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S* श्रीः
के सूचीपत्र
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सम्बर
नाम
पाने
हमारी प्रात्मोन्नति स्वामी श्रीभीवनजीकृत नव पदास्थकी जोड जीवपदार्थ की ढाल भनीवपदार्थ की हाल पुण्य पदार्थ की दाल पुण्य की करणी उनखना की ढाल | पाप पदार्थ की ढाल भाश्रव पदार्थ की दान
, दूसरी ढाल संवर पदार्थ की दाल १. निरजरा पदार्थ की हाल
निरजरा की करणी की दाल
बंधपदार्थ की हाल ४ : मोक्ष पदार्थ की दाल
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KA .
५ : नवादीपदार्थों का खुलासा की दान
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* श्रीवीतरागाय नमः -
हमारी श्रात्मोन्नति ।
धार्मिक भव्य हलकर्मी जीवों को विचारना चाहिए कि हनारी आत्मोन्नति कय और कैसे होगी ? क्या मनमानी लोकप्रिय मींठी २ बातों करने से ? या पय मिश्री समान मिष्टवचन सुनने से ? 'या मनोहर मनोहर रूप देखने से ? या अंतिश्रेष्ठ सुगंध मुंघने से ? या श्रमृतंसमानं भोजन करने से ? या मनइच्छित वस्त्राभस्त्रयादि के स्पर्श करने से ? किन्तु नहीं नहीं कदापि नहीं । उपरोक्त विषय सेने सवाने और अनुमोदने से श्रात्मोन्नति किञ्चित् भी नहीं हो सकती है ? होसकती है सिर्फ़ धर्म करने से ? वो धर्म क्या और किस तरह कियाजाता है ? इसकी पहिचान करनी अत्यावश्यक है ।
इस अपार असार संसार में अनेक तरह के धर्म और अनेक तरह के धर्मावलम्वी हैं, कोई कहते हैं पृथ्वी, पानी, वायु, अग्निं, और आकाश, इन पांच तत्वमयी सर्व वस्तु हैं श्रात्मा कोई वस्तु हैही नहीं न स्वर्ग है न नर्क है और न कोई पुन्य पाप है, कोई कंहते हैं नहीं नहीं पञ्चतत्वमयी शरीर है इस में अन्तरगत आत्मा अलग है सो सदा अकर्ता अभोक्ता है। कोई कहता है इस सृष्टी को परमेश्वर ने बनाई है सुख दुःखदायक परमेश्वर ही है जैसी ईश्वर की इच्छा हो वैसा ही प्राणियों को करना होता है स- मस्तकार्य के करता हरता परमेश्वर ही है, कोई कहते हैं नहीं न हीं करता कराता परमेश्वर कुछ भी नहीं जैसा जैसा कर्म जीवात्मा करता कराता है उसका फल जीवात्मा को परमेश्वर देता है चोरासीलक्षजीवायोनी में परमेश्वर ही शुभाशुभ कर्मानुसार भ्रमण कराता है, कोई कहते हैं उपरोक्त यांत सब झूठ हैं, ईश्वर कुछ करता कराता नहीं वह तो श्रंकर्ता श्रभक्तां अछेदी अभेदी - जोगी श्ररोगी असोगी श्ररूपी अजर अमर अचल अटल परमानन्द ज्योतिस्वरूप निरञ्जन निराकार है, संसारी जीव भावी वश जैसा कर्म करता है वैसा ही भोगता है, वे कर्म दो प्रकार के हैं
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शुभ और अशुभ शुभकर्म को पुण्य कहते हैं और अशुभकर्म को पाप, जीवों को साता उपजाने से याने आहार पानी वसा श्रामरणादि देने से पुण्य होता है और दुःख देने से पाप होता है पु. एय से आत्मा की उन्नति और पाप से श्वनंति होती है, इत्यादि अनेक तरह के मजहब और अनेक तरह के धर्म हैं, लेकिन अपनी आत्मोन्नति का उपाय तो कोई विरलेही जानते हैं. जो जीव मोहमयी महा घोर निद्रा से निद्रित हैं वे अपनी आत्मोसति हरगिज भी नहीं करसकते हैं इसही लिये सतगुरुवोंका कहना है हे भव्यजनों ! "जागो, जागो" बहुत दिन मास व्यतीत हुए अनेक दिनों से दिवाकर भ्रमण कर दिवसको विताए, अपार निशाओं में निशाकर सुधामयी चन्द्रिका फैलाई, अनेक तारागणों ने प्रकाश किया, आस पास की नहीं महल्ले शहर की नहीं वहुत कोसों तक आवाज सुनाने वाली नौवते नहीं अनन्त मेघगरनन सुन के . अपारदार कायरों के दिलदुखाने वाली तोपों की आवाज सुनके. भी तुम्हारी निद्रा नहीं गई? श्री प्राचारांगसूत्र में कहा है, ( सयं तेणं गयं धनं ) याने सोया सो धन खोया, अमूल्य धन पास रखके ऐसी निद्रा में गाफिल होना भला क्या समझदारी का काम है?
प्रियवरो! एकाग्र चित्त करके सोचो यह निद्रा हमेशा मामू. ली आती है सोही है या और कोई दूसरी है ? अगर मामूली होती तो इतने शब्द सुन के हगिज भी नहीं ठहर सकती, लेकिन इस मोह मित्थ्यात्वमयी निद्राने तो एकक्षणमान भी तुम्हारा पीछा नहीं छोडा है, ज्ञान के नेत्रों से देखो इस निद्रा ने तुम्हारा क्या २ गुण छिपाया है, इससे तुम्हारा कितना नुकसान होरहा है, अमूल्यरत्नागर होके ऐसे गाफिल होना भला क्या समझदारी का काम है ? तुम कौन हो और अब कैसे होरहे हो? तुम हो साक्षात् सच्चिदानन्द स्वरूप निरसन निराकार परमब्रह्म परमात्मा मुखों के भोगने घाले, अनन्त ज्ञान दारशन चारित्र वीर्य तुम्हारे. गुण बुम्हारेही पास हैं, लेकिन इस मोह मित्थ्यात्वमयी निद्रा से निद्रित होके अनन्त चतुष्टयं गुणों को वादिया है । देखो तुमने
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उस अपूर्व अलौकिक शक्ती को अतिः,निर्वल करादिई है, उस अ. सीम शक्ती के सामने सर्प चंद्र जल वायु आदि की अमोघ शक्तियां भी सिर उठा नहीं सकतीं, ऐसे निर्मल अनन्त शक्तिषन्त हो के शक्तिहीन होना भला कहांतक अच्छा है ? - महानुभावो ! निष्पक्ष होके विचार करो यह अवगुण एकान्न तुम्हारा ही नहीं है, बह. अपलांछन तुम को ही कुशोभित नहीं किया है, इस प्रफलतने तुम्हारे ही को निर्धन नहीं किया है, इस अविद्याने तुम्हें ही मूर्ख शिरोमणि पदारूढ नहीं किया है, तुम्हारे संग साथी, तुम्हारे मित्र अमित्र, नाती गोती, बहुत से ऐसे ही हो रहे हैं । इस का मुख्य कारण यह है कि अनादि काल से ही तुम
और तुम्हारे संयसाथी कुगुरु भ्रष्टाचार्यों का ही संग कर रहे हो, जिससे ही जीव अधिकांस मोह मित्थ्यात्वमयी निद्रासे निद्रित हो रहा है। वो कुगुरु हीनाचार्य स्वयं शुद्ध सीधा साधूपंथ पर, नहीं चल के दूसरे को भी नहीं चला सकते हैं, वो यह लौकिक पूजाशलाषार्थी जीव पंचिन्द्रियों के विषय भोग गर्भित देसना हिये गैर नहीं रहे, वो भेषधारी दया दया मुख पुकार कर हिंसा का प्रचार करते हैं । कहैं किसे सुनता है कौन, बतावे किसे देखता है कौन, चारों तरफ मित्थ्यामयी महाघोरांधकार छा रहा है, पापकर्म रूपी महाकाली विकराली घटाओं से शुद्धखरूप सूर्य, छिपाहुवा है। लेकिन ज्ञान चल से देखो, सुर्मात से खयाल करो, वह शुद्धस्वरूप सूर्य छिप कर के भी नहीं छिपा है, सुमति से ख. याल करो वोह तुम्हारी निर्मल अमित कान्ति मलीन हो के भी विकृत नहीं हुई है, वह तुम्हारा बल वीर्य पुरुषाकार पराक्रम कहीं नहीं गया है, सव तुम्हारे निजगुण तुम्हारे पास हैं, अगर तुम्हें अपने गुण प्रकट करने हैं और अपनी आत्मोन्नति करनी है तो शु
साधू महात्माओं की संगति करो तथारागद्वेष रहित वीतराग प्रभु के वचनों के अनुसार चलो, हिंसामतकरो, संयमी हो, झूठ मत.वोलो, चोरी मत करो, ब्रह्मद्रत धारण करके निर्लोभी निष्परिग्रही हो, घस यही राह सीधी मुक्ति मिलने की है, बाकी सब दोग है, जहांपर पैसे और स्त्री का प्रचार है यहां कुछ आत्मोन
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ति का उपाय नहीं है। हे मित्र ! मत भ्रमो.। संसार से मिलती झूठी प्ररूपना करने से पंचइन्द्रियों के विषय सेने सेवाने से और दूसरे जीवों का शारीरिक सुख इच्छने से मोक्षाभिलाषी कभी नही हो सकते, संसार में संसारी जीवों को खाना खिलाने से प्रा. त्मकल्याण नहीं होता । पृथ्वी पानी वायु अग्नि वनस्पति के जीवों को मार कर अस जीवों को साता उपजाने से धर्म कदापि नहीं होता है । इस ध्वंस शील शरीर का मोह छोड कर तप श्रझीकार करो, शरीरस्थ महा पुरुप के साथ जगदात्मा के जिस नित्य सम्बन्ध को भूलकर माया के इन्द्रजाल में फंसा हुवा है,
और सङ्कल्प विकल्प के अनर्थ में लहा लोट होता है उस सम्बन्ध को ध्रुवज्ञान से प्रत्यक्ष कर उसी शान में लवलीन रहो । वि. चार करो हम सच्चिदानन्द प्रानन्दस्वरूप शुद्ध स्वरूप अजर अभर है, और यह शरीर अनित्य है, शरीर अलग है और हम अलग हैं, इस पुद्रलमयी शरीर का और हमारा संग अनादि काल से चलाभाता है, इस की रक्षा करने से ही हम इस से अलग होके सिद्धात्मा नहीं बनते, इस कुटुम्ब और दुखी जीवों के मोहजाल में फंसकर ही मोह अनुकम्पा करने से चतुरगति संसारमयी समुद्र में गोता लगा रहे हैं। प्यारे ! तुम दुखियों को देखकर दुखी और सुखियों को देखकर सुखी क्यों होते हो, भैय्या तुम्हारे सामने तुम्हारा पिता, तुम्हारी माता, तुम्हारी स्त्री, तुम्हारे पुत्र, पौत्र, तुम्होर नांती, गोती, तुम्हारे मित्र, मित्र, सब चले चलते हैं, और चले जायगे, इन किसी का मोह मत करो, निर्मोही हो के श्री वीतरागप्ररूपिता धर्मानुसार प्रवतो, तव दुःखों से छुटकारा पाओगे। सर्व मतों में सब अन्यों में सव शास्त्रों में अहिंसा धर्म ही मुख्य है । हिंसा करना, झूठ बोलना, चोरी करना, मैथुन सेना, और परिग्रह रखना सर्वथा वर्जित है तो जैन मति में तो उपरोक्त पञ्च आश्रवद्वार सेना सेवाना और अनुमोदना मन वचन काया करके सवाश निषेध है। इसलिए सदोगुका कहना है, देवानुप्रियो! जागो २, अनादि काल से सोते सोते निजगुणों को भूलगये क्या अंब सोते ही रहोगे ? भालस्य छोडो, प्रमाद तजो, पाप हरो, जियादह नहीं तो बन सके उत्तना ही धर्म करो,
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लेकिन जिनआक्षा बाहर के कार्य में धर्म कदापि मत समझो। श्रधा शुद्ध रखने से ही सम्यक्त्वी कहलाओगे, परन्तु भाक्षां बाहर का कार्य में धर्म समझने से सम्यक्त्वी कभी नहीं कहा लाओगे । जैनी नाम कहा के एकेन्द्री जीवों के मारने में धर्म ऐसा कहना भला कहां तक अच्छा होगा? धर्मार्थ हिंसा का दोप नहीं ऐसी प्ररूपना करके अहिन्सा धर्म जोतीर्थङ्करों का कहाहुवा है उसे कलङ्कित मत करो, महानुभावो, देखो देव गुरु धर्म यह तीनों अमूल्य रत हैं. इनकी पहिचान करो अगर अपने बुजुर्ग. कुसंग से कुगुरुउपासक थे तो तुम उनकी देखां देख कुगुरुत्रों हिंसाधर्मियों की उपासना मत करो, जब तुम्हारी आत्मोन्नति होगी। परभव में दुर्गति न पायें अगर ऐसा विचार है तो अस. ली नकली की पहिचान ज़रूर करो, ऊपर की चमक दमक ही. देखकर मत भ्रमों, सिर्फ कांटा घांट बांधकर जहोरी नाम कहलाने से ही जोहरी नहीं होसकता, वैसे ही जैनी नाम धराने से ही जैनी नहीं होसकता है। दृढता रक्खो वाह्य शुची से पवित्रात्मा कभी नहीं होगी, जो यह अपनी आत्मा अनादिकाल से हिं. सा आदि पंच पाश्रव द्वार सेने सेवाने और भला जानने से म. लीन होरही है वो आत्मा इन्ही पंचाश्रव द्वार सेने सेवाने और. भला जानने से कभी भी निर्मल नहीं होगी । इसही लिए कहना है प्रियवरो! शुद्ध पञ्च महावत पालने वाले मुनिराजों को मलीन कहकर पापों के पुजसे आत्मा भारी मत करो। और जिन भाषित नय निक्षेप का भावार्थ यथार्थ समझो, निश्चय और व्यवहार दोनों नयों से मात्र पदार्थों का द्रव्य गुण पर्याय को यथार्थ समझो। एकान्त निश्चय या एकान्तं व्यवहार नय कोही मत ताणो । एक पक्षी बने रहोगे तो समषित का लाभ नहीं पाओगे, याद रक्खोभी बीतरागदेव मरूपित धर्म स्याद्वादमयी है, परन्तु: विषमवाद नहीं है, एकान्त निश्चयनयी हों के व्यवहार नय कों मत उथापी, छदमस्थ का सोम्पयहार ही शुद्ध है, इसलिए कहना है कि कुहेतु देके जिनभाषित हिन्सा धर्म को विध्वंस म.. तकरो। अगर साये जैनी होतो अहिंसा धर्म प्ररूपते हुए क्यों ला. जते हो और पृथिवी. भादि पांच स्थाघर की हिन्सा में धर्म क्यों
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प्रहपत हो, देखो द्वितिय सूत्र कृतांग के प्रथम शूर संघ के प्रथम अध्ययन के दूसरे उसे शारमी गाथा में कहा है। धम्म पन्नवणां जामा, तंतु संकति मूढगा । प्रारम्भानि न संकंति, अविश्रत्ता अकोवित्रा।
टीका-शंकनीया शंकनीय विपर्यासमाह (धम्म पन्नवणोत्यादि) धर्मस्यं क्षात्यादि दशलक्षणोपेतस्य या प्रज्ञापना प्ररूपणा (तंत्विति) तामेव शंकन्ते असधर्म प्ररूपणोयमित्येव मध्यवस्यति ये पुनः पायोपादान भूताः समारंभास्ता ना शंकते (किमिति) यतोऽव्यक्ता मुग्धासदसद्विवेकविकलाः तथा अकोविदा, अपण्डिताः सच्छात्राववोधरहिताः इति ॥ अर्थात् क्षान्त्यादि दशविधि धर्म प्ररूपणा है उसे प्ररूपते तो शंकाय याने शरमाते हैं और श्रारंभ में धर्म प्ररूपते शंकाय नहीं, ऐसे अव्यक्त मुग्ध पण्डित है, इसीलिए कहता है, हे देवानुप्रियो ! जो श्री अरिहन्त भगवन्तों ने अहिंसा धर्म कहा है सोही कहना उचित है अन्यथा सवन्सि वर्जनीय है श्री सुयगडांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंध के प्रथमाध्यन में खुलासा कहा है।
तत्थ खलु भगवन्ता छन्झीवनिकाय हे उ पन्नतात. जहा पुढवीकाए जाव तसकाए से जहा णामए मम अस्सायं दंडेणवा अट्ठीणवा मुट्ठीणवा लेलूणवा कवालेणवा आउट्टिज माणस्सवा हम्ममागस्सवा तमिझ माणस्सवा ताडिझ माणस्स वा परियाविज्झमाणस्सवा किलाविज्झमाणस्सवा उद्दविज्झमाणस्सवा जावलो मुख्खमाणमायमवि हिंसाकारगं दुख्खं भयं पडिसं वे मि इचेवं जा;
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( " ण सम्वे जीवा सव्वे भूता सम्वे पाणा सब्वेसत्ता दंडेणवा. जाव कवालेणवा श्रा उट्टिज्ममाणावा हम्ममाणावा तज्झिज्झमाणावा ताडिझमाणावा परियाविज्झमाणावा किलाविज्झमाणावा उद्दषिज्झमाणवा जावलोमुख्खणणमायमावि हिंसाकारगं दुख्खं भयं पडिसंवेदेति एवं नचा सव्वेपाणा जाव सत्ता णहंतबा णअझावेयया परिघेत. व्वा णपरितावेयव्या णउद्दवेयव्वा । सेवेमि जेय. अतिता जेयपडपन्ना जेयागमिस्सामि अरिह: न्ता भगवन्ता सव्वे ते एवमाइख्खंति एवंभासंति एवंपणवेति एवंप्रति सम्वेपाणा जावसवेसत्ता णहतब्वा णअज्झावयब्वा णपरिघेतव्वा णपरितावेयव्वा णउद्दवेयवा एसपम्मे धुवे णीतीए सासए समिचं लोगं खेयन्नेहि वदोंत एवंसे भिख्खू विरते पाणातिवायतो जाव विरते परिग्गहातो णोदंतपख्खालणणं दंतपरूखालेजा णोअं. जणं णोवमणं णोधूवणे णोतं परिश्राविः . एज्झा ॥ इति ॥ अर्थ-(तत्य के० ) त्या कर्मबंधने प्रस्तावे खलु इति वाक्यालंकार (भगवंता के भगवंत श्रीतीर्थकरदेधे (छज्झीवीनकाय हेउ' . .के०) छजीवमीकाय कर्मबंधनां कारण (पणत्ता के०) कहाई॥
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(८) (संजहा के० ) ते छकायना नाम कहेछे (पुढवीकाय जायतल काए के०) पृथ्वी कायथी मांडीने यावत् प्रसकाय पर्यत् छजीयनिकाय जाणवा तेहने पीडतां पीडापतां जेम दुःख उपजे तेम दृष्टांत करी देखाडेछे (सेजहाणामए के० ) ते जेमनाम एची संभावनाये (मम के मुजने (अस्साय के) असीता उपजे शाथकी असाता उपजे ते कहेछ (दंडेणषा के०) दंडादिफेकरी हणताथकां (अट्ठीणवा के० ) अस्थिखंडे करी हाडकायें करी (मुहीणवा के०) मुष्टीये करी ( लेलूणवा के०) पापाणे करी (कवालेणवा के०) ट्ठीकरीये करी(श्राउज्झिमाणस्सपाके० आक्रोश करता थकातथा सन्मुख नाखता थका (हम्ममाणसवा के०) अथवा हणाता थका (तज्झिज्झमाणस्सवा के०)तमना करता थका (ताडिज्ममा णस्सवा के०) ताडना करता थका (परियाविज्झमाणस्सवा के०) परितापना करता थका (किलाविज्झमाणसवा के०) किलामणा करता थका (उदविज्झमाणस्सवा कै०) उद्वेग करता थका तथा जीवने कायाथकी रहित करता थला (जावलोमुख्खणरामाय मवि के० ) यावत् शरीर मोहथी एक रोमउखेडवा मात्र एवं पण (हिंसाकारगं के० हिंसानु कारण वेथी पण (दुःख भय पडिर्स घेदमि के० ) दुःख अनेभय हूं घेदुं अनुभवं (इच्चेवंजाण के०) ए. प्रकारे ते जाणे के (सवेजीवा के०) सर्व जीवते सर्व पंचंद्रिय जीव जाणवा (सवभूता के० ) सर्व भूतते सर्व वनस्पति प्रमुखना जीव जाणवा (सम्पाणा के०) सर्वप्राणी ते सर्व वेइन्द्रियादिक विकलेन्द्री जीव जाणवा (सव्वेसत्ता के०) सर्वसत्व ते पृथिव्या. दिक सर्व जीव जाणवा ते जीवोन (दंडेकरी हणती थका (जाबकवालणवा के०) यावत् ठीकरीये करी हणता थकां (बाउहिज्झमाणावा के०) आक्रोश करता थका ( हममाणाचा के० ) हणता थका (तज्झिज्झमाणाया) तर्जना करता थका (तडिझ माणावा के० ) ताडना करता थका (परियाधिज्झमाणावा के) पारतापना करता थका (किलाविज्झमाणावा के०) किलामणा करता थका (उद्दविज्झमारणांवा के०) उद्वेग करता थका तथा जीवने काया थकी रहित करता शका (जावलोमुख्खणणमायं मवि के० यावत एक रोम उखडवा मीत्र एवं पण (हिंसाकार के)
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हिंसानु कारण ते थकी पण ( दुक्खं भयं पडिसंवेदेति के० ) ते जीवो दुःख श्रने भय एज वेदे अनुभवे एटले जेवू दुःख मनै घेदवू पडे तेवू दुःख सर्व जीवने वेदवू पडे एम सर्व जीवोने पोता सरखू दुक्ख देखाडीने अन्य जीवोने शिक्षानो उपदेश श्रापेछे (एवं नच्चा के०) एवं जाणीने ( सव्वेपाणा जावसत्ता के०) सर्व प्राणी सर्वभूत सर्वजीव अने सर्व सत्वने ( णहंतव्वा के०) हणवा नहीं (अभभावेयव्वा के० ) दंडादिके करी ताडवा नहीं (णपरियेतव्या के०) बलात्कारे करी दासनी पेठे परिग्रहवा नहीं एटले बलात्कारे करी चाकरनी पेठे कोई कार्यने विषे प्रेरवा नहीं (णपरितावेयव्वा के०) शारीरिक मानसी पीडांने उपजावीने परितापवा नहीं (किलविद्यामाणवा णउद्दवेयम्वा के०) किलामणा करी करी उपद्रववा नहीं तथा काया थकी रहित करवा 'नहीं ॥४८॥ हघे सुधर्म स्वामी कहेछे (सेंवमि के० ) ए वचन जेहूं कहूं छू ते पोतानी मतिये नथी कतो पण एम सर्व तीर्थकरनी श्राशाछे ते देखाडेछे (जेयतीता के० ) जे अतीतकाले तीर्थकर थया (जेयपडुप्पन्ना के० ) जेवर्तमानकाले तीर्थकर वर्तेछ (जेयागामिस्सामि के०) जे आगमिक काले थशे ते (अरिहंत के०) अरिहन्त सरकार योग्य (भगवंगा के०) ज्ञानवंत आश्चर्यादि गुणे करी संयुक्त एवा (सब्ते के० ) समस्त श्री अरिहन्त भगवंत ते (एषमाइख्खंती के० ) एम सामान्य थकी कहेछ ( एवं भासंति के० ) पम आर्यमागधीभाषायें भाषेछे (एवंपणवेंति के०) एम शिप्यने देशना आपछे ( एवंपरूपति के० ) एम सम्यक प्रकारे प्ररूपेछ के (सव्वपाणाजावसत्ता के०) सर्व प्राणीथी मा. डीने यावत् सर्व सत्वने ( णहंतव्वा के० ) हणवा नहीं दंडादिक करी ताडवा नहीं चली बलात्कारें दासनी पेठे परिग्रहवा नहीं शारीरिक मानसो पीडा उत्पन्न करीने परितापवा नहीं उपद्रववा , नहीं जीव काया थकी रहित करवा ,नहीं (एसधम्मेधुवं के०) ए धर्म प्राणांनी दया लक्षण दुर्गतिय जाता जीवने रास्त्रनार ते धर्म केवोछे तोके ध्रुव पटले निश्चल (गोनिपे के०) नित्य सदा सर्वकालछे कोई काले जेनो क्षय नथी (सासये के०) शास्वतछ. तेने ( समिच्चं के०) केवल शाने करी आलोचीन शु पालोचीने
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तोके ( लोगं के०) चौद रज्वात्मक लोक एटले पट जीवनिकायरूप लोक तेहने दुःखरूप समुद्रमांहे पड्यो देखीने (खयनेहि के० ) खेदज्ञ एटले वीजा जीवोनां दुक्खोना जाणनार एवा श्री तीर्थकर भगवते ( पवेदेति के०) पूर्वात जीव दया लक्षण धर्म भाख्यो ( एवं के० ) ( प्रकारे जाणीने (सेभिरकृविरते के०) ते साधू निवां (प्राणातिवायता के०) प्राणातिपात एटलं हिंसा थकी तेमज मृषावाद थकी तथा अदत्तादान थकी तथा मैथुन एटले कुशील थकी (जावविरतेपरिग्गाहातो के०) यावत परिग्रह थकी विरति करती थकी जेवा प्राचारे प्रवर्तेत आचार कहेछे । णादंतपरकालणेशंदंतपरकालेममा के० ) दंत पक्षालने करी दंत धोचे नहीं एतावता जावजीव सुद्धि दांतण न करे (गोशंजणं के०) जावजीच सुधी सौभाग्यने अर्थ श्रांखमां अंजन नाखे नहीं (णोवमनं के०) वमन विरेचनादिक क्रिया न करे (णोधूवणे के०) शरीर वस्त्रादिक धूपन न करे ( णोतंपरियाविएमझा के० ) कासादि रोगने मटाडवा माटे धूम पान पण न करे तभिर् एटलावाना पोते आचार नहीं ॥ ४६॥
अर्थात् सर्व प्राणी भूत जांच सत्वों को न मारना यह अहिंसा धर्म ध्रुव नित्य और सास्चता है अतीत काल में जो अरिहन्त भगवन्त हुए वर्तमान में जो महाविदह क्षेत्र में है और अनागत फाल में जो अरिहन्त होवेंगे उन्होंने यही कहा यावत् यही प्ररूपा तथा यही कहेंगे यावत् यही प्ररूपैग, तो अब मोक्षाभिलाषियों को विचारणा चाहिए कि किसीप्रकार भी जीव हिंसा में धर्म नहीं होसला है। तव कोई कहै धर्म क वास्ते हिंसा करनेसे दोप नहीं होता है, एले कहै उन्होंको विचारणा चाहिए कि तीर्थ करोन धर्म ही अहिंसा में कहा है तो फिर हिंसा से धर्म कैसे होगा, लेकिन कुयुक्ति खगाके अनार्य लोग धर्म हेतु जीव मारने में दोष नहीं ऐसी प्ररूपना करते हैं यह श्री प्राचारांग सूत्र में खु. लासा कहा है, तथा अर्थ वा धर्म के लिए पृथ्को फायादि जीवों को मारते हैं उन्हें मन्द बुद्धि दसमां अंग प्रश्नव्याकरण सूत्र में कहा है।
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इसलिए दया धर्म की प्ररूपना करने वाले सतगुरुओं का कहना है, देवानुपियो! जागो जागो जागकर के दया में धर्म हिंसा में पाप जिन आशा में धर्म प्राशायाहर पाप समझो और जीव अजीव आदि नवपदार्थों की पोलखना करो तब जैनी होकं संसार प्रतः फरागे केवल नाममात्र जैनी कहलाने से कुछ भी प्रात्मोन्नति नहीं होगी, "होगी शुर सरधन से" ज्ञान धिना फ्रिथा कष्ट फरनेसें सर्वथा आराधक कभी नहीं होवोगे "सूत्र में कहा है" (पढमनाण तबो दया) अर्थात् प्रथम ज्ञान और पीछे दया, तथा जो ज्ञान विनाकरणी वा तपस्या करके मुनिराज कहलाते हैं परन्तु उन्हें मुनि नहीं समझना चाहिए क्योंकि उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है "नाणणय मुणी होई" अर्थात् मानवंत होने से मुनी होते हैं ज्ञान विना नाम मात्र मुनि राज होते हैं भाव मु. नि तो जव ही होंगे तब नव तत्वों का जाण होके सावध कार्य की आशा नहीं देंगे और षट हव्य की गुण पर्याय को यथार्थ समझेगे श्री उत्राध्ययन के मोक्ष मार्ग अध्ययन में कहा है।
एवं पंच विहणानां दब्वाणय गुणाणय । . पजवाण सव्वेसि नाणं नाणी हि दसियं ।।
अर्थात् वस्तुसत्ता जाणे विना ज्ञानी नहीं तथा नवतत्वों को श्रोलखै वह समकती है ज्ञान विना चारित्र कभी नहीं होसकता है उचाध्ययन में ऐसाही कहा है "नाणेण विना न हुंति चरण. गुणा" अर्थात् ज्ञान विना चारित्र के गुण नहीं, जीव अजीवादि का ज्ञान होके संयम पचखेंगे तव भाव निक्षेपैं मुनिराज होगा श्री अनुयोगद्वार सून में कहा है।
इमे समण गुणमुक्कयोगी छकाय निरणु कंपा हया इव दुद्दामा गया इव निरंकुसा घट्टा मट्ठात्तु, प्योट्ठा पंडुरया उणण जिणाणं प्रणा एस छंट्टा
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(१२) विहरि ऊणउ भउकालं श्रावस्स गस्स उवट्ठतितं लोगुत्तरिय दवावस्मयं ।
. अर्थात् साधू के गुणों रहित छओं कायों की दया नहीं करने बाले हय याने घोडे की तरह उन्मह और निरांकुश हाथी वत् श्री वीतराग की आज्ञा को भंग करने वाले खेच्छाचारी तथास्नान करके शरीर को निर्मल रखके स्वच्छवस्त्रादि से शृङ्गार करने वाले केसों को संवार के शरीर की शोभा बढाने वाले कालों काल प्रतिक्रमणादि नहीं करते हैं इत्यादि अनेक अवगुणों सहित दृव्य साधू हैं, प्रियवरो! तब ही तो स्वामी भीषनजी ने हव्य सा. धू भेषधारीयों का संग छोड कर अपने प्रात्मा का उद्धार किया है ओर मुगुरु कुगुरु पहिचानने के निमित्त अनेक ढाले चोपाइयां बनाकर भव्यजीवों को समझाने के लिए उपदेश दिया है सो निर्गुणी भेष धारियों को अत्यन्त अप्रिय लगे हैं तब वो अनेक तरह से उनकी निन्दा करके लोगों को वहकाते हैं कहते हैं भीखनजोन तो भगवान को तो चूक गुरुको रोये वताये हैं और दया में पाप बताते हैं तथा दान धर्म को तो उठा ही दिया है इत्यादि मन माना कथना कथके भोले' लोकों को श्री वीतराग प्ररूपित . धर्म मार्ग से विमुख कररहे हैं लेकिन न्यायाधयां तो हरगिज भी नहीं मानते,मोक्षाभिलाषी तो समझते हैं निन्दकों का कर्तव्य तो निन्दा करना ही है, निन्दकों की निन्दा से गुणी के गुण कभी भी लुप्त नहीं होते हैं, इसी लिएं निन्दक जी चाहेसो निन्दा कगे परन्तु गुणी पुरुष तो गुणी ही रहेंगे, और निन्दा करने वाले निदंक ही रहेंगे, यह किसी को अप्रिय लगे तो क्षमाता हूं परन्तु न्याय बाते तो निःशंक से ही कहना उचित है स्वामीने तो स्व. कृत ढालों में किसी का भी नाम ले के अपशब्द नहीं कहा है परन्तु होणाचारी व्यंलिङ्गयों ने अनेकानेक पुस्तके छपाके स्वामी की निन्दा ऐसे ऐसे शब्दो में किइ है कि जैसे कोई मदिरा के न-. शे में चूर होके नेक आदमी को गाली गलोज देते हैं, किन्तु भले आदमी को तो हलका शब्द भी मुखसे उच्चारण करते शरम
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भाती है जो जातिवन्त कुलवन्त और लज्जायन्त होगा वो तो किसी का नाम लेके हरगिज़ भी अपशब्द नहीं निकालेगा परन्तु अधम जातिवाला केवल पेटार्थी गुणशून्य मानव शुद्ध साधू मुनिराजों से द्वेष करके अनेक मृषा पाल दते नहीं लाजेंगे जिनकी आदत निन्दा करने की है उन्हें निन्दा किये विना जक नहीं पडती नीति शास्त्रों में कहा है,
नचना परवादेन रमते दुर्जनो जनः ।
काक सर्वरसान भुका विना मेध्यं न तृप्यति॥ अर्थात् कागला अनेक रस खाता है परन्तु भ्रष्टा में मुख दिये विना तृप्त नहीं होता है वैसही निन्दक निन्दा किये विना खुश नहीं होता । इस लिए हमारा कहना है हे प्रियवरो!मत पक्ष को तज के सत्यासत्य का निर्णय करो यह मनुष्य जन्म स्यात् स्यात् नहीं मिलने का है, महानुभावों! आप लोगों से प्रार्थना है कि द्वेषभाव को छोडकर जिनप्राशा धर्म धारण करो तव कुगति से बचोगे और अपनी आत्मोन्नति होगी- आपका हितेच्छू
__ श्रा० जोहरी गुलाबचन्द लुणीयां ॥ अथ स्वामी श्रीभीखनजी कृत नव पदार्थ उलखना की जोड । दोहा-नमूंबीर शाशन धणी, गणधर गौतम स्वाम।
तरण तारण पुरुषांतणों, लीजे नित प्रतनाम १ श्लोक-बीराय शासनेशाय, गौत्तमस्वामिने नमः । ... भवाब्धितारकं यस्य, नामस्मरणमञ्जसा॥१॥
॥दोहा ।। तेजीवादि नव पदारथ तणो, निरणो कियों भांत । त्यांने हलुकर्मी जीवां उलखें, रैमनरी खांत ॥२॥
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(१४) श्लोक-जीवादिक पदार्थानां नवानां भूरिनिर्णयः ।
ज्ञात्वैवं स्वल्पकर्माणाः पश्यन्तिहि मनोरथम् २ दोहा-जीव अजीव उलख्यां विना,मिटैन मनरो भ्रम
समकित श्रायां विन जीवरे,रुकैन श्रावताकर्म · श्लोक-जीवान जीवा न ज्ञात्वा मुच्यतेन मनोभ्रमः
सम्यक्त्वमन्तरारौधो जीवानां न भवक्रमात् । दोहा-नव ही पदास्थ जूजूवा,जथा तथ सरधै जीव । ते निश्चय सम दृष्टि जीवडा,त्यां दीधी मुक्तनी नींव ४ श्लोक-पदार्थात् नव संहस्य, येऽलं श्रद्दधते जनाः। समदृष्टि गुणास्ते हि, मुक्ति मूलं प्रयुञ्जते ।
॥ दोहा ।। हिवै नवही पदारथ पोलखायवा,जुदा २ कहूं धूं भेद। पहिला पोलखाउं जीवने,ते सुणज्यो प्राण उमेद ५ श्लोक-नवानां हि पदार्थानां, भेदान् वच्मि प्रथक् २ । .: वोधयाम्यादितो जीव,मेतऋणुत सादरम् ५
(भावार्थ) नमस्कार करता हूं श्री वीरप्रभु शासन के धणी को और साधू साध्वी रूप गण के स्वामी गौतम गणधर को इन तरण तारण पुरुषों का हमेशा नाम जपना चाहिए जिनहों ने जीवादिक नवतत्वों का निर्यण विधिपूर्वक किया है सो हलू कमीजीव
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(१५) झोलख करके मनकी क्षान्ति पुर्ण करें, क्योंकि जीव अजीव को पहिचाने वगैरमनकी भ्रान्ति नहीं मिटती है मनका भ्रम दूरछुए विनासम्यक्त्व नहीं स्पर्शती ओर समकित के अभाव में भावते हुवे कर्म नहीं रुकते हैं, इसही लिए नवपदार्थों को यथार्थ श्रद्धने से जीव सम दृष्टि कहलाता है तब मोक्षस्थान की नींव याने बुनियाद को डढ करे हैं इसवास्ते स्वामी भीषनजी कहते हैं नव पदार्थ को उलखाना निमित्त अलग अलग भेद कारेके कहता हूं प्रथम जीव पदार्थ को उलखाता हूं सी हे भव्यजनों यह सुनो।
द्विाल॥ ॥ प्रथम डाभमूनादिकनी डोरी एदेसी ॥ सास्वतो जीव दर्व साक्षात । घटै बधै नहीं तिल मातातिणारा भसंख्याता प्रदेश । घटै बधै नं. ही लवलेश ॥ १॥ तिणसू द्रव्य कयो जीव एक ! भाव जीवरा भेद अनेक । तियरो बहुत कह्यो विस्तार । ते मुद्धिवन्त जाण विचार ॥२॥ भगवती वीसमां सतक म्हांय । बीजे उदेसे कह्यो जिनराय । जीवरा तेवीस नाम । गुण निष्पन्न कह्या छै ताम-३ ॥
(भावार्थ ) जीधको द्रव्य भाव यह दो भेद करि उलखाते हैं द्रव्य जीव के असंख्यात प्रदेश का समूह है बो सदा सर्वदा त्रिकाल में सास्वत हैं उन असंख्यात प्रदेशो में से कभी भी एक अधिक न्यून नहीं होता है उन संख्याता प्रदेशों की समुदाय करिके एकजीव दृव्य है याने एक जीव के असंख्याता प्रदेश हैं और उन असं.. ख्याता प्रदेशों का एक जीव है ऐसे लोक में सब जीव अनन्त हैं
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पृथक् पृथक् जीयों के अनेक अनेक भाव है सब जीवों की समु. दाय करिके ही संग्रह नय की अपेक्षायें श्रीठाणां अंग सूत्र में कहा है "एगे जीवा एगे अजीषा एगे पुन्ना एगे पावा' इत्यादि और एक जीवके अनन्त गुण पर्याय हैं इसयास्ते भाव जीव के अनेक भेद कहे हैं श्रीपञ्चम अङ्ग भगवती के वलिमा शतक के दूसरे उद्दसा में जीवके तेवोल नाम गुण निष्पन्न कहे । सो कहते हैं, तात्पर्य यह है कि जोर द्रव्यतः सास्वता और भावतः अलास्वता है, अब भाव जीव के तैवीस नाम कहे सो कहते हैं।
॥ ढाल तेहिज ॥ जीवे तिवा जीवरो नाम । श्राउपो ने बले जीव ताम ॥ यो तो भाव जीव संसारी। ते बुद्धिवंत लीज्यो बिचारी ॥ ४ ॥ जीवत्थी काय ए जीवरों नाम । देह धरै छै तेह भणी श्राम।।परदेशांरो समूह ते काय । पुदगलरा समूह छै तहाय ॥५॥ स्वास उस्वास लेवे छे ताम । तिणसूं पाणे तिवा जीवरो नाम ॥ भूएतिवा कह्यो इणन्याय । सदा छै तिहूं कालरे भांय ॥ ६॥ सत्ते.तवा कह्यो इण न्याय। शुभाशुभ पोते के ताय॥ विणतिवा विषय को जाण । शब्दादिक लिया सर्व पिछाण ॥७॥ बेयातिवा जीवरों नाम । सुख दुख बेदे छै ठाम ठाम । तेतो चेतन रूप छै जीव । पुदगलरो स्वादी सदीव ॥८॥ चेयातिवा जीवरो नाम | पुदगलरी
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रचना करै ताम । विविध प्रकारना रचै रूप, ते ती भंडानें भला अनूप ।। ६ ॥ जेयां तिवा नाम: श्रीकार कर्मी रो जीपण हार । तिणरो प्राक्रम शक्ति अनन्त, थोडामें करै कर्मारो अन्त ॥ १० ॥ श्राया तिवा नाम इणन्याय, सर्वलोक स्परों के ता. हाय । जन्म मरण किया गम ठाम, कठै पाम्यों नहीं पाराम ॥ ११ ॥ रंगणें तिवा मोह मंद मातो, रागदेष में रहै रंगरातो । तिण रहै छै मोहमतवालो, श्रात्माने लगावै कालो ॥ १२ ॥ हिंडए तिवां जीवरो नाम, चहुँ गति में हिंड्यो के ताम । कर्म हिंडोलै ठाम ठाम, कठै पास्यों नहीं विसरामं ॥ १३ ॥ पोग्गले तिवा जीवरो नाम, पुद्गल ले ले मेल्या गम ठाम । पुद्गल में राचरह्यो। जीव, तिणसू लागी संसाररी नीव ॥ १४ ॥ माणवे तिवा जीवरो नाम, नवो नहीं सांस्वतो छै ताम । तिणरी पर्याय तो पलटजाय, द्रव्यतो ज्यू से ज्यू रहँसीहाय ॥ १५ ॥ कत्ता तिवाजीवरौ नाम कर्मारो करता छ ताम । तिणसं तिणने कह्यो श्राश्रवतिणसू लागै छै पुद्गल द्रव्य ॥ १६ ॥ विकत्ता तिवा नाम इणन्याय, कर्माने विधूणे छै. ताय ।
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(१८) श्रा निरजरारी करणी श्रमाम, जीव उज्वल ते निरजरा ताम ॥ १७ जए तिवा नाम तणों विचार, कर्म रिपूरो जीपण हार । जब जीवरी जय होजावे, तर सास्वता सुखजीव पावै॥ १८॥ जंतु तिवा नाम इणन्याय, एक समय लोकान्ते जाय । यहवो शक्ति स्वभावी जीव, तिणरो कदेह न होय अजीव ॥ १६ ॥ सयंभूतिवा छै जीवरो नाम, किण ही निपजायो नहीं ताम । ते तो छै द्रव्य जीव सभावे, ते तो कदे नहीं विल लावे ॥२०॥ जोणी तिवा जीवरो नाम, मर मर ऊपनो ठाम मम । चौरासी लखयोनीरे माहि, उपज्यो ने नि: सर गयो ताहि ॥ २१ ॥ ससरीरी तिवा नाम यह, शरीरै अंतर रहै तेह । शरीर पाछै नाम धरायो, काला गौरादि नाम कहायो ।॥ २२ ॥ नाया तिवा कर्मारो नायक, निज सुख दुःख नों छै दायक । तथा न्याय तणों करण हार, ते तो बोले छै बचन बिचार ॥ २३ ॥ अन्तर अप्या तिवा जीवरो नाम, सर्व शरीर व्यापी रह्यो ताम । लोली भूत छै पुदगल माहि, निज सरूप दबोरह्यो ताहि ॥ २४ ॥द्रव्य जीव सास्वतोयेक, तिणरा भाव कह्या छै अनेक । भावतो लक्षण गुण पर्याय, ते तो भाव जीव छै ताय ॥ २५॥
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नं० मूल पाठ, रीका
भावार्थ
संसारी आयुष्यवंत है तथा सदाजी१/जीवेतिषा, जीव । बता रहता है इसलिए जीव चेतना
चंत है २ जीवत्थि. जीवास्ती !
असंख्यात प्रदेशों का समूह है तथा
रस्ता संसार में शरीर धारण करके काया कायतिवा काय
ऐसा कहलाता है ।
प्राणधारी है इस से प्राणींसासो ३ पाणतिवा, प्राण
स्वास लेता है
चतुर्थ नाम भूत याने सदा सर्वदा त्रि४ भूएतिवा भूत
काल जीव का जीव ही है
५ सत्तेतिवा
सत्व
| पांचमूनाम सत्व शुभाशुभ कर्मवन्त है
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६ विपतिवा विश Iों की तेवीस विषय का जाण है
[छट्टानाम बिन्नू याने विषयी पंच इन्द्रि
| सुख दुःख का वेदने वाला है इस से वेदक | सातवां नाम जीव का वेदक है
७/घेयातिवा सुख दुःख
चयताति| पदलों कीरचना करता है तथा अच्छा
चेतापुर८/चेयातिया चुरा रूप वर्ण पाता है इस से चयति
लानांचय
श्रादमा नाम है
कारी
जयति जना कर्मरूपशत्रुओं को जीत के जय करता जेयातिया ता. कर्म
है इसलिए नवमां नाम जेता है रिपूणां
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(२०)
नं० मूल पाठ | टीका
भावार्थ
प्रात्मा १० प्रआयातिवा
नाना गति नाना प्रकार की गति करके सर्व लोक को "सतत गाभि स्पर्शता है इस से दसवां नाम आत्मा है । त्वात्
रङ्गणेति.११ रंगणे तिवा
गणं राग रागद्वेष मयीरङ्ग से रंगा हुवा है इसी स्तद्योगाद्र- लिए इशारमा लास रङ्गणेति है । झणः
हिण्डुएति. १२ हिंडएतिवाहिण्डुकत्वे
कर्ममयी हिंडोले में बैठ के च्यार गती में न हिण्डुका
हिंडता है इससे धारमा नाम हिंडुक है ..योगलेति-पूरणाद्गना
पुद्गलों को ग्रहण करना और छोडनादि च शरीरादिनापुद्गलः
| कार्य करता है तथा पुद्गलों से लिप्त है मा.निषेधे प्रत्यया यह जीव नया नहीं है सास्वता है इस
की पर्याय तो पलटती है परन्तु द्रव्यत: नादित्वा. सास्वता है इससे सानव है. पुराण:
१३
वा
वा
कर्ता कार- कर्मों का कती है वोही पाश्रव है इस १५ कत्तातिवाका कर्म-लिए जीव का नाम करता है ।
रंगांम् ।
tambe
Ans. .. .- . - . . . - - - -
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(२१)
नं० मूल पाठ
टीका
भावार्थ
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विविधत
या कावि- फर्मों को विधूणाता है थाने करणी करराविकत्ताविकर्तयिता निरजरता है विखेरता है इस से घा
वाछेदेकः विकक्षा कर्मणामेव
जिपति-प| १७/ जएतिवा तिशय गम सर्व कर्मों को जीत कर जया होता है
नाजगत्
जन्तुत्ति-ज- एक समय में लोकांत जाता है ऐसाशी. १८ जंतूतिवा
ननाजन्तु | ध्रचलने वाला है इस लिए जन्तु है
जोणीति जोणीएति- योमिरन्ये-चौरासी लक्ष प्रकारकी योनियों में उप.. १६ धावामुत्पाद-जता है इसलिए इसका नाम योनि है
कत्वात्
स्वयंभवना यह जीव स्वयं सदा अचल है इस को २० सयंभूतिवा
त् स्वयम्भः किसीने भी पैदा नहीं किया है
सह शरीर-शरीर के अन्तर रहता है ससरीरी है ससरीगणेति शससास्ते इसका नाम शरीर है तिवा | रीरी
नायकः क-कौ का नायक याने मालिक है निजसु. २२ नायातिषार्मणां नेता ख दुःख का दायक है इ.नायक है
अन्तमध्यरू
पत्रात्मा न सर्व शरीर में व्याप्त है पुगलों में लोली २३/ यातिवा शरीररूप भूत होके निज सरूपको दवाया है ।
इत्यन्तरात्मेति
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उपरोक्त तेबास नाम कहे ह और इसी प्रकार से अनेक नाम जीव के कर्म संयोग वियोगदि कारण से जानना द्रव्यतः एक है भावतः अनेक है असंख्यात प्रदेशी तो द्रव्य जीव है ओर उस के लक्षण गुणपोय भाव जीव है ।
॥ ढाल तेहिज॥ भाव तो पांच श्रीजिन भाख्या, त्यांरा स्वभाव जुदा जुदा दाख्या । उदय उपसम चायक जाणों, क्षयोपसमपरणामिक पिछाणो ॥ २६ ॥ उदय तो पाठ कर्म अजीव, त्यां रै उदय से निपना जीव, ते उदय भाव जीव कै ताम, त्यांरा अनेक जुवा
वा नाम ॥ २७ ॥ यतो होवे पाठ कर्म, जब तायक गुण निपजै पर्म । ते तायक गुण छै भाव जीव, ते उज्वल रहै सदीव ॥ २८॥ उपसमें छ मोहनीय कर्म एक, जीवरै निपजै गुण अनेक । ते उपसम भाव जीव छै ताम, त्यांरा पिणछै जुवा जुवा नाम ॥ २६ ॥ बे भाभरणी मोहनीय अन्तराय, यह च्यारूं कर्म क्षयोपसमथाय । तब उपजै क्षयोपसम भाव चोखो, ते भाव जीव निरदोखो ॥ ३० ॥ जीव परिणमें जिण २ भाव मांही, ते सगला छै न्यारा न्यारा वाही । पिण परिणामिक सारा छै ताम, जेहवा तेहवा परिणामिक
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(२३)
नाम ॥ ३१ ॥ कर्म उदय से उदय भाव होय, ते तो भाव जीव छै सोय । कर्म उपस्मीयांसू उपसम भाव, ते उपसम भाव जीव इणन्याय ॥ ३२ ॥ कर्म क्षय से क्षायक भाव होय, ते पिण भाव जीव छ सोय । कर्म आयोपसम से क्षयोपसम भाव, ते पिण छै भाव जीव इणन्याय॥३३॥च्या भाव छै परिणामीक, यो पिण भाव जीव छै ठीक । और जीव अजीव अनेक, परिणामिक विना नहीं एक ॥३४॥ ये पांचूभाव भाव जीव जाणों, त्यांन रूडी रीत पिछाणो । उपजै नें विलै होजाय, ते भाव जीव छै इणन्याय ॥ ३५॥ कर्म संयोग वियोग से तेह, भाव जीव निपजे येहाच्यार भाव निश्चय फिर जाय, चायक भाव फिरै नहीं रहाय ।। ३६ ।।
भावार्थ ॥ असंख्यात प्रदेशी द्रव्यं जीव संसारी अनादि कालसे कर्म संतती के साथ लिप्त हो रहा है, अष्ट कमों के संयोग धियोग से भाव जीव होता है सो पांचप्रकार से जिनके नाम उदय भाव १, उपसम भाव २, क्षायक भाव ३, क्षयोपसम भाव ४, परिणामिक भाव ५, अष्ट कर्मों के उदय से उदयभाव जीव । सात कर्म उपसम होय नहीं एक मोहनीय कर्म उपसमें याने दवै तय उपसम भाव अष्ट कमी के क्षय होनेसे क्षायके भाव जीवाशामावरणी दरिशना. घरणी मोहनीय अन्तराय यह च्यार कर्मक्ष योपसम हो तब क्षयोपसम भाव जीव । और उदय में या उपसम में क्षायक में या
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(२४) क्षयोपसम में यह जीव परिणमें सो परिणामिक भीव जीवजाः णी उपरोक्तं भावों में परिणमनेसे ८० वोलो की प्राप्ती होती हैं उनका वर्णन संक्षप से यहां करते हैं
१ उदयतो अष्टं कम अंजविहै उन के उदय से ३३ बोल होते हैं लो जीव हैं नरकांदि गति, पृथिव्यादि ६ काय, कृष्णादि ६ लेस्या, क्रोधादि ४ कषाय, स्त्रियादि ३ वेद यह २३ हुएं, मिथ्यास्वी २४, अवती २५, प्रसन्नी २६ अंत्राणी २७, श्राहारती २८, सं. योगी २६, छद्मस्थ ३०, अकेवली ३१, अंसिद्धतां ३२, संसारता ३३,
३ उपसम एक मोहनीय कम होता है सो अंजीव है और मोहनीय कर्म के उपसमन संजीव के २ वालों की प्राप्ती होती है सो उपसम भाव जीव है उपसम सम्यक्त १ उपसम चारित्र २
३ क्षय श्राठों ही कर्म होते हैं सोतोअंजीव हैं उन के देय होने से १३ बोलों की प्राप्ती होती हैं सोनायक भाव जीव है, ज्ञाना. घरणी कर्म क्षय होने से जीवका जो निज गुन केवल याने सम्पूर्ण ज्ञान होता है।, दरशनावरणी कर्म क्षय होनसे जीव का दरिशनगुन है सो होता है केवले दरिशने, १ मोहनीय कर्म के दो भेद हैं दरिशनं मोहनीय चारित्र मोहनीय, दरिशन मोहनीय क्षय होने से क्षायक सम्यक्त ३ चारित्रं मोहनीय क्षयं होने से क्षायक चारित्रं, ४ वेदनी कर्म क्षय होने से श्रोत्मिकं सुख,५नाम कर्म क्षार्यकं होने से अमूर्तिक भाव ६, गौत कमें क्षयं होने से गुरु ले५७, आयुष्यं कर्म क्षय होने से अटल अवगाहनों ६, अन्तरायं कम क्षयं होने से दानं लाब्ध ६, लाभ लब्धी १०, भौगैलब्धी ११, उपभोलिन्धि १२, वीर्यलन्धि १३
४ क्षयोपसमें शानावरणी दारशनावरणी मोहनीय अंन्तराय इन चार कमी का होता हैं वोतो अजीव है. इन चारों कर्मों का जय और उपसम होने से २२ बोलों की प्राप्ती होती है वो नयाँ पसेम भाव जीध हैं
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१.१) ज्ञानावरणी कर्म क्षयोपसम होने से पाठ बोलों की प्राप्ती होती है मति ज्ञान १ श्चतिज्ञान २ अवधि शाम ३ मनः पर्यव : न.४ मति प्रज्ञान ५ श्रुतिश्रज्ञान ६ विभंग अशान ७ भणना याने लीखना गुणना ८ (२) दरिशना वरणी कर्म क्षयोपसम होने से पोलों की प्राप्ती होती है श्रोत्रइन्द्री १ (कान,) चक्षुइन्द्री २ (आंख,) प्राणइन्द्री ३ (नाफ,) रसइन्द्री ४ (जीभ, ) स्पर्शइन्द्री ५ (शररि,) चक्षु दरिशन ६, अचच दरिशन ७, अवधि दरिशन ।
३ मोहनीय कर्म क्षयोपसम होने से पं बोला की प्राप्ती होती है सामाइक चारित्र १, छेदोस्थापनीय चारित्र २, प्रतिहार पिशुद्ध चारित्र ३, सूक्षम संपराय चारित्र ४, देशव्रत (श्रावकपः णां) ५, समदृष्टि ६, मित्यादृष्टि ७, सम मित्थ्याइष्टि ।
४ अन्तराय कर्म क्षयोपलम होने से ८ वोलों की प्राप्तीहोती है दानालन्धि १, लाभालब्धि २, भोगालब्धि ३, उपभोगालब्धि
वीर्यलब्धि ५, वालवीर्य ६, परिडत वीर्य ७, बाल पण्डित वीर्य, : उपरोक्ष चार भावों के अस्सी बोला में से कितनेक पौल जी. प में हमेशां पावेहीमें, लक्षण गुण पाय को भाव जीव कहते हैं, तात्पर्य यह है कि गुणों की समुदाय. तो हव्यजीव सास्वता है, और गुणों में परिवर्तना, वो भाव जीव, पर्याय ते अंसास्वता है। उदय निप्पन, उपसम निष्पन्न, क्षायक निष्पन्न, क्षयोपसम निष्पन न, और परिणामिक निष्पन्न, यह पांच भावों में से चारतो, फालान्तर में पलट जाते हैं, और शायक निष्पन्न भाव हुए बाद नहीं पलटता है, सो बुद्धिमानजन इस को यथा तथ्य समझलेंगे
॥ दाल तेहीज ॥ द्रव्यतो सास्वतो छै ताहि, ते तो तीन्हीं कालरै
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मांहि । ते तो विलय कदे नहीं होय, दृव्यतो
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(२६) ज्नंरो ज्यूं रहैसीसोय ॥ ३७॥ते तो छेद्यो न कदै छेदावै, भेद्यो पिण कदे नांही भेदावै ।जाल्यो पिणजलै नाही, बाल्यो पिण न बलै श्रमि मांहि ॥ ३८॥ काटयो पिण कटै नहीं कांई, गालै तो पिणं गले नाही। बांटै तो पिण नहीं बँटाय, घसै तो पिण नहीं घसाय ॥ ३९ ॥ द्रव्ये असंख्यात प्रदेशी जीव, नितरो नित्य रहै सदीव । ते मारयो पिण मरै नाहि, बले घटै बधै नहिं कोई ॥ ४० ॥ द्रव्यतो असंख्यात प्रदेशी, ते तो सदा ज्यूरो ज्यूं रहसी । एक प्रदेश पिण घटै नाही, ते तोतीनूंही कालरेमाहि।।४१|| खंडायो पिण नखडै लिगार, नित्य सदा रहै एक धार । एहवोछै द्रव्य जीव अखंड, अखीथको रहै इण मंड॥ ४२ ॥
॥ भावार्थ ॥
दृव्यतः जीव सास्वता है याने जीव का अजीव तीन काल में कभी भी नहीं होता है; जीव को छेदने से छेद्र नहीं होता है भेदने से भेद नहीं होता है, जलानेसे जलता नहीं बालने से वलता नहीं काटने से असंख्याता परदेशों के टुकड़े टुकडे नहीं होते गालने से गलसा नहीं, पीसने से पिसता नहीं, घसने से घसता नहीं, असंख्यातप्रदेशों में से कमी बेसी किसी काल में होती नहीं और एक जीव के प्रदेश दुसरे जीव में नहीं मिलते हैं अरूपी अभेदी अछेदी है, ऐसा जीव दृश्य असंख्यात प्रदेश मयी स्वतंत्र
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में रहता है इस यास्ते जीव को व्यार्थ करके सास्वता कहा है। अप भावार्थ करके श्रसास्वता कहा सो कहते है।
॥ ढालते तेहिज ॥ हव्या अनेक भाव छै त्हाय, ते तो लक्षण गुण पर्याय । भाव लक्षण गुण पर्याय, ये च्यारं भाव जीव छ हाय ॥४३॥ यह चारं भलाने मुंडा होय, येक धारान रहै कोया केई चायक भाव रहसी एक धार, नीप्यना पछैन घटै लिगार ॥४४॥ दृव्यजीव सास्वतो जाणों, तिणमें शंका मूल मग्राणो, भगवति सातमां शतक मांय, दूजै उद्देसै कहो जिनराय ॥४॥ भावे जीव, असास्वतो जाणो, तिण में पिण शंकामूल म प्राणों। एपिण सातमां शतक म्हांय, दूजै उद्दे. सै कयो जिनराय ॥४॥ जेती जीव तणी पर्याय, असास्वती कही जीनराय । तिणने निश्चय भाव जीव जाणो, तिणने रूडी रीत पिछाणो ॥ ४७॥ कर्मा रो करता जीव छै तायों, तिणसुं श्राश्रव नाम धरायो । ते श्राश्रव छै भाव जीव, कर्म लागैते पुदगल अजीव ॥४८॥ कर्म रोकै छै जीव हायो, तिण गुणसुं संवर कहायो । संबर गुण छ भाव जीव, रुकिया छै कर्म पुद्गल अजीव ॥ ४६॥.कर्म तुरं
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(२६)
जीव उज्वलथायो, तिमनेनिर्जरा कहि जिनरायो, ते निर्जराछै भाव जीवो, तुटै ते कर्म पुद्गल अजीवो ॥५०॥ समस्त कर्मी से जीव मुंकायो, तिणसूं ए जीव मोक्षकहायो । मोक्ष ते पिण छै भाव जीव, मुंकीयागया कर्म श्रजीव ॥५१॥ शब्दादिक कांमने भोग, त्यांनँ त्यागीने पाडै वियोग । ते तो संवर छै भाव जीव, तिणसं रूकिया छै कर्म अजीव ॥ ५२ ॥ शब्दादिक कामने भोग, तेहनूं करै संजोग, ते तो श्राश्रव छै भावजीव, तिणसूं लागे छै कर्म अनाव ॥ ५३ ॥ निरजराने निरजरानी करणी, यह दोहीं जीवने प्रादरणी, यह दोन छै भाव जीव, तूटाने तूटै कर्म अजीव ॥ ५४॥ काम भोग सैं पामें श्रारामों, ते संसार थकीजीव स्हामों, ते श्राश्रव छै भावजीव, तिणसू लागै छै कर्म अजीव ॥ ५५॥ काम भोग थकी नेह (टो, ते संसार थकी छै अंपूठो । ते संबर निर्जरा भाव जीव, जब रूकै तुटै ते कर्म अजीव.॥ ५६ ॥ सावध करंणी छ सर्व प्रकार्ज तेतो सगलाछै कर्तव्य अनार्ज, ते सगला छै भाव जीव, त्यातूं लागै कर्म अजीब . ॥ ५७ ॥ जिन श्राज्ञा पालै रुडी ति, ते पिण भाव
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. (२६) जीव सुबिनीत । जीन श्राज्ञा लोपी चाल करीत ते के भाव जीव अनीत ॥५८ ॥ सर वीर संसार रे माही, किणरा डराया डरे नाही, ते पिण छै भाव जीव संसारी, ते तो हुवो अनन्ती बारी॥५६॥ सांचा सुर वीर साक्षात्, ते तो कर्म काटै दिनरात, ते पिण भाव जीव छै चोलो, दिनदिन नैडी करै मोखो ॥६॥ कहि कहिने कीतोयिक कैहूं, द्रव्यने भाव जीव छै वेहूं, त्याने रूडीरीत पिछाणो, छैन्यूरा ज्यूहिया मैं श्राणो ॥६॥ द्रव्य भाव पोलखावन ताम । जोड कीधी श्रीजीद्वारा सू ठाम । सम्बत अठारह सय पचपन वर्ष, चैत वदी पख तिथि तेरस ॥६१ ॥.
इति स्वामी श्री भीखनजी कृत जीव पदार्थ भोलखनाकी
दाल
॥ भावार्थ ॥ दृष्यके अनेक भाष हैं, लक्षण परियाय इन च्यारों को भाष जीव समझना, जीवका लक्षण चैतन्य गुण ज्ञानादि, परियाय,शान करके अनन्त पदार्थ को जाणें इस से अनन्ती पर्याय है वो असास्वती है, कर्मों का क्षायक हो के जो भाव निष्पन्न होता है घो सास्वता है, श्री भगवती सूत्र के सात में शतक के दूजे उहे. से दृव्यतः जीव सास्वता और भावतः असास्वता कहा है इस में किसी तरह की शंका नहीं रखनी चाहिये, जीवतो दृश्य है
और उसकी पर्याय भाव है इसे अच्छी तरह समझना और पहिचानना चाहिए, कमाँ को ग्रहण कर वो आशव भाव जीव है,
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(३०) कर्मों को रोकै वो संघर भाव जीव है, देशतः कर्म तोड दे. शतः जीव उज्वल होय वो निर्जरा भाव जीव है, सर्वतः कर्मों को मुंकावे थाने छांडै वो मोक्ष भावजीव है, शब्दादिक काम भोगों का वियोग को बांछे सो संवर भाव जीव । और कर्म रुके वो जीव । शब्दादिक काम भोगों का वियोग न बांछे वो आश्रय भाव
यि । कम लगे वो अजीव है, जीव देशतः जीव उज्ज्वल होय वो निर्जरा और असणादि द्वादश प्रकार से कम निर्जरे वो निरा की करणी है निर्जरा और निर्जरा की करणी यह दोनों ही जीव को आदरणयोग्य है। जीष इन्द्रीयों के काम भोगों से धाराममा. ने यो संसार से सन्मुख है इसलिए जीवका नाम श्राश्रव है, और काम भोगों से विरत रहै वह संसार से विमुख है इस लिए जी. धकां माम संबर है। जीवका सावध कर्तग्य अनार्य पणा है उससे कर्म बंधते हैं उस करणो का नाम आश्रव है । सो भाव जीव है। जिन प्राज्ञा प्रमाण कार्य कर्ता है वो सुविनीत भाव जीव और जिन श्रीक्षा लोप के कुरीत चलै वो अनीत भाव जीव है, । सू. वीर पुरुष संसार में संग्राम करते हैं किसी के डराये डरते नही वो संसारिक सुरवीर भाव जीव हैं, और कर्म मची शको नाशकरते हैं वे सच्चे धार्मिक भावजीव हैं, तात्पर्य यह है कि असंख्यात प्रदेश अखंड है वो हव्य जीवसदा सर्वदा सास्वता.है याने जीव दृव्य का अजीब हव्य कभी भी नहीं होता है और उसीके गुण पर्याय हैं वो भाव जीव हैं वो असास्वता है इनको 'यथार्थ जैसे ज्ञानी देवों ने जिस जिस अपेताले कहा है उस ही तरह से जान के सत्य श्रद्धो, जीव पदार्थ को हव्यतः और भा. वतः ओलखाने के लिए स्वामी श्री भीखनजीने विक्रम संवत् १८५५ चैत चुद १३ को मेघाड देशान्तर्गत श्रीनाथद्वारा में ढाल जोड के कहा है इस का भावार्थ मैंने मेरी तुच्छ बुद्धि श्रनुसार कहा है सो कोई अशुद्धार्थ जाणते अजाणते पाया हो उसका मुझे सर्वतः मिच्छामि दुकडं है गुणीजन शुद्ध पढ़ें पढाबमे
आपका हितेच्छू ... जौहरी गुलाबचन्द लूणीयां .
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( ३१) ॥ अथ दितिय अजीव पदार्थ ॥
॥दोहा॥ अजीव पदार्थ भोलखायवा, तिरणरा कहुं भाव भेद । थोडासा प्रगट करूं, ते सुणज्यो आण उमेद ॥ १ ॥ ढाल ॥ मम करो काया माया कारमी एदेशी। धर्म अधर्म आकाश है, काल में पुद्गल जांणजी। ये पांचू हींद्रव्य श्रजीव छै, त्यारी बुद्धिवन्त करज्यो पिछाणजी॥ हिव श्रजीव पदार्थ पोलखो॥१॥ यह चारूं ही दृव्य अरूपी कह्या, यां में वर्ण गन्ध रस स्पर्श नाहिंजी एक पुद्गल दृव्य रूपी कह्यो, वर्णादिक सर्व ति. ण माहिजी॥ हि ॥ २॥ यह पांचू ही हव्यभेला रहै, पिण भेल समेल नहीं होयजी। आप श्राप तणां गुण लेरया, त्यां ने भेला करसके नहीं कोय. जी ।। हिव ॥३॥ धर्म हव्य धर्मास्तिकाय छै, प्रा. स्ति ते छती वस्तु ताहनी । असंख्यात प्रदेश, तेहनातिणसूं काय कही जिणरायनी । हिव ॥४॥ श्रधर्म हव्य अधर्मास्ति काय छै, या पिण छती वस्तु तायजी, असंख्यात प्रदेश छै तेहसूं, काय कही इण न्यायजी॥हिव ॥ ५॥ श्राकाशव्य श्राकाशास्तिकायछै, या पिण छतीवस्तु ताहापजी ।
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(३२) अनन्त प्रदेश कै तेहना, तिखसू काय कही जिन रावजी। हिव ॥६॥ धर्मास्ति श्रधर्मास्ति काय तो, पहुली छै लोक प्रमाणजी । लोकालोक प्रमाण श्राकाशास्ति, लांबीगहुलीजाणजी हिव॥७॥ धर्मास्ति ने अधर्मास्ति वाल, तीजी श्राकाशास्ति कायजी । यह तीन ही कही जिन सास्वती, तीन ही कालरै माहिनी ॥ हिव ॥ ८ ॥ यह तीनूं ही द्रव्य छै जुश्रा, २ जुवा जुवा गुण पर्यायजी । त्यांरा गुण पर्याय पलटै नही, सास्वता तीन काल मांहिजी । हिव ।। ।। यह तीन ही दृव्य फैली. रहया, ते हालै चाले नहीताहजी । हालै चालै ते पुदगल जीव छै, ते फिरै लोकरे माहिजी ।। हिव ॥ १० ॥ जीव पुद्गल चालै तेहनें, सहाय धर्मा स्ति कायनी, अनन्ता चाले त्याने सहाय छ, तिण से अनन्ती कही पर्यायजी ॥ हिव ॥ ११॥ जीव ने पुद्गल थिर रहै तिणनें सहाय अधर्मास्ती कायजी । अनन्ता थिर रहै त्यांने सहाय छै, तिणसूं अनन्ती कही. पर्यायजी। हिवः ॥ १२॥ नीव अ. जीव सर्व द्रव्यनो, भाजन श्राकाशास्ति कायजी। अनन्तारोभाजन छै तेहसं, अनन्ती कही पर्यायजी॥
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हिवे ।। १३ ॥ चालवानें सहाय धर्मास्ती । थिर रहबाने अधर्मास्ति कायजी । श्राकाशविकास भाजन गुण । सर्व द्रव रहै तिणमांयजी ॥ हिव ॥१४॥ धर्मास्तिनां तीन भेद छै । खंध अनें देश प्रदेशजी । श्रारखी धास्ती खंध छे, तेऊणी नहीं लवलेशजी ॥ हिवे ॥ १५ ॥ दोय प्रदेश थी आदि दे। एक प्रदेश ऊंगां खंध न होयजी । तिहां लगि देश प्रदेश छ। तियाने खंध म जाणजो कोयजी। हिवें ॥ १६ ॥ धर्मास्तीरो एक प्रदेश छ । ते खंध देश न कोयजी । जघन्यतो दोय प्रदेश विन । देश पिणा कदेय नहीं होयजी ॥ हिवे ॥ १७ ॥ ध. मास्ती काय से थाले पड़ी। तावड़ा छांय जिम एक धारजी । तिणरै बेंटो न बीटी को नहीं । बाले नहीं कोई सांध लिगारजी ॥ हिवे ।। १८ ।। पुद्गलास्ति से प्रदेश अलगो पड्यो । तिण में परमाणु कहो जिनरायजी । ते सूक्षम परमाणूथकी । तिणसूं मांपी धर्मास्ती कायजी ॥ हिवे ।। १६ ।। एक परमाणू स्पर्श धर्मास्ती, तिणने प्रदेश कह्यो जिन रायजी । तिण मांपासूं धर्मास्ती कायनां, असंख्याता प्रदेश हुवै हायजी ।। हिवे ॥ २० ।।
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(३४) असंख्यात प्रदेशी धर्मास्ती। अधर्मास्ती इमहिज जांणजी। इम अनन्ता श्राकाशास्ती कायनां, प्रदेश इणरीत पिछाणजी ॥ हिवे ॥ २१ ॥
॥ भावार्थ ॥ अब अजीव पदार्थ को पोलखाते हैं, अजीव पांच प्रकारक हैं धर्मास्ति १ अधर्मास्ति २ आकाशास्ति ३ काल ४ पुद्गलास्ति ५ यह पांच अजीवहै, इनमें चार तो अरूपी हैं जिन में वर्ण रस गंध स्पर्श नहीं है, और एक पुद्गल द्रव्य रूपी है, धर्मास्ति काय का धर्म याने स्वभाव चलते हुये जीव पुद्गलों को चलने का सहाय देने का है, चलने का प्रति पक्ष स्थिर है इसलिए अधर्मास्ति का यका स्वभाव स्थिर को स्थिर सहाययी है, और आकाशास्ति का स्वभाव अवकास देने का है यह ती स्वयं स्थिर है, यह तीनों छती वस्तु है इस से इन को श्रास्ति कही है याने समझाने को सिर्फ कल्पना करके ही नहीं कहेहैं, धर्मास्ति अधर्मास्ति पाकाशास्ति यह तीनूं ही अजीव द्रव्य निश्चय अरूपी हैं जैसे धूप छाया वत् जानना और यह सप्रदेशी याने प्रदेश सहित समूह है इस वास्ते इन्हें काय कही है, इन तीनों में धर्मास्ति काय अधर्मास्ति काय तो.चौदह राजु लोक प्रमाण असंख्यात प्रदेश हैं और
आकाशास्ति काय लोकालोकप्रमाण अनन्त प्रदेशी हैं, तथा यह तीनूं ही काल में सास्वते हैं इनके गुण पर्याय अपने २ अलग २ हैं कभी भी पलटते नहीं हैं याने परस्पर कभी भी मिलते नहीं तथा यह तीनों द्रव्य हलते चलते नहीं हैं, पांच द्रव्योमें जीव और पुद्गल सिर्फ दोही द्रव्य हलते चलते हैं, जिन्हों को सहाय धर्मास्ति कायकाहै, जीव पुद्गल स्थिर रहैं उन्हों को सहाय अधर्मास्ति काय का है, और भाजन याने अवकास गुण देना श्राकाशास्ति काय का है, परन्तु ऐसा कभी भी नहीं होता कि धर्मास्ति का गुण चलन सहायर्या है सो पर्याय पलट के कालान्तर में स्थिर सहायी होजाय अथवा भाजन सहायी होजाय ऐसेही अ.
धमास्ति की और आकाशास्ति की पर्याय नहीं पजटती है, ध. .. मास्ति काय चलते हलते अनन्त जीवों को और अजीवो का
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(३५) सहाय देती है इससे धर्मास्ति काय की अनन्ती पर्याय है, ऐसे ही अधमास्ति और आकाशास्तिकायको गुनों की अनन्ती पर्याय जानना, अब इन तीनों को तीनं तीन भेद करके बताते हैं खंध देश प्रदेश, सर्व धर्मास्ति का प्रदेशों का समूह है, वो तो संध है, दो प्रदेशों से एक प्रदेश कम तक देश है, और एक प्रदेश प्रदेश है, दोय प्रदेशों से कम देश नहीं होता और एकप्रदेश कम वाकी प्रदेशों को खंध नहीं कहा जाता, अव एक प्रदेश का मान बताते हैं पुद्गलास्ति कायसे एक प्रदेश अलग हुषा उसे परमाणु पुद्गल कहते हैं याने उस्कृष्ट अणु छोटे से छोटा है वो काटने से कटता नहीं और पीसने से पिसता नहीं ऐसा सूक्षम एक परमाणुहे उतनाही धर्मास्तिकायका एक प्रदेशहै, ऐसेही - मर्मास्ति आकाशास्ति का जानना, तात्पर येक परमाणू येक प्रदेश तुल्य है, अस्त कल्पना द्रष्टान्ति देके कहते हैं कोई पुरुष येकपरमाणु
से धर्मास्ति को नांपैतो असंख्यात प्रदेशहोय ऐशेही अधर्मास्ति के असंख्यात प्रदेश, इन्सही तरह आकाशास्ति के अनन्त प्रद शहों, अब काल पदार्थ का वर्णन करते हैं।
॥ ढाल तेहिज ॥ .. .. काल अजीव छै तेहनां, द्रव्य कहया छै अनन्तजी। निप्पन्ना निपजै निपजसी बलि, त्यांरो कदेहन श्रावसी अन्तजी.॥ हिव ।। २२ ॥ गये काल - नन्ता समया हुश्रा, वर्तमान समय येक जाणजी। श्रागमिये काल अनन्ता समां हुसी, इमकाल द्रव्यनें पिछाणनी ॥ हिव ।। २३ ।। काल द्रव्य निपजवा प्रांसरी, तिणने सास्वतो कहयो जिन. रायजी। उपजै नें विणसें तिण अांसरी प्रसास्वतो
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जाणों इण न्यायजी ॥ हिव ॥ २४ ॥ तिण काल द्रव्य नहीं सास्वतो, उपजै जेम प्रवाहजी । समों उपजै ते विणसै सही, तिणरो कदेह न श्रावै छै थाहजी ॥ हिव ॥ २५ ॥ सूर्य में चंद्रमा दिकरी चालसें, समो निपजै दग चालजी। निपजवा लेखे तो काल सास्वतो, समयादिक सर्व अद्धकालजी ।। हिव ॥ २६ ॥ येक समों निपजी. ने बिणस गयो। पछै दूजो समों हुश्रो ताहायजी। दूजो विणस्यां तीजो निपजै, इम अनुक्रमें निपजता जायजी ॥ हिव ।। २७ ॥ काल वैतै अढाई. द्वीपमें, अढाई द्वीप वारै काल नाहिजी । अढाई द्वीप बारला जोतपी, येक ठाम रहै छै त्याहिजी ।। हिव ॥ २८ ॥ दोय समयादिक भेला हुवै नहीं, तिणसू कालने खन्ध न करो जिन रायजी। खन्ध तो हुबै घणारा समुदायथी, समुदाय बिन खन्ध नहीं थायजी ।। हिच ।। २६ ॥ गये काल: अनन्ता समया हुश्रा, ते येकग भेला नहीं हुधा कोयजी । येतो ऊपजैनेंतिम बिणसे गया, तिणरो खन्ध किहांथकी होयजी ।। हिव ॥ ३० ॥ श्रागमियें काल अनन्ता समां हुसी, ते पिण येकला
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(३७) भेला न हुवै कोयजी । ते उपजै ने बिललायसी, तिगासु खन्ध किसीपर होयजी ॥ हिव ॥३॥ बर्तमान समों येक कालरो, येक समारो खन्ध नहीं होयजी। ते पिण उपजै ने बिललावसी, कालरो स्थिर द्रव्य नहीं कोयजी ॥ हिव ॥ ३२ ॥ खन्ध बिन देश हुनहीं, खन्ध देश बिन हुवै नहीं प्रदेशजी। प्रदेश अलगो नहीं हुवै खन्धथी, तिणसूपरमाणं नहीं लवलेशजी॥हिव ।। ३३ ॥तिण काल में खन्ध कहो नहीं, बले नहीं कह्यो देश प्रदेशजी । खन्धी छूट अलग पडयां बिना । पर्माणूंनो कोण गिणे शजी ॥ हिब ॥ ३४ ॥ कालरो मांपो थाप्यो ती. थैकरां, चंद्रमांदिकरी चालतूं विख्यातनी । ते चाल सदा काल सास्वती, घटै बधै नहीं तिल मातजी ॥ हिव ॥ ३५ ॥ तिणसूं मांपो तीर्थकरां बांधीयो, जघन्य समय स्थाप्यो येकजी । एजघन्य स्थिति कालरा द्रव्यरी, तिणथी अधिकरा भेद अनेकजी ।। हिव ॥ ३६॥ असंख्याता समयरी थापी श्रावलिका, पछै महूरत पहोर दिन रातजी। पक्ष मास अयन ऋतु स्थापिया, दोय अयनरो वर्ष विख्यातजी ॥ हिव ॥ ३७ ॥ इम कहतां २
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(३८) पल्योपम सागरू, उतसर्पणी ने अवशर्पणी जाणजी। जीव पुद्गल प्रावर्तन स्थापिया, इम काल द्रव्यने पिछाणजी ॥ हिव ॥ ३८॥ इण विधि गयो काल नींकल्यो, इम हिज श्रागमियों कालजी । वर्तमान समों छै तिणसमें, येक समय श्रद्धाकालजी ॥ हिव ॥ ३९ ॥ते समय बत अढी दीपमें, तिो इतनी दूर जांणजी । ऊंचो वतै जोतिष चक्र लगै, नवसय योजन प्रमाणजी ॥ हिव. ॥ ४० ॥ नींचो व सहस्र योजन लगे, महा विदेहरी दोय विजय मांयजी । ल्यांमें वतै अनन्ता द्रवां ऊपर, तिणसं अनन्ती कही पर्यायजी ॥ हिव ॥ ४१ ॥ येक येक द्रव्यरै ऊपरोयेकरसमय गिययों तहायजी। तिण येक स. मां ने अनन्ता कह्या, कालतणी पर्यायरे न्यायंजी॥ हिव ॥४२॥ वलि कहि कहिने कितनी कहूं; बर्त. मान समय सदायेकजी। तिण येकण. अनन्ता कह्या, तिणनें. अोलखो प्राण विवेकजी ॥ हिव ॥ ४३॥ .
. . ॥ भावार्थ ॥ - काल पदार्थ के अनन्त द्रव्य हैं सो हुये होय और होसी जिस का विस्तार कहते हैं, गत काल में मनम्ता समया हुना, धर्तमान
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(३६) में येक समय और प्रागमियां कालं अनन्ता समया होगे किसी वक्त में काल का समय नहीं पूर्तता ऐसा कभी भी नहीं होता, इस अपेक्षाय से काल सास्वता है, और समय उपजके बिनस जाता है इससे असास्वता है जैसे निपजता है वैसे ही नास होता है, भूत भविष्यत और वर्तमान के समया येकत्र नहीं होता इससे काल द्रव्यका बन्ध नहीं, और खन्ध विना देश और प्रदेश नहीं जिससे इस काल द्रव्य के संग आस्ति शब्द नहीं है, तीर्थकर देवाने चंद्रमा सूर्यादिककी चालसे कालका प्रमाण कहा है, निरोगी पुरुषका येक नेत्र फरके उतना वनके असंख्यात संमय
और असंख्यात समयकी येक श्रान्तिका पिछै महरत दिन रात्रि पक्ष मास ऋतु अयन वर्ष पल्योपम सागरोपम और बोस कोडा कोडि सगरोपम का येक काल चक्र, और अनन्त काल चक्रक. येक पुद्गल परिवर्तन आदि का प्रमाण जम्बू द्वीप पन्नती में विस्तार पूर्वक कहा है, तात्पर जयन्य कालकी स्थिति येक समय है इसतरह से येक समय पीछे दूसरा और दूसरे पीछ तीसरा इसही तरह समय उत्पन्न होके विनस जाते हैं यह धर्तना रूपकाल दाई द्वीप और दो समुद्र में है .गे को. नहीं क्योंके अर्ध पुस्कर घर द्वीप से आगे ज्यो जोतिष चक्र है वो स्थिर है
और अन्दरके जोतषी चर हैं उनकी चाल सदा तीन काल में सास्वती येकसा है किञ्चित भी फर्क नहीं होता है इस से कालका प्रमाण कहा है, वर्तमान का येक समय अनन्त जीवों और अजीयों पर वर्तता है जिससे कालको अनन्ती पर्यायहै, तथा इसीसे कालके अनन्ते द्रव्य कहेहैं, क्योंके वर्तमान का समय अनन्ते द्रव्यों पर पी तो अनन्तसमय हुये,मतलब उसही येक समयंको द्रव्यतः अनन्ता कहा है, क्षेत्रत तिरछा ४५ लक्ष योजन प्रमाण, ऊंचा सम भूमिसे ६०० योजन जोतिष चक्र प्रमाण, और नींचा १००० योजन तक जानना, कारण महा विदेह क्षेत्रकी २ बिजय येक हजार यो. जन सम भूमि से नींची है, इसलिये नींचायेक हजार योजन तक काल वर्तता है, यह पतंना रूप काल है, गत काल तो श्रादि रहित अन्त सहित, वर्तमान काल आदि सहित अन्त सहित, भधित
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(४०) प्यत काल श्रादि सहित और अन्त रहीत है, ये फाल द्रव्य अजीव अरूपी हैं, इसके वर्ण गन्ध रस स्पश नहीं है, और वर्तमान का समां येक ही है।
॥ ढाल तेहिज ॥ काल द्रव्य अरूपीत[। ये कंहयो छै अल्प बिस्तारजी। हिव पुद्गल द्रव्य रूपीता । बिस्तारसूणो एक धारजी ॥ हिव ॥४४॥ पुद्गलरा द्रव्य अनन्ता कह्या । ते द्रवतो सास्वता जांणजी ॥ भावें तो पुद्गल असास्वतो । तिणरी बुद्धि वंत करिजो पिछाणजी ।। ४५॥ पुद्गल दव्य अनन्ता कहया, ते घटै बधै नहीं एकजी। घटै बधै ते भाव पुद्गलू । तिणरा छै भेद अनेकजी।।हिव ।।४।। तिणरा च्यार भेद जिनवर कहया, खन्ध में देश प्रदेशजी। चौथो भेद न्यारो परमाणुवो । तिणरो छै योहिज विशेषजी॥ हिव ॥ ४७ ।। खन्धरै लग्यो तिहां लग प्रदेश छै, ते छूट ने येकलो होयजी । तिणने कहिजे परमाणुवो।तिण में फेर पडयो नहीं कोयजी ।। हिव ॥ ४८॥ परमालो में प्रदेशतुल्य छै, तिणमैं शंका मूल मत प्रांणजी, अंगु लरै असंख्यातमें भागछै । तिणनें ओलखो चतुस्सु
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(४१.) जाणजी ॥ हिवः॥ ४६ ।। उत्क्रप्टो खन्ध पुद्गल: तणं,जब सम्पूर्ण लोक प्रमाणजी । आंगुलरै भाग असंख्यातमें, जघन्य खन्ध येतलो जांणजी ॥हिव॥ ॥५०॥ अनन्त प्रदेशीयो खन्धहुरै, येक प्रदेश क्षेत्रमें समायजी । ते पुद्गल फैलै मोटो खन्ध हुश्रे, ते सम्पूर्ण लोकरै म्हांयजी ॥ हिव ॥ ५१ ॥ समुचय पुद्गल तीनलोक में, खाली ठोर जगां नहीं कांयजी। मां सांमां फिर रह्या लौकमें, येक ठा; म रहै नहीं रहायजी । हिव ॥५२॥ स्थिति च्यारूं ही भेदां तणी, जघन्य येक समय तामजी । उत्कृष्टी असंख्यात कालरी, ये भाव पुदगल तणा परिणाम जी॥ हिव ॥५३ ॥ पुद्गलरो स्वभाव? यहवो, अनन्ता गलैं ने मिलजायजी । तिस पुदगलरा भावरी, अनन्ती काहि पर्यायजी ॥ हिव ।। ५४ ॥ जेजे बस्तु निपजै पुदगलतणी, तेतो सघली विललायजी, त्याने भाव पुदगल श्रीजिन कह्या, द्रव्यतो ज्युरो ज्युं रहै ताहायजी ॥ हिव ।। ५५ ॥ श्राठ कर्म नें शरीर प्रसास्वता, येह निप्पन्ना हुआ छै तायजी । तिणसें भाव पुद्गल कहया तेहनें, द्रव्य निपजायो नहीं निपजायजी ।। हिव।। ५६॥
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(४२) छाया तावडो प्रभाः क्रान्तिछ, यह सघला भाव पुद्गल जाणजी । अंधारो ने वलिउद्योतछै, येह भाव पुद्गल पिछाणजी !! हिव ।। ५७ ॥ हलको भारी सुहांलो खरखरो, गोल वाटलादिक पांत्र सं. गाजी । 'घडा पडाने वस्त्रादिके, सघला भाव पुदगल जाणजी ।। हिव ॥५८॥ व्रत गुलादिक दसू विघय, भौजनादिक सर्व वखाणजी । वस्त्र विवध प्रकारना, येह सघलाही भाव पुदगल जाणजी ।। हिंद ।। ५ ।। सेंकडां मण पुद्गल बल गया, द्रव्यतो नहीं वलै असमातजी। एभावै पुद्गल ऊपन्नाहुता,ते पिण भावे पुद्गल विलैजातनी हिव। ॥६॥ सैंकडां मण पुद्गल ऊपन्ना, द्रव्य तो नहीं अपना लिगारजी। ऊपना तेहिज विणससी, पिण द्रव्यरो नहीं विगारजी। हिव ॥६१॥ द्रव्य तो कदेही विणसे नहीं, तीन ही कालरे म्हांयजी, ऊपजै विणसे तेतो भावछै, ते पुदगल तणी पर्याय जी ।। हिव ॥६॥ पुदूगल ने कह्यो सास्वतो. सास्वतो, द्रव्याने भावरै न्याय जी । कहयों के उत्तराध्ययन छत्तीसमें, तिणमै शंका मत प्राणज्यो कायजी ॥ हिव ।। ६३ ।। अजीव द्रव्य श्रो;
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(४३)
लखायचा, जोड कीधी छै श्रीजी द्वारा मंझारजी। सम्बत् अट्ठारह पञ्चावनें, बैसाख बद पंचमी बुद्धवाः रजी ।। हिव ॥६४॥ इति अजीव पदार्थ ॥
॥ भावार्थ ॥ .. काल द्रव्य श्ररूपी का विस्तार अल्प मात्र कहा अब पुद्गल द्रव्य रूपीका विस्तार कहते हैं. पुद्गलका स्वभावं पूर्ण गलन है सो पुदगल अचेतन रूपी है द्रव्यतः अनन्ता द्रव्य है सो तीन का: ल में सास्यता है कुछ घटता नहीं, वा वधता नहीं और भावतः असास्वता है. पुदगल के च्यार भेद जिनेश्वर देवोंने कहा है, खन्ध देश प्रदेश और चौथा भेद अलग परमाणू, जबतक खन्ध के साथ है तबतक उसही का नाम प्रदेश है, खन्धसे छूटके अलंग होके येकला रहनेस उसका नाम पारा है, पारण और प्रदेश दो तुल्य हैं अांगुल के असंख्यात में भाग अनावस्थिति अव. गाहना है, तथा पुदगलोका खन्धको अवगाहना भी जघन्यतो श्रांगुल के असंख्यात में भाग हैं उत्क्रप्टी सम्पूर्ण लोक प्रमाण हैं परन्तु अनन्त प्रदेशीया खन्ध येक आकाश प्रदेश में समा जाता है इसका कारण आकाश प्रदेशका स्वभाव अवकास देनेका ही है, यफ आकाश प्रदेश क्षेत्रमें समाया हुआ पुद्गलों का खन्ध फैलफ़र सम्पूर्ण लोक प्रमाण होजाता है ऐसागलन मलन गुन पुदलों का है, खन्ध देश प्रदेश और पर्माण इन च्यारोही की स्थिति जघन्य येक समय है उत्कष्टी असंख्याता कालकी है असंख्यात काल पीछे परिणवाका खन्ध हुआ सो विखर जाता है तथा ख. न्धसे अलग येकला रहा सो पागू भी असंख्यात कालसे ज्यादह नहीं ठहरता है, ऐसाही पुद्गलों का परिणाम है सो भाव है इस लिए भाव पुद्गल प्रसास्वता है और अनन्त गलन मलन रूप अनन्ती पर्याय है, ज्यो २ वस्तु पुदगलों की होती है सो सेव नास होती है वो भाव पुद्गल है परन्तु पुद्गल त्वपणा, सास्वता है जसे सोनेको गालके गहना बनाया तो आकार को बिनास पर
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(४४)
न्तु लोनेका विनास नहीं वैसहीं पुद्गलोंकी बस्तुका विनास ले. किन पुद्गल का विनास नहीं होता है, अाठ कर्म शरीर छाया तावडा प्रभाः क्रान्ति अन्धकार उद्योत ए रूप भाव पुद्गल असा. स्वते हैं, हलका भारी खरदरा मुलायिम तथा गोल लंबा थादि संस्थान व्रत गुड आदि दसं विषय बसन भाभूपण प्रादि अनेक वस्तु हैं सो सब भाव पुद्गल जानना, सैंकड़ों हजारों भण बल जाते हैं तथा ऊपजे है सो सब भाव पुद्गलं हैं हव्यतो अग्नले बालनेसें बलता नहीं और निपजता नहीं अर्थात् पुद्गलत्वपणा है सो द्रव्य है वो सास्वता है, और अनेक वस्तु पणे परिणमें वो भाव पुद्गल प्रसास्वता है इसलिए पुद्गलको दृव्यतः सास्वता
और भावतः श्रसास्वता श्री उतराध्ययन के छत्तीसमें अध्ययन में कहाहै इस में कोई शंका नहीं रखनी चाहिए, स्वामी भीखनजी कहते हैं अजीव पदार्थ को उलखानके लिए ढाल जोड़के धीजीद्वार नगरमें कही है सम्बत् अठारहलय पचपन वर्ष बैसाख बुद ५ सनीवार, यह अजीव पदार्थकी ढाल का भावार्थ मेरी तुच्छ बुद्धि प्रमाण कक्षा है ज्यो कोई अशुद्धार्थ हुश्रा: उसका मुजे वारं बार मिच्छामि दुकर्ड है।
अापका हितेच्छू जोहरी गुलाबचन्द लूणियां
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॥अथ तृतीयपुन्यपदार्थ ॥
॥दोहा॥ पुन्य पदार्थ तीसरो, तिणसं सुख मानै संसार.। काम भोग शब्दादिक पामैं तिण थकी, तिणनें लोक जाणे श्रीकार ॥ १ ॥ पुन्यरा सुख छै पु:
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(४५) दूगल तणां, काम भोग शब्दादिक जाण । मींग लागै छै कर्म तणें बसे । ज्ञानी तो जाणें जहर समान ।। २ ॥ जहर शरीर में तिहां लगे, मीठा लागै नीमपान । ज्यूं कर्म उदय थी जीवनें, भोग लागै अमृत समान ॥ ३ ॥ पुन्य रा सुख छै कारमा, तिण में कला म जाणों काय। मोह कर्म बस जीवडा, तिणमें रह्या लपटाय ॥ ४॥ पुन्य पदार्थ शुभ कर्म छै, तिण री मूल न करणी व्हाय। ते यथा तथ्य प्रगट करूं, ते सुण ज्योचितल्याय॥शा
॥भावार्थ ॥ नव पदार्थों में पुन्य पदार्थ तीसरा है पुन्य को संसारी सुख मान रहे हैं काम भोग शब्दादिक विषय जीवको पुन्योदय से मिल तो है सो उन्हें जीव सुख मयी जानरहे हैं परंतु पुन्य के सुख पु. द्गल भयी है सो काम भोग शब्दादिक कर्मों के बसस मिष्ट लगे हैं लेकिन शानी तो जहर समान जानते हैं जैसे जहर शरीर में व्यापने से नीमके पान मीठे लगते हैं वैसे ही मोहकर्म के वशीभूत जीव होके पुन्यके पुद्गलिक सुखों को अमृत समान मान रहे हैं परंतु पुन्य के सुख कारमा याने अथिर हैं इससे कुछ भी जीवकी गरज नहीं सरती है क्योंके पुन्य के सुखों में प्रधी होने से पाप का बन्ध होता है इसलिए कुछ करामात नहीं जानना पुन्य तो शुभ कर्म है इसकी चान्छा किंचित् भी नहीं करणा चाहिए, अव पुन्य पदार्थ का यथार्थ वर्णन करता हुँसो येकाग्रचित्त करके सुनो।
॥ढाल ॥ ॥ अभियाराणी कहै धायनें । तथा ॥जीव मोह अनुकम्पा न आणिए । एदेसी॥पुन्य तो पुदग;
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(४६) ल री पर्याय छ, जीवरै श्रायलागै छै ताम, हो लाल । ते. शुभ पणे उदय हुत्रै जीवर, तिणसं पुद्गलरो पुन्य नाम, हो लाल पुन्य पदार्थ श्री: लखो ॥ १ ॥ च्यार कर्म तो एकान्ति पाप छै, च्यार कर्म-छ पुन्यनें पाप हो लाल । पुन्य कर्म थी जीवनें, साता हुश्रेषण न हुवै संताप हो लाल ॥पुन्य॥२॥ अनन्ता प्रदेश छै पुन्य तणां, तेजीवर उदय होवै श्राय हो लाल । अनन्तो सुख करें जीवनें, तिणसं पुन्यरी अनन्त पर्याय हो. लाल ॥ पुन्य || निर्वद्य जोगबत जब जीवर, शुभ पुदगंल लागैताम होलाल । त्यां पुदगल तमा छै जुवा२, गुण प्रमाण त्यांरा नाम होलाल || पुन्य ।। ॥४॥ साता बेदनी पणे आय परिणम्यां, साता पण उदय हुवै ताम हो लाल । ते सुख साता कर जीवनें, तिणसूं साता बेदनी दियो नाम हो लाल || पुन्य ॥ ५॥ पुदगल परिणम्यां शुभ. श्राउषा पौँ, घणो रहणों बान्छै तिणठाम हो लाल । जाणे जीविए पिण न मरिजीए, शुभं ।
आउषो तिणरो नाम हो लाल || पुन्य ॥६॥ केई देवताने केई मनुष्यरो, शुभ श्रायुष ? पुन्यः ..
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(४७) ताहि हो लाल । युगलिया तिर्यंचतेहन, 'श्रायुपदीसे छै पुन्य मांहि, हो लाल ॥ पुन्य ॥ ७ ॥ शुभ श्रायुषरा मनुष्य देवता, त्यारी गति अंनुपूर्वी शुद्ध हो लाल । केई जीव पंचेन्द्री बिशुद्ध छै, त्यांरी. जाति पिण निपुण विशुद्ध हो लाल | पुन्य ॥८॥ शुभ नाम पणे पायपरिणम्यां, ते उदय हुवै जी. वरै ताय हो लाल । अनेक वाना शुद्ध हुवै तेहसुं, नाम कर्म कहयो जिनराय हो लाल ॥ पुन्य ॥ ॥६॥ पांच शरीर छै शुद्ध निरमला, तीन शरीग निर्मल उपांग हो लाल । ते पामैं शुभ नाम कर्म उदय थकी, शरीर उपांग सुचंग होलाल ॥ पुन्य ॥ ॥ १०॥ पहिला संघयणनां रूडा हाड छै, पहिलो संठाण रूडै आकार हो लाल । ते पामै शुभ नाम उदय थकी, हाडते आकार श्रीकार हो लाल ॥ पुन्यं ॥ ११ ॥ भला२ बर्ण मिलै जीवनें, गमता२ घणां श्रीकार हो लाल । ते पामै शुभ नाम उदय थकी, जीव भोगवै विविध प्रकार हो लाल ॥ पुन्य ॥ १२ ॥ भलार गन्ध मिलै जीवनें, गमतार घणां श्रीकार हो लाल । ते पामै शुभ नाम उदय थकी, जीव भोगवे विविध प्रकार हो लाल'
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(४८). || पुन्य ॥ १३ ॥ भलार रसमिलै जीव. गमतार घणां श्रीकार हो लाल । ते पामैं शुभ नाम उदय थकी, जीव भोगवै विविध प्रकार हो लाल ॥पुन्य ॥ ॥ १४ ॥ भलार स्पर्श मिलै जीवन, गमता २ घणां श्रीकार हो लाल । ते पामें शुभ नाम उदय थकी जीव भोगवै निविध प्रकार हो लाल ॥पुन्य॥१॥ त्रसरो दसको छै पुन्योदय, शुभनाम उदयसें जा: ण हो लाल । त्यानै जुदा २ करि बर्णमूं, कीज्यो निर्णय चतुर सुजाण हो लाल ॥ पुन्य ॥ १६ ॥ त्रस नाम शुभ कर्म उदय थकी, त्रस पणो पामें जीव सोय हो लाल । बादर शुभ नाम उदय हुयां, जीव चेतन बादर होय हो लाल || पुन्य ॥१७॥ प्रत्येक शुभ नाम उदय हयां, प्रत्येक शरीरी जीव थाय हो लाल । पर्याप्ता शुभ नाम कर्म थी, जीव पर्याप्तो हो जाय हो लाल ॥ पुन्य ॥ १८॥शुभथिर नाम कर्म उदय थकी, शरीर नां अव्यव दृड थाय हो लाल । शुभ नाम शरीर मस्तक लगै,. वय रूडा २ होयजाय हो.लाल ॥ पुन्य ॥ १६ ॥ सौभाग्य नाम शुभ कर्म थी, सर्व लोकमें वल्लभ होय होलाल । सुस्वर शुभ नाम कमसे, स्वर कंठ मीठो
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(१६)
PA
होव सोय हो लाल ॥ पुन्य ॥२०॥ आदेज बचन शुभकर्मथी, तिणरो बचन मानें सहुकोय होलाल । जस किर्ती शुभ नाम उदय हुवां जस कीरत जगमें होय होलाल ॥ पुन्य.॥ २१ ॥ अगुरू लघू नाम कर्मसूं, शरीर हलको भारी नहीं लगात हो लाल । प्राघात शुभनाम उदय थकी, श्राप जीतै पैलोपामें घात हो लाल | पुन्य ॥ २२॥ उस्वास शुभनाम उदय थकी, स्वासोवास सुखे लेवंत हो लाल । श्राताप शुभनाम उदय थकी, आप सीतल पैलो तपंतहो लाल ॥ पुन्य ॥ २३ ॥ उद्योत शुभनाम उदय थकी, शरीर उजवालो जान हो लालं । शुभ गई शुभनाम कर्म सू, हंस ज्यों चोखी चाल वखान हो लाल || पुन्य ।। २४ ॥ निर्माण शुभनाम उदय थकी, शरीर फोडा फुणगला रहित हो लाल । तीर्थंकर नामकर्म उदय हुवां, तीर्थकर होवै तीन लोक वदित होलाल ॥ पुन्य ॥ २५॥ कोई युगलियादिक तिर्यचनी, गतिनें अनुपूर्वीजाण होलाल । तेतो प्रक्रति दीसँछ पुन्यतणी, ज्ञानी चधै ते प्रमाण होलाल ॥ पुन्य ॥ २६ ॥ पहिलो संवयण संठाण बरजनें, च्यार संघयण च्यार संठाण होलाल । त्याँ
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(५०)
मैं तो भेल दीस? पुन्यतणों ज्ञानी वधै ते प्रमाण होलाल ॥ पुन्य ॥ २७ ॥ जेजे हाड़ छै पहि. ला संघयणमें, तिणमाहिलाच्यारा म्हाय हो लाल । त्यांने जाबक पापमें घालीयां, ते मिलतो न दीसें न्याय हो लाल ॥ पुन्य ॥ २८॥ जेजे श्राकार पहिला संठाण में, तिण माहिला च्यारो म्हांय हो लाल । त्याने जावक पाप में घालीयां, यो पिण मिलतो न दिसै न्याय हो लाल . ॥ पुन्य ।। ॥ २६॥ ऊंच गौत पणे पाय परिणम्यां, ते उदय श्रावै जीवरे ताम हो लाल । ऊंच पदवी पामें तिण थकी, ऊंच गौत छै तिणरो नाम हो लाल ||पुन्य।। ॥३०॥सघली न्यात थकी ऊंची त्यात छै, तिणरै कठेही न लागै छोत हो लाल।एहवा जे मनुष्य ने देवता, त्यांरो कर्म छै ऊंच गौत होलाल |पुन्य।। ॥३१॥ जेजे गुण श्रावै जीवरै शुभ पण, जेहवा छै. जीवरा नाम हो लाल । तेहवाहिज नाम पुदगल तणां, जीवतणे संयोगनाम ताम हो लाल .॥ पुन्य ॥ ३२॥
. . ॥ भावार्थ ॥
- अब पुन्य पदार्थ क्याहै तथा जीयके किस २ तरहें उदय प्राता है सो कहत है, पुन्य है सो पुद्गलों की पर्याय है यान भाष
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पुदगल हैं रूपी है जीवोंके साथ होने से उन पुग़लों का नाम पुन्य है वोह जीव के शुभपणे उदय होता है तब.नीष को साता होती है, तात्पर पुन्य है सो शुभ कर्म है पाठ कर्मों में से च्यार कर्म तो एकान्त पाप है और बंदनी आयुष नाम गौत्र यह व्यारों कर्म पुन्य पाप दोन हैं, अनन्त प्रदेशी पुद्गलों का सम्म पुग्य कर्म मयी होके जीवके उदय होय तष अनन्त सुख करै इसलिए पुस्य की अनन्त पर्यायहै, निर्वध योग बर्तनेसे अनन्त पुगलोंका ज्यार स्पर्शाया पुन जीष के लगते हैं उनहीं पुद्गलों का नाम पुग्य पृषक २ गुण प्रमाण हैं तो कहते हैं, साता वेदनी पणे परिणमनं करिके सातापणे उदय होताहै इसलिए उनका नाम साता बेदनी पुन्य कर्म है, और जो शुभ मायुष कर्म पणे परिणम करके शुभ मायुष पणे उदय होता है उन कर्मों का नाम शुभ मायुष्यहैं, जिस आयुपमें धणांकाल तक रहणा वान्छै ऐसा विचारें कि मैं यडा सुखीह मेरी उमर सुखोंमें जारहीहै किसी तरहेकी व्याधि नहीं है उस ही आयुषका नाम शुभ आयुष है, कितनेहीं देवता और मनुष्योंकाशुभप्रायुप है तथा केई तिर्यंच युगलियों का आयुष भी पुन्य के उदय से ही जान पड़ता है, और जो पुद्गलोका. पुंज जीव के संग परिणमन कर उदय होनेसे अनेक तरह की बस्तु प्राप्ति करताह उनका नाम शुभ नाम कर्म हैं, ज्यो शुभ मायुष्यधन्त मनुष्य देवता हैं उनकी गति और अनुपूर्वी मी पुन्योदयसे ही हैं, पांच शरीरों के ज्यो शुद्ध निर्मल है वा तीन शरीरोंके जो "उपाङ्ग निर्मल है वो शुभनाम कर्म के उदय से हैं, पहिला संघय. ण में ज्यो बजरसमान मजबूत हड़ियां और पहिले संठाण में ज्यो अच्छा खूबसूरत आकार है वाह.शुभनाम फर्म पुन्योदयसे हैं, तथा अच्छे २ वर्ण गन्धि रस स्पर्श जीव को मिलते है सो शुभ .नाम कर्म पुन्य के उदय से मिलते हैं, उन्हें जीव भनेक प्रकार से भोगता है, तथा पुन्य प्रकृति ४२ प्रकार से भोग भाती है तो कहते हैं। १ साता येदनी . अर्थात् सुखसाताषेदना- वेदनी कर्मका उदय है २ऊंचगोत्र, कर्मस ऊंचे दर का गोत्र पाता है। ३ देयगति नामकर्म से देषता होता है। : .
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(५२) ४-देव अनुपूरवी अर्थात् देवगति में जानेवालाजीवको अंत सम
य पाती है। ५-मनुष्य गति नाम कर्म से मनुष्य होता है। ६-मनुष्य अनुपूरवी, मनुष्य होनवाला जीवको अंत समय पाती है। ७-त्रस नाम कर्म के उदय से ये जीव त्रस होता है अर्थात्चलना
हलना होता है। ८-चार नाम कर्म के उदय जीव सूक्ष्मताको छोड चादर अर्थात्
नेत्रद्वारा देखने लायक शरीर पाता है। ६-प्रत्येक शुभ नाम कर्म से प्रत्येक शरीरी होता है अर्थात् येक
शुभ शरीर में येकही जीव होता है। १०-पर्याप्ता शुभ नाम कर्म से जीव यथा योग आहारादि पूरण
परियायी होता है। ११-शुभ नाम कर्म से अच्छा नाम पाता है। १२-सोभाग्य नाम कर्म से सौभाग्यवंत होता है। १३-सुश्वर नाम कर्मसें श्वर याने कंठ मीठे होते हैं। १४-श्रादेज नाम कर्मले श्रादेज वचनी होता है अर्थात् जिसका
वचन प्रिय श्रोर प्रमाणिक होताहै। १५-जसोकीरती नाम कर्मसे अधिक यसवंत होताहै। १६-स्थिर शुभ नाम कर्मसे शरीरके अवय दृढ़होते हैं। १७-अगुरू लघुनाम कर्मसें शरीर अधिक हलका या अधिक
भारी नहीं होता है। १८-प्राघात शुभनाम कर्मसे संग्रामादि में जय प्राप्त करता है। १६-उखाल शुभनाम कर्मसे स्वासोखास अच्छी तरह नैरोग्यता से
लेता है। २०-आताप शुभनाम कर्मसे श्राप शीतल स्वभावी होता है और __ दूसरे उन्हें देखके तपता है अर्थात् जलता है। २१-लयात शुभनाम कर्म से शरीरकी क्रान्ति ज्योति उज्वल
होती है। २२-शुभगई शुभनाम कर्मसे हंस समान शगज ससान अच्छी
चाल होती है।
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( ५३ )
२३- निर्माण शुभनाम कर्मस शरीर गूम्मडा फुनसियां रहित रहता है। २४ - पंच इंद्रिय शुभनाम कर्म से पांचइंद्रिय नैरोग्यता पाता है । २५ - श्रदारिक शरीर शुभनाम कर्म से मनुष्य और तीर्थच काशरीर अच्छा होता है ।
२६- वैक्रे शरीर शुभनाम कर्म से देव शरीर तथा वैक्रे लब्धी से किया हुआ शरीर अच्छा होता है ।
२७ - आहारिक शरीर शुभनाम कर्मसे आहारिक लब्धी का कीया हुआ शरीर अत्यन्त खूब सूरत होता है ।
२८ - तेजस शरीर शुभनाम कर्म से घुगलोंको अच्छी तरहें पचाता है । २६- कार्मण शरीर शुभनाम कर्मशे शुभ पुन्य मयी कर्मोंका संगी होता है ।
३० - श्रदारिक उपान्ग शुभनाम कर्मसे श्रदारिक शरीर के हात पांव आदि अच्छे होते हैं ।
३१- वेक्रे शरीर उपान्ग शुभनाम कर्मसे चेक्रे शरीर के हात पांव श्रादि उपान्ग श्रच्छे होते हैं ।
३२- श्रहारिक उपान्ग शुभनाम कर्मसे श्राहारिक शरीरके हात पांव श्रादि उपान्ग अच्छे होते हैं ।
३३ - वज्र ऋषब संघयण नाम कर्मसे बज्र समान शरीर होता है । ३४- सम चौरान्स संस्थान नाम कर्मस समचोरस श्राकार होता है । ३५ - भलाब १ भलागंध २ भलारस ३ भला स्पर्श ४ ये चारूं शुभनाम कर्मसे मिलता है ।
३६- पंच इंद्रिय तिर्येच युगलियाका श्रायुष कर्म
४० - मनुष्य आयुष्य कुर्म ।
४१ - देव श्रायुज्य कर्म
४२ - थिंकर नामकर्म से तीर्थकर धर्मोपदेशक सुरासुर सेवक तीन लोक के पुजनक होते हैं ।
उपरोक्त साता वेदनी कर्म १ ऊंच शोधकर्म २ ये दोनू तथा श्रा. युष्य कर्मकी ३ शुभ प्रकृति और नाम कर्मकी ३७ प्रकृति सर्व ४२ प्रकार करिके जीव पुन्य भोक्ता है, जैसी ? प्रकृति वयांसिस में से भोगे गा उन्हें पुन्य प्रकृति जानना ।
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(५४) ज्यो युगलियादिक तिर्यचौकी गति और अनुपूर्त है सो पुन्य की प्रकृति ही है फिर निश्चय झानी कहै घोह सत्य है, पहिला संघयण बिना व्यार संघयणों में तथा पहिला संस्थान बिना व्यार संस्थानों में भी पुन्य प्रकृति का मेल मालुम होता है निश्चय ज्ञानी कहै सो संत्य है, क्योंके ज्यो२हड्डियां पहिला संशय णकी हैं, वैसी वाकी च्यार संघयणों में भी होती हैं उन्हें एकान्तिपाप प्रकृति ही नहीं कहसकते हैं, और ज्यों श्राकार पहिला संस्थान का है उसही तरह के संस्थान बाकी च्यामि हैं वो भी एकान्ति पाप प्रकृति ही नहीं हैं उन्हें पाप को प्रकृति कहना यहन्याय नहीं मिलता है। . और चौथा पुन्यकर्म ऊंच गौत्र है सो उनके उदय से उव्य पदवी पाते हैं ज्यो मनुष्य और देवता निरलान्छनी हैं वो स्वच्छ जाति हैं सो ऊंच गौत्र कर्म के उदय से हैं, तात्पर्य यह कि ज्यो२ गुन जीव के शुभ पणें हैं वैसाही नाम जीवका है सो जीवहै और वोही नाम पुद्गलोंका है सो अजीव पुन्य कर्म हैं पुद्गलों के संयोग से ही जीवके अच्छे २ नाम कहे जाते हैं इससे उन पुण्य मयी पुद्गलों का नार भी अच्छे २ हहैं। ...... ॥ढाल तेहिज ॥
जीव शुद्ध हुो पुद्गलथकी, तिणसं रूडा २ पाया नाम हो लाल जीवनें शुद्ध कीधो छै पुदगला,त्यांरा पिण छै शुद्ध नाम तामहो लाल||पुन्य।। ३३॥ज्यांपुद्गलां तणां प्रसंगथी जीव बाज्यो संसार में ऊंच हो लाल । ते पुद्गल पिण ऊंचा बाजी . या तिणरो न्याय न जाणे च हो लाल ॥पुन्य। ३४ ॥ परी तीर्थकर चक्रिवर्ततणी, भासुदेव बलदेव .
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(५५) महंत हो लाल । बलि पढीमण्डलिक राजातणी, सारी पुन्यथकी लहंत हो लाल ।। पुन्य ॥ ३५॥ पद्धी देवेन्द्र नरेन्द्रनी, बाल पदी श्रहमेन्द्रनी बखाण हो लाल । इत्यादिक मोटी मोटी पदवियां, सहु पुन्य तणे प्रमाण हो लाल ॥ पुन्य ॥ ३६॥ जे जे पुद्गल परिणम्यां शुभ पणे, ते तो पुन्योदय से जाण हो लाल । त्यां सूं सुख उपजै संसार में, पुन्यरा फल यह पिछाण हो लाल ।।पुन्य ॥३७॥ बाल्हा विकडिया पायी मिले, सयणातणों मिले संयोग हो लाल । पुन्य तणां प्रतापथी, शरीर में न व्यापै रोग हो लाल.॥ पुन्य ॥ ३८॥ हाती घोडा रथ पायक तणी, चौरंगणीसेन्या मिलै प्राण हो लाल । ऋद्धि बृद्धि सुख सम्पदा मिले, तेतो ' पुन्य तणे प्रमाण हो लाल ॥ पुन्य॥३६॥ खेत्तु बस्थू हिरण सोनादिके, धन धान्य में कुम्भी धातु हो लाल । द्विपद चोपदादि श्रावी मिलै, पुन्य तण प्रताप साख्यात हो लाल ।। पुन्य ॥ ४०॥ हीरा पन्ना माणक मोती मुंगीया' वलि रत्तनारी जाति अनेक हो लाल । ते संघला मिलै छ पुन्य थकी, पुन्यं विना मिले नहीं येक हो लाल ॥ पुन्य ॥ .
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(५६) ४१ ॥. गमती.२ बिनयवंतजेस्त्री, ते तो अपछरै उणिहार हो लाल । ते पुन्य थकी पाय मिले, बलै पुत्रघणां श्रीकार हो लाल || पुन्य ।। ४२ ।। बले सुख पामें देवतां तणां, तै पूरा कह्या नहीं जाय हो लाल । पल्य सागरोपमलग सुख भोगवै, ते तो पुन्य तौँ पसाय हो लाल || पुन्य ॥ ४३ ॥ रूप शरीर सुन्दर पणों तिणरो बर्णादिक श्रीकार हो लाल । ते गमता लागै सर्व लोक ने, तिगारो बोल्योगमैं वारम्बार हो लाल | पुन्य ॥४४॥ जे जे सुख सघला संसारना, तेतो पुन्यतणां फल जाण हो लाल । ते कहि कहि नें कितरा कहुं । बुद्धिवन्त लीज्यो पिछाण हो लाल ॥ पुन्य ॥ ४५ ॥ ए पुन्यतणां फल बरणविया. ते संसार लेखै श्रीकार हो लाल । त्यानैं मुक्ति सुखां. सें मीढीयां, ये सुख नहीं मूल लिगार हो लाल | पुन्य ॥ २६ ॥पुदूगलिक सुख छै पुन्य तणां, तेतो रोगीला सुख हाय हो लाल ! अात्मिक सुख छै मुक्तिरा त्याने तोश्रोपमा नहीं काय हो लाल । पुन्य ।। ४७॥
पांव रोगी हुवै तेहने, खाज मीठी लागै अत्यंत हो '' लाल ! ज्यूं पुन्य उदय हुवां जीवनें, शब्दादिक
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(५७) सर्व गमता लागत हो लाल ॥ पुन्य ॥ ४ ॥ सर्प डंक लाग्यां जहर परिगम्यां, मींग लागै नीम पान हो लाल । ज्यूं पुन्य उदय हुवां जीवनें मींग लागै भोग प्रधान हो लाल ॥ पुन्य ॥ ४६ ॥ शेगीला सुख छै पुन्य तणां तिण मैं कलाम जाणों लिगार हो लाल । ते पिण काचा सुख असास्वता, त्याने विणसतां न लागै बार हो लालं ॥ पुन्य ॥ ५० ॥ आत्मिक सुख छै सास्वता; त्यां सुखांरो नहीं कोई पार हो लाल । ते सुख रहै सदाकाल सास्वता, त्रिहुं काले येक धार हो लाल ॥ ५१ ॥ पुन्यतणी बान्छा कियां, लागें छै एकान्ति पाप हो लाल । तिणसूं दुःख पामैं इण संसार में, बधतो जाय सोग संताप हो लाल ॥ पुन्य ॥ ५२ ॥ जिण पुन्य तणी बान्छा करी तिण बान्छा कामने भोग हो लाल । त्याने दुःख होसी नरक निगौदरा बले बाल्हारो पडसी बियोग हो लाल ॥ पुन्यं ॥ ५३ ॥ पुन्यतणां सुख छै असास्वता० ते पिण करणी बिना नहीं थाय हो लाल । निर्वध करणी करै तेहनें, पुन्यतो सहजै लागै बै प्राय हो लाल ।। पुन्य ।। ५४ ॥ पुन्यरी.
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(५८) बन्छा सें पुन्य नहीं नापजै, पुन्यतो सहजै लागे छै श्राय हो लाल । तेतो लागै छै निर्वद्यजोग सें, निरजरारी करणी सूं हाय हो लाल पुन्य५॥ भली लेश्या भला परिणामसे, निश्चयः ही निरजग थाय हो लाल । जब पुन्य लागै छै जीवरै, सहज सभावै हाय हो लाल ।।पुन्ग।।५६|| जेकर णी करै निरजरातणी, पुन्य तणी मन मांही धार हो लाल ! तेकरणी खोयने नापडा, गया जमारो , हार हो लाल ॥ पुन्य ॥ ५७ ॥ पुन्यतो चोस्पर्शी कम छै, तिणरी बान्छा करै ते मूढहो लाल । त्यां कर्म धर्म नहीं ओलख्यो, करि करि मित्थ्यात्वनी सदहो लाल ।। पुत्य ॥ ५८॥ जे पत्यथी चस्तु मिलै तिके, त्यानें त्याग्यां निरजरा थाय हो लाल । ज्यो पुन्य भोगवैग्नद्धी थको, तिणरै चिका णा कर्म बंधाय होलाल ।। पुन्य ॥ ५६ ॥ जोडकी धी छै पुन्य भोलखायवा, श्रीजी द्वारा मंझार हो 'लाल । सम्वत् अठारह पंचावनें। जेठ बुदि नवमी सोमवार हो लाल || पत्य ॥६॥पत्यरी करगी निवध आज्ञाम झे. तिगारी सूत्र में छै साख हालाल, ते थोडी सी प्रगटकरूं, सुणज्यो चित्त ठिकाणे राख होलाल ॥ पुन्य ॥.६१ ॥
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॥ भावार्थ ॥ जीव जिस पुद्गलों से शुद्ध हुआहै उन पुद्गो का नाम भी शुद्ध हैं जबकोई कहै पुद्गलों से तो जीव मलीन हुआ और होरहा है तो पुद्गलों से जीव शुद्ध कैसे होसका है जिसका उत्तर यह है कि संसारिक जीवस शरीरी व्यवहारनय की अपेक्षाय शुद्ध होताहै जैसे कोई बस्तु भ्रष्टादि से अशुद्ध होती है तो वो स्वच्छ जल प्रा. दि पदार्थ लें शुद्ध होजाती है वैसे ही पुन्य मर्या शुद्ध पुद्गलास जीव उच्चपद् पाके संसार में ऊंचे दरज के मनुष्य या देवता गिने जाते है तो उनके प्रसंगर्स पुद्गल भी ऊंचे कहलाते हैं, सो कहते हैं, तिर्थकरको पदवी चक्रिवर्तकी पदयो, वासु देधको पदवी, बलदेवकी, मंडलोक राजाको पदवी, तथा देवेन्द्रकी पदवी, अह मिन्द्रकी पदवी आदि बडी बडी पदवियां पुन्यके उदयसे जीव पाता है तवजीवभी संसार में ऊंचा कहलाया और वो पुन्य मयी पुद्गल ज्यो के जिनो उदयसे ऐसा हुआ लो पुद्गल भी ऊंचा कहलाया, ज्यों २ पुद्गल विके शरीर पणे या इन्द्रियोंक श्राकार पणे, वा रूप कान्ति अतिसयपणे परिणमे है वो सब पुन्य के. उदयसे है, तथा प्यारे बिछडे हुए मिलते हैं वा सजनों का संयोग मिलता है, निरोग शरीर पाता है, हस्तां घोडा रथ प्यादाः कटक, च्यार प्रकार सेना, ऋद्धि वृद्धी सुख सम्पदा आदि सब पुन्य के उदय से मिलते हैं, अथवा क्षेत्र कहिए जमीन तथा जायदाद चांदी सोना धन धान्य कुम्भी धातु दोपद कहिए दासदासी. तथा चोपद ज्यानवर अादि पुन्यक प्रतापसे मिलता है, तथाहीरा पन्ना माणक मोतो आदि अनेक तरह के रत्न और अति प्रिय मनोज्ञ रूपवती लो पुत्र पोत्र आदि पुन्योदय से मिलते हैं, तथा देव लोकों में देव समन्धिया दिव्य प्रधान सुख हुकुमातादि भी प्रवल पुन्योदय से पाते हैं, तात्पर्य ज्यो २ संसार के सुख हैं लो सव पुन्यके उदयसे हैं पुन्य विना संसारिक सुख कुछ भी नहीं मिलता है परंतु संसारिक सुख पुद्गलोक है सो सव असार
और अनित्य हैं मोक्षके प्रात्मक अनोपम सुखों के आगे ये सुखा. कुछ भी नहीं है जैसे पांच रोगीको खुजाल अच्छी लगें, सर्पके
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लाये हुए जहर व्यापितको नीमके पान मीठे लंग वसेंही जीवको क्लर्मों के उदय से पुन्य के पुद्गलिक सुख प्यारे लगते हैं, मगरज्ञानी
पुरुष तो पुन्य और पाप इन दोन ही को बेड़ी जानते हैं पुन्य प्राप दोनू ही के क्षय होने से असली सुख जो आत्मिक हैं सो प्राप्त होते हैं इसलिए पुन्य की बान्च्छा नहीं कराचाहिए पुण्यकी वान्छा करणे से एकान्ति पाप लगता है क्यों के ज्यो पुन्यकी वान्छा करी वोह काम भोग वान्छे, काम भोगों फी वान्छा से नर्क निगोदादि दुःख मिलते हैं इसलिए भव्य जनों को विचारणा चा• . हिए कि ये पुन्य के सुख असास्वते और असार है इन में कुछ कः रामात नहीं है, ये पुन्य के सुख भी निर्वध करणी करणे से मिलते हैं परन्तु इन सुखों को आसा से करणी नहीं करणी चाहिए, जब जीवके मन बचन काया के तीनों अथवा इन तीनों में से कोई एक जोग भला बर्तता है तथा भली लेश्या भूला अदवसायों से श्र: शुभ कर्मों की निरजरा होती है तव शुभ कर्म सहज में बंधते है जैसे गेहूं के साथ में खाखला स्वतह ही होता है वैसे निरजरा की करणी करणे लें पुन्योरिजन होता है, और ज्यो २ वस्तु पुन्योदय से मिलती है उन्हें त्यागने से अशुभ कर्मों की निरजरा होती. है जिससे जीव निर्मला होके अनुक्रमे सर्व कर्म क्षय करि के सिद्ध अवस्था प्राप्त करता है, पुन्यतो चोस्पर्शी कर्म हैं पुन्य को अधीपणे से भागने से सचिकण पापोरजन होता है। यह पुन्य पदार्थ को ओलखाने के लिए स्वामी श्री भीखनजी.ने ढाल. जोड करके कही है सम्बत् अट्ठारह सह पचपन वर्षे जेठ वुद न: वमी सोमवार को श्री नाघद्वार शहर में कही है, सो इसका भावार्थ मैंने मेरी तुच्छ बुद्धि के अनुसार किया है इसमें जो कोई अशुद्धार्थ पाया हो उसका मुझे वारम्वार मिच्छामि दुक्कडं है, अव पुन्य किसतरहे से और किस करणी के करणे से होता है सो कहते हैं।
. आपका हितेच्छु
...जौहरी गुलाबचन्द लूणीया
द
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॥दोहा॥ नव प्रकारे पुन्य नीपजै, तेकरणी निर्वद्य जाण । बयांलीस प्रकारे भोगवै, तिणरी बुद्धिवन्त करज्यो पिछाण ॥ २ ॥ पुन्य निपजै तिण करणी मझे, निरजरा निश्चयजाण, जिण करणी में जिन
आगनया, तिणमें शंकामत श्रांण ॥२॥ केईसाधू बाजै जै नरा, त्यांदीधी जिन मार्ग में पूठ, पुन्य कहै कुपात्र ने दियां, त्यांरीगई अभ्यन्तर फूट ॥ ३ ।। काचो पाणी अणगल पावै तेहने, कहछै. पुन्यनें धर्म । ते जिन मार्ग में बेगला,भूला अज्ञानी भर्म ॥ ४ ॥ साधु बिना अनेरा सबनें, सचित अचित दियां कहै पुन्य ।। बलि नाम लेवै गणाअं. गरो, ते पाठ बिना अर्थ छै सुन्य ॥५॥ किण हिक ठाणां अंगमें, ये घाल्यो छै अर्थ विपरीत । ते मघला गणांगमैं नहीं, जोय करो तहतीक ॥६॥ पुन्य निपजै छै किण विधि, ते जोवो सूत्ररै म्हांय । श्रीबीर जिनेश्वर भाषियो, ते सुणज्यो चित; ल्याय ॥७॥
॥ भावार्थ ॥ अब पुन्य मयी शुभकर्म जीवके किस कर्तव्यके करणेसे लगते है सो कहते हैं, पुन्य नवप्रकार से उपार्जन होताहै वोह करणी निर्वः .
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(६२.), धहै; उले जीव वयालीस प्रकारसे भोगता है सो वर्णन पहली ढाल में किया ही है, वुद्धिवान जनोको निर्पक्ष होके पुन्य और पुन्यकी करणी की पहिचानकरणी चाहिए, महानुभावो जिस. करणीलें पुन्य निपढ़ है उस करणी से अशुभ कर्मोंकी निरजरा निश्चय हा होती है और उसही करणी करणेकी श्रीजिनेश्वर देवोंकी श्राज्ञा है परंतु पुन्यक लिए करणी करणकी आज्ञा नहीं है इसमें किञ्चित् भी शंका नहीं रखणी चाहिए, कितनेहीं साधु जैनी नाम धराके जिन कथित नाग से बिमुल होके कुपात्रोको देने में भी पुन्य प्ररूप्रतहैं उनकी ज्ञानमयीचक्षु मिथ्यात्तमयी मोतियां चिन्दलें अच्छादित होरहे हैं लोकहते हैं सचित पानी जो आप्यकाय , केस्थावर एक बिन्दु में असंख्या जीव हैं और उस में वनस्पती के अनन्ते जीवों की नियमा है वो किसीको पानेसे धर्म और पुन्य होः ताहै ऐसी कहने वाले अज्ञानी भ्रममें भूलेहुए हैं. कई कहते हैं साधुकोतो देनेसे तीर्थकरादि पुन्य प्रकृतिका वन्ध होताहै और साधु विना सबको देनेसे अनेरी पुन्य प्रकृति बंधती है ऐसाथी.. ठाणांग सुत्रमे कहाहै सो ऐसा कहना मिथ्या है श्रीठाणां अंग सूत्रके मूलपाठ में तो ऐसा कहाही नहीं है, किसी २ ठाणां अंग को प्रतिम अर्थम उपरोक्त लिख्या है सो भी सवठाणां अंगकी में नहीं है इसकी तहकीक करणे से मालूम होजायगा विवेकी जीवों को खयाल करना चाहिए कि जीव हिन्साकरिके साता उपजाने सें धर्म और पुण्य कैसे होगा, अब शास्त्रों में पुन्यकी करणी का. वर्णन कहाहै लो कहते हैं, ।
॥ढाल॥ .. ॥ श्रावक श्रीवर्द्धमानरारेलाल तथा ।।
॥ हूं तुज आगल स्यूं कहुं कन्नईया एदेशा ।। ___ पुन्ध निपजै शुभजोगसूरेलाल । तै शुभ जोग । जिन श्राज्ञा म्हांय हो भविकजन ॥ ते करणी? निर:
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१६३) जरा तणारेलाल, पुन्य सहजेंही लागैछै प्राय हा अविकजन ॥ पुन्य निपजै शुभजोग सूरे लाल ॥१॥ जेकरणी करै निरजरा तीरे लाल, तिणी श्राज्ञादे जगनाथ हो ॥ भ॥ ते करणी करतां पुन्य निपजेरै लाल, ज्यों खाकलोहुनै गेहूंरी साथ हो ॥भ॥ पु॥ ॥ २ ॥ पुन्य निपजै तिहां निरजर हुअरे लाल । ते करणी निस्वद्य जाण हो । भ॥ सावध करणी से पुन्य नहीं निपजेरे लाल । ते सुणज्यो चतुर सु. जाणहो । म ॥ ३ ॥३॥ लांबो श्राऊषो बंधै तीन बोलसूरे लाल । ते श्राऊपोछ पुन्य मांयहो ॥भ ।। हिन्सा न करै प्राणीजीव री रे लाल । बोलै नहीं मूंसा बायहो । भ ॥ पु ॥ ४ ॥ तथा रूप श्रमण निग्रंश्यनेरे लाल । देवें प्रासुक निरदूषण च्यारूं अहारहो ॥ भ ।। या तीन बोलासें ए पुन्य निपजेरेलाल । ठाणांग ती जामणा मंझारहो ॥भ ॥पु॥५॥ हिन्सा कियां झूठ बोलीयारेलाल । बलि साधांने देवै अशुद्ध अाहार हो ।।म तिणसूं अल्प पाऊपोबंधै तेहरेलाल । ते पाऊषो पाप मंझार हो ॥भ ॥ पु ॥ ६ हिन्सा कियां झूठ बोलीयोरेलाल साधांने हेलै निन्दै त्हायहो । भ ॥ श्राहार अमः
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(६४) नोग्य अप्रिदियोरेलाल । अशुभ लांबो श्राऊँपो. बंधायहो ।। भ ॥ पु॥ ॥ ७॥ शुभ लांबो. पाऊषो बंधे इण बिधैरेलाल । ते पाऊषो पुन्य मांयहाँ ॥भ ॥ हिन्सा न करै प्राणी जीवनीरेलाल । बले बोल नहीं {सा बायहो 8 भ ॥ पु॥८॥ तथा रूपश्रमण निग्रंथनेंरेलाल । करै बंदनाने नमस्कार हो । म ॥ प्रीतकारी बहिरावै च्यारूं श्राहारनरे लाल | ठाणां अंग तीजा गणामझारहो । भ..॥ ॥ पु.॥ ६ ॥ योहिज पाठ भगवती सूत्रमेंरेलाल, पांचों शतक पंचनें उद्देस हो ॥ भ ॥ शंकाहुवै तो पूछ निर्णय करोरेलाल । तिणमैं कूड नहीं 'लवलेस हो । भ ॥ ॥ १० ॥ बंदना करतां खपावै नीच गौतनेरेलाल । ऊंच गौत बंधै बलिताहि हो ।म।। ते बंदना करवारी जिन आज्ञारेलाल। उतराध्ययन गुण तीसमां मांहिहो ।भापु॥११॥ • धर्म कथा कहितांथकारेलाल । बांधै कल्याण कारी कर्म हो ॥भ। उत्राध्ययन गुणतीसमें अध्ययनरेलाल । तिहां पिण निरजरा धर्महो भ|पु॥१२॥ बीसबोलां करी जीवरैरेलाल । कमरीि कोड खपायहो । भ॥ बांधै तिर्वकर नाम कर्मनेरेलाल ।
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(६५) झाता पाठमा अध्ययन मांयहो । भ॥ ॥१३॥ सुभाहुकुमर आदि दसजणारेलाल ।त्यां साधनि श्रः शणांदिक बहिरायहो ॥ भ ॥ त्यां बांध्यो पाऊषो मनुपरेलाल । श्रीविपाकसूत्ररे मांयहो ॥भाषु ।। ॥१४॥ प्राण मृत जीव सत्वनेरेलाल दुःख न दे उपजावै सोग नांहि हो ॥ भ ॥ अभूरणियां ने श्रटीप्पणियारेलाल । श्रपिट्टणियां प्रतापनदेताहि हो ॥भ । पु॥ १५ ॥ ए छहुं प्रकारे बांधै साता बेदनीरेलाल । उलटा कियां असाता बंधायें हो ॥भ ॥ इम भगवती शतक सातमेरेलाल । छट्टै उहसे कहयो जिनराय हो । में ॥ पु ॥ १६ ॥ करकस बेदनी बंधै जीवरै रेलाल । अठारह पाप सेंव्यां बंधायहो ॥ भ ॥ नहीं सेव्यां बंधै अकर कस बेदनीरेलाल । भगवती सातमा सतक छट्टा मांयहो ॥ भ.॥ पु ॥ १७ ॥ कालोदाइ पूछयो भगवानरेलाल । सूत्र भगवतीमें रेसहो ॥ भ ॥ कल्याण कारी कर्म किण विधः बंधेरेलाल । शात में शतक दसमें उद्देसहो ॥ भ।। पु॥१८॥ अठारह पाप स्थानक नहीं सेवियरिलाल । कल्याणकारी कर्म बंधाय हो । म ॥ अठारह पाप स्थानक
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(६६) सेवेतेहसंरेलाल । बंधै अकल्याण कारी कर्म श्राय हो ॥ भः॥ पु ॥ १६ ॥ प्राणभृत जीव सत्वनेरेलाल । बहु शन्दै च्यारूं मांहि हो॥भा त्यांरी करै अनुकम्पा दया प्राणिनरेलाल । दुःख सोग उपजावै नांहिं हो ॥ भ ।। पु ॥ २० ॥ अमूरणियां में अपिट्टणियां रेलाल । अटिप्पणिया ने अप्रतापहो ॥ भ॥ यां चौदा बोलांमें बांधै साता बेदनीरेलाल उलटा कियां असाता पापहो ॥ भ ॥ पुः ॥ २१ ॥ महा प्रारंभ महा परिग्रहिरेलाल । बलिकरै पचेन्द्री नीघात हो । भ ।। मद्य मांस तणुं भक्षण करै रेलाल । तिण पापसे नर्कमें जातहो।।म।।।२।। माया कपट गुडमाया करै रेलाल । बले नोले मूषा बाय हो ।भ ॥ कूडा तोला ने कूडा मांपा करैः रेलाल तिगा पापथी तिर्यंच थायहो।भापु॥२३॥'. प्रकृतिरो भद्रिक वनीत छै रेलाल । दयाने श्रमच्छर भाव जाण हो ।म।। तिणसें बांधै आऊषों मनुष नरेलाल । तेकरणी निरवध पिछाणहो ।भ |पु॥ ।। २४ ॥ पालै सराग पणे साधू पणों रेलाल ।
बले श्रावकरा व्रत बारहो ॥ भ ।। वाल तपम्गर्ने '. अकाम निरजरा रेलाल । त्यांसूं पामैं सुर अव:
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तारहो || भं || पु || २५ || काया शरल नें भाव शरल सूं रेलाल । बले भाषा शरल पिछा हो ॥ भ ॥ ज़ैहवो करै तेहवा मुखसूं कहै रेलाल । तिगासे शुभनाम कर्म बंधै हो || ||२६|| ये च्यारूं ही बो• ल वांकां वर्तियां रेलाल | तिणसूं बंधै अशुभ ना म कर्म हो ॥ भ ॥ ते सावद्य करणीछे पापरीलाल । तिण में नहीं निरजरा धर्महो || भ ॥ पु ॥ २७ ॥ जाति कुल बल रूपर्ने रेलाल । तप लाभ सूत्र ठ कुरा हो || || ए हूं हीं मद नें करें नहीं रेलाल-1. तिणथी ऊंच गौत बंधाय हो | म ॥ पु ॥२८॥ ये हूं हीं मद कियांगकां रेलाल | बांधै नीच गौत कर्म हो ॥ भ || ते सावध करणी है पाप रीलाल । तियमें नहीं पुन्य नें धर्म हो ॥ भ ॥ पु ॥ ॥ २६ ॥ ज्ञानावरणी नें दरिशणाबरणी रेलाल । वले मोहनीयनें अन्तराय हो || भ || ये व्यारू ए कान्ति पापकर्म है रेलाल । त्यांरी करणी नहीं श्राज्ञामांय हो ॥ भ ॥ पु ॥ ३० ॥ बेदनी आयुपो नाम गौत है रेलाल । ए च्यारूं ह्रीं कर्म पुन्य पाप हो ॥ भ ॥ तिण में पुन्यरी करणी निखद्य क-ही रेलाल । तिगरी आज्ञा दे जिन श्रापहो | म ॥
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(६८) ॥ पु॥ ३१ ॥ यह भगवती शतक श्रीठ में रेलाल। नवमां उद्देशा मांयहो । भ॥ पुन्य पाप तणीकरणी तया रेलाल । जाणें समदृष्टी न्यायहो ।भ ।। ।। पु ॥ ३२ ॥ करणी करि निहाणों नहीं करें रेलाल. । चोखा परिणामां समकित वन्त हो ।म। समाध जोग बरतै तेहनांरेलालं । क्षमांकरि परिशहसमंत हो ।भ ।। पु॥१३॥ पांचूंही इन्द्रियां बस कियारेलाल । गले माया कंपट रहित हो।भा। अपा. • सस्थापणंज्ञानादिक तणं रेलाल। श्रमण पण छै स. हितहो ।भ।पु ४२ ॥ हितकारी प्रबचन श्राएं तः
एं रेलाल। धर्म कथा कहे विस्तार हो ।भ॥ यां दस बोलां बंधै जीवरैरेलाल । कल्याणकारी कर्म श्रीकारहो। भ। पु । ३५ । ते कल्याणकारी कर्म पुन्य छै रेलाल।तिणरी करणीनिरबद्यजाण हो||भा ठाणा अंग दसमें ठाणे कन्धा रेलाल ते जोयकरि ज्यो पिछाण हो||भाापु ॥३६॥ .. .
भावार्थ ॥ शुभयोग वर्तनेसे पुन्योपार्जन होता है सो शुभयोग श्रीजिन आशाके माहिहें उनहीं शुभयोगोस अशुभ कर्माको निरजरा होती है
और पुन्य ज्यो शुभकर्म है घो बंधते हैं, जिस कर्त्तव्यको श्रीजिनेश्वर, • झेच श्राक्षाद उस निरमय कर्तव्य के करण जोपदेशत: निर्मल
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(६६) छोके पुम्योपार्जन करताहै, परंतु सावध करणी ज्यो जिनामा थाहरहै उससे पुन्य कदापि नहीं होताहै, ज्ञानावरणी दरिशनापरणी मोहनीय अंतराय ये व्यार कर्म तो पापही है, और नाम गौत्र घेदनी प्रायुज्य ये प्यार कर्म पुन्य पापदोहें सो कैसें बंधते हैं उनका वर्णन शास्त्रों में कहा सो कहते हैं। पुन्यमयी दीर्घ आयुष कर्म तीन प्रकार से वंधताह श्रीठाणा अंग'सूत्र के तीसरे ठाणे कहा हैं हिन्लान करणे से १झूठ न बोलने से २ तथा रूपं श्रमण निग्रंथको प्रासुक निर्दपण च्यार प्रकारका आहार देनेसे दिर्धायु कर्म बंधताहै, और हिन्सादि तीनो कर्तव्य स अल्प आयु कर्म बंधता है सो पापमयीहै, तथा शुभ दीर्घायु भी हिन्सा में करण से १ झूठ न बोलने से २ तथा रूपं साधू मुनिराजको बंद मा नमस्कार करने से प्रोतकारी व्याकं आहार पहरानेसे ३, और अशुभ दीर्घायु कर्म हिन्सादि तीनो कर्तव्यों के करणे से बंधताहै, ऐसा ही पाद श्रीभगवती के पांच में उसमें भी पाहा हैं। गौत्र कर्म के दो भेद है येक तो ऊंच गौम सो पुन्यहैं और दूसरा नीच गौत्र घो पापहै, साधू मुनीराजों को बंदना फरणे सें. नीच गोत्र को खपाते हैं और ऊंच गोत्र बांधते हैं श्री उत्सगत्ययम २६ में अध्ययन में कहा है, तथा धर्म कथा कहने से कल्याणका. रीकर्म बंधते है सो गुण तीसमा अध्ययन में कहा है, ऊंच गोत्र यंधने का कारण यंदना करना है, कल्याणकारी कर्म का कारण धर्म कथा कहना है इन दोन हो कर्तव्यों को जिन प्राज्ञा है और निरजरा धर्म है। बीस बोलकारके जीव पूर्ष संचित कर्मों की कोडि खपाक तीर्थकर नाम कर्म बांधता है ऐसा श्री ज्ञाता सूत्र के आठ में अध्ययन में कहा है। श्री सुख विपाक सूत्र में अधिकार है कि दस जनों में साधू मुनिराजो को शुद्ध निर्दोष आहार देने स प्रति संसार कारिक मनुष्य का श्रायुष.बांधा.है सो पुन्य है। तथा श्री भगवती भूत्र के सातमा शतक के छहे. उद्देसे गौतमखामी ने श्री भगवान से पूछा है हे प्रभू साता घेदनी कर्म कैसे। बंधता है तब भगवत ने फरमाया है प्राण भूत जीव सत्व को दुःख न देनेसें, सोंगन उपजाने से, न.भूराने.सं, न रुलाने से, ना। पोदण स, तथा प्रतापना न देनेसें, साता घेदनी कर्म बंधता है और
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(७० दुख देनेच्यावत प्रतापना उपजाने से असाता वेदनी कर्मबंधता है। तथा इस ही उद्देसे में कहा है अट्ठारद पाप सेने से कर कस बदनी और न सेन से अकरकस बदनी बंधता है । कालोदाई मुनी श्री भगवान से प्रश्न किया है कल्याण कारी और अकल्याण कारी कर्म जीध कैसें बांधता है तय भगवन्त ने उत्तर फरमाया है.कि.अठारह पापस्थानक सेने से शकल्याणकारी कर्मः और न सेने से कल्याणकारी कर्म बंधता है.श्री भगवती सूत्र में अधिकार है, कल्याणकारी कर्म. पुन्य है और कल्याणकारी कर्म पाप है। आयुष्य कर्म च्यार प्रकार का है-नारकी का, तिर्यः चका, मनुष्य का, देवता का, जिस में नारकी तिर्यच का आयुष्य सो पाप है और मनुष्य देवता का श्रायुष्य पुन्य है सो च्यारी प्रा कार का आयुष्यं कर्म कैसें बांधता है घो अधिकार श्री भगवती सूत्र में कहा है सो कहते हैं:१-हा आरंभसे, महापरिग्रहसे, पंचेन्द्री की घातकरने से, मद्य • मांस सोगने लें, नारफी का आयुष्य बंधता है। २-मायाचार से, गूढ माया कपट करने से, झूठ बोलने से,अस
त्य तोलनेलें या असत्यनांपर्ने से, तिर्यचका प्रायुध्य पंधता है।' ३-भद्रिक प्राकृति से, सुयनीत पण से, जीवों की दयासें अम. सर भाव से, मनुष्य का श्रायुप्य बंधता है। ४-सराग संयम पालन से, श्रावक पणां पालने से, बालं तपस्या . करने से, अकाम निरजरा लें, देवता का आयुष्याचंधता है। . .तथा कहा है काया का शर्ल पणे-से भाषा का शर्ल पणे से, जैसा करै वैसा कहने वाला ऐसा सत्यवादी पणे से, शुभनाम कमोपार्जन होता है, और इन्हीं योलों को उलटे करने से अशुभ नाम कर्मोपार्जन करता है। " .
जाति का, कुल का, रूपका, तप का, लाभ का, सूत्र का, छ.. कुंराईका, इन आठों का मंद याने अभिमान करने से नीच गोत्र. कर्म बंधता है और न करने से ऊंच गौत्र कर्म बंधता है। तात्पर्य संह कि भानावरगी दारेशना परणी मोहनीय और अंतराय यह .
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ध्यार कर्म तो एकान्ति पाप कर्म हैं इन की फरणी तो साप है तथा भाशा बाहर है। और बेदनी नाम गौत्र आयुष्य ये ध्यार कर्म पुन्य पाप दोन है जिसमें पुन्य की करणी तो निर्वद्य और आहा मांदि है, पाप की करणी आशा याहर है, यह पुन्य पाप की करणी का अधिकार श्री भगवति सत्र के पाठमां शतक केनयमांडर. देसा में विस्तार पूर्वक कहा है जिस का न्याय समडी जानरहे हैं। करणी करिके पुन्य के सुखों का निधान न करें। भले परिणाम समजोगपरते, परिशह उपनग समपरिणाम से क्षमें, पांचों शन्द्रयों को पस करै, माया कपट रहित हो, शान की उपासना फर, भमण पणा सहित हो, जिस को आठ प्रयचन माताके हितकारी हो, स विस्तार धर्म कथा कहै, इन दस पोलो से कल्याणकारी कर्म धंधता है यह करणी निरवध है, और यही बोल उ. लटा करणे से अकल्याण कारी कर्म बंधता है सो करणी साप है, ये दसों योल ठाणांग में कहे हैं। .
॥ ढाल तेहिज॥ अन्न पुण्य पांण पुग्य कह्यो रेलाल । लयण सयण बस्त्र जांण हो ।म।। मन बचन काया पुन्य छै रेलाल । नमस्कार नवमुं पिछाण हो । म ॥३७॥ पुन्य बंधै यह नव प्रकार से रेलाल । ते नवू ही निरवद्य जाण हो । भ । नव बोलां में जिन जीरे श्रागन्यारे लालातिणरी बुद्धिवंत करिज्यो पिछाण हो । म ॥ पु ॥ ३८॥ कोई कहे नव बोल सम: चय कह्यारे लाल.। सावध निरवद्य न कह्या. ताम हो ॥भः ॥ सचित श्रचित पिण नहीं कह्यारे लाल
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पात्र कुपात्र नहीं नाम हो ॥ भ ॥ पुं ॥ ३६ ॥ तिणसूं संचित श्रचित दोनूं कह्यारे लाल । पात्र कुपात्र कह्या ताम हो || भ ॥ पुन्य निपजै दीघां शकल नेंरे लाल । ते झूठ बोले सूत्र ले २ नांम ॥ हो ॥ भ ॥ पुन्य ॥ ४० ॥ कहै साधु श्रावक पात्र ने दियां रे लाल । तीर्थंकर नामादि पुन्य थाय हो || भ || अनेग ने दान दियां थकां रेलाल अनेरी पुन्य प्रकृती बंधे श्राय हो ||४|| पु ॥ ४९ ॥ इम कहै नाम लेवे ठाणा अंगनूं रेलाल । नवमां ठाणामें अर्थ दिखाय हो । भ ॥ त अर्थ अण हुंतो घालियोरे लाल । तिगरी भोलां नैं खबर न कांय हो ॥ भ ॥ पु ॥ ४२ ॥ ज्यो अनेशने दियां पुन्य निपजैरे लाल । जबटलियों नहीं जीव येक हो । भं । कुपात्र ने दियां पुन्य किहांथकी रेलाल ये समझो आणि विवेक हो । भ ।। पु ॥ ४३ ॥ पुन्यरां नव वोल समुचै कह्या रेलाल । उठा तो नहीं छै निकाल हो ॥ भ ॥ बंदना व्यावच पि समुचै कह्यारे लाल । ते बुद्धिवंत लीज्यो संभाल हो ॥ भ ॥ पु ॥ ४४ ॥ वंदना करतां खपावै नींव गौत नैरे लाल । बले, ऊंच गौत बंधाय हो ॥ भ ॥ तीर्थकर गौत बांधे व्यावच कियां रे लाल । ते पिणसमुचै बोल कह्या छै त्हाय हो ॥म॥ ४५ ॥ तीर्थकर गौत बंधे बीस बोल से
पु ॥
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(७३) रेलाल । त्यां में पिण समुचे बोल अनेक हों ॥भ ॥ समुचै बोल घणां छै सिद्धान्त में रेलाल ! ते कुण समझै बिगर विवेक हो । म ||४||
ज्यो शकल ने दीयां अन्न पुन्य निपजै रेलाल । .तो नवों ही समुचै इम जाण हो ॥ भ ।। हिव निर्णय कहूं छू तेहनूं रेलाल । ते सुण ज्यो चतुरं सुजाण हो ।म।। पु ॥४६॥ अन सचित प्रचित दीघां शकल ने रेलाल । ज्यो पुन्य निपजै छै. ताम हो । म ॥ तो इम हिज पुन्य पाणी दिया रेलाल । लैण सैण बस्त्र पुन्य श्राम हो ।भ ॥ पु ॥४७॥ इम हिज मन पुन्य समुचै हुवै रेलाल । तो मन भूडो वरतायां ही पुन्य थायहो ॥ भः ।। बचन पिण समुचै हुवै रेलाल । तो भुंडो. बोल्यां ही पुन्य बंधाय हो । भ॥ पु॥४८ काया पुन्य पिण समुचै हुवै रेलाल । तो, काया सुं हिन्सा कियां पुन्य होय ।।भा। नमस्कार पुन्य समुचै हुवै रेलाल । तो सकल ने नम्यां पुन्य जोय हो ।भ ।। पु॥ ४६॥ मन बचन काया. मांग बर्तियां रेला. ल । ज्यो लागै छै एकान्ति पाप हो । भ.॥ तो नवू ही बोल इमः जाणि ज्यो रेलाल । उथप गई
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(७४) समुचैरी थाप हो ।भ ॥ पु. ॥ ५० ॥ मन व. • चकाया सू पुन्य नीपजै रेलाल । ते निरवद्य बा होय हो॥भतो नवू ही बोल इम जाणिज्यो रेलाल । सावध में पुन्य नहीं कोय हो ॥भ-।। पु॥५१॥ नमस्कार अनेरा में कियां रेलाल । ज्यो लागै छै एकान्ति पाप हो ।भ ॥ तो श्रनादिक सचित दीपांथकां रेलाल । कुण करसी पुन्यरी थाप हो ।। भ ।। पु.५२ निरवद्य करणी सुं पुन्य नीपजै रेलाल । सावध सू.लागै छै पाप हो। म ॥ ते सावध निरवद्य किम जाणिए रेलाल ।। निरवद्य में श्राज्ञादे जिन पापहो।।भ । पु। ॥५३॥ अन्नपाणी पात्रनें बहिरावियां रेलाल । लैण सैण बस्त्र बहराय हो । भ॥ त्यांरी श्रीजिन देव प्रागन्या रेलाल तिण ठामें पुन्य बंधायहो।।भ ।। ॥ पु॥ ५४॥ श्रन्न पाणी अनेरा ने दियां रेलाल लैण सैण बस्त्र दे हायहो ।मा। तिगरी देवें नहीं जिन श्रागन्या रेलाल । तिणसूं पुन्य किहांथी बंधा यहो । म ।। ५५.।। सुपात्रने दियां पुन्य नीषने रेलाल । ते करणी जिन आज्ञा मांयहो । भः॥ अं. नेराने दिया पुन्य किम निपजे रेलाल । तिगारी जि;
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न श्राज्ञा नहीं कांहो || भ | पु ॥ ५६ ॥ ठाम २ सूत्रमें देखल्यो रेलाल । निरजरा ने पुन्यरी करणी एकहो ॥ भ ॥ पुन्य हुवै तिहां निरजरा हुवै रेलाल तिहां जिन श्राज्ञा है विसेक हो । भ ।। पु ॥ ५७ ॥ नव प्रकारे पुन्य नींपजै रेलाल । ते भौगवे वयां - लीस प्रकार हो । भ । पुन्य उदय हुयां जीवरे रेलाल | सुख साता पामें संसार हो ॥ भ ॥ पु ॥ ॥ ५८ ॥ इण पुन्य तयां सुखकारमां रेलाल । विरासतां नहीं लागे वारहो ॥ भ ॥ तियरी बान्छा नहीं किजीए रेलाल | ज्युं पामूंभव जल पार हो । भ । पु॥५६॥ जिग पुन्य तणी बान्छा करी रेलाल । तिय बान्छा कामनें भोग हो || || संसार बधै कांम भोग सुं रेलाल । पामें जन्म मरणने सोग हो || भ ॥ पु ॥ ६० ॥ बान्छा तो कीजे येक मुक्तिरी रेलाल | और बान्छा न कीजे लिगार हो ॥ भ ॥ जि पुन्य तणों बान्छा करी रेलाल । ते गया जमारो हार हो ॥ भ ॥ पु ॥ ६१ ॥ सम्बत् अठारह तयांलीस में रेलाल । कार्तिक सुदि चोथ गुरूवार हो ॥ भ ॥ पुन्य निपजै ते बोलखायवा रेलाल | जोड कधी कोठारया मंकार हो ॥भ॥ पु ॥ ६२ ॥ इति पुन्य पदार्थ ||
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॥ भावार्थ ॥
पुन्यं नव प्रकार से वंधता है और जीव उसे ययातीस प्रका र से भोगता है - पुन्य बंधने के नवबोल श्री ठाणांग के नव में ठा कहे हैं परंतु बुद्धिवान जनों को विचारणा चाहिए कि येह नव बोल कोनसे हैं और इन से पुन्य किसतरहे बंधता है, कोई कहते हैं नव घोल समुचै कहे हैं सावद्य निरवद्य या सत्रित अचित और पात्र कुपात्र का नाम उस जगह नहीं कहा है इसलिए सचित अचित दोनूं तरहें का अन्न सब को देनेसें पुन्य होता है, साधू श्रावक को देनेसे तो तिर्थकरादि पुन्य प्रकृति का बंध है और, वाकी को देते अनेरी पुन्य प्रकृति बंधती है, ठाणा अंग सूत्र में लिखा है ऐसा कहते हैं, जिसका उत्तर यह है कि ठाणां अंग सूत्र के मूल पाठ में तो कहीं भी ऐसा नहीं कहा है, किलो २ प्रति में अर्थ करने वालाने ऐसा अर्थ लिखा है सो जिन मांत से विरुद्ध हैं, अव्वल तो समुचै पाठ से यह अर्थ नहीं होसक्ला किन्न पुन्ने कहा तो अन्न सचित हो या ऋचित हो लेने वाला सुपात्र हो या कुपात्र हो अन्न के देनेसें हीं पुन्योपार्जन होता है यदि न पुने का उपरोक्त अर्थ समझा जाय तो उवाध्ययन में कहा है वंदना करनेसे नीच गोत्र को क्षय करिकै ऊंच गोत्र को बांधे, तो फिर इस जगह भी ऐसा लमझना चाहिए कि सबको वंदना करने से नोंच गोत्र क्षय होके ऊंच गौत्र का बंध होता है क्योंकि उस जगह भी किसी का नाम नहीं कहा है, और वैयावच करिनेस तिर्थकर गोत्र बांधै ऐसा कहा है तो इसका अर्थ भी वही हुषा कि सबको वैयावच करनेसे उत्कृष्ट भांगे तिथंकर गौत्र बंधता है, किन्तु नहीं नहीं नाम न श्राने से ये अर्थ कदापि नहीं हो सक्ता है, यहो क्या समुचे बोलतो शास्त्रों में अनेक आये हैं परंतु निरविवे: को जीवों को यथा तथ्य समझ नहीं पडती है इसलिए अर्थ की जगहें अनर्थ करिके जिन आज्ञा बाहर का कर्तव्य से धर्म पुन्य प्ररूपते हैं, परंतु विवेकी जांघों को विचारणा चाहिए कि ज्यो क्षेत्र सचित अचित सकल को दिये पुन्य होतो देखे हीं पाती.
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. (७७).
सब को पाय पुन्य हुश्रा तथा ऐसे ही लैण कहिए जगहें जमीन सैण कहिए सयन पाटयाजोटा श्रादि, वत्थ कहिए वस्त्र भी सकल. को दिये पुन्य हुधा तो सकल में बेस्यां कलाइ आदि सब जाव आगये तो फिर उनकी श्रद्धासें तो किसी को किसही तरह की वस्तु देनसे पुन्यही होता है किन्तु देनेसे पाप तो होता ही नहीं। है सब को देनेके परिणाम अच्छेही है, तो फिर यही क्यों जैसा अन्न पुन्य समुचै है वैसाही मन पचन , काया पुन्य भी समुच ही है. मन भला प्रबते तोभी पुन्य और बुरां प्रवत्तें तोभी पुन्य वचनसे. प्रियकारी कहे तोभी पुन्य और कुबचन गाली गलोच आदि वो.' लैं तोभी पुन्य, और काया भली प्रबर्तावै तोभी पुन्य तथा बुरी प्रवर्तीव तोमी पुन्य तो फिर काया से जीवन मारे.तो पुन्य और मारे लोभी पुन्य, क्योंकि उस जगहें तो भली चुरी का नाम नहीं: कहा है सिर्फ इतनाहीं कहा है काया पुन्ने, यहि क्यों फिरतोनमस्कार पुन्य भी ऐसहीं समझाना, कि कुत्ते कन्वे बेस्यां कसाई आदि सब जीवों को नमस्कार करनेसें पुन्योपारजन होता है । परंतु नहीं २ऐसा नहीं समझना चाहिए, सतपुरुष और गुणी जनों को ही बंदने से पुन्य होता है निरगुणी कुपात्रों को बंदना : करनेसे तो पापही होगा, ऐसे ही मन वचन काया भली.परे निरखद्य कर्त्तव्य में बरतने से पुन्य होता है परंतु सावध जिन प्राक्षा : बाहर का मन बचन काया के जोग बरताने से पुन्य बंध नहीं होता पापही का बंध है, नवों ही बोलों को इसहीमाफिक समझना चाहिए । जैसे मन बचन काया के जोग सावध वरताने से पुन्य नहीं बैले ही अन्न पानी सचित देनेसे पुन्य नहीं । जिसकार्य की जिन श्राशा है वोहकार्य निर्वद्य है और जिस कार्य की जिन श्राशा नहीं वो कार्य सावध है, सावध कार्य से कदापि पुन्य नहीं बंधता है सावध से तो पापही का बंध है, मवाही प्रकार जिन श्राक्षा माहि और निरवंद्य हैं, साधूमुनिराजो को कल्पै सोही वस्तु इस जगहै बताई है यदि सकल जीवों को देने से पुन्योपारजन होता तो परिग्रह पुग्ने भी कहते श्राभूषण तथा गाय भैंस . मादि अनेक वस्तुवों का नाम बतलाते, परंतु पतला फैसे परि.
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(७८) ग्रंहादि अनेक बस्तुयोंके देने से पुग्य.कदापि नहीं होता है साधू बिना संसारी जीवोंको देना लेना संसारिक व्यवहार तथासापथ कञ्चन्य है जिसकीोजिनेश्वर तथा पंच महाव्रत धारी शुद्ध साधू. आक्षा नहीं देते हैं और प्राज्ञा पारका कर्तव्यों से धर्म पुन्य नहीं होता है, जिन आक्षा बाहरका दानसे तो पापही होता है, संसार में संसारी जीष परस्पर अनेक तरह से देन लेन करते कराते हैं परन्तु संसारिक मार्ग है मुक्ति मार्ग नहीं है। प्रियवरो पुन्य है सो शुभ कर्म है और कर्म है सा मुक्ति पदको बाधा देने घाला है पुन्य पाप दो को क्षय करने से मुक्तिपद मिलता है, पुन्यके सुख तो कारमें है विनाल रोते देर नहीं लगती है इसलिए यदि ज्यो तुम्हें भवोदधि से पार उतरना है तो पुन्यको पान्छा मत करो निकेवल मोठाभिलाषी होके मिरवध करणी करों जिससे पूर्व संचित पाप कर्मोंकी मिरवरा होके सिवपद जलद पावोगे; सम्बत् अठारह सह तयांलीस की सालमें कार्तिक सुदि चौथ गुरुवार को पुन्य निपजने का उपाय ढाल जोडके स्वामी श्री भीखनजी मेवाड देशान्तरगत कोठारचा प्राम में कहा है। इति पुन्योपारजनको करणी की दालका भावार्थ मैंने मेरी तुच्छ बुद्धया 'नुसार किया है इसमें कोई अशुदार्थ आया हो इसका मुझे नि. विध २ मिच्छामि दुकडं है।
श्रापका हितेच्छ
श्रावक गुलाबचन्द लूणिया ॥अथः चतुर्थम् पाप पदार्थम् ॥
॥दोहा॥ - पाप पदार्थ पांडवो, ते जीवने घणों भयंकार । ते घोर रुद्र निहामणो, जीवन दुःख तणो दातार ॥१॥ ते पापं तो पुद्गल द्रबछ, त्यांने जीव लगाये
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(.७६) ताम । तिणसे दुःख उपजै जीवनें. त्यांरीपापकर्म छै नाम ॥ २॥ जीव खोटा २. कर्तव्य कर जब पुदगल लागे ताम । ते उदय हुां दुःख उपजे, ते श्राप कमाया काम ॥ ३॥ पाप उदयथा दुःख हुबै जब कोई मत करिज्यो रोस । किया जिसा फल भोगवै, पुदगलनों नहीं दोस ॥४॥ पापकर्म ने करणी पापरी, दोनू जुदी २ छै ताम । ते यथा तथ्य प्रगट करूं, सुणिज्यो राखि चित ठाम ॥शा
॥ भावार्थ ॥ नष पदायों में पाप पदार्थ चौथा है सो पाडवा कहिए अत्यंत खराव है, जीव को भयकारी और दुःखोका दायक है, पाप है सो पुद्गल प्रग्य हैं जीष उन्हे अशुद्ध कर्तव्य करिके लगाता है उदय मानेसे अनेक प्रकार से दुःखी होताहै तो पाप मयी पुद्गलों का दोष नहीं समझना चाहिए क्यों के पापका कमाया हुमा काम है जैसा किया वैसा भोगनाहीं पड़ेगा हिन्सा झूट चोरी आदि कर्तव्यों से अशुभ पुद्गल जीष के लगते हैं उन पुद्गलोका नाम पाप कर्म है और ज्यों कर्तव्य किया वो पापको करणी है जीषके परिणामहै इसलिये पाप और पापकी करणी अलग २ है जिसे यथार्थ प्रगट करिके कहते हैं सो एकाग्रचित करिके सुनो। .
॥ढालं॥ ॥ या अनुकम्पाजिन अाज्ञामें एदेसीमें।
घणघातिया च्यार कर्म जिन भाख्या। ते श्राम पडल बादल जिमजाणं ॥ त्यां निजगुन जीवत:
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(७०) णा ते बिगोड्या चिंदबादल ज्यू जीव कर्म ढंकाएं। पाप कर्म अंतः कर्ण श्रोलखीजे ॥ १ ॥.ज्ञाना. बरणीने दरिशनाबरणी । मोहनीय नें अंतरायछै तांम जीवरागुन जेहवा २ विगाड्या । तेहवा २
छै कीरानाम ।। पा॥२॥ ज्ञानाबरणी कर्मज्ञान 'नाबादे । दरिशना बरणी दरिशन श्रावादे नाहि ।। मोहनीय जीवनें करै मतवालो ॥ अंतराय पाछी बस्तु बाडी छै ताहि ॥पा ॥३॥ ये कर्म तो पुद्गलरूपी चौस्पर्शी । त्यांने खोटी करणी करि जीव लगाया । त्योरे उदय जीवरा खोटा नाम । तेहवाहि खोटा नाम कर्म कहाया ॥पा ॥ ४ ॥ यां च्यार कर्मारी जुदी २ प्रकृति । जुदा २ छै त्यांरा नाम ॥ त्यांसें जुवा २जीवरा गुण अटक्या त्यारो थोडोसो विस्तार कहुंछु ताम ॥ पा ॥ ज्ञानावरणी .री पांच प्रकृतिछ । तिणसू पांहीं ज्ञान जीवनहीं पावै । मति ज्ञानावरणी मति ज्ञानरै बाडी । श्रुति ज्ञानावरणी श्रुतिज्ञान न श्रावै ।। पा॥६॥ श्रव. धि ज्ञानाबरणी अवधिज्ञान ने रोकै । मन परयाय.वरणी मन पर्यायरे श्राडी ।। केवल ज्ञानावरणी के वलज्ञान ने रोके । यां पांचांमें पांचमी प्रकृति जाडी
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(६) ॥ पा॥ ७ ॥ ज्ञानाबरणी कर्म क्षयोपस्म होवे । जवतो पामें छै जीव च्यार ज्ञान । केवल ज्ञानावरणी क्षयोपस्म न होवै । या तो क्षय हुश्रां पामें छै केवल ज्ञान ॥ पा ॥८॥ दरिशनावरणी कर्मरी नव प्रकृति छै । तेतो देखवा ने सुणवादिक अाडी। जीव ने जावक करदेवं आंधो । त्यांमें केवल दरिः शनाबरणी सबमें जाडी पाVE|चक्षु दरिंशना बरणी कर्म उदयसुं। चतुरहित होवै अंध अयाण ।। अवतु दरिशनाबरणी कर्म रैजोगै च्यारूं इंद्रिया री पडजाय हांण ॥ पा॥१०॥ अवधि दरिशनां वरणीय कर्म उदयसें, अवधि दरिशण पामें नहीं जीवो। केवल दरिशना बरणीय कर्म प्रसंगे, उपजै नहीं केवल दरिशण दीवो ॥ पा ॥११॥ निद्रा सूतो सुखे जगायो जागै छै, निद्रा २ उदय दुःखे जागै छै ताम । वैठा ऊभां जीवनें नींद ज श्रावै, तिथा नींद तणों छै प्रचला नाम ॥ पा ।। १२ ।। प्रचला २ नींद उदय से जीवनें, हालता चालतां नींद ज पावै । पांचमी नींद छै कठिन थीणोदी, तिण नींदसें जीव जावक दब जावै ॥ पा ॥१३॥ पांच निद्रा ने च्यार दरिशनावरणी थी, जीव अंध
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'जायक नसूझै लिगारो । देखवा सरी दरिशना चरणी कर्म; जीवरै जावक कीधो अंधारो पा। ॥ १४ ॥ दशिनावरणी क्षयोपस्म होवे जब, तीन क्षयोपस्म दरिशन पामें ते जीवो । दरिशनावरणी सर्व क्षय हुयां थी, केवल दरिशन पामें 'ज्यूं घट दीवो ॥ पा ॥ १५॥ तीजो घण घाति 'यो मोह कर्म छै, तिणरा उदयसुं जीव हु। मत. वालो । सूधी श्रद्धारै लेखै मृढ मिथ्याती, मांग, कर्तव्यरो पिण न हुवै टालो ॥ पा ॥ १६ ॥ मो. हनीय कर्मनां दोय भेद कद्या जिन, दरशन मोहनीय चारित्र मोहनीय कर्म । इण जीवरा नि. ज गुण दोनूं बिगाडया, येक समकित ने दूजो चारित्र धर्म ॥ पा ॥ १७ ॥ दरिशन मोहनीय' उदय हुबै जब, शुद्ध समकतीरो जीव होवै मि. स्थ्याती। चारित्र मोहनीय कर्म उदय जब, चारित्र खोय हुवै छकायारो घाती॥ पा॥ १८॥द. रिशन मोहनीय कर्म उदय हुवां सुं, शुद्ध श्रद्धा 'समकित नहीं श्रावै । दरिशनं मोहनीय उपस्म
हुवै जब, उपस्म समकिंत निरमल पावै ॥-पा॥ *॥ १६ ॥ दरिंशन मोहनीय जावक क्षय होयां, जब
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चायक समकित सास्वती पावै । दरिशन मोहनीप: चयोपस्म हुवे जब, क्षयोपस्म समकित जीवने श्रावै पा ॥ २० ॥ चारित्र मोहनीय कर्म उदय सुं, सर्व व्रत चारित्र नहीं श्रावै, चारित्र मोहनीय उपस्म हुयां सें । उपस्म चारित्र निरमल पावे ||पा || ॥ २१ ॥ चारित्र मोहनीय जाबकक्षय होयां, तायक चारित्र श्रावै श्रीकार | चारित्र मोहनीय क्षयोपस्म हुयांथी, क्षयोपस्म चारित्र पामें जीव प्यार || पा||२२ जीव तथा उदय भाव निप्पन्ना, तैतो कर्म तणां उदय सें पिछायो । जीवरा दायक भाव निप्पन्ना, ते कर्म तयांचायक से जाणो || पा || २३ || जीव तया क्षयोपस्म भाव निष्पन्ना, ते कर्म तो तयोपरम ताम । जीवरा उपस्म भाव निष्पना, ते उपस्म कर्म हुयां से नाम || पा ॥ २४ ॥ जीवरा नेहवा २ भांव निप्पना, ते जेहवा २ है जीवरा नांम | नांम पाया कर्म त संजोग बिजोग, तेहवा हिन ज कर्मोश नांम है ताम ॥ पां ॥ २५ ॥ ॥ भावार्थ ॥
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ज्ञानावरणीय दरिशनावरणीय मोहनीय अंतराब ये प्यार घातिक कर्म है येह एकान्ति पाप हैं इन्होंने जीवके निज गुलौकी घात किया है इसलिये इन्हें घातिक कर्म कहते हैं, जैसे भांकाल
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(६) मैं बादलों से चंद्रमा ढक जाता है तव उद्योत योहत कम होजाता. है वैसे ही कर्मों मयो यादलों से जीवके ज्ञानादिक गुन ढक जाते हैं सो कहते हैं। ज्ञानवरणीय अर्थात् शानके प्राडी पायरणी जिस से जीवका ज्ञान गुन वाहुधा है, ऐसही दरिशना परणीय, दरिशन गुनके श्राडी है, मोहनीय कर्म से जीष मतवाला होके मि. स्थ्यात्व में प्रवर्तता है और शुद्ध श्रद्धारूप गुनकालोप होता है तथा जीवके प्रदेशों को चंचल करिके कर्म प्रहण करता है जिससे चा. रित्र गुन उत्पन्न नहीं होता, और अंतराय कर्म से जीवका चिर्य गुन दयाहाहै जिससे अच्छी २ वस्तु नहीं मिलती है ये च्यारों कर्म पुद्गल, रूपी और घ्यार स्पर्शीहें इन्हें जीव खोटी करणी करिके लगायाहै जिन्होंके उदय से जीव भी खोटा २ नाम पाता है जैसा २ गुन जीव के इनसे रुके हैं धैसा ही इनके नाम ज्ञाना अरणीय फर्म की पांच प्रकृति, अर्थात् पांच प्रकार से जीव का ज्ञान गुन दयाहै, मतिज्ञानावरणीय से मतिज्ञान श्रुतिज्ञानापरणीय से श्रुतिज्ञान अवधिशानावरणीय सें अवधिज्ञान मनपर्यघ ज्ञाना. वरणीय लें मन पर्यवज्ञान और केवल ज्ञानावराय से केवल ज्ञान अर्थात् सम्पूर्णज्ञान वाहुआहै, ये ज्ञानावरणीय फर्म कुछ क्षय . और कुछ उपस्म होय तल जैसी २ कर्म प्रकृतिका क्षयोपस्म होने से पैसाही ज्ञानोत्पन होताहै, यथा मति श्रुतिज्ञानावरणीय का जितनाही.क्षयोपस्म हो उतनाही निरमल मति श्रुतिज्ञान उत्पन्न होताहै ऐसेही अवधि तथा मनपर्यषको जानना अर्थात् ज्ञानावरः गीय कर्मकी ज्यार प्रकृतिका क्षयोपस्म होनेसे जीव च्यार क्षयोः परम ज्ञान पाता है, और केवल ज्ञानावरणीय का क्षयोपस्म नहीं होता, नायकही होताहै जिसके क्षय होनेसे केवल ज्ञानोत्पल होताहै । ऐसही दरिशनावरणीय कर्मकी नव प्रकृतिहैं सो नेत्रों देखमा तथा सुनना श्रादिको रोकतीहैं चतुदरिशनावरणीय के उदय से अंधा होता है, अचलू दारशनाबरणीय के उदय संघा विना व्यार इन्द्रियों का गुन सुननी श्रादि की हानि होती है, अवधि दरिशनावरणीय के उदय से अवधि दरिशन नहीं पाता है, और केवल दरिशनावरणीय.से केवल .दरिशन नहीं उत्पन्न होता है, तथा पांच प्रकार की निद्राभी दारिशनावरणीय कर्म के
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(८५) • उदय से है सो कहते हैं, निद्रा अर्थात् जिस नींदवाले को जगाते साथ हो सुख से जागता है, दूसरी निद्रा निद्रा जिसकी कुछ छेड छाड करने से दुःख से जागता है, तीसरी निद्रा का नाम प्रचला है, सो बैठे को या ऊभे हुए को प्राती है, चौथी प्रचला प्रचला . घोचालते हालते हुए को भाती है, और पांचमी नींद जिसका नाम थिणोनी है वो अतिकठिन निद्रा है उस निद्रा वाले को उ... स समय बहोत ताकत श्राजाती है पो निद्राधाला उस नींद में अनेक काम करि आता है तथा सैंकडों मन वोझ उठासज़ा है। ये नव प्रकृति दरिशनावरणयि कर्म की है, दारशनाबरणी नामा . पाप कर्म ने जीवका देखने का गुन दबाया है, इसका क्षयोपस्म होने लेंजीव पांचहन्द्रिय और चतूदरिशनचक्षूदरिशनरभवधि दरिशन३ ये आठ बोल पाता है और सर्वथा क्षय होनेसे केवल दरिशन . पाता है। तीसरा धन घातिक पाप कर्म मोहनीय है जिसके नदय से मतवाला याने अव्यक्त होके मित्थ्या प्ररूपना करता है तथा उससे अशुद्ध कर्तव्य का टाला नहीं होता है अर्थात् जिन आशा . वाहरकी करणी में लिप्त रहता है, समकित मोहनीय सें सम्यक्त्व नहीं स्पर्शती, और चारित्र मोहनीय में चारित्र गुन याने संयमी नहीं होता तथा छै जीवनी काय की हिन्सा में रक्त रहता है । दरिशन मोहनीय को उपस्माने से अर्थात् दबाने से, जीव उपस्म समाकित पाता है, क्षय करने से क्षायक समकित शंका फंखारहि'त ज्यो सास्वती है सो पाता है, और क्योपस्म होने सें. क्षयोपसमानुसार क्षयोपस्म समाकित पाता है । चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से सर्व व्रत चारित्र नहीं होता है, उपसमांन से उपस्म चारित्र निर्मल पाता है, सर्वथा क्षय होनेसे क्षायक चारित्र होता है, और क्षयोपस्म होने से यथाक्षात चारित्र बिना बाकी च्यार चारित्रों की प्राप्ती होती है । तात्पर जीवके ज्यो उपस्प भाष नि. पन्न हुए सो मोहनीय कर्म को उपस्माने से है, क्षायक भाष निरूपन्न हुए सो फर्मों को क्षय करने से, और क्षयोपस्म भाव मिष्प- .
हुए सो च्यार घातिक कर्मों को क्षयोपस्माने से होता है, . जीवके जैसे जैसे भाप कर्मों के संयोग वियोग से निष्पन्नहोते हैं । पैसा २ ही वाम जीपका है, और घोही नाम कमाँ का है।: . . .
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. ॥ ढालतहिज ॥ ..... ... चारित्र मोहनीय तणीपचीस प्रकृतिछे, त्यां प्रकृ. ति तणांछ जुवा २ नाम । त्यांरा उदयसे नाव तणा नाम तैहवा, कर्म, जीवरा जुदा २ परिणाम ॥ पा॥ २६ ।। जीव अत्यन्त उत्कष्टो क्रोध करे . जब, जीवरादुष्ट घणां परिणाम । तिणनें अनन्ता. नु बंधीयो क्रोध कहयो जिन, ते कषाय पातमांछै जीवरो नाम ॥ पा ॥२७॥ जिणरा उदयसें उत्कष्टों . क्रोध करैछै, ते उत्कष्टो उदय श्रायासं ताम । ते . उदय श्रायाकै जीवरा संच्या, त्यांरो अनन्तान बंधीयो क्रोध नाम ॥ पा॥२८॥ तिथी ": कांइक थोडो अप्रत्याख्यान क्रोधछ, तिणथी कांई येक थोडो प्रत्याख्यान । तिणथी कांयेकथोडो सं
जल कोध, या क्रोधरा चौकडी. कहीं भगवान ।।पा • ॥ २६ ॥ इण रीते मानरी चोकडी कहणी, माया ने लोभरी चोकडी इमजाणो, व्यार चौकडी प्रसंगे. कारी नाम, कर्म प्रसंग जीवरानाम पिछाणो ॥पा॥३०॥ जीव क्रोध करें क्रोधरी प्रकृति से, . मान. कर मानरी प्रकृतिसें ताम । माया कपट करें। मायारी प्रकृतिसं, लोभ कर लोभं प्रकृतिसें श्राम )
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पा॥३१॥ क्रोधकरै तिणसूंजीव क्रोधी कहायो, उदय पाई ते कोपरी प्रकृति कहाणी । इणारीतें मान मायाने लोभ, याने पिण लीज्यो. इणरीत पिछाणी ।। पा॥ ३२ ॥ जीवहसे हांस्यरी प्रकृतिसँ रति परति प्रकृतिसूं शति अरति वधारै । भय प्रकृति उदयजीव भय पामै, सोग प्रकृति उदय जीव ने सोग श्रावै ॥ पा ॥ ३३ ॥ दुगंश श्राचे दुगंछारी प्रकृतिस, स्त्रीवेद उदयसें बधै विकार, तिणने पूरुपनी अभिलाषा होवे, पछ होतां २ हुवै बहोत बिगार।पा॥३४॥ पुरुष वेदोदय स्त्रीनी अभिलाषा, 'नपुंसक बेदोदय दोरी चहाय । कर्म उदयसें बेदी नाम कहयो जिन, कर्माने पण बेद कहया जिन. 'राय ॥ पा ॥ ३५॥ मित्थ्यात उदय जीव होवै मिथ्याती, चारित मोह उदय जीव होथैः कुकर्मी इत्यादि मांग २ जीवरा नाम, अनारजने बलि हिन्सा धर्मी ॥पा॥३६॥ चौथो घनघाती अंत
राय कर्म छै, तिणरी प्रकृति पांच कही जिन ताम - ये पांच प्रकृति पुदगल चो स्पर्शी, त्यां प्रकृतिरा?
जुवा २ नाम ॥4॥३७॥ दाना अंतरायकै दानरै पाडी, लांभा अंतरायसु बस्तु लाभः सकै नाहीं।
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(६८) ज्ञान दरिशन चारित्र तप लाभ न सके वले लाभ न सकै शब्दादिक काई ॥पा॥३८॥ भोगाअंतराय कर्म उदयसें, भोगमिल्या भोग भोगवणी न श्रावै । उपभोग अंतराय. कर्म उदयसं, उपभोग मिल्या ते भोग्या नहीं जावै ॥ पा ॥३६॥ वीर्य अंतराय कर्म उदयथी, तीनही बीर्य गुणा हींगा थावै उठाणादिक हीणां थावे पांचूँही, जीवरी सक्ति जावक घट जावै॥ पा॥४०॥ अनन्त वल प्राक्रम जीवतणों छ, तिणने येक अंतराय कर्म घटायो। कर्म में जीव लगायो जव लाग्यो, आपरो कियो आपतणे उदय प्रायो॥पा॥ ११॥ पांचूं अंतराय जीवतणां गुणदाच्या, जेहवागणदाव्या तेहवा कर्मारानाम । ये तो जीवरै प्रसंगै नाम कौरा, पिण स्वभाव दोनांरा जुदा २ ताम ॥ पा ॥४२॥
॥ भावार्थ ॥
मोहनीय कर्म के दो भेद हैं जिसमें दरिशन मोहनीयं की ३ प्रकृति और चारित्र सोहनीय को २५ प्रकृति है सो जैतीरप्रकृति उदय पाती है उसवल वैसाही नाम जीव का ओर वैसाही नाम उन प्रतियों का है जैसे अनन्तानुचंधीया क्रोध की प्रकृति उद , य आई तव जीव अत्यंत क्रोधातुर होके दुष्टकार्य करता है यह क्रोध जावजीव पर्यंत रहता है इसके उदय में सम्यक्त्व चारित्र । का सर्वतः अभाव है, उदय आई सो प्रकृति अजीव है और उस
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प्रत्याख्यानी
are alive आत्मा जीव हैं सही तरह अनन्तानुवधिया मान माया और लोभ जानना, जिससे कुछ कम • चौकडी जिसके उदय में प्रत्याख्यान अर्थात् पचख्खान याने चा रित्र का अभाव है, जिससे कुछ फस प्रत्याख्यान की चोकडी जि सके उदय में सर्व व्रत चारित्र का अभाव है, और जिससे कम संग्वल का क्रोध मान माया लोभकी चोकडी है जिसके उदय में क्षायक चारित्र यथाक्षात संयम का अभाव है यह सोलह (१६) कषाय है इनके उदयसे जीव का नाम कषायी अर्थात् कषाय श्रा त्मा है, तात्पर क्रोध प्रकृति से जीव क्रोधी मान की प्रकृति से मानी, माया की प्रकृति से मायी और लोभ की प्रकृति से लोभी कहलाता है, अव बाकी नव प्रकृति रही सो कहते है हांस्य प्रकृति के उदय से जीव को हास्य आता है, रति प्रकृति से प्रिय पुद्गलादि से रति होती है, अरति की प्रकृति से अमिय पुद्गलादि से अरति होती है, भय प्रकृति से भय होता है, सोग प्रकृति से लोग, और दुगंछा प्रकृति से विदगंछा आती है स्त्रीवेद उदय से जीय स्त्रीवेदी हो के पुरुषकी श्राभिलाषा पुरुष बेदके उदय से पुरुष वेदी होके खोकी अभिलापा करता है, और नपुंसक वेदके उदय से नपुंसक बेदी होके दोनूं की अभिलाषा करता है । मिथ्यात्व के उदयसे जीव मित्थ्यात्वी होता है और चारित्र मोहनीय के उदय से जीम कुकरमी हिन्सा धर्मी होता है । चोथा घनघातिक अंतरा
कर्म है सो जिसकी पांच प्रकृति है सो तो च्यार स्पर्शी पुद्ग• लों का पुत्र है जिन्हों के उदय से जीवके जैसे २ गुन दबे हैं वैसे ही प्रकृतियों का नाम है- दाना अंतराय से दानी परों का गुन दधा है, लाभान्तराय से वस्तु का लाभ नहीं होता है तथा ज्ञाम दरि० शन चारित्र तपका लाभ नहीं होता है अथवा शब्द बणे गंध रसस्पर्श का भी लाभ नहीं होता है, भोग अन्तराय कर्मोदय से मिले हुवे भोग भी भोगे नहीं जाते हैं, उपभोग अन्तराय कर्म के उदय से मिले हुये उपभोग भी नहीं भोग संक्ता है, धीयं अंतराय कर्म उदय से तीनूं वीर्य उठाए कम्मवल वीर्य पुर्णकार प्राक्रम की हानी होती है, तथा अत्यंत निर्बल होजाता है, अनन्त वल प्राक्रम जीव के हैं उन्हें सिर्फ अंतराय फर्म ही घटाया है जैसा जीवात्मा फर्म
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बांधेगा वैसा हः उदय श्रावेगा, जीवके दान लाम भोग उपभोग वीर्य इन पांचूं गुनों को तय कर्म दबाया है वैसा ही नाम इस अंतराय कर्म का है परंतु स्वभाव दोनूं का अलग २ है जीवके गुन जीव है और अंतराय कर्म अजीव है जिसका गुन जीव के अन्तराय देनेका है । तात्पर ज्ञानायरणी दरिशना वरणी मोहनीय अंतराय यह च्यार कर्म एकान्ति पाप कर्म है अजीव है, जिन्हों के उदय से जीव के ज्ञान, दारिशन, सम्यक्त्व चारित्र, वीर्य, यह च्या गुनों की घात हो रही है याने दवे हुए हैं इससे इनका नाम घातिक कर्म है । चाकी च्यार कर्म अघातिक अर्थात् उपरोक्त अनन्त चतुष्टय की घात इन च्यारों से नहीं होती ये च्यारों कर्म पुन्य पाप दोनों हैं जिस में पुन्य का वर्णन तो पुन्य पदार्थ में कह ही दिया है अव पाप का वर्णन कहते हैं।
॥ ढालतेहिज॥ व्यारघन घातिया कर्म कह्या जिन, हि अघातिया कर्म छै वलि च्यार ! त्याने पुन्य पाप दो। कह्या जिन, हिव पाप तणुं कहुं छू विस्तार । पा ॥ ४३ ।। जीव असाता पावै पाप कर्म उदय से, तिण पापरो साता बेदनी नाम 1 जीवरा संच्या जीवनें दुःख देवे, असाता बेदनी पुद्गल परिणाम ॥ पा ॥ ४४ ॥ नारकीरो आउषो प्रापरी प्रकृति, केई तिर्यंचरो श्राउपो पिण पाप । असन्नी मनुष नें केई सन्नी मनुपरो, पापरी प्रकृति दीसै छै विलाप ॥ पा ॥४५॥ ज्यारो पाउषो पाप कटो
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है जिनेश्वर; त्यांरी गतिनें अनुपूर्वी दीसे हैं पाप त्यांरी गति नैं अनुपूर्वी दीसे उषा लारे, इरो निश्चय जाणै जिनेश्वर श्राप || पा ॥ ४६ ॥ व्यार संघयण में जे हाड पाडवा, ते अशुभ नाम कर्मोदय सें जाणो । च्यार संठाण में श्राकार भंडा ते, अशुभ नाम कर्मोदय मिलया श्राणों ॥ पा ॥ ४७ ॥ शरीर उपांग बंधण संघातण, त्यांमें केई कां मांठा अत्यन्त जोग । ते पण अशुभ नाम कर्म उदय से, ऋण गमता पुद्गलांगे मिलयो संजोग || पा ||४८ || चरण गंध रस स्पर्श मांठा, मिलिया, तेण गमता ने अत्यन्त प्रयोग । ते पिण अशुभ नाम कर्म उदय से, एहवा अशुभ पुद्गलांगे मिलियो जोग || पा ॥ ४६ ॥ थावर नाम कर्म उदय थावर दसको, तिरा दसकारा दस बोल पिछाणों । ते नाम उदय छै जीवरा' नाम, तेहवा हिज नाम कर्मीरा जाणो ॥ पा । ५० ॥ थावर नाम उदय जीव थावर कहा, तिण से श्रा घो. पाछो सरकणी नहीं श्रावै । सूक्षम नाम उदय जीव. सूक्षम हुत्री है, सूक्षम शरीर सघल नान्हो पावै ॥ पा । ५१ ॥ साधारण नामसं जीव हुत्रो
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(१) साधारण, येकण शरीर में रहै अनन्तातांम,अपर्याप्ता नाम से अपर्याप्तो मरै छै, तिणसू अपर्याप्तो छै जीवरो नाम ॥ पा॥ ५२ ॥ अथिर नाम से जीव अथिर कहाणो, शरीर अथिर जावक ढीलो पावै। दुम नाम उदय जीव दुभ कहाणो तिणसूं नाभि . नीचे शरीर पाडवो थावै ॥ पा॥ ५३॥ दुःभाग्य नाम थकी जीव हुवो दुःभागी, अण गम.तो लागे नगमेंलोकांना लिगार। दुःस्वर नाम थकी जीव हवे दुःस्वरियों, तिणरो कंठ अशुभ नहीं श्रीकार ॥पा ॥ ५४ ॥ अणादेन नाम कर्म उदयपी, तिणरो बचन कोई न करें अंगीकार । अंजस नाम कर्म थी हो वै अजसियो, तिणरो अजस . बोले लोक बारम्बार ॥ पा ॥ ५५ ॥ अपघात नाम कर्म उदयथी, पैलो जीते श्राप पामें घात । दुःभगई नाम कर्म संयोगें, तिगरी चाल दीठी किणहीने नाहिं सुहात ॥५६॥ नीच गौत उदय नीच हु लोक में, ऊंच गौत्र तणां तिणरी गिणे छै छोत । नींच गौत्र यकी नीव हर्ष न पामें पोतारो संच्यो उदय प्रायो नीच गौत ॥ पा . ॥ ५७ ॥ ए पाप तणी प्रकृति अोलखावण, .
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( ६ ३ )
जोड कीधी श्रीजी द्वारा सहर मंकार । सम्बत् अठारह पचावन वर्षे, जेठ सुदी त्रतिया गुरुवार ||पा ॥ ५८ ॥
॥ इति पाप पदार्थ ॥ ॥ भावार्थ ॥
·
sure कर्म निकेवल पाप और घमघातिक है उनका पर्सन तो ऊपर कियाही है अब प्यार कर्म पुन्य पाप दोनों हैं सो जिस में से पाप का वर्णन करते हैं, जीव पाप के उदय से श्रसाता बेदता है जिस पाप का नाम असाता वेदनी कर्म है वोह पुद्गल हैं - साता बेदनी कर्म पणे परिणमें हैं इसही लिये उन पुद्गलों का नाम असातावेदनी पाप कर्म है, तथा ज्यों श्रायुष्य पण परिणमें उन पुद्ग
का नाम श्रायुष्य कर्म है आयुष्य व्यार प्रकार का है नारकी का आयुष्य पाप प्रकृति है तथा पृथिव्यादि पंचस्थावर और बेन्द्री सेन्द्री चौरिन्द्र का श्रायुषा पाप प्रकृती है कितनेक तिर्यच पंचद्री का भी आयुष्य पाप की ही प्रकृति है और सन्नी मनुष्य तथा कितनेक सन्नी मनुष्य का श्रायु कर्म भी पाप प्रकृति जान पडता है जिसका आयुष पाप प्रकृति है उनकी गति वा अनुपूर्वी भी पाप की ही प्रकृति है क्योंके ज्यो आयुष्य पाप प्रकृति है तो गति अनुपूर्वी भी उसके साथही है फिर निश्चय तो श्री जिनेश्वर देव कहें वो सत्य है, तथा व्यार संघयण में ज्यो ज्यो खराब छड़िये वा व्यार संस्थान में ज्यो ज्यो खराब श्राकार है वो अशुभ नाम कर्मके उदयसे हैं, और ज्यो शरीर तथा अंगोपांग वंधण संघातन में कितने कोंके खराब खराब श्रमनोग्य पुद्गल है सो भी अशुभ नाम कर्म के उदयसे हैं, और ज्यो २ कुबर्ण कुगन्धरस कुश्पर्श आदि अमनोग्य मिले हैं सोभी अशुभ नाम कर्म का ही उदय है, तथा स्थावर का दसक अर्थात् स्थावर के दस बोल हैं बो भी अशुभ नाम: कर्म का उदय है सो कहते हैं
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१-स्थावर नाम कमे के उदय से जीव स्थाघर होता है जिस से
स्पर्श इन्द्री विना बाकी च्यार इन्द्रियां न पाके चलने फिरने
को असमर्थ होता है। २-सुक्षम नाम कर्म के उदय से जीव सुक्षम शरीरी होके अत्यंत
छोटा शरीर पाता है। ३-साधारण नाम कर्म के उदय से जीव ऐसा शरीर पाता है कि
अत्यन्त छोटा येक शरीर में अनन्ते जीव रहते हैं। ४-अपर्याप्ता नाम कर्म के उदय से जीव पूर्ण पर्याय न पाकर
अपर्याप्त अवस्था में ही मरण पाता है। ५-अथिर नाम कर्म के उदय से जीव अथिर कहलाता है जिस
से निरबल ढीला शरीर पाता है। ६-दुभ नाम कर्म उदय से जीव दुभागी होता है जिससे दूसरे
को अप्रिय लगता है। ७-दुखर नाम कर्मोदय से जीयके खर याने कण्ठ खराव बेखरे
होते है। -अशाहिज नाम कोदय से श्रादेज बचनी न होके करवोली
होता है जिसका यचन कोई अंगीकार नहीं करते हैं। है-अस नाम कर्म के उदय से जीव अजसिया होता है जिस
की सोभा कोई नहीं करता है कोई अच्छा काम भी करे तो: · भी अपजस ही होता है। १०-अपघात नाम कर्मोदय से दूसरे के मुकाबले में हार होती है।
तथा दुभगई नाम कर्म के उदय से चलना फिरना ऐसा खराव कि किसी को अच्छा नहीं लगता है, और नीच गोत्र कर्म पाप के उदय से जीव नीच गोत्र से उत्पन्न होता है ऊंच गोश वाले उसकी छोत समझते हैं, तात्पर यह है कि पाप है सो अशुभ कर्म है कर्म है वो पुद्गल है उन्हें जीव जिन प्राशाबाहर की करणी करके लगाता है तव जीवके अशुभ पणे उदय आने सें. जीव दु:खी होता है, नव पदार्थों में चोथा पदार्थ पाप है जिसकी श्रोलखना के लिए स्वामी श्री भीपन-जीने नांव द्वारा नगर में ढाल
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( ५) मोडी है सम्बत् श्रठारह सय पचावन की साल में जेष्ठ सुद तीज गुरुवार को जिस का भावार्थ मैने मरी तुच्छ चुद्धि प्रमाण कहा है इस में कोई भूल रहा हो उसका मुझे सर्वथा मिच्छामि दुकडं है।
आपका हितेच्छू श्रा० गुलाबचंद लूणीयां ।
॥दोहा॥ श्राश्रव पदार्थ पांचों । तिणने कहिजे श्रा. श्रव द्वार ।। ते छै कर्म भावानां वारणां । ते बारणां में कर्म न्यार ।। १ श्राश्रव द्वार तो जीव छै। जीवरा भला मुंडा परणाम ॥ भला परणाम पुन्यारा बारणां । मुंडा पाप तणां छै ताम ॥२॥ फेई मूढ मिथ्याती जीवडा । श्राव नें कहै अ. जीव ॥ त्यां जीव अजीव न श्रोलख्यो । त्योरें मोदी मिथ्यात्वरी नीव ॥ ३ ॥ श्राश्रव तो नि. वे जीव छै । श्रीबीर गया छै भाख ।। ठाम राम सिद्धांत में भाषीयो । ते सुंणज्यो सूत्रनी साख । ॥ ४ ॥ पाप भावानां बारणां । पहिली कहूं छं नांम ॥ यथा तथ्य प्रगट करूं । ते सुंणो राखि चित गंम ॥ ५॥
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(६६)
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| मावा ॥
. अब पांचमां पदार्थ श्राश्रव द्वार कहते हैं-जीवके श्राश्रव द्वार करके कर्म आते हैं कर्म और आश्रय अलग २ हैं अर्थात् श्राश्रय धारतो जीव है और द्वारों में होके आने वाले कर्म अजीप है। जीवके भले और बुरे परिणाम है सोही आश्रव द्वार है भले परि शाम से पुन्य और बुरे परिणामों से पाप लगता है, पुण्य पाप का करने वाला जीव है जिसहीका नाम पाथव है,परन्तु कई मिध्याती पाश्रवको अजीव कहते हैं सो जीव अजीव के अजाग है वे मित्थ्यात्व मयी दीवारकी बुनियाद को दृढ करते हैं किन्तु आश्रव.द्वार कदापि जीव नहीं है निश्चै ही जीव है श्रीवीर प्र. भूने अंगोपांग में जगहें जगहें कहा है सो प्रथम तो मानव द्वार को यथा-तथ्य औलसाते हैं, यथा
॥ ढाल ॥ ॥ विनयरा भाव सुंण २ गुंजे एदेशी।।
गंणा अंग सूत्र मझार । कह्या छै पांच प्रा. 'श्रवद्धार ॥ ते द्वारः छै महा विकराल । त्यां में पाप आवै दग चाल ॥ १॥ मिथ्यात अव्रत में कषाय । प्रमाद जोग छै हाय ।। ये पांचूही श्राश्रवद्धार छै ताम । ये निश्चय ही जीव तणां नाम ॥२॥ ऊधो श्रद्धैते श्राश्रय मित्थ्यात । ऊधो · श्रद्धे ते जीव साक्षात ।। तिण श्राश्रव नों रूंधण हार । ते समकित संवर द्वार ।। ३ ।। श्रत्याग भाव अव्रत छै ताम । जीवतणां मांग परिणाम ॥
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(६७) तिणे इवत ने देव निवारं । ते ब्रत छै संबर द्वार.।।. ॥ ४ ॥ नहीं त्याग्या छै ज्यां द्रव्यांरी । श्रासा बंछा लागी रहै त्यांरी ।। अव्रत जीव तणां परिगाम 1 तिणने त्याग्यां संबर हुवै श्राम ॥ ५॥ प्रमाद श्राश्रवछै तांम ।। ये पिण जीवरामैला परिणा' . म। प्रमाद पाश्रव रूंधाय । जब श्रप्रामद, संबर थाय ।।६।। कषाय श्राश्रवछै ताम । जीवरा कषाय . परिगामात्यांसुं पाप लागै छै श्राय । ते अकषायं सुं मिटजाय ॥७॥ सावध निस्वद्य जोग व्यापार । ये पांचूं ही पाश्रवद्वार। रूंधै भला भुंडा परिगणाम । अजोग संबर तिणरो नाम ॥ ८॥ पांचूं श्राश्रवं उघारा द्वारा कर्म श्रावै यांदार मंझार । द्वारते जीर्ष परिणाम । त्यांसू कम लागछै ताम ।। ।। त्यांरा. दांकण संबर दार । श्राश्रव द्वाररा रूंधण हार । नवा कौरा रोकण हार । ये पिणं जीवरा गुण . श्रीकार ॥१०॥ इमहिज कहयो चौथा अंग मझार! पांच श्राश्रवनें संबर द्वार । श्राश्रय कर्मारो करता उपाय । कर्म श्राश्रवसुं लागै? श्राय ॥ ११ ॥ उताध्ययन गुणतीसमां महियो । पडिक्रमणांरो फल यत्तायो । बीरो छेद्र ढकायो । वलि श्राश्रवद्वार के
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घायो ।। १२ ।। उताध्ययन गुणतीसमां मोहयो । पचवागरो फल बतायो । पचखाणसु श्राश्रवस . धायो । श्रावता कर्म मिटजायो।। १३ ।। उन्नाध्ययन गुगतीसमां मांह्यो । जलनांमागम रूंधायो। जव पाणी श्रावतो मिटजावै । श्राश्रव रूंध्यांसुं कर्म न श्रावै ॥ १४ ॥ उत्राध्ययन गुणतीसमां मांह्यो । मांद्वार ढांक्या कह्या हायो । कर्म भावानांठाम मिटाय । जब पाप न लागै श्राय।।१५। ढांकिचा श्राश्रवद्वार । जब पाप न बंधै लिगार । कयो छै. दशवै कालिक मझार। तीजा अध्ययनमें श्राश्रम द्वार ॥ १६ ॥ रूंधै पांचंही आश्रवद्धार । ते भित्तु मोटा अणगार । ते पिण दशवै कालिक मझार । तिहां जोय करो निस्तार ॥ १७ ॥ पहिलां मन जोग संधै ते शुद्ध । पछै बचन काया जोग रूंधै। उत्राध्ययन गुणतीसमां मांयो। श्राश्रव रूंधणां चाल्याछै हायो॥१८॥ पांच अधर्मद्वार छै ताहयों तेतो प्रश्न व्याकरण माह्यो । वले पांच कह्या संवा द्वार यां दोयारो घणों विस्तार ॥ १६ ॥ठाणा अंग पांचमां ठाण मांहि । श्रावद्वार पडिक्कमणां ताहि । पडिकमियोपछे रूंधावेदार । फेर पाप न
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(स) लागे लिगार ॥२०॥ फूटी नावारो दृष्टांत । श्राश्रय नोलखायोभगवंत । भगोती तीजा शतक मंझा। तीजै उद्देशके विस्तार ॥ २१ ॥ वलि फटी नावागे दृष्टांत । पाशवनें श्रौलखायो भगवंत । भगवती पहिला शतक मंझार । छट्टै उद्देसे विस्तार ।।२२।। कहया छै पांच श्राश्रवदार । वलि अनेक सूत्रां मंझार । तेतो पूराकेम कहाय । सपलारोछै येकज न्याय ।। २३ ॥
॥ भावार्थ ।।
... श्रीगणो भंगसत्रके पांच ठाणे में पांच माधषद्वार को है मित्ल्यात १ अनत २ प्रमाद ३ कषाय ४ जोग ५ पेक्ष पांच प्रकार के आश्रयद्वार हैं अर्थात् जीवके इन पांचों द्वारा कर्म लगते हैं मिरथ्याश्रद्धा से अग्रतसे प्रमाद से कपाय से और मनचनका. पाके जोग धर्माने से, जीव मिथ्यात्व में प्रवा सो मित्य्यात्व
आश्रय जीवके परिणामहै १ अंत अर्थात् जिस जिस द्रष्यों के स्याग नहीं किये उन द्रव्यों की प्रासाबन्छा निरंतर है.सो अमत • आश्रय जीयके परिणामहै २ प्रमाप अर्थात निरवध कार्य से प्रण उत्साह सो जीवो मैले परिणामह ३ कषाय अर्थात् क्रोध मान माया लोभ में प्रवत रहाहै सो कषाय प्राश्रव जीवके.परिणाम है
५जोग अर्थात् मन बघनकायाके जोगो का व्यापार सो जोग : आश्रय जीवके परिणामहै ५ उपरोक पांधू श्रव जीयके उघोड़े
द्वारहै इन द्वारा होके कर्म आतेदार हैं सो जीव के परिणामहै जीव के परिणाम है सो जीव है, श्रीठाणां अंग सत्र की टीका में भीमयदेव सरिने कहा है अमरीका-"आधषणं सीपतराने
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कर्म जलस्य संगलन माश्रयः कर्म बंधन मिस्यर्थः तसद्वाराखीव द्वाराण्युपाया आश्रव द्वाराणीति" अर्थात् कोका बंध कर कर मोका उपाय सोही पाश्रव द्वारहै, पानव द्वारोंका ढांकण संबर द्वार है जिससे न्यूसन कर्म नहीं बंधते हैं, ऐसे ही चतुर्थीग श्री समयायंगमें पंच आश्रय द्वार और पंच संबर द्वार कहे हैं मा. श्रय द्वारा कर्म लगते हैं संवर द्वारा कर्म रुकते हैं तथा उत्राभ्यः यन गुण तीसमा अध्ययन में कहा है प्रतिक्रमण करणेसे प्रतीका लेन्द्र ढकते हैं तथा प्राश्रय द्वार बंधता है, पचनमाणसे भी मा. अव संधता है और श्रावते कर्म मिटते हैं, तथा इसही अध्ययन में कहा है जैसे जलकें आगमन रोकनेसे जल नहीं पाता है वैसे ही आश्रय द्वार रंधनेसें पाप नहीं पाता है, तथा दशव कालिक सत्रक तीसरे अध्ययन में कहा है अाधव द्वारों को ढकणे से पाप महीं बंधता है भिक्षु वोही है सोमाभव द्वारोंको कंधे, उत्राध्ययन के गुण तीसमा अध्ययन में खुलासाकहा है आश्रय द्वार को कंधने से कर्मों की मुक्ति होती है, तथा प्रश्न व्याकरण सूत्र में हिम्सादि पंच माधष द्वारों को अधर्म द्वार कहे हैं, श्रीठाणां अंगके पांचवें ठाणे में कहा है आश्रय द्वार का प्रतिक्रमण करके इंधना अर्थात् बंध करना चाहिये जिससे फिर पाप नहीं लगता है, यही क्यों श्रीभगवती मंत्र के तीसरा शतक के तीसरे उद्देसे में फूटी नांवा का दृष्टान्त देके आश्रव को नौलखाया है अर्थात् जैसे नापा के छेन्द्र होने से नाथा में पानी भरता है वैसे ही जीव मयी नावा मैं । श्राश्रय मयी छेन्द्र से कर्म मयो पानी अाता है, तात्पर कमों का हेतु उपाय और करता श्राश्रव है हेतु उपाय करता है सो जीव हैं।
॥ ढाल तेहिज ।। श्राश्रय द्वार बाम गम । ते तो जीवतणा परिशाम । त्याने अजीव कहै छै मित्थ्याती । खोटी श्रद्धा तणां पख पाती-॥ २४ ॥ कर्मा ने ग्रह वे.
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जीव द्रव्य । है तेहिज के प्राश्रव । ते तो जीव तणां परिणाम। तिण सं कर्म लागै छै ताम॥२॥ जीव ने पुद्गलरो मेल । तीजा द्रव्य तएं नहीं भेल । जीव लगावै जांण जांण । जब. पुदूगल लागै छै प्राण ॥ २६ ॥ तेहिज पुद्गल छै पुन्य पाप । त्यांरो करता छै जीव भाप । करता तेहिज भाव जाणों । तिण में शंका मूल म प्राणों ॥ २७ ॥ जीव छै कर्मीरी करता । सूत्र में पाठ अपरता। कहो ? पहिला श्रङ्ग मझार । जीव कर्मारो करतार ॥२८॥ पहिलो उद्देसो संभालो। इणनें करता कहो तिहुँ कालो । जीव स्वरूप तर्ण अधिकार । तीन करणें कह्यो करतारा करता तेहिज श्राश्रय ताम । जीवरा भला मुंडा परिणाम । परिणाम ते श्राश्रव द्वार । तै जीव 'तणं छै व्यापार ॥ ३० ॥ करता करणी ने हेतु उपाय । यह कर्मारा करता कहाय । यांसू कर्म . लागै छै श्राय । त्यांने श्राश्नव कयो जिन राय ॥ ३१॥ सावजम करणी करता कर्म लागे । तिण सुं दुःख भोगवसी श्रागै । सावध करणी में कहै अजीव । ते वो निश्चयामित्थ्यातीजीव ॥३२॥
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जोग साझ निवद्य चाल्या । त्याने जीव द्रव्य मैं घाल्या । जोग प्रात्मा कहि छै ताम । जोगां ने कहा जीव परिणाम ॥३३॥ जोग छै ते जीव व्यापार । जोग तेहिज श्राश्रव द्वार । पाश्रव ते. हिज जीव निःशङ्क । तिण म मूल म जाणं शङ्क ॥ ३४ लेश्या भली ने मुंडी चाली । त्यांने पिण जीव द्रव्य में घाली। लेश्या उदय भाव छै ताम । लेश्या ते जीव परिणाम ॥ ३५॥ लेश्या कर्मा सुं प्रातम लेशै । ते तो जीव तणां प्रदेश । ते पिण आश्रव जीव निःशंक । त्यांरा थानक कह्या ,
असङ्ख ॥ ३६॥ मित्थ्यात अव्रत प्रमाद कपाय । . उदय भाव छै जीव हाय । कषाय श्रात्मां कहि
छै ताम । या कह्या छै जीव परिणाम ।। ३७ ॥ ये पांचूं ही छै आश्रव द्वार। ते कर्म तणां करता. है। ये पांचूं ही जीव सात्तातातिण मैं शंका नहीं तिल मात ॥ ३८ ॥ श्राश्रव जीव तणां परिणा'म । नव में ठाणं कह्यो छै ताम । जीवरा परिणाम छै जीव । त्यांने विकेल कहै छै जीव॥३६॥ नवमां गणां अङ्ग गणा मांहि । श्राभव कर्म है । छै. ताहि । कर्म ग्रहै । श्राश्रव जीव । ग्रह्या श्रा
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ते पुदगलं अजीवं ॥ ४०॥ वाले छाणा अंग दर्श में ठाणे । दश बोल ऊंधा कुंण जाणें । ऊधाश्र? तेहिज मित्थ्यात ते श्राश्रव जीव साक्षात ॥४१॥ पांच श्राश्रव नें अव्रत तांम । मांठी लेश्या तणां परिणाम । मांठी लेश्या तोजीव छै हाय। तिणरा लक्षगा अजीव किमथाय ।। ४२ ॥ जीव में लक्षः णां सूपिछाणो । जीवस लक्षण जीष जाणो । जीवरा लक्षणां ने अजीव स्था। ते तो बीर नां बचन उथापै ॥ ४३ ॥ च्यार संज्ञा काहि जिनराय। ते पिण पाप तणूं छै उपाय । पाप उपाय ते श्रा. श्रेयः । ते श्राश्रवछै जीव द्रव्य ॥ ४४ ॥ भलाने भंडा अध्यवसाय । त्यांनँ श्राश्रव कया जिनराय । भलातूं तो लागैछ पुन्य । भंडासु लागै पाप जबून ॥ ४५॥ आर्तनें रुद्रध्यान । त्यांनै श्राश्रवं कह्या भगवान । श्राश्रव कर्म तणांछै द्वार । द्वार तेहिज जीव व्यापार ॥ ४६॥ पुन्यनें पाप श्रापानांद्वार । ते कर्मतणां करतार । कारो करता श्राश्रवजीव. तिणने कहै.अज्ञानी अंजीव ॥४७॥ 'जे पाश्रवनै अजीव जाण । ते पीपल बंधी मूर्ख जीमताणें । कर्म लगावै तै श्राश्रव । ते निश्वकै
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जीव द्रव्यं ॥४८॥ श्राश्रवने कह्यो छ रूपाणी श्राजिनजीरा मुखरी बाणों । श्रो किसो. द्रव्यं . रूंधाणुं । किसो द्रव्यथिर थपाएं ||४६॥ विपरीत तत्व कुंण जाणें । कुंण मांडै उलटी ताणें । कुण हिन्सादिकरो त्यागी । कुंणरी बछारहै लागी ॥५०॥ शब्दादिक कुंग अविला । कषाय भाव कुंण राखै । कुंण मन जोगरो व्यापारो । कुंण: चिन्तै म्हारो ने थारो ।। १ ।। इन्द्रियां में कुंण : .. मोकली मेले। शब्दादिक ने कुंण मेलै । इगानें.. मोकली मेलै ते श्राश्रव । श्राभव तेहिजकै जीव: द्रव्यः ।। ५२ ॥ मुखसु कुण मँडो बोले । कायासुं कुण मांगे डोले। ये तो जीव द्रव्यर्नु व्यापार । युदगलपिणवतछै लारे ॥ ५३॥ जीवरा चलाचल.. भदेश । त्यांने स्थिर स्थापै दृढ करेश । जब श्रा. श्रव द्रव्य रूपाएँ । तब तेहिज संबर थपाणं ॥ . ॥५४॥ चलाचल जीवस प्रदेश । संघलां प्रदेशा: :.. कर्म प्रवेश ।। सारा प्रदेश कर्म ग्रहंता । संघला. प्रदेश कर्म करता ॥५५॥ त्यां प्रदेशांरो थिर क.. रणहार । तेहिज छै संवर दार. ।। अथिर प्रदेश छ । श्राव । तें निश्चै ई छै जीव द्रव्य ॥५६॥ ...
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।। भावार्थ ॥
जैग सिद्धान्तोमें जगह जगह श्राश्रवद्वार का वर्णन विस्तार पूर्वक कहा है सो स्मपूर्ण कहांतक कहें सारांस सबका येक यही है कि आभवहार हैं लो जीवके परिणाम है जीधके परिणामोंको अजीव कहैं उन्हें मित्थ्याती जाममां, भगवान तो सत्रों में फरमाया है कि कमों को प्रहण कर सो आश्रय है इसलिय धुद्धिधान जनोंको विचारणा चाहिये कि कर्मों को ग्रहण कोन करता है और ग्रहण क्या होते हैं, जीव ग्रहण करता है तब पुन्य पाप मयीं पुद्गल प्रहण होता है, करता है सोही आश्रव है प्रथमान में कहा है जीव कौका करता ती काल में है, करता करणी हेतु उपा. थ यह फाँके करता है इनसे कर्म लगते हैं इसही लिये इन्होंको जिनेश्वर देवाने आश्रय कहा है, तथा सावध करणी स पाप लगता है लावध करणी है सोही जीव है और उसहीका नाम प्रा. श्रय है, लेश्या कमसि श्रात्म प्रदेशोंको लेशती है अर्थात् लिप्त करती है तथा मन वचन काया के जोगासें कर्म लगते हैं सो जोमाश्रय कहा है उसही को जोग श्रातमा कही है करन करावन अनुमोदन इन तीनूंदी करणों से जीव कर्म करता है और करता है सोही प्राश्रव है, जोग सावध निरवध दोनें प्रकारके है सो जीव है सावध जोगासे पाप और निरयध जोगास पुन्य ग्रहण होता है. आश्रय मुख्य पांच प्रकारके कहे है-मित्थ्यात अर्थात् विरुद्ध श्रद्धाआश्रय अनत पाश्रव २ अत्यागमाघ, प्रमाद श्राश्रव ३ फपाय अर्थात् क्रोध मान माया लोभ आश्रय ४ जोग अर्थात् मन बचन कायाको प्रवर्तना सो श्राश्रव ५ तथा हिन्सा भूठ चौरी मैथुन परिग्रह ये पांच आव और अनत इनको सांठी लेश्या के परिणाम कहे हैं मांठी लेश्या जीव है तो उसके परिणाम अजीव कसे हो सका है मांठी लश्या के परिणामों को तथा लक्षणों को अजीव कहैं उन्हें मिथ्यात्वी जानना, च्यार संशा पापका उपाय है सो जीव है भले और खराब जीव के परिणामों से ही पुन्य और पाप ग्रहण होता है ग्रहण कर उसहीका नाम आश्रव है, ऐसेही
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(१०६) श्रात रौद्र ध्यानसे पाप लगता है, भात रौद्र ध्यान है सो जीव है और उसहीया नाम भाजप है इत्यादि अनेक प्रकारोले जीव कर्मों का करता है सोही नाभव है. गुरुवोका पक्ष ग्रहण करके मुख लोग श्राश्रयद्वार को शाजीव कहत ह सो पीपल बंधी सुख समान ताणते है. यथा जैल येक दृष्टोंबंध मंत्रवादी येक गाम में श्राया और अपना तमासा फरक लोकोको माधर्य उपजाने लगा जितने त. मासबीन थे उन सबकी नजर बंध करके पोपलके दरख्तके कोई पदार्थ रस्सीस मजबूत बांध दीया और उन तमाल बीनाको कहा सब मिलके इलें खींचो ये पदार्थ निसहाय और पीपलसें कितना दूरहै तब सब तमासं वानान मिलके उसे बंचा परन्तु वो तो थाडी दुरभी नहीं सरका इतनी देरम येक बादमी अामान्तर जाता हुवा उस जगह आया उसकी नजर बंधी हुई नहीं थी तब मोह देखके तमाल वानसि कहने लगा तुम लोक बड़े मूर्ख हो पीपलके बंधी हुई तुमसे कसे निचगी ये सुनके तमासवीन कहने लगे क. हां बंधी हुई है हम सब लोक देखें सो तो झूठे और तू येकाला सच्चा भला येह भी कोई बात है हमारे नेत्र नहीं है ? क्या हम सब अंधे हैं। यह कह बैच ताण करने लगे परन्तु उस सामान्तर जाने वाले और सत्य कहने वाले की बानांकसीन भी न मानी ऐसेही दीर्घ कर्मी जचिोंके ज्ञान नेत्र मित्थ्यात्व मयी मंत्रसे कुगुरुवाने बंधकर रखने हैं जिससे वो लोक सदगुरुवाका कहना तो मानते हैं नहीं और अपनी जिद्द करके जीवके लक्षणोंको अजीव श्रद्धतें हैं परन्तु येह नहीं समझते कि मिथ्यात्व श्राश्रव है सो विपरीत श्रद्धा है और विपरीतं श्रद्धना किसकी है तथा हिन्साके अत्याग भाव किसके हैं और शब्दादिक का अभिलाषी कौन है कपायी कोन है मन वचन कायाकै जोगीका व्यापार किसका है तथा मेरा तेरा समझना किसका है और पंच इन्द्रियोंकी विषयमै प्रवर्तता और विषयी कोन होता है, परंतु ईत्यादि उपरोक्त सवजीवके कार्य हैं तात्पर जीवके समपूरण असंख्याता प्रदेश पूर्व कर्मानुसार चला चल होते हैं तव न्यूतन कर्म प्रदेसको अवता है अर्थात् ग्रहण करता है सो जीव है अस उमहीका नाग पाश्रव द्वार है, और
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चंचलताको रोक कर पातम प्रदेश स्थिर होते हैं उसहीका नाम संबर है तात्पर जीवके अथिर प्रदेश प्राश्रय है और स्थिर प्रदेश संबर है।
॥ बाल तेहिज॥ जोगपरिणामिकनें उदयभाव । त्यांने जीव कहया इण न्याय । अजीव तो उदय भावनांहि । ते देखल्यो सूत्र मांहि ॥५७॥ पुन्य निस्वद्य जोग सुं लागैकै प्राय । ते करणी निरजरारी छ त्हाय । पुन्य तो सहिजै लागैछै ताहि । तिणसु जोग के श्राश्रव मांहि ॥५६॥ जेजे संसारनां छै काम । त्यांरा किण २ रा कहु नाम । ते सघलाछै श्राश्रव तांम । ते सघला छै जीव परिणाम ॥५६॥ कर्मा मैं लगावै ते श्राश्रवा लगावै तेहिज छै जीव द्रव्य । लागैते पुदगल अजीव । लगावै तेतो निश्चयछ जीव ॥६॥ कर्मारोकरता छै जीव द्रव्य । करता पणों तेहिज श्राश्रव। कीधा हुवा ते कर्म कहाय । तेतो पुदगल लागैछै आय ॥ ६१ ॥ त्यारे गूढ मिथ्यात अंधारो ते पिछाणे नहीं श्राश्रय द्वारो। त्यांने संवलो तो मूल न सूझै । तेतो दिन २ अधिक अलु झै ।।६।। जीवर प्राडा छै कर्म आठ । तेतो लगरहया पाटान पाट । त्यांमें घातिया कर्मछ च्यार । मोक्षमार्गराः
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(१०८) रोकण हार ॥६३॥ और कर्मासुं जीव काय । मोह कर्म थकी विगडाय । विगडयो करें सावक व्यापार । तेहिजछै भावदार ॥ ६४ ॥ चारित्त मोह उदय मतवालो । तिणसं सावद्यरो न हुने टालो । ते सावद्यरो सेवण हारो। तेहिजछै आश्रय द्वारो ॥६५॥ दरशण मोह उदय श्रद्धै ऊधो । हाते मारग न आवै सूधो । ऊधी श्रद्धारो श्रवण हार । ते मित्थ्यात्व आश्रवद्धार ।। ६६ ।। मूढ कहै श्राश्रव नैं रूपी । वीरकहयो पाश्रवनँ अरूपी। सूत्रां मैं कहयो ठाम ठाम । श्राश्रवने श्ररूपी तांम ॥६७॥ पांच श्रावनें अबत तांम । मांठी लेश्या तणां परिणाम । मांठी लेश्या प्ररूपीछे रहाय । तिणरा लक्षणरूपी किम थाय ॥ ६८ ॥ ऊजला ने मैला कहया जोग । मोह कर्म संजोग विजोग । ऊजला जोग मैला थाय । कर्म झडियां ऊजला होनाय ॥६६॥ उत्राध्ययन गुणतीसम म्हांय । जोग समुचय कहया जिनराय । जोग सचे निरदोपमें चाल्या । त्याने साधारा गुण मांहि घाल्या ॥७॥ साधांरा गुणछै शुद्धमांन । त्यांने श्ररूपी कहया भगवान । त्यां जोग भाव में रूपी
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थाप्यां। .त्यां वीरनां बचन उथाप्या॥ ७१ ॥ गणा अंग तीजा गणा मंझार । जोगविर्य तणों व्यापार। तिणसुं अरूपी के भाव जोग । रूपी श्रद्धै ते श्रद्धा अजोग ॥ ७२ ॥ जोग प्रातमा जीव श्ररूपी । त्यां जोगांने कहै मुढरूपी । जोग भातमा जीव परिणाम । ते निश्चय श्ररूपीछे तांम ॥७३॥ श्राश्रव जीव श्रद्धावण ताहि । जोड कीधी पाली सहर माहि। अदार सह पचावन मंझारपासोज सुध बारस रविवार ।। ७१॥ इति ।।
॥भावार्थ ॥ . जीवके प्रदेश चंचल होते हैं तबही कर्मों के प्रदेशों को ग्रहण करते हैं उसही का नाम आश्रयह और स्थिर होके कर्मग्रहण नहीं करते उसका नाम संबर हैं, तात्पर निरजराफी करणी करते शुभ जोगांकी पर्सनासे जीव पुण्य उपारसन करताहे और मोहकर्मके उदय लें अशुभ जोगोंकी बर्तनों से जीष पापोंपार्जन करताह पुण्य या पापके प्रदेशों का पारजन करने वाले सीबके प्रदेश है उनही का नाम आवद्धार है, कर्मों का पारजन या करता करणी कारण हेतु और उपाय ये सब नाम श्राश्रय केही किन्तु जिनहों के घट में मिथ्यात्वमयी महा घोरान्धकार है उन्हों की श्रद्धा आधवको अजीव श्रद्धने की परंतु वोलोग यह नहीं धिचारतेहै कि जीवके अष्टकम अनादि कालसे लगाये हैं जिस में प्यार घातिक कौन जीव के अनन्त चतुष्टय गुनोंकी घात भरी हैं जिसमें मोह कर्म से जीव बिगडके अनेक तरह के कार्य करके अशुभ कर्म उपारजन करता है और कराता है इस ही लिये करता जीव का नाम भाभष है, चारित्रमोह के उदय से नीय
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(११०) . सावध करणी करके पाप लगाता है और दरशण मोह के 'उदय: से मित्थ्यात्वी होताहै मित्थ्याश्रद्धना ही सित्थ्यान्न आश्रय है, भगवान ने तो पाश्रवको अरूपी जगह २ कहा है परंतु मूढ मती: अाधवको रूपी कहते हैं पांच आभयों को तथा अग्रतको कृष्णा दि तीन मांठी अर्थात् मोटो तेश्याके परिणाम तथा लक्षण कहे हैं जो मांठी लेश्या जीवह तो उसके तक्षण अजीव फैल होसकते हैं, फिर मोह कर्म के.संयोग लें सैले और वियोगरे ऊजले जोग फहे हैं जोगह से ही प्राव है, उमाध्ययमके गुबतोसमां अध्ययनमें जोग समुच्चय कहे हैं लोगों का वर्णन साधुवाके गुनों में है साधु के गुग शुद्ध है निरमल हैं अरूपी, तथा ठाणांगक तीसरे ठाणे फहा है मनपचन काया के भाव जोगाहै सो लीव का विर्थ गुनका व्यापार हैं इस ही लिये जोग भासमा कही है जोग श्रातमा है सोश्ररूपी है औरफरता है सोनोगधाश्रन है,नाश्रवको जीव प्रधान के लिये स्वामी श्री भीलनीने मारबाड- देशान्तर गत पाली शहरमें सम्बत् १८५५ आसोश सुद १२ रविवार को ढाल जोडके यथा तथ्य विस्तार कहाँहे जिसका भावार्थमैंने तुच्छ; धुद्धी प्रमाण किया है इस में कोई अशुद्धार्थ हो उसका मुझे बारस्वार मिच्छामिदुमड़ है !
आपका हितेच्छु: जोहरी गुलाबचंद लूणिया
॥दोहा॥ आश्रय कर्म भावानां वारणां । त्यांने विकल कहै छै कर्म ॥ श्राश्रव द्वार में कर्म येक हिज कहै। ते भूला अज्ञानी भर्म ॥१॥ कर्म श्राश्रव छै. जुचा जुवा ! जुवा; जुवा त्यांरा सुभाव कर्म में
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'श्राव येक ही कहै। त्यांरो मूढ न जाणे न्यावं ॥२॥ वलि श्राशय में रूपी कहै । श्राश्रव ने कहै कर्म द्धार ॥ द्वार ने द्वार में आवै तेह. नें । येक कहै छै , मुढ गिमार ॥ ३॥ तीन जोगां नैं रूपी कहै । त्यांने हिज कहै अाभव द्वार । बलि तीन जोगां ने कहैं कर्म छै । श्रो पिया नहीं विचार ॥ ४ ॥ शाश्रव तणां बीस भेद छ। ते जीव तगीं पर्याय॥ ते कर्म तणा कारण कहा । ते मुणिजो चितः ल्याय ॥ ५॥
॥ ढाल।। चतुर बिचारकरि नैं देखो । एदेशी ॥ मित्थ्यात आश्रय तो ऊधो श्रद्धै छै । ऊधो श्रद्ध ते जीव साक्षातोरे ॥ तिण मिथ्यात आश्रव ने अजीव श्रद्धे छै । त्यांरा घट मांहि घोर मिथ्या, तोरे ॥ भाभव पदार्थ निरणो कीजो ॥१॥ जे जे सावध काम त्याग्या नहीं है। त्यांरी आसा बछा रही लागीरे ॥ तिण जीव तणां परिणाम छै मैला । अत्याग भाव छै अबत सागीरे ॥ श्रा॥ २॥ प्रमाद पाश्रव जीव परिणाम छै
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१ ११९) मैला । तिण सु लागे निरंतर पापोरे ॥ तिण ने अजीव कहै छै गूढ मिथ्याती । तिणरै खोटी श्र. द्धारी थापारे ।। आ ॥ ३ ॥ कषायं श्राश्रव ने जीब कह्यो जिनेश्वर । कषाय प्रातमां कहि के तांमौरे । कषाय करवारो सभाव जीव तणं, छ । कषाय कै जीव. परिणामों रे.॥ श्रा॥ ४ ॥ जोग. श्राश्रत ने जीव कह्यो जिनेश्वर ।जोग प्रातमां कहि छै तामोरे । तीनूं ही. जोगांरो व्यापार जीव तणु छै । जोग छै जीव परिणामोरे | प्रा.शा. जीवरी हिन्सा करै ते श्राश्रव । हिन्सा करैते जीव साक्षातोरे । हिन्सा करै ते परिणाम जीव तणां छै। तिण में शंका नहीं तिलमातोरे ||man झूठ बोले ते. श्राश्रय कहो जिनेश्वर ।.झूठ बोले. ते जीव साक्षातोरे । झूठ बोलते परिणाम. जीव तणां छै । तिण में शंका नहीं अंसमा तोरे ॥श्रा ।। ७ । चौरी करै ते श्राश्रव को छै । चोरी करै ते जीव साक्षातोरे । चोरी करवा प. रिणाम. जीव तणां छै । तिण में शंका नहीं तिलमांतो रे ।। श्रा॥८॥ मैथुन सेवै ते श्राव कह्यो छै । मैथुन सेवै ते जीवो रे । मैथुन परिणा;
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(११३) म जीव तणां छै । तिणसू लागै छै पापं अती वोरे ॥ श्रा॥ ६ ॥ परिग्रहो राख ते पाश्रव कयो छ।परिग्रहों राख ते पिण जीवोरे॥जीव परिणाम छै मुछी परिग्रह । तिणसुं लागै छै प्राप अजी वोरे ॥श्रा ॥ १० ॥ पांच इन्द्रियां ने मोकली मेलै ते श्राश्रव । मोकली मेलै ते जीव जाणारे॥ राग द्वेष श्रावै शब्दादिक ऊपर । यानै जीवरा भाव पिछाणारे ॥ पा ॥११॥ श्रुतइन्द्रीतो शब्द सुण छै । चतुइन्द्री रूप ले देखोरे ॥ प्राण इन्दी गंध ने भोगवै छै । रसइन्द्री रसस्वाद विसेखोरे॥ श्रा ॥ १२ ॥ स्पर्शइन्द्री स्पर्श में भोगवै छै । पांच इन्द्रियां नुं यह सुभावोरे । यांसुं राग में देष करते श्राश्रव । तिण नें जीव कहिजे इण न्या: वोरे ।। श्रा॥ १३ ॥ तीन जोगाने मोकला मेलै. ते आश्रव । मोकला मेलै ते जीवो रे ॥ त्यांने अजीव कहै ते मूढ मिथ्याती। त्यांरा घट में नहीं ज्ञान दीवारे ॥श्रा ॥. १.४. ॥.. ती जोगां रो व्यापार जीव तणोंछै। ते जोग छ जीव परिणा... मोरे ॥. मांठा जोग छै मांठी लेश्या नां लक्षण । जोग भातमां कही है तामोरे ॥ श्राः ॥ १५ ॥
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(११४) भंड उपग्रणसूं कोई करै अजयणां । तेहिज श्राश्रव जाणारे ।। श्राश्रव भाव तो जीव तणां छै । यान रूडी रीत पिछाणोंरे ॥ आ॥ १६ ॥ सुवी कुसंग सबै ते पाश्रव बीसमुं। सुची कुशंग सेवै ते जीवोरे ॥ सुची कुशंग सेवै तिण ने अजीव श्रद्धै छै । त्यांरै ऊंडी मिथ्यातरी नींवोरे ॥ श्रा ॥ १७॥ द्रव्ये जोगां नै रूपी कह्या छै । ते भाव जोगांरै लारो रे ।। द्रव्ये जोगांतूं कर्म न लागे । भाव जोग छै श्राश्रवद्धारोरे ॥श्रा ॥ १८ ॥ आश्रव नैं कर्म कहै छै अज्ञानी । तिण लेखै ऊंधी दरशी रे ।। पाठ कर्मी ने चोफरंसी कहै छै । काया रा जोग तो छै श्रठ फरसीरे ॥ श्रा ॥ १६ ॥ श्राश्रवन कमें कहे त्यारी श्रद्धा । ऊठी जठाथी झूठीरे ॥ त्यांरा बोल्यां री ठीक पिण त्यांने नहीं छै । त्यांरी हीया निलाइनी फूटीरे ॥ श्रा.॥२०॥
॥ भावार्थ ॥ .., शास्त्रों में तो आश्रय को कर्मों का करता कहा है करता है सो जीव है जीव है सो अरूपी है परंतु अशांनी जीप भ्रम में भूल के पाश्रव को अजीव कहते हैं अर्थात् कर्मों को ही प्राश्रय श्रद्धत हैं, लेकिन श्राश्रव और कर्म अलग अलग हैं, आभव द्वारा जीव कम लगाता है तो विचारणा चाहिए कि द्वार और द्वार होके
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(११५) आने वाले येक कैसे होसला है, द्वार है सो श्राश्रव है जीव है अरूपी हैं, और श्राने वाले है सो कर्म है अजीव हैं रूपी है तो येक कैसे हुवा-परंतु मूढ लोग कहते हैं तीन जोग रूपी है जोग, है सो आश्रय है तथा ती जोगों को कर्म कहते हैं कर्म है सो अजीव है इसलिये आश्रव अवि है ऐसा प्ररूपते हैं उन लोगों को पाश्रव को यथार्थ समझाने के लिये प्राव के वीस बोलो. को विस्तार पूर्वक यथा तथ्य कहते हैं१-ऊधीश्रद्धा अर्थात् मित्थ्याश्रद्धनां सोही मित्थ्यात पाश्रव जर्जाव
है श्रद्धा और श्रद्धने वाला येक है। . २-जो जो सावध कार्य त्यागे नहीं हैं जिन्हों की श्राशा वान्छा निरंतर लगी हुई है आतम प्रदेश अत्याग भाव पणे परिणमें है उसही का नाम अग्रत आश्रय है जिस से निरंतर पाप
लगता है। ३-प्रमाद अर्थात् निरवध करणी से श्रण उत्साह पण जीय परि
णम्यां है सो प्रमाद आश्रय है, जहांतक अप्रमाद गुणस्थान नहीं पावेगातहातक प्रमाद आश्रय द्वारा निरंतर पापलगता है। ४-क्रोध मान माया लोभ ये च्या कपाय पणे जीव परिणा
सो कपाय आश्रव है जहां तक कपायीन होगा तहां तक कषायं प्राथव द्वारा निरंतर पाप लगता है इसलिये कषायी जीव का नाम कषाय पातमा है. लोही कषाय आश्रव जीव के परिणाम है। , ५-मन वचन काया के जोगों का व्यापार जीव का है जोगों पर्ण
परिणम्या सौ जोग परिणामी जीव है जोग भातमां कही है जोगों द्वारा कर्म ग्रहण करै उसही को जोग भाव कहते हैं। ६-प्राणातिपात आश्रव अर्थात् जीव हिन्सा करे, तो जीव हिन्सा कर सो जीव है, हिन्सा जीव के परिणाम है सोही प्राणातिपात पाश्रव है।
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७-मृषावाद प्राश्रय अर्थात् झूठ बोले सो पाश्रय, झूठ बोले सो
जीव है, झूठ बोले सो जीव के ही परिणाम है।" -चोरी कर ते आश्रव कहा है, चौरी करै सो जीध है, मदता दान लेने को जीप परिणम्या लो जीवके परिणाम है, तथा चौरी करने के परिणाम है सोही प्राभव है। . -मैथुन सेवेते प्राधव कहा है, मैथुन सेवै सोजीव है,मैथुन सेने
के परिणाम जीव के हैं लोही अाधव है। • १०-परिप्रहा रणने सो पाधव, परिमहा रस्ने सौजीव है, जीव के
परिणाम है सोही प्राथव है। ११-श्रोत १ घस् २ प्राण ३ मिहा ४ स्पर्श ५ यह पाचूं इन्द्रियों
को मोकली मेले अर्थात् शब्दादिक तेवीस विषयोपे राग द्वेष आवै सो प्राभव है, इन्द्रियों को मोकली मेले सो जीव है। श्रोत इन्द्री का स्वभाव ३ प्रकार के शब्द सुनने का, चकू इन्द्री का स्वभाष ५ प्रकार के वरण देखने का, प्राण न्द्री का स्वभाव २ प्रकार के गंध सूंघने का, रस इन्द्रीका स्वभाव ५प्रकार के रसों का स्वाद जानने का, और स्पर्श इन्द्री का स्वभाष ८ प्रकार के स्पर्श भोगने का है, पांचू इन्द्रियां हैं सो तो पायोप्सम भाव है परंतु इन्द्रियों की विषय में लिप्त रहना लो जीव के भाव है, मोह कमादय से विषयी होके राग
द्वेष करै सो प्राभव है जीव के परिणाम है। १६-मन १ यधन २ काया ३ मोकली मेले सो अधव कहा है
अर्थात् तानूं लोगों की प्रवर्तना जीयकी है। १६-भंडोपगरण से मजयणां करै सोमाभव, अर्थात् वसपात्र
श्रादि वस्तुवों से अपतना करने के भाव जीप के है सोही
प्राधव ह। २०-सुचिकुशंग सेवै ते पाश्रष जीव है जोषके परिणाम है सोही ' भाभव है।
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(११७) · तात्पर्य उपरोक्त वीस प्राधव द्वार'को सो जीप के परिणाम हैं परिणाम है सोही प्रार्थव द्वार जीव है। मन बचन काया ये तीन प्रकार के जोग हैं सो व्याजोगतो अजीव है, रुपी है, और भाष जोग है तो जीव है, अरूपी है, इसलिये ही, जोग भातमा कही है, भाष जोगों के संग ही द्रव्य जोग कहे हैं, "द्रव्य जोंगों से तो कर्म लगते नहीं, पोतो.अजीव है, और भाव जोगों से कर्म लगते हैं इस से भाव जोगों को आप कहा है, कई अहानीमा. 'भंव और कर्म येकही श्रद्धते हैं तथा द्रव्य जोगों को मांधव कहते हैं, मगर वे मोह भंध जीव अपनी भाषा के माप हो अजान है क्योंकि काया का द्रव्य जोग सो आठ स्पर्श है, और कर्म है सो प्यार स्पर्शी है, तो कर्म और जोग यक कहीं ठहरा महानुभावो खामी श्री भीखनजी का कहना है कि आप को कर्म कहै उन की श्रद्धातो ऊठी वही से झूठी है, उन के हीये. कहिये हदय और लिलाड कहिये मंगज'ये दोन फूटे हैं भात 'शान चलु रहित हैं, जिस से हवयं और दिमाग में असा नहीं विचारते हैं कि कर्म है सोक्या है तथा करता है सो कोन है, इसलिये इन दो को यथा तथ्य अचाने को फंपाकरिके फरमाया है कि बीस बोलों में सावध किंतने और निरवंद्य कितने हैं, तथा किस किस कर्म के उदय से जीव कैसा कैसा कर्तव्य करता है . सो विस्तार पूर्वकं कहते हैं। . :. .. , .. ।
. ॥ ढाल तेंहिंज।। बीस.श्राश्रवमें सोलतो एकान्त सावध । ते पाप श्रावना छै. दारोरे.॥ जीवरा कर्तव्य मांगते खोटा। ते पाप तणां करतारोरे ॥श्रा ॥ २१ ॥ मन ब. चन कायारा जोग व्यापार । वलि समुचयं जोगं व्यापारोरे । ये.च्यारूही श्राश्रय सावध निरवद्य।
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( ११८) 'पुन्य पाप तणां छै दारोरे ॥ श्रा ॥ २२ ॥ मिस्थ्यात अवतने प्रमाद । कषायनें जोग व्यापारो रे॥ ये कर्म तणां करता जीवरै छै। पांचूही श्राश्रव दारोरे ॥ श्रा ॥ २३ ॥ या च्यारूं श्राश्व सभाविक उदारा । जोगमें पनरे आश्रय समायारे॥ जोग कर्तव्य ते सभाविक पिण छै । तिणसुं जोगमें पनरे पायारे । श्रां ॥ २४ ॥ हिन्सा करै ते जोग पाश्रव छै । झूठ बोलै ते जोग ताह्योरे ।। चोरीसु लेने सुचि कुशग सेवैते । पनही पाया जोग मांडोरे ॥ श्रा॥ २५॥ कर्मारो करता तो जीव द्रव्य छै । कीधा हुवा ते कोरे । कर्मनें करता येकज श्रद्धै। ते भुला अज्ञानी भ्रमोरे॥ ॥श्रा ॥ २६॥ अट्ठारह पाप गणां अजीव चौ. स्पर्शी । ते उदय श्रावै तिणवारोरे ॥ जब जुवा जुवा कर्त्तव्य करै अट्ठारह । ते अठारही श्राश्रव द्वारो रे ।। श्रा ॥ २७ ॥ उदय श्राव ते मोह कर्म छै । ते पापरा गणां अगरोरे ॥ त्यांरा उदय में अट्ठारा कर्त्तव्य करै छै । ते जीव तणां व्यापारोरे॥ ॥श्रा ॥२८॥ उदयने कर्तव्य जुदा जुदा श्रद्धे। आतो श्रद्धा सूधीरे ॥ उदयने कर्तव्ययेक हिज
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(११६) श्रद्धै। अकल तिणारी ऊंधी रे ॥श्रा॥२६॥ प्राणातिपात जीवरी हिन्सा करते । प्राणातिपात श्राश्राव जाणोरै ।। उदय हुवोते प्राणाति पाप ठाणों: छ । त्यांनै रूडी रीत पिछाणारे ॥ श्रा॥३०॥ झूठ बोलते मृषाबाद श्राश्रव छै । उदय छै. मृषाः बाद गणोंरे । झूठ बोलते जीव उदय हुवां कर्म।.. यां दोनांने जुदा जुदा जाणारे ॥ श्रा ॥ ३१॥ चोरी करै ते श्रदत्ता दान पाश्रव छै । उदय हुश्री श्रदत्ता दान गणोरे ॥ ते उदय हुां जीव चोरी करै छै । ते जीवरा लक्षण जांणोंरे ॥श्रा॥३२॥ . मैथुन सेवै ते मैथुन श्राश्रव । ते जीव तणां परिणामोरे ।। ते उदय हुश्रा मैथुन पाप स्थानक छै। मोह कर्म अजीव छै तामोरे ॥श्रा ॥ ३३ ॥. सचित श्रचित मिश्र ऊपर ममता राखै। तेतो परिग्रह आश्रव जाणोंरे ॥ ते ममता करै मोह कर्म उदयसूं । उदय हुऔ ते परिग्रह पापगणोरे ॥. ॥श्रा ॥ ३४ ॥ क्रोध सुं लेनैं मिथ्या दरशण लागि । उदय हुऔ ते पापरो गणोरे ॥ यांरा उदयसें सावध कर्तव्य करै छै । ते जीवरा लक्षण जाणारे ॥ आ॥ ३५॥ सावध कामां. तो जी.'
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( १२०१
वरा कर्त्तव्य । उदय हुआ ते पाप कमरे ॥ यां दोनू ने कोई येकज श्रद्धे । ते भूला अज्ञानी अ मोरे ॥ श्र ॥ ३६ ॥ श्राश्रव तो कर्म श्रावानां
.
द्वार । ते जीवतणां परिणामोरे ॥ द्वार मांहि यावे ते आठ कर्म है । ते पुद्गल द्रव्य है तांमोरे ॥
॥ श्रा ॥ ३७ ॥ मांठा परिणामनें मांठी लेश्या ।
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.
वलि. मांठा जोग व्यापारोरे ॥ मांठा श्रध्यव सायनें मांठा ध्यान । ते पाप श्रावानां द्वारोरे ॥ श्रा ॥ ॥ ३८ ॥ भला परिणामनें भली लेश्या । भला निबंध जोग व्यापारोरे ॥ भला श्रध्यवसायनें भला ध्यान | ते पुन्य श्रावानां द्वारोरे ॥ श्रा ॥ ॥ ३६ ॥ भला मूंडा परिणाम भली भंडी लेश्या । भला भुंडा, जोग तांमोरे ॥ भला भुंडा श्रध्यव: साय भलाभुंडाध्यान । ते जीव तणां परिणा मोरें ॥ श्रा ॥ ४० ॥ भला भंडा परिणाम तो जीवतां छे । भुंडा पापरा वारणां जाणोरे ॥ . भलाभाव छै ते संबर- निरजरा । पुन्य सहजें लागे है गोरे ॥ श्र ॥ ४१ ॥
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' ( १२५ ॥
॥ भावार्थ ॥ बाँस पाश्रव कहे जिसमें से सोलहतो एकान्त सावैध हैं सों .मांठा कर्तव्य है इसलिये पापभाने के द्वार हैं बाकी च्यार प्राश्रवं अर्थात जोग मन वचन काय यह सावध मिरवध दोनूं है सो पुन्य और पाप पाने के द्वार हैं, तथा वसि आश्रवों में से मिथ्यात अनत प्रमाद और कषाय येह च्यार श्राश्रवतो सभाविक उदयं से हो रहे हैं और प्राणातिपात श्राश्रव से लेके सुचि कुशग आश्रव तक पंद्रह श्राश्रव हैं सो जोग आश्रव में गर्भित हैं अर्थात् हिम्सा कर सो जोग भाभव है यावत् सुचि कुशग सेवै सो जोग श्राश्रव है याने यह पंदरह जोगों की प्रेरिणा से होते हैं तथा पांचमां समुचय जोग आश्रव है सोजोगकर्तव्य सुभाविक भी होता है अर्थात् जहांतक सजोगी है तहांतक जोग आश्रव है, कर्मों का करता हैं सो जीव द्रव्य है और किये सो कर्म हैं वे अजीव हैं इस लिये कर्ता और कर्म यह दोनूं जुदे जुदे हैं। अब पाश्रव कैसे होता है सो कहते हैं-प्राणातिपात पाप स्थानक से लेके मित्थ्यादरशण शल्य ये अंठारह पाप स्थानक हैं सो च्यार स्पर्शिया पुद्गलों का पुल हैं सो अजीव है मोह कर्म के भेद है यह जब जीव के उदय
आते हैं तो जीव इनमें प्रवर्तता है तब अशुभ कर्म ग्रहण करता है जिस से जीव को आश्रृंव कहा है, जैसे जीव के प्राणातिपात पाप स्थानक उदय हुशा सो तो अजीव और उसमें प्रवसो जीव उदय भांव प्राणातिपात आश्रय है, ऐसे ही अट्ठारह को जाननां, तात्पर्य उदय और कर्तव्य यह दोनूं जुदे जुदे हैं इनको पृथक पृथक समझै यह श्रद्धा तो सुधी हैं और इन्हें येकही श्रद्धे यह श्रद्धा ऊंधी अर्थात् विरुद्ध है इसलिए न्याय दृष्टी करिके विचारणा चाहिये कि श्राश्रव है सो कर्म पाने के द्वार है, जीव के व्यापार हैं, और द्वारों में होके आने वाले कर्म हैं वे अजीव है, परंतु श्राश्रय द्वार जीव हैं, खोटे मन परिणाम, खोटी लेश्या, खोटे जोग व्यापार, खोटे अध्यवसाय, खोटे ध्यान है सो यह सब जीव परिक णाम है पाप आने के द्वार हैं, और भले मन पारणाम यावत मला
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( १२२ ॥ ध्यान यह सब जीव के परिणाम और पुण्य पाने के द्वार हैं, पुण्य पाप पाने के द्वार हैं सो ही प्राधव है।
॥ ढाल तेहिज॥ निरजरारी करणी निवड करतां । कर्म तएँ. क्षय जाणारे । जीवतणां प्रदेश चलै छ । त्यांसुं पुन्य लागै छै श्रांणोंरे ॥श्रा ॥ ४२ ॥ निरज. रारी करणी करै तिगा काले । जीवरा चलै सर्व प्रदेशोरे । जब संचर नाम कर्म उदय भाव । तिण सं पुल्य त छै प्रवेशोरे ॥ भा॥४३॥ मन बचन कायारा जोग तीनूं ही । पसस्थनें अपसस्थ चाल्यारे । अपसस्थ जोगतो पापरा द्वार । पसस्थ निरजरारी करणी में घाल्यारे ॥मा।। ॥ ४४ ॥ अपसस्थ द्वारतो रूंधणां चाल्या । पसस्थ उदीरणां चाल्यारे । रूंधतां उदीरता निरजरारी करणीं । पुन्य लागै तिण सूं आश्रव में घाल्यारे ॥श्रा ॥ ४५ ॥ प्रसस्थ अपसस्थ छै जोग तीनूं ही । त्यांरा बासठ भेद छै ताह्योरे । ते सावद्य. निरवद्य जीवरी करणी । ते सूत्र उववाई मांडोरे ॥ आ॥ ४६॥ जिन कह्यो सतरे भेद असजम । असंजम ते अबत जाणारे । अबत
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- ( १२३) ते श्रासा बंछा जीव तणीं छै । त्यांनै रूडीरीत पिछाणारे ॥ श्रा॥ ४७ ॥ मांग २ कर्तव्य मांगी २ करणीं । सर्व जीव तणा व्यापारोंरे । जिन श्राज्ञा बाहरला सर्व कामां ते । सघला ही श्राश्रव द्वारोरे ॥ श्रा॥४८॥ मोह कर्म उदय जीवरै च्यार संज्ञा । ते पाप कर्म है तांणोरे । पाप कर्मी नैं ग्रहै ते श्राश्रव छै । ते जीवरा लक्षण जांणोरे ॥ श्रा॥ ४६ ॥ उठाण कम्म बल बीर्य पूर्षाकार प्राक्रम । यारा सावध ब्यापारोरे। तिण सुं पाप कर्म जीवरै लागै छै । ते पिण जीव छै आश्रव द्वारोरे ॥ श्रा ॥ ५० उट्ठाण कम्म बल बीर्य पूर्षाकार प्राक्रम यांरा निरवद्य व्यापारो रे । त्यासुं पुन्य कर्म जीवरै लागै छै । ते पिण जीव छै श्राव दारोरे ॥ श्रा॥५१॥ संजती - संजती संजतासंजती । ते तो संबर प्राश्रव द्वारोरे । ते संबर में श्राश्रव दोन ही तिण में । शङ्का नहीं छै लिगारो रे॥ आ॥ ५५ ॥ इम ब्रती अवती में व्रताबती । इम पचखाणी जाणोंरे । इम पंडिया बालाने बाल पंडिया । जागरा सूता येम पिछाणोंरे ॥श्रा ॥५३ ॥
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( १२४ )
इस संबूडा असंबूडा नें संबूडा अबूडा । धम्मि या अमिया नांमोरे | धम्मवचसाईया इम हिज जाणों | तीन तीन बोल है तांमोरे ॥ श्रा ॥ ५४ ॥ ये सघला वोल छै श्राश्रव नें संवर त्यांनें रूडी रीत पिछाणों रे । केई श्राश्रव नें
जीव श्रद्धै छै । ते पूरा है मूढ श्रयाणोंरे || आ ॥ ५५ ॥ श्राश्रव घटियां संवर वधै छै । संवर घटियां आश्रव वधायोंरे । किलो द्रव्य वधियो किसो द्रव घटियो । इा ने रूडी रीत पिछाखरे ॥ श्र ॥ ५६ ॥ श्रवत उदय भाव जीवरा घटियां | व्रत बधै क्षयोपस्म भावो रे । ये जीवतणां भाव घटियां नें बधियां । श्राश्रव जीव कह्यो इण न्यायो रे || श्रा ॥ ५७ ॥ इम सवेरे भेदे - संजम ते व्रत श्रव । ते श्रव निश्चय जीव जाणोंरे | खतरे भेद संजम नें संबर को जिन । ते जीवरा लक्षण पिछाणों रे ॥ ॥ ५८ ॥
श्रव में जीव श्रद्धावणं कार्जे | जोड कीधी पाली शहर मकारों रे । सम्वत् अठारह पचाव न वर्षे आसोज सुद चौदश भौमवारो रे ॥ श्र ॥ ५६ ॥
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इति पंचम प्रश्रव पदार्थ की जोड़ खामी श्री श्रीपनजी कृत ।
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(१२५) ॥ भावार्थ ॥
निरजराकी करणी निरवद्य करते वक्त जीवके सर्व प्रदेश च. लायमान होतेहैं तव अनन्त कर्म प्रदेशोंके पुलके पुज प्रातम प्रदेशौसे क्षय अर्थात् अलग होते हैं वोतो निरजरा याने निरमला जीव है और उसकी करणी करते संचर नाम कर्मोदय से जीव के उदय भाव निप्पन्न होने से भले जोगोंकी वर्तनां होती है तव पुण्यमयीशुभकर्मों को जीव अहिता है सो श्राश्रव है, तात्पर मन बचन कायाके शुभयोगों से निरजरा होती है इसलिये तो निरजरा की करणी में यह गर्भित है सोनवपदार्थों में छटा निरजरा पदार्थ जीव है, और इन्हीं योगौसें पुण्य ग्रहण होते हैं जिससे पांचमां श्राश्रव पदार्थके बोलों में है, कौंको करता है सोही पाश्रव जीव है, मन वचन कायाके जोगोंको प्रसस्त अप्रसस्त कहा है प्रसस्त जोगतो पुण्यके द्वार हैं और अप्रसस्त जोग पापके द्वार है, प्रसस्तं द्वारोंको तो शास्त्र में उदीरणा अर्थात् उद्यम करिके उदय में लाना और अप्रसस्त द्वारोंको कंधना अर्थात् बंध' करना कहा है, उदीरतां या रूंधता निरजराहो सोतो निर्जराकी करणी है, और उदय भावके जोग वर्तते हैं जिन्होंसे कर्म ग्रहण होते हैं वोह भाव जोग आश्रव है, श्री उघवाई सूत्र में प्रसस्त अप्रसस्त जोगोंके यासट भेद कहे हैं, तथा भगवतने सतरह भेद संजम कहा है असंजम है सो अव्रत है और अबत है सो आश्रव है, मांठे २ कर्तव्य और करणी यह जीवका व्यापार है, मोह कर्मके उदयसे च्यार संशा है सो,जीव है जिससे पाप.कर्म लगता है, तथा उट्ठाण कम्म (कर्तव्य ) बल बीर्य पूर्षाकार प्राक्रम को श्रातमा कही है, सावध है सो तो पापके करता है और निरबध है सो पुण्यके करता है, करता है सोही पाश्रव है, संयती१ असं. यती २ संजतासंजती ३, बची १ अवती २ व्रताव्रती ३, पचखानी १ अपचनानी २ पचखानापचखानी ३, पण्डिता १ बाला२ चालापण्डिता ३, जागरा १ सूता २ जागरा सता ३, संबूडा १ असंवूषा,२ संबूडा असंयूडा ३, धर्मी १ अधर्मी २ धर्माधर्मी ३,
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( १२६ ) इस्यादिक अनेक तरह से तीन योल कहे हैं सो सर्व पोल माधव तथा संबर है, अर्थात् संजती है सो संवर है असंजती आश्रय है
और संजतासंजती पाश्रव संबर दोनूं है, ऐसे ही सब बोल जानना, तात्पर्य श्राभव कम होने से संबर वधता है और संवर कम होने से आश्रव वधता है, विवेकी जीवों को विचारणा चाहिये कि कोनसा द्रव्य घटा और कोनसा वधा, संवरका प्रतिपक्ष आश्रवा , है, पाश्रवका प्रतिपक्ष संवर है, यदि आश्रव अजीव है तो संबर भी अजीव है जो संवर जीव है तो अाधव भी जीव है, सतरह प्रकारका संजम है सो तो व्रत संबर द्वार है और वही सतरह प्रकारका असंजम है सो अव्रत श्राश्रव द्वार है, स्वामी श्री भीखनजीका कहना है कि न्यायवादी और मोक्षाभिलाषी जीवों को निरपक्ष होके श्राश्रव पदार्थको यथा तथ्य श्रद्धना चाहिये तथ समदृष्टी होंगे, श्राश्रव पदार्थ को जीव श्रद्धानेको पाली शहर में ढाल जोडके कहा है, सम्वत् १८५५ श्रासोज सुद १४ मंगलवार, जिसका भावार्थ मेरी तुच्छ बुद्धि प्रमाण किया इस में कोई अशुद्धार्थ हुना हो उसका मुझे वारम्बर मिच्छामि दुक्कडं है। ॥ इति पञ्चम श्राश्रव पदार्थ ।।
आपका हितेच्छू ... . श्रा० गुलाबचंद लूणिया - ॥ अथ षष्टम संबर पदार्थ ।।
॥दोहा॥ संबर पदार्थ छट्टो कयो । तिणरा थिर भूत प्रदेश ॥ श्राश्रव द्वारने रूंधणों । तिणसुं मिटजाय कर्म प्रवेश ॥१॥ श्राश्रव द्वार कमें श्रावानां
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( १९७), बारणां। ते ढांक संबर द्वार ।। श्रातम बस कियां संबर हु।। ते गुण रतन श्रीकार ॥ २॥ संबर पदार्थ भोलख्यां बिना । संबर न निपजै कोय । शंका कोई मत राखजो। सूत्र स्हामों जोय ॥३॥ ते संबर तणां पांच भेदछ । त्यां पांचांरा भेद अ. नेक ॥ त्यांरा भाव भेद प्रगट कहुं । ते सुणिजो प्रांणि विवेक ॥४॥
॥ ढाल ॥ ॥ पूजजी पधारोहो नगरी सेविया एदेशी ॥ नवही पदार्थ श्रद्धै यथा तथ्य । तिणने कहिजे समकित निधानहो ॥ भविकजन ॥ पछै त्यांग करै ऊंधा श्रद्धण तणां । ते समकित संवर प्रधान हो ॥ भ ॥ संबर पदार्थ भवियण पोलखो ॥१॥ त्याग किया सर्व सावध जोगरा । जावजीव पच.. खाण हो।।म। श्रागार नहीं त्यांरे पाप करणतणों। ते सर्व व्रत संबर जांण हो।मसिं॥२॥ पाप उदयसुं जीव प्रमादीथयो। तिण पापसु प्रमाद श्राव थाय हो । म ॥ ते पाप उपस्म हुयां कैखय हुयां। अप्रमाद संवर हुवै हाय हो । भ ।। सं ॥ ३ ॥ कषाय कर्म उदय छै जीव । तिणसु कषाय श्रा,
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( १२८) श्रव छै तामहो । भ ॥ कषाय कर्म अलगा हुयाँ जीवरै । अकषाय संबर हु महो ॥भ ॥। ॥ ४ ॥ थोडा थोडा सावध जोगां ने रूधियां । अजोग संबर नहिं थाय हो ॥ भ ।। मन बचन कायास जोग रूंधै सर्वथा। जब अजोग संबर हुप्रै तायहो ॥ भ ॥ ॥५॥ सावध जोग मांग रूंधै सर्वथा । जबतो सर्व प्रत संबर होयहो. ॥भ ॥ पिण निखद्य जोग वाकी रह्या तेहनें । तिणसुं अजोग संवर नहिं कोयहो । भ ॥ सं ॥ ॥६॥ प्रमाद श्राश्रवनें कषाय जोग आश्रय ।। । यह तो नहिं मिटै कियां पचखाणहो ॥ भ॥ येतो सहमें मिटैछै कर्म अलगा हूयां तिणरी अंत. रंग किजोपिछाणहो । भ ॥ सं ॥ ७॥शुभ ध्याननें लेश्यासुकर्म कटियां थकां । जब अप्रमादसंवर थायहो॥ भ ।। इमहिज करतांअकषाय संवर हौ । इम अजोग संवर होय जाय हो। भ ॥ सं॥८॥ समकित संवर ने सर्व व्रत संवर। ये तो हुत्रैछै कियां पचखाणहो।भ ॥ अप्रमाद अकषाय अजोग संवर हु।।ते तो कर्म खय हुवां जांणहो ॥ भ सं| हिंसा झूठ चोरी मैथुन परिंगरो। ये तो जोग आश्रक
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(१२६) समायहो। भ ॥ ये पांचूंही पाश्रवने त्यागे दीयां । जब ब्रत संबर हौ तायहो।।म।। सं॥ १० ॥ पांच इंद्रियां नैं मेलै मोकली। त्याने पिण जोग श्राश्रव जाणहो । भ ।। पांच इन्द्री मोकली मेल बारा त्यागछै । ते पिणा व्रत संबर ल्यो पिछाणहो ॥भ ।। सं ॥ ११॥ भला मुंडा कर्तव्य तीनूं जोगां तगा । तेतो जोग आश्रबछै तामहो ॥ भ ॥ त्यां तीनूहीं जोगां नैं जावक रूंधीयां । जब अजोग संबर हु महो । भ ।। सं. ॥ १२ ॥ अजयणा करे अंड उपना थकी । तिण नै पिणा जोग भा. भव जांणहो । ॥ सुचिकुनगसेवते जोग श्रा. श्रव कह्यो । त्यांने त्याग्यां संबर बत पिछाणहो । म ॥ सं.१३ ॥ हिन्सादिक पंदरे तोजोग पाश्रव कहा ॥ त्याने त्याग्यांबत संवर जांगहो ।म।। त्यां पंदरानं मांग जोग मांहि गिण्यां । निरवद्य. जोगांरी करिज्यो पिछाणहो । म ॥ सं॥ १४ ॥ तीनहीं निरवद्य जोग रूंध्यां थकां । अजोग संबर होय जातहो ॥ भ ।। ये बीसूही संवर तणों व्योरो कहो ॥ ते बीसूही पांच संबर मैं समात हो ॥भ ।। संबर ॥ १४ ॥ ।
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... . . भावार्थ .
: अब छट्ठा संघर पदार्थ कहते हैं श्रातम प्रदेशा कोलवर सो. संवर अर्थात् श्राते कर्मों को रोकना और जीवके प्रदेशोको स्थिर करना उसही का नाम संबर है, तात्पर जीवके प्रदेश कर्मोदय से चलाचल होते हैं तष नूतन कर्मों को ग्रहण करते हैं इसलिये आश्रवद्वार कहा है और वोही प्रदेशस्थिर होते हैं इसलियउन्हीं जीवके प्रदेशों का नाम संयर द्वार है, तबही कहना है कि संवर को यथातथ्य जाने विना संयर नहिं निपजता है, मुख्यपांच प्रका रके संबर हैं इन पांचोक अनेक भेद है सो विस्तार पूर्वक कहते हैं, १नय पदार्थों को यथा तथ्य श्रद्ध कर अयथार्थ श्रद्धने का त्या
गकरें सो सम्यक् संबर है। २-सर्व सावध जोगोंका त्याग कर अर्थात पाप करनेका श्रागार
किंचित् नहीं सब सर्च व्रत संबर होता है। ३-पाप कर्मके उदय से जीव प्रमादी है इसलिये प्रमाद 'आश्रय होरहा है, वोही प्राय उयस्म या क्षय होय.तव श्रममाद संघर होता हैं। ४-ऐसेही कवाय कर्म जिहांतक जीव के उदयह तहांतक कषाय 'श्राश्रव है, वोही कषाय कर्म प्रकृति जीधके प्रदेशों से अलग
होय.तय कषाय संबर होता है। ५-जोग भाश्रयके दो भेद हैं, अशुभ और शुभ योग, थोडे अशुभ
जोगों को या सर्वथा अशुभ योगों को संधने से अयोग संबर नहिं होता, अजोग संबर तो शुभ और अशुभ दाही प्रकार
के योग सर्वथा संधैं तब होताहै। .' उपरोक्ष पांचो संबर कहे सो जिसमें से सम्यक संबर और "बत संबर येहता ऊंधी श्रद्धने और सर्वथा सावध जोगों के त्याग करने से होताहै, और बाकी तीन संषर त्याग करनेसे होते नहीं अर्थात् स्वंता है। कर्मक्षय होनस होते हैं। . . . .
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हिन्सा झूठ चोरी मैथुन परिग्रह तथा पांचों इन्द्रियोंको मोकलो मेलना मन बचन कायाके जोग और भंडोपग्रण से अजयणा करना तथा सुचि कुशंग सेना यह पंदरे ही जोग श्राश्रव है इन 'को त्यागने से व्रत संबर होता है, जोग.संघर तो सर्वथा जोग, बंधन से चौदधे गुणस्थान है ;
॥ढाल तेहिज . - केईकहै कषाय ने जोग आश्रव तणां । सूत्र मैं चाल्या पचखाण हो ॥ भ ॥ त्यांने त्याग्याँ विना संबर किण विध हूत्रै । हिव तिणरी कहूंछु पिछाण हो । भ ।सं। १६॥ पचखाण चाल्या ॐ सूत्र में शरीररा । ते शरीर सूंन्यारो हूवां-तांमहो ॥भ । इमहिज कषाय नै जोग पचखाणछै । शरीर पचखाण ज्यूं अामहो ॥ भ ॥ सं ॥ १७ ॥ सामा. यक आदि चारित पांचं भणीं । सर्व ब्रत संवर जांन हो ॥ भ ॥ पुलाग आदि छहुँ नियट्ठा । एपिण संबरलिज्यो पिछाणहो ॥ भ ।। सं॥१८॥ चारिताबरणी खयोपस्म हूयाँ । जब'जीवन श्रावे. वैराग हो ॥ भं । तब कांमनें भोगथकी विरक्त हौ । जब सब सावझ दे त्यागहो ॥ भ । सं॥ ॥ १६ ॥ सर्व सविझ जोगाने त्यागै.सर्वथा। ते. सर्व ब्रत संबर जांणहो । भ । जब अवतरा, पाप
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. ( १३२. न लागै सर्वथा । तेतो चारित्र छै गुण खाणहो ।। . ॥भ ॥ सं ॥ २० धुरसुं तो सामायक चारित्र श्रा. दरयो । तिणरै मोह कर्म उदय रह्या हायहो।भ ।। ते कर्म उदय से कर्तव्य नीपजै । तिणसु पापला .. गै? श्रायहो ॥ भ ॥ सं ॥ २९ ॥ मला ध्यानने भली लेश्याथकी । मोह कर्म उदय थी घटजाय हो भ॥ ते उदय तणां कर्तव्य पिण हलका पडै । जव हलका ही पापलगाय हो ।भ ॥ सं ॥२२॥ मोह कर्म जावक उपस्महुवै । जब उपस्म चारित ह्वै तायहो ।। भ ।। जब जीव हुवै शीतली भूत निरमलो । तिगरै पाप न लागै आयहो॥।। ॥ सं॥ २३ ॥ मोहणी कर्म तो जावक खयहूऔ। जब तायक चारित्र हौ यथाख्यात हो ॥॥ जब शीतली भूत हू निश्मलो। तिणसुं पापन लागै अंसमातहो। म । सं ॥ २४. ।। सानायक चारित्र लियो छै उदेरि नैं । साबझी जोंगरा करे पचखाणही ।। ।। उपस्म चारित्र श्रावै मोह उपस्मियां । ते, बारित इंज्ञारमै सुशागाहो ॥।॥ ॥ सं २५ ॥ खायक चारित आवै मोह कर्म नैं खय कियां ते नाव कियां पचखाग हो ॥सा!
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( १३३ ) ते श्रावै शुक्ल ध्यान ध्यायां थकां । चारित्र छेहला तीन गुणाणहो॥ भ ॥ सं ॥ २६ ॥ चारित्रावरणी क्षयोपस्म हयां । क्षयोपस्म चारित श्रावै निधानहो । भ || उपस्म हुवां उपस्म चारित्र हुवै खय हां हायक चारित्र प्रधान हो|भासं॥२७॥ चारित निज गुन जीवरै जिन कह्यो । ते जीवसुं न्यारा नहिं हायहों ।। भा। मोहकर्म अलग ही प्रगट्या । त्यांरा गुनसु हा मुनिराय ॥ भ ॥सं| 11 २८॥
॥ भावार्थ । कोई कहै कपाय और जोगके पचखाण सूत्र में कहेहैं तोफिर अकपाय संचर त्याग करने से क्यों नहिं होता है जिसका उत्तर यह है कि सूत्रमै तो शरीर के पचवारण कहेहैं लेकिन शरिर के पचखाण कैसे होसके हैं क्योंकि यह शरीरतो जीवके चर्म स्वासो खास पर्यत है तब त्याग कैसे होय परंतु शरीर से अशुभ योग न वर्ताना या शरीर की सार संभार न करना ये त्याग होते हैं
सेही कपाय न करना प्रमाद न करना जोगों की चंचलता को रोकना ये त्याग होते हैं, क्योंकि कपाय और प्रमाद करना ये जोगों की प्रवर्तनाहै इसलिये इन्हें त्यागने से साधु के व्रत संघर पुए होता है परंतु कयाय और प्रमादके त्याग करनेसे अकषाय तथा अप्रमाद संवर नहिं होता है, एसेही सर्व लावद्य जोगोंको त्याग कर किञ्चित फिश्चित शुश जोगों को रूंधने से अजोग संबर नहिं होता, अजोग संवर तो सर्वथा प्रकार जोगों को संधसे होताहै; सर्व सावध जोगों को सर्वथा प्रकार त्यागने से समें प्रत संवर होके सर्वथा प्रकार अबूतके पाप नहिं लगते हैं,
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( १३४ )
अवल में सामायकं चारित्र आदरते हैं उनके मोहकर्म उदय रह नेस जो कर्तव्य करें जिससे पाप कर्म लगते हैं और मोइ कर्मका उदय भला ध्यान भली लेश्यासे घटा अर्थात् कमकरै तव उदयीक कर्तव्य भी हलके होत हैं, तव पाप भी हलके . लगते है, मोह कर्म को उपसमाने से उपस्म चारित्र और क्षय करनेस क्षाय. क चारित्र निपजता है तय किञ्चित् भी पाप नहिं लगता हैं अगा जवि निरमल शीतली भूत होजाता है, तात्पर सामायक चारित्र उदीर कर लेते हैं जिससे सर्व सावध जोगों को त्याग करते हैं और उपस्म तथा क्षायक चारित्र पचखने से नहीं पाता है, उपस्म चारित्र तो. सम्पूर्ण मोह कर्म को उपस्मान से और क्षायक चारित्र शुक्ल ध्यान ध्यान से सम्पूर्ण मोह कर्म को क्षय करै तय यथाक्षात चारित्र आता है सोबारवतेरवें चौदशगुण स्थान है,
और उपस्म चारित्र सिर्फ इशार में गुणस्थान ही है। चारित्र जीप का निजगुन है सो मोह कर्म अलग होने से प्रगट होता है चारित्र के गुनों से जीव मुनिराज हुश्रा है इस गुन के अंगट"हो. नेसे अनुक्रमे सर्व कमों से मुक्ति होजाता है, श्रीजिनेश्वर देवने चारित्र को जीव का निजगुन कहा है सो जीव से अलग नहीं हैं अर्थात् जीव के गुन है सो जीष है।
..... ॥ ढाल तेहिज ॥ चारित्रावरणी तो मोहणी कर्म छै । तिणरा अनेन्त. प्रदेश हो ॥ भ । तिणरा उदासू निज गुन विगंडिया। तिणसुं जीवने अत्यंत क्लेशहो ।। । म ॥ ॥ २८॥ तिण कर्मरा अनन्त प्रदेश अलगा हुवा । जब अंनन्त गुण उज्वल थायहो ॥भ ॥ जैन सावध जोग पचख्या छै सर्वथा ।
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( १३५ . "ते सर्व व्रत संवर ताय हो ॥ भ ॥ सं ॥ २६ ॥ जीव ऊजलो हुयो ते हुई निरजरा । ते व्रत संबर सूं रुकिया पाप कर्म हो ॥ भ ॥ नवा पाप न 'लागें व्रत संबर थकी । एहवो है चारित्र धर्म हों ॥ भ ॥ सं । ३० जिम जिम मोहनीय कर्म पतलो पडै । तिम तिम जीव उज्वल थाय हो ॥५॥ . इम करतां मोहनीय कर्म खय हुवै सर्वथा । जब • यथाख्यात चारित्र हो जाय हो || || सं ॥ ३१ ॥ जघन्य सामायिक चरित्र तेहनां । अनन्त गुण. जवा जांग हो | भ ॥ श्रनन्त कर्म प्रदेश उदै. था सो मिटगया । ति सूं अनन्त गुण प्रगट्या श्रण हो । भ ।। ३२ ।। जघन्य सामायिक चास्त्रिया तणां । श्रनन्त गुण उज्वल प्रदेश हो ॥ भ । वलि अनन्त प्रदेश उदय थां ते मिटगया | जब अनन्त गुण ऊजलो विशेष हो || भ ॥ ३३॥ * मोह कर्म घटेकै उदाथी इणविधै । तेतों घटेकै संखेज 'बार हो || || तिणसुं सामायिक चारित्ररा कहा । श्र संख्याता थानक श्रीकारहो || || ३४ ॥ अनन्त कर्म 'प्रदेश उदय था ते मिटगया । जब चारित्र थानक नीपजै येक हो । म ॥ चारित्र गुण प्रजवा अनन्ता:
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__ . ( १३६ ) नीपजै । सामायिक चारित्ररा भेद अनेक हो ।। भ ॥ सं ॥ ३५ ॥ जघन्य सामायिक चारित्र तेहनां । पजवा अनन्ता जांण हो ।म।। तिण थी उत्कृष्टा सामायिका चारित्र तणां। पजवा अनन्त गुणां वखास हो । भसं ।। ३६ ॥ पजवा उत्क्रष्टा सामायिक चारित तणां । तिण थी सूक्षम संपरायरा विशेख हो ॥ म ।। अनन्त गुण कया छै जघन्यं चारित्र तणां । सूक्षम संपराय त्यो पेख हो॥ ॥ सं ॥ ३७ ।। छट्टा गुण ठागाथकी नवमां लगै । सामायिक चारित्र जांण हो। भ ॥ असंख्याता थानक पजवा अनन्त छै । सू. क्षम संपराय दशमें गुण गण हो । म ॥ सं॥३८॥ सूत्तम संपराय चारित तेहनां । थानक असंखेज जांण हो । भ॥ इक इक थानकरा पजवा अनन्त छै । सामायक चारित ज्युं लीज्यो पिछाण हो ।। भ ॥ सं ॥ ३९ ॥ सूक्षम चारित्रयोरै शेष उदय रह्या । मोह कमरा अनन्ता प्रदेशहो। भ॥ ते अनन्ता प्रदेश खिरयां निरजरा हुई । वाकी उदय
नहीं रह्यो लव लेश हो.॥भ ।। सं ॥ ४० ॥ जब . • यथाख्यात चारित प्रगट हुवो । तिण चारित्ररा
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८२३७ ) · · . पेजवा अनन्त हो ।भ ।। सूक्षम सम्परायरा उत्कृटा पजवा थकी । अनन्त गुणां कह्या भगवंतहो । भ॥ सं ॥ १४ ॥ यथा ख्यात चारित्र ऊजलो हूवो सर्वथा । तिण चारित्र रो थानक येकहो।। भ ॥ अनन्ता पजवा छै तिण थानक तणां । ते थानक छै उत्कृष्टो विसेखहो ।म।। ३४ ॥ मोहकर्म प्रदेश अनन्ता उदय हूवा । तेतो पुदगलरी पर्याय हो ॥भ ॥ ते अनन्ता अलगा हवां अनन्ता गुण प्रगटै । ते निजगुण जीवरा छै त्हायहो॥ भ । से ॥४४॥ तेनिजगुण जीवरा भाव जीवछै । ते निज गुण छै बंदनीक हो ॥भ ॥ तेतो कर्म खय हुवां सुनी पनां । भाव जीव कह्या त्यांन ठीक हो । भै ।। ।।सं १५॥
॥ भावार्थ ॥
• মিযী ঋথান অাৰি অনা যে কী चारित्रावरण जो मोहनीय कर्म है जिसके अनन्ते प्रदेश जीर्षके. उदयहोने से चारित्र मयी निज गुन खराव होरहा है जिससे जीधको अत्यन्त क्लेश है इसके अलग होनेले चारित्र गुनं अनन्तगुणा उज्वल होता है, सर्वथा प्रकार सावध जोगों को प्रत्याख्यान प्रक्षा से पचखने से सर्थव्रत निपजता है, संयमी होनेसे जीव उज्वल हवा सो तो निरजरा है, और संबर से नवीन पाप कर्म नहीलगे. सासर्घनत चारित्र, ज्यों ज्यों मोहनीय कर्म हलका अर्थात कम
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होगा त्यो त्यो जीव उज्वल होके चारित्र गुनकी वृद्धी करेगा, ऐसे मोहनीय कर्मको क्षय करते करते लर्व मोह कर्म क्षय होजा नसे यथाक्षात चारित्र होताहै । जिस जीवके कर्म थोडे होते हैं उसे बैराग्य भाव उत्पन्न होता है तब संसार को असार जानके प्रथम सामाइक चारित्र श्रादरता है अर्थात् पंच महाव्रत अङ्गीकार करिके भले अध्यवसायो से मोहनीय कर्म के प्रदशा कोक्षय फरता है तब येक संयम स्थानक निपजता है अनन्त प्रदेशों का क्षय होने से अनन्त गणां उज्वल चारित्र हवा इससेयेक संयम स्थानक की अनन्ति पर्याय है, इसही तरहे मोहनीय कर्म को असंख्यात बार क्षय करता है इसलिय सामाइक चारित्र के असंख्याता संयम स्थानक हैं और येक येक संयम स्थानक की अनन्ती अनन्ती पर्याय है, जघन्य सामायक चारित्र की पर्याय से उत्कृष्ट सामाय. क चारित्र की पर्याय अनन्त गुण अधिक है छटा गुणस्थान से नमा गुणस्थान लग सामायक चारित्र हे ऐसे छेदोस्थापनी चारित्र के स्थानक और पर्याय जानना, इसमें गुणस्थान सक्षम सम्परांय चारित्र है जिसके भी असंख्यातायम स्थानक श्रीर अनन्ती पर्याय है, सूक्षम सम्पराय चारित्रियाके मोहनीय कर्मके अनन्ते प्रदेश सेष रहे हुवे सर्व प्रदेश प्रातम प्रदेशों से येक दम अलग होता है तब द्वादशम गुणस्थान में थथाख्यात चारित्र प्रगट होता है, मोहनीय कर्मके सवं प्रदेशों को येक ही वक्त में क्षय किया इस लिये यथाक्षात चारित्र का येकही संयम स्थानक है और उसकी सबसे अधिक अनन्ती पर्याय है, सामाईक छेदो स्थापनीय पडिहारविशुद्ध और सूक्षन संपराय इन च्यार चारि प्रोके तो असंख्याता असंख्याता संयम स्थानक है अर्थात् इन चारित्र वाले मोहनीय कर्मक प्रदेशों को पूर्वोक्त रीति से असं. ख्याता २ वारखपाते हैं जिस से चारित्र गुण अधिकाधिक अनन्त गुणां निरमल होता है सोही अनन्ती पयाय है, सबसे थोडीती सामाइक छेदोस्थापनीय चारित्र की जघन्य पर्याय (पज्झव ) है.' जिससे अधिक पडिहार विशुद्ध चारित्रकी जघन्य पर्याय अनन्त गुणी है, जिससे अधिक पडिहारविशुद्ध चारित्र की उत्कृष्टी पयाय अनन्त गुणी है जिससे अधिक सामाइक और छहोस्थापनीय
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चारित्र को उत्कृष्टो पर्याय श्रमन्त गुणी है। जिससे अधिक सक्षम संपराय चारित्र की जघन्य पर्याय अनन्त गुणी है, जिससे अधि क सृतम संपराय चारित्र की उत्कृष्टा पर्याय अनन्त गुणी है, जि ससे अधिक यथाज्ञात चारित्र की पर्याय अनन्त गुणी है, तात्पर सबसे जियादह यथाक्षात चारित्र निर्मला है ये चारित्र बारवें तेरवे गुणस्थान है। . . . . . . .
॥ढाल तेहिज ॥ सावध जोगरा त्याग करिने रूंधीया तिण सुं तसंबर हूवो जाण हो ॥ भ ॥ निवद्य जोग रूंध्यां संबर हूत्रै । तिगरी बुद्धिवंत करिजो पिछाणहो । भ ॥ ४६॥ निरवद्य जोग- मनवचः न काया तणां ।. ते घटिया थी संबरं थायहो । ॥भ ।। सर्वथा घटियां अजोग संबर हौ। तिणरो ब्योरो सुणोचितल्यायं हो ॥ भ ।सं।। ४७॥ . साधुतो उपवास बेलादिक तप करै । ते कर्मकाटणरे कामहो । भ.॥ जब सहचर संबर साधुरे नी. पजै । निरवद्य जोग रूंध्यां सु तामहो ॥ भ ॥
सं॥४८॥ श्रावक उपवास बेलादिक तपक: रे। ते पिण कर्म काटणरै कामहो ।भ ॥ जब बतसंबर पिण सहचर नीपजै । सावंद्य जोग र ध्यां ताम'हो । म ।। सं॥ ४६॥ श्रावक जेजे पुदगल भोगवे । ते. सावध जोग व्यापार हो ।
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( १४० ) .. . ॥ भ ॥ यांरो त्याग कियाथी बत संवर हूवै । तप पिण नीपजै लारहो ॥ भ ।। सं ॥५०॥ साधुतो कल्पै ते पुदगल भोगवै । ते निरवद्य जोग व्यापार हो । भ। त्यांने त्याग्यां थी तपस्या नींपनी । जोग रूंध्या ते संबर श्रीकार हो।भ। ५१ ॥ साधू रो हालवो चालवो बोलवो । ते. निरवद्य जोग व्यापार हो । म ॥ निरवद्य जोग रूंध्या जितलो ही संबर हूवै । तपस्या पिण नीपजै श्रीकार हो । ॥ भ'। 'सं ५२ ।। श्रावक रो हालवो चालवो वो लवो । ते सावध निरवद्य व्यापार हो ॥ भासावछरा त्यांग सुं तो व्रत संबर हू। निरवद्य त्याग्यां संबर श्रीकार हो ॥ भ ॥ सं ॥५३ ।। चारित नैं तोबत संबर कह्यो । तेतो अव्रत त्याग्यां होय हो ।भ।। अजोग संबरशुभ जोगरूंध्यां ह्वै । तिण में शंका नहिं कोय हो ॥ भ ॥सं ॥ ५४॥ संबर निज गुण निश्चय जीवरो । तिणनैं भावजीवं कह्यो जगनाथ हो ॥ भ ॥ जिणं द्रव्य में भाव जीव नहिं श्रोलख्यो । तिणरा घट में सुं न गयो मिथ्यात हो ॥ ॥ सं ॥ ५५॥ संबर पदारथ नैं भोलखायवा। जोड कीधी श्रीजी द्वारा मझार
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(१४१) हो ॥ भ ।। सम्बत् अठारे में छपना बर्ष में । फांग ण विद तेरशशुक्रावारहो।।। सं॥५६॥ इति ।
भावार्थ ॥ . . . सावध जोग वाने के त्याग करके सावध जोगों को कंधने से व्रत संबर होय, और निरवद्य जोग देशतः कंधने से संबर और सघ संधन से अजाग संयर होता है। साधु मुनिराज आहार पानी आदि कल्पनीय द्रव्य भोगते हैं सो निरवध जोग हैं तथा धावक भोगता है सो सावध जोग हैं, इसलिये श्रापक उपवास घेला आदि तपकरें जिस में आहार पानी भोगने का त्याग किया जिससे सहचर व्रत संयर होता है, और सांधू श्राहार पानी
आदि भोगने का त्याग कर तब उनके भी संवर होता है, जय कोई कहै साधू आहार पानी करें जिससे पाप नहीं लगै तो फिर संपर फिसतरहें हुआ जिसका उसर यह है कि पाप श्रवै सोही प्राश्रय नहीं हैं आश्रव तो पुण्य को भी श्रवता अर्थात् ग्रहण करता है और पाप को ग्रहण करता है इसलिये साधू आहार पानी भोगने के शुभ जोगों को संधने से पुण्य कर्म के आने के द्वार को रुंध्या सो संवर हुश्रा और थावक पाप कर्म के आने के द्वार जो आहार पानी भोगर्नेफे अशुभ जोग द्वार कंध्या जिससे संघर हुआ तात्परधावक का हालना चलना बोलना खाना पीना श्रादि कर्तव्य है सो सावध जोग व्यापार और साधू के यही कर्तव्य निरवध जोग व्यापार है, श्रावक के सावध को त्यागन से व्रत संबर और निरखध के त्यागने से संयर होता है. चारित्र है सो व्रत संयर है सो अन्बत को त्यागने से होता है और अजोग संघर सर्व निरषचं जोगों को रूंधै तब होता है । संवर है सो जीवका निजगुन है भाष जीव है सोही स्थिर प्रदेश है।छहासंबर पदारथ को श्रोलखाने के निमित्त खामी श्री भीखनजीन श्री नाथद्वारा में सम्बत् १५५६ फाल्गुन धुदी १३ शुक्रवार को जोड किया जिसका भाया
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(१४२) र्थ मिजबुद्ध्यानुसार मैंने किया जिसमें कोई अशुद्धार्थ पाया हो उसका मुझे बारम्बार मिच्छामि दुक्क है।
.' " अापका हितेच्छू
मा० गुलावचन्द लूणियां जयपुर ॥ अथ सातमां निरजरा पदार्थ ॥ :
॥दोहा॥ निरजरा पदार्थ सात । ते तो उज्वल वस्तु अनूप ।। ते निजगुन जीव चेतन तणों । ते सुणज्यो धर खूप ।
... ॥ ढाल ॥ लिन २. जम्बू. स्वाम नें ।। एदेशी ॥ ___ पाठ कर्म छै जीवरै अनादिरा । त्यांरी उत्पत्ति आश्रृंव द्वार हो मुणिंद । ते उदय थयीने पढ़ें निरजरे । वलि उपजै निरंतर लार हो मुणिंद .॥ निरंजरा पदार्थ पोलखो ॥१॥ द्रव्य जीव छै तेहनां । असंख्याता प्रदेश हो । मु ।। सारा प्रदेशां श्रिव बार छै । सारा प्रदेशां कर्म प्रवेश हो ॥ मु नि ॥२॥ इक इक प्रदेश के तेहनें ।
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(४३) संमें समें कम लागत हो ॥॥ प्रदेश येक येक कर्म नां । समें समें लागै छै अनन्त हो ॥ मु॥ . नि ॥ ३ ॥ कर्म उदय थी जीव । समें समें
अनन्त झडजाय हो । मु ॥ भरी नींगल ज्यूं कर्म मिटै नहीं । कर्म मिटवा गे न जाणे उपाय हो । मु ॥ नि ॥ ४ ॥ पाठ कर्मा में च्यार घनघातिया । त्यांसु चेतन गुणारी हुवै घात हो ॥मु ।। ते अंसमात्र क्षयोपस्म रहै सदा । तिणसूं जीव ऊजलो रहै अंसमात हो ॥मु ॥ नि ॥ ५ ॥ कांयिक घनघातिया त. योपस्म हुरै ।। जर्व कांयिक उर्दै रह्या लार हो ॥ मु॥क्षयोपस्म थी ऊजलो हुवै । उदें थी ऊजलो न हुवै लिगार हो ॥ मु ॥ नि ॥ ६ ॥ कांयक कर्म क्षय हुवे । कांयक उपस्म हुवें ताय हो ॥ मु ॥ ये क्षयोपस्म हुयां जीव ऊजलो । ते चेतन गुन पर्याय हो । मु ॥ नि ॥ ७ ॥ जिम जिम कर्म क्षयोपस्म हुौ । तिम तिम जीव. ऊजलो हुत्रै श्रम हो । मु । जीव ऊजलो हुश्री ते निरजरा । ते भाव जीव छै ताम हो ॥ मु॥. नि॥८॥ देश थकी जीव ऊजलो हुवै । तिण.
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ने निरजरा कही भगवान हो ॥ मु॥ सर्व ऊनलो ते मोक्ष छै । ते मोक्ष छै परम निधान हो ॥ मु ॥ नि ॥ ६ ॥ ज्ञानावरणी क्षयोपस्म हु. वा नीपजै । च्यार ज्ञाननें तीन अज्ञान हो ॥मु॥ भणवो श्राचारंग आदि दै । चवदै पूर्वरो. ज्ञान हो । मु ॥ नि ॥ १० ॥ ज्ञानावरणी री पांच कृती मझें । दोय क्षयोपस्म रहै सदीव हो ॥मु॥ तिणसूं दोय अंज्ञान रहै सदा । अंसमात्र ऊजलो रहै जीव हो ॥ मु ॥ नि ॥ १०॥ मिथ्यातीरें तो जघन्य दोय अंज्ञान छै । उत्कृष्टा तीन अज्ञान हो। मु॥ देश ऊंगों दश पूर्व भगा । इतलौ उ. स्कृष्टो त्तयोपस्म अज्ञान हो ॥ मु॥ नि ॥ १२ ॥ समदृष्टी रै जघन्य दोय ज्ञान छै । उत्कृष्टा च्यार ज्ञान' हो । मु ॥ चवदह पूर्व उत्कृष्टौ भएँ । ए. हबो क्षयोपस्म भावं निधान हो ॥ मु ॥ नि ।। १३ ।। मति ज्ञानावरणी क्षयोपस्म हुवां । निपजे. मति ज्ञान में मति अज्ञान हो ॥ मु ॥. श्रुत ज्ञानावाणी क्षयोपस्म हुवां । निपजै श्रुत ज्ञान में श्रुत अज्ञान हो । मु. ॥ नि ॥ १४ ॥ भण श्राचाग्न आदिदे । समदृष्टी चवदह पूर्व नाण हो
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(१४५) ॥ मु॥ मिथ्याती उत्कृष्टौ भणें । देश ऊंणो दश पूर्व लग जाण हो । म ॥ नि ॥ १५ ॥ अवधि ज्ञानावरणी क्षयोपस्म हुवां । समदृष्टी पामें 'श्रव. धि नांण हो ॥ मु ॥ मिथ्या दृष्टी ने विभङ्ग अ. ज्ञान ऊपजै । क्षयोपस्म प्रमाणे जाण हो । मुः ।। नि ।। १६ । मन पर्यायावरणी तयापस्म हुवां । उपजें मनपर्याय ज्ञान हो । मु॥ ते साधुमम दृष्टी ने ऊपजै । एहवो क्षयोपस्म भाव प्रधान हो। मु ॥ नि ।। १७ ।। ज्ञान अज्ञान सागार उपयोग छै । या दोन्यारो येक स्वभाव हो ।। मु ते कर्म श्रलगा हुवां नीपजे । ते तयोपस्म ऊजलो भाव हो । मु | नि ॥ १८॥ दरशनांवग्णी क्षयोपस्म हुवां । पाठ बौल नीपले श्रीकार हो ॥मु॥ पांच इन्द्रियां ने तीन दरशन हुवें । निरजरा . उज्वल तंतसार हो । मु ॥ नि १६ || दरश-. नावरणीरी नव प्रकृती मझे। येक प्रकृती. क्षया.
पस्म सदीव हो ।। मु॥ तिण सूं अयत्तू दरशनं । नें स्पर्श इन्द्री म्है सदा । ते क्षयोपस्म भाव छै .
जीव हो । मु ॥ नि ॥ २० ॥ चतु दरशनावरहै। णी क्षयोपस्म हुवा । चक्षु इन्द्री ने चक्षु दरशन
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१ १४६ ) होय हो ॥ मु॥ कर्म अलगा हुवां ऊजला हुदै जब देखवा लागै सोय हो ॥ मु॥ नि ॥ २१ ॥ अचत्तु दरशनावरणी विशेष थी । क्षयोपम्म हुवे तिणवार हो । मु॥ चतु टाली में शेष इन्द्रियां। क्षयोपस्म इन्द्रियां पामैं च्यार हो ॥ मु ॥ नि । २२ ॥ अवधि दरशनावरणी क्षयोपस्म हुवां । उपजे अवधिदरशन विशेष हो । मु । जव उत्कृटो जीव देखै एतलो । सर्वरूपी पुदगल ले देख हो । मुनि ॥ २३ ॥ पांच इन्द्री ने तीन दरशन ते क्षयोपस्म उपयोग मणागार हो । मु।।. ते वानगी केवल दरशण माहिली । तिणमें शङ्का मतराखो लिगार हो । मु॥नि ॥ २४ ॥ मोहनीय कर्म क्षयोपस्म हुवों । नीपजै पाठ बोल श्रमांम हो ॥ मु॥ च्यार चारित्र में देश व्रत नीपजै । तीन दृष्टी उज्वल हुत्रै ताम हो ।मु॥ नि ॥ २५ ॥ चारित्र मोहनीयरी पच्चीस प्रकृती मझे केई सदा रहै क्षयोपस्म हाय हा ॥ मु ॥ तिण सं अंसमात्र ऊजलो रहै । जब भला वर्ते अध्यवसाय हो । मु॥ नि॥२६॥ कदे क्षयोपस्म श्रधिको हुवै ! जब अधिका गुण हुवै तिण
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(१४७) मांय हो । मु॥ तमां दया, संतोषादिक गुण वधै भली लेश्यादिक वर्ते जब श्राय हो । मुनि॥ ।। २७ ।। भला परिणाम पिण वतै तेहनां । भला जोग पिण वर्ते ताय हो।।मु ॥ धर्म ध्यान पिण ध्यावे किणा समें ! ध्यावणी श्रावै मिटियां कषाय हो । मु॥ नि ॥२८॥ ध्यान परिणाम जोग लेश्या भला । भला वतै छै अध्यवसाय हो "मु ॥ सारा वतै अंतराय रो क्षयोपस्म हुवां । मोह कर्म अलगो हुवा हाय हो ॥मुनिHRE |
॥ भावार्थ ॥
अब सातमा निरजरा पदार्थ कहते हैं निरजरा अर्थात् निरम: ला या ऊजला जीप सो निरजरा जीवका निजगुन है, अनादिका. ल से जीव अशुभ कर्म मयी मैल से मैला हो रहा है आठ कर्मों का सङ्गी जीव अनादि काल से हैं जिन्ह कर्मों की उत्पत भाव द्वार है, जीवके असंख्याता प्रदेश है सो सर्व प्रदेश आश्रय द्वार है जीवके येक येक प्रदेश पर कर्मके अनन्तानन्त प्रदेश लगते हैं वे उदय होके समय समय अनन्तेही अलग होते हैं उनके अलग होनेसे जीव ऊजला होय उसे भी निरजरा ही कहते हैं परंतु फिर नवीन कर्म खोटी करणी करणे से लगते रहते हैं, आठ कर्म में च्यार कर्म घण घातीक हैं जिससे जीवके निजगुनों की घात हो रही है लेकिन घातिक कर्मों का भी किंचित् क्षयोपस्म सदा रहता है इसलिये जीवके निजगुन भी हमेशां ऊजले रहते हैं, जितने जितनं घातिक कमी का क्षयोपस्म होता है उतना उतना ही जीव देशत उज्वल होता जाता है, जीव उज्वल होय उस हों
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(१४६ का.नांम निरजरा है सच त उज्यल होय उसका नाम मोक्ष है, अंध ज्ञानावरणीयादि च्यार घातीक क्रर्मों का आयोपस्म होने से जोव के गुन प्रगट होते हैं जिसका वर्णन विस्तार पूर्वक कहते हैं।
१-शानावरणीय कर्म क्षयोपस्म होने से केवल विना च्यार शान तीन अज्ञान तथा भणना गुणनां येह पाठवोल प्राप्त होते हैं, शानावरणीय कर्म की पांच प्रकृती में से मति और श्रुत शाना: वरणी तो किंचित् सास्वती जीवके क्षयोपस्म रहती है जिस से समदृष्टी के तो मति श्रुति ज्ञान और मिथ्यात्वी के मति श्रुति अशान जघन्य में है तथा वाको प्रकृतियों का क्षयोपस्म जितन्ग जितना अधिक होय उतना उतना ही ज्ञान गुण अधिक प्रगट होता जाता है, मित्थ्याती के तो जघन्य दोय और उत्कृष्टा तीन अज्ञान होता है, और समदृष्टी के ज्ञानावरणीय कर्म क्षयोपस्म होने से जघन्य दोय ज्ञान और उत्कृष्टा च्यारं ज्ञान होता है, तथा मिथ्याती तो जघन्य आठ प्रवचन माता का भणता है ओर उत्कृष्टा देश ऊणा दश पूर्व भण जाता है, समदृष्टी जधन्य आठ प्रवचन माता का भार उत्कृष्टा चौदह पूर्व भण जाता है, अवधि कानावरणीय क्षयोपस्म होने से समदृष्टी के तो अवधि ज्ञान और मिथ्या दृष्टी के विभङ्ग अज्ञान होता है.. मन पर्यव ज्ञानावरणी का क्षयोपस्म मित्थ्यात्वी के कदापि नहीं होता है इस प्रकृती का क्षयोपस्म तो समष्टी साधू के ही होता है जिससे मन पर्यव ज्ञान प्रगट होता है, केवल शानावरणो का क्षयोपस्म होता नहीं इसका तो नायक ही होता है, तात्पर्य ज्ञान अज्ञान दानूं ही क्षयोपस्म भाव है सो जीव के निजगुन हैं दोनूं ही का गुन यथार्थ जानने का है विपरीत ; जाने सो मिथ्यात है, तब कोई कहै तो फिर इस गुनको अ: शान क्या कहा इसका उत्तर यह है कि जैसे कूवेका पानी तो शुद्ध निरमल ठण्डा और मीठा है परंतु वोही पानी ब्रह्मन के वरतन में रहने से शुद्ध गिना जाता है और वोही पानी मात के वरतन में रहे तन अशुद्ध गिनते हैं वैसे ही मित्थ्याती के, धान गुन प्रगट हुवा सो मिथ्यान सहित है इसलिये उसे-म.
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(१४६." शान भोर समधी के ज्ञान कहा जाता है, शान अज्ञान दोन
ही साकार उपयोग है। २-दूसरा घातीक कम दरशनावरणीय है जिसकी प्रकृती है 'जिसमें से प्रचलु दरशनावरणी देशते हमेशा क्षयोपस्म रहती है जिससे प्रचt.दरशन और स्पर्श इन्द्री तो जीवके हमेशाही है वाकी जैसी जैसी प्रकृती का क्षयोपस्म होय वैसा वैसा ही गुन जीवके प्रगट होता जाता है, चक्षु दरंशनावरणी का क्षयो. पस्म होने से चचु इन्द्री और चनु दरशन गुन होता है, अच. क्षु दरशनावरणी का विशेष क्षयोपस्म होनेसे अचच दरशन "और श्रुत प्राण रश: स्पर्श, येह च्यार इन्द्रियां होती हैं, अवधि दशनावरणी का क्षयोपस्म होनेसे अवधि दरशन उत्पन्न हो'ताई, तात्पर्य पांच इन्द्रियां और तीन दरशन यह आठ गुन दरशनावरणीय कर्म का क्षयोपस्म होने से होते हैं साकेवल दरशनकी बानगी है, पांच इन्द्रियांभौरान दरशन येह जीवके म. रणागार उपयोग गुन हैं।" ३-तीसरा घातिककर्म मोहनीय है जिसका क्षयोपस्म होने से
जीषके मोठ गुन प्रगट होते हैं, मोहनीय कर्म के दोय भेद है चारित्र मोहनीय और समक्ति मोहनीय चारित्र मोहनीय की .पश्चीस और समाकित मोहनीय की तीन प्रकृती हैं जिसमें से चारिष मोहनीय की प्रकृतियां किंचित् हमेशां क्षयोपस्म रह- . ती है जिससे शुभ जोग और भले अध्यवसाय जीवके वर्तते हैं तथा धर्म ध्यान भी ध्याता है परंतु कषाय मिटणे से धर्म ध्यान ध्याया जाता है, ध्यान परिणाम जोग लेश्यां श्रध्यवसाय येह सर्व भले पते .सोअंतराय कर्म का क्षयोपस्म होने से. तथा मोहकर्म का उदय अलग होने में वर्तते हैं, अब मोहनीय कर्म का क्षयोपस्म होने से जीव अाठ बोल पाता है सो कहते हैं। . . . . . . . , . . :
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॥ ढाल तेहिज॥ चौकडी अनन्तानु बंधी श्रादि दे । घणी प्रकतियां तयोपस्म हुवां ताय हो । मु॥ जय. जीवरै देश व्रत नींपजै । इण हिज विध च्यारों चारित प्राय हो । मु ।। नि ॥ ३० ॥ मोहनीय क्षयोपस्म हुवां नीपजै । देश व्रत ने चारित च्यार हो । मु ॥ वलि क्षमा दयादिक गुण नीपजै । येह संघला ही गुण श्रीकार हो ॥ ॥ नि । ' ॥ ३१ ॥ देश व्रत ने च्यारं चारित्र भला । ते गुण स्तनांरी खान हो । मु॥ ते क्षायक चारित्रं रीवानगी। यहवो क्षयोपस्म भाव प्रधान हो । मुनि ॥ ३२॥ चारित्र ने ब्रत सबर कह्यो । तिण सं पाप रूंधै छै ताय हो । मु.॥ ते पाप झडनें ऊजलो हुवै ।तिणनें निरजरा कहि इणन्याय हो । मु ॥ नि ।। ३३ ॥ दर्शन मोहणी क्षयोपस्म हुवां । निपजै सांची शुद्ध श्रद्धान हो ॥ मु ।। तीन दृष्टी में शुद्ध श्रद्धान छै । यहवो क्षयोपस्म भाव निधान हों। मु॥ नि ॥ ३४ ॥ मिथ्यात मोहणी क्षयोपस्म हुवां । मिथ्यादृष्ट उज्वल होय हो ।।।। जब केईक पदार्थ शुद्ध श्रद्धले । यहवो
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- (१५१ ) गुण नीपजै छै सोय हो । मु॥ नि ।। ३५॥ मिश्र मोहणी क्षयोपस्म हुवां । सम मिथ्या दृष्ट उज्वल हुवै ताम हो । मु ॥ जब घणां पदार्थ शुद्ध श्रद्धले । यहवो गुण नीपजै छै श्रांम हो। मु॥नि ॥ ३६॥ समकित मोहणी योपस्म हुवां । नींपजे समकित रतन प्रधान हो । मु॥ नव ही पदार्थ शुद्ध श्रद्धले । यहवो तयोपस्म भाव निधान हो । मु॥ नि ॥ ३७॥ मिथ्यात मोहनीय उदय रहै जिहां लगे । समां मिथ्या दिष्ट नहीं श्रावंत हो । मु । मिश्र मोहनी रा उ. दाथकी । समकित नहीं पावंत हो ॥मु॥ नि । ॥ ३८ ॥ समकित मोहनीय जिहांलग उदय रहैं। त्यालग तायक समकित पाचै नांहि हो । मु॥ एहवी छाक छै मोहनीय कर्मनी । नाखै जीवनें भ्रम जाल मांहि हो । मु॥ नि ॥ ३६ तीन ही दृष्ट चयापस्म भाव छै । ते सगलाही शुद्ध श्रद्धान हो । मु ॥ ते खायक सम्यक्त माहिली । वानगी मात्र गुण निधान हो ॥ मु ॥ नि ॥ ४० ॥ अंतराय कर्म क्षयोपस्म हुवां । पाठ गुण नीपजे श्रीकार हो । सु ॥ पांच लब्धिने तीन वीर्य
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नीपजै । हिवे तेहर्नु सुणो विस्तार हो। मुनि। ॥ ४१ ।। दाना अंतराय क्षयोपस्म हुवां । दान देवारी लब्धि उपजंत हो । मु । लामा अंतराय क्षयोपस्म हुवां । लाभरी लब्धि खुलंत. हो ॥मु॥ नि ॥ ४२ ॥ भोगा अंतराय क्षयोपस्म हुवां । भोगरी लब्धि उपजै ताय हो । मु.॥ उपभोगा अंतराय क्षयोपस्म हुवां । उपभोग लब्धि. उपजै. श्राय हो ॥ मु॥ नि ॥ ४३ ॥ बीर्य अंतराय क्षयोपस्म हुवां । बीर्य लब्धि उपजे छ त्हाय हो ॥ मु॥ बीर्य लब्धि ते सक्ति छै जीवरी । उत्कृष्टी अनन्ती होय जाय हो । मु ॥नि ॥ ४४ ॥ यह पांचूं ही प्रकृती अंतरायनीं । सदा क्षयोपस्म रहै. छै साक्षात हो । मु ॥ तिणसू. पाचूं लब्धि ने बाल बीर्य । ते उज्वल रहै छै अल्प मांत हो । मु॥ नि ॥ ४५ ॥ दान देवारीलब्धिनिरंतररहे। दान देवे ते जोग व्यापार हो । मु॥ लाभनी लब्धि निरंतर रहै । वस्तु लाभ ते किण वार हो ॥ मु ॥ नि ॥ १६ ॥ भोग लब्धि तो रहै छै नि: रंतरे । भोग भोगवै ते जोग व्यापार हो ॥ मु. उपभोग पिण-लब्धि है निरंतरे । उपभोग भागेर
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(१५)
जिणवार हो । मुनि ॥ ४७ ॥ वीर्य लब्धि तो निरंतर रहै । चवदमां गुणाणी लग जांणं हो ॥ मु । बारमा ताई तो क्षयोपसम भाव छ । खायक तेरमें चोदमें गुणगण हो । मु॥ नि ।। ॥४८॥ अंतराय रो क्षयोपसम हुवां जीवरै । पुन्य सारू मिलसी भोग उपभोग हो !! मु।। साधु पुद्गल भौगवै ते शुभं जोगं । और भोग वै ते अशुभ जोग हो । मु॥नि ॥४६ .
॥ भावार्थ ॥
अनन्तान बंधिया क्रोधं श्रादि घणों प्रकृतियां मोहनीय कर्म को क्षयोपसम हाय तब जीके देश व्रत गुण निपजता है। इसही तरह घंणी प्रकृतियों का क्षयोपसम होने से सामायक आदिच्या: रों चारित्रों को जीव पाता है, क्षमा दया निरलोभता आदि अनेके गुण भी मोहनीय कर्मक्षयोपसम होने से होते हैं, देशैवत तथा ध्यार चारित्र है सो क्षयोपसम भाव है हायक चारित्रं की धानगी है तथा चारित्र है सो व्रतं संवर है परंतु चारित्र की क्या हैं सो शुभ जोगों से होती है जिसस कम कटते हैं जी उजली होता है तथा क्षयोपसम भाव से भी जीव उज्वलं होता है इंस लिये. इनका वर्णन निरज़रा पदार्थ में भी बताया है। दरशन मो. हनीय क्षयोपसमं होने से शुद्ध श्रद्धामयी गुणं निपंजता है, तीन पृष्ट क्षयोपस्म भाव है, शुद्ध श्रद्धी ही को दृष्ट कहते है किन्तुं अं. शुद्ध श्रद्धा को एएं नहीं कहते, अशुद्ध श्रद्धा है सो तो मिध्यात्व है परंतु दृष्ट नहीं हैं, मिथ्यात मोहनीय क्षयोपसम होने से मित्थ्या &ष्ट उज्वलं होती हैं जिससे कितने ही पदार्थों को शुद्धश्रद्धा हैं। सममिथ्या मोहमीय क्षयोपसंग होन से सममिरथ्याष्टं उज्ज रही
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( १५४) होती है तब बहोत पदार्थों को जीव शुद्ध पद्धता है, और समकित मोहनीय क्षयोपसम होने से समष्ट उज्वल होती है जब जीव नवही पदार्थों को यथार्थ श्रद्धता है शुद्ध श्रद्धान है सोही सम्यक्त्व है, मित्थ्यात्व मोहनीय का उदय जहां लगि हैं तहां 'लगि सममिथ्यादृष्ट नहीं पाता, और समभित्थ्या मोहनीय का उदय है जहां तक समदृष्ट नहीं पाता है। समकित मोहनीय का उदय जहांतक जीवके रहता है तहां तक जीव क्षायक सम्यक्त्व नहीं पाता है, तात्पर्य तीनूं ही दृष्ट है सो क्षयोपस्म भाव है, ना. या सम्यक्त्व की वानगी है. मोहनीय कर्म का क्षयोपस्म होने से जीर उज्वल होता है लो क्षयोपसम भाव है अर्थात् जीव निरमला हुवा लोही निरजरा है जिलस जीवके आठ बोलों की प्राप्ति होती है-लामायक श्रादि च्यार चारित्र, देशत, और तीन इष्टः चौथा धातिक कर्म अंतराय है जिसका क्षयोपस्म होने से जीव. के श्राठ बोलों की प्राप्ति होती है-पांच लब्धि और तीन वीर्य जिसका वर्णन कहते हैं। १-दाना अंतराय का क्षयोपस्म होने से दान देने को लब्धि उप
जती है। २-लाभा अंतराय का क्षयोपस्म होनेसे लाभ ने की अर्थात् वस्तु
पान की लब्धि उपजतो है। ३-मोगा अंतराये का क्षयोपस्म होनेसे भोग भोगने की सब्धि
उपजती है! ४-उपभोगा अंतराय का क्षयोपस्म होनेसे उपभोग भोगने की
लब्धि उपजती है। ५-वीर्य अंतराय का क्षयोपस्म होनेसे वीर्य लब्धि :उपजती है अर्थात् पुद्गलों का चय उपचय करने की शक्ति जीव में होता है तथा बाल वीर्य, बाल पण्डित वाय,और पण्डित बाथ, जाव पाता है यह उपरोक्त पांचू ही प्रकति अंतराय कर्म की है सो
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(१५५) जीय के देशत सदा योपस्म रहती है जिससे सदा जीव में पांचो लब्धि पाती है, अर्थात् दान देनेको लब्धि तो जीपके : निरंतर है और दान देता है सो जोगों का व्यापार है, लाश लब्धि भी जीवके निरंतर है परंतु वस्तुवों का लाभ तो किसी
समय ही होता है, ऐसे ही भोग उपभोग लब्धि भी जीवके • निरंतर रहती है परंतु भोग उपभोग तो भोगचं उसही वर्ष
जोगों का व्यापार है, बीर्य लब्धि भी जीवके निरंतर 'चौदमा 'गुर्ण स्थानतक है जिसमें बारवां गुणस्थान तक तो क्षयोपस्म भाव है और तेरवे चौदा गुणं स्थान शासक भांव की लब्धि है, तात्पर्य पांच लब्धि है लो धारमा गुणस्थान तक क्षयोपस्म भाव है सो जीवका निरमला गुंन है उसंही का वाम निरजरा है, और ज्यो चतराय कर्म का क्षयोपस्म होनेस' तथा पुन्योद. य संभोग उपभोग जीव को मिलता है जिसे साधू भोगवे सो . तो शुभ जोग व्यापार है क्योंकि साधू तो बस्तु प्रांशुक 'निर. दोप जिन शाज्ञा प्रमाण भोगते हैं इसलिये, और ग्रहस्थं ज्यो पुद्गल भोगता है लो सापद्य जोग व्यापार है याने अशुभ जोग हैं, श्रव तीन प्रकार के वार्य है जिसका वर्णन कहते हैं।
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॥ढाल तेहिज ॥ , हिवें बीर्य तणां तीन भेद छै । तिणरी करि जो पिछाण हो । मु॥ बाल वीर्य कहि छै बालनीं। चौथा गुण गणां तांई जांण हो ॥ मु॥ ॥नि ॥ ५० ॥ पण्डित वीर्य कहि छै पण्डित तणें । छहाथी लेई चौदमें गुण गण हो । मु॥. बाल पण्डितः केही छै श्रावक तणें । येह तीन ही उज्वल ऐन जांण हो । मु॥ नि ॥५१॥
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( १५६ )
दे जीव वीर्य ने फोड़ वै । ते तो है जोग च्यापार हो । सु ॥ ते सावद्य निखद्य तो जोग है । बीर्य सावध नहीं है लिगार हो ॥ मु ॥ नि ॥ ॥ ५२ ॥ लब्धि बीर्य नें तो बीर्य कह्यो । क रंग बीर्य ने कह्यो है जोग हो ॥ मु ॥ ते पण शक्ति वीर्य त्यां लगे । त्यां लग रहे युगल संजोग हो ॥ मु || नि ॥ ५३ ॥ पुद्गल बिन बीर्य शक्ति हुवै नहीं । पुद्गल विन नहीं जोग व्यापार हो । सु ।। पुद्गल लागे छे. त्यां लगे जीवt | जोग बीर्य है संसार मकार हो । ॥ मुः ॥ नि ॥ ५४ ॥ वीर्य शक्ति तो निजगुण जीवरी । अंतराय अलगी हुयां जांग हो ॥ मु ॥ ते बीर्य निश्चय ही भाव जीव है । तिरा में शङ्का मतः श्रांग हो । सु ॥ नि ।। ५५ ।। येक मोह कर्म उपस्म हुवां । नीपजै उपस्म भाव दोय हो ।
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॥ मु ॥ उपसम समकित ने उपसम चारित्र हुवै । ते तो जीव ऊजलो हुवै सोय हो । सु ॥ नि ॥ ॥ ५६ ॥ दरशन मोहनी उपस्म हुवां । निपजै उपस्म समकित निधान हो || सु || चारित्र मोहनी उपस्म हुवां । प्रगटै उपस्म चारित्र प्रधान हो । ॥ मुः ॥ नि ॥ ५७ ॥ व्यार घनघाती कर्म तय
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१ १५७ ) हुयां । जब प्रगटें धायक भाव हो । मु ॥ ते गुण सर्वथा ऊजला । त्यांरो जुदो जुदो छै स्वभा-' व हो ॥ मु | नि ॥ ५८ ॥ ज्ञानावरणी सर्वथा तय हुवां। ऊपजे केवल ज्ञान हो । मु॥दरशना चरणी पिण सर्व क्षय हुवां । उपजे केवल दरशन प्रधान हो ।। मुनि ॥५६॥ मोहनीय कर्म क्षय हुवां सर्वथा। वाकी रहै नहीं अंसमात्रहो |मु॥ जब क्षायक समकित प्रगटें । वली तायक चारिव यथाख्यात हो । मुनि ॥६०.॥ दाशन मोहनीय क्षय हुवां सर्वथा । नीपजे क्षायक समकित प्रधान हो । मु ॥ चारित्र मोहनीय क्षय हुवा नीपजै । क्षायक चारित्र निधान हो । मु॥ ॥ नि ॥ ६१ ॥ अंतराय कर्म अलगो हुवां । नायक बीर्य शक्ति होवे हाय हो । मुदायक लब्धि पांचूं ही प्रगटें । किण बातरी नहीं अंतराय हो । मु | नि ॥६२उपस्म क्षायक चयोपस्म भाव निरमला।ते निजगुण जीवरा निरदोष हो।
मु॥ ते तो देशथकी जीव ऊंजलों। सर्व ऊज. लों ते जीव मौख हो । मु ॥ नि ॥ ६३ ॥ देश व्रत छै श्रावक तणें । सर्व ब्रत साधरै छै ताहि
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. (१५८॥ हो ।। ४ ।। देश व्रत समायो सर्व ब्रतमें । ज्यु । निरजरा समायी मोक्ष मांहि हो । सु ॥ नि । ॥ ६४ ॥ देश थकी ऊजलों ते निरजरा । सर्व ऊनलों ते, जीव मोख हो ॥ सु । तिण सं निरजराने मोक्ष दोनूं जीव छै । उज्वल गुण जीवस निरदोष हो ।। मु ॥ नि ॥६५॥ जोड कीधी छै निरजरा औलखायचा । श्रीजीद्वारा शहर मझार हो । मु । सम्बत् अद्वारे वर्ष छपनें । फागण सुद दसमी गुरुवार हो ॥४॥ नि॥६६॥
॥ भावार्थ ॥
वीर्य के तीन भेद हैं बाल वीर्य १ परिडत वीर्य २ वाल पण्डित वीर्य वाल वार्य तो पहिला गुण ठाणां तक है, पण्डित बीर्य छट्ठा गुण ठाणां से चौदमा गुणठाणां तक और वालपण्डित वाय.सिर्फ पांच में गुणठाणे ही है, यह तीनूं ही वार्य जीव का उज्वल गुन. है अंतराय कर्म अलग होने से प्रगट होती है, क्षयोपस्म भाव की वीर्य तो बारमा गुण स्थान तक है और क्षायक भाव की वीर्य तेरम चौदमें गुणस्थान है, अव्रती को बाल, सर्व व्रतीको पारडत,.
और बतावती को वालपण्डित कहते हैं, जब जीव वीर्य को फो। डता है तब जोगी द्वारा कर्तव्य करता है सो सावध निरवद्य दो. नू है परंतु वार्य गुन सावद्य नहीं है वीर्य तो क्षयोपस्म तथा क्षायक भाव है, लब्धि वीर्य को तो बार्य अर्थात् शक्ति और करण वीर्य को जोग कहा है, जहांतक पुद्गलों का संयोग है वहांतक फरण बीर्य है इसलिये कर्ण बौर्य को जोग कहा है जबतक जीव पुद्गलों को ग्रहण करता है तबतक जोगों की वर्तना है, पुद्गलों
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के विना जोगों का ध्यापार नहीं हैं, और पुद्गलों को ग्रहण करणे की शक्ति जीव में उत्पन्न हुई है उसका नाम वीर्य है जीवके भाव है सो निश्चय ही जीव है, मोह कर्म को उपस्मान अर्थात् दबाने से जीवके भाव उत्पन्न हुये उसका नाम उपस्म भाव है जिससे दोय गुन प्रगट होते हैं रणन मोहनीय को उपस्माने से उपस्म समाफित, और चारित्र मोहनीय को उपस्मान से उपस्म चारित्र येह दोनूं ही जीव के निरमल गुन है, च्यार घातिक कर्म क्षय होन से जीव जो भाव निष्पन्न होते हैं उस क्षायक भाव कहते हैं-शानाधरणीय क्षय होने से केवल ज्ञान, दरशनावरणी क्षय होने से केवल दरशन मोहनीय कर्म दो प्रकार का है दरशन मोहनीय क्षय होने से क्षायक समफित और चारित्र मोहनीय क्षय होने से क्षायक चारित्र प्रगट होता है. चौथा घातांक कर्म अंतराय है सो क्षय होने से नायक बीर्य गुन प्रगट होता है जिससे दानालब्धि श्रादि पांचूं ही लब्धि क्षायक भाव की होजाती है तब किसी बात को अंतराय नहीं रहती है,तात्पर्य उपस्म भाव क्षयोपसमभाव और क्षायक भाव ये तीनूं ही जीवके निरमल गुन हे सो भाष जीव है तथा जितनां जितनां जीव निरमला है वोही निरजरा है वोही जीवका निरदोष गुन है, अर्थात् देशत जीव उजला है सो तो निरजरा है और सर्व ते जीव उजला है वोह सांत है, जैसे देश वत.सर्थ व्रत में समा जाता है वैसे ही निरजरा मोक्ष में समाजाती है, निरजरा भी जीवका निरदोष गुन है
और मोक्ष मी जीवकां गिरदीप गुन है दोनूं ही भाव. जीव है, निरजरा को ओसखाने के लिये स्वामी श्री भीषनजीनं श्रीजी द्वारशहर में सम्बत् १८५३ मिती फाल्गुन सुद १० गुरुवार को ढाल जोड कर कही उसका भावार्थ मैन मेरी बुद्धयनुसार कहाजिस में कोई अशुद्धार्थ हो उसका मुझे बारम्बार मिच्छामि दुक्कडं है।'
आपका हितच्छ :
आपका
. . . .
.... श्रा० जोहरी गुलाबचंदलूणियां...
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(१६०) .. ॥दोहा॥ निरजरा तण निर्णय कह्यो । ते उज्वल गुग विशेक ॥ ते निरजरा हुवै छ किण विधै। ते सुंण ज्यो आणि विवेक ॥ १ ॥ भूखं तृषा शीत तापादिके कष्ट भोग विविध प्रकार ॥ उदय श्राव ते भोगव्यां । जब कर्म हुवै छै न्यार ।। २ ॥ नर. कादिक दुःख भोगव्यां । कर्म धस्यां थी हलवो थाय ।। प्रातो सहजें निरजरा हुई जीवरै । तिणन कियो मुल उपाय ॥३॥ निरजरा तणुं कामी नहीं । कष्ट कर 2 विविध प्रकार ॥ तिणरा कर्म अल्पमात्र झडै । अकाम निरजरारो यह विचार ॥ ४ ॥ इह लोक अर्थे तप करै । चक्रिवादिक पदवी काम । केई परलोक अर्थे तप करै। नहीं निरजरा तणां परिणाम ॥ ५॥ केई जस महिमा वधारवा तप करै छै ताम ॥ इत्यादिक अनेक कारण करै । ते निरजरा कहि छै काम ॥ ६ ॥ शुद्ध करणी निरजरा तणीं । तिण सू कर्म कटै छै ताम ॥ थोड़ो घणों जीव ऊजलो हुदै । ते सुणों . राखि चित अंम ॥ ७॥ .
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।। भावार्थ ।। . निरजरा का निर्णय तो ऊपर कहा अब उसकी करणी का पर्णन करते हैं निरजरा अकाम और सकाम दो प्रकार से होती है प्रथम अकाम अर्थात् निरजरा का कामी नहीं परंतु शीत ताप श्रादि अनेक प्रकार से फाया कष्ट करै जिससे कर्म झड के जीव' उज्वल होय तथा उदय होय उसे भोगवे नरकादिक के दुःख उदय होय सो भोगते भोगते जीव हलका होय यहतो सहमें ही निरजरा हुई परंतु निरजरा होने का उपाय नहीं जानता किन्तु दुःखों को सहन किया जिससे कर्म भाड, तथा उदेरि फर कष्ट . लिया और उसे सम भाव से सहन किया तो निरजरा हुई अथया यह लोक के सुखों के निमित्त परलोक देवादिक के सुखों के निमित्त श्रार जस महिमां वधान के निमित्त तप करै सो काम निरजरा है, और जो गिरजरा को जानकर निरजरा का कामी धाक अनेक प्रकार से तप करें उसका नाम सकाम निरजरा हैं। निरजरा की करणी शुद्ध और निरदोष है करणी करणे से अशुम कर्म भडकर जीप ऊजला होता है जिसका वर्णन करते हैं।
॥ढाल ।। दूजो मंगल सिद्ध नमुं नित ॥ एदेशी ॥ .
देश थकी जीव ऊजलो हुवै छै । ते तो निरजरा अपजी ॥ हिव निरजरा तणी शुद्ध करणी. कहुं डूं । ते सुंणज्यो धरि चुपजी ॥ या शुद्ध कर• . गणी कर्म काटणरी ॥ १ ॥ ज्यूं साबू दे कपड़ा ने तपावै । पाणी सं छांटै करै संभालजी । पछै पाणी संधोवै कपड़ा नें । जब मैल छटै तत्कालजी।।
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(६१६२); ॥ या ॥ २ ॥ ज्यू तप करिने श्रातम ने तपावै । ज्ञान जल. छांट हायजी ।। ध्यान रूप जलमांहि झकोलै । जब कर्म मैल झड़जायजी ।। या ।। ॥३॥ ज्ञान रूप सावण शुद्ध चोखो । तप रूपी यो निरमल नीरजी ॥ धोबी जिम छै अंतर प्रा. तम । ते धावै निजगुण चीरजी ।। या ॥ ४ ॥ कामीं छै एकान्त कर्म काटणगे । और वंछा नहीं कायजी॥ ते तो करणी येकान्त मिरजरारी । तिगा सूं कर्म मैल झड़जायजी ।। या ॥५॥कर्म का. टगरी करणी चोखी । तिणरा छै बारें भेदजी ॥. तिण करगी कियां थी निरजरा हुवै छ । ते सुण ज्यो अाणि उमेदजी ।। या ॥ ६ ॥ अणशण करि च्यारूं पाहारज त्यागै । करै जावजीव पत्रखाणजी ॥ अथवा थोड़ा काल तांई त्यागे । एह वी तपस्या करे जांण जांणजी ॥ यां ॥ ७ ॥ शुभ जोग रूंच्या साधूरै हुवै संबर । श्रावकर बत हुवै ताहि जी ॥ पिण कष्ट सद्यां सू निरजरा हुवै .. छै । तिण सूंघाली छै निरजरा मांहि जी या! ॥८॥ ज्यूं ज्यूं मुख तृषा अति लागै । तिम . तिम उपजै कष्ट अत्यंत जी ॥ ज्यूं ज्यूं कर्म कटै
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हुवै न्यारा । समें समें खिरै छै अनन्तजी॥ या॥ ॥ ६ ॥ ऊ' रहै ते उगोदरी तप छै । ते तो द्रव्य ने भाव छै न्यार जी ॥ द्रव्य तो उपग्रण ऊणा राखें । बलि पूरो न करै श्राहारजी ॥ या ॥१०॥ भावें ऊंगों क्रोधादिक निवरतै । कलहादिक देवै. निवारजी ।। समता भाव छै अाहार उपधि थी । एहवो अगोदरी तपसारजी ॥ या ॥ ११ ॥ भिक्षाचरी तप भिक्षा त्याग्यां हुवै । ते अभिग्रह छै विवध प्रकारजी ॥ द्रव्य क्षेत्र काल भाव अभिन. ह छै । त्यांरी छै बहु विस्तारजी ॥ या ॥ १२ ॥ रश रो त्याग कर मन सूधै । छोडयो विघयादिक रो स्वादजी ।। श्ररश विरश आहार भोगवै समता. सुं । तिणर तप तणीं हुवै समाधजी ॥या॥१३॥ काया क्लेश तप कष्ट कियां हुवे । अणशण करै विविध प्रकारजी ॥ शीत तापादिक सहै खाज न खिौँ । वलि न करै शोभ ने सिणगारजी ॥या।। ॥ १४ ॥ प्रत संलेहणिया तप च्यार प्रकारे। ज्यां- . रो जुवो २ छै नामजी ॥ कषाय इन्द्री ने जोग सलेहणा । विवत सेंणाशण सेवणां तांमजी या।। ॥ १५॥ श्रुत इन्द्री ने विषय नां शब्द सुं रूंधै ।
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विर्षे शब्द न सुऐ तिवारजी ॥ कदा विषैरा शब्द: कानां में पाड़ियां । राग द्वेष न करै लिगारजी ।। ॥ १६ ॥ चक्षु इन्द्री रूप सुं सलीनता । प्राणः इन्द्री गंध सुंजांणजी ॥रश इन्द्री रश सूनें स्पर्श इन्दी. स्पर्श सुं । श्रुत इन्द्री ज्यूलोज्यो पिछाणजी आया। ॥ १७ ॥ क्रोध उपाजियां रूंधण करणों । उदय आयो निरफल करणुं तांमजी ॥ मान माया लो. भइम हिज जाणों । कषाय सलेहणां तप हुदै श्रामजी ।। या ॥ १८ ॥ पाडवा मन ने रूंध देणों । भलो मन प्रवविणों तांमजी ।। इमहिज वचन काया न जाणों । जोग सलेहणियां तप हुवै प्रामजी ।। या ! १९ || स्त्री पशु पंडक रहित थानक सेवै । ते पिण शुद्ध निरदूषण जांणजी।। पीढ पाटादिक निरदोष सवै । विवित सैणाशण तप येम पिछाणं जी ।। या ॥ २०॥
॥ भावार्थ ॥ निरजरा अर्थात् निरमला जीव देशतः होय सो निरजरा है .. सो किस करणी करणे से होता है सो कहते हैं-भूष तृषा शांत ताप आदि अनेक प्रकार से कष्ट उदय होय उसे सम परिणामा से सहन करें तब अशुभ कर्मों का क्षय होय अर्थात् जीव से कम अलग होते हैं, वे दो प्रकार से होते हैं काम निरजरा और स... ' काम निरजरा-नरकादिक के दुःख भोगने से सहज ही जीव हल :
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( १६५) का होय तथा निजरा का कामी नहीं और यह लोक परलोक काम भोगादि निमित्त अथवा यश भाहिमां बधाने को तपस्या करें उसे अकाम निरजरा कही है जिससे कर्म अल्प मात्र झाड़ते हैं। दूसरी सकाम निरजरा कर्म काटणे के लिये करें अर्थात् नि: रजरा का कामी होके तप करें जिसको सकाम निरजरा कहि. है, निरजरा की करणी शुद्ध निरदोष है जिससे जीव कर्ममयी मैतः को अलग कर के उज्वल होता है जैसे धोबी कपड़े को साबुन देके तावड़े में तपाता है और पानी से साफ़ करता है वैसे ही तप करके श्रातम प्रदेशों को तपाव ज्ञानरूप साधुन देके.ध्यानरूप. जल से धोबी समान अंतर पातमा है सो पाप मयी मैल से जीवके प्रदेश मैले हारह हैं उन्हें धोवे उसे निरजरा की करणी कहते हैं उसके बारह भेद हैं सो कहते हैं। १-श्रणशण अर्थात् थाहार पानी भोगने के त्याग कर थोडे कोल पर्यंत अथवा जायजीव पय्यंत जिसको अणशण कहते हैं, लाधू शुभयोगों को रूंधैं तय उनके तो जितने शुभयोग रुके उतना ही सबर होता है और श्रावक का खाना पीना आदि कर्तव्य सावध है अशुभयोग हैं जिसे त्यागने से व्रत संबर होता है परंतु कष्ट को सम परिणामों से साधु तथा धावक सहन करते हैं जिस से कर्मक्षय होके जीव निरमल होता है इस. लिये निरजरा की करणी कही है। २-अगोदरी तप दो प्रकार से होता है, द्रव्य और भाष; ऊणा
याने कम करने से होता है, द्रव्ये तो उपग्रण आदि वस्तु कम रखें तथा आहार पानी कम करें, और भावें क्रोधमान माया
लोभ को घटावै। ३-भिक्षाचरी तप भिक्षा छोडने से, अर्थात् द्रव्य क्षेत्र काल भाव
से अनेक प्रकार के अभिग्रह धारण करें और निरदोष भिक्षा 'आचरते कष्ट होय उन्हें सहन करें। ४-रश परित्याग अर्थात् घृत मिष्टान आदि रशों का त्याग करें • और अरसं विरस आहार को सम परिणामों से भोगधैं याने ..राग द्वेष न करें। :
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(१६६) ५-काया क्लेश अर्थात् शरीर की शोभा विभूषा न करें शीत ताप · श्रादि अनेक प्रकारों के कष्टो द्वारा काया को मलंश होने से • सम परिणामों से सहन करें। . ६-प्रति सलेहणा तप च्यार प्रकार से होता है कषाय प्रति सले. हणा १, इन्द्रीय प्रति सलेहणा२, जोग प्रति सलहणा ३,विधत लगाशण सेषणा ४।
१-कषाय प्रति सलेहणाअर्थात् क्रोध, मान २, माया ३, लोभ . ४,ये च्यारों प्रकार की कषायों को न करना तथा उदय श्राई
को निःफल करना। २-जोग प्रति सलेहणा अर्थात्मन,वचन २,काया३,ये तानों. ___ कार के अशुभ जोगों को रंधना और शुभ जोगों को प्रवर्ताना।
३-इन्द्रीय प्रति सलेहणा अर्थात् भोत १ चक्षु २ घाण ३ रश . स्पर्श ·५ इन पांचो इन्द्रियों की शब्दादिक विषयों में राग . द्वेष रहित रहना तथा इनके काम भोगों से विरत होना। '४-विवत सैणाशणा सेषणाअर्थात् स्त्री पशू नपुंशकरहित नि. .. .रदोषमकान में रहना तथा पाटाचोकी श्रादि मिरदोष सेना। यह उपरोक्त. षट प्रकार का बाह्य तप कहा अब पढ़ प्रकार का अभ्यन्तर तप कहते हैं!
॥ ढाल देशी तेहिज॥ 'छै प्रकारे वा; तप कह्यो छै । ते प्रसिद्ध चावो दीसंतजी ।। हिवै छै प्रकारे अभ्यन्तर तप कई छु। ते भाष्यो छै श्री भगवंतजी ।। या ॥२१॥
प्रायश्चित्त कह्यो छै. दश प्रकारें । ते दोष. बालोवे - प्रायश्चित्त लेवंतजी ॥ ते कर्म खपावै पाराधक
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( १९७ थावें । ते तो मुक्ति में वेगो जावंतजी ॥ या । ॥ २२ ॥ विनय तप कह्यो छै सात प्रकारे। त्यारो छै बहु विस्तारजी। ज्ञान दरशन चारित मन विनय । वचन काया में लोग ववहारजी ॥ या ।। ॥ २३ ॥ पांचूं ज्ञान तणां गुण ग्राम करणां । ज्ञान विनय करणों येहजी ॥ दरशन विनयरा दोय भेद छै । सुश्रुषा ने अणासातनां तेहजी ॥ ॥ या ॥ २४ ॥ सुश्रुषा तो बडां साधुरी करणी त्यांने बंदना करणी शीशनामजी ॥ ते सुश्रुषा दश प्रकार कहि छै । त्यांरा जुदा २ नाम तामजी ॥ ॥ या ॥ २५॥ गुरु श्रायां ऊठ ऊभो होणों। श्राशण छोडि देणों तामजी ॥ श्राशण श्रामंत्रणों ने हर्ष सुं देणों । सत्कार सनमान देणों श्रीम जी ॥ या ॥ २६ ॥ बंदना करी हात जोडि रहै ऊभो । श्रावतो देख सामों जायजी ॥ गुरु ऊभा रहै जिहांलग ऊभो रहणों । जावै जब पोहचावे तायजी ॥ या ॥ २७ ॥ अण पाशातनां विनयः रा भेदने । तालीश कह्या जिनरायजी ॥ अरिहन्त नें अरिहन्त धर्म प्ररूप्यो । वलि प्राचार्य ने उपाध्यायनी ॥ या ॥ २८ ॥ थविर कुल गण संघ
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(१६८ नों विनय । कृयावादी सम्भोगी जांणजी ।। मति ज्ञानादिक पंचू ही ज्ञानरो । येह पन्नरे बोल पि. छांणजी ।। या ।। २६ ।। पनरे वोलां में पांच ज्ञान फेर कहा छै। ते दीशे छै चारित्त साहित्तजी।। ए पांचं ही ज्ञान फेर करा त्यांरी । विनय तणी
और तिजी॥ या ।। ।। ३०॥ सामायक श्रादि. पांचूं ही चारित्र । त्यांरो विनय करणों यथा योग जी ।। सेवा भक्ति त्यांरी यथायोग करणी त्यांसू करणों निरदोष संभोगजी या||३१॥ असातना टालणी में विनय करणं । भक्ति करिदेणों बहु सनमानजी ॥ गुण ग्राम करि ने दीपावणांत्यांने। दस्शन विनय छै शुद्ध श्रद्धानजी ।। या ॥ ३२॥ साझ मन में परो निवारें । ते सावझ बार प्र. कारजी ॥ बारै प्रकारे निवद्य मन प्रवतावै । ति. णसू निरजरा हुवै श्रीकारजी।। या ।। ३३ ।। इम हिज सावध वचनरा भेद छै । तिण सावध में देव निवारजी ।। निरवद्य वचन बोलै निर दूषण। ते बारे ही वोल विचारजी ॥ या ॥ ३४ ॥ काया अजयणा सुं नहीं प्रवर्ती । तिणरा भेद कह्या सातजी:ज्यूं सातूं ही काया जयणा संपवतावै ।
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( १६९) जब कर्म तणीं हुवै घातजी ।। या ॥ ३५॥ लोग व्यवहार विनय कयों सात प्रकारें । गुरु समीप वर्त तो तांमजी ॥ गुरुवादिकरै छांदै चालणों। ज्ञानांदिक हेतै करणों त्यांरो कामजी ॥ या ।। ॥३६॥ मणायो त्यांरो विनय करणों । भारत गवेषणा करिवो तामजी । प्रस्तावे अवशरनूं जांण होवणों । सर्व कार्य करणा अभिरामजी॥ या॥ ॥ ३७ ॥ वैयावचं तपछै दश प्रकारें । ते वैयावच साधारी जांणजी ।। कर्मा री कोडि खपै? तिणथी।। नैही हुवै निरवाणजी ॥ या ॥ ३८ ॥ सझाय तप छै पांच प्रकारें । जे भाव सहित करे सोयजी। अर्थ में पाठ विवरा 'शुध गुणियां । कौरी कोडि खय होयनी ।। या॥ ३९ ॥ श्रात रौद्र ध्यान निवाएँ । ध्यावै धर्म ने शुक्ल 'ध्यानजी ॥ ध्यावंतां ध्यावतां उत्कृष्ट ध्यावै । तो उपजै केवल ज्ञानजी।। ॥ या ॥ ४०॥ विवशग तप छै तजवारो नाम । ते द्रव्य नें भावै छै दोयजी ॥ द्रव्ये विवशग च्यार प्रकारें । ते विवरो सुणों सहु कोयजी ॥ या ।। ॥ या ॥ ४१ ॥ शरीर विवशग शरीर नुं तजवों । इमगण विवशंग जांणजी ।। उपधि ने तजवो ते ।
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१ १७०) उपधि विवशग । भात पांणी में इमहिन पिछाणजी ॥ या ॥ ४२ ॥ भावें विवशग रा तीन भेद छ। कषाय संसार में कर्मजी ॥ कषाय विवशग च्यार प्रकारें। क्रोधादिक च्यारूं छोडयां धर्मजी। या॥ ॥ १३ ॥ संसार विवशग संसार नों तजवो । तिणरा भेद छै च्यारजी ॥ नारकी तिर्यंच मनुष ने देवा । त्यांने तजने त्यांसं हुवै न्यारजी॥ या॥ 1.४४॥ कर्म विवंशग आठ प्रकारें । ते तजणां श्राएं ही कर्मजी ॥ त्यांने ज्यू ज्यू तजै ज्यूं हल. का हो।एहवी करणी छै निरजरा धर्मजी॥या॥४॥
......
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॥ भावार्थ ।
.. छै प्रकारको वाह्य करणी निरजराको फही अब के प्रकार अभ्यन्तर करणी कहते हैं। १-प्रायश्चित अर्थात् व्रत प्रत्याख्यान में दोषलगा उसकाप्रायश्चित्त
तप अङ्गीकार करें जिससे जीव अशुभ कर्म खय करके निरम. ला और आराधक होय । २:विनय तप सात प्रकार से होता है।
१-ज्ञान विनय अर्थात् मति ज्ञान प्रादि पांचों शानों का वर्णन • विस्तार सहित करें तथा ज्ञान वा ज्ञानवंत के गुन करें। .२-दशन विनय अर्थात् समाकितदरशन का बिनय सुश्रुषा - और अणासातना करने से होता है। ... : १-सुश्रुषा विनयतो अनेक प्रकारसे तथा देश प्रकार से गुरू
महाराज की तथा अपने से बड़े साधुवों की करणी सो
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(१७१) दश प्रकार कहते हैं-गुरू श्रावे तब उठ के ऊमा होला १, आशण छोडना २, श्राशण आमंत्रणा तथा हर्प सहित दंना ३, सत्कार देना ४, सनमान देना ५, वंदना करनां६, हात जोडके ऊमा रहना ७, गुरू को आते देख सनमुख जाना ८, गुरू ऊमारहे तब तक ऊमा रहना ६, जावे तब पोहचान को जाना १०॥ २-प्रण अाशातना विनय ४५ प्रकारसे अरिहन्त १,अरिहन्त प्ररूपित धर्म २, भाचार्य ३, उपाध्याय ४,थविर ५, कुल ६. गण ७, संघ ८, कृयावादी ६, संभोगी १०, मतिज्ञानी ११, श्रुत शानी १२, अवधि ज्ञानी १३,मन पर्यव हानी १४, केवल शानो १५, इन्हों की श्राशातना न करणी १-लेवा भक्ति करणों २-गुण ग्राम करके दीपानां ३, अर्थात् उपरोक्त पंदरह घोल कहे जिन्हों का येह.३ प्रकार से : विनय
करना तो पंदरह तीया पैंतालीस हुये।. ३-चारित्र विनय अर्थात् सामायक आदि पांचो चारित्रियाका विनय भाक्ति यथायोग करणां तथा चारित्रया से निरदोष
संभोग करना। ५-मन विनय अर्थात् चारै प्रकार का सावध मन को निधारना याने सावध मन नहीं प्रवाना और चारै प्रकारका निरवध
मन प्रवर्तीनां। . ५-धचन विनय अर्थात् बार प्रकारका सावध वचन तजके बारे
प्रकार का निरपद्य बचन बोलना। ६-काया विनय अर्थात् सात प्रकार के कायाके जोगों को जय
रहा युत प्रवर्तीना। .. - -लोक व्यवहार विनय सात प्रकार से।
१-गुरु से समा प्रवर्तनां यान गुरू से विमुख न होना।
२-गुरु की धाशा में रहना । ३-सानादिक निमित्त गुरुका कार्य करना। • ४-शान पढाया जिन्हों का विनय करना।
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. .. ५-भारत गवेषणां करों । . . . - । ६-प्रस्तावे अवशर का जानकार होना ।
७-गुरू के सर्व कार्य हर्ष सहित करना। ३-वैयावच दश प्रकारकी वैयावच अयणायुत शुद्ध साधुवों की
करना। ४-सज्झाय पांच प्रकारकी सज्माय करना। ५-ध्यान भारत रौद्र ध्यान तजके धर्म और शुक्ल ध्यान ध्याना। ६-विवशग अर्थात् नजनां द्रब्य और भाव जिसमें द्रव्य विवशग ' च्यार प्रकार और भाव विवशग तीन प्रकार से होता है। १-द्रव्य विवशग के च्यार भेद । १-शरीर विषशग अर्थात् शरीर की विभूषा तजना तथा
पादोप गमनादि करना। २-गण विवंशग अर्थात् गुरू माझा साधु साध्वी रूपगण
को छोडके अलग एकान्त में सज्झाय ध्यान करना तथा सलेषणा आदिकरना। ३-उपधि विवशग अर्थात् भएड उपग्रणतजके ननभावरहना। ४-भत्त पांण विवशग अर्थात् श्राहार पानी भोगनेका त्याग। २-भाव विवशग तीन प्रकार से। . .१-कषाय विवशग अर्थात् क्रोध मान माया लोभ इन च्यारों कषायों को तजनां। . . २-संसार विवशग च्यार प्रकार से नारकी तिर्यच मनुष और देव इन च्यार गति मयी संसार को तजना । ३-कर्म विवशग आठ प्रकार से अर्थात् भानावरणी आदि अाठी फम्मो को तजना।
यह या प्रकार उषधाई सत्र में साधुवा के गुन के कथन में हे हैं इसलिए यह विनय व्याववादि की विधि साधूकी है।
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(१७)
॥ ढाल तेहिज॥ यह बारे प्रकारे तप निरज़रारी करणी ते तपस्योः करें जांण जाणजी ॥ कर्म उदेरी उ, आणि विखरें । त्यांन नेडी होसी निरवाणजी ॥ या ॥ !! ४६ ॥ साधारै बारै भेद तपस्या करतां । जहां जहां निवद्य जोग रूंधायजी ॥ तहां तहां संवर होय तपस्यारे लारै । तिणसुं पुन्य लागता मिटजायजी ।। या ।। ४७ ।। इण तप माहिलो तप श्रावक करतां । कठै अशुभ जोग रूंधायजी ॥ जब ब्रत संवर हुवै तपस्यारै लारे । लागता पाप मिटजायजी ।। या ॥४८॥ साधू श्रावक समः दृष्टी तपस्या करे तो ॥ उत्कृष्टी टलै कम छोतजी कदा उत्कृष्टी. रसान आवै तिण तपथी । तो बांधे तीर्थकर गोतजी ॥ या ॥ ४६॥ इण तप माहि: लो तप अविरती करतो। तिणरै पिणं कर्म कटायजी ॥: केई प्रति संसार, करै. इण तपथी । वेगों जावै मुक्तिगढ म्हायजी ॥ या ॥ ५० ॥ तपस्या घी श्राण संसार नों छेहडौं । वलि' कर्मारो करें. अंतजी ।। वलि इण तपस्या तौँ अता । वडा;
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(.१७४.) संसारीरी सिद्ध होवंतजी । या ।। ५१॥ कोडां भवांश कर्म संध्या हुवै तो । खिण में देवै खपायजी। एहवो ? तप स्तन अमोलक । तिणरा गुणरो पार न पायजी ।। या ।। ५२ ॥ निरजरा तो निरवद्य उजलो हाथी । कर्म निवत हुवे न्यारजी ॥ तिण सुं निरजरा ने निरवद्य कही छै बीजं निरवद्य नहीं छै लिगारजी॥ या ॥ ५३ ॥ इण निरजरा तणी करणी छै निरवद्य । तिण सूं कारी निरजरा होयजी ॥ निरजरा में निरजरारी करणीं । जुदी जुदी छै दोयजी ॥ या ॥ ५४ ।। निरजरा तो मोक्ष तणों अंस निश्चय । ते देश थी ऊजलो छै जीवजी ।। जिणरै निरजरा करणरी चुप लागी छ । तिण दीधी मुक्तिरी नवजी ॥ था। ॥५५॥ सहजै निरजरा अनादिरी हुवै छै। ते होय होयी ने मिटजायनी ॥ ते कर्म बंध सूं नहीं निवरत्यो ॥ ते संसार में गोता खायजी ॥ या ।। ॥५६॥ निरजरारी करणी अोलखावण । जोड कीधी श्रीजी द्वारा मझारजी ।। सम्बत् अट्ठारे नै वर्षछपर्ने । चैत वद वीज ने गुरुवारी ॥या॥५७॥ ... . ॥ इति निरजरा. पदार्थ ॥ .. .. .
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( १७५ :
॥ भावार्थ ॥ अपशण उणोदरी श्रादि चार प्रकार का तप कहा सो निरजरा फी करणी है इसके फरणे से जीव कर्म मयी रज को खपाके उज्वल होता है, पूर्व सांचत कर्मों को खपाने के निमित्त उदय में ल्याके कष्टों को सम्परिणाम सहन करने से निरजरा होती है ऐसी करणी करणे लें निरवाण पद नजदीक होता है, साधु मुनिराज चारे प्रकार का तप करें जव जहां जहां निरवध जोग के तब वहां तहां उनके संबर होता है अर्थात् शुभयोगों से पुन्य: बंधते ने पुल्य रुके तथा अशुभ कर्म खय होके जीव ऊजला हुवा सो निरजरा, एसे ही वार प्रकारका तप में से श्रापक तप करै तब ज्यो ज्यो अशुभ योग रूंधे उनसे पाप के लोबत संवर हुवा. और अशुभ कर्म वय होके जीव ऊजला हुया सो निरजरा हुई, और इस निरजरा की करणी बार प्रकारकी में से यदि अव्रती तथा मिथ्याती करे तो उनके भी अशुभ कर्म खय होते हैं और जीव निरमला अर्थात उजाला होता है के मिथ्याती जीवतो शुद्ध करणीकरने लें अनन्तलारी के प्रति संसारी होके अनुक्रम जलद. ही मोक्ष स्थान पाते हैं, साधुश्रावक समदृष्टी तय करने से उत्कृष्ट कर्म छोत टाल के उत्कृष्ट रसान धान लें तीर्थकर गात्र बांधते हैं, तप सें संसार का अंत करते हैं वहुसंसारी का लघूलंसारी होफे सकल कर्म रहित होकर सिद्ध होते हैं, तपस्या करने से कोडो भव के संचे हुये कर्न क्षिण मात्र में खय होते हैं ऐसा अमूल्य रतन तप है इसके गुणों का पार नहीं है निरजरा अर्थात् देशतः जीव निरमला और निरजरा की करणी जो बारे प्रकार की ऊपर कही है सो यह दोनूं ही निरवद्य है दोनही आशा मांहि है दोनूं ही श्रादरणे योग्य है, कर्मों से निवतै सोही निरजरा है इसही लिये निरजरा को निरवध कही है, जितनां जितनां जीव ऊजला है सोही निरजरा है और मोक्ष का अंस है तथा जिस करणी लें ऊजला होता है सो मिरजरा की फरणी है वो निरवद्य है उसको जिन श्राहा है जिस करणी की जिन आज्ञा नहीं है तो सावध है उससे पाप कर्म बंधते हैं किन्तु निरजरा नहीं होती और न.
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(१७६) पुण्य वंधता है, पुण्य तो निरज़रा की करणी करते शुभ जोगा से बंधता है जिसका वर्णन पुण्य पदार्थ को औलखायावहां विस्तार पूर्वक कहाही है, इस सातमा पदार्थ में निरजरा को औलखाया है सो इस जगहें निरजरा किसका कहना और निरजरा की फरणी किसे कहना इसका वर्णन स विस्तार स्वामी श्री भीखनजी महाराजने हाल जोडके मेवाड देशान्तरगत नांथ द्वारा सहर में विक्रम सम्बत् १८५६ चैत्र वुद द्वितीया गुरुवार को कहा जिसका भावार्थ निजवुद्यानुसार मैने किया जिसमें कोई अशुद्धार्थ हो उसका झुझे मिच्छामि दुकडं, इति सातमा निरजरा पदार्थम् ।
श्रापका हितेच्छु
श्रा० जोहरी गुलाबचंदलुणीयां जैपुर ॥ अथ अाठमां बंधपदार्थ ॥
॥दोहा॥ • प्राउट् पदारथ बंध छै । तिण जीवने राख्यो वंध ॥ जे बंध पदार्य न उलख्यो । ते जीव छै मोह अंध ॥ १ ॥ बंध थकी जीव दबियो रहै । काई न रहै उघाडी कोर ॥ ते बंध तणां प्रबल थकी । कोई न चालै जोर ॥२॥ तलाव रूप तो. जीव. छै । तिण में पडिया-पांणी ज्यु बंध.जांण ।। निकलता पाणी रूप पुन्य पाप छै । बंध ने लीजो एम पिछाण ॥३॥ येक जीव द्रव्य के
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( १७७) तेहनां असंख्याता प्रदेश ॥ संपला प्रदेशां श्राश्रव द्वार छ । संघलां प्रदेशां कर्म प्रवेश ॥ ४ ॥.मि. थ्यात अविरत में प्रमाद छै । वलि कषाय जोग विख्यात । ये पांच तणां वीश भेद छै। पनरें श्राश्रय जोग में समात ॥ ५॥ नालारूप श्राश्रव नाला कर्मनां । ते रूंध्यां हुवै संवर दार ।। कर्मरूप जल श्रावतो रहै । जब बंध न हुवै लिगार ॥६॥ तलावरो पाणी घटै तिणविधै । जीवरै घटै छै कर्म ।। जब कांयक जीव ऊजलो हुवै । ते छै निरजरा धर्म ॥ ७॥ कदे तलाव रीतों हु । सर्व पाणी तणों हुवै सोख ॥ ज्युं सर्व कर्म सोखत हुवै । जिम रीता तलाव सम मोख ॥८॥ बंध छै आठ कर्मी तणों। ते पुद्गलरी पर्याय ॥ तिणवं. धतणी औलखनां कहूं ।ते सुणज्यो चित ल्याय ।।
भानार्थ ॥ : .. . . . .
. आठमां बंध पदार्थ कहते हैं जीवके कर्म बंधे हुए हैं उसका नाम बंध है जिससे जीव के शानादिगुन दवे हुए हैं, जीव चेतन अनन्त ली और प्राक्रमी है परंतु जहांतक जीव कर्म मयीपाश से बंधा है तहां तक जीवका जोर अर्थात् बस नहीं चलता तथा जीवके ज्ञानमयी नेत्र मोह कर्म से आछादित हो रहे हैं जिससे मार्ग को नहीं देखता इस लिए बंध और मोक्ष को जानने के लिए इंष्टान्त कहते हैं जीव भयो तालाव है भरेषुए पानीरूप बंध और
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(१७८) निकलता पानी रूप पुन्य पाप है, तालाव में पानी पान को नाले होते हैं तो इस जीव मयी तालाव के मिथ्यात अव्रत प्रमाद कषाय और जोग यह पंच पाश्रवरूप पांच नाले हैं जिस से कम मयी पानी श्राता हैं, जव जीव आश्रव रूप नालों को रोक कर बंध रूप जो बंधा हुआ पानी है उसे उलेची उलेची अर्थात् को को उदेरी उदेरी अणशण उणोदरी आदि बार प्रकार का तप करके पुन्य पापरूप पानी को तालाव से अलग करने से अनुक में सर्व कम्मौ का नांश अर्थात् क्षय करके रीता तालाव रूप मोक्ष पद पाता है, तात्पर्य तालाव में पानी भरा है वैसे ही जीच मयी तालाब में बंधे हुये कर्म रूप पानी है जहांतक उदय में नहीं आयें तहांतक उन्हीं पुन्य पाप की प्रकृतियों का नाम बंध हैं जिसका यथार्थ वर्णन करते हैं।
॥ ढाल ॥
अहि अहि कर्म विडंबणां ॥ एदेशी ॥ बंध नीपजै छै आश्रव द्वार थी । तिण बंध ने कयो पुन्य पापोजी ॥ ते पुन्य पाप तो द्रव्य रूप छै । भावें बंध कह्यो जिन आपोजी॥ बंध पदास्थ ओलखो ॥ १॥ ज्यूं तीर्थकर पाय ऊपना । ते. द्रव्य तीर्थकर जाखोंजी || भाव तीर्थकर कहि जे तिणसमें । ते होसी तेरमें गुण ठाणोंजी ॥६॥ ॥२॥ ज्यू पुन्य पाप लागो कयो । ते तो द्रव्ये छ पुन्य पापोजी ।। भावे पुन्यं पाप तो उदय हुवां दुःख सुख भोगवै हर्ष संतापोजी ।। बं ॥ ३॥ तिण
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( १७६) बंध तणां दांय भेद छै । येक पुन्य तणों बंध जाणोजी ।। दूजो बंध के पापरो । दोनूं बंधरी करिजो पिछाणोंजी ।। बं ॥ ४ ॥ पुन्य लूं. बंध उदय हुषां जीवरें। सुख साता हुवै छै सोयोजी। पापरो बंध उदय हुवां । विवध पण दुःख होयोजी । बं ॥५॥ बंध उदय नहीं त्यां लगि. जीवन सुख दुःख मूल न होयोजी ॥ बंध तो छतारूप लागो रहै । फोड़ा न पाडै कोयोजी ।। बं ॥६॥ तिण बंध तणां च्यार भेद । त्यांने रूडी रीतः पिछांणोंजी ।। प्रकृती बंध ने थित बंध दूसरो । अनुभाग में प्रदेश बंध जागोजी ॥६॥ प्रकृती बंध कारी जुई जुई । कारा स्वभावरै न्यायोजी।। बंधी तिण समें बंध छै । जैसी बांधी तैसी उदय प्रायोजी । बं ॥८॥ तिण प्रकृती ने बांधी छै काल सं ॥ इतरा काल तांई रहसी तामोजी ॥ पछै तो प्रकृती विरलावसी ॥ थित सूं प्रकृती बंध छै आमॉजी ॥ ॥ ६ ॥ अनुभाग बंध स्शविपाक छै जिसो जिसो स्श देसी हायो जी ॥ ते पिण प्रकृती बंध न रश कह्यो । बध्यो जिसो रस उदय पायो जी ॥ ॥ १०॥ प्रदेश
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( १८०) बंध कयो प्रकृती बंध तणों । प्रकृतारा अनन्त प्र. देशोंजी ॥ ते लोलीभूत जीव सूं होय रह्या । प्रकृती बंध उलखाई विशेषोजी ॥ बं ॥ ११ ॥ पाठ कौरी प्रकृति जुई जुई । एकेकांरा अनन्त प्रदेशोजी ।। इक इक प्रदेशें जीवरै । लोलीभूत हुई छै विशेसोजी ।। ।। १२॥ . . .
॥ भावार्थ ॥ . जीव के प्रदेशों के कर्म बंधे हैं उन्हें बंध कहते हैं घोह धंध प्राश्रव द्वार से हुवा है जीव आश्रव से पुण्य
और पाप वांधा है सोही बंध है पुण्य पाप तो जीव के उदय होय तब कहते हैं परंतु बंधे हैं जिन्हों को भी द्रव्य निक्षेप की श्र: पेक्षाय पुण्य पाप कहा है जैस गर्भावास म तथा ग्रहस्थाश्रम में रहते हुए तीर्थकर को द्रव्य तीर्थकर कहते हैं परंतु भाव तीर्थक र तेरमे गुणस्थान होते हैं वैसे ही पुण्य पाप तो उदय होय तव हैं परंतु पुण्य पाप मयी उदय होने वाले पुद्गल जो जीव बांध हैं उनको भी द्रव्य पुण्य पाप कहे हैं, वे पुद्गलों का बंध जीव के दोय प्रकार से हैं येक तो पुण्य बंध और दूसरा पाप बंध, पुण्य का वध उदय होने से जीवके सुख साता होती है और पाप का बंध उदय,होने से जीवके दुःख असाता होती है परंतु बंधे हुए उदय नहीं होय जय तक जीव के सुख दु.ख कदापि नहीं होता है इसलिये जीव के पुण्य पाप बंधा है उसका नाम बंध है वोह च्यार प्रकार से है, प्रकृति बंध.१ स्थिति बंध २ अनुभाग बंध ३ प्रदेश बंध ४ यह च्यार भेद हैं जिसका वर्णन करते हैं प्रकृति बंध कर्म खभाव के न्याय, अर्थात् कर्म बंधे सो प्रकृति पणे बंधे हैं जैसे झानावरणी कर्म को ५ प्रकृति, दर्शनावरणी कर्म की प्रकृ. ति, मोहनीय फर्म की २८ प्रकृति, अंतराय कर्म की ५ प्रकृति, यंद
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.. (१८९) नी कर्म की प्रकृति, नाम कर्म की प्रति, गौत्र कर्म की प्रकृति और श्राऊषा कर्म की प्रकृति है, यह पाठ कम्मों की १४० प्रकृती हैं सो जीव के बंधी वोह प्रकृती बंध है, यही प्रकृतियों स्थिति सहित बंधी है इसलिये स्थिति बंध; यही प्रकृतियां उदय होने से शुभाशुभ रश.जीव को देगी इसलिये अनुभाग बंध, और सेही प्रकृतियां अनन्तानन्त प्रदेसी जीवके असंख्याता प्रदेशों में लोलीभूत हो रही है इसलिये प्रदेश बंध कहा है, अब भाई क. म्मों की स्थिति कितनी कितनी है सो कहते हैं।
॥ ढाले तेहिज ॥ '. ज्ञानावरणी दर्शनावरणी बेदनी । वलि आउv कर्म अंतरायोजी ॥ यांरी थित छै संघलांरी सारखी॥ ते सुंण ज्यो चित ल्यायोजी ॥ ॥१३॥ थित यो च्यारूं कर्मा तणीं । अंतर महुरत प्रमा: णोंजी ।। उत्कृष्टी थित. यां च्यारूं तणीं। तीस कोड़ा कोडि सागर लग जाणोजी ॥ ॥१४॥ थित दर्शण मोहनीय कर्मनीं । जघन्य अंतर महूरत प्रमाणोंजी ॥ उत्कृष्टी स्थित छै एहनी । सित्तर कोड़ा कोडि सागर जागोंजी ॥ ॥१॥ जघन्य थित चारित मोहनीय कर्म नी । अंतर महूरत कहि जगदीसोजी । उत्कृष्टी स्थित छ एह
नीं। सागर कोडा कोडि चालीसोजी ॥ ॥ - ॥ १६॥ थित छैः पाऊषाः कमैरी । जघन्याः
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( १८२) अंतर मंहूरत होयोजी । उत्कृष्टी सागर तेतीसनी । श्रागै पाऊषारी स्थितीन कोंयोजी॥॥१७॥ स्थित नाम गौत्र कर्म तणीं । जघन्य आठ महुरत सो. • योजी । उत्कृष्टी इक इक कर्मनीं । बीस कोड़ा कोडि सागर होयोजी ॥ ॥ १८॥ येक जीवरै
आठ कम्मौ तणां । पुदगलरा प्रदेश अनन्तोजी। ते अभव्य जीवांथी मापियां । अनन्त गुणां कहा भगवंतोजी॥5॥१४॥ते अवश्य उदय श्रासी जीव । भोगवियां विन नांहि छुटायोजी । उदै श्रायां विन सुख दुःख हुवे नहीं । उदय प्रा. यां सुख दुःख थायोजी ।। ६ ।। २० ।। शुभ परिणामैं जे कर्म बांधिया । ते शुभ पण उदय आसीनी ॥ जे अशुभ परिणामें बांधिया । तिण कम्मौ सूं दुःख थासीजी ॥ ॥ २१ ॥ पंच वर्णा पाढूं ही कर्म छै । दोय गंध नैं रश पांचूं हीजी।। चोपरसी श्राही कर्म छै । रूपी पुदगल कर्म श्राएं हीजी ॥ ॥ २२ ॥ कर्म तो लूखाने चोपड्यां । वलि ठंडाने ऊन्हा होयोजी ॥ कर्म हलका नहीं भारी नहीं। सुहाला ने खरदरा नहीं कोयो जी।। बं ॥ २३ ॥ कोई तलाव जल पूरण भरयो। .
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(१८३) खाली ठोर न कोयोनी ॥ ज्यु जीव भरयो कर्मी . थकी । प्रा श्रोपमा देशथकी जोयोजी ॥ बं ॥ ॥ २४ ॥ असंख्याता प्रदेश येक जीवरा । ते असंख्याता जैम तलावोजी ॥ सघला प्रदेश भरया कर्मी थकी ।। जाणे भरी चोखूणी वावोजी ।।बी। ।। २५॥ इक इक प्रदेश छै जीवरो । तिहां अनन्ता कर्मारा प्रदेशोजी ।। ते सघला प्रदेश भरिया छै बाव ज्यु ! कर्म पुद्गल कियो छै प्रवेशोजी॥ ॥ 4 ॥ २६ ॥ तलाव खाली हुवै छै किण विधै। पाहिलां नालो देवै रूंधायोजी ॥ पछै भोरियादिक छोडै तलावरी । जव तलाव रीतो होय जायो जी॥ ६ ॥ २७ ॥ ज्यू आश्रव नाला रूंधवें । तपस्या करै हर्ष सहितोजी ॥ जब छेहडो अावै सर्व कर्म नूं । तब जीव हुवै कर्म रहितोजी ॥ब। ॥ २८॥ कर्म रहित हुवां जीव निरमलो । तिण जीव ने काहिजे मोखोजी ॥ ते सिद्ध हुवो है साल स्वतो । सर्व कर्म बंध करदियो सोखोजी ।।।। ॥ २६ ॥ जोड कीधी के बंध औलखायवा । श्रीजीद्वारा शहर मंझारोजी ॥ सम्बत् अठारे वर्ष . छप्पनँ । चैत्रवदवारस शनिवारोजी।ब।।३०॥इति।।
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॥ भावार्थ ॥ ·
ज्ञानावरनीय दरशनावरनीय बेदनीय और अंतराय इन ध्यार कम्मों की स्थिति जघन्य अंतर महरत उत्कृष्टी ३० तीस तोड़ा कोडि सागर की, मोहनीय कर्म की स्थिति जघन्य अंतर महरतकी और उत्कृष्टी स्थिति दरशन मोहनीय कीतो ७० कोड़ा कोडि लागर, चारित्र मोहनीय की ४० कोड़ा कोदि सागर की, भाऊषा कर्म की स्थिति जघन्य अंतरमहरत उत्कृष्टी ३३ सागर की, नाम कर्म गौत्र कर्म की स्थिति जंघन्य आठ महरत की उत्कृष्टी २० वीस कोड़ा कोडि सागर की है, इस प्रकार पाठों कमों की प्रकृतियां की स्थिति बंध जीव के है सो संसार में श्रमन्य जीव हैं उनले अनन्त गुणे अधिक येक येक जीवके कर्म प्र. देश हैं, तात्पर्य येक येक जीवके असंख्याता अंसंख्याता प्रदेश हैं और येक येक प्रदेशोंपर अनन्ते अनन्ते कर्म प्रदेश बंधे हैं उन बंधे हुये कम्मों का नाम बंध है वे अवश्य उदय में श्रावेंगे तव जीव को पुद्गलीक सुखं दुःख होगा, जो शुभ परिणामों से बांधे हैं वे शुभ पण उदय आचेंगे और जो अशुभ परिणामी से बांधे हैं वे अशुभ पणे उदय भावेंगे, आठों ही कर्मों के पुद्गलों में पांच वरण दोय गंध पांचरश और लूखा चोपड्या (चिकणा) ठंडा ताता ये च्यार स्पर्श हैं, कर्म पुद्गल हलके भारी मुलायम और खरदरा नहीं है, जैसें तलाव पानी से सम्पूर्ण भरा हो वैसे ही जीवके असंख्याता प्रदेशमयी तलाव कर्म प्रदेश रूप पानी से पूर्ण भरा है, दलाव के पानी पानेके नाले रोककर भरे हुये पानी को निकाल नं को मोरियां खोल कर निकालें तव तलाव पानी रहित. होवे वैसे ही जीव-मयी तलाव के आभव रूप नालों को कंधकर कर्म रूप जो पानी है उसे तपस्या करिके निरजरा भयो मोरियों ले निकालते निकालते सर्व कर्म रहित होजाय जव उस ही जीव, का नाम मोक्ष है निरमला हुवा इसलिये निरवाण और सर्व का र्य सिद्ध किये इस लिये जीवको नाम सिंद्ध है, यह आठमां पदा: थै बंध औंलखाने को खामी श्री भीखनजीने मेवाड़ देशान्तरगत. नांथाद्वारे में सम्बत् १८४६ चैत्र बुद १२ शनिवार को दाल जोड़ी
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(१८५) जिसका भावार्थ मैने तुच्छ वुद्धयानुसार किया जिसमें कोई भ. शुद्धार्थ हो उस का मुझे वारंवार मिच्छामि दुक्कड़ है। , - श्रा० जौहरी गुलाबचंद लूणियां जयपुर
___॥ इति अष्टम् पदार्थ ॥ ॥अथ नवमां मोक्ष पदार्थ ॥
॥दोहा॥ मोक्ष पदार्थ नवमं कह्यो । ते सघलां में श्री. कार ॥ ते सर्व गुणां सहित छै । त्यां सुखारौ छेह न पार ॥ १ ॥ कम्मी सूं मुंकाणा ते मोक्ष छ । त्यांरा छै नाम अनेक ॥ परमपद निरवाण ने मुक्ति छ । सिद्ध शिव श्रादि नाम विशेक ॥ २॥ परम पद उत्कृष्टो पामियों । तिण सं. परमपद त्याग नांम ॥ कर्म दावानलमेट शीतल थया । तिण सं निवाण नाम है ताम ॥३॥ सर्व कार्य सीद्धा छै तेहनां । तिण सूं सिद्ध कह्या- छै ताम उपद्रव करने रहित हुवा । तिण सूं. शिव.. कह्यो त्यांरो नाम ॥ ॥ इण अनुसार जाणि ज्यो । मोक्षरा गुण प्रमाणे नांय । हिव मीत्त तणा सुख वर्ण । ते सुणों राखि चित गंम ॥ ५॥
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(१८६)
. . : . ॥ भावार्थ ॥
मोक्ष पदार्थ नवमां है सो सर्व पदार्थों में श्रीकार है सर्व गुल संगुक है और अनन्त सुख है जिसका पार नहीं है, कम्मों से मू. काणा याने कर्म रहित हुए इस से मोक्ष कहा है परम कहिए उत्कंष्ट पद प्राप्त हुए इसलिये परमपद और कर्म रूप दावानल को मेट के शीतली भूत हुए इस वास्ते निरवाण नाम कहा है, सर्व कार्य सिद्ध किये जिस से सिद्ध और उपद्रव रहित हुए इस लिये उन का नाम शिव है, इत्यादि गुण प्रमाणे अनेक नाम कहे हैं धे सिद्ध अनन्त सुखी हुए जिसका वर्णन करते हैं।
॥ ढाल। पाखंड बधसी श्रारै पाचमेरे ॥ एदेशी॥
मोक्ष पदारथ राछै सुख सास्वतारे। स्यां सुखा रो कदे न श्रावै अंतरे । ते सुख अमोलक निज गुण जीवनारे॥ अनन्त सुख भाष्या श्री भगवं. तरे ॥ मोक्ष पदारथं छै सारा सिरैरे ॥ १॥ तीन कालनां सुख देवतां तणारे । ते सुख पिण इधका घणां श्रथागरे । ते सुख सघलाही सुख इक सिः द्धनारे । तुल्य न आवे अनन्त में भागरे ।। मो।। .॥२॥ संसार, नां सुख तो छै पुद्गल तणांरे । ते सुख निश्चय रोगीला जांगरे । कर्मा वस गम.
ता लागै जीवनेंरे । तिण-सुखारी बुद्धिवंत करो - पिछांगरे । मो ॥ ३॥ पाम रोगीलों हुवै तेहने
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(१८७) रेगमती लागै छै अत्यंत खाजरे ॥ एहवारोगी ला सुख छै पुन्य तणारे ।। तिण सू कदे न सीझै प्रातम काजरे ॥ मो॥ ४ ॥ एहवा सुखां सूं जीव राजी हुवैरे । तिण सू लागै छै पाप कर्म पूरे ॥ पछै दुःख भोगवै नरक निगोदमेंरे । मोक्ष सुखां सूं पड़िया दूररे ॥ मो ॥५॥ छुटा जन्म मरण दावानल तेहथीरे ॥ते तो छै मोक्ष सिद्ध भगवंतरे। त्यां श्राईही कर्मी में अलघा कियारे । जब श्राद्धं ही गुण नीपनां छै अत्यंतरे ॥ ॥ मो॥६॥ ते मोत सिद्ध भगवन्त तो इहां ही हुवारे । पछे एक समें ऊंचा गया थेटरे । सिद्ध रहिवानुं क्षेत्र छै तिहां जई रह्योरे । अलोक सूं जाय अड़िया छै नेठरे ॥ मो॥ ७॥ अनन्तो ज्ञान में दरशन तेह-रे । बलि पातमिक सुख अंनन्तो नांगरे । खायक समकित सिद्ध बीतराग ने रे । अटल अवगाहनां छै निरवांणरे ॥ मो॥ ॥८॥ श्रमूर्ति पयों त्यांरो प्रगट हुवोरे । हल: का भारी न लागै मुल लिगारे । तिण सूं अ. गुरू लघु में अमूरती कटोरे । ए पिण गुख त्यां में श्रीकाररे । मो ॥ ६ ॥ अंतराय कर्म सूं तो
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(१८८) ते रहित छैरे त्यांने पुदगल सुख चाहिजे नाहिरे॥ तै निजगुण सुख मांहि झिल्न रह्यारे । ऊणयत रही नहीं छै काहिरे ।। मो॥ १० ॥ छूटा कलकलीभूत संसार थीरे । श्राद्धं ही कर्म तणों करि सोखरे ॥ अनन्ता सुख पाम्या शिव रमणीं तणा रे। त्यांने तो कहिजे अवचल मोखरे ॥ मो ।। ॥ ११ ॥ त्यांरा सुखां ने नहीं कोई औपमारे। 'तीनूं ही लोक संसार मझाररे ॥ येक धारा छ त्यांरा सुख सास्वतारे ॥ अोछा अधिका सुख कदे न लिगाररे ॥ मो ॥ १२ ॥ तित्थसिद्धा ते तीर्थ में सिद्ध हुवारे । अतित्थसिंद्धं विनतीर्थ सिद्ध थायरे ॥ तीर्थंकरसिद्धा ते तीर्थ थाप रे । अतीर्थकर सिद्धा विनतीर्थ थापी त्हायरे ॥ भो ॥ १३. ॥ सयं बुद्धीसिद्धा ते पोते समझनेंरे । प्रत्येक बुद्धी सिद्धा ते कायक बस्तु देखरे ॥ बुद्ध वोही सिद्धा
औरों क. समझनैरे। उपदेश सुाण में ज्ञान वि: शेखरे ॥ मो ॥ १४ ॥ स्वयं लिंगी सिद्धा साधुसे भेखमैंरे । अन्यलिंगी सिद्धा अन्य लिङ्ग मोहिरे । ग्रहलिङ्ग सिद्धा ग्रहस्थरां लिङ्गमेरे ।
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( १८६) स्त्री लिङ्ग सिद्धा स्त्री लिङ्ग मैं ताहिरे ॥ मो ॥ ॥१॥ पुरुष सिद्धाते पुरुष रा लिङ्ग मैंरे। नपुंशक सिद्धा नपुंशक लिङ्ग में सोयरे । येक सिद्धा समय में येकहिज हुारे । अनेक सिद्धा ते येक समय अनेक सिद्ध होयरे ॥ मो ॥ १६ ॥ ज्ञान दरशन चारित्र ने तप थकीरे । सघला हुवा छै सिद्ध निर्वाणरे । यांच्यारां विन सिद्ध कोई नहिं हुवोरे। यह च्यारूही मार्ग मोक्षरा जांणरे ॥ मो॥ ॥ १७ ॥ ज्ञानथी जांण लेवै सर्व भाव रे । दर्शन सुं श्रद्ध लेवै स्वयमेवरे । चारित्र सुकर्म रुकै छै श्रावतारे । तपकरी कर्म तोडे तत्वेवरे ।। मो ॥ १८॥ यह पनरेही भेदै सिद्ध हुश्रा तिरे । संघलारी करणी जाणों येकरे । वलि मुक्ती मैं सघलारा सुख सारषारे । ते सिद्ध छै पनरें भेद अनेकरे ॥ मो ॥ १४ ॥ मोक्ष पदास्थ नै पोलखायवारे । जोडकीधी छै श्रीजीद्वारा मझाररे ॥ सम्बत् अट्ठारे छप्पन्नां वर्ष रे । चैत्र शुध चौथ शनिसर वाररे ॥ मो॥ २०॥ इति ॥
भावार्थ * जीव सर्व कर्म रहित होजाता है उसे मोक्ष कहते हैं, अर्थात् अनादि काल से.तेल और तिल लोलीभूत जैसे जीय कर्म खोली
२४॥
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१११०) भूत, धातू मिट्टी लोली भूत जैसे जीप कर्म लोली भूत, घृत दूध लोलीभूत जैसे जीव कर्म लोलीभूत हैं, परंतुघाणियांदिक के उपाय,से तेल खल रहित होवै वैसे ही तर संयमादि उपाय से जीव कर्म रहित होय सो मोक्ष, झेरणादिक के उपाय से घृत छाछ रहित होय वैसे ही जीव तप संयमादि उपाय से कम रहित होय सो मोक्ष अग्नियादि उपाय से धातू मिट्टी अलग होय वैसे ही तप संयमांदि उपाय से कर्म रहित होय सो मोक्ष है, पुद्गलों का संगी होके जीव पंच इन्द्रियों की विषयों से विषयी होने से शब्द रूप रश गंध और स्पर्श में रक होरहा है, निजगुना को भूल कर परगुनों से राच रहा है जिससे ज्ञानादि गुनों का लोप होके मिथ्यात प्रमाद कषायादि पाश्रव द्वारों से कर्म ग्रहण करता है तब कर्मानुसार च्यार गति चौरासी लक्ष जीवायोनि में परिभ्रमण कर रहा है, जन्म मरण रूप दावानल मैं जल रहा है किन्तु भले परिणामों से कभी मनुष्य जन्म पाके पुन्योदय से आर्य देश उत्तम कुल निरोग शरीर पूर्ण इन्द्रियां और सद्गुरु का संयोग मिलने से या स्वतहः ही क्षयोपस्मानुसार श्रीजिन प्रापित धर्ममार्ग को जानकर संसार को अनित्य जानता है और प्र. त्याख्यान प्रज्ञा से सर्वसावध जोगों को त्याग कर निरारंभी निःपरिग्रही होता है तब तप संजमादि करिके पूर्व संचित कर्म खपाते खपाते क्षपक श्रेणि चढकर अनुक्रमे शुक्ल ध्यान से तेरमै गुणस्थान में केवल अर्थात् सम्पूर्ण ज्ञान दरशन प्राप्त करता है फिर चौदमें गुणस्थान में वेदनी नाम गौत्र इन तीनों कर्मों को येकदम क्षय करके अंत समय में आयुष्य कर्म खपाके मोक्षपद प्राप्त करता है, अर्थात् सर्व कर्म रहित होके येक समय ऊर्ध्व ग. ति कर लोकान में विराजमान होता है वहां जीव सास्वता. सुखी है उन सुखों का पार नहीं है वे सुख अमूल्य पातमीक निजगुन हैं उन सुखों को कोई औपमा नहीं है, परंतु समझाने के लिए दृष्टान्त देके कहा है गत काल में देव लोकों में देवता हुए जिन्हों का सुख, वर्तमान में देवता है उनका सुख, और अनागत काल में जो देवता होंगे जिन्हों का सुख येका करिके उन्हें अनन्तानन्त
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बारंगणादे सिद्ध के सुखों से तुलना करे तो वे सुख उने पातीक सुखा के अनन्तवें भाग भी नहीं है क्योंकि देवताओं के सुख तो पुद्गलोक अनित्य है और सिद्ध के आतीक सुख सदा सर्वदा यकसा नित्य है, संसार के सुख तो पुद्गलीक और रोगीले हैं जैसे पाम रोगी को खाज अर्थात् कुचरना अत्यन्त अच्छा और मिष्ट लगे वैसे ही कर्म वस पुन्य के पुद्गलीक सुख जीव को श्रच्छे लगते हैं परंतु इन्ह सुखों से आतमा का कार्य सिद्ध कदापि नहीं होता है, मोह कर्म बस पुद्गलीक सुखों से जीव राजी होता है परंतु इन्ह सुखों में गृद्धी होके जीष पाप कर्मोपार्जन करि के नरक निगोदादि में दुःख भोगता है और मोक्ष के श्रातमीक सुखों से दूर होता है इस लिए यह सुख कुछ भी नहीं है असल सुख तो मुक्तिके हैं सो सदा सर्वदा येकसा अनन्ते हैं तो जन्म मरणरूप दावानल से अलग होके सिद्ध भगवन्त हुए हैं, जिन्होंने श्राएं ही कर्म अलग करिके आठ गुन प्रगट किये हैं सो कहते हैं। १-ज्ञानावरणीय कर्म क्षय होने से केवल ज्ञान । २-दरशनावरणीय कर्म क्षय होने से केवल दरशन । ३-घेदनीय कर्म क्षय होने से प्रातमीक सुख ।। ४-मोहनीय कर्म क्षय होने से शीतली भूत स्थिर प्रदेश तथा क्षा
यक समाकित। ५-नाम कर्म क्षय होने से अमूर्तीक भाष । ६-गौत्र कर्म क्षय होने से अगुरू लघू अर्थात् हल का भारी पंणां
रहित। ७-मंतराय कर्म क्षय होने से अनन्त वीर्य अंतराय रहित। . ८-आयुष्य कर्म क्षय होने से अटल अवगाहना।
उपरोक्त आठ गुनों सहित सिद्ध कर्मों से मुकाये जिसका नाम मोक्ष हे वे सिद्ध भगवंत कलकलीभूत संसार से. छुटकारा पाके
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(१६२) शिव रमणी के अनन्त सुन पाये हैं लो १५ प्रकार से सिद्ध होते हैं जिन्हों का नाम । १-तित्थ सिद्धा, अर्थात् साधू साध्वी श्रापक श्राविका मयी व्यार,
तीर्थ में से सिद्ध हुए। २-अण तित्थ सिद्धा, अर्थात् च्यारतीर्थ विना अन्य तीर्थी पण
में करणी करके केवलज्ञान दर्शन उपार्जन कर सिद्ध हुए । ३-तार्थंकर सिद्धा, अर्थात् तीर्थ थापके सिद्ध हुए। ४-अतीर्थकर सिद्धा, अर्थात् तीर्थ थापे विना सामान्य केवली
सिद्ध हुए। ५-स्वयंवुद्धि सिद्धा, अर्थात् किसी के उपदेश विना स्वयं प्रति' बोध पाके सिद्ध हुए। ६-प्रत्येक बुद्धि सिद्धा, अर्थात् किसी वस्तु को देख के प्रतिबोध
पाये सो सिद्ध हुए। ७-धुद्धिबोध सिद्धा, अर्थात् उपदेश सुनके संयम मार्ग अङ्गीकार 'करके सिद्ध हुंए। ८-स्वयं लिङ्गी सिद्धा, अर्थात् जैन साधू के लिङ्ग में सिद्ध हुए। ६-अन्य लिङ्ग सिद्धा, अर्थात् जैन विना अन्य लिङ्ग में सिद्ध हुए। १०-गृहस्थ लिङ्ग सिद्धा, अर्थात् गृहस्थी के लिङ्ग में सिद्ध हुए। ११-स्त्री लिङ्ग सिद्धा, अर्थात् स्त्री लिङ्ग में सिद्ध हुए। १२-पुरुष लिङ्ग सिद्धा, अर्थात् पुरुष लिङ्ग में सिद्ध हुए। १३-नपुंसक लिङ्ग सिद्धा, अर्थात् कृतनपुंशक लिङ्ग में सिद्ध हुए। १४-एक सिद्धा, अर्थात् एक समय में येक ही सिद्ध हुए । . १५-अनेक सिद्धा, अर्थात् एक समय में अनेक सिद्ध हुए। .
उपरोक्त पंदरह प्रकार सिद्ध हुप सो सर्व ज्ञान दरशन चारित्र और तप यह च्यारी सहित हुए हैं परंतु इन व्यारों के विना कोई भी सिद्ध नहीं हुए न होय.और न होवेगा, ज्ञान से सर्व म
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( १९३) दार्थों का जान होता है, दरशन से सर्व पदार्थों का द्रव्य गुन पर्याय यथातथ्य पद्धता है, चारित्र से फर्म को रोकता और तप से कर्मों का क्षय करता है इसलिये यह च्यारों मोक्ष मार्ग है, पंदरह प्रकार से सिद्ध होते हैं उन सब की करणी एकसा है और सिद्ध स्थान में सर्व सिद्धों के एकसा ज्ञानादि गुन तथा आतमीक सुख एकसा है यहां किञ्चित् भी फर्क नहीं है, यह नवमां मोक्ष पदार्थ को ओलखाने के लिए स्वामी श्री भीखनजीने नाथद्वारा शहर में सम्बत् १८५६ मिती चैत सुदि ४ शनिवार को ढाल जोडी जि. सका भावार्थ मैंने किया जिसमें कोई अशुद्धार्थ माया होय उसका मुझे पारंपार मिच्छामि दुकडं है।
॥ कलश ॥
: ॥ चाल त्रूटक छन्द ॥ कह्यो जीव धुर अरु दूसरो अजीव तत्व सुजानही । पुण्य तीसरो फुन पाप चौथो श्राश्रव पं. चमं मानही ॥ छट्टो पदारथ निरजरा अनें सातमूं संबर ग्रह्यो । पाठ छै बंध फुनजे मोक्ष ते नवमूं कह्यो ।॥ १॥ ए नव पदार्थ जे पाखिया जिन भाषिया आगम महीं । तसु ढाल बंध सुजोड नीकी स्वामश्री भितूकही ॥ तेहवें भावार्थ मैं कियो निज बुद्धिके अनुसारही ॥ वच बिरुद्धको श्रायो हुवै तसुं मिथ्या दुकृत धारही ॥२॥ स्वर व्यंजनादिक अनें लघु कुन दीर्घ जे मात्रा
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वही । कवि बाच के शुद्ध ग्रहणकर तसु हास्य. . मुझकरस्ये नहीं ।। ए प्रार्थाना है बाचकों से नम्र भावें जानहीं। गुनी प्रातम अर्थी तत्व समझी यथातथ्य सु-मानही . ॥ ३॥ श्रीबीर शाशन मांहि प्रगटे स्वामि श्रीभित्तू सही । जिन आंण वर फुन बांणि शिरधर बिमल शिव मारग कही ।। संसार पारावार तसु उपकार सावद्य दाखियो । जे ज्ञान दरशन चारित तपये धर्म निरवद्य भाषियो ॥ ४ ॥ तसु पाट अष्टम स्वाम कालूराम गणी महाराजही । सुरतरू सांचा मिष्ट वाचा तरन ता. रन जहाझही ॥ तेह उपाशक गुलाब कहै यह अर्थ तासु पसायही । कियो सम्बतें उगनीस बहोतर श्रान्नद हर्ष अथायही ॥५॥ ..... ॥ उक्तंच ।। .......
नवसद्भाव पयत्या पणत्ता तजहा जीव अजीवा पुन्नं पावं पासवो संवरो निझरा बंधो मोरको ...
॥ इति ठाणाङ्ग सूत्रम् ॥ अर्थ नवसद्भाव अर्थात् छता पदार्थ प्ररुण्या ते कहै छै, जीबा १.अजीवा २ पुण्य ३.पाप ४.अाश्रय ५संबर ६.निरजरा ७.ब. घ मोक्ष..
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(१५) ॥ अथ श्रीअभयदेव सूरिकृतावृत्ति ॥
नवसद्भावे त्यादि । तदावेन परमार्थेना नुपचारेणे त्यर्थः पदार्थाः वस्तुनि सद्भाव पदार्थाः स्तद्यथा जीवाः सुख दुःख ज्ञानोपयोग लक्षणा, अजीवा स्तद्विपरीताः पुण्यं शुभ प्रकृतिरूपं कर्म, पापं तद्विपरीतं, कमैव श्राश्रूयते गृह्यते नेनेत्याश्रवः शुभाशुभ कमोदान हेतु रितिभावः, संवर श्राव निरोधो गुप्तयादिभि, निरजरा विपाका तपसोवा कर्मणां देशतः क्षपणा, बंध प्राश्रवै रात्तस्य कमण अात्मना संयोगो, मोक्षः कृत्स्नकर्मक्षया दात्मनः स्वात्मन्यवस्थानमिति; ननु जीवाजीव व्यतिरिक्तः पुण्यादयो न संति तथा युज्य मानत्वा तथाहि पुण्य पापे कर्मणी बन्धोपि तदात्मकएव कर्मच पुद्गल परिणामः पुदगलाश्चाजीवा इति श्राश्रवस्तु मिथ्या दर्शनादिरूपः परिणामो जीवस्य सचात्मानं पुद्गलांश्च विरहय्य कोन्यः संवरोप्याश्रव निरोध लक्षणो देशसर्वभेद श्रात्मनः परिणामो निवृत्तिरूपो निरजरातु कर्मपरिशाटो जीवः कर्मणां यत्पार्थक्य मापादपति स्वशक्तया
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( १९६) . मोक्षो प्यात्मा समस्त कर्म विरहित इति तस्मा : ज्जीवाजीवो सद्भावपदार्थावितिवक्तव्य मतए: वोक्त मिहैव जद त्थिंचणं लोए तं सव्वं दुप्पडयार तंजहा जीवचेव अजीवचत्ति अत्रोच्यते सत्यमे तत् किंतु यांवेव जीवाजीव पदार्थों सामान्येनोक्तो तावेवेह विशेषतो नवधोक्तो समान्य विशेषात्म कत्वा दस्तुन स्तथेह मोक्षमार्गे शिष्यः प्रवर्तनीयो न संग्रहा भिधान मात्रमेव कर्तव्यं सच यदैव माख्यायते यदुता श्रवो बन्धो बन्धद्वारा यातेच पुण्य पापे मुख्यानि तत्वानि संसार कारणा निसंवर नि । जरेच मोक्षस्य तदा संसार कारण त्यागे नेतरत्र प्रवर्तते नान्यथे त्यतः षट्कोपन्यासः मुख्यं साध्य व्योपनार्थच मोक्षस्येतिः।
. . . * भावार्थ * .... नव प्रकार के पदार्थ कहे सो परम अर्थ करके अन उपचार से तद्भाविक है अर्थात् कथन मात्र ही नहीं हैं छती बस्तु हैं से कहते हैं जीव सुख दुःख का ज्ञाता उपयोग लक्षणी है १, अजीव सुख दुख का अज्ञाता और अन उपयोग लक्षणी है २, पुन्य जीव के शुभ प्रकृति रूप कर्म है ३, पाप जीव के अशुभ प्रकृति रूपकर्म ... है४, शुभाशुभ कर्मों का ग्रहण करने वाला आश्रव है ५, आश्रय' : का निरोध गुप्त्यादिसंबर है, ६, देशतः कर्मों को क्षय करैः सो निरजरा है ७, आश्रवं द्वार से कर्म प्रेदेशा ग्रहण किये सो आत्म प्रदेशों के संयोग है अर्थात प्रात्म प्रदेशों के कर्म प्रवेशा बंधे है . .
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(१६७ सोपंध है , और सर्व कर्मों को क्षय करके कम रहित आत्म प्रदेश है सो मोक्ष है , तय, कोई तर्क करै तो फिर नव पदार्थ क्यों कहै जीव और अजीव ये दोही पदार्थ कहनेथे क्योंकि पुण्य पाप हैं सो कर्म है पातमां के साथ बंध है येतो पुद्गल परिणाम है। और पुद्गल है सो अंजीव है, तथा श्राश्रव है सो मिथ्या दर्शनादि रूप जीव परिणाम ह सो धातमा जीव द्रव्य है, पाश्रवको निरोध अर्थात् निवृत्ति रूप है, सो संवर है सोभी जीव द्रव्य है। देशतः कर्म तोडके देशतः जीव उज्वल होय सो निरजरो भी जीव पदार्थ है, तथा समस्त कौंको क्षय करके स्व सक्ती प्रगद करी कर्म रहित जीव होय सो मोक्ष है सांभीजीव पदार्थही है इस लिए जीव और अजीव ये दोही सद्भाव पदार्थ है बाकी सातो. को पदार्थ किसतरह कहे जिसका उत्सर शिष्यों को मोक्ष मार्ग में प्रवर्ना ने के निमित् प्रथक प्रथक पदार्थ बताये हैं, अनादि काल से संसारी जीवं पुद्गलों के साथ लोली भूतं हो रहा है जो जी.
के शुभ. पण उदय होते हैं उन्ह.पुगलों का नाम पुण्य पदार्थ है और जो असुभ पण उद्य पाते हैं उन्ह का नाम पाप पदार्थ है पुण्य पापका करता जीव है जिसको प्राथव पदार्थ कहते हैं
और अकरता. है सो जीव संवर पदार्थ, है, जीव जब कर्मों को निरजरता अर्थात् देशतः क्षय करता है इसलिए जीयका नाम निरजरा है, और जो पुण्य पाप जीवके बंधे हैं उनका नाम बंध पदार्थ है, सम्पूर्ण पुण्य पाप को क्षय करके जीव कर्म रहित होता है उसका नाम मोक्ष पदार्थ है. तात्पर्य पुण्य पाप बंध और
आश्रव यह संसार के कारण है इसलिए इन्हें तजके संघर निर. जरा जो माक्षके कारण है सो अझोकार करना चाहिए ॥ इति ।
॥दोहा । . केई भेष धारयां रा घट मझे। जीव अजीवरी खबर न काय ॥ तो पिण. गोला चलावै. गाला तणां । ते पिण शुद्ध न दीसै त्हाय ॥ ६ ॥ सर्व
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( १६८) पदार्थोरो त्या निर्णय नहीं। छ द्रवांरो पिण निर्णय नांहि ॥ न्याय निरणय विना वकवो करे। त्यांरै सोच नहिं मन मांहि ॥ २ ॥ जीव अजीव दीनूं जिन कह्या । तीजी वस्तु न काय ॥ जे जे वस्तु छै लोकमें । ते दोने में सर्व समाय ॥३॥ नव ही पदार्थ जिन कया । ते दोयां में घालै नांहि ॥ त्यां रै अंधकार घटमें घणों। ते भूल गया भ्रम मांहि ॥ ४॥ ऊँधी करै छै प्ररूपनां । ते भोलानें खबर न काय ॥ तिणसूं नव पदार्थरो निरणय कहूं। ते सुणज्यो चित ल्याय ॥५॥
॥ ढाल.॥ श्रा अनुकम्पा जिन आज्ञा में । एदेसी ।। जीवते चेतन अजीव अचेतन । त्यांने वादर पण तो भोलखणां स्होरा ॥ त्यांरा भेद जुदा जुदा करतां । जबतो ओलखणा छै अति दोहरा ॥ श्रा श्रद्धा श्री जिनवर भाषी ॥ १॥ जीव अ. जीव टालनैं सात पदार्थ । त्यांनँ जीवनें अजीव श्रद्धै छै दोनहीं ॥ यहवी ऊंधी श्रद्धारा मूढ मित्थ्याती। त्यां साधुरो भेषले प्रातम विगोई ॥ जीव. अजीव शुद्ध न श्रद्धे, मित्थ्याती ॥ २ ॥
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(२६ ) पुण्य पाप बंध यह तीनहीं कर्म । ते कर्म तो निश्चय पुद्गल जाणों पुद्गल छै ते निश्चय अजीव । विण मांहि शंका मूल म प्राणों ॥ पुण्य पापनें अजीव न श्र? मित्थ्याती ॥ ३॥ पुण्य पाप वेहु ने ग्रहै छै श्राश्रव । पुण्य पाप ग्रह ते निश्चय जीव जाणों ॥ निरवध जोगांसं पुण्य ग्रहै छै। सावध जोगांसें पाप लागै छै श्रांणो ॥ श्राश्रवनँ जीव न श्रद्धे मित्थ्याती ।। कर्म भावानां द्वार श्राश्रव जीवरा भाव । तिण पाश्रवरा वीसूही बोल पिछाणों । तै बीसूहीं वोल छै कौरा करता। ते कौरा करतानै निश्चय जीव जाणों ॥ श्राश्रव ॥ ६॥ श्रातमा बस करै तेहिज संवर । श्रातमा बस करै ते निश्चयही जीव ॥ तेतो उपसम क्षायक क्षयोपस्म भावः । श्रेतो जीवरा भाव छै निरमल अतीव ॥ संवरने जीव न श्रद्धै मित्थ्याती ॥ ७ ॥ श्रावता कर्मानें रोक ते संबर। श्रावता कर्म रोके ते निश्चय जीव ॥ तिण संबस्नै जीव न श्रद्धै मित्थ्याती । तिणरै नरक निगोदरी लागे छै नींव' ।। संबर ॥ ८॥ देशः थकी कर्मी नै तोडै जब ।
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(३०० ) 'दैराः थकी जीव ऊज़लो होय ॥ जीव ज. जलो हुनो तेहिज निरजरा । निरजरा जीव छै तिण में शंका न कोय ।। दिरजरा में जीवन श्रद्धे मिथ्याती -कर्मा ने तोडे ते निश्चयही जीव । कर्म टूटा थकी ऊजलो हुश्रो जीव !! ऊंजेला जीवनै निरजरा कही जिनेश्वर । जीवरा गुण उज्वल है अंतही अतीव । निरजरा ॥१०॥ समस्त कर्म थकी मुंकावै । ते कर्म रहिल आतम छै मोख ॥ इण संसार दुःख थी छुटकारा पाम्यो। सेतो शीतली, भूत थया निदोंख ॥ मोचनै जीव न अद्धे मित्थ्याती ॥ ११ ॥ कर्म थकी मुकामाते मोक्ष । ते मुक्ति ने कहिजे सिद्ध भगवान ।। कलि मोत्तनें परम पद निवाण कहिजे । ते नि
यही निरमल जीव कै.शुद्धमान || मोक्ष ॥१२॥ पुण्य.पापबंध यह तीतूं जीव । त्यांन जीव अजीव श्रद्ध छै. दोनहीं। यहवी ऊंधी श्रद्धारा छै मृढः मित्थ्याती। त्यां साधूरो भेष ले. श्रातम विगोई !! पुराय पापनें !॥ १३ ॥ श्राश्रव संबर
लिरजरा मोक्ष । यह नियमांही निश्चय जीव '. व्याही ।। त्यांन जीव अजीव दोन श्रद्धै छै ।
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तिण ऊंधी श्रंद्धा ले अात्म विगोई ॥ त्रै च्या ही जीव न श्रद्धे मिथ्याती ।। १४ ॥ नव पदार्थ में पांच जीव कहा जिन । च्यार पदार्थ अजीव कह्या भगवान ।। ए नवों ही पदार्थ तुं निरणय करसी । हिज़ समकित छै शुद्ध मान ॥ श्रा श्रद्धा श्री जिनवर भाखी ।। १५॥ जीव अजीव ओलखावन काजै । जोड कीधीपुर सहर मझारो। सम्बत् अट्ठावन बर्ष सतावने । भादवा सुद पूनम बुद्धवारो ॥ नवही पदार्थरो निर्णय किजो॥१६॥
॥ इति नबपदार्थ चोपाई सम्पूर्णम् ॥ . ...श्री जयाचार्य कृत ढालः ॥ 'प्रीत भितू से लागीरे । सुमति सखरी 'मोय जागीरे॥ लागी प्रीत भिजू थकीरे पडयोरे गणेदर धिसीर । तसु वचना ऽप्रत छोडि नैं म्हारै कुंण पीवै कडवो नीर ॥ प्रीत ॥ १ ॥ अलिङ्गी मानूं नहींरे नहीं मानूं भेषधार ।। टालोकर से काम नहीं। म्हारे परम पूज से प्यार || प्रीत ॥२॥ अन्त करण सहु. दुःख तणोरे। समकित चरण सुश्राथ ।। पूज प्रसादे पामियां पायो रत्न चिन्तामण हात ।। प्रीत ॥३॥
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( २०२ । . ऊंडी तुझ बालोचनारे॥ प्रवल प्रतापी श्राप ॥ जिन मग मागं जमायवा कांई स्थिर मर्यादां स्थाप ॥ प्रीत ॥१॥ अष्टादश सोलै संयमीरे । साठ वर्ष संथार ॥ श्रावै छै संत श्रारज्यां कहया चरम वचनचमत्कार ॥ प्रीत ॥ ५॥ येक महरतर श्रासरेरे श्राया साधू दोय ॥ दोय महुरतरै आंसरै कोई तीन साध्धियां जोय ॥ प्रीत ॥ ६ ॥ लोक वचन बहु इम कहैरे । श्रा अचरज वाली बात ॥ भादवा शुक्ल त्रयोदशी । काई पण्डित मर्ण विख्यात ॥ प्रीत ॥ ७॥
॥ इति ।। ॥अथ श्री कालूगणी स्तवना ॥
॥ दारू दाखांकी ॥ दारू दाखां की म्हारा छैल भंवरजी ने थोडीसी पाजे, हे दाए. चाल।। होजी महारा दीन दयालू कालूगणी गुण दरिया हो । निरमल नीर बीर बचना करि गहरा भरिया हो । पाखंड डरिया हो । पाखंड डारया हो एतो भव दधि कीच बीच में पडिया हो।कर्म अघ जडिया हो ॥१॥ जे भवी धीर सीर शाशन में थोरै शरणें तिरया हो । पांच महाबत धार सार'
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(२०) कई अणुव्रत धरिया हो। कारज मरिया हो ॥का ते तो शिव रमणी प्रते वरिया कै. वरिया हो । कुगुरु विशरिया हो ॥ २ ॥ टालोकर गुण शुन्य हीन पुण्य गण बाहर निसरिया हो । यह भव परमव में दुःख पामैं । ते सूंस विसरिया हो । निरलज गरिया हो ॥ निर ॥ ये तो शिव मग सेती दूरा टरिया हो । कुगति में रडिया हो ॥३॥ तुम रीज हुमायु स्वच्छ पच्छ सम पासा पूरण स्वामी हो । सारण वारण संत सत्यारी मेटणा खामी हो । अन्तरयामी हो । अन्तर । ये तो विवध, प्रकारे शास्त्रांनां गामी हो । करण अमामी हो: ॥४॥ सेवग जनपैं कृपा करिके भव जल पार उतारो हो । भविजनरै मन पासा श्रधिकी कारज सारो हो । सीघ्र संभारो हो । सीघ्र ॥ एतो गुला: वचन्द कहै । हपं अपारो हो । विडध तिहारो, हो ॥ ५॥ इति ॥ .
॥ ढाल ॥ ..... . देशी राजा रिसालका ख्यालकी ॥ जागो म्हारा सिंह सूरमा. रावतो रिसालु ॥ एचाल. गणी.थारो मही बिच जस रह्यो काय । जस रह्यो
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(२०४)
छाय श्रही कीलू गणी राय ॥ ॥ कीरति रिसाई जाई । मानूं राखी रहै नांहीं। भवीजन मन भाई ज्ञान बधाय ॥ गणी ।। १॥ दीपै हद तनु दुती । इन्दू से अधिक कुंती। सम दम खम युति तिमिर नसाय ॥ गणी ॥२॥ विवध मर्याद वाद । रहो.ध्रुवं मिष्ट साद । गुन गिरवी श्रगाथ। सागर प्रथाय ॥ गणी ॥ ३॥ इति ।।
॥ ढाल राग खंमाचमें ॥ गणी तोरा दरश सरश पर वारीजी ॥ गं ॥ कालू गणि राजा । भव दधि पाजा । गरीव नि. वाजा । जग जस जामा जहारीनी ।।ग ॥१॥ श्रेष्टम् पटधर प्रज्ञान तिमर हर । विमल बुद्धिवर । ज्ञान बान सर सारीजी ॥ग ॥२॥ श्रनुत्तर खम दम । अंतिशय जिनसम । निरुपम निर मम रमंनिज भाव विचारीनी॥ग ॥३॥ पटतीश गुन युत । क्रान्ति रवी वत । अमृत वच सैत । वाग्रत कुमति विडारीजी ।। ग॥ ४॥ हरण भ्रमण दुःख । करण वरण सुख । धरम परम मुख । गुलाब शरण तुझ धारीजी ।। ग॥५॥ शते ।।
। इति संपूर्णम् ॥ ..
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* श्री. *
शुद्धाशुद्धपत्रम्।
भा
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पत्र | पंक्ति
अशुद्धं
शुद्धं
--
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वस्त्राभर्ण स्त्रियादि अन्तरगत सतगुरुयों का हरागण एकान्न
| वस्त्राभरण . स्त्री आदि . अन्तर्गत सद्गुरुओं का हरगिज । एकोन्त :
चतुति प्ररूपित सद्गुरुत्रों का
चतुरगति प्ररूपिता सदरोगु का शुत्र तीर्थंकरोन 'স্য दसमा
श्रुत
तीर्थहरो ने प्राणं
दशमा
उन्नाध्ययन
उनमई
उत्तराध्ययन | उन्मत्त
अपधारियों
१० । भेषधारीयों
onliAN
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पत्र | पंक्ति
' अशुद्ध
शुद्ध
o non
किई मिन्हो तेवीश
कि जिनहों तैबीस आउषो जीव छेदेकः स्वयम्भः सह शरीरणति
जीव
s
छेदकः स्वयम्भुः सह शरीरेणेति
a to
जुवानाम उपसमियां । छद्मस्थ .
e
८
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त्वचा
वा नाम उपस्मीयां छदमस्थ शरि दृव्यतः ढालते दृव्यरा भगवति
द्रव्यतः
ढाल
n o es
।
द्रव्यस भगवती
in
इन्द्रीयों सुधीर
इन्द्रियों शूरवीर ..
am
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पंक्ति
अशुद्ध
शुद्ध
|संसारिक दृष्य सें थाले प्रत्रकास নীৰ द्रव्या रात्रि
सांसारिक द्रव्य सथाले अवकाश
जाव द्रव्यां
रात्री
पणूि
पूरण परमाणू परमाणु वो
पर्माणू वो
पर्माणू
परमाणु
वसस्त्र
वस्त्र
ध्यतः
द्रव्यतः
श्रायुष्य
স্নায়ুথ यजर समान सुश्वर प्रमाणिक यसवंत कीया उपाना
वजूसमान . सुस्वर प्रामाणीक यशवन्त किया
।
उपाङ्ग
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[४]
पंक्ति
अशुद्ध
शुद्ध
*
ययांलीस
उच्च
*
*
-
w
वयालिस में उच्य वान्छा निवध संसारिक अपेक्षाय चक्रिवर्ती की हुकुमाता भ्रसास्वते निर्वध
:
২াজ্ঞা। निर्वध्य सांसारिक अपेक्षा चक्रवत्तिकी हुकुमता श्रसास्वत: निर्वद्य
+
M
o re...
श्रासा अदवसायों से स्वतह | पुन्योपारजन निर्मला नाघाद्वारा
ने नरा ८. नागसे विमुल
अधकाय
अध्यवसायास स्वतः पुण्योपार्जन निमल नाथद्वारा जैनरा .. 'मार्गसें विमुख अप्पकाय ।
"
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पत्र
| पंक्ति
अशुद्ध
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निपने
नीपन 'श्राहार
श्रणार
करकस
कर्कश
श्रकरकस
ती जाठाणा
अकर्कश तीजाठाणा अध्ययन सरल
अण्ययन
जिनमात पुन्योपारजन सतपुरुष निरगुणी पुन्योपारजनः कत्तव्य
जिनमति पुण्योपार्जन सत्पुरुप निर्गुणी पुण्योपार्जन कर्तव्य .
निरवध 1. जलद तेनाहि
निर्वध जल्द तेहवाही
परयाय
पर्याय
विर्य
वीर्य
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पत्र
श्रशुद्ध
।
शुद्ध
.
१६ | मनपर्यव
| उपस्प प्रावया कुकरमी. सिफ: परणाम স্বাস্থ न्यूतन स्मपूर्ण प्रतना निसहाय
मनापर्यव सो . उपसम प्रवाः कुकर्मी सिर्फ परिणाम
आश्रव नूतन संपूर्ण प्रवीना निस्सहाय नृतन संपूर्ण
0
0
| न्यूतन
0
0
२८ ! समपूर्ण
जोगविर्य उपारजन
जोगीर्य .
उर्जन
विर्य
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rom
पत्र
पंक्ति
अशुद्ध
-
-
-
२१२ । १६
।
चौरी
चोरी
~
| স্বান
श्रात्म
श्रातमा .
मात्मा श्रोत्र
श्रोत निरवध
निर्वध ।
प्रातम
श्रात्म
प्रसस्त
प्रशस्त
अप्रसस्त
प्रप्रशस्त
१४.१७
२२
प्राक्रम
पराक्रम कर्ता
करता
श्रात्म
तात्पर्य तात्पर्य
१४१
निर्वदा
आतम तात्पर तत्पर
निरवद्य 1१६-२१
पदारथ
क्षयोपम्म १४७
उत्पत १४८ | २७ ब्रह्मन । १५२ :२० । भौगय
पदार्थ
क्षयोपशम उत्पत्ती
ब्राह्मण
| भोग
wom
amisammemomeo
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________________ NAR F 'पत्र प्रशुद्ध कृया निया सवर न . are RB 1 संवर सेवणा निष्फल वाहय श्राभ्यन्तर सत्कार श्रत निर्वाण लघुसंसारी or enter or * *:-v2poroorprn sax क्षण सेयणा निःफल वार्य श्रभ्यन्तर सत्कार भारत निरवाण लघूसंसारी क्षिण बुधानुसार प्राक्रमी श्राछादित , ऊंणयत स्वतहः निम्परिग्रही प्रातमीक औपमा श्रातीक पुदगलीक आत्मीक इन्ह | प्रातमीक बुद्ध्यानुसार पराक्रमी श्राच्छादित . ऊंणायत . स्वतः निष्परग्रही आत्मिक उपमा आत्मिक पुगलिक आत्मिक. श्रामिक