Book Title: Mere Divangat Mitro ke Kuch Patra
Author(s): Jinvijay
Publisher: Sarvoday Sadhnashram Chittorgadh
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र ( मुनि जिन विजय द्वारा संकलित ) सर्वोदय साधनाश्रम चन्देरिया (चित्तौड़गढ़) द्वारा प्रकाशित Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक : केशरपुरी गोस्वामी अध्यक्ष : - सर्वोदय साधनाश्रम घन्देरिया (चित्तौडगढ़) प्रथमावृत्ति, ५०० प्रति • मूल्य २ रुपये - अहमदाबाद निवासी श्रीमती मोती बहन जीवराजगाह द्वारा वितरित ३१ मार्च, १९७२ मुद्रक : प्रतापसिंह लूणिया जॉब प्रिंटिंग प्रेस, ब्रह्मपुरी, अजमेर। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम प्राक्कथन पृ० सं० १. श्री राजकुमारसिंह जी कलकत्ता के पत्र १-२१ २ स्व० कुमार श्री देवेन्द्र प्रसाद जैन के पत्र २२-३२ ३. इन्दौर निवासी श्री केशरीचन्द जी भंडारी के पत्र ३३-४३ ४. कलकत्ता निवासी बाबू श्री पूरणचन्दजी नाहर के पत्र ४४-६७ ५. स्व. रायबहादुर, महामहोपाध्याय प० श्री गौरीशकर, हीराचन्द ओझा के पत्र ९८-१२६ ६. पटना (विहार) के प्रख्यात पुरातत्व वेत्ता स्व० वाबू श्री काशीप्रसाद जायसवाल के पत्र १२७-१४८ ७. पजाब निवासी स्व०, प्रख्यात एपिग्राफिस्ट डॉ. हीरानन्द शास्त्री के कुछ पत्र १४९-१५७ ८. राष्ट्रभाषा हिन्दी के महान उन्नायक, सरस्वती के श्रेष्ठ सम्पादक स्व. पं. महावीर प्रसादजी के कुछ पत्र १५८-१६२ ६. जर्मनी निवासी, राष्ट्रभक्त, भारतीय संस्कृति के । अनन्य उपासक स्व. श्री ताराचन्द राय के कुछ पत्र १६३-१६६ १०. राष्ट्रभाषा हिन्दी के अनन्य उपासक, देशभक्त, उत्साही परिव्राजक स्वर्गीय स्वामी श्री सत्यदेवजी के कुछ पत्र १६७-१७२ ११. बौद्ध साहित्य के जगत् विख्यात विद्वान, हिन्दी भाषा के सुप्रसिद्ध लेखक महापडित, स्व. राहुल सांकृत्यायन के कुछ पत्र १७३-१७५ Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किंचित् प्राक्कथन जयपुर -- साहित्यिक जीवन और अपने दिवंगत मित्रों के ये कुछ कार्य के किंचित् परिचायक और संस्मरण सूचक हैं । मेरी साहित्यिक कार्य प्रवृत्ति का क्षेत्र सीमित रूप का रहा । अधिकतर मेरी रुचि प्राचीन ग्रंथों के अध्ययन और प्रकाशन की रही । इतिहास और पुरातात्विक विषय मेरे मन को आकृष्ट करते रहे । Me + wort • 1 मैंने अपने जीवन के प्रारम्भ में किसी प्रकार की व्यवस्थित शिक्षा - प्राप्त नहीं की । न मुझे किसी स्कूल या पाठशाला में पढने का ही कोई संयोग मिला । न किसी शिक्षक या गुरु का ही कोई मार्ग दर्शन मिला । न मुझे अपनी मातृभाषा (जो ग्रामीण मेवाड़ी हो सकती है ) या अन्य किसी भाषा का ही ठीक ज्ञान मिला। देवनागरी अक्षरो का बोध भी मुझे किसी न किसी रूप मे, १० वर्ष की उम्र में, प्राप्त होने का अवसर मिला । लेकिन वर्णमाला की प्राथमिक पुस्तक पढने का योग नहीं मिला। वैसी पुस्तक के देखने का ही प्रारब्ध नही था तो पढ़ने का योग कैसे मिलता । अक्षरो की आकृति का ज्ञान तो उस युग की लकड़ी की पट्टी पर पानी में घोली हुई खड़िया मिट्टी से पुताई कर, भोर उस पर इंट को पीस कर बनाई गई लाल धूलि को बिछाकर, बंबूल की पतली टहनी से बनाये गये नुकीले बरतने से अक्षरों के आकार घोट घोट कर, प्राप्त कर लिया था पर वर्णमाला की छपी हुई पुस्तिका देखने को नहीं मिली थी । " यतिवर गुरु देवोहंसजी ने शब्दों के शुद्ध उच्चारण की दृष्टि से, प्रारम्भ ही में कुछ संस्कृत श्लोक जबानी ही पढ़ाने शुरु किये थे । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र ॐकार बिन्दु संयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः। कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नमः॥ ___ यह श्लोक सबसे पहले कंठस्थ कराया। इसके बाद राजस्थान की पुरानी पाठशालाओं मे प्रारम्भिक छात्रों को "सिद्धो, वरण समामनाया" इस सूत्र से प्रारम्भ होने वाला १५-२० सूत्रों का एक समूह कठस्थ कराया। पाठशालाओं मे सिखाने वाले. अर्द्धदग्ध-शिक्षक ये सूत्र बहुत ही भ्रष्ट रूप में और अशुद्ध उच्चारण के साथ चित्र विचित्र भापा के कुछ असंबद्ध वाक्य मिलाकर सिखाते रहते थे; और उनका तात्पर्य कोई भी नहीं समझता था। . . वास्तव में यह सूत्र समूह सुप्रसिद्ध प्राचीन "कातन्त्र" नामक व्याकरण का प्रथम वर्णज्ञान परिचायक पाठ है । गुरुवर्य देवी हंस जी ने मुझे इन सूत्रो को शुद्ध रूप में सिखाये थे। ( राजस्थान पुरातन ग्रंथ माला मे मैंने इस प्राचीन एवं दुर्लभ व्याकरण ग्रन्थ को मूल रूप मे प्रकट कर दिया है। ) . - बाद में जैन धर्म का "नमो अरिहंताणं नमो सिद्धाण" वाला प्राकृत भाषामय नमोकार मंत्र कंठस्थ कराया। इसी तरह गुरुजी में कुछ सस्कृत के अन्य श्लोक और कुछ प्राकृत के जैन स्तोत्र पाठ भी कठस्थ कराये। कुछ समय बाद उनके पास वर्णमाला की छपी हुई पहली किताव आ गई तो फिर मुझे अपने पास में बैठाकर धीरे धीरे उसके शब्दो का परिज्ञान' कराया। दो एक दिन में ही. मैंने उस छोटी सी पुस्तिका के सव शब्द कठस्थ कर लिये और मैंने इस प्रकार अक्षर-बोध प्राप्त किया । इस तरह जीवन के ११वें वर्ष मे मेरा साक्षर जीवन (अर्थात् अक्षर बोध प्राप्त जीवन काल ) प्रारम्भ हुआ। इसके पूर्व के बाल्यकाल के १० वर्ष सर्वथा निरक्षर जीवन के परिचायक रहे ................... Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किचित् प्राक्कथन इस निरक्षर जीवन के अन्त और साक्षर-जीवन के प्रारम्भ बाद जीवन में किस तरह विद्याभिरूचि उत्पन्न हुई और उसको तृप्त करने के लिये किन किन मार्गों का एवं उपायो का अनुसरण किया गया वह मेरी जीवन कथा का विषय है। उसकी प्रारम्भिक भूमिका रूप एक छोटीसी पुस्तिका अभी प्रकाशित हुई है उसमे इसका, कुछ दिग्दर्शन कराया गया है...............! . . ... इस साक्षर जीवन का प्रायः १० वर्ष में धीरे धीरे क्रमशः कुछ विकास होता रहा। इन वर्षों मे मुझे अव्यवस्थित हिन्दी, मराठी, एवं गुजराती भाषा का कुछ कुछ परिचय हुना परतु साहित्य की दृष्टि से कोई परिज्ञान नही मिला। न किसी विषय की कोई छोटी-मोटी पुस्तकें ही पढ़ने को मिली। जैन धर्म के एक संप्रदाय में साधु रूप की दीक्षा ग्रहण कर लेने के कारण प्राकृत-भाषा मे रचित जैन सूत्रों का तथा पुरानी राजस्थानी गुजराती मिश्रित भाषा में लिखे गये उनके अर्थों और विवरणो का परिज्ञान विशेष रूप से प्राप्त करने का कुछ अवसर मिला, परंतु भाषाकीय परिज्ञान की दृष्टि से उनका कोई सम्बन्ध नहीं था। किसी भी देश की भाषा मे शुद्ध एवं सुव्यवस्थित रूप में बोलने का कोई अभ्यास नहीं हुआ, फिर लिखने की तो कल्पना ही कैसे हो सकती है ? परंतु मेरी रुचि छपी हुई पुस्तको के पढ़ने की ओर सदा आकृष्ट होती रही.....! - समाचार पत्रो के देखने का या पढने का प्रसग उक्त संप्रदाय मे संभव न था ..." .. सन् १९०८ मे मैंने संप्रदाय का परिवर्तन किया और एक अन्य जैन संप्रदाय की दीक्षा ली। इस संप्रदाय में कुछ छपी पुस्तकें पढ़ने का योग मिला। एक दिन ब्यावर के जैन उपाश्रय में रहते हुये एक शिक्षित जैन नवयुवक के हाथ में हिन्दी भाषा की सुप्रसिद्ध मासिक पत्रिका 'सरस्वती' की एक प्रति मेरे देखने मे भाई । जीवन में सर्व प्रथम/ एक मासिक पत्रिका देखी। जिसके ऊपर सुन्दर रंगीन आर्ट पेपर का Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र कवर था और उस पर सरस्वती का छपा हुआ रंगीन चित्र था। युवक के हाथ में से मैंने उस पत्रिका को लिया और अंदर के कुछ पन्ने उलटने लगा तो उसमें कई प्रकार के चित्र भी थे और सुन्दर अक्षरो में छपे हुये छोटे बड़े लेख भी थे। मेरी जिज्ञासा उस पत्रिका को पढने की हुई और मैंने वह पत्रिका उस युवक को कुछ समय मेरे पास रखने को कहा । दो तीन दिन में मैंने उस पत्रिका के बहुत से लेख पढ़ डाले और अकस्मात वैसे लेखों को पढने की मेरी जिज्ञासा बलवती हो गई। दूसरी बार जब वह युवक इस पत्रिका के कुछ और भी । तद्नुसार उसने पत्रिका के ज्यों ज्यों मैं सरस्वती के उन मेरे पास आया तो मैंने उससे कहा कि अव तुम्हारे पास हो तो मुझे ला दो कुछ पिछले पांच सात अङ्क ला दिये । अकों को पढ़ता गया त्यों-त्यों मेरो पढ़ने को भूख बढ़ती गई । सुव्यवस्थित लिखी गई हिन्दी भाषा का परिचय उस समय से मुझे होने लगा । मन में यह एक अज्ञात कामना उत्पन्न हुई कि मैं भी अपने जीवन में कभी इस भाषा में ऐसे लेख लिखने की शक्ति प्रौर योग्यता प्राप्त कर सकूंगा ? ....... मैं धीरे धीरे अपनी कुछ आभ्यासिक योग्यता बढ़ाने का प्रयत्न करता रहा। बाद के वर्षों में मुझे गुजरात के प्रसिद्ध पुरातन शहर पाटन में रहने का सुयोग मिला। उस समय वहां पर जैन सम्प्रदाय के विशिष्ठ सम्मान्य वयोवृद्ध और ज्ञानोपासक जैन मुनिवर की चरणसेवा में रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । इन मुनि महाराज का धन्यनाम प्रवर्तक पदधारक श्री कान्तिविजयजी था । ये मुनिवर साहित्य के और खासकर इतिहास के बड़े रसज्ञ थे। इनके पास गुजराती भाषा मे प्रसिद्ध होने वाले कई मासिक पत्र श्रादि भाते रहते थे, जिनको पढ़ने का मुझे मुयोग मिल जाता था । यों ये हिन्दी भाषा में लिखित इतिहास विषयक पुस्तकों के पढ़ने की भी रुचि रखते थे। उस समय तक मैंने हिन्दी भाषा का कुछ विशेष कर लिया था और कुछ टूटे 'फ्रूटे विचारों को लेखवद्ध A परिचय प्राप्त करने का भी - Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किंचित् प्राक्कथन प्रयत्न करने लगा था। मैंने उक्त प्रवर्तक मुनिमहाराज को निवेदन किया कि हिन्दी भाषा में सरस्वती नाम की एक बहुत अच्छी मासिकः पत्रिका प्रकाशित होती है जिसमे समय समय पर इतिहास और पुरातत्व विपयक लेख भी प्रकाशित होते है। मेरे निवेदन पर उन्होने इस पत्रिका के मंगवाने का प्रबन्ध किया"" .. " । अवलोकन करते ला, जो सात-अन्य को पाटन के जैन भंडारों का अवलोकन करते समय मुझे एक ऐसे छोटे से संस्कृत ग्रंथ को देखने का अवसर मिला, जो सात-आठ सौ वर्ष पुराने लिखे गये ताडपत्र पर आलेखित था। इस ग्रन्थ की उपलब्धि ने जैन साहित्य के एक बहुत विवाद पूर्ण विषय पर नूतन प्रकाश डाला। इसका विशेष विवरण देना तो यहां प्रासगिक नही है परंतु इस पर से मुझे एक छोटा सा लेख लिखकर किसी साहित्यिक पत्र मे प्रकाशित करने का मेरा प्रवल मनोरथ हुआ। और तदनुसार "जन शाकटायन व्याकरण कब बना" इस नाम का एक छोटा-सा - लेख कई दिनो के परिश्रम के साथ तैयार किया और उसे प्रकाशित करने के लिये सरस्वती के प्रसिद्ध संपादक मुकुटमरिण एवं हिन्दी भाषा के महान् प्रतिष्ठापक तथा उन्नायक स्वर्गीय पं० श्री महावीरप्रसादजी द्विवेदी को देखने के लिये और योग्य लगे तो सरस्वती मे प्रसिद्ध करने के लिये भेज दिया। "मेरे इस छोटे से लेख को प्राप्त कर श्री द्विवेदीजी ने नही, कानपुर से ता. १६-५-१९१५ को अपने स्वहस्ताक्षरो से डेढ़ पक्ति वाला एक पोस्टकार्ड लिखकर भेजा जिसमे लिखा कि "शाकटायन पर लेख मिला, कृतज्ञ हुआ। धन्यवाद, छापूगा। (देखिये प्रस्तुत पत्रावली के पृष्ठ १५८ पर द्विवेदोजी का प्रथम पत्र) मेरे दिवगत मित्रों के सैकडो पत्र मेरे पास पड़े हैं जिनमे श्री द्विवेदीजी का यह डेढ पक्ति और तीन वाक्यो वाला पत्र मेरे । साहित्यिक जीवन के सुप्रभात की प्रथम किरण दिखाने वाला है। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र मेरे उक्त लेप को द्विवेदीजी ने सरस्वती के सन् १९१५ के जुलाई वाले मन में प्रकानित किया। इस लेख के विषय के महत्व को लक्ष्य में रख कर सरश्यती पनिका के ६० वर्ष वाले हीरक जयन्ती के अवसर पर जो विगिण्ठ श्राद्ध रूप ग्रन्थ (मन् १९६१ में) प्रकागित हुआ है उसमें भी इस लेख को सास उद्रत किया गया है (देखो हीरक जयन्ती अशा पृष्ठ ५३६) - हिन्दी भापा में लिखा गया मेरा यह प्रथम सुवद्ध लेख है। इसके बाद श्री द्विवेदीजी ने मुझे एक पत्र लिखकर पाटन के "जन पुरतक भंडारों" पर एक विशिष्ठ लेख लिखने का श्रामन्त्रण दिया, जिरो मैंने बहुत परिश्रम पूर्वका, कई महीनों में लिख कर श्री द्विवेदीजी के पास भेज दिया। लेरा को भी उन्होंने बहुत पसंद किया और सरस्वती में उचित रूप से प्रकाशित किया। संक्षेप में मेरे साहित्यिक जीवन का व्यवस्थित प्रवास सरस्वती के दर्शन और उसमे प्रकाशित लेगों के भाग्य से शुरु हा । श्री द्विवेदीजी के साथ मेरा गाफी पत्र व्यवहार होता रहा । जिनमे गे सुछ ही पल सुरक्षित रह सके। द्विवेदीजी ने मेरी लिखी हुई हिन्दी तथा गुजराती में कुछ पुस्तको की विगिष्ठ समालोचनायें भी न आदर और उल्लास भरे शब्दों में सरस्वती में प्रकागित की। इतना ही नहीं उन्होंने गुजराती भाषा में लिखित मेरा एक निवन्ध जिसका नाम "पुरातत्व संगोधननो पूर्व इतिहास" और जो अहमदाबाद क गुजरात विद्यापीठ अन्तर्गत गुजरात पुरातत्व अथावली में प्रकागित मार्यविद्या व्याएयान माला नामक पुरतका में प्रकागित हा था, उसका पूरा सार अपनी भापा में लिखकर सररवती में प्रमाणित किया था। उनका यह लिखित सार "पुरातत्व प्रसंग" नामकी उनकी छोटीसी पुस्तिका में पुनः प्रकाशित हुआ है। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किंचित् प्राक्कथन वास्तव में इस प्रस्तुत पत्र संग्रह मे सर्व प्रथम श्री द्विवेदीजी के पत्रों को ही स्थान देना था परंतु पत्रावली जब छपने भेजी तो उस समय द्विवेदी जी के ये पत्र इधर उधर हो जाने से हाथ नहीं आये थे। अतः प्रारम्भ में अन्यान्य मित्रो के पत्र छपने को भेज दिये । राष्ट्रभाषा हिन्दी के जिन-जिन प्रेमी और विद्वान् लेखको को स्वर्गस्थ द्विवेदीजी के महान् व्यक्तित्व और कृतृत्व की यथार्थ परिकल्पना है उनके लिये श्री द्विवेदीजी के लिखे गये और उनके स्वहस्ताक्षरों से अंकित ऐसे पत्रो का कितना महत्व है और जिस व्यक्ति को उनके ये पत्र प्राप्त हुये है उसके लिये ये कैसे अमूल्यनिधि एव चिरस्मृति के द्योतक हैं, वे ही इसे समझ सकते है। मैं द्विवेदीजी के पत्रो को अपने जीवन की एक सर्वोत्कृष्ट स्मृतिनिधि मानता हूँ प्रस्तुत पत्र सग्रह में जिन दिवगत मित्रो के पत्रो का सग्रह हुआ है उसमे कोई विषय या समयक्रम की दृष्टि नही रही है। इस प्रकार के हिन्दी, गुजराती, मराठी तथा अग्रेजी आदि भापाओं मे लिखे गये अनेक विद्वान मित्रो के सैकड़ो पत्र मेरे पास पड़े हैं। इन सवका एकत्र सग्रह छपाना बहुत बड़ा काम है और वह अब मेरे इस अवशिष्ट अल्प जीवन काल मे सम्भव नहीं है। कोई तीन चार वर्ष से इन पत्रो को प्रकाशित करने का मेरा मनोरथ बना परन्तु यथायोग्य साधनाभाव के कारण उचित ढग से कार्य शुरु नही किया जा सका। दो वर्ष पूर्व जीवन कथा के लिखने का प्रारम्भ हुआ तो उसके साथ इन पत्रों को भी वारम्वार देखने की आवश्यकता महसूस हुई क्योकि जीवन की विगतप्रायः प्रवृत्तियो का सिंहावलोकन, इन पत्रो के आधार पर ही निर्भर था। उसी समय जीवन कथा की जो भूमिका प्रकाशित करने का प्रायोजन किया, उसीके साथ एक अलग पुस्तिका के रूप में उक्त प्रकार के अनेक पत्रो मे से कुछ विद्वानो के पत्र भी अलग से छाटे; और उनको भी साथ मे छपने के लिये प्रेस में भेज दिये। कोई दो वरस के प्रयास के बाद जीवन कथा की भूमिका गत अगस्त मास Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे दिवंगत मित्रो के कुछ पत्र में प्रकाशित हो सकी। उसीके साथ प्रेस मे छपने के लिये भेजे गये प्रस्तुत पत्रों का यह छोटा सा भाग अब प्रकाशित हो रहा है। इसमें कुल ग्यारह दिवंगत मित्रों के पत्रो का संकलन हुआ है। जिन व्यक्तियो के ये पत्र है, वे सभी अपने अपने कार्य क्षेत्र के विशिष्ट व्यक्ति थे। इन सब मित्रो की मधुर स्मृतियाँ मेरे जीवन में बहुत आल्हादक रही हैं। इच्छा तो रहती है इन सबका थोड़ा-थोड़ा परिचय दिया जाय परन्तु यह कार्य कुछ समय और श्रमसाध्य होने से मैं अपनी इस इच्छा को पूर्ण करने में असमर्थ हूँ। कुछ थोडे थोड़े शब्दो मे ही इन दिवंगत मित्रों का उल्लेख कर देना चाहता हूं। प्रस्तुत सग्रह मे कुल ग्यारह व्यक्तियों के पत्रो का सकलन है । १-इनमे प्रथम स्थान कलकत्ता निवासी स्व० श्री राजकुमार सिंहजी के पत्रो का है। इनके विपय में थोड़ा सा परिचय पत्रों के प्रारभ में ही दे दिया गया है। किस सबन्ध में इनके साथ यह पत्र व्यवहार हुआ था जिसका परिचय पत्रो के पढने पर ठीक मिल सकेगा। पना में मैंने "भाडारकर प्राच्य विद्या संशोधन मन्दिर" (भाडारकर श्रोरियन्टल रीसर्च इन्स्टीट्य ट ) का प्रारम्भ करने में कुछ विशेष सहयोग प्रदान किया था। उसमे स्वर्गीय वाबू श्री राजकुमारसिंहजी का विशेप योग मिला था। २-पत्र संग्रह में दूसरा स्थान स्वर्गस्थ देवेन्द्रकुमार जैन के पत्रो का है। ये यो दिगम्बर जैन सम्प्रदाय के अनुयायी थे। लेकिन जैन इतिहास और साहित्य को समन रूप में प्रकाशित देखने की बड़ी उत्कठा और अभिरुचि रखते थे। ये बड़े उत्साही और भावनाशील Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किचित् प्राक्कथन युवक थे। प्रतिभा भी इनकी बहुत तेज थी । हिन्दी और अंग्रेजी दोनो के अच्छे मर्मज्ञ एवं लेखक थे। पूना में रहते हुये मैंने जैन साहित्य संशोधक समिति नाम की सस्था की स्थापना की और उसके द्वारा शोध विषयक एक अच्छे प्रौढ त्रैमासिक पत्र के प्रकाशन की योजना की। इस पत्र के प्रकाशन मे इनका वहुत हार्दिक सहयोग रहा, परन्तु दुर्भाग्य से अल्पावस्था में ही इनका स्वर्गवास हो गया। मेरे लिये यह एक आघात जनक प्रसंग था। इनके पत्रों के पढ़ने से ज्ञात होगा कि इनका मुझ पर कितना सौहार्दपूर्ण सद्भाव था। इन्होने विहार के प्रारा नगर में एक अच्छा, जैन साहित्य के प्रकाशन का केन्द्र स्थापित किया था और उसके द्वारा अनेक महत्व के जैन ग्रंथो का प्रकाशन कार्य भी शुरु किया था। ३-~पत्र संग्रह मे तीसरा स्थान इदौर निवासी स्वर्गस्थ श्री केशरीचन्दजी भंडारी के पत्रो का है। ___ श्री केशरीचन्दजी इन्दौर के तत्कालीन जैन समाज के एक प्रसिद्ध व्यक्ति एवं सामाजिक कार्यकर्ता थे । ये संप्रदाय से स्थानकवासी आम्नाय के मानने वाले और उस आम्नाय के अग्रणी व्यक्तियो मे से थे; परन्तु सामूहिक रूप से जैन समाज की प्रगति और उन्नति के विशेष इच्छुक थे। जैन साहित्य और तत्वज्ञान के अभ्यासी और मननशील श्रद्धालु पुरुष थे। मेरा परिचय उनको उपरोक्त स्वर्गस्थ देवेन्द्रकुमार जैन ने कराया। फिर इनके साथ अच्छा पत्र व्यवहार होता रहा। मैं जो साहित्यिक और सामाजिक प्रगति विपयक कुछ कार्य करना चाहता था, उसमें इनकी अच्छी अभिरुचि हो गयी थी। इनके पत्रो के पढने से ये बाते भली भाति ज्ञात हो सकेगी। वाद में मेरे कार्य क्षेत्र मे विशेप परिवर्तन होने के कारण इनके साथ फिर विशेप संबन्ध न रहा। फिर उनका स्वर्गवास हो गया। ४-पत्र सग्रह मे चौथा स्थान कलकत्ता के स्वर्गीय वाबू पूरणचंदजी नाहर के पत्रो का है। वावू पूरणचन्दजी नाहर कलकत्ता के एक Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र बडे धनी मानी, विद्वान और समाज के अग्रगण्य पुरुप थे। इनका मारा परिवार मुर्शिदाबाद और कलकत्ता में बहुत प्रसिद्ध है। वर्तमान मे कलकत्ता के एक सुप्रसिद्ध कांग्रेसी अग्रगण्य पुरुप, जो चावू श्री विजयसिंह जी नाहर के नाम से प्रसिद्ध हैं ये इन्ही वावु श्री प्रणचन्द जी नाहर के एक सुपुत्र है। बाबू पूरणचन्दजी नाहर का पारिवारिक संबन्ध कलकत्ता निवासी ऐसे ही एक सुप्रसिद्ध जैन अग्रगण्य पुरुप स्वर्गीय वावधी वहादुरसिंहजी सीधी के परिवार के साथ था। ये श्री सीधी जी के मासियायी भाई थे । इनकी विशिष्ठ अभिरुचि जैन इतिहास, साहित्य कला आदि की ओर थी। यो ये हाई कोर्ट के वकील थे और सामाजिक नेता भी थे। मैंने पूना मे रहकर जिन साहित्यिक प्रवृत्तियों का कार्यारभ किया था उसमे प्रारम्भ ही से उनका पूरा सहयोग मिलता रहा । उसके बाद मैं जब अहमदाबाद के गुजरात विद्यापीठ के अन्तर्गत् गुजरात पुरातन्व मन्दिर के कार्य में मुख्य रूप से सलन हुआ तो उसमें भी इनका अनेक प्रकार से मुझे सहयोग मिलता रहा । वाद में मैं जव शान्ति निकेतन मे गुरुदेव रवीन्द्रनाथ के आमन्त्रण से विश्वभारती विद्यापीठ में जैन शिक्षापीठ का आचार्य बना, तव भी इनका सहयोग मुझे बराबर मिलता रहा । इनके साथ मेरी साहित्यिक प्रवृत्तियो का अनेक प्रकार से संबन्ध रहा। परस्पर इन विपयो में वो तक विचारो एवं पुस्तको प्रादि विपयों में आदान प्रदान का कार्य होता रहा। इनके जीवन के अन्त तक मेरा वैसा विशिष्ठ सम्बन्ध बना रहा। इनके विविध पत्रो के पढने से ये बातें ज्ञात हो सकेगी। ५-~-पत्र सग्रह में पाचवें स्थान पर स्वर्गीय महामहोपाध्याय राय ." वहादुर पण्डित गौरीशकर हीराचन्दजी ओझा के पत्रो का संग्रह है। श्री ओझा जी का परिचय देने की कोई आवश्यकता नहीं है । वे भारत के बहुत बडे विद्वान और राजस्थान के सर्वोत्तम इतिहासज्ञ के रूप में विश्वविख्यात हैं। उनके साथ मेरा कैसा घनिष्ट आत्मीय संवन्ध रहा Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किंचित् प्राक्कथन वह इन पत्रो के पढ़ने ही से ज्ञात हो सकेगा। और कुछ परिचय देने की आवश्यकता नही है। भारत के प्राचीन इतिहास के संशोधन तथा प्राचीन लिपियों का ज्ञान प्राप्त करने में मुझे सर्व प्रथम इन्ही की लिखी हुई पुस्तको का अवलोकन मार्ग-दर्शक बना। ६ - पत्र संग्रह मे छठा स्थान स्वर्गस्थ बाबू काशीप्रसादजी १ जायसवाल के पत्रो का है। बाबू काशीप्रसादजी पटना के रहने वाले एक बड़े नामी बैरिस्टर थे । हिन्दी और अंग्रेजी के बहुत बड़े लेखक थे । प्रसिद्ध हिन्दी मासिक पत्रिका सरस्वती में उनके विविध विचारपूर्ण और विषय विवेचक लेख निकला करते थे। वे बड़े राष्ट्र भक्त थे और भारतीय संस्कृति के विशिष्ठ मर्मज्ञ और विधिवेत्ता थे। हिन्दी पॉलिटी नामक प्रख्यान पुस्तक के वे लेखक थे । प्राचीन भारत के इतिहास की अनेक अज्ञात गुत्थीयो को सुलझाने में वे सदा निमग्न रहते थे । उनके साथ मेरा परिचय उपयुक्त पूना के भाण्डारकर प्राच्य विद्या सशोधन मन्दिर के कार्यारभ के साथ ही हुआ । प्राचीन जैन इतिहास की बहुत सी गुत्थियां सुलझाने में मेरा सहयोग वे बड़े सौहार्द्र भाव से चाहने लगे थे। मैं भी उनकी उत्कट इतिहास मर्मज्ञता का परिचय प्राप्त कर उनके प्रति आदर भाव रखने लगा। भारत के प्राचीन इतिहास के एक प्रकरण को लेकर मेरा इनके साथ वैसा सबन्ध वना। मैंने सर्वप्रथम उड़ीसा के खण्डगिरि पर्वत स्थित राजा खारवेल के उस प्राचीनतम शिलालेख को कुछ विवरण के साथ एक पुस्तक के रूप में गुजराती मे प्रकट किया। यह पुस्तक "प्राचीन जैन शिलालेख संग्रह" प्रथम भाग, इस नाम से भावनगर की "जैन आत्मानद सभा" द्वारा प्रकाशित हुई। इसकी एक प्रति स्वर्गस्थ कुमार देवेन्द्रप्रसाद जैन ने उनको दिखाई । उसे देखकर उनके मन मे खण्डगिरि वाले उस लेख का पुनर्वाचन करने की इच्छा उत्पन्न हुई । उक्त अभिलेख अनेक वर्षों से विशिष्ठ पुरातत्वज्ञो का एक आकर्पण का विषय बन रहा था परन्तु Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र उराको विषय में किगी बड़े विद्वान का वैसा लक्ष्य नहीं गया जैसा जायसवालमी गा गया । उमगा बाद उन्होंने उग अगिलप का पुनर्वाचन तथा विशुद्ध पाठोबार पारने का बीड़ा उठाया । ग विषय में कोई १२ वर्ष तक उन्होंने अथक परिश्रम किया। उभीगा की तत्कालीन ब्रिटिम गवर्नमेन्ट द्वारा उस काम के लिये बहुत प्रयत्न किया पाराया। उनके प्रयत्न से ही पटना में बिहार एन्स मोरिंगा रिसर्च सोसायटी की गहमी रथापना हुई। गुप्रसि स्वर्गीय गहापणित राहुल गांपत्यायन को उनका गवरी वदा सहयोग रहा । घे परम में प्रायः उन्ही के पाग रक्षा करते थे। गण्यगिरि उत्ता अभिनित पुनर्वाचन एवं पाठीमार के विषय में उन गाथ गरा नगवर पत्र व्यवहार होता रहा । पिन पदों और पिन अक्षरो को पढ़ने में उनको यया कठिनाई होती थी वह गर्भ पत्र द्वारा लिगा करते थे और रवयं ने गुम एक बार पटना लापर इस पाठीवार को गहा कार्य में गायब होने गानिय बडे आग्रह पूर्वक थागन्धित पिाया श्रीर में पटना में उनका अतिथि भी बनने का सौभाग्य प्राप्त पार राका। गुण्डगिरि बाल पारधन अभिनय के अटिश पाली भीर अक्षरों का ठीगा परिशान प्राप्त करने के लिये उनकी जो गहरी लगन थी उसे भग्यकार में बहुत ही विस्मित हुमा था। उनके लिये गये न पत्रों में जनकी ऐसी लगन और निममता गा गाव अच्छी तरह व्यक्त हो रहा है। उनी मा श्री यिा भारत का प्राचीन इतिहास गय नंग रो लिया जाय और उगग अध्यावधि प्राप्त उन गी नई गोधी श्रीर प्रमाणों का उत्तम रंग में उपयोग किया जाय । इतिहाग जिपने में गेरा तथा रव० श्री राहुल गायत्यायन का विशेष सहयोग लेने का भी थायोजन किया था। जिसकी सूचना भी उन पन गुद्रित पत्रों में Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किंचित् प्राक्कथन १३ है । दुर्भाग्य मे यह काम मूर्त रूप धारण नहीं कर सका और उनका अकाल ही में स्वर्गवास हो गया। . ७-पत्र संग्रह में सातवां स्थान स्वर्गीय डॉ० हीरानंद शास्त्री M. O. L. के पत्रों का है। डॉ० हीरानद शास्त्री पंजाब के रहने वाले थे। भारतीय सरकार के पुरातत्व विभाग में कई स्थानो पर उन्होने अधिकारी के रूप में काम किया । सन् १९२१-२२ में तीर्थयात्रा के प्रसग मे मेरा विहार के राजगृही तथा नालंदा तीर्थ स्थानों मे जाना हुआ था। उस समय डॉ. हीरानद शास्त्री नालन्दा के प्रख्यात पुरावशेषों की खुदाई का काम करवा रहे थे। वही उनसे मेरी भेट हुई। यो वे जैन साहित्य संशोधक तथा विज्ञप्ति त्रिवेणी आदि मेरी लिखी हुई पुस्तको से परिचित थे । विज्ञप्ति त्रिवेणी मे मैंने कागडा के विलुप्त प्रायः तथा सर्वथा अज्ञात जैन तीर्थ का विस्तृत परिचय प्रकाशित किया था जिसे पढकर उनके मन मे मेरे साहित्यिक कार्यो के जानने की 'जिज्ञासा उत्पन्न हुई थी। प्राचीन जैनाचार्यों के जीवन चरित्र से सम्बध रखने वाला "प्रभावक चरित" नाम का एक संस्कृत ग्रंथ का उन्होने स्व० जैन आचार्य श्री विजय वल्लभसूरी की प्रेरणा से, संपादन किया था, परन्तु जैन लिपि तथा पद्धति का ठीक परिचय न होने से उक्त सपादन मे बहुत सी अशुद्धियां रह गयी थी। नालदा मे जब उनसे भेंट हुई तो उन्होने मुझ से कहा कि आप इस ग्रन्थ को ठीक से शुद्ध कर देने की कृपा करें तो मैं उसे पुनः प्रकाशित करना चाहूँगा। इत्यादि। कुछ वर्षों बाद वे बडौदा के राजकीय पुरातत्व विभाग के डायरेक्टर बनकर वहाँ आ गये थे और पाटन के प्रसिद्ध सहस्रलिंग सरोवर की खुदाई का काम शुरू किया था। उस समय उनसे विशेष परिचय हुआ । मेरा उन दिनो अहमदाबाद रहना होता था इसलिये वे बड़ौदा से कई वार मिलने भी आये थे। कुछ प्राचीन विज्ञप्ति पत्रो का वे संपादन करना चाहते थे। उस विषय मे अपेक्षित सामग्री का सकलन Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे दिवंगत मित्रो के कुछ पत्र करने में मैंने यथायोग्य सहयोग दिया था। उनके इन पत्रो में उसी विपय का खास आलेखन हुआ है। उक्त "प्रभावक चरित" का मेरे द्वारा किया गया विशिष्ट संपादन सीधी जैन ग्रथमाला मे सन् १९४० मे प्रकाशित हुआ। ८-आठवे स्थान पर स्वर्गीय पण्डित महावीर प्रसादजी द्विवेदी के पत्र संग्रहित हैं। वास्तव में ये पत्र सर्वप्रथम स्थान में मुद्रित होने | योग्य है परन्तु समय पर पत्र हाथ मे न आने से ये इस प्रकार बाद में दिये गये हैं। इनके विषय में इस परिचय के प्रारभ मे ही यथायोग्य लिख दिया गया है। E-- संग्रह के नौवे स्थान में स्व. डॉ. ताराचन्द राय के कुछ पत्र हैं। इन डॉ. राय से मेरा परिचय जर्मनी के बलिन शहर में हुआ। ये वहाँ के एक पुराने राष्ट्रभक्त एवं हिन्दी के प्रचारक थे। प्रथम विश्वयुद्ध मे तत्कालीन भारतीय ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध जिन अनेक राष्ट्रभक्त भारतीयो ने जर्मनी मे आन्दोलन किया उन्ही में से ये भी एक विशिष्ट आन्दोलनकारी व्यक्ति थे। इसलिये जर्मनी की शरण मे ही इनको सरक्षण मिला था। भारत में आने की इनको इजाजत नहीं मिली । ये हिन्दी भाषा के बड़े अच्छे वक्ता थे । जर्मनी में भारतीय संस्कृति के विपय मे, ये अनेक युनिवर्सिटियो मे व्याख्यान दिया करते थे। जर्मन भापा पर इनका असाधारण प्रभुत्व था। महाकवि गुरुदेव श्री रवीन्द्रनाथ प्रथम बार जब जर्मनी गये, तब उनके व्याख्यानो का ये अविकल जर्मन अनुवाद तत्काल करते रहते थे और उससे गुरुदेव रवीन्द्रनाथजी बहुत प्रसन्न हुये थे। मैं १९२२ के अगस्त महीने मे जब बलिन गया तब इनसे मेरी भेट हुई। वाद में मैने जब . .. वहां भारत जर्मनी मित्रता के सगठन के निमित्त "हिन्दुस्तान हाऊस" 'नामक एक विशिष्ट कार्यालय की स्थापना की तो उसमे इनका सबसे अविक सहयोग एव मार्गदर्शन मिला। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किंचित् प्राक्कथन १५ हिन्दुस्तान हाउस में तथा अन्यत्र जब विचार गोष्ठियाँ होती थी। तव ये मेरे दुभापिये के रूप में बहुत उत्तम ढंग से काम किया करते थे। वलिन युनिवर्सिटी में कुछ छात्रो को हिन्दी की शिक्षा देने का भी काम ये किया करते थे। प्रायः एक वर्ष तक मेरा बलिन मे रहना हुआ। ये अपना बहुत-सा समय मेरे साथ बिताया करते थे और जर्मन लोगो तथा जर्मन संस्कृति के विपय में मुझे विविध प्रकार की जानकारी दिया करते थे। ' - इस प्रकार ये मेरे एक बहुत ही घनिष्ठ मित्र बन गये थे। मै जर्मनी से वापस भारत आया तब एक बहुत बडा मनोरथ साथ लेकर आया था। मेरी इच्छा थी कि महात्माजी से मिलकर जर्मनी मे। भारतीय सस्कृति एव मित्रता के विषय का कुछ ठोस आयोजन कियाजाय और उसमे डॉ राय का विशिष्ट स्थान भी था परन्तु भारत में। आये वाद महात्मा गाधीजी द्वारा चलाये गये मत्याग्रह आन्दोलन मे मैं लग गया और जर्मनी वापस जाने के बदले मुझे अग्रेजी सरकार की जेल मे चला जाना पड़ा। उसके बाद सयोग एव परिस्थितिया बदल जाने के कारण मुझे पुन. जर्मनी जाने का विचार स्थगित करना पड़ा और उसके साथ ही डॉ. राय के साथ किये गये मनोरथो का भी विलय हो गया। डॉ. राय के लिखे गये इन कुछ पत्रो मे इस विषय का थोडा बहुत परिचय मिलता है। इनके विशेष संस्मरण देने का यहा अवकाश नहीं है । १०-दसवा पत्र सग्रह सुप्रसिद्ध हिदी लेखक स्वर्गस्थ स्वामी । सत्यदेवजी परिव्राजक का है। स्वामीजी के विषय में विशेप लिखने की आवश्यकता नही है । वे देश के स्वतन्त्रता आन्दोलन के बहुत वडे सेनानी थे। महात्माजी ने जब सन् १९२० में असहकार आन्दोलन शुरु किया तो प्रारम्भ हो मे ये उसके एक प्रमुख समर्थक और प्रचारक बन गये थे। इनकी वाणी में बड़ा जोश था और कलम में Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ मेरे दिवंगत मित्रो के कुछ पत्र -भी बड़ी तीव्रता थी । इन्होने छोटी बड़ी अनेक पुस्तकें लिखी है । हिन्दी भाषा के ये उत्कट प्रेमियों में से थे । मेरा इनसे परिचय उस असहकार आदोलन के प्रारम्भ ही से हो गया था । मैं जब पूना में रहता था और भान्डारकर ओरियन्टल सर्च इन्स्टीटयूट तथा भारत जैन विद्यालय आदि के कामों मे लगा हुआ था तभी ये एक बार पूना में मुझ से मिलने चले आये। मैंने इनके लिखे हुये अनेक हिन्दी लेख सरस्वती पत्रिका में पढ़े थे और अमेरीका में जाकर इन्होंने किस प्रकार भारतीय सस्कृति और भारतीय विचारो का प्रचार किया, इसकी कुछ जानकारी मुझे थी । प्रथम मिलन में ही इनका और मेरा स्नेह संबन्ध सा हो गया था । 'पूना में मैंने इनके कुछ सार्वजनिक व्याख्यान भी करवाये । यो ये कुछ दिन अहमदाबाद में मेरे निवास स्थान पर भी आकर रहे थे । 1 मैं जब जर्मनी गया तो उस समय ये भी अपनी आखो का इलाज - कराने निमित्त ऑस्ट्रीया गये थे । वहा से फिर ये मुझे मिलने बर्लिन चले आये । बर्लिन मे कई दिनो तक ये मेरे साथ रहे । प्रसंगवश बर्लिन से मेरा भारत आना हो गया, तब भी ये वही रहे। यहां आकर मैं तो जेल चला गया और फिर पत्र व्यवहार आदि सब छूट गया । जेल से छुटकारा पाने पर में, गुरुदेव श्री रवीन्द्रनाथ की इच्छानुसार शान्तिनिकेतन, चला गया । श्री सत्यदेवजी भी भारत चले आये । मेरा शान्तिनिकेतन चले जाना जानकर इनकी इच्छा हुई कि ये भी कुछ समय के लिये शान्तिनिकेतन आकर मेरे साथ रहे। बाद में इन्होने ज्वालापुर में सत्य निकेतन नाम का अपना स्वतन्त्र स्थान बनाया | इनके सस्मरण बहुत विस्तृत है परन्तु उनको यहां देने का उतना अवकाश नही है । इनके पत्रो के उल्लेखों से ज्ञात होगा कि = मेरे साथ इनकी कितनी घनिष्ट मित्रता थी । ११ - इम पत्र संग्रह के अन्त मे स्व. महापण्डित श्री राहुल Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किंचित् प्राक्कथन 1 सांकृत्यायन के कुछ पत्र हैं । श्री राहुलजी भारत के सुविख्यात विद्वानों में से एक थे । वे बौद्ध साहित्य के अनन्य खोजी एवं प्रसिद्धिकारक थे । वे हिन्दी भाषा के अनन्य लेखक थे । क्रान्तिकारी विचारो के वे प्रखर प्रचारक थे। उनकी जीवन साधना बहुलक्षी तथा प्रतिभा वहुदर्शी थी। कई बातों में समानशील जीवनभावना के कारण मेरा उनसे सौहार्द भाव रखने का संयोग बना । १७. V अनेक वर्षो तक उनके साथ घनिष्ठ परिचय बना रहा। वे जब सन् १६४५ में रूस गये तब तीन चार महीने बम्बई मे मेरे साथ भारतीय विद्या भवन मे रहे थे । उसी समय उन्होने मेरे पास सग्रहीत अपभ्रंश भाषा की अनेक प्राचीन कृतियों का अध्ययन अवलोकन किया और उसके आधार पर उन्होने हिन्दी साहित्य की "काव्य धारा" | नामक पुस्तक का आलेखन किया। वे रोज अपने कमरे मे बैठ कर इस पुस्तक के जितने पन्ने लिख डालते थे वे सब दूसरे दिन सुबह जब 1 मेरे पास चाय पीने आते तब बैठकर सुना जाते और किसी उद्धरण या प्रसग के विषय में चर्चा करते । ऐसा क्रम प्राय तीन चार महीने चलता रहा। बाद में जब रूस में लेनिनग्राड युनिवर्सिटी में पहुचे तब वहां से एक पत्र अग्रेजी मे मुझे लिखा, जो इनके पत्रो में प्रथम नम्बर का है । तिब्बत से खोजकर लाये हुये अनेक महत्व के वौद्ध ग्रंथों में से "विनय सूत्र” नाम का एक सर्वथा अज्ञात ग्रन्थ था उसको इन्होने मुझेदिखाया । ग्रन्थ की विशेषता को लक्ष्य कर मैंने इस ग्रंथ को सिघी | जैन ग्रंथमाला मे प्रकाशित करने का निश्चय किया । राहुलजी ने तिब्बत के एक मठ मे बैठकर बड़ े परिश्रम पूर्वक प्राचीन ताड़पत्रीय पोथी पर से इसकी प्रतिलिपि बड़ी जल्दी जल्दी मे अपने हाथ से की थी राहुलजी बड़े शीघ्र स्वभाव के थे । उनकी लिखने मे जितनी शीघ्रगति होती थी उतनी ही बोलने मे भी होती थी । शीघ्रगति से लिखने के कारण उनकी विनयसूत्र की प्रतिलिपि Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ मेरे दिवंगत मित्रो के कुछ पत्र बहुत क्लिष्ट पाठय हो रही थी । मैंने उस प्रतिलिपि की बड़ी कठिनता के साथ स्वय अपने हाथ मे दूसरी प्रतिलिपि तैयार की और उसे बम्बई के प्रसिद्ध निर्णय सागर प्रेस मे छपने को दे दी । श्री राहुलजी के रूस मे चले जाने से उसके प्रकाशन का कार्य दहत समय तक एका रहा। रूस से वापस आने पर वे अपने अन्यान्य साहित्यिक कार्यों में व्यस्त रहे। कभी कभी उनसे मुलाकात हो जाती थी। अन्त मे वे मसूरी जाकर बस गये थे ओर वही पर अपना शेप जीवन व्यतीत करने लगे। उनका आखिरी पत्र सन् १९५० मे मसूरी से लिखा हुआ मुझे मिला । ___मैं उन दिनो बम्बई के भारतीय विद्या भवन में अधिक न रहकर राजस्थान के प्राच्यविद्या सशोधन मन्दिर के निर्माण कार्य में व्यस्त रहने लगा। बाद में फिर उनसे न कभी मिलना ही हुआ और न कोई पत्र व्यवहार ही हुआ। उनका संपादित उक्त विनय सूत्र मूलरूप मे छपकर तो पूरा हो गया था परन्तु उसका प्रास्ताविक आलेख न वे लिख कर भेज सके और न मैं ही इसको यथायोग्य रूप में प्रकाशित करने का अवसर प्राप्त कर सका । विना ही किसी प्रास्ताविक अलकरण के सिंघी जैन ग्रन्थ माला के ग्रन्थांक ५० के • रूप मे सन् १९६० मे इसे मैंने प्रकट कर दिया। साहित्यिक कार्यो की दृष्टि से मुझे अपने जीवन में देश और विदेश के अनेक विद्वानो से संपर्क करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इनमें से अनेको के साथ पत्र व्यवहार भी होता रहा। विद्वानों के पत्रो का संग्रह रखने की अज्ञात रूप से ही मेरी कुछ वृत्ति बन गई थी, परन्तु मेरा रहने का कोई निश्चित स्थान कभी नही बना । मै सदा इधर-उधर अनेक स्थानो मे जा-जा कर कार्य करता रहा । इसलिये इच्छा के रहते भी ऐसे सभी पत्रो को मैं सुरक्षित नही रख सका तथापि कुछ विशिष्ठ व्यक्तियो के पत्रो को सभाल कर रखने का मेरा लक्ष्य सदा बना रहा। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किंचित् प्राक्कथन १६ मेरा पत्र व्यवहार प्रायः साहित्यिक विषय का ही होता था । विद्वान मित्र मुझे अपने परिचित विषय के बारे में कुछ पूछते और मैं उनको अपनी जानकारी के अनुरूप उत्तर देता। मैंने स्वयं किसी विद्वान् को चला कर कोई पत्र लिखा हो ऐसा मुझे स्मरण नही है । यो मेरा स्वभाव बहुत ही संकोचशील प्रकृति का है, अतः स्वयं चलाकर किसी से सम्पर्क करना मुझ से बनता नही है । परन्तु जो सज्जन मुझ से मिलने आ जाते है तो मैं यथायोग्य उनका स्वागत ही करता रहता हूँ |यदि जीवन के रसमय कार्यो में समानशील व्यक्तियो से सम्बन्ध हो जाता है तो वह उत्तरोत्तर बढ़ता रहता है और प्रसंगानुसार पत्र व्यवहार द्वारा वह विशेष रूप भी धारण कर लेता है । पत्र व्यवहार के विषय में भी मेरा कुछ ऐसा ही स्वभाव रहा । स्वय मैंने पहले किसी को पत्र लिखने का प्रयत्न किया हो ऐसा कोई प्रसग नही वना । केवल सरस्वती के सम्पादक स्वर्गीय प० महावीरप्रसादजी द्विवेदी ही एक ऐसे व्यक्ति थे जिनको स्वयं मैंने चलाकर अपना प्रथम पत्र लिखा था । जैसा कि ऊपर द्विवेदीजी के पत्रो के परिचय | में सूचित किया है कि सरस्वती पत्रिका मे प्रकाशित लिये जो लेख मैने भेजा उसको "यदि योग्य समझें तो सम्पादक जी उसे छापने की कृपा करेंगे तो मैं उनका अत्यन्त उपकृत वनूगा ।" ऐसा एक विनम्र पत्र मैने स्वय उनको लिखा था, क्योकि इसके पहले श्री द्विवेदीजी का मुझे कोई प्रत्यक्ष परिचय नही हुआ था । मेरे उन दिवंगत मित्रो मे श्री । द्विवेदीजी ही एक ऐसे व्यक्ति रहे जिनका मैं कभी साक्षात् परिचय नही कर सका । उनके ये पत्र ही मेरे लिये उनकी पुण्य स्मृति को जीवन के अन्त तक जागृत रखने के साधन भूत है......... १ होने के मित्रो के पत्रों के उत्तररूप में मैंने क्या लिखा, इसका कोई प्रमाण मेरे पास नही रहा क्योकि ऐसे पत्रो की उत्तर की प्रतिलिपि रखने का मेरे पास वैसा कोई साधन नही था और न ही उसकी आवश्यकता प्रतीत होती थी..... प्रस्तुत सकलन मे केवल ग्यारह मित्रो के पत्रो का सकलन है । + Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र मेरे ऐसे मित्रो का समूह तो बहुत बड़ा रहा है। इनमें हिन्दी, गुजराती मराठी, बगाली भापा-भापी अनेक विद्वान है। इन भाषाओ.के लिखे गये ऐसे सैकड़ों पत्र है और अग्रेजी, जर्मन भाषा के भी अनेक हैं। कुछ सस्कृत में भी लिखे हुये हैं। मेरा विचार था कि अलग-अलग भाषा के पत्रों का अलग अलग संकलन किया जाय परन्तु जैसा कि ऊपर सूचित किया है वह अव इस जीवन मे शक्य नही दिखाई देता इसलिये प्रारम्भ में नमूने के तौर पर यह हिन्दी पत्रों का संकलन शुरू किया गया परन्तु वह भी इतना विशालं दिखाई देने लगा कि इस प्रकार के कोई सातसौ आठसौ पन्नो मे भी उसका समावेश होना सभव नही प्रतीत हुआ अत: यह एक छोटा सा सकलन ही अभी तो प्रकाशित किया जा रहा है....." ये पत्र जीवन के अतीत मे अधकाराच्छन्न एवं विस्मृतप्रायः स्मृतिचित्रो को आंखो के सामने प्रकाशवान करने के निमित्त दीपशिखा का काम करते है। इन पत्रों को पढ़ते समय उन दिवगत आत्माओ के साथ आत्मसाक्षात्कार का आभास हो जाता है और क्षणभर लगता है कि वह मित्र अभी भी वैसे ही जीवन्त है और अपने पत्र के उत्तर की प्रतीक्षा कर रहे है अत: उनको पत्र लिखकर अपने संवन्धो का सौहार्दपूर्ण स्मरण दिला देने की अन्तर मे इच्छा जग उठती है। परन्तु भान में आने पर यह इच्छा निद्रा के स्वप्न की तरह शून्य का प्रतिरूप बनकर पुनः मन मे ही विलीन हो जाती है । ये मित्र उस धाम में चले गये हैं जहा अब कोई पत्र नही पहुचेगा। उनसे साक्षात्कार करने के लिये उन्ही के मार्ग का अनुसरण करना ही अव इस जीवन की इति. कर्तव्यता है। मुनि जिनविजय सर्वोदय साधनाश्रम चन्देरिया (चित्तौड़गढ) ता० १४ मार्च १९७२ चेत्र कृष्णा १४, वि. स. २०२८ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजकुमारसिंहजी कलकत्ता के पत्र ( . १ ) श्रीगुरुभ्योनमः (नोट - बाबू राजकुमारसिंहजी के पत्र जो उन्होने पूना में स्थापित भांडारकर ओरियन्टल रिसर्च इस्टीट्यूट मे जैन साहित्य के अध्ययन सशोधन प्रकाशन आदि कामो के लिये इंस्टीट्यूट के विशिष्ठ कार्य - कर्ताओ की प्रार्थना एवं निवेदन आदि को ध्यान में रखकर दिये । मैंने इंस्टीट्यूट को जैन समाज की ओर से सर्वप्रथम २५००० ) रु० - का आर्थिक सहयोग दिलाने का सकल्प किया और तद्नुसार मेरे परिचय मे आने वाले कुछ उदारचेता जैन गृहिस्थो को प्रेरणा देकर रुपया जमा कराने का प्रारम्भ किया उसमे प्रारम्भ मे बम्बई के कुछ धनिक गृहस्थ जो मेरे विचारो और कार्य से विशेष परिचित थे उन्होने एक-एक हजार रुपयो का दान देना स्वीकार किया और इस प्रकार उनको मैने भाडारकर रिचर्स इंस्टीट्यूट के पेटून बनाने का प्रबन्ध किया । यह सामाचार पूना और बम्बई के पत्रो मे प्रकट हुए तो कलकत्ता निवासी बाबू राजकुमार सिंह जी जो उस समय सारे जैन श्वेताम्बर समाज के एक मुख्य व्यक्ति और सम्मानित नेता थे उन्होने पढा और मेरे द्वारा पूना के एक प्रसिद्ध सार्वजनिक एव अन्तरराष्ट्रीय ख्याति के योग्य रिसर्च इंस्टीट्यूट द्वारा जैन साहित्य के प्रकाशन निमित्त जो कार्यारंभ किया गया उसे जानकर उनको बड़ा हर्ष हुआ और उस विषय मे उन्होने जो सबसे पहला पत्र लिखा वह निम्न प्रकार है - ) स्वस्ती श्री पार्श्व जिन प्रणम्य पूना नगर महा शुभ स्थाने अनेक गुणालंकृत पूज्यपाद गुरुवर्य श्री श्री १००८ श्री जिन विजयजी Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] मेरे दिवगत मित्रों के कुछ पत्र महाराज की परम पवित्र सेवा में, बम्बई से लि० आपका चरण सेवक राजकुमार सिंह की अनेक सविनय वन्दना स्वीकृत करियेगा । यहाँ धर्म के प्रताप से कुशल है । आपके कुशल मंगल के समाचार लिखियेगा । विशेष मे लिखने का यह है कि Bhandarkar oriental Research Institute की वर्ष गाठ के दिन आपने २५०००) रुपये की रकम जैन साहित्य की वृद्धि के लिये सभा मे जाहिर की जो बोम्बे क्रानिकल समाचार पत्र मे पढ़कर अत्यानन्द हुआ । इस विद्यालय को अवश्य मदद देना चाहिये | अपनी जैन कौम मे ऐसी सस्थाओ की विशेष आवश्यकता है । क्योकि अपना साहित्य सागर बहुत विशाल है । पर इसकी जांच खील वरणी आदि नहीं हो रही है । उस महानुभाव को धन्य है जिसने ऐसी नादर सखावत ऐसे आवश्यकीय कार्य के लिये की। हम बहुत खुश होगे, अगर आप उन महाशय का नाम हमे बता सकें । जिससे इस कार्य में और उद्योग कर विशेष मदद के लिये भी प्रयत्न किया जा सके । हमे विश्वास है कि यह रकम पूरी भरा गई होवेगी । इस बारे मे सविगत हाल तुरन्त लिखियेगा । जैन साहित्य के लिये खास एक विंग मिल सकेगा या कैसे क्या बन्दोबस्त किया जायगा सो लिखिये । जैन धर्म और साहित्य का गवेषणापूर्वक पठन हो सके जैसा इन्तजाम करवाइयेगा । पत्रोत्तर - निहालचंद बिल्डिंग न्यु क्वीन्स रोड ( Newqueens Road) पते पर दीजिये । शुभ मिति श्रावरण विद ५ (स० १९७५) द: राजकुमार सिंह की विनयपूर्वक वंदना अवधारिएगा । (२) Camp-Bombay P. O. No. 4 Dated 5-8-1918 श्रावण वदी १४ स० १६७५ सर्वगुण निधान परम उपकारी श्री पूना शुभ स्थान सर्व श्रोपमा मुनि महाराज श्री जिन विजयजी महाराज की सेवा मे लिखी राजकुमार Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजकुमारसिंहजी के पत्र [३ सिंह की विनयपूर्वक वन्दना अवधारयेगा । यहाँ धर्म प्रसाद से कुशल है । आपके सुख साता चाहते है और कृपा पत्र उत्तर मे आया बडा आनन्द हुआ आप जैसे महात्मा अपने ज्ञान के सदुपयोग द्वारा धर्म उपकार कर रहे हैं और उपदेश आदेश द्वारा महान कार्यों की जड़ रोपन करा रहे हैं। मैंने आपके गुणानुवाद सुने, जबसे उत्कंठा है, दर्शन करूँ, मगर इस मोके का पता होते होते रह गया । फिर दिसम्बर तक आपका वही बिराजना है तो होना संभव है । मैं कल यहाँ से रवाना होकर काठियावाड १ : २ रियासत मे होकर फिर जोधपुर जाऊँगा, वहाँ भडारी जी समरथमल जी के यहाँ श्रावरण सुदी उतरते पहुँचकर पर्युशन पेस्तर कलकत्ते जाने का धारता हूँ । मगर यहाँ लाल बाग के ट्रस्ट सम्बन्धी श्री सघ मे और संघ सेठ मे कुछ वैमनस्य फैला है । कोर्ट मे केस है । उसके निबेड़े का मुझे सौंपा गया सो फैसला ठिकाने आया दीखा । इसी से कल रुक के आज जाने की आज्ञा मिली है । आशा है आज कार्य की सफलता हो जावेगी । आज रात को मुझे जाना होगा । कोन्फ्रेन्स के सुकृत भाण्डारकी खास जरूरी है । यहाँ मीटिंग हुई । उघाई का प्रबन्ध अच्छी रीति से हो रहा है । वालेन्टीयर मुकर्रर हुए हैं इसी प्रकार पूने में होने का उपदेश करियेगा । इससे सरल और उपयोगी आमदनी का रास्ता और नही दीखता । और जैन कुटुम्ब मे जन्म पाते ही सुकार्य मे भाग दिलाने वाला भी यही रास्ता है । और मैं पत्र लिखता था कि लाल बाग केस में लगना पड़ा। आज पूरा करके भेजता हूँ कल सध्या तक भारी धमाल रही और अन्त मे परिणाम सफलता का आने से बडा आनन्द हुआ लाल बाग का ट्रस्ट बन गया । दोनों मे मेल होके सारी शर्तें अच्छी रीति से दोनों से लिखा के दस्तखत हो गये। फिर मुझको मुखिया लोगो ने जाने से रोक दिया और कल सघ भेला होके उसमे सुनाके, पसार करके जाने देंगे। सो परसो गुरुवार को जाऊँगा । और श्री मंगसी तीर्थ की घटना वडी दुख दाई है । जैसी भावी थी वो बना । अब योही बैठना ठीक नही, इस वास्ते एक कमेटी Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४] मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र ५-७ आदमी की यहाँ की है। उसे भी प्रसार करा देनी है वह आनन्दजी कल्याणजी के हाथ नीचे मगसी का प्रयास करेगी। खर्च आनन्दजी कल्याणजी करे या संघ से करादे सो प्रयास चला है। तो अधिष्ठायक कृपा करेंगे । अब यह पूना लाइब्रेरी का काम जैसा आपने लिखा वैसा ही परम उपयोगी और करने ही का है। यह मौका हरगिज नही छोडना चाहिये और अधूरा रहे ऐसा दीखता भी नही है। श्री संघ जयवता है और आप जैसे उपदेशक उत्साही साधु द्वारा कार्य सिद्धि होगी। आपने जो कार्य किया उचित समय को संभाला, ये प्रशंसनीय है। मैंने सेठ गुलाबचन्द दुल्हेचन्द जसकरण भाई मोतीलाल मूलजी जीवनलालजी पन्नालालजी से सेठ हीरजी खेतसी से कहा है और वे लोग भी करने को कहते है। अब आप एक दफे सेठ वीरचन्द भाई को लिखकर यहाँ भिजवा दीजिये वे दोनो साहवो की रकम पक्की रखिये और यहाँ से करने से हो जायेगा । सेठ हीरजी भाई भी इसमे प्रिति रखते. रहै । फिर यह काम तो ५०,०००/- करके पूरा ही करना चाहिये। २० दोनो ने दिये सुना ५०००) एक ओर ने तो धारे तो खास पूना २५ और पूरे कर सके है। या नही तो वम्बई मे होगा एक दो से या फड से ही इसके सिवाय एक पत्र मैंने टाइप करके हाल दस बीस जगह भेजना विचारा है एक कॉपी आपके देखने को भेजता हूँ। कही से भी आके समय तक काम हो जावेगा। यह पूरी पास रखकर कार्य की सफलता का बनता प्रयास करते रहियेगा और कृपा रखियेगा धर्म स्नेह विशेष रखियेगा । आगे शुभ ह. राजकुमार की बन्दना Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजकुमारसिंहजी के पत्र परिशिष्ठ The Mall Kashmere Gate Simla, Bombay 5-8-1918 The Bhandarkar Oriental Research Institute, Poona This institute was found in july 1915 to commemorate the magnificient and lifelong services rendered to the cause of sanskrit studies by Dr. Sir R G. Bhandarkar, He has put the critical study of ancient sanskrit learning on the most approved scientific basis adopted by eminent European Indologists. The aims of the promotors are to andow 20 fellowships of Rs. 50/- each for advanced research students who will be helped with expert advice by expereienced Shastris. All sort of rare sanskrit works will be collected so as to do away with the complaint so frequently made as to lack of materials etc. Card catalogues will be provided to facilitate easy reference. In short the institute aspires to become a rallying point for all research activities in oriental subjects with the use of most up to date methods found out by renowned European Savants. The library will be a first class collection of manuscripts bearing upon every religion and upon every branch of ancient learning. The preliminary estimate of expenses was put at a lac of rupees for initial costs (building and furniture etc....) with Rs. 20,000/- yearly recurring expenditure Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे दिवगत मित्रों के कुछ पत्र for the upkeep of the library, the fellowships etc. It is proposed to divide the building in three parts-- The central hall, to accomodate research works and also to serve as a reading room and a Lecture Hall, two şide wings on each side of the central hall to contain the library books etc. - The committee of the institute has been able to collect a sum of Rs. 40,000/- which has been spent thus. Rs. 10,000/- were spent in purchasing the plot of land measuring 14 acres and Rs. 29,500/- for constructing the central hall. The Tata Brothers have contributed Rs. 21,000/- for the hall and it is named the J. N. Tata Research Hall. The value of the insti. tute is greatly enhanced by the Government's trans. fering to it the valuable collection of Manuscripts at the Deccan college. The Government have also been pleased to sanction a grant of Rs. 3000/- per annum for the upkeep of the library and have besides entrusted the committee with the Budget amount of Rs. 12000/yearly for publication purposes. Dr. Sır Bhandarkar has placed his rich collection of books and manuscripts at the disposal of the institute, which it is hoped will truely prove a boon and satisfy a long-felt want. At its last anniversary a donation of Rs. 25000)- was announced by Muniraj Shri Jinvijayaji for the development of jain literature. The Deccan college collection of sanskrit and Prakrit manuscripts is the largest of its kind in the world and Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजकुमारसिंहजी के पत्र contains very important and rare works on jain religion and literature. The promotors are also willing to give special facilities for rescarch work in jain manuscripts if the requisite funds are entrusted to their care. Poona being a centre of learning the institute is expected to flourish well and will prove to be a very fit organisation for the furtherence of jain literature through the main channels i e. study, printing and publishing. Such an advantage it would be difficult for the jain community to get from any other institution A large number of learned scholars who had devoted all their lives for the cause of oriental study will be permanently staying close by the institute and render every kind of assistance to the researches it will thus be immensely interesting many now jain scholars in jain learning, which will be studied critically to the advantage of human knowledge. It is most desirable that one of the side wings of the institute inay be constructed by some jain donor and the name be imortalised. The money required now is only Rs. 50,000/- half for the building and half for the maintenance fund which can be easily contributed even by a single merchant prince of the jain community. If he wishes to commemorate the name of his ancestor but if that be not possible, it is hoped, the money will soon he collected by subscriptions and the opportunity taken full advantage of by jain gentlemen. The income derived from the publications wil go to the maintenance fund. I appeal my brethren to extend Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे दिवंगत मित्रो के कुछ पत्र their generous helping hand to this institute and announce their subscriptions to the conference office and kindly inform me at my head office so as to enable us to carry on negotiations with the institute authorities to make special provision for jain researches. Rajkumar Singh Bombay 1st August, 1918 [वाबू श्री राजकुमार सिंह जी को उनके पत्र नं० एक के जवाव मे जो कुछ मैंने लिखा ("उस पत्र की नकल तो मेरे पास नहीं रखी गई थी।") उसे पढकर उस विषय मे उन्होंने स्वयं ही कुछ विशेष प्रयत्न किया। और एक अग्रेजी में अपील लिखकर जैन-श्वेताम्बर कॉन्फ्रेस के मुख्य कार्यकर्तामों को तथा जैन समाज के अन्य धनिक सज्जनों को जो उनके विशेष परिचित थे उनको भेजी और स्वयं बम्बई में कुछ गृहस्थों से भी मिले उस समय वम्बई के जैन समाज में सबसे अधिक धनी कच्छ निवासी खेतसी० खी० ए० सी० माने जाते थे। वे जैन श्वेताम्बर कॉन्फ्रेंस के एक विशिष्ट अधिवेशन के अध्यक्ष भी वने थे। उनके सुपुत्र श्री हीरजी भाई बड़े उदार दिल के और नवीन विचारों के रखने वाले थे सेठ हीरजी भाई से वाबू श्री राजकुमार सिंह जी का घनिष्ठ मित्रता का सम्बन्ध था । प्रसंगवश बाबू राजकुमार सिंहजी हीरजी भाई से मिले और उनसे पूना के उक्त इंस्टीट्यूट मे अपने पिता के नाम से एक विशाल हॉल बना देने की बात कही। सेठ हीरजी भाई ने वावू श्री राजकुमार सिंह जी की बात को बड़े हर्ष के साथ मान लिया और २५०००/ रू० देना स्वीकार कर लिया। इस प्रसंग को लेकर वावू राजकुमार सिंह जी ने मुझे तुरन्त पत्र लिखा जो निम्न प्रकार है। पू० मुनिजी के हस्ताक्षर Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजकुमारसिंहजी के पत्र Rai Budree Das Bahadoor & Sons, Mookims to all the Viceroys since 1863 Manufacturing Court jewellers Precious Stone and pearl merchants Telegraphic Address "Bahadoor"-Calcutta "Bahadoor"--Bombay “Mookim"-Simla Head office. Mookim Niwas, Calcutta Camp Bombay Nehalchand's Building 6 New Queen's Road • Dated 7-8-1918 __ श्री पूना शुभ स्थान सर्व ओपमा सर्व गुण निदान परम उपकारी श्री मुनि महाराज श्री श्री जिन विजयजी महाराज की सेवा मे लिखी रामकुमार सिंह की विनय पूर्वक बन्दना अवधारिएगा। यहां धर्म प्रसाद से कुशल है। आपकी सुख साता सदा चाहते हैं आगे मैंने पत्र आपको ता० ५-८-१८ को भेजा सो पहुँगा होगा और लाल बाग का सुलह होके ट्रस्ट पे सही होके कल सघ जमा हुआ था और इसी वास्ते सबो ने घेर के हमें रोका सो सघ मे सुना कि यह काम गुरूदेव महाराज की कृपा से पूर्ण हुआ यह कल होके आज मुझे वक्त मिला तो यह पूने का काम बहुत उपकार का और उन्नति का है और आपने इसे इतना परिश्रम करके रास्ते पर लाये हैं यह सब लाल भाई मिले थे उनसे बात करके उन्हे भी आज साथ लिया और इस काम पर लगाया। और श्री धर्म प्रसाद से मुझे खुशी के साथ जाहिर Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] मेरे दिवगत मित्रो के कुछ पत्र करने मे आता है कि अन्दाज रू० ३६०००/ हो गए । अव १००००/ के वास्ते आप पूने में जिन जिन ने कहा था उनको ठीक कर रखिये और मुझे लिखियेगा इसमें हॉल के वास्ते २५०००/ सेठ हीर जी खेत सी भाई ने ही दिया है, जिसके वास्ते उन्हें बहुत धन्यवाद है। आज सवेरे हीर जी भाई अपने यहाँ जीमने आये थे उनसे इस वारे मे जब बात हुई-इसे बहुत पसन्द किया और रुपये भर दिये सो अब यह काम तो हो गया। अब आप और जो-जो अपने हक में फायदे की कार्यवाही करने की है करके और जो अच्छा कर सके करियेगा। और अब हम कल काठियावाड जाते है और दिसम्बर पहले जब आप लिखेंगे ये रुपये भेज दिये जायेगे। अभी यहां से भी ४/५ हजार तो उन्ही के हैं। काम पड़े तो पूरे ५०/ हजार भी इधर ही मानो पूना सिवाय के शहरों से ही हो जायगा, लेकिन फिर पूने को भी तो लाभ मिलना चाहिये और जिन-जिन उदार पुरुपो ने १० हजार जैसी रकम देके पाटिया मारने के वास्ते दिल किया था और दिसावरो तक ये बात खुद प्रकट कर गये है। उनके नाम का पाटिया भी जरूर लगना चाहिये। अगर ५०/ हजार से ज्यादा रकम हो जाते है तो और कुछ विशेष हक और लाभ जैन श्वेताम्बर मूर्ति पूजक के वास्ते लीजे क्योकि ये कुल रुपये मूर्ति पूजक मे किये है और जो पेटन के हजार-हजार एक दो के थे, उससे कभी कोई रकम नही भराई गई है। हॉल का नाम खेतसी खेसी जे०पी० होना चाहियेगा। और अगर ५० हजार से ज्यादा देने मे विशेष लाभ नही मिलता दीखे तो जणी का ज्यादा रुपया देना, उचित नही दीखे तो समाप्त कीजिएगा मुझको पत्र घ्रागधरा सरकारी महमान घर करके दीजिएगा। कृपा रखिएगा। आगे शुभ श्रावण सुदी १ सवत् १९७५ द० राज कुमारसिंह की विनय पूर्वक वन्दना अवधारिएगा। मेरी एक प्रार्थना है कि आजकल ये साधु समाज मे गच्छ कदाग्रह घुसा है ये मिटाने का प्रयत्न कर लाभ उठाने का ध्यान रखिएगा। इस सस्था के कायदे कानून वगैरा हालात के कागजात मैं भी Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजकुमारसिंहजी के पत्र [११ रखना चाहता हूँ और इसके मुखियो से मेरी पहिचान है नही सो कृपा कर भेजिएगा। ये काम देखने से तो रुका रहता यहां वाले काम से छुट्टी लेते जव बनता। Camp-Ahar Thakurs house, Jodhpur . Dated 18-8-1918 श्री पूना शुभ स्थाने सर्व ओपमा सर्व गुण निधान परम उपकारी मुनि महाराज श्री जिन विजयजी महाराज की सेवा मे लिखी जोधपुर से राजकुमार सिंह का विनय पूर्वक वन्दना अवधारिएगा। यहाँ धर्म प्रसाद से सव कुशल हैं। आपका सुग्व साता चाहते है। आगे कृपा पत्र आपका पूने से ता० ७ का मिला। पढने से बहुत प्रसन्नता हुई और आपने जो रुपया इकट्ठा करने का लिखा इसके लिये मैं कलकत्ते जाकर बन्दोवस्त करने का प्रयत्न करूंगा और आपने लिखा कि वीरचन्द कृष्ण जी और परमानन्द दास रतन जी ने दस-दस हजार रुपये देने का वचन दिया था परन्तु वह केवल मकान बनाने के लिये था और वह भी तीस हजार शेष इकट्ठा हो जाने पर और सब तीस हजार रुपये न होने पर अपने वचन को खीच लिया सो बड़े शोक की बात है। परन्तु ईश्वर की दया से आशा की जाती है कि शनैः शनै. रुपया शीघ्र ही इकट्ठा हो जाएगा। गेस्ट हाउस में उनसे लेकर उनके नाम पर बनवाने का प्रयत्न करिये। देश सेवा अति उत्तम है अगर प्राप्ति की सभावना होवे तो इसकी सफलता के हेतु अपने को योग्य बनाकर धैर्यता और नीति पूर्वक दीर्घ दृष्टि से कार्य करने मे मैं भी सहानुभूति प्रकट करता हूँ वर्ना जो तीर्थ रक्षा आदि मे सहायता मिलती है, उसमे हर्जा हो सके है और आपके कामो मे सहायता देने वाले डा० बेलवलकर और गुणे महाशय धन्यवाद Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र के भागी हैं। मेरे पास भी उनका पत्र आया था, जिसका उत्तर आज उनको दे दिया गया है। इन महाशयो को मेरी तरफ से बहुत बहुत धन्यवाद दीजियेगा और हीरजी खेतसी जे० पी० ने जो कृपा करके पच्चीस हजार रुपये का वचन दिया सो शीघ्र ही प्राप्त हो सकेगे और उस हॉल का नाम "खेतसी खीयसी हॉल" और ग्रन्थों के सूचीपत्र तैयार करने का लिखा सो आपकी सम्मति अत्युत्तम है, ऐसा ही होना ही चाहिये और गेस्ट हाउस के लिये लिखा सो वह रकम शनैः शनैः इकट्ठी हो जायेगी। इस काम में आप इतना उद्योग करते हैं सो इसकी सराहना कब तक की जाय ! आप जैसे सत्पुरुषों का यही कर्तव्य है और मैंने जो कुछ किया है उनमें विशेषता ही क्या है। प्रत्येक पुरुष अपनी इच्छा की सफलता व प्राप्ति का प्रयत्न करता है और स्कालर शिप के बारे मे वह कार्य अति आवश्यक है। मगर पहले यह पचास हजार रकम पूरी होनी चाहिये। समय ऐसा है कि एक हजार रुपये की रकम देते भी दिल दुखाते हैं सो प्रथम तो दस हजार की पूर्ति होना जरूरी है । सो मैंने बम्बई में चि० राजेन्द्र कुमार सिंह को लिख दिया है कि लालचन्द या गुलाबचन्द को साथ लेकर यह रकम पूरी करने का प्रयत्ल करो। वरना पूर्व से चेष्टा की जावेगी और सब रकम हीरजी भाई के पास जमा करादी जायेगी और हीरजी भाई को यह भी लिख दिया है कि आपके पास जरूरत माफिक रकम भेजते रहे । आशा है कि वह ऐसा ही करेंगे। दो स्कालर शिप तो जरूर चलेंगे जब तक फण्ड होने मे जरूरत होगी तब तक ६००/ साल से चलेगा। फिर मैं दीवाली तक पूने आकर देख ही लूगा और यह काम भी जारी हो जावेगा। इसमे प्रयल करने की जरूरत नहीं हैं। अन्त मे आपको एक बार और हार्दिक धन्यवाद देता हुआ मैं अपने Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजकुमारसिंहजी के पत्र [83 इस पत्र को समाप्त करता हूँ आशा करता हूँ कि इस पत्र का उत्तर भी शीघ्र ही मिलेगा। Mookim Niwas 152 Harison Road Barabazar Calcutta D/16th Jainury 1919 Seth Parmanand Dasji Ghat Kopar (Bombay) Dear Sir, I sent several telegrams enquring about the welfare of Shri jinvijayji maharaj. You have done very well in taking precaution for his health. Please place him under the best and suitable treatment and look after his comforts and conviniences in view, to relieve him soon of his pains for he is the only man who will promote cause of jain commonuty. I am very glad to hear that Maharaj and you are coming to Shikharji. The absence of Shree Maharaj from Poona will probably cause great harm to the college and so can you please recommend any permanent man to officiate him for the time being to look after the college. Please inform me about Maharaj health every now and then. Yours Sincerely Raj kumar Singh. Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १] मर दिवगत मिनाक कुछ पत्र। Mookim Niwas, Calcutta Ahore house Camp-Jodhpur, Marwar Dated 5-8-1919 श्री पूना शुभ स्थान श्री पत्री सर्वओपमा विराजमान सर्व गुण निधान धर्म उपकारी मुनिमहाराज श्री श्री जिनविजेजी महाराज की सेवा में राजकुमारसिंह की विनय पूर्वक वन्दना। आपकी कृपा से कुशल है आपके कृपा पत्र जोकि कलकत्ते से होकर आया और मुझे अभी मिला पढ़ कर निहायत खुशी हुई कि आपके शरीर को इष्टायक देव ने अच्छा कर दिया और अब बहुत काल तक आप उसका भोग देकर शासन में उद्योत करने को तत्पर हैं और कर रहे हैं। श्री मान् सेक्रेटरी साहब का भी पत्र मिला था। और उत्तर की पहुंच फिर आई सो मिली। मेरा इरादा तो शिमला से सीधे कलकत्ता जाने का था और वहा से श्री पर्युषण पर बम्बई पहुंचने को मैंने लिखा था मगर यहां मुझको कुछ इस्टेट के काम से पाना पड़ा और ३:४ दिन मे कलकत्ता जाऊगा । सो देर से शायद पर्युषण तो कलकत्ता में ही होवे । अगर यह हुआ तो भी दीवाली पहले वम्बई जाना अवश्य होगा और आपके दर्शनो को माना है । लेकिन एक पत्र आज मैंने अपनी दुकान वालो को बम्बई लिखा है कि जो रकम उस फण्ड में अपनी बाकी होवे तो देदो और सेठ लाल भाई से कहो कि भरी हुई रकम जल्दी वसूल करें या जरूरत होवे तो साथ रह कर वसूल करलो। रकम जल्दी जानी चाहिये और जब मैं बम्बई में गये साल मे था और ये टीप शुरु कराई थी उसी वक्त सिर्फ ८०००) वाकी रहे थे और उसी दिन रवाना हो गया था। लाल भाई तथा सेठ गुलावचन्द, देवीचन्द से बात हुई थी तो बोले थे बाकी भरा लेंगे। लेकिन ये थोडी सी रकम अभी तक योही बाकी रही है । सो वहां आवें जव या कलकत्ते की तरफ से भराली जावेगी। आप चिन्ता न करें Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजकुमारसिंहजी के पत्र [१५ आप इस कार्य को उत्तमता से और उत्साह से चलावें और श्री सेकेट्री सा. को भी इत्तला देवें और मैं बम्बई आऊँगा जब उनको बुला लूगा। जैसा उनका लिखना है और मैं श्री मगसी के लिये उज्जेन गया था और २.३ साहब भी पधारे थे। उसका प्रवन्ध किया गया है और कमेटी भी कारोबार चलाने को नियत की गई है आशा है कि अधिष्ठाता सर्व कार्य फतह करेंगे और मेरे लायक कोई कार्य होवेसो लिखियेगा। धर्म स्नेह कृपाभाव विशेष रखिएगा। आगे शुभ सावन सुदी ८ स. १६७६ । द. राजकुमार की विनयपूर्वक वन्दना अवधारियेगा (८) No: 6 New Queens Road, Bombay 2-4-1920 श्री पूना शुभ स्थान सर्व ओपमा लायक सर्वगुण निधान परम उपकारी मुनि महाराज श्री १०८ श्री जिनविजयजी महाराज जोग लिखी राजकुमार की विनयपूर्वक वन्दना अवधारिएगा। यहां धर्म प्रसाद से कुशल' है। आपके सुख साता के समाचार पत्र द्वारा पढ़कर आनन्द हुआ। आपने मेरे न जाने पे जो फरमाया दुरस्त है। उत्कंठा रहते भी योग न बना अन्तराय सिवा क्या समझा जावे। अब मैं यहाँ सावण भर रहने का विचार करता हूँ। इस वीचमे जरूर आकर दर्शन करूँगा मेरे ऊपर इतने कृपालु हैं यह अच्छे पुण्य समझता हूँ। वर्ना साधारण पुरुष भी विद्वान से मिलना चाहे, हम जैसे से नहीं ! और पुस्तक वावत मिलने पर आपसे राय करने पर जो होगा, किया जायगा । अभी शास्त्रीजी को भी समय कम था वे योरोप को रवाना हो गये। वे प्राकृत और पाली भी थोड़ा देखे हुए हैं। शायद पुने भी गये थे। लाहोर के रहवासी हैं। इस वक्त कलकत्ता कालेज में सरकारी सर्विस Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६] मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र में हैं और आपके तो मित्र भी वैसे ही विधवान होंगे जैसे कि आप इस वक्त दीप रहे है। लाइब्रेरी बाबत क्यो नही होता। किंचित् बाकी रहा सो नही होना भी कोई जोगान योग है। लाल भाई सेठ से पूछेगे और, अबके बनेगा तो उन्हें साथ ही लेता आऊंगा। ये समय भी ऐसा चल रहा है कि चित्त की वृत्ति प्राय सबकी स्थिर नही है। लेकिन धर्म तो सहायक होता है और कार्य सेवा से याद फर्मायेगा । कृपा विशेष रखिएगा। अपने चित्त को जरा भी छोटा न करके जो कार्य उठाया है-पार लगाकर यश लीजिएगा। आगे शुभ ! श्रावण वदी १, सं. १९७७ शुक्रवार । आपका दर्शनाभिलापी राजकुमारसिंह की वन्दना आगरे वाले दयालचन्दजी भी यही है। वन्दना लिखाते है। The Mall Simla, 17-6-1920 सिद्ध श्री पूना सुभ स्थान सर्व उपमा लायक सर्व गुण विधान विराज मान परम उपकारी मुनि महाराज श्री १०८ श्री जिनविजय महाराज जोग्य लिखि शिमला.से राजकुमारसिंह की विनय पूर्वक वन्दना अवधारियेगा। यहा धर्म के प्रसाद से कुशल है। आपके सुखसाता के समाचार लिखने की कृपा करियेगा और मेरा विचार है कि १ सिरीज अग्नेजी रीडर बनवाने का है। यानी प्राइमरी से लगाकर बी. ए. तक की कितावें अंग्रेजी मे बने फिर तरजुमा जुदी जुदी भाषा मे भी हो सकता है। इसमें जैन का नाम जाहिर लाना कोई जरूरी नही है । मगर जैन शैली से धार्मिक नैतिक उपदेशक बाते दी जावे जिनसे सप्त विसन और अनर्थक पाप करते डरें। कुछ रसिक वीरता भी दिखाकर Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजकुमारसिंहजी के पत्र [१७ शान्त वैराग्य रस की श्रेष्ठता दिखाई जावे । न्यायपूर्वक राज्य के गुण और राज्य भक्ति की पुष्टि दिखाई जावे। ताकि सरकार हर एक विद्यार्थी के वास्ते पसन्द करे। दृढ नियम पर चेडा महाराज जैसो का और ऐसी ऐसी उत्तम कथाओ को संक्षेप मे लेसन के तौर पर दिया जावे । यह विचार हमने प्रोफेसर पी. डी. शास्त्री (पी. एच. डी.) सरकारी कालेज वालो से कहा उन्होने भी बनाना मन्जूर किया है और इसी पहली तारीख को विलायत जाते है सो इसके वास्ते जो जो पुस्तकें जरूरी होवे कि जिनको पढकर वे खुद वाकिफ हो सकें और पुस्तक में मदद मिले, ऐसी किताबें देने से साथ ले जावेंगे और डॉ० याकोबी से भी सलाह मिलाने को कहते हैं। लेकिन पुस्तकें ऐसी उपयोगी और चुनदा होनी चाहिये कि शास्त्रीजी को पढने का समय मिले अंग्रेजी की पुस्तकें जो कुछ छपी हुई मौजूदा है वे मंगा कर हम दे देवेंगे। मगर हिन्दी की पुस्तको के वास्ते हमने कोटा शेरसिंह जी से पूछा था उन्होने पुस्तको के नाम छांटकर भेजे हैं। लेकिन इन पुस्तको का पढना भारी पड़ेगा। इस वास्ते कृपा कर जरूरी पुस्तको की एक फरदी बनाकर जल्दी भेजिये। ताकि हम मगाकर १ जुलाई के पहले बम्बई मे शास्त्रीजी को दे सके । शेरसिंह जी की भेजी हुई फरदी की एक नकल आपके सेवा मे भेजते हैं। कृपा कर अपनी जो राय हो जरूर सूचना करिएगा पत्रोत्तर शीघ्र दीजिएगा। समय थोडा है कृपाभाव रखिएगा। आगे काम सेवा होय सो लिखिएगा। आगे शुभै मिति असाढ सुदी २ स० १९७७ राजकुमार की विनयपूर्वक वदना अवधारिएगा कृपाभाव रखिएगा। सुख साता के समाचार लिखिएगा और पूने का काम ठीक चलता होगा। लिखिएगा। पजूसन बाद मैं उधर आऊगा जब दर्शनो की अभिलाषा पूरी होगी। __पुस्तको की सूची १. सप्तव्यसन निषेध, २. मुख चरित्र, ३. स्याद्वाद रलाकर, ४. जैन प्रवेश १-२-३ ठि० मेघजी हीरजी वम्बई । ५ ताकिक स्यादवाद मजरी संस्कृत । ६. प्रमाण नयतत्त्व लोका लकार सटिक संस्कृत । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र ७. अनेकान्तवाद जय पताका ठि० श्री यशोविजय जैन ग्रथमाला । ८. पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय । ६. ज्ञानार्णव द्रव्यानुयोग तर्कणा । १०. पंचास्तिकाय, समयसार ठि० मेघजी हीरजी । ११. संदेह दोलावली ठि० प० हसराज हीरालाल जामनगर । १२. माधवी नवतत्त्व सटिक । १३. जीव विचार प्राकृत या भाषा । १४. तिलक मंजरी ठि० यशोविजय जैन ग्रन्थमाला भावनगर । १५. श्रीपाल चरित्र । १६. महावीर चरित्र । १७. यशोधर चरित्र । १८. श्रेणिक चरित्र । १६. तेजपाल वस्तुपाल चरित्र ठि० पं० हसराज हीरालाल, जामनगर । २०. कुमारपाल चरित्र ठि० मेघजी हीरजी। २१. जैन रामायण ठि० भीमसिंह माणक । २२. हरिविक्रम चरित्र ठि० पं० हसराज हीरालाल जामनगर। २३. श्री गणधर महाराज के प्रश्न उत्तर। ६ कर्म ग्रन्थ भी देखने की खास आवश्यकता है या कर्म पयड़ी ग्रन्थ देखें ठि० मेघजी हीरजी। जाका सवा में, (१०) न० ६ न्यु क्वीन्स रोड बम्बई ता० २७-७-२० श्रीमान महाराज जी श्री जिनविजय जी की सेवा मे, पूणे से आकर आपकी कृपा याद ही है। बाबू पूरणचंद जी नहार यहाँ पर आये थे और इनके पास अपने कार्य में चदा १०००) और 'एतिहासिक सशोधक' मे चंदा १००) भर पाया है, वह रकम शीघ्रता से भेजी जायगी। इन भाई साहब को इस बात से परिचय करवाया है और वहाँ भेजा है। आपकी इनसे अच्छी तरह से वात चीत हुई होगी। फड सम्बन्धी कार्य के लिये लाल भाई के साथ दो-तीन बार विचारा गया था। किन्तु आजकल धंधे का मामला वारीक से बारीक हो रहा है । जिससे फारग हो नही सकता। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजकुमारसिंहजी के पत्र १६ डॉ० गुणे की एक चिट्ठी मिली थी। मैंने लाल भाई को बतलाई थी। इनकी और मेरी भेंट हुई नहीं है। समझता हूँ कि ऐसा जरूर का काम नहीं होगा। राजकुमार की वन्दना अवधारयेगा। (११) Mookim Niwas, Calcutta Camp-Bombay Date 10-8-1920 श्रीमान मुनिमहाराज श्री जिनविजय जी, मु० पूर्ण आपका ता० ३१ का लिखा हुआ पत्र मिला है। मैं कुछ छः सात दिन के लिये वाहर गाम गया था। जिससे जवाब लिखने मे लेट हुआ हूँ। मैंने इन्दौर में कई आदमियों से अपने साहित्य संशोधक और इन्स्टीटयूट के लिये परिचय करवाया है। आप इन दो आदमियो को संशोधक की एकेक प्रति भेज दीजियेगा। मैं अभिलाषा रखता हूँ कि वह अपना सशोधक का लाइफ मेम्बर होवेंगे। इन साहबो का नाम--१. विनोदीलालजी बालचंदजी इन्दौर २. चम्पालाल जी माधव लाल जी इन्दौर (छावणी) इन भाई साहवों को प्रकाशक द्वारा लिखा दीजिएगा कि वह और ग्राहकों की बढती करें। और मेरे नाम का परिचय दीजियेगा । लाइफ मेम्बर का अनुरोध करियेगा। ____ लाल भाई ने इनका और मेरा रु० १००-१०० जमा संशोधक के लिये करवाया होगा। लाल भाई का यहाँ पे आने वाद इस्टीट्यूट और संशोधक के लिये और प्रयत्न करेंगे। पहले भी कई वार याद करा चुके । हमारा पर्युषण कल से शुरू होता है और मैं यहाँ पर्युषण तक रहूंगा। फिर चला जाऊँगा । कृपा रखियेगा। उनम कार्य हो रहे हैं। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे दिवंगत मिगे के कुछ पत्र उनमे विशेषता करते रहिएगा। आगे शुभ दुतिय श्रावण वद १० स० १६७७ । आपका कृपाभिलाषी राजकुमार सिंह की वन्दना (१२) Mookim Niwas 152, Harrison Road, Bara Bazar Calcutta 24-9-1920 पूज्यपाद गुरुवर्य श्री श्री जिनविजय जी महाराज की पवित्र सेवा मे पूना कलकत्ते से लिखा राजकुमारसिंह का सविनय वन्दना स्वीकारियेगा। मैं जोधपुर होता हुआ गुरुदेव के प्रताप से कुशलता पूर्वक यहाँ आ पहुँचा हूँ। भाण्डारकर ओरिएटल रिसर्च इन्स्टीटयूट के कार्य के लिये रुपये ५०,००० की स्वीकारता कराकर ही मैं बम्बई से रवाना हुआ था। इसकी मुझे बहुत खुशी है। अब वहाँ पर हाल का काम शुरू होगया होगा। उधर का कार्य अब शीघ्रता से होना चाहिये। सब हाल आपने लाल भाई से सुन ही लिया होगा। ____श्री मक्षीतीर्थ केस के सम्बन्ध में उज्जैन के वकील जमनालाल जी ने लिखा है कि उसमे अभी Jain Architecture, Jain Archieology, Jain History, Jain religion आदि जैन धर्म कला और साहित्य मे शोधखोज (Research) की दरकार है । इसमे बहुत सारा मसाला एकत्र है पर जिस विषय मे अधिक सहायता की आवश्यकता होगी। वकील सा० आपको लिखें, उसमे आप उनको सहायता करिएगा। आप जैसे विद्वान मुनिराज से समाज के सवही कामो मे सफलता होगी। ___आपको ज्ञात होगा। बनारस हिन्दू युनिवर्सिटी मे जैन धर्म की शिक्षा का अपनी तरफ से विशेष प्रबन्ध हो रहा है। शिक्षा क्रम बनाया गया है जो पास कराने के लिये पेश होने ही वाला है। शिक्षा क्रम इस पत्र मे भेजा जाता है कृपा कर इस पर पूर्ण ध्यान देकर आपका सशोधन और समति शीघ्र लिखें। राजकुमार सिंह की विनय पूर्वक वन्दना अवधारिएगा शुभ कार्य मे सभालिएगा। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजकुमारसिंहजी के पत्र (१३) श्री रायकुमारसिह का राजगृह के बारे में लिखा पत्र Mookim Niwas 152 Harrison Road Barra bazar Calcutta 8-10-1924 सिद्ध श्री पूना शुभ स्थान सर्व ओपमा बिराजमान परम पूज्य मुनि महाराज श्री १०८ श्री मुनि जिनविजय जी महाराज की पवित्र सेवा मे लिखी कलकत्ता से रायकुमारसिंह की वन्दना विशेष कर अवधारिएगा। यहाँ श्री जिन धर्म के प्रसाद से कुशल है। महाराज के शरीर सबधी सुख शाति सदा चाहते हैं। अपरंच श्री राजगृह तीर्थ क्षेत्र के विपय में दिगम्बरी संघ से सरकारी अदालत मे हकीयत का मामला चल रहा है। जिसमे वहाँ के पच पहाड पर जो मदिर या चरण या मूर्तिया हैं, वे समस्त वे लोग अपनी यानी दिगम्बरियो की कहते हैं । इस कारण निवेदन है कि महाराज कृपा करके अपने ग्रन्थो के दाखिले के साथ यह श्री राजगृह तीर्थ के मदिरो का जहाँ जहाँ वर्णन मिलता है वे मुझे सूचित करें तो श्वेताम्बर समस्त श्री सघ का विशेष उपकार होगा और उस तीर्थ पर जो-जो श्वेताम्बरी आचार्यो ने जिस जिस समय अंजन शलाका या प्रतिष्ठा कराई हो और जिस जिस समय वहाँ का जीर्णोद्धार हुआ हो उसका वर्णन तथा सघ लेकर वहाँ तीर्थ यात्रा निमित्त आया हो, वही जहाँ तक बन सके शीघ्रता से लिखकर भेजने की आजा देवें और योग्य सेवा लिखें और राजगृह ग्राम तीर्थ स्थान है यानी राजगृह के पांचो पहाड़ है यानी दोनो ही हैं । वह इनका तीर्थ स्थान होने का अपनी धर्म पुस्तको मे कहाँ और किसमे है इसके लिये भी कृपाकर सूचित करिएगा। ह. रायकुमारसिंह की वदना अवधारिएगा Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व० कुमार श्री देवेन्द्रप्रसाद जैन के पत्र पूना ओरिएटल कांग्रेस में भाग लेने वे जब आए थे तब उनके सम्मुख जैन साहित्य संशोधक समाज के स्थापन विषयक विचार हुग्रा और समाज के द्वारा एक सशोधनात्मक त्रेमासिक पत्र के निकालने की योजना निश्चित की गई पूना से आरा गये बाद 'उन्होने जो पत्र लिखे उनमें का यह न० १ पत्र है । पत्रांक १ Prem Mandir, ARRAH 19-11-1919 श्री परम पूज्यास्पद महाराज श्री वन्दनामी, आपके दर्शन से इस बार जीवन सफल हुआ-दूर से आपकी प्रशसा सुना करता था, उससे भी अधिकाधिक प्रत्यक्ष दर्शन से लाभ हुआ । धन्य है आप और आपका परोपकार वृत और आत्मज्ञानआपके शरणागत रहकर मेरा आत्मा बहुत कुछ यश, ज्ञान, ध्यान प्राप्त करेगा ऐसी पूरी श्राशा है । हम अपने जीवन के अल्प काल मे बहुत संत साधु दोनो श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदाय से मिले, परन्तु जो असीम आनन्द आपके दर्शन से हुआ वह अब तक प्राप्त नही हुआ था - धन्य भाग्य - आपको इस सेवक की सेवकाई पसद आईयह हमारे लिये बडे गौरव की बात हैं । सकुशल आरा आ गया - कुछ अस्वस्थ रहा -- इसी से पत्र देने में विलम्ब हुआ — क्षमा करें। Jaina Antiquary Jaina Research Socity a Jaina Congress of Orientalist यही तीन अब जीवन मे रत्नत्रय रूप धर्म साधन है - इसकी सिद्धि आपके हाथ है - लेखादि के लिये पत्र व्यवहार Co Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री देवेन्द्रप्रसादजी जैन के पत्र। २३ प्रारम्भ करता हूँ, हिन्दी-भाग का सम्पादन आप करें-अग्रेजी भाग का आपका सेवक करेगा-नियमादि जो कुछ आपने बनाया हो भेज देंगुजराती, हिन्दी, अग्नेजी तीन भाषामो मे नियमादि प्रकाशित करना चाहिये-प्रथम अक के सम्पादन का कार्य प्रारम्भ कर देना ठीक हैप्रथम अंक कब निकलता है । यह भी ठीक करलें । कोई उत्तम तिथि पर इसका प्रकाशन होना चाहिये । पहले अंक की ५०० कापी छापी जाय-साइज सरस्वती पत्र का उत्तम जचता है--पूना मे किसी उत्तम प्रेस द्वारा ठीक समय पर प्रकाशन होता रहे । क्या मिस्टर शाह बंबई से आपकी सहायता के लिये आ गये ? उनको बुला लें, बम्बई मे इन्द्र विजय जी मिले थे-वह भी आप जैसा प्राचीन शिला लेखो का संग्रह छपा रहे है तथा हीर विजय सूरि का खुलासा वृतान्त गुजराती भाषा मे प्रकाशन करने मे लगे है । यह लोग अमूल्य समय को नष्ट कर रहे हैं । मान बड़ाई लक्ष्य है-राग द्वेष इर्षा भाव मे लिप्त हैं-जैन समाज का अभाग्य कि उसके नेतागन इस प्रकार के जीवन को आनन्दमय जीवन समझते है। मेरे योग्य सेवा चाकरी लिखें ५० ब्रजलाल जी, रमणिक लाल जी को मेरा जय जिनेन्द्र चरणो का सेवक देवेन्द्र प्रसाद पत्रांक २ आरा जैन साहित्य संशोधक समाज आवेदन पत्र खूब उत्तमता से लिखा है । इसका असर अच्छा होगासफलता निकट दीखती है। -सतत प्रयत्न करूंगा-आप अब एक काम पत्र-संपादन के कार्य मे समस्त समय को व्यय करें, मैं मेम्बरादि प्रचार कार्य खूब जोरो से करने लगा हूँ। पत्र का साइज ठीक इसी प्रकार का मै भी चाहता था-इसी साइज मे हमलोग अपनी सारी पुस्तकादि भी निकालेंगे । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ मेरे दिवंगत मित्रो के कुछ पत्र मिस्टर शाह अव आ गये होंगे-फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा तक प्रथम अक' आपके प्रयत्न से अवश्य प्रकट हो जायगा। ५०० पहला अक छपना चाहिये । १५० पृष्ठो का ही कागज पसन्द है-कवर का कागज कैसा होगा-कुछ नमूना भेजता हूँ। प्रथम अंक के लिये श्री महावीर भगवान के निर्वाण भूमि श्री पावापुर का रंगीन चित्र तैयार कराया है आपके देखने के लिये भेजता हूँ। -पसन्द आएगा-इसको स्वीकृत कर लौटा दे--५०० कापी छपवा कर सेवा मे भिजवा दूगा-आपने कहा था कि श्री महावीर प्रभु के निर्वाण सम्वत विपय मे एक गवेपणा पूर्ण लेख तैयार है उसको भी इसी/ प्रथम अक मे ही प्रकाशित कर दें। सर भंडारकर द्वारा अवश्य एक मँगला चरण लिखवाने का पूरापूरा प्रयत्न करें-चाहे दस पाच ही पक्ति क्यो न हो। लेखो की तालिका बनाना चाहिये। प्रथम अक मे आप कैसा कैसा लेख चाहते है-किन किन विद्वानो को प्रथम अक मे देना आवश्यक है। आदि लिखे । उसी प्रकार के पत्र व्यवहार का प्रयत्न करूँगा । आवेदन पत्र का नाम अग्नेजी भापा मे लिखकर छपवा दूगाऔर सव कुशल मंगल है। आपका सेवक जैन धर्म की जय देवेन्द्र प्रसाद जैन पत्रांक ३ The Central Jain Publishing House ARRAH 16-12-19 श्री पूज्य स्वामी श्रद्धेय श्री मन् मोहान्ध मार्तण्ड महात्मन् ____ आपके अमृत पूर्ण सारवान वाक्यो से परिपूर्ण 'आवेदन-पत्र' निसन्देह मेरे मानस तल मे दिव्य ज्ञान की जागृन्त ज्योति का ज्वलंत Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री देवेन्द्रप्रसादजी के जैन के पत्र २५ विकास करने वाला हुआ है। आपके सत्संग मे-आत्म सम्मेलन द्वारा जो अनिर्वचनीय लाभ मेरी आत्मा को प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। उसके लिये कौनसी विनिमय की वस्तु है, जिसे चरणो की सेवा मे भेंट धरूँ, किन्तु तो भी आप ही के प्रेमाभिवादन और मगला शिष से हृदय थल मे शुभि श्रद्धा और , भव्य भक्ति का जो विमल बीजांकुर वपन हुआ है । वही आज दिन आपकी अशेपानुकपा से ऋतु राज की प्रजा वन कर इस तरह पल्लवित और कुसुमित हो उठा है कि अतिशय उत्कट उत्कठा, उग्र उत्साह और लालायित लालसा से ललक कर जी चाहता है कि आपके चरणो में चुनी हुई कलियो की चगेली भर कर चढा आऊ । ____ अपनी सारी शक्तियों को धर्म प्रचार मे व्यय करूगा और आपकी विशद पुण्य मूर्ति अपने हृदय के प्रेम रूपी अर्ध्य पर स्थापित करके गद्गद निष्ट वाणी मे स्तुति करता रहूंगा यह सौभाग्य का विषय है कि शांति सस्थापक तीर्थकर भगवान की कीर्ति कल्लोलिनी की निर्मल तरगो से निमज्जित होकर जैन धर्म का कलेवर धवलित हो गया है और ऐसे लोकोपकारी प्रशस्त धर्म का अनुयायी बनकर इस प्रतारणा मूलक ससार से उद्धार पाने का मार्ग भी आलोक पूर्ण बना लेना एक सहज सुसाध्य कार्य हो गया है । अतएव जब तक यह पुण्य से फलपादप अपनी सौरभ सपत्ति से ससार मे सुख सरसाने की चेष्टा करता रहे, तव तक आप अपनी वाग्धारा से इसका मूल सिंचन करते रहने की कृपा करेंगे । इस आत्मा के पथ प्रशस्ति बने, और सर्वापेक्षा इसके सर्वस्व जीवनावल बन आप बनें यही प्रार्थना है। पूर्ण प्रतीति है कि आप अपनी नित नूतन धार्मिक शिक्षा और उत्तरोत्तर उत्तेजना पूर्ण इस आत्मा मे लोकोत्तर आनन्द अर्जन करने की शक्ति भरते रहेगे । जिसकी सहायता मे यह निजानन्द रसलीन होकर निर्वाण जनित Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे दिवगत मित्रो के कुछ पत्र ब्रह्मानन्द को अनुभव करने का पूर्ण अधिकारी बन जाय । आपका सेवक देवेन्द्र प्रसाद जैन पत्रांक ४ श्री परम पूज्य महाराज जी नमस्ते पडित जुगल किशोर जी का पत्र अवलोकनार्थ भेजता हूँ। मेरा स्वास्थ्य कुछ खराब हो गया है कोई चिन्ता की बात नही । आप इतने दूर है और मैं भी इतने फासले पर हूँ कि आपकी मै कुछ भी यथेष्ठ सेवा चाकरी करने से मजबूर हूँ । __ प्रथम अंक तो आप जैसे तैसे पूना मे छपाले । फिर अहमदावाद मे मनसुख भाई के प्रेस मे छपेगा । श्री पावापुरी जी की ५०० तस्वीर छपकर मेरे पास आ गई, भेज दूंगा। चित्तौडगढ़ का स्तम्भ वाला फोटो भेज दे, तो उसका भी ब्लोक बनवा कर भेज दू । क्या आपने लेटर पेपर आदि छपवा लिया । मेम्बर ग्राहक बनाने का प्रयन्न बहुत कर रहा हूँ। लोगो की दृष्टि जैन साहित्य, जैन इतिहास की तरफ विल्कुल नही-खेद है । अपने जैनी भाई लोग तो द्वेष करते हैं। कोई चिन्ता नही जब तक तन में प्राण है सेवा से मुंह नही मोडना है । जितनी शक्ति है लगायी जायगी। अब लिखें कि उस प्रात मे सभासद ग्राहक धड़ाधड़ बन रहे है अथवा नही कोई नवीन समाचार लिखें। आपका सेवक देवेन्द्र प्रसाद नोट:-जैन साहित्य सशोधक के प्रथम अंक मे वीर निर्वाण भूमि Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री देवेन्द्रप्रसादजी जैन के पत्र २७ पावा पुरी का जो रंगीन चित्र छपा है वह श्री देवेन्द्र कुमार ही ने छपवाकर भेजा था-इसका संकेत पत्र नं० २ मे है। पत्रांक ५ आरा श्री पूज्य महाराजजी, आपके दोनो कृपा पत्र उत्तर के लिये सामने हैं, अभी काशी, प्रयाग से लौटा हूँ-पूर्ण एक सप्ताह भ्रमण मे लग गया। अपने दो चार मित्रों को उत्साहित बनाया है-अभी एतिहासिक शोध के काम को समझने वाले जैनियो मे बहुत कम व्यक्ति हैं, जान डालने की आवश्यकता है। जैन सिद्धान्त पर तो रात दिन व्याख्यान होते ही है अब ऐतिहासिक व्याख्यानो की एक मात्र आवश्यकता है । आप इसके अगुअा है, तो अवश्यमेव उद्धार होगा ही। जितने जैन चित्र प्राचीन स्थलो के अब तक सग्रह हैं उनका मेजिक लेन्टन स्लाइडस् बनाया जाय और जहाँ कही भी हम लोगो का दौरा हो वहाँ स्लाइडो द्वारा व्याख्यान दिया जाय तो अच्छी उत्तेजना हो सकती है। आप अभी मेरी संग्रहित तस्वीरो को कब तक और रखना चाहते हैं। इस वार प्रथम अक मे कोई तस्वीर प्राचीन ऐतिहासिक दृष्टि से प्रकाशित होनी चाहिये । पं० जुगल किशोर जी भी आपके साथ ही रहते तो काम मे जल्दी सहायता मिलती, तथापि मुझको तो आपकी आत्मशक्ति पर पूर्ण विश्वास है, अभी आपकी लिखी हुई पुस्तिका युग्म पढ रहा था। आनन्द का अपरम्पार था आपने मेरी लिखी हुई त्रिवेणी नाम की छोटी सी पुस्तिका पढ़ी है, नही पढ़ी हो तो हम भेज दें। प्रेस के लिये बम्बई आपको निकट होगा । जिस प्रेस मे पडित नाथूराम जी का जैन हितैषी छपता है, वहां ही प्रबन्ध करालें । त्रैमासिक पत्र के छापने मे प्रेस वालो को विशेष अड़चन करना अनुचित है । साइज क्या निश्चय किया सो लिखें । मुझको तो छोटी साइज पसन्द है-यही सरस्वती या Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० मेरे दिवगत मित्रो के कुछ पत्र पाता । और यही कारण है कि निश्चित रूप से आपको सहायता नही पहुँचा रहा हूँ | चित्तौड़गढ़ का चित्र एक कागज पर छपाने से किफायत रहा । आजकल कागज का दाम और छपाई दोनों बढ़ गये है | कृपा कर फोटो का आलबम सब भिजवादें । मुझको शीघ्र एक मित्र द्वारा उन्हे विलायत भेजना है । भगवान दीन जी छूट गये है । अभी देहली में मिले थे अच्छे हैं । अमेरिका जाने का इरादा है । ठीक है पत्र को अभी ग्रन्थ के रूप मे ही प्रकट करें। बिना पत्र देखे लोग ग्राहक नही बनते। मैं सदा प्रयत्न करता रहता हूँ । पत्र अग्रेजी कौनसी तारीख को प्रकट होगा सो लिखें । सेवक देवेन्द्र पत्र के कवर के लिये यह डिजाइन बनवा रहा हूँ बीच में श्री समेद शिखरजी का पार्श्वनाथ का टोक होगा । कृपाकर इस डिजाइन को देखकर अपनी राय लिखें और शीघ्र लोटा दें- देरी न करें । पत्रांक ७ ता : ११-६-२० श्री परम पूज्य महाराज जी, वन्दनामि - मैं इस समय प्रयाग मे हूँ । Dr. Satish Chandra का ब्लॉक मैं घर पहुँचते ही सेवा में भेज दूंगा, पूना मे किफायत से छप जायगा — मैं श्री तत्वार्थसूत्र आदि ग्रन्थो के तैयार कराने मे व्यग्र हो रहा हूँ । आपको विश्वास दिलाता हूँ कि मेरा सारा समय श्री महावीर प्रभु के शासन सेवा में ही लग रहा है । जैनियों की अवस्था धीरे धीरे ठीक हो जाने पर ही प्रत्येक कामो मे सफलता होगी - ग्राहक बनने के Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री देवेन्द्रप्रसादजी जैन के पत्र ३१ लिये, लेख के लिये हमने सैकड़ो पत्र लिखे दिगम्बरी लोगो की संकीर्णता श्वेताम्बरो से क्या कुछ कम है-कदापि नही-केवल लड़ना जानते हैं । मैं पूना आता पर इस वर्ष मेरी स्वयं शादी भी थी तथा दो भतीजो का विवाह था। प० जुगल किशोर जी आरा शीघ्र पधारेंगे। पत्रोत्तर आरा से दूगा । एक अंग्रेजी लेख Logic पर चम्पतराय जी का शीघ्र भिजवाऊंगा। सेवक देवेन्द्र पत्रांक ८ आरा १०-१२-२० श्री परम पूज्य महाराज जी वन्दनामी __ यह लेख द्रव्य सग्रह की भूमिका का अनुवाद है। इसमे चामुण्ड राय श्री नेमी चन्द्र जी सिद्धान्त चक्रवर्ती आदि का पूरा-पूरा वर्णन है । आपको यह अनुवाद अवश्य पसन्द आ जाएगा ऐसी आशा है। बडे परिश्रम से तैयार कराया है। आपके पत्र के लिये ही इसका अनुवाद करके भेजता हूँ । तीन अंक मे प्रकाशित करदें। योग्य सेवा लिखिए। सेवक देवेन्द्र पत्रांक : सन् १९२१ के प्रारम्भ मे पूना से एक जैन गृहस्थ ने समेद शिखरजी की यात्रा के लिये एक स्पेशल ट्रेन द्वारा सघ निकाला था, उस भाई के आग्रह से मैं उस संघ का मुखिया बना था जव संघ कलकत्ते Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे दिवंगत मित्रो के कुछ पत्र इंडियन एंटी क्वेरी का। कितने पृष्ठ रखेंगे ? कागज का एक टुकडा नमूने के लिये भेज दें। मूल्य ५) वार्षिक होना चाहिये और एक अंक का डेढ रुपया उचित होगा। प्रथम अंक प्रकट होने का समय भी अब ठीक कर लेना चाहिये-- जिसमे काम उसी अन्दाज से प्रारम्भ कर दिया जाय । भाई केशवलाल प्रेमचंद मोदी अहमदाबाद वाले तथा भाई केशरी चन्द भंडारी देवास वालो ने सभासद होना स्वीकार किया है। श्रीयुत भाई चम्पत राय जी, कर्ता, 'की ऑफ नॉलेज' को इसका समाज सरक्षक बनाया है-अजीतप्रसाद जी सभासद होना स्वीकार करते हैं। आगे पत्र व्यवहार चल रहा है । नियमावली, बिना लोगो को कैसे आकर्षित किया जाय । कृपा कर एक कॉपी भी भेज दें तो उसकी कॉपी करालू तथा उसको अंग्रेजी भाषा मे भी अनुवाद करके छपालू। आपको विश्वास दिलाता हूँ कि मैं रात दिन इसी चिन्ता में हूँ।दूसरा काम अच्छा नही लगता । पडित नाथूराम जी प्रेमी ने भी हर प्रकार की सहायता देने को लिखा है । प्रथम अक के लिये यह अवश्य एक लेख आपके पास भेजेंगे । पडित जुगल किशोर जी को भी इस समाचार से आनन्द हुआ । उनको आप एक लेख भेजने को लिखदें। सब लोग नियमावली मागते है सो ठीक ही है। विना नियम के देखे भाले सभासद या ग्राहक कोई कैसे बन जाय । प्रो० लड्डु, तथा पाण्डे हमारे प्राचीन मित्र थे । जैन सशोधन के प्रेमी थे । अकाल मृत्यु से दुख है डा० लड्ड, “प्रवचन सार" का अनुवाद आधा से अधिक कर चुके थे । पाडे जी खण्डगिरि पर एक पुस्तक हमारे लिये लिखते थे । यह दोनो अमूल्य कार्य अधूरा रह गया । जैन इतिहास के लिये ये लोग मूल्यवान व्यक्ति थे-अभी नवजवान थे-हाय । दुष्ट-काल ! तेरी गति निराली है। कृपा कर प्रथम अक मे क्या क्या मेटर प्रकाशित कराना है-इसका निश्चय करले-किससे लेख के लिये लिखना है इत्यादि कार्य शुरू करना चाहिये। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री देवेन्द्रप्रसादजी जैन के पत्र २६ प्रो० जायसवाल जी हम लोगो के साथ हैं। जिस प्रकार की सहायता चाहेगे, वे देंगे । जर्मनी पत्र लिखा है। नियमावली के वगैर बाहर पत्र भेजने में दिक्कत पड़ती है । मिस्टर शाह बड़ौदा से आ गये होगे। __ मैं पूरी कोशिश कर रहा हूँ। जुगल किशोरजी ने लिखा है कि अभी उनके पास नियमावली जैन हितैषी मे छपने के लिये नही पहुंची है। ___ आपने प्रेमी जी के पास भेजा तो था उनसे वापस क्यो मगा लिया एक वार छप जाता पुन. उसको ठीक करके अलग छपाया जाता अपने तरफ से कोई पत्र छपा कर बाटना भी ठीक ही है। 'योजना' मिलते ही अग्नेजी के जैन गजट आदि अनेक पत्रो मे साइज तथा पत्र की सूचना प्रकाशित करवा दूंगा। मि० आयगर के पास एक कॉपी 'साइन्स ऑफ थॉट' तथा द्रव्य संग्रह भेजा है। 'आउट लाइन्स आफ जेनिज्म' मेरे यहाँ से प्रकाशित नही हुई है । केबीज युनिवर्सिटी प्रेस ने छापी है ३१) मूल्य है मेरे पास केवल एक है। कहे तो नवीन खरीदकर भेजदूं। आप मुझको भी सी. पी. लेते चलें। अभी दो एक अक प्रकाशित हो जाय तब भ्रमण शुरू हो। आपका चरण सेवक आज्ञाकारी देवेन्द्र प्रसाद जैन पत्रांक ६ श्री पूज्य महाराज जी वन्दनामी, आपको पत्र के ध्यान मे कितना बडा कप्ट उठाना पड़ रहा है । मैं दूर होने के कारण आपको किसी प्रकार की भी सहायता नही पहुंचा रहा हूं। मैं बहुत लज्जित हूँ इधर मैं जव से पूना से लौटा हूँ तव से वाहर घूम फिर रहा हूँ। आरा एक सप्ताह भी चैन से नहीं ठहरने Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे दिवंगत मित्रो के कुछ पत्र पाता । और यही कारण है कि निश्चित रूप से आपको सहायता नही पहुंचा रहा हूँ। चित्तौड़गढ़ का चित्र एक कागज पर छपाने से किफायत रहा । आजकल कागज का दाम और छपाई दोनों बढ़ गये हैं। कृपा कर फोटो का आलबम सब भिजवादें । मुझको शीघ्र एक मित्र द्वारा उन्हे विलायत भेजना है। __ भगवान दीन जी छूट गये है । अभी देहली में मिले थे अच्छे है। अमेरिका जाने का इरादा है । ठीक है पत्र को अभी ग्रन्थ के रूप मे ही प्रकट करें। बिना पत्र देखे लोग ग्राहक नही बनते । मैं सदा प्रयत्न करता रहता हूँ। पत्र अंग्रेजी कौनसी तारीख को प्रकट होगा सो लिखें। सेवक देवेन्द्र पत्र के कवर के लिये यह डिजाइन बनवा रहा हूँ बीच मे श्री समेद शिखरजी का पार्श्वनाथ का टोक होगा। कृपाकर इस डिजाइन को देखकर अपनी राय लिखें और शीघ्र लौटा दें-देरी न करें। पत्रांक ७ ता : ११-६-२० श्री परम पूज्य महाराज जी, वन्दनामि-मैं इस समय प्रयाग मे हूँ। Dr. Satish Chandra का ब्लॉक मैं घर पहुंचते ही सेवा मे भेज दूगा, पूना मे किफायत से छप जायगा-मै श्री तत्वार्थसूत्र आदि ग्रन्थो के तैयार कराने मे व्यग्र हो रहा हूँ। आपको विश्वास दिलाता हूँ कि मेरा सारा समय श्री महावीर प्रभु के शामन सेवा मे ही लग रहा है । जैनियो की अवस्था धीरे धीरे ठीक हो जाने पर ही प्रत्येक कामो मे सफलता होगी-ग्राहक बनने के Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री देवेन्द्रप्रसादजी जैन के पत्र लिये, लेख के लिये हमने सैकड़ो पत्र लिखे दिगम्बरी लोगो की संकीर्णता श्वेताम्बरो से क्या कुछ कम है-कदापि नहीं-केवल लड़ना जानते हैं । मैं पूना आता पर इस वर्ष मेरी स्वयं शादी भी थी तथा दो भतीजों का विवाह था । प० जुगल किशोर जी आरा शीघ्र पधारेंगे। पत्रोत्तर आरा से दूगा । एक अंग्रेजी लेख Logic पर चम्पतराय जी का शीघ्र भिजवाऊंगा। सेवक देवेन्द्र पत्रांक ८ आरा १८-१२-२० श्री परम पूज्य महाराज जी वन्दनामी यह लेख द्रव्य सग्रह की भूमिका का अनुवाद है। इसमे चामुण्ड राय श्री नेमी चन्द्र जी सिद्धान्त चक्रवर्ती आदि का पूरा-पूरा वर्णन है । आपको यह अनुवाद अवश्य पसन्द आ जाएगा ऐसी आशा है । बड़े परिश्रम से तैयार कराया है। आपके पत्र के लिये ही इसका अनुवाद करके भेजता हूँ। तीन अक मे प्रकाशित करदें। योग्य सेवा लिखिए। सेवक देवेन्द्र पत्रांक सन् १९२१ के प्रारम्भ मे पूना से एक जैन गृहस्थ ने समेद शिखरजी की यात्रा के लिये एक स्पेशल ट्रेन द्वारा संघ निकाला था, उस भाई के आग्रह से मैं उस सघ का मुखिया बना था जब सघ कलकत्ते Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे दिवंगत मित्रो के कुछ पत्र ३२ और पावापुरी जा रहा था, तब एक पत्र मैंने श्री देवेन्द्र प्रसाद को आरा लिख दिया था जिसके उत्तर मे उनका यह पत्र है । Prem Mandir Arrah आरा २-२-१६२१ श्री परम पूज्य महाराज जी के चरण कमलो मे वारम्वार वन्दना आपके लाने का आनन्द समाचार जानकर चित्त प्रफुल्लित हो गया आपके दर्शनों की इच्छा बहुत दिनो से लगी थी । श्रव पूर्ण होगी । मैं तो बहुत ही लज्जित था कि मुझसे आपकी आज्ञाओ का पालन कुछ भी नही हो सका । परन्तु आपसे मिलकर मैं सब वृत्तान्त सुनाऊगा । मैं अभी अभी कलकत्ते से १५ दिवस ठहर कर वापस आया हूँ । यदि मुझको आपके वहाँ जाने का समाचार जरा पहले मिलता तो अवश्य मैं वहाँ ही ठहर जाता । मुझको ५-६ दिवस के लिये प्रयाग जरूरी जाना है । मेरा दफ्तरी जो तत्वार्थ सूत्र आदि का जिल्द बनाता था उसका स्वर्गवास हो गया है । मुझको इसलिये प्रयाग शीघ्र जाकर पुस्तको को सभालना है - यही मजबूरी है वरना मैं आपके पास सीधा आ जाता, क्षमा करें । कृपा कर आप कलकत्ते से एक पत्र लिख भेजें कि आपका कलकत्ते रहना कब तक होगा । मैं यदि अनुकूल हुआ तो कलकत्ते ही मिलूगा वरन् - पावापुरी आदि तो आपका अवश्य आना होगा ही - आरा अवश्य पधार कर दर्शन दें । बडी कृपा होगी । आपका चरण सेवक कुमार देवेन्द्र प्रसाद (हरि सत्य भट्टाचार्य को लिख दिया है कि आपसे अवश्य मिलेयोग्य सेवा लिखें । डाक्टर भांडारकर के लड़के वहाँ ही है उनसे अवश्य मिले - महात्मा गाँधीजी भी तब तक वहाँ है | ) Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्दौर निवासो श्री केशरी चन्दजी मंडारी के पत्र (१) इन्दौर (मालवा) सरकार बाड़े के सामने ५-११-१९१८ श्रीमान मुनि श्री जिन विषय जी महाराज साव पूना इन्दौर से केसरी चन्द भंडारी का यथा योग्य वंदन प्रविष्ट होय । यह जानकर मुझे अत्यन्त हर्ष होता है कि आपको इतिहास से बड़ा ही शौक है । व प्राचीन शोधो के विषय मे आप बडी ही दिलचस्पी बताते हैं । ऐसे उत्साही मुनि शायद ही कोई दूसरे नजर पावेंगे। आपका प्राचीन शिलालेख प्रथम भाग पढ़ कर चित्त बहुत ही प्रसन्न हुआ। अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन आदि भाषा मे ऐसे बहुत ग्रंथ हैं। परन्तु उनकी कीमत बहुत जादे होने से व परकीय भाषा मे लिखे होने से वैसे ही वे दुमिल होने से सर्वसाधारण को वे अप्राप्य हैं व इस कारण ऐसे महत्वपूर्ण विषयों से वे वंचित रहते हैं। परन्तु आपने जो सग्रह माला निकालनी शुरू की है उससे ऐसे ग्रय की अप्राप्यता बहुत अश दूर हुई है। इस पर आपका जितना उपकार माना जाय उतना कम होगा। जनों में प्राचीन शोध खोज सम्बन्धी एक भी मासिक नहीं है वास्तव में ऐसे मासिक चलाने के वास्ते जैन सामग्री बहुत है। बबई एशियाटिक सोसायटी, कलकत्ता सोसायटी इत्यादि अनेक लाइब्रेरियां हैं, वैसे ही इंगलैण्ड, इटली आदि शहरो की लाइब्रेरियो में अनेक ग्रंथ हैं Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे दिवंगत मित्रो के कुछ पत्र उन प्राच्यशोधो के ग्रंथो का संशोधन व उनका अनुवाद हिन्दी,गुजराती मे करके अगर मासिक द्वारा प्रसिद्ध किया जावे व उस पर अगर चर्चा की जावे तो प्राचीन जैन इतिहास पर बडा भारी प्रकाश पड़ेगा व जैन धर्म सम्बन्धी जैनेतर विद्वानो का जो गैर समझ हो गया है-वह दूर हो जावेगा। ऐसे मासिक का सम्पादन करने के वास्ते आप ही मुझे बहुत योग्य नजर आते है। वास्ते विनती है कि आप ऐसा मासिक कृपाकर अवश्य निकालने का प्रबन्ध करें। आपका प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग १ को मैंने मनन पूर्वक पढा उस पर से मेरे दिल मे और विचार उत्पन्न हुए वे इसके साथ लिखकर भेजे है । उनमे से आपको कौन कौन से ग्राह्य व कौन कौन से अग्राह्य है सो सकारण लिख भेजने की कृपा करें। यह विषय अत्यन्त महत्व का है वास्ते इस पर जितनी चर्चा होवे फिर वे अनुकूल हों या प्रतिकूल-उससे कुछ न कुछ फायदा अवश्य सम्पन्न होगा। इस विचार से मैंने आपको तकलीफ दी है । सो माफ करे। आपका लेख संग्रह प्रसिद्ध होने के बाद जायसवाल ने अग्रेजी मे 'एक लेख प्रसिद्ध किया है इस लेख से लेख के पाठ व अर्थ सम्बन्धी कई नई बातो पर प्रकाश पड़ता है सो आप वह अवश्य मिलाकर के इस लेख सम्बन्धी फिर विचार करें। लेख संग्रह के अगले भाग शीघ्र प्रगट करने की तजबीज होना चाहिए ! मैंने आपको पहले एक पत्र भेजा है । उसको बहुत रोज हुआ। उत्तर की कृपा हाल तक आपने की नही। वास्ते अब उसका उत्तर शीघ्र भेजने की तकलीफ उठावें । आपके विहार के दिन बहोत नजदीक आ गए है। इस सबब से लेख बहुत जल्दी जल्दी मे लिखकर भेजा है उसमे कई त्रुटियां व अशुद्धियां रह गई हैं सो माफ करें। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री केशरी चन्दजी भडारी के पत्र उत्तर आपके विहार से पहले कृपाकर भेजें व विहार के बाद आपका पता लिखते रहे। आपका नम्र केशरी चन्द भडारी इन्दौर ९-४-१६ ___ श्री मुनि श्री जिन विजय जी महाराज मुकाम पूना इन्दौर से केसरी चन्द भंडारी का यथा योग्य वदन प्रविष्ट होवे । श्रीमान का ता० ६-४-१६ का कृपा पत्र पहुँचा, पढकर जो आनन्द हुआ वह मैं शब्दो मे व्यक्त करने में असमर्थ हूँ, जो कार्य करने के वास्ते मैं बरसो से विचार कर रहा था, परन्तु विद्या बल के अभाव से व प्रतिकूल संयोगो के कारण मैं उस बारे में कुछ भी नही कर सका। वे ही कार्य आपने करने का बीडा उठाया है । यह जानकर मुझे बड़ा ही सतोष होता है। संसार के कार्यों को छोड़कर धर्म व समाज सेवा के कार्यो मे लगकर मैं अपना जीवन सफल करूं ऐसी तीव्र भावना मेरी कई वर्षों से है, परन्तु क्या किया जाये। अन्तराय कर्म के उदय के कारण व मनोबल की कोताई से मैं आज तक कुछ भी नहीं कर सका। खासकर गत पांच छह महिनो से तो यह विचार इतने प्रबल हो गये हैं कि एक दिन भी ऐसा व्यतीत नहीं होता कि इस विषय का मैं चिन्तन नही करता हूँ और मनोवल की खामी को न धिक्कारता होऊँ । मेरी गृह स्थिति भी ऐसी अनुकूल है कि यदि मैं सांसारिक कार्यों को छोड़ भी हूँ तो मुझे कोई तरह की आपत्ति नही, परन्तु संसार का मोह नही छूटता । इस तरह मुझे बार बार खेद होता है । खैर, संसार में फंसा Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ मेरे दिवगत मित्रो के कुछ पत्र रह कर भी जो कुछ कार्य बन सके वह मैं आपकी मदद करने को तैयार हूँ। जैनो के सिवाय अन्य धर्म वालों में अच्छी प्रगति है, सिर्फ जैन लोग ही अविद्या के व स्वार्थ-परायणता के कारण प्रगति नही कर सकते तो भी अगर रीतसर प्रयत्न करने के वास्ते स्वार्थ त्यागी काम करने के वास्ते लोग तैयार होवें तो बहुत कुछ हो सकेगा-ऐसी आगा है । मूल खामी तो अपने मे प्रथम विद्या की है। हम संसारी लोगो ने विद्यार्जन करने का भार आप साधु लोगों को सौंप दिया होने से व रात दिन पैसे कमाने में लगे रहने से हमारी स्थिति का विचार करने को न तो हमें रास्ता सूझता है व न हमे समय मिलता है। 'द्रव्य' यही हमारा उपास्य देवता बन बैठा है और आप सरीखे विद्या प्रेमी हमारे नेत्र में तीव्र अजन लगाकर हमे जागृत करेंगे तो ठीक है। हम लोग पढ कर कुछ प्रगति करें-यह तो हाल की स्थिति मे कम संभव है। यदि आप हमारे वास्ते पकवान तैयार करके हमारे सामने रखेंगे तो हम कुछ कुछ उसका उपभोग ले सकेंगे । आपने जो रास्ता सोचा है वह इसी तरह का है और उम्मीद है कि आपको इससे अवश्य ही यश की प्राप्ति होगी। जैनो मे और विशेष कर श्वेताम्बरो की दोनो शाखा में हिन्दी भाषा मे जैन साहित्य की बड़ी ही खामी है और इम खामी के कारण समाज मे जागृति नही हो सकती। इस वास्ते पहले तो साहित्य तैयार करने की अत्यन्त आवश्यकता है। मेरे अल्प विचारों के अनुसार यदि नीचे लिखी दिशा में कुछ प्रयत्न किया जाय तो बहुत कुछ हो सकेगा। १. सर्व साधारण लोगों के वास्ते सुलभ भाषा में लिखी हुई धर्म पुस्तकों का प्रचार करना चाहिये । मराठी भाषा मे तुकाराम, ज्ञानदेव, मोरोपंत आदि अनेक विद्वानो ने ऐसे ग्रन्थ (पद्य व गद्य) लिखे हैं कि वे सब दक्षिणी लोग पढ़ते हैं व उनका असर नैतिक दृष्टि से उन पर बहुत अच्छा होता है । अपने मे ऐसा हिन्दी मे कोई भी साहित्य नहीं है । सो वह तैयार करने की प्रथम कोशिश होना चाहिये। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री केशरी चन्दजी भंडारी के पत्र २. जैनों में जो जो आदर्श रूप साधु संत हुए है व गृहस्थाश्रमी हुए हैं, उनके चरित्र सरस परन्तु, असर कारक भाषा में लिखवाकर चारो ओर प्रसिद्ध करना चाहिये। इस कार्य से चारित्र्य पर अच्छा. असर होगा। ३. जनों में अच्छी अच्छी और बोधप्रद जो जो कथा है उनका भी अनुवाद हिन्दी में करवा कर उनका प्रसार होना चाहिये। ४. ऐतिहासिक विषय की अपने मे जबरदस्त खामी है । सो इस विषय को हाथ में लेकर अपना प्राचीन इतिहास प्रसिद्ध करना चाहिये और बगैर इतिहास के स्वधर्माभिमान व स्वदेशाभिमान उत्पन्न होना कठिन है। ५. अपने ग्रन्थ तत्त्वज्ञान से भरपूर है अपने पूर्वजों ने अपूर्व शोध आत्मिक शक्ति के द्वारा लगा रखे हैं-पानी के जीव, वनस्पति के जीव, पत्थर आदि के जीव सम्बन्धी अपने में जो विचार किया है वह किसी भी धर्म वालो ने नही किया है व प्रोफेसर बोस' सरीखे तत्त्वज्ञों के शोधो से अपने ऋषि प्रणीत वचनो की पूर्ण सत्यता प्रत्यक्ष नजर आने लग गई है। इस वास्ते अपने धर्म तत्वो का विचार सायंस की दृष्टि से होना आवश्यक है । अंग्रेजी पढे हुए परन्तु जैन कुल में उत्पन्न हुए लोक धर्म से बिल्कुल ही वंचित रहते हैं । इसका कारण यह है कि अंग्रेजी विद्या से विचार स्वातंत्र्य जो उत्पन्न होता है व खोज करने की बुद्धि उनमे उत्पन्न होती है उसका समाधान करने के वास्ते कोई भी धर्म ग्रन्थ नई पद्धति पर हिन्दी या अग्रेजी भाषा में अपने में लिखा हुआ नही है । इस वास्ते जडवाद से सामना करने में लिये ऐसे सायंस के पाये पर लिखे हुए ग्रन्थ की आवश्यकता है। ६. अपने में प्राकृत व संस्कृत के विद्वान नई पद्धति के नहीं हैं। इस वास्ते वैसे तैयार करने की कोई संस्था निकालनी चाहिये। धर्म प्रचार के वास्ते अच्छे व्याख्यानकार अच्छे लेखक व अच्छे शिक्षक इनकी जरूरत है । ये कैसे पैदा होवे, इसका विचार आप जैसे विद्वानो को Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Yoga ३८ मेरे दिवंगत मित्रो के कुछ पत्र करके, वे उत्पन्न करने के वास्ते योजना करना चाहिये । पूने ही में क्यो नही, आपकी नजर के नीचे दस बीस ऐसे विद्यार्थी विद्यार्जन के वास्ते रहे कि जो कमसे कम मेट्रिक पास हो व उनकी दूसरी भाषा संस्कृत हो, उनको यदि प्राकृत संस्कृत का शिक्षण व केवल अंग्रेजी भाषा का शिक्षण पाच सात बरस नई पद्धति पर दिया जावे तो उम्मीद है कि वे धर्म सेवा व समाज अच्छी तरह बनाकर धर्मोन्नति कर सकेंगे । मात्र उनके शिक्षण की योजना नये तर्ज पर होना चाहिये । शास्त्रियो का तर्ज छोड़ देना चाहिये । ७. ऐसे लड़को को शिक्षण देने के वास्ते योरोप से किसी प्राकृत संस्कृत जानने वाले विद्वान को बुलाना चाहिये, क्योकि जिस पद्धति से योरोप के विद्वान काम करते है वह पद्धति हाल अपने इधर के विद्वानो को बरावर मालूम नही है । एक भी उस पद्धति से लड़का सीख कर तैयार हो जावे तो फिर और भी लडके वगैरह योरोप के विद्वान की सहायता से तैयार हो सकेगे अगर ग्रेजुएट विद्यार्थी मिल जायें तो बहुत ही उत्तम होगा । ८. शिक्षण क्रम (धार्मिक) की योजना बराबर होनी चाहिये । वर्गर शिक्षण क्रम के लडको पर बरावर असर नही होता, इस वास्ते लड़को को पढ़ाने के वास्ते धार्मिक पुस्तक माला की रचना होना चाहिये जैनों की धार्मिक पाठशाला सैकड़ो हैं, परन्तु बताना अच्छा नही होगा । सवव यह है कि शिक्षण माला अच्छी नही है । सो एक अच्छी नई पद्धति पर शिक्षण माला तैयार होकर वह हर धार्मिक पाठशाला में शुरू करदी जावे । ६. वैसे ही एक प्राकृत शिक्षण माला को बहुत जरूरत है । अपने शास्त्र प्राकृत मे होने से प्राकृत शिक्षण की तजवीज होना बहुत जरूरी है जैसे भंडारकर की संस्कृत मार्गोपदेशिका है वैसे प्राकृत मार्गोपदेशिका तैयार होना चाहिये । प० बेचरदास ने बनाई है परन्तु वह समाधान कारक नही है वास्ते एक मार्गोपदेशिका बनवाना चाहिये । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ ३६ श्री केशरी चन्द भंडारी के पत्र १०. एक प्राकृत कोष की भी जरूरत है। इस दिशा में भी योग्य प्रयत्न होना आवश्यक है। इस बारे में एक जगह कार्य हो रहा है परन्तु अभी उसको अच्छा स्वरूप प्राप्त नही हुआ है। ११. यूरोप के विद्वानों ने जैन धर्म पर जर्मन, फ्रेंच, इटालियन इंग्लिश आदि भाषाओ मे अनेक लेख लिखे है। वे बड़े महत्व के है, वैसे ही उनमे बहुत सी भूलें भी है । सो उनका अनुवाद हिन्दी में होना चाहिये । वह भी एक वडा साहित्य का अग है । इनमें जो भूलें हैं व उनके लेखको के आगे लाकर उनकी उनसे दुरस्ती करवानी चाहिये । व सब लेखो का अनुवाद करवा कर उनका प्रसार चारों ओर करना चाहिये। ___ मैं इस बारे में कई बरसो से विचार कर रहा था। परन्तु कुछ तो प्रमाद से और कुछ ऐसे लेखो की दुर्लभता से कुछ भी नहीं बन सका। अव एक डेढ महिने से मैंने इन अग्रेजी लेखो का अनुवाद करना शुरू किया है। फिलहाल मे जाकोवी के श्री उत्तराध्यायन व श्री सूत्र कृतांग के अंग्रेजी अनुवाद की प्रस्तावना का अनुवाद करना मैंने शुरू किया है। व नजदीक नजदीक आधी की प्रस्तावना का अनुवाद हो भी गया है । यदि अनुवाद करने का विचार आपको पसन्द हो, और मुफीद मालूम हो तो यह काम मैं यथावकाश करना चाहता हूँ। लेख तो बहुत हैं। उन सवका अनुवाद मैं अकेला नही कर सकू गा, परन्तु मुझे जितना समय मिलेगा उतने में मैं करके और अनुवाद दूसरे से करा लूगा । मात्र आपको मुझो पूना लायब्रेरी से, योरोपीय भाषा में जैन धर्म पर कौन कौन सी किताबो मे लेख है यह देखकर एक यादी तयार कराले व उनमे से कौन से लेख महत्व के अनुवाद के योग्य हैं, यह भी ठहरालें। फिर इस बारे मे प्रयत्न किया जा सकेगा । कुछ लेखो के नाम मैं आपको पीछे से भेजूगा । वे आप प्राप्त करके मुझे कृपा पूर्वक लिखें। __ मेरे ये विचार मैंने साराश रूप से लिखे। यह सिर्फ़ रूपरेखा ही समझिये । अगर इतना ही हो जावे तो बहुत कुछ फायदा होगा। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र आपकी राय लिखने की कृपा करें आपके पत्र का बाकी का जवाब पोचे भेजूगा। आपका नम्र केशरी चन्द भंडारी (३) इन्दौर राजवाडे के सामने ५-१२-१९१६ श्रीमान मुनि श्री जिनविजयजी महाराज, पूना केशरी चन्द भंडारी की वंदना प्रविष्ट होवे। आपका कृपा पत्र ता० १०-११-१६ का पहुंचा । पढ़ कर बहुत आनन्द हुआ। मैं यहाँ पर बहुत रोज नही था । सबब आपके पत्र का उत्तर अब तक नहीं दे सका सो माफ फर्मावें। आपने जैन साहित्य संशोधक समाज नामक संस्था की स्थापना की, यह पढ़कर बहुत हर्ष हुआ। स्थानक वासियो की तरफ से मुझे इस संस्था का आप सेक्रेटी बनाना चाहते है । इसके बदले मे आपका बहुत ही उपकार मानता हूँ परन्तु साय मे यह भी विनती आपसे करना चाहता हूँ कि मेरे में इस पद के लायक कोई भी गुण नहीं । मुझे यह अन्देशा है कि आपको मेरे लायकत पर बहुत निराशा न होवे । फिर आपकी जैसी इच्छा हो वैसा करें। पत्र के खर्च के वास्ते श्री मनसुख भाई ने व कुमार देवेन्द्र प्रसाद जी ने एक एक हजार रूपये देने का इकरार किया है। ऐसा इकरार में मापसे नही कर सकता इसका मुझे अफसोस होता है-कारण हमारे सम्प्रदाय की उदासीन वृत्ति आपको अच्छी तरह ज्ञात ही है, परन्तु मैं इस बारे में अवश्य प्रयत्न करूंगा और मुझे शायद यश भी मिल जावे Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री केशरी चन्द भंडारी के पश परन्तु मेरी तरफ से कुछ भी नही मिल सकेगा ऐसा समझ कर ही आप मेरी मुकररी करना चाहते हो तो ही करें। मुझे नियत करने के पहले कृपा करके संस्था की योजना व नियमावली भेज देवें सो मुझे क्या क्या कार्य करना पड़ेगा इसका मुझे भान हो जावेगा । मेरे पीछे कुछ और भी संस्था के काम हैं। इसलिये मुझे फुरसत मिल सकेगी या नही यह नियमावली आदि देखने से मालूम हो जायगा । इस वास्ते नियमावली की आपको तकलीफ देता हूँ। ___ इस काम में मेरी सहायता की बहुत जरूरत है ऐसा आप फर्माते हैं सो मैं तो आपकी सेवा मे सदा ही हाजिर हूँ व आपके दर्शन की अभिलाषा भी बहुत रोज से लग रही है। परन्तु कुछ न कुछ ऐसी घटना हो जाती है कि आपके दर्शन में विघ्न उत्पन्न हो जाता है। दो-महिने बाद मेरे यहाँ मेरी भतीजी का लग्न है । वह होने के पश्चात् आपकी सेवा मे अवश्य हाजिर होऊंगा। __मेरी तरफ से हर प्रकार की सहायता देने को मै तैयार हूँ और मेरे जैसे तुच्छ बुद्धि वालो की अभिलाषा व उत्साह से प्रेरित होकर आपने यह काम उठाया है सो यह काम बहुत ही उपकारक है। व आप इसको पार पाडने में समर्थ है। आपके प्रयत्न से बहुत कुछ हो सकेगा। इसमे मुझे सन्देह नही है । मैं आपकी सेवा मे तत्पर हूँ। तकलीफ को माफ फर्मावें । उत्तर की कृपा करें । आपका कुशल लिखें। आपका नम्र केशरी चन्द भंडारी ता० क० मि० जायसवालजी का "हाथी गुफा" का अन्तिम लेख आपने अब तक भेजा नही । मैंने ओरिसा लिखा था, परन्तु उनके पास अव मिलता नही है इस वास्ते आपको तकलीफ दी है। उनके पहले के Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र और उनके लेख मे क्या फर्क है और उन्होने नया शौध कौन सा किया है यह देखने को मैं बहुत ही उत्कंठित हूँ। सो कृपा कर वह लेख शीघ्र भेजे। (४) इन्दौर १८-१२-१६ श्रीमान मुनि जिन विजयजी महाराज मुकाम पूना इन्दौर से केशरी चन्द भंडारी का यथा योग्य वन्दन प्रविष्ट होवे । आपका ता० ११-११-१६ का कृपा पत्र मुझे देवास में प्राप्त हुआ। आवेदन पत्र भी मिले आपकी योजना बहुत ही सुन्दर है। आपकी सहायता से पत्र का उद्देश्य पूर्णतया फलीभूत होगा इसमें कुछ सन्देह नही। जिसमें कुमार देवेन्द्र प्रसादजी व भाई मनसुख भाई सरीखे उत्साही विद्वान व कर्तव्य दक्ष गृहस्थो का योग होने से इस कार्य मे आपको पूर्ण यश प्राप्त होवेगा। मुझे भी सेक्रेटरी होने के बारे में आपने फर्माया सो मेरे मे जो जो खामी हैं वह मैंने मेरे पहले पत्र में प्रकट करही दी है। यदि इतनी खामियों के होते हुए भी भाप मुझे सेक्रेटरी तरीके मुकर्रर करना पसद करते हैं तो मैं वह पद साभार स्वीकार करता हूँ मात्र आपका साह्य मुझे निरन्तर होना चाहिये । कृपा करके मेरा नाम लाइफ मेम्बर तरीके दर्ज कर लेवें। आपने अपने पत्र में जो जो विचार प्रकट किये हैं वे बहुत ही प्रसंशनीय हैं व उनसे में पूर्णतया सहमत हूँ। मात्र आपके साथ पर्यटन करने को मैं बिल्कुल असमर्थ हूँ। कारण खूनी बवासीर के कारण मुझे हमेशा तकलीफ रहती है । ऐसी हालत मे प्रवास करना, यह मेरे से Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री केशरी चन्द भंडारी के पत्र बहुत कम वन सकेगा। तथापि कोई मौके पर तबियत ठीक रही तो मैं सहर्ष आपकी सेवा मे हाजिर होऊँगा। देवास के एक साहित्य प्रेमी पोरवाड जाति के गृहस्थ जिनके बारे में आपने लिखा सो वे गृहस्थ तो गुजर गये । वे छोटी पाँती के जमीनदार थे व बड़ी पांती में रहते थे । अब उनके लड़के हैं । वे भी विद्या के प्रेमी है परन्तु आजकल वे देवास मे नही रहते । देवास से पाच कोस पर एक गांव है, वहाँ एक ओहदेदार हैं। परन्तु कुछ वर्षों से उनका विद्या विषयक वातो की तरफ बहुत दुर्लक्ष हो गया है । सबव उनका कुछ उपयोग इस काम मे होगा नही । तो भी मैं उनको लिखू गा व आपका पत्र बताकर उनका चित्त आकर्षित करूंगा व बाद को आपको लिखूगा। लाहौर के बाबू बनारसी दासजी का पत्र मुझे आया है-उन्होने लिखा है कि महाराज साहब की तरफ से कोई जवाब नही सो क्या सवव है । आपके पत्र से मालूम हुआ कि आपने उनको खुलासे वार पत्र लिखा है सो बहुत अच्छा किया। वे बड़े उत्साही व विद्वान हैं उनका इस काम में बहुत उपयोग होगा । मैं भी उनको आज ही पत्र लिखता हूँ। रुपये आप जव फौवेंगे तव भेज दूंगा उत्तर की कृपा करें। आज्ञाकारी केशरी चन्द भंडारी Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलकत्ता निवासी बाबू श्री पूरणचन्दजी नाहर के पा 48, Indian Mirror Strect Calcutta 11-4-1919 P. C. Nahar M.A.B L. Vakil High Court Phone 2551 पूज्यवर, आपका कृपा पत्र यथा समय प्राप्त हुआ। 'द्रोपदी स्वयंवर' की ‘एक कॉपी भी मिली है। उसके लिये धन्यवाद के साथ निवेदन है कि उसकी प्रस्तावनादि बहुत ही उपयोगी हुई है और ऐसी सुन्दर और दुर्लभ प्राचीन जैन पुस्तकें प्रकाशित होने की बहुत आवश्यकता है । आप वर्तमान में विस्तार पूर्वक वहाँ के जैन ग्रन्थों का केटलाग बना रहे हैं। 'मुझे पूरी आशा है कि यह पुस्तक छपकर तैयार होने से बहुत ही उपयोगी साबित होगी। आगे जैन लेख सग्रह के विषय मे आपने जो सूचना दी है वह आपके पूर्व पत्र मे भी थी । जहाँ तक मुझे स्मरण है उत्तर में आपको खुलासा निवेदन किया गया था। इस लेख संग्रह का दूसरा भाग भी प्रकाशित करने की अभिलाषा है । समयाभाव से आपकी तरह विस्तीर्ण रूप से लेखो का अवलोकन नही कर सकूगा। केवल अपने प्राचीन Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाबू श्री पूरणचन्दजी नाहर के पत्र ४५ ऐतिहासिक अमूल्य लेखो का प्रकाशित होना ही मेरा प्रधान उद्देश्य है । मैने जो और लेख संग्रह देखा है, उसमे तो प्रायः हमारे लेख प्रकाशित नही हुए हैं। यदि आप वाले संग्रह में आये हों तो आपका लिखना यथार्थ है कि द्रव्य और शक्ति व्यर्थ न होना चाहिये । इस हालत में आप कृपा करके आपका संग्रह हमे भेज दें तो उसको देखकर मिलालू और आपके सग्रह मे जो लेख आ गये हैं उनको मेरे संग्रह में भी प्रकाशित करने में कोई नुकसान नहीं है। क्योकि मेरे संग्रह में केवल मूल मूल भाग ही छपेगा। और आपके मे विवरण सहित छपेगा। इस भाग मे मथुरा, पाबू, सिद्धगिरि, गिरनार, प्रभृति प्राचीन स्थानो के खास कर जो अंग्रेजी जनल आदि मे इतस्ततः छपे है उसको एक साथ प्रकाशित करूंगा । कार्य सेवा फरमायेगा-ज्यादा शुभ भवदीय पूरण चन्द नाहर 48, Indian Mirror Street Calcutta 25-3-1920 P. C. Nahar, M. A. B. L. Vakil high court Phone 2551 विद्वदर्य मुनि महाराज पूज्य श्री १०८ श्री जिनविजयजी महाराज की सेवा मे लिखी पूरणचन्द नाहर की वन्दना पहुंचे। यहां श्री जिन धर्म के प्रसाद से कुशल है महाराज की सुखसाता सदा चाहता हूं । अपरच "श्री जैन साहित्य सशोधक समाज' का आवेदन पा यथा समय यहां पहुंच गया था लेकिन मैं ग्वालियर जयपुर आदि पश्चिम प्रदेश मे कार्यवश चला गया था, इस कारण पत्रोत्तर देने में विलम्ब हुआ-क्षमा कीजिएगा, इस 'समाज' के स्कीम Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे दिवंगत मित्रो के कुछ पत्र के विषय में अधिक लिखना निष्प्रयोजन है। यह उद्योग समयानुकूल और सर्व प्रकार से प्रशंसनीय है। परन्तु इस बात का पूरा लक्ष्य रखना चाहिये कि ऐसी संस्थानो की भीति पक्की नीव पर हो और किसी कारण से भी कार्यकर्ता लोग निरुत्साह अथवा भग्नोद्यम न होने पावें, उद्देश्य और कार्य की तालिका में विपय की पूर्ति अच्छी तरह दे दी गई है और आशा है कि थोड़े ही समय में आपके जैसे महानुभावों के उद्योग से बहुत कुछ ऐतिहासिक और साहित्यिक विषय जो कि नष्ट होता जा रहा है बराबर के लिये सुरक्षित रहेगा। और इस प्रकार प्रकाशित होने से अन्यमति विद्वानों पर भी प्रभाव अच्छा पड़ेगा और जैन शासन की उन्नति होती रहेगी मुझे एक और भी विपय, विशेष पसन्द आया कि इस समाज मे अपने श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों सम्प्रदाय का वैमनस्य दूर करने का पूरा प्रयास किया गया है। दोनों के परस्पर सहायता विना पूरी कार्य सिद्धि नहीं हो सकेगी। मेरे योग्य सेवा लिखिऐगा ज्यादा शुभम् पूरणचन्द नाहर की वन्दना अवधारिएगा। (३) Calcutta 6-9-20 सं. 1977 भादासुद 8 P. C. Nahar, M. A. B. L. Vakil High Court पूज्यवर श्रीयुत मुनि जिनविजयजी महाराज की पवित्र सेवा में। लिखि पूरणचन्द नाहर की सविनय वन्दना के पश्चात् निवेदन है कि महाराज का कृपा पत्र प्राप्त होकर बहुत प्रसन्नता हुई। समाचार सव ज्ञात हुए। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ alबू श्री पूरणचन्दजी नाहर के पत्र लाहौर के भाई बनारसी दासजी एम०ए० यहाँ यथा समय पहुँचे थे और चार पांच दिन रहकर वापिस रवाना हो गये हैं । बहुत सज्जन है और उनसे मिलकर चित्त विशेष प्रसन्न हुआ। उनकी सेवा कुछ वनी नही कारण मैं अजीम गंज चला गया था। आगे जगत सेठजी के विषय मे जो बंगला की पुस्तक भेजने को लिखा उसके लिये मैंने बहुत कोशिश की, परन्तु इस समय वह पुस्तक मिलने की आशा नही है । दूसरी 'जातक' नाम की पुस्तक डाक से भेजते हैं । पहुँचने पर प्राप्ति संवाद देने की कृपा कीजिएगा और काम हो जाने पर मेरे यहाँ के पुस्तकालय के लिये लौटा दीजिएगा । कारण यह पुस्तक हमारे पुस्तकालय मे नही है | बावू दयालचन्दजी आगरे वाले यहाँ पर थे उनसे मिलना होने पर आपका धर्मलाभ कह देवेंगे । भण्डारकर इन्स्टीट्यूट के चदे का रुपया यहाँ बाबू राजकुवर सिंहजी को शीघ्र ही भेज दिया जायेगा और जैन साहित्य संशोधक समाज के चन्दे के रुपये की रसीद भेजने की आज्ञा दीजिएगा । और मेरे योग्य सेवा लिखिएगा । और वहाँ के सज्जन विद्वानो को मेरा यथोचित प्रणाम नमस्कार कह दीजिएगा । ज्यादा शुभ - सं० १९७७ भादो सु० ८ (४) Calcutta 12-9-20 स० १९७७ भादो सुद १२ परम पूजनीय पंडित प्रवर श्री मुनि जिन विजयजी महाराज की पवित्र सेवा मे लिखी पूरणचन्द नाहर की वन्दना बहुत कर अवधारिएगा। कृपा पत्र पहुंचा । आपके तरफ की खामना सविनय शिरोधार्य किया । अपरच भडारकर इन्स्टीटयूट को मेरे तरफ का पेटून का चंदा आपके पत्र प्राप्ति के दो रोज पहले ही बाबू राजकुंवर सिंहजी को रु. १००० Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे दिवगंत मित्रों के कुछ पत्र भेज दिया है, मालूम करिएगा । आपके पर पहुँचने के पश्चात उनको रुपया जल्दी पूना भेज देने के लिये ताकीद कर दिया है सो जानिएगा, जैन साहित्य सशोधक समाज के चन्दे की रसीद पहुंची, और मेरे योग्य सेवा लिखिएगा। आप शरीर सम्बन्धी सुखसाता लिखिएगा। सब साथ यथा योग्य कहिएगा । प्राचीन जैन लेख संग्रह की पुस्तक छपने से शीघ्र ही भेजने की कृपा कीजिएगा, ज्यादा शुभ । स० १९७७ भादो सुद १२ Calcutta 12-8-21 विद्वत्वर्य परम पूज्य श्री मुनि जिनविजय जी महाराज की पवित्र सेवा में-लि. पूरण चन्द नाहर की वन्दना अवधरिएगा। यहाँ श्री जिन धर्म के प्रसाद से कुशल हैं महाराज की शरीर सम्बन्धी सुखसाता सदा चाहते है। अपरच पत्र एक- आपको कल दिन लिखा है। समाचार ज्ञात हुए होगे आगे गत वर्ष जब मैं आपसे पूना में मिला था, उस समय आप जैन लेख की पुस्तक को छरवाते थे और जो सम्पूर्ण छप गया था, केवल भूमिका अपूर्ण थी। वह लेख की पुस्तक तैयार हो गई होगी । कृपा कर उसकी एक कॉपी मुझे तुरन्त भेजने का प्रवन्ध कर दीजिएगा । यदि सम्पूर्ण होकर प्रकाशित नही हुई हो तो उसके एडवांस फर्म अवश्य कृपा कर भेजिएगा। आज्ञानुमार उस फर्मे को देखकर लौटा देवेंगे। ___ मेरे यहां अब भेजने योग्य अधिक पुस्तकें नही रही है पाली टेक्स्ट सोसायटी तथा सेक्रेड बुक्स ऑफ दी इस्ट सिरीज की जो जो पुस्तकें यहाँ संग्रह कर सकूगा शीघ्र ही सेवा मे भेजू गा। ये सब पुस्तके पुरानी नहीं मिलेगी नई लेकर भेजनी पड़ेगी। आजकल विलायत के एक्सचेन्ज का रेट ज्यादा होने के कारण बुकसेलर लोगो ने बहुत कीमत Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाबू श्री पूर्णचन्दजी नाहर के पत्र ४६ बढा दिया है । विलायत से मगाने से कुछ सुभीते से मिल सकता है। यदि इन सभी की शीघ्र ही आवश्यकता हो तो समाचार लिखिएगा। आजानुसार यही से खरीद कर भेज देवेंगे, नही तो संग्रह करने में विलम्ब होगा आगे के पुस्तको के विल की चेक सोमवार को भेजने को लिखा था, किन्तु मुझे अभी तक मिला नही है । मिलने से लिखेंगे । विनय पीटक पूरी पाच खड मे मिलती है दाम रुपया सौ मागता है। दूसरी विनय पीटक ४ खड वन्धी हुई जिल्द की कीमत रु० ६५ मागता है। चाहिये तो लिखिएगा भेज देवेंगे। मझीम निकाय पूरी तीन जिल्द की कीमत ४५/- मागता है। वन्धी हुई जिल्द है । चाहिये तो लिखिएगा भेज देवेंगे । शोभा वाजार राजवाडी का मुख्य प्रकाशित बंगलाक्षर मे 'शब्द कल्पद्रुम' नाम का सस्कृत कोष का 'म' अक्षर तक ४ खड का रु० २०/-२० मागता है। लेने योग्य है । चाहिये तो लिखिएगा, भेज देवेंगे। आगे बगला ऐतिहासिक पुस्तके भी (अच्छी) कम मिलती है। आपके यहाँ कोई बगाली स्कॉलर हो तो उनसे लिस्ट बनवा कर भेजें तो ठीक है नही तो मेरे पसन्द माफिक कितने रुपये तक की भेजें लिखिएगा, और जो जो वगला पुस्तकें आपके यहाँ है उसकी लिस्ट भेज देवें ताकि डुप्लीकेट न हो जाये । पत्रोत्तर शीघ्र दीजिएगा और योग्य सेवा लिखिएगा। ज्यादा शुभ। पूरणचंद नाहर की वन्दना Spence Hardy की कोई Buddhism पर किताब चाहिये तो लिखिएगा। (६) Calcuita 13-3-1922 विद्वत्वर्य मुनि महाराज श्रीयुत जिनविजय जी महोदय की पवित्र सेवा मेजोग लिखी पूरणचन्द नाहर का सविनय वन्दना अवधारिएगा Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र यहाँ श्री जिन धर्म के प्रसाद से कुशल है । महाराज की सुखसाता सदा चाहते हैं । अपरंच आपका कृपा पत्र प्राप्त होकर विशेष अनुग्रहीत हुआ । प्राचीन जैन लेख संग्रह भी पहुंच गया है । जिसको मैं हार्दिक धन्यवाद और कृतज्ञता के साथ स्वीकार करता हूँ। मैं ओरिएन्टल कॉन्फ्रेन्स के बाद ही अपने इलाके पर चला गया था। लौटने के समय मेरे आँख मे ठड लगकर तकलीफ हो गई है। इस कारण इस अमूल्य ग्रन्थ के देखने से वचित हूँ। इस ग्रन्थ के लिये मैं बहुत दिनों से उत्कठित था और आशा है कि इस संग्रह से मुझे बहुत कुछ लाभ होगा। आपकी आज्ञानुसार मैं शीघ्र ही ओरिएंटल कॉन्फ्रेन्स का प्रोग्राम : और प्रबन्ध की सूची आदि आपकी सेवा मे भेजूगा और सब पब्लिकेशन यहाँ के विश्व विद्यालय की ओर से प्रकाशित होने वाला है प्रकाशित होने पर यथा समय भेजूंगा आपने प्रबन्ध के लिये लिखा, मेरी भी अत्यन्त इच्छा थी, परन्तु अस्वस्थता के कारण असमर्थ हूँ। मेरा ओरिएटल कान्फ्रेन्स के लिये लिखा अग्रेजी का प्रबन्ध इसके साथ भेजता हूँ। यदि उचित समझे तो इसे साहित्य संशोधक पत्रिका मे स्थान दीजिएगा। आगे बोलपुर शांति निकेतन के लिये रवि बाबू ने हाल ही मे विश्व भारती विद्यालय स्थापित किया है। उसमे उनकी एक जैन विभाग खोलने की बहुत ही अभिलाषा है । उसका प्रोस्पेक्टस जो मेरे पास आया है, उसे इसके साथ भेजता हूँ। आप इसे अवकाश पर देखिएगा । मेरी राय मे इनके उद्यम को भी जहाँ तक बने सहायता देना कर्त्तव्य है । और मेरे योग्य सेवा लिखते रहे । ज्यादा शुभ । P.C, Nahar M.A,B.L Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाबू श्री पूर्णचन्दजी नाहर के पत्र ५१ (७) Calcutta 16-9-1923 परम पूज्य वर मुनि महाराज श्री जिनविजयजी आचार्य महाराज की परम पवित्र सेवा मे लिखी पूरणचन्द नाहर की सविनय वदना अवधारियेगा । यहाँ श्री जिनधर्म के प्रसाद से कुशलता है। महाराज के शरीर सम्बन्धी सुखसाता सदा चाहते हैं अपरच श्री पर्युषण पर्वाधिराज निर्विघ्न से हुआ। सम्वत्सरी सम्बन्धी महाराज से मन वचन काया से क्षमाते है । जो कुछ अविनय हुई हो सो निज उदार गुण से क्षमा कीजिएगा। आगे जैन साहित्य संशोधन की दूसरे खड की प्रथम सख्या मिली । कार्य ठीक चल रहा है जैन पत्र मे जाहिर खबर का हेड बिल भी देखा आशा है ग्राहक सख्या बढ़ेगी। साधु साध्वी और गृहस्थो के लिये भेंट की व्यवस्था ठीक है। मैंने तो वी. पी. से मगाली है परन्तु मेरे ख्याल से पत्र के Life members को जो कुछ भेट की पुस्तके हो भेजनी चाहिए। मेरे पुस्तकालय के लिये एक प्रति 'हरिभद्राचार्यस्य समय निर्णय' भेजने की आज्ञा दे । आगे मेरा विचार अब शीघ्र जैन लेख संग्रह भाग दूसरा छपवाने का है। यदि आप ठीक समझे तो मथुरा के लेखो को ही दूसरा भाग करके छपा देवें । यदि आपके यहाँ छपे तो उसके केवल मात्र प्लेटस यहां छपा लेवें । डिमाई ४ पेजी पुस्तक देवाक्षर मे छपाने का खर्च per form और कागज का मूल्य का Estimate भेजें तो जहाँ तक बनेगा प्रवन्ध करेगे। मुझको केवल 1" form का Ist proof और पीछे केवल last proof भेजने से ही होवेगा । और चाहे आप कापी भेजे तो यहाँ से इसी तरह proof आपको भेजते रहे जैसा अनुकूल हो सूचित कीजियेगा। आगे आपको अव शायद आबू के लेखो को देखने का अवसर नही मिलेगा। यदि ऐसा हो तो जो लेख मैंने आपको दिया है, वे भेज देखें तो यहाँ हमारे बहुत सुविधा होगी । मै ही तीसरे भाग मे जो आपके सग्रह मे छट गये Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ मेरे दिवगत मित्रो के कुछ पत्र हैं, छपवा दूँ । आप जैसा लिखें वैसा करूँगा । पत्रोत्तर शीघ्र देने की कृपा करे । 'किंबहुना ज्यादा' शुभम् । द : पुररणचन्द नाहर की वन्दना (5) Calcutta 27-2-1924 परम पूज्यवर आचार्य महाराज श्री मुनि जिनविजय जी महाराज की पवित्र सेवा मे लिखि पूरणचन्द नाहर की वन्दना अवधारिएगा यहा कुशल है । महाराज की शरीर सम्बन्धी सुख साता सदा चाहते हैं । अपरंच आपकी सेवा मे कुछ समय पूर्व हमने एक पत्र भेजा था । अवश्य पहुँचा होगा । परन्तु दुर्भाग्यवश अद्यावधि कुछ भी उत्तर नही मिला । बराबर चिन्ता लग रही है सब विषय पहले लिख चुके हैं । मैं जो विएना जर्नल की ( Viena Journal) वोल्यूम रख आया हूँ उसकी मुझे विशेष आवश्यकता है कृपया शीघ्र ही भेजने की आज्ञा दीजियेगा । और मथुरा लेखो के लिये जो २ छोटी पुस्तिकाएँ रख आया हूँ उनका भी काम हो गया हो तो साथ ही लौटा दीजिएगा । मथुरा वोल्यूम आप aatr iीघ्र निकालें । यदि कार्यारंभ नही किया हो, या थोड़ा लिखा गया हो, और आपको अवकाश न हो तो मुझे सब लेख और कागजाद पुस्तके लौटा दे ! मै यहाँ प्रयत्न करके शीघ्र निकाल सकूगा ऐसी आशा है । अपरच आपकी संस्था की आशा है कि दिनोदिन दशा पूर्व से अधिक उन्नत हुई होगी । समाचार से प्रसन्न करेंगे। विएना जर्नल शीघ्र ही भेजने की आज्ञा देवें । पडित सुखलालजी सा. कहां है और कब तक रहेंगे कृपया उनको जय जिनेन्द्र कह देवें । कुशल पूछ लेवे | रमिक लाल भाई मे यथा योग्य पहुँचा देवें | Historical works or Rare Books और कुछ चाहिये तो सूचित करें, और योग्य सेवा लिखें कृपा बनी रहे ज्यादा शुभम् - फाल्गुन कृष्णा पूरणचन्द नाहर की वन्दना Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाबू श्री पूर्णचन्दजी नाहर के पत्र (ह) Calcutta 5-8-1924 ५३ परम पूज्यवर श्री १००८ श्री मुनि जिनविजयजी आचार्य महोदय की पवित्र सेवा मे लिखी पूरणचन्द नाहर की सविनय बन्दना के पश्चात् निवेदन है कि इधर बहुत काल व्यतीत हुआ कि महाराज की तरफ से कोई सवाद नही मिला । यह मेरे दुर्भाग्य का ही कारण है । यदि मेरे से कोई जाने अनजाने त्रुटि हुई हो तो निज गुण से क्षमा कर पत्रोत्तर की कृपा करके कृतार्थ करने से मेरा कुछ पुण्य है ऐसी धारणा से आगे पर उत्साह वर्धित होता रहेगा । प्राज पुनः कष्ट देने का हेतु यह है कि यहाँ के श्री राजगृह तीर्थ पर भी दिगम्बरी लोगो से केस छिड गया है । इस विषय मे मेरे पास अपने श्री श्वेताम्बरी कार्यकर्त्ता लोग कई दफा आये । मैंने आपको पत्र देने को कहा, परन्तु वे लोग यह भार मुझको ही दे गये । विषय है कि अपने कौन-कौन प्राचीन पुस्तको में राज गिरि और उसके पांचो पहाडो का वर्णन है । उसके नाम और स्थान लिखने की कृपा करें । मूर्तियो के विषय मे मथुरा के मूर्ति और लेखो से भी पूरी सहायता समझते है । सो इस समय यदि आप शीघ्र प्रकाशित करने का प्रबन्ध करें तो बहुत ठीक होगा। चाहे आप कापी बनवाकर मेरे पास भेजें तो मैं यहाँ छपवाकर और प्लेट बनवाने का प्रबन्ध करलूं आपको केवल final proofs भेजा करूँ । अनवकाश हेतु यदि आप अशक्य हो तो कृपया अब विलम्ब नही करके अति शीघ्र जो कुछ मेरी दी हुई और आपके पास की सब कापियाँ मेरे पास भेज देवें । इस विषय का पूरा ताकीद जानिये । सुज्ञेपु किं बहुना । अपरच हाल ही में दिगम्बरी पं० कामता प्रसादजी ने सूरत से 'भगवान महावीर' नामक तुलनात्मक पुस्तक छपवाई है । आपने देखी होगी । इसमे श्वेताम्बर आम्नाय की उत्पत्ति पर जो कुछ लिखा है अवश्यावलोकन कीजिएगा । मेरे विचार से बहुत पक्षपात से लिखा है । आपके ऐसे योग्य महा Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૫૪ मेरे दिवगत मित्रों के कुछ पत्र पुरुपो की ही लेखनी से इसकी समुचित समालोचना होना कर्तव्य है । अधिक क्या लिखूं, किसमें प्रकाशित करें सूचना देकर कृतार्थ कीजियेगा । मथुरा की Vol. के लिये मुझे विशेष चिन्ता सदा रहती है । अब आप अवश्य कृपा करें नही तो मैं सब कार्य छोड़कर इसको प्रकाशित करने मे तत्पर होने की इच्छा रखता हूँ । अब आप दयाद्र होकर मेरे निवेदन को स्वीकार कर पत्रोत्तर देकर चित्त को शान्ति देवें ज्यादा क्या लिखू 1 द : सेवक पुरणचन्द की वन्दना पहुँचे । ( १० ) Calcutta 25-6-1925 परम पूजनीय विद्वद्वर्थं श्रीमान मुनि महाराज श्री जिनविजयजी की पवित्र सेवा मे लिखी पूरण चन्द्र नाहर की सविनय वन्दना अवधारिएगा | यहाँ श्री जिन धर्म के प्रसाद से कुगल है महाराज की सुख साता सदा चाहते हैं । अपरच मेरे कोई पूर्व सचित अशुभ कर्म के योग से महाराज की सेवा मे कई पत्र ताकीद भेजने पर भी अद्यावधि कोई प्रत्युत्तर से वंचित है । मैंने यहा मेरे मकान पर ही प्रेस खोलकर जैन लेख संग्रह का दूसरा भाग छपवाना आरम्भ कर दिया है । और ३५, ३६ फार्म छप भी गया है । उसी सग्रह मे मथुरा के लेखो को भी प्रकाशित करने की प्रबल इच्छा है । अब मेरे पर किंचित मात्र भी दया विचार कर आपके पास जो मैं हिन्दी अनुवाद सहित मथुरा के लेख रख आया था वे अति शीघ्र भेज दीजियेगा । विलम्ब से आपको कुछ लाभ नही होगा, परन्तु मेरा परिश्रम प्रकाशित न होने से व्यर्थ ही जायगा | आपको वारम्बार इस विषय में लिख कर कष्ट दे रहे है । इसी का हमें पूरा ख्याल है, आज में यह पत्र पूरी आशा बाँधकर लिखता हूँ और वारम्बार यही विनती है कि मेरे मथुरा के लेख अति Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाबू श्री पूर्णचन्दजी नाहर के पत्र ५५ शीघ्र पोस्टेज की वी. पी. करके भेजने का प्रबन्ध कर दीजियेगा ज्यादा शुभ सं० १९८२ आषाढ शुक्ल ४ आपका कृपा कटाक्षाकांक्षी पूरणचन्द नाहर की वन्दना अवधारिएगा। नोट-मेरे पर लेश मात्र भी कृपा कर लेख शीघ्र ही भेज दीजियेगा । मैं आपका आजन्म आभारी रहूँगा । पूर्व में आबू के लेख भी ले गये हैं वे सब आपके यहां छप गये है। यहाँ आर. डी. बनर्जी भी हैं वे भी मथुरा के लेख प्रकाशित करने के लिए बहुत कह रहे है । परन्तु मैं जब तक आप मेरे लेख लौटा कर नहीं भेजें, उनको कोई उत्तर नहीं दे सकता हूँ, बनर्जी सा. मुझे और भी इस विषय में सहायता देने को तैयार हैं । यह अवसर छोडने से मुझे बड़ा ही कष्ट होगा । मैंने आपका आज्ञाकृत कोई अपराध नहीं किया है फिर मेरे पर ऐसा गुरु दड नहीं देना चाहिये । लेख अवश्य भेजियेगा, ज्यादा कुछ और लिखने का नही है सब हाल निवेदन कर दिया, ज्यादा शुभम् । -~-पूरणचन्द (११) Calcutta 4-7-1925 परम् पूज्यवर आचार्य महाराज श्री जिनविजयजी महाराज की पवित्र सेवा मे लि० पूरणचन्द नाहर की सविनय वन्दना के पश्चात् निवेदन है कि आज दिन महाराज के कर कमलो से लिखी हुई कृपा पत्रिका पढ़कर मेरे चित्त में बहुत ही शान्ति और आनन्द प्राप्त हुआ है । आप जैसे महापुरुष के हृदय मे मेरे जैसे तुच्छ श्रावक पर जैसी धारणा आपने पत्र में लिखी है, वह आपके उदार विचारो की ही Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ मेरे दिवगत मित्रों के कुछ पत्र द्योतक है । मैं उन सबके योग्य नहीं हैं। मैंने ही स्वयं मेरे चित्त की व्यग्रतावश मेरे पूर्व पत्रों में कुछ रूढ़ शब्दो का प्रयोग किया हो तो मेरा अपराध क्षमा कर दीजियेगा। मथुरा के लेखो के विषय में इतना ही निवेदन करना है कि उन सभी को आप अहमदाबाद पहुंचते ही खोज कर मेरे पास भेजने का प्रबन्ध कर दीजियेगा । आपको अधिक लिखना निश्प्रयोजन है जहाँ तक शीघ्र होस मेरे रखे हुए लेख पुस्तक अनुवाद वगैरह मिलने के साथ भेजने की कृपा कीजियेगा। पूना से पुरातत्त्व मन्दिर जाने का भी शीघ्र विचार रखियेगा। आगे आपके पत्र के कवर मे किसी भ्रम से कुछ postage stamp रह गये थे सो इस पत्र के साथ भेजते है, लीजियेगा । ___आपको एक कष्ट देने की धृष्टता करता हूँ। मेरे सग्रह में Bombay Branch Royal A. S. के Journal की कुछ Vol. अपूर्ण है उनकी लिस्ट नीचे लिखी है । वे सख्या मे यदि वहाँ किसी जगह किसी के पास मिल सके तो मैं अच्छी कीमत देकर लेने को तैयार हूँ। The Oriental Books Supply agancy वगैरह मे खोज करने से कुछ मिल सके । स्मरण रखकर इनकी पूर्ति करवा देने का प्रयत्न रखियेगा मेरे योग्य सेवा लिखें ज्यादा शुभ सं. १६६२ मि. आषाढ शु. १३ । पूरणचन्द नाहर (१२) Calcutta 20-8-1925 परम श्रद्धास्पद पूज्य वर आचार्य महाराज श्री जिनविजयजी की सेवा में लि० पूरणचन्द नाहर की सविनय वन्दना अवधारिएगा। अन कुगल तवास्तु । अपरंच निवेदन है कि कृपा पत्र हस्तगत हुआ, प्रथम पार्सल की रसीद मिली। पार्सल रेल से मगवाली गयी है। मथुरा Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... . .. . . . .. बावू श्री पूर्णचन्दजी नाहर के पत्र ५७ लेखो की सामग्री जो मैं छोड आया था,-पहुंच गई। पेश्तर,मे आबू का मिला था, उनमे मैं जो आपके पास रख -आया था, उन cuttings मे तीर्थकरो की कल्याणक, तिथियो के लेख की छाप नहीं मिली सो. यदि वहाँ खोजने पर मिल - जाय-तो आप फिर जब अहमदावाद पधारियेगा, तलाश करके भेजने की कृपा करियेगा। . • आगे मथुरा के लेखो को, प्रकाशित करने के बारे में मैं सोच ही रहा.था-कि आपका पत्र मिला । मेरे जैन लेख संग्रह के दूसरे भाग में ८०० लेख तो . छप. चुके है । मथुरा-के लेख एक सौ से कुछ ऊपर हैं, परन्तु वे लेख बड़े महत्व के हैं। इस कारण दूसरे भाग मे नही देकर इनकी एक पृथक पुस्तक छपवाने का ही सकल्प किया है और मैं जहाँ तक कर सकूगा वहुत से प्लेट देने का भी विचार किया है । आप इस विषय- को-सोचकर-यहा दो-एक महिने के लिये आकर इस, कार्य को आपकी इच्छानुकूल समाप्त करने का विचार, करे सो, ऐसा सयोग होने से आशा है कि एक अत्युत्तम ग्रन्थ वन जायगा । प्रथम में तो आप जो मेरा सग्रह देख गये थे, इधर और. भी. आवश्यकीय ,बहुत सी ऐतिहासिक पुस्तको का संग्रह किया है, जो आपके देखने ही से ज्ञात होगा । कारण, सूत्री बनवाने का अवकाश नही मिला । और मुझे आशा है, कि आपको इस कार्य मे एक: मास से अधिक नहीं लगेगा। कारण ओर साधन, यहा तैयार मिलेगा । मैं भी सेवा मे रहूँगा और यहा पर बहुत से विद्वानो का आजकल समावेश भी है । उन लोगो से जैसी सहायता की आवश्यकता होगी मिलती रहेगी। . . । मैं आपको यहां शीघ्र ही आने के लिए विशेष अनुरोध करता परन्तु मैंने कुछ और लेखो के, सग्रह के लिए एक दफह जैसलमेर जाने का निश्चय किया है । श्री पर्युषणजी के बाद ही सु०.८ ता० २७ को रवाना हो जाऊंगा । जोधपुर - होकर जाऊंगा । वहां से श्री केसरिया नाथ जी जाऊँगा । वहाँ मेरी स्त्री जो मेरे साथ जायगी ओलीजी करेगी। फिर वहाँ से मुझे श्री राजगिर १८ अक्टूबर को अवश्य पहुँचना Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे दिवंगत मित्रो के कुछ पत्र होगा । वहाँ राय रमा प्रसाद चन्दा, बहादुर, चरण और मूर्तियों के छाप लेने के लिए Archiological Dept. से commission नियुक्त हुए है । श्वेताम्बरियो की तरफ से मुझे ही करना पड़ेगा और काम करने वाले कम हैं, झगड़ा करने वाले ज्यादा हैं। मैं यहाँ November तक पहुँच जाऊँगा और इस समय यहाँ Dashhara की छुट्टी मे बहुत से विद्वान अपने-अपने - स्थान पर बाहर चले जायेंगे। इस कारण यदि आप नवम्बर या अक्टूबर के शेप में याने कार्तिक सुद में आवें तो बहुत ही अच्छा, यहाँ कार्तिक पूर्णिमा का उत्सव भी बहुत अच्छा होता है, वह भी देखने का सुयोग रहेगा । फिर आप आपके वहा के कार्य का प्रोग्राम देखकर ठीक कर लेवें और मुझे उस प्रकार सूचना देवें । यहाँ नवम्बर दिसम्बर और जनवरी ये तीन मास तक मैं आपकी सेवा मे रह सकूंगा । फिर मेरा राजगृह जाने का विचार है । वहाँ मैंने एक छोटा सा रहने के लिये मकान बनवाया है । वहाँ ही रहने का विचार कर रहे है । यहाँ कई तरह की मुझे कठिनाइयाँ पड़ रही हैं । ८ आगे प्राचीन हस्त लिखित ग्रन्थो का मैंने और भी कुछ संग्रह किया है। सूची बनवा रहे हैं और notes of sans mass की तरह प्राय ४५ सो के तैयार हुए है । इसके विषय मे आपका यहा जिस समय पधारना होगा, वार्तालाप हो जायगा । मुझे इधर बिलकुल अवकाश कई कारणो से नहीं है, क्या लिख, आपका यहाँ कुछ दिन ज्यादा नही २०, २५ दिन भी ठहरना हो तो बहुत कुछ काम हो सकता है । साधन तो मैंने यथा साध्य एकत्रित किया है । उनसे कुछ उपयोग किया जाय तभी मुझे खुशी होगी । Bombay Branch Royal A.S. Journal के त्रुटित अंको की लिस्ट भेजी है कुछ मिल जाय तो अवश्य V.P से भेजने की आज्ञा दीजियेगा । पत्रोत्तर कलकत्ते के पते से दीजिएगा | ज्यादा शुभम् । कृपाकाक्षी - पूरणचन्द्र नाहर की चन्दना Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाबू श्री पूर्णचन्दजी नाहर के पत्र ५६ (१३) Rajgir 30-10-1925 परम् पूज्यवर श्रीमानाचार्य मुनि जिनविजयजी महाराज की पवित्र सेवा मे लिखी पूरणचन्द नाहर की सविनय वन्दना अवधारिएगा। अपरंच मैं श्री नाकोडाजी जैसलमेर ढुलैवा, देलवाडा आदि स्थानो की यात्रा करता हुआ श्री पावापुरी जी से यहां आया हूँ। यहाँ पर आज कल दिगम्बरियो के साथ जो मुकदमा चल रहा है उसका कमीशन का काम जारी होने के कारण मुझे भी यहां ठहरना पडा । इस मुकदमे के विषय मे कलकत्ते के वाबू रायकुमार सिंहजी जो यहां के 'मैनेजर' हैं आपको पेश्तर हाल लिख चुके हैं। मैने भी आपको पश्चिम जाने के पेन्तर पत्र लिखा था। उसका उत्तर मुझे कलकत्ते पहुंचने पर प्राप्त होगा। यहां पर इस काम के लिए इण्डियन म्यूजियम कलकत्ता के सुपरिन्टेंडेंट श्री राय बहादुर रामाप्रसाद चन्दा आये हुए है । अपने जैन मूर्ति तत्त्व खास श्वेताम्बरी दिगम्बरियो की मूर्तियो के विषयो मे बहुत से प्रश्न ऐसे उठ रहे हैं कि जिनका समाधान आपके ऐसे बहुदर्शी विद्वान् के सिवाय नही किसी से हो सकता है । मौका ऐसा है कि यहा राजगृह मे मौर्य, गुप्त, पालवशियो के समय से लेकर प्राचीन मूर्तियां हैं । ऐसे गहन विपयो का पुरातत्व की दृष्टि से विवेचन आगे नहीं हुआ है। इधर दिगम्बरी लोग भी पूरा जोर दे रहे हैं कि वे लोग प्राचीन थे और प्राचीन मूर्तियां भी उनही की है इत्यादि बहुत सी बातें विवाद ग्रस्त हैं । मैं ऐसे मौके पर आपकी उपस्थिति अत्यावश्यक समझता हूँ। राय वहादुर साहव एक सप्ताह मे यहाँ से कलकत्ता के लिए रवाना हो जाएंगे । अतएव उनके पहुंचते ही आप यदि कलकत्ता पधारने की कृपा कर सके तो वडा अनुग्रह होगा। यदि एक सप्ताह के लिए आप कलकत्ता आ जाय तो वडा काम होगा, क्योकि विना आपके इस विषय मे दूसरा कोई सहायक नही है । आपके रेल खर्च इत्यादि का प्रवन्ध Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र यथा आज्ञा सब ठीक हो जायगा । जैसी आप आज्ञा देंगे उसी के अनुसार यथा समय सबै इन्तजाम आपके लिये ठीक रहेगा । अंतएवं आप अपनी स्वीकृति शीघ्र पत्र'या तार द्वारा सूचित करने की कृपा कीजियेगा। इस समय'आपकी उपस्थिति परमावश्यक है सो जानिएगा। मि० कार्तिक शुक्ला १४, १९८२ शुक्रवार'। । लि. पूरणचन्द की वन्दना आपका कृपा पत्र मिलने पर तार से खर्च का द्रव्य भेज देवेंगे। कि बहना सूज्ञेषु शभमिति। । । - पत्रांक नं० १३ पर नोट उपयुद्धृत बाबू पूरणचन्दजी नाहर का जो पत्र मुझे मिला था उसके उत्तर मे मैंने जो पत्र उनको लिखा था उसकी प्रतिलिपि मेरे पुराने पत्रो के सम्रह में मिल गई जो यहाँ पर उधृत की जाती है। " - बाबू श्री पूरणचन्जी नाहर ने मुझे एक विशेष विचार परामर्ग के लिये कलकत्ता आने का आग्रह पूर्वक निवेदन किया था। उस कार्य 'सम्बन्धी प्रश्न के विचारार्थ मेरे जो' खास विचार थे' मुझे वहाँ जाने के पहले उन्हे स्पष्ट रूप से निवेदन कर देना आवश्यक था । अत. मैंने जो उनको पत्र लिखा, उसकी प्रतिलिपि रखना आवश्यक समझ कर मैने वह करवाली थी। पाठको' को' विषय का ज्ञान कराने की दृष्टि से उक्त मेरा पत्र भी यहाँ उधृत किया जाता है। -मुनि जिन विजय Ahmedabad 4-11-25 श्रीमान् विद्वद्वर धर्म प्रेमी सज्जनवर्य श्री बाबू पूरणचन्दजी योग्य यथा योग्य आशीर्वाद अनन्तर निवेदन है कि आपका ता. ३० का राजगिर से लिखा हुआ पत्र मिला । समाचार विदित हुए। आपने Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाबू श्री पूर्णचन्दजी नाहर के पत्र मुझे कलकत्ता आने के लिए आमन्त्रित किया उसके उत्तर में निवेदन है कि संघ की सेवा के लिए जो कोई ओजा संघ के नायक जन करे उसे गिरोधार्य करना संघ के प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है और इस दृष्टि से यदि आप और श्रीमान रायकुमार सिंहजी जैसे सब हितैषी अग्रजनो 'की इच्छा मुझे वहा बुलाने की है तो मैं उचित समर पर उपस्थित होना अपना कर्तब्य समझता हूँ। विशेप ज्ञातव्य इतना है कि प्रथम तो मैं स्वयं उन विवार वाले मनुष्यो मे से हूँ जो साम्प्रदायिक क्लेशो को धर्म और देश की उन्नति के 'वाधक समझते है। इसलिये मैं वैसे किसी भी कार्य मे अपना योग देना 'नहीं चाहता जिससे धर्म के परिणाम मे हानि होती हो । दूसरी बात यह है कि मैं इतिहास का विद्यार्थी हूँ, इसलिए शुद्ध ऐतिहासिक तत्त्व का अनुसरण करके ही मेरी अल्लस्वल्ल बुद्धि मे जो कुछ तथ्य मालूम दे मैं उसको प्रकट कर सकता हूँ । सम्प्रदाय के या मत के वशीभूत होकर मैं असत्य या असत्य मिश्रित कोई विचार प्रकट नहीं करना चाहता। - ये दो सिद्धान्त जो मेरे जीवन के आदर्शभूत है उनका पालन करते हुए मैं आपकी जितनी सेवा बजा सकू उतनी बजाने के लिये तैयार हूँ। ये बाते मैं इसलिए आप से लिखना चाहता हूँ कि मेरे विचारो का (पीछे से कोई विपर्यास न करे और दुरुपयोग भी न करे । मैं सदैव सत्य हो प्रकट करूँगा और सत्य ही का समर्थन । - अव प्रस्तुत:-राजगृही मे किस बारे में मुकदमा चल रहा है इसका मुझे पूरा हाल मालूम नही है । उस स्थान को जितनी बारीकी से 'देखना चाहिए उतना मैंने देखा भी नहीं है इसलिए मैं आपको इस विषय मे कितना मददगार हो सकता हूँ यह मै नही जानता । हाँ, इतना मुझे मालूम है कि श्वेताम्बर दिगम्बर की प्राचीनता और मूर्ति आदि 'के विपय मे मै आपको यथेष्ट प्रमाण और मेरे विचार वतला सकता हूँ। दिगम्बरो की अपेक्षा श्वेताम्बरो के पक्ष में बहुत कुछ साहित्य और :शिलालेखादि प्रमाणभूत है, जिससे श्वेताम्बरो के कथन का समर्थन Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ मेरे दिवगन मित्रों के कुछ पत्र अच्छी तरह हो सकता है । यदि इस दृष्टि से आज तक प्रयत्न किया जाता तो शिखरजी आदि के विषय मे बहुत कुछ लाभ हो सकता था । मूर्ति के बारे मे एक खास विचारणीय बात यह है कि श्वेताम्बर सम्प्रदाय की मूर्ति भी नग्न हो सकती है इसलिए जितनी नग्न मूर्तियाँ हैं वे सब दिगम्बर आम्नाय ही की है, ऐसा जो पुरातत्व वेत्ताओ का सामान्य अभिप्राय बना हुआ है, वह सर्वथा स्वीकारणीय न समझना चाहिए | श्री चन्दा को ये बातें पूरी तरह समझानी चाहिए नही तो उनका अभिप्राय भी निभ्रान्त न होगा । 3 सो ये बातें विचार कर उचित समझें तो मुझे आप बुला सकते हैं मुझे आने में कोई आपत्ति नही है । आने जाने का दो आदमियो के खर्चे का प्रबन्ध आपको करना होगा । अगर मेरा आना हुआ तो मैं यहा के पुस्तकालय के लिए आपका सग्रह भी देख सकूँगा । पत्र का उत्तर चिट्ठी या तार से जैसा योग्य समझें वैसे दें । शुभमस्तु । : (१४) भवदीय जिन विजय Calcutta 12-11-1925 परम् पूज्यवर आचार्य महाराज ! श्रीमान मुनि जिनविजय जी महोदय की पवित्र सेवा में सविनय वंदनान्तर निवेदन है कि मेरे राजगृह से लौटने पर आपकी ता.' १ ४-११-२५ की कृपा लिपि प्राप्त हुई और आद्योपान्त पढकर विशेष Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वावू श्री पूर्णचन्दजी नाहर के पत्र हर्ष हुआ। मैंने मेरी अनुपस्थिति में जितने पत्रादि आये हुये थे, वे भी पढे । उनमे आपको जो मैंने पूर्व मे “जैन लेख सग्रह" दूसरे खण्ड के फर्मों के साथ पत्र दिया था, उसकी पहुंच और उसके विषय मे आपका अभिप्राय के साथ कोई पत्र मिला नही । मैंने रजिस्ट्री डाक से वे फर्म भेजे थे सो आपको यथा समय मिले होगे। ___यहाँ पर मुनि तिलक विजयजी और जय विजय जी आये हुए है। मुझसे देहली मे भी तिलक विजयजी महाराज से मिलना हुआ था। उनसे पुनः वार्तालाप होने से और हाल ज्ञात होगे। ___ आगे आप कलकत्ते आने के लिये तैयार है और अपना विचार भी मुझे खुलासा लिख दिया है इसलिए मैं विशेप आभारी हुआ। पत्र मे सव हाल आपको मालूम नहीं करा सकते सक्षेप मे इतना ही निवेदन है कि मैं भी केवल इतिहास का ही छात्र हूँ और जहाँ तक बनता है साम्प्रदायिक विवादो से दूर रहता हूँ। इस बार ऐतिहासिक तत्व की प्राप्ति के लोभ से ही इस विषय मे मेरा कुछ सबंध हुआ है। यहाँ के पुरातत्व विभाग के सुपरिन्टेन्डेंट साहब जो वहाँ कमीशन मुकर्रर होकर गये थे उनको भी आपके पत्र का आशय सूचित कर दिया है । आपका सच्चा ऐतिहासिक प्रेम और विद्वत्ता का अच्छी तरह उनको परिचय मिला है और आपसे इस विषय मे वार्तालाप करने के लिये विशेष उत्सुक हैं । उनको अव रिपोर्ट बहुत ही शीघ्र दाखिल करना होगा। आपको तार से बुलवाने के लिये कहा है । आपको यहाँ आने में कष्ट तो अवश्य होगा, परन्तु यहाँ थोड़े ही काल मे बहुत से विषयो पर दिग्दर्शन कर सकेंगे। आगे खर्च के लिए दो आदमियो का प्रवन्ध मुझे करने को लिखा । मैं हर तरह से आपकी सेवा करने को तैयार हूँ इसके साथ रु. ५०/भेजता हूँ और जो कुछ लगेगा सो मैं आपके यहां पहुंचने पर आज्ञानुसार सब प्रवन्ध कर दूंगा । आपके रवाना होने की खबर तार से सूचित करने की कृपा कीजियेगा । जहा तक बने शीघ्र ही दर्शन देने की कृपा Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T Jed S ६४ मेरे दिवगत मित्रो के कुछ पत्र 1 ▾ कीजिएगा । चन्दा साहव का विशेष ताकीद जानिएगा । प्राते वक्त साथ मे "जैन लेख संग्रह " दूसरे भाग का फर्मा साथ लेते : आइयेगा | आबूजी के लेख के 'छाप २ / १ जो आपके यहाँ रह गये हो। सो, साथ ही लाने की आज्ञा दीजियेगा । ज्यादा शुभ स १६८२ की अघन विद ११ । -1 C 25 1 द : पूरणचन्द नाहर की वन्दना 1 पत्रोत्तर लोटती डाक से भेजने की कृपा कीजिएगा । जल्दी पधा रिएगा | ज्यादा शुभ । 7 S - (iv) १५ 32 ~1 7 T " · : परम पूज्यवर आचार्य श्री जिनविजयजी महाराज की पवित्र सेवा मे पूग्णचन्द नाहर की सविनय वन्दना मालूम हो । अपरच कृपा पत्र आपका ता.-१७-११-२५ का इस वक्त मिला । - आपने: ता. २० दिसम्बर तक यहाँ पहुँचने का लिखा और उस समय आने से यहाँ पर कुछ अधिक समय आप ठहर सकते है, ऐसा लिखा, सो ज्ञात हुआ । परन्तु यहाँ पर इस साथ भेजे हुए पाँच प्रश्न राजगिरी के केस में कमीशन से आये हैं और ३० नवम्बर तक उत्तरः दाखिल करने का समय दिया 7 Calcutta : .20-11-1925 गया है दरख्वास्त देने पर और हद्द आठ दस रोज का समय मिलेगा । याने ता, ८-१० दिसम्बर तक दोनो सम्प्रदाय वालो को उन प्रश्नो का जवाब दाखिल करना होगा । आगे ज्यादे समय नही मिलेगा तथा चन्दा साहब भी मेरे नाम पर आपका लिखा हुआ ग्रागे का पत्र पढकर आपसे मिलने की तथा इस विषय मे श्रापसे पूछताछ करने के लिए उत्सुक है । 1 7 हम आपको आज ही रवाना होने का तार देते, परन्तु तार मे सव हाल खुलासा आपको लिख नहीं सकते, इसलिये पुत्र ही लिखा इसको तार के वरावर जानिएगा और कृपया जहा तक बने शीघ्र ही रवाना Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाबू श्री पूर्णचन्दजी नाहर के पत्र होने का समाचार तार से सूचित कीजिएगा और इन प्रश्नो के उत्तर के विपय के यदि कोई हस्तलिखित या मुद्रित पुस्तक जो उचित समझे सो साथ में लेते आइयेगा। और यहां दो तीन रोज रहकर फिर आप जो छुट्टी मे आने का लिखा है, सो अवश्य स्मरण रखकर आइयेगा और साथ मे जो जो महानुभाव उस समय आना चाहे उनको भी लाइयेगा । लिखना बाहुल्य है कि उस समय भी आपके आने जाने का खर्च मैं देऊंगा और सब हाल आपके पहुँचने से निवेदन करूंगा। साथ में लेख संग्रह लेते आइयेगा। . (इस विषय में और भी किसी से पूछताछ करनी हो सो करके आइयेगा) ज्यादा शुभ सं १९८२ मि. अघन सु. ४ । द : पूरणचन्द नाहर की वन्दना अवधारिएगा (१६) Calcutta 8-12-1925 श्रीमान आचार्य श्री जिनविजयजी महाराज साहब की पवित्र सेवा मे लि. पूरणचन्द नाहर की वन्दना बाचिएगा । अपरच आपका ता. ४-१२-२५ का कृपा पत्र मिला । यहां से लौटते समय आपकी तबियत खराव हो गयी थी, ज्ञात होकर दुःख हुआ। आपके गये बाद मुझे भी सर्दी होकर इधर तवियत अड़चन मे हैं और उपस्थित कार्यों की भी बाहुल्यता है। आगे तीर्थ कल्प की प्रति की शीघ्र ही ज़रूरत है। कृपया रजिस्ट्री डाक से चिट्ठी पाते ही थोडा कष्ट उठाकर अवश्य रवाना कर दीजियेगा और अवकाश पर पच तीर्थों और प्रतिमाओ के जो लेख आपके पास अप्रकाशित हैं उन्हे भी खोजकर शीघ्र भेजने की कृपा कीजियेगा और पट्टावली के फर्मे छपे हुये हैं वे भी रवाना कराने का Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र प्रवन्ध करिएगा और जो पन्ने यहाँ से साथ ले गये हैं उनकी भी प्रेस कापी बनवाने का स्मरण रखियेगा और तैयार होने पर वे पन्ने भी वापिस भेजियेगा । पट्टावली के जो छह सात फमें छप चुके हैं उनके आगे के फर्मे जो मैंने यहां छपवाने का कहा था यदि आपको वहाँ छपवाने में हर तरह से आराम हो तो आगे के फरमे भी वही छपवाने का प्रबन्ध कर लीजियेगा, हमें उजर नही है। आगे आपने आपकी खरीदी हुई पुस्तकें भेजने को लिखा लेकिन उनमे से कागज के जिल्द की पुस्तकें नग २४ तथा बंगीय साहित्य परिषद से जो पुरानी फाइल आई है वे सब यहा आपकी आज्ञानुसार दफ्तरी को जिल्द बंधवाने को दिया है सो उनके आने मे ७, ८ दिन की देरी है, आने से आपकी सब पुस्तकें शीघ्र भेजी जावेंगी। मागे आप जो पुस्तकें चुनकर रख गये हैं उनकी लिस्ट भेजी नही थी सो इसके साथ भेजते हैं, देखकर इनमे से जो पसन्द हो कृपया सूचित कीजिएगा सो वे भी भेज दी जावेगी और जो सेवा हो सो लिखियेगा। ज्यादा शुभम् मि. पोस बदि ८ ।। द : पूरणचन्द की वन्दना (१७) 22-12-1925 श्रीमान आचार्य महाराज साहब श्री जिनविजयजी योग्य पूरणचन्द नाहर की सविनय बन्दना अवधारियेगा. यहाँ कुशल है आपकी शरीर सम्बन्धी सुख शांति हमेशा चाहते हैं । अपरच पत्र आपका ता. १७ का पहुंचा तथा आपकी भेजी हुई तीर्थ कल्प की प्रति मिली मापने "प्रवचन • परीक्षा" की पुस्तक के भेजने के विषय मे लिखा है, लेकिन वह प्रति सेठ मानन्दजी कल्याणजी के मारफत अहमदाबाद के डेला के उपाश्रय से हमारे पास आ गई है। इसलिये अब आप उपरोक्त प्रति भिजवाने का कष्ट न उठावें । जैन हितैषी का १३ वा भाग मिला है । दूसरा e Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाबू श्री पूर्णचन्दजी नाहर के पत्र ६७ भाग नही मिला । आपकी भेजी हुई सूची पहुंची उसमे लिखे अनुसार पुस्तकें पार्सल करके भेज देवेंगे । पुस्तकें आपकी आज्ञानुसार भेज देते. लेकिन उसमें बहुत सी पुस्तकें बंधवानी है सो बधवाकर एक साथ सव भेजेंगे। आगे पुस्तको के तथा बधाई के हिसाव यथा समय भेजेंगे पेस्तर आपको पत्र के साथ पार्सल मे भेजी हुई पुस्तको की रेलवे रसीद रसिक लाल भाई के नाम से भेजी थी सो यथा समय पहुंच गई होगी । पहुँच अभी तक आई नही है, आने से ज्ञात होगा। रसिक लाल भाई की पुस्तकें पहुंचने से उनको लिस्ट करने के लिये कह दीजियेगा। आगे पट्टावली के विषय मे हम आपको पूर्व पत्र मे लिख चुके है । जैसा आप प्रबन्ध करेंगे हमारे को वही मजूर है । इस विषय मे इतना और कहना है कि खरतरगच्छ की पट्टावली के साथ और भी गच्छान्तर की प्राचीन पट्टावली जो अद्यावधि अप्रकाशित हो और आप उन्हे प्रकाशित करना योग्य समझते हो तो वे भी इसके साथ छप जावे तो अन्छा हो । कुछ अधिक व्यय के लिये आप चिन्ता न कीजिएगा, जिसमें पुस्तक उपयोगी हो और शीघ्र प्रकाशित हो इस पर विशेष ध्यान रखियेगा। ____ आगे मुझे हाल मे कमल सयम उपाध्याय जी के वाचनार्थ 'असंखयम्' नामक एक प्राकृत १३ श्लोक का पत्र संवत १५१२ अणहिल पुर पत्तन का लिखा हुआ मिला है पत्र इतना जीर्ण है कि डाक से भेज नहीं सकते, यह कही प्रकाशित हुआ है कि नही कृपया सूचित कीजियेगा । स्तोत्र का आरम्भ इस प्रकार है-"असंखयम् जीवियमा पमायए जे रोवणीयस्स हु नत्थिताण ॥ एव वियाणाहि जणे पमत्ते किं न विहिंसा अजया गहति । और समाचार आपके पत्र से ज्ञात होगा । कृपा पत्र दीजियेगा, योग्य सेवा हो सो लिखियेगा । ज्यादा शुभम् सवत् १९८२ पौष सुदी ८ ता० २२-१२-२५ द : पूर्णचन्द की वन्दना Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र (१८) Calcutta 9-1-1926 परम पूज्य आचार्य महाराज श्रीमान जिनविजयजी महाराज की पवित्र सेवा में पूरणचन्द नाहर की सविनय वंदना अवधारिएगा अपरंच यहाँ कुशल है । आपकी शरीर सम्बन्धी सुख शान्ति हमेशा चाहते हैं । विशेष पूना से सा. चिमनलाल भाई ने पट्टावली के फर्मों की रसीद मुझे भेजी है । माल अभी तक पहुँचा नही है । पहुँचने से आपको लिखेंगे । और इनके आगे के फर्में छपवाने के लिये वहां आपको अनुकूल हो तो वहाँ प्रबन्ध कर लीजियेगा । खर्च लगेगा सो हम देवेंगे । और पुस्तक जिसमे जल्दी बाहर पड़े इसका आप पूरा ख्याल रखियेगा | याने जहाँ तक छप चुकी है उसके वाद जो जो विषय उसमे और छपवाना हो सो छपकर भूमिका मे आपका ऐतिहासिक दृष्टि से जैसा लिखने का विचार हो सो अभी से लिखना आरम्भ कर दीजियेगा कि जल्दी तैयार होकर मूल छपे वाद साथ-साथ भूमिका, सूचीपत्र, टाइटल पेज वगैरह छप जाय ऐसा प्रवन्ध होना चाहिये । आगे यहाँ परसो से राजगिरी केस का कमीशन से इजहार आरम्भ होगा । इस कारण हमको अवकाश नही है । पुस्तकें बन्ध कर तैयार थी, आपकी आज्ञानुसार समस्त पुस्तकें भेजते हैं । फक्त सिंहली कच्चायन वर्णन के कुछ पत्र कम थे । इस कारण भेजा नही । पुस्तके जहाँ तक बना ठीक से बन्धवा कर भेजते हैं । आशा है पसन्द आयेंगी । कुल पुस्तके आगे जो भेजी है और आज बक्स नग ३ में जो भेजी गई जिसकी पार्सल की रसीद इसके साथ भेजते है स्टेशन से बक्स खलास करा कर सभी की लिस्ट करा लीजिएगा । हिसाब वगैरह दूसरे पत्र मे भेजेंगे । उस समय लिस्ट से पुस्तकें मिल जायगी । पार्सल का महसूल वहाँ देने का है | यहाँ आपके आगे की ली हुई और पीछे के आर्डर की कोई पुस्तक नही रही है । बंगीय साहित्य परिषद से भाषा तत्त्व, जयदेव चरित्र Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाबू श्री पूरणचन्द जी नाहर के पत्र और कुछ पत्रिका नं० १४ आई थी उनके रुपये यहाँ से दे दिये है। पत्रिका नग दो और भी खरीद कर भेजते है। और अवध की डिस्क्रीप्टिव केटलाग Descriptive Catalogue फक्त बंधवाये नही है । पार्सल या रसीद की पहुँच शीघ्र देने की कृपा कीजिएगा। योग्य सेवा लिखिएगा ज्यादा शुभम् सं. १९८२ महाविद १०, ता० ६-१-२६ पूरणचंद की वन्दना (१६) पोषवदी १२ सं० १९८२ सिद्ध श्री अहमदावाद शुभ स्थानेक श्री मान आचार्य महाराज श्री जिन विजय जी योग्य श्री कलकत्ता से पूरणचन्द नाहर की सविनय वंदना वांचिएगा। अपरच यहाँ पर सव कुशल है। आपके शरीर सम्बन्धी सुख शांति सदा चाहते है। विशेष पत्र एक पेश्तर लिखा है सो पहुँचा होगा। यहा पर जितनी पुस्तके आप रख गये थे वे दो बक्स मे पेक करके भेजने को कह गये थे लेकिन कुछ पुस्तकें दफ्तरी के यहां बंधने दी गई है और जो पुस्तको की लिस्ट भेजा है उनमें से जो-जो जरूरत होगी वे सब मिलाकर एक दूसरे वक्स मे फिर भेज देवेंगे बाकी पुस्तकें आज दिन पार्सल से भेजते है। माल से भेजने से प्रथम तो वहुत अर्से मे पहुंचती तथा यहाँ भी माल लगाने का पूरा झंझट होता है और खर्च भी बहुत थोड़ा किफायत होता सो जानिएगा । विल्टी इसके साथ भेजते है सो भाडा चुका कर माल मगवाने का हुक्म दीजिएगा । खर्चे का हिसाब पीछे भेज देवेंगे। मागे चदा सा० से मुलाकात हुई थी वे आपको बहुत स्मरण करते है और प्रवचन परीक्षा ग्रन्थ धर्म सागर उपाध्याय कृत जिसका वर्णन उन्होने भंडारकर की रिपोर्ट १८८३ १८८४ के पा० १४४ से १५५ तक मे है। वह ग्रन्थ उनको देखने की बहुत उत्कंठा है। यहाँ मैंने बहुत तलाश किया मिला नही और मेरे पास भी नहीं है इस कारण आपको लिखते है कि कृपा पूर्वक वह प्रति चाहे आपके पास की चाहे और Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० ७० मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र जहाँ से मिल सकती हो लेकर भेज दीजिएगा । पहुँचने पर हम दो तीन रोज में ही उनको दिखाकर हिफाजत के साथ लौटा देवेंगे । और माने जाने का खर्च जो लगेगा सो देवेंगे यदि किसी कारण प्रति नही आ सके तो रिपोर्ट की पृष्ठ १४७ की चौथी लाइन से छटी लाइन तक नीचे लिखी हुई अंग्रेजी की मूल प्राकृत गाथा तथा उसकी टीका जो हो फक्त वह भी नकल मिल जाय तो बहुत उपकार होगा। अगर प्रति आ जाय तो अच्छी बात है, नही तो नकल तो अवश्य-अवश्य भेजिएगा। कष्ट दिया सो क्षमा कीजिएगा। आगे आपने प्रेमी जी को यहां से (जैन हितैषी भेजने के लिए) पत्र दिया था सो आज तक मिला नहीं है सो उनको भेजने के लिये लिखिएगा। आगे राजगिर प्रशस्ति की छाप आज दिन रजिस्ट्री डाकसे आपकी सेवा में भेजते हैं। इसका पाठ भी आपके अवकाश माफिक संशोधन करके भेजने की कृपा कीजिएगा। और साथ मे दोनो छापे भी वापिस भेजिएगा। कारण ब्लाक बनाना है। और योग्य सेवा हो सो लिखिएगा ज्यादा शुभम् सं० १९८२ पोष वदि १२ पूरणचद की वन्दना। Bhandarkar's report 1883, 1884 P• 147 Line 4th to 6th from top. “The Tirthankaras who went about without the belongings of a Sthavira had such bodily piculiarities as rendered unnecessary those belongings which they had not.' उक्त अंग्रेजी का मूल Text चाहे प्राकृत चाहे संस्कृत भी चाहिये । अत्यावश्यक है R/Ry रसिक लाल भाई के नाम से है प्राज पारसल नही लग सका सोमवार को रसीद (R/R) भेजेंगे। P. Nahar Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाबू श्री पूरणचन्दजी नाहर के पत्रं (२०) २५-१-२६ परम पूज्यवर श्रीमान आचार्य महाराज श्री जिनविजय जी की पवित्र सेवा मे पूरणचन्द नाहर की सविनय वन्दना अवधारिएगा । यहां श्री देवगरु धर्म के प्रसाद से कुशल है। आपके शरीर सम्बन्धी सुख साता हमेशा चाहते हैं। अपरंच कार्ड एक कल दिन भेजा है। आज दि ११ राजगिर केस में गवाही के बाद एक दिन छुट्टी ली है फिर शुरू होगा और उम्मेद है हमको और भी आठ दस रोज हेरान होना पड़ेगा । अस्तु आगे जो सब किताबें बंधवाकर भेजी हैं वे पसन्द आई होगी लिखिएगा। मैंने अच्छे बाइडर से बंधवाई हैं कि जिसमें जल्दी पुट्ट नष्ट न हो जाये । और इसके साथ आज तक के कुल हिसाब भेजते हैं आप देख लीजिएगा। जो कुछ भूल रह गई हो सो सूचित कीजिएगा। पहले की लिस्ट भी आज्ञानुसार भेजते हैं। आशा है पुस्तकें सब लिस्ट मुजव मिली होगी। पूने से फर्मे पहुंचने पर आपके पास आज्ञानुसार भेज देवेंगे और कर्मचन्द प्रवन्ध की सटीक प्रति जैसलमेर से मगाई है । शीघ्र ही लौटानी होगी। इस कारण निवेदन है कि उसकी मूल की प्रति एक दो जितनी आपके पास हो मुझे कृपया रजिस्ट्री डाक से भेजिएगा। मै यहाँ एक टेक्स्ट की रीडिंग मिलाकर बहुत ही शीघ्र आपको वापिस भेज दूंगा। आगे मथुरा लेखो के साथ मैंने जो जो पुस्तकें रखी थी उनमे एक एशियाटिक सोसायटी का प्लेट सहित मथुरा इन्स्क्रीप्सन्स के प्रवन्ध का पार्ट था। यदि वहाँ मिल जाय तो वह भी मुझे भेजने की कृपा कीजियेगा। कष्ट दिया सो क्षमा कीजिएगा। मेरे योग्य सेवा हो सो लिखिएगा। पत्र शीध्र दीजियेगा। ज्यादा शुभम् संवत् १९८२ माह सुदि १२ ता. २५-१-२६ पूरणचन्द की वंदना आगे अवध मेनस्क्रीप्ट के केटेलोगो को नही बंधाया गया है और जरमन कोर्स टिवेटन मेन्युअल आपकी सेवा में भेजी गई है। कुल Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ मेरे दिवंगत मित्रो के पत्र रुपया ३६५-४-६ हुए है । इस मध्ये जो कुछ पूने के फर्म के लगे हों सो आप रखकर बाकी रुपया यहां भेजने के लिये रसिकलाल भाई को आज्ञा दीजिएगा । ज्यादा शुभ । पट्टावली के आगे के फर्मों छपवाने के चावत मेरे विचार से वहा प्रबन्ध रखने से आपको अनुकूल होगा 1 फक्त छपे बाद फर्मों यहाँ मंगवाने में कुछ खर्चा लग जायगा । और इस विषय में आपको पेश्तर पत्र में खुलासा लिख चुके हैं। यानी खरतर गच्छ के सिवाय और गच्छो की पट्टावली प्राचीन अच्छी मिले तो वे भी साथ ही आपकी विचार शील भूमिका के साथ प्रकाशित करा देना ठीक होगा । फिर जैसी आपकी इच्छा हो उस मुजब हमें मंजूर है । (२१) P. C. Nabar M.A B.L. 45 Indian mirror Street Calcutta 21st February, 1926 परम पूज्य आचार्य जी महाराज मुनि जिनविजयजी की सेवा में लिखी कलकत्ते से पूरणचन्द नाहर की वदना अवधारिएगा । अपरंच आज दिन आपका ता. १७-२-२६ का नं. १४६ अंग्रेजी पत्र और साथ में चेक और पुस्तको का बाउचर मिला । 1 चेक तो मैंने लौटा दिया था और वहां पर ही कष्ट उठाकर उसे तुडवाकर रुपये भेजने को लिखा था । जो कुछ खर्च लगे वह भी देने की मंजूरी लिखी थी । मेरे यहां किसी प्रकार का लेन देन का व्यापार नहीं है । चेक हमें लेने मे बड़ी दिक्कत होती है । जो चेक लौटकर आई है उसमे पाने वाले के नाम मे "Gujarat" लिखा है और एन्डोर्स मे ' Gujarat " लिखा है । परसो सोमवार बैंक में चैक भेजा जायगा । दाम पटने पर मालूम होगा अस्तु । आगे पुस्तकों के बारे में भी वहां पर ही आप लोग आलस्य छोडकर बुकसेलरो की दी हुई केशमीमो और जो पुस्तकें है उनसे मिलान करने से मुझे इस विषय में Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाबू पूरणचन्द जी नाहर के पत्र लिखने की आवश्यकता नहीं होती। आपने स्वयं दुकान में जाकर पुस्तकें चुनी, दूकानदार ने बिल बनाया मैंने तो फक्त संस्था के लिये कुछ कमीशन देने को कहा और आपकी आज्ञानुसार बिल के रुपये चुकते दिये । वह विल बंगला में थे इस कारण हमारे केशियर ने उसे अंग्रेजी मे लिख दिया था। वे दुकानदारो के बिल भी आपके साथ ही दे दिये गये थे। पुस्तके मेरे यहाँ किसी प्रकार गड़बड़ नही हो सकती। आपकी ली हुई पुस्तकें अलग ही रखी हुई थी। आपही कुछ पुस्तकें बँधवाकर भेजने का हुक्म दे गये थे। बाकी पुस्तकें साथ साथ ही पेक करवा कर रवाने कर दी गई थी "सेठ वनसेर हिस्ट्री" जिसकी कीमत ११) लिखी है वह पुस्तक नही मिलती है। बाकी मुझे जहाँ तक ज्ञात होता है नगेन्द्रनाथ बसु की जो "बगेर जातीय इतिहास" पुस्तकों के सेट जो आपने खरीदे थे शायद उस सेट की ही कीमत रु० ११) होगी। वह पुस्तकें तो वहां पर अवश्य मिल गई होगी, लेकिन विल मे उनके नाम या मूल्य नही तजवीज किये गये होगे और न मुझे ऐसी पुस्तके जो फाजिल मिली होगी उनके नाम लिख भेजें। सम्भव तो मुझे यही होता है कि मेरे केशियर ने Set सेट के बदले Seth लिख दिया होगा। नहीं तो सेठ वनसेर हिस्ट्री ऐसी नाम की कोई पुस्तक हमे मालूम नही है । और हम यहां से कुछ लिख नही सकेंगे। 'तत्र कल्पतरु' के बारे मे fac 2 नही मिलती, लिखा मैं क्या करूं। जहां से ली गई है उसके बिल मे देखिये कि fac 2 लिखा है या नही । अगर कुछ नही लिखा हो तो वहाँ से उनको पत्र लिखिए कि कौन कौन fac की कीमत ली है। मेरे यहाँ आपकी ली हुई कोई पुस्तकें है नही। विल इसके साथ भेजते है पहुँच लिखिएगा। ___मेरी गवाही एक महिना तक चली। बहुत बातें जिरह मे पूछी गई । जहा तक मुझे स्मरण और ज्ञान था जवाब देते रहे। वकील लोग कहते हैं कि अच्छी हुई है आगे जो भावी भाव है वह होगा । आगे राजगिर की प्रशस्ती समय निकाल कर देख लीजियेगा और Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र संशोधन करके रविंग के साथ मुझे शीघ्र भेजने की कृपा कीजिएग । आगे पट्टावली के फर्मों यथा समय पहुँच गये होगे । श्रागे और समाचार पहली चिट्ठी मे लिख चुके है । मथुरा के लेखो के साथ एशियाटिक सोसायटी की एक संख्या रख आये थे, वह मिली नही वह भी तलाश करके भेजिएगा या और जो कुछ मिले कृपया वह भी भेजेंगे । आगे तीर्थ कल्प की प्रति रजिस्ट्ररी बुक पोस्ट से सोमवार को भेजेगे । और साथ मे कुछ कागज [सादे भेज देवेंगे सो आपके अवकाश पर किसी लहिया से उसकी नकल करा देने का कष्ट कीजिएगा । यहाँ नकल नही हो सको । जो कुछ खर्च पड़ेगा वह समाचार आने पर तुरन्त भेज देवें । या नकल होने पर वी. पी. से भी भेजे तो कोई हर्ज नही है । और मेरे योग्य सेवा लिखें। आगे हाल मे एसियाटिक सोसायटी से 'स्मृति' का केटलॉग 'पार्ट थी' प्रकाशित हुआ है। कीमत रुपया १५) | चाहिये तो एक कॉपी - लेस मेम्बरस डिस्काउण्ट लेकर वी. पी. से भेज देवेंगे । पुस्तक की कई पार्ट जो प्रागे प्रकाशित हुई थी, वह शायद आपके यहाँ सब हैं । पत्रोत्तर दीजिएगा । ज्यादा शुभ मिति फाल्गुन सुदी ८ सं० १९८२ ७४ ता० २१-२-०६ तीर्थ कल्प की प्रति यहाँ आज दिन लिखने वाले को दिया है सो नकल होने पर भेजेंगे । विलम्ब के लिये क्षमा कीजिएगा । विनीत पूरणचन्द नाहर की वन्दना (२२) . P. C. Nahar, M. A. B. L. Vakil High Court Phone Cal. 255 48, Indian Mirror Street Calcutta 15-4-1926 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाबू पूरणचन्दजी नाहर के पत्र ७५ परम पूज्य आचार्य महाराज श्री जिनविजय जी योग्य पूरण चंद नाहर की सविनय वंदना अवधारिएगा। यहा श्री देव गुरु धर्म के प्रसाद से कुशल हैं आपके शरीर सम्बन्धी सुख शाति हमेशा चाहते हैं। विशेष निवेदन है कि इन दिनो मे आपका कोई पत्र नही मिला आशा है आप कुशल मे होगे। आगे मैं कुछ दिनो के लिये बाहर गया था। यहाँ पर हलचल के कारण लौट आया हूँ। संवाद पत्रो मे पढ़ा होगा अव शांति है, चिन्ता कीजियेगा नहीं। ___ आगे राजगिरी की प्रशस्ती के शिलालेख की जो रविंग्ज भेजे थे उनको पुनः आवश्यकता हुई है सो कृपया पत्र पढ उन्हे फौरन रवाना कीजिएगा। जैन साहित्य सशोधक के दूसरे खड की चार संख्याएँ तो पहुँची हैं परन्तु सूची (Index & title page) नही मिली है। नही छपी हो तो शीघ्र छपाना चाहिये । छप गई हो तो कृपया भेजने का प्रबन्ध कर दीजिएगा। ___ पट्टावली के फर्मे (१-७) के दो सेट आज्ञानुसार भेजे है। आगे छपवाने का शीघ्र प्रबन्ध होना चाहिये । खर्च जो लगेगा समाचार आने पर भेजते रहेगे और छपने पर फरमे यहाँ भेजने का प्रवन्ध करा कीजिएगा। यहां से पुरातत्त्व मन्दिर के लिये आपकी खरीदी हुई और मेरी भेजी हुई जो पुस्तकें गई थी उनमे से जो जो पुस्तकें गड़बड़ होने का समाचार रसिक लाल भाई ने लिखा था उन पुस्तको का पता वहाँ लगा होगा आपका समाचार आने से मालूम होगा। आगे मथुरा के लेखो के साथ सोसायटी जनरल वगैरा जो रख आए थे उनमे से कुछ पुस्तकें नहीं आई हैं सो कृपया आपकी पुस्तको मे देखिएगा मिलने पर हमें भेजिएगा। यहां योग्य सेवा लिखिएगा ज्यादा शुभम् संवत् १९८३ मि० द्विचैत्र शु० ३ ता० १५-४-२६ दः पूरणचंद की वंदना अवधारिएगा Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र (२३) P. C. Nahar M. A. B. L. Vakil High Court Phone : 255 48, Indian Mirror Street Calcutta 15-9-1926 परम पूज्यवर आचार्य श्रीमान मुनि जिनविजयजी महाराज की परम पवित्र सेवा में लिखी कलकत्ते से पूरणचन्द नाहर सपरिवार की सविनय वंदना अवधारिएगा । यहाँ श्री जिनधर्म के प्रभाव से कुशल हैं। महाराज के शरीर सम्बन्धी सुख शान्ति सदैव चाहते हैं। अपरंच श्री पर्युपण पर्वाधिराज आनन्द पूर्वक आराधन किया मि. भादों सुद ५ श्री संवत् सरी प्रतिक्रमण कर सर्व जीव से क्षामणा करी । महाराज से भी विनय पूर्वक क्षमाते हैं। जाने अनजाने जो कुछ अविनय हुई हो वह क्षमा कीजिएगा। अपरंच इधर कई महिनो से महाराज का कृपा पत्र आया नही। मैंने पेश्तर पट्टावली के फार्मे पहुँचाने के बाद आपकी सेवा में दो पत्र भेजे थे, महाराज को अवश्य मिला होगा परन्तु तत्पश्चात् अद्यावधि पत्रोत्तर से वंचित हूँ। मेरे पर तो सदैव कृपा दृष्टि चाहिये और हाल मे मेरी तवियत ठीक नही रहती है। जो कुछ मेरे यहाँ हस्त लिखित पट्टावली की प्रतियाँ थी, उनमें से जरुरत माफिक आप साथ ले गये है। अव विशेष अनुरोध है कि पट्टावली की आगे की कापी तैयार करा कर प्रेस में भेज दें और छपने पर वे फार्म भी यहाँ आ जायेंगे हम सब हाल आपको निवेदन कर चुके है और विशेष आपके पा से ज्ञात होगे। वर्तमान मे महाराज का पुरातत्व मन्दिर में ठहरना कव तक होगा लिखिएगा । जहाँ तक हो सके पट्टावली की पुस्तक महाराज के नोट और टिप्पणी तथा व्याख्या के साथ शीघ्र प्रकाशित होनी चाहिये। ज्यादा क्या अर्ज करें। NA Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाबू पूरणचन्द जी नाहर के पत्र ७७ स्वास्थ्य पर विशेष ख्याल रखिएगा मेरे योग्य सेवा लिखते रहियेगा। ज्यादा शुभ स० १९८३ मि० भाद्र पद सु०८ पूरणचन्द नाहर की वंदना पूनः और वहाँ के समस्त सज्जनो से मेरी क्षामणा निवेदन कर दीजिएगा। कष्ट दिया सो क्षमा कीजिएगा। (२४) P. C. Nabar M. A. B. L. Vakil High Court Phone Cal. 255 48 Indian Mirror Street Calcutta 17-10-1926 परम पूज्य आचार्य श्री मान मुनि जिन विजयजी महाराज की पवित्र सेवा मे पूरणचन्द नाहर का सविनय वन्दना अवधारिएगा । यहाँ श्री जिन प्रसाद से कुशल है महाराज के गरीर सम्बन्धी सुख ज्ञाता सदा चाहते हैं। अपरच कृपा पत्र आपका अाज दिन मिला वाँचकर समाचार ज्ञात हुए। उत्तर में निवेदन है आपने मेरी ओर से आपके पत्र का कोई उत्तर नही देने का जो इल्जाम दिया यह मेरे ही दुर्भाग्य का कारण है। आपको तो मेरे जैसे बहुत से शिष्यो को पत्र लिखने पडते हैं, परन्तु मैं तो आपका पत्र मिलना ही एक सौभाग्य की बात समझता हूँ। और उसका उत्तर देना प्रधान कर्त्तव्य मे गणना करता हूँ। मुझ से ऐसी त्रुटि होना असभवसा है अस्तु । राज गृह लेख अवश्य रजिस्टर डाक से पहुंचा था, परन्तु कोई पत्र उसके साथ न था न पीछे से मिला और जव रजिस्टर्ड था तो केवल आलस्य मे ही यथा समय उसकी प्राप्ति की सूचना नहीं लिखी थी। त्रुटि क्षमा योग्य है खैर । आपका स्वास्थ्य अभी तक ठीक नहीं हुआ है-जानकर खेद हुआ। इस पर लक्ष्य रखना भी कर्तव्य है। इधर मे मेरा स्वास्थ्य Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र कर्मोदय से ज्यादा खराव चल रहा है। हम यहां से सपरिवार मि. आश्विन सुद १३ को दो मास के लिये राजगह जा रहे है। यदि आप भी अवकाश करके कुछ दिन के लिए वहाँ आ जाये तो आशा है कि अवश्य स्वास्थ्य सुधर जायगा। कारण आजकल वहाँ की आव-हवा अच्छी है । ज्यादा क्या अर्ज करें। ___ आगे पट्टावली की कॉपी तैयार हो गई ज्ञात होकर प्रसन्नता हुई। कृपा पूर्वक अब उसे शीघ्र ही प्रेस में देने की व्यवस्था कीजिएगा। आगे पुरातत्त्व मन्दिर कार्य अव ठीक से चल रहा है ज्ञात होकर अत्यानन्द हुमा। और लिखित साहित्य संग्रह के काम में मुझे मदद के लिये लिखा सो मैं अब भ्रमण करने में असमर्थ हूँ। जो कुछ सामग्री एकत्र किया हूँ वही मेरे जीवन में प्रकाशित कर सकू-ऐसी आशा भी नही कर सकता हूँ। प्रागे पुरातत्त्व मन्दिर मे म्युजियम की व्यवस्था कर रहे है सो ठीक ही है। इसके लिये भी पूरी फंड की व्यवस्था होनी चाहिये । मेरी तरफ से जो कुछ दे सकेंगे वह सहर्प भेंट करेंगे। आगे पट्टावलियो के हस्त लिखित पत्र जो आपके साथ गये थे वे भी कार्य समाप्ति पर भेज दीजिएगा। और योग्य सेवा लिखते रहे । जैसी स्नेह दृष्टि है वनाये रखें। ज्यादा शुभ स० १९८३ मि. पाश्विन सुद ११ दः पूरणचन्द की वंदना (२५) P. C. Nahar M. A. B. L 48, Indian Mirror Street Vakil High Court Calcutta Phone Cal 2551 21-2-1927 परम पूज्यवर प्राचार्य महाराज मुनि जिन विजय जी । सचालक साहित्य संशोधक समिति, महोदय की सेवा मे सविनय वन्दना के पश्चात् निवेदन है कि आपका ता० १५-२-२७ का कृपा पत्र प्राप्त हुआ। आप उद्योगी होकर जैन साहित्य सशोधक पत्रिका को Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाबू पूरणचन्द जी नाहर के पत्र ७६ पुनः संचालन करने का विचार किया है। सो आपके योग्य ही हुआ है। इसका पहला अंक फाल्गुन मे निकलेगा और मुझको इसके लिये लेख भेजने को लिखा सो ज्ञात हुआ। मेरे नैत्र मे इधर वरावर तकलीफ रहती है। इससे लिखने पढने का काम विशेष नही हो सकता है । कुछ स्वास्थ्य ठीक होने पर मुझ से जहाँ तक बनेगा मैं हर तरह की सहायता देता रहूँगा। ___ आगे जीतकल्प सूत्र की एक प्रति जो आपकी तरफ से भेंट स्वरूप भेजी गई वह यथा समय पहुँच गई है। मैंने धन्यवाद के साथ इसको स्वीकार किया और यह मेरे पुस्तकालय मे सुरक्षित रहेगी। लिखना वाहुल्य है कि आप ऐसे विद्वान् और सुयोग्य सपादक की कृति में त्रुटि रहने की संभावना नही रहती है। इस सूत्र का सपादन कार्य भी सर्व प्रकार से सराहनीय और उपयोगी हुआ है। अपने समस्त आगमो के ऐसे ही सर्वांग सुन्दर सस्करण की परमावश्यकता है। ज्यादा शुभ स० १९८३ मि० फाल्गुन वि० ५ भवदीय दः पूरणचन्द नाहर (२६) P. C. Nahar M. A, B, L. Vakıl High Court Phone Cal. 2551 48, Indian Mirror Street Calcutta 21-2-1927 अपरंच कृपा पत्र मिला उसका उत्तर इसके साथ भेजते हैं । आपको खानगी तौर में यह एक और पत्र देने का साहम किया है सो क्षमा कीजिएगा। इधर मे आपसे जब गत वर्ष मे मिलना हुआ था, तद्पश्चात् आज तक घटनाचक्र से मेरे पर ऐसा चिन्ता जाल बढ़ रहा है कि मुझे बहुत ही विकलता रहती है। इधर सामाजिक और घरेलू विपयो मे जो मेरी कुछ समय और शक्ति लगती है, आपसे छिपे Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र नहीं है । परन्तु इधर बाबू लामचन्दजी मोतीचन्दजी का कारबार बंद होने और पूज्य बड़े भाई सा का अचानक स्वर्गवास हो जाने से मेरा वहुत ही झंझट बढ़ गया है । मुझे दो एक दिन में ही आठ दस दिन के लिये जमीदारी में जाना पड़ेगा। वहाँ से लौटने पर और विषय निवेदन करूँगा। इसके साथ आपका आगे का पत्र भी स्मरणार्थ भेजता हूँ प्रत्युत्तर में मैंने जो सब विषय लिखा था वह अवश्य यथासमय पहुँचा होगा । खेद की बात है कि आज तक न तो उस पत्र का पहुँच ही मिला और न आपने उस पर ध्यान ही दिया । सो कृपया मेरे पत्रोत्तर को पुनः पढकर उस पर शीघ्र ही योग्य ध्यान दीजिएगा। आपके पत्रोत्तर की अपेक्षा मे रहे। ___ आगे राजगिर के मुकदमे के समय आपने वहाँ से कृपा करके तीर्थकल्प की प्रति मुझे भेजी थी उस प्रति की और आवश्यकता नही रहने के कारण रजिस्ट्री डाक पार्सल से आपकी सेवा में भेज दी है। आशा है कि यथा समय आपको मिली होगी। मेरे संग्रह में प्रवन्ध चिन्तामणि की प्रति नहीं है प्रयोध चिन्तामणि की प्रति एक है यह दूसरा ग्रन्थ है इसलिये भेजा नहीं। और योग्य सेवा लिखते रहे ज्यादा शुभ स० १९८३ मि० फाल्गुण वि० ५ निवेदक पूरणचन्द नाहर की वन्दना P.C. Nahar M.A. B. L. Vakil High Court Phone Cal. 255 (२७) 48, Indian Mirror Street Calcutta 11-6-1927 परम श्रद्धास्पद प्राचार्य महाराज मुनि जिनविजय जी की सेवा मे । लि० पूरणचन्द नाहर का सविनय वदना अवधारिएगा यहाँ श्री जिन Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाबू पूरणचन्द जी नाहर के पत्र धर्म के प्रसाद से कुशल है, महाराज के शरीर सम्वन्धी सुख शान्ति मदा चाहते हैं, अपरंच समाचार वचिएगा। · आगे आपकी सेवा मे कई पत्र भेजे परन्तु अद्यावधि कोई भी उत्तर पाने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ मुझ पर ऐसी अकृपा होने का कोई भी कारण समझ मे नही माता । भेजे हुए पट्टावली के फार्म सात यो ही एक वर्ष से पड़े हुए हैं जिसमे पुस्तक समाप्त होकर शीघ्र प्रकाशित हो ऐसा प्रवन्ध होना चाहिये ज्यादा क्या निवेदन करे । __ आगे यहां श्री पावापुरी जी मे दिगम्बरी लोगो ने केस किया है। श्वेताम्बरी मैनेजर की अपील, दिगम्वरी की अर्जी तथा आज तक की कार्यवाही की पुस्तक सेवा में भेजते है। अवकाश पर देख लेने की कृपा करेंगे। 'श्री केसरिया नाथ जी' के विभत्स कांड भी सवाद पत्रो से आपको विदित हो गया होगा। अपनी श्वेताम्बर समाज मे अविद्या और फूट के कारण बहुत सी हानियां पहुंच रही है। आपको अधिक लिखने की आवश्यकता नही। आगे श्री पावापुरी तीर्थ की रक्षा के निमित्त फंड की पूरी आवश्यकता हुई है। इस कारण सघ के मैनेजर बाबू धन्नुलाल जी हमें साथ लेकर गुजरात प्रान्त में जाने का विचार कर रहे है। यदि मेरा जाना हुआ तो महाराज को यथा समय सूचित करूंगा।। आगे 'जैन लेख संग्रह' दूसरा भाग भी सम्पूर्ण छप गया है, सूची छप रही है। भूमिका के लिये कई वार निवेदन किया परन्तु आपको अवकाश कहाँ ? जैसे तैसे अब शीघ्र ही प्रकाशित करेगे। प्लेटस् भी छप रहे हैं । एक प्लेट सेवा में अवलोकनार्थ भेजते हैं। हमें अकेले सव काम करना पड़ता है। सव तरह की कठिनाइयां झेलनी पड़ती है, स्वास्थ्य भी ठीक नही है, जहां तक होता है त्रुटि नही रखते है । तीसरा खड भी शीघ्र ही छपवा लेने की इच्छा है। इसमें केवल जैसलमेर के लेख रहेगे। आपके पास वहाँ का लेख या मन्दिर संबंधी कोई notes रहे तो अवश्य कृपा कर भेजिएगा। चौथे खंड में मथुरा के लेखो का संग्रह छपवाने की इच्छा है। यदि आयु रही तो आपके Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ मेरे दिवंगत मित्रो के पत्र पास बैठ कर तैयार करने की इच्छा है। इधर वहां के लेखों के rubbings भी बहुत से संग्रह हुए है। आपको भी कुछ नया मसाला नजर पडे तो उनके नोट्स अवश्य रखते जाएंगे। ___ अभी तो गर्मी की छुट्टी चल रही होगी। आप कहां है हमें निश्चय नहीं रहने से अहमदाबाद के ही ठिकाने पत्र भेजते है। आगामी दो तीन मास का आपका Programme मुझे सूचित करे तो वडी कृपा होगी । ज्यादा शुभ सं० १९८४ मि० ज्येष्ठ सु० ११ निवेदक द. पूरणचन्द की वन्दना (२८) P. C. Nahar M. A. D.L. Vakil High Court Phone Cal 2551 48, Indian Mirror Street Calcutta 11-8-1927 परम श्रद्धेय श्रीमान आचार्य महाराज मुनि जिन विजय जी की पवित्र सेवा मे लि० पूरणचन्द नाहर का सविनय वन्दना अवधारिएगा। यहाँ श्री जिनधर्म के प्रसाद से कुशल है। महाराज के शरीर सम्बन्धी सुखसाता सदा चाहते है। ___ आगे आपकी सेवा मे मैंने पत्र दिया था। अवश्य ही पहुँचा होगा। परन्तु दुर्भाग्यवश अाज तक उत्तर से वचित हूँ । अस्तु, __ 'लेख संग्रह का दूसरा भाग सम्पूर्ण हुआ है और उसे प्रकाशित किया है । आपकी सेवा मे आज दिन एक कॉपी भेजते है आशा है जहां तक शीघ्र हो सके इसको आद्योपान्त देखकर आपकी विचारशील और वहुमूल्य सम्मति भेज कर मुझे उत्साहित कीजिएगा। आगे दिगम्बरी लोगो ने जो पावापुरी में केस किया है, उसकी ब्रीफ भी आपकी सेवा मे भेजते है। अवकाश पर इस ओर भी कुछ ध्यान दीजिएगा। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाबू पूरणचन्द जी नाहर के पत्र ५३ आगे केसरिया नाथ जी के विषय में जो कुछ दिगम्बरी लोग प्रकाशित कर रहे हैं, वे आपके देखने में आते ही होगे। उन पर भी आपका विचार जानने के लिये मुझे स्वतः उत्कंठा रहती है। यदि कृपा हो तो उस तीर्थ के वहां के मन्दिर और मूल नायक जी के बाबत आपका स्वतंत्र अभिमत प्रकट करें, तो विशेष आभारी होऊंगा। __ मागे मेरी स्त्री का स्वास्थ्य भी इधर महिनो से बहुत खराव रहने के कारण उसे डाक्टरो की राय से रांची वायु परिवर्तन के लिये भेजा है। उसकी तपस्या के उजमणे में पट्टावली प्रकाशित करने की जो व्यवस्था हुई थी और आपने सहर्ष परिश्रम उठाना स्वीकार किया था, उसके विषय में कई वार हम लिख चुके है, वह पुस्तक जल्दी ही प्रकाशित करवा देने के लिये उनका विशेष आग्रह है। अत. निवेदन है कि उस पर भी शीघ्र ध्यान दें। जैसी कृपा है बनी रखें. ज्यादा शुभ । द : पूरणचन्द की वन्दना अवधारिएगा (२९) P. C. Nahar M, A, B. L. 48 Indian Mirror Strret Vakil High Court Calcutta Phone 2551 4-9-1927 श्रीमन् विद्वद्वराग्रगण्य आचार्य महाराज श्री जिन विजय जी महाराज की पवित्र सेवा में श्री संवत्सरी सम्बन्धी मन वचन काया से सविनय क्षामनान्तर निवेदन है कि मेरा भेजा हुआ "जैन लेख संग्रह द्वितीय भाग" का प्राप्ति सूचक आपका कृपा पत्र यथासमय मिला। पट्टावली का अवशिष्ट कार्य शीघ्र ही हाथ में लेने की लिखी, आशा है कि इस स्वीकृति को स्मरण रखेंगे। और अवकाश मिलने के साथ ही कॉपी तैयार करने का प्रयत्न करेंगे फिर प्रेस में भेज कर छपवाने में आपको विशेप कठिनाई या कष्ट न होगा। आगे आज दिन डाक से 'जैन साहित्य संशोधक की इस बार की सख्या मिली, परन्तु जब तक यह देवाक्षर में प्रकाशित न होगा, मुझे Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र खुशी नही होगी मेरे संग्रह में कई एक विज्ञप्ति पत्र हैं, यदि 'साहित्य संशोधन' मे प्रकाशित करने योग्य इसे समझे तो लिखने से मै इनकी कापी भेज सकता हूँ। _ 'कर्मचन्द प्रवन्ध' सोपज्ञ टीका सहित मैंने कापी कराई है । आपका इसे प्रकाशित कराने का विचार था सो यह सटिक छपेगी या मूल, कृपा कर सूचित कीजिएगा। मेरे विचार से सटिक ही प्रकाशित करना उपयोगी और उचित होगा । और साथ मे आपकी गवेषणापूर्ण टिप्पणी भी अवश्य रहनी चाहिये । आगे मेरी जैन लाइनरी में आपके यहाँ की प्रकाशित निम्नलिखित पुस्तकें नही है। ये सब अवश्य रहनी चाहिये । अतः ये पुस्तकें चाहे भेंट तरीके (Postage) की वी. पी. करके, चाहे मूल्य की वी. पी. के साथ शीघ्र ही भेजने का कष्ट उठाकर अनुग्रहीत कीजिएगा और आगे भी आपका या पं० सुखलालजी का संपादित जो कोई भी नवीन ग्रन्थ प्रकाशित होवे, उसे वी. पी. के साथ ही भेजने का कृपया प्रवन्व करा दीजिएगा। आगे पंडित नाथुराम जी प्रेमी बम्बई वाले आजकल कहां है तथा उनका क्या ठिकाना है कृपया सूचित करेंगे। योग्य सेवा लिखते रहें। पत्रोत्तर शीघ्र देने की कृपा करें। ज्यादा शुभ सं १९८४ मिः भादुसुद ६ ___ आगे पंडित सुखलाल जी साहव वहाँ रहे तो उनको मेरी क्षामना पहुँचा दीजिएगा, व रसिकलाल भाई से क्षामना करिएगा। आपके साथ जो भाई आये थे उनसे भी क्षामना और सम्मति तर्क भाग २ का छपा हो तो १ कापी वी. पी. से भेज दीजिएगा। कष्ट के लिये क्षमाप्रार्थी हूँ। List १: आचारंग सूत्र २. जैन ऐतिहासिक गुर्जर काव्य Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाबू पूरणचन्दजी नाहर के पत्र ३. संक्षिप्त प्राकृत व्याकरण ४. वीर वंशावली अथवा तपागच्छ वृहत् पट्टावली ५. न्यायावतार सूत्र ६. जैन दर्शन P. C. Nahar M. A. B.L. Vakil High Court Phone Cal. 2551 48, Indian Mirror Street Calcutta 6th March 1928 परम पूज्यवर, आचार्य श्रीमान मुनि जिन विजय जी महाराज की पवित्र सेवा मे सविनय वन्दना के पश्चात् निवेदन है कि पंडित सुखलाल जी सा. के पत्र से मालूम हुआ कि आपका विचार शीघ्र ही जर्मनी जाने का है । आपके यह सिद्धान्त पर मेरे लिखने का कुछ नही था, तथापि मेरे भाव आपको प्रकट करना उचित समझ लिखने का साहस किया और कोई विचार से नहीं लिखा जो कुछ अपराध समझे आप अपने महत्व से क्षमा करेंगे। आप अच्छी तरह सोच विचार कर ही यह विदेश गमन स्थिर किये होगे और इसमे अवश्य कुछ महान उद्देश्य की पूर्ति समझे होगे। पाश्चात्य मे विशेष कर जर्मनी मे गत महायुद्ध के पश्चात् अभी तक लोगों का मस्तिष्क चंचल है । यदि जैन धर्म पर जर्मन भाषा सीखकर उसी भाषा मे भाषण या पुस्तक देने या लिखने का विचार हो तो इस कार्य के लिये वहाँ जाकर शक्ति और समय लगाने पर अधिक फल प्राप्ति की आशा नही है। यदि जैन धर्म जर्मनी का होता तो अवश्य उसमे विशेष लाभ होता। आप स्वयं विद्वान् वुद्धिमान बहुदर्शी और सद्विवेकज्ञ हैं और गम्भीर विचार से भविष्यत् के लाभालाभ को विचार कर जो कार्य होता है, वह सुदीर्घ काल में भी विक्रिया रूप में परिणित नहीं होता। आप भारत इतिहास के लिये भारत में प्रसिद्ध Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे दिवंगत मित्रो के कुछ पत्र है अभी भारत के हर प्रान्त में जो जो रत्न अपनी अनानता रूप अन्धकार में पड़े हुए हैं उन सभी को श्रापको भूलना नहीं चाहिये। आपसे अपने समाज का तो कहना ही क्या समग्न भारतवासी बहुत कुछ आशा रखते है। आप यह सुदूर विदेश गमन का विचार निश्चय करने से प्रथम अपने देश, धर्म और संघ की चिन्ता को भी चित्त में अवश्य स्थान देंगे। आपके बहुत से कार्य अपूर्ण पड़े हैं आपको अवसर भी कम रहता था। आपके बहुत से विचार अद्यावधि विचार मे ही पड़े है । कार्य में उन्हे परिणित करने का अवकाश भी नहीं मिला और आप जर्मनी जाने को तैयार होते हैं। पूना अहमदाबाद मे जो कुछ मापकी प्रेरणा और परिश्रम से कार्य चल रहे हैं, आपकी अनुपस्थिति मे उनकी दशा भी सोचिएगा। ज्यादा क्या निवेदन करे। . आगे मैंने आपको कई पत्र लिखे। परन्तु दुर्भाग्यवश अद्यावधि उत्तर न मिला। अब तो आशा ही कहाँ ? वर्षों हुए पूने से पट्टावली के सात फरमें पाकर पड़े हुए है। आश्चर्य नहीं कि थोडे ही काल में वे सव दीमक आदि से नष्ट हो जाय परन्तु मेरा कुछ जोर नहीं चलता । मथुरा के लेखो के बंडल यो ही सड़ रहे है, बहुत उपयोगी हैं परन्तु क्या किया जाय? मेरी वर्तमान स्वास्थ्य की अवस्था विशेष शोचनीय हैं । मैं आप लोगो को कोई सेवा देने में असमर्थ हूँ। कृपा दृष्टि बनी रखिएगा, ज्यादा क्या निवेदन करें। शुभमिति सं० १९८४ साल चैत्र कृष्ण सेवक पूरणचन्द नाहर की वंदना अवधारिएगा (३१) P. C. Nahar M. A. B. L. 48, Indian Mirror Street, Vakil High Court Calcutta Phone Cal. 2551 23-7-1929 परम श्रद्धय अशेप गुणालकृत श्रीमान मुनि महोदय की सादर सेवा मे पूरणचन्द नाहर का सविनय वन्दना अवधारिएगा। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७ बाबू श्री पूरणचन्दजी नाहर के पत्र आज वर्षों व्यतीत हुए कि आप सहाय और सामर्थ्यहीन भारत माता का मोह जंजाल तोडकर महा समुद्र के पारो के देशो में विचरण करते हुए अपनी प्रबल ज्ञान पिपासा को शान्त कर रहे है । आपके जो समय समय पर वहां से भेजे हुए पत्र यहाँ की पत्रिकाओ में प्रकाशित होते चले आये है, उन सभी को मैं बड़े ही आग्रह और प्रेम के साथ देखता चला आता हूँ। इस अन्तर में यहाँ भी समयानुसार कई परिवर्तन होते चले जाते है। उन सबो का आपको स्वय यहाँ जिस समय पधारेंगे अनुभव होगा। लिखना वाहुल्य है कि देश समाज और व्यक्तिगत परिवर्तन हरक्षण हो रहे है, परन्तु इन दिनों मे कई कारणो से वे आधिक्य से देखने में आते हैं। और आपको भी खबर मिलती रहती होगी। मेरे यहाँ भी गत १९२७ के जनवरी मास मे बड़े भाई सा० राय मुन्नी लाल जी नाहर बहादुर के स्वर्गवास के पश्चात् वहुत कुछ परिवर्तन हो गया है। सामाजिक कलह की भी स्थिति विकट रूप मे थी उसका भी समयानुकूल अन्त हुआ है। इधर मेरे नेत्रो में पीड़ा के कारण अब मै स्वय लिखने पढने से अशक्त हूँ। इस पर भी मेरे जैन लेख संग्रह का तीसरा खंड जिसमें जैसलमेर के लेख प्रकाशित किये हैं उसको भी मैं बड़े परिश्रम और बहुतसी कठिनाइयां झेलते हुए हाल ही मे सम्पूर्ण करने में समर्थ हुआ हूँ उसकी एक कॉपी आपकी सेवा में भेजी जाती है। पुस्तक की भूमिका तो आप आद्योपान्त पढने का अवसर तो अवश्य निकालेंगे। परन्तु उसके प्लेट्स भी अवश्य अवलोकन करें और कृपया अपनी अमूल्य सम्मति भेजें। आगरे मे प्रकाशित श्वेताम्बर जैन पत्र आपके पास पहुंचा होगा। शायद नही आता हो, इसी ख्याल से पत्रिका की सख्या जिसमे ग्रन्थ पर रा. व. प० गोरीशंकर ओझा की सम्मति प्रकाशित हुई है। वह भी सेवा मे भेजते हैं। आपको तथा वहां के जैन विद्वानो को पुस्तक के ३/४ महत्वपूर्ण लेख आशा है कि विशेष पसंद आएगे। प्रो० सुन्निंग आदि विद्वानो को मेरी ओर से भेट स्वरूप भेजना उचित समझे उन लोगों का पूरा नाम व पता लिख भेजें ताकि आपका पत्रोत्तर पाते ही मैं उन्हे प्रतियां रवाना कर सकें। nam Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र ____ मैं आपको एक और कष्ट देना चाहता हूँ। जैन धर्म और इतिहास' आदि के विपय मे पाश्चात्य विद्वान लोग जो कुछ परिश्रम कर रहे है और वैज्ञानिक रीति से खोज कर रहे है वे सब अब आप स्वयं वहा अनुभव कर रहे है। यों तो अद्यावधि दोनों पक्ष के कई प्रमाणादि के साथ पुस्तक छप चुकी है, जिसमे अपने अपने पक्ष को पुष्ट किये है। निर्पेक्ष दृष्टि से और सच्ची ऐतिहासिक गवेपणा द्वारा वहाँ के विद्वान लोगो को श्वेताम्बरी और दिगम्बरी प्राचीनता के विषय मे क्या अभिप्राय है यह मेरे जानने की उत्कण्ठा है। मैने हाल में ही इडियन एन्टिक्वेरी में एक छोटा सा नोट (on the Swetamber & Dig amber Sects ) भेजा है। जब से मेरी दृष्टि मथुरा गर्भापहार के भास्कर पर आकर्षित हुई थी तब से यही धारणा प्रवल है कि श्वेताम्बर सम्प्रदाय ही प्राचीन और मूल सम्प्रदाय है और इससे ही दिगम्बर सम्प्रदाय की शाखा निकली है। चाहे श्वेताम्बरियों के कई विभाग क्यो न हो, चाहे छठे कल्यानक को नहीं भी माने, परन्तु श्वेताम्बरियो मे सव विभाग वाले गर्भापहार की कथा स्वीकार करते है। परन्तु दिगम्बरियो के कोई भी विभाग यह प्राचीन इन्द्र के आदेश से 'हरिणेगमेषु' द्वारा देवानन्दा की कुक्षि से गर्भापहार की कथा विलकुल नही मानते है । नग्नत्व से ही प्राचीनता पुष्ट नहीं हो सकती इस विषय के समाधान के लिये और भी प्रमाण की आवश्यकता है और हमारे श्वेताम्बर सम्प्रदाय के ओसवाल जाति की सृष्टि के विषय मे भी वीर निर्माण के ६० वर्ष में रत्नप्रभ सूरि के द्वारा दीक्षित होने की कथा अथवा विक्रम सम्वत् २२२ में जैन धर्म अगीकार करके ओसवाल बनने की कथा भी असत्य प्रतीत होती है। आपके साहित्य संशोधक मे उपकेशगच्छ पट्टावली में जो ओसवाल ज्ञाति की सृष्टि का वृतान्त है वह भी कल्पित सा है। कही उप्पल राजा के पुत्र को, कही उनके मंत्री उहड़ के पुत्र को, और कही राजा और मत्री दोनो के पुत्रों को सर्प डसने का वर्णन मिलते हैं। आपके गवेषणा कार्य मे इस विषय पर और कुछ खुलासा या नई बातें मिली हो तो कृपया अवश्य सूचित Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाबू श्री पूरणचन्द जी नाहर के पत्र ८४ करें। मै इस ज्ञाति की सृष्टि के समय पर मेरा कुछ विचार पुस्तक की भूमिका में दिया है सो आप देख लेंगे। आपको इस प्रकार कष्ट देते है सो क्षमा करें। मेरे दोहित्र श्रीमान रणधीर सिंह जी बच्छावत गत अक्टूवर में यहाँ से लॉ पढ़ने इग्लैड गया है और वहाँ ३०, वेल साइज पार्क, आर्य भवन, मे है । लड़का बड़ा सुशील है मै इस मेल में उसको पत्र लिखता हूँ। यदि कोई छुट्टी Vacation पर कॉन्टीनेण्ट की तरफ जायगा तो आपसे अवश्य मिलने को लिख दूंगा। यदि किसी कार्य वश आपका लन्दन जाना हो तो कृपया उक्त ठिकाने में उससे मीलिएगा मेरी आँखों में जो केट्रक्ट हुआ है वह अभी आपरेशन के लायक नही हुआ है। ऐसा यहाँ के डाक्टर लोग कहते हैं। मोगा वाले तो काटने को तैयार थे यदि शारीरिक अवस्था जाने लायक होती तो मै भी एक वार उधर ही जाकर आपरेशन करवाता। स्वामी सत्यदेव परिव्राजक जी से शायद आपका मिलना हआ होगा। उनके लेखों से ज्ञात होता है कि वे भी बड़े उत्साही और अनुभवी हैं। मेरे योग्य सेवा लिखे । कृपा वनी रखें। निवेदक पूरणचन्द नाहर पु० नि० - हाल ही मे महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री जी महोदय की जुवली उत्सव पर पुस्तकाकार लेखो का संग्रह जो छपने वाला है। उसमें भगवान पार्श्वनाथ' नाम का एक छोटा सा प्रवन्ध देने के लिये मैंने लिखा है । इस लेख में मैंने यह बताया है कि हिन्दुओ के महादेवजी की तरह अपने जैनी पार्श्वनाथ जी को ही बहुत से नामों से पूजा प्रतिष्ठा करते है और देखने में आता है कि श्वेताम्बर मतवाले पार्श्वनाथ स्वामी को श्री चिन्तामणि, श्री अमीझरा, श्री सामलिया इत्यादि सैकडो नाम भेद से जैसे पूजते है वैसे दिगम्बरियो मे देखा नही जाता है। यह भी श्वेताम्बरी प्राचीनता का दृष्टान्त है। लेख छपने पर उसकी कापी नापको भेजेंगे। और अंग्रेजी बंगला आदि के कुछ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० मेरे दिवगत मित्रों के कुछ पत्र लेख भी इसके साथ भेजते है, कारण आप वगला अंग्रेजी दोनो का अभ्यास अच्छी तरह किये है । डाक्टर ग्लेजेनाप से मिलना हुआ होगा । वे हम को भूले न होगे । हरमन जाकोबी साहेब भी मेरे यहाँ एक वार आये थे जिसको बहुत समय हुआ । उनको अब स्मरण न होगा डा० गेरिनो को ( La Riligion Djaine ) नाम की पुस्तक मैंने मंगवाई है । डा० ग्लेजेनाप की (DER, jainismes) पुस्तक भी मेरे पास है इन सभी के अंग्रेजी अथवा हिन्दी अनुवाद होने से ये अधिक उपयोगी होगे । ज्यादा शुभ P. C Nahar M. A. B. L. Vakil High Court Phone, cal. 255 (३२) पूरणचन्द नाहर Calcutta 18-3-1930 पूजनीय विद्वद्वर श्रीमान मुनि जिनविजय जी महाराज की सादर सेवा मे सविनय निवेदन : आपका कृपा पत्र मिला, भाई बहादुर सिंहजी सिंघी के यहा प० सुखलाल जी सा० की प्राने की सूचना मिलते ही उनसे मिलने गया था तथा पडित जी कल स्वय भी मेरे यहाँ पधारे थे । आपके विषय में उनसे वार्तालाप हुई थी और मैने भी उनको निवेदन दिया है सो यथा समय उनके लोटने पर ज्ञात होगा । आगे मेरे ही दुर्भाग्यवश लेख संग्रह भाग तीन की आपकी सम्मति मुझे पहुँची नही । मैं खरतर गच्छ पट्टावली के कार्य के विषय मे केवल आपकी सेवा में इतना ही निवेदन करता हूँ कि मैंने पूर्व पत्र में एडटिंग या कापी बनाने का खर्च मुझसे लिया गया है ऐसा नही लिखा है । और न राजी हुआ ही था । श्रापको स्मरण होगा कि मैने मेरी स्त्री की तपत्या के उमणे मे यह पुस्तक भेंट देने की इच्छा प्रकट की ओर भी प्राचीन पट्टावली मिलाकर और साथ में आप की लेखनी से सुशोभित भूमिका के साथ पुस्तक का कलेवर बढाकर प्रकाशित करने Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बावू श्री पूरणचन्द जी नाहर के पत्र ११ का निवेदन किया था और वही पर छपाई का काम भी करा लेने का था । कारण वहां होने से आपको प्रूफ वगैरह देखने में सुगमता रहेगी। आपने इन सब बातो को पंसद की थी। और साथ में मेरे यहाँ से कई पट्टावली भी ले गये थे। अस्तु वे पट्टावली मुझे वापिस मिल गई है। मैने कई जगह यह आपकी खरतर गच्छ पट्टावली शीघ्र बाहर होने की सूचना देखी है और शायद वह यही है यदि अवकाश मिले तो दो शब्द लिखकर शीघ्र भेज दें। अन्यथा किसी प्रकार अब अधिक न रखकर प्रकाशित कराने का प्रबन्ध करना उचित होगा। आगे मेरी स्त्री जो वर्षो से पीडित थी वह कुछ अच्छी है। मेरे नेत्र मे शस्त्र क्रिया से कुछ रोशनी आई है । नहीं तो अकथनीय कष्ट था। शायद एक दो मास के पश्चात् पठन पाठन भी शक्य होगा। ऐसी डाक्टरो की राय है। आपका शीघ्र इधर आना सभव नही ऐसा पंडित सा० से मालूम हुआ था परन्तु आपको इधर आना है तो बड़े हरे की वात है मै तो आपका पुराना भक्त हूँ तथा स्वय भी पुराना रद्दी होता जाता हूँ तो भी यथाशक्ति सेवा से विमुख नही हूँ। ससार अनन्त है, कार्य क्षेत्र अपरिमित है। कर्त्तव्य असख्य है । ऐसी दशा में जो क्षण मात्र भी धर्म समाज और मनुष्य के हित की अपने नश्वर शरीर से वन पड़े वही सफल है। आपको अधिक लिखना धृष्टना और अगाध समुद्र मे एक बूंद वारिवत है। अधिक क्या लिखे कृपा रखें । शरीर का यत्न रखे । ज्यादा शुभ । विनयावनत पूरण चन्द नाहर ___ (३३) P. C. Naar M.A. B. L. 48 Indian Mirror Street Vakil High Court Calcutta 4. 3. 1931 Phone cal. 2551 . 'अशेष गुणालंकृत बहुमानास्पद पूज्यवर मुनि जिनविजयजी महाराज की सेवा मे Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र सविनय वन्दना के पश्चात् निवेदन है कि श्रीमान पृथ्वीसिंह यथा समय सपरिवार पहुँचे । आपकी कुशलता ज्ञात होकर खुशी हुई । आपका यहाँ पधारना हुआ था, परन्तु अनवकाश हेतु मुझे मिलने की सूचना नही भेज सके सो कोई हर्ज नही । मेरे पर सदैव कृपा रहती है । इस बार जब आवें तो स्मरण अवश्य कीजिएगा । मैं सेवा में उपस्थित होऊंगा । } २ एक कष्ट दे रहा हूँ । 'भोज चरित' नामक ग्रन्थ के कर्ता पाठक श्री राज बल्लभ है वे जैन थे आपके ग्रन्थ मे उल्लेख है कि भोज की सभा मे चार ब्राह्मण थे जिनमें से एक का नाम सर्वधर था । उस सर्वधर के धनपाल और शोभन नामक दो पुत्र थे । किसी समय श्री सुस्थिता चार्य आये सर्वधर को उपदेश दिया । उन्होने अपना आधा धन आचार्य जी को देना स्वीकार कर लिया । पश्चात् आचार्य ने उनके दो लडको मे से एक को मागा । सुनते ही मोहवश पिता सर्वधर की मृत्यु हो गई । जो शोभन पिता के वचनानुसार जैन साधु हुए | धनपाल को इस पर प्रथम तो जैन धर्म पर अश्रद्धा हुई, पश्चात् उपदेश से वह भी जैनी हुआ और 'ऋषभ पचाशिकादि' कई ग्रन्थ लिखे । इत्यादि । उपरोक्त घटना का उल्लेख और किस किस जैन पुस्तक में है यदि स्मरण हो तो कृपया सूचित करें तो विशेष अनुग्रह होगा । 1 दूसरी बात यह है कि बाबू कामताप्रसाद जैन महाशय से श्वेताम्बर दिगम्बर प्राचीनता पर कुछ वाद चला है (१) श्री ऋषभदेव तीर्थंकर ने एक से तीन तक जैन साधुओ के लिये वस्त्र व्यवहार का आचार चलाया था । (२) ॠपभदेव के बाद पार्श्वनाथ तक जैन साधु लोग सव वर्ण के वस्त्र व्यवहार करते थे । (३) महावीर तीर्थंकर ने साधुओं को श्वेत वस्त्र व्यवहार करने का आचार बताया था। कल्पी के सिवाय और साधु श्वेत मानो पेत वस्त्र सकते है । इत्यादि निग्रन्थ साधुओ के वस्त्र पहनने या अपने जैन सिद्धान्त और ग्रन्थो में विशेष विवरण जहाँ-जहाँ मिलता हो मुझे ऐसे दो चार Authority श्रवश्य लिख भेजने का कष्ट लें । यानी जिन व्यवहार कर रखने बावत Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बावू पूरणचन्द जी नाहर के पत्र पं. सुखलालजी से भी मेरा जयजिनेन्द्र कहिएगा। उनसे भी कृपया पूछकर उनको भी जो कुछ स्मरण हो वह भी लिख दीजिएगा । और सभी से मेरा यथा योग्य निवेदन करें। शरीर का यल रखें। योग्य सेवा लिखें। ज्यादाशुभ शास्त्रीजी महोदय से प्रणाम निवेदन करे। . विनीत पूर्णचन्द की सविनय वन्दना (नोट) यह पत्र वाबूसा. पूर्णचन्द नाहर का शान्तिनिकेतन मे मिला था। जब मैंने वहां पर सिघी जैन ज्ञानपीठ की स्थापना की थी। (३४) P. C. Nahar M. A.B.L. 48 Indian Mirror Street Vakil High Court Calcutta 19-9-1931 Phone cal. 2551 परम श्रद्धास्पद विद्वद्वर्य श्रीमान् जिनविजयजी महोदय की पवित्र सेवा में पूरणचन्द नाहर का सविनय नमस्कार वचिएगा। श्रीमान् धीरसिंह ने मेरी ओर से आपकी सेवा मे सवत्सरी सम्बन्धी क्षामणा निवेदन किया होगा । मैं पुनः मन वचन काया से क्षमाता हूँ। जो कुछ जाने अनजाने अविनय हुई हो वह सब क्षमा करें। , आगे शान्ति निकेतन से श्रीमान् रतीलाल भाई आये थे। परन्तु दुर्भाग्य वश मुझसे मिलना न हुआ। मैं बाहर चला गया था, अस्तु उनसे भी मेरी सविनय क्षामणा कह देने का कष्ट ले। पट्टावली के लिये आपने जो वक्तव्य लिखने की असीम कृपा की है। इससे अब वह पुस्तक प्रकाशन मे अधिक विलम्ब न होगा। मैंने भी कुछ निवेदन लिखने की इच्छा प्रकट की थी वह लिखकर पत्र के साथ मे भेज रहा है। इसे अवकाश पर देखकर लौटाने की कृपा कीजिएगा। ने मके प्रफ आपके अवलोकनार्थ शीघ्र ही भेज दूंगा और Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र योग्य सदा लिखे । कृपा बनी रखें। श्रीमान् पृथ्वीसिंह शीघ्र ही लौटेगे । चि. बहू का स्वास्थ्य ठीक नहीं है । इलाज की व्यवस्था हुई है। निरामय होने से चिन्ता मिटेगी। भाई सिंघीजी सा. कुशल मे है और सब लोगो से यथा योग्य निवेदन करें। ज्यादा शुभ सं. १९८८ का मि. भाद्रपद शु. ८ पूरणचंद नाहर की सविनय वंदना अवधारिएगा (३५) Calcutta सं. १९८८ भादोसुदि १३ श्रद्धेय श्रीमान् जिनविजयजी महोदय की सादर सेवा मे-- सविनय नमस्कारान्तर निवेदन है कि कृपापत्र प्राप्तकर अनुग्रहीत हुआ। आज्ञानुसार गीघ्र ही अकारादि की सूची तैयार होने पर प्रेस मे देदेगे । और आपके रवानगी के पेश्तर ही आशा है कि एक प्रूफ अवलोकनार्थ सेवा में भेजेंगे । मेरा विचार एक बार जो वहाँ जाने का था सो अव इधर होना कठिन है। छुट्टियो के बाद जब आप लौटेंगे उस समय हाजिर होने की इच्छा रही आप जो हेमचन्द्राचार्य को जीवनी वाली किताव के लिये कह गये थे सो हमे स्मरण है । हमने लाहोर मे पंजाव संस्कृत बुक डिपो और पूना मे डाक्टर सार देसाई को पत्र भेजा है । कही से मिल गई तो फोरन सेवा मे भेजेंगे । यहाँ सोसायटी की किताव बाहर से मिली नहीं है और इंपीरियल लाइब्रेरी मे कुल दो सप्ताह के लिये मिलती है। इससे आपका कार्य नहीं होगा। आप शीघ्र ही अहमदावाद जारहे है। वहाँ किसी स्थान में मिल जायगा । और योग्य सेवा लिखें । कृपा बनी रखें ज्यादा शुभ स. १९८८ का मिति भादोसुदि १३ । पूरणचन्द नाहर की सविनय वंदना Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाबू पूरणचन्द जी नाहर के पत्र ६५ P. C. Nahar M. A. B.L. 48, Indian Mirror Stree Vakil High Court Calcutta 21-7-1932 Phone Cal 2551 पूज्य वराचार्य विविध शास्त्र पारगामी श्री जिनविजयजी महोदय की पवित्र सेवा मे पूरणचन्द नाहर की सविनय वन्दना अवधारिएगा । यहाँ श्री जिनधर्म के प्रसाद से कुशल है । आपकी शरीर सम्बन्धी सुख-शान्ति सदा चाहते हैं। __ आगे आज दिन श्रीमान पृथ्वीसिंह शान्ति-निकेतन जाते हैं यहाँ का ओर हाल उनके जवानी मालूम होगा। कल दिन अहमदाबाद से पडित सुखलालजी सा. के पत्र से मालूम हुआ कि आप वहाँ से ग्रीष्मावकाश के पश्चात् शान्ति-निकेतन के लिये रवाने हुए है सो आशा है कि यथा समय सकुशल वहां पहुंचे होगे। __ आगे खरतर गच्छ पट्टावली संग्रह का प्रूफ तो आपने पहले ही दृष्टिगोचर कर लिया होगा। पश्चात् मैंने इसे प्रकाशित कर दिया है। आपका पता ज्ञात नही था। इस कारण प्रबल इच्छा रखते हुए भी आपको अद्यावधि भेजने को असमर्थ था। भाई वहादुरसिंहजी से भी कई वार आपके विपय में पूछा था; परन्तु वे, कुछ पता सही नहीं बता सके । अस्तु मैंने प्रायः खास-खास जैन पत्रो मे इसकी सूचना प्रकाशित करवा दी है और सेवा मे पाच कॉपी भेज रहे हैं और चाहिये तो समाचार आने पर भेज दू गा। आगे आपके प्रथम पत्र में इसकी ७५० कापियां भेजने की सूचना थी परन्तु इस समय आगे के फमें गिनती कराने से ५०० निकले । सो मैंने अभी ५०० ही किंचित् व्यक्तव्य और अनुक्रमणिका छपाई है। बाकी २५० पुस्तक के फमें प्रेस वाले के यहा शायद होगे सो आपको ज्ञात कराने के लिये लिखा है । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र आगे मैं आजकल यहां हूँ और मथुरा के लेखो का संग्रह तैयार कर रहा हूँ। परन्तु इधर कई वर्षों में बहुत से नये लेख निकले है । मैं वे सब मथुरा और लखनऊ संग्रह करा रहा हूँ। इन सवों के पाठोद्धार के लिये आपकी सहायता की आवश्यकता है । और मैं इसीलिये आपको कप्ट दूंगा । मैंने मथुरा और लखनऊ के क्यूरेटर साहब को पत्र भी लिखा है। उनका उत्तर मिलने पर सेवा मे उपस्थित होऊँगा। उस समय इस पर मुझे जो कुछ पूछना है समस्त निवेदन कहूँगा। मेरे राजगृह अनुपस्थिति के समय आपने मेरी पुस्तकालय से जो सव पुस्तकें ले गये थे। उन सबका कार्य समाप्त हो गया होगा । वे पुस्तकें भी श्रीमान् पृथ्वीसिंह जब यहां लोटे उनको दे दीजिएगा। __आगे सिंघी जैन ज्ञानपीठ के लिये यदि आपको गायक वाड़ ओरिएटल सिरीज की किताबें लेनी हो तो कृपया उनकी लिस्ट यहाँ भेजिएगा । The city stamp & Coin Co. जो हमारे बडे लडके की दुकान है। वे एजेट हुए हैं उनके मार्फत मगवाने से कुछ किफायत होगा। उसकी सूची भी इसके साथ आपको भेजते है। वादू बहादुर सिंहजी से इस बारे मे बात हुई थी। उन्होंने आपसे पूछने को कहा है और भी जो-जो पुस्तके आवश्यक हों, उनकी लिस्ट हमे भेज सकते हैं आपका इधर कब तक आना होगा सूचित करें और जिस समय पधारें दर्शन देने की अवश्य कृपा करें। ज्यादा शुभ सवत १९८६ मि. श्रावण वदि ४। विनीत पूरणचन्द नाहर की वंदना (३७) P. C. Nahar M. A. B. L 48, Indian Mirror Street Vakıl High Court Calcutta 16-8-32 Phone Cal. 2551 परम श्रद्धेय विद्वद्वर्य श्री मुनिजिनविजयजी महोदय की सेवा मेंपूरणचन्द नाहर की सविनय वन्दना बचियेगा। आगे आपका दूसरा Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाबू पूरणचन्द जी नाहर के पत्र ६७ पत्र श्रीमान पृथ्वीसिंह के साथ यथा समय पहुंचा था । श्रीमान भाई बहादुरसिंह सिंघी को भी आपका पत्र बंचवा दिया था। पश्चात् मैं हठात् बीमार पड गया । टट्टी से ज्यादा खून जाने से बहुत सुस्त हो गया था और दाहिनी तरफ Nerpes के दाने निकलने के सबब बहुत तकलीफ थी। अभी तक गडबड़ चल रही है। इस बीच में भाई सिंधीजी दो बार हमको देखने भी आये थे। आपके विषय में वे खुद कहते थे कि पत्र से सब विषयो का समाधान नहीं हो सकेगा एक दो रोज के लिये आपको ही कष्ट देकर बुलवावेंगे। लेकिन हमने सुना है कि इधर २-३ दिन से उनकी स्त्री का स्वास्थ्य बहुत खराब हो गया है। इस कारण उनके वहाँ सब लोग चिन्तित हो रहे हैं। नही तो आपको अवश्य पत्र लिखते मुझे भी एक बार आपसे मिलने की अभिलाषा है । कुछ स्वास्थ्य ठीक होने पर चाहे मैं स्वयं वहां चला आऊंगा अथवा श्रीमान बहादुरसिंह बाबू से आपको यहां आने के लिये लिखवा दूंगा। हमारी पौत्री चि. कमलकुमारी को आपरेशन हुआ है । सो श्रीमान पृथ्वीसिंह देखने गये हैं । आपके पत्र का उत्तर वे पीछे लिखेंगे । उनकी स्त्री की अवस्था उसी प्रकार चल रही है और सब लोग आपकी शुभाशीष से अच्छे हैं। श्रीमान भोलु की सविनय वन्दना बांचिएगा। डा० मणीभाई पटेल के साथ पट्टावली की २० प्रतिया भेजते हैं और चाहिये तो समाचार आने पर भेज देंगे ज्यादा शुभ स. १६८९ मि. श्रावण सुदि १५ । भवदीय पूरणचन्द नाहर की वन्दना Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व. रायबहादुर, महामहोपाध्याय पं. श्री गौरीशंकर, हीराचन्दजी ओझा के पत्र राजपूताना म्यूजियम ता० २५-६-२० मान्यवर मैं शारीरिक अस्वस्थता के कारण छुट्टी लेकर वाहर गया था ता० ११-६-२० को पीछा यहाँ लौट आया हूँ यहां आने पर आपकी भेजी हुई 'स्माइल्स सेल्फ हेल्प' के आधार पर लिखि हुई हिन्दी पुस्तक मिली जिसके लिए अनेक धन्यवाद । आज आपका ता० २१-६-२० का पोस्ट कार्ड और "जैन साहित्य संशोधक" पत्र का प्रथम अंक मिला। पैर में चोट आ जाने के कारण पीड़ा के साथ पड़ा हुआ होने पर भी साहित्य संशोधक का अंक बिना पढ़े न रह सका, यद्यपि आद्योपात तो अभी तक नही पढ़ा, परन्तु उसका बहुत अंश पढ़ लिया है। उसको पढ़ने से इतना आनन्द हुमा कि उसी वक्त स्वीकार पत्र लिखना निश्चय कर यह पत्र लिखा है । आपका संशोधक बड़े ही महत्व का पत्र है। जैन साहित्य की श्री वृद्धि के लिये यह अमूल्य रत्न है। इसकी और इसके संपादक मुनि महाराज श्री जिन विजय जी की जितनी प्रशंसा की जावे थोड़ी ही है। ईश्वर इस पत्र को चिरायु करे और यह जैन समाज और हिन्दी की जनता की बहुमूल्य सेवा वजाता रहे। मैं भी कभी कभी जैन शिला लेख मादि विषयो पर इसमे लेख भेजता रहूंगा। ___मैं इसको समालोचना नागरी प्रचारिणी पत्रिका में अवश्य करूँगा। मापने सुना होगा कि नागरी प्रचारिणी पत्रिका अब वह मासिक पत्रिका नही रही अव वह त्रैमासिक पत्रिका रहेगी और प्राचीन शोध सम्बन्धी पत्र होगा। मैं भी उसके चार सम्पादकों में से एक हूँ। पहली सस्या पांच-सात दिन में प्रकाशित हो जायगी। दूसरी संख्या की सामग्री प्रेस में जा चुकी है। यदि दूसरी संख्या में स्थल रहा तो उसी में ममालोचना भेज दूंगा 'उपमिति प्रपंचा कया' की पूरी प्रति बम्बई के Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं. श्री गौरीशंकर, हीराचन्दजी ओझा के पत्र किसी बुकसेलर से या किसी जैन संस्था से मिलती हो तो मेरे नाम पर कृपा करके V. P. द्वारा एक प्रति भिजवाने को लिख दीजिये। जैन साहित्य संशोधक के 1-40-49 में जिन सेना चार्य के हरिवंश पुराण के हवाले से ई० सन् २०० शक संवत् १२२ और विक्रम संवत् २५७ में गुप्त संवत् का शुरू होना लिखा है । यहाँ पर हरिवंश पुराण मिलना मुश्किल है। क्या आप कृपा कर हरिवंश पुराण की उक्त गाथाओ को भेज सकेंगे ? जिनमें उक्त कथन के अनुसार गुप्त संवत् का प्रारम्भ बतलाया है । विनयावनत् गौरीशंकर हीराचन्द ओझा (२) अजमेर २०-८-२४ विद्वद्वराग्रगण्य श्री मुनिवर्य आचार्य श्री महाराज श्री जिनविजयजी के चरण सरोजो में गोरीशंकर हीराचद ओझा का सविनय सादर प्रणाम् । आपका कृपा पत्र मिति भा० व० १ स० १९८१ का मिला। जोधपुर निवासी स्वर्गस्थ मुन्शी देवी प्रसाद जी ने मारवाड़ की मनुष्य गणना का कार्य करते हुए मारवाड़ की समस्त जातियो के वर्णन की दो बडी-बडी जिल्दें जोधपुर राज्य की मनुष्य गणना की रिपोर्टों के नाम से प्रकाशित की थी। वे कहां से मिल सकेगी यह मुझे ज्ञात नहीं है। परन्तु मेरे शिष्य साहित्याचार्य पडित विश्वेश्वर नाथ जी रेऊ ( ठिकाना चाद पोल दरवाजा, जोधपुर ) वहां भी म्यूजियम के क्यूरेटर हैं। यदि आप उनको लिखेंगे तो वे जहाँ से भी मिल सकेगी वहां दफ्ति कर आपके पास भिजवा सकेंगे । मूल्य १०) के लगभग होगा। भारतीय प्राचीन लिपि माला के अतिरिक्त मेरी प्रकाशित की हुई पुस्तकें सौलंकियो का प्राचीन इतिहास प्रथम भाग, सिरोही राज्य Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० मेरे दिवंगत मित्रों के पत्र का इतिहास, टाडराजस्थान सटिप्पण २ खण्ड और भारतवर्ष के प्राचीन इतिहास की सामग्री की एक प्रति दोनों कल ही डाक से आपकी सेवा मे भेंट कर दूंगा। टाडराजस्थान प्रथम खण्ड की मेरे पास अब कोई विशेष प्रति नही रही है। वह आपको, मैनेजर खड़गगिलास प्रेस, बांकीपुर, पटना से मिल सकेगी। क्योंकि उसी प्रेस ने प्रकाशित की थी। सिरोही राज्य के इतिहास की २०० प्रतियां मैंने ली है। वे वितरण कर दी गई अब मेरे पास अवशेष कोई प्रति नही रही परन्तु The chief minister, Sirohi State, Sirohi को लिखने से मिल सकेगी। सोलकियो के प्राचीन इतिहास का प्रथम खण्ड वि० सं० १६७० मे मैंने प्रकाशित किया था। उसकी सब प्रतियां बिक चुकी। कुछ प्रतियां शेष रही है। वे यहाँ का एक बुक सेलर खरीद कर ले गया। उसको यह मालूम हुआ कि अब इस पुस्तक की कोई प्रति नही रही तब वह द्वि गुणित कीमत मे बेचने लगा और उसकी बहुधा सब प्रतिया बिक गई। केवल आठ दस प्रतियां उसके पास रही है। अभी एक प्रति के लिये एक पत्र आया था तो मैंने लिख दिया कि 'वह बुकसेलर के यहां से ४) रु० मे मिलती है। वहां से मगवा लो। मैंने उसकी दूसरी आवृति का तथा मेरी प्रकाशित सब पुस्तको को छपवाने का अधिकार नागरी प्रचारिणी सभा को दे दिया है। परन्तु सभा के पास इतना काम है कि वह इस समय सोलकियों के इतिहास का दूसरा संस्करण प्रकाशित नही कर सकती। अणहिलवाड़े मे, मूलराज ने सोलकियों का राज्य स्थापित किया उसके पूर्व भी लाट तथा सुराष्ट्र मे सौलंकियो के परतन्त्र राज्य थे। उनके सम्बन्ध का एक लेख मैंने नागरी प्रचारिणी पत्रिका में प्रकाशित किया था। उसकी ५० प्रतियां मुझे मिली थी। उनमें से यदि कोई प्रति होगी तो वह भी कल की डाक से आपकी सेवा में भेज दूंगा। ___मेरी वृद्धावस्था के कारण अव मेरा स्वास्थ्य ठीक नही रहता तो भी 'अनहिलवाड़ा के सौलंकियो का इतिहास' लिखकर 'माधुरी' नामक "लखनऊ से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका में प्रकाशित कराता Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं. श्री गौरीशंकर, हीराचन्दजी प्रोझा के पत्र १०१ हूँ। मूलराज से लगा कर कर्णदेव तक का इतिहास उसमे प्रकाशित हो चुका है और सिद्धराज जयसिंह का वृतान्त लिख रहा हूँ, जो बड़ा विस्तृत होने के कारण कुछ समय बाद समाप्त होगा। ___ आपने बड़ा अनुग्रह कर 'जैन साहित्य संशोधक' के प्रथम वर्ष के बाकी के तीन अंक भेजे, वे मिले । कल ही मैंने उनको तोड़कर क्रमवार अंग्रेजी, हिन्दी और गुजराती लेखो को जमा कर प्रथम वर्ष की जिल्द बाधने को दे दी । आपका साहित्य संशोधक अपूर्व रत्न है। इसके आगे के कितने अंक छपे, वह कृपया सूचित कीजियेगा। विनयावनत गौरीशकर हीराचंद ओझा अजमेर तारीख ३०-६-२४ विद्वद्वराग्रगण्य आचार्यजी महाराज श्री मुनि जिनविजयजी महाराज के चरण सरोज में नम्र सेवक गोरीशंकर हीराचन्द ओझा के सादर सविनय दंडवत प्रणाम । अपरंच । आपका कृपा पत्र ता: ८-६-२४ का पूना से लिखा हुआ, समय पर मिल गया था और जैन साहित्य सशोधक के अक.५ और ६ भी मिले। जिसके लिये मैं आपका अत्यंत अनुग्रहित हूँ। संशोधक पत्र भी उसकी शैली का एक ही पत्र है और उसमे जो लेख प्रकाशित होते हैं वे अमूल्य रत्नो के समान हैं। ___विजय देवसूरि के संबंध के लेख का मेवाड़ से ताल्लुक रखने वाला अंश अब आपको अवकाश हो तव नकल कराकर भिजवाने की कृपा कीजियेगा। जैन साहित्य संशोधक के लिये मैं "जैन लेखक और कन्नौज के रघवंशी प्रतिहार राजा" नामक लेख सावकाश लिखकर आपकी सेवा मे भेजूंगा। मेरी आखो मे तकलीफ होने के कारण लिखने का काम मैं कम करता हूँ परन्तु लेखक से लिखवाकर उसे शुद्ध कर देता हूँ। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे दिवंगत मित्रो के कुछ पत्र आपने गुजरात का इतिहास दो भागों में लिखने का विचार किया । वह बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य है और आप जैसे असाधारण विद्वान की लेखनी से लिखे जाने से उसका महत्व और भी बढ़ जायगा मेरे पास थोड़ी बहुत सामग्री उस विषय की है । जैन संग्रह तो ऐसी सामग्री से भरे पड़े हैं, परन्तु उनका यहाँ मिलना दुश्वार है। राजपूताने मे गुजरात के सोलंकियों के कई शिलालेख मिलते है । मुझे इस विषय मे आप जो आज्ञा फर्मावेंगे, वह सर्वतोभाव से शिरोधार्य होगी । राजपूताना म्युजियम देखने की प्रापकी इच्छा हो तभी आप पहले से सूचित कर पधारें । मैं आपकी सेवा मे हाजिर रहूँगा । यदि ऐसा अवसर प्राप्त हो तो आपके दर्शनों से मैं अपना अहोभाग्य समझू । १०२ "वसंत" में छपा हुआ श्रीयुत ध्रुवजी का लेख ही मुझे देखना है । उसकी स्वतन्त्र आवृत्ति जो वर्नाक्यूलर सोसायटी ने छापी है वही आवश्यक है | आपको इस पत्र के द्वारा एक और कष्ट देना चाहता हूँ और उसके लिये क्षमा प्रार्थी हूँ । वह यह है कि बुद्धि प्रकाश मार्च या फेब्रुअरी १९१० मे तनसुखराम मनसुखराम त्रिपाठी ने "ईडर मा मुरलीधर नां मन्दिर मा रक्षित शिलालेख ( स. १३५४ ) " नामक लेख का अक्षरान्तर प्रकाशित किया था, वह सख्या मेरे पास थी, परन्तु कोई मित्र ले गया । जिसका अब मुझे स्मरण नही है । वह लेख गुजरात के व्याघ्रपल्ली शाखा के सोलकियो के इतिहास पर कुछ नया प्रकाश डालता है । मेरी वह संख्या न मिलने से मैंने गुजरात वर्नाक्यूलर सोसायटी से वह संख्या वी. पी. से भेजने को लिखा, परन्तु वहाँ से उत्तर मिला कि उपलब्ध नही है । इसी कारण आपसे यह सविनय प्रार्थना है कि जिस संख्या में उक्त लेख की नकल छपी है, उसकी नकल या मूल संख्या मिल सके तो उसे भिजवाने की कृपा कीजियेगा । वीर धवल का जेष्ठ पुत्र प्रतापमल था और वह अपने पिता की विद्यमानंता मे स्वर्गगमन कर चुका था । वीर धवल के मरने पर वोरम राजा होना चाहता था, परन्तु मन्त्रीश्वर वस्तुपाल ने वीसल को राज्यसिंहासन पर बिठलाया Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं. श्री गौरीशंकर, हीराचन्दजी ओझा के पत्र १०३ था। मेरे इस अनुमान की पुष्टि के लिये उक्त लेख की आवश्यकता है इसी से आपको कष्ट देना पड़ा है सो क्षमा कीजियेगा। विनयावनत् गोरीशंकर हीराचन्द ओझा अजमेर तारीख १६-११-२४ विद्वद्वराग्रगण्य, आचार्यजी महाराज श्री जिनविजयजी महाराज के चरण सरोज मे सेवक गौरीशंकर हीराचद ओझा का सादर प्रणाम् । अपरंच ? आपका कृपा पत्र 'पौराणिक इतिहास' विषय का प्रिंसिपल आनन्दशंकरजी का लेख, ईडर राज्य के मुरलीधरजी के मन्दिर के शिलालेख को तथा विजयसेन सूरि के विषय के लेख की नकल मिली। मैं बाहर चला गया था, जिससे आपको इन सबकी पहुच समय पर न लिख सका। इसके लिमे क्षमा प्रार्थी हूँ। आपने बड़ी कृपा करके सब अमूल्य लेख भेजे। उनके लिये मैं आप श्री का बहुत ही अनुग्रहीत हूँ। कृपा कर सूचित कीजिएगा कि आप अपना गुजरात का प्राचीन इतिहास कब तक प्रकाशित करने का विचार रखते हैं । यदि आप जैसे असाधारण विद्वान् और प्राचीन विषयो के ज्ञाता के हाथ से गुजरात का प्राचीन इतिहास प्रकाशित होगा तो वह वास्तव मे रत्न रूप होगा। अग्रेज विद्वानो एव उन्ही के लेखो पर निर्भर रहने वाले देशी विद्वानो का लिखा हुआ इतिहास कुछ भी उपयोगी नही हो सकता । प्रथम तो उनको जितनी चाहिये उतनी सामग्री नहीं मिल सकती। दूसरी बात यह कि वे हमारे यहाँ के आचार-व्यवहार रीतिरिवाज से सर्वथा अनभिज्ञ होते हैं । तीसरी, उनकी धारणा यही रहती है कि भारतवासी कोरे जंगली थे। चौथी और सबसे बड़ी त्रुटि उनमे यह होती है कि उनका सस्कृत का ज्ञान भी नियमित ही होता है। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र . बम्बई गजेटियर की पहली जिल्द के पहले भाग में जो गुजरात का प्राचीन इतिहास छपा है, वह अपूर्ण ही है और कितनी ही भद्दी गलतियाँ उसमें पाई जाती है। आप अवश्य यह महत् कार्य करने का वीड़ा उठाईयेगा। ___ मैं आपके दर्शनों को बड़ा ही उत्सुक हूँ, परन्तु न मालूम आपके दर्शनों का लाभ कब प्राप्त होगा । शीतकाल मुझे सफर के लिये अनुकूल नहीं रहता। शीतकाल के बाद अवश्य एक बार अहमदावाद आकर आपके चरण वन्दन करूंगा। ___ मेरा विचार राजपूताने का इतिहास प्रकाशित करने का है। कर्नल टॉड ने १०० वर्ष पूर्व राजपूताने का इतिहास लिखा था । वह भी केवल ६ राज्यो का ही । मैं अनुमानतः ४० वर्ष से इस काम में लगा हुआ हूँ। अब मेरी इन्छा एक वृहत् इतिहास प्रकाशित करने की है। राजपूताने का प्राचीन इतिहास भी प्रकाशित करना है परन्तु इसके लिये जितनी शोध खोज होने की आवश्यकता है उतनी अब तक नही हो पाई है और अब तक मैं उसी काम में लगा हुआ हूँ। राजपूताने का विस्तृत प्राचीन इतिहास, के प्रारंभ में उसका दिग्दर्शन मात्र किया जायगा । वह भी १५० पृष्ठ से कम न होगा। इतिहास प्रेस में भेज दिया है अब छपना शुरू होगा । उसके लिये नोटिसें छपवा कर वितरण की गई है और हिन्दी पत्री में उसके सम्बन्ध मे लेख प्रकाशित हो इस पत्र के साथ एक नोटिस आपकी सेवा में भेजता हूँ और प्रार्थना है कि आप उसको देखकर एक स्वतन्त्र लेख "दि गुजराती" और एक दो अन्य प्रसिद्ध गुर्जर पत्रो मे प्रकाशित कर गुर्जर साक्षर वर्ग को उससे परिचित करेंगे तो उसकी जानकारी गुर्जर वर्ग में भी होगी। विनयावनत गौरीशंकर हीराचन्द ओझा Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजमेर पं. श्री गौरीशंकर, हीराचन्दजी प्रोझा के पत्र १०५ (५) रायबहादुर गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ता० २७-६-१९२६ विद्वद्वराग्रगण्य आचार्य जी महाराज श्री जिनविजय जी के चरण सरोज में सेवक गौरीशंकर हीराचन्द ओझा की प्रणति । अपरंच इन दिनो आपका कोई कृपा पत्र नही मिला। सो लिखवाने की कृपा फरमा। मैंने सुना है कि एक पालीकोष आपकी पुरातत्व सस्था ने प्रकाशित किया है। कृपा कर सूचित करें कि वह कोष अकारादि क्रम से है अथवा पाइयलच्छी नाम माला की शैली का है। यदि अकारादि क्रम से है तो प्रत्येक शब्द का अर्थ गुजराती में लिखा गया है अथवा हिन्दी में सो भी कृपा करके सूचित कीजियेगा। ___ आपकी भेजी हुई हस्तलिखित प्रति आपका पत्र मिलने पर बुकपोस्ट रजिस्टर्ड से लौटा दूंगा। इन दिनो मेरा स्वास्थ्य अच्छा नही रहता। राजपूताने के इतिहास का द्वितीय खण्ड आधा छप गया है और बाकी छप रहा है, सो कार्तिक के अन्त तक छप जायगा। तब आपकी सेवा में भेज दिया जायगा। प्रथम खण्ड के सम्बन्ध के चित्र छप रहे है जो दूसरे खण्ड के साथ भेजे जावेंगे। ___ मेरी इच्छा यह है कि मेरे इतिहास मे चित्तौड के प्रसिद्ध 'जैन कीर्ति स्तम्भ' का फोटो प्रकाशित हो तो अच्छा है परन्तु उसका ब्लाक मेरे पास नहीं है। यदि आप कृपा कर आपके पूना से प्रकाशित किये हुए मासिक जैन पत्र मे जैन कीति स्तम्भ का जो फोटो छपा है उसका ब्लाक कुछ दिनो के लिये मुझे प्रदान करें तो मैं उसे भी प्रकाशित कर दूं। यदि आप ब्लाक भेज सकें तो शीघ्र भेजने की कृपा करें, क्योकि अन्य ब्लाक छप रहे हैं, जिनके साथ यह भी छप जावें । भारतवर्ष मे यही एक जैन कीति स्तम्भ है, इसलिये उसे छापने की इच्छा हो रही है । इस पत्र का उत्तर शीघ्र भेजने की कृपा करें। विनयावनत गौरीशंकर हीराचन्द ओझा Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ १०६ मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र अजमेर १६-१०-१९२६ श्रीमान् विद्वद्वराग्रगण्य यतिवर्य आचार्य जी महाराज श्री १०८ श्री जिनविजय जी महाराज के चरण सरोज में गौरीशंकर हीराचन्द अोझा का सविनय प्रणाम । अपरच । आपका कृपा पत्र मिति आश्विन शुक्ला ५मी का मिला, जिसके लिये अनेक धन्यवाद। इन दिनो मेरा स्वास्थ्य अच्छा नहीं रहता और इसी कारण बाहर भी रहना पड़ा है। कल मैं बीकानेर से यहाँ आया तो आपका कृपा पत्र मिला। अभिधानपदीपिका की एक प्रति जो आपने कृपा पूर्वक प्रदान की, यह भी कल मिली। उसके लिये शतश. धन्यवाद । पुस्तक अपूर्व है और बडी ही योजना से उसका सम्पादन हुआ है । अन्त की अनुक्रमणिका भी बहुत विस्तृत है । यदि उसके साथ हिन्दी या गुजराती अर्थ दिया जाता तो उत्तम सोने और सुगन्धी का काम हो जाता। चित्तौड़ के जैन कीर्ति स्तम्भ का ब्लाक अप्राप्य होने से या तो उसे प्रकाशित न करूंगा या उसका नया ब्लाक बनवाऊँगा। आपकी भेजी हुई हस्तलिखित पुस्तक केवल मेरे आलस्य और अस्वस्थता के कारण इतने दिन यहां पड़ी रही सो एक दो दिन में निकाल कर रजिस्ट्री द्वारा आपकी सेवा मे भेज दूंगा। उक्त पुस्तक में राठौडो का जो वृत्तान्त है वह बहुधा निरुपयोगी सा है। वास्तविक इतिहास के साथ उसका बहुत कम सम्बन्ध है और मेरी राय मे उसको प्रकाशित करना निरर्थक है । . गुजरात के चावडा और सोलंकियो के इतिहास की जो सामग्री आप एकत्र कर रहे है वह वास्तव मे अपूर्व हा होगी। इन राजाओं के शिलालेख और ताम्रपत्र जो छप चुके है वे तो आपकी दृष्टि से बाहर न होगे । बिना छपे शिलालेखादि बहुत थोड़े ही है। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं. श्री गौरीशंकर, हीराचन्द जी ओझा के पत्र १०७ चित्तौड़ में राजा कुमारपाल के दो शिलालेख हैं। जिसमे से एक प्रकाशित हुआ है और दूसरा जो बड़ा है तथा उसमें संवत् नहीं है, अप्रकाशित है। वह लेख चित्तौड के एक खेत मे पड़ा हुआ मिला था, जहाँ से उठवाकर मैंने उसे उदयपुर के म्युजियम में सुरक्षित किया । लेख के कुछ अक्षर घिस गये हैं तो भी अधिकांश सुरक्षित है । उसकी छाप पढ़ने योग्य नही आ सकती। मैंने उदयपुर मे रहते समय उसकी नकल की, परन्तु वह छुट्ट पन्नो पर होने से खो गई। मैंने गत अगस्त मास मे उसकी नकल कराने का उद्योग किया, परन्तु अभी तक वह मेरे पास नही आई। आशा है कि आ जायगी। एक शिलालेख सिद्धराज जयसिंह का मैंने उज्जैन मे देखा जिसमे यशोवर्मा को विजय करने का उल्लेख है। इस प्रकार कुछ शिला लेख अप्रकाशित है । विशेप वृत्तान्त तो जैन साहित्य एव सस्कृत ऐतिहासिक ग्रन्थो से मिल सकता है। जिसका भण्डार तो आपके पास ही है। आप इन वशो का जो इतिहास लिखेंगे, वह अनुपम होगा। मेरे पास जो कुछ सामग्री है, वह आपकी ही है। आप जब चाहे तब उसका उपयोग कर सकते हैं । आपके फिर दर्शन हो तो मैं अपना अहो भाग्य समझूगा। यदि आप कृपाकर छपने से पूर्व आपका लिखा इतिहास मुझे बतला देंगे तो मैं अपनी अल्प वुद्धि के अनुसार उसमे कुछ बढ़ाने की आवश्यकता होगी तो अर्ज कर देऊँगा। रत्नमाला के १२ रन मिलने की बात ई. सं १९१० मे रणछोड़ भाई उदयराम जी ने मुझे दिल्ली मे कही थी परन्तु पिछले ४ रत्नो के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त नही हुमा । आप जव चाहे इधर पधारने की कृपा करें। आपके दर्शनो से मुझे तो अनुपम लाभ होगा। विनयावनत मेवक गौरीशंकर हीराचन्द ओझा Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र Ajmer Dated 22 April, 1927 श्रीमान् आचार्य जी महाराज श्री १०८ श्री जिनविजय जी महाराज के चरण सरोज में गौरीशंकर हीराचन्द ओझा का सस्नेह प्रणाम । अपरंच । आपकी सेवा मे आज की डाक से मेरे राजपूताने के इतिहास का दूसरा खण्ड पार्सल द्वारा भेजा जाता है और इसके साथ में आपकी हस्तलिखित पुस्तक भी भेजी जाती है। इसके पहुंचने पर कृपया इसकी पहुँच स्वीकार कीजिएगा। भवदीय Gauri Shanker H. Ojha अजमेर ता० २४.६-२७ परम पूज्य विद्वद्रत आचार्य जी महाराज १०८ श्री जिनविजयजी महाराज की सेवा में गौरीशंकर हीराचन्द ओझा का दण्डवत प्रणाम । अपरंच । ता० २२ अप्रेल को आपकी सेवा में मेरे राजपूताने के इतिहास का दूसरा खण्ड तथा आपकी भेजी हुई हस्तलिखित पुस्तक, जिसमे राठोड़ों की वंशावली थी दोनों रजिस्टर्ड बुक-पोस्ट द्वारा भेजी गई थी, परन्तु अब तक उन दोनो की पहुंच नहीं आई। अतएव कृपा कर उनकी पहुंच सूचित करे। श्रीयुत आनन्दशकर बापू भाई ध्र वजी के Commemoration Volume के लिये एक लेख लिख भेजने का ता० २१ मार्च १९२७ के पत्र में सी. एम. दीवान जी ने भाग्रह किया था और उसमे आपका हवाला भी दिया था। उस समय मैं बाहर था और उसके बाद भी मेरा बाहर रहना हुआ। फिर शारीरिक अस्वस्थता के कारण लेख न । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं. श्री गौरीशंकर, हीराचन्द जी ओझा के पत्र १०६ लिख सका। अब लेख लिखवा रहा हूँ और ५-६ दिन मे तैयार हो जायगा। मैंने अपना लेख हिन्दी मे लिखा है। लेख का नाम 'गुजरात देश और उस पर कन्नोज के राजाओ का अधिकार है। कृपाकर यह लिखिए कि Commemoration Volume किस भाषा में होगा। अग्रेजी या गुजराती अथवा मिश्रित । यदि मेरा हिन्दी लेख उसमें न छप सकता हो तो आप कृपा कर -उसका गुजराती अनुवाद कर दीजिये । यदि Commemoration Valume छप चुका हो तो वैसी सूचना दीजिए ताकि यह लेख किसी अन्य पत्रिका में भेज दिया जाय । पुरातत्व वर्ष तीन की तीसरी संख्या मेरे पास नहीं पहुंची। इसलिये कृपा कर वह संख्या मेरे पास भिजवा दीजिए। आपका नम्र सेवक गौरीशंकर हीराचन्द ओझा कृपया यह भी लिखें कि मेरा लेख किसके पास भेजा जाय। आपके पास या दीवान जी के । अजमेर ता : १-७-१९२७ का सविनय प्रणा परम सम्मानास्पद पूज्यपाद आचार्य जी महाराज श्री जिन-विजय जी के चरण सरोज में गोरीशंकर ओझा का सविनय प्रणाम अंगीकृत हो ! अपरंच !! आपका कृपा पत्र ता. २७-६-१९२७ का मिला। जिसके लिये शतशः धन्यवाद । पुरातत्व वर्ष ३ का ३ग अंक मिला। जैन साहित्य संशोधक खण्ड ३ अंक पहले ही मिल चुका था। उसके लेख बड़े ही महत्व के हैं जिसका श्रेय आप जैसे असाधारण विद्वान् को ही है। ऐसे उच्च कोटि के पत्र की गूर्जर भापा में बड़ी प्रावश्यकता है, जिसको आप पूरी कर रहे हैं। वह बड़े सौभाग्य की बात है। जसके लिये शतशः आपका कृपा पत्र Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० मेरे दिवगत मित्रों के कुछ पत्र । जन साहित्य सशोधक के प्रथम खंड की जिल्द मैंने बंधवाली है, परंतु दूसरे खंड के दो ही अंक पहला और दूसरा आये हैं। यदि उसके तीसरे और चौथे अंक छपे हो तो कृपया मेरे पास भिजवाइयेगा । यदि न छपे हों तो उन दो की ही जिल्द बंधवालू। दूसरे वर्ष के इन अंको के लिये छपा हुआ टाइटल पेज तथा लेख सूची भी नही हैं। आपकी आज्ञानुसार मैंने ध्रुव जी के स्मृति ग्रंथ के लिये "गुजरात देश और उस पर कन्नौज के राजाओ का अधिकार" नामक लेख आज तैयार कर लिया है और आज की ही डाक से सेक्रेट्री वसंत रजत महोत्सव गुजरात वक्यूिलर सोसायटी के पास रवाना कर दिया है, क्योंकि उनका पत्र मेरे पास आया है। लेख तो साधारण कोटि का ही है परन्तु उससे गुजरात के प्राचीन इतिहास पर कुछ नया प्रकाश अवश्य पड़ेगा । आशा है कि गुजरात के इतिहास प्रेमियो को शायद वह रुचिकर हो । आपसे प्रार्थना है कि एक बार उसे मंगवाकर अवश्य पढ़ियेगा और अपनी सम्मति भी मुझे प्रदान करने की कृपा कीजियेगा । यदि उसमें कोई बात छूट गई हो तो उसकी सूचना अवश्य मुझे दीजिएगा ताकि मैं उसमें बढ़ा दूं। लेख तेरह पृष्ठ मे समाप्त हुआ है और सात पृष्ठ टिप्पणी के हैं। टिप्पण सब अत मे दिये हैं । जिनको छपते समय यथा स्थान लगवाने की कृपा आप कीजिएगा। अहमदाबाद आने की आपकी प्राज्ञा सर्वथा शिरोधार्य है, परन्तु नेत्रो की पीड़ा के कारण अभी मेरा आना नही हो सकता आपरेशन हो जाने के बाद एक बार अवश्य आपकी सेवा मे उपस्थित होकर चरण स्पर्श करने का लाभ उठाऊंगा। विनयावनत गोरीशंकर हीराचन्द ओझा एक और निवेदन है कि बसंत रजत महोत्सव अन्य के सम्पादक से कहला दे कि मेरे इस लेख की पचास प्रतियां अलग छपवालें और टाइटल पेज लगाकर उस पर मेरा नाम छा। अक क्रम १, २ से Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं. श्री गौरीणकर, हीराचन्द जी ओझा के पत्र १११ रखा जाय । ये पचास Reprint कॉपीयां मेरे पास भेज दी जायं और उसका व्यय विल आने पर मैं भेज दूँगा । दूसरी बात उनसे यह सूचित करें कि मेरे लेख का प्रूफ सशोधन कोई हिन्दी तथा संस्कृत . विद्वान करें ताकि उसमे अशुद्धि न रहने पावें । यदि आप यह कर सकें तो बहुत अच्छा होगा । G. H. Ojha (१०) अजमेर ता. १८-१०-१९३२ श्री मान् आचार्य जी महाराज श्री जिन विजय जी की सेवा मे गौरी शंकर हीराचन्द श्रोभा का सादर प्रणाम ज्ञात होवे, अपरंच राजपूताने के इतिहास का चतुर्थं खण्ड कल मैंने पण्डित सुखलाल जी संघवी द्वारा भेजा, वह आपके समीप पहुँचा ही होगा । ठाकुर कन्हैया सिंह जी भाटी बडे ही इतिहास प्रेमी है । वे आपके पास उपस्थित होगे । आप कृपा कर राजपूताने के इतिहास के चतुर्थ खण्ड का अवलोकन कर मैंने जो काठियावाड़ के गोहिलो के संबंध मे लिखा है उस पर अपनी सम्मति लिख प्रदान करावें । योग्य सेवा से स्मरण फरमायें । (११) आपका नम्र सेवक गोरी शकर हीराचन्द ओझा अजमेर ताः ४-११-१९३२ आचार्य जी महाराज श्री जिन विजय जी के चरण सरोज मे सेवक गोरीशंकर हीरा चन्द ओझा का दण्डवत प्रणाम स्वीकृत हो अपरंच । मैंने काठियावाड़ के गोहिलो के संबंध में जो कुछ लिखा, उस विषय मे आपकी सम्मति जानने की इच्छा से मैंने ठाकुर कन्हैया सिंह जी भाटी Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र को बम्बई जाते या लोटते समय आपसे मिल कर उस विषय में आपकी सम्मति लिखवाने का आग्रह किया था । आपने कृपा कर सम्मति लिख दी, उसके लिये मैं आपका बड़ा ही अनुग्रहीत हूँ मेरा इतिहास प्रकाशित होने के पूर्व ही आपने गुहिलों के सम्वन्ध मे वही निर्णय किया यह विशेष आनन्द की बात है । आप जैसे विद्वानो का मेरे अनुकूल विचार होना मेरे लिये सौभाग्य की बात है। यदि आप कृपा कर अनुमति प्रदान करें तो मैं आपकी इस सम्मति को नागरीप्रचारिणी पत्रिका मे लेख रूप मे प्रकट कर दूँ । कृपया उत्तर से सूचित कीजियेगा । सोलंकियों के इतिहास की एक प्रति आपने मंगवाई, वह शान्तिनिकेतन के पते पर शीघ्र ही भेज दी जायगी । मालवे का परमार राज्य अस्त होने पर वहाँ की एक शाखा अजमेर जिले में आ बसी जिसका वृत्तान्त मैंने राजपूताने के इतिहास पृष्ठ २०५, ६५६, १२७८ मे दिया है । आप देख लें । गुजरात के सोलंकी राजा भीम देव ( भोला भीम) के दो ताम्र पत्र मुझे मिले हैं। उनकी छापें मैंने ले ली है । अब उनका सम्पादन करना है इसलिये मैं उनका अक्षरोद्धार तैयार करूंगा और एक प्रति आपकी सेवा में भेज दूँगा । आपका नम्र सेवक गोरी शंकर हीरा चन्द श्रोभा पुनश्च - सिद्धराज जयसिंह का एक बहुत बिगड़ी दुर्दशा का लेख बाँसवाड़ा राज्य से मिला है । उसकी भी एक प्रति आपकी सेवा में प्रेषित करूँगा । (१२) म. म. रायबहादुर गो. ही. ओझा अजमेर ताः २७-१२-१९३४ परम् श्रद्धेय श्रीमान् आचार्य जी महाराज श्री जिन विजय जी की सेवा में सेवक गौरीशंकर हीराचन्द ओझा का दण्डवत प्रणाम मालूम होवे | अपरंच | इन दिनो आपका कोई कृपा पत्र नही मिला सो Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प. श्री गौरीशंकर, हीराचन्दजी ओझा के पत्र ११३ लिखावे, और आजकल आप कहाँ ( अहमदाबाद है या बोलपुर मे ) विराजते है यह भी ज्ञात नही होता । आपके प्रवन्ध ग्रन्थो मे कौन कौन से ग्रन्थ छपे यह भी ज्ञात नही होता । इन दिनो मेरा स्वास्थ्य भी ठीक नही रहा । अब कुछ ठीक होने से इतिहास का आगे का भाग (पाचवाँ खंड ) छपेगा। ___आपसे मेरा मिलना हुआ, उस समय आपने मुझसे फर्माया था कि वस्तुपाल तेजपाल का बड़ा भाई लूणिग था । वह आबू पर गया और विक्रमशाह के मदिर की देव कुलिकाओ को देख कर उसकी इच्छा हुई कि हो सके तो मैं भी एक ऐसी देव कुलिका बनाऊँ । उसके अन्तिम समय की यह इच्छा देखकर उसके भाई ( वस्तुपाल तेजपाल ) ने विमलशाह के वैसा ही उसके निमित्त लूणवसही वनवा दिया । इस विषय के एक प्रबन्ध का भी आपने मुझे कहा था । ऐसा मुझे स्मरण है परन्तु उक्त मदिर की प्रशस्ति के श्लोक ६० से पाया जाता है कि तेजपाल ने अपनी स्त्री (अनुपम देवी) और पुत्र (लावयसिंह) के निमित्त यह मदिर बनवाया था। यह प्रशस्ति विक्रमी सवत् १२८७ की है। जिस प्रबन्ध से आपने ऊपर लिखी हुई बात मुझसे कही थी वह संभवतः इसके पीछे का होगा । इस वास्ते आप कृपा कर मुझे निश्चित सूचना दें कि वह मंदिर (लूणवसही ) तेजपाल ने अपने बड़े भाई, अथवा स्त्री और पुत्र के निमित्त वनवाया था। लेख से तो तेजपाल के पुत्र लावण्यसिंह के निमित्त बनाया जाना और उसी से उसका नाम लूणवसही होने का अनुमान होता है। सो आप कृपा कर इसका ठीक उत्तर शीघ्र भिजवावें, क्योकि मेरा राजपूताने का इतिहास, दूसरा एडिशन शीघ्र ही होने के लिये मेटर प्रेस मे जाने वाला है । योग्य सेवा फरमा. कृपा बनी रहे । कष्ट के लिये क्षमा करावें । आपका कृपाभिलापी गोरीशकर हीराचन्द ओझा Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र को वम्बई जाते या लौटते समय आपसे मिल कर उस विषय में आपकी सम्मति लिखवाने का आग्रह किया था। आपने कृपा कर सम्मति लिख दी, उसके लिये मैं आपका बडा ही अनुग्रहीत हूँ मेरा इतिहास प्रकाशित होने के पूर्व ही आपने गुहिलों के सम्बन्ध मे वही निर्णय किया यह विशेष प्रानन्द की बात है। आप जैसे विद्वानो का मेरे अनुकूल विचार होना मेरे लिये सौभाग्य की बात है। यदि आप कृपा कर अनुमति प्रदान करें तो मैं आपकी इस सम्मति को नागरीप्रचारिणी पत्रिका में लेख रूप मे प्रकट कर दूं। कृपया उत्तर से सूचित कीजियेगा । सोलकियो के इतिहास की एक प्रति आपने मंगवाई, वह शान्तिनिकेतन के पते पर शीघ्र ही भेज दी जायगी। मालवे का परमार राज्य अस्त होने पर वहाँ की एक शाखा अजमेर जिले मे आ बसी जिसका वृत्तान्त मैंने राजपूताने के इतिहास पृष्ठ २०५, ६५६, १२७८ में दिया है। आप देख लें। गुजरात के सोलंकी राजा भीम देव (भोला भीम) के दो ताम्र पत्र मुझे मिले हैं। उनकी छा मैंने ले ली है । अब उनका सम्पादन करना है इसलिये मैं उनका अक्षरोद्धार तैयार करूंगा और एक प्रति आपकी सेवा में भेज दूंगा। ___ आपका नम्र सेवक गोरी शंकर हीरा चन्द अोझा पुनश्च सिद्ध राज जयसिंह का एक बहुत बिगड़ी दुर्दशा का लेख बांसवाडा राज्य से मिला है। उसकी भी एक प्रति आपकी सेवा में प्रेषित करूंगा। (१२) म. म. रायबहादुर गो. ही. ओझा अजमेर ताः २७-१२-१९३४ परम् श्रेद्धेय श्रीमान् आचार्य जी महाराज श्री जिन- विजय जा की सेवा में सेवक गौरीशंकर हीराचन्द ओझा का दण्डवत प्रणाम मालूम होवे । अपरंच ।। इन दिनो आपका कोई कृपा पत्र नही मिला सो Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं. श्री गौरीशंकर, हीराचन्दजी ओझा के पत्र - ११३ लिखावें, और आजकल आप कहाँ ( अहमदाबाद है या बोलपुर मे) विराजते है यह भी ज्ञात नहीं होता। आपके प्रवन्ध ग्रन्थो मे कौन कोन से ग्रन्थ छपे यह भी ज्ञात नही होता । इन दिनो मेरा स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रहा । अव कुछ ठीक होने से इतिहास का आगे का भाग (पाचवां खंड ) छपेगा। आपसे मेरा मिलना हुआ, उस समय आपने मुझसे फर्माया था कि वस्तुपाल तेजपाल का बड़ा भाई लूणिंग था । वह आबू पर गया और विक्रमशाह के मंदिर की देव कुलिकाओ को देख कर उसकी इच्छा हुई कि हो सके तो मैं भी एक ऐसी देव कुलिका बनाऊँ । उसके अन्तिम समय की यह इच्छा देखकर उसके भाई ( वस्तुपाल तेजपाल ) न विमलशाह के वैसा ही उसके निमित्त लूणवसही वनवा दिया। इस विषय के एक प्रबन्ध का भी आपने मुझे कहा था । ऐसा मुझे स्मरण है परन्तु उक्त मंदिर की प्रशस्ति के श्लोक ६० से पाया जाता है कि तेजपाल ने अपनी स्त्री (अनुपम देवी) और पुत्र (लावण्यसिंह) के निमित्त यह मदिर बनवाया था। यह प्रशस्ति विक्रमी संवत् १२८७ की है। जिस प्रवन्ध से आपने ऊपर लिखी हुई वात मुझसे कही थी वह सभवतः इसके पीछे का होगा । इस वास्ते आप कृपा कर मुझे निश्चित सूचना दें कि वह मंदिर (लणवसही) तेजपाल ने अपने बड़े भाई, अथवा स्त्री और पुत्र के निमित्त वनवाया था। लेख से तो तेजपाल के पुत्र लावण्यसिंह के निमित्त बनाया जाना और उसी से उसका नाम लूणवसही होने का अनुमान होता है। सो आप कृपा कर इसका ठीक उत्तर शीघ्र भिजवावें, क्योकि मेरा राजपूताने का इतिहास, दूसरा एडिशन शीघ्र ही होने के लिये मेटर प्रेस में जाने वाला है । योग्य सेवा फरमा, कृपा बनी रहे । कष्ट के लिये क्षमा करावें। आपका कृपाभिलाषी गोरीशकर हीराचन्द ओझा Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र (१३) Ajmer. Dated 14 Jan. 1936 Mahamhopadhyaya, Rai Bahadur Gaurishankar H. Ojha. श्री मान आचार्य जी महाराज श्री जिनविजय जी के चरण सरोज मे गौरीशकर हीराचद ओझा का सादर प्रणाम अपरंच ।। आपने कृपा कर मेरे लिये "प्रबन्ध कोप" और "विविध तीर्थ कल्प" की पुस्तकें भेजी। जिसके लिये में आपका अत्यन्त ही अनुग्रहीत हूँ। ये दोनों पुस्तकें इतिहास प्रेमी व्यक्तियों के लिये रत्ल रूप है । सिंधी डालचंन्द जी, प्रत्येक इतिहासवेत्ता साहित्य सेवी एवं जैन धर्मानुरागी के लिये आदर्श पुरुप हो गये, जिनकी स्मृति उसके सुयोग्य पुत्र बहादुरसिंह जी ने चिरस्थायी स्थापित की है, जो बड़े ही महत्व का काम है। जैन धनाढ्यों में अनेक पुरुप अन्य कार्यों में बहुत कुछ व्यय करते हैं । परन्तु प्राचीन जैन ग्रन्थो का उद्धार करने में जो पुरुप व्यय करते है, वही अपने धन का सदुपयोग करते हैं । प्रवन्ध कोपका एक संस्करण पहले निकला है, परन्तु आपके संस्करण जितना वह उपयोगी नहीं है। "तीर्थ कल्प" का एक अश मात्र ही कलकत्ते से प्रकाशित हुआ था, किन्तु समग्न ग्रंथ अत्यन्त शुद्धता के साथ प्रकाशित करने का श्रेय प्रापको तथा सिंधी जी महोदय को है । इस ग्रन्थ (तीर्थकल्प) के प्रकाशित होने की वडी आवश्यकता थी, जिसकी उत्तम रीति से पूर्ति अब हुई है। आपने इस सिंघी जैन ग्रन्थ माला में चार ग्रन्थों का सम्पादन किया है, जिनमे से दुमरा "पुरातन प्रवन्ध संग्रह (प्रबन्ध चिन्ता मणि सम्बद्ध द्वितीय ग्रंथ) मेरे पास नहीं आया और उसकी मुझे वडी आवश्यकता है, इसलिये कृपा कर उसकी एक प्रति भिजवावें । मैं नवम्बर मास Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं. श्री गौरीशंकर, हीराचन्दजी ओझा के पत्र ११५ मे जैसलमेर गया था, परन्तु वही से बीमार होकर लौटा । अब मेरा स्वास्थ्य पहले से ठीक है । कुछ खासी की तकलीफ बनी हुई है सो आगा है कुछ दिनो मे ठीक हो जायगा। वृद्धावस्था के कारण शरीर दिन प्रति दिन निर्बल होता जाता है। कुछ समय पूर्व राजपूताने से कुमार पाल का दान पत्र ( दो पत्रो पर') और नाडोल के चौहानों का, जो कुमारपाल के सामंत थे, दो दान पत्र मिले है परन्तु पिछले पत्र बहुत बिगड़ी हुई दशा मे है और छापें पढ़ने योग्य नही बनती। कुमार पाल के दान पत्र की छापें इस पत्र के साथ भेजता हूँ। आप उनको अपने संग्रह मे रखिये मैं उनका संपादन 'एपिग्राफिया इडिका' मे करूँगा। दूसरे ताम्र पत्र का कितनाक अंश पढा गया है, बाकी का पढना है, जो मूल ताम्रपत्र से ही स्वास्थ्य ठीक होने पर पढूगा । योग्य सेवा लिखावें। आपका कृपाभिलाषी गौरीशंकर ही. ओझा (१४) म. म. राय बहादुर अजमेर गौ ही. ओझा २३ जनवरी, ३७ विद्वद्वरानगण्य परम श्रद्धास्पद श्रीमान् मुनि जी श्री जिनविजयजी महाराज के चरण सरोज मे गौरीशंकर हीराचन्द मोझा की प्रणति स्वीकृत हो । अपरच ।। आपका कृपा पत्र ता. १८-१-३७ का मिला। साथ मे पुरातन प्रबन्ध संग्रह तथा आचार्य श्री हेमचन्द्र सूरि की डॉ. बूलर लिखित जीवनी, दोनो अमूल्य ग्रन्थ भी प्राप्त हुये । "पुरातन प्रवन्ध सग्रह" आप जैसे बड़े ही परिश्रमी और खोजी विद्वान् द्वारा ही तैयार किया जा सकता था। इस ग्रन्थ द्वारा इतना ही नहीं, किन्तु प्रत्येक पुरातत्ववेत्ता एव प्राचीन इतिहास के प्रेमी के लिये अमूल्य खजाना भी उपस्थित किया है। इससे प्राचीन इतिहास की Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र खोई हुई श्रृंखला की बहुत सी खोई हुई कड़ियां फिर जुड़ गई है । इस अगाध श्रम के लिये आपकी जितनी प्रशंसा की जाय थोड़ी है । सिधी बहादुर सिंह जी ने यह ग्रन्थ माला आप जैसे पुरातत्व वेत्ता और प्रसिद्ध विद्वान के हाथ से प्रकाशित करा कर अपने द्रव्य का सद्व्यय किया हैं और अपने स्वर्गस्थ पिता की यशः पत्ताका भू मंडल में फहराई है । धन्य हैं ऐसे पितृभक्त और इतिहास के उद्धारक, जिन्होने नष्ट इतिहास को उद्धार करने का असाधारण प्रयास किया है । जब सिंधी जैन ग्रन्थ माला के अन्य ग्रथ, जो मुद्रणावस्था मे है, प्रकाशित होंगे तव प्रत्येक पुरातत्ववेत्ता, इतिहास प्रेमी और जैन धर्मावलम्बी, महापुरुषों के चरित्रो की खोज करने वाले आपके और सिधी जी के बहुत कृतज्ञ होगे । ग्रंथ माला की प्रत्येक पुस्तक वास्तव मे रत्न रूप है । वृद्धावस्था के कारण इन दिनों मेरा स्वास्थ्य ठीक नही रहता तो भी इतिहास का काम थोडा बहुत चल रहा है । मार्च के अन्त के आसपास तक मेरे इतिहास के दो खण्ड आप की सेवा मे भेंट कर सकूंगा । आशा है अब आपका स्वास्थ्य अच्छा होगा । (१५) आपका चरण सेवक गोरी शकर हीरा चन्द ओझा अजमेर म० म० रायबहादुर गौ० ही ० ओझा १० सितम्बर १९३७ श्रद्धेय आचार्य महाराज श्री जिन विजयजी की पवित्र सेवा में गौरीशकर हीराचन्द ओझा की वन्दना निवेदन हो अपरंच || आज आपकी सेवा मे रेल्वे पार्सल से नीचे लिखी पुस्तकें भेंट भेजी गई हैं रेलवे रसीद 40A/24 89959 की इस पत्र के साथ भेजता हूँ । श्राशा है पुस्तको की पार्सल आप पार्सल प्राफिस से मँगवा लेंगे । राजपूताने का इतिहास, जिल्द १ राजपूताने का इतिहास, जिल्द ३, भाग १ (डूंगरपुर का इतिहास ) Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं. श्री गौरीशकर, हीराचन्दजी श्रोझा के पत्र राजपूताने का इतिहास, जिल्द ३, भाग २ (बांसवाडा का इतिहास ) शेष सब कुशल है । योग्य सेवा लिखाते रहे । प्राजकल दो तीन दिन से यहाँ थोडी-थोडी वर्षा हो रही है । ११७ (१६) म० म० रायबहादुर डॉ० गो० ही ० ओझा, D. litt. कृपाकांक्षी गो० ही ० ओझा अजमेर १६-१-३८ पूज्यपाद आचार्यजी महाराज श्री जिनविजयजी महाराज के चरण सरोज मे गौरीशंकर हीराचन्द ओझा का सविनय प्रणाम ! अपरच ! गुजरात वर्नाक्यूलर सोसायटी अहमदाबाद ने "मिराते अहमदी" की पहली जिल्द का गुजराती अनुवाद ई. स. १९१३ मे और उसकी पूरवणी (परिशिष्ठ) ई. स. १६१६ में प्रकाशित की थी। ये दोनों ग्रन्थ पठान निजाम खान नूरखान वकील ने गुजराती में तैयार किये थे । राजपूताने के इतिहास के लिये मुझे इन दोनो पुस्तको को बढ़ी आवश्यकता है । गत वर्ष मैने गुजरात वर्नाक्यूलर सोसायटी के असिस्टेन्ट सेक्रेट्री हीरालाल त्रिभुवनदास पारेख को लिखा था और यहां तक लिखा था कि यदि दस गुने मूल्य से भी ये पुस्तकें मिल सके तो आप खरीदकर भेज दो, परन्तु मिल नही सकी । अब मुझे उन दोनो पुस्तको की आवश्यकता हुई है इसलिए आपसे प्रार्थना है कि उपर्युक्त दोनो पुस्तकें कही से कीमत पर मिल सकें तब तो वैसे ( मूल्य चाहे जो लगे ) भिजवाने की कृपा करें । कदाचित मूल्य पर न मिल सके तो आप कृपा कर अपने किसी इष्ट मित्र से उधार लेकर १५ दिन के लिए रजिस्टर्ड पार्सल से भिजवा देवें तो मैं उन मे से अपना आवश्यक अंश उदृतकर उन्हे रजिस्ट्री पार्सल से लौटा दूँगा । यदि आपके इष्टमित्रों से भी न मिले तो गुजरात वर्नाक्यूलर सोसायटी के असिस्टेण्ट सेक्रेट्री मि. पारेख से कहकर वे दोनो पुस्तकें दो सप्ताह के लिये रजिस्टर Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र पार्सल से मेरे पास भिजवा देवें अथवा आप अपने नाम से वहां से उधार लेके भेज देवें । उनकी बहुत आवश्यकता होने से ही श्रापको कष्ट दिया है, सो क्षमा करें। जोधपुर और बीकानेर राज्यों के इतिहास छप रहे है जो छपते ही आपकी सेवा में भेज दिये जावेगे 1 (१७) म. म. रायबहादुर गो. ही. ओझा विनयावनत गौरीशंकर हीराचन्द ओझा अजमेर ताः ७ फरवरी १९६३८ विद्वद्वराग्रगण्य आचार्यजी महाराज श्री जिनविजय जी के चरण सरोज मे गौरी शंकर हीराचन्द ओझा की प्रणति विदित हो । अपरच आपका कृपा पत्र ताः २१-१-३८ का मिला जिसके लिये अनेक धन्यवाद परसो अर्थात् ५-२-३८ को गुर्जर ग्रथ रत्न कार्यालय के द्वारा "मिराते अहमदी" की पहली जिल्द का गुजराती अनुवाद प्राप्त हुआ यह आपकी कृपा का ही फल है | गुर्जर ग्रंथ रत्न कार्यालय से आज तीन दिन हुये परंतु उस पुस्तक के सभ्बन्ध मे कोई पत्र नही मिला, जिससे यह ज्ञात नही होता कि यह पुस्तक खरीद कर भेजी है अथवा उधार के तौर पर । यदि खरीद कर मेरे यहाँ रखने के लिये ही भेजी हो तो उसका बिल आना चाहिये था । यदि उधार भेजी हो तो वैसी सूचना श्रानी चाहिये थी | अभिप्राय यह है कि यदि वह उधार भेजी गई हो तो उसमे कोई निशान आदि न किये जावें और जो अश आवश्यक हों उसकी नकल करली जावे । पुस्तक मे दो तीन जगह हीरा लाल पारेख का नाम स्याही से लिखा है जिससे ज्ञात होता है कि यह पुस्तक पारेख जी की है । उन्होने ही गत वर्ष अपनी "मिराते सिकन्दरी" नामक पुस्तक उदारता पूर्वक मुझे भेंट की थी । कदाचित कीमत न भेजी गई हो तो उसका मूल्य मादि लिखावें ताकि वह भेज दिया जावे और आवश्यक अंश की नकल करने में समय न बिताया जावे । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं. श्री गौरीशंकर, हीराचन्दजी भोझा के पत्र ११६ आशा है कि आप कृपा कर इस पत्र का उत्तर यथा सम्भव शीघ्र भिजवावेंगे | ई. स. १९१९ मे पठान निजाम खान नूर खान वकील की तरफ से "मिराते अहमदी" की पूरवरणी प्रकाशित हुई थी उसे भी देख लेने की आवश्यकता है । यदि हो सके तो उसे भी भिजवानें की कृपा करें नही तो इसी से काम चल जायगा । आपको बारम्बार कष्ट देकर आपका अमूल्य समय नष्ट कराने का मुझे वडा खेद है, परन्तु किया क्या जावे। जब बहुत ही आवश्यकता होती है आप को कष्ट देना पडता है । जिसके लिये मैं क्षमा प्रार्थी हूँ । रूपाहेली ठाकुर साहब के पौत्र एव भावि उत्तराधिकारी कुछ दिन पहले मेरे यहाँ आये थे । आपके प्रसग की बात निकलने पर उन्होने कहा कि वृद्ध ठाकुर साहब जिन विजय जी के दर्शन करने के बड़े उत्सुक हैं | आप उनको लिखें कि एक बार अवश्य रूपाहेली पधार कर दर्शन देवें । मुझे भी आपके दर्शनो की बड़ी लालशा है । विनयावनत गौरी शकर हीरा चन्द ओझा अजमेर म. म. रायवहादुर डॉ० गो ही. मोझा D. Litt. ताः २५ जनवरी १९३६ और 'भारतीय विद्या' श्री मान् मुनिवर श्री जिनविजयजी महाराज की पवित्र सेवा मे गौरीशंकर हीराचन्द ओझा का सादर प्रणाम । अपरच || बहुत दिनो बाद आपका ता: २२-१२-३८ का कृपा पत्र नाम के त्रैमासिक पत्र की पहली संख्या मिली मुझे वडा ही आनन्द हुआ । ववई का आपका कारण मैं आपको पत्र न लिख सका जिसके लिये क्षमा चाहता हूँ । । आमका पत्र पाने पर पत्ता मालुम न होने के 'भारतीय विद्या' नामक पत्रिका पढ़कर वडा ही आनन्द हुआ । वास्तव में यह विद्या का भण्डार ही है और इस संख्या मे छपे हुये लेख Www present the 24+ (१८) Jums Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र बड़े ही महत्व के हैं। आपका 'चामुण्डराज चौलुक्य नो ताम्रपत्र' नाम का लेख इतिहास प्रेमियो के लिये मनन करने योग्य है। पत्रिका आते ही मैंने उसे पढना शुरु किया और आपका लेख पूर्ण न होने तक मे उसे अपने हाथ मे अलग न कर सका, मैं तो उसमे तल्लीन ही हो गया । अन्य लेख मैं पढ रहा हूँ। उक्त ताम्रपत्र मे एक जगह गुप्त संवत् और एक जगह संवत् १०३३ दिया है। मेरी राय में गुप्त सवत् अशुद्ध पाठ है । ताम्रपत्र बडे ही महत्व का है। इसके सम्बन्ध में स्वर्गस्थ श्री केशवलालजी ध्रुव ने कुछ प्रश्न मुझसे पुछे थे, परन्तु उसके फोटो और अक्षांतर आप की कृपा से ही पढने को मिले। आबू के परमार राजाओं की जो वंशावली, वस्तुपाल के मंदिर की प्रशस्ति में मिलती है और जो कुछ असम्बद्ध वर्णन अन्य ऐतिहासिक ग्रन्थों में मिलता है उसकी संगति अव तक मिल नहीं सकती थी परन्तु देव योग से कुछ दिन पूर्व एक ताम्रपत्र का पहला पाठ मिल गया जिस से सारी बातें ठीक हो गई। इस का उपयोग मैंने अपने राजपूताने के इतिहास की पहली जिल्द के द्वितीय संस्करण में किया है। आपके "भारतीय विद्या" के लिये मैं उस पर एक लेख लिख कर भापकी सेवा मे भेजूगा । इन दिनो राजपूताने के इतिहास की चौथी जिल्द का पहला खण्ड जिसमें जोधपुर राज्य के इतिहास का पहला खण्ड प्रकाशित हुआ और उसकी पाचवी जिल्द के पहले खण्ड में बीकानेर राज्य के इतिहास का पहला भाग प्रकाशित हो गया है। ये दोनों पुस्तके आपके लिये तथा श्रीयुक्त जयचन्द्रजी विद्यालंकार एवं "भारतीय विद्या" के लिये भेजना है सो रेल्वे पार्सल द्वारा आपकी सेवा में भेजी जावेगी। कृपया यह सूचित कीजिए कि पार्सल कौन से रेल्वे स्टेशन के नाम पर भेजने से आपको आसानी से मिल सकेगी। इसका उत्तर शिघ्र भिजवावें ताकि पत्र मिलने पर पुस्तकें भेज दी जावे । इस समय मेरी उन ७७ वर्ष की है और वृद्धावस्था अपना प्रभाव दिखला रही है। चलना फिरना विशेष नही हो सकता ऐसे ही लिखना भी, क्योकि हाथ कांपता है। शरीर अस्वस्थ रहने के कारण विशेष Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं. श्री गौरीशंकर, हीराचन्दजी ओझा के पत्र साहित्य सेवा भी नही हो सकती तो भी यथा माध्य कुछ कुछ किया करता हूँ। “सिन्धी जैन ग्रन्थ माला" के पाच ग्रन्थ मिले है उसके बाद भी कुछ ग्रन्थ निकले सुने हैं । उन्हे कृपा कर सावकाश भिजवायेगा । विनीत गौरीशंकर हीराचन्द ओझा (१९) म. म. रायवहादुर अजमेर डॉ. गो. ही ओझा D. Litt. २ जनवरी १९४० श्रीमान् मुनि महाराज श्री जिनविजयजी की सेवा मे गौरीशंकर हीराचन्द ओझा का सविनय प्रणाम । अपरच ॥ आपका कृपा पत्र ता. २७-१२-३६ का मिला । उत्तर मे निवेदन है कि चामुन्डराज का समय तो निश्चित ही है । दूमरी बार मे खाली सम्वत् शब्द लिखा है जो विक्रम सम्वत् निश्चित ही है। पहली बार के सम्बत् में उमी सम्वत् को गुप्त सम्वत लिखा है। गुप्त सम्बत् और विक्रम सम्वत् दोनो एक तो हो ही नही सकते क्योकि गुप्त सम्बत् वाले शिलालेख, ताम्रपत्र और सिक्को की लिपि और चामुन्डराज के ताम्रपत्र की लिपि मे बडा अन्तर है। मेरी राय मे तो गुप्त सम्वत् पाठ अशुद्ध है, जहां विक्रम सम्वत् होना चाहिये। द्वयाश्रय महाकाव्य मे पाया जाता है कि मोलक्री कुमार पाल ने चौहान राजा आना पर चढाई की। उस समय आबू का राजा विक्रमसिंह कुमारपाल के साथ था (दयाश्रय महाकाव्य सर्ग १६, श्लोक ३३.३४) जिन मण्डनोपाध्याय ने अपने कुमारपाल प्रवन्ध मे लिखा है कि, विक्रमसिंह लडाई के समय आना से मिल गया जिसमे कुमारपाल ने उसको कैद कर आबू का राज्य उमके भतीजे यशोधवल को दिया। विक्रमसिंह उसका वशधर था और यशोधवल उसका भतीजा कैसे हुआ ये सव सदिग्ध बातें थी, जिनका निराकरण उक्त ताम्रपत्र पत्र से हो गया है और जैन लेखको की लिखिहई सव वातें ठीक सिद्ध होती है । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र मेरा स्वास्थ्य करीब एक महीने से खराब है और अब कुछ ठीक होता जा रहा है। थोड़ा-सा श्रम करने पर भी श्वास चढ जाता है और खासी आ जाती है स्वास्थ्य ठीक होते ही पहला काम यही हाथ मे लेऊँगा और आप की आज्ञा का पालन करूंगा । उसकी छाप मेरे पास है जो ब्लाक वनवाने के लिये आपके पास भेज दूगा। इस ताम्रपत्र ने आबू के परमारो के इतिहास की सारी उलझन सुलझा दी है। ___"भारतीय विद्या" की दूसरी में नही तो तीसरी में जहां स्थान मिल सके मेरा लेख प्रकाशित कर देवें। ____ कुमारपाल का एक ताम्रपत्र मैंने बडौदे की मोरियन्टल कान्फ्रेन्स की रिपोर्ट में प्रकाशित किया है। शायद उसी की छाप आपके पास भेजी होगी। सिन्धी ग्रन्थमाला के लिये आपने लिख ही दिया है जो मिल ही जायगी। __ जयचन्द्रजी विद्यालकार कहाँ है यदि उनका पता मालूम हो तो लिखिएगा । राजपूताने के इतिहास की पहली जिल्द का द्वितीय सस्करण (मेवाड के इतिहास को छोडकर) और जोधपुर गज्य के इतिहास का पहला खण्ड आपके लिये एक ये ही तीनो पुस्तके "भारतीय विद्या" के लिये ६ जिल्दे आपकी सेवा मे रेल्वे पार्सल से भेजी गई है जिनकी Pard रेल्वे रसीद 20 66349 की इस पत्र के साथ है पुस्तकें सम्भाल कर पहुँच लिम्बने की कृपा करें। आप से यह भी निवेदन है कि इन तीनो पुस्तको को पढकर इनकी समालोचना भारतीय विद्या मे भी प्रकाशित करावें। वह दिन बड़े सौभाग्य का होगा जिस दिन आपके दर्शनो का लाभ प्राप्त होगा अब मेरी शारीरिक शक्ति ऐसी नही है कि बम्बई आकर आपके दर्शन कर सकू। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं. श्री गौरीशंकर, हीराचन्द जी ओझा के पत्र चि. रामेश्वर तथा दोनो छोटे बच्चे प्रसन्न है। आपको प्रणाम लिखवाते हैं । पार्सल बाबू ने मांगा रोड पर पार्सल लेने से इन्कार कर दिया अत: Bombay Central भेजी गई है कृपया वहाँ मे मंगवा लीजियेगा। कृपा पत्र भिजवावें। विनीत गौरीशंकर हीराचन्द ओझा (२०) म म. रायबहादुर अजमेर डॉ. गो. ही. ओझा D. Litt. १७ जनवरी १९४० परम श्रद्धास्पद मुनिवर श्री जिनविजयजी महाराज की सेवा मे गौरीशकर हीराचन्द ओझा का सादर प्रणाम । अपरच आपका कृपा पत्र ता. १५-१-४० का मिला, समाचार जाने । सिन्धी जैन ग्रंथ माला की नवीन प्रकाशित तीनो पुस्तकें मिली । जिनके लिए अनेक धन्यवाद । क्या आपने सिंधी जैन ग्रन्थ माला का पहले का निर्धारित क्रम अव बदल दिया ? यदि ऐसा हो तो भी प्रभावक चरित का उत्तम सस्करण तो निकलना ही चाहिए, क्योकि पहले का संस्करण संतोषजनक नहीं है। पहले से मेरा स्वास्थ्य अब कुछ ठीक है परन्तु कमजोरी अभी वैसी की वैसी बनी हुई है । एकाध हफ्ते बाद ताम्र पत्र पर लेख लिखवाने का काम शुरू कर देऊंगा। "कर्मचन्द्र वशोत् कीर्तनक काव्य" छपा हुआ तो पड़ा है परन्तु उसकी भूमिका अभी लिखी नही गई । प्रेस से एक कापी मगवाकर आपके पास भेज दूंगा। आशा है शीघ्र ही आपके दर्शनो का लाभ प्राप्त होगा। विनीत गौ. ही. ओझा Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ मेरे दिवगत मित्रो के कुछ पत्र (२१) V. P. O. Rohera ( Via Abu Road St. of B B. & C. I. Ry . ) Sirohi State Rajputana Dated 11-7-1945 आचार्य श्री जिनविजय जी महाराज के चरण सरोज मे गौरीशकर हीराचन्द ओझा की प्रणति । अपरच | मैंने सुना है कि जैन पुस्तक प्रशस्ति संग्रह नामक ग्रन्थ की पहली जिल्द आपने प्रकाशित की है, परन्तु खेद है कि आपने उसकी एक प्रति मुझे प्रदान करने की कृपा अब तक नही की । शीघ्र कृपा कर वह पुस्तक भेज दे । दूसरी बात आपको यह सूचित करना है कि भारतीय विद्या की गुजराती हिन्दी त्रैमासिक पत्रिका दो वर्ष से मेरे पास नही आती । क्या उसका छपना बन्द हो गया है ? एक और कष्ट आपको यह देना है कि सिंधी ग्रथ माला की कोई प्रति इन दो वर्षों मे मेरे पास नही आई । अन्तिम प्रति जो मेरे पास आई है वह हेमचन्द्र का अग्रेजी चरित्र है । उसके बाद आई । जो पुस्तकें उसके बाद प्रकाशित हुई है, उन्हे करें । कोई प्रति नही भेजने की कृपा इस समय मेरी अवस्था ८० वर्ष की हो चुकी है और शरीर प्राय. अस्वस्थ रहता है । इस समय मैं जलवायु परिवर्तनार्थ अपने जन्म स्थान रौहेरा ग्राम में निवास कर रहा हूँ । यहा भी मेरे स्वास्थ्य मे विशेष सुधार नही दीख पडता । यह आपको सूचनार्थ लिखा है । आपका नम्र सेवक गौरीशकर हीराचन्द प्रोभा Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प. श्री गौरीशंकर, हीराचन्द जी ओझा के पत्र १२५ (२२) पो. रोहेरा राजपूताना ता. २१-४-४७ पूज्यवर आचार्य जी, . __ सादर प्रणाम ! मुझे आपको यह सूचित करते हुए अत्यन्त दुःख होता है कि, यहा पर पूज्य पिताजी महा महोपाध्याय, रायबहादुर, डॉक्टर गौरीशकर हीराचन्द जी ओझा, डि. लिट् का वैशाख कृष्ण ११ संवत् २००४ को ६ घण्टे की बीमारी के पश्चात् स्वर्गवास हो गया है । कालस्य कुटिला गति. । आप पिताजी के सम्बन्ध की सूचना गुजराती पत्रो मे प्रकाशित कराने की कृपा करें। आप उनके अत्यन्त अन्तरग सहयोगी विद्वानों मे है, अत यह काम आपको ही सौपना उचित होगा। इस समय पिताजी की आयु ८४ वर्ष की थी। उनके परिवार मे इस समय धर्मपत्नी, ३ पुत्र, १ पुत्री और ४ पोते पोती है। शोकाकुल रामेश्वर गौरीशकर ओझा (२३) प्रो. रामेश्वर, गौरीशकर ओझा, पो. रोहेरा एम. ए. (Via Abu Road) राजपूताना ता. ८-५-४७ श्रीमान् पूज्य मुनिवर्य श्री जिनविजयजी महाराज की पुनीत सेवा मे रामेश्वर गौरीशंकर ओझा का सादर प्रणाम । अपरच ! मैंने ता २१-४-४७ को भारतीय विद्या भवन वावुल नाथ रोड के अस्थाई पते पर आपको मेरे पूज्य पिताजी का ६ घन्टे की बीमारी के पश्चात ता १७-४-४७ (वैशाख कृष्ण ११) को स्वर्गवास होने की सूचना दी थी। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र मै नही जानता कि इस समय आपका पता क्या है । आप वम्बई विराजते है या अहमदाबाद ! जो हो, आपको अव तक पिताजी के स्वर्गवास की सूचना मिल ही गई होगी। यह पत्र में भारतीय विद्या भवन के Harvey Road के पते पर फिर भेज रहा हूँ । पूज्य पिताजी के अत्यन्त आदरणीय सहयोगियों एवं मित्रों मे आपका स्थान है अतः साहित्यिक एव अन्य प्रकार के परामर्श के लिए पिताजी का स्थान अब ग्रापको ग्रहण करना होगा। यह मैं निःसकोच कह सकता हूँ कि इस जन पर आपकी सदा जैसी अनुकम्पा रही है, वह भविष्य में भी बनी रहेगी। आपकी ओर से इस कार्ड की पहुँच पाने पर मैं आपको afree लिखूँगा । मेरे योग्य कार्य सेवा सदैव सूचित करते रहे । विनीत रामेश्वर गौरीशंकर श्रोभा Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - पटना (बिहार) के प्रख्यात पुरात्तत्त्व वेत्ता स्व. बाबू श्री काशीप्रसाद जायसवाल के पत्र पटना आसाढ़ सु १ श्री मुनिजी को प्रणाम् । मि. राखालदास बनर्जी ने लिख। है कि शीघ्र आपसे वे मिलेंगे। साक्षात्कार हुआ होगा। ___आपके मित्र को प्रसन्नतापूर्वक हम लोग मेम्बर बनावेंगे । वे एक चिट्ठी मुझे लिख दे । बाहर के मेम्वरो का चन्दा सिर्फ ५) वार्षिक है। वाबू राखाल दास (श्री देवदत्त जी भाण्डारकर की जगह) सुपरिन्टेण्डेन्ट ऑफ आझियोलॉजी है, उनका दफ्तर मशहूर होगा। नही तो डाक से पत्र डाल दीजिएगा। आपको यह सुनकर प्रसन्नता होगी कि वी. स्मिथ ने यह अब मान लिया है कि बुद्धदेव तथा महावीर स्वामी का निर्वाण काल, जैसा हम कहते हैं वही ठीक है अर्थात् जैसा कि उनके अनुयायी मानते है। यह खारवेल के लेख से सिद्ध हो गया। मि. विसेन्ट स्मिथ ने पत्र द्वारा यह मुझे लिखा है। अधिक कुशली मुझको टोडरानन्द धर्मशास्त्र की आवश्यकता है । यह ग्रन्थ डेकन कॉलेज मे है । कृपा कर अवसर मिलने पर देखियेगा कि कितनी बड़ी पोथी है तथा मिल सकती है या नहीं। आपका का० प्र० जायसवाल Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ मेरे दिवंगत मित्रो के कुछ पत्र पटना कार्तिक वद १२ श्री मुनिजी को सादर प्रणाम, खारवेल के लेख मे १३वी पक्ति मे यह वाक्य (चोयठ-अग-सतिके) तोरियं उपादियति उपादियति-उप+आ+दा (कर्मवाच्य) (पाना) स्वीकृत किया जाता है। "खारवेलेन (प्रथम पक्ति) उपादियते" ऐसा लगेगा। लेकिन कि उपादियते ? तोरियं कर्म है । तोरियं का अर्थ आप क्या करेंगे ? तुरीय का भाव चातुर्य । चातुर्य का क्या अर्थ हो सकता है ? कृपा कर अपनी सम्मति लिखियेगां । केवल एक अर्थ मेरी समझ में आता है, चौथा आश्रम या कल्याण । आश्रम तो जैन गास्त्र में कदाचित् नही है ? कल्याण से मतलव निकल सकता है। __ खारवेल ने १६५ मौर्यकाल वर्ष मे चतुर्थता को ग्रहण किया अर्थात भिक्षु हुए। यह खेमराजा सबंध राजा स भिक्षु राजा धम राजा से भी द्योतित होता है। पहले क्षेम, राजवृद्धि (वर्ध) तब केवल्य । इस तरह पसंतो सुणतो अनुभवतो कलाणानि । चरितार्थ होते है। आपको सम्मति की प्रतिक्षा है। भवदीय काशीप्रसाद जायसवाल (३) खण्डगिरि आश्विन सु. ६. १९७५ श्री मुनि जिन विजयजी, प्रिय महोदय ! मै आपके पत्र का उत्तर नहीं दे सका। बीमारी के बाद यहां आना हुआ । विहार गवर्नमेट को सहायता से हाथी गुम्फा लेख यहा Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री काशीप्रसाद जायसवाल के पत्र १२६ पर पढने आया हूँ। देखते हैं कि बहुत कुछ सुधार की जरूरत है। वृहस्पति मित्र का नाम साफ है। पान तरिय सत सहसेहि है । ७५०००००) इमारत के वनाने का खर्च है उसके बाद-मुरिय कालेचोयठ सते (सती) यह Date है । पोयठ है, छेयठि नही। चोयठ चोसठ के लिए आता है कि नहीं। मुझे वाकीपुर के पते से लिखिये । रानी गुम्फा खारवेल का बनाया जान पड़ता है। अगजिन नहीं कलिंगजिन है, जिसे नन्द ले गया था। कृपा कर इस वाक्य का अर्थ लिखियेगा-"अरहतो पुरीणस सेतोहि कय्य ? निसीदीय यो पूजवेकहि राजभिति निचे नवतानि वृस-सतानि पूजाय हित गवसा खारवेल सिरिना जीव देहं योपरखिता"। क्या बैल और गायो की पूजा होती थी ? आपका काशीप्रसाद जायसवाल (४) पटना ताः २६-११-१९१७ अगहन वद १ श्री मुनिजी प्रणाम ! आप इधर कभी आवें तो मुझे दर्शन दे और मेरे यहाँ आतिथ्य स्वीकृत करें। __'पान तरिय' को यदि ७५ के अर्थ मे ले तो फिर चोयठ अगसतिक का क्या अर्थ हो सकता है ? मुझे यह वाक्य कुछ कण्ट दे रहा है। क्या ६४ किसी विशेप अर्थ मे जैन साहित्य मे आता है ? "चोयठ अगस । इति" ऐसा कुछ अर्थ दे ही नहीं सकता या चोयठम अगसतिक भी वे मानी है। कृपा करके कहियेगा कि चोयट का कोई विशेप अर्थ हो सकता है या नहीं। आपका का० प्र० जायसवाल Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० मेरे दिवगत मित्रो के कुछ पत्र __(५) श्री मुनिजी को प्रणाम ! ____ मैंने मि० R. D. बनर्जी को आज लिखा है । सोमदेव के Date के लिए बहुत धन्यवाद । शक काल और गुप्तकाल एक होना तो असंभव सा जान पडता है। मैं अगले अगस्त या सितम्बर मे पूना बम्बई की ओर पाऊँगा तब दर्शन करूंगा। __आप ओझा जी को मेरा मत बता दीजिएगा। खारवेल २) रु० मे रिसर्च सोसायटी के आफिस से मिल सकता है। __ आप ही के लिखने से कि गुफा का उल्लेख होगा, मैंने (कंदराइय) कान्तारिष पढा, जिसे सबने पसन्द किया। मैने राजनीति पर एक ग्रन्थ लिखा है । छप रहा है । छपने पर भेजू गा। आपका का०प्र० जायसवाल Patna 5-6-18 आपने गत अक इण्डियन एण्टीक्वेरी मे मेरी की हुई आलोचना आपकी त्रिवेणी की देखी होगी ? बहुत ही अच्छा विचार है कि काल विपयक सब सामान जैन साहित्य में एकत्र कर दिया जाय । देश-देश में भगवान महावीर स्वामी का समय क्या-क्या माना जाता है वह भी लिख दीजिएगा। काल विपयक इण्डीयन एन्टीक्वेरी की पुरानी जिल्द (के. वी. पाठक होरनल आदि के लेख पट्टावली इत्यादि) देख लेना चाहिए । फई एक का रेफरन्स मैंने अपने शिशु नाग में दिया है। मेरी समझ में सिर्फ जैन क्रोनोलॉजी, मैंने दिखलाया, ठीक है । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री काशीप्रसाद जायसवाल के पत्र इधर कल्कि वाला लेख इण्डियन एण्टीक्वेरी मे देख लीजिएगा। वहाँ भी मैंने लिखा है-भगवान नाटपुत्र का निर्वाण 545 B.C, होने पर सब ठीक वैठ जाता है। __ गौतमी पुत्र सातकरणी ही विक्रम था और नहपान जिसे जैन ग्रन्थ नहवाण कहते हैं उसे उसने मारा । गौ० पु. का अभिषेक तो ठीक वैसा ही हुआ, जैसा जैन मानते है । १६ वर्ष का भेद इससे पड़ा था कि 58 B. C. जव नहपान मारा गया, वह गौ० पु० का १७ राज वर्ष था। आपका का०प्र० जायसवाल पटना से लिखि कार्तिक सुद १० ताः २२-११-१९१६ श्री मुनिजी को प्रणाम ! आपने जो इतना कष्ट किया उसके लिये मैं हृदय से कृतज्ञ हूँ। उपादियति पाली मे बरावर पाता है लेकिन इधर दूसरी छाप में यह पाठ निकला । तुरियं उपादियाति (०१६४ मे वह चतुर्थ उपादि ग्रहण करता है) उपादि पाली में बहुत आता है। उप+मा+दा से बनता है और उसको पीछे से उपाधि ऐसा मस्कृत में महायान वालों ने लिखा। वौद्धो के यहाँ ५ उपादि है जिन्हे वे स्कंध भी कहते है। "चार उपादि" ऐसा धम्मपद मे आया है, पंचम उपादि उनको मोक्ष है पर यहाँ बौद्ध विज्ञान के अर्थ में उपादि नही देकर संस्कृत उप+आ+दा से अवस्था भाव , अनुभव इस अर्थ में लेना चाहिये। चतुर्थ अवस्था, सन्यास रहेगा क्योकि यह सिद्ध नही है कि पाश्रम खारवेल नही मानता था। वह वैदिक रीति से अभिषिक्त हुए और ब्राह्मण जिमाए, कल्पवृक्ष दान दिये । सो हो सकता है कि आश्रम का अनुगमन भी किया हो, पर उससे अच्छा अर्थ तो यह है कि चतुर्थ कल्याण (केवल्य, उपरत भाव, फकीरी) ग्रहण किया था। क्योकि भिक्षु राजा, यमराजा, Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ मेरे दिवंगत मित्रो के कुछ पत्र 'अनुभवतो कलियाण" (म् वा, णानि) से परिध्वनि निकलती है, नही तो आश्रम शब्द वर्ता गया होगा। कल्याणक जो केवल तीर्थकरों के लिए कहा गया सो पीछे की वात होगी । आप अपनी राय लिखियेगा । महाविजयो खारवेल सिरि वाले वाक्य को क्रिया नही है। महा विजय तो वह थे ही, साधु हो जाने पर भी ऐसा उनको कहना कुछ असगत न था । क्रिया शायद रही हो । उपरत हुये इस तरह बडे रहने पर भी भगवान लाल जी का पाठ ठीक नही था । आप छाप से देख लें। पनतारिय होने से १५ होता, पर पानतरिय है। इस पर मैने लिखा है पंचातिरीयं है। __ पण्डितजी ने भूल की थी जो उत्तर से अर्थ किया था। पं० जी के पाठ मे बहुत फर्क है, सो आप देख लें। एक मास में लेख और छाप भेजेंगे, छप रहा है। राजा चेत कोसला का राजा था जो कही संभलपुर मे था । मुरिया का अर्थ मैने चन्द्रगुप्त किया है, मौर्य नही । मौर्य (मुरिय के वंश को) मुरिय शब्द से अपत्य करके सस्कृत में बनाया। ग्रन्थ रत्नो के लिये बहुत धन्यवाद । . भवदीय काशी प्रशाद जायसवाल पटना कातिक १०/७५ मान्यवर ____ कृपा कर मेरे पिछले पत्र का उत्तर दीजिएगा। यश. (पुरीण यस) अहंत नाम के जिनका नाम खारवेल के लेख में आया है इनकी एक काय निसिधी कुमारी पर्वत पर थी, इसके चिन्ह भी मैंने देखे । पर्वत के मस्तक पर "देवसभा" जो आपने देखी होगी वहाँ पर चढ़ाई हुई निसिपी (स्तूप जैसे) बहुत है। मैं समझता हूँ कि यह यश यशोधर नामक भूतजिन है । इनका चरित छपा है । ऐसा मुझे कलकत्ते के Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री काशीप्रसाद जायसवाल के पत्र १३३ दिगम्बरियो ने कहा, पर वे यशोधर का हाल कुछ बता नही सके । हो सके तो ग्रन्थ मुझे उधार भेजिये । क्या वे कलिंग में मुक्ति प्राप्त हुये थे ? कलिंगजन और कौन है ? जिनका जिक्र खारवेल के इतिहास मे है । 'नन्दराज नीत कालिंग जिनस निवेम" निवेस का अर्थ छाप है । जैसा कालिदास ने "खिन्नाङ्ग लिपिनिवेश" शकुन्तला मे लिखा है । इनका चरण चिन्ह भी नन्द ले गये थे ऐसा जान पडता है | यह कलिंगजिन कौन है ? यशोधर या महायण ? निवेस मे ु ऐसा प्रत्यक्ष है । यदि यह नि ( मि ) स हुना तो क्या निमि (मूल कालीन जिन ) का हाल कुछ मालूम है ? क्या वे कलिंग मे हुए ? मेरा चित्त इन प्रश्नो से चिन्तित है, और दूसरा काम अच्छा नही लगता । कृपा कर बतलाइये । Date इस तरह है - पान तरिया सवससतेहि मुरिय काले प्रोछिने १७५ मु० का० - फिर वाद इसके - चोपठि अग-सति कतरिय ( इत्यादि) आसति = अर्थ माति, पूजा या मन्त्र पढने की मंडप स्वरूप कदरा - लेकिन चोयठि क्या है ? चतुयष्ठि ? या ६४ | यदि चोसठ तो ६४ अर्क या ६४ अक का क्या मतलब ? हमारे मन के कष्ट पर दया करके फौरन जवाव लिखिये और पुस्तक भेज दीजिए । (5) ............ आपका का० प्र० जायसवाल पटना कार्तिक ८, १६७४ श्री मुनिजी को सादर प्रणाम ! पुस्तको के लिये तथा पच कल्याणक के अवतरण के लिए अनुग्रहीत वहुत अनुग्रहीत हुप्रा । मेरे पास लेख की छाप है । "खारवेल" ही है । इसे मैंने क्षाखेल = समुद्र ऐसा लगाया है। पुराने नाम ऐसे टेढे हैं कि साहित्य मे Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ मेरे दिवंगत मित्रो के कुछ पत्र उनका न मिलना सन्देह उत्पन्न करने वाला नही होना चाहिए । यथा "खसूचि" पर नाम व्याकरण मे न आ गया होता और आज शिला लेख में मिलता तो विचित्र जचता । फिर शिला लेखो मे कितने नये नाम मिलने है। मैंने दिखलाया है कि क्षारवेल आर्य थे । खारवेल समुद्र तट के राजा थे । उनके मा बाप ने किसी संयोग विशेप के कारण यह नाम रख दिया होगा। मेरा लेख प्रेम में गया है। शिलालेख से जैन धर्म के इतिहाम के वारे मे कई बातो का पता लगता है । जान पडता है कि मुरिय चन्द्रगुप्त भी जैन थे । खारवेल भी जैन भिक्षु हो गये थे, यह मेरे लेख वाचन से जान पड़ता है। आपसे पत्र व्यवहार हो जाने से मुझे बड़ा सुख मिला । लेख छपने पर आपके पास भेज़ गा । पुस्तको के लिये अनेक धन्यवाद । भवदीय का० प्र० जायसवाल खारवेल का हाल कही न कही जैन ग्रन्थों मे अवश्य होगा । "चेतवश", "ऐर", "महामेघवाहन" (महेन्द्र) आदि किसी न किसी रूप मे होगा । ओडिसा के ग्रन्थो में "ऐर" नाम से उल्लेख मुझे मिलता है । क्या आपने मेरा लेख श्री महावीर स्वामी के निर्वाण काल (545 BC.) पर देखा है। मैंने देखा कि सिर्फ जैन Date चन्द्रगुप्त का (325 B.C) ठीक था उसी के सहारे बहुत सी भूले सुधारी । यथा नहपान 96-58 B C नहपान की जैन गाथा मे नहवाण (नहवहरण) अशुद्ध लिखा है। आपका का० प्र० जायसवाल Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री काशीप्रसाद जायसवाल के पत्र १३५ () पटना अगहन-७६ मान्य मुनिजी को प्रणाम, कृपा पत्र आया। हम छाप और लेख जल्द भेजेंगे। जो जो बातें आपने लिखी हैं, उन सब पर अच्छी तरह ध्यान दिया है । उपादियाति के वाद विराम (1) है, इससे कलारणानि छिन्न, दूर पड़ जाता है। उपर के शेप योवना भिजयो" इसमे शेप योवन पर ध्यान दीजियेगा। या तो राजा फकीर हो गया था या मर गया था। जब लेख देखा गया फिर देखिये कि क्षेत्रिय तापस खारवेल के समय में अनेक थे । उसी के लेख से यह विदित है, फिर उसके सन्यस्त होने में क्या आशंका हो सकती है ? उडीसे की खबर जैन साहित्य को कम थी इसी से खारवेल का नाम तक नही है । फिर उसके भिक्षु होने का हाल क्यो कर जैन साहित्य में मिले । तारिय% ति, इसमे यह बखेडा है कि त्रि और कही बराबर "ति" के रूप मे आया है। आपकी शकाओ के कारण मैंने विशेषत. विचार किया जिससे उपकार हुआ। कल्कि पर नोट इण्डीयन एन्टीक्वेरी में छप रहा है। देखियेगा। आपने शायद त्रिलोक सार की बात लिखी है यह मुझे पीछे से मिला पर वह ग्रथ पीछे का है। (१00 A. D ) उसमे चतुर्मुख लिखा है. पर पुराणों में विष्णुयश ठीक है। चतुर्मुख उसके अवतार कथा का द्योतक हो सकता है या उसका यह मूल नाम रहा हो पर त्रिलोक में उसे पटने का राजा लिखा है । यह पुराणो के विरुद्ध है। मैंने आपकी विज्ञप्ति त्रिवेणी में उल्लिखित राजा (कांगडा वाले) का पता लगाया है। समालोचना मे लिख दिया है। आपका का० प्र जायसवाल Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ मेरे दिवगत मित्रो के कुछ पत्र Patna अगहन वद १ मान्यवर, कृपा पत्र और यगोधर चरित के लिए अनेक धन्यवाद । हीरा लालजी शाह के विचार अभी कच्चे हैं। जी लगाते हैं पर आदमी नये मालूम होते है। में लेख मे लगा हूँ। आपने जो कुछ लिग्बा है उस पर विचार कर रहा हूँ। फिर एक बार उड़ीसा जाना होगा। यह निश्चय जान पडता है कि खारवेल जैन था । कालिगजिन चाहे जो हो, पार्श्वनाथ या दूसरे, 'नदराज नित' स्पष्ट है । पानतरिया सबस सतेही मुरिय काले वोछिने यह Datc जान पड़ता है। जो वाक्य लिखा था वह अब इस तरह निश्चित हुआ है । आपका पत्र पाकर उसे फिर देखा। ___"कुमारी पवते परिणय सतेहि काव्य निमिदियाय यापन वकेहि राणभितिनि चिनछतानी बोसामितानि पूजानि रित गविमा खारवेल मिरिना जीवदेहं वहुकाल (म) राग्विता"। अर्थ-"१०० वार प्रदक्षिणा पूर्वक अरहत की शरीर निपीदी (समाधि) की यापना वायियो को राजभृति और (चल छादनीया) रेशमी कपडे (चीन) दिये जाने की आना दी। श्री खारवेल ने वे दूध की पूज्य गायो के जीव देह की रक्षा बहुत काल के लिये की (पीजरापोल)। यापनावादी कौन थे और गाब हए ? यापज्ञापक का कोई अर्थ जैन धर्म की दृष्टि से हो सकता है। आपका कागी प्रसाद जायसवाल Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री काशीप्रसाद जायसवाल के पत्र १३७ (११) मिर्जापुर श्रावण पूर्णिमा माननीय मुनिजी, मैं बीमार होकर घर आया हूँ। दो ज्योतिषियों से गणना कराई, आपकी गणना दोनों ने ठीक बताई । एक (काशीस्थ) के पत्र की नकल साथ भेजता हूँ। श्री युत्त केशव लालजी का चुनाव कोई एक महिने में होगा। आपका काशीप्रसाद जायसवाल (१२) खण्डगिरि, उड़ीसा कार्तिक सुद ६, १९७४ मान्यवर, पत्र यहां आया । पत्र यहाँ आया, बाबू राखालदास बनर्जी और मैं यहाँ फिर आकर आखिरीवार हाथी गुम्फा पढ रहे है। कोई बड़ा फेर-फार इस बार नही हुआ । इससे पाठ निश्चित हो गया है । ___ इस काम में लगे रहने से पूना पहुँचने की आशा कम है, नही तो मैं निश्चय कर चुका था कि आप ही का अतिषि वनू और आपके सत्सग का सुख उठाऊँ । जर्नल का एक प्रक भेजता हूँ। मुझे पूना न पहुंचने का दुःख है। आपका काशीप्रसाद जायसवाल Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे दिवगत मित्रों के कुछ पत्र (१३) Patna, E.I.R. आश्विन व.४,७६ मान्यवर, मेरा कुछ-कुछ विचार है कि कान्फरेन्स में आऊँ । यदि आना होगा तो आपही के बंगले में ठहरेंगे । मैं आपसे मिलने के बाद एक दिन पूना में रहा। राजा कुणिक के जैन होने का कोई प्रमाण है ? । आपका __ काशीप्रसाद जायसवाल Patna 30-12-17 मान्यवर मुनिजी, ____ मैं कलकत्ते गया था और वहां भांडारकरजी के यहां था । आपका पत्र यहाँ पढने को आज लौटने पर मिला । गुणभद्र ने उत्तर पुराण मे कल्कि का काल 502 A.C.---544 A. C. दिया है, वह अधिक सही मालुम पडता है। आपके नये ग्रन्थ मे पीछे से हाथ लगा। ऐसा जान पडता है । कल्कि को उसके जीतेजी लोग अवतार मानने लगे थे ऐसा जैन लेख चतुर्मुख से जान पडता है। पणराष्ट्र समझ मे अभी नहीं आता। देखभाल करके लिखेंगे और दूसरे प्रश्नो का भी उत्तर देंगे। मैंने उत्तर पुराण की जगह त्रिलोक सार लिख दिया था। उसका समय आप क्या मानते हैं । पुराण में कल्कि का पुत्र नहीं लिखा है । जैन ग्रन्थों में इन्द्रपुर (इन्दौर) का राजा और उसके लडके का नाम अरिंजय लिखा है । कृपा कर बतलाईये कि श्वेताम्बर ग्रन्थो में कल्कि के बारे मे क्या लिखा हुआ है। मुझे त्रिलोक्य प्रज्ञप्ति के शक संवत और निर्वाण काल के बारे वाली गणना जानने की बहुत उत्कठा है । ग्रन्थ ऋण या अवतरण से उपकृत कीजिएगा। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री काशीप्रसाद जायसवाल के पत्र १३६ एक बात के लिए आपको यह सेवक कष्ट देना चाहता है। अर्कस नाम के देवता क्या जैन साहित्य मे आये है ? तो उनकी गिनती क्या है तथा उनका स्वभाव कैसा है ? आपका काशीप्रसाद जायसवाल नोट-यह पत्र जब मेरे पास आया तव सुप्रसिद्ध जैन विद्वान् श्री नाथूरामजी प्रेमी मेरे साथ थे। उन्होने पत्र के हाँसिये में नोट लिखा था कि उत्तर पुराण शक संवत् ८२० मे समाप्त हुआ है । (१५) Patna 28-5-18 माननीय मुनिजी, बहुत दिनों के बाद पत्र पाकर बहुत सुख हुमा । अलविरुनी ने गुप्त काल और शक काल का उदाहरण साथ ही दिया है। उसे फ्लीट ने गुप्त इन्स्क्रीप्सन्स में लिखा है। आप फ्लीट की भूमिका देख लीजिये । उसमें है। मेरे मित्र राखालदास जी बनर्जी वहाँ गये हैं। भांडारकरजी के स्थानापन्न उनसे भेंट कीजिएगा । खारवेल मे बड़ी मेहनत की गई है। हिन्दी में मुझे करने का अवकाश नही है । वह विचार छोड़ दिया गया। अधिक शुभ का० प्र० जायसवाल चाणक्य ने कम दाम के सिक्के चलाये थे और नन्दो ने चमड़े पर कर लगाया था, यह जैन ग्रन्थो मे है ? मिलने से भेजिएगा। जैन सोमदेव सूरि को भये कितने दिन हुए। राजनीति पर कोई ग्रन्थ जैन प्राकृत मे है ? Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र Patna E. I. R. 7-11-19. मान्य प्रिय मुनिजी, ____ खारवेल लिपि में अब सब निश्चित हो गया। एक यवन राज का नाम भी इस बार मिला है। सब भी पूर्ण रूप से तै पा गया, केवल एक पंक्ति नही लगती "पूजाय [र] त उवासा खारवेल सिरिना जीव देव काल राखिता" उपासा [क? ] राखिता ? जीवदेव कौन थे और जी. दे. काल (?) को किस तरह बैठावें? इसके पहले हैं : विजय चका कुमारी पवते अरहित यार खिणास-क्षीणासविगतराग) संताहि ese पहले का पाठ । आपका का० प्र० जायसवाल +4A (१७) BAR LIBRARY HIGH COURT PATNA 10-12-19 मान्य श्री मुनिजी, __मैं आपका अवश्य साथ दूंगा। खारवेल लेख अब निश्चित हो गया । कुछ ही इधर उधर हुआ हैं। एक यवन राज का नाम मिलता है। आपका काशीप्रसाद जायसवाल (१८) पटना आसाढ़ सु. ११ PATNA 20th July 1927 श्री माननीय मुनि जिन विजयजी को प्रणाम पुरस्सर निवेदन Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री काशीप्रसाद जायसवाल के पत्र १४१ बहुत दिनों से पत्रालाप नही हुआ । खारवेल लेख को सन् १६ में राखालदास बनर्जी के साथ एक बार पाषाण पर मैंने फिर पढा और कई बार उसकी मृत्तिका प्रतिलिपि से (प्लास्टर कॉस्ट) जिसे मैंने बनवाकर पटना म्यूजियम में रखवाया है। पढ़कर शुद्ध किया है । अब उसे छाप देना चाहता हूँ। उसी में फिर लगा हूँ। एक बार वीमार होकर डर गया। अव जल्दी-जल्दी सब काम समाप्त कर रहा हूँ। ____खारवेल लिपि में पुन. आपसे सहाय चाहता हूँ। प० १४ "सुपवत विजय चक-कुमारी पवते अरहिते पखिनी प [1] संतेहि काय निसीदीयाय याप जाव केहि p [o?] राजभितीनि चीन वतानि व सासितानि पूजाय रत उवास खारवेल सिरिना जीवदेह सिरिका परीखिता"। इसमे पखिनो पो सतेहि (या पसताहि) नया पाठ है । जो निश्चित मालूम होता है । क्या यापना संघ वाले पक्षी पोसते थे ? याप ज्ञापक का क्या अर्थ होगा? जीवदेह सिरिका का क्या अर्थ होगा? पहले जीव देव पढ़ा गया था। प०-१६ मुरिय-काल-वोछिनं च चोयठि (या चोयठी)-अंग-सतिकं तुरियं उपादयति । इसमें ६४ अंग वाले साप्तिक जो मौर्य समय में लुप्त हो गया था उसका उद्धार करना मालूम होता है। पर यह पद तुरीय का विशेपण है । तुरिय=चतुर्थ, तूर्य, या त्वरितं या त्रुरिक हो सकता है। यह किस जैन ग्रन्थ की चर्चा करता है ? कृपा कर विचार लिखियेगा। तुरिय का अर्थ मुझसे नही लग रहा है । ५०-११ मंडं युवराज (या अव-राज) निवेसतं पिथुड गदभ नगलेन कासयति=पृथुल गर्दभ लांगलेन-कर्षयति; जन पद-भावनं च तेरस-वस-सतकेसु (केतु ) भंदति तमर देह संघात । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र यह भी एक टेड़ी पंक्ति है | लगती नही । खारवेल वंश इस तरह है । पं० १ | ऐलेन (ऐ रे न नही) }{ १४२ { | चेति = चेदि = (१६) } बस संदेह नही, कलिंगजिन - सन्निवेश खारवेल उपासक जैन थे इसमें मगध से वापस ले आये, कुमारी पर्वत ( खण्ड गिरि) पर रत - उपास खारवेल ने अपने शरीर और जीव की परीक्षा ली । आपका पत्ता मुझे राय कृष्णदास बनारस वाले से मिला । आपका काशीप्रसाद जायसवाल पटना भादवा सुद १५ २६-८-२७ माननीय मुनिवर, कृपा पत्र मिला । आपको लिखने के बाद मैं बराबर लेख में मेहनत करता रहा। तीन मास तक मेरे उपर यह लेख भूत सा सवार था । दूसरा काम-धाम, खाना-पीना छोड इसके पीछे लगा रहा । बड़े विघ्न पड े, पर किसी की परवाह न थी । मेरा काम पूरा हो गया । लेख प्रेस मे गया है । सन् १९ में फिर खण्ड गिरि गया था । सन् २४ में पटने में काष्ट आदि से Revision का Revision किया । यह दोनों काम राखालदास जी बनर्जी के साथ हुये । फिर अत्र प्र ेस में फिर लेख पढ़ तीन मास तक मेहनत की । सन् १६ की फल छापते २ इतनी देर हो गई । प्रूफ आते ही आपके पास भेजूंगा । लिखता हूँ । भेजने के वक्त मेहनत का इस बीच यहां कुछ अपराज निवेसितं वाली पक्ति में निकला "जिनस दंभावनं च तेर Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री काशीप्रसाद जायसवाल के पत्र १४३ सवस सतिकं तु भिदति तमर देह संघातं ।" जिनको दंभ देने वाला दंभापनं तेरह सो वर्ष वाला तमर (सीक्ष) की. मूर्ति उसने तोड़ी ? • जिनपद नही जिनसद है । परवीन ससते हि का अर्थ मैंने प्रक्षीण सस्मृत=जन्मान्तर मुक्त (प नहीं स निकाला है) मैंने किया है। वह अर्थ आपके अर्थ से मिलता है। यापजावक के पढ़ते कुछ सदेह की जगह नहीं पर पटना जाने पर देखूगा । Cast एक दो जगह छोड़कर ठीक उतग है । आप आइये । मेरे यहाँ पधारिये और साथ मे Cast पढिये। तब मेरी मेहनत का भी अन्दाज हो जायगा । जिवदेह सिरिका परिखिता-जिन देव श्री का परिक्षिता (खारवेल सिरिता) पक्ति (मे - मधुरं अपयातो) के बाद यवनराज डिमित Greek King Dimituos मिला है। इस वार हिन्दी में भी संस्करण कर दूंगा। यदि आप आवें तो रोके रहूँ। आप हम मिलकर कर डालें। मेरे बंगले से अलग एक अतिथि भवन बनाया है उसमे आराम से रहियेगा और साथ मे राजगह आदि चलेगे । अभिन्न काशीप्रसाद राजभीतिनि भी साफ है । जव आइयेगा दिखा दूं। मुझको मालुम पडता है कि पूर्व मैं खारवेल के समय में पूर्व जन्म मे था। मैं एक मास मे लौटूंगा। - (२०) Patna 15-10-30 प्रियवर मुनि जी, आप शान्ति निकेतन जा रहे है । आप रास्ते में यहां होते जाइयेगा। Politics छोड़ आप इसी पठन-पाठन ने लगिये । कान्फरेन्स यहाँ होगा। उसमे भी आइये । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र निम्नलिखित बातों पर कृपया तुरन्त उत्तर दीजिये। मैंने सो पृष्ठ का एक इतिहास लिखा है उसमे दरकार है। १-गई भिल या गद्दभिल्ल पाठ ठीक है ? पुराना पाठ क्या है ? २- गईभिल की जाति क्या थी? क्या वह विक्रम का पिता माना जाता है ? जैसा कारपेण्टियर ने लिख डाला है। ३-विक्रयादित्य की जाति क्या थी ? ४-नहवारण की जाति क्या थी? ५ तीनो के पुत्र पौत्र का कुछ हाल है ? ६-मुरुड कहा थे ? जैन साहित्य में सबसे पुराचीन क्या कथा इनकी है ? ७-आवश्यक सूत्र और उस पर प्राकृत टीका, जो कब का है ? (आगमोदय) भद्रबाहु की नियुक्ति भाष्य, हरिभद्र कब के हैं । श्रापका का० प्र० जायसवाल (२१) Patna 30-10-30 The 6th All India Oriental Conference. मान्य प्रियवर मुनि जी, आपके पत्र से, उत्तरों से बड़ा काम हुआ। एक प्रश्न और हल कर दिजियेगा। ___यह अवतरण भेजते हैं, इसमें मुझे समझ नहीं पड़ता कि 'गाथा और तिलकचूर्णी अन्तर्गत है या भाष्य में । कृपया इसका उत्तर दे दीजियेगा। आपका वशंवद का० प्र० जायसवाल यदि यह तिलक हरिभद्र जी का है तो गाथा किसकी है ? Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री काशीप्रसाद जायसवाल के पत्र १४५ (२२) Patna 27-1-34 प्रिय और श्रद्धेय मुनि जी, सब लोग भूकम्प से बच गये पर मकान में कई सहस्त्र का नुकसान हुआ। ___ आपको मेरे इतिहास में इतने अध्याय लिखने होगे। जिसके लिये कृपा कर फौरन हाथ लगा दीजिये। १-नेमिनाथ । महाभारत युद्ध से लेकर पार्श्वनाथ तक । उसी में नेमिनाथ पूर्व का धर्म इतिहास, स्थान आदि का निरूपण करते हुये राजवश आदि का निरूपण करते हुये, धर्म का पूर्ण व्याख्यान । (10 पृष्ठ) आकार हिन्दू पॉलिटी या केंब्रिज हिस्ट्री का। अर्थात् बड़ा । आपकी राय यदि बड़े आकार की हो अर्थात् मेरुतुग वाले आपके ग्रन्थ का तो वैसा लिखिएगा। ___2-पार्श्वनाथ के बाद महावीर स्वामी के निर्वाण तक । धर्म और राजनीति दोनो का । (20 पृष्ठ) 3-श्री महावीर के बाद मेरुतुंग तक । (मेरा हिन्दु काल भोज तक रहेगा) धर्म विकास और उसमे फेरफार--राजवंशों के काल के उल्लेख से। ऐसा लिखा जाय कि मैं चाहूँ तो काट-काट कर उन भिन्न राजवंशों के साथ कर दू या अलग ही रखू। (20 पृष्ठ) 4-1 नोट, जैन कलाशिल्प पर। (यदि हो सके) ऊपर के 3 अध्यायो मे जैन दर्शन, धर्म शब्द में शामिल है। कब तक तैयार होगा? हिन्दी में लिखियेगा तो तरजमा करा लूगा नही तो अग्रेजी में भी लिख दीजियेगा। पत्र बरावर लिखते रहियेगा । काम शिथिल न पड़े। आपको Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र सारे इतिहास का ड्राफ्ट पास करना पड़ेगा, जैन और ऐतिहासिक दृष्टी से। इसी तरह राहुल जी से काम लूंगा। आपका का० प्र० जायसवाल (२३) Patna 5-2-34 श्रद्धेय मुनि जी, दर्शन देते जाइएगा। अगर आकार बढ जाये तो कोई हर्ज नही। 4-5 मास मे अध्याय तैयार हो जाय । श्री राहुल जी सीतामढी गये है। सहायता करने आने वाले है। __ मेरा मकान कुछ गिर गया । पर कोई हर्ज नही । दूसरो का दुःख बहुत है । उत्तर में। दीवान जी अच्छे जीव हैं। बरावर लिखते हैं। मैंने कुमार स्वामी को एडिटोरियल बोर्ड में रहने को लिखा है। उत्तर आ जाने से सब छाप दूंगा। यहाँ आइयेगा तव सव हाल बाकी बतलाऊंगा। सब पाठ तैयार हो जाने पर छापने के पहले आपको दिखा दूंगा। थापका का० प्र० जायसवाल (२४) Patna 2-3-35 प्रिय और श्रद्धेय मुनि जी, कोई जन श्वेताम्बर या दिगम्बर माङ्गलिक अथवा अन्य ऐसा चक्र है ? चतुष्कोण Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री काशीप्रसाद जायसवाल के पत्र १४७ यदि है तो क्या नाम है ? यह मुझे चन्द्रगुप्त मौर्य की चीजों पर सरकारी मार्का मिलता है। पर अशोक उसे छोड़ देता है । पुनः सम्प्रति के सिक्के पर मिलता है । सम्प्रति किसका लड़का था। कुनाल का नाम जैन साहित्य में है या नही ? कुनाल का राज्य हुआ या नही ? दशरथ भी यह चिन्ह रखता है पर दूसरे मौर्य नही। क्या यह जैन चिन्ह है ? फिर खारवेल तो श्वेताम्बर था, इसे नहीं रखता वह सिर्फ स्वस्तिक रखता है। स्वस्तिक का जैन साहित्य में क्या अर्थ है ? आपका काशीप्रसाद जायसवाल' (२५) Patna 14-3-35 . प्रिय मुनि जी, (1) कुनाल के विषय में जैन ग्रंथो में क्या है कि वह राजा हुआ ___था या नहीं। (2) आपके दर्शन कब होगे ? (3) ऐसा चतुष्कोण कोई चक्र जैन धर्म या साहित्य में है ? है तो क्या अर्थ है ? (4) विन्दुसार के विषय में, जैन साहित्य में कुछ है ? आपका काशीप्रसाद जायसवाल मेरा "मजु श्री मूलकल्प" वाला भारतीय इतिहास आपको मिला ? Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र (२६) Patna 22-3-35 श्रद्धय मुनि जी, मैं खारवेल के लिये तैयार हूँ । बरूआ ब्राह्मी अक्षरों का मामला नहीं समझते और उनके विचार बहुत कर बुद्धि के बाहर होते हैं । मैं २३ अप्रैल को जहाज से बम्बई से इग्लैण्ड जा रहा हूँ । २० ताः को इन्दौर में होऊँगा । क्या आपके दर्शन वहाँ हो सकेंगे ? हिन्दी साहित्य सम्मेलन में । मैंने इधर सिक्के हल किये । विशेष मिलने पर । 1 आपका काशीप्रशाद जायसवाल एक लड़का अम्बालालजी साराभाई के यहाँ मिल का काम सीखने गया है । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंजाब निवासी स्व. प्रख्यात एपिग्राफिस्ट डॉ. हीरानन्द शास्त्री के कुछ पत्र (१) कैंप नालंदा, पो. सिलाऊ ( बिहार ) ताः ६-४-२१ पूजनीय मुनिवर, आशा है आप सकुशल अपने स्थान पर पहुँच गये होंगे । और अपने शुभ कार्यों में लग गये होगे । आपके पीछे यहाँ बहुत सी उत्तमोत्तम चीजें निकली हैं जिनका वर्णन रिपोर्ट में छपेगा । यदि प्राप अंग्रेजी की रिपोर्ट पढ़ने हों तो भेजूंगा । मैं बिहार में जो जैन तीर्थ है या वैसे प्रसिद्ध स्थान है जिनका जैन मत से सम्बन्ध है, उन पर एक छोटा सा नोट लिखना चाहता हूँ । क्या आप कृपया उनकी सूची मुझे भेज सकते हैं ? जहाँ जहाँ उनका वर्णन हैं उन ग्रंथो के नाम भी । कही आपकी दृष्टि में मण्डन सूत्रधार के शिल्प ग्रंथ भी पड़ हों तो कृपया लिखें कौन कौन से और कहाँ कहाँ ? क्या उनमें से कोई मुझे देखने के लिये मिल सकेगा ? प्रभावक चरित्र का शुद्धि पत्र आप निकालने को कहते थे । क्या तैयार हो गया ? क्या मैं उसे देख सकूंगा ? आज कल गर्मी वहुत पडने लगी है अतः खनन प्रायः बंद करने लगा हूँ । कुछ दिन और यहां ठहरूगा । रिपोर्ट तैयार करके पटना चला जाऊंगा | मेरे योग्य कार्य हो लिखिये । विनीत हीरानंद शास्त्री 1 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र (२) फर्नहिल नीलगिरी ताः २-२-१९२४ श्रीयुत मुनि महाराजजी। ___संभव है कि आप मुझे भूले नही होंगे । दो साल से अधिक अर्सा हुआ आपके दर्शन नालंदा में हुए थे। एक पत्र मैंने आपको भेजा था। परन्तु उत्तर नही मिला । अतः चुप रहा अव मुनि श्री वल्लभविजयजी के कथनानुसार फिर लिखता हूँ संभव है उन्होंने भी आपको लिखा हो। मेरा विचार है कि प्रभावक चरित्र का शुद्धि पत्र छाप दिया जाय और प्रभावक चरित्र से जो जो एतिहासिक वातें निकल सकती हैं उनकी छान बीन करके इंग्लिश एवं हिन्दी मे भूमिका या दूसरा भाग इस रूप में छाप दिया जाय चाहे निर्णय सागर में चाहे अन्यत्र, जैसा हो, इसमें आपकी सहायता की आवश्यकता है। यदि कृपा हो तो यह कार्य हो जावे । यदि मैं मुनि श्री वल्लभजी के पास कहीं होता तो संभवतया यह कार्य शीघ्र हो जाता, अब बहुत दूर बैठा हूँ अतः डाक द्वारा ही सब कुछ होगा। यहाँ कोई लेखक या पडित भी नहीं है। यत्ल कर रहा हूँ कोई योग्य लेखक आ जाय तो ठीक हो। (अहिंसा तत्त्व ) की एक प्रति मिल गई है। जैसा मैंने प्रूफ देख कर ही लिख दिया था। बहुत ठीक उत्तर दिया गया है। भवदीय हीरानन्द शास्त्री पता-नाम फर्नहिल नीलगिरीज (मद्रास प्रान्त) (३) बड़ौदा २३-५-३४ श्री विद्वद्व र मुनि जी अभिवादनाद्यनन्तरकृपा पत्र मिला मैंने तीनों ग्रन्थ पढ़ डाले । प्रसन्न हुआ। आपने Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रख्यात एपिग्राफिस्ट डा० हीरानन्द शास्त्री के पत्र १५१ सम्पादन में पूरा परिश्रम लिया है। यही तो पुण्य है । प्रबन्ध चिन्तामणी में आपने जो " प्रस्तुत आवृत्ति की जन्म कथा", लिखी है उसे मैंने बडी रुचि से पढ़ा। प्रवत्तंक श्री कान्तिविजयजी महाराज के लिये जो कुछ लिखा, ठीक है । मेरी उनमें बहुत श्रद्धा है । यह तो श्री चतुर्विजयजी और पुण्यविजय जी त्रिरत्न हैं । मैं अपनी राय इसके साथ भेजता हूँ । यदि और कहें तो और लिख दूं । आज कल गर्मी बहुत है नीलगिरी पर रहने के कारण और अधिक प्रतीत होती है । अहमदाबाद की ओर आया तो अवश्य मिलूंगा । कभी २ कुशल पत्र भेजा करें | सबको यथा योग्य | (४) आपका विनीत हीरानंद शास्त्री Camp Kalol 12-10-36 श्रीयुत मुनि महाराज । आपका कृपा पत्र मिला, धन्यवाद । मुझे ज्ञात नही था कि आपके पास और भी सामग्री थी अच्छा फिर सही । मैं शायद लौटता हुआ दर्शन कर सकूं। सायंकाल को मेहसाना जाऊंगा वहा दो तीन दिन ठहरूं । आपके निमत्रण का अवश्य ही उपयोग करूंगा । जब कभी हो, सम्भव होने पर सीधा आपके पास चला आऊंगा कोई संकोच नही । कृपाकांक्षी हीरानंद शास्त्री Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ मेरे दिवंगत मित्रो के कुछ पत्र Camp PATAN 13-3-38 श्री मुनि प्रवराः बहुत समय हुआ न तो आपके दर्शन हुए न पत्र व्यवहार। जहां तक मुझे स्मरण है 'चुप्प' आपकी ओर से है। एक दिन अहमदाबाद देर तक ठहरना पड़ा यत्न किया आपसे मिलू मगर आपके स्थान पर, जहा मैं आपसे मिलता था पाप नही थे। पता लगा कि आपने कही दूर अलग मकान बना लिया है। कहा ? वह ज्ञात नही । कह नही संकता यह पत्र आपको मिले या न मिले।। ____ मैं परसो यहा से लौटू गा। ११ बजे के करीब अहमदावाद आ जाऊगा । यदि हो सके तो किसी आदमी को भेज दें उसके साथ आ जाऊंगा। १ बजे वाली गाडी मे बडौदा लौट जाऊंगा मुझे इस समय विशेप कार्य है । मैं विज्ञप्ति पत्रो पर एक लेख लिखना चाहता हूँ यदि आप सहायता करें तो कृपा हो । मेहता जी ने कहा है । यहां पुण्य विजय जी ने भी सूचित किया है। आपके पास बहुत सामग्री है। उन्होने विज्ञप्ति त्रीवेणी की पुस्तक भी पढने को दी। उसकी ओर प्रति शायद न मिले आपने ही छपवाया है । यदि कृपा होतो मैं आऊं। यह पत्र यदि समय पर न मिले तो बडौदा उत्तर दें। इन छुट्टीयो में वही रहूंगा। पता मेरा नाम और अलकापुरी बडौदा या केवल नाम ही। श्री प्रवर्तक जी मुनि जी अच्छे है। देख नही सके नही तो उनसे सहायता मिलती। कहते हैं फिर सामग्री इकट्ठा करके देंगे। आशा है आप सर्वथा प्रसन्न है । यहा कभी पधारें तो देखें कितना खोद काम कर डाला है। अगर आप अहमदावाद हो तो मैं बड़ौदा से भी आ सकता हूँ। ठीक ठीक मकान का पता दें। विनीत हीरानद शास्त्री Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रख्यात एपिनाफिस्ट डा. हीरानंद शास्त्री के पत्र १५३ अल्कापुरी बड़ौदा १७-३-३८ श्री मुनिजी प्रकाण्डा ! शायद मेरा पत्र आपको नहीं मिला। स्टेशन पर आपका कोई आदमी नही मिला । उत्तर भी नहीं पहुंचा। यदि आप अहमदावाद ही हो तो मैं एक दिन चला आऊँ आजकल दफ्तर बंद है । २३ तारीख तक छुट्टियां हैं। विज्ञप्ति त्रिवेणी से पता लगता है आपके हाथ उत्तम सामग्री है। यदि मलिक वाहण से भेजा, श्री जय सागर का पत्र (स, १४८४) देख सकू या उसकी एक दो फोटो ले सकूँ तो क्या ही सौभाग्य की बात हो । काँगड़ा में तो मैंने बहुत सा काम भी किया है एव १३ वीं शताब्दी का ताड़पत्र का तथा मुनि सुन्दर सूरी का स १४६६ का यदि कुछ सहाय दे तो कृपा हो। मेरी तो प्रार्थना ही है। मानना आपके आधीन है। आशा है आप उत्तर अवश्य देंगे। विनीत हीरानन्द शास्त्री (७) बड़ौदा ताः १-४-३८ श्री मुनिवराः आपका २६-३-३८ का पत्र मिला । धन्यवाद ! आशा है आपका स्वास्थ्य ठीक होगा। साबरमती का जलवायु आपके अनुकूल होगा। जहां तक मैं समझ सका हूँ आपका जैन लिटरेचर, इतिहास, शास्त्र ज्ञान अगाध है और मैं उससे बहुत कुछ सीख सकता हूँ। आपका यह कहना कि आप छात्र हैं आपके विनय और सौजन्य का Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र द्योतक है । मैं जब कभी आपसे मिला हू आपके सौजन्य से एवं पाण्डित्य से प्रभावित हुआ हूँ । मैं पाटण जाता हुआ और वहाँ से आता हुया ग्रापसे अवश्य मिला करूंगा । अहमदाबाद मे देर तक ठहरना होता है । विना किसी क्लेश के आ सकता हूँ | जाता हुआ प्रायः वहाँ एक बजे आता हूँ । चार तीस पर चलता हूँ एव लोटता भी दस साढ़े दस । वहा आकर १- ४० पर चला करता हूँ । टेक्सी ली और आपके पास पहुँचा । मैं आपको सूचना दूँगा पहले तो द्वारका जाना है फिर पाटण । I विज्ञप्ति पत्रो पर लेख लिख कर मैंने आज भेज ही दिया है । पुण्यविजयजी को लिखा था। प्रवर्तक महाराज के सग्रह मे से पत्र भेजें । उन्होंने उत्तर ही नही दिया । अब और क्या प्रतीक्षा करनी है । जो सामग्री मेरे पास थी उसी पर लिख दिया है । जब आपसे मिलूँगा तो आपको दिखलाऊंगा और आप वाला पत्र भी देखूंगा । यदि पाटण के सहस्र लिंग तालाब का कही वर्णन आता हो तो देख रक्खे | योग्य सेवा हो तो लिखें । (5) विनीत हीरानन्द शास्त्री PATAN T: 17-4-38 श्री मुनि जिनविजयजी महाराज, आशा है आप प्रसन्न हैं और अहमदावाद ही विराज रहे हैं । मैं २० तारीख को सवा दस या साढ़े दस बजे अहमदाबाद श्रा जाऊँगा । आप किसी को स्टेशन पर भेज दें। उसके साथ आ जाऊँगा । मिल के एक बजे की गाड़ी में लोटू गा । दर्शनाfभापी हीरानन्द शास्त्री Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रख्यात एपिग्राफिस्ट डा. हीरानंद शास्त्री के पत्र १५५ (8) BARODA 30.5.38 श्री सुहृदवर मुनि जिनविजयजी शायद मेरा पत्र आपको मिला ही न होगा। नहीं तो आप उत्तर अवश्य देते । सुना था आप करांची पधारे है । वापस लौट आये होगे । मैं तो इस बीच मे कई बार पाटण गया आया। यदि आप पत्र का उत्तर देते तो मैं तार द्वारा सूचना देकर आपके दर्शन कर ही लेता। शायद आप गर्मी के कारण नही लिखते होंगे। विज्ञप्ति पत्रो पर जो लेख लिखा है उसमें मुझे आपके पास जो पत्र हैं “सीधी जी" वाला, उसके फोटो देने को कहा गया है सो या तो आप फोटो भेजें जो मि० N. C. मेहता ने छापे है, आपकी ही किताव मे। और या विज्ञप्ति पत्र भेजने की कृपा करे शीघ्र, नहीं तो मुझे कहे अपने PEON को भेजू । उत्तर शीघ्र दे। दर्शनेच्छु हीरानन्द शास्त्री (१०) बडोदा ताः ४-६-३० श्री विद्वद्वर महाशया. ! प्रापका १ जन का पत्र मिला। आपका पहला पत्र नहीं मिला। शायद भृत्य ने पोस्ट ही न किया हो अथवा मेरे से ही कही गिर गया हो। मैं तो समझ रहा था आप करांची पधारे है ऐसा मजुमदार ने कहा था । अस्तु । मैं पाटण दो बार जा चुका हूँ। मैं भी ताः १७ को वापस आया। इसी वार मैं उपाश्रय नही गया नहीं तो वही दर्शन हो जाते। मैं जव NA - Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र कभी पाटण जाता हूँ प्रवर्तक मुनिजी के दर्शन कर ही लिया करता हूँ। इस बार नहीं कर सका । उसका दण्ड मिल गया । आपसे नहीं मिल पाया। मुझे भी थोड़े दिन में फिर वहाँ जाना है। आपको सूचना दूंगा। मुझे इस विज्ञप्ति पत्र का उत्तम फोटो लेना है, अपने लेख के लिये । जो मि. मेहता ने फोटो दिया है इतना सुन्दर नहीं। ___मैं पुण्य विजयजी से विज्ञप्ति पत्र लेकर फोटो तैयार करूंगा। और विज्ञप्ति पत्र वापस कर दूंगा। पुण्य विजय जी को लिख रहा हूँ। आप भी लिख दें। पुण्य विजयजी का मुझ पर विश्वास है, मेरा लेख तैयार है। अमेरिका में छपेगा। फेयर कापी एक दो दिन तक हो जायगी तभी तक फोटो बन जाय तो इकट्ठा भेज दूं। मैं जिस दिन पाटन जाऊँगा आपको तार दूंगा। मजुमदार जी को अपनी स्पीच हिन्दी मे लिख दी है आपका परिचय देकर। भवदीय हीरानन्द शास्त्री BARODA 11-6-38 श्री मुनिवराः आशा है मेरा पत्र आपको मिल मया होगा। मैं परसों सोमवार १३ जून को साढे १० पोने ११ बजे (Morning) को चलकर अहमदाबाद १४-४० बजे दोपहर को पहुँचूंगा। वहाँ से सांयकाल ४ बजे के लगभग पाटन की ओर चलूंगा। यदि आप अहमदाबाद हैं तो किसी को स्टेशन पर भेजने की कृपा करें। मैं उसके साथ आपके विहार मे आ सकेंगा। २-३ घण्टे बहुत समय है। शेष मिलने पर। विनीत हीरानन्द शास्त्री Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रख्यात एपिग्राफिस्ट डा० हीरानंद शास्त्री के पत्र १५७ (१२) D.O. No. 208/28 Director of Archaeology Baroda State, Baroda, the 28 नवम्बर 1939 श्री मुनिवराः चिरकाल से न तो आपके दर्शन ही हुऐ और न ही कोई कुशल पत्र मिला। आजकल आप कहां विराजते हैं और क्या काम कर मुझे विज्ञप्ति पत्रों पर एक सचित्र संदर्भ छापना है श्री प्रवर्तक महाराज से कई एक पत्र मिले है। और स्थानो से भी। मैंने आज श्री पुज्य जिनचन्द्र जी सूरी जी को भी लिखा है । मास्टर लक्ष्मी चन्द्र, सुखलाल जी से भी आपके सहाय्य से कुछ मिल जाय, कहिये उन्हे । अपने पास कोई हो तो भेजें। आपको ओर क्या लिवू । मित्रता का नाता है। दर्शनाभिलाषि हीरानन्द शास्त्री श्री मुनि जिनविजयजी जैन मुनि मालूंगा जी० आई० पी० रेल्वे मा Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राष्ट्र भाषा हिन्दी के महान् उन्नायक सरस्वती के श्रेष्ठ सम्पादक स्व० पं. श्री महावीर प्रसादजी के कुछ पत्र (१) जुही, कानपुर ताः १६-५-१५ श्रीमन्, शाकटायन पर लेख मिला । कृतज्ञ हुआ । धन्यवाद, छापूँगा । (२) विनीत महावीर प्रसाद द्विवेदी जुही, कानपुर ताः ६-११-१५ श्रीमन्, डाक्टर जैकोवी के जिस पत्र का अवतरण आपने लेख में दिया है, उस अवतरण के कुछ अंश का एक फोटो ग्राप भेजते तो कृपा होती अथवा आप उतना अंश मुझे ही भेज दीजिये । मैं फोटो उतरवा लूँगा । भवदीय महावीर प्रसाद द्विवेदी Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व. पं. महावीर प्रसादजी के कुछ पत्र १५९ (३) जुही, कानपुर ताः १३-११-१५ श्री मतांवर, कृपा पत्र मिला। जैकोबी साहब अच्छी संस्कृत लिखते ।। हैं । मै उनके दोनों पत्र सरस्वती में छापूगा । एक पत्र के कुछ अंश का फोटो भी दूंगा। काम होने पर पत्र लौटा दूगा। आशा है, इसमें आपको कोई ऐतराज न होगा। पत्र साहित्य विषयक है और साहव की योग्यता बताने के लिये छापे जायेगे। प्रतिकूल टीका के लिए नहीं। भवदीय महावीर प्रसाद द्विवेदी (४) दौलतपुर, रायबरेली ताः १०-१.१६ श्रीमन्, ६ तारीख का पोस्टकार्ड मिला । संशोधन में आपने जो कष्ट उठाया तदर्थ मैं आपका बहुत कृतज्ञ हूं। पुस्तकें आप यही भेज दीजिये । पर ऐसी हो जो मेरी समझ में आवे। जैन धर्म की गहन पुस्तको में मेरी बुद्धि का प्रवेश संभव नही। विनीत महावीर प्रसाद द्विवेदी Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र (५) दौलतपुर-रायबरेली ताः २०-१-१६ महोदय, १६ जनवरी का पोस्टकार्ड कल मिला । अाज ही सुबह इण्डियन प्रेस को लिख दिया कि काम हो गया हो तो जैकोबी साहब के दोनों पत्र तुरन्त सापको रजिस्ट्री करके भेज दिये जाय । पाटन चिट्ठी पहुँचने में चार पाँच दिन लगते हैं। २५ ताः को श्राप जाने वाले हैं। सूचना आपने देर से दी। यदि पत्र समय पर न पहुंचे तो क्षमा कीजियेगा। विनीत महावीर प्रसाद द्विवेदी दौलतपुर, राय बरेली ता: २०-२-१६ महोदयवर, १५ फरवरी का पोस्ट कार्ड मिला । निःसन्देह यह गलती है। बड़ी कृपा की जो मुझे सूचना दे दी। मैने "भ्रम संगोधन" छपने भेज दिया। सम्भव हुना तो फरवरी को संख्या में छप जायगा, नहीं तो मार्च की संख्या में। श्राप एक और लेख भेजने की कृपा कीजिए। भवदीय महावीर प्रसाद Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व. पं. श्री महावीर प्रसादजी के कुछ पत्र (७) (5) १६१ श्री मन्महोदय, कृपा कार्ड मिला । पुस्तक भी मिली । कृतज्ञ हुआ । अनेक धन्यवाद । ऐसी ही कृपा बनी रहे । जुही, कानपुर ताः २-१०-१६ श्री मन्तावर, आपका २० जून का पत्र साहित्य संशोधक" का प्रथम अ सूचनार्थं निवेदन है । विनीत महावीर प्रसाद द्विवेदी दौलतपुर, राय बरेली ताः ६-२-१७ श्रीमन्, ३१ जनवरी का कार्ड मिला । "कृपा रस कोश" की कापी भी मिली । इस कृपा के लिए अनेक धन्यवाद । समालोचना करूँगा । निवेदक महावीर प्रसाद द्विवेदी (ह) डाकखाना - दौलतपुर, राय बरेली ताः ६-७-२० आये कई दिन हुए, पर "जैन अब तक नही मिला । I विनीत महावीर प्रसाद द्विवेदी Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र (१०) जुही, कानपुर ताः ११ मार्च १९२२ श्री मतांवरेषु मुनिवर जिनविजय महोदयेषु ! निवेदन मिदम्-कृपा सूचक पत्र मिला। प्राचीन जैन लेख संग्रह, भाग २ की कापी भी मिली। कृतज्ञ हुआ। आपको मेरा स्मरण बना है यह मेरा सौभाग्य है । पुस्तक दिव्य है, बड़े ही महत्व की है। बड़े श्रम से आपने तैयार की है। अनेक प्राचीन ऐतिहासिक बातो पर प्रकाश डालने वाली है। धन्यवाद! विनीत महावीर प्रसाद द्विवेदी (११) डाकखाना-दौलतपुर, राय बरेली श्रीमान् मुनि जी महाराज, कृपा करके इस लेख को पढ़ जाइये। इसमें जो शब्द या नाम आदि अशुद्ध हों उन्हें शुद्ध कर दीजिये। विचारों में जहां भ्रम हो, दूर कर दीजिए । उचित समझिये तो और भी अपने किसी मित्र को दिखा लिजिये । नि:संकोच संशोधन करके इसे मेरे पास लौटा दीजिए। पर शीघ्र। पुस्तक-भंडारो पर आपका लेख कम्पोज हो गया। जनवरी की सरस्वती में निकलेगा। जेकोबी साहब के पत्र आपको लौटा दिये जायेगे । इसी पते पर लौटाइए। आपका महावीर प्रसाद द्विवेदी Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जर्मनी निवासी, राष्ट्रभक्त, भारतीय संस्कृति के . . . . अनन्य उपासक ___ स्व० श्री ताराचन्द राय के कुछ पत्र ता० २६-७-२६ Neuendorf Plogshagen 2 Hiddensee Bei-Schlieker प्रिय मुनि जी, यहाँ शोर है न धूल है। यहाँ सव ब्रह्मानन्द का मूल है । यहाँ सुख का ही रूल है। दुख केवल भूल है। विचरना असूल है। मुनि जी सच. कहू तो मेरी लेखनी मे सामर्थ्य नही कि यहां की खूबियो का वर्णन कर सक। मुझे.तो हिड्डिन अनिर्वचनीय आनन्द का द्वीप प्रतीत होता है। पातदिन मैं आपको याद करता है। यदि हो सके तो अवश्य आइये । झाउ डाक्टर जी वार वार कहती है । प्रणाम्। आपका शुभ-चिन्तक ताराचन्द राय (२) २५-६-३० प्रय मित्र मुनि जी, आपका Congress Free Hospital से लिखा हुआ पत्र मिला। इदय को दुख और हर्ष दोनो हुए। दुख इस कारण की आपको चोट पाई और हर्ष इसलिये कि आपने भारत माता पर अपने आपको निछावर कर देने के प्रयत्न में यह इनाम पाया। ईश्वर आपको जल्दी Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र बिल्कुल तन्दुरुस्त कर देने और कारावास के फंदे से निकाल कर स्वाधीन देश भक्तों के गोल के जुलूस में फिर मिला दें। मेरे हृदय में तो आप सदैव बसते है सब हिन्दी भाई आपको वन्दे मातरम् कह भेजते हैं। मैं इस हफ्ते कोलोन जा रहा हूँ वहां के रेडियो वालों ने तीन व्याख्यानो के लिये बुलाया है। आप अपना वृतान्त यथा शक्ति भेजते रहना। भवदीय ताराचन्द राय Berlin, Wilmess Dorf Hohenzollern Damm 161 B. 3 V ताः २३-७-३० Berlin, wilmessdorf Hohenzollern Damm 161 B.3 V प्रिय मुनि जी आपकी ओर सदैव ध्यान रहता है। मित्रों से आपही के विषय में बातचीत होती है । आपका क्या हाल है। आप कहां है ? क्या आपको पत्र पहुँचते रहते हैं ? रवीन्द्रनाथ ठाकुर आजकल फिर जर्मनी में हैं । विश्व विद्यालयो मे अंग्रेजी भाषा में व्याख्यान देंगे। बलिन मे तथा म्युनिक में बोल चुके हैं। अभी फ्रान्क फोर्ट और मारबुर्ग में बोलेंगे । विश्व विद्यालयों में अनुवाद की आवश्यकता नही है। इस कारण में उनके साथ नहीं गया। मैंने "Hamburger Fremdenblatt" उनके views पर एक लेख लिखा है। यदि आप पढना चाहे तो भेज दूं आप पहले यह लिखें कि पत्र आपको पहुँचते हैं या नही । भवदीय ताराचन्द राय Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व. श्री ताराचन्द राय के कुछ पत्र (४) प्रिय मुनिजी, Rome. 26-8-30 . आपको मेरा पिछला कार्ड तो अवश्य मिल गया होगा, अव आप पिछला पूरा वृत्तान्त लिखिए। मैं श्राज छुट्टियों के दिनों में दूसरे देशों से होता हुआ रोम पहुँचा हूँ। और यहाँ के नजारे देख रहा हूँ । एक समय वह था कि सारा जगत रोम के सामने दम न मार सकता था । मुसोलिनी का रोव तो बड़ा है पर देश में वह पुरानी शान शौकत नहीं दिखाई देती ! जर्मनी का मुकाबला इटली नहीं कर सकती । नाथुराम प्रेमी जी को मैं जल्दी उत्तर दूंगा। इस वर्ष मुझे ईश्वर की कृपा से महात्मा जी पर व्याख्यान देने के लिये कई युनिवर्सिटियो और सभाओं से निमंत्रण आये हैं । (५) भवदीय ताराचन्द राय १६५ Berlin-Wilmessdorf Hohen Zollerndamm 35 Dated 6-10-30 प्रिय पडित सुखलालजी, कृपया यह पत्र मुनिजी को भेज दीजिए। यदि आप मुझे हिन्दुस्तान के सत्याग्रह युद्ध तथा असहयोग एवं महिलाओं और युवकों की उन्नति प्रदर्शक तस्वीरें भेज सकें तो अवश्य रवाना कीजिए। मैं यहाँ magic lantern slides बनवाकर इन्हें व्याख्यानों मे इस्तेमाल करना चाहता हूँ । जो कुछ लागत आएगी में बडी खुशी से दिया करूंगा । आप मुझे सव प्रकार के चित्र बराबर भेजते रहिएगा। बड़ी कृपा होगी । दाम प्रत्येक बार साथ लिख दिया कीजिए । मैं आपका पत्र आते ही दाम रवाना कर दिया करुगा। यहां एक Publisher ने मुझे भारत वर्ष पर एक पुस्तक लिखने के लिये कहा है । क्या आप इस । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र विपय में मुझे ऐसी सामग्री भेजकर अथवा भिजवाकर जो किसी पुस्तक मे छपा न हो, मेरी सहायता कर सकते है ? भवदीय ताराचन्द राय Berlin=Wilmessdorf Hohen Zollerndamm 35 Dated 17-3-71 प्रियतम मुनिजी, ____ क्या मित्रता इसी को कहते हैं ? मैंने आपको इतने पत्र लिखे हैं। परन्तु आपने अभी तक कोई उत्तर नही दिया। क्या कारण है ? यदि मुझसे कोई अपराध हो गया हो तो क्षमा कीजिये । आपकी रिहाई का वृतात सुनकर मेरे हर्ष की सीमा नही रही। आप सब हाल लिखकर अनुगृहीत कीजिये । मैं आपके पत्र की वाट देखता रहूगा । आप यह पढ़कर अवश्य खुश होगे कि मैंने इस Winter Semester मे जर्मनी के नगरों और ग्रामो मे "महात्मा गांधी और भारतवर्प" पर पचास ध्याख्यान दिये है। कल वलिन के Sersing Hochschule में C. Z. Klot zel के बाद मैंने लेक्चर दिया था लोग चकित हो गये । यह ईश्वर की कृपा है । गतमास मे विश्व भारती के Asst. Director बाबू काली मोहन घोष यहाँ आए थे उनसे खूब वातें हुई। उत्तर शीघ्र दीजियेगा। . . आपका किंकर ताराचन्द राय Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राष्ट्रभाषा हिन्दी के अनन्य उपासक, देश भक्त, उत्साही परिवाजक स्वर्गीय स्वामी श्री सत्यदेव जी के कुछ पत्र c/o American Express Co. Kola Germany 4-1-29 प्रिय जिन विजय जी आपका पत्ता पाकर मैं वडा प्रसन्न हुआ। मैं विएना से चलने वाला था इस कारण पत्र न भेज सका। आप कृपया लौटती डाक से लिखिये कि आप बलिन मे कब तक रहेगे। मैं कार्य वशात् इग्लैंड जारहा हूँ। Koln मे मंगलवार लौट आऊँगा। अगला सप्ताह 13 जनवरी तक मैं यहाँ हूँ। यदि आप बलिन रहें तो मैं सोमवार 14 जनवरी को आपके पास पहुँचू । आपसे मिले बहुत दिन हो गये। उत्तर लौटती डाक से। सस्नेह Swami Satya Deva c/o American Express Koln, Germany (२) C/o Conrad Dobbelstein Burgmaner Strasse 31 Koln Dated 10-1-29 प्रिय मुनि जी मैं अपने चश्मे की वाट देखता था। वह माज विएना से आया है। अब मुझे बलिन मे कमरा चाहिये । आप राय जी को टेलीफोन Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र पर कहे कि मेरे लिये कमरा तलाश करें। कर्ताराम को भी कहें। आप । लोगों का पत्र आने पर मैं फौरन आऊँगा खाना बनाने की सुविधा वहां । होनी चाहिये । नहाने का आराम भी। कर्ताराम इन सब बातों को जानते हैं। भवदीय सत्यदेव (३). Bei Conrad Dobbelstein Burgmaner Strasse 31 __Koln 21-1-29 प्रिय मुनि जी आपका पत्र मिला । मैं तो अपना बलिन जाने का इरादा छोड़ चुका था। यहाँ के लोगों ने मुझे कहा है कि बलिन में इन्फ्लुएन्जा है। हजारो लोग बीमार है। स्कूल कॉलेज सब बन्द हो गये हैं। मैंने समझा कि आप लोग भी कही चले गये होगे। कृपया लिखिये, यह क्या बात है ? मै आऊँ या नही ? आपका उत्तर आने पर मैं प्रोग्राम बनाऊँगा और सब ठीक लिखूगा । आप सब सच्ची दशा लिखिये । दर्शनाभिलाषी स. देव . Koln 25-1-29 , प्रिय मुनिजी मैं रविवार २६ जनवरी को सवेरे साढ़े आठ बजे की गाडी से चलूगा और शाम को पाच बजकर २५ मिनट पर Potsdam Banhop स्टेशन पर पहुँचूंगा। जो ट्रेन छः बजे के बाद पहुँचती है वह बडी खराब गंदी गाडी है उसमे पोल और रूसी भरे रहते है। इसलिये मैंने यह ट्रेन पकड़ना उचित समझा है । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व. स्वामी श्री सत्यदेवजी के कुछ पत्र १६६ आप मेरे लिये अच्छे कमरे का प्रबन्ध जरूर करवा रखेंगे। भवदीय सत्यदेव Reaching Potsdam Station 5. 25 evening Sunday please come there and not at Fredric Strasse. Dated 10-9-29 C/o R. Simons, Lubecke Str. 15. Koln Germany. प्रिय मुनिजी-आपके दो पत्र-लेख-भी मिला । उसे मैं सरस्वती में छपने के लिये भेज रहा हूँ। अब मुझे यहाँ शहर में अच्छा कमरा मिल गया है और मैं जर्मन सीखने के लिये Borditz स्कूल में जाने की सोच रहा हूँ। आपका पत्र अभी मैंने पढा नही-पढ़ा नही गया । क्योकि पेंसिल की घसीट मेरी आँखो को कठिनाई में डाल देती है। शाम तक पढूगा। पर मैं यही समझा कि आप वलिन बुला रहे है । यदि एक सप्ताह पहले आप बुलाते तो मैं फोरन चला पाता। अब मै नये घर के मालिक को वचन दे चुका, आधा सामान रख चुका इसलिये महिने दो महिने तो वहाँ का रंग देखना ही पड़ेगा। मैं समझता हूँ जाड़े मे फिर आपके पास आ धमकूगा। वाकी आपका पत्र पढने पर सप्रेम स. देव Muni Jinvijaya Hindustan house Berlin cherlotten burg Unland, strasse 179 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र 25-11-30 मेरे प्यारे जिनविजयजी मै यहाँ सेठ रेवाशंकरजी के मकान पर ठहरा हुआ हूँ। आप इस पत्र को पाते ही मुझसे मिलने आवें। जरूरी काम है। बाकी मिलने पर । मेरे घुटने में चोट के कारण मै वहाँ नहीं पहुँच सकता। सरदार बल्लभ भाई तथा श्री महादेव देसाईजी को मेरा सप्रेम बन्देमात्रम् कहें। सस्नेह सत्यदेव Muni Jinvijay Gujarat Vidyapeeth Ahmedabad, ,B B. & C.I. Rly. (७) c/o American Express Co., Bombay 31.12.30 प्रिय मुनिजिनविजयजी, __३० अक्टुवर का पत्र लिखा हुआ हरमीनस का मुझे , कल मिला। 'उसमें ६००-८०० मार्क के विश्वविद्यालय से खर्च की चर्चा है। ताकि डिप्लोमा मिल सके। क्या आपको भी कोई पत्र आया है ? आपने क्या किया है ? मुझे दुख है कि यह पत्र बहुत देर से-D.L.O. की मार खाता हुआ यहाँ मिला। क्या उन्होने विश्वविद्यालय में पढ़ना शुरू कर दिया ? या रुपये के कारण काम रुक गया है। उनके पास पैसा जल्द खर्च हो जायगा इस लिये कोई स्कीम बनाकर काम करें। मैंने उत्तर लिख दिया है । आपका Muni Jin Vijayji Shantı Niketan Bolpur, Bengal Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व, स्वामी श्री सत्यदेवजी के कुछ पत्र १७१ C/o Post Master Nainital, U.P. 26.8,31 मित्रवर, ___मेरी इच्छा तुम्हारे पास आकर शाति निकेतन मे रहने की होरही है। विचार यह है कि अगला जाड़ा मार्च तक वही बिताऊ और साहित्यिक कार्य करूं। वहाँ जर्मन के अभ्यास की भी सुविधा होगी। मेरे पास पढ़ने लिखने वाला विद्यार्थी है। अब आपका छात्रावास है ही खर्च देकर भोजन मिल ही जायगा। _ 'तुम्हारी क्या राय है ? क्या रहने का स्थान दिलवानोगे ? उत्तर शीघ्र देना। मैं फिर प्रोग्राम-बनाऊँगा और लाहोर से पुस्तके अपने साथ लेता आऊँगा। अक्टूबर के प्रथम सप्ताह तक आ सकूगा। फिर छः मास स्वाध्याय होगा। उत्तर शीघ्र-- सस्नेह सत्यदेव परिव्राजक (९) 13, Bara Khamba Road, New Delhi. 23.6.32 मेरे प्यारे जिन विजयजी, मैं यह पत्र आपके पास भेज कर नम्र निवेदन करता हूँ कि इस अभागिन पर दया कर उसके आने का प्रवन्ध कर दीजिये। उसे आशा में लटकाए रखना पाप है। यहाँ उसके लिये कोई न कोई काम निकल ही आएगा। उसने बीमारी मे कैसी सवारतीपाश्री योर इसे स्मरण कर अपना कर्तव्य पालन करना है American-EBfdado, की मार्फत स्टीमर के किराये का प्रवन्ध करू लडेर ने करें Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र (१०) . , सत्य ज्ञान निकेतन ज्वालापुर ११-७-४५ 'प्यारे मित्र जिन विजयजी सप्रेम वंदे मातरम् उदयपुर के हिन्दी साहित्य सम्मेलन के आप स्वागताध्यक्ष चुने । गए। यह जानकर मुझे बड़ासंतोष हुआ। और मैं आपके सम्मेलन की हृदय से सफलता चाहता हूँ। मेरी ओर से आप सम्मेलन प्रतिनिधी को कह दीजिए कि सम्मेलन सारे भारत वर्ष में राष्ट्र लिपी देव नागरी के शुद्ध स्वरूप का प्रचारक है। उसकी यह प्रतिज्ञा है कि सव प्रान्तीय लिपियाँ देवनागरी अक्षरों में लिखी जाय । ऐसा भगीरथ प्रयत्न हमें करना है। संस्कृत निष्ठ हिन्दी भाषा ही बहुसंख्यक भारतीयों की राष्ट्र भाषा होगी। हिन्दुस्तानी की रचना करना समय और शक्ति का दुपयोग करना है। जो शब्द हिन्दी भाषा में घरेलू से बन गए हैं वे उसका अंग बने रहेंगे लेकिन हिन्दी भाषा को बिगाड़ कर हिन्दुस्तानी का रूप देना शुद्ध राष्ट्रीयता के साथ विश्वास घात करना है। ; मंगलाभिलाषी स्वामी सत्यदेव परिव्राजकाचार्य श्रीमुनि जिन विजयजी स्वागताध्यक्ष हिन्दी साहित्य सम्मेलन Udaipar Mewar State. . Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध साहित्य के जगत् विख्यात विद्वान, हिन्दी भाषा के सुप्रसिद्ध लेखक • महापण्डित, स्व. राहुल सांकत्यायन के कुछ पत्र Tkachei 28/10 Leningrad 25.10 45 Muni Jinvijaiji Bhartiya Vidya Bhawan Harvey Road, Bombay My dear Muniji, I hope you got my privious letter which I sent to you after reaching here in the month of June. For the time being I am working as a professor of Sanskrit and Hindi in the University. In the next April I will visit Central Asia, and possibly in the spring of 1947 will return to India. That is all from this side. Is 'Vinaya Sutra' out? What about 'Pramanavartika Bhashya'. Is it in the press, send me the proof. Where is Pandit Sukh Lal ji ? Did you get a copy of my “Hindi Kavya Dhara" from its publisher ? I have given the name of "Bhartiya Vidya Bhawan" for the exchange of scientific publications. Please let me know if you got any publication. With best regards. your's Rahul Sankartyayana Muni jinvijaiji. Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र (२) बम्बई प्रिय मुनि जी 26-8-47 पत्र पाकर वडी प्रसन्नता हुई। मिलने के लिए बहुत उत्सुक हूँ। भारतीय विद्या भवन गया था। पता लगा आप अहमदावाद में है। अभी तो युक्त प्रान्त बिहार को जा रहा हूँ पहली सितम्बर को। नवम्बर मे फिर बम्बई आने का विचार है। नही होगा तो मिलने के लिए अहमदाबाद तक का धावा मारूँगा। भारतीय विद्या भवन वालों ने विनय सूत्र के छापे फार्मों को देने के लिए कहा। मिल गया तो भूमिका लिख दूंगा । कुछ तुलना भी कर दूंगा । मेरा पता रहेगा, किताब महल जीरो रोड, इलाहाबाद । मैं यहाँ 17 सितम्बर को पहुँचा । पुत्र पत्नी को नही लाया। कम से कम दो साल भारत से जाने का विचार नही है। आपका राहुल सांकृत्यायन श्री मुनि जिनविजयजी नरेन्द्र भाई का वंगला एलिस ब्रिज, अहमदाबाद (गुजरात) किताब महल प्रयाग प्रद्धेय मुनि जी ३-२-४८ ___ मैं यहाँ आकर फिर घूमने चला गया था। "प्रमाण वात्तिक भाष्य" मुझे मिल गया है। भारतीय विद्या भवन के पते मे सन्देह हो गया है। इस पत्र का उत्तर आ जाएगा उसी समय ५००) भेज दिए जाएगे। साहित्य सम्मेलन की ओर से स्वयं भू के रामायण और महाभारत के संक्षेप (पाच २ सौ पृष्ठ) छाया सहित छापने का विचार हो रहा है। कापी करने का व्यय दिया जाएगा। क्या कापी करने का Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापण्डित, स्व. राहुल सांकृत्यायन के कुछ पत्र । १७५ प्रवन्ध हो जाएगा ? कितना व्यय होगा ? कापी से संक्षेप करके मेरा विचार है और उपलब्ध प्रतियों से पाठ भेद लेना । स्वयभू का पूरा प्रचार होना चाहिए। आपका राहुल सांस्कृत्यायन Muni jinvijayaji Kalyan Society Ellise Bridge Ahmedabad. (४) Hearne Clift. Happy Valley Mussoorie. 20.7.50 श्रद्धेय मुनिजी, मैं इस मकान को खरीदकर यहाँ बारहो महिनों के लिये आगया हूँ। मधुमेहके नियंत्रण तथा लिखने पढ़ने की सुविधा के कारण ही यहाँ स्थायी निवास बनाना पडा। मैंने पुस्तकों का सग्रह कुछ किया है । क्या भारतीय विद्याभवन के प्रकाशनो की एक एक प्रति (भारती के लिये भी) प्रदान करने की कृपा करेंगे न ? मैं उनपर कुछ लिखने का भी विचार रखता हूँ, जिसमें लोगो को उनके महत्व का परिचय हो। रेलवे पार्सल E.I.R., Out Agency Mussroorie पर भेजना चाहिये । समय पर सूचना न मिलने से मैं बम्बई नही आसका । आशा है, आप स्वस्थ एवं प्रसन्न होगे। श्रीमुनि जिन विजयजी राहुल सास्कृत्यायन Clo Rajasthan Puratatva mạndir Sankrit College Bhawan Jaipur. आपका Page #204 --------------------------------------------------------------------------  Page #205 -------------------------------------------------------------------------- _