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।। कोबातीर्थमंडन श्री महावीरस्वामिने नमः ।।
।। अनंतलब्धिनिधान श्री गौतमस्वामिने नमः ।।
।। गणधर भगवंत श्री सुधर्मास्वामिने नमः ।।
।। योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।।
। चारित्रचूडामणि आचार्य श्रीमद् कैलाससागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।।
आचार्य श्री कैलाससागरसूरिज्ञानमंदिर
पुनितप्रेरणा व आशीर्वाद राष्ट्रसंत श्रुतोद्धारक आचार्यदेव श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा.
जैन मुद्रित ग्रंथ स्केनिंग प्रकल्प
ग्रंथांक :१
जैन
आराधन
श्री महावी
केन्द्र को
कोबा.
॥
अमतं
तु विद्या
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र
शहर शाखा
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-३८२००७ (गुजरात) (079) 23276252, 23276204 फेक्स : 23276249 Websiet : www.kobatirth.org Email : Kendra@kobatirth.org
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर त्रण बंगला, टोलकनगर परिवार डाइनिंग हॉल की गली में पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७ (079)26582355
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मेरी
मेवाड़यात्रा
मुनिराज श्री विद्याविजयजी
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श्री विजयधर्मसूरि जैन ग्रंथमाला पु. ३३.
मेरी मेवाडयात्रा
लेखकः
मुनिराज श्री विद्याविजयजी
पीर स. २४६२.
धर्म सं. १४
वि. सं. १९९२
मूल्यः ०-३-०
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उदयपुर के वर्तमान महाराणा
महाराजाधिराज महाराणाजी श्री १०८ श्री भूपालसिंहजी बहादुर.
जी. सी. एस. आई; के. सी. आई. ई.
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: प्रकाशक :
दीपचंद बांठिया
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मंत्री, श्री विजयधर्मसूरि जैन ग्रंथमाला छोटा सराफा, उज्जैन ।
प्रथम संस्करण १०००
: मुद्रक : धीरजलाल टाकरशी शाह ज्योति मुद्रणालय, पाडापोल सामे,
गांधी रोड,
अहमदाबाद.
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स्व. श्री विजयधर्मसूरि महाराज.
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२)
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विषय-सूची
विषय
१ भारतवर्ष में मेवाड का बेजोड स्थान
१२ मेवा प्रवेश
३ उदयपुर
१ राज्य की विशेषता
४ राज्य के साथ जैनों का सम्बन्ध
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४ सरकारी संस्थाएँ ५ आयुर्वेद सेवाश्रम ७ मेवाड़ के हिन्दूतीर्थ ८ मेवाड की जैन पंचतीर्थी
९ उदयपुर के मंदिर
:
...
५ उदयपुर के जैनों की वर्तमान स्थिति
६ उदयपुर की संस्थाएं
१ विद्याभवन
२ राजस्थान महिला विद्यालय ३ जैन संस्थाएँ
: : :
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::
:
पृष्ठाङ्क
३
2. 20
१०
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पृष्ठाङ्क
विषय १० मेवाड के उत्तर-पश्चिम प्रदेश में ...
१ भ्रमण और उससे लाभ ... २ चमारों का जैन धर्म स्वीकार ३ मन्दिर और उनकी स्थिति ४ आरणी की प्रतिष्ठा ... ५ मझेरा जैन गुरुकुल. ६ बारहपंथियों और तेरहपंथियों में अन्तर ७ अधिकारियों का सहयोग ...
८ अमर आत्मा लल्लुभाई ११ उदयपुर की महासभा से१२ उपसंहार
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दो बातें। पुस्तक स्वयं 'प्रस्तावना' स्वरूप होने से, इसके लिये स्वतंत्र 'प्रस्तावना' की आवश्यकता नहीं है। तथापि ऐसे 'भ्रमणवृत्तान्तों की आवश्यकता के विषय में 'दो बातें लिखनी जरूरी है।
'भ्रमणवृत्तान्त' यह भी इतिहास का प्रधान अंग है । यही कारण है, कि प्राचीन समय में 'भारतभ्रमण के लिये आनेवाले चोनी एवं अन्यान्यदेशीय मुसाफिरों की पुस्तकें आज भारतीय इतिवृत्त के लिये प्रमाणभुत मानी जाती हैं। किसी भी देश के तत्कालीन रश्म-रीवाजों, राजकीय एवं प्रजाकीय परिस्थिति, सामाजिक एवं धार्मिक रूढियाँ-इत्यादि कई बातों का पता ऐसे भ्रमणवृत्तान्तों से मिलता है।
ऐसे 'भ्रमणवृत्तान्त' न केवल गृहस्थ ही लिखते थे, जन-- साधुओं में भी लिखने का रिवाज अधिक था। बहुधा वे, ऐसे वृत्तान्त पद्य में-रासाओं के तोर पर लिखते थे। जैन पुस्तक-भंडारों में ऐसे वृत्तान्त सेंकडों की संख्या में पाये जाते हैं । जैन साधुओं के लिखे हुए वे वृत्तान्त भारतवर्ष के इतिहास में अधिक प्रामाणिक माने जाते हैं। इसके दो कारण :
१ जैनसाधु की परिचर्चा ही ऐसी है, जिससे किसी भी देश की सच्ची स्थिति का परिज्ञान उनको होता है। जैसे
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छोटे बड़े सभी ग्रामों में पैदल सभी के घरो में भिक्षार्थ जाना, चय में आना, तथा राजा और
हुए धर्मोपदेश देना वगैरह ।
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विहार करना, गरीब और श्रीमंत छोटे बड़े सभी लोगों के परिप्रजा - सभी का कल्याण चाहते
२ जैनसाधु सर्वथा त्यागी होते हैं। उन्हें किसी चीज का लोभ या आकांक्षा नहीं रहती । वे स्वार्थरहित होने के कारण सच्ची सच्ची बात लिख और कह सकते हैं । इन कारणों से जैनसाधु द्वारा लिखा हुआ 'वृत्तान्त' विशेष प्रामाणिक और आदरणीय माना जाता है ।
किसी भी देश का इतिहास
तद्देशवासी लोग इतना सत्य नहीं लिख सकते हैं जितना बाहर का दर्शक लिख सकता है। और उसमें खास कर के देशी रियासतों की प्रजा की स्थिति तो कुछ विचित्र ही होती है । इसी लिये भारतवर्ष की एक बड़ी रियासत के महाराजा अक्सर कहा करते थे, कि
<
बाहर के लोग मेरे राज्य में आवें। खूब सूक्ष्मता से प्रत्येक बातों का निरीक्षण करें, और फिर वे अपना सच्चा अभिप्राय प्रगट करें। मुझे इससे बडी खुशी होगी। मैं अपने दोषों को समझ सकूंगा । अपने राज्य में रही हुई त्रुटियों को दूर कर सकूंगा।' कितने उत्तम विचार !
वस्तुतः सच्चा इतिहास वही है जो किसी तटस्थ लेखक द्वारा लिखा गया हो, और ढाल की दोनों बाजूओं
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को देखकर के लिखा गया हो। चाहे वह इतिहास - वह वृत्तान्त किसी देश का, किसी समाज का, किसी राज्य का या धर्म का ही क्यों न हो । निदान एसे 'भ्रमणवृत्तान्तों' में तो दोनों तरफ का उल्लेख करना अत्यन्त आवश्यक है । 'भ्रमण' का मानी ही यह है कि जिसमें सुख-दुःख, आनंद - खेद, अनुकूलता प्रतिकूलता दोनों का सामना हो । किसी देश के भ्रमण में जो जो बातें तकलीफेां की हो, वे भी यदि न दिखाई जायँ, और कारा लाभ ही लाभ - आनंद ही आनंद, और सुख साधनों की श्रेष्ठता ही बतायी जाय, तो न वह 'भ्रमण वृत्तान्त' सच्चा कहा जा सकता है, और न प्रामाणिक माना जा सकता है। बल्कि वह तो एक प्रकार का धोखा है । साहित्य के पढ़नेवाले और समझदार महानुभाव तो इस बात का अच्छी तरह से समझ सकते हैं। परन्तु जिनका साहित्य से कोई सम्बन्ध नहीं, वे ऊपर ऊपर से पढने से अथवा अन्य किसी के बरगलाने से एकदम भड़क जाते हैं। और बातें करने लग जाते हैं कि देखो, इसमें कैसी बुराइ लिखी है, परन्तु वे बेचारे उस बात को न देख सकते हैं और न समझ सकते हैं कि त्रुटियों के साथ में उत्कृष्टता कितनी दिखलायी गयी है ! और त्रुटियों का दिखलाना, किसी चीज के गुणों की उत्कृष्टता को कितना दृढ करनेवाला होता है ? साहित्य को नहीं समझने वाले और अशिक्षित लोगों में कोई गलतफहमी हो जाय, यह तो क्षन्तव्य हो सकती है परन्तु
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जब अच्छे पढ़े लिखे, और समझदार मनुष्य भी किसी कारण से अपने दिल में गलतफहमी को स्थान दे देते हैं, तब तो बड़ा ही आश्चर्य और दुःख होता है।
'मेवाड़' देश का विहार, वाकै में हम जैसे जैन साधुओं के लिये तकलीफों का स्थान जरूर है। ऐसी तकलीफों को उठानेवाले किसी प्राचीन मुसाफिर ने मेवाड़ के लिये कुछ वृत्तान्त कविता में लिखा है, जिस के कुछ नमूने मैंने दिये हैं। दूसरी तरफ से देखा जाय तो मेवाड़ देवभूमि है, मेवाड़ तीर्थस्थान है। मेवाड़ को भक्ति, मेवाड़ की सरलता और मेवाड़ में विचरने से होनेवाले लाभ-इनके आगे वे तकलीफें किसी हिसाब की नहीं हैं।
और यही बात मैंने स्थान स्थान पर दिखलायी है। मेवाड़ भारतवर्ष का सब से श्रेष्ठ, मनोहर और इतिहास का बेजोड स्थान है, इसका भी उल्लेख मैंने कई जगह किया है। और इसी कारण से हमारे मुनिराजों को मेवाड़ में विचरने के लिये मैंने स्थान स्थान पर अपील की है, जोर दिया है और अनुरोध भी किया है।
उदयपुर में वीस वर्ष के पूर्व श्री गुरुदेव की सेवा में चतुर्मास किया था, तत्पश्चात् यह दूसरा · चतुर्मास था। मैंने यह चतुर्मास, मेरे माननीय आत्मबंधु शान्तमूर्ति, इतिहास तत्त्ववेता मुनिराजश्री जयन्तविजयजी, न्याय-साहित्यतीर्थ मुनिश्री हिमांशुविजयजी तथा गुरुभक्तिपरायण मुनिश्री विशा
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लविजयजी के साथ किया था। उदयपुर के श्रीसंघ ने हमलोगों की भक्ति करने में तथा जैनधर्म की प्रभावना करने में तन, मन और धन का जो व्यय किया है, वह प्रशंसनीय और अनुमोदनीय है। श्री संघ के उत्साह, उदारता और प्रयत्न का ही परिणाम था कि इस चतुर्मास में अनेकों पब्लिक व्याख्यान हुए, जिसमें रेसिडेंट से लेकर बड़े बड़े आफिसरों का तथा हिन्दू-मुसलमान सभी जनता का हजारों की संख्या में लाभ लेना हुआ था। श्री महाराणाजी सा० की दो दफे मुलाकात लेकर धर्मोपदेश सुनाया गया था। गुरुदेव श्री विनयधर्मसूरि महारान का निर्वाणतिथि उत्सव अभूतपूर्व हुआ था, एवं जैनश्वेताम्बर महासभा की स्थापना भी हुई । इत्यादि अनेकों कार्य सुचारु रूपसे हुए थे।
उदयपुर के श्रीसंघ की भक्ति, उदारता और शासन प्रेम के विषय में भी मूललेख में बहुत कुछ लिख चुका हूँ। चतुर्मास के पश्चात् भी मेवाड़ के उत्तर-पश्चिम प्रदेश में दो-ढाई महिनों तक विचरने का और वहाँ की स्थिति का अभ्यास करते हुए, उस तरफ की प्रजा को धर्मोपदेश देने का जो सौभाग्य प्राप्त हुआ, यह भी उदयपुर के श्री संघ की व्यवस्था और प्रयत्न का ही परिणाम था । इसमें खास कर के सेठ रोशनलालजी सा. चतुर, श्रीमान् मोतीलालजी सा. वोहरा, श्रीयुत कारूलालजी सा. कोठारी, भाई मनोहरलालजी चतुर एम, ए. एल एल. बी., भाई हमीरलालजी मूरडिया बी. ए. एल एल. बी., श्रीयुत अम्बालालजी सा. दोसी, श्रीमान् भँवरलालजी (मोतीलालजी सा. के पुत्र) सिंगटवाडिया, श्रीयुत
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ख्यालिलालजी दलाल, श्रीमान् नथमलजी दलाल, भाई वीरचन्दजी सीरोया, श्रीयुत फतेहलालजी मनावत, श्रीयुत कारूलालजी मारवाडी, भाई गोकुलचन्दजी राजनगर वाले, भाई भंवरलालजी सिंगटवाडिया इत्यादि महानुभावों की प्रेरणा और प्रयत्न विशेष साहनीय थे, इसलिये वे धन्यवाद के पात्र हैं।
श्रीमान् यतिवर्य अनूपचन्दजी ऋषिजी को भी मैं नहीं भूल सकता हूँ, जिन्होंने सारे चतुर्मास में हमारी हार्दिक भक्ति करने के अतिरिक्त मेवाड़ के विहार में भी कई दिनों तक हमारे साथ रह कर सहयोग दिया था।
'बम्बई समाचार जैन ज्योति' और 'जैन' पत्र के अधिपतियों को भी धन्यवाद देता हूँ जिन्होंने 'मेरी मेवाड़यात्रा' की गुजराती लेखमाला अपने पत्रों में प्रकट कर गुजराती प्रजा को लाभ दिया।
अन्तमें-'मेरी मेवाड़यात्रा' के वाचनसे हमारे किसी भी मुनिराज को मेवाड़ में विचरने की और उस देश में पुनः सच्चे धर्म की जागृति पैदा करने की भावना उत्पन्न हो, एवं गुरुदेव मुझे भी फिर से मेवाड़ में विचरने की, एवं वहाँ के अधूरे कार्य को पूरा करने
की शक्ति प्रदान करें, यही अन्तःकरण से चाहता हुआ यहाँ ही विराम लेता हूँ।
बरलूट (सीरोही स्टेट) 'आषाढ सुदी १, २४ ६२
-विद्याविजय धर्म सं० १४
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.
शेठ पंजाभाई हीराचंद स्मारक ग्रंथ ३ रा.
A02
मुनिराज श्री विद्याविजयजी के उपदेश से श्रीयुत् जेसंगभाई कालीदास
तथा शा. बलाखीदास लालचंद की प्रेरणा से ___ - अहमदावाद निवासी -
शेठ नेमचंद कचराभाई ने इस संस्था के संरक्षक होकर के
शेठ पूंजाभाई हीराचंद के स्मारक के लिये दी हुई सहायता में से XX
- यह तीसरा ग्रंथ - प्रकाशित किया गया है।
SUIIM
प्रकाशका
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मेरी मेवाड़ यात्रा
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(१)
भारत वर्ष में मेवाड़ का बेजोड़ स्थान
मेवाड़ का नाम लेते ही, महाराणा प्रताप और स्वामिभक्त भामाशाह का नाम याद आ जाता है। मेवाड़ का नाम लेते ही, सुप्रसिद्ध तीर्थ केशरियाजी' याद आ जाते हैं। मेवाड़ के इतिहास के मानी हैं-भारतवर्ष की गौरवगाथा । पानी और पहाड़ों से सुशोभित मेवाड़ देश, भला किसे न प्रिय लगेगा ? 'हुजूर' 'जो हुकुम' 'अन्नदाता' आदि अत्यन्त मधुर तथा नम्रभाषा भाषी मेवाड़, भारतवर्ष के समस्त प्रान्तों में अपना अद्वितीय स्थान रखता है । मेवाड़, यानी वीरों का समरांगण । मेवाड़, यानी प्राकृतिक श्यों का प्रदर्शन । मेवाड़ का खान-पान तथा वेश-भूषा, सब कुछ सादा । मेवाड़ के मनुष्य, यानी नम्रता की मूर्ति ! तार तथा टेलीफोन-वायरलेस तथा बिजली के इस उन्नत कहे जानेवाले युग में भी, मेवाड़ के प्रत्येक स्थान में पत्रादि (Post) पहुँचाने वाली 'ब्रामणिया डाक' आज तक मौजूद है। कोट, पतलून तथा नेकटाई
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मेरी मेवाड़यात्रा
कॉलर के जमाने में भी, पैर की एड़ी तक की अंगरखी और उस के उपर दस हाथ के दुपट्टे से कमर बांधे बिना दरबार के महल में प्रवेश न पाने का रिवाज, आज भी मेवाड़ में सुरक्षित है । जिस जमाने में, अन्य प्रान्तों के छोटे छोटे ग्रामों में भी चाय की होटलों का बोलबाला है, उसी ज़माने में मेवाड़ के प्रधान-नगर उदयपुर जैसे स्थान पर भी शायद ही कहीं चाय की होटल दिखाई दे । भारतवर्ष के प्रत्येक प्रान्त में, फिजूल खर्ची के प्रश्न पर विचार किया जा रहा है और ऐसा माना जा रहा है कि इस फिजूल खर्ची से देशकी दरिद्रता में वृद्धि हो रही है। ऐसे समय में, मेवाड ही एक ऐसा देश दिखाई देता है, कि जहाँ मक्की तथा जुआर की रोटियाँ और उर्द, चने या मूंग की दाल पर लोग निर्वाह करते हैं । अन्य प्रान्तों में एक साधारण कुटुम्ब के लिये मासिक कम से कम २५-३० रुपये कल्दार तो होने ही चाहिए, जब कि मेवाड़ का उसी श्रेणी का एक साधारण-कुटुम्ब, ७-८ करदार में अपना निर्वाह कर सकता है । इस तरह सादगी तथा नम्रता, विनय और भक्ति, प्राचीनता एवं पवित्रता, त्योंही सुन्दरता तथा स्नेहीपन, आदि प्रत्येक क्षेत्र में अपना ऊंचा स्थान रखने वाले मेवाड़ की यात्रा करने का मौका मिले, इसे भी सद्भाग्य की निशानी ही समजना चाहिये न ! फिर भी, इस उच्च कोटि के देश के लिये किसी ने कहा है, कि
"मेवाड़े पंच रत्नानि, काँटा भाटा च पर्वताः। चतुर्थो राजदण्डः स्यात् पंचमं घनलंटनम्" ।
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भारतवर्ष में मेवाड़ का बेजोड स्थान
___ काँटे, पत्थर, पर्वत, राजदण्ड और चोरों का उपद्रव इन पाँच से मेवाड़ को प्रसिद्ध माना है ।
इसके अतिरिक्त, किसी दुःखी हृदयने, एक लम्बा कवित गाकर, मेवाड़ में प्रवेश करने का सब लोगों से निषेध किया है। उस लम्बे कवित के एक दो नमूने ये हैं:
" मेवाड़े देशे भूलेचूके,
मत करियो परवेश । नहिं आछो खाणो, बहु दुःख जाणो,
राणाजी रे देश ।" " जव मक्की रोटा, उड़दज खोटा,
खोटो खाय हमेश । उजळ भगतारी, सौ नरनारी,
काळा पहिरे वेश । मेवाडे देशे भूले-चूके, ___ मत करियो परवेश ॥"
"माथे पाघड़ियाँ, असकी जड़ियाँ,
कर्म ने बाँधे . ताण । मन माहे मोटा, घरमें टोटा, .
झाडयाँ बांधे कान ॥" "भागे पहेलां से, फोजां फाटे,
शसतर बांधे . विशेष । मेवाडे देशे भूले-चूके
मत करियो परवेश ॥ "
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मेरी मेवाडयात्रा " नहिं चाले गाडौँ, रथ मतवालां,
घोडा कम्पे तेह । ज्याँ पोठी जावे, जव भर लावे,
मक्की खावे जेह॥" "षट्दर्शन बेठा, भूखा रेवे,
प्रभु-गुण गावे केम? मेवाडे देशे भूले-चूके,
___ मत करियो परवेश ॥" ऐसे अनेक पद्यों में, इस अनुभवी ह्रदय ने मेवाड़ की कठिनाइयाँ गा गाकर बतलाई हैं, और वस्तुतः मेवाड के गहरे भागों में उतरनेवाला मनुष्य, इन कठिनाइयों का अनुभव किये बिना नहीं रह सकता।
ये पहाड और पत्थर, जंगल और अरण्य, नदी और नाले, चोर तथा डाकू, एवं जो एक सामान्य बात भी न समझ सकें, ऐसे निरक्षर अज्ञानी जीव-मनुष्य, मेवाड़ के किसी किसी भागों में आज भी दिख पडते हैं। यह सत्य है, कि पिछले कुछ वर्षों से चोरों तथा डाकुओं का उपद्रव बहुत कम हो गया है, शेष बहुत सी बातों में उपर्युक्त कथन की सत्यता किसी अंशमें आज भी स्पष्ट दिख पडती है। मेवाड का उपर्युक्त वर्णन करनेवाले कवि ने भी, उदयपुर को तो उससे मुक्त ही रक्खा है। अन्त में उसने कहा है, कि
"इण विध देश मेवाड का,
यथायोग्य वरणाय । एक उदयपुर है भलो,
देखत आवै दाय ॥"
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भारतवर्ष में मेवाड़ का बेजोड स्थान
चाहे जो हो, मेवाड़, भारतवर्ष के विभिन्न प्रान्तों के बीच, बहुत सी बातों में अपना बेजोड़ स्थान रखता है, इस बात से तो कोई भी इनकार नहीं कर सकता । मेवाड़, काँटों तथा कंकरोवाला, पहाड़ों तथा पत्थरोंवाला, नदी तथा नालोंवाला और सादा एवं शुष्क देश होते हुए भी, वस्तुतः 'देवभूमि वाला देश है । वह अनेक तीर्थों तथा हजारों मन्दिरों से शोभायमान देश है, अनेक पूर्वाचार्यों की चरणरज से पवित्र हुआ देश है, धर्मवीर और क्षात्रवीर देश है, हिन्दूधर्मरक्षक देश है और आत्माभिमान में सना हुआ देश है, इस में तो किंचित् भी सन्देह नहीं है।
मेवाड़ में केशरियाजी, करेड़ा, देलवाड़ा, अदबदजी, दयालशाह का किला, चितोड़गढ़ आदि जैन तीर्थ मौजूद हैं। इसके अतिरिक्त सारे मेवाड़ में लगभग तीन हजार मन्दिर विद्यमान हैं । मेवाड के इन मन्दिरों तथा तीर्थों का निरीक्षण करनेसे विदित होता है, कि शीलसूरि, सोमसुन्दरसूरि, जयसुन्दरसूरि, सर्वानन्दसूरि, उदयरत्न, चारित्ररत्न, लक्ष्मीरत्न, जिनकुशलसूरि, जिनभद्रसूरि, जिनवर्धनसूरि, जिनचन्द्रसूरि, जिनसिंहसूरि, विजयदेवसूरि और शान्तिसूरि आदि अनेक पूर्वाचार्यों ने इस प्रदेश को अपने पादविहार से पवित्र किया है ।
इसी तरह वर्तमानयुग में भी अनेक आचायौने, इस मेवाड़ प्रदेश को अपने चरणकमल एवं उपदेशामृत से पवित्र किया है । जिनमें, स्वर्गस्य गुरुदेव शाखविशारद जैनाचार्य श्री विजयधर्म
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मेरी मेवाडयात्रा
सूरिजी महाराज का स्थान मुख्य है। बीस वर्ष की लम्बी अवधि हो चुकी है, किन्तु आज भी उन गुरुदेव के उपकारों को उदयपुर की जनता स्मरण कर रही है।
उदयपुर का श्री संघ आज भी इस बात को मान रहा है, कि यदि स्वर्गस्थ गुरुदेवने सं० १९७२ का चातुर्मास उदयपुर में न किया होता, तो आज यहां श्रद्धालु-जैनों की जो संख्या दिखलाई पडती है, वह दिखाई देती या नहीं इसमें सन्देह है। जिस मेवाड़ में आज मी लगभग तीन हजार मन्दिर मौजूद हैं, उस मेवाड़ में इन मन्दिरों को माननेवालों की-इनको पूजनेवालों की संख्या पूर्वकाल में कितनी रही होगी, इसकी कल्पना सरलतापूर्वक की जा सकती है। कहा जाता है, कि मेवाड़ में एक समय पचासहनार श्वे० मूर्तिपूजक नैनों के घर थे । आज उसी मेवाड़ में (उदयपुर के लगभग २५०-३०० घों सहित ) मुश्किल से ५०० या ७०० घर मूर्तिपूजकों के रह गये हैं। इस दशाके आने का एक प्रधान कारण यह है कि उस क्षेत्र में श्वे० मूर्तिपूजक साधुओं के विहार का अभाव । पिछले अनेक वर्षों से, साधुओं का विहार बन्द-सा रहा है।
और दूसरी तरफ से, अन्यान्य सम्प्रदायों के उपदेशकों का सतत प्रयत्न जारी ही रहा । इसी के परिणामरूप यह दशा आ गई है। यद्यपि, यह बात सत्य है, कि पिछले समय में भी वर्तमानकाल के अनेक आचार्यों तथा मुनिराजों ने मेवाड़ में प्रवेश किया है। किन्तु, उनका भ्रमणक्षेत्र केवल उदयपुर अथवा केशरियाजी के आने
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भारतवर्ष में मेवाड़ का बेजोड स्थान शायद ही कभी बढ पाया हो। किसी किसी मुनिराजने करेड़ा की तरफ थोड़ा विहार बढाया था, ऐसा सुना जाता है। किन्तु केवल एक ही बार के विहार या उपदेश से स्थायी असर नहीं हो सकती।
और इसी कारण, थोड़े से सिंचन के पश्चात् लम्बी अवधि तक अभाव रहने पर फिर वही की वही शुष्कता आ जाती है।
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मेवाड़-प्रवेश.
उपर एक कवि के शब्दों में कहा गया है, त्यों
" मेवाडे देशे, भूले-चूके,
मत करियो परवेश !" फिर भी, जहाँ 'क्षेत्र फरसना' बलवती होती है, वहीं इस प्रकार के कथनों के आदेश की कोई किंचित् भी परवा नहीं करता, और यदि करने भी जाय, तो सिद्ध नहीं हो सकती। पाटण में चातुर्मास निश्चित हो जाने के बाद, किसी ने यह बात कभी स्वप्न में भी नहीं सोची थी, कि ठीक बीस वर्ष पश्चात् मेवाड़ में प्रवेश होगा और उदयपुर में चातुर्मास होगा। भावी के उदर में क्या भरा है, इस बात की किसे खबर है । आबू की शीतलता में गरमी के दिन व्यतीत करते समय, अकस्मात ही उदयपुर के युवक दिखलाई पड़ते हैं। "नहीं हुजूर, पधारना ही पडेगा" "वचे बचाये हम लोगोंको बचाना हो, तो 'हो' कीजिये और फिर प्रस्थान कीजिये" " गुरुदेव द्वारा
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मेवाड - प्रवेश
११
बोए
हुए
बीजों से जो अंकुर निकले हैं, उन्हें यदि सिंचन करके बढाना हो, तो पधारिये और यदि सूखने देना हो तो जैसी आपकी इच्छा " ।
उदयपुर के युवकों की इस विनति में, ह्रदय की वेदना थी । इस विनति में, गुरुभक्ति थी । यह विनति, कोई व्यवहारिक विनति न थी। इसमें, धर्म की सच्ची लगन थी । दया, दान, मूर्तिपूजा, आदि अनादिसिद्ध, शास्त्रसम्मत, सिद्धान्तवादी श्रद्धालु जैनों पर होनेवाले आक्रमण से बचाने की यह पुकार थी। युवकों की इस विनति से, किस कठोर हृदयवाले साधु का हृदय न पिगलता । किन्तु, हमारे लिये धर्मसंकट था । 'पाटन' का वचन पक्का था । भला वचन भंग का पातक कैसे उठाया जा सकता था ? । और इधर इन युवक की मर्मभेदी विनति का भी कैसे तिरस्कार किया जा सकता था ! | ? इस तरह की उलझन में अभी कुछ ही दिन व्यतीत हुए थे, कि इतने ही में उदयपुर का दूसरा डेप्युटेशन आ पहुँचा। उनकी आवश्यकता का इसी से अन्दाज लग गया । उनकी आवश्यकताओं का अनुमान करने के लिए, अब अधिक प्रमाणों की जरूरत न थी । अब तो ऐसा जान पड़ने लगा, कि पाटन की अपेक्षा भी शायद सेवा के लिये यह क्षेत्र अधिक उपयुक्त है। फिर भी, वचनबद्धता का प्रश्न सामने आता ही था । उदयपुर के गृहस्थ पाटन गये । संघ से विनति की और अपनी दुःख कथा कह सुनाई । परमदयालु, सच्चे शासनप्रेमी, वयोवृद्ध प्रवर्तकजी श्री कान्तिविजयजी
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मेरी मेवाड़ यात्रा महाराज का हृदय द्रवीभूत हो उठा। उन्होंने, संघ से सिफारश की । संघने उदयपुर जाने की अनुमति दी। तार छूटे और हमने मेवाड़ के लिये प्रस्थान किया।
मारवाड से मेवाड़ में प्रवेश करने के चार मार्ग हैं । पीडवाडा होकर गोगुंदा जाने का, राणकपुर होते हुए भाणपुरा की नाल चढकर गोगुंदा जानेका, देसूरी या घाणेराव की नाल में होकर राजनगर जाने का और कोटड़ा की छावनी होते हुए, खेरवाडा होकर केशरियाजी जाने का मार्ग । पहले तीन रास्तों में केशरियाजी नहीं आते, किन्तु चौथे रास्ते की अपेक्षा मार्ग अच्छे हैं । छोटी छोटी घाटिया चढने की तकलीफ तो होती है, किन्तु एकन्दर में रास्ता अच्छा है। चौथे रास्ते से उदयपुर जाने में, रास्ते में केशरियाजी तो अवश्य आते हैं, किन्तु रास्ता लम्बा, महा भयङ्कर और अत्यन्त खतरनाक है। ऐसे ऐसे भीषण वन आते हैं, कि किस समय 'बाघजीभाई' या 'शेरसिंहजी' से समागम हो जाय, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। यह कहने की आवश्यक्ता नहीं है कि जंगल में मुजसे केवल चार-पाँच हाथ की दूरी पर ही, एक वाघजीभाई हमारी मण्डली के स्वागत के लिये विराजमान दिखाई दिये थे। किन्तु कौन जाने, पेट भरा हुआ था, या हमारा शरीर ही उन्हें पसन्द नहीं आया, चाहे जिस कारण से हो, हमें देखते ही वे पीठ दिखलाकर बिदा हो गये । नदी-नालों का भी कोई पार नहीं है । १५-१५ और १७-१७ माइल तक कहीं उतरने का ठिकाना नहीं। सिरोही स्टेट और मेवाड की सीमा के स्थान पर
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मेवाड प्रवेश
चोर डाकुओं का उपद्रव भी कुछ कम विकट मार्ग में, जिस समय पैरों में काँटे तब मुख से अवश्यमेव यह बात निकल पडती है, कि
१३
नहीं है । इस प्रकार के तथा कंकर चूभ रहे हो,
मेवाड़े देशे भूले-चूके, मत करियो परवेश |
नहीं आछो खाणो, बहु दुःखजाणो, राणाजी रे देश ॥
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फिर भी, मेवाड का महत्त्व समजनेवालों के लिये, इस प्रकार के कष्टों की कुछ कीमत नहीं है । जो देश साधुओं के विहार के अभाव में निराश हो चुका हो, जिस देश में अनेक प्रकार से सेवा के क्षेत्र मौजूद हो, जिस देश की जनता भद्रिक परिणामी और उपदेश ग्रहण करने को उत्सुक हो, जिस देश में संघ सोसायटी के झघडे न हों, जहाँ गच्छों की मारामारी न हो, ऐसे शान्त क्षेत्र में, शान्त वृत्ति से सेवा का कार्य करनेकी भावना किसे न होगी। हम उदयपुर पहुँचे और चातुर्मास वहीं किया ।
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(३)
उदयपुर
उदयपुर यानी मेवा की राजधानी मेवाड का प्रधान नगर । उदयपुर राज्य, यानी राणाओं का राज्य । उदयपुर राज्य, आज भी अपने प्राचीन रीति-रिवाजों का पालन कर रहा है। पैरों में पायजामा और शरीर में अंगरखी, अंगरखी पर कोट और सिर पर पगडी, अथवा अंगरखी पर कमरबन्द और सिर पर पगड़ी। राज्य में, दफ्तरों में, महल में प्रवेश पाने की यह पोशाक, हजारों प्रकारके वेशों में अपना स्वतन्त्र अस्तित्व सिद्ध किये बिना नहीं रहती। . उदयपुर में कोलतार की सड़कें या सर्वत्र विशाल रास्ते न होते हुए भी, चारों तरफ पहाड़ ओर पानी से सुशोभित उदयपुर की रमणीयता, अन्य किसी भी शहर की अपेक्षा अपना सुन्दर स्वरूप अलग ही दिखलाती है। शहर की दक्षिण दिशा में, एक पहाड की
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उदयपुर.
१५
टेकरी पर, तालाव के किनारे बना हुआ प्राचीन राजमहल, दर्शकों के चित्त को आकर्षित करता है। इसके पास ही अंग्रेजी फैशन से बने हुए शंभुनिवास तथा शिवनिवास नामक महल और उनके नीचे ही अवस्थित विशाल तालाव, शहर की शोभा को बढ़ा रहे हैं ।
अनेक तालाव अनेक बगीचे और अनेक महलों से सुशोभित उदयपुर, एक दर्शनीय शहर है, ऐसा अवश्यमेव कहा जा सकता है। उदयपुर की नगररचना की एक खूबी यह है, कि चाहे जहाँ खडे होकर चारों तरफ दृष्टि डालो, पहाड ही पहाड दिखलाई पडेंगे। चाहे जहाँ खडे होकर देखने पर भी ऐसा जान पडता है, मानों हम पहाड़ों के बीच में ही खडे हैं। यह नगर की बनावट की विशेषता है।
इसका एक खास कारण है। उदयपुर, महाराणा उदयसिंह का बसाया हुआ नगर है । पहिले, मेवाड़ की राजधानी चितोडगढ़ में थी । वह गढ सुदृढ होते हुए भी, एक ऐसे लम्बे-से पहाड़ पर बना हुआ है, कि जो पहाड़ अन्य पर्वतों से बिलकुल अलग पड़ गया है । परिणामतः, शत्रुओं से युद्ध करने में बड़ी कठिनाई उपस्थित होती थी। इस असुविधा को दूर करने के लिये, महाराणा उदयसिंहजी ने, उदयपुर बसाने के निमित्त, चारों तरफ पर्वतों से घिरे हुए इस स्थान को पसन्द किया था। उदयपुर की सुन्दरता में उसकी प्राकृतिक स्थिति अधिक कारणभूत है। चारों तरफ विशाल ताला, पहाड़ और उन पहाड़ों पर की हरियाली, सचमुच ही चिसाकर्षक है। उदयपुर राज्य में, पहाड़ों तथा सरोवरों की जैसी
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मेरी मेवाड यात्रा सुन्दरता तथा विशालता दिख पड़ती है, वैसी भारतवर्ष के अन्य किसी राज्य में शायद ही दिखाई दे। जयसमुद्र, उदयसागर, पीछोला, फतेहसागर आदि तालाव, सचमुच ही समुद्र का दृश्य उपस्थित करते हैं।
राज्यकी विशेषता ___ यद्यपि, उदयपुर राज्य, गवालियर, मैसूर, और बड़ौदे के सदृश बड़ा राज्य नहीं है, फिर भी, इस राज्य में कुछ खास विशेषताएं देखी जाती हैं। उदयपुर का राज्य, यद्यपि राणाओं का राज्य है, किन्तु राणाओं की अपने इष्टदेव एकलिंगजी पर रहनेवाली अनन्य श्रद्धा के कारण मेवाड़ के राजा तो 'एकलिंगजी' कहे जाते हैं और राणाजी मेवाड़ राज्य के दीवान के नामसे प्रसिद्ध हैं।
उदयपुर की गद्दी पर बैठनेवाले राणाओं के सदृश धर्मश्रद्धा भी, शायद ही किसी दूसरे राजघराने में दिखाई दे।
उदयपुर राज्य, वर्तमान अंग्रेजी राज्य के आधीन होते हुए भी, अपनी बहुत सी स्वतन्त्रता अभी तक सुरक्षित रक्खे हुए है। वहाँ, अभीतक राज्य का अपना सिक्का चल रहा है और उस पर खुदे हुए 'दोस्ती लन्दन' शब्द, उसकी आंशिक-स्वतन्त्रता के
उदयपुर की गद्दी पर, यद्यपि अभी तक अनेक राणा हो चुके हैं, किन्तु इन सब में महाराणा प्रताप का नाम विशेषरूप से इतिहास के पृष्ठों में स्वर्णाक्षरों में अंकित है। इसका कारण है
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उदयपुर
महाराणा प्रताप का स्वात्माभिमान ! प्राणान्त तक भी पराधीनता नहीं स्वीकार करने और अपने धर्म पर दृढ रहने की उनकी टेक, आज भी उनकी अमरगाथाओं के रूपमें गाई जा रही हैं। उदयपुर का राज्य, यानी-हिन्दू धर्मरक्षक राज्य । उदयपुर का राज्य यानी धार्मिक श्रद्धावाला राज्य । उदयपुर की चली आती हुई धर्मश्रद्धा का अनुमान हमलोग इससे भी लगा सकते हैं कि-उदयपुर राज्य की आय का तृतीयांश मन्दिर आदि धार्मिक कार्यों में ही खर्च किया जाता है । हिन्दू या जैन का, सारे मेवाड़ में शायद ही ऐसा कोई मन्दिर होगा, कि जिसे राज्य की तरफसे थोड़ी बहुत सहायता न प्राप्त होती हो । कुछ मन्दिरों में, राज्य की तरफ से खासे आडम्बरों सहित खूब धूमधाम होती है, जिसके कारण वे मन्दिर महान तीर्थस्थानों के रूप में पूजे जा रहे हैं।
राज्य के विभिन्न-विभाग, आज के अंग्रेजी फैशन के जमाने में भी, देवभाषा (संस्कृत) में निश्चित किये हुए नामों से प्रसिद्ध हैं। उदाहरणार्थ-उदयपुर की हाईकोर्ट का नाम है 'महद्राजसभा' (महद् राजसभा)। इसी तरह, अन्य, अनेक
ऑफिसों के नाम भी प्राचीन पद्धति के ही हैं। उदयपुर राज्य, इस प्रकार की अनेक विशेषताओं के कारण विशिष्ट माना जाता है। उदयपुर राज्य की एक यह भी विशेषता है, कि जावर नामक स्थान में वहाँ चाँदी तथा सीसे की और पुर, गंगापुर तथा सहाड़ा में अभ्रक की खदानें मौजूद हैं। एक समय ऐसा था, जब चाँदी सीसेकी खदानों के कारण, जावरनगरी खूब आबाद थी।
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मेरी मेवाडयात्रा जिस राज्य में धातुओं की ऐसी खदानें हों, उस राज्य की प्रजा कंगाल रहे, यह एक आश्चर्य की बात है। __उदयपुर राज्य की जो खास विशेषता है, वह है-उसके राजवंश की प्राचीनता । उदयपुर का राजवंश, वि० सं० ६२५ के लगभग से प्रारम्भ होकर, आजतक थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ बराबर राज्य करता चला आ रहा है। लगभग चौदहसौ वर्ष तक एक ही प्रदेश पर राज्य करनेवाला, एक ही राजवंश, सारे संसार में शायद ही कोई दूसरा विद्यमान हो। मुसलमानों और पठानों के समय में, अनेक राज्य नेस्तो नाबूद हो गये किन्तु राणाओं का राज्य ही ऐसा राज्य है, कि जो मुसलमानी धर्म की उत्पत्ति के पूर्व भी मौजूद था और आज भी विद्यमान है।
इसी तरह, उदयपुर के राजवंश का गौरव भी उसकी एक विशेषता है। यह बात पहले कही जा चुकी है, कि यद्यपि उदयपुर का राज्य बहुत बड़ा नहीं है, किन्तु उसके राजवंश का गौरव, भारतवर्षीय समस्त राज्यों की अपेक्षा कहीं अधिक बढ़ जाता है। उदयपुर का राज्य, सूर्यवंशी राज्य है। किन्तु समस्त सूर्यवंशियों में वे सर्वोपरि माने जाते हैं। भारतवर्ष के समस्त राजपूत राजा, उदयपुर के महाराणाओं को शिरोमणि मान कर उनके प्रति पूज्य भाव रखते आये हैं। ऐसा होने का खास कारण है इस-राज्य की स्वातन्त्र्यप्रियता और धर्मसम्बन्धी दृढता । उदयपुर राज्य का यह मुख्य सिद्धान्त है कि
"जो दृढ राखे धर्म को, तेहि राखे करतार"
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उदयपुर
पिछले १४०० वर्षों में, भारतवर्ष में अनेक राज्य नष्ट-भ्रष्ट हो चुके हैं। मुसलमानी राज्य की प्रबल-शक्ति के सन्मुख, अनेक हिन्दू राजाओं ने अपनी मानमर्यादा उनके चरणों पर चढा दी । उदयपुर का ही एक ऐसा राज्य-राजवंश है, कि जिसने अनेक प्रकार के करों तथा आपत्तियों को सहन करके भी, अपनी मानमर्यादा, अपने कुलगौरव और अपने स्वातन्त्र्यप्रेम की रक्षा की तथा अपने अटल पथ से किंचित् भी विचलित नहीं हुआ । इसी कारण, भारतवासी हिन्दू लोग, उदयपुर के महाराणाओं को पूज्य दृष्टि से देखते ओर उन्हें 'हिन्दू सूरिज' (हिन्दू सूर्य) कहते हैं।
उदयपुर राज्य की उपर्युक्त विशेषता, सचमुच ही भारतवर्ष के इतिहास में गौरवास्पद है।
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( ४ )
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राज्य के साथ जैनों का सम्बन्ध
यह बतलाने की शायद आवश्यकता नहीं है, कि सुप्रसिद्ध ओसवाल जाति वास्तवमें ओसिया नगरी से निकली हुई क्षत्रिय राजपूत जाति ही है, जिसे श्री रत्नप्रभसूरि महाराज ने खानपानादि में शुद्ध करके जैनधर्म की दीक्षा प्रदान की थी । लगभग दो हजार वर्षकी अवधि में ही तो यह जाति सारे भारतवर्ष में इतनी अधिकता से फैल गई है, कि शायद ही कोई ऐसा प्रान्त अथवा शहर हो, जहां ओसवालोंका समूह न मौजूद हो । ओसवाल जाति, मूल में क्षत्रिय जाति होते हुए, कालक्रम से इसने व्यौपारी लाइन भी इतनी अधिक प्रगति कर ली है कि भारतवर्ष का कोई भी व्यापार वह न करना जानती हो, ऐसा नहीं है। इतना ही नहीं, बल्कि जवाहिरात के व्यवसाय से लगाकर छोटे छोटे धन्धों तक इसने अपना आधिपत्य जमा रक्खा है। आज बम्बई, कलकत्ता, रंगून, करांची, हैदराबाद, मद्रास आदि किसी भी बड़े शहर में जाइए, बड़े-बड़े व्योपारी ओसवाल ही दिखाई पड़ेगें । केवल बड़े-बड़े व्यवसाय करने
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राज्य के साथ जैनों का सम्बन्ध में ही नहीं, बल्कि अपने उदर निर्वाह के निमित्त बडे-बडे विकट प्रदेशोंमें केवल लोटा-डोरी के सहारे जाकर, बड़ी-बड़ी जायदादें उत्पन्न करने का साहस करनेवाले भी ओसवाल ही दिख पडेंगे । खानदेश जैसे प्रदेश में तो यहां तक कहा जाता है कि मारुति ( हनुमान ) मारवाडी और महार (महेतर ) इन तीन का अस्तित्व जहाँ न हो, ऐसा शायद ही कोई गाँव हो । 'मारवाड़ी' यानी अधिकतर 'ओसवाल' ही समजने चाहिये । चाहे जिस अनजान से अनजान परदेशी को भी हजारों रुपये सवाये-ज्योढे के दरसे उधार दे देनेका साहस मारवाड़ी
ओसवाल ही कर सकते हैं । सामान्यतः जिस मुहल्ले में अकेले दुकेले मनुष्य को जाने में भी भय प्रतीत होता है, ऐसे मुहल्लेमें दूकान तथा घर लेकर रहने का साहस मी मारवाड़ी ओसवाल ही कर सकते हैं ।
ओसवाल जाति ने, अपनी क्षत्रियवृत्ति में से एकदम पलटा खाकर, वणिक वृत्ति में भी जैसे अपनी साहसिकता का खासा परिचय दिया है, उसी तरह राजकीय वृत्ति में भी अपनी बुद्धिमत्ता का कुछ कम प्रदर्शन नहीं किया है । बल्कि, अनेक राज्यों में तो ओसवालोंका प्राधान्य लम्बी अवधी से बराबर चलता ही आ रहा है। इस बात की साक्षी इतिहास देता है । इस प्रकार के राज्यों में, बीकानेर, उदयपुर और जोधपुर राज्य के नाम विशेष रूप से लिये जासकते हैं। इन तीनों में भी, उदयपुर राज्य-कि जो हिंदूधर्म के रक्षक के रूप में तथा अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा के लिये बलिदान करने में अपना सानी नहीं
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.२२
मेरी मेवाड़यात्रा
रखता; उस राज्य के साथ तो ओसवालों यानी जैनों का सम्बन्ध सैकड़ों वर्षों से बराबर चलता ही आया है। 'ओसवालोंका सम्बन्ध ' यानी 'जैनों का सम्बन्ध' यह कहने की तो शायद ही आवश्यकता रह जाय। क्यों कि, श्री रत्नप्रभसूरि महाराज ने, ओसियावासी क्षत्रियों को जब से जैनधर्म की दीक्षा प्रदान की, उस पश्चात से वे 'जैनधर्मी' के नाम से ही प्रसिद्ध होते आये हैं। यही नहीं, उन्होंने जैनधर्म की प्रभावना के लिये, समय समय पर अपनी शक्तियों का उपयोग भी अवश्य ही किया है।
मेवाड़ राज्य के साथ, जैनों का सम्बन्ध कब से प्रारम्भ हुआ, यह खोज निकालना ज़रा कठिन कार्य है। कारण, कि मेवाड़ के महाराणा हम्मीर से पहले का इतिहास लगभग अन्धकार में ही है। फिर भी, महाराणा हम्मीर से लगाकर, वर्तमान महाराणा श्री भोपालसिंहजी तक के महाराणाओं के राज्य में, आजतक लगमग पच्चीस दीवान औसवाल जाति के रह चुके हैं, जिनमें से बहुत से दीवानों ने तो जैनधर्म की पूर्व सेवा की है। मेहता जलसिंहजी, मेहता चील, भण्डारी वेला, कोठारी तोलाशाह, भीखमजी दोसी, भामाशाह, दयालशाह, और अभी पिछले पिछले समय में मेहताजी पन्नालालजी दीवान रह चुके हैं। मेहताजी पन्नालालजी के पश्चात्, कहा जाता है, कि कुछ समय तक, चाहे जिस कारण से हो, अजैन दीवान रहे हैं। किन्तु, अभी कुछ ही महीने पहले, ओसवाल जाति के भूषण सदृश श्रीमान्
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राज्य के साथ जैनों का सम्बन्ध तेजसिंहजी दीवानगीरी के पद पर नियुक्त हुए हैं । उपर बतलाये हुए दीवानलोग, मेवाड़ के प्रचण्ड प्रतापी महाराणा हम्मीर, महाराणा कुम्भा, महाराणा सांगा, महाराणा प्रताप और महाराणा राजसिंह के समय में ऐसे ऊँचे ओहदे पर मौजूद थे। इतना ही नहीं, बल्कि उस समय मेवाड़ जिस तरह गौरवशाली राज्य गिना जाता था, उसमें इन ओसवाल कुलभूषण महापुरुषों का मुख्य हाथ था।
मेवाड राज्य के साथ सम्बन्ध रखनेवाले इन ओसवाल कुलभूषण महापुरुषों में अन्य सब की अपेक्षा, महाराणा प्रताप को अत्यन्त विकट समय में सहायता देनेवाले भामाशाह का नाम सबसे पहले सामने आता है। यद्यपि मेवाड़ की गद्दी पर हुए दूसरे महाराणाओं तथा उनके जैन दीवानों ने, एक या दूसरी तरह के अनेक आदर्श कार्य किये हैं। इन ओसवाल कुलावतंस वीर प्रधानों ने, लड़ाइयों में भाग लेकर, अपने मूल-क्षात्रतेज का भी परिचय दिया है। इतना ही नहीं, बल्कि अपनी धार्मिक श्रद्धा के परिणाम स्वरुप, हजारों या लाखों रुपये खर्च करके जैन मन्दिरों की रचना करवाई और इस तरह जैन धर्म एवं जैन समाज की सेवा की है । किन्तु, तत्कालीन राणाओं की यशःगाथाऐं जिस तरह शिलालेखों में ही खुदी हुई रह गई उसी तरह उनके दीवानों की यशोगाथाएं भी लगभग उतने ही घेरेमें सीमित रह गई । इसके विपरीत, महाराणा प्रताप का नाम, उनका क्षात्रतेज, उनका स्वदेशामिमान और उनकी धर्मदृढ़ता आदि की दुन्दुभी आज भी दिगदिगन्त में बज रही है, अतः आपत्ति
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मेरी मेवाड़यात्रा के समय इन महाराणा के सहायक होनेवाले, स्वदेशरक्षा के कार्य में उन्हें उत्साहित करनेवाले भामाशाह का नाम भी संसार में उतना ही प्रसिद्ध हो रहा है। संसार का कोई भी सच्चा इतिहासकार, महाराणा प्रताप के नाम के साथ, महामात्य भामाशाह का नाम कभी न भूलेगा और भूल भी नहीं सकेगा । महाराणा प्रताप के साथ ही, भामाशाह के सम्बन्ध में भी आजतक बहुत कुछ लिखा जा चुका है । अनेक इतिहासकारों, कवियों तथा नाटककारों ने, भामाशाह की स्वामिभक्ति और देशभक्ति की भूरि भूरि प्रशंसा की है । उन सब का उल्लेख करने का यह प्रसंग नहीं है। फिर भी, श्रीयुत केशरसींहजी बारहठ नामक एक कवि ने, अभी जो 'प्रताप चरित्र' प्रकाशित किया है, उसमें प्रताप तथा भामाशाह के संवाद का प्रसंग जिस सुन्दरता से वर्णन किया है उसे देखते हुए, उस स्थान के पद्यों के कुछ नमूने यहां उद्धृत करने का लोभ नहीं संवरण किया जा सकता । . ___ महाराणा प्रताप, धनहीन तथा साधन हीन हो कर, अपने प्यारे देश मेवाड़ का परित्याग करने की तयारी करते हैं। देश का त्याग करते समय भी, वे अपने स्वातन्त्र्य-प्रेम को नहीं छोड़ते और अपने साथियों से कहते हैं, कि
__ "कुछ दिन इमि रहि दूर कहि, - स्थापहिं राज्य स्वतन्त्र । प्राण रहे तक नहिं रहे,
पत्ता तो परतन्त्र ॥ ७११॥"
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राज्य के साथ जैनों का सम्बन्ध
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प्राण रहने तक कभी भी परतन्त्र-गुलामी में न रहने की प्रतिज्ञा करते हुए प्रताप अपना देश छोड़कर चल देते हैं । हृदय में दुःख का पार नहीं है, किन्तु साधनहीन प्रताप के लिये देश छोड़ देने के अतिरिक्त और उपाय ही क्या है ?
प्रताप, घोडे पर सवार हो कर बिदा होते हैं। उस समय एक वृद्ध पुरुष, जिसके बाल सफेद हो चुके हैं, जो शरीरसे अशक्त है, लकडी के सहारे से चल रहा है, चलता चलता ठोकरें खा जाता है-प्रताप के सन्मुख आ कर मार्ग में खड़ा हो जाता है। यह वृद्ध पुरुष किस प्रकार के भावपूर्वक महाराणा प्रताप के सन्मुख आ कर खड़ा है, उसका वर्णन करता हुआ कवि कहता है
"स्वामिभक्ति प्रेम धर्यो पूरण ह्रदय बीच,
देश अभिमान भर्यो जाकी रग रग में । कीरति को लाड़ो और मन को उदार गादो,
भामाशाह आड़ो आय ठादो भयो मग में ॥७३२॥"
सन्ध्या का समय था, प्रताप ने लकड़ी के टेकेसे चलकर सामने खड़े हुए वृद्ध पुरुष को न पहचाना । तब, वे उस वृद्ध पुरुष से पूछते हैं, कि 'तुम कौन हो? तुम्हारा क्या नाम है ? तुम्हारी क्या उपाधि है ? तुम्हारा गाम कौन सा है ?' आदि । भामाशाह, प्रताप के इन प्रश्नों के उत्तर में जो कुछ कहते हैं, वह कवि के शब्दों में यों है"बोलि 'जयजीव' और नजर सप्रेम कीन्ही,
सेठ के अपार भयो ह्रदय हुलास है।
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मेरी मेवाड़यात्रा हाथ जोरि चर्नन में अरज करन लागो,
चित्रकूट हमारो पुरानो नाथ ! वास है ॥ बनिया है जाति और किंकर को नाम भामा,
वर्तमान वास जो यहाँ ते बहु पास है। पुरुषा हमारे रहे रानके मन्त्री खास,
रावरो दयालु ! यह दासन को दास है ॥ ७३४ ॥" ___ 'भामा' नाम सुनते ही प्रताप आश्चर्यमग्न हो गये। उन्होंने सोचा, कि भामाशाह तो अपना अत्यन्त मान्य राजपुरुष है। भामाशाह का स्थान, प्रताप के दरबार और प्रताप के हृदयमें कितना ऊंचा था, यह बात प्रताप के ही शब्दों से प्रकट है:
"बहुत प्रसन्न होई पातल नजर लीन्ही,
कही महाराणा, तुम बान्धव की ठौर हो । लायक हो बहुत, हमारे खास सेवक हो,
जेते हैं हमारे मन्त्रि, उनके हु मौर हो ॥"
कैसा बहुमान । प्रताप कहते हैं, कि तुम तो हमारे बन्धु की जगह हो, लायक हो, हमारे खास सेवक हो । इतना ही नहीं बल्कि हमारे आज तक के सभी मन्त्रियों में मुकुट के समान हो।
प्रताप ने, भामाशाह को, अपना प्यारा देश छोड़ने का कारण बतलाया । भामाशाह, देश न छोड़ने का आग्रह करते हैं
और राणाजी के प्रति अपनी हार्दिक भक्ति प्रकट करते हैं। जब, वे मार्ग छोड़ कर अलग नहीं हटते, तब प्रताप कहते हैं, कि
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राज्य के साथ जैनों का सम्बन्ध 'कहैं महाराणा, शाह ऐसी ही तुम्हारी भक्ति,
तदपि हमारी गैल नाहक परो हो तुम । धर्मके निमित्त सब सैन बलिदान भई,
देखि कै हमारो दुःख नाहक जरो हो तुम ॥ तुर्क सों लरन नई सेना फिर संचय व्है,
ते तो धन बूढ़े शाह कहाँ तँ भरो हो तुम । अपने निवास पर क्यों नहीं फिरो हो पीछे,
ऐसो हठ भामाशाह नाहक करो हो तुम ॥७३७॥"
भामाशाह कहते हैं, कि जिस समय जन्मभूमि पर विपत्ति आ पड़ी हो, उस समय मैं उसकी वह दशा कैसे देख सकता हूँ। ऐसे विकट समय में, मैं अपने देश ओर अपने स्वामी की यथाशक्ति सेवा करने में पीछे कैसे रह सकता हूँ ? आखिर को वे प्रताप से कहते हैं कि
“वित्त अनुसार आज सेवा ही बजाउँ कहा ? मालिक के हेतु नाथ ठाढो बिकी जाउं मैं ॥७३८॥"
अर्थात्---स्वामी की सेवा के लिये, मैं खड़ा खड़ा बिक जाने को तयार हूँ।
धन्य है भामाशाह को ! भामाशाह अपना, सर्वस्व महाराणा प्रताप के चरणों में धर देते हैं। स्वामिभक्ति और देशभक्ति के आदर्श भामाशाह इतिहास के पृष्ठो में अपना अमर नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित करवा गये हैं। कवि ने, भामाशाह की इस भक्ति की भूरि भूरि प्रशंसा कर के, अन्त में सच्चे स्वामिभक्त मुग्रीव के साथ भामाशाह की तुलना करते हुए कहा है, कि
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मेरी मेवाड़यात्रा "उन किय सेवा लोभहित, तुम निरलोभ असेस । सेवक वर सुग्रीव ते, भामाशाह विशेष ॥"
सेवा तो दोनों ही ने की है। किन्तु, सुग्रीव की सेवा लोभ के कारण थी और भामाशाह की सेवा निर्लोभिपन की थी। इसी लिये, सुग्रीव की अपेक्षा भामाशाह कहीं अधिक बढ़ जाते हैं।
जैनधर्मकुलभूषण वीरवर भामाशाह के वंशज आज भी उदयपुर में विद्यमान हैं।
भामाशाह की तरह , अनेक जैन मन्त्रियों ने, उदयपुर की राजगद्दी पर बैठने वाले महाराणाओं की सेवा की है, जिसके उदाहरण आज भी इतिहास में मिलते हैं। जिस तरह उन मन्त्रियोंने अपने स्वामियोंकी सेवायें की थीं; उसी तरह उदयपुर के महाराणा लोग भी प्रारम्भ से लगाकर आजतक जैनों के साथ बराबर अपना सम्बन्ध रखते आये हैं । जैनों के साथ के इस प्राचीन सम्बन्ध का ही यह परिणाम है, कि आज भी राज्य के अनेक छोटे बड़े ओहदों पर अनेक जैन ओसवाल मौजूद हैं। राज्य की, जैनों पर रहनेवाली इस दयादृष्टि का ही यह परिणाम है, कि आज मेवाड राज्य में करीब पौन लाख जैनों की बस्ती और तीन हजार मन्दिर मौजूद हैं। ( जैनोंकी इस पौन लाख की वस्ती में, श्वेताम्बर, दिगम्बर, स्थानकवासी, तेरापन्थी आदि सभी का समावेश हो जाता है।) राज्य के साथ के इस प्राचीन सबन्ध का ही यह फल है, कि मेवाड़ राज्य में केशरियाजी, करेडाजी, दयालशाह का किला, चवले.
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राज्य के साथ जैनों का सम्बन्ध
२९ श्वर, देलवाड़ा, अदबदजी, चित्तौड़, कुम्भलगढ़, और आहड़ आदि अनेक तीर्थ मौजूद हैं, कि जहाँ लाखों या करोड़ों की लागत के आलीशान मन्दिर बने हुए हैं । राज्य के साथ के सम्बन्ध का ही यह परिणाम है, कि मेवाड़ के प्रत्येक छोटे मोटे, यहाँतक कि लगभग सभी मन्दिरों तथा यतियों के उपाश्रयों को राज्य की तरफ से कुछ न कुछ जमीन, गाम अथवा नक्द रकम का वर्षासन आज भी बराबर मिलता आ रहा है। मेवाड़ के प्रत्येक गाम के एक छोटेसे छोटे मन्दिर को भी राज्य की तरफसे केशर-चन्दन के निमित्त, २५, ५० या १०० रुपये की रकम बराबर मिलती ही रहती है। (हाँ, स्थानकवासी या तेरह पन्थियों के इन्तिजाम के मन्दिरों में, राज्य की तरफ से प्राप्त होनेवाली रकम का दुरुपयोग होता हो, यह दूसरी बात है। ) राज्य के साथ के जैनों के सम्बन्ध के कारण ही, उदयपुर के महाराणा लोग, समय समय पर उदयपुरमें आनेवाले जैनाचार्यों को, जैन श्रीपज्यों को, मुलाकात का सन्मान देते ही रहे हैं। इतना ही नहीं, बल्कि हीरविजयसूरि तथा ऐसे ही अन्यान्य आचार्यों के उपदेश से, जीवदया आदि के सम्बन्ध में अनेक पट्टे-परवाने कर दिये गये हैं। महाराणा श्री फतेहसिंहजी के समय में, स्व० गुरुदेव श्री विजयधर्मसरिजी महाराज ने महाराणाजी को उपदेश देकर, भिन्नभिन्न स्थानों में कुल २१ जीवों की हिंसा सदा के लिये बन्द करवा दी थी। राज्य के साथ के जैनों के सम्बन्ध का ही यह परिणाम है, कि आघाट में श्री जगचन्द्रसूरि महाराज को, उनकी घोर तपस्या देख कर, 'महातपा'
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३०
भेरी मेवाड़ यात्रा
का विरुद दिया गया था। कहा जाता है, कि जैनोंने की हुई राज्य सेवा के उपहार स्वरुप, राज्य की तरफ से अत्यन्त प्राचीनकाल से यह नियम बना दिया गया है, कि जब भी कोई नयाग्राम बसाया जाय, तो सबसे पहले उसमें श्री ऋषभदेव के मन्दिर की नींव डाली जानी चाहिये। जैनों की सेवा के ही कारण, आज भी राज्य की तरफ से ऐसा हुक्म है, कि कोई भी मनुष्य मारने के इरादे से बकरे आदि को बाजार में हो कर नहीं ले जा सकेगा । और यदि कोई ले जाता हो, तो उसे कोई भी मनुष्य पकड़कर उसके कान में कड़ी डाल सकता है ।
श्री शीतलनाथजी के मन्दिर के बाहर, एक शिलालेख है, जिसमें जैनाचार्य के उपदेश से, कबूतर मारने का निषेध किये जाने का उल्लेख है। तपागच्छ के श्रीपूज्य यदि उदयपुर में आवें, तो उनका सत्कार राज्य की तरफ से इतना ही किया जाता है, कि जितना काकरोली अथवा नाथद्वारे के गुसाईजी का होता है । अर्थात् महाराणाजी को चम्पाबाग तक उनको लाने के लिये सामने जाना चाहिये । ( आजकल, महाराणाजी की तरफसे दीवान के जाने का रिवाज रह गया है । ) तपागच्छ की गद्दी के आचार्य की गादी बदलने के समय, राज्य की तरफ से छड़ी, पालकी, दुशाला, आदि वस्तुएँ भेजी जाती थीं । आज कल नक्द रकम भेज देने का रिवाज पड़ गया है ।
इस तरह, जाँच करने पर मालूम होता है, कि राज्य के साथ के जैनों के पुराने सम्बन्धों और जैन मन्त्रियों द्वारा की हुई
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राज्य के साथ जैनों का सम्बन्ध राज्यसेवा के कारण, राज्य की तरफ से अनेक प्रकार की व्यवस्थायें कर दी गई थीं। अनेक प्रकार के पट्टे परवाने भी किये गये हैं। आज, क्रमशः बीच-बीच में होनेवाली अन्य लोगों की दखलगीरी के कारण, तथा जैनों के प्रमाद और खास कर जैनों की फिरकेवन्दी के कारण, अनेक अधिकार नष्ट होते जा रहे हैं। उदयपुर की जैन श्वे० महासभा, अपने इन अधिकारों के प्रमाण एकत्रित करके, फिर उन बातों को तानी करने का कार्य अपने हाथ में ले, तो कितना अच्छा हो ? वर्तमान महाराणा साहेब दयालु
और धर्मात्मा होनेसे अवश्य उन प्राचीन हक्कोंको फिरसे ताजे कर देंगे; ऐसी आशा रकखी जा सकती है ?
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(५)
उदयपुर के जैनों की वर्तमानस्थिति
उदयपुर, मेवाड़ राज्य की राजधानी है। यहाँ, जैनों की लगभग एक हजार घर को बस्ती कही जासकती है, जिसमें ओसवाल, पोरवाल, सेठ, आदि सभी का समावेश है। सामाजिक दृष्टि से विचार करने पर, ओसवाल, पोरवाल और सेठ, इस तरह तीन विभाग हैं। इनमें से
ओसवालों में बडे साज (बीसा), लोढ़ेसाज (दसा), पाँचा, आदि उपविभाग हैं। धार्मिकदृष्टि से विचार करने पर, मूर्तिपूजक, स्थानकवासी और तेरहपन्थी, इस तरह तीन विभाग होते हैं। कुछ
ओसवाल ऐसे भी हैं, कि जो वैष्णव धर्म का पालन करते हैं। कुछ लोगों पर आर्यसमाज का भी प्रभाव है। कुछ लोग, किसी खास धर्म को ही पालते हों, ऐसा नहीं है । यह होते हुए भी, ये सबलोग ओसवाल होने के कारण, यह बात तो मानते ही हैं, कि उनका प्राचीन धर्म, जैनधर्म ही है । ओर यही कारण है, कि पर्युषणादि विशेष अवसरों पर तो वे अवश्य ही एक जैनधर्मी की
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उदयपुर के जैनों की वर्तमान स्थिति भाँति दिख पढ़ते हैं। कमसे कम किसी की मृत्यु के उठावने के समय, त्यों ही विवाहादि के अवसरों पर बड़े से बडे कट्टर वैष्णव, कट्टर स्थानकवासी या कट्टर तेरापन्थी को भी मन्दिर में तो जाना पडता है। एक यही बात इसका प्रपल प्रमाण है, कि सभी
ओसवाल पहले मन्दिरमार्गी थे । हां, उदयपुर में कुछ हुम्मड भी हैं, कि जो श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन हैं। 'सेठ' भी जैनो में की एक जाति है। केवल उदयपुर में ही नहीं, बल्कि मेवाड़ के सनवाड, पुर आदि ग्रामों में भी इस जाति के घर मौजूद हैं। ये लोग, शुद्ध मन्दिरमार्गी होते हैं। अधिक तर ये हलवाई का ही व्यवसाय करते हैं । इन के अतिरिक्त जैन धर्म में एक 'महात्मा' जाति है, जो 'कुलगुरु' के नाम से प्रसिद्ध है । ' महात्मा जैनों में पहले खास माननीय जाति समजी जाती थी। किन्तु, कालक्रम से उसमें विद्या का अभाव होने के कारण, वे लोग लगभग बहुत ही दूर पड़ गये हैं। फिर भी, वे शुद्ध जैनधर्म का पालन करते और मूर्ति पूजा में श्रद्धा रखते हैं । उदयपुर में, इस जाति के थोड़े ही घर हैं, जिनमें मुख्य डॉक्टर वसन्तीलालजी हैं कि जो आधुनिकशिक्षा प्राप्त करने पर भी उच्च संस्कारों से युक्त तथा अध्यात्मप्रेमी हैं। देलवाड़े में श्रीलालजी, रामलालजी, और पुर में चम्पालालजी, मोहनलालजी आदि की तरह भिन्न भिन्न ग्रामों में महात्माओं की भी मेवाड़ में काफी बस्ती है।
इस तरह, उदयपुर में ओसवाल, पोरवाल, सेठ, महात्मा, हम्मड आदि सब मिलकर लगभग तीन सौ या साढ़े तीन सौ घर श्वेताम्बर मूर्तिपूजकों के कहे जाते हैं।
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मेरी मेवाड़यात्रा प्रधानतः, उदयपुर के जैनों में मुख्य दो वर्ग कहे जा सकते हैं । ओसवाल और पोरवाल। मेवाड़ के राजवंश के साथ, ओसवालों का सम्बन्ध बहुत समय से चला आता है, यह बात पहले कही जा चुकी है। इस प्राचीन सम्बन्ध का प्रभाव, आज भी स्पष्ट दीख पड़ता है। मेहता कुटुम्ब और ड्योढीवालों का सम्बन्ध, आज भी अधिकतर राजपरिवार के साथ ही जुड़ा हुआ है। उन्हें, छोटी-मोटी जागीरें अथवा कोई छोटीबड़ी नौकरी, आज भी मिली हुई है। इन्हीं के द्वारा, वे अपने आपको राजपरिवार के निकट के सम्बन्धी कहलाने के गौरव से युक्त मानते हैं । जिस सीसोदिया गोत्र के उदयपुर के महाराणा हैं, उसी सीसोदिया गोत्रके कुछ ओसवाल भी आज मौजूद हैं। इसके अतिरिक्त, मेहता कुटुम्ब के कुछ ओसवाल ऊँचे ऊँचे पदों पर भी मौजूद हैं। जैसे कि मेहता जीवनसिंहजी साहब खास कौन्सिल के मेम्बर हैं और उनके पुत्र मेहताजी तेजसिंहजी साहब दीवान हैं । मेहताजी रामसिंहजी, महकमा ख़ास के ऊँचे अधिकारी हैं। इनके अतिरिक्त, कारूलालजी कोठारी, मोतीलालजी सा० वोरा, चतुरसिंहजी लोढ़ा, अम्बालालजी सा० दोसी, आदि अनेक ओसवाल भाई बड़े बड़े पदों पर आसीन हैं और महाराणाजी सा० के कृपापात्र बने रहे हैं। श्रीयुत मदनसिंहजी साबिया बी. ए. शिक्षा विभाग के उच्च अधिकारी हैं।
और भी अनके ओसवाल हाकिम, नायब हाकिम; तथा अन्य ऐसे ही छोटे मोटे ओहदों पर कार्य कर रहे हैं। ओसवालों में शिक्षा का खूब अच्छा प्रचार है और इसी लिये उनमें अनेक वकील, बैरिस्टर, डॉक्टर
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उदयपुर के जैनों की वर्तमान स्थिति.
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आदि भी हैं । इस तरह, ओसवालों का अधिकांश इस प्रकार की लाइनों में कार्य करता है । साथ ही कोई कोई महानुभाव बड़ीबड़ी जागीरवाले एवं बड़े बड़े जागीरदारों के साथ लेन देन करने वाले भी हैं। ऐसे लोगों में, सेठ रोशनलालजी सा. चतुर मुख्य हैं । सेठ रोशनलालजी चतुर का कुटुम्ब, सदा से जैनसंघ का आगेवान रहता आया है। तीर्थरक्षाके प्रसंगों में अथवा धर्मरक्षा तथा धर्म प्रभावना के किसी भी कार्य में, इस कुटुम्ब की उदारता तथा आगेवानी लोकविदित है । आज भी यह कुटुंब, देव-गुरु-धर्म की सेवा के कार्यों में, मुख्य भाग ले रहा है। धर्म के प्रभाव से, सरस्वती तथा लक्ष्मीदेवी का निवास, सेठ चतुराँवाला की हवेली में मौजूद है । सेठ रोशनलालजी बड़े भारी व्यवसायी होते हुए मी, व्रतधारी एवं ज्ञान और क्रिया दोनों ही में अच्छो रुचि रखनेवाले हैं।
दूसरा वर्ग पोरवालों का है । पोरवाल भाई मी जिस तरह धर्मश्रद्धा में दृढ़ हैं, उसी तरह उदारता में भी हैं । पोरवाल लोग अधिकतर व्यौपारी हैं। उनमें, सरकारी नौकरी करने वाले कम हैं । इस वर्ग में सेठ कारुलालजो मारवाडी, अर्जुनलालजी मनावत, नाहर कुटुंब, सिंगटवाड़िया कुटुंब - आदि परिवार सचमुच ही धर्मप्रेमी तथा उदारचित्त वाले हैं ।
जैन समाज की संगठन शक्ति को छिन्न-भिन्न कर डालने वाले जिस रोग का प्राबल्य अन्यान्य शहरों अथवा प्रान्तों में दीख पड़ता है, वह रोग यहां भी कुछ अंशों में देखा जाता है । यह, वेद की ही बात है । एक दूसरे को छोटे बड़े – उँचे
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मेरी मेवाड़यात्रा
नीचे समजने की भावना का ही यह परिणाम है, कि आज उद
संगठन का अभाव दीख
यपुर के संघ में जैसा चाहिये वैसे पड़ता है । उदयपुर के संघ के पास अनेक मन्दिर, उपाश्रय, नोहरे, धर्मशाला आदि लाखों रुपये की सम्पति मौजूद है । किन्तु, जैसी चाहिये वैसी संगठन शक्ति के अभाव के कारण, उन सम्पत्तियों की बड़ी क्षति हो रही है और कुछ जायदाद तो बेकार अवस्था में ही पड़ी है। जिस व्यक्तिगत द्वेष कारण यह हानि हो रही है, वह यदि दूर हो जाय, तो सचमुच ही उदयपुर का संघ एक आदर्श संघ है, ऐसा कहा जा सकता है । प्रसन्नता की बात है, कि ओसवाल या पोरवाल, लोढेसाज या बड़ेसाज, सेठ या हुम्मड़, मेहता या दोसी, लोढ़ा या नाहर, आदि प्रत्येक प्रकार के भावों को दूर रख कर केवल 'जैन श्वेताम्बर ' के नामसे प्रसिद्ध समस्त जैनों की एक महासभा इसी चातुर्मास में स्थापित हुई है । यदि, इस सभा का प्रत्येक सदस्य 'मेरे तेरे' की भावना को दूर रख कर केवल धर्मोन्नति के कार्यों में शुद्ध हृदय से सहयोग देगा, तो हमारी उपर्युक्त भावना अवश्य सफल होगी, के द्वारा धर्मोन्नति के अनेक कार्य हो प्रसन्नता की बात तो यह है, कि उदयपुर संघ के नवयुवकों में, द्वेष पूर्ण-वृत्तियों का लगभग अभाव ही दीख पड़ता है । वे उत्साही तथा सेवा की भावनावाले हैं, अतः यह आशा अवश्य की जा सकती है, कि उदयपुर का संघ अभी तक जो
और इस महासभा
सकेंगे । अत्यधिक
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उदयपुर के जैनों की वर्तमान स्थिति
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कीर्ति तथा नाम प्राप्त करता आया है, उसकी अपेक्षा कहीं अधिक अच्छी कीर्ति वह प्राप्त करेगा और हाथ में लिये हुए कार्यों में अधिक अच्छी सफलता प्राप्त करेगा ।
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उदयपुर की संस्थाएँ
करीब बीस वर्ष पूर्व, स्व ० गुरुदेव श्री विजयधर्मसूरिजी महाराज की सेवा में, हमने उदयपुर में चातुर्मास किया था। उस समय के उदयपुर में और आज के उदयपुर में, शिक्षा के क्षेत्र में आकाशपाताल का अन्तर दीख पड़ता है । अजैनवर्ग के लिये तो मैं क्या कह सकता हूँ, किन्तु यह बात मुझे खूब याद है कि जैनों में शायद ही कोई ग्रेज्युएट दिखाई देता था। आज केवल ओसवाल समाज में ही दर्जनों ग्रेज्युएट दीख पडते हैं । जिन में से कुछ एम० ए०, एल-एल० बी०, आदि भी हैं। मेवाड़ जैसे प्रदेश में, पिछले बीस ही वर्षों में शिक्षा का आशातीत प्रचार हुआ है, इस में तो कोई सन्देह ही नहीं है। इस शिक्षणप्रचार में वर्तमान महाराणा साहब का शिक्षाप्रेम अधिक कारणभूत है, यह बात जितनी सत्य है, उतनी ही सत्य यह बात भी है कि राजा की भावना की प्रतिध्वनि प्रजा के हृदय से होती है। महाराणाजीने, कॉलेज द्वारा उच्च शिक्षा का प्रचार बढाया है। और केवल उदयपुर में ही नहीं,
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उदयपुर की संस्थाएँ बल्कि मेवाड़ राज्य में प्रतिवर्ष स्कूलों की वृद्धि होती ही जा रही है। प्रत्येक देश की शिक्षणसंस्थाएँ, उस देश के शिक्षितों तथा शिक्षाप्रेमियों पर आधार रखती हैं । आज उदयपुर में जो शिक्षणसंस्थाएँ दीख पडती हैं वे पिछले बीस वर्षों में बढ़े हुए शिक्षण का ही परिणाम हैं, यह कहने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। इस प्रचार की अनेक शिक्षणसंस्थाएँ खास उदयपुर में ही अस्तित्व रखती हैं। . ___ यह लेख अधिकांश में जैनसमाज को दृष्टि में रख कर ही लिखा जा रहा है और अधिकतर जैनसंस्थाओं का ही परिचय मुझे प्राप्त हुआ है, अतः जैनसंस्थाओं के सम्बन्ध में ही कुछ लिखने की भावना
थी। किन्तु मेवाड़ जैसे शिक्षा में पिछडे हुए माने जानेवाले प्रदेश में भी इस प्रकार की दो सार्वजनिक संस्थाएं देखने का प्रसंग मुझे प्राप्त हुआ कि जिन संस्थाओं को कुछ अंशों में मैं आदर्श-संस्थाएँ कह सकता हूँ। इन संस्थाओं का निरीक्षण कर के मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है; अतएव, इन संस्थाओंका यहाँ उल्लेख करना आवश्यक समझता हूँ । वे संस्थाएँ ये हैं
१-विद्याभवन । २-राजस्थान महिलाविद्यालय ।
१-विद्याभवन. यह एक ऐसी संस्था है कि जिसके ढंग की सारे भारतवर्ष में बहुत कम संस्थाएँ हैं, ऐसा कहा जाता है। इस
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मेरी मेवाड़यात्रा संस्था में अनेक विशेषताएँ हैं । जैसे कि यहाँ विद्यार्थियों के हृदयों में विद्या भरी नहीं जाती, बल्कि विद्यार्थी स्वयं ही अपनी शक्तियों को उन्नत करे और अपने ज्ञान का स्वयमेव विकास करे, ऐसे साधन प्रदान किये जाते हैं। इसी लिये, इस संस्था में विद्यार्थी का स्वभाव, उसकी शक्ति और उसका व्यक्तित्व समझने का प्रयत्न किया जाता है। इस संस्था में चित्रकारी, संगीत और कलाकौशल आदि के उपयुक्त साधन तो रक्खे ही गये हैं, किन्तु इन सब के साथ ही एक मानसिक-प्रयोगशाला भी बनाई गई है। इस प्रयोगशाला में, ऐसे यन्त्र रखे गये हैं, कि जिनसे बालक की एकाग्रता, अध्ययन की योग्यता, निर्भयता, चरित्रवल आदि अनेक मानसिक बातों का नाप निकाला जा सकता है। यह विद्याभवन, अनेक शिक्षितों-शिक्षाप्रेमियों के सहयोग से चल रहा है। इस संस्था के प्रधान हैं-श्री मोहनसिंहजी मेहता पी० एच-डी०, एम० ए० एल-एल० बी०, बार-एट-लॉ।
___२-राजस्थान महिला विद्यालय। यह संस्था भी उदयपुर की सार्वजनिक संस्थाओं में से एक है और है भी आदर्श संस्था। लगभग बीस वर्ष पूर्व उदयपुर में 'सार्वजनिक कन्याविद्यालय नामक एक संस्था स्थापित हुई थी, वही फल फूलकर और विस्तृत होकर आज इस संस्था के रूप में दिखाई दे रही है। चरित्रगठन, सुगृहिणीजीवन, मानसिक विकास, शारीरिक योग्यता, आर्थिक स्वावलंबन, आदि इस संस्था के मुख्य उद्देश्य हैं। इन्हों उद्देश्यों की पूर्ति के निमित्त, कन्या विद्यालय, महिला
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उदयपुर की संस्थाएँ
४१
C
विद्यालय, महिला शिक्षणप्रचारकेन्द्र, कन्याश्रम, महिलाश्रम, बालाश्रम घूमता रहनेवाला पुस्तकालय, महिला कलाभवन आदि कार्यविभागों की योजना की गई है। ज्यों ज्यों अनुकूलता होती जाती है, त्यों ही त्यों नये नये उपायों का अवलंबन किया जा रहा है।
यह संस्था, एक सार्वजनिक कमेटी के द्वारा चलती । इस समिति के प्रधान, राय बहादुर ठाकुर राजसिंहजी हैं और मन्त्री हैं - बाबू मेरूलालजी गेलडा । बाबू भेरूलालजी गेलड़ा एक स्वार्थत्यागी ओसवाल गृहस्थ हैं । बालिकाओं को शिक्षण देने के कार्यसे, उन्हें अत्यन्त प्रेम है । संस्था के सद्भाग्य से, विद्यावती देवी नामक एक प्रधान - शिक्षिका का सहकार उनको प्राप्त हुआ है। ये बाई सुशीला और बालाओं के प्रति अत्यन्त वात्सल्य भाव रखनेवाली हैं ।
उदयपुर की उपर्युक्त दोनों सार्वजनिक संस्थाएँ, सचमुच ही सहायता के योग्य संस्थाएँ हैं ।
३ - जैन संस्थाएँ |
उपर्युक्त दो सार्वजनिक - संस्थाओं के अतिरिक्त, उदयपुर में और भी अनेक सामाजिक संस्थाएँ प्रस्थेक फिरके में मौजूद हैं। स्थानकवासी सम्प्रदाय में जैनशिक्षण संस्था' है। दिगम्बरों की भी संस्था - पाठशाला है । श्वेताम्बर मूर्तिपूजकों के जैन बोर्डिंग, जैन कन्याशाला, जैन पाठशाला आदि हैं । जैन बोर्डिंग के पास खासी रकम है, जिसके ब्याज मात्र से भा
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४२
मेरी मेवाड़यात्रा संस्था भलीभाँति चल सकती है। किन्तु कन्याशाला और पाठशाला की ही तरह इस बोर्डिंग का कार्य भी सन्तोषजनक नहीं दीख पड़ता । यदि अभी स्थापित हुई 'महासभा के उच्च शिक्षाप्राप्त, उत्साही तथा शक्तिसम्पन्न कार्यकर्तागण इन संस्थाओं का कार्य अपने हाथ में लेंगे, तो आशा है कि ये संस्थाएँ अवश्य ही अच्छी स्थिति में आनावेंगी और उनके द्वारा समाज को अच्छा लाभ पहुँचेगा । बोर्डिंग, पाठशाला और कन्याशाला इन तीनों संस्थाओं में समयानुसार परिवर्तन करने की आवश्यकता है । उनके कार्यकर्तागण धर्मप्रेमी और समाज प्रेमी हैं। इसी लिये यदि महासभा के कार्यकर्तागण चाहेंगे तो इन संस्थाओं को अधिक अच्छी स्थिति में पहुँचा देंगे। इनके अतिरिक्त, जैन लायब्रेरी और श्री वर्धमान जैन ज्ञानमन्दिर नामक दो संस्थाएँ ज्ञानप्रचार का कार्य करने वाली संस्थाएँ हैं । जैन लायब्रेरी (श्री विजयधर्मसूरिहोल) एक कमेटी के द्वारा चलती है।
श्री वर्धमान ज्ञान मन्दिर यतिवर श्रीमान् अनूपचन्दजी की देखरेख में चलता है । यह संस्था, केवल उदयपुर की जनता के लिये ही नहीं, बल्कि उदयपुर में आने वाले साधु साध्वियाँ तथा प्रत्येक ज्ञानपिपासु के लिये अत्यन्त उपयोगी प्रमाणित हो रही है। जैन लायब्रेरी में, अनेक समाचार पत्रों के आनेके अतिरिक्त, आधुनिक समाजोपयोगी पुस्तकों का संग्रह भी है। दूसरी संस्था-ज्ञानमन्दिर में आगमों तथा अन्यान्य प्राचीन
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उदयपुर की संस्थाएँ ग्रन्थों का बहुत अच्छा संग्रह है। यति श्री अनूपचन्दजी विद्वान् , मिलनसार और विद्याप्रेमी हैं, अतएव उनकी अधीनता की इन पुस्तकों का लाभ सभी लोग उठा सकते हैं।
युवकों की प्रवृत्तियों को वेग प्रदान करने वाली अन्य दो संस्थाओं का यहाँ उल्लेख करना भी उचित जान पड़ता है। एक का नाम वर्धमान जैन मण्डल और दूसरी का नाम हैवाय० एम० जे० ए० ( यंग मैन जैन एसोसियेशन ) । पहली संस्था प्राचीन है और दूसरी नई है। वर्धमान जैन मण्डल कि जो यति श्री अनूपचन्द्रजी की देखरेख और श्रीयुत वीरचन्द्रजी सिरोया तथा उन्हीं जैसे अन्यान्य अनेक उत्साही युवकों के नेतृत्व में चल रहा है, उसने अभी तक बहुत अच्छा कार्य कर दिखलाया है। उदयपुर के आसपास दो दो-चार चार-पांच पांच कोस के गामोंमें स्थित जैन मन्दिरों में मण्डल के सदस्यों की टुकड़ियाँ भेजभेज कर वहां पूजाऐं पढवांना, स्वामिवात्सल्य करना, मेला लगवाना, आदि कार्य करने में इस मण्डल का अच्छा उत्साह दीख पड़ता है। इसके अतिरिक्त उदयपुर में जुलूस आदि के समय यह संस्था समुचित व्यवस्था रखती है । वाय. एम. जे. ए. नामक संस्था इसी चतुर्मास में स्थापित हुई है। अंग्रेजी की उच्च शिक्षा प्राप्त किये हुए या उच्च शिक्षा लेने चाले युवकों ने, शारीरिक उन्नति तथा ऐसे ही अन्यान्य उद्देस्यों से इस संस्था की स्थापना की है। जिस उत्साह से यह संस्था स्थापित हुई है, और अच्छे अच्छे उच्च-शिक्षा प्राप्त युवक इस संस्था
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मेरी मेवाड़यात्रा
के नेता बने हैं, उसे देखते हुए यह आशा की जा सकती है, कि यह संस्था भविष्य में अच्छा कार्य करेगी।
उदयपुर में एक और मी संस्था है । उसका नाम हैजैन एसोसियेशन । कहा जाता है कि यह संस्था पहले तो अच्छा कार्य करती थी। परन्तु आजकल तो कई वर्षों से खूब आराम कर रही है। हां, जैन धर्मशाला की एक कोठरी के दरवाजे पर साइनबोर्ड लगा हुआ अवश्य ही पढ़ने को मिलता है।
इस तरह, अनेक संस्थाओं का अस्तित्व रखनेवाले उदयपुर शहर में, जैनसंघ की एक महान् संस्था स्थापित हुई है, जिसका नाम है-'जनश्वेताम्बर महासभा'। यह महासभा जैनसंघ की महासभा है। उदयपुर तथा मेवाड़ के मन्दिरों की आसातना दूर करवाने, समस्त शिक्षण संस्थाओं को एक ही सूत्र से संचालित करने, भिन्न भिन्न दिशाओं में कार्य करनेवाली अन्यान्य संस्थाओं को एक ही संस्था से संबन्धित करके व्यवस्थापूर्वक उन सबका संचालन करने तथा साधु मुनिराजों से विनति करके उन्हें मेवाड़ में विचरवाने के पवित्र उद्देश्यों से इस संस्था की स्थापना की गई है। ओसवाल या पोरवाल, लोढ़ेसाज या बडे साज, सेठ या हुम्मड़, सभी फिरकों के लगभग चारसो मेम्बरों के द्वारा बनी हुई इस सभा में, उदयपुर की सभी संस्थाओं के आगेवान कार्यकर्ता समिलित हैं । इसीलिये यह आशा रखना अनुपयुक्त न होगा, कि शनैः शनैः उदयपुर के सभी मन्दिर तथा सभी संस्थाएँ इस महासभा के साथ सम्बन्धित हो जायेंगी और सभी कार्य सुचारूप से चलने
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उदयपुर की संस्थाएँ
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लगेंगे। यह अत्यन्त प्रसन्नता की वात है, कि उदयपुर की प्रसिद्ध जैन धर्मशाला, कि जिसके अधीन अनेक मन्दिर, पाठशालाएँ, कन्याशाला तथा अन्य अनेक कार्य चल रहे हैं, उस धर्मशाला को, उसके संचालक उदारचरित्र, शासनप्रेमी श्रीमान् शेड रोशनलालजी चतुरने महासभा के साथ सम्बन्धित कर दिया है । आशा है कि इसी तरह अन्य मन्दिरों के संचालक एवं दूसरी संस्थाओं के कार्यकर्तागण, अपनेअपने हाथ के मन्दिर तथा अधीनस्थ संस्थाओं को महासभा के साथ सम्बन्धित करके, संघ का संगठन बल बढावेंगे और इस तरह अधिकाधिक शासनोन्नति करेंगे ।
४ - सरकारी संस्थाएँ |
मेवाड़ एक इतिहासप्रसिद्ध प्राचीन देश है । यह अनेक प्राचीन नगरों, पहाड़ों तथा पर्वतों से भरा हुआ प्रदेश है । अनेक ऐतिहासिक घटनाएँ इस देश में घट चुकी हैं। स्थान स्थान पर शिलालेख, प्राचीन सिक्के और पुरानी मूर्तियां आदि वस्तुएँ प्राप्त होती हैं । सच पूछो तो यदि यह किसी इतिहासप्रेमी राजा का राज्य होता, तो उदयपुर शहर में एक जबरदस्त म्यूजियम मौजूद दीख पड़ता और हजारों विद्वान्, इतिहास प्रेमी तथा खोज करने वाले उस म्युजियम को देखने उदयपुर आते । इस प्रकार का कोई बड़ा-सा म्युजियम अथवा कोई आदर्श लायब्रेरी उदयपुर में नहीं है, फिर भी राज्य की तरफ से एक- दो ऐसे स्थान अवश्य ही बने हुए हैं कि जिनमें साधारण संग्रह ठीक किया गया कहा जासकता है । इनमें से एक है - विक्टोरिया म्यूजियम । इस म्यूजियम में भीलों
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मेरी मेवाडयात्रा के प्राचीन आभूषण, सोने-चांदी के वर्क की छाप के कपड़े, जो कि उदयपुर की खास बनावट है, सालवी बलाई लोगों के द्वारा बनाये गये कपड़ों के नमूने, सरूपशाही, भीमशाही आदि पगड़ियां, (कहा जाता है, कि आजकल जो पगड़ियाँ उपयोग में आरही हैं, वे अमरशाही के नामसे प्रसिद्ध हैं । ) अभ्रक की जातियाँ (मीलवाड़ा, राशमी आदि स्थानों पर अभ्रक की खदानें हैं), पत्थर के काम के नमूने आदि वस्तुएँ हैं । खास तौर पर ध्यान आकर्षित करने वाली वस्तुओं में शाहजादे खुर्रम( कि जो लगभग १६२ १ में हुआ था ) की पगड़ी मुख्य है । कहा जाता है कि महाराणा कर्णसिंहजी के साथ मैत्री होने के अवसर पर, यह पगड़ी उसने भेंट में दी थी। काँच का बना हुआ शुतरमुर्ग नामक पक्षी अत्यन्त मनोहर है । इस म्यूजियम में कुछ थोडे-से सिक्कों का भी संग्रह है। ये सिक्के ग्रीक, मुगल, पठान, तथा हिन्दू समय के हैं। उत्तर भारत तथा काबुल के सिक्के भी हैं। एक पत्थर के चोकठे में महाराणा उदयसिंहजी से २१ पीढी तक के राणाओं के चित्र हैं। मालम हुआ कि यह चित्रपट सिरोही से यहाँ आया है। दूसरी चीन है-लायब्रेरियां।
राज्य की दो लाइब्रेरियाँ हैं। इनमें से एक में, लगभग चार-पाँच हजार पुस्तकें हैं । इसके अध्यक्ष हैं—पं० अक्षयकीर्ति एम० ए० । इस लायब्रेरी में, कुछ शिलालेख हैं । इस शिलालेख का संवत् ७१८ है । इसकी भाषा संस्कृत तथा लिपि कुटिल है। गोहिल अपराजित के समय का यह शिलालेख है। अन्य तीन बड़ी बड़ी
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उदयपुर की संस्थाएँ
४७ शिलाओं पर १५१७ के शिलालेख हैं। एक आदिनाथ का परिकर है, जिसमें नागह्रदनगर (नागदा ) में राणा कुम्भकर्ण के राज्य में आदिनाथ का परिकर बनाये जाने और खरतरगच्छीय वर्धमानसरि द्वारा प्रतिष्ठा किये जाने का वर्णन खुदा हुआ है । मूर्ति श्वेताम्बरीय है । कुम्भा का समय १४९१ से १५२० तक का माना जाता है।
दूसरा एक पुस्तकालय श्री सज्जनसिंहजीने सन् १९३१ में स्थापित किया है। इसमें ११९२ भाषा की और ४६६ अंग्रेजी पुस्तकें हैं । तीसरा सरस्वती भण्डार है, जिसमें २३१९ पुस्तकें हैं, जो हस्तलिखित तथा छपी हुई, दोनों प्रकार की हैं। उपर्युक्त लाइब्रेरियाँ तथा म्यूझियम का निरीक्षण मुनिश्री हिमांशुविजयनी कर आये थे, अतः उन्हीं के नोट्स के आधार पर यह वर्णन लिखा गया है।
५-आयुर्वेद सेवाश्रम. 'आयुर्वेदसेवाश्रम' नाम की एक संस्था उदयपुर में मौजूद है। इसके अधिष्ठाता पंडित भवानीशंकरजी तथा पं. अमृतलालजी बड़े ही सज्जन, साधुभक्त, परोपकारवृत्सिवाले और आयुर्वेद के अच्छे निष्णात हैं। प्राचीन आयुर्वेद की पद्धति के अनुसार अच्छी अच्छी शुद्ध औषधियाँ इस आश्रम में तैयार की जाती हैं। इतना ही नहीं परन्तु ये दोनों अधिष्ठाता अच्छे अच्छे विद्यार्थियों को आयुर्वेद का अभ्यास कराकर परीक्षायें भी दिलवाते हैं। सेवाश्रम का ध्यान गरीबों की तरफ विशेष करके रहता है। और उनकी सेवा के
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४८
मेरी मेवाड़यात्रा लिये आश्रम के कार्यकर्ता उत्सुक रहते हैं। साधु-सन्तों की सेवा के लिये भी ये दोनों विद्वान् वैद्य तैयार रहते हैं। सेवाश्रम का कार्य दिनप्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। अभी तो आश्रमने अपना स्वतन्त्र प्रेस भी किया है।
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( ७ )
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मेवाद के हिन्दू तीर्थ
मेवाड़ प्राचीन और प्रसिद्ध देश है, यह कहने की तो
कोई आवश्यकता ही नहीं है । काँटा, भाटा, पर्वत, राजदण्ड और वस्त्रलूटन (चोरी) इन पांच रत्नों से प्रसिद्ध माना जानेवाला मेवाड़ प्रदेश, सचमुच ही देवभूमि है। गगनचुम्बी शिखरों से सुशोभित हजारों मन्दिर आज भी मेवाड़ में विद्यमान हैं । छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा कोई भी ग्राम ऐसा नहीं है, कि जहाँ एकाध मन्दिर न मौजूद हो । अनेक प्राचीन नगर, कि जहाँ आज केवल उनके खंडहर ही दृष्टिगोचर होते हैं, पहले अनेक मन्दिरों से सुशोभित थे, इस बात की साक्षी वहाँ के मन्दिरों के भग्नावशेष दे रहे हैं। फिर भी, आज हिन्दू किंवा जैन मन्दिरों की मेवाड़ में कमी नहीं है । इस देवभूमि के अनेक स्थान तो आन जगत्प्रसिद्ध तीर्थस्थान माने जाते हैं, जहाँ देश-देशान्तर के हजारों यात्री तीर्थयात्रा करने आते हैं । हिन्दूओं के ऐसे
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५०
मेरी मेवाड़ यात्रा पांच तीर्थ मेवाड़ में प्रसिद्ध हैं । ये तीर्थ इतने अधिक बड़े बड़े हैं, कि जहां लाखों की आय तथा लाखों का व्यय प्रतिवर्ष होता है। राज्य ने, इस प्रकार के तीर्थों की व्यवस्था करने के लिये, खास तौर पर एक स्पेशल डिपार्टमेण्ट बना रक्खा है । इस डिपार्टमेण्ट का नाम देवस्थान है । इस देवस्थान डिपार्टमेण्ट के सब से बडे ऑफीसर ‘देवस्थान हाकिम' कहे जाते हैं। आज कल 'देवस्थान हाकिम ' के पद पर श्रीयुत मथुरानाथजी साहब हैं । 'देवस्थान ' डिपार्टमेण्ट की देखरेख में, हिन्दुओं के पांच तीर्थ-एकलिंगजी, नाथद्वारा, कांकरोली, चारभुजाजी, और रुपनारायण हैं । त्यों ही, श्री केशरियाजी ( ऋषभदेवजी ) तीर्थ भी है । हिन्दुओं के इन पांचों तीर्थों का संक्षिप्त परिचय यों है--
१. एकलिंगजी उदयपुर से लगभग १३-१४ मील पर उत्तर में दो पहाड़ों के बीच में यह तीर्थ बना हुआ है । जिस ग्राम में यह मन्दिर बना हुआ है, उस गाम को कैलाशपुरी कहते हैं। एकलिंगजी महाराणाओं के इष्टदेव हैं। यहाँ तक कि मेवाड़ के राजा तो एकलिंगजी माने जाते हैं और महाराणा दीवान समंजे जाते हैं। कहा जाता है कि यह मन्दिर पहले बापा रावल ने बनवाया था। मुसलमानों के हुमले में टूट जाने के पश्चात्, महाराणा मोकल ने इसका जीर्णोद्धार करवाया था । किन्तु बारीकी से जाँच करने पर, एकलिंगजी का मन्दिर किसी समय जैन मन्दिर
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मेवाड़ के हिन्दूतीर्थ
था, ऐसा विश्वास होता है। मूल मन्दिर, रंगमण्डप, मन्दिर की परिक्रमणा, आसपास की देरियां, आदि सभी चीजें देखने से, वह किसी समय जैन मन्दिर रहा होगा, ऐसा स्पष्ट जान पडता है । किसी किसी दरवाजे पर रक्खी हुई मंगलमूर्ति, जैन तीर्थकरमूर्ति होने के कारण, इस बातकी अधिक पुष्टि होती है । कहा जाता है, कि एकलिंगनी की चतुर्भुन मूर्ति, बहुत कर के जैनमूर्ति है, जो आज एकलिंगजी के नाम से पूजी जा रही है। यह मूर्ति, हमने अपने नेत्रों से नहीं देखी है, इस लिये इस सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता ।
२. नाथद्वारा उदयपुर से ३० मील और एकलिंगजी से १७ मील उत्तर में नाथद्वारा नामक स्थान है. । यहाँ वल्लभ सम्प्रदाय के वैष्णवों के इष्टदेव श्री नाथजी का मन्दिर है। नाथद्वारा की प्रसिद्धि, वहाँ के गोस्वामी दामोदरलालजी और हंसा के विवाह की चर्चा से आज कल खूब हो रही है। करोड़ों की सम्पत्ति वाले इस तीर्थ में, जिस तरह लाखों रुपये की आय है, उसी तरह लाखों का खर्च भी है।
३-काँकरोली नाथद्वारे से १० मील दूर उत्तर दिशामें राजसमुद्र नामक २८ मील के घेरेवाले तालाव के किनारे कॉकरोली नामक ग्राम है । यहाँ वल्लम सम्प्रदाय के द्वारिकाधीश का मन्दिर है। यह
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मेरी मेवाडयात्रा ग्राम गोस्वामीजी के आधीन है। अतएव इस तीर्थ का सर्वाधिकार गोस्वामीजी को है । फिर भी, उदयपुर के 'देवस्थान' डिपार्टमेन्ट की देखरेख तो अवश्य ही है। आजकल यहाँ के गोस्वामीजी एक नवयुवक तथा शिक्षित हैं। यह वही काँकरोली है, जहाँ लगभग १५ वर्ष पूर्व स्थानीय जैनमन्दिर को तोड़ डाला गया था और मूर्तियाँ तालाव में फेंक दी गई थीं । पन्द्रह वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी, अभीतक उस केस का फैसला नहीं हो पाया है, यह खबी है। काँकरोली के गोस्वामीजी, उदयपुर के महाराणाओं के गुरु कहलाते हैं।
४-चारभुजाजी काँकरोली से लगमग बीस-पच्चीस मील पश्चिम में गडबोर नामक ग्राम है। यहाँ चारभुजाजी का प्रसिद्ध वैष्णव मन्दिर है। यहाँ के पूजारी गूजर लोग हैं। केशरियाजी में जिस तरह पण्डों का साम्राज्य है, उसी तरह यहाँ गूजर पूजारियों का है । पूजारियों के निश्चित हक हैं। यह तीर्थ भी उदयपुर राज्य के अधीन है। यहाँ नायब हाकिम, थानेदार आदि रहते हैं।
५-रूपनारायण चारभुजा से लगभग ३-४ मील दूर, रूपनारायण का प्रसिद्ध विष्णुमन्दिर है। उपर्युक्त चार तीर्थों की अपेक्षा, यहाँ की आमदनी कम बतलाई जाती है। एकान्त तथा पहाड़ी प्रदेश में होने के कारण यहांतक यात्री कम जाते हैं। यहां राज्य का अधिकार है।
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(८)
मेवाड की जैन-पंचतीर्थी
मेवाड़ में इस समय लगभग पौनलाख जैनों की बस्ती है। किन्तु नागदा, आहह, कुम्भलगढ, चित्तौड़, देलवाडा, झीलवाड़ा, केलवा तथा केलवाडा आदि के अनेक विशाल तथा प्राचीन मन्दिर एवं मन्दिरों के खंडहर देखते हुए, यह कल्पना करना किंचित् भी अनुपयुक्त न होगा, कि किसी समय मेवाड़ में लाखों जैनों की बस्ती रही होगी। कहा जाता है कि जिस तरह देलवाड़े में किसी समय साढ़े तीनसौ मन्दिर थे, उसी तरह कुम्भलगढमें भी लगभग उतने ही मन्दिर थे । बिलकुल उजाड़ पड़ी हुई जावरनगरी के खंडहर देखने वाला इस बात की सरलता पूर्वक कल्पना कर सकता है, कि यहां किसी समय बहुत अधिक मन्दिर रहे होंगे।
चित्तौड़ के किले से ७ मील उत्तर में नगरी नामक एक प्राचीन स्थान है। इस स्थान में पडे हुए बँडहर, गढे
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५४
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मेरी मेवाड़यात्रा
हुए पत्थर तथा यहाँ से प्राप्त हुए शिलालेखों एवं सिक्कों के आधार पर रायबहादुर पण्डित गौरीशंकरजी ओझा इस जगह पर एक बड़ी-सी नगरी होने का अनुमान करते हैं। उनका तो यहांतक कथन है कि इस 'नगरी' का प्राचीन नाम 'मध्यमिका' था । अजमेर जिले के बर्ली नामक ग्राम से प्राप्त हुए वीर संवत् ८४ के शिलालेख में 'मध्यमिका' का उल्लेख मिलता है । 'मध्यमिका' नगरी अत्यन्त प्राचीन नगरी थी। यहां भी अनेक जैनमन्दिर होने का अनुमान किया जा सकता है । ऐसे अनेक स्थान आज भी मेवाड़ में मौजूद हैं। और वहाँ किसी समय अनेक मन्दिर होने का अनुमान भी किया जासकता है आजकल के विद्यमान् मन्दिरों की प्राचीनता, विशालता और मनोहरता देखते हुए, यही कहा जा सकता है कि बड़े-बड़े तीर्थस्थानों को भूला दें ऐसे वे मन्दिर हैं । इन मन्दिरों के सम्बन्ध में अनेक प्रकार की चमत्कारिक बातें आज भी जनता में प्रचलित हैं । अत्यन्त दुःख का विषय है, कि ऐसे ऐसे प्राचीन तथा भव्य तीर्थ सदृश मन्दिरों एवं मूर्तियों के होते हुए भी, इन स्थानों में उनकी पूजा करने वाला कोई नहीं रह गया है । इन मन्दिरों के पूजने वाले थे, वे कालबल से घट गये और जो बाकी रह गये, वे बेचारे अन्य उपदेशकों के उपदेश से बहक कर, प्रभुभक्ति से विमुख हो बैठे हैं । परिणामतः, बचे बचाये ये मन्दिर तथा मूर्तियाँ वीरान् निर्जन अवस्था को भोग रही हैं। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि किसी भी मन्दिर या मूर्ति की महिमा, उसके उपासकों
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मेवाड़ की जैन पंचतीर्थी
हाता ह
पूजनेवालों पर अवलम्बित है । अस्तु। मेवाड की ऐसी हीनावस्था में भी आज वहाँ ऐसे अनेक स्थान मौजूद हैं, जो तीर्थस्थान के रूपमें प्रसिद्ध हैं। उन स्थानों में जाने पर, भव्यात्माओं को जिस तरह अपूर्व आहलाद होता है, उसी तरह खोज करनेवालों को अनेक प्रकार की ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध होती है।
मेवाड़ में जिस तरह हिन्दुओं के पांच तीर्थ प्रसिद्ध हैं, उसी तरह जैनों के भी पांच तीर्थ हैं।
१-केशरियाजी ( ऋषभदेवजी )
उदयपुर से लगभग ४० मील दूर दक्षिण दिशा में स्थित केशरियाजी का तीर्थ विश्वविदित है । केशरियाजी का मन्दिर अत्यन्त भव्य बना हुआ है । मूर्ति मनोहर तथा चमत्कारिक है। मूर्ति की चमत्कारिता का ही यह परिणाम है, कि यहां श्वेताम्बर तथा दिगम्बर, ब्राह्मण एवं क्षत्रिय, बल्कि हलके वर्ण के लोग भी दर्शन-पूजन आदि के लिये आते हैं। केशरियाजी की मूर्ति का आकार श्वेताम्बर मान्यताके अनुसार है । सदैव से श्वेताम्बरों की ही तरफ से ध्वजादण्ड चढ़ाया जाता है। श्वेताम्बरों की मान्यता के अनुसार केशरियाजी पर केशर चढ़ाई जाती है। स्वर्गस्थ महाराणाजी श्री फतेहसिंहजी ने श्वेताम्बरों की मान्यता के अनुसार ही अपनी तरफ से साढ़े तीनलाख की आंगी चढ़ाई थी और श्वेताम्बरों के अनेक शिलालेख भी मिलते हैं। ये बातें स्पष्ट रूप से सिद्ध करती हैं कि तीर्थ श्वेताम्बरों का ही है । अस्तु । तीर्थ,
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५६
I
प्राचीन एवं अति पवित्र हैं । ऐसा पवित्र पड़ा है । और 'दो बिल्ली तथा बंदर' हो रही है। इस तीर्थ के झघडेके लिये कमीशन बैठा था । कहा जाता है कि, कमीशन ने अपनी रिपोर्ट तैयार करके दरबार के सामने पेश की है । परन्तु न मालुम किस कारणसे वह रिपोर्ट अभी तक प्रकाशित नहीं होती । हम आशा करते हैं कि - उदयपुर के दयालु और धर्म प्रेमी महाराणाजी साहेब, जहाँ तक हो सके शीघ्र ही रिपोर्ट प्रकाशित करेंगे, और इस तीर्थ को, आर्थिक दृष्टि से, लोगों की श्रद्धा की दृष्टि से जो हानि हो रही है, उससे बचा लेंगे ।
२- करेड़ा
उदयपुर चितौड़ रेल्वे के करेड़ा स्टेशन से लगभग आधे या पौन मील दूर, सफेद पाषाण का, श्री पार्श्वनाथ भगवान् का एक सुविशाल और सुन्दर मन्दिर बना हुआ है । यह मन्दिर कब बना था इसके सम्बन्ध में कोई लेख नहीं प्राप्त होता । किन्तु इसकी बनावट को देखते हुए यह अनुमान किया जा सकता है, कि यह मन्दिर अत्यन्त प्राचीन है । इस मन्दिर का रंगमण्डप इतना अधिक विशाल और भव्य है, कि मेवाड़ के हमारे प्रवास में ऐसा रंग मण्डप कहीं भी नहीं दीख पड़ा । इस मन्दिर में से प्राप्त होने वाले शिलालेख, श्रीयुत पूरणचन्द्रजी नाहर ने लिये हैं । वे ग्यारहवीं शताब्दी से लगा
मेरी मेवाड़यात्रा
तीर्थ वर्षों से झघडेमें
की कहावत चरितार्थ
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मेवाड़ की जैन पंचतीर्थी
कर ठेठ उन्नीसवीं शताब्दी तक के लेख हैं । इनमें से अधिकतर लेख धातु की पंचतीर्थी आदि पर के हैं, जिनसे ये करेड़ा की स्थापित मूर्तियाँ हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता। हाँ, बावन जिनालय की देरियों के पाट पर जो शिलालेख हैं, वे करेड़ा के कहे जा सकते हैं । इन लेखों में सब से अधिक - प्राचीन लेख संवत् १०३९ का है । दूसरे लेख चौदहवीं तथा पन्द्रहवींशताब्दी के हैं । सं० २०३९ का लेख यह बतलाता है, कि संडेरक गच्छीय श्री यशोभद्रसूरिजी ने पार्श्वनाथ के बिम्ब की प्रतिष्ठा की थी । यदि यह प्रतिष्ठा यहीं, यानी करेड़ा में ही की गई हो, तो फिर यह बात निश्चित हो जाती है, कि करेड़ा तथा यह मन्दिर अत्यन्त प्राचीन हैं । यहाँ से प्राप्त होने वाले शिलालेखों में, ऐसा शिलालेख एक ही देखा जाता है, कि जिसमें करेड़ा का नाम आया हो । यह शिलालेख सं. १४९५ के ज्येष्ठ शु० ३ बुधवार का है । उकेशवंशीय नाहर गोत्रीय एक कुटुम्ब ने, पार्श्वनाथ के मन्दिर में विमलनाथ की देवकुलिका बनवाई, जिसकी खरतरगच्छीय जिनसागरसूरिजी ने प्रतिष्ठा की । यही उस शिलालेख का भाव है। करेड़ा के इस मन्दिर में एक दो खास विशेषताएँ हैं । रंगमण्डप के ऊपर के भाग में, एक तरफ मस्जिद का आकार बनाया गया है । इस सम्बन्ध में यह बात कही जाती है कि बादशाह अकबर जब यहां आया, तब उसने यह आकृति बनवा दी थी। ऐसा करने का अभिप्राय यह था कि
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मेरी मेवाड़यात्रा कोई मुसलमान इस मन्दिर को न तोड़े । किन्तु यह बात कहां तक सत्य है यह निश्चित रुप से नहीं कही जा सकती। मन्दिर बनवानेवालों ने स्वयं अथवा उसके पश्चात् जीर्णोद्धारादि के प्रसंग पर, मुसलमानों द्वारा तोडे जाने के भय से भी कदाचित् यह आकार बना दिया
. दूसरी विशेषता यह है, कि मूल नायक श्री पार्श्वनाथजी भगवान की मूर्ति इस तरह विराजमान की गई है कि उसके सामने के एक छिद्र में से पौष शु० १० के दिन सूर्य की किरणे पूरी तरह मूर्ति पर पड़ती थीं । पीछे से जीर्णोद्धार करवाते समय, सामने की दीवार उँची हो गई, जिससे अब उस तरह किरणें नहीं पड़ती।
यह तीर्थ पहले अधिक प्रसिद्ध न था। किन्तु स्वर्गस्थ सेठ लल्लूभाई कि जिन्होंने मेवाड़ के मन्दिरों के जीर्णोद्धार के पीछे अपनी जिन्दगी पूरी कर दी थी, उसी अमर आत्माने इस तीर्थ में सुधार करवाया और तीर्थ को प्रसिद्ध भी किया । आज कल, इस तीर्थ का संचालन उदयपुर के जैनों की एक कमेटी के अधीन चल रहा है। इस तीर्थ के मैनेजर के रूप में श्रीयुत कनकमलजी कार्य कर रहे हैं । कनकमलजी परम श्रद्धालु मूर्तिपूजक हैं और पूरी लगन के साथ तीर्थ की व्यवस्था कर रहे हैं । कनकमलजी की तत्परता तथा लगन के कारण
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मेवाड़ की जैन पंचतीर्थी इस तीर्थ का कार्य खूब बढ़ रहा है। इतना ही नहीं, बल्कि मेवाड़ के अन्य मन्दिरों के लिये भी वे यथाशक्ति परिश्रम करते रहते हैं । ऐसे सच्ची लगन वाले श्रद्धालु मेनेजर यदि प्रत्येक तीर्थ में हों, तो कितना अच्छा हो ।
३. नागदा-अदबदजी उदयपुर से लगभग १३-१४ मील उत्तर में, हिन्दुओं के एकलिंगजी तीर्थ के पास, उससे लगभग १ मील दूर पहाड़ों के बीच में अदबदजी का तीर्थ है। इस स्थान पर किसी समय एक बड़ी नगरी थी, जिसका नाम नागदा था । संस्कृत शिलालेख आदि में इसका नाम नागदह अथवा नागहद लिखा मिलता है। पहले यह नगर अत्यन्त समृद्धिशाली और मेवाड़ के राजाओं की राजधानी था । साथ ही यह स्थान जैन तीर्थ के रूप में भी प्रसिद्ध था। लगभग एक मील के विस्तार में, अनेक हिन्दू तथा जैन मन्दिरों के खंडहर दृष्टिगोचर होते हैं। यहाँ श्री शान्तिनाथजी का एक मन्दिर अब मी मौजूद है। शान्तिनाथ भगवान की बैठी हुई मूर्ति लगभग ९ फीट उँची तथा अत्यन्त मनोहर है । उस पर खुदे हुए लेख का सारांश यह है:
. “ संवत् १४९४ की माघ शुक्ला ११ गुरुवार के दिन, मेदपाट देश में, देवकुल पाटक ( देलवाड़ा ) नगर में, मोकल के
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मेरी मेवाड़यात्रा पुत्र महाराणा कुम्भा के राज्य में, ओसवालवंशीय, नवलखा गोत्रीय साह सारंग ने, स्वयं उपार्जन की हुई लक्ष्मी को सार्थक करने के उद्देश्य से, 'निरुपममद्भुतं' ऐसी शान्तिनाथ की मूर्ति परिकर सहित बनवाई और खरतर गच्छीय श्री जिनसागरसूरिने प्रतिष्ठा की।"
श्री शान्तिनाथ भगवान् की मूर्ति पर के उपर्युक्त भाववाले शिलालेख में बिम्ब के लिये अद्भुत विशेषण लगाया गया है। वह विशेषण सकारण है । वस्तुतः वह मूर्ति बैठी हुई लगभग ९ फीट की विशाल है, इसीलिये यह तीर्थ 'अदबदजी के नाम से प्रसिद्ध हुआ और अब मी प्रसिद्ध है।
श्री शान्तिनाथ भगवान् के इस मन्दिर के पास ही एक विशाल मन्दिर टूटी-फूटी अवस्था में पड़ा है । इसमें, एक भी मूर्ति नहीं है। सम्भव है कि यह जीर्ण-शीर्ण मन्दिर किसी समय पार्श्वनाथ या नेमिनाथ का मन्दिर रहा हो । कारण कि प्राचीन तीर्थमालाओं तथा गुर्वावली आदि में यहाँ पार्श्वनाथ तथा नेमिनाथ के मन्दिर होने का उल्लेख मिलता है । श्रीमुनिसुन्दरसरि कृत गुर्वावली के ३२ श्लोक में कहे अनुसार “खोमाण राजा के कुल में उत्पन्न समुद्रसरि ने, दिगम्बरों को जीतकर नागदह का पार्श्वनाथ का तीर्थ अपने स्वाधीन किया था "। श्री मुनिसुन्दरसूरि विरचित पार्श्वनाथ के स्तोत्र से विदित होता है कि यहाँ श्री पार्श्वनाथ का मन्दिर सम्पति राजा ने बनवाया था।
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मेवाड़ की जैन पंचतीर्थी
श्री नेमिनाथ का नाम, श्री शीलविजयजी और श्री जिनतिलकसूरि ने अपनी अपनी तीर्थमालाओं में भी लिया है । श्री सोमतिलकसरि ने एक स्तोत्र की रचना की है, जिसमें यहाँ का नेमिनाथ का मन्दिर पेथड़शाह द्वारा बनाये जाने का उल्लेख है ।
आजकल यहाँ न पार्श्वनाथ का मन्दिर है और न नेमिनाथ का ही । केवल श्री अदबदजी-श्री शान्तिनाथ भगवान का ही मन्दिर है। यदि आसपास के शेष मन्दिरों की खोज की जावे, तो बहुत से शिलालेख तथा मूर्तियाँ प्राप्त हो सकती हैं।
शान्तिनाथ भगवान् के इस मन्दिर की पूजापाठ की व्यवस्था पहले तो अच्छी न थी। किन्तु आजकल एकलिंगजी में जो हाकिम, साहब हैं, उन्होंने अपने सहायक ऑफिसरों में से तथा अन्य रीतियों से प्रयत्न करके पूजा की व्यवस्था की है। अतएव नियमित रूप से पूजा होती है।
उदयपुर आनेवाले यात्रीलोग यहाँ की यात्रा अवश्य करें। पक्की सड़क है, मोटर, तांगे, गाड़ियाँ आदि सवारी जाती हैं । यहाँ से थोड़ी ही दूर, केवल ३-४ मील की दूरी पर देलवाडा तीर्थ है।
४-देलवाड़ा एकलिंगजी से ३-४ मील दूर देलवाड़ा नामक ग्राम है। इस देलवाड़े में से प्राप्त हुए शिलालेखों के साथ, 'देवकुलपाटक'
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मेरी मेवाड़यात्रा नामक एक पुस्तक, स्वर्गस्थ गुरुदेवश्री विजयधर्मसूरिजी महाराजकी लिखी हुई प्रकाशित हो चुकी है । इस पुस्तक से देलवाड़े के सम्बन्ध में बहुत कुछ जानकारी प्राप्त की जासकती है। देलवाड़ा देखने वाला कोई भी दर्शक यह बात कह सकता है, कि किसी समय यहाँ बहुत से जैन मन्दिर होने चाहिए। प्राचीन-तीर्थमाला आदि में यहाँ बहुत से मन्दिर होने का उल्लेख मिलता है। और एक तीर्थमाला में तो यहाँ के पर्वतों पर शत्रुजय तथा गिरनार की भी स्थापना होने का उल्लेख मिलता है"देलवाड़ि छे देवज घणा,
बहु जिनमन्दिर रलियामणा । दोइ डुंगर तिहाँ थाप्या सार,
श्री शर्बुजो ने गिरिनार" ॥३७॥ 'श्री शीलविजयजी कृत तीर्थमाला' (१७४६)
इस समय यहां तीन मन्दिर विद्यमान हैं। जिन्हें 'वसहि' कहा जाता है। ये मन्दिर अत्यन्त विशाल हैं। यहाँ भोयरे भी हैं । विशाल तथा मनोहर प्रभुमूर्तियों के अतिरिक्त यहाँ अनेक आचार्यों की भी मूर्तियां है । संवत् १९५४ में, यहाँ के जीर्णोद्धार के अवसर पर, १२४ मूर्तियां जमीन में से निकली थीं। प्राचीन काल में, यह एक विशाल नगरी थी । और कहा जाता है, कि किसी समय यहाँ तीनसौ घण्टों का नाद एक साथ सुनाई देता था। यानी, करीब तीनसौ या साढे तीनसौ मन्दिर यहां विद्यमान थे। इस नगरी में
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मेवाड की जैन पंचतीर्थी
६३
ऐतिहासिक घटनाएँ घटने के प्रमाण भी उपलब्ध होते हैं। सोमसुन्दरसूरि कि जो पन्द्रहवीं सदी में हुए हैं, वे यहाँ अनेक बार आये थे और प्रतिष्ठा पदवी आदि के उत्सव यहाँ करवाये थे, यह बात 'सोमसौभाग्यकाव्य' से विदित होती है ।
यहाँ के शिलालेख तथा अन्य ऐतिहासिक प्रमाणों से यह बात मालूम होती है कि पन्द्रहवीं, सोलहवीं तथा सत्रहवीं शताब्दी में यह शहर खूब रौनकवाला था। यहां की प्रायः प्रत्येक मूर्ति पर शिलालेख है । और भी अनेक शिलालेख हैं । पूज्यपाद स्वर्गस्थ गुरुदेव श्री विजयधर्मसूरि महाराज ने, जिस तरह 'देवकुलपाटक' में यहां के अनेक शिलालेख उद्धृत किये हैं, उसी तरह श्रीयुत पूरणचन्द्रजी ने भी लीये हैं । वे शिलालेख, 'जैन लेख संग्रह ' के दूसरे भाग में आये है ।
इस समय जो तीन मन्दिर हैं, वे बावन जिनालय हैं । मूर्तियां विशाल तथा भव्य हैं। चौथा एक मन्दिर यतिजी के उपाश्रय में है ! बड़े तीन मन्दिरों में से दो ऋषभदेव भगवान के और एक पार्श्वनाथ का कहा जाता है। यहां ओसवालों के लगभग सौ - सवासौ घर हैं, किन्तु वे सभी स्थानकवासी हैं। एक गृहस्थ श्रीयुत मोहनलालजी उदयपुर के रहने वाले हैं, जो मूर्तिपूजक हैं और यथाशक्ति पूजा पाठ भी करते हैं ।
यहाँ, महात्मा श्रीलालजी और महात्मा रामलालजी आदि महात्मागण सज्जन पुरुष हैं। महात्माओं की यहाँ १०-१२
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मेरी मेवाडयात्रा पोसाले हैं। वे कुलगुरु हैं, जैनधर्मावलम्बी है और मूर्तिपूजा में श्रद्धा रखते हैं।
यहां की यात्रा भी खासतौर से करने योग्य है ।
.५-दयालशाह का किला । "नव चोकी नव लाखकी,
क्रोड रुप्यों रो काम । राणे बँधायो राजसिंह,
राजनगर है गाम ॥ . वोही राणा राजसिंह,
वोही शाह दयाल । वणे बँधायो देहरो,
वणे बँधाई पाल ॥ विक्रम की अठारहवीं शताब्दी में, उदयपुर की राजगद्दी पर हुए राणा राजसिंह ने, कांकरोली के पास राजनगर बसाया । इस राजनगर के पास एक विशाल तालाव की पाल इतनी अधिक जबरदस्त है, कि जिसके निमित्त राणा राजसिंह ने एक करोड़ रुपया खर्च किया था। तालाब की पाल के पास ही एक बड़ा-सा पहाड़ है । इस पहाड़ पर एक किला है, जो 'दयालशाह' का किला' के नाम से प्रसिद्ध है। वास्तव में, यह कोई किला नहीं बल्कि एक विशाल मन्दिर है । 'दयालशाह का किला' के नाम से प्रसिद्ध यह मन्दिर, दयालशाह' नामक एक ओसवाल गृहस्थ ने बनवाया था। 'दयालशाह' महाराणा 'राजसिंह' के एक वफादार
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मेवाड़ की जैन पंचतीर्थी
मंत्री थे । दयालशाह के मंत्री होने की घटना जैसे रहस्य पूर्ण है, वैसे ही उनके यह मन्दिर बनवाने की घटना भी विचित्र है।
___ दयालशाह, वास्तव में कहाँ के रहनेवाले थे, यह बात नहीं मालूम होपाई है। किन्तु वे संघवी गोत्र के सरूपर्या ओसवाल थे। उनके पूर्वज सीसोदिया थे । जैनधर्म स्वीकार कर लेने के पश्चात् उनकी गणना ओसवाल जैन के रूप में होने लगी।
दयालशाह नेता का (शिलालेख में कोई कोई तेजा भी पढ़ते हैं ) प्रपौत्र, गजु का पौत्र और राजू का पुत्र था। इस मन्दिर की मूर्ति के शिलालेख पर से जान पड़ता है कि राजू के चार पुत्र थे, जिनमें सब से छोटा दयालशाह था।
दयालशाह उदयपुर के एक ब्राह्मण के यहाँ नोकरी करते थे। महाराणा राजसिंहजी की एक स्त्रीने, महाराणा को विष दे देने के लिये एक पत्र उस पुरोहित को लिखा था, जिसके यहाँ दयालशाह नौकर थे। पुरोहित ने वह पत्र अपनी कटार के म्यान में रख छोडा था।
ऐसा प्रसंग उपस्थित हुआ, कि दयालशाह को अपनी सुसराल देवाली माना था। साथ में कोई शस्त्र हो तो अच्छा है, ऐसा समझ - कर उन्होंने अपने स्वामी उस पुरोहित से कोई शस्त्र मांगा। पुरोहित को उस चिट्ठी की याद नहीं रही, अतः उसने वही कटार दयालशाह को दे दी, जिसके म्यान में रानी की चिटठी छिपी हुई थी।
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मेरी मेवाड़यात्रा
दयालशाह कटार ले गये । स्वाभाविक रूप से कटार खोलने पर वह चिट्ठी हाथ में आ गई। दयालशाह ने, वह चिट्ठी महाराणाजी को दे दी । राणा ने पुरोहित तथा रानी को प्राणदण्ड की सजा दी । रानी के पुत्र सरदारसिंह ने भी विष खा कर आत्महत्या कर ली ।
महाराणा राजसिंहजी ने दयालशाह को अपनी सेवा में ले लिया और धीरे धीरे आगे बढ़ा कर उसे मन्त्री पद तक
पहुँचा दिया |
दयालशाह वीर प्रकृत्तिवाला पुरुष था । उसकी बहादुरी के कारण ही, उसे महाराणा राजसिंह ने औरंगजेब के विरुद्ध युद्ध करने के लिये नियुक्त किया था । औरंगजेब की सेना ने अनेक हिन्दू मन्दिर तोड डाले थे । इसका बदला दयालशाह ने बादशाह के अनेक भवन अपने अधिकार में ले कर उनमें राणाजी के थाने स्थापित करके एवं मस्जिदें तोड़-तोड़ कर लिया था । दयालशाह, मालवे को लूट कर अनेक ऊँट सोना लाया था जौर महाराणाजी को वह सोना भेंट
किया था ।
इसी दयालशाह ने महाराणा जयसिंहजी के समय में चितौड़ में शाहजादे आज़म की सेना पर रात को छापा मारा था । सेनापति दिलावरखां और दयालशाह के बीच युद्ध हुआ था । दयालशाहने अपनी स्त्री का अपने हाथ से, केवल इसी लिये वध कर डाला था, कि कहीं मुसलमान उसे
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मेवाड़ की जैन पंचतीर्थी पकड़ न ले जायँ । दयालशाह की लड़की को मुसलमान लोग उठा ले गये थे।
दयालशाह के जीवन सम्बन्धी उपर्युक्त वर्णन श्रीमान् पं. गौरीशंकरजी ओझा ने अपने 'राजपूताने के इतिहास' में अंकित किया है।
जिन ओसवालकुलभूषण दयालशाह ने उपर्युक्त प्रकार के वीरता पूर्ण कार्य किये थे, उन्ही दयालशाह ने एक करोड रुपया खर्च करके नौमंजीला गगन स्पर्शी मन्दिर बनवाया था; जो काँकरोली तथा राजनगर के बीच राजसागर की पाल के पास ही एक पहाड पर सुशोभित है और आज भी 'दयालशाह के किले ' के नाम से प्रसिद्ध है और मूल नायक चौमुखजी श्री ऋषभदेव भगवान् की मूर्तियाँ विराजमान हैं।
कहा जाता है कि यह मन्दिर नौमंजीला था। इसके ध्वज की छाया छः कोस ( बारह माइल) पर पडती थी । आगे चल कर, औरंगजेब ने उसे राजशाही किला समझ कर तुड़वा डाला था। मन्दिर की पहली मंजिल सुरक्षित बच गई. थी। इस समय जो दूसरी मंजिल है, वह नई बनी हुई है।
इस मन्दिर के सम्बन्ध में कहा जाता है कि महाराणा राजसिंह ने राजसागर की पाल बनवाना प्रारम्भ किया, किन्तु वह टिकती नहीं थी। अन्तमें 'किसी सच्ची-सती स्त्री के हाथ से यदि पाल की नींव डाली जाय, तो पाल का काम चल सके' ऐसी
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मेरी मेवाड़यात्रा अगम्य वाणी होने पर, दयालशाह की पुत्रवधूने इसका बीड़ा उठाया। उसके हाथ से नींव पडते ही पाल का कार्य चलने लगा। इसके बदले में दयालशाह की पुत्रवधूने उपर्युक्त मन्दिर बनाने की मंजूरी प्राप्त की थी।
इस किंवदन्ती में कितना सत्य है, यह नहीं कहा जा सकता। सम्भव है कि दयालशाह द्वारा की गई महाराणा राजसिंहजी की सेवा से प्रसन्न हो कर, महाराणाजी ने इस पहाड़ पर मन्दिर बनवाने की स्वीकृति प्रदान कर दी हो । ऐसा भी कहा जाता है, कि राजसागर की पाल बनवाने में राणाजी को एक करोड़ रुपया व्यय करना पड़ा था और दयालशाह का भी इस मन्दिर की रचना करवाने में एक करोड रुपया व्यय हुआ था।
'दयालशाह के किले के पास ही नवचौकी नामक स्थान है । इस नवचौकी की कारीगरी अत्यन्त मनोहर है। यह मानों आबू या देलवाड़े के मन्दिरों की कारीगरी का नमूना हो । इस नवचौकी में, मेवाड़के राजाओं की प्रशंसा करने वाला पच्चीस सर्ग का एक काव्य शिलालेख के रूप में खुदा हुआ है । इस प्रशस्ति में भी दयालशाह का नाम और उनकी वीरता का वर्णन मिलता है।
मन्दिर में जो मूर्तियाँ विराजमान हैं, उन सब पर एक ही प्रकार का लेख है। इस लेख को पढ़ने से विदित होता है, कि-- "संवत् १७३:२. की वैशाख शु०७ गुरुवार के दिन महाराणा
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मेवाड़ की जैन पंचतीर्थी
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राजसिंहजी के राज्य में संघवी दयालदास ने यह चतुर्मुख प्रासाद बनवाया था और विजयगच्छीय श्री विनयसागरसूरि ने इसकी प्रतिष्ठा की थी" । इस लेख में, दयालशाह की और भी दो तीन पीढियों का उल्लेख मिलता है ।
इस मन्दिर की व्यवस्था करेडातीर्थ के साथ सम्बद्ध कर दीगई है। यात्रियों की सुविधा के निमित्त काँकरोली स्टेशन पर एक धर्मशाला बनाई जारही है और दूसरी दयालशाह के किले की तलहटी में । यह स्थान काँकरोली स्टेशन से लगभग तीन माइल दूर है । राजनगर और काँकरोली में भी हिन्दू धर्मशालाएँ मौजूद हैं।
: उपर्युक्त प्रकार से, मेवाड़ में केशरियाजी, करेड़ा, नागदा, (अदबदजी), देलवाडा और दयालशाह का किला ये पाँच तीर्थ दर्शनीय, प्राचीन और प्रत्येक प्रकार से महत्वपूर्ण हैं | केशरियाजी की यात्रा के निमित्त जानेवाले यात्रियों के लिये, मेवाड की यह पंचतीर्थी अवश्य यात्रा करने योग्य है ।
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(९)
उदयपुर के मन्दिर
मेवाड के प्रसिद्ध पाँच तीर्थों का वर्णन किया जाचुका है। मेवाड के ये पाँचों तीर्थ---केशरियाजी, करेड़ा, अदबदजी, देलवाड़ा और दयालशाह का किला जिस तरह आकर्षक और कुछ-न-कुछ विशेषता से पूर्ण हैं, उसी तरह खास उदयपुर के मन्दिर भी कुछ कम आकर्षक नहीं हैं। बल्कि, कोई कोई मन्दिर तो ऐसे हैं, जो अच्छे अच्छे तीर्थस्थानों के मन्दिरों को भी भुला दें। उदाहरण के तौर पर-श्री शीतलनाथ का मन्दिर, वासुपूज्यस्वामी का मन्दिर, चौगान का मन्दिर, वाडी का मन्दिर आदि । उदयपुर में कुल ३५ या ३६ मन्दिर हैं, जिनमें शीतलनाथजी का, वासुपूज्यस्वामी का, चौगान का, बाड़ी का, सेठ का, केशरियानाथजी का आदि मन्दिर मुख्य, विशाल और मनोहर हैं। इन मन्दिरों के अतिरिक्त, उदयपुर से लगभग एक ही मील दूर स्थित आहड में पार विशाल, मन्दिर मौजूद हैं। त्योंही उदयपुर से लगभग दो
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उदयपुर के मन्दिर मील दूर समीनाखेड़े का मन्दिर तथा लगभग तीन मील दूर बने हुए सेसार का मन्दिर, देवाली का मन्दिर आदि मन्दिर भी खासतौर पर दर्शनीय एवं अत्यन्त प्राचीन हैं। उदयपुर और उसके आसपास लगभग दो-दो तीन तीन मील पर बने हुए मन्दिरों का सम्पूर्ण इतिहास प्राप्त कर सकना कठिन है और उन सब का इतिहास वर्णन करने के लिये यहाँ स्थान भी नहीं है। फिर भी इतनी बात तो अवश्यमेव कही जासकती है , कि इनमें के बहुत से मन्दिर अत्यन्त प्राचीन हैं।
आहड एक इतिहास प्रसिद्ध एवं अत्यन्त प्राचीन नगरी है। यहाँ के आलीशान बावन जिनालय मन्दिर, यह बात स्वयमेव बतला रहे हैं, कि वे अत्यन्त प्राचीन हैं। इसी आहड-आघाटपुर—में श्री जगच्चन्द्रसूरि को मेवाड के राणाजी की तरफ से तेरहवीं शताब्दी में 'महातपा' का विरद प्राप्त हुआ था। इसी तरह देवाली, सेसार तथा समीनाखेडे के मन्दिर भी अत्यन्त-प्राचीन हैं। यह कहने की आवश्यकता नहीं है, कि अब यहाँ एक भी मूर्तिपूजक जैन का घर मौजूद नहीं है।
उदयपुर में जो मन्दिर हैं उनमें से सत्रहवीं शताब्दी से पहले का कोई भी मन्दिर नहीं है और इससे अधिक प्राचीन मन्दिर न हो, यह स्वाभाविक भी है । कारण कि उदयपुर नगर ही महाराणा श्री उदयसिंहजी ने बसाया है, जिनका समय स. १५९४ है। महाराणा उदयसिंहजी ने, उदयपुर सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में (बहुत करके सं. १६२४ में) बसाया है। अतएव उदयपुर में जो
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मेरी मेवाडयात्रा मन्दिर है, वे सं.:१६२४ के पश्चात् के ही हैं। कहा जाता है कि उदयपुर का श्री शीतलनाथजी का मन्दिर, उदयपुर के बसाये जाने के समय को है। यानी, नगर के प्रारम्भिक मुहूर्त के साथ ही श्री शीतलनाथजी के मन्दिर का भी शिलारोपण मुहूर्त हुआ था । चाहे जो हो, किन्तु कोई शिलालेख इस बात की साक्षी नहीं देता । शीतलनाथजी के मन्दिर में से जो शिलालेख प्राप्त हुए हैं, उनमें से एक शिलालेख धातु के परिकर पर का है, जो सं. १६९३ के कार्तिक कृष्णपक्ष का है। इस शिलालेख का सारांश यह है, कि “महाराणा श्री जगतसिंहजी के राज्य में तपागच्छीय श्री जिनमन्दिर में श्री शीतलनाथजी का बिम्ब और पीतल का परिकर आसपुर निवासी, वृद्धशाखीय पोरवाल ज्ञातीय पं. कान्हासुत पं. केशर भार्या केशरदे, जिनके पुत्र पं. दामोदर ने स्वकुटुम्ब सहित बनवाया और · भट्टारक श्री विजयदेवसरि के पट्टप्रभाकर आचार्य श्री विजयसिंहसरि की आज्ञा से पं. मतिचन्द्र गणि ने वासक्षेप डालकर प्रतिष्ठापित किया"।
. इस लेख को देखकर एक कल्पना अवश्यमेव की जासकती है। और वह यह कि सम्भव है, मन्दिर उदयपुर के बसाये जाने के समय ही बसा हो और फिर कुछ वर्षों के पश्चात् मूलनायक का धातुमय परिकर बनाया गया हो । अतएव वास्तव में यदि यह मन्दिर (श्री शीतलनाथजी का मन्दिर) उदयपुर के बसाये जाने के समय ही बनाया गया हो, तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है । उदयपुर के इन मन्दिरों में से जो शिलालेख प्राप्त होते
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उदयपुर के मन्दिर
७३
हैं उनमें उदयपुर का नाम लिखा मिलता हो, ऐसे शिलालेख बहुत थोड़े ही हैं। श्री शीतलनाथजी के मन्दिर की धातु की एक मूर्ति पर का शिलालेख अवश्य ही ऐसा है, जिसमें उदयपुर का नाम लिखा दीख पड़ता है। इस शिलालेख का सारांश यों है
“सं. १६८६ की वैशाख सुदी ८ के दिन उदयपुर निवासी ओसवाल ज्ञातीय बरडिया गोत्रीय सा- पीथा ने, अपने पुत्रों एवं पौत्रा सहित श्री विमलनाथ का विम्ब बनाया और श्री विजयसिंहरि ने उसकी प्रतिष्ठा की " ।
इस लेख से यह बात स्पष्ट होजाती है कि सं. १६८६ के साल में खास उदयपुर में ही किसी मन्दिर की प्रतिष्ठा की गई, जिस समय इस मूर्ति की भी प्रतिष्ठा हुई थी। अतएव यह निश्चित है, कि सत्रहवीं शताब्दी के मध्यकाल में, यहाँ जैनमन्दिर अवश्य ही मौजूद था । और यह भी सम्भव है, कि वह मन्दिर श्री शीतलनाथजी का आदि मन्दिर ही हो ।
.
श्री हेम नामक किसी कवि ने, महाराणा जवानसिंहजी के समय का उदयपुर का वर्णन लिखा है । हेम कवि कौन थे ? किसके शिष्य थे ? और निश्चित रूप से किस समय में हुए थे ! आदि बातें उनकी कृति से नहीं जान पड़तीं । किन्तु उन्होंने महाराणा जवानसिंहजी के समय का वर्णन किया है, इससे यह बात प्रकट होती है, कि वे उन्नीसवीं शताब्दी में हुए थे। महाराणा जवानसिंहजी का समय है-सं. १८८५ । अतः मालूम होता है कि
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मेरी मेवाड़यात्रा उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में ये कवि हुए हैं। कवि हेम ने, अपनी इस कृति में, प्रारम्भ में मेदपाट प्रशस्ति, राजप्रशस्ति, जवानसिंह प्रशस्ति, अष्टक, वंशावली पचीसी, महाराणा वंशावली, जवानसिंहजी की सवारी का वर्णन, उदयपुर नगर वर्णन, नगर के बाहर का वर्णन, इत्यादि प्रकरण लिखे हैं। कवि ने उदयपुरनगर का वर्णन करते हुए, अनेक जैनमन्दिरों के नामों का भी उल्लेख किया है। उस वर्णन पर से यह बात विदित होती है, कि उन्नीसवीं शताब्दी में कवि के समय में कितने और मुख्य मुख्य कौन कौन से मन्दिर वहाँ मौजूद थे । एक स्थान पर कवि कहता है कि-----
'अश्वसेन जूनंदं, तेज दिणंद,
श्री सहसफणा नित गहगाटं । महिमा विख्यातं, जगत्रही पातं,
अघ मलीन करै निर्घाटं । श्री आदि जिनेशं, मेटण कलेशं
जसु सूरत भलहलभानं" ।
श्री उदयापुर मंडाणं ॥ १२ ॥ "श्री शीतलस्वामं कर प्रमाणं;
भविजनपूजित जिनअंगं । बोतीस जिनालं भुवन रसालं,
सर्वजिनेश्वर सुखअगं । सत्तर सुभेदं, पुज उम्मेदं,
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उदयपुर के मन्दिर
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पयसेवित जसु श्री उदयापुर
" संवेगीशालं बड़ी विशालं.
श्री
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श्री संतजिणेशं
सुरराणं " ।
प्रासादे जू पास फवैसारं ।
" वली कुसुल जू पोलं, अतिरंगरोल,
संगटवाडी सेरीप
विमलेशं
आदिजिणंद तेजदिनंद, जावरिया देहरा
चौमुख प्रसादं अति आह्लाद, दर्शन
शुभ
ध्यानं
श्री उदयापुर मंडाणं ॥ १४ ॥
धानमढी
दादावली देहरी, सिखरा सेहरी,
मंडाणं ॥ १३ ॥
पारं ।
33
तासं ।
सायरपासं ।
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७५
'प्रसाद महालक्ष्मी स्थानं'... " श्री उदयापुर मंडाणं ॥ १८ ॥
"श्री शान्तिनाथ ही जिन जोय, महिमा अधिकमहि सोय ।
चित्रितचैत्य ही नवरंग, दर्शनदेखियाँ
उदयपुर के मन्दिरों का इतना वर्णन कर चुकने के पश्चात्, कवि ने कोट से बाहर के मन्दिरों का वर्णन किया है ।
उमंग ॥ ५ ॥
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६७६
सीखरबन्ध
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प्रासाद,
ही करत मेरु सां अतिवाद । जीनाल, देख्या दिल हे खुस्याल ॥ ६ ॥
#
श्री पद्मनाभजी
पूनिम वासरे मेलाक, नर थट्ट होत हे मेलाक । अग्रे हस्ती हे चोगांन,
सधा
जिनप्रासाद
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हस्ती लड़त हे तिहीआन ॥ ७ ॥"
यों. उदयपुर के किले से बाहर के मन्दिरों का वर्णन कर चुकने के पश्चात्, कवि आगे बढ़ता है और कहता है, कि
66
'मल्ल लड़त है कुजबार,
बैजनाथ का
मेरी मेवाड़ यात्रा
·
अग्रे ग्राम है सीसार ।
परसाद,
करत गगन से नितवाद ॥ १२ ॥
भारीक,
जू मूरत बहोत हे प्यारीक । सोलमा जिणंद,
पेष्यां परम हे आनन्द ॥ ११ ॥
आदि
जंगी झाड है अति अंग,
चरण हे मंडाण, पूज्यां होत हे सुषषान ।
यदि जू पोल ही दुरंग ॥ १२ ॥
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७७
उदयपुर के मन्दिर
और आगे बढ़कर, कवि समीनाखेडे का वर्णन करता है" मगरा माछला उत्तंग,
किसनपोल ही अतिवंक । षेडा समीने श्री पास,
पूजे परम ही हुलास ॥ १३ ॥ दशमी दिवस का मेलाक,
__ नरथट होत हे मेलाक । साहमी वच्छलां पकवान,
चर्चा अष्टका मंडाण" ॥ १४ ॥ इसके पश्चात्, कवि ने केशरियाजी का वर्णन किया है। "अढारकोस ही अधिकार,
धुलेव नगर है विस्तार । केशरियानाथ है विख्यात,
जावू आवते केई जात ॥ १५ ॥" अन्त में कवि ने आघाट (आहड़) का वर्णन किया है। वह लिखता है, कि" आघाट गाम हे परसीद्ध,
तपाविरुद ही तिहां लीध । देहरा पंचका मंडाण,
सिखरबन्ध हे पहिचान ॥ १८ ॥ पार्श्वप्रभुजी जिनाल, .
पेष्यां परम हे दयाल ।
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७८
मेरी मेवाड़यात्रा श्री भीमराणा का मुकाम,
तिसका होत हे अब काम ॥ १९ ॥" तत्पश्चात्, कवि ने चम्पावाग का वर्णन करते हुए, उसमें ऋषभदेव के चरण, गच्छपति रत्नसूरि का स्तूप आदि होने का उल्लेख किया है।
उपर्युक्त वर्णन पर से हम यह बात सरलतापूर्वक जान सकते हैं, कि कवि हेम के समय में, यानी उन्नीसवीं शताब्दी में (जिसे लगभग सौ-सवासौ वर्ष बीत चुके हैं) उदयपुर में चौंतीस मन्दिर थे, जिनमें मुख्य शीतलनाथ का मन्दिर होने की बात कवि कथन से भी जान पड़ती है। आजकल जितने भी मन्दिर हैं, उनमें शीतलनाथ का, वासुपूज्य का, गोडी पार्श्वनाथ का, चौगान का, सेठ का, बाड़ी का आदि मन्दिर मुख्य हैं।
यहाँ के मन्दिरों में से कुछ मन्दिर अत्यन्त आकर्षक हैं और कुछ-न-कुछ विशेषता लिये हुए हैं। उदाहरणार्थ- श्री वासुपूज्यस्वामी का मन्दिर । यह मन्दिर, अत्यन्त मनोहर है और मध्य-बाजार में बना हुआ है। कहा जाता है, कि यह मन्दिर महाराणा राजसिंहजी (जिनका समय अठारवीं शताब्दी के प्रारम्भ का माना जाता है ) के समय में श्री रायजी दोसी नामक उदारगृहस्थ ने बनवाया था। ये रायजी दोसी सिद्धाचलजी का सोलहवाँ उद्धार कराने वाले कर्मचन्दजी के पौत्र श्री भीखमजी के पुत्र होते थे। श्री वासु
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उदयपुर के मन्दिर पूज्यस्वामी का मन्दिर बनानेवाले श्री रायजी दोसी के वंश में, आज श्रीयुत अम्बालालजी दोसी नामक प्रतिष्ठित और धर्मप्रेमी गृहस्थ हैं। ये इञ्जीनीयर हैं। भीखमजी दोसी महाराणा राजसिंहजी के प्रधान मन्त्री थे। वे उदयपुर के ही निवासी थे। सुप्रसिद्ध राजसागर तालाब की पाल और नवचौकी, भीखमजी की ही निगरानी में बने थे । इन्हीं के वंशज अम्बालालजी दोसी हैं ।
उदयपुर के मन्दिरों में एक प्रसिद्ध और आकर्षक मन्दिर है :-चौगान का मन्दिर । इस मन्दिर में खास विशेषता यह है, कि इसमें मूलनायक, आगामी चौवीसी के प्रथम तीर्थंकर श्री पद्मनाभ प्रभु की बैठी लगभग ४॥-५ फीट ऊँची प्रतिमा है। प्रतिमा भव्य और मनोहर है । 'हेम' नामक कवि ने भी, उपर्युक्त वर्णन में इस मूर्ति का उल्लेख किया है । इस विशाल मूर्ति के 'पबासण' पर जो लेख है, उसका सार यों है-~
संवत् १८१९ की माघ शुक्ला ९ बुधवार को महाराणा श्री अरिसिहजी के राजत्वकाल में, उदयपुर निवासी, ओसवालवंशीय, वृद्धशाखीय, नवलखगोत्रीय, शाह.....मान के पुत्र कपूरचन्द ने, खरतरगच्छीय दोसी कुशलसिहजी, उनकी भार्या कस्तूरबाई उनकी पुत्री माणकवाई, आदि की सहायता से यह बिम्ब बनवाया और खरतर गच्छीय श्री हरिसागरगणि ने प्रतिष्ठा की"।
इस लेख से जान पड़ता है कि यह मन्दिर अत्यन्त प्राचीन तो नहीं है । लगभग पौनेदोसौ वर्षका प्राचीन कहा जासकता
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मेरी मेवाडयात्रा है। जिस महाराणा के समय में इस मन्दिर की प्रतिष्ठा हुई है, वे अरिसिंहजी हैं। अरिसिंहजी का समय सं. १८१७ है। ये अरिसिंह तीसरे के नाम से प्रसिद्ध है। ।।
जैसा कि पहले कहा जाचुका है, उदयपुर में लगभग ३५-३६ मन्दिर हैं। बीसवर्ष पूर्व, इन मन्दिरों की जो व्यवस्थासफाई, सुन्दरता आदि थी, उसमें इस समय बहुत अधिक अन्तर पड़ गया है यह निश्चित बात हैं। अनेक मन्दिरों की व्यवस्था, सुन्दरता, सफाई आदि में वृद्धि होगई है । फिर भी अभीतक कुछ मन्दिर ऐसे हैं, कि जिनमें बहुत कुछ. असातना होती देखी जाती है । जो मन्दिर अनुभूतिवाले श्रद्धालु गृहस्थों किंवा कमेटियों के हाथः में हैं, उनमें अवश्यमेव सुधार हुआ है। किन्तु, जो मन्दिर स्थानक वासियों के हाथ में, या लगभग स्वामित्वहीन की-सी अवस्था में है, ऐसे मन्दिरों में अव्यवस्था तथा असातना अधिक देखी जाती है। किन्तु उदयपुर की जनश्वेताम्बर महासभा के उद्देश्यानुसार, शनैः शनैः ये मन्दिर महासभा के साथ सम्बधित कर दिये जायेंगे, तो यह आशा अवश्य ही की मासकती है, कि एक समय उदयपुर तथा उसके आसपास के समस्त मन्दिरों की असातनाएँ दूर होजायेंगी।
उदयपुर के समस्त मान्दरों के शिलालेखों का संग्रह यतिवर्य श्रीमान् अनूपचन्द्रजी ने किया है। यह संग्रह प्रकाशित होने से बहुत बातें जाहिर में आनेकी संभावना है।
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(१०)
मेवाड़ के उत्तर-पश्चिम प्रदेश में
उदयपुर में चतुर्मास के लिये प्रवेश किया, उसी दिन से ये शब्द कानों में पड़ने लगे
“ मेवाड़ में तीन हजार मन्दिर हैं" " मन्दिरों की भयङ्कर असातनाएँ हो रही हैं " " प्रायः सभी लोग तेरहपन्थी या स्थानकवासी हो गये हैं " " तेरहपन्थी साधु इरादेपूर्वक प्रभुमूर्ति को असातनाएँ करते हैं " " शेताम्बर मूर्ति पूजक कोई साधु नहीं विचरते " " वास्तविक मार्ग बतलानेवालों के अभाव में बेचारे लोग प्रभुपूजा में पाप मान रहे हैं............"आदि आदि ।
उदयपुर के प्रत्येक धर्मप्रेमी के इन शब्दों में धर्म की सच्ची लगन थी और शासन का प्रेम था। मेवाड़ में विचर कर वस्तुस्थिति जानने की भावना होने पर भी, साथ के आत्मबन्धु मुनिराज श्री जयन्तविजयजी की बिमारी, कराँची के संघ की विनति को मान देकर सिंघ जैसे हिंसक प्रदेश में जाने को तत्परता, त्यों ही
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मेरी मेवाड़यात्रा
अन्य अनेक कारणों से मेवाड़ में विचरने की बात से मन पीछे हटता था । फिर भी उदयपुर संघ तथा श्री जैनमहासभा के नेताओं की हार्दिकभावना ने अन्त में विजय प्राप्त की और हमने सारे मेवाड़ में तो नहीं, किन्तु कुछ खास खास स्थानों में भ्रमण करना निश्चित किया तथा इसके लिये पौष शुक्ला ५ के दिन प्रस्थान किया । नक्शे देख देखकर अनेक मार्ग पसन्द किये गये । किन्तु विचरने का समय कम होने से, हमने केवल उत्तर में होकर पश्चिम दिशा से मारवाड़ में उतर जाने का निश्चय किया ।
हमें मालूम था कि जहाँ सकड़ों वर्षों से अन्धकार फैल रहा है, जहाँ रातदिन दूसरे लोगों का उपदेश मिल रहा है और जहाँ मूर्तिपूजादि सत्यमार्ग की तरफ कर विरोध प्रदर्शित किया जा रहा है, वहाँ हमारे थोड़े से प्रयास से कोई विशेष लाभ नहीं हो सकता । इस अचेतनप्राय बनी हुई जनता में जीवन उत्पन्न करने के लिये बड़ी तपस्या की ज़रूरत है । इस अज्ञान में फँसी हुई प्रजा को प्रकाश में लाने के लिये बड़े प्रयत्न की आवश्यकता है । बहुत समय तथा वर्षो तक बारंबार सिंचन होता रहे तो ही इस प्रजा में कुछ जीवन उत्पन्न हो सकता है । तभी इस जंग खाये हुए लोहे पर का कुछ जंग उतर सकता है । किन्तु हमें तो समय थोड़ा था और कार्य करना था अधिक । रात थोड़ी थी और वेश वहुत थे । फिर भी उदयपुर श्री संघ के सहयोग से जितना हो सके उतना कर लिया जाय, ऐसा सोचकर हमने प्रस्थान किया ।
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करना ।
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मेवाड़ के उत्तर-पश्चिम प्रदेश में
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चाहे जितना विशाल कार्य हमारे सामने पड़ा हो, फिर भी उस में का जितना अंश हो सके उतना पूरा कर ही डालना चाहिये । हमें मालूम था कि जहाँ संवेगी साधु का परिचय तक नहीं है, ऐसे क्षेत्रों में हमें विचरण करना है । जहाँ मन्दिरों के प्रति अत्यन्त घृणा और तिरस्कार प्रकट किया जाता है ऐसे क्षेत्रों में जाना है। चाहे जो हो, हमने अपने प्रवास में इन दोचरवातों की ओर खासतौर पर लक्ष्य रक्खा था ।
१ प्रत्येक ग्राम में व्याख्यान देना ।
२ चर्चा करने के लिये तयार होनेवालों के साथ चर्चा
३ श्रुति, युक्ति और अनुभूति ( अनुभव ) इन तीनों प्रकार से सामने वाले के दिल में सच्चा मार्ग उतारने का प्रयत्न करना ।
।
४ जहाँ जहाँ मन्दिरों में असातना होती दीख पडे, तहाँ तहाँ उसे दूर करने एवं करवाने का प्रयत्न करना । ( इस कार्य में गृहस्थों का सहयोग अधिक उपयुक्त था ।) व्याख्यान तथा चर्चा प्रतिपादक शैली से ही करना ।
५ गृहस्थों और खासकर प्रत्येक जैन के लिये करने योग्य कर्त्तव्यों का निर्देश करनेवाली सादी तथा छोटी छोटी पुस्तकों का प्रचार करना ।
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AAE
मेरी मेवाड़यात्रा
६ आवश्यकता जान पड़े और सम्भव हो, वहाँ पाठशालाओं तथा मण्डलों की स्थापना करवाना।
७ सच्चे धर्म के सम्मुख होनेवालों को विधिपूर्वक नियम करवाना । इसी लक्ष्य को ध्यान में रखकर, इसकी पूर्ति के निमित्त, अपने उचित साधन सहित हमने मेवाड़ के अनेक स्थानों का परिभ्रमण करने के लिये प्रस्थान किया ।
उदयपुर से प्रस्थान करने के पश्चात्, हमने मेवाड़ के विहार का क्रम बनाया था, वह यों है :-बेदला, भुवाना, एकलिंगजी (अदबदजी) देलवाड़ा, घासा, पलाणा, मावली, सनवाड़, फतेहनगर, करेरा, कपासण, डीडोली, राशमी, पउँना, गाडरमाला, पुर, भीलवाड़ा, आरणी, लाखोला, गंगापुर, सहाड़ा, पोटला, गिलुंड, जाशमा, दरीबा, रेलमगरा, पीपली, काँकरोली, राजनगर (दयालशाह का किला), केलवा, पडावली, चारभुजा (गडबोर), साथिया, झीलवाड़ा, मझेरा और केरवाड़ा । अन्त में, केरवाड़ा से हम घाणेराव की नाल में होकर मारवाड़ (गोलवाड़) में आये। कुल सवादो अढाई महीनों में हमने ३६ ग्रामों का परिभ्रमण तथा प्रचारकार्य कर पाया। भ्रमण और उससे लाभ।
ज्यों-ज्यों हमारा विहार आगे बढ़ता गया, त्यों ही त्यों हमारी प्रारम्भ की निराशा आशा के रूप में, हमारा निरुत्साह उत्साह के रूप में और उदासीनता प्रसन्नता के रूप में बदलती
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मेवाड़ के उत्तर-पश्चिम प्रदेश में
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गई। हमें यह बात मालूम होती गई, किं सचमुच ही मेवाड़ में विचरना, स्व-पर के कल्याण के लिये लाभप्रद सिद्ध हो रहा है वर्षो से पृथक पडे हुए इन आग्रही तथा महा - अज्ञानी लोगों में, हमारा एक दो दिन का प्रयत्न क्या कार्य कर सकेगा ? हमारी इस भावना की असत्यता हमें स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगी। ग्राम ग्राम में होने वाले व्याख्यानों में, लोग उलट उलटकर आने लगे । हृदय में रही हुई मूर्ति पूजा सम्बन्धी शंकाएँ वे निःसङ्कोच भाव से पूछते और कुछ अधिक आग्रही पुरुष तो घण्टों तक - रात के बारह बारह बजे तक चर्चाएँ करते थे । मन्दिरों की स्थितियाँ देखी जातों, इतनी अधिक असातना होने का कारण क्या है, यह देखा जाता, साथ के गृहस्थ खूब परिश्रम पूर्वक मन्दिरों की सफाई करते, पूजा, आँगी - भावना आदि भक्ति करते और ग्राम ग्राम के लोगों में से जिनके हृदय में मूर्तिपूजा की आवश्यकता का विश्वास उत्पन्न होजाता था, वे पूजा तथा दर्शन आदि नियम करते थे । ग्रामों में होनेवाले सार्वजनिक भाषणों में जैनेतरवर्ग भी खूब लाभ लेता था । तेली, तमोली, मोची, चमार, तथा ऐसी ही अन्यान्य जातियों के लोग भी भक्ष्याभक्ष्य के विचार में आरूढ़ होकर अभक्ष्य तथा अपेय वस्तुओं का परित्याग करते थे । जहाँ एक भी घर मूर्तिपूजक जैन का नहीं था, ऐसे स्थानों में भी ग्राम के परिमाण में दोसौ, पाँचसौ, हजार और तीन तीन हजार मनुष्य सभा में एकत्रित होते थे । जहाँ एक भी दिन रहने की बात में शंका हो, एसे स्थानों में दो-दो तीन तीन दिन रहना पड़ता, दिन में दो दो बार व्याख्यान और शेष समय
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मेरी मेवाड़यात्रा में मूर्तिपूजा, ईश्वरकर्तृत्व तथा ऐसे ही विभिन्न विषयों पर चर्चाएँ होती रहती थीं। ऐसी प्रशस्त प्रवृत्ति के कारण, जहाँ हमने केवल एक ही महीने का विहारक्रम बनाया-सोचा था, वहाँ हमें अढ़ाई महीने लग गये। जिसके कारण हमें अपना कराँची का प्रोग्राम इस वर्ष के लिये स्थगित कर देना पड़ा।
उदयपुर छोड़ने के पश्चात् हमने उपर्युक्त प्रकार से लगभग ३६ ग्रामों का परिभ्रमण किया। इन ग्रामों में विचरने से समुच्चय रूप से जो लाभ हुआ, वह ऊपर बतलाया जाचुका है। इसके अतिरिक्त विशेष लाभ तो यह हुआ कि अनेक ग्रामों में बहुत से स्थानकवासी तथा तेरहपन्थियों ने भगवान् के दर्शन पूजन आदि करने के नियम लिये । बल्कि पुर, कि जहाँ १२५ घर तेरहपन्थियों के थे,उनमें से ६० घर मन्दिरमार्गी हुए। वहाँ पाठशाला मण्डल और लायब्रेरी की स्थापना की गई। आज वे नये बने हुए प्रभुपूनकगण, उत्साहपूर्वक प्रभुपूजा करते हैं और पाठशाला आदि का कार्य सुन्दर रूप से चला रहे हैं। चमारों का जैनधर्म स्वीकार
उपर्युक्त लाभों के अतिरिक्त, जो एक खास लाभ हुआ, वह है-राजनगर में अनेक चमार जोकि सिलावट का व्यवसाय करते हैं, उनका विधिपूर्वक जैनधर्म की दीक्षा लेना। इन चमार भाइयों ने मांस-मदिराका त्याग किया है। उन्होंने किसी भी प्रकार का व्यसन नहीं रक्खा । यहाँतक कि बीड़ी-तम्बाकू आदि का भी
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Pa
मेवाड़ के उत्तर-पश्चिम प्रदेश में त्याग कर दिया है। उन्होंने, अपने लिये भगवान् के दर्शन करके भोजन करने की व्यवस्था की है। जैनधर्म के अन्यान्य नियमों का भी वे पालन करने लगे हैं। इसके अतिरिक्त, वे प्रतिक्रमण का भी अभ्यास करते हैं।
वे अपनी जाति के अन्य भाइयों को जैनधर्म का महत्त्व समझाते हैं। और अभी प्राप्त हुए एक पत्र से प्रकट है, कि उनकी जाति के अन्य अनेक लोगों को जैनधर्म में दीक्षित होने के लिये तयार कर लिया गया है।
___ हमारी मेवाड़ यात्रा का यह काम विशेषरूप से उल्लेखनीय कहा जासकता है। मन्दिर और उनकी स्थिति
उदयपुर छोडने के पश्चात् हमने जिन जिन ग्रामों का परिभ्रमण किया, उनमें फतेहनगर, गाडरमाला, तथा पीपली इन तीन ग्रामों को छोडकर शेष लगभग सभी ग्रामों में मन्दिरों के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। किसी किसी ग्राम में तो एक से अधिक, यानी दो-दो, तीन-तीन और चार-चार तक मौजूद हैं। जैसे कि देलवाड़ा, पोटला, पुर,केलवा, भीलवाड़ा, केरवाड़ा आदि । इन मन्दिरों में से बहुत से मन्दिर तो अत्यन्त प्राचीन और ऐतिहासिक घटनाओं से अलंकृत हैं। यहां जो जो मन्दिर देखने को मिले, वे प्रायः ऊंची टेकरियों पर अथवा ऊंची कुर्सीवाले देखे गये । अनेक मन्दिरों में बहुत से शिलालेख भी दीख पड़े ।
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मेरी मेवाड़यात्रा
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उदाहरणार्थ- देलवाड़ा के मन्दिरों में अनेक शिलालेख हैं । इन शिलालेखों का अधिकांश, वि० सं० १४९० से १५०० तक का है । देलवाड़ा, मेवाड़ की पंचतीर्थी में से एक है, अतः उसका वर्णन " मेवाड़ की पंचतीर्थी " नामक प्रकरण में किया गया है।
इसी तरह पलाणा का मन्दिर भी विशाल है । उसके आसपास २४ देरियाँ हैं । यहां की चक्रेश्वरी की मूर्ति पर सं० १२४३ की वैशाख शु० ९ शनिवार का लेख है । इस लेख को देखने से प्रकट होता है कि श्री नाणागच्छीय घर्कटवंशीय पार्श्वसुत ने केश्वरी की यह मूर्ति बनवाई और श्री शान्तिसूरिजी ने उसकी प्रतिष्ठा की । इसी तरह सं० १२३४ का एक दूसरा लेख है । की मूर्ति पर के लेख में इस ग्राम का 'पाणाण' के नाम से उल्लेख किया गया है । आजकल इसकी पलाणा के नाम प्रसिद्ध है ।
केलवा के तीनों मन्दिर, एक ऊंची टेकरी पर पास ही पास बने हुए हैं | ये मन्दिर अत्यन्त विशाल और इनकी बनावट रमणीय है । यहां से ग्यारहवीं शताब्दी के शिलालेख प्राप्त हुए हैं । यह वही ग्राम है कि जहाँ से तेरहपन्थी मत के उत्पादक भीखमजी ने तेरहपन्थी मत निकाला था । यद्यपि भीखमजी गुरु से विरुद्ध तो सोजतरोड के पास स्थित बगड़ी नामक ग्राम से हुए थे, किन्तु उन्होंने अपने मत की स्थापना यहाँ से की थी । इन तीनों मन्दिरों में से किसी एक मन्दिर के चबूतरे पर पहले
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मेवाड़ के उत्तर-पश्चिम प्रदेश में
ध्यान कर के बैठे
चलाया था ।
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८९
और फिर वहां से उठ कर यह मत
इसी तरह गडबोर ( चार भुजा ) का मन्दिर भी अत्यन्त विशाल है और उस में से ग्यारहवीं शताब्दी के लेख प्राप्त होते हैं ।
प्रत्येक ग्राम में थोडे समय तक रहने तथा सारा दिन व्याख्यान एवं चर्चा आदि में व्यतीत होता रहने के कारण, उनके सम्बन्ध में सामान्य नोट्स लिख लेने के अतिरिक्त, सभी तथा -सम्पूर्ण लेख नहीं उतारे जा सके 1
सच बात तो यह है कि जैसा पहले कई बार कह चूके हैं कि मेवाड़ एक प्राचीन देश है । यहाँ इतिहास का खजाना भरा पड़ा है। कोई इतिहासप्रेमी मेवाड़ में स्थिरतापूर्वक विचरे और प्रत्येक ग्राम के शिलालेखों का संग्रह करे, एवं स्थानीय ऐतहासिक घटनाओं का वर्णन भी संग्रह करता जाय, तो जैनधर्म तथा भारतवर्ष के इतिहास में ये चीजें अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हो सकती हैं।
लगभग ये सभी छोटे तथा बड़े मन्दिर भयङ्कर असातनाओं के केन्द्र बन रहे हैं, यह कहने की कोई आवश्यकता नहीं है । इसके सम्बन्ध में ऊपर बहुत कुछ कहा जा चूका हैं,
अतः इस
सम्बन्ध में पिष्टपेषण करना सर्वथा अनावश्यक है ।
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मेरी मेवाड़यात्रा
आरणी की प्रतिष्ठा.
मेवाड़ में हजारों मन्दिर होते हुए भी किसी किसी गाँव में नये मन्दिर होते जाते हैं और प्रतिष्ठाएँ भी। अनुभव से यह ज्ञात हुआ है कि कई ऐसे स्थान हैं जहाँ कुछ लोग मूर्तिपूजक हैं अथवा तेरापंथीस्थानकवासी में से पृथक् होकर मूर्तिपूजक बनते हैं। इन लोगों की श्रद्धाओं को टिकाये रखने के लिये मन्दिर यह साधनभूत अवश्य है। ऐसी हालत में, ऐसे स्थान में पूजा पाठ के लिये मन्दिर का साधन बनाना जरूरी है। पिछले कुछ वर्षों में मेवाड़ में ऐसे कुछ मन्दिर बने हैं। इनमें से आरणी का भी एक मन्दिर है।
आरणी में कुछ घर मन्दिरमार्गी हुए हैं। उन्होंने एक छोटा सा मन्दिर बनाया है और उसकी प्रतिष्ठा हमारे समक्ष सं. १९९२ माघ सुदि १३ के दिन की गयी । प्रतिष्ठा की विधिविधान का कार्य उदयपुर वाले यतिजी श्री अनूपचन्द्रजी ने बड़ी योग्यता के साथ किया था। यहां करीब एक हजार मनुष्य एकत्रित हुए थे, जोकि बहुधा तेरापंथी और स्थानकवासी थे । इन लोगों को उपदेश देने का मोका अच्छा प्राप्त हुआ।
यति श्री अनूपचन्द्रजी का कुछ परिचय पहले दिया जाचुका है। आप मेवाड़ के प्रसिद्ध यतियों में से एक मुख्य हैं ! आपके हाथ से मेवाड़ में कुछ नहीं तो कम से कम २५-३० प्रतिष्ठाएँ हुई हैं। प्रतिष्ठाएँ कराना, यह न केवल एक धर्म की सेवा है, परन्तु इसमें राज्य की भी सेवा है। क्योंकि ऐसी प्रतिष्ठाओं
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मेवाड़ के उत्तर-पश्चिम प्रधेश मै के समय, उस समय के वर्तमान राजा देशाधिपति की कल्याण भावनाएँ की जाती है : “भरतक्षेत्रे, मेदपाटदेशे महाराणा श्री भूपालसिंहजी विजयराज्ये.... " इत्यादि करके ।
राज्य की इस प्रकार शुम कामनाएँ करनेवाले महानुभाव सचमुच ही राज्य के सच्चे शुभेच्छक हैं। और धार्मिक दृष्टि से वे सेवा ही कर रहे हैं। यही कारण है कि राज्य की तरफ से ऐसे महानुभावों को धार्मिक सेवा के निमित्त कुछ न कुछ वार्षिक वर्षासन दिया जाता है । यह राज्य की सच्ची धार्मिकता का परिचायक है । सुना गया है कि श्रीमान् अनूपचन्द्रजी को भी उनकी ऐसी सेवा के बदले में राज्य की तरफ से कुछ रकम वर्षासन के तौर पर वर्षों से मिल रही है। हमारे ख्याल से तो ऐसे धर्मसेवकों का राज्य को और भी अधिक सम्मान करना चाहिए, ताकि वे राज्य की धार्मिक सेवा उत्साह से करते ही रहें। मझेरा जैन गुरुकुल
उदयपुर से उत्तर-पश्चिम में प्रयाण कर के ठेठ मारवाड़ के नाके पर पहुँचने तक, किसी भी स्थान पर कोई एक भी जैनसंस्था नहीं दीख पड़ी। पहाड़ी प्रदेशों तथा घोर अन्धकार में रहनेवाली प्रजा में यदि शिक्षा का प्रचार होता तो इस प्रकार की दशा हो ही कैसे सकती थी ! यह सत्य है कि उदयपुर के वर्तमान महाराणाजी के विद्याप्रेम के प्रताप से अनेक सरकारी स्कूल स्थापित हुए हैं और होते जा रहे हैं, किन्तु सामाजिक दृष्टि से
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मेरी मेवाड़यात्रा
धार्मिक संस्कार बालकों के हृदय में उत्पन्न कर सकें, ऐसी संस्थाओं का तो लगभग अभाव ही देखा गया। केवल एक ही संस्था हमारे देखने में आई, कि जो मझेरा में 'अजितनाथ जैनबोर्डिंग (गुरुकुल) के नाम से प्रसिद्ध है।
यह गुरुकुल मुनिश्रीकमलविजयजी के उपदेश से १९९१ की आषाढ़ कृष्णा २ के दिन स्थापित हुआ था। इस समय उसमें ३३ विद्यार्थी हिन्दी, अंग्रेजी तथा धार्मिक का अध्ययन कर रहे हैं। जिस देश में तेरहपन्थी जैसे दयादान के शत्रूलोग ही अधिकतर बसते हों, उस प्रदेश में ऐसी संस्था आर्थिक सहायता के सम्बन्ध में कमनसीब हो, यह स्वाभाविक ही है। मेवाड़ जैसे प्रदेश में इस प्रकार की संस्था का होना, मानों सद्भाग्य का चिहन है। उदार गृहस्थों को इस संस्था को खास तौर पर हम बनाना चाहिये। ज्यों ज्यों इस प्रकार की संस्थाओं में से वास्तविक धर्म को पहचाननेवाले युवक बाहर निकलेंगे, त्यों त्यों आनकाल का अन्धकार शनैः शनैः दूर होता जायगा । मुनिराजों के विहार के अभाव में इस समय मेवाड की जो परिस्थिति हो रही है, उस परिस्थिति को दूर करने के लिये यही एक अच्छे से अच्छा उपाय है।
मझेरा लगभग मेवाड़ तथा मारवाड़ी की सीमा पर बसा हुआ है। किन्तु जैसे इस तरफ यह गुरुकुल स्थापित हुआ है, उसी तरह एक गुरुकुल उदयपुर से उत्तर की तरफ के भाग में भी म्यापित किये जाने की आवश्यकता है। इसके लिये अच्छे से
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मेवाड़ के उत्तर-पश्चिम प्रदेश
अच्छा स्थान करेड़ातीर्थ है। वहाँ का कैसा सुन्दर वातावरण है ! ऐसे पवित्र वातावरण में यदि एक गुरुकुल की स्थापना हो जाय, तो वह निश्चय ही मेवाड़ के लिये आशीर्वाद रूप हो पड़े । मेरी करेड़ा की स्थिरता में उदयपुर से आये हुए जैन महासभा के नेताओं को मैंने इसकी समुचित सूचना दी थी। करेड़ातीर्थ के सुयोग्य मैनेजर श्रीमान् कनकमलजी भी इस प्रस्ताव को पसन्द करते हैं। उनकी भी यह भावना है। आशा है कि जैन श्वे. महासभा, करेड़ा में एक ऐसा गुरुकुल स्थापित करने का प्रयत्न अवश्यमेव करेगी।
बारहपन्थियों तथा तेरहपन्थियों में अन्तर
हमारे विहार के उपर्युक्त छत्तीस ग्रामों में से गाडरमाला जैसे ग्राम को छोड़ दिया जाय, तो शेष सभी ग्रामों में जैनों की काफी वस्ती दीख पड़ती है। किसी किसी ग्राम में तो जैनों के सौ सौ और दोसौ दोसौ घर मौजूद हैं। किन्तु यह कहने की शायद आवश्यकता ही नहीं रहती, कि ये सभी बारहपन्थी और तेरहपन्थी हैं । बारहपन्थी यानी स्थानकवासी, जिन्हें बाईस टोले वाले भी कहा जाता है । राशमी से आगे बढ़ने के पश्चात अपने को शुद्ध मन्दिरमार्गी कहलवाने का अभिमान करने योग्य तीन घर हमें देखने को मिले । इनमें से एक भीलवाडे में और दो गङ्गापुर में । यद्यपि इन तीनों घरवाले भी अपने आपको मन्दिरमार्गों के रूप में पहचानते हैं, इतना ही है। शेष, न तो वे पूजाविधि जानते
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मेरी मेवाड़यात्रा हैं और न वन्दनविधि का ही उन्हें कुछ पता है। और तो क्या, मूर्ति को मानने वाले संवेगी साधु कैसे होते हैं, इस बात की भी उन बेचारों को खबर नहीं है । पुर, भीलवाड़ा, गङ्गापुर आदि की तरफ मालूम हुआ कि वृद्ध से वृद्ध लोग मी कहते हैं, कि संवेगी साधु कैसे होते हैं, इस बात का पता उन्हें हमें देख कर अब लगा है।
मेवाड़ में अधिकतर दो ही संप्रदायों की बस्ती है। स्थानकवासी और तेरहपन्थी। उदयपुर से विहार करने के पश्चात् लगभग सभी ग्रामों में स्थानकवासी ही दीख पड़ते थे। किन्तु, राशमी से तेरहपन्थियों की शुरूआत देखी गई। ज्यों ज्यों हम यहाँ से आगे बढ़ते गये, त्यों ही त्यों मूर्तिपूजा के साथ साथ दया-दान आदि मनुष्यत्व के सच्चे गुणों का भी निषेध करने वाले तेरहपन्थियों का समूह ही अधिक दीख पड़ा। और जहाँ जहाँ तेरहपन्थियों का जोर अधिक है, तहाँ तहाँ मूर्तियाँ एवं मन्दिरों की असातना अधिक होती है। अपने प्रवास में हमें इस बात का अनुभव हुआ है कि जहाँ जहाँ स्थानकवासी हैं वहाँ भले ही एक भी घर मन्दिमार्गियों का न हो, किन्तु मन्दिर की सामान्यतः देखरेख तथा सम्हाल और कम से कम पूजारी द्वारा मामुली पूजापाठ होता अवश्य ही देखागया। किन्तु जहाँ तेरहपन्थियों का निवास है, वहाँ मन्दिरों तथा मूर्तियाँ की इतनी अधिक दुर्दशा देखी गई कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। तेरहपन्थी लोग मूर्तिपूजा में अविश्वास कर के ही नहीं सन्तोष किये रहे, बल्कि
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मेवाड़ के उत्तर-पश्चिम प्रदेश में
९५.
जानबूझकर इरादतन साधु-साध्वियों को मन्दिर में उतारना, भगवान् की गोदी में पात्र रखना, भगवान् के सामने ही बैठ कर आहार- पानी करना और यदि मौका पड़ जाय तो मूर्तियों को तोड़ने - तुड़वाने की अधमता से भी वे लोग दूर नहीं रह सके हैं। ऐसी अनेक घटनाएँ मेवाड़ में घटने और उनके मुकदमे के उदाहरण मौजूद हैं ।
जहाँ स्थानकवासी भाइयों की बस्ती होगी, वहाँ तो संवेगी साधुओं को उतरने का स्थान और गोचरी पानी अवश्यमेव मिल जायगा । किन्तु, जहाँ तेरहपन्थियों की बस्ती होगी, वहाँ आहारपानी की तो बात ही दूर है, स्थान मिलना भी अत्यन्त कठिन होगा। सामान्य सभ्यता जैसे मानुषीय धर्म से भी विमुख बने हुए ये तेरह - पन्थी इस दशा में भी अपने आपको जैन कहलाते हैं, यही अत्यन्त आश्चर्य और दुःख का विषय है । अपने तेरहपन्थी साधु-साध्वी के अतिरिक्त और किसीको भी, फिर वह चाहे साधु हो या दुःखी गृहस्थ दान देने में वे पाप मानते हैं । एक मनोरंजक घटना सुनिये ।
गंगापुर में एक तेरहपन्थी गृहस्थ चर्चा करने आया । चर्चा कर चुकने के पश्चात् न जाने किस कारण से उसने मुझसे कहा, कि " मेरे यहाँ साधु को गोचरी भेजिये" । मुझे मालूम था कि यह तेरहपन्थी है । फिर भी गोचरी की विनति करते देख कर मुझे आश्चर्य हुआ । मैंने पूछा कि – “हमको आप धर्म समझ कर गोचरी देंगे, या व्यवहार ?" इसके उत्तर में उसने स्पष्ट रूप से
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मेरी मेवाड़यात्रा यह कहा कि-"धर्म जरा मी नहीं समझूगा, व्यवहार समझकर दूंगा"। मैंने पूछा, कि.-"व्यवहार में पुण्य समझते हो, या पाप ?” उसने का कि-"पाप"। मैंने कहा कि-"मैं गोचरी आकर आपको पाप में क्यों डालूँ ? ऐसा काम में क्यों करूँ ? और आप भी मुझको गोचरी देकर पाप में पड़ने को क्यों तयार हुए ?" वह हँसता रहा और उठकर चलता बना।
कहने का मतलब यह है, कि तेरहपन्थी लोग इस हद तक अधम विचार रखते हैं। दूसरे किसी भी साधु को भिक्षा देने में के पाप ही मानते हैं।
स्थानकवासी भाई जहाँ जहाँ हैं, वे साधारण रूप से मन्दिर की व्यवस्था रखते हैं। इतना ही नहीं, बल्कि कुछ लोग तो दर्शन भी अवश्य करते हैं। मूर्तियों को तोड़ने अथवा भगवान् की गोद में पातरे रखकर असातना करने जैसी अधमता तो वे प्रायः नहीं करते हैं।
जैसा कि ऊपर कह चुके हैं, कि जिस तरह राशमी से तेरहपन्थियों की बस्ती आने लगी, उसी तरह मेवाड़ की हद छोड़ने पर पड़ावली से मन्दिरमार्गी आने लगे। पड़ावली, चारभुजा, झीलवाड़ा, मझेरा और केलवाड़ा आदि ग्रामों में थोड़े बहुत मन्दिरमार्गी अवश्य हैं और वहाँ मन्दिरों की व्यवस्था भी अच्छी है। फिर भी एक बात अवश्य ही आश्चर्य में डालने वाली है। इन मन्दिरमार्गियोंमूर्तिपूजकों से पूछा जाय, कि-'क्या तुम भगवान की पूजा करते हो ? तो उत्तर यह मिलेगा, कि-'हाँ, महीने में एक दो बार
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मेवाड़ के उत्तर-पश्चिम प्रदेश में करते है । अपने आपको मूर्तिपूजक कहलाते हुए भी, भगवान को पूजा तो महीने में एक दिन या दो दिन ही करते हैं। ग्रामीणव्यवसाय में अधिक समय बेकार बैठे रहने में ही व्यतीत होता है, फिर भी देश के वातावरण का इतना अधिक प्रभाव पड़ा है, कि जिस बात में श्रद्धा रखते हैं, उसका उपयोग भी वे नहीं के बराबर ही करते हैं । तो भी मूर्तिपूजक होने के नाते, वे साधुओं की भक्ति करने और मन्दिरों की सफाई-व्यवस्था में उपयोग अवश्यमेव रखते हैं।
इसके अतिरिक्त, मेवाड़ के अनेक ग्रामों में कुछ कुछ सेठों की भी बस्ती है । इस ‘सेठ' जाति का परिचय 'उदयपुर' प्रकरण में कुछ दिया जाचुका है । उनकी एक जाति ही अलग है। वे लोग अधिकतर हलवाई का व्यवसाय करते हैं और प्रायः मूर्तिपूजक-जैन ही हैं। फिर भी, मेवाड़ के उत्तरीय-प्रदेश में उन पर स्थानकवासियों तथा तेरहपन्थियों का कुछ प्रभाव जरूर ही पड़ा है। उनमें दर्शन करने का रिवाज अब भी है । पूजा तो शायद ही कोई करता है । इसके अतिरिक्त, मेवाड़ के किसी किसी ग्राम में मारवाड़ से गये हुए मारवाड़ी भाइयों की भी बस्ती है। जहाँ जहाँ मारवाड़ियों की दूकानें हैं, वहाँ के मन्दिरों की व्यवस्था अवश्य ही कुछ ठीक है । उदाहरण के तौर पर कपासन में मारवाड़ियों की चार दूकानें हैं। लगभग सौ या दो सौ वर्ष से सादड़ी (मारवाड़) से आकर यहाँ ये लोग बसे हैं, फिर भी इन पर स्थानकवासी या तेरहपन्थियों का किंचित् भी प्रभाव नहीं पड़ा है।
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मेरी मेवाड़यात्रा यहाँ दो मन्दिर हैं। दोनों की व्यवस्था ऐसी सुन्दर है, कि जिसे देखकर मारवाड़ अथवा गुजरात के मन्दिरों की याद आजाती है। केवल चार दूकानें होने पर भी वे इतने भावुक हैं, कि यदि वहाँ कोई साधु चतुर्मास करें, तो किंचित् भी असुविधा न हो । यही नहीं, कई बार तो साधुओं ने वहाँ चतुर्मास किये भी हैं। अधिकारियों का सहयोग
हमारे मेवाड़ प्रवास के प्रचारकार्य में, श्री उदयपुर संघ के युवकों ने ही नहीं, बल्कि बड़े-बड़े गृहस्थों तथा यतिवर श्रीमान् अनूपचन्दजी आदि ने भी जो सहयोग दिया है, उसे कदापि नहीं भुलाया जासकता । आठ आठ दस-दस और कभी कभी इससे भी अधिक दिन तक साथ रहना, व्याख्यानों का प्रबन्ध करना, मन्दिरों में पूजा-पाठ, अंगरचना, भावना आदि करना, इत्यादि कार्यों से इन लोगों ने जिस तरह हमारा विहार सफल बनाने में सहयोग दिया है उसी तरह विभिन्न ग्राम के छोटे बड़े ऑफिसरों ने भी स्थानीय जनता को लाभ पहुँचाने में जो सहयोग दिलवाया है, वह भी सचमुच ही स्मरणीय एवं उल्लेखनीय है । बेदला में रावजो सा० के काका सा० राजसिंहजी साहब, मावली में नायब हाकिम साहब एहमतखानजी साहब, सनवाड़ के श्रीमान् महाराजा साहब, कपासन के हाकिम साहब गिरधारीसिंहजी साहब कोठारी, राशमी के हाकिम साहब उदयलालजी सा० मेहता, डॉ० मोहनसिंहजी साहब, भीलवाडा के हाकिम सा जसवन्तसिंहजी सा० मेहता,
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मेवाड़ के उत्तर-पश्चिम प्रदेश में
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जज सादुलसिहजी साहब, पो० सुप्रि० सा० मदमसिंहजी, गंगापुर के तहसीलदार सा०, सहाडा के हाकिम सा० चन्द्रनाथजी सा०, देवस्थान हाकिम साहब मथुरानाथजी साहब, जाशमा के नायब हाकिम साहब मोतीलालजी भण्डारी, काँकरोली के हाकिम साहब माथुर साहब, केलवा के ठाकुर साहब रामसिंहजी, चारभुजा के थानेदार सा० भौर केलवाड़ा के नायब हाकिम साहिब जो सिंइवी सुराना, आदि विभिन्न स्थानों के अनेक ऑफिसरों ने, जिस तरह स्वयं व्याख्यानादि का अच्छा लाभ उठाया था, त्योंही स्था नीथ जनता को एकत्रित करने में भी खासतौर पर परिश्रम किया था । और इसी परिश्रम एवं लगन का यह परिणाम था, कि जहाँ एक भी घर मूर्तिपूजक जैन का नहीं होता था, ऐसे स्थानों पर भी सैकड़ों या हजारों की संख्या में जनता एकत्रित होजाती थी । उपर्युक्त महानुभाव, अपनी इस सज्जनता तथा सहयोग के लिये सचमुच ही धन्यवाद के पात्र हैं । अमर आत्मा बल्लूभाई
आज से बीस वर्ष पूर्व, स्वर्गस्थ गुरुदेव श्री विजयधर्मसूरिजी महाराज ने उदयपुर में चतुर्मास किया था, तब पाटण की पगड़ी बाँधे हुए एक गृहस्थ, अपनी धर्मपत्नी सहित गुरु महाराज के पास आते और भोली-भाली भाषा में मेवाड़ के मन्दिरों की स्थिति का वर्णन करते थे । उस समय विदित हुआ था, कि वे पाटण के (?) निवासी हैं और मेवाड के मन्दिरों का जीर्णोद्धार करवाने के उद्देश्य से, अपनी पत्नी सहित मेवाड़ में ही रहते हैं।
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मेरी मेवाड़यात्रा उनका नाम था-लल्लूभाई।
इस बार उदयपुर में मालूम हुआ, कि वे तो अब नहीं रहे, उनका स्वर्गवास हो चुका है। किन्तु उदयपुर छोड़ कर, हम ज्यों ज्यों उत्तर-पश्चिम मेवाड़ में आगे बढ़ते गये, त्यों-ही-त्यों हमें यह बात मालम होती गई, कि उस अमरआत्मा का नाम तो मेवाड़ के प्रत्येक जैन की जबान पर मौजूद है । मेवाड़ के लगभग प्रत्येक मन्दिर के हर पत्थर में उनका नाम जीता-जागता रम रहा है । चाहे जिस गाम में जाइये, स्थानकवासी और तेरहपन्थी, त्योंही सेठ
और महात्मा, प्रत्येक मनुष्य इन्हीं लल्लूभाई का नाम रट रहा है। 'यदि ललूभाई न होते, तो हमारे गाम में मन्दिर न बन पाता' । 'यदि लल्लूभाई न होते, तो हमारे यहां प्रतिष्ठा नहीं हो सकती थी। ' 'इस तीर्थ के गौरव में इतनी वृद्धि हुई, यह लल्लभाई के पुरुषार्थ का ही परिणाम है '। यह धर्मशाला तो लल्लभाई ने बनवानी प्रारम्भ की थी, किन्तु उस आत्मा के चले जाने के कारण यह कार्य अधूरा ही रह गया' | यों भिन्न भिन्न रूपों में इस त्यागी, अपना सर्वस्व धर्म के निमित्त न्यौछावर कर देनेवाले लल्लूभाई का नाम लोग स्मरण कर रहे हैं। गुजरात में जन्म ले कर मी, मेवाड में धर्म को कायम रखने के लिये शहीद हो जाने वाले ये लल्लूभाई, मेवाड के जैन इतिहास में अमर हो गये हैं ।
मेवाड़ के इतिहास में, इन लल्लूभाई का नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा। पहाडों तथा जंगलों में भटक भटक कर जैन
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मेवाड़ के उत्तर-पश्चिम प्रदेश में मन्दिरों की असातना दूर करने वाले तथा नये मन्दिरों की स्थापना करने वाले लल्लूभाई को हम लोग कैसे भूल सकते हैं ? इतना अधिक कार्य करने पर भी, आज लल्लूभाई का नाम उन जड़ पत्थरों पर खुदा हुआ कहीं नहीं दीख पड़ता । फिर भी, यह नाम सब की-सारे देश के जैनों की जबान पर रम रहा है। यदि, जैन जाति समाज के-धर्म के सच्चे सेवकों की कद्र करने की वृत्ति वाली होती, तो आज लल्लूभाई की कितनी ही मूर्तियां मेवाड़ के मन्दिरों में मौजूद दीख पड़ती। फिर भी, उनके कार्य तो आज भी जीते-जागते मौजुद ही हैं। उन कार्यों को देखने वालाउनके इतिहास की खोज करने वाली तो जरूर ही लल्लूभाई को याद करेगा।
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(११)
उदयपुर की महासभा से
अब अन्त में, 'मेरी मेवाइयात्रा' का वर्णन समाप्त करने से पूर्व, उदयपुर के समस्त श्री संघ की तरफ से स्थापित हुइ श्री जैन श्वेताम्बर महासभा के प्रति दो शब्द कह देना उचित समझता हूँ।
मेवाड़ की मेरी इस छोटी सी मुसाफिरी के आधार पर मुझे यह बात मालूम हुई है, कि सचमुच ही यह अत्यन्तप्राचीन तथा पवित्र देश है और जैसा कि कहा जाता है, मेवाड़ में हजारों जैन मन्दिर होंगे, इनमें कोई सन्देह नहीं है। इन मन्दिरों की भसातना का खास कारण उनके पूमों का अभाव
और जो लोग मूर्ति पूजा में श्रद्धा नहीं रखते, उनके हाथों में इन मन्दिरों की व्यवस्था होना है। वे लोग इतना तो जरूर ही जानते हैं, कि-" स्थानकवासी और तेरहपन्थी मत तो नये निकले हुए मत हैं। मूर्तिपूजा हमेशा से होती आई है । यदि हमारे
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उदयपुर की महासभा से
१०३ बापदादे मूर्तिपूजा में श्रद्धा न रखते होते, तो लाखों रुपये खर्च कर के मन्दिरों की रचना ही क्यों करवाते ? " यह सब जानते हुए भी, मूर्तिपूजा के उपदेशकों के अभाव में, मूर्तिपूजा के विरोधी उपदेशकों ने, इन बेचारे भोले लोगों को सत्य धर्म से इस तरह विमुख किया, कि मन में समझते होने पर भी, वे मूर्तिपूजा नहीं कर सकते । विरोधी उपदेशकों ने उन्हें पूजा से विमुख करने के निमित्त, इन बेचारे भोले भाले लोगों को सारे वर्ष में दो या चार बार से अधिक स्नान न करने के नियम करवाकर, इन्हें केवल मूर्तिपूजा से ही विमुख नहा किया, बल्कि शारीरिक तथा मानसिक शुद्धि से भी दूर करके, उन्हें जंगलीजीवन व्यतीत करने वाला बना डाला है। अस्तु । चाहे जो हुआ हो, किन्तु हमारी महासभा का कर्त्तव्य है कि इन मन्दिरों की असानतायें दूर करने के लिये वह यथासम्भव सभी समुचित उपायों का अवलम्बन करे। ___मैं समझता हूँ, कि इसके लिये एक या दो गिरदावर इन्स्पेक्टर नियुक्त किये जाने चाहिएँ, कि जो मेवाड़ में भ्रमण करे और मन्दिरों की स्थिति का निरीक्षण करते रहे। वे लोग, मन्दिरों की स्थिति की जैसी रिपोर्ट महासभा को भेजे, उसी प्रकार की एक रिपोर्ट उस जिले के हाकिम साहब को भी प्रेषित करे । महासभा, श्रीमान् महाराणाजी साहब से प्रार्थना करके एक हुक्म सभी जिलाधीशों के नाम इस आशय का जारी करवावे, कि जब जब महासभा के इन्स्पेक्टर की किसी मन्दिर की असातना के सम्बन्ध
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१०४
मेरी मेवाड़यात्रा
ध्यान दें और उस असातना सत्ता का उपयोग करे ।
में कोई रिपोर्ट आवे, तब उस पर वे को दूर करवाने के लिये दी गई सारे मेवाड़ में; शायद ही कोई ऐसा मन्दिर होगा, कि जिसको केशर - चन्दन अथवा अन्य व्यवस्था के लिये दरबार की तरफ से सहायता न मिलती हो। इस सहायता का उपयोग न किया जाय, यह भी एक अपराध है । उदयपुर के महाराणाजी परमदयालु और धर्मात्मा हैं । वे यह बात अवश्यमेव चाहते होंगे, कि मेरे राज्य का किसी भी धर्म का कोई भी मन्दिर, अपूज तो कदापि न रहने पावे । ऐसी अवस्था में, महाराणाजी सा० से प्रार्थना करके, इस प्रकार का हुक्म प्राप्त करने से, मन्दिरों की असातना दूर करने के कार्य में निश्चय ही बहुत कुछ सफलता प्राप्त हो सकती है । आशा है, कि महासभा के महारथीगण, इस बात को अवश्य ही ध्यान में लेंगे और इसके लिये यथासम्भव प्रयत्न भी करेंगे ।
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(१२)
उपसंहार
समय के अभाव तथा अन्य प्रवृत्तियों के कारण, केवल थोड़े समय तक ही मेवाड़ में विचरने का सौभाग्य प्राप्त हो सका है। उस अनुभव के आधार पर मैं यह बात कह सकता हूँ, कि मेवाड़ धर्मप्रधान और इतिहासप्रधान देश है। पहाड़ो तथा पत्थरोंवाला देश होने पर भी--कांटों तथा कंकरों वाला देश होते हुए भी सरल तथा भक्तिवाला देश है। यह देश, जिस तरह धर्मप्रचार की भावना रखनेवाले उपदेशकों के लिये उपयोगी है, उसी तरह ऐतिहासिक खोज करने वालों के लिये भी सचमुच ही उपयोगी है। यहां, न संघ-सोसायटियों के झगड़े हैं और न पदवियों की प्रतिस्पर्धी ही । कोई भी साधु, अपने चारित्र धर्ममें स्थिर रह कर, शान्तवृत्ति से उपयोग पूर्वक उपदेश दे, तो वह बहुत कुछ उपकार कर सकता है । उपकार करने के लिये, मेवाड़ अद्वितीय क्षेत्र है । अपने निमित्त ग्राम-ग्राम में क्लेश होने पर भी, घर-घर में आग की
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मेरी मेवाड़यात्रा
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चिनगारियाँ उड़ने पर भी, गृहस्थों द्वारा अपमान तथा तिरस्कार सहन करने पर भी, गृहस्थों की साधुओं पर अश्रद्धा होने पर भी, 'अतिपरिचयादवज्ञा' का अनुभव रात-दिन करते रहने पर भी, दुःख तथा आश्चर्य का विषय है, कि हमारे मुनिराज गुजरातकाठियावाड को क्यों नहीं छोड़ते होंगे और ऐसे क्षेत्रों में क्यों नहीं निकल पड़ते होंगे, कि जहाँ एकान्त उपकार और शासन सेवा के अतिरिक्त, दूसरी किसी चीज़ का नाम भी नहीं है ।
पूज्य मुनिवरो, गुजरात- काठियावाड़ छोड़कर जरा बाहर निकलो और अनुभव प्राप्त करो। फिर देखोगे, कि तुम्हारा आत्मा कितना प्रसन्न होता है ।
चारित्र की शुद्धि, धर्म से विमुख हुए लोगों को धर्म में काना, अजैन वर्ग पर सच्चे त्याग की छाया डालनी, आदि बातों का जब आपको अनुभव होगा, तब आपको इस बात का विश्वास होजायगा, कि वास्तविक उपकार का कार्य तो यहीं होता है ।
'मेरी मेवाड़यात्रा' के आलेखित इस संक्षिप्त अनुभव पर से कोई भी आत्मा जाग्रत हो और ऐसे देशों में विचरने के उद्देश्य से बाहर निकल पड़े, इस प्रकार की अभिलाषा रखता हुआ, अपने इस अनुभववृत्त को यहाँ ख़तम करके अपना लेख समाप्त करता हूँ। ॐ शान्तिः ।
स... मा... स
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हमारी ग्रंथमाला की गुजराती पुस्तकें
नंबर नाम कर्ता व संपादक मूल्य १ विजयधर्मसूरि-स्वर्गवास पछी : श्री विद्याविजयजी २-८-० ६ विजयधर्मसूरिनां वचनकुसुमो :
०-४-. १० आबू : [७५ फोटू के साथ ] श्री जयन्तविजयजी २-८-० ११ विजयधर्मसूरि: धीरजलाल टो. शाह ०-४-० १२ श्रावकाचार :
श्री विद्याविजयजी ०-३-० १३ शाणीसुलसा :
०-३-० १४ समयने ओलखो भाग २ :
०-१०-० १५ समयने ओलखो भाग १ :
०-१२-० १७ सम्यक्त्वप्रदीप : उपा० श्री मंगलविजयजी ०-४-० १८ विजयधर्ममूरि पूजा :
0-8-0 २० ब्रह्मचर्यदिग्दर्शन : श्री विजयधर्मसूरि ०-४-० २२ वक्ता बनो :
श्री विद्याविजयजी ०-६-० २३ महाकवि शोभन अने
तेमनी कृतिओ : श्री हिमांशुविजयजी ०-३-० २४ ब्राह्मणवाडा :
श्री जयन्तविजयनी ०-४-० २५ जैनतत्त्वज्ञान :
श्री विजयधर्मसूरि ०-४-० २६ द्रव्यप्रदीप :
उपा० श्री मंगलविजयजी ०-४-० २८ धर्मोपदेश :
श्री विजयधर्मसूरि ०-६-० २९ सप्तभंगीप्रदीप : उपा० श्री मंगलविजयजी ०-४-० ३२ धर्मप्रदीप :
०-४-०
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हमारी ग्रंथमाला की हिन्दी व अंग्रेजी पुस्तकें
४ श्रावकाचार :
श्री विद्याविजयजी ०-४-० ५ विजयधर्मसूरि के वचनकुसुम :
०-४-० ७ से ईग्झ ऑफ विजयधर्मसूरि : डॉ. क्रौझे ०-४-० (Sayings of Vijaya Dharma Suri) (Dr. Krause)
९ विजयधर्मसूरि अष्टप्रकारी पूजाः श्री विद्याविजयजी ०-४-० १६ एन आइडीयल मंक (आदर्श साधु) :
ए. जे. सुनावाला बी. ए. एल एल. बी. ५-०-० ( An Ideal Monk) (A. J. Sunawala ) २१ ब्रह्मचर्य दिगदर्शनः श्री विजयधर्मसूरि ०-४-० ३३ मेरी मेवाड़यात्रा : श्री विद्याविजयजी -३-०
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दीपचंद बांठिया मंत्री, श्री विजयधर्मसरि जैन ग्रंथमाला छोटा सराफा उज्जैन (मालवा) For Private And Personal Use Only