलम्तएणं से सेणिए राया तासिं अंगपडियारियाणं अंतिए एयमढे सोचा निसम्म तहेव संभंते समाणे जेणेव चेल्लणा देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, चेल्लणं देविं मुकं भुक्खं जाव झियायमाणिं पासित्ता एवं वयासो-किन्नं तुमं देवाणुप्पिये ! सुक्का भुक्खा जाव झियायसि ? ..
तएणं सा चेलणा देवी सेणियस्स रन्नो एयमटु णो आढाइ णो परिजाणाइ तुसिणीया संचिट्ठइ ।
'तएणं तीसे' इत्यादि.
उसके बाद चेलना रानीकी सेवा करनेवाली दासियोंने अपनी रानीकी ऐसी अवस्था देखकर श्रेणिक राजाके पास गयी, और हाथ जोडकर श्रेणिक राजासे कहने लगीं-हे स्वामिन् ! चेलना महारानी न जाने किस कारण सूख गयो है और दुःखित होकर आर्तध्यान करती है। ॥ २७ ॥
'तएणं तोसे त्या
ત્યાર પછી ચેલના રાણુની સેવા કરવાવાળી દાસીઓ પિતાની રાણીની એવી અવસ્થા જોઇને શ્રેણિક રાજાની પાસે જઈ હાથ જોડી શ્રેણિક રાજાને કહેવા લાગી- સ્વામિન ! ખબર નથી કે ચેતના રાણી શું કારણથી સુકાઈ ગઈ છે તથા मित यन. d रे (२७)
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. निरयालिकामंत्र तएणं से सेणिए राया चेल्लणं देविं दोपि तचंपि एवं क्यासीकिं णं अहं देवाणुप्पिए ! एयमहस्स नो अरिहे सवणयाए जं गं तुम एयमé रहस्सीकरेसि ?।
तएणं सा चेलणा देवी सेणिएणं रन्ना दोच्चं पि तच्च पि एवं वुत्ता समाणी सेणियं रायं एवं वयासी-पत्थि णं सामी ! से केइ अद्वे जस्स णं तुम्भे अणरिहा सवणयाए, नो चेव णं इमस्स अट्ठस्स सवणयाए, एवं खलु सामी ! ममं तस्स ओरालस्स जाव महासुमिणस्स तिहं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अयमेयारूवे दोहले पाउन्भूए–'धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ जाओ णं णियस्स रनो उदरवलिमंसेहिं सोल्लएहि य जाप दोहलं विणेति' तएणं अहं सामी ! तंसि दोहलंसि अविणिज्जमाणसि मुक्का भुक्खा जाव झियायामि ॥२८॥
छायाततः खलु स श्रेणिको राजा तासामङ्गमतिचारिकाणामन्तिके एतमर्थ श्रुखा निशम्य तथैव संभ्रान्तः सन् यत्रैव चेल्लना देवी तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य चेल्लनां देवीं शुष्कां बुभुक्षितां यावद् ध्यायन्तीं दृष्ट्वा एवमवादीत्-किं खलु वं देवानुप्रिये ! शुष्का बुभुक्षिता यावद् ध्यायसि ?।
सतः खलु सा चेलना देवी श्रेणिकस्य राज्ञः एतमर्थ नो आद्रियते नो परिजानाति तूष्णीका :सतिष्ठते ।
ततः खलु स श्रेणिको राजा चेल्लनां देवीं द्वितीयमपि तृतीयमपि (वारं) एवमवादीत्-किं खलु अहं देवानुपिये ! एतदर्थस्य नो अर्हः श्रवणाय यत्खलु त्वं एतमर्थ रहस्यीकरोषि ? ।
ततः खलु सा चेल्लमा देवी श्रेणिकेन राक्षा द्वितीयमपि तृतीयमपि (वारं) एवमुक्ता सती श्रेणिकं राजानमेवमवादी-नास्ति खलु खामिन् !
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सुन्दरबोधिनी 'टीका चेल्लना रानोका दोहद -स कोऽप्यर्थः यस्य खलु यूयमनौंः श्रवणाय, नो चैव. खलु अस्यार्थस्य श्रवणाय एवं खलु स्वामिन् ! मम तस्य उदारस्य यावत् महास्वमस्य (फलखरूपगर्भस्य) त्रिषु मासेषु बहुमतिपूर्णेषु अयमेतद्रूपो दोहदः प्रादुर्भूतः'धन्याः खलु ता अम्बाः याः खलु निजस्य राज्ञ उदरवलिमांसैः शूलकैश्च यावद् दोहदं विनयन्ति,' ('यद्यहमप्येवं करोमि तदा धन्या भवामि') इति । ततः खलु अहं हे स्वामिन् ! तस्मिन् दोहदे अविनीयमाने शुष्का बुभुक्षिता यावद् ध्यायामि ॥२८॥
टीका'तएणं से' इत्यादि । संभ्रान्तः सन् आश्चर्यचकितः सन् । नो आद्रियते=न सम्मानयति, नो परिजानाति-न सम्यङ् नृपवचनं हृदये
'तएणं से' इत्यादि.
महाराज श्रेणिक दासियोंके मुखसे इस वृत्तान्तको सुनकर घबडाते हुए शीघ्र चेलना रानीके पास आये, और चेलना रानीकी दुरवस्थाको देखकर बोले-हे देवानुप्रिये ! तुम्हारी इस तरहकी दुःखजनक अवस्था कैसे हो गयी ? और क्यों आर्तध्यान कर रही हो ?, यह सुनकर रानी कुछ नहीं बोली । पश्चात् राजाने दो तीन बार पुनः पूछा-हे देवानुप्रिये ! क्या तुम्हारी इस बातको सुनने लायक मैं नहीं हूँ जो मुझसे तुम अपनी बात छिपाती हो? । इस प्रकार राजाद्वारा दो तीन वार पूछे जाने
'तएणं से' त्याहि.
મહારાજ શ્રેણિક, દાસીઓને મઢેથી આ વૃત્તાંતને સાંભળી, ગભરાતા જલદી ચિલના રાણીની પાસે આવ્યા, તથા ચેલના રાણીની ખરાબ અવસ્થાને જોઈને બેલ્યા- હે દેવાનુપ્રિયે! તમારી આ પ્રકારની દુઃખજનક અવસ્થા કેવી રીતે થઈ ગઈ? શા માટે. આર્તધ્યાન કરે છે? આ સાંભળીને રાણી કાંઈ ને બોલી. પછી રાજાએ બે ત્રણ વાર ફરીને પૂછયું- હે દેવાનુપ્રિયે! શું તમારી આ વાત સાંભળવા લાયક હું નથી જેથી મારાથી તું પિતાની વાત છુપી રાખે છે. આ પ્રકાર
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निण्यापलिकासत्र निदधाति । तूष्णीका-समालम्बितमौनभावा । द्वितीयमपि द्वितीयवारं तृतीयमपितृतीयवारम् । शेषं सुगमम् ॥२८॥
मूलम्तएणं से सेणिए राया चेल्लणं देवि एवं वयासी-माणं तुम देवाणुप्पिए ! ओहय० जाव झियायह, अहं णं तहा जइस्सामि जहा णं तव दोहलस्स संपत्ती भविस्सइत्ति कटु चेल्लणं देविं ताहि इटाहिं कंताहिं पियाहिं मणुनाहिं मणामाहिं ओरालाहिं कल्लाणाहिं सिवाहिं धन्नाहिं मंगलाहिं
पर रानी बोली-हे स्वामिन् ! ऐसी कोई बात नहीं है जो आपसे छुपाई जाय और आप उसे सुननेके योग्य नहीं हों, आप उसे सर्वथा सुन सकते हैं, वह बात इस प्रकार है-उस उदार स्वप्नके फल स्वरूप गर्भके तीसरे मासके अन्तमें मुझे इस प्रकार दोहद ( दोहला ) उत्पन्न हुआ है कि वे माताए धन्य हैं जो अपने पतिके उदरवलिका मांस पकाकरके तलकरके और अग्निमें सेक भूनकर मदिराके साथ एक दूसरी सखीको देती हुई-आस्वादन करती हुई अपना दोहद पूरा करती हैं। मुझे भी ऐसा ही दोहद उत्पन्न हुआ है-लेकिन हे स्वामिन् ! वह दोहद पूरा नहीं होनेसे आज मेरी यह दशा हुई है और मैं आर्तध्यान करती हूँ ॥ २८ ॥
બે ત્રણ વાર રાજાએ પૂછવાથી રાણી બોલી–હે સ્વામી! એવી કઈ વાત નથી જે આપથી છાની રખાય તથા આપ તે સાંભળવા યોગ્ય ન હે. આપ તે સર્વથા સાંભળી શકે છે. એ વાત આમ છે-તે ઉદાર સ્વપ્નના ફલ સ્વરૂપ ગર્ભના ત્રીજા મહિનાના અંતમાં મને એવા પ્રકારને દેહદ (ઇચ્છા) ઉત્પન્ન થયે કે તે માતાને ધન્ય છે કે જે પિતાના પતિના ઉદર-વલિના માંસને પકાવી તળીને અગ્નિમાં સેકી ભુંજી મદિરાની સાથે એક બીજી સખીને આપતી આસ્વાદ લેતી પોતાને દેહદ પૂરે કરે છે. મને પણ એજ દેહદ ઉત્પન્ન થયા છે પણ સ્વામિન્ ! તે અરે નહિ થવાથી આજ મારી આવી દશા થઇ છે અને આર્તધ્યાન કરું છું. (૨૮)
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सुन्दरबोधिनो टोका श्रेणिक राजाके विचार मियमधुरसस्सिरीयाहिं वग्गृहि समासासेइ, समासासित्ता चेलणाए देवीए अंतियाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासणवरंसि पुरत्याभिमुहे निसीयइ, निसीइत्ता तस्स दोहलस्स संपत्तिनिमित्तं बहूहिं आएहि उवाएहि य उप्पत्तियाहि य वेणइयाहि य कम्मियाहि य पारिणामियाहि य परिणामेमाणे२ तरस दोहलस्स आयं वा उवायं वा ठिई वा अविंदमाणे ओहयमणसंकप्पे, जाव झियायइ ॥२९॥
छाया-.
ततः खलु स श्रेणिको राजा चेल्लनां देवीमेवमवादी-मा खलु त्वं देवानुप्रिये ! अवहत० यावद् ध्याय, अहं खलु तथा यतिष्ये, यथा खलु तव दोहदस्य सम्पत्तिर्भविष्यतीति कृला चेल्लनां देवीं ताभिरिष्टामिः कान्ताभिः पियाभिर्मनोज्ञाभिर्मनोऽमाभिरुदाराभिः कल्याणाभिः शिवाभिर्धन्याभिर्माङ्गल्याभिर्मितमधुरसश्रीकाभिर्वल्गुभिः समाधासयति, समाश्चास्य चेल्लनाया देव्या अन्तिकात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव बाह्या उपस्थानशाला यत्रैव सिंहासनं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य सिंहासनवरे पौरस्त्याभिमुखो निषीदति, निषद्य तस्य दोहदस्य सम्पत्तिनिमित्तं बहुभिरायैरुपायैश्च औत्पत्तिकीभिश्च वैनयिकीभिश्च कार्मिकी( कर्मजा )भिश्च पारिणामिकीभिश्च परिणामयन् तस्य दोहदस्य आयं वा उपायं वा स्थितिं वा अविन्दन् अपहतमनः संकल्पो यावद् ध्यायति ॥ २९॥
टीका- 'तएणं से' इत्यादि । ततः तदनन्तरं स श्रेणिको राजा चेल्लनामवादी-हे देवानुपिये ! त्वं आर्तध्यानं मा कुरु, अहं तथा यतिष्ये यथा
'तएणं से' इत्यादि । चेलना रानीकी ऐसी बात सुनकर राजा बोले-हे देवानुप्रिये ! तुम आर्त'तएणं से प्रत्या ચેલના રાણની આવી વાત સાંભળી રાજા બોલ્યા-”હે દેવાનુપ્રિયે! તું
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निरयावलिकासत्र तव दोहदस्य सम्पत्तिः- सम्पन्नता भविष्यतीति कृत्वा इति कथयित्वा चेल्लनां देवीं ताभिः वक्ष्यमाणाभिः इष्टाभिः अभिलषणीयाभिः, कान्ताभिः वाञ्छितार्थपूरणीभिः, मियाभिः प्रेमोत्पादिकाभिः, मनोज्ञाभिः= शोभनाभिः-मनोऽमाभिः पुनःपुनःमनोऽनुस्मरणीयाभिः, उदाराभिः -अत्यभूताभिः, कल्याणीभिः चाञ्छितार्थमाप्तिकारिकाभिः, शिवाभिः उपद्रवरहिताभिः, धन्याभिः गर्भवाञ्छासम्पादिकाभिः, माङ्गल्याभिः कर्णप्रियाभिः, मितमधुरमश्रीकाभिः प्रमितमत्तकोकिलशब्दवन्मनोहरस्वरशोभाभिः, वल्गुभिः वाणोभिः समाश्वासयति सन्तोषयति । समाश्वास्य चेल्लनादेवीसमीपात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य यत्र बाह्या उपस्थानशाला आस्थानमण्डपः, यत्र सिंहासनं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य सिंहासनवरे श्रेष्ठसिंहासने पौरस्त्या
ध्यानको छोडो मैं ऐसा ही प्रयत्न करूँगा जिससे तुम्हारा दोहद पूरा हो। ऐसा कहकर राजाने मनको आह्लाद करनेवाली, वाञ्छित अर्थको देनेवाली प्रेममयी, मनोज्ञ, बारम्बार मनको अच्छी लगनेवाली, अद्भुत, मनोवांछित फलको देनेवाली, सुखदायी, गर्भवाञ्छाको पूर्ण करनेवाली, कानोंको प्रिय लगनेवाली, मत्त कोकिलाके स्वरके समान मनोहर वाणी द्वारा रानीको सन्तुष्ट किया। रानीको इस प्रकार आश्वासन देकर राजा सभामण्डपमें आये, और पूर्व दिशाकी ओर मुँहकर अपने सिंहासनपर बैठे तथा उस दोहदको पूरा करनेकी चिन्ता करने लगे, परन्तु
આર્તધ્યાન છેડી દે. હું એજ પ્રયત્ન કરીશ કે જેથી તારે દેહદ પુરે થાય. એમ કહી રાજાએ મનને આનંદ કરાવનારી, વાંછિત અર્થ (ઇચછા પ્રમાણે)
पापाजी, प्रेममया, मनाश, पारवा२ भनने सारी बासनारी, सद्भुत, भनाવાંચ્છિત ફળને દેવાવાળી, સુખદાયી, ગર્ભવાંછાને પૂર્ણ કરવાવાળી, કાનને પ્રિય લાગવાવાલી, મત્ત બનેલ કેયલના સ્વર જેવી મનહર વાણી દ્વારા રાષ્ટ્રને સંતુષ્ટ કરી. રાણીને આ પ્રકારે આશ્વાસન દઈને રાજા સભામંડપમાં આવ્યા. તથા પૂર્વદિશા તરફે મેં રાખી પોતાના સિંહાસન પર બેઠા. તથા તે દેહદ (ઈચ્છા) પુરા કરવાની ચિંતા કરવા લાગ્યા. પરંતુ
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सुन्दरबोधिनी टीका चेल्लना रानोका दोहद
१२१
भिमुखः = पूर्वाभिमुखः सन् निषीदति - उपविशति तस्य दोहदस्य सम्पतिनिमित्तं = सम्पादनार्थ बहुभिः अनेकैः आयैः साधनैः उपायैः-प्रयोग:, तथाऔत्पत्तिकीभिः–शास्त्राभ्यासनिरपेक्षाऽदृष्टाऽश्रुताऽननुभूतविषयग्राहिकाभिः, च-पुनः चैनयिकीभिः गुरुरत्नाधिकादिशुश्रूषासंजाताभिः कार्मिकीभिः कर्मजाभिः - अनिशं क्रियाकरणेन जायमानाभिः, पारिणामिकीभिः-वयआदिपरिणामजन्याभिः परिणामः दीर्घकाल पूर्वापरपर्यालोचजन्य आत्मनो धर्मविशेषः, स प्रयोजनमस्याः सा पारिणामिकी, अवयवगतबहुत्वविवक्षायां ताभिः, चतुर्विधाभि बुद्धिभिः परिणामयन् २ = दोहदसम्पादनरूपविचारं कुर्वन् २ तस्य दोहदस्य आयं = साधनम् वा उपायं-प्रयोगं वा स्थिर्ति व्यवस्थां वा अविन्दन् अलभमानो भूपः अपहतमनःसंकल्पो यावद् ध्यायति-आर्तध्यानं 'करोति ॥ २९ ॥
,
( १ ) शास्त्रों के अभ्यास विना ही अनदेखे अनसुने और अनुभवमें भी न आये हुए विषयोंको यथार्थ रूपसे ग्रहण करनेवाली औत्पत्तिकी बुद्धि,
( २ ) विनयसे उत्पन्न होनेवाली बैनयिकी बुद्धि,
( ३ ) हमेशा कार्य करनेसे उत्पन्न होनेवाली कार्मिकी बुद्धि,
( 8 ) वयके परिणामसे उत्पन्न होनेवाली पारिणामिकी बुद्धि,
इन चारों प्रकारकी बुद्धि द्वारा तथा अनेक साधन (सामग्री) एवम् अनेक प्रयोग द्वारा भी राजा उस दोहदको पूरा करनेमें समर्थ नहीं हो सके अतएव आर्तध्यान करने लगे ॥ २९ ॥
(१) शास्त्रोना અભ્યાસ વિનાજ न જોયેલા ન सालઘેલા તથા અનુભવમાં પણુ ન આવેલા વિષયાને ચાર્થરૂપે અણુવા વાળી 'मोत्यत्तिडी' बुद्धि, (२) विनयथी उत्पन्न थनारी 'चैनयिडी' शुद्धि, (3) हमेशां अर्थ કરવાથી ઉત્પન્ન થનારી ‘કાર્મિકી' બુદ્ધિ, (૪) ઉમરના પરિણામે ઉત્પન્ન થનારી પારિણામિકી’ બુદ્ધિ. આ ચારે પ્રકારની બુદ્ધિ દ્વારા તથા અનેક સાધન-સામગ્રી એટલે અનેક પ્રયાગ દ્વારા પણ રાજા તે દાદને પુરી કરવામાં સમય ન થયા તેથી આત ધ્યાન કરવા લાગ્યા. (૨૯)
૧૬
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निरयावलिका सूत्र
मूलम् -
इमं च णं अभए कुमारे पहाए जाव शरीरे, सयाओ गिहाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उबट्टाणसाला जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता सेणियं रायं ओहय० जाव कियायमाणं पास, पासित्ता एवं वयासी - अन्नया णं ताओ ! तुन्भे ममं पासित्ता es जाव हियया भवह किन्नं ताओ ! अज्ज तुब्भे ओहय० जाव झियायह ? तं जइणं अहं ताओ ! एयस्स अट्ठस्स अरिहे सवणयाए तो णं तुब्भे मम एयम जहाभूयमवित असंदिद्धं परिकहेह, जाणं अहं तस्स अट्ठस्स अंतगमणं करोमि । तएण से सेणिए राया अभयं कुमारं एवं वयासी - णत्थि णं पुत्ता ! से केइ अ जस्स णं तुमं अणरिहे सत्रणयाए, एवं खलु पुत्ता ! तव चुलमाया लगाए देवीए तस्स ओरालस्स जाव महासुमिणस्स तिह मासाणं बहुपडिपुन्नाणं जाव उयरवलिमंसेहिं सोल्लेहि य जात्र दोहलं विर्णेति ।
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तरणं सा चेल्लणा देवी तंसि दोहलंसि अविणिज्जमाणंसि मुक्का जात्र झियायई । तरणं अहं पुत्ता ! तस्स दोहलस्स संपत्तिनिमित्तं बहूहिं आएहिं य जाव दिई वा अर्विदमाणे ओहय० जाव कियामि । तरणं से अमर कुमारें सेणियं राय एवं वयासी - माणं ताओ ! तुब्भे ओहय० जाव झियायह, अहं णं तह जत्तिहामि, जहाणं मम चुल्लमाउयाए वेल्लणाए देवीए तस्स दोहलस्स संपत्ती भविस्सइ-त्ति कट्टु सेणियं रायं ताहिं इट्ठाहिं जाव समासासे, समासासित्ता जेणेव सए गिए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता अभिंतरए रहस्सिए ठाणिज्जे पुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी- गच्छहणं तुब्भे देवाणुप्पिया ! सुणाओ अल्लं मंसं रुहिरं वत्थिपुडगं च गिन्छ । तरणं ते ठाणिज्जा पुरिसा अभयेणं कुमारेणं एवं बुत्ता समाणा हट्ट करतल० जाव पडिसुणेचा अभ्यस्त कुमारस्स अंतियाओ
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सुन्दरबोधिनी टोका चेल्लना रानीका दोहद
१२३. पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता जेणेव सूणा तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छिता, अल्लं मंसं रुहिरं वत्थिपुडगं च गिहंति, गिण्हित्ता, जेणेव अभए कुमारे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता, करयल० तं अल्लं मंसं रुहिरं वत्यिपुडगं 'च उवणेति ॥३०॥
छाया
इतश्च खलु अभयः कुमारः स्नातः यावत्-शरीरः स्वकात् गृहात प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव बाह्या उपस्थानशाला यत्रैव श्रेणिको राजा तत्रैवोपागच्छति, श्रेणिकं राजानम् अवहत० यावद् ध्यायन्तं पश्यति, दृष्ट्वा एवमवादी-अन्यदा खलु तात ! यूयं मां दृष्ट्वा हृष्ट० यावद्हृदयाः भवथ, किं खलु तात ! . अथ यूयम् अवहत० यावद् ध्यायथ, तद् यदि खल्वहं तात ! एतस्यार्थस्याऽर्हः श्रवणतायै तदा खलु यूयं मम एतमर्थं यथाभूतमवितथमसंदिग्धं परिकथयत, यस्मात् खल्वहं तस्यार्थस्यान्तगमनं करोमि । .. ततः खलु स श्रेणिको राजा अभयकुमारमेवमवादी-नास्ति खलु पुत्र ! स कोऽप्यर्थः यस्य खलु बमनहः श्रवणतावै । एवं खलु पुत्र ! तव क्षुल्लमातुश्चेल्लनाया देव्यास्तस्योदारस्य यावत् महाखमस्य त्रिषु मासेषु बहुमतिपूर्णेषु यावत् उदरवलिमासैः शूलकैश्चः यावत् दोहदं विनयन्ति । 'ततः खलु सा चेल्लना देवी तस्मिन् दोहदे अविनीयमाने शुष्का यावद् ध्यायति । ततः खल्वहं पुत्र ! तस्य दोहदस्य सम्पत्तिनिमित्तं बहुभिरायैरुपायैश्च यावत् स्थिति वा अविन्दन् अपहत० यावद् ध्यायामि ।
ततः खलु सः अभयः कुमारः श्रेणिकं राजानमेवमवादी-मा खलु तात ! यूयम् अवहत० यावद् ध्यायत, अहं खलु तथा यतिष्ये यथा खलु मम क्षुल्लमातुश्चेल्लनाया देव्यास्तस्य दोहदस्य सपत्तिर्भविष्यतीति कला श्रेणिक 'राजानं तामिरिष्टाभिर्यावद् वल्गुभिः समाश्वासयति, समाधास्य यत्रैव स्वक
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१२४
निरयापलिकासत्र गृहं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य आभ्यन्तरान् राहस्यिकान् स्थानीयान् पुरुषान् शब्दयति, शब्दयिता एवमवादीत-गच्छत खलु यूयं देवानुभियाः ! सूनात आई मांसं रुधिरं बस्तिपुटकं च गृह्णीत ।
ततः खलु ते स्थानीयाः पुरुषा अभयेन कुमारेण एचमुक्ताः सन्तः हृष्टाः करतल० यावद् प्रतिश्रुत्य अभयस्य कुमारस्यान्तिकात् प्रतिनिष्कामन्ति, प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव शूना तत्रैवोपागच्छन्ति, आ मांसं रुधिरं बस्तिपुटकं च गृह्णन्ति, गृहीता यत्रैव अभयः कुमारस्तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य करतल० तमाई मांसं रुधिरं बस्तिपुटकं च उपनयन्ति ॥३०॥
टीका'इमं च णं' इत्यादि-यथाभूतमवितथमसंदिग्धमित्येतानि पदानि पूर्वमेव व्याख्यातानि । राहस्यिकान्-गुप्तविचारकान् स्थानीयान् गौरवशालिनः,
'इमं च णं' इत्यादि ।
इधर अभयकुमार स्नानकर यावत् सभी प्रकारके आभूषणोसे सुसज्जित हो अपने महलसे निकलकर उसी सभा-मण्डपमें आए जहाँ श्रेणिक राजा बैठे थे। श्रेणिक राजाको आर्तध्यान करते हुए देखकर बोले
हे तात ! और दिन जब मैं आता था तो आप मुझे देखकर प्रसन्न होते थे, किन्तु आज क्या कारण है जो मेरी ओर देखते भी नहीं और आर्तध्यानमें
'इम च णत्याह.
આ બાજુ અભયકુમાર સ્નાન કરી તમામ પ્રકારનાં આભૂષણેથી સજ્જ થઈ મહેલમાંથી નીકળી તેજ સભામંડપમાં આવ્યા કે જયાં શ્રેણિક રાજા બેઠા હતા. શ્રેણિક રાજાને આર્તધ્યાન કરતા જોઈ કહ્યું- હે તાત! હું જ્યારે બીજા દિવસે આવે ત્યારે આપ મને જે ખુશી થતા હતા પણ આજ શું કારણ છે કે મારી સામું જોતા નથી તથા આર્તધ્યાનમાં બેઠા છો. જે હું આ વાતને
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सन्दरबोधिनी टोका चेल्लना रानोका दोहद सनातः अमारिघोषितातिरिक्तवधस्थानात् आई मासं रुधिरं बस्तिपुटकं शोणित
बैठे हैं। अगर इस बातको सुननेके योग्य मुझे समझते हैं तो जैसी हो वैसी यथार्थरूपसे निःसंकोच होकर मुझे कहिये, जिससे मैं उसके निराकरणका प्रयत्न करूँ। .......
अभयकुमारकी ऐसी विनययुक्त वाणी सुनकर राजा बोले-हे पुत्र ! ऐसी कोई बात नहीं है जो तुझसे छिपाई जाय-तेरी छोटी माता चेलना रानीको महास्वप्नके तीसरे महिनेके अन्तमें दोहद ( दोहला) उत्पन्न हुआ है कि- आपके उदरवलिके मांसको शूला ( पका) कर और तल–भूनकर मदिराके साथ आस्वादन
करूँ।'
इस दोहद ( दोहला )के पूर्ण न होनेके कारण वह महादुःखित और कृशकाय होकर आर्तध्यान कर रही है। हे पुत्र ! इस दोहद ( दोहला )को पूर्ण करनेके लिए अनेक उपाय सोचे परन्तु कोई उपाय पूरा नहीं दिखायी देता एतदर्थ आर्तध्यान करता हुआ बैठा हूँ। अपने पिताके मुखसे ऐसे वचन सुनकर, अभय
સાંભળવા ચોગ્ય છું એમ સમજતા હે તે જે હેય તે યથાર્થ રૂપે નિ:સંકોચ થઈ મને કહે જેથી હું તેનું નિરાકરણ કરવા પ્રયત્ન કરું.
અભયકુમારની એવી વિનયયુક્ત વાણી સાંભળી રાજા બોલ્યા હે પુત્ર! એવી કોઈ વાત નથી કે જે તારાથી છાની રખાય–તારી નાની માતા ચેલના રાણીને મહાસ્વપ્નના ત્રીજા માસને અંતે દેહદ (ઈચ્છા) ઉત્પન્ન થયે છે કે-“તમારા ઉદરબલિમાંસને પકાવી તળી ભુંજી (સેકી) મદિરાની સાથે આસ્વાદ કરું. આ દેહદ પુરે ન થવાના કારણે તે મહાદુઃખિત તથા કૃશકાય થઈ આર્તધ્યાન કરી રહી છે, હે પુત્ર! તે દેહદને પૂર્ણ કરવા માટે અનેક ઉપાય વિચારી જયા પણ કોઈ ઉપાય પૂરો થાય તેમ દેખાતું નથી. એ માટે આર્તધ્યા કરતો બેઠો છું. પિતાના પિતાના મુખેથી એવાં વચન સાંભળી અભયકુમાર બેલ્યા- તાત ! આ
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निरयावलिकामा युक्तमुदरान्ततिभागं ('कलेजा' इति भाषायाम् ) गृह्णीत-आनयतेत्यर्थः । शेषं स्पष्टम् ॥३०॥
मूलम्तएणं से अभए कुमारे तं अल्लं मंसं रुहिरं कप्पणीकप्पियं करेइ, करित्ता जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छइ, उवाच्छित्ता, सेणियं रायं रहसिगयं सयणिज्जंसि उत्ताणयं निवजावेइ, निवजावित्ता, सेणियस्स उदरवलीसु तं अल्लं मंसं रुहिरं विरवेइ, विरवित्ता, वत्थिपुडएणं वेढेइ, वढित्ता सवंतीकरणेणं करेइ, करित्ता चेल्लणं देविं उप्पिंपासाए अवलोयणकुमार बोले-हे तात ! आप आर्तध्यानको छोडें, मैं शीघ्र ऐसा उपाय करूँगा जिससे मेरी माताका दोहद ( दोहला ) पूर्ण होजाय ।
. इस तरह विनययुक्त · मधुर वचनोंसे अपने पिताका मन सतुष्ट करके अभयकुमार अपने महल आये । महल आकर उनने अपने गुप्त पुरुषोंको बुलाये और कहा कि हे देवानुप्रियो ! तुम लोग अमारि-घोषणाकी सीमाके बाहरके वधस्थानसे बस्तिपुटके साथ गीला मांस लाओ।
इसके बाद उन राजपुरुषोंने उनकी आज्ञाका यथावत् पालन किया ॥३०॥
આર્તધ્યાન છેડે, હું જલદી એવો ઉપાય કરીશ કે જેથી મારી માતાને દોહદ પૂર્ણ थइ नशे.
આ પ્રમાણે વિનય વાળાં મધુર વચનેથી પિતાના પિતાનું મન સંતુષ્ટ પમાડી અભયકુમાર પિતાને મહેલ ગયા. ત્યાં આવીને તેણે અંગત ગુપ્ત પુરૂષને બોલાવીને કહ્યું કે-હે દેવાનુપ્રિયે! તમે લેકે અમારિઘોષણા કરેલી સીમા (રાજ્યની અમુક સીમાની અંદર હિંસા ન કરવી એવી ઘેષણા-જાહેરાતવાળી જગ્યા) થી બહાર કસાઈખાનામાંથી બસ્તીપુટ સાથે લીલું (તાજું) માંસ લઈ આવે. - ત્યાર પછી તે રાજપુરૂએ તેમની આજ્ઞાનું કહ્યા પ્રમાણે પાલન કર્યું. (૩૦)
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। सुन्दरबोधिनो टोका चेल्लना रानीका दोहद वरगयं ठवावेइ, उवावित्ता चेल्लणाए देवीए अहे सपखं. सपडिदिसि सेणियं रायं सयणिज्जंसि उत्ताणगं निवजावेइ, सेणियस्स रमो उदरवलिमंसाई कप्पणीकप्पियाई करेइ, करित्ता से य भायणंसि पक्खिवति ।
तएणं से सेणिए राया अलियमुच्छियं करेइ करिता मुहुत्तंतरेणं अन्नमन्त्रेणं सद्धिं संलवमाणे चिट्ठइ । .. तएणं से अभयकुमारे सेणियस्स रनो उदरवलिमसाई गिण्हेइ, गिण्डित्ता जेणेव चेल्लणा देवी तेणेव उवागच्छइ, उवाच्छित्ता चेल्लणाए
देवीए उवणेइ । . तएणं सा चेल्लणा देवी सेणियस्स रन्नो तेहिं उदरवलिमंसेहिं सोल्लेहि
जाव दोहलं विणेइ । .. तएणं सा चेल्लणा देवी संपुण्णदोहला एवं संमाणियदोहला विच्छिन्नदोहला तं गब्भं सुहं मुहेणं परिवहइ ॥३१॥
छायाततः खलु सः अभयः कुमारस्तभाई मासं रुधिरं कल्पनीकल्पित करोति, कृत्वा यत्रैव श्रेणिको राजा तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य श्रेणिकं राजानं रहसिगतं शयनीये उत्तानकं निषादयति, निषाद्य श्रेणिकस्योदरवलिषु तदा मांस रुधिरं विरावयति, विराव्य, बस्तिपुटकेन वेष्टयति, वेष्टयित्वा स्रवन्तीकरणेन करोति, कृत्वा चेल्लनां देवीमुपरिभासादे अवलोकनवरगतां स्थापयति, स्थापयित्वा चेल्लनाया देव्या अधः सपक्षं सप्रतिदिक् श्रेणिकं राजानं. शयनीये उत्तानकं निषादयति, श्रेणिकस्य राज्ञ उदरवलिमांसानि कल्पनीकल्पितानि करोति, कृत्वा तच्च भाजने प्रक्षिपति ।
ततः खलु स श्रेणिको राजा अलीकछी करोति, कृत्वा मुहूर्तान्तरेण अन्योऽन्येन सार्दै सलपन् तिष्ठति ।
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. १२८
निरयावलिकासत्र - ततः खलु सः अभयकुमारः श्रेणिकस्य राज्ञः उदरवलिमांसानि गृह्णाति, गृहीत्वा यत्रैव चेल्लमा देवी तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य चेल्लनाया देव्या उपनयति । ___ततः खलु सा चेल्लना देवी श्रेणिकस्य राज्ञस्तैरुदरवलिमासैः शूलैविद् दोहदं विनयति।
ततः खलु सा चेल्लना देवी सम्पूर्णदोहदा एवं संमानितदोहदा विच्छिन्नदोहदा तं गर्भ सुखं-मुखेन परिवहति ॥ ३१॥
टीका__ 'तएणं से' इत्यादि-ततः तदनन्तरं सः अभयः कुमारः तद्-उपनीतम्-आर्द्रम् मांसं रुधिरं कल्पनीकल्पितं-कल्पनी कर्तरिका ‘कतरणी' इति भाषायाम् , तया कल्पितं–कर्तितं करोति, कल्पशब्दोऽत्र छेदनार्थकः, उक्तश्च–'सामर्थ्य वर्णनायां च, छेदने करणे तथा ।
औपम्ये चाधिवासे च, कल्प-शब्दं विदुर्बुधाः ॥१॥' - कृला यत्रैव श्रेणिको राजा तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य श्रेणिकं राजानं रहसिगतम् एकान्तेस्थितं शयनीये-शय्यायाम् उत्तानक-उत्तानं निषादयति शाययति, निषाध-शाययिता श्रेणिकस्योदरवलिषु उदरभागेषु तद्-उपनीतम् आई मासं रुधिरं च विरावयति-धातूनामनेकार्थवादुपसर्गबलाद्वा स्थापय
'तएणं से' इत्यादि
उसके बाद अभयकुमारने एकान्त स्थानमें राजाको सीधा सुलाकर उनके - पेटपर उस मांस-लोथडेको रक्खा, फिर उसे बस्तिचर्मसे बांधा, वह ऐसा प्रतीत
'तएणं से' त्याहि
પછી અભયકુમારે એકાંત સ્થાનમાં રાજાને સીધા (ચીતા) સુવડાવી તેના સ્ટ ઉપર તે માંસના લેથ ને રાખ્યા પછી તેને બસ્તીચર્મથી બાંધ્યું. તે એવું
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सुपरबोधिनी टीका चेल्लना रानीका दोहद
. १२९ तीत्यर्थः, विराव्य-स्थापयित्रा बस्तिपुटकेन वेष्टयति, वेष्टयिना स्रवन्तीकरणेन करोति-स्यन्दमानीकरोति, कृता उपरि पासादे चेल्लनां देवीम् अवलोकनवरगताम्=सम्यनिरीक्षणपरां स्थापयति, यथा सा सम्यग् द्रष्टुं शकुयात्तथा मासादोपर्युपवेशयति, स्थापयित्वा, चेल्लनाया देव्या अधाम्नीचैः सपर्श-समानवामदक्षिणपाई सप्रतिदिक्-समानप्रतिदिग्भागं सर्वथा चेल्लनासंमुखं यथा स्यात्तथा श्रेणिकं राजानं शयनीये उत्तानकं निषादयति-किश्चिदन्धकाराघृतपदेशे शाययति । श्रेणिकस्य राज्ञ उदरवलिमांसानि, कल्पनीकल्पितानि-शस्त्रकर्तितानीव करोति, कृत्वा तच्च-मांसं रुधिरं च भाजने पक्षिपति-निदधाति ।
ततः खलु स श्रेणिको राजा अलीकमच्छी-कपटमूर्छा करोति, कृत्वा मुहूर्तान्तरेण अन्योऽन्येन परस्परेण सार्द्ध संलपन्-वार्तालापं कुर्वन् तिष्ठति । होता था जैसे उससे रक्त झरता हो। तत्पश्चात् रानीको ऊपर-महलमें बुलवाई और उस दृश्यको देख सके एसे योग्य सुविधाजनक स्थानपर बैठाई। बाद राजाको जिसे रानी ठीक तरहसे देख सके ऐसे तथा कुछ अन्धकारवाले स्थानपर सुलाया, फिर राजाके पेटपर बँधे हुए उस मांसको कतरनी ( कैंची ) से काट-काटकर बर्तनमें रख दिया, कुछ देर तक राजा झूठी मूछोंमें पडे रहे, और बाद आपसमें बात-चीत करने लगे। લાગતું હતું કે જાણે તેમાંથી લેહી ઝરતું હોય. ત્યાર પછી રાણીને ઉપર-મહેલમાં બોલાવી તથા તે આ દેખાવ જોઈ શકે એવાં એગ્ય સુવિધાજનક સ્થાને બેસાડી પછી રાજાને જેમ રાણી બરાબર જોઈ શકે તેવા અને થોડા અંધકારવાળા સ્થાને સુવાડ્યા. પછી રાજાના પેટ ઉપર બાંધેલાં તે માંસ કાતરથી કાપી–કાપીને વાસણમાં રાખી દીધું.
થોડા વખત સુધી રાજા એટી મૂછમાં પડ્યા રહ્યા અને પછી આપસમાં વાત કરવા લાગ્યા
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१३०
निरयापलिका - ततः स खलु अभयकुमारः श्रेणिकस्य राज्ञः उदरवलिमांसानि गृह्णाति, गृहीत्वा यत्रैव चेल्लना देवी तत्रैवोपागच्छति; उपागत्य च चेल्लनाया देव्याः उपनयति-समीपे स्थापयति । .
____ ततः खलु सा चेल्लना देवी श्रेणिकस्य राज्ञस्तैरुदरवलिमासैः शुलैः= पक्वैः, यावद् दोहदं विनयति-पूरयति ।
ततः खलु सा चेल्लना देवी सम्पूर्णदोहदा सम्पूर्णमनोरथा एवं सम्मानितदोहदा आदृतदोहदा, विच्छिन्नदोहदा इष्टवस्तुमाप्त्याऽन्यवस्त्वभिलाषरहिता तं गर्भ सुखं सुखेन परिवहति-धारयति ॥३१॥
तए णं तीसे चेल्लणाए देवीए अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि अयमेयारूवे जाव समुपजित्था, जइ ताव इमेणं दारएणं गब्भगएणं चेव पिउणो उदरवलिमंसाणि खाइयाणि तं सेयं खलु मम एवं गभं साडित्तए वा गालित्तए वा विद्धंसित्तए वा, एवं संपेहेइ संपेहित्ता तं गभं बहूहिं गब्भसाडणेहि य गब्भपाडणेहि य गभगालणेहि य गम्भविद्धंसणेहि य इच्छइ साडित्तए वा पाडित्तए वा गालित्तए वा विद्धंसित्तए वा, नो चेव णं से गब्भे सडइ वा पडइ वा गलइ वा विद्धंसइ वा ॥३२॥
छाया.. ततः खलु तस्याश्चेल्लनाया देव्या अन्यदा कदाचित् पूर्वरात्रापररात्र
इस प्रकार अभयकुमारने रानीका. दोहद पूरा किया। रानी अपने दोहदके पूर्ण होनेपर सुखपूर्वक गर्भको धारण करने लगी ॥ ३१ ॥
આવી રીતે અભયકુમારે રાણીને દેહદ (ઈચ્છા) પુરે કયો. રાણી પિતાને દેહદ પુરો થવાથી ગર્ભ ધારણ કરતી સુખ પૂર્વક રહેવા લાગી. (૩૧)
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सुन्दरबोधिनो टोका चेल्लना रानीके विचार कालसमये अयमेतद्रूपो यावत् समुदपधत-यदि तावत् अनेन दारकेण गर्भगतेन चैव पितुरुदरवलिमांसानि खादितानि तत् श्रेयः खलु मम एतं गर्भ शातयितुं वा पातयितुं वा गालयितुं वा विध्वंसयितुं वा । एवं संपेक्षते, संप्रेक्ष्य तं गर्भ बहुभिर्गर्भशातनैश्च गर्भपातनैश्च गर्भगालनैश्च गर्भविध्वंसनैश्च इच्छति शातयितुं वा पातयितुं वा गालयितुं वा विध्वंसयितुं वा, नो चैव खलु स गर्भः शीर्यते वा पतति वा गलति वा विध्वंसते वा ॥३२॥
टीका'तएणं तीसे' इत्यादि-ततः तदनन्तरम् शातयितुम् औषधैर्विशीर्णयितुं, पातयितुं गर्भाशयावहिष्कर्तुम् , गालयितुं-रुधिरादिरूपं कर्तुम्, विध्वंसयितुं सर्वथा नाशयितुम् , एवम् उक्तमकारेण संप्रेक्षते विचारयति, अन्यत् सर्वं मुबोधम् ॥ ३२॥
'तएणं तीसे' इत्यादि
एक समय रानी रातको सोचने लगी कि इस बालकने गर्भमें आते ही अपने पिताके कलेजेका मांस खाया, इस लिये मुझे उचित है कि इस गर्भको सडानेके लिए, गिरानेके लिए, गलानेके लिए और विध्वंस करनेके लिए कुछ उपाय करूं । ऐसा विचारकर रानीने औषधि आदिके द्वारा वैसा ही उपाय किया, परन्तु वह गर्भ न सड सका, न गिर सका न गल सका और न उसका किसी प्रकार नाश हो सका ॥३२॥ .
'तएणं तोसे' त्याहि.
એક સમય રાણી રાતમાં વિચાર કરવા લાગી કે આ બાળકે ગર્ભમાં આવતાં જ પિતાના બાપનાં કલેજાનું માંસ ખાધું. આથી મારે માટે એગ્ય છે કે આ ગર્ભને સડાવવા માટે પાડી નાખવા માટે-ગાળવા માટે અને નાશ કરવા માટે કાંઈ ઉપાય કરૂં એવા વિચાર કરી રાણીએ ઓષધી આદિથી એવાજ ઉપાય કર્યો. પરંતુ તે ગર્ભ ન સચે, ન પડે, ન ગળે કે ન કેઈ પ્રકારે તેને નાશ થઈ શક્યો. (૩૨)
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१३२
निरयावलिकासन
मूलम्तए णं सा चेलणा देवी तं गम्भं जाहे नो संचाएइ बहूहिं गब्भसाडणेहि य जाव गभविद्धंसणेहि य साडित्तए वा जाव विद्धंसित्तए वा, ताहे संता तंता परितंता निम्विन्ना समाणा अकामिया अवसवसा अट्टक्सट्टदुइटा तं गम्भं परिवहइ ।
तए णं सा चेलणा देवी नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं जाव सोमालं सुरूवं दारयं पयाया ॥ ३३॥
छाया
ततः खलु सा चेल्लना देवी तं गर्भ यदा नो शक्नोति बहुभिर्गर्भशातनैश्च यावद् गर्भविध्वंसनैश्च शातयितुं वा यावद् विध्वंसयितुं वा तदा शान्ता तान्ता परितान्ता निविण्णा सती अकामिका अपस्ववशा आविशातदुःखार्ता तं गर्भ परिवहति ।
ततः खलु सा चेलना देवी नवसु मासेषु बहुमतिपूर्णेषु यावत् मुकुमारं मुरूपं दारकं प्रजाता ॥३३॥
. टीका'तएणं सा'' इत्यादि-ततः गर्भविध्वंसनप्रयासवैफल्यानन्तरं सा चेल्लना देवी यदा तं गर्भ नाशयितुं नो शक्नोति तदा श्रान्तालानिं प्राप्ता,
' तएणं. सा.' इत्यादि. बादमें रामी अपने प्रयासके त्रिफल होनेके कारण ग्लामिको. प्राप्त हुई,
'तएणं सात्यहि પછી રાણી પિતાના પ્રયાસમાં નિષ્ફલ જવાથી અફસોસ કરવા લાગી ખેદ
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ततः खलु सा चेलना देवी नवसु मासेषु सुकुमारं सुरूपं दारकं पुत्रं प्रजाता = प्रजनितवती ॥ ३३ ॥
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सुन्दरबोधिनी टीका कूणिकजन्म
तान्ता - खेदं प्राप्ता, परितान्ता-विशेषतः खिन्ना, निर्विण्णा - अतिशयितखेदापना, अकामिका=स्वकार्यसम्पादनाऽसमर्थतया वाच्छारहिता, अत एव अपस्ववशापराधीना आर्तत्रशार्तदुःखार्ता - आर्तवशम् = आर्तध्यानवश्यताम् ऋता = गताः ( प्राप्ता ) इति आर्तवार्ता सा चासौ दुःखेनार्ता - सा तथा - आर्तध्यानविवशीभूता दुःखिता सती तं गर्भ परिवहति ।
१३३
बहुप्रतिपूर्णेषु यावत्
मूलम् -
तणं तीसे चेलणाए देवीए इमे एयारूवे जाव समुप्पज्जित्था - ज ताव इमेणं दारएणं गव्भगएणं चैव पिउणो उदरवलिमंसाई खाइयाई, तं न नज्जइ णं एसदारए संमाणे अम्हं कुलस्स अंतकरे भविस्सइ, तं सेयं खलु अम्हं एयं दारगं उक्कुरुडियाए, उज्झा वित्तए एवं संपेहेर, संपेहिचा दासचेडिं सहावेइ सद्दावित्ता एवं बयासी - गच्छ गं तुमं देवाशुप्पिए. 1 एयं दारगं एगते उक्कुरुडियाए उज्झाहि ।
तणं सा दासचेंडी लगाए देवीए एवं वृत्ता समाणी करयल० जाव कट्टु चेलणाए देवीए एयमहं विणएणं पडिमुणेइ, पडिसृणित्ता तं
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खेदको प्राप्त हुई, अपने इच्छित कार्यके विफल होनेसे असमर्थ हुई और आर्तध्यान दुःखी होकर गर्भका पालन करने लगी, और फिर नौ मास बीतनेपर सुकुमार एवं सुन्दर पुत्रको जन्म दिया ॥ ३३ ॥
યુક્ત થઇ અને ધારેલું કાર્ય આમ નિષ્ફલ થવાથી પોતે અસમર્થ થઈ અને આત્ ધ્યાનવશ દુ:ખી થઈને ગર્ભનું પાલન કરવા લાગી. તા નવ આ વીસા
पछी सहभार भने सुंदर पुत्रने जन्म भयो (33)
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१३४
निरयावलकाar
दारगं करतलपुडेणं गिoes गिण्हित्ता, जेणेव असोगवणिया तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता तं दारगं एगंते उक्कुरुडियाए उज्झाइ । तए णं तेणं दारएणं एंगते उक्कुरुडियाए उज्झितेणं समाणेणं सा असोगवणिया उज्जोरिया यावि होत्था ।
तणं से सेणिए राया इमीसे कहाए लट्ठे समाणे जेणेव असोगवणिया तेणेव उवागच्छ उवागच्छित्ता, तं दारगं एगंते उक्कुरुडियाए उज्झियं पासेइ, पासित्ता आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे तं दारगं करतलपुडेणं गिण्हs गिण्डित्ता, जेणेव वेलणा देवी तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता चेल्लणं देवि उच्चावयाहिं आओसणाहिं, आओस आओसित्ता उच्चावयाहिं निम्भच्छगाहिं निब्भच्छे, निन्भच्छित्ता एवं उद्धंसणाहिं उद्धंसेइ, उद्धंसित्ता एवं वयासी - किस्स णं तुमं मम पुत्तं एगंते उक्कुरुडियाए उज्झाबेसि ? त्तिकहुँ चेलणं देविं उच्चावय सवहसावियं करेइ करिता, एवं वयासी तुमं णं देवाशुप्पिए ! एवं दारगं अणुपुव्वेणं सारक्खमाणी संगोवेमाणी संवढेहि ।
तणं सा चेल्लणा देवी सेणिएणं रन्ना एवं वृत्ता समाणी लज्जिया विलिया विड्डा करयलपरिग्गहियं० सेणियस्स रन्नो विणणं एयमहं पडिसुणेइ, पडिसृणित्ता, तं दारय अणुपुव्वेणं सारक्खमाणी संगोवेमाणी संइ ॥ ३४ ॥
छाया
ततः खलु तस्याश्रेल्लनाया देव्या अयमेतद्रूपो यावत् समुदपद्यत - यदि तावद अनेन दारकेण गर्भगतेन चैव पितुरुदरवलिमांसानि खादितानि वम ज्ञायते खलु एष दारकः संवर्द्धमानः अस्माकं कुलस्यान्तकरो भविष्यति तच्छ्रेयः खलु अस्माकम् एनं दारकमेकान्ते उत्कुरुटिकायामुज्झितुम्, एवं
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सुन्दरबोधिनी टोका चेल्लनाको श्रेणिकका उपालम्भ
संप्रेक्षते, संप्रेक्ष्य दासवेटीं शब्दयति शब्दयित्वा एवमवादीत् गच्छ खलु त्वं देवानुप्रिये ! एनं दारकमेकान्ते उत्कुरुटिकायामुज्झ ।
ततः खलु सा दासचेटी चेल्लनया देव्या एवमुक्ता सती करतल ० यावत् कृत्वा चेल्लनाया देव्या एनमर्थं विनयेन प्रतिगृणोति, प्रतिश्रुत्य तं दारकं करतलपुटेन गृह्णावि, गृहीत्वा यत्रैवाशोकवनिका तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य तं दारकमेकान्ते उत्कुरुटिकायामुज्झति ।
ततः खलु तेन दारकेण एकान्ते उत्कुरुटिकायामुज्झितेन सता साऽशोकवनिका उद्योतिता चाप्यभवत् ।
ततः खलु स श्रेणिको राजा अस्याः कथाया लब्धार्थः सन् यत्रैवाशोकवनिका तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य तं दारकमेकान्ते उत्कुरुटिकायामुज्झितं पश्यति, दृष्ट्वा आशुरक्तः यावत् मिसिमिसीकुर्वन् तं दारकं करतलपुटेन गृह्णाति, गृहीत्वा यत्रैव चेल्लना देवी तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य चेल्लनां देवीमुच्चावचाभिराक्रोशनाभिराक्रोशति, आनुश्य उच्चावचाभिर्निर्भर्त्सनाभिनिर्भर्त्सयति, निर्भर्त्स्य, एवमुद्धर्षणाभिरुद्धर्षयति, उदधय एवमवादीत - किमर्थं खलु त्वं मम पुत्रमेकान्ते उत्कुरुटिकायामुज्झयसि ? इति कृत्वा चेल्लनां देवीमुच्चावचशपथशापितां करोति, कृत्वा एवमवादीत्-त्वं खलु देवानुप्रिये ! एनं दारकमनुपूर्वेण संरक्षन्ती, संगोपयन्ती संवर्द्धय ।
ततः खलु सा चेल्लना देवी श्रेणिकेन राज्ञा एवमुक्ता सती लज्जिता व्रीडिता विड्डा करतलपरिगृहीतं श्रेणिकस्य राज्ञो विनयेन एतमर्थ प्रतिशृणोति, प्रतिश्रुत्य तं दारकमनुपूर्वेण दारकमनुपूर्वेण
संरक्षन्ती संगोपयन्ती
संवर्धयति ॥ ३६ ॥
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निरयावलिकासत्र टीका'तएणं तीसे' इत्यादि-ततः तत्पश्चात् पुत्रजन्मानन्तरं तस्याः चेल्लमाया देव्या अयमेतद्रूप वक्ष्यमाणलक्षणः यावत् पदेन “अज्झथिए, चिंतिए, पत्थिए, कप्पिए, मणोगए संकप्पे " एतेषां संग्रहः । एतेषां व्याख्या मागुक्ता, समुदपद्यत-जातः-यदि तावत् अनेन दारकेण-पुत्रेण गर्भगतेनैव पितुरुदरवलिमांसानि खादितानि, मया तन्न ज्ञायते खलु एष दारकः संवर्द्धमानः वृद्धि प्राप्तः सन् प्रौढावस्थायाम् अस्माकं कुलस्य-वंशस्य अन्तकरः नाशको भविष्यति तत्-तस्मात्कारणात् खलु-निश्चयेन एकान्ते-निर्जने स्थले एनं दारकम् उत्कुरुटिकायां-कचवरपुञ्जस्थाने 'उकरडी' इति माषायाम् उज्झितुं त्यक्तुमस्माकं श्रेया-कल्याणकारकम् । __'तएणं तीसे' इत्यादि
बाद रानीके मनमें ऐसा विचार उत्पन्न हुआ कि इस बालकने गर्भ में आते ही पिताकी उदरवलिका मांस खाया। यदि यह बडा होकर समर्थ बनेगा तो न जाने हमारे वंशका किस प्रकार नाश करेगा ? इस लिये उचित है कि इसे एकान्त स्थान जहाँ कोई न देख सके ऐसी उकरडीपर फिकवा दूं।
'तएणं तीसे' त्यादि
પછી રાણીના મનમાં એ વિચાર ઉત્પન્ન થયે કે--આ બાળકે ગર્ભમાં આવતાંજ બાપની ઉદરવલીનું માંસ ખાધું જે મેટે થતાં સમર્થ બનશે તે ન જાણે અમારા વંશને કયા પ્રકારે નાશ-કરશે. આથી મને ઉચિત છે કે આને એકાંત સ્થાન જયાં કોઈ જોઈ ન શકે એવા ઉકરડા ઉપર ફેંકાવી દે.
એ પિતાના મનમાં વિચાર કરી દાસને બોલાવી, અને તેને કહ્યું- હે દેવાનુપ્રિયે ! આને સંતાડીને લઈ જા અને એકાંત ઉકરડે નાખી દે.
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सुन्दरपोधिनी टोका घेटनाको श्रेणिकका उपासम्म
एवम् अनेन प्रकारेण संप्रेक्षते-विचारयति, संप्रेक्ष्य दासचेटों शब्दयति आहयति शब्दयिखा एवम् वक्ष्यमाणम् अवादी-हे देवानुमिये ! त्वं खलु गच्छ एनं दारकमेकान्ते उत्कुरुटिकायामुज्म-अलिप ।।
___ ततः चेल्लनया देव्यैवमुक्ता सती सा दासचेटी 'तथास्तु' इतिकुला करतलपरिगृहीतमञ्जलिपुटं मस्तके कला-निधाय चेल्लनाया देव्या एनम् अर्थम्=निदेशम् विनयेन प्रतिशृणोति-स्वीकरोति प्रतिश्रुत्य तं दारक करतलपुटेन गृह्णाति, गृहीला यत्रैव अशोकवनिका=अशोकवाटिका तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य तं दारकमेकान्ते उत्कुरुटिकायामुज्झति-भक्षिपति ।
ततः खलु तेन दारकेण एकान्ते उत्कुरुटिकायामुज्झितेन सता साऽशोकवनिका उधोतिता प्रकाशिता चाऽप्यभवत् ।
ततः दारकप्रक्षेपणानन्तरं स श्रेणिको राजा अस्याः कथायाः दारकप्रक्षेपणवृत्तान्तस्य लब्धार्थः-शातसमाचारः सन् यत्रैवाशोकवनिका तत्रैवों
एसा अपने मनमें विचारकर दासीको बुलवाया और उससे कहा-हे देवानुप्रिये ! इसको छिपाकर लेना और एकान्त उकरडीपर डाल आ ।
इस तरह चेलना रानीकी आज्ञा पाकर दासीने उस बालकको हायोसे उठाया और अशोकवाटिकामें जाकर एकान्त स्थानमें उकरडीपर डाल दिया। वह बालक बडा तेजस्वी या इस कारण उससे अशोकवाटिका प्रकाशयुक्त हो गयी।
पश्चात् राजा श्रेणिकको किसी तरह विदित हुआ कि रानी चेलनाने जन्मते
આવી રીતે ચેલના રાણીની આજ્ઞા થતાં દાસીએ તે બાળકને હાથ વડે ઉપાડીને અશોકવાટિકામાં જઈને એકાંત સ્થાનમાં ઉકરડે ફેંકી દીધે. તે બાળક બહુ તેજસ્વી હતે આ કારણે તેનાથી અશોકવાટિકા પ્રકાશયુક્ત બની ગઈ. તે પછી રાજા શ્રેણિીના લણવામાં કઈ રીતે આવ્યું કે રાણી એલનાએ ૧૮.
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१३८
निरयापलिकासन पागच्छति, उपागत्य तं दारकमेकान्ते उत्कुरुटिकायामुज्झितं पश्यति, दृष्ट्वा च-आचरक्तः आशु-शीघ्रं रक्ता-कोपेनाऽरुणनयनः यावत् मिसिमिसन्=क्रोधज्वालया ज्वलन् सन् तं दारकं करतलपुटेन गृह्णाति गृहीला यत्रैव चेल्लना देवी तत्रैवोपागच्छति उपागत्य चेल्लनां देवीम् उच्चावचाभिः नानाप्रकाराभिः आक्रोशनाभिः मानसिककोपैः आक्रोशति-तिरस्कारपूर्वकं क्रुध्यति, आक्रुश्य= प्रकुष्य उच्चावचामिः नानाविधाभिः भर्त्सनाभिः दुर्वचनापमानैः निर्भत्सयति= परुषवचनैरपमानयति, निर्भय एवम् अनेन प्रकारेण उद्धर्षणाभिः तर्जन्यादिदर्शनपूर्वकतिरस्कारः, उद्धर्षयति-तिरस्करोति, उर्घ्य एवम् अनुपदवक्ष्यमाणम् अवादी-हे देवि ! त्वं किमर्थ खलु मम पुत्रमेकान्ते उत्कुरुटिकायां दासचेव्या समुज्झयसि ?, इति कला-उक्तरीत्या आक्रोशनादिकं विधाय
बालक ( नवजात शिशु )को कहीं फिकवा दिया है, तब राजा ढूंढते हुए अचानक अशोकवाटिकामें आये और उकरडीपर पड़े हुए बालकको देखा। उसे देखकर राजा उसी समय बढे क्रुद्ध हुए और क्रोधसे जलते हुए वे उस बालकको हाथमें लेकर चेलना रानीके पास पहुँचे, और अनेक प्रकारके आक्रोश शब्दोंसे. रानीका तिरस्कार किया, अनेक प्रकारके कठोर शब्दोंसे भर्त्सना की, · तर्जनी आदि अंगुली दिखाकर बहुत अपमान किया और बोले-हे रानी! किस लिये तूने मेरे इस बालकको दासी द्वारा उकरडीपर फिकवा दिया। इस तरह चेल्लना रानीको उलाहना
જન્મતા (નવજાત શિશુને બાળકને કયાંક ફેંકાવી દીધો છે. ત્યારે રાજા પિતે તપાસ કરવા માટે ગયાક્રમથી તપાસ કરતાં અર્વાટિકામાં આવ્યા અને ઉકરડા ઉપર પડેલા બાળકને દીઠો. તેને જોઈને તે જ વખતે રાજા બહુ ગુસ્સે થયા અને શોધમાં બળતાં થકા તેઓ તે બાળકને હાથમાં ઉપાડી લઈને ચેલના રાણીની પાસે પહોંચ્યા અને અનેક પ્રકારના આક્રોશ શબ્દોથી રાણીને તિરસ્કાર કર્યો. અનેક પ્રકારના કઠોર શબ્દથી અનાદર કરી તર્જની આંગળી દેખાડી બહુ અપમાન भु ने ४-ea! भाटते. भा. ना ४२0
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सुन्दरबोधिनी टीका चेल्लमा को श्रेणिकका उपालम्भ
T
चेलनां देवीम् उच्चावचशपथशापितां नानाप्रकारकदेवगुरुधर्मादिशपथैः शापितां प्रतिज्ञापितां करोति कृत्वा, एवम् अमुना प्रकारेण अवादीत्हे देवानुप्रिये ! त्वम एनं दारकं अनुपूर्वेण क्रमेण संरक्षन्ती आपद्भयः, संगोपयन्ती-वस्त्राच्छादनगर्भगृहप्रवेशनादिभिः क्षेमं प्रापयन्ती सवर्द्धय स्तन्यपानादिना वृद्धि प्रापय । ततः = :- श्रेणिकराजनिदेशानन्तरं ' खलुः वाक्यालङ्कारार्थः, सा श्रेणिकराजमहिषी 'चेल्लना' देवी श्रेणिकेन राज्ञा एवम् = पूर्वोक्तप्रकारं प्रतिपालननिदेशम् उक्ता- निवेदिता सती 'लज्जिता, स्वतः, व्रीडिता परतः, विड्डा = उभयतो लज्जिता, देशी शब्द:, एते समानादेकर देव, गुरु, धर्म आदिकी शपथ देकर इस प्रकार बोले - हे देवानुप्रिये ! तुम I इस बालककी आपत्तिसे रक्षा करो और वस्त्रसे ढाककर प्रसूतिगृहमें ले जाओ. जिस प्रकार यह सुखी रहे वैसा प्रयत्न करो और स्तनपान आदि कराकर इसका अच्छी तरह पालन- पोषण करो ।
१३९
इस प्रकार राजाके कहने पर रानी, अपने इस अकर्तव्यपर स्वतः लज्जित हुई, ' राजा मेरे इस अकर्तव्य कर्मसे अपने मनमें क्या समझे होंगे ?' ऐसा विचार कर राजासे लज्जित हुई, इस प्रकार रानी चेलना दोनों ही ओरसे बडी ही लज्जित हुई ।
ફૂંકાવી દીધા. આવી રીતે ચેલના રાણીને ઠપકા આપી દેવ, ગુરૂ, ધર્મ આદિના સોગંદ આપી-આપી આ પ્રમાણે ખેલ્યા હૈ દેવાનુપ્રિયે ! તમે આ ખાળકની આપત્તિથી રક્ષા કરે અને વજ્રથી ઢાંકી પ્રસૂતિગૃહમાં લઇ જાએ. જેવી રીતે આ સુખી રહે તેવા પ્રયત્ન કરો તથા સ્તન-પાન આદિ કરાવી તેનું સારી રીતે भावन घोषा ।.
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ખા પ્રકારે રાજાના કહેવાથી રાણી પેાતાના આ દુષ્કૃત્યથી સ્વત: લજ્જિત
6
થઈ, રાજા મારા આ દુષ્કૃત્યથી પેાતાનાં મનમાં શું સમજયા હશે ' એમ વિચારીને રાજાથી વજા પામી, ખા પ્રમાણે બન્ને પ્રકારે બહુ ઉજિજત થઈ.
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१४०
निरवावलिकात्र र्थकाः, यद्वा-'व्यलीके' ति छाया व्यलीका पतिप्रतिकूलाचरणेन सापराधा करतलपरिगृहीतं शिर आवर्त दशनखं मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा श्रेणिकस्य राज्ञो राजसम्बन्धिनम् एतम्-दारकपरिपालननिदेशरूपम्-अर्थम्=पुत्ररक्षणनिदेशं पतिशृणोति-स्वीकरोति, स्वीकृत्य तं दारकं अनुपूर्वेण यथावत् संरक्षन्ती सगोपयन्ती संवर्द्धयति-पालनपोषणादिना वृद्धि नयति ॥ ३४ ॥
मूलम्
तए णं तस्स दारगस्स एगते उक्कुरुडियाए उझिजमाणस्स अग्गं गुलियाए कुक्कुडपिच्छएणं दूमिया यावि होत्था, अभिक्खणं अभिक्खणं पूर्व च सोणियं च अभिनिस्सवइ । तए णं से दारए वेयणाभिभूए समाणे महया महया सद्देणं आरसइ । तएणं सेणिए राया तस्स दारगस्स आरसितसई सोचा निसम्म जेणेव से दारए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ते दारगं करतलपुडेणं गिण्हइ गिण्हिता तं अग्गंगुलियं आसयंसि पक्खिवइ, पक्खिवित्ता पूयं च सोणियं च आसएणं आमुसइ । तए णं से दारए निव्वुए निव्वेयणे तुसिणीए संचिट्ठइ । जाहे वि य गं से दारए वेयणाए अभिभूए समाणे महया महया सद्देणं आरसइ ताहे वि य णं सेणिए राया जेणेव से दारए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, तं दारगं करतलपुडेनं गिण्हइ, तं चेव जाव निव्वेयणे तुसिणीए संचिटइ।
पतिके प्रतिकूल आचरणसे रानीको अतिशय खेद और पश्चात्ताप हुआ । बाद वह हाथ जोडकर सविनय पुत्रपालनरूप राजाकी आज्ञाको स्वीकार कर बालकका भलीभाँति पालन करने लगी ॥ ३४ ॥
પતિના વિરૂદ્ધ આચરણથી રાણીને અતિશય ખેદ અને પશ્ચાત્તાપ થયે બાદ હાથ જેડીને સવિનય પુત્રપાલન રૂપ રાજાની આજ્ઞાને સ્વીકાર કરી બાળકનું સારી રીતે lan.४२avn. (३४)
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सुन्दरबोधिनी टीका कूणिकको अधुलोवेदना
१४१ ____तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो तइए दिवसे चंदसूरदंसणियं करेंति जाव संपत्ते बारसाहे दिवसे अयमेयारूवं गुणनिप्फन्नं नामधिज्जं करेंति, जम्हाणं अम्हं इमस्स दारगस्स एगंते उक्कुरुडियाए उज्झिज्जमाणस्स अंगुलिया कुक्कुडपिच्छएणं दूमिया, तं होउ णं अम्हं इमस्स दारगस्स नामधेनं 'कूणिए' । तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो नामधिजं करेंति 'णिय'त्ति ॥३५॥
छाया
ततः खलु तस्य दारकस्य एकान्ते उत्कुरुटिकायामुज्झ्यमानस्याग्रा. गुलिका कुकुटपिच्छकेन दूना चाऽप्यभूत् , अभीक्ष्णमभीक्ष्णं पूयं च शोणितं चाभिनिस्स्रवति । ततः खलु स दारको वेदनाभिभूतः सन् महता महता शब्देन आरसति । ततः खलु श्रेणिको राजा तस्य दारकस्याऽऽरसितशब्दं श्रुत्वा निशम्य यत्रैव स दारकस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य, तं दारकं करतलपुटेन गृह्णाति, गृहीला तामग्रालिकामास्ये मक्षिपति, मक्षिप्य, पूर्य च शोणितं चास्येन आमृशति । ततः खलु स दारको नितो निवेदनस्तूष्णीक. संतिष्ठते । यदापि च खलु स दारको वेदनयाऽभिभूतः सन् महता-महता शब्देन आरसति तदाऽपि च खलु श्रेणिको राजा यत्रैव स दारकस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य तं दारकं करतलपुटेन गृह्णाति, तदेव यावत् निर्वेदन स्तूष्णीकः संतिष्ठते ।
ततः खलु तस्य दारकस्याम्बापितरौ तृतीये दिवसे चन्द्रसूर्यदर्शनं कारयतः यावत् संप्राप्ते द्वादशाहे दिवसे इममेतद्रूपं गुणनिष्पन्नं नामधेयं कुरुतः, यस्मात् खलु अस्माकमस्य दारकस्य एकान्ते उत्कुरुटिकायामुज्झ्यमान स्या लिका कुकुटपिच्छकेन दूमिता (कूणिता) तद् भवतु खलु अस्माकमस्य दारकस्य नामधेयं 'कूणिकः' । ततः खलु तस्य दारकस्य अम्बापितरौ नामधेयं कुरुतः 'कूणिकः' इति ॥३५॥
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निरयापलिकासत्र टीका'तएणं तस्स' इत्यादि-ततः गृहसमानयनानन्तरं तस्य दारकस्य एकान्ते-उत्कुरुटिकायाम् . उज्झ्यमानस्य अग्रालिका कुक्कुटपिच्छकेन=पिच्छ एव पिच्छका चञ्चुः, कुक्कुटस्य पिच्छकः कुक्कुटपिच्छकः, तेन-कुक्कुटचञ्चुना, दूना परितापिता दष्टेति यावदिति च अभूत् । तेनाणुलितोऽभीक्ष्णमभीक्ष्णं पुनः पुनः पूयं दूषितदुर्गन्धशोणितम्-'पीप'-इति भाषायाम्शोणितं रक्तं च अभिनिस्रवति । ततः तस्मात्-पूयशोणिताभिस्रावात् स दारको वेदनाभिभूतः तीव्रदुःखपीडितः सन् महता-महता-उच्चैरुच्चैः शब्देन चीत्कारेण आरसति-विलपति । ततः खलु श्रेणिको राजा तस्य दारकस्य आरसितशब्दम् आर्तनादं श्रुत्वा निशम्य हृदयेनावधार्य यत्रैव स दारकस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य तं दारकं करतलपुटेन गृह्णाति, गृहीत्वा ताम्-कुक्कुट
'तएणं तस्स' इत्यादि
एकान्तः उकरडीपर डाले हुए उस बालककी अंगुलीके अग्रभागको कुक्कुट ( मुर्गे )ने काट खाया जिससे उसकी अंगुली पक गयी और उससे बारबार रक्त और पीप बहने लगा, इससे उसको बडी वेदना होती थी और आर्तस्वरसे रुदन करता था। उसका आर्तनाद सुनकर राजा उसके पास आता था और बालकको उठाकर उसकी अंगुली अपने मुँहमें लेकर झरते हुए शोणित और पीपको चूस २
‘तरण तस्स'त्या.
એકાંત ઉકરડી ઉપર નાખી દીધેલ તે છોકરાની આંગળીના આગલા ભાગને કુકડે કરડી ગયે જેથી તેની આંગળી પાકી ગઈ તથા તેમાંથી વારંવાર લેહી અને પરૂ વહેવા લાગ્યું. આથી તેને બહુ વેદના થતી હતી અને આર્તસ્વરથી રૂદન કરતો હતો - તેનો આર્તનાદ સાંભળી રાજા તેની પાસે આવતો અને બાળકને ઉપાડીને તેની આંગળી પિતાના મેંમાં લઈને કરતાં લેહી અને પરૂને ચુસી-ચુસીને થકી
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सुन्दरबोधिनी टोका कृपिकका नामकरण
दष्टामालिकाम् = अङ्गुल्या अग्रभागम् आस्ये स्वमुखे प्रक्षिपति, प्रक्षिप्य - पूर्व शोणितं च आस्येन आमृशति चोषयति । ततः तस्माच्चोषणात् खलु स रको निर्वृतः शान्तः निर्वेदन:- वेदनारहितः तूष्णीकः समनः संतिष्ठते= आस्ते । एवं यदा यदा स आर्त्तस्वरेण रौति तदा तदा श्रेणिक एवमेव करोति
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E
ततः अङ्गुलीपीडाशमनानन्तरं तस्य दारकस्य मातापितरौ तृतीये दिवसे चन्द्रसूर्यदर्शनं कारयतः यावत् सम्प्राप्ते द्वादशे दिवसे एतद्रूपं गुणनिष्पन्नं नामधेयं करुतः - यस्मात् खलु उत्कुरुटिकायां पतितस्यास्य दारकस्याङ्गुलिका कुकुट पिच्छकेन दुमिता = पीडिताऽतः कूणिता - संकुचिता जाता तद् = तस्मात्का रणाद् भवतु अस्य दारकस्य नाम ' कूणिक ' इति, तदनु मातापितरौ तस्य दारकस्य नाम कुरुत: ' कूणिक ' इति ॥ ३५ ॥
कर थूकता था, जिससे उस बालककी वेदना कम होती थी और वह चुप होजाता था जब कभी भी वह बालक वेदनासे छटपटाने लगता था तभी राजा श्रेणिक आकर उसकी वेदना उसी प्रकारसे शान्त करता था ।
बाद माता पिताने तीसरे दिन उस बालकको चन्द्र सूर्यका दर्शन कराया । यावत् बारहवें दिन बडे उत्सवके साथ उस बालकका नाम रखते हुए बोले कि - • उकरडीपर डाले हुए हमारे इस बालककी अंगुली मुर्गेके काट खानेसे कूणित - संकुचित होगई इस कारण से इस बालकका गुण - निष्पन्न नाम 'कूणिक' रक्खा जाय, ऐसा सोचकर माता - पिताने उसका नाम 'कूणिक' रक्खा । ॥ ३५ ॥
નાખતા હતા જેથી તે ખાળકની વેદના ઓછી થતી હતી. અને તે શાંત (રતે ખંધ) થઈ જતા હતા. જ્યારે જ્યારે તે બાળક વેદનાથી તડફડવા લાગતા ત્યારે ત્યારે રાજા શ્રેણિક આવીને તેની વેદના તેજ રીતે શાંત કરતા હતા.
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આદ માતા પિતાએ ત્રીજે દિવસે તે બાળકને ચંદ્ર સૂર્યનાં દર્શન કરાવ્યાં. પછી બારમે દિવસ માટા ઉત્સવથી તે ખાળકનું નામ પાડતાં ખેલ્યા કે–ઉકરડી ઉપર નાખી દીધેલા અમારા આ ખાલકની આંગળી કુકડાના કરડી ખાવાથી કુષ્ઠિત (सयित) यर्ध गए तेथी આ ખાળકનું ગુણનિષ્પન્ન ( ગુણ દર્શાવતું ) નામ 'डि' रामकुं लेामे भावुं विचारी भाता पिता तेनुं नाम 'लिष्ट' रा. (३५)
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निरयापलिका
मूलम्
तएणं तस्य कूणियस्स अणुपुव्वेणं ठिइवडियं च जहा मेहस्य जान उपि पासायवरगए विहरइ, अट्ठओ दाओ ॥३६॥
छायाततः खलु तस्य कूणिकस्यानुपूर्वेण स्थितिपतितं च यथा मेघस्य यावत् उपरि प्रासादवरगतो विहरति । अष्ट दायाः ३६ ॥
टीका'तएणं तस्स ' इत्यादि । ततः नामकरणानन्तरं तस्य कूणिकस्य अनुपूर्वेण अनुक्रमेण स्थितिपतितं-कुलक्रमागतम् उत्सवादिकम् यथा मेघस्यअघकुमारस्येव करोति यावत् अष्टाष्ट दायाः श्वशुरेण जामात्रे दीयमानाः पदार्थाः 'दहेज' इति भाषायाम् ॥ ३६॥
- 'तएणं तस्स' इत्यादि
नामकरणके बाद कूणिकका कुलपरम्परागत उत्सव-विवाहादि कार्य मेष कुमारके समान हुए। श्वशुरकी ओरसे आठ-आठ दहेज वस्तुऐं आयों और श्रेष्ठ प्रासादपर पूर्वपुण्योपार्जित मनुष्यसम्बन्धी पाँचों इन्द्रियोंके सुखका अनुभव करने लगे ॥३६॥
'तएणं तस्स' त्याहि.
નામકરણ પછી કૃણિકનાં કુલપરંપરાનુસાર ઉત્સવ-વિવાહ આદિ કાર્ય મેવકુમાર સમાન થયાં. ધશુરના તરફથી આઠ-આઠ દહેજ વરતુ આવી અને ઉત્તમ મહેલમાં પૂર્વપુણ્યપાર્જિત મનુષ્યસબંધી પાંચે ઈહિના સુખને અનુભવ wal maan (38)
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सुन्दरबोधिनी टीका-श्रेणिक बन्धन
१४५
मूलम् तएणं तस्स कूणियस्स कुमारस्स अनया पुव्वरत्ता० जाव समुपज्जित्थाएवं खलु अहं सेणियस्स रनो वाघाएणं नो संचाएमि सयमेव रजसिरिं करेमाणे पालेमाणे विहरित्तए, तं सेयं मम खलु सेणियं रायं निलयबंधणं करेत्ता अप्पाणं महया-महया रायाभिसेएणं अभिसिंचावित्तए त्तिक? एवं संपेहेइ, संपेहित्ता सेणियस्स रनो अंतराणि य छिड्डाणि य विरहाणि य पडिजागरमाणे२ विहरइ।
तएणं से णिए कुमारे सेणियस्स रनो अंतरं वा जाव मम्मं वा अलभमाणे अन्नया कयाइ कालादीए दस कुमारे नियघरे सद्दावेइ, सदावित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हे सेणियस्स रनो वाघाएणं नो सांचाएमो सयमेव रजसिरिं करेमाणा पालेमाणा विहरित्तए, तं सेयं देवाणुपिया ! अम्हं सेणियं रायं नियलबंधणं करेत्ता रजं च रटुं च बलं च वाहणं च कोसं च कोट्ठागारं च जणवयं च एकारसभाए विरिचित्ता सयमेव रजसिरिं करेमाणाणं जाव विहरित्तए ।
तएणं ते कालादीया दस कुमारा कूणियस्स कुमारस्स एयमद्वं विणएणं पडिमुणेति । तएणं से कूणिए कुमारे अन्नया कयाइ सेणियस्स रनो अंतरं जाणाइ, जाणित्ता सेणिय रायं नियलबंधणं करेइ, करित्ता अप्पाणं महया-महया रायाभिसेएणं अभिसिंचावेइ । तएणं से कूणिए कुमारे राया जाए महया० ॥ ३७॥
छाया
ततः खल्लु तस्य कणिकस्य कुमारस्य अन्यदा पूर्वरात्रा० यावत्समुदपयत-एवं खलु अहं श्रेणिकस्य राज्ञो व्याघातेन न शक्रोमि स्वयमेव राज्यश्रियं कुर्वन् पालयन् विहां, तच्छ्रेयो मम खलु श्रेणिकं राजानं निगड
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निरयावलिका सूत्र बन्धनं कृत्वा आत्मानं महता-महता राज्याभिषेकेणाभिषेचयितुम्, कृत्वा एवं संप्रेक्षते, संप्रेक्ष्य श्रेणिकस्य राज्ञोऽन्तराणि च छिद्राणि च हान् च प्रतिजाग्रद् विहरति ।
ततः खलु स कूणिकः श्रेणिकस्य राज्ञोऽन्तरं वा यावत् मर्म अलभमानः अन्यदा कदाचित् कालादिकान् दश कुमारान् निजगृहे शब्दयति शब्दयित्वा एवमवादीत्-एवं खलु देवानुप्रियाः ! वयं श्रेणिकस्य राज्ञो व्याघातेन नो शक्नुमः स्वयमेव राज्यश्रियं कुर्वन्तः पालयन्तो विहर्तुम्, तच्छ्रेयो देवानुपियाः ! अस्माकं श्रेणिकं राजानं निगडबन्धनं कृत्वा राज्य च राष्ट्रं च बलं च वाहनं च कोशं च कोष्ठागारं च जनपदं च एकादशभागान् विभज्य स्वयमेव राज्यश्रियं कुर्वाणानां पालयतां यावद् विहर्तुम् ।
ततः खलु ते कालादिका दश कुमाराः कूणिकस्य कुमारस्यैतम) विनयेन प्रतिशृण्वन्ति ।
ततः खलु स कूणिकः कुमारः अन्यदा कदाचित् श्रेणिकस्य राज्ञोऽन्तरं जानाति, ज्ञात्वा श्रेणिकं राजानं निगडबन्धनं करोति, कृत्वा आत्मानं महता महता राज्याभिषेकेणाभिषेचयति ।। ततः खलु स कूणिकः कुमारो राजा जातो महा० ॥ ३७ ।।
टीका'ततः खलु तस्ये ' त्यादि-अन्यदा तस्य कूणिक-कुमारस्य पूर्वरात्रा'तएणं तस्स' इत्यादिबाद एक समय कूणिककुमार रात्रिके पिछले पहरमें विचार करने लगे कि'तएणं तस्स प्रत्याहि. પછી એક સમય ફણિક કુમાર રાશિના લા પહોરમાં વિચાર કરવા
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सुन्दरबोधिनी टोका भेणिकबन्धन
१४७ पररात्रावसरे यावत् विचारो जातः-एवं खलु श्रेणिकभूपस्य व्याघातेन= मंतिबन्धेन राज्यश्रियं कुर्वन् पालयन् स्वयमेव स्वतन्त्रः विहढे विचरितुं अहं नो शक्रोमि वत्-तस्मात् कारणात् 'श्रेणिकराजस्य निगडबन्धनं कृत्वा विशालराज्याभिषेकेणात्मानमभिषेचयितुं मम श्रेयः' इति कृत्वा-इति संकल्पं विधाय एवम् अनेन प्रकारेण संप्रेक्षते-विचारयति, संप्रेक्ष्य श्रेणिकस्य राज्ञोऽन्तराणि-अवकाशान् छिद्राणि-दूषणानि विरहान्-एकान्तानि च पतिश्रेणिक राजाका राज्यशासनरूप प्रतिबन्ध होने के कारण मैं सुखपूर्वक राज्यलक्ष्मीका उपभोग नहीं कर सकता हूँ इस लिए मुझे उचित है कि इस श्रेणिक राजाको किसी तरह बन्धनमें डाल दूं और स्वयं राजा बनकर राज्यलक्ष्मीका उपभोग करूं । ऐसा विचार कर राजाका छिद्र देखने लगे। श्रेगिक राजाका कोई छिद्र, दूषण
और मर्म हाथ नहीं आनेपर एक समय काल आदि दस कुमारोंको अपने घरमें बुलाकर सलाह करने लगे बोले कि हम लोग राजाके कारण ही राज्यश्रीका उपभोग नहीं कर सकते इस लिए किसी तरह राजाको बन्धनमें डालकर हम लोग राज्यराष्ट्र, सेना, वाहन, कोश, कोष्ठागार और स्वदेश इनके ग्यारह भाग करके स्वयं राज्यश्रीका उपभोग करें। इस बातको सभी कुमारोंने स्वीकार कर लिया। લાગ્યા કે શ્રેણિક રાજાનું રાજ્ય શાસનરૂપ પ્રતિબંધ હોવાના કારણે સુખ-પૂર્વક રાજ્યલક્ષમીને ઉપગ હું કરી શકતો નથી. માટે મને ઉચિત છે કે આ શ્રેણિક રાજાને કઈ પણ રીતે બંધનમાં નાખી દઉં અને હું પિતે રાજા બનીને રાજય લક્ષમીને ઉપગ કર્યું. એમ વિચાર કરી રાજાનાં છિદ્ર જેવા મંડ. શ્રેણિક રાજાનું કેઈ છિદ્ર દૂષણ અને મર્મ હાથ ન આવવાથી એક સમય કાલ આદિ દશ કુમારને પિતાના ઘરમાં બોલાવી સલાહ કરવા લાગ્યું. કહ્યું કે આપણે રાજાના કારણથી જ રાજયશ્રીને ઉપલેન કરી શક્તા નથી. આથી કોઈ પણ રીતે રાજાને બંધનમાં નાખી આપણે રાજ્ય, રાષ્ટ્ર, સેન, વાહન, ખજાને, કોઠાર તથા દેશ એના અગીયાર ભાગ કરીને આપણે પોતેજ રાજ્યશ્રીને ઉપલેગ કરીએ. આ વાતને બધા કુમારોએ સ્વીકાર કરી દીધું. પછી એક સમય તકે જોઈને કણિક
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2.
१४८
निरयावलिकासूत्र
'जाग्रत् = अन्वेषयन् विहरति । तदनु श्रेणिकभूपस्य मर्म = गुप्तत्रुटिं राज्यं - शासनं राज्यलक्ष्मीं वा राष्ट्रं देशं बलं सैन्यं वाहनं यानं रथादिकम् को भाण्डागारं कोष्ठागारं =धान्यगदं जनपदं स्वदेशम्, अन्यत्सर्वे सुगमम् ||३७||
=
मूलम्—
तए णं से कूणिए राया अन्नया कयाइ हाए जात्र सव्वालंकार - विभूसिए लगाए देवीए पायबंदर हन्यमागच्छर । तरगं से कूणिर राया aai देवि ओहय० जाव कियायमार्गि पासर, पासित्ता, चेलगाए देवीए पायग्गहणं करे, करिता चेहगं देवि एवं वयासी-किं णं अम्मो ! तुम्हें न तुडी वा न ऊसए वा न हरिसे वा नाणंदे वा, जं णं अहं सयमेव रजसिरिं जाव विहरामि ? ॥ ३८ ॥
छाया
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-
ततः खलु स कूणिको राजा अन्यदा कदाचित् स्नातः यावत् सर्वालङ्कारविभूषितवेल्लनाया देव्याः पादवन्दको हव्यमागच्छति ।
ततः खलु स कूणिको राजा चेनां देवीम् अपत० यावद् ध्यान् पश्पति, दृट्टा उनाया देव्याः पादग्रहणं करोति, कला, चेलनां देवी ने मवादी - किं खलु अम्ब ! तत्र न तुष्टि नोत्सवो वा न हर्षो वा नानन्दो वा ? यत्खलु अहं स्वयमेव राज्यश्रियं यावद् विहरामि ||३८||
बाद एक समय मौका पाकर कूणिकने राजा श्रेणिकको बन्धन में डाल दिया और राज्याभिषेक कराकर अपने आप राजा बन गये ॥ ३७ ॥
રાજા શ્રેણિકને બંધનમાં નાખી દીધા અને રાજ્યાભિષેક કરાવી પાતે રાજા
भूंनी मेडी. (३७)
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सुन्दरबोधिनो टोका कूणिक को श्रेणिकका परिचय
टीका
' तरणं से' इत्यादि - ततः = राज्यप्राप्त्यनन्तरं स कूणिको राजा जन्यदा कदाचित् - कस्मिंश्चित्समये स्नातः यावत् सर्वालङ्कारविभूषितः चेल्ल नाया देव्याः - निजमातुः पादवन्दकः = चरणौ वन्दितुं सहर्ष ससम्भ्रमं इयं = शीघ्रम् आगच्छति ।
•
तरणं से' इत्यादि -
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ततः=आगमनानन्तरं खलु - निश्चयेन स कूणिको राजा निजमातरं चेल्लनां देवीम् अपहतमनः संकल्पां यावत् ध्यायन्तीम् आर्तध्यानं कुर्वन्तीं पश्यति, दृष्ट्वा चेल्लनाया देव्याः पादग्रहणं करोति - चरणौ वन्दते, कृत्वा= चरणवन्दनं विधाय चेल्लनां देवीमेवमवादीत - हे अम्ब ! किं खलु - किमय तव न तुष्टिः = न सन्तोषः वा = अथवा नोत्सवः =न चितोल्लासः, वा न हर्ष:
"
'तपणं से' त्याहि.
१४९
इसके अनन्तर एक दिन वह राजा कूणिक सभी प्रकारके वस्त्र और अलकारोंसे सज्जित होकर अपनी माता चेल्लना देवीके चरण वन्दन के लिये ह एवं उत्सुकता के साथ जल्दी २ आये, और उन्होंने अपनी माताको दीन हीन अवस्थ आर्तध्यान करती हुई देखा । वह आर्तव्यान करती हुई चलता देवीको चरगवन्दन करके बोले - हे जननि ! मैं अपने तेज प्रतापसे महाराज्याभिषेक के साथ इस
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ત્યાર પછી એક દિવસ તે રાજા કૂણિક તમામ પ્રકારના વચ્ચે અને અલંકારાથી સજ્જિત થઈ પોતાની માતા ચેલ્થના દેવીના ચરણુ–વંદન માટે હk અને ઉત્સુક્તાની સાથે જલદી-જલદી આણ્યે. અને તેણે પેાતાની માતાને દીન હીન અવસ્થામાં આ ધ્યાન કરતી જોઈ. તે આ ધ્યાન કરતી ચેલના દેવીનાં ચરણ વર્તન કરીને `આલ્યા હૈ જનની ! હું
&
પોતાના તેજપ્રતાપથી મહારાજ્યો
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१५०
निरयालिकासत्र न प्रमोदः, नानन्दःन मुखम् , यदहं खलु स्वयमेव महता राज्याभिषेकेण विशालराज्यश्रियं कुर्वन्=पालयन् विहरामि-विचरामि ॥३८॥
मूलम्तएणं सा चेल्लणा देवी कूणियं रायं एवं वयासी-कहण्णं पुत्ता ! ममं तुट्टी वा उस्सए वा हरिसे वा आणंदे वा भविस्सइ ? जं गं तुम सेणियं रायं पियं देवयं गुरुजणगं अचंतनेहाणुरागरत्तं नियलबंधणं करिता अप्पाणं महया रायामिसेएणं अभिसिंचावेसि ।
तएणं से कूणिए राया चेल्लणं देवि एवं वयासी-घाएउकामेणं अम्मो ! मम सेणिए राया, एवं मारेउं, बंधिउं, निच्छभिउकामए णं अम्मो ! ममं सेणिए राया, तं कहणं अम्मो मम सेणिए राया अचंतनेहापुरागरचे ?।
तएणं सा चेल्लणा देवी कूणियं कुमारं एवं वयासी-एवं खलु पुत्ता ! तुमंसि ममं गब्भे आभूए समाणे तिहं मासाणं बहुपडिपुनाणं ममं अयमेंयारूवे दोहले पाउन्भूए-धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव अंगपडिचारियाओ निरवसेसं. भाणियव्वं जाव जाहे वि य णं तुमं वेयणाए अभिभूए महया नाव तुसिणीए संचिसि, एवं खलु तव पुत्ता ! सेणिए राया बचंतनेहाणुरागरते । विशाल राज्यश्रीका उपभोग करता हूं तो क्या इसे देखकर तुम्हे सन्तोष नहीं हो रहा है, तुम्हारे चित्तमें न उल्लास है, न प्रमोद है और न सुख ही, इसका क्या
चरण है ! ॥ ३८॥ વિણેકપૂર્વક આ વિશાલ રાજ્યશ્રીને ઉપયોગ કરી રહ્યો છું, તે શું આ જોઈને તને 'તેષ થતો નથી ? તારા મનમાં નથી ઉધાસ, નથી પ્રઢ કે નથી સુખ. આનું
र छ। (३८)
.
..
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सुन्दरबोधिनो टीका, अणिक मरण
१५१
तरणं से कूणिए राया चेल्लणाए देवीए अंतिए एयमहं सोचा निसम्म चल्लणं देवि एवं वयासी - दुट्टु णं अम्मो ! मए कयं, सेणियं रायं पियं देवयं गुरुजणगं अचंतनेहाणुरागरतं निलयबंधणं करंतेणं, तं गच्छामि णं सेणियस्स रन्नो सयमेव नियलाणि छिदामि तिकडु परसुहत्थगए जेणेव चारगसाला तेणेव पहारेत्थ गमणाए ।
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तए णं सेणिए राया कूणियं कुमारं परसुहत्थगयं एजमाणं पास, पासिता एवं क्यासी - एसणं कूणिए कुमारे अपत्थियपत्थिए जान सिरिहिरिपरिवज्जिए परसुहत्थगए इह हव्वमागच्छइ । तं न नज्जइ णं ममं केइ कुमारेणं मारिस्सर - चिकट्टु भीए जाव संजायभए तालपुडगं विसं आसनंसि पक्खिव ।
तणं से सेणिए राया तालपुडगविसे आसगंसि पक्खित्ते समाणे मुहुत्तंतरेणं परिणममाणंसि निप्पाणे निच्चिट्टे जीवविजढे ओइने । तरणं से कूणिए कुमारे जेणेव चारगसाला तेणेव उवागए, सेणियं रायं निपाणं निचि जीवविजढं ओइनं पासइ, पासित्ता, महया पिइसोएणं अप्फुण्णे समाणे परसुनियते विव चंपगवरपायवे सति धरणियलंसि सव्यंगेहि संनिवडिए ।
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तणं से कूणिए कुमारे मुहुर्त्ततरेण आसत्थे समाणे रोयमाणे, कंदमाणे, सोयमाणे, विलवमाणे, एवं वयासी - अहो णं मए अधनेणं अपुनेणं अकयपुत्रेणं दुई कयं सेवियं रायं पियं देवयं अचंतनेहाणुरागरचं नियलबंधणं करंतेणं, मम मूलागं चेव णं सेणिए राया कालगए - तिक ईसर - तलवर जाव संधिवाल - सद्धि संपरिवुडे रोयमाणे ३ इड्ढि सकारसमुदपणं सेणियस्स रनो नीहरणं करेइ, करिता बहूई लोइयाई मय कच्चाई करे | तरणं से कूणिए कुमारे एएणं महया मणोमाणसिएणं दुक्खेणं अभिभूए समाणे अन्नया कयाइ कयाह अंतेउरपरियाल परिवडे सभंडमसोवगरणमायाएं रायगिहार्थी पडिनिक्ख पई, पंडिनिकट मित इनिक्खमित्ता जेणेव पा
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१५२
निरयावलका सूत्र नयरी तेणेव उवागच्छइ । तत्थवि णं विउलभोगसमिइसमन्नागए कालेणं अप्पसोए जाए यावि होत्था ।
तएणं से कुणिए राया अन्नया कयाइ कालादीए दसकुमारे सहा. वेइ, सद्दावित्ता, रज्जं च जाव जणवयं च एकारसभाए विरिंचइ, विरिचित्ता सयमेव रजसिरिं करेमाणे पालेमाणे विहरइ ॥ ३९ ॥
छायाततः खलु सा चेल्लना देवी कणिकं राजानमेवमवादीत-कथं खलु पुत्र ! मम तुष्टिा उत्सवो वा हर्षों वा आनन्दो वा भविष्यति यत्खलु त्वं श्रेणिकं राजानं प्रियं दैवतं गुरुजनकमत्यन्तस्नेहानुरागरक्तं निगडबन्धनं कृता आत्मानं महतार राज्याभिषेकेण अभिषेचयसि ।
ततः खलु स कुणिको राजा चेल्लनां देवीमेवमवादीघातयितुकामः खलु अम्ब ! मम श्रेणिको राजा, एवं मारयितुं, वन्धयितुं, निःक्षोभयितुकामः खलु अम्ब ! मम श्रेणिको राजा, तत्कथं खलु अम्ब ! मम श्रेणिको राजाऽत्यन्तस्नेहानुरागरक्तः ।
ततः खलु सा चेल्लना देवी कूणिकं कुमारमेवमवादीत्-एवं खलु पुत्र ! खयि मम गर्ने आभूते सति त्रिषु मासेषु बहुमतिपूर्णेषु ममायमेतद्रूपो दोहदः प्रादुर्भूतः-धन्याः खलु ता अम्बाः यावत् अङ्गपतिचारिकाः, निरवशेषं भणितव्यं यावत् यदापि च खलु त्वं वेदनयाऽभिभूतो महता यावत् तूष्णीकः संतिष्ठसे, एवं खलु तव पुत्र ! श्रेणिको राजाऽत्यन्तस्नेहानुरागरक्तः।
ततः खलु स कूणिको राजा चेल्लनाया देव्या अन्तिके एतमय श्रुत्वा निशम्य चेल्लनां देवीमेवमवादीत्-दुष्ठु खलु अम्ब ! मया कृतं श्रेणिकं राजानं प्रियं देवतं गुरुजनकमत्यन्तरनेहानुरागरक्तं निगडबन्धनं कुर्वता, तद् गच्छामि खलु श्रेणिकस्य राज्ञः स्वयमेव निगडानि छिनमि, इति कृत्वा परशुहस्तगतो यत्रैव चारकशाला तत्रैव प्रधारयति गमनाय ।
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सुन्दरबोधिनी टीका कृणिकको श्रेणिकका परिचय
१५३ ततः खलु श्रेणिको राजा कुणिकं कुमारं परशुहस्तगतमेजमानं पश्यति, दृष्ट्वा एवमवादी-एष खलु कूणिकः कुमारः अमार्थितमार्थितो यावत् श्रीह्रीपरिवर्जितः . परशुहस्तगत इह हव्यमागच्छति, तन ज्ञायते खलु मां केनापि कुमारेण (कुत्सितमारेण ) मारयिष्यतीति कला भीतो यावत् संजातभयस्तालपुटकं विषमास्ये प्रक्षिपति । ___ततः खलु स श्रेणिको राजा तालपुटकविषे आस्ये प्रक्षिप्ते सति मुहूर्त्तान्तरेण परिणम्यमाने निष्पाणो निश्चेष्टो जीवविभत्यक्तोऽवतीर्णः।
ततः खलु स कुणिकः कुमारो यत्रैव चारकशाला तत्रैवोपागतः, उपागत्य श्रेणिकं राजानं निष्पाणं निश्चेष्टं जीवविप्रत्यक्तमवतीर्ण पश्यति, दृष्ट्वा महता पितृशोकेन आक्रान्तः सन् परशुनिकृत्त इव चम्पकवरपादपः 'धस' इति धरणीतले सर्वाङ्गः संनिपतितः।।
ततः खलु स कूणिकः कुमारो मुहूर्तान्तरेण आखस्थः सन् रुदन् क्रन्दन् शोचन् विलपन् एवमवादी-अहो ! खलु मया अधन्येन अपुण्येन अकृतपुण्येन दुष्ठु कृतं श्रेणिकं राजानं प्रियं दैवतमत्यन्तस्नेहानुरागरक्तं निगडबन्धनं कुर्वता, मम मूलकं चैव खलु श्रेणिको राजा कालगतः, इति कुखा ईश्वर-तलवर-यावत्-सन्धिपालैः सार्द्ध संपरिवृतो रुदन् ४ (क्रन्दन् शोचन् विलपन् ) महता ऋद्धिसत्कारसमुदयेन श्रेणिकस्य राज्ञो नीहरणं करोति, कुखा बहूनि लौकिकानि मृतकृत्यानि करोति । . ततः खलु स कूणिकः कुमार एतेन महता मनोमानसिकेन दुःखेनामिभूतः सन् अन्यदा कदाचित् अन्तःपुरपरिवारसंपरितः समाण्डामत्रोपकरणमादाय राजगृहात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव चम्पा 'नगरी तत्रैवोपागच्छति । तत्रापि खलु पिपुलभोगसमितिसमन्वामतः कालेन अल्पशोको जातश्चाप्यभूत् ।
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निरवालिकामा ततः खलु स कूणिको राजा अन्यदा कदाचित् कालादिकान् दश कुमारान् शब्दयति, शब्दयिखा राज्यं च यावज्जनपदं च एकादश भागान विभजति, विभज्य खयमेव राज्यश्रियं कुर्वन् पालयन् विहरति ॥ ३९॥
टीका
'तएणं सा' इत्यादि । प्रियं=सर्वथा हितकारकम् । दैवतम् इष्टदेवताखरूपम् । गुरुजनकम् गुरुजनवत् परमोपकारकम् । अत्यन्तस्नेहानुरागरक्त विलक्षणप्रेमरागरञ्जितम् । प्रधारयति-निश्चिनोति गमनाय, गन्तुमुद्यत इत्यर्थः । अवतीर्णः-मनुष्यायुः ....समाप्तवान् । विपुलभोगसमितिसमन्वागतः विपुलभोगानां समितिः-प्रवृत्तिः, तत्र समन्वागतः समनुमाप्तः विपुलभोगान् भुञ्जानः कालेन-कियता कालेन विगतशोकोऽप्यभवत् । शेषं सुगमम् ।
'तएणं सा' इत्यादि
कूणिकके ऐसे वचन सुनकर रानी चेल्लनाने राजा कूणिकको इस प्रकार कहना प्रारम्भ किया-हे पुत्र ! तुम्हारे इस राज्याभिषेकसे मुझे सन्तोष, अथवा चित्तमें उल्लास, प्रमोद एवं सुख किस प्रकार हो ? जब कि तुम अत्यन्त स्नेह और अनुरा: गसे युक्त, देव गुरुजन सदृश अपने पिता, प्रिय राजा श्रेणिकको बन्धनमें डालकर विशाल राज्य सुखका उपभोग करते हो।
__
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'तएणं सा' Uत्याह. | કૃણિકનાં એવાં વચન સાંભળીને રાણી ચેલનાએ રાજા કૃણિકને આવી રીતે કહેવું શરૂ કર્યું–હે પુત્ર! તારા આ રાજ્યાભિષેકથી મને સતિષ અથવા મનમાં ઉલ્લાસ, પ્રમેહ એટલે સુખ કેવી રીતે થાય? કેમકે તે અત્યંત સ્નેહ તથા અનુરાગયુક્ત, દેવ અને ગુરૂજન સમાન પોતાના પિતા પ્રિય રાજા શ્રેણિકને બંધનમાં નખી આ વિશાલ રાજ્ય સંખનો ઉપભોગ કરે છે.
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सुन्दरबोधिनी टीका कूणिक को श्रेणिकका परिचय
- यह सुनकर राजा कूणिकने चेल्लना देवीसे इस प्रकार कहना प्रारम्भ किया है माता ! 'यह राजा श्रेणिक जो मेरी घात चाहनेवाला है एवं मेरा मरण और बन्धन चाहनेवाला है तथा मेरे मनको दुःख देनेवाला है वह मुझपर अत्यन्त स्नेह और अनुरागसे अनुरक्त कैसे हो सकता है ?
.
:
... कूणिकके इस प्रकार कहनेपर चेलना देवीने उससे कहा-हे पुत्र ! सुन-जब तू मेरे गर्भ में आया उसके तीन महीने पूर्ण होते मुझे इस प्रकारका दोहद' (दोहला ) उत्पन्न हुआ कि
“वे माताएँ धन्य हैं जो अपने पतिके उदरवलिमांसको तल-भूनकर मदिराके साथ खाती हुई यावत् अपने दोहद ( दोहला )को पूर्ण करती हैं। मैं भी यदि राजा श्रेणिकके उदरवलिका मांस खाऊँ तो बडा अच्छा हो।" इस प्रकार दोहद होनेपर मैं दिन-रात आर्तध्यान करने लगी और दोहदके पूरे न होनेके
આ સાંભળી રાજા કૃણિકે ચેલ્લના દેવીને આ પ્રમાણે કહેવા માંડ્યું છે માતા ! આ રાજા શ્રેણિક જે મારે ઘાત ચાહે છે અને મારું મરણ તથા બંધન ચાહવાવાળે છે તથા મારા મનને દુઃખ દેનારે છે. તે મારા ઉપર અત્યંત સનેહ તથા અનુરાગથી અનુરક્ત કેમ હોઈ શકે ? '
કણિકના આ પ્રકારે કહેવાથી ચેલના દેવીએ તેને કહ્યું –
' હે પુત્ર! સાંભળ-જ્યારે તું મારા ગર્ભમાં આવ્યું ત્યારથી ત્રણ મહિના પૂરા થતાં મને એવી જાતને દેહદ (તીવ્ર ઈચ્છા) ઉત્પન્ન થયે કે –
તે માતાને ધન્ય છે કે જે પિતાના પતિના ઉદરથતિ માંસને તળી બંને મદિરાની સાથે ખાનાં પિતાને દેહદ સંપૂર્ણ રીતે પૂરી કરે છે. હું પણ જે રાજા શ્રેણિકનું ઉદરવતિનું માંસ ખાઉં તે બહુ સારું થાય ” આ પ્રકારને હહ થવાથી હું દિન-રાત આર્તધ્યાન કરવા લાગી અને દેહદ પૂરે ન થવાથી
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निरयाविकास
कारणा: सालकर पीली पड गई। जब तुम्हारे पिताको यह खबर दासियों द्वारा ज्ञात हा तो उन्होंने मुझसे मेरे दोहदका वृत्तान्त सुनकर अभयकुमार द्वारा उसकी पूर्ति की। दोहद ( दोहला) पूर्ण होनेके बाद मैंने विचार किया कि इस बालकने गर्नमें आते ही अपने पिताका मांस खाया तो जन्म लेकर न जाने क्या करेगा ? इस लिए इस गर्भको किसी भी उपायसे नष्ट कर डालूं, परन्तु वह गर्भ नष्ट न होसका
और तू पैदा हुआ, तेरा जन्म होनेपर मैंने तुझे दासीके द्वारा एकान्त स्थानउकरडीपर फिकवा दिया। पश्चात् यह वृत्तान्त तेरे पिता राजा श्रेणिकको मालूम हुआ, उन्होंने तेरी खोज की और खोजकर तुझे मेरे पास ले आये । उन्होंने तेरा परित्याग करनेके कारण मेरी कडी भर्त्सना की और मुझे शपथ देकर कहा कि तुम इस बच्चेका अच्छी तरह पालन पोषण करो। उकरडीपर पडे हुए तेरी अंगुलीके अग्र भागको मुर्गेने काट लिया जिससे तुझे बडी वेदना होती थी, तू दिन-रात कष्टसे चिल्लाता रहा था, उस समय तेरे पिता तेरी कटी हुई अंगुलोको अपने मुँहमें लेकर पीप और
સુકાઈને પીળી પડી ગઈ. જ્યારે તારા પિતાને આ ખબર દાસીઓ દ્વારા જાણવામાં આવી ત્યારે તેમણે મારા મોઢેથી મારા દેહદનું વૃત્તાંત સાંભળીને તે અભયકુમાર દ્વારા રિપૂર્ણ કર્યો. દોહદ પૂરી થયા પછી મેં વિચાર કર્યો કે આ બાળકે ગર્ભમાં આવતાંજ પિતાના પિતાનું માંસ ખાધું તે જન્મ લઈને તે ખબર નહિ કે તે શું કરશે? માટે આ ગર્ભને કઈ પણ ઉપાયથી નાશ કરી નાખું. પણ તે મને નાશ ન થઈ શકે અને તું પેદા થયે. તારે જન્મ થયા પછી મેં તને દાસી મારત એકાંત સ્થાન-ઉકરડે ફેંકાવી દીધો. પછી આ હકીકતની તારા પિતા રાજા શ્રેણિકને ખબર પડી. તેમણે તારી તપાસ કરી અને તેને ગતીને રાજા મારી પાસે લાવ્યા. તેમણે તારે પરિત્યાગ કરવા માટે મને બહુ ઠપકે આપે અને મને સંગ આપીને કહ્યું કે આ બાળકનું સારી રીતે પાલન પોષણ કરે.” તે ઉકરડે પડે હતું ત્યારે તારી આંગળીના આગલા ભાગને કુકડે કરચે હતું જેથી તને બહુ વેદના થતી હતી અને તું તે કષ્ટથી દિવસ રાત બહુ રડુયાજ કરતે હવે તે સમયે તારા પિતા તારી કપાયેલી આંગળીને પોતાના મોમાં લઈ પરૂં અને લેહી જે
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मदरबोधिनी रीका श्रेणिकमरण शोणितको चूसकर थूक देते थे, तब तुझे शांति होती थी और दू चुप होजाता था। जब कभी भी तुझे पीडा होती थी तब तेरे पिता इसी तरह किया करते थे, और तू शांति पानेके कारण चुप होजाता था। हे पुत्र ! इस कारण मैं कहती हूँ कि तेरे पिता राजा श्रेणिक तुझपर अत्यन्त स्नेह और अनुरागसे युक्त है। .
. वह कूणिक राजा चेल्लना रानीके मुँहसे इस प्रकार वृत्तान्त सुनकर कहने लगे-हे माता ! मैंने सभी प्रकारके हित करनेवाले इष्टदेवता स्वरूप परमोपकारक अत्यन्त स्नेह-अनुरागसे युक्त अपने पिता राजा श्रेणिकको बन्धनमें डाला यह उचित नहीं किया सो मैं स्वयं जाकर उनके बन्धनको काटता हूं, ऐसा कहकर कुठार हाथमें लेकर जहाँ कारागार था वहाँ जानेके लिए चला।
उसके बाद राजा श्रेणिकने, हाथमें कुठार लिए हुए कूणिककुमारको आते हुए देखकर उनके मुँहसे सहसा ये शब्द निकल पडे कि यह कूणिककुमार अनुचितको चाहनेवाला कर्तव्यहीन यावत् लज्जावर्जित हाथमें कुठार लिए हुए जल्दीसे आ रहा है, નીકળતું હતું તે ચૂસીને થુંકી દેતા હતા. ત્યારે તેને શાંતિ થતી હતી અને તું
ને રહી જાતું હતું. જ્યારે વળી પાછી પીડા થતી ત્યારે તારા પિતા એવી રીતે કરતા હતા. અને તે શાંતિ મળવાથી છાને રહી જાતે હતે. હે પુત્ર! આ કારણથી હું કહું છું કે તારા પિતા રાજા શ્રેણિક તારા પર બહુ સ્નેહ અને અક રાગ રાખતા હતા.
તે કૃણિક રાજા ચેલના રાણીના મોઢેથી આ પ્રમાણે હકીકત સાંભળી કહેવા લાગ્યા...હે માતા ! મેં સર્વ પ્રકારે હિત કરવાવાળા, ઈષ્ટદેવ સ્વરૂપ પરસ ઉપકારક, બહુજ સ્નેહભાવ રાખવાવાળા મારા પિતા રાજા શ્રેણિકને બંધનમાં નાખ્યા તે વાજબી ન કર્યું તેથી હું પોતે જઈને તેમનાં બંધન કાપી નાખું છું. એમ કહી કુહાડી હાથમાં લઈ જ્યાં કેદખાનું હતું ત્યાં ગયા. - ત્યાર પછી રાજા શ્રેણિકે હાથમાં કુહાડી લઈને કૃણિક કુમારને આવો જે. જોઈને તેના મોઢેથી તુરત આવા શબ્દો નીકળી પડ્યા કે-“આ કૃણિક કુમાર અનુચિત ચાહવા વાળો કર્તવ્યહીન નિર્લજજ થઈને કુહાડી લઈ જલ્દી અહીં આવે છે,
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निरयावलिकासूत्र.
न जाने किस प्रकार यह मुझे बुरी तरह मारेगा, इस बातसे डरकर रोजा श्रेणिकने अपनी अंगूठीमें रहे हुए तालपुट विषको अपने मुखमें रख लिया । मुँह में रखनेके बाद वह विष क्षणमात्रमें सारे शरीरमें फैल गया और राजा प्राण एवं चेष्टासे रहित हो मृत्युको प्राप्त हो गया ।
इसके बाद कूणिककुमार कारागारमें आया और आकर प्राण एवं चेष्टासे रहित – मरेहुए - राजा श्रेणिक को देखा । देखकर पिता के मरणजन्य असहनीय कष्टसे आक्रान्त हो तीक्ष्ण कुठारसे कटे हुए कोमल चम्पक वृक्षकी तरह भूमिपर धडामसे गिर पडा ।
इसके अनन्तर वह कूणिककुमार कुछ समय बाद मूर्छारहित हुआ, मूर्छाके हट जानेपर वह रोता हुआ करुण शब्दसे आर्तनाद और विलाप करता हुआ इस प्रकार बोला- मैं अभागा हूँ, पापी हूँ, पुण्यहीन हूँ, जो कि मैंने बुरा कार्य किया, देवगुरुजनके समान परम उपकारी और स्नेह - ममता से अनुरक्त अपने पिता श्रेणिक
ખબર નથી પડતી કે તે મને કેવી રીતે ખરાખ રીતે મારી નાખશે. આ વાતથી હરી જઈને રાજા શ્રેણિકે પેાતાની અંગુઠીમાં રહેલ તાલપુર ઝેર પેાતાના મામાં સૂકયું. મેામાં મૂકયા પછી તે ઝેર એક પળ માત્રમાં આખા શરીરમાં ફેલાઈ ગયું અને સજા પ્રાણથી અને હલનચલનથી રહિત થઇ મૃત્યુ પામ્યા.
ત્યાર પછી કૂણિક કુમાર કેદખાનામાં આવ્યા અને આવીને રાજા શ્રેણિકને પ્રાણ અને હલનચલનથી રહિત- મરેલા જોયા, જોઈને પિતાના મરણુજન્ય સહન ન થાય એવાં દુ:ખથી રૂદન કરતા થકા તીક્ષ્ણધાર વાળી કુહાડીથી કાપેલા કામળ 'ચ'પક વૃક્ષની પેઠે જમીન ઉપર ધડાંગ પડી પડયા.
ત્યાર પછી તે કૂણિક કુમાર થાડા સમય પછી મૂર્છારહિત થયા મૂર્છા હટી થયા પછી તે રૂદન કરતા કરૂણ શબ્દથી નાદ કરતા શાક અને વિલાપ કરતા છું, પાપી છું, પુણ્યહીન છું, જેથી મેં
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કરતા આ પ્રમાણે ખલ્યા હું અભાગી
પ્રશમ કાર્ય કર્યું. દેવ ગુરૂજન સમાન પરમ ઉપકારી અને સ્નેહ મમતાથી લાગણી
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Farfધા રોણા શેનિશ સાપ નો પૂમાણs राजाको क्धनमें डाला और मेरे ही कारण इनकी मृत्यु हुई। ऐसा कहकर अपने कुटुम्बके साथ रुदन करता हुआ बडे समारोहके साथ राजाकी अन्तिम लौकिक क्रिया की । उसके बाद वह कूणिक राजगृहमें अपने पिताकी उपभोग सामग्रियोंको देख -देखकर अत्यन्त दुःखी होता था। कहीं वह पिताका सिंहासन देखता था तो कहीं उनकी शय्या, कहीं उनके आभूषण, तो कहीं उनके वस्त्र, ये सब देखते उसे पिताकी स्मृति अनवरत आती रहती थी, और उन्हें अपने किये हुए पाप कर्मोंका भी स्मरण होजाता था जिससे असीम कष्टको प्राप्त होता था। इस कारण वह वहाँ नहीं रह सका और एक समय अपने अन्तःपुर परिवार सहित अपनी समस्त सामग्री लेकर राजगृहसे बाहर निकला और चलकर जहाँ चम्पा नगरी थी वहाँ गया, और चम्पा नगरीको अपनी राजधानी बनाकर निवास करने लगा। कुछ समय व्यतीत होजानेपर वह पिताके शोकको भूल गया।
उसके बाद वह कूणिककुमार अपने भाई काल आदि दस कुमारोंको बुलाकर राज्यके ग्यारह भाग करके उन लोगोंको बाट दिया व अपने राज्यका पालन स्वयं करने लगा। રાખનાર પિતાના પિતા શ્રેણિક રાજાને બંધનમાં (કેદખાનામાં) નાખ્યા અને મારાજ કારણથી એનું મૃત્યુ થયું. એમ કહીને પોતાના કુટુંબીઓની સાથે રૂદન કરતા થકા બહુ સમાપક રાજા શ્રેણિકની અંતિમ લૌકિક ક્રિયા કરી. - ત્યાર પછી તે કૂણિક રાજગૃહમાં પિતાના પિતાની ઉપભોગ સામગ્રીઓ ને જોઈને બહુજ દુઃખી થે . હતા કયાંક તે પિતાનું સિંહાસન જોતા હતા તે કયાંક તેમની શય્યા, ક્યાંક તમનાં આભૂષણ તો કયાંક તેમનાં વસ્ત્રો. આ જોઈ તેઓને પિતાનું સ્મરણ વારંવાર થયા કરતું હતું અને તેમણે પોતે કરેલાં પાપ કર્મોનું પણ મરણ થઈ આવતું હતું જેથી પારવગરનું કષ્ટ પ્રાપ્ત થતું હતું. આ કારણથી તે ત્યાં રહી શકયા નહિ અને એક સમયે પિતાનાં અંત:પુર કુટુંબ-સહિત પોતાની તમામ સામગ્રી લઈને રાજગૃહથી બહાર નીકળ્યા અને ચાલીને જ્યાં ચંપાનગરી હતી ત્યાં ગયા. અને પછી ચંપાનગરીને પિતાની રાજધાની બનાવીને ત્યાં રહેવા લાગ્યા ડો સમય વ્યતીત થઈ ગયા પછી તે પિતાના શોકને ભૂલી ગયા - ત્યાર પછી તે કૃણિક કુમાર પિતાના ભાઈ કાલ આદિ દશ કુમારેને બેલાવીને રાજ્યના અગીયાર ભાગ કરી તે લેકેને વેચી દીધું તથા પિતાના રાજય) પાલન પોતે કરવા લાગ્યા.
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निरयावलिकासत्र अत्र प्रसङ्गमाप्तं कूणिकस्य श्रेणिकघातकस्वे कारणं दर्श्यते' श्रेणिको भूपः प्राग् वीतरागवचनबहिर्तितया सम्यक्त्वाभावाद् देवगुरुधर्मान् निर्णेतुं नाशकत् । चेल्लनापाणिपीडनानन्तरं तदीयमेरणयाऽनाथिमुनिसदुपदेशेन सम्यक्त्वमलभत । . ..
पुरा श्रेणिको राजा कदाचित् विमलपवनं सेवितुं शीतलमन्दसुगन्धगन्धवाहसनाथं मत्तकोकिलकलरवकूजितं वनमगमत् । तत्रैकस्तापसाश्रम
कूणिक श्रेणिककी मृत्युमें क्यों कारणभूत बना ? यह कथानक प्रासङ्गिक है एतदर्थ इसे नीचे दिखलाते हैं
राजा श्रेणिक पहले वीतरागधर्मी नहीं होनेसे उसमें सम्यक्त्व नहीं था, अतएव वह देव गुरु और धर्मका निर्णय करनेमें असमर्थ था। परन्तु जब उसका विवाह चेल्लमाके साथ हुआ तब उसकी प्रेरणासे व अनाथि मुनिके सदुपदेश द्वारा उसे सम्यक्त्वका लाभ हुआ और वह वीतरागके धर्मको मानने लगा। पहले वह श्रेणिक राजा एक समय शुद्ध वायु सेवन करनेके लिए वनमें गया। वह वन शीतल, मन्द, सुगंध वायुसे युक्त एवं मत्त कोकिलके कलरवसे कूजित था। वहाँ एक
કૃણિક શા માટે શ્રેણિકના મૃત્યુમાં કારણભૂત બન્યા? આ કથાનક પ્રાસંગિક છે માટે તે નીચે બતાવીએ છીએ – " રાજા શ્રેણિક પહેલાં વિતરાગધમી ન હોવાથી તેનામાં સમ્યકત્વ નહતું. આથી તે દેવ ગુરૂ તથા ધર્મને નિર્ણય કરવામાં અસમર્થ હતા. પરંતુ જ્યારે Samiti તેને વિવાહ ચેલ્લનાની સાથે થયે ત્યારે તેની પ્રેરણાથી અને અનાથિ મુનીના સદુપદેશથી તેને સમ્યકત્વને લાભ થશે અને તે વીતરાગના ધર્મને માનવા લાગ્યા. પહેલા તે શ્રેણિક રાજા એક સમય શુદ્ધ વાયુ સેવન કરવા માટે વનમાં ગયા તે વન શીતલ, મદ, સુંગધ વાયુથી યુક્ત અને મત્ત થયેલી કોયલના કલરવથી
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'सुन्दरबोधिनी टीका कुणिक - श्रणिकका वैरकारण
१६१
आसीत् । तस्मिन्नाश्रमे कश्चित्तापसो मासं मासं तपसा क्षपयन् पारणां कुर्वाण आसीत् । राजा तं तपस्विनं विलोक्य समतुष्यत्, तापसं च स्वभवने पारणां कर्तु प्रार्थयत् । तापसेनोक्तम् - पारणायां पञ्च दिनानि साम्प्रतमवशिष्यन्ते पश्चदिवसानन्तरं पारणायै तव राजधानीमागमिष्यामि, हे राजन् ! ममायं नियमो यत् - ' पारणादिने एकस्मिन्नेव गृहे भिक्षा
तापसका आश्रम था । उस आश्रम में एक तापस मास मासके उपवाससे पारणा करता था । राजा उस तापसको देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ, और उससे प्रार्थना की - हे महात्मन् ! आप मेरे यहाँ पारणा करनेके लिये पधारें । राजाकी ऐसी प्रार्थना : सुनकर तापस बोला
हे राजन् ! अभी मेरे पारणेमें पाँच दिन घटते ( अवशिष्ट ) हैं उनके पूर्ण होजानेपर मैं तुम्हारे यहाँ पारणेके लिये आऊँगा, परन्तु मेरा एक नियम है उसको ध्यान में रखना मैं पारणेके दिन केवल एकही घर भिक्षाके लिए जाता हूँ । यदि
જિત હતું. ત્યાં એક તપસ્વીના આશ્રમ હતા. તે સ્માશ્રમમાં એક તાપસ મહિના મહિને ઉપવાસ કરી પારણાં કરતા હતા. રાજા તે તાપસને જોઇને અત્યંત ખુશી થયા અને તેઓને પ્રાર્થના કરી હે મહાત્મન્ ! આપ મારે ત્યાં પારણાં કરવાને પધાા. ’ રાજાની એવી પ્રાર્થના સાંભળી તાપસ એલ્યુાઃ—
હે રાજન્! હજી મારે પારણાં કરવાને પાંચ દિવસ અનશિષ્ટ (ખાકી ) છે. તે પુરા થઇ ગયા પછી હું તારે ત્યાં પારણાં માટે આવીશ પરંતુ માશ એક નિયમ છે તે ધ્યાનમાં રાખજેું પાશુાંને મિસ માત્ર એકજ ઘેર શિક્ષાને માટે
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मिरवावलिकामा माचरामि, यधेकत्र मैक्ष्यं न लभे तदा मासं क्षपयामि' इति वापसनियमं श्रुत्वा श्रेणिको राजा निजराजधानीमागमत् ।
ततः पञ्चसु दिवसेषु व्यतीतेषु पारणाऽहे तापसः श्रेणिकराजद्वारमागतः । तस्मिन् दिने राज्ञो महत्या शिरोवेदनया राजभवनं व्याकुलमासीदिति तापसं सत्कर्तुं कोऽपि नाशकत् । तापसस्तादृशं राजभवनं निरीक्ष्य ततः परावृत्तो द्वितीयं मासं क्षपयितुं प्रारभत । शिरोवेदनायां शान्तायां राजा तापसमुपागच्छत् । तापसश्च खनियमं राजानं श्रावितवान् । भूपः पुनः वहाँ भिक्षा नही मिली तो फिर मासक्षपण ( खमण) के बाद ही पारणा करता है। राजा उस तापसके इस नियमको सुनकर अपनी राजधानीको लौट गया।
उसके पाँच दिन बीत जानेके पश्चात् वह तापस पारणेके दिन, राजा बेणिकके द्वारपर आया । उस दिन राजाके सिरमें असह्य वेदना थी जिससे समूचा राजभवन व्याकुछ था, इसलिये उस तापसका किसीने सत्कार नही किया। तापस इस प्रकार राजमहलको व्याकुल देखकर लौट गया और पुनः एक मासका उपवास करने लगा। ...
. .. जब राजाने शिरवेदनासे छुटकारा पाया तब वह पुनः उसी तापसके જાઉં છું. જે ત્યાં ભિક્ષા ન મળે તે વળી પાછા ફરીને માસ ખમણ પછી જ પારણાં કરૂં છું. રાજા તે તાપસને આ નિયમ સાંભળીને પિતાની રાજધાનીએ पाठ। गया. છે તેને પાંચ દિવસ વીતી ગયા પછી તે તાપસ પારણને દિવસ રાજા શ્રેણિકના દ્વારે આવ્યું. તે દિવસ રાજાના માથામાં અસહ્ય વેદના હતી જેથી આખું રાજભવન વ્યાકુળ હતું. આથી તે તાપસને કોઈએ સત્કાર ન કર્યો. તાપસ આ પ્રમાણે રાજમહેલને અસ્થિર (વ્યસ્ત) જે પાછો ફર્યો અને ફરી તે એક માસના Na Rai aयो. - ...... .. . .... - જ્યારે રાજાને માથાને દખાવે મટી ગયો ત્યારે તે ફરીને તેજ તાપસની
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सुन्दरबोधिनी टोका'णिक-श्रेणिका वैरकारण पारणार्थ तापसं. मार्थितवान् । पारणादिने श्रेणिकराजधानीमसौ वापस भागतः । तस्मिन् दिने राजभवनं वहिमदीप्तमासीदिति तापसागमनं राज्ञा विस्मृतम् अतस्तापसः परावृतत् । ततस्तृतीयं मासं स क्षपयितुं पारमत । वहीं शान्ते राजा तापसमुपगम्य क्षमा पुनः पारणां च पार्थयामास ।
पास गया, और उसे पारणेके लिए अपने यहाँ आनेकी सविनय प्रार्थना की। तापसने राजाकी प्रार्थनाको सुनकर फिर अपने उस नियमको दोहराया और बादमें राजाके यहाँ पारणाके लिये आना स्वीकार कर लिया। पारणाके दिन वह तापस फिर राजाके यहाँ आया, परन्तु संयोगसे उस दिन राजभवनमें आग लग गयी,
और राजा ' आज तापसका पारणा दिन है' यह भूल गया । तापस राजभवनको भागकी लपटोंसे जलता हुआ देखकर लौट गया और फिर तीसरे महीनेका उपवास करने लगा । आगके शान्त होजानेपर राजाको स्मरण हुआ कि मैंने तापसको पारणा के लिये आज बुलाया था परन्तु राजभवनमें आग लग जानेसे मैं उसे भूल गया, बेचारा तपस्वी इस मास भी मेरे ही कारण भूखा रहा । यह सोचकर राजाको
પાસે ગયે અને તેને પારણાં માટે પિતાને ત્યાં આવવાની સવિનય પ્રાર્થના કરી. તાપસે રાજાની પ્રાર્થનાને સાંભળી ફરીને પિતાને તે નિયમ બીજી વાર કહ્યો અને પછી રાજાને ત્યાં પારણાં માટે આવવાને સ્વીકાર કર્યો.
પારણને દિવસ તે તાપસ પાછો રાજાને ત્યાં આવ્યો પરંતુ સગવશાત તે દિવસ રાજભવનમાં આગ લાગી ગઈ તથા રાજા “આજે તાપસને પારણને દિવસ છે એ ભૂલી ગયે. તાપસે રાજભવનને આગની જવાળાઓથી બળતું જોયું અને જેઈને પાછા ફરી ગયે. અને પાછા ત્રીજા મહિનાના ઉપવાસ કરવા લાગ્યા. આગ શાંત થઈ ગયા પછી રાજાને યાદ આવ્યું કે–મેં તાપસને પારણાં માટે આજે
લાવ્યા હતા. પરંતુ રાજભવનમાં આગ લાગી જવાથી હું તે ભૂલી ગયે બિચારા તપસ્વી આ મહિને પણ મારાજ કારણથી ભૂખ્યા રહ્યા. આ વિચારથી સજાને બહુ
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निरयावलिकामा तापसेनापराध क्षमिला पारणार्थ राजभवनागरनं स्वीकृतम् ।
पारणादिने तापसो राजद्वारमागतः । तस्मिन् दिने शत्रुः श्रेणिकराजधानीमाक्राम्यत् । राजा योऽमुद्यतः सैन्यं सहीतुं प्रवृत्तस्तापसं सत्कतुं न क्षमोऽभूत् । तापसो राजद्वारमागत्य पुनः परावृत्तश्चतुर्थ मासं तपसा क्षपयितुं प्रारभत ।
अत्यन्त कष्ट हुआ और वह उस तापसके पास गया तथा अपने अपराधकी क्षमा याचना की, और फिर अपने यहाँ पारणाके लिये आनेकी प्रार्थना की। तापसने अपराधको क्षमा कर दिया, और राजभवन में पारणाके लिए आना स्वीकार कर लिया।
पारणाके दिन फिर वह तापस राजाके दरवाजेपर आया, परन्तु उसी दिन दुर्भाग्यसे शत्रुने उसकी राजधानीपर चढाई कर दी थी। राजा सेनाको व्यवस्थित रूपसे एकत्रित करनेमें लगा हुआ था, इस लिये वह तीसरी बार भी सःकार नहो कर सका । तापस राजाके दरवाजेसे उस दिन भी बिना पारणाके लौटा और चौथे मासका उपवास प्रारम्भ कर दिया ।।
કષ્ટ થયું અને તે તાપસ પાસે ગયે અને પિતાના અપરાધ માટે ક્ષમાની યાચના કરી, અને ફરીને પિતાને ત્યાં પારણાં માટે આવવાની પ્રાર્થના કરી. તાપસે અપરાધને માટે ક્ષમા આપી દીધી અને રાજભવનમાં પારણું માટે આવવાને સ્વીકાર કરી લીધે
- પારણને દિવસે પાછો તે તાપસ રાજાના દરવાજા પર આવ્યું પણ તે દિવસે દુર્ભાગ્યવશાત્ શત્રુએ તેની રાજધાની ઉપર ચડાઈ કરી હોવાથી રાજા સેન્ચને વ્યવસ્થિત કરી એકઠું કરવામાં રોકાયેલ હતો આથી તે ત્રીજી વખત પણ સત્કાર કરી શકે નહિ. તાપસ રાજાને ઘેરથી તે દિવસ પણ પારણું કર્યા વગર પાછો ફર્યો અને ચોથા માસના ઉપવાસ શરૂ કર્યા.
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सुन्दरबोधिनो टोका कूणिक - श्रेणिकका वैरकारण
ततो युद्धे निवृत्ते राजा तापसमुपगम्याऽपराधक्षमां पारणां प्रार्थयामास । तापसः क्षमां पारणां च स्वीकृत्य चतुर्थमासानन्तरं राजङ्कारमागतः सर्वान् पुत्रजन्मोत्सव निमग्नानवलोक्य पारणामकृत्वा परावृत्तः । उत्सवानन्तरं भूपः स्वभृत्यान् पृष्टवान् - भो ! किं तापसः पारणार्थमागतवान् ? । भृत्यैः कथितम् - पारणामकृत्वैव गतवानसौ स्वाश्रमे ।
पुनः
१६५.
उसके बाद लडाईसे अवकाश मिलनेपर राजा तापसके पास आया और अपनी विपदा सुनाकर क्षमायाचना की तथा पारणा करनेके लिए पुनः प्रार्थना की । तापसने राजाको क्षमा कर दिया और पारणा के लिए उनके यहाँ आना स्वीकार करें लिया । चौथे मासके समाप्त होनेपर पारणा के लिये राजाके दरवाजेपर आया । संयोगसे उसी दिन राजाके घर लडका पैदा हुआ । अपने अन्तःपुरपरिजनके सहित राजा उसी समारोह में संलग्न था इसलिये राजाको तापसके आनेका ध्यान बिलकुल नहीं रहा । ताप पारणाके लिये मिक्षा न पाकर लौट गया । उत्सव बीतनेपर राजाने अपने परिचारकोंसे पूछा- क्या तापस पारणाके लिए आया था ? उन्होंने कहा -देव ! एक तापस पारणा के लिये आया था किन्तु वह पारणा किये बिना ही अपने आश्रमको लौट गया ।
ત્યાર પછી લડાઈથી ફુરસદ મળ્યા પછી રાજા તાપસની પાસે આવ્યે અને પેાતાની વિપત સંભળાવી ક્ષમા માગી અને પારણાં કરવા માટે ફ્રીને પ્રાર્થના કરી. તાપસે રાજાને ક્ષમા કરી દીધી તથા પારણાં માટે તેને ત્યાં આવવાના સ્વીકાર કર્યો.
ચેાથા માસ સમાપ્ત થતાં તે પારણાં માટે રાજાને દ્વારે આવ્યા. સોગથી તેજ દિવસે રાજાને ઘેર છે!કરી જનમ્યા. પેાતાના અંત:પુરના પરિજના સાથે રાજા તે પ્રસંગમાં લાગેલા હતા આથી રાજાને તાપસ આવવાનું બિલકુલ ધ્યાનમાં ન રહ્યું. તાપસને પારણાં માટે ભિક્ષા ન મળવાથી પાછા ગયા.
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6
ઉત્સવ વીતી ગયા પછી રાજાએ પેાતાના પરિચારકા (નાકરા) ને પૂછ્યુંતાપસ પારણાં માટે આવ્યા હતા ?' તેઓએ કહ્યું- હે દેવ ! એક તાપસ પાર માટે આવ્યા હતા પણ તે પારણાં કર્યાં વિનાજ પેાતાને આશ્રમે પાછે થયું.
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निरवावलिकास्त्र वत्र गखा' वीतरागवचनामृतपानाभावात् तापसः क्रोधामिना प्रज्वलितः सदधर्मश्रद्धारहितोऽसौ श्रेणिकं द्विषन् आर्तरौद्रध्यानपूर्वकं मनस्येव चिन्तयति-'तिलतुषमात्रमपि यदि मे तपःफलं तदाऽहं जन्मान्तरेऽस्य राजो दुःखदो भवेयम्' इति विचार्य परभवदुःखदायकनिदानं कृतवान् । - ततो राजा तापसनिकटमागतः । तत्र तापस उवाच-हे राजन् ! यो भूयो मां निमन्त्र्यत्वं विस्मरसि, 'अथ सर्वथा यावजीवं चतुर्विधाहारं परित्यज्य परभवे तव दुःखदो भवेयम् । एतादृशं प्रतिज्ञातवानस्मि ।
तापस अपने आश्रममें आकर, वीतरागके वचनरूपी अमृतपानके बिना क्रोधाग्रिसे बलता हुआ शुद्ध धर्मकी श्रद्धासे रहित होनेके कारण, श्रेणिक राजासे द्वेष करता हुआ आते-रौद्र-ध्यानपूर्वक इस प्रकार अपने मनमें विचारने लगा-'यदि तिलतुषके बराबर भी मेरी तपश्चर्याका फल हो तो मैं चाहता हूँ कि-इस राजा श्रेणिकको अगले जन्ममें दुःखदायी होऊँ ' ऐसा विचारकर जन्मान्तरमें दुःख देनेवाला निदान (नियाणा ) किया।
उसके बाद राजा तापसके पास आया । तापसने राजासे कहा-हे राजन् । हूँ मुझे बार२ न्यौता देकर भूल जाता है, आज मैंने ऐसी प्रतिज्ञा करली है कि-' यावज्जीव चारों प्रकारके आहारको त्याग कर परभवमें तुम्हारे लिये दुःखदायी बनें।
તાપસ પિતાના આશ્રમમાં આવી વીતરાગના વચનરૂપી અમૃતપાન વગરને
ધરૂપી અગ્નિથી બળ બળને શુદ્ધ ધર્મની શ્રદ્ધાથી રહિત રહેવાના કારણે શ્રેણિક રાજાને દ્વેષ કરતો આર્ત-રૌદ્રધ્યાનપૂર્વક આ પ્રકારે પોતાના મનમાં વિચારવા લાગ્યું.
જે તિલતુષ (તલનાં ક્રેતાં) ની બરાબર પણ મારી તપશ્ચર્યાનું ફળ હોય તે હું ઈચ્છું છું કે-“હું આ રાજા શ્રેણિકને જન્માંતરમાં દુઃખદાયી થાઉ” આમ વિચાર કરી જન્માંતરમાં દુઃખ દેવાવાળે થવા નિદાન (નિયાણું) કર્યું.
ત્યાર પછી રાજા તાપસની પાસે આવ્યા તાપસે રાજાને કહ્યું- હે રાજની ન મને વારે વારે નિમંત્રણ દઈને ભૂલી જાય છે આજ મેં એવી પ્રતિજ્ઞા કરી છે
જ્યાં સુધી જીવું ત્યાં સુધી ચારે પ્રકારના અ.હારનો ત્યાગ કરી પરભવમાં તમને भायी था.'
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मनरपोधीनी टीका कणिक-श्रेणिकका कारण
राजा भृशं प्रार्थयामास पर तापसो न शान्तकोपोऽभवत् । राना विवशतया तापसाश्रमाभिवृत्य खभवनमुपागतो राज्यकार्य लगः । असौं तापसः कालावसरे कालं कृत्वा तस्यैव राज्ञश्चेल्लनादेवीगर्भतः पुत्रत्वेनोदपद्यत । माय 'कणिककुमार' इति विख्यातः । निदानमभावात् श्रेणिकराजस्य यातकोऽभूत् ।
इदं च कुगुरुसेवाफलम् अतः कुगुरुं विहाय सुगुरुः सेवनीय..। मुगुरुसेवनेन न मोक्षमार्गज्ञानं न वा भवभ्रमणनिवृत्तिः । कुगुरोः सम्यक् सेवनेऽपि नाऽऽत्मकल्याणम् । उक्तश्च
राजाने तापससे बहुत प्रार्थना की परन्तु उसका कोप शान्त नहीं हुभा। राजा हारकर तापसके आश्रमसे अपनी राजधानीमें आया और राजकाजमें संलग्न हो गया। वह तापस कालान्तरसे मरकर उसकी रानी चेल्लनाके गर्भमें आया और उसका पुत्र होकर पैदा हुआ और 'कूणिककुमार' के नामसे प्रसिद्ध हुआ। निदान ( नियाणा )के प्रभावसे वह श्रेणिकका घातक हुआ।
___ यह कुगुरुसेवाका फल है, इस लिए कुगुरुको छोडकर सद्गुरुकी सेवा करनी चाहिए । कुगुरुकी सेवासे न मोक्षमार्गका ज्ञान होता है और न भवभ्रमण ही मिटता है। कुगुरुकी अच्छीतरह सेवा करे तो भी आत्मकल्याण नहीं हो सकता। कहा भी है:
રાજાએ તાપસને બહુ પ્રાર્થના કરી પણ તેને કેપ શાંત થયો નહિ રાજા હારી જઈને તાપસના આશ્રમેથી પોતાની રાજધાનીમાં આવીને રાજકાર્યમાં કામે વાગી ગયે. તે તાપસ કાલાંતરે મરી ગયા પછી તેની રાણી ચલ્લનાના ગર્ભમાં આવ્યો, તથા તેને પુત્ર થઈને જ અને “ણિક કુમાર'ના નામથી પ્રસિદ્ધ ययो. निन (निया!). ना पायी ते श्रेणिनी बात ययो. - આ કગુરૂસેવાનું ફલ છે. આથી કુગુરૂને છેડીને સદગુરૂની સેવા કરવી જોઇએ. કુગુરૂની સેવાથી નથી મોક્ષમાર્ગનું જ્ઞાન થતું કે નથી ભવમણ પણ મટતું ગુરૂની સારી રીતે સેવા કરીયે તે પણ આત્મકલ્યાણ થઈ શકતું નથી
48 03:-..
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'निरयावलिकाब ___ नाऽऽनं सुषिक्तोऽपि ददाति निम्बका,
पुष्टा सर्पन्ध्यगवी पयो न च । दुःस्थो नृपो नैव सुसेवितः श्रियं,
धर्म शिवं वा कुगुरुर्न संश्रितः ॥१॥ ., इति कूणिकस्य श्रेणिकघातकत्वे कारणविवरणम् ॥ सू० ३९ ॥ ." नाऽऽनं सुषिक्तोऽपि ददाति निम्बकः,
पुष्टा रसैर्वन्ध्यगवी पयो न च । ___ दुःस्थो नृपो नैव सुसेवितः श्रियं, .. धर्म शिवं वा कुगुरुर्न संश्रितः ॥१॥
अर्थात्-नीमको चाहे कितना भी सींचो तोभी उसमें आमका फल नहीं बासकता। अच्छीसे अच्छी वस्तु खिलानेपर भी वन्ध्या गौ दूध नहीं देसकती । दरिद्र राजाकी चाहे कितनी भी सेवा की जाय किन्तु वह धन नहीं देसकता, वैसे ही कुत्सित गुरुकी सेवामें न श्रुतचारित्रलक्षण धर्मकी प्राप्ति होती है और न मोक्षकी प्राप्ति हो सकती है।
— कूणिक, श्रेणिकका घातक क्यों हुआ ?' इसका विवरण उपरोक्त लिखे अनुसार है ॥ सू० ३९ ॥ नाऽऽनं मुषिक्तोऽपि ददाति निम्बकः,
पुष्टा रसै बन्ध्यगवी पयो न च । दुःस्थो नृपो नैव सुसेवितः श्रियं,
धर्म शिवं वा कुगुरुर्न संश्रितः ॥१॥ અર્થાત-લીંબડાને ગમે તેટલું પાણી પાઓ તો પણ તેમાં આંબાનું ફૂલ ન આવી શકે. સારામાં સારી વસ્તુ ખવરાવવાથી પણ વધ્યા ગાય દૂધ ન આપી શકે. દરિદ્ર રાજાની ગમે તેટલી પણ સેવા કરવામાં આવે તે પણ તે ધન ન આપી ' શકે એવી જ રીતે કુત્સિત (અગ્ય) ગુરૂની સેવાથી નથી તે સુતચારિત્રલક્ષણ ધર્મની પ્રાપ્તિ થાતી કે નથી મોક્ષની પ્રાપ્ત થઈ શકતી.
ણિક, શ્રેણિકને ઘાતક કેમ થયે ? તેનું વિવરણ ઉપર કહ્યા પ્રમાણે છે. (સૂ )
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धुन्दरबोधिनी टीका बैहल्ल्यको गन्धहायासे कोडा
मूलम्तत्य णं चंपाए नयरीए सेणियस्स रनो पुत्ते चेल्लणाए देवीए अत्तए कूणियस्स रनो सहोयरे कणीयसे भाया वेहल्ले नाम कुमारे होत्या सोमाले जाव सुरूवे । तएणं तस्स वेहल्लस्स कुमारस्स सेणिएणं रना जीवंतएणं चेव सेयणए गंधहत्थी अट्ठारसवंके य हारे पुन्वदिने ।
तएणं से वेहल्ले कुमारे सेयणएणं गंधहत्यिणा अंतेउरपरियालसंपरिखुडे चंप नगरि मज्झमज्झणं निग्गच्छइ निग्गच्छित्ता अभिक्खणं २ गंगं महानई मज्जणयं ओयरइ ।
तएणं सेयणए गंधहत्थी देवीभो सोंडाए गिण्डइ, गिण्हित्ता अप्पेगइयाओ पुढे ठवेइ, अप्पेगइयाओ खंधे ठवेइ, एवं अप्पेगइयाओ कुंभे ठवेइ, अप्पेगइयाओ सीसे - ठवेइ, अप्पेगइयाओ दंतमुसले ठवेइ, अप्पेगइयाओ सोंडाए गहाय उड्ढे वेहासं उबिहइ, अप्पेगइयाओ सोंडागयाओ अंदोलावेइ, अप्पेगइयाओ दंतंतरेसु नीणेइ, अप्पेगइयाओ सीभरेणं ण्हाणेइ, अप्पेगइयाओ अणेगेहिं कीलावणेहिं कोलावेइ ।।
तएणं चंपाए नयरीए सिंघाडगतिगचउक्कचच्चरमहापहपहेसु बहुजणो अनमन्नस्स एवमाइवखइ जाव परूवेइ-एवं खलु देवाणुप्पिया! वेहल्ले कुमारे सेयणएणं गंधहत्थिणा अंतेउर० तं चे जाव अणेगेहिं कीलावणएहिं कीलावेइ, तं एस णं वेहल्ले कुमारे रजसिरिफलं पञ्चणुब्भवमाणे विहरइ, नो कपिए राया।
तएणं तीसे पउमाईए देवीए इमीसे कहाए लट्टाए समाणीए अयमेयासवे जाव समुप्पजित्था-' एवं खलु वेहल्ले कुमारे सेयणएणं गंधपत्थिणा जाव. अणेगेहिं कीलावणएहि कोलावेर, तं .एस बेहल्ले कमारे
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निरयावलिकासूत्र
रज्जसिरिफलं पच्चणुब्भत्रमाणे विहरइ, नो कूणिए राया, तं किं अम्हं रज्जेण वा जाव जणवरण वा जइ ण अम्हं सेयणगे गंधहत्थी नत्थि ? तं सेयं खलु ममं कूणियं रायं एयमहं विनवित्तए' त्ति कट्टु एवं संपेहेर, संपेहित्ता जेणेव कूणिए राया तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता करयल० जाव एवं वयासी एवं खलु सामी ! वेहल्ले कुमारे सेयणएगं गंधदत्थिणा जाव अहिं कीलrayer कीलावेइ, तं किण्णं सामी ! अम्हं रज्जेण वा जाव traण वा जइणं अम्हं सेयणए गंधहत्थी नत्थि ? |
तणं से कूणिए राया पउमावईए देवीए एयमहं नो आढाइ, नो परिजाणइ, तुसिणीए संचिवइ । तएगं सा पउमाई देवी अभिक्खणं२ कूणियं रायं एयमहं विन्नवे |
तरण से कूणिए राया पउमावईए देवीए अभिक्खगं २ एयम विन्नविज्जमाणे अन्नया कयाइ वेहलं कुमारं सदावेइ सदावित्ता सेयणगं गंधहत्थि अट्ठारसवंकं च हारं जायइ ।
तर से वेहल्ले कुमारे कूणियं रायं एवं वयासी - एवं खलु सामी ! सेणिएणं रन्ना जीवंतेणं चेव सेयणए गंधहत्थी अट्ठारसत्रंके य हारे दिने, तं जइ णं सामी ! तुब्भे ममं रज्जस्त य रट्ठस्त य जगत्रयस्स य अद्धं दलह तो णं अहं तुब्भं सेयणगं गंधहत्थि अट्ठारसर्वकं च हारं दलयामि ।
तणं से कूणिए राया वेहल्लस्स कुमारस्स एयम नो आढाइ, नो परिजाणइ, अभिक्खणं२ सेयणगं गंधहत्थि अट्ठारसकं च हारं जायई ।
तरणं तस्स वेल्लस्स कुमारस्स कूणिएगं रना अभिकख२ सेबपगं गंधहत्थि अट्ठारसर्वकं च हारं [जाएमागस्स समागस्स अयमेयारूवे • अज्झत्थिए ४ समुप्पज्जित्था ] एवं खलु अक्खिविउकामे णं गिव्हिउकामे णं उचालेकामे णं ममं कूणिए राया सेयणगं गंधइत्थि अहारसर्वकं च
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सुन्दरबोधिनी टोका वेहल्ल्यकी गन्धहाथोसे क्रीडा
१७१
तं जाव ममं कूणिए राया [नो जागइ ] ताव [ सेयं मे ] सेयणगं गंधहत्थि अट्ठारसवंकं च हारं गहाए अंतेउरपरियाल संपरिवुडस्स सभंडमतोबगरणमायाए चंपाओ नयरीओ पडिनिक्खमित्ता वेसालीए नयरीए अज्जगं चेडयरायं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए । एवं संपेहेर, संपेहित्ता कूणियस्स रनो अंतराणि जाव पडिजागरमाणे २ विहरइ |
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तणं से वेहल्ले कुमारे अन्नया कयाइ कूणियस्स रन्नो अंतरं जाणइ जाणित्ता, सेयणगं गंधहत्थि अट्ठारसवंकं च हारं गहाय अंतेउरपरियाल - संपरिबुडे सभंडमत्तोत्रगरणमायाए चंपाओ नयरीओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता जेणेव वेसाली नयरी तेणेव उवागच्छर उवागच्छित्ता वैसालीए नयरीए अज्जगं चेडयं शयं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ ॥ ४० ॥
छाया
तत्र खलु चम्पायां नगर्यां श्रेणिकस्य राज्ञः पुत्रश्रेल्लनाया देव्या आत्मजः कुणिकस्य राज्ञः सहोदरः कनीयान् भ्राता वैहल्ल्यो नाम कुमार आसीत् सुकुमारयावत्सुरूपः ।
ततः खलु तस्य वैहल्ल्यस्य कुमारस्य श्रेणिकेन राज्ञा जीवता चैव सेचनको गन्धहस्ती अष्टादृशवको हारश्च पूर्वदत्तः । ततः खलु स वैहल्ल्यः कुमारः सेचनकेन गन्धहस्तिना अन्तःपुरपरिवारसंपरिवृतचम्पाया नगर्यां मध्यमध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य अभीक्ष्णं२ गङ्गां महानदीं मज्जनकम् अववरति । ततः खलु सेवनको गन्धहस्ती देवी : शुण्डया गृह्णाति, गृहीला अप्येकिकाः पृष्ठे स्थापयति, अप्येकिकाः स्कन्धे स्थापयति, अप्येकिकाः कुम्भे स्थापयति अप्येकिकाः शीर्षे स्थापयति; अप्येकिकाः दन्तमुराले स्थापयति, अप्येकिकाः शुण्डया गृहीला उर्ध्वं वैहायसमुद्वहते, अप्येकिकाः शुण्डा
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१५२
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निरयावलिकामा गता आन्दोलयति, अप्येकिकाः दन्तान्तरेषु नयति, अप्येकिका: शीकरण सापयति, अप्येकिका अनेकैः क्रीडनकैः क्रीडयति ।
ततः खलु चम्पायां नगर्यो शृङ्गाटक-त्रिक-चतुष्क-चबर-महापथ-पथेषु बहुजनोऽन्योऽन्यस्य एवमाख्याति यावत् प्ररूपयति-एवं खलु देवानुपिया ! वैहल्ल्यः कुमारः सेचनकेन गन्धहस्तिनाऽन्तःपुर० तदेव यावद् अनेको क्रीडनकैः क्रीडयति तदेष खलु वैहल्ल्यः कुमारो राज्यश्रीफलं प्रत्यनुभवन् विहरति, नो कणिको राजा।
ततः खलु तस्याः पद्मावत्या देव्या अस्याः कथायाः लब्धार्थायाः सत्या अयमेतद्रूपो यावत् समुदपद्यत-'एवं खलु वैहल्ल्यः कुमारः सेचनकेन गन्धहस्तिना यावद् अनेकैः क्रीडनकैः क्रीडयति तदेष खलु वैहल्ल्यः कुमारो राज्यश्रीफलं प्रत्यनुभवन् विहरति नो कूणिको राजा, तत्किमस्माकं राज्येन वा यावज्जनपदेन वा यदि खलु अस्माकं सेचनको गन्धहस्ती नास्ति ?, तच्छ्रेयः खलु मम कणिकं राजानमेतमर्थ विज्ञपयितुम् ।।
· इति कला एवं संप्रेक्षते, संप्रेक्ष्य यत्रैव कूणिको राजा तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य करतल० यावदेवमवादी-एवं खलु स्वामिन ! वैहल्ल्या कुमारः सेचनकेन गन्धहस्तिना यावद् अनेकैः क्रोडनकैः क्रीडयति, तकि खलु स्वामिन् ! अस्माकं राज्येन वा यावत् जनपदेन वा, यदि खल अस्माकं सेचनको गन्धहस्ती नास्ति ? ।
... ततः खलु स कूणिको राजा पद्मावत्या देव्या एतमथै नो आद्रियते. नो परिजानाति, तूष्णीकः संतिष्ठते ।
ततः खल सा पद्मावती देवी अभीक्ष्ण२ कुणिक राजानमेवमय विवपयति।
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इन्दरबोधिनी मेका बहल्ल्यको गन्धहायोसे कोटा
___ ततः खलु स कणिको राजा पकावत्या. देव्या अभीक्ष्णं २ एतमर्थ विज्ञप्यमानः अन्यदा कदाचित् वैहल्ल्यं कुमारं शब्दपति शब्दयिता, सेंचन गन्धहस्तिनम् अष्टादशवक्रं च हारं याचते ।
___ ततः खलु स वैहल्ल्यः कुमारः कणिकं राजानमेवमादीत्-एवं खल्लु खामिन् ! श्रेणिकेन राज्ञा जीवता चैव सेचनको गन्धहस्ती अष्टादशवक्रश्च हारो दत्तः, तद् यदि खलु स्वामिन् ! यूयं मह्यं राज्यस्य च यावत् जनपदस्य च अदै दत्त तदा खल्वहं युष्मभ्यं सेचनकं गन्धहस्तिनम् अष्टादशव च हारं ददामि ।
ततः खलु स कणिको राजा वैहल्ल्यस्य कुमारस्य एतमय नो आद्रियते नो परिजानाति, अभीक्ष्णं २ सेचनकं गन्धहस्तिनम् अष्टादशवर्क च हारं याचते ।
। ततः खलु तस्य वैहल्यस्य कुमारस्य कणिकेन राज्ञा अभीक्ष्णं २ सेचनकं गन्धहस्तिनम् अष्टादशवक्रं च हारं [याच्यमानस्य सतोऽयमेतदूप आध्यात्मिकः ४ समुदपयत ] एवं खलु आक्षेप्नुकामः खलु, ग्रहीकाम: खलु, आच्छेतुकामः खलु मां कूणिको राजा. सेचनकं गन्धहस्तिनम् अष्टादशवक्रं च हारम् तद् यावन्मां कूणिको राजा [नो जानाति ] तावत् [श्रेयो मम] सेवनकं गन्यहस्तिनम् अटादश रकं च हारं गृहीलाऽन्तःपुरपरिवारसंपरिवृतस्य सभाण्डामत्रोपकरणमादाय "चम्पाया नगर्याः प्रतिनिष्क्रम्य वैशाल्यां नगर्यामार्यकं चेटकराजमुपसम्पद्य विहर्तुम् । एवं संपेक्षते, सम्प्रेक्ष्य कणिकस्य राज्ञोऽन्तराणि यावद प्रतिजाग्रत् २ विहरति ।
ततः खलु स वैहल्य, कुमारः अन्यदा कदाचित् कृणिकस्य राहोऽन्तरं जानाति, ज्ञाता सेचनकं गन्धरस्तिनमष्टादशवक्रं च हारं गृहीला अन्ताघरपरिवारसंपरिखता , सभाडामत्रोपकरणमादाय चम्पातो. नगरीतः पति
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निरयावलिकासन निष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव वैशाली नगरी सत्रैवोपागच्छति, उपागत्य वैशाल्यां नगर्यामार्यकं चेटकमुपसंपध विहरति ॥४०॥
टीका'तत्थण चंपाए' इत्यादि-सहोदरः=एकमातृकः । कनीयान् लघुभ्राता।
'तत्थणं चंपाए ' इत्यादि
उस चम्पानगरीमें श्रेणिक राजाका पुत्र, रानी चेल्लनाका आत्मज, राजा कूणिकका सहोदर छोटा भाई वैहल्ल्य नामका कुमार था, जो कि सुकुमार यावत् मुरूप था।
___उस वैहल्ल्य कुमारको राजा श्रेणिकने अपनी जीवितावस्थामें ही सेचनक नामका गन्ध हाथी और अठारह लडीवाला हार दिया । एक दिन वह वैहल्ल्य कुमार सेचनक गंधहाथीपर चढकर अपने अन्तःपुर परिवारके साथ चम्पानगरीके मध्यसे निकला, निकलकर गंगानदीमें बारबार लान करनेके लिए अवतरित हुआ । तत्पश्चात् बह सेचनक हाथी वैहल्ल्यको रानियों को अपनी संडसे पकडकर उनसे किसी एकको
'तत्थण चंपाप' त्याle. - તે ચંપાનગરીમાં ગ્રેણિક રાજાને પુત્ર, રાણી ચેલાને આત્મજ (દીકર) રાજા કુણિકના સહેર નાનાભાઈ હલ્ય નામે કુમાર હતો કે જે સુકુમાર અને સુરૂપ હતે.
તે વેડલ્ય કુમારને રાજા શ્રેણિકે પિતાની છવિત અવસ્થામાં સેચનક વામને ગંધહાથી તથા અઢાર સરવાળો હાર દીધો હતો. એક દિવસ તે વેહલ્યકમાર સેચનક ગંધહાથી, ઉપર ચડીને પિતાના અંત:પુર પરિવાર સાથે ચંપાનગરીના મધ્યભાગમાં થઈને નીકળે, નીકળને વારંવાર ગંગા નદીમાં સમાન કરવા માટે હતી ત્યાર પછી તે સેચનક હાથી વધુની રાણીઓને પિતાની માં ને
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एन्दरबोधिनी सरोका वाल्यको गन्धहाथोसे क्रीडा अन्तःपुरपरिवारसंपरिवृतः अन्तःपुरं-राजी, .. परिवारः खङ्गरत्नादिकोशो
पीठपर रखता है तो किसीको अपने कंधेपर; किसीको कुम्भस्थलपर रखता है. तो किसीको अपने सिरपर, एवं किसीको अपने दन्ताशूलपर रखता है, और किसीको सूंडसे पकडकर ऊपर आकाशमें लेजाता है। इसी तरह किसी एक को मूंडमें दवाकर झुलाता है, किसी एकको अपने दन्ताशूलके बीचमें अधरसे रखता है । तथा किसी एकको अपनी मूंडसे निकलते हुए फुहारोंसे स्नान कराता है। एवं किसी एकको अनेक प्रकारकी क्रीडाओसे सन्तुष्ट करता है।
यह वृत्तान्त नगर भरमें फैल गया, तथा बहुतसे मनुष्य गलियों, सङने आदि स्थान-स्थानपर आपसमें इस प्रकार वार्तालाप करने लगे हे देवानुप्रियो ! वैहल्ल्यकुमार सेचनक गंधहस्तोके द्वारा अन्तःपुर परिवारके साथ अनेक प्रकारको क्रीडा करता है। वास्तविक राज्यश्रीका उपभोग तो वैहल्ल्यकुमार ही करता है, न कि राजा कूणिक ।
તેમાંથી કોઈ–એકને પિતાની પીઠ ઉપર રાખે તો કઈને કાંધ ઉપર, કેઈને કુંભ સ્થળ ઉપર રાખે તે કેઈને પિતાના માથા ઉપર, અને એ પ્રમાણે કેઈને પોતાના દંતશળ ઉપર રાખે તો કોઈને સૂંઢથી પકડીને ઉપર આકાશમાં લઈ જાય આવી રીતે કઈ-એકને સૂંઢમાં દબાવીને હીંચકે ખવરાવે, કેઈને પિતાની દંતશળની વચમાં અધરથી રાખી લે તથા કોઈ એકને પોતાની સુંઢમાંથી નીકળતા કુંવારા વડે સ્નાન કરાવે, એમ કેઈને અનેક પ્રકારની ક્રીડાએથી સંતુષ્ટ કરે છે. છે . આ હકીક્ત આખા ગામમાં ફેલાઈ ગઈ તથા ઘણાં મનુષ્ય ગલિઓ સડકે આદિ અનેક ઠેકાણે ઠેકાણે પોત પોતામાં આવી રીતે વાર્તાલાપ કરવા લાગ્યાદેવામુપ્રિય! વેહલ્ય કુમાર સેચનક ગંધ હાથી દ્વારા અંતઃપુર પરિવાર સહિત અનેક પ્રકારની ક્રીડા કરે છે. ખરી રીતે રાજ્યશ્રીને ઉપગ તે વેડથ કમર કરે છે–નહિ કે રાજા કણિકા
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निरयावलकाल
दासदास्यादिसेवकवर्ग, तैः संपरिवृतः युक्तः वैहायस - विहाय एव वैहायसम् - गगनम्, शीकरैः पवनमक्षिप्तजलकणैः 'फुहारा ' इति भाषायाम्,
1
उसके बाद जब यह वृत्तान्त रानी पद्मावती को मिला तो उसके मनमें ऐसा विचार उत्पन्न हुआ कि - ' वैहल्ल्यकुमार सेचनक हाथी के द्वारा अनेक प्रकारकी क्रीडा करता है इसलिए वही राज्यलक्ष्मीके फलका उपभोग करता हुआ रहता है, न कि कूणिक राजा, इस लिये हमें इस राज्यसे और जनपदसे क्या लाभ ? यदि हमारे पास सेचनक हाथी नहीं है, इसलिए यही अच्छा हैं कि कूणिक राजासे कहूँ कि वे वैहल्ल्यसे वह सेचनक हाथी लेलें । ऐसा विचारकर जहाँ कूणिक राजा था वहाँ गयी, और जाकर हाथ जोडकर इस प्रकार बोली- हे स्वामिन् ! बैहल्ल्यकुमार सेचनक गन्धहस्ती के द्वारा अनेक प्रकारकी क्रीड़ा करता है, हे स्वामिन् ! यदि हमारे पास सेचनक गन्ध हाथी नहीं है तो इस राज्य और जनपदसे क्या लाभ ? | यह सुनकर राजा कूगिकने पद्मावती देवीके इस विचारका आदर नहीं किया और न उस बातकी ओर ध्यान दिया, केवल चुपचाप रह गया ।
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ત્યાર પછી જ્યારે આ હકીકત રાણી પદ્માવતીના જાણવામાં આવી ત્યારે તેના મનમાં એવા વિચાર ઉત્પન્ન થયે કે–વૈહલ્યકુમાર સેચનક હાથી દ્વારા અને પ્રકારની ક્રીડા કરે છે માટે તેજ રાજ્યલક્ષ્મીના લના ઉપભેગા કરતે રહે નહિ કે કૂણિક રાજા, માટે અમને આ રાજ્યથી કે જનપદ્મથી શું લાભ તે અમારી પાસે સેચનક હાથી ન હેાય તેા હૈ, તેથી કૃણિક રાજાને કહ્યું કે વૈલ્ય પાસેથી તે સેચનક હાથી લઇ લે એજ સારૂં છે. એમ વિચાર કરી જયાં કૃણિક રાજા હતા ત્યાં ગઈ અને જઈને હાથ જોડી આ પ્રકારે ખેલી–હે સ્વામી ! વૈહલ્થકુમાર શૅચનક ગંધ હાથી દ્વારા અનેક પ્રકારની ક્રોડા કરે છે. હું સ્વામી ! જે આપણી પાસે સેચનક ગંધ હાથી ન હાય તેા આ રાજ્ય અને જનપદથી શું લાભ ?
વિચારને આદર કર્યાં
આ સાંભળી રાજા કૂણિક પદ્માવતી દેવીના આ નહિં કે ન તે વાત તરફ ધ્યાન દીધું. માત્ર ચુપચાપ રહ્યા.
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अपपीधिना टीका पल्ल्यका वेशालोनगरी जाना नाटक-त्रिक-चतुष्क-चबर-महापथ-पयेषु-शृङ्गाटकं जलफलं 'सिंगाडा' इति भाषायाम् , तद्वत् त्रिकोणस्थानं, त्रिकं-त्रिपथम् , चतुष्कम-चतुष्पथम् , महापयो राजमार्गः, पन्या सामान्यमार्गः, तेषु । एष कूणिको राजा माम्
परन्तु उस राजा कूणिकने रानी पद्मावतीके द्वारा बारबार विज्ञापित होनेके कारण एक समय कुमार वैहल्लको अपने यहाँ बुलाया, बुलाकर उससे सेचनक गन्ध हाथी और अठारह लडीवाला हार माँगा ।
. कूणिकका ऐसा अभिप्राय जानकर वैहल्लकुमारने इस प्रकार कहता आरम्भ किया-हे स्वामिन् ! राजा श्रेणिकने अपनी जीवितावस्थामें ही मुझे सेचनक गन्ध हाथी और अठारह लडीवाल्य हार दिया है, सो यदि आप उसे लेना चाहते हैं तो मुझे भी राज्य और जनपदका आधा भाग दीजिये, फिर मैं भी आपके लिये इन दोनोको देदूंगा । परन्तु राजा कूणिकने वैहल्लकुमारकी इस बातको पसन्द नहीं किया, न कभी इसको अच्छी तरह सोचाही, परन्तु बार-बार अपनी मांगको हो दोहराता रहा।
: ત્યારપછી તેલ કૃણિકે રાણી પદ્માવતીના મારક્ત વારંવાર વિજ્ઞાપન કરવામાં આવતું તેથી એક વખત વેહલ કુમારને પિતાને ત્યાં બેલાવ્યું અને તેની પાસે भयन I साथ तय मार सपाग। २ भायो.. . .... - કુણિને એવો અભિપ્રાય જાણને હલ્લ કુમારે આ પ્રકારે કહેવા માંડયુંછે સ્વામિન્ ! શ્રેણિક રાજા પિતાની જીવિત અવસ્થામાંજ મને સેચનક ગંધ હાથી તથા અઢાર સરવાળે હાર દીધું છે. જે તે આપ લેવા ચાહે છે તે મને પણ રાજ્ય તથા જન પદને અરધો ભાગ આપે. પછી પણ આપને માટે આ છે વ્યાપીશ. પરંતુ રાજા કૃણિક હિલ્લ કુમારની આ વાત પસંદ કરી નહિ. ન તે કદી એ વાતને ઠીક રીતે વિચાર કરી છે. માત્ર વારંવાર પોતાની માગણી ची ४.
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मिरयावलिकासूत्र
मृषादोषमारोपयितुकामः ।
आक्षेप्तुकामः राज्यभागस्यादित्सया मयि सेचनकं गन्धइस्तिनं ग्रहीतुकामः = बलादादातुकामः । अष्टादशवक्रं हारं च 'उद्दालेउकामे ' आच्छेत्तुकामः-मम हस्तादाक्रष्टकामः अस्ति । शेषं
सुगमम् ॥ ४० ॥
तदनन्तर कणिक राजा द्वारा बार २ हाथी और हार मागनेपर वैहल्ल्य अपने मनमें सोचता है कि यह कूणिक राजा मेरे पर मिध्यादोष लगा कर मेरा सेचनक गंधहाथी और हार मुझसे छीन लेना चाहता है, इसलिये उचित है कि जबतक कूणिक मुझसे हाथी और हार न छीने उसके पहले ही सेचनक गंधहाथी और अठारह लडीवाला हार तथा अन्तःपुर परिवार के साथ सभी गृहोपकरण छेकर चम्पानगरीसे निकलकर अपने नाना चेटक राजाके पास वैशालीनगरीमें जाकर रहूँ। ऐसा विचार करनेके पश्चात् वह वैहल्लकुमार राजा कूणिककी अनुपस्थिति की ताक में रहता है।
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उसके बाद वह वैहल्लकुमार एक समय कूणिक राजाकी अनुपस्थितिका मौका पाकर अपने अंतःपुर परिवारके साथ सेचनक हाथी, अठारह लडीवाला हार और सभी प्रकारकी गृहसामग्री लेकर चम्पानगरीसे निकल वैशालीनगरीमें आर्य चेटकके पास पहुँचकर रहने लगा ॥ ४० ॥
ત્યાર પછી પૂણિક રાજા તરફથી વારવાર હાથી તથા હારની માગણી થતાં વહેલ્થ પેાતાના મનમાં વિચાર કરે છે કે આ કૂણિક રાજા મારા ઉપર ખેટા રાષ લગાડીને મારા સેચનક ગંધ હાથી અને હાર મારી પાસેથી પડાવી લેવા માગે છે. માટે એજ વાજખી છે કે જ્યાં સુધી કૂણિક મારી પાસેથી તે હાથી અને હાર ન પડાવી લીએ તે પહેલાંજ સેચનક ગધ હાથી તથા અઢાર સરવાળા હાર તથા અંત:પુર પરિવાર સહિત ઘરની તમામ વસ્તુઓ લઇને ચંપાનગરીથી નીકળીને મારા નાના ચેટક રાજાની પાસે વૈશાલી નગરીમાં જઈને રહું. એમ વિચારી કરીને પછી તે નૈહલ્યકુમાર રાજા કૂણિકની અનુપસ્થિતિ-ગેર હાજરીની રાહ જોતા રહ્યા કરે છે.
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ત્યાર પછી તે વૈહલ્ક્ય કુમાર એક સમય કૂણિક રાજાની ગેરહાજરો જોઇ પાતાના અંત:પુર પરિવારની સાથે સેચનક હાથી, અઢાર સર વાળા હાર અને તમામ પ્રકારની ગૃહ સામગ્રી લઈને ચપાનગરીથી નીક્ળી વૈશાલી નગરોમાં માય ચેટકની પાસે પહોંચી રહેવા લાગ્યા. (૪૦)
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सुन्दरबोधिनी टोकाटक-कणिकका दूतद्वारा संवाद ___ १७
मूलम्तएणं से कृणिए राया इमीसे कहाए लढे समाणे-एवं खलु वेहल्ले कुमारे ममं असंविदितेणं सेयणगं गंधहत्यिं अट्ठारसर्वकं च हार गहाय अंतेउरपरियालसंपरिखुडे जाव अजय चेडयं रायं उवसंपजित्ता गं विहरइ, तं सेयं खलु ममं सेयणगं गंधहत्यिं अट्ठारसर्वकं च हारं आणेउं यं पेसित्तए, एवं संपेहेइ, संपेहित्ता यं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुमं देवाणुपिया ! वेसालि नयरिं, तत्थ णं तुमं ममं अजं चेडगं रायं करतल० वद्धावेत्ता एवं वयाहि-एवं खलु सामी ! कूणिए राया विनवेइ-एस णं वेहल्ले कुमारे कूणियस्स. रन्नो असंविदितेणं - सेयणगं गंधहत्थिं अट्ठारसर्वकं च हारं गहाय इह हन्धमागए, तए णं तुम्भे सामी ! कूणियं रायं अणुगिण्हमाणा सेयणगं गंधहत्थिं अट्ठारसर्वकं च हारं कूणियस्स रनो पञ्चप्पिणह. वेढलं कमार च पेसेह ।
- छाया
ततः खलु स कणिको राजा अस्याः कथाया लब्धार्थः सन्-‘एवं खलु वैहल्ल्यः कुमारो मम असंविदितेन सेचनकं गन्धहस्तिनमष्टादशवक्रं. च हारं गृहीता अन्तःपुरपरिवारसंपरितो यावद् आर्यकं चेटकं राजानमुपसंपद्य खलु विहरति, तच्छ्रेयः खलु मम सेचनकं गन्धहस्तिनमष्टादशवक्रं च हारम् आनेतुं दूतं प्रेषयितुम् , एवं संप्रेक्षते संप्रेक्ष्य दूतं शब्दयति, शब्दयिता एवमवादीत-गच्छ खलु त्वं देवाणुप्रिय ! वैशाली नगरों, तत्र खलु वं मम आर्य चेटकं, राजानं करतल० वर्द्धयिता एवं वद एवं खलु स्वामिन् ! कूणिको राजा विज्ञपयति-एष खलु वैहल्ल्यः कुमारः कूणिकस्य राज्ञः असेंविदितेन सेचनकं गन्धहस्तिनमष्टादशवक्रं च हारं गृहीत्वा इह हव्य
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निरयावलिमा ____तए णं से दूर कूणिएणं करवल० जाव पडिसुणित्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ. उवागच्छित्ता जहा चित्तो जाव वद्धावित्ता एवं वयासों-एवं खलु सामी ! कूर्णिए राया विनवेइ-एस णं वेहल्ले कुमारे सहेव भाणियव्वं जाव वेहल्लं कुमारं च पेसेह ।
तए ण से चेडए राया तं दूयं एवं वयासी-जह चेव णं देवाणु प्पिया ! कूणिए राया सेणियस्स रनो पुत्ते चेल्लणाए देवीए अत्तए मम नत्तुए तहेव णं वेहल्ले वि कुमारे सेणियस्स रनो पुत्ते चेल्लणाए देवीप अत्तए मम नत्तुए, सेणिएणं रना जीवंतेणं चेव वेहल्लस्स कुमारस्स सेयणमे गंधहत्थी अट्ठारसवंके हारे पुनविदिन्ने, तं जइ णं कूणिए राया वह लस्स रजस्स य रहस्स य जणवयस्स य अद्धं दलयइ तो णं सेयणगं गंधहत्यि अट्ठारसर्वक च हारं कूणियस्स रनो पञ्चप्पिणामि, वेहल्लं च कुमारं पेसेमि । तं. यं सकारेइ संमाणेइ पडिविसज्जेइ । मागतः, ततः खलु यूयं स्वामिन् ! कूणिक राजानमनुगृह्णन्तः सेवन गन्धहस्तिनमष्टादशवक्रं च हारं कूणिकस्य राज्ञः प्रत्यर्पयत, बैहल्ल्यं कुमारं च मेषयत ।
___ ततः खलु स दूतः कूणिकेन० करतल० यावत् प्रतिश्रुत्य यत्रैव स्वकं गृहं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य यथा चित्तो यावद् वर्द्धयित्वा एवमवादीएवं खलु स्वामिन् ! कूणिको राजा विज्ञपयति-एष खलु वैहल्ल्यः कुमारस्तथैव भणितव्यं यावद् वैहल्ल्यं कुमारं प्रेषयत ।
___ ततः खलु स चेटको राजा तं दूतमेवमवादीत् यथैव खलु देवानुः प्रिय ! कूणिको राजा श्रेणिकस्य राज्ञः पुत्रः, चेल्लनायाः देव्या आत्मना, मम नप्तकः, तथैवः खलु वैहल्ल्योऽपि कुमारः श्रेणिकस्य राज्ञः पुत्र, चेल्लुनायाः देव्याः आत्मजो; मम नप्तकः, श्रेणिकेनः राज्ञा जीवता चैत्र
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सुदरपोधिनी होका चेटक-णिकका दूतद्वारा संवाद
___ तएणं से दूर चेडएणं रबा पडिविसजिए समाणे जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्या उवागछित्ता चाउरघंटं आसरह. दुरुहइ,, दूरुहिता वेसालिं नपरि मझ मज्झणं निग्गच्छद, निग्गचित्ता मुद्देहि वसहिपायरासेहिं जाव वद्धावित्ता एवं वयासी-एक सलुसमी वेडंए राया आणवेइ-जह चेव णं कूणिए राया सेणियस्स रनो पुत्ते चेल्लणाए देवीए अत्तए मम नत्तुए तं. चेव भाणियव्वं जाव वेहल्लं च कुमारं पेसेमि, तं न देखे सामी ! चेडए राया सेयणगं गंधहत्थि अट्ठारसर्वक ... हार, वेहल्लं . नो पेसेइ ॥४१॥
वैहल्ल्याय कुमाराय सेचनको गन्धहस्ती अष्टादशवक्रो हारः पूर्वविदत्तः, उद् यदि खलु कूणिको राजा वैहल्ल्याय राज्यस्य च राष्ट्रस्य च जनपदस्य चार्दै ददाति तदा खलु सेचनकं गन्धहस्तिनम् अष्टादशवक्रं च हारं कूणिकाय राजे मत्यर्पयामि, वेहल्ल्यं च कुमारं प्रेषयामि । तं तं सत्करोति सम्मानयति पतिविसर्जयति । ।
____ततः खलु स दूतः चेटकेन राज्ञा प्रतिविसर्जितः सन् यत्रैव चतुघण्टः अश्वरथस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य चतुर्घण्टमश्वरथं दूरोहति, दूरु वैशाली नगरौं मध्यंमध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य शुभैसतिमातराशैर्यावद् वर्धयित्वा एवमवादी-एवं खलु स्वामिन् ! चेटको राजा आज्ञापयति-यक्षेत्र खलु कूणिको राजा श्रेणिकस्य राज्ञः पुत्रः, चेल्लभाया देव्या आत्मनः मम नप्तकः, तदेव भणितव्यं यावद् वैहल्ल्यं च कुमारं प्रेषयामि । तन्न ददाति खलु स्वामिन् ! चेटको राजा सेचनकं गन्धहस्तिनम् अष्टादशचनं च हार, वैहल्ल्यं च नो प्रेषयति ॥४१॥
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निरवाचालिका
का"तएणं से कृणिए ' इत्यादि-शुभैः पशस्तः, वसतिपातराशेः-मार्ग. 'तपूर्ण से कूणिए '. इत्यादि. उसके बाद जब यह समाचार राजा कूणिकको ज्ञात हुआ तो उसने विचार किया कि वैहल्लकुमार मुझसे बिना कुछ कहे-सुने अपने अन्तःपुर परिवारके सहित, सेचनक गंधहस्ती, अठारह लडीवाला हार और सभी प्रकारकी गृहसामप्रियों को लेकर राजा आर्य चेटकके पास जाकर रहने लगा है, इस कारण मुझे उचित है कि दूत भेजकर सेचनक गंध हाथी और अठारह लडीवाला हार मंगा, ऐसा विचारकर दूतको बुलाता है और बुलाकर इस प्रकार कहता है:- . .
हे देवानुप्रिय ! वैशालीनगरीमें मेरे नाना चेटकके पास तुम जाओ उनके पास जाकर हाथ जोड जय-विजय शब्दके साथ राजाको बधाकर इस प्रकारसे कहा है स्वामिन् ! राजा कूणिक इस प्रकार विज्ञप्ति करते हैं कि मुझसे बिना कुछ कहे
'तएणं से कृणिए' या
ત્યાર પછી જ્યારે આ સમાચારની રાજા કુણિકને ખબર પડી ત્યારે તેણે વિચાર કર્યો કે વહ°ય કુમાર મને કંઈ પણ કહ્યા-સાંભળ્યા વગરજ પિતાના અંત:પુર પરિવાર સહિત સેચનક ગંધ હાથી, અઢાર સરને હાર અને તમામ પ્રકારની ગૃહસામગ્રી લઈને રાજા આર્ય ચેટકની પાસે જઈને રહ્યો છે. આ કારરણથી મારે માટે એગ્ય છે કે દૂત મોકલીને સેચનક ગંધ હાથી અને અઢાર સરને હાર મંગાવી લઉં. એ વિચાર કરી દૂતને બેલાવી આમ તેને કહે છેહે દેવાનુપ્રિય! વૈશાલી નગરીમાં મારા નાના ચેટકની પાસે તું જા. તેની પાસે જઈ હાથ જોડીને જય-વિજ્ય શખથી રાજાને વધાવીને આ પ્રકારે કહે જે—હે સ્વામિન! રાજા કુણિક આ પ્રકારે વિજ્ઞપ્તિ કરે છે કે મને કાંઈ પણ કહ્યા વગરજ
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Y
सुन्दरबोधिनी टोका पैहल्ल्यको गन्धहायोसे क्रीडा विश्रामस्यानैः पूर्वाडवर्तिलघुमोजनश्चः मागें। मुखपूर्वक निवसनं यामी ही वैहल्ल्य कुमार सेचनक गन्ध हाथी और अठारह लडीवाला हार लेकर आपके यहाँ जल्दीसे चला आया है। सौ आफ् वैहल्ल्यकुमारको सेचनक हाथी और अठारह लंडीवाले हारके सहित कृपा करके हमारे पास भेजदें। इसके बाद वह दूत राजा कूणिकके द्वारा कहे हुए वचनीको स्वीकारकर अपने घर आया और चार घंटावाले रथमें बैठ रवाना हुवा। वह वैशाली पहुँचकर आर्य चेटकको हाथ जोङ जयं विजयके साथ बधाकर, परदेशी राजाके क्ति प्रधान समान में इस प्रकार कहता है:
हे स्वामिन् ! राजा कूणिक इस प्रकार विज्ञप्ति करते हैं कि मेरा छोटा भाई वैहल्ल्यकुमार मुझसे बिना कुछ कहे ही सेचनक गंधहाथी और अठारह लडीवाला हार लेकर आपके पास चला आया है इसलिये आप उसे हाथी और हारके साथ मेरे पास भेजदें।
કુમાર હિલ્ય સેચનક ગંધ હાથી અને અઢાર સરવાળો હાર લઈને આપની પાસે જલ્દીથી ચાલ્યો આવે છે માટે આપ હિલ્ય કુમારને સેચક ગંધ હાથી અને અઢાર સરના હાર સહિત કૃપા કરીને મારી પાસે મોકલી આપે. ત્યાર પછી તે દૂત રાજા કૃણિક દ્વારા કહેલાં વચનનો સ્વીકાર કરી પિતાને ઘેર આવ્યો અને ચાર ઘંટાવાળા રથમાં બેસી રવાના થયે. તે પૈશાલી પહેચી ને આઈ ચેટને હાથ જે જય-વિજય પૂર્વક વિધાર્થીને પરદેશી રાજાના પ્રધાન ચિત્તની પેઠે આ हारे छ:
स
.
" હે સ્વામિના રાજા કર્ણિક આ પ્રકારે વિજ્ઞપ્તિ કરે છે કે-મારે નાના ભાઈ વિઠલ્ય કુમાર મને કંઈ પણ કહ્યા વગર જ મેચનક ગધ હાથી અને અઢાર સરવાળો હાર લઇ આપની પાસે ચાલ્યા આવ્યું છે માટે આપ તેને હાથી અને હાર સાથે મારી પાસે મોકલી આપે.
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मौजनं चेत्येब्रह्वयं पत्रिकाय: परमहितकारकर,
सुगमम् ॥ ४१ ॥
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विवा
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अन्यत् सर्व
यह सुनकर चेटक राजाने उस दूतको इस प्रकार उत्तर दिया - हे देवानुबाय! जिस प्रकार राजा कूणिक, श्रेणिक राजाका पुत्र, चेलना रानीका आत्मज मेरा दौहित्र है उसी प्रकार कुमार वैहल्ल्य भी श्रेणिक राजाका पुत्र, रानी नाका आत्मज और मेरा दौहित्र है ।
:
श्रणिक राजाने अपनी जीवितावस्थामें ही कुमार वैहल्ल्यको सेचनक गंधहाथी और अढारह लडीवाला हार दिया था। तो भी यदि राजा कूणिक हाथी और कार लेना चाहता है तो उसे चाहिए कि वह भी वैहल्ल्यकुमारको राज्य राष्ट्र और जनपदका आधा भाग देदे | ऐसा होनेपर मैं हाथी और हारके साथ कुमार मेज सकता हूँ । इस प्रकार कहने के बाद राजा चेटकने उस दूतका आदर सत्कारकर उसे विसर्जित ( विदा ) किया । चेटक राजासे विसर्जित वह दूत जहाँपर घण्टावाला रथ था वहाँ आया, आकर उस रथपर चढ़ा और वैशाली આ સાંભળી એટક રાજાએ તે દૂતને આ પ્રકારે ઉત્તર દીધા-ડે દેવન પ્રિય! જે પ્રકારે રાજા કૂણિક શ્રેણિક રાજને પુત્ર ચેલ્લના રાણીના આત્મજ તક્ષ મારા હેત્રા છે તેજ પ્રકારે કુમાર વહલ્ક્ય પણ શ્રેણિક રાજાને પુત્ર રાણી ચેલ્ટમાના દીકરા અને મારા દાઉંગા છે.
चार
શ્રેણિક રાવએ માતાની જીવિત અવસ્થામાંજ કુમાર વૈહલ્થને સેચનક ગધ હાથી તથા અઢાર સરના હાર દીધા હતા છતાં પણ જો રાજા કૃણિક હાથી તથા હાર લેવા ચાહતા હોય તેા તેણે પણ બૃહત્સ્ય કુમારને રાજ્ય રાષ્ટ્ર અને જનપદમાં અરધા ભાગ દેવા જોઈએ. અને એમ થાય તે હું હાથી તથા હારની સાથે કુમાર વહલ્યને માકલી શકું છું. આ પ્રકારે કહ્યા પછી રાજા ચેટકે તે તના આદર સત્કાર કરી તેને વિદાય આપી. ચેટક રાજા પાસેથી વિદાય લઈ તે દૂત જ્યાં ચાર વટવાળા રથ હતા ત્યાં આવ્યા. આવીને તે રથ ઉપર ચડીને નૅશાલી નગરીની રાષ્યમાં થઈને નીકન્યા. સારી સારી વસ્તીમાં વિશ્રામ તથા સવારનું સાજન કરતા ચકા
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सुन्दरबोधिनी टीका चेटक-कणिकका दूतद्वारा संवाद नगरीके मध्यसे निकला । निकलकर अच्छी २ वस्तियोंमें विश्राम तथा प्रातःकालिक भोजन करता हुवा सुख-शांतिपूर्वक चम्पानगरीमें पहुँचा। पहुँचकर राजा कूणिकके पास जा हाथ जोड जय-विजय शब्दके साथ राजाको बधाकर इस प्रकार बोलाः--
हे स्वामिन् ! चेटक राजा इस प्रकार सूचित करते हैं कि जिस प्रकार राजा कृणिक, श्रेणिक राजाका पुत्र, चेल्लनाका आत्मज और मेरा दौहित्र है उसी प्रकार कुमार वैहल्ल्य भी श्रेणिकका पुत्र, चेल्लनाका आत्मज और मेरा दौहित्र है। सेचनक गंधहाथी एवं अठारह लडीवाला हार राजा श्रेणिकने कुमार वैहल्ल्यको अपनी जीवितावस्थामें ही दिया था, तो भी यदि कूणिक हाथी और हार चाहता है तो उसे चाहिये कि अपने राज्य राए और जनपदका आधा भाग वैहल्ल्यको देदे । यदि वह इस प्रकार करे तो मैं भी हाथी और हारके साथ वैहल्ल्यकुमारको भेज दूंगा। इस लिये हे स्वामिन् ! राजा चेटकने न तो हाथी और हार ही दिया न कुमार वैहल्ल्यको ही भेजा ॥ ४१ ॥ સુખ શાંતિપૂર્વક ચંપાનગરીમાં પહોંચે. પછી રાજા કૃણિક પાસે જઈ પહોંચી હાથ જોડી જ્ય વિજય શબ્દની સાથે રાજા કૃણિકને વધાવીને આ अरे 3g:
હે સ્વામિન્ ! ચેટક રાજા એમ સૂચના કરે છે કે–“જે પ્રકારે રાજા કુણિક શ્રેણિક રાજાને પુત્ર ચેલ્લનાને આત્મજ તથા મારે દેહે છે તેવી જ રીતે કુમાર હલ્ય પણ શ્રેણિકનો પુત્ર, ચેલાને આત્મજ તથા મારે દેહેત્ર છે. સેચનક ગંધહાથી અને અઢાર સરવાળો હાર રાજા શ્રેણિકે કુમાર વેહલ્યને પિતાની થિવિત અવસ્થામાં જ દીધા હતા તેમ છતાં જે કૃણિક હાથી અને હાર ચાહતે હોય તે પિતાના રાજ્ય રાષ્ટ્ર તથા જનપદને અરધો ભાગ હલ્યને તેણે આપે જોઈએ. જે તે આ પ્રકારે કરે તો હું પણ હાથી અને હાર સાથે વેહલ્ય કુમારને મોકલી આપું.” માટે તે સ્વામી ! રાજા ચેટકે તે નથી હાથી આયે, કે નથી હાર દીધો, તેમ નથી વેહલ્ય કુમારને મોકલ્યા. (૪૧)
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निरयालिकामा
मूलम्
तएणं से कूणिए राया दुचं पि दूयं सदावित्ता एवं वयासीगच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया ! वेसालिं नयरिं, तत्थ णं तुमं मम अजगं चेडगं रायं जाव एवं वदाहि-एवं खलु सामी ! कूणिए राया विनवेइजाणि काणि रयणाणि समुप्पजंति सव्वाणि ताणि रायकुलगामीणि, सेणियस्स रनो रजसिरिं करेमाणस्स पालेमाणस्स दुवे रयणा समुप्पन्ना, तं जहा-सेयणए गंधहत्थी, अट्ठारसवंके हारे, तणं तुब्भे सामी ! रायकुलपरंपरागयं ठिइयं अलोवेमाणा सेयणगं गन्धहत्यिं अट्ठारसर्वकं हारं कूणियस्स रन्नो पञ्चप्पिणह, वेहल्लं कुमारं पेसेह।
तए णं से दूए कूणियस्स रन्नो तहेव जाव वद्धावित्ता एवं वयासीएवं खलु सामी ! कूणिए राया विनवेइ-जाणि काणित्ति जाव वेहल्लं कुमारं पेसेह ।
छायाततः खलु स कुणिको राजा द्वितीयमपि दूतं शब्दयिता एवमवादीगच्छ खलु त्वं देवानुप्रिय ! वैशाली नगरी, तत्र खलु त्वं मम आर्यकं चेटकं राजानं यावद् एवं वद-एवं खलु स्वामिन् ! कूणिको राजा विज्ञपयति-यानि कानि रत्नानि समुत्पद्यन्ते सर्वाणि तानि राजकुलगामीनि, श्रेणिकस्य राज्ञो राज्यश्रियं कुर्वतः पालयतो द्वे रत्ने समुत्पन्ने, तद्यथा-सेचनको गन्धहस्ती, अष्टादशवक्रो हारः, तत्खलु यूयं स्वामिन् ! राजकुलपरम्परागतां स्थितिमलोपयन्तः सेचनकं गन्धहस्तिनम् , अष्टादशवकं च हारं कणिकाय राज्ञे प्रत्यर्पयत, वैहल्ल्यं कुमारं प्रेषयत ।
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शुन्दरबोधिनो टोका चेटक-णिकका दूतद्वारा संवाद
१८७ तएणं से चेडए राया तं दूयं एवं बयासी जह चेव णं देवाणुप्पिया ! कूणिए राया सेणियस्स रनो पुत्ते चेल्लणाए देवीए अत्तए जहा पढमं जाव वेहल्लं च कुमारं पेसेमि, तं दूयं सकारेइ संमाणेइ पडिविसज्जेइ । तए णं से दूर जाव कूणियस्स रन्नो वद्धावित्ता एवं वयासो-चेडए राया आणवेइ-जह चेव णं देवाणुप्पिया ! कूणिए राया सेणियस्स रनो पुत्ते चेल्लणाए देवीए अत्तए जाव वेहल्लं कुमारं पेसेमि, तं न देइ णं सामी ! चेडए राया सेयणगं गंधहत्यिं अट्ठारसर्वकं च हारं, वेहल्लं कुमार नो पेसेइ ।
तएणं से कणिए राया तस्स दूयस्स अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म - ततः खलु स दूतः कूणिकस्य राज्ञस्तयैव यावद् वर्धयिखा एवमवादीत्-एवं खलु स्वामिन् ! कूणिको राजा विज्ञपयति-यानि कानीति यावद् वैहल्ल्यं कुमारं प्रेषयत । .
ततः खलु स चेटको राजा तं दूतमेवमवादी-यया चैव खलु देवानुपिय ! कूणिको राजा श्रेणिकस्य राज्ञः पुत्रः चेल्लनाया देव्या आत्मजः, यथा प्रथमं यावद् वैहल्ल्यं च कुमारं प्रेषयामि । तं दूतं सत्करोमि सम्मानयति प्रतिविसर्जयति ।
___ ततः खलु स दूतो यावत् कूणिकस्य राज्ञो० वर्धयिता एवमवादीचेटको राजा आज्ञापयति-यथा चैव खलु देवानुपिय ! कूणिको राजा श्रेणिकस्य रामः पुत्रः चेल्लनाया देव्या आत्मजः यावद् वैहल्यं कुमारं प्रेषयामि, तम ददाति खल खामिन् ! चेटको राजा सेचनकं गन्धहस्तिनम् अष्टादशवक्रं च हारं, वैहल्ल्यं कुमारं नो प्रेषयति । ____ ततः खलु. स कणिको राजा तस्य दूतस्यान्तिके एतमर्थ श्रुत्वा
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१८८
निरयापलिकासत्र आमुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे तचं दूयं सदावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासीगच्छह णं तुम देवाणुप्पिया ! वेसालीए नयरीए चेडगस्स रनो वामेणं पाएणं पायपीढं अकमाहि, अक्कमित्ता कुंतग्गेणं लेहं पणावेहि, पणावित्ता आसुरत्ते जाव मिसिमिसेमाणे तिवलियं मिउडिं निडाले साहटु चेडगं रायं एवं वदाहि-हं भो चेडगराया ! अपस्थियपत्थया ! दुरंत-जाव-परिवजिया ! एस णं कुणिए राया आणवेइ-पञ्चप्पिणाहि णं कणियस्स रनो सेयणगं गंधहत्थिं अट्ठारसर्वकं च हारं वेहल्लं च कुमारं पेसेहि, अहवा जुद्धसज्जा चिट्ठाहि, एस णं कणिए राया सवले सवाहणे सखंधावारे णं जुद्धसजे इह हव्यमागच्छइ ॥४२॥ निशम्य आशुरक्तः यावन्मिसिमिसी-कुर्वन् तृतीयं दूतं शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीव-गच्छ खलु त्वं देवानुपिय ! वैशाल्यां नगर्यो चेटकस्य राज्ञो वामेन पादेन पादपीठमाक्राम, आक्रम्य कुन्ताग्रेण लेखं प्रणायय, प्रणाय्य आशुरक्तो यावत् मिसिमिसीकुर्वन् त्रिवलिकां भृकुटिं ललाटे संहत्य चेटकं राजानमेवं वद-हं भो चेटकराजाः ! अप्रार्थितपार्थकाः ! दुरन्त-यावत्परिवर्जिताः ! एष खलु कूणिको राजा आज्ञापयति-प्रत्यर्पयत खलु कूणिकस्य राज्ञः सेचनकं गन्धहस्तिनमष्टादशवक्रं च हारं वैहल्ल्यं च कुमार प्रेषयतं, अथवा युद्धसज्जाः तिष्ठत । एष खलु कुणिको राजा सबलः सवाहना सस्कन्धावारः खलु युद्धसज्ज इह हव्यमाच्छति ॥४२॥
टीका'तएणं से कूणिए ' इत्यादि-सबल: सेनायुक्तः, सवाहनः स्थादि'तएणं से कणिए' इत्यादिइसके बाद कूणिक राजाने दूसरी बार फिर दूतको बुलाया और कहा'तपणं तस्स' त्याहि. આ પછી કૃણિક રાજાએ બીજી વાર પાછો દ્વતને બોલાવ્યો અને કહ્યું
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सुन्दरबोधिनी टोका चेटक-कूणिकका दूतद्वारा संवाद यानसहितः, सस्कन्धाकार सशिबिरः, 'छाउनी' इति भाषायाम् । शेष सुगमम् ॥ ४२॥
हे देवानुप्रिय ! वैशालीनगरीमें जाओ, वहाँ जाकर मेरे नाना राजा चेटकको हाथ जोड कर जय विजय शब्दके साथ उन्हें बधाकर इस प्रकार कहो कि हे स्वामिन् ! राजा कूणिक की यह विज्ञापना है कि जो कुछ भी रत्न पैदा होता है उसपर राजकुलका ही अधिकार है । श्रेणिक राजाके राज्यकालमें दो रत्न उत्पन्न हुए, एक सेचनक गन्धहाथी, दूसरा अठारह लडीवाला हार । हे स्वामिन् ! राजकुलकी परम्परागत स्थितिका नाश जिससे न हो इसलिये आप हाथी और हार मुझे अर्पित करने और वैहल्ल्य कुमारको भेजदें।
उसके बाद वह दूत कूणिक राजाकी इस विज्ञप्तिको स्वीकार कर अपने घर आया, और वहाँसे वैशालीनगरीमें जाकर राजा चेटकके सम्मुख उपस्थित हुआ। तथा उन्हे हाथ जोड जय विजय शब्दके साथ बधाकर, राजा कूणिककी विज्ञापना को इस प्रकार सुनायी-हे स्वामिन् ! राजा कूणिककी यह विज्ञापना है कि जो कुछ
હે દેવાનુપ્રિય! વૈશાલી નગરીમાં જઈને મારા નાના રાજા ચેટકને હાથ જોડીને જય વિજય શબ્દ સાથે વધાવી આ પ્રકારે કહેજે કે--હે સ્વામિન ! રાજા કૃણિકની એવી વિજ્ઞાપના છે કે જે કંઈ પણ રત્ન પેદા થાય છે તેના ઉપર રાજકુલનેજ અધિકાર છે. શ્રેણિક રાજાના રાજ્ય કાલમાં બે રન ઉત્પન્ન થયાં છે–એક સેચનક ગંધહાથી અને બીજું અઢારસરને હાર, હે સ્વામિન્ ! રાજકુલની પરંપરાગત સ્થિતિને નાશ જેથી ન થાય તે માટે આપ હાથી અને હાર મને અર્પિત કરે અને વૈહય કુમારને મેકલી દો.
ત્યાર પછી તે દૂત કૃણિક રાજાની આ વિજ્ઞપ્તિને સ્વીકાર કરી પિતાને ઘેર આવ્યું અને ત્યાંથી પેશાલી નગરીમાં જઈ રાજા ચેટકની સંમુખ ઉપસ્થિત થયે. અને તેમને હાથ જોડી જય વિજય શબ્દથી વધાવી રાજા કુણિકની વિજ્ઞાપનાને આ પ્રકારે સંભળાવી છે સ્વામિના રાજા કુણિકની એમ વિજ્ઞાપના છે કે જે કઈ
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निरयावलिकासत्र मी रत्न उत्पन्न होता है उसपर राजकुलका अधिकार होता है। ये दोनों रत्न श्रेणिक राजाके राज्यकालमें उत्पन्न हुए हैं, इसलिये हे स्वामिन् ! जिससे राजकुलकी परम्परागत स्थिति विनष्ट न हो यह ध्यानमें लेकर हाथी और हारको देदें तथा बैहल्ल्यकुमारको भी कूणिक राजाके पास भेजदें।
दूत द्वारा राजा कूणिककी ऐसी विज्ञप्ति सुनकर राजा चेटकने दूतसे इस प्रकार कहना प्रारम्भ किया हे देवानुप्रिय ! जिस प्रकार राजा कूणिक श्रेणिक राजाका पुत्र है, चेलना देवीका आत्मज है और मेरा दौहित्र है उसी प्रकार कुमार वैहल्ल्य भी श्रेणिक राजाका पुत्र–चेल्लना देवीका आत्मज और मेरा दौहित्र है, राजा श्रेणिकने अपनी जीवितावस्थामें ही सेचनक गन्धहाथी और अठारह लडीवाला हार कुमार वैहल्ल्यको प्रेमसे दिया है अतः इनपर राजकुलका अधिकार नहीं है तो भी यदि राजा कूणिक हाथी और हार लेना चाहता है तो उसे चाहिये कि राज्य राष्ट्र और जनपदका आधा भाग कुमार वैहल्ल्यको देदे । ऐसा करनेपर मैं हाथी
પણ રત્ન ઉત્પન્ન થાય છે તેના ઉપર રાજકુલને અધિકાર હોય છે. આ બે રત્ન શ્રેણિક રાજાના રાજ્ય કાલમાં ઉત્પન્ન થયાં છે. માટે તે સ્વામિન્ ! જેથી રાજકુલની પરંપરાગત સ્થિતિ વિનષ્ટ ન થાય તે ધ્યાનમાં લઈ હાથી તથા હારને અર્પણ કરે અને વેહલ્ય કુમારને પણ કૃણિક રાજાની પાસે મોકલી આપે.
દૂત દ્વારા રાજા કૃણિકની એવી વિજ્ઞપ્તિ સાંભળી રાજા ચેટકે તને આ પ્રકારે કહેવાનું શરૂ કર્યું - હે દેવાનુપ્રિય! જેવી રીતે રાજા કૃણિક શ્રેણિક રાજાને પુત્ર છે ચેલ્લના દેવીને આત્મજ છે તથા મારો દેહિ છે તેજ પ્રકારે કુમાર હલ્ય પણ શ્રેણિક રાજાને પુત્ર છે ચેલ્લના દેવીને આત્મજ તથા મારો દેહિ છે. રાજા શ્રેણિકે પિતાની જીવિત અવસ્થામાં જ સેચનક ગંધહાથી તથા અઢાર સરવાળે હાર કુમાર વૈકલ્યને પ્રેમથી દીધેલ હોવાથી તેના ઉપર રાજકુલને અધિકાર નથી તેમ છતાં પણ રાજા કૃણિક હાથી અને હાર લેવા ચાહતા હોય તે તેમણે પણ રાજ્ય રાષ્ટ્ર તથા જનપદમાં અરધે ભાગ કુમાર હલ્યને આપ
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सुन्दरबोधिनी टोका चेटक-कूणिकका दूतद्वारा संवाद
१९१ और हारके साथ कुमार वैहल्ल्यको भेज दूंगा। ऐसा कहकर राजा चेटकने उस दूतका आदर सत्कार किया और उसे विसर्जित कर दिया। वह दूत वैशालीनगरीसे चलकर राजा कूणिकके पास आया और हाथ जोड जय विजय शब्दके साथ उन्हें बधाकर इस प्रकार कहना आरम्भ किया हे स्वामिन् ! राजा चेटकने इस प्रकार उत्तर दिया कि जिस प्रकार राजा कूणिक राजा श्रेणिकके पुत्र चेल्लना देवीके आत्मज
और मेरा दौहित्र है उसी प्रकार कुमार वैहल्ल्य भी है। राजा श्रेणिकने अपनी जीवितावस्थामें ही सेचनक गंधहाथी और अठारह लडीवाला हार वैहल्ल्य कुमारको प्रेमसे दिया है अतः इसपर राजकुलका अधिकार नहीं है, फिर भी यदि वह कुमार वैहल्ल्यके लिये अपने राज्य राष्ट्र और जनपदका आधा भाग देदे तो मैं हाथी और हार उसको देदंगा तथा वैहल्ल्य कुमारको भी भेज दूंगा । इसलिये हे स्वामिन् ! राजा चेटकने न तो सेचनक गंधहाथी और अठारह लडीवाला हार ही दिया और न कुमार वैहल्ल्यको भेजा। જોઈએ. એવું કરવાથી હું હાથી તથા હારની સાથે કુમાર વૈવલ્યને મોકલી આપીશ. એમ કહીને રાજા ચેટકે તે તને આદર સત્કાર કર્યો તથા તેને વિદાય આપી. આ દૂત વૈશાલી નગરીથી નીકળી રાજા કૃણિકની પાસે આવ્યા અને હાથ જેડી જય વિજય શખથી તેને વધાવી આમ કહેવા લાગે – - હે સ્વામિન્ ! રાજા ચેટકે એવા પ્રકારને જવાબ દીધું કે જે પ્રકારે રાજા ણિક રાજા શ્રેણિકને પુત્ર ચેલ્લના દેવીને આત્મજ તથા મારે દેહિત્રેિ છે તે જ પ્રકારે વેહલ્ય પણ છે. રાજા શ્રેણિકે પિતાની હૈયાતીમાંજ સેચનક ગંધહાથી અને અઢાર સરને હાર વેહલ્ય કુમારને પ્રેમથી આપેલ હોવાથી તેના ઉપર રાજકુલને અધિકાર નથી. તેમ છતાં પણ જે કુમાર વૈહત્ય માટે પોતાના રાજ્ય રાષ્ટ્ર તથા જનપદને અરધો ભાગ તે આપે તે હું સેચનક ગંધહાથી તથા અઢાર સરને હાર તેને આપી દઈશ તથા વૈવલ્ય કુમારને પણ મેલી દઈશ. માટે હે સ્વામિન! રાજા ચેટકે નથી દીધા સેચનક ગંધહાથી કે નથી દીધે અઢાર સરને હાર અને નથી મોકલ્યા કુમાર હિલ્યને
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निरयालिकासत्र
उस दूतके मुखसे इस प्रकारका वचन सुनकर राजा कूणिक सहसा क्रोधसे जलने लगा और उसने तीसरी बार दूतको बुलाकर फिर कहा-हे देवानुप्रिय ! वैशालीनगरीमें जाओ, वहाँ जाकर राजा चेटकके पादपीठको अपने बायें पैरसे ठोकर मारकर भालेकी नोंकसे इस पत्रको देना। पत्र देकर शीघ्र ही क्रोधित होजाना, एवं क्रोधसे धगधगाते हुए त्रिवली और भ्रुकुटिको अपने ललाटपर खींचकर चेटक राजासे इस प्रकार कहो-रे मृत्युको चाहनेवाले–निर्लज ! बुरे परिणामवाले मूर्ख राजा चेटक ! वह कूणिक राजा तुझे आज्ञा देता है कि-सेचनक गंधहाथी और अठारह लडीबाला हार मुझे अर्पित करदे और कुमार वैहल्ल्यको मेरे पास भेजदे, नहीं तो संग्रामके लिए तैयार होजा, राजा कूणिक सेना, वाहन और शिबिरके साथ युद्धके लिए तत्पर होकर शीघ्र आ रहा है ॥ ४२ ॥
તે દૂતના મેથી એવાં વચન સાંભળીને રાજા કૃણિક તરત ક્રોધથી આગની જેમ ગરમ થઈ ગયે અને તેણે ત્રીજી વાર તને બેલાવીને કહ્યું- હે દેવાનુપ્રિય! વૈશાલી નગરી જા અને ત્યાં જઈ રાજા ચેટકના પારંપીઠને તારા ડાબા પગેથી કકર મારીને ભાલાની અણીથી આ પત્ર દેજે. પત્ર દઈને તુરત ક્રોધિત થઈ જજે અને ક્રોધથી આગની પેઠે ગરમ થઈ ત્રિવલી તથા કમરને કાલ ઉપર ખેંચી રાજા ચેટકને આમ કહેજે-રે મૃત્યુને ચાહનારા-નિર્લજજ ! ખરાબ પરિણામવાળા મૂર્ણ રાજા ચેટકતને કૃણિક રાજા અજ્ઞા દે છે કે સેચનક ગંધહાથી અને અઢાર સરવાળે હાર મને આપી દે અને કુમાર હિલ્યને મારી પાસે એકલી દે. અગર જો તેમ નહિ તે સંગ્રામ માટે તૈયાર થઈ જા. રાજા કૃણિક સેના, વાહન તથા શિબિરની સાથે યુદ્ધ માટે તત્પર થઈ તુરત આવી રહ્યા છે. (૪૨)
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सुन्दरबोधिनी टोका राजा कूणिकको दश कुमारोंसे मन्त्रणा
मूलम्
तणं से दूर करयल० तहेव जाव जेणेव चेडए राया तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता करयल० जाव वद्धावेर, वद्धावित्ता एवं वयासीएस णं सामी ! ममं विणयपडिवत्ती, इयाणि कूणियस्स रनो आणतोचेडगस्स रनो वामेणं पारणं पायपीढं अकमर, अक्कमित्ता, आमुरुते कुंवग्गेण लेहं पणावेइ त चैव सबलखंधावारे णं इह हव्वमागच्छइ ।
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छाया
तएण से चेडए राया तस्स दूयस्स अंतिए एयमहं सोच्चा निसम्म आमुरुते जाव साह एवं वयासी - न अप्पिणामि णं कूणियस्स रनो सेयगं अट्ठारसवंकं हारं, वेहलं च कुमारं नो पेसेमि, एस णं जुद्धसज्जे चिट्ठामि । तं दूयं असका रियं असंमाणियं अवदारेणं निच्छुहावे ।
तणं से ऋणि राया तस्स दूयस्स अंतिए एयमहं सोचा णिसम्म
१९३
ततः खलु स दूतः करतल० तथैव यावद् यत्रैव चेटको राजा तत्रैवोपागच्छति, उपामत्य करतल० यावद् वर्धयति, वर्धयित्वा एवमवादीत्एषा खलु स्वामिन् ! मम विनयप्रतिपत्तिः, इदानों कूणिकस्य राज्ञः आज्ञप्तिःचेटकस्य राज्ञो वामेन पादेन पादपीठमाक्रामति, आक्रम्य आशुरक्तः कुन्ताग्रेण लेखं प्रणाययति तदेव सबलस्कन्धावारः खलु इह हव्यमागच्छति |
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ततः खलु स चेटको राजा तस्य दूतस्यान्तिके एतमर्थ श्रुखा निशम्य आशुरक्तः यावत् संहृत्य एवमवादीत् - नार्पयामि खलु कूणिकस्य राज्ञः सेचनकमष्टादशवक्रं हारं वैहल्यं च कुमारं नो प्रेषयामि, एष खलु युद्धसज्जस्तिष्ठामि । तं दूतमसत्कारितमसम्मानितमपद्वारेण निष्कासयति ।
ततः खलु स कूणिको राजा तस्य दूतस्यान्तिके एतमर्थं श्रुला
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१९४
निरयावलकासूत्र
आसुरुत्ते कालादीए दस कुमारे सहावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी एवं खलु देवाणुपिया ! वेहल्ले कुमारे ममं असंविदितेणं सेयणगं गंधहत्थि अट्ठारसर्वकं हारं अंतेउरं सभंडं च गहाय चंपातो पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता वेसालिं अज्जगं चेडगरायं उवसंपज्जित्ताणं बिहारs |
तए णं मए सेयणगस्स गंधहत्थिस्स अट्ठारसवकस्स हारस्स अट्ठाए या पेसिया, ते य चेडएण रण्णा इमेणं कारणेणं पडिसेहिया अदुत्तरं च णं ममं तच्चे दूर असकारिए, तं अवदारेण निच्छुहावे तं सेयं खलु देवाप्पिया ! अम्हं चेडगस्स रनो जुत्तं गिन्दित्तए । तए णं कालाईया दस कुमारा कूणियस्स रन्नो एयमहं विणएणं पडिसुर्णेति ।
तणं से कूणिए राया कालादीए दस कुमारे एवं वयासो - गच्छह णं तुभे देवाणुप्पिया ! ससु ससु रज्जेसु पत्तेयं पत्तेयं व्हाया जाव
निशम्य आशुरक्तः कालादीन् दश कुमारान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत् - एवं खलु देवानुप्रियाः ! वैहल्यः कुमारो मम असंविदितः खलु सेचनकं गन्धहस्तिनम् अष्टादशवक्रं हारम् अन्तःपुरं सभाण्डं च गृहीला चम्पातो निष्क्रामति, निष्क्रम्य वैशालीम् आर्यकं चेटकराजम् उपसंपद्य विहरति । ततः खलु मया सेचनकस्य गन्धहस्तिनः अष्टादशवक्रस्य हारस्य अर्थाय दूताः प्रेषिताः, ते च चेटकेन राज्ञा अनेन कारणेन प्रतिषिद्धाः, अथोत्तरं च खलु मम तृतीयो दूतः असत्कारितः, तम् अपद्वारेण निष्कासयति, तच्छ्रेयः खलु देवानुप्रियाः ! अस्माकं चेटकस्य राज्ञः युक्तं ग्रहीतुम् ।
ततः खलु कालादिकाः दश कुमाराः कुणिकस्य राज्ञः एतमर्थ विनयेन प्रतिशृण्वन्ति ।
ततः खलु स कूणिको राजा कालादीन् दश कुमारान् एवमवादीत् गच्छत खलु यूयं देवानुप्रियाः ! स्वकेषु स्वकेषु राज्येन प्रत्येकं प्रत्येकं
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सुन्दरबोधिनी टीका राजा कणिकको दश कुमारोंसे मन्त्रणा
१९५ पायच्छित्ता इत्थिखंधवरगया पत्तेयं-पत्तवं तिहिं दतिसहस्सेहि, एवं तिहिं रहसहस्सेहिं, तिहिं आससहस्सेहि, तिहिं मणुस्सकोडीहिं सद्धि संपरिवुडा सविडीए जाव रवेणं सएहितो २ नयरेहितो पडिनिक्खमह, पडिनिक्खमित्ता ममं अंतियं पाउब्भवह ।
तए णं ते कालाईया दस कुमारा कूणियस्स रनो एयम सोचा सएसु सएसु रज्जेसु पत्तेयं२ पहाया जाव तिहिं मणुस्सकोडीहिं सद्धिं संपरिखुडा सबिड्डीए जाव रवेणं सएहितोर नयरेहितो पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता जेणेव अंगा जणवए जेणेव चंपा नयरी जेणेव कूणिए राया तेणेव उवागया करयल० जाव वद्धाति ।
__ तएणं से कूणिए राया कोडंवियपुरिसे सद्दावेइ, सदावित्ता एवं वयासीखिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! आभिसेक्कं हत्थिरयणं पडिकप्पेह, हय-गय
स्नाता यावत् प्रायश्चित्ताः हस्तिस्कन्धवरगताः प्रत्येकं प्रत्येकं त्रिभिर्दन्तिसहस्रः, एवं त्रिभी रथसहस्रः, त्रिभिरश्वसहस्रः, तिमृभिर्मनुष्यकोटिभिः साई संपरिताः सर्बद्धा यावद्-रवेण स्वकेभ्यः स्वकेभ्यो नगरेभ्यः प्रतिनिष्क्रामत, पतिनिष्क्रम्य ममान्तिकं प्रादुर्भवत ।
ततः खलु ते कालादिका दश कुमाराः कूणिकस्य राज्ञ एतमर्थ श्रुला स्वकेषु स्वकेषु राज्येषु प्रत्येकं प्रत्येकं स्नाता यावत् तिसभिर्मनुष्यकोटिभिः सार्धं संपरिवृताः सर्वद्धर्या यावद् रवेण स्वकेभ्यः स्वकेभ्यो नगरेभ्यः प्रतिनिष्कामन्ति, प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव अङ्गा जनपदाः, यत्रैव चम्पानगरी, यत्रैव कणिको राजा तत्रैवोपागताः करतल० यावद् वर्धयन्ति । .. ततः खलु स कूणिको राजा कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयिता एवमवादील-सिममेव मो देवानुपियाः ! आभिषेक्यं हस्तिरत्नं पति
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१९६
निरयावलकासूत्र
रह- चाउरंगिणि सेगं संनाह, ममं एयमाणत्तियं पञ्चपिणह, जाव पचपति ।
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ari से कूणिए राया जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ जाव पडिनिग्गच्छित्ता जेणेव बाहिरिया उवद्वाणसाला जाव नरवई दुरूटे |
तर णं से कूणिए राया तिहिं दंतिसहस्सेहिं जाव रवेणं चंपं नयरिं मज्यं - मज्झणं निग्गच्छर, निग्गच्छित्ता जेणेव कालादीया दस कुमारा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता काला एहिं दसहिं कुमारेहिं सद्धिं एगओ मेलायंति |
तए णं से कूणिए राया तेत्तीसाए दंतिसहस्सेहिं, तेतीसाए आससहस्सेहिं, तेत्तीसाए रहसहस्सेहिं, तेत्तीसाए मनुस्सकोडीहिं सद्धिं संपरिवुडे सविडीए जाव रवेणं सुभेहिं वसहिपायरासेहिं नाइविप्पगिट्ठेहिं अंतरावासेहिं
कल्पयत, हय-गज-रथ-चतुरङ्गिणीं सेनां संनह्यत ममैतामासिकां प्रत्यर्पयत यावत् प्रत्यर्पयन्ति ।
ततः खलु स कूणिको राजा यत्रैव मज्जनगृहं तत्रैवोपागच्छति यावत् प्रतिनिर्गत्य यत्रैव बाह्या उपस्थानशाला यावत् नरपतिर्द्वरूढः ।
ततः खलु स कूणिको राजा त्रिभिर्दन्तिसहस्रैः यावत् रवेण चम्पां नगरीं मध्यं - मध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैव कालादिका दश कुमारास्तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य कालादिकैर्दशभिः कुमारैः सार्द्धमेकतो मिलति ।
ततः खलु स कूणिको राजा त्रयस्त्रिंशता दन्तिसहस्रैः, त्रयस्त्रिंशताSश्वसहस्रैः त्रयस्त्रिंशता रथसहस्रैः, त्रयस्त्रिंशता मनुष्यकोटिभिः सार्द्धं संपरिवृतः सर्वदर्था यावद् रवेण शुभैर्वसतिप्रातराशैः - नातिविप्रकृष्टैरन्तरावासैः
,
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सुन्दरबोधिनी टोका राजा कुणिककी दश कुमारों से मन्त्रणा वसमाणे२ अंगजणवयस्स मज्झं-मज्झेणं जेणेव विदेहे जणवए जेणेव वेसाली नयरी तेणेव पहारित्थ गमणाए ॥४३॥
जनपदः, यत्रैव
वसन्२ अङ्गजनपदस्य मध्यमध्येन यत्रैव विदेहो वैशाली नगरी तत्रैव प्राधारयद् गमनाय ॥ ४३॥
टीका
'तएणं से दूए' इत्यादि-अपद्वारेण लघुद्वारेण, गुप्तद्वारेण वा गृह'तएणं से दूए' इत्यादि
राजा कणिकके ऐसा कहनेपर उस दूतने राजाकी आज्ञाको हाथ जोडकर स्वीकार की और पहिलेके ही समान राजा चेटकके पास आया, आकर हाथ जोड जय विजय शब्दके साथ बधाकर इस प्रकार कहा कि हे स्वामिन् ! यह मेरा विनय है, और अब जो राजा कूणिककी आज्ञा है वह कहता हूँ, ऐसा कहकर अपने बाये पैरसे राजा चेटकके सिंहासनके पादपीठको ठोकर लगाता है और कोपसे आरक्त हो भालेकी नोंकसे पत्र देकर कूणिकका सन्देश सुनाता है।
रे मृत्युको चाहनेवाले–निर्लज ! बुरे परिणामवाले मूर्ख राजा चेटक ! वह
__ 'तएणं से दूए' त्यादि.
રાજા કૃણિકના કહેવા પછી તે દૂત રાજાની આજ્ઞાને હાથ જોડી સ્વીકાર કરી અને પહેલાંની પેઠેજ રાજા ચેટકની પાસે આવ્યો. આવીને હાથ જોડી જય વિજ્ય શબ્દથી વધાવી આ પ્રકારે કહ્યું કે હે સ્વામિન્ ! આ મારી તરફને વિનય છે. અને હવે જે રાજા કૃણિકની આજ્ઞા છે તે કહું છું. એમ કહીને પિતાના ડાબા પગથી રાજા ચેટકના સિંહાસનની પાસે રહેલા પાદપીઠને ઠેકર મારી દે છે તથા કેપથી લાલચોળ થઈ જઈ ભાલાની અણીથી પત્ર આપીને કૂણિકને સંદેશ સંભળાવે છે–રે મૃત્યુને ચાહનારા નિર્લજ, ખરાબ પરિણામવાળા મૂર્ણ રાજા ચેટક! તને કૃણિક રાજ
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निरयावलिकासत्र पश्चाद्भागेनेत्यर्थः । दूरूढ-आरूढः, . युक्तम्-उचितं योग्यमिति यावत् , शेष मुगमम् ॥ ४३॥
कूणिक राजा तुझे आज्ञा देता है कि सेचनक गंधहाथी और अठारह लडीवाला हार मुझे अर्पित करे, व कुमार वैहल्ल्यको मेरे पास भेजदे, नहीं तो संग्रामके लिए तैयार होजा, राजा कूणिक सेना वाहन और शिबिरके साथ युद्धके लिए तत्पर होकर शीघ्र आरहा है।
वह चेटक राजा उस दूतके मुँहसे इस प्रकारका सन्देश सुनकर कोपसे आरक्त हो उठा और आँखें तडेरकर इस प्रकार कहने लगा-रे दूत ! मैं कूणिकको न तो सेचनक गंधहाथी और अठारह लडीवाला हार ही दे सकता हूँ, और न कुमार वैहल्ल्यको ही भेज सकता हू, तू जा और कह दे जो कूणिकको करना हो सो करे, युद्ध के लिए मैं तैयार हूँ। ऐसा कहकर वह उस दूतको अपमानित ( काला मुँहकर गधेपर बैठा ) कर नगरके पिछले द्वारसे निकाल देता है।
આજ્ઞા દે છે કે-સેચનક ગંધહાથી અને અઢાર સરવાળે હાર મને આપી અને કુમાર હલ્યને મારી પાસે મોકલી દે. અગર જો તેમ નહિ તે સંગ્રામ માટે તૈયાર થઈ જા. રાજા કૃણિક સેના, વાહન તથા શિબિરની સાથે યુદ્ધ માટે તત્પર થઈ તુરત આવી રહ્યા છે.
તે ચેટક રાજા તે દૂતના મેઢેથી આ પ્રકારને સંદેશો સાંભળીને કેથી લાલચળ થઈ ગયે તથા આંખે કાઢી આ પ્રકારે કહેવા લાગ્ય-રે દૂત! કૃણિકને ન તે સેચનક ગંધહાથી કે અઢાર સરવાળે હાર દઈ શકીશ કે ન તે કુમાર વૈવલ્યને પણ મોકલી શકીશ. માટે તું જા અને કહી દે કૃણિકને જે કરવું હોય તે કરે. યુદ્ધ માટે હું તૈયાર છું. એમ કહીને તે દૂતને અપમાનિત કરી (મોટું કાળું કરી ગધેડા પર બેસાડી) નગરના પાછલા દરવાજેથી કાઢી મૂકે છે.
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सुन्दरबोधिनी टीका राजा कूणिककी दश कुमारों से मन्त्रणा
सारा वृत्तान्त सुनाया ।
१९९
दूत वहाँसे चलकर वापस अपने राजा कूणिकके पास आया और उनको
कूणिक, दूतके मुखसे राजा चेटकका संवाद सुन दस कुमारोको बुलवाता है और उन्हें बुलवाकर इस प्रकार प्रियों ! वैहल्ल्य कुमार मुझसे बिना कुछ कहे ही सेचनक
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कोपारक्त हो काल आदि
कहता है - हे देवानु
गंधहाथी, अठारह लडी
हार, एव अपने अन्तःपुर परिवारके सहित सभी प्रकारकी गृहसामग्रियाँ लेकर चम्पानगरीसे निकल गया और निकलकर वैशालीनगरीमें राजा चेटकके पास जाकर रहने लगा है । इस समाचारको पाकर मैंने हाथी और हारके लिए अपने दो दूतों को दो बार भेजे लेकिन राजा चेटकने हमारी बातको स्वीकार नहीं किया, फिर मैंने तीसरे दूतको भेजा; परन्तु राजा चेटकने उसका अपमान कर उसे अपद्वार से निकाल दिया । इसलिये हे देवानुप्रियों ! हम लोगोंको चाहिये कि हम राजा का निग्रह करें |
ત ત્યાંથી ચાલીને પાછા પેાતાના રાજા કૂણિકની પાસે આવ્યા અને તેને સર્વ હકીક્ત સંભળાવી.
કૃણિક ના મેઢેથી રાજા ચેટકના સવાદ સાંભળી કાપથી રકત થઈ કાલ આદિ દશ કુમારોને ખેલાવે છે. તથા તેમને ખેલાર્વીને આ પ્રકારે કહે છે— હે દેવાનુપ્રિયા ! નૈહલ્ક્ય કુમાર મને કાંઈ પણ કહ્યા વગરજ સેચનક ગંધહાથી અને અઢાર સરના હાર અને પેાતાના અંત:પુર પરિવાર સહિત તમામ જાતની ગૃહસામગ્રી લઇને ચંપાનગરીથી નીકળી ગયા અને જઇને વૈશાલી નગરીમાં રાજા ચેટકની પાસે રહેવા લાગ્યા. આ સમાચાર જાણીને હાથી તથા હાર માટે મેં મારા એ તાને એ વાર માકલ્યા પણ રાજા ચેટકે મારી વાતને સ્વીકાર કર્યો નથી. પછી મેં ત્રીજા દૂતને મેાકલાવ્યે પણ રાજા ચેટકે તેનું અપમાન કરી તેને પાછલે દરવાજેથી કાઢી મૂક્યા. માટે હૈ દેવાનુપ્રિયે ! આપણા માટે આવશ્યક છે કે રાજા ચેટકને નિગ્રહ કરવા.
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२००
निरयावलिकासत्र यह सुनकर वे काल आदि दस कुमारोंने राजा कूणिककी इस बातको स्वीकार किया।
उसके बाद वह कूणिक राजा काल आदि दस कुमारोंको इस प्रकार कहता है-हे देवानुप्रियो ! तुम लोग अपने२ राज्यमें जाओ। वहाँ जाकर स्नान
और मांगलिक कृत्यकर हाथीपर चढ, तुममेंसे हरेक कुमार तीन२ हजार हाथी, तीन२ हजार रथ, तीन२ हजार घोडे, एवं तीन२ करोड सैनिकोंके सहित सभी प्रकारकी सामग्रियोंसे युक्त हो सज-धजकर बाजे-गाजे सहित अपने२ नगरोंसे निकलो और मेरे पास आओ।
यह सुनकर वे काल आदि दस कुमार अपने २ राज्यमें गये वहाँ जाकर कूमिकके निर्देशानुसार सभी तरहकी तैयारी एवं सभी प्रकारकी सामग्रियोंसे युक्त हों अपने २ नगरसे निकले । और अंग देश चम्पानगरीमें राजा कूणिकके पास आए और हाथ जोड जय विजय शब्दके साथ राजाको बधाये।
આ સાંભળી તે કાલ આદિ દશ કુમારેએ રાજા કુણિકની આ વાતને स्वी१२ ..
ત્યાર પછી તે કૃણિક રાજા કાલ આદિ દશ કુમારને આ પ્રમાણે કહે છેહે દેવાનુપ્રિય! તમે લેકે પિત–પિતાના રાજ્યમાં જાઓ. ત્યાં જઈને સ્નાન તથા માંગલિક કર્મ કરી હાથી ઉપર ચડી તમારામાંના દરેક કુમાર ત્રણ ત્રણ હજાર હાથી, ત્રણ-ત્રણ હજાર રથ, ત્રણ-ત્રણ હજાર ઘોડા અને ત્રણ ત્રણ કરોડ સૈનિકે સાથે તમામ પ્રકારની સામગ્રી લઈ તૈયાર થઈ વાજતે ગાજતે પિતાપિતાના નગરમાંથી નીકળી મારી પાસે આવે.
આ સાંભળી તે કાલ આદિ દશ કુમારો પિતપતાના રાજ્યમાં ગયા. ત્યાં જઈને કૃણિકના કહ્યા પ્રમાણે તમામ પ્રકારની તૈયારી કરી એવં સર્વ પ્રકારની સામગ્રી લઈને પિતપતાના નગરમાંથી નીકળ્યા. અને અંગ દેશ ચંપા નગરીમાં રાજા કૃણિકની પાસે આવ્યા. ત્યાં આવીને હાથ જોડી જય વિજ્ય શબ્દોથી રાજાને વધાવ્યા.
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सुन्दरबोधिनी टीका राजा कूणिक-चेटकको युद्ध तैयारियां २०१
काल आदि दस कुमारोंके आनेके बाद वह कूणिक राजा अपने कौटुम्बिक पुरुषोंको बुलाता है और बुलाकर इस प्रकार कहता है-हे देवानुप्रियो ! शीघ्रातिशीघ्र आभिषेक्य (पट्ट) हाथीको सजाओ तथा घोडे, हाथी, रथ और चतुरङ्गिणी सेनाको संनद्ध करो। मेरी आज्ञानुसार तैयारी कर मुझे सूचित करो। राजा कूणिककी इस आज्ञाको सुनकर उन्होंने राजाके कथनानुसार सभी कार्य करके राजाको सूचित किया ।
उसके बाद वह कूणिक राजा जहाँ स्नानगृह था वहाँ आया, और स्नानादि कृत्योंसे निवृत्त हो, वहांसे निकलकर जहाँ बाहरी सभामण्डप था वहाँ पहुँचा ।
और वहाँ आकर वह राजा सभी प्रकारसे सुसज्जित हो अपने आभिषेक्य हाथी पर चढा।
उसके बाद वह कूणिक राजा तीन २ हजार हाथी घोडे रथ और तीन करोड सैनिकोके सहित सभी रणसामग्रियोंके साथ चम्पानगरीके मध्यसे होकर निकला,
કાલ આદિ દશ કુમારે આવ્યા પછી કૂણિક રાજા પિતાના કૌટુંમ્બિક પુરૂષને બોલાવીને આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યા હે દેવાનુપ્રિયે! એકદમ જલદીથી આભિષેકય (પટ્ટ) હાથીને સજા તથા ઘોડા હાથી રથ અને ચતુરંગિણ સેનાને તૈયાર કરો. મારી આજ્ઞા પ્રમાણે તેયારી કરી મને ખબર આપે. રાજા કિની આ આજ્ઞાને સાંભળી તેઓએ રાજાના કહેવા પ્રમાણે બધાં કાર્ય કરી રાજાને ખબર આપી.
ત્યાર પછી તે ણિક રાજા જ્યાં સ્નાનગૃહ હતું ત્યાં આવ્યા અને સ્નાન આદિ કર્યેથી નિવૃત્ત થઈ ત્યાંથી નીકળી જ્યાં બહારને સભામંડપ હતો ત્યાં પહોંચ્યા અને ત્યાં આવીને તે રાજા તમામ પ્રકારે સુસજિજત થઈને પિતાના આભિષેકય હાથી ઉપર બેઠા.
ત્યાર પછી તે કુણિક રાજા ત્રણ ત્રણ હજાર હાથી ઘોડા રથ તથા ત્રણ કરોડ સેનિક સહિત તમામ યુદ્ધની સામગ્રીઓ સાથે ચંપા નગરીના મધ્યભાગમાં २६
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२०२
निरयावलिकासूत्र
तएणं से चेडए राया इमीसे कहाए लढे समाणे नवमल्लइ-नवलेच्छइ-कासी-कोसलगा अट्ठारस वि गणरायाणो सदावेइ, सद्दांवित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! वेहल्ले कुमारे कूणियस्स रनो असंविदिते
छायाततः खलु स चेटको राजा अस्याः कथाया लब्धार्थः सन् नवमल्लकि-नवलेच्छकि-काशी-कौशलकान् अष्टादशापि गणराजान् शब्दयति, शब्दयिखा एवमवादीव-एवं खलु देवानुपियाः ! वैहल्यः कुमारः कणिकस्य
निकलकर जहाँ काल आदि दस कुमार थे वहाँ आया, और काल आदि दस कुमारोंसे मिला।
उसके बाद वह कूणिक राजा तेतोस हजार हाथी, तेतीस हजार घोडे, तेतीस हजार रथ और तेतीस करोड सैनिकोंसे घिरा हुआ सभी तरहकी सामग्री
क्त बाजे-गाजेके साथ शुभ स्थानोमें खान-पान करता हुआ थोडी २ दूर पर डेरा डालकर विश्राम करता हुआ अङ्ग देशके बीचो-बीचसे जहाँ विदेह देश. था, जहाँ, वैशाली नगरी थी, वहीं पर जानेका निश्चय किया ॥ ४३ ॥
થઈને નીકળ્યા. અને ત્યાંથી નીકળી જ્યાં કાલ આદિ દશ કુમારે હતા ત્યાં આવ્યા અને કાલ આદિ દશ કુમારને મળ્યા.
ત્યાર પછી તે કૃણિક રાજા તેત્રીસ હજાર હાથી, તેત્રીસ હજાર ઘેડા તેત્રીસ હજાર રથ તથા તેત્રીસ કરેડ સેનિકેથી ઘેરાયેલા અને તમામ જાતની યુદ્ધ સામગ્રી યુક્ત થઈ વાજતે ગાજતે શુભ સ્થાનમાં ખાન-પાન કરતા કરતા થડે થોડે દૂર પર મુકામ કરતા કરતા વિશ્રામ લેતા થકા અંગ દેશની વચ્ચે-વચ્ચે થઈને જયાં વિદેહ દેશ હતું જ્યાં વૈશાલી નગરી હતી ત્યાં જાવાને નિશ્ચય કર્યો. (૪૩)
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२०३
सुन्दरबोधिनी टोका राजा कणिक-चेटकको युद्ध तैयारियां ण सेयणगं गंधहत्यिं अट्ठारसर्वकं च हारं गहाय इई हव्वमागए, तए णं कूणिरणं सेयणगस्स अट्ठारसवंकस्स य अट्टाए तो या पेसिया, ते य मए इयेणं कारणेणं पडिसेहिया ।
तए णं से कूणिए ममं एयमé अपडिमुणमाणे चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिखुढे जुझसजे इहं इन्वमागच्छइ, तं किं नु देवाणुप्पिया ! सेयणगं अट्ठारसर्वकं च कूणियस्स रन्नो पञ्चप्पिणामो ? वेहल्लं कुमारं पेसेमो ? उदाहु जुज्झित्था ? तए णं नवमल्लइ-नवलेच्छइ-कासी-कोसलगा अट्ठारस वि गणरायाणो चेडगं रायं एवं वयासी-न एयं सामी ! जुत्तं वा पत्तं वा रायसरिसं वा जन्नं सेयणगं अट्ठारसवंकं कूणियस्स रन्नो पञ्चप्पिणिज्जइ, वेहल्ले य कुमारे सरणागए पेसिज्जइ, तं जइ णं कूणिए राया चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिखुडे जुज्झसज्जे इहं हव्वमागच्छइ । तो णं अम्हे कूणिएणं रण्णा सद्धिं जुज्झामो । राज्ञः असंविदितेन सेचनकं गन्धहस्तिनमष्टादशवक्रं च हारं गृहीला इह हव्यमागतः, ततः खलु कूणिकेन सेचनकस्य अष्टादशवक्रस्य चार्थाय त्रयो दूताः प्रेषिताः, ते च मयाऽनेन कारणेन प्रतिषिद्धाः । ततः खलु स कूणिको मम एतमर्थमपतिशृण्वन् चातुरङ्गिण्या सेनया सार्द्ध संपरिघृतः युद्धसज्ज इह हव्यमागच्छति तत् किं नु देवानुपियाः ! सेचनकमष्टादशवक्रं च कूणिकाय राज्ञे प्रत्यर्पयामः, वैहल्ल्यं कुमारं प्रेषयामः, उताहो ! युध्यामहे ?।
ततः खलु नवमल्लकि-नवलेच्छकि-काशी-कोशलका अष्टादशापि गणराजाचेटकं राजानमेवमवादिषुः नैतत् स्वामिन् ! युक्तं वा, प्राप्त वा राजसदृशं वा यत्खलु सेचनकमष्टादशवर्क कूणिकाय राजे प्रत्यर्प्यते, वैहल्ल्यश्च कुमारः शरणागतः मेष्यते, तद् यदि खलु कूणिको राजा चातुरङ्गिण्या सेनया सार्दै संपरिवृतो युद्धसज्ज इह हव्यमागच्छति तदा खलु वयं कूणिकेन राज्ञा सार्दै युध्यामहे ।
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२०४
निरयावलिकासत्र तए णं से चेडए राया ते नवमल्लइ-नवलेच्छइ-कासी-कोसलगा अट्ठारस वि गणरायाणो एवं वयासी-जइणं देवाणुप्पिया ! तुब्भे कूणिएणं रना सद्धिं जुज्झइ, तं गच्छह णं देवाणुप्पिया ! । सप्सुर रज्जेसु ण्हाया जहा कालादीया जाव जएणं विजएणं वद्धाति ।।
तए णं से चेडए राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ सहावित्ता एवं वयासी-आभिसेकं जहा कूणिए जाव दुरूढे ।
तएणं से चेडए राया तिहिं दंतिसहस्सेहिं जहा कूणिए जाव वेसालि नयरिं मझ-मझेणं निगच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव ते नवमल्लई-नवलेच्छईकासी-कोसलगा अट्ठारस वि गणरायाणो तेणेव उवागच्छइ ।
___ ततः खलु स चेटको राजा तान् नवमल्लकि-नवलेच्छकि-काशीकौशलकान् अष्टादशापि गणराजान् एवमवादीद-पदि खलु देवानुपियाः ! यूयं कूणिकेन राज्ञा सार्द्ध युध्यध्वं, तद्गच्छत खलु देवानुभियाः ! स्वकेषु स्वकेषु राज्येषु, स्नाता यथा कालादिका यावद् जयेन विजयेन वर्द्धयन्ति ।
ततः खलु स चेटको राजा कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयिखा एवमवादीत्-आमिषेक्यं यथा कूणिको यावद् दूरूढः ।।
ततः खलु स चेटको राजा त्रिमिदन्तिसहस्रैर्यथा कणिको यावद् वैशाली नगरी मध्य-मध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैव ते नवमल्लकी-नवलेच्छकी-काशी-कौशलका अष्टादशापि गणराजास्तत्रैवोपागच्छति । .. ततः खलु स चेटको राजा सप्तपश्चाशता दन्तिसहस्रः, सप्तपश्चाशता अश्वसइौः, समपञ्चाशता रथसहस्रः, सप्तपश्चाशता मनुष्यकोटिभिः, सादै संपरिवृतः सर्वद्धा यावद् रवेण शुभैसतिमातराशैर्नातिविभकृष्टैरन्तरै
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सुन्दरबोधिनी टोका राजा कूणिक-चेटकको युद्ध तैयारियां.
२०५ __तएणं से चेडए राया सत्तावनाए दंतिसहस्सेहिं, सत्तावन्नाए आससहस्सेहिं, सत्तावनाए मणुस्सकोडीएहिं सद्धिं संपरिखुडे सविड्डाए जाव रवेणं मुभेहि वसहिपायरासेहिं नातिविप्पगिट्ठोहिं अंतरेहिं वसमाणे२ विदेहं जणवयं मज्झं-मज्झणं जेणेव देसपंते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता खंधावारनिवेसणं करेइ, कूणियं रायं पडिवालेमाणे जुज्झसज्जे चिट्ठइ ।
तएणं से कूणिए राया सविडोए जाव रवेणं जेणेव देसपंते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चेडयस्स रन्नो जोयणंतरियं खंधावारनिवेसं करेइ ।
___ तए णं से दोनि वि रायाणो रणभूमि सज्जावेंति, सावित्ता रणभूमि जयंति ॥४४॥
बसन्२ विदेहं जनपदं मध्य-मध्येन यत्रैव देशमान्तस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य स्कन्धावारनिवेशनं करोति, कुत्ता कूणिकं राजानं प्रतिपालयन् युद्धसज्जस्तिष्ठति ।
___ ततः खलु स कूणिको राजा सर्वद्धर्चा यावद् रवेण यत्रैव देशपान्तस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य चेटकस्य राज्ञो योजनान्तरितं स्कन्धावारनिवेश करोति ।
ततः खलु तौ द्वावपि राजानौ रणभूमि सज्जयतः, सज्जयित्वा रणभूमि यातः ॥४४॥
टीका'तएणं से चेडए' इत्यादि-नवमल्लकिनः काशीदेशस्थगणराजाः, नवलेच्छकिना-कोशलदेशस्थगणराजाः, तान् । युक्तम् योग्यमिति, प्राप्तम्अधिकारोचितं, राजसदृशम् राजवंशीयानुरूपं यत्स्यनिश्चयेन । पतिपालयन्प्रतीक्षमाणः । शेषं सुगमम् ॥४४॥
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"२०६
निरयालिकासत्र 'तएणं से चेडए' इत्यादि
उसके बाद उस चेटक राजाने कूणिककी चढाईके समाचार सुनकर काशी और कोशल देशके नौ मल्लकी-नौ लेच्छकी इन अठारहों गणराजाओंको बुलाकर उनसे इस प्रकार कहना आरम्भ किया
__ हे देवानुप्रियो ! वैहल्ल्यकुमार राजा कूणिकसे डरकर सेचनक गन्धहाथी और अठारह लडीवाला हार लेकर मेरे पास चला आया। इसका समाचार पाकर कूणिकने मेरे पास तीन दूत भेजे, परन्तु मैंने उन दूतोंको कारण बताकर मना कर दिया। उसके बाद कुणिकने मेरी बातको न मानकर चतुरङ्गिणी सेनाके साथ लडाईके लिये तैयार होकर यहाँ आ रहा है। तो क्या हे देवानुप्रियो ! सेचनक गंधहाथी और अठारह लडीवाला हार राजा कूणिकको देदें और वैहल्ल्यकुमारको उसके पास भेजदें अथवा उससे लडं ?
उसके बाद वे अठारहों गणराजाओंने हाथ जोडकर इस प्रकार कहा
.. 'तपणं से चेडए' त्याle. - ત્યાર પછી તે ચેટક રાજાએ કૃણિકની ચડાઈના સમાચાર સાંભળી તેણે કાશી તથા કૌશલ દેશના નવ મલકી અને નવ લેચ્છકી એમ અઢાર ગણરાજાઓને બોલાવી તેમને આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યા. - હે દેવાનુપ્રિયે ! હિલ્ય કુમાર રાજા કૃણિકથી ડરીને સેચનક ગંધહાથી તથા અઢાર સરવાળો હાર લઈને મારી પાસે ચાલ્યા આવ્યું છે. એના સમાચાર મળતાં કૃણિકે મારી પાસે ત્રણ દૂત મોકલ્યા પણ મેં તે તેને કારણ બતાવી ના પાડી દીધી. ત્યાર પછી કૃણિકે મારી વાત ને નહિ માનીને ચતુરંગિણી સેના સાથે લડાઈ • માટે તૈયાર થઈને અહીં આવી રહ્યો છે. તે શું હે દેવાનુપ્રિયે ! સેચનક ગંધહાથી અને અઢાર સરને હાર રાજા કુણિકને આપી દે અને વેલ્ય કુમારને તેની પાસે મોકલી દેવો કે તેની સાથે લડાઈ કરવી?
ત્યાર પછી તે અઢારે ગણુ રાજાઓએ હાથ જોડીને આ પ્રમાણે કહ્યું
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सुन्दरबोधिनी टोका राजा कूणिक-चेटकको युद्ध तैयारियां
___ २०७ हे स्वामिन् ! न यह युक्त है ; न ऐसा करनेकी आवश्यकता है; न यह राजकुलको उचित ही है, जो आप सेचनक गन्धहाथी और अठारह लडीवाला हार राजा कूणिकको अर्पित करें और शरणमें आए हुए कुमार वैहल्ल्यको लौटादें । हे स्वामिन् ! यदि राजा कूणिक चतुरङ्गिणी सेनाके साथ लडाईके लिये तैयार हो आ रहा है तो हम लोग भी लडनेके लिए तैयार हैं।
उन राजाओंकी ऐसी बातें सुनकर राजा चेटकने उन अठारहों राजाओंसे इस प्रकार कहा-यदि हे देवानुप्रियो ! तुम लोग कूणिकसे लडना चाहते हो तो अपने २ राज्यमें जाओ और वहाँ जाकर स्नान आदि क्रिया करके लडनेके लिए काल आदि कुमारोंके समान तुम भी सेना आदिसे सज्ज हो यहाँ आओ। राजा चेटककी आज्ञा पाकर वे गणराजा अपने २ राज्यमें जाकर वहाँसे सभी प्रकारकी सैन्य सामग्रियांसे युक्त हो राजा चेटककी सहायताके लिये वैशालीनगरीमें आते हैं
और राजा चेटकको जय विजयके साथ बधाते हैं। હે સ્વામિન! નથી તે આ વાજબી કે નથી આવી રીતે કરવાની આવશ્યકતા. વળી આ પ્રમાણે કરવું રાજકુલને ઉચિત પણ નથી કે આપ સેચનક ગંધ હાથી તથા અઢાર સરવાળો હાર રાજા કૃણિકને અર્પણ કરી દીઓ અને શરણે આવેલા કુમાર વેહત્યને પાછો મેકલી દીઓ હે સ્વામિન! જે રાજા કૃણિક ચતુરગિણી સેના લઈને લડાઈ માટે તૈયાર કરીને આવે છે તે અમે લેકે પણ લડવા માટે તૈયાર છીએ.
તે રાજાઓની એ પ્રમાણે વાત સાંભળી રાજા ચેટકે તે અઢારે રાજાઓને આ પ્રકારે કહ્યું- હે દેવાનુપ્રિયે! જો તમે લેકે કુણિક સાથે લડવા ચાહતા હે તે પોતપોતાના રાજ્યમાં જાઓ અને ત્યાં જઈ સતાન આદિ વગેરે ક્રિયા કરી લડવા માટે કાલ આદિ કુમારને સમાન તમે પણ સેના આદિથી સજજ થઈ અહીં આવે. રાજા ચેટકની આજ્ઞા સાંભળી તે ગણરાજાઓ પોતપોતાના રાજ્યમાં જઈ અને ત્યાંથી સર્વ પ્રકારની સૈન્ય સામગ્રીથી યુક્ત થઈ રાજ ચેટકને સહાયતા કરવા માટે વૈશાલી નગરીમાં આવે છે અને રાજા ચેટને જય વિજય શબ્દ સાથે વધાવે છે.
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निरयावलकासूत्र
उसके बाद वह चेटक राजा अपने कौटुम्बिक पुरुषोंको बुलवाता है और
लानेकी आज्ञा देता है । कूणिकके
उनसे अपना आभिषेक्य हाथीको सज्जित करके समान वह भी अपने पट्ट हाथीपर चढता है ।
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वहाँसे वह चेटक राजा तीन २ हजार हाथी, घोडे, रथ और तीन करोड सैनिकों के साथ कूणिकके समान ही अपनी वैशालीनगरीके बीचो-बीच होकर जहाँ अठारहों गणराजा थे वहाँ आया ।
और वहाँ वह चेटक राजा सत्तावन हजार हाथी, सत्तावन हजार घोडे, सत्तावन हजार रथ, और सत्तावन कोटि सैनिकोंसे परिवेष्टित हो सभी प्रकारके साज-बाज और बाजे-गाजेके साथ अच्छे स्थानोंमें प्रातः कालिक भोजन करते हुए थोडी २ दूरपर डेरा डालकर विश्राम करते हुए विदेह देशके बीचो-बीचसे होते हुए जहाँ देशका प्रान्त - सीमाभाग था वहाँ आया । वहाँ आकर अपने शिबिर तैयार करवाया और लडाईके लिये राजा कूणिककी प्रतीक्षा करने लगा ।
ત્યાર પછી તે ચેટક રાજા પાતાના કૌટુમ્બિક પુરૂષોને ખેલાવે છે અને તેમને પેાતાના આભિષેકય (પટ્ટ) હાથી સજ્જ કરી લાવવા આજ્ઞા આપે છે કૃણિકની પેઠે તે પણ પાતાના પટ્ટ હાથી પર બેસે છે.
ત્યાંથી તે ચેટક રાજા ત્રણ ત્રણ હજાર હાથી ઘેાડા રથ અને ત્રણ કરોડ સૈનિકા સાથે કૂણિકની પેઠેજ પાતાની વૈશાલી નગરીની વચમાં થઈને જયાં તે અઢાર ગણરાજા હતા ત્યાં આવ્યા.
અને ત્યાં તે ચેટક રાજા સતાવન હજાર હાથી, સતાવન હજાર ઘેાડા સતાવન હજાર રથ તથા સતાવન કરાડ સૈનિકાથી ઘેરાઈને તમામ પ્રકારના સાજ આજ અને વાજા ગાજાંની સાથે સારાં સારાં સ્થાનામાં પ્રાતઃ કાલિક ભાજન કરતા ચકા, ઘેાડે થાડે દૂર મુકામ કરતા ચકા, વિશ્રામ લેતા થયા, વિદેહ દેશની વચ્ચેાવચ્ચ થઈને જયાં દેશની સરહદ હતી ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને પેાતાની છાવણી તૈયાર કરાવી. અને લડાઇ માટે રાજા કૂણિકની રાહ જોવા લાગ્યા.
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सुन्दरबोधिनी टीका राना कृषिक-धेटकका युद्ध
२०९
मूलम्तएणं से कूणिए तेत्तीसाए दंतिसहस्सेहिं जाव मणुस्सकोडीहि गरुलवूहं रएइ, रइत्ता गरुलवूहेणं रहमुसलं संगामं उवायाए । तएणं से चेडए राया सत्तावनाए दंतिसहस्सेहिं जाव सत्तावनाए मणुस्सकोडीहिं सगडवूहं रएइ, रइत्ता सगडवूहेणं रहमुसलं संगाम उवायाए । तएणं ते दोण्ह वि राईणं अणीया सन्नद्ध जाव गहियाउहपहरणा मंगतिएहिं फलएहिं
छायाततः खलु स कूणिकत्रयस्त्रिंशता दन्तिसहस्रर्यावन्मनुष्यकोटिभिर्गरुडव्यूह रचयति, रचयिता गरुडव्यूहेन रथमुशलं स ममुपायातः ।
ततः खलु स चेटको राजा सप्तपञ्चाशता दोन्तसहस्रैर्यावत् सप्तपञ्चाशता मनुष्यकोटिभिः शकटव्यूह रचयति, रचयिता शकटव्यूहेन रथमुशलं संग्राममुपायातः ।
उसके बाद वह कणिक राजा भी उसी तरह वहाँ आया जहाँ देशका अंतिम भाग था। और महाराजा चेटकके शिबिरसे एक योजन दूर अपना शिबिर बनवाया।
उसके बाद उन दोनों राजाओंने रणभूमिको सज्जित की और लडाईके लिए वहाँ आये । ॥ ४४ ॥
ત્યાર પછી તે કૃણિક રાજા પણ તેજ રીતે ત્યાં આવ્યા કે જ્યાં દેશના પ્રદેશને અંતિમ છેડે હતો, અને મહારાજા ચેટકની છાવણથી એક જન છે. પિતાની છાવણી નખાવી.
- ત્યાર પછી તે બેઉ રાજગાએ રણભૂમિ સજિત કરી અને યુદ્ધ કરવા Mi माया. (४४)
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२९००
निरयावलिकासन निकहाहि असीहिं, अंसगएहि तोणेहि, सजीवेहिं धर्हि, समुक्खित्तेहिं सरेहि, समुल्लालिताहिं डावाहि, ओसारियाहिं उरुघंटाहिं, छिप्पतूरेणं वज्जमाणेणं, महया उकिट्ठसीहनायबोलकलकलरवेणं समुहरवभूयं पिव करेमाणा सव्विड्डीए जाव रवेणं हयगया हयगएहि, गयगया गयगएहिं, रहगया रहगएहि, पायत्तिया पायत्तिएहिं, अन्नमन्नेहिं सद्धि संपलग्गा यावि होत्था ।
तएणं ते दोण्ह वि रायाणं अणीया णियगसामीसासणाणुरत्ता महंतं जणक्खयं जणवहं जणप्पमई जणसंवट्टकप्पं नचंतकबंधवारभीमं रुहिरकइमं करेमाणा अन्नमन्भेणं सद्धिं जुज्झति ।
तए णं से काले कुमारे तिहिं दंतिसहस्सेहिं जाव मणुस्सकोडीहिं गरुलवूहेणं एक्कारसमेणं खंधेणं कृणियरहमुसलं संगामं संगामेमाणे हयमहियजहा भगवया कालीए देवीए परिकहियं जाव जीवियाओ ववरोविए ।
ततः खलु ते द्वयोरपि राज्ञोरनीके सन्नद्ध-यावद्-गृहीतायुधमहरणे मङ्गतिकैः फलकैः, निष्कासितैरसिभिः, अंशगतैस्तूणैः, सजीवैर्धनुभिः, समुक्षिप्तैः शरैः, समुल्लालितामिः डावाभिः, अवसारिताभिः उरुघण्टाभिः, सिमतूरेण वाद्यमानेन महता उत्कृष्टसिंहनादबोलकलकलरवेणं समुद्ररवभूतमिव कुर्वाणे सर्वऋद्धया यावद् रवेण हयगता हयगतैः, गजगता गजगतैः, रथगता रथगतैः, पदातिकाः पदातिकैः, अन्योन्यैः सार्द्ध संपलग्नाश्चाऽप्य
भूवन् ।
ततः खलु ते द्वयोरपि राज्ञोरनीके निजकस्खामिशासनानुरक्ते महान्तं अनक्षयं जनवधं जनपमर्दै जनसंवर्तकल्पं नृत्यत्कबन्धवारभीमं रुधिरकर्दमं कुर्वाणे अन्योऽन्येन सार्दै युध्यते ।
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२११
सुन्दरबोधिनी टोका राजा कृणिक-चेटकका युद्ध
तं एवं खलु गोयमा ! काले कुमारे एरिसएहिं आरंभेहिं जाव एरिसएणं असुभकडकम्मपन्भारेणं कालमासे कालं किच्चा चउत्थीए पंकप्पभाए पुढवीए हेमाभे नरए नेरइयत्ताए उववो ।
काले णं भंते ! कुमारे चउत्थीए पुढवीए अणंतरं उवट्टित्ता कहिं गच्छिहिइ ? कहिं उववजिहिइ ? । गोयमा ! महाविदेहे वासे जाइं कुलाई भवंति अड्डाई जहा दृढप्पइन्नो जाव सिज्झिहिइ बुझिहिइ जाव अंत काहिइ । तं एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं निरयावलिवाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते तिमि ॥ ४५ ॥
॥ पढमं अज्झयणं समत्तं ॥१॥
ततः खलु स कालः कुमारस्तिमिर्दन्तिसहर्यावन्मनुष्यकोटिभिगरुडव्यूहेन एकादशेन स्कन्धेन कूणिकरथमुशलं संग्राम संग्रामयन् हतमथितयथा भगवता काल्यै देव्यै परिकथितं यावज्जीविताद् व्यपरोपितः ।
- तदेतत् खल गौतम ! कालः कुमार ईदृशैरारम्मै विद् ईदृशेन अशुभकृतकर्ममाग्भारेण कालमासे कालं कृषा चतुर्थ्यां पङ्कमभायां पृथिव्यां हेमा नरके नैरयिकतयोपपन्नः।।
काला खलः भदन्त ! कुमारचतुर्थ्याः पृथिव्या अनन्तरमुद्वत्यै कुत्र गमिष्यति ? कुत्रोत्पत्स्यते ? गौतम ! महाविदेहे वर्षे यानि कुलानि भवन्ति आन्यानि यथा दृढमतिज्ञो यावत् सेत्स्यति भोत्स्यते यावद् अन्तं करिष्यति ।
___ तदेवं खलु जम्बूः ! श्रमणेन भगवता यावत्संप्राप्तेन निरयावलिकानां प्रथमाध्ययनस्यायमर्थः प्राप्तः । इति ब्रवीमि ॥४५॥
॥ प्रथममध्ययनं समाप्तम् ॥१॥
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२१२
निरयालिकासत्र
टीका_ 'तएणं से कूणिए ' इत्यादि-ततः खलु ते द्वयोरपि राज्ञोः अनीके सैन्ये सन्नद्ध०=सुसज्जित० यावत्-गृहीतायुधमहरणे धृतशस्त्रास्त्रे मङ्गतिकैः= हस्तपाशिफलकविशेषैः 'ढाल' इति भाषापसिद्धैः, अंशगतैः स्कन्ध
'तएणं से कूणिए ' इत्यादि
उसके बाद वह कणिक तेंतीस २ हजार हाथी, घोडे, और रथ तथा तेंतीस करोड ( उस समयकी एक संख्या ) सैनिकोंका गरूडव्यूह बनाया और गरुडव्यूहके साथ रणभूमिमें रथमुशल संग्राम करनेके लिए आया।
चेटक राजा भी सतावन २ हजार हाथी, घोडे, रथ एवं सतावन करोड ( उस कालकी एक संख्या ) सैनिकोंका शकटव्यूह बनाया और उसके साथ रथमुशल संग्राममें आया।
उसके बाद दोनों राजाओंकी सेना अस्त्र शस्त्रसे सज्जित हो अपने २ हाथोमें थामी हुई ढालोसे, खींची हुई तलवारोंसे, कंधोपर रखे हुए तूणीरोंसे, चढे हुए
'तएणं से कूणिए ' त्यादि. - ત્યાર પછી તે કૂણિકે તેત્રીસ હજાર હાથી, ઘોડા અને રથ તથા તેત્રીસ કરોડ (તે સમયની એક સંખ્યા) સૈનિકેન ગરૂડન્યૂડ બનાવ્યું અને ગરૂડમૂહ સાથે રણભૂમિમાં રથમુશલ સંગ્રામ કરવા માટે આવ્યા
ચેટક રાજા પણ સતાવન સતાવન હજાર હાથી, ઘોડા, રથ અને સતાવન કરોડ (તે સમયની એક સંખ્યા) સૈનિકે શકટયૂડ બનાવી તેની સાથે રથમુશલ સંગ્રામમાં આવ્યા.
ત્યાર પછી બન્ને રાજાઓની સેના અસ્ત્ર શસ્ત્રથી સજિજત થઈ પોત પિતાના હાથમાં પકડેલી ઢાથી, ખેંચેલી તલવારથી, કાંધ ઉપર રાખેલા તૃણી
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सुन्दरबोधिनी टोका राजा कृषिक-चेटकका युद्ध स्थितैः तूणैः शरधानीभिः ‘भाता' इति भाषायाम् सजीवैः ज्यासहितैः समत्यश्चैः धनुर्भिः चापैः, समुक्षिप्तः प्रक्षिप्तैः शरैः बाणैः, समुल्लालिताभिः= आस्फालिताभिः डावाभिः वामभुजाभिः, अवसारिताभिः-दूरीकृताभिः उरुघण्टाभिः विशालघण्टाभिः क्षिप्रतूरेण-अतिशीघ्रण वाद्यमानेन तूर्येण महता-विशालेन उत्कृष्टसिंहनाद-बोल-कलकल-रवेण उत्कृष्टः भयङ्करः सिंहनादः सिंहगर्जनवत् बोलः कोलाहलः कलकला-व्याकुलः श्रोतुर्महाभयजनको यो रवा शब्दस्तेन समुद्ररवभूतमिव वेलाकुलजलनिधिप्रचण्डभूतसदृशं शब्दं कुर्वाणे सर्वऋद्धया सकलयुद्धसाम या युक्ते आस्तां, तत्र यावत् रवेण चीत्कारादिभयानकशब्देन हयगताः अश्वारूढाः हयगतैः अश्वारूढः सह, गजगताः= गजारूढाः गजगतैः गजारूढः सह, स्थगताः रथारूढाः स्थगतैः रथारूढः
धनुषोंसे, छोडे हुए बाणोंसे, अच्छी तरह फटकारते हुए डाबी भुजाओसे, दूरपर टांगी हुई विशाल घण्टाओंसे, अत्यन्त शीघ्रतासे बजाये जाते हुए मेरी आदि बाजोंसे, भयंकर सिंह नादके सदृश कोलाहलसे, समुद्रकी वेलाकी आवाजके समान आवाज करती हुई, तथा सभी युद्ध सामग्रियोंसे युक्त थी, वहां भीषण हुङ्कार करते हुए घुडसवार घुडसवारोसे, हाथीवाले हाथीवालोंसे, रथी रथिकोसे, पैदल पैदलसे, इस प्रकार एक दूसरेके 'साथ युद्ध करनेके लिये संनद्ध हो गये।
રાથી, ચડાવેલા ધનુષ્યથી, છેડેલા બાણથી, સારી રીતે ફટકારતા ડાબી ભુજાએથી, છેટે ટાંગેલી વિશાલ ઘંટાઓથી, અત્યંત શીઘ્રતાથી બજાવાતા ભેરી આદિ વાજાએથી, સિંહનાદ જેવા કલાહલથી સમુદ્રની છોળેના જેવા અવાજ કરતી, તથા તમામ યુદ્ધસામગ્રીથી યુક્ત હતી. ત્યાં ભીષણ હુંકાર કરતા કરતા ઘડેસવારે ઘડેસવારોની સાથે, હાથીવાળાએ હાથીવાળાઓની સાથે, રથી રથીઓ સાથે, પાયદલ લશ્કર પાયદલની સાથે, આ પ્રકારે એક બીજા સાથે યુદ્ધ કરવા માટે તૈયાર થઈ ગયા.
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१४
निरयापलिकासत्र सह, पदातिका पादचारिणः पदाविकै पादचारिभिः सह, अन्योऽन्यः परस्परैः साई-सह संपलग्ना-योढुं सम्मिलिताः' चकारः शस्त्रादिजनितमहारादिसमुच्चायक' अपि-निश्चयेन अभूवन्-जाताः ।
ततः खलु ते द्वयोरपि राज्ञोरनीके निजकखामिशासनानुरक्तेस्वस्वामिनिदेशपरायणे महान्तं विशालं जनक्षयं-जननाशं जनवधं-जनताडनं मुशलादिना, जनप्रम-गदादिना भटानां चूर्णीकरणम् जनसंवर्तकल्पं अजासंहारसदृशं नृत्यत्कबन्धवारभीम-नटच्छिरोरहितशरीरसमूहभयानकं रुधिर
उसके बाद उन दोनों राजाओंके योद्धा अपने २ स्वामीकी आज्ञामें अनुरक्त हो अत्यधिक मनुष्योंका क्षय, मनुष्योंका वध, मनुष्योंका मर्दन, एवं मनुष्योंका संहार करते हुए तथा नाचते हुए धडोंके समूहसे भयंकर और शोणितसे भूमिको कीचडमयी बनाते हुए एक दूसरेके साथ लडने लगे।
उसके बाद वह काल कुमार तीन २ हजार हाथी, वोडे और रथ, तथा तीन करोड मनुष्योंके साथ गरुडव्यूहके अपने ग्यारहवें स्कन्ध अर्थात् भागके द्वारा रथमुशल संग्राम करता हुआ सैनिकोंका संहार हो जानेके बाद जिस प्रकार भगवानने काली देवीको कहा है उसी प्रकार वह मारा गया ।
ત્યાર પછી તે બન્ને રાજાઓના યોદ્ધાઓ પોતપોતાના સ્વામીની આજ્ઞામાં અનુક્ત થઈને ઘણુ મનુષ્યનો નાશ, મનુષ્યોને વધ, મનુષ્યનાં મર્દન અર્થાત મનુષ્યને સંહાર કરતા કરતા તથા નાચતા થકા ઘડેના સમૂહથી ભયંકર અને હીથી રણભૂમિને કચડવાળી બનાવતા બનાવતા એકબીજા સાથે લડવા લાગ્યા.
ત્યાર પછી તે કલકુમાર ત્રણ ત્રણ હજાર હાથી ઘોડા અને રથ તથા ત્રણ કરડે મનુષ્યની સાથે ગરૂડબૂકના પોતાના અગીયારમાં સ્કંધ અર્થાત્ ભાગ દ્વારા રથ સુશલ સંગ્રામ કરતા કરતા, સેનકેનો સંહાર થઈ ગયા પછી, જેવી રીતે ભગવાને કાવી દેવાને કહ્યું, તે પ્રકારે તે માર્યા ગયા.
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सुन्दरबोधिनी टीका राजा कूणिक-चेटकका युद्ध कर्दम-शोणितपकं कुर्वाणे अन्योऽन्येन परस्परेण साई-सह युध्येते संग्राम कुर्वाते स्म। अशुभकृतकर्ममाग्भारेण पाणिगणसंहाररूपपापसम्पादितनरकयोग्यकर्मपुञ्जेन, शेषं सुगमम् ‘इति ब्रवीमि' इति पूर्ववत् ॥ ४५ ॥
॥ इति निरयावलिकासूत्रे प्रथममध्ययनं समाप्तम् ॥ हे गौतम ! वह काल कुमार इस प्रकारके आरम्भोंसे तथा इस प्रकारके अशुभ कर्मोंके संचयसे कालमासमें काल करके चौथी पङ्कप्रभा नामक पृथ्वी ( नरक ) में हेमाभ नामक नरकावासमें नैरयिक होकर उत्पन्न हुआ।
हे भदन्त ! काल कुमार चौथी पृथ्वी ( नरक .) से निकलकर कहाँ जायगा ? और कहाँ उत्पन्न होगा ? हे गौतम ! काल कुमार महाविदेह क्षेत्रमें जाकर आढ्य (ऋद्धि-सम्पत्तिसे भरपूर ) कुलमें उत्पन्न होगा । और दृढप्रतिज्ञके समान ही सिद्ध होगा, बुद्ध होगा, मुक्त होगा और सब दुःखोंका अन्त करेगा ।
हे जम्बू ! इस प्रकार सिद्धगति स्थानको प्राप्त श्रमण भगवान महावीरने निरयावलिकाके प्रथम अध्ययनका यह भाव प्ररूपित किया है, अर्थात् भगवानके मुखसे जैसा मैंने सुना वैसा ही तुम्हें कहता हूँ ॥ ४५ ॥
॥ श्री निरयावलिका सूत्रका प्रथम अध्ययन समाप्त ॥१॥ હે ગૌતમ! તે કાલકુમાર આવા પ્રકારના આરંભેથી તથા આવા પ્રકારનાં અશુભ કાર્યોના સંચયથી કાલને વખતે કોલ કરીને એથી પંકપ્રભા નામની પૃથ્વી (નરક) માં હેમાભ નામે નારકાવાસમાં નરયિક થઈ ઉત્પન્ન થયા.
मन्त! साभार याथा पृथ्वी (न२४) भांथा नीजी ४यां थे? અને કયાં ઉત્પન્ન થશે ? હે ગૌતમ! કાલકુમાર મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં જઈ આઢય (દ્ધિસમ્પત્તિથી ભરપૂર) કુળમાં ઉત્પન્ન થશે, અને દૃઢપ્રતિજ્ઞની પેઠેજ સિદ્ધ થશે, બુદ્ધ થશે, મુક્ત થશે અને તમામ બેને અંત કરશે.
હે જબૂ! આ પ્રકારે સિદ્ધગતિ સ્થાનને પ્રાપ્ત કરેલા એવા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે નિરયાવલિકાના પ્રથમ અધ્યયનને આ ભાવ પ્રરૂપિત કર્યો છે અથૉત્ ભગવાનના મુખેથી જેમ મેં સાંભળ્યું તેમ મેં તમને કહ્યું છે. (૪૫)
શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્રનું પ્રથમ અધ્યયન સમાપ્ત. (૧)
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२१६
निरयावलिकासत्र
मूलम्जइ णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं निरयावलियाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते, दोच्चस्स णं भंते अज्झयणस्स निरयावलियाणं समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं के अढे पन्नत्ते ? एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नगरी होत्था । पुन्नभद्दे चेइए । कोणिए राया । पउमावई देवी । तत्थ णं चंपाए नयरीए सेणियस्स रन्नो भज्जा कोणियस्य रन्नो चुल्लमाउया सुकाली नामं देवी होत्था, सुकुमाला। तीसे णं सुकालीए देवीए पुत्ते सुकाले नामं कुमारे होत्या, सुकुमाले । तएणं से मुकाले कुमारे अन्नया कयाइ तिहिं दंतिसहस्सेहिं जहा कालो कुमारो निरवसेसं तं चेव जाव महाविदेहे वासे अंतं काहिइ ॥१॥
॥ वोयं अज्झयणं समत्तं ॥२॥
छाया
यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन यावत्संप्राप्तेन निरयावलिकानां प्रथमस्याध्ययनस्यायमर्थः प्रज्ञप्तः, द्वितीयस्य खलु भदन्त ! अध्ययनस्य निरयावलिकानां श्रमणेन भगवता यावत्संमान्लेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? एवं खलु जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये चम्पा नाम नगरी अभूत् । पूर्णभद्रश्चैत्यः। कूणिको राजा। पद्मावती देवी । तत्र खलु चम्पायां नगया श्रेणिकस्य राज्ञो भार्या कूणिकस्य राज्ञः क्षुल्लमाता सुकाली नाम देव्यभूतू, सुकुमारा । तस्याः खलु मुकाल्या देव्याः पुत्रः सुकालो नाम कुमारोऽभूत, सुकुमारः। ततः खलु स मुकालः कुमारः अन्यदा कदाचित् त्रिभिर्दन्तिसहस्रैर्यथा कालः कुमारः, निरवशेषं तदेव यावन्महाविदेहे वर्षेऽन्तं करिष्यति ॥ १॥
॥ द्वितीयमध्ययनं समाप्तम् ॥२॥
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सुन्दरबोधिनी टोका अभ्य. २ सुकालकुमार
२१७ एवं सेसा वि अट्ठ अज्झयणा नेयव्वा पढमसरिसा, गवरं मायाओ सरिसणामाओ ॥१०॥ निक्खेवो सव्वेसिं जाणियन्वो तहा ॥
निरयावलियाओ समत्ताओ ।
॥ पढमो वग्गो समत्तो ॥१॥ एवं शेषाण्यप्यष्टाध्ययनानि ज्ञातव्यानि प्रथमसदृशानि । नवरं मातरः सदृशनाम्न्यः ॥ १० ॥ निक्षेपः सर्वेषां भणितव्यस्तथा ॥ निरयावलिकाः समाप्ताः । ॥ प्रथमो वर्गः समाप्तः ॥ १॥
टीका'जइणं भंते' इत्यादि । सदृशनाम्न्यः पुत्रसदृशनाम्न्यः । शेष निगदसिद्धम् ॥
॥ इति निरयावलिकासूत्रे टीकायां प्रथमो वर्गः समाप्तः ॥१॥
निरयावलिका सूत्रका द्वितीय अध्ययन 'जइणं भंते' इत्यादि. भदन्त ! सिद्धि स्थानको प्राप्त श्रमण भगवान महावीरने निरयावलिकाके प्रथम अध्ययनका पूर्वोक्त अर्थ बतलाया है।
तो हे भगवन् ! फिर द्वितीय अध्ययनमें उन्होंने किस भावका निरूपण किया है ?
નિયાવલિકા સૂત્રનું દ્વિતીય અધ્યયન 'जाणं भंते ' ४त्या.
હે ભદન્ત! સિદ્ધિ સ્થાનને પ્રાપ્ત થયેલા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે નિરયાવલિકાના પ્રથમ અધ્યયનને પૂર્વોક્ત અર્થ બતાવ્યું છે. તો હે ભગવન ! પછી દ્વિતીય અધ્યયનમાં તેમણે કયા ભાવનું નિરૂપણ કર્યું છે?
२८
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२१८
निरयावलिकासत्र __ हे. जम्बू ! उस काल उस समयमें चम्पा नामकी नगरी थी। उस नगरीमें पूर्णभद्र नामका चैत्य था। और उस नगरीका राजा कूणिक था। उसकी रानी पद्मावती थी। उस चम्पानगरीमें श्रेणिक राजाकी पत्नी राजा कूणिककी छोटी माता सुकाली नामको रानी थी, जो अत्यन्त सुकुमार थी। उस सुकाली देवीका पुत्र सुकाल नामक कुमार था जो अत्यन्त सुकुमार था। उसके बाद वह सुकाल कुमार किसी एक समयमें तीन २ हजार हाथी, घोडे, रथ तथा तीन करोड पैदल सैनिकोंके साथ राजा कूणिकके रथमुशल संग्राममें लडनेके लिये गया और वह काल कुमारके समान ही अपनी सभी सेनाके नष्ट हो जानेके बाद मारा गया। मरकर काल कुमारके समान ही नरकमें गया और वहाँसे निकलकर महाविदेह क्षेत्रमें जन्म लेकर काल कुमारके समान सिद्ध होगा यावत् सब दुःखोंका अन्त करेगा।
। द्वितीय अध्ययन समाप्त हुआ।
હે જબૂ! તે કાલ તે સમયે ચંપા નામની નગરી હતી, તે નગરીમાં પૂર્ણભદ્ર નામને ચિત્ય હતું. અને તે નગરને રાજા કૃણિક હતો તેની રાણી પદ્માવતી હતી. તે ચંપા નગરીમાં શ્રેણિક રાજાની પત્ની રાજા કૃણિકની નાની માતા સુકાલી નામની રાણી હતી જે અત્યંત સુકુમાર હતી. તે સુકાવી દેવીને પુત્ર સુકાલ નામને કુમાર હતા જે અત્યંત સુકુમાર હતા. ત્યાર પછી તે સુકાલ કુમાર કેઈ એક સમયમાં ત્રણ ત્રણ હજાર હાથી ઘોડા રથ તથા ત્રણ કરોડ પાયદળ સૈનિકે સાથે રાજા કૃણિકના રથમુશલ સંગ્રામમાં લડવા માટે ગયે. અને તે કાલકુમારની સમાન જ પિતાની તમામ સેના નષ્ટ થઈ ગયા બાદ માર્યો ગયે. મરીને કાલકુમારની પેઠે જ નરકમાં ગયે અને ત્યાંથી નીકળી મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં જન્મ લઈ કાલકુમારની જેમ સિદ્ધ થશે અને તમામ દુઃખને અંત કરશે.
દ્વિતીય અધ્યયન સમાપ્ત થયું,
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सुन्दरबोधिनी टीका अध्य. ३-१० महाकालादि आठ कुमार
२१९ इसी प्रकार-प्रथम अध्ययनके सदृश शेष आठ अध्ययनोंको भी जानना चाहिये। विशेष इतना ही है कि माताओंका नाम कुमारोंके नामके समान है ॥१०॥
सभीका निक्षेप अर्थात् उपसंहार पहिले अध्ययनके समान ही समझना चाहिये । इति । निरयावलिका समाप्त हुई।
निरयावलिकानामक प्रथम वर्ग समाप्त ॥१॥
આ પ્રકારે–પ્રથમ અધ્યયનના જેમ બાકીનાં આઠ અધ્યયનેને પણ જાણવા જોઈએ. વિશેષ એટલું જ છે કે માતાઓનાં નામ કુમારના નામના જેવો જ છે.
બધાંને નિક્ષેપ અર્થાત ઉપસંહાર પહેલા અધ્યયનના સમાનજ સમજી લેવો જોઈએ. ઈતિ. નિરયાવલિકા સમાપ્ત થઈ
નિરયાવલિકા નામક પ્રથમ વર્ગ સમાપ્ત. (૧)
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२२०
कल्पावतंसिकासत्र ॥ अथ कल्पावतंसिका नाम द्वितीयो वर्गः॥
मूलम्जइणं भंते ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं उवंगाणं पढमस्स वग्गस्स निरयावलियाणं अयमढे पन्नत्ते, दोच्चस्स णं भंते ! वग्गस्स कप्पवडिंसियाणं समणेणं जाव संपत्तेणं कइ अज्झयणा पन्नत्ता ? ।
एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं कप्पवडिसियाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता, तंजहा-पउमे १ महापउमे २ भद्दे ३ सुभदे ४ पउमभद्दे ५ पउमसेणे ६ पउमगुम्मे ७ नलिणिगुम्मे ८ आणंदे ९ नंदणे १० । जइणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं कप्पवडिसियाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता, पढमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स कप्पवडिसियाणं समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं के अटे पन्नत्ते ? । एवं खलु जंबू ! तेणं
छायायदि खलु भदन्त ! श्रमणेन भगवता यावत् संप्राप्तेन उपाङ्गानां प्रथमस्य वर्गस्य निरयावलिकानामयमर्थः प्रज्ञप्तः, द्वितीयस्य खलु भदन्त ! वगस्य कल्पावतंसिकानां श्रमणेन यावत् संप्राप्तेन कति अध्ययनानि मज्ञप्तानि ?
एवं खलु जम्बूः ! श्रमणेन भगवता यावत् संप्राप्तेन कल्पावतंसिकानां दश अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा-पद्मः १ महापद्मः २ भद्रः ३ सुभद्रः ४ पद्मभद्रः ५ पद्मसेनः ६ पद्मगुल्मः ७ नलिनीगुल्मः ८ आनन्दः ९ नन्दनः १० । यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन यावत् संप्राप्तेन कल्पावतंसिकानां दश अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, प्रथमस्य खलु भदन्त ! अध्ययनस्य कल्पावतंसिकानां श्रमणेन भगवता यावत् सम्प्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? एवं खलु जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये चम्पा नाम नगरी
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२२१
मुन्दरबोधिनी टोका वर्ग २ अध्य. १ पनकुमार कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी होत्था । पुन्नभद्दे चेइए । कूणिए राया। पउमावई देवी । तत्थ णं चंपाए नयरीए सेणियस्स रनो भज्जा कूणियस्स रन्नो चुल्लमाउया काली नामं देवी होत्था, सुकुमाल० । तीसेणं कालीए देवीए पुत्ते काले नाम कुमारे होत्था, सुकुमाल० । तस्स णं कालस्स पउ. मावई नामं देवी होत्था, सोमाल० जाव विहरइ ।
___ तए णं सा पउमावई देवी अन्नया कयाइं तंसि तारिसगंसि वासघरंसि अभितरओ सचित्तकम्मे जाव सीहं सुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा। एवं जम्मणं जहा महाबलस्स, जाव नामधिज्जं, जम्हाणं अम्हं इमे दारए कालस्स कुमारस्स पुत्ते पउमावईए देवीए अत्तए तं होउ णं अम्हं इमस्स दारगस्स नामधिजं पउमे सेसं जहा महब्बलस्स अट्ठओ दाओ जाव उप्पि पासायवरगए विहरइ ॥ १॥
अभवत् । पूर्णभद्रं चैत्यं, कूणिको राजा, पद्मावती देवी । तत्र खलु चम्पायां नगर्यो श्रेणिकस्य राज्ञो भार्या कूणिकस्य राज्ञो लघुमाता काली नाम देवी अभवत् । सुकुमार० । तस्याः खलु देव्याः पुत्रः कालो नाम कुमारोऽभवत् । मुकुमार० । तस्य खलु कालस्य कुमारस्य पद्मावती नाम देवी अभवत् । सुकुमार० यावत् विहरति ।।
ततः खलु सा पद्मावती देवी अन्यदा कदाचित् तस्मिन् तादृशे वासगृहे अभ्यन्तरतः सचित्रकर्मणि यावत् सिंहं स्वप्ने दृष्ट्वा खलु प्रतिबुद्धा। एवं जन्म यथा महाबलस्य यावत् नामधेयं, यस्मात् खलु अस्माकमयं दारकः कालस्य कुमारस्य पुत्रः पद्मावत्या देव्या आत्मजः तद् भवतु खलु अस्माकम् अस्य दारकस्य नामधेयं पयः । शेषं यथा महाबलस्य अष्ट दायाः यावत् उपरि प्रासादवरमतो विहरति ॥१॥
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२२२
२ कल्यावतंसिकासूत्र
टीका'जइणं भंते' इत्यादि-कूणिकराजलघुभ्रातः कालकुमारस्य पद्मावती नाम भार्या अन्यदा कदाचित् अभ्यन्तरतः अभ्यन्तरभागे सचित्रकर्मणि-विचित्रचित्रकर्मयुक्त तस्मिन् तादृशे वासगृहे-निजप्रासादे सुप्तनाग्रदवस्थायां तन्द्रायां स्वप्ने सिंहं दृष्ट्वा प्रतिबुद्धा जागरिता । शेषं सुगमम् ॥१॥
____ कल्पावतंसिका नामक द्वितीय वर्ग. ' जइणं भंते ' इत्यादि
हे भदन्त ! यदि मोक्षप्राप्त श्रमण भगवान् महावीरने निरयावलिका नामक उपाङ्गके प्रथम वर्ग में पूर्वोक्त अभिप्रायका वर्णन किया है तो इसके बाद भगवानने द्वितीय वर्ग-कल्पावतंसिकामें कितने अध्ययनोंका वर्णन किया है ? ___ सुधर्मा स्वामी कहते हैं
हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीरने कल्पावतंसिकामें दस अध्ययनोंका निरूपण किया है उनके नाम इस प्रकार हैं:
કલ્પાવતસિકા નામને દ્વિતીય વર્ગ 'जइणं भंते ' Vत्या.
હે ભદન્ત ! જે મેક્ષ પ્રાપ્ત શ્રવણુભગવાન મહાવીરે નિરયાવલિકા નામે ઉપાંગના પ્રથમ વર્ગમાં પૂર્વોક્ત અભિપ્રાયનું વર્ણન કર્યું છે તે ત્યાર પછી તેમણે બીજા વર્ગ કલ્પાવતંસિકામાં કેટલા અધ્યયનનું વર્ણન કર્યું છે?
श्री सुधर्मा स्वामी ४ छ:
હે જગ્ગ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે કલ્પાસિકામાં દશ અધ્યયનને નિરૂપણ કર્યું છે. તેમનાં નામ આ પ્રમાણે છે –
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सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग २ अध्य.१पद्मकुमार
२२३
(१) पद्म (२) महापद्म ( ३ ) भद्र (४) सुभद्र (५) पद्मभद्र (६) पद्मसेन (७) पद्मगुल्म (८) नलिनीगुल्म (९) आनन्द और (१०) नन्दन ।
श्री जम्बू स्वामी पूछते हैं:
हे भगवन् ! श्रमण भगवान महावीरने कल्पावतंसिकामें दस अध्ययनोंका निरूपण किया है। उसके प्रथम अध्ययनमें किस भावका निरूपण किया है ?
सुधर्मा स्वामी कहते हैं
हे जम्बू ! उस काल उस समयमें चम्पा नामकी नगरी थी। वहा पूर्णभद्र चैत्य था । उसनगरीमें कूणिक राजा राज्य करता था उसके पद्मावती नामकी रानी थी। उस चम्पानगरीमें राजा श्रेणिककी पत्नी महाराज कूणिककी छोटी माता काली नामकी रानी थी जो अत्यन्त सुकुमार थी। उस रानीके एक कालकुमार नामका
(१) ५ (२) मा५५ (3) म (४) सुभद्र (५) ५ (6) सेन (७) पशुम (८) नलिनीम (८) भान भने (१०) नन.
જમ્મુ સ્વામી પૂછે છે
હે ભગવન ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે કપાવલંસિકામાં દશ અધ્યયનનું નિરૂપણ કર્યું છે. તેના પ્રથમ અધ્યયનમાં કયા ભાવનું નિરૂપણ કર્યું છે?
સુધર્મા સ્વામી કહે છે –
હે જમ્બ! તે કાલે તે સમયે ચંપા નામની નગરી હતી, તેમાં પૂર્ણભદ્ર ચિત્ય હતું. તે નગરીમાં કૃણિક રાજા રાજ્ય કરતા હતા. તેમને પદ્માવતી નામની રાણી હતી, તે ચંપાનગરીમાં રાજા શ્રેણિકની પત્ની મહારાજ કુણિકની નાની માતા કાલી નામની રાણી હતી જે અત્યંત સુકુમાર હતી તે રાણીને એક કાલકુમાર નામને પુત્ર હતું, તે કાલકુમારની પત્ની પદ્માવતી દેવી જે બહુ સ્વરૂપ
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--२२१
२ कल्पावतंसिकासूत्र
पुत्र था। उस कालकुमारकी पत्नी पद्मावती देवी जो अत्यन्त सुरूपा थी, वह पूर्वोपार्जित पुण्यसे मिले हुए मनुष्य सुखका अनुभव करती रहती थी।
उसके बाद एक दिन वह पद्मावती देवी अपने अत्युत्तम वासगृहमें सोयी हुई थी। उसके वासगृहकी दिवाले अत्यन्त मनोहर चित्रोंसे चित्रित थीं। उस घरमें अपनी कोमल शय्यापर सोती हुई उस रानीने स्वप्नमें सिंहको, देखा । स्वप्न देखनेके बाद वह जाग गयी। बादमें उसे स्वप्न दर्शनके अनुसार शुभ लक्षणवाला पुत्र हुआ । उसका जन्मसे लेकर नामकरण पर्यन्त समी कृत्य महाबल कुमारके सदृश जानना । वह काल कुमारका पुत्र और पद्मावती देवीका अङ्गजात होनेसे उसका नाम पद्म रखा गया। इसके बादका सभी वृत्तान्त महाबलके सदृश जानना चाहिये । उसे आठ २ दहेज मिला । वह अपने ऊपरी महलमें सभी प्रकारके मनुष्यसम्बन्धी सुखोंका अनुभव करता हुआ निवास करता था ॥ १ ॥
વાન હતી. તે પૂર્વ ઉપાર્જીત પુણ્યથી મળેલા મનુષ્ય સુખને અનુભવ કરતી २ती ती.
ત્યાર પછી એક દિવસ તે પદ્માવતી દેવી પિતાના અતિ ઉત્તમ વાસગૃહમાં સુતી હતી. તે વાસગૃહની ભીંતે અત્યંત મનોહર ચિથી ચીતરાયેલી હતી. તે ઘરમાં પિતાની કોમલ શય્યામાં સુતેલી તે રાણીએ સ્વપ્નામાં સિંહને જે. સ્વપ્ન દીઠા પછી તે જાગી ગઈ. પછી તેને સ્વપ્નદર્શનને અનુસરીને શુભ લક્ષણવાળે પુત્ર થયે. તેના જન્મથી માંડી નામકરણ સુધીનાં કર્મો મહાબલ કુમારના જેવાજ જાણવાં. તે કાલકુમારને પુત્ર તથા પદ્માવતી દેવીની કુખે જન્મેલે હોવાથી તેનું નામ પદ્મ રાખવામાં આવ્યું. ત્યાર પછીને સર્વ વૃત્તાન્ત મહાબતની પેઠે જાણવું જોઈએ. તેને આઠ આઠ દહેજ મળ્યા અને તે પિતાના ઉપલા મહેલમાં તમામ પ્રકારનાં મનુષ્યસબંધી સુખે ભગવતે તેમાં રહેતું હતું. ૧
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पुन्दरबोधिनी टोका वर्ग २ अध्य. १ पद्मकुमार
सामी समोसरिए । कूणिए निग्गए । पउमेवि जहा महब्बले निग्गए तहेव अम्मापिइ-आपुच्छणा जाव पव्वइए अणगारे जाए जाव गुत्तबंभयारी ।
तएणं से पउमे अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाइं एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, अहिजित्ता बहूहिं चउत्थछट्ठम जाव विहरइ । तएणं से पउमे अणगारे तेणं ओरालेणं जहा मेहो तहेव धम्मजागरिया चिंता एवं जहेव मेहो तहेव समणं भगवं आपुच्छित्ता विउले जाव पाओवगए समाणे तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाइं एक्कारस अंगाइ, बहुपडिपुण्णाइं पंच वासाइं सामनपरियाए, मासियाए संलेहणाए सहि भत्ताइं० आणुपुवीए कालगए । थेरा ओइन्ना भगवं गोयमो
छायाखामी समवसृतः। परिषद निर्गता । कणिको निर्गतः । पोऽपि यथा महाबलो निर्गतस्तथैव अम्बापित्रापृच्छना यावत् प्रव्रजितोऽनगारो जातो यावत् गुप्तब्रह्मचारी।
___ ततः खलु स पद्मोऽनगारः श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य तथारूपाणां स्थविराणाम् अन्तिके सामायिकादिकानि एकादशाङ्गानि अधीते । अधीत्य बहुभिः चतुर्थषष्ठाष्टम० यावद् विहरति । ततः स पद्मोऽनगारो तेन उदारेण यथा मेघस्तथैव धर्मजागरिका, चिन्ता, एवं यथैव मेघस्तथैव श्रमणं भगवन्तमापृच्छय विपुले यावत् पादपोपगतः सन् तथारूपाणां स्थविराणाम् अन्तिके सामायिकादिकानि एकादशाङ्गानि, बहुमतिपूर्णानि पञ्च वर्षाणि श्रामण्यपर्यायः । मासिक्या संलेखनया षष्ठि भक्तानि० आनुपूर्व्या कालगतः।
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२२६
कल्पावतंसिकासत्र
पुच्छइ, सामी कहेइ जाव सहि भत्ताई अणसणाए छेदित्ता आलोइय० उड्डू चंदिम० सोहम्मे कप्पे देवत्ताए उववन्ने, दो सागराइं । से णं भंते ! पउमे देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं पुच्छा, गोयमा ! महाविदेहे वासे जहा दढपइन्नो जाव अंतं काहिइ । तं एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं कप्पवडिसियाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते तिबेमि ॥२॥
॥पढममज्झयणं समत्तं ॥ स्थविरा अवतीर्णा भगवान् गौतमः पृच्छति; स्वामी कथयति यावत् षष्टिं भक्तानि अनशनेन छित्त्वा आलोचित० अर्ध्वं चन्द्रमः० सौधर्मे कल्पे देवत्वेन उपपन्नः । द्वौ सागरौ । स खलु भदन्त ! पद्मो देवस्ततो देवलोकाद् आयुःक्षयेण पृच्छा गौतम ! महाविदेहे वर्षे यथा दृढपतिज्ञो यावदन्तं करिष्यति । तदेवं खलु जम्बूः ! श्रमणेन यावत् संप्राप्तेन कल्पावतंसिकानां प्रथमस्याध्ययनस्य अयमर्थः प्रज्ञप्तः । इति ब्रवीमि ॥२॥
॥ प्रथममध्ययनं समाप्तम् ॥
टीका'सामी' इत्यादि-स्थविरा अवतीर्णाः विपुलगिरितोऽधस्तादागताः। शेषं सुगमम् ॥२॥
॥प्रथममध्ययनं समाप्तम् ॥ 'सामी समोसरिए ' इत्यादि
भगवान महावीर प्रभु पधारे, परिषद धर्म श्रवण करनेके लिये निकली। कूणिक राजा भी धर्मोपदेश सुननेके लिए निकला, कुमार पद्म भी महाबलके समान __'सामी समोसरिए ' प्रत्याहि. - ભગવાન મહાવીર પ્રભુ પધાર્યા. પરિષદુ ધર્મ શ્રવણ કરવા માટે નિકળી. કણિક રાજા પણ ધર્મોપદેશ સાંભળવા માટે નિકળ્યા. કુમાર પદ્ધ પણ મહાબલની પેઠ
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सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग २ अभ्य. १ पद्म अनगार
२२७
भगवानके पास गया । वहाँ भगवानके उपदेशसे उसे वैराग्य हो गया । उसने महाबलके समान ही माता पितासे प्रव्रज्याकी अनुमति माँगी । तथा अन्तमें उसने प्रव्रज्या लेली और अनगार हो गया यावत् गुप्त बह्मचारी हो गया ।
उसके बाद वे पद्म अनगार श्रमण भगवान महावीरके तथारूप स्थविरोंके समीप सामायिक आदि . ग्यारह अंगोंका अध्ययन किया । और बहुत सी चतुर्थ षष्ठ आदि तपस्या की । अनन्तर वे पद्म अनगार उदार - कठिन तपश्चर्या करनेसे तपः कर्मके आराधनके कारण उनका शरीर शुष्क - रूक्ष हो गया। मांस शोणितके सूख जाने के कारण इतने कृश हो गये कि उनके शरीरमें हड्डी और चमडा मात्र रह गया और उनकी सभो नसें दिखाई देने लगी । इसका विशेष वर्णन मेघ कुमारके समान जानना । मेघ कुमारके समान ही इनने धर्मजागरणा की और विपुल गिरि पर जाने आदिका विचार किया और मेघ कुमारके समान ही विपुल गिरिपर जाने के लिये भगवानसे पूछा पूछकर स्वयं पुनः पञ्च महाव्रत ग्रहण किया । गौतम आदि ભગવાનની પાસે ગયા. ત્યાં ભગવાનના ઉપદેશથી તેને વૈરાગ્ય થઈ ગયા. તેણે મહાબલની પેઠેજ માતા પિતા પાસે પ્રત્રજયાની રજા માગી તથા છેવટે તેણે પ્રત્રજયા (દીક્ષા) લીધી અને અનગાર (ગૃહત્યાગી) થઈ ગુપ્ત બ્રહ્મચારી થઇ ગયા
ત્યાર પછી તે પદ્મ અનગારે ( ગૃહત્યાગી ) શ્રમણુ ભગવાન મહાવીરના તથારૂપ સ્થવિરાની પાસે સામાયિક આદિ અગીયાર અગાનું અધ્યયન કર્યું અને અહુ રીતની ચતુર્થ તથા છઠ આદિ (૧–૨ ઉપવાસ ) તપસ્યા કરી. પછી તે પદ્મ અનગારે ઉદ્વાર કઠિન તપસ્યા કરવાથી તપ: કર્મનું આરાધન કરવાના કારણે તેમનું શરીર સુકાઈ ગયું, રૂક્ષ થઇ ગયું. લેાહી માંસ સુકાઈ જવાના કારણે એટલા કુશ (નખળા) થઈ ગયા કે તેમના શરીરમાં હાડકાં તથા ચામડાં માત્ર રહી ગયાં અને તેમની બધી નસા દેખાવા લાગી. આનું નિશેષ વર્ણન મેઘકુમારના જેવું જાણવું. મેઘકુમારની પેઠેજ તેમણે ધર્મ જાગરણા કરી તથા વિપુલગિરિ ઉપર જવા આદિના વિચાર કર્યા તથા મેઘકુમારની પેઠેજ વિપુલ ગિરિપર જવા માટે ભગવાનને પૂછ્યું. પૂછીને પાતે ફરીને પંચ મહાવ્રત ગ્રહણ કર્યાં. ગૌતમ આદિ શ્રમણ નિગ્રન્થાનાં
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२२८
२ कल्पावतंसिकासूत्र श्रमण निम्रन्थोंको तथा निम्रन्थियोंको समाकर स्थविरोंके साथ धीरे २ विपुल गिरि पर चढे । और वहाँ सविधि पादपोपगमन संथारा स्वीकारकर कालकी इच्छा नही करते हुए रहने लगे। और वे पद्म अनगार स्थविरोंके समीप ग्यारह अङ्गोंका अध्ययन किया और पूरे पाँच वर्षकी दीक्षापर्याय पाली ।
___एक मासकी संलेखनासे साठ भक्तका छेदनकर अनुक्रमसे कालको प्राप्त हो गये । उनके कालप्राप्त करनेके बाद स्थविर लोग उन पद्म अनगारके भाण्डोपकरण लेकर भगवानके पास आये उनके आनेके बाद गौतमने भगवानसे पूछा-हे भगवन् ! ये पद्म अनगार काल करके कहाँ गये ?
भगवानने कहा-हे गौतम ! पद्म अनगार पूर्वोक्त प्रकारसे एक महीनेका सन्थारा कर और आलोचित प्रतिक्रान्त होकर अर्थात् आत्मशुद्धि करके काल अवसर काल प्राप्त होकर चन्द्रमासे ऊपर सौधर्म कल्पमें दो सागरकी स्थितिवाले देवपनेमें उत्पन्न हुए।
તથા નિત્થીઓને ખમાવીને વિરેની સાથે ધીરે ધીરે વિપુલગિરિ પર ચડયા અને ત્યાં વિધીસર પાદપપગમન સંથારે સ્વીકાર કરી મરણની ઈચ્છા વગર રહેવા લાગ્યા, તથા તે પદ્ધ અનગાર સ્થવિરેની પાસે અગીયાર અંગોનું અધ્યયન કર્યું અને પૂરા પાંચ વર્ષની દીક્ષા પર્યાય પાળી.
એક મહિનાની સંખનાથી સાઠ ભક્તનું છેદન કરી અનુક્રમે કાલને પ્રાપ્ત થયા. તેમના કાલ પ્રાપ્ત કર્યા પછી સ્થવિર લોક તે પદ્મ અનગારના ભાંડેપકરણ લઈને ભગવાનની પાસે આવ્યા. તેના આવ્યા પછી ગૌતમે ભગવાનને પૂછ્યું–હે ભગવન! આ પદ્ધ અનગાર કાલ કરીને કયાં ગયા?
ભગવાને કહ્યું હે ગૌતમ! પ અનગર પૂર્વોક્ત પ્રકારે એક મહિનાને સંથારે કરી તથા આચિત પ્રતિક્રાન્ત થઈ અર્થાત્ આત્મશુદ્ધિ કરી કાલને અવસરે કાલ પ્રાપ્ત થઈ ચંદ્રમાની ઉપર સૌધર્મ કલ્પમાં બે સાગરની સ્થિતિવાળા દેવ ઉત્પન્ન થયા.
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सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग २ अध्य. २ महापद्मकुमार
मूलम् —
जइणं भंते ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं कप्पवडिसियागं पढमस्स अज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, दोच्चस्स णं भंते ! अज्झयणस्स के अट्ठे पण्णत्ते ? एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं २ चंपा नामं
२२
छाया
यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन भगवता यावत् संप्राप्तेन कल्पावतंसिकानां प्रथमस्याsध्ययनस्य अयमर्थः प्रज्ञप्तः । द्वितीयस्य खलु भदन्त ! अध्ययनस्य कोऽर्थः प्रज्ञप्त ? एवं खलु जम्बू ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये चम्पा नाम नगरी अभवत् पूर्णभद्रं चैत्यं, कूणिको
हे भदन्त ! वह पद्म देव देवसम्बन्धी आयु भव स्थितिके क्षय होजानेके बाद, देवलोक से चवकर कहाँ जायगा ।
हे गौतम ! वह देवलोक से चवकर महाविदेह क्षेत्रमें दृढ प्रतिज्ञके समान समृद्ध कुलमें जन्म लेकर सिद्ध होगा और सब दुःखों का अन्त करेगा ।
हे जम्बू ! इस प्रकार मोक्षप्राप्त श्रमण भगवान महावीरने कल्पावतंसिकाके प्रथम अध्ययनका यह भाव निरूपण किया है । ॥२॥
| प्रथम अध्ययन समाप्त ।
હે ભદન્ત ! તે પદ્મદેવ દેવસબંધી આયુ, ભવ સ્થિતિનેા ક્ષય થઈ ગયા પછી દેવલાકથી વ્યવીને કયાં જશે ?
હું ગૌતમ ! તે દેવલાકથી ચ્યવીને મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં દઢપ્રતિજ્ઞની રીતે સમૃદ્ધ કુલમાં જન્મ લઈ સિદ્ધ થશે અને તમામ દુ:ખના અંત કરશે.
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હે જમ્મૂ ! આ પ્રકારે મેાક્ષપ્રાપ્ત શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે કલ્પાવતસિકાના પ્રથમ અધ્યયનનું આ ભાવ નિરૂપણ કર્યું છે. ॥ ૨ ॥
પ્રથમ અધ્યયન સમાસ:
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:२३०
निरयावलिकासत्र. नयरी होत्या, पुन्नभद्दे चेइए, कूणिए राया, पउमावईदेवी । तत्य णं चंपाए नयरीए सेणियस्स रनो भजा कूणियस्स रनो चुल्लमाउया मुकाली नामं देवी होत्था । तीसे णं सुकालीए पुत्ते सुकाले नामं कुमारे । तस्स गं मुकालस्स कुमारस्य महापउमा नाम देवी होत्था, सुकुमाला ।
तए णं सा महापउमा देवी अन्नया कयाई तसि तारिसगंसि एवं तहेव महापउमे नामं दारए, जाव सिज्झिहिइ, नवरं ईसाणे कप्पे उववाओ उक्कोसटिइओ । तं एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं० । एवं सेसा वि अट्ट नेयव्वा । मायाओ सरिसनामाओ । कालादीणं दसण्हं पुत्ताणं आणुपुवीए-दोण्हं च पंच चत्तारि, तिण्हं तिण्हं च होति तिन्नेव । दोण्हं च दोणि वासा, सेणियनत्तूण परियाओ ॥१॥
राजा, पद्मावती देवी । तत्र खल चम्पायां नगीं श्रेणिकस्य राज्ञो भार्या कूणिकस्य राज्ञो लघुमाता सुकाली नाम देवी अभवत् । तस्याः खलु मुकाल्याः पुत्रः सुकालो नाम कुमारः, तस्य खलु मुकालस्य कुमारस्य महापद्मा नाम देवी अभवत् , सुकुमारा ।
ततः खलु सा महापद्मा देवी अन्यदा कदाचित् तस्मिन् वादृशे एवं तयैव महापद्मो नाम दारका यावत् सेत्स्यति नवरमीशानकल्पे उपपातः उत्कृष्टस्थितिकः । एवं खलु जम्बुः ! श्रमणेन भगवता यावत् संप्राप्तेन । ‘एवं शेषाण्यपि अष्टौ ज्ञातव्यानि, मातरः सदृशनाम्न्यः कालादीनां दशानां पुत्राणामानुपूर्व्या-(व्रतपर्यायः)
द्वयोश्च पञ्च चबारि, त्रयाणां त्रयाणां च भवन्ति त्रीण्येव । द्वयोश्च हे वर्षे, श्रेणिकनप्तॄणां पर्यायः ॥१॥
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सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग २ अध्य. ३-१० भद्रकुमारादि ८
२३१ उववाओ आणुपुवीए, पढमो सोहम्मे बितिभो ईसाणे, तइओ सणंकुमारे, चउत्थो माहिंदे, पंचमओ बंभलोए, छटो लंतए, सत्तमओ महामुक्के, अट्ठमओ सहस्सारे, नवमओ पाणए, दसमओ अच्चुए । सव्वत्थ उक्कोसहिई भाणियव्वा, महाविदेहे सिज्झिहिइ १० ॥३॥
उपपात आनुपूर्व्या-प्रथमः सौधर्मे, द्वितीय ईशाने, तृतीयः सनत्कुमारे, चतुर्थों माहेन्द्रे, पञ्चमो ब्रह्मलोके, षष्ठो लान्तके, सप्तमो महाशुक्र, अष्टमः सहस्रारे, नवमः प्राणते, दशमोऽच्युते । सर्वत्र उत्कृष्टा स्थितिर्भणितव्या, महाविदेहे सेत्स्यति १० ॥३॥
टीका'जइणं भंते' इत्यादि । मातनामसदृशनामानः कालादीनां दशानां
द्वितीय अध्ययन प्रारम्भ। 'जइणं भंते' इत्यादिजम्बू स्वामी पूछते हैं
हे भदन्त ! मोक्षप्राप्त श्रमण भगवान महावीरने कल्पावतंसिकाके प्रथम अध्ययनके भावोंको पूर्वोक्त प्रकारसे निरूपण किया है तो इसके बाद हे भगवन् ! द्वितीय अध्ययनमें भगवान किन भावोंका निरूपण किया है ! ‘जइणं भंते ' त्यादि
द्वितीय (मान) अध्ययन र જખ્ખ સ્વામી પુછે છે –
હે ભદન્ત ! મોક્ષપ્રાપ્ત શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે કલ્પાવતસિકાના પ્રથમ અધ્યયનના ભાવને પૂર્વોક્ત પ્રકારે નિરૂપણ કર્યા છે. તે ત્યાર પછી હે ભગવની બીજા અધ્યયનમાં તેઓએ કયા ભાવનું નિરૂપણ કર્યું છે ?
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२ कल्पावतंसिकासत्र पुत्राः श्रेणिकपौत्राः पद्मादयः कियन्ति २ वर्षाणि संयमपर्यायं पालयामामुरिति क्रमेण व्रतपर्यायप्रतिपादिका तद्गाथा निगद्यते-'द्वयोश्चे'-त्यादि।
सुधर्मा स्वामी कहते हैं
हे जम्बू ! उस काल उस समयमें चम्पा नामकी नगरी थी। वहाँ पूर्णभद्र चैत्य था। वहाँका राजा कृणिक था। उसकी रानीका नाम पद्मावती था। उस चम्पानगरीमें राजा श्रेणिककी रानी महाराजा कूणिककी छोटी माता सुकाली नामकी रानी थी। उस सुकाली रानीका पुत्र सुकाल कुमार था। उस सुकाल कुमारकी पत्नी का नाम महापद्मा था, वह अत्यन्त सुकुमार थी ।
उसके बाद वह महापद्मा देवी किसी समय एक रातमें शय्यापर सोयी हुई थी। उसने स्वप्नमें सिंहको देखा ! और नौ महीनेके बाद उसे एक पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका नाम महापद्य रखा गया। इन महापद्म अनगारका उत्पत्तिसे लेकर सिद्धि तकका वृत्तान्त पद्म अनगारके समान ही जानना चाहिये । अर्थात्
શ્રી સુધર્મા સ્વામી કહે છે – - હું જબૂ! તે કાળે તે સમયે ચંપા નામે એક નગરી હતી. તે નગરીમાં પર્ણભદ્ર ચેત્ય હતા, ત્યાંને રાજા કૃણિક હતા. તેનો રાણીનું નામ પદ્માવતી હતું. તે ચંપાનગરીમાં રાજા શ્રેણિકની રાણી–મહારાજા કૃણિકની નાની માતા-સુકાલી નામે રાણી હતી. તે સુકાલી રાણીને પુત્ર કુમાર સુકાલ હતા તે સુકાલ કુમારની પત્નીનું નામ મહાપદ્મા હતું. તે બહુ સુકુમાર હતી.
ત્યાર પછી તે મહાપદ્મા દેવી કોઈ સમયે એક રાત્રિમાં જ્યારે શય્યા પર સુતી હતી ત્યારે તેણે સ્વપ્નામાં સિંહને છે. અને નવ મહિના પછી તેને એક પુત્ર ઉત્પન્ન થયે જેનું નામ મહાપ રાખવામાં આવ્યું. આ મહાપદ્ય અનગારની ઉત્પત્તિથી માંડીને સિદ્ધિ સુધીનું વૃત્તાન્ત પદ્ધ અનગારના જેવું જ જાણ લેવું જોઈએ. અર્થાત દેવકથી અવીને મહાવિદેહક્ષેત્રમાં સિદ્ધ થશે. એટલું
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सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग २ अध्य. ३-१० भद्रकुमारादि ८
अस्या अयमभिप्रायः - द्वयोः - काल - सुकाल - पुत्रयोः पद्म- महापद्मकुमारयोव्रतपर्यायः पञ्च पञ्च वर्षाणि, त्रयाणां = महाकाल - कृष्ण - सुकृष्णपुत्राणां-भद्रसुभद्र - पद्मभद्रकुमाराणां चखारि चलारि वर्षाणि व्रतपर्यायः, पुनस्त्रयाणां - महा
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२३३
देवलोक से च्यवकर महाविदेह क्षेत्रमें सिद्ध होंगे। इतना विशेष है कि ये महापद्म अनगार ईशान देवलोक में उत्कृष्ट स्थितिवाले देव हुए ।
हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर प्रभुने इस प्रकार द्वितीय अध्ययनका निरूपण किया है । वह जैसा भगवानसे सुना है वैसा तुम्हें कहा है ॥ २ ॥ हे जम्बू ! इसी प्रकार शेष आठ अध्ययनोंको जानना चाहिये । काल आदि दस कुमारों के पुत्रोंकी माताओंके नाम उन पुत्रोंके सदृश हैं। इन सबका चारित्रपर्याय अनुक्रमसे इस प्रकार है- काल सुकालके पुत्र पद्म महापद्म अनगारने पाँच २ वर्ष दीक्षा पर्याय पाली ।
महाकाल, कृष्ण और सुकृष्णके पुत्र भद्र, सुभद्र और पद्मभद्रने चार २ वर्ष, महाकृष्ण, वीरकृष्ण, रामकृष्णका पुत्र पद्मसेन पद्मगुल्म और नलिनीगुल्म अनવિશેષ છે કે તે મહાપદ્મ અનગાર ઇશાન દેવલેાકમાં ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિવાળા દેવ થયા.
હૈ જમ્મૂ 1 શ્રમણુ ભગવાન મહાવીર પ્રભુએ આ પ્રકારે ખીજા અધ્યયનનું નિરૂપણ કર્યું છે. તે જેવું ભગવાન પાસેથી સાંભળ્યું છે તેવુંજ મે તને કહ્યું છે. (૨)
30
હૈ જમ્મૂ ! આ પ્રકારે બાકીનાં આઠે અધ્યયનાને જાણી લેવાં જોઈએ. કાલ આદિ દશ કુમારીના પુત્રાની માતાના નામ તે પુત્રાના જેવાં છે. તે અષાનાં ચારિત્રપોય અનુક્રમથી આ પ્રકારે છે:-~~
કાલ સુકાલના પુત્ર પદ્મ મહાપદ્મ અનગારે પાંચ પાંચ વર્ષે દીક્ષાખોય પાળી. મહાકાલ, કૃષ્ણ તથા સુકૃષ્ણના પુત્ર ભદ્રં સુભદ્ર અને પદ્મભટ્ટે ચાર ચાર વર્ષ, મહાકૃષ્ણ, વીરકૃષ્ણ, રામકૃષ્ણના પુત્ર પદ્મસેન, પદ્મગુલ્મ અને નલિનીગુલ્મ
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-
२३४
... २ कल्पावतंसिकासूत्र कृष्ण-वीरकृष्ण-रामकृष्णपुत्राणां पद्मसेन-पद्मगुल्म-नलिनीगुल्मकुमाराणां त्रीणि त्रीणि वर्षाणि व्रतपर्यायः, पुनर्द्वयोः पितृसेनकृष्ण-महासेनकृष्णपुत्रयोः आनन्द-नन्दनकुमारयोः द्वे द्वे वर्षे । इत्यं श्रेणिकनप्तॄणां श्रेणिकपौत्राणां दशानामपि पर्यायः संयमपर्यायो ज्ञातव्यः । आनुपूर्व्या-क्रमेण उपपातः= देवलोकेषु जन्म प्रोच्यते-प्रथमः पद्मः १ सौधर्मे सौधर्माख्यप्रथमदेवलोके उत्कृष्टद्विसागरोपमस्थितिको देवो जातः । एवं द्वितीयः महापद्मः २ ईशाने द्वितीये देवलोके उत्कृष्टेन किंचिदधिकद्विसागरोपमस्थितिकोऽभूत् । तृतीयः= भद्रो मुनिः ३ सनत्कुमारे तृतीये देवलोके उत्कृष्ट सप्तसागरोपमस्थितिकः, चतुर्थः-सुभद्रो मुनिः ४ माहेन्द्रे चतुर्थे देवलोके उत्कृष्टेन किंचिदधिकसप्तगारोंने तीन २ वर्ष, पितृसेनकृष्ण महासेनकृष्णके पुत्र आनन्द और नन्दनने दो-दो वर्ष संयम पाला। ये दसों श्रेणिक राजाके पोते थे। ___अब कौन किस देवलोकमें गये यह क्रमसे बतलाते हैं।
.. (१) पद्म-सौधर्म नामक प्रथम देवलोकमें उत्कृष्ट दो सागरोपमकी स्थितिवाले, ( २ ) महापद्म-ईशान नामक दूसरे देवलोकमें उत्कृष्ट दो सागरोपम झाझेरी ( कुछ अधिक ) स्थितिवाले, (३) भद्र-सनत्कुमार नामक तीसरे देवलोकमें 'उत्कृष्ट सात सागरोपमकी स्थितिवाले, (४) सुभद्र मुनि-माहेन्द्र नामक चतुर्थ
અનગારેએ ત્રણ ત્રણ વર્ષ, પિતૃસેનકૃષ્ણ, અને મહાસેનકૃષ્ણના પુત્ર આનંદ અને નંદને બે બે વર્ષ સંયમ પાળે. આ દશેય શ્રેણિક રાજાના પૌત્ર હતા.
હવે કોણ ક્યા દેવલોકમાં ગયા તે કમથી બતાવીએ છીએ –
(१) ५५-सौधर्भ नामे प्रथम Raswi गया. (२) महापा-यान नामे બીજા દેવલોકમાં ઉત્પન્ન થયા. (૩) ભદ્રસનકુમાર નામે ત્રીજા દેવલોકમાં ઉત્પન્ન થયા. () સુભદ્રમુનિ મહેન્દ્ર નામે ચોથા દેવલોકમાં ઉત્પન્ન થયા.
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सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग २ अभ्य. ३-१० भद्रआदि देवांकी स्थिति
२३५
सागरोपमस्थितिकः, पञ्चमः - पद्मभद्रो मुनिः ५ ब्रह्मलोके पश्चमे देवलोके, उत्कृष्टदशसागरोपमस्थितिकः, षष्ठः पद्मसेनो मुनिः ६ लान्तके= तदाख्ये षष्ठे देवलोके, उत्कृष्टचतुर्दश सागरोपमस्थितिकः, सप्तमः = पद्मगुल्मो मुनिः ७ महाशुक्रे सप्तमे देवलोके, उत्कृष्टसप्तदशसागरोपमस्थितिकः, अष्टमः - नलिनीगुल्मो मुनिः ८ सहस्रारेऽष्टमे देवलोके, उत्कृष्टदशसागरोपमस्थितिकः, नवमः = आनन्दो मुनिः ९ प्राणते दशमे देवलोके उत्कृष्टविंशतिसागरोपमस्थितिकः, दशमः - नन्दनो मुनिः १० द्वादशेऽच्युते देवलोके,
देवलोक में उत्कृष्ट सात सागरोपम झाझेरी स्थितिवाले, (५) पद्मभद्रमुनि - ब्रह्म नामक पञ्चम देवलोकमें उत्कृष्ट दस सागरोपमकी स्थितिवाले, ( ६ ) पद्मसेन मुनि - लान्तक नामक छठे देवलोक में उत्कृष्ट चौदह सागरोपमकी स्थितिवाले, ( ७ ) पद्मगुल्म मुनि महाशुक्र नामक सातवें देवलोकमें उत्कृष्ट सतरह १७ सागरोपमकी स्थितिवाले, ) नलिनीगुल्म मुनि - सहस्रार नामक अष्टम देवलोकमें उत्कृष्ट १९ सागरोपम स्थितिवाले तथा ( ९ ) आनन्द मुनि - प्राणत नामक नवमें देवलोकमें उत्कृष्ट २० सागरोपम स्थितिवाले देवपने उत्पन्न हुए ( १० ) नन्दन मुनि - बारहवें अच्युत नामक देवलोक में उत्कृष्ट २२ सागरोपमकी स्थितिवाले देवपने उत्पन्न हुए ।
(५) पद्मभद्र भुनि- नामे पांयभा देवसेोऽभां, (१) पद्मसेन भुनि - शान्त नाभे છઠ્ઠા દેવàાકમાં, (૭) પદ્મગુલમ મુનિ-મહાશુક્ર નામે સાતમા દેવલેાકમાં ગયા. (૮) નલિનીગુલ્મ મુનિ–સહસ્રાર નામના આઠમા દેવલેાકમાં જઈ દેષપણે ઉત્પન્ન થયાં. (૯) આનંદ મુનિ પ્રાત નામે દેવલાકમાં ગયા. (૧૦) નંદન મુનિખારમા અચ્યુત નામે દેવલેાકમાં ઉત્પન્ન થયા.
તેમની સ્થિતિ નીચે લખ્યા પ્રકારની છેઃ—
પદ્મદેવની ઉત્કૃષ્ટ એ સાગરોપમ સ્થિતિ છે. મહાપદ્મની એ સાગરાપમ ઝાઝેરી (કાંઇ અધિક) છે. ભદ્રની સાતસાગરાપમ, સુભદ્રની સાત સાગરોપમ ઝાઝેરી. પદ્મભદ્રની
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२३६
___ २ कल्पावतसिकासत्र उत्कृष्टद्वाविंशतिसागरोपमस्थितिकश्च देवत्वेनोत्पन्नः । सर्वत्र सर्वेषु देवलोकेषु सर्वेषां देवतयोपपन्नानामुत्कृष्टस्थितिर्भणितव्या । सर्वे महाविदेहे सिद्धा भविष्यन्ति ।
॥ इति कल्पावतंसिका नाम द्वितीयो वर्गः समाप्तः ।।
ये सब उत्कृष्ट स्थितिवाले देव हैं और महाविदेह क्षेत्रमें सिद्ध होंगे ।
।कल्पावतंसिका नामक द्वितीय वर्ग समाप्त ।
દશ સાગરેપમ. પવસેનની ચૌદ સાગરેપમ. પદ્મગુલ્મની સત્તર સાગરેપમ. નલિનીગુમની અઢાર સાગરેપમ. આનંદની વીસ સાગરોપમ અને નંદનદેવની બાવીસ સાગરોપમ સ્થિતિ છે. એ બધા ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિવાળા દેવ છે અને મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં સિદ્ધ થશે.
કપાવલંસિકા નામક દ્વિતીય વર્ગ સમાપ્ત.
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२३७
सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. १ चन्द्रदेवका पूर्वभव
अथ पुष्पिताख्यस्तृतीयो वर्गः
मूलम्जड़ णं भंते ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं उबंगाणं दोच्चस्स वग्गस्स कप्पवडिसियाणं अयमढे पन्नत्ते, तच्चस्स णं भंते ! वग्गस्स उवंगाणं पुफियाणं के अटे पण्णत्ते ? । एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं उवंगाणं तच्चस्स वग्गस्स पुस्फियाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता, तंजहा
'१ चंदे २ सूरे ३ मुक्के ४ बहुपुत्तिय ५ पुन्न ६ माणभद्दे य । ७ दत्ते ८ सिवे ९ वलेया, १० अणाढिए चेव बोद्धव्वे ॥१॥
जइ णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं पुफियाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता, पढमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स पुफियाणं समणेणं जाव संपत्तेणं के अढे पन्नत्ते ?।
-
छाया. यदिः खलु भदन्त ! श्रमणेन भगवता यावत् संमाप्तेन उपाङ्गानां द्वितीयस्य वर्गस्य कल्पावतंसिकानामयमर्थः प्रज्ञप्तः, तृतीयस्य खलु भदन्त ! वर्गस्य उपाङ्गानां पुष्पितानां कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ?
एवं खलु जम्बूः ! श्रमणेन यावत् संप्राप्तेन उपाङ्गानां तृतीयस्य वर्गस्य पुष्पितानां दशाध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-चन्द्रः (१) सूरः (२) शुक्रः (३) बहुपुत्रिका (४) पूर्णः (५) मानभद्रश्च (६) दत्तः (७) शिवः (८) वलेपकः (९) अनादृतः (१०) चैव बोद्धव्यः ।
यदि खल भदन्त ! श्रमणेन यावत् संप्राप्तेन पुष्पितानां दशाध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, प्रथमस्य खलु भदन्त ! अध्ययनस्य पुष्पितानां श्रमणेन यावद संप्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ?
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२३८
२ कल्पावतंसिकास्त्र एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं २ रायगिहे नामं नयरे, मुणसिलए चेइए, सेणिए राया । तेणं कालेणं २ सामी समोसढे, परिसा निग्गया । तेणं कालेणं २ चंदे जोइसिंदे जोइसराया चंदवडिंसए विमाणे सभाए मुहम्माए चंदंसि सीहासणंसि चउहि सामाणियसाहस्सीहिं जाव विहरइ । इमं च णं केवलकप्पं जंबूद्दीवं दीवं विउलेणं ओहिणा आभोएमाणे २ पासइ, पासित्ता समणं भगवं महावीरं जहा सूरियाभे आभिओगे देवे सदावित्ता जाव सुरिंदाभिगमणजोगं करेत्ता तमाणत्तियं पञ्चप्पिणइ । सूसरा घंटा, जाव विउव्वणा, नवरं (जाणविमाणं) जोयणसहस्सवित्थिण्णं अद्धतेवटिजोयणसमूसियं, महिंदज्झओ पणुवीसं जोयणमूसिओ, सेसं जहा सूरियाभस्स जाव आगओ नट्टविही तहेव पडिगओ । भंते ति भगवं मोयमे समणं भगवं महावीरं, पुच्छा, कूडागारसाला, सरीरं अणुपविठ्ठा, पुव्वभवो । ____ एवं खलु जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नाम नगरं, गुणशिलं चैत्यं, श्रेणिको राजा । तस्मिन् काले तस्मिन् समये स्वामी समवसृतः । परिषत् निर्गता । तस्मिन् काले तस्मिन् समये चन्द्रो ज्योतिकेन्द्रः ज्योतीराजः चन्द्रावतंसके विमाने सभायां सुधर्मायां चन्द्रे सिंहासने चतसृभिः सामानिकसाहस्रीभिः यावद् विहरति । इमं च खलु केवल कल्पं जम्बूद्वीपं द्वीपं विपुलेन अवधिना आभोगयमानः २ पश्यति, दृष्ट्वा श्रमणं भगवन्तं महावीरं यथा सूर्याभः आभियोग्यान् देवान् शब्दयिखा यावत् सुरेन्द्रादिममनयोग्यं कुखा तामाज्ञप्तिकां प्रत्यर्पयति । सुखरा घण्टा यावत् विकर्षणा नवरं (यानविमानं) योजनसहस्रविस्तीर्णम् अर्धत्रिषष्टियोजनसमुच्छ्रितम् , महेन्द्रध्वजः पञ्चविंशतियोजनमुच्छ्रितः, शेषं यथा सूर्याभस्य यावदागतो नाव्यविधिस्तथैव प्रतिगतः । भदन्त इति भगवान् गौतमः श्रमणं भगवन्तं महावीरं, पृच्छा, कूटागारशाला, शरीरमनुपविष्टा, पूर्वभवः ।
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सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. १ चद्रदेवका पूर्वभष
___ एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं २ सावत्यो नाम नयरी होत्या, कोहए चेइए । तत्थणं सावत्थीए नयरीए अंगई नाम गाहावई होत्या, अड्डे जाव अपरिभूए । तएणं से अंगई गाहावई सावत्थीए नयरीए बहूणं नयरनिगम० जहा आणंदो ॥१॥ .
एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये 'श्रावस्तिः ' नाम नगरी अभवत् , कोष्ठकं चैत्यम् । तत्र खलु श्रावस्त्यां नगर्याम् अङ्गतिर्नाम गाथापतिरभवत् आन्यो यावदपरिभूतः । ततः खलु सः अङ्गतिर्गायापति: श्रावस्त्यां नगर्या बहूनां नगरनिगम० यथा आनन्दः ॥ १॥
टीका'जइणं भंते' इत्यादि । तस्मिन् काले तमिन् समये ज्योति
। अथ पुष्पिता नामक तृतीय वर्ग । 'जइणं भंते' इत्यादिजम्बू स्वामी पूछते हैं
हे भदन्त ! मोक्षको प्राप्त श्रमण भगवान महावीरने कल्पावतेंसिका नामक द्वितीय वर्ग स्वरूप उपाङ्गमें पूर्वोक्त भावोंका निरूपण किया है उसके बाद तृतीय
અથ પુષિતા નામક તૃતીય વગ ‘जइणं भंते' त्याlt. જમ્મુ સ્વામી પુછે છે –
હે ભદન્તી મોક્ષ ગયેલ એવા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે કપાવલંસિકા નામે દ્વિતીય વર્ગ સ્વરૂપ ઉપાંગમાં પૂર્વોક્ત ભાવોનું નિરૂપણ કર્યું છે. ત્યાર પછી
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२४०
३ पुष्पितासत्र केन्द्रः ज्योतिर्देवाधिपतिः, ज्योतीराजः चन्द्रे सिंहासने चतसृभिः सामानिकसाहस्रीभिः यावत् विहरति अवतिष्ठते । इमं प्रत्यक्षं खलु केवलकल्पं सम्पूर्ण जम्बूद्वीपम् एतन्नामक द्वीपं=मध्यजम्बूद्वीपं विपुलेन=विशालेन अवधिना= अवधिज्ञानेन आभोगयमानः अवलोकयन् श्रमणं भगवन्तं महावीरं पश्यति, दृष्ट्वा यथा सूर्याभः आभियोग्यान्-अभि-मनोऽनुकूलं युज्यन्ते-प्रेष्यकार्ये व्यापार्यन्ते इत्याभियोग्यास्तान् देवान् शब्दयिता आहूय यावत् सुरेन्द्रादि वर्ग स्वरूप पुष्पिता नामक उपाङ्गमें भगवानने कौनसे भाव निरूपण किये हैं ?
श्री सुधर्मा स्वामी कहते हैं. हे जम्बू ! मोक्षको प्राप्त श्रमण भगवान महावीरने तृतीय वर्ग स्वरूप पुष्पिता नामक उपाङ्ग के दस अध्ययन निरूपण किये हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) चन्द्र ( २ ) सूर (३) शुक्र ( ४ ) बहुपुत्रिक (५) पूर्ण ( ६ ) मानभद्र (७) दत्त (८) शिव (९) वलेपक और (१०) अनादृत ये दस अध्ययन हैं।
जम्बू स्वामी पूछते हैंहे भदन्त ! श्रमण भगवान महावीरने पुष्पिता नामक उपाङ्गमें दस अध्य
તૃતીય વગ સ્વરૂપ પુષ્મિતા નામના ઉપાંગમાં ભગવાને કયા કયા ભાવ નિરૂપણ स्या छ ?
શ્રી સુધર્મા સ્વામી કહે છે –
હે જણૂ ! મેક્ષપ્રાપ્ત એવા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે તૃતીય વર્ગ સ્વરૂપ પુષિતા નામે ઉપાંગના દશ અધ્યયન નિરૂપણ કર્યા છે. તે આ પ્રકારે છે – (१) यन्द्र (२) सूर (3) शु४ (४) महुत्रि (५) पूर्ण (6) भानमा (७) हत्त (८) शिव (6) पखे५४ भने (१०) अनाहत मे श अध्ययन छे.
न्यू स्वामी पुछे छ:'હે ભદન્ત! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પપિતા નામે ઉપાંગમાં દશ
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शुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. १ चन्द्रदेवका वर्णन
२४१ यनोंका जो निरूपण किया है उन अध्ययनोंमें प्रथम अध्ययनके भावको भगवानने किस प्रकार वर्णन किया है।
श्री सुधर्मा स्वामी कहते हैं
हे जम्बू ! उस काल उस समयमें राजगृह नामका नगर था। उसमें गुणशिलक नामका चैत्य था। उस नगरका राजा श्रेणिक था। उस काल उस समयमें भगवान महावीर प्रभु वहां पधारे । जनसमुदायरूप परिषद धर्मकथा सुननेके लिए निकली। उस काल उस समयमें ज्योतिष्कोंके इन्द्र, ज्योतिषियोंके राजा चन्द्र, चन्द्रावतंसक विमानके अन्दर सुधर्मा सभामें चन्द्र सिंहासनपर बैठे हुए चार हजार सामानिकोंके साथ यावत् विराजे हुए हैं।
ज्योतिषियोंके इन्द्र चन्द्रमाने इस जम्बूद्वीप नामक सम्पूर्ण मध्य जम्बू द्वीपको विशाल अवधिज्ञानसे अवलोकन करते हुए भगवान महावीरको मध्य जम्बू द्वीपमें देखा और उनका दर्शन करनेके लिए जानेकी इच्छा की, और उन्होंने
અધ્યયનેનું જે નિરૂપણ કર્યું છે તે અધ્યયનમાં પ્રથમ અધ્યયનના ભાવનું તેમણે કયા પ્રકારે વર્ણન કર્યું છે? _____श्री सुधा स्वामी ४ :
છે જબૂ! તે કાલે તે સમયે રાજગૃહ નામે નગર હતું. તેમાં ગુણશિક્ષક નામે ચૈત્ય હતું. તે નગરને રાજા શ્રેણિક હતું. તે કાલે તે સમયે ભગવાન મહાવીર પ્રભુ ત્યાં પધાર્યા. જનસમુદાયરૂપ પરિષદુ ધર્મકથા સાંભળવા નીકળી. તે કાળે તે સમયે તિષ્કાના ઈન્દ્ર, તિષિઓના રાજા ચન્દ્ર, ચન્દ્રાવતંસક વિમાનની અંદર સુધર્મા સભામાં ચન્દ્રસિંહાસન પર બેઠેલા ચાર હજાર સામાનિકેની સાથે બિરાજેલા છે.
તે તિષના ઈન્દ્ર ચન્દ્રમાએ આ જમ્બુદ્વીપ નામના સંપૂર્ણ મધ્ય જમ્બુદ્વીપનું વિશાલ અવધિજ્ઞાનથી અવલોકન કરતાં થમાં ભગવાન મહાવીરને મધ્ય ખૂદ્વીપમાં જોયા અને તેમના દર્શન કરવા માટે જવાની ઈચ્છા કરી.
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ર
३ पुष्पितासूत्र
गमनयोग्यं कृत्वा तामाज्ञप्तिकां प्रत्यर्पयन्ति । सुखरा घण्टा यावत् विकुर्बणा नवरं ( यानविमानं) योजनसहस्र विस्तीर्ण अर्धत्रिषष्टियोजनसमुच्छ्रितम्,
सूर्याभ देवके समान ही आभियोग्य ( नृत्य ) देवोंको बुलाये और उनसे कहाहे देवानुप्रियों ! तुम मध्य जम्बूद्वीपमें भगवानके समीप जाओ और वहाँ जाकर संवर्तक वात आदिकी विकुर्वणा करके कूडा कचडा आदि साफ कर सुगन्ध द्रव्योंसे सुगंधित कर यावत् योजन परिमित भूमण्डलको सुरेन्द्र आदि देवोंके जाने आने बैठने आदिके योग्य बनाकर खबर दो । वे आभियोग्य देव उपरोक्त आज्ञानुसार भूमण्डल तैयार कर खबर देते हैं । फिर चन्द्रदेवने पदातिसेनानायक देवको कहा कि- जाओ और सुस्वरा नामकी घण्टाको बजाकर सब देवी देवोंको भगवान के पास वन्दनार्थ चलनेके लिये सूचित करो। फिर उस देवने वैसे ही किया ।
सूर्याभके वर्णनसे विशेष केवल इतना ही है कि इसका यानविमान एक हजार योजन विस्तीर्ण था और साढ़े तीरसठ योजन ऊँचा था ।
અને ત્યારે તેમણે સૂર્યાન્નદેવની પેઠેજ આભિયાગ્ય ( ભૃત્ય ) દેવોને મેલાવી કહ્યું—હૈ દેવાનુપ્રિયા ! તમે મધ્ય જમ્મૂદ્રીપમાં ભગવાનની પાસે જાશે અને ત્યાં જઈ સવ પવન આદિની વિધ્રુણા કરી કચરા પુંજો વગેરે સાફ કરી સુગન્ધ બ્યાથી સુગ ંધિત કરી યાવત્ યેાજનના વિસ્તારમાં ભૂમડલને સુરેન્દ્ર આદિ દેવાને આવવા જવા બેસવા આદિ માટે યોગ્ય બનાવીને ખબર આપે. તે આલિયેાગ્ય દેવ ઉપરોક્ત આજ્ઞા અનુસાર મડલ તૈયાર કરી ખબર દે છે. પછી ચન્દ્રદેવે પદાતિસેનાના નાયક દેવને કહ્યું કે–જાએ અને સુસ્વરા નામનો ઘટા ખજાવીને સર્વ દેવ દેવીઓને ભગવાનની પાસે વંદના માટે ચાલવા સારૂ સૂચના કરી. પછ તે દેવે તે પ્રમાણે જ કર્યું.
સૂર્યોભના વર્ણનથી વિશેષ કેવળ એટલું જ છે કે આના યાનવિમા એક હજાર ચાજન વિસ્તારવાળું હતું અને સાડા ત્રેસઠ ચાજન ઊંચું હતુ
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सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. १ चद्रदेवका वर्णन
२४३ महेन्द्रध्वजः पञ्चविंशतियोजनमुच्छ्रितः, शेषं यथा-सूर्याभदेवस्य भगवदन्तिके समागमनमभूत् तद्वत् यावत्-चन्द्रोऽप्यागतः, नाट्यविधिस्तथैव प्रतिगतः । तदनु भदन्त ! इति संबोध्य भगवान् गौतमः श्रमणं भगवन्तं पति 'हे भदन्त !' इति माहेत्यादिना गौतमस्य पृच्छा । कूटाकारशाला-कूटस्येव-पर्वतशिखरस्येव आकारो यस्याः शालायाः सा कूटाकारशाला, एतद्दष्टान्तेन सा दिव्या देवद्धिः शरीरं देवशरीरम् अनुपविष्टा अन्तर्हिता । यथा कस्मिंश्चि
तथा महेन्द्र ध्वज पच्चीस योजन ऊँचा था, और इसके अतिरिक्त सभी वर्णन सूर्याभके समान समझना चाहिये । जिस प्रकार सूर्याभ देव भगवानके समीप आये, नाट्यविधि की
और वापस लौट गये, वैसे ही चन्द्र देवके विषयमें जानना चाहिये । उनके चले जानेके बाद गौतम स्वामी पूछते हैं----
हे भदन्त ! यह चन्द्रदेव अपनी देवशक्ति देवप्रभावसे सभी देवताओंके द्वारा नाट्य दिखाकर फिर सबको अतहित कर केवल अकेला ही रह गया यह बडे आश्चर्यकी बात है।
તથા મહેન્દ્ર ધ્વજ પચીસ એજન ઊંચે હતું. અને તે સિવાય બધું વર્ણન સૂર્યાસના જેવું જ સમજવું જોઈએ.
જે પ્રકારે સૂર્યાદેવ ભગવાનની પાસે આવ્યા, નાટયવિધિ કરી તથા પાછા ગયા એવી જ રીતે ચન્દ્રદેવના વિષયમાં જાણવું જોઈએ
તેમના ચાલ્યા ગયા પછી ગૌતમ સ્વામી પૂછે છે –
હે ભદન્ત ! આ ચન્દ્રદેવ પિતાની દેવશકિતના પ્રભાવથી સર્વે દેવતાઓ દ્વારા નાટક દેખાડીને પછી બધાને અનહિત કરી કેવળ એકલા જ રહી ગયા આ મેટા આશ્ચર્યની વાત છે!
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२४४
३ पुष्पितासूत्र दुत्सवे जनसमुदायवासयोग्यां शालां घृष्ट्यादिभयभीतो विशालो जनसमूहोऽनुपविशति तथैव वैक्रियक्रियया चन्द्रदेवेन विरचितो देवगणो नाव्यकार्य दर्शयित्वा स्वकीयं चन्द्रदेवशरीरमेवानुपविष्टः । हे भदन्त ! पूर्वभवः चन्द्रस्य प्राक्तनं जन्म कीदृशम् आसीत् ?, इति गौतमपृच्छां श्रुखा भगवानाहहे गौतम ! एवं वक्ष्यमाणरीत्या खलु-निश्चयेन तस्मिन् काले तस्मिन् समये 'श्रावस्ती' नाम नगर्यभवत् , कोष्ठकं चैत्यम् । तत्र खलु श्रावस्त्यां नगर्याम् अङ्गतिर्नाम गाथापतिरभवत्-आढ्यो-महान , ऋद्धयादिपूर्णों वा 'जाव'
भगवानने कहा-हे गौतम ! जैसे किसी उत्सवमें फैला हुवा जनसमूह वृष्टि आदि के भयसे किसी एक विशाल घरमें प्रवेश करता है उसी प्रकार चन्द्रदेव अपनी वैक्रिय शक्तिसे देवताओंकी रचना कर नाटक दिखा उनको समेट कर अपने ही देवशरीरमें प्रविष्ट कर लिया।
फिर गौतम स्वामीने पूछा-हे भदन्त ! चन्द्रदेव पूर्वजन्ममें कौन थे ?
गौतमका ऐसा प्रश्न सुनकर भगवानने कहा-हे गौतम ! उस काल उस समयमें श्रावस्ती नामकी नगरी थी। उस नगरीमें कोष्ठक नामक चैत्य था। उस श्रावस्ती नगरीमें अङ्गति नामक एक गाथापति था। वह गाथापति बहुत बडी ऋद्धि
ભગવાને કહ્યું–હે ગૌતમ! જેમ કેઈ ઉત્સવમાં વિખરેલો જનસમૂહ વરસાદ આદિના ભયથી કે એક વિશાલ ઘરમાં પ્રવેશ કરે છે તેવી જ રીતે ચન્દ્રદેવ પિતાની વૈક્રિય શક્તિથી દેવતાઓની રચના કરી નાટક દેખાડી તેઓને સંકેલી લઈ પિતાના દેવશરીરમાં પ્રવેશ કરી લીધા.
ફરી ગૌતમ સ્વામીએ પુછયું–હે ભદન્ત! ચન્દ્રદેવ પૂર્વ જન્મમાં કેણ
ता?
ગૌતમને એવો પ્રશ્ન સાંભળી ભગવાને કહ્યું- હે ગૌતમ! તે કાલે તે સમયે શ્રાવતી નામે નગરી હતી. તે નગરીમાં કેષ્ઠક નામે ચૈત્ય હતું. તે શ્રાવસ્તી નગરીમાં અંગતિ નામે એક ગાથાપતિ હતા તે ગાથાપતિ બહુ મોટી
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२४५
सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. १ अङ्गति गाथापति यावत्-'अड्डे' आढ्यः, इत्यारभ्य 'अपरिभूए'-अपरिभूतः, इत्येतत्पर्यन्तोक्तसमस्तविशेषणविशिष्ट इत्यर्थस्तेन-'दित्ते, वित्थिन्न-विउल-भवण-सयणा-ऽऽसणजाण-वाहणाइण्णे, बहुधण-बहुजायसव-रयए, आओग-पओग-संपउत्ते, विच्छड्डियविउलभत्तपाणे, बहु-दासी-दास-गो-महिस-गवेलयप्पभुए, बहुजणस्स' इत्येषां समन्वयः कर्तव्यः । एतच्छाया च-'दीप्तो विस्तीर्ण-विपुल-भवनशयना-सन-यान-चाहनाऽऽकीर्णो बहुधन-बहुजातरूप-रजत आयोगप्रयोगसंप्रयुक्तो विच्छदितप्रचुरभक्तपानो बहुदासी-दास-गो-महिष-गवेलकमभूतो बहुजनस्य' इति ।
तत्र दीप्तःकीउज्ज्वलः, विस्तीर्णानि-विस्तृतानि विपुलानिबहूनि, भवनानि-गेहानि, शयनानि-तल्पानि, आसनानि पीठकादीनि, यानानि गाडीप्रभृतीनि, वाहनानि-अश्वादीनि, तैराकोर्ण व्याप्तः समुपेतो वा । बहु-विपुलं धनं-मणिपभृति यस्य स बहुधनः, स चासौ, बहु-विपुलं जातरूपसुवर्ण, रजतं रूप्यं यस्य स बहुजातरूपरजतश्च । आ-समन्ताद् योजनं-द्विगुणा
आदिसे युक्त था। कीर्तिसे उज्ज्वल था । उसके पास बहुतसे घर, शय्या, आसन, गाडी, घोडे आदि थे। और वह बहुतसा धन तथा बहुत सोना चादी आदिका लेन देन करता था। उसके घरमें खाने पीनेके बाद बहुतसा अन्न पान आदि खाने पीनेका सामान रहता था जो अनाथ-गरीब मनुष्योंको व पशु पक्षियोंको दिया
સમૃદ્ધિવાળો હતો. કીર્તિથી ઉજજવળ હતું. તેની પાસે ઘણાં ઘર, શમ્યા, આસન ગાડી, ઘોડા આદિ હતાં. અને તે બહુ ધન, તથા બહુ સોના ચાંદી આદિનું લેણ દેણ કરતા હતા. તેના ઘરમાં ખાવા પીવા પછી પણ ઘણું અન્ન પાન અને વણો ખાવા પીવાને સામાન રહેતો હતો, જે અનાથ-ગરીબ મનુષ્ય તથા પશુ પક્ષીઓને
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૨૦૬
३ पुष्पितास्त्र
दिलाभार्थं रूप्यादीनामधमर्णादिभ्यो नियोजनमायोगस्तस्य प्र= प्रकर्षेण योजनम् = उपायचिन्तनं प्रयोगः, यद्वा - आयोगेन द्विगुणादिलिप्सया प्रयोगः = अधमर्णानां सविधे द्रव्यस्य वितरणमायोगप्रयोगः, स संप्रयुक्तः प्रवर्तितो येन, तस्मिन् वा संप्रयुक्तः = संलग्नो यः स आयोगप्रयोगसंप्रयुक्तः = नीत्या द्रव्योपाजनप्रवृत्त इत्यर्थः । भक्तं च पानं च भक्तपाने, विपुले च ते भक्तपाने विपुलभक्तपाने, वि= विशेषेण छर्दिते= भोजनावशिष्टे भक्तपाने यस्य स विच्छर्दितविपुलभक्तपानः, दीनेभ्यो दीयमानविपुलभक्तपान इत्यर्थः । दास्यश्च दासाश्व गावश्च महिषाश्च गवेलकाः = उरभ्राश्चेति दासीदासगोमहिषगवेलकाः, बहवश्च ते दासीदासगोमहिषगवेलका इति बहुदासीदासगोमहिषगवेलकास्ते प्रभूताः = प्रचुरा यस्य स बहुदासीदासगोमहिषगवेलकप्रभूतः, अत्र गवादिपदं स्त्रीगवादीनामप्युपलक्षकं, यद्वा- गोपदस्य = स्त्रीपुंगवयोरविशेषेण वाचकत्वादविरोध एव, महिष - गवेलक - शब्दयोश्च ' पुमान् स्त्रिया ' इत्येकशेषान्महिष्यादीनामपि ग्रहणम् । बहुजनस्येति जातिविवक्षयैकवचनं, संबन्धसामान्ये च षष्ठी, (तेन ' बहुजनै ' - रित्यर्थी बोद्धव्यः, अत्र 'अपी त्यस्याध्याहाराद्बहुजनैरपीति तत्त्वम्, अपरिभूतः = तत्पराभवरहितः, यद्वा-क्त प्रत्ययार्थस्याऽविवक्षितत्वादपरिभवनीयः - बहुजनैरपि पराभवितुमशक्य इत्यर्थः ।
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जाता था । उसके यहाँ दास दासियाँ बहुतसी थीं और थीं। तथा वह अपरिभूत- प्रभावशाली था, यानी उसका
शकता था।
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बहुतसे गाय, भैंस, भेडें
कोई पराभव नहीं कर
આાપી દેવાતા હતા. તેને ત્યાં દાસ દાસીએ ઘણાં હતાં. તથા ગાય ભેંસ ભેડાં પશુ બહુ હતાં. વળી તે અપરિભૂત–પ્રભાવશાળી હતા અર્થાત્ તેના કાઈ પરાભવ કરી શખ્ત નહોતા.
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सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. १ अङ्गति गायापति
२५७ एधूक्तविशेषणेषु “ अड्डे, दित्ते, अपरिभूए" एभिस्त्रिभिर्विशेषणैरगतिगाथापतौ प्रदीपदृष्टान्तोऽभिप्रेतस्तथाहि-यथा प्रदीपस्तैलवर्तिभ्यां शिखया च संपन्नो निर्वाते स्थाने सुरक्षितः प्रकाशमासादयति, एवमयमपि तैलवर्तिस्थानीयया : आढ्यताऽपरपर्यायर्या शिखास्थानीययोदारता-गम्भीरतादिरूपया दीप्त्या च संपन्नो निर्वातस्थानस्थानीयया सदाचारमर्यादापालनादिरूपयाऽपरिभूततया च संपन्नः समुज्ज्वलति-जगत्मसिद्धो भवतीति हेतुताऽवच्छेदकधर्मस्याऽऽन्यता-दोप्त्यपरिभूततैतत्रितयसमुदायनिष्ठस्यैकधर्मस्य सत्त्वान्न तृणारणिमणि-न्यायेन प्रत्यक्षानुमानाऽऽगमशब्देषु
___' आढय, दीस, और अपरिभूत ' इन तीन विशेषणोंसे अंगति गाथापतिके लिये दीपकका दृष्टान्त दिया जाता है, वह इस प्रकार है-जैसे दीपक, तेल, बत्ती और शिखा (लौ ) से युक्त होकर वायुरहित स्थानमें सुरक्षित रहकर प्रकाशित होता है, वैसे ही अंगति गाथापति भी तेल और बत्तीके समान आब्यता अर्थात् ऋद्धिसे, शिखाकी जगह उदारता गंभोरता आदिसे और दीपिसे युक्त होकर, वायु रहित स्थानके समान मर्यादाका पालन आदि रूप सदाचारसे तथा पराभवरहितपनसे संयुक्त होकर तेजस्विता धारण करता था। अतः आङ्यता दोप्ति और अपरिभूतता, इन तीनोंमें रहनेवाला हेतुताऽवच्छेदक धर्म एक ही है, इस कारण तृणारणिमणि-न्यायसे
“આવ્ય, દીપ્ત અને અપરિભૂત” એ ત્રણ વિશેષણથી અંગતિ ગાથા પતિને માટે ही५४नु दृein 3 छ; ते 40 प्रभाव:-२ ५४, तेल, दीपेट भने शिमा (Ru) થી યુક્ત થઈને વાયુરહિત સ્થાનમાં સુરક્ષિત રહી પ્રકાશિત થાય છે, તેમ અંગતિ ગાથાપતિ પણ, તેલ અને દીવેટની પેઠે આઢયતા અર્થાત ત્રાદ્ધિથી, શિખાની જગ્યાએ ઉદારતા ગંભીરતા આદિથી અને દીતિથી યુક્ત થઈને વાયુરહિત સ્થાનની સમાન મર્યાદાના પાલન આદિ રૂપ સદાચારથી તથા પરાભવરહિત પણાથી સંયુક્ત થઈને તેજસ્વિતા ધારણ કરતો હતો. એ રીતે આઢયતા દીપ્તિ અને અપરિભૂતતા, એ ત્રણેમાં રહેલ હેતુતાવચ્છેદક ધર્મ એક છે, તે કારણથી તુણારણિમણિ ન્યાયે પ્રત્યક્ષ, અનુમાન અને
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स्ट
३ पुष्पितासूत्र
प्रत्येकं प्रमाजनकत्वमिव प्रत्येकमाढ्यतादीनां त्रयाणां समुज्ज्वलनहेतुता, किन्तु प्रकाशं प्रति तैलवर्त्यादिसमुदायवत् समुज्ज्वलनं मति आढ्यतादिसमुदायस्यैव हेतुतेति बोध्यम् ।
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ततः खलु सोऽङ्गतिर्गाथापतिः श्रावस्त्यां नगर्या यथा वाणिज्यग्रामे आनन्दो नाम गाथापतिः परिवसति तथैवायमपीत्यर्थः ।
तदेव स्पष्टयति- “ नगर-निगम - राई -सर-तलवर - माडंबिय - कोडुंबिय - इन्भ - सेट्ठि - सेणावइ - सत्थवाहाणं बहुसु कज्जेसु य कारणेसु य मंतेसु य कुंटुंबे य गुज्झे य रहस्सेसु य निच्छएसु य बवहारे सु य आपुच्छणिज्जे पडिपुच्छणिज्जे सयस्स वि य णं कुटुंबस्स मेढी पमाणं आहारे, आलंवणं, चक्खू, मेढीभूए जाव सव्वकज्जवडावए यावि होत्था " एतच्छाया - नगर निगम - राजेश्वर तलवर - माण्डविक कौटुम्बिकेभ्यः श्रेष्ठि-सेनापति - सार्थवाहानां
प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम शब्दों में प्रमाणताके समान प्रत्येक ( सिर्फ आढ्यता, सिर्फ दीप्ति, या सिर्फ अपरिभूतता ) को हेतु नहीं मानना चाहिए ।
जिस प्रकार आनन्द गाथापति धन धान्य आदिसे युक्त वाणिज्य ग्राममें निवास करता था । उसी प्रकार अङ्गति गाथापति भी श्रावस्ती नगरी में निवास करता था ।
આાગમ શબ્દોમાં પ્રમાણુતાની પેઠે પ્રત્યેકને ( માત્ર આઢયતા, માત્ર દીપ્તિ, અથવા માત્ર અપરિભૂતતા–એ એક એકને) હેતુ માનવા નહિ.
જે પ્રકારે આનંદ ગાચાપતિ ધનધાન્ય આદિથી યુક્ત વાણિજ્ય ગ્રામમાં “નિવાસ કરતા હતા તેવીજ રીતે અગતિ ગાથાપતિ પણ શ્રાવસ્તી નગરીમાં નિવાસ "आता ता
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मदरबोधिनी टोका वर्ग ३ मध्य. १ अङ्गति गाथापति
२४९ बहुषु कार्येषु च कारणेषु च मन्त्रेषु च कुटुम्बेषु च गुह्येषु च रहस्येषु च निश्चयेषु च व्यवहारेषु च आपृच्छनीयः प्रतिपृच्छनीयः, स्वस्यापि च खलु कुटुम्बस्य मेधिः, प्रमाणम् , आधारः, आलम्बनं, चक्षुः, मेधिभूतः, यावत् सर्वकार्यवर्द्धकः चापि अभवत् । तत्र-नगरम्=
"पुण्यपापक्रियाविज्ञै,-र्दयादानप्रवर्तकैः । कलाकलापकुशलैः, सर्ववर्णैः समाकुलम् ॥ भाषामिर्विविधाभिश्च, युक्तं नगरमुच्यते ।" निगमो व्यापारप्रधानस्थानम् , ईश्वराः-ऐश्वर्यसम्पन्नाः, तलवराः=
वह अङ्गति गाथापति राजा ईश्वर यावत् सार्थवाहोंके द्वारा बहुतसे कार्योंमें, कारणों ( उपायों ) में, मन्त्र ( सलाह ) में, कुटुम्बोंमें, गुह्योंमें, रहस्योंमें, निश्चयोंमें
और व्यवहारोंमें एक बार पूछा जाता था, और वार २ पूछा जाता था। और वह अपने कुटुम्बका भी मेधि, प्रमाण, आधार आलम्बन चक्षु, मेघीभूत यावत् समस्त कार्योंको बढाने वाला था । यहाँ यावत् शब्दसे राजा, ईश्वर, तलवर, माण्डविक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी सेनापति और सार्थवाहका ग्रहण होता है । माण्डलिक नरेशको राजा, और ऐश्वर्य वालोंको ईश्वर कहते हैं । राजा संतुष्ट होकर जिन्हें पट्टबन्ध देता है,
એ અંગતિ ગાથાપતિને, રાજા, ઈશ્વર યાવત સાર્થવાહ તરફથી ઘણાં र्याभां, ॥२d! ( Sum) मां, मंत्र (Rs )मां, टु मामा, गुह्योभा, २७त्योभा, નિશ્રામાં અને વ્યવહારમાં એક વાર પૂછવામાં આવતું હતું, વારંવાર પણ પૂછવામાં આવતું હતું અને તે પોતાના કુટુંબને પણ મેધિ, પ્રમાણ, આધાર, આલંબન, ચક્ષુ, મેધીભૂત, ચાવતું બધાં કાર્યોને આગળ વધારનાર હતે.
n जाव' यही २१, ५२, तस५२, भांडवि४ मा भामि, કૌટુમ્બિક, ઇભ્ય, શ્રેષ્ઠી, સેનાપતિ અને સાર્થવાહ, એટલા શબ્દોનું ગ્રહણ થાય છે. માંકલિક નરેશને રાજા અને એ ધર્મવાળાઓને ઈશ્વર કહે છે. રાજા સંતુષ્ટ ૩૨
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२५०
३ पुष्पितासन सन्तुष्टभूपालदत्तपट्टबन्धपरिभूषितराजकल्पाः माण्डविकाः छिन्नभिन्नजनाश्रयविशेषो मण्डवस्तत्राधिकृताः, 'माडम्बिकाः' इति च्छायापक्षे तु ग्रामपञ्चशतीपतय इत्यर्थः, यद्वा-सार्धक्रोशद्वयपरिमितपान्तरैर्विच्छिद्य विच्छिद्य स्थितानां ग्रामाणामधिपतयः, कौटुम्बिकाः बहुकुटुम्बप्रतिपालकाः, इभ्याः इभो हस्ती तत्प्रमाणं द्रव्यमर्हन्तीति, तथा ते च-जघन्य-मध्यमो-त्कृष्टभेदात् त्रिप्रकाराः तत्र हस्तिपरिमितमणि-मुक्ता-प्रवाल-सुवर्ण-रजतादिद्रव्यराशिस्वामिनो जघन्याः, हस्तिपरिमितवज्र-मणि-माणिक्य-राशिस्वामिनो वे राजाके समान पट्टबन्धसे विभूषित लोग तलवर कहलाते हैं। जो वस्ती छिन भिन्न हो उसे मण्डव और उसके अधिकारीको माण्डविक कहते हैं। ' माडंबिय ' की छाया यदि ‘माडम्बिक' की जाय तो माडम्बिकका अर्थ 'पाँच सौ गाँवोंका स्वामी' होता है। अथवा ढाई ढाई कोसकी दूरीपर जो अलग अलग गाव वसे हों, उनके स्वामीको · माडम्बिक ' कहते हैं। जो कुटुम्बका पालन पोषण करते हैं, या जिनके द्वारा बहुतसे कुटुम्बोंका पालन होता है, उन्हें ' कौटुम्बिक ' कहते हैं। इभका अर्थ है हाथी, और हाथीके बराबर द्रव्य जिसके पास हो उसे ' इभ्य कहते हैं। जघन्य मध्यम और उत्कृष्टके भेदसे इभ्य तीन प्रकारके हैं। जो हाथीके बराबर मणि, मुक्ता, प्रवाल (मूंगा ) सोना, चादी आदि द्रव्य-राशिके स्वामी हों થઈને જેને પદબંધ આપે છે તે રાજાઓના જેવા પટ્ટબંધથી વિભૂષિત લેકે તલવર કહેવાય છે. જેની વસતી છિન્ન ભિન્ન હોય તેને મંડવ અને તેના અધિકારીને भांडविध 33 छ. 'माडंबिय' नी छाया ने माडम्बिक' ४२पामा मावे तो 'माडखिक' न पायसे. आमीन। धी' मेवो अर्थ थाय छे. अया मढी અઢી ગાઉને અંતરે ૨ જુદાં જુદાં ગામ વસ્યાં હોય તેના ધણીને માલિશ કહે છે. જે કુટુમ્બનું પાલન-પોષણ કરે છે અથવા જેની દ્વારા ઘણાં કુટુઓનું પાલન याय छे, ते टुमि ४९ छे. 'इम' नो अर्थ 'साथी' छ, भने थाना २९द्रय नी पासे डाय, तर 'य' छे. धन्य, मध्यम भने न લેર કરીને ઈભ્ય ત્રણ પ્રકારના છે. હાથીની બરાબર મણિ, મોતી, પરવાળાં, સોનું
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सन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अभ्य. १ अङ्गति गाथापति
२५१ मध्यमाः, इस्तिपरिमितकेवलवज्रराशिस्वामिन उत्कृष्टाः, श्रेष्ठिनो लक्ष्मीकपाकटाक्षमत्यक्षलक्ष्यमाण-द्रविणलक्षलक्षणविलक्षणहिरण्यपट्टसमलकृतमूर्धानो नगरप्रधानव्यवहारः, सेनापतयः-चतुरसेनानायकाः, सार्थवाहाः गणिमपरिम-पेय-परिच्छेद्य-रूप-यविक्रेयवस्तुजातमादाय लाभेच्छया देशान्तराणि व्रजतां सार्थ वाहयन्ति योगक्षेमाभ्यां परिपालयन्ति, दीनजनोपकाराय
वे जधन्य इभ्य हैं। जो हाथोके बराबर हीरा और माणिककी राशि स्वामी हों वे मध्यम इभ्य हैं। जो हाथीके बराबर केवल हीरोंकी राशिके स्वामी हों वे उत्कृष्ट इभ्य हैं। लक्ष्मीकी जिसपर पूरी २ कृपा हो और उस कृपाकोरके कारण जिनके लाखोंके खजाने हों, तथा जिनके सिरपर उन्हींको सूचित करने वाला चान्दीका विलक्षण पट्ट शोभायमान हो रहा हो, जो नगरके प्रधान व्यापारी हो, उन्हें श्रेष्ठी कहते हैं। चतुरङ्ग सेनाके स्वामीको सेनापति कहते हैं। जो गणिम, धरिम, मेय
और परिछेद्य रूप खरीदने-वेचनेके योग्य वस्तुओंको लेकर नफाके लिये देशान्तर जाने वालेको साथ ले जाते हैं, योग ( नयी वस्तुकी प्राप्ति ) और क्षेम ( प्राप्त वस्तुकी रक्षा ) के द्वारा उनका पालन करते हैं, गरीबोंकी भलाईके लिये उन्हें पूँजी
ચાંદી આદિ દ્રવ્યના ઢગલાના જે સ્વામી હોય તેઓ જઘન્ય ઈભ્ય છે. હાથીની બરાબર હીરા અને માણેકના ઢગલાના જે સ્વામી હોય તેઓ મધ્યમ ઈભ્ય છે. હાથીની બરાબર કેવળ હીરાના ઢગલાના જે સ્વામી હોય તેઓ ઉત્પષ્ટ ઇભ્ય છે. જેમની ઉપર લક્ષ્મીની પૂરેપૂરી કૃપા હોય અને એ કૃપાને કારણે જેમની પાસે લાખોના ખજાના હોય તથા જેમને માથે તેમનું સૂચન કરનારે ચાંદીને વિલક્ષણ ५४ शमायभान थ६ २शो सय, 2 नाना भुस्य व्यापारी साय, तर श्रेष्ठी' ४ छ. यतु सेनाना स्वाभीर 'सेनापति' 3 छ. गाभ, परिभ, भेय भने પરિચ્છેદ્ય રૂપ ખરીદવા–વેચવા ગ્ય વસ્તુઓ લઈને નફાને માટે દેશાંતર જનારાએને જે સાથે લઈ જાય છે. એગ (નવી વસ્તુની પ્રાપ્તિ) અને ક્ષેમ (પ્રાપ્ત વસ્તુનું રક્ષણ) ની દ્વારા તેમનું પાલન કરે છે, ગરીબના ભલા માટે તેમને
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२५२
__३ पुष्पितासूत्र मूलधनं दत्त्वा तान् समर्द्धयन्तीति तथा, तत्र गणिमम्-एक-द्वि-त्रि-चतुरादिसंख्याक्रमेण यद्दीयते, यथा-नालिकेर-पूगीफल-कदलीफलादिकम् , धरिमं= तुलासूत्रेणोत्तोल्य यद्दीयते, यथा-त्रीहि-यव-लवण-सितादि, मेयं शरावलघुभाण्डादिनोत्तोल्य यद्दीयते, यथा-दुग्ध-घृत-तैल-प्रभृति, परिच्छेधं च प्रत्यक्षतो निकषादिपरीक्षया यद्दीयते, यथा-मणि-मुक्ता-प्रवाला-ऽभरणादि ।
'सार्थवाहाना' मित्यत्र ‘कृत्यानां कर्तरि वे' ति कर्तरि षष्ठी, देकर व्यापार द्वारा धनवान बनाते हैं उन्हें सार्थवाह कहते हैं। एक, दो, तीन, चार आदि संख्याके हिसाबसे जिनका लेन देन होता है, उसे 'गणिम ' कहते हैं, जैसे-नारियल, सुपारी, केला आदि । तराजू पर तोलकर जिसका लेन देन हो, उसे 'धरिम' कहते हैं, जैसे-धान, जौ, नमक, शक्कर आदि । सरावा छोटे २ वर्तन आदिसे नाप कर जिसका लेन देन होता है, उसे मेय कहते हैं, जैसे-दूध, घी, तैल आदि । सामने कसौटी आदि पर परीक्षा करके जिसका लेन देन होता है, उसे परिच्छेद्य कहते हैं। जैसे मणि, मोती, मूंगा, गहना आदि ।
वह अङ्गति गाथापति, इन राजा, ईश्वर आदिके द्वारा बहुतसे कार्यों में कार्यको सिद्ध करनेके उपायोंमें, कर्तव्यको निश्चित करनेके गुप्त विचारोंमें, बान्धवोंमें,
५० मापीन ६२धनवान मन छ, तभने 'सार्थवाह' छ, , બે, ત્રણ, ચાર આદિ સંખ્યાના હિસાબે જેની લેણ-દેણ થાય છે તેને ગણિમ કહે છે, જેમકે નાળીએર, સેપારી ઈત્યાદિ, ત્રાજવાથી તોલીને જેની લેણ-દેણ કરવામાં આવે છે તેને ધરિમ કહે છે, જેમકે ધાન્ય, જવ, મીઠું, સાકર ઈત્યાદિ, પાલી કે પવાલું જેવાં માપનાં વાસણથી માપીને જેની લેણ-દેણ કરવામાં આવે છે તેને મેય કહે છે, જેમકે દૂધ, ઘી, તેલ વગેરે. કસોટી આદિથી પરીક્ષા કરીને જેની લેણ-દેણ કરવામાં આવે છે તેને પરિચ્છેદ કહે છે, જેમકે મણિ, મોતી, પરવાળાં,
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सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अभ्य. १ अङ्गति गाथापति
२५ अग्रेतनस्य 'आपच्छनीयः, परिमच्छनीयः' इत्यनीयर् प्रत्ययस्य योगात सार्थवाहैरित्यपि तृतीयान्तेन का व्याख्येयम् ।
बहुषु-प्रचुरेषु, अस्य सर्वैरेव सप्तम्यन्तैः सम्बन्धः । कार्येषु कर्तव्येषु प्रयोजनेष्विति यावत् , कारणेषु-कार्यजातसम्पादकहेतुषु च, मन्त्रेषु= कर्तव्यनिश्चयार्थ गुप्तविचारेषु । कुटुम्बेषु बान्धवेषु, गुह्येषु लज्जया गोपनीयेषु व्यवहारेषु, रहस्येपु-रहसि-एकान्ते भवा रहस्यास्तेषु प्रच्छन्नव्यवहारेष्विति यावत् । निश्चयेषु-पूर्णनिर्णयेषु, व्यवहारेषु व्यवहारमष्टव्येषु, यद्वा-बान्धवादिसमाचरितलोकविपरीतादिक्रियाप्रायश्चित्तेषु, विषयसप्तम्या 'एतेषु लनाके कारण गुप्त रखे जाने बाले विषयोंमें, एकान्तमें होने बाले कार्योंमें, पूर्ण निश्चयोमें, व्यवहारके लिये पूछे जाने योग्य कार्योंमें, अथवा बान्धवों द्वारा किये गये लोकाचारसे विरुद्ध कार्योंके प्रायश्चित्तों (दंडों ) में, अर्थात् उल्लिखित सब. मामलोंमें एकबार और बार-बार पूछा जाता था-इन सब बातोंमें राजा आदि समस्त बडे बडे आदमी अङ्गतिकी सम्मति लेते थे।
इन सब विशेषणोंसे सूत्रकारने यह प्रकट किया है कि अंगति गाथापतिको सभी लोग मानते थे, वह अत्यन्त विश्वासपात्र था, विशालबुद्धिशाली था और सबको उचित सम्मति देता था ।
બાંધવામાં, લજજાને કારણે ગુપ્ત રાખવામાં આવતા વિષયમાં, એકાંતમાં કરવામાં આવતા કાર્યોમાં, પૂર્ણ નિશ્ચયમાં, વ્યવહારને માટે પૂછવા યોગ્ય કાર્યોમાં, અથવા બાંધ તરફથી કરવામાં આવતા લેકાચારથી વિપરીત કાર્યોનાં પ્રાયશ્ચિત્તો (દંડ) માં અર્થાત્ એવાં બધાં પ્રકરણોમાં એકવાર તથા વારંવાર પૂછવામાં આવતું હતુંએ બધી વાતમાં રાજા વગેરે મોટા મોટા માણસો પણ અંગતિની સંમતિ લેતા હતા.
એ બધાં વિશેષણ વડે સૂત્રકારે એમ પ્રકટ કર્યું છે કે અંગતિ ગાથા પતિને બધા લેકે માનતા હતા, તે અત્યંત વિશ્વાસપાત્ર હતું, વિશાળ બુદ્ધિથી યુe હતો અને બધાને વાજબીજ સલાહ-સંમતિ આપતે હતે.
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२५४
३ पुष्पितासूत्र
=
विषये ' इत्यर्थः । आ=ईषत् सकृदिति यावत् प्रच्छनीय: - प्रष्टव्यः, परि= सर्वतोभावेन असकृदिति यावत् प्रच्छनीय : = प्रष्टव्यः, स्वस्यापि = स्वकीयस्यापि च-कारो विषयान्तरपरिग्रहार्थः । खलु निश्चयेन कुटुम्बस्य = परिवारचनस्य मेधिः = बीहि-यव- गोधूमादिकणमर्दनार्थं खले निखाय स्थापितो दार्वादिमयः पशुबन्धनंस्तम्भः, यत्र पशिोबद्धा बलीवर्दादयो व्रीह्मादिकणमर्दनाय परितो भ्राम्यन्ति तत्सादृश्यादयमपि मेधिः, अर्थादेतदवलम्बनेनैव सर्वस्यापि कुटुम्बस्यावस्थानमिति । कुटुम्बस्यापीत्यत्रापिशब्दबलान केवलं
धान जो गेहूँ आदिको दाँय करने ( लाटा - दाने - निकालने ) के लिये गढा खोदकर एक लकडी या बाँसका स्तम्भ गाडा जाता है, उसके चारों और एक पंक्ति लांक (धान) को कुचलनेके लिये बैल घूमते हैं उस स्तम्भको मेधिमेढी - कहते हैं । बैल आदि उस समय उसीपर निर्भर रहते हैं । यदि वह स्तम्भ न हो तो कोई बैल कहीं चला जाय, कोई कहीं - सब व्यवस्था भङ्ग हो जाय । गाथापति अङ्गति अपने कुटुम्बकी मेधि - मेढीके समान थे, अर्थात् कुटुम्ब उन्हीके सहारे था - ही उसके व्यवस्थापक थे । मूल - पाठमें 'वि (अपि) शब्द है, उसका तात्पर्य यह है कि वे केवल कुटुम्बके ही आश्रय नहीं थे, अपितु समस्त
ધાન્ય, જવ, ઘઉં વગેરેને કણસલામાંથી છૂટાં કરવાને એક ખાડા ખેાદી તેમાં એક લાકડાના ખાંભેા ખાડવામાં આવે છે અને પછી તેની ચારે ખાજુએ એક સાથે ણુસલાંને ચરવા માટે ખળદ વગેરે ફર્યાં કરે છે, એ ખાંભાને મેધિ કહે છે. મળદ વગેરે એ વખતે એ ખાંભાને આધારેજ કર્યા કરે છે. જો એ ખાંભા ન હાય તા એક બળદ એક બાજુએ ચાલ્યા જાય અને ખીજે બીજી બાજુએ ક્રૂ, એ રીતે વ્યવસ્થા ભંગ થઈ જાય. ગાથાપતિ મેષિ–મધ્યસ્થ સ્તંભ જેવા भ्ज़नो व्यवस्थाय હું કે તે કેવળ કુટુમ્બનાજ
અગતિ પોતાના કુટુમ્બની હતા; અર્થાત કુટુમ્બ એને આધારે હતું, તેજ કુટુभूण पाठमा 'वि' (अपि) शब्द छे, तेनुं तात्पर्य यो छे આધાર રૂપ નહાતા, પરંતુ બધા લોકોના પણ આશ્રય
तो.
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सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. १ अङ्गति गायापति
कुटुम्बस्यैव, अपितु सर्वस्यापि जनस्येत्यवधेयम् । प्रमाण-प्रत्यक्षादिप्रमाणवदेयोपादेयप्रवृत्तिनिवृत्तिरूपतया संशयराहित्येन पदार्थसार्थपरिच्छेदका, आधारः आधारवत् सर्वेषामाश्रयभूतः, आलम्बनं-रज्जुस्तम्भादिवद्विपत्कूपपतज्जनोद्धारकतयाऽवलम्बनम् , आधारो नाम-यमधिष्ठाय जन उनतिं गच्छति, स्वरूपाऽवस्थो वा वर्तते सः, यदवलम्बनेन च विपदो विनिवर्तन्ते तदालम्बनमिति तयोर्भेदः, चक्षुः नेत्रं तद्वत् सर्वेषां सकलार्थप्रदर्शकः, यदुक्तंमेधिः, प्रमाणम् , आधारः, आलम्बनं, चक्षुरिति । तदेव स्पष्टपतिपत्तये औपम्यवाचिभूतशब्दसम्मेलनेन पुनरावर्तयति-मेधीभूत इत्यादि, यावदिति
लोगोंके भी आश्रय थे, जैसा की उपर बताया जा चुका है। आगे जहाँ-जहाँ 'वि' ( अपि-भी ) आया है वहाँ सर्वत्र यही तात्पर्य समझना चाहिए । अङ्गति गाथापति अपने कुटुम्बके भी प्रमाण थे । अर्थात् जैसे प्रत्यक्ष अनुमान आदि प्रमाण संदेह आदिको दूर करके हेय ( त्याग करने योग्य ) पदार्थोसे निवृत्ति और उपादेय ( ग्रहण करने योग्य ) पदार्थोंमें प्रवृत्ति कराते हुए पदार्थोंको जनाते हैं, उसी प्रकार अङ्गति भी अपने कुटुम्बियोंको बताते थे कि अमुक कार्य करने योग्य है, अमुक कार्य करने योग्य नहीं है, यह पदार्थ ग्राह्य है, यह अग्राह्य है।
३५ तो, म ५२ विपामा भाव छ. भाग ५y arni ri 'वि' (अपिપણ) આવે છે, ત્યાં ત્યાં બધે એજ તાત્પર્ય સમજવાનું છે.
અંગતિ ગાથાપતિ પિતાના કુટુમ્બના પણ પ્રમાણ રૂપ હતું, અર્થાત્ જેમ પ્રત્યક્ષ અનુમાન આદિ પ્રમાણુ, સંદેહ આદિને દૂર કરીને હેય (ત્યજવા યોગ્ય) પદાર્થોથી નિવૃત્તિ અને ઉપાદેય (ગ્રહણ કરવા યોગ્ય) પદાર્થોમાં પ્રવૃત્તિ કરાવતા તે, પદાર્થોને દર્શાવે છે, તેમ અંગતિ પણ પિતાના કુટુંમ્બિને બતાવતું હતું કે –અમુક કાર્ય કરવું યોગ્ય છે, અમુક કાર્ય કરવું એગ્ય નથી, અમુક પદાર્થ ગ્રાહ્ય छ, भु पार्थ मा छ, Jals.
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____३ पुष्पितासत्र चावच्छब्देन 'पमाणभूए, आहारभूए, आलंबणभूए' इत्येषां संग्रहो बोध्यस्तत्र-प्रमाणभूतः, आधारभूतः, आलम्बनभूतः, चक्षुर्भूतः, इतिच्छाया, पौनरुत्यवारणं तु मेधिरर्थान्मेधीभूतो मेधिसदृश इति यावत् । प्रमाणमर्थात् प्रमाणभूतः प्रमाणसदृश इति यावत् , आधारोऽर्थादाधारभूत आधारसदृश इति यावत् । आलम्बनमर्थादालम्बनभूत आलम्बनसदृश इति यावत् । चक्षुराचक्षुर्भूतश्चक्षुःसदृश इति यावत् इति रीत्या समन्वयाद्भवतीति सूक्ष्मचक्षुषाऽवे
तथा अङ्गति गाथापति अपने कुटुम्बके. भी आधार ( आश्रय ) थे, तथा आलम्बन थे, अर्थात् विपत्तिमें पडनेवाले मनुष्यको रस्सी या स्तम्भके समान सहारे थे। . अङ्गति अपने कुटुम्बके चक्षु थे, अर्थात् जैसे चक्षु मार्गको प्रकाशित करता है वैसे ही अङ्गति कुटुम्बियाके भी समस्त अर्थोके प्रदर्शक ( सन्मार्गदर्शक ) थे ।
दूसरी वार मेधिभूत आदि विशेषण स्पष्ट बोधके लिये दिये हैं। ' जाव' शब्दसे प्रमाणभूत, आधारभूत, आलम्बनभूत, चक्षुर्भूत, इनका संग्रह होता है। यहाँ सष्टताके लिये 'भूत' शब्द अधिक दिया है, इसका तात्पर्य यह है कि अङ्गति गाथापति मेढी अर्थात् मेढीके सदृश थे, प्रमाण अर्थात् प्रमाणके सदृश थे, आधार
અંગતિ પોતાના કુટુમ્બને પણ આધાર (આશ્રય) હતા, તથા આલંબન હતે, અર્થાત્ વિપત્તિમાં પડેલા મનુષ્યને દેરડું અથવા થાંભલાના જેવા આધાર ३५ तो.
અંગતિ પોતાના કુટુમ્બના ચક્ષુરૂપ હતું, અર્થાત જેમ ચક્ષુ માર્ગને પ્રકાશિત કરે છે તેમ અંગતિ સ્વકુટુમ્બિઓના પણ બધા અને પ્રકાશક (સન્માર્ગ N:) sat.
भीलवार मेधिभूत माहि विशेष स्पष्ट माधन भाटे सापेक्ष छे. 'भाव' શબ્દથી પ્રમાણભૂત, આધારભૂત, આલંબનભૂત, ચક્ષુર્ભત, એ બધાને સંગ્રહ થાય छ, मह स्पष्टताने भाटे 'भूत' श६ घारे मा-को छ. मेनु ताप से छ કે અંગતિ મેધિ અર્થાત મેધિની સમાન હતા, પ્રમાણ અર્થાત્ પ્રમાણની સમાન
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सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. १ अङ्गति गाथापति
=
क्षणीयम्, च=चकारी किश्चेत्यर्थे सर्वकार्यवर्धकः सर्वेषां कार्याणां सम्पादकोऽपि ( एतादृशोऽङ्गतिर्गायापतिः) अभवत् आसीत् ॥ १ ॥
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मूलम् -
तेणं काळेणं २ पासेणं अरहा पुरिसादाणीए आदिगरे जहा महावीरो, नवस्सेहे सोलसेहिं समणसाहस्सीहिं, अद्वतीसा जाव कोट्ठए समोसढे, परिसा निग्गया ।
,
a णं से अंगई गाहावई इमीसे कहाए लट्ठे समाणे हट्ठे जहा कतिओ सेट्ठी तहा निगच्छइ जाव पज्जुवासर, धम्मं सोच्चा निसम्म० जं नवरं देवाणुप्पिया ! जेट्टपुत्तं कुडुंबे ठावेमि, तए णं अहं देवाणुप्पियाणं
२५७
छाया
तस्मिन् काले तस्मिन् समये पार्श्वः खलु अर्हन् पुरुषादानीयः आदिकरो यथा महावीरः नवहस्तोच्छ्रायः षोडशभिः श्रमणसाहस्रीभिः, अष्टात्रिंशद् यावत् कोष्ठके समवसृतः परिषत् निर्गता ।
,
ततः खलु सः अङ्गतिर्गाथापतिः अस्याः कथाया लब्धार्थः सन् हृष्टो यथा कार्तिकश्रेष्ठी तथा निर्गच्छति यावत् पर्युपास्ते, धर्म श्रुखा निशम्य ० यत् नवरं देवानुप्रिय ! ज्येष्ठपुत्रं कुटुम्बे स्थापयामि, ततः खलु अहं देवानु
अर्थात् आधारके सदृश थे, आलम्बन अर्थात् आलम्बनके सदृश थे, चक्षु अर्थात् चक्षु सदृश थे । अङ्गति समस्त कार्योंके सम्पादन करनेवाले भी थे ॥ १ ॥
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હતા, આધાર અર્થાત્ આધારની સમાન હતા, લખન અર્થાત્ આ ખનની અમાન હતા અને ચક્ષુ અર્થાત્ ચક્ષુની સમાન હતા. અંગતિ બધાં કાર્યાંનું સંપાદન કરનારા પણ હતા. (૧)
23
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२५८
३ पुष्पितासूत्र जाव पव्वयामि, जहा गंगदत्तो तहा पवइए जाव गुत्तबंभयारी । तए णं से अंगई अणगारे पासस्स अरहओ तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाइं एकारस अंगाई अहिजइ, अहिजित्ता बहुहिं चउत्थ जाव भावेमाणे: बहूई वासाइं सामनपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता अद्धमासियाए संलेहणाए तीसं भत्ताई अणसणाए छेदित्ता विराहियसामन्ने कालमासे कालं किच्चा चंदवडिंसए विमाणे उववायसभाए देवसयणिजंसि देवदूसंतरिए चंदे जोइसिंदत्ताए उववन्ने ।
तए णं से चंदे जोइसिंदे जोइसराया अहुणोववन्ने समाणे पंचविहाए पजत्तीए पज्जत्तिभावं गच्छइ, तंजहा-आहारपजत्तीए सरीरपजत्तीए इंदियपज्जत्तीए सासोसासपज्जत्तीए भासामणपज्जत्तीए ।
चंदस्स णं भंते ! जोइसिंदस्स जोइसरनो केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता ? गोयमा ! पलिओवमं वाससयसहस्समभहियं । एवं खल्लु प्रियाणां यावत् प्रवजामि यथा गादत्तस्तथा प्रवजितो यावद् गुप्तब्रह्मचारी । ततः खलु सः अङ्गतिः अनगारः पार्थस्य अर्हतः तथारूपाणां स्थविराणाम् अन्तिके सामायिकादीनि एकादशाङ्गानि अधीते, अधीत्य बहुभिश्चतुर्थ यावद् भावयन् बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं पालयति पालयिता अर्धमासिक्या संलेखनया त्रिंशद् भक्तानि अनशनया छित्त्वा विराधितश्रामण्यः कालमासे कालं कुला चन्द्रावतंसके विमाने उपपातसभायां देवशयनीये देवदृष्यान्तरिते चन्द्रो ज्योतिरिन्द्रतया उपपन्नः। ,
ततः खलु स चन्द्रो ज्योतिरिन्द्रो ज्योतीराजः अधुनोपपन्नः सन् पञ्चविधया पर्याप्त्या पर्याप्तिभावं गच्छति, तद्यथा-आहारपर्याप्त्या शरीर पर्याप्त्या इन्द्रियपर्याप्त्या श्वासोच्छ्वासपर्याप्त्या भाषामनःपर्याप्त्या । । ।
चन्द्रस्य खलु भदन्त ! ज्योतिरिन्द्रस्य ज्योतीराजस्य कियत्कालं स्थितिः प्राप्ता ? गौतम ! पल्योपमं वर्षशतसहस्राभ्यधिकम् । एवं खलु
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'सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. १ अङ्गति गाथापति
२५९ गोयमा ! चंदस्स जाव जोइसरनो सा दिव्या देविडा० । चंदेणं भंते ! जोइसिंदे जोइसराया ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं ३ चइत्ता कहिं गच्छिहिइ २ ? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिजिहिइ५ एवं खलु जम्बू ! समणेणं० निक्खेवओ ॥२॥
॥पढमं अज्झयणं समत्तं ॥१॥ गौतम ! चन्द्रस्य यावत् ज्योतीराजस्य सा दिव्या देवऋद्धिः । चन्द्रः खलु भदन्त ! ज्योतिरिन्द्रो ज्योतीराजस्तस्माद्देवलोकादायुःक्षयेण ३ च्युखा कुत्र गमिष्यति २ ? गौतम ! महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति५ । एवं खलु जम्बूः ! श्रमणेन० निक्षेपकः ॥२॥
॥इति प्रथमाध्ययनम् ॥
टीका'तेणं कालेणं' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये पा= त्रिविंशः पार्श्वनामा तीर्थङ्करः, अर्हन्-चतुर्विधघातिकर्मनिवारकः केवलज्ञानकेवलदर्शनसम्पन्नः, पुरुषादानीयः पुरुषैः मुमुक्षुमिर्जनैः स्खकल्याणार्थमादीयत _ 'तेणं कालेणं ' इत्यादि
उस काल उस समयमें पार्थ प्रभु तेवीसवें तीर्थङ्कर ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय इन चार घाति कर्मों के निवारक केवलज्ञान, केवलदर्शनसे युक्त, मुमुक्षुजनोंसे सेव्य अथवा पुरुषांके बीचमें उनका वचन आदानीय=
'तेणं कालेणं' त्याल.
તે કાલે તે સમયે પાર્શ્વ પ્રભુ તેવીસમા તીર્થંકર જ્ઞાનાવરણીય દર્શનવરણય, મોહનીય તથા અંતરાય એ ચાર ઘાતી કર્મોના નિવારક, કેવલજ્ઞાન કેવલદર્શનથી યુક્ત, મુમુક્ષુ જેનેથી સેવ્ય, અથવા પુરૂષોની વચમાં તેમનું વચન
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२६०
३ पुष्पितासूत्र
इति पुरुषादानीयः, यद्वा - पुरुषाणां मध्ये आदेयवचनलात् पुरुषादानीयः, आदिकरः = धर्मस्य आदिकरः, यथा - महावीरः = चतुर्विंशस्तीर्थङ्करः, तथैव सर्वगुणसम्पन्नः, किन्तु पार्श्वप्रभुः नवहस्तोच्छ्रायः नवहस्तपरिमितशरीरः पोडशभिः श्रमणसाहस्त्रीमिः, अष्टात्रिंशद्भिः श्रमणीसहस्त्रैश्व युक्तः यावद् ग्रामानुग्रामं विहरन् कोष्ठके = कोष्ठनामोद्याने समत्रसृतः समागतः, परिषत् निर्गता, पार्श्वतीर्थङ्करस्य धर्मदेशनां श्रुखा स्वस्थानं गता ।
ततः खलु सोऽङ्गतिर्गाथापतिः अस्याः पार्श्वनाथः प्रभु कोष्ठके समवसृतः ' इति वार्तायाः
उसके बाद वह अङ्ग सुनकर हृष्ट होकर कार्तिक सेठके
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कथायाः = ' पुरुषादानीयः लब्धार्थः = ज्ञातवृत्तान्तः
ग्रा था इसलिये पुरुषादानीय, धर्मके आदिकर भगवान महावीरके समान सभी गुणोंसे युक्त, नौ हाथ ऊँचे शरीरवाले सोलह हजार श्रमण और अडतीस हजार श्रमणियोंसे युक्त एक ग्रामसे दूसरे ग्राम तीर्थङ्कर परम्परासे विचरते हुए कोष्ठक नामक उद्यानमें पधारे । जनसमुदायरूप परिषद अपने २ स्थानसे धर्म श्रवणके लिये निकली । पार्श्वनाथ भगवानकी धर्मदेशना सुनकर अपने २ स्थान गयी ।
गाथापति भगवान पार्श्वनाथके आनेका वृत्तान्स समान निकला । पार्श्वनाथ प्रभुके पास जाकर
આદાનીય ગ્રાહ્ય હતું. આથી પુરૂષાદાનીય, ધર્મના આદિ કરવાવાળા ભગવાન મહાવીર સમાન સર્વે ગુણેાથી યુક્ત, નવ હાથ ઊંચા શરીરવાળા, સોળ હજાર શ્રમણુ તથા આડત્રી* હજાર શ્રમણિયેથી યુક્ત એક ગામથી બીજે ગામ તીર્થંકર પરંપરાથી વિચરતા વિચરતા કોક નામના ઉદ્યાન ( ખાગ ) માં પધાર્યા. જન સમુદાય રૂપ પરિષદ પાતપાતાના સ્થાનથી ધર્મ સાંભળવા માટે નીકળી, પાર્શ્વનાથ ભગવાનની ધર્મ દેશના સાંભળી પાતપેાતાને સ્થાને ગઈ.
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ત્યાર પછી તે અંગતિ ગાથાપતિ ભગવાન પાર્શ્વનાથના આવવાના વૃત્તાન્ત સાંભળી હષ્ટ થઇ કાર્તિક શેઠની પેઠે નિકન્યા. પાર્શ્વનાથ પ્રભુની પાસે જઇ તેણે
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सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य- १ अङ्गति गाथापति
२६१*
"
सन् हृष्टः प्रमुदितः यथा कार्तिकश्रेष्ठी तथा निर्गच्छति यावत् पर्युपास्ते= पार्श्वनाथं प्रभुं सेवते स्म । धर्म - श्रुतचारित्रलक्षणं श्रुत्वा कर्णपथे कृत्वा, निशम्य = हृदि समवधार्य देवानुप्रिय ! - हे भगवन् ! यत् नवरं केवलं ज्येष्ठपुत्रं रक्षकतया कुटुम्बे स्थापयामि, ततः खलु अहं देवानुप्रियाणामन्तिके यावत् प्रव्रजामि-संयमं गृह्णामि, यथा भगवत्यङ्गोक्तो गङ्गदत्तस्तथा मत्रजितो यावच्छब्देन स हि - ' किंपाकफलोवमं मुणियविसयसोक्खं जलबुब्बुयसमाणं कुसग्गबिंदुचंचलं जीवियं नाऊणमधुवं चत्ता हिरण्णं विउलधणकणगरयणमणिमोत्तिय संखसिलप्पवालरत्तरयणमाइयं चिच्छडइत्ता दाणं दाइयाणं परि
उसने उनकी सेवा की, और भगवान पार्श्वनाथके द्वारा उपदिष्ट श्रुत चारित्र लक्षण धर्मको सुना, और उसे अपने हृदयमें अवधारित किया । उसके बाद उसने हाथ जोडकर प्रार्थना की- हे भगवन् ! मैं अपने बडे लडकेको कुटुम्बका भार देकर बादमें आपके पास संयम ग्रहण करना चाहता हूँ । अनन्तर वह भगवती अङ्गमें उक्त गंगदत्त के समान ही विषय सुखको किपाक फलके सदृश जानकर जीवनको जल बुदबुद तथा कुशके अग्र भागमें स्थित जलबिन्दुके समान चंचल एवं अनित्य समझकर और बहुतसा चांदी धन कनक रत्न मणि मौक्तिक शंख रत्न शिला प्रवाल रक्तरत्न आदिको छोडकर और दान देकर तथा सम्पत्तिके भागियोंको सम्पत्तिका
તેમની સેવા કરી. તથા ભગવાન પાર્શ્વનાથ દ્વારા ઉપષ્ટિ શ્રુતચાંરિત્ર લક્ષણ ધર્મ સાંભળ્યે; અને તે પોતાના હૃદયમાં ધારણ કર્યો. ત્યાર પછી તેણે હાથ જોડીને પ્રાર્થના કરી–હે ભગવન્! હું મારા માટા દીકરાને કુટુ અને ભાર સોંપી ઈન આપની પાસે સંયમ ગ્રહણ કરવા ઈચ્છા રાખું છું. ત્યાર પછી તે ભગવતી સૂત્રમાં કહેલ ગંગદત્તની પેઠેજ વિષય સુખને કંપાક લની જેમ સમજી જીવનને પાણીના પરપોટા તથા કુશના અગ્ર ભાગમાં રહેલાં જલબિંદુ સમાન ચ ંચલ અને અનિત્ય समलने तथा धणुं यांही, धन, सोनु, रत्न, भथि ( अवेरात ), भोती, शंभ, शिक्षा, પ્રવાલ, રત રત્ન (માણેક) આદિ છેડી ઈને અને દાન દઈને તથા સંપત્તિના
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३ पुष्पितासूत्र
२६२
भारत्ता अगाराओ अणगारियं पञ्चइओ जहा तहा अंगईवि गिहनायगो परिचय सव्वं पव्वइओ जाओ य पंचसमिओ तिगुत्तो अममो अचिणो गुत्तिंदिओ ' इत्येवं संग्राह्यम् । एतच्छाया च स किंपाकफलोपमं ज्ञात्वा विषयसौख्यं जलबुबुदसमानं कुशाग्रबिन्दुचञ्चलं जीवित च ज्ञात्वाऽध्रुवं त्यक्त्वा हिरण्यं विपुल-धन- कनक- रत्न- मणि- मौक्तिक- शङ्ख- शिला- प्रवाल-रक्तरत्नादिकं विमुच्य दानं दायिकानां परिभाज्य अगारतः अनगारितां प्रव्रजितः यथा तथा अङ्गतिरपि गृहनायकः परित्यज्य सर्व प्रव्रजितो जातश्च पश्चसमितः, त्रिगुप्तः, अममः, अकिञ्चनः गुप्तेन्द्रियः, इति । गुप्तब्रह्मचारी बभूव, ततः खलु अङ्गतिरनगारः पार्श्वस्याईतस्तथारूपाणां स्थविराणामन्तिके सामायिकादीनि एकादशाङ्गानि अधीते स्म, अधीत्य च बहुभिः चतुर्थषष्ठाऽष्टम- दशमद्वादशमासार्धमा सक्षपणैरात्मानं भावयन् - वासयन् बहूनि वर्षाणि
आग देकर घर से निकल गङ्गदत्तके समान प्रव्रजित हो गये । प्रव्रज्या लेने पर वे अङ्गति अनगार ईर्ष्या आदि पाँच समितियोंसे समित मन आदि तीन गुप्तिसे गुप्त और ममत्व रहित एवं अकिञ्चन - बह्याभ्यन्तर परिग्रहसे रहित और पाँचों इन्द्रियोंको दमन करनेवाले अनगार हो गये, और गुप्त ब्रह्मचारी बने । उसके बाद अङ्गति अनगारने अर्हत् पार्श्व प्रभुके तथारूप - बहुश्रुत - स्थविरोंके समीप सामायिक आदि ग्यारह अङ्गोंका अध्ययन किया । अध्ययनके बाद बहुतसे चतुर्थ षष्ठ अष्टम दशम द्वादश
ભાગીદારાને સંપત્તિના ભાગ આપી પાતાના ઘરથી નીકળી ગંગદત્તની પેઠે પ્રત્રજિત થઈ ગયા. પ્રવ્રજ્યા લઇને તે અંગતિ અનગાર ધૈર્યો માઢિ પાંચ સમિતિઆથી સમિત. મન આદિ ત્રણ ગુપ્તિથી ગુપ્ત તથા મમત્વ રહિત અને અકિંચનમાહ્ય-અભ્યંતર પરિગ્રહથી રહિત તથા પાંચે ઇન્દ્રિયાનું દમન કરવાવાળા અનગાર થઈ ગયા. તથા ગુપ્ત બ્રહ્મચારી અન્યા. ત્યાર પછી અંગતિ અનગારે અર્હત્ પા પ્રભુના તથારૂપ-મહુશ્રુત-સ્થવિરાની પાસે સામાયિક આદિ અગીયાર અંગાનું અધ્યયન यु. अध्ययन पछी भाषा अतुर्थ, षष्ठ, अष्टभ, हशभ, द्वाहश, भासार्धं ( भास)
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सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. १ अङ्गति गाथापति
२६३ श्रामण्यपर्यायं = मुनित्रतं पालयति पालयित्वा विराधितश्रामण्यः = विराधितमुनित्रतः, विराधना द्विधा - मूलगुणविषया उत्तरगुणविषया च, अत्रोत्तरगुणविषया विराधना पिण्डविशुद्धयादयो विज्ञेयाः, न तु प्रथमा, तत्र कदाचित् द्विचत्वारिंशद्दोषविशुद्धाहारस्य न ग्रहणं कृतम्, कदाचित् ईयसमित्यादि -
मासार्घ मास क्षपण रूप तपसे अपनी आत्माको भावित करते हुए बहुत वर्षों तक चारित्र पालन किया । परन्तु उत्तरगुणकी विराधना के कारण विराधितचारित्र हो, अर्धमासिकी संलेखना से अनशनद्वारा तीस भक्तोका छेदन कर काल मासमें काल करके चन्द्रावतंसक विमानमें उपपात सभामें देवदूष्य वस्त्रोंसे आच्छादित देवशय्यामें वह अङ्गति अनगार ( १ ) आहार - पर्याप्ति ( २ ) शरीर - पर्याप्ति ( ३ ) इन्द्रियपर्याप्ति ( ४ ) श्वासोच्छ्वास–पर्याप्ति भाषा मनः पर्याप्ति भावको प्राप्त करके ज्योतियिषों के इन्द्र चन्द्र होकर उत्पन्न हुए ।
विराधना दो प्रकारकी है - मूलगुणविराधना और उत्तरगुणविराधना । उनमें पांच महाव्रतमें दोष लगाना मूलगुणविराधना है । और पिण्डविशुद्धि आदिमें दोष लगाना जैसे - कभी बयालीस दोष सहित आहार पानीका ग्रहण करना
માસ ક્ષમણુ રૂપ અનેક તપથી પાતાના આત્માને ભાવિત કરતાં ઘણાં વર્ષો સુધી ચાસ્ત્રિ પાલન કર્યું " પણુ ઉત્તર ગુણુની વિશધનાને કારણે વિરાધિતચારિત્રવાળા થઇ અ માસિકી સāખનામાં અનશન દ્વારા ત્રીશ ભક્તનું છેદન કરી કાલ માસમાં કાલ કરીને ચન્દ્રાવત સક વિમાનમાં ઉપપાત સભામાં દૈવષ્ય વસ્ત્રોથી આચ્છાદિત ( ઢંકાયેલી ) દેવશય્યામાં તે અંગતિ અનગાર ( ૧ ) આહાર–પર્યાસિ ( २ ) शरीर-पर्याप्ति ( 3 ) इन्द्रिय-पर्याप्ति (४) श्वासोश्वास-पर्याप्ति-भाषाभन: -પોસિ ભાવને પ્રાપ્ત કરીને જ્યોતિષાના ઇન્દ્ર ચંદ્ર બનીને ઉત્પન્ન થયા.
વિરાધના એ પ્રકારની છે-મૂલગુણવિરાષના અને ઉત્તરગુણવરાધના તેમાં પાંચ મહાવ્રતમાં દોષ લગાડવા એ મૂલગુણવિરાધના છે. અને પિંડ વિશુદ્ધિ આદિમાં દોષ લગાડવા જેમકે કાઇવાર ખેતાલીશ દોષ સહિત માહાર
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३ पुष्पितासत्र समाराधनेऽनादरः कृतः, कदाचित् अभिग्रहाश्च गृहीता अपि न सम्यक् पालिताः, विभूषार्थमङ्गपादक्षालनादि च कृतम्, इत्यादिरूपेण व्रतविराधना कृता, सा च न गुरुसमीपे समालोचिता, इत्युक्तरूपेणानालोचितातिचारः सन् कृतानशनोऽपि अर्धमासिक्यां संलेखनायामनशनया त्रिंशद् भक्तानि छित्त्वा कालावसरे कालं कृत्वा मृत्वा चन्द्रावतंसके विमाने उपपातसभायां देवशयनीये-देवशय्यायां देवदूष्यान्तरिते देवदृष्यवस्त्राच्छादितेऽयं चन्द्रो ज्योतिरिन्द्रतयोपपन्ना समुदपद्यत-तस्य ज्योतिर्देवे जन्म जातमित्यर्थः । निक्षेपो-निगमनम् । शेषं सुगमम् ॥ २॥
॥ इति प्रथममध्ययनं समाप्तम् ॥ १॥ कभी ईर्या आदि समितियोंके आराधनमें प्रमाद करना कभी अभिग्रह लेना किन्तु सम्यक् नहीं पालना तथा विभूषाके लिये शरीर चरण आदिका क्षालन करना, आदि २ उत्तरगुण विषयक विराधना देशविराधना है। अङ्गति अनगारने मूल गुणकी विराधना नहीं की, किन्तु उत्तरगुणकी विराधनाकर आलोचना नहीं की। इसलिये यह ज्योतिषी देव हुआ।
गोतम स्वामी पूछते हैं
हे भदन्त ! ज्योतिषियोंके इन्द्र, ज्योतिषियोंके राजा चन्द्रकी स्थिति कितने कालकी है ? પાણી લેવા, કેઈવાર ઈર્યા વગેરે સમિતિઓના આરાધનમાં પ્રમાદ કર, કેઈવાર અભિગ્રહ લે પરંતુ સમ્યક્ (સારી રીતે) ન પાળવે, તથા વિભૂષા માટે શરીર ચરણ આદિ દેવાં આદિ આદિ ઉત્તરગુણ વિષયક વિરાધના દેશવિરાધના છે. અંગતિ અનગારે મૂલ ગુણની વિરાધના કરી નહોતી પણ ઉત્તર ગુણની વિરાધના કરી આલોચના કરી નહોતી તે માટે તે તિષી દેવ થયા. .. गौतम स्वामी पछे छ-- .. ' હે ભદન્ત! જોતિષના ઈન્દ્ર જાતિના રાજા ચન્દ્રની સ્થિતિ કેટલા
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२६५
सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. १ अङ्गति गाथापति __ २६५
भगवान कहते हैं
हे गौतम ! ज्योतिषोंके इन्द्र चन्द्रकी स्थिति एक पल्योपम और एक लाख वर्षकी है। हे गौतम ! ज्योतिषोंके इन्द्र ज्योतिषोंके राजा चन्द्रको यह दिव्य देव ऋद्धि पूर्व भवमें उपार्जित तप और संयमके कारण मिली है।
हे भदन्त ! चन्द्र देव अपना आयुष्यभव तथा अपनी स्थितिके क्षय होजानेके बाद च्यवकर कहाँ जायगे ?
__ हे गौतम ! आयु आदि क्षयके बाद यह चन्द्र देव महाविदेहक्षेत्रमें जन्म लेकर सिद्ध होंगे।
सुधर्मा स्वामी कहते हैं---
हे जम्बू ! इस प्रकार मोक्ष प्राप्त श्रमण भगवान महावीरने पुष्पिताके प्रथम अध्ययनका निरूपण किया है।
इति प्रथम अध्ययन समाप्त हुआ। ભગવાન કહે છે
હે ગૌતમ! જ્યોતિષના ઈન્દ્ર ચંદ્રની સ્થિતિ એક પલ્યોપમ અને એક લાખ વર્ષની છે. હે ગૌતમ! જોતિના ઈન્દ્ર તિના રાજા ચન્દ્રને આ દિવ્ય દેવઋદ્ધિ પૂર્વભવમાં ઉપાર્જિત તપ અને સંયમના કારણથી મળી છે.
હે ભદન્ત ! ચન્દ્ર દેવ પિતાનું આયુષ્ય ભવ તથા પિતાની સ્થિતિના ક્ષય થઈ ગયા પછી ચવીને કયાં જશે.
છે ગૌતમ આયુ આદિ ક્ષય થઈ ગયા પછી આ ચન્દ્ર દેવ મહા વિદેહ ક્ષેત્રમાં જન્મ લઈને સિદ્ધ થશે.
સુધર્મા સ્વામી કહે છે—
હે જખ્ખ ! આ પ્રકારે મોક્ષ પ્રાપ્ત શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પુષ્પિતાના પ્રથમ અધ્યયનનું નિરૂપણ કર્યું છે.
મ અધ્યયન સન્માત,
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३ पुष्पितासूत्र
मूलम्
। जइणं भंते ! समणेणं भगवया जाव पुफियाणं पढमस्स अज्झयणस्स जाव अयमढे पन्नत्ते, दोच्चस्स णं भंते ! अज्झयणस्स पुफियाणं समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं के अटे पन्नत्ते ? एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं २ रायगिहे नामं नयरे, गुणसिलए चेइए, सेणिये राया, समोसरणं जहा चंदो तहा सूरोऽवि आगओ जाव नट्टविहिं उवदंसित्ता पडिगओ। पुव्यभवपुच्छा, सावत्थी नगरी, सुपइटे नाम गाहावई होत्था, अड्डे, जहेव अंगती जाव विहरति, पासो समोसढे, जहा अंगती तहेव पव्वइए, तहेव विराहियसामन्ने जाव महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव अंतंकाहिति, एवं खलु जंबू ! समणेणं० निक्खेवओ ॥२॥
॥बीयं अज्झयणं समत्तं ॥२॥
छाया
। यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन भगवता यावत् पुष्पितानां प्रथमस्य • अध्ययनस्य यावत् अयमर्थः प्रज्ञप्तः द्वितीयस्य खलु भदन्त ! अध्ययनस्य
पुष्पितानां श्रमणेन भगवता यावत् संप्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? एवं खलु 'जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नाम नगरं, गुणशिलक
चैत्यं, श्रेणिको राजा, समवसरणं यथा चन्द्रः तथा सूरोऽपि आगतो यावद नाट्यविधिमुपदर्य प्रतिगतः । पूर्वभवपृच्छा-श्रावस्ती नगरी मुमतिष्ठो नाम गाथापतिरभवत् आढ्यः यथैव अङ्गतिर्यावद् विहरति, पार्थः समवसृतः, यथा अङ्गतिस्तथैव प्रबजितः तथैव विराधितश्रामण्यो यावत् महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति यावत् अन्तं करिष्यति, एवं खलु जम्बूः ! श्रमणेन निक्षेपकः ॥२॥
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सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. २ अङ्गति गाथापति
टीका'जइणं भंते' इत्यादि सुगमम् ॥२॥
॥ इति द्वितीयमध्ययनं समाप्तम् ॥
द्वितीय अध्ययन. 'जइणं भंते' इत्यादि
हे भदन्त ! श्रमण भगवान महावीरने पुष्पिताके प्रथम अध्ययनमें पूर्वोक्त भावोंका निरूपण किया है तो फिर हे भदन्त ! पुष्पिताके द्वितीय अध्ययनमें उन्होंने किस भावका निरूपण किया है ? हे जम्बू ! उस काल उस समयमें राजगृह नामकी नगरी थी। उस नगरीमें गुणशिलक नामका चैत्य था । उस नगरीमें श्रेणिक नामके राजा थे। वहाँ श्रमण भगवान महावीर पधारे । जिस प्रकार चन्द्रमा आये उसी प्रकार सूर्य भी आये और यावत् नाट्य विधि दिखाकर चले गये। - गौतमने भगवानसे पूछा
हे भदन्त ! सूर्य पूर्व जन्ममें कौन थे ?
દ્વિતીયઅધ્યયન. હે ભદન્ત! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પુપિતાના પ્રથમ અધ્યયનમાં પૂર્વોક્ત ભાવનું નિરૂપણ કર્યું છે. પછી તે ભદન્ત! પુષ્પિતાના બીજા અધ્યયનમાં તેમણે ४या भावनु नि३५५५ ४यु छ?
હે જબૂ! તે કાલે તે સમયે રાજગૃહ નામે નગરી હતી. તે નગરીમાં ગુણ શિક્ષક નામે ચૈત્ય (બગીચો) હતું. તે નગરીમાં શ્રેણિક નામે રાજા હતા. ત્યાં શ્રમણ ભગવાન મહાવીર પધાર્યા. જેવી રીતે ચન્દ્રમાં આવ્યા તેવી રીતે સૂર્ય પણ આવ્યા અને સઘળી નાટક વિધિ બતાવી ચાલ્યા ગયા.
ગૌતમે ભગવાનને પૂછયુંહે ભદન્ત! સૂર્ય પૂર્વ જન્મમાં કેણ હતા?
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२६८
३ पुष्पितासूत्र
भगवानने कहा
हे गौतम ! उस काल उस समयमें श्रावस्ती नामकी नगरी थी। उस नगरीमें सुप्रतिष्ठ नामके गाथापति थे। जो अङ्गतिके समान हो आढ्य यावत् अपरिभूत होकर विचरते थे। उस नगरीमें भगवान पार्श्व प्रभु पधारे । जैसे अङ्गति गाथापति प्रवजित हुए उसी प्रकार सुप्रतिष्ठ गाथापति भी प्रवजित हुए। उसी प्रकार श्रामण्यको विराधित कर काल अवसर काल करके ज्योतिषोंके इन्द्र सूर्य देवपनेमें उत्पन्न हुए। और आयु भव स्थिति क्षय करनेके बाद यह सूर्य देव महाविदेह क्षेत्रमें जन्म लेकर सिद्ध होंगे। और सब दुःखोका अन्त करेंगे । हे जम्बू ! इस प्रकार श्रमण भगवान महावीरने द्वितीय अध्ययनके भावोंको निरूपित किया है।
इति द्वितोय अध्ययन समाप्त हुआ।
ભગવાને કહ્યું–
હે ગૌતમ! તે કાલે તે સમયે શ્રાવસ્તી નામે નગરી હતી. તે નગરીમાં સુપ્રતિષ્ઠ નામે ગાથાપતિ હતા. જે અંગતિના જેવાજ આલ્ય અને અપરિભૂત થઈને વિચરતા હતા. તે નગરીમાં ભગવાન પાર્શ્વ પ્રભુ પધાર્યા. જેમ અંગતિ ગાથાપતિ પ્રજિત થયા તેવી જ રીતે સુપ્રતિષ ગાથાપતિ પણ દીક્ષિત થયા. તેજ પ્રકારે સાધુપણાને વિરાધિત કરી કાલ અવસર કોલ કરીને તિષના ઈન્દ્ર સૂર્ય દેવપણામાં ઉત્પન્ન થયા તથા આયુ ભવસ્થિતિ ક્ષય કરીને પછી આ સૂર્ય દેવ મહા વિદેહ ક્ષેત્રમાં જન્મ લઈને સિદ્ધ થશે અને સર્વે દુઃખને અંત લાવશે. હે જખ્ખી આ પ્રકારે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પુષિતાના દ્વિતીય અધ્યયનના ભાવનું નિરૂપણ કર્યું છે.
આ પુપિતાનું બીજું અધ્યયન પુરું થયું
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सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. ३ अङ्गति गायापति
२६९
मूलस्जइणं भंते ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं उक्खेवओ भाणियव्यो, रायगिहे नयरे, गुणसिलए चेइए, सेणिए राया, सामी समोसढे, परिसा निग्गया । तेणं कालेणं २ मुक्के महग्गहे मुक्वडिसए विमाणे मुक्कंसि सीहासणंसि चउहि सामाणियसाहस्सीहिं जहेव चंदो तहेव आगओ, नट्टविहिं उवदंसित्ता पडिगओ । भंते ति कूडागारसाला । पुव्वभवपुच्छा ।
एवं खलु गोयमा ! तेषं कालेणं २ वाणारसी नामं नयरी होत्था । तत्थ णं वाणारसीए नयरीए सोमिले नामं माहणे परिवसइ, अड्डे जाव अपरिभूए रिउव्वेय-जाव सुपरिनिटिए । पासे समोसढे। परिसा पजुवासइ । तएणं तस्स सोमिलस्स माहणस्स इमीसे कहाए लट्ठस्स समाणस्स इमे एयारूवे अज्झथिए० जाव समुप्फजित्था-एवं खलु पासे
छाया
यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन भगवता यावत् सम्भाप्तेन उत्क्षेपको भणितव्यः । राजगृहं नगरम् । गुणशिलकं चैत्यम् । श्रेणिको राजा । स्वामी समवसृतः । परिषत् निर्गता । तस्मिन् काले तस्मिन् समये शुक्रो महाग्रहः शुक्रावतंसके विमाने शुक्रे सिंहासने चतसृभिः सामानिकसाहस्रीमिः, यथैव चन्द्रस्तथैवागतः, नाव्यविधिमुपदर्य प्रतिगतः । भदन्त ! इति कूटाकारशाला । पूर्वभवपृच्छा ।
___ एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये वाराणसी नाम नगरी अभवत् । तत्र खलु वाराणास्यां नगर्या सोमिलो नाम ब्राह्मणः परिवसति, आब्यो यावत् अपरिभूतः ऋग्वेद० यावत् सुपतिष्ठितः । पार्थः समवसृतः । परिषत् पर्युपास्ते । ततः खलु तस्य सोमिलस्य ब्राह्मणस्य
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३ पुष्पितासूत्र अरहा पुरिसादाणीए पुन्वाणुपुचि जाव अंबसालवणे विहरइ, तं गच्छामि णं पासस्स अरहओ अंतिए पाउब्भवामि । इमाइं :च णं एयारवाई अट्ठाई हेऊइं जहा पण्णत्तीए ।
सोमिलो निग्गओ खंडियविहूणो जाव एवं वयासी-जत्ता ते भंते ! ? जवणिज्जं च ते ? पुच्छा, सरिसवया, मासा, कुलत्था, एगे भवं, जाव संबुद्धे सावगधम्म पडिवजित्ता पडिगए । तए णं पासे अरहा अण्णया कयाइ वाणारसीओ नयरीओ अंबसालवणाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ ।
तएणं से सोमिले माहणे अण्णया कयाइ असाहुदंसणेण य अपजुवासणयाए य मिच्छत्तपज्जवेहिं परिवड्डमाणेहिं २, सम्मत्तपज्जवेहिं परिहायमाणेहिं २, मिच्छत्तं च पडिवन्ने । अस्याः कथायाः लब्धार्थस्य सतः अयमेतद्रूपः आध्यात्मिक ४, यावत् समुदपद्यत-एवं खलु पार्थः अर्हन् पुरुषादानीयः पूर्वानुपूर्व्या यावत् आम्रशालवने विहरति, तद् गच्छामि खलु पार्थस्य अर्हतोऽन्तिके प्रादुर्भवामि, इमान् च खलु एतद्रूपान् अर्थान् हेतून् यथा प्रज्ञप्त्याम् ।
सोमिलो निर्गतः खण्डिकविहीनो यावत् एवमवादीत्-यात्रा ते भदन्त ! ?, यापनीयं च ते ? पृच्छा, सदृशवयसः, माषाः, कुलस्थाः , एको भवान् , यावत् संबुद्धः श्रावकधर्म प्रतिपद्य प्रतिगतः । ततः खलु पार्थः अर्हन् अन्यदा कदाचित् वाराणसीतो नगरीतः आम्रशालवनाच्चैत्याव प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य बहिर्जनपदविहारं विहरति ।
___ ततः स सोमिलो ब्राह्मणः अन्यदा कदाचित् असाधुदर्शनेन च अपर्युपासनतया च मिथ्यात्वपर्यवैः परिवर्धमानैः २, सम्यक्त्वपर्यवैः परिहीयमानैः २ मिथ्यात्वंच प्रतिपन्नः ।
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सुन्दरबोधिनो टोका वर्ग ३ अध्य. ३ अङ्गति गायापति
तए णं तस्स सोमिलस्स माहणस्स अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुंबजागरियं जागरमाणस्स अयमेयास्त्रे अज्झथिए जाव. समुप्पज्जित्था-एवं खलु अहं वाणारसीए नयरीए सोमिले नाम माहणे अचंतमाहणकुलप्पमूए । तएणं मए वयाई चिण्णाइं, वेया य अहीया, दाराआहूया, पुत्ता जणिया, इडीओ समाणीयाओ, पसुवधा कया, जन्ना जेट्टा, दक्खिणा दिन्ना, अतिही पूजिया, अग्गो हूया, जूपा निक्खिता, तं सेयं खलु ममं इयाणि कल्लं जाव जलंते वाणारसीए नयरीए बहिया वहवे अंबारामा रोवावित्तए, एवं माउलिंगा, बिल्ला, कविट्ठा, चिंचा, पुप्फारामा रोवावित्तए । एवं संपेहेइ संपेहिता कल्लं जाव जलंते वाणारसीए, नयरीए बहिया अंबारामे य जाव पुप्फारामे य रोवावेइ । तएणं बहवे अंबारामा य जाव पुप्फारामा य अणुपुव्वेणं सारक्खिज्जमाणा संगोविज
ततः खलु तस्य सोमिलस्य ब्राह्मणस्य अन्यदा कदाचित् पूर्वरात्रापररात्रकालसमये कुटुम्बजागरिकां जानवोऽयमेतद्रूप आध्यात्मिकः यावत् समुदपद्यत-एवं खलु अहं वाराणस्यां नगर्या सोमिलो नाम ब्राह्मणोऽत्यन्त ब्राह्मणकुलपसूतः । ततः खलु मया व्रतानि चीर्णानि वेदाश्चाधीताः, दारा आहूताः, पुत्रा जनिताः, ऋद्धयः समानीताः, पशुवधाः कृताः, यज्ञा इष्टाः, दक्षिणा दत्ता; अतिथयः पूजिताः, अग्नयो हुताः, यूपा निक्षिप्ताः, तच्छ्रेयः खलु ममेदानी कल्ये यावत् ज्वलति वाराणस्यां नगया बहिर्वहून् आम्रारामान रोपयितुम् , एवं मातुलिङ्गान् , बिल्वान् , कपित्थान् , चिश्चाः, पुष्पारामान रोपयितुम् । एवं संपेक्षते, संप्रेक्ष्य कल्ये यावत् ज्वलति वाराणस्या नगर्या बहिः आम्रारामांश्च यावत् पुष्पारामांश्च रोपयति । ततः खलु बहव आम्रारामाश्च यावत् पुष्पारामाशु अनुपूर्वेण संरक्ष्यमाणाः, संगोप्यमानाः, संवद्धर्यमानाः आरामाः जाता
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३ पुष्पितासत्र माणा ड्डियमाणा आरामा जाया, किण्हा किण्होभासा जाब रम्मा महामेहनिकुरंबभूया पत्तिया पुफिया फलिया हरियगरेरिजमाणसिरीया अईष २ उवसोभेमाणा २ चिट्ठति ॥३॥
कृष्णाः कृष्णावभासा यावत् रम्या महामेघनकुरम्बभूिताः पत्रिताः पुष्पिताः फलिताः हरितकराराज्यमानश्रीकाः अतीवातीव उपशोभमाना उपशोभमानास्तिष्ठन्ति ॥३॥
टीका'जइणं भंते' इत्यादि । उत्क्षेपका पारम्भवाक्यं यथा-'जइण भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं दोच्चस्स अज्झयणस्स पुफियाणं अयमढे पन्नत्ते,
तृतीय अध्ययन. 'जइणं भंते ' इत्यादि
हे भदन्त ! यावत् सिद्धिगतिस्थानको प्राप्त श्रमण भगवान महावीरने पुष्पिताके द्वितीय अध्ययनमें पूर्वोक्त अाँका निरूपण किया है तो हे भदन्त ! तृतीय अध्ययनमें उन्होंने किन अाँका निरूपण किया है ?
हे जम्बू ! उस काल उस समयमें राजगृह नामक नगर था ! गुणशिलक
म बीन्ने अध्ययन. 'जइणं मते' इत्यादि
હે ભદન્ત! એ પ્રમાણે સિદ્ધિ ગતિ સ્થાનને પ્રાપ્ત એવા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પુષ્પિતાના દ્વિતીય અધ્યયનમાં પૂર્વોક્ત અર્થોનું નિરૂપણ કર્યું છે તે છે દિન! ત્રીજા અધ્યયનમાં તેમણે કયા અર્થોનું નિરૂપણ કર્યું છે? - હે જમ્મ! તે કાલે તે સમયે રાજગહ નામે નગર હતું. ગુણશિલક નામે
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. सुन्दरपोधिनी टोका वर्ग ३ अभ्य. ३ अङ्गति गायापति
२७३ सच्चस्सणं मंते ! अज्मयणस्स पुफियाणं समणेणं जाव संपत्तेणं के अटे पञ्चत्ते ? । एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं २ रायगिहे' इत्यादि । मादु
नामका चैत्य था। उस नगरीमें श्रेणिक नामके राजा थे। वहाँ भगवान महावीर प्रभु पधारे । परिषद धर्म कथा श्रवण करनेको निकली।
उस काल उस समयमें शुक्र महाग्रह शुक्रावतंसक विमानमें शुक्रसिंहासन पर चार हजार सामानिक देवोंके साथ बैठे हुए थे। वह शुक्र महाग्रह चन्द्र ग्रह समान भगवानके पास आये और नाट्यविधि दिखाकर वैसे ही चले गये । गौतमको जिज्ञासा हुई कि हे भदन्त ! यह शुक्र महाग्रह इस प्रकार देवताओंके द्वारा नाट्यविधि दिखाकर सबको अन्तर्हित करके अकेले रह गये यह बड़े आश्चर्यकी बात है। .. भगवानने कहा
हे गौतम ! कूटाकारशाला-पर्वत शिखरके समान ऊँचे विशाल मकानमें
તેમાં ચૈત્ય હતું. તે નગરમાં શ્રેણિક નામે રાજા હતા. ત્યાં ભગવાન મહાવીર પ્રભુ પધાર્યા. પરિષદ ધર્મ કથાનું શ્રવણ કરવા નીકળી.
તે કાલે તે સમયે શુક મહાગ્રહ શુકાવસક વિમાનમાં શક સિંહાસન ઉપર ચાર હજાર સામાનિક દેવેની સાથે બેઠા હતા. તે શક મહાગ્રહ ચન્દ્રગ્રહની પેઠે ભગવાનની પાસે આવ્યા અને નાટય વિધિ દેખાડીને એમજ ચાલ્યા ગયા.
ગૌતમને જીજ્ઞાસા થઈ કે હે ભદન્ત! આ શુક્ર મહાગ્રહ આ પ્રકારે દેવતાઓ દ્વારા નાટય વિધિ દેખાડી બધાને અન્તહિત કરી એકલા રહી ગયા આ બહુ આશ્ચર્યની વાત છે.
ભગવાને કહ્યું – - હે ગૌતમ! ફટાકારશાળા-પર્વત શિખરની પેઠે ઊંચા વિશલ મકાનમાં
.
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२७४
.३ पुष्पितासूत्र वर्षा आदि के भयसे बिखरा हुवा. जन समूह जिस प्रकार अन्तर्हित होजाता है उसी प्रकार शुक्रकी वैक्रयिकशक्तिसे उत्पन्न देवगण नाटक दिखाकर उनकी देहमें प्रविष्ट हो गये।
गौतम स्वामीने पूछाहे भगवन् ! यह शुक्र महाग्रह अपने पूर्व जन्ममें कौन थे ?
हे गौतम ! उस काल उस समयमें वाराणसी नामकी नगरी थी। उस नगरीमें सोमिल नामका ब्राह्मण रहता था। वह ब्राह्मण आढ्य यावत् अपरिभूत था। वह ऋग्वेद आदि वेद तथा उनके अङ्ग उपाङ्गमें परिनिष्ठित था। उस नगरीमें भगवान् पार्श्वनाथ तीर्थङ्कर पधारे । परिषद् धर्मकथा सुननेके लिये भगवानके पास गयी।
भगवानके आनेका वृत्तान्त सुनकर उस वाराणसी नगरीमें रहनेवाले सोमिल ब्राह्मणके हृदयमें इस प्रकार आध्यात्मिक-विचार उत्पन्न हुआ कि मुमुक्षु जनोंके
વરસાદના ભયથી વિખરાઈ ગયેલા જન સમહ જેવી રીતે અન્તર્હિત થઈ જાય છે તેવી જ રીતે શુક્રની વૈકમિક શક્તિથી ઉત્પન્ન થયેલા દેવગણ નાટક દેખાડી તેનાજ દેહમાં સમાઈ ગયા.
गौतभ.५७यु:હે ભગવન! આ શુક્રમહાગ્રહ તેના પૂર્વજન્મમાં કેણ હતા?
હે ગૌતમ! તે કાલે તે સમયે વારાણસી નામે નગરી હતી તે નગરીમાં સમિલ નામે બ્રાહ્મણ રહેતો હતો. તે બ્રાહ્મણ આઠય યાવત અપરિભૂત હતો. તે વૃંદ વગેરે વેદ તથા તેનાં અંગ અને ઉપાંગમાં પરિનિષિત હતો. તે નગરીમાં ભગવાન પાર્શ્વનાથ તીર્થંકર પધાર્યા પરિષદ ધર્મકથા સાંભળવા માટે ભગવાન પાસે ગઈ.
• ભગવાનના આવવાના સમાચાર સાંભળી તે વારાણસી નગરીમાં રહેવાવાળા સોમિલ બ્રાહ્મણના હૃદયમાં આ પ્રકારને આધ્યાત્મિક વિચાર ઉત્પન્ન થયે કે
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सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ३ अङ्गति गायापति
___२७५ . भवामि-उपस्थितो भवामि, अर्थान् आत्मकल्याणरूपान् हेतून् कारणानि, यद्वा-हेतून् अनुमानस्य पश्चावयववाक्यरूपान् , यथा प्रज्ञप्त्यां व्याख्या प्रज्ञप्त्यां भगवतीसूत्रे तथा विज्ञेयम् । खण्डिकविहीनः शिष्यरहितः, सोमिलो ब्राह्मणः पार्थनाथमुपेतः एवं-वक्ष्यमाणम् अवादीत्-हे भदन्त ! ते-तव यात्रा वर्तते ?, ते यापनीयं वर्तते किम् ? इति, तथा 'सरिसवया मासा कुलत्था एए भक्खेया वा अभक्खेया' इति, तथा 'एगे भवं, दुवे भवं'
आश्रयणीय अर्हत् पार्श्वनाथ तीर्थङ्कर तीर्थङ्करोंकी मर्यादाको पालन करते हुए यावत् आम्रशाल वनमें पधारे हैं।
इस लिये जाऊँ और भगवान पार्श्वनाथके समीप उपस्थित होऊँ। और उनसे अनेकार्थक शब्दोंका अर्थ तथा हेतु-कारण अथवा अनुमानके पश्चावयव वाक्योको पूढूँ। ऐसा विचार कर शिष्योंको साथ लिये बिना अकेला ही भगवानके पास आया और इस प्रकार भगवानसे प्रश्न किया-हे भदन्त ! आपके यात्रा है ? आपके यापनीय है ? - ' सरिसक्या, मास, और कुलथ' भक्ष्य हैं या अभक्ष्य ? आप एक हैं या दो ? इत्यादि प्रश्न किया।
મુમુક્ષુજનેના આશ્રમણય અહંતુ પાર્શ્વનાથ તીર્થકર તીર્થકરોની મર્યાદાનું પાલન કરતા અહીં આઝશાલ વનમાં પધાર્યા છે.
આ માટે હું જઈને ભગવાન પાર્શ્વનાથની પાસે ઉપસ્થિત થાઉં અને તેમને અનેક અર્થવાળા શબ્દોના અર્થ તથા હેતુ ; કારણ અથવા અનુમાનના પંચાવયવ વાક્ય પૂછું. આ વિચાર કરી શિષ્યને પિતાની સાથે લીધા વગરએકલાજ- ભગવાનની પાસે આવ્યા અને આ પ્રકારે ભગવાનને પ્રશ્ન કર્યો –
त.! मापन यात्रा छे भरी ? मापन यापनीय ? सरिसक्या, માસ, અને કુલત્થ' ભય છે કે અભય? આપ એક છે કે બે ? ઇત્યાદિ પ્રશ્નો કર્યા.
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२७६
३ पुग्पितासन इत्यादि च सोमिलो यत्पृष्टवान् तच्छलेनोपहासार्थम् । 'यात्रा' इत्यस्य संयममार्गेषु प्रवृत्तिरिति । 'यापनीयम्' इत्यस्य मोक्षमार्गे गच्छतां प्रयोजक इन्द्रियवश्यत्वलक्षणो धर्म इति । 'सरिसवया' इत्यस्य सदृशवयसः सर्पपाश्च भक्ष्या वा अभक्ष्या इति । 'मासा' इत्यस्य माषाः पञ्चगुञ्जामानविशेषाः, धान्यविशेषाः 'उडद' इति प्रसिद्धाः, मासा कालविशेषाश्चेति । 'एगे भवं' इत्यस्य ‘एको भवान्' इत्येकलाभ्युपगमे आत्मनः कृते
यहाँ ' यात्रा' का अर्थ है संयम मार्गमें प्रवृत्ति ।
'यापनीय ' का अर्थ है-मोक्ष मार्गमें जानेवालोंके प्रयोजक इन्द्रिय और मनका वश करने रूप धर्म ।
'सरिसवया' का अर्थ है-समान अवस्थावाला और सरसों।
'मास' का अर्थ है-मास काल विशेष, माष-उडद, माष प्राचीन रीतिसे पाँच गुञ्जावाला मान विशेष ।
‘एको भवान् ' इसका अभिप्राय है-यदि भगवान पार्श्वनाथ आत्माकी एकता मान लेंगे तो मैं श्रोत्र आदिके ज्ञान और अवयवोंसे आत्माकी अनेकता सिद्ध करूँगा।
मी त्रा' न अर्थ छे संयम भाभा प्रवृत्ति.
'यापनीय' न मर्थ छ मोक्षमार्गमा पानी प्रयोग धन्द्रिय અને મનને વશ કરવારૂપી ધર્મ.
'सरिसषया' नाई छ समान अवस्था भने सरसो.
'मास' को अर्थ छ भ.स=teविशेष, भास=36, भास प्राचीन शत પ્રમાણે પાંચ રતી-ચઠીવાલા માનવિશેષ. .. 'एको भवाम् ' भान व मत छे , मान पाच नाय આત્માની એકતા માની લેશે હું શ્રોત્ર આદિનું જ્ઞાન તથા અવયથી આત્માની અનેતા સિદ્ધ કરીશ.
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सम्बरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ३ अङ्गति गाथापति भोत्रादिज्ञानानामवयवानाश्चात्मनोऽनेकखोपळाध्या एकत्वं दूषयिष्यामीत्पमिमायकस्य, 'दुवे भवं' इत्यस्य द्वौ भवन्ताविति द्वित्वस्वीकारे एकत्वविशिष्टस्यार्थस्य द्वित्वेन सहात्यन्तविरोधाद् द्वित्वं दूषयिष्यामीत्यमिमायकस्य च एतत्मभृतिप्रश्नस्य तत्तदर्थं भगवानवधार्य निखिलदोषरहितं स्याद्वादपक्षमाश्रित्योत्तरमदात् । एतद्विषये विशेषजिज्ञासायां भगवतीसूत्रस्य-अष्टादशशतकदशमोद्देशकादवगन्तव्यम् । 'अत्यन्तब्राह्मणकूलपसूतः अत्यन्तं निरतिशयितं यद् ब्राह्मणकुलं तत्र प्रसूतः उत्पन्नः विशुद्धब्राह्मणकुलोत्पन्न इति
द्वौ भवन्तौ ' इससे यदि दो आत्मा मानेंगे तो मैं उसका भी खण्डन करूँगा। क्यों क जो एक है वह दो कभी हो ही नहीं सकता।
इत्यादि सोमिल ब्राह्मणका प्रश्न सुनकर उन प्रश्नोंका उत्तर भगवानने सभी दोषोंसे रहित स्याद्वाद मतका आश्रयण करके दिया।
____ इसका विस्तृत वर्णन भगवतीसूत्र के अठारहवें शतकके दश- उद्देशमें देख लेना चाहिये।
इस प्रकार छलपूर्वक प्रश्न करनेके बाद वह उचित उत्तर पाकर बोध युक्त हो श्रावक धर्मको स्वीकार कर भगवान पार्श्वप्रभुके समीपसे अपने स्थानपर गया।
'द्वौ भवन्ती' माथी मात्मा ने भान तो हुनु पाउन કરીશ. કેમકે જે એક છે તે કદી પણ બે થઈ જ ન શકે
ઈત્યાદિ મિલ બ્રાહ્મણના પ્રશ્ન સાંભળી તેના જવાબ ભગવાને સર્વે દેથી રહિત સ્યાદ્વાદમતનું આશ્રયણ કરીને આપ્યા.
આનું વિસ્તારપૂર્વકનું વર્ણન ભગવતી સૂત્રના અઢારમા શતકના દશમાં હશમાં જોઈ લેવું જોઈએ.'
આ પ્રકારે છલપૂર્વક પ્રશ્ન કર્યા પછી તે ઉચિત ઉત્તર પામી બેધયુક્ત થઈ. શ્રાવક ધર્મને સ્વીકારીને ભગવાન પાર્શ્વનાથ પ્રભુની પાસેથી પિતાને સ્થાને ગયે.
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.२७८
३ पुष्पितासत्र थावत् । दारा स्त्रियः आहूताः परिणयविधिना स्वीकृताः, यज्ञा इष्टा:= कृताः, दक्षिणा-यज्ञसमाप्तौ कर्मणः साङ्गतासिद्धयर्थ देयं द्रव्यं, दत्ता ब्राह्मणेभ्यो वितीर्णाः । यूपाः यज्ञस्तम्भाः निक्षिप्ताः भूमौ निखाताः ।
एक समय भगवान पार्श्वप्रभु अर्हत् वाराणसी नगरीके आम्रशाल वन नामक चैत्यसे निकलकर देशमें विहार करने लगे।
उसके बाद वह सोमिल ब्राह्मण एक समय असाधुओंके दर्शनसे तथा सुसाधुओंकी पर्युपासना नहीं करनेसे एवं मिथ्यात्वपर्यायोंके बढने और सम्यक्त्व पर्यायोंके घटनेके कारण मिथ्यात्वी हो गया।
एक समय मध्य रात्रिमें कुटुम्बजागरणा करते हुए उस सोमिल ब्राह्मणके हृदयमें इस प्रकारका आध्यात्मिक यावत् मनमें संकल्प उत्पन्न हुआ कि-मैं वाराणसी नगरीका रहेनेवाला अत्यन्त उच्च कुलमें पैदा हुआ ब्राह्मण हूँ। मैंने व्रत ग्रहण किये वेद पढे, विवाह किया, पुत्रवान बना, समृद्धियोंको एकत्रित किया, पशुवध किया, यज्ञ किया, दक्षिणा दी, अतिथिकी पूजा की, अग्निमें हवन किया यूप-यज्ञीय * એક વખત ભગવાન પાર્શ્વપ્રભુ અત્ વારાણસી નગરીના આમ્રશાલ વન નામે ચેત્યમાંથી નીકળીને દેશમાં વિહાર કરવા લાગ્યા.
ત્યાર પછી તે સેમિલ બ્રાહ્મણ એક વખત અસાધુઓનાં દર્શનથી તથા સુસાધુઓની પર્ય પાસના ન કરવાથી અને મિથ્યાત્વ પર્યાયના વધવાથી તથા સમ્યક્ત્વ પર્યાયના ઘટવાથી મિથ્યાત્વી થઈ ગયે.
એક વખત મધ્યરાત્રિમાં કુટુંબ જાગરણ કરતાં કરતાં તે મિલ બ્રાહ્મણના હદયમાં આવા પ્રકારના આધ્યાત્મિક એટલે મનમાં સંકલ્પ ઉત્પન્ન થયા કે-હું વારાણસી નગરીમાં રહેવાવાળ બહુ ઊંચા કુળમાં પેદા થયેલે બ્રાહ્મણ છું, મેં વ્રત શહણ કર્યા છે, વેદ ભણેલો છું, લગ્ન કરી પુત્રવાન બન્યું, સમૃદ્ધિ એકઠી કરી, પશુવધ કર્યા, યજ્ઞ કર્યા, દક્ષિણા આપી, અતિથીની પૂજા કરી, અનિમાં હવન ક્ય, યુપયરીય કાષ્ઠને છેડયું, આ બધાં કાર્યો કર્યા.
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२७९
.. सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अभ्य. ३ अङ्गति गायापति हरितकराराज्यमानश्रीकाः हरितको नीलवर्णों दूर्वादिवनस्पतिः तेन राराज्यमाना-शोशुभ्यमाना श्रीः छटा येषां ते हरितकराराज्यमानश्रीकाः अत एव अतीवातीव-अत्यन्तं भृशम् उपशोभमाना उपशोभमानाः, तिष्ठन्ति सन्ति, शेष सुगमम् ॥३॥
स्तम्भ को रोपा, इन सभी कार्यों को किया । अब मुझे उचित है कि मैं रात बोतने पर प्रातःकालमें वाराणसी नगरीके बाहर बहुतसे आमके बगीचे लगाऊँ, एवं मातुलिङ्ग-बिजौरा, वेल, कपित्थ, ( कविठ), चिश्चा=इमली और फूलोंका बगीचा लगाऊँ, इस प्रकार विचार करता है।
___ रात बीतने पर सूर्योदय होते ही उसने वाराणसी नगरीके बाहर आमके बगीचेसे लेकर फूलके बगीचा तक लगवाया। और वे बगीचे क्रमसे संरक्षित हो संमोपित हो पूर्णरूपसे बगीचे हो गये । हरे और हरी भरी कांतिवाले, तथा बरसने वाले नीले मेघवृन्दोंके समान नीलिमा युक्त, एवं पत्रित, पुष्पित, और फलित होकर वे हरे भरे होनेके कारण अत्यन्त शोभायमान दीखने लगे ॥३॥
હવે મારે માટે યોગ્ય છે કે હું રાત્રિ પુરી થઈ ત્યારે સવાર પડે ત્યારે વારાણસી નગરીની બહાર ખૂબ આંબાના વૃક્ષને બગીચો બનાવું તથા માતુલિંગ=બિજેરા, વેલ, કપિત્થ, ચિંચા આમલી તથા કુલની વાડી બનાવું. આ પ્રકારે વિચાર કરે છે.
રાત્રિ વતી સુર્યોદય થતાં જ તેણે વારાણસી નગરીની બહાર આંબાના બગીચાથી માંડીને કુલની વાડી સુધી બધું બનાવ્યું અને તે બગીચા હળવે હળવે સંરક્ષિત અને સંગેપિત થઈ પૂર્ણ રૂપમાં બગીચા થઈ ગયા. લીલા, લીલીછમ કાન્તિવાળા, પાણીથી ભરેલા મેઘ (વાદળાં) હોય તેવા ઘનીભૂત રંગવાળા, પત્ર તથા પુષ્પવાળા અને ફળોવાળા હોવાથી તથા હરિયાળા હેવાથી બાહુ
मायभान रेभावर य. (3). .
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. २८०
३ पुष्पितासत्र
-
मूलम्तएणं तस्स सोमिलस्स माहणस्स अण्णया कयाइ पुन्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुंबजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुपजित्था-एवं खलु अहं वाणारसीए णयरीए सोमिले नामं माहणे अञ्चंतमाहणकुलप्पसूए, तए णं मए क्याई चिण्णाई जाव जूवा णिक्खित्ता, -तए णं मए वाणारसीए नयरीए बहिया बहवे अंबारामा जाव फुप्फारामा य रोवाविया, तं सेयं खलु ममं इयाणिं कल्लं जाव जलंते सुबहुं लोहकडाइकडच्छुयं तंबियं तावसभंडं घडावित्ता विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं मित्तनाइ० आमंतित्ता तं मित्तनाइणियग० विउलेणं असण० जाव संमाणित्ता तस्सेव मित्त जाव जेट्टपुत्तं कुटुंबे ठावेत्ता तं मित्तनाइ जाव आपुच्छित्ता मुबहुं लोहकडाहकडुच्छुयं तंबियं तावसभंडगं गहाय जे इमे गंगाकूला
-
छाया
____ ततः खलु तस्य सोमिलस्य ब्राह्मणस्याऽन्यदा कदाचित पूर्वरात्रापररात्रकालसमये कुटुम्बजागरिकां जाग्रतोऽयमेतद्रूप आध्यात्मिक यावत् समुदपद्यत-एवं खल्वहं वाराणस्यां नगर्यो सोमिलो नाम ब्राह्मणः अत्यन्तब्राह्मणकुलपसूतः, ततः खलु मया व्रतानि चीर्णानि यावद् यूपा निक्षिप्ताः। ततः खलु मया वाराणस्या नगर्या बहिर्बहव आम्रारामा यावत् पुष्पारामाश्च रोपितास्तच्छ्रेयः खलु ममेदानी कल्ये यावज्ज्वलति मुषहुं लौहकटाहकटुच्छुकं ताम्रीय तापसभाण्डं घटयिता विपुलमशनं पानं सायं खाद्य मित्र ज्ञाति० भामन्त्र्य तं मित्र-ज्ञाति-निजक० विपुलेन मसन० यावत् सम्मान्य तस्यैव मित्र० यावत् ज्येष्ठपुत्रं कुटुम्मे स्थापयित्रा तं मित्रज्ञातियावत् आपृच्छय सुबई लौहकटाहकटुच्छुकं ताम्रीयं तापस
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मोधिनी टीका वर्ग ३ अभ्य. ३ अति गाथापति
२८१
चापमत्था तावसा भवंति तं जहा होचिया प्रोतिया कोचिया जन्नई सई थालाई हुंबउडा दंतुक्खलिया उम्मज्जगा संमज्जगा निमज्जगा संपक्खालगा दक्खिणकूला उत्तरकूला संखधमा कुलधमा मियलुद्धया इत्थितावसा उद्दंडा दिसापोक्खिणो वकवासिणो बिलवासिणो जलवासिणो रूक्खमूलिया अंबुभक्खिणो वायुभक्खिणो सेवालभक्खिणो मूलाहारा कंदाहारा तयाहारा पत्ताहारा पुप्फाहारा फलाहारा बीयाद्वारा परिसडियकंदमूळतयपतपुप्फफलाहारा जलाभिसेयकढिणगायभूया आयावणाहिं पंचग्गितावेहिं इंगालसोल्लियं कंदुसोल्लियं पित्र अप्पाणं करेमाणा विहरंति । तत्थ णं जे ते दिसापोक्खिया तावसा तेसिं अंतिए दिसापोक्खियत्ताए पव्वइत्तए । पव्यइए वि यणं समाणे इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिहिस्सामि कप्पर मे जाबजोवाए छटुं - छद्वेणं अणिक्खित्तेणं दिसाग्रकवालेणं तवोकम्मेणं उड्डुं बाहाओ - भाण्डकं गृहीला ये इमे गङ्गाकूलाः वानप्रस्थास्तापसा भवन्ति तद्यथाहोत्रिका, पीत्रिकाः, कौत्रिकाः, यज्ञयाजिनः, श्राद्धकिनः, स्थालकिनः = गृहीतमाण्डा, हुण्डिकाश्रमणाः, दन्तोदूखलिकाः, उन्मज्जकाः, सम्मज्जकाः, निमज्जकाः, संप्रक्षालका', दक्षिणकूलाः, उत्तरकूलाः, शङ्खध्माः, कूलध्माः, मृगलुब्धकाः, हस्तितापसाः, उद्दण्डाः, दिशाप्रोक्षिणः, बल्कवाससः, बिलवासिनः, जळवासिनः, वृक्षमूलकाः, अम्बुभ्रक्षिणः, वायुभक्षिणः, शेवाळमक्षिणः, मूलाहाराः, कन्दाहाराः, बगाहाराः, पत्राहाराः, पुष्पाहाराः, फलाहाराः, बीजाहाराः, परिशटितकन्दमूलत्वक्पत्रपुष्पफलाहाराः, मिषेककठिनगात्रभूताः, आतापनाभिः पश्चाप्रितापैः भङ्गारशौल्यकं, कन्दुश्रील्यकमिव आत्मानं कुर्वाणा विहरन्ति । तत्र खलु ये ते दिशाप्रोक्षका• तामसास्तेषामन्तिके दिशामोक्षकतया मत्रजितुम् । मत्रजितोऽपि च खल्ल सन् ममेतद्रूपसमग्रमग्रहीष्यामि कल्पते मे यावज्जीवं षष्ठ- महेनानिक्षिप्तेन
बला
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૨૮૨
३ पुष्पितासूत्र
परिशिय २ सूराभिहस्स आयावणभूमीर आयावेमाणस्स विहरित्तएत्ति कट्टु एवं संपेहेर, संपेहित्ता कल्लं जाव जलते सुबहु लोह जाव दिसापोक्खियतावसत्ताए पव्वइए । पव्वइए वि य णं समाणे इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिन्हित्ता पढमं छट्ठक्खमणं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ ॥ ४ ॥
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दिक्चक्रवालेन तपःकर्मणा ऊर्ध्व बाहू प्रगृह्य २ सूराभिमुखस्याऽऽतापनभूम्यामातापयतो विहर्तुम् ।
इति कृला एवं संप्रेक्षते, संप्रेक्ष्य कल्ये यावज्ज्वलति सुबहुं लोह ० यावत् दिशामोक्षकतापसतया प्रव्रजितः । प्रब्रजितोऽपि च खलु सन् इममेतद्रूपमभिग्रहमभिगृह्य प्रथमं षक्षपणमुपसंपद्य खलु विहरति ॥ ४ ॥
aqui acer deule.
5.
टीका
'तणं तस्स' इत्यादि । लौहकटाहकटुच्छुकं लौह - लोहनिर्मितम् कटाहो - भाजनविशेषः, कटुच्छुको दर्वी = परिवेषणाद्यर्थ भाजन विशेषः, कटाइकटुच्छुकयोः समाहारः, कटाहकटुच्छुकं लौहं च तत् इति कर्मधारये कृते तथा, गङ्गाकूलाः- गङ्गाकूलस्थाः गङ्गातीरवासिन इति यावत् मश्वाः
है
"
" तरणं तस्स ' इत्यादि
3
'उसके बाद किसी दूसरे समय कुटुम्बजागरणा करते हुए उस सोमिल ब्राह्मणके हृदयमें इस प्रकार आध्यात्मिक आत्म सम्बन्धी विचार उत्पन्न हुए कि- मैंने व्रत आदि किये यावत् स्तम्भ गाडे और मैं वाराणसी नगरीका अत्यन्त
ત્યાર પછી કાઈ ખીજે વખતે કુટુંબ જાગરણ કરતાં કરતાં તે સામિલ
ए
બ્રાહ્મણુના હૃદયમાં આ પ્રકારના માધ્યાત્મિક-આત્મ વિચાર ઉત્પન્ન થયા કે મ વ્રત આદિ કર્યો, યજ્ઞસ્ત ભ ખાટયે અને હું વારાણસી નગરીના બહુ ઊંચા
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२८३
सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ मध्य. ३ मति गाथापति क्रोशन्ति' इत्यत्रेयात्र गमाकूलपदस्य तत्स्थे लक्षणा बोध्या । यद्वा-गङ्गाकूलं वासत्वेनाऽस्याऽस्तीति ‘अर्श आदित्वादचमत्यये निष्पनोऽयं तेन
उच्च कुल प्रसूत ब्राह्मण हूँ, मैंने वाराणसी नगरीके बाहर बहुतसे आमके बगीचेसे लेकर फूल तकके बगीचे लगवाये अब मुझे उचित है कि रात वीतनेके बाद प्रातःकाल होते ही बहुतसी लोहेकी कडाहिया तथा कलछू एवं तापसोंके लिये ताबेके बर्तन बनवाकर विपुल अशन पान खाद्य स्वाध बनवाकर अपने मित्र ज्ञाति आदियों को आमन्त्रित करूँ।
अनन्तर वह ब्राह्मण उन बर्तनोंको बनवाकर विपुल अशन पान खाध स्वाध तैयार कराकर अपने मित्र ज्ञाति बन्धुओंको आमंत्रित कर और उन्हें जिमाकर तथा उन्हें सम्मानित कर और उन्हीं मित्र-ज्ञाति-स्वजन बन्धुओंके सामने अपने ज्येष्ठपुत्रको कुटुम्बका भार देकर, अपने उन सभी मित्र-ज्ञाति-बन्धुओं से पूछकर मैं बहुतसी लोहेकी कडाहियों, कलछू और ताम्बेके बने हुए पात्रोंकों
કુળમાં જન્મેલ બ્રાહ્મણ છું. મેં વારાણસી નગરીની બહાર ઘણા આંબાના બગીચાથી માંડીને કુલવાડી સહિત બનાવ્યાં છે. હવે મારે માટે એગ્ય છે કે રાત વીતી ગયા પછી પ્રાતઃકાલ થતાંજ ઘણી જ લોઢાની કડાઇઓ, કાછી આદિ તથા તાપને માટે તાંબાના વાસણ બનાવીને ખૂબ ખાવાપીવાના ખાદ્ય-સ્વાદ્ય પદાર્થો બનાવરાવીને મારા મિત્ર અને જ્ઞાતિબંધુઓ આદિને આમંત્રણ આપું.
પછી તે બ્રાહ્મણે તે પ્રમાણે વાસણ બનાવરાવી ખૂબ ખાનપાન ખાદ્ય સ્વાહ તૈયાર કરાવી પિતાના મિત્ર અને જ્ઞાતિબંધુઓને આમંત્રણ આપ્યું ને જમાડયા તથા તેમનું સન્માન કરી તે મિત્ર-જ્ઞાતિજન બંધુઓની સામે પિતાના મેટા પુત્રને બોલાવી કુટુંબને ભાર તેના ઉપર નાખી, પિતાના તે સઘળા મિત્ર-જ્ઞાતિ બંધુઓને પૂછી હું પાણી લેઢાની કડાઈઓ, કડછીએ તથા તાંબાનાં બનાવેલાં
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२८४
३ पुष्पितासत्र कूलशब्दस्य नपुंसकत्वेऽपि नेह पुंस्त्वानुपपत्तिः । होत्रिकाः अग्निहोत्रिकाः, पोत्रिकाः वस्त्रधारिणो वामप्रस्थाः, कौत्रिकाः भूमिशायिनो वानप्रस्थाः, यज्ञयाजिनः याज्ञिकाः, श्राद्धकिनः श्राद्धाः, स्थालकिन भोजनपात्रधारिणः, हुण्डिकाश्रमणाः वानप्रस्थतापसविशेषाः, दन्तोदुखलिकाः दशनैश्चर्बयित्वा भोजनशीलाः, उन्मज्जका:-उन्मज्जनमात्रेण ये स्नान्ति-उपरिष्टादेव स्नानं कुर्वन्ति ते तथा, सम्मज्जकाः उन्मज्जनस्यैवासकृत् करणेन ये स्नान्तिहस्तैः पुनः पुनर्जलं गृहीत्वा स्नानं कुर्वन्ति ते तथा, नमज्जकाः स्नानार्थ निमग्ना एव जले क्षणमात्रं तिष्ठन्ति ते. तथा, संप्रक्षालका:-ये गात्रं मृत्तिकाघर्षणपूर्वकं जलेन प्रक्षालयन्ति ते तथा, दक्षिणकूला ये गङ्गाया लेकर जो गङ्गा तीरवासी वानप्रस्थ तापस हैं जैसे-होत्रिक अग्निहोत्री, पोत्रिक वस्त्रधारी वानप्रस्थ, कौत्रिक-भूमिशायी वानप्रस्थ, यज्ञयाजी-यज्ञ करनेवाले, श्राद्धकी श्राद्ध करनेवाले वानप्रस्थ, स्थालकिनः पात्र धारण करनेवाले, हुण्डिकाश्रमण-वानप्रस्थतापस विशेष, दन्तोदूखलिक दांतसे केवल चबाकर खानेवाले, उन्मजक-उन्मजन मात्रसे स्नान करनेवाले, अर्थात् पानी डालकर स्नान करनेवाले, सम्मज्जक बार बार हाथसे पानीको उछालकर नहानेवाले, निमज्जक-पानी में डूबकर नहानेवाले, संमक्षालक-मिट्टीसे शरीरको मलकर नहानेवाले, दक्षिणकूल-गङ्गाके
વાસણે લઈને જે ગંગા તીરે વસનારા વાનપ્રસ્થ તાપસ છે જેવાકે—ત્રશ= भनिडात्री, पोत्रिक-सधारी पान५२५, कौत्रिक-भूभिया वानप्रस्थ, यज्ञयाजोयज्ञ ४२वावामी, श्राद्धको श्राद्ध ४२वावा वानप्रस्थ, स्थालको पात्र धारण ४२१।पा, हुंडिका-श्रम वानप्रस्थ ५स विशेष. दन्तोदूख ठिक-ति43 यावान भावावा, उन्मजक-GHarन मात्रयी स्नान ४२वावा मर्थात् 'te नाभीम स्नान ४२११, संमजक-वारपार खायथा -
पाणी नसावा, निमजक-पाएमा gora भारी वाणा, संप्रक्षालक-माथा शरीरने यानीa Hital, दक्षिणकूल-11 नहीन क्षि नारे Shiny उत्तरकूल
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सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. ३ अकृति गायापति __
२८५ दक्षिणतटवासिनस्ते तथा; उत्तरकूला:-ये गङ्गाया उत्तरतटवासिनस्ते तथा, शङ्खध्माः शङ्ख ध्मात्वा-नादयित्वा ये भुञ्जते ते तथा, फूलध्माः कले-तरे स्थित्वा शब्दं कृत्वा ये भुञ्जते ते कूलध्माः, मृगलुब्धकाः मृगं हत्वा तेनैव ये अनेकदिवसं भोजनतो यापयन्ति ते तथा, हस्तितापसा: हस्तिनं मारयित्वा तेनैव चिरकालं भोजनतो यापयन्ति ते तथा, उद्दण्डाः ऊर्ध्वकृतदण्डा एव ये संचरन्ति ते तथा, दिशामोक्षिणः उदकेन दिशःमोक्ष्य ये फलपुष्पादिकं समुचिन्वन्ति ते तथा, वल्कवाससा=वृक्षत्वग्वस्त्रधारिणः, बिलवासिनः भूमिच्छिद्रवासिनः, जलवासिनः जले निषण्णा एव ये तिष्ठन्ति ते तथा, वृक्षमूलकाः तरुतले ये निवसन्ति ते तथा, अम्बुभक्षिण: जलाहाराः, दक्षिण तटपर रहनेवाले, उत्तरकूल गङ्गाके उत्तर तटपर रहनेवाले, और शङ्खध्मा शङ्ख बजाकर भोजन करनेवाले, कूलमा तटपर स्थित होकर आवाज करते हुए भोजन करनेवाले, मृगलुब्धक-मृगको मारकर उसीके मांससे जीवन बीतानेवाले, हस्तितापस-हाथीको मारकर उसके मांससे जीवन बीतानेवाले, उद्दण्ड-दण्डको ऊँचा उठाकर चलनेवाले, दिशामोक्षी दिशाको जलसे सींचकर उसपर पुष्प फल आदिको चूनकर रखनेवाले, वल्कलवासस-वृक्षकी छालको धारण करनेवाले, विलवासी भूमिके नीचेकी खोहमें रहनेवाले, जलवासी-जलमें ही रहनेवाले, वृक्षमूलक-वृक्षके मूलमें रहनेवाले, अम्बुभक्षो-जल... मात्रका आहार करनेवाले, वायुनहीन Sत्तर नारे रखेवा तथा शलमा='4 quan - Rail कुलमान 6५२ मेसी रहीन माल ४२तासान ४२ini, मृगलुब्धकभृगने भारी तना भांसथी न वाsanil, हस्तितापस-थान भारीने तना भांसी वन वातनाश, उदण्ड-४४२ यो GIS ANGRA, दिशाप्रोक्षीદિશાઓને પાણીથી માર્જન કરીને (પાણી છાંટીને) તેના ઉપર પુષ્પફલ વીણીને
रामनारा, वल्कलवासस-वृक्षनी ने पा२५ ४२११, बिलवासी-भूभिनत नीयको आभा २७॥२१, जलवासीravin २नारा, वृक्षमलक-वृक्षना भूभा २वापाणा, अम्धुभक्षी=relaair &२ नारा, घायुभक्षी-आयु मात्रा
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...३ पुष्पितासूत्र वायुमक्षिण: पपनाहाराः, शेवालभक्षिण: जलोपरिस्थितहरितवनस्पति विशेषभोजिनः, मूलाहाराः भूलकमक्षिणः, कन्दाहाराः भूरणादिकन्दमक्षिणा, स्वगाहारा: निम्बादित्वरभक्षिणः, पत्राहाराः बिल्वादिपत्रभक्षिणः, पुष्पाहारा कुन्दशोभाञ्जनादिपुष्पभक्षिणः, फलाहाराम् कदलीफलादिभोजिनः बीजाहाराः कूष्माण्डादिबीजभोजिनः, परिशटितकन्दमूलत्वपत्रपुष्पफलाहारा:= विनष्टकन्दमूलत्वपत्रपुष्पफलभोजिनः, जलाभिषेककठिनगात्रभूताः= स्नात्वा २ जलाभिषेककठोरशरीराः, आतापताभिः पश्चामितापैश्च अङ्गारशौल्य अङ्गारे-वह्नौ शूले मांसं निषज्य पकं, कन्दुशौल्यं-कन्दुः तण्डुलादिभक्षी वायु मात्रसे जीवीत रहनेवाले, शेवालभोजी-जलमें उत्पन्न शेवाल =सेमारको–खानेवाले, मूलाहार मूल खानेवाले, कन्दाहार-सूरन आदि कन्दका आहार करनेवाले, त्वगाहार नीम आदिकी त्वचा खानेवाले, पत्राहार बीला आदिके प्रत्तेका आहार करनेदाले, : पुष्पाहार-कुन्द सोइजन, गुलाब आदि पुष्पका आहार करनेवाले, फलाहार केला आदि फल खानेवाले, बीजाहार-कुम्हडा आदिका बीज खानेवाले, सडे हुए कन्द मूल त्वचा, पत्ते, फूल और फल खानेवाले, जलके अभिकसे कठिन शरीरवाले, सूर्यकी अतापना और पश्चाग्नितापसे अङ्गार शौल्य=(अंगारेमें शूलपर रखकर पकाये हुए मांस ) एवं कन्दुशौल्य=( चावल आदि भंजनेका
-
ॐन ना, शेवालभोजो=rent २ भागमा २allel नस्पति (सेवा) भावावा, मुलाहारभूत माप , कन्दाहार-सू२३ बगेरे ना माहा२ ४२नारा, स्वगाहार-l31 मालिनी छte माप, पत्राहार-मिelya माहि पत्रानो माझा२ ४२११मा, फलाहारां मेरे ३१ मावा, पुष्पाहार१०५-, सवा Yam माह कुन मालार ४२११, बोजाहारવગેરેનાં બી ખાવાવાળા, સડી ગયેલાં કંદમૂળ, છાલ, પાન, કુલ તથા ફળ ખાવાવાળા, જલના અભિષેકથી કઠણ શરીરવાળા, સૂર્યની આતાપના અને પંચાગ્નિના તાપથી અંગારશીલ્ય= દેવતામાં શણ ઉપર રાખીને પકાવેલાં માંસ અને શલ્ય
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सुन्दरपोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ३ अति गायापति मर्जनपात्रमात्रं शूलं च ताभ्यां तत्र वा धृतादिना वह्नौ पक्कं कन्दुशौल्यम् इव-तद्वद् आत्मानं कुर्वाणा विहरन्ति अवतिष्ठन्ति । 'तत्थणं जे' इत्यादिअनिक्षिप्तेन=अविच्छिन्नेन दिक्चक्रवालेन तन्नामकेन तथाहि-एकत्र पारणके पूर्वस्यां दिशि यानि फलादीनि तान्याहृत्य भुके, द्वितीये पारणे दक्षिणस्यां
पात्र कन्दु, उसमें घृत डालकर शूलपर पकाये हुए मांस ) के समान अपने शरीरको कष्ट देते हुए विचरते हैं। उनमें जो दिशामोक्षक हैं उनमें प्रवर्जित होनेकी इच्छा रखता हूँ, और प्रवजित होकर भी इस प्रकारका अभिग्रह ( प्रतिज्ञा ) लूंगा कि यावज्जीव अन्तर रहित षष्ठ-षष्ठ ( बेला-बेलारूप ) दिक्चक्रवाल तपस्या करता हुआ सूर्यके अभिमुख भुजा उठाकर आतापनभूमिमें आतापना लेता रहूंगा।
इस प्रकार मनमें सोचकर विचार करता है, और विचार करके सूर्योदय होनेपर बहुतसी लोहेकी कडाहियाँ यावत् लेकर दिशा-प्रोक्षक तापसके पास आया
और दिशा-प्रोक्षक तापस हो गया। तापस होकर वह सोमिल .पूर्वोक्त अभिग्रह ग्रहण करके पहला षष्ठ-क्षपण तप स्वीकार कर विचरने लगा।
ખા વગેરે રાંધવાનાં પાત્ર કંદુ તેમાં ઘી નાખીને ચૂલ પર પકાવેલા માંસની પેઠે પિતાનાં શરીરને કષ્ટ દેતા જે વિચારે છે તેમાં જે દિશા પ્રેક્ષક છે તેઓની પાસે પ્રવછત બનવાની ઈચ્છા રાખું છું. તથા પ્રવછત થઈને પણ આ પ્રકારના अमिड ( प्रतिज्ञा ) eva -ल्या सुधा ० त्या सुधा मन्त२ सित ७४-७४ (નબેલા-બલાકુપ) દિચક્રવાલ તપસ્યા કરતે સૂર્યની સામે હાથ ઊંચા રાખીને
આતાપન ભૂમિમાં આતાપના લેતે રહીશ. - આમ વિચાર કરે છે. વિચાર કરીને સૂર્યોદય થતાં ઘણી લેઢાની કડાઈઓ કડછીઓ, તાંબાનાં તાપસ પાત્ર આદિ લઈને દિશા પ્રેક્ષક તાપસની પાસે આવ્યા અને દિશા પ્રેક્ષક તાપસ થઈ ગયે. તાપસ થઈને પણ તે સમિલ પૂર્વોક્ત અભિગ્રહ બરાબર લઈને પહેલા ષષક્ષપણ સ્વીકાર કરીને વિચરવા લાગે.(
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३ पुष्पिवासत्र मूलम्तएणं से सोमिले माहणे रिसी पढमछटक्खमणपारणंसि आयावणममीए पञ्चोरुहइ, पच्चोरुहिता वागलवत्य नियत्थे जेणेव सए उडए तेणेव
छाया__ ततः खलु सोमिलो ब्राह्मण ऋषिः प्रथमषष्ठक्षपणपारणे आतापनभूम्यां प्रत्यवरोहति, प्रत्यवरुर वल्कल वस्त्रनिवसितः यत्रैव स्वक उटजस्तदिशि स्थितानि फलादीनि चाहत्यानातीत्येवं दिक्चक्रवालेन दिमण्डलेन यत्र तपःकर्मणि पारणकरणं भवति तत् तपकर्म 'दिक्चक्रवालं' कथ्यते तेन तपःकर्मणेति ॥४॥
यहां दिक्चक्रवाल' शब्द आया है, इसका अभिप्राय है-तपस्वी तपस्याकी पारम्पाके लिये अपनी तपोभूमिकी चारों दिशाओंमें फलको इकट्ठा करके रखे। बादमें तपस्याकी पहली पारणामें पूर्वदिशामें स्थित फलसे पारणा करे। दूसरा पारणा आनेपर दक्षिण दिशामें स्थित फलसे पारणा करे। इसी प्रकार अन्य पारणा
आनेपर पश्चिम उत्तर दिशाओंमें स्थित फलका आहार करे । इस प्रकारकी पारणा वाली तपस्याको ‘दिक्चक्रवाल ' कहते हैं ॥ ४ ॥
અત્રે “દિ ચક્રવાલ” શબ્દ આવ્યું છે તેને અભિપ્રાય એ છે કે તપસ્વી તપસ્યાનાં પારણુ માટે પિતાની તપોભૂમિની ચારે દિશામાં ફેલ લેગાં કરીને રાખે. પછી તપસ્યાનાં પહેલાં પારણામાં પૂર્વ દિશામાં રાખેલાં ફળથી પારણું કરે. છીનું પારણું કરવાનું આવે ત્યારે દક્ષિણ દિશામાં રાખેલાં ફળથી
રણું કરે. આવી રીતે બીન પારણાં આવે ત્યારે પશ્ચિમ-ઉત્તર દિશામાં નાખેલાં ફળને આહાર કરે. આ પ્રકારની પારણાંવાળી તપસ્યાને “દિફ ચકવાલ”
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२८९
सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अभ्य. ३ सोमिल ब्राह्मण उवागच्छइ, उवागच्छित्ता किढिणसंकाइयं गिण्हइ, गिण्हिता पुरथिमं दिसि सुक्खेइ, पुक्खित्ता 'पुरथिमाए दिसाए सोमे महाराया पत्थाणे पत्थियं अमिरक्खउ सोमिलमाहणरिसिं, जाणि य तत्थ कंदाणि य मूलाणि य तयाणि य पत्ताणि य पुप्फाणि य फलाणि य बीयाणि य इरियाणि वाणि अणुजाणउ'-त्ति कटु पुरत्थिमं दिसं पसरइ, पसरिता जाणि य वत्थ कंदाणि य जाव हरियाणि य ताइं गिण्हइ, गिण्डत्ता किढिणसंकाइयं भरेइ, भरित्ता दब्भे य कुसे य पत्तामोडं च समिहाकट्ठाणि य गिण्हइ, गिहित्ता जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता किढिणसंकाइयगं ठवेइ, ठवित्ता वेदि वढइ वड्डित्ता उवलेवणसंमजणं करेइ, करित्ता दम्भकलसहत्थगए जेणेव गंगा महानई तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता गंगं महानइं ओगाहइ, ओगाहित्ता जलमजणं करेइ, करित्ता जलकिडं करेइ, करित्ता जलाभिसेयं करेइ, करित्ता आयंते चोक्खे परमसुइभूए त्रैवोपागच्छति, उपागत्य किढिणसाङ्कायिकं गृह्णाति, गृहीत्वा पौरस्त्यां दिशं मोक्षति, प्रोक्ष्य “पौरस्त्याया दिशः सोमो महाराजः प्रस्थाने प्रस्थितमभिरक्षतु सोमिलब्राह्मणर्षिम् , यानि च तत्र कन्दानि च मूलानि च त्वचञ्च पत्राणि च पुष्पाणि च फलानि च बीजानि च हरितानि च तानि अनुनानातु," इति कला पौरस्त्यां दिशं प्रसरति, प्रसृत्य यानि च तत्र कन्दानि च यावत् हरितानि च तानि गृह्णाति किढिणसांकायिक भरति, भूला दीश्च कुशांश्च पत्रामोटं च समित्काष्ठानि च गृह्णाति, गृहीत्वा यत्रैव खक उटजस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य किढिणसांकायिकं स्थापयति, स्थापयिला वेदी वर्धयति, वर्धयिता उपलेपनसम्मार्जनं करोति, कृत्वा दर्भकलशहस्तगतो यत्रैव गङ्गामहानदी तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य गङ्गां महानदीमवगाहते, अवगाव जलमज्जनं करोति, कृत्वा जलक्रीडां करोति, कृत्वा जलामिषेकं करोति, रुत्वा आचान्तः स्वच्छ परमशुचिभूतः देवपितृकतकार्यः,
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- ३ पुष्पितासन देवपिउकयकज्जे दमकलसहत्थगए गंगाओ महानईओ पच्चुत्तरइ, पच्चुत्तरित्ता जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता दब्भेहि य कुसेहि य वालुयाए य वेदि रएइ, रइत्ता सरयं करेइ, करित्ता अरणिं करेइ, करित्ता सरएणं अरणिं महेइ, महित्ता अग्गि पाडेइ, पाडित्ता अग्गि संधुक्खेइ, संधुक्खित्ता समिहाकट्ठाइं पक्खिवइ, पक्खिवित्ता अग्गि उज्जालेइ, उज्जालित्ता अग्गिस्स दाहिणे पासे सत्तंगाई समादहे । तं जहा-" सकत्थं वक्कलं ठाणं, सिज्जं भंडं कमंडलं । दंड दारुं तहप्पाणं, अह ताइं समादहे।" महुणा य घरण य तंदुलेहि य अग्गि हुणइ, चरुं साहेइ, साहित्ता बलिवइस्सदेवं करेइ, करित्ता अतिहिपूयं करेइ, करित्ता तओ पच्छा अप्पणा आहारं आहारेइ ॥५॥ दर्भकलशहस्तगतो गङ्गातो महानदीतः प्रत्यवतरति, प्रत्यवतीर्य यत्रैव स्वक उटजस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य दर्भश्च कुशैश्च वालुकया च वेदि रचयति, रचयित्वा शरकं करोति, कृत्वा अरणिं करोति, कृत्वा शरकेणारणिं मनाति मथित्वा अग्निं पातयति, पातयित्वा अग्निं संधुक्षते, संधुक्ष्य समित्काष्ठानि पक्षिपति, प्रक्षिप्य अग्निमुज्ज्यालयति, उज्ज्वाल्य, अग्नर्दक्षिणे पार्थ सप्ताङ्गानि समादधाति, तद्यथा “ सकत्थं १ वल्कलं २ स्थानं ३ शय्याभाण्डं ४ कमण्डलुम् ५॥, दारुदण्डं ६ तथाऽऽत्मानम् ७ अथ तानि समादधीत ॥१॥" . ततो मधुना च घृतेन च तण्डुलैश्चाग्निं जुहोति, चरुं साधयति, साधयित्वा बलिवैश्वदेवं करोति, कृत्वाऽतिथिपूजां करोति, कृत्वा ततः पश्चात् आत्मना आहारमाहारयति ॥५॥
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सुन्दरपोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ३ सोमिल ब्राह्मण
२६१
टीका. 'तएणं से सोमिले' इत्यादि । 'वागलवत्थ नियत्थे' , बाल्कलवस्त्रनिवसित: वल्कल-क्षत्वक् तस्येदं पाल्कलं तच्च वस्त्रं वाल्कलवस्त्रं, तत् निवसितं-परिहितं येन स तथा परिहितवाल्कलवस्त्र इति तदर्थः ।
• तेएणं से सोमिले ' इत्यादि
उसके बाद वह सोमिल ब्राह्मण ऋषि पहला षष्ठ-क्षपण पारणेके दिन आतापन भूमि पर आता है। वहाँ आकर वह वल्कलवस्त्रधारी तापस जहाँ उसकी कुटी थी वहाँ आया । और आकर किढिणसंकायिक ( कावड ) लेता है। तथा पूर्व दिशाको जलसे प्रोक्षण ( सिंचन ) करता है और कहता है-' हे पूर्व दिशाके अधिपति सोम देव ' मैं सोमिल ब्राह्मण ऋषि परलोक साधन मार्गमें चलनेके लिये प्रस्थित हूँ, मेरी रक्षा करो, तथा वहाँ जो कुछ कन्द, मूल, त्वचा, पत्र, पुष्प, फल, बीज और हरित वनस्पति हैं उन्हें लेनेकी आज्ञा दो'। ऐसा कह कर पूर्व दिशामें जाता है। वहाँ जाकर जो कुछ वहाँ कन्द मूल आदि थे उनका
'तएणं से सामिले 'त्या.
ત્યાર પછી તે સેમિલ બ્રાહ્મણ ઋષિ પહેલા ષષ્ઠક્ષપણુના પારણાં આવતાં આતાપન ભૂમિ પર આવે છે. ત્યાં આવીને તે નકલવસ ધારણ કરી રહેલ તાપસ જ્યાં પિતાની પર્ણકુટી હતી ત્યાં આવ્યું. ત્યાં આવીને પિતાની કાવઠ લીધી અને તે લઈને પૂર્વ દિશામાં જલથી સિંચન કરે છે અને કહે છે–“હે પૂર્વ દિશાના અધિપતિ સેમ મહારાજ ! પરલેકસાધન માર્ગમાં જવા માટે પ્રસ્મિત સેમિલ બ્રાહ્મણ ઋષિની રક્ષા કરે અને ત્યાં જે કાંઈ કંદ, મૂળ, છાલ, પાંદડાં, પુષ્પ, ફલ, બી તથા લીલેરી વસ્તુ આદિ છે તે લેવાની આજ્ઞા આપો એમ કહીને પૂર્વ દિશામાં જાય છે. ત્યાં જઈને જે કાંઈ કંદ, મૂલ આદિ હતાં તે
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२९२
३ पुष्पितासून
आर्षत्वात् निवसितेति निष्ठान्तस्य पूर्व प्रयोगाभावः । उटजः- उटः- तृणपर्णादिस्तस्माज्जात उटजः = तापसानां पर्णशाला, किढिणसांकायिकं=किढिणं= वंशमयस्तापसभाजन विशेषः, साङ्कायिकं = भारोद्वहनयन्त्र किटणसाङ्कायिक- कावढं 'कावड' इति प्रसिद्धम् प्रस्थाने= परलोकसाधनमार्गप्रयाणे, प्रस्थितं प्रयातम् फलाद्याहरणार्थं प्रवृत्तमिति यावत् पत्राssमोटं= तरुशाखामोटितपत्रसमूहं, वेद अग्निहोत्र पूजादिस्थानं वर्धयति प्रमार्ज यति, उपलेपनसम्मार्जनम् - मृत्तिकागोमयादिना भूमिसंस्कार उपलेपनम् सम्मार्जनं= तृणादिनिर्मितसम्मार्जन्या भूमितः पिपीलिकादिकानां लघुकाय
ग्रहण करता है और अपना कावड भरता है । बाद इसके दर्भ, कुश पत्रामोट= तोडे हुए पत्ते और समित्काष्ठ ( हवनके लिये छोटी २ लकडियों ) को लेकर जहाँ अपनी कुटी थी वहाँ आया और अपनी कावड रखी । को बढाया अर्थात् वेदी बनानेका स्थान निश्चय किया । बाद लिका ( कीडी मकोडी ) आदि लघुकाय जीवोंकी रक्षाके लिये समार्जन करने लगा । अनन्तर दर्भ और कलशको हाथमें लेकर गङ्गाके तटपर आया और गङ्गामें प्रवेश कर स्नान करने लगा, और जलमज्जन – डुबकी लगाना, जल क्रीडा - तैरना, तथा जलाभिषेक करने लगा । बाद आचमन करके स्वच्छ और अत्यन्त शुद्ध हो देवता
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कावड रखकर वेदी उपलेपन और पिपी -
ગ્રહણ કરે છે અને પેાતાની કાવડ ભરે છે. પછી તેનાં દર્ભ, કુશ, પાંદડાં અને સમિધ ( હેમનાં કાષ્ઠ ) એ બધુ લઇ જયાં પેાતાની પર્ણકુટી હતી ત્યાં આવ્યે ત્યાં આવીને તેણે પેાતાની કાવડ રાખી. કાવડ રાખીને વેદીને મેટી કરી અર્થાત્ વેદી અનાવવાનું વિસ્તૃત સ્થાન નિશ્ચિત કર્યું. પછી ઉપલેપન ( લીંપણુ ) તથા ક્રીડી આદિ લઘુકાય જીવાની રક્ષાને માટે સમાન કરવા લાગ્યા. પછી દર્ભ તથા કલશને હાથમાં લઈને ગંગાને કાંઠે આવ્યા અને તેમાં પ્રવેશીને સ્નાન કરવા લાગ્યા, તથા જલમજન=ડુબકી લગાવવું, જલક્રીડા=તરવું, અને જલાભિષેક કરવા લાગ્યા. પછી આચમન કરીને સ્વચ્છ અને અત્યંત શુદ્ધ થઇને, દેવતા તથા
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दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ३ सोमिल ब्राह्मण जीवानामपसारणम् , देवपितृकृतकार्यः देवाश्च पितरश्च देवपितरस्तेषां कृतं सम्पादितं कार्य पूजनजलाञ्जलिदानप्रभृतिकृत्यं येन स तथा, दर्भकलशहस्तगतः=दर्भाः-कुशाः कलशः घटश्च हस्ते गताः प्राप्ताः यस्य स तथा कुशकलशहस्त इति, शरकेण=निर्मन्थनकाष्ठेन अरणि घर्षणीयकाष्ठं मनातिघर्षयति, अग्निं संधुक्षते-फूत्करोति । 'समादहे' समादधाति-स्थापयति, अत्र लटोऽर्थे लिङ् सौत्रत्वात् , तद्यथा तानि अङ्गानि यथा, चरुं-हवनार्थ दुग्धेन सह तण्डुलादिहविर्घताभिधारितं साधयति-सम्पादयति, रन्धयतीति यावत् ॥५॥
और पितरोंका कृत्य करके दर्भ और कलश हाथमें लेकर गङ्गा महानदीसे बाहर निकला, और अपनी कुटीमें आया । वहाँ आकर दर्भ और कुश एक तरफ रखता है और बालसे वेदी बनाता है। बादमें शरक-निर्मन्थन काष्ठ, जो अग्निके लिए घिसा जाता है; अरणि=निर्मथ्यमान काष्ठ, जिसपर अग्नि उत्पन्न करनेके लिए शरक घिसा जाता है, उन्हें तैयार करता है। अनन्तर शरक के द्वारा अरणि का मन्थन करता है, और मन्थन कर उससे अग्नि निकालता है फिर फूककर उसे सुलगाता है। उसमें समिध काष्ठ डालकर उसे प्रज्वलित करता है, प्रज्वलित कर अग्निके दाहिने पार्श्व (जीमणी बाजू ) में सात अङ्गो (वस्तुओं ) का स्थापन करता है, वे ये हैं
પિતૃઓનાં કર્મો કરીને, દર્ભ તથા કલશ હાથમાં લઈને, ગંગા મહાનદીમાંથી બહાર નીકળે. અને પિતાની કુટીમાં આવ્યું. ત્યાં આવીને દર્ભ અને કુશને એક તરફ રાખે છે તથા તીથી વેદી બનાવે છે. પછી શ=નિર્મન્થન કાઇ, જે અનિ માટે ઘસવામાં આવે છે, તે તથા ત્રિનિર્મધ્યમાન કાષ્ઠ, જેના ઉપર અગ્નિ ઉત્પન્ન ४२१। भाटे 'शरक' घसाय छे ते तयार ४२ छ. भने ५२४ द्वारा अ नु મન્થન કરે છે. મન્થન કરી તેમાંથી અગ્નિ પ્રગટ કરે છે અને કુંક મારી તેને સળગાવે છે. તેમાં સમિધીનાં કાષ્ટ નાખીને પ્રજવલિત કરે છે. અગ્નિ પ્રજવલિત કરીને અગ્નિની જમણી બાજુમાં સાત અંગે (વસ્તુઓ) નું સ્થાપન કરે છેरेवाड:
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३ पुष्पितासूत्र
मूलम्तए णं से सोमिले माहणरिसी दोचंसि छट्ठक्खमणपारणगंसि तं वेव सव्वं भाणियव्वं जाव आहारं आहारेइ, नवरं इमं नाणतं-दाहिणाए दिसाए जमे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खउ सोमिलं माहणरिसि
छायाततः खलु स सोमिलो ब्राह्मणऋषिद्वितीये षष्ठक्षपणपारणके तदेव सर्व भणितव्यं यावद् आहारमाहारयति । नवरमिदं नानासम्-दक्षिणस्यां दिशि यमो महाराजः प्रस्थाने प्रस्थितमभिरक्षतु सोमिलं ब्राह्मणर्षि, याश्च
- (१) सकत्थ तापसोंका एक उपकरण विशेष, (२) वल्कल, (३) स्थान, ( ४ ) शय्या भाण्ड, (५) कमण्डल, (६ ) लकडीका दण्डा तथा (७) मात्मा अर्थात् अपनेको अग्निके दाहिनी तरफ रखे ।
इसके अनुसार सब वस्तुकोको यथास्थान रखकर वह मधु घृत और तण्डुलसे हवन करता है। चरु=( घीसे चुपडकर हवनके लिये पकाने योग्य चावल ) को सिझाता है । बलि-वैश्व देव (नित्य यज्ञ ) करता है। बादमें अतिथिको भोजन ज्यकर स्वयं भोजन करता है ॥ ५ ॥
(१) सत्य-तापसानु मे ५३२६ वियेष, (२) qEza (3) स्थान, (४) शभ्याis, (५) (6) ensan तया (७) मात्मा अर्थात ૨તાને અગ્નિની જમણી બાજુએ રાખે.
આ પ્રમાણે બધી વસ્તુઓને યથાસ્થાને રાખી મધ, ઘી તથા ચેખાથી અગ્નિમાં હવન કરે છે. ઘ=ઘીથી ચેપડીને હવનને માટે રાંધવાના ચાવલ સીઝાવે . य३न सिमावी बलि वैश्वदेव (नित्य यज्ञ) ४२ छ. पछी मतिथिन भासे ते बालन रे छ. (५).
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सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ३ सोमिल ब्राह्मण जाणि य तत्थ कंदाणि य जाव अणुजाणउ ति कडु दाहिणं दिसि पसरइ । एवं पञ्चत्थिमे णं वरुणे महाराया जाव पचत्थिमं दिसि पसरइ । उत्तरेणं वेसमणे महाराया जाव उत्तरं दिसिं पसरइ । पुव्वदिसागमेणं चत्तारि विदिसाओ भाणियवाओ जाव आहारं आहारेइ .
तए णं तस्स सोमिलमाहणरिसिस्स अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयं स अपिवजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पजित्था-एवं खलु अहं वाणारसीए नयरीए सोमिले नामं माहगरिसी अञ्चंतमाहणकुलप्पमए, तएणं मए क्याई चिण्णाई जाव जूवा निक्खित्ता । तएणं मए वाणारसीए जाव पुप्फारामा य जाव रोविआ । तएणं मए सुबहु लोह० जाव घडावित्ता जाव जेट्टपुत्तं कुटुंबे ठावित्ता जाव जेट्टपुतं. आपुच्छिता सुबहु लोह० जाव गहाय मुंडे जाव पाइए
तत्र कन्दाँश्च यावद् अनुनानातु, इति कृखा दक्षिणां दिशं प्रसरति । एवं पश्चिमे खलु वरुणो महाराजो यावद पश्चिमां दिशं प्रसरति । उत्तरे खलु वैश्रवणो महाराजो यावद् उत्तरां दिशं मसरति । पूर्व दिग्गमेन चतस्रो विदिशो भणितव्याः यावद् आहारमाहारयति ।
ततःखलु तस्य सोमिलब्राह्मणरन्यदा कदाचित् पूर्वरात्रापररात्र कालसमये ::अनित्यनागरिकां जाग्रतोऽयमेतद्रूप आध्यात्मिको यावत्, समुदपद्यत:एवं खलु अहं वाराणस्यां नगयीं सोमिलो नाम ब्राह्मण ऋषिरत्यन्तब्राह्मणकूलप्रसूतः, ततः खलु मया व्रताति चीर्णानि यावत् यूपा निक्षिप्ताः, ततः खलु मया वाराणस्यां यावत् पुष्पारामाश्च यावद् रोपिता, ततः खलु मया मुबहुलोह० यावद्ः घटयिता यावत् ज्येष्ठपुत्रं कुटुम्बे स्थापयिता यावद् ज्येष्ठपुत्रमापृच्छय सुबहुलोह० यावद्. गृहीता, मुण्डो
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३ पुष्पितासत्र वि य गं समाणे छठें छटेणं जाव विहरामि, तं सेयं खलु मम इयाणि कलं पाउ जाव जलंते बहवे तावसे दिट्ठामटे य पुव्वसंगइए य परियायसंगइए य आपुच्छित्ता आसमसंसियाणि य बहूई सत्तसयाई अणुमाणइत्ता पागलवत्थनियत्थस्स किदिणसंकाइयगहियसभंडोवगरणस्स कठमुद्दाए मुई बंधिता उत्तरदिसाए उत्तराभिमुहस्स महपत्थाणं पत्थावेत्तए । एवं संपेहेइ, संपेहिता कल्लं जाव जलंते बहवे तावसे य दिट्ठाभढे य पुव्वसंगइए य तं चेव जाव कमुद्दाए मुहं बंधइ, बंधित्ता अयमेयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ, जत्थेव णं अहं जलंसि वा एवं थलंसि वा दुग्गंसि वा निम्नसि वा पब्वयंसि वा विसमंसि वा गड्डाए वा दरीए वा पक्खलिज्ज वा पवडिज्ज वा, नो खलु मे कप्पइ पच्चुट्टित्तए ति कट्ठ अयमेयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ, अभिगिण्हित्ता उत्तराए दिसाए उत्तराभिमुहमहपत्थाणं पथिए से सोमिले माहणरिसी पुव्वावरण्हकालसमयंसि जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागए,
यावत् प्रव्रजितोऽपि च खलु सन् षष्ठषष्ठेन यावत् विहरामि, तच्छ्रेयः खलु ममेदानीं कल्ये मादुर्यावज्ज्वलति बहून् तापसान् दृष्ट-भ्रष्टांश्च पूर्वसङ्गतिकाँश्च पर्याय संगतिकाँश्च आपृच्छय आश्रमसंश्रितानि च बहूनि सत्त्वशतानि अनुमान्य वाल्कलवस्त्रनिवसितस्य किढिणसंकायिकगृहीतसभाण्डोपकरणस्य काष्ठमुद्रया मुखं बद्धा उत्तरदिशि उत्तराभिमुखस्य महाप्रस्थानं पस्थापयितुम् , एवं संप्रेक्ष्य कल्ये यावत् ज्वलति बहून् तापसांश्च दृष्ट भ्रष्टांश्च पूर्वसङ्गतिकाँश्च तदेव यावत् काष्ठमुद्रया मुखं बधाति, बद्धा इममेतद्रूपमभिग्रहमभिंगृह्णाति-यत्रैव खलु अहं जले वा, एवं स्थले का दुर्गे वा निम्ने वा पर्वते वा विषमे वा गर्तायां वा दाँ का प्रस्खलेयं वा प्रपतेयं वा नो खलु मे कल्पते प्रत्युत्थातुम् , इति कृत्वा इममेतदूपमभिग्रहभिगृहाति, उत्तरस्यां दिशि उत्तराभिमुखमहाप्रस्थानं मंस्थितः । स सोमिलो ब्रामण ऋषिः पूर्वापराहकानसमये यत्रैव अशोकवर
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२९७.
सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अभ्य. ३ सोमिल ब्राह्मण असोगवरपायवस्स अहे किदिणसंकाइयं ठवेइ, ठवित्ता वेदि बइ, वविता उवलेवणसंमज्जणं करेइ, करित्ता दब्भकलसहत्थगए जेणेव गंगा महानई जहा सिवो जाव गंगाओ महानईओ पच्चुत्तरइ, पच्चुत्तरित्ता जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता दन्भेहिं य कुसेहि य वालुयाए य वेदि रएइ, रइत्ता सरगं करेइ, करित्ता जाव बलिवइस्सदेव करेइ, करित्ता कठमुद्दाए मुहं बंधइ, तुसिणीए संचिटइ ॥६॥ पादपस्तत्रैवोपागतः । अशोकवरपादपस्याधः किढिणसाङ्कायिकं स्थापयति, स्थापयित्वा वेदिं वर्धयति, वर्षयित्वा उपलेपनसम्मार्जनं करोति, कुला दमकलशहस्तगतो यत्रैव गङ्गा महानदी यथा शिवो यावद् गङ्गातो महानदीतः प्रत्युत्तरति, प्रत्युत्तीर्य यत्रैव अशोकवरपादपस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य द.श्च कुशैश्च वालुकया च वेदी रचयति, रचयिता शरकं करोति, कृत्वा यावद् बलिवैश्वदेवं करोति, कृत्वा काष्ठमुद्रया मुखं बध्नाति, तूष्णीकः संतिष्ठते ॥६॥
टीका-:.
: 'तएणं से सोमिले' इत्यादि । पूर्वदिशागमेन कन्दमूलाधर्थपूर्वदिशागमनेन चतस्रो विदिशो भणितव्याः, अयं भाव-चतुर्दिक्षु या क्रिया
'तएणंसे सोमिले' इत्यादि
उसके बाद वह सोमिल ब्राह्मण ऋषिने द्वितीय छ? ( बेला ) का पारणा मानेपर पूर्वोक्त प्रकारसे सभी कार्य किये और अन्तमें आहार किया। विशेष यह
तएणं से सोमिले त्याल
ત્યાર પછી તે મિલ બ્રાહ્મણ ગષિએ દ્વિતીય પs (વેલા) નું પારણું આવતાં પૂર્વોક્ત પ્રકારે બધાં કર્મો કર્યા તથા હે આહાર કર્યો. વિશેષ એ છે કે
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____३ पुष्पितासत्र है कि यहाँ यमकी प्रार्थना करता है-दक्षिण दिशामें महाराज यम परलोक साधक मार्गमें प्रस्थित मुझ सोमिल ब्राह्मण ऋषिकी रक्षा करें, उस दिशामें जो कन्द, मूल, फल फूल आदि हों उन्हे लेनेकी मुझे आझा दें। ऐसा कह कर दक्षिण दिशामें जाता है। इसी प्रकार पश्चिम दिशामें महाराज वरुण देव परलोक साधक मार्गमें प्रस्थित मुझ सोमिल ब्राह्मण ऋषिकी रक्षा करें, इत्यादि पूर्वोक्त विधिसे पश्चिम दिशा में जाता है। बाद उत्तर दिशामें जानेके लिये उसी प्रकार महाराज वैश्रवण( कुबेर ) की प्रार्थना की और उत्तर दिशामें गया। इसी प्रकार इसने चारों-पूर्व आदि दिशाके समान चारों विदिशाओं ( कोणों) में भी पूर्वोक्त विधिका आचरण किया, और आहार किया।
उसके बाद एक समय अनित्य जागरणा करते हुए उस सोमिल ब्राह्मण के हृदयमें इस प्रकारका आध्यात्मिक विचार उत्पन्न हुआ कि मैं वाराणसी नगरीका रहनेवाला अत्यन्त उच्च कुलमें उत्पन्न सोमिल नामका ब्राह्मण ऋषि हूँ। मैंने बहुतसे
દક્ષિણ દિશામાં મહારાજ યમ, પરલેક સાધક માર્ગમાં પ્રસ્થિત મિલ બ્રાહ્મણની રક્ષા કરે. તે દિશામાં જે કંદ, મૂળ, ફલ, કુલ વગેરે હોય તે લેવાની આજ્ઞા આપો” એમ કહીને દક્ષિણ દિશામાં જાય છે. એ જ પ્રકારે પશ્ચિમ દિશામાં મહારાજ વરુણ, પરલેક સાધક માર્ગમાં પ્રસ્થિત સોમિલ બ્રાહ્મણ ત્રાષિની રક્ષા કરે. વગેરે પૂર્વોક્ત વિધીથી પશ્ચિમ દિશામાં જાય છે. પછી ઉત્તર દિશામાં જાવા માટે એજ પ્રકારે મહારાજ શ્રવણ (કુબેર )ની પ્રાર્થના કરી અને ઉત્તર દિશામાં ગયે. આવી રીતે તેણે પૂર્વ આદિ ચારે દિશાઓની પેઠે ચારે વિદિશાઓ (ખૂણા) માં પણ પૂર્વોક્ત વિધિનું આચરણ કર્યું અને પછી આહાર કર્યો. - ત્યાર પછી એક વખત અનિત્ય જાગરણ કરતાં કરતાં તે સોમિલ બ્રાહ્મણના હૃદયમાં એવા પ્રકારને આધ્યાત્મિક વિચાર ઉત્પન્ન થયે કે હું વારાણસી નગરીને રહેવાવાળો અત્યંત ઊંચા કુળમાં જન્મેલો મિલ નામનો બ્રાહ્મણ ઋષિ છું. મેં ઘણાં ઘણું વત કર્યા તથા યજ્ઞ વગેરેથી માંડી યજ્ઞ સ્તંભ ખેડવા સુધી કર્મ
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सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ३ सोमिल ब्राह्मण
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कृंता सा क्रिया विदिक्ष्वपि । दृष्टभ्रष्टान् सम्यक्त्वस्खलितान् पूर्वसङ्गतिकान् = पूर्वस्मिन् काले सङ्गतिः - मित्रत्वं यैः सह तान् तथा पूर्वमित्राणि,
व्रत किये, तथा यज्ञ आदि करनेसे लेकर यज्ञ स्तम्भ तक गाडा । अनन्तर मैंने वाराणसी नगरीके बाहर आमके बगीचेसे लेकर फूल तकके बगीचे लगवाये । बाद मैंने बहुतसी लोहेकी कडाहियाँ कलछु और तापसके लिये उपयुक्त बहुतसे ताम्बे पात्र बनवाकर और अपने सभी मित्र - ज्ञाति - स्वजन - बन्धुओंको बुलाकर उन्हें भोजन आदिके द्वारा सम्मानित कर, उन ज्ञाति बन्धुओके समक्ष अपने पुत्रको कुटुम्बकी रक्षाके लिये स्थापित कर यावत् उससे सम्मति लेकर उन लोहे की कडाहियाँ आदि लेकर मुण्ड होकर प्रवजित हुआ । और अनन्तर रहित पष्ठ-षष्ठ दिक्चक्रवाल तप करता हुआ विचरण कर रहा हूँ अब मुझे उचित है कि सूर्योदय होते ही बहुतसे दृष्टभ्रष्ट दृष्ट=जो कभी देखे हुए यथार्थ भाव हैं उनसे भ्रष्ट स्खलित हैं, तथा पूर्वसंगतिक = पूर्वकालमें जिनसे संगति - मित्रता हुई थी ऐसे, पर्यायसंगतिक= समान तापस पर्यायवालोको पूछकर आश्रम संश्रित = आश्रममें रहनेवाले अनेक शत प्राणिો. ત્યાર પછી મેં વારાણસી નગરીથી બહાર માના બગીચાથી માંડી ફુલવાળા ખાગ સુધી મનાવ્યાં. પછી મેં ઘણી લેાઢાની કડાઈએ, કડછી તથા તાપસને માટે ઉપયેાગી એવી ઘણી તાંમાનાં પાત્રા વગેરે વસ્તુ ખનાવરાવી અને મારા પોતાના સઘળા મિત્ર–જ્ઞાતિ-સ્વજન-ખ એને મેલાવીને તેમને ભાજન વગેરે દ્વારા સમાનિત કર્યાં. તે જ્ઞાતિ બંધુઓની સમક્ષ મારા પેાતાના પુત્રને કુટુંબની રક્ષાને માટે સ્થાપિત કરીને તેની સંમતિ લઇને તે લેાઢાની કડાઈ વગેરે બધુ લઈ સુડિત થઈ પ્રત્રજિત થયા અને અંતરરહિત છઠે-છઠે દિક્ ચક્રવાલ તપ કરતા કરતા વિચરૂં છું. આ માટે મને એ ચેગ્ય છે કે સૂર્યોદય થતાં જ ઘણાં દૃષ્ટ ભ્રષ્ટ=દૃષ્ટ=જે કયારેક જોવામાં આવેલાં યથાર્થ ભાવેાથી ભ્રષ્ટ સ્ખલિત છે તે તથા પૂર્વ સંગતિ=સમાન તાપસ પર્યોય વર્તિને પૂછીને; આશ્રમ સશ્રિત= આશ્રમમાં રહેવાવાળા અનેક સેંકડા પ્રાણીઓને વચન આદિથી સંતુષ્ટ કરી વલ્કલ
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३ पुष्पितासूत्र पर्यायसङ्गतिकान्-तापसपर्यायवर्तिनः, काष्ठमुद्रया-काष्ठमयमुखबन्धनेन । गर्तायां-महत्यां खड्डायाम् , दर्या कन्दरायाम् , शेषं स्पष्टम् ॥६॥
योंको वचन आदिसे सन्तुष्ट कर वल्कल वस्त्र पहना हुआ कावडमें अपने भाण्डोपकरणको लेकर तथा काष्ठमुद्रासे मुँहको बाँधकर उत्तराभिमुख होकर उत्तर दिशामें महाप्रस्थान ( मरणके लिये जाना ) करूँ।
वह सोमिल ब्राह्मण ऋषि इस प्रकार विचार करता है और सूर्योदय होने पर, अपने विचारके अनुसार सभी दृष्टभ्रष्ट आदि तापस पर्यायवालोंको पूछकर तथा आश्रमस्थ अनेक शत प्राणियोंको वचन आदिसे सन्तुष्टकर अन्तमें काष्ठ मुद्रासे अपना मुख बाँधता है, और इस प्रकारका अभिग्रह ( प्रतिज्ञा ) लेता है कि'जहाँ कहीं भी-चाहे वह जल हो या स्थल हो वा दुर्ग (विकट स्थान ) हो, अथवा नीचा प्रदेश हो वा पर्वत हो, दिषम भूमि हो, वा गड्ढा हो, वा गुफा हो, इन सबोमेंसे कहीं भी प्रस्खलित होऊँ या गिर पडूं, तो मुझे वहाँसे उठना नहीं कलपता' ऐसा विचार करके इस प्रकारका अभिग्रह लेता है। तथा उत्तर दिशाको
વસ્ત્ર ધારી કાવડમાં પિતાનાં ભડપકરણ લઈ તથા કાષ્ટ મુદ્રાથી મહાને બાંધી ઉત્તર દિશા માં ઉત્તરાભિમુખ થઈને મહાપ્રસ્થાન (મરણને માટે જવું) કરું. - તે સોમિલ બ્રાહ્મણ ઋષિ આ વિચાર કરે છે અને સૂર્યોદય થતાં પિતાના વિચાર પ્રમાણે બધા દુષ્ટ-ભ્રષ્ટ આદિ સમાન તાપસ પર્યાયવર્તિઓને પૂછીને તથા આશ્રમમાં રહેનારા અનેક સેંકડો પ્રાણિઓને સંતુષ્ટ કરી કાખમુદ્રા વડે પિતાનું મેટું બાંધે છે. અને એવો અભિગ્રહ (પ્રતિજ્ઞા) લે છે કે જ્યાં જ્યાં પણ તે જલ હોય કે સ્થલ હેય કે દુર્ગ (વિકટ સ્થાન) હેય, નીચે પ્રદેશ હોય કે પર્વત હોય, વિષમ ભૂમિ હોય કે ખાડે છે કે ગુફા હોય એ બધામાંથી ગમે તે હોય ત્યાં પ્રસ્તુલિત થાઉં કે પડી જાઉં તે મારે ત્યાંથી ઉઠવું નંહિ કેપે” એમ વિચારી એ અભિગ્રહ લે છે અને ઉત્તર દિશા તરફ મહાપ્રસ્થાન માટે
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सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अभ्य. ३ सोमिल ब्राह्मण
३०१
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मूलम्तएणं तस्स सोमिलमाहणरिसिस्स पुन्वरत्वावरत्तकालसमयंसि एमे देवे अंतियं पाउन्भूए । तएणं से देवे सोमिलं माहणं एवं वयासी-हंमो
छायाततः खलु तस्य सोमिलब्राह्मणऋषेः पूर्वरात्रापररात्रकालसमये एको देवोऽन्तिकं प्रादुर्भूतः । ततः खलु स देवः सोमिलं ब्राह्मणमेक
ओर महाप्रस्थानके लिए प्रस्थित होता है। फिर वह सोमिल ब्राह्मण ऋषि अपराह्न काल ( दिनके तिसरे प्रहर ) में जहाँ सुन्दर अशोक वृक्ष था वहाँ आया। और उस अशोक वृक्षके नीचे अपना कावड रखा । अनन्तर वेदि-बैठनेकी जगहको साफ किया, साफ करके जहाँ गङ्गा महानदी थी वहाँ आया । और शिवराजऋषिके समान उस गङ्गा महानदीमें स्नान आदि कृत्यकर वहाँसे ऊपर आया और जहाँ अशोक वृक्ष था वहाँ आकर दर्भ कुश और बालकासे यज्ञ वेदीकी रचना की। यज्ञ वेदीकी रचना करके शरक और अरणिसे अग्निको प्रज्वलित कर यावत् बलिवैश्वदेव (नित्य यज्ञ ) करता है, काष्ठ मुद्रासे मुख बांधता है, और मौन होकर रहता है ॥६॥
પસ્થિત થાય છે. પછી તે સોમિલ બ્રાહ્મણ ઋષિ અપરાë કાલ (દિવસના ત્રીજા પ્રહર) માં જ્યાં સુંદર અશોક વૃક્ષ હતું ત્યાં આવ્યું અને તે અશક વૃક્ષની નીચે પિતાની કાવડ રાખી. અનન્તર વેદિ-બેસવાની જગ્યાને સાફ કરી, તે સાફ કરીને જ્યાં ગંગા મહાનદી હતી ત્યાં આવ્યો. અને શિવરાજ ઋષિની પેઠે તે ગંગા મહાનદીમાં સ્નાન આદિ કર્મ કરી ત્યાંથી ઉપર આવ્યું તથા જ્યાં અશોક વૃક્ષ હતું ત્યાં આવીને-દર્ભ, કુશ તથા રેતીથી યજ્ઞ વેદીની રચના કરી. યજ્ઞ વેદીની રચના કરીને શરક તથા અરણીથી અગ્નિને પ્રજવલિત કરીને પછી બલિવેશ્વદેવ (નિત્ય યજ્ઞ) કરે છે અને કાષ્ટ મુદ્રાથી મખ બાંધે છે. અને મૌન ધારણ કરી બેસી तय छे. (6)
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३०२
३ पुषितासत्र सोमिलमाहणा ! पव्वइया ! दुपवइयं ते । तएणं से सोमिले तस्स देवस्स दोचंपि तचंपि एयमद्वं नो आढाइ नो परिजाणइ जाव तुसिणीए सचिट्ठइ । तएणं से देवे सोमिलेणं माहणरिसिणा अणाढाइज्जमाणे जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसं पडिगए । तएणं से सोमिले कलं जान जलंते वागलवत्थनियत्थे किढिणसंकाइयं गहाय गहियमंडोवगरणे कठमुद्दाए मुहं बंधइ. बंधित्ता उत्तराभिमुहे संपत्थिए । तरणं से सोमिले बिइयदिवसम्मि पच्छावरण्हकालसमयंसि जेणेव सत्तवने तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सत्तवण्णस्स अहे किढिणखंकाइयं ठवेइ, ठवित्ता वेइं वड्डेइ, ड्डित्ता जहा असोगवरपायवे जाव अग्गि हुणइ, कमुद्दाए मुहं बंधइ, तुसिणीए संचिट्ठइ ।
तए णं तस्स सोमिलस्स पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि एगे देवे अंतिय पाउन्भूए । तएणं से देवे अंतलिक्खपडिवन्ने जहा असोगवरपायवे
मवादीत-हं भो सोमिल ब्राह्मण ! प्रत्रजित ! दुष्पवजितं ते । ततः खलु स सोमिलस्तस्य देवस्य द्वितीयमपि तृतीयमपि एतमर्थ नो आद्रियते नो परिजानाति यावत् तूष्णीकः संतिष्ठते । ततः खलु स देवः सोमिलेन ब्रामणर्षिणा अनाद्रियमाणः यस्या दिशः प्रादुर्भूतस्तामेव दिशं प्रतिगतः । ततः खलु स सोमिल: कल्ये यावत् ज्वलति वाल्कलवस्त्रनिवसितः किढिणसाङ्कायिकं गृहीला गृहीतभाण्डोपकरणः काष्ठमुद्रया मुखं . बधाति, बद्ध्वा उत्तराभिमुखः संपस्थितः । ततः खलु स सोमिलो द्वितीयदिवसे पश्चादपराहकाल समये यत्रैव सप्तपर्णः तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य सप्तपर्णस्य अधः किढिणसांकायिकं स्थापयति, स्थापयित्वा वेदि वर्धयति, वर्धयिखा यथा अशोकवरपादपे याक्त् अमिं जुहोति, काष्ठमुद्रया मुखं बनाति, तूष्णीकः संविष्ठते ।
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३०३
मुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ३ लोमिल ब्राह्मण जाव पडिगए । तएणं से सोमिले कलं जाव जलंते वागलवत्थनियत्वे किढिणसंकाइयं गिण्डइ, गिहित्ता कटमहाए मुहं बंधइ, उत्तरदिसाए उत्तरामिमुहे संपत्थिए । - तएणं से सोमिले तइयदिवसम्मि पच्छावरहकालसमयंसि जेणे असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता असोगवरपायवस्स ओ किढिणसंकाइयं ठवेइ, वेइं बड्डइ जाव गंगं महानइं पच्चुत्तरइ, पच्चुत्तरिता जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता वेइं रएइ जान कट्ठमुद्दाए मुहं बंधइ, बंधित्ता तुसिणीए संचिट्ठइ । तएणं तस्स सोमिलस्स पुव्वरतावरत्तकाले एगे देवे अंतियं पाउम्भूए तंचेव भणइ जाव पडिगए । तएणं से सोमिले जाव जलते वागलवत्यनियत्थे किढिण संकाइयं जाद कहमुदाए मुहं बंधइ, बंधित्ता उत्तराए दिसाए उत्तराभिमुहे संपत्थिए ।
ततः खलु तस्य सोमिलस्य पूर्वरात्रापररात्रकालसमये एको देवोऽन्तिकं प्रादुर्भूतः । ततः खलु स देवोऽन्तरिक्षमतिपन्नः यथा अशोकवरपादपे यावत् भतिगतः । ततः खलु स सोमिल: कल्ये यावत् ज्वलति वाल्कलवस्त्रनिवसितः किढिणसाङ्कायिकं गृह्णाति, गृहीला काष्ठमुद्रया मुख बध्नाति, बद्ध्वा उत्तरदिशि उत्तराभिमुखः संपस्थितः
___ ततः खलु स सोमिलस्तृतीयदिवसे पश्चादपराहकालसमये यत्रैवाशोकवरपादपस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य अशोकवरपादपस्याधः किढिणसाका यिकं स्थापयति, वेदिं वर्धयति, यावद् गङ्गां महानदी प्रत्युत्तरति, प्रत्युत्तीर्य यत्रैवाशोकवरपादपस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य वेदि रचयति, यावर काटमुद्रया मुखं बनाति, बद्ध्वा तूष्णीकः संविष्ठते । ततः खलु तस्य सोमिलस पूर्वरात्रापररात्रकाले एको देवोऽन्तिकं प्रादुर्भतः तदेव भणति यावत् पनि गतः । ततः खलु स सौमिलो यावत् ज्वलति वाकलवस्त्रनिवसितः किदिक
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३ पुष्पितासूत्र. तएणं से सोमिले चउत्थे दिवसे पच्छावरण्हकालसमयंसि जेणेव वडपायवे तेणेव उवागए, वडपायवस्स अहे किढिणसंकाइयं ठवेइ, ठवित्ता वेई बड्डइ, उवलेवणणसंमज्जणं करेइ जाव कमुद्दाए मुहं बंधइ, तुसिणीएं संचिटइ । तएणं तस्स सोमिलस्स पुव्वरत्तावरत्तकाले एगे देवे अंतियं पाउ
भूए तं चेव भणइ जाव पडिगए । तएणं से सोमिले जाव जलते वागलवत्यनियत्थे किढिणसंकाइयं जाव कमुद्दाए मुहं बंधइ, बंधित्ता उत्तराए दिसाए उत्तराभिमुहे संपत्थिए ।
तणं से सोमिले पंचमदिवसम्मि पच्छावरण्डकालसमयंसि जेणेव उंबरपायवे तेणेव उवागच्छेइ, उंबरपायवस्स अहे किढिणसंकाइयं ठवेइ, वेइं वइ जाव कद्वमुद्दाए मुहं बंधइ जाव तुसिणीए संचिढइ । साङ्कायिकं यावत् काष्ठमुद्रया मुखं बध्नाति, बद्ध्वा उत्तरस्यां दिशि उत्तरामिमुखः संपस्थितः । - ततः खलु स सोमिलः चतुर्थे दिवसे पश्चादपराह्नकालसमये यत्रैव वटपादपस्तत्रैवोपागतः, वटपादपस्याधः किढिणसाङ्कायिकं स्थापयति, स्थापयिका वेदिं वर्धयति, उपलेपनसंमार्जनं करोति यावत् काष्ठमुद्रया मुखं बनाति, तूष्णीकः संतिष्ठते । ततः खलु तस्य सोमिलस्य पूर्वरात्रापररात्रकाले एको देवोऽन्तिकं प्रादुर्भूतः । तदेव भणति यावत् प्रतिगतः । ततः खल स सोमिलो यावज्ज्वलति वाल्कलवस्त्रनिवसितः किढिणसाङ्कायिक यावत् काष्ठमुद्रया मुखं बध्नाति बद्ध्वा उत्तरस्यां दिशि उत्तराभिमुखः संपस्थितः ।। . . ततः खलु स सोमिलः पञ्चमदिवसे पश्चादपराहकालसमये यत्रैव उदुम्बरपादपस्तत्रैवोपागच्छति, उदुम्बर पादपस्याधः किढिणसाङ्कायिकं स्थापयति, वेदि वर्षयति यावत् काष्ठमुद्रया मुखं बधाति यावत् तूष्णीकः संतिष्ठते ।
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३०५
सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. ३ सोमिल ब्राह्मण
तएणं तस्स सोमिलमाहणस्स पुन्वरचावरत्तकाले एगे देवे जाव एवं वयासी-हंभो सोमिला ! पव्वइया ! दुप्पव्वइयं ते पढम भणइ, तहेव तुसिणीए संचिढइ । देवो दोच्चंपि तचंपि वदइ सोमिला ! पप्वइया ! दुप्पव्वइयं ते । तएणं से सोमिले तेणं देवेणं दोच्चंपि तच्चंपि एवं वुत्ते समाणे तं देवं एवं वयासी-कहण्णं देवाणुप्पिया ! मम दुप्पव्वइयं ? । तएणं से देवे सोमिलं माहणं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! तुमं पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स अंतियं पंचाणुव्वए सत्त सिक्खावए दुवालसविहे सावगधम्मे पडिवन्ने, तएणं तव अण्णया कयाइ असाहुदंसंणेण पुव्वरत्ता० कुटुंब० जाव पुव्वचिंतियं देवो उच्चारेइ जाव जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छसि, उवागच्छित्ता किढिणसंकाइयं जाव तुसिणीए संचिट्ठसि । तएणं पुव्वरत्तावरत्तकाले तव अंतियं पाउब्भवामि हं भो सोमिला ! पव्वइया ! दुप्पव्वइयं ते तह चेव देवो नियवयणं भणइ जाव पंचमदिवसम्मि पच्छा
ततः खलु तस्य सोमिलब्राह्मणस्य पूर्वरात्रापररात्रकाले एको देवः यावत् एवमवादी-हं भो सोमिल ! प्रव्रजित ? दुष्पव्रजितं ते प्रथमं भणति तथैव तूष्णीकः संतिष्ठते, देवो द्वितीयमपि तृतीयमपि वदति सोमिल ! प्रव्रजित ? दुष्पव्रजितं ते । ततः खलु स सोमिलस्तेन देवेन द्वितीयमपि तृतीयमप्येवमुक्तः सन् तं देवमेवमवादी-कथं खलु देवानुभिय ! मम दुष्पव्रजितम्
ततः खलु स देवः सोमिलं ब्राह्मणमेवमवादी-एवं खलु देवानुप्रिय ! त्वं पार्थस्याहतः पुरुषादानीयस्यान्तिकं पञ्चानुव्रतानि सप्तशिक्षाव्रतानि द्वादशविधं श्रावकधर्म प्रतिपन्नः, ततः खलु तवाऽन्यदा कदाचित असाधुदर्शनेन पूर्वरात्रा० कुटुम्ब० यावत् पूर्नचिन्तितं देव उच्चारयति यावत् यौवाऽशोकवरपादपस्तवोपागच्छसि, उपागस्य किढिणसाकायिकं यावत् तूष्णीकः संतिष्ठसे । ततः खल्ल पूर्वरात्रापररात्रकाले तामिकं काईलामि
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३०६
३ पुष्पितासूत्र
वरण्डकालसमयंसि जेणेव उंबरवरपायवे तेणेव उवागए किटिणसंकाइयं उबेसि, वेई वडसि, उवलेवणं संमज्जणं करेसि, करिता मुद्दाए मुहं बंधेसि, गंधित्ता तुसिणीए संचिट्ठसि तं चेवं खलु देवाणुपिया ! तव पव्वइयं दुष्पव्वइयं । तएणं से सोमिले तं देवं एवं वयासी - कण्णं देवानुप्पिया ! मम सुष्पव्वइयं ? तणं से देवे सोमिलं रुवं वयासि - जइणं तुमं देवाणु - पिया ! इयाणि पुव्वपडिवण्णाई पंच अणुव्वयाई सत्तसिक्खावयाई सममेव उवसंपज्जित्ताणं विहरसि, तोणं तुज्झ इदाणि सुपव्वइयं भविज्जा । तणं से देवे सोमिल बंदइ नमसर, वंदित्ता नमसिता जामेव दिसिं पाउब्भूए जाव पडिगए ।
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तण से सोमिले माहणरिसो तेणं देवेणं एवं कुत्ते समाणे पुव्वपडिवन्नाई पंच अणुब्वयाई सत्तसिक्खावयाई सयमेव उवसंपज्जित्ताणं विहरइ ।
हं भो सोमिल ! प्रव्रजित ? दुष्प्रव्रजितं ते तथैव देवो निजवचनं भणति यावत् पञ्चमदिवसे पश्चादपराह्नकालसमये यत्रैव उदुम्बरपादपस्तत्रैवोपागतः किढिणसाङ्कायिकं स्थापयसि, वेदीं वर्धयसि, उपलेपनं संमार्जनं करोषि कृत्वा काष्ठमुद्रया मुखं बध्नासि, बद्ध्वा तूष्णीकः संतिष्ठसे, तदेवं खलु देवानुप्रिय ! तव मत्रजितं दुष्प्रव्रजितम् ।
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ततः खलु स सोमिलस्तं देवमेवमवादीत् कथं खलु देवानुप्रिय ! मम सुमत्रजितं ? । ततः खलु स देवः सोमिलमेवमवादीत् - यदि खलु त्वं देवानुप्रिय ! इदानीं पूर्वप्रतिपन्नानि पञ्चानुव्रतानि सप्तशिक्षाव्रतानि स्वयमेव उपसंपद्य खलु विहरसि तर्हि खलु तवेदानीं सुमत्रजितं भवेत् । ततः खलु स देवः सोमिलं षन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा यस्या दिशः प्रादभूतः यावत् प्रतिगतः ।
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सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ३ सोमिल ब्राह्मण
३०७
तणं से सोमिले बहूहिं चउत्थ छट्ठम जाव मासद्धमासखमणेहिं विचिते हिं adraहाणेहिं अप्पाणं भावेमाणे बहूई वासाई समणोवासगपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसे, सित्ता तीसं भत्ताई अणसणाए छेदेइ, छेदित्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कंते विराहियसम्मत्ते कालमासे कालं किच्चा सुकवर्डिसए विमाणे उववायसभाए देवसयणिज्जंसि जावतोगाहणाए सुकमहग्गहत्ताए उनवने । तरणं से मुके महग्गहे अहुणोवने समाणे जाव भासामणपज्जत्ती ० ।
एवं खलु गोयमा ! सुक्केणं महग्गदेणं सा दिव्वा जाव अभिसमन्नागया, एवं पलिओ मं ठिई । सुक्के णं भंते ! महग्गहे तओ देवलोगाओ आउक्खणं ३ कहिं गच्छहि ? २ गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ ५ । एवं खलु जंबू ! समणेणं० निक्खेवओ ॥ ७ ॥
॥ तइयं अज्झयणं समन्तं ॥ ३ ॥
ततः खलु सोमिलो ब्राह्मण ऋषिस्तेन देवेन एवमुक्तः सन् पूर्वप्रतिपन्नानि पश्चानुव्रतानि सप्तशिक्षाव्रतानि स्वयमेव उपसंपद्य खलु विहरति । ततः खलु स सोमिलो बहुभिश्चतुर्थषष्ठाष्टमयावन्मासार्द्धमासक्षपणैर्विचित्रैस्तपउपधानैरात्मानं भावयन् बहूनि वर्षाणि श्रमणोपासकपर्यायं पालयति, पालयिता अर्धमासिक्या संलेखनया आत्मानं जोषयति, जोषयित्वा त्रिंशद् भक्तानि अनशनेन छिनत्ति, छित्वा तस्य स्थानस्यानालोचिताऽप्रतिक्रान्तो विराधितसम्यक्त्वः कालमासे कालं कृत्वा शुक्रावतंसके विमाने उपपात: सभायां देवशयनीये यावताऽवगाहनया शुक्रमहाग्रहतया उपपन्नः । ततः खलु स शुक्रो महाग्रहः अधुनोपपन्नः सन् यावद् भाषामनः पर्याप्तत्या० ।
एवं खलु गौतम ! शुक्रेण महाग्रहेण सा दिव्या यावत् अभिसमन्वागता । एक पल्योपमं स्थितिः । शुक्रः खलु भदन्त ! महाग्रहस्ततो देवलोकात् आयुः क्षयेण ३ कुत्र गमिष्यति २ १ गौतम 1 महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति ५ ! एवं खलु जम्बूः ! श्रमणेन० निक्षेपकः ॥ ७ ॥
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३ पुष्पितासंत्र टीका'तएणं तस्स' इत्यादि । असाधुदर्शनेन साधुदर्शनाभावादसाधुदर्शनाच्च 'तएणं तस्स ' इत्यादि
उसके बाद उस सोमिल ब्राह्मण ऋषिके सामने मध्य रात्रिके समय एक देवता प्रकट हुआ। उसके बाद वह देव सोमिल ब्राह्मणको इस प्रकार कहा–हे प्रबजित सोमिल ब्राह्मण ! तेरी यह दुष्प्रव्रज्या है। इस प्रकार उस देवके द्वारा दो तीन बार कहे जानेपर भी वह सोमिल उस देवताकी बातका आदर नही करता है न उसकी तरफ ध्यान ही देता है, किंतु मौन होकर रहता है उसके बाद उस सोमिल ब्राह्मणसे अनादृत वह देव जिस दिशासे आया उसी दिशामें चला गया।
उसके बाद वल्कल वस्त्रधारी वह सोमिल सूर्योदय होनेपर कावडको उठाकर अपना भाण्ड-उपकरण लेकर काष्ठमुद्रासे अपना मुँहे बांधकर उत्तर दिशाकी और प्रस्थान करता है।
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तएणं तस्स त्या - ત્યાર પછી તે સોમિલ બ્રાહ્મણ ઋષિની સામે મધ્યરાત્રિને વખતે એક દેવતા પ્રગટ થયે. પછી તે દેવે સોમિલ બ્રાહ્મણને આમ કહ્યું – હે પ્રવજીત સોમિલ બ્રાહ્મણ! તારી આ પ્રવજ્યા દુષ્પવ્રજ્યા (દેલવાળી) છે. એ પ્રકારે તે દેવની દ્વારા બે ત્રણ વાર કહેવામાં આવતાં છતાં પણ તે સમિલ તે દેવતાની વાતને આદર કરસ્તો નથી કે નથી તેના તરફ ધ્યાન પણ દે. પણ એકદમ મૌન થઈ જાય છે. ત્યાર પછી તે મિલ બ્રાહ્મણથી અનાદર પામેલો દેવ જે બાજુથી આવ્યું હતું તે બાજુએ ચાલ્યા ગયે. ને ત્યાર પછી વહકલવાધારી તે મિલ સૂર્યોદય થતાં કાવડ ઉપાડી પિતાના લંડ ઉપકરણ લઈને કાષ્ઠમુદ્રાથી પિતાનું મોટું બાંધીને ઉત્તર દિશા તરફ પ્રસ્થાન
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सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ३ लोमिल ब्राह्मण
३०९
अनन्तर वह सोमिल ब्राह्मण दूसरे दिन अपराहू कालके अंतिम प्रहरमें जहाँ सप्तपर्ण वृक्ष था वहाँ आया। और सप्तपर्ण वृक्षके नीचे अपना कावड रखता है, कावड रखकर वेदी बनाता है, और जैसे अशोक वृक्षके नीचे उसने किया वैसे ही सभी कार्य किये । अन्तमें उसने हवन किया और काष्ठमुद्रासे अपना मुँह बांधकर मौन होकर बैठ गया। उसके बाद उस सोमिल ब्राह्मणके समक्ष मध्यरात्रिके समय एक देव प्रकट हुआ। और आकाशमें खडा होकर अशोक वृक्षके नीचे जिस प्रकार पहले उस सोमिल ब्राह्मणको देवताने कहा था उसी प्रकार फिर भी कहा, परन्तु उस सोमिल ब्राह्मणने उस देवताकी बातपर कुछ भी ध्यान नहीं दिया । सुनी अनसुनी करके केवल चुप रह गया। वह देवता अन्तर्हित हो गया । उसके बाद वल्कल वस्त्रधारी वह सोमिल ब्राह्मण अपना कावड ग्रहण करता है
और काष्ठमुद्रासे अपना मुँह बांधता है। अनन्तर वह उत्तर दिशामें उत्तरामिमुख होकर प्रस्थित हुआ।
પછી તે મિલ બ્રાહ્મણ બીજે દિવસ અપરાહ કાલના છેલા પહેરમાં (સાંજે) જ્યાં સપ્તપર્ણ વૃક્ષ હતું ત્યાં આવ્યો. અને સપ્તપર્ણની નીચે પોતાની કાવડ રાખીને વેદી બનાવે છે. અને જેવી રીતે અશોક વૃક્ષની નીચે તેણે ક્ય હતાં તેવાંજ બધાં કર્મો કરી અન્ત તેણે હવન કર્યો અને કામુદ્રાથી પિતાનું મોટું બાંધી મૌન થઈ રહેવા લાગ્યો. પછી તે સોમિલ બ્રાહ્મણની સમક્ષ મધ્યરાત્રિને વખતે એક દેવ પ્રગટ થયા અને આકાશમાં ઉભું રહી અશોકવૃક્ષની નીચે જેમ પહેલાં તે સમિલ બ્રાહ્મણને દેવતાએ કહ્યું હતું તેવી જ રીતે વળી ફરીને કહ્યું પરંતુ તે સોમિલ બ્રાહ્મણે તે દેવતાની વાત ઉપર કાંઈ પણ ધ્યાન ન આપ્યું. સાંભળ્યું ન સાંભળ્યું કરીને બિલકુલ ચુપ થઈ રહ્યો. તે દેવતા અંતર્ધાન થઈ ગયે. પછી વલવસ્ત્ર ધારી તે. એમિલ બ્રાહ્મણે પિતાની કાવઠ લીધી અને કામુદ્રાથી પિતાનું મોટું બાંધે છે. ત્યાર પછી ઉત્તર દિશામાં ઉત્તરાભિમુખ થઇને या भांड..
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३१०
३ पुष्पितासत्र - उसके बाद वह सोमिल ब्राह्मण तीसरे दिन चौथे पहरमें जहाँ अशोक वृक्ष था वहाँ आया। वहा आकर कावड रखता है, और बैठनेके लिये वेदी बनाता है ओर पहलेके ही तरह सभी कार्य करके काष्ठमुद्रासे मुँह बाँधता है, अनन्तर मौन होकर बैठ जाता है। उसके बाद मध्य रात्रिमें उस सोमिल ब्राह्मणके समीप एक देव प्रकट हुआ और फिर उसने उसी प्रकार कहा और यावत् चला गया। उसके बाद सूर्योदय होनेपर वल्कल वस्त्रधारी वह सोमिल ब्राह्मण अपना कावड उठाता है और काष्ठमुद्रासे अपना मुख बाँधता हैं और उत्तराभिमुख हो उत्तर दिशामें प्रस्थान करता है।
उसके बाद वह सोमिल ब्राह्मण चौथे दिवसके चौथे पहरमें जहाँ बडका वृक्ष था वहाँ आया। और उस वट वृक्षके नीचे अपना कावड रखा। अनन्तर बैठनेकी वेदीको बनाया और उसको गोबर मिट्टीसे लीपा और साफ किया बाद में मौन होकर बैठ गया, उसके बाद मध्य रात्रिके समय उस सोमिल ब्राह्मणके समीप एक देव प्रगट हुआ। और उसने वैसे ही कहा यावत् अन्तर्हित हो गया।
પછી તે સોમિલ બ્રાહ્મણ ત્રીજે દિવસે ચેથા પહેરમાં જ્યાં અશોક વૃક્ષ હતું ત્યાં આવી કાવડ મૂકીને બેસવા માટે વેદી બનાવે છે. પહેલાંની પ્રમાણે બધાં કર્મો કરી કામુદ્રાથી મોટું બાંધી પછી મોન થઈ બેસી જાય છે. ત્યાર પછી મધ્યરાત્રિમાં તે સમિલ બ્રાહ્મણની પાસે એક દેવ પ્રગટ થયે અને વળી તેણે તેજ પ્રકારે કહ્યું અને પછી ચા ગયો. ત્યાર પછી સૂર્યોદય થતાં વકલવસ્ત્ર ધારી તે મિલ બ્રાહ્મણ પિતાની કાવડ ઉપાડે છે અને કામુદ્રાથી પોતાનું મોટું બાંધે છે. અને પછી ઉત્તર દિશામાં ઉત્તરાભિમુખ થઈને ચાલવા માંડે છે. - ત્યાર પછી તે સોમિલ બ્રાહ્મણ ચોથે દિવસે ચોથા પહેરમાં જ્યાં વડનું વૃક્ષ હતું ત્યાં આવ્યું અને તે વડના ઝાડની નીચે પિતાની કાવઠ રાખી. પછી બેસવાની વેદી બનાવી તે છાણ માટીથી લીંપી અને સાફ કરી. પછી મૌન થઈને -એ. ત્યાર પછી મધ્યરાત્રિને વખતે તે મિલ ખાવાણની પાસે એક દેવ પ્રગટ થયે અને તેણે એમજ અગાઉ પ્રમાણે કહ્યું અને અંતર્ધાન થઈ ગયે..
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किया—
सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अभ्य. ३ सोमिल ब्राह्मण
३११
और वेदी बनाता है, है । उसके बाद मध्य
उसके बाद वह सोमिल पाँचवे दिनके चौथे पहरमें जहाँ उदुम्बर ( गुलर) का वृक्ष था वहाँ आता है और उदुम्बर वृक्षके नीचे अपना कावड रखता है यावत् काष्ठमुद्रासे मुख बाँधता है और मौन होकर रहता रात्रिमें उस सोमिल ब्राह्मणके पास एक देव प्रकट हुआ और यावत् इस प्रकार कहा - हे सोमिल प्रव्रजित ! तुम्हारी यह प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या है, इस प्रकार पहली बार उस देवताके मुखसे बाणी सुनकर वह सोमिल मौन रहता है । अनन्तर उस सोमिलने उस देवतासे दुवारा तिवारा कहे जानेपर इस प्रकार कहा - हे देवानुप्रिय ! मेरी प्रव्रज्या दुष्प्रज्या क्यों है ?
सोमिलके इस प्रकार पूछनेपर उस देवताने इस प्रकार कहना प्रारम्भ
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हे देवानुप्रिय ! तुम मुमुक्षु जनोंसे सेव्य पार्श्व अर्हतके समीप पाँच अनुव्रत सात शिक्षावत, इस प्रकार बारह व्रतरूप श्रावक धर्मको स्वीकार किया । उसके
ત્યાર પછી તે સામિલ પાંચમા દિવસે ચાથા પહેારે જ્યાં ઉદુમ્બર ( ઉંખરા )નું વૃક્ષ હતું ત્યાં આવે છે. અને તે ઉદુમ્બર વૃક્ષની નીચે પાતાની કાવડ રાખી વેદી બનાવે છે. પહેલાંની માફક બધાં મૃત્યુ કરી પછી કાષ્ટમુદ્રાથી માઢું બાંધી મૌન રહે છે. ત્યાર પછી મધ્યરાત્રિમાં તે સામિલ બ્રાહ્મણુની પાસે એક દેવ પ્રગટ થયા અને આ પ્રકારે કહ્યું: હે સામિલ પ્રવ્રુજિત ! તારી આ પ્રત્રજ્યા દુષ્પ્રવ્રજ્યા છે. આ પ્રકારની પહેલીવારની વાણી તે દેવતાને મુખેથી સાંભળી તે સામિલ મૌન રહે છે. પછી તે દેવ ખીજીવાર, ત્રીજીવાર પણ સામિલને તે જ પ્રકારે કહે છે. સામિલે તે દેવતાની વાણી સાંભળી આ પ્રકારે કહ્યું:~
હે દેવાનુપ્રિય ! મારી પ્રવ્રજ્યા દુષ્પ્રવ્રજ્યા કેમ છે ?
સામિલના આ પ્રકારે પુછવાથી તે દેવતા આ પ્રકારે કહેવા લાગ્યું:~
હે દેવાનુપ્રિય ! તમે મુમુક્ષુજનાથી સેવાતા પાર્શ્વ અતની પાસે પાંચ અણુ વ્રત, સાત શિક્ષા વ્રત એમ કુલ મળીખાર વ્રત રૂપ શ્રાવક ધર્મોના સ્વીકાર કર્યો.
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३ पुष्पितासत्र बाद असाधुओंके दर्शनसे तुमने इस धर्मका परित्याग कर दिया। अनन्तर एक समय मध्य रात्रिमें कुटुम्ब जागरणा करते हुए तुम्हारे मनमें विचार पैदा हुआ कि-' गङ्गाके किनारेमें तपस्या करनेवाले विविध प्रकारके वानप्रस्थ तापस हैं, उन तापसोमें जो दिशाप्रोक्षक तापस हैं उनके पास, लोहेकी कडाहिया कलछु और ताम्बेका तापसपात्र बनवाकर उसे लेकर जाऊँ और दिशाप्रोक्षक तापस बनूं'। इत्यादि सोमिल ब्राह्मणके द्वारा पूर्व चिंतित विचारोंको देवताने उससे कहा । और फिर उसने कहा कि-' बादमें तुमने दिशाप्रोक्षक तापसके समीप दीक्षा ली और अभिग्रह लिया यावत् जहाँ अशोक वृक्ष था वहाँ आये और वहाँ कावड रख अपना सभी कृत्य किया बाद मेरे द्वारा प्रतिबोधित होनेपर भी तुमने उसपर ध्यान नहीं दिया और मौन होकर रह गये । इस प्रकार मैंने चार दिन तक तुम्हें समझाया पर तुमने ध्यान नहीं दिया। बाद आज पाँचवें दिवस चौथे पहरमें यहाँ उदुम्बर वृक्षके नीचे तुमने अपना कावड रखा, बैठनेकी जगहको साफ किया,
ત્યાર પછી અસાધુઓના દર્શનથી તમે આ ધર્મ પરિત્યાગ કર્યો. પછી એક સમય મધ્યરાત્રિમાં કુટુંબ જાગરણ કરતાં કરતાં તમારા મનમાં એવો વિચાર ઉત્પન્ન થયા કે, “ગંગાને કાંઠે તપસ્યા કરવાવાળા જુદા જુદા પ્રકારના વાનપ્રસ્થ તાપસ છે. તે તાપસમાં જે દિશાક્ષક તાપસ છે તેની પાસે, લોઢાની કડાઈઓ કડછી તથા તાંબાનાં તાપસપાત્ર બનાવરાવી તે લઈને જાઉં અને દિશા પ્રેક્ષક તાપસ બનું.” વગેરે સોમિલ બ્રાહ્મણના મનમાં પૂર્વ ચિંતન કરેલા જે વિચારો હતા તે દેવતાએ તેને કહ્યા. ફરી તેણે કહ્યું કે ત્યાર બાદ તમે દિશા પ્રેક્ષક તાપસની પાસે દીક્ષા લીધી અને અભિગ્રહ લીધે ત્યારથી જ્યાં અશેક વૃક્ષ હતું ત્યાં આવ્યા અને ત્યાં કાવડ રાખી તમે તમારા સર્વે કર્મો કર્યા. પછી મારા દ્વારા પ્રતિબંધિત કરાયા છતાં પણ તમે તે ઉપર ધ્યાન ન આપ્યું અને મૌન રહ્યા. આ પ્રકારે મેં ચાર દિવસ સુધી તમને સમજાવ્યા પણ તમે ધ્યાન ન આપ્યું. બાદ આજે પાંચ દિવસ ચેથા પહેરમાં અહી ઉદુઅર વૃક્ષની નીચે તમે તમારી #વડ રાખી બેસવાની જગ્યાને સાફ કરી પછી તે હીં, અને સન્માન કર્યું
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अदरबोधिनी टोका वर्ग ३ अभ्य. ३ सोमिल ब्राह्मण अमन्तर उपलेपन और सम्मान किया और काष्ठमुद्रासे अपना मुँह बाँधकर तुम मौन होकर बैठे । हे देवानुप्रिय ! इस प्रकार तुम्हारी यह प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या है ! . उसके बाद सोमिलने कहा-हे देवानुप्रिय ! अब आप ही बताओ कि मैं कैसे सुप्रव्रजित बनँ । उसके बाद उस देवने सोमिल ब्राह्मणसे इस प्रकार कहाहे देवानुप्रिय ! यदि तुम अभी पहले ग्रहण किया हुआ पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रतको स्वयमेव स्वीकार कर विचरण करो तो यह तुम्हारी प्रव्रज्या सुप्रव्रज्या हो जाय । उसके बाद वह देव सोमिल ब्राह्मणको वन्दन और नमस्कार कर जिस विशासे प्रादुर्भूत हुआ उसी दिशामें अन्तर्हित हो गया। . उस देवके अन्तर्हित होजानेपर उसके कथनानुसार वह सोमिल ब्राह्मण ऋषि प्रथम स्वीकृत पाँच अनुत्रप्त और सात शिक्षात्रत अपने हीसे स्वीकार कर विचरण करता है। उसके बाद वह सोमिल बहुतसे चतुर्थ षष्ठ अष्टम यावत् मासार्ध मास
અને કાણમુદ્રાથી પિતાનું મેટું બાંધી મૌન થઈ બેઠા , હે દેવાનુપ્રિય! આ પ્રકારની તમારી આ પ્રવજ્યા દુષ્પવ્રજ્યા છે.
- ત્યાર બાદ સે મિલે કહ્યું – હે દેવાનુપ્રિય! તે હવે આપ જ બતાવે કે હું કેવી રીતે સુપ્રજિત બનું? ત્યાર પછી તે દેવતાએ એમિલ બ્રાહ્મણને આ પ્રકારે કહ્યું –હે દેવાનુપ્રિય જે તમે હમણાં અગાઉ ગ્રહણ કરેલાં પાંચ અણુવ્રત અને સાત શિક્ષાવ્રતને પોતાની મેળે સ્વીકાર કરીને વિચરણ કરે તે આ તમારી પ્રવજ્યા સુપ્રવ્રજયા થઈ જાય. ત્યાર પછી તે દેવ મિલ બ્રાહ્મણને વંદન અને નમસ્કાર કરે છે. પછી જે દિશામાંથી તે પ્રાપ્ત થયું હતું તેજ દિશામાં અંતહિંત થઈ ગયે.
તે તે અંતહિત થઈ ગયા પછી તેના કથન અનુસાર તે સમિલ બ્રાહ્મણ ગામિએ અગાઉ સવીકારેલાં પાંચ અણુવ્રત અને સાત શિશ્નાવત પિતાની જાતે સરકારી વિચરણ કરે છે પછી તે સેમિવ ઘણાં ચતુર્થ પણ અષ્ટમથી માંડી યાવત
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३ पुष्पितासूत्र
विराधितसम्यक्त्वः सोमिलस्तस्य स्थानस्याऽनालोचिताऽमतिक्रान्ततया शुक्रावतंस के विमाने देवशयनीये यावत्याऽवगाहनया - यावत्या = यत्परिमिततयाऽवगाहनया ज्योतिर्देवस्योपपातो भवति तावत्या जघन्यतोऽलासङ्ख्येयभागया उत्कृष्टतः सप्तहस्तपरिमाणया अवगाहनया शुक्रमहाग्रहतया समुत्पन्नः । शेषं स्पष्टम् ॥ ७ ॥
॥ इति पुष्पिताया तृतीयमअध्ययनं समाप्तम् ॥ ३ ॥
क्षपणरूप विचित्र तप उपधानोंसे अपनी आत्माको भावित करता हुआ बहुत वर्षों तक श्रमणोपासक ( श्रावक ) पर्याय का पालन करता है । अन्तमें अर्धमासिकी संलेखना द्वारा आत्माको भावित कर तथा तीस भक्त ( आहार ) को अनशन से छेदित कर उस पूर्वकृत पाप स्थानकी आलोचना और प्रतिक्रमण नहीं करता हुआ सम्यक्त्वकी विराधनासे काल मासमें कालकर शुक्रावतंसक विमानमें उपपात सभा के अन्दर देवशयनीय शय्यामें जिस प्रमाणकी अवगाहनासे ज्योतिष देवोकी उत्पत्ति होती है, उस प्रमाणवाली अवगाहना अर्थात् जघन्य - - अलके असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट - सात हाथ परिमाणवाली अवगाहनासे शुक्र महाग्रहपने उत्पन्न हुआ ।
માસા તથા માસક્ષણુપરૂપ વિચિત્રતપ ઉપધાનાથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા ઘણા વર્ષો સુધી શ્રમણેાપાસક ( શ્રાવક ) પર્યાયનું પાલન કરે છે. અંતમાં અધ માસિકી સલેખના દ્વારા આત્માને ભાવિત કરી તથા ત્રીસ ભક્ત (આહાર) નું અનશનથી છેદિત કરી તે પૂર્વીકૃત પાપસ્થાનની લેાચના અને પ્રતિક્રમણુ નહીં કરતા સમ્યકત્વને વિશાષિત કરી કાલમાસમાં ક્રાલ કરીને શુક્રાવત...સક વિમાનમાં ઉપપાત સભાની અંદર દેવશયનીય શય્યામાં જે પ્રમાણુની અવગાહનાથી જ્યાતિષ દેવાની ઉત્પત્તિ થાય છે. તે પ્રમાણુવાલી અવગાહના અર્થાત્—જઘન્ય અંશુલના અસંખ્યાતમા ભાગ અને ઉત્કૃષ્ટ સાત હાથ પરિમાણવાળી અવગાહનાથી ચુક્ય મહાગ્રહપણામાં ઉત્પન્ન થયા. પછી તે શુક્રમહાગ્રહ ઉત્પન્ન થઇ ભાષાપતિ મન
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न
सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अभ्य. ३ सोमिक ब्राह्मण उसके बाद वह शुक्र महाग्रह उत्पन्न होकर भाषापर्याप्ति मनःपर्याप्ति आदि पाँचों प्रकारकी पर्याप्तिसे पर्याप्तिभावको प्राप्त हुआ।
हे गौतम ! शुक्र महाग्रहने इस कारण ऐसी दिव्य देव ऋद्धिको प्राप्त की है। शुक्र महाग्रहकी स्थिति एक पल्योपमकी है।
गौतम स्वामी पूछते हैं
हे भदन्त ! वह शुक्र महाग्रह आयु भव स्थिति क्षय होनेके बाद उस देवलोकसे घ्यवकर कहाँ जायगा ? हे गौतम ! यह शुक्र महाग्रह महाविदेहक्षेत्रमें जन्म लेकर यावत् सिद्ध होगा।
सुधर्मा स्वामी कहते हैं
इस प्रकार हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर प्रभुने पुष्पिताके तृतीय अध्ययनमें इस भावका निरूपण किया है ॥७॥
।पुष्पिताका तृतीय अध्ययन समाप्त हुआ।
પર્યાતિ આદિ પાંચ પ્રકારની પર્યાપ્તિથી પર્યાપ્તિ ભાવને પ્રાપ્ત થયા.
હે ગૌતમ ! થકમહાગ્રહ આ કારણથી પિતાની આવી દેવ ત્રાતિએ પ્રાસ કરી છે. શુકમહાગ્રહની સ્થિતિ એક પાપમની છે.
ગૌતમ સ્વામિ પૂછે છે –
“હે ભદન્ત ! તે શુકમહામહ આયુભવ સ્થિનિક્ષય થતાં તે દેવલેથી અવીને ક્યાં જશે ?
હે ગૌતમ! આ શક્રમહાગ્રહ મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં જન્મ લઈ સિદ્ધ થશે. સુધર્મા સ્વામી કહે છે –
આ પ્રકારે હે જમ્મુ શ્રમણ ભગવાન મહાવીર પ્રભુએ પુષ્પિતાના ત્રીજા અધ્યયનમાં આ ભાવનું નિરૂપણ કર્યું છે. (૭).
પુષિતાનું વતીય અધ્યયન સમાપ્ત
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३ पुष्पितात्र
॥ अथ बहुपुत्रिकाख्यं चतुर्थमध्ययनम् ॥
मूलम्—
जइणं भंते ! उक्खेवओ । एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं २ रायगिहे नामं नयरे, गुणसिलए चेइए, सेणिए राया, सामी समोसडे, परिसा निग्गया । तेणं कालेणं २ बहुपुत्तिया देवी सोहम्मे कप्पे बहुपुत्तिए विमाणे सभाए मुहम्माए बहुपुत्तियंसि सीहासणंसि चउहिं सामाणियसाहसोहि चहिं महत्तरियाहिं जहा सूरियाभे जाव भुंजमाणी विहरइ, इमं च णं केवलकप्पं जंबूदीवं दीवं विउलेणं ओहिणा आभोएमाणी २ पासह, पासिता समणं भगवं महावीरं जहा सूरियाभो जाव णमंसित्ता सीहासणवरंसि पुरत्थाभिमुहा सन्निसन्ना । आभियोगा जहा सूरियाभस्य, सूसरा घंटा, आभिओगियं देवं सदावेइ जाणविमाणं जोयणसहस्सवित्थिग्गं, जाणविमाणवण्णओ, जाव उत्तरिल्लेणं निज्जाणमग्गेणं जोयण साहस्सिएहिं विग्गहे हिं
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छाया
यदि खलु भदन्त ! उत्क्षेपकः । एवं खलु जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नाम नगरं, गुणशिलकं चैत्यं, श्रणिको राजा, स्वामी समवसृतः । परिषत् निर्गता । तस्मिन् काले तस्मिन् समये बहुपुत्रिका देवी सौधर्मे कल्पे बहुपुत्रिके विमाने सभायां सुधर्मायां बहुपुत्रिके सिंहा सने चतसृभिः सामानिकसाहस्रीभिः चतसृभिः महत्तरिकाभिः यथा सूर्याभो यावद् भुञ्जाना विहरति, इमं च खलु केवलकल्पं जम्बूद्वीपं द्वीपं विपुलेन अवधिना आभोगयन्ती २ पश्यति, दृष्ट्वा श्रमणं भगवन्तं महावीरं यथासूर्याभो यावद् नमस्थिता सिंहासनवरे पौरस्त्याऽभिमुखी संनिषण्णा । आभियोगा यथा सूर्याभस्य सुखरा घण्टा आभियोगिकं देवं शब्दयति यानविमानं योजनसहस्रविस्तीर्ण, यानविमानवर्णकः, यावत् उत्तरीवेण निर्याण
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सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ४ बहुपुत्रिका देवी आगया जहा सूरियाभे । धम्मकहा समत्ता । तएणं सा बहुपुत्तिया देवी दाहिणं भुयं पसारेइ देवकुमाराणां अट्ठसयं, देवकुमारियाण व वामानो भुयाओ अट्ठसयं, तयाणंतरं च णं बहवे दारगा दारियाओ य डिभए ये डिमियाओ य विउवइ, नट्टविहिं जहा सूरियाभो उवदंसित्ता पडिगया । भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, कुडागारसाला० । बहुपुत्तियाए णं भंते ! देवीए सा दिवा देविड्डी पुच्छा जाव अभिसमण्णागया ॥१॥ मार्गेण योजनसाहनिकैः विग्रहैरागता यथा सूर्याभः । धर्मकथा समाप्ता । ततः खलु सा वहुपुत्रिकादेवी दक्षिणं भुजं प्रसारयति देवकुमाराणामष्टशतम् , देवकुमारिकाणां च वामतो भुनतोऽष्टशतम् , तदनन्तरं च खलु बहून् दारकाँश्च दारिकाश्च डिम्भकाँश्च डिम्भिकाश्च विकुरुते, नाट्यविधि यथा सूर्याभः, उपदर्य प्रतिगता । भदन्त ! इति भगवान् गौतमः श्रमगं भगान्तं महावीर वन्दते नम स्यति, कूटागारशाला । बहुपुत्रिकया खलु भदन्त ! देव्या सा दिव्या देवद्धिः, पृच्छा यावत् अभिसमन्वागता ॥१॥
टीका'जइणं भंते' इत्यादि-महत्तरिकाभिः प्रधानतमाभिः तुल्यविभवादि
चौथा अध्ययन. 'जइणं भंते' इत्यादि-- . . . जम्बू स्वामी पूछते हैंहे भदन्त ! यदि पुष्पिता ( पुफिया ) के तृतीय अध्ययनमें भगवानने
याथु अध्ययन जाणं भंते त्यादि नयू स्वाभी पूछे छ:- . . . . . ... ... .. . હે ભઈન ! જે પિતાના વીચ અધિચનમાં જાગવાને કા ભીનું
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. ३ पुष्पितासत्र कुमारिकाणामनतिक्रमणीयवचनाभिः दिशाकुमारिकाभिः, उत्तरीयेण-उत्तरदिग्भवेन, विग्रहैः-शरीरः, देवकुमाराणाम् देवानां-मुराणां कुमारा: बहुतरपूर्वोक्त भावका वर्णन किया है तो फिर उसके बाद चतुर्थ अध्ययनके भावको उन्होंने किस प्रकार निरूपण किया है।
सुधर्मा स्वामी कहते हैं
हे जम्बू ! उस काल उस समयमें राजगृह नामक नगर था। उस नगरमें गुणशिलक चैत्य था। उस नगरका राजा श्रेणिक था। उस नगरमें महावीर स्वामी पधारे ! परिषद् उनके दर्शनके लिये निकली । उस काल उस समयमें बहुपुत्रिका देवी सौधर्म कल्पके बहुपुत्रिक विमानमें सुधर्मा सभाके अन्दर बहुपुत्रिक सिंहासन पर चार हजार सामानिक देवियों तथा चार महत्तरिकाओं=तुल्य विभववाली कुमारियोसे, जिनका वचन. उल्लवित नहीं किया जा सकता ऐसी, प्रधानतम चार दिशा कुमारिकाओंसे परिवृत सूर्याभदेवके समान गीतवादित्रादि नानाविध दिव्य भोगोंको भोगती हुई विचर रही है, और वह इस सम्पूर्ण जम्बूद्वीपको विशाल अवधिज्ञानसे વર્ણન કર્યું છે તે પછી તેના પછી ચોથા અધ્યયનના ભાવને તેમણે કયા પ્રકારે નિરૂપણ કર્યો છે ?
સુધર્મા સ્વામી કહે છે
હે જખ્ખ!તે કાલે તે સમયે રાજગૃહ નામે નગર હતું. તે નગરમાં ગુણશિલક ચૈત્ય હતું. તે નગરમાં મહાવીર સ્વામી પધાર્યા. પરિષદ તેમનાં દર્શન માટે નીકળી. તે કાલ તે સમયે બહુપુત્રિકાદેવી સૌધર્મ કલ્પના બહુપુત્રિક વિમાનમાં સુધર્માસભાની અંદર બહુ પુત્રિક સિંહાસન પર ચાર હજાર સામાનિક દેવીઓ તથા ચાર મહત્તરિકાએસમાન વૈભવવાળી કુમારિઓથી, જેનું વચન ઉલ્લંઘન ન કરી શકાય એવી પ્રધાનતમ, ચારે દિશા કુમારીઓ સહિત સૂર્યાદેવ સમાન રીત વાદિવ્ય આદિ નાના વિધ દિવ્ય લોગોને ભગવતી વિચરણ કરતી હતી અને તે આ સંપૂર્ણ જમ્મહીપને વિશાલ અવધિ જ્ઞાન વડે ઉપગપૂર્વક
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३१९
सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अभ्य. ४ बहुपुत्रिका देवी उपयोग पूर्वक देखती हुई राजगृहमें समक्सृत भगवान महावीर स्वामीको देखती है।
और उनको देखकर सूर्याभदेवके समान यावत् नमस्कार करके अपने श्रेष्ठ सिंहासनपर पूर्व दिशाकी ओर मुख करके बैठी। सूर्याभदेवके समान आभियोगिक (भृत्य) देवको बुलवाकर उसने सुस्वरा घंटा बजानेकी आज्ञा दी। अनन्तर सुस्वरा घण्टा बजवाकर भगवान महावीरके दर्शन करनेको जानेके लिए सभी देवताओंको सूचित किया। उसका यानविमान हजार योजन विस्तीर्ण था, साढे बासठ योजन ऊँचा था। उसमें लगा हुआ महेन्द्रध्वज पच्चीस योजन ऊँचा था। अन्तमें वह बहुपुत्रिका देवी यावत् उत्तर दिशाके मार्गसे सूर्याभ देवके समान हजार योजनका वैक्रयिक शरीर बनाकर उतरी । बादमें भगवानके समीप आई, और धर्मकथा सुनी। उसके बाद वह बहुपत्रिका देवी अपनी दाहिनी भुजाको फैलाती है। और उससे एक सौ आठ देवकुमारोंको निकालती है। फिर बायों भुजाको फैलाती है, उससे एकसौ आठ देवकुमारियोंको निकालती है। उसके बाद बहुतसे दारक दारिका बडी
જોતી જોતી રાજગૃહમાં પધારેલા ભગવાન મહાવીર સ્વામીને જુએ છે, તેમને જોઈને સૂર્યાભદેવની પેઠે ચાવત નમસ્કાર કરીને પિતાના શ્રેષ્ઠ સિંહાસન ઉપર પૂર્વ દિશાની તરફ મોઢું રાખીને બેઠી. સૂર્યાભદેવની પેઠે જ આભિગિક (ભૂત્ય) દેવને બેલાવીને તેણે સુસ્વરા ઘંટા વગાડવાની આશા આપી. પછી સુસ્વરા ઘંટા વગડાવીને ભગવાન મહાવીરનાં દર્શન કરવાને જવા માટે સર્વે દેવતાઓને સૂચના આપી. તેનું યાન વિમાન હજાર એજનના વિસ્તારવાળું હતું. સાડા બાસઠ જન ઊંચું હતું તેમાં ચડાવેલ મહેન્દ્ર વજ: પચીસ
જન ઊંચે હતે. છેવટે તે બહુપુત્રિકાદેવી ચાવત ઉત્તર દિશાનાં માર્ગથી સુર્યાભદેવની પેઠે હજાર યોજનનું વૈકયિક શરીર બનાવીને ઉતરી પછી ભગવાનની પાસે આવી અને ધર્મકથા સાંભળી. ત્યાર પછી તે બહુપુત્રિકાદેવી પિતાની જમણી ભુજ (હાથ) ને ફેલાવે છે અને તેમાંથી એક આઠ દેવકુમારને કાઢે છે પછી ડાબી ભુજાને ફેલાવે છે તેમાંથી એક આઠ દેવકુમારિઓને કાઢે છે પછી લાશ
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३ पुष्मितामत्र कालिकाः पुत्राः तेषाम् । दारकान्-बहुकालिकान् बालकान् , दारिका: बालिकाः, डिम्मान अल्पकालिकान् बालकान् , शेष निगदसिद्धम् ॥
एतया 'दिव्वा देविड्डी पुच्छे' त्ति, 'किण्णा लद्धा' केन हेतुनोपार्जिता ? 'किण्णा पत्ता' केन हेतुना उपार्जिता सती स्वायत्तीकता ?
उमरबाले बच्चेबच्चियोंको तथा डिम्भक, डिम्भिका अल्प उमरबाले बच्चेबच्चियोंको अपनी वैक्रियिक शक्तिसे बनाती है। और सूर्याभदेवके समान नाट्यविधि दिखाकर चली जाती है। उसके जानेके बाद भगवान् गौतमने ' हे भदन्त ' इस प्रकार सम्बोधन कर भगवान् महावीरको वन्दन और नमस्कार किया और पूछा कि-हे भगवन् ! इस बहुपुत्रिका देवीकी दिव्य ऋद्धि दिव्य द्युति और दिव्य देवानुभाव कहा गया और किसमें समा गया ? ____ भगवानने कहा
हे गौतम ! वह देवऋद्धि उसीके शरीरसे निकली और उसीमें विलीन हो गयी।
દારક અને દારિકાઓ (મેટી ઉમરવાળાં છોકરા છોકરીઓ) તથા ડિમ્ભક હિસ્મિકા (નાના નાના બાળકે અને બાળકાઓ)ને પિતાની ક્રિયિક શક્તિથી બનાવે છે અને સૂર્યાભદેવની પેઠે નાટયવિધિ બતાવીને ચાલી જાય છે તેના ગયા પછી ભગવાન ગૌતમે “ભદન” એવું સંબોધન કરી ભગવાન મહાવીરને વંદન તથા નમસ્કાર કર્યો અને પૂછ્યું કે હે ભગવન! આ બહુપત્રિકાદેવીની દિવ્ય શક્તિ અને દિવ્ય તથા દિવ્ય દેવાનુભાવ કયાં ગયા અને શેમાં સમાઈ ગયા?
ભગવાને કહ્યું– છે ગૌતમ! તે દેવદ્ધિ તેના શરીરમાંથી નીકળી અને તેમાંજ વિલીન
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शुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ४ बहुपुत्रिका देवी
३२१ "किष्णा अभिसमभागया' स्वायत्तीकृताऽपि केन हेतुनाऽऽभिमुख्येन सांगत्येन च उपार्जनस्य पश्चाद् भोग्यतामुपगतेति ? ॥१॥
गौतम स्वामीने पूछाहे भगवन् ! वह विशाल देवऋद्धि उसमें कैसे विलीन हो गयी ? भगवानने कहा
हे गौतम ! जिस प्रकार किसी उत्सव आदिके कारण फैला हुआ जन समूह वर्षा आदिके कारण पवत शिखरके समान ऊँचा और विशाल घरमें समा जाता है, उसी प्रकार ये देवकुमार और देवकुमारिया आदि देवऋद्धि बहुपुत्रिकाके शरीरमें अन्तर्हित हो गयीं।
गौतमने फिर पूछा
हे भदन्त ! इस बहुपुत्रिकादेवीको इस प्रकारकी दिव्य देवऋद्धि किस प्रकार मिली ? और किस प्रकार उसको प्राप्त हुई ? और किस पुण्यसे उपभोगमें आई है ? और उन ऋद्धियोंके भोगनेमें कैसे समर्थ हुई ? ॥१॥
ગૌતમે પૂછયું – હે ભગવન! તે વિશાલ દેવદ્ધિ તેમાં કેવી રીતે વિલીન થઈ ગઈ? ત્યારે ભગવાન કહે છે –
હે ગૌતમ ! જેવી રીતે ઉત્સવ પ્રસંગે એકઠો થયેલો જનસમૂહ વરસાદ વગેરેના કારણથી પર્વત શિખરની પેઠે ઊંચા અને વિશાલ ઘરમાં સમાઈ જાય છે તેજ પ્રકારે આ દેવકુમાર અને દેવકુમારીઓ વગેરે દેવત્રદ્ધિ બહુપુત્રિકાના શરીરમાં અંતહિત થઈ ગઈ. - ગૌતમે વળી પૂછયું:- હે ભદન્ત ! આ પત્રિકા દેવીને આ પ્રકારની દિવ્ય દેવઋદ્ધિ કેવી રીતે મળી ? અને કેવી રીતે તેને પ્રાપ્ત થઈ અને કેવા પુણ્યથી તેના ઉપભોગમાં આવી છે ? વળી તે ત્રાદ્ધિઓને ભોગવવામાં કેવી રીતે समर्थ 48 ? (1)
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३२१
३ पुष्पितासम
__एवं पृष्टे सति भगवानाह-' एवं खलु' इत्यादि ।
मूलम्एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं २ वाणारसी नामं नयरी, अंबसालवणे चेइए । तत्थ णं वाणारसीए नयरीए भद्दे नामं सत्थवाहे होत्था, अड्डे अपरिभूए तस्स णं भद्दस्स य सुभद्दा नामं भारिया मुकुमाल० वंझा अवियाउरी जाणुकोप्परमाता यावि होत्था । तए णं तीसे सुभदाए सत्यवाहीए अन्नया कयाई पुव्वरत्तावरत्तकाले कुडुंबजारियं जागरमाणीए इमेयारूवे जाव संकप्पे समुप्पजित्था-एवं खलु अहं भदेणं सत्यवाहेणं सद्धिं विउलाई भोगभोगाई जमाणी विहरामि, नो चेवणं अहं दारगं वा दारियं वा पयामि, तं धन्नाओ णं ताओ अम्मगाओ जाव
छाया
एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये वाराणसो नाम नगरी, आम्रशालवनं चैत्यम् । तत्र खलु वाराणम्यां नगर्या भद्रो नाम सार्थवाहोऽभवत् , आढ्योऽपरिभूतः । तस्य खलु भद्रस्य च सुभद्रा नाम भार्या सुकुमारपाणिपादा बन्ध्या अविजनयित्रो जानुकूपरमाता चापि अभवत् । ततः खलु तस्याः सुभद्रायाः सार्थवाहिकायाः अन्यदा कदाचित् पूर्वरात्रापररात्रकाले कुटुम्बजागरिकां । जाग्रत्या अयमेतद्रूपो यावत् संकल्पः समुदपद्यत-एवं खलु अहं भद्रेण सार्थवाहेन सार्द्ध विपुलान् भोगभोगान् भुञ्जाना विहरामि, नो चैव खलु अहं दारकं वा दारिकां वा प्रजनयामि, तद्
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३२३
सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ४ बहुपुत्रिका देवी सुद्धे गं तासि अम्मगाणं मणुयजम्मजीवियफले, जासि मने नियकुच्छि संभूयगाई थणदुद्धलुद्धगाइं महुरसमुल्लावगाणि मंजुल (मम्मण) पजंपियाणि थणमूलकक्खदेसभागं अभिसरमाणगाणि पण्हयंति, पुणो य कोमलकमलो चमेहिं हत्थेहिं गिहिऊणं 'उच्छंगनिवेसियाणि देंति, समुल्लावए सुमहुरे पुणो पुणो मम्मण (मंजुल) प्पणिए अहं णं अधण्णा अपुण्णा अकयपुण्णा एत्तो एगमवि न पत्ता ओहय० जाव झियाइ ।
तेणं कालेणं २ सुव्ययाओ णं अजाओ इरियासमियाओ भासा. समियाओ एसणासमियाओ आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमियाओ उच्चारपासवणखेलजल्लसिंघाणपारिहावणासमियाओ मणगुत्तीओ वयगुत्तीओ कायगुत्तीओ गुत्तिदियाओ गुत्तबंभयारिणीओ बहुस्सुयाओ बहुपरिवाराओ पुव्वाणुपुब्धि चरमाणीओ गामाणुगामं दूइजमाणीओ जेणेव वाणारसी नयरी तेणेव धन्याः खलु ताः अम्बिकाः (मातरो) यावत् सुलब्धं खलु तासाम् अम्बिकानां (मातृणां) मनुजजन्मजीवितफलम् , यासां मन्ये निजकुक्षिसंभूतकाः स्तनदुग्धलुब्धकाः मधुरसमुल्लापकाः मन्जुल (मम्मण) मजल्पिताः स्तनमूलकक्षदेशभागम् अभिसरन्तः प्रस्नुवन्ति । पुनश्च कोमलकमलोपमाभ्यां हस्ताभ्यां गृहीला उत्सङ्गनिवेसिताः (सन्तः) ददति समुल्लापकान् सुमधुरान् पुनः पुनर्मम्मण (मञ्जुल) प्रभणितान् , अहं खलु अधन्या अपुण्या अकृतपुण्या (अस्मि यदहं) एततः (एतेषां मध्यात्) एकमपि न माता । (एवं) अपहतमनः-संकल्पा यावत् ध्यायति । - तस्मिन् काले २ सुव्रताः खलु आर्याः ईर्यासमिताः, भाषासमिताः, एषणासमिताः, आदानभाण्डामत्रनिक्षेपणासमिताः, उच्चारमस्रवणश्लेष्ममल सिंघाणपरिष्ठापनासमिताः, मनोगुप्तिकाः, वचोगुप्तिकाः कायगुप्तिकाः, गुप्तेन्द्रियाः, गुप्तब्रह्मचारिण्यः, बहुश्रुताः, बहुपरिवाराः पूर्वानुपूर्वी चरन्त्यः
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३२४
३ पुष्पितास्त्र उआगया, उवागच्छिता अहापडिरूं ओगहं ओगिहिताणं संजमेगं तमा अप्पाणं भावेमाणीओ विहरति ।
तएणं तासि मुव्वयाणं अजाणं एगे संघाडए वाणारसीनयरीए उच्चनीयमज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स मिक्खायरियाए अडमाणे भहस्प सत्थवाहस्स गिहं अणुपविढे ।
तएणं सुभद्दा सत्यवाही ताओ अजाओ एजमाणीभी पासइ, पासित्ता हट्ट जाव खिप्पामेव आसणाओ अब्भुट्टेइ, अन्भुट्टित्ता सत्तहपयाई अणुगच्छ, अणुगच्छित्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता विउलेणं असगपागखाइमसाइमेणं पडिलाभित्ता एवं क्यासी-एवं खलु अहं अज्जाओ ! भदेगं सत्यवाहे गं सद्धिं विउला भोगभोगाइं भुंजमाणी विहरामि, नो चेत्र णं अहं दारगं दारियं वा पयामि, तं धनाभी गं ताओ अम्मगाओ जाव एतो एगमवि
ग्रामानुग्राम द्रवन्त्यः यत्रैव वाराणसी नगरी तत्रैवोपागताः, उपागत्य यथाप्रतिरूपम् अवग्रहम् अवगृह्य संयमेन तपसा आत्मानं भावयन्त्यो विहरन्ति ।।
ततः खलु तासां सुबतानामार्याणाम् एकः सङ्घाटको वाराणप्लोनगर्या उच्चनीचमध्यमानि कुलानि गृहसमुदानस्य मिक्षाचर्यायै अटन भद्रस्य सार्थवाहस्य गृहमनुमविष्टः । .. ततः खलु सुभद्रा सार्थवाहिका ता आर्याः एजमानाः पश्यति, दृष्ट्वा हृष्ट यावत् क्षिप्रमेव आसनात् अभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्याय सप्ताष्टपदानि अनुगच्छति, अनुगत्य पन्दते नमस्यति, वन्दिता नमस्थिखा विपुलेन अशनपानखाधस्वाधेन प्रतिलभ्य एवमवादी-एवं खलु अहम् आर्याः ! भद्रेण सार्थवाहेन सार्द्ध विपुलान् भोगभोगान् भुञ्जाना विरामि नो चेव खल्लु अहं दारक दारिका वा प्रजनयामि, तद् धन्याः खलु ताः अम्बिका
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सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अभ्य. ४ बहुपुत्रिका देवी
न पत्ता, तंतुभे अज्जाओ ! बहुणायाओ बहुपठियाओ बहूणि गामागरनगर० जाव सण्णिवेसाई आहिंडह, बहूगं राईसरतलवर जात्र सत्यवाहप भिईणं गिहाई अणुपत्रिसह, अस्थि से केह कर्हि चि विजापओए वा inter वा aमणं वा विरेयणं वा वत्थिकम् वा ओसहे वा भेसज्जे वा उवलद्धे, जेणं अहं दारगं वा दारिय वा पया एज्जा २॥
३२१९
( मातरः ) यावत् - एततः एकमपि न प्राप्ता तद् यूयम् आर्याः ! बहुज्ञात्र्यः बहुपठिता: बहून् ग्रामाssकर नगर० यावत् सन्निवेशान् आहिण्डध्वे बहूनां राजेश्वर तलवर० यावत् सार्थवाहमभृतीनां गृहान् अनुपविशथ, अस्ति स कश्चित् क्वचित् विद्याप्रयोगो वा मन्त्रप्रयोगो वा चमनं वा विरेचनं वा aff at औषधं वा भैषज्यं वा उपलब्ध येनाहं दारकं वा दारिकां वा प्रजनयामि ॥ २ ॥
टीका
' एवं खलु गोयमा' इत्यादि - हे गौतम ! एवं खलु तस्मिन् काले तस्मिन् समये ' वाराणसी' नाम नगरी ' आम्रशालानं ' चैत्यं चासीत्
ऐसे पूछने पर भगवान् कहते हैं
4
एवं खलु' इत्यादि
हे गौतम ! उस काल उस समयमें वाराणसी नामकी नगरी थी । उस वाराणसी नगरी में आम्रशालवन नामक उद्यान था । उस नगरीमें भद्र नामका साथ
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ગૌતમ સ્વામીએ આવા પ્રશ્નો પૂછવાથી જાગવાને કહ્યું:~
'एव खलु धत्याहि,
હું ગૌતમ ! તે કાલ તે સમયે વારાણસી નામે નગરી હતી. તે વારાણસી નગરીમાં આામશાલવન નામના ઉદ્યાન ખાગ ) હતા. તે નગરીમાં લ નાઅને
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.१२६
३ पुष्पितास्त्र तत्र वाराणस्यां नगर्यां खलु भद्रो नाम सार्थवाहोऽभूत् आढ्यः अपरिभूतः, एतद्वथाख्या प्रागेवोक्ता । तस्य खलु भद्रस्य च सुभद्रा नाम भार्या सुकुमारपाणिपादा० बन्ध्या अविजनयित्री-पुत्रादिकानामप्रसवशीला, अत एव 'जानुकूपरमाता'-जानुकूर्पराणामेव माता-जननी या सा तथा, यद्वाजानुकूर्पराण्येव नत्वपत्यं मिमते-स्पृशन्ति तस्याः स्तनौ इति, अथवा-जानुकूर्परमात्रेतिच्छाया-जानुकूर्णराण्येव मात्रा परिकरः क्रोडनिवेशनीयः परकीयपुत्रादिसहायतासमर्थरूपो यस्याः न तु स्वपुत्रलक्षण उत्सङ्गनिवेशनीयः वाह रहता था जो धनधान्यादिसे समृद्ध और दूसरोंसे अपरिभूत था। उस भद्र सार्थवाहकी पत्नीका नाम सुभद्रा था, जो सुकुमार हाथ पैरवाली थी। परन्तु वह बन्ध्या थी। अतएव उसने एक भी सन्तानको जन्म नहीं दिया था। केवल जानु
और कूपरकी माता थी। यहाँ “ जानुकूपरमाता " का यह भी अर्थ होता हैजिसके स्तनोंको केवल घुटने और कोहनिया स्पर्श करती थीं, नकि सन्तान । अथवा यहाँ “ जानुकूर्परमात्रा" यह भी छाया होती है। इसका अर्थ होता है-जिसके जानु और कूपर अर्थात् गोदी और हाथ दूसरोंके पुत्रोके लाड प्यारमें ही समर्थ थे, नकि अपने पुत्रोंके लाड प्यारमें । क्योंकि उसको अपनी कोई सन्तान नहीं थी।
સાર્થવાહ રહેતો હતો કે જે ધનધાન્યાદિથી સમૃદ્ધ અને બીજાઓથી અપરિભૂત (અછત) હતા. તે ભદ્ર સાર્થવાહની સ્ત્રીનું નામ સુભદ્રા હતું જે સુકુમાર હાથપગવાળી હતી. પરંતુ તે વાંઝણી હતી. એટલે તેને એક પણ સંતાનને જન્મ આપે નહોતે કેવળ જાનુ અને કુર્પરની માતા હતી. અહીં “જાનુકુપરમાતા” ને એવો અર્થ થાય છે કે જેનાં સ્તનને કેવળ ગોઠણ અને કોણીઓ જ સ્પર્શ કરતી હતી નહિ કે સન્તાન. અથવા અહીં “જાનુકૂપરમાત્રા” એવી પણ છાયા થાય છે–એનો અર્થ એવો થાય છે કે જેના જાનુ અને ફરિ એટલે ખેળ અને હાથ બીજાના પુત્રોને લાડ ગારમાં જ સમર્થ હતા, નહિ કે પિતાના પુત્રને વાહ પારમાં. કારણ કે તેને પોતાનું કોઈ સંતાન નહોતું.
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सुन्दरबोधिनो टोका वर्ग ३ अध्य. ४ बहुपुत्रिका देवी परिकरः, इति जानुकूपरमात्रा च अपि अभवत् । ततः तदनन्तरं तस्याः= . पूर्वोक्तायाः खलु सुभद्रायाः सार्थवाहिकायाः अन्यदा कदाचितू पूर्वरात्रापररात्रकाले रात्रिपूर्वपरभागसमये कुटुम्बजागरिकां जाग्रत्याः कुटुम्बाथ जागरणां कुर्नत्याः अयमेतद्रूपः बक्ष्यमाणलक्षणः ' यावत्' शब्देन आध्यात्मिकः, चिन्तितः, प्रार्थितः, मनोगतः संकल्पः समुदपद्यत-जातः, आध्यात्मिकादिसंकल्पान्तानां पदानां व्याख्या प्रागेव कृता । सुभद्रायाः संकल्पस्वरूपमाह-'एवं खल्वि' त्यादिना-अहं-सुभद्रा सार्थवाहिका भद्रेण तन्नामकेंन सार्थवाहेन स्वपतिना सार्द्ध-सह विपुलान-बहून् भोगभोगान्-शब्दा
उसके बाद एक समय पिछली रातमें कुटुम्बजागरणा करती हुई उस सुभद्रा सार्थवाहीके हृदयमें यह इस प्रकारका आध्यात्मिक, चिन्तत प्रार्थित और मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ कि मैं भद्रसार्थवाहके साथ अनेक प्रकारके शब्दादि विपुल भोगोंको भोगती हुई विचरण कर रही हूँ। पर आजतक मेरे एक भी सन्तान नहीं हुई। वे माताएं धन्य हैं, पुण्यशील हैं, उन्होंने पुण्योंका अर्जन किया है, उनका स्त्रीत्व सफल है और उन माताओंने अपने मनुष्य जन्म और जीवनका फल अच्छीतरह पाया है, जिन माताओंकी अपने उदरसे उत्पन्न, स्तनके दूधकी लोभी, कानोंको लुभानेवाली वाणीको उच्चारण करनेवाली, माँ ! माँ !! इस हृदयस्पर्शी
ત્યાર પછી એક વખત પાછલી રાત્રિમાં કુટુંબ જાગરણ કરતાં તે સુભદ્રા સાર્થવાહીના હૃદયમાં આ એક એવી પ્રકારને આધ્યાત્મિક, ચિંતિત, પ્રાર્થિત, અને મને ગત સંકલ્પ ઉત્પન્ન થયે કે હું ભદ્ર સાર્થવાહની સાથે અનેક પ્રકારના શબ્દ આદિ વિપુલ ભોગને ભગવતી વિચરું છું પણ આજ સુધી મને એક પણ સંતાન થયું નથી. તે માતાને ધન્ય છે તે પુણ્યશીલ છે–તેમણે પુણ્ય મેળવ્યું છે તેમનું સ્ત્રીપણું સક્ત છે અને તે માતાઓના, પિતાના મનુષ્ય જન્મ અને જીવનનું ફળ સારી રીતે મેળવ્યું છે કે જે માતાઓએ, પિતાના ઉદર ઉત્પન્ન, સ્તનનાં દૂધનો ભવાળાં, કાનને લલચાવનારી વાણી બોલતાં, મા-મ એવા હૃદય સ્પર્શી શબ્દ
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३ पुष्पितावत्र दोन विषयान् भुञ्जाना बिहरामि, किन्तु नो चैव खलु अहं दारकं-पुत्र दारिकां-कन्यां वा प्रजनयामि प्रसूये, तत्-तस्मात् हेतोः खलु ताः अम्बिका:-मातरो : धन्या धनं प्रशंसापमहन्तीति धन्याः कृतार्थाः, यावच्छब्देन-पुण्या:, कृतपुण्याः, कृतलक्षणाः, इत्येषां सङ्ग्रहो विधेयः, तत्र पुण्या पवित्राः कृतपुण्य विहितसुकृताः, कृतलक्षणा: सफलीकृतलक्षणाः, पुनस्तासाम् अम्बिकानां मातॄणां मनुजजन्म, जीवितफलम् जीवनफलम् च शब्दको बोलनेवाली, तथा स्तनमूल और कक्षके बीच भागमें अभिसरण करनेवाली सन्तान उन माताओंके स्तनोंको दूधसे परिपूर्ण करती है अर्थात् सन्तानके वात्सल्यसे माताके स्तनोमें दूधभर आता है। फिर वे सन्तान कोमल कमल सदृश हाथोंके द्वारा गोदमें बैठायी जानेपर उच्च स्वरसे उच्चारित कानोंको अच्छे लगनेवाले मधुर शब्दोंको सुनाकर माताओंको प्रसन्न करती है।
मैं भाग्यहीन हूँ, पुण्यहीन हूँ और मैंने पूर्व जन्ममें कभी पुण्योपार्जन नहीं किया इसी लिये इनमेंसे सन्तान सम्बन्धी एक भी सुखको न पासकी क्योंकी मुझे एक भी संतान नहीं हुई। इस प्रकार सोच-विचार करती हुई वह अत्यन्त दीन तथा मलीन हो नीचा मुख करके आर्तध्यान करने लगी।
બોલતાં તથા સ્તનમૂલ અને કાખના વચલા ભાગમાં અભિસરણ કરવાવાલાં સંતાન તે માતાઓનાં સ્તનને દૂધથી પરિપૂર્ણ કરે છે. અર્થાત સંતાનના સ્નેહથી માતાના સ્તનમાં દૂધ ભરાઈ જાય છે. પછી તે સંતાન કોમળ કમળના જેવા હાથ વડે શાળામાં બેસાડવામાં આવે ત્યારે ઉંચા સ્વરથી બેલીને કાનને સારું લાગે એવા મધુર શબ્દને સંભળાવીને માતાઓને પ્રસન્ન કરે છે. - હું ભાગ્યહીન છું-પુણ્યહીન છું-અને મેં પૂર્વ જન્મમાં કદી પુણ્યનું ઉપા
મ નથી કર્યું તેથી સંતાન સબધી આ સુમાંનું એક પણ સુખ મેળવી સી નથી. કેમકે મને એક પણ યુવાન થયું નથી આ પ્રકારે સાચ વિચાર કરતી તે અત્યંત દીન તથા મલીન થઈ નીચ મુખ કરી આર્તધ્યાન કરવા લાગી.
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शुन्दरपोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. ४ बहुपुत्रिका देवी
३२९ मुलब्ध सम्यक्माप्तम् सफलमिति यावत मन्ये रवीकुव, यासां मातृणां निजकुक्षिसम्भूताः स्वकीयोदरजाताः शिशवः, अत्र सूत्रे नपुंसकत्वं प्राकृतत्वात् । स्तनदुग्धलुब्धका-स्तनयोर्दुग्धं तस्मिन् लुब्धा-प्रसक्ताः त एव टुब्धकाः मधुरसमुल्लापकाः मधुरा:= श्रवणरमणीयाः समुल्लापाः-सम्यगुच्चैःशब्दाः येषां ते तथा, मञ्जल ( मम्मण) प्रजल्पिता: मन्जुलं-रुचिरं हृदयस्पृहणीयमिति यावद, प्रजल्पितं (मा-मा प्रभृति ) शब्दोच्चारणं येषां ते तथा, स्तनमूलकक्षदेशभागम्-स्तनयोर्मूलम् स्तनमूलम् तस्मात् कक्षावेव देशौ 'बाहुमूले उभे कक्षौ' इत्यमराव , बाहुमूलमदेशौ तयोर्भागः=
उस काल उस समयमें ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति तथा आदान, भाण्ड और अमत्रके निक्षेपणाकी समिति, और उच्चार-प्रस्रण-श्लेष्म-सिङ्घाण -परिष्ठापना समिति, इन समितियोंसे तथा मनोगुप्ति, वचोगुप्ति और कायगुप्ति, इन तीनो गुप्तियोंसे युक्त, इन्द्रियोंको दमन करनेवाली, गुप्तब्रह्मचारिणी, बहुश्रुता=बहुत शास्त्रोंको जाननेवाली, और बहुत परिवारसे युक्त, सुव्रता नामकी आर्याएँ, तीर्थङ्कर परम्परासे विचरण करती हुई प्रामानुग्राम विहार करती हुई वाराणसी नगरीमें आयीं। वहाँ आकर कल्पानुसार अवग्रह आज्ञा लेकर उपाश्रयमें उतरी और संयम तपके द्वारा अपनी आत्माको भावित करती हुई विचरने लगीं।
તે કાયા તે સમયે ઈસમિતિ, ભાષાસમિતિ, એષણાસમિતિ તથા આદાન ભાંડ અને અમત્રની નિક્ષેપણાની સમિતિ તથા ઉચ્ચારણ, પ્રસવણ, લેબ્સ સિંઘાણ પરિઝાપના સમિતિ આ બધી સમિતિઓથી તથા મને ગુપ્તિ, વાગુપ્તિ અને કાયગુપ્તિ, આ ત્રણ શુમ્બિઓથી યુક્ત, ઇન્દ્રિયને દમન કરવાવાળી, ગુસ બાહ્મચારિણી, બહુશ્રતા=બહુશાસ્ત્રોને જાણુંવાવાળી અને બહુ પરિવારથી યુક્ત, સુરતા નામની આર્યાએ, તીર્થંકર પરંપરાથી વિચરતી એક ગામથી બીજે ગામ વિહાર કરતી કરતી વારાણસી નગરીમાં આવી. અહીં આવીને કહપાનુસાર અવગ્રહ= આજ્ઞા લઈને ઉપાશ્રયમાં ઉતરી અને સંયમ તથા ત૫દ્વારા પોતાના આત્માને ભાવિત કરતી કરતી વિચરવા લાગી.
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- पुषितामा मान्तस्तम् अमिसरन्तः सम्मुखाभिसरणं कुर्वाणाः प्रस्नुवन्ति-मातस्तन्यं मला रयन्तीत्यन्त वितण्यर्थः । तथा पुनश्च कोमलकमलोपमाभ्यां-कोमलपङ्कजसदृशाभ्यां हस्ताभ्यां गृहीत्वा उत्सङ्गनिवेशिताः उत्सङ्गः क्रोडः ( अङ्क) तत्र निवेशिताः स्थापिताः सन्तः समुल्लापकान् सम्यगुच्चैः शब्दान् सुमधुरान् पुनः पुनः भूयो भूयः मम्मण (मञ्जुल) प्रभणितान्-मामा इति श्रवणरमणीयभाषितान् ददति-मातृप्रभृतिश्रवणाय वितरन्ति तादृशान् शब्दान् कुर्वन्तीति भावः ।
अहं-सुभद्रा खलु-निश्चयेन अधन्या, अपुण्या अपवित्रा यद्वा एतस्मिन् जन्मनि पुण्यरहिता, अकृतपुण्या-असञ्चितसुकता पूर्वजन्मन्यपि असम्पादितदानादिसुकर्मकलापेति तात्पर्यम् , अस्मि, यद् एततः एतन्मध्यात्
___ उसके बाद उन सुव्रता आर्याओंका एक संघाडा वाराणसी नगरीके उच्च नीच मध्यम कुलोमें गृहसमुदानी भिक्षा ( अनेक घरोंसे लीजानेवाली भिक्षा ) के लिये फिरता हुआ भद्रसार्थवाहके घरमें आया। उसके बाद सुभद्रा सार्थवाही आती हुई उन आर्याओंको देखा और उनको देखकर उसका हृदय हृष्ट और तुष्ट हो गया, और विनयके लिये शीघ्र ही आसनसे उठी। उठकर सात आठ पग सामने गई। सामने जाकर उनको वन्दन नमस्कार किया। बाद, विपुल अशन पान खाद्य स्वाद्यका प्रतिलाभ कराकर इस प्रकार बोली.
ત્યાર પછી તે સુવ્રતા આર્થીઓને એક સંઘાડે વારાણસી નગરીના ઉચ નીચ અને મધ્યમ કુલમાં ગૃહસમુદાની ભિક્ષા (અનેક ઘરમાંથી લેવાની ભિક્ષા)ને માટે ફરતા ફરતા ભદ્રસાર્થવાહના ઘરમાં આવ્યું. ત્યાર પછી સુભદ્રા સાર્થવાહીએ તે આર્યાને આવતી જોઈ અને તેમને જોઈને તે સાર્થવાહીનું હૃદય હુણ અને તુષ્ટ થઈ ગયું અને તેમનું સ્વાગત વિનય કરવા માટે તુરત પિતાને આસનેથી ઊઠી. ઊઠીને સાત આઠ પગલાં સામે ગઈ. અને તેમને વંદન નમસ્કાર કર્યો. ત્યાર પછી વિપુલ અશન (ખાન) પાન ખાદ્ય સ્વાઘના પ્રતિલાભ કરાવી આ પ્રકારે બોલી.
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३३१
सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अन्य. ४ पहुपुत्रिका देवी पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टानां पुत्राणां मध्यात्. : एकमपि सन्तानं न प्राप्तान लब्धवती, इत्येवं प्रकारेण अपहतमनःसंकल्पा-विनष्टमनोऽमिलषितकामना ' यावत् ' शब्देन अधोमुखीत्यादीनां प्रागुक्तानां संग्रहो बोध्या, ध्यायति आर्तध्यानं करोति । मुव्रताः तनामिका आर्यिकाः । 'सङ्घाटकः साध्वी
हे देवानुप्रिये ! मैं भद्रसार्थवाहके साथ अनेक प्रकारके विपुल भोगोंको भोगती हुई विचरती हूँ। परन्तु आज तक मेरे एक भी सन्तान नहीं हुई। वे माताएँ धन्य हैं, पुण्यशीला हैं उन्होंने पूर्व जन्ममें पुण्य उपार्जन किया है और उन माताओंने ही अपने मनुष्य जन्म और जीवनका फल अच्छी तरह पाया है. जिन माताओंकी अपने. उदरसे उत्पन्न, स्तनके दूधको लोभी, कानोको लुभानेवाली वाणीको उच्चारण करनेवाली, मा ! माँ ! ! इस हृदयस्पर्शी शब्दको बोलनेबाली, तथा स्तन मूल और कक्षके बीच भागमें अभिसरण करनेबाली सन्तान, उन माताओके स्तनोंको दूधसे परिपूर्ण करती है, फिर वे कोमल कमल सदृश हाथोंके द्वारा गोदीमें बैठाये जानेपर, उच्च स्वरोंसे उच्चारित, कानोंको अच्छे लगनेवाले, मधुर शब्दोंको बोलकर माताओंको प्रसन्न करती है। मै भाग्यहीन हूँ, पुण्यहीन हूँ, मैंने कभी पुण्याचरण नहीं किया
હે દેવાનુપ્રિયે ! હું ભદ્ર સાર્થવાહની સાથે અનેક પ્રકારના વિપુલ લેગ ભગવતી વિચરું છું. પરંતુ આજપર્યત મને એક પણ સંતાન થયું નથી. તે માતાઓને ધન્ય છે–તે પુણ્યશીલા છે–તેમણે પૂર્વજન્મમાં પુણ્ય ઉપાર્જન કર્યું છે અને તે માતાઓએ જ પિતાના મનુષ્યજન્મ અને જીવનનું ફળ સારી રીતે મેળવ્યું છે કે જે માતાઓનાં પિતાનાં ઉદરથી ઉત્પન્ન, સ્તનના દૂધ માટે
ભી, કાનેને લલચાવનારી વાણી બોલતાં, માં-માં એવા હૃદયસ્પર્શી શબ્દને બોલવાવાળાં તથા સ્તનમૂલ અને કૂખની વચલા ભાગમાં અભિસરણ કરવાવાળાં સંતાન, તે માતાઓના સ્તનને દૂધથી પરિપૂર્ણ કરે છેવળી તે કેમલ કમલ જેવા હાથ વડે ખેાળામાં બેસાડતાં ઉંચા સ્વરથી બોલી કાનેને સારું લાગે તેવા મધુર શબ્દ બોલીને માતાઓને પ્રસન્ન કરે છે. હું ભાગ્યહીન છું, પુણ્યહીન છું.
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समूहः, गृहसमुदानस्य-गृहेषु-अनेके गेहेषु समुदानं-मिक्षाटनं, गृहसनुदान अनेकगृहगृहीतं भैक्षं तस्य तथा, शेषं सुगमम् ॥ २ ॥
तएणं ताओ अजाओ मुभदं सत्थवाहिं एव वयासी-अम्हे गं
छायाततः खलु ता आर्यिकाः सुभद्रां सार्थवाहीमेवमादिषुः-वयं खलु
इसी लिये इन सभी सुखों से मैं एक भी सुखको न पा सकी। क्यों कि मुझे एक भी संतान नहीं हुई।
हे देवानुप्रियों ! आप लोग बहुत ज्ञानवाली हैं, बहुतसी बातोंको जानती हैं और बहुतसे ग्राम, नगर यावत् सनिवेशोंमें विचरती हैं बहुतसे राजा, ईश्वर, तलवर आदिसे लेकर सार्थवाहोंके घरोंमें भिक्षार्थ आपका जाना होता है। क्या कहीं कोई विद्या प्रयोग वा मंत्र-प्रयोग, वमन अथवा विरेचन, वस्तिकर्म वा औषध अथवा भैषज्य आपको मिला है ? जिससे मेरे लडका या लडकी हो सके ॥२॥
મેં કદી પુણ્યનું આચરણ કર્યું નથી. તેથી આવા પ્રકારનાં સુખમાંથી હું એક પણ સુખને મેળવી શકી નહિ. કેમકે મને એક પણ સંતાન થયું નથી. - હે દેવાનુપ્રિ ! આપ લેક બહુ જ્ઞાનવાળાં છે ઘણએ વાતને જાણે છે. અને ઘણાં ગામ નગર યાવત સન્નિવેશમાં વિચરે છે. ઘણુ ઘણુ રાજા, ઈશ્વર, તલવર આદિથી માંડીને સાર્થવાહોના ઘરોમાં ભિક્ષાર્થ આપને જાવાનું પણ થાય છે. તે શું કયાંય કોઈ વિદ્યાપ્રયાગ અથવા મંત્રપ્રયાગ, વમન અથવા વિરેચન, બસ્તિકર્મ કે ઔષધ અથવા ભૈષજ્ય તમને મળ્યું છે ? જેથી મને પુત્ર
पुत्री य स ? (२).
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२३३
greatfunt cret वर्ग ३ अभ्य. ४ बहुपुत्रिका देवी
देवापि ! समणीओ निग्गंथीओ इरियासमियाओ जाव गुत्तरंमयारीओ, मो खलु कप्पइ अम्हं एयमहं कण्णेहिं वि णिसामित्तए, किमंग ! पुण उदिसित वा समायरित्तए वा अम्हे णं देवाणुप्पिये ! णवरं तव विचितं केवलिपण्णत्तं धम्मं परिकहेमो ।
तए णं सुभद्दा सत्थवाही तासिं अज्जाणं अंतिए धम्मं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठा ताओ अज्जाओ तिखुत्तो बंदर नमसर, वंदित्ता नमसित्ता एवं बयासी - सदहामिणं अज्जाओ ! निग्गंथं पावयणं, पत्तियामिणं रोए मिणं अज्जाओ ! निग्गंथं पावयणं ! एवमेयं, तहमेयं, अवितहमेयं, जाव सावधम्मं पडिवज्जए । अहामुह देवाणुप्पिए ! मा पडिबंध करेह । तएणं सा सुभद्दा सत्थवाही तासं अज्जाणं अंतिए जाव पडिवज्जर, पडिवज्जित्ता ताओ अजाओ बंदर नमसर पडिविसज्जइ ।
देवानुप्रिये ! श्रमण्यो निर्ग्रन्ध्य ईर्ष्यासमिता यावत् गुप्तब्रह्मचारिण्यः, नो खलु कल्पते अस्माकम् एतमर्थ कर्णाभ्यामपि निशामयितुं किमङ्ग 1 पुनरुपदेष्टुं वा समाचरितुं वा, वयं खलु देवानुप्रिये ! नवरं तव विचित्रं केवलज्ञप्तं धर्म परिकथयामः ।
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ततः खलु सुभद्रा सार्थवाही तासामार्याणामन्तिके धर्मं श्रुला निशम्य हृष्टतुष्टा ता आर्यात्रिकुलो वन्दते नमस्यति वन्दिला नमस्थिता एवमवादीत् श्रद्दधामि खलु आर्याः ! निर्गन्थं प्रवचनं, प्रत्येमि खलु, रोचयामि खंड आर्या ! निर्ग्रन्थं प्रवचनम् एवमेतत्, तथ्यमेतत्, अवितथमेतत्, यावत् श्रावकधर्म प्रतिपद्ये । यथासुखं देवानुप्रिये ! मा प्रतिबन्धं कुरु ततः खलु सा सुभद्रा सार्थवाही तासामार्याणामन्तिके यावत् प्रतिपद्यते प्रतिपद्य ता आर्याः वन्दते नमस्यति प्रतिविसर्जयति ।
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३ पुष्पिवायत्र तएणं सुभद्दा सत्यवाही समणोवासिया जाया जाव विहरइ । तएणं तीसे सुभद्दाए समणोवासियाए अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकाल. समए कुडुंबजागरियं जागरमाणीए समाणीए अयमेयारूवे अज्झथिए जाव संकप्पे समुपज्जित्था-एवं खलु अहं भद्देणं सत्थवाहेण सद्धि विउलाई भोगभोगाई भुञ्जमाणी जाव विहरामि, नो चेव णं अहं दारगं वा दारिगं वा पयामि, तं सेयं खलु ममं कल्लं पाउप्पभायाए जाव जलंते भद्दस्स आपुच्छित्ता सुव्वयाणं अज्जाणं अंतिए अज्जा भवित्ता अगाराओ जाव पव्वइत्तए, एवं संपेहेइ, संपेहिता, कल्ले जेणेव भद्दे सत्यवाहे तेणेव उवागया, करतल-जाव एवं वयासी-एवं खलु अहं देवाणुप्पिया ! तुब्भेहि सद्धिं बहूई वासाइं विउलाई भोगभोगाइं भुंजमाणी जाव विहरामि, नो चेव णं दारगं वा दारियं वा पयामि, तं- इच्छामि गं देवाणुप्पिया ! तुम्भेहि अब्भणुण्णाया समाणी मुन्वयाणं अज्जाणं. नाव पव्वइत्तए । तएणं से महे
। ततः खलु सुभद्रा सार्थवाही श्रमणोपासिका जाता यावद् विहरति । ततः खलु तस्याः सुभद्रायाः श्रमणोपासिकाया अन्यदा कदाचित् पूर्वरात्रापररात्रकाले कुटुम्बजागरिकां जाग्रत्या सत्याः अयमेतद्रूपो यावद समुदपद्यत-एवं खलु अहं भद्रेण सार्थवाहेन सार्द्ध विपुलान् भोगभोगान् भुञ्जाना यावद् विहरामि, नोचैव खलु अहं दारकंवा दारिकां वा प्रजनयामि, ततश्रेयः खलु मम कल्ये प्रादुर्यावत् ज्वलति भद्रमापृच्छय मुव्रतानामार्याणामन्तिके आर्या भूला अगाराद् यावत् प्रवजितुम् । एवं संप्रेक्षते, संप्रेक्ष्य कल्ये यत्रैव भद्रः सार्थवाहस्तत्रैवोपागता, करतल-यावत एवमवादी-एवं खलु अहं देवानुपियाः ! युष्माभिः सार्द्ध बहूनि वर्षाणि विपुलान् भोगमोगान भुञ्जाना यावद् विहरामि, नो चैव खलु दारकं वा दारिकां वा भजनयामि, तद् इच्छामि खलु देवानुपियाः ! युष्माभिरभ्यनुज्ञाता सती मुखतानामार्याणामन्तिके यावत् प्रवजितुम् । ततः खलु स भद्रः सार्थवाहा
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सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. ४ बहुपुत्रिका देवी सत्यवाहे सुभई सत्थवाही एवं वयासी-मा गं तुमं देवाणुप्पिया ! इदाणि मुंडा जाव पव्वयाहि, भुंजाहि ताव देवाणुप्पिए ! मए सद्धिं विउलाई भोगभोगाई, ततो पच्छा भुत्तभोई सुव्वयाणं अज्जाणं जाव पव्ययाहि । तए णं सुभद्दा सत्थवाही भहस्स० एयमदं नो आढाइ नो परिजाणइ दोचं पि तच्चपि भद्दा सत्थवाही एवं क्यासी-इच्छामि गं देवाणुप्पिया ! तुब्भेहि अन्भणुनाया समाणी जाव पव्वइत्तए । तए णं से भद्दे सत्यवाहे जाहे नो संचाएइ बहूर्हि आघवणाहि य एवं पत्रवणाहिय सण्णवणाहि य विष्णवणाहि य आघवित्तए वा जाब विष्णवित्तए वा ताहे अकामए चेव सुभहाए निक्खमणं अणुमण्णित्था ॥३॥ .. सुभद्रां सार्थवाहीम् एवमवादी-मा खलु त्वं देवानुप्रिये ! इदानीं मुण्डा यावत् प्रव्रज । भुक्ष्व तावद् देवानुप्रिये ! मया साई विपुलान् भोगभोगान् , ततः पश्चात् भुक्तभोगिनी सुव्रतानामार्याणामन्तिके यावत् पवन । ततः खलु सुभद्रा सार्थवाही भद्रस्य० एतमर्थ नो आद्रियते नो परिजानाति द्वितीयमपि तृतीयमपि भद्रा सार्थवाही एवमवादीत्-इच्छामि खलु देवानु। पियाः ! युष्माभिरभ्यनुज्ञाता सती यावत् प्रवजितुम् । ततः खलु स भद्रः सार्थवाहो यदा नो शक्नोति-बहीभिराख्यापनाभिश्च एवं प्रज्ञापनाभिश्च संज्ञापनाभिश्च, विज्ञापनाभिश्च, आख्यापयितुम् वा, यावत् विज्ञापयितुं वा, तदा अकामतश्चैव सुभद्राया निष्क्रमणमन्वमन्यत ॥ ३ ॥
टीका'तएणं ताओ' इत्यादि-रोचयामि रुचिविषयीकरोमि, प्रतिपये'तएणं ताओ' इत्यादिउसके बाद वह साध्वी उस सुभद्रा सार्थवाहीसे इस प्रकार बोली'तएणं ताओ'त्याहि. ત્યાર બાદ તે સાધ્વી (આર્યા) તે સુભદ્રા સાર્થવાહીને આ પ્રકારે બેલી:
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३ पुष्पिवासन ... हे देवानुप्रिये ! हम लोग ईर्यासमिति आदि समितियोंसे तथा तीन गुतियोसे युक्त, इन्द्रियको वशमें रखनेवाली गुप्तब्रह्मचारिणी निम्रन्थ श्रमणी हैं। हमको इन बातोंका कानोंसे सुनना भी नही कलपता, तो फिर हम लोग इनका उपदेश या आचरण कैसे कर सकती हैं। हे देवानुप्रिये ! विशेष यह है कि हम लोग केवलि प्ररूपित दानशील आदि नाना प्रकारके धर्मका ही उपदेश करती हैं। उसके बाद वह सुभद्रा सार्थवाही उन आर्याओंसे धर्म सुनकर उसे हृदयमें धारण कर हृष्ट-तुष्ट हृदयसे उनको तीनबार वन्दन और नमस्कार कर इस प्रकार बोली-हे देवानुप्रिये । मैं निग्रंथ प्रवचनपर श्रद्धा करती हूँ, विश्वास करती हूँ। निन्थ प्रव. चनपर मेरी रुचि हुई है। आपने जो उपदेश दिया है वह सत्य है,-सर्वथा सत्य है, मैं यावत् श्रावक धर्मको स्वीकार करती हूँ। उन आर्याओंने कहा-हे देवानुप्रिये ! जिस प्रकार तुम्हें सुख हो वैसा ही करो धर्माचरणमें प्रमाद मत करना । उसके बाद उस सुभद्रा सार्थवाहीने उन आर्याओंके समीप निर्ग्रन्थ धर्मको स्वीकार किया।
હે દેવાનુપ્રિયે ! અમે લોક ઈર્ષા સમિતિ આદિ સમિતિઓથી તથા ત્રણ ગુપ્તિઓથી યુક્ત, ઈન્દ્રિયોને વશમાં રાખવાવાળી, ગુપ્ત બ્રહ્મચારિણી નિગ્રંથ અમણી છીએ. અમે લેકે આવી બાબત કાનેથી પણ સાંભળવા કલ્પતી નથી તે પછી તેને ઉપદેશ અથવા આચરણ કેવી રીતે કરી શકીએ ? હે દેવાનુપ્રિયે ! વિશેષ એ છે કે અમે લેકે કેવલી પ્રરૂપિત દાન શીલ આદિ નાના પ્રકારના ધને જ ઉપદેશ કરીએ છીએ. ત્યાર બાદ તે સુભદ્રાસાર્થનાહી તે આર્યાએ પાસેથી ધર્મ સાંભળીને તે હૃદયમાં ધારણ કરી હૃષ્ટતુષ્ટ હૃદયથી તેમને ત્રણ વાર વંદન અને નમસ્કાર કરી આ પ્રમાણે બેલી:– હે દેવાનુપ્રિયે ! હું નિર્ણય પ્રવચન પર શ્રદ્ધા કરું છું–વિશ્વાસ કરું છું. નિગ્રંથ પ્રવચન પર મારી રૂચી થઈ છે. આપે જે ઉપદેશ આપે છે તે સત્ય છે–સર્વથા સત્ય છે. હું યાવત્ શ્રાવક ધર્મને સ્વીકાર કરું છું. તે આર્યાએ કહ્યું – * હે દેવાનુપ્રિયે ! તને જે પ્રકારે સુખ થાય તેમજ કર. ધર્માચરણમાં પ્રસાદ ન કરે. ત્યાર પછી તે સુભદ્રાસાર્થવાહીએ તે આર્થીઓની પાસે નિર્ગથ ધર્મને
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सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य- ४ बहुपुत्रिका देवी
३३७
अङ्गीकरोमि, भोगभोगान - भोगाः = शब्दादयस्तेषां भोगाः = आसेवनानि तान् । आख्यापनाभिः = ' गृहवासः श्रेयान् ' इति तत्परीक्षार्थं समान्यतः कथनैः, प्रज्ञापनाभिः = ' त्वं मा परिव्रज ' संयमाssचरणं दुष्करम्
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अनन्तर उन आर्याओंका वन्दन और नमस्कारके साथ विसर्जन किया ।
उसके बाद वह सुभद्रा सार्थवाही श्रमणोपासिका हो गयी, यावत् श्रावकधर्म पालती हुई विचरने लगी । उसके बाद एक समय पिछली रात में कुटुम्बजागरणा करती हुई उस सुभद्रा सार्थवाहीके हृदयमें इस प्रकारका आध्यात्मिक यावत् विचार उत्पन्न हुआ कि मैं भद्र सार्थवाह के साथ विपुल भोगोंको भोगती हुई यावत् विचर रही हूँ । पर आजतक मेरे एक भी सन्तान नहीं हुई । इसलिये मुझे उचित है कि सूर्योदय होनेपर भद्र सार्थवाहको पूछकर सुव्रता आर्याओंके समीप आर्या हो घर छोडकर प्रव्रजित बनूँ । ऐसा विचारकर भद्रसार्थवाहके पास आयी और हाथ जोड़ कर इस प्रकार बोली- हे देवानुप्रिय ! मैं तुम्हारे साथ बहुत वर्षों तक विपुल भोगों को भोगती हुई विचर रही हूँ, पर आजतक मेरे एक भी सन्तान नहीं हुई । સ્વીકાર કર્યો. ને પછી તે આર્યોને વંદન અને નમસ્કાર કરીને વિસર્જન કર્યું" ( विहाय भायी. )
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ત્યાર પછી તે સુભદ્રા સાર્થવાહી શ્રમણુ ઉપાસિકા થઇ ગઇ, તમામ શ્રાવકધર્મનું પાલન કરતી વિચરવા લાગી. ત્યાર પછી એક સમયે પાછલી રાત્રિએ કુટુંબ જાગરણા કરતી કરતી તે સુભદ્રાસા વાહોના હૃદયમાં આ પ્રકારના આધ્યા ત્મિક–વિચાર આવ્યે કે હું ભદ્ર સાર્થવાહની સાથે વિપુલ લાગેાને ભાગવતી વિચરણ કરૂં છું પણુ આજ પર્યન્ત મને એ સન્તાન થયુ નથી. આથી મને એ ચેાગ્ય છે કે સૂર્યોદય થતાંજ ભદ્ર સાર્થવાહને પૂછીને સુત્રતા આર્યાએની પાસે આર્યા થઇ ઘર બધુ છેાડી દઇને પ્રજિત અનું. એવે વિચાર કરીને ભદ્રસાવાહની પાસે આવી અને હાથ જોડી આ अहारे मोती:- हे देवानुप्रिय ! હું તમારી સાથે ઘણાં વર્ષો સુધી વિપુલ ભાગવિલાસ ભાગવતી કરૂં છું. પણુ
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૩૮
३ पुष्पितासूत्र
इतिविशेषतः कथनैः, 'संज्ञापनाभिः = ' संयमाऽऽराधनं भुक्तभोगावस्थायां सुकरम् ' इति संबोधनाभिः, विज्ञापनाभिः संयमग्रहणे तदन्तःकरणद्रढिम'परीक्षार्थी सप्रेमप्रतिपादनैः, अकामतः- संयममार्गे तां सुभद्रां निरोद्धुमक्षमः
इसलिये मैं चाहती हूँ कि तुमसे आज्ञा लेकर सुव्रता आर्याओंके समीप दीक्षा लेकर प्रव्रजित हो जाऊँ । उसके बाद वह भद्र सार्थवाह सुभद्रा सार्थवाहीसे इस प्रकार कहने लगा:
सुभद्रा सार्थवाहीने भद्रके
हे देवानुप्रिये ! तुम अभी दीक्षा मत लो। तुम अभो संसारमें ही रहो । विपुल भोग भोगनेके बाद सुत्रता आर्याओंके समीप दीक्षा लेकर प्रवजित होना । भद्र सार्थवाहके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर भी उस वचनोंका आदर नहीं किया, और न उसके वचनों पर विचार ही किया । दूसरी बार तीसरी बार भी सुभद्रा सार्थवाहीने इस प्रकार कहा- हे देवानुप्रिय ! तुमसे आज्ञा पाकर प्रव्रज्या लेकी इच्छा करती हूँ ।
उसके बाद वह भद्र सार्थवाह बहुत प्रकारकी ' आख्यापना ' = ' घर में रहना
આજસુધી મને એક પણુ સંતાન નથી થયુ' માટે હું ચાહું છું કે તમારી આજ્ઞા લઇ સુત્રતા આર્યોએની પાસે દીક્ષા લઇને પ્રત્રજિત થઈ જાઉં. ત્યાર પછી તે ભદ્રસાર્થવાહ સુભદ્રા સાર્યવાહીને આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યા:
હૈ દેવાનુપ્રિયે ! તમે હમણાં દીક્ષા ન લે. તમે હમણાં સંસારમાં જ રહેા. વિપુલભાગ ભાગવી લીધા પછી સુત્રતા આર્યાએની પાસે દીક્ષા લઈને પ્રવ્રુજિત થજો. ભદ્ર સાથે વાહે આ પ્રમાણે કહેવાથી તે સુભદ્રાસા વાહીએ ભદ્રનાં વચના માન્યાં નહિ તેમ તેના વચના ઉપર વિચાર પણ ન કર્યાં. ખીજીવાર ત્રીજીવાર પણ સુભદ્રાસા વાહીએ આ પ્રમાણે કહ્યું:—હૈ દેવાનુપ્રિય ! તમારી આજ્ઞા લઈને પ્રત્રજ્યા લેવાની ઈચ્છા હું કરૂં છું.
ત્યાર પછી તે ભદ્રસા વાહ ઘણા પ્રકારે આખ્યાપના= ઘરમાં રહેવું એજ
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३३९
सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ४ बापुत्रिका देवी समनिच्छन्नपि सुभद्रायाः निष्क्रमण परिव्रजनम् अन्वमन्यत-स्वीचकार । शेषं मुबोधम् ॥ ३ ॥
मूलम्तएणं से भद्दे सत्यवाहे विउलं असणं ४ उवक्खडावेइ, मित्तनाइ जाव आमंतेइ, तो पच्छा भोयणवेलाए जाच मित्तनाइ० सकारेइ सम्माणेइ,
छाया
ततः खलु स भद्रः सार्थवाहो विपुलम् अशनं पानं खाद्यं स्वाद्यम् उपस्कारयति मित्रज्ञाति यावदामन्त्रयति । ततः पश्चात् भोजनवेलायां
ही श्रेयस्कर है। इस प्रकार उसकी परीक्षाके लिये जो सामान्य कथन, तत्स्वरूप आख्यापनाओंसे, एवं ' प्रज्ञापना '=' तुम प्रव्रजित मत होओ, संयमका आचरण दुष्कर है' इस प्रकार विशेष रूपसे कथन स्वरूप प्रज्ञापनाओंसे, और — संज्ञापना = ' भोगोको भोग लेनेके बाद ही संयमका आराधन सुकर है' इस प्रकारका समझाना रूप संज्ञापनाओंसे, तथा विज्ञापना'' संयम ग्रहणमें उसके अन्तःकरणकी दृढताकी परीक्षाके लिये युक्ति प्रतिपादनरूप विज्ञापनाओंसे समझानेमें समर्थ नहीं हो सका तब उसने अनिच्छापूर्वक सुभद्राको दीक्षा लेनेकी आज्ञा दी ॥ ३ ॥ ..
શ્રેયસકર છે એ પ્રકારે તેની પરીક્ષાને માટે જે સામાન્ય કથન કે તેના જેવી આખ્યાપનાએથી, તથા પ્રજ્ઞાપના=તમે પ્રત્રજિત ન થાઓ સંયમનું આચરણ મુશ્કેલ છે આ પ્રકારનું વિશેષરૂપે કથન–તેવી કથનસ્વરૂપ પ્રજ્ઞાપનાઓથી, તથા સંજ્ઞાપના=ભેગે ભોગવી લીધા પછી જ સંયમનું આરાધન સુકર (સહજ) છે” એ પ્રકારે સમજાવવારૂપી સંજ્ઞાપનાથી, તથા વિજ્ઞાપના=સંયમબહણ કરતાં તેના અંત:કરણની દૃઢતાની પરીક્ષાને માટે યુક્તિપ્રતિપાદનરૂપ વિજ્ઞાપનાથી આખ્યા સમજાવવામાં સમર્થ ન થઈ શકર્યો ત્યારે તેણે અનિષ્ઠાપૂર્વક સુભદ્રાને દીક્ષા લેવાની આજ્ઞા આપી (ઉ),
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३ पुष्पितासन सुभई सत्यवाहि व्हायं जाव पायच्छित्तं सव्वालंकारविभूसियं पुरिससहस्स: वाहिणि सीयं दुरूहेइ । तओ सा सुभद्दा सत्थवाही मित्तनाइ जाव संबंधिसंपरिवुडा सव्विड्डीए जाव रवेणं वाणारसीनयरीए मज्झं मज्झेणं जेणेव सुव्वयाणं अजाण उवस्सए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पुरिससहस्सवाहिणिं सोयं ठवेइ, सुभदं सत्थवाहिं सीयाओ पच्चोरहेइ । तएणं भद्दे सत्थवाहे सुभदं सत्थवाहिं पुरओ काउं जेणेव सुब्बया अजा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुब्बयाओ अजाओ वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं क्यासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! सुभद्दा सत्थवाही ममं भारिया इट्ठा कता जाव मा णं वाइबा पित्तिया सिंमिया संनिवाइया विविहा रोगातंका फुसंतु, एसणं देवाणुप्पिया ! संसारभउबिग्गा, भीया जम्मणमरणाणं, देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडा भवित्ता जाव पव्वयाइ, तं एवं अहं देवाणु
यावत् मित्रज्ञाति सत्करोति सम्मानयति, सुभद्रा सार्थवाही स्नातां यावत् कृतमायश्चित्तां सर्वालङ्कारविभूषितां पुरुषसहस्रवाहिनीं शिविकां दूरोहयति । ततः सा सुभद्रा सार्थवाही मित्रज्ञाति० यावत् सम्बन्धिसंपरिता सर्वऋदया यावत् रवेण वाराणसीनगर्या मध्यमध्येन यत्रैव मुव्रतानामार्याणामुपाश्रयस्तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य पुरुषसहस्त्रवाहिनीं शिविकां स्थापयति, सुभद्रा सार्थवाही शिविकातः प्रत्यवरोहति । ततः खलु भद्रः सार्थवाहः सुभद्रां सार्थवाही पुरतः कृता यत्रैव सुव्रता आर्याः तत्रैवोपागच्छति, उपागल सुव्रता आर्या वन्दते नमस्यति, वन्दिता नमस्यिता एवमवादी-एवं खलु देवानुपियाः ! सुभद्रा सार्थवाही मम भार्या इष्टा कान्ता यावत् मा खलु वातिकाः पैत्तिकाः श्लैष्मिकाः सान्निपातिका विविधा रोगातङ्काः स्पृशन्तु, एषा खलु देवानुमियाः ! संसारभयोद्विमा, भीता जन्ममरणाभ्यां, देवानुप्रियाणामन्त्रिके मुण्डा सखा यावत् भवति ! सद् एवामहं देवानुमियम्पो शिष्यामिक्षां
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सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ४ बहुपुत्रिका देवी पियाणं सीसिणीभिक्खं दलयामि, पडिच्छतु पं देवाणुप्पिया ! सीसिणीमिक्खं । अहामुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं । .तएणं सा सुभदा सत्यवाही तुट्टा सुब्बयाहिं अजाहिं एवं वुत्ता समाणी हट्ट० सयमेव आभरणमल्लालंकारं भोमुयह, ओमुइत्ता, सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, करित्ता जेणेव सुब्बयाओ अजाओ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुचयाओ अजाओ तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणेणं बंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-आलित्तेणं भंते ! जहा देवाणंदा तहा पवइया जाव अज्जा जाया जाव गुत्त बंभयारिणी ॥४॥
ददामि, प्रतीच्छन्तु खलु देवानुपियाः ! शिष्याभिक्षाम् । यथासुखं देवानुमियाः ! मा प्रतिबन्धम् ।
ततः खलु सा सुभद्रा सार्थवाही सुत्रताभिरार्याभिरेवमुक्ता : सती खयमेव आभरणमाल्याङ्कारमवमुञ्चति, अवमुच्यः स्वयमेव पञ्चमुष्टिकं :लोचं करोति, कृवा यत्रैव सुव्रता आर्यास्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य सुत्रता आर्या स्त्रिकुल आदक्षिणप्रदक्षिणेन वन्दते नमस्पति, वन्दिखा नमस्यित्वा, एवमवादीआदीप्तः खलु भदन्ते ! यथा देवानन्दा तथा प्रजिता यावत् आर्या जाता यावद् गुप्तब्रह्मचारिणी ॥ ४ ॥
टीका'तएणं से भद्दे' इत्यादि-एतस्य व्याख्या निगदसिद्धति बोध्यम् ॥ ४॥ 'तएणं से भद्दे' इत्यादिउसके बाद उस भद्र सार्थवाहने विपुल अशन पान खाद्य स्वाद्यको तैयार 'तएणं से भहे' त्याह. - ત્યાર પછી તે ભસાર્થવાહ વિપુલ અચનાન ખાવ સ્વાવ તૈયાર કરાવ્યું
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३ पुष्पिासन करवाया और अपने सभी मित्र ज्ञाति स्वजन बन्धुओंको बुलाया और आदर सत्कार के साथ सभी मित्र ज्ञाति स्वजन बन्धुओंको भोजन कराया । बादमें स्नानकी हुई यावत् मसीतिलक आदिसे युक्त, सभी अलङ्कारोंसे विभूषित सुभद्रा हजार मनुष्योंके द्वारा वाहित शिबिका पर बैठायी गई । ९ उसके बाद वह सुभद्रा सार्थवाही मित्र ज्ञाति स्वजन-बन्धु और सम्बन्धियोंसे युक्त सभी प्रकारकी ऋद्धि यावत् भेरी आदि बाजोंके स्वरके साथ वाराणसी नगरीके बीचोबीचसे होती हुई सुत्रता आर्याओंके उपाश्रयमें आई, और हजार पुरुषोंसे वाहित उस शिबिकासे उतरी। बादमें वह भद्र सार्थवाह सुभद्रा सार्थवाहीको आगे कर सुव्रता आर्याके पास आया, और वन्दन नमस्कार किया। बाद उसके उसने इस प्रकार कहाः
हे देवानुप्रियो ! यह मेरी भार्या सुभद्रा सार्थवाही मेरी अत्यन्त इष्ट और क्रान्त है। इसको वात पित्त कफ आदि रोग तथा शीत–उष्ण आदिके दुःख.
અને પિતાના બધા મિત્રો જ્ઞાતિ-સ્વજન બધુઓને બોલાવ્યા અને આદર સત્કાર કરીને તે બધાને ભેજન કરાવ્યું. પછી સુભદ્રાને નવરાવી ચાવત મસી તિલક (ચાંડલ) આદિ કરાવી તમામ અલંકાર (ઘરેણાં) થી શણગારી હજાર મનુષ્યોએ ઉપાડેલી શિખિકા (પાલખી) ઉપર બેસાડવામાં આવી.
ત્યાર પછી તે સુભદ્રાસાર્થવાહી મિત્ર, જ્ઞાતિ, સ્વજન-બધુ તથા સબન્ધિએની સાથે તમામ પ્રકારની વ્યક્તિ, ભેરી આદિ વાર્તાગાજાના સ્વર સાથે વારાણસી નગરીની વચ્ચેવચ્ચે થઈને સુવ્રતા આર્યાઓના ઉપાશ્રયમાં આવી. અને હજાર પુરૂએ ઉપાડેલી તે શિબિકામાંથી ઉતરી. પછી તે ભદ્રસાર્થવાહ સુભદ્રા સાર્થવાહીને આગળ કરીને સુત્રતા આર્યાની પાસે આવ્યો. અને વન્દન નમસ્કાર કર્યા પછી તેણે આ પ્રકારે કહ્યું –
હે દેવાનુપ્રિય ! આ મારી સ્ત્રી સુભદ્રા સાર્થવાહી મારી ઘણીજ ઈષ્ટ અને ન (પ્રિય છે. તેને વાત પિત્ત કફ વગેરે રોગ ઠંડી ગરમી વગેરેમાં દુખ
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सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अभ्य. ४ बहुपुत्रिका देवी स्पर्श न कर सके • इसके लिए सर्वदा यत्न करता आरहा हूँ, सो यह सार्थवाही संसारके भयसे उद्विग्न हो तथा जन्म मरणसे डरकर आप लोगोंके पास मुण्ड होकर प्रव्रजित हो रही है, इसलिये मैं आप लोगोंको यह शिष्यारूप मिक्षा दे रहा हूँ। हे देवानुप्रियो ! इसको आप लोग स्वीकार करें।
___भद्र सार्थवाहके इस प्रकार कहने पर उस महासतीने उस सार्थवाहीसे कहा-हे देवानुप्रिये ! जैसी तुम्हारो खुशी हो, शुभ काममें प्रमाद मत करो। सुव्रता महासती द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर वह सुभद्रा सार्थवाही अपने हाथोंसे माला और आभूषणोंको उतार दिया, और उसने अपने हाथसे पञ्चमुष्टिक लुञ्चन किया। बादमें वह सुव्रता आर्याके समीप आकर तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा पूर्वक वन्दन नमस्कार करके बोली- हे महासती ! यह संसार जरा-मरण रूप आगसे जल रहा है, अत्यन्त जल रहा है। जिस तरह कोई गृहस्थ घरमें आग लगनेपर - जलती हुई वस्तुओंसे સ્પર્શ કરી ન શકે તે માટે હું હમેશાં યત્ન કસ્તે આવું છું તે આ સાર્થવાહી સંસારના ભયથી ચિંતાતુર બનીને તથા જન્મમરણના ડરથી આપ લેકેની પાસે મુંઠિત થઈ પ્રવ્રજિત થાય છે. માટે હું આપ લોકોને આ શિષ્યારૂપ ભિક્ષા આપું છું. હે દેવાનુપ્રિયે, આને આપ લોકે સ્વીકાર કરે.
ભદ્ર સાર્થવાહના આ પ્રકારે કહેવાથી તે મહાસતીએ તે સાર્થવાહીને કહ્યું'હે દેવાનુપ્રિયે ! જેવી તમારી ખુશી. કેઈ શુભ કામમાં પ્રમાદ ન કરે. સુત્રતા મહાસતીએ આ પ્રમાણે કહેવાથી તે સુભદ્રાસાર્થવાહીએ પિતાના હાથેથી માલા
અને ઘરેણાં ઉતારી નાખ્યાં અને તેણે પિતાને હાથેથી પંચ મુષ્ટિક લુંચન કર્યું - પછી તે સુત્રતા આર્યાની પાસે આવીને ત્રણ વાર આદક્ષિણ પ્રદક્ષિણાપૂર્વક વહન
नभ२४२ ४शन मोदी:- હે મહાસતી ! આ સંસાર જરા-મરણરૂપ અગ્નિ વડે બળી રહ્યો છે-ખૂબ બળે છે. જેમ કે ગૃહસ્થ ઘરમાં આગ લાગે ત્યારે બળી જતી વસ્તુઓમાંથી
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e
३ पुष्पिता
सुरक्षित रखता
बहुमूल्य और थोडे वजनबाली वस्तुको निकाल लेता है और उसे है उसी प्रकार मैं अपनी आत्माको जो मेरी इष्ट है, कान्त है, प्रिय है, संमत = सम्मानित है अनुमत - बडे प्रेम से सुरक्षित है, बहुमत है अनेक प्रकारसे लालित पालित है, उसको शीत, उष्ण, भूख, तृषा, चोर, सिंह, सर्प, डांस, मच्छर तथा वात पित्त कफ आदि रोग परीषह उपसर्ग कोई नुकसान न पहुँचा सकें तथा मेरी आत्मा परलोक में हित रूप, सुखरूप कुशल रूप और परम्परासे कल्याण रूप रहे । इस लिये मैं आपके पास मुण्डित होकर प्रब्रजित होती हूँ । मैं प्रतिलेखना आदि क्रियाको सीखूँगी। आपकी आज्ञा से संयमकी सब क्रियाको पालूँगी । इस प्रकार वह सार्थवाही देवानन्दाके समान प्रवजित हुई और आर्या हो गई तथा पाँचसमिति और तीन गुप्तियोंसे युक्त हो सकल इन्द्रियोंका दमन कर वह गुप्तब्रह्मचारिणी हो गयी ॥ ४॥
બહુ કિમતવાળી અને એછા વજનવાળી વસ્તુને કાઢી લે છે અને તેને સુરક્ષિત રાખે છે તેવીજ રીતે હું મારા આત્મા-કે જે મારા ઇષ્ટ છે–કાન્ત છે–પ્રિય છે— સંમત=સમ્માનિત છે, અનુમત=ખહુ પ્રેમથી સુરક્ષિત છે, અહુમત છે=અનેક अमरथी ससिल पासित छे, तेने हंडी, गरभी, लूम, तरस, थोर, सिंड, सर्प, डांस, भय्छ२, तथा वात, पित्त, वगेरे रोग, परीषड, मो नुङशान પહોંચાડી ન શકે તથા મારા આત્મા પરલેાકમાં હિતરૂપ, સુખરૂપ, કુશલરૂપ તથા પરમ્પરાથી કલ્યાણુરૂપ રહે તે માટે તમારી પાસે મુડિત થઇને પ્રત્રજિત ખનું છું. હું પ્રતિàખના આદિ ક્રિયાને શીખીશ. આપની આજ્ઞાથી સયમની ખધી ક્રિયાઆનું પાલન ીશ. આ પ્રકારે તે સાર્થવાહી દેવાનન્દાની પેઠે પ્રત્રજિત ખની અને આર્યો થઈ ગઈ તથા પાંચ સમિતિ અને ત્રણ ગુપ્તિએથી યુક્ત થઈને બધી ઇન્દ્રિઓનું દમન કરીને તે ગુપ્ત બ્રહ્મચારિણી થઇ ગઇ. ॥ ૪ ॥
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fatter वर्ग ३ अभ्य. ४ बहुपुत्रिका देवी
मूलम्—
तणं सा सुभद्दा अजा अन्नया कयाइ बहुजणस्स वेडरूवे संभुच्छिया जान अज्झेोववण्णा अभंगणं च उव्वट्टणं फासूयपाणं च अलत्तगं च कंकणाणि य अंजणं च वष्णगं च चुण्णगं च खेल्गाणि य खज्जल्ल गाणि य खीरं च पुष्पाणि य गवेसर, गवेसित्ता बहुजणस्स दारए वा दारियाए वा कुमारेय कुमारियाए य डिंभए य डिभियाओ य अप्पेगइयाओ अभंगेइ, अप्पेगइयाओ उच्चट्टे, एवं अप्पेगइयाओ फायपाणएणं ण्हावेइ, अप्पेगइयाणं पाए रयइ, अप्पेगइयाणं उट्ठे रयइ, अप्पेगइयाणं अच्छीणि अंजेइ, अप्पेगइयाणं उस्रुर करे अप्पेगइयाणं तिलए करे अप्पेगइयाओ दिगिंदलए करे अप्पेगइयाणं पंतियाओ करेइ अप्पेगगाई छिज्जाई करेइ, अप्पेगइया वनएणं समालभइ, अप्पेगइया चुन्नएणं समालभइ अप्पेगइयाणं खेल्लुणगाईं दलय, अप्पेगइयाणं खज्जुल -
↑
,
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३४५
छाया
ततः खलु सा सुभद्रा आर्या अम्यदा कदाचि बहुजनस्य चेटरूपे संमूच्छिता यावद् अध्युपपन्ना अभ्यञ्जनं च उद्वर्त्तनं च प्रासुकपानं च अक्तकं च कङ्कणानि च अञ्जनं च वर्णकं च चूर्णकं च खेलकानि च स्वज्जलकानि च क्षीरं च पुष्पाणि च गवेषयति, गवेषयित्वा बहुजनस्य दारकान् दारिका वा कुमारांश्च कुमारिकाश्च डिम्भांश्च डिम्भिकाच अप्येककान् अभ्यङ्गयति अप्येककान् उद्वर्त्तयति, एवम् अप्येककान् प्रासुकपानकेन स्नपयति, अप्येककानां पादौ रञ्जयति, अप्येककानाम् ओष्ठौ रञ्जयति, अप्येककानाम् अक्षिणी अञ्जयति, अप्येककानाम् इषुकान् करोति, अप्येककानां तिलकान् करोति, अप्येककान् दिलिन्दलके करोति, अप्येककानां पीः करोति, अप्येककान् छेद्यान् (छिन्नान् ) करोति, अप्येककान् वर्णकेन समालभते, अप्येककान् चूर्णकेन समालभते, अप्येककेभ्यः खेलकानि
૪
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३ पुष्मितासक गाई दलयइ, अप्पेगइयाओ सीरभोयणं मुंजावेइ, अप्पेगइयाणं पुप्फाई ओमुयइ, अप्पेगइयाओ पाएमु ठवेइ, अप्पेगइयाओ जंघासु करेइ, एवं ऊरुसु, उच्छंगे, कडीए, पिठे, उरसि, खंधे, सीसे य करतलपुडेणं गहाय हलउलेमाणी २ आगायमाणी २ परिगायमाणी २ पुत्तपिवासं च धूयपिचासं च नत्तुयपिवासं च नत्तिपिवासं च पञ्चगुब्भवमाणी विहरइ ।
तएणं ताओ सुव्वयाओ अज्जाओ सुभदं अजं एवं वयासी-अम्हे णं देवाणुप्पिए ! समणीओ निग्गंथीओ इरियासमियाओ जाव गुत्तबंभयारिणीओ नो खलु अम्हं कप्पइ जातककम्मं करितए, तुमं च णं देवाणुप्पिया ! बहुजणस्स चेडरूवेसु मुच्छिया जाव अज्झोक्वन्ना अब्भंगणं जाव नत्तिपिवास वा पञ्चणुब्भवमाणी विहरसि, तं णं तुमं देवाणुप्पिया एयस्स ठाणस्स आलोएहि जाव पायच्छित्तं पडिवज्जाहि । तएणं सा सुभद्दा अज्जा
ददाति, अप्येककेभ्यः खज्जुलकानि ददाति, अप्येककान् क्षीरभोजनं भोजयति, अप्येककानां पुष्पाणि अवमुश्चति, अप्येककान् पादयोः स्थापयति, अप्येककान् जङ्घयोः करोति, एवं ऊर्चाः, उत्सङ्गे, कव्यां, पृष्ठे, उरसि, स्कन्धे, शीर्षे च करतलपुटेन गृहीला हलउल्लयन्ती २ आगायन्ती २ परिगायन्ती २ पुत्रपिपासां च दुहितृपिपासां च नप्तृकपिपासां च नपुत्रीपिपासां च प्रत्यनुभवन्ती विहरति । . ततः खलु ताः सुव्रता आर्याः सुभद्रामा-मेवमवादीत्-चयं खलु देवानुप्रिये ! श्रमण्यो निर्ग्रन्थ्य इर्यासमिता यावद् गुप्तब्रह्मचारिण्यो नो खलु अस्माकं कल्पते जातकर्म कर्तुम् , त्वं च खलु देवानुपिये ! बहुजनस्य चेटरूपेषु मूर्छिता यावत् अध्युपपन्ना अभ्यञ्जनं च यावत् नत्रीपिपासा वा प्रत्यनुभवन्ती विहरसि, तत् खलु देवानुपिये ! एतस्य स्थानस्य आलोचय यावत् “भायश्चिचं भविपद्यख । ततः खलु सा सुभद्रा आयाँ सुब्रताना
खलपेषु भूलिता यावत खलु देवानुभिः
सा सुभद्रा
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सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. ४ बहुपुत्रिका देवी
३४७ सुव्वयाणं अज्जाणं एयमद्वं नो आढाइ नो परिजाणइ, अणाढायमाणी अपरिजाणमाणी विहरइ ।
तएणं ताओ समणीओ निग्गंथीओ सुभई अज्जं होलेंति निंदति खिसंति गरहंति अभिक्खणं २ एयमé निवारेंति । तएणं तीसे मुभदाए अज्जाए समणीहिं निग्गंथीहि हीलिज्नमाणीए जाव अभिक्खणं २ एयमढे निवारिज्जमाणीए अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुपज्जित्था-जयाणं अहं अगारवासं वसामि तयाणं अहं अप्पवसा, जप्पमिइं च णं अहं मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पवइत्ता, तप्पमिइं च णं अहं परवसा, पुचि च समणीओ निग्गंथीओ आतुति परिजाणेति, इयाणि नो आढाइंति नो परिजाणंति, तं सेयं खलु मे कल्लं जाव जलंते सुव्वयाणं अज्जाणं अंतियाओ पडिनिक्खमित्ता पाडियकं उवस्सयं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए। एवं संपेहेइ, संपेहित्ता कल्लं जाव जलंते मुन्चयाणं अज्जाणं अंतियाओ मार्याणामेतमर्थ नो आद्रियते नो परिजानाति, अनाद्रियमाणा अपरिजानन्ती विहरति ।
ततः खलु ताः श्रमण्यो निन्थ्यः सुभद्रामार्या हीलन्ति निन्दन्ति खिसन्ति गहन्ते अभीक्ष्णम् २ एतमर्थं निवारयन्ति । ततः खलु तस्याः सुभद्राया आर्यायाः श्रमणीमिनिर्ग्रन्थोमिहील्यमानाया - यावत् अभीक्षणम् २ एतमर्थ निवारयन्त्या अयमेतद्रूप आध्यात्मिको यावत् समुदपद्यत-यदा खलु अहम् अगारवासं वसामि तदा खल्लु अहम् आत्मवशा, यतः प्रभृति च खलु अहं मुण्डा भूत्रा अगारात अनगारतां प्रबजिता ततः प्रभृति च खलु अहं परवशा, पूर्व च श्रमण्यो निर्ग्रन्थ्य आद्रियन्ते, परिजानन्ति, इदानों नो आद्रियन्ते नो परिजानन्ति, तत् श्रेयः खलु मे कल्ये यावत् ज्वलति सुव्रतानामार्याणामन्तिकात् प्रतिनिष्क्रम्य प्रत्येकम् उपाश्रयम् उपसंपद्य खलु विहर्तुम् । एवं संमक्षते, संप्रेक्ष्य कल्ये यावत् ज्वलति
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३४८
३ पुष्पिवान पडिनिक्खमेइ, पडिनिक्खमित्ता पाडियकं उवस्सयं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ । तए णं सा सुभदा अज्जा अज्जाहिं अणोहटिया अणिवारिया सच्छंदमई बहुजणस्स चेडरूवेमु मुच्छिता जाव अब्भंगणं च जाव नचिपिवासं च पञ्चणुब्भवमाणी विहरइ ।
तएणं सा सुभद्दा अज्जा पासत्था पासत्थविहारी एवं ओसण्णा० ओसण्णविहारी कुसीला कुसीलविहारी संसत्ता संसत्तविहारी अहाच्छंदा अहाच्छंदविहारी बहूई वासाइं सामनपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झुसित्ता तीसं भत्ताई अणसणाए छेदित्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयप्पडिकंता कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे बहुपुतियाविमाणे उपवायसभाए देवसयणिज्जंसि देवसंतरियाए अंगुलस्स असंखेजभागमेत्ताए ओगाहणाए बहुपुत्तियदेवित्ताए उववण्णा ।
मुव्रतानामार्याणामन्तिका प्रतिनिष्क्राम्यति, प्रतिनिष्क्रम्य प्रत्येकमुपाश्रयमुपसंपध खलु विहरति । ततः खलु सा सुभद्रा आर्या आर्यामिः अनपधट्टिका अनिवारिता स्वच्छन्दमतिः बहुजनस्य चेटरूपेषु मूर्छिता यावत अभ्यञ्जनं च यावत् नपुत्रीपिपासां च प्रत्यनुभवन्ती विहरति ।
ततः खलु सा सुभद्रा आर्या पार्श्वस्था पार्थस्थविहारिणी एवमवसना अवसनविहारिणी कुशीला कुशीलविहारिणी संसक्ता संसक्तविहारिणी यथाच्छन्दा यथाच्छन्दविहारिणी बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं पालयति, पालयित्रा अर्द्धमासिक्या लेखनया आत्मानं जोषयिता त्रिंशद् भक्तानि अनशनेन छित्त्वा तस्य स्थानस्य अनालोचिताऽप्रतिक्रान्ता कालमासे कालं कृत्वा सौधर्मे कल्पे बहुपुत्रिकाविमाने उपपातसभायां देवशयनीये देवदूष्यान्तरिता अलस्य असंख्येयभागमात्रया अवगाहनया बहुपुत्रिकादेवीतया उपपना ।
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सुन्दरबोधिनो टोका वर्ग ३ अभ्य. ४ बापुत्रिका देवी .
३४९ तए णं सा बहुपुत्तिया देवी अहुणोववन्नमित्ता समाणी पंचविहाएँ पज्जत्तीए जाव भासामणपज्जत्तीए० । एवं खलु गौयमा । बहुपुत्तियाएं देवीए सा दिव्वा देविड्डी जाव अमिसमण्णागया। से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ बहुपुत्तिया देवी २ ? गोयमा ! बहुपुत्तिया णं देवी जाई जाहे सकस्स देविदस्स देवरण्णो उवत्थाणियणं करेंइ, ताहे २ बहवे दारए य दारियाए य डिभए य डिभियाओ य विउव्वइ, विउन्वित्ता जेणेव सक्के देविंदे देवराया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो दिव्वं देविड्डि दिव्वं देवज्जुइं दिव्वं देवाणुभागं उवदंसेइ, सें तेणटेणं गोयमा ! एवं वुचइ बहुपुत्तिया देवी ॥५॥
___ ततः खलु सा बहुपुत्रिका देवी अधुनोपपन्नमात्रा सती पञ्चविधया पर्याप्त्या यावद् भाषामनःपर्याप्त्या० । एवं खलु गौतम ! बहुपुत्रिकया देव्या दिव्या देवर्द्धिः यावत् अमिसमन्वागवा । अथ सा केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते बहुपुत्रिका देवी २ ? गौतम ! बहुपुत्रिका खलु देवी यदा यदा शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य उपस्थान (प्रत्यासत्तिगमनं) करोति । तदा तदा बहून् दारकांश्च दारिकाश्च डिम्भांश्च डिम्भिकाश्च विकुरुते, विकृत्य यत्रैव शक्रो देवेन्द्रो देवराजस्तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य दिव्यां देवद्धि दिव्यं देवज्योतिः दिव्यं देवानुभागमुपदर्शयति । तत्तेनाऽर्थेन गौतम ! एवमुच्यते बहुपुत्रिका देवी ॥५॥
टीका'तएणं सा' इत्यादि-ततः तदनन्तरं खलु इति वाक्यालङ्कारे सा= 'तएणं सा' इत्यादि-- उसके बाद वह सुभद्रा आर्या एक समय गृहस्थके बालबच्चोंपर प्रेम करने 'तएणं सा'त्यादि ત્યાર પછી તે સુભદ્રા આર્યા એક વખત ગૃહસ્થનાં બોલબચ્ચાં ઉપર પ્રેમ
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३ पुष्पिावत्र पूर्वोक्ता प्रसिद्धा वा आर्या-साध्वी मुभद्रानाम्नी, अन्यदा-अन्यस्मिन् समये कदाचित् अनिश्चितकाले बहुजनस्य=बहुलोकस्य चेटरूपे=कुमारवरूपे संमूच्छिता-संमोहिता यावद् अध्युपपमा बालमेमासक्ता संजाता अत एव अभ्यङ्गनं-तैलादिमर्दनम् , चकारः सर्वत्र वाक्यालङ्कारार्थकः, उद्वर्तनं गात्रमलापनयनाय . पिष्टादिसुगन्धिद्रव्यविशेषम् , मासुकपानं-प्रगता असव: उच्छासनिच्छ्वासात्मकाः प्राणा यतस्तत् मासुकं, पीयते यत् तत् पानं, प्रासुकं च तत्यानं मासुकपानं सकलजीवोपाधिरहितमचित्तजलम् अलक्तकम्= हस्तचरणादिरञ्जकं मेहंद्यादिद्रव्यविशेषम् , कङ्कणानि-वलयानि करभूषणविशेषान् , अञ्जनं कञ्जलम् , वर्णकं चन्दनादिविशेषम् , चूर्णकं गन्धद्रव्यसम्बन्धिरजः, खेलकानि-शालमञ्जिकादीनि ('खिलौना' इति भाषायाम् ) खज्जलकानि खाद्यद्रव्य विशेषान् (खाजा इति भाषायाम् ) क्षीरं दुग्धं पुष्पाणि-कुसुमानि
लगी और प्रेमके आवेशमें उन बच्चोंके लिये वह आर्या लगानेके लिये तेल, शरीरका मैल दूर करनेके लिये उबटन, पीनेके लिये प्रासुक जल, उन बच्चोंके हाथ पैर रंगनेके लिए मेंहदी आदि रञ्जक द्रव्य, कङ्कण हाथोमें पहननेका कडा, अञ्जन=' काजल, वर्णक चन्दन आदि, चूर्णक सुगन्धित द्रव्य, खेलक-खेलनेके लिये शालभलिका ( पुतली ) आदि खिलौने, खानेके लिये खाजे, पीनेके लिये दूध और माला भादिके लिये अचित्त फूल, इन सभी वस्तुओंका अन्वेषण करती थी। बादमें उन
કરવા લાગી અને પ્રેમના આવેશમાં તે બચ્ચાંને માટે તે આર્યા, ચાળવા માટે तेस, शशरन। मेस ६२ ४२१॥ भोटे Gटन (पी0), पीभाट प्रासु ५g, તે બચ્ચાંને હાથ પગ રંગવા માટે મેંદી વગેરે રંજક દ્રવ્ય, કંકણ હાથમાં પહેરવા માટે કડાં, બંગડી, અંજન=કાજળ, વર્ણકચન્દન આદિ ચૂર્ણકસુગન્ધિત દવ્ય, ખેલક=રમવા માટે પૂતળીઓ આદિ રમકઠાં, ખાવા માટે ખાજા, પીવા માટે દૂધ તથા માલા (હાર)ને માટે અચિત્ત ફૂલ, આ બધી વસ્તુઓ મેળવવાની શોધ કરતી હતી પછી તે ગૃહસ્થોના છોકરા, છોકરીઓમાંથી, કુમાર કુમારિકાએ
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-मुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अभ्य.बहुपुत्रिका देवी -
३५९. च गवेषयति-अन्वेषयति, गवेषयित्वा अभ्यानादिपुष्पान्तवस्तूनि अन्वेष्य बहुजनस्य-विपुललोकस्य दारकान्-बहुकालिकबालकान् दारिकाःबहुकालिकबालिका वा=अथवा कुमारान्-अधिकतरवर्षकान् बालकान् , कुमारिकाः बहुतरवार्षिका बालिकाः, डिम्भान् अल्पकालिकशिशून डिम्भिका: अल्पकालिकबालिकाश्च, अप्येककान् काश्चन अभ्यङ्गयति-तैलेन गात्रं मर्दयति, अपीति समुच्चयार्थकः; तेन एकमपि तदतिरिक्तश्च अनेकमित्यर्थः। एककान् उद्वर्तयतिगात्रमलापनयनाय पिष्टादिसुगन्धिद्रव्यं लेपयति, एवम् अनेन प्रकारेण एककान् प्रासुकपानीयेन स्नपयति, एककानां पादौ चरणौ रञ्जयति अलक्तकादिना रक्तवौं करोति, एककानाम् ओष्ठौ-अधरौ रञ्जयति-रक्तवौँ विदधाति, एककानाम् अक्षिणी नेत्रे अञ्जयति अञ्जनेन भूषिते करोति, एककानाम् इषुकान ललाटदेशे बाणाकारान तिलकविशेषान करोति, एककानां तिलकान्=केशरकुङ्कुमादिना ललाटे विन्यासविशेषान् करोति, एककान् दिगिन्दलके देशीशब्दोगृहस्थोंके लडके लडकियों में से कुमारकुमारियों में से, बच्चे बच्चियों में से, किसी एक को तेलकी मालिश करती थी, किसीकी देहमें उबटन लगातीथी, किसी एकको प्रासुक जलसे स्नान कराती थी, किसी एकके पैरोंको रंगती थी, एकके ओठोंको रंगती थी, किसीकी आँखोमें अंजन लगाती थी, किसीके ललाट पर बाण आदिके आकारका तिलक लगाती थी, किसीके ललाटपर केशर आदिके द्वारा तिलक विशे. षका विन्यास करती थी, किसी एक बच्चेको हिण्डोलेमें रखकर झुलाती थी, और
માંથી, બાળકો અને બાળાઓમાંથી કેઈને તેલ માલીસ કરતી હતી, અને શરીરે ઉબટન (પીઠી) લગાડતી હતી, કેઈને પ્રાસુક પાણીથી સ્નાન કરાવતી હતી, કોઇના પગ રંગી દેતી હતી, કેઈના હોઠ રંગતી હતી, કેઈને આજ
જતી હતી તે કોઈના કપાળ ઉપર બાણ આદિના આકારને ચાંડલે ચડતી હતી, કેઇના કપાળે કેશર આદિથી જુદા જુદા પ્રકારના તિલક આદિના વિચાર કરતી હતી, કે એક બાળકને હીંચકા નાખતી હતી તથા કેટલાંક બાળકની એક
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३ पुल्पितासत्र श्यं तेन-'हिन्दोसके ' इत्यर्थः करोति, एककानां पती: श्रेणीः करोकि, एककान् छिन्नान्-छिन्नभिन्नान् एकत्रस्थितान् पृथक्पृथक् करोति, एककान वर्णकेन-चन्दनविशेषेण समालमते अनुलेपयति, एककान् चूर्णकेन-मुगन्धिद्रव्यविशेषेण समालभते-सुवासयति, एककेभ्यः खेलकानि-शालभञ्जिकादीनि वदाति, एककेभ्यः खज्जुलकानि-खाधद्रव्यविशेषान् 'खाजा' इति भाषामसिद्धान् ददाति, एककान क्षीरभोजनं दुग्धपानं भोजयति-कारयति, एककानां पुष्पाणि कुसुमानि अवमोचयति-कण्ठादितोऽधस्ताद्विसर्जयति, एककान् पादयोः चरणयोः स्थापयति, एककान् जङ्घयोः करोति, एवम् अनेन प्रकारेण ऊर्वोः, उत्सङ्गे-क्रोडे, कव्यां श्रोण्यां, पृष्ठे-पृष्ठभागे, उरसि-वक्षसि, स्कन्धे कुछ बच्चोंको एक कतार ( पंक्ति ) में खडा करती थी, तथा पंक्तिमें खडे हुए बच्चोंको अलग २ खडा करती थी, एकके शरीरमें चन्दन लगाती थी, तो एकके शरीर को सुगन्धित चूर्णक ( पाउडर ) से सुवासित करती थी, एकको खेलनेके लिये खिलौना देती थी, तथा किसीको खानेके लिये खाजे देती थी, और किसीको दूध पीलाती थी, किसीके कण्ठमें पडी हुई अचित्त (कागदके ) फूलोंकी माला उतार लेती थी, किसीको अपने पैरोंपर बैठाती थी तो किसीको अपनी जवापर रखती थी और इसी प्रकार किसीको ऊरुपर, किसीको अपनी गोदीमें किसीको अपनी कमरपर, किसीको पीठपर किसीको अपनी छातीपर किसीको कन्धेपर किसीको अपने
હાર કરી ઊભાં રાખતી હતી અને તે હારમાં ઉભેલાંમાંથી કેટલાંક બાળકોને જુદાં જુદાં ઊભાં રાખતી હતી. એકના શારીરને ચંદન લગાવતી હતી તે એકને સુગધિત પાઉડરથી સુવાસિત કરતી હતી. એકને રમવા માટે રમકડાં દેતી તો કેઈને ખાવા માટે ખાજાં દેતી હતી અને કેઈને દૂધ પાતી હતી. કેઈની ડોકમાંથી અચિત્ત (કાગળનાં) ફૂલની માળા ઉતારી લેતી. કેઈને પિતાના પગ ઉપર બેસાડતી તે કઈને પિતાના મેળામાં રાખતી કોઈને પેટ ઉપર તે કેઈને સાથળ ઉપર અને કઈને કેડે તે કોઈને પીઠ ઉપર, કોઈને છાતી ઉપર તો કોઈને કાંધ
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दरबोधन टोका वर्ग ३ अध्य. ४ बहुपुत्रिका देवी =असे शीर्षे शिरसि, करतलपुटेन - पाणितलपुटेन गृहीला हलउल्लयन्ती= बालरञ्जनाय मधुरालापं ' हुलरावा ' इति भाषामसिद्धं कुर्वती, आगायन्ती - बालरञ्जनाय मन्दं मन्दं गायन्ती, परिगायन्ती - बालान् रुदतो विलोक्य उच्चस्वरेण गायन्ती, पुत्र पिपासां पुत्रलालसां दुहितृपिपासां पुत्रीवाच्छां नप्तृकपिपासां = पौत्रदौहित्रलालसा नपुत्रीपिपासां पौत्री दौहित्री स्पृहां च प्रत्यनुभवन्ती- एतत्कार्येण सन्तोषं मन्यमाना विहरति = आस्ते । ततः खलु ताः = दीक्षादात्र्यः सुत्रता आर्याः = साध्य्यः सुभद्रामेवं वक्ष्यमाणम् अवादिषुः- हे देवानुमिये ! वयं श्रमण्यः=संसारविषयविरक्ताः साध्व्यः निर्ग्रन्ध्यः = ग्रन्थिरहिताः इर्यासमिताः
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३५३
शिरपर रखती थी, किसीको हाथसे पकडकर हुलराती हुई और बालकोंके मनोरंजन के लिये मन्द स्वरसे गाती हुई, बालकोंको रोते हुए देखकर उच्च स्वरसे गाती हुई पुत्रकी लालसा, पुत्रीकी वाञ्छा, पोते और दौहित्रोंकी वाञ्छा, पौत्री और दौहित्रीकी इच्छाका अनुभव करती हुई, अपने उक्त कार्योंसे सन्तुष्ट होती हुई विचरण कर रही थी ।
उसके ऐसे आचरणको देखकर सुव्रता आर्या सुभद्रा आर्यासे इस प्रकार बोली- हे देवानुप्रिये ! अपन लोग संसारिक विषयोंसे विरक्त, ईर्यासमिति आदिसे
ઉપર કેાઇને માથા ઉપર રાખતી તા કાઈને હાથેથી પકડીને હુલરાવતી. ખાળકને આન ંદ માટે ધીમા ધીમા સ્વથી ગાતી અને રાતાં ખાળકને જોઈને તાણીને ગાત, પુત્રની લાલસા, પુત્રીની વાંચ્છા, પોત્ર અને દૌહિત્રની વાંચ્છા, તથા પૌત્રી અને દોહિત્રીની વાંચ્છાના અનુભવ કરીને પાતાનાં એ કાર્યોથી સતાષ માની વિચરણ કરતો હતો.
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તેનાં આવાં આચરણા જેઈને સુત્રતા આર્યો સુભદ્રા આર્યાને આ પ્રકારે કહેવા લાગી-હે દેવાનુપ્રિયે ! આપણે લેાકેા સાંસારિક વિષચેાથી વિરક્ત ઇર્ષ્યા
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___३. पुष्पितासन यावत् शब्देन भाषासमिताः, इत्यादीनां संग्रहः, गुप्तब्रह्मचारिण्या= सुरक्षित, ब्रह्मचर्याः, नो, खल अस्माकं श्रमणीनां निर्ग्रन्थीनाम् जातकर्म-शिशुक्रीडनादिक्रियां कर्तुम् अनुष्ठांतुं कल्पते युज्यते, हे देवानुमिये ! सुभद्रे ! त्वं बहुजनस्य चेटरूपेषु = कुमारस्वरूपेषु मूञ्छिता = संमोहिता याद अध्युपपन्ना दत्तचित्ता अभ्यङ्गनं यावच्छब्देन वर्णकादीनां सङ्ग्रहः, नपुत्रीपिपासां-पौत्रोदौहित्रीस्पृहां प्रत्यनुभवन्ती विहरसि, तत्-तस्मात् कारणात् हे देवानुपिये ! एतस्य स्थानस्य एतत्कर्तव्यस्य आलोचय= आलोचनां कुरु यावत् प्रायश्चित्तं पापापनोदनरूपाम् क्रियां प्रतिपद्यस्वयुक्त यावत् गुप्तब्रह्मचारिणी निम्रन्थ श्रमणी हैं, इसलिये हम लोगोंको बालक्रीडा करना कराना आदि नहीं कलपता है। हे देवानुप्रिये ! तुम गृहस्थोंके बच्चोंसे प्रेम करने लग गयी हो बच्चोंको तेल आदि लगानेकी क्रिया आदि अकल्पनीय कार्य कर रही हो। तथा पुत्र पुत्री, पौत्र पौत्री और दौहित्र दौहित्रीकी वाञ्छाका अनुभव करती हुई बिचर रही हो, सो हे देवानुप्रिये ! तुम अपने इस कार्यपर विचार करो और इस पापकी विशुद्धिके लिये आलोचना करो और प्रायश्चित लो।
સમિતિ આદિથી યુક્ત યાવત ગુણ બ્રહ્મચારિણી નિર્ગસ્થ શ્રમણી છીએ માટે આપણે બાળકને રમાડવું આદિ ક૫વાનું નથી. હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે ગૃહસ્થના બચ્ચાંને પ્રેમ કરવા લાગી ગયાં છે. બચ્ચાંને તેલ આદિ લગાડવાની ક્રિયાથી માંડીને બધાં અકલ્પનીય કાર્યો કરી રહ્યાં છે. તથા પુત્ર-પુત્રી, પૌત્ર-પૌત્રી અને દૌહિત્ર-દોહિત્રીની વાચ્છાના અનુભવ કરતાં વિચરે છે. માટે હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે તમારા આ કાર્યો માટે વિચાર કરે અને આ પાપની વિશુદ્ધિને માટે આલેअना ४२। भने प्रायश्चित्त a.
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- सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अभ्य. ४ बहुपुत्रिका देवा
स्वीकुरु । ततः खलु सुभद्रा आय सुत्रतानामार्याणामेतम् = अव्यवहितोक्तम् अर्थम् - निर्दिष्टविषयम् नो आद्रियतेन सत्करोति नो परिजानाति = कर्तव्यत्वेन नो स्वीकरोति, अनाद्रियमाणा - उपेक्षमाणा, अपरिजानन्ती- कर्तव्यत्वेन तदुक्तमस्वीकुर्वाणा विहरति ।
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३५५
ततः खलु ताः श्रमण्यो निर्ग्रन्ध्यः सुभद्रामार्य हिलन्ति - जन्मकर्ममर्मोद्घाटनपूर्वकं निर्भत्सयन्ति, निन्दन्ति कुत्सितशब्दपूर्वकं दोषोद्घाटनेन अनाद्रियन्ते, खिंसन्ति हस्तमुखादिविकारपूर्वकमवमन्यन्ते, गर्हन्ते गुर्वादि
"
उन आर्याओंके द्वारा इस प्रकार अकल्पनीय बातोंका निषेध करनेपर भी उस सुभद्रा आर्याने न उन बातोंका कुछ आदर किया और न उन बातोंपर कुछ
!
3
ध्यान ही दिया अपितु उसी प्रकारका व्यवहार करती हुई विचरने लगी ।
4
उसके बाद वे आर्यायें सुभद्रा आर्याकी 'तुम उत्तम कुलमें जन्म लेकर और उत्तम संयम अवस्थामें आकर ऐसे तुच्छ कर्म करती हो ' इस प्रकारकी हीलना' करती हैं, और वे कुत्सित शब्द बोलकर उसका निन्दना करती हैं। हाथ मुख आदिको विकृत करके ' खिसना ' करती हैं। गुरू जनोके समीप उसके दोषोंका
दोष प्रकट करती हुई
अपमान करती हुई
उद्घाटन करती हुई
તે આર્યોએના આ પ્રકારે અકલ્પનીય વાર્તાના નિષેધ કરવા છતાં પણુ તે સુભદ્રા આર્યાએ ન તા તે વાર્તાને માની કે ન તેના ઉપર કાંઈ ધ્યાન આપ્યું. પણ તેજ પ્રકારના વ્યત્રહાર કરતી વિચરવા લાગી.
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ત્યાર પછી તે આર્યોએ કહેતો કેઃ— તમે ઉત્તમ કૂળમાં જન્મીને ઉત્તમ સંયમ અવસ્થામાં આવી આવાં તુચ્છ કે કરા છે ? આવા પ્રકારની ફોજના ४श्ती, मुत्सित शण्डो ( भेयां) मोबीने तेना दोष लडेर रती ४२ती निन्दन । કરવા લાગી. હાથ માં માઢિથી ચાળા थाडी अथभान उरती खिसना કરવા લાગી. ગુરૂજનાની પાસે તેના દાષા ખુલ્લા કરીને તિરસ્કારરૂપે મહંળા
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समक्षं दोषाऽऽविष्करणपूर्वकं तिरस्कुर्वन्ति, अभीक्ष्णं २ वारंवारम् एतमा पुत्रादिलालनादिविषयं निवारयन्ति-अवरुन्धन्ति । ततः खलु तस्याः सुभद्राया आर्यायाः श्रमणीमिनिग्रन्थीमिः हिल्यमानाया यावत् अभीक्ष्णम् २ एतमथै निवार्यमाणाया अयमेतद्रूप वक्ष्यमाणलक्षण: आध्यात्मिकः अन्त:करणगतः संकल्पो यावत् समुदपद्यत । अनपट्टिका अविद्यमानोऽपघट्टकोतिरस्कार रूप 'गर्हणा ' करती हैं और वे बालक बालिकाओं आदिका लालन विषय का बार बार निवारण करती है।
उसके बाद उन सुव्रता आदि आर्याओंके द्वारा पूर्वोक्त प्रकारसे हीलना निन्दना आदि करनेपर तथा वारम्वार निवारण करनेपर उस सुभद्रा आर्याके अन्त:करणमें इस प्रकारका विचार उत्पन्न हुआ कि 'जब मैं अपने घरमें थी तो स्वतंत्र थी, जब मैं घर छोडकर मुण्डित हो प्रजित हो गई तबसे मैं पराधीन हूँ। पहले ये श्रमण निर्ग्रन्थिया मेरा आदर करती थी और मेरे साथ प्रेमका बर्ताव करती थीं, पर आज ये न मेरा आदर ही करती हैं और न प्रेमका वर्ताव ही करती हैं, अपितु ये सर्वदा मेरी निन्दा करती रहती हैं। इसलिये मुझे उचित है कि प्रातःकाल होते ही इन सुव्रता आर्याओंको छोडकर अलग उपाश्रयमें जाकर उतरूँ। ऐसा કરતી વારંવાર પુત્ર આદિના લાલન વિષયનું નિવારણ કરે છે.
सुनता माहि भायमान पतारे होलना-निन्दना माह ४२વાથી અને નિવારણ (મનાઈ) કરવામાં આવતાં તે સુભદ્રા આર્યાના અંત:કરણમાં એ વિચાર ઉત્પન્ન થયે કે “જ્યારે હું મારે ઘેર હતી ત્યારે સ્વતંત્ર હતી. હવે જ્યારે ઘર છેડી મુંડિત થઈ પ્રવજિત થઈ, ત્યારથી હું પરાધીન છું. પહેલાં આ શ્રમણ નિર્ગન્ધિઓ મારે આદર કરતી હતી અને મારા સાથે પ્રેમને વત્તા કરતી હતી. પણ આજે તે નથી મારો આદર કરતી કે નથી મારી સાથે પ્રેમ વર્તાવ કરતી. ઉલટી તે હમેશાં મારી નિન્દા કર્યા કરે છે. માટે સવાર પડતાં જ આ સુત્રતા આર્યાએને છોડી દઈ કે જુદા ઉપાશ્રયમાં ઉતરું એ મારા માટે
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सुन्दरबोधिती टीका वर्ग ३ अभ्य. ४ बहुपुत्रिका देवी
३५७
यदृच्छया प्रवर्त्तमानाया हस्तग्रहणादिना निवर्तको यस्याः सा तथा, स्वच्छन्दपत्ता, पार्श्वस्था पार्श्वे - साधुगुणानामेकतः = साधुगुणेभ्यः पृथगित्यर्थः तिष्ठतीति तथा, अवसन्ना - सामाचारीपालने अवसीदति खेदमनुभवतीति तथा, कुशीला - कु- कुत्सितं उत्तरगुणप्रतिसेवनया संज्वलनकषायोदयेन वा दृषि तत्वात् शीलं यस्याः सा तथा संसक्ता = गृहस्थादिप्रेमबन्धनेन सामाचारी
9
विचार कर सूर्योदय होते ही सुत्रता आर्याओंको छोडकर वह सुभद्रा आर्या निकल गयी और अलग उपाश्रयमें जाकर अकेली ही रहने लगी। उसके बाद वह सुभद्रा आर्या गुरुणी आदिके द्वारा रुकावट न होनेके कारण स्वच्छन्द मति हो गृहस्थोंके बच्चोंसे पूर्ववत् व्यवहार करने लगी ।
उसके बाद वह सुभद्रा आर्या पार्श्वस्था = साधुके गुणोंसे दूर हो, पार्श्वस्थविहारिणी हो गयी, इसी प्रकार अवसन्न = सामाचारी पालनमें खिन्न हो अवसन्न विहारिणी हो गयी । और उत्तर गुणमें दोष लगानेसे तथा संज्वलन कषायके उदयसे कुशीला हो कुशील विहारिणी हो गई और संसक्ता - गृहस्थ आदिके साथ प्रेम बन्धन करनेके कारण सामाचारीमें शिथिलतासे प्रवृत्त हो संसक्तविहारिणी हो गयी,
ઉચિત છે. એમ વિચાર કરી સૂર્યોદય થતાં જ સુત્રતા આર્યોએને છોડીને તે સુભદ્રા આર્ચો નીકળી પડી અને જુદા ઉપાશ્રયમાં જઈ એકલી જ રહેવા લાગી. ત્યાર પછી તે સુભદ્રા આર્યો ગુરૂણી આદિને અંકુશ ન રહેવાથી સ્વચ્છન્દ્વચારિણી થઈ ગૃહસ્થાનાં ખાળકો સાથે આગળના જેવા વ્યવહાર કરવા લાગી.
ત્યાર પછી તે સુભદ્રા આર્યો પાવસ્થ થઇસાધુના ગુણેાથી દૂર થઈ પાવ સ્થ વિહારિણી થઇ. આ પ્રકારે અવસન્ન થઈ=સામાચારી પાલનમાં ખિન્ન થઇ અવસન્ન વિહારિણી અની. કુશીલ થઈ અને ઉત્તરગુણુમાં દોષ લાગવાના કારણે તથા સંજવલન કષાચાના ઉદયથી કુશીલા થઈ કુશીલ વિહારિણી થઇ, અને સસક્તા =ગૃહસ્થ વગેરેની સાથે પ્રેસ અન્ધન કરવાના કારણથી સામાચારીમાં
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-३५४
३ पुष्पितासत्र शिथिलीकरणपूर्वकं प्रवृत्ता, यथाच्छन्दा-स्वामिभायपूर्वकस्वमतिकल्पितमार्गे प्रवृत्ता । शेषं सुगमम् ॥ ५ ॥
यथाच्छंदा अपने अभिप्रायसे कल्पित मार्गमें प्रवृत्त हो यथाच्छन्दविहारिणी हो गयी। इस प्रकार बहुत वर्षों तक उसने श्रामण्य पर्यायका पालन किया । अन्तमें अर्धमासिकी संलेखना द्वारा अपनी आत्माको सेवित कर तीस भक्तोंको अनशन द्वारा छेदन कर अपने उत्तरगुण प्रतिसेवनरूप पाप स्थानकी आलोचना और प्रतिक्रमण नहीं करके काल अवसरमें कालकर सौधर्म कल्पके बहुपुत्रिका विमानमें उपपात सभाके अन्दर देवशयनीय शय्यामें देवदूष्य वस्त्रोसे आच्छादित जघन्य अंगुलके असंख्यातवें भागमात्र अवगाहनावाली बहुपुत्रिका देवी होकर उत्पन्न हुई। उसके बाद यह बहुपुत्रिकादेवी भाषापर्याप्ति मनःपर्याप्ति भादि पाँच प्रकारकी पर्याप्तिसे पर्याप्त अवस्थाको प्राप्त कर उत्कृष्ट सात हाथकी अवगाहनावाली देवी होकर देवअवस्थामें विचरने लगी।
શિથિલ પ્રવૃત્તિવાળી થઈ=સંસક્તવિહારિણી થઈ ગઈ. યથાછન્દા=પિતાની મરજીમાં આવે તે કલ્પિત માર્ગમાં પ્રવૃત્ત થઈ=પાછન્દ વિહારિણી થઈ. આ પ્રકારે ઘણાં વર્ષો સુધી તેણે દીક્ષા પર્યાયનું પાલન કર્યું. આખરે અર્ધમાસિકી સંલેખનાથી પિતાના આત્માને સેવિત કરીને ત્રીશ ભક્તોનું અનશન દ્વારા છેદન કરી પિતાના ઉત્તરગુણ પ્રતિસેવનારૂપ પામસ્થાનની આલોચના તથા પ્રતિક્રમણ ન કરતાં કાલઅવસરમાં કોલ કરી સૌધર્મ કલ્પના બહુપુત્રિકા નામે વિમાનમાં ઉપપાત સભાની અંદર દેવશયનીચ શય્યામાં દેવદૂષ્ય વસ્ત્રોથી આચ્છાદિત જઘન્ય અંગુલના અસંખ્યાતમાં ભાગ માત્ર (અવગાહના) વાળી બહુપત્રિકા દેવી થઈને ઉત્પન્ન થઈ. ત્યાર પછી જન્મતી વખતે આ બહુપુત્રિકા દેવી ભાષાપર્યાપ્તિ મનપર્યાપ્તિ આદિ પાંચ પ્રકારની પર્યાપ્તિથી પર્યાપ્તિ અવસ્થાને પામી ઉત્કૃષ્ટ-સાત હાથની અવગાહનાવાળી
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दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अभ्य. ४ बहुपुत्रिका देवी
मूलम्
बहुपुत्तिया णं भंते ! देवीए केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि पलिओ माई ठिई पण्णत्ता । बहुपुत्तिया णं भंते ! देवी ताओ
३५९
छाया
बहुपुत्रिकाया भदन्त ! देव्याः कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! चतुः पल्योपमा स्थितिः प्रज्ञप्ता । बहुपुत्रिका खलु भदन्त ! हे गौतम! बहुपुत्रिकादेवी इस प्रकार अपनी दिव्य देव ऋद्धि आदिसे यावत् समन्वित हुई है।
भदन्त ! किस कारणसे इसका नाम बहुपुत्रिका हुआ ?
हे गौतम ! बहुपुत्रिकादेवी जब-जब देवराज इन्द्रके पास जाती है तब-तब वह बहुत से लडके लडकियोंकी और बच्चे बच्चियोंकी विकुर्वणा करती है । विकुर्वणा करनेके बाद जहाँ देवताओंके राजा इन्द्र है वहाँ आती है, और देवताओंके राजा इन्द्रको अपनी दिव्य ऋद्धि, दिव्य देव ज्योति और दिव्य तेजको दिखलाती है । 'हे गौतम ! इसलिये यह बहुपुत्रिका देवी कहलाती है 11 9 11
હે ગૌતમ ! અહુપુત્રિકા દેવી આ પ્રકારે પેાતાની દિવ્ય દેવ ઋદ્ધિથી 'समन्वित ( परिपूर्य ) थ छे.
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હે ભદન્ત ! કયા કારણથી તેનું નામ બહુપુત્રિકા પડ્યું ?
હે ગૌતમ ! બહુ પુત્રિકા દૈવી જ્યારે જ્યારે દેવાના રાજા ઇન્દ્રની પાસે જાય છે ત્યારે ત્યારે તે ઘણાં છે।કરા-છેકરી તથા ખાલકો અને ખાળાએની વિધ્રુણા ર્યો પછી જ્યાં દેવતાઓના રાજા ઇન્દ્ર છે ત્યાં આવે છે અને તે દેવતાઓના રાજા ઇન્દ્રને પેાતાની દિવ્ય ઋદ્ધિ દિવ્સ દૈવન્ગેાતિ તથા દિવ્ય તેજ દેખાડે છે. હૈ ગૌતમ ! આ માટે તે બહુપુત્રિકા દેવી કહેવાય છે. (૫).
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३६०
३ पुष्पितावत्र देवलोगाओ आउक्खएणं ठिइक्खएणं भक्क्ख एणं अणंतरं चयं चइत्ता कहि गछिहिइ ? कहिं उववजिहिइ ? गोयमा ! इहेव जंबूदीवे दीवे भारहे वासे विझगिरिपायमूले विभेलसंनिवेसे माहणकुलंसि दारियत्ताए पञ्चायाहिइ । तएणं तीसे दारियाए अम्मापियरो एक्कारसमे दिवसे वितिकते जाव बारसेहिं दिवसेहिं वितिक्कंतेहिं अयमेयारूवं नामधिज्जं करेंति, होउ णं अम्हं इमीसे दारियाए नामधिज्जं सोमा । तएणं सोमा उम्मुक्कबालभावा विणयपरिणयमेत्ता जोव्वणगमणुप्पत्ता रूवेण य जोवणेण य लावण्णेण य उकिहा उकिटसरीरा जाव भविस्सइ । तएणं तं सोमं दारियं अम्मापियरो उम्मुक्कबालभावं विणयपरिणयमित्तं जोव्वणगमणुप्पत्तं पडिकूविएणं सुकणं पडिरूवएणं नियगस्स भायणिजस्स रहकूडयस्स भारियत्ताए दलइस्सइ । सा णं तस्स भारिया भविस्सइ इट्ठा कंता जाव भंडकरंडगसमाणा तेल्लकेला इव सुसंगोविआ चेलपेला (डा) इव सुसंपरिग्गहिया रयणकरंडगओ विव
देवी तस्माद्देवलोकादायुःक्षयेण स्थितिक्षयेण भवक्षयेण अनन्तरं चयं च्युता क गमिष्यति क उत्पत्स्यते ? गौतम ! अस्मिमेव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वष विन्ध्यगिरिपादमूले विभेलसनिवेशे ब्राह्मणकुले दारिकातया प्रत्यायास्यति । ततः खलु तस्या दारिकाया अम्बापितरौ एकादशे दिवसे व्यतिक्रान्ते यावद् द्वादशभिर्दिवसैर्व्यतिक्रान्तैरिदमेतद्रूपं नामधेयं कुरुतः, भवतु अस्माकमस्या दारिकाया नामधेयं सोमा । ततः खलु सोमा उन्मुक्तबालभावा विज्ञकपरिणतमात्रा यौवनमनुप्राप्ता रूपेण च यौवनेन च लावण्येन च उत्कृष्टा उत्कृष्टशरीरा यावद् भविष्यति । ततः खलु तां सोमां दारिकाम् अम्बापितरौ उन्मुक्तबालभावां विज्ञकपरिणतमात्रां यौवनमनुमाप्तां प्रतिकूजितेन शुल्केन प्रतिरूपेण निजकाय भागिनेयाय राष्ट्रकूटकाय भार्यातया दास्यति । सा खलु तस्य भार्या भविष्यति इष्टा कान्ता यावद् भाण्डकरण्डकसमाना तैलकेला इव सुसंगोपिता चेलपेटा इव सुसंपरिगृहीता रत्नकरण्डक
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शुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ४ बहुपुत्रिका देवी
३६१ मुसारक्खिया सुसंगोविया मा णं सीयं जाव मा णं विषिहा रोगातका फुसंतु ।
तए णं सा सोमा माहिणी रहकूडेणं सद्धिं विउलाई भोगभोगाई झुंजमाणी संवच्छरे २ जुयलगं पयायमाणी सोलसेहिं संवच्छरेहिं बत्तीस दारगरूवे पयाइ । तए णं सा सोमा माइणीं तेहिं बहूहिं दारगेहि य दारियाहि य कुमारएहि य कुमारियाहि य डिभएहि य डिभियाहि य अप्पेगइएहि उत्ताणसेज्जएहि य अप्पेगइएहि थणियाएहि य अप्पेगइएहि पीहगपाएहि अप्पेमइएहि परंगणएहि अप्पेगइऐहिं परकममाणेहिं, अप्पेगइएहिं पक्खोलणएहि अप्पेगइएहिं थणं मग्गमाणेहिं अप्येगइएहिं खीरं मग्गमाणेहि अप्पेगइएहिं खिल्लणयं मग्गमाणेहिं अप्पेगइएहिं खज्जग मग्गमाणेहि अप्पेगइएहिं करं मग्गमाणेहिं पाणियं मग्गमाणेहिं हसमाणेहिं रूसमाणेहिं अक्कोस्समाणेहिं अक्कुस्समाणेहि हणमाणेहिं विष्पलायमाणेहिं अणुगम्ममाणेहिं रोवमाणेहिं कंदमाणेहिं विलवमाणोह कूवमाणेहिं उक्कूवमाणेहिं निद्धायमाणेहिं
इव सुसंरक्षिता सुसंगोपिता मा खलु शीतं यावत् मा विविधाः रोगातङ्काः स्पृशन्तु । ततः खलु सा सोमा ब्राह्मणी राष्ट्रक्टेन सार्द्ध विपुलान् भोगभोगान् भुजाना संवत्सरे संवत्सरे युगलं प्रजनयन्ती षोडशभिः संवत्सरैः द्वात्रिंशद् दारकरूपाणि प्रजनयति । ततः खलु सा सोमा ब्राह्मणी तैर्बहुमिविश्व दारिकाभिश्च कुमारैश्च कुमारिकाभिश्च डिम्भैश्च डिम्भिकाभिश्च अप्येककः उत्तानशयकैश्च, अप्येककैः स्तनितेश्च अप्येककैः स्पृहकपादैः, अप्येककैः पराङ्गणकः, अध्येकवैः पराक्रममाणैः, अप्येककैः प्रस्खलनकैः, अप्येककैः स्तनं मृग्यमाणैः, अप्येककैः क्षीरं मृग्यमाणैः, अप्येककैः खेलनकं मृग्यमाणैः, अध्येककैः खाधकं मृग्यमाणैः, अप्येककैः कूर (भक्त) मृग्यमाणैः, पानीयं मृग्यमाणैः, हसद्भिा, रुष्यद्भिः, आक्रोशद्भिः, आक्रुश्यद्भिः, नदिः, इन्यमानैः, विमलपद्भिः, अनुगम्यमानैः, रुदद्भिः, क्रन्दद्भिः, विलपद्भिः,
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३६२
३ पुष्पितासा पलंबमाणेहिं. दहमाणेहिं दंसमाणेहिं वममाणेहिं छेरमाणेहिं मुत्तमाणेहि मुत्तपुरीसवमियसुलित्तोवलित्ता मइलवसणपुचडा जाव असुइबीभच्छा परमदुग्गंधा नो संचाएइ रटकूडेणं सद्धिं विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणी विहरित्तए ॥ ६ ॥
कूजभिः, उत्कूजभिः, निर्धावद्भिः, प्रलम्बमानैः, दहद्भिः, दशभिः, वद्भिः , छेरभिः , मूत्रयद्भिः , मूत्रपुरीषवान्तमुलिप्तोपलिप्ता मलिनवसनपुच्चडा यावद् अशुचिबीभत्सा परमदुर्गन्धा नो शक्नोति राष्ट्रकूटेन साई विपुलान् भोगभोगान् भुञ्जाना विहर्तुम् ॥ ६ ॥
टीका'बहुपुत्रियाएणं इत्यादि हे भदन्त ! बहुपुत्रिकाया देव्याः कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? हे गौतम ! चतुःपल्योपमा स्थितिः प्रज्ञप्ता । हे भदन्त ! बहुपुत्रिका देवी तस्माद् देवलोकाद् आयुःक्षयेण-आयुर्दलिकनिर्जरणेन देवलोकवासोचितावधिव्यतिगमेन स्थितिक्षयेण-आयुःकर्मणः
'बहुपुत्रियाएण' इत्यादिहे भदन्त ! बहुपुत्रिकादेवीकी स्थिति कितने कालकी है ? . हे गौतम ! बहुपुत्रिकादेवीकी स्थिति चार पल्योपमकी है !
हे भदन्त ! वह बहुपुत्रिकादेवी आयुक्षय भवक्षय और स्थितिक्षयके बाद देवलोकसे च्यवकर कहाँ जायगी ? कहाँ उत्पन्न होगी?
'बहुपुत्तियारणं' त्यादि હે ભદન્ત ! બહપુત્રિકા દેવીની સ્થિતિ કેટલા સમયની છે ? હે ગૌતમ ! બહુપુત્રિકા દેવીની સ્થિતિ ચાર પલ્યોપમ છે.
હે ભદન્ત ! તે બહુપુત્રિકા દેવી આયુક્ષય, ભવક્ષય તમ સ્થિતિક્ષય પછી देवभiथी यवीर यां ? ज्यां नम देश ?
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सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अभ्य. ४ बहुपुत्रिका देवी स्थितिनिर्जरणेन भवक्षयेण-देवभवकारणभूतकर्मणां गत्यादीनां निर्जरणेन क-कुत्र उत्पत्स्यते ?=जनिष्यते ? गौतम ! अस्मिन्नेव जम्बूद्वीपे तन्नामके द्वीपे-मध्यजम्बूद्वीपे भारते तन्नामके वर्षे विन्ध्यगिरिपादमूले विन्ध्याचलाधस्तले विमेलसंनिवेशे विभेलनामकग्रामविशेषे ब्राह्मणकुले ब्राह्मणवंशे दारिकातया-पुत्रीत्वेन प्रजनिष्यते-समुत्पत्स्यते । ततः जननानन्तरं खलु तस्या दारिकाया अम्बापितरौ-मातापितरौ एकादशे दिवसे दिने व्यतिक्रान्ते व्यतीते यावत् द्वादशभिर्दिवसः इदमेतद्रूपं वक्ष्यमाणलक्षणं नामधेयं कुरुतः, अस्माकमस्याः दारिकायाः पुत्र्याः ‘सोमा' इति नामधेयं नाम भवतु । ततः तदनन्तरम् खलु-निश्चयेन सोमा उन्मुक्तबालभावा-व्यतीतवाल्यावस्था, विज्ञकपरिणतमात्रा-विषयमुखाभिज्ञा यौवनम्-युवतिदशाम् अनुप्राप्ता अनु-बाल्यात् पश्चात् प्राप्ता, रूपेण आकृत्या, च=पुनः, यौवनेन-तारुण्येन, च= पुनः लावण्येन-मुक्ताफलगतच्छायातरलतासदृशशरीरावयवान्तःप्रविष्टचाकचिक्येनउक्तं च -
हे गौतम ! यह बहुपुत्रिकादेवी जम्बूद्वीप नामक द्वीपके अन्दर भरत क्षेत्रमें विन्ध्यपर्वतके समीप विभेल संनिवेश ( गाम ) में ब्राह्मणकी कन्या होकर जन्म लेगी। उसके बाद उसके माता पिता ग्यारह दीन बीतनेपर बारहवे दिन अपनी लडकीका नाम सोमा रखेंगे । वह सोमा बालभाव छोडती हुई विषय सुखके परिज्ञानके साथ यौवनावस्था में प्रवेशकर रूप-यौवन-लावण्यसे उत्कृष्ट और उत्कृष्ट शरीरवाली होगी।
હે ગૌતમ! આ બહુપુત્રિકા દેવી જમ્બુદ્વીપની અંદર ભત ક્ષેત્રમાં વિધ્ય પર્વતની પાસે વિભેલ (સન્નિવેશ) ગામમાં બ્રાહ્મણની કન્યા થઈને જન્મ લેશે. ત્યાર પછી તેનાં માતાપિતા અગીયાર દિવસ વીતી ગયા પછી બારમે દિવસે પિતાની છોકરીનું નામ સેમા રાખશે. તે માં બાલભાવ છેડી વિષય સુખનાં પરિજ્ઞાનવાળી યૌવન અવસ્થામાં પ્રવેશ કરશે ત્યારે રૂપયૌવન-લાવણ્યથી ઉત્કૃષ્ટ અને ઉત્કૃષ્ટ શરીરવાળી થશે.
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कहते
" मुक्ताफलेषुच्छायायास्त रलखमिवान्तरे । प्रतिभाति यदङ्गेषु तल्लावण्यमिहोच्यते ॥ १ ॥ ” उत्कृष्टा=उत्कृष्टशरीरा=मनोहरकाया यावद् भविष्यति, ततः = परिणययोग्यतामाप्रत्यनन्तरं खलु तां सोमां दारिकाम् अम्बापितरौ = उन्मुक्तवालमावां विज्ञकपरिणतमात्रां यौवनमनुप्राप्ताम् एतेषां व्यापात्रैव सूत्रे प्रानुपपादिता, प्रतिकूजितेन = स्वीकृतितया प्रतिभाषितेन शुल्केन देयद्रव्येण प्रचुराभरणादिना विभूषितां कृत्वेति शेषः, प्रतिरूपेग अनुरुलेन मियवचनेन 'योग्य' : मितिप्रभृतिना वचसा, निजकाय= स्वकीयाय भागिनेयाव = भगिनीपुत्राय राष्ट्रकूटाय भार्यातया= स्त्रीत्वेन दास्यति । सा = सोमा खलु तस्य = राष्ट्रकूटस्य भार्या भविष्यति, इष्टा = बल्लभा कान्ता कमनीयत्वात् यावच्छदेन, प्रिया
=
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३ पुष्पितासूत्र
गौर आदि सुन्दर वर्णवाले आकारको ' रूप' कहते हैं । मोतीके अन्दरकी चमक के समान जो शरीरकी चमक हो उसे
6
I
प्रविष्ट उस
उसके बाद माता पिता, बाल्यावस्था पार 4 वनावस्था में सोमा बालिकाको विषय सुखसे अभिज्ञ जानकर निश्चित देने योग्य द्रव्य और प्रियवचन के साथ अपने भानजे राष्ट्रकूटके साथ उसका विवाह कर देंगे । वह सोमा उसकी इष्टा कान्ता अर वल्लभा होगी, और वह उस सोमाकी आभूषणके
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-
लावण्य
ગોર આદિ સુંદરવર્ણ વાળા આકારને ‘ રૂપ’ કહે છે. મેાતીની અંદરની ચમકના જેવી શરીરની ચમક થાય તેને લાવણ્ય કહે છે.
ત્યાર પછી માતાપિતા, માલ્યાવસ્થા વીતી ગયા પછી યોવન અવસ્થામાં આવેલી તે સામા ખાલિકાને વિષય સુખથી અભિજ્ઞ ( જાણીતી ) થયેલી જાણી નિશ્ચિત દેવાયેાગ્ય દ્રવ્ય તથા પ્રિય વચન સાથે પોતાના ભાણેજ રાષ્ટ્રકૂટની સાથે તેના વિવાહ કરશે તે સામા તેની ઈષ્ટા કાંતા અને વલ્લભા થશે અને તે,
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सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ४ बहुपुत्रिका देवी
३६५ सदाप्रेमविषयत्वात् , मनोज्ञा सुन्दरखाव एवं 'मणामा संमया अणुमया' इत्यादि दृश्यम् । एतद्वथाख्या पूर्व प्रतिपादिता । भाण्डकरण्डकसमाना भूषणादिकरण्डकवत् , तैलकेला-तैलधानी सौराष्ट्रदेशमसिद्धो मृन्मयतैलपात्रविशेषः, तद्वत् सुसंरक्षिता=अतितरां परिपालिता, सुसंगोपिता-यत्नेन रक्षिता चेलपेटा इव वस्त्रमञ्जूषावत् सुसंपरिगृहीता=मुष्ठु परिग्रहत्वेन संरक्षिता। रत्नकरण्डकवत् इन्द्रनीलादिरत्नमञ्जूषावत् सुसंगोपिता च, शीतं शीतबाधाः यावत् विविधाः नानाप्रकाराः रोगातङ्काः रोगाः चिरघातिनः, आतङ्काः सद्योघातिनः, इमां मा खलु-नैव स्पृशन्तु आश्रयन्तु । ततः खलु सा सोमा ब्राह्मणी राष्ट्रकूटेन=साद्ध विपुलान् बहून् भोगभोगान्-विषयभोगान् भुञ्जाना संवत्सरे संवत्सरे-प्रतिवर्ष युगलं-सन्तानयुग्मं प्रजनयन्ती-प्रसूयमाना षोडशभिः संवत्स :- वर्षेः द्वात्रिंशद्-द्वयधिकत्रिंशद् दारकरूपान् बालककरण्डकके समान, तेलके सुन्दर बर्तनके समान यत्नपूर्वक रक्षा करेगा, वस्त्रोंकी पेटी के समान उसको अच्छी तरह रखेगा और इन्द्रनील आदि रत्नकरण्डकके समान प्राणोंसे अधिक महत्व देकर रक्षा करेगा, और उसको वात पित्त आदि रोग और आतङ्क न स्पर्श कर सकें इस प्रकार सर्वदा रक्षाको चेष्टा करता रहेगा। उसके बाद वह सोमा दारिका राष्ट्रकूट के साथ विपुल भोगोंको भोगती हुई प्रत्येक वर्षमें एक २ सन्तान-युगलको जन्म देगी। और वह सोलह वर्षमें बत्तीस बच्चोंकी माँ
સમાની આભૂષણના કરંડકની પેઠે, તેલનાં સુંદર વાસણની પેઠે યત્નપૂર્વક રક્ષા કરશે. વસ્ત્રોની પેટીની પેઠે તેને સારી રીતે રાખશે અને ઈન્દ્ર નીલ આદિ રત્ન કરંડકની પેઠે પ્રાણથી પણ વધારે મહત્વ દઈને તેની રક્ષા કરશે. તથા તેને વાત પિત્ત આદિ રેગ તથા આતંક પણ સ્પર્શ ન કરી શકે એવી રીતે હમેશાં રક્ષા કરવાની વ્યવસ્થા કરતો રહેશે. ત્યાર પછી તે સેમા દારિકા રાષ્ટ્રકૂટની સાથે વિપુલ ભેગેને ભગવતી દર વરસે એક એક સંતાનનાં જેઠલાંને જન્મ દેશે અને તે સેળ વર્ષમાં બત્રીસ બાળક બાળકીઓની, મા થઈ જશે. પછી નાનાં મોટાં
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३ पुष्पितासूत्र: 'लक्षणान् , अत्र दारिकाश्च दारकाचेत्यर्थे एकशेषेण दारिका शब्दस्य लोपे रूपशब्देन समासे पुत्रीपुत्ररूपान् इति तदर्थः, प्रजनयति-उत्पादयति । ततः खलु सा सोमा ब्राह्मणी तैः बहुभिः अनेकैः दारकैः-पुत्रैः दारिकाभिः पुत्रीभिः बहुकालिकोभिः, कुमारैः बहुतरकालिकैः पुत्रः, कुमारिकाभिः बहुतरकालिकोभिः पुत्रीभिः, डिम्भैः अल्पकालिकपुत्रैः, डिम्भिकाभिा अल्पकालिकीभिः पुत्रीभिश्च, अप्येककैः उत्तानशयकैः ऊर्ध्वमुखशयनशीलैः, अप्येककैः स्तनितैः चीत्कारशब्दितैः, अप्येककैः स्पृहकपादैः-स्पृहन्ति= गमनं वाञ्छन्ति, इति स्पृहकाः पादाः चरणा येषामिति ते तथा गमनेच्छुचरणाः, गमनोत्सुकपादा इत्यर्थः, अत्र गमनेच्छायाश्चेतनवृत्तित्वेऽपि पादेवारोपात् 'स्थाली पचति' स्थाल्या पच्यते, इत्यादिवत् साधुता बोध्या। उक्तश्व
“वस्तुतस्तदनिर्देश्यं नहि वस्तु व्यवस्थितम् । ... स्थाल्या पच्यत इत्येषा, विवक्षा दृश्यते यतः ॥” इति अप्येककैः पराङ्गणकैः परं स्वकीयादन्यत् अङ्गणं चत्वरं गम्यत्वेन येषां ते तथा, अन्याङ्गणगमनशीलैः, अथवा पराश्चनकैरितिच्छाया, परम्-उत्कृष्टम् अञ्चनं=
होजायगी बाद उसके वह सोमा ब्राह्मणी अपने उन छोटे बड़े बच्चे बच्चियोंसे तंग आजायगी। उसके उन बच्चोंमें कोई अल्पकालका जन्मा हुआ बच्चा उत्तान होकर सोता रहेगा, कोई चीत्कार मार कर रोता रहेगा, कोई चलनेकी इच्छा करेगा, कोई दूसरोंके आङ्गनमें चला जायेगा अथवा कोई बच्चा अच्छी तरह चलेगा, कोई बच्चा
બાળકેથી તે તેમાં બ્રાહ્મણ તંગ થઈ જશે. તેનાં એ બચ્ચાંઓમાં કઈ થડાજ કાળમાં જન્મેલાં બચ્ચાં ઉત્તાન થઈને સુઈ રહેશે, કઈ રાડ પાડીને રેવા લાગશે, કેઈ ચાલવાની ઈચ્છા કરશે, કઈ બીજાનાં ફળીયામાં જતું રહેશે, અથવા કઈ બચ્ચું સારી રીતે ચાલશે. કેઈ બાળક ઉત્સાહ કરશે, કઈ પડશે, કેઈ બચ્યું
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३६७
सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ४ बहुपुत्रिका देवी गमनं येषां ते तथा, सम्यग्गमनवद्भिः , अप्येककैः पराक्रममाणैः-उत्सहमानैः, अप्येककैः प्रस्खलनकैः प्रकृष्टनिपतनवद्भिः , अप्येककैः स्तनं पानाय मातुः कुचं मृग्यमाणैः अन्वेषयद्भिः, अप्येककैः क्षीरं -दुग्धं मृग्यमाणैः, अप्येककैः खेलनक-खेलत्यनेनेति खेलनं तदेव खेलनक-क्रीडासाधनं कन्दुक-लगुडादिकं मृग्यमाणैः, अप्येककैः खाधकं खाद्यमेव खाधकं खाद्यवस्तु 'लपनश्रीमोदकप्रभृति मृग्यमाणैः, अप्येककैः करं–भक्तम् ( ओदनं ) मृग्यमाणैः, पानीयं जलं मृग्यमाणैः, हसद्भिः, रुष्यद्भिः, रोपं कुर्वद्भिः, आक्रोशद्भिः= क्रुध्यद्भिः आक्रुश्यद्भिः, स्वस्ववस्तु ग्रहीतुं कलहं कुर्वद्भिः, प्रद्भिः ताड्यद्भिः, हन्यमानैः अन्येन ताड्यमानः, विमलपद्भिः विरुद्धं वदभिः, अनु. गम्यमानैः पलायनादिकाले पश्चाद् गम्यमानैः, रुदभिः शब्दायमानैः,क्रन्दभिः चीत्कुर्वद्भिः,विलपभिः आर्तस्वरं कुर्वाणैः, कूजभिः= स्फुददधरपूर्वकमप्रकटशब्दं कुर्वभिः, उत्क्रूजभिः उच्चैः शब्दं कुर्वाणैः पूत्कुर्वभिः, निद्राभिः
उत्साह करेगा, कोई गिरेगा, कोई बच्चा स्तनको ढूंढेगा, कोई दूध चाहेगा, कोई बच्चा खाना मांगेगा, कोई भातके लिये हठ करेगा, कोई पानीका हठ करेगा, कोई हंसता रहेगा कोई रूष्ट होता रहेगा, कोई क्रोध करता रहेगा और कुछ बच्चे अपनी २ वस्तुके लिए लड़ते रहेंगे कोई किसीको मारता रहेगा। कोई किसीको मार खाता रहेगा, कोई बच्चा अण्डवण्ड बकेगा अर्थात् व्यर्थका बकवाद-शोर गुल करेगा। कोई किसीके पीछे २ दौडता रहेगा, कोई रोता रहेगा, कोई बच्चा
સ્તનને શોધવા લાગશે, કઈ દૂધ માગશે, કઈ બચ્યું ખાવાનું માગશે, કઈ ભાતને માટે હઠ કરશે, કઈ પાણી માટે હઠ કરશે, કોઈ હસતું રહેશે, કોઈ ગુસ્સે થતું રહેશે, કઈ રીસાઈ જાશે, કેઈ બચ્ચાં તે પોતપોતાની ચીજ માટે લડતાંજ રહેશે, અને કોઈ કોઈને મારતાં રહેશે, કઈ તે કઈને માર ખાતાં રહેશે, તે કઈ બચ્ચાં જેમ તેમ બકશે અર્થાત્ વ્યર્થ બકવાદ– શેરબકેર કરી મૂકશે, કઈ કોઈની પાછળ પાછળ દેડયા કરશે, કે રેતાં રહેશે, કઈ પ્રલાપ
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३६८
३ पुष्पिकासा
"
निद्रां सेवमानैः (स्वपद्मि) प्रलम्बमानैः = वस्त्राञ्श्चलं समालम्बमानैः दहद्भिः = ज्वलद्भिः, दशभिः = दन्तैः कृन्तभिः वमद्भिः = उद्विलद्भिः ( मच्छर्दयद्भिः ) छेरद्भिः=वारंवारं हृदमानैः, मूत्रयद्भिः = मूत्रं कुर्बभिः मूत्रपुरीषवान्तमुलिसोपलिता प्रस्राव - विष्ठोद्गीर्णौतमोता, मलिनवसनपुचडा = मलयुक्तवस्त्रैः पुचडा = निश्शोभा कान्तिहीनेत्यर्थः, यावद् अशुचिबीभत्सा - अशुचित्वेन नितरां दुर्निंरीक्षणीया ( घृणिता) परमदुर्गन्धा - अतिदुर्गन्धयुक्ता, राष्ट्रकूटेन स्वपतिना सार्द्ध विपुलान्- बहून् भोगभोगान् भुज्यन्ते भोगविषयीक्रियन्त इति भोगाः शब्दादयो विषयास्तेषां भोगा : = सेवनानि तान, तथा भुञ्जाना = सेवमाना विहर्त्तुम् = अवस्थातुं नो शक्नोति न प्रभवति ॥ ६ ॥
कूजता - अव्यक्त शब्द
सोता रहेगा, कोई
प्रलाप करता रहेगा, कोई आर्तस्वरसे रोयेगा, कोई बच्चा करता रहेगा, कोई जोरसे अव्यक्त शब्द करता रहेगा, कोई कंपडेका अंचल पकडकर लटकता रहेगा, कोई आगसे जल जायगा, कोई दाँतसे काटता रहेगा, कोई वमन करता रहेगा, कोई पाखाना करता रहेगा, कोई मूत्र करता रहेगा । इसलिये उन बच्चोंका पेशाब पाखाना वमनसे भरी हुई तथा मैले कपडोंसे कान्तिहीन, यावत् अशुचि, बीभत्स, अत्यन्त दुर्गन्धित हो राष्ट्रकूटके साथ अपने विपुल भोगोंको भोगने में समर्थ न हो सकेगी
॥ ६॥
કરતાં રહેશે, કાઇ આ સ્વરથી રૂદન કરશે, કાઇ ખચ્ચાં ક્રૂજતા ( ટૌકા કરતાં ) અવ્યક્ત ન સમજાય તેવા શબ્દ એલ્યા કરશે. કાઇ જોરથી અવ્યક્ત શબ્દ કર્યો કરશે, કાઈ સુતાં રહેશે, કાઇ કપડાંના છેડા પકડીને લટકયા કરશે, ક્રાઇ અગ્નિમાં અળી જાશે, કેાઈ દાંત વડે કરડવા લાગશે, કોઈ ઉલટી કરશે, કાઇ ઝાડે ફરત i રહેશે, કાઇ સુતો કરશે. આ માટે તે ખચ્ચાંના પેશાબ-પાયખાના–ઉલ્ટીથી ભરેલી મેલાં કપડાંથી કાન્તિહીન એટલે અશુચિ, ખીભત્સ અત્યન્ત દુર્ગન્ધિત થઇ રાષ્ટ્રકૂટની સાથે પેાતાના વિપુલ ભાગ ભાગવવામાં સમર્થ નહિ થઇ શકશે. (૬).
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सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. ४ बापुत्रिका देवी
३६९
मूलम्
तएणं तीसे सोमाए माहणीए अण्णया कयाइ पुन्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुटुंबजागरियं जागरमाणीए अयमेयारूवे जाव समुपन्जित्था-एवं खलु अहं इमेहिं बहाह दारगेहि य जाव डिभियाहि य अप्पेगइएहि उत्ताणसेज्जएहि य जाव अप्पेगइहिं मुत्तमाणेहिं दुज्जाएहिं दुजम्मएहिं हयविष्पहयभग्गेहिं एगप्पहारपडिएहिं जाणं मुत्तपुरीसवमियमुलित्तोवलित्ता जाव परमदुभिगंधा नो संचाएमि रहकूडेण सद्धि जाव भुंजमाणी विहरित्तए । तं धन्नाओ ण ताओ अम्मयाओ जाव जीवियफले जाओणं वंझाओ अवियाउरीओ जाणुकोप्परमायाओ सुरमिसुगंधगंधियाओ विउलाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुजमाणीओ विहरंति, अहं णं अधन्ना अपुष्णा अकयपुष्णा नो संचाएमि रहकूडेणं सद्धि विउलाई जाव विहरित्तए ।
छाया
ततः खलु तस्याः सोमाया ब्राह्मण्या अन्यदा कदाचित् पूर्वरात्रापररात्रकालसमये कुटुम्बजागरिकां जाग्रत्या अयमेतद्रूपो यावत् समुदपद्यतएवं खलु अहमेभिर्बहुभिर्दारकैश्च यावद् डिम्भिकाभिश्च अप्येककैः उत्तानशयकैश्च यावद् अप्येककैमूत्रद्भिः दुर्जातैः दुर्जन्मभिः हतविप्रहतभाग्यैश्च एकमहारपतितैः या खलु मूत्रपुरीषवमितमुलिप्तोपलिप्ता यावत् परमदुरभिगन्धा नो शनोमि राष्ट्रकूटेन सार्द्ध यावद् भुञ्जाना विहर्तुम् । तद् धन्याः खल ता अम्बिका यावद् जीवितफलं याः खलु वन्ध्या अविजननशीला जानुकूपरमातरः सुरभिसुगन्धगन्धिका विपुलान् मानुष्यकान् भोगभोगान् भुञ्जाना विहरन्ति, अहं खलु अधन्या अपुण्या नो शक्नोमि राष्ट्रकूटेन सार्दू विष्लान् यावद् विहर्तुम् ।
४७
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६७०
३ पुष्पितास्त्र तेणं कालेणं २ सुव्वयाओ नाम अजाओ इरियासमियाओ जाव बहुपरिवाराओ पुव्वाणुपुग्विं जेणेव विभेले संनिवेसे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गरं जाव विहरति । तएणं तासि सुन्बयाणं अजाणं एगे संघाडए विभेले सनिवेसे उच्चनीय जाव अडमाणे स्ट्रकूडस्स गिहं अणुपविढे । तएणं सा सोमा माहणी ताओ अजाओ एजमाणीओ पासइ, पासित्ता हतुद्वा० खिप्पामेव आसणाओ अब्भुढेइ, अभुट्टित्ता सत्तटुपयाइं अणुगच्छइ, अणुगच्छित्ता वंदइ नमसइ, विउलेणं असण ४ पडिलाभेइ, पडिलाभित्ता एवं वयासी-एवं खलु अहं अजाओ रहकूडेणं सद्धिं विउलाई जाव संवच्छरे २ जुगलं पयामि, सोलसहिं संवच्छरेहिं बत्तीसं दारगरूवे पयाया।
तएणं अहं तेहिं बहूहिं दारएहि य जाव डिभियाहि य अप्पेगइएहि उत्ताणसिज्जएहिं जाप मुत्तमाणेहिं दुजाएहिं जाव नो संचाएमि रटकूडेणं
तस्मिन् काले तस्मिन् समये सुव्रता नाम आर्या इर्यासमिता यावद् बहुपरिवाराः पूर्वानुपूर्वी यत्रैव वेभेलः सन्निवेशस्तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य यथातिरूपम् अवग्रहं यावद् विहरन्ति । ततः खलु तासां सुव्रतानामार्याणाम् एकः संघाटको वेभेले सनिवेशे उच्चनीच० यावत् अटन् राष्ट्रकूटस्य गृहमनुपविष्टः । ततः खलु सा सोमा ब्राह्मणी ता आर्या एजमानाः पश्यति, दृष्ट्वा हृष्टतुष्टा० क्षिप्रमेव० आसनादभ्युत्तिष्ठति अभ्युत्थाय सप्ताष्टपदानि अनुगच्छति, अनुगत्य वन्दते नमस्यति विपुलेन अशन० ४ प्रतिलम्भयति, प्रतिलम्भ्य एवमवादीत्-एवं खलु अहमार्याः ? राष्ट्रकूटेन सार्द विपुलान् यावत् संवत्सरे २ युगलं प्रजनयामि षोडशभिः संवत्सरैः द्वात्रिंशद् दारकरूपान् प्रजाता।
ततः खलु अहं तैर्बहुभिदारकैश्च यावद् डिम्भिकाभिश्च अप्येक
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मुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अन्य ४ बहुपुत्रिका देवी सद्धिं विउलाई भोगभोगाई झुंजमाणी पिहरित्तए, तं इच्छामि गं अज्जाओ! तुम्हं अंतिए धम्म निसामित्तए । तएणं ताओ अन्जाओ सोमाए माहणीए विचित्रं जाव केवलिपण्णत्तं धम्म परिकहेइ । तएणं सा सोमा माहणी तासिं अजाणं अंतिए धम्मं सोचा निसम्म हतुहा जाव हियया ताओ अज्जाओ वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासीसदहामि गं अज्जाओ ! निग्गंथं पावयणं जाव अब्भुट्टेमि णं अज्जाओ निग्गंथं पावयणं, एवमेयं अजाओ जाव से जहेयं तुम्भे वयह, जं नवरं अज्जाओ ! रहकूडं आपुच्छामि । तएणं अहं देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडा जाव पब्वयामि । अहामुहं देवाणुप्पिए ! मा पडिबंधं । तएणं सा सोमा माहणी ताओ अजाओ वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता पडिविसज्जेइ ॥ ७ ॥
उत्तानशयकैः यावत् मूत्रयद्भिः दुर्जातैः यावद् नो शक्नोमि राष्ट्रकूटेन साई विपुलान् भोगभोगान् भुञ्जाना विहर्तुम् , तदिच्छामि खलु आर्याः ! युष्माकमन्तिके धर्म निशामयितुम् । ततः खलु ता आर्या सोमाय ब्राह्मण्यै विचित्रं यावत् केलिभज्ञतं धर्म परिकथयन्ति । ततः खलु सा सोमा ब्राह्मणी तासामार्याणामन्तिके धर्म श्रुवा निशम्य हृष्टतुष्टा० यावद् हृदया ता आर्या वन्दते नमस्यति, वन्दिता नमस्यिता एवमवादी-श्रद्दधामि खलु आर्याः ! निर्ग्रन्थं प्रवचनम् , इदमेतद् आर्याः ! यावत् यद् यथेदं यूयं वदय, यद् नवरमार्याः ! राष्ट्रकूटमा. पृच्छामि । ततः खलु अहं देवानुपियाणामन्तिके मुण्डा यावत् प्रवजामि । यथासुखं देवानुभिये ! मा प्रतिबन्धम् । ततः खलु सा सोमा ब्राह्मणी ता आर्या वन्दते नमस्सति, वन्दिना नमस्यिता प्रतिविसर्जयति ॥७॥
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३७२
३ पुष्पितासन टीका'तएणं तीसे' इत्यादि-दुर्जातैः-दुष्टं जातं मादुर्भावो येषां ते तथा तैः, अत एव-दुर्जन्मभिः=दुष्ट-कुत्सितं जन्म येषां मम दुःखदायित्वात् ते तथा तैः,
'तएणं तीसे' इत्यादि
उसके बाद एक समय पिछली रातमें कुटुम्बजागरणा करती हुई उस सोमा ब्राह्मणीके आत्मामें इस प्रकारका विचार उत्पन्न होगा कि अहो ! मैं मलमूत्र करनेवाले इन बहुतसे अभागे दुखदायी थोडे २ दिनोमें उत्पन्न होनेवाले, दुर्जन्मा छोटे बडे और नवजात शिशुओंके द्वारा मलमूत्र और वमनसे लिपी-पुती अत्यन्त दुर्गन्धमयी होकर राष्ट्रकूटके साथ सुखका अनुभव नहीं कर पाती हूँ।
___वे माताएँ धन्य हैं और उनका जीवन सफल है, जो बन्ध्या हैं, जिन्हें बच्चा नहीं होता, जो जानुकूपरमाता हैं जो सुगन्ध द्रव्योंसे सुवासित हो मनुष्य सम्बन्धी भोगोंको भोगती हुई विचर रही हैं, मैं अधन्य हूँ, अपुण्य हूँ, जो कि मैं राष्ट्रकूटके साथ विपुल भोगोंको नहीं भोग सकती हूँ।
'तएणं तोसे' त्यादि.
ત્યાર પછી એક સમય પાછલી રાતે કુટુંબ જાગરણ કરતાં તે સામા બ્રાહ્મણીના મનમાં એ વિચાર ઉત્પન્ન થશે કે –અહો ! હું મળમૂત્ર કરવાવાળાં આ ઘણુ કમનશીબ દુઃખદાયી થોડા થોડા દિવસમાં જન્મ લેવાવાળાં દુર્જન્મા નાનાં મોટાં અને નવા જન્મેલા બાળકનાં મળમૂત્ર તથા વમનથી લીંપાયેલ, ખરડાયેલ અત્યંત દુર્ગન્દિમયી બની હોવાથી રાષ્ટ્રકૂટની સાથે સુખનો અનુભવ We alscil 40.
તે માતાઓને ધન્ય છે અને તેમના જીવન સફળ છે કે જે વાંઝણી છેજેને કરૂં થતું નથી, જે જાતુકર્પરમાતા છે, જે સુગંધી દ્રવ્યોથી સુવાસિત થઈને મનુષ્ય સંબંધી ભેગો ભગવતી વિચરે છે. હું અધન્ય છું, અપુણ્ય છું જેથી હું રાષ્ટ્રકૂટની સાથે વિપુલ ભોળાને ભેગવી શક્તી નથી.
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सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ४ बहुपुत्रिका देवी - उस काल उस समयमें सुव्रता नामको आर्याएँ ईर्यासमिति आदिसे युक्त बहुत सी साध्वियोंके साथ तीर्थंकर परम्परासे विचरती हुई बेभेल सनिवेशमें आवेंगी और यथोचित अवग्रह लेकर वहाँ रहने लगेंगी। बाद उसके एक दिन उन सुव्रता आर्याओंका एक संघाटक वेभेल सन्निवेशके उच्च नीच मध्यम कुलमें फिरता हुआ राष्ट्रकूटके घरमें आयेगा। उसके बाद वह सोमा ब्राह्मणी आती हुई उन आर्याओको देखेगी देखकर हृष्ट तुष्ट हृदय हो शीघ्रातिशीघ्र अपने आसनसे उठ कर खडी होगी। और उन आर्याओंका आदर सत्कार करनेके लिए सात आठ पग आगे जायेगी। अनन्तर वन्दन और नमस्कार कर विपुल अशन पान आदिसे प्रतिलाभित करेगी। और उनसे इस प्रकार कहेगी-हे देवानुप्रिये । राष्ट्रकूटके साथ विपुल भोगोंको भोगती हुई हमने प्रत्येक वर्षमें युगल बच्चोंको जन्म देकर सोलह वर्षों में बत्तीस बच्चोंको जन्म दिया है। मैं दुर्जन्मा उन बच्चोंके मल-मूत्र और वमन आदिसे सनी-पुती दुर्गन्धित शरीर हो अपने पतिके
તે કાળે તે સમયે સુવતા નામની આર્યાએ ઈસમિતિ આદિ યુક્ત ઘણી સાધ્વીઓની સાથે તીર્થકર પરંપરાથી વિચરતી બિભેલ સન્નિવેશમાં આવશે અને યાચિત અવગ્રહ લઈને ત્યાં રહેવા લાગશે. પછી એક દિવસ તે સુવ્રતા આર્યાએનું એક સંઘાડું બિભેલ સન્નિવેશના ઊંચા નીચા અને મધ્યમ કુલમાં ફરતાં ફરતાં રાષ્ટ્રકૂટના ઘરમાં આવશે. ત્યાર પછી તે સેમા બ્રાહ્મણ તે આર્થીઓને આવતી જેશે અને તેમને જોઈને હૃષ્ટતુષ્ટ અંત:કરણથી જલદી જલદી પિતાને આસનેથી ઉઠીને ઉભી થશે અને તે આર્થીઓને આદર સત્કાર કરવા માટે સાત આઠ પગલાં સામે જાશે ત્યાર પછી વન્દન અને નમસ્કાર કરીને સારી રીતે અશનપાન આદિથી પ્રતિલાભિત કરશે (વહરાવશે) અને તેમને આ પ્રકારે डेरी:
હે દેવાનુપ્રિયે ! રાષ્ટ્રકૂટની સાથે વિપુલ ભેગેને ભગવતી મેં પ્રત્યેક વર્ષે એક જેમાં બાળકને જન્મ આપતાં સેળ વર્ષમાં બત્રીસ બચ્ચાંને જન્મ આપે છે. દુર્જન્મા તે બચ્ચાંના મળમૂત્ર અને ઉલટી આદિથી લીપાયેલી
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३७४
३ पुष्मितासत्र इतविमहतभाग्यैः सर्वथा भाग्यहीनः । एकमहारपतितः अल्पकालेनैव मम कुक्ष्यवतीर्णैः । शेषं सुगमम् ॥ ७॥
साथ कुछ भी आनन्द भोग नहीं कर पाती। हे आयाएँ ! मैं आप लोगोंके समीप धर्म सुनना चाहती हूँ। उसके बाद वे साध्विया सोमा ब्राह्मणीको विचित्र यावत् केवलि प्ररूपित धर्मका उपदेश देंगी।
उसके बाद वह सोमा ब्राह्मणी उन आर्याओंसे धर्म सुनकर उसे हृदयमें अवधारित कर हृष्ट तुष्ट हो अत्यन्त हर्षयुक्त हृदयसे उन आर्याओंका वन्दन और नमस्कार करके इस प्रकार कहेगी
हे आर्याओं ! मैं निम्रन्थ प्रवचनपर श्रद्धा रखती हूँ, और निम्रन्थ प्रवचन को सम्मानित करती हूँ। - हे देवानुप्रिये ! जो आप कहती हैं वही सत्य है। मैं राष्ट्रकूटको पूछती हूँ, बादमें आपके पास मुण्डित होकर प्रबजित होऊँगी।
દુર્ગાવાળાં શરીરે મારા પતિની સાથે કઈ જાતને આનંદ ભેગ કરી શક્તી નથી. હે આર્યાઓ! હું આપ લોકોની પાસે ધર્મ સાંભળવા માગું છું ત્યાર પછી તે સાધ્વીઓ સેમા બ્રાહ્મણીને વિચિત્ર એટલે કેવલી પ્રરૂપિત ધર્મને ઉપદેશ આપશે.
ત્યાર પછી તે મા બ્રાહ્મણ તે આર્થીઓ પાસેથી ધર્મ સાંભળીને તે હૃદયમાં ધારણ કરીને હુઈ તુષ્ટ થઈને અત્યંત હર્ષયુક્ત હૃદયથી તે આર્યાઓને વંદન અને નમસ્કાર કરીને આ પ્રકારે કહેશે –
કે આર્યાઓ! નિર્ઝન્ય પ્રવચન ઉપર શ્રદ્ધા રાખું છું અને નિન્ય પ્રવચનને સમ્માનિત કરું છું
હે દેવાનુપ્રિયે ! જે આપ કહે છે તેજ સત્ય છે. હું રાષ્ટ્રટને પૂછું છું પછી આપની પાસે મુંડિત થઈને પ્રત્રજિત થઈશ.
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३७५
सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ४ बहुपुत्रिका देवी
मूलम्तएणं सा सोमा माहणी जेणेव रटुकडे तेणेव उवागया करतल० एवं वयासी-एवं खलु मए देवाणुप्पिया ! अजाणं अंतिए धम्मे निसंते, से वि य णं धम्मे इच्छिए जाव अभिरुचिए, तएणं अहं देवाणुप्पिया ! तुब्भेहिं अब्भणुन्नाया सुव्बयाणं अजाणं जाव पव्वइत्तए । तए णं से रहकूडे सोमं माह णि एव वयासी-मा णं तुम देवाणुप्पिए ! इदाणि मुंडा भवित्ता जाव पव्वयाहि । भुंजाहि ताव देवाणुप्पिए ! मए सद्धिं विउलाई भोगभोगाई, ततो पच्छा भुत्तभोई मुव्बयाणं अजाणं अंतिए मुंडा जाव पव्ययाहि । तएणं सा सोमा माहणी हाया जाव सरीरा चेडियाचकवाल
छाया
ततः खलु सा सोमा ब्राह्मणी यत्रैव राष्ट्रकूटस्तत्रैव उपागता करतल० एवमवादीत्-एवं खलु मया देवानुप्रियाः ! आर्याणामन्तिके धर्मों निशान्तः (श्रुतः ) सोऽपि च खलु धर्म इष्टो यावद् अभिरुचितः, ततः खलु अहं देवानुपियाः ! युष्माभिरभ्यनुज्ञाता सुत्रतानामार्याणां यावत् पत्रजितुम् । ततः खलु स राष्ट्रकूटः सोमां ब्राह्मणीमेवमवादी-मा खलु देवानुप्रिये ! इदानीं मुण्डा भूखा यावत् प्रव्रज, भुव तावद् देवानुपिये ! मया सार्द्ध विपुलान् भोगभोगान् , ततः पश्चाद् भुक्तभोगा मुव्रतानामार्याणामन्तिके मुण्डा यावत् प्रव्रज । ततः खलु सा सोमा
___उसके बाद आर्याने कहा-जिस प्रकार तुम्हें सुख हो वैसा करो। शुभ काममें प्रमाद मत करो। उसके बाद वह सोमा ब्राह्मणी उन आर्याओंको वन्दन और नमस्कार कर विसर्जन करेगी ॥ ७ ॥
ત્યાર પછી આર્યાઓ કહે છે –જેવી રીતે તને સુખ થાય તેમ કર. શુભ કામમાં પ્રમાદ ન કર. ત્યાર પછી તે સોમા બ્રાહ્મણ તે આર્થીઓને વંદન અને નમસ્કાર કરી વિસર્જન કરશે. (૭)
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__३ पुष्पिवास परिकिण्णा साओ गिहाओ पडिनिवखमइ, पडिनिक्खमित्ता विभेलं संनिवेसं मज्झमज्झेण जेणेव सुव्वयाणं अजाणं उवस्सए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुव्वयाओ अज्जाओ वंदइ नमसइ पज्जुवासइ । तएणं तामो मुव्ययाओ अज्जाओ सोमाए माहणीए विचित्तं केवलिपण्णत्तं धम्म करिकहेइ, जहा जीवा वज्झति । तएणं सा सोमा माहणी सुव्बयाणं अज्जाणं अंतिए जाव दुवालसविहं सावगधम्म पडिवज्जइ, पडिवज्जित्ता सुब्वयाओ अज्जाओ वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसि पाउब्भूया तामेव दिसं पडिगया । तएणं सा सोमा माहणी समणोवासिया जाया अभिगत. जाव अप्पाणं भावेमाणी विहरइ ।।
तएणं ताओ सुचयाओ अज्जाओ अण्णया कयाइ विभेलाओ संनिवेसाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता, बहिया जणवयविहारं विहरंति ॥ ८॥ ब्राह्मणी राष्ट्रकूटस्य एतमर्थ प्रतिशृणोति । ततः खलु सा सोमा ब्राह्मणी स्नाता यावत् सर्वालङ्कारभूषितशरीरा चेटिकाचक्रवालपरिकीर्णा स्वस्माद् गृहात प्रतिनिष्क्रामतिः प्रतिनिष्क्रम्य वेभेलं संनिवेशं मध्यमध्येन यत्रैव मुव्रतानामार्याणामुपाश्रयस्तत्रैव उपागच्छति; उपागत्य सुव्रता आर्या वन्दते नमस्यति पर्युपास्ते । ततः खलु ताः सुव्रता आर्याः सोमाय ब्राह्मण्यै विचित्रं केवलिपज्ञप्तं धर्म परिकथयन्ति, यथा जीवा बध्यन्ते । ततः खलु सा सोमा ब्राह्मणी मुव्रतानामार्याणामन्तिके यावद् द्वादशविधं श्रावकधर्म पतिपद्यते, प्रतिपद्य मुव्रता आर्या वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यिता यस्या एव दिशः प्रादुर्भूता तामेवदिशं प्रतिगता । ततः खलु सा सोमा ब्राह्मणी श्रमणोपासिका जाता अभिगत० यावत् आत्मानं भावयन्ती विहरति । : ततः खलु ताः सुव्रता आर्या अन्यदा कदाचित् वेभेलात् संनिवेशात् मतिनिष्कामन्ति, बहिर्जनपदविहारं विहरन्ति ॥ ८॥
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सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ मध्य.४ पुषिका देवी
टीका'तएणं सा' इत्यादि-व्याख्या पठितसिद्धा ॥ ८ ॥
'तएणं सा' इत्यादि
उसके बाद वह सोमा ब्राह्मणी राष्ट्रकूटके पास आयेगी और हाथ जोडकर इस प्रकार कहेगी-हे देवानुप्रिय ! मैंने आर्याओंके समीप धर्म सुना। वह धर्म भी मुझे इष्ट प्रिय और हितकारक जान पडा और अच्छा लगा, इसलिये हे देवानुप्रिय ! मेरी इच्छा है कि तुमसे आज्ञा लेकर मैं उन आर्याओंके पास जाऊँ और दीक्षा ग्रहण करूँ। सोमा ब्राह्मणीका ऐसा वचन सुनकर राष्ट्रकूट उससे कहेगा
हे देवानुप्रिये ! अभी तुम मुण्डित होकर प्रवजित मत होओ। हे देवानुप्रिये ! अभी तुम मेरे साथ विपुल भोगोंका भोग करो। उसके बाद भुक्तभोगा होकर सुव्रता आर्याके पास प्रव्रजित होना । सोमा ब्राह्मणी राष्ट्रकूटकी इस सलाहको मान जायगी। बादमें वह सोमा ब्राह्मणी स्नान करके सभी प्रकारोंके अलङ्कारोंसे
'तपण सा' त्याहि
ત્યાર પછી તે તેમાં બ્રાહ્મણી રાષ્ટ્રકૂટની પાસે આવશે અને હાથ જોડીને આ પ્રકારે કહેશે – હે દેવાનુપ્રિય ! મેં આર્યાએ પાસેથી ધર્મનું શ્રવણ કર્યું. તે ધર્મ પણ મને ઈષ્ટ પ્રિય અને હિતકારક લાગે ને સારે પણું જણાય છે. માટે હે દેવાનુપ્રિય ! મારી ઈચ્છા છે કે તમારી આજ્ઞા લઈને હું તે આર્યાએ પાસે જાઉં અને દીક્ષા ગ્રહણ કરૂં. સમા બ્રાહાણુનાં એવાં વચન સાંભળી રાષ્ટ્રકૂટ તેને કહેશે – ' હે દેવાનુપ્રિયે ! હાલ તું સુંઠિત થઈને પ્રવજિત ન થા. હે દેવાનુપ્રિય ! હાલ તે મારી સાથે વિપુલ ભેગેને ભેગવ. ત્યાર પછી પુતગા થઈ સુવ્રતા આર્યોની પાસે પ્રજિત થજે. તેમાં બ્રાહ્મણ સટ્ટફૂટની આ સલાહને માની જશે. પછી તે મા બ્રાહ્મણી નાન કરીને તમામ જાતનાં ઘરેણા અલત ४८
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__. ......३पुष्पितासन अलङ्कत हो दासियोंके समूहसे घिरी हुई अपने घरसे निकल कर विमेल सन्निवेशके मध्य भागसे होती हुई सुव्रता आर्याओंके उपाश्रयमें आयेगी। आकर वह सुव्रता आर्याको वन्दन और नमस्कार करे सेवा करेगी । उसके बाद वे सुव्रता आर्या उस उस सोमा ब्राह्मणीको अनेक प्रकारसे विचित्र केवलि प्रज्ञप्त धर्मका उपदेश करेगी' जिस प्रकार जीव कर्मसे बद्ध होते हैं और मुक्त होते हैं ' । इस प्रकार केवलि प्ररूपित धर्म सुनकर वह सोमा ब्राह्मणी सुव्रता आर्याके पास यावत् बारह प्रकारका श्रावक धर्मको स्वीकार करेगी। बाद उन. आर्याओंको वन्दन-नमस्कार कर जिस दिशासे आयेगी उसी दिशामें लौट जायगी।
तदनन्तर वह सोमा ब्राह्मणी श्रमणापासिका बनेगी। और सभी जीव अजीव आदि तत्त्वोंको जानकर श्रावकव्रतसे आत्माको भावित करती हुई विचरेगी। उसके बाद वह सुव्रता आर्या किसी समय विभेल सन्निवेशसे निकलकर बाहर देशमें विहार करती हुई विचरेगी ॥८॥
થઈ દાસીઓની મંડળીમાં ઘેરાઈને પિતાના ઘરમાંથી નીકળી બિભેલ સન્નિવેશના મધ્ય ભાગમાંથી થઈને સુવ્રતા આર્માઓના ઉપાશ્રયમાં આવશે આવીને તે સુવ્રતા આર્યાને વંદન નમસ્કાર કરી સેવા કરશે ત્યાર પછી તે રાત્રતા આર્યાએ તે મા બ્રાહ્મણને વિચિત્ર કેવલી પ્રજ્ઞસ ધર્મનો-અનેક પ્રકારે ઉપદેશ કરશે જે પ્રકારે જીવ કર્મથી બંધાય છે અને મુક્ત થાય છે. ઈત્યાદિ કેવલી પ્રરૂપિત ધર્મ સાંભળીને તે સેમા બ્રાહ્મણ સુત્રતા આર્થીઓની પાસે બાર પ્રકારના શ્રાવકધર્મને સ્વીકાર કરશે. પછી તે આર્થીઓને વંદન–નમસ્કાર કરીને જે દિશાથી તેઓ આવી હશે તે દિશામાં પાછી જશે. છે ત્યાર પછી તે મા બ્રાહ્મણ શ્રમણ ઉપાસિકા બનશે અને બધાં જીવ અજીવ આદિ તત્ત્વોને જાણી શ્રાવક વ્રતથી આત્માને ભાવિત કરતી વિચરશે. ત્યાર પછી સંવતા આર્યાએ કઈ સમયે બિભેલ સન્નિવેશથી નીકળીને બીજા देशमा वि ती वियर. (८)
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सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अभ्य. ४ पुत्रिका देवी
मूलम् - तएणं ताओ सुव्बयाओ अज्जाओ अभया कयाइ पुव्वाणुपुब्धि जाव विहरइ । तएणं सा सोमा माहणी इमीसे कहाए लट्ठा समाणी हट्टतुट्ठा व्हाया तहेव निग्गया जाव वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता धम्मं सोचा जाव नवरं रहकूडं आपुच्छामि, तएणं पव्वयामि । अहामुहं० । तएणं सा सोमा माहणी सुव्वयं अज्जं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता सुब्बयाणं अंतियाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव सए गिहे जेणेव रट्टकूडे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करतल परिग्गहियं० तहेव आपुच्छइ जाव पव्वइत्तए । अहामुहं देवाणुप्पिए ! मा पडिबंधं । तएणं से रट्टकूडे विउलं असणं तहेव जाव पुन्वभवे सुभद्दा जाव अज्जा जाता, इरियासमिया जाव गुत्तबंभयारिणी । तएणं सा सोमा अज्जा मुबयाणं अज्जाणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई
छाया
ततः खलु ताः सुव्रता आर्या अन्यदा कदाचित् पूर्वानुपूर्वी यावद् विहरन्ति । ततः खलु सा सोमा ब्राह्मणी अस्याः कथाया लब्धार्थी सती दृष्टतुष्टा० स्नाता तथैव निर्गता याषद् वन्दते नमस्पति, वन्दिला नमस्थित्रा धर्म श्रुखा यावद् नवरं राष्ट्रकूटमापृच्छामि, यथासुखम् । ततः खलु सा सोमा ब्राह्मणी सुव्रतामार्या वन्दते नमस्यति, बन्दित्वा नमस्यित्वा मुव्रतानामन्तिकात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव स्वकं गृहं यत्रैव राष्ट्रकूटस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य करतलपरिगृहीत० तथैव आपृच्छति यावत् प्रबजितुम् । यथामुखं देवानुपिये ! मा प्रतिबन्धम् । ततः खलु स राष्टकूटो विपुलमशनं तथैव यावत् पूर्वभवे सुभद्रा यावद् आर्या जाता, ईयाँसमिता यावद् गुप्तब्रह्मचारिणी । ततः खलु सा सोमा आर्या मुव्रतानामार्याणामन्तिके सामायिकादीनि एकादशोवानि अधीते, अधीत्य बहुमिः
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६८.
३ पुनिल अहिज्जइ, अहिज्जित्ता बहूहि छट्ठम दसम दुवालस० जाव भावेमाणी बहूइं वासाई सामण्णपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए सढि भत्ताई अणसणाए छेदित्ता आलोइयपडिकंता समाहिपत्ता कालमासे कालं किया सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो सामाणियदेवत्ताए उववन्ना । तत्थणं अत्थेगइयाणं देवाणं दोसागरोवमाइं ठिई पण्णता, तत्थ णं सोमस्स वि देवस्स दोसागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता ।
से गं भंते ! सोमे देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं जाव चयं चइत्ता कहिं गच्छिहिइ ? कहिं उववजिहिइ ? गोयमा ! महाविदेहे वासे जाव अंतं काहिइ । एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं चउत्थस्स अज्झयणस्स अयमट्टे पण्णत्ते ॥९॥
॥ पुफियाए चउत्थं अज्झयणं समत्तं ॥४॥
षष्ठाष्टमदशमद्वादश० यावद् भावयन्ती बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्याय पालयति, पालयित्वा मासिक्या संलेखनया पष्टिं भक्तानि अनशनेन छित्त्वा आलोचितप्रतिक्रान्ता समाधिमाप्ता कालमासे कालं कृत्वा शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य सामानिकदेवतया उदपद्यत । तत्र खलु अस्त्येकैकेषां देवानां द्विसागरोपमा स्थितिः प्रज्ञप्ता, तत्र खलु सोमस्यापि देवस्य द्विसागरोपमा स्थितिः प्रज्ञप्ता । ..
स खलु भदन्त ! सोमो देवः तस्माद् देवलोकाद् आयुःक्षण यावत् चयं च्युत्वा क्व गमिष्यति ? क्व उत्पत्स्यते ? गौतम ! महाविदेहे वर्षे यावद् अन्तं करिष्यति । एवं खलु जम्बूः । श्रमणेन यावत् सम्भाप्तेन चतुर्थस्याध्ययस्य अयमर्थः पक्षप्तः ॥ ९॥
॥ शुष्पिक्षायां चतुर्वमध्ययनं समाम् ॥ ४ ॥
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बोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य- ४ बहुपुत्रिका देवी
टीका
"
तरणं ताओ' इत्यादि - व्याख्या निगदसिद्धा ॥ ९ ॥
6
तरणं ताओ' इत्यादि --
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उसके बाद वह सुत्रता आर्या किसी समय पूर्वानुपूर्वी विचरती हुई फिर विभेल सन्निवेशमें आएगी और वसतिकी आज्ञा लेकर वहाँ तप संयमसे आत्माको भावित करती हुई रहेगी । बाद वह सोमा ब्राह्मणी उन आर्याओके आनेका समाचार पाकर हृष्ट तुष्ट हृदय हो स्नान कर तथा सभी अलङ्कारोंसे विभूषित हो पूर्ववत् उन आर्याओंके पास जाकर यावत् वन्दन और नमस्कार करेगी । वन्दन नमस्कार करके धर्म सुनकर उस आर्यासे कहेगी - हे देवानुप्रिये ! मैं राष्ट्रकूटसे पूछकर आपके समीप मुण्डित होकर प्रव्रज्या लेना चाहती हूँ। वह आर्या उससे कहेगी - हे देवानुप्रिये ! तुम्हें जिस प्रकार सुख हो वैसा करो । प्रमाद मत करो । उसके बाद सोमा ब्राह्मणी उन आर्याओंको वन्दन और नमस्कार कर उनके पाससे अपने घरमें राष्ट्रकूटके पास आयेगी । आकर हाथ जोड राष्ट्रकूटसे पूर्ववत् पूछेगी
'तपणं ताओ' ४त्याहि.
ત્યાર પછી તે સુત્રતા આર્યાએ કાઇ સમયે પૂર્વીનુપૂર્વી વિચરણ કરતાં કરતાં પાછી ખિલેશ્વ સન્નિવેશમાં આવશે અને વસ્તીની આજ્ઞા લઈ ત્યાં તપસ યમથી આત્માને ભાવિત કરતી રહેશે. ત્યાર પછી તે સેામા બ્રાહ્મણી તે આર્યોના આવવાના સમાચાર મળતાં હૃષ્ટ તુષ્ટ હૃદયથી સ્નાન કરી તથા ઘરેણાં આભૂષણુથી વિભૂષિત થઈ અગાઉની જેમ તે આર્યાએની પાસે જઇને વ ંદન નમસ્કાર કરશે અને વંદન નમસ્કાર કરી ધર્મ સાંભળોને તે આર્ચાઓને કહેશે: હે દેવાનુપ્રિયે ! હું રાષ્ટ્રકૂટને પૂછીને આપની પાસે મુક્તિ થઈને પ્રત્રજ્યા લેવા ચાહું છું તે આર્યો તેને કહેશે:-૩ દેવાનુપ્રિયે ! તને જે પ્રકારે સુખ થાય તેમ કર. પ્રમાદ ન કર. ત્યાર પછી સામા બ્રાહ્મણી તે આગને વંદન નમસ્કાર કરી તેમની પાસેથી પાતાના ઘરમાં સફ્ટની પાસે આવશે. આવીને હાય ખેડી રાષ્ટ્રને
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ર
३ पुष्पितासूत्र
कि हे देवानुप्रिय ! मेरी इच्छा है कि मैं तुमसे आज्ञा लेकर सुव्रता आर्याभोंके पास प्रव्रजित होऊँ । इस बातको सुनकर राष्ट्रकूट कहेंगा - हे देवानुप्रिये ! जैसा तुम्हें सुख हो जैसा करो। इस कार्यको करनेमें प्रमाद मत करो। उसके बाद वह राष्ट्रकूट विपुल अशन पान स्वाद्य स्वाद्य चार प्रकारके भोजन बनवाकर अपने मित्र ज्ञाति स्वजन बन्धुओंको आमंत्रित करेगा । और आदर सत्कारके साथ उनको भोजन करायेगा । जिस प्रकार पूर्वभवमें सुभद्रा आर्या हुई थी उसी प्रकार यह भी आर्या होकर ईयासमिति आदिसे युक्त हो यावत् गुप्तब्रह्मचारिणी होवेगी । उसके बाद वह सोमा आर्या उन सुत्रता आर्याओंके समीप सामायिक आदि ग्यारह अङ्गोंका अध्ययन करेगी, और बहुतसे षष्ठ, अष्टम, दशम, द्वादश आदि तपोंके द्वारा आत्माको भावित करती हुई बहुत वर्षों तक श्रामण्य पर्यायका पालन कर मासिकी संलेखना से साठ भक्तोंको अनशनसे छेदन कर अपने पाप स्थानोंका आलो. चन और प्रतिक्रमण कर समाधिको प्राप्त हो काल मासमें काल कर देवेन्द्र शक्रके
અગાઉની જેમ પૂછશે કેઃ—હે દેવાનુપ્રિય ! મારી ઇચ્છા છે કે હું તમારી આજ્ઞા લઈને સુત્રતા આર્યાએની પાસે પ્રજિત થાઉં. આ વાત સાંભળી રાષ્ટ્રકૂટ કહેશે:હૈ દેવાનુપ્રિયે ! જેમ તને સુખ થાય તેમ કર. આ કાર્ય કરવામાં પ્રમાદ ન કર. ત્યાર પછી તે રાષ્ટ્રકૂટ વિપુલ ( ઘણા ) અન્નપાન, ખાદ્યસ્વાદ્ય ચાર પ્રકારના લાજન અનાવરાવી પેાતાના મિત્ર, જ્ઞાતિ, સ્વજન બંધુઓને આમંત્રણ આપશે અને આદર સત્કાર સહિત તેમને ભેાજન કરાવશે. જે પ્રકારે આગલા ભવમાં સુભદ્રા આર્યા થઈ હતી તેજ પ્રકારે આ પણ આર્યો થઈને ઈયોસમિતિ આદિથી યુક્ત થઈ યાવદ્ગુણ બ્રહ્મચારિણો થશે. ત્યાર પછી તે સામા આર્યો તે સુત્રતા આર્યોએની પાસે સામાયિક આદિ અગીયાર અગાનું અધ્યયન કરશે અને ઘણાંએ તપ–૧૪, અષ્ટમ, દશમ, દ્વાદશમ આદિ તાથી આત્માને ભાવિત કરતી ઘણાં વર્ષો સુધી દીક્ષા પર્યાયનું પાલન કરી પછી માસિકી સખેલનાથી સાઠે ભક્તોને અનશન
દ્વારા ( ઉપવાસથી ) છેદન કરી પેાતાનાં પાપસ્થાનાના મલેાચન અને પ્રતિક્રમણ કરી સમાધિને પ્રાસ થઈ, કાલ માસમાં ઢાવ કરી ધ્રુવેન્દ્ર શાની સામાનિક ધ્રુવ
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सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अभ्य. ४ बहुपुत्रिका देवी
.१८३५
सामानिक देव होकर उत्पन्न होगी । वहाँ एक २ देवकी स्थिति दो सागरोपम है । उस देवलोक में सोमदेवकी भी स्थिति दो सागरोपम होगी ।
गौतम स्वामी पूछते हैं - हे भदन्त ! वह सोमदेव आयु भव स्थिति क्षयके बाद उस देवलोक से च्यवकर कहाँ जायगा ? और कहाँ उत्पन्न होगा ?
भगवान कहते हैं - हे गौतम! महाविदेह क्षेत्रमें उत्पन्न होकर यावत् सिद्ध होगा, और सब दुखोका अन्त करेगा ।
सुधर्मा स्वामी कहते हैं - हे जम्बू ! इस प्रकार श्रमण भगवान महावीरने पुष्पिताके चतुर्थ अध्ययनके भावोंका निरूपण किया है ॥ ९ ॥
। पुष्पिताका चौथा अध्ययन समाप्त हुआ ।
થઈને ઉત્પન્ન થશે. ત્યાં એક એક ટ્રેવની સ્થિતિ એ સાગરોપમ છે. તે દેવલેાકમાં સામદેવની પણ સ્થિતિ એ સાગરોપમની થશે.
ગોતમ સ્વામી પૂછે છે:—ડે ભદન્ત ! તે સામદેવ આયુભવ અને સ્થિતિક્ષય પછી તે દેવલેકમાંથી ચવીને *યાં જશે ? અને કયાં ઉત્પન્ન થશે?
ભગવાન કહે છે:--હે ગૌતમ ! મહા વિદેહક્ષેત્રમાં ઉત્પન્ન થઇને તે સિદ્ધ થશે અને તમામ દુ:ખાના અંત કરશે,
સુધર્મા સ્વામી કહે છે:--હે જમ્મૂ ! આ પ્રકારે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પુષ્પિતાના ચતુર્થ અધ્યયનના ભાવાનું નિરૂપણ કર્યું છે. (૯).
પુપિતાનું ચેાથુ અધ્યયન સમાપ્ત.
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निस
पञ्चमध्ययनम्
मूलम्जइणं भंते ! समणेणं भगवया उक्खेवओ० । एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं २ रायगिहे नाम नपरे गुणसिलए चेइए, सेणियराया, सामी समोसरिए, परिसा निग्गया । तेणं कालेणं २ पुण्णभद्दे देवे सोहम्मे कप्पे पुण्णभद्दे विमाणे सभाए सुहम्माए पुण्णभईसि सोहासणंसि चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं जहा सरियाभो जाव बत्तीसविहं नट्टविहिं उवदंसित्ता जामेष दिसिं पाउब्भूए तामेव दिसिं पडिगए । कूडागारसाला. पुन्वभवपुच्छा । एवं गोयमा ! तेणं कालेणं २ इहेब जम्बूदीवे दीवे मारहे वासे मणिवइया नाम नयरी होत्था रिद्ध०, चंदो राया, ताराइण्णे चेइए। तत्थणं मणिवइयाए नयरीए पुण्णभद्दे नाम गाहावई परिवसइ अड्डे । तेणं कालेणं २ थेरा भगवंतो जातिसंपण्णा जाव जीवियासमरणभयविष्पमुक्का बहुस्सुया बहुपरिवारा
यायदि खलु भदन्त ! श्रमणेन भगवता उत्क्षेपकः। एवं खलु जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नगरं गुणशिलं नाम चैत्यम् , श्रेणिको राजा, खामी समवसृतः, परिषद् निर्गता । तस्मिन् काले २ पूर्णभद्रो देवः सौधर्मे कल्पे पूर्णभद्रे विमाने सभायां सुधर्मायां पूर्णभद्रे सिंहासने चतुर्भिः सामानिकसहस्रः यथा सूर्याभो यावद् द्वात्रिंशद्विधं नाट्यविधिमुपदश्य यस्या दिशः प्रादुर्भूतस्तामेव दिशं प्रतिगतः, कूटागारशाला, पूर्वभवपृच्छा । एवं गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये अत्रैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे मणिपदिका नाम नगरी अभवत् , ऋद्धस्तिमितसपदा०, चन्द्रो राजा, ताराकीणं चैत्यम् । तत्र खलु मणिपदिकायां रगर्या पूर्णभद्रो नाम गाथापतिः परिवसति, आब्यः । तस्मिन् काले
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३८५
सुनारबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ५ पूर्णभद्र देव पुष्वाणुषुचि जाव समोसढा, परिसा निग्गया। तएणं से पुण्णभद्दे गाहावई इमीसे कहाए लढे समाणे इट्ट० जाव पण्णत्तीए गंगदत्ते तहेव निग्गच्छइ जाव निक्खंतो जाव गुत्तबंभयारी । तएणं से पुण्णभद्दे अणगारे भगवंताणं अंतिए सामाइयमादियाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, अहिज्जित्ता बहुहिं चउत्थछट्टम जाव भाविता बहूई वासाई सामण्णपरियागं पाउणइ, पाणित्ता मासियाए संलेहणाए सढि भत्ताई अणसणाए छेदित्ता आलोइयपडिकंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे पुण्णभद्दे विमाणे उवायसमाए देवसयणिज्जसि जाव भाषामणपज्जत्तीए । एवं खलु गोयमा ! पुण्णभद्देणं देवेणं सा दिव्वा देविड्डी जाव अभिसमण्णागया । पुण्णभहस्स णं भंते ! देवस्स केवइयं कालं ठिई पण्णता ? गोयमा ! दोसागरावमा ठिई पण्णत्ता । पुण्णभद्दे णं भंते ! देवे ताओ देवलोगाओ जाव कहिं गच्छिहिइ ? कहि तस्मिन् समये स्थविरा भगवन्तो जातिसम्पन्नाः, यावत् जीविताशामरणभयविषमुक्ता बहुश्रुता बहुपरिवाराः पूर्वानुपूर्वी यावत् समक्सृताः। परिषद् निर्गता । ततः खलु स पूर्णभद्रो गाथापतिः अस्याः कथाया लब्धार्थः सन् इष्टतुष्टो० यावत् मज्ञप्त्यां गङ्गदत्तस्तथैव निर्गच्छति यावद् निष्क्रान्तो यावद् गुप्तब्रह्मचारी । ततः खलु स पूर्णभद्रोऽनगारो भगवतामन्तिके सामायिकादीनि एकादशाङ्गानि अधीते; अधीत्य चतुर्थ षष्ठाष्टम० यावद् भावयित्वा बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं पालयति, पालयित्वा मासिक्या संलेखनया पष्टिं भक्तानि अनशनेन छित्वा आलोचित-प्रतिक्रान्तः समाधिमाप्तः कालमासे काल कृत्वा सौधर्मे कल्पे पूर्णभद्रे विमाने उपपातसभायां देवशयनीये साबद् भाषामनःपर्याप्त्या । एवं खल गौतम ! 'पूर्णभद्रेण देवेन सा दिव्या देवर्द्धिः यावद् अभिसमन्वागता । पूर्णभद्रस्य खलु भदन्त ! देवस्य कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! दिसागरोपमा स्थितिः
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३ पुष्पिणवत्र उववज्जिहिइ ? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिन्झिहिइ जाव अंतं काहिइ ? एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं निक्खेवओ ॥ १॥ .....
॥पंचमं अज्झयणं समत्तं ॥५॥
पक्षप्ता । पूर्णभद्रः खलु भदन्त ! देवस्तस्माद् देवलोकाद् यावत् क्व गमिष्यति ? क्व उत्पत्स्यते ? गौतम ! महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति यावदन्तं करिष्यति । एवं खलु जम्बूः ! श्रमणेन भगवता यावत् सम्माप्तेन निक्षेपकः ॥१॥
॥ पश्चममध्ययनं समाप्तम् ॥५॥
टीका'जइणं भंते ' इत्यादि व्याख्या स्पष्टा ॥१॥ ॥ इति पञ्चमाध्ययनं समाप्तम् ॥५॥
पाँचवाँ अध्ययन. 'जइणं भंते' इत्यादि
हे भदन्त ! श्रमण भगवान महावीरने पुष्पिताके चतुर्थ अध्ययनमें पूर्वोक्त भावोंका वर्णन किया है तो हे भगवन् ! पश्चम अध्ययनमें भगवानने किस अभिप्राय का निरूपण किया है।
'ध्ययन पNि ." 'जाणं मते ' Uत्यादि આ છે ભદન્ત . શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પુષ્પિતાના ચોથા અધ્યયનમાં પૂર્વોકત ભાવેનું વર્ણન કર્યું છે તે હે ભગવન ! પાંચમા અધ્યયનમાં ભગવાને ક્યા અભિપ્રાયનું નિરૂપણ કર્યું છે ?
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३८७
सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ मध्य. ५ पूर्णभद्र देव
आर्य सुधर्माने कहा
हे जम्बू ! उस काल उस समयमें राजगृह नामक नगर था। वहाँ गुणशिलक नामक चैत्य था। उस नगरका राजा श्रेणिक था। उस कालमें श्रमण भगवान महावीर स्वामी उस नगरीमें पधारे । भगवानके दर्शनके लिये परिषद निकली। उस काल उस समयमें पूर्णभद्र देव सौधर्म कल्पके पूर्णभद्र विमानमें सुधर्मा सभाके अन्दर पूर्णभद्र सिंहासन पर चार हजार सामानिक देवोंके साथ बैठे हुए थे वह पूर्णभद्र देव सूर्याभ देवके समान भगवानको यावत् बत्तीस प्रकारकी नाट्यविधि दिखाकर जिस दिशासे आये उसी दिशामें चले गये । गौतमने भगवानसे पूर्णभद्र देवकी देव ऋद्धिके विषयमें पूछा भगवानने पूर्ववत् कूटागार शालाके दृष्टान्तसे उन्हें प्रतिबोधित किया। फिर गौतमको उस देवके पूर्वभव जाननेकी जिज्ञासा होनेपर भगवानने कहा-उस काल उस समय इसी मध्य जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रमें मणिपदिका नामकी नगरी थी, जो बडी २ अट्टालिकाओंसे युक्त तथा बाहरी भीतरी
આર્ય સુધર્માએ કહ્યું –
કે જમ્મ! તે કાળે તે સમયે રાજગૃહ નામે નગર હતું ત્યાં ગુણશિલાક નામનું ચિત્ય હતું. તે નગરને રાજા શ્રેણિક હતું, તે કાળે શ્રમણ ભગવાન મહાવીર સ્વામી તે નગરીમાં પધાર્યા. ભગવાનનાં દર્શન માટે પરિષદ નીકળી. તે કાળ તે સમયે પૂર્ણભદ્ર દેવ સૌધર્મકલ્પના પૂર્ણભદ્ર વિમાનમાં સુધર્મા સભાની અંદર પૂર્ણભદ્ર સિંહાસન ઉપર ચાર હજાર સામાનિક દેવેની સાથે બેઠેલા હતા. તે પૂર્ણભદ્ર દેવ, સૂર્યાભદેવના જેવા ભગવાનને બત્રીસ પ્રકારની નાટયવિધિ બતાવી જે દિશામાંથી આવ્યા તે દિશામાં પાછા ગયા. ગૌતમે ભગવાનને પૂર્ણભદ્ર દેવની દેવગઢદ્ધિના વિષયમાં પૂછયું, ભગવાને પૂર્વવત્ કૂટાગારશાલાના દાંતથી તેને પ્રતિબંધિત કર્યા પછી ગૌતમને તે દેવના પૂર્વ ભાવ જાણવાની જિજ્ઞાસા થવાથી ભગવાને કહ્યું–તે કાળ તે સમયે આ મધ જમ્બુદ્વીપના ભારત ક્ષેત્રમાં મણિ પદિકા નામે નગરી હતી. જેમાં મોટી મોટી અટારિએવાળી હવેલીએ હતી તથા
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૨૮૮ शत्रुओंसे रहित एवं धनधान्य आदिसे सम्पन्न थी। उस नगरीके राजाका नाम चन्द्र था। उसमें ताराकीर्ण नामक एक उद्यान था। उस नगरीमें पूर्णभद्र नामक धनधान्य सम्पन्न गाथापति रहता था। उस काल उस समयमें जातिसम्पन्न कुलसम्पन्न स्थविरपदभूषित मुनिराज यावत् जीवनकी आशा और मरणभयसे रहित, बहुश्रुत तथा बहुत मुनि परिवारसे युक्त तीर्थंकर परम्परासे विचरते हुए मणिपदिका नगरीमें पधारे । जनसमुदायरूप परिषद उनके दर्शनार्थ निकली। उसके बाद वह पूर्णभद्र गाथापति उन स्थविरोंके आनेका वृत्तान्त जानकर हृष्ट तुष्ट हृदयसे भगवती सूत्रमें उक्त गङ्गदत्तके समान उनके दर्शनके लिए गया और धर्मकथा सुनकर यावत् प्रवजित होगया। तथा ईर्यासमिति आदिसे युक्त हो यावत् गुप्तब्रह्मचारी हो गया। उसके बाद उस पूर्णभद्र अनगारने उन स्थविरोंके पास सामायिक आदि ग्यारह अंगोका अध्ययन किया और बहुतसे चतुर्थ षष्ठ अष्टम आदि तपसे आत्मा को भावित करके बहुत वर्षों तक श्रामण्यपर्याय पाला। बादमें मासिक संले
બહાર તેમજ અંદર શત્રુઓથી રહિત અને ધનધાન્ય આદિથી સંપન્ન હતી. તે નગરીના રાજાનું નામ ચન્દ્ર હતું. તેમાં તારાકર્ણ નામે એક ઉદ્યાન હતા. તે નગરીમાં પૂર્ણ ભદ્ર નામે ધનધાન્ય સંપન્ન ગાથાપતિ
તે કાળ તે સમયે જાતિસંપન્ન-કુળસંપન્ન સ્થવિર પદથી ભૂષિત એવા મુનિરાજ જે જીવનની આશા અને મરણના ભયથી રહિત તથા બહુશ્રુત અને બહુમુનિ પરિવારોથી યુક્ત તીર્થંકર પરંપરાથી વિચરણ કરતા મણિપત્રિકા નગરીમાં પધાર્યા જનસમુદાયરૂપ પરિષદુ તેમના દર્શન માટે નીકળી ત્યાર પછી તે પૂર્ણભદ્ર ગાથાપતિ તે સ્થવિરાના આવવાના ખબર જાણી હુઈ તુષ્ટ હૃદયથી ભગવતીસૂત્રમાં કહેલ ગંગદત્તની પેઠે તેમના દર્શનને માટે ગયા અને ધર્મકથા સાંભળીને યાવત પ્રજિત થઈ ગયા. તથા ઈસમિતિ આદિથી યુક્ત થઈને ગુસબ્રહ્મચારી થઈ ગયા. ત્યાર પછી તે પૂર્ણભદ્ર અનગારે તે સ્થવિરાની પાસે સામાયિક આદિ અગીયાર અંગેનું અથાક સન કર્યું અને ઘણાં ચતુર્થષણ અષ્ટમ આદિ તપોથી આત્માને ભાવિત કરીને બહુ વર્ષ સુધી દીક્ષા પર્યાયનું પાલન કર્યું. પછી માસિદી સંખનાથી સાઠ
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सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अभ्य. ५ पूर्णभद्र देव खनासे साठ भक्तोंको अनशनसे छेदकर अपने पापस्थानोंकी आलोचना और प्रतिक्रमणकर समाधि प्राप्त की। तथा काल अवसरमें कालकर सौधर्म कल्पके पूर्णभद्र विमानमें उपपात सभाके अन्दर देवशयनीय शय्यामें यावत् पूर्णभद्र देवपनेमें उत्पन्न होकर भाषापर्याप्ति मनःपर्याप्ति आदि पर्याप्तियोंसे पर्याप्तभावको प्राप्त किया। हे गौतम ! पूर्णभद्र देवने इस प्रकारसे इस दिव्य देव ऋद्धिको प्राप्त किया।
गौतम स्वामी पूछते हैंहे भदन्त ! पूर्णभद्र देवकी स्थिति कितने कालकी है ? भगवान कहते हैंहे गौतम ! पूर्णभद्र देवकी स्थिति दो सागरोपमकी है। गौतमने फिर पूछा
हे भदन्त ! यह पूर्णभद्र देव देवलोकसे च्यवकर कहाँ जायगा तथा कहाँ उत्पन्न होगा ? ભક્તોનું અનશન વડે છેદન કરી પોતાના પા૫ સ્થાનેની આલોચના તથા પ્રતિક્રમણ કરી સમાધિ પ્રાપ્ત કરી. તથા કાળ અવસર આવતાં કાળ કરી સૌધર્મ કલ્પના પૂર્ણભદ્ર વિમાનમાં ઉપપાત સભાની અંદર દેવશયનીય શખ્યામાં તે પૂર્ણભદ્ર દેવપણમાં ઉત્પન્ન થઈને ભાષાપર્યાપ્તિ મન:પર્યાપ્તિ આદિ પર્યાપ્તિઓથી પર્યાપ્તિભાવને પ્રાપ્ત કર્યાં. હે ગૌતમ ! પૂર્ણભદ્રદેવે આ પ્રકારે આ દિવ્ય દેવની ऋद्धिन प्राप्त श.
ગૌતમ સ્વામી પૂછે છે – હે ભદન્ત ! પૂર્ણભદ્ર દેવની સ્થિતિ કેટલા કાળની છે ? ભગવાન કહે છે – હે ગૌતમ! પૂર્ણભદ્ર દેવની સ્થિતિ બે સાગરેપની છે. ગૌતમે વળો પૂછયું:
હે ભદન . આ પૂર્ણભદ્રદેવ દેવલથી ગૃત થઈને કયાં જશે અને કયાં ઉત્પન્ન થશે ?
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मूलम्जइणं भंते ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं उक्खेवओ०, एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं २ रायगिहे नयरे, गुणसिलए चेइए, सेणिए राया, सामो समोसरिए । तेणं कालेणं २ माणिभद्दे देवे समाए मुहम्माए माणि
छायायदि खलु भदन्त ! श्रमणेन भगवता यावत् सम्माप्तेन उत्क्षेपकः । एवं खलु अम्बूः ! तस्मिन् काले २ राजगृहं नगरं, गुणशिलं चैत्यं, श्रेणिको राजा, स्वामी समवसृतः, तस्मिन् काले तस्मिन् समये माणिभद्रो
भगवानने कहा
हे गौतम ! यह पूर्णभद्र देव महाविदेह क्षेत्रमें उत्पन्न होकर सिद्ध होगा और यावत् सब दुःखोंका अन्त करेगा।
सुधर्मा स्वामी कहते हैं. हे जम्बू ! मोक्ष प्राप्त श्रमण भगवान महावीरने इस प्रकार पुष्पिताके पांचवें अध्ययनका भाव कहा है सो मैंने तुम्हें कहा ॥१॥
।पुष्पिताका पाँचवाँ अध्ययन समाप्त हुआ। ભગવાને કહ્યું –
હે ગૌતમ ! આ પૂર્ણભદ્રદેવ મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં ઉત્પન્ન થઈ સિદ્ધ થશે અને તમામ દુઓને અંત આણશે.
સુધર્મા સ્વામી કહે છે ,
જખ્ખ ! મોક્ષ પ્રાપ્ત શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે આ પ્રકારે પુષ્પિતાના પાંચમા અધ્યયનને ભાવ કહ્યો છે તે મેં તને કહ્યો છે.
પિતાનું પાંચમું અધ્યયન સમાપ્ત
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सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. ६ माणिभद्र देव
३९१
भद्दसि सीहासांसि चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं जंहा पुष्णभद्दो, हेव आगमणं, नट्टविही, पुच्वभवपुच्छा, मणिवया नयरी, माणिभद्दे गाहा वई, थेराणं अंतिए पव्वज्जा, एक्कारस अंगाई अहिज्जर, बहूई वासाई परियाओ, मासिया संलेहणा, सहि भत्ताई०, माणिभद्दे विमाणे उबवाओ, दोसागरोवमा ठिई, महाविदेहे वासे सिज्झिहि । एवं खलु जंबू ! निक्खेओ ॥
॥ छ्टुं अज्झयणं समत्तं ॥ ६ ॥
देवः सभायां सुधर्मायां माणिभद्रे सिंहासने चतुर्भिः सामानिकसहस्त्र यवित् पूर्ण भद्रस्तथैवाऽऽगमनं, नाव्यविधिः, पूर्वभवपृच्छा, मणिपदा नगरी, माणिभद्रो गाथापतिः, स्थविराणामन्तिके प्रव्रज्या, एकादशाङ्गानि अधीते, बहूनि वर्षाणि पर्यायः, मासिकी संलेखना, षष्टिं भक्तानि०, माणिभद्रे विमाने उपपातः, द्विसागरोपमा स्थितिः, महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति । एवं खलु जम्बूः ! निक्षेपकः ॥ १ ॥
॥ इति षष्ठाध्ययनं समाप्तम् ॥ ६ ॥
4
'जइणं भंते ' इत्यादि --
टीका
- व्याख्या स्पष्टा ॥ १ ॥
छठा अध्ययन.
•
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4 जणं भंते ' इत्यादिजम्बूस्वामी पूछते हैं
हे भदन्त ! मोक्ष प्राप्त श्रमण भगवान महावीरने पाँचवें अध्ययनका
3 અધ્યયન,
' जइणं भंते ઇત્યાદિ भ्यू स्वाभी पूछे छे:--
હૈ ભદન્ત ! મેક્ષ પ્રાપ્ત શ્રમણ ભગવાન મહાવીર પાંચમાં અધ્યયનના
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३ पुष्पितासन पूर्वोक्त भाव बतलाया है, तो फिर छठे अध्ययनमें उन्होंने किस भावका निरूपण किया है ?
भगवान कहते हैं
हे जम्बू ! उस काल उस समयमें राजगृह नामका नगर था। उस नगरमें गुणशिलक चैत्य था । श्रेणिक नामके राजा उसमें राज्य करते थे। भगवान महावीर स्वामी उस नगरमें पधारे । परिषद भगवानके वन्दनके निमित्त गई। उस काल उस समयमें माणिभद्र देव सुधर्मा सभामें माणिभद्र सिंहासन पर चार हजार सामानिक देवोंके साथ बैठे हुए थे। वे माणिभद्र देव पूर्णभद्रके समान भगवानके पास आये और नाट्यविधि दिखाकर चले गये। गौतमने माणिभद्रको दिव्य देवऋद्धिके बारेमें पूर्ववत् प्रश्न किया। भगवानने कूटागारशालाके दृष्टान्तसे उसका उत्तर दिया । गौतमने माणिभद्र देवके पूर्व जन्मके बारेमें प्रश्न किया ।
પૂર્વોક્ત ભાવ બતાવ્યું છે તે પછી છઠ્ઠા અધ્યયનમાં તેમણે કયા ભાવનું નિરૂપણ કર્યું
ભગવાન કહે છે --
હે જબ્બ તે કાળે તે સમયે રાજગહ નામે નગર હતું. તે નગરમાં ગુણલિક નામે ચિત્ય હતું. શ્રેણિક નામના રાજા તેમાં રાજ્ય કરતા હતા. ભગવાન મહાવીર સ્વામી તે નગરમાં પધાર્યા. પરિષદુ ભગવાનને વંદન કરવા ગઈ. તે કાળ તે સમયે માણિભદ્ર દેવ સુધર્મા સભામાં માણિભદ્ર સિંહાસન ઉપર ચાર હજાર સામાનિક દેવોની સાથે બેઠેલા હતા. માણિભદ્ર દેવ પૂર્ણભદ્રની પેઠે ભગવાનની પાસે આવ્યા અને નાટ્ય વિધિ દેખાડી અન્તર્ધાન થઈ ગયા–પાછા જતા રહ્યા. ગૌતમે માણિભદ્રની દિવ્ય દેવ અદ્ધિના બાબત અગાઉની પેઠે પ્રશ્ન કર્યો. ભગવાને કૂટાગારશાલાના દૃષ્ટાંતથી તેને ઉત્તર આપ્યો. ગૌતમે માણિભદ્ર દેવના HAMR. प्रश्न भयो
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सन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अभ्य. ६ मानिभद्र देव -
भगवानने कहा
उस काल उस समयमें मणिपदिका नामकी नगरी थी, उसमें माणिभद्र नामका एक गाथापति था। जिसने स्थविरोंके समीप प्रव्रज्या ग्रहणकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया । बहुत वर्षों तक श्रामण्य पर्यायका पालन किया और मासिक संलेखना की, अनशन द्वारा साठ भक्तोंको छेदनकर पापस्थानोंका आलोचन प्रतिक्रमण करके काल अवसरमें कालकर माणिभद्र विमानमें उत्पन्न हुआ। यहाँ उसकी स्थिति दो सागरोपम है। अन्तमें देवलोकसे च्यव कर महाविदेह क्षेत्रमें जन्म लेकर सिद्ध होगा और सब दुःखोंका अन्त करेगा ।
सुधर्मा स्वामी कहते हैं
हे जम्बू ! इस प्रकार श्रमण भगवान महावीरने पुष्पिताके छठे अध्ययनके भावका प्रतिपादन किया। .
।पुष्पिताका छठा अध्ययन समाप्त हुआ।
सवान ४थु:--
તે કાળ તે સમયે મણિપદિકા નામની નગરી હતી. તેમાં માણિભદ્ર નામે એક ગાથાપતિ હતે. જેણે સ્થવિરેની પાસે પ્રત્રજ્યા ગ્રહણ કરી અગીયાર અંગેનું અધ્યયન કર્યું. ઘણા વર્ષો સુધી દીક્ષા પર્યાય, ચારિત્ર પયયનું પાલન કર્યું. માસિકી સંલેખનાથી અનશન દ્વારા સાઠ ભક્તોનું છેદન કરી પા૫ સ્થાનોની આલેચના પ્રતિક્રમણ કરી કાળ અવસરમાં કાળ કરીને માણિભદ્ર વિમાનમાં ઉત્પન્ન થયા. ત્યાં તેની સ્થિતિ બે સાગરોપમ છે. આખરે દેવકથી ચવી મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં જન્મ લઈ સિદ્ધ થશે. અને સર્વે ને અંત લાવશે.
સુધર્મા સ્વામી કહે છે –
કે જખ્ખ ! આ પ્રકારે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પુષિતાના છઠ્ઠા અધ્યયનના ભાવનું પ્રતિપાદન કર્યું.
પુપિતાનું છઠું અધ્યયન રામાપ્ત.
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३९४
३ पुष्मितारण मूलम्एवं दत्ते ७ सिवे ८ बले ९ अणाढिए १० सव्वे जहा पुण्णभद्दे देवे । सव्वेसि दोसागरोवमाइं ठिई । विमाणा देवसरिसनामा । पुन्वभवे दत्ते चंदणाए, सिवे मिहिलाए, बलो हत्थिणपुरनयरे, अणाढिए काकंदीए, चेइयाइं जहा संगहणीए ॥
॥ तइओ वग्गो सम्मत्तो ॥
छायाएवं दत्तः ७ शिवः ८ बलः ९ अनादृतः १० सर्वे यथा पूर्णभद्रो देवः । सर्वेषां द्विसागरोपमा स्थितिः, विमानानि देवसदृशनामानि, पूर्वभवे दत्तः चन्दनायाम् , शिवो मिथिलायां, बलो हस्तिनापुरे नगरे, अनाहतः काकन्यां, चैत्यानि यथा संग्रहण्याम् ॥ १॥
॥ इति पुष्पितायां सप्तमाष्टमनवमदशमान्यध्ययनानि समाप्तानि ॥
॥ इति तृतीयो वर्गः समाप्तः ॥
टीका‘एवं' इत्यादि-व्याख्या स्पष्टा ॥२॥
पुष्पिताख्यस्तृतीयो वर्गः समाप्तः ॥३॥ इसी प्रकार ७ दत्त, ८ शिव, ९ बल, १० अनादृत, इन सभी देवोंका वर्णन पूर्णभद्र देव के समान जानना चाहिये । सभीकी स्थिति दो दो
આ પ્રકારે ૭ દત્ત, ૮ શિવ, ૯ બલ, ૧૦ અનાદુર આ બધા દેવોનું વર્ણન પૂર્ણભદ્ર દેવના જેવું જાણી લેવું જોઈએ. બધાની
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सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अभ्य. ७, ८, ९, १०, दत, शिष, पल, अनाहत, ३९५ सागरोपम है। इन देवोंके नामके समान ही इनके विमानोका नाम है। 'दत्त' अपने पूर्व जन्ममें चन्दना नगरीमें, 'शिव' मिथिलामें, 'बल' हस्तिनापुरमें, 'अनाहत ' काकन्दीमें, जन्मे थे। संग्रहणी गाथाके अनुसार उद्यान जानना चाहिये । ॥ ७ ॥ ८ ॥ ९ ॥ १० ॥ पुष्पिताका सातवाँ, भाठवा, नवमा, और दसवा अध्ययन समाप्त हुआ।
पुष्पिता नामका तृतीय वर्ग समाप्त हुआ ॥३॥
સ્થિતિ અને સાગરોપમ છે. તે દેના નામના જેવાજ તેમનાં વિમાનનાં નામ છે દત્ત પોતાના પૂર્વ જન્મમાં ચન્દના નગરીમાં, શિવ મિથિલામાં, બલ હસ્તિનાપુરમાં અનાદત કાકદીમાં જન્મ્યા હતાં. સંગ્રહણી ગાથા અનુસાર ઉડાન જાણી લેવા જોઈએ. જે ૭ | ૮ | ૯ કે ૧૦ છે પુષ્પિતાનું સાતમું–આઠમું-નવમું-દશમું અધ્યયન સમાપ્ત.
પુપિતા નામે તૃતીય વર્ગ રામાપ્ત.
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४ पुपतिमा अथ पुष्पचूलिकाख्यश्चतुर्थों वर्गः ॥ ४ ॥
मूलम्जइणं भंते ! समणेणं भगवया उक्खेवओ जाव दस अज्झयणा पण्णत्ता । तं जहा
" सिरि-हिरि-धिइ-कित्तीओ, बुद्धी लच्छी य होइ बोधव्वा । इलादेवी मुरादेवी, रसदेवी गंधदेवी य ॥ १॥"
जइणं भंते ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं उबंगाणं चउत्थस्स वग्गस्स पुप्फचूलाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता । पढमस्स णं मंते ! उक्खेवओ, एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं २ रायगिहे नयरे, गुणसिलए चेइए, सेणिए राया, सामी समोसढे; परिसा निग्गया । तेणं कालेणं २ सिरि देवी सोहम्मे कप्पे
छाया
यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन भगवता उत्क्षेपको यावद् दश अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि । तद् यथा
" श्री-ही-धृति-कीर्तयो बुद्धिलक्ष्मीश्च भवति बोद्धव्या । इलादेवी सुरादेवी, रसदेवी गन्धदेवी च ॥१॥"
यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन भगवता यावत् समाप्तेन उपाङ्गानां चतुर्थस्य वर्गस्य पुष्पचूलानां दशाऽध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, प्रथमस्य खलु भदन्त । उत्क्षेपकः, एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नाम नगरं, गुणशिलं चैत्यं, श्रेणिको राजा, स्वामी समवसृतः, परिषद् निर्गता । तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रीदेवी सौधर्मे कल्पे श्यवतंसके विमाने सभायां सुधर्मायां
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सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ४ अध्य. १ श्री देवी
३९७ सिरिवर्डिसए विमाणे सभाए मुहम्माए सिरिसि सीहासणंसि चउहि सामा णियसाहस्सेहिं चउहिं महत्तरियाहिं सपरिवाराहिं जहा बहुपुत्तिया जाव नट्टविहिं उवदंसित्ता पडिगया । नवरं [ दारय ] दारियाओ नत्थि । पुत्वभवपुच्छा । एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं २ रायगिहे नयरे गुणसिलए चेइए जियसत्तू राया । तत्थं गं रायगिहे नयरे सुदंसणे नामं गाहावई परिवसइ, अड्डे । तस्स णं सुदंसणस्स गाहावइस्स पिया नामं भारिया होत्था सोमाला । तस्स णं सुदंसणस्स गाहावइस्स धूया पियाए गाहावइणीए अत्तया भूया नाम दारिया होत्था वुड्डा बुट्टकुमारी जुण्णा जुण्णकुमारी पडियपुयत्थणी वरगपरिवज्जिया यावि होत्था । तेणं कालेणं २ पासे अरहा पुरिसादाणीए जाव नवरयणिए, वण्णओ सो चेव, समोसरणं, परिसा निग्गया । तरणं सा भूया दारिया इमोसे कहाए लट्ठा समाणी हट्टतुट्ठा जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता एवं वयासी-एवं खलु अम्मताओ ! श्रियि सिंहासने चतुर्भिः सामानिकसहस्रैः चतप्रभिमहत्तरिकामिः सपरिवाराभिः यथा बहुपुत्रिका यावद् नाट्यविधिमुपदर्य प्रतिगता । नवरं [दारक'] दारिका न सन्ति । पूर्वभवपृच्छा । एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नगरं, गुणशिलं चैत्यं, जितशत्रू राजा । तत्र खलु राजगृहे नगरे सुदर्शनो नाम गाथापतिः परिवसति, आब्यः । तस्य खल सुदर्शनस्य गाथापतेः प्रिया नाम भार्या अभवत् सुकुमारा । तस्य खलु सुदर्शनस्य गाथापतेः दुहिता प्रियाया गाथापतिकाया आत्मजा भूता नाम दारिका-अभवत् वृद्धा वृद्धकुमारी जीर्णा जीर्णकुमारी पतितपुतस्तनी वरपरिवर्जिता चापि अभवत् । तस्मिन् काले तस्मिन् समये पार्थोऽईन् पुरुषादानीयो यावद् नवरनिको. वर्णकः. सएव, समवसरणं, परिषद् निर्गता । ततः खलु सा भूता दारिकाः अस्या: कथाया लब्धार्था सती दृष्टतुष्टा० यत्रैव अम्बापितरौ तत्रैव उपागच्छति, : उपागत्य एवमवादीद-एवं खलु
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___४ पुष्पचूलिकासत्र पासे अरहा पुरिसादाणीए पुव्याणुपुरि चरमाणे जाव देवगणपरिखुडे विहरइ, तं इच्छामि णं अम्मयाओ ! तुम्भेहिं अब्भणुण्णाया समाणी पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स पायवंदिया गमित्तए । अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं ।
तए णं सा भूया दारिया ण्हाया० जाव सरीरा चेडीचक्कवालपरिकिण्णा साओ गिहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव वाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धम्मियं जाणप्पवरं दुरूढा । तएणं सा भूया दारिया निययपरिवारपरिवुडा रायगिहं नयरं मझमज्झेण निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव गुणमिलए चेइए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता छत्तादीए तित्थकरातिसए० पासइ, धम्मियाओ जाणप्पवराओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहिता चेडीचकवालपरिकिण्णा जेणेव पासे अरहा पुरिसादाणीए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो जाव पज्जुवासइ । तएणं पासे अरहा पुरिसादाणीए भूयाए दारियाए तीसे महइ० धम्मकहा, धम्मं सोचा णिसम्म हट्ट वंदइ, वंदित्ता एवं वयासीसहहामि गं भंते ! निग्गंथं पावयणं जाव अन्भुअम्बतातौ ! पार्थोऽर्हन् पुरुषादानीयः पूर्वानुपूर्वी चरन् यावद् देवगणपरिवृतो विहरति, तद् इच्छामि खलु अम्बतातौ ! युवाभ्यामभ्यनुज्ञाता सती पार्श्वस्थाऽर्हतः पुरुषादानीयस्य पादवन्दनाय गन्तुम् , यथासुखं देवानुमिये ! मा प्रतिबन्धम् । ततः खलु सा भूता दारिका स्नाता यावत् सर्वालङ्कारविभूषितशरीरा चेटीचक्रवालपरिकीर्णा खस्माद् गृहात प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव बाह्योपस्थानशाला तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य धार्मिक यानमपरं दूरूढा । ततः खलु सा भूता दारिका निजपरिवारपरिहता राजगृहं नगरं मध्यमध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैव गुणशिलं चैत्यं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य छत्रादीन् तीर्थकरातिशयान् पश्यति । धार्मिकात् यानपवरात् प्रत्यवरुवा चेटीचक्रवालपरिकोर्णा यत्रैव पार्थोऽईन् पुरुषादानीयस्तत्रेयोपागच्छति, उपागत्य विकृत्वो यावत् पर्युपास्ते । ततः खल पायोइन् पुरुषादानीयो भूताय दारिकाये तस्यां महातिमहत्या० धर्मकथा ।
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सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ४ अभ्य. १ श्री देवी टेमिणं भंते ! निग्रोथं पावयणं, से जहे तं तुब्मे वदेह, जं नवरं देवाणुप्पिया ! अम्मापियरो आपुच्छामि, तएणं अहं जाव पब्वइत्तए । अहामुहं देवाणुप्पिया ! । तएणं सा भूया दारिया तमेव धम्मियं जाणप्पवरं जाव दुरूहइ, दुरूहित्ता जेणेव रायगिहे नयरे तेणेव उवागया, रायगिह नयरं मज्झं मज्झेण जेणेव सए गिहे तेणेव उवागया, रहाओ पञ्चोरुहित्ता जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागया, करतल० जहा जमाली आपुच्छइ । अहासुई देवाणुप्पिए ! तएणं से मुदंसणे गाहावई विउलं असणं ४ उवक्खडावेइ, मित्तनाइ० जाव जिमियभुत्तुत्तरकाले मुईभूए निकम्वमणमाणित्ता कोडंवियपुरिसे सदावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! भूयादारियाए पुरिससहस्सवाहिणीं सीयं उवटवेह, उवट्ठवित्ता जाव पञ्चप्पिणह । तएणं ते जाव पञ्चप्पिणंति ॥ १ ॥ धर्म श्रुत्वा निशम्य हृष्टतुष्टा० वन्दते, वन्दिना एवमवादीत्-श्रद्दधामि खलु भदन्त ! निर्ग्रन्थं प्रवचनं यावद् अभ्युत्तिष्ठामि खलु भदन्त ! :निर्ग्रन्थं प्रवचनम् , तद् यथैतद् यूयं वदथ; यद् नवरं देवानुप्रिय ! अम्बापितरौं आपृच्छामि । ततः खलु अहं यावत् प्रत्रजितुम् । यथामुखं देवानुपिये ! ततः खलु सा भूता दारिका तदेव धार्मिकं यानप्रवरं यावद् दूरोहति, दूरुह्य यत्रैव राजगृहं नगरं तत्रैवोपागता, राजगृहं नगरं मध्यमध्येन यत्रैव स्वं गृहं तत्रैवोपागता, रथात् प्रत्यवरुह्य यत्रैव अम्बापितरौ तत्रैवोपागवा, करतल० यथा जमालिः आपृच्छति । यथासुखं देवानुप्रिये ! ततः स सुदर्शनो गाथापतिः विपुलमशनम् ४ उपस्कारयति, मित्रज्ञाति० आमन्त्रयति, आमन्त्र्य यावत् जिमितभुक्त्युत्तरकाले शुचिभूतो निष्क्रमणमाज्ञाप्य कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीव-क्षिप्रमेव भो देवानुमिया ! भूतादारिकायै पुरुषसहस्राहिनों शिविकामुस्थापयत, उपस्थाप्य० प्रत्यर्पयत । ततः खलु ते यावत् प्रत्यर्पयन्ति ॥ १॥ .
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४ पुष्पवृलिका सत्र
टीका'जइणं भंते' इत्यादि व्याख्या सुगमा ॥१॥
चतुर्थ वर्ग (४)
पुष्पचूलिका. 'जइणं भंते' इत्यादिजम्बू स्वामी पूछते हैं
हे भदन्त ! श्रमण भगवान महावीरने पुष्पिता वर्गमें दस अध्ययनोंका निरूपण किया है। उसके बाद उन्होंने क्या कहा है ?
सुधर्मा स्वामी कहते हैं
हे जम्बू ! उसके बाद भगवानने पुष्पचूलिका वर्गका निरूपण किया है। उसमें उन्होंने दस अध्ययन बतलाये हैं। जोकि इस प्रकार हैं-(१) श्री, (२) ही, (३) धी, (४) कीर्ति, (५) बुद्धि, (६) लक्ष्मी, (७) इलादेवी, (८) सुरादेवी, (९) रसदेवी, (१०) गन्धदेवी ॥
यतुर्थ वर्ग (४)
પુ૫ચૂલિકા. 'जाणं भंते' त्याहि. જમ્મુ સ્વામી પૂછે છે –
હે ભદન્ત! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પુષ્પિતા વર્ગમાં દશ અધ્યયનનું નિરૂપણ કર્યું છે. ત્યાર પછી તેમણે શું કહ્યું છે?
હે જબ્બ ! ત્યાર પછી ભગવાને પુષ્પચૂલિકા વર્ગનું નિરૂપણ કર્યું છે. તેમાં तमा A अध्ययन मताव्यांना नाममा प्रा२ना छ:-(१) श्री, (२)ी, (३) घी, (४) त, (५) मुति, (६) भी, (७) हेवी, (८) सुराही, (6) रसी , (१०) अन्धवी.
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सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ४ अभ्य. १ श्री देवी
हे जम्बू ! इस प्रकार भगवानने दस अध्ययनोंका निरूपण किया है। .
जम्बू स्वामी पूछते हैं
हे भदन्त ! श्रमण भगवान महावीरने पुष्पचूलिका नामक चतुर्थवर्ग रूप उपाङ्गमें दस अध्ययनोंका निरूपण किया है, तो प्रथम अध्ययनका उन्होंने क्या भाव फरमाया है।
सुधर्मा स्वामी कहते है
हे जम्बू ! प्रथम अध्ययनके भावको भगवानने इस प्रकार निरूपण किया है-उस काल उस समयमें राजगृह नामक नगर था। उस नगरमें गुणशिलक नामक चैत्य था। उस नगरीके राजा श्रेणिक थे, वहाँ श्रमण भगवान महावीर पधारे। परिषद उनके दर्शनके लिये निकली । उस काल उस समयमें श्री-देवो सौधर्म कल्पके श्री-अवतंसक विमानमें सुधर्मा सभाके अन्दर श्री-सिंहासनपर चार
હે જખ્ખ ! આ પ્રમાણે ભગવાને દશ અધ્યયનેનું નિરૂપણ કર્યું છે – જમ્મુ સ્વામી પૂછે છે. -
હે ભદન્ત ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પુષ્પચૂલિકા નામે ચેથા વર્ગરૂપ ઉપાંગમાં દશ અધ્યયનેનું નિરૂપણ કર્યું છે. તે પ્રથમ અધ્યયનમાં તેમણે કર્યો ભાવ બત્રાવ્યો છે ?
સુધર્મા સ્વામી કહે છે –
હે જણૂ! પ્રથમ અધ્યયનના ભાવને આવી રીતે નિરૂપણ કર્યો છે તે કાળ તે સમયે રાજગૃહ નામે નગર હતું. તે નગરમાં ગુરુશિક નામે ચૈત્ય હતું. તે નગરીને રાજા શ્રેણિક હતું. ત્યાં શ્રમણ ભગવાન મહાવીર પધાર્યા પરિષદ તેમના દર્શન માટે નીકળી. તે કાળ તે સમયે શ્રી દેવી સૌધર્મકલ્પના શ્રી અવતંસક વિમાનમાં સુયરભાની અંદર શ્રી સિંહાસન પર ચાર હજાર
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४०२
_____४ पुष्पचूलिकासत्र हजार सामानिक देवोंके साथ तथा सपरिवार चार महत्तरिकाओके साथ बैठी हुई थी। वह श्री देवी बहुपुत्रिका देवीके समान भगवानके दर्शनके लिये आई और नाट्यविधि दिखाकर वापस गयी। बहुपुत्रिकासे विशेष केवल इतना ही है कि इसने कुमार कुमारियोंको वैक्रियिक शक्तिसे उत्पन्न नहीं किया ।
गौतमने पूछाहे भदन्त ! यह श्री देवी पूर्व जन्ममें कौन थी। भगवानने कहा
हे गौतम ! उस काल उस समयमें राजगृह नामका नगर था । उस नगरमें गुणशिलक नामक चैत्य था। उस नगरके राजाका नाम जितशत्रु था। उसमें सुदर्शन नामका गाथापति रहता था जो धन धान्यादिसे सम्पन्न था। उस गाथापतिकी पत्नीका नाम प्रिया था । जो अत्यन्त सुकुमार थी। उस सुदर्शन गाथापतिकी पुत्री तथा प्रिया गाथापत्नीकी आत्मजा-लडकोका नाम भूता था, जो कि वृद्धा और वृद्ध कुमारी ( अधिक वयवाली कन्या ) तथा जीर्णा और जीर्ण
સામાનિક દેવેની સાથે તથા સપરિવાર ચાર મહત્તરિકાઓની સાથે બેઠી હતી. તે શ્રીદેવી બહુપુત્રિકા દેવીની પેઠે ભગવાનના દર્શન માટે આવી અને 'નાટયવિધિ દેખાડી પાછી ચાલી ગઈ. બહુપત્રિકાથી વિશેષ માત્ર એ હતું કે આણે કુમાર કુમારિઓને વૈક્રિયિક શક્તિથી ઉત્પન્ન કર્યા નહતા.
गौतमे ५७यु:--: महन्त ! AL श्रीही पूर्वमा ती ?
ભગવાને કહ્યું--હે ગૌતમ! તે કાળ તે સમયે રાજગૃહ નામનું નગર હતું. તે નગરમાં ગુણશિલક નામનું ચેત્ય હતું. તે નગરના રાજાનું નામ જિતશત્રુ હતું. તે રાજગૃહ નગરમાં સુદર્શન નામનો ગાથાપતિ રહેતે હતો જે ધનધાન્ય . આદિથી સંપન્ન હતું. તે ગાથાપતિની પત્નીનું નામ પ્રિય હતું, જે અત્યંત સુકુમાર હતી. તે સુદર્શન ગાથાપતિની પુત્રી તથા પ્રિયા ગાથાપનીની આત્મજા (દીકરી) નું નામ ભૂતા હતું કે જે વૃદ્ધા અને વૃતકુમારી (વધારે વયવાળી
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शुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ४ अध्य. १ भी देवो
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कुमारी थी, एवं शिथिल नितम्ब और स्तनबाली थी, तथा अविवाहित थी। उस काल उस समयमें पुरुषादानीय ( पुरुषोंमें श्रेष्ठ ) नौ हाथके अवगाहनावाले अर्हत् पार्श्व प्रभु उस नगरीमें पधारे । भगवानके दर्शनके लिये परिषद अपने २ घरसे निकली। उसके बाद वह भूता दारिका भगवान पार्श्व प्रभुके आनेका वृत्तान्त सुनकर हृष्ट तुष्ट हृदयसे माता पिताके समीप आयी और उनसे इस प्रकार कहाहे माता पिता ! पुरुषादानीय भगवान पार्श्व प्रभु तीर्थंकरपरम्परासे विचरते हुए देवगणोंसे परिवृत हो इस राजगृह नगरमें पधारे हैं, इस लिये मेरी इच्छा है कि पुरुषादानीय उन पार्श्व प्रभुकी चरण वन्दनाके लिये जाऊँ । पुत्रीकी ऐसी इच्छा जानकर उन्होंने कहा-जाओ बेटी ! जिस प्रकार तुम्हें सुख हो वैसा करो। प्रमाद मत करो ।
उसके बाद वह भूता दारिका स्नान कर सभी प्रकारोंके अलङ्कारोंसे अपने को अलङ्कतकर दासियोंसे परिवेष्टित हो अपने घरसे निकलकर बाहर उपवेशन शालामें
કન્યા) તથા કર્ણ અને જીર્ણકુમારી હતી, એટલે કે શિથિલ નિતંબ અને સ્તનવાળી તથા અવિવાહિત હતી. તે કાળ તે સમયે ત્યાં પુરૂષાદાનીય (પુરૂષમાં શ્રેષ) નવહાથની અવગાહનાવાળા અહંતુ પાર્શ્વ પ્રભુ તે નગરીમાં પધાર્યા. ભગવાનનાં દર્શન કરવા માટે પરિષ૬ પિતાપિતાનાં ઘરમાંથી નીકળી. ત્યાર પછી તે ભૂતા દારિકા ભગવાન પાર્શ્વ પ્રભુના આવવાનું વૃત્તાન્ત સાંભળીને હષ્ટ તુષ્ટ હૃદયથી માતાપિતાની પાસે આવી અને તેમને આ પ્રકારે કહ્યું--હે માતાપિતા! પુરૂષાદાનીય ભગવાન પાર્શ્વ પ્રભુ તીર્થંકર પરંપરાથી વિચરતા દેવગણેથી પરિવત આ રાજગૃહ નગરમાં પધાર્યા છે. આ માટે મારી ઈચ્છા છે કે પુરૂષાદાનીય તે પ્રભુની ચરણ વન્દનાને માટે જાઉં. પુત્રીની એવી ઈચ્છા જાણીને તેઓએ કહ્યું –જાઓ દીકરી ! જે પ્રકારે તમને સુખ થાય તેમ કરે. કઈ પ્રકારનું પ્રમાદ ન કરે.
ત્યાર પછી તે ભૂતા દારિકા સ્નાન કરી બધા પ્રકારના અલંકાર (ઘરેણાં)થી વિભૂષિત થઈ દાસીઓથી પરિણિત (ઘેરાયેલી) થઈને પિતાના ઘેરથી નીકળી
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लेना चाहती हूँ ।
a
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४०४
४ पुष्पचूलिका सूत्र
आयी । वहाँ अपने धार्मिक रथपर चढी । उसके बाद वह भूता दारिका अपनी दासियोंसे परिवेष्टित हो राजगृह नगरके मध्यसे होती हुई गुणशिलक चैत्यमें पहुँची । वहाँ उसने तीर्थंकरोंके अतिशय, छत्र आदिको देखा और अपने धार्मिक रथसे उतरी। बादमें अपनी दासियोंसे परिवेष्टित हो पुरुषादानीय भगवान पार्श्व प्रभुके पास गयी और तीन बार प्रदक्षिणापूर्वक वन्दन नमस्कार करके उपासना करने लगी। उसके बाद पुरुषादानीय अर्हत् भगवान पार्श्व प्रभुने उस महती सभामें भूता दारीकाको धर्मोपदेश किया । अनन्तर भूता दारिका धर्म सुनकर उसे हृदयमें अवधारण कर हृष्ट तुष्ट हृदय हो भगवानको वन्दन और नमस्कार किया । पश्चात् उसने इस प्रकार कहा- हे भगवन् ! जिस प्रकार आपने निर्ग्रन्थ प्रवचनका निरूपण किया है उस निर्ग्रन्थ प्रवचन पर मैं श्रद्धा रखती हूँ और उसके आराधनके लिये मैं उद्यत हूँ । हे भदन्त ! मैं अपने माता पिताको पूछकर आपके समीप प्रव्रज्या
भाई छु.
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માહાર બેસવાની શાલામાં આવી. ત્યાં પેાતાના ધાર્મિક રથ ઉપર ચડી. ત્યાર પછી -તે ભૂતા દારિકા પેાતાની દાસીએથી પરિવેષ્ટિત થઇ રાજગૃહ નગરની વચ્ચે થઈને ગુરુશિલક ચૈત્યમાં પહોંચી. ત્યાં તેણે તીર્થંકરાનાં અતિશયક છત્ર આદિ જ્ઞેયાં. ત્યાં પેાતાના ધાર્મિક રથમાંથી નીચે ઉતરી. પછી પેાતાની દાસીએથી ઘેરાઈને પુરૂષાદાનીય ભગવાન પાર્શ્વ પ્રભુની પાસે ગઇ અને ત્રણવાર પ્રદક્ષિણાપૂર્વક વંદન નમસ્કાર કરી ઉપાસના કરવા લાગી. ત્યાર પછી પુરૂષાદાનીય આ ત્ ભગવાન પાર્શ્વ પ્રભુએ તે મેટી સભામાં ભૂતા દારિકાને ધર્મોપદેશ કર્યો. પછી ભૂતા દ્વારિકાએ ધર્મનું શ્રવણુ કરી તેને હૃદયમાં અવધારણ કરી હૃષ્ટ તુષ્ટ હૃદયથી ભગવાનને જૈન તથા નમસ્કાર કર્યો. પછી આ પ્રકારે કહ્યું: હે ભગવન્ ! જે પ્રકારે આપે નિગ્રન્થ પ્રવચનનું નિરૂપણ કર્યું છે તે નિગ્રન્થ પ્રવચનમાં હું શ્રદ્ધા રાખુ છું અને તેના આરાધન માટે હું યત્નશીલ છું.
હું બદન્ત ! હું મારાં માતાપિતાને પૂછીને આપની પાસે પ્રત્રજ્યા લેવા
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सुन्दरबोधिनो टोका वर्ग ४ अध्य. १ श्री देवी
४०५
भगवानने कहा
हे देवानुप्रिये ! जिस प्रकार तुझे सुख हो पैसा करो।
उसके बाद वह भूता दारिका उसी धार्मिक रथपर चढी और वहाँसे राजगृहकी ओर आयी। राजगृह नगरमें जहाँ उसका घर था वहाँ गयी। अपने घर जाकर रथसे उतरी, अनन्तर अपने माता पिताके समीप पहुँची। जमालोके तरह हाथ जोडकर अपने माता पितासे प्रव्रज्याके लिये आज्ञा मांगी। उन लोगोंने आज्ञा दीहे पुत्री ! जैसी तुम्हारी इच्छा हो।
उसके बाद उस सुदर्शन गाथापतिने विपुल अशन पान खाद्य और स्वाद इन चारों प्रकारके आहारको तैयार करवाया तथा मित्र ज्ञाति स्वजन बन्धुओंको निमन्त्रित किया और आदर सत्कार पूर्वक भोजन कराया। खाने पोनेके वाद पवित्र हो कौटुम्बिक ( आज्ञाकारी ) पुरुषोंको बुलवाकर दोक्षाकी तैयारी की आज्ञा देते
मापाने ४g:--
હે દેવાનુપ્રિયે ! જે પ્રકારે તને સુખ થાય તેમ કર. ત્યાર પછી તે ભૂતાદારિકા તેજ ધાર્મિક રથ ઉપર ચડી અને ત્યાંથી રાજગૃહ તરફ આવી. રાજગૃહ નગરમાં જ્યાં તેનું ઘર હતું ત્યાં ગઈ. પિતાને ઘેર જઈ રથમાંથી ઉતરી, પછી પિતાનાં માતાપિતાની પાસે પહોંચી. જમાલીની પેઠે હાથ જોડીને પિતાનાં માતાપિતા પાસે પ્રત્રજ્યા લેવા માટે આજ્ઞા માગી. તેઓએ આજ્ઞા આપી:-“હે પુત્રી ! જેવી તારી ઈચ્છા.”
. ત્યાર પછી તે સુદર્શન ગાથાપતિએ વિપુલ ( ખૂબ) અશનપાન-ખાદ્યસ્વાવ
એવા ચારે પ્રકારના આહાર તૈયાર કરાવ્યા તથા મિત્ર, જ્ઞાતિ, સ્વજન બંધુઓને નિમંત્રણ આપ્યું અને આદર સત્કારપૂર્વક ભોજન કરાવ્યું. ખાવાપીવાનું થઈ રહ્યા પછી પવિત્ર થઈ કૌટુંબિક (આજ્ઞાકારી) પુરૂષને બોલાવી ધીક્ષાની તૈયારી કરपानी भाn aai aaia I AMT.:- प्रिया! तमे an ent
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४ पुष्पनिकास
मूलम् - तएणं से सुदंसणे गाहापई भूयं दारियं व्हायं जाव विभूसियसरीरं शुरिससहस्सवाहिणि सोयं दुरूहइ, दुरूहित्ता मित्तनाइ० जाव रवेणं रायगिहं नयरं मझ मज्झेण जेणेष गुणसिलए चेइए तेणेव उवागए, छत्ताईए तित्थयराइसए पासइ, पासित्ता सीयं ठावेइ, ठावित्ता भूयं दारिय सोयाओ पच्चोरुहेइ । तएणं तं भूयं दारियं अम्मापियरो पुरओ काउं जेणेय पासे अरहा पुरिसादाणीएतेणेव उवागया, तिखुत्तो वंदंति नमंति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासो-एवं खलु देवाणुप्पिया ! भूया दारिया अम्हं एगा धूया इछा०, एस गं देवाणुप्पिया ! संसारभउविग्गा भीया जाव देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडा जाव पव्वयइ ।
छायाततः खलु स सुदर्शनो गाथापतिः भतां दारिकां स्नातां यावद् विभूषितशरीरां पुरुषसहस्रवाहिनीं शिविकां द्रोहयति, दूरोह्य मित्रज्ञाति० यावद् रवेण राजगृह नगरं मध्यमध्येन यत्रैव गुणशिलं चैत्य तत्रैवोपागतः, छत्रादीन् तीर्थकरातिशयान् पश्यति, दृष्ट्वा शिबिकां स्थापयति, स्थापयित्वा भूतां दारिकां शिबिकातः प्रत्यवरोहयति । ततः खलु तां भूतां दारिकामम्बापितरौ पुरतः कुना यत्रैव पार्थोऽर्हन् पुरुषादानीयस्तत्रैवोपागतो, त्रिःकृतो वन्देते नमस्यतः, वन्दिला नमस्यिता एवमवादिष्टाम्-एवं खलु हुए इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियो ! तुम लोग हजार पुरुषोंसे उठायी जानेवाली शिबिकाको भूता दारिकाके लिये तैयार करो और ले आयो। उसके बाद वे लोग शिबिकाको सजाकर ले आये ॥ १॥ .
પરથી ઉપાડાય એવી શિબિકા (પાલખી) ને ભૂતા દારિકા માટે તૈયાર કરે અને લઈ આવે. ત્યાર પછી તે લોકો તે પાલખીને સજાવીને લાવ્યા. (૧).
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४०७
सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ४ अध्य. १ श्री देवी तं एयं णं देवाणुप्पिया ! सिसिणिभिक्खं दलयामो, पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया ! सिस्सिणीमिक्खं । अहामुहं देवाणुप्पिए । तएणं सा भूया दारिया पामेणं अरहया० एवं वुत्ता समाणी हट्टतुट्ठा० उत्तरपुरस्थिमं सयमेव आभरणमल्लालकारं ओमुयइ, जहा देवाणंदा पुष्फचूलाणं अंतिए जाव गुत्तभयारिणी । तएणं सा भूया अज्जा अण्णया कयाइ सरीरवाओसिया जाया यावि होत्या, हत्थे धोवइ, पाये धोवइ, एवं सोसं घोवइ, मुहं धोवइ, थणगंतराई धोवइ, कक्खंतराइं धोवइ, गुज्झंतराइं धोवइ, जत्थ जत्थ वि य गं ठाणं वा सिजं वा निसीहियं वा चेएइ, तत्थ तत्थ वि य णं पुबामेव पाणएणं अभुक्खेइ । तो पच्छा ठाणं वा सिजं वा निसीहियं वा चेएइ । तएणं ताओ पुप्फचूलाओ अजाओ भूयं अजं एवं वयासी अम्हे णं देवाणुप्पिए ! समणीओ निग्गंथीओ इरियासमियाओ जाव गुत्तबंभयारिणीओ, नो खलु कप्पइ अम्हं सरीरबाओसियाणं होत्तए, तुमं च णं देवाणुप्पिए ! सरीरबाओदेवानुपियाः ! भूता दारिका अस्माकमेका दुहिता इष्टा०, एषा खलु देवानुपियाः ! संसारभयोद्विग्ना भीता यावद् देवानुप्रियाणामन्तिके मुण्डा यावत् प्रव्रजति, तद् एतां खलु देवानुपियाः ! शिष्यामिक्षां दद्मः, प्रतीच्छन्तु
खलु देवानुमियाः ! शिष्याभिक्षाम् । यथासुखं देवानुपियाः ! । ततः खलु .सा भूता दारिका पार्श्वनार्हता. एवमुक्ता सती दृष्टा उत्तरपौरस्त्यां स्वयमेव
आभरणमाल्यालङ्कारमवमुञ्चति, यथा देवानन्दा पुष्पचूलानामन्तिके यावद् गुप्तब्रह्मचारिणी । ततः खलु सा भूता आर्या अन्यदा कदाचित् शरीरबाकुशिका जाता चापि अभवत् । अभीक्ष्णमभीक्ष्णं हस्तौ धावति, पादौ धावति, एवं शीर्ष धावति, मुखं धावति, स्तनान्तराणि कक्षान्तराणि धावति, गुह्यान्तराणि धावति, यत्र यत्रापि च खलु स्थानं वा शय्यां वा नैषेधिकीं (स्वाध्यायभूमि) चेतयते (करोति) तत्र तत्रापि च खलु पूर्वमेव पानीयेन अभ्युक्षति । ततः पश्चात् स्थानं वा शय्यां :वा नैषेधिकों वा चेतयते ।
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४०८
४ पुष्पचूलिका सत्र सिया अभिक्खणं २हत्ये धोवसि जाव निसीहियं चेएसि, तं णं तुमं देवाणुप्पिए ! एयस्स ठाणस्स आलोएहि त्ति, सेसं जहा सुभदाए जाव पाडियकं उवस्सयं उपसंपज्जित्ता णं विहरइ । तएणं सा भूया अज्जा अणोहटिया अणिवारिया सच्छंदमई अभिक्खणं २ हत्थे धोवइ जाव चेएइ । तएणं सा भूया अज्जा बहूर्हि चउत्थछट्ट० बहूई वासाई सामण्णपरियागं पाउणित्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिकंता कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे सिरिवसिए विमाणे उववायसभाए देवसयणिज्जसि जावतोगाहणाए सिरिदेवित्ताए उववण्णा पंचविहाए पजत्तीए भासामणपञ्जत्तीए पजत्ता । एवं खलु गोयमा ! सिरीए देवीए एसा दिव्या देविड्डी लद्धा पत्ता । ठिई एगं पलिओवमं । सिरी णं भंते ! देवी जाव कहिं गच्छिहिइ ? महाविदेहे ततः खलु ताः पुष्पचूला आर्या भूतामार्यामेवमवादिषुः-वयं खलु देवानुपिये ! श्रमण्यो निर्ग्रन्थ्यः, ईर्यासमिता यावद् गुप्तब्रह्मचारिण्यः, नो खलु कल्पते अस्माकं शरीरबाकुशिकाः खलु भवितुम्, त्वच खलु देवानुप्रिये ! शरीरबाकुशिका अभीक्ष्णमभोक्ष्णं हस्तौ धावसि यावद् नैषेधिकी चेतयसि, तत् खलु त्वं देवानुपिये ! एतस्य स्थानस्य आलोचयेति, शेषं यथा सुभद्रायाः यावत् प्रत्येकमुपाश्रयमुपसंपच खलु विहरति । ततः खल सा भूता आर्या अनपघट्टिका अनिवारिता खच्छन्दमतिः अमीक्ष्णमभीक्ष्णं हस्तौ धावति यावत् घेतयते । ततः खलु सां भूता आयो बहुमिः चतुर्थ षष्ठाष्टम० बहुनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं पालयिता तस्य स्थानस्य अनालोचितपतिक्रान्ता कालमासे कालं कृता सौधर्म कल्ये श्यवतंसके विमाने उपपातसमायां देवशयनीये यावत् तदगाहनया श्रीदेवीसयोपपमा पञ्चविधया पर्याप्त्या भाषामनःपर्याप्त्या पर्याप्ता । एवं ला गौतम ! श्रिया देख्या एषा दिव्या देवऋद्धिलब्धा प्राप्ताः स्थितिरेकं पल्यो - पमम् । श्रीः खल्लु मदन्त ! देवी यापन क्य गमिष्यति ? महाविदेह में
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सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ४ अध्य. १ श्री देवी
४०९
कासे सिज्झिहि । एवं खलु जंबू ! निक्खेवओ । एवं सेसाणं वि नवहं भाणियव्वं, सरिसनामा विमाणा, सोहम्मे कप्पे, पुव्वभवे नयरचेइयपियमाईणं अप्पणो य नामादी जहां संगहणीए; सव्वा पासस्स अंतिए निक्खता । ताओ पुप्फचूलाणं सिस्सिणियाओ सरीरबाओसियाओ सव्वाओ अणंतरं चरं चइता महाविदेहे वासे सिज्झिर्हिति ॥ २ ॥
|| पुष्कचूलिया णामं चतुत्थवग्गो सम्मत्तो ॥ ४॥
सेत्स्यति । एवं खलु जम्बूः ! निक्षेपकः । एवं शेषाणामपि नवानां भणितव्यं, सदृशनामानि विमानानि, सौधर्मे कल्पे, पूर्वभवे नगरचैत्यपित्रादीनाम् आत्मनश्च नामादिर्यथा संग्रहण्याम्, सर्वाः पार्श्वस्यान्तिके निष्क्रान्ताः । ताः पुष्पचूलानां शिष्याः शरीरबाकुशिकाः सर्वा अनन्तरं चयं च्युला महाविदेहे वर्षे सेत्स्यन्ति ॥ २ ॥
टीका
6
6
तपणं से सुदंसणे' इत्यादि । अभुक्खड़ ' = अभ्युक्षति = अभिषिश्चति । चेएइ ' चेतर्यात = उपविशति । शेषं स्पष्टम् ॥
पुष्पचूलिकाख्यश्चतुर्थो वर्गः समाप्तः ॥ ४ ॥
4 तणं से' इत्यादि
उसके बाद उस सुदर्शन गाथापतिने स्नान की हुई तथा सभी अलङ्कारोंसे अलङ्कृत उस भूता दारिकाको शिबिकामें बैठाया । अनन्तर वह अपने सभी मित्र
'तपणं से' इत्याहि.
ત્યાર પછી તે સુદર્શન ગાથાપતિએ ભૂતા દ્વારિકા કે જે સ્નાન કરીને તથા તમામ અલંકારાથી વિભૂષિત હતી તેને તે શિખિકામાં બેસાડી. પછી તે
પર
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४ पुष्पधुलिका बन ज्ञाति स्वजन बन्धुओंके साथ मेरी आदि बाजोंकी वनिसे दिशाको मुखरित करता हुआ राजगृह नगरीके बीचोबीचसे होता हुआ गुणशिलक चैत्यके पास पहुँचा । वहाँ उसने तीर्थंकरोंके अतिशयको देखा और शिबिकाको ठहराया। तथा भूता दारिका शिबिकासे उतरी । उसके बाद माता पिता भूता दारिकाको आगे कर जहाँ पर पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व प्रभु थे वहाँ आये, और तीन बार आदक्षिणप्रदक्षिण करके वन्दन और नमस्कार किया अनन्तर उन्होंने कहा-हे देवानुप्रिय ! यह भूता दारिका हमारी एका-एक ( इकलौती) पुत्री है, यह हमलोगोंकी अत्यन्त प्यारी है। यह दारिका संसारके भयसे अत्यन्त उद्विग्न है, तथा इसको जन्म और मरणका भय लगा हुआ है, इसलिये यह आपके समीप मुण्डित होकर प्रव्रजित होना चाहती है। हे भदन्त ! इसलिये हम आपको यह शिष्यारूप भिक्षा देते हैं । हे देवानुप्रिय ! इस शिष्यारूप भिक्षाको आप स्वीकार करें ।
भगवानने कहा—हे देवानुप्रिये ! जैसी तुम्हारी इच्छा हो। પિતાના સર્વે મિત્ર, જ્ઞાતિ, સ્વજન બંધુઓની સાથે ભેરી, શરણાઈ આદિ વાજાએના ઇવનિથી દિશાઓને મુખરિત કરતા રાજગૃહ નગરીની વચ્ચોવચ થઈને આવતાં ગુણશિલક ચેત્યની પાસે પહોંચ્યા. ત્યાં તેમણે તીર્થકરના અતિશયને જે અને ત્યાં તે પાલખીને થંભાવી. તથા ભૂતા દારિકા શિબિકામાંથી નીચે ઉતરી. ત્યાર પછી માતાપિતા ભૂતા દારિકાને આગળ કરીને ચાલતાં જ્યાં પુરૂષાદાનીય અહંતુ પાર્શ્વ પ્રભુ હતા ત્યાં આવ્યા. અને ત્રણવાર આદક્ષિણ પ્રદક્ષિણા કરીને વંદન તથા નમસ્કાર કર્યો. પછી તેઓએ કહ્યું – હે દેવાનુપ્રિય ! આ ભૂતા દારિકા અમારી એકની એક પુત્રી છે. તે અમને બહુજ વહાલી છે. આ દારિકા સંસારના ભયથી ઘણજ ઉદ્વિગ્ન છે અને તેને જન્મ તથા મરણને ભય લાગ્યા કરે છે. તે માટે તે આપની પાસે મુંડિત થઈને પ્રત્રજિત થવા ચાહે છે. હે ભદન્ત ! તે માટે અમે આપને આ શિધ્યારૂપ ભિક્ષા દઈએ છીએ. હે દેવાનુપ્રિય આ શિષ્યારૂપ શિક્ષાને આપ વીકાર કરે. सगवान [:- पानुप्रिये ! वीतमा ..
.
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मुन्दरबोधिनी टोका वर्ग : मन्व. १ श्री देवी ., उसके पश्चात् अर्हत् पार्श्व प्रभुके इस प्रकार कहने पर वह भूता दारिका हृष्टतुष्टहृदयसे ईशान कोणमें जाकर अपने ही हाथोंसे आभूषण आदिको अपने शरीरसे उतारती है। बादमें वह देवानन्दाके समान पुष्पचूला आर्याके समीप प्रवजित हो यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी होती है। उसके बाद वह भूता आर्या किसी समय शरीर बाकुशिका हो गयी, जिससे वह अपने हाथोंको, पैरोको, शिरको, मुँहको, तथा स्तनके अन्तर भागोको, एवं काखके अन्तरको और गुह्यके अन्तरको बार बार धोने लगी। जहाँ कहीं भी सोनेके लिये, बैठनेके लिये, स्वाध्याय करनेके लिये उपयुक्त स्थान निश्चित करती थी उसे पहलेसे ही पानीसे छिडकती थी, बाद वहाँ बैठती थी, सोती थी, स्वाध्याय करती थी। अनन्तर उस भूता आर्याके इस प्रकारके व्यवहारको देखकर पुष्पचूला आर्याने उससे इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिये ! हमलोग ईर्यासमिति आदि समितियोंसे युक्त यावत् गुप्तब्रह्मचारिणी श्रमणी निर्ग्रन्थी हैं। हमें शरीर बाकुशिका होना उचित नहीं है। हे देवानुप्रिये ! तुम शरीर बाकुशिका हो
ત્યાર પછી અહંતુ પાર્શ્વ પ્રભુના એ પ્રકારે કહેવાથી તે ભૂતા દારિકા હુઈ તુષ્ટ હૃદયથી ઈશાન કોણમાં જઈને પિતાના જ હાથેથી આભૂષણ આદિને પિતાના શરીર ઉપરથી ઉતારે છે. પછી તે દેવાનન્દાની પેઠે પુષ્પચૂલા આર્યાની પાસે પ્રજિત થઈ ગુસબ્રહ્મચારિણી બને છે. ત્યાર પછી તે ભૂતા આર્યા કોઈ એક વખતે શરીર બાકુશિકા થઈ ગઈ જેથી તે પોતાના હાથ, પગ, માથું, મેં તથા સ્તનના અંદરના ભાગોને અને કાંખના અંદરના ભાગે તથા ગુહ્યની અંદરના ભાગે વારંવાર જોવા લાગી. ત્યાં ત્યાં પણ સુવા માટે, બેસવા માટે સ્વાધ્યાય કરવા માટે ઉપયુક્ત સ્થાનને નિશ્ચય કરતી હતી તે પહેલાં જ ત્યાં પાણી છાંટતી હતી, પછી ત્યાં બેસતી હતી, સુતી હતી, સ્વાધ્યાય કરતી હતી. પછી તે ભૂતા આર્યાને આ પ્રકારને વ્યવહાર અને પુષ્પસૂવા આર્યાએ તેને આ પ્રકારે કહ્યું- હે દેવાનુપ્રિયે! આપણે ઈર્યાસમિતિ આદિ સમિતિઓથી યુક્ત અને ગુબ્રહ્મચારિણી શ્રમણ નિર્ચથી છીએ. આપણને શરીર બાકુશિકા થવું ઉચિત નથી. હે દેવાનુપ્રિયે ! તું શરીરબાશિકા થઈ ગઈ છે. તેથી હમેશાં હાથ, પગ આદિ અને વાર
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४ पुष्पा गयी हो, उससे सर्वदा-वार वार हाथ पैर आदि अंगोको घोती हो, बैठने सोने तथा स्वाध्याय करनेकी जगहको पानीसे छिडका करती हो। इसलिये हे देवानुप्रिये ! तुम इस पाप स्थानकी आलोचना करो। उसके बाद पुष्पचूलाकी बात न मानकर वह भूता आर्या सुभद्रा आर्याके समान अकेली ही अलग उपाश्रयमें उतरी और पूर्ववत् क्रिया करती हुई स्वतन्त्र होकर रहने लगी। उसके बाद वह भूता आर्या बहुतसे चतुर्थ षष्ठ अष्टम आदि तपसे आत्माको भावित करती हुई तथा बहुत वर्षों तक श्रामण्यपर्यायको पालन करती हुई अपने पापस्थानोंकी आलोचना
और प्रतिक्रमण किये विना काल अबसरमें कालकर सौधर्म कल्पके श्री-अवतंसक विमानमें उपपात समाके अन्दर देव-शयनीय शय्यामें उस देव सम्बन्धी अवगाहनासे श्री देवी पने उत्पन्न हुई और भाषापर्याप्ति मनःपर्याप्ति आदि पाँच पर्याप्तियोंसे युक्त हो गयी। देवगतिमें भाषा और मनपर्याप्ति एक साथ बाँधनेके कारण पाँच पर्याप्ति कही गयी है।
વાર ધુએ છે. બેસવા, સુવા તથા સ્વાધ્યાય કરવાની જગા ઉપર પાણી છાંટે છે. માટે હે દેવાનુપ્રિયે ! તું આ પાપસ્થાનની આચના કરી. ત્યાર પછી તે પુરા ચૂલાની વાત ન માનીને તે ભૂતા આ સુભદ્રા આર્યાની પેઠે એકલી જ જુલ ઉપાશ્રયમાં ઉતરી અને પૂર્વવત્ વર્તતી સ્વતંત્ર થઈને રહેવા લાગી. ત્યાર પછી તે ભૂતા આ ઘણાં ચતુર્થ, ષષ્ઠ, અષ્ટમ આદિ તપેથી આત્માને ભાવિત કરતી અને ઘણાં વર્ષો સુધી દીક્ષા પર્યાયનું પાલન કરતાં તેણે પિતાનાં પાપસ્થાની આચના અને પ્રતિક્રમણ કર્યા વગર પછી કાળ અવસરમાં કાળા કરીને સૌધર્મ કલ્પના શ્રી અવતંક વિમાનમાં ઉપપાત સભાની અંદર દેવશયનીય શય્યામાં તે દેવ સબંધી અવગાહના દ્વારા શ્રી–દેવી પણામાં જન્મ લીધે અને ભાષા પર્યામિ, મન:પર્યાપ્તિ આદિ પાંચ પર્યાસિએથી યુક્ત થઈ ગઈ. દેવગતીમાં ભાષા અને મા પર્યાપ્તિ એક સાથે બાંધવાના કારણે પાંચ પર્યાપ્તિ કહી છે.
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टोका वर्ग ४ अध्य. १ भी देवो
४२३
हे गौतम ! श्री देवीने इस प्रकार इस दिव्य देवऋद्धिको पाया है । देव
1
कमें इसकी स्थिति एक पल्योपमकी है ।
गौतम स्वामीने पूछा
हे भदन्त । यह श्री देवी यहाँसे व्यवकर कहाँ जायगा ।
: खोका अन्त करेगी ।
भगवान कहते हैं—
हे गौतम ! वह महाविदेह क्षेत्रमें जन्म लेकर सिद्ध होगी और सब
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सुधर्मा स्वामी कहते हैं
हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीरने पुष्पचूलिकाके प्रथम अध्ययनका भाव क्त प्रकार निरूपित किया है।
इसी प्रकार शेष नौ अध्ययनोंका भी भाव जानना चाहिये । इन नवोके मानका नाम इनके नामोंके समान है। सौधर्म कल्पमें ये सब देवीपनमें
હે ગૌતમ ! શ્રી–દેવીએ આ પ્રકારે આ દિવ્ય દેવઋદ્ધિને મેળવી છે. ત્રલેાકમાં તેની સ્થિતિ એક પત્યેાપમની છે.
ગૌતમ સ્વામી પૂછે છે:-~~~
હું ભદ્રંન્ત ! આ શ્રી-દેવી અહીંથી ચ્યવીને ક્યાં જશે
भगवान हे छे:
હે ગૌતમ ! તે મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં જન્મ લઈ સિદ્ધ થશે અને માં ખના અંત લાવશે.
સુધાં સ્વામી કહે છે:--
હે જમ્મૂ ! શ્રમણુ ભગવાન મહાવીરે પુષ્પચૂલિકાના પ્રથમ અધ્યયનના ાવ ઉપર પ્રમાણે નિરૂપિત કર્યો છે.
આ પ્રકારે શેષ ( ખાકીના ) નવ ઇએ. આ નવનાં વિમાનનાં નામ તેના
અધ્યયનાના પશુ ભાવ જાણી લેવા નામના જેવાંજ છે. સૌધ કલ્પમાં
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उत्पन्न हुई। इनके पूर्वभवमें नगर उद्यान पिता आदि तथा इनका अपना नाम आदि संग्रहणीगथामें आये हुए नामके समान जानना चाहिये । ये सभी पार्थ प्रभुके समीपमें प्रवजित होकर पुष्पचूलाकी शिष्या हुई तथा सभी शरीरबाकुशिका हो गयीं। और ये सभी देवलोकसे च्यवकर महाविदेह क्षेत्रमें जन्म लेकर सिद्ध होंगी। और सब दुखोंका अन्त करेंगी ॥ २ ॥ " पुष्पचूलिका नामका चतुर्थ वर्ग समाप्त हुआ.
એ અધીને દેવીપણામાં જન્મ થયે. તેમના પૂર્વ ભવમાં નગર, ઉદ્યાન, પિતા આદિ તથા તેના પિતાનાં નામ આદિ સંગ્રહણી ગાથામાં આવેલાં નામનાં જેવાં જાણવાં. આ બધી પાર્થ પ્રભુની પાસે પ્રજિત થઈ અને તે બધી પુસૂલાની શિષ્યાઓ થઈ હતી તથા બધી શરીરનાકુશિકા થઈ ગઈ હતી. પછી બધી વિલેકમાંથી ચવીને મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં જન્મ લઈ સિદ્ધ થશે અને સર્વે દુઃખને અંત લાવશે. (૨),
પુષ્પચૂલિકા નામને ચે વર્ગ સમાપ્ત.
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सुन्दरबोधिनी टोका धर्म ५ अन्य. १ निषध
वृष्णिदशा ५
मूलम्जइणं भंते ! उक्खेवओ० उवंगाणं चउत्थस्स पुप्फचूलाणं अयमद्वे पण्णत्ते, पंचमस्स णं भंते ! वग्गस्स उवंगाणं वह्निदसाणं भगवया जाव संपत्तेणं के अढे पण्णत्ते ? एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव दुवालस अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा.. "निसढे १ मायनि २ वह ३ वहे ४, पगता ५ जुत्ती ६ दसरहे ७ दढरहे ८ य।
महाधणू ९ सत्तधण १०, दसधण ११ नामे सयधणू १२ य ॥१॥"
जइणं भंते ! समणेणं जाव दुवालस्स अज्झयणा पण्णत्ता, पढमस्स णं भंते ! उवक्खेवओ । एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं २ बारवई नाम नयरी होत्था दुवालसजोयणायामा जाव पञ्चक्खं देवलोयभूया
छायायदि खलु भदन्त ! उत्क्षेपकः, उपाङ्गानां चतुर्थस्य पुष्पचूलानामयमर्थः प्रज्ञप्तः, पञ्चमस्य खलु भदन्त ! वर्गस्य उपाङ्गानां वृष्णिदशानां श्रमणेन भगवता यावत्संपप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? एवं खलु जम्बूः ! श्रमणेन भगवता महावीरेण यावद् द्वादशाध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, तद् यथा- .
निषधः १, मायनी २ वहः ३ वहः ४ पगता, ५ ज्योतिः ६ दशरथः ७ दृढरथश्च ८ . महाधन्वा, ९ सप्तधन्वा, १० दशधन्वा, ११ नाम शतधन्वाच १२॥१॥ .. यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन यावद् द्वादशाध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, प्रथमस्य खलु भदन्त ! श्रमणेन यावद् द्वादशाध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, प्रथमस्य खलु भदन्त ! उत्क्षेपकः । एवं खलु जम्बूः । तस्मिन् काले तस्मिन् समये द्रारावती नाम नगरी अभवत द्वादशयोजनायामा यावत प्रत्यक्ष देव
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५ वृष्णिशास्त्र पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूषा । तीसे णं बारवईए नयरीए बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीमाए; एत्थ णं रेवए नाम पव्वए होत्था, तुंगे गगणतलमणुलिहंतसिहरे नाणाविहरुक्खगुच्छगुल्मलतावल्लीपरिगताभिरामे हंस-मिय-मयूर-कोंच-सारस-चक्कषाग-मयणसाला-कोइलकुलोववेए अणेगतडकडगवियरओझरपवायपुम्भारसिहरपउरे अच्छरगणदेवसंघचारणविजाहरमिहुणसंनिविन्ने निञ्चच्छणए दसारवरवीरपुरिसतेलोक्कबलवगाणं सोमे सुभए पियदंसणे सुरूवे पासाईए जाव पडिरूवे । तत्थ णं रेवयगस्स पव्ययस्स अदरसामंते एस्थ णं नंदणवणे नामं उज्जाणे होत्था, सब्बोउयपुप्फ जाव दरिसणिज्जे । तत्थणं नंदणवणे उजाणे सुरप्पियस्स जक्खस्स जक्खाययणे होत्था चिराईए जाव बहुजणो आगम्म अच्चेइ सुरप्पियं जक्खाययणं । से णं सुरप्पिए जक्खाययणे एगेणं महया वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते जहा पुण्णभद्दे जाव सिलावट्टए । तत्थ ण बारवईए
लोकभूता प्रासादीया दर्शनीया अमिरूपा प्रतिरूपा। तस्याः खलु द्वारावत्याः नगर्या बहिरुत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे; अत्र खलु रैवतो नाम पर्वतोऽभवत् , तुङ्गो गगनतळमनुलिहच्छिखरः नानाविधवृक्षगुच्छगुल्मलतावल्लीपरिगताभिरामः हंसमृगमयूरक्रौञ्चसारसचक्रवाकमदनशालाकोकिलकुलोपपेतः, अनेकतटकटकविवरावझरप्रपातमाग्भारशिखरमचुरः अप्सरोगणदेवसंघ-चारण विद्याधरमिथुनसनिचीर्णः, नित्यक्षणका, दशार्हवरवीरपुरुषत्रैलोक्यबलवतां सोमः शुभः प्रियदर्शनः सुरूपः प्रासादीयो यावत् प्रतिरूपः । तस्य खलु रैवतकस्य पर्वतस्य अदूरसामन्ते; अत्र खलु नन्दनवनं नाम उद्यानम् अभवत् , सर्वऋतु पुष्प० यावद् दर्शनीयम् । तत्र खलु नन्दनवने उद्याने सुरप्रियस्य यक्षस्य यक्षायतनमभवत्, चिरातीतं, यावद् बहुजन आगम्य अर्चयति सुरमियं यक्षायतनम् । तत् खलु सुरपियं यक्षायतनम् एकेन महता वनषण्डेन सर्वतः समन्तात् संपरिसिप्तम् यथा पूर्णभद्रो यावत् शिलापट्टकः । तत्र खलु
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सुन्दरबोधिनी टोका धर्म ५ अभ्य. १ मिषध नयरीए कण्हे नाम वासुदेवे राया होत्या जाव पसासेमाणे विहरइ । से णं तत्थ समुद्दविजयपामोक्खाणं दसण्हं दसाराणं, बलदेवपामोक्खाणं पंचण्डं महावीराणं, उग्गसेणपामोक्खाणं सोलसण्हं रायसहस्साणं, पज्जुण्णपामोक्खाणं अछुट्टाणं कुमारकोडीणं, संबपामोक्खाणं सट्ठीए दुइंतसाहस्सीणं, वीरसेणपामोक्खाणं एकवीसाए वीरसाहस्सीणं, महासेणपामोक्खाणं छप्पन्नाए बलबगसाहस्सीणं रुप्पिणिपामोक्खाणं सोलसण्हं देवीसाहस्सीणं, अणंगसेणापामोक्खाणं अणेगाणं गणियासाहस्सीणं, अण्णेसिं च बहूणं राईसर जाव सत्यवाहप्पमिईणं वेयगिरिसागरमेरागस्स दाहिणड्डभरहस्स आहेवच्चं जाव विहरइ । तत्थणं बारवईए नयरीए बलदेवे नामं राया होत्था, महया जाव रज्जं पसासेमाणे विहरइ । तस्स णं बलदेवस्स रण्णो रेवई नामं देवी होत्था, सोमाला जाव विहरइ । तएणं सा रेवई देवी अण्णया कयाइ तंसि तारिद्वारावत्यां नगर्या कृष्णो नाम वासुदेवो राजाऽभवत् यावत् प्रशासद् विहरति । स खलु तत्र समुद्रविजयप्रमुखानां दशानां दशार्हाणां, बलदेवप्रमुखानां पञ्चानां महावीराणाम् , उग्रसेनपमुखानां षोडशानां राजसहस्राणां, प्रद्युम्नममुखानाम् अध्युष्टानां (सार्द्धतृतीयानां ) कुमारकोटीनां, शाम्बप्रमुखानां षष्टथाः दुर्दान्तसहस्राणं, वीरसेनप्रमुखानामेकविंशत्याः वीरसहस्राणां, महासेनप्रमुखानां षट्पञ्चाशतो बलवत्सहस्राणां, रुक्मिणीपमुखानां षोडशानां देवीसाहस्रोणाम् , अनङ्गसेनाप्रमुखानामनेकासां गणिकासाहस्रीणाम् , अन्येषां च बहूनां राजेश्वर० यावत् सार्थवाहप्रभृतीनां वैतादयगिरिसागरमर्यादस्य दक्षिणा भरतस्याधिपत्यं यावद् विहरति । तत्र खलु द्वारावत्यां नगाँ बलदेवो नाम राजाऽभवद , महता यावद् राज्यं प्रशासद् विहरति । तस्य खलु बलदेवस्य राज्ञो रेवती नाम देव्यभवत् मुकुमारपाणिपादा यावद् विहरति । ततः खलु सा रेवती देवी अन्यदा कदाचित् वाशे शयनीये
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५ वृष्णिदशासूच
सरांसि सयणिज्जंसि जाव सीहं सुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा, एवं सुमिण दंसणपरिकहणं, निसढे नामं कुमारे जाए जाव कलाओ जहा महाबळे, पंनासओ दाओ, पण्णासरायकष्णगाणं एगदिवसेणं पाणि गिण्हावेइ, नवरं निसढे नामं जाव उपि पासाए विहरइ || १ ||
यावत् सिंहं स्वप्ने दृष्ट्वा खलु प्रतिबुद्धा एवं स्त्रप्रदर्शन परिकथनं निषधो नाम कुमारो जातः, यावत् कला यथा महाबलस्य, पश्चाशद् दायाः, पञ्चाशद्राजकन्यकानामेकदिवसेन पाणि ग्राहयति, नवरं निषधो नाम यावद् उपरि प्रासादे विहरति ॥ १ ॥
| वृष्णिदशा वर्ग ५ |
"
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टीका
"
यदि खलु' इत्यादि - नानाविध गुच्छ गुल्मलता वल्लीपरिगताभिरामः
"
जहणं भंते ' इत्यादि —
जम्बू स्वामी पूछते हैं
हे भदन्त ! पुष्पचूला नामके चतुर्थ उपाङ्गमें भगवानने
दस अध्ययनोंका निरूपण किया है तो हे भदन्त ! उसके बाद
'जइणं भंते ' इत्याहि
पूर्वोक्त प्रकारले
वृष्णिदशा नामक
पाँचवें उपाङ्गमें मोक्षप्राप्त श्रमण भगवान महावीरने किन अर्थोका निरूपण किया है ।
वृष्णुिदृशा वर्ग (५) पांयभा.
,
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જમ્મૂ સ્વામી પૂછે છે:—
હે ભદન્ત ! પુષ્પચૂલા નામના ચોથા ઉપાંગમાં ભગવાને પૂર્વોક્ત પ્રકારથી દશ અધ્યયનનું નિરૂપણ કર્યું છે તેા હે ભદન્ત ! ત્યાર પછી વૃષ્ણુિદશા નામના પાંચમા ઉપાંગમાં મેક્ષપ્રાપ્ત શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે ક્યા અર્થોનું નિરૂપણ કર્યું છે.
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सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ५ अध्य. १ निषध
सुधर्मा स्वामी कहते हैं
हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीरने वृष्णिदशा नामक पाँचवें वर्गमें बारह अध्ययनोंका निरूपण किया है।
उनके नाम ( १ ) निषध, (२) मायनी, ( ३ ) वह, ( ४ ) वह, ( ५ ) पगता, ( ६ ) ज्योति, (७) दशरथ, (८) दृढरथ, (९) महाधन्वा, (१०) सप्तधन्वा, (११) दशधन्वा, और ( १२ ) शतधन्वा हैं।
जम्बू स्वामी पूछते हैं
हे भदन्त ! यदि श्रमण भगवान महावीरने वृष्णिदशामें बारह अध्ययनोंका निरूपण किया है तो उन अध्ययनोमें प्रथम अध्ययनका क्या भाव कहा है ?
सुधर्मा स्वामी कहते हैंहे जम्बू ! उस काल उस समयमें द्वारावती नामकी नगरी थी। जो बारह
સુધર્મા સ્વામી કહે છે --
હે ખૂ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે વૃષ્ણિદશા નામના પાંચમા વર્ગમાં બાર અધ્યયનનું નિરૂપણ કર્યું છે.
तमनन नाम:--(१) निषध, (२) मायनी, (3) १७, (४) 46, (५) पता (6) न्योति, (७) ६२२५, (८) ६८२५, (८) महापा, (१०) सप्तध-वा, (११) Aधन्वा भने (१२) शतधन्वा छे.
જમ્મુ સ્વામી પૂછે છે –
હે ભદન્ત ! જે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે વૃષિ@દશામાં બાર અધ્યયનનું નિરૂપણ કર્યું છે તે તે અધ્યયનમાં પ્રથમ અધ્યયનને શું ભાવ કહ્યો છે ?
સુધર્મા સ્વામી કહે છે : હે જમ્મુ ! તે કાળ તે સમયે દ્વારાવતી નામની નગરી હતી, જે બાર
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४२०
५ वृष्णिद
नानाविधाः = अनेकप्रकाराः वृक्षाच गुच्छाः = स्तबकाश्च गुल्माः = स्तम्बाथ ( स्कन्धरहितास्तरवः ) लताः = व्रततयश्च वल्यः = लताविशेषाश्थ, ताभिः परिगतः = सम्प्राप्तः अभिरामः - शोभा यत्र स तथा अनेकप्रकारकतरुस्तबकस्तम्बलतावल्लीसम्प्राप्तच्छविः, हंस - मृग - मयूर - क्रौञ्च - सारस - चक्रवाकमदनशाला कोकिलकुलोपपेतः हंसाः - प्रसिद्धाः, मृगाः - हरिणाः, मयूराः क्रौञ्चाः, सारसाः, चक्रवाकाः, मदनशालाः = सारिकाविशेषाः, कोकिलाश्च, तेषां यत् कुलं= उपपेतः = युक्तः । अनेकतटकटकविवरा वझरप्रपातप्राग्भार
-
समूहस्तेन
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योजन लम्बी यावत् प्रत्यक्ष देवलोक सदृश ' प्रसादीया 'मनको प्रसन्न करने वाली तथा ' दर्शनीया ' = देखने योग्य एवं ' अभिरूपा ' = सुन्दर छटावाली और ' प्रतिरूपा ' = अनुपम शिल्पकलासे सुशोभित थी । उस द्वारावती नगरीके बाहर ईशान कोण में ऊँचा तथा आकाशको छूनेवाले शिखरोंसे युक्त रैवतक नामक पर्वत था । वह पर्वत अनेक प्रकारके वृक्ष गुच्छ गुल्म और लता बल्लियोंसे मनोहर था । वह हंस, मृग, मयूर, कौश्च ( पक्षी विशेष ) सारस, चक्रवाक, मदनशाला ( मैना ) और कोकिल आदि पक्षिवृन्दसे सुशोभित था । तथा जिसमें अनेक तट = किनारे और कटक = पर्वतका रमणीय भाग, तथा विवर= सुन्दर गुफाएँ और अवझर = सुन्दर झरने एवं प्रपात=जहाँ झरना गिरता है वह स्थान तथा प्राग्भार = पर्वतका झुका योन सांगी यावत् प्रत्यक्ष देवाना देवी, प्रसादीया=भनने प्रसन्न उरवावाणी तथा दर्शनीया=हेमवा, योग्य, अभिरूपा= सुंदर छटावाजी भने प्रतिरूपा=अनुयभ શિલ્પકલાથી સુશેાભિત હતી. તે દ્વારાવતી નગરીની મહાર ઇશાન કેણુમાં ઊંચા તથા ગગનચુંબી શિખરાવાળા રૈવતક નામને પત હતા. તે પર્વત અનેક જાતનાં વૃક્ષ, ગુચ્છ, ઝુલ્મ અને લતાવધીએથી મનેહર હતા. વળી તે હુંસ, भृग, भयूर, डोंय ( पक्षी ), सारस, अम्वाङ, भहनशाला ( भेना ) भने अमिसा ग्याहि पक्षीवृन्द्ध्था सुशोभित हतो. तथा नेमां अनेऊ तट = डिनारा भने कटक = पर्वतना रमणीय लाग तथा विवर=सुंदर शुभे। भने अवार=सुंदर अरथाओ, प्रपात=क्यां अरण्यां भडे छे ते स्थान, तथा प्राग्भार = पर्वतना नभेला रमणीय
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सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ५ माय..१ निषध
४२१ शिखरमचुरः-अनेकानि तटानि-तीराणि कटकाः गण्डशैलाः पर्वतासंत्रुव्यपतिता महापाषाणाः, विवराणि-छिद्राणि, अवशरा=निर्झरविशेषाः, प्रपाता = भृगवा गर्तरूपाणि निर्झरणजलपतनस्थानानि, प्राग्भाराः ईषदवनताः पर्वतपदे
हुआ रम्य प्रदेश और अनेक सुन्दर शिखर विद्यमान थे। वहाँ अप्सरागण देवगण और विद्याधरोंके युगल आकर क्रोडा करते थे । और जहाँ जङ्घाचरण विद्याचरण मुनि भी ध्यान मौनादिके लिये निवास करते थे। तथा वह पर्वत उत्सवका एक रमणीय स्थल था। और नेमिनाथ भगवानसे युक्त होनेके कारण तीनों लोकमें श्रेष्ठ बलवीर दशा)का वह पर्वत सोम आह्लाद उत्पन्न करनेवाला था, शुभ-मंगलकारी था प्रियदर्शन=नेत्रोंको सुख देनेवाला था, सुरूप सुहावना था, प्रसादीय मनको प्रसन्न करनेवाला था, दर्शनीय-देखने योग्य था, अभिरूप=अपनी सुन्दरताके कारण चमकता था, प्रतिरूप दर्शक जनोंके हृदयमें प्रतिबिम्बित हो जाता था। उस रैवतक पर्वतके समीपमें नन्दनवन नामक उद्यान था, जो सभी ऋतुओंके फूलोंसे सम्पन यावत् दर्शनीय था। उस नन्दनवन उद्यानमें सुरप्रिय यक्षका यक्षायतन बहुत
ભાગ અને સુંદર શિખર વિદ્યમાન હતા ત્યાં અપ્સરાગણ, દેવગણ, અને વિદ્યાધરનાં જેડલાં આવીને ક્રીડા કરતાં હતાં અને જ્યાં જંઘાચરણ, વિદ્યાચરણ મુનિ પણ ધ્યાન, મોન આદિ માટે નિવાસ કરતા હતા. તથા આ પર્વત હમેશાં ઉત્સવનું એક રમણીય સ્થાન હતું અને નેમીનાથ ભગવાનથી યુક્ત હોવાથી ત્રણે awi श्रेष्ठ मलवीर शानिपत सोम माइमा उत्पन्न ४२वावापाणी sal, शुभ मारी , प्रियदर्शन-नेत्रीने सुम आपापा तो, सुरूप ३याणा शामाR &, प्रासादोय-मनने प्रसन्न ४२वावा! तो, दर्शनीय नेवा योग्य
ता, अभिरूप पोतानी सुंदरताने सीधे यमरतो ता, प्रतिरूप=MRibiwi છાપ પાડે તે હતે, (પ્રતિબિંબિત થઈ જતે હતે.) તે રૈવત પર્વતની પાસે નન્દનવન નામે એક ઉધાન હતું. જે બધી ઋતુઓમાં કુલેથી સંપન્ન હેવાથી દર્શનીય હતે. તે નદનવન ઉધાનમાં સુત્રાયક્ષનું યક્ષાયતન બહુ પ્રાચીન હતું
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२२
५ वृष्णिदशा सूत्र
शाः, शिखराणि श्रृङ्गाणि, एतानि प्रचुराणि यत्र स तथा अप्सरोगणदेवसंघचारणविद्याधरमिथुनसंनिचीर्णः - अप्सरसां गणः = समूहः, देवसङ्घः = देवसमूहः चारणाः=जङ्घाचारणादयः साधुविशेषाः, विद्याधरमिथुनानि, तैः संनिचीर्णः
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प्राचीन था और लोक उसे मानते थे । वह सुरप्रिय यक्षायतन चारों तरफसे एक बडा वनषण्डसे घिरा हुआ था । जैसा पूर्णभद्र उद्यान था । उसमें अशोक वृक्षके नीचे एक शिला पडक था ।
उस द्वारावती नगरीमें कृष्ण वासुदेव राजा थे, जो उस नगरीका यावत् शासन करते हुए विचरते थे । वह कृष्ण वासुदेव समुद्रविजय प्रमुख दश दशारोंके, बलदेव प्रमुख पाँच महावीरोंके, उग्रसेन प्रमुख सोलह हजार राजाओंके, प्रधुम्न प्रमुख साढे तीन करोड कुमारोंके, शाम्ब प्रमुख साठ हजार दुर्दान्त शूरोके, वीरसेन प्रमुख एक्कीस हजार वीरोंके, महासेन प्रमुख छप्पन हजार बलवानों के, रूक्मिणी प्रमुख सोलह हजार देवियोंके तथा अनङ्गसेना प्रमुख अनेक हजार गणिकाओके और बहुतसे राजा ईश्वर तलवर माडम्बिक कौटुम्बिक श्रेष्ठी सेनापति
અને લેકે તેને માનતા હતા. તે સુરપ્રિય યક્ષાયતન ચારે તરફથી એક મોટા વનષડથી ઘેરાયેલું હતું કે જેવું પૂર્ણ ભદ્ર ઉદ્યાન હતું. તેમાં અશેાકવૃક્ષની નીચે એક શિલાપટ્ટક હતું.
તે દ્વારાવતી નગરીમાં કૃષ્ણ વાસુદેવ નામે રાજા હતા જે તે નગરીમાં રાજ્ય કરતા વિચરતા હતા. તે કૃષ્ણ વાસુદેવ સમુદ્રવિજય પ્રમુખ દશ ધ્યારાના, અલદેવ પ્રમુખ પાંચ મહાવીરાના, ઉગ્રસેન પ્રમુખ સેાળ હજાર રાજાઓના, પ્રદ્યુમ્ન પ્રમુખ સાડા ત્રણ કરોડ કુમારોના, સામ્ભ પ્રમુખ સાઠ હજાર દુર્દન્ત શૂરવીરાના, વીરસેન પ્રમુખ એકવીશ હજાર વીરાના, મહાસેન પ્રમુખ છપ્પન હજાર ખલવાનાના, રૂકિમણી પ્રમુખ સેાળ હજાર દેવીઓનાં તથા અનંગ સેના પ્રમુખ અનેક હજાર ગણિકાનાં, વળી ઘણા રાજા ઇશ્વર તલવર મામ્બિક કૌટુમ્બિક શ્રેણી સેનાપતી
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सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ५ अध्य. १ निषेध
४२३
अधिष्ठितः, नित्यक्षणकः - नित्यम् - अनवरतं क्षण एव क्षणक: = उत्सवो यत्र सः, केषामयं गिरिः ? इत्याह- दशार्हवरवीरपुरुषत्रैलोक्यबलवतां - दशाह :समुद्रविजयादयो दश दशाह:, तेषु वराः - श्रेष्ठाः, वीरपुरुषाच ते त्रैलोक्ये=
=
,
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सार्थवाह प्रभृतिओं ऊपर आधिपत्य करते हुए विचर रहे थे ।
तथा नैताढ्यगिरि और सागरसे मर्यादित दक्षिण अर्धभरतके,
उस द्वारावती नगरीमें बलदेव नामक राजा थे, जो महाबली थे और यावत् अपने राज्यका शासन करते हुए विचर रहे थे । उस बलदेव राजाकी पत्नी का नाम रेवती देवी था, जो सुकुमार हाथ पैरवाली और सर्वाङ्ग सुन्दर थी । तथा पाँचो इन्द्रियोंके सुखोंका अनुभव करती हुई विचरती थी । अनन्तर किसी समय वह रेवती देवी पुण्यवानके सोने लायक अपनी सुकोमल शय्यामें सोयी हुई स्वप्नमें सिंहको देखा और जाग गयी । स्वप्नका वृत्तान्त उसने राजा बलदेवको सुनाया । अनन्तर समय बीतने पर रेवतीके गर्भसे एक कुमार पैदा हुआ, जिसका नाम निषध रखा गया । वह कुमार बडा होकर महाबलके समान बहत्तर कलाओंमें
સા વાહ આદિના તથા વૈતાઢગિરિ અને સાગરથી મર્યાતિ દક્ષિણુ અ ભરતના ઉપર આધિપત્ય કરતા મકા રહેતા હતા.
તે દ્વારાવતી નગરીમાં ખલદેવ નામે રાજા હતા જે મહામલવાન હતા. અને પેાતાના રાજ્યનું શાસન કરતા વિચરતા હતા. તે ખલદેવ રાજાની પત્નીનું નામ રેવતી દેવી હતું, જે સુકુમાર હાથપગવાળી હતી અને સર્વાંગ સુંદર હતી અને પાંચ ઇન્દ્રિયાનાં સુખ અનુભવ કરતી વિચરતી હતી. પછી કાઇ સમયે તે રેવતી દેવી પુણ્યવાન લેાકેાને પઢવા ચાગ્ય એવી પાતાની સુકામલ શય્યામાં સુતી હતી ત્યાં સ્વપ્નમાં સિંહને જોયા અને જાગી ગઈ. સ્વપ્નનું વૃત્તાન્ત તેણે રાજા બલદેવને કહી સંભળાવ્યું. પછી સમય વીતતાં રેવતીના ગર્ભાથી એક કુમારના જન્મ થયા, જેનું નામ નિષેધ રાખવામાં આવ્યું. તે કુમાર માટે થતાં મહાખલના જેવા ખઉંતેર કળાઓમાં પ્રવીણ થઈ ગયા. પચાસ રાજકન્યાઓની સાથે
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५ वृष्णिदशा बाग
मूलम् —
तेणं कालेणं २ अरहा अरिट्ठनेमी आदिकरे दसघणूइं वण्णओ जाव समोसरिए, परिसा निग्गया । तरणं से कण्हे वासुदेवे इमीसे कहाए लद्धट्ठे समाणे ० कोबियपुर से सहावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी खिप्पामेव देवाणुप्पिया ! सभाए मुहम्मा सामुदाणियं भेरिं तालेह । तरणं से कोडुंबियपुरिसे जाव पडिणित्ता जेणेव सभाए मुहम्माए जेणेव सामुदाणिया भेरी तेणेव उवागच्छइ
छाया -
तस्मिन् काले तस्मिन् समये अर्हन् अरिष्टनेमिः आदिकरो दशधनुष्कः वर्णकः : यावत् समवस्मृतः, परिषत् निर्गता । ततः खलु स कृष्णो वासुदेवोऽस्याः कथाया लब्धार्थः सन् दृष्टतुष्टः ० कौटुम्बिक पुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत् क्षिप्रमेव देवानुप्रियाः ! सभायां सुधर्मायां सामुदानिकों भेरों ताडयत । ततः खलु ते कौटुम्बिकपुरुषा यावत् प्रतिश्रुत्य
लोकत्रये बलवन्तश्च अतुलबलशालिनेमिनाथयुक्तलात्, ये ते तथा तेषाम् । शेषं स्रुगमम् ॥ १॥
प्रवीण हो गया । पचास राज कन्याओंके साथ एक दिनमें उसका विवाह हुआ ' तथा उसको पचास-पचास दहेज मिला । अनन्तर पूर्वजन्म उपार्जित पुण्यसे मिले हुए पाँच इन्द्रियोंके सुखोंका अनुभव करता हुआ अपने महलमें उत्सव आदिके साथ रहने लगा ॥ १ ॥
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એક દિવસમાં તેનાં લગ્ન થયાં અને પચાસ પચાસ દહેજ મળ્યા. પછી પૂજન્મ ઉપાર્જિત પુણ્યથી મળેલાં પાંચે ઇન્દ્રિયાનાં સુખાના અનુભવ કરતેા તે પેાતાના અહેલમાં માનદ ઉત્સવમાં રહેવા લાગ્યા. (૧).
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.सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ५ अभ्य. १ निषध
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उवागच्छित्तातं सामुदाणियं भेरी महया २ सद्देणं तालेइ, तएणं तीसे सामुदाणियाए भेरीए महया २ सद्देण तालियाए समाणीए समुद्दविजयपामोक्खा दस दसारा देवीओ उण भाणियव्याओ जाव अणंगसेणापामोक्खा अणेगा गणियासहस्सा, अन्ने य बहवे राईसर जाव सत्यवाहप्पभिईओ ण्हाया जाव पायच्छित्ता सव्यालंकारविभूसिया जहा विभवडिसकारसमुदएणं, अप्पेगइया हयगया जाव पुरिसवग्गुरापरिक्खित्ता० जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करतल० कण्हं वासुदेवं जएणं विजएणं वद्धाति । तए णं से कण्हे वासुदेवे कोडंबियपुरिसे एवं वयासी खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! आभिसेकं हत्थिरयणं कप्पेह हयगयरहपवरजाव पञ्चप्पिणंति । तएणं से कण्हे वासुदे वे मज्जणघरे जाव दुरूढे, अट्ठमंगलगा, जहा कूणिए, सेयवरचामरेहि उद्धूयमाणेहि २ समुद्दविजयपामोक्खेहिं दसारेहिं जाव सत्थवाहप्पभिईहिं सद्धिं संपरिखुडे सचिड्ढोए जाव रवेणं बारवईनयरीमज्झंयत्रैव सभायां सुधर्मायां सामुदानिकी मेरी तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य तां सामुदानिकी भेरी महता २ शब्देन ताडयन्ति । ततः खलु तस्यां सामुदानिक्यां भेर्या महता २ शब्देन ताडितायां सत्यां समुद्रविजयममुखा दश दशाहर्हाः, देव्यः पुनर्भणितव्याः, यावद् अनङ्गसेनाप्रमुखानि अनेकानि गणिकासहस्राणि, अन्ये च बहवो राजेश्वर० यावत् सार्थवाहप्रभृतयः स्नाताः यावत् कृतप्रायश्चित्ताः सर्वालंकारविभूषिता यथाविभवऋद्धिसत्कारसमुदयेन अप्येकके हयगताः यावत् पुरुषवागुरापरिक्षिप्ता यत्रैव कृष्णो वासुदेवस्त. त्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य करतल० कृष्णं वासुदेवं जयेन विजयेन वर्द्धयन्ति । ततः खलु कृष्णो वासुदेवः कौटुम्बिकपुरुषानेवमवादीत्-क्षिप्रमेव भो देवानु. प्रियाः ! आभिषेक्यं हस्तिरत्नं कल्पयध्वम् , हय-गज-रथ प्रवरान् यावत् . प्रत्यर्पयन्ति । ततः खलु स कृष्णो वासुदेवो मज्जनगृहे यावद् दूरूढः अष्टाष्टमङ्गलकानि, यथा कूणिकः, श्वेतवरचामरैरुद्धयमानः २ समुद्रविजयप्रमुखैः
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५ वृष्णिदशा सूत्र
मज्झेण सेसं जहा कूणिओ जाव पज्जुवासइ । तए णं तस्स निसदस्स कुमारस्त उपि पासायवरगयस्स तं महया जणसद्दं च जहा जमाली जाव धम्मं सोचा निसम्म वंदइ नमसर, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी - सद्दहामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं जहा चित्तो जाव सावगघम्मं पडिवज्जइ, पडिवज्जित्ता पडिगए । तेणं कालेणं २ अरहओ अरिट्ठनेमिस्स अंतेवासी वरदत्ते नामं अणगारे उराले जाव विहरइ । तएणं से वरदत्ते अणगारे निसढं कुमारं पास, पासिता जायसडे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी अहो णं भंते ! निसते कुमारे इट्ठे इरूवे कंते कंतरूवे एवं पिए० मणुन्नए० मणामे मणामरूवे सोमे सोमरूवे पियदंसणे सुरूवे । निसढेणं भंते ! कुमारेणं अयमेयारूवे माणुवइडी किण्णा लद्धा किणा पत्ता ? पुच्छा जहा सूरियाभस्स, एवं खलु वरदत्ता ! तेणं कालेणं २ इहेब जंबूदीवे दीवे भारहे वासे रोहीडए नामं नवरे होत्था, रिद्धत्थिमियसमिद्धे०, मेहवने उज्जाणे, मणिदत्तस्स जक्खस्स जक्खाययणे । तत्थ णं दशभिर्दशार्हेयवत् सार्थवाहमभृतिभिः सार्द्धं संपरिवृतः सर्वऋद्धया यावत् रवेण यावत् द्वारावतीनगरीमध्यमध्येन शेषं यथा कूणिको यावत् पर्युपास्ते । ततः खलु तस्य निषधस्य कुमारस्योपरिप्रासादवरगतस्य तं महाजनशब्द च यथा जमालियवद् धर्म श्रुखा निशम्य वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थिखा एवमवादीत् — श्रद्दधामि खल भदन्त । निर्ग्रन्थं प्रवचनं यथा चित्तो० यावत् श्रावकधर्मे प्रतिपद्यते, प्रतिपद्य प्रतिगतः ।
अनगारः उदारो यावद् विहरति । ततः स पश्यति, दृष्ट्वा जातश्रद्धो यावत् पर्युपासीन भदन्त ! निषधः कुमार इष्ट इष्टरूपः कान्तः मनोज्ञो० मनोऽमो मनोऽमरूपः सोमः सोमरूपः प्रियदर्शनः सुरूपः । निषधेन भदन्त ! कुमारेण अयमेतद्रूपा मानुष्यऋद्धिः कथं लब्धा ? कथं प्राप्ता ?
तस्मिन् काले तस्मिन् समयेऽर्हतोऽरिष्टनेमेरन्तेवासी वरदत्तो नाम वरदत्तोऽनगारो निषधं कुमारं एवमवादीत् - अहो ! खलु कान्तरूपः, एवं प्रियो०
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अन्दरबोधिनी टोका वर्ग ५ अन्य. १ निषध रोहीडए नयरे महब्बले नाम राया, पउमावई नामं देवी, अन्नया कयाइ तंसि तारिसगंसि सयणिज्जंसि सीहं मुमिणे, एवं जम्मणं माणियध्वं जहा : महब्बलस्स, नवरं वीरंगओ नाम, बत्तीसओ दाओ, बत्तोसाए रायवरकन्नगा
णं पाणिं जाय उवगिजमाणे २ पाउसवरिसारत्तसरयहेमंतवसन्तगिम्हपजते छप्पिं उऊ जहाविभवेणं मुंजमाणे २ कालं गालेमाणे इडे सद्दे जाव विहरइ । तेणं कालेणं २ सिद्धत्था नाम आयरिया जाइसंपन्ना जहा केसी, नवरं बहुस्सुया बहुपरिवारा जेणेव रोहीडए नयरे जेणेव मेहबन्ने उज्जाणे जेणेव मणिदत्तस्य जक्खस्स जक्खाययणे तेणेव उवागया, अहापडिरूवं जाव विहरंतिः परिसा निग्गया । तएणं तस्स वीरंगणस्य कुमारस्य उप्पिं पासायवरगतस्स तं महया जणसई च जहा जमाली निग्गओ धर्म सोच्चा जं नवरं देवाणुप्पिया ! अम्मापियरो आपुच्छामि जहा जमाली तहेव निक्खंतो जाव अणगारे जाए जाव गुत्तवंभपृच्छा यथा सूर्याभस्य । एवं खलु वरदत्त ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे रोहीतकं नाम नगरमभवत्, झरस्तिमितसमृद्धम्० मेघवर्णमुद्यानं, मणिदत्तस्य यक्षस्य यक्षायतनम् । तत्र खलु रोहीतके नगरे महाबलो नाम राजा, पद्मावती नाम देवी, अन्यदा कदाचित तस्मिन् तादृशे शयनीये सिंह खप्ने०, एवं जन्म भणितव्यं यथा महाबलस्य, नवरं वीरंगतो नाम, द्वात्रिंशद् दायाः, द्वात्रिंशतो राजकन्यकानां पाणिं यावद् उपगोयमानः २ पावर्षा रात्रशर मन्तग्रीष्मवसन्तान् षडपि ऋतून् यथाविभवेन भुञ्जानः इष्टान् शब्दान् यावद् विहरति । तस्मिन् काले तस्मिन् समये सिद्धार्थी नाम आचार्या जातिसम्पन्ना यथा केशी, नवरं बहुश्रुता बहुपरिवारा यत्रैव रोहीतकं नगरं यत्रैव मेघवर्णमुद्यानं यत्रैव मणिदत्तस्य यक्षस्य यक्षायतनं तत्रैवोपागतः, यथामतिरूपं यावद् विहरति, परिषद् निर्गता । ततः खलु तस्य वीरंगतस्य कुमारस्य उपरिमासादवरगतस्य तं महाजन
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૪૨૮
५ वृष्णिदा
या । त णं से वीरंगए अणगारे सिद्धत्थानं आयरियाणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जर, अहिज्जित्ता बहुई जात्र चउत्थ जात्र अप्पाणं भावेमाणे बहुपडिपुण्णाई पणयालीसवासाई सामन्नपरियायं पाउणित्ता, दोमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता, सवीसं भत्तसयं अणसणाए छेदित्ता आलोइयपडियंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किचा बंभलोए कप्पे मणोरमे विमाणे देवत्ताए उनवने । तत्थणं अत्येगइयाणं देवाणं दससागरोत्रमा ठिई पण्णत्ता । तत्थणं वीरंगयस्स देवस्सवि दस सागरोवमा ठिई पण्णत्ता, सेणं वीरंगए देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएर्ण जाव अनंतरं चयं चइता इव बारवईए नवरीए बलदेवस्स रनो रेवईए देवीए कुछिसि पुत्तत्ताए उववने । तरणं सा रेवई देवी तंसि वारिसगंसि सयणिज्जंसि सुमिणदंसणं जाव उपि पासायवरगए विहरइ । तं एवं खलु वरदत्ता ! शब्दं च, यथा जमालिर्निर्गतो धर्मश्रुला यद् नवरं देवानुप्रियाः ! अम्बापितरौ आपृच्छामि यथा जमालिस्तथैव निष्क्रान्तो यावद् अनगारो जातो यावद् गुप्तब्रह्मचारी । ततः खलु स वीरंगतोऽनगारः सिद्धार्थानामाचार्याणामन्तिके सामायिकादीनि एकादशाङ्गानि अधीते, अधीत्य बहूनि यावत् चतुर्थ० यावत् आत्मानं भावयन् बहुप्रतिपूर्णानि पञ्चचत्वारिंशद् वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं पालयिता द्वैमासिक्या संलेखनया आत्मानं जोषित्वा सर्विशति भक्त शतमनशनेन छिच्चा आलोचितमतिक्रान्तः समाधिप्राप्तः कालमासे कालं कृता ब्रह्मलोके कल्पे मनोरमे विमाने देवतया उपपन्नः । तत्र खल्ल अस्त्येकेषां देवानां दशसागरोपमा स्थितिः प्रज्ञप्ता । तत्र खलु वीरंगतस्य देवस्यापि दशसागरोपमा स्थितिः प्रज्ञप्ता । स खलु वीरंगतो देवस्तस्माद् देवलोकात आयुः क्षयेण यावद् अनन्तरं चयं च्युता इहैव द्वारावत्यां नगर्यो बलदेवस्य राज्ञो रेवत्या देव्याः कुक्षौ पुत्रतयोपपन्नः । ततः खलु सा रेवती देवी तस्मिन् तादृशे शयनीये स्वप्नदर्शनं यावद् उपरि प्रासादवरगतो विहरति ।
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सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ५ अध्य. १ निषध
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निसढेणं कुमारेणं अयमेयारुवा ओराला मणुयइड्डी लद्धा ३ । पभू र्णं भंते ! निसढे कुमारे देवाणुप्पियाणं अंतिए जाव पव्वइत्तए ? हंता पभू । से एवं भंते ! २ इय वरदत्ते अणमारे जाव अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ॥ २ ॥
तदेवं खलु वरदत्त ! निसधेन कुमारेण इयमेतद्पा उदारा मनुष्यऋद्धिर्लब्धा ३ । प्रभुः खलु भदन्त ! निषधः कुमारो देवानुप्रियाणामन्ति के यावत् मत्रजितुम् ? इन्त प्रभुः । स एवं भदन्त १ २ इति वरदत्तोऽनगारो यावदात्मानं भावयन् विहरति ॥ २ ॥
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टीका
' तेणं कालेणं ' इत्यादि । व्याख्या स्पष्टा ॥ २ ॥
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तणं कालेणं त्याहि.
' तेणं कालेणं ' इत्यादि -
उस काल उस समय में दस धनुष प्रमाण शरीरवाले धर्मके आदिकर अर्हत अरिष्टनेमि उस द्वारका नगरीमें पधारे । परिषद उनके दर्शन निमित्त अपने २ घर से निकली | भगवानके आनेका समाचार सुनकर कृष्ण वासुदेवने हृष्टतुष्ट हृदयसे कौटुम्बिकपुरुषों को बुलवाया और इस प्रकारकी आज्ञा दी
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તે કાળ તે સમયે દશ ધનુષના જેટલાં પ્રમાણુ ( માપ ) ના શરીરવાળા ધર્મના આદિકર અર્હત્ અરિષ્ટનેમી તે દ્વારકા નગરીમાં પધાર્યા. પરિષદ્ તેમના દન નિમિત્તે પાતપેાતાને ઘેરથી નીકળી. ભગવાનના આવ્યાના સમાચાર સાંભળી કૃષ્ણવાસુદેવે હૃષ્ટ તુષ્ટ હૃદયથી કૌટુંબિક પુરૂષોને એલાવ્યા અને આ પ્રકારે આજ્ઞા આપી.
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-४३०
:
५ वृष्णिवायासन हे देवानुप्रिय ! शीघ्र ही जाकर सुधर्मा सभाकी सामुदानिक भेरीको बजाओ। जिस भेरीके बजाये जानेपर जन समुदाय एकत्रित हो जाय, उसे सामुदानिक भेरी कहते हैं। वासुदेव कृष्णके द्वारा इस प्रकार आज्ञापित वे कौटुम्बिक पुरुष उनकी आज्ञाको स्वीकार कर जहाँ सामुदानिक भेरी थी उधर गये और वहाँ जाकर सामुदानिक मेरीको खूब जोरसे बजाया। उसको अत्यधिक जोरसे बजाये जानेपर समुद्रविजय प्रमुख दस दशार्हसे लेकर यावत् रुक्मिणी आदि देवियाँ तथा अनङ्गसेना प्रभृति अनेक सहस्र गणिकायें और दूसरे बहुतसे राजा ईश्वर तलवर माडम्बिक कौटुम्बिक यावत् सार्थवाह आदि स्नान ओर दुःस्वप्न आदिके निवारणके लिये मषी तिलक आदि करके सभी अलङ्कारोंसे अलङ्कृत हो अपने २ विभवके अनुसार सत्कार सामग्रियोंके साथ घोडे आदि सवारियों पर बैठकर अपने २ अनुचर पुरुषोंके साथ जहाँ कृष्ण वासुदेव थे वहाँ आये। वहाँ आकर हाथ जोडकर कृष्ण वासुदेवको जय विजय शब्दसे बधाया। उसके बाद कृष्ण वासुदेवने अपने कौटुम्बिक पुरुषोंको बुलाकर इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिय ! आभिषेक्य (पट्ट ) हस्ति
હે દેવાનુપ્રિય ! જલદી જઈને સુધર્મા સભાની સામુદાનિક ભેરી (વાજું) વગાડે. જે લેરીને વગાડવાથી જનસમુદાય એકત્રિત થઈ જાય તેને સામુદાનિક ભેરી કહે છે. કૃષ્ણવાસુદેવ તરફથી આ પ્રકારે આજ્ઞા મળતાં તે કૌટુંબિક પુરૂષ તેમની આજ્ઞાનો સ્વીકાર કરી જ્યાં સામુદાનિક ભેરી હતી ત્યાં ગયા અને ત્યાં જઈને સામુદાનિક ભેરી ખૂબ જોરથી વગાડી. તે બહુ જોરથી વગાડવાથી સમુદવિજય પ્રમુખ દશ દશાથી માંડીને રુકિમણી આદિ દેવિઓ તથા અનંગસેના આદિ અનેક સહસ્ત્ર ગણિકાઓ તથા બીજા રાજા ઈશ્વર, તલવર, માડમ્બિક કૌટુંબિક અને સાર્થવાહ આદિ સ્નાન તથા દુરસ્વમનાં નિવારણ માટે મસી તિલક કરીને બધાં ઘરેણાંથી વિભૂષિત થઈને પિતપોતાના વૈભવ પ્રમાણે સત્કાર સામગ્રીને લઈને ઘોડા વગેરે ઉપર સવારી કરીને પિતાના નોકર-ચાકર સાથે જ્યાં કૃષ્ણ વાસુદેવ હતા ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને હાથ જોડી કૃષ્ણ વાસુદેવને જયવિજય શબ્દથી વધાવ્યા. ત્યાર પછી કુપચ્છવાસુદેવે પિતાના કૌટુંબિક પુરૂષને બેલાની આ
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सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ५ मध्य. १ निषध रत्नको और अन्य हाथी घोडे रथ आदिको सजाकर ले आओ। कृष्ण वासुदेवकी ऐसी आज्ञा सुनकर वे कौटुम्बिक पुरुष शीघ्र ही हाथी घोडे रथ आदिको सजाकर ले आये। उसके बाद कृष्ण वासुदेव मज्जनगृहमें स्नान करनेके लिये गये, स्नान कर सभी अलङ्कारोंसे अलकत हो अपने आभिषेक्य हाथी पर चढे । और उन्हें शुभ शकुनके लिये आठ-आठ माङ्गलिक वस्तुएँ दिखायी गई । इसके बाद वह कृष्ण वासुदेव कूणिकके समान डुलाए जाते हुए श्वेतचामरोंसे सुशोभित तथा समुद्रविजय प्रमुख दस दशा)से लेकर यावत् सार्थवाह प्रभृतियोंसे घिरे हुए तथा सभी प्रकारके विभवके साथ मेरी आदि बाजोंके शब्दोंसे दिशाको मुखरित करते हुए द्वारावती नगरीके बीचोबीच चलते हुए भगवान अर्हत् अरिष्टनेमिके पास पहुँचे ।
और कूणिकके समान तीनबार आदक्षिण प्रदक्षिण करके वन्दन नमस्कार किया और सेवा करने लगे।
उसके बाद वह निषध कुमारने अपने उपरी महलमें शब्दादिविषयोंका
પ્રકારે કહ્યું – હે દેવાનુપ્રિય ! આભિષેય (૫) હાથીરત્નને તથા બીજા હાથી ઘોડા રથ આદિ તૈયાર કરી લઈ આવો. કૃષ્ણ વાસુદેવની એવી આશા સાંભળીને તે કૌટુંબિક પુરૂષ જલદી હાથી ઘોડા રથ આદિને તૈયાર કરી લઈ આવ્યા. ત્યાર પછી કૃષ્ણવાસુદેવ સ્નાનઘરમાં ન્હાવા ગયા. સ્નાન કરી બધાં ઘરેણાંથી વિભૂષિત પિતાના અભિષેકય પટ્ટ હાથી ઉપર ચડ્યા. અને તેમને શુભ શુકનને માટે આઠ આઠ માંગલિક વસ્તુઓ દેખાડવામાં આવી. ત્યાર પછી કૃષ્ણવાદેવ કેણિકની પેઠે ઢળાઈ રહેતાં હેત ચામથી સુશોભિત તથા સમુદ્રવિજય પ્રમુખ દશદશાહથી માંડીને યાવત્ સાર્થવાહ આદિથી ઘેરાયેલ તથા સર્વે પ્રકારના વૈભવ સાથે, ભેરી વગેરે વાજાંના શબ્દોથી દિશાઓને મુખરિત કરતા દ્વારાવતી નગરીની વચ્ચેવચ્ચેથી ચાલતા ભગવાન અહંત અરિષ્ટનેમીની પાસે પહોંચ્યા અને ત્રણવાર આદક્ષિણ પ્રદક્ષિણા કરીને વંદન નમસકાર કર્યા અને સેવા કરવા લાગ્યા.
ત્યાર પછી તે નિરજ કુમારે પણ પિતાના ઊંચા મહેલમાં શાતિવિષયને
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५ वृष्णिदशा
४३२
सुखानुभव करता हुआ मनुष्योंके महान कोलाहलको सुना। उसे जिज्ञासा हुई कि क्या बात है ? पूछने पर उसे ज्ञात हुआ कि भगवान् अर्हत् अरिष्टनेमि यहाँ पधारे हैं। जनता उनकी वन्दनाके लिये जा रही है इसीलिये यह कोलाहल हो रहा है । यह जानकर जमालिके समान वह भी भगवानके दर्शनके लिये आये, और आदक्षिण प्रदक्षिण करके वन्दन नमस्कार किया । अनन्तर धर्म सुनकर उसे हृदयसे अवधारण कर चन्दन नमस्कार कर इस प्रकार कहने लगा- हे भदन्त ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ । इसके बाद वह चित्त प्रधानके समान यावत् श्रावक धर्मको स्त्रीकार कर अपने घर लौट आया ।
उस काल उस समय में अर्हत् अरिष्टनेमिके अन्तेवासी उदार प्रधान ओजस्वी वरदत्त नामके अनगार धर्मध्यान करते हुए एकान्त में बैठे थे । भगवान्के समीप आये हुए निषेध कुमारको देखकर उन्हें श्रद्धा जिज्ञासा और कौतूहल उत्पन्न हुआ और उन्होंने भगवानसे इस प्रकार पूछा—
સુખાનુભવ કરતા થકા મનુષ્યેાના માટે કાલાહલ સાંભળ્યેા. તેમને જીજ્ઞાસા થઈ કે શું વાત છે ? પૂછવાથી . ખબર પડી કે ભગવાન અત્ અરિષ્ટનેમિ અહીં પધાર્યા છે અને જનતા તેમનાં વંદન-દન માટે જાય છે. તેથી આ કાલાહવ થાય છે. આ જાણીને જમાલીની પેઠે તે પણુ ભગવાનનાં દર્શન માટે આવ્યા અને આદક્ષિણ પ્રદક્ષિણા કરીને વંદન નમસ્કાર કર્યો પછી ધર્મનું શ્રવણુ કરી તેને હૃદયમાં અવધારણ કરીને વંદન નમસ્કાર કરી આ પ્રકારે કહ્યું:
હે ભદન્ત ! હું નિગ્રન્થ પ્રવચન ઉપર શ્રદ્ધા રાખુ′ છું. ત્યાર પછી તે ચિત્ત પ્રધાનની પેઠે શ્રાવક ધર્મના સ્વીકાર કરીને પેાતાને ઘેર પાટે આવ્યા.
તે કાળ તે સમયે અર્હત્ અરિષ્ટનેમિના અન્તવાસી ઉદાર પ્રધાન આજસ્વી વરઢત્ત નામે અનગાર ધર્મધ્યાન કરતા એકાન્તમાં બેઠા હતા. ભગવાનની પાસે આવેલા નિષધ કુમાર ને જોઇને તેને જીજ્ઞાસા અને કૌતુહલ ઉત્પન્ન થયું. અને भगवानने या प्रमाणे पूछयु : - डे लहन्त ! निषध कुमार ष्ट छे ष्टय छे,
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सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ५ अध्य. १ निषध
४३३
हे भदन्त ! वह निषेध कुमार इष्ट है, इष्टरूप है, कान्त है, कान्तरूप है । इसी तरह प्रिय है मनोज्ञ है मनोऽम ( मनको अच्छा लगनेवाला ) है, सोम है, सोमरूप है, प्रियदर्शन है, सुरूप है ।
हे भदन्त ! इस निषध कुमारको इस प्रकारकी मनुष्य सम्बन्धी ऋद्धि कैसे मिली, कैसे प्राप्त हुई, और कैसे यह ऋद्धि इसके भोग में आई? इत्यादि - गौतमने सूर्याभकी देव ऋद्धिके बारेमें जिस प्रकार भगवानसे पूछा था उसी प्रकार - वरदत्तने पूछा ।
भगवान कहते हैं—
हे वरदत्त । उस काल उस समय में इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीपके अन्दर भरत क्षेत्र में रोहितक नामक नगर था, जो कि धन धान्यादि ऋद्धिसे समृद्ध था । उस नगर में मेघवर्ण नामक उद्यान था । उस उद्यानमें मणिदत्त नामक यक्षका एक यक्षायतन था । उस रोहितक नगरका राजा महाबल था । उसकी रानीका नाम पद्मावती था ।
अन्त छे, अन्त३५ छे. सोवीन रीते प्रिय छे, भनोज्ञ छे, मनोरम छे, सोभ छे, सोम३य छे. प्रियदर्शन छे, सु३प छे.
હે ભદન્ત ! આ નિષધ ઠુમાર ને આ પ્રકારની મનુષ્ય સંબધી ઋદ્ધિ કેવી રીતે મળી, કેમ પ્રાપ્ત થઇ, અને કેવી રીતે તે ઋદ્ધિ તેમના ભાગમાં આવી ? ગૌતમે સૂર્યાભની દેવઋદ્ધિ વિષે જેવી રીતે ભગવાનને પૂછ્યું હતું તેવી રીતે વરદત્તે પૂછ્યું:
ભગવાને કહ્યું:—હૈ વરદત્ત ! તે કાળ તે સમયે આ જમ્મૂદ્રીપ નામે દ્વીપની અંદર ભરતક્ષેત્રમાં રાહીતક નામે નગર હતું કે જે ધનધાન્ય ઋદ્ધિથી સમૃદ્ધ હતું. તે નગરમાં મેલવણું નામે ઉદ્યાન હતું. તે ઉદ્યાનમાં મદત્ત નામે યક્ષનું ચક્ષાયતન હતું. તે રાહિતકના રાજા મહાખલ હતા. તેની રાણીનું નામ
पद्मावती ड
૧૫
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५ वृष्णिवधाका एक समय सुकोमल शय्यापर सोयी हुई उस पद्मावती रानीने स्वप्नमें सिंहको देखा । अनन्तर उसके गर्भसे एक बालक उत्पन्न हुआ। उसका जन्म आदिका वर्णन महाबलके समान जानना चाहिये । उस बालकका नाम वीरक्त रखा गया । जब वह कुमार बडा हुआ तो उसका विवाह बतीस राजकन्याओंके साथ किया गया । और उसे बत्तीस-बत्तीस प्रकारका दहेज मिला ।
उसके महलके उपरी भागमें सर्वदा मृदङ्ग आदि बाजे बजते रहते थे। तथा गायक उसके गुणोंको गाते रहते थे। वह वीरगत वर्षा आदि छ ऋतु सम्बन्धी इष्टशब्दादि विषयोंको अपने विभवानुसार भोगता हुआ विचरता था।
उस काल उस समयमें केशी श्रमणके समान जातिमन्त तथा बहुश्रुत और बहुत शिष्यपरिवारसे युक्त सिद्धार्थ नामक आचार्य रोहितक नगरके मेघवर्ण उद्यानके अन्दर मणिभद्र यक्षायतनमें पधारे। और उद्यानपालसे आज्ञा लेकर वह। विचरने लगे। परिषद् उन आचार्यवरके दर्शनके लिये अपने-अपने घरसे निकलो,
એક સમય સુકોમળ શય્યા ઉપર સૂતેલી તે પલ્લાવતી રાણીએ સ્વપ્નમાં સિંહને જોયે. પછી તેના ગર્ભથી સાવ ના જેવો એક બાળક ઉત્પન્ન થયે. તેને જન્મ આદિનું વર્ણન મહાબલના જેવું સમજવું. તેનું નામ રોજ રાખ્યું હતું. જ્યારે તે કુમાર માટે થયે ત્યારે તેનાં લગ્ન બત્રીસ રાજકન્યાઓની સાથે કરવામાં આવ્યાં અને તેને બત્રીસ-બત્રીસ દહેજ મળ્યા.
તેના મહેલના ઉપલા માળમાં હમેશાં મૃદંગ આદિ વાજાં વાગતાં રહેતાં હતાં તથા ગાયક તેના ગુણેનાં ગાન કર્યા કરતા હતા. તે વાત વર્ષ આદિ છે ઋતુ સબંધી ઈષ્ટ શબ્દાદિ વિષયેને પિતાના વૈભવ પ્રમાણે ભોગવતે વિચરતે તે.
તે કાળ તે સમયે કેશી શ્રમણના જેવા જાતવાન તથા બહુશ્રુત અને બહુ શિષ્ય પરિવારવાળા સિદ્ધાર્થ નામે આચાર્ય હીતક નગરના મેઘવર્ણ ઉવાનની અંદર મણિભદ્ર યક્ષાયતનમાં પધાર્યા. અને ઉદ્યાનપાલની આજ્ઞા લઈને ત્યાં વિચરવા લાગ્યા. પરિષદ તે આચાર્યવરનાં દર્શન માટે પોતપોતાના ઘેરથી નીકળી. ત્યાર
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सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ५ मध्य. १ निषष उसके बाद वह वीरक्त कुमारने सिद्धार्थ आचार्यके दर्शन करनेके लिये जाते हुए मनुष्योंके महान कोलाहलको सुना । अनन्तर उसने कोलाहलके कारणका अन्वेषण किया उसे ज्ञात हुआ कि सिद्धार्थ आचार्य यहाँ पधारे हुए हैं, जनता उनके दर्शनके लिये जा रही है, उसीका यह कोलाहल है। यह जानकर वीरत कुमार जमालिके समान उन आचार्यके दर्शन करनेके लिये गया। धर्म सुनकर उसने उन सिद्धार्थ आचार्यको वन्दन नमस्कार कर इस प्रकार कहा
हे देवानुप्रिय ! मैं माता पितासे पूछकर आपके समीप प्रव्रज्या लेना चाहता हूँ। उसके बाद वह वीरङ्गत कुमार जमालिके समान प्रवजित होकर अनगार हो गया, और ईर्यासमिति आदिसे युक्त हो यावत् गुप्तब्रह्मचारी हो गया। उसके बाद वह वीरङ्गत अनगारने उन सिद्धार्थ आचार्यके समीप सामायिक आदि ग्यारह अंगोका अध्ययन किया अनन्तर बहुतसे चतुर्थ षष्ठ अष्टम आदि तपसे आत्माको भावित करते हुए पूरे पैंतालीस वर्षों तक श्रामण्यपर्यायका पालन किया। बाद दो
પછી તે શોર કુમારે પણ સિદ્ધાર્થ આચાર્યનાં દર્શન કરવા માટે જતાં મનુબેને મહાન કલાહલ સાંભળે. પછી તેણે તે કોલાહલનું કારણ સમજવા તપાસ કરાવી તે તેને માલુમ પડયું કે સિદ્ધાર્થ આચાર્ય અહીં પધાર્યા છે. જનતા તેનાં દર્શન માટે જઈ રહી છે. તેને આ કોલાહલ છે. આ જાણીને વર કુમાર જમાલીની પેઠે આચાર્યોનાં દર્શન કરવા માટે ગયા. ધર્મનું શ્રવણ કરીને તેણે તે સિદ્ધાર્થ આચાર્યને વંદન નમસ્કાર કરી આ પ્રકારે કહ્યું –
- હે દેવાનુપ્રિય! મારાં માતાપિતાને પૂછીને આપની પાસે પ્રવજ્યા લેવા ચાહું છું. ત્યાર પછી તે છતર કુમાર જમાલીની પેઠે પ્રવજિત થઈ અનગાર થઈ ગયા અને ઈસમિતિ આતિથી યુક્ત થઈ યાવત્ ગમછાશચારી બની ગયા. ત્યાર પછી તે અનગારે તે સિદ્ધાર્થ આચાર્યની પાસે સામાયિક આદિ અગીયાર અંગોનું અધ્યયન કર્યું. પછી ઘણાં ચતુર્થ, ષષ્ઠ, અષ્ટમ આદિ તેથી આત્માને ભાવિત કરતાં પૂરું પીસતાલીસ વર્ષ સુધી દીક્ષા પોચનું પાલન કર્યું, પછી બે
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५ वृष्णिदशा
भक्तोंको अनशनसे
समाधि प्राप्त हो
मासको संलेखनासे आत्माको सेवित करते हुए एक सौ बीस छेदित कर अपने पाप स्थानोंकी आलोचना और प्रतिक्रमण कर काल अवसर में काल कर ब्रह्म नामक पाँचवें देवलोकके मनोरम विमानमें देवता होकर उत्पन्न हुए। वहाँ कई एक देवोंकी स्थिति दस सागरोपम हैं, वहाँ इसे वीरङ्गत देवकी भी स्थिति दश सागरोपम थी । वह वीरङ्गत देव देव सम्बन्धी आयु भव और स्थितिके क्षय होनेपर उस ब्रह्मलोकसे च्यवकर इस द्वारावती नगरीमें राजा बलदेवकी पत्नी रेवतीके उदरमें पुत्र होकर जन्मे । उस रेवती देवीने स्वप्न में सिंह देखा | और उसके बाद यह निषध कुमार उत्पन्न हुए यावत् शब्दादि विषयोंका अनुभव करते हुए अपने ऊपरी महलमें विचर रहे हैं । हे वरदत्त ! इस प्रकार इस निषध कुमारने इस प्रकारकी उदार मनुष्यऋद्धि पायी है
।
वरदत्त पूछते है
हे भदन्त ! क्या यह निषेध कुमार आपके समीप प्रवजित होगा ? માસની સલેખનાથી આત્માને સેવિત કરતાં એકસા વીસ ભક્તોનું અનશનથી છેદન કરી પેાતાનાં પાપસ્થાનાની આલેચના તથા પ્રતિક્રમણુ કરી સમાધિ પ્રાપ્ત થતાં કાળ અવસરમાં કાળ કરીને બ્રહ્મનામક પાંચમા દેવલેાકના મનેરમ વિમાનમાં દેવતા થઈને ઉત્પન્ન થયા. ત્યાં કેટલાક દેવાની સ્થિતિ દશ સાગરાપમની છે. ત્યાં श्रीरंगतदेव नी पायु स्थिति दृश सागरोपमनी हुती. ते चोरंगतदेव देव संबंधी आयुષ્ય ભવ અને સ્થિતિ ક્ષય થવાથી તે બ્રાલેકમાંથી ચ્યવીને આ દ્વારાવતી નગરીમાં રાજા ખલાદેવની પત્ની રેવતીના ઉદરમાં પુત્ર થઇને જન્મ્યા. તે રૈવતી દેવીએ સ્વપ્નમાં સિંહને દીઠા અને पछी म निषेधकुमार उत्पन्न थया मने यावत् શબ્દાદિ વિષયાના અનુભવ કરતાં તે પેાતાના મહેલનાં ઉપલે માળે રહેવા લાગ્યા. डे वरडत्तं ! आ अारे भी निषेधकुमार ने गांवा प्राश्नी उद्धार मनुष्या શુદ્ધિ મળેલી છે.
त्या
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વરાત્ત પૂછે છે:
હે ભદન્ત ! આ વિષયમાર આપની પાસે પ્રજિત થવામ સમર્થ છે
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दरबोधिनी टीका वर्ग ५ अभ्य. १ निषेध
मूलम् -
तणं अरहा अरिनेमी अण्णया कथाइ बारवईओ नयरीओ जात्र बहिया जणवयविहारं विहरइ । निसढे कुमारे समणोवासए जाए अमियजीवाजीवे जाव विहरइ । तपणं से निसढे कुमारे अण्णया कयाइ जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छ, उत्रागच्छिता जाव दन्मसंथारोवगए विहरइ । तएगं निसदस्स कुमारस्स पुत्ररत्तावरत० धम्मजागरियं जागरमाणस्स इमेयारूवे
छाया
ततः खलु अर्हन् अरिष्टनेमिरन्यदा कदाचित् द्वारावत्या नगर्यां यावत् बहिर्जन पदविहारं विहरति । निषधः कुमारः श्रमणोपासको जातः अभिगतजीवाजीवो यावद् विहरति । ततः खलु सं निषधः कुमारः अन्यदा कदाचित् यत्रैव पोषधशाला तत्रैत्रोपागच्छति, उपागत्य याबद् दर्भसंस्तारोपगतो विरहति । ततः खलु तस्य निषधस्य कुमारस्य पूर्वरात्रापर
४३७
भगवान कहते हैं—
हाँ; वरदत्त ! यह निषघ कुमार अनगार बन सकेगा । वरदत्त कहते हैं—
हे भदन्त ! आप जो कहते हैं वह सत्य ही है; ऐसा कहकर वरदेव air आत्माको तप संयमसे भावित करते हुए विचरने लगे ॥ ३ ॥
लगवान उडे छे:
હે વરદત્ત ! હા, આ નિયમાર અનગાર ખંનવામાં સમય છે.
स
वरदत्त हे छे:--
ભદન્ત ! આપ કહેા છે તેમજ છે. એમ કહીને વદ્વત્ત TERME આત્માને તપ-સચમ વડે ભાવિત કરતાં વિચરવા લાગ્યા. (૨).
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અગા Selhi:
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५ दृष्णिदशा सत्र अज्झथिए० धना गं ते गामागर जाव संनिवेसा जत्थणं अरहा अरिडनेमी विहरइ । धन्ना णं ते राईसर जाव सत्थवाहप्पभईओ जे णं अरिट्टनेमि वंदति नमसंति जाव पज्जुवासंति, जइ णं अरहा अरिद्वनेमो पुव्वाणुपुब्बि० नंदणवणे विहरेज्जा तोणं अहं अरहं अरिद्वनेमि वंदिज्जा जाव पज्जुवासिज्जा। तएणं अरहा अरिहनेमी निसढस्स कुमारस्स अयमेयारूवं अन्झत्थियं जाव वियाणित्ता अट्ठारसहिं समणसहस्सेहिं जाव नंदणवणे उजाणे समोसढे । परिसा निग्गया। तएणं निसढे कुमारे इमीसे कहाए लद्धढे समाणे हट्ठ० चाउग्घंटेणं आसरहेणं निग्गए, जहा जमाली, जाव अम्मापियरो आपुच्छित्ता पव्वइए, अणगारे जाते जाव गुत्तवंभयारी । तए णं से निसढे अणगारे अरहतो अरिहनेमिरस तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाइं एकारस अंगाई अहिज्जइ अहिजित्ता बहूई चउत्थछट्ठ जाव विचित्तेहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणे बहुपडिपुण्णाई नव वासाइं सामण्णपरियागं पाउणइ, बायालीसं रात्रकाले धर्मजागरिकां जाग्रतोऽयमेतद्रूप आध्यात्मिका ०-धन्याः खलु ते ग्रामागर यावत् सभिवेशाः, यत्र खलु अर्हन् अरिष्टनेमिविहरति, धन्याः खलु ते राजेश्वर यावत् सार्थवाहप्रभृतिकाः, ये खल अरिष्टनेमि बन्दन्ते नमस्यन्ति यावत्० पर्युपासते, यदि खलु अईन् अरिष्टनेमिः पूर्वानुपूर्वी. नन्दनवने विहरेत् तर्हि खलु अहमहन्तमरिष्टनेमि वन्देय नमस्येयं यावत् पर्युपासीय । ततः खलु अईन् अरिष्टनेमिः निषधस्य कुमारस्य इममेतद्रूपमाध्यात्मिकं यावद् विज्ञाय अष्टादशमिः श्रमणसहस्रैः यावद् नन्दनवने उद्याने समवसृतः, परिषद् निर्गता । ततः खलु निषधः कुमारः अस्याः कथाया लब्धार्थः सन् दृष्ट० चातुर्घण्टेन अश्वरथेन यावद् निर्गतः, यथा जमालिः, यावद् अम्बापितरौ आपृच्छथ प्रबजितः, अनगारी जातो यावदू गुप्तब्रह्मचारी । ततः खलु स निषधोऽनगारः अहंतोऽरिष्टनेमेस्तथारूपाणां स्थिविराणामन्तिके सामायिकादीनि एकादशाङ्गानि अधीते, अधीत्य बहनि
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सुन्दरबोधिनो रोका वर्ग ५ मध्य. १ निषध भत्ताई अणसणाए छेदेइ, आलोइयपडिकंते सामाहिपत्ते अणुपुबीए कालगए। तए णं से वरदत्ते अणगारे निसढं अणगारं कालगतं जाणित्ता जेणेव अरहा अरिटनेमी तेणेव उगच्छइ, उवागच्छित्ता जाव एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी निसढे नामं अणगारे पगइभदए जाब विणीए, से णं भंते ! निसढे अणगारे कालमासे कालं किच्चा कहिं गए ? कहिं उपवने ? वरदत्ताइ ! अरहा अरिहनेमी वरदत्तं अणगारं एवं वयासी-एवं खलु वरदत्ता । ममं अंतेवासी निसढे नाम अणगारे पगइभद्दे जाव विणीए ममं तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई एकारस अंगाई अहिजित्ता बहुपडिपुण्णाई नववासाइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता बायालीसं भत्ताइं अणसणाए छेदेत्ता आलोइयपडिक्कते सामाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा उडू चंदिमसूरियगहनक्खत्ततारारूवाणं सोहम्मीसाणं जाव अच्चुते तिण्णि य अट्ठारसुत्तरे गेविजविमाणावाससए वीतिवतित्ता सव्वसिद्धविमाणे देवत्ताए उपवण्णे। चतुर्थ षष्ठ यावद् विचित्रैः तपाकर्ममिरात्मानं भावयन् बहुप्रतिपूर्णानि नव वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं पालयति, चनारिंशद् भक्तानि अनशनेन छिनत्ति, आलोचितप्रतिक्रान्तः समाधिमाप्तः आनुपूर्व्या कालगतः। ततः खलु स वरदत्तोऽनगारो निषधमनगारं कालगतं ज्ञात्वा यत्रैव अर्हन् अरिष्टनेमिस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य यावद् एवमवादी-एवं खलु देवानुपियाणामन्तेवासी निषधो नाम अनगारः प्रकृतिभद्रको यावद् विनीतः । स खलु भदन्त ! निषधोऽनगारः कालमासे कालं कला का गतः ? क्व उपपन्नः ? वरदत्त ! इति अईन् अरिष्टनेमिः वरदत्तमनगारमेवमादीव-एवं खलु वरदत्त ! ममान्तेवासी निषधो नाम अनगारः प्रकृतिभद्रो यावद् विनीतो मम तथारूपाणां स्थविराणामन्तिके सामायिकादीनि एकादशाङ्गानि अधीत्य बहुपतिपूर्णानि नव वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं पालयिबा द्विचनारिंशद् भक्तानि अनशनेन छिचा आलोचितमतिक्रान्तः समाधिमाप्तः कालमासे कालं कला ऊर्षे
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४४०
५ वृष्णिदशावत्र 'तत्थ णं देवाणं तेत्तीसं सागरोवमा ठिई पण्णत्ता । तत्थ पं. निसढस्स वि देवस्स तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पनत्ता। से गं भंते ! निसढे देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता कहिं गच्छिहिइ ? कहिं उपवजिहिइ ? वरदत्ता ! इहेव जंबूद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे उनाए नयरे विसुद्ध पिइवंसे रायकुले पुत्तत्ताए पञ्चायाहिइ । तएणं से उम्मुक्कबालभावे विण्णयपरिणयमिचे जोव्यजगमणुप्पत्ते तहारूवाणं थेराणं अंतिए केवलबोहिं बुझिहिइ, बुज्झित्ता अगाराओ अणगारियं पवजिहिइ । से णं तत्थ अणगारे भविस्सइ इरियासमिए जाव गुत्तबंभयारी । से ण तत्थ बहूई चउत्थछट्ठमदसमदुवालसेहि मासद्धमासखमणेहि विचित्तेहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणिस्सइ, पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं भूमिहिइ, झमित्ता सहि भत्ताइं अणसणाए छेदिहिइ । जस्सट्टाए कीरइ णग्गभावे मुंडभावे अण्हाणए जाव अदंतवणए अच्छत्तए अणोवाहणए फलहसेज्जा कठुसेजा चन्द्र-सूर्य-ग्रह-नक्षत्र-तारारूपाणां सौधर्मेशान० यावद् अच्युतं त्रीणि च अष्टादशोत्तराणि ग्रैवेयकविमानावासशतानि व्यतिवर्त्य सर्वार्थसिद्धविमाने देवत्वेनोपपनः । तत्र खलु देवानां त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमा स्थितिः प्रज्ञता। तत्र खलु निषधस्यापि देवस्य त्रयस्त्रिंशतः सागरोपमानि स्थितिः प्रज्ञता । सखल भदन्त ! निषधो देवस्तस्माद देवलोकाद आयुःक्षयेण भवक्षयेण स्थितिक्षयेण अनन्तरं चयं च्युत्वा क्य गमिष्यति ? क्व उपपत्स्यते ? वरदत्त ! इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे उन्नाते नगरे विशुद्ध पितृवंशे राजकुले पुत्रतया प्रत्यायास्यति । ततः खलु स उन्मुक्तबालभावः विज्ञातपरिणतमात्रः यौवनकमनुमाप्तः तथारूपाणां स्थविराणामन्तिके केवलबोधि बुद्ध्वा अगाराद् अनगारतां प्रजिष्यति । स खलु तत्राऽनगारो भविष्यति, ईर्यासमितो यावद् गुप्तब्रह्मचारी । स खलु तत्र बहूनि चतुर्थषष्ठाष्टमदशमद्वादशै सार्द्धमासक्षपणैः विचित्रैः तपःकर्ममिरात्मानं भावयन् बहुनि वर्षाणि
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N
दरबोधिनी टीका धर्ग ५ अध्य. १ निषध. फैसलोए बभचेरवासे परधरपवैसे पिंडवाओ लद्धविलढे उच्चावया य गामकंटया अहियासिज्जइ, तमढें आराहिइ, आराहिता, चरिमेहिं उस्सासनिस्सासेहिं सिज्झिहिइ बुज्झिहिइ जाव सव्वदुक्खाणं अंतं काहिंइ । एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं जाव निक्खेवओ ॥३॥
पढमं अज्झयणं समतं ॥१॥ श्रामण्यपर्यायं पालयिष्यति, पालयित्वा मासिक्या संलेखनया आत्मानं जोषयिष्यति, जोषयित्वा षष्टिं भक्तानि अनशनेन छेत्स्यति । यस्यार्थ क्रियते नग्नभावो, मुण्डभावा, अस्नानको, यावद् अदन्तवर्णकः, अच्छत्रकः, अनुपानत्का, फलकशय्या, काष्ठशय्या, केशलोचो, ब्रह्मचर्यवासः, परगृहप्रवेशः, पिण्डपातः, लब्धापलब्धः, उच्चावचाश्च प्रामकण्टका अध्यास्यन्ते, तमर्थमाराधयिष्यति, आराध्य चरमैरुच्छ्वास-निःश्वासैः सेत्स्यति, भोत्स्यते, यावत् सर्वदुःखानामन्तं करिष्यति । एवं खलु जम्बूः ! श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत्समाप्तेन यावत् निक्षेपकः ॥ ३॥ .
॥ प्रथममध्ययनं समाप्तम् ॥ १॥
टीका'तएणं अरहा' इत्यादि । यस्यार्य यन्मोक्षमाप्त्यर्थं क्रियते नग्न
'तएणं अरहा' इत्यादि
उसके बाद अर्हत् अरिष्टनेमि एक समय द्वारावती नगरीसे निकलकर जनपद देशमें विहार करने लगे। निषधकुमार श्रमणोपासक हो गये और वह जीव
तपणे अरहा' या.
ત્યાર પછ એક્ત અરિષ્ટનેમિ એક સમ દ્વારાવતી નગરીથી નીકળી દેશમાં વિચારવા લાગ્યાં. વિપકુમાર ધ્રુમપાસક થઈ યા અને તે કેવી
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५ वृष्णिशास्त्र
अजीव आदि तत्त्वोंको जानकर विचरने लगे। उसके बाद वह निषधकुमार एक समय जहाँ पौषधशाला थी वहाँ गये और वहाँ दाभका आसनपर बैठकर धर्मध्यान करते हुए विचरने लगे। उसके बाद रात्रिके अन्तिम प्रहरमें धर्म जागरणा करते हुए उस निषधकुमार के हृदयमें इस प्रकारका विचार उत्पन्न हुआ कि वह ग्राम यावत् सन्निवेश धन्य है जहाँ अर्हत् अरिष्टनेमि भगवान विचरते हैं ! वे राजा ईश्वर तलवर माडम्बिक कौटुम्बिक यावत् सार्थवाह प्रभृति धन्य हैं जो भगवानको वन्दन नमस्कार करते हैं और सेवा करते हैं ।
यदि अर्हत् अरिष्टनेमि भगवान पूर्वानुर्वी विचरते हुए नन्दन वनमें पधारें तो मैं भी भगवानको वन्दन नमस्कार करूँ और उनकी सेवा करूँ । उसके बाद भगवान अर्हत् अरिष्टनेमि उस निषधकुमार के इस प्रकारका आध्यात्मिक =अन्तःकरणका विचार जानकर, अठारह हजार श्रमणोंके साथ उस नन्दनवन उद्यानमें पधारे । भगवान के दर्शनके लिए परिषद् अपने २ घरसे निकली । उसके बाद
અજીવ આદિ તત્ત્વાને જાણીને વિચરવા લાગ્યા. ત્યાર પછી વખત જ્યાં પાષષશાળા હતી ત્યાં ગયા અને ત્યાં દાલના બિછાવી તેના પર એસી ધર્મધ્યાન કરતા વિચરવા લાગ્યા. રાત્રિએ ધર્મ-જાગરણ કરતાં તે નિષમા ના મનમાં એવા કે તે ગ્રામ સન્નિવેશ આદિ ધન્ય છે કે જ્યાં અત્ અરિષ્ટનેમિ ભગવાન ત્રિચરે છે. તે રાજા ઈશ્વર, તલવર, માડસ્મિક, કૌટુંબિક યાવત્ સા વાહુ આફ્રિ ધન્ય છે જે ભગવાનને વટ્ઠન નમસ્કાર કરે છે.
તે નિષધયુમ એક સંસ્તારક ( આસન )
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ત્યાર પછી પાછલી
વિચાર પેદા થયા
જો અત્ ાનેિમિ ભગવાન પૂર્વાનુપૂર્વી વિચરતાં નન્દનવનમાં પધારે તા હું પણુ ભગવાનને વંદન નમસ્કાર કરૂં અને તેમની સેવા કરૂં. ત્યાર પછી भगवान अर्हत अरिष्टनेमि ते निषधकुमार ना था अारना आध्यात्मि=मतःકરણના વિચાર આદિ જાણીને અઢાર હજાર શ્રમણેાની સાથે તે નન્દનવન ઉદ્યાનમાં પધાર્યા. ભગવાનનાં દર્શન કરવા માટે પિરષદ્ પોતપોતાને ઘેરથી નીકળી. ત્યાર
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सुन्दरपोधिनी टोका वर्ग ५ अभ्य. १ निषध निषकुमार भी इस वृत्तान्तको जानकर हृष्ट तुष्ट हृदयसे चार घंटावाला · अश्वरथपर चढकर भगवानका दर्शनके लिये निकले, और जमालिके समान यावत् माता पिताकी आज्ञासे प्रवजित होकर अनगार हो गये। तथा ईर्यासमिति आदिसे युक्त हो यावत् गुप्त ब्रह्मचारी हो गये। उसके बाद वह निषध अनगार अर्हत् अरिष्टनेमि भगवानके तथारूप स्थविरोंके समीप सामायिक आदि ग्यारह अङ्गोका अध्ययन किया तथा बहुतसे चतुर्थ षष्ठ अष्टम आदि विचित्र तपसे आत्माको भावित करते हुए पूरे नौ वर्षों तक श्रामण्यपर्यायका पालन किया। बयालीस भक्तोंको अनशनसे छेदनकर पापस्थानोंकी आलोचना और प्रतिक्रमण कर समाधि प्राप्त हो, क्रमसे काल प्राप्त हुए। उसके बाद निषध अनगारको कालगत जानकर वरदत्त अनगार जहाँ अर्हत् अरिष्टनेमि थे वहाँ आये और वन्दन नमस्कार कर इस प्रकार पूछे-हे भदन्त ! आपके अन्तेवासी निषध अनगार प्रकृतिभद्रक और यावत् विनीत थे, सो हे भवन्त ! वह निषध अनगार काल अवसरमें कालकर कहाँ गये और कहाँ
પછી વિષયકુમાર પણ આ વૃત્તાન્તને જાણીને હૃષ્ટ તુષ્ટ હૃદયથી ચાર ઘંટાવાળા અધરથ ઉપર ચડીને ભગવાનનાં દર્શન કરવા નીકળ્યા અને જમાલીની પેઠે માતાપિતાની આજ્ઞાથી પ્રવ્રજિત થઈને અનગાર થઈ ગયા તથા ઇયસમિતિ આદિથી યુક્ત થઈ ગુસબ્રહ્મચારી બની ગયા. ત્યાર પછી તે પણ અનગારે અર્હત્ કિમ ભગવાનના તથારૂપ સ્પવિરેની પાસે સામાયિક આદિ અગીયાર અંગોનું અધ્યયન કર્યું તથા ઘણાં ચતુર્થ, પણ, અષ્ટમ આદિ વિચિત્ર તપ વડે આત્માને ભાવિત કરતાં પૂરાં નવ વર્ષ સુધી દીક્ષા પર્યાયનું પાલન કર્યું. બેતાલીસ ભક્તોનું અનશનથી છેદન કરી પાપસ્થાનની આલેચના તથા પ્રતિક્રમણ કરી સમાધિ પ્રાપ્ત થતાં આનુપૂવીથી કાલગત થયા. ત્યાર પછી નિવય અનારને કાલગત થયેલા જાણીને ઘર અનગાર જ્યાં અહંતુ અરિષ્ટનેમિ હતા ત્યાં આવ્યા અને વંદન નમસ્કાર કરી આ પ્રકારે પૂછયુંહે ભરત! આપના અન્તવાસી વિષ અનગાર પ્રકૃતિલક: અને બહુ વિનીત હતા. માટે છે ભાન! તે નિષ અનગાર કાળ અવસરમાં કાળ કરીને કયાં ગયા અને કયાં
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Shings s
उत्पन्न हुए ? वरदत्त अनगारका इस प्रकार वचन सुनकर भगवानने उनसे कहा
हे वरदत्त ! मेरा अन्तेवासी प्रकृतिभद्रक यावत् विनीत निषध अनगार मेरे तथारूप स्थविरोंके समीप सामायिक आदि ग्यारह अंगोका अध्ययनकर पूरे नौ वर्षों तक श्रामण्यपर्यायका पालनकर बयालीस भक्तोका अनशनसे छेदनकर पापस्थानोंकी आलोचना और प्रतिक्रमणकर समाधि प्राप्त हो काल अवसर में कालकर चन्द्र सूर्य ग्रह नक्षत्र तारा आदिसे ऊपर सौधर्म ईशान आदि यावत् अच्युत देवलोकको उल्लङ्घन कर तीन सौ अठारह ग्रैवेयक विमानावासको भी उल्लङ्घन करता हुआ सर्वार्थसिद्ध विमानमें देवता होकर उत्पन्न हुआ । वहाँ देवताओं की स्थिति तेंतीस सागरोपम है । उसी प्रकार निषेध देवकी भी तेंतीस सागरोपम स्थिति है । वरदत्त पूछते है
हे भदन्त ! वह निषेध देव उस देवलोकसे देव सम्बन्धी आयु भव और स्थिति क्षयके बाद च्यवकर कहाँ जायँगे और कहाँ उत्पन्न होंगे ?
જન્મશે ? વત્ત અનગારનાં આ પ્રકારનાં વચન સાંભળીને ભગવાને તેને કહ્યું:વરદત્ત ! મારા પ્રકૃતિભદ્રક અતેવાસી અને વિનીત એવા નિષ્ઠ અન
ગાર મારા તથારૂપ સ્થવિરાની પાસે સામાયિક આદિ અગીયાર અંગેનું અધ્યયન કરી પૂરાં નવ વરસ સુધી દીક્ષા પર્યાયનું પાલન કરીને અનશન વડે ખેતાલીસ ભક્તોનું છેદન કરી પેાતાનાં પાપસ્થાનની આલેચના તથા પ્રતિક્રમણુ કરીને सभाधि प्राप्त थतां द्वाण व्यवसरमा आज पुरीने चन्द्र, सूर्य, श्रह, नक्षत्र, तारा, આદ્ધિથી ઉપર સૌધર્મ ઇશાન આદિ યાવત્ અચ્યુત દેવલેાકનું ઉલ્લ ઘન કરી ત્રણસેા અઢાર ત્રૈવેયક વિમાનાવાસનું પણ ઉલ્લંઘન કરતાં સર્વાસિદ્ધ વિમાનમાં દેવતાપણામાં ઉત્પન્ન થયા. ત્યાં દેવતાઓની સ્થિતિ તેત્રીસ સાગરાપમ છે. એવીજ રીતે નિષધ દેવની પણ તેત્રીસ સાગરોપમ સ્થિતિ છે.
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વરદત્ત પૂછે છેઃ—
लहन्त! ते निषधदेव ते बोइभांथी देव समधी आयुभव मने स्थिति ક્ષય પછી ચ્યવીને કયાં જશે અને કયાં ઉત્પન્ન થશે ?
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दरबोधिनी टोका वर्ग ५ अध्य. १ निषध भावः अचेलत्वं परिमितवस्त्रधारित्वमित्यर्थः, मुण्डभावः दीक्षितत्वम् । अन्नानका देशसर्वस्नानवर्जितः स्वात्मेति शेषः, अदन्तवर्णका-दन्तवर्णों-दन्ताना
भगवान कहते हैं
हे वरदत्त ! यह निषध देव इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीपके अन्दर महाविदेह क्षेत्रके उन्नात नगरमें विशुद्ध पितृवंशवाले राजकुलमें पुत्ररूपसे उत्पन्न होगा। उसके बाद बाल्यकाल बीतनेपर, सुप्त दसो अंगोंके जागनेपर वह युवाऽवस्था को प्राप्त होगा, और तथारूप स्थविरोंके समीप शुद्ध सम्यक्त्वको प्राप्तकर अगारसे अनगार होगा। वह अनगार वहाँ ईर्यासमिति आदिंसे युक्त हो यावत् गुप्तब्रह्मचारी होगा। वह वहाँ बहुतसे चतुर्थ षष्ठ अष्टम दशम द्वादश मासार्द्ध मास क्षपणरूप विचित्रतपसे आत्माको भावित करता हुआ बहुत वर्षों तक श्रामण्यपर्यायका पालन करेगा। बादमें मासिकी संलेखनासे आत्माको सेवित कर साठ भक्तोंको अनशनसे छेदित करेगा। जिस मोक्ष प्राप्तिके लिये अनगार, नग्नत्व-परिमितवस्त्रधारित्व मुण्डभाव-द्रव्य भावसे मुण्डत्व, अस्नानक-देशतः और सर्वतः स्नान वर्जन,
ભગવાન કહે છે –
હે વરદત્ત ! આ નિપર આજ જમ્બુદ્વીપ નામે દ્વીપની અંદર મહાવિદેહ ક્ષેત્રના ઉન્નત નગરમાં વિશુદ્ધ પિતૃવંશવાળા રાજકુળમાં પુત્રરૂપે જન્મશે. ત્યાર પછી બાલ્યકાળ વીતી ગયા પછી સુતેલા દશેય અંગેની જાગૃતિ થતાં તે યુવાવસ્થાને પ્રાપ્ત થશે. અને તથારૂપ સ્થવિ પાસે શુદ્ધ સમત્વને પ્રાપ્ત કરી અગારમાંથી અનગાર થશે. તે અનગાર ત્યાં ઇસમિતિ આદિથી યુક્ત થઈ યાવત शुतप्रक्षयारी थशे. ते त्यां घgi तुर्थ, १४, मष्टभ, शम, द्वाय, भासाधी, માસ, ક્ષમણરૂપ વિચિત્ર તપથી–આત્માને ભાવિત કરતાં ઘણાં વર્ષ સુધી દીક્ષાપર્યાયનું પાલન કરશે. પછી માસિકી સંલેખનાથી આત્માને સેવીત કરી અનશનથી सामहतोनु -छेदन ४२ रे भाक्षपाति भाटे मन॥२ नग्नत्व परिभित १२ धारित; मुंडभावव्य य भुउत्प, अस्नान-शत: मने सर्वत: स्नान
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५ वृदिशा सूत्र
सुचलीकरणं स एव दन्तवर्णकः, अशुलिदन्तशाणकाष्ठादिभिर्दन्त घर्षणं, म दन्तवर्णकोऽदन्तवर्णकः = दन्तोज्ज्वलीकरणव्यापारराहित्यम् | अच्छत्रकः = छत्ररहितः । अनुपानत्कः = पादत्राणरहितः, उपलक्षणमेतत्-शकटशिविकातुरगादिवाहनानामपि, फलकशय्यां = फलकं = प्रतलमायतकाष्ठं तद्रुपा शय्या (पाटा) इति भाषायाम् । काष्ठशय्या काष्ठं स्थूलमायतमेव तद्रूपा शय्या केशलोच: = स्वपरहस्तेन केशोत्पाटनम् । ब्रह्मचर्यवासः - ब्रह्मचर्ये - विषयसुखत्यागे वसनं ब्रह्मचर्यवासः । परगृहप्रवेशः = भिक्षाद्यर्थमन्यगृहप्रवेशः । पिण्डपातः = भिक्षा
अदन्तवर्णक = अङ्गुलि दातन आदिसे दांतोंको स्वच्छ न करना और मिसी आदिसे दांतको न रंगना, अच्छत्र = रजोहरण आदिका भी छत्र धारण नहीं करना, अनुपानत्क= पगरखी तथा मौजे आदिको नहीं पहिनना, एवं गाडी शिबिका और घोडा आदिकी सवारी नहीं करना, फलकशय्या = काष्ठ आदिके पाटपर सोना, काष्ठशय्या = काष्ठपर सोना, केशलोच-अपने या दूसरे साधुओंके हाथसे केशोंका लुंचन करना - कराना । ब्रह्मचर्यवास - विषय सुख परित्याग रूप ब्रह्मचर्यमें स्थिर होना, परगृहप्रवेश= भिक्षा के लिए गृहस्थोंके घर में जाना, पिण्डपात - भिक्षाग्रहण, लब्धापलब्ध
वर्णन ( न नहावु ), अदन्तवर्णक = मशुसि दन्तशाण= |ष्ट ( साउडु ) सहिथी हांताने स्वच्छ न १२वा तथा भीशी माहिथी हांतने न रंगवा. अच्छत्र=रनेषु આદિનું પણ છત્ર ધારણ नं. ४२, अनुपानत्क=परम અને માજા આદિ પગમાં ન પહેરવાં, વળી ગાડી પાલખી અને ઘેાડા આદિની સવારી ન કરવી, फळकशय्या=साठठानी ( अष्टनी मनावेली ) पार्ट पर सुवुं, काष्ठशय्या= साडी पर सुवुं, केशलोच= पोताना डे मील साधुमोना हाथथी शोनु सुंथन ४२-४राववु, ब्रह्मचर्यवास विषयसुभ परित्याग३यी प्राथर्य मां स्थिर रहे, परगृहप्रवेश = लिक्षा भाटे गृहस्थाना घरभां भवु, पिण्डपात निक्षाथहायु, लन्धापलब्ध =सान तेभन गेरसाल,
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सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ५ अभ्य. १ निषध
अहर्णम् । लब्धापलब्धः = लाभालाभः । उच्चावचाः - उच्चाश्च अवचाश्व उच्चावचा:= अनुकूलमतिकूलाः । ग्रामकण्टकाः - ग्राम: - इन्द्रियसमूहस्तस्य कण्टका इव कण्टकाः इन्द्रियवर्गानुकूलमतिकूलशब्दादिषु सुखदुःखोत्पादकत्वेन मुक्तिमार्गे प्रति विघ्नहेतुत्वादेषां कण्टकत्वं व्यक्तम् । उच्चावचा ग्रामकष्टका अध्यास्यन्ते तम् अर्थ- मोक्षप्राप्तिरूपम् आराधयिष्यति । सेत्स्यति सकलकार्यकारितया सिद्धो भविष्यति । भोत्स्यते = विमलके वलालोकेन सकललोकालोकं ज्ञास्यति । यावच्छन्देन ' मुचिहि परिणिवाहि इत्यनयोः सङ्ग्रहः, तथा हि-मोक्ष्यते = सर्व कर्मभ्यो मुक्तो भविष्यति । परिनिर्वास्यति = समस्त कर्मकृत विकाररहितत्वेन स्वस्थो भविष्यति । सर्वदुःखानां = समस्त क्लेशानाम् अन्तं - नाशं करिष्यति अव्याबाधसुखभागू भविष्यतीत्यर्थः । हे जम्बूः !
.
,
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४४७
= लाभ और अलाभ, और उच्चावचग्रामकण्टक = इन्द्रियोंके अनुकूल प्रतिकूल शब्द आदिको सहन करना, आदि मर्यादामें चलते हैं; उस मोक्षरूप अर्थको आराधना करेगा और सकल कार्योंको सिद्ध करके अन्तिम उच्छ्वास निःश्वासोंसे सिद्ध होगा । निर्मल केवलज्ञानसे सकल लोकालोकको जानेगा और सर्वक्रमसे मुक्त होगा, और सकलकर्मविकाररहित होकर शीतलोभूत होगा और सम्पूर्ण दुःखोंका अन्त करके अव्याबाध सुखको प्राप्त करेगा ।
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અને
उच्चावचप्रामकण्टक=न्द्रियोंने अनुज अतिपूण शब्दो माहि सहुन
કરવા આફ્રિ મર્યાદામાં ચલે છે; તે માક્ષરૂપ મની
આરાધના थशे.
કરશે. અને સકલ કાર્ય સિદ્ધ કરી છેલ્લા ઉચ્છવાસ નિ:શ્વાસેા પછી નિર્મળ કેવળજ્ઞાનથી તમામ લેાક અલાકને જાણેશે અને સર્વ કર્મથી મુક્ત થશે. અને સકળ કર્મ વિકારરહિત થતે શીતલીભૂત ( થાન્ત ) થશે અને સંપૂર્ણ,
:ખાના અંત લાખીને અવ્યાબાધ સુખને પ્રાપ્ત કરશે.
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५ वृष्णिदास
-
... एवं सेसा. वि. एकारस अज्झयणा नेयवा संगहणीअणुसारेज अहीणमइरिश एक्कारसम वि । तिबेमि ॥३॥
॥ बारस अज्झयणा समता ॥ १२ ॥ .. ॥ वह्निदसा नामं पंचमो वग्गो समतो ॥ ५॥
॥ निरयावलिया सुयक्खंधो समतो ॥
॥ समचाणि उवंगाणि ॥ . एवं शेषाण्यपि एकादशाध्ययनानि ज्ञेयानि संग्रण्यनुसारेण, अहीनाsतिरिक्तम् एकादशस्वपि । इति ब्रवीमि ॥ ३ ॥
___॥ द्वादशाध्ययनानि समाप्तानि ॥ १२ ॥ ॥ वृष्णिदशानामा पञ्चमोवर्गः समाप्तः ॥ ५ ॥ ॥ निरयावलिकाश्रुतस्कन्धः समाप्तः ॥
॥ समाप्तानि उपाङ्गानि ॥ एवम् उक्तवकारेण अमन भगवता महावीरेण यावसिद्धिगतिनामधेयं स्थानं संप्राप्तेन यावद् निक्षेपका-समाप्तिसूचको वाक्यमबन्धः ॥ ३ ॥
. इति प्रथममध्ययनं समाप्तम् ॥ १ ॥ श्री सुधर्मा स्वामी कहते हैं__ हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीरने वृष्णिदशाके प्रथम अध्ययनका भाव इस प्रकार कहा है ॥ ३ ॥
- वृष्णिदशाका प्रथम अध्ययन समाप्त हुआ. સુંધર્મો સ્વામી કહે –
હૈ જબૂ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે વૃશિંદશાના પ્રથમ અધ્યયનના ભાવ मा up gan . (3).
વૃષ્ણિદશાનું પ્રથમ અધ્યયન સમાપ્ત.
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RAN
लोमिनी टोका वर्ग ५ अध्य. २-१२ मायनि आदि
टीकाएवं शेषाण्यपि अवशिष्टान्यपि एकादशाध्ययनानि संग्रहण्यमुसारेण= अस्यैवाध्ययनस्यादौ " निसले मायनी" इत्यादिसंग्रहणीगाथानुसारेण ज्ञातव्यानि । एकादशस्वपि सर्वेष्वप्यध्ययनेषु अहीनातिरिक्त न्यूनाधिकभावरहितं वर्णनं विज्ञेयमिति भावः । शेषं निगदसिद्धम् । इति यथा भगवत्समीपे मया श्रुतं तथैव ब्रवीमि-कथयामि ॥ ३ ॥
॥ इति द्वादशमध्ययनं समाप्तम् ॥ १२ ॥
इसी प्रकार शेष ग्यारह अध्ययनोंको भी संग्रहणी गाथाके अनुसार जानना चाहिये । ग्यारहों अध्ययनों में न्यूनाधिकभावसे रहित वर्णन जानना चाहिये ।
मुधर्मा स्वामी कहते हैंहे जम्बू ! भगवानके समीप मैंने जैसा सुना वैसा तुम्हें कहा ॥३॥
। बारहवाँ अध्ययन समाप्त हुआ। । वृष्णि दशा नामक पाचवा वर्ग समाप्त हुआ। निरयापलिका नामक श्रुतस्कन्ध समाप्त.
( उपाङ्ग समाप्त हुए આવી રીતે બાકીના અગીયાર અધ્યયનને પણ સંગ્રહણી ગાથાને અનુસરીને જાણવા જોઈએ. અગીયારે અધ્યયનમાં ન્યૂનાધિક (વધતા ઓછા) ભાવથી રહિત વર્ણન જાણવું જોઈએ.
સુધર્મા સ્વામી “હે છે – હે જબૂ! ભગવાનની પાસે મેં જે સાંભળ્યું એવું તને કહું છું. (૩).
બારમું અધ્યયન સમાપ્ત. વૃષ્ણિદશા નામને પાંચ વર્ગ સમાપ્ત. નિરયાવલિકા નામને શ્રુતસ્ક ધ સમાપ્ત,
(Gin समाप्त).
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- ५ वृष्णिदशा
निरयावलियाउवंगे णं एगो सुयक्खंधो, पंच वग्गा, पंचसु दिवसेसु उहिस्संति, तत्थ चउसु बग्गेसु दस दस उदेसगा, पंचमकग्गे वारस उद्देसगा। ॥निरयावलियासु सम ॥ .
.
छायानिरयावलिकोपाङ्गे खलु एकः श्रुतस्कन्धः, पञ्च वर्गाः, पञ्चसु दिवसेसु उद्दिश्यन्ते, तत्र चतुषु वर्गेषु दश दश उदेशकाः, पदमवर्ग द्वादशोद्देशकाः ॥
॥ इति निरयावलिकामूत्रं समाप्तम् ॥ .. निरयावलिका उपाङ्गमें एक श्रुतस्कन्ध है, पाँच वर्ग हैं, पाँच दिनोंमें इसका उपदेश दिया गया है। इसके चार वर्गोंमें दस-दस उद्देश हैं, पांचवें वर्गमें बारह उद्देश हैं।
इति निरयावलिका सूत्र समाप्त. નિરયાવલિકા ઉપાંગમાં એક યુવકન્ય છે. પાંચ વર્ગ છે. પાંચ દિવસમાં આને ઉપદેશ અપાયો છે. આના ચાર વર્ગમાં દશ-દશ ઉદ્દેશ છે. પાંચમા વર્ગમાં सा२ उद्देश। छ. .
ઇતિ નિરયાવલિકા સૂત્ર સમાપ્ત,
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सुन्दरबीधिनी टीका शास्त्र प्रशस्ति
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॥ शास्त्रमशस्तिः ॥
काठियावाड देशेऽस्मिन्, वाकानेरपुरं महत् ।
अत्रेत्य मुनिभिः सार्द्धं, ग्रामग्रामान्तरं व्रजन् ॥ १ ॥
टीकामकार्षमेतर्हि, मृद्वीं सुन्दरबोधिनीम् । त्रिपरद्विसहस्राब्दे, विक्रमीये सुखावहे ॥ २॥
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आषाढे बहुले पक्षे, पञ्चम्यां बुधवासरे। सेयं सम्पूर्णतां याता, भव्यानामुपकारिणी ॥ ३ ॥
प्रशस्ति.
काठियावाड प्रान्तमें वांकानेर नामका एक नगर है | तीर्थंकर परम्परा से ग्रामानुग्राम विहार करते हुए इस नगर में आकर विक्रम सम्वत् २००३ को मैंने इस सुन्दरबोधिनी नामक टीकाकी रचना की ॥ १ ॥ २ ॥
भव्योंकी उपकारिणी यह टीका आषाढ कृष्ण पश्चमी बुधवारको समाप्त हुई ॥ ३ ॥
ભવ્યાની ઉપકાર કરવાવાળી
बुधवारे सभास या (3).
४५१
પ્રશસ્તિ
કાઠિયાવાડ પ્રાન્તમાં વાંદાને નામે એક નગર છે. તીથંકર પર પરાથી ગ્રામેગ્રામ વિહાર કરતા કરતા આ નગરમાં આવીને વિક્રમ સંવત ૨૦૦૩ માં મે या सुंदरबोधिनी नामनी टीम रथी (१-२ )
આ ટીકા અષાઢ ( ૩૦ જેઠ ) વિદ પાંચમ
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१५२
टीकासमाप्तिकाले च साकाः सत्य उच्चमाः । सन्त्यत्र तेषां नामानि, कथ्यन्ते गुषवृद्धये ॥ ४ ॥ सम्प्रदाया लसन्त्यत्र, निरपायाः स्नदाईताः । लिम्बडीसम्प्रदायोऽत्र, दीप्यते दिवि चन्द्रवत् ॥ ५ ॥ तत्रास्ति शान्तो मनसाऽथ दान्तः, कृतो मुनिः केशवलालनामा। गुणैर्गुरोरुच्चपदाऽधिकारी, स्वतत्त्वधारी विलसत्प्रभावः ॥ ६ ॥
इस टीकाकी समाप्तिके समय जो महासतियां सथा मुनिराज विराजले थे उनके नाम गुणवृद्धिके लिये कहे जाते हैं ॥ ४ ॥
इस संसारमें पवित्र और निर्मल बहुतसी आर्हत संप्रदायें हैं। इन संप्रदायोंमें लिम्बड़ी सम्प्रदाय आकाशमें चन्द्रमाके समान देदीप्यमान है ॥ ५ ॥
. इस लिम्बडी सम्प्रदायमें शान्त तथा मन और इन्द्रियोंको दमन करने वाले कृती अर्थात् पण्डितराज मुनिश्री केशवलालजी महाराज हैं, जो गुणांसे गुरुके उच्च पदके उत्तराधिकारी हैं। तथा ये मुनिवर स्व=आत्मा अथवा जैनागमके तत्वोंके निरूपण करने में प्रवीण हैं, एवं अपने तेजसे देदीप्यमान हैं ॥ ६ ॥
આ ટીકાની સમાપ્તિ વખતે જે ઉત્તમ સાથું અને ઉત્તમ સાધ્વીઓ હતી તેમનાં નામ ગુણવૃદ્ધિ માટે કહું છું. (૪).
આ સંસારમાં ઘણા નિર્મલ અને ઉત્તમ જૈન સંપ્રદાયે છે. તે સંપ્રદાયમાં लीबडी संप्रदाय भाभा यन्द्र ना पेठे यमान छे. (५).
આ લીંબડી સંપ્રદાયમાં શાન્ત તથા મન અને ઇન્દ્રિયને સંયમથી દમન કરવાવાળા કૃતી અર્થાત પંડિત પ્રવર મુનિશ્રી રાજાર મહુરાજ છે જે શુ વડે ગુરૂના ઉચ્ચપદના ઉત્તરાધિકારી છે, તથા આ મુનિવર સ્વ=આત્મા અથવા જેન આગમન તને નિરૂપણ કરવામાં પ્રવીણ છે. એ પ્રમાણે તેઓ घाताना ते 43 दीयमान . (६).
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सुन्दबोधिनी टोका शाम प्रशारित
गुणाभिरामो गुमसम्प्रचारे, सदाऽविरामो निहलमा । सुत्यक्तरामोऽपि विभाति नाम्ना, रामो मुनिः केवल इत्ययं च ॥ ७ ॥ प्रवर्तिनी झाकलबाइनाम्नी, श्रीजीकुमारेति सतोतरा च । सन्तोकवाईति परा सती च, तिस्रोऽप्यजस्रं दधते व्रतित्वम् ॥ ८॥
और दूसरे मुनि जो कि गुणोंसे अभिराम ( सुन्दर ) हैं तथा गुणोंके प्रचारमें सर्वदा लगे रहते हैं और जिन्होंने सभी सांसारिक कामनाओंका त्याग कर दिया है इस प्रकारके यह मुनिराज सुत्यकराम ( रामा रोके त्यागी) होनेपर भी 'राम' इस नामसे प्रसिद्ध हैं। और तीसरे विद्यार्थी केवल मुनि हैं ॥ ७ ॥
अघ महासतियों के नाम कहते हैं
यहाँ पर ये महासतिया सर्वदा पञ्चमहाव्रतको धारण करती हुई विचर रही हैं, इनमें प्रथम महासतीका नाम प्रवर्तिनी श्री झाकलबाई स्वामी है, दूसरी महासतीका नाम श्री श्रीजी कुँवरवाई स्थामी है, तथा तीसरी महासतीका नाम श्री सन्तोकबाई स्वामी है। ये तीन ठाणों से स्थिरवास विराजती हैं ॥ ८ ॥
વળી બીજા મુનિ કે જે ગુણે વડે અભિરામ (સુન્દર) છે તથા ગુણેના પ્રચારમાં સર્વદા મંડયા રહે છે તથા જેમણે સાંસારિક બધી કામનાઓને ત્યાગ
थे छ वा मुनि सुत्यक्तराम राम (सी) ने छीन ५५ 'राम' माi नामयी शमी २ छ. अर्थात् lon २५ मुनि छे. alon केवळमुनि छ. (७). .
હવે મહાસતીઓનાં નામ કહે છે –
અહીં સાધ્વીઓ હમેશાં પાંચ મહાવ્રત ધારણ કરતી વિચરે છે. તેમાં પ્રથમ મહાસતીનું નામ પ્રવર્તિની શાસ્ત્રાર્જ સારી છે. બીજી સતીનું નામ भोजोकुंवरबाई स्वामी तथा श्री सतीनुनम भोसंतोकबाई स्वामी छे. मात्र था स्थिपास निराले छे. (८).
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साध्वी श्रीपार्वतीबाई, श्रीहेमकुमरा ऽभिधा । वैयावृत्यैकशीला श्री, सम्झनाई महासती ॥ ९ ॥
५ वृष्णिदशा सूत्र
वांकानेर पुरस्थ एष परमोदारो महाधार्मिकः, शुद्धस्थानकवासिधर्मनिरतः सम्यक्त्वभावान्वितः । तत्त्वातत्त्वपयोविवेचनविधौ हंसायमानः सदा, सर्वेषामुपकारको विजयते श्री जैनसंघो महान् ॥ १० ॥
तथा महासती श्री पार्वतीबाई स्वामी और महासती श्री हेमकुंवरबाई स्वामी एवं सेवाभावी महासती श्री सम्भूबाई स्वामी यहाँ तीन ठाणों से विराजती हैं ॥ ९ ॥
वांकानेरका यह परम उदार महाधार्मिक श्री जैनसंघ सदा विजयशाली है । यह जैनसंघ शुद्ध स्थानकवासी धर्म में निरत है तथा सम्यक्त्वभावसे युक्त है, एवं तत्व और अतत्त्व रूपी दुग्ध और जलके विवेचन में हंसके समान है, और यह संघ सभी प्राणियों का हितकारक है ॥ १० ॥
महासती श्री पार्वतीबाई स्वामी तथा श्री हेमकुंवरबाई स्वामी भने सेवापरायशु श्री समजुबाई स्वामी मंडीं गिराने छे. (८).
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વાંકાનેરના આ પરમ ઉદાર મહાધાર્મિક શ્રો જૈનસંઘ સત્તા વિજયશાળી છે. આ જૈનબંધ શુદ્ધ સ્થાનકવાસી ધર્મમાં નિરત છે તથા સમ્યસૂત્વ ભાવથી યુક્ત છે. અર્થાત્ તત્ત્વ અને અતત્ત્વરૂપી દૂધ અને પાણીના વિવેચનમાં હુંસ સમાન છે. અને આ સંઘ સર્વ પ્રાણીઓના હિતકારક છે. (૧૦).
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greatधिनी टोका शास्त्र प्रशस्ति
देवे गुरौ धर्मपथे च भक्तिर्येषां सदाचाररुचिर्हि नित्यम् ।
ते श्रावका धर्मपरायणाश्व सुश्राविकाः सन्ति गृहे गृहेऽत्र ॥ ११ ॥ इति प्रशस्तिः
इति श्री विश्वविख्यात - जगद्बल्लभ - प्रसिद्धवाचक - पञ्चदश भाषा कलित ललितकलापालापक - प्रविशुद्ध मद्यपद्यनेकग्रन्थनिर्मायक - वादिमानमर्दक- श्री महू छत्रपति कोल्हापुर राजप्रदत्त - 'जैनास्त्राचार्य' - पद भूषित - कोल्हापुरराजगुरु - बालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्म दिवाकर - पूज्यश्री - घासीलाल - प्रतिविरचिता श्री निश्यावलिका दिपञ्चसूत्राणां सुन्दरबोधिनी टीका समाप्ता ।
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इस नगर के घर घरमें देव, गुरू और धर्ममें सर्वदा श्रद्धा रूचि रखनेवाले तथा सदाचारसे युक्त एवं धर्मपरायण श्रावक और श्राविका विद्यमान हैं । ॥। ११॥ । इति श्री निश्यावलिका आदि पाँच सूत्रोंकी सुन्दरबोधिनी टीकाका हिन्दी अनुवाद समाप्त |
मङ्गलं भगवान् वीरो मङ्गलं गौतमः प्रभुः । सुधर्मा मङ्गलं जम्बूर्जेनेधर्मश्च मङ्गलम् ॥
જેમની દેવ, ગુરૂ તથા ધર્મમાં હંમેશાં ભક્તિ છે તથા સદાચારમાં રૂચી છે એવાં શ્રાવક અને શ્રાવિકાએ આ નગરમાં ઘેરઘેર વિદ્યમાન છે. (૧૧).
ઇતિ નિરયાવલિકા આદિ પાંચ સૂત્રોની સુન્દરમેાધિની ટીકાને ગુજરાતી અનુવાદ સમાપ્ત.
॥ समाप्तमिदं शास्त्रम् ॥
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