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मुक्ति के पथपर
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मुक्ति के पथपर
: उपोद्घात : सिद्धांत महोदधि सुविशाल गच्छाधिपति प० पू० प्रा० श्री विजय प्रेमसूरीश्वरजी
के शिष्य पू० मुनिश्री कुलचंद्रविजयजी
: संपादक : प्रमतलाल मोदी
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: मुद्रक, प्रकाशक : प्रोग्रेसिव प्रिन्टर्स, अहमदाबाद-२२.
: मिलने का पता : श्री जैन श्रेयस्कर मंडल, मेहसाना.
मूल्य सिफ लागत १-०० रुपया मात्र
वि. संवत २०३०
प्रति १०..
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NACE समपपEAN
अपने जन्मदाता अत्यंत उपकारी जनक जननी को
जिन्होंने जन्म देकर तथा पालपोस कर बडा किया;
जिनसे धर्म के मूलत: कुछ सुसस्कार प्राप्त हुए;
जिनके ऋणसे स्वप्न में भी कभी उऋण होने की आशा नहीं।
-अमृतलाल मोदी
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उन
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१. नमस्कार महामंत्र
२. प्रार्थना
३. पंचसूत्र ( प्रथम सूत्र ) अर्थ सहित
४. पंचसूत्र प्रथम सूत्रका विवेचन
५. पंचसूत्र द्वितीय सूत्र - प्रथं विवेचन सहित ४५
६. समाधि विचार
७. नवपदों के दोहे
८. मुख्य प्रांतरिक भाव
00
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१
२
५
१५
७१
१०३
१०५
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।। अह नमा ।।
इस पुस्तिका में अर्थ और संक्षिप्त विवेचन सहित प्रार्थनासूत्र (जयवीयरायसूत्र), पंच-सूत्र के प्रथम दो सूत्र, समाधि-विचारादि का सुन्दर संग्रह है।
प्रार्थना-सूत्र द्वारा की गई भवनिर्वेद से लगाकर पर-हित-करण तक की प्रथम छ याचनाओं से लौकिक सुन्दरता के साथ ही साथ सद्गुरु-योग और उनके वचन का सेवन स्वरूप दो याचनामों से लोकोत्तर सौन्दर्य भी अपेक्षित है।
पापप्रतिधात और गुणबीजाधान नामक पंचसूत्र के प्रथम सूत्र का पठन श्रवण चिंतन प्रात्मा में देश विरति धर्म की योग्यता प्राप्त कराने द्वारा कल्याण का महान् कारण है ।
साधू-धर्म परिभावना नामक दूसरे सूत्र के पठनादि से सर्वविरति धर्म की योग्यता प्राप्त होती है।
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इस तरह भवनिवंद, मार्गानुसारिता, सम्यग्दर्शन, देशविरति सर्वं विरति रूप क्रमिक उत्थान के पश्चात् भी कषाय परिणति के उपशम रूप समाधि को पूरी अावश्यकता रहती है, अत: 'समाधि विचार' का संकलन भी उचित ही है । इस सुन्दर और मृदुभाषी काव्य में समाधि की मूलभूत प्रनित्यादि भावनानों का भावपूर्ण निरूपण हैं तथा आराधक आत्मा की परिणति का सुन्दर दर्शन होता है ।
अतः यह लघु पुस्तिका नित्य स्वाध्याय में श्री चतुविध संघ को प्रत्युपयोगी सिद्ध होगी ।
इस पुस्तिका के संग्रहकर्ता श्री अमृतलालजी मोदी M. A. का यह प्रयास अनुमोदनीय है ।
श्री दानसूरीश्वर ज्ञान मंदिर कालुपुर रोड, अहमदाबाद. १५-१-७४
मुनि कुलचन्द्र विजय
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पुस्तक प्रकाशन संबंधी
मेरे छोटे भाई का देहान्त सन १६४५ में होने पर उसकी धर्म क्रिया में रुचि देखकर मुझे प्ररणा मिली। उसके स्मारक रूप में एक योजना बनाकर विधि सहित देवसी राई प्रतिक्रमण पुस्तक प्रथम पुष्प के रूप में प्रकाशित की गई । कुछ वर्ष बाद उन पुस्तकों की बिक्री से जो रकम श्राई वह मेरे पास पडी रही। उसमें से 'बारह व्रत का संक्षिप्त परिचय' पुष्प - २ के रुप में भेंट देनेके लिए छपवाया गय और पुष्प - ३ के रूप में 'नव्वाणु पछो शु' छापा गया । पुस्तक के पैसों में ब्याज जोडकर आज तक जो रकम मेरे पास हुई है, वह सब इसमें लगा दी गई है ।
अपने मातापिता से मिले संस्कारों और छोटे भाई के जीवन से मिली प्रेरणा के उपरांत जीवन में धर्म का प्रभाव श्री जैन श्रेयस्कर मंडल की नवतत्त्व नामक पुस्तक पढने से पडा । पापभीरुता के रूप में धर्म के जीवन में इस प्रवेशने धीमी पर स्थिर गति से प्रगति की। दोनों प्रकरणों को अधिक हृदयंगम करने से धर्मतत्त्व बौद्धिक स्तर पर तथा प्राचरण में अच्छी तरह जमने लगा ।
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संस्था की समाधि विचार पुस्तिका का भी जो इस में जोड़ दी गई हैं मुझ पर खूब उपकार है ।
इसी ऋण को उतारने के कुछ प्रयत्न स्वरूप शांति स्मारक योजनाका पैसा लगाकर प्रकाशित की गई यह पुस्तक संपूर्ण रूपसे संस्थाको सौंपता हू। यह उन्हीं की मालिकी की है। अतः इसमें से जो भी आय हो, उसे किसी भी तरह उपयोग में लेने म संस्था स्वतंत्र है, हमारी कोई शर्त नहीं ।
मूल तो दीक्षा के अवसर पर प्रकाशित होने के लिए यह पुस्तक तयार की गई थी, पर कई कारणों से दीक्षा में अंतराय प्राते गये और वह सौभाग्यशाली क्षण अभी तक जीवन में न श्रा सका । श्रत; इस प्रकाशन को अधिक रोकना अच्छा न समझने से यह पुस्तक अब प्रस्तुत है ।
इस बात का प्रत्यंत हर्ष है कि प.पू. आचार्य देव श्री कैलाशसागरसूरिजी के प्रशिष्य विद्वान वक्ता पू. पद्मसागरजी म. सा. के पदवीदान समारोह के अवसर पर (वसंत पंचमी ) इसे प्रकाशित करनेका हमें सुन्दर मौका मिला है । इसके लिए हम अहमदाबाद के जैन नगर के संबंध के प्रभारी है । विनीत
- प्रमृतलाल मोदी
अहमदाबाद. १६-१-७४
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: संपादकीय :
हमें यह पुस्तक प्रस्तुत करते हुए बडा हर्ष होता है । मैंने जीवन में धर्म को समझकर उतारने का हमेशा प्रयत्न किया है और नक्तत्त्व पुस्तक में से पाप तथा प्राश्रव तत्त्व को समझा, तब से धीरे धीरे व्रत ग्रहण की ओर बढा । व्रतों को संपूर्ण अपना लेने के बाद जीवन को सरल तथा सत्यमय बनाने के प्रयत्न चलते रहे और जीव विचार तथा नवतत्त्व दोनों प्रकरणों को पढ़ाने का मौका मिला। उनके पठन पाठन अनुशीलन परिशीलन तथा स्वाध्याय से वे दिल में बैठ से गये हैं और घोरे धीरे धर्मतत्त्व जमता गया है। ___इसी खोज में पंचसूत्र मिला-उसके दो सूत्र अच्छी तरह समझने का प्रयत्न किया। पू. पं०जी श्री भानुविजयजी (अब प्राचार्य) को 'उच्च प्रकाशमा पथे' गुजराती पुस्तक में से पंचसूत्र का विवेचन पढ़ा और प्रथम सूत्र का कुछ समय पाठ भी किया। दूसरे सूत्र से यह पता चला कि श्रावक को किस तरह अपना जीवन जीना चाहिये ।
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दीक्षा के लिए गुरु की खोज में पू० अमरेन्द्रविजयजी म.सा से भेंट हई और उन्होंने समाधि विचार नामक छोटी सी पुस्तक मुझे दो। उसे मैं कई बार पढ़ गया। उस समय तत्काल दीक्षा लेने के विचार चल रहे थे। अत: इस शुभ अवसर पर ऐसा आयोजन करने का विचार पाया कि जीवन में धर्म को उतारने में अत्यंत उपयोगी इन चीजों का स'ग्रह और सपादन हिंदीभाषी और विशेषतः अपने वतन के लोगों के लिए हो, इसलिए यह स ग्रह किया गया है।
जय वाय राय प्रार्थना सूत्र है, जिसमें वीतराग से मांगने लायक सभी चीजों का समावेश है । अत: इसे नवकार के बाद तुरन्त स्थान दिया है।
पचसूत्र के प्रथम सूत्र को पापप्रतिघात गुण बोजाधान सूत्र कहा है। इससे व्यक्ति पाप का प्रतिघात करके गुण के बीजों का प्राधान करे, गुण बीज बोये । इस लिए मूल सूत्र और उसके नीचे अर्थ दिये हैं। मूल सूत्र का रोज पाठ करना अच्छा रहेगा | अतः उसे मोटे टाइप में दिया है। साथ ही अन्य टाइप में अर्थ देने से सूत्र समझ में अाता रहेगा। सूत्र बहुत ही जरूरी होने से पू०प०जी श्री भानुविजयजी (अब पाचाय) के विवेचन पर से (उनको अनुमति के बाद) सक्षिप्त में हिंदी विवेचन अलग दे दिया है।
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फिर इसी पंचसूत्र का दूसरा सूत्र, साधु धर्म परि भावना मूल सूत्र दिया है और उसका अर्थ व विवेचन भी उनी पुस्तक के आधार पर दिया है। इसे व्यक्ति समझे और अपने जीवन में उतारे। जीवन किस तरह जीना चाहिये, इत्यादि इससे समझमें आयेगा । मुक्ति पथ पर आगे बढ़ने के लिए पंचसूत्र में जो पांच सीढिये, पांच बाते बताई हैं, इनमें से श्रावक के लिए जरुरी दोनों चीजे यहां दे दी गई हैं। श्रावक अपना जीवन वैमा बनावे, श्रावक जीवन में साधू धर्म की परिभावना करे याने साधू बनने की तैयारी करता रहे । अर्थात जीवन को रागरहित बनाने के लिए आसक्ति रहित बनने का तथा जीवन को शुद्ध रूपसे जीने का प्रयत्न करे ।
अंत समय में समाधि मरण मिले ऐसी हम सब की इच्छा होती है। यही जयवीयराय में खास मांगा है। इसलिए जैन श्रेयस्कर मडल, मेहसाणा की प्रकाशित समाधि विचार पुस्तक को यहां छापा है। उसकी छापने की अनुमति देने के लिए मैं हृदय से संस्था का आभारी हं। उममें से कुछ गाथाएं पुनरुक्ति वाली अथवा उसी बात को ज्यादा स्पष्ट रूप से ही कहने वाली होने से हमने इसमें छोड दी हैं, पर पू० अमरेन्द्र विजयजी म.सा. के आदेशानुसार गाथानों की क्रम संख्या मूल संख्या ही रखी है।
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अंत में श्री सिद्धचक्र पाराधना के कुछ दोहे अर्थ सहित दिये हैं, जिन्हें जीवन में उतारने से जीवन समृद्ध बनेगा और सारी अाराधना के लिए सारभूत से 'एगोहं' आदि संथारा पोरसी की कुछ गाथाएं देकर पुस्तक की समाप्ति की गई हैं। ग्राशा है लोग इसका लाभ उटायेंगे ।
-अमृतलाल मोदी पुनश्च,- पुस्तक का अच्छा सदुपयोग हो इसी लिए कीमत जाग्रत मात्र रखी गई है और उपरोक्त रकमसे अधिक जो अपने पास से लगी है, वह बिक्री से मिलने का अंदाज है।
ॐ क्षमा प्रार्थना पुस्तक में मात्रा बिंदु व रेफ इत्यादि की कुछ भूलें प्रेश दोष के कारण रह गई हैं। अत: क्षमा करें। विशेष भूलें कृपया इस तरह सुधार कर पढ़ें :
पंक्ति
१७
गुण बीयाहाण उपाध्यायों रसायन विषय
अंतिम
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पंचमंगल महाश्रत स्कंध
पंचपरमेष्ठि नमस्कार महामंत्र
नमो अरिहंताणं । नमो सिद्धाणं । नमो प्रायरियाणं । नमो उवझायाणं । नमो लोए सव्वसाहूणं। एसो पच नमुक्कारो, सव्व पावप्पणासणो। मंगलाणं च सव्वेसि, पढम हवई मगलम् ।
मैं अरिहंत भगवतों को नमस्कार करता हूँ । मैं सिद्ध भगवंतों को नमस्कार करता हूँ। मैं आचार्य भगवंतों को नमस्कार करता है ।। मैं उपाध्याय भगवंतों को नमस्कार करता हूँ ।। इस जगत के सर्वसाधुनों को मैं नमस्कार करता हूँ ।। ये पांच नमस्कार सर्व पाप का नाश करने वाले हैं। तथा सर्व मंगलों में यह प्रथम मंगल (विघ्ननाशक) हैं।
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प्रार्थना
जयवीयराय जगगुरु होऊ मम तुह पभावो भयव । भवनिव्वेग्रो मग्गाणूसारिया इटाफल सिद्धि ॥१॥ लोगविरुद्धच्चायो, गुरुजणपूना परत्थकरणंच । सुहगुरुजोगो तव्वयण सेवणा प्राभवमखडा ॥२॥ वारिज्जई जईविनियाणबंधण वीयराय तुह समये । तहवि मम हुज्ज सेवा, भवे भवे तुम्ह चलणाणं ॥३॥ दुक्खक्खनो कम्मक्खो समाहिमरण च बोहिलाभो । सपज्जउ मह श्रे, तुह नाह पणामकरणेणं ॥४॥ सर्व मगलमांगल्य, सर्व कल्याणकारणंम् । प्रधान सर्वधर्माणां, जैन जयति शासनम् ॥५॥
(यह जयवीयराय सूत्र चैत्यवंदन करते वक्त बोला जाता है। प्रभुसे भक्ति के फलस्वरूप जो माँगना चाहिये वह यहाँ कहा है ।)
हे वीतराग, जगतगुरु आपकी जय हो। हे भगवत आपके प्रभावसे मुझे भवनिर्वेद,मार्गानुसारिता, इष्टफल की सिद्धि, लोकविरुद्ध आचरण का त्याम, गुरुजनों की पूजा, परार्थकरण (परोपकार), सद्गुरुका संयोग और उनके वचनोंकी सेवा जीवनभर प्राप्त
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हो। हे वीतराग! आपके शासन में नियाणा बांधने की मनाही की गई है, तब भी मैं यह मांगता हूँ कि भवोभव मुझे आपके चरणों की सेवा प्राप्त हो । हे नाथ ! आपको प्रणाम करने के फलस्वरूप मुझे दुख का क्षय, कम का क्षय, समाधिमरण और अगले जन्मोंमें बोधिका लाभ प्राप्त हो । सर्व मगलों का मगल स्वरूप (मंगलपना) सर्वकल्याण को करने वाला तथा सर्व धर्मों में मुख्य ऐसा जैनशासन हमेशा जयवंत हो। विवेचन :
आत्मिक दृष्टि से मांगी जानेवाली सभी वस्तुएं यहां मांग ली गई हैं। इनके अलावा कोई भी पौद्गलिक, भौतिक या इहलौकिक व पारलौकिक वस्तुकी जरा भी मांग नहीं करना चाहिये । वह नियाणा है, जिसकी मनाही है। इसीलिए प्रभु के चरणों की सेवा ही इसमें मांगी है।
प्रथम मांग भवनिर्वेदकी की गई है। भव याने संसार से वैराग्य उत्पन्न होना अत्यन्त आवश्यक है । प्रगला प्रकरण पचसूत्र का प्रथम सूत्र संसार के कुछ स्वरूप को समझाकर हमें इसकी प्राप्ति में
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सहायक होगा। सम्यक्त्व के लिए पहले मार्गानुसारिता की जरूरत है। लोक विरुद्ध वस्तुओं अर्थात् निद्य कार्यो का - चोरी जुगार परस्त्रीगमन आदि सात व्यसनों का - त्याग जरूरी है। गुरुजनों की पूजा परोपकार, तथा जीवनभर सद्गुरु का संयोग तथा उनके वचनों को सेवा की मांग की है।
यहां दुख का क्षय व कर्म का क्षय मांगा है। पहले किये हुए कर्मों के फलस्वरूप दुःख या कष्ट अवश्य प्रावेगे, पर प्रभुकी सच्ची सेवा तभी मिली गिनी जायगी, जब कि कर्म से प्राप्त कष्ट चित्त की समाधि का हरण नहीं कर सके। यही दुःखक्षय है जो यहाँ मांगा है। अशुभ कर्मों का क्षय भी माँगा है। ये कर्मबध अनुबंध के कारण होते हैं । इस चित्तसमाधि की प्राप्ति तथा अनुबध तोड़ने के लिए प्रथम सूत्र आगे दिया है। तीसरी मांग समाधि मरण की है, उसका भी विचार बाद के प्रकरणों में किया जायगा । अन्त में मरणोत्तर बोधिलाभको माँग की गई है । इसके लिए धर्म के प्रति श्रद्धा जरूरी है और धर्म को किसी भी प्रकार की आशातना से, जो बोधि प्राप्त को रोकती है, बचना चाहिये।
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भव्यजीवानां समाधीप्सूनां त्रिकालमाराध्यं
श्री चिरंतनाचार्य कृत महामंगलिक समाधि के इच्छुक भव्य जीवों के लिए __त्रिकाल अाराधना योग्य पाप प्रतिघात गुणबीजाधानसूत्रम्
(इस सूत्र को कंठस्थ करके दिनमें तीन बार (सीन संध्या) प्रणिधानपूर्वक गिनना चाहिये । इससे आत्माका सहज मल घटता है और मोक्षप्राप्ति की योग्यता दिन प्रतिदिन अधिकाधिक प्रकट होती जाती है।
इस सूत्रका जैसा नाम है, वैसा ही उसका गुण है। उसके नित्य स्मरण और पठनपाठन से अनेक भवों के सचित पाप नष्ट होते हैं और ज्ञान दर्शन चारित्र आदि गुण प्रकट होने के बीज प्रात्मभूमि में पड़ते हैं, फलतः मोक्ष प्रकट होता है । यहाँ पहले सूत्रके साथ मात्र शब्दार्थं दिया जाता है । ) णमो वीयरागाणं सम्वन्नणं देविंदपूईपाणं जह ट्ठियवत्थुवाइणं तेलुक्कगुरुणं अरुहन्ताणं भगवंताणं
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श्री वीतराग सर्वज्ञ, देवेन्द्रों से पूजित, वस्तुतत्त्व के यथार्थ प्ररूपक, तीनों लोकके गुरु, अरिहंत भ'वंत को मैं नमस्कार करता हूँ। जे एवमाइक्खंति इह खल प्रणाई जीवे, अणाई जीवस्स . भवे प्रणाइकम्मसंजोगनिव्वत्तिए, दुक्खरूवे, दुक्खफले, दुक्खाणुबंधे ।
वे कहते हैं, जीव अनादि है, उसका संसार अनादि है, उस संसार (भवभ्रमण) के कारणभूत कर्मसंयोग की परंपरा भी अनादि है । वह संसार दुःखरूप, दुःखफलक और दुःख की पर परा वाला है। एयस्स णं वुच्छित्तो सुद्धधम्मानो, सुद्धधम्मसंपत्ती पावकम्मविगमानो, पावकम्मविगमोतहाभम्वसाइभावानो।
इस भवभ्रमण का अंत शुद्ध धर्म से, शुद्ध धर्मकी प्राप्ति पापकर्म के नाश से और उनका नाश तथाभव्यत्वादि भावोंसे होता है । तस्स पुण विषागसाहणाणि चउसरणगमणं, दुक्कड गरिहा, सुकडाणासेवणं
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इस तथाभव्यत्वादि को पक्व करने के (मात्मामें प्रगट करने के) तीन साधन हैं। चार शरणों का स्वीकार, दुष्कृत गर्दा तथा सुकृतों का सेवन (व अनुमोदन) करना। असो कायव्वमिण होउकामेणं सया सुप्प.. भुज्जो भुजो संकिलेसे, तिकालमसंकिलेसे ॥ ___अत: कल्याणकामी मुमुक्षु को सदा चित्तकी एकाग्रता पूर्वक सक्लेश के समय बारबार तथा संक्लेश न हो तब दिन में तीन बार (त्रिकाल) ऐसा करना चाहिये। जावज्जीवं मे भगवंतो परमतिलोगनाहा अणुत्तर पुण्णसंभाराखीणरागदोसमोहा अचिचितामणि भवजलहिपोप्रा एगंतसरणा अरिहंता सरणं।
ऐश्वर्यादि ऋद्धिवाले, तीनों लोकों के परम नाथ, सर्वोच्च पुण्यवाले, रागद्वेष व मोह जिनके नष्ट हो गये हैं, अचिंत्य चितामणि समान, भवजलतारक (जहाज), एकांत शरण योग्य अरिहंतोकायावज्जीव मुझे शरण हो ।
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तहा पहीणजरामरणा अवेयकम्मकलंका पण?वाबाहा केवलनाणदंसणा सिद्धिपुरनिवासी निरुवम सुहसंगया सव्वहा कयकिच्चा सिद्धा सरणं ।
तथा जिनका जरामरण सर्वथा नष्ट हो गया है, कर्म क्लेशरहित, सर्वबाधा रहित, केवल ज्ञान दर्शन सहित, सिद्धिपुर निवासी, अनुपम सुख के भोक्ता सर्वथा कृतकृत्य सिद्धों का शरण हो ।२। तहा पसंतगंभीरासया सावज्ज जोगविरया पंचविहायारजाणगा परोवयारनिरया पउमाइनिदंसणा झाणज्झयणसंगया विसुज्झमाणभावा साहू सरणं ।
तथा प्रशांत व गंभीर प्राशय वाले, सर्व पाप व्यापार से निवृत्त, पचविध प्राचार को पालने वाले, परोपकार निरत, पद्यादि उपमा योग्य, ज्ञान ध्यान में लीन, सतत विशुद्ध बनते जाते भाववाले साधु का मुझे शरण हो ।३। तहासुरासुरमणुप्रपूइनो मोहतिमिरंसुमाली रागदोसविसपरममंतो हेऊसयलकल्लाणाणं कम्मवण
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विहावसू साहगो सिद्धभावस्स केवलिपन्नत्तोधम्मो जाज्जीव मे भगवं सरणं । ___तथा सुरअसुर व मनुष्यों से पूजित, मोहांधकार को नष्ट करने में सूर्य समान, रागद्वेषरूपी जहर के लिए परम मत्ररूप, सर्व कल्याण के हेतु भूत तथा कर्मवन के लिए अग्नि स्वरूप, आत्मा के सिद्ध भाव के साधक केवली भगवंत प्ररूपित धर्म का मुझे यावज्जीव शरण हो ।४। सरणमुवगो अएएसि गरहामि दुक्कडं ॥ जं गं अरिहंतेसु वा सिद्ध सु वा पायरिएसुबा उवज्झाएसु वा साहुसु बा साहुणीसु बाअन्नेसु वा धम्मट्ठाणेसु वा माणणिज्जेसु पूणिज्जेसु तहा माईसु वा पिईसु वा बंधूसु वा मित्तेसु वा उवयारिसु वा अोहेण वा जीवेसु मग्गट्ठिएसु अमग्गट्ठिएस, मग्गसाहणेसु अमग्गसाहणेसु, जकिचि वितहमायरियंअणायरियव्वं प्रणिच्छियन्वं,पावंपावानुबंधि, सहमं वा बायरं वा मणेण वा वायाए वा कायेण
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वा, कयं वा कारावियं वा अणुपोइयं वा, रागेण वा दोसेण वा मोहेण वा, इत्थं वा जम्मे जम्मंतरेसु वा, गरहिय नेयं दुबकडमेयं उज्झियव्वमेयं, वियाणियं मए कल्लाणमित्तगुरुभगवंतवयणानो, एवमेयंति रोइयं सद्धाए, अरहंतसिद्धसमक्खं गरहामि अहमिणं, दुक्कडमेयं उज्झियब्वमेयं, इत्थ मिच्छा मि दुक्कडं, मिच्छा मि दुक्कडं, मिच्छा मि दुक्कडं ॥
इन चारों के शरणों में गया हुआ मैं अपने दुष्कृत की गर्दा (निंदा) करता हूँ। जिन अरिहत, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय, साधु या साध्वी के प्रति, अन्य भी माननीय एवं पूजनीय धर्मस्थानों के प्रति, तथा माता पिता, बंधू मित्र या उपकारी जनों के प्रति, सम्यग् दर्शनादि मोक्षमार्ग को प्राप्त अथवा अप्राप्त सामान्यत: सर्व जीवों के प्रति, मोक्षमार्ग की साधक अथवा बाधक वस्तुओं के प्रति भी मैंने जो कुछ न आचरण करने योग्य, अनिच्छनीय पाप या पाप पर परा वाला मिथ्या आचरण (दुष्कृत), सूक्ष्म या
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बादर, मनवचन या काया से रागद्वेष या मोह से, इस जन्म में या भवांतर में स्वय किया हो, करवाया हो या अनुमोदन किया हो, वह सत्र पाल मेरे लिए गर्दा करने योग्य हैं, दुष्ट कार्य है, त्याज्य है, ऐसा कल्याण मित्र गुरु भगवत के वचनों से मैंने जाना है, तथा वह सच है ऐसा मुझे श्रद्धा से लगा है, अतः अरिहंत व सिद्ध समक्ष उसकी गर्दी करता हूँ। वह दुष्ट है व त्याज्य है अत: वह सब दुष्कृत मिथ्या हो, मेरा सब दुष्कृत मिथ्या हो, सब दुष्कृत मिथ्या हो ।
ATTA
होउ मे एसा सम्म गरिहा, होउ मे प्रकरणनियमो बहुमयं ममेयंति ॥ इच्छामि अणुसट्ठी अरहंताणं भगवंताणं गरुणं कल्लाणमित्ताणंति ।।
___ मेरी यह दुष्कृत गर्दा सम्यक् भावपूर्वक हो। अब यह दुष्कृत मैं नहीं करू, ऐसा मुझे नियम हो । मुझे यह भाव तथा नियम बहुमानपूर्वक हो। श्री अरिहंत भगवंतों की, और उनके वचनों के प्रचारक कल्याण मित्र गुरुत्रों की हित शिक्षाकी मैं बारबार इच्छा करता हूँ।
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होउमे एएहि संजोगो होउ मे एसासुपत्थणा,होउ मे इत्थ बहुमाणो, होउ मे इप्रो मुक्खबीयंति ।।
ऐसे देवगुरुत्रों का मुझे संयोग हो, मेरी यह प्रार्थना सफल हो, मुझे इस (प्रार्थना) के प्रति बहुमान हो । इससे मेरी आत्मा मोक्षबीजबान् बनो। पत्तेसु एएसु अहं सेवारिहे सिया,प्राणारिहे सिया पडिवत्तिजुत्ते सिया, निरइयारपारगे सिया। __इन देव व गुरु का सपक (निश्रा) प्राप्त होने पर मैं उनकी सेवा के योग्य बन, उनकी आज्ञा पालन के लायक बनू। प्राज्ञापालन में उद्धार है, ऐसी दृढ़ प्रतिपत्तिवाला मैं उनको प्राज्ञा को भक्ति बहुमानपूर्वक स्वीकृत कर निरतिचारपूर्वक उनकी आज्ञाका पालक बनू।
संविग्गो जहासत्तिए सेवेमि सुक्कडं, अणुमोएमि सव्वेसि मरहताणं अणुट्ठाणं,सम्वेसिसिद्धाणं सिद्धभावं, सव्वेसि पायरियाणं पायारं, सव्वेसि उवज्झायाणं सुत्तपयाणं, सव्वेसि साहूणं साहकिरियं
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सव्वेसि सावगाणं मुक्खसाहणज्ञोगे, सव्वेसि देवाणं, सव्वेसि जीवाणं होउकामाणं कल्लाणासयाणं मग्गसाहणजोगे॥
सविग्न (मोक्ष तथा मोक्षमार्ग का इच्छुक) मैं यथाशक्ति सुकृतों का स्वयं प्रासेवन करू तथा अन्यों के सुकृतों की अनुमोदना करता हूँ। सर्व अरिहंतों के सर्व अनुष्ठानों की, सर्व सिद्धों के सिद्ध भावों की सर्व प्राचार्यो के प्राचार की, सर्व उपाध्यायों के सूत्रदान की, सर्व साधु (साध्वी) के साधु क्रियाकी, सव श्रावक (श्राविकानों) के मोक्ष साधना की क्रियानों की, सव देवों तथा सव जीवों के विशुद्ध प्राशय तथा मोक्ष साधक सर्व योगों की अनुमोदना करता हूँ। होउ मे एसा अणमोयणा सम्मं विहिपविया, सम्म पडिवत्तिरूवा, सम्म निरइयारा परमगुणजुत्तारहताईसामत्थरो॥
परमगुण निधान अरिहतादि के सामर्थ्य से मेरी यह अनुमोदना सभ्यक विधिपूर्वक, उत्तम निर्मल आशय वाली, सम्यक स्वीकार वाली, तथा सम्यक निरतिचार रूप हो ।
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प्रचितसत्तिजुत्ता हि ते भगवंतोवीयरागा सव्वण्णु परम कल्लाणा परमकल्लाण हेउ सत्ताणं ।।
वे वीतराग सर्वज्ञ भगवंत अचित्य शक्ति युक्त हैं, परम कल्याणकारी हैं और सर्व जीवों के परम कल्याण में हेतु रूप हैं।
मूढे अम्हि पावे अणाइमोहवासिए, अणभिन्ने भावप्रो, हियाहियाण अभिन्ने सिया । अहियनिवित्त सिया, हियपवित्ते सिया,बाराहगे सिया उचियपडिवत्तीए,सव्वसत्ताणं सहियंति।इच्छामि सुक्कडं, इच्छामि सुक्कडं, इच्छामि सुक्कडं ।
. मैं मूढ हूँ, पाप से, अनादि मोह से, वासित हूँ। अतः अनभिज्ञ (अज्ञानी) हूँ। अब मैं मेरे हिताहित भावों को जाननेवाला, हित में प्रवृत्त, अहित से निवृत्त, पाराधनामें प्रवत्त, तथा सर्व जीवों के साथ प्रौचित्य के प्राचरण सहित पाराधक बनू । इस प्रकार के सुकृतों का मैं इच्छुक हूँ, सुकृतों का इच्छुक हूं', सुकृतों का इच्छुक हूँ।
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एवमेयं सम्म पढमाणस्स सुणमाणस्स अणुप्पेहमाणस्स सिढिलीभवंति परिहायंति खिजंति असुहकम्माणुबंधा निरणबंधे चासुहकम्मे भग्गसामत्थे सुहपरिणामेणं, कडगबद्ध विव विसे अप्पफले सिया, सुहावणिज्जे सिया, पपुणभावे सिया।
इस प्रकार (चार शरण, दुष्कृत गर्दा तथा सुकृत अनुमोदन को) जो सभ्यक रूप से पढता है, सुनता है, (सूत्र के अर्थ सहित पुन: पुन: चिंतन से) अनुप्रेक्षा करता है, उसके अशुभ कर्मबंध शिथिल होते हैं, कम होते हैं और क्षीण भी होते हैं। अरे इस (सूत्र पठन व अनुप्रेक्षा) से वे अशुभ कर्म (उनके रस, स्थिति व प्रदेश) निरनुबंध होते हैं, उनको शक्ति भग्न होती है । इससे उत्पन्न शुभपरिणाम से कटक बद्ध से जैसे जहर निर्बल तथा निष्फल होता है, वैसे अशुभ कर्म भी अल्प फलवाले, सुखपूर्वक निर्जरा करने लायक तथा पुनः कर्मबंध न हो वैसे बन जाते हैं।
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तहा प्रासगलिन्जंति परिपोसिजति निम्मविजंति सुहकम्माणुबंधा, साणुबंध च सुहकम्म पगिट्ठ पगिट्ठभावज्जियं नियमफलयं, सुप्पउत्ते विव महागए सुहफले सिया, सुहपवत्तगे सिया, परमसुहसाहगे सिया।
तथा इस सूत्र पाठ अनुप्रेक्षादि से शुभ कर्म बंध के भाव प्रकट होते हैं, शुभ कर्मबद्ध होता है, शुभकर्म की परंपरा पुष्ट होती है और उत्कृष्ट शुभ कर्म का बंध होता है । शुभ भावपुष्ट होते हैं, निश्चित रूपसे शुभ फलदायक बनते हैं और प्रात्मा सुखोपभोगपूर्वक परम शुभ (मोक्ष) का साधक बन जाता है। अग्लो अपडिबधमेय असुह भावनिरोहेण सुहभावबीयति सुप्पणिहाण' सम्म पढियव्व,सम्म सोयवं सम्म अणुपेहियवति।
इससे प्रतिबंधरहित , अशुभभाव का निरोधक यह सूत्र शुभ भाव के बीज बोता है, अतः इसे प्रणिधानपूर्वक अच्छी तरह पढना चाहिये, सुनना चाहिये और सभ्यक अनुप्रेक्षा करना चाहिये ।
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णमो नमियनमियाणं परमगुरुवीयरागाणं नमो सेस नमुक्कारारिहाणं। जयउ सव्वण्णुसासण ॥ परमसंबोहीए सुहिणो भवंतु जीवा, सुहिणो भवंतु जीवा, सुहिणो भवंतु जीवा ।१॥ पंचसुत्ते पढमं पावपडिग्घाय गुण बीयाहाणसुत्त सम्मत्त ।।१।।
वदनीयों के भी बदनीय परम गुरु वीतराग को मैं नमस्कार करता हूँ। शेष नमस्कार योग्य सिद्ध आचार्यादि को मैं नमस्कार करता हूँ। श्री सर्वज्ञों का शासन जयवंत हो और शासन के वरवोधि लाभ से जीवों को सुख हों, जीव सुखी हो, जीव सुखी हों ।
इस तरह पंचसूत्र में से पाप प्रतिघातक तथा गुणवीजाधान करने वाला यह प्रथम सूत्र पूर्ण हुना।
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श्री चिरंतनाचार्य विरचित पंचसूत्र की श्री हरिभद्रसूरि महाराज द्वारा रचित टीका पर से
प्रथम सूत्रका (संक्षिप्त) हिन्दी विवेचन
जीव अनन्तकाल से संसार में भटक रहा है। उसमें से छूटने का उपाय इस सूत्र में बताया गया है।
इसमें पांच सूत्र हैं। पांचवाँ सूत्र-प्रव्रज्याफलमोक्ष की प्राप्ति बताता है, जिसके लिए प्रथम कारण है, पाप का प्रतिघात । पाप याने अशुभ अनुबध के पाश्रवभूत गाढ मिथ्यात्व, भवरुचि आदि । वे पाप आत्मा पर से अपनी पकड छोड दें, यह उनका घात हुआ । इससे प्रात्मा में गुणबीज बोया जा
महान शास्त्रकार सूरिपुरन्दर श्रीहरिभद्रसूरिजी ने अर्थ गभीर टीका लिखी है । टीकाकार महर्षि के विवेचन के आधार पर प. पू. आ. श्री विजयप्रेमसूरीश्वरजी के शिष्यरत्न पू. प. जी म. सा. श्रीभानूविजयजी ने गुजराती में 'उच्च प्रकाशना पथे' नामक विस्तृत विवेचन प्रकट किया है। उसके प्राधार पर यहाँ संक्षिप्त हिन्दी विवेचन दिया गया है ।
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सकता है । साधु व श्रावक के गुण, वे गुण हैं जो आत्मा में पाने से हो अन्तिम फलको प्राप्ति संभव है।
प्रत्येक व्यक्ति जो कुछ भी कार्य करता है, वह रागद्वेष वश करता है। इससे कर्मबध होता है। इन कर्मों के उदय के समय पुनः नये कर्मों का बध होगा। इसे अनुबध कहते हैं। इस अनुबध को, पाप के निरंतर प्राधव को, तोडना ही अति आवश्यक है। यही कार्य यह प्रथम सूत्र करता है । __गुण अर्थात् धर्मगुण, दर्शन ज्ञान तथा चारित्र याने विरति-देश या सर्व । इसकी प्राप्ति के लिए गुण के बीज को बोना पड़ेगा । पाप के प्रतिघात बिना धर्म गुण के बीज कैसे बोये जावेंगे ?
धर्मग्रण की प्राप्ति ही सच्ची प्राप्ति है। इसकी अप्राप्ति पर अन्य सब प्राप्ति अप्राप्य या नष्ट है। प्रशुभ कर्म के अनुबध करवाने वाले मिथ्यात्वादि पाश्रव को उखाड कर अशुभ का अनुबध रोककर शुभकर्म का अनुबध जगाना जरूरी है। अन्यथा शुभकर्म भी उदय में आकर अनुबध बिना स्वय नष्ट हो जायेंगे ।
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पहले पाप का प्रतिघात करके धर्मगुण के बीज का आरोपण करें। फिर साघु धर्म की परिभावना, 'खना, इच्छा व तैयारी करें ( दूसरा सूत्र ) । तब साधु धर्म ग्रहणकर उसे पालें तो फल मोक्ष मिलेगा । यदि यह क्रम न लेकर उलटसुलटी कार्य किया तो सब प्रयास वृथा होगा । ससार, भव का भ्रमण चालू रहेगा । क्रमिक प्रयास रहित साधु धर्मं की प्राप्ति भी गुणप्राप्ति न होकर गुणाभास बन सकती है ।
भवाभिनदो जीव जिसे भव या संसार में ही आनन्द है, अपने दूषणों के कारण गुणबीज के पवित्र पदार्थ की प्राप्ति का प्रयत्न नहीं करता । धर्म करके भी, दीक्षा लेकर भी वह संसार ही बढायेगा | भावाभिनन्दी के आठ दुर्गुण हैं :
,
क्षुद्रो लोमरतिर्दीनो, मत्सरी भयवान् शठः । अज्ञो भवाभिनन्दी स्यात् निष्फलारंभ स गतः ॥ १॥
उसका हृदय क्षुद्र, तुच्छ होता है । वहाँ श्रद्धा नहीं होती, तत्त्वरुचि नहीं होती । तत्त्व की बातें गले उतरनी चाहिये, टिकनी चाहिये । (२) लाभ होने पर वह खुश होता है। लोभ अच्छा है, करना चाहिये यदि कहता है, सोचता है, यह है लोभरति ।
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(३) दीनता - बात बात में दुःखी होता है । सब अच्छा मिले और जरा कुछ भी कम हो तो रोने बैठे । (४) मत्सर, ईर्षा, असहिष्णुता । किसी का अच्छा, भलाई या सुख देखा नहीं जाता । दीनता में न मिलने का दुःख है, मत्सर में दूसरे को मिलने का दुःख है और (५) भय में प्राप्त वस्तु के खोने का डर है । यह चिंता का दुःख है। इससे दुर्ध्यान होता है । हाय, हाय, चला जायगा इत्यादि । प्रातध्यान और रौद्रध्यान भी इसीसे पाता है। (६) शठता- प्रत्येक बात में माया, कपट, विश्वासघात करता है । (७) अज्ञता दो प्रकार से - मूर्खता व मूढता । मूर्खता में समझ या बुद्धि नहीं। लूटो, इकठ्ठा करो, मौज करो आदि मूर्खता है । मूढ़ता में पढा है, तब भी मूढ । ज्ञान है पर विवेक नहीं । आत्मभान नहीं है । मानव पशुसे क्यों विशेष है, यह न जानना, तत्त्व या धर्म न समझना अथवा उसे जानते हुए भी उसका प्रयत्न न करे वह मूढता है। (८) निष्फलारंभसगता - भवाभिनन्दी विचार रहित (मूर्ख) या उलटे विचार (मूढ) से निष्फल कार्य ही करेगा । उसे लक्ष्मी मिली हो, तो भी वह
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निष्फल है, क्योंकि उसे उसका आनन्द या शांति नहीं।
इन सब दोषों को हटाने के लिए खास सावधान रहना जरूरी है। दुगुणों का अभ्यास अनन्त कालसे है। इन दुगुणों के प्रतिद्वंद्वी गुण उदारता, संतोष धीरज आदि बड़ी कठिनाई से आते हैं। पंचसूत्र स्वीकार करने के पहले ये दोष हटने चाहिये। भवाभिनन्दिता तथा इन दोषों से तत्त्व की रुचि नहीं होती, सच्चा तत्त्व उसे समझ में ही नहीं पाता। कम से कम इन दोषों को पहचानना, उनका अपने में होने का स्वीकार तथा दूर करने की इच्छा अति
आवश्यक है । पंचसूत्र महान रसायन है। रसायन दोष रहित शरीर में पचता है । अत: पंचसूत्र भी लायक को हो समझ में आता है, लायक को ही दिया जाता है।
साधना को इमारत की रचना पाप प्रतिघात आदि क्रम से ही हो सकती है। पहले इन दुर्गुणों का नाश, इस साधना क्रम पर श्रद्धा तथा इस क्रम के अनुसार धम पुरुषार्थ होना चाहिये । पुन: कहें तो क्रम है-गुणबीजारोपण, साधुधर्म की परिभावना
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उसकी ग्रहण विधि, पालन तथा फ़ल (मोक्ष) । यह धर्म पुरुषार्थ भी सतत, विधिपूर्वक, हृदय के बहुमानपूवक, योग्य समय पर तथा जीवन में प्रौचित्य सहित होना चाहिये। तभी सबीज क्रिया की प्राप्ति तथा पालन से परंपरा द्वारा मोक्षफल प्राप्त होगा। सावधानी होशियारी से दोष दूर करके गुणों की प्राप्ति का प्रयत्न करें।
अरिहत भगवान को प्रथम नमस्कार करके सूत्रकार मंगलाचरण करते हैं । वे वीतराग - राग द्वेष रहित हैं, उनका मोह क्षीण हो गया है । जिनेश्वर देवेन्द्रों से पूजित हैं तथा यथास्थित वस्तुवादी याने वस्तु जैसी असल में है वैसी ही कहने वाले हैं।
राग द्वेष से भी ज्यादा खतरनाक है। 'राग नहीं करना', ऐसा जैनशासन में ही कहा है, अन्यत्र नहीं। द्वष घटता है. पर राग बढता है । द्वेष में जो दुर्ध्यान होता है, संगमें उससे ज्यादा दुर्ध्यान होता हैं। राग द्वेष का बाप है। राग फूक मारकर काटने वाले चूहे जैसा है । क्रोधादि चारों कषाय राग की सेवा में । पाठों कर्मों की जड मोहनीय और
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उसकी जड राग में हैं। तीव्र कोटि का राग नहीं जाता, तबतक मिथ्यात्व नहीं जाता । यह राग धनमाल आदि जड के प्रति तथा पुत्र पत्नी आदि व्यक्ति याने चेतन के प्रति भी होता है।
तोत्र राग में कषाय (क्रोध, मान आदि चारों) करने जैसे लगते हैं । यही तीव्र कषाय अनन्तानुबधी है । जब तक ये हैं, तब तक संसार का रस तथा अतत्त्व का दुराग्रह हृदय में से हटेगा नहीं । हिंसा, झूठ, चोरी आदि पाप किस के लिए ? पुत्र, पत्नी या धन के लिए या उनपर राग के कारण ।
प्रशस्त राग बधन कर्ता नहीं, पर छुडाने बाला है । देव गुरु व धर्म के प्रति राग प्रशस्त राग है इससे पाप बंध नहीं होता । प्रशस्त राग में लेश्या धर्म की है । संसार के लाभकी अपेक्षा से होने वाला राग अप्रशस्त है। संसार से मुक्त होने और उसके उपाय के लिए राग प्रशस्त राग है । धर्म लेश्या की मात्रा व वेग (Force) जितने कम उतना पुण्य कच्चा। धर्म को लेश्या-भावना जोरदार उतना पुण्य भी जोरदार । शालिभद्र की लेश्या ऊची थी । पेट की पीडा के समय उसका अंकमात्र ध्यान
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गुरु में और खीर का दान करवाने के उनके उपकार में । कैसा सुन्दर योग, खीर का दान, वह भी महात्मा को । ऐमी दान धर्म की अनुमोदना से ही वह शालिभद्र बना, जहाँ वैराग्य प्राप्त करने वाली लक्ष्मी मिली।
राग अात्मा में वस्तु के प्रति आकर्षण पैदा करता है । राग द्वेष से भी खूब बलवान तथा महा अनर्थकारी है | राग मात्मा को रगता है । अतः जो इष्ट के प्रति प्राकर्षण रहित तथा अनिष्ट के प्रति अप्रीति रहित हैं, वे ही वीतराग हैं।
मोह प्रात्मा को भयंकर नुकसान करता है, पर साथ ही नुकसान को लाभ में गिनाता है। मोह के कारण आनन्द से राग करता है, राग को हितकारी मानता है। प्रात्मा में से मोह (मिथ्यात्व) के हटने से राग दुश्मन लगेगा । मोह भान भुलाता है, दोष का बचाव करता है । मोह दोष को गुण समझेगा, यही भयंकर है ।
सर्वज्ञ के ज्ञान का प्रकाश जबरदस्त होता है। अनन्तानन्त काल की सर्व घटना, सर्व भाव, त्रिकाल के सर्व बीवों के सर्व भाव तथा सर्व पदार्थों के सर्व
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समय में देखते हैं ।
देव पान्वभव प्राप्त
पर्याय केवल ज्ञानी एक ही प्रभु देवे पूजित हैं । कर के पथ के समान शुद्ध भाव सहित उनके समान शुद्ध चारित्र की प्राप्ति के लिए प्रभू की जा करन हैं । 'दीक्षा केवलने अभिलाषे नित नित जिन गुण गावे ।"
जो तत्त्व प्रभु को मिला, उसे यथास्थित जीवों के हितार्थ सभी जीवों के सन्मुख रखा । प्रभु नव तत्त्व के प्ररूपक तथा त्रिपदी ( सर्व वस्तु उत्पन्न होती है, टिकती हैं तथा नष्ट होती हैं) के उपदेशक हैं। प्रभु के इस रूप के स्वीकार से मोह की प्रबलता घटती हैं ।
जिन के स्वयं के कर्म जलकर बोज रहित हो चुके हैं वे (ग्ररुहत ) भगवत कहते हैं: - (१) जीव अनादि काल से हैं, (२) जीव का सौंसार अनादि काल का है और (३) वह संसार अनादि काल से चले आने वाले कर्मों के संयोग से बना हैं । अतः वह संसार ( १ ) दुखरूप है ( २ ) दुःख फलक (फलस्वरूप दु:खद ) हं और ( ३ ) पर ंपरा ( अनुबन्ध) का सर्जक हैं ।
दुःख की
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यही समस्त जिन वाणी का सार है । संसार में दुःख ही दुःख है, सुख तो है ही नहीं । जो है वह है मात्र सुखाभास । पुण्य से जो सामग्री मिलती है वह है परिग्रह, वही पाप है। संसार का सभी सुख मात्र सांयोगिक है । स योग में वियोग छिपा होन से वह दुःवरुप है। जो विषय सुख है वह केवल दाद या खुजली को खुजालने जैसे सुख सा है । जन्म, मृत्यु, रोग, शोक आदि सब दुःख हैं, यही ममार है।
ससार दु:ख फलक है, संसार भवांतर में जन्म जरा ग्रादि दुःख देन वाला है । पूर्वस चित कर्म से उत्पन्न शरीर तथा अन्य सयोगरूप ससार हमें भोगना पड़ता है और उसके फलस्वरूप पुनः नये कम बध होकर नये जन्मादिरूप दुःख रूप संसार की उत्पत्ति होती है।
पुनः वह अनेक जन्मों के दुःख की पर परा का सजक भी है। क्योंकि वर्तमान जन्म में जीवन को बिताते हुए, पिछले कर्मो को भोगते हए नये इतने ज्यादा कर्मों का बन्ध होता है कि पुनः अनेक जन्म लेने पड़ेंगे और उन उन जन्मों में पुनः कम
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बन्ध तो चालू ही रहेगा। इसीलिए संसार दु:खानुबन्धी है ।
हमारा जीव अनादिकाल का है। अनन्त काल बीत गया पर इसका भटकना चालू है । इस ग्रनन्त काल में इसने कितने घोर कष्ट भागे होंगे ? क्या फ़िर भी संसार से इसे थकान लगी ? लगी हो तो संसार का अन्त लाने के लिए कटिबद्ध क्यों न हो? अफसोस, हम इस अमूल्य मानव भव को व्यर्थ खो रहे हैं। अनन्त काल के मुकाबले अल्पकाल के मानव भव में थोडा कष्ट उठाकर पालन किया गया चारित्रसंयम हमें हमेशा के लिए मुक्ति दिलाने में समर्थ है । इसीलिए यह मानवभव अत्यन्त अमूल्य है । लाखों के हीरे से मुट्ठीभर चने खरीदने की तरह तुच्छ व आत्मघातक विषय सुख खरीदने में जीवन व्यथं खो रहा है । श्रोह जीव ! जरा ठहर, सोच, तू क्या कर रहा है ? क्या करना चाहिये ?
घटाने व मिटाने का
क्या इस संसार को उपाय है ? हाँ है । वही यहाँ कहा है।
संसार की भयानकता से बचने का एकमात्र स्थान मोक्ष है । यदि वह हमारा ध्येय बन जाय,
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तो हमारा लक्ष्य शून्य परिभ्रमण मिटकर हम सच्चे रास्ते पर आ जाते हैं । हम आज तक गलत दिश में चल रहे थे, उसके बदले सच्ची दिशा में जाने लगते हैं । मानवभव इसीलिए अत्यन्त कीमती है कि वह सच्ची राह पर चलने का प्रयत्न करे उसका प्रारंभ करे । यहाँ इसी सच्ची दिशा का दर्शन किया गया है । __इस संसार (भवभ्रमण)का उच्छेद (अन्त)शुद्ध धर्म से होता है । उस के लिए ये चार वस्तुए जरुरी हैं। (१) औचित्य - शुद्ध धर्म की प्राप्ति के लिए औचित्य प्रावश्यक है । उदा० अनुचित आजीविका या अयोग्य बर्ताव से प्रात्मा कठोर बनता है। औचित्य पालन से मुलायम बनी हुई आत्मा में ही धर्म अन्दर उतरेगा। अन्यथा धर्म साधना से भी अनादि कुसंस्कार नहीं मिटेंगे। (२) सतत - मिथ्यात्व, अज्ञान, हिंसादि पाप तथा अविरति से अनन्त भूतकाल में सतत धाराबद्ध पाप प्रवृत्ति होती रही है और ये चारों दृढ बने हैं। अतः इन्हें मिटाने के लिए सत्प्रवृत्ति भी सतत होनी चाहिये । जोसे दीर्घ रोग के लिए सतत औषध सेवन । (३) सत्कार- पादर रहित किये कार्य की कोई कीमत नहीं। राग के सादर सेवन से ही
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संसार बढ़ा है। धर्म भी प्रादर रहित सेवन से हृदय मे स्थान प्राप्त नहीं करता। (४) विधि - औषधि सेवन अनुगमन तथा व पथ्य त्याग की विधि से ही तो लाभप्रद होता है। अत: भवरोग निवारक धर्म औषधि का विधि सहित सेवन होना चाहिये।
औचित्य में योग्य व्यवसाय, उचित लोक व्यवहार, उचित रहनसहन, भाषा, भोजन, उचित बर्ताव आदि का समावेश होता है । सातत्य में प्रत्येक धर्म प्रवत्ति नित्य नियमित सतत होनी चाहिये । धर्म तथा धर्मी पर रत्न निधान सा आदर हो । विधि में शास्त्रोक्त काल, स्थान, प्रासन अवल बन आदि सब विधि का पालन जरूरी है।
शुद्ध धर्म को भाव सहित आत्मा में स्पर्श होना चाहिये । यह स्पर्श मिथ्यात्वादि पाप नाश से ही होता है । इस विशिष्ट ( जो पुन: उत्पन्न न हो) पाप नाश के लिए तथा भव्यत्वादि भावों का संयोग होना चाहिये । साध्य व्याधि जोसे नथा भव्यत्व के परिपाक से ही मोक्षरूप भाव आरोग्य की प्राप्ति होता है।
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तथा भव्यत्व के परिपाक के साधन तीन है :चार शरण, दुष्कृत गर्दा तथा सुकृतानुमोदन । अरिहतादि चार के शरण ही सच्चे शरण हैं, सर्व आपत्ति में से बचने का श्रष्ठ उपाय है । सभी दुष्कृतों की पश्चात्तापपूर्वक गुरुसाक्षः से गर्दा कर्मों के अनुबन्ध तोडने की अमोघ शक्ति रखती है । सुकृत की प्रासेवना-उत्तम गुणों की अनुमोदना प्रात्मा में गुण उत्पन्न करती है।
तथा भव्यत्वादि (काल, नियति, कर्म तथा पुरुषार्थ सहित पांच कारण) भावों के अनुकूल सयोग की प्राप्ति से पाप कर्मों का विशिष्ट नाश (पुनः उत्पन्न न हों वैसे) होता है। औचित्य, यानन्य, प्रादर तथा विधि चारों सहित इन तीनों उपायों के सेवन से पाप का प्रतिघात होकर गुणबीज का प्रारोपण प्रात्मा में होता है। अथवा यों कहिये कि इन तीन उपायों के विधि प्रादि चारों सहित सेवन से तथा भव्यत्व का परिपाक होता है, जिससे पाप नाश होकर शुद्ध धर्म की प्राप्ति होने से भव का, जो दुःख रूप, दु:खफलक व दुःखानुबन्धी हैं, नाश होता है। इसीलिए मोक्षार्थी जीव सुप्रणिधान पूर्वक इसका सेवन
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करे । तीव्र स ंक्लेश - गाढ उद्वेग, तीव्र रति, अरति - इसका बारबार सेवन करें तथा संक्लेश रहित स्वस्थ अवस्था में भी रोज त्रिकाल इन तीनों साधनों का सेवन करें ।
रागद्वेष, प्रति हर्ष या अर्थात् तोत्र कषायों में
चतुः शरण का स्वीकार भावपूर्वक होना चाहिये। मुझे शीघ्र मुक्ति मिलना चाहिये यही भाव दिल में रहना चाहिये । इससे ही प्रशुभ कर्म के अनुबन्धक मिथ्यात्व तथा भवरुचि प्रश्रवों का त्याग होता है । यही पाप प्रतिघात है यहो अनुबन्ध को तोडने वाला तथा उसे शिथिल करने वाला है । फिर तो गुणबीज प्रात्मभू में पडेगा ही न ?
जीवनभर परिहंत का शरण हो । वे देवाधिदेव त्रिलोकनाथ हैं। श्रेष्ठ तीर्थंकर नाम कर्म के पुण्य सहित हैं, तभी हर समय जन्म से ही देव देवी उनकी सेवा करते हैं और केवल प्राप्ति बाद करोडों देव हर समय हाजिर होते हैं। उनके राग, द्वेष तथा मोह का संपूर्ण नाश हो चुका है (अतः भी यह गुण मिले) वे चिन्तामणि रत्न की तरह चिन्तित वस्तु देने वाले ही नहीं, देने वाले ही नहीं, प्रचित्य पदार्थों
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के दाता भी है । भवजलधि से तारक पोत( जहाज) समान हैं । वे संपूर्ण रूपसे शरण लायक हैं । अतः अष्टमहाप्रातिहार्य वाले अरिहत मेरे शरणरूप ( रक्षक) हों
अजरामर, कम कलक रहित, सर्वथा बाधा (व्याघात) रहित, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, मोक्षपुरी में स्थित अनुपमेय, (असांयोगिक, सहज) सुख सहित, सर्वप्रकार से कृतकृत्य (सवं प्रयोजन सिद्ध) सिद्ध भगवतों का मैं शरण लेता हूँ । भूख, तृषा, वेदना, इच्छा अज्ञान, आदि सर्व दोष रहित होने से परम तत्व हैं. परम सेव्य है । वे ही मेरे लिए शरण हैं ।
प्रशांत तथा गंभीर प्राशय वाले क्षमाधारी साधु शरण हों। उनका चित्त प्रशांत हैं तथा गंभीर (क्षुद्र नहीं) चित्तवाले हैं । संसार की सर्व सावध (पापकारी) प्रवृत्ति से रहित हैं। षट्काय जीव संहार के करने करवाने से ही नहीं, अनुमोदन से भी वे दूर हैं। पंचाचार के ज्ञाता, परोपकार में रक्त हैं। उनका उपकार भी शुद्ध है, बदले की भावना से रहित हैं तथा सम्यक्त्व दानरूप भाव उपकार होने से अन्तिम है । साधु काम कीचड़ से उत्पन्न, भोग
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जलसे बडे होने परभी दोनों से कमल की तरह अलिप्त हैं। वे ध्यान तथा अध्ययन में लीन रहते हैं। समिति गुप्ति स्वाध्याय प्रादिसे प्रात्म भावों को उत्तरोत्तर विशुद्ध करते रहते हैं। अतः इन वस्तुओं की प्राप्ति के लिए जिनसे क्रमशः मोक्षप्राप्ति होगी, मैं उनका शरण स्वीकार करता हूँ। (वे भावी नय से सिद्ध हैं)।
मरे! मानव भव की कैसी सफलता? सचमुच ही यदि काम, क्रोधादि, मोह, हास्य, मद मत्सर रति अरति जैसे दुष्ट भावों को उनके प्रतिद्वंद्वी गुणों से धो कर इस जन्म में नहीं मिटाये तो वह कार्य कब होगा ? ___ चौथा शरण धर्म का है । सुर (ज्योतिषी व वैमानिक) तथा असुर (भवनपति व व्यतर) से धर्म सेवित है। अत: जगतकी समृद्धि के किसी भी दाता से ज्यादा सेवनीय हैं । इस उच्चतम धर्म प्राप्ति का गौरव मन में होना चाहिये । मोह तिमिर को हटाने में वह सूर्य सम है। रागद्वेष रूपी विषके लिए (उसे हरने वाला) परम मंत्र समान है । धर्म का शरण लेने वाला कोई प्राशंसा या आकांक्षा नहीं
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रखता क्योंकि वे राग विष के पोषक हैं । जहां धर्म प्रवृत्ति के बदले राग तांडव हो वहां से वह दूर रहे। धर्म सकल कल्याणकारी है। वह कर्मवन को, जहाँ दुःख व क्लेश के फल उत्पन्न होते हैं, जलाने में अग्नि समान है । सिद्धभाव अर्थात् मुक्ति का साधक है । ऐसे जिन प्रणीत धर्म का शरण मैं यावज्जीव के लिए स्वीकार करता हूँ।
अरिहंतादि चारों का शरण प्राप्त करके (शरण सहित) मैं अरिहतादि के प्रति सेवन किये हुए अपने दुष्कृत्यों की गर्दा, निंदा करता हूँ। आज तक श्री अरिहत, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय, साधु, साध्वी अथवा अन्य माननीय पूजनीय धर्मस्थानों के प्रति, (अनेक जन्मों के) माता, पिता, बन्धु, मित्र या उपकारी, मोक्षमार्ग पर गमन करने वाले सामान्यतः प्रत्येक जीवों के प्रति तथा मोक्षमार्ग के उपयोगी (मन्दिर पुस्तकादि) साधनों या अनुपयोगी साधनों (इन सब) के प्रति जो कुछ विपरीत आचरण किया हो, अनिच्छनीय, अनाचरणीय या कुछ भी न करने योग्य या न सोचने योग्य कोई भी पाप किया हो, उस पाप के विपाक में पुनः पाप बन्ध हो वैसा
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किया हो, सूक्ष्म या बादर, मन वचन कायासे किया, करवाया या किये को अच्छा जाना हो, राग द्वेष या मोह से, इस जन्म में या जन्मांतर में जो दुष्कृत किया हो, जो ऐसा आचरण किया हो, वह सब हित, निन्द्य तथा त्याज्य है (क्योंकि वह सम्यक धर्म से भिन्न तथा विपरीत है ।) अतः उसका मैं पुन: पुन: मिच्छामि दुक्कड देता हूँ। मिथ्या दुष्कृत मूल में तीन बार कहने का अर्थ यही है कि इस पर खूब भार दिया जाय तथा वह बार बार किया जाय ।
यह सब बात मैंने हमारे कल्याणमित्र - मात्र परहित चिंतक - गुरुके वचनों से, अरिहंत भगवत के वचनों से (शास्त्रसे) जाना है। उनके हितवचनानुसार यह गलत आचरण त्याज्य और दुष्कृत्य है, ऐसी मुझे श्रद्धा है, मनमें यह ठस गया (जंच गया) है । अत: मेरे सब दुष्कृत मिथ्या हों, अनेकशः मिथ्या हों।
ये दुष्कृत अच्छी तरह समझ लेने चाहिये । इन सब अरिहतादि चार के प्रति अवहेलना, अविनय, अनादर, प्राज्ञा की अवहेलना, विराधना, अश्रद्धा, अशुद्ध प्ररूपणा आदि सब विपरीत पाचरण (दुष्कृत)
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है । अतः हमें इससे बचना चाहिये । मुक्तिसुख की शंका गिद्धों के प्रति दुष्कृत है । ज्ञान की शका भी यही है ।
पूर्व दुष्कृतों की सच्ची गर्दी के लिए हृदय की मृदुता जरूरी है। अत: अहंभाव का त्याग आवश्यक है । चतु: शरण से यह प्राप्त होता है, पर वह सच्चे दिल से हो, हमेशा, हर समय हो । तभी तो अनेक जन्मों के कर्म जो पाप की परपरा के सर्जक हैं, वे वंध्य बनकर निर्बीज बनेंगे ।
अह का त्याग, कोमल नम्र हृदय, दोषों का तिरस्कार, स्वछन्द व निर कुश वृत्तिको दबाना व उसमें कमी, दोष तथा दोषित आत्मा की दुगंछा, दोषों के पोषक कषायों के उपशम सहित उनके प्रति द्वन्द्वी क्षमादि धर्मों का पालंबन व उन गुणों की प्राप्ति आवश्यक है।
मेरी दुष्कृत की गहीं सम्यक व हार्दिक हो मात्र शाब्दिक नहीं । अर्थात् वे जराभी प्रच्छे या करने लायक नहीं लगे । साथ ही उनके किसी भी प्रकार से पुनः न करने का मुझे नियम हो।
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दुष्कृत की गहीं व प्रकरण नियम (या चतुः शरण व गाँ) के प्रति मुझे बहुमान पूर्वक रुचि हो । मैं देव और गुरुकी हित शिक्षा व अनुशास्ति की इच्छा करता हूँ। देव और गुरु का मुझे उचित म योग हो, यह भी उनकी कृपा से ही होगा। अत: सतत सयोग के लिए उत्तम प्रार्थना हो । उत्तम वस्तुकी प्रार्थना भी अलभ्य, अमूल्य और अनत उपकारक हैं । उससे हृदय नम्र होकर शुभ अध्यवसाय जाग्रत होते हैं, जिससे मिथ्यात्वादि पाप का नाश होकर मोक्षबीज की प्राप्ति होती है, जो मोक्ष पर्यन्त शुभ कर्म पर परा जीवित व अखन्ड रखता है। मैं देव-गुरु की बहुमान पूर्वक सेवा करने लायक बन्। सेवासे ही सेवक सेव्य की आज्ञा का पात्र बनता है । जिनाज्ञा ही शिव सुन्दरी का संकेत है। मैं ऐसी प्रतिपत्ति वाला - स्वीकार - भक्ति बहुमान और समर्पणवान बनू । इससे उनकी आज्ञाका निरतिचार पालक बन्। समर्पण बिना स पूर्ण स्वीकार असंभव है।
इन दो उपायों के सेवन से मैं मोक्ष तथा मोक्षमार्ग का अर्थो (स'विग्न) बनकर यथा शक्ति
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सुकृतकी प्रासेवना अनुमोदना करता हूँ। त्रिकाल अनन्त तीर्थंकरों के सर्व अनुष्ठान (उत्कृष्ट कोटिके सयम, विहार, तप, परिषह व उपसर्ग सहन, ध्यान, उपदेश आदि की, सिद्धोंके सिद्धभाव (अक्षय स्थिति निष्कलक शुद्ध स्वरूप अनन्त ज्ञानादि), सभी त्रिकाल के प्राचार्यो के (पांचों) प्राचार, उयाध्यायों के सूत्र प्रदान की, सर्व साधुनों (साध्वीयों) के साधु क्रिया की (अहिंसा सयमादि, ध्यान, परीषह उपसर्ग आदि में धीरता, विनय भक्ति आदि) की मैं अनुमोदना करता हूँ। ‘करण करावणने अनुमोदन सरिखां फल निपजायोरे।'
अनुमोदना हम बहुत ज्यादा कर सकते हैं, यदि वह भावपूर्ण हृदय से, गद्गद् कंठ व वाणीसे, संभ्रम व बहुमान सहित अनुष्ठान क्रिया आदि जीवन में उतारने के मनोरथ के साथ की जाय तो सचमुच हो लाभप्रद होगी । प्रतः सर्व सुकृतों का बार बार अनुमोदन हमारे जीवन को उज्ज्वल बनाने में तथा गुणबीजाधान में मददकर्ता होगा ।
इसी तरह श्रावकों के वैयावच्च, दान, तप आदि धर्म क्रियाओं की, सर्व देव तथा सर्व जीव जो
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मुक्ति के निकट हैं तथा शुद्ध प्राशय वाले हैं, उनके मार्ग (मोक्ष) साधक योगों की अनुमोदना करता है। मार्गानुसारिता सम्यक दर्शनादि योग तथा श्रावक के गुण वगैरे आत्मा पर से मोह के हटने से ही प्राप्त होते हैं। अतः उन दुर्लभ और पवित्र योगों का अनुमोदन करने योग्य है और करने से हमें लाभ होता है।
अब मैं प्रणिधान गृद्धि करता है। प्रणिधान याने कर्तव्य का निर्णय और अभिलाषा तथा मनकी एकाग्रता । इसकी शुद्धि का यह तरीका है ।
श्रेष्ठ लोकोत्तर गुणों से युक्त श्री अरिहंतादि के सामर्थ्य से मेरी यह अनुमोदना सम्यक विधि वाली हो ( ऐसी मेरी इच्छा हैं ), तीव्र मिथ्या त्वादि कर्म विनाश से सम्यक याने शुद्ध प्राशय वाली हो; उसमें पौद्गलिक आशसा न हो, दभरहित तथा विशुद्ध भाववाली हो। वह सम्यक् प्रतिपत्ति रूप (स्वीकार) तथा निरतिचार हो ।
अनुमोदना को पाप प्रतिघातक व गुणबीजाधान की साधक बनाने का यहाँ क्रम बताया है। प्रार्थ्य पुरुष की लोकोत्तर उत्तमता से प्रार्थना करने वाले
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का हृदय श्रार्द्र, नरम, नत्र तथा उदार बन जाता हैं। प्रार्थना पारस हैं, जो जीव को स्वर्ण का तेज अर्पित करती हैं। सच्ची अनुमोदना में विधिपालन शुद्ध अध्यवसाय, सम्यक् क्रिया तथा अखंड निर्दोष प्रवृत्ति होनी चाहिये । सुकृत की सच्ची अनुमोदना भी मिथ्यात्व की मदता बिना नहीं हो सकती ।
रिहतादि का ऐसा प्रभाव हैं कि उनके प्रति सदृभाव से शुभ अध्यवसाय जागकर मिथ्यात्व को मंद कर देते हैं ।
इसी लिए वे अचित्य शक्तिशाली हैं । वे सर्वज्ञ वीतराग तथा कल्याण स्वरूप सर्वं जीवों के परम कल्याण के हेतु भूत हैं । उनके गुणों को पहचानने में मैं मूढ हूँ। अनादि मोह से वासित होनें से हिता हित के भान से रहित हूँ। मैं हिताहित कां जानकार बनने का इच्छुक हूँ । ग्रहितकर मिथ्यात्वादि प्रविरति कषाय व अशुभ योगों से निवृत्त बनू, हितकर ज्ञान दर्शनादि में प्रवृत्त बनू । मोक्ष मार्ग का प्राराधन तथा सर्व जीवों के प्रति श्रौचित्य प्रवृत्ति सहित सुकृत जिनाज्ञा आदि का आराधक वन् । तीन बार का कथन तीनों काल, तीनों करण तथा विविध करने रूप कथन का सूचक है ।
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मृगने दान देने वाले की तथा बलदेव मूनी के सयम की केसी अद्भुत अनुमोदना की कि वह भी उनके साथ ही ५ वे देवलोक में ही उत्पन्न हना।
इस सूत्र को सम्यक् रूपसे पढने का फल कहते हैं। कैसा अपूर्व फल ? सम्यक् रीति अर्थात् हृदय में सवेग का प्रकाश फैलाकर अर्थात् पूर्वकथित चार शरण में अरिहतादि के कहे विशेषणों के प्रति हृदयपूर्वक श्रद्धा व आदर, दुष्कृत गर्दा में हृदय में से दुष्कृत रूपी शल्य को हटाकर अपने दोषों के प्रति सच्चा दुग'छा भाव, अहो मैं केसा अधम ? कितना दुष्कृत किया ? तथा सुकृत अनुमोदना में असल क्रिया पर्यत प्रात्मा को ले जानी वाली प्रार्थना हो । अरिहतादि के सामथ्यं, प्रभाव की श्रद्धा नथा अनन्त काल बाद ये तीन उपाय मिले, उसके लिए अपने आपको धन्य माने ।
___ इस सूत्रको पढ़ने सुनने तथा अनुप्रेक्षासे कर्म की स्थिति व दलिक कम होते हैं और उनके सवं अनबंध मन्द पड़ते हैं। यह सूत्र महामत्र महापौषधि व परम रसायत समान है, जिसके पठन, मनन
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व निदिध्यासन से प्रशुभ अनुबन्ध क्षीण होकर संसार प्रवाह सूख जाता है।
पंच सूत्र से उल्लसित शुभ अध्यवसायोंसे अनुबन्ध का जहर दूर होकर अशुभ विपाक परंपरा का उनमें सामर्थ्य नहीं रहता । कटकबन्धको* तरह अल्प फल वाले तथा अपुनर्बन्ध अवस्थावाले होते हैं ।
उपरोक्त फल नुकसान के निवारण रूप कहा। अब सम्यक उपायों के सिद्धि स्वरूप फल का कथन करते है।
इस सूत्र तथा उसके अर्थका पठन, मनन आदि शुभकर्म तथा उनके अनुबन्धों को प्राकर्षित करता है, शुभ भाव वृद्धि से वे पुष्ट होते हैं तथा पराकाष्टा पर पहुँचते हैं। पचसूत्र की कितनी महिमा! वह सानुबन्ध शुभकर्म भी उत्कृष्ट होता है। जैसे अच्छे प्रोषध टोनिक से तुष्टि पुष्टि प्राप्त होती है । पुन: नये शुभ कर्म बंधवाकर परंपरा से मिर्षण के परम सुख का साधन बनता है । * सांप या बिच्छू के काटने पर उससे ऊपर के भागमें कपडा या रस्सी कस कर बांधे जाते हैं उससे जहर का फैलना कम होता है ।
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सुन्दर प्रणिधान पूर्वक सम्यक् रीत से - प्रगांत चित्तसे - पढे, सुनें तथा सूत्र व अर्थका मनन चिंतन
करें।
सूत्रकार अन्तिम मगल कहते हैं। देवेन्द्र गणधरों से वन्दित परम गुरु वीतराग को मैं नमस्कार करता हूँ। अन्य नमस्कार योग्य गुणाधिक प्राचार्य
आदि को नमस्कार हो । सर्वज्ञ का शासन जयवत हो । प्राणी वरबोधि लाभ प्राप्त करके सुखी हो, सुखी हों, सुखी हों।
इस तरह पचसूत्र के पाप प्रतिघात गुणबीजाधान नामक प्रथम सूत्र का संक्षिप्त विवेचन पूर्ण हुआ।
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* साधुधर्म परिभावना *
(अब इसी सुन्दर पंचसूत्र के दूसरे सूत्र साधुधर्म परिभावना का प्रारंभ होता है। श्रावक गुणबीजाधान करके साधूधर्म की परिभावना करे । मोक्ष की तरफ गमन करने की पूर्वोक्त पांच बातों में से यह दूसरी है । यहाँ मूल सूत्र तथा उसका प्रथं व विवेचन दिये जाते हैं ।)
जायाए धम्मगुणपड़िवत्तिसद्धाए, भाविज्जा एएसि सरूवं, पय इसुदरत्त, अणुगामित्त, परोवयारित्त, परमत्थहे उत्त।
मिथ्यात्वादि कर्मों के क्षयोपशम से धर्मगुण प्राप्ति का भाव (इच्छा) प्रकट होने पर धर्म गुणों के स्वरूप का चिंतन करें। ये अनन्त कालके संक्लिष्ट परिणाम को विशुद्ध बनाने वाले होने से कितने स्वाभाविक रूपसे सुन्दर हैं, अनुसरण करने लायक हैं, परोपकारी है और परंपरा से मोक्ष साधक होने से परमार्थ के हेतु हैं।
शीघ्र ही मोक्ष प्राप्ति के लिए साधुधर्म अत्यन्त प्रावश्यक है । प्रतः उसके प्राथमिक अभ्यास के
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लिए श्रावक के देशविरति आदि व्रत जरुरी हैं। अहिंसा सत्य आदि पवित्र भाव होने से नैसर्गिक सुन्दर हैं, सस्कार रूपसे प्रात्मा में रहकर परलोक में साथ आने वाले हैं। हिंसा आदि दूसरों के कष्ट को रोकने वाले तथा स्वात्मा के हितकर होने से परोपकारी हैं । अत: इन धर्मगुणों की सुन्दर भावना से हृदय को भावित करें।
तहा दुरणुचरत्त, भंगे दारुणत्त, महामोहजणगत्त एवं दुल्लहत्त ति।
ये गुण बड़ी जिम्मेदारी वाले . महा कीमती हैं प्रतिज्ञापूर्वक स्वीकार के बाद उनका भग भय कर है । प्रभुको अाज्ञा भग का दोष लगता है। भग से महामोह उत्पन्न होता है। इससे भवांतर में उनकी प्राप्ति दुर्लभ बनती है। गुणोंको स्वीकार करने के बाद दुर्गणों का प्रादर करने से भवांतरं में वे ही सुलभ बनेंगे न ? ___ एवंजहासत्तीए उचिअविहाणेणं, अच्चंत भावसारं पडिवज्जिरजा । तंजहा-थूलग पाणाइवायविरमणं, थूलगमूसावायविरमणं, थूलग
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अदत्तादान विरमणं, थूलगमेहुणविरमणं, थूलगपरिग्गहविरमणमिच्चाइ । ___ यथाशक्ति उचित विधिसे अत्यन्त भावपूर्वक बलवान प्रणिधान से धर्मगुणों का स्वीकार करे। शक्ति से कम नहीं या ज्यादा नहीं, शक्ति छिपाये बिना ऐसा करे। बिना सोचे विचारे कूद पडना भी अच्छा नहीं । निरपराधी त्रस जीवको निरपेक्ष रूप से मारना नहीं । जठका त्याग, चोरी न करना, मैथुन की विरति, परस्त्री का त्याग तथा स्वस्त्री से संतोष। धन इत्यादि परिग्रह का प्रमाण करना । इन पांच मूल व्रतों के साथ तीन गुणव्रत (दिशि परिमाण, भोगोपभोग परिमाण तथा अनर्थ दौंड विरमण) और चार शिक्षा व्रत (सामायिक, देशावगाशिक, पौषध व अतिथि स विभाग) मिलकर श्रावक के बारह व्रत हुए।
जीव की उन्नति का शास्त्र में यही क्रम कहा हैं । पहले समकित की प्राप्ति, बादमें देशविरति और तब सर्व विरति । इस के लिए प्रात्मामें कषायों की मदता और भावोंकी विशुद्धि उत्तरोत्तर होती रहनी चाहिये । मार्गानुसारी के गुणों से इनको ज्यादा पुष्टि होती है।
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पडिवज्जिऊण पालणे जइजा, सयाणागाहगे सिया, सयाणाभावगे सिपा,सयाणापरतंते सिया।
ये धर्मगुण रत्न की पेटी या महामत्र के समान हैं । अतः उनका पालन व रक्षा प्रयत्नसहित, कष्ट उठाकर भी करना चाहिये । अनन्तकाल बाद मिले होने से तथा थोड़े प्रयत्न से (इस भवके) भविष्य के अनन्त काल के लिए लाभकारक होंगे । सांसारिक कार्य व लक्ष्मी के लिए जो प्रयत्न होता है, उससे भी अत्यन्त ज्यादा प्रात्माके सच्चे रत्न समान गुणों की प्राप्ति व रक्षा के लिए आवश्यक है।
पालन की विधिमें जिनाज्ञा के ग्राहक, भावक तथा परतत्र बनें । जिनाज्ञा क्या है उसे जानने के लिए उसका अध्ययन श्रवण करना और उसके वितक बनकर आज्ञा से प्रात्मा को भावित करना अर्थात् अोतप्रोत हो जाना चाहिये । इससे जगत की वस्तुओं के परतत्र बनने के बजाय अधिकाधिक जिनाज्ञा के परतत्र अर्थात् जो कुछ वह आज्ञा कहे वैसा ही करने वाले बन जाये।
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प्राणाहि मोहविसपरममंतो, जलं रोसाइजलणस्स, कम्मवाहितिगिच्छासत्थं, कप्पपायवो सिवफलस्स।
जिनाज्ञा मोह विषको उतारने वाला परम मत्र है। इसीलिए इसके ग्राहक, भावक व परतत्र बनें ! आज्ञा से मोह की भयानकता, प्रात्मा की हानि आत्महित साधन के समय की बरबादी श्रादि का पता चलता है। प्राज्ञा तो द्वेष अरति शोक आदि की अग्नि को बुझानेवाला पानी है । इससे हृदयमें उपशम तथा कषायमदता के सून्दर मेघ बरसते हैं। कर्मरूपी अनेक कष्टों को मिटाकर प्राज्ञा मोक्ष फल देने वाला कल्पवृक्ष है । विरति के बाद भी बची वस्तु में रस रह जाने से प्राज्ञा उसे हटा सकेगी। साधक तत्त्वों का अभ्यासी व ज्ञाता बने, तो वह हेयोपादेय का ज्ञान प्राप्त करेगा। सावद्यकार्य प्रात्म हितके घातक ही लगेंगे । पागम व प्राज्ञा कर्म व्याधि दूर करने का चिकित्साशास्त्र है। जीव अनादि काल की उलटी प्रवृत्ति में लगा है, उसे आज्ञा ही मिटा सकती है। जिनाज्ञा कस्तूरीसे प्रात्मा की उलटी प्रवृत्तिरूप बदबू नष्ट हो जाती है ।
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वज्जिज्जा अधम्ममित्तजोगं । चितिज्जाऽभिणव पाविएगुणे, प्रणाइभवसंगए गुणे, उदरगसहकारित प्रधम्ममित्ताणं, उभयलोगगरहित्त, सुहजोगपरंपरंच ।
अकल्याण मित्र ( आत्मा के हित का शत्रु ) का त्याग करना उचित है । सगे सबन्धी मित्र परिवार जो भी संसार में डुबावे. वे सभी अकल्याण मित्र हैं । सारा संसार ही ऐसा है । अतः उसे शीघ्र छोडें, पर वहन बने तब तक उनको कल्याणमित्र बनाने का प्रयत्न करें। प्रहिंसादि गुण श्रात्मा के हितकारक हैं । ऐसा उन्हें भी समझाना | गुण तो नये प्राप्त हुए हैं, अत: उनका खूब सिंचन करो। अगुण या दोष अनादि काल से श्रात्मा में लगे हैं, अतः उन्हें भूलने या उनसे छूटने का प्रयत्न करो। इसके लिए मानव भव से अच्छा अवसर कभी नहीं मिलेगा ।
अकल्याणमित्र परलोक चितासे रहित होते हैं। उन्हें इस भव या भवांतर में वास्तविक शुभ हित या शांति क्या है व किसमें है, उसका विचार नहीं होता । अतः उनका त्याग करें। अशुभ परंपरा
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वाले पदार्थों की वे सलाह देंगे अर्थात् सांसारिक कार्य बढ़ाने की ही सलाह देंगे । ये कार्य दोनों लोक के लिए निंद्य तथा अशुभ कर्मों के अनुबध कराने वाले तथा पाप व्यापारों की परंपरा चलाने वाले हैं।
सक्षेप में पांच कर्तव्य ये हैं :- १. धर्म गुणों के स्वरूप की विचारणा २. गुणों का स्वीकार ३. प्राज्ञा का अभ्यास व आधीनता ४. अकल्याण मित्रों का त्याग ५. लोक विरुद्ध का त्याग ।
परिहरिज्जा सम्मलोगविरुद्ध, करुणापरेजणाणं न खिसाविज्ज धम्म, संकिलेसो खु एसा, परम बोहिबीअम अबोहिफलमप्पणोत्ति ।
सत्य अहिंसा आदि नये गुणों तथा अनादि दुगुणों के स्वरूप का पूरा ख्याल होना चाहिये । साथ ही साथ व्यसन निंदा चुगली आदि इस लोक तथा परलोक बिरद्ध कार्यों को छोडना चाहिये । अन्यों को प्रशूभ अध्यवसाय (चित्तसक्लेश) करवाने वाला व्यवहार भी छोड देना चाहिये । 'अन्यों 'पर इतनी दया । हो कि उसके कार्य से अन्यों को
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अधर्म न हो । उदा० पूजा करने जाय, तब कोई निंदा करे, उसकी परवाह नहीं । पर पूजा करने जाते समय कोई अनुचित कार्य किया, गाली दी या हिंसक व्यापार की अनुमति प्रादि से लोगों को धर्म पर जो अभाव उत्पन्न हो, वह अनुचित प्रवृत्ति से उत्पन्न कहा जायगा । या धर्म कार्य में काफी खच करने पर भी सामान्य कार्य में थोडा खर्च करने में आनाकानी करे तो उसे लोग 'धर्मद'भी' कहेंगे । लोगों को धर्म के प्रति अरुचि उत्पन्न हो उसकी दया श्रावक ही करेगा न ? अन्य कौन ?
दूसरे को धर्म सिखाने या उपदेश करने का कार्य है वह तो दूर रहा, पर उसके कार्य से धर्म के प्रति सद्भाव खोने या अनादर से उसे धर्म के प्रति भरुचि उत्पन्न होने से वह दुलंभबोधि बने, वैसा कार्य श्रावक कैसे कर सकता है ? लोगों को प्रबोधि का कारण होने से स्वयको भवांतर में बोधिबीज दुर्लभ बनता है।
एवमालोएज्जा, न खलु इत्तो परो अणत्यो, अंधत्तमेग्नं संसाराडवीए जणगमणिट्ठावायाणं
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अइदारुणं सरूवेणं, असुहाणुबंधमच्चत्थं । से विज्ज धम्ममित्ते विहाणेणं। - अकल्याण मित्र को छोडकर कल्याण मित्रका विधान पूर्वक संग करें। 'तुम ही कल्याण में सहायक हो,' ऐसे स्वीकार तथा आदर सहित मनमें ऐसे विश्वास सहित उनका स'ग करें। दो पैसे का लाभ करवाने वाले का उपकार मानेगा, पर धर्म के प्रति आकर्षण करने वाले की कोई कीमत नहीं लगती। इसीलिए सत्संग का फल नहीं मिलता। मुनिपुगव या गुणप्रेरक गृहस्थ जो आत्म कल्याण में सहायक हो वह कल्याण मित्र । उनका सग व सेवा कैसे करना चाहिये ?
अंधो विवाणूकट्टए वाहिए विव विजे दरिदो विव ईसरे, भीनो विव महानायगे।न इयो सुंदरतरमन्नंति बहुमाणजुत्ते सित्रा, प्राणाकंखी प्राणापडिच्छगे, प्राणाविराहगे, आणानिफायगेत्ति। .कोई अघ भयानक जंगल में फंस जाय । पशुमों प्रादि के भय में रास्ता न मिले, तब कोई बचावे तो कैसा ? धर्ममित्र भी भयानक भवाल्वी में से
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मात्महित के मार्ग पर ले जाने वाले हैं। महारोगसे पीडित हो, बेचैनी हो तथा मृत्यु से बचने की इच्छा हो, उस समय कोई अच्छा वैद्य रोग मिटावे तो कैसा लगे ? अथवा कोई निर्धन हो, फिर सजा मिली हो, कोई सहायक न हो, उसे कोई मदद करे तो वह उस श्रीम'तकी कैसी सेवा करेगा ? इस तरह कल्याण मित्र को ढूढकर उसकी सेवा करें।
महा भयस्थानक में, आक्रमण के समय, किसी जुल्मखोर के जुल्मों से बचने के लिए या आश्रय के लिए किसीको ढूढने पर कोई योद्धा मिल जाय, तो उसे किस तरह, कितने उल्लास से, कैसे बहुमान व केसी परतत्रता से उसकी सेवा करना चाहेगा ? इस तरह कल्याणमित्र की सेवा करें।
इस जगतमें कल्याणमित्र की सेवा से अधिक सुन्दर क्या है ? उसको उपासना हो सुन्दर है। अतः उसके प्रति खूब आदर रखें, उसके कृपाकांक्षी बनें। आज्ञा मिलने पर उसका हृदयपूर्वक स्वीकार हो। जैसे भिखारी को बहुत भटकने पर भी कुछ न मिले, अत्यन्त भूखा हो, बहुत देर हुई हो तब कुछ मिले तो उसे कैसे ग्रहण करता है ? आज्ञा की विराधना
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न हो अर्थात् विरुद्ध प्राचरण न हो। फिर उसका उचित अमल करना चाहिये । अतः अरुचि से नहीं पर धन्य समझ कर बहुमान पूर्वक । इससे पुराने कुसस्कार मिटकर सुसंस्कार की वृद्धि होकर उनकी परंपरा प्राप्त होती है । कुप्रवृत्तियां मिटकर सुप्रवृत्तियों से जीवन भर जाता है ।
पडिवन्नधम्मगुणारिहं च वट्टिज्जा गिहिसमुचिसु गिहिसमाचरेसु परिसुद्धाणुट्टाणे, परिसुद्धमण किरिए, परिसुद्धवइकिरिए, परिसुद्धकायfeरिए ।
कल्याणमित्र ही सेवा योग्य हैं यह निश्चय किया। उनकी प्राज्ञा के परत त्र बने । इससे प्रनादि स्वेच्छाचारिता द्वारा उत्पन्न कर्म की पराधीनता मिटकर उससे स्वतंत्र होने के द्वार खुल गये । अब मोह की यह ताकत नहीं कि वह खींच सके ।
धर्मगुणों के समर्थक सेवादि के साथ धर्मगुणों के अनुसार, उन्हें शोभा दे, वैसा व्यवहार - मनवचन काया का होना चाहिये। जीवन भी कषाय व शल्य रहित बनना चाहिये । वाणी में असत्य, प्राक्षेप
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कर्कशता आदि न हों। काया से अंगोपांग की चेष्टा बीभत्सता, क्रूरता उद्भट वेश आदि रहित तथा मनकी विचारधारा भी पवित्र व शुद्ध हो ।
वजिजाणेगोवघायकारगं, गरहणिज्ज बहुकिलेसं, प्रायइविराहगं, समारंभं । न चितिरजा परपीडं। न भाविजा दीणयं । न गच्छिज्जा हरिसं । न सेविज्जा वितहाभिनिवेसं । उचियमणपवत्तगे सिमा । न भासिज्जा अलिनं न फरसं, न पेसुन्नं, नाणिबद्ध। हिअमिप्रभासगे सिमा ।
उपरोक्त सामान्य बात हुई । अब विशेष अनुष्ठान कहते हैं । प्रथम मानसिक - जिसे साधूधर्म की याने महा अहिंसा, महासयम की परिभावना करना है वह (१) संसार की हिंसा के प्रारंभसमारभ के संकल्प न करें, लोकनिंद्य कार्य, कर्मादान, जुमा आदि न करे । (२) पर को जरा भी पीडा का विचार भी न करे (क्योंकि परपीडा स्वयं को ही पीडाकारी है ।) शत्रु परभी मैत्रीभाव रखे ।
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कोई अनिष्ट हो या इष्ट न हो तो (३) दीनता न करे । मन न बिगाड़े । (४) इष्ट प्राप्ति पर हर्ष का अतिरेक न हो । प्राप्त वस्तु जड़ है, विनश्वर है, रागांध बनाकर ससार वृद्धि का कारण है, ऐसा समझे । (५) बुरा प्राग्रह-कदाग्रह न करे। अतत्व में मन ने रोके तथा (६) अतत्त्व में से मन उठाकर
आगम अनुसार उचित तात्त्विक बात या वस्तु में मन लगावे। - अच्छा कार्य करे, पर मन बिगाडे, गलत बाते सोचे, न मिल सकने लायक चीजों की इच्छा किय करे, अनर्थ दड के विचार करे या उचित व्यवहार करे या दान शील करे पर मन बिगाड़े तो यह सब अनुचित है। केवल मन बिगाड़ने से तदुलमत्स्य सातवीं नरक में जाता है।
अब वचन से - असत्य या पीडाकारी न बोले, झूठे आक्षेप न करे । खूब पुण्य से प्राप्त जीभ से असत्य या अभ्याख्यान के कोयले क्यों चबाये? देव या पूर्व महर्षियों के गुणगान में इसे क्यों न लगावें? वचन कठोर न होकर मृदु हो । विकथा न करे, निंदा कुथली में न पड़े। जो बोले वह हितकर तथा मित -प्रमाण युक्त हो।
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एवं न हिसिज्जा भू आणि । न गिहिज्ज प्रदत्त । न निरिक्खिज्ज परदारं । न कुजा अणत्थदंडं । सुहकायजोगे सिमा। तदा लाहोचिअदाणे, लाहोचिन भोगे, लाहोचिन परिवारे, लाहोचिप्रनिहिकरेसिया।।
तीसरी कायिक क्रिया-काया से पृथ्वी, पानी प्रादि की हिंसा न करे। जरा भी चोरी न करे। परस्त्री तरफ़ नजर न करे। दुर्ध्यान पाचरण, नाटक देखना, अधिकरण (हिंसक शस्त्र प्रादि) बढाना, मौज शौक आदि अनर्थ दौंड का सेवन न करे। जिनागम कथित शुभ प्रवृत्ति - शील, दान, तप, सामायिक, पौषध, ज्ञान ध्यानमें-काया से लग जावे।
प्राय (प्रावक) को योग्य ढंग से लगावे । पूर्व महषियोंने बताया है कि प्राय का पाठवां भाग दान में, आठवा स्वयं के उपयोग में, चौथा परिवार के पोषण में, चौथा पूंजी में और चौथा भाग व्यापार में लगावे । अथवा अन्य विधिवत योग्य व्यवस्था करे । लाभ का उचित भाग दान में, उचित भान भोग में, उचित भाग परिवार के लिए तथा उचित भाग संग्रह करने में लगावे । ।
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प्रसंतावने परिवारस्स, गुणकरे जहासत्ति, अणुकंपापरे निम्ममे भावेणं । एवं खु तप्पालणे वि धम्मो, जह अन्नपालणे त्ति, सत्वे जीवा पुढो पुढो, ममत्त बंधकारणं।
पूर्वकथित गुण तथा सदाचार से समृद्ध अात्मा परिवार को संताप (दुःख) देने वाला नहीं होता। निर तर शुभ भावोंमें पवित्र निर्णय व सुन्दर इच्छाओं वाला होने से स्वार्थी न होकर परमार्थी होगा, अकडू व क्रोधो न होकर मृदु व शांत होगा, तुच्छ विचार या प्रदरदर्शी न होकर दीघदर्शी, गभीर व उदार होगा। परिवार को पीडा न दे, इतना ही नहीं पर उसे संसारका स्वरूप, उसकी स्थिति व जीवकी मोह दशा आदि बताकर धर्ममार्ग में प्रेरित करे । उनके न समझने पर भी उनके प्रति दयालु, शुद्ध करुणा भाव व वात्सल्य वाला हो, अपना उपकार न जताये तथा द्वेष का संग ही न आने दे ।
परिवार के प्रति अनुक पा के साथ ममत्व भाव रहित हो । भवस्थिति, अनित्यता, अनन्त भवों के परिवार आदि के विचार से ममत्व छोड कर दया भावसे मोह रहित उनका पालन करे, तो जैसे
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दूसरों के पालन में धर्म है, वैसे कुटुंब पालन भी धर्म बन जाता है । मोह तथा प्रारभ का पोषण पाप है, पर उपरोक्त भावों से पालन धर्म बनता है; जैसे अन्य दीनदुखी. का पालन। पर उन पर ममत्व ही बौंध का कारण है। लोभ ही कषाय-स्वार्थ स्वरूप है, राग है । ____ ममता ही समता को शत्रु है, सुख को शत्रु है। समुद्र के पानी की तरंग से जैसे. कुछ मछली इकट्ठी हो गई व दूसरी जोरदार तरंग से अलग हो गई, वैसे ही कर्म की तरंगों से कुटुंब मिला हैं व बिछुड जायगा । मेरा तेरा क्या ? बुद्धि के इस भव में ही ममता को तोड। कोई 'स्वजन' आत्मा का नहीं। धर्म समझाने का प्रयत्न करे, पर न समझे तो उनकी तीव्र मोहदशा समझकर अनुक पा वाला बना रहे।
_ कुटुंब पालन में उन पर उपकार हो रहा है, संताप (पीडा) किये बिना गुण करता है, मार्तध्यान व रौद्र ध्यान से बचाने का उपकार हैं। ममत्व ही मिथ्या भाव तथा बध का कारण है। प्रतः अन्तर से न्यारा-भिन्न रहे । समकित दृष्टि जीवडा, करे कुटुब प्रतिपाल । अन्तरगत न्यारा रहे, ज्यों घाइ खेलावत बाल,
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तहा तेसु तेसु समायारेसु सइसमण्णागए सिपा, अमुगेहं, अमुगकुले, अमुगसिस्से, अमुगधम्मट्ठाणट्ठिए। न मे तस्विराहणा, न मे तदारंभो वुड्डो ममेअस्स, एअमित्थ सारं, एअमायभूनं, एनं हिनं, असारमणं सव्वं, विसेसनो अविहिगहणेणं । . ममत्व रहित, अनुकम्पावाला गृहस्थ योग्य प्राचारों का सेवन करते हुए भी उपयोग सहित रहकर मोचता रहे : मैं कौन हूँ, मेरा कुल कौनसा है, मैं किसका शिष्य हूँ? कौन से धर्म स्थान में हूं' (क्या व्रत नियम हैं) आदि पर हर समय विचार करता रहे । उनकी विराधना न हो। धर्म की, व्रतों की वृद्धि होती रहती है या नहीं ? व्रत व उनकी भावना के साथ जैसे श्वेत वस्त्र पर दाग न लगे, वैसी सावधानी रखनी चाहिये । रागद्वेष के जोर से शिथिलता या प्रमाद न पावे, अत: विराधना से बचने का ध्यान रखें। जग में समकित या व्रत के सिवाय कुछ भी सार नहीं है। वही हित है, भवांतर में वही साथ आनेवाली संपत्ति है । अन्य सभी
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सांसारिक चीजे दगाखोर हैं । प्रविधि अन्याय से प्राप्त वस्तु कटुफल विपाकी है।
अनीति से प्राप्त सपत्ति तथा भोग बडिशामिश की तरह आत्मा का नाश करते हैं । मच्छीमार मछली को पकड़ने के लिए पानी में जो कांटा डालता है, उस पर मांस का टुकडा लगाता है, उसे बड़िशामिष कहते है । मछली उसे खाते ही कांटा उसके मुहमें फस जाता है और वह पकड ली जाती है, मर जाती है । उसी तरह अनीति प्राप्त संपत्ति में अनीति के चिकने कर्म प्रात्मा को पकड लेते हैं और उसे निस्तेज, मलिन, व अशक्त बना देते हैं ।
__ एवमाह तिलोगबंधू परमकारुणिगे सम्म संबुद्ध भगवं अरिहंतेत्ति । एवं समालोचिन, तदविरुद्ध सु समायारेसु सम्म बट्टिज्जा, भावमंगलमेअं तन्निप्फत्तीए ।
ऐसी बाते तथा प्रात्मा को सुन्दर व सुखी बनाने का मार्ग कौन बताता हैं ? भगवत अरिहत जो तीन लोक के बधु व सच्चे स्नेही हैं, परम
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कारुणिक हैं, श्रेष्ठ बोधि (वर बोधि) वाले, स्वय ही सबुद्ध हैं, जड़ चेतन के बोध वाले महा विरागी हैं, वे यह समझाते हैं। यह सोच कर धमस्थान (समकित, देशविरति) के विरुद्ध या प्रतिकूल नहीं, पर विविध प्राचारों में अच्छी तरह शास्त्र नियमानुसार प्रवृत्त हों।
___ इस तरह का विधिपूर्वक धर्म वर्तन ही भाव मगल है । अहिंसा, सत्य आदि उत्तम आचार में सविधि प्रवतन भाव मंगल है । यह अशुभ भावों का नाश करता है, शुभ अध्यवसाय के सुन्दर परिणाम वाला होता है, । अतः यह भाव मगल है। आगम ग्रहण, धर्म मित्र उपासना, लोक विरुद्ध का त्याग, शुद्ध मन वचन, काया की क्रिया आदि न करे तो शुभ अध्यवसाय दुर्लभ हैं। धर्म करे तब भी क्लेश आदि से मन में प्रात रौद्र ध्यान रह सकता है, तो उत्तम आचार से भी हृदय को शांति कैसे मिले ? धर्म व्यवहार में जितनी शुद्धि उतना ही धर्मस्थान ऊंचा। ।
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तहा जागरिज्ज धम्मजागरिआए। को मम कालो ! किमेस्स उचिधे ।
वह (श्रावक-साधुधर्म परिभावना करनेवाला) सदा धर्म जागरिका करे । किस तरह ? भाव निद्रा का त्याग करके । भाव निद्रा याने अतत्त्वचिंतन, रागद्वेष का खेल, मिथ्यात्व, बाह्यभाव प्रमाद आदि । इसको छोडते हुए सतत धर्म जाग्रति अर्थात् तत्त्व विचारणा-तत्त्व क्या है ? अात्मा क्या है ? मैं कौन है तथा 'स्व' का असली स्वरूप जानने का प्रयत्न करें। मानव जीवन रत्नोपम है, उसमें जो शेष रहा है उसका महामूल्य उपजाने का प्रयत्न, विशिष्ट जीवन में महा उचित की प्राप्ति तथा जडमुखी से प्रात्ममूखी प्रवृत्ति करने के लिए तथा जन्म जरा मृत्यु की जजाल से छूटने के लिए और कर्मव्याधि को मिटाने के लिए धर्म औषधि का सेवन करें।
कैसा समय है ? क्या उचित है ? महा मूल्यवान समय । उसमें उचित कर्तव्य क्या है ? अनन्त शरीर परिवर्तन जो पूर्व में किये हैं, वे पुनः न करना पड़े वैसी स्थिति उत्पन्न करो-ऐसा समय है यही उचित
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हे । अज्ञान व मोह से मैं इसे कम कर रहा है या बढ़ा रहा हूँ। अखबार, रेडियो, उनसे बाजार भाव, सिनेमा गीत आदि में मन को डाल कर क्या किया ? कर्म रूपी महान पर्वत जैसे ढेर को तोडने का यही समय मिला है । हे जीव सोच जरा!
आहार, निद्रा, भय, परिग्रह नामक चार महा संज्ञा का आत्मा पर जो नशा चढा है, वह उतारने का यही मौका है - खाना, सोना, इकट्ठा करना प्रादि को हटाने वाले गुण तप, शोल, दान आदि की प्रवृत्ति से उन्हें हटा दे, कम कर दें । देव भव या अन्य किसी भव में इनको तोड़ने का समय कहाँ, बद्धि कहाँ ? सग्रहवृत्ति आकाश जितनी अनन्त है। इसे तोडो। पाहार, विषय व परिग्रह की ममता करते यह सोचा कि यह दुश्मन कहां घर में डाल रहा हूँ । धर्म साधना के शरीर को टिकाना है, पर आहार सज्ञा को दबा कर, मार कर । जैसे बिच्छु को डक बचाकर पकडना ।
को कालः? कि उचि? कैसा काल-वीतराग शासन के नाव में बैठकर भव पार उतरने का । तिर्यच आदि में कितना कष्ट ? 'जो आवे, समता
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से भोगो । कर्म कटते हैं ।' ऐसा कभी कहीं किसीने समझाया ? क्या उचित है यही । आज संयम का विराग का उपशम का समय है । मायारूपी शल्य को काट कर फेंक दे । निदानरूपी शल्य को तोड कर हटा दे। रस, ऋद्धि तथा शातारूपी गारव पर से नीचे उतर । जैसे शिलाजीत से चिपक कर बंदर वहीं मर जाता है. वैसे इन तीनों से चिपक कर जीव अनेकशः जन्ममरण से दुःखी होता है। देव व चक्री की रस व ऋद्धि के आगे हमें मिला किस गिनती में ? फिर भी उससे प्रेम ? तृप्ति कहां ?
संज्ञा, कषाय दुर्ध्यान व विकथा की चार चंडाल चौकड़ी को खतम करने का यही उचित अवसर है । इन से मन बिगडता है, पाप बढता है, भव व संसार की वृद्धि होती हैं । श्रतः रोकने का यह अवसर मिला है । विषयों से विरागी बनकर सर्व विरति प्राप्त करने का उचित समय हैं । अन्यथा क्षपक श्रेणी, सर्वज्ञता व मोक्ष कैसे मिलेंगे ? ऐसे अमृत काल को विषयों की गुलामो से विष काल कर रहा हूँ । अतः जीव जरा सोच !
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असारा विसया, निप्रमगमिणो, विरसावसाणा। भोसणोमच्चू, सव्वाभावकारी,अविन्नायागमणो, अणिवारणिज्जो, पुणोपुणोणुबंधी।
विजय प्रसार है। निश्चय ही जानेवाले, नाशवत हैं तथा अन्त में विरस याने कटू विपाकी हैं। विषय जड तथा नाशवत हो न पर भी प्रात्मा को विकृत दुखी व पराधीन करते हैं। अत: वे आत्मा की ऋद्धि के समक्ष तुच्छ हैं। परिणाम में भय कर दुःखदायक हैं।
__ मृत्यु अवश्यभावी तथा भयकर हैं, सर्व वस्तु का अभाव करने वाली हैं। यहां का सब यहीं पडा रह जायगा । वह अचानक ही पाती है। वह अनिवार्य है। तथा उसकी पुन:पुनः प्रावृत्ति होती रहती है। राग द्वेष तथा योगों की प्रवृत्ति हैं, तब तक जन्म भी है और मृत्यु भी, अनेक योनि द सब गति में - बारबार । अतः प्रबल शुभ भाव से अज्ञान व मोह को तोड़ दे, तो यह दुःख सर्वथा मिट जायगा।
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धम्मो एअस्स प्रोसह, एगंतविसुद्धो, महापुरिससे विनो, सवहिनकारी, निरइसारो परमाणदहेऊ।
इस मृत्यू के रोग को हटाने का औषध धर्म है। वह एकांत (सर्वथा) निर्मल हो, शास्त्रोक्त परम निवति रूप हो । तीर्थकर चक्रवर्ती आदि महापुरुषों द्वारा से वित है । मैत्री करुणादि सहित होने से स्व पर सर्व का हितकर है और उसका निरतिचार विशुद्ध पालन परम सुख (मोक्ष) दायी है ।
नमो इमस्स धम्मस्स । नमो एअधम्मपगासगाणं । नमो एअधम्मपाल गाणं । नमो एमधम्मपरूवगाणं । नमो एअधम्मपवजगाणं ।
ऐसे उपरोक्त धर्म को नमस्कार करता हूँ। उस धर्म के प्रकाशक अग्हित को नमस्कार करता है । उसे हृदय में उतार कर पालने वाले साधू आदि को मैं नमस्कार करता हूँ। इस धर्म के प्ररूपक उपदेशक प्राचार्यों को नमस्कार तथा इस धर्म को मोक्षदायक, मोक्षका हेतु तथा सत्य धर्म के रूप में स्वीकार करने वाले श्राधकों को भी नमस्कार करता ह।
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इच्छामि अहमिणं धम्म पडिवज्जित्तए सम्म मणवयणकायजोहि । होउ ममेधे कल्लाणं परमकल्लाणाणं जिणाणमणुभावो।
मैं इस धर्म को प्राप्ति की इच्छा करता है। अब मुझे इस धर्म का पक्षपात है । मन वचन काया के सम्यक योगों से उसका संपूर्ण स्वीकार करता है। मुझे इस धर्म प्राप्ति का कल्याण प्राप्त हो । मेरा तो सामर्थ्य कुछ नहीं है, अत: परम कल्याणकारी जिनेश्वर देवों के परम प्रभाव (प्रसाद, से वह मुझे प्राप्त हो, ऐसी इच्छा करता हूँ। ___ सुप्पणिहाणमेवं चितिजा पुणो पुणो । एअधम्मजुत्ताणमववायकारी सिमा । पहाणं मोहच्छेप्रणमेनं ।
इस तरह खूब एकाग्रता तथा विशुद्धता से बार बार इसका चिंतन करें, मन में उसकी भावना करें। इस धर्म का सेवन करने वाले मुनियों का माज्ञांकित विनयी व सेवक बनू, वैसी तीव्र भावना करें। यह मुनियों को प्राज्ञाकारिता मोह का छेद करनेवाली है.
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उसका श्रेष्ठ उपाय है। यही मोहछेदक सयम योग तथा संयम के विशुद्ध अध्यवसाय की जनक है । ___ एवं विसुज्झमाणे भावणाए कम्मापगमेणं उवेगइएअस्स जुग्गयं । तहा संसार विरत्ते संविग्गो भवइ, अममे अपरोवतावी, विसुद्ध विसुद्धमाण भावे ॥ इतिसाहुधम्मपरिभावणासुत सम्मत्त ॥२॥
इस प्रकार विशुद्ध भावना करता हुया श्रावक कर्म के अनेक बधन तोड डालता है और उस कर्म नाश से साधुधर्म को योग्यता प्राप्त करता है। इस तरह के सोच विचार व चिंतन से ससार से विरागी बनकर मात्र मोक्ष का इच्छुक बनता है। अब संसार की किसी वस्तु से उसे ममत्व नहीं है। वह परपरिताप (पर पीडक) सं दूर हो जाता है । सर्व के प्रति अनुकंपा वाला वह रागद्वेष के ग्रन्थि भेद से शुभ अध्यवसायों को वृद्धि से अधिकाधिक विशुद्ध बनता जाता है।
इस तरह साधु धर्म परिभावना नामक द्वितीय सूत्र समाप्त हुना।
॥ * ॥
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: समाधि विचार :
(प्रात्मा की उन्नति के लिए प्रथम दो सूत्रों की तरह ही यह भी अत्यंत उपयोगी है। इसे बारबार पढ़कर प्रात्मा को उसके शुद्ध स्वरूप से भावित करें।) परमानंद परम प्रभु, प्रणम् पास जिणद; वद् वीर प्रादे सह, चउदी से जिनचंद ।१।। इंद्रभूति प्रादे नमू, गणधर मुनिपरिवार । जिन वाणी हैड़े धरी, गुणवत गुरु नमु सार ।। २।। प्रा ससार असारमां, भमतां काल अनन्त ; असमाधे करी पातमा, किमहि न पाम्यो अंत ।३।। च उगतिमां भमतां थका, दु:ख अन तानत; भोगवियां एणे जीवड़े, ते जाणे भगवत ॥४॥ कोई अपूरव पुण्यथी, पाम्यो नर अवतार; उत्तम कुल उत्पन्न थयो, सामग्री लही सार ।।५।। जिन वाणो श्रवणे सूणी, प्रणमी ते शुभ भाव; तिण थी अशुभ टल्यां घणां, कांइक लही प्रस्ताव ।।६।।
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विरवां भत्र दुःख भाखियां, सुख तो सहज समाधि ! तेह उपाधि मिटे हुए, विषय कषाय श्रगाध ॥ ७ ॥ विषय कषाय टल्यां थकी, होय समाधि सार; तेणे कारण विवरी कहूं, मरण समाधि विचार ॥८॥ मरण समाधि वरण, ते निसुणो भवि सार; ग्रत समाधि प्रादरे, तस लक्षण चित्त धार ॥ ॥ जे परिणाम कषाय ना, ते उपशम जब थाय । तेह सरुप समाधिनु, ओ छे परम उपाय ॥ १० ॥ सम्यग् दृष्टि जीवन, तेहनो सहज स्वभाव | मरण समाधि व छे सदा, थिर करी ग्रातम भाव ॥। ११॥ अरुचि भई श्रसमाधि की सहज समाधिसु प्रीत; दिन दिन तेहनी चाहना, वरते हिज रीत ॥ १२ ॥ अवसर निकट मरण तणो, जब जाणे मतिव ंत । तव विशेष साधन भणी, उल्लसित चित्त अत्यंत ||१४|| जैसे शार्दूलह कु, पुरुष कहे कोई जाय । सूते क्यु' निर्भय हुई, खबर कहुं सुखदाय || १५ ।। शत्रु की फोजो घणी, प्रावे छे प्रति जोर । तुम घेरण के कारणे, करती प्रति घणो शोर ।।१६।। वचन सुणी ते पुरुष का, उठ्यो शार्दूल सिंह । निकस्यो बाहिर तत क्षणे, मानु अकल नबीह ॥ २० ॥
3
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शब्द सुणी केसरी तणो, शत्रु को समुदाय । हस्ति तुरंगम पायदल, त्रास लहे कंपाय ।।२२।। सिंह पराक्रम सहन कु, समरथ नहीं तिलमात्र । जीतण की आशा गई, शिथिल थयां सवि गात्र ॥२४।। सम्यग दृष्टि सिंह छे, शत्रु मोहादिक पाठ । प्रष्ट कर्म की वर्गणा, ते सेना नो ठाठ ॥२५॥ दुःखदायक ए सर्वदा, मरण समय सुविशेष । जोर करे प्रति जालमी, शुद्धि न रहे लवलेश ॥२६॥ करमों के अनुसार एम, जाणी समकित वत। कायरता दूरे करे, धीरज धरे अति सत ॥२७॥ समकित दृष्टि जीव कु., सदा सरुप को भास । जड पुद्गल परिचय थकी,न्यारो सदा सुख वास ॥२८॥ निश्चय दृष्टि निहालतां, कर्म कलंक ना कोय । गुण अमत को पिंड ए, परमान दमय होय ॥२६॥ अमूर्तिक चेतन द्रव्य ए, देखे अापकु आप । ज्ञान दशा प्रगट भई, मिट्यो भरम को ताप ॥३०॥ पातम ज्ञान की मगनता, तिनमें होय लयलीन । रंजत नहीं पर द्रव्य में, निज गुणमें होय पान ॥३१॥ विनाशिक पुद्गल दशा, क्षणभंगुर स्वभाव; मैं अविनाशी अनत हूं, शुद्ध सदा थिर भाव ॥३६॥
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निज सरूप जाणे इसो, समकित दृष्टि जीव । मरण तणो भय नहीं मने, साध्य सदा छे शिव ॥ ३३ ॥
मृत्यु समय विचार
थिरता चित्त में लाय के, भावना भावे एम । अथिर संसार ए कारमो, इणसु मुज नहीं प्रेम ॥ ३५ ॥
ह शरीर शिथिल हुआ, शक्ति हुई सब क्षीण । मरण नजीक अब जाणी, तेणे नहीं होणा दोन ॥ ३६ ॥ सावधान सब वात में, हुई करुं प्रतम काज; काल कृतांत कु जीतके वेगे लहुं शिवराज ॥३७॥ रणभभा श्रवणे सुणी, सुभट वोर जे होय । ते ततखिण रण में चड़े, शत्रु जीते सोय ३८ ॥ कुटुंब को समझाना
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सुणो कुटुंब परिवार सहु, तुमकु कहुं विचित्र । ह शरीर पुद्गल तणो, केसो भयो चरित्र ॥ ४० ॥ देखत ही उत्पन्न भया, देखत विलय ते होय । तिणे कारण ए शरीर का, ममत न करणा कोय ॥ ४१ ॥ ओह ससार प्रसार में, भमतां वार अनंत | नव नव भव धारण कर्या, शरीर अनंतानंत ॥४२॥ जन्म मरण दोय साथ छे, छिण छिण मरण ते होय । मोह विकल ए जीवने, मालम ना पडे कोय ॥ ४३ ॥
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४४॥
मैं तो ज्ञान दृष्टि करी, जाणु सकल सरूप । पाडोशी मैं एह का, नहीं मारूं ए रूप ॥४४।। मैं तो चेतन द्रव्य हं, चिदानंद मुज रूप । ने तो पद्गल पिंड है, भरमजाल अंधकूप ।।४५।। सडण पडण विद्ध सणो, अंह पुद्गल को धर्म । थिति पाके खिण नवि रहे, जाणो एहिज मर्म ॥४६॥ अनंत परमाणु मिली करी, हा शरीर पर्याय । वरणादिक बहु विध मिल्या, काले विखरी जाय ॥४७॥ पुद्गल मोहित जीव को, अनुपम भासे अह । पण जे तत्त्ववेदी होये, तिनको नहीं कछु नेह ॥४८॥ उपनी वस्तु कारमी, न रहे ते थिर वास, प्रेम जाणी उत्तम जना, धरे न पुद्गल पास ॥५६॥ मोह तजी समता भजी जाणो वस्तु स्वरूप, पुद्गल राग न कीजिये, नवि पडिये भवकूप ।।५।। वस्तु स्वभावे नीपजे, काले विणसी जाय । करता भोक्ता को नहीं, उपचारे कहेवाय ॥५१।। तेह कारण एह शरीर सु, संबंध न माहरे कोय । मैं न्यारा एहथी सदा, प्रा पण न्यारो जोय ।।५२।। अह जगत में प्राणिया भरमे भूल्या जेह । जाणी काया पापणी, ममत धरे अति तेह ।।५३।।
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जब थिति एह : शरीरकी, काल पोंचे होय क्षीण । तब भूरे प्रति दुख भरे, करे विलाप एम दीन ॥ ५४ ॥ हा हा पुत्र तु क्या गयो ? मूकी ए सहु साथ | हा हा पति तुम क्या गया ? मुजकु मूकी अनाथ ॥ ५५ ॥
||
मोह विकल एम जीवङा, श्रज्ञाने करी ग्रंध । ममता वश गणी माहरा, करे क्लेश ना धंध ॥ ५८ ॥ इग विष शोक संताप करो, अतिशय क्लेश परिणाम । करमबंध बहुविध करे, ना लहे क्षण विशराम ॥ ५६ ॥ ज्ञानवंत उत्तम जना, उनका एह विचार | जगमें कोई किसी का नहीं, संजोगिक सह धार ॥६०॥ भमतां भमतां प्राणिया, करे अनेक संबंध | रागद्वेष परिणति थकी, बहुविध बांधे बंध ॥ ६१ ॥ वेर विरोध बहुविध करे, तिम प्रीत परस्पर होय । संबंधे आवी मले, भव भव के बिच सोय || ६२|| वनके बिच एक तरु विषे, सध्या समय जब होय । दस विधी प्रावी मले, पंखी अनेक ते जोय ॥ ६३ ॥ रात्रे तिहां वासो वसे, सवि पंखी समुदाय | प्रातः काल उडी चले, दशेदिशे तेहु जाय ||६४।। इण विध एह संसार में, सवि कुटुंब परिवार । संबंधे सह प्रावी मले, थिति पाके रहे न केवार ||६५ ||
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किसका बेटा बाप है ? किसका मात ने म्रात ? किसका पति? किसकी प्रिया? किसकी न्यात ने जात?६६ किसका मंदिर मालिया? राज्य ऋद्धि परिवार । खिण विनासी ए सह प्रेम निश्चे चित्त धार ॥६७।। इन्द्र जाल सम ए सहु, जेसो सुपन को राज । जैसी मावा भूतकी, तेसो सकल ए साथ ॥६८। मोह मदिराना पान थी, विकल हुमा जे जीव । तिनकु अति रमणिक लगे, मगन रहे सदैव ॥६६॥ मिथ्या मतिना जोर थी, नवि समजे चित्तमाय । कोड जतन करे बापडो, ग्रे रेहवे को नाहीं ॥६|| ओम जाणो त्रण लोक में, जे पुद्गल पर्याय । तिनकी हुं ममता तजु, धरूं समता चित्त लाय ॥७१।। ग्रेड गरीर नहीं माहरू, अ तो पुद्गल स्कंध । मैं तो चेतन द्रव्य हूं, चिदानंद सुख कंद ॥७२।। अह शरीर का नाश थी, मुझ को नहीं कुछ खेदं । मैं तो अविनाशी सदा, अविचल अकल अभेद ।।७३।। देखो मोह स्वभाव थी, प्रत्यक्ष झूठो जेह । अति ममत। धरी चित्तमां, राखण चाहे तेह ।।७४।। पण ते राखी नवि रहे, चंचल जेह स्वभाव । दुखदाई अ भव विधे, परभव अति दुखदाय ।।७५॥
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ऐसा स्वभाव जाणी करी, मुझ को नहीं कुछ खेद । शरीर अह असार का, इणविध लहे सह भेद ।।७।। सडो पडो विध्वंस हो, जलो गलो हुनो छार । अथवा थिर थई ने रहो, पण मुजको नहीं प्यार ||७७।। ज्ञान दृष्टि प्रगट हुई, मिट गया मोह अंधार । ज्ञान सरूपी प्रात्मा, चिदानंद सुखकार ।।७८।। निज सरुप निरधार के, मैं हुअा इसमें लीन । काल का भय मुझ चित नहीं, क्या कर शके अंदीनः७६। इसका बल पुद्गल विषे, मुझ पर चले न कांय । मै सदा थिर सास्वता, अक्षय पातम राय ।।८०॥ पातम ज्ञान विचारतां, प्रगट्यो सहज स्वभाव । अनुभव अमृत कुड में, रमण करूं लही दाव ॥१॥ मातम अनुभव ज्ञान में, मगन भया अंतरंग । विकल्प सब दूरे गया, निर्विकल्प रसरंग ॥१२॥ आतम सत्ता एकता, प्रगट्यो सहज सरूप । ते सुख त्रण जगमें नहीं, चिदानंद चिद्रूप ॥८॥ सहजानंद सहज सुख, मगन रहूं निश दोश । पुद्गल परिचय त्याग के, मैं हुआ निज गुण ईश ।।४।। देखो महिमा एह को, अद्भुत अगम अनुप ।। तीन लोक की वस्तु का, भासे सकल सरूप ॥२५॥
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ज्ञेय वस्तु जाणे सहु, ज्ञान गुणे करी तेह । पाप रहे निज भाव में, नहीं विकल्प को रेह ॥८६॥ ऐसा प्रातम रूप में, मैं हुआ इस विध लोन । स्वाधीन ए सुख छोडके, वंळु न पर आधीन ।।८।। अम जाणी निज रूप में, रहूं सदा होशियार । बाधा पीडा नहीं कछु, पातम अनुभव सार ||८|| ज्ञाम रसायण पाय के, मिट गई पुदगल पाश । अचल अखंड सुख में रम, पूरणानंद प्रकाश ॥८६ । भव उदधि महा भय करू, दुख जल अगम अपार । मोहे मूछित प्राणीकु, सुख भासे अति सार ||६|| असंख्य प्रदेशी पातमा, निश्चे लोक प्रमाण । व्यवहारे देहमात्र छे. संकोच थकी मन प्राण || !! सुख बीरज ज्ञानादि गुण, सर्वांगे प्रतिपूर । जैसे लुन साकर डली, सरवांगे रसभूर ||६२ ॥ जैसे कंचुक त्याग़थी, विणसत नाहीं भुजंग । देह त्यागथी जीव पण, तैसे रहत अभंग ||६|| प्रेम विवेक हृदये धरी, जाणी शाश्वत रूप । थिर करो हुनो निज रूपमें,तजी विकल्प भ्रमरूपll६४i सुखमय चेतन पिंड है, सूख में रहे सदैव । निर्मलता निजरूप की, निरखे क्षण क्षण जीव ||५||
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निर्मल जेम अाकाशकू, लगे न किणविध रंग । भेद छेद हुए नहीं, सदा रहे ते अभंग ।।६६॥ तैसे चेतन द्रव्य में, इन को कबहन नाश । चेतन ज्ञानानंद मय, जडभावी आकास ।।१७।। दर्पण निर्मल के विषे, सब वस्तु प्रतिभास । तिम निर्मल चेतन के विषे सर्व वस्तु परकास ॥१८॥ इण अवसर यह जानके, मैं हुअा अति सावधान । पुद्गल ममता छांडके, धरूं शुद्ध प्रातम ध्यान ||६|| प्रातमज्ञान की मग़नता, अहिज साधन मूल । अम जाणो निज रूप में, करू रमण अनुकूल ||१००॥ निमलता निज रूपकी, किमही कही न जाय । तीन लोक का भाव सब, झलके जिनमें ग्राय ॥१७॥ ऐसा मेरा सहज रूप, जिन वाणी अनुसार । प्रातम ज्ञाने पायके, अनुभव में एकतार ||१०२।। मातम अनुभव ज्ञान जे, तेहिज मोक्ष सरूप । ते छंडी पुद्गल दशा, कुण ग्रहे भव कूप ।।१०३।। प्रातम अनुभव ज्ञान से, दुविधा गई सब दूर । तब थिर थई निज रूपको, महिमा कहुं भरपूर ॥१०४॥ शांत सुधारस कुड ए, गुण रत्नोंकी खाण। अनंत ऋद्धि प्रावास ए, शिवमंदिर सोपान ||१०||
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परम देव पण एह छे, परम गुरु पण एह । परम धर्म प्रकास को, परम तत्त्व गुण एह १०६ । एसो चेतन प्रापको, गुण अनत भडार। अपनी महिमा बिराजते, सदा सरुप आधार ॥१०७।। चिद् रूपी चिन्मय सदा, चिदानद भगवान । शिवशंकर स्वयंभू नमु, परम ब्रह्म विज्ञान ॥१०८ । इणविध श्राप सरुप को, देखो महिमा अति सार । मगन हुग्रा निज रूपमें, सब पुद्गल परिहार ॥१०६।। उदधि अनंत गुणे भर्यो, ज्ञान तरंग अनेक । मर्यादा मूके नहीं, निज सरूप को टेक ॥११०॥ अपनी परिणति प्रादरी, निर्मल ज्ञान तरंग। रमण करूं निज रुप में, अब नहीं पुद्गल रंग ॥११॥ पुदगल पिंड शरीर ए, मैं हूँ चेतन राय । मैं अविनाशो एह तो, क्षण में विण सी जाय ॥११॥ अन्य सभावे परिणमे, विणसता नहीं वार । तिणसुमुज ममता किसी? पाडोसी व्यवहार ॥११३॥ एह शरीर की ऊपरे, रागद्वेष मुज नाहीं । रागद्वेष की परिणते, भमिये चिहुंगति मांही ॥११५॥ रागद्वेष परिणाम से, करम बध बहु होय । परभव दुःखदायक घणा, नरकादिक गति जोय॥११६॥
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मोहे मूछित प्राणीकु रामद्वेष प्रति होय । अहंकार ममकार पण, तिणथी शुध बुध जाय ॥११७॥ महिमा मोह अज्ञानथी, विकल हुआ सवि जीव । पुद्गलिक वस्तु विषे, ममता धरे सदैव ॥ ११८ ।। परमें निजपणु मानके, निविड ममत चितधार । विकल दशा वरते सदा, विकल्प नो नहीं पार ॥ ११६ ॥ मैं मेरा ए भाव थी, फिर्यो अनंत काल । जिन वाणी चित्त परिण में, छूटे मोह जंजाल ॥१२०॥ मोह विकल एह जीवको, पुद्गल मोह अपार । पर इतनी समझे नहीं, इसमें कुछ नहीं सार ॥ १२१ ॥ इच्छा थी नवि संपजे, कल्पे विपत ना जाय । पर अज्ञानी जीव को, विकल्प अतिशय थाय ॥ १२२ ॥
प्रेम विकल्प करे घणा, ममता श्रथ अजाण । में तो जिन वचने करी, प्रथम थकी हुम्रो जाण : १२३॥ मैं शुद्धातम द्रव्य हू, ग्रे सब पुद्गल भाव । सडन पडन विध्वंसणो, इसका एह स्वभाव ॥ १२४ ॥ पुद्गल रचना कारमी, विणसंता नहीं वार । प्रेम जाणी ममता सजी, समता गुं मुज प्यार ॥ १२५ ॥ जननी मोह अंधार की, माया रजनी क्रूर । भव दुःखकी ए खाण हैं, इणसु रहिये दूर || १२६ ।।
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प्रेम जाणी निज रूपमें, रहूं सदा सुख वास । और सब ए भवजाल है, इससे हुम्रा उदास ॥१२७॥ किसी का प्रश्न
एह शरीर निमित्त है, मनुष्य गतिके मांह | शुद्ध उपयोग की साधना, इससे बने उछाह ॥ १२६ ॥ येह उपगार चित्त आण के, इनका रक्षण काज । उद्यम करना उचित है, अह शरीर के साज ॥१३०॥
उत्तर
तुमने जो बात कही, मैं भी जानु सव ।
•
ग्रह मनुष्य परजाय से गुण बहु होत निगवं ।। १३२ । । शुद्ध उपयोग साधन बने, और ज्ञान अभ्यास । ज्ञान वैराग्य की वृद्धिको, श्रेह निमित्त है खास ॥१३३ | इत्यादिक अनेक गुण, प्राप्ति इणथी होय ।
अन्य परजाये एहवा, गुण बहु दुर्लभ जोय ॥१३४।। पण श्रेह विचार में, कहेणे को ए मर्म एह शरीर रहो सुखे, जो रहे संजम धर्म ॥१३५॥ अपना संजमादिक गुण, रखणा एहिज सार । ते संयुक्त काया रहे, तिनमें को न प्रसार ।। १३६ ।। मोकु एह शरीरसु, वेर भाव तो नाहीं । एम करतां जो नवि रहे, गुण रखणा तो उछाहीं ॥। १३७ ॥
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विधन रहित गुण राखवा, तिण कारण सुण मित्त । स्नेह शरीर को छांडीए. एह विचार पवित्र ॥ १३८ ॥ एह शरीर के कारणे, जो होये गुण का नाश एह कदापि ना कीजिए, तुमकुं कहुं शुभ भाष ॥ १३६|| एक दृष्टांत कोई विदेशी वणिक सुत, फरतां भूतल मांहा । रत्न द्वीप आत्री चढ्यो, निरखी हरख्यो तांही ॥ १४१ ॥ तृण काष्टादिक मेलवी, कुटी करी मनोहर । तिणमें ते वासो करे, करे वणज व्यापार ।। १४३ || रतन कमावे प्रति घणां, कुटी में थापे एह । एम करतां केई दिन गया, एक दिन चिंता अछेह | १४ || कुटी पास अग्नि लगी, मनमें चिते एम । बूझवु प्रति उद्यम करो, कुटी रतन रहे जेम । १४५ ॥ किवि प्रति शनी नहीं, तत्र ते करे विचार । ग्राफिल रहना अब नहीं, तुरत हुआ हुशियार ।। १४६ ।।
रत्न संभालु आपणां एम चिती सवि रत्न । लेई निजपुर मावियो करतो बहुविध जन ॥ १४८ ॥
"
सुख विलसे सब जातका, किसी उणम नहीं तास । देवलोक परे मानतो, सदा प्रसन्न सुख वास ।। १५० ।।
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भेद विज्ञान पुरुष जो, एह शरीर के काज । दूषण कोई सेवे नहीं, अतिचार भी त्याज ॥१५१।। आत्म गुण रक्षण भणी. दृढता धरे अपार । देहादिक मूर्छा तजी, से वे गुद्ध व्यवहार ।। १५२।। संजम गण परभावथी, भावी भाव संजोग । महाविदेह खेत्रां विषे, जन्म होवे शुभ जोग ।।५३॥ जिहां सीमंधर स्वामीजी, प्रादे वीस जिणद । त्रिभुवन नायक सोहता, निरखु तस मुख चंद ।। १५४।। एहवा उत्तम क्षेत्रमा, जो होय माहरो वास । प्रभु चरणकमल विषे, निश दिन करू निवास ||१५६॥ निबिड कर्म महारोग जे, तिनकु फेडणहार । परम रसायन जिन गिरा, पान करूं अति प्यार १६० क्षायक समकित शुद्धता, करवानो प्रारंभ । प्रभु चरण सुपसायथी, सफल होवे सारंभ ।।१६१ ॥ एम अनेक प्रकार के, प्रशस्त भाव सुविचार । करके चित्त प्रसन्नता, आनद लहुं अपार । १६।।
ओर अनेक प्रकार के, प्रश्न करूं प्रभुपाय । उत्तर निसुणी तेहना, संशय सवि दूर जाय ॥१६३।। निसंदेह चित्त होय के, तत्त्वातत्त्व स्वरूप । भेद यथार्थ पाय के, प्रगट करूं निज रूप ।।१६४||
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राग द्वेष दोय दोष ए, अष्ट करम जड एह । हेतु एह संसार का, तिनको करबो छेह ॥१६॥ शीघ्र पणे जड मूलथी, रागद्वेष को नाश । करके श्री जिन चंद्रकु, निर खु शुद्ध विलास ॥१६६॥ एहवा प्रभुकु देखके, रोम रोम उलसत । वचन सुधारस श्रवण ते, हृदय विवेक वधंत ॥१६८।। पवित्र थई जिन देव के, पासे लेशू दीख । दुधर तप अंगी करूं, ग्रहण प्रासेवन शीख ॥१७॥ चरण धरम प्रभावथी, होशे शुद्ध उपयोग । शुद्धातम को रमणता, अद्भुत अनुभव जोग ।।१७१ । अनुभव अमृत पान में, प्रातम भये लयलीन । क्षपक श्रेण के सनमुखे, चढ़ण प्रयाण ते कोन ॥१७२।। आरोहण करी श्रेणी को, धाती करम को नाश । धन धाती छेदो करी, केवल ज्ञान प्रकाश ॥१७३।।
प्रेहि परमपद जाणीये, सो परमातम रूप । शाश्वत पद थिर एह छे. फिरी नहीं भवजल कूप।।१७५ अविचल लक्ष्मी को धणी, अह शरीर असार । तिनको ममता किम करे, ज्ञानवंत निरधार ।।१७६॥
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सम्यग दृष्टि प्रातमा, श्रेण विध करी विचार । थिरता निज स्वभाव में, पर परिणति परिहार ॥१७॥ जो कदी एह शरीर को, रहेणो काइक थाय । तो निज शुद्ध उपयोग को, पाराधन करू सार ।१७६ । जो कदी थिति पूरण थई, होय शरीर को नाश । तोपरलोक विषे करू', शुद्ध उपयोग अभ्यास ॥१८॥ मेरे परिणाम के विषे, शुद्ध सरूप की चाह | अति आसक्त पणे रहे, निश दिन एहिज राह ।।१८२॥ इंद्र धरणे द्र नरेद्र का, मुझको भय कुछ नाहीं । या विध शुद्ध सरूप में, मगन रहूं चित्त मांही ।१८४ समरथ एक महाबली, मोह सुभट जग जाण । सवि संसारी जीव को, पटके चहुं गति खाण ।। १८५|| दुष्ट मोह चंडाल की, परिणति विषम विरूप । संजमधर मुनि श्रेणीगत, पटके भवजल कूप ॥१८६।। मोह कर्म महा दुष्टको, प्रथम थकी पहचान | जिन वाणी महा मोगरे, अतिशय कोध हेरान ।।१८७।। जरजरी भूत हुई गया, नाठा मुझ सुदूर । अब नजीक आवे नहीं, दुरपे मुजसु भूर ।।१८८ll तेणे करी मैं नचित हैं, अब मुज भय नहीं कोई। त्रण लोक प्राणी विषे, मित्र भाव मुझ होय ॥१८६।।
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परिवार को अवसर लही अब मैं हमा, निर्भय सर्व प्रकार । प्रातम साधन अब करू, निसंदेह निरधार ।। १६१।। शुद्ध उपयोगी पुरुष को, भासे मरण नजीक । तव जंजाल सब परिहरी, पाप होवे निर्मीक ॥१६।। इस विध भाव विचार के, प्रान दमय रहे सोय । आकुलता किस विध नहीं, निराकुल थिर होय ॥१६३।। अाकुलता भव बीज है, इणथी वधे ससार । जाणो अाकुलता तजे, उत्तम प्राचार | १९४|| संजम धर्म अंगी करे, किरिया कष्ट अपार । तप जप बहु वरसां लगे, करी फल मच अपाग॥१६५।। प्राकुलता परिणाम थी, क्षणमें होय सहु नाश । समकित वंत प्रेम जाणीने, प्राकुलता तजे खास॥१९६॥
प्राकूलता कोई कारणे, करवी नहीं लगार । श्रे ससार दु ख कारणो, इनकुदूर निवार ।।१८।। निश्चे शुद्ध स्वरूप की, बितन वारंवार | निज सरूप विचारणा, करवी चित्त मझार ॥१६६ ॥ निज सरूप को देखवो, अवलोकन पण तास । शुद्ध सरुप विचारवो, अतर अनुभव भास ॥२००।।
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अति थिरता उपयोग को, शुद्ध सरूप के मांही 1 करतां भवदुख सविटले, निर्मलता लहे तांही ॥ २०१ ॥ जेम निर्मल निज चेतना, अमल अखंड अनूप । गुण अनंत नो पिंड एह. सहजानंद स्वरूप ॥ २०२ ॥
ह उपयोगे वरततां थिर भावे लयलीन । निविकल्प रस अनुभवे, निज गूण में होय पीन ॥ २०३ || जब लगे शद्ध सरूप में वरते थिर उपयोग । तब लगे ग्राम ज्ञानमां, रमण करण को जोग ।। २०४ ॥ । जब निज जोग चालत होवे, तब करे ग्रह विचार |
"
स ंसार अनित्य छे, इसमें नहीं कुछ सार । २०५ । दुख ग्रनत की ख़ान एह, जनम मरण भय जोर । विषम व्याधि पूरित सदा, भव सायर चिहुं ओर ॥ २०६ ॥ एह सरूप संसार को, जाणी त्रिभुवन नाथ ।
,
राज ऋद्धि सब छोड़ के चलवे शिवपुर साथ || २०७|| निश्चय दृष्टि निहालतां चिदानंद चिद् रूप । चेतन द्रव्य साघमंता, पूरणानंद सरूप ॥ २०८ ॥
,
ग्रथवा पंच परमेष्ठी ग्रे, परम शरण मुझे एह । वली जिन वाणी शरण है, परम अमृत रस मेह || २१० ॥ ज्ञानादिक श्रातम गुणा, रत्न त्रयी अभिराम । अह शरण मुझ प्रति भलु, जेह थी लहं शिवधाम । २११ ।
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एम शरण दृढ धार के, थिर करवो परिणाम । जब थिरता होये चित्तमां, तब निज रूप विसराम ॥ २१२ ॥ प्रतम रूप निहालतां करतां चितन तास । परमानंद पद पामी, सकल कर्म होय नाश ॥ २१३ ॥ परम ज्ञान जग एह छे, परम ध्यान पण एह । परम ब्रह्म परगट करे, परम ज्योति गुण गेह ॥ २१४ ॥ तिण कारण निज रूप में, फिरि फिरि करो उपयोग चिहंगति भ्रमण मिटाववा, एह सम नहीं कोई जोग। २१५३ निज सरूप उपयोग थी. फिरि चल्त जो थाय । तो अरिहंत परमात्मा सिद्ध प्रभु सुखदाय ॥२१६॥ तिनका प्रातम सरूप का अवलोकन करो सार । द्रव्य गुण पर्जव तेहना, चितवो चित्त मकार ॥ २१७ ॥ निर्मल गुण चिंतन करत, निर्मल होय उपयोग | तब फिरी निज सरूप का ध्यान करे थिर जोग || १८ ||
)
जे सरूप अरिहंत को, सिद्ध सरूप वली जेह । तेंहवो प्रातम रूप छे, तिणमें नहीं संदेह ॥२१६॥ चेतन द्रव्य साधमंता, तेणे करी एक सरूप । भेदभाव इनमें नहीं, एहवो चेतन भूप ॥ २२० ॥
धन्य जगत में तेह नर, जे रमे प्रतम सरूप । निज सरूप जेणे नवि लह्य, ते पडिया भव कूप ॥ २२१ ॥
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चेतन द्रब्य सभावथी, पातम सिद्ध समान । परजाये करी फेरजे, ते सवि कर्म विधान ॥२२२। तेणे कारण अरिहंत का, द्रव्य गुण परजाय । ध्यान करंतां तेहनु, प्रातम निर्मल थाय ॥२२३।। परम गुणी परमातमा, तेहना ध्यान पसाय । भेदभाव दूरे टले, प्रेम कहे त्रिभुवन राय ॥२२४॥ जेह ध्यान अरिहंत को, सोहि प्रातम ध्यान । फेर कछु इण में नहीं, अहिज परम निधान ॥२२॥ प्रेम विचार हिरदे धरो, सम्यग् दृष्टि जेह । सावधान निज़ रूप में, मगन रहे नित्य तेह ॥२२६॥ प्रातम हित साधक पुरुष, सम्यगवत सुजाण । कहा विचार मन में करे, वरणवू सुणो गुण खाण ।२२७/
अह शरीर आश्रित छे, तुम मुज मात ने तात । तेणे कारण तुमकुकहुं, अब निसुणो एक वात ॥२२६॥ अतो दिन शरीर एह, होत तुम्हारा जेह । अब तुम्हारा नाहीं हैं, भली परे जाणो तेह ।।२३०॥ अब अह शरीर का, आयुर्बल थिति जेह । पूरण भई अब नवि रहे, किण विध राखी तेह ।२३१॥ थिति परमाणे ते रहे, अधिक न रहे केणी भात । तो तस ममता छोडवी, ए समजण की बात ॥२३२।।
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जो अब ग्रह शरीर की, ममता करोए भाई । थिति राखीए तेहसु, दुःखदायक बहु थाय ।।२३३१ सुर असुरों को देह ए, इद्रादिक को जेह । सब हि विनाशिक एह छे, तो क्यु कर वो नेह? ।।२३४18 इंद्रादिक सुर महाबली, अतिशय शक्ति धरत । थिति पूरण थये तेह पण, खिण एक को उ न रहंत॥२३५॥ ए हवा पराक्रम का धणो, जब थिति पूरण होय । काल पिशाच जब संग्रहे. राखी न शके कोय ॥९३९।।
तेणे कारण मावित्र तुम, तजो मोहक दूर । समता भाव अगी करी, धर्म करो थई शूर ॥२४॥ झूठा एह ससार छे, तिणकु जाणो साच। भूल अनादि अज्ञानकी, मोह करावे नाच ॥२४३।। स्वप्न सरीखा भोग छ, शुद्धि चपला झवकार । डाभ अणी जल बिंदु सम, प्रायु अथिर संसार ॥२४५।। राग दशा से जीवको, निबिड कर्म होय बंध । वली दुर्गतिमा जइ पडे, जिहां दुःखना बहु धंध॥२४०॥ मुज़ ऊपर बहु मोहथी, तुमकु अति दु:ख थाय । पण प्रायु पूरण थये, किसीशु ते न रखाय ॥२४८॥
४५॥
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अल्पकाल अायु तुमे, देखो दृष्टि निहाल । संबंध नहीं तुम मुज बिचे, मैं फिरता संसार ॥२४६।। भावी भाव सबंध थी, मैं भया तुमका पुत्र । पंथी मेलाप तणी परे, मे स'सारह सूत्र २५.।। श्रेह सरूप संसार का, प्रत्यक्ष तुम देखाय। ते कारण ममता तजी, धर्म करो चित्त लाय ॥२५२॥ काल आहेडी जगत में भमतो दिवस ते रात ! तुमकूपण ग्रहो कदा, श्रे साचो अवदात ॥२५४॥ प्रेम जाणी संसार की, ममता कीजे दूर । समता भाव अंगोकरो, जेम लहो सुख भरपूर ॥२५॥ धरम धरम जग सहु करे, पण तस न लहे मर्म। शुद्ध धर्म समज्या विना, नवि मिटे तस भम ॥२५॥ कटिक मणि निरमल जिसो, चेतन को जे स्वभाव । धर्म वस्तुगत तेह छे, अवर सवे परभाव ॥२७॥ रागद्वेष को परिणति, विषय कषाय संजोग । मलिन भया करमे करी, जनम मरण पाभोय ॥२५८॥ मोह करम की गेहलता, मिथ्या दृष्टि अंध । ममता शुमाचे सदा, न लहे निजगुण संग ॥२५६।। परम पच परमेष्ठि को, समरण अति सुखदाय । अति आदरथी कीजिये, जेहथी भवदुखि जाय ॥२६॥
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अरिहत सिद्ध परमातमा, शुद्ध सरूपी जेह ।। तेहना ध्यान प्रभाव थी, प्रगटे निज गुण रेह ॥२६२।। श्रीजिन धर्म पसायथी, हुई मुझ निर्मल बुद्ध। प्रातम भली परे प्रोलखी, अब करूं तेहने शुद्ध ।। २६३। तुमे पण अह अंगोकरो, श्री जिनवर को धर्म । निज मातमकुभली परे, जाणी लहो सवि.मर्म ॥२६४।।
ओर सवे भ्रमजाल है, दुखदायक संवि साज | तिनको ममता त्याग के, प्रव साधो निज काज ॥२६॥ भव भव मेली मूकिया, धन कुटुंब संजोग । वार ममता अनुभव्या, सवि संजोग विजोग ।।२६६।। अज्ञानी अपातमा, जिस जिस गतिमें जाय । ममता वश तिहां तेहवो, हुई रही बहु दुख पाय ।।२६७॥ महातम अह सवि मोह को, किणविध क ह्यो न जाय। अनंत काल श्रेणी परे भमे,जन्म मरण दुख दाय॥२६८॥ प्रेम पुद्गल परजाय जेह, सर्व विनाशी जाण । चेतन अविनाशी सदा, श्रे ना लखे.प्रजाण ॥२६६।। मिथ्या मोहने वश थई, जूठे को भी साच । कहे तिहां अचरज किशो, भव मंडप को नाच ॥२७०॥ जिनको मोह गलो गयो, भेद ज्ञान लही सार । पुद्गल की परिणति विषे, नवि राचे निरधार ॥२७॥
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भिन्न लखे पातम थकी, पुद्गल को परजाय । किमहि चलाव्यो नवि चले, कशी परे ते न ठगाय ॥२७२|| भया यथारथ ज्ञान जब, जाणे निज पर भाव । थिरता थई निज रूपमें,नवि रुचे तस पर भाव । २७३।। मुझकु तुम साथे हतो, एता दिन सबंध । अब ते सवि. पूरण हुनो, भावी भाव प्रबंध ।।२७५।। विकल्प कोई तुमे मत करो, धर्म करो थई धीर । मैं पण प्रातम साधना, करूं निज़ मन कर थिरो ॥२७६॥ सहज स्वरूप जे आपणो, ते छे प्रापणी पास । नहीं किसी सुजाचना, नहीं पर की किसी प्राश ॥२७८।। अपना घरमांही प्रछे, महा अमूल्य निधान । ते संभालो शुभ परे, चिंतन करो सुविधान । २७६।। जनम मरण का दुख टले, जब निरखे निज रूप । अनुक्रमे अविचल पद लहे, प्रगटे सिद्ध स्वरूप ॥२८॥ सकल पदारथ जगत के, जाणण देखण हार । प्रत्यक्ष भिन्न शरीरसु, ज्ञायक चेतन सार ॥२८॥ दृष्टांत एक सूणो इहां, बारमा स्वर्ग को देव । कौतुक मिष मध्य लोकमें, प्रावी वसियो हेव ॥२८॥ कोइक रंक पुरुष तणी, शरीर परजायमें सोय । पेसी खेल करे किशा, ते देखे सहु कोय ॥२४॥
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करे मजूरी कोइ दिन, कबहिक माने भीख । कबहिक पर सेवा विधे, दक्ष थई घरे शोख ॥२.८६।। एणि विध खेल करे घणा, पुत्र पुत्री परिवार | स्त्री प्रादि साथे रहे. नगर माही तेणी वार ||२८६॥ वरी कटक प्राव्यु घणु, नासण लाग्या लोक । तब ते सुर एम चितवे, इहां होशे बहु शोक ॥२६॥ प्रेम विचार करी सवे. चाले पाधी रात एक पुत्रकु कांध पर, बोजाकु ग्रहे हाथ ॥२६॥ नगर प्रमारू घेरियु, क्यरी लश्कर प्राय । तिण कारण अमे नासिया,लही कुटुष समवाय ॥२६५॥ एम अनेक प्रकार का, खेल करे जग माही । पण चितमें जाणे इस्यु', मैं सदा सुख माही ।।२६७। मैं तो बारमा कल्पको, देव महा ऋद्धिवंत । अनोपम सुख बिला सदा, अद्भुत ए विरतत ॥२६॥ ए चेष्टा जे में कारी, से सवि कौतुक झाल। रक परजाय धारण करी, तिणको ए सविसाज ॥२६॥ जैम सुर एह चरित्रने, मयि धरे ममता भाव । दीन भाव पण नवि करे, चितवे निज सुर भाव ॥३०॥ एणि विध पर परजाय में, मैं जे चेष्टा करत । पण निज शुद्ध सरूपकु, कबहुं नहीं विसरत ।।३.१॥
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शुद्ध हमारो रूप है, शोभित सिद्ध समान । केवल लक्ष्मी को धणी, गुण अनंत निधान ॥३.।
पत्नी को समझामा थिति पूरण भई एह की, अब रहणेका नाही । सो क्यु मोह धरो घणो, दुख करना दिल माही ।।३८५॥ मेरा तेरा सबध जे, एता दिनका होय । अधघट को न करी शके, एणिविध जाणो सोय ॥३०॥ तिण कारण लुम कहुं, न धरो इनकी पाश । गरज सरे नहीं ताहरी, इनका होय अब नाश ॥३०८|| एम गाणी ममता तजी, धरम करोघरी नीता जेम प्रातम गुण संपजे, अं उत्तम की रीत ॥३०॥ काल जगत में सह सिर, गाफल रहणा नाहीं । कवहिक तुमकुपण ग्रहै, संशय इनमें नाहीं ॥३१॥ स्त्री भरतार संयोग जे, भव माटक एह आण । चेतन तुज मुज सारीखो, कम विचित्र वखाण ॥१२॥ जो सुज ऊपर राय छे, तो करो धरममें सहाय । इण अवसर तुज उचित है,समो अवरना काज।३१४ फोकट खेद ना कीजिये, कर्म बंध बह थाय । जाणी एम ममता सजी, धर्म करो सुखदाय ।।३१६।।
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सुनो कुटु'ब परिवार सहु, कहुं तुमको हित लाय | प्राउ थिति पूरण भई, एह शरीर की भाय ॥३.१८॥ तेणे कारण मुज उपरे, राग न धरणा कोय |.. राग कर्या दुख उपजे, गरम न सरणी जोय ॥३१६॥ एह थिति संसार की, पंखो का मेलाप । खिण खिण में उडी चले, कहा करणा संताप ॥३२०॥ कोण रह्या इहां थिर थई, रेहण हार नहीं कोय । प्रत्यक्ष दीसे इणी परे, तुमे पण जाणो सोय ॥३२॥ मेरे तुम सह साथशु, क्षमाभाव छे सार । आनंद में तुम सहु रहो, धर्म ऊपर घरो प्यार ॥३२२॥ भव सागरमां डूबा, ना कोई राखणहार । धर्म एक प्रवहण समो, केवलि भाषित सार ॥३२३॥ ए सेवो तुम चित्त धरी, जेम पामो सुख सार । दुरगति सबि दूरे टलें, अनुक्रमे भव निस्तार ||३२४।। सुणो पुत्र शाणा तुमे, कहने का श्रे सार । मोह न करवो माहरो, अह अथिर संसार ॥३२६।। श्रीजिन धरम अंगी करो, सेवो धरी बहु राग । तुमशु सुखदायक घणो, लेशो महा सोभाग ||३२७।। व्यावहारिक संबंध थी, प्रापणा मा नो सार । तेणे कारण तुमने कह; धारो चित्त मझार ||३२८॥
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प्रथम देव गुरु धर्म को, करों अति गाढ प्रतात । मित्राइ करो. सुजनकी, धर्मी शुधरो प्रीत ।।३२६।। दान शिथल तप भावना, धर्म ए चार प्रकार । राग धरो मित्य एहशु, करो शक्ति अनुसार ॥३३० सज्जन तथा परजन विषे, भेद विज्ञान जेम होय । अह उपाय करो मदा, शिव सुखदायक सोय ॥३३१॥ जे संसारी प्राणिया, मगन रहे संसार । प्रीत न कीजिये तेह की, ममता दूर निवारं ॥३३२॥ धर्मात्मा पुरुष तणी, सगते बहु गुण थाय । जश कीर्ति वाधे घणी, परिणति सुधरे भाय ॥३३४॥ वली उत्तम पुरुष तणी, संगते लहीए धर्म । धर्म प्राराधी अनुक्रमे, पामीने शिवपुर शमं ॥३३८॥ दया भाव चित्त लाय के में कह्या धर्म विचार । जो तुम हृदयमें धारशो, लेंशो सुख अपार ॥३४१॥ एम सबकु समझाय के, सबसे अलगा होय। अवसर देखी पापणा, चित्तमें चिते सोय ॥३४२।। आयु अल्प निज जाण के, समकित दृष्टिवंत । दान पुण्य करणा जिके, निज हाथे करे संत ॥३४॥ बाह्य अभ्यंतर ग्रंथि जे, तेहथी न्यारा जेह । बहु श्रुत आगम अर्थना, मर्म लहे सहु तेह ॥३४५।।
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एहबा उत्तम गुरु तणो, पुन्यथी जोग जो होय। अंतर खुली एकांतमें, निशल्यभाव होय सोय ॥३४६॥ एहवा उत्तम पुरुष को, जोग कदी नवि होय । तो समकित दृष्टि पुरुष, महा गंभीर ते जोय ॥३४७॥ एहवा उत्तम पुरुष के, आगे अपनी बात । हृदय खोल के कीजिये, भरम सका अवदात्त ॥३४८॥ योग्य जीव उत्तम जिके, भवभीरू महाभाग । अहवो जोग न होय कदा, कहेणे को नहीं लाग॥३४॥ अपना मन में चितवे, दुष्ट करमवश जेह । पाप करम जे थाई गयू,बहविध निदे तेह ।।३५॥ श्री अरिहंत परमातमा, बलौ श्री सिद्ध भगवंत । ज्ञानवंत मुनिराजनी, वली सुर सकिलवंत ॥३५१। इत्यादिक महा पुरुष की, साख करी सुविशाल । वली निज प्रातम साखसु, दुरित सधे असराल |३५२१ मिथ्या दुष्कृत भली परे, दीजे त्रिकरण शुद्ध । एणी विध पवित्र थई पछे, कोजे निर्मल घुद्ध ॥३५३ अवश्य मरण निज मन विषे, भासन हुए जाम । सर्व परिग्रह त्याग के, पाहार चार तजे ताम ॥३५४|| जो कदि निर्णय नदि हवे, मरण तणो मनमाही । तो मर्यादा कीजिये, अल्पकाल की ताही ॥३५॥
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सर्व प्रारंभ परिग्रह सह, तिनको कीजे त्याग । चारे प्राहार वली पचखिये, इणविध करी महाभाग हवे ते समकित दृष्टि वंत, थिर करीमन वच काय । खाटथी नीचे उतरो, सावधान अति थाय ॥३५७।। सिंह परे निभंय थई, करे निज प्रातम काज | मोक्ष लक्ष्मी व रवा भणी, लेवा शिवपुर राज ||३५८॥ इणविध समकितवंत जे, करी थिरता परिणाम । प्राकुलता अंशे नहीं, धीरज तणुते धाम । ३६.॥ शुद्ध उपयोगमा वरततो, प्रातम गुण अनुराग । परमातम के ध्यान में, लीन और सब त्याग ॥३६१॥ ध्याता ध्येयनी एकता, ध्यान करता होय । आतम होय परमातमा, एम जाणे ते सोय ॥३६२॥ सम्यग् दृष्टि शुभ मति, शिव सुख चाहे तेह । रागादि परिणाम में, क्षण नवि वरते तेह ॥३६३॥ किणहि पदारथ की नहीं, वांछा तस चित्त माह । मोक्ष लक्ष्मी वरवा भणी, धरतो अति उछांह ॥३६४॥ अणविध भाव विचारतां, काल पूरण करे सोय । प्राकुलता किणविध नहीं, निराकुल थिर होय ॥३६५॥ ग्रातम सुख आनंदमय, शांत सुधारस कुड । तामें ते झोली रहे, प्रातम विरज उदंड ॥३६६॥ प्रातम सुख स्वाधीन छे, मोर न एह समान ।
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एम जाणी निज रूप में, वरते धरो बहुमान ॥३६७i: एम पानंदमां दरततां, शांत परिणाम संयुक्त । आयु निज पूरण करी, मरण लहे मतिमंत ॥३६८॥ एह समाधि प्रभावथी, इन्द्रादिक को ऋद्धि । उत्तम पदवी ते लहे, सर्व कारज को सिद्ध ।।३६६ ॥ सुर लोके शाश्वत प्रभु, नित्य भक्ति करे तास । कल्याणक जिनराजनां, अोछव करत उल्लास ॥३७१॥ मनुष्य गति उत्तम कुले, जनम लहे भवि तेह । सजम धर्म अंगोकरी, गुरु सेबे धरी नह ।।३७४॥ शुद्ध चरण परिणामथी, अति विशुद्धता थाय । क्षपक श्रेणी आरोही ने, धाती करम खपाय ॥३७५॥ केवल ज्ञान प्रगट भयो, केवल दर्शन भास । एक समय त्रण कालकी, सर्व वस्तु परकास ॥३७६।। सादि अनंत थिति करी, अविचल सूख निरधार । वचन अगोचर अह छे, किणविध लहीए पार? ::३७७।। महिमा मरण समाधिनो, जाणो अति गुणगेह । तिण कारण भवि प्राणिया, उद्यम करोगे तेह ॥३७८।। अल्प मति अनुसारथी, बिन उपयोगे जेह । विरुद्ध भाव लखियो जिके, मिथ्या दुष्कृत तेह ॥३८२॥ भावनगर वासी भला, सेवक श्री भगवंत । भगवान सुत भगवानकु, बहे चरदास प्रणमत ॥३८३॥
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: नव पदों के दोहे :
[यहाँ दिये ये दोहे श्री सिद्धचक्र की आराधना के लिए प्रतिदिन बोले जाते हैं । यहाँ विचारने के लिए उनका अर्थ दिया जाता है । श्रीपालजी के रास में कवि ने ये गाये है । इनमें कथित प्रकार से ध्यान करने से आत्म ऋद्धि की प्राप्ति सरल है |]
अरिहंत पद ध्यातो थको, दव्वह गुण पज्जायरे । भेद छेद करी आतमा, अरिहंतरूपी थायरे । १॥
वीर जिनेश्वर उपदिशे, सांभलजो चित्त लाईरे । प्रतम ध्याने आतमा, ऋद्धि मले सवि आईरे ॥
द्रव्य गुण और पर्याय सहित अरिहंत पदका ध्यान करने से ग्रात्मा भेद को तोड़कर स्वयं अरिहंत रूपी बन जाता है ||
प्रभु महावीर के इस उपदेश को मन में सोचो, सुनो कि आत्मा के ध्यान से सर्वे ऋद्धि (विशेषत: ग्रात्म ऋद्धि ) प्राप्त होती है ।
[१०३]
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रूपातीत स्वभाव जे, केवल सण नाणोरे । ते ध्याता निज प्रातमा,होय सिद्धगुण खाणोरे।वोर
केवल दर्शन व केवल ज्ञान सहित, रूपसे रहित (अरूपी) सिद्ध भगवानका ध्यान करने से अपनी प्रात्मा भी सिद्ध के गुणों को खान हो जाती है ।
अप्रमत्त जे नित्य रहे, नवि हरखे नवि शोचेरे । साधु सूधाते प्रातमा, शु मुंडे शुलोचेरे ।।वीर०॥
इष और शोक रहित (दोनों मिट जाने से वीतराग सा) हमेशा अप्रमत रहने वाला आत्मा स्वयं शुद्ध माधु है । फ़िर वह क्या मुडन करे व क्या लोच करे?
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मुख्य प्रांतरिक भाव
[यहां दी गई गाथाएं संथारा पोरिसी सूत्र में से ली हैं । श्रावक के लिए पौषधमें तथा साधु के लिए सदैव यह बोली जाती हैं । यही हमारी अंतिम इच्छा, आराधना हो, यही समाधि मरण है।
इसमें दिये गये विचार रोज सोचे और मनमें उतारें तो अंतिम समय यह भावना साकार हो सकेगी-समाधि मरण प्राप्त होगा । इसमें बताई भावना हमेशा दिल में बनी रहे ।]
एगोहं न त्थि मे कोई, नाहमन्नस कस्सई । एवं प्रदीण मणसो, अप्पाणमणुसासई ॥१॥ एगो मे सासयो अप्पा, नाणदंसण संजुम्रो । सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोग लक्खणा।।२।।
'मैं अकेला हं, मेरा कोई नहीं है, मैं भी किसीका नहीं हूं।' दोनता रहित मनसे ऐसा सोचता हुआ अपनी आत्मा को समझावे ।
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ज्ञान दर्शन सहित मेरी प्रात्मा अकेली है और शाश्वत है । अन्य सब सिर्फ संयोग से उत्पन्न बाह्य भाव हैं (अतः त्याज्य है)।
संजोग मूला जीवेण, पत्ता दुक्ख परंपरा । तम्हा संजोग सबंध, सव्वं तिविहेण वोसिरिया।३।।
इन स योगों के कारण से हो यह जीव दु:खकी परंपरा को प्राप्त हुआ है । इसलिए इन सर्व सयोगों की तथा सयोग जनित संबधों को मन वचन काया से वोसिराता हूं, छोडता हूं-भूल जाता हूँ ॥३॥
सव्वे जीवा कम्मवस, चउदह राज भमत । ते मे सब खमाविमा, मुज्झवि तेह खमंत ।।४।।
सर्व जीव कर्मवश होने से चौदह राजलोक में भटक रहे हैं। उन सब से मैं क्षमा चाहता हूँ, वे भी मुझे क्षमा करें ॥४॥
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मेव्यादि चार भावना
परहितचिता मैत्री, परदुःख विनाशिनी तथा करुणा। पर सुखतुष्टि दिता, परदोषोपेक्षणमुपेक्षा । षोडशके
अन्य जीवों के हित-कल्याणकी भावना हृदयसे रखना मैत्री भाव है। अन्य जीवों के दुःख का अन्त हो, ऐसा दिल का भाव ही करुणा है । अन्य जीवों की सुख समृद्धि अथवा गुण गौरव देख कर दिलका खुश होना मुदिता (प्रमोद) तथा अन्य जीवों के अत्यंत कठोर व कर भाव व दोष देखकर उनकी रागद्वेष रहित उदासीन भाव रखना उपेक्षा है ।
मैत्री भावनु पवित्र झरण मुझ यामां वह्या करे शुभ थानो या सकल विश्वनुएवी भावना नित्य रहे । गुणथी भरेला गुणीजन देखी हैयु मारु नत्य करे । श्रे संतोना चरणकमलमां मुझ जीवननु अध्य रहे । दीन क्षीण ने धर्म विहोणा देखो दिल मां दर्द रहे। करुणा भीनी आंखोंमाथी अश्रुनो शुभ श्रोत वहे । मार्ग भूलेला जीवन पथिकने मार्ग चींधवा उभो रहूँ। करे उपेक्षा ए मारगनी तोए समता चित्त धरु |
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शिवमस्तु
शिव मस्तु सर्व जगतः परहित निरता भवन्तु भूत गणाः । दोषा: प्रयान्तु नाशं सर्वत्र सुखी भवतु लोकः ।
सारे जगत का कल्याण हो, सभी जोव अन्य जीवों के हितकर कायमें रत रहे । दोषों (सभी जीवों के सभी दोष) का नाश हो और सर्वत्र सर्व जीव सुखी हों।
सर्व जीवों के कल्याण की इच्छा एक भारी गुण हैं । अत: इस इच्छा के साथ त्रिसध्य १२-१२ नवकार गिनें ।
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरिहंता मे सरणं सिद्धा मे सरणं साहू मे सरणं केवलिपन्नत्तो धम्मो मे सरणं. गरिहामि सव्वाई दुक्कडाइ अणुमोएमि सव्वेसि सुकडाई For Private And Personal Use Only