Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरि अष्टम-शताब्दी
स्मृति-ग्रन्थ
प्रकाशक
श्रीमणिधारी अष्टम शताब्दी समारोह समिति
दिष्टी
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
PADM
RSS याय
मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसरि
OESHD
अष्टम शताब्दी
स्मृति-ग्रन्थ (सं० १२२३-२०२७)
TAM
SAASHRAM
सम्पादक
अगरचन्द नाहटा, भँवरलाल नाहटा।
H22
LOD
मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसरि अष्टम शताब्दी समारोह समिति, दिल्ली
S:
TUITION
NEL
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रकाशक:मणिधारी श्री जिमचंद्रसूरि अष्टम शताब्दी समारोह समिति ५३, रामनगर नई दिल्ली-५५
सन् १९७१ वीर संवत् २४६७
मूल्य १०)
मुद्रक श्री शोभाचन्द सुराना रेफिल आर्ट प्रेस ३१, बढ़तल्ला स्ट्रीट कलकपा-७
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रस्तावना
परमाराध्य प्रातः स्मरणीय दादा साहब योगीन्द्र युग- प्रसिद्ध हैं। महरोली में जो 'बड़े दादाजी' नाम से प्रधान श्रीजिनदत्तसूरिजी का प्रभाव जैनजगत में सुप्रसिद्ध प्रसिद्ध आठ सौ वर्ष प्राचीन परमपावन दादावाड़ी अपना है। आप अतिशयधारी, शासन के महान् प्रभावक और महत्वपूर्ण अस्तित्व रखती है, आपही का स्मारक स्थान कान्तिकारी महापुरुष थे। आपने तीथंकर महावीर प्रभु है। दिल्ली में कितने ही पट परिवर्तन हुए हैं फिर भी इस के प्रकाशित धर्म को सामाजिक रूप देकर जातियों-गोत्रों अध्यात्मिक प्रकाश-स्तंभ को चिरस्थायी ज्योति अवश्य ही को स्थापना को, चैत्यवासी यतिजनों में फैले हुए शिथिला- एक चमत्कारिक और आश्चर्यपूर्ण है। चार को दूर कर उन्हें विधिमार्गानुगामी बनाया। यह
युगप्रधान श्रीजिनदत्तसूरिजी के अष्टम शताब्दी आपके ही सत्प्रयत्नों का फल है कि भगवान का शासन
महोत्सव सं० २०११ में अजमेर में मनाने के समय से ही आज भी जयवन्त है। आप आत्मद्रष्टा और अनेक देवदेवियों द्वारा पूजित थे। आपही के पट्टधर मणिधारी श्री
मणिधारी जो को अष्टम शताब्दो दिल्ली में मनाने का जिनचन्द्रसूरि जो अनेक भवों की साधना लिए हुए देवलोक
मनोरथ उद्भुत हुआ था पर देश, काल, भाव के उपयुक्त
अवसर की प्रतीक्षा में, आध्यात्मिक मूर्धन्य महापुरुष द्वारा से अवतरित, अद्भुत प्रतिभा सम्पन्न षट्वर्षायु में दीक्षित
विलम्बित समय निर्देश पर परमपूज्या शाशन-प्रभाविका अष्टवर्षीयु में आचार्यपद और चतुर्दश वर्षायु में युगप्रधान
प्रवत्तिनी जी श्री विचक्षणश्रीजी महाराज की प्रेरणा से पद प्राप्त महापुरुष थे। उन्होंने ओसवाल, श्रीमाल और
अष्टम शताब्दी महोत्सव समिति ने तिथी निर्धारित अवश्य महित्तयाण जाति के अनेक गोत्र प्रतिबोध किये । अनेक विधि
कर दो और साध्वोजो तरफ से ग्रन्थ की तैयारी करने की चैत्यों की प्रतिष्ठाए की, अनेकों को श्रमणधर्म की दीक्षा
प्रेरणा होते हुए भी प्रकाशन निर्णय अत्यधिक विलम्ब से दो और दिल्ली के सम्राट मदनपाल तोमर जैसे नरेश्वर को प्रतिबोध दिया' । वे सुप्रसिद्ध गूर्जरेश्वर कुमारपाल
हुआ। हमने इत:पूर्व विद्वानों को एक आवेदन भी
निबन्धादि प्राप्त्यर्थ भेडा जिसमें हमारी योजना थी कि और महान् जैनाचार्य हेमचन्द्रसूरि के समकालीन थे। त्रिभुवनगिरि के यादव राजा कुमारपाल तो आपके गुरुवर्य
नाम यहनन्य दादासाहब ओर उनके अनुगामो महापुरुषों के दादा श्रीजिनदत्तसूरि द्वारा प्रतिबोधित था ।
परिचय के साथ साथ खरतरगच्छ के विषय में एक मणिधारीजो को कोर्ति जगद्विख्यात है। वे अप्रतिम सर्वाङ्गीण महत्ता प्रकाशक ग्रन्थ हो । उसके लिये कम से व्यक्तित्व एवं प्रतिभामति यगप्रवान परुष थे। आपका कम छः आठ महीने का समय अपेक्षित था पर दो मास
पूर्व निर्णय होनेसे हमें इस स्मृति ग्रन्थ का तैयार करने का स्वर्गवास सं० १२२३ भाद्रपद कृष्ण १४ को भारत की । राजधानी दिल्ली में हम था। आप दूसरे दादा नामसे आदेश मिला। १ देखिये, हमारी 'मणिधारी श्रीजिनचंद्रसूरि' द्वितीयावृत्ति के लिये गत पचीस वर्षों से प्रयत्न करने पर भी २ इसका प्राचीन काष्टफलक चित्र जेसलमेर, थाहरूसाहजी पाठकों के समक्ष रखने में हम असफल रहे हैं। के शानभंडार में है जिसकी प्रतिकृति प्राप्त करने
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
हमारी जिस विभाग क्रम से ग्रन्थं प्रकाशन की योजना प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान जोधपुर, बीकानेर आदि, अभय थी, लेखों-निबन्धों को प्राप्त करने के लिये बारम्बार प्रेरित या अ० बोकानेर हमारे अभय जैन ग्रन्थालय, वि० कोटाकरने पर भी थोडे से लेख आये और वे भी विलम्ब से। महो• विनयसागर संग्रह कोटा, धर्म-आगरा-विजयउन्हें योजनानुसार क्रमबद्ध प्रकाशित करने में पूर्ति के हेतु धर्मसूरि ज्ञानमन्दिर, आगरा, सेठिया अगरचन्दभैरूदान हमें हाथोंहाथ लिखकर प्रेस में देना पड़ा। इधर कलकत्ता सेठिया को लायब्ररी बीकानेर, लींबड़ीलीबड़ी का ज्ञानकी विषम परिस्थिति में हड़ताल, मुहर्रम, होली की छट्रियाँ भंडार, वृद्धि-जेसलमेर यतिवृद्धिचन्द्रजो का भंडार, डूंगर= और चुनाव के चक्कर के साथ साथ मुद्रण यंत्र की हड़ताल यतिडुगरसोजी का भंडार, हरि० लोहावट श्रीजिनहरिखराबी आदि कारगों से हमारी योजनानुसार दिये गये सागरसूरि ज्ञानभंडार लोहावट, क्षमाबीकानेर-उ० क्षमालेख नहीं छप सके और अन्त में वापस लाने पड़े। यद्यपि कल्याणजी का भंडार तथा बड़े उपाश्रय में स्थित बड़े इस ग्रन्य में कुछ पूर्वाचार्यों ओर गत शतक के दिवंगत ज्ञानभंडार में दस विभाग हैं जिनमें महिमा महिमाआचार्यो-मुनियों का परिचय तो हम दे पाये हैं पर खरतर भक्ति, महर=महरचन्दजी, दान-दानसागर भंडार आदि गच्छ की मूलाधार साध्वीमंडल जिसका हमें विशेष गौरव तथा कांतिछाणी = प्रवर्तक श्री कान्तिविजयजी का भंडार, है, उनके कुछ आये हुए लेख भी नहीं दे सके इस बात का छाणी आदि संक्षिप्त निर्देश, शोधकर्ताओं को थोड़ा ध्यान हमारे मन में बड़ा भारी खेद है ।
देने से समझ में आ जायेंगे। ___ इस ग्रन्थ में कुछ ठोस सामग्री जैसे-दीक्षा नन्दी इस महत्त्वपूर्ण श्लाघनीय कार्य सम्पादन के लिए सूची, तीर्थो के विकास में खरतरगच्छ का योगदान, श्रीविनयसागरजी अनेकशः धन्यवादाहं हैं। खरतरगच्छाचार्यो' द्वारा प्रतिबोधित गोत्र, अप्रकाशित अजमेर में श्रीजिनदत्तसूरि अष्टम शताब्दी के अवसर प्राचीन ऐतिहासिक काव्यादि अनेक महत्त्वपूर्ण निबन्ध पर हमारी नम्र प्रार्थना से पूज्य गुरुदेव सद्गत श्रीसहजातैयार होने पर भी नहीं दिये जा सके । आशा है पाठकगण नंदघनजी महाराज ने दादासाहब के लोकोत्तर व्यक्तित्व हमारी विवशता समझेगे।
पर प्रकाश डालने वाला महत्त्वपूर्ण विस्तृत निबन्ध "अनुहमने इस ग्रन्थ में एक महत्त्वपूर्ण ठोस सोमनी दी है- भूति की आवाज' लिखा था, जो अब तक उनकी सारी खरतरगच्छ साहित्य सूची, जो दूसरे विभाग में है। यह रचनाओं को भाँति हो अप्रकाशित है, हमने इसमें देने के कार्य अपने आपमें एक बहुत बड़ा और गत ४० वर्षों से लिए प्रेसकापी भी तय्यार करायो था पर सीमित समय सम्पन्न श्रमसाध्यशोधपूर्ण कार्य है जिसके निर्माण में हमारे में अन्यान्य लेखों की भाँति वह भी अप्रकाशित रह गया । सैकड़ों ज्ञानभण्डार आदि के अवलोकन-नौंध का उपयोग श्रीमानचन्दजी भंडारी ने हमें कापरड़ाजी तीर्थ के सतर्कता के साथ किया गया है। मुद्रित, अमुद्रित के लिये कई ब्लाक, घंघाणी तोयं के चित्रादि के साथ कापरड़ाजी मु० १० लिखा है। रचनाओं को विषय वार विभक्त करके का इतिहास और भानाजी भंडारी का परिचयात्मक रचयिता और उनके गुरु का नाम, रचना समय, निर्देश के विस्तृत लेख भेजा था पर उपर्युक्त कारणों से चित्रों को साथ-साथ प्राप्तिस्थान के उल्लेख में स्थल संकोच वश प्रकाशित करके भी लेख नहीं दिया जा सका । इसी प्रकार कुछ संक्षिप्त संकेत व्यवहृत किये गये हैं, जिनका यहाँ दिशा- पूज्य मुनि महाराजों, साध्वीजी महाराज व अन्य विद्वानों सूचन करना समीचीन होगा। जैसे राप्राविप्र राजस्थान के लेखों तथा हमारी योजनान्तर्गत उपरि निर्दिष्ट ठोस
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
सामग्री के साथ-साथ खरतरगच्छीय प्रतिष्ठा लेख सूची आदि का भी भविष्य में सुअवसर प्राप्त कर उपयोग करने का विचार है। इस प्रकार के महोत्सव सामाजिक संगठन और नवचेतना जागरण के लिए नितान्त आवश्यक हैं । सं० २०३२ में दादा श्रीजिनदत्तसूरिजी के जन्म को ६०० वर्ष एवं सं० २०३७ में दादा श्रीजिनकुशलसूरिजी के जन्म को ७०० वर्ष पूर्ण होते हैं, आशा है भक्तगण प्राप्त सुअवसर का अवश्य लाभ उठावेंगे ।
इस ग्रन्थ में दिये गए चित्रों में कई हमारे संग्रह के ब्लाक, श्रीजिनदलसूरि सेवा संघ, जैनभवन, जैन श्वे० पंचायती मन्दिर, परमपूज्या प्रवर्तिनीजी श्रीविचक्षणश्रीजी द्वारा श्रीहीरालाल एण्ड कम्पनी मद्रास से प्राप्त महावीर स्वामी के तिरंगे ब्लॉकों का उपयोग किया गया है जिसके लिए सम्बन्धित सज्जनों का आभार प्रकट किया जाता है ।
इसकी चित्र सामग्री जुटाने में हमें पूरी चेष्टा करनी पड़ी । गुरुभक्त श्रीलक्ष्मीचन्दजी सेठ का द्वार तो सदा की भांति खुला ही रहता है, साधु-मुनिराजों के व दादावाड़ियों आदि के चित्र उनसे प्राप्त हुए हैं । श्रीहरिसिंहजी श्रीमाल व श्रोमोतीचन्दजी भूरा ने जीयागंज पधार कर वहाँ के दादासाहब सम्बन्धी गणेश मुसब्बर को चित्र - समृद्धि का फोटो लाये, श्रीमानिकचन्दजी चम्पालालजी डागा, चन्द्रपुर से मणिधारोजी का चित्र एवं मोतीलाल गोपालजी ने कच्छ भुज से हमें भद्रेश्वर दादावाड़ी का चित्र भेजा । जैन जर्नल के विद्वान सम्पादक श्रीगणेशजी ललवानी का सहयोग भी अविस्मरणीय है। गुरुदेव के अनन्य भक्त श्री रामलालजी लूणिया तो प्रेरणा स्रोत हैं, प्रत्यक्ष या परोक्ष आत्मीय जनों को सद्भावना और सहयोग से ही कार्य निष्पन्न हुआ है ।
Bij
भारत के सुप्रसिद्ध चित्रकार श्रीइंद्र दूगड़ जो स्वयं गुरुदेव के अनन्य भक्त हैं, हमारे अनुरोध से दिल्लीपति महाराजा मदनपाल के साथ परमपूज्य मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरिजी का एक नयनाभिराम चित्र बनाकर इस शुभ अवसर पर प्रस्तुत किया, जिसके लिए हम किन शब्दों में उनको प्रशंसा करें, वे शब्द मिलते नहीं । ऋषभदेवप्रभु के जीवन प्रसंगों का तिरंगा चित्र, कलकत्ता दादावाड़ी का जिनदत्तसूरि जीवन प्रसंग चित्र, सद्गुरुदेव श्रीसहजानन्द
जी महाराज का रेखा चित्र तथा आपके द्वारा लिए हुए महरोली के फोटोग्राफों से हमारे इस ग्रन्थ की शोभा
भद्धि हुई है । उनके सुपुत्र संजय दूगड़ द्वारा अङ्कित मणिधारीजी के स्वर्णिम रेखा चित्र ने जिल्द की शोभा बढाई है ।
इस स्मृतिग्रन्थ के त्वरया प्रकाशन में गुरुदेव की असीम कृपा, हमारे पूज्य साधु- मुनिराजों व साध्वोमण्डल के आशीर्वाद का ही सुफल है। श्री मणिधारीजी अष्टम शताब्दी समारोह समिति ने गुरुदेव की स्मृति स्वरूप यह उत्तम ग्रन्थ प्रकाशन कर जैन समाज का बड़ा उपकार किया है । बंगाल की विषम परिस्थिति व सीमित समय के कारण विश्व खलता व स्खलनादि हो जाना कोई बड़ी बात नहीं है, इसके लिए हम क्षमा चाहते हुए भविष्य के लिए उचित सुझावों की कामना करते हैं ।
सद्गुरु चरणोपासक
अगरचन्द नाहटा, भँवरलाल नाहटा ।
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
इस ग्रन्थ में :
प्रथम खण्ड
क्रमांक
लेख
लेखक १ विधिमार्ग प्रकाशक जिनेश्वरसूरि और उनको विशिष्ट परम्परा पुरातत्त्वाचार्य मुनिजिनविजय २ श्रोजिन चन्द्रसूरिजी को श्रेष्ठ रचना "संवेगरंगशाला आराधना" पं० लालबन्द भावान् गांधी ३ नवाङ्गो वृतिकार श्रीअभयदेवसूरि
अगरचन्द नाहटा ४ प्रकाण्ड विद्वान और कवि श्रेष्ठ श्रीजिनवल्लभसूरि
अगरचन्द नाहटा ५ योगीन्द्र युगप्रधान दादा श्रीजिनदत्तसूरि
स्व० उ० सुखसागरजी ६ मणिधारी दादा श्रीजिनचन्द्रसूरि ७ षटत्रिंशत् वाद-विजेता श्रीजिनपतिसूरि
महो० विनयसागर ८ प्रगटप्रभावी दादा श्रीजिनकुशलसूरि
भंवरलाल नाहटा ६ महान् शासन, प्रभावक श्रीजिनप्रभसूरि
अगरचन्द नाहटा १० अनेक ज्ञानभण्डारों के संस्थापक श्रीजिनभद्रसूरि
पुरातत्वाचार्य मुनिजिनविजय ११ अकबर प्रतिबोधक युगप्रधान श्रीजिनचन्द्रसूरि
भंवरलाल नाहटा १२ दादा गुरुओं के प्राचीन चित्र
भंवरलाल नाहटा १३ कीर्तिरत्नसूरि रचित नेमिनाथ महाकाव्य
प्रो० सत्यव्रत तृषित १४ नरमणिमण्डितभालस्थल यु. प्र० श्रीजिनचन्द्रसूरि चरितम् उ० लब्धिमुनिजी १५ दादाजी
स्वामो सुरजनदास १६ महोपाध्याय जयसागर
अगरचन्द नाहटा १७ श्रीगुणरत्नमणि को तर्कतरङ्गिणी
डा० जितेन्द्र जेटली १८ जोइसहीर-महत्वपूर्ण खरतरगच्छोय ज्योतिष ग्रन्थ
पं. भगवानदास जैन १६ महोपाध्याय समयसुन्दरजी के साहित्य में लोकिकतत्त्व डा० मनाहर शर्मा २० गहूंली संग्रह (४)
आ० बुद्धिसागरसूरिजी २१ महाकवि जिनहर्षः मूल्याङ्कन और सन्देश
डा० ईश्वरानन्दजी २२ पूज्य श्रीमद्देवचन्द्रजी के साहित्य में से सुधा बिन्दु
स्वामी ऋषभदासजी २३ खरतरगच्छ की क्रान्तिकारो और अध्यात्मिक परम्परा
भंवरलाल नाहटा २४ उ० क्षमाकल्याणजी और उनका साधुसमुदाय
अगरचन्द नाहटा २५ सुविहिलाग्रणी गणाधीश सुखसागरजी
अगरचन्द नाहटा
११६
१२६ १२८
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३५ १३६ १४२
१४६
१४६
१५३
१५६
२६ प्रभावक आचार्यदेव श्रीजिनहरिसागर सूरीश्वर
मुनिश्रीकांतिसागरजी २७ शासनप्रभावक आचार्य श्रीजिनआनन्दसागरसूरि
मुनिमहोदयसागर २८ आचार्य श्रीजिनकवीन्द्रसागरसूरि
श्रीसजनश्रीजी 'विशारद २६ महान्प्रतापी श्रीमोहनलालजी महाराज
भंवरलाल नाहटा ३० आचार्य प्रवर श्रीजिनयश:सूरिजी
भंवरलाल नाहटा ३१ प्रभावक आचार्य श्रीजिनऋद्धिसूरि
भंवरलाल नाहटा ३२ आचार्यरत श्रीजिनरत्नसूरि
भंवरलाल नाहटा ३॥ विद्वद्वर्य उपाध्याय श्रीलब्धिमुनिजी
भंवरलाल नाहटा १४ स्वर्गोय गणिवर्य श्रीबुद्धिमुनिजी
अगरचन्द नाहटा ३५ श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरिजी और उनका साधुसमुदाय
भंवरलाल नाहटा ३६ पुरातत्व एवं कलामर्मज्ञ प्रतिभामूत्ति कान्तिसागरजी को श्रद्धांजलि अगरचन्द नाहटा ३७ आचार्य श्रीजिनमणिसागरसूरि
भंवरलाल नाहटा ३८ खरतरगच्छ के साहित्य सर्जक श्रावकगण
अगरचन्द नाहटा ३६ अपभ्रंश काव्यत्रयी एक अनुशोलन
डा. देवेन्द्रकुमार शास्त्री ४० खरतरगच्छ परम्परा और चित्तौड़
रामवल्लभ सोमानी ४१ खरतरगच्छ की भारतीय संस्कृति को देन
ऋषभदास रांका ४२ जेसलमेर के महत्वपूर्ण ज्ञानभण्डार
आगमप्रभाकर मुनिश्री पुण्य विजयजी ४३ खतरगच्छ की महान् विभूति दानवीर सेठ मेला श्री चाँदमलजी सीपानी
द्वितीय खण्ड
१६६ १६६ १७४ १७७
.
k
१८६
१ खरतरगच्छ साहित्य सूची
संकलन कर्ता अगरचन्द नाहटा, भंवरलाल नाहटा १ से ७२
सम्पादक-महोपाध्याय विनयसागर
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
60
मणिधारी भीजिनचन्द्रसूरि अष्टम शताब्दी-समारोह-समिति, दिल्ली के
पदाधिकारी
१ श्रीसिताबचन्द फोफलिया, प्रधान २ श्रीशीतलदासजी राक्यान, उपप्रधान ३ श्रीइंद्रचन्दजी भंसाली, उपप्रधान ४ श्रीधनपतसिंहजी भंसाली, संयोजक ५ श्रीदौलतसिंहजी जैन, प्र० मन्त्री ६ श्रीविजयसिंहजी सुराना, , ७ श्रीगुलाबचन्दजी जैन , ८ श्रीलछमनसिंहजी भंसाली, भण्डार मन्त्री ९ श्री डॉ० के० सी. जैन, प्रचार मन्त्री १० श्रीउमरावसिंहजी सुराना, खजांची
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरि अष्टम शताब्दी
स्मृति ग्रन्थ
प्रथम खण्ड
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्षमामूर्ति भगवान महावीर का चण्डकौशिक उपसर्ग
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
जिनचंद्र सूरयः
HHHHHHHHHHHHHHHHRYS
XXXXXXXXXSG3633XXXXXXXXXXXXXXXXXXX
ZOOOOMGGGOOIGIO मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरि और दिल्लीश्वर मदनपाल तोमर (वि० सं० १२२३) दिल्ली
श्री इन्द्रदूगड़ द्वारा चित्रित
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
विधिमार्ग प्रकाशक जिनेश्वरसरि और
उनकी विशिष्ट परम्परा [ पुरातत्त्वाचार्य पद्मश्री मुनि जिनविजयजी ]
थी जिने श्वरसूरि आचार्य श्रीवर्धमानसूरि के शिष्य यथावत् पालन करने वाले यति-मुनि उस समय बहुत कम थे । जिनेश्वर सूरि के प्रगरु एवं श्रीवर्द्ध मानसूरि के संख्या में नजर आते थे। गह श्रीउद्योतनसूरि थे, जो चन्द्रकुल के कोटिक गण की जिनेश्वरसरि का चैत्यवासियों के वज्री शाखा परिवार के थे।
विरुद्ध आन्दोलन ( इन जिनेश्वरसूरि के विषय में, जिनदत्तसूरि कृत गणधर सार्द्धशतक की सुमतिगणि कृत वृहद्वृति में, जिन
शास्त्रोक्त यतिधर्म के आचार और चैत्यवासी यतिजनों पालोपाध्याय लिखित खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली में,
के उक्त व्यवहार में, परस्पर बड़ा असामंजस्य देखकर और प्रभा चन्द्राचार्य रचित और किसी अज्ञात प्राचीन पर्वाचार्य श्रमण भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट श्रमण धर्म की इस
प्रकार प्रचलित विप्लव दशा से उद्विग्न होकर जिनेश्वर प्रबन्ध एवं अन्यान्य पट्टावलियाँ आदि अनेक ग्रन्थों-प्रबन्धों में कितना ही ऐतिहासिक वृत्तान्त ग्रथित किया हआ
सूरि ने प्रतिकार के निमित्त अपना एक सुविहित मार्ग
प्रचारक नया गण स्थापित किया और चैत्यवासी यतियों उपलब्ध होता है।) जिनेश्वरसूरि के समय में
के विरुद्ध एक प्रबल आन्दोलन शुरू किया। जैन यतिजनों की अवस्था
यों तो प्रथम, इनके गुरु श्री वर्धमानसूरि स्वयं ही ____ इनके समय में श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय में उन यति- चैत्यवासी यतिजनों के एक प्रमुख सूरि थे । पर जैन शास्त्रों
जनों के समूह का प्राबल्य था जो अधिकतर चैत्यों अर्थात् का विशेष अध्ययन करने पर मन में कुछ विरक्त भाव • जिन मन्दिरों में निवास करते थे : ये यतिजन जैन मन्दिर, उदित हो जाने से और तत्कालीन जैन यति सम्प्रदाय जो उस समय चैत्य के नाम से विशेष प्रसिद्ध थे, उन्हीं में की उक्त प्रकार की आचार विषयक परिस्थिति की अहर्निश रहते, भोजनादि करते, धर्मोपदेश देते, पठन-पठनादि शिथिलता का अनुभव, कुछ अधिक उद्वेगजनक लगने से, में प्रवृत्त होते और सोते-बैठते । अर्थात् चैत्य ही उनका मठ उन्होने उस अवस्था का त्याग कर, विशिष्ट त्यागमय या वासस्थान था और इसलिए वे चैत्यवासी के नाम से प्रसिद्ध जीवन का अनुसरण करना स्वीकृत किया था। जिनेश्वरहो रहे थे। इनके साथ उनके आचार-विचार भी बहुत्त सूरि ने अपने गुरु के इस स्वीकृत मार्ग पर चलना विशेष से ऐसे शिथिल अथवा भिन्न प्रकार के जो जैन शास्त्रों रूप से निश्चित किया। नुतना ही नहीं, उन्होंने उसे में वर्णित निग्रन्थ जैनमुनि के आचारों से असंगत दिखाई सारे सम्प्रदायव्यापी और देशव्यापी बनाने का भी देते थे। वे एक तरह के मठपति थे । शास्त्रोक्त आचारों का संकल्प किया और उसके लिए आजीवन प्रबल पुरुषार्थ
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
किया। इस प्रयत्न के उपयुक्त और आवश्यक ऐसे ज्ञानबल विधिपक्ष अथवा खरतरगच्छ का और चारित्रबल दोनों ही उनमें पर्याप्त प्रमाण में विद्यमान प्रादुर्भाव और गौरव थे, इसलिये उनको अपने ध्येय में बहुत कुछ सफलता इन्हीं जिनेश्वरसूरि के एक प्रशिष्य आचार्य श्रीजिनप्राप्त हुई और उसी अहिलपुर में, जहां पर चैत्यवासियों वल्लभसूरि और उनके पट्टधर श्रीजिनदत्तसूरि (वि० सं० का सबसे अधिक प्रभाव और विशिष्ट समूह था, जाकर ११६६-१२११) हुए जिन्होंने अपने प्रखर पाण्डित्य, प्रकृष्ट उन्होंने चैत्यवास के विरुद्ध अपना पक्ष और प्रतिष्ठान चारित्र और प्रचण्ड व्यक्तित्व के प्रभाव से मारवाड़, मेवाड़, स्थापित किया। चौलुक्य नृपति दुर्लभराज की सभा में, बागड़, सिन्ध, दिल्ली मण्डल और गुजरात के प्रदेश में चैत्यवासी पक्ष के समर्थक अग्रणी सूराचार्य जैसे महा- हजारों अपने नये भक्त श्रावक बनाये-हजारों ही अजैनों को विद्वान् और प्रबल सत्ताशील आचार्य के साथ शास्त्रार्थ उपदेश देकर नूतन जैन बनाये। स्थान-स्थान पर अपने पक्ष कर, उसमें विजय प्राप्त की। इस प्रसंग से जिनेश्वरसूरि के अनेकों नये जिनमन्दिर और जैन उपाश्रय तैयार करवाये। की वेवल अणहिलपुर में ही नहीं, अपितु सारे गुजरात में, अपने पक्ष का नाम इन्होंने विधिपक्ष' ऐसा उद्घोषित किया और उसके आस - पास के मारवाड़, मेवाड़, मालवा, और जितने भी नये जिनमन्दिर इनके उपदेश से, इनके भक्त वागड़, सिंध और दिल्ली तक के प्रदेशों में खूब ख्याति और श्रावकों ने बनवाये उनका नाम विधिचत्य, ऐसा रखा गया। प्रतिष्ठा बढ़ी। जगह-जगह सैकड़ों ही श्रावक उनके भक्त परन्तु पीछे से चाहे जिस कारण से हो- इनके अनुगामी और अनुयायो बन गए। इसके अतिरिक्त सैकड़ों ही अजैन समुदाय को खरतर पक्ष या खरतरगच्छ ऐसा नूतन नाम प्राप्त गृहस्य भी उनके भक्त बन कर नये श्रावक बने । अनेक हुआ और तदनन्तर यह समुदाय इसी नाम से अत्यधिक प्रभावशाली और प्रतिभाशील व्यक्तियों ने उनके पास यति प्रसिद्ध हुआ जो आज तक अविछिन्न रूप से विद्यमान है। दीक्षा लेकर उनके सुविहित शिष्य कहलाने का गौरव प्राप्त इस खरतरगच्छ में उसके बाद अनेक बड़े बड़े प्रभावकिया। उनकी शिष्य-संतति बहुत बढ़ी और वह अनेक शाली आचार्य, बड़े-बड़े विद्यानिधि उपाध्याय, बड़े-बड़े शाखा-प्रशाखाओं में फैली । उसमें बड़े-बड़े विद्वान, प्रतिभाशाली पण्डित मुनि और बड़े-बड़े मांत्रिक, तांत्रिकक्रियानिष्ठ और गुणगरिष्ठ आचार्य उपाध्यायादि समर्थ ज्योतिर्विद्, वैद्यक विशारद आदि वर्मठ यतिजन हुए साधु पुरुष हुए । नवांग-वृतिकार अभय देवसूरि, संवेगरंग- जिन्होंने अपने समाज की उन्नति, प्रगति और प्रतिष्ठा शालादि ग्रन्थों के प्रणेता जिनचन्द्रसूरि, सुरसुन्दरी चरित के बढ़ाने में बड़ा भारी योग दिया। सामाजिक और कर्ता धनेश्वर अपर नाम जिनभद्रसूरि, आदिनाथ चरितादि साम्प्रदायिक उत्कर्ष की प्रवृत्ति के सिवा, खरतरगच्छाके रचयिता वर्धमानसूरि, पानाथ चरित एवं महावीर चरित नुयायी विद्वानों ने संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं देशीयके कर्ता गुणचन्द्रगणी अपर नाम देवभद्रसूरि, संघपट्टकादि भाषा के साहित्य को भी समृद्ध करने में असाधारण उद्यम अनेक ग्रन्थों के प्रणेता जिनवल्लभसूरि इत्यादि अनेकानेक बड़े किया और इसके फलस्वरूप आज हमें भाषा, साहित्य, बड़े धुरन्धर विद्वान और शास्त्रकार, जो उस समय उत्पन्न इतिहास, दर्शन, ज्योतिष, वैद्यक आदि विविध विषयों हुए और जिनकी साहित्यिक उपासना से जैन वाङ्मय- का निरूपण करने वाली छोटी-बड़ी सैकड़ों हजारों भण्डार बहुत कुछ समृद्ध और सुप्रतिष्ठित बना-इन्हीं ग्रन्थकृतियाँ जैन-भण्डारों में उपलब्ध हो रही हैं । खरतर जिनेश्वरसूरि के शिष्य-प्रशिष्यों में से थे।
गच्छीय विद्वानों की की हुई यह साहित्योपासना न केवल
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ३ ]
धर्म की ही दृष्टि से महत्त्व वाली हैं, अपितु समुच्चय भारतीय संस्कृति के गौरव की दृष्टि से भी उतनी ही महत्ता रखती है ।
साहित्योपासना की दृष्टि से खरतरगच्छ के विद्वान् यति मुनि वड़े उदारचेता मालूम देते हैं । इस विषय में उनकी उपासना का क्षेत्र केवल अपने धर्म या सम्प्रदाय को बाड़ से बद्ध नहीं है । वे जैन और जनेतर वाङ्मय को समान भाव से अध्ययन अध्यापन करते रहे हैं । व्याकरण, काव्य, कोष, छन्द, अलंकार, नाटक, ज्योतिष, वैद्यक और दर्शनशास्त्र तक के अगणित अजैन ग्रन्थों का उन्होंने बड़े आदर से आकलन किया है और इन विषयों के अनेक अर्जुन ग्रन्थों पर उन्होंने अपनी पाण्डित्यपूर्ण टीकायें आदि रच कर तत्तद् ग्रन्थों और विषयों के अध्ययन कार्य में बड़ा उपयुक्त साहित्य तैयार किया है । खरतरगच्छ के गौरव को प्रदर्शित करने वाली ये सब बातें हम यहां पर बहुत ही संक्षेप में, केवल सूत्ररूप से, उल्लिखित कर रहे हैं । विशेषहम "युगप्रधा चाचार्य गुर्वावलि" नाम से विस्तृत पुरातन पट्टालो प्रकट कर चुके हैं उनमें इन जिनेश्वरसूरि से आरंभ कर, श्रीजिनवल्लभसूरि की परम्परा के खरतरगच्छीय आचार्य श्रीजितपूरि के पट्टाभिषिक्त होने के समय तक का विक्रम संवत् १४०० के लगभग का बहुत विस्तृत और प्राय: विश्वस्त ऐतिहासिक वर्णन दिया हुआ है । उसके अध्ययन से पाठकों को खरतरगच्छ के तत्कालीन गौरव गाथा का अच्छा परिचय मिल सकेगा ।
इस तरह पीछे से बहुत प्रसिद्धिप्राप्त उक्त खरतरगच्छ के अतिरिक्त, जिनेश्वरसूरि की शिष्य परम्परा में से अन्य भी कई एक छोटे-बड़े गण-गच्छ प्रचलित हुए और उनमें भी कई बड़े-बड़े प्रसिद्ध विद्वान, ग्रन्थकार, व्याख्यातिक, वादा, तपस्वी, चमत्कारी साधु-यति हुए जिन्होंने अपने व्यक्तित्व से जैन समाज को समुन्नत करने में उत्तम योग दिया ।
जिनेश्वरसूरि के जीवन का अन्य यतिजनों पर प्रभाव
जिनेश्वरसूरि के प्रबल पाण्डित्य और उत्कृष्ट चरित्र का प्रभाव इस तरह न केवल उनके निजके शिष्य समूह में ही प्रसारित हुजा, अपितु तत्कालीन अन्यान्य गच्छ एवं यति समुदाय के भी बड़े-बड़े व्यक्तित्वशाली यतिजनों पर उसने गहरा असर डाला और उसके कारण उनमें से भी कई समर्थ व्यक्तियों ने, इनके अनुकरण में क्रियोद्वार, ज्ञानोपासना, आदि की विशिष्ट प्रवृत्ति का बड़े उत्साह के साथ उत्तम अनुसरण किया ।
( जिनेश्वरसूरि के जीवन सम्बन्धी साहित्य और उनकी रचनाओं का विशेष अध्ययन मुनि जिनविजय ने कथाकोष की विस्तृत प्रस्तावना में बहुत विस्तार से दिया है, यहां उसके आवश्यक अंश ही प्रस्तुत किये गये हैं ) जिनेश्वरसूरि से जैन समाज में
नूतन युग का आरंभ
इनके प्रादुर्भाव और कार्यकलाप के प्रभाव से जैन समाज में एक सर्वथा नवीन युग का आरम्भ होना शुरू हुआ । पुरातन प्रचलित भावनाओं में परिवर्तन होने लगा । त्यागी और गृहस्थ दोनों प्रकार के समूहों में नए संगठन होने शुरू हुए। त्यागी अर्थात् यति वर्ग जो पुरातन परम्परागत गण और कुल के रूप में विभक्त था, वह अब नये प्रकार के गच्छों के रूप में संगठित होने लगा । देवपूजा और गुरुउपासना की जो कितनी पुरानो पद्धतियां प्रचलित थीं, उनमें संशोधन और परिवर्तन के वातावरण का सर्वत्र उद्भव होने लगा | इनके पहले यतिवर्ग का जो एक बहुत बड़ा समूह चित्य निवासी होकर चेत्यों की संपत्ति और संरक्षा का अधिकारी बना हुआ था और प्रायः शिथिलक्रिय और स्वपूजानिरत हो रहा था, उसमें इनके आचारप्रवण और भ्रमणशील जीवन के प्रभाव से बड़े वेग से और बड़े परिमाण में परिवर्तन होना प्रारम्भ हुआ । इनके आदर्शों
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ४ ]
को लक्ष्य में रखकर अन्यान्य अनेक समर्थ यतिजन चत्याधिकार का और शिथिलाचार का त्याग कर संयम की विशुद्धि के निमित्त उचित क्रियोद्धार करने लगे और अच्छे संयमी बनने लगे। संयम और तपश्चरण के साथ-साथ, भिन्न-भिन्न विषयों और शास्त्रों के अध्ययन और ज्ञानसंपादन कार्य भी इन यतिजनों में खूब उत्साह के साथ व्यवस्थित रूप से होने लगा । सभी उपादेय विषयों के नये-नये ग्रन्थ निर्माण किये जाने लगे और पुरातन ग्रन्थों पर टीका-टिप्पण आदि रचे जाने लगे । अध्ययन-अध्यापन और ग्रन्थ निर्माण के कार्य में आवश्यक ऐसे पुरातन जैन ग्रन्थों के अतिरिक्त ब्राह्मण और बौद्ध सम्प्रदाय के भी व्याकरण, न्याय, अलंकार, काव्य, कोष, छन्द, ज्योतिष आदि विविध विषयों के सभी महत्वपूर्ण ग्रन्थों की पोथियों के संग्रहवाले बड़े-बड़े ज्ञानभण्डार भी स्थापित किये जाने लगे ।
अब यतिजन केवल अपने-अपने स्थानों में हीं बद्ध होकर बैठ रहने के बदले भिन्न-भिन्न प्रदेशों में घूमने लगे और तत्कालीन परिस्थिति के अनुरूप, धर्मप्रचार का कार्य करने लगे । जगह-जगह अजैन क्षत्रिय और वैश्य कुलों को अपने आचार और ज्ञान से प्रभावित कर, नये-नये जैनश्रावक बनाए जाने लगे और पुराने जैन गोष्ठी-कुल नवीन जातियों के रूप में संगठित किये जाने लगे । पुराने जैन देवमन्दिरों का उद्धार और नवीन मन्दिरों का निर्माण कार्य भी सर्वत्र विशेष रूप से होने लगा । जिन यतिजनोंने चैत्यनिवास छोड़ दिया था उनके रहने के लिये ऐसे नये-नये वसति गृह बनने लगे जिनमें उन यतिजनों के अनुयायी श्रावक भी aat free- नैमित्तिक धर्म क्रियायें करने की व्यवस्था रखते थे । ये ही वसति गृह पिछले काल में उपाश्रय के नाम से प्रसिद्ध हुए । मन्दिरों में पूजा और उत्सवों की प्रणालिकाओं में भी नये-नये परिवर्तन होने लगे और इसके कारण यतिजनों में परस्पर, कितनेक विवादास्पद विचारों और शब्दार्थों पर भी वाद-विवाद होने लगा, और इसके परिणाम में कई नये
नये गच्छ और उपगच्छ भी स्थापित होने लगे। ऐसे चर्चास्पद विषयों पर स्वतंत्र छोटे-बड़े ग्रन्थ भी लिखे जाने लगे और एक-दूसरे सम्प्रदाय की ओर से उनका खण्डन- मण्डन भी किया जाने लगा। इस प्रकार इन यतिजनों में पुरातन प्रचलित प्रवाह की दृष्टि से, एक प्रकार का नवीन जीवनप्रवाह चालू हुआ और उसके द्वारा जैन संघ का नूतन संगठन बनना प्रारम्भ हुआ ।
इस तरह तत्कालीन जैन इतिहास का सिंहावलोकन करने से ज्ञात होता है कि विक्रम की ११ वीं शताब्दी के प्रारंभ में जैन यतिवर्ग में एक प्रकार से नूतन युग की उषा का आभास होने लगा, जिसका प्रकट प्रादुर्भाव जिनेश्वरसूरि के गुरु वर्धमानसूरि के क्षितिज पर उदित होने पर दृष्टिगोचर हुआ। जिनेश्वरसूरि के जीवनकार्य ने इस युग परिवर्तन को सुनिश्चित मूर्त स्वरूप दिया। तब से लेकर पिछले प्रायः ६०० वर्षो में, इस पश्चिम भारत में जैन धर्म के जो सांप्रदायिक और सामाजिक स्वरूप का प्रवाह प्रचलित रहा उसके मूल में जिनेश्वरसूरि का जीवन सबसे अधिक विशिष्ट प्रभाव रखता है और इस दृष्टि से जिनेश्वरसूरि को, जो उनके शिष्य-प्रशिष्यों ने, युगप्रधान पदसे संबोधित और स्तुतिगोचर किया है वह सर्वथा हो सत्य वस्तुस्थिति का निदर्शक है ।
जिनेश्वरसूरि एक बहुत भाग्यशाली साधु पुरुष थे। इनकी यशोरेखा एवं भाग्य रेखा बड़ी उत्कट थी । इससे इनको ऐसे-ऐसे शिष्य और प्रशिष्यरूप महान् सन्ततिरत्न प्राप्त हुए जिनके पाण्डित्य और चारित्र्य ने इनके गौरव को दिगन्तव्यापी और कल्पान्त स्थायी बना दिया । यों तो प्राचीनकाल में, जैन संप्रदाय में सैकड़ों ही ऐसे समर्थ आचार्य हो गए हैं जिनका संयमी जीवन जिनेश्वरसूरि के समान ही महत्वशाली और प्रभावपूर्ण था; परन्तु जिनेश्वरसूरि के जैसा विशाल प्रज्ञ और विशुद्ध संयमवान्, विपुल शिष्य-समुदाय शायद बहुत ही थोड़े
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्यों को प्राप्त हुआ होगा। जिनेश्वरसूरि के शिष्य- कारी बनाना परन्तु वैसा उचित अवसर आने के पहले ही प्रशिष्यों में एक-से-एक बढ़ कर अनेक विद्वान् और संघमी प्रसन्नचन्द्रसूरिका स्वर्गवास हो गया। उन्होंने अभयदेवसूरिजी पुरुष हुए और उन्होंने अपने महान् गुरु को गुणगाथा का की उक्त इच्छा को अपने उत्तराधिकारी पट्टधर देव भद्राबहुत ही उच्चस्वर से खूब ही गान किया है। सद्भाग्य चार्य के सामने प्रकट किया और सूचित किया कि इस कार्य “से इनके ऐसे शिष्य प्रशिष्यों की बनाई हुई बहुत सो नथ- को तुम संपादित करना। 'कृतियां आज भी उपलब्ध हैं और उनमें से हमें इनके अभयदेवसूरि के स्वर्गवास के बाद अणहिलपुर और विषय की यथेष्ट गुरु-प्रशस्तियां पढ़ने को मिलती हैं। स्तम्भतीर्थ जैसे गुजरात के प्रसिद्ध स्थानों में जहां अभय
चैत्यवास के विरुद्ध जिनेश्वरसूरि ने जिन विचारों का देव के दीक्षित शिष्यों का प्रभाव था, वहां से अपरिचित प्रतिपादन किया था, उनका सबसे अधिक विस्तार और स्थान में जाकर अपने विद्याबल के सामर्थ्य द्वारा जिनवल्लभ प्रचार वास्तव में जिनवल्लभसूरि ने किया था। उनके उपदिष्ट ने अपने प्रभाव का कार्यक्षेत्र बनाना चाहा। इसके लिए मार्ग का इन्होंने बड़ी प्रखरता के साथ समर्थन किया मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ को इन्होंने पसन्द किया, और उसमें उन्होंने अपने कई नये विचार और नए विधान वहां इनकी यथेष्ट मनोरथ सिद्धि हुई। फिर मारवाड़ के भी सम्मिलित किये।
नागौर आदि स्थानों में भी इनके बहुत से भक्त-उपासक जिनवल्लभसूरि
बने । धीरे-धीरे इनका प्रभाव मालवा में भी बढ़ा । जिनवल्लभसूरि मूल में मारवाड़ के एक बड़े मठाधीश मेवाड़, मारवाड़ में तब बहुत से चैत्यवासी यति समुदाय चैत्यवासी गुरु के शिष्य थे परन्तु वे उनसे विरक्त होकर थे उनके साथ इनकी प्रतिस्पर्धा भी खूब हुई। इन्होंने उनके गुजरात में अभयदेवसूरि के पास शास्त्राध्ययन करने के अधिष्ठित देवमन्दिरों को अनायतन ठहराया और उनमें निमित्त उनके अन्तेवासी होकर रहे थे । ये बड़े प्रतिभाशाली किये जाने वाले पूजन उत्सवादि को अशास्त्रीय उद्घोषित विद्वान, कवि, साहित्यज्ञ, ग्रन्थकार और ज्योतिष शास्त्र- किया। अपने भक्त उपासकों द्वारा अपने पक्ष के लिए विशारद थे । इनके प्रखर पाण्डित्य और विशिष्ट वैशारद्य को जगह-जगह नए मन्दिर बनवाये और उनमें किये जाने वाले देखकर अभयदेवसूरि इन पर बड़े प्रसन्न रहते थे और अपने पूजादि विधानों के लिए कितनेक नियम निश्चित किये। मुख्य दीक्षित शिष्यों की अपेक्षा भो इन पर अधिक अनुराग इस विषय के छोटे बड़े कई प्रकरण और ग्रन्थादि की भी रखते थे । अभयदेवसूरि चाहते थे कि अपने उत्तराधिकारी पद इन्होंने रचना की। पर इनकी स्थापना हो, परन्तु ये मूल चैत्यवासो गुरु के देवभद्राचार्य ने इनके बढ़े हुए इस प्रकार के प्रौढ़ प्रभाव दीक्षित शिष्य होने से शायद इनको गच्छनायक के रूप में को देखकर और इनके पक्ष में सैकड़ों उपासकों का अच्छा अन्यान्य शिष्य स्वीकार नहीं करेंगे ऐसा सोचकर अपने समर्थ समूह जानकर इनको आचार्य पद देकर अमयदेवसूरि जीवनकाल में वे इस विवार को कार्य में नहीं ला सके। के पट्टधर रूप में इन्हें प्रसिद्ध करने का निश्चय किया। उनके पट्टधर के रूप में वर्षमानाचार्य (आदिनाथ चरितादि जिनेश्वरसूरि के शिष्यसमूह में उस समय शायद देवभद्राचार्य के कर्ता) की स्थापना हुई, तथापि अंतावस्था में अभयदेव- ही सबसे अधिक प्रतिष्ठा-सम्पल और सबसे अधिक सूरि ने प्रसन्नचन्द्रसूरि को सूचित किया था कि योग्य वयोवृद्ध पुरुष थे। वे इस कार्य के लिए गुजरात से रवाना समय पर जिनवल्लभ को आचार्य पद देकर मेरा पट्टाधि- होकर चित्तौड़ पहूँचे । यह चित्तोड़ हो जिनवल्लभसूरि
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
के प्रभाव का उद्गम एवं केन्द्र स्थान था। यहीं पर सबसे जिनदत्तसूरि ने अपने पक्ष की विशिष्ट संघटना करनी पहले जिनवल्लभसूरि के नये उपासक भक्त बने और शुरू की। जिनेश्वरसरि प्रतिपादित कुछ मौलिक मन्तव्यों यहीं पर इनके पक्ष का सबसे पहिला वीर विधि चैत्य नामक का आश्रय लेकर और कुछ जिनवल्लभसरि के उपदिष्ट विशाल जेन मन्दिर बना। वि० सं० ११६७ के आषाढ़ विचारों को पल्लवित कर इन्होंने जिनवल्लभ द्वारा स्थापित मास में इनको इसी मन्दिर में आचार्य पद पर प्रतिष्ठित उक्त विधिपक्ष नामक संघ का बलवान और नियमबद्ध कर देवभद्राचार्य ने अपने गच्छपति गुरु प्रपन्नचन्द्रसूरि के संगठन किया जिसकी परम्परा का प्रवाह आठ सौ बर्ष उस अन्तिम आदेश को सफल किया। पर दुर्भाग्य से ये पूरे हो जाने पर भी अखण्डित रूप से चलता है। इस पद का दीर्घकाल तक उपभोग नहीं कर सके । चार जिनदत्तसूरि ने प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश भाषा में ही महीने के अन्दर इनका उसी चित्तौड़ में स्वर्गवास छोटे-बड़े अनेक ग्रन्थों की रचना को। इनमें एक गणधरहो गया। इस घटना को जानकर देवभद्राचार्य को सार्द्धशतक नामक नथ है जिसमें इन्होंने भगवान महावीर बड़ा दुःख हुआ।
के शिष्य गणधर गौतम से लेकर अपने गच्छपति गरु जिनवजिनदक्तसूरि
ल्लभसुरि तक के महावार के शासन में होने वाले और अपनी जिनवल्लभसूरि ने अपने प्रभाव से मारवाड़, मेवाड़, संप्रदाय परंपरा में माने जाने वाले प्रधान-प्रधान गणधारी मालवा, बागड़ आदि देशों में जो सैकड़ों ही नये भक्त आचार्यों की स्तुति की है। उन्होंने १५० गाथा के प्रकरण में उपासक बनाये थे और अपने पक्ष के अनेक विधि-चैत्य आदि की ६२ गाथाओं तक में तो पूर्वकाल में हो जाने वाले स्थापित किये थे। उनका नियामक ऐसा कोई समर्थ गच्छ- कितने पूर्वावार्यों की प्रशंसा की है। ६३ से लेकर ८४ तक नायक यदि न रहा तो वह पक्ष छिन्न-भिन्न हो जायगा की गाथाओं में वर्द्धमानसूरि और उनके शिष्यसमूह में होने और इस तरह जिनवल्लभसूरि का किया हुआ कार्य विफल वाले जिनेश्वर, बुद्धिसागर, जिनचन्द्र, अभयदेव, देवभद्रादि हो जायगा, यह सोच कर देवभद्राचार्य, जिनवल्लभसूरि अपने निकट पूर्वज गुरुओं की स्तुति की है। ८५वीं गाथा के पट्ट पर प्रतिष्ठित करने के लिए अपने सारे समुदाय से लेकर १४७ तक की गाथाओं में अपने गण के स्थापक में से किसी योग्य व्यक्तित्व वाले यतिजन की खोज करने गुरु जिनवल्लभ को बहुत ही प्रौढ़ शब्दों में तरह-तरह से लगे। उनकी दृष्टि धर्मदेव उपाध्याय के शिष्य पंडित स्तवना की है। जिनेश्वरसूरि के गुणवर्णन में इन्होंने इस सोमचन्द्र पर पड़ी जो इस पद के सर्वथा योग्य एवं जिन- ग्रन्थ में लिखा है कि वर्द्धमानसूरि के चरणकमलों में श्रमर वल्लभ के जैसे ही पुरुषार्थी, प्रतिभाशाली, क्रियाशील के समान सेवारसिक जिनेश्वररारि हुए वे सब प्रकार के प्रमों
और निर्भय प्राणवान व्यक्ति थे। देवभद्राचार्य फिर चित्तौड़ से रहित थे अर्थात् अपने विचारों में निम थे, स्वरमय गए और वहां पर जिनवल्लभसूरि के प्रधान-प्रधान उपासकों और पर समय के पदार्थ सार्थ का विस्तार करने में समर्थ थे। के साथ परामर्श कर उनकी सम्मति से सं० ११६६ के इन्होंने अणहिलवाड़ में दुर्लभराज की सभा में प्रवेश करके वैशाख मास में सोमचन्द्र गणि को आचार्य पद देकर नामधारी आचार्यों के साथ निर्विकार भाव से शास्त्रीय जिनदत्तसूरि के नाम से जिनवल्लभसूरि के उत्तराधिकारी विचार किया और साधुओं के लिये वसति-निवास को आचार्य पद पर उन्हें प्रतिष्ठित किया। जिनबल्लभसूरि स्थापना कर अपने पक्ष का स्थापन किया। जहां पर गुरुके विशाल उपासक वृन्द का नायकत्व प्राप्त करते ही क्रमागत सद्वार्ता का नाम भी नहीं सुना जाता था, उस
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
। ७ ]
गजरात देश में विचरण कर इन्होंने वसतिमार्ग को प्रकट श्री अभयदेवसूरि किया।
जिनेश्वरसूरि के अनुक्रम में शायद तीसरे परन्तु ख्याति जिनदत्तसूरि की इसी तरह की एक और छोटी सी और महत्ता की दृष्टि से सर्वप्रथम ऐसे महान् शिष्य श्री (२१ गाथा की) प्राकृत पद्य रचना है जिसका नाम है-सुगरु अभयदेवसूरि हुए, जिन्होंने जैनागम ग्रन्थों में जो एकादशपारतन्त्र्य स्तव । इसमें जिनेश्वरसूरि की स्तवना में वे अङ्ग सूत्र ग्रन्थ हैं, इनमें से नौ अंग ( ३ से ११ ) सूत्रों पर कहते हैं कि जिनेश्वर अपने समय के युगप्रवर होकर सर्व सुविशद संस्कृत टोकाए बनाई । अभयदेवाचार्य अपनी इन सिद्धान्तों के ज्ञाता थे। जेन मत में जो शिथिलाचार रूप व्याख्याओं के कारण जैन साहित्याकाश में कल्पान्त स्थायी चोर समूह का प्रचार हो रहा था उसका उन्होंने निश्चल नक्षत्र के समान सदा प्रकाशित और सदा प्रतिष्ठित रूप में रूप से निर्दलन किया। अणहिलवाड़ में दुर्लभराज की उल्लिखित किये जायेंगे। श्वेताम्बर संप्रदाय के पिछले सभी सभा में द्रव्य लिंगी ( वेशधारी ) रूप हाथियों का सिह की गच्छ और सभी पक्ष वाले विद्वानों ने अभयदेवसूरि को बड़ी तरह विदारण कर डाला। स्वेच्छाचारी सूरियों के मतरूपी श्रद्धा और सत्यनिष्ठा के साथ एक प्रमाणभूत एवं तथ्यवादी अन्धकार का नाश करने में सूर्य के समान थे जिनेश्वरसुरि आचार्य के रूप में स्वीकृत किया है और इनके कथनों को प्रकट हुए।
पूर्णतया आप्तवाक्य को कोट में समझा है। अपने समका
लीन विद्वत् समाज में भी इनकी प्रतिष्ठा बहुत ऊंची थी। जिनेश्वर सूरि वे साक्षात शिष्य-प्रशिष्यों द्वारा किये गये
शायद ये अपने गुरु से भी बहुत अधिक आदर के पात्र और उनके गौरव परिचयात्मक उल्लेखों से हमें यह अच्छी तरह
श्रद्धा के भाजन बने थे। ज्ञात हुआ कि उनका आंतरिक व्यक्तित्व कैसा महान् था । जिनदत्तसूरि के किये गये उपयुक्त उल्लेखों में एक ऐतिहा- श्री जिनदत्तसूरि सिक घटना का हमें सूचन मिला कि उन्होंने गुजरात के अणहिलवाड़ के राजा दुर्लभराज की सभा में नामधारी
जिनदत्तसूरि, जिनेश्वरसूरि के साक्षात् प्रशिष्यों में से
ही एक थे। इनके दीक्षा-गुरु धर्मदेव उपाध्याय थे जो आचार्यो के साथ वाद-विवाद कर उनको पराजित किया और वहां पर वसतिवास की स्थापना की।
जिनेश्वर सूरि के स्वहस्त दीक्षित अन्यान्य शिष्यों में से थे ।
इनका मूल दीक्षा नाम सोमचन्द्र था, हरिसिंहाचार्य ने श्रो जिनचन्द्रसूरि
इनको सिद्धान्त ग्रन्थ पढ़ाये थे। इनके उत्कट विद्यानुराग जिनेश्वरसूरि के पट्टधर शिष्य जिनचन्द्रसूर हए। अपने पर प्रसन्न होकर देवभद्राचार्य ने अपना वह प्रिय कटाखरण गरु के स्वर्गवास के बाद यही उनके पट्ट पर प्रतिष्ठित (लेखनी), जिससे उन्होंने अपने बड़े-बड़े चार ग्रन्थों का लेखन हुए और गण प्रधान बने। इन्होंने अपने बहुश्रुत एवं किया था, इनको भेंट के स्वरूप में प्रदान किया था। ये विख्यात-कोति ऐसा लघु गुरु-बन्धु अभयदेवाचार्य की बड़े ज्ञानी ध्यानी और उद्यतविहारी थे। जिनवल्लभसूरि के अभ्यर्थना के वश होकर संवेगरंगशाला नामक एक स्वर्गवास के पश्चात् इनको उनके उत्तराधिकारी पद पर संवेग भाव के प्रतिपादक शांतरस प्रपूर्ण एवं वृहद प्रमाण देवभद्राचार्य ने आचार्य के रूप में स्थापित किया था। प्राकृत कथा ग्रन्थ की रचना सं० ११२५ में की।
[कथाकोष प्रकरण की प्रस्तावना से]
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
दादावाड़ी-दिग्दर्शन की प्रस्तावना में मुनि जिनविजयजी लिखते हैं :
खरतर गच्छ के मुख्य युगप्रधान आचार्य श्री जिनदत्तसूरि तथा उनके उत्तराधिकारी आचार्यवर्य मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरि, श्रीजिनकुशलसूरि एवं अकबर-प्रतिबोधक श्रीजिनचन्द्रसूरि के स्मारक रूप में दादावाड़ी नाम से जितने गुरुपूजा स्थान बने हैं उतने अन्य किसी गच्छ के पूर्वाचार्यों के स्मारक रूप में ऐसे खास स्मारक स्थान बने ज्ञात नहीं होते।
इन पूर्वाचार्यों में मुख्य स्थान श्रीजिनदत्तसूरि का है । श्रीजिनदत्तसूरि का स्वर्गगमन राजस्थान के प्राचीन एवं प्रधान नगर अजमेर में वि० सं० १२११ में हुआ। जहाँ पर उनके शरीर का अग्निसंस्कार हुआ, वहाँ पर भक्तजनों ने सर्वप्रथम उस स्थान पर स्मारक स्वरूप देबकूल बनाया और उसमें स्वर्गीय आचार्य वर्य के चरणचिन्ह स्थापित किये।
श्रीजिनदत्तसूरि एक महान् प्रभावशाली आचार्य थे। ज्ञान और क्रिया के साथ ही उनमें अद्भुत संगठन शक्ति और निर्माण शक्ति थी। उन्होंने अपने प्रखर पाण्डित्य एवं ओजःपूर्ण संयम के प्रभाव से हजारों की संख्या में नये जैन धर्मानुयायी श्रावक वुलों का विशाल संघ निर्माण विया। राजस्थान में आज जो लाखों ओसवाल जातीय जैन जन हैं उनके पूर्वजों का अधिकांश भाग, इन्ही जिनदत्तसूरिजी द्वारा प्रतिबोधित और सुसंगटित हुआ था। बाद में उत्तरोत्तर इन आचार्य के जो शिष्य-प्रशिष्य होते गए वे भी महान् गुरु का आदर्श सन्मुख रखते हुए इस संघ-निर्माण का कार्य सुन्दर रूप से चलाते
और बढ़ाते रहे । श्री जिनदत्तसूरि के ये सब शिष्य-प्रशिष्य धर्म प्रचार और संघनिर्माण के उद्देश्य से भारतवर्ष के जिन-जिन स्थानों में पहुंचे, वहां पर देवस्थान के साथ-साथ ही वे युगप्रवर्तक प्रवर गुरु के स्मारक रूप में छोटे-मोटे गुरुपूजा स्थान भी बनाते रहे और उनमें सूरिजी के चरणचिन्ह अथवा मूर्ति स्थापित करते रहे। ये स्थान आज सब दादावाड़ी के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त कर रहे हैं। .. श्रीजिनदत्तसूरि महान् विद्वान और चारित्रशील होने के उपरान्त एक विशिष्ट चमत्कारी महात्मा भी माने जाते हैं अतः उनके नाम-स्मरण तथा चरण पूजन द्वारा भक्तों की मनोकामनाएँ भी सफल होती रही है। ऐसी श्रद्धा पूर्वकाल से इनके अनुयायी भक्तजनों में प्रचलित रही है अतः इस कारण से भी इनकी पूजा निमित्त इन देवकुलों, छत्रियों, स्तूपों आदि का निर्माण होता रहा है। ___ श्रीजिनदत्तसूरि के बाद उनकी पट्ट-परम्परा में होने वाले मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरिजी, श्रीजिनकुशलसूरिजी तथा अकबर-प्रतिबोधक श्रीजिन चन्द्रसरिजी के विषय में भी चमत्कारी होने की बड़ी श्रद्धा भक्तजनों में प्रचलित है। इसलिये प्राय. इन चारों आचार्यों की भी सम्मिलित चरण पादुकाए, मूति आदि प्रतिष्ठित और पूजित होती रही है।
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रोजिनचन्द्रसरिजी की श्रेष्ठ रचना
संवेगरंगशाला आराधना
( संक्षिप्त परिचय ) ले० पं० लालचन्द्र भगवान् गान्धी, बड़ौदा
[ सुविहित मार्ग प्रकाशक आचार्य जिनेश्वरसूरिजी के पट्टधर श्रीजिनचन्द्रसूरिजी हुए। उनका विस्तृत परिचय तो प्राप्त नहीं होता । युगप्रधानाचार्य गुर्वावली में इतना ही लिखा है कि 'जिनेश्वरसूरि ने जिनचन्द्र और अभयदेव को योग्य जानकर सूरिपद से विभूषित किया और वे श्रमण धर्म की विशिष्ट साधना करते हुए क्रमशः बुगप्रधान पद पर आसीन हुए। ___आचार्य जिनेश्वरसूरि के पश्चात् सूरिश्रेष्ठ जिनचन्द्रसूरि हुए जिनवे अष्टादश नाममाला का पाठ और अर्थ साङ्गोपाङ्ग कण्ठान था, सब शास्त्रों के पारंगत जिन चन्द्रसूरि ने अठारह हजार श्लोक परिमित संवेगरंगशाला की सं० ११२५ में रचना की। यह ग्रन्थ भव्य जीवों के लिए मोक्ष रूपी महल के सोपान सदृश है। ____ जिनचन्द्रसूरि ने जावालिपुर में जाकर धावकों की सभा में “चीय दण मावरसय' इत्यादि गाथाओं की व्याख्या करते हुए जो सिद्धान्त संवाद कहे थे उनको उन्हीं के शिष्य ने लिस्कर ३०० श्लोक परिमित दिनचर्या नामक ग्रन्थ तैयार कर दिया जो श्रावक समाज के लिए बहुत उपकारी सिद्ध हुआ। वे जिनचन्द्रसूरि अपने काल में जिन-धर्म का यथार्थ प्रकाश फैलाकर देवगति को प्राप्त हुए।" ___ आपके रचित पंच परमेष्ठी नमस्कार फल कुलक, क्षपक-शिक्षा प्रकरण, जीव-विभत्ति, आराधना, पार्श्व स्तोत्र आदि भी प्राप्त हैं।
संवेगरंगशाला अपने विषय का अत्यन्त महत्वपूर्ण विशद ग्रन्थ है। जिसका संक्षिप्त परिचय हमारे अनुरोध से जैन साहित्य के विशिष्ट विद्वान पं० लालचन्द्र भ० गांधी ने लिख भेजा है। इस ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित होना अति आवश्यक है ।-- सं० ]
श्रीजैनशासन के प्रभावक, समर्थ धर्मोपदेशक, ज्योति- शाला आराधना की श्रेष्ठ रचना की थी, जो ६००-नो सौ धर गीतार्थ जैनाचार्यों में श्रीजिनचन्द्रसूरिजी का संस्मर- वर्षों के पीछे-विक्रमसंवत् २०२५ में पूर्णरूप से प्रकाश में णीय स्थान है। मोक्षमार्ग के आराधक, मुमुक्षु-जनों के आई है, परम आनन्द का विषय है। परम माननीय, सत्कर्त्तव्य-परायण जिस आचार्य ने आज से बड़ौदा राज्यकी प्रेरणा से सुयोग्य विद्वान चीमनलाल नौ सौ वर्ष पहिले-विक्रम संवत् ११२५ में प्राकृत भाषा डा० दलाल म० ए० ईस्वी सन् १९१६ के अन्तिम चार मास में दस हजार, ५३ गाथा प्रमाण संवेगमार्ग-प्रेरक संवेगरंग- वहीं ठहर कर जेसलमेर किल्ले के प्राचीन ग्रन्थ-भण्डार
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ १० ]
का अवलोकन बड़ी मुश्किल से कर सके । वहाँ की रिपोर्ट कच्ची नोंध व्यवस्थित कर प्रकाशित कराने के पहिले ही वे ईस्वी सन् १९१७ अक्टोबर मास में स्वर्गस्थ हुए ।
आज से ५० वर्ष पहिले ईस्वी सन् १९२० अक्टोबर बड़ौदा - राजकीय सेन्ट्रल लाइब्रेरी (संस्कृत पुस्तकालय) में 'जैन पंडित' उपनामसे हमारी नियुक्ति हुई, और विधिवशात् सद्गत ची० डा० दलाल एम० ए० के अकाल स्वर्गवास से अप्रकाशित वह कच्ची नोंध आधारित 'जेसलमेर दुर्ग जैन ग्रन्थभण्डार - सूचीपत्र' सम्पादित - प्रकाशित कराने का हमारा योग आया । दो वर्षों के बाद ईस्वी सन् १९२३ में उस संस्था द्वारा गायकवाड ओरियन्टल सिरीज नं० २१ में यह ग्रन्थ बहुत परिश्रम से बम्बई नि० सा० द्वारा प्रकाशित हुआ है। बहुत ग्रन्थ गवेषणा के बाद उसमें प्रस्तावना और विषयवार अप्रसिद्ध
ग्रन्थ, ग्रन्थकृत-परिचय परिशिष्ट आदि संस्कृत भाषा में मैंने तैयार किया था । उसमें जेसलमेर दुर्ग के बड़े भण्डार में नं० १८३ में रही हुई उपर्युक्त सवेगरंगशाला (२०३X२३ साइज) ३४७ पत्रवाली ताड़पत्रीय पोथी का सूचन है । वहाँ अन्तिम उल्लेख इस प्रकार है :
"इति श्रीजिनचन्द्रसूरिकृता तद्विनेय श्रीप्रसन्नचन्द्राचार्यसमभ्यथित - गुणचन्द्रर्गाणि प्रतिर्यत्कृ (संस्कृता जिनवल्लभगजिना संशोधिता संवेपरंगशालाभिधानाराधना समाप्ता ।
संवत् १२०७ वर्षे ज्येष्ठमुदि १० गुरौ अद्य ह श्रीवटपद्रके दंड० श्रीवोसरि प्रतिपत्तो संवेगरंगशाला पुस्तकं लिखित मिति ।"
- स्व० दलाल ने इसकी पीछे की २७ पद्योंवाली लिखानेवाले की प्रशस्ति का सूचन किया है, अवकाशाभाव से वहाँ लिखो नहीं थी ।
जे० भां० सूचीपत्र में 'अप्रसिद्ध ग्रन्थ- ग्रन्थकृत्परिचय' कराने के समय मैंने 'जैनोपदेशग्रन्था:' इस विभाग में
पृ०
३८-३९ में 'संवेग रंगशाला' के सम्बन्ध में अन्वेषण पूर्वक संक्षिप्त परिचय सूचित किया था। उसकी रचना सं०११२५ में हुई थी । लि० प्रति सं० १२०७ की थी । रचना का आधार नीचे टिप्पणी में मैंने मूलग्रन्थ की अर्वाचीन से० ला० की ह० लि० प्रति से अवतरण द्वारा दर्शाया थासमइक्कतेसु वरिसाण । एक्कारससु पणवीस समहि ॥ सएसु निष्पत्ति संवत्ता एसाराहण त्ति फुडपायडपयत्था ।" भावार्थ - विक्रमनृपकाल से ११२५ वर्ष बीतने के बाद स्फुट प्रगट पदार्थवाली यह आराधना सिद्धि को प्राप्त हुई ।
fugafra कालाओ
इसके पीछे मैंने हट्टिप्पणिका का भी संवाद दर्शाया था—''संवेगरङ्गसाला ११२५ वर्षे नवाङ्गाभयदेववृद्ध भ्रातृजिनचन्द्रीया १००५३"
मैंने वहाँ संस्कृत में संक्षेप में परिचय कराया था कि 'आराधनेत्यराह्वयं नवाङ्गवृत्तिकाराभयदेवसू रे रभ्यर्थ नया विरचिता । विरचयिता चायं जिनेश्वरसूरेर्मुख्य: 'शष्योऽभयदेत्रसूरेश्व वृद्धगतीर्यः । ”
अभयदेवसूरि पर टिपणी में मैंने उसी संवेगरंगशाला की से० ला० की ह० लि० प्रति से पाठ का अवतरण वहां दर्शाया था -
"सिरिअभय देवसूरित्ति पत्तकित्ती परं भवणे ||[१००४ ] जे कुह महारिउ विम्ममाणस्स नरवइस्सेव । सुपधस्स दढतं निव्वतियमंगवित्तहिं ॥ [ १००४२] तस्सम्भवसो लिरिणिचंद मुनिवरेण इमाण ।
लागारे उचिऊण वरवयणकुमाई ॥ [१००४३] मूत्र का गणाओ, गुथित्ता निययगुणेण ददं । वित्रित्य - सोरभरा, निम्मविया राहणामाला ॥[१००४४]'
भावार्थ:- भवन में श्रेष्ठ कीर्ति पानेवाले श्री अभयदेवसूरि हुए। जिसने कुबोध रूप महारिपु द्वारा विनष्ट किये जाते नरपति जैसे श्रुतधर्म का दृढ़त्व अंगों को वृत्तियों द्वारा किया | उनकी अभ्यर्थना के वश से
wb
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जिनचन्द्र मुनिवर ने मालाकार की तरह, मूलश्रुत
[३.] रूप उद्यान से श्रेष्ठ वचन-कुसुमों का उच्चुंटन कर, अपने श्रीजिनपतिसूरिजी द्वारा विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में मतिगुण से दृढ़ गुंथन करके विविध अर्थ-सौरभ-भरपूर यह रचित पंचलिंगी-विवरण सं० में प्रशंसा की है किआराधनामाला रची है।
"नर्तयितुं संवेगं पुनर्नृणां लुप्तनृत्यमिव कलिना । इसके पीछे मैंने वहाँ सूचन किया है कि "पाश्चा- संवेगरङ्गशाला येन विशाला व्यरचि रुचिरा ॥" त्यैरनेकैनन्थकारैरस्यः कृतेः संस्मरणमकारि ।" इसका भावार्थ:--जिसने (श्री जिन चन्द्रसूरिजी ने), कलिकाल भावार्थ यह है कि-इस संवेगरंगशाला कृति का संस्मरण, से जिसका नृत्य लुप्त हो गया था, वैसे मानो मनुष्यों के पीछे होनेवाले अनेक ग्रन्थकारों ने किया है। इसका संवेग को नृत्य कराने के लिए विशाल मनोहर संवेगरंगशाला समर्थन करने के लिए मैंने वहां (१) गुणचन्द्रगण का रची ।।
[४] महावीरचरित, (२) जिनदत्तसूरि का गणधरसार्धशतक,
_ विक्रम संवत् १२६५ में सुमतिगणि ने गणधरसार्धशतक (३) जिनपतिसूरि का पंचलिंगीविवरण (४) सुमतिगणि की ।
की सं० बृहद्वृत्ति में उल्लेख किया है कि-- गणधरसार्धशतक वृत्ति, (५) संघपुर मन्दिर-शिलालेख, (६)
"पश्चाजिनचन्द्रसूरिवर आसीद् यस्याष्टादशनाम माला चन्द्रतिलक उपाध्याय का अभयकुमार चरित तथा (७) भुवन
सूत्रतोऽर्थतश्च मनस्यासन् सर्वशास्त्रविदः । येनाष्टा(?) हित उपाध्याय के राजगृह-शिलालेख में से-अवतरण टिप्पणी
दशसहस्रप्रमाणा संवेगरङ्गशाला मोक्षप्रासादपदवी में दर्शाये थे, वे इस प्रकार हैं -
भव्यजन्तूनां कृता । येन जावालिपुरे दू(ग)तेन श्रावकाणामने श्रीगुणचन्द्र गणि ने विक्रम संवत् ११३६ में रचित प्राकृत व्याख्यानं 'चोवंदणमावस्सय' इत्यादि गाथायाः कुर्वता महावीरचरित में प्रशंसा की है कि
सिद्धान्तसंवादाः कथितास्ते सर्वे सुशिष्येण लिखिताः शतश्रयसंवेगरंगसाला न केवलं कवविरयणा जेण । प्रमाणो दिनचर्यानन्थः श्राद्धानामुपकारी जातः ।" भवजणविम्हय करी विहिया संजम-पवित्ती वि ॥"
[-यह पाठ मैंने बड़ौदा-जनज्ञानमन्दिर-स्थित भावार्थ:- जिसने (श्री जिनचन्द्रसूरि ने ) सिर्फ संवेग- श्रीहंसविजयजी मुनिराज के संग्रह की अर्वाचीन ह० लि. रंगशाला काव्य-रचना ही नहीं की, भव्यजनों को विस्मय प्रति से उद्धृत कर दर्शाया था ] करानेवाली संयमप्रवृत्ति भी की थी।
___ भावार्थ:-पीछे (श्रीजिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागरसूरि _[२]
के अनन्तर ) श्री जिनचन्द्र सूरिवर हुए। सर्वशास्त्रविद् श्रीजिनदत्तसरिजी ने विक्रम की बारहवीं शताब्दी. जिसके मन में - नाममाला
जिसके मन में १८ नाममालाएँ सूत्र से और अर्थ से उपस्थित उत्तरार्ध में रचित प्रागणधरसार्धशतक में प्रशंसा की है
थीं। जिसने दस हजार गाथा प्रमाण सवेगरंगशाला
, कि
भव्यजीवों के लिए मोक्ष प्रासाद-पदवी की। जावालिपूर संवेगरंगसाला विसालसालोवमा कया जेण। में गए हुए जिसने श्रावकों के आगे 'चीवंदणमावरसय' रागाइवेरिभयभीय - भव्वजण रक्खण निमित्तं ॥"
इत्यादि गाथा का व्याख्यान करते हुए सिद्धान्त के संवाद भावार्थ:-जिसने (श्री जिनचन्द्रसूरिजी ने ) रागादि कहे थे, उन सबको सुशिष्य ने लिख लिए, तीन सौ वैरियों से भयभीत भव्यजनों के रक्षण-निमित्त विशाल
श्लोक-प्रमाण 'दिनचर्या' नामक ग्रन्थ श्रावकों के लिए किला ओ संवेगरंगशाला की।
उपकारी हो गया।
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ५ ]
रिक्त संघपुर जैन मन्दिर की भित्ति में लगे हुए प्रायः सं० १३२६ ( ? ) के अपूर्ण शिलालेख की नकल स्व बुद्धिसागरसूरिजी की प्रेरणा से 'बीजापुर- वृत्तान्त' के लिए मैंने ५४ वर्ष पहिले उद्धृत की थी, उसमें यह पद्य है
[१२]
"संवेगरङ्गशाला सुरभिः सुरविटपि कुसुममालेव । शुचितामरसरिदिव यस्य कृतिर्जयति कीर्तिरिव ॥ भावार्थ:- जिसकी (श्रीजिनचन्द्रसूरिजी की ) कृति संवेगरंगशाला सुगन्धि कल्पवृक्ष की कुसुममाला जैसी और पवित्र सरस गंगानदो जेसी, और उनकी कीर्ति जैसी जयवती है ।
[ ६ ]
उनकी परम्परा के चन्द्रतिलक उपाध्याय ने वि० सं० १३१२ में रचे हुए सं० अभयकुमार चरित काव्य में दो पद्य हैं कि
" तस्याभूतां शिष्यौ, तत्प्रथमः सूरिराज जिनचन्द्रः । संवेगरङ्गशालां व्यधित कथां यो रसविशालाम् ॥ बृहन्नमस्कारफल, श्रोतृलोक सुधाप्रपाम् । चक्रे क्षपक शिक्षां च यः संवेगविवृद्धये ॥ "
भावार्थ:- उनके (श्रीजिनेश्वरसूरिजी के ) दो शिष्य हुए । उनमें प्रथम सूरिराज जिनचन्द्र हुए; जिसने रसविशाल श्रोता लोगों के लिये अमृत परव जैसी संवेगरंगशाला कथा की, और जिसने बृहन्नमस्कारफल तथा संवेग की विवृद्धि के लिये क्षपकशिक्षा की थी ।
राजगृह में विक्रम को पन्द्रहवीं शताब्दी का जो शिलालेख उपलब्ध है, उसमें उनके अनुयायी भुवनहित उपाध्याय ने संस्कृत प्रशस्ति में श्रीजिनचन्द्रसूरिजी की संवेगरंगशाला का संस्मरण इस प्रकार किया है---
"ततः श्रीजिनचन्द्राख्यो बभूव मुनिपुंगवः । संवेगरङ्गशालां यश्चकार च बभार च ॥"
भावार्थ:- उसके बाद ( श्रीजिनेश्वरसूरिजी के पीछे ) श्रीजिनचन्द्र नामके श्रेष्ठ सूरि हुए, जिसने संवेग रंगशाला की, और धारण-पोषण की ।
-- उत्तमोत्तम यह संवेगरंगशाला ग्रन्थ कई वर्षों के पहिले श्री जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार, सूरत से तीन हजार पद्य प्रमाण अपूर्ण प्रकाशित हुआ था। दस हजार तिरेपन गाथा प्रमाण परिपूर्ण ग्रन्थ आचार्यदेवविजयमनोहरसूरि शिष्याणु मुनि परम तपस्वी श्री हेमेन्द्रविजयजी और पं० बाबूभाई सवचन्द के शुभ प्रयत्न से संशोधित संपादित होकर, विक्रम संवत् २०२५ में अणहिलपुर पत्तनवासी भवेरी कान्तिलाल मणिलाल द्वारा मोहमयी मुम्बापुरी
पत्रकार प्रकाशित हुआ है । मूल्य साढ़े बारह रुपया है । गत सप्ताह में हो संपादक मुनिराज ने कृपया उसकी १ प्रति हमें भेंट भेजी है ।
इस ग्रन्थ के टाइटल के ऊपर तथा समाप्ति के पीछे कर्त्ता श्रीजिनचन्द्रसूरिजी का विशेषण तपागच्छीय छपा है, घट नहीं सकता । 'तपागच्छ' नामकी प्रसिद्धि सं० १२८५ से श्री जगच्चन्द्रसूरिजी से है, और इस ग्रन्थ की रचना वि० संवत् ११२५ में अर्थात् उससे करीब डेढ़ सौ वर्ष पहिले हुई थी । और वहाँ गुजराती प्रस्तावना में इस ग्रन्थकार श्रीजिनचन्द्रसूरिजी को समर्थ तार्किक महावादी श्री सिद्धसेन दिवाकर सूरिजी कृत संगतितर्क ग्रन्थ पर असाधारण टीका लिखनेवाले पू० आचार्यदेव श्रीअभयदेवसूरिजी महाराज के वडील गुरुबन्धु सूचित किया, वह उचित नहीं है । इस संवेगरंगशाला की प्रान्त प्रशस्ति में स्पष्ट सूचन है कि वे अंगों की वृत्ति रचनेवाले श्रीअभयदेव सूरिजी के वडील गुरुबन्धु थे, उनकी अभ्यर्थना से इस ग्रन्थ की रचना सूचित की है ।
अभयदेवसूरिजी ने अङ्गों (आगम) पर वृत्तियाँ विक्रम संवत् ११२० से ११२८ तक में रची थी, प्रसिद्ध है ।
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
इस संवेगरंगशाला के कर्ता ने अन्त में १००२६ गाथा भगवान् श्रेष्ठ श्रीवर्धमानसूरिजी हुए। उनके व्यवहारनय से अपनी परम्परा का वंशवृक्ष सूचित किया है। उसमें और निश्चयनय जैसे अथवा द्रव्यस्तव और भावस्तव जैसे चौवीसवें तीर्थकर भगवान महावीर के अनन्तर सुधर्मा धर्म की परम उन्नति करने वाले दो शिष्य हुए। उनमें स्वामी, जंबूस्वामी, प्रभवस्वामी, शय्यंभव स्वामी की प्रथम श्रीजिनेश्वरसूरि सूर्य जैसे हुए । जिसके उदय पाने परम्परारूप अपूर्व वंशवृक्ष की, वज्रस्वामी की शाखा में पर अन्य तेजस्वि-मंडल की प्रभाका अपहरण हुआ हुए श्रीवर्धमानसूरिजी का वर्णन १००३४, ३५ गाथा में था। जिसके हर-हास और हंस जैसे उज्ज्वल गुणों के किया है। उनके दो शिष्य (१) जिनेश्वरसूरि और (२) समूह को स्मरण करते हुए भव्यजन आज भी अंगों पर बुद्धिसागरसूरि का परिचय १००३६ से १००३६ गाथाओं रोमांच को धारण करते हैं । में कराया है
और दूसरे, निपुण श्रेष्ठ व्याकरण प्रमुख बहु शास्त्रकी "तस्साहाए निम्मलजसधवलो सिद्धिकामलोयाणं ।। रचना करने वाले बुद्धिसागरसूरि नाम से जगत् में सविसेसवंदणिज्जो य, रायणा थो(थे) रप्पवग्गोव्व ॥ प्रख्यात हुए।
१००३४ ॥ उनके (दोनों के) पद-पंकज और उत्संग-संग से कालेणं संभूओ, भयवं सिरिवद्धमाण मुणिवसभो। परम माहात्म्य पानेवाला प्रथम शिष्य जिनचन्द्रसरि निप्पडिम पसमलच्छो-विच्छड्डाखंड-भंडारो ॥ १००३५॥ नामवाला उत्पन्न हुआ । और दूसरा शिष्य अभयदेवसरि ववहार-निच्छयनय व, दब-भावत्थय व्व धम्मस्स । पूर्णिमा के चन्द्र जैसा, भव्यजनरूप कुमुदवन को विकस्वर परमुन्नइजणगा तस्स, दोणि सीसा समुप्पण्णा ॥ करनेवाला हुआ। [-- इसके पीछे का १००४१ से
॥१००३६।। १००४४ तक गाथा का सम्बन्ध उपर आ गया है ] पढमो सिरिसूरिजिणेसरो त्ति, सूरो ब्व जम्मि उद्यम्मि । १००४५ गाथा में ग्रन्थकार ने सूचित किया है किहोत्था पहाऽवहारो, दूरंत-तेयस्सि चक्कस्स ॥ १०० ३७ ॥ श्रमण मधुकरों के हृदय हरनेवाली इस आराधनामाला अज्ज वि य जस्स हरहास-हंसगोरं गुणाण पत्भारं । (संवेगरंगशाला) को भव्य जन अपने सुख (शुभ) निमित सुमरंता भव्वा उवहंति रोमंचमंगेसु ॥ १००३८ ।। विलासी जनोंकी तरह सर्व आदर से अत्यन्त सेवन करें। बीओ पूण विरइय-निउण-पवर वागरण-पमह-बहसत्यो। १००४६ से १००५४ गाथाओं में कृतज्ञताका और रचना नामेण बुद्धिसागर सूरित्ति अहेसि जयपयडो ॥१००३६॥ स्थलका सूचन किया है कि - "सुगुण मुनिजनों के पदतेसि पय-पंक उच्छंग-संग-संपत्त-परम-माहप्पो।
प्रणाम से जिसका भाल पवित्र हुआ है, ऐसे सुप्रसिद्ध श्रेष्ठी सिस्सो पढमोजिणचंदसूरि नामो समुप्पन्नो ॥१.० ४०॥ गोवर्धन के सुत विख्यात जजनाग के पुत्र जो सुप्रशस्त अन्नो य पुन्निमाससहरो ब्व, निव्वविय-भव्व-कुमुयवणो ।' तीर्थयात्रा करने से प्रख्यात हुए, असाधारण गुणों से जिन्होंने [ गाथा १००४१ से १००४४ तक पहिले दर्शाया है ] उज्ज्वल विशाल कीर्ति उपार्जित की है । किबिबोंकी
भावार्थ:-उन (वज्रस्वामी) की शाखा में काल-क्रम प्रतिष्ठा कराना, श्रुतलेखन वगैरह धर्मकृत्यों द्वारा से निर्मल उज्ज्वल यशवाले, सिद्धि चाहने वाले लोगों के आत्मोन्नति करनेवाले, अन्य जनों के चित्त को चमत्कार लिए राजा द्वारा स्थविर आत्मवर्ग की तरह (?) विशेष करनेवाले, जिनमत-भावित बुद्धिवाले सिद्ध और वीर वंदनीय, अप्रतिम प्रशमलक्ष्मीवैभव के अखंड भण्डार, नामवाले श्रेष्ठियों के परम साहाय्य और आदर से यह
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
। १४ ]
रचना की है। इस आराधना की रचना से हमने जो पाठकों को स्मरण रहे कि, इस संवेगरंगशाला कुछ कुशल (पुण्य) उपार्जन किया, उससे भव्यजन , जिन- आराधना रचनेवाले श्रोजिनचंद्रसूरिजी के गुरुवर्य श्री जिनेवचन का परम आराधना को प्राप्त करें। छत्रा- श्वरसूरिजी ने गुजरात में अहिलबाड पत्तन (पाटण) में वल्लिपुरी में जेज्जयके पुत्र पासनाग के भुवन में विक्रमनृप दुर्लभराज राजा की सभा में चैत्यवासियों को वाद में के काल से ११२५ वर्ष व्यतीत होने पर स्फुट प्रकट परास्त किया था, 'साधुओं को चैत्य में वास नहीं करना पदार्थवाली यह आराधना सिद्धि को प्राप्त हुई है। इस चाहिये, किन्तु गृहस्थों के निर्दोष स्थान (वसति) में वास रचनाको, विनय-नय-प्रधान, समस्त गुणों के स्थान, जिनदत्त करना चाहिए'-ऐसा स्थापित किया था। उपर्युक्त निर्णय गणि नामक शिष्य ने प्रथम पुस्तक में लिखी। संमोह को के अनुसार जिनेश्वरसूरिजी के प्रथम शिष्य जिनचन्द्रसूरिजी दूर करने के लिए गिनती से निश्चय करके इस ग्रन्थ में ने इस ग्रन्थ की रचना पूर्वोक्त गृहस्थ के भवन में ठहर कर तिरेपन गाथा से अधिक दस हजार गाथाएँ स्थापित की थी। उपर्युक्त घटना का उल्लेख जिनदत्तसूरिजी के प्रा. की हैं।
गणधरसार्धशतक में, तथा उनके अनेक अनुयायियों ने अन्त में संस्कृत के गद्य में उल्लेख है कि, श्रीजिनचन्द्र
अन्यत्र प्रसिद्ध किया है, जो जेसलमेर भण्डार की ग्रन्थसूची सूरि कृत, उनके शिष्य प्रसन्नचन्द्राचार्य-समभ्यथित, गणचन्द्र
(गा० ओ० सि० नं० २१), तथा अपभ्रंशकाव्यत्रयी (गा० . गणि-प्रतिसंस्कृत, और जिनवल्लभगणि द्वारा संशोधित
ओ०सि० नं०२७) के परिशिष्ट आदि के अवलोकन से ज्ञात संबेगरंगशाला नामकी आराधना समाप्त हुई।
होगा। खरतरगच्छ वालों की मान्यता यह है कि, उस वाद अन्तमें प्रति-पुस्तक लिखने का समय संवत् १२०७ में विजय पाने से महाराजा ने विजेता जिनेश्वर सूरिजीको (सं० १२०३ नहीं) और स्थान वटपद्रक में (अर्थात् इस 'खरतर' शब्द कहा या विरुद दिया। इसके बाद उनके बड़ौदा में समझना चाहिये । ) [प्रकाशित आवृत्ति में अनुयायी खरतरगच्छ वाले पहचाने जाते हैं। दुर्लभराज दंडोवासरे प्रतिपत्तौ छपा है. वहाँ दडश्रीवोसरि
का राज्य समय वि० सं० १०६५ से १०७८ तक प्रसिद्ध प्रतिपत्तौ होना चाहिए, मैंने अन्यत्र दर्शाया है । [देखें, जे० है, तो भी खरतरगच्छ की स्थापना का समय सं० १०८० भां० सूचीपत्र (गा० ओ० सि० नं० २१ पृ० २१, ‘वटपद्र माना जाता है। (बड़ौदा) का ऐतिहासिक उल्लेखो' हमारा 'ऐतिहासिक
संवेगरंगशालाकार इस जिनचन्द्रसूरिजी की प्रभावकता के लेख संग्रह' सयाजी साहित्यमाला क्र० ३३५ वगैरह)
___कारण खरतरगच्छ की पट्ट-परम्परा में उनसे चौधे पट्टवर ग्रन्थ निर्दिष्ट नाम-वर्धमानसूरिजी की संवत् ।
' का नाम 'जिनचन्द्रसूरि' रखने की प्रथा है। १०५५ में रचित उपदेशपद-वृत्ति. जिनेश्वरसरिजी की
आराधना-शास्त्रकी संकलना जावालिपुरमै सं० १०८० में रचित अष्टकप्रकरणवृत्ति,
प्रतिष्ठित पूर्वाचार्यों से प्रशंसित इस संवेगरंगशाला प्रमालक्ष्म आदि, तथा बुद्धिसागरसूरिजी का सं० १०८० में
आराधना ग्रन्य-अथवा आराधना शास्त्र को संकलना श्रेष्ठ रचित व्याकरण (पंचग्रन्थो), और अभयदेव सूरिज़ी की सं० । ११२० से ११२८ में रचित स्थानांग वगैरह अंगोंकी
कवि श्रीजिनचन्द्रसूरिजी ने परम्परा-प्रस्थापित सरल सुबोध वृत्तियों की प्राचीन प्रतियों का निर्देश हमने 'जेसलमेर- प्राकृत भाषा में को, उचित किया है। प्रारम्भ में शिष्टाभण्डार-ग्रन्थसूची' (गा० ओ० सि० नं० २१) में किया है, चार-परिपालन करने के लिए विस्तार से मंगल, अभिधेय, जिज्ञासुओं को अवलोकन करना चाहिए।
सम्बन्ध, प्रयोजनादि दर्शाया है। ऋषभादि सर्व तीर्थाधिप
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
[१५]
महावीर, सिद्धों, गौतमादि गणधरों, आचार्यो, उपाव्यायों और मुनियों को प्रणाम करके सर्वज्ञकी महावाणी को भी नमन किया है । प्रवचन की प्रशंसा करके, निर्यामक गुरुओं और मुनियों को भी नमस्कार किया है । सुगति गमन की मूलपदवी चार स्कन्धरूप यह आराधना जिन्होंने प्राप्त की, उन मुनियों को वन्दन किया और गृहस्थों को अभिनन्दन दिया ( गा० १४ ), मजबूत नाव जैसी यह आराधना भगवती जगत् में जयवंती रहो, जिस पर आरूढ़ होकर भव्य भविजन रौद्र भव-समुद्र को वह श्रुतदेवी जयवती है कि, जिसके प्रसाद से जन भी अपने इच्छित अर्थ निस्तारण में समर्थ कवि होते हैं । जिन के पद - प्रभाव से मैं सकल जन श्लाघनीय पदवीको
पाया हूँ, विबुध जनों द्वारा प्रणत उन अपने गुरुओं को मैं प्रणिपात करता हूँ । इस प्रकार समस्त स्तुति करने योग्य शास्त्र विषयक प्रस्तुत स्तुतिरूप गजघटाद्वारा सुभटकी तरह जिसने प्रत्यूह ( विघ्न ) - प्रतिपक्ष विनष्ट किया है, ऐसा मैं स्वयं मन्दमति होने पर भी बड़े गुण- गणसे गुरु ऐसे सुगुरुओं के चरण- प्रसादसे भव्यजनोंके हित के लिए कुछ कहता हूँ । (१६)
भयंकर भवाटवी में दुर्लभ मनुष्यत्व, और सुकुलादि पाकर, भावि भद्रपनसे, भयके शेषफ्नसे, अत्यन्त दुर्जय दर्शनमोहनीय के अबलपन से, सुगरुके उपदेशसे अथवा स्वयं कर्मग्रन्थि के भेदसे, भारी पर्यंत नदी से हरण किये जाते लोगोंको नदी तटका प्रालंब (प्रकृष्ट अवलम्बन मिल जाय, अथवा रंजनोंको निधान प्राप्त हो जाय, अथवा विविध व्याधिपीड़ित जनोंको सुवैद्य मिल जाय, अथवा कुएँके भीतर गिरे हुए को समर्थ हस्तावलंब मिल जाय; इसी तरह सविशेष पुण्यप्रकर्षसे पाने योग्य, चिन्तामणि रत्न और कल्पवृक्षको जीतने वाले, निष्कलंक परम (श्रेष्ठ) सर्वज्ञ-धर्म को पाकर, अपने हितकी ही गवेषणा करनी चाहिए। वह हित ऐसा हो कि, जो अहितसे नियमसे ( निश्चयसे) कहीं भी, किससे
तरते हैं ।
मन्दमति
भी, और कभी भी बाधित न हो। वैसा अनुपम अत्यन्त एकान्तिक परम हित (सुख) मोक्ष में होता है, और मोक्ष कर्मोंके क्षयसे होता है. और कर्मक्षय, विशुद्ध आराधना आराधित करनेसे होता है । इसलिए हितार्थी जनों को आराधना में सदा यत्न करना चाहिए; क्योंकि, उपायके विरह से उपेय ( प्राप्त करने योग्य साध्य ) प्राप्त नहीं हो
सकता ।
आराधना करनेके मतवालों को उस अर्थ को प्रकट करने वाले शास्त्रों का जान चाहिए। इसलिए 'गृहस्थों और साधुओं दोनों विषयक इस आराधना शास्त्रको मैं तुच्छ बुद्धि वाला होने
पर भी कहूँगा । आराधना चाहने वाले वह मन, वचन, काया इस त्रिकरण का
को चाहिए कि रोध करे ।'
इस आराधना में (१) परिकर्म-विधान (२) परगण - संक्रमण (३) ममत्वव्यच्छेद और (४) समाधिलाभ नामवालेचार स्कन्ध (विभाग) हैं ।
पहिले (१) परिकर्म-विधान में (१) अर्ह (२) लिङ्ग, (३) शिक्षा. (४) विनय, (५) समाधि (६) मनोऽनुशास्ति, (७) अनियत विहार, (८) राजा (2) परिणाम साधारण gora १० विनियोग स्थानों, (१०) त्याग, ( ११ ) मरण- विभक्ति - १७ प्रकारके मरणों पर विचार, (१२) अधिकृत मरण, (१३) सीति (श्रेणी), (१४) भावना और (१५) संलेखना इस प्रकारके १५ द्वारों को विविध बोधक दृष्टान्तों से स्पष्ट रूप में समझाया है ।
दूसरे (२) परगण संक्रमण स्कन्ध ( विभाग) में (१) दिशा, (२) क्षामणा, (३) अनुशास्ति, (४) सुस्थित गवे - पणा, (५) उपसंपदा, (६) परीक्षा, (७) प्रतिलेखना, (८) पृच्छा, (६) प्रतीक्षा, (१०)
इस प्रकार दस द्वारोंको विविध दृष्टान्तों से स्पष्टरूप में समझाया है ।
तीसरे (३) ममत्वत्रयुच्छेद स्कन्ध ( विभाग) में (१)
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
आलोचना विधान, (२) शय्या, (३) संस्तारक, (४) निर्या- कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यके स्वोपज्ञ विवरण वाले मक, (५) दर्शन, (६) हानि, (७) प्रत्याख्यान, (८) संस्कृत योगशास्त्रसे भी परामर्श सूचित किया था। इस खामणा- क्षमापना, (६) क्षमा इस तरह नौ द्वारों को संवेगरंगशालाकी रचना विक्रमसंवत् ११२५ में, और विविध दृष्टान्तोंसे स्पष्ट समझाया है।
श्री हेमचन्द्राचार्य का जन्म विक्रमसंवत् ११४५ में (बीस वर्ष ___ चोथे (४) समाधि-लाभ नामक स्कन्ध (विभाग) में पीछे) हुआ था, प्रसिद्ध है। (१) अनुशास्ति, (२) प्रतिपत्ति, (३) सा(स्मा)रणा, (४) संवेगरंगशालामें परिणामद्वारमें आयुष्यपरिज्ञानके कवच, (५) समता, (६) ध्यान, (७) लेश्या, (८) आरा- जो ११ द्वारों (१) देवता, (२) शकुन, (३) उपश्रुति, (४) धना-फल और (6) विजहना द्वारमें अनेक ज्ञातव्य विषय छाया, (५) नाडी, (६) निमित्त, (७) ज्योतिष, (८) समझाये गये है।
स्वप्न, (6) अरिष्ट, (१०) यन्त्र-प्रयोग और (११) विद्या-इपके (१) अनगास्ति द्वारमें त्याग करने योग्य द्वार दर्शाये हैं। इसी तरह श्रीहेमचन्द्राचार्यने अपने संस्कृत १८ अठारह पापस्थानकों के विषय में, (२) त्याग करने योगशास्त्रमें (पांचवें प्रकाशमें) काल-ज्ञानका विचार योग्य ८ आठ प्रकारके मदस्थानों के विषयमें, (३) त्याग ।
विस्तारसे दर्शाया है। तुलनात्मक दृष्टिसे अभ्यास करने करने योग्य क्रोधादि कपायोंके विषयमें, ४) त्याग करने योग्य है। योग्य ५ पांच प्रकार के प्रमाद के विषय में, (५) प्रतिबन्ध-त्याग
पाटण और जेसलमेर आदिके जैन ग्रन्थभंडारों में विषयमें, (६) सम्यक्त्व- स्थिरता के विषयमें, (७) अहन आदि आरधना-विषयक छोटे-मोटे अनेक ग्रन्थ है, सूचीपत्रमें छःकी भक्तिमत्ता के विषयमें, (८) पंचनमस्कारतत्परता के दर्शाये हैं। इन सबका प्राचीन आधार यह संवेगरंगशाला विषयमें, (8) सम्यग ज्ञानोपयोग के विषयमें, १०) पंच आराधनाशास्त्र मालूम होता है। वर्तमानमें, अन्तिम महादात विषयमें, (११) चतु:शरण-गमन, (१२. दुष्कृत-गीं, आराधना कराने के लिए सुनाया जाता आराधना प्रकीर्णक, (१३) मृकृतों की अनुमोदना, (१४, अनित्य आदि १२ चउ परणपयन्ना और उ० विनय विजयजी म० का पुण्यबारह भावना, (१५) शील-पालन, (१६) इन्द्रिय-दमन,
प्रकाश स्तवन इत्यादि इस संवेगरंगशाला ग्रन्थका 'ममत्व(१७) तपमें उद्यम और १८) निःशल्यता-नियाण-निदान. व्युच्छेद' 'समाध-लाभ' विभागका संक्षेप है- ऐसा अवलोमाया, मिथ्यात्व-शल्य-त्याग इस प्रकार १८ द्वारों को कनसे प्रतीत होगा। अन्य व्यतिरेकसे विविध दृष्टान्तों द्वारा विवेचन करके दस हजारसे अधिक ५३ प्राकृत गाथाओंका सार इस अच्छी तरहसे समझाया गया है।
संक्षिप्त लेखमें दिगदर्शन रूप सूचित किया है। परम उपइसके प्रथम स्कन्धके परिणाम द्वार में श्रावकोंकी ११
कारक इस ग्रन्धका पठन-पाठन, व्याख्यान, श्रवण, अनुवाद प्रतिमाओं के अनन्तर साधारण द्रव्यके १० विनियोग
आदिसे प्रसारण करना अत्यन्त आवश्यक है, परम हितकारक स्थान दर्शाये हैं, विचारने समझने योग्य हैं; अन्य ७क्षेत्रों स्व
*
नो स्वपरोपकारक है। में द्रव्यापन करने का उपदेश है। आजसे २६ वर्ष पहिले
आशा है, चतुर्विध थीसंघ इस आराधना शास्त्रके मैंने १ लेख 'सशील जैन महिलाओनां संस्मरणो' मंबई और प्रचारमें सब प्रकारसे प्रयत्न करके महसेन राजाकी तरह मांगरोल जैन सभाके सूवर्णमहोत्सव अंकके लिए गजराती में आत्महितके साथ परोपकार साधेगे। मुमुक्षु जन आराधना लिखा था, वह संवत् १९६८ में प्रकाशित हुआ था।
रसायनसे उनसे अजरामर बने—यही शुभेच्छा । और 'सयाजी सा'हत्यमाला' पुष्प ३३५ में हमारे
संवत् २०२७ पोषवदि ३ गुरु 'ऐतिहासिक लेखसंग्रह में | क्र. १०, ३३१ से ३४७
( मकर-संक्रान्ति ) में] संवत् २०५६ में प्राच्यविद्यामन्दिर द्वारा महाराजा
बड़ी बाड़ी, रावपुरा, सयाजीराव युनिवर्सिटी, बड़ौदासे प्रकाशित है। उसमें मैंने
बड़ौदा ( गुजरात ) इस संवेगरंगशाला में से श्रमणी और श्रावक, श्राविका
लालचन्द्र भगवान् गांधी स्थानों के लिए द्रव्य-विनियोग वक्तव्य दर्शाया था। साथमें
[ निवृत्त 'जनपण्डित' बड़ौदा राज्य ]
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
:-LD17nude EhCO &
ADDARPA
प्रथम नरेश्वर और प्रथमतीर्थङ्ककर भगवान ऋषभदेव १ भगवान का कर्मभूभियोग्य विविध कला सिखाना
३ भरत चक्रवर्ती की आयुधशाला में चक्र का प्राकट्य २ ब्राह्मी सुन्दरी को ब्राह्मी लिपी आदि सिखाना
४ समवशरण में चतुर्विध संघ स्थापन बारह परिषद में धर्म देश ५ कैलाश पर्वत पर निर्वाण, सिद्ध शिला पर विराजमान प्रभु
चित्रकार-इन्द्र दुगड जैन भवन के सौजन्य से
a national
Jain Educan
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानिसमूरयः
HOOD
TOTTISEजानन
- साधु साध्वी सहित भक्त श्रावक संघ को आशीर्वाद देते हुए युगप्रधान श्री जिनदत्तसूरि
(ची किनवहत
|
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवाङ्गो-वृत्तिकार श्री अभयदेवसरि
[अगरचंद नाहटा] सुविहित मार्ग प्रकाशक श्री जिनेश्वरसूरिजो के दो की परम्परा शिथिल हो जाने से बहुत से गुरु आम्नाय लुप्त प्रधान शिष्य थे, एक संवेगशाला प्रकरणकर्ता श्री जिनचन्द्र- हो गए और मूल पाठ भी त्रुटित और अशुद्ध होते जा रहे सूरि और दूसरे नवाङ्गी वृत्तिकर्ता श्री अभयदेवसूरि । थे। ऐसी परिस्थिति को देख कर अभयदेवसूरि ने अपनी श्री जिनेश्वरसूरिजी के पट्ट पर श्रीजिनचन्द्रसूरि और उनके पट्ट बहुश्रुतता का उपयोग उन आगमों पर टीकाएँ बनाने पर श्री अभयदेवसूरिजो प्रतिष्ठित हुए। आपके प्रारम्भिक के रूप में किया । सं० ११२० से ११२८ तक यह कार्य जीवन के सम्बन्ध में प्रभावक चरित्र में लिखा है कि आचार्य निरन्तर चलता रहा। पाटण में आगमों को प्रतियां और जिनेश्वरसूरि सं० १०८० के पश्चात् जावालिपुर (जालोर) चैत्यवासी आगम विज्ञ आचार्य का सहयोग सुलभ था । मध्य से विहार करते हुए मालव प्रदेश की राजधानी धारानगरी वर्ती समय में सं० ११२४ में आपने धवलका में रहते हुए में पधारे। वहां आपका प्रवचन निरन्तर होता था। इसी बकुल और नंदिक सेठ के घर में पंचाशक टीका बनाई। नगरी में श्रेष्ठी महीधर नामक विचक्षण व्यापारी रहता ठाणांग सूत्र से लेकर विपाक सूत्र तक नवाङ्गों की जो था। उनकी पत्नी धनदेवो थी। अभयकुमार उनका सौभाग्य- आपने टीका बनाई, उसका संशोधन उदारभाव से चैत्यवासी शाली पुत्र था। आचार्य जिनेश्वर सूरि का व्याख्यान सुने गीतार्थ द्रोणाचार्य से कराया जिससे वे सर्वमान्य हो गई। के लिए महीधर का पुत्र अभयकुमार भी आया करता था। अभयदेवसूरिजी के जीवन की दूसरी घटना स्तंभन पार्श्वआचार्यश्री के वैराग्यपोषक शांत रसवर्द्धक उपदेश से नाथ प्रतिमा को प्रकट करना है । कहा गया है कि टोकाएं अभयकुमार प्रभावित हुआ और माता-पिता से अनुमति रचने के समय अधिक परिश्रम और चिरकाल आयंबिल प्राप्त कर श्रीजिनेश्वरसरि के पास दीक्षा ग्रहण की। उनका तप के कारण आपका शरीर व्याधिग्रस्त और जर्जरित हो दीक्षा नाम अभयदेवमुनि रखा गया।
गया । अनशन करने का विचार करने पर शासनदेवी ने कहा श्रीजिनेश्वरसूरि के पास ही स्व-पर शास्त्रों का विधिवत् कि सेढी नदी के पार्श्ववर्ती खोखरा पलाश के नीचे भ० अध्ययन अभयदेव ने किया। ज्ञानार्जन के साथ-साथ वे पार्श्वनाथ की प्रतिमा है। आपकी स्तवना से वह प्रतिमा उग्न तपश्चर्या भी करने लगे। आपको योग्यता और प्रतिभा प्रकट होगी। उस प्रतिमा के स्नात्रजल से आपकी सारी व्याधि को देखकर जिनेश रसूरि ने आपको संवत् १०८८ में आचार्य मिट जायगी। शासनदेवी के निर्देशानुसार उन्होंने “जयतिहुपद प्रदान किया।
अ" स्तोत्र द्वारा भ० पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रगट की। ___ उस समय के प्रमुख प्रमुख आचार्य सैद्धान्तिक आगमों आज भी यह स्तोत्र प्रतिदिन खरतरगच्छ में प्रतिक्रमण में का अध्ययन छोड़कर आयुर्वेद, धनुर्वेद, ज्योतिष, सामुद्रिक, बोला जाता है । नाट्य शास्त्रादि विषयों में पारगत होते जा रहे थे । मंत्र, यंत्र सुमतिगणि रचित गणधर सार्धशतक वृहद् वृत्ति,
और तंत्र विद्या के चमत्कारों से राजाओं व जनता पर भी जिनोपालोपाध्याय कृत युगप्रधानाचार्य गुर्वावली, जिनउनका अच्छा प्रभाव जमता जाता था। आगमों के अभ्यास प्रभसूरि कृत विविध तीर्थकल्प एवं सोमधर्म रचित उपदेश
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्तति के अनुसार पार्श्वनाथ प्रतिमा का प्रकटीकरण होने ६.धसोमेश्वर स्वप्नं सोमेश्वरनामा द्विजाति:, प्रभाते के पश्चात् नवाङ्गी टीका रची गई थी और प्रभावक वर्द्धमानसूरिरूप ईश्वरोऽयं साक्षादेष भगवानाचार्यः । चरित्र, प्रबंधचिन्तामणि व पुरातन प्रबन्ध संग्रह के अनुसार इति स्वप्नादेशप्रमाणेन प्रतिपद्यत्स्थां यात्रासम्पूर्णो मन्यनवाङ्गी टीका पूरी होने के बाद प्रतिमा का प्रकटन हुआ। मान आचार्यान्ति के शिष्यो जातः, पादाभिषिक्त: काले ___ आचारांग और सूयगडांग दो आगमों पर शीलांकाचार्य जातो जिनेश्वरसूरिनामा । तस्य शिष्य: श्रीमदभयदेवसूरिकी टीकाए हैं, बाकी नवांग सूत्रों पर आपने टीका लिखकर नवाङ्गवृत्तिकारः। सोऽपि कर्मोदयेन कुष्टी जातः । जैन शासन की महान् सेवा की है। टीकाए बहुत ही शुनदेवतादेशात् दक्षिण दिग्विभागात् धवलक्कके समात्य उपयोगी और महत्त्वपूर्ण है। इनके अतिरिक्त और भी बहुत संपयात्रया थीस्तम्भ नायकं प्रणतु स सूरिरागतः । ११३१ से ग्रन्थ पंचाशक वृत्ति, व कई ग्रन्थों के भाष्य बनाये थे। वर्षे श्री स्तम्भनायक: प्रकटीकृत: । ग्रामभट्टन बोहावे न आपके रचित कई स्तोत्र, प्रकरणादि भी प्राप्त हैं। सही यड एष पूज्यमानः। प्रतिदिनं ग्रामभट्टकपिलया गया
अभयदेवसूरिजी ने अनेक विद्वान तैयार किये, जिनमें निजोधस्यक्षरत् पयोधारया संजायमानस्नपनस्वरूपोऽभूत् । से बर्द्धमानसूरि रचित आदिनाथचरित, मनोरमा थादि तदा च श्रीमदभयदेवसूरिणा जयतिहु अण द्वात्रिंशतिका सर्वप्राकृत भाषा के म.त्वपूर्ण ग्रन्थ रचे हैं। श्रीजिन वल्लभ गणि जिनशाशन भक्त दैवतगण प्रौढप्रतापोदयात् गुप्तमहाको आपने आगमादि का अभ्यास करवाके बहुत ही योग्य मन्त्राक्षरा पेढे षोडशे च काव्ये स सूरिरशोकबालकुन्तल विद्वान और कवि बना दिया। इन जिनवल्लभसूरि की प्रास समपुद्गल श्री : जनिस्वामी च पलाशवृक्षमूलात् आत्रिसमस्त रचनाओं का संग्रह और उनका आलोचनात्मक रास। तत: शासनप्रभावको जातः। १३६८ वर्षे इदं अध्ययन महोपाध्याय विनयसागरजी ने किया है। उनके इस च बिम्बं श्री स्तम्भ तीर्थे समायातो भविकानग्रहणाय । शोधकार्य पर हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने उन्हें महोपाध्याय इत्थं कालापेक्षया नाना भक्त्यै नाना नामग्राहं नानाभक्त्या पद से विभूषित किया है।
पूजितोऽयं परमेश्वरः । सर्वार्थसिद्धिदाता जातस्तेषां द्वात्रिं. आचार्य अभयदेवसूरि सर्वगच्छमान्य थे। उनका चरित्र शता प्रबन्धर्बद्ध श्रीस्तम्मनाथ चरितमिदं । श्री पत्र द्विषोडशो खरतरगच्छ की गुर्वावलि-पट्टावलियों के अतिरिक्त अन्य ऽभूत् बन्धोऽभयदेवसूरिकथा ॥ ३२ ॥ गच्छोय प्रभाचन्द्रसूरि ने प्रभावक-वरित्र में एक स्वतत्र
इति अमन्द जगदानन्द दायिनि आचार्य श्री मेरुत्गप्रबन्ध के रूप में नाथत किया है। इसी तरह तपागच्छीय
विरचिते देवाधिदेव माहात्म्य शास्त्रे श्री स्तम्भनाथ चरिते सोमधर्म ने उादेश-सप्तति में भी उनका प्रबन्ध लिखा है।
द्वात्रिंशत्प्रबन्धबन्धुरे द्वत्रिंशत्तमः प्रबन्धः समर्थितः । पुरातन प्रबन्ध संग्रह में भी एक उनका प्रबन्ध प्रकाशित हुआ
समाप्त चेदं श्रीस्तम्भनाथचरितम् । है। इन तीनों प्रकाशित प्रबन्धों के अतिरिक्त मेरुतुंगसूरि रचित स्तंभ पार्श्वनाथ चरित्र के अन्तिम प्रबन्ध में भी सं० १४१३ के उपर्युक्त प्रबन्ध में स्तम्भन पार्श्वनाथ अभयदेवसूरि को कथा दो है । अप्रकाशित होने से उस कथा के प्रकटीकरण का समय सं० ११३१ दिया है इससे नवांगको नीचे दिया जा रहा है।
वृत्ति रचना के बाद ही यह घटना हुई-सिद्ध होता है। "प्रभाव परम्परायां श्रीचन्द्रगच्छे श्रीसुविहित- अभयदेवसूरिजी का स्वर्गवास सं० १.३५ या सं०१९३६ में शिरोवत्वंस वर्द्धमानसूरिनामा वढ़वाणनगरे विहारं कुर्वन्नाययौ। काडवंज में हुआ। खरतरगच्छ पट्टावली के अनुसार आप
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
चतुर्थ देवलोक में हैं और तीसरे भव में मोक्षगामी होंगे
यथा: --
"भणियं तित्थय रेहिं महाविदेहे भवंमि तइयम्मि । तुम्हाण चेव गुरुणो सिग्धं मुति गमिस्संति ॥ २ ॥ कटवाणिज्ये नगरे श्री अभयदेवा दिवम् गताः चतुर्थ देवलोके विजयिनः सन्ति । "
आचार्य श्री अभयदेवसूरिजी की निम्नोक्त रचनाएँ प्राप्त हैं
१ स्थानांग वृत्ति (सं० ११२० पाटण)
२ समवायाङ्गवृत्ति (सं० ११२० पाटण)
३ भगवती वृत्ति (सं० ११२८ )
४ ज्ञाता सूत्र वृत्ति (सं० १ २० विजया
दशमी, पाटण)
५ उपाशक दशा सूत्रवृत्ति
६ अंतदृशा सूत्रवृत्ति
[ १६ ]
"
७ अनुत्तरोपपातिक सूत्र वृत्ति
८ प्रश्नव्याकरण सूत्र वृत्ति
विपाक सूत्रवृत्ति
१० उपवाइ सूत्र वृत्ति
११ प्रज्ञापना तृतीय पद संग्रहणी
१२ पाशक सूत्रवृत्ति (सं० १९२४ घोलका )
१४२५०
३५७५
१८६१६
३८००
८१२
८६६
१६२
४६००
ܘܘ܀
३१२५
१३३
७४८०
१३ सप्ततिका भाष्य
१४ वृहद् वन्दनक भाष्य
१५ नवपद प्रकरण भाष्य
१६ पंच निग्रन्थी
१७ आगम अष्टोत्तरो
१८ निगोद षत्रिशिका
१६ पुद्गल षट्त्रिंशिका
२० आराधना प्रकरण
२१ आलोयणा विधि प्रकरण
२२ स्वधर्मी वात्सल्य कुलक
२३ जयतिहुअण स्तोत्र
२४
२५ स्तंभन पार्श्व स्तव
२६ पार्श्व विज्ञतिका (सुरनर किन्नर )
२७ विज्ञप्तिका (जेसलमेर भण्डार )
वस्तुस्तव [देवदुत्थिय ]
२५ षट् स्थान भाष्य
२६ वीर स्तोत्र
३० षोडशक टीका
३१ महादण्डक
३२ तिथि पयन्ना
३३ महावीर चरित (अपभ्रंश ) ३४ उपधानविधि पंचाशक प्रकरण
आचार्य अभयदेवसूरि के महत्त्व को व्यक्त करते हुए द्रोणाचार्य कहते हैं :आचार्याः प्रतिसद्म सन्ति महिमा येषामपि प्राकृते,
तुं नाऽध्यवसीयते सुचरितेतेषां पवित्र जगत् । एकेनाऽपि गुणेन किन्तु जगति प्रज्ञाघनाः साम्प्रतं, यो धत्तेऽभयदेवसूरिमतां
सोऽस्माकमादेद्यताम् ॥ [ यु प्रधानाचार्य गुर्वावली पूर ७]
गा०
गा०
गा०
८५
गा २५
TTO
गा०
प०
१६२
३३
१५१
पत्र
३०
१६
८
२६
गा० १७३
गा
२२
३३
गा० १०८
TITO ५०
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रकाण्ड विद्वान और कवि-श्रेष्ठ श्रोजिनवल्लभसूरि
नवाङ्गवृत्तिकार आचार्य श्री अभयदेवसूरि के पट्टधर नरवर में भी विधि-चैत्य स्थापित किये । मेवाड़, मालव, श्री जिनवल्लभसूरि जैन-शासन के महान् ज्योतिर्धर थे। मारवाड़ और बागड़ आदि प्रदेशों में इन्होंने सुविहित मार्ग उन्होने चैत्यवास का परित्याग कर अभयदेवसूरिजी से उप- का खूब प्रचार किया। इनके ज्योतिष-ज्ञान और विद्वता सम्पदा ग्रहग की। ये एक क्रान्तिकारी आचार्य और की सर्वत्र प्रसिद्धि हो गई। धारा-नरेश नरवर्म ने एक विशिष्ट विद्वान थे, जिन्होंने विधिमार्ग के प्रचार में प्रबल विद्वान की दी हुई समस्यापूत्ति अपने सभा-पण्डितों से न पुरुषार्थ किया और अनेकों महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का निर्माण कर होते देख, दूरवर्ती श्री जिनवल्लभसूरि को वह समस्या पद जैन साहित्य का गौरव बढ़ाया। कूर्चपुरीय चैत्यवासी भेजा, जिसकी सम्यक् पूर्ति से नृपति बहुत प्रभावित हुए आचार्य श्री जिनेश्वर के आप शिष्य थे । व्याकरणादि समस्त और उनके भक्त हो गए। साहित्य का अध्ययन करने के पश्चात् जैनागमादि साहित्य जिनवल्लभगणि को सं० ११६७ मिती आषाढ़ शुक्ला ६ में निष्णात होने के लिए वाचनाचार्य पद देकर इनके गुरु को चित्तौड़ के वीर विधि-चैत्य में कथाकोष आदि के निर्माता जिनेश्वराचार्य ने अभयदेवसूरिजी के पास भेजा । अभयदेव- देवभद्रसूरि ने आचार्य पद देकर अभयदेवसूरि का पट्टधर सूरि ने इनकी विनयशीलता, असाधारण प्रतिभा को देख घोषित किया। पर चार मास ही पूरे नहीं हो पाये और कर बड़े आत्मीय भाव से आगमादि का अध्ययन करवाया। मिती कात्तिक कृष्ण १२ को इनका स्वर्गवास हो गया। इतना ही नहीं, अभयदेवसूरि के एक भक्त दैवज्ञ ने इन्हें जिनवल्लभसूरि को परवर्ती विद्वानों ने कालिदास के ज्योतिष शास्त्र का अध्ययन करवा कर उस विषय में भी सदृश कवि बतलाया है। प्राकृत, संस्कृतादि भाषाओं में निष्णात बना दिया।
इनकी पचासों रचनायें प्राप्त हैं, इनमें से कई सैद्धान्तिक अभय देवसूरि के पास अध्ययन समाप्त कर जब ये अपने रचनाओं का तो अन्यगच्छीय विद्वान आचार्यों ने टीकाएं गुरु के पास जाने लगे तो उन्होंने कहा कि सिद्धान्तों के रच कर इनकी महत्ता को स्वीकार किया है। अध्ययन का यही सार है कि तदनुसार आचार का पालन चैत्यवास के प्रभाव से जैन मन्दिरों में जो अविधि का किया जाय। विद्यागुरु की इस हित-शिक्षा की उन्होंने प्रवर्तन हो गया था उसका निषेध करते हुए विघिचैत्यों के गांठ बाँध ली और अपने गुरु जिनेश्वर से मिलकर चैत्यवास नियमों को इन्होंने शिलोत्कीर्ण करवाया। संवेगरंगशाला त्याग की आज्ञा प्राप्त कर पाटण-लौट आये और अभयदेव- के संशोधन में भी इनका योग रहा। आपके शिष्यों में सरिजी से उपसम्पदा ग्रहण कर ली। इसके बाद चित्तौड़ रामदेव, जिनशेखरादि कई विद्वान थे। आचार्य देवभद्रसरि आये और चैत्यवासियों को निरस्त कर पार्श्वनाथ और ने सोमचन्द्र गणि को इनके पट्ट पर स्थापित कर जिनदत्तमहावीर चैत्यों की स्थापना की। तदनन्तर नागपुर और सूरि नाम से प्रसिद्ध किया ।
जिनवल्लभसूरिजी की जीवनी और उनके ग्रन्थों के सम्बन्ध में महो० विनयसागरजी लिखित अध्ययन पूर्ण शोधप्रबन्ध प्रकाशनाधीन हैं।
-अगरचंद नाहटा
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
योगीन्द्र युगप्रधान दादा श्रीजिनदत्तसूरि
[ स्वर्गीय उपाध्याय मुनि श्री सुखसागरजी महाराज ]
किसी भी राष्ट्र की वास्तविक सम्पत्ति है उस देश की सन्त परम्परा, जिसमें उसकी आत्मा साकार दीखती है । इसलिए संत को हम इस देश को परम्परा का जीवित प्रतीक मान लें तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी । एक संत जीवन का अन्त: परीक्षण या विहंगावलोकन उस समय के सम्पूर्ण मानवीय विकासात्मक परम्पराओं के तलस्पर्शी अनुशीलन पर निर्भर है। आचार्य श्री जिनदत्तसूरि उपर्युक्त परम्परा के एक ऐसे ही उदारचेता व्यक्तित्व-संपन्न महापुरुष हैं । आचार्य श्री बारहवीं और तेरहवीं शताब्दी के महापुरुष थे । तत्कालिक संतों में साहित्यिकों एवं तत्वविदों में इनका स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण रहा है ।
क्रान्ति उनके जीवन का मूलमन्त्र था । जिनदत्तसूरिजी एक ऐसी विद्रोहात्मक परम्परा के उद्घोषक थे जिन्होंने क्रान्ति के जयघोष द्वारा अतीत से प्रेरणा लेकर भविष्य की शुद्ध परम्परा की नींव डाली । यह उनके प्रखर व्यक्तित्व का ही प्रभाव था कि तात्कालिक विकृतिमूलक परम्पराओं का परिष्कार एवं सांस्कृतिक सूत्र में आबद्ध कर जैनधर्म एवं मुनि समाज पर आयी हुई विपत्तियों का कुशलतापूर्वक सामना किया। जैन संस्कृति के नवयुग प्रवर्तकों में ऐसे महापुरुष की गणना होती है । श्री जिनदत्तसूरिजी सत्याश्रित खरतरगच्छीय परम्परा के एक ऐसे सुदृढ़ स्तंभ थे, जिन्होंने अपने व्यक्तित्व, साधना और प्रकाण्ड पाण्डित्य के बल पर समाज में जो श्रद्धा का स्थान प्राप्त किया है, वह आज भी अमर है ।
इनका जन्म गुजरात प्रान्तीय धवलकपुर ( धोलका ) नामक ऐतिहासिक नगर में हुँबड़ जातीय श्रेष्ठिवर्यं वाछिग
की धर्मपत्नी वाहड़देवी की रत्नकुक्षि से सं० ११३२ में हुआ था । सुविहित मार्ग प्रकाशक श्रीजिनेश्वरसूरिजी के विद्वान शिष्य धर्मदेव उपाध्याय की आज्ञानुवर्तिनी आर्याओं का वहाँ पर आगमन हुआ । शुभ लक्षण युक्त तेजस्वी बालक को देख पुलकित मन से माता को विशेष रूप से धर्मोपदेश देकर शासन सेवा के प्रति उसमें वातावरण को तैयार हुआ जानकर सूचित पुत्र को गुरु महाराज की सेवा में समर्पित करने की याचना की । जहाँ व्यक्ति-व्यक्ति के रूप में जीवन व्यतीत करना है वहाँ स्वार्थ पनपता है । जहाँ व्यक्ति समष्टि के लिए जीवनोत्सर्ग करता है वहाँ वह अमर हो जाता है । वाहड़देवी को अपने पुत्र को गुरु-समर्पित करते हुए तनिक भी दुःख नहीं हुआ अपितु हर्प हुआ । उसने सोचा कि एक पुत्र यदि संस्कृति की विकासात्मक परम्परा को बल देता है और सारे समाजकी सांस्कृतिक गौरव गरिमा की रक्षा व वृद्धि के लिए कठोरतम साधना स्वीकार करता है तो इस बात से बढ़कर और सौभाग्य की बात हो ही क्या सकती है ? कालान्तर से धर्मदेवोपाध्याय धवलकपुर पधारे और इसे दीक्षित कर सोमचन्द्र नाम से अभिषिक्त किया। विकास के लक्षन बाल्यकाल से ही अंकुरित होने लगते हैं । विद्याध्ययन के क्षेत्र में इनकी प्रतिभा का लोहा अव्यापक वर्ग भी मानते थे । इनकी बड़ी दीक्षा अशोकचन्द्राचार्य के करकमलों द्वारा सम्पन्न हुई जो कि जिनेश्वरसूरि के शिष्य सहदेवमणि के शिष्य थे। हरिसिंहाचार्य के श्रीचरणों में बैठकर आपने सैद्धान्तिक वाचना प्राप्त कर कई मंत्रादि पुस्तकों के साथ ऐसा ऐतिहासिक प्रतीक प्राप्त किया जो आचार्यवर्य के विद्याध्ययन में काम आता था ।
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
। २२ । श्रीजिनवल्लभसूरिजी के स्वर्गवास के बाद उनके पदपर परम्परा के लिए जातिवाद का प्रश्न ही उपस्थित नहीं देवभद्राचार्य ने सोमचन्द्र गणि को सं० ११६६ वैसाख कृष्ण होना चाहिए। क्योंकि वर्णव्यवस्था के विरोध में ही ६ शनिवार को चितौड़ के वीरचत्य में प्रतिष्ठित किया और सम्पूर्ण श्रमणपरम्परा का शताब्दियों से बल लग रहा है। उनको श्री जिनदत्तसूरि नाम से अभिषिक्त किया।
जिनदत्तसूरिजी जैसे युगपुरुष के प्रखर व्यक्तित्व का श्रीजिनदत्तसूरि में श्रीजिनवल्लभसूरिजी के कुछ गुणों ही प्रभाव था कि चैत्यवासियों का प्रचण्ड विरोध होते हुए का अच्छा विकास पाया जाता है। वे अनागमिक किसी भी नूतन चैत्य-निर्माण की पुरातन परम्परा को संभाले भी परम्परा के विरुद्ध शिर ऊंचा करने में संकुचित नहीं रखा। आचार्यश्री ने इतने विराट समुदाय को न केवल होते थे। आयतन अनायतन जैसे विषयों का स्पष्टीकरण इन शांतिमार्ग का उपासक ही बनाया अपितु उनके लिए तथ्यों को स्पष्ट कर देता है।
समुचित सामाजिक व्यवस्था का भी निर्देश किया। आचार्य श्रीजिनदत्तसूरिजी के मन में आचार्य पद पर उनका चारित्र्य या संयम इतना उज्ज्वल था कि प्रतिष्ठित होते ही एक बात की चिन्ता उन्हें लगी कि अब उनके तात्कालिक विचार का विरोधी भी लोहा मानते थे । शासन का विशिष्ट प्रभाव फैलाने के लिए मुझे किस ओर परिणाम स्वरूप चैत्यवासी जयदेवाचार्यादि विद्वानों जाना चाहिए। आचार्य के हृदय में यदि विराट और ने आचारमूलक शैथिल्य का परित्याग कर सुविहित-मार्ग प्रशस्त भावना न जगे तो उस में विश्वकल्याण को छोड़कर स्वीकार किया। स्वकल्याण की कल्पना भी असम्भव है। आचार्यवर आचार्य श्रीजिनदत्तसुरिजी के बहुमुखी व्यक्तित्व पर राजस्थान की ओर प्रस्थित हुए। आप क्रमशः अजमेर दृष्टि केन्द्रित करने पर विदित होता है कि वे न केवल उच्च पधारे । यहां के राजा अर्णोराज ने आपको उचित सम्मान कोटि के नेतृत्वसपन्न व्यक्ति थे, अपितु संयमशील साधक दिया। श्रावकों की विशेष प्रेरणा व महाराज के सदुप- होने के साथ-साथ शुद्ध साहित्यकार भी थे। आचार्यवर्य की देश से उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक दक्षिण दिशा की ओर पर्वत के अधिकतर कृतियां मानव जीवन को उच्चस्तर पर प्रतिष्ठानिकट देवमन्दिर बनवाने की भूमि प्रदान को । अर्णोराज पित करने से सम्बद्ध हैं। एवं उस समय के चरित्रहीन आपको बहुत श्रद्धा की दृष्टि से देखता था। अम्बड़श्रावक । के प्रति विद्रोह की चिनगारी है। तथापि की आराधना द्वारा अम्बिकादेवीने आपको युगप्रधान सामाजिक इतिहास की सामग्री कम नहीं है। महापुरुष घोषित किया था।
____ आचार्यश्री की साहित्यिक कृतियाँ संस्कृत, प्राकृन और युगप्रवर के अदभुत कार्य
अपभ्रंश भाषा में मिलती हैं जिनका न केवल धार्मिक ___ यों तो आपने अपने कर्मक्षेत्र में अधिकतर मनुष्यों को दृष्टि से महत्व है अपितु भाषा-विज्ञान को दृष्टि से भी सत्पथ पर लाने का सुयश प्राप्त किया, पर आपका सुकुमार अध्ययन के तथ्य प्रस्तुत करते हैं । आचार्यवर्यश्री के साहित्य हृदय अनुकम्पा से ओत-प्रोत होने के कारण एक लाख को अध्ययन को विशेष सुविधाओं के लिए स्तुतिपरक व उपतीस हजार से भी अधिक व्यक्तियों को अपनी तेजोमयी देशिक इस तरह दो भागों में विभक्त कर सकते हैं। प्रथम औपदेशिक वाणी से हिंसात्मक वृतियों का परित्याग करवा भागमें उन कृतियों का समावेश है जो स्तुति, स्तोत्र साहित्य जैन धर्म में दीक्षिा किया। ये मनुष्य विभिन्न जातियों से संबद्ध हैं । इन कृतियों से परिलक्षित होता है कि आचार्यके थे, कर्ममूलक संस्कारों में विश्वास करने वाली जैन वर्ष एक भावु: कार थे । पूर्वजों के प्रति विश्वस्त
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ २३ 1
भावनाओं को लिये हुए थे, महान पुरुषों के प्रति उनके नाम संशयपद प्रश्नोत्तर भी है । कहा जाता है कि भटिण्डा हृदय में उपार आदर और साभाव था। स्वयं उच्च- की एक श्राविका के सम्यक्त्व मूलक कुछ प्रश्न थे जिसके कोटि के विद्वान साहित्यशील एट युगप्रवर्तक होते हुए भी उत्तर में सूरिजी ने इस ग्रन्थ का प्रणयन किया । इससे पता इनकी विनम्रता स्तुति साहित्य में भलीभाँति परिलक्षित चलता है कि उनकी अनुयायिनी श्राविकाएं कितनी उच्चतम होती है। यों तो सर्वाधिष्ठायी स्तोत्र, सुगुरु पारतंत्र्य उत्तरों की अधिकारिणी थीं। स्तोत्र, विघ्न-विनाशी स्तोत्र, श्रुतस्तव, अजितशांति स्तोत्र, चैत्यवंदनकुलक तो प्रत्येक गृहस्थ के लिए विशेष पार्श्वनाथ मंत्र गर्भित स्तोत्र, महाप्रभावक स्तोत्र, चक्र श्वरी पठनीय है। जिसमें श्रावकों के दैनिक कर्तव्य, साधुओं स्तोत्र, सर्वजिन स्तुति आदि रचनाएं उपलब्ध हैं। उन सब के प्रति भक्ति, आयतन आदि का विवेचन खाद्य-अखाद्यादि में गणधर-सार्धशतक का स्थान बहुत ऊँचा है। भगवान विषयों का संवे तात्मक उल्लेख है। महावीर से लेकर तत्काल तक के महान आचार्यों का आचार्यवर्य के उपदेश धर्मरसायन, कालस्वरूपकुलक गुणानुवाद इस कृतिमें कर स्वयं भी कालान्तर से उस कोटि और चर्चरी ये तीनों ग्रन्थ अपभ्रंश में रचे हुए हैं । भाषा में आ गये हैं। यद्यपि आचार्यवर्य को यह कृति बहुत विज्ञान की दृष्टि से अध्ययन योग्य हैं हो। इन ग्रन्थों में बड़ी नहीं है पर उपयोगगिता और इतिहास की दृष्टि उनका प्रकाण्ड पाण्डित्य शास्त्रीय अवगाहन व गंभीर से विशेष महत्व की है।
चिन्तन परिलक्षित होता है। साधक की वाणी ही मंत्र है। आचार्य श्री जिनदत्त- उत्सूत्र पदोद्घाटनकुलक, उपदेशकुलक साधक और सूरिजी रुद्रपल्ली जाते हुए एक गाँव में ठहरे। वहाँ एक श्रावकों के आचारमूलक जीवन पर सुन्दर प्रकाश डालते अनुयायी गृहस्थको व्यन्तर देव के द्वारा उत्पीड़ित किया हैं। इनके अतिरिक्त अवस्थाकुलक, विशिका पद व्यवस्था, जाता था। गणधर-सप्ततिका एक टिप्पणी के रूप में वाडीकूलक, शांतिपर्व विधि, आरात्रिकवृत्तानि और लिखकर श्रावक को दी गई उससे न केवल वह पीडा से ही अध्यात्मगीतानि आदि कृतियाँ उपलब्ध है। मुक्त हुआ, अपितु परिस्थितिजन्य आचार्यवर्य का यह ग्रन्थ आचार्यवर्य भ्रमण करते हुए भारत विख्यात ऐतिहाभावी मानव समाज के लिए एक अवलंबन बन गया।
सिक नगर अजमेर पधारे। यहीं पर वि० सं० १२११ में __ आचार्य श्री के सम्मुख एक समस्या तो वीतराग के आपका अवसान हुआ। अजमेर से वैसे भी आपका संबन्ध मौलिक औपदेशिक परम्पराओं की सुरक्षा की थी तो काफी रहा है क्योंकि आपके पट्टधर श्री जिनचन्द्रसूरिजी की दूसरी ओर विरोधियों द्वारा अज्ञानमूलक उपदेश के परिवार दीक्षा भी सं० १२०३ फाल्गुन शुक्ला ३ को अजमेर में ही की भी। गरुदेव के औपदेशिक साहित्य में तत्कालीन
जैन समाज के समस्त प्रभावशाली आचार्यों में इनका संघर्षों के बीज मिलते हैं।
सन्देहदोलावली प्राकृत की १५० गाथाओं में गम्फित स्थान इतना उच्च रहा है एवं इतने स्तुति-स्तोत्र द्वारा है। सम्यक्त्व प्राप्ति, सुगुरु व जैन दर्शन की उन्नति के श्रद्धालु व्यक्तियों ने इनके चरणों पर श्रद्धांजलि समर्पित की लिए यह कृति उत्कर्ष मार्ग का प्रदर्शन करती है एवं ।
है जो सम्मान किसी भी महापुरुष को प्राप्त नहीं है । ये तात्कालिक गृहस्थों को सुगरुजनों के प्रति किस प्रकार जैन समाज के हृदय सिंहासन पर इतने प्रतिष्ठित हैं कि व्यवहार करें, एवं पासत्यों के प्रति किस प्रकार रहें आदि इनके चरण व दादावाड़ी हजारों की संख्या में पायी बात बड़े विस्तार के साथ कही गई हैं। इसका अपर जाती है।
( अभिभाषण से संकलित )
हुई थी।
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
मणिधारी दादा श्रीजिनचन्द्रसरि
.. युगप्रधान श्रीजिनदत्तसूरिजी के पट्टालंकार मणिधारी दीक्षित होने के पश्चात् दो वर्ष की अवधि में ही किये श्रीजिनचंद्रसूरजो ने अपने असाधारण व्यक्तित्व एवं लोको- गये विद्याध्ययन से आपकी प्रतिभा चमक उठी। फलतः त्ता प्रभाव ने कारण अल्पायु में ही जो प्रसिद्धि प्राप्त की आपकी असाधारण मेधा, प्रभावशाली मुद्रा एवं आकर्षक वह सर्वविदित है । ये महान् प्रतिभाशाली एवं तत्त्ववेत्ता व्यक्तित्व से प्रभावित होकर दीक्षित होने के दो वर्ष पश्चात् विद्वान आचार्य थे।
ही संवत् १२०५ में वैशाख शुक्ल ६ के दिन विक्रमपुर के ____ इनका जन्म संवत् ११६१ भाद्रपद शुक्ल ८ के दिन श्री महावीर जिनालय में युगप्रधान आचार्य श्रीजिनदत्तजालमेर के निकट विक्रमपुर नगर में हुआ। इनके पिता सूरिजी ने आपको आचार्य पद प्रदान कर श्री जिनचन्द्रसुरि साह रासल जी एवं माता देल्हणदेवी थी। जन्म से ही जी के नाम से प्रसिद्ध किया। आचार्य पद का यह महाये अधिक सुन्दर थे, जिसके कारण सहज ही सर्वसाधारण महोत्सव इनके पिता साह रासलजी ने ही भव्य समारोह के प्रिय हो गये।
के साथ किया था। संयोगवश विक्रमपुर में युगप्रधान आचार्य श्री जिनदत्तसूरिजी का चातुर्मास हुआ। चातुर्मास की अवधि में
युगप्रधान गुरुदेव दादा श्रीजिनदत्तसूरिजी ने अपने सूरि जी के अमृतमय उपदेशों को सुनने के लिये जहाँ नगर
विनयी शिष्य श्रीजिनचन्द्रसूरि को शास्त्रज्ञान आदि के साथ वासी भारी संख्या में जाते थे. वहाँ रेल्हणदेवी भी प्रतिदिन
ही गच्छ संचालन आदि की भी कई शिक्षाएं दी।
आपने इनको विशेष रूप से यह भी कहा था कि "योगिनी-- प्रवचनामृत का पान करती हई अपने जीवन को धन्य मानती थो। देल्हण देवी के साथ उसके पुत्र (हमारे चरित्र- पुर।
पुर दिल्ली में कभी मत जाना।" क्योंकि आचार्यदेव यह नायक) भी रहते थे। एक दिन देल्हणदेवी के इस बालक
जानते थे कि वहां जाने पर श्रीजिनचन्द्रसूरि को अल्पायु के अन्तहित शुभ लक्षणों को देखकर आचार्य देव ने अपने ज्ञानवल से यह जान लिया कि "यह प्रतिभासम्पन्न बालक
संवत् १२११ में आषाढ़ शुक्ल ११ को अजमेर में श्री सर्वथा मेरे पट्ट के योग्य है । निस्सन्देह इसका प्रभाव लोको
र जिनदत्तसूरिजी का स्वर्गवास हो गया तब अल्पायु में ही त्तर होगा एवं निकट भविष्य में ही गच्छनायक का महत्व. सारे गच्छ का भार आप के ऊपर आ गया एवं अपने पूर्ण पद प्राप्त करेगा." बालक संस्कारवान तो था ही गुरुदेव के समान आप भी कुशलतापूर्वक सफलता के साथ उसका मन इतनी कम आयु के होते हुए भी विरक्ति की इस गुरुतर भार को वहन करने में लग गये। और अग्नसर होने लगा । अन्तत: विक्रमपुर से विहार करने के
गच्छ-भार को वहन करते हुए आपने विविध ग्रामों एवं पश्चात् अजमेर में सं० १२०३ फालान शक्ल नवमी के नगरों में विहार कर धर्म प्रचार करना प्रारंभ किया। दिन श्री पार्श्वनाथ विधि वैत्य में प्रतिभासम्पन्न इस बालक
फलस्वरूप आप के उपदेशों से प्रभावित होकर कई श्रावकों को आचार्यजी ने दीक्षित किया। दीक्षा के समय इस बालक एवं श्राविकाओ ने दीक्षाए ग्रहण की। की आयु मात्र ६ वर्ष की थी।
आचार्यदेव धर्मशास्त्रों के अतिरिक्त ज्योतिष शास्त्र
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
मणिधारी श्री जिनचन्द्रजमूरि
ॐ
&0000004935 ॐ88888888883363
880038
wwws888888888888
काही मनही लियाहीप जन्सीले
काम औ असलर कशा रासलीममधिल्याची
दरसे जन्म हो
300000000000000
8888888888
888888888
।
Thummam
अ.कीसिनवारी महापाबळ पूछ र किरकाप घर कोन जागा
यमराज का बार सुनकर गवई कर मस्ट रवना चाहता
भावी पट्टधर सम्बन्धी श्री जिनदत्तसूरिजी से पृच्छा
8800900500058888888888 8888888888888888888888
श्री जिन दल की महाराज ने फासा कि मेरा मधर
शिलकी मायदेमा देवी के उदर से उत्पन्न होगा अतः हम लोग मातु सौ के वही पुण्याजली
अर्पित करने आये है॥
।
2008
50-800
বাকারা লা নিন্য মান নিলুত
MANTRA
माता देल्हणदेवो और गर्भस्थ मणिधारीजो को वंदनार्थ रामदेव का
_For Proविक्रमपुर आगमन (सं० ११६७)
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
मणिधारी श्री जिनचन्द्रमूरि
300030880503000280808005
हम डीनों में पत्र बिकापर ও কাম দেখা প্রস্তুত কৰ ২২:e +২৪
से आसा स्वीकार करें ভুল রানল থাকশী ইলাহার্জী
6
880038
Boo
Soon
200000000
886660000
0000
204899803 886880000000000000002898800
0000000/
20000000000058986880865
S
ong
8833000 8 8888888885600000800
3 8833350
882
रास
8000000
न्टम
"रासल श्रेष्ठी द्वारा मणिधारीजी को श्री जिनदत्तसूरि के चरणों में समर्पण
86880
शमलन
श्री जिन चल सरि जी महाराज वि.सं. १२०३ कान्गुन सुटी के दिन मजमेरनगर में प शिष्य सरासरनन्दन को अपने करकमला से दीक्षित कर रहे
सं० १२०३ फाल्गुन शुक्लाह के दिन अजमेर में श्री जिनदत्त सूरिजी' द्वारा मणिधारी जी को दीक्षित करनाnal use only
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरि
ग्राम चोरसिदान के बन में श्री जिनचन्द्र सूरि जी महाराज संघ के साथ विचर रहे थे. वहां पर डाकू लोग आगये तो श्री संघ घबरा गया उस समय गुरुदेव ने कोटाकोर रेखा रवीची जिससे डाकू संघ को ना देख सके और संघ ने सबको देखा
-
फाटोकार रेसा
चोर सिदान के मार्ग में मणिधारीजी द्वारा मलेच्छों से संघ की रक्षा
अ.यु.प्र.बृ.म.१००८ माराधारी श्री निर
सूरिजी महाराज दूसरे दादा गुरू)
की शव यात्रा २३ महि १४
निर्यान विमान में मणिधारी जी का अन्तिम दर्शन दिल्ली में स्वर्गवास सं००१२२३ द्वितीय भाद्र कृष्ण १४
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
मणिधारी श्री जिनचन्द्रमूरि
Dose
39000
BARBAS ANTALIA
5000000000000
P
3883363
38808
8888888888223086886
25388888888888888888888599900
conomeromeos
3003808688
मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरिजी के अन्तिम दर्शन Tinararan
1
E
8000082280
82888888885600000
।
1233x
98848
58888888888800000 20998308000
80-906 88856002 18982-889
888888888888888
S
2008 SEXI
CARE
माम माल की राजधान में स्वर्गीय गुरुदेव के शव को संध की असावधानी से मारक लोक में विचला ও উচু কষ্মের ই শ ায় তা ঐ ভন সি, ২ চাই অংগ-) আলিম হোত ফুলফ টি বাল্লা না।
मणिधारी श्री जिनचद्रसूरि को अन्तिम आराधना व शिक्षा र
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
के भी पारंगत विद्वान थे। इसके साथ ही आपने कई वे सदलबल श्रावक-श्राविकाओं से पूर्व ही आचार्य देव के चमत्कारपूर्ण सिद्धियाँ भी प्राप्त की थीं।
दर्शनार्थ पहुंच गये और नगर में पधार ने की विनति की। एक बार संघ के साथ विहार कर जब दिल्ली की ओर आचार्यश्री अपने गुरुदेव युगप्रधान श्री जिनदत्तसूरिजी पधार रहे थे तो मार्ग में चोरसिदान ग्राम के समीप संघ ने के दिये हुये उपदेश को स्मरण करते हुए दिल्ली नगर में प्रवेश अपना पड़ाव डाला। उसी समय संघ को यह मालूम हुआ न करने की दृष्टि से मौन रहे। उन्हें मौन देख कर पुनः कि कुछ लुटेरे उपद्रव करते हुए इधर ही आ रहे हैं। इस महाराज ने विशेष अनुरोध किया तो अन्त में आपने नगर समाचार से सभी भयभीत हो घबराने लगे। इस प्रकार में पदार्पण कर महाराज मदनपाल की मनोकामना पूरी संघ को भयातुर देखकर सूरिजी ने कारण पूछा कि आप की। यद्यपि आचार्यश्री को अपने गुरुदेव की दिल्ली न भयभीत क्यों हैं ? किस कारण से घबरा रहे हैं ? जाने की आज्ञा का उलंघन करते हुए मानसिक पीड़ा का जब आचार्यदेव को यह ज्ञात हुआ कि ये म्लेच्छोपद्रव से अनभव हो रहा था, तथापि भवितव्यता के कारण आपको व्याकुल हैं, तो उन्होंने तत्काल ही कहा-'आप सब दिल्ली नगर में पदार्पण करना ही पड़ा। वहां कुछ समय निश्चिन्त रहें, किसी का कुछ भी अहित होने वाला नहीं तक आपने अपने उपदेशों से भव्य जीवों का कल्याण करते है। प्रभु श्री जिनदत्तसूरिजी सब की रक्षा करेंगे।" हए आयशेष निकट जान कर सं० १२२३ भाद्रपद कृष्ण __इसके पश्चात् आपने मन्त्रध्यान कर अपने दण्ड से संघ चतर्दशी को चतुर्विध संघ से क्षमायाचना की एवं अनशन के चारों ओर कोट के आकार की रेखा खींच दी। इसका आराधना के पश्चात् आप स्वर्ग सिधार गये। प्रभाव यह हुआ कि संघ के पास से जाते हुए उन म्लेच्छों अन्तिम समय में आपने श्रावकों के समक्ष यह भविष्य(लुटेरों) को संघ ने भली प्रकार देखा, किन्तु उनकी दृष्टि वाणी की कि- 'नगर से 'जतनी दूर मेरा संस्कार किया संघ पर तनिक भी न पड़ी। इस प्रकार मार्ग में म्लेच्छो- जावेगा. नगर की बसावट वसती उतनी ही दूर तक बढ़ती पद्रव के भय से संघ मुक्त होकर आचार्य श्री के साथ विहार जायगी।" करता हुआ क्रमशः दिल्ली के समीप पहुंच गया।
___ इस सम्बन्ध में यह भी कहा जाता है कि आचार्य श्री ___ आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरिजी के दिल्ली पधारने की ने अपने स्वर्गवास के पूर्व ही संघ को बुलाकर यह आदेश सूचना पाकर जब सुन्दर वेशभूषा में सुसजित होकर नगर- दिया था कि “मेरे विमान ( रथी ) को मध्य में कहीं वासी एवं सौभाग्यवती स्त्रियाँ मंगलगान गाती हुई आचार्य विश्राम मत देना एवं सीधे नगर से बाहर उसी स्थान पर जी के दर्शनार्थ जाने लगी तो उन्हें जाते देखकर राजप्रासाद ले जाकर विश्राम देना, जहाँ दाहसंस्कार करना है।" में बैठे हुए महाराज मदनपाल ने अपने अधिकारियों से शोकाकुल संघने इस आदेश को भूलकर मध्य में ही पूर्व पूछा कि नगर के ये विशिष्ट जन कहां जा रहे हैं ? उन्होंने प्रथानसार विश्राम दे दिया। इसका परिणाम यह हुआ कहा-"राजन् ! ये लोग अपने गुरुदेव के स्वागतार्थ जा रहे कि तनिक विश्राम देने के पश्चात् जब विमान को उठाने हैं । आज उनका हमारे नगर के निकट ही पदार्पण हुआ है। लगे तो लाख प्रयत्न करने पर भी वह उस स्थान से लेशमात्र गुरुदेव अल्पवयस्क होते हुए भी धर्म के प्रकाण्ड वेत्ता, प्रभाव भी नहीं सरका। राजा मदनपाल को जब यह सूचना शाली तथा सुन्दर आकृति वाले हैं।" यह सुनकर महाराज मिली तो उन्होंने हाथी के द्वारा विमान को उठवाने की के मन में भी गुरुदेव के दर्शन की उत्कण्ठा उत्पन्न हुई एवं व्यवस्था करवाई; किन्तु उसमें भी सफलता नहीं मिली।
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्त में गुरुदेव का ही चमत्कार समझ कर महाराजा ने जिसके कारण ही 'मणिधाीजी' के नाम से अपकी प्रसिद्धि उसी स्थान पर अग्निसंस्कार करने का राजकीय आदेश हुई। इस मणि के विषय में पट्टावली में यह उल्लेख मिलता प्रदान किया।
है कि आपने अपने अन्त समय में श्रावकों से कह दिया था इसके पश्चात् इस प्रकार की चमत्कारपर्ण घटना के कि अग्निसंस्कार के समय मेरे शरीर के निकट दूध का पात्र कारण गुरुदेव का अग्निसंस्कार उपी स्थान पर किया गया। रखना जिससे वह मणि निकल कर उसमें आ जायगी; किन्तु
मणिधारी श्री जिनचन्द्रसरिजी ने इस प्रकार अपना गरुवियोग की व्याकुलता से श्रावकगण ऐसा करना भूल मंगलमय ऐहिक जीवनयापन कर अपने समय में जिनशासन गए एवं भवितव्यतावश वह मणि किसी अन्य योगी के हाथ की उन्नति के साथ-साथ कई अलौकिक कार्य किये। लग गई। कहा जाता है कि श्री जिनपतिसूरिजी ने उस
'वशेषत: अपने चेत्यवासी पाचन्द्राचार्य जैसे क्योवद एवं योगी को स्तम्भित प्रतिमा प्रतिष्ठित कर उससे वह मणि ज्ञानवृद्ध आचार्य को शास्त्रार्थ में परास्त कर तथा दिल्लीश्वर प्राप्त कर ली थी। महाराजा मदनपाल को चमत्कृत करते हुए जो अभूतपूर्व कार्य वस्तुत: मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरिजी महान् प्रतिभाकिये निस्सन्देह वे आपकी उत्कृष्ट साधना के परिचायक शाली एवं चमत्कारी आचार्य थे, इसमें संदेह नहीं। वेवल ही हैं। इसके अतिरिक्त आपने महत्तियाण (मन्त्रिदलीय) ६ वर्ष की अवस्था में दीक्षा ग्रहण कर ८ वर्ष की अल्पायु जाति की स्थापना कर महान् उपकार किया। आपके में अ चार्यपद प्राप्त कर लेना कम विस्मयकारक नहीं है । द्वारा संस्थापित इस जाति की परम्परा के कई व्यक्तियों ने ऐसे युगप्रधान मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरिजी के प्रति हृदय पूर्वदेश के तीर्थों का उद्धार कर शासन की महान सेवायें की। से जितनी भी श्रद्धाञ्जलि अपित की जाय, थोड़ी है।
आचार्यदेव श्री जिन चन्द्रसूरिजी के ललाट में मणि थी, [श्रीजिनदतसूरि सेवासंघ प्रकाशित दादागुरु चरित्र से ]
[ मणिधारी श्री जिनचन्द्र सूरि जी के महान् व्यक्तित्व का ज्ञान यु० प्र० श्री जिनदत्तसूरिजी को उनके माता के गर्भ में आने से पूर्व ही हो गया था। युगप्रधानाचार्य गर्वावली में जिनपालोपाध्याय ने लिखा है - "स्वज्ञानबल दृष्ट निज पट्टोद्धारकारि रासलाङ्गरुहाणां भास्करवद्विबोधित भवन मण्डल भव्याम्भोरुहाणां" इस संकेतात्मक रहस्य का उद्घाटन करते हुए सतरहवी शताब्दी की गर्वावली में यह उल्लेख किया है कि एक बार सेठ रामदेव ने श्री जिनदत्तसूरजी से पछा कि आपकी वृद्धावस्था आ गई, आपके पद योग्य शिष्य कौन है ? सुरिजी ने कहा- अभी तो वैसा काई दिखाई नहीं देता ! रामदेव ने पूछा- अभी नहीं है तो क्या कोई स्वर्ग से आवेंगे? पूज्यश्री ने कहा-ऐसा ही होगा ! रामदेव ने कहा-कैसे?आपने कहा - अमुक दिन देवलोक से च्यव कर विक्रमपुर के श्रेष्ठी रासल की लघु धर्मपत्नी को कुक्षि में मेरे पट्टयोग्य जीव अवतीर्ण होगा। यह सुनकर कुछ दिन बाद रामदेव सांढ़ पर चढ़ कर विक्रमपुर रासल श्रेष्ठी के घर पहुँचे । सेठ ने कुशलवार्तापछने के पश्चात आगमन का कारण पछा । रामदेव ने कहा- आपकी लघभार्या को बुलाइये ! उसके आने पर रामदेव ने पट्ट पर बैठाकर देल्हणदेवो के कण्ठ में हार पहनाते हुए नमस्कार किया। रासल श्रेष्ठी के इसका कारण पूछने पर रामदेव ने जिनदत्तसूरि द्वारा ज्ञात, इनकी कुक्षिमें उनके पट्टयोग्य पुण्यवान् जीव के अवतीर्ण होने का हर्ष संवाद कह सुनाया। इस प्रकार श्री जिनदत्तसरिजी ने इनकी विशिष्ट योग्य आने से पूर्व ही अपने ज्ञानबल से जान ली थी।
आपकी जीवनी के सम्बन्ध में हमारी "मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरि" पुस्तक द्वितीयावृत्ति विशेष रूप से द्रष्टव्य है उसमें आपकी रचनाएं व्यवस्थाशिक्षाकूलक" व स्तोत्रादि भी प्रकाशित हैं।
-सम्पादका
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
षट्त्रिंशत् गद-विजेता श्रीजिनपतिसरि
[महोपाध्याय विनयसागर ] मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरिजी के पट्टधर षटत्रिंशत् वाद सं० १२४४ में उज्जयन्त-शत्रुञ्जयादि तीर्थो की विजेता श्रीजिनपतिसूरि का जन्म वि० सं० १२१० विक्रमपुर यात्रार्थ संघ सहित प्रयाण करते हुए आचार्यश्री चन्द्रावती में मालू गोत्रीय यशोवर्द्धन की धर्मपत्नी सूहवदेवी को रत्न- पधारे । यहां पर पूर्णिमापक्षीय प्रामाणिक आचार्य श्री कुक्षि से हुआ था। सं० १२१७ फाल्गुन शुल्क १० को अकलङ्कदेवसूरि पांच आचार्य एवं १५ साधुओं के साथ संघ जिनचन्द्रसूरि के कर कमलों से दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा दर्शनार्थ आये। आचार्य श्री के साथ अकलङ्कदेवसूरि की नाम नरपति था । सं० १२२३ कार्तिक शुक्ल १३ को बड़े 'जिनपति' नाम एवं संघ के साथ साधु-साध्वियों को जाना महोत्सव के साथ युगप्रधान श्री जिनदत्तसूरि के पादोपजीवी चाहिये या नहीं, इन प्रश्नों पर शास्त्रचर्चा हुई और जयदेवाचार्य ने इनको आचार्य पद प्रदान कर जिनचंद्रसूरि के आचार्य अकलंक इस चर्चा में निरुत्तर हुए। पट्टधर गणनायक घोषित किया । आचार्य पद के समय नाम इसी प्रकार कासहृद में पौर्णमा सिक तिलकप्रभसूर के जिनपतिसूरि प्रदान किया । वह महोत्सव जिनपतिसूरि के साथ 'संघपति' तथा 'वाक्यशुद्धि पर चर्चा हुई जिसमें चाचा मानदेव ने किया था।
जिनपतिसूरि ने विजय प्राप्त की। __ सं० १२२८ में विहार करते आशिका पधारे । आशिका उज्जयन्त-शत्रु जया दि तीर्थो की यात्रा करके वापिस के नृपति भीमसिंह भी प्रवेशोत्सव में सम्मिलित हुए थे। लौटते हुए आशापल्ली पधारे । यहां वादिदेवाचार्य परम्पआशिका स्थित महा प्रामाणिक दिगम्बर विद्वान को शास्त्रार्थ रीय प्रद्युम्नाचार्य के साथ 'आयतन-अनायतन' पर शास्त्रार्थ में पराजित किया था।
हुआ जिसमें प्रद्युम्नाचार्य पराजय को प्राप्त हुए। इस सं० १२३६ कार्तिक शुक्ल ७ के दिन अजमेर में अन्तिम शास्त्रार्थ का अध्ययन करने के लिये प्रद्युम्नाचार्य का हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान की अध्यक्षता में फलवद्धिका 'वादस्थल' तथा जिनपतिसूरि का "प्रबोधोदय वादस्थल" नगरी निवासी उपकेश गच्छीय पद्मप्रभ के साथ आपका ग्रन्थ द्रष्टव्य है । शास्त्रार्थ हुआ। इस समय राज्य में महामंत्री मण्डलेश्वर आशापल्ली से आचार्यश्री अणहिल्लपुर पाटण पधारे । कैमाम तथा वागीश्वर, जनार्दन गौड़, विद्यापति आदि यहां पर अपने गच्छ के ४० आचार्यों को अपनो मण्डली प्रमुख विद्वान उपस्थित थे । प्रतिवादी पद्मप्रभ मूर्ख, अभि- में मिलाकर वस्त्रप्रदान पूर्वक सम्मानित किया । मानी एवं अनर्गल प्रलापी होने से शास्त्रार्थ में शीघ्र ही सं० १२५१ में लवणखेटक में राणक के ल्हण के आग्रह पराजित हो गया। जिनपतिसूरिकी प्रतिभा एवं सर्वशास्त्रों से 'दक्षिणावर्त आरात्रिकावतरणोत्सव बड़ी धूम-धाम से में असाधारण पाण्डित्य देखकर पृथ्वीराज चौहान बहुत प्रसन्न मनाया। हुए और विजयपत्र हाथी के हौदे पर रखकर बड़े आडम्बर सं० १२७३ में वृहद्वार में नगरकोटीय राजाधिराज के साथ उपाश्रय में आकर आचार्य श्री को प्रदान किया। पृथ्वी चन्द्र की सभा में काश्मीरी पडित मनोदानन्द के साथ
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
। २८ ]
आचार्य श्री की आज्ञा से जिनपालोपाध्याय ने शास्त्रार्थ चातुर्मास किये, किस जगह कैसा धर्मप्रचार किया, किया। शास्त्रार्थ का विषय था "जैन दर्शन ब्राह्य हैं।" कितने शिष्य-प्रशिष्याएं आदि दीक्षित किये, कहां पर किस इस शास्त्रार्थ में पं० मनोदानन्द बुरी तरह पराजय को विद्वान के साथ शास्त्रार्थ या वाद-विवाद किया, किस प्राप्त हुआ। राजा पृथ्वीचन्द्र ने जयपत्र जिनोपालोपाध्याय राजा की सभा में कैसा सम्मानादि प्राप्त किया-इत्यादि को प्रदान किया।
बहुत ही ज्ञातव्य और तथ्यपूर्ण बातों का इस ग्रन्थ में सं० १२७७ आषाढ़ शुक्ल १० को आचार्यश्री ने गच्छ- बड़ी विशद रीति से वर्णन किया गया है । गुजरात, मेवाड़, सुरक्षा की व्यवस्था कर वीरप्रभ गणि को गणनायक बनाने मारवाड़, सिन्ध, बागड़, पंजाब और विहार आदि अनेक का संकेत कर अनशनपूर्वक स्वर्ग की ओर प्रयाण किया। देशों के अनेक गाँवों में रहने वाले सैकड़ों ही धर्मिष्ठ और
आचार्य जिनपतिसूरि कृत प्रतिष्ठायें. ध्वजदण्ड स्थापन, धनिक श्रावक-श्राविकाओं के कुटुंबों का और व्यक्तियों का पदस्थापन महोत्सव, शताधिक दीक्षा महोत्सव आदि धर्म- नामोल्लेख इसमें मिलता है और उन्होंने कहाँपर, कैसे पूजाकृत्यों का तथा आचार्य श्रीके व्यक्तित्व का अध्ययन एवं प्रतिष्ठा एवं संघोत्सव आ दे धर्मकार्य किये, इसका निश्चित शिष्य प्रशिष्यों की विशिष्ट प्रतिभा का अंकन करने के लिये विधान मिलता है । ऐतिहासिक दृष्टि से यह ग्रन्थ अपने द्रष्टव्य है-जिनोपालोपाध्याय कृत 'खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली' ढंग की एक अनोखी कृति जैसा है। इस ग्रन्थ के आविष्का
इस महत्वपूर्ण गुर्वावली के सम्बन्ध में मनि जिनविजय रक बीकानेर निवासी साहित्योपासक श्रीयुत अगरचन्दजी जी ने इस प्रकार लिखा है :
नाहटा हैं और इन्होंने ही हमें इस ग्रन्थ के संपादन की ___"इस ग्रन्थ में विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी के प्रारंभ सादर प्रेरणा दी है। नाहटाजी ने इस ग्रन्थ का ऐतिहामें होने वाले आचार्य वर्द्धमानसरि से लेकर चौदहवीं सिक महत्व क्या है और सार्वजविक दृष्टि से भी किन-किन शताब्दी के अंत में होनेवाले जिनपद्मसूरि तक के खरतर गच्छ ऐतिहासिक बातों का ज्ञातव्य इसमें प्राप्त होता है यह मुख्य के आचार्यो का विस्तृत चरित वर्णन है । गुर्वावली अर्थात् संक्षेप में बताने का प्रत्यन किया है। गुरु परम्परा का इतना विस्तृत और विश्वस्त चरित वर्णन
[भारतीय विद्या पुस्तक १ अंक ४ पृ० २६६] करनेवाला ऐसा और कोई ग्रन्थ अभी तक ज्ञात नहीं हुआ। आचार्य श्री की रचनाओं में संघपट्टक वृहद् वृत्ति, प्राय: चार हजार श्लोक परिमाण यह ग्रन्थ है और इसमें पंचलिङ्गी प्रकरण टीका, प्रबोधोदय वादस्थल, खरतरगच्छ प्रत्येक आचार्य का जीवन-चरित इतने विस्तार के साथ समाचारी, तीर्थमाला आदि के अतिरिक्त कतिपय स्तुति दिया गया है कि जैसा अन्यत्र किसी ग्रन्थ में किसी भी आचार्य स्तोत्रादि भी पाये जाते हैं। का नही मिलता । पिछले कई आचार्यों का चरित तो आपके पट्टपर सुप्रसिद्ध विद्वान नेमिचन्द्र भाण्डागारिक प्रायः वर्षवार के क्रम से दिया गया है और उनके विहार के पुत्र वीरप्रभ गणि को सं० १२७७ माघ शुक्ल ६ को क्रम का तथा वर्षा-निवास का क्रमवद्ध वर्णन किया गया जावालिपुर (जालौर) के महावीर चैत्य में श्री सर्वदेवसूरि है। किस आचार्य ने कब दीक्षा दी, कब आचार्य पदवी ने आचार्य पद देकर जिनेश्वरसूरि (द्वितीय) के नाम से प्रसिद्ध प्राप्त की, किस-किस प्रदेश में विहार किया, कहां-कहां किया ।
of
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रगटप्रभावी दादा श्रीजिनकुशलसूरि
[ भँवरलाल नाहटा ]
पुत्र
प्रगटप्रभावी, भक्तवत्सल लीसरे दादा साहब श्री जिनकुशलसूरि अत्यन्त उदार और अपने समय के युगप्रधान महापुरुष थे I आप मारवाड़ सामियाणा के छाजहड़ गोत्रीय मंत्रि देवराज के पुत्र जेसल या जिल्हागर के थे और आपका जन्मनाम कर्मण था । सं० १३३७ मिती मार्गशीर्ष कृष्ण ३ सोमवार के दिन पुनर्वसु नक्षत्र में आपका जन्म हुआ । आपके खानदान में धार्मिक संस्कार अत्यन्त श्लाघनीय थे । खरतरगच्छ नायक, चार राजाओं को प्रतिबोध करने वाले कलिकाल - केवली श्री जिनचन्द्रसूरि के पास आपने वैराग्यवासित होकर सं० १३४७ फाल्गुन शुक्ला ८ के दिन दीक्षा ली । गुरुमहाराज संसारपक्ष में आपके चाचा होते थे । आपका दीक्षानाम कुशलकीर्ति रखा गया । उस समय उपाध्याय विवेकसमुद्र, गच्छ में गीतार्थ और वयोवृद्ध थे जिनके पास बड़े-बड़े विद्वान आचार्यों ने व्याकरण, न्याय, तर्क, अलंकार, ज्योतिष आदि का अध्ययन किया था । कुशलकीर्तिजी का विद्याध्ययन भी आपके पास हुआ और सर्वत्र विचरते हुए शासन प्रभावना करने लगे । सं० १३७५ माघसुदि १२ को आप गुरुमहाराज द्वारा वाचनाचार्य पद से विभूषित हुए ।
सम्राट
कुतुबुद्दीन से निर्विरोध तीर्थयात्रा का फरमान प्राप्त महतियाण अचल सिंह के साथ श्रीजिनचन्द्रसूरिजी महाराज हस्तिनापुर एवं मथुरा की यात्रा कर खंडासराय पधारे। वहाँ कम्परोग उत्पन्न होते पर अपना आयु-शेष निकट ज्ञात कर अपने पट्ट पर वा० कुशलकीर्ति गणि को अभिषिक्त करने का निर्देश-पत्र राजेन्द्रचन्द्राचार्य के नाम से विजयसिंह को सौंपा। सूरिजी राणा aroda aौहान की निति से मेहता पधारे। वहां २४ विम
रहकर कोशवाणा पधारे और वहीं सं० १३७६ मिती आषाढ़ शुक्ल ६ को अनशनपूर्वक स्वर्गवासी हुए ।
उस समय गुजरात की राजधानी पाटण में खरतर - गच्छ का प्रभुत्व बढ़ा-चढ़ा था । गच्छ के कर्णधारों ने यहीं पर आचार्य पद - महोत्सव करने का निर्णय किया । बड़े-बड़े आचार्य व श्रमणों सहित गुजरात, सिध, राजस्थान और दिल्ली प्रदेश आदि के संध को निमन्त्रित कर बुलाया गया । सं० १३७७ मिती जेष्ठ कृष्ण ११ कुंभ लग्न में आचार्य पद का अभिषेक हुआ। उस समय राजेन्द्रचन्द्राचार्यजी के साथ उपाध्याय, वाचनाचार्यादि ३३ साधु और २३ साध्वियाँ थीं । सुश्रावक जाल्हण के पुत्र तेजपाल, रुद्रपाल, जो मंत्रीश्वर कर्मचन्द्र बच्छावत के पूर्वज थे, ने प्रचुर द्रव्य कर महोत्सव मनाया । उन्होंने उस समय १०० आचार्य, ७ ० साधु और २४०० साध्वियों को अपने घर बुलाकर प्रतिलाभ कर वस्त्र पहिराये। भीमपल्ली, पाटण, खंभात, बीजापुर आदि के संघ ने भी उत्सव में उल्लेखनीय योगदान किया था। वा० कुशलकीर्ति का नाम श्रीजिनकुशलसूरि प्रसिद्ध किया गया ।
सूरिजी सं० १३७८ का चातुर्मास भोमपल्ली करके दोक्षा, मालारोपण, पदवी दान आदि अनेक धर्मप्रभावक कार्य करके अपने ज्ञानबल से विद्या- गुरु उपाध्यायश्री विवेकसमुद्रजी का आयुशेष निकट ज्ञातकर पाटण पधारे और ज्येष्ठ कृष्ण १४ के दिन उन्हें अनशन करवा दिया। उपाध्यायजी पंच परमेष्ठी ध्यान पूर्वक ज्येष्ठ शुक्ल २ को स्वर्गवासी हुए । सूरिजी ने मिती आषाढ़ शुक्ल १३ के दिन उनके स्तूप की प्रतिष्ठा की ओर नहीं चातुर्मास किया ।
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ३० ।
सं० १३७९ में मार्गशीर्ष कृष्ण ५ को अनेक नगरों के महद्धिक श्रावकों की उपस्थिति में सेठ तेजपाल ने शांतिनाथ विधि में जलयात्रा सहित प्रतिष्ठा महोत्सव मनाया। इसी दिन शत्रुंजय महातीर्थ पर खरतरवसही में मानतुंगप्रासाद की नींव डाली गयी । श्रीजिनकुशलसूरिजी
शिला, रत्न और धातुमय १५० प्रतिमाएँ स्वकीय मूल समवशरणद्वय, जिनचन्द्रसूरि, जिनरत्नसूरि आदि के साथ नाना अधिष्ठायक मूर्तियों की प्रतिष्ठा की । इस महोत्सव में भीमपल्ली और आशापल्ली आदि के श्रावकों ने भी काफी सहयोग दिया था । प्रतिष्ठा के अनन्तर सूरि महाराज बीजापुर संघ की प्रार्थना से वहां पधारे और वासुपूज्य प्रभु के महातीर्थ की वंदना की। फिर त्रिशृङ्गम पधारे और संघ सहित तारंगाजी एवं आरासण तीर्थों की यात्रा की। मन्त्रदलीय जगतसिंह ने स्वधर्मी वात्सल्य, ध्वजारोपादि कई उत्सव किये। सूरिजी ने यात्रा से लौटकर पाटण चातुर्मास किया ।
सं० १३८० में सेठ ते पाल रुद्रपाल के मानतुंगविहार जिनालय के योग्य मूलनायक युवाद पेश्वर भगवान की २७ अंगुल को कर्पूर-धवल प्रतिमा, जिनप्रबोधसूरि, जिनचन्द्रसूरि, कपर्दी यक्ष, क्षेत्रपाल, अंबिकादि एवं ध्वजदण्डादि के साथ अन्य श्रावकों की निर्माति बहुत सी प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा करवायी । मार्गशीर्ष कृष्ण ६ को मालारोपण I व्रतग्रहण, नन्दी महोत्सवादि विस्तार से उत्सव हुए। दिल्ली निवासी सेठ रयपति ने सम्राट गयासुद्दीन तुगलक से तीर्थयात्रा के लिए फरमान प्राप्त कर श्रीजिनकुशलसूरिजी से अनुमति मगाई, फिर विशाल संघ के साथ ० कृ० ७ को प्रयाण करके कन्यानयन, नरभट, फलौदी पार्श्वनाथ की यात्रा कर देश-विदेश के संघ सहित मार्गवर्ती तीर्थस्थान करते हुए पाटण पहुँचे । श्रीजिनकुशलसूरिजी को भी अत्यन्त आग्रहपूर्वक संघ के साथ पधारने की विनती की। सूरिजी १७ साधु और १९ साध्वियों के साथ संघ में
सम्मिलित हो संखेश्वर तीर्थादि की यात्रा करते हुए आषाढ़ कृष्ण ६ के दिन शत्रुंजय पहुँचे। वहाँ उसो दिन दो दीक्षाएँ हुईं। दूसरे दिन समवसरण जिनपतिसूरि, जिनेश्वरसूरि आदि गुरुमूर्तियों की प्रतिष्ठा के साथ पाटण में पूर्व प्रतिष्ठित युगादिदेव भगवान को स्थापित किया । आषाढ़ कृष्ण 8 के दिन ब्रतग्रहण, नन्दी महोत्सवादि के साथसाथ सुखकीर्ति गणि को वाचनाचार्य पद दिया । उस यात्रीसंघ के द्वारा तीर्थ के भण्डार में ५००००) रुपये की आमदनी हुई।
यह विशाल यात्री संघ सूरिजी के साथ आषाढ़ सुदि १४ को गिरनार पहुँचा, यहाँ भी संघ के द्वारा विविध उत्सवादि हुए। तीर्थ के भंडार में ४००००) रुपये की आमदनी हुई। आनन्द के साथ यात्रा सम्पन्न कर श्रावण शुक्ल १३ को पाटण पधारे। १५ दिन तक नगर के बाहर उद्यान में ठहर कर भाद्रपद कृष्ण ११ को समारोह पूर्वक नगर- प्रवेश हुआ, तदनन्तर संघ ने दिल्ली की ओर प्रस्थान किया ।
संवत् १३८१ मिती वैशाख कृष्ण ५ को पाटण के शांतिनाथ विधिचैत्य में सूरिजी के करकमलों से विराट प्रतिष्ठा महोत्सव संपन्न हुआ । इनमें जालोर, देरावर तथा शत्रुंजय ( बूल्हावसही और अष्टापद प्रासाद के लिए २४ बिंब ), उच्चानगर के लिए अगणित जिन प्रतिमाएं तथा पाटण के लिए जिनप्रबोधसूरि, देरावर के लिए जिनचन्द्रसूरि अंबिका आदि अधिष्ठायक व स्वभंडार योग्य समवसरण की भी प्रतिष्ठा को । वैशाख कृष्ण ६ के दिन दो बड़ी दीक्षाएं, पांच साधु-साध्वियों की दीक्षा, जयधर्म गणि को उपाध्यय पद तथा अन्य व्रत ग्रहणादि विस्तार से हुए ।
सूरिमहाराज को वीरदेव आदि ने पाटण से अत्यन्त आग्रह पूर्वक भोमपल्ली बुलाया। संघ ने सम्राट गयासुद्दीन से तीर्थयात्रा के हेतु फरमान प्राप्त कर ज्येष्ठ कृष्ण ५को भीमपल्ली से प्रयाण किया। सूरिजी के साथ १२ साधु और कई साध्वियां
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ १] भी थीं । संघ वायड़, सैरिसा, सरखेज, आशापल्ली होते हुए श्रीमाल, साचौर, गढहा आदि के संघ के समक्ष द्रह दिन खंभात पहुँचा । जिस प्रकार जिनेश्वरसूरिजी के पधारने पर तक दीक्षार्थियों के सत्कार सहित फाल्गुन कृष्ण ६ को सं० १२८६ में महामंत्री वस्तुपाल ने एवं स० १३६४-६७ दीक्षा, प्रतिष्ठा, व्रतोच्चारणादि विविध उत्सव हुए। में सेठ जेसल ने श्री जिनचन्द्रसूरिजी का प्रवेशोत्सव किया राजगृह तीर्थ के वैभारगिरि स्थित चतुर्विंशति जिनालय था उसी प्रकार सूरिजी का इस समय धूमधाम से प्रवेशो- के मूलनायक महावीर स्वामी आदि भनेक पाषाण और सव हुआ। आठ दिन तक नाना उत्सवादि संपन्न कर धातुमय बिम्ब गुरुमूर्तियां आदि को प्रतिष्ठा एवं न्यायकीत्ति आनन्दपूर्वक यात्रा करते हुए शत्रुजय की ओर चले। ललितकीर्ति, सोमकीति अमरकी त्ति, ज्ञानकीर्ति, देवकीतिधांधूका में मन्त्रीदलीय ठ० उदयकरण ने संघ की बहुत ६ साधुओं को दीक्षित दिया। भक्ति की। शगुंजय पहुँच कर सूरिजी ने दूसरी बार यात्रा जालोर से चैत्र कृष्ण में विहार कर समियाणा, खेड़ की। तीर्थ के भंडार में १५००० की आमदनी हुई। नगर होते हुए जेसलमेर महादुर्ग पधारे। सिन्ध देश के आदिनाथ प्रभु के विधि-चैत्य में नवनिर्मित चतुर्दिशति श्रावक अपने उधर पधारने के लिए बार-बार वीनति कर जिनालय, देवकु'लकाओं पर कलश व ध्वजा दि का आरोपण रहे थे अतः पद्रह दिन रहकर सिंध देश के देरावर नगर में हुआ। संघ सहित सूरिमह राज तलहटी में आये। पधारे । वहां स्वप्रतिष्ठिन आदिनाथ प्रश्न का वन्दन किया। लौटते समय सरिसा, संखेश्वर, पाडल होते हुए श्रावण शुक्ला फिर उच्च नगर पधारकर हिन्दु-मुसलमान सबको धर्मोपदशों ११ को भीमपल्ली पधारे।
से आनन्दित किया। एक मास रहकर वापिस देरावर __ सं० १३८२ वैशाख शुक्ला ५ को विनयप्रभ, मतिप्रभ, पधारे। सं० १३८४ माघ शु० ५ को उच्च, देरावर, हरिप्रभ, सोमप्रभ साधु एवं कमलश्री, ललितश्री को समा- क्यासपूर बहरामपूर, मलिकपुर के श्रावकों और अधिकारोहपूर्वक दीक्षा दी। पत्तन, पालनपुर, बीजापुर, आशा- रियों के अनुरोध से प्रतिष्ठा, व्रतग्रहण आदि बड़े विस्तार से पल्ली आदि का संघ भी उपस्थित था । तीन दिन अमारि सम्पन्न किये। राणुककोट, क्यासपुर के लिए दो आदिनाथ उद्घोषणा के साथ बड़े उत्सव हुए। फिर सूरिजी साचौर मलनायकबिंब व धातु-पाषाण की अनेक प्रतिमाए प्रतिष्ठित पधारे । मासकल्प करके लाटहृद पधारे। संघ के आग्रह से की। भाव मूत्ति, मोदमूर्ति, उदयमूर्ति, विजयमूर्ति, बाड़मेर में चौमासा करके श्री जिनदत्तसूरि रचित चैत्य- हेममति, भद्रमत्ति, मेवमूर्ति, पद्ममूर्ति, हर्षमूर्ति आदि नौ वंदनकुलक पर विस्तृत वृत्ति की रचना की। सं० १३८३ साध, कुलधर्मा, विनयधर्मा और शीलधर्मा नामक तीन पौष शुक्ला १५ को जेसलमेर, लाटह्रद, साचौर, पालनपुरीय साध्वियों की दीक्षा हुई। संघ के समक्ष अमारि घोषणापूर्वक बड़ो दोक्षा आदि सं. १३८५ फाल्गन शु० ४ के दिन उच्चापुर, बहिअनेक उत्सव हुए । तदनन्तर जालोर संघ की विनती से रामपुर, क्यासपुर के खरतर गच्छीय संघ की विद्यमानता विहार करके लवणखेटक पधारे। यहाँ सूरिजी के पूर्वज में नवदीक्षितों को उपस्थापना, अनेकों व्रतग्रहण व कमलाकर उद्धरण वाहित्रिक कारित शांतिनाथ-जिनालय था एवं गणि को वाचनाचार्य पद दिया। सं० १३८६ में बहिगुरु जिनचन्द्रसूरिजी का जन्म एवं दीक्षा यहीं हुई थी। रामपुर पधारे। वहां धर्मप्रभावना कर क्यासपुर के हिन्दुयहाँ से समियाणा ( जन्मभूमि ) होते हुए जालोर पधारे। मुसलमान सबको आनन्दित किया। ६ दिन उत्सवादि यहां उच्चपुर, देवराजपुर, पाटण, जेसलमेर, सिवाणा, के पश्चात् खोजावाहन पधारकर क्यासपुर पधारे । मुसल
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
। ३२ ]
मान नबाब और सभीलोगों द्वारा सूरिजी का ऐसा प्रवेशो- पट्टधर श्री जिनपद्मसूरि का Tोत्सा म. त्सव किया गया जो सं० १२३८ में अन्तिम हिन्दू सम्राट धूम-धाम से हुआ। श्रीजिनपद्मसूरिजी ने ५ उपाध्याय पृथ्वीराज द्वारा किये अजमेर के उत्सव की याद दिलाता १२ साधुओं के साथ जेमलर पधारदार चातुमास किया । था। तदनन्तर देरावर पधार कर सं० १३८६ का चतुर्मास इनके अतिरिक्त आपका शिष्य परिवार बहुत बड़ा थ. . वहीं किया। बारह साधुओं के साथ उच्चानगर जाकर उ० विनयप्रभ, सोमप्रभ इत्यादि की परम्परा मैं बहुत से मासकल्प किया। फिर अनेक ग्राम नगरों में विचरते हुए बड़े-बड़े विद्वान और ग्रन्थकार हुए हैं। विनयप्रभोपाध्याय परशुरोरकोट गए। वहां से बहिरामपुर होते हुए उन्नवि- का गौतमरास जैन समाज में बहुप्रचलित रचना है आपका हारी श्री जिनकुशलसूरिजी देरावर पधारे और सं० १३८७ संस्कृत में नरवर्मचरित्र एवं कई स्तोत्रादि उपलब्ध हैं। का वहीं चातुर्मास वहीं किया।
श्रीजिनकुशलसूरि जी ने अपने जीवन में शासन की ___ सं० १३८८ में उच्चापुर, बहिरामपुर, क्यासपुर, बड़ी प्रभावना की उन्होंने पचास हजार नये जैन बनाकर सिलारवाहण आदि सभी स्थानों के श्रावकों की उपस्थिति परम्परा-मिशन को अक्षुण्ण रखा। आप उच्चकोटि के
विद्वान और प्रभाशाली व्यक्ति थे। दादाश्रीजिनदत्तसूरि में मार्गशीर्ष शु० १० को व्रतग्रहणादि नन्दीमहोत्सवपूर्वक
जी कृत चैत्यवंदन कुलक नामक २७ गाथा की लघु कृति विद्वत् शिरोमणि तरुणकीत्ति को आचार्य पद देकर तरुण
पर ४००० श्लोक परिमित टीका रचकर अपनी अप्रतिम प्रभाचार्य नाम से प्रसिद्ध किया। पं० लब्धिनिधान को प्रतिभा का उदाहरण प्रस्तुत किया है। इसमें २४ धर्म उपाध्याय पद दिया, जयप्रिय, पुण्यप्रिय एवं जयश्री, धर्मश्री, कथाएँ हैं जिनमें श्रेणिक महाराज कथा तो ६४५ श्लोक को दीक्षित किया। सं० १३८६ का चातुर्मास देरावर परिमित हैं। इस ग्रन्थ में अनेक सिद्धान्तों के प्रमाण भी में किया और तरुणप्रभाचार्य व लब्धिनिधानोपाध्याय को उद्धत हैं। आपकी दूगरी कृति जिनचन्द्रसूरि चतुःसप्तस्याद्वादरत्नाकर, महातर्क रत्नाकर आदि सिद्धान्तों का तिका प्राकृत की ७४ गाथाओं में है। इसके अतिरिक्त परिशीलन करवाया। माघ शुक्ल में तीब्रज्वर व श्वास की कई स्तोत्रादि भी संस्कृत में अनेक रचे थे, जिनमें 8 स्तोत्र व्याधि होने पर अपना आयुशेष निकट ज्ञातकर श्री तरुण- उपलब्ध हैं । प्रभाचार्य व लब्धिनिधानोपाध्याय को अपने पद पर आप अपने जीवितकाल में जिस प्रकार जैन संघ के पद्ममूत्ति को गच्छनायक बनाने की आज्ञा देकर अनशन महान उपकारी थे स्वर्गवास के पश्चात् भी भक्तों के मनो• करके मति फाल्गुन कृष्ण ५ की रात्रि के पिछले पहर में वांछित पूर्ण करने में कल्पवृक्ष के सदृश हैं। आपने अनेकों स्वर्ग सिधारे। विद्युतगति से समाचार फैलते ही सिन्ध को दर्शन दिए हैं और स्मरण करने वालों के लिए हाजरा देश के गाँवों के लोग देरावर आ पहुंचे। फा० कृ०६ हजूर हैं। यही कारण है कि आज ६३७ वर्ष बीत जाने को ७५ मंडपिकाओं से मंडित निर्यान विमान में विराज- पर भी आप प्रत्यक्ष हैं। आप भवनपति-महद्धिक कर्मेन्द्र मान कर बड़े महोत्सवपूर्वक शोकाकुल संघ ने नगर के नामक देव हैं। जीवितकाल में भी धरणेन्द्र आपका भक्त राजमार्गों से होते हए सूरिजी के पावन शरीर को स्मशान था और स्वर्ग में भी धरणेन्द्र-पदमावती इन्द्र-इन्द्राणी से में ले जाकर अग्निसंस्कार किया।
अभिन्न मैत्री है। आज सारे भारतवर्ष में आपके जितने सूरिजी के अग्नि-संस्कार स्थान में सुन्दरस्तूप निर्माण चरण व मूर्तियाँ-दादावाड़ियाँ हैं, अन्य किसी के नहीं। किया गया जो आगे चलकर तीर्थ रूप हो गया। मिती यहा एक गुरुदेव के महत्व का साक्षात् उदाहरण हैं । ९-१० ज्येष्ठ शुक्ल ६ को हरिपाल कारित आदिनाथ प्रतिमा, वर्ष बाद आपके जन्म को सात सौ वर्ष पूरे होते हैं आशा देरावर स्तूप, जेसलमेर और क्यासपुर के लिये श्रीजिनकुशल- है भक्त गण अष्टम जन्म शताब्दी बड़े समारोह से मनाकर मूरिजी की तीन मूर्तियों का प्रतिष्ठा महोत्सव हुआ। आपके
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
S
-
।
w
S7
ANHI
कटप्रभावोदादा श्रीजिनकुशलसूरि मूर्ति बड़े दादाजी, (महरौली)
श्री जिनप्रभसूरि मूर्ति (खरतरबसही, शत्र अय)
Jain Education Internaciona
युमप्रधानश्रीजिनचन्द्रसूरि (चतुर्थ दादा)
ऋषभदेव जिनालय (बीकानेर)
महाराजary.org
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
HAN
सं०६३७ में श्री उद्योतनसूरि प्रतिष्ठित
आदिनाथ प्रतिमा गांगाणीतीर्थ
सं० १०८३ प्र० आदिनाथ पंचतीर्थी जैन श्वे० पचायती मंदिर, कलकत्ता
air Education International
जैनाचार्य श्रीजिनकीन्दसागरसरिजी
श्री जैन श्वेताम्बर मन्दिर गांगाणी तीर्थ inelibrary.ong |
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
महान् शासन-प्रभावक श्रोजिनप्रभसरि
[अगरचन्द नाहटा]
जैन ग्रन्थों में जैन शासन की समय-समय पर महान् बड़े शासन-प्रभावक हो गए हैं जिनके सम्बन्ध में साधारणप्रभावना करने वाले आठ प्रकार के प्रभावक-पुरुषों का तया लोगों को बहुत ही कम जानकारी है। इसलिए यहां उल्लेख मिलता है । ऐसे प्रभावक पुरुषों के सम्बन्ध में प्रभा- उनका आवश्यक परिचय दिया जा रहा है। वक चरित्रादि महत्वपूर्ण ग्रन्थ रचे गये हैं। आठ प्रकार के वृद्धाचार्य प्रबन्धावली के जिनप्रभसूरि प्रबन्ध में प्राकृत प्रभावक इस प्रकार माने गए हैं -प्रावनिक धर्मकथी,वादी, भाषा में जिनप्रभसूरि का अच्छा विवरण दिया गया है, नैमित्तिक, तपस्वी, विद्यावान्, सिद्ध और कवि । इन उनके अनुसार ये मोहिलवाड़ी लाडनूं के श्रीमाल ताम्बी प्रभावक पुरुषों ने अपने असाधारण प्रभाव से आपत्ति के गोत्रीय श्रावक महाधर के पुत्र रत्नपाल की धर्मपत्नी खेतलसमय जैन शासन की रक्षा की, राजा-महाराजा एवं जनता देवी के कुक्षि से उत्पन्न हुए थे। इनका नाम सुभटपाल को जैन धर्म के प्रतिबोध द्वारा शासन की उन्नति की एवं था। सात-आठ वर्ष की बाल्यावस्था में ही पद्मावती देवी शोभा बढ़ाई। आर्यरक्षित अभयदेवसूरि को प्रावनिक, के विशेष संकेत द्वारा श्री जिनसिंहसूरि ने उनके निवास पादलिप्तसूरि को कवि, विद्याबली और सिद्ध, विजय- स्थान में जाकर सुभटपाल को दीक्षित किया। सूरिजी ने देवसूरि व जीवदेवसूरि को सिद्ध, मल्लवादी वृद्धवादी, और अपनी आयु अल्प ज्ञात कर सं० १३४१ किढवाणानगर में देवसूरि को वादी, बत्पट्टिसूरि, मानतुंगसूरि को कवि, इन्हें आचार्य पद देकर अपने पट्टपर स्थापित कर दिया। सिद्धर्षि को धर्मकथी महेन्द्रसूरि को नैमित्तिक, आचार्य उपदेशसप्ततिका में जिनप्रभसूरि सं० १३३२ में हुए हेमचन्द्र को प्रावचनिक, धर्मकथी औरक वि प्रभावक, लिखा है, यह सम्भवत: जन्म समय होगा। थोड़े ही समय प्रभावक चरित्र की मुनि कल्याणविजयजी की महत्त्वपूर्ण में जिनसिंहसूरिजी ने जो पद्मावतो आराधना की थी वह प्रस्तावना में बतलाया गया है।
उनके शिष्य-जिनप्रभसूरिजी को फलवती हो गई और आप खरतरगच्छ में भी जिनेश्वरसूरि, अभयदेवसूरि, जिन- व्याकरण, कोश, छंद, लक्षण, साहित्य, न्याय, षट्दर्शन, वल्लभसूरि, जिनदत्तसूरि, मणिधारी-जिनचन्द्रसूरि और जिन- मंत्र-तंत्र और जैन दर्शन के महान् विद्वान बन गए। आपके पतिसूरि ने विविध प्रकार से जिन शासन की प्रभावना को रचित विशाल और महत्त्वपूर्ण विविध विषयक साहित्य से है। जिनपतिसूरि के पट्टधर जिनेश्वरसूरि के दो महान् पट्ट- यह भलो-भांति स्पष्ट है। अन्य गच्छीय और खरतरगच्छ धर हुए-जिनप्रबोधसूरि तो ओसवाल और जिनसिंहसूरि की रुद्रपल्लोय शाखा के विद्वानों को आपने अध्ययन कराया श्रीमाल संघ में विशेष धर्म-प्रचार करते रहे। इसलिए एवं उनके ग्रन्थों का संशोधन किया। इन दो आचार्यों से खरतरगच्छ की दो शाखाएं अलग हो असाधारण विद्वत्ता के साथ-साथ पद्मावतीदेवी के गई। जिनसिंहसूरि की शाखा का नाम खरतर आचार्य सान्निध्य द्वारा आपने बहुत से चमत्कार दिखाये हैं जिनका प्रसिद्ध हो गया, उनके शिष्य एवं पट्टधर जिनप्रभसूरि वहुत वर्णन खरतरगच्छ पट्टावलियों से भी अधिक तपागच्छीय
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
। ३४ 1
ग्रन्थों में मिलता है और यह बात विशेष उल्लेख योग्य सम्मान प्राप्त किया था। उन्होंने कन्नाणा की महावीर है। सं० १५०३ में सोमधर्म ने उपदेश-सप्ततिका नामक प्रतिमा सुलतान से प्रासाकर दिल्ली के जैन मंदिर में स्थापित अपने महत्वपूर्ण ग्रन्थ के तृतीय गुरुत्वाधिकार के पंचम करायी थी । पीछे से मुहम्मद तुगलक ने जिनप्रभसूरि के उपदेश में जिन प्रभसूरि के बादशाह को प्रतिबोध एवं कई शिष्य 'जिनदेवसूरि को सुरत्तान सराइ दी थी जिनमें चमत्कारों का विवरण दिया है। प्रारम्भ में लिखा है कि चार सौ श्रावकों के घर, पौषधशाला व मन्दिर बनाया इस कलियुग में कई आचार्य जिन शासन रूपी घर में दीपक उसी में उक्त महावीर स्वामी को विराजमान किया गया । के सामान हुए। इस सम्बन्ध में म्लेच्छपति को प्रतिबोध इनकी पूजा व भक्ति श्वेताम्बर समाज ही नहीं, दिगम्बर को देने वाले श्रीजिनप्रभसूरि का उदाहरण जानने लायक और अन्य मतावलम्बी भी करते रहे हैं। है । अंत में निम्न श्लोक द्वारा उनकी स्तुति की कन्यानयनीय महावीर प्रतिमा कल्प के लिखनेवाले गई है:
"जिनसिंहसूरि- शिष्य' बतलाथे गये हैं अत: जिनप्रभसूरि या स श्री जिनप्रभःसूरि-दुरिताशेषतामस: उनके किसी गुरुम्राता ने इस कल्प की रचना की है।
भद्र' कगेतु संघाय, शासनस्य प्रभावकः ॥ १॥ इसमें स्पष्ट लिखा है कि हमारे पूर्वाचार्य श्री जिनपतिसूरि इसी प्रकार संवत् ६५२१ में तपागच्छीय शुभशील जी ने सं० १२३३ के आषाढ़ शुक्ल १० गुरुवार को इस गणि ने प्रबन्ध पंचशती नामक महत्वपूर्ण ग्रन्थ बनाया जिसके प्रतिमा की प्रतिष्ठा की थी और इसका निर्माण जिनपति प्रारम्भ में ही श्री जिनप्रभसूरिजी के चमत्कारिक १६ प्रवन्ध सूरि के चाचा मानदेव ने करवाया था । अन्तिम हिन्दू सम्राट देते हुए अंत में लिखा है
पृथ्वीराज के निधन के बाद तुर्कों के भय से सेठ रामदेव 'इति कियन्तो जिनप्रभसूरी अवदातसम्बन्धाः"
के सचनानुसार इस प्रतिमा को कंयवास स्थल की विपुल इस ग्रन्थ में जिनप्रभसूरि सम्बन्धी और भी कई ज्ञातव्य बालू में छिपा दिया गया था । सं० १३११ के दारुण दुर्भिक्ष प्रबन्ध हैं। उपरोक्त १६ के अतिरिक्त नं०२०,३०६,३१४ में जोज्जग नामक सूत्रधार को स्वप्न देकर यह प्रतिमा प्रगट तथा अन्य भी कई प्रबन्ध आपके सम्बन्धित हैं। पुरातन हुई और श्रावकों ने मन्दिर बनवाकर विराजमान की। प्रबन्ध संग्रह में मुनि जिनविजयजी के प्रकाशित जिनप्रभसूरि सं० १३८५ में हांसी के सिकदार ने श्रावकों को बन्दी उत्पत्ति प्रबन्ध व अन्य एक रविवर्द्धन लिखित विस्तृत प्रबन्ध बनाया और इस महावीर बिम्ब को दिल्ली लाकर तुगलकाहै। खरतरगच्छ वृहद्-गुर्वावली-युगप्रधानाचार्य गुर्वावलो बाद के शाही खजाने में रख दिया । के अंत में जो वृद्धाचार्य प्रबन्धावली नामक प्राकृतको रचना जनपद विहार करते हुए जिनप्रभसूरि दिल्ली पधारे और प्रकाशित हुई है। उसमें जिनसिंहसूरि और जिनप्रभसूरि राजसभा में पण्डितों की गोष्ठी द्वारा सम्राट को प्रभावित के प्रबन्ध, खरतरगच्छीय विद्वान के लिखे हुए हैं एवं कर इस प्रभु-प्रतिमा को प्राप्त किया। मुहम्मद तुगलक ने खरतरगच्छ को पट्टावली आदि में भी कुछ विवरण मिलता अद्धरात्रि तक सूरिजी के साथ गोष्टी की और उन्हें वहीं है पर सबसे महत्वपूर्ण घटना या कार्यविशेष का सम- रखा। प्रत: काल संतुष्ट सुलतान ने १००० गायें, बहुत कालीन विवरण विविध तीर्थकल्प के कन्यानयनीय महावीर सा द्रव्य, वस्त्र-कंवल, चंदन, कर्पूरादि सुगंधित पदार्थ प्रतिमा कल्प और उसके कल्प परिशेष में प्राप्त है। उसके सूरिजी को भेंट किया। पर गुरुश्री ने कहा ये सब साधुओं अनुसार जिनप्रभसूरिजी ने यह मुहम्मद तुगलक से बहुत बड़ा को लेना प्रकल्प्य है। सुलतान के विशेष अनुरोध से कुछ
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
[३ ] वस्त्र-कम्बल उन्होंने 'राजाभियोग' से स्वीकार किया और हरिसागरसूरिजी महाराज की प्रेरणा से परिवद्धित कर मुहम्मद तुगलक ने बड़े महोत्सव के साथ जिनप्रभसूरि और पंडितजी ने ग्रन्थ रूप में तैयार कर दिया, जिसे सं० १९६५ जिनदेवसरि को हाथियों पर आरूढ़ कर पौषधशाला में श्रीजिनहरिसागरसूरि ज्ञान भण्डार, लोहावट से देवनागरी पहुँचाया । समय-समय पर सूरिजी एवं उनके शिष्य जिनदेव- लिपि व गुजराती भाषा में प्रकाशित किया गया। सूरि को विद्वत्तादि से चमत्कृत होकर सुलतान ने शत्रुजय, प्रतिभासम्पन्न महान् विद्वान जिनप्रभसूरि जी को दो गिरनार, फलौदी आदि तीर्थों की रक्षा के लिए फरमान प्रधान रचनाएँ विविधतीर्थकल्प और विधिमार्ग-प्रमा दिए । कल्प के रचयिता ने अन्त में लिखा है कि मुहम्मद मुनि जिनविजयजी ने सम्पादित की है, उनमें से विधिशाह को प्रभावित करके जिनप्रभसूरिजी ने बड़ी शासन प्रपा में हमने जिनप्रभसूरि सम्बन्धी निबन्ध लिखा था। प्रभावना एवं उन्नति को। इस प्रकार पंचम काल में चतुर्थ इसके बाद हमारा कई वर्षों से यह प्रयत्न रहा कि सूरिआरे का भास कराया।
महाराज सम्बन्धी एक अध्ययनपूर्ण स्वतन्त्र वृहद्ग्रन्थ प्रकाउपयुक्त कन्नाणय महावीर कल्प का परिशेष रूप अन्य शित किया जाय और महो० विनयसागरजी को यह काम कल्प सिंहतिलकसूरि के आदेश से विद्यातिलक मुनि ने लिखा सौंपा गया। उन्होंने वह ग्रन्थ तैयार भी कर दिया है, है जिसमें जिनप्रभसूरि और जिनदेवसूरि को शासन साथ ही सूरिजी के रचित स्तोत्रों का संग्रह भी संपादित कर प्रभावना व मुहम्मद तुगलक को सविशेष प्रभावित करने का रखा है। हम शीघ्र ही उस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ को प्रकाशन विवरण है । ये दोनों ही कल्प जिनप्रभसूरिजी की विद्य- करने में प्रत्यनशील हैं। मानता में रचे गए थे। इसी प्रकार उन्हीं के समकालीन सूरिजी सम्बन्धी प्रबन्धों की एक सतरहवीं शती रचित जिनप्रभसूरि गीत तथा जिनदेवसूरि गीत हमें प्राप्त की लिखित संग्रह प्रति हमारे संग्रह में है, पर वह अपूर्ण हो हुए जिन्हें हमने सं० १९६४ में प्रकाशित अपने ऐतिहासिक प्राप्त हुई है। हम उपदेशसप्तति प्रबन्ध-पंचशती एवं प्रबन्ध
जैन काव्य संग्रह में प्रकाशित कर दिया है। उनमें स्पष्ट संग्रहादि प्रकाशित प्रबन्धों को देखने का पाठकों को लिखा है सं० १३८५ के पौष शुक्ल ८ शनिवार को दिल्ली अनुरोध करते हैं जिससे उनके चामत्कारिक प्रभाव और में मुहम्मद साह से श्री जिनप्रभसूरि मिले । सुलतान ने उन्हें महान व्यक्तित्व का कुछ परिचय मिल जायगा। जिनप्रभअपने पास बैठाकर आदर दिया। सूरिजीने नवीन काव्यों सूरिजी का एक महत्वपूर्ण मंत्र-तंत्र सम्बन्धी ग्रन्थ रहस्यद्वारा उसे प्रसन्न किया। सुलतान ने इन्हें धन-कनक आदि कल्पद्रुम भी अभी पूर्ण रूप से प्राप्त नही हुआ, उसकी खोज बहुत सी चीज दी और जो चाहिए, मांगने को कहा पर जारी है। सोलहवीं शताब्दी की प्रति का प्राप्त अन्तिम निरीह सूरिजी ने उन अकल्प्य वस्तुओं को ग्रहण नहीं किया। पत्र यहां प्रकाशित किया जा रहा है । इससे विशेष प्रभावित होकर उन्हें नई वस्ती आदि का रहस्यकल्पदुम' फरमान दिया और वस्त्रादि द्वारा स्वहस्त से इनकी पूजा त संघ प्रत्यनीकानां भयंकरादेशाः । करीयं जयः । की।
स्वदेशे जयः परदेशे अपराजितत्वं । तीर्थादिप्रत्यनीकमध्ये _____सं० १९८६ में पं० लालचन्द भ० गांधी का जिनप्रभ- एतत्त्रयमस्य महापीठस्य स्मरणेन भवति । ॐ ह्रीं महासूरि और सुलतान मुहम्मद सम्बन्धी एक ऐतिहासिक निबन्ध मातंगे शुचि चंडालो अमुकं दह २ पच २ मथ २ उच्चाटय 'जेन' के रौप्य महोत्सव अंक में प्रकाशित हुआ। जिसे श्री २ ह्र फुट् स्वाहा ॥ कृष्ण खडी खंड १०८ होमयेतू
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
। ३६ 1
उच्चाटनं विशेषतः । संपन्नी विषये । ॐ रक्त चामुंडे नर उपर्युक्त १६वीं शती की प्रति का अन्तिम पत्र प्राप्त हुआ। शिर तंड मुंड मालिनी अमुकी आकर्षय २ ह्रीं नमः। इस प्राप्त अंश की नकल उपर दी है। इस ग्रन्थ की पूरी आकृष्टि मंत्र । सहस्रत्रयजापात् सिद्धि सिद्धिः पश्चात् प्रति का पता लगाना आवश्यक है । किसी भी सज्जन को १०८ आकर्षयति । ॐ ह्रीं प्रत्यंगिरे महाविद्य येन केन- इसकी पूरी प्रति की जानकारी मिले तो हमें सूचित करने का चित् पापं कृतं कारितं अनुमतं वा नश्यतु तत्पापं तत्रैव अनुरोध करते हैं। गच्छतु"
श्री जिनप्रभसूरिजी और उनके विविध तीर्थकल्प के ॐ ह्रीं प्रत्यगिरे महाविद्य स्वाहा वार २१ लवण- सम्बन्ध में मुनि जिनविजयजी ने लिखा है-"ग्रन्थकार डली जच्चा आतुरस्योपरि म्रामयित्वा कांजिके क्षिप्त्वा। (जिनप्रभसूरि ) अपने समय के एक बड़े भारी विद्वान और आतुरे ढाल्यते कार्मण भद्रो भवति ।
प्रभावशाली थे। जिनप्रभसूरि ने जिस तरह विक्रम की ___ उभयलिंगी बीज ७ साठी चोखा ६ पली १ गोदूध। सतरहीं शताब्दी में मुगल व सम्राट अकबर बादशाह के ऋतुस्नातायाः पानं देयं स्निग्धमधुरभोजनं । ऋतुगर्भो- दरबार में जैन जगद्गुरु हीरविजयसूरि ( और युगप्रधान त्पत्तिप्रधानसूक डिदुवारन् वात् एकवर्ण गोदुग्धेन पीयते गर्भा- जिनचन्द्रसूरि ) ने शाही सम्मान प्राप्त किया था उसी तरह धानादिन ७५ अनंतर दिन ३ गर्भव्यत्ययः ॥छ॥ जिनप्रभसूरि ने भो चोदहवीं शताब्दी में तुगलक सुल्तान
संवत् १५४६ वर्षे श्रावण सुदि १३ त्रयोदशी दिने मुहम्मद शाह के दरबार में बड़ा गौरव प्राप्त किया। गुरौ श्रीमडपमहादुर्ग श्री खरतरगच्छे श्रीजिनभद्र- भारत के मुसलमान बादशाहों के दरवार में जैनधर्म का सूरि पट्टालंकार श्री श्रीजिनचन्द्रसूरि पट्टोदया चलचूला महत्व बतलाने वाले और उसका गौरव बढ़ाने वाले शायद सहस्रकरावतार श्री संप्रतिविजयमान श्रीजिनसमुद्रसूरि सबसे पहले ये ही आचार्य हुए। विजयराज्ये श्री वादीन्द्र
विविधतीर्थकल्प नामक ग्रन्थ जैन साहित्य की एक पाध्याय विनेय वाचनाचार्य वर्थ श्री साधुराज गणिवराणा- विशिष्ट वस्तु है। ऐतिहासिक और भौगोलिक दोनों मादेशेन शिष्यलेश ....... लेखि श्री रहस्य कल्पद्रुम- प्रकार के विषयों की दृष्टि से इस ग्रन्थ का बहुत कुछ महाम्नाय: ॥छ॥छ॥ श्रेयोस्तु । पं० भक्तिवल्लभ गणि- महत्त्व है। जैन साहित्य ही में नहीं, समग्र भारतीय सान्निध्येन ॥
साहित्य में भी इस प्रकार का कोई दूसरा ग्रंथ अभी [पत्र ११ वां प्राप्त किनारे त्रुटित] तक ज्ञात नहीं हुआ। यह ग्रन्थ विक्रम की चौदहवीं उपर्युक्त नन्थ का उल्लेख जिनप्रभसूरिजी ने व उनके शताब्दी में जैनधर्म के जितने पुरातन और विद्यमान समकालीन रुद्रपल्लीय सोमतिलकसूरि रचित लधुस्तव तीर्थस्थान थे उनके सम्बन्ध में प्रायः एक प्रकार की टोकादि में प्राप्त है । यह टीका सं० १३६७ में रची गई गाइड बुक" है इसमें वर्णित उन तीर्थों का संक्षिप्त रूप
और राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर से प्रका- से स्थान वर्णन भी है और यथाज्ञात इतिहास भी है । शित है।
__ प्रस्तुत रचना के अवलोकन से ज्ञात होता है कि ____ बीकानेर के वृहद् ज्ञानभंडार में हमें बहुत वर्ष पूर्व इतिहास और स्थलभ्रमण से रचयिता को बड़ा प्रेम था। इस ग्रन्थ का कुछ अंश प्राप्त हुआ था जिसे जैन सिद्धान्त- इन्होंने अपने जीवन में भारत के बहुत से भागों में परिभास्कर एवं जन सत्यप्रकाश में प्रकाशित किया। उसके बाद भ्रमण किया था । गुजरात, राजपूताना, मालवा, मध्य
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रदेश, बराड़, दक्षिण, कर्णाटक, तेलंग, बिहार, कोशल, जिनप्रभसूरिजी की एक उल्लेखनीय प्रतिमा महातीर्थ अवध, युक्तप्रान्त और पंजाब आदि के कई पुरातन और शत्रुञ्जय की खरतर-वसही में विराजमान है जिसको प्रसिद्ध स्थलों की इन्होंने यात्रा को थी। इस यात्रा के प्रतिकृति इस ग्रन्थ में दी गई है। जिनप्रभसूरि शाखा समय उस स्थान के बारे में जो जो साहित्यगत और परम्परा- सतरहवीं शताब्दी तक तो बराबर चलती रही जिसमें श्रुत बात उन्हें ज्ञात हुई उनको उन्होंने संक्षप में लिपिबद्ध चारित्रवर्द्धन आदि बहुत बड़े-बड़े विद्वान इस परम्परा में कर लिया। इस तरह उस स्थान या तीर्थ का एक कल्प हुए हैं। बना दिया और साथ ही ग्रन्थकार को संस्कृत और प्राकृत जिनप्रभसूरि का श्रेणिक द्याश्रय काव्य पालीताना से दोनों भाषाओं में, गद्य और पद्य दोनों ही प्रकार से ग्रन्थ अपूर्ण प्रकाशित हुआ था उसे सुसम्पादित रूप से प्रकाशन रचना करने का एक सा अभ्यास होने के कारण कभी कोई करना आवश्यक है। कल्प उन्होंने संस्कृत भाषा में लिख दिया तो कोई प्राकृत
__ हमारी राय में श्री जिनप्रभसूरिजी को यही गौरवपूर्ण में। इसी तरह कभी किसी कल्प की रचना गद्य में कर स्थान मिलना चाहिए जो अन्य चारों दादा-गुरुओं का है। ली तो किसी की पद्य में।
इनके इतिहास प्रकाशन द्वारा भारतीय इतिहास का एक जिनप्रभसूरि का विधिप्रपाग्रन्थ भी विधि-विधानों का
नया अध्याय जुड़ेगा । सुलतान मुहम्मद तुगलक को इतिहास बहुत बड़ा और महत्वपूर्ण संग्रह है। जैन स्तोत्र आपने
कारों ने अद्यावधि जिस दृष्टिकोण से देखा है वस्तुत: वह सात सौ बनाये कहे जाते हैं, पर अभी करीब सौ के लग
एकाङ्गी है। जिनप्रभसूरि सम्बन्धी समकालीन प्राप्त भग उपलब्ध हैं। इतने अधिक विविध प्रकार के और
उल्लेखों से यह सिद्ध होता है कि वह एक विद्याप्रेमी और विशिष्ट स्तोत्र अन्य किसी के भी प्राप्त नहीं हैं। कल्पसूत्र
गुणग्राही शासक था। को 'सन्देहविषौषधि" टीका सं० १३६४ में सबसे पहले
ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह में प्रकाशित श्री जिनप्रभआपने बनाई। सं० १३५६ में रचित द्वयाश्रम महाकाव्य
सूरि के एक गीत से श्रीजिनप्रभसूरिजी ने अश्वपति कुतुबुद्दीन आपकी विशिष्ट काव्य प्रतिभा का परिचायक है । सं०
को भी रंजित व प्रभावित किया था१३५२ से १३६० तक की आपको पचासों रचनायें स्तोत्रों के अतिरिक्त भी प्राप्त हैं। सूरि मन्त्रकल्प एवं चूलिका आगमु सिद्धंतुपुराण वखाणीइए पडिबोहइ सव्वलोइए ह्रींकार कल्प, वर्तमान विद्या और रहस्यकल्पद्रुम आपको जिणप्रभसूरि गुरु सारिखउ हो विरला दीसइ कोइ ए ॥ विद्याओं व मंत्र-तंत्र सम्बन्धी उल्लेखनीय रचनाएं हैं। आठाही आठामिहि चउथि तेड़ावइ सुरिताणु ए । अजितशांति, उवसग्गहर, भयहर, अनुयोगचतुष्टय, महावीर- पुहसितु मुखु जिनप्रभसूरि चलियउ जिमि ससि इंदु विमाणि ए॥ स्तव, षडावश्यक, साधु प्रतिक्रमण, विदग्धमुखमंडन आदि असपति कुतुबदीनु मनिरंजिउ, दीठेलि जिनप्रभसरि ए अनेक ग्रन्थों की महत्त्वपूर्ण टीकाए आपने बनाई । कातन्त्र- एकतिहि मन सासउ पूछइ, राय मणारह पूरि ए॥ विभ्रमवृत्ति, हेम अनेकार्थ शेषवृत्ति, रुचादिगण वृत्ति आदि तपागच्छोय जिनप्रभसूरि प्रबन्धों में पीरोजसाह को आपकी व्याकरण विषयक रचनाए हैं। कई प्रकरण प्रतिबोध देने का उल्लेख मिलता है पर वे प्रबन्ध, सवासो और उनके विवरण भी आपने रचे हैं, उन सब का यहां वर्ष बाद के होने से स्मृति दोष से यह नाम लिखा जाना विवरण देना संभव नहीं।
संभव है।
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेक ज्ञानभण्डारों के संस्थापक श्रीजिन
[पुरातत्त्वाचार्य मुनि जिनविजय ] [ श्री जिनराजसूरिजी के पट्टधर पन्द्रहवीं शताब्दी के महान् ग्रन्थ संरक्षक आचार्य श्री जिनभद्रसूरिजी का जन्म सं० १४४६ चैत्र बदि ( सुदि ) ६ आर्द्रा नक्षत्र में छाजहड़ शाह धीणिग की भार्या खेतलदे की कुक्षि से हुआ था। सं० १४६१ में इनकी दीक्षा हुई । वा० शोलचन्द्रगणि के पास इन्होंने अध्ययन कर श्रुत रहस्य को प्राप्त किया। २५ वर्ष की आयु में सं० १४७५ के माघ सुदि १५ बुधवार को भाणसोली ग्राम में श्री सागरचन्द्राचार्य ने इन्हें गच्छनायक पद पर प्रतिष्ठित किया । सा० नाल्हा ने बहुत बड़े महोत्सव पूर्वक पदस्थापना करवायी, इन्होंने अनेक साधु-साध्वियों को दीक्षित किया। भावप्रभाचार्य, कोतिरत्नाचार्य और जयसागरोपाध्याय को आचार्य, उपाध्याय आदि पदों पर प्रतिष्ठित किया। गिरनार, आबू और जैसलमेर में उपदेश देकर जिनमन्दिर प्रतिष्ठित किये। सं० १५१४ मिगसर बदि ६ को कुंभलमेर में आप स्वर्गवासी हुए। इनके पट्ट पर श्री जिनचन्द्रसूरि को सं० १५१५ के जेठ बदि २ को पाटण में साह समरसिंह कारित नंदोद्वारा श्री कीतिरत्नाचार्य ने स्थापित किया।
_आपकी जीवनी के सम्बन्ध में श्री जिनभद्रसूरि रास व कई गीत हमारे संग्रह में हैं। उक्त रास का सार हमने जैन सत्यप्रकाश में प्रकाशित कर दिया है। जैसलमेर का सुप्रसिद्ध ज्ञानभंडार आपके नाम से ही प्रसिद्ध है।
महान् श्रुतरक्षक श्री जिनभद्रसूरिजी की परम्परा में अनेक आचार्य उपाध्याय और विद्वान हुए। में जिनभद्रसूरि परम्परा ही सर्वाधिक प्रभावशाली रही है। बीकानेर और जयपुर की भट्टारकीय, आचार्योय, आद्यपक्षीय, भावहर्षीय, जिनरंग सूरि शाखा, इन्हीं की परम्परा में हुई हैं। जिनभद्रसूरिजो की प्राचीन मूर्तियां, चरण पादुकाएं अनेक स्थानों में प्रतिष्ठित दादावाड़ियों व मंदिरों में पूज्यमान हैं। चारों दादासाहब के साथ इनके चरण भी कई स्थानों में एक साथ प्रतिष्ठित हैं। सं० १४८४ में जयसागरोपाध्याय ने नगरकोट कांगड़ा की यात्रा के विवरण वाला महत्वपूर्ण विज्ञप्तिपत्र आपको भेजा था। मुनिजिनविजयजी ने विज्ञप्ति-त्रिवेणी की प्रस्तावना में श्रीजिनभद्रसूरि का परिचय इस प्रकार दिया है।
-सम्पादक ] जिनभद्रसूरि
शिलालेख है जिसमें इनके उपदेश से उपर्युक्त मन्दिर बनने आचार्य श्री जिनभद्रसूरि बहुत अच्छे विद्वान और व प्रतिष्ठित होने का वृत्तान्त है। इस लेख मे इनके गुणों प्रतिष्ठित हो गए हैं। उन्होंने अपने जीवन-काल में उपदेश तथा इनके करवाये हुए धर्म-कार्यों का संक्षिप्त उल्लेख करने द्वारा अनेक धर्मकार्य करवाये, कई राजा-महाराजाओं को वाला एक गुरु वर्णनाष्टक है। इस अष्टक के अवलोकन अपने भक्त बनाए। विविध देशों में विचर कर जैन- से इनके जीवन का अच्छा परिचय मिलता है। उक्त धर्म की समुन्नति करने का विशेष प्रयत्न किया। जैसल- संस्कृत अष्टक का तात्पर्य यह है कि ये बड़े प्रभावक, मेर के संभवनाथ मन्दिर में सं. १४६७ का एक बड़ा प्रतिष्ठावान और प्रतिभाशाली आचार्य थे। सिद्धान्तों के
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
जानने वाले बड़े-बड़े पण्डित इनके आश्रित-सेवा में रहते और विशिष्टता वाला जो कार्य किया है वह भिन्न-भिन्न थे। इनके उत्कृष्ट ब्रह्मचर्य और सत्य-व्रत को देखकर लोक स्थानों में विशाल पुस्तकालय स्थापित कराने का है। इन्हें स्थलिभद्र की उपमा देते थे। इनके वचन को सब इन्होंने जैसे और जितने शास्त्र भण्डार स्थापित किये. कोई आस वचन की तरह स्वीकारते थे। इन्होंने अपने कराये, वैसे शायद ही अन्य आचार्य ने किये-करवाये हों। सौभाग्य से शासन को अच्छी तरह दीपाया-शोभाया था। इस ग्रन्थोद्धार कार्य के प्राचुर्य में इनके और सुकृत मानो गिरनार, चित्रकूट ( चित्तौड़गढ़ ), मांडव्यपुर ( मंडोवर) गौण हो गए थे। आदि स्थानों में इनके उपदेश से श्रावकों ने बड़े-बड़े जिन अष्टलक्षी के प्रशस्नि पद्य से जैसलमेर, जावालपुर, भुवन बनाये थे। अणहिल्लपुर पाटण आदि स्थानों में देवगिरि ( दौलताबाद ) अहिपुर और पाटण इन पांच विशाल पुस्तक भडार स्थापन करवाये थे। मंडपदुर्ग, स्थानों के भंडारों का मण्डप दुर्ग ( मांडवगढ़ ), आशापल्ली प्रल्हादनपुर (पालनपुर ), तलपाटक आदि नगरों में या कर्णावतो और खम्भायत-इन तीन और अन्य भंडारों अनेक जिनबिम्बों की विधिपूर्वक प्रतिष्ठा की यी। इन्होंने का उल्लेख मिलता है। अपनी बुद्धि से अनेकान्त जयपताका जैसे प्रखर तर्क ग्रन्थ जैसलमेर खरतरगच्छ का प्रधान स्थान था। जिनऔर विशेषावश्यक भाष्य जैसे सिद्धान्तग्रन्थ अनेक मुनियों भद्रसूरि इस गच्छ के नेता थे। इन्होंने जैसलसेर के शास्त्र को पढ़ाए थे। ये कर्मप्रकृति और कर्मग्रन्थ जैसे गहन संग्रह के उद्धार का संकल्प किया। अनेक अच्छे-अच्छे ग्रन्थों के रहस्यों का विवेचन ऐसा सुन्दर और सरल करते लेखक इस काम के लिए रोके गये और उनके द्वारा ताड़थे कि जिसे सुनकर भिन्नगच्छ के साधु भी चमत्कृत होते पत्र और कागजों पर नकलें करायी जाने लगीं। जिनथे और इनके ज्ञान की प्रशंसा करते थे। राउल श्री भद्रसूरि स्वयं भिन्न-भिन्न प्रदेशों में फिरकर श्रावकों को वैरिसिह और त्र्यंबकदास जैसे नृपति इनके चरणों में भक्ति- शास्त्रोद्धार का सतत उपदेश देने लगे। इस प्रकार सं० पूर्वक प्रणाम किया करते थे। इस प्रकार ये अचार्य बड़े
१४७५ से १५१५ तक के ४० वषों में हजारों बल्कि शान्त, दान्त, संयमी, विद्वान और पूरे योग्य गच्छपति थे। लाखों ग्रन्थ लिखवाये और उन्हें भिन्न-भिन्न स्थानों में ___इनके उपदेश से जैसलमेर के श्रावक सा• शिवा, महिष, रखकर अनेक नये पुस्तक भंडार कायम किये । लोला और लाखण नाम के चार भ्राताओं ने संवत १४६४ पाटण और आशापल्ली के भडार एक ही श्रावक के में बड़ा भव्य जिनमन्दिर बनवाया जिसकी प्रतिष्ठा इन्होंने लिखाये हुए नहीं थे किन्तु कई गृहस्थों ने अपनी इच्छासंवत् १४६७ में की थी और संभवनाथ प्रभृति तीन सौ नुसार एक, दो अथवा दस, बीस पुस्तकें लिखवा कर इनमें जिनबिम्ब प्रतिष्ठित किये थे। इस प्रतिष्ठा में उक्त चार रख दी थीं। परन्तु खंभायत का भण्डार एक ही श्रावक भाइयों ने अगणित द्रव्य खर्च किया था।
धरणाक ने तैयार करवाया था यह परीक्ष गोत्रीय सा० ___ और भी अनेक स्थानों में बड़े-बड़े जिनमन्दिर बनवाये, गूजर का पुत्र और स० साइया का पिता था। प्रतिष्ठामहोतव करवाये और हजारों जिनबिम्ब प्रतिष्ठित मण्डपदुर्ग के श्रीमाली सोनिगिरा वंशीय मंत्रीश्रीमंडन किये थे।
और धनदराज बड़े अच्छे विद्वान थे। मण्डन का वंश और जिनभद्रसूरि और पुस्तक भाण्डागार
कुटुम्ब खरतरगच्छ का अनुयायी था। इन भ्राताओं जिनभद्रसूरि ने अपने जीवन में सबसे अधिक महत्वका ने जो उच्चकोटि का शिक्षण प्राप्त किया था वह इसी
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
इस समय इस
गच्छ के साधुओं की कृपा का फल था । गच्छ के नेता जिनभद्रसूरि थे, इसलिए उनपर इनका अनुराग और सद्भाव स्वभावतः ही अधिक था । इन दोनों भाइयों ने अपने-अपने ग्रन्थों में इन आचार्य की भूरि-भूरि प्रशंसा की है।
इन श्राताओं ने जिनभद्रसूरि के उपदेश से एक विशाल सिद्धान्तकोश लिखवाया था । यह सिद्धान्तकोश आज विद्यमान नहीं। पाटण के भण्डार में भगवतीसूत्र की प्रति मंडन के सिद्धान्तकोश की है । इस प्रति के अन्त में मण्डन की प्रशस्ति है ।
भद्रसूरि ने विद्वत्ता के प्रमाण में ग्रन्थों की रचना की है ऐसा प्रतीत नहीं होता । इनका बनाया हुआ एक ग्रन्थ मेरे दृष्टिगोचर हुआ है, इसका नाम 'जिनसत्तरी प्रकरण है। यह प्राकृत में गाथाबंध है। इसकी कुल
[ ४० ]
し
गावाऍ २२० हैं। इसमें २४ तीर्थंकरों के पूर्वभव संख्या, द्वीपक्षेत्र, विजय नगर, नाम और आयु आदि ७० बातों की सूची है ।
जिनभद्रसूरि का शिष्य समुदाय बड़ा और प्रभावशाली था ।
जिनभद्रसूरि की एक पाषाणमय मूर्ति जोधपुर राज्य के खेड़गढ़ के पास जो नगर गांव है, वहां के मूमिगृह में स्थापित है । यह मूर्ति उकेश वंश के कायस्थकुल वाले किसी श्रावक ने संवत् १५१२ में बनवायी थी ।
जिनभद्रसूरि बहुत भाग्यवान और तेजस्वी थे।
आचार्य प्रवर श्रीजिनभरि जी के हाथ की लिखी हुई सुन्दरों अक्षरों वाली एक प्रति कलकत्ता के श्री पूरणचंद नाहर के संग्रह में हमारे अवलोकन में आई जो सं० १५११ आषाढ़ बदि १४ बुधवार की लिखी हुई है। योग विधि पदस्थापना विधि की यह प्रति वा साधुतिलक गण को प्रसादी कृत है। इसके अन्तिम पत्र की प्रति कृति नीचे दी दूर जा रही है । जिससे पाठकों को सूरिजी की अक्षर - हेतु के दर्शन हो जायेंगे 1
मुनि श्री चतुरविजयजी ने जैन सोत्र संदोह भाग २ की प्रस्तावना में जिनभद्रसूरिजी को अन्य रचनाओं, पादुकाओं, शिष्यों आदि का अच्छा विवरण दिया है।
मायामापशनानानि विनवासात न श्रमण संघ स्पान ३सीमा खमाम मा
गुड नियम एवमाभमाजालाममा भारतमाम मामला मंदिम किं नाम ।। कड़वेदिनाथावान उमाभासमास भागाकारादिपुन्ना इवामा महिना शुरू इस माम नामांकी राणीवर पालाउन दिपावलीनिनाना भारदमास माढा msianorasयममिहमा पापमिन पायदान न करता मंसभव मानापादिय रयह राग समिप मतिः नारिका/मावायनम्मर परिव। पवनिनिवादिनमासमावश्य सापावयामिद का उम्म ग्रां कारभिएस माम मदानंद गिन्नानिमित्त कार मिकाउमा अद्यायनविनियमननिमिनिमानसमासा नाकारण नमक समाप्पदान 33वात्ममनुपखिवियनिमिक्रममा निद्यादिनास मदर शुरुतिशिवारा परिकलकारादाहियामान्नमन्निमिश्रा पानमीयान उपनामलगावलाप चंदवादादिक परंपरागमनका निनिवारासीभार मामला दmis बाकसमावि हंनिया उगंवकर मायादिवादशमासादि३३३ना कश्यलमागिन् सीमा राममा(मकर/स्वास दिवानात भुपतिंपरिलटिकाचं जीयनिका वालमा दाउनल
जावाविय नामंकारशनिरानिमिका निमन्नम्ममा सम्मा काकारसमान्द्रामत्रीपरमाणुरूवंवानं दिमाइ कामादादिति नियनिमि द्यावासी मायना मम्म पनि साविक विकारवैनिमन मातो यानि च सुनाया। निकास वाकर हामी दादा पवनाविविग्समा ३६ पानवर कालयी मुलाला वायुरुवंदन कदा नंदनवनादादिकानि पानाति ॥वित्रmar विरामविवशा ॥२॥ १११वार्य झापा २१४ वजनननिलिन मि ०मा तिलकमन्यववनाथ साक्षीनेथ पतिः ।।
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
कलकत्ता दादाबाड़ी का भीतरी दृश्य
मंत्रीरवर कर्मचन्द बच्छावत
SRT-
SANA
Jain Education Inte कलकत्ता दादाबाड़ी,
फोटो महेन्द्र सिंघीse Only
नररत्न मोतीशाह नाहटा बम्बई
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनाचार्य श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरिजी
जैनाचार्य श्रीजिनमणिसागरसूरिजी
।
शत्रंजय-सम्मेलन में जैनाचार्य श्रीजिनानंदसागरसूरिजी उ० सुखसागरजी उ० कवीन्द्रसागरजी गणिवर्य
श्री बुद्धिमुनिजी, गणिवर्य हेमेन्द्रसागरजी आदि साधुसमुदाय
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
लालमdite
OR
दादा श्रीजिनदत्तसूरि १ बावन वीर चौसठ योगिनी प्रतिबोध
२ अजमेर में प्रतिक्रमण के समय कड़कती बिजली को पात्र के नीचे दबाना
दादा श्रीजिनचन्द्रसूरि १ काजी को टोपी उतारी अकबर के दरबार में
२ अम्मावस का चन्द्रोदय अकबर दरबार
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीजिनदत्तसूरि १ उज्जैन में स्तंभ में से मंत्र पुस्तिका निकालना
२ सिन्ध मुलतान में पंच नदी साधन
श्रीजिनकुशलसूरि १ समुद्र में जगत सेठ के डूबते जहाज को तिराया
२ बादशाह के समक्ष भैसे के मुख से बात कराई। जीयागंज के विमलनाथ जिनालय की दादाबाड़ी में जयपुर के सुप्रसिद्ध
गणेश मुसव्वर के चित्र
५२ww.jainelibrary.org
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
अकबर-प्रतिबोधक युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसरि
[भवरलाल नाहटा] मणिधारीजी के स्वर्गवास के पचीस वर्ष पश्चात् मुमुक्षुओं को शुद्ध चारित्र मार्ग के पथिक बनाये। धर्मआर्यावर्त अपनी स्वाधीनता खोकर यवन-शासन की दुर्दान्त क्रान्ति करके जैन धर्म में आयी हुई विकृतियों का परिष्कार चक्की में बुरी तरह से पिसा जाने लगा। उसके सहस्रा- किया। अकबर, जहांगीर एवं हिन्दू राजा-महाराजाओं ब्दियों से संचित धर्म, संस्कृति, साहित्य और कला को को अपने चारित्रबल से प्रभावित-प्रतिबोधित कर जैन अपार क्षति पहुँची। यदि समय-समय पर महापुरुषों ने शासन की महान् प्रभावना की। उन्हीं का संक्षिप्त परिचय जन्म लेकर अपने लोकोत्तर प्रभाव से जनता का मनोबल यहां देना अभीष्ट है। व चारित्रबल ऊचा न उठाया होता तो जिस रूप में वीरप्रसू मारवाड़ के खेतसर गाँव में रीहड़ गोत्रीय समाज विद्यमान है, कभी नहीं रहता। महापुरुषों का ओसवाल श्रेष्ठी श्रीवन्तशाह को धर्मपत्नी श्रिया देवी की योगबल संसार की कल्याण-सिद्धि करता है।
कुक्षि से सं० १५६५ चैत्र कृष्ण १२ के दिन आपने जन्म वसतिमार्ग प्रकाशक श्री जिनेश्वरसूरिजी के पश्चात् क्रमश: लिया। माता-पिता ने आपका गुणनिष्पन्न नाम 'सुलतानउनकी पट्ट-परम्परा में जो भी महापुरुष हुए, वे क्षत्रिय, ब्राह्मण, कुमार' रखा जो आगे चलकर जैन समाज के सुलतान वैश्यादि प्रजा को प्रतिबोध देकर धार्मिक समाज का निर्माण सम्राट हुए । बाल्यकाल में ही अनेक कलाओं के पारगामी करते गए, जिससे जैन समाज का गौरव बढ़ा। न केवल हो गए विशेषतः पूर्व जन्म संस्कारवश धर्म की ओर आपका त्यागी वर्ग में ही उच्च चारित्र का प्रतिष्ठापन हुआ झुकाव अत्यधिक था। बल्कि जैन श्रावकों में भी अनेकों श्रेष्ठी, मंत्री, सेनापति सं० १६०४ में खरतरगच्छ नायक श्रीजिनमाणिक्यसूरि आदि प्रभावशाली, धर्मप्राण और परोपकारी व्यक्ति हुए जी महाराज के पधारने पर उनके उपदेशों का आप पर बड़ा जिन्होंने देश और समाज की सेवा में अपना सर्वस्व उत्सर्ग असर हुआ और आपकी वैराग्य-भावना से माता-पिता को कर दिया। राज्य-शासन में समय-समय पर जैनाचार्यों दीक्षा लेने की आज्ञा प्रदान करने को विवश होना पड़ा। व जैन गृहस्थों-श्रावकों का भी बड़ा भारी वर्चस्व रहा है। वर्ष की आयु वाले सूलतान कुमार ने बड़े ही उल्लासपूर्वक अपनी उदारता और प्रभाव के कारण जैनेतर समाज से जैन संयम-मार्ग स्वीकार किया। गुरु महाराज ने आपका नाम समाज की क्षति कम हुई और तीर्थ व धर्मरक्षा में शासकों 'सुमतिधीर' रखा। प्रतिभा-सम्पन्न और विलक्षण बुद्धिसे बड़ा भारी सहयोग भी मिलता रहा । चौदहवीं शताब्दी शाली होने से आपने अल्पकाल में ही ग्यारह अंग आदि में तीसरे दादा श्री जिनकुशलसूरिजो और शासन-प्रभावक सकल शास्त्र पढ़ डाले तथा वाद-विवाद, व्याख्यान, कलादि श्री जिनप्रभसूरिजी का जैन शासन पर बड़ा उपकार में पारगामी होकर गुरु महाराज के साथ देश-विदेश में हुआ । उसी परम्परा में चतुर्थ दादा साहब श्री जिनचन्द्रसूरिजी विचरण करने लगे। हुए जो युगप्रधान महापुरुष थे। उन्होंने हजारों उस समय जैन साघुओं में थोड़ा आचार-शैथिल्य का
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवेश हो चुका था जिसे परिहार कर क्रियोद्धार करने की साधु-मार्ग से प्रयोजन हो, वे हमारे साथ रहें और जो लोग भावना सभी गच्छनायकों में उत्पन्न हुई। श्रीजिनमाणिक्यसूरि असमर्थ हों, वे वेश त्यागकर गृहस्थ बन जावें । क्योंकि साधुवेश जी महाराज ने भी दादासाहब श्री जिनकुशलसूरिजी महाराज में अनाचार अक्षम्य है। सूरिजी के प्रबल पुरुषार्थ से ३०० के स्वर्गवास से पवित्र तीर्थरूप देरावर की यात्रा करके यतियों में से सोलह व्यक्ति चन्द्रमा की सोलह कला रूप गच्छ में फैले हुए शिथिलाचार को समूल नष्ट करने का जिनचन्द्रसूरिजी के साथ हो गए । संयम पालन में असमर्थ संकल्प किया परन्तु भवितव्यता वश वे अपने विचारों को अवशिष्ट लोगों को मस्तक पर पगड़ी धारण कराके 'मत्थेरण' कार्य रूप में परिणत न कर सके और वहां से जेसलमेर आते गृहस्थ बनाया गया, जो महात्मा कहलाने लगे और अध्यापन, हए मार्ग में पिपासा परिषह उत्पन्न हो जाने से अनशन लेखन व चित्रकलादि का काम करके अपनी आजीविका स्वीकार कर लिया। सन्ध्या के पश्चात् किसी पथिकादि चलाने लगे। के पास पानी की योगवाई भी मिली पर सूरिमहाराज अपने सूरिजी की क्रान्ति सफल हुई। यह क्रियोद्धार सं० चिरकाल के चौविहार ब्रत को भंग करने के लिए राजी नहीं १६१४ चैत्र कृष्ण ७ को हुआ। बीकानेर चातुर्मास के हुए । उनका स्वर्गवास होने पर जब २४ शिष्य जेसलमेर अनन्तर सं० १६१५ का चातुर्मास महेवानगर में किया और पधारे तो गुरुभक्त रावल मालदेव ने स्वयं आचार्य-पदोत्सव नाकोड़ा पार्श्वनाथ प्रभु के सान्निध्य में छम्मासी तपाराधन की तैयारियाँ की और तत्र विराजित खरतरगच्छ के बेगङ किया। तप जप के प्रभाव से आ शाखा के प्रभावक आचार्य श्रीगुणप्रभसूरिजी महाराज सित होने लगीं। चातुर्मास के पश्चात् आप गुजरात की से बड़े समारोह के साथ मिती भाद्रपद शुक्ल ६ गुरुवार के राजधानी पाटण पधारे । सं० १६१६ माघ सूदि ११ को दिन सतरह वर्ष की आयु वाले श्री सुमतिधीरजी को आचार्य बीकानेर से निकले हुए यात्री संघ ने, शत्रुञ्जय यात्रा से पद पर प्रतिष्ठित करवाया। गच्छ मर्यादानुसार आपका नाम लौटते हुए पाटण में जंगमतीर्थ-सूरिमहाराज की चरण श्री जिनचन्द्रसूरि प्रसिद्ध हुआ । उसो रात्रि में गुरु महाराज वन्दना की। श्रीजिनमा णिक्यसूरिजी ने दर्शन देकर समवशरण पुस्तिका उन दिनों गुजरात में खरतरगच्छ का प्रभाव सर्वत्र स्थित स म्नाय सूरि-मन्त्रविधि निर्देश पत्र की ओर संकेत विस्तृत था, पाटण तो खरतर विरुद प्राप्ति का और वसतिकिया।
वास प्रकाश का आ
सरि महाराज वहां ___ चातुर्मास पूर्ण कर आपश्री बीकानेर पधारे। मंत्री चातुर्मास में विराजमान थे, उन्होंने पोषध विधिप्रकरण पर संग्रामसिंह वच्छावत की प्रबल प्रार्थना थी, अत: संघ के ३५५४ श्लोक परिमित विद्वत्तापूर्ण टीका रची, जिसे उपाश्रय में जहाँ तीन सौ यतिगण विद्यमान थे, चातुर्मास महोपाध्याय पुण्यसागर और वा० साधुकी ति गणि जैसे न कर सूरिजीमंत्रीश्वर की अश्वशाला में ही रहे। उनका विद्वान गोतार्थो ने संशोधित की। युवक हृदय वैराग्यरस से ओत-प्रोत था। उन्होंने महान उस जमाने में तपागच्छ में धर्मसागर उपाध्याय एक चिन्तन-मनन के पश्चात् क्रान्ति का मूल-मंत्र क्रिया-उद्धार कलहप्रिय और विद्वत्ताभिमानी व्यक्ति हुए, जिन्होंने जैन की भावना को कार्यान्वित करना निश्चित किया।
समाज में पारस्परिक द्वेष भाव वृद्धि करने वाले कतिपय - मंत्री संग्रामसिंह का इस कार्य में पूर्ण सहयोग रहा, ग्रन्थों की रचना करके शान्ति के समुद्र सदृश जैन समाज सूरि महाराज ने यतिजनों को आज्ञा दी कि जिन्हें शुद्ध में द्वेष-वड़वाग्नि उत्पन्न को। उन्होंने सभी गच्छों के प्रति
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषवमन किया और सुविहित शिरोमणि नवाङ्ग वृतिकर्ता सं० १६२४ का चौमासा नाडोलाई किया, मुगल अभयदेवसूरि खरतरगच्छ में नहीं हुए, खरतरगच्छ की सेना के भय से सभी नागरिक इतस्ततः नगर छोड़कर उत्पत्ति बाद में हुई, यह गलत प्ररूपणा की; क्योंकि भागने लगे। सूरि महाराज उपाश्रय में निश्चल ध्यान में अभयदेवसूरि जी सर्वगच्छ मान्य महापुरुष थे और उन्हें बैठे रहे, जिसके प्रभाव से मुगल सेना मार्ग भूलकर अन्यत्र खरलरगच्छ में हुए अमान्य करके ही वे अपनी चित्त- चली गई । लोगों ने लौटकर सूरिजी के प्रत्यक्ष चमत्कार को कालुष्यवृत्ति-खण्डनात्मक दुष्प्रवृत्ति की पूर्ति कर सकते थे। देखकर भक्ति भाव से उनकी स्तवना की।
जब उनकी यह दुष्प्रवृत्ति प्रकाश में आई तो श्रीजिन- सं० १६२५ बापेऊ, १६२६ बीकानेर, सं० १६२७ का चन्मसूरिजो ने उसका प्रबल विरोध किया और धर्म सागर चातुर्मास महिम करके आगरा पधारे और सौरीपुर, उपाध्याय को समस्त गच्छाचार्यों की उपस्थिति में कार्तिक चन्द्रवाड़, हस्तिनापुरादि तीर्थो की यात्रा की। सं० १६२८ सुदि ४ के दिन शास्त्रार्थ के लिये आह्वान किया। पर वे का चातुर्मास आगरा कर १६२६ का रोहतक किया। पंचासरापाड़ा की पोशाल में छिप बैठे। दूसरी बार सं० १६३० के बीकानेर चातुमसि में प्रतिष्ठा व व्रतोकार्तिक सदि ७ को फिर धर्मसागर को बुलाया पर उनके न चारण आदि धर्म कृत्य हए । सं०१६३१-३२ का चातुर्मास भी आने पर चौरासी गच्छ श्रीका-गीतार्थो के समक्ष अभय- बीकानेर हआ। सं० १६३३ में फलौधी पार्श्वनाथ तीर्थ के देवसूरि के खरतरगच्छ में होने के विविध प्रमाणों सहित तालों को हाथ समर्श से खोल कर तीर्थ दर्शन किया । फिर 'मतपत्र' लिखा गया और उसमें समस्त गच्छाचार्यो की सही जेसलमेर चातुर्मास कर गेली श्राविका'दको ब्रतोच्चारण कर. कराके उत्सत्रभाषी धर्मसागर को निह्नव प्रमाणित कर जैन वाये । तदनन्तर देरावर पधारे और कुशल गरु के स्वर्गस्थान संघ से बहिष्कृत कर दिया गया।
की यात्रा कर वहीं चातुर्मास किया । १६३५ जेसलमेर, सं० इस प्रकार पाटण में पुनः शास्त्रार्थ विजय की सुवि हत
१६३६ बीकानेर, सं० १६३७ सेरूणा, सं० १६३८ बीकानेर पताका फहरा कर सूरिजी खभात पधारे। सं० १६१८ का
सं० १६३६ जेसलमेर, सं० १६४० आसनी कोट में चातुर्मास चातुर्मास करके सं० १६१६ में राजनगर-अहमदावाद पधारे ।
करके जेसलमेर पधारे । माघ सुदी ५ को अपने शिष्य महिमराज यहां मंत्रीश्वर सारंगधर सत्यवादी के लाये हुए विद्वत्ताभिमानी
जी को वाचक पद से अलंकृत 'कया। सं०१६४१ का चातुर्मास भट्ट की समस्यापूर्ति कर उसे परास्त किया। सं० १६२०
करके पाटण पधारे । सं० १६४२ का चातुर्मास कर शास्त्रार्थ का चातुर्मास बीसलनगर और सं० १६२१ का चातुर्मास
में विजय प्राप्त की । सं० १६४३ का चौमासा अहमदाबाद बीकानेर में किया। सं० १६२२ वै० शु० ३ को प्रतिष्ठा
कर के धर्मसागर के उत्सूत्रात्मक ग्रन्थों का उच्छेद किया। कराके चातुर्मास जेसलमेर किया। बीकानेर के मंत्री
सं० १६४४ में खंभात चातुर्मासकर अहमदाबाद पधारे सघपति संग्राम सिंह ने नागौर के हसनकुलोखान पर सन्धि-विग्रह सोमजी साह के संव सहित शत्रुञ्जयादि तीर्थों की यात्रा में जय प्राप्त कर सरि महाराज का प्रवेशोत्सव कराया। की। सं० १६४५ सूरत, स. १६४६ अहमदाबाद पधार सं. १६२२.२३ के चातुर्मास जेसलमेर में बिताकर खतासर और विजयादशमी के दिन हाजापटेल की पोल स्थिा। के चौपड़ा चांपसी-चांपलदे के पुत्र मानसिंह को मार्गशीर्ष
शिवा सोमजी के शांतिनाथ जिनालय की प्रतिष्ठा बडो कृ० ५ को दीक्षित किया । इनका नाम 'महिमराज' रखा, जो आगे चलकर सरि महाराज के पट्टधर श्रीजिन सिंहसरि नाग धूम-धाम से की। मन्दिर में ३१ पक्तियों का शिलालेख से प्रसिद्ध हुए।
लगा हुआ है एवं एक देहरी में संखवाल गोत्राय श्रावको
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
का लेख है । १६४७ में पाटण चौमासा किया श्राविका कोडां फलादेश दिया। बादशाह ने इस हिंसामय कार्य को अनुचित को व्रतोच्चारण करवाया। फिर अहमदाबाद होते हुए जानकर जैनविधि से ग्रहशांति अनुष्ठान करने का मंत्री खंभात पधारे।
कर्मचन्द्र को आदेश दिया। आपके त्याग-तपोमय जीवन और विद्वत्ता की सौरभ मंत्रीश्वर ने चैत्र सुदि १५ के दिन सोने चांदी के घड़ों अकबर के दरबार तक जा पहुँची। अकबर ने मंत्री से एक लाख के सद्व्यय से वाचक महिमराजजी के द्वारा कर्मचन्द्र को आदेश देकर एवं सूरि महाराज को शीघ्र सुपार्श्वनाथजी मन्दिर में शांति-स्नात्र करवाया। मंगलदीप लाहौर पधारने के लिये फरमान भिजवाये। सूरिजी खंभात और आरती के समय सम्राट और शाहजादा सलीम ने से अहमदाबाद पधारे। आषाढ़ सुदि १३ को लाहौर के उपस्थित होकर दस हजार रुपये प्रभुभक्ति में भेंट किये। लिए प्रस्थान कर महेशाणा, सिद्धपुर, पालनपुर होते हुए प्रभु का स्नात्रजल को अपने नेत्रों में लगाया तथा अन्तःपुर सीरोही के सुरतान देवड़ा की वीनति से सीरोही पधारे। में भी भेजा । सम्राट अकबर सूरिमहाराज को "बड़े गुरु" पर्यषण के ८ दिन सीरोही में बिताये । राव सुरतान नाम से पुकारता था, इससे उनकी इसी नाम से सर्वत्र ने पूर्णिमा के दिन जीवहिंसा निषिद्ध घोषित की। वहां से प्रसिद्धि हो गई। जालोर पधारे। बादशाह का फरमान आया कि आप एकबार नौरंगखान द्वारा द्वारिका के जैन मन्दिरों चौमासे बाद शीघ्र पधारे पर शिष्यों को पहले ही लाहोर के विनाश की वार्ता सुनी तो सुरिजी ने सम्राट को तीर्थभेज दें। सू रजी ने महिमराज वाचक को ठा० ७ से लाहौर माहात्म्य बतलाते हुए उनकी रक्षा का उपदेश दिया। भेजा । सरिजी चौमासा उतरने पर देछर, सराणा, भमराणी सम्राट ने तत्काल फरमान पत्र लिखवाकर अपनी मुद्रा खांडप, द्रु णाडा, रोहीठ पधारे। इन सब नगरों में बड़े २ लगाके मंत्रीश्वर को समर्पित कर दिया, जिसमें लिखा था नगरों का संघ वंदनार्थ आया था। गुरुदेव पाली, सोजत, कि आज से समस्त जैन तीर्थ मन्त्री कर्मचन्द्र के अधीन बोलाडा, जयतारण होते हुए मेड़ता पधारे। मंत्रीश्वर हैं। गजरात के सबेदार आजमखान को तीर्थरक्षा के लिए कर्मचन्द्र के पुत्र भाग्यचन्द, लक्ष्मीचन्द्रने प्रवेशोत्सवादि किये। सख्त हुक्म भेजा, जिससे शत्रुजय तीर्थ पर म्लेच्छोपद्रव का नागौर, बापेऊ, पड़िहारा, राजलदसेर, मालासर, रिणी, सरसा, निवारण हुआ। कसर होते हुए हापाणा पधारे । मंत्रीश्वर ने सूरिजी के लाहौर एकबार काश्मीर विजय के निमित्त जाते हुए सम्राट ने प्रवेश की बड़ी तैयारियाँ की। सं० १६४८ फा० शु० १२ के सरि महाराज को बुलाकर आशीर्वाद प्राप्त किया और दिन ३१ साधुओं के परिवार सहित लाहौर जाकर बादशाह आषाढ़ शक्का से पूर्णिमा तक बारह सूबों में जीवों को को धर्मोपदेश दिया। सम्राट, गुरु महाराज के प्रवचन से बड़ा अभयदान देने के लिए १२ फरमान लिख भेजे। इसके प्रभावित हुआ और प्रतिदिन ड्योढी-महल में बुलाकर
अनुकरण में अन्य सभी राजाओं ने भी अपने-अपने राज्यों में उपदेश श्रवण प्रारंभ किया। एकवार सम्राट ने गुरु महाराज के समक्ष एकसो स्वर्ण मुद्राएँ भेंट रखी जिसे अस्वीकार करने १० दिन, १५ दिन, २० दिन, महीना, दो महीना तक पर उनकी निष्पृहता से वह बड़ा प्रभावित हुआ। जीवों के अभयदान की उद्घोषणा कराई।
एकबार शाहजादा सलीम के मूल नक्षत्र में पुत्री उत्पन्न सम्राट ने अपने कश्मीर प्रवास में धर्मगोष्ठी व जीवहई तो ज्योतिषी लोगों ने उस पुत्री का जन्मयोग पिता के दया प्रचार के लिए वाचक महिमराज को भेजने की प्रार्थना लिए अनिष्टकारी बतला कर नदी में प्रवाहित करने का की। मंत्रीश्वर और श्रावक वर्ग साथ में थे ही अतः सूरिजी ने
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
लाभ जानकर मुनि हर्षविशाल और पंचानन महात्मा आदि धर्म की विधि के अनुसार उत्सव करने की आज्ञा दी । कर्मके साथ वाचकजी को भी भेजा। मिती श्रावण शुक्ल १३ चन्द्रने राजा रायसिंहजी की अनुमति पाकर संघ को को प्रथम प्रयाण राजा रामदास की वाड़ी में हुआ। एकत्र किया और संघ-आज्ञा प्राप्त कर फाल्गुण कृष्ण १० उस समय सम्राट, सलीम तथा राजा, महाराजा और से अष्टाह्निका महोत्सव प्रारम्भ किया और फाल्गुन शुक्ल २ विद्वानों की एक विशाल सभा एकत्र हुई जिसमें सूरिजी के दिन मध्याह्न में श्री जिनसिंहसूरि का आचार्य पद, वा० को भी अपनी शिष्य-मण्डली सहित निमन्त्रित किया। इस जयसोम और रत्ननिधान को उपाध्याय पद एवं पं० गुणसभा में समयसुन्दरजी ने 'राजानो ददते सौख्यं' वाक्य के विनय व समयसुन्दर को वाचनाचार्य पद से अलंकृत किया १०२२४०७ अर्थ वाला अष्टलक्षी ग्रन्थ पढ़कर सुनाया। गया। यह उत्सव संखवाल साधुदेव के बनाये हुए खरतर सम्राट ने उसे अपने हाथ में लेकर रचयिता को समर्पित गच्छोपाश्रय में हुआ । मन्त्रीश्वर ने दिल खोलकर अपार धन करके प्रमाणीभूत घोषित किया।
राशि व्यय की। सम्राट ने लाहोर में तो अमारि उद्घोकश्मीर जाते हुए रोहतासपुर में मंत्रीश्वर को शाही षणा की ही पर सूरिजी के उपदेश से खंभात के समुद्र के अन्तःपुर की रक्षा के लिए रुकना पड़ा। वाचकजी सम्राट असंख्य जलचर जीवों को भी वर्षावधि अभयदान देने का के साथ में थे। उनके उपदेश से मार्गवर्ती तालाबों के फरमान जारी किया। "युगप्रधान" गुरु के नाम पर जलचर जीवों का मारना निषिद्ध हुआ। कश्मीर के कठिन मंत्रीश्वर ने सवा करोड़ का दान किया। सम्राट के व पथरीले मार्ग में शीतादि परिषह सहते हुए पैदल चलने सन्मुख भी दस हजार रुपये, १० हाथी, १२ घोड़े और २७ वाले वाचकजी की साधुचर्या का सम्राट के हृदय में गहरा तुक्कस भेंट रखे जिसमें से सम्राट ने मंगल के निमित्त केवल प्रभाव पड़ा। विजय प्राप्त कर श्रीनगर आने पर वाचक १ रुपया स्वीकार किया। सूरिमहाराज ने बोहित्य संतति जी के उपदेश से सम्राट ने आठ दिन तक अमारि उद्- को पाक्षिक, चातुर्मासिक, व सांवत्सरिक पर्वो में जयतिहु प्रण घोषणा करवाई।
बोलने का व श्रीमालों को प्रतिक्रमण में स्तुति बोलने का सं० १६४६ के माघ में लाहोर लौटने पर सूरिजी ने आदेश दिया। राजा रायसिंहजी ने कितने ही आगमादि साधुमंडली सहित जाकर सम्राट को आशीर्वाद दिया। ग्रन्थ सूरिमहाराज को समर्पण किये जिन्हें बीकानेर ज्ञानसम्राट ने वाचक जी को कश्मीर प्रवास में निकट से देखा भण्डार में रखा गया। था अत: उनके गुणों की प्रशंसा करते हुए इन्हें आचार्य सूरिजी लाहोर में धर्म-प्रभावना कर हापाणा पधारे पद से विभूषित करने के लिए सूरिजी से निवेदन किया। और सं० १६५० का चातुर्मास किया। एक दिन रात्रि के __सूरिजी को सम्मति पाकर सम्राट ने मंत्री कर्मचन्द्र से समय चोर उपाश्रय में आये पर साधुओं के पास क्या रखा कहा-वाचकजी सिंह के सदृश चारित्र-धर्म में दृढ़ हैं अतः था? बीकानेर ज्ञानभण्डार के लिए प्राप्त ग्रन्यादि चुरा कर उनका नाम 'सिंहसूरि' रखा जाय और बड़े गुरु महाराज चोर जाने लगे तो सूरिजी के तपोबल से वे अन्धे हो गये के लिए ऐसा कौन सा सर्वोच्च पद है जो तुम्हारे धर्मानुसार और पुस्तके वापस आ गई। सम्राट के पास लाहौर में उन्हें दिया जाय । कर्मचन्द्र ने जिनदत्तसूरि जी का जीवनवृत्त जयसोमोपाध्यायादि चातुर्मास स्थित थे ही, सूरि महाराज बताया और उनके देवता प्रदत्त युगप्रधान पद से प्रभावित ने लाहोर आकर सं० १६५१ का चातुर्मास किया जिससे होकर अकबर ने सूरिजी को 'युगप्रधान' घोषित करते हुए जैन अकबर को निरन्तर धर्मोपदेश मिलता रहा। अनेक
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ४६ ]
शिलालेखादि से प्रमाणित है कि सूरि महाराज के उपदेश चातुर्मास किया, फिर अहमदाबाद आकर माघसुदि १० को से सम्राट ने सब मिलाकर वर्ष में छः महीने अपने राज्य में धनासुतार की पोल में, शामला की पोल में ओर टेमला की जीवहिंसा निषिद्ध की तथा सर्वत्र गोबध बंद कर गोरक्षा पोल में बड़े समारोह से प्रतिष्ठा करवायी। सं० १६५४ में की और शत्रुञ्जय तीर्थ को करमुक्त किया। शनुंजय पधार कर मिती जेठ शु० ११ को मोटी-टुं क-विमल
जहांगीर की आत्मजीवनी, डा० विन्सेष्ट ए. स्मिथ, वसही के सभा मण्डप में दादा श्री जिनदत्तसूरिजी एवं श्री पुर्तगाली पादरी पिनहेरो व प्रो० ईश्वरीप्रसाद आदि के जिनकुशलसूरि जी की चरणपादुकाएं प्रतिष्ठित की । वहां से उल्लेखों से स्पष्ट है कि सूरिजी आदि के सम्पर्क में आकर आकर, अहमदाबाद में चातुर्मास किया। सं० १६५५ का अकबर बड़ा दयालु हो गया था । सम्राट के दरबारी व्यक्ति चौमासा खंभात किया। सम्राट अकबर ने बुरहानपुर में सूरिजी अबुलफजल, आजमखान, खानखाना इत्यादि पर भी सूरिजी को स्मरण किया। फिर ईडर इत्यादि विचरते हुए अहमदाबाद का बड़ा प्रभाव था। धर्मसागर उपाध्याय के ग्रन्थ, जो आये। यहां मन्त्री कर्मचन्द का देहान्त हुआ। संवत कई बार अप्रमाणित ठहराये जा चुके थे, फिर प्रवचन- १६५७ पाटण चातुर्मास कर सीरोही पधारे, वहां माघ परीक्षा ग्रन्थ का विवाद छिड़ा जिसे अबुलफजल की सही सुदि १० को प्रतिष्ठा की। सं० १६५८ खंभात, १६५६ से निकाले हुए शाही फरमान से निराकृत किया जाना अहमदाबाद, सं० १६६० पाटण, सं० १६६१ में महेवा प्रमाणित है।
चातुर्मास किया । मिती मि०कृ ५ को कांकरिया कम्मा के सम्राट ने सूरिजी से पंचनदी के पांच पीरों-देवों को द्वारा प्रतिष्ठा कराने का उल्लेख है । सं० १६६२ में बीकानेर वश में करने का आग्रह किया क्योंकि जिनदत्तसूरि के पधारे । चैत्र कृष्ण ७ के दिन नाहटों की गवाड़ स्थित शत्रुञ्जयाकथा प्रसंग से वह प्रभावित था। सूरिजी सं. १६५२ का वतार आदिनाथ जिनालय की प्रतिष्ठा करवायी। सं० चातर्मास हापाणा करके मुलतान पधारे और चन्द्रवेलि १६६३ का चातुर्मास बोकानेर में हआ। सं० १६६४ पत्तन जाकर पंचनदी के संगम स्थान में आयंबिल व बैशाख सदि ७ को फिर बीकानेर में प्रतिष्ठा हई। संभवतः अष्टमतप पूर्वक पहुँचे।
यह प्रतिष्ठा महावीर स्वामी के मन्दिर की हुई थी। सूरिजी के ध्यान में निश्चल होते ही नौका भी निश्चल सं १६६४ का चातुर्मास लवेरा में हुआ। जोधपुर हो गई। उनके सूरि-मंत्र जाप और सद्गुणों से आकृष्ट होकर से राजा सुरसिंह वन्दनार्थ आये। अपने राज्य में सर्वत्र पांचनदी के पांच पीर, मणिभद्र यक्ष, खोड़िया क्षेत्रपालादि सूरिजी का वाजित्रों में प्रवेश हो, इसके लिए परवाना जाहिर सेवा में उपस्थित हो गये और उन्हें धर्मोन्नति-शासन प्रभावना किया। सं० १६६५ में मेड़ता चातुर्मास बिताकर अहमदामें सहाय्य करने का वचन दिया।
बाद पधारे। सं १६६६ का चातुर्मास खंभात किया । सूरिजी प्रात:काल चन्द्रवेलि पत्तन पधारे । घोरवाड़ सं १६६७ का चातुर्मास अहमदाबाद में करके सं १६६८ का साह नानिग के पुत्र राजपाल ने उत्सव किया। वहां से चातुर्मास पाटण में किया। उच्चनगर होते हुए देरावर पधारे और दादा साहब श्री इस समय एक ऐसी घटना हुई जिससे सूरिजी को वृद्धाजिनकशलसूरिजी के स्वर्ग-स्थान की चरण-वंदना की। वस्था में भी सत्वर विहार करके आगरा आना पड़ा। बात तदनंतर श्री जिनमाणिक्यसूरिजी के निर्वाण-स्तूप और नवहर यह थी कि जहांगीर का शासन था, उसने किसी यति के पुर पार्श्वनाथ को यात्रा कर जेसलमेर में सं० १६५३ का अनाचार से क्षुब्ध होकर सभी यति-साधुओं को आदेश दिया
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ४७ ]
इस
कि वे गृहस्थ बन जाय अन्यथा उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाय । इस आज्ञा से सर्वत्र खलबली मच गई। कोई देश देशान्तर गये और कई भूमिगृहों में छिप गए । समय जैन शासन में आपके सिवा कोई ऐसा प्रभावशाली नहीं था जो सम्राट के पास जाकर उसकी आज्ञा रद्द करवायै । आगरा संघ ने आपको पधार कर यह संकट दूर करने की प्रार्थना की। सूरिजी पाटण से आगरा आकर बादशाह से मिले और उसका हुक्म रद्द करवाके साधुओं का विहार खुला करवाया । सं० १६६६ का चौमासा आगरा किया। इस चोमासे में बादशाह से सूरिजी का अच्छा संपर्क रहा और शाही दरबार में भट्ट को शास्त्रार्थ में परास्तकर "सवाई युगप्रधान भट्टारक" नाम से प्रसिद्धि प्राप्त की ।
चातुर्मास के पश्चात् सूरिजी मेड़ता पधारे। बीलाड़ा के संघ को विनती से आपने बिलाड़ा चातुर्मास किया। आपके साथ सुमति कल्लोल, पुण्यप्रधान मुनिवल्लभ, अमीपाल आदि साधु थे । पर्युषण के बाद ज्ञानोपयोग से अपना आयु शेष जान कर शिष्यों को हित शिक्षा देकर अनशन कर लिया । चार प्रहर अनशन पाल कर आश्विन बदि २ के दिन स्वधाम पधारे। आपकी अंत्येष्टि बाणगंगा के तट पर बड़े धूम धाम से की गई। अग्नि प्रज्वलित हुई और देखते-देखते आपकी पावन तपः पूत देह राख हो गई पर आपकी मुखवस्त्रिका नहीं जली। इस प्रकट चमत्कार को देख कर लोग चकित हो गए सूरिजी के अभिसंस्कार स्थान में स्तूप बना कर चरण प्रतिष्ठा की गई । आपके पट्ट पर आचार्य श्री जिन सिंहसूर बैठे 1
महान् प्रभावक होने से आप जैन समाज में चौथे दादाजी नाम से प्रसिद्ध हुए। आपके चरणपादुका, मूर्तियां जेसलमेर बीकानेर, मुलतान, खंभात, शत्रुंजय आदि अनेक स्थानों में प्रतिष्ठित हुई। सूरत, पाटण, अहमदाबाद भरौंच, भाइखला आदि गुजरात में अनेक जगह आपकी स्वर्ग तिथि 'दादा दूज' कहलाती है और दादावाड़ियों में मेला भरता है ।
सूरिजी के विशाल साधु साध्वी समुदाय था । उन्होंने ४४ नंदि में दीक्षा दी थी, जिससे २००० साधुओं के समु दाय का अनुमान किया जा सकता है। इनके स्वयं के शिष्य ६५ थे । प्रशिष्य समयसुंदरजी जैसों के ४४ शिष्य थे । और इनके आज्ञानुवर्त्ती साधु सारे भारत में विचरते थे। आपने स्वयं राजस्थान में २६, गूजरात मैं २०, पंजाब में ५ और दिल्ली आगरा के प्रदेश में ५ चातुर्मास किये थे ।
उस समय खरतरगच्छ की और भी कई शाखाएं थीं जिनके आचार्य व साधु समुदाय सर्वत्र विचरता था । साध्वियों की संख्या साधुओं से अधिक होती है अतः समूचे खरतरगच्छ के साधुओं की संख्या उस समय पांच हजार से कम नहीं होगी ।
आप स्वयं विद्वान थे और आपके साधु समुदाय ने जो महान् सहित्य सेवा की है इसका कुछ विवरण हमने "युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि" ग्रन्थ में स्वतंत्र प्रकरण में दिया है तथा आपके शिष्य - शिष्य व आज्ञानुवर्त्ती साधुओं का भी यथाज्ञान विवरण दिया गया है । आपका भक्त श्रावक समुदाय भी बहुत ही उल्लेखयोग्य रहा है जिन्होंने मंदिर - मूर्ति निर्माण, संघयात्रा, ग्रन्थलेखन और शासन - प्रभावना में अपने न्यायोपर्जित द्रव्य का दिल खोल के उपयोग किया ।
आपके भक्त श्रावकों में मंत्रीश्वर कर्मचन्द्र उस समय के बहुत बड़े राजनीतिज्ञ, महान् दानी, धर्म-प्रिय एवं गुरु- भक्त थे, जिन्होंने जिन सिंहसूरि के पदोत्सव में सवा करोड़ का दान देकर एक अद्वितीय उदाहरण उपस्थित किया । उनके सम्बन्ध में जयसोम ने 'कर्मचन्द्र मंत्रिवंश प्रबन्ध' एवं उनके शिष्य गुणविनय ने उसपर वृत्ति तथा भाषा में रास की रचना कर अच्छा प्रकाश डाला है ।
इसी प्रकार पोरवाड़ जातीय अहमदाबाद के संघपति सोमजी भी बड़े धर्म निष्ट थे । उन्होंने अहमदाबाद के कई पोलों में जैनमंदिरों के निर्माण के साथ-साथ शत्रुंजय का बड़ा संघ निकाला एवंव हां खरतर वसही में विशाल चौमुख जिनालय का निर्माण कराया, जिसकी प्रतिष्ठा उनके पुत्ररूपजी
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
युगप्रधान श्रोजिनचन्द्रसरि --
اون و کارکنان در
و
: امکان دارد که در پنسرین
ने श्रीजिनराजसूरिजी के करकमलों से बड़ेधूमधाम से करवायी। सं० सोमजी की स्वधर्मी-भक्ति भी विशेष रूप से उल्लेखनीय है । इनके व इनके रूपजी के सम्बन्ध में श्रीवल्लभ उपाध्याय ने एक प्रशस्ति काव्य की संस्कृत में रचना की है । खेद है कि वह पूर्ण रूप से उपलब्ध नहीं हो सका, प्राप्त अंश राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर से प्रकाशित हुआ है। कविवर समयसुन्दर ने भी भावपूर्ण सं० सोमजी वेलि की रचना की है।
सूरिजी के अन्य भक्त श्रावकों ने भी जिनशासन के उत्कर्ष में बड़ा योगदान दिया। बीकानेर के लिगा गोत्रीय सतीदास ने शत्रुजय पर विमलवसही में "खरतर-जय-प्रासाद"जिनालय निर्माण कराया एवं भत्ता तलहटी के सामने सतीवाव भी उन्हीं की बनवायी हुई है।
गिरनारजी पर दादा साहब की देहरी बनाकर गुरुदेवों के चरण विराजमान करनेवाले बोथरा परिवार व अन्य अनेक श्रावकों में लौद्रवा तीर्थोद्धारक थाहरूसाह, महेंवा में जिनालय निर्माता कांकरिया कमा, जूठा कटारिया, मेडता के चौपड़ा आसकरण तथा बीकानेर, अहमदावाद आदि के अनेक धर्मप्रेमी श्रावकों का उल्लेख यहां सीमित स्थान में संभव नहीं।
ثبت نام و اراده ای است در این دوربین بازیگرانی هستم و نه از انسان نے مارا میری ناب از بدن را که در کشوری با ما را به به نام پرستار و کردار ادا کی ہیں ۔ ان مامان داده به نام بانی برای کناره ها
ها برای تهران را تهدید می کند. من با
ک نیم به ایران فرار ہو یا اس کو ایک دو بار است
یه دریا اور
بیان این جزم و برای ریاست را در مسیر برجر
عمودی و پاسداری اور معناداری و درمانی به مردم
अष्टाह्निकामादि शाही फरमान नं० १
यु० जिनचन्द्रसूरिजी को सम्राट अकबर जो अष्टाह्निका के अमारि का फरमान दिया था उसकी प्रतिकृति सामने दी जा रही है। इस फरमान का सारांश यह है कि - "शुभचिन्तक तपस्वी जिनचन्द्रसूरि खरतर हमारे पास रहते थे। जब उनकी भगवदभक्ति प्रकट हई तो हमने उनको बड़ी बादशाही की महरवानियों में मिला लिया और अपनी आम दया से हुक्म फरमा दिया कि आषाढ़ शुक्ल ६ से १५ तक कोई जीव न मारा जाय और न कोई आदमी किसी जानवर को सतावे । असल बात तो यह है- जब परमेश्वर ने आदमी के बास्ते भांति-भांति के ।
पदार्थ उपजाये हैं तब वह कभी किसी जानवर को दुख न दे और अपने पेट को पशुओं का मरघट न बनावे ।"
"बड़े-बड़े हाकिम जागीरदार और मुसद्दी जान लें कि हमारी यही मानसिक इच्छा है कि सारे मनुष्यों और जीव-जन्तुओं को सुख मिले जिससे सब लोग अभन चैन से रह कर परमात्मा की आराधना में लगे रहें।"
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
दादा गुरुओं के प्राचीन चित्र
[भंवरलाल नाहटा]
आर्य संस्कृति में गुरु का पद अत्यन्त महत्वपूर्ण है। में, लोगों के घरों में दादासाहब के चित्र हजारों की परमात्मा का परिचय कराने वाले तथा आत्मदर्शन कराने संख्या में हाथ के बने हुए पाये जाते हैं और अब यंत्र युग वाले गुरु ही होते हैं । यों तो गुरु कई प्रकार के होते हैं पर में तो एक-एक प्रकार के हजारों हो जाय, यह स्वाभाविक जैनदर्शन में उन्हों सद्गुरु को सर्वोच्च स्थान दिया गया है है। इस लेख में हमें दादा साहब के जीवनवृत्त से सम्बन्धित जो आत्मद्रष्टा हैं। जिसने मार्ग देखा है वही मार्ग दिखा चित्रों का संक्षिप्त परिचय कराना अभीष्ट है जिससे हमारे सकता है क्योंकि दीपक से दीपक प्रकट होता है। हजारों इस कलात्मक और ऐतिहासिक अवदान पर पाठकों का बुझे हुए दीपक कोई कामके नहीं, जागती ज्योति एक ही विहंगावलोकन हो जाय । विश्व को आलोकित कर सकती है। भगवान महावीर के जो तत्त्व व्याख्यान द्वारा या लेखन द्वारा सो पृष्ठों पश्चात् अनेक सदगुरुषों ने जैन-शासन का उद्योत किया में नहीं समझाया जा सकता उसे एक ही चित्रफलक को है व धर्म को बचाकर अक्षुण्ण रखा है। पंचमकाल में ऐसे देख कर या दिखाकर आत्मसात् किया व कराया जा सकता २००४ युगप्रधान क्षायिक द्रष्टा पुरुष होंगे ऐसा शास्त्रों है। चित्र-विधाओं में भित्तिचित्रों का स्थान सर्वप्रथम में वर्णन है। खरतरगच्छ में कई युगप्रधान सद्गुरु हुए है। प्रागैतिहासिक कालीन गुफाओं के आडे टेढे अंकन हैं जिनमें चारों दादा-गुरुओं का नाम बड़े आदर के साथ से लेकर अजन्ता, इलोरा, सित्तनवासल आदि विकसित लिया जाता है, उनकी हजारों दादावाड़ियां और मूर्ति, कलाधामों और राजमहलों, सेठों-र ईसों के घरों व मन्दिरचरण-पादुके आदि आज भी पूज्यमान हैं ।
दादावाड़ियों के भित्ति-चित्र भी अपनी कला-सम्पत्ति को आत्मदर्शन प्राप्ति के लिए सद्गुरु की पूजा-भक्ति चिरकाल से संजोये हुए चले आरहे हैं। दादासाहब के अनिवार्य है। अतः भक्त लोग आत्मकल्याण के उद्देश्य जीवनवृत्त संबन्धी चित्र अधिकांश मन्दिरों तथा दादासे गुरु-भक्ति में संलग्न रहने से निष्काम सेवाफल अवश्य वाड़ियों में ही पाये जाते हैं । जीर्णोद्धार आदि के समय प्राप्त करते हैं। जैसे धान्य के लिए खेती करने वाले को प्राचीन चित्रों का तिरोभाव होना अनिवार्य है । पर इस घास तो अनायास ही उपलब्ध हो जाती है, उसी प्रकार परम्परा का विकास होता गया और आज भी मन्दिरों, पुण्य-प्राग्भार से इहलौकिक कामनाएं भी पूर्ण हो ही दादावाड़ियों में जीवनवृत्त के विभिन्न भावों वाले चित्रों जाती हैं। पूजन-आराधन के लिए जिस प्रकार प्रतिमा- का निर्माण होना चालू है । बोकानेर, रायपुर, भद्रावती, पादुकादि आवश्यक है उसी प्रकार चित्र-प्रतिकृति भी दर्शन उदरामसर, भद्रेश्वर आदि अनेक स्थानों के भित्तिचित्र सुन्दर के लिए व वासक्षेप पूजादि के लिए आवश्यक है। तीर्थकर व दर्शनीय हैं । चित्रावली के साथ गुरु-मूर्ति पादुकाओं को रखने की दादासाहब के चित्रों में दूसरी विधा काष्ठफलकों प्रथा प्राचीन काल से चली आती है। आज भी मन्दिरों की है जिनका प्रारम्भ श्री जिनवल्लभसूरिजी, श्री जिनदत्त
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूरिजी के चित्रों से होता है। इसके बाद कलिकाल के प्रारम्भ से मंत्र, संत्र खाम्नाय गर्भित अनेक प्रकार के सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य कुमारपाल एटं वादिदेवसूरि-कुमुदचन्द्र के वस्त्र-पट चित्र पाये जाते हैं। तीर्थपट्ट, सूरिमन्त्र पट्ट शास्त्रार्थ के भाव वाले काष्ठफलक पाये जाते हैं । दादा- व वर्द्धमान विद्या पट्ट में भी गुरुओं के चित्र है। हमारे साहब के चित्रित-काष्ठफलकों का परिचय श्री जैन श्वेता- संग्रह का श्री चिन्तामणिपार्श्वनाथ पट्ट जो संवत् १४०० के म्बर पंचायती मन्दिर, कलकत्ता के सार्द्ध शताब्दी स्मृति- आमपास का है, चित्रित है। उसमें श्रीतरुणप्रभसूरिजी ग्रन्थ में मैंने प्रकाशित किया है पर एक महत्त्वपूर्ण काष्ठफलक महाराज और उनके शिष्य का महत्वपूर्ण चित्र अंकित हैं। जिसपर श्री जिनदत्तसूरिजी और त्रिभुवनगिरि के यादव गत दो ढाई सौ वर्षों में दादासाहब के स्वतंत्र चित्र
राजा कुमारपाल का चित्र है और जो जेसलमेर के बड़े बने हुए मिलते हैं जो मन्दिरों, दादावाड़ियों, उपाश्रयों, भण्डार में था पर अब श्री थाहरूशाह के भण्डार में लोगों के मकानों और राजमहलों तक में टंगे हुए पाये जाते वर्तमान है, अब तक प्राप्त कर प्रकाशित न कर सकने का हैं। उन चित्रों में दादासाहब के जोवन चरित की महत्वहमें खेद है।
पूर्ण घटनाएं चित्रित हैं। बीकानेर दुर्ग-स्थित महाराजा पुरातत्त्वाचार्य निनविजयजी के 'भारतीय-विद्या' के गजसिंहजो के मल गजमन्दिर में श्रीजिनचन्द्रसूरि सिंधीजी के संस्मरणांक में एवं हमारे युगप्रधान जिनदत्तसूरि (चतुर्थदादा) और अम्बर बादशाह के मिलन का चित्र लगा ग्रन्थ में प्रकाशित चित्र भी उस समय के आचार्य व श्रमण- हआ है। इसके अतिरिक्त यति जयचन्दजी के संग्रह में, श्रमणी वर्ग के नामोल्लेख युक्त होने से महत्त्वपूर्ण हैं। हमारे श्री जिनचारित्रसुरिजी के पास, बद्रीदासजी के मन्दिर अभय जैन ग्रन्थालय - शंकरदान नाहटा कलाभवन का चित्र कलकत्ता में, पूरणचन्द्र जी नाहर के संग्रह में पंचनदी इन सब चित्रों में प्राचीन है जो दादासाहब के आचार्य पद साधन के एवं लखनऊ, जीयागंज आदि अनेक प्राप्ति ११६६ से पूर्व अर्थात् सं० ११५० के आस-पास का स्थानों में प्राचीन चित्र पाये जाते हैं। उन्हीं के अनुकरण है । पुरातन चित्रकला की दृष्टि से ये उपादान अत्यन्त में तपागच्छ य श्रीमान् हीर विजयसृरिजी महाराज और मूल्यवान हैं।
अकबर मिलन के चित्र भी पिछले पचास वर्षों में बनने ___ काष्ठफलकों के पश्चात् ग्रन्थों में चित्रित पूर्वाचार्यों के प्रारम्भ हुए हैं। प्रसिद्ध वक्ता व लेखक मुनिवर्य श्री विद्याचित्रों में हेमचन्द्राचार्य-कुमारपाल के चित्रों के पश्चात् विजयजी महाराज ने अपने लखनऊ चातुर्मास में सर्वप्रथम खंभात भण्डार स्थित श्रीजिनेश्वरसूरि ( द्वितीय ) का हीरविजयसूरिजी और अकबर का चित्र निर्माण कराया था। चित्र अत्यन्त महत्व का है जो हमारे ऐतिहासिक जन काव्य खरतरगच्छ में चारों दादासाहब एवं जिनप्रभसूरिजी संग्रह में मुद्रित है। तत्पश्चात् कल्पसूत्र, शालिभद्र चौपाई और सुलतान मुहम्मद बादशाह के मिलन सम्बन्धी जितने आदि ग्रन्थों में श्री जिनराजसूरि, श्री जिनरंगसूरि आदि के चित्र पाये जाते हैं उनमें लोकप्रवाद और स्मृति दोष से एक चित्र उपलब्ध हैं। सिंघीजी के संग्रह के शाही चित्रकार का जीवनवृत्त दूसरे से सम्बन्धित समझकर घटा विपर्यय शाहिवाहन चित्रित शालिभद्र चौपाई के ऐतिहासिक चित्र अंकित हो गया है पर हमें यहाँ उसके ऐतिहासिक विश्लेकाल्पनिक न होकर असली है । अठारहवीं-उन्नीसवीं शती के षण में न जाकर लोकमान्यता और श्रद्धा-भक्ति द्वारा विज्ञप्ति-पत्रों में जैनाचार्यों के संख्याबद्ध चित्र संप्राप्त हैं जो निमित चित्रों का परिचय देना ही अभीष्ट है। ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं । पन्द्रहवीं शताब्दी सौ वर्ष पूर्व जयपुर के रामनारायणजी तहबीलदार
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
। ५१ ] के रास्ते में रहने वाले गणेश मुसव्वर ( चित्रकार ) को (१) १ शासन देवताने कोकड़ी ६ दोनो (२) श्री बंगाल में बुलाया गया और उसने बालूचर व कलकत्ता में अभयदेवसूरि (३) पोशाल (२) अभयदेवसूरि (३) लगभग पन्द्रह वर्ष रहकर सैकड़ों जैनचित्रों का निर्माण १ जयतिहुअण स्तवना करी श्री थंभणा पार्श्वनाथजी प्रगट किया। वे चित्र कलासमृद्धि में अपूर्व और मूल्यवान हैं। भया जमीन से, णवण कराया ४ पखाल छोंटता रोग गया यदि उन समस्त चित्रों का सांगोपांग वर्णन लिखा जाय रक्तपित्तीका । तो सैकड़ों पेज हो सकते हैं पर हम यहां केवल दादासाहब (२) श्री जिनदत्तसूरि, श्री जिनकुशलसूरि-यह चित्र आदि के चित्रों का ही संक्षिप्त परिचय दे रहे हैं।
७५४ १७ इंच का है जिसमें दोनों दादा गुरुओं के चित्रों में १ श्री अभयदेवसूरिजी-यह चित्र ७३४१७ इच विभिन्न भाव हैं। चित्र के वाम पार्श्व में श्री जिनदत्तसूरिजी का है। इस चित्र में दाहिनी ओर नगर का दृश्य है जिसके महाराज विराजमान हैं जिनके समक्ष ५२ वीर [१८] तीनों ओर परकोटा और दो दरवाजे दृष्टिगोचर होते हैं। एवं पृष्ठ भाग में ६४ योगिनी ( २४ ) अवस्थित हैं । गुरुनगर के तीन स्वर्णमय शिखर वाले जिनालयो पर ध्वजादण्ड देवके आगे स्थापनाजी एवं हाथ में मुखवस्त्रिका है । दूसरा सुशोभित है। सामने पोषधशाला में श्री अभयदेवसूरिजी पंचनदी का भाव है जिनके तटपर पाँच मन्दिर बने हुए महाराज विराजमान हैं जिनके समक्ष श्यामवर्णवाली है। पाँचों पीर गुरुदेव के समक्ष करबद्ध खड़े हैं। तीसरा शासनदेवी उपस्थित है जिसके सुनहरे जरो के वस्त्र व मुकुट अजमेर के उपाश्रय का है जिसमें गुरुदेव अपने ६ शिष्यों के अलंकारादि पहने हुए हैं । शासन देवो नौ कोकड़ी सुलझाने साथ प्रतिक्रमण कर रहें हैं और कड़कती हुई बिजली को के लिए आचार्यश्री को दे रही है। बाहर अभयदेवसूरि जी पात्र के नीचे दबा देते हैं। चौथा भाव गुरुदेव के नगर महाराज अपने दश शिष्यों के साथ विहार करके जा रहे प्रवेश का है, घोड़े के नीचे दबकर मरे हुए मुगलपुत्र को हैं । साथ में आठ श्रावक तथा दो बालक भी चल रहे हैं। तीन मुसलमान उठाकर लाते हैं। वृक्ष के नीचे बैठे हुए सूरि महाराज एक पलाश वृक्ष के नोचे जयतिहुअण स्तोत्र द्वारा गुरुदेव उसे मंत्रशक्ति से जिला देते हैं। पाँच मुसलमान प्रभु की स्तवना करते हैं । पास में ६ साधु बैठे हैं और सात करबद्ध खड़े हैं। गुरुदेव के पृष्ठ भागमें पाँच शिष्य बैठे हैं श्रावक खड़े हैं । जंगल में जहां गाय का दूध झरता था, गुरुदेव के विहार में पीछे छत्रधारी व्यक्ति व नौ शिष्य दिखाये स्तंभन पार्श्वनाथ स्वामी की प्रतिमा प्रकट होती है । एक हैं, सामने १६ श्रावक चल रहे हैं जिनकी पगड़ी पर शिरपेच श्रावक के हाथ में प्रतिमा है। फिर सिंहासन पर विराज- बंधे है, लम्बे श्वेत जामे पहिन कर कमरबंद व उतरासत मान करके श्रावक लोग स्वर्णकलशों से अभिषेक करते हैं। लगाया हआ है। दो श्रावक प्रभुको न्हवण कराते हैं, चार श्रावक कलश लिये पाँचवाँ भाव श्रीजिनकुशलसूरिजी से सम्बन्धित खड़े हैं। एक श्रावक फिर प्रभु का न्हवण जल लाकर मालूम देता है। नगर के मध्य में गुरुदेव उपाश्रय में प्रवचन सूरिजी के ऊपर छींटता है जिससे रोग निवारण हो जाता कर रहे हैं । पाँच साधु सामने खड़े हैं, सात श्रावक बेठे है। पृष्ठभूमि में खजूर, ताड़, आम्र, अशोकादि के वृक्ष हुए व्याख्यान सुन रहे हैं, भक्त की दुखभरी पुकार सुन कर विद्यमान हैं । मैदान और टीलों पर कहीं-कहीं हरियाली डूबती हुई नौका को किनारे के दृश्य में हाथ के सहारे से छाई हुई है। चित्र परिचय में निम्नोक्त वाक्य लिखे हुए तिरा देते हैं। चित्रकार ने चित्र-परिचय रूप कुछ भी नहीं
लिखा है।
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ५२ । ३ श्री जिनचन्द्रसूरि ( अकबर प्रतिबोधक)- (३) दादा श्री जिनप्रभसूरिजी काजी की टोपी अकबर यह चित्र ७४॥ X १६॥ इन्च लम्बा है। इसमें नगर के (?) के दरबार में । चार दरवाजे हैं जिनमें दो दोनों ओर व दो पास-पास ही श्री जिनप्रभसूरि मुगल की टोपी उतारी आसमान सुं दिखाये हैं। नगर के कुछ मकान व गुंबजदार मस्जिद हैं वधा सु भाव । तथा उपाश्रय का भाव भी दिखाया है। नगर के मध्य में (४) दादा श्री जिनचन्द्रसूरिजी थाली आकाश में शाही दुर्ग-राजप्रासाद है जिसके बाहर दो संतरी पहरा अकबर के दरबार में । शासन देवी द्वारा थाली का प्रदान । दे रहे हैं । महल के बाँयें कक्ष में चौकी पर श्री जिनचंद्र- श्री जिन मणीयाला चन्द्रसूरिजी चन्द्रमा उगायो थाल चढ़ासूरिजी व उनके पृष्ठ भाग में ७ शिष्य बैठे हैं । सामने कर, सो भाव । सिंहासन पर बादशाह बैठा है जिसके पोछे चारव्यक्ति पंखा, (५) श्री जिनदत्तसूरिजी उज्जैन नगरी थांभ फाड़ पोथी किरणिया-आदि राजचिन्हधारी तथा दो उमराव बैठे हैं। निकाली । सामेला करके उज्जैन नगरी में पधारते हैं । सूरिजी के पास एक काली बकरी और दो श्वेतरंग के बच्चे (६) श्री जिनदत्तसूरिजी मुलतान में पांच नदी पांच खड़े हैं । महल के दूसरे कक्ष में भी इसी भाव का चित्र है पर पोर वश किया। सूरिजी और सम्राट को आसमान की ओर देखते दिखाये (७. श्री जिनकुशलसूरिजी महाराज दरियाव में जगत हैं जिससे मालूम होता है कि काजी की टोपी वाला भाव सेठ को जहाज तिरायो । चित्रित करना चित्रकार भूल गया है। उपाश्रय (८) श्री जिनदत्तसूरिजी बादशाह सुं भैसा के मुख सुं कक्ष में शासनदेवी सरिजी को थाल अर्पित करती है जिसे बात कराई सो भाव। आसमान में स्थित चन्द्रोदय देख कर सब लोक विस्मित हो जीयागंज के श्री संभवनाथ जिनालय में २७४ १५ जाते हैं। उपाश्रय में चार साधु व एक श्रावक भी विद्य- साइज के दो चित्र लगे हुए हैं जिनमें एक श्री जिनदत्तमान है । खड़े हुए तीन श्रावकों में एक व्यक्ति हाथ ऊँचा सूरिजी और दूसरा श्री जिनकुगलमूरिजो के जीवनवृत्त से करके अमावस्या का चन्द्रोदय बता रहा है। नगर के संबन्धित है। श्री जिनदत्तसूरिजी के चित्र में बावन वीर, बाहर अश्वारोही व ऊंट सवार दोनों ओर दौड़ते हुए जा चौसठ योगिनी; पंचनदी-पंचपीर, बिनली वश कीधी,
उच्चनगर, बड़नगर, अंबड़ हाथे अक्षर आदि के ७ भाव हैं। जीयागंज के श्री विमलनाथजी के मन्दिर स्थित दादा श्री जिनकुशलसूरिजी के चित्र में 'जीहाजतारी' के भाव के जी के मन्दिर में काठगोला से आये हुए निम्नोक्त महत्व- अतिरिक्त एक में युद्ध चित्र, एक में नगर के उपाश्रय में पूर्ण चित्र लगे हुए हैं। ये चित्र भी यशस्वी चित्रकार विराजमान गुरुदेव व बाह्य दृश्य भी हैं पर चित्र परिचय गणेश के बनाये हुए हैं। परिचय इस प्रकार लिखा है : नहीं दिया है।
(१) कलम गणेश चतेरा की साकीन जयपुर ठि, कलकत्ता के श्री महावीर स्वामी के मंदिर में भी चारचांद गोल दरवाजा खेजड़ा के रस्ते रामनारायणजी तवील- पांच चित्र हैं। जिनमें एक छोटा चित्र मणिधारी जिनचन्द्रसूरिजी दार के पास'बावन वीर चौसठ जोगनो" दादा श्रीजिनदत- और सामने बादशाह (राजा मदनपाल) अपने मुसाहिबों के सूरिजो । साइज १८४२२ ।
साथ है। चाँदा-चन्द्रपुर के जिनालयस्थ दादा देहरी में (२) अजमेर में बिजली पात्र के नोचे।
मगिवारोजी महाराज का वित्र लगा हुआ है। यों छोटे
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ५३ ]
मोटे बहुत से दादा साहब के प्राचीन चित्र पाए जाते हैं । लखनऊ में भी दादा साहब के चित्र देखे स्मरण है ।
प्राचीन चित्रकला के चित्रों का परिचय देने के पश्चात् उसी के अनुकरण में वर्तमान के यशस्वी और भारत विश्रुत चित्रकार श्री इन्द्रदूगड़ का बनाया हुआ विशाल और कला - पूर्ण चित्र कलकत्ता- दादावाड़ी में लगा हुआ है जिसमें बड़े दादासाहब के जीवनवृत्त से सम्बन्धित कई भाव चित्रित हैं | व्याख्यान वाचस्पति मुनि श्री कान्तिसागरजी ने पहले भांदकजी में मित्ति चित्र बनवाये थे और तत्पश्चात् 'श्री जिन गुरु-गुण-सचित्र पुष्पमाला' पुस्तक में इकरंगे और तिरंगे चित्रों का भी प्रकाशन करवाया जिसमें चारों दादा साहब के २४ तिरंगे एवं २ काष्टफलक चित्र प्रकाशित हुए हैं।
विर्य हेमेन्द्र नागरजी के पत्रानुसार सूरत में श्री जिनदत्तसूरि ज्ञानभण्डार में कतिपय चित्र लगे हैं जिनमें १७ × १७ इंच के ( १ ) क्षमाकल्याणोपाय व मुन्नालाल जोहरी व (२) जिनलाभसूरिजी का चित्र दो ढाई सौ वर्ष प्राचीन हैं । एक बड़े चित्र में बीच में जिनचन्द्रसूरिजी दाहिनी ओर अभयदेवसूरिजी बांई तरफ जिनवल्लभसूरिजी
। दूसरे में वर्द्धमानसूरिजी ( मध्य में )
जिनेश्वरसूरिजी
( दाहिने) और बुद्धिसागरसूरिजी ( बांयें ) हैं । एक चित्र मणिधारीजी का है जिसमें बादशाह सामने खड़ा दिखाया गया है । चौथे दादा श्री जिनचन्द्रसूरिजी के चित्र में अकबर मिलन का भाव चित्रित है । ये चित्र ५५-६० वर्ष पुराने हैं और श्री जिनकृपाचन्द्रसूरिजी के उपदेश से बने हुए हैं ।
और भी दादासाहब व दूसरे खरतरगच्छाचार्यों के चित्र उपाश्रयों आदि में पर्याप्त पाये जाते हैं जिन्हें शोधपूर्वक प्रकाश में लाना चाहिए ।
1
मुनि जिनविजयजी के प्रकाशित जिनदत्तसूरिजी के चित्रमय काष्ठफलक के तीन ब्लॉक 'भारतीय विद्या'- निबन्ध संग्रह में प्रकाशित हुए हैं । इनमें से जिनदत्तसूरि सम्बन्धी दो यहां प्रकाशित कर रहे हैं । इनका विवरण मुनिजी ने इस प्रकार दिया है :
इस पट्टिका के बांये और दाहिने भाग में चित्रित दृश्यों के दो खंड हैं । इन दोनों खण्डों में जिनदत्तसूरिजी की व्याख्यान-सभा का आलेखन है । इसके ऊपर वाले चित्र - खण्ड में मध्य में श्री जिनदत्तसूरि विराजमान हैं और उनके सन्मुख पं० जिनरक्षित बैठे हैं। जिनरक्षित के पीछे दो श्रावक हैं एवं श्रीजिनदत्तसूरिजी के पृष्ठ भाग में एक श्रावक और दो श्राविकाए बैठी हैं । नीचे वाले चित्रखण्ड में मध्य में श्री जिनदत्तसूरि और उनके सम्मुख श्रीगुणसमुद्राचार्य और उनके पीछे एक मुनि और एक श्रावक बैठा है । जिनदत्तसूरि के पृष्ठ भाग में दो श्रावक बैठे हैं । सूरिजी के सामने स्थापनाचार्य रखे हैं, जिनपर 'महावीर ' अक्षर लिखे हुए हैं ।
इस चित्रावली से विदित होता है कि यह सचित्र काष्ठपट्टिका श्रीजिनदत्तसूरिजी के निजी संग्रह की किसी ताड़पत्रीय पुस्तक की है । किसी भक्त श्रावक ने उन्हें किसी बड़े और महत्वपूर्ण ग्रन्थ को लिखाकर भेंट किया था, जिसके ऊपर की यह एक सुन्दर चित्रालंकृत पटड़ी है । संभव है कि इसमें आलेखित स्त्रीपुरुष इस ग्रन्थ को भेंट करने वाले श्रावक परिवार के ही मुख्य व्यक्ति हो ।
जिनालय में सूरिजी ने एक भव्य महावीर प्रभु प्रतिमा की मारवाड़ के विक्रमपुर के श्रेष्ठी देवधर निर्माणित प्रतिष्ठा की थी। संभव है कि इस चित्रपट्टिका में इसी प्रतिष्ठा प्रसंगका आलेखन हो । क्योंकि सूरिजी के समक्ष स्थित स्थापनाचार्य पर “महावीर” नाम लिखा हुआ है । कदाचित् इसी देवधर ने इस पट्टिका के साथ वाले ग्रन्थ को लिखा कर सूरिजी को समर्पित किया हो और इस पट्टिका में उक्त प्रसंगके स्मारक स्वरूप चित्राङ्कन किया गया हो । जैन सम्प्रदाय में ऐसे प्रसंगों के निमित्त पुस्तकादि लेखन व चित्रपट्टिकादि के आलेखन की प्रवृत्ति अति प्राचीन काल से चली आ रही है ।
हम इसे विक्रम की बारहवीं शती के अंतिम और तेरहवीं शताब्दी के प्रारम्भ के चित्रालेखन की प्रतीक, निश्चित रूपसे मान सकते हैं, इतनी प्राचीन अन्य कोई सुन्दर चित्राकृति अद्यापि हमें उपलब्ध नहीं है !
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
शिमिजाक्षिता
कि
रुन्तस्या
महादार
श्री जिनदत्त सूरि और पंडित जिनरक्षित
इसका
श्री जिनदत्तसूरि और गुणसमुद्राचार्य
[ श्री जिनदत्तसूरि सेवासंघ के सौजन्य से ]
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जिनदत्तसूरिजी के चित्रों में प्राचीनतम अथवा न आवे। चित्र के मध्य रूंड में दोनों ओर बोर्ड तथा मध्य दूसरे शब्दों में कहा जाय तो इस शैली की प्राचीन काष्ठ- में फूल बनाया है जिसके बीच में छिद्र है जो ताडपत्रीय पट्टिका का चित्र जो यहां प्रकाशित किया जा रहा है, नथ को डोरी पिरोकर बांधने में काम आता था । श्री जिनदत्तसूरि के आचार्य पद प्राप्ति के पूर्व का है। चित्र के दूसरे रूण्ड में साध्वियों का उपाश्रय है । पट्ट यह फलक चित्र हमारे ''सेठ शंकरदान नाहटा कलाभवन" पर प्रवत्तिनी विमलमति बैठी हुई हैं जिनके पृष्ठ भाग में भी में सुरक्षित है।
पीठफलक सुशोभित है । सामने दो साध्वियाँ बैठी हुई हैं ___ यह काष्ठपट्टिका ३४११६ इच की है। इसके चारों जिनके नाम 'नय श्री साध्वी' और 'नयमतिम्' लिखा हुआ
ओर बोर्डर है। इस चित्र के तीन खंड हैं। प्रथम खंड है। तीनों के बीच में स्थापनाचार्यजी रखे हुए हैं, साध्वीजी में आचार्य श्रीगुणसमुद्र और सामने ही आसन पर सोम- के पीछे एक श्राविका आसन पर बैठी हुई है जिसपर उसका चन्द्रगणि ! श्रीजिनदत्तसूरि ) बेटे हुए हैं। आचार्यश्री के नाम नंदीसीर (विका) लिखा हुआ है। चित्रफलक का पृष्ठ भाग में पीठ-फलक है और श्री सोमचन्द्रगणि के नहीं किनारा टूट जाने से जोड़ा हुआ है। है इससे उनका दीक्षापर्याय में बड़ा होना प्रमाणित है। इस सचित्र काष्ठपट्टिका का समय-इसमें श्रीजिनदत्त. दोनों के मध्य में स्थापनाचार्य जी हैं. दोनों के पास रजोहरण सरिजी के दीक्षानाम लिखा हुआ होने से सं० ११६६ के है, दोनों एक गोडा ऊंचा और एक गोडा नीचा किये हुए पूर्व का तो है ही। इसमें आये हुए साधु-सावियों के नाम प्रवचनमुद्रा में आमने सामने बैठे हैं। दोनों के श्वेत "गणधरसाद्धशतक वृहद्वृत्ति" में नहीं मिलते अत: आचार्य वस्त्र हैं।
पद प्राप्ति से पूर्व श्रीजिनदत्तसूरि जी के आज्ञानुवर्तिनी जो आचार्य श्री के पीछे एक श्रावक बैठा है जिसकी धोती साध्वियाँ थीं, उनका नाम प्राप्त होना ऐतिहासिक दृष्टि से जांघिये की भांति है। कंधे पर उत्तरीय वस्त्र के अतिरिक्त भी महत्वपूर्ण है। हमारी राय में इस काष्ठपट्टिका का कोई वस्त्र नहीं है जो उस समय के अल्पवस्त्र-परिधान को समय सं० ११५० के आस-पास का है । सूचित करता है। शावक के गले में स्वर्णहार है और अप्रकाशित महत्वपूर्ण काष्ठफलक एक गोडा ऊंचा करके करबद्ध बैठा है, उसके पृष्ठ भाग में जेसलमेर के श्रीजिनभद्रसूरि ज्ञानभंडार में जो श्रीजिनदो श्राविकाएं भी इसी मुद्रा में हैं, जिनके गले में हार व दत्तसूरि जी और नरपति कुमारपाल की महत्वपूर्ण सचित्र हाथों में चूड़ियाँ और कानों में बड़े-बड़े कर्णफूल है। वस्त्र काष्ठपट्टिका थी, वह अभी थाहरूसाह के भंडार में रखी सबके रंगीन और छींटकी भाँति है, केशपाश का जूड़ा बांधा हुई है। उसे देखकर हमने जो संक्षिप्त विवरण नोट किया हुआ है। श्रावक के मरोड़ी हुई पतली मूछ और ठोड़ी था उसे यहाँ दिया जा रहा हैके भाग को छोड़कर अल्प दाढ़ी है। श्रावक के खुले इस चित्र पट्टिका पर '९ नरपति कुमारपाल भक्तिमस्तक पर घने बालों का गिर्दा है।
रस्तु" लिखा हुआ है। इस फलक के मध्य में नवफणा __सोमचन्द्रगणि के पृष्ठ भाग में दो व्यक्ति बैठे हैं जिनकी पार्श्वनाथ का जिनालय है जिसकी सपरिकर प्रतिमा के वेषभूषा भी उपर्युक्त श्रावकों के सदृश ही है। चित्र शैली उभयपक्ष में गजारुढ़ इन्द्र और दोनों ओर चामरधारी में तत्कालीन प्रथानुसार नेत्र की तीखी रेखाए' और दोनों अवस्थित हैं। दाहिनी ओर दो शंखधारी पुरुष खड़े हैं। आँख इसलिए दिखायी है कि चित्र में एकाक्षीपन का दोष भगवान् के बायें कक्ष में पुष्प-चंगेरी लिए हुए भक्त खड़े हैं,
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
जिसके पीछे दो व्यक्ति नृत्य करते हुए एवं दो व्यक्ति वाद्य- स्थित साधु का नाम पं० ब्रह्मचन्द्र है। पृष्ठ भाग में दो मंत्र लिए खड़े हैं। जिनालय के दाहिनी ओर श्री जिनदत्त- राजपुरुष हैं जिनका नाम चित्र के उपरिभाग में "सहणप सूरि जो की व्याख्यान सभा है। आचार्यश्री के पीछे दो (ल' व अनंग लिखा है । साध्वीजी के सामने भी भक्त श्रावक एवं एक शिष्य नरपति राजा कुमारपाल बैठा स्थापनाचार्य और उनके समक्ष दो श्राविकाएँ हाथ जोड़े हुआ है। राजा के साथ रानी व दो परिचारक विद्यमान खड़ी हैं । गणधरसाईशतक वृहद्धृत्ति के अनुसार पार्श्वनाथ हैं । आचार्य श्रींजिनदत्त सूरिजी का परिचय चित्रकार ने के नदफणों की प्रथा श्रीजिनदतसूरिजी से हो प्रचलित हुई "श्रीयुगप्रधानागम श्रीमजिनदत्त सूरयः ॥६॥ लिखा है। थी। नरभट में नवफणा पार्श्वनाथ प्रतिमा की प्रतिष्ठा
जिनालय के बाँयें तरफ श्रीगुणसमुद्राचार्य विद्यमान हैं सूरिजी ने की थी। वह जिनालय आगे चलकर महातीर्थ जिनके सामने स्थापना चारंजी व चतुर्विध संघ है। त्रि के रूप में प्रसिद्ध हो गया।
INHETANS
सोमचन्द्राणि (श्रीजिनदत्तमुरि) और गुणसमुद्राचार्य
[ शंकरदान ना हटा कलाभवन, बीकानेर से ]
Iood
आज्ञानुवर्तिनी साध्वी नयश्रो और नयमती
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री कीर्तिरत्नसरि रचित नेमिनाथ महाकाव्य
[ प्रो0 सत्यव्रत 'वृषित'] [ खरतरगच्छ के महान् आचार्यों ने संघ-व्यवस्था बड़ी सूझ-बूझ से की। मुख्य पट्टधर-युगप्रधान आचार्य के साथ-साथ सामान्य आचार्य के रूप में उपयुक्त व्यक्तियों को आचार्य पद दिया जाता रहा है जिससे पट्टघर के स्वर्गवास हो जाने के बाद कोई अव्यवस्था नहीं होने पावे। भावी पट्टधर स्वर्गवासी आचार्य के अन्तिम समय में समीप न होने पर यथासमय उस पद पर प्रतिष्ठित करने के लिए सामान्य आचार्य को भोलावण दे दी जाती थी और वे उन युगप्रधानाचार्य के संकेतानुसार योग्य स्थान और शुभमुहर्त में पूर्ववर्ती आचार्य की सूरि मन्त्राम्नाय परंपरा को देते हुए बड़े महोत्सव के साथ नये गच्छनायक का पट्टाभिषेक करवा देते थे।
आचार्य बद्ध मानसूरि ने जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागरसूरि को आचार्य पद दिया, इनमें से जिनेश्वरसूरि पट्टधर बने और बुद्धिसागरसूरि उनके सहयोगी रहे। इसके बाद जिनचद्रसूरि संवेगरंगशालाकर्ता और अभयदेव सूरि को आचार्य पद दिया गया इनमें से जिनचन्द्रसूरि पट्टधर बने और उनके स्वर्गवास के बाद अभयदेवसूरि गच्छनायक बने । यों अभयदेवसूरि के वर्द्धमानसूरि आदि कई विद्वान शिष्य थे पर जिनवल्लभगणि में विशेष योग्यता का अनुभव कर उन्होंने प्रसन्नचंद्रसूरि को यथासमय जिनवल्लभगणि को अपने पट्ट पर स्थापित करने की आज्ञा दी थी। उसकी पूर्ति न कर सकने के कारण देवभद्राचार्य ने काफी समय के बाद अभयदेवसूरि के पट्ट पर जिनवल्लभसूरि को प्रतिष्ठित किया। अल्पकाल में ही उनका स्वर्गवास हो जाने पर इन्हीं देवभद्रसूरिजी ने सोमचन्द्र गणि को जिनवल्लभसूरि के पट्ट पर अभिषिक्त किया। इसी तरह मणिधारी जिनचन्द्रसूरि ने अपने अन्तिम समय में निकटवर्तों गुणचन्द्रगणि को अपने पट्टधर का जो संकेत दिया था तदनुसार चौदह वर्ष की आयु वाले जिनपतिसूरिजी को उनके पट्ट पर स्थापित किया गया।
इस परम्परा में पन्द्रहवीं शताब्दी के आचार्य जिनभद्रसूरिजी ने उ० कीतिराज को आचार्य पद देकर कीतिरत्नसरि के नाम से प्रसिद्ध किया। उन्होंने ही जिनभद्रसूरिजी के पट्ट पर जिनचन्द्रसूरिजी को स्थापित किया था। आचार्य कोतिरत्नसूरि अपने समय के बहुत बड़े विद्वान और प्रभावक व्यक्ति थे। उनके सम्बन्ध में सं० १९६४ में प्रकाशित हमारे ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह में आवश्यक जानकारी दी गई थी। उनके ५१ शिष्य हुए, जिनमें गुणरत्नसूरि, कल्याणचन्द्र आदि उल्लेखनीय रहे हैं । कीतिरत्नसूरिजी की प्राचीनतम मूत्ति नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ में पूजित है। इनकी शिष्य-सन्तति का बहुत विस्तार हुआ। कीतिरत्नसूरि शाखा आजतक चली आ रही है जिसमें पचासों कवि, विद्वान हुए हैं, उसी में आचार्य श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरिजी जैसे गीतार्थ आचार्य-शिरोमणि हुए हैं । कीतिरत्नसू रिजी की शिष्य-परम्परा ने अनेक स्थानों में उनके स्तूप-पादुकादि स्थापित करवाये और बहुत से स्तवन-गीतादि निर्माण किये। उन्हीं महापुरुष के एक महाकाव्य का आलोचनात्मक अध्ययन गवर्नमैण्ट कालेज श्रीगंगानगर के संस्कृत : . विभाग के अध्यक्ष प्रो. सत्यव्रत प्रस्तुत कर रहे हैं।
-संपादक
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ५६ ]
जैन संस्कृत महाकाव्यों में कविचक्रवर्ती कीर्तिराज उपाध्यायकृत नेमिनाथ महाकाव्य को गौरवमय पद प्राप्त है । इसमें जैन धर्म के बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ के प्रेरक चरित्र के कतिपय प्रसंगों को महाकाव्योचित विस्तार के साथ, बारह सर्गों के व्यापक कलेवर में प्रस्तुत किया गया है । कीर्तिराज कालिदासोत्तर उन इने-गिने कवियों में हैं, जिन्होंने माघ एवं हर्ष की कृत्रिम तथा अलंकृतिप्रधान शैली के एकछत्र शासन से मुक्त होकर अपने लिये अभिनव सुरुचिपूर्ण मार्ग की उद्भावना की है । नेमिनाथ काव्य भावपक्ष तथा कलापक्ष का जो मंजुल समन्वय विद्यमान है, वह ह्रासकालीन कवियों की रचनाओं में अतीव दुर्लभ है । पाण्डित्य प्रदर्शन तथा बौद्धिक विलास के उस युग में नेमिनाथ महाकाव्य जैसी प्रसादपूर्ण कृति की रचना करने में सफल होना कीर्तिराज की बहुत बड़ी उपलब्धि है । नेमिनाथ महाकाव्य का महाकाव्यत्व
प्राचीन भारतीय आलङ्कारिकों ने महाकाव्य के जो मानदण्ड निश्चित किये हैं, उनकी कसौटी पर नेमिनाथकाव्य एक सफल महाकाव्य सिद्ध होता है । शास्त्रीय विधान के अनुरूप यह सम्बद्ध रचना है तथा इसमें, महाकाव्य के लिये आवश्यक, अष्टाधिक बारह सर्ग विद्यमान हैं । धीरोदात्त गुणों से युक्त क्षत्रियकुल- प्रसूत देवतुल्य नेमिनाथ इसके नायक हैं। नेमिनाथ महाकाव्य में शृङ्गार रस की प्रधानता है । करुण, वीर तथा रौद्र रस का आनुषंगिक रूप में परिपाक हुआ है । महाकाव्य के कथानक का इतिहास प्रख्यात अथवा सदाश्रित होना आवश्यक माना गया है। नेमिनाथकाव्य का कथानक लोकविश्रुत नेमिनाथ के चरित से सम्बद्ध है । चतुर्वर्ग में से धर्म तथा मोक्ष की प्राप्ति इसका लक्ष्य है । धर्म का अभिप्राय यहाँ नैतिक उत्थान तथा मोक्ष का तात्पर्य आमुक अभ्युदय है । विषयों तथा अन्य सांसारिक आकर्षणों का परित्याग कर परम पद प्राप्त करने की ध्वनि, काव्य में सर्वत्र सुनाई पड़ती है ।
महाकाव्य की रूढ़ परम्परा के अनुसार नेमिनाथमहाकाव्य का प्रारम्भ नमस्कारात्मक मंगलाचरण से हुआ है, जिसमें स्वयं काव्यनायक नेमिनाथ की चरणवन्दमा की गयी है।
वन्दे तन्नेमिनाथस्य पदद्वन्द्व श्रियाम्पदम् । नाथैरसेवि देवानां यद्भृङ्गेरिव पङ्कजम् ॥ ११ ॥ आलंकारिकों के विधान का पालन करते हुए काव्य के आरम्भ में सज्जन प्रशंसा तथा खलनिन्दा भी की गयी है । यदुपति समुद्रविजय की राजधानी के मनोरम वर्णन में कवि ने सन्नगरीवर्णन की रूढ़ि का निर्वाह किया है । काव्य का शीर्षक चरितनायक के नाम पर आधारित है, तथा प्रत्येक सर्ग का नामकरण उसमें वर्णित विषय के अनुरूप किया गया है, जिससे विश्वनाथ के महाकाव्यीय विधान की पूर्ति होती है । अन्तिम सर्ग के एक अंश में चित्रकाव्य की योजना करके जैन कवि ने हेमचन्द्र वाग्भट आदि जैनाचार्यों के विधान का पालन किया है । छन्द प्रयोग सम्बन्धी परम्परागत नियमों का प्रस्तुत काव्य में आंशिक रूप से निर्वाह हुआ है। काव्य के पांच सर्गों में तो प्रत्येक सर्ग में एक छन्द की प्रमुखता है तथा सर्गान्त में छन्द बदल जाता है । यह साहित्याचार्यों के विधान के सर्वथा अनुरूप है । किन्तु शेष सात सर्गों में नाना वृत्तों का प्रयोग शास्त्रीय नियमों का स्पष्ट उल्लंघन है क्योंकि महाकाव्य में छन्दवैविध्य एक-दो सर्गों में ही काम्य माना गया है । महाकाव्यों की मान्य परिपाटी के अनुसार नेमिनाथकाव्य में नगर, पर्वत, प्रभात, वन, दूतप्रेषण ( प्रतीकात्मक ), युद्ध, सैन्य प्रयाण, पुत्रजन्म, जन्मोत्सव, षड् ऋतु आदि वर्ण्यविषयों के विस्तृत वर्णन पाये जाते हैं । वस्तुतः काव्य में इन्हीं वस्तुव्यापार वर्णनों का प्राधान्य है ।
परम्परागत नियमों के अनुसार महाकाव्य में पांच नाट्यसन्धियों की योजना आवश्यक मानी गयी है । नेमिनाथ महाकाव्य का कथानक यद्यपि अतीव संक्षिप्त है,
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ५६ ]
प्रथम
तथापि इसमें पांचों सन्धियाँ खोजी जा सकती हैं। सर्ग में शिवादेवी के गर्भ में जिनेश्वर के अवतरित होने में मुखसन्धि है । इसमें कथानक के फलागम का बीज निहित है तथा उसके प्रति पाठक की उत्सुकता जाग्रत होती है । द्वितीय सर्ग में स्वप्नदर्शन से लेकर तृतीय सर्ग में पुत्रजन्म तक प्रतिमुख सन्धि स्वीकार की जा सकती है, क्योंकि मुखसन्धि में जिस कथाबीज का वपन हुआ था, वह यहाँ कुछ अलक्ष्य रहकर पुत्रजन्म से लक्ष्य हो जाता है। चतुर्थ सर्ग से अष्टम सर्ग तक गर्भसन्धि की योजना मानी जा सकती है। सूतिकर्म, स्नात्रोत्सव तथा जन्मोत्सव में फलागम काव्य के गर्भ में गुप्त रहता है। नवें से ग्यारहवें सर्ग तक एक ओर नेमिनाथ द्वारा वैवाहिक प्रस्ताव स्वीकार कर लेने से मुख्यफल की प्राप्ति में बाधा उपस्थित होती है, किन्तु दूसरी ओर वधूगृह में वध्य पशुओं का करुणक्रन्दन सुनकर उनके निर्वेदग्रस्त होने तथा दीक्षा ग्रहण करने से फलप्राप्ति निश्चित हो जाती है । अतः यहाँ विमर्श सन्धि का सफल निर्वाह हुआ है । ग्यारहवें सर्ग के अन्त में केवलज्ञान तथा बारहवें सर्ग में परम पद प्राप्त करने के वर्णन में निर्वहण सन्धि विद्यमान है । इन शास्त्रीय लक्षणों के अतिरिक्त नेमिनाथ महाकाव्य में महाकाव्योचित रसव्यंजना, भव्य भावों की अभिव्यक्ति, शैली की मनोरमता तथा भाषा को उदात्तता विद्यमान हैं । नेमनाथमहाकाव्य को शास्त्रीयता
नेमिनाथकाव्य पौराणिक महाकाव्य है अथवा इसकी गणना शास्त्रीय शैली के महाकाव्यों में की जानी चाहिये, इसका निश्चयात्मक उत्तर देना कठिन है । इसमें एक ओर पौराणिक महाकाव्यों के तत्त्व वर्तमान हैं, तो दूसरी ओर यह शास्त्रीय महाकाव्यों की विशेषताओं से भूषित है । पौराणिक महाकाव्यों की भाँति इसमें शिवादेवी के गर्भ में जिनेश्वर का अवतरण होता है जिसके फलस्वरूप उसे चौदह स्वप्न दिखाई देते हैं। दिक्कुमारियाँ नवजात शिशु
का सूतिकर्म करने के लिये आती हैं । उसका स्नात्रोत्सव इन्द्रद्वारा सम्पन्न होता है । दीक्षा से पूर्व भी वह भगवान् का अभिषेक करता है । पौराणिक शैली के अनुरूप इसमें दो स्वतन्त्र स्तोत्रों का समावेश किया गया है । कतिपय अन्य पद्यों में भी जिनेश्वर का प्रशस्तिगान हुआ है । जिनेश्वर के जन्मोत्सव में देवांगनाएँ नृत्य करती हैं तथा देवगण पुष्पवृष्टि करते हैं । पौराणिक महाकाव्यों की परिपाटी के अनुसार इसमें नारी को जीवन-पथ की बावा माना गया है। काव्यनायक दीक्षा लेकर केवलज्ञान तथा अन्ततः परमपद प्राप्त करते हैं। उनकी देशना का समावेश भी काव्य में हुआ है ।
इन समूचे पौराणिक तत्त्वों के विद्यमान होने पर भी नेमिनाथ काव्य को पौराणिक महाकाव्य मानना न्यायोचित नहीं है । इसमें शास्त्रीय महाकाव्य के लक्षण इतने पुष्ट तथा प्रचुर हैं कि इसकी यत्किंचित पौराणिकता उनके सिन्धु प्रवाह में पूर्णतया मज्जित हो जाती है । हासकालीन शास्त्रीय महाकाव्यकी प्रमुख विशेषता - वर्ण्य विषय तथा अभिव्यंजना शैली में वैषम्य - इसमें भरपूर मात्रा में वर्तमान है । शास्त्रीय महाकाव्यों की भाँति नेमिनाथमहाकाव्य में वस्तुव्यापारों की विस्तृत योजना हुई है । इसकी भाषा में अद्भुत उदात्तता तथा शैली में महाकाव्योचित प्रौढ़ता एवं गरिमा है । चित्रकाव्य की योजना के द्वारा काव्य में चमत्कृति उत्पन्न करने तथा अपना रचनाकौशल प्रदर्शित करने का प्रयास भी कवि ने किया है । अलंकारों का भावपूर्ण विधान, रस, व्यंजना, प्रकृति तथा मानव सौन्दर्य का हृदयग्राही चित्रण, सुमधुर छन्दों का प्रयोग आदि शास्त्रीय काव्यों की ऐसी विशेषताएँ इस काव्य में हैं कि इसकी शास्त्रीयता में तनिक भी सन्देह नहीं रह जाता । वस्तुत: नेमिनाथमहाकाव्य की समग्र प्रकृति तथा वातावरण शास्त्रीय शैली के महाकाव्य के अनुसार है । अतः इसे शास्त्रीय महाकाव्यों की कोटि में स्थान देना सर्वथा उपयुक्त है ।
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ६० ]
कविपरिचय तथा रचनाकाल
कीर्तिराज के
अन्य अधिकांश जैन काव्यों की भाँति नेमिनाथमहाकाव्य में कवि प्रशस्ति नहीं है । अतः काव्य से उनके जीवन तथा स्थितिकाल के विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं होता । अन्य ऐतिहासिक लेखों के आधार पर उनके जीवनवृत्त का पुनर्निर्माण करने का प्रयास किया गया है । उनके अनुसार कीर्तिराज अपने समय के प्रख्यात तथा प्रभावशाली खरतरगच्छीय आचार्य थे । वे संखवालगोत्रीय शाह कोचर के वंशज देपा के कनिष्ठ पुत्र थे । उनका जन्म सम्वत् १४४९ में देपा की पत्नी देवलदे की कुक्षि से हुआ । उनका जन्म नाम देल्हाकुंवर था । देल्हाकुंवर ने चौदह वर्ष की अल्पावस्था में, सम्वत् १४६३ की आषाढ़ दि एकादशी को दीक्षा ग्रहण की। जिनवर्द्धनसूरि ने आपका नाम कीर्तिराज रखा । कीर्तिराज के साहित्यगुरु भी जिनवर्द्धनसूर ही थे । उनकी प्रतिभा तथा विद्वत्ता से प्रभावित होकर जिनवर्द्धनसूरि ने सम्वत् १४७० में वाचनाचार्य पद तथा दस वर्ष पश्चात् जिनभद्रसूरि ने उन्हें मेहवे मैं उपाध्याय पद पर प्रतिष्ठित किया । पूर्व देशों का विहार करते समय जब कीर्तिराज जैसलमेर पधारे, तो गच्छनायक जिनभद्रसूरिने योग्य जानकर उन्हें सम्वत् १४६७ की माघ शुक्ला दशमी को आचार्य पद प्रदान किया। तत्पश्चात् वे कीर्तिरत्नसूर के नाम से प्रख्यात हुए। आपके अग्रज लक्खा और केल्हा ने इस अवसर पर पद-महोत्सव का भव्य आयोजन किया । कीर्तिराज ७६ वर्ष की प्रौढ़ावस्था में, पश्च्चीस दिन की अनशन-आराधना के पश्चात् सम्वत् १५२५ वैशाख बदि पंचमी को वीरमपुर में स्वर्ग सिधारे। संघ ने वहां पूर्व दिशा में एक स्तूप का निर्माण कराया जो अब भी विद्यमान है । वीरमपुर, महवे के अतिरिक्त जोधपुर,
आबू आदि स्थानों में भी आपकी चरणपादुकाएं स्थापित की गयीं । जयकीर्ति और अभयविलासकृत गीतों से ज्ञाल होता है कि सम्वत् १८७९, वैशाख कृष्ण दशमी को गड़ाले ( बीकानेर का समीपवर्ती नालग्राम ) में उनका प्रासाद बनवाया गया था । कीर्तिरत्नसूरि के ५१ शिष्य थे । नेमिनाथ काव्य के अतिरिक्त उनके कतिपय स्तवनादि भी उपलब्ध हैं । '
नेमिनाथ महाकाव्य उपाध्याय कीर्तिराज की रचना है । कीर्तिराज को उपाध्याय पद संवत् १४८० में प्राप्त हुआ और सं० १४६७ में वे आचार्य पद पर आसीन होकर कीर्त्तिरत्नसूरि बने । अतः नेमिनामकाव्य का रचनाकाल संवत् १४८० तथा १४६७ के मध्य मानना सर्वथा न्यायोचित है । सं० १४९५ की लिखी हुई इसकी प्राचीनतम प्रति प्राप्त है और यही इसका रचनाकाल है । कथानक
नेमिनाथ महाकाव्य के बारह सर्गों में तीर्थंकर नेमिनाथ का जीवनचरित निबद्ध करने का उपक्रम किया गया है । कवि ने जिस परिवेश में जिनचरित प्रस्तुत किया है, उसमें उसकी कतिपय प्रमुख घटनाओं का ही निरूपण सम्भव हो सका है।
च्यवनकल्याणक वर्णन नामक प्रथम सर्ग में यादव राजसूर्यपुरा में समुद्र विजय की पत्नी, शिवादेवी के गर्भ में बाईसवें जिनेश के अवतरण का वर्णन है । अलंकारों के विवेकपूर्ण योजना तथा बिम्बवैविध्य के द्वारा कवि सूर्यपुर का रोचक कवित्वपूर्ण चित्र अंकित करने में समर्थ हुआ है । द्वितीय सर्ग में शिवादेवी परम्परागत चौदह स्वप्न देखती है । समुद्रविजय स्वप्नफल बतलाते हैं कि इन स्वप्नों के दर्शन से तुम्हें प्रतापी पुत्र की प्राप्ति होगी जो अपने भुजबल
१ विस्तृत परिचय के लिये देखिये श्री अगरवन्द नाहटा तथा भंवरलाल नाहटा द्वारा सम्पादित 'ऐतिहासिक जैन
काव्यसंग्रह', पृ० ३५-४०
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
से चारों दिशाओं को जीतकर चोदह भुवनों का अधिपति तथा विषय-सुख में उतना ही अन्तर है जितना गाय तथा बनेगा। प्रभात वर्णन नामक इस सर्ग के शेषांश में प्रभात स्नुही के दूध में । विषयभोग से आत्मा तृप्त नहीं हो का मार्मिक वर्णन हुआ है । तृतीय सर्ग में समुद्रविजय सकती, किन्तु माता के अत्यधिक आग्रह से वे, केवल स्वप्नदर्शन का वास्तविक फल जानने के लिये कुशल उनकी इच्छापूर्ति के लिये गार्हस्थ्य जीवन में प्रवेश करना ज्योतिषियों को निमंत्रित करते हैं। दैवज्ञों ने बताया कि स्वीकार कर लेते हैं । उग्रसेन की लावण्यवती पुत्री राजीमती इन चौदह स्वप्नों को देखनेवाली नारी की कुक्षि में ब्रह्मतुल्य से उनका विवाह निश्चय होता है। दसवें सर्ग में नेमिनाथ जिन अवतीर्ण होते हैं। समय पर शिवा ने एक तेजस्वी वधूगृह को प्रस्थान करते हैं। यहीं उनको देखने के लिए पुत्र को जन्म दिया। चतुर्थ सर्ग में दिवकुमारियां नवजात लालायित पुर-सुन्दरियों का वर्णन किया गया है। वधूगृह शिशु का सूतिकर्म करती हैं । मेरुवर्णन नामक पंचम सर्ग में में बारात के भोजन के लिये बंधे हुए मरणासन्न निरीह इन्द्र शिशु को जन्माभिषेक के लिये मेरु पर्वत पर ले पशुओं का चीत्कार सुनकर उन्हें आत्मग्लानि होती है। जाता है । इसी प्रसंग में मेरु का वर्णन किया गया है। और वे विवाह को बीच में ही छोड़कर दीक्षा ग्रहण कर छठे सर्ग में भगवान के स्नात्रोत्सव का रोचक वर्णन है। लेते हैं। ग्यारवें सर्ग के पूर्वाद्धं में अप्रत्याशित प्रत्याख्यान सातवे सर्ग में चेटियों से पुत्र जन्म का समाचार पाकर से अपमानित राजीमती का करुण विलाप है । मोह-संयम समुद्रविजय आनन्द विभोर हो जाता है। वह पुत्र-प्राप्ति युद्धवर्णन नामक इस सर्ग के उत्तरार्द्ध में मोह तथा संयम के उपलक्ष में राज्य के समस्त बन्दियों को मुक्त कर देता के प्रोतकात्मक युद्ध का अतीव रोचक वर्णन है । पराजित है तथा जीववध पर प्रतिबन्ध लगा देता है। उसने जन्मो• होकर मोह नेमिनाथ के हृदय दुर्ग को छोड़ देता है। त्सव का भव्य आयोजन किया। शिशु का नाम अरिष्ट- जिससे उन्हें केवलज्ञान को प्राप्ति होती है। बारहवें सर्ग में नेमि रखा गया। आठवें सर्ग में अरिष्टनेमि के शारीरिक यादव केवलज्ञानी प्रभ की वन्दना करने के लिये उजयन्त सौंदर्य तथा परम्परागत छह ऋतुओं का हृदयग्राही वर्णन है । पर्वत पर जाते हैं। जिनेश्वर की देशना के प्रभाव से कुछ
नाथ ने पांचजन्य को कौतुकवश इस वेग से दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं तथा कुछ श्रावक धर्म स्वीकार फूंका कि तीनों लोक भय से कम्पित हो गये। कृष्ण को करते है। जिनेन्द्र राजीमती को चरित्ररय पर बैठा कर आशंका हुई कि कहीं यह भुजबल से मुझे राज्यच्युत न कर मोक्षपुरो भेज देते हैं और कुछ समय पश्चात् अपनी प्राणदे, किन्तु उन्होंने श्रीकृष्ण को आश्वासन दिया कि मुझे प्रिया से मिलने के लिये स्वयं भी परम पद को प्रस्थान सांसारिक विषयों में रुचि नहीं है, तुम निर्भय होकर राज्य करते हैं। का उपभोग करो। नवं सर्ग में नेमिनाय के माता-पिता के नेमिनाथकाव्य का कयानक अत्यल्प है. किन्त कवि ने आग्रह से श्रीकृष्ण को पलियां, नाना युक्तियाँ देकर उन्हें उसे विविध वर्णनों, संवादों तथा स्तोत्रों से पुष्ट-पूरित कर वैवाहिक जीवन में प्रवृत्त करने का प्रयास करती हैं। उनका
बारह सर्गो के विस्तृत आलवाल में आरोपित किया है।
. प्रमुख तर्क है कि मोक्ष का लक्ष्य सुख-प्राप्ति है, किन्तु वह यह विस्तार महाकाव्य की कलेवरपूर्ति के लिए भले ही विषय भोग से ही मिल जाये, तो कष्टदायक तप की क्या
उपयुक्त हो, इससे कथावस्तु का विकासक्रम विखलित आवश्यकता? नेमिनाथ उनकी युक्तियों का दृढ़तापूर्वक हो गया है तथा कथाप्रमाह की सहजता नष्ट हो गयी है। खण्डन करते हैं। उमा कया है कि मोक्षजन्य आनन्द कथानक के निर्वाह की दृष्टि से नेमिनाथमहाकाव्य को
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
अधिक सफल नहीं कहा जा सकता । पग-पग पर प्रासंगिक- नेमिनाथमहाकाव्य में प्रयुक्त अप्रासंगिक वर्णनों के सेतु बांध देने से काव्य की कथावस्तु कतिपय काव्य-रूढ़ियाँ रुक-रुक कर, मन्दगति से आगे बढ़ती है । वस्तुतः, कथानक संस्कृत महाकाव्यों की रचना एक निश्चित ढर्रे पर की ओर कवि का अधिक ध्यान नहीं है । काव्य का अधिकतर हुई है जिससे उनमें अनेक शिल्पगत समानताए दृष्टिगम्य भाग वर्णनों से ही आच्छन्न है। कथावस्तु का सूक्ष्म संकेत होती हैं। शास्त्रीय मानदंडों के निर्वाह के अतिरिक्त उनमें करके कवि तुरन्त किसी-न-किसी वर्णन में जुट जाता है। कतिपय काव्यरूढ़ियों का मनोयोगपूर्वक पालन किया गया कथानक की गत्यात्मकता का अनुमान इसी से किया जा है। यहाँ हम नेमिनाथ महाकाव्य में प्रयुक्त दो रूडियों सकता है कि तृतीय सर्ग में हुए पुत्रजन्म की सूचना समुद्र- की ओर विद्वानों का ध्यान आकृष्ट करना आवश्यक विजय को सातवे सर्ग में मिलती है । मध्यवर्ती तीन सर्ग शिशु समझते हैं क्योंकि इनका काव्य में विशिष्ट स्थान है तथा के सूतिकर्म, जन्माभिषेक आदि के विस्तृत वर्णनों पर व्यय ये इन रूढ़ियों के तुलनात्मक अध्ययन के लिये रोचक सामग्नो कर दिये गये हैं। तुलनात्मक दृष्टि से यहां यह जानना प्रस्तुत करती हैं। प्रथम रूढ़ि का सम्बन्ध प्रभात वर्णन से रोचक होगा कि रघुवंश में द्वितीय सर्ग में जन्म लेकर रघु है। प्रभात वर्णन की परम्परा कालिदास तथा उनके चतुर्थ सर्ग में दिग्विजय से लौट भी आता है। द्वितोय सर्ग परवर्ती अनेक महाकाव्यों में उपलब्ध है। कालिदास का में प्रभात का तथा अष्टम में षडऋतु का विस्तारपूर्वक प्रभात वर्णन आकार में छोटा होता हुआ भी मार्मिकता में वर्णन किया गया है। काव्य के शेषांश में भी वर्णनों का बेजोड़ है। माघ का प्रभातवर्णन बहुत विस्तृत है, यद्यपि बाहुल्य है। इस वर्णनप्राचुर्य के कारण काव्य को अन्विति प्रातःकाल का इस कोटि का अलंकृत वर्णन समूचे साहित्य खण्डित हो गयी है। काव्य के अधिकांश भाग मल कथा- में अन्यत्र दुर्लभ है। अन्य काव्यों में प्रभातवर्णन के नाम वस्तु के साथ सूक्ष्म-तन्तु से जुड़े हुए हैं। इसलिये काव्य का पर पिष्टपेषण ही हुआ है। कीतिराज का यह वर्णन कुछ कथानक लंगड़ाता हुआ ही चलता है। किन्तु यह स्मरणीय विस्तृत होता हुआ भी सरसता तथा मार्मिकता से परिपूर्ण है कि तत्कालीन महाकाव्य-परिपाटी ही ऐसी थो कि है। माघ की भाँति उसने न तो दूर को कौड़ो फैकी है मूल कथा के सफल विनियोग की अपेक्षा विषयान्तरों को और न वह ज्ञान-प्रदर्शन के फेर में पड़ा है। उसने तो, पल्लवित करने में हो काव्यकला को सार्थकता मानी जाती कुशल चित्रकार की तरह, अपनी ललित-प्रांजल शैली में थी। अत: कातिराज को इसका पारा दोष देना न्याय्य प्रातःकालीन प्रकृति के मनोरम चित्र अंकत करके तत्कानहीं। वस्तुतः, उन्होंने वस्तुव्यापार के इन वर्णनों को लोन सहज वातावरण को अनायास उजागर कर दिया है। अपनो बहुश्रुतता का क्रीडांगन न बना कर तत्कालीन मागधों द्वारा राजस्तुति, हाथी के जाग कर भी मस्ती के काव्यरूढ़ के लोहपाश से बचने का इलाध्य प्रयत्न कारण आंखे न खोलने तथा करवट बदल कर शृङ्खलारव किया है।
करने ३ और घोड़ों के द्वारा नमक चाटने की रूढ़ि का भी २ ध्याने मनः स्वं मुनिभिविलम्बितं. विलम्बितं कर्कशरोचिषा तमः ।
सुष्वाप यस्मिन् कुमुदं प्रभासितं, प्रभासितं पङ्कजबान्धवोपर्लः ॥ २१४१ ३ निद्रासुखं समनुभूय चिराय रात्रावुद्भूतशृङ्खलारवं परिवर्त्य पार्श्वम् ।।
प्राप्य प्रबोवमपि देव ! गजेन्द्र एष नोन्नोलयत्यलसनेत्रयुगं मदान्धः ।। २।५४
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
। ६३ इस प्रसंग में प्रयोग किया गया है। अपनी स्वाभाविकता काचित्कराद्रप्रतिकर्मभङ्गभयेन हित्वा पतदुत्तरीयम् । तथा मामिव ता के कारण, कतिराज का यह वर्णन संस्कृत- मञ्जीरवाचालपदारविन्दा द्रुतं गवाक्षाभिमुखं चचाल । साहित्य के सर्वोत्तम प्रभातवर्णनों से टक्कर ले सकता है।
१०.१३ ___ नायक को देखने को उत्सुक पौर युवतियों के सम्भ्रम चरित्रचित्रण तथा तजन्य चेष्टाओं का वर्णन करना संस्कृत-महाकाव्यों नेमिनाथ महाकाव्य के संक्षिप्त कथानक में पात्रों की की एक अन्य बहुप्रचलित रूढि है, जिसका प्रयोग नेमिनाथ संख्या भी सीमित है। कथानायक नेमिनाथ के अतिरिक्त काव्य में भी हुआ है । बौद्ध कवि अश्वघोष से प्रारम्भ उनके पिता समुद्रविजय, माता शिवा देवी, राजीमती, होकर कालिदास, माघ, हर्ष आदि से होती हुई यह काव्य उग्रसेन, प्रतीकात्मक सम्राट मोह तथा संयम और दूत कैतव रूढ़ि कतिपय जैन कवियों की रचनाओं में भी दृष्टिगत ही महाकाव्य के पात्र हैं । परन्तु इन सब की चरित्रगत होती है। अश्वघोष तथा कालिदास का यह वर्णन, अपने विशेषताओं का निरूपण करने से कवि को समान सफलता सहज लावण्य से चमत्कृत है। माघ के वर्णन में, उनके नहीं मिली। अन्य अधिकांश वर्णनों के समान, विलासिता की प्रधानता नेमिनाथ है। उपाध्याय कीतिराज का सम्भ्रम चित्रण यथार्थता से जिनेश्वर नेमिनाथ काव्य के नायक हैं। उनका चरित्र
ओतप्रोत है, जिससे पाठक के हृदय में पुरसुन्दरियों की पौराणिक परिवेश में प्रस्तुत किया गया है जिससे उनके चरित्र स्वरा सहसा प्रतिबिम्बित हो जाती है। नारी के नीवी- के कतिपय पक्ष ही उद्घाटित हो सके हैं और उसमें कोई स्खलन अथवा अधोवस्त्र के गिरने का वर्णन, इस सन्दर्भ नवीनता भी दृष्टिगत नहीं होती। वे देवोचित विभूति में, प्रायः सभी कवियों ने किया है । कालिदास ने अधी- तथा शक्ति से सम्पन्न हैं। उनके धरा पर अवतीर्ण होते रता को नीवीस्खलन का कारण बता कर मर्यादा की रक्षा हो समुद्र विजय के समस्त शत्रु म्लान हो जाते हैं । दिक्कुकी है। माघ ने इसका कोई कारण नहीं दिया जिससे मारियाँ उनका सूतिकर्म करती हैं तथा जन्माभिषेक सम्पन्न उसको नायिका का विलासी रूप अधिक मुखर हो गया करने के लिये स्वयं सुरपति इन्द्र जिनगृह में आता है। है । नग्न नारी को जनसमूह में प्रदर्शित करना जैन यति पाञ्चजन्य को फूंकना तथा शक्तिपरीक्षा में षोडशकला सम्पन्न की पवित्रतावादी वृत्ति के प्रतिकूल था, अतः उसने इस श्रीकृष्ण को पराजित करना उनकी अनुपम शक्तिमत्ता के रूढि को काव्य में स्थान नहीं दिया। इसके विपरीत काव्य प्रमाण हैं। में उत्तरीय-पात का वर्णन किया गया है। शुद्ध नैतिकता नेमिनाथ वीतराग नायक हैं। यौवन की मादक वादी दृष्टि से तो शायद यह भी औचित्यपूर्ण नहीं किन्तु अवस्था में भी वेषयिक सुखभोग उन्हें अभिभूत नहीं कर नीवीस्खलन की तुलना में यह अवश्य ही क्षम्य है, और पाते । कृष्णपत्नियाँ नाना प्रलोभन तथा युक्तियाँ देकर उन्हें कवि ने इसका जो कारण दिया है उससे तो पुरसुन्दरी पर वैवाहिक जीवन में प्रवृत्त करने का प्रयास करती हैं, किन्तु कामुकता का दोष आरोपित ही नहीं किया जा सकता। वे हिमालय की भाँति अडिग तथा अडोल रहते हैं । उनका की तिराज की नायिका हाथ के आर्द्र प्रसाधन के मिटने दृढ़ विश्वास है कि वैषयिक सुख परमार्थ के शत्रु है। के भय से उत्तरीय को नहीं पकड़ती, और वह उसी अवस्था उनसे आत्मा उसी प्रकार तृप्त नहीं हो सकती जैसे जलराशि में गवाक्ष की ओर दौड़ जाती है।
से सागर अथवा काठ से अग्नि । उनके विचार में धौषधि
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
को छोड़ कर कामातुर मूढ ही नारी रूपी औषध का हैं। 'न खरो न भृयसा मृदृः' उनकी नीति का मूलमन्त्र है । सेवन करता है। वास्तविक सख इहलोक में ही विद्य
वलीबत्वं केवला क्षान्तिश्चण्डत्वमविवेकिता। मान है।
द्वाभ्यामतः समेताभ्यां सोऽट सिद्धिममन्यत ॥ १।४३ हितं धर्मोषधं हित्वा मढाः कामज्वरार्दिताः । प्रशासन के चारु संचालन के लिये उन्होंने न्यायप्रिय तथा मुखप्रियमपश्यन्तु सेवन्ते ललनौषधा" ॥ ६।४ शास्त्रवेत्ता मन्त्रियों को नियुक्त किया है (१।४७)। उनके
आत्मा तोषयितं नैव शक्यो वैषयिकैः मुखः। रिमतकान्त ओष्ठ मित्रों के लिये अक्षय कोश लुटाते हैं तो सलिलैरिव पाथोधिः काष्टरिव धनञ्चयः ॥ १।२५ उनकी भ्र भंगिमा शशुओं पर वज्रपात करती है। अनन्तमक्षयं सौख्यं भुञ्जा नो ब्रह्मसद्म नि ।
वज्रदण्डायते सोऽयं प्रत्यनीकमहीभुजाम् । ज्योति:स्वरूप एवायं तिष्ठत्यात्मा सना नः ॥ ६।२६ ___ कल्पद्रमायते कामं पादद्वन्द्वोपजी विनाम् ।। १।५२ नेमिनाथ पितृवत्सल पुत्र हैं। माता के आग्रह से वे,
प्रजाप्रेम समुद्रविजय के चरित्र का एक अन्य गुण है। इच्छा न होते हए भी वे बल उनकी प्रसन्नता के लिए विवाह
यथोचित कर-व्यवस्था से उसने सहज ही प्रजा का विश्वास करना स्वीकार लेते हैं। किन्तु वधू गृह में भोजनार्थ बध्य
प्राप्त कर लिया है। पशुओं का आर्त स्वर सुनकर उनका निद प्रबल हो जाला है और वे विवाह से विमुख होकर प्रव्रज्या ग्रहण कर लेते हैं।
आकाराय ललौ लोकाद् भागधेयं न तृष्णया । १।४५ समुद्र विजय- यदुपति समुद्रविजय कथानायक नेमि- समुद्रविजय पुत्रवत्सल पिता हैं। पुत्र जन्म का नाथ के पिता हैं। उनमें राजोचित मचे गण विद्यमान है। समाचार सुनकर उनकी बाछे खिल जाती हैं। पुत्र-प्राप्ति वे रूपवान्, शक्तिशाली, ऐश्वर्य सम्पन्न तथा प्रहर मेधावी के उपलक्ष्य में वे मुक्तहस्त से धन वितरित करते हैं, बन्दियों हैं। उनके गुण अलंकरण मात्र नहीं हैं. वे व्यावहारिक को मुक्त कर देते हैं तथा जन्मोत्सव का ठाटदार आयोजन जीवन में उनका उपयोग करते हैं (शक्तेरनगणाः क्रियाः करते हैं, जो निरन्तर बारह दिन तक चलता है। १।३६)।
समुद्रविजय अन्तस् से धामिक व्यक्ति हैं। उनका धर्म समुद्रविजय तेजस्वी शासक हैं । उनके बन्दी के शब्दों सर्वोपरि है । आर्हत-धर्म उन्हें पुत्र, पत्नी, राज्य तथा प्राणों में अग्नि तथा सूर्य का तेज भले ही शान्त हो जाये. उनका से भी अधिक प्रिय है। पराक्रम सर्वत्र अप्रतिहत है।
प्राणेभ्योऽपि धनेभ्योऽति योषिद्भ्योऽप्यधिकं प्रियम् । विध्या यतेऽम्भसा वह्निः सूर्योऽब्देन पिधीयते ।
सोऽमस्त मेदिनीजानि विशुद्ध धर्ममाहतम् ॥ १।४२ न केनापि परं राजस्वत्तेज: परिहीयते ॥ ७।२५ इस प्रकार समदविजय त्रिवर्गसाधन में रत हैं। इस सिंहासनारुढ़ होते ही उनके शत्रु निष्प्रभ हो जाते हैं । फलतः सव्यवस्था तथा न्यायपरायणता के कारण उनके राज्य में शत्रु लक्ष्मो ने उनका इस प्रकार वरण किया जैसे नवयौवना समय पर वर्षा होती है, पृथ्वी रत्न उपजाती है तथा प्रजा बाला विवाहवेला में पति का (१।३८) । उनका राज्य निरजीवी है । और वह स्वयं राज्य को इस प्रकार निश्चिन्त पाशविक बल पर आधारित नहीं है। केवल क्षमा को होकर भोगते हैं जैसे कामो कामिनी की कंचन काया को। नपुंसकता तथा निर्बाध प्रचण्डता को अविवेक मान कर, इन काले वर्षति पर्जन्यः सूते रत्नानि मेदिनी । दोनों के समन्वय के आधार पर ही वे राज्य-संचालन करते प्रजाश्चिराय जीवन्ति तस्मिन् भुञ्जति भूतलम् ॥१॥४४
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
समृद्धमभजद्राज्यं स समस्तनयामलम् ।
महाकाव्य की भावसमृद्धि तथा काव्यमत्ता का प्रमुख कारण कामीव कामिनी कायं स स मरतन यामलम् ॥ १ ५४ इसका मनोरम प्रकृति-चित्रण है। कीर्तिराज ने महाकाव्य
राजीमती-राजीमती काव्य की अभागी नायिका के अन्य पक्षों की भाँति प्रकृति-चित्रण में भी अपनी मौलिहै। वह शीलसम्पन्न तथा अतुल रूपवती है। उसे कता का परिचय दिया है। कालिदासोत्तर महाकाव्यों नेमिनाथ की पत्नी बनने का सौभाग्य मिलने लगा था, में प्रकृति के उद्दीपन पक्ष की पार्श्वभूमि में उक्ति वैचित्र्य किन्तु क्रूर विधि ने, पलक झपकते ही उसकी नवोदित के द्वारा नायक-नायिकाओं के विलासितापूर्ण चित्र अङ्कित आशाओं पर पानी फेर दिया। विवाह में भोजनार्थ भावी करने की परिपाटी है। प्रकृति के आलम्बन-पक्ष के प्रति व्यापक हिंसा से उद्विग्न होकर नेमिनाथ दीक्षा ग्रहण कर वाल्मीकि तथा कालिदास का-सा अनुराग अन्य संस्कृत लेते हैं। इस अकारण निकरारण से राजीमती स्तब्ध रह कवियों में दृष्टिगोचर नहीं होता। कीतिराज ने यद्यपि जाती है। बन्धुजनों के समझाने-बुझाने से उसके तप्त विविध शैलियों में प्रकृति का चित्रण किया है, किन्तु प्रकृति हृदय को सान्त्वना तो मिलती है, किन्तु उसका जीवन-कोश के सहज-स्वाभाविक चित्र प्रस्तुत करने में उनका मन अधिक रीत चुका है। अन्ततः वह केवलज्ञानी नेमिनाथ की देशना रमा है और इन स्वभावोक्तियों में ही उनकी काव्यकला से परमपद को प्राप्त करती है।
का उत्कृष्ट रूप व्यक्त हुआ है। उग्रसेन -- भोजपुत्र उग्रसेन का चरित्र मानवीय गुणों
प्रकृति के आलम्बन पक्ष के चित्रण में कीतिराज ने से ओतप्रोत है। वह उच्चकुलप्रसूत नीतिकुशल शासक
सूक्ष्म पर्यवेक्षण का परिचय दिया है। वर्ण्यविषय के है। वह शरणागत वत्सल, गुणरत्नों की निधि तथा
साथ तादात्म्य स्थापित करने के पश्चात् प्रस्तुत किये कीर्तिलता का कानन है। लक्ष्मी तथा सरस्वती, अपना
गये ये चित्र अद्भुत सजीवता से स्पन्दित हैं। हेमन्त में परम्परागत द्वेष छोड़ कर उसके पास एक साथ रहती हैं।
दिन क्रमशः छोटे होते जाते हैं तथा कुहासा उत्तरोत्तर विपक्षी नृपगण उसके तेज से भीत होकर कन्याओं के उप
बढ़ता जाता है। उपमा को सुरुचिपूर्ण योजना के द्वारा हारों से उसका रोष शान्त करते हैं।
कवि ने हेमन्तकालीन इस प्राकृतिक तथ्य का मार्मिक चित्र अन्य पात्र
अङ्कित किया है। शिवादेवी नेमिनाथ की माता है। काव्य में उसके चरित्र का पल्लवन नहीं हुआ है। प्रतीकात्मक सम्राट मोह उपययौ शनकैरिह लाघवं दिनगणो खलराग इवा निशम् । तथा संयम राजनीतिकुशल शासकों की भांति आचरण ववृधिरे च तुषारसमृद्ध्योऽनुसमयं सुजनप्रणया इव ॥८।४८ करते हैं। मोहराज दूत कैतव को भेजकर संयम नृपति
शरत्कालीन उपकरणों का यह स्वाभाविक चित्र मनोको नेमिनाथ का हृदय दुर्ग छोड़ने का आदेश देता है। दूत
रमता से ओतप्रोत है। पूर्ण निपुणता से अपने स्वामी का पक्ष प्रस्तुत करता है । संयमराज का मन्त्री शुद्ध विवेक दूत की उक्तियों का मुंह
आपः प्रसेदुः कलमा विपेचुर्हसाश्चुकूजुर्जहसुः कजानि । तोड़ उत्तर देता है।
सम्भूय सानन्दमिवावतेरुः शरद्गुणाः सर्वजलाशयेषु ॥८।८२ प्रकृति-चित्रण- नेमिनाथकाव्य के विस्तृत फलक पर इस श्लेषोपमा में शरत् का समग्र रूप उजागर करने प्रकृति को व्यापक स्थान प्राप्त हुआ है। वस्तुत: नेमिनाथ में कवि को आशातीत सफलता मिली है।
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
रसविमुक्त विलोलपयोधरा हसितकाशलसत्पलितांकिता। ह्रासकालीन महाकाव्य-प्रवृत्ति के अनुसार कीतिराज क्षरित-पवित्रम शालिकण द्विजा जयति कापि शरजरती क्षितौ। ने प्रकृति के उद्दीपन रूप का भी वर्णन अपने काव्य में किया
८।४३ है। उद्दीपन रूप में प्रकृति मानव की भावनाओं को उद्वेलित . पावस में दामिनी की दमक, वर्षा की अविराम फुहार करती है । प्रस्तुत पंक्तियों में स्मरपट हसदृश धनगर्जना तथा शीतल बयार मादक वातावरण की सष्टि करती हैं। को विलासी जनों की कामाग्नि को प्रदीप्त करते हए पवन झकोरे खाकर मेघमाला, मधुरमन्द्र गर्जना करतो हुई चित्रित किया गया है जिससे वे रणशूर कामरण में पराजित गगनांगन में घूमती फिरती है। वर्षाकाल के इस सहज होकर प्राणवल्लभाओं की मनुहार करने में प्रवृत्त हो दृश्य को काव्य में इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है। उपमा जाते हैं। के प्रयोग ने भावाभिव्यक्ति को समर्थता प्रदान की है।
स्मरपतेः पटहानिव वारिदान् क्षरदभ्रजला कलगजिता सचपला चपलानिलनोदिता।
निनदतोऽथ निशम्य विलासिनः । दिव चचाल नवाम्बुदमण्डली गजघटेव मनोभवभूपतेः ॥८।३८
समदना न्यपतन्नवकामिनीनेमिनाथमहाकाव्य में पशृप्रकृति के भी अभिराम चित्र
चरणयो रणयोगविदोऽपि हि ॥ ८॥३७ प्रस्तुत किये गये हैं। ये एक ओर कवि की सूक्ष्म निरीक्षण
उद्दीपन पक्ष के इस वर्णन में प्रकृति पृष्ठभूमि में चली शक्ति के साक्षी हैं और दूसरी ओर उसके पशजगत की गया है और प्रेमी युगलों का भोग-विलास प्रमुख हो चेष्टाओं के गहन अध्ययन को व्यक्त करते हैं। हाथी का गया है, किन्तु परम्परा से ऐसे वर्णनों की गणना उद्दीपन यह स्वभाव है कि वह रात भर गहरी नींद सोता है।
के अन्तर्गत ही की जाती है। प्रात:काल जागकर भी वह अलसाई आँखों को मस्ती से
प्रियकरः कठिनस्तनकुम्भयोः प्रियकरः सरसातवपल्लव:। मदे पड़े रहता है किन्तु बार-बार करवटें बदल कर पाद
प्रियतमा समबीजयदाकुलां नवरतां वरतान्तलतागृहे ।। शृखला से शब्द करता है जिससे उसके जगने की सूचना
८१२३ गजपालों को मिल जाती है। निम्नोक्त स्वभावोक्ति में
नेमिनाथ काव्य में प्रकृति का मानवीकरण भी हुआ यह गजप्रकृति साकार हो उठी है ।
है। प्रकृति पर मानवीय भावनाओं तथा कार्यकलापों का निद्रासुखं समनुभूय चिराय रात्रा.
आरोप करने से वह मानव की भाँति आचरण करती है। वुद्भूतशृङ्खलारवं परिवर्त्य पार्श्वम्। प्रातःकाल सूर्य के उदित होते ही कमलिनी विकसित हो प्राप्य प्रबोधमपि देव ! गजेन्द्र एष
जाती है और भ्रमरगण उसका रसपान करने लगते हैं इसका ___ नोन्मीलयत्यलसनेत्रयुगं मदान्धः ।। २।५४ चित्रण कवि ने सूर्य पर नायक, कमलिनी में नायिका तथा व्याध के मधुरगोत के वशीभूत होकर, अपनी प्रियाओं भ्रमरगण पर परपुरुष का आरोप करके किया है । अपनो के साथ वन में चौकड़ी भरते हए हरिणों का हृदयनाही प्रेयसी को पर पुरुषों से चुम्बित देख कर सूर्य क्रोध से चित्र इस प्रकार अङ्कित किया गया है।
लाल हो जाता है तथा कठोर पादप्रहार से उस व्यभिकलगीतिनादरसरङ्गवे दिनो हरिणा अमी हरिणलोचने वने। चारिणी को दण्डित करता है। सह कामिनीभिरलमुत्पतन्ति हे. परिपीतवातपरिणोदिता इव ॥ यत्र भ्रमद्ममरचुम्बितानना
१२।११
मवेक्ष्य कोपादिव मूनि पद्मिनीम् ।
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्वप्रेयसी लोहितमूर्तिमावहन्
किन्तु उनका यमक न केवल दुहरूता से मुक्त है अपितु इससे कठोरपादैनिजघान तापनः ॥ २।४२ प्रकृति वर्णनों की प्रभावशालिता में वृद्धि हुई है। निम्नलिखित पद्य में लताओं को प्रगल्भा नायिकाओं सौन्दर्य चित्रण-कीर्तिराज ने काव्य के कतिपय के रूप में चित्रित किया गया है जो पुष्पवती होती हुई भी पात्रों के कायिक सौन्दर्य का हृदयहारी चित्रण किया है, तरुणों के साथ बाह्य रति में लीन हो जाती हैं। परन्तु उनकी कला की सम्पदा राजीमती तथा देवांगनाओं
कोमलाङ्गयो लताकान्ताः प्रवृत्ता यस्य कानने। के चित्रों को ही मिली है। सौन्दर्य-चित्रण में अधिकतर पुष्पवत्योऽन्यहो चित्रं तरुणालिङ्गनं व्यधुः ॥ १।३१ नखशिखप्रणाली का आश्रय लिया गया है जिसके अन्तर्गत
कतिपय स्थलों पर प्रकृति का आदर्श रूप चित्रित वय पात्र के अंगों-प्रत्यंगों का सूक्ष्म वर्णन किया जाता किया गया है। ऐसे प्रसंगों में प्रकृति निसर्गविरुद्ध आच- है। कवि ने बहुधा परम्परामुक्त उपमानों के द्वारा अपने रण करती है। जिनजन्म के अवसर पर प्रकृति ने अपनी पात्रों का सौन्दर्य व्यक्त किया है किन्तु उपमानयोजना में स्वभावगत विशेषताओं को छोड़ कर आदर्श रूप प्रकट उपमेय-सादृश्य का ध्यान रखने से उनके सौन्दर्य चित्रों में किया है।
सहज आकर्षण तथा सजीवता का समावेश हो गया है। सपदि दशदिशोऽत्रामेयनमल्यमापुः
जहाँ नवीन उपमानों का प्रयोग किया गया है वहाँ काव्यसमजनि च समस्ते जीवलोके प्रकाशः ॥
कला में अद्भत भावप्रेषणीयता आ गयी है। निम्नोक्त पद्य अपि ववुरनुकूला वायत्रो रेणुवर्ज
में देवांगनाओं की जघनस्थली को कामदेव की आसनगद्दी विलयमगमदापद् दौस्थ्यदुःखं पृथिव्याम् ॥ ३॥३९ कह कर उसकी पुष्टता तथा विस्तार का सहज भान करा प्रकृतिचित्रण में कात्तिराज ने परिगणनात्मक शैलो ।
दिया गया है। का भी आश्रय लिया है। निम्नोक्त पद्य में विभिन्न वक्षों वृता दुकूलेन सुकोमलेन विलग्नकाञ्चीगुणजात्यरत्ना ।
विभाति यासां जघनस्थली सा मनोभवस्यासनगन्दिकेव ।। के नामों की गणना मात्र कर दी है। सहकारएष खदिरोऽयमजुनोऽयमिमौ पलाशबकुलो सहोद्गता ।
६४७
इसी प्रकार राजीमती की जंघाओं को कदलीस्तम्भ कुट जावमू सरल एष चम्पको मदिराक्षि शेलविपिन गवेष्यताम ॥
तथा कामगज के आलान के रूप में चित्रित करके एक ओर १२।१३
उनकी सुडौलता तथा शीतलता को व्यक्त किया गया है तो काव्य में एक स्थान पर प्रकृति स्वागत कत्र के रूप में
दूसरी ओर, उनकी वशीकरण क्षमता को उजागर कर दिया प्रकट हुई है।
गया है। रचयितुं ह्य चितामतिथिक्रियां पथिकमा ह्वयतोव सगौरवम् ।
बभावुरूयुगं यस्याः कदलीस्तम्भकोमलम् । कुसुमिता फलिताम्रवणावली सुवयसां वयसां कलकूजितः ॥
आलान इव दुर्दान्त-मीनवे तनहस्तिनः ॥ ६५५ ८१८
नेमिनाथ महाकाव्य में उपमान की अपेक्षा उपमेय इस प्रकार कीर्तिराज ने प्रकृति के विविध रूपों का अंगों का वैशिष्ट्य बताकर, व्यतिरेक के द्वारा भी पात्रो चित्र किया है । ह्रापालोन संस्कृत महाकाव्यकारों को का लोकोत्तर सोन्दर्य चित्रित किया गया है। राजीमतो की भाँति उन्होंने प्रकृति चित्रग में यमक की योजना को है मुखमाधुरी से परास्त लावण्यनिधि चन्द्रमा को, लग्नावश
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
[
६८ ]
मुंह छिपाने के लिये, मन में मान-मारा फिरता हुआ चित्रित करके नवयौवना राजीमती के सर्वातिशायी मुखसौन्दर्य को मूर्त कर दिया है ।
यस्या वस्त्रेण जित: शंके लाघवं प्राप्य चन्द्रमाः । तुलवद्वायुनोत्क्षिप्तो बम्भ्रमीति नभस्तले ॥५२ रसयोजना
शास्त्रीय विधान के अनुसार महाकाव्य में शृङ्गार, वीर तथा शान्त में से किसी एक रस की प्रधानता होनी चाहिए । नेमिनाथ महाकाव्य में शृङ्गार का अङ्गी रस के रूप में पल्लवन हुआ है । वीर, रौद्र, करुण आदि शृङ्गार रस के पोषक बन कर आए हैं । ऋतुवर्णन के प्रसंग में शृङ्गार के अनेक रमणीक चित्र दृष्टिगत होते हैं । स्मरपतेः पटहानिव वारिदान् निनदतोऽय निशम्य विलासिनः । समदना न्यपतन्नवकामिनीचरणयोः रणयोगविदोऽपि हि ॥
1
८।३७
यहाँ नायक की नायिकाविषयक रति स्थायीभाव है । प्रमदा आलम्बन विभाव है । कामदुन्दुभितुल्य मेघगर्जना उद्दीपन विभाव है। रणजेता नायक का मानभंजन के निमित्त नायिका के चरणों में गिरना अनुभाव है । औत्सुक्य, मद आदि व्यभिचारी भाव हैं। इन विभाव, अनुभाव तथा संचारी भावों से पुष्ट होकर नायक का स्थायीभाव शृङ्गार के रूप में निष्पन्न हुआ है ।
निम्नोक्त पद्य में शृंङ्गाररस की सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है।
उपवने पवनेरितपादपे नवतरं बत रन्तुमनाः परा । सकरुणा करुणावचये प्रियं प्रियतमा यतमानमवारयत् ।।६।२२
पांचवें सर्ग में सहसा सिंहासन के प्रकम्पित होने से क्रोधोन्मत हुए इन्द्र के वर्णन में रौद्र रस का भव्य चित्रण हुआ है।
ललाटपट्ट भ्रुकुटीभयानकं ध्रुवो भुजंगाविव दारुणाकृती | यः काला अतिकुण्डखण्डानाभं मुखमादयेऽसौ ॥
ददंश दन्तै रषया हरिनिजी रसेन शच्या अधराविवाधरौ ॥ प्रस्फोटयामास करावितस्ततः क्रोधद्र मस्योल्बणपल्लवाविव ॥ ५।३-४ अज्ञात
यहां इन्द्र का हृद्गत क्रोध स्थायीभाव है । जिनेश्वर आलम्बन विभाव है । सिंहासन का अकस्मात कांपना उद्दीपन विभाव है । ललाट पर भृकुटि का प्रकट होना, भौहों का तनना, नेत्रों का अग्निकुण्ड की भांति अग्निवर्षा करना, अधरों का काटना तथा हाथों का स्फोटन अनुभाव हैं। अमर्ष, आक्षेप, उग्रता आदि संचारी भाव संयोग से क्रोध रौद्र रस के रूप में व्यक्त
हैं । इनके हुआ है ।
प्रतीकात्मक सम्राट मोह के दूत तथा संयमराज के नीतिनिपुण मन्त्री विवेक की उक्तियों के अन्तर्गत, ग्यारहव सर्ग में, वोररस की कमनीय झांकी देखने को मिलती है । यदि शक्तिरिहास्ति ते प्रभोः प्रतिगृह्णातु तदा तु तान्यपि । परमेष विलोलजिह्वया कपटी भापयते जगज्जनम् ||११|४४
मन्त्री विवेक का उत्साह यहाँ स्थायी भाव के रूप में वर्तमान है। मोहराज आलम्बन है । उसके दूत की कटूक्तियाँ उद्दीपन का काम करती हैं । मन्त्री का विपक्ष को चुनौती देना तथा मोह की वाचालता का मजाक उड़ाना अनुभाव हैं। धृति, गर्व, तर्क आदि संचारी भाव हैं । इस प्रकार वीररस समूचे उपकरण यहां विद्यमान हैं ।
इसी सर्ग में अप्रत्याशित प्रत्याख्यान से शोकतत राजीत के विलाप में करुणरस को सृष्टि हुई है । अथ भोजनरेन्द्रपुत्रिका प्रविमुक्ता प्रभुगा तपस्विनी । व्यलपद्गलदश्रुलोचना शिथिलांगा लुठिता महीतले ॥११॥१ राजीमती का निराकरणजन्य शोक स्थायीभाव है । नेमिनाथ आलम्बन विभाव हैं। विवाह से अचानक विरत होकर उनका प्रव्रज्या ग्रहण कर लेना उद्दीपन विभाव है। पृथ्वी पर लोटना, अंगों का विचित्र होना तथा आपू
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
बहाना अनुभाव हैं। विषाद, चिन्ता, स्मृति आदि प्रयोग हुआ है । नवे सर्ग में भाषा के थे समस्त गुण देखे व्यभिचारी भाव हैं। इनसे समृद्ध होकर राजीमती के जा सकते हैं। शोक की अभिव्यक्ति करुण रस के रूप में हुई है।
विवाहय कुमारेन्द्र ! बालाश्चञ्चललोचनाः । इस प्रकार कीतिराज ने काव्य में रसात्मक प्रसंगों के भुक्ष्व भोगान् समं ताभिरप्सरोभिरिवामरः ॥ द्वारा पात्रों के मनोभावों को वाणो प्रदान की है तथा रूप-सौन्दर्य-सम्पन्नां शीलालङ्कारधारिणीम् । काव्य सौन्दर्य को प्रस्फुटित किया है।
झरल्लावण्य-पीयूष-सान्द्र-पीनपयोधराम् ॥ भाषा
हेमाब्जगर्भगौराङ्गों मृगाक्षी कुलबालिकाम् । नेमिनाथ महाकाव्य की सफलता का अधिकांश श्रेय ये नोपभुञ्जते लोका वेधसा वञ्चिता हि ते ॥ इसकी प्रसादपूर्ण प्रांजल भाषा को है। विद्वत्ताप्रदर्शन,
संसारे सारभूतो यः किलायम्प्रमदाजनः । उक्तिटे चित्र्य, अलंकरणप्रियता आदि समकालीन प्रवृत्तियों योऽसारश्चेतवाभाति गर्दभस्य गुणोपमः ॥६।१२-१५ के प्रबल आकर्षण के समक्ष आत्मसमर्पण न करना कीर्ति- शार्दूलविक्रीडित जैसे विशालकाय छन्द में भाषा के राज की मौलिकता तथा सुरुचि का द्योतक है । नेमिनाथ माधुर्य को यथावत् सुरक्षित रखना कवि की बहुत बड़ी महाकाव्य की भाषा महाकाव्योचित गरिमा तथा प्राणवत्ता उपलब्धि हैसे मण्डित है। कवि का भाषा पर पूर्ण अधिकार है किन्तु पुण्याढ्य कमला यथा निजपति योषाः सुशोला यथा अनावश्यक अलंकरण की ओर उसकी प्रवृत्ति नहीं । इसी- सूत्राथं विशदा यथा विवृतयस्तारा यथा शीतगुम् । लिये उसके काव्य में भावपक्ष तथा कलापक्ष का मनोरम पुंसां कर्म यथा धियश्च हृदयं खानां यथा वृत्तयः समन्वय दृष्टिगत होता है । नेमिनाथ महाकाव्य की भाषा सानन्दं कुलकोटयः किल यदूनामन्वगुस्तं तथा ॥ की मुख्य विशेषता यह है कि वह, भाव तथा परिस्थिति
१०।१० के अनुसार स्वत: अपना रूप परिवर्तित करती जाती है। यद्यपि समस्त महाकाब्य प्रसादगुण को माधुरी से फलस्वरूप वह कहीं माधुर्य से तरलित है तो कहीं ओज से ओत-प्रोत है, किन्तु सातवें सर्ग में प्रसाद का सर्वोतम रूप प्रदीप्त । भावानुकूल शब्दों के विवेकपूर्ण चयन तथा कुशल दीख पड़ता है। इसमें जित सहज, सरल तथा सुबोध गुम्फन से ध्वनिसौन्दर्य को सृष्टि करने में कवि ने सिद्ध- भाषा का प्रयोग हुआ है, उस पर साहित्यदर्पणकार को हस्तता का परिचय दिया है । अनुप्रास तथा यमक के सुरु- यह उक्ति "चित्तं व्याप्नोति यः क्षिप्रं शुष्कन्धनमिवानल:' चिपूर्ण प्रयोग से उनके काव्य के माधुर्य में रचनात्मक झंकृति अक्षरशः चरितार्थ होतो है।। का समावेश हो गया है। निम्नलिखित पद्य में यह विशेषता बभौ राज्ञः सभास्थानं नानाविच्छितिसुन्दरम् । भरपूर मात्रा में विद्यमान है।
प्रभोर्जन्ममहो द्रष्टुं स्वविमानमिवागतम् ॥७॥१३ गुरुणा च यत्र तरुणाऽगुरुणा वसुधा क्रियेत सुरभिर्वसुधा। अनेकः स्वार्थमिच्छद्भिविनीपकावनोपकैः । कमनातुरेति रमणेकमना रमणी सुरस्य शुचिहारमणी ॥५।५१ राजमार्गस्तदाकीर्णः खगैरिव फलद्रुमः ॥ ७।१५
शृङ्गार आदि कोमल भावों के चित्रण की पदावली नीतिकथन की भाषा सबसे सरल है। नवे सर्ग में माखन-सी मृदुल, सौन्दर्य-सी सुन्दर तथा यौवन-सी मादक नेमिनाथ की नीतिपरक उक्तियाँ भाषा को इसी सरलता, है। ऐसे प्रसंगों में सर्वत्र अल्लसमास वालो पदावली का मसूणता तथा कोमलता से युक्त हैं ।
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
।
७०
हितं धर्मोषधं हित्वा मूढाः कामज्वरादिताः । १-ही प्रेम तद्यद्वशवर्तिचित्तः प्रत्येति दुःखं सुखरूपमेव मुखप्रियमपथ्यन्तु सेवन्ते ललनौषधम् ।।६।२४
।२।४३ आत्मा तोषयितुं नैव शक्यो वैषयिकैः सुखैः । २-विचार्य वाचं हि वदन्ति धीराः ।३।१८ सलिलैरिव पायोधि: काष्ठरिव धनञ्जयः ।६।२५ ३- उच्चैः स्थितिर्वा क्व भवेज्जडानाम् । ६।१३
किन्तु क्रोध तथा युद्ध के वर्णन में भाषा ओज से ४-स्थानं पवित्राः क्व न वा लभन्ते । ६।३३ परिपूर्ण हो जाती है। ओजव्यंजक कठोर शब्दों के द्वारा ५-जनोऽभिनवे रमतेऽखिलः । ८१३ यथेष्ट वातावरण का निर्माण करके कवि ने भावव्यंजना को ६- काले रिपुमप्याश्रयेत्सुधीः । ८।४६ अतोव समर्थ बना दिया है। मोह तथा संयम के युद्ध ७-सकलोऽप्युदितं श्रयतीह जनः । ८।५३ वर्णन में भाषा की यह शक्तिमत्ता वर्तमान है।
-पित्रोः सुखायैव प्रवर्तन्ते सुनन्दनाः । ६।३४ रणतूर्यरवे समुत्थिते भटहक्कापरिगजितेऽम्बरे।
___-शुद्धिर्न तपो विनात्मनः । ११।२३ उभयोर्बलयोः परस्परं परिलग्नोऽथ विभीषणो रणः ॥१११७६
पांचवे सर्ग में इन्द्र के क्रोधवर्णन में जिस पदावली को १०-नहि कार्या हितदेशना जड़े । १११४८ योजना की गयी है, वह अपने वेग तथा नाद से हृदय में ११-नहि धर्मकर्मणि सुधीविलम्बते । १२।२ ओज का संचार करती है। इस दृष्टि से यह पद्य विशेष इन बहुमूल्य गुणों से भूषित होती हुई भी नेमिनाथदर्शनीय है।
काव्य को भाषा में कतिपय दोष हैं, जिनकी ओर संकेत न विपक्षपक्षक्षयबद्धकक्ष विद्युल्लताना मिव सञ्चयं तत्। करना अन्यायपूर्ण होगा। काव्य में कुछ ऐसे स्थलों पर स्फुरत्स्फुलिङ्ग कुलिशं करालं ध्यात्वेति यावत्स जिधृक्षतिस्म विकट समासान्त पदावली का प्रयोग किया गया है जहाँ
॥ ५९ उसका कोई औचित्य नहीं है। युद्धादि के वर्णन में तो कीतिराज की भाषा में बिम्ब निर्माण को पूर्ण क्षमता समास बहुला शैली अभीष्ट वातावरण के निर्माण में सहायक है। सम्भ्रम के चित्रण में भाषा त्वरा तथा वेग से पूर्ण होती है, किन्तु मेरुवर्णन के प्रसंग में इसकी क्या है। देवसभा के इस वर्णन में, उपयुक्त शब्दावली के सार्थकता है ? प्रयोग से सभासदों की इन्द्रप्रयाणजन्य आकुलता साकार भित्तिप्रतिज्वलदनेकमनोज्ञरलनिर्यन्मयूखपटलीसतत प्रकाशाः । हो उठी है।
द्वारेषु निर्मक रपुष्करिणीजलोमिमूर्द्धन्महमुषितयात्रिकगात्रधर्माः दृष्टि ददाना सकलासु दिक्षु किमेतदित्याकुलितं ब्रु वाणा।
॥५५२ उत्थानतो देवपतेरकस्मात् सर्वापि चुक्षोभ सभा सुधर्मा ॥ इसके अतिरिक्त ने मिनाय महाकाव्य में यत्र-तत्र, छन्द
५।१८ पूर्ति के लिये बलात् अतिरिक्त पदों का प्रयोग किया गया नेमिनाथ काव्य में यत्र-तत्र मधुर सूक्तियों तथा है । स्वकान्तरक्ताः के पश्चात् 'शुचयः' तथा 'पतिव्रताः' लोकोक्तियों का प्रयोग हुआ है जो इसकी भाषा की (२।३६) का, शुक के साथ 'वि' का (२।५८) मराल के लोकसम्पृक्ति को सूचक हैं तथा काव्य की प्रभावकारिता साथ खग का (२।५९), विशारद के साथ 'विशेष्यजन' का को वृद्धिगत करतों हैं। कोतपय मार्मिक सूक्तियाँ यहाँ (१११।६) तथा वदन्ति के साथ 'वाचम्' का (३।१८) प्रयोग उधृत को जातो हैं।
सर्वथा आवश्यक नहीं है । इनसे एक ओर, इन स्थलों पर,
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
[
७१
]
कवि की छन्द प्रयोग में असमर्थता व्यक्त होती है, दूसरी तुद मे ततदम्भत्वं त्वं भदन्ततमेद तु। ओर, यहाँ वह काव्यदोष आ गया है, जो साहित्यशास्त्र में रक्ष तात ! विशामीश ! शमीशा वितताक्षर ॥ १२॥३८ 'अधिक' नाम से ख्यात है।
प्रस्तुत दो पद्यों की पदावली में पूर्ण साम्य है, किन्तु नेमिनाथ काव्य में कतिपय देशी शब्द भी प्रयुक्त हुए पदयोजना तथा विग्रह के वैभिन्य के आधार पर इनसे दो हैं । बीच के लिये विचाल, गद्दी के लिये गन्दिका; माली भिन्न-भिन्न अर्थ निकाले गये हैं । के लिये मालिक: उल्लेखनीय हैं। इनमें से 'विचाल' शब्द महामद भवाऽऽरागहरि विग्रहहारिणम् । कुछ उच्चारण भिन्नता के साथ, पंजाबी में अब भी प्रमोदजाततारेनं श्रेयस्करं महाप्तकम् ॥ १२॥४१ प्रचलित है।
महाम दम्भवाराग हरिं विग्रहहारिणम् । नेमिनाथ महाकाव्य की भाषा में निजी आकर्षण है।
प्रमोदजाततारेनं श्रेयस्करं महाप्तकम् ॥ १२॥४२ वह प्रसंगानुकुल, प्रौढ़, सहज तथा प्रांजल है। निस्सन्देह
ये पद्य विद्वत्ता को चुनौती हैं । टीका के बिना इनका इससे संस्कृत-साहित्य गौरवान्वित हुआ है।
वास्तविक अर्थ समझना विद्वानों के लिये भी सम्भव नहीं। पाण्डित्यप्रदर्शन था शाब्दी क्रीड़ा
ये रसचर्वणा में भले ही बाधक हों, इनसे कवि का अगाध कीतिराज ने बारह सर्ग में चित्रालकारों के द्वारा काव्य
पाण्डित्य, रचनाकौशल तथा भाषाधिकार व्यक्त होता में चमत्कृति लाने तथा पाण्डित्य प्रदर्शित करने का प्रयत्न है। माघ, वस्तुपाल आदि को भाँति पूरे सर्ग में इन किया है । सौभाग्यवश एसे पद्यों की संख्या बहुत कम है। कलाबाजियों का सन्निवेश न करके कीतिराज ने अपने सम्भवत: इन पद्यों के द्वारा वे बतला देना चाहते हैं कि मैं पाठकों को बौद्धिक व्यायाम से बचा लिया है। समवर्ती काव्यशैली से अनभिज्ञ अथवा चित्रकाव्य की
अलंकारविधान- अलङ्कारयोजना में भी कीर्तिराज रचना करने में असमर्थ नहीं हुँ, किन्तु अपनी सुरुचि के की मौलिक सूझ-बूझ का परिचय मिलता है। नेमिनाथ कारण मुझे वह ग्राह्य नहीं है । ऐसे स्थलों पर भाषा के
काव्य में शब्दालङ्कार तथा अर्थालंकार दोनों का व्यापक साथ मनमाना खिलवाड़ किया गया है जिससे उसमें दुरू
'दुल प्रयोग हुआ है, किन्तु भावों का गला घोंट कर बरबस हता तथा क्लिष्टता का समावेश हो गया है।
अलंकार हँसने का प्रयत्न कीर्तिराज ने कहीं नहीं किया निम्नलिखित पद्य में केवल दो अक्षरों, 'ल' तथा क, है। उनके काव्य में अलंकार इस सहजता से प्रयुक्त हुए का प्रयोग हुआ है।
हैं कि उनसे काव्यसौन्दर्य स्वतः प्रस्फुटित होता जाता है । लुलल्लीलाकलाके लिकीला केलिकलाकुलम् ।
नेमिनाथमहाकाव्य के अलंकार भावाभिव्यक्ति को समर्थ लोकालोकाकलं कालं कोकिलालिकुलालका ।। १२।३६
बनाने में पूर्णतया सक्षम हैं। इस पद्य की रचना में केवल एक व्यञ्जन तथा तीन
____ अन्त्यानुप्रास की स्वाभाविक अवतारणा का एक स्वरों का आश्रय लिया गया है। अतीतान्तेन एतां ते तन्तन्तु ततताततिम् ।
उदाहरण देखियेऋततां तां तु तोतोत्तु तातोऽततां ततोऽन्ततुत् ॥ १२॥३७ ।।
जगञ्जनानन्दथुमन्दहेतुर्जगत्त्रयक्लेशसेतुः । निम्नोक्त पद्य की रचना अनुलोम विलोमात्मक विधि
जगत्प्रभुर्यादववंशकेतुर्जगत्पुनाति स्म स कम्बुकेतुः ।।३।३७ से हुई है। अत: यह प्रारम्भ तथा अन्त से एक समान पढा शब्दालंकारों में यमक का काव्य में प्रचर प्रयोग जा सकता है।
किया गया है। यमक की सुरुचिपूर्ण योजना शृङ्गार
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ७२ । माधुरी को वृद्धिगत करने में सहायक हुई है।
फिञ्च पित्रोः सुखायेव प्रवर्तन्ते सुनन्दनाः । वनितयाऽनितया रमणं कयाऽप्यमलया मलयाचलमारुतः। सदा सिन्धोः प्रमोदाय चन्द्रो व्योमावगाहते ॥ ३४ धुत-लता-तल-तामरसोऽधिको नहि मतो हिमतो विषतोऽपिन॥ शरवर्णन में मदमत्त वृषभ के आचरण की पुष्टि एक
सामान्य उक्ति से करते हए अर्थान्तरन्यास का प्रयोग किया नेमिनाथमहाकाव्य में श्लोकाध्यमक को भी विस्तृत गया है । स्थान मिला है, किन्तु कीतिराज के यमक की विशेषता मदोत्कटा विदार्य भूतलं वृषाक्षिपन्ति यत्र मतस्के रजो निजे । यह है कि वह सर्वत्र दुरूहता तथा क्लिष्टता से मुक्त है। अयुक्त-युक्त-कृत्य-संविचारणां विदन्ति किं कदा मदान्धबुद्धयः पुण्य ! कोपचयदं नतावकं पुण्यकोपचयदं न तावकम् ।
॥३॥४४ दर्शनं जिनप ! यावदीक्ष्यते तावदेव गददुःस्थतादिकम् ॥१२॥३३ जिनेश्वर की लोकोत्तर विलक्षणता का चित्रण करते
अर्थालंकारों का प्रयोग भी भावाभिव्यक्ति को सघन समय कवि की कल्पना अतिशयोक्ति के रूप में प्रकट बनाने के लिये किया गया है। उपमा, उत्प्रेक्षा, दृष्टान्त, हुई है । रूपक, अर्थान्तरन्यास, समासोक्ति, अतिशयोक्ति, उल्लेख यद्यर्कदुग्धं शुचिगोरसस्य प्राप्नोति साम्यं च विषं सुधायाः । आदि की विवेकपूर्ण योजना से काव्य में अद्भुत भाव देवान्तरं देव ! तदा त्वदीयां तुल्या दधाति त्रिजगत्प्रदीपः ॥ प्रेषणीयता आ गयी है। जिनेश्वर के स्नात्रोत्सव के
६।३५ प्रसंग में मूर्त की अमूर्त से उपमा का सुन्दर प्रयोग हुआ है। इनके अतिरिक्त परिसंख्या, वक्रोक्ति, विरोधाभास, देवता अथ शिवां सनन्दनां निन्यिरे धनददिनिकेतनम्। सन्देह, असंगति, विषम, सहोक्ति, निदर्शना, पर्यायोक्ति, धर्मशास्त्रसहितां मतिं गिरः सद्गुरोरिव विनेयमानसम् ॥ व्यतिरेक, विभावना आदि अलंकार नेमिनाथ काव्य के
४॥४८ सौन्दर्य में वृद्धि करते हैं। इनमें से कुछ के उदाहरण यहां प्रस्तुत पद्य में उत्प्रेक्षा की मामिक अवतारणा हुई है। दिये जाते हैं । पवमानचञ्चलदलं जलाशये रवितेजसा स्फुटदिदं पयोरुहम्। परिसंख्या- न मन्दोऽत्र जनः कोऽपि परं मन्दो यदि ग्रहः । परिशंक्य ते बत मया तवाननात कमलाक्षि ! बिभ्यदिव
वियोगो नापि दम्पत्यो वियोगस्तु परं वने ॥१।१७ कम्पतेतराम् ।। १२।६ सन्देह- पिशङ्गवासाः किमयं नारायणः ? रूपक का सफल प्रयोग निम्नोक्त पंक्तियों में दृष्टिगत
सुवर्णकाय: किमयं विहङ्गम: ? होता है।
सविस्मयं तर्कितमेवमादित: रात्रि-स्त्रिया मुग्धतया तमोऽञ्जनै
सिंहं स्फुरत्काञ्चनचारुकेसरम् ? २५ दिग्धानि काष्ठातनयामुखान्यथ । वक्रोक्ति- देवः प्रिये ! को वृषभोऽयि ! किं गौः ? प्रक्षालयत्पूषमयूखपायसा
नैवं वृषांक: ? किमु शंकरो ? न । देव्या विभातं ददृशे स्वतातवत् ॥ २॥३० जिनो तु चक्री ति वधूवराभ्यां कृष्णपत्नियां नेमिनाथ को जिन युक्तियों से वैवाहिक
यो वक्रमुक्तः स मुदे जिनेन्द्रः ।।३।१२ जीवन में प्रवृत्त करने का प्रयास करती हैं, उनमें, एक असंगति -- गन्धसार-धनसार-विलेपं स्थान पर, दृष्टान्त की भावपूर्ण योजना हुई है।
कन्यका विदधिरेऽथ तदंगे।
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
। ७३ ] कौतुकं मह दिदं यदमूषामप्यनश्यदखिलो खलु तापः अन्य आठ छन्दों के नाम इस प्रकार हैं- द्रुतविलम्बित,
॥४॥४४ उपजाति (इन्द्रवज्रा + उपेन्द्रवज्रा), इन्द्रवज्रा, स्वागता, विरोधाभास-दिग्देव्योऽपि रसलीनाः सभ्रमा अप्यविभ्रमाः। रथोद्धता, इन्द्रवंशा, उपजाति, (इन्द्रवंशा + वंशस्य) वामा अपि च नो वामा भूषिता अप्यभषिताः तथा शालिनी । पंचम सर्ग में सात छन्दों को अपनाया
___ गया है-उपजाति (इन्द्रवज्रा + उपेन्द्रवज्रा), इन्द्रवज्रा, पर्यायोक्ति-रण रात्रौ महीनाथ ! चन्द्रहासो विलोक्यते। वसन्ततिलका, वंशस्थ, प्रमिताक्षरा, रथोद्धता तथा शार्दूवियुज्यते स्वकान्ताभ्यश्चक्रवाकैरिवारिभिः
लविक्रीडित । छठे सर्ग में पांच छन्द दृष्टिगोचर होते हैं।
इनमें उपजाति की प्रमुखता है। शेष चार छन्द हैं॥ ८२७
उपेन्द्रवज्रा, इन्द्रवज्रा, शार्दूलविक्रीडित तथा मालिनी । विषम- मोदकः क्वौक शाश्चात्र क्व सपि:खण्डमोदकः । क्वेदं वैषयिक सौख्यं क्वचिदानन्दजं सुखम् ।।६।२२
अष्टम सर्ग में प्रयुक्त छन्दों की संख्या ग्यारह है। उनके
नाम इस प्रकार हैं-द्रुतविलम्बित, इन्द्रवज्रा, विभावरी, छन्दयोजना
उपजाति (वंशस्य + इन्द्रवंशा), स्वागता, वैतालीय भावव्यंजक छन्दों के प्रयोग में कीतिराज पूर्णत: सिद्ध- नन्दिनी, तोटक, शालिनी, स्रग्धरा तथा एक अज्ञातनामा हस्त हैं। उनके काव्य में अनेक छन्दों का उपयोग विषम वृत्त । इस सर्ग में नाना छन्दों का प्रयोग ऋतुकिया गया है। प्रथम, सप्तम तथा नवम सर्ग में अनुष्टुप परिवर्तन से उदित विविध भावों को व्यक्त करने में पूर्णकी प्रधानता है। प्रथम सर्ग के अन्तिम दो पद्य मालिनी तया सक्षम है । बारहवें सर्ग में भी ग्यारह छन्द प्रयोग में तथा उपजाति छन्द में हैं, सप्तम सर्ग के अन्त में मालिनी का लाए गये हैं । वे इस प्रकार हैं- नन्दिनी, उपजाति प्रयोग हुआ है और नवम सर्ग का पैंतालीसवां तथा अन्तिम (इन्द्रवंशा +- वंशस्थ), उपजाति ( इन्द्रवज्रा + उपेन्द्रपद्य क्रमशः उपगीति तथा नन्दिनी में निबद्ध है। ग्यारहवें वज्रा), रथोद्धता, वियोगिनी, द्रुतविलम्बित, उपेन्द्रवज्रा, सर्ग में वैतालीय छन्द अपनाया गया है। सर्गान्त में उप- अनुष्टुप्, मालिनी, मन्दाक्रान्ता तथा आर्या । दसवें सर्ग की जाति तथा मन्दाक्रान्ता का उपयोग किया गया है। रचना में जिन चार छन्दों का आश्रय लिया गया है, उनके तृतीय सर्ग की रचना उपजाति में हुई है। अन्तिम दो नाम इस प्रकार हैं-उपजाति (इन्द्रवज्रा + उपेन्द्रवज्रा), पद्यों में मालिनी का प्रयोग हुआ है। शेष सात सर्गों में शार्दूलविक्रीडित, इंद्रवज्रा तथा उपेन्द्रवज्रा । इस प्रकार कवि ने नाना वृत्तों के प्रयोग से अपना छन्दज्ञान प्रदर्शित नेमिनाथ महाकाव्य में कुल मिला कर पच्चीस छन्द प्रयुक्त करने की चेष्टा की है। द्वितीय सर्ग में उपजाति (वंशस्थ हुए हैं। इनमें उपजाति का प्रयोग सबसे अधिक है। इन्द्रवंशा), इन्द्रवंशा, वंशस्थ, इन्द्रवज्रा, उपजाति (इन्द्रवज्रा इस काव्य के मूलमात्र का संस्करण यशोविजय उपेन्द्रवज्रा), वसन्ततिलका, द्रुतविलम्बित तथा शालिनी, ग्रन्थमाला भावनगर से सं० १९७० में प्रकाशित हुआ है। इन आठ छन्दों को प्रयुक्त किया गया है। चतुर्थ सर्ग को उसके बाद आधुनिक टीका सहित एक पत्राकार संस्करण रचना नौ छन्दों में हुई है। इनमें अनुष्टुप् का प्राधान्य है। भी प्रकाशित हुआ है ।
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
मणिवारी दादा श्रोजिन चन्द्रसूरिजो और दिल्लोपति राजा मदनपाल
[ महावीर स्वामी का मन्दिर, कलकत्ता से ]
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
उ० श्रीलब्धिमुनिविरचितम्
नरमणि-मण्डित-भालस्थल युगप्रधान श्रीजिनचन्द्रसूरि चरितम् [खरतर गच्छ में युगप्रधान श्रीजिनदत्तसूरिजी, उनके पट्टधर मणिधारी श्रीजिनचंद्रसूरिजी, प्रगटप्रभावी श्री जिनकुशलसूरिजी और अकबर-प्रतिबोधक श्री जिनचन्द्रसूरिजी, ये चारों आचार्य दादाजो के नाम से विख्यात हैं, हमने जब साहित्य को शोध महोपाध्याय कविवर समयसुंदर संबन्धी विशेष जानकारी प्राप्त करने लिए प्रारंभ को तो उनके दादागुरू चतुर्थ दादा साहब सम्बन्धी विपुल समग्री हमारे सामने आई । हमने शताधिक ग्रन्थों के आधार से उनका स्वतन्त्र विस्तृत जीवनचरित्र 'युगप्रधान श्रोजिनचन्द्र सूरि' सं० १९६२ में प्रकाशित किया और उसके बाद क्रमशः दादा श्रीजिनकुशलसूरि, मणिधारी जिनचन्द्रसूरि के चरित्र प्रकाशत किये । जब वे परमपूज्य आशु-कवि आध्याय लब्धिमुनिजी को भेजे गये तो उन्होंने उनके आधार से चार संस्कृत काव्य निर्माण कर दिये। अकबर प्रतिबोधक जिनचन्द्रसूरि चरित काव्य ६ सर्गों में १२१२ पद्यों का है। सं० १९६२ के बैशाख सुदि ७ को भुजनगर में इसकी रचना हुई है। इसके बाद श्री जिनकुशलसूरि चरित्र ६३३ श्लोकों में सं० १९६६ मार्गशीर्ष शु १५ अहमदाबाद में पूर्ण किया। तदनंतर मणिधारी जिनचन्द्रसूरि चरित्र सं० १६६८ के अक्षयतृतीया का बंबई में रचा । अंतिम श्री जिन दत्तसूरि चरित्र ४६८ श्लोकों में सं० २००५ बैशाख सुदि ५ को जयपुर में पूर्ण किया । इन चारों संस्कृत काव्यों में से अकबर-प्रतिबोधक श्री जिन चन्द्रसूरि चरित्र दादागुरु के अनन्य भक्त को अभयचंदजी व श्री लक्ष्मीचन्दजी सेठ द्वारा प्रकाशित हो गया है। अभी अष्टम शताब्दी के प्रसंग से मणिधारीजी का चरित्र भी प्रकाशित करना अत्यावश्यक समझ कर उसे यहां दिया जा रहा है।
-संपादका प्रणम्य श्रीमहावोरं चरितं लिख्यते मया।
एभिः सम्प्राप्य षड्विंशत्यब्दाल्पायुरकारयत् । मणिभृज्जिनचन्द्राख्य सूरीणां पुण्यशालिनाम् ॥ १॥ कार्य तदस्ति चाश्चर्यजनकं गौरवान्वितम् ॥ ६ ॥ जैनसमाजे विख्याता दादेति नामधारकाः । __ अज्ञायि गुरुवर्येण श्रीजिनदत्तसूरिणा। श्रोजिनदत्तसूरीशाः श्रोजिनचन्द्रसूरयः ॥२॥
प्रतिभादिपरीक्षातः स च महाप्रभावकः ।। ७॥ जिनकुशलसूरीशाः श्रीजिनचन्द्रसूरयः।।
दृश्यन्ते दत्तसूरीणां लोकोत्तरप्रभावकाः । श्रोखरतरगच्छस्य चतुर्वेतेषु सूरिषु ।। ३ ।।
श्रीजिनचन्द्रसूरीश-जीवने चांकिता गुणाः ॥ ८ ॥ श्रीजिनदत्तसूरीणां समागच्छत्यनन्तरम् । श्रोजिनचन्द्रसूरीणा-मभिधा मणिवारिणाम् ॥४॥
मणिधारी महान् व्यक्ति-रसाधारणसज्जनः ।
विभिविशेषकम अभूदतोऽस्य संक्षिप्त परिचयोऽत्र दीयते ॥ ६॥ ते महाप्रतिभाशालि-विद्वांसः सूरयोऽभवन् । जेसलमेरुदुर्गस्य सौष्ठवराज्यवत्तिनि । शुद्धज्ञान-क्रियायुक्ता जिनधर्मप्रभावकाः।। ५।। श्रीविक्रमपुर द्रङ्ग चैत्य-श्राद्धजनाकुले ॥ १० ॥
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
। ७६ ] उवास रासलश्रेष्ठी श्राद्धधर्मपरायणः।।
तत्र संवद्गुणव्योमसूर्याब्दे फाल्गुनाजने । धर्मिष्ठा स्त्री गुणश्रेष्ठा तस्य देल्हणदे प्रिया ॥ ११॥ नवम्यां पार्श्वनाथस्य विधिचैत्ये महोत्सवात् ।। २६ ॥
युग्मम् श्रं जिनदत्तसूरीणां महाप्रभावशालिनाम् । तस्याः कुक्षेरभूदस्य शैलाङ्कद्रवत्सरे।
शिष्यत्वेनाभवद् दीक्षा लात्वा रासलनन्दनः ।। २७॥ भाद्रशुक्लाष्टमी घस्र ज्येष्ठायां जन्म सत्क्षणे ॥ १२॥ सोऽसाधारणधीशाली स्मरणशक्तिसंयुतः । श्रीजिनदत्तसूरीणां श्रीविक्रमपुरे महान् ।
अल्पीयसापि कालेन विकसत्प्रतिभोऽभवत् ॥ २८ ॥ प्रभावः समभून्मार्याद्युपद्रव-निवारणात् ।। १३ ॥ चक्र लघुवयस्कस्य सरस्वतीसुतस्य च । श्रीजिनदत्तसूरीशै गिजड़विषये पुनः।
मेघा श्लाघा मुनेरस्य सर्वैर्जनः प्रहर्षितः ॥ २६ ॥ रचित्वा चर्चरीग्रन्योऽपभ्रंश भाषया वरः ॥ १४ ॥ सूरेरपि परीक्षायाः श्लाघां चक्रर्जना अथ । मेहर वासलादोनां विक्रमपुरवासिनाम् ।
श्री विक्रमपुरे संवद्वाण-ख-सूर्य-वत्सरे ॥ ३० ॥ श्राद्धानां पठनार्थं च प्रेषितो विक्रमे पुरे ॥१५।। युग्मम् वैशाखे शक्लषठ्यां च महावीरजिनालये। ग्रन्थेन भावितस्तेन श्रावकः सह्नियात्मजः । स जिनचन्द्रसूरीशेः स्वपदे स्थापितो मुनिः ॥३१॥युग्मम् देवधरः परित्यज्याम्नायं च चैत्यवासिनः ॥ १६ ॥
श्रीजिनचन्द्रसूरीति नाम्ना ख्यातिं गतः स च । लात्वाऽ नमेरुतः सूरीन् श्री विक्रमपुरे स्वयम् ।
अस्य पित्रा महायुक्त्या सूरिपदोत्सवः कृतः ।। ३२॥ अवीकरच्चतुर्मासी प्रभूतादरपूर्वकम् ॥ १७ ॥ युग्मम् ।।
श्री जिनचन्द्रसूरीशे ललाट-मणिधारिणि । सुधामयोपदेशेन तेषां प्रभावशालिनाम् ।
श्रीजिनदत्तसूरीणामभवन्महती कृपा ॥ ३३ ॥ बहवो भविनो जीवाः प्राप्ताः सद्वोधमत्र च ॥१८॥
यतो यैश्च स्वयं ज्योति मन्त्र-तन्त्रागमादिकान् । सर्वविरतयः केचिद्देशविरतयः पुनः।
साम्नायान् पाठयित्वाऽयं महाविशारदः कृतः ॥ ३४ ।। केचित्केचन सम्यत्व भृतो तत्राभवन् जनाः ॥ १६ ॥ माहेश्वरिवणिग्-विप्र-क्षत्रियास्तत्र सूरिणा।
सूरीशजिनचन्द्रोऽपि क्षमावान् विनयी गुणी। प्रतिबोध्य कृताः शुद्धजैनधर्मानुयायिनः ॥ २० ॥
सर्वदा गुरुसेवायां दत्तचित्तश्च तस्थिवान् ॥३५।। पुनः श्रीजिनदत्तसरीशैस्तत्र भवाब्धितारिणी।।
अस्य विनयिशिष्यस्याकृत्रिमभक्तिसेवया । महावीर प्रभोर्मूत्तिः स्थापिताऽभूजिनालये ॥२१॥
आसन्नतिप्रसन्ना हि श्रीजिनदत्तसूरयः ॥ ३६॥ मात्रा सहैकदा बालावस्थो रासलनन्दनः ।
स्व-परोन्नतिकृद्गच्छ-सञ्चालनादिकाः पुनः । सुगुरु वन्दितुं पूज्याधिष्ठितोपाश्रयं ययौ ।। २२ ॥
अस्मै श्रीदत्तसूरीशैर्दत्ता शिक्षा अनेकशः ॥ ३७॥ सूरिणालोक्य तं बालं शुभलक्षणलक्षितम् ।
ता सुमहत्त्वसंयुक्ताऽसोच्छिक्षका वदामहे । प्रतिभाशालिनं ज्ञात्वा, स्वपदयोग्यभाविनम् ।। २३ ॥ वयं यतो गुरोः सेवा-मूल्यलाभो हि विद्यते ॥ ३८ ॥ बहिः प्रकाशिता वार्ता सा तां श्रुत्वा निनात्मनः। सा शिक्षेयं कदापि त्वं मा गमो योगिनीपुरम् । जननीजनकाभ्यां हि गुरुवे प्रत्यलाभि सः॥२४॥ युग्मम् तत्र ते गमने भावी मृत्यु दुष्ट सुरीच्छलात् ॥ ६ ॥ श्री विक्रमपुरे कृत्वा बह्रीं धर्मप्रभावनाम् ।
यतस्तत्र क्षणे तस्मिन् दुष्टानामभवन्महान्। युगप्रधानसूरीशा अजमेरु समाययुः ॥ २५ ॥ योगिनोवोरवेशालादि देवानामुपद्रवः ॥ ४० ॥
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूरीशो भाविसङ्केत-भावार्थोयमभूद्यतः।
श्री देवकुलिकाः श्रेष्ठिगयधर विधापिताः। सम्बन्धेस्मिन्नयं तिष्ठेत्सावधानतया स्वयम् ॥ ४१॥ । प्रतिष्ठितास्ततः पूज्या अजमेरु समागताः ।।५६।। युग्मम् रुद्र-सूर्य-समाषाढ-धवलैकादशी तिथौ ।
तत्र स्तूपं प्रतिष्ठाप्य श्रीजिनदत्तसद्गुरोः । अजमेरे गताः स्वर्ग श्रीजिनदत्तसूरयः ॥ ४२ ॥ ततो विहृत्य सूरीशा बब्बेरकपुरं ययुः ।। ५७ ।। ततश्चन्द्रगुरौ सर्व गच्छभारः समागतः ।
तत्र तैर्दीक्षिता गुण-भद्रा-भयेन्दुवाचकाः । निरवहद्यथार्थेन पदमिदमसावपि ॥ ४३ ।। यशश्चन्द्र-यशोभद्रो देवभद्रश्च तत्प्रिया ।। ५८ ।। पावयन्तः पुरग्रामान् श्रीजिनचन्द्रसूरयः । ततः श्रोआशिकापुर्या नागदत्ताय साधवे। सम्बद्व देन्दुसूर्याब्दे त्रिभुवनगिरिं ययुः ॥ ४४ ॥ अदायि वाचनाचार्यपदं श्रीचन्द्रसूरिणा ।। ५६ ।। तत्रत्य शान्तिनाथस्य विधिचैत्ये प्रतिष्ठिते। ततो महावनस्याने श्रोजिनचन्द्रसरिणा। श्रीजिनदत्तसूरीशैः श्रीजिनचन्द्रसूरिणा ॥ ४५ ।। अजितजिननाथस्य विधिचैत्यं प्रतिष्ठितम् ॥ ६० ॥ स्वर्णमय ध्वजा दण्ड-कुम्भाः प्रतिष्ठिताः पुनः। तत इन्द्रपुरे पूज्यैः शान्तिनाथ जिनालये । प्रदत्तं गणिनी हेम-देव्यै प्रवत्तिनोपदम् ।। ४६ ।। युग्मम् स्वर्णमयध्वजा दण्ड-कुम्भाः प्रतिष्ठिताः पुनः॥ ६१ ।। ततस्ते मथुरायात्रां कृत्वा गुर्भीमपल्लिकाम् । तगलायां ततः पूज्यैर जितनाथमन्दिरम् । तत्र सम्वन्नगेलाक्षीन्दुवर्षे फाल्गुनाजुने ॥ ४७॥ गुणचन्द्रमुनेः पितृमहलाल विनिर्मितम् ।। ६२ ॥ दशम्यां हि महावीरचैत्ये श्रीचन्द्रसूरिणा। पुनः करा क्षिनेन्दुवत्सरे वादलोपुरे । पूर्णदेव गणी वीरभद्रो जिनरथः पुनः ॥ ४८ ॥ तेनैव कारिताः श्रीमत्पार्श्वनाथजिनालये ॥ ६३ ॥ वीरनयो जयशीलो जिनभद्रो जग हितः।
स्वर्णमयध्वजा दण्डकुम्भा अम्बापुरी गृहे। श्रीनरपतिरेतेष्टी दीक्षिता मुनयो वराः ॥ ४६ ।। स्वर्णकुम्भध्वजा दण्डाः प्रत्यस्थापि महोत्सवात् ।।६४।। त्रिभिविशेषकम
त्रिभिविशेषकम श्राद्ध-क्षेमन्धरश्रेष्ठी पुनस्तैः प्रतिबोधितः। ततः सुखेन सूरीशा विहरन्तः पुरादिषु । ततो विहृत्य सूरीशा महकोटं ययुः क्रपात् ।। ५० ॥ रुद्रपल्लीं गता जग्मु नरपालपुरं ततः ।। ६५ ।। तत्र चन्द्रप्रभस्वामिचैत्ये पूत्यैः प्रतिष्ठिताः। तत्र गुरुपराजेतुं ज्योतिर्विदेकपण्डितः । स्वर्णदण्डध्वजा कुम्भाः साधुगोलककारिताः ५१ ॥ अभिनान्यकरोत् ज्योतिश्च श्रीगुरुणा समम् ॥६६॥ उत्सवेऽस्मिन्ललो मालां रौप्यपञ्चाशताऽर्पणात् । चरस्थिरादिलग्नेषु प्रभावो दर्यतां त्वया। श्रेष्ठिक्षेमन्धरोथास्तित उच्चपुरं गताः ।। ५२ ॥ एक लग्नस्य कस्यापोति पृष्टः सव सूरिणा ।। ६७ ॥ तत्र सम्वद्गजेलाक्षीन्दुवर्षे गुणवर्द्धनः ।
तस्मिन्निरुत्तरीभूते वृष लग्न य सूरिणा। ऋषभदत्त-विनयशोलादि मुनयो वराः ॥ ५३ ।। अन्तिमै कादशांशेषु मार्गशीर्षमुहूर्त के ।। ६८ ॥ सरस्वती गुणश्रीश्च जगश्रीरायिकाः पुनः। श्रीपार्श्वनाथ चैत्याने शिलैषा स्यास्पति सिरा। दीक्षिताः सूरिभिरचैव मन्येऽपि बहवः क्रमात् ॥ ५४॥ यावदङ्गमुनोलाब्दं, प्रतिज्ञायेति तत्पुरः।। ६६ ॥
युग्मम् संस्थाप्यतां शिलां कुह्वां विप्रो नीतः पराजयम् । सम्वच्चन्द्रकराक्षीन्दु वर्षे श्री चन्द्रसूरिणा।। स्वस्थानं स गतः पूज्या रुद्रपल्लीं गतास्ततः ॥७॥ सागरपाड़ा सद्ग्रामे पार्श्वनाथ जिनालये ॥ ५५ ।।
त्रिभिर्विशेषकम्
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
चैत्यवासिपमचन्द्र-सूरिणा हीर्घ्ययाऽन्यदा। तेनोन च तमो द्रव्यमस्तीति न्यायरीतितः । संगच्छन्तो बहिमि स्वाश्रयासन्नमार्गतः ।। ७ ।। यदाऽहं स्थापयिष्ये किं मदने स्थास्यसे तदा ॥ ८६ ॥ लघुवयस्कसूरीशाः समुनयो विलोकिताः।
गुरुः प्राह तमस्तीति योग्यता कस्य कस्य न । वः सुखशातिरस्तीति पृष्टास्ते जगुरो मिति ॥ ७२ ॥ स्वतएव क्षणायाते ज्ञास्यथ राजपर्षदि ॥८७ ॥ पुनः पृष्टो गुरुः पद्म-सूरिणा भवताऽधुना। पशुप्रायाटवीरेव रणभूरस्त्यवेत्य च । केषां केषां च शास्त्राणामध्ययनं विधोयते ॥ ७३ ।। मां लघुवयसं शक्ति नैधनीयाधिका त्वया ॥ ८८ ॥ तत् श्रुत्वा मुनिना प्रोक्तमेकेन पार्श्ववर्तिना।
यूयं जानीथ सिंहस्य लघुदेहवतो रवं । अधीयन्तेऽ धुनास्माकं सूरयो न्यायकन्दलीम् ।। ७४ ॥
तीक्ष्णं निशम्य त्रस्यन्ति नगाकृतिगजा अपि ।। ८६ ॥ पुनः पृष्टो गुरुश्चैत्यस्थ पद्मचन्द्रसूरिणा।
तदाऽनयो द्वयोः सूर्योः श्रुत्वा वाद-विवादकम् । ईर्षालुना तमोवादो भवता पठितो न वा ।। ७५ ॥
तत्र च कौतुकं द्रष्टुमनेकै मिलिता जनाः ॥ ६० ॥ गुरुः प्राह तमोवादग्रन्यो विलोकितो मया।
लात्वा निजगुरोः पक्षं श्रावकाः पक्षयोदयोः। सोऽवग् न्वया समीचीनं तन्मननं कृतं न वा ॥ ७६ ।।
महान्तं दर्शयामासुरहंकारं परस्परम् ।। ६१ ।। गुरु प्राह समीचीनं तत्कृतं सोऽवदत्पुनः ।
अन्ते राजसभायां तच्छास्त्रार्थो निश्चितोऽजनि । स्वरूपं कीदृशं तस्य रूप्यरूपि तमोस्ति वा ॥ ७७ ॥
तच्छास्त्रार्थः समारब्धो निर्णीतसमये पुनः ॥ १२ ॥ पूज्योऽवक् तत्स्वरूपं च कीदृशमपि विद्यताम् ।
तत्र श्रीचन्द्रसूरीशैर्नय-प्रमाण-युक्तिभिः । अधुना नास्ति तद्वाद-विवादकरणक्षणः ॥ ७८ ॥
विद्वत्तया समं स्वीय पक्षसमर्थनं कृतम् ।। ६३ ।। विवादग्रस्तवस्तूनां निर्णयो राजपर्षदि ।
प्राप्तो निरुत्तरीभूतः पद्मसूरिः पराजयम् । विद्वच्छिष्टजनाध्यक्षमेव भवितुमर्हति ।। ७६ ।।
ततः श्रीगुरुवे सभ्यैर्जयपत्रं समर्पितम् ।। ६४ ।। प्रमाण-नय निक्षेपैः स्व-स्वपक्षसमर्थनम्।
विद्वज्जनैः समं पूज्यः स्वस्थानमाययौ गुरोः कृत्वा वस्तुस्वरूपस्य विचारः कियते बुधैः ।। ६० ।।।
समन्तादखिलस्थाने प्रस्फुटितो जयध्वनिः ॥६५॥ निश्चितोऽयं हि यत् स्वीयपक्षे संस्थापितेऽपि च ।।
प्रशंसाऽजनि सर्वत्र गुरोः सुविहिताध्वनः । द्रव्यं स्वस्य स्वरूपंच नैव त्यजति कहि चित् ।। ८१ ॥
तन्निमित्तं कृतः श्राद्धरष्टाह्निकोत्सवो मुदा ॥६६॥ प्रोक्त तेन पुनः स्वीयपक्षस्थापनमात्रतः ।।
तहट्टाख्यया पद्मसूरिश्राद्धा जने पुनः । गुणपर्याययुग् द्रव्यं स्व-स्वरूपं त्यजेन्न वा ॥२॥
गुरु श्राद्धागताः ख्याति जयतिहट्टसंज्ञया ॥६॥ प्रोक्त सर्वेस्तमो द्रव्यं तदस्ति सर्वसम्मतम् । ततः पूज्याः सुसार्थेन समं चेलुः क्रमाच्चलन् । पूज्योऽवादीत्तमो द्रव्यं विद्वान्नाङ्गोकरोति कः ।। ८३॥ चोरसिदान सद्ग्रामोसन्नमुत्तरितः सच ||९८॥ वार्तालापक्षणे तस्मिन् श्रीजिनचन्द्रसूरिणा। म्लेच्छागमनमाकर्ण्य तत्र तस्मिन् क्षणेऽजनि । शिष्टता नम्रता शान्तिः प्रदर्शिता यथा यथा ॥८४ ॥ सर्वः सार्थो भयभ्रान्तो नष्टुं लग्न इतस्ततः ॥६६॥ प्रकम्पितशरीरस्कः कोपातिरक्तलोचनः।
सार्थ तथाविधं दृट्वा स पृष्टो गुरुणां जगौ। पद्मचन्द्रोऽभिमानेनोन्मत्तोऽजनि तथा तथा ॥ ८५॥ भगवन् दृश्यतामत्रागच्छन्ति मलेच्छसैनिकाः १००।
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
समुच्छल ति दिश्यस्यां धूलिः कोलाहलोपि च। राजाज्ञां प्राप्य चारुह्य तरङ्गमान् सहस्रशः । तेषां संश्रयते सावधानी भूयावदद्गुरुः ॥१०॥ नियोगिनोऽभवन्पृष्ठे, मदनपाल भूपतेः ॥११६।। भो भव्या धैर्यमाघायैकत्र विधीयतां निम् श्राद्ध भ्यः पूर्वमेवागात्ससैन्यौ भूपतिगुरोः । शकट वृषभाश्चौष्ट्रा खरक्रियाणकादिकम् ।।१०२।। पार्श्व सन्मानितः सार्थलोकेन वस्तुढौकनात् ॥११॥ श्रीजिनदत्तसूरीन्द्रो युष्मद्भद्र करिष्यति। सूरिणाप्यर्पिता तस्मा अमृतमयदेशना । तैरपि सुगुरूक्ततत्सर्व शीघ्रतया कृतम् ॥१०३॥ देशनान्ते नृपेणाऽपि पृष्टाः श्रीचन्द्रसूरयः ॥११८।। प्रच्छन्नीभूय सार्थो स्थात्ततश्चाकर्षि सूरिणा।
पूज्याः स्थानात्कुतो जातं वः शुभागमनं गुरुः। मन्त्रितनिजदण्डेन रेखा सार्थ समंततः ।।१०४।।
प्राह साम्प्रतमायामो रुद्रपल्लीपुराद्वयम् ॥११॥ सार्थजनैः स्वपार्वेन निर्यान्तो म्लेच्छ सैनिकाः।।
नृपेणावादि हे पूज्या उत्थीयतां प्रचल्यताम् । अश्वस्थिताः कृपाहीनाः सहस्रशो विलोकिताः॥१०५॥
भवद्भिरचरणन्यासैः पवित्री क्रियतां पुरीम् । १२० । परन्तु सैनिकम्र्लेच्छः सार्थो नादर्शि किन्तु ते।
पूज्यैः स्मृत्वा गुरोः शिक्षा किमपि नैव जल्पितम्। प्राकारमेव पश्यन्तो दुष्टा दूरतरं गताः ॥१०॥
मौनं दृष्ट्वा बदद्भूपः पूज्यमौनं कथं धृतम् ॥१२॥ सार्थजनोऽखिलो जातो निर्भयश्चलितस्ततः ।
किंवास्त्यस्मत्पुरे कोपि प्रतिपक्षी जनोऽथवा। सयोगिनी पुरासन्न किचिद् ग्रामं समागतः ॥१०७।। ज्ञात्वासन्नागतान् सूरीन्नन्तुं दिल्लीनिवासिनः ।।
प्राशुकाहारपानीय-वस्त्रादिवस्तु दुर्लभः ।।१२२।। ठक्कुर लोहट श्रेष्ठि महिचन्द्रकुलेन्दवः ।।१०८॥
कोस्ति हेतुर्यतः पूज्यैस्त्यक्ता मार्गागतं पुरम् । सा पाल्हणादयश्राद्धाः संघमुख्या महद्धिकाः ।
गम्यतेऽन्यत्र पूज्यो वग धर्मक्षेत्रं भवत्पुरम् ॥१२३।। चेलू रथादिमारूढाः स्वपरिवार संयुताः ॥१०६।युग्मम्
तहि ममानुरोधेनोत्थीयतां योगिनीपुरे। महायुक्त्या महाभूत्या विनिर्यातः पुराबहिः ।
शीघ्र प्रचल्यतां तत्र सर्वभव्यं भविष्यति ।।१२।। प्रासादस्थो जनान् दृत्वा मदनपालभूपतिः ।।११०॥ विश्वस्यतां भवद्भिर्मत्पुरे कोपि करिष्यति । अहमहमिकाः श्रेष्ठलोका अमो पुराबहिः । नापमानं पुन!ङ्गलीमप्युत्थापयिष्यति ॥१२५।। कथं यान्तीति पप्रच्छ स्वप्रधान नियोगिनः।।१११॥ पूज्यो राजानुरोधेन शिक्षामुल्लङ्घयन् गुरोः।
युग्मम् ।। भवितव्यतयोदासीनतया तत्पुरं ययौ ॥१२६।। तैरधिकारिभिः प्रोक्त राजन्नीतिविशारदाः।
सूरीश्वरप्रवेशस्य महोत्सवेऽखिलं पुरम् । अत्यन्तसुन्दराकारा अनेकशक्तिसंयुताः ॥११॥
शृङ्गारितं च सद्वस्त्रपताकातोरणादिभिः ॥१२७।। आयान्ति गुरवोऽमीषां श्रीजिनचन्द्रसूरयः ।
प्रणेदुः सर्ववाद्यानि भट्टाद्या विरुदावलिम् । ते तान् वन्दितुं यान्ति भक्तिवासितमानसाः ॥११३।।
लोका जगुर्जगुर्भद्रगीतानि सधवास्त्रियः ॥१२८॥
युग्मम्।। कुतुहलवशाद्राज्ञो मनसि गुरुदर्शनम् ।
स्थाने स्थानेऽभवन्नृत्यं स्थाने स्थाने स्त्रियः पुनः । कतु जागरितोत्कण्ठा ज्ञापयत्सोधिकारिणः ।।११४।।। स्वस्तिकादीनि चक्र : सन्मुक्ताफलाक्षतादिभिः।।१२६।। आनीयतां च पट्टाश्व उद्घोष्यतां पुरे यथा। लक्षशो मनुजा पारसङ्कीर्णत्वेन भूपतिः। पंचले.युर्मया साद्ध', राज्याधिकारिणो लघु ॥११५॥ अचालीत्सूरिसेवायां सार्थे प्रमुदितो भृशम् ॥१३०॥
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवेशोत्सवदृश्योयं लोक् हृदयचक्षुषाम् । सम्पूर्णानन्ददायी चात भृत्पूर्वो भवत्पुरे ॥१३१॥ सूरिराजे समायाते योगिनी पुरवासिषु । नवजीवनसञ्चारो लग्नो भवितुमद्भुतः ॥ १३२ ॥ अनेक लोकसन्तप्ता आत्मनः शान्तिलाभकम् । लातुं लग्नाश्च सूरीशदेशनामृतधारया ॥ १३३॥ मदनपाल भूपोऽपि दर्शनार्थमनेकशः । आगत्य सूरिराजोपदेशलाभं गृहीतवान् ॥१३४॥ द्वितीयाचन्द्रवद्राजो धर्मरागो दिने दिने ।
वृधे प्रत्यहं धर्मभावना च जनेष्वपि ॥ १३५ ॥ | स्वान्यकल्याणनिष्ठस्य तिष्ठतो योगिनीपुरे । श्री जिनचन्द्रसूरेश्च कियन्तो वासरा गताः ॥ १३६॥ एक स्मिन्वासरे दृष्ट्वा धनाभावेन दुर्बलम् । स्वभक्त' कुलचन्द्राख्यं श्राद्ध दयालुसूरिणा ॥ १३५॥ लिखितमष्टगन्धेन यन्त्र' वितीर्य जल्पितम् । मुष्टीप्रमाणवासेन पूजनीयं त्वानिशम् ॥१३८॥ यन्त्रपट्टस्य निर्माल्य वासक्षेपश्च मिश्रितः । पारदादिप्रयोगेण सौवर्णं च भविष्यति ॥ १३६ ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ कुलचन्द्रो पि पूज्योक्त विध्यनुसारतोऽनिशम् । कुर्वाणस्तद्विधि स्वल्पकालेन धनवानभूत् ॥ १४०॥ एकस्मिन्वासरे पूज्या दिल्ल्युत्तरीयद्वारतः बहिर्भूमिं च गच्छन्तो भवन्स्वमुनिभिः समम् ॥ १४१ ॥ नवराज्यन्तिमाश्विन- धवलनवमीदिने ।
[ ८० [
तदभूत्र मार्यन्तेऽनेके जीवा नराधमैः || १४२ || सूरिणा गच्छता मार्गे मांसार्थ कलहं मिथः । कुर्वाणो द्वौ सुरौ दृष्टौ मिथ्यात्वमतिमोहितौ ॥१४३॥ दयालुहृदयाचार्यै रेकोमध्यात्तयोर्द्वयोः । अतिबलामिधौ देवो मिथ्यात्वी प्रतिबोधितः ॥ १४४ ॥
सोऽपि भूत्वोपशान्तौग् भवद्द शनया मया । मांसबलिः परित्यक्तो दारुणदुःखदायकः || १४५ ॥
परत्वनुग्रहं कृत्वा निवासार्थं प्रदर्श्यताम् । स्थानं मे निवसन् यत्र त्वदाज्ञां पालयाम्यहम् || १४६ || पार्श्वनाथविधिचैत्ये द्वारसमीपवर्त्तिनि । गत्वा त्वं दक्षिणस्तम्भे वसेति गुरुणा कथि || १४७।। एवं देयं समाश्वास्योपाश्रयमेत्य सूरिणा । लोहडादिस्वभक्तेभ्यः श्राद्धेम्योऽश्रावि सा कथा ॥ १४८ ॥ पुनः पाश्र्वेश चैत्यस्य स्तम्भे च दक्षिण स्थिते । अधिष्ठातृराकृत्युत्कीर्णार्थं सूचना कृता ॥ १४६ ॥ तथैवाकारितैः श्राद्धेगुरुणा स प्रतिष्ठितः । अति विस्तरतस्तस्यातिबलाख्या कृता पुनः ॥ १५०॥ श्राद्धास्तद्पूजनं चक्रुः स्वादिष्ट खाद्यवस्तुभिः । ससुरः पूरयामास तन्मनः कामनां सदा ।। १५१॥ एवं सर्वत्र कुर्वाणा जैनधर्मप्रभावनाम् ।
श्री जिनचन्द्रसूरीशा ललाटमणिधारकाः ॥ १५२ ॥ निजायुर्निकटं ज्ञात्वा गुणाक्षिरविवत्सरे । द्वितीयभाद्रपत्कृष्ण चतुर्दशीतिथौ पुनः || १५३ || चतुर्विधेन संधेन सार्द्धं विधाय क्षामणाम् । प्रान्ते चानशनं कृत्वा समाधिना दिवं ययुः || १५४ ।। मृत्युः पट्टावलिष्वेषां बभूव योगिनीच्छलात् । प्रान्ते भविष्यवारयुक्ता श्राद्धाध्यक्ष च सूरिणा ।। १५५ ।। अस्माकं देहसंस्कारं यावद्दरं करिष्यथ । विभूतिपुरं तावद्दूरं वर्द्धिष्यते खलु || १५६ || ततः श्राद्धा महायुक्त्याने कमण्डपराजि पूतं संस्थाप्यनिर्याणविमाने सुगुरोस्तनुम् ॥१५७॥ पुराद्दूरतरं नीत्वा सद्वस्तूच्छालनादिभिः । चक्रु रन्तक्रियां सारचन्दनादिकवस्तुभिः ॥ १५८ ॥ तत्स्थानं विद्यतेऽद्यापि "बड़ेदादाजी " संज्ञया । साघुरथ कुर्वाणो-न्तिमपवित्रदर्शनम् ॥१५६॥ अधीरमानसः कुर्वन्नश्रुपातं शुचाकुलः । गुणचन्द्रगणीसूरेरित्थं चकार संस्तत्रम् ॥ १६० ॥ युग्मम् ॥
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
चातुर्वर्ण्य मिदं मृदा प्रययते तद्पमालोकितुं। तत्र स्थित्वा गणी कञ्चित्कालं ततो विहृत्य च । मादृक्षाश्च महर्षयस्तव वचः कतू सदैवोद्यताः । चतुर्विधेन संघेन सार्द्ध बब्बेरकं ययौ ।।१७१॥ शक्रोऽपि स्वयमेव देवस हितो युष्मत्प्रभामीदते श्रीजिनचन्द्रसूरीणामाज्ञाया अनुसारतः । तरिक श्रीजिन चन्द्रसृरिसुगुरो स्वर्ग प्रति प्रस्थितः । १॥ गुणचन्द्रगणी तत्र सर्वमान्यो महोत्सवात् ।।१७२।। साहित्यं च निरर्थक समभवन्निर्लक्षणं लक्षणम् श्री जिनदत्तसूरीणां वृद्ध शिष्येण धीमता। मन्त्रमन्त्रपरैर भूयत तथा कैवल्यमेवाश्रितम् दापयित्वा पदं सूरेः श्रीजयदेवसू रिणा ।।१७३॥ कैवल्या जिनचन्द्रसूरिवर ते स्वर्गाधिरहे हहा !! श्रीजिनपतिसूरीश इत्यमिधानपूर्वकम् । सिद्धान्तः सुकरिष्यते किमपि यत्तन्नैव जानीमहे॥२॥ स्थापयामास तत्प? नरपति मुनीश्वरम् ॥१७४॥ प्रमाणिकराधुनिकैविधेयः प्रमाणमार्गः स्फुटमप्रमाणः ।
त्रिभिविशेषकम् ।। हहा ! महाकष्टमुपस्थितं ते स्वर्गाधिरोहे जिनचन्द्रसूरेः नूतनसूरिपितृव्य-मानदेवो करोन्महे ।
॥३॥ सार्द्धमत्रत्यसंघेन, सासरौप्यकं व्ययम् ।।१७५॥ पूज्यस्नेहवशाचा रन्येपि साधवः पुनः।
देशान्तरीयसंघेना-पि मिलित्वा महोत्सवे । मिथःपराङ्मुखीभूयाश्रुपातं शोक विह्वलाः ॥१६१।। बहुद्रव्यव्ययं कृत्वा स्वजन्म सफलीकृतम् ।।१७६।। उपस्थिताः पुनः श्राद्धा अपि वस्त्राञ्चलेन च। क्षणेऽस्मिन् वाचनाचार्य-जिन भद्रोप्यलंकृतः । समाच्छाद्य स्वनेत्राणि चक्र गद्गदरोदनम् ।। ६२।। श्री जिनचन्द्रसूरीश-शिष्यः स रिपदेन हि ॥१७७!। समयेऽस्मिन् सामायातः शोक सिन्धुः समंततः । पाठक जि नपालेन कृताया अनुसारतः । कस्य कापि कथा नाभूत्सुगुरुविरहं विना ।।१६।। गर्वावले र्मयाऽलेखि, चरित्र मणिधारिणाम् ॥१७८॥ सुनिश्चितमिदं दृश्यमपरे दर्शका अपि ।
कियानन्यो पि वृत्तान्तः पट्टावलिषु दृश्यते । नेष्टं दृष्टवाऽभवन् रोद्ध निजहृदयमक्षमाः ॥१६४।। अन्यायु चन्द्रसरीणां स्वल्पः सोप्यत्र कथ्यते ॥१७६।। गुणचन्द्रगणी दृष्ट्वेमामसमंजसां दशाम् ।
चन्द्रस रिललाटेऽभून्मणिरच तेन हेतुना । कियन्तं समयं पश्चाद्धैर्य धृत्वा मुनीनवग् । १६५।। प्रसिद्विस्तस्य लोकेऽभून्मणिधार्यभिधानतः ।१८०।। भवन्तः स्वात्मनः शान्तिं सत्वशालिसुसाधवः। प्रोक्त एतस्य सम्बन्ध इत्थं पट्टावलौ मणेः । यच्छन्तु गमित रत्नं महाघ दुर्लभं च यत् । १६६।। निजान्तसमयेऽवादि श्राद्धेभ्यश्चन्द्रसूरिणा ।।१८१॥ लक्षोपायविधानेऽपि, हस्ते तन्न चटिष्यति । युष्माभिरग्निसंस्कार-समयात्पूर्वमेव हि । प्रान्ते मे गुरुणाऽवश्यकर्त्तव्यसूचनं कृतम् ।।१६७॥ स्थापनीयं च मोह निकषा दुग्धभाजनम् ॥१८२॥ करिष्याम्येवमेवाहं तेषामाज्ञानुसारतः ।
ततो मणिः स निर्गत्यायास्यति दुग्धभाजने । सर्वेषां भवतां येन, सुसन्तोषो भविष्यति ॥१६॥ सुगुरुविरहात् श्राद्ध स्तत्करण तु विस्मृतम् ॥१८॥ अधुना चल्यता मागम्यतां मया समंवरैः
भवितव्यवशाद्योगि-हस्ते स चटितो मणिः । भवद्भिर्म निभिः शीघ्र सर्व भव्यं भविष्यति ।।१६।। पूर्वोक्तविधिना लात्वा तं योगी प्रययौ मणिम् ॥१८४॥ क्षणेऽस्मिन् दाहसंस्कारः सत्काखिल क्रियां गणी । प्रतिष्ठाप्पाहतोमूर्ति स्तम्भितां तेन योगिना । समाप्योपाश्रयं विद्वान् मुनिभिः सममागतः ।।१५०।। अन्यदा योगितः प्राप्तः स मणिः पतिसूरीणा ॥१५॥
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीजिनचन्द्रसूरीशा ललाटमणिधारकाः ।
नतनचैत्यचैत्यानि, जिनधर्मप्रभावनाम् । शासनोद्योतका आसन् महा प्रभावशालिनः ।। १८६।। विधायमहती सेवा कृताप्तशासनस्य च ॥१६५।। अतः खरतरे गच्छे चतुर्थ पट्टधा रिणाम् ।।
साम्प्रतं पूर्वदेशीय-जैन तीर्थानि सन्ति यत् । तन्नाम स्थापनायाश्च चलि तारमात्परम्पर। ।।१८७॥ येषां द्रव्यात्मभोगस्य सुपरिणतिरस्ति हि ।।१६६ । महतीयाण जातिश्चास्थापि श्रीचन्द्रसूरिणा। अस्या जाते: समीचीना संख्यात्रिशतवत्स रात् । प्रतिबोध्योपदेशेन श्रीमदार्हतशासने ॥१८८।।
प्रागभूत् है यमाना सा, नामशेषाऽधुनाऽभवन् ।। १६७।' भाषायां महतीयाण मंत्रिदलीयः संस्कृते ।
श्रीनाहटागोत्रिभवागरेन्दुसंदृब्धभ षामय पुस्तकाच्च । इत्युलेखः समेत्यस्या जातेर्बाहुल्यतः पुन ।।१८६॥
दृब्धं मया श्रीजिनचन्द्रसूरेरिदं चरित्रं मणिधारकस्य संस्कृतादिशिलालेख-कथनस्यानुसारतः।
||१६८। अस्या उत्पत्तिरत्यन्त-प्राचीनास्ति च तद्यया ॥१६॥
इदं समाप्त सुगुरु प्रसादात्संवद्गजाकाङ्कशशाङ्कवर्षे । श्रीऋषभप्रभोः पुत्र-भरतचक्रवत्तिनः ।
वैशाख शुवलस्य तृतीयकायांतिथौ च भौमे परिमोहम
ह्याम् । १६६ श्रीदलमन्त्र्यभून्मुख्यो मन्त्रिगुणसमन्वितः ॥१६॥ शुद्धे गणे खरतरे मुनिमोहनाख्यमन्त्रिदलीयनाम्ना तत्सन्ततिरप्यभूज्जने ।
तच्छिष्यराजमुनित जिनरत्नसूरेः । प्रसिद्धा मन्त्रिशब्दस्यापद्मशमहताऽजनि ॥१६२॥ ज्ञान क्रियागुणभृतो लघुबन्धनोपाअतोऽस्य वंशजानां हि जातिनामापि भूतले।
ध्यायेन लब्धिमुनिना र चितं चरित्रम् ।।२. ० । महत्तीयाण इत्यासीदुक्त शब्दानसारतः ।।१६।।
महेन्द्रसूर्यपर्तिशुद्धदीक्षः श्रीमोहनाख्यः सुमुनिस्ततश्च । कियद्भिर्व्यक्तिभिर्यस्य वंशपरम्परागतैः
श्रीमद्यशःसू रिवरस्ततः श्री जिनद्विसूरी शरिष्ठ ज्ये पूर्वदेशीयतीर्थानां जीर्णोद्धाराणि भूरिशः ॥१६४।।
२०१॥ युग्मा। ॥ इति श्रीमणिधारी दादा श्रीजिनचन्द्रसूरीश्वर चरित्रं समाप्तम् ।। संवत् १९६८ वैशाखशुक्ल तृतीयायां मङ्गले
स्थानानगरे ल ब्धिमुनिना ऊखीयं प्रतिः इति ।
[ उपर्युक्त मणिधारी श्री जिन चन्द्रसूरिजी का जीवन चरित्र हमारी 'मणिधारी जिनचन्द्रसूरि' पुस्तक के पद्यबद्ध रूपमें है । इससे २८ वर्ष पूर्व पूज्य उपाध्याय | लब्धिमुनिजी महाराज ने सं० १६५० में श्रीरत्नमुनिजी महाराज के सहाय्य से खरतर गच्छ पट्टावली संस्कृत में १७४५ श्लोकों में निर्माण की थी। प्रस्तुत पट्टावली की ७४ पत्र व २०७५ ग्रंथ संख्या वाली उपाध्यायजी महाराज के स्वयं महीदपुर में लिखी हुई प्रति हमारे 'अभय जैन ग्रन्थालय' बीकानेर में है जिसमें मणिधारी जी का जीवनवृत्त श्लोक ९९७ से पद्यांक १८६५ पर्यन्त है। प्रस्तुत चरित्र में मणिधारीजी के प्रतिबोधित जाति-गोत्रों का इतिहास भी है। हम अपने 'मणिधारी श्री जिन चन्द्रसरि' के द्वितीय संस्करण में महाजन वंश मुक्तावली और जैन सम्प्रदाय शिक्षा के आधार से इस विषय में प्रकाशित कर चुके हैं अतः पट्टावली के श्लोक यहां नहीं दिये जा रहे हैं ।
-सम्पादक]
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
दादाजी आज भारतवर्ष में कौन ऐसा जैनमतावलम्बी होगा जो कि पूज्य दादा के नाम से परिचित न हो। पूज्यादा का नाम जैनमतावलम्बी बच्चे-बच्चे तक की जिह्वा पर नर्तन करता है। केवल जैनमतावलम्बी हो नहीं जेनेतर भो अधिकांश व्यक्ति दादा के नाम से पूर्ण परिचित हैं, दादा ये दो शब्द उसके कर्णकुहरों में प्रवेश पा चुके हैं और नहीं तो देश के कोने-कोने में प्रत्येक नगरों व कस्बों में 'दादाबाड़ी' नाम से प्रसिद्ध स्थानों ने इस शब्द से प्रत्येक नागरिक को परिचित बना दिया है। बहुत से नागरिक चाहे वे जैनी हों या जैनेतर, प्रातः सायं इन दादावाड़ियों में दादा की वन्दना के लिए, आराधना के लिये या स्वास्थ्यलाभार्थ भ्रमण के लिये हो सही, अवश्य जाया करते हैं । सभी व्यक्तियों को उन स्थानों में जाने से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में एक अलौकिक शान्ति का अनुभव होता है। वह और कुछ नहीं किन्तु पूज्य दादा के व्यक्तित्व का परोक्ष प्रभाव ही है।
___इतना होते हुए भी जैनेतर व्यक्तियों में अधिकांश व्यक्ति दादा शब्द के अभिधेय उस अलौकिक प्रभावशालो महापुरुष तथा उस के अद्वितीय महागुणों से सर्वथा अनभिज्ञ हैं वे केवल इतना ही समझते हैं कि 'दादा' जैन समाज में कोई प्रभावशाली महापुरुष हुआ है जिसके नाम पर इन दादावाड़ियों को स्थापना हुई है और उन्हों की वन्दना के लिए प्रतिदिन हजार व्यक्ति इस जगह जाया करते हैं इतना ही नहीं कतिपय जैनी भी उनके वास्तविक व्यक्तित्व व गणों से अपरिचित ही हैं।
वस्तुत: 'दादा' इस द्वयक्षर शब्द से दादा इस सामान्य अर्थ की ही प्रतीति नहीं होती किन्तु इसके साथ ही माथ अनेक अन्य अर्थों को भी प्रतीति होती है। दादा शब्द के उच्चारण करने पर जिन-शासन को चरमोत्कर्ष पर पहुँचाने वाले, समय-प्रभाव से जैनसम्पदाय में समागत कुरीतियों, कदाचारों, कदाग्रहों व शिथिलाचारों का अपनो दृढ़ विवेकमयी व कान्तिमयी विचारधारा से समूल उच्छेद करने वाले, सिन्ध, गुजरात व मरुस्थल में सर्वाधिक जिनशासन का प्रचार व प्रसार करने वाले, युगप्रधान आचार्यों में सर्वातिशायो चमत्कार व प्रभाव से अलङकृत अलौकिक महापुरुष अर्थ की प्रतीति होती है। दादाने उस चमत्कार का प्रदर्शन किया जिससे आकृष्ट होकर चैत्यवासियों तक ने सुविहित वसतिवास को स्वीकार किया, राजाओं, महाराजाओं, योगिनियों व देवों तक ने उनके आगे अपना मम्तक झुकाया, सर्वत्र जैनधर्म का अत्यधिक प्रचार व प्रसार हुआ, बड़े-बड़े प्रतिपक्षी विद्वद्गजेन्द्रों का मद उनके प्रखर व प्रकाण्ड पाण्डित्य से शान्त हुआ, लाखों से अधिक व्यक्ति इच्छा से जिनशासनानुयायी बने।
उनने अपने जीवन-काल में हो अनेक चमत्कारों का प्रदर्शन किया यह बात नहीं, आज भी उनके अनेक प्रकार के चमत्कार लोगों के द्वारा प्रत्यक्ष अनुभूत किये जाते हैं। जैन व जैनेतर जनता के जीवन में दादा ओतप्रोत हैं। वे किसी का व्यन्तरोपद्रव दूर करते हैं तो किसी का योगिनी उपद्रव। किसो के भतोपद्रव को वे शान्ति करते हैं तो किसी के महामारी जन्य उपद्रव की। किसो को घोर काननों में मार्ग-प्रदर्शन करते हैं तो किसो के समुद्र के तुफान से घिरे हुए जहाज को समुद्र से पार लगाते हैं। किसो को आपत्ति का निराकरण करते हैं तो किसी का मनोवाञ्छित पूर्ण करते हैं। किसी को जाग्रत में. तो किसी को स्वप्न में किसी को प्रत्यक्ष रूप में तो किसी को अप्रत्यक्ष रूप में वे दर्शन अब भी देते हैं। पथ-भ्रष्ट का वे पथ-प्रदर्शन करते हैं और उन्मार्गप्रवृत्त को सन्मार्ग पर लाते हैं। ये हो सब नानाविध चमत्कार हैं जिनके कारण आज सब जगह दादा का नाम सुनाई देता हैं, सब जगह उनके स्थान बनाये जाते हैं तथा उनको वन्दनायें की जाती हैं । धन, पद, सन्तान व परमपद को प्राप्ति के लिये भो लोग उनकी उपासना करते हैं और अपना अभीष्ट फलोत्र ही प्राप्त करते हैं ।
[ स्वामी सुरजनदास के दादाजो और उनका साहित्य से ]
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
महोपाध्याय जयसागर [अगरचन्द नाहटा]
खरतर गच्छ में आचार्यों के अतिरिक्त बहुत से ऐसे के नीचे इनके वंश का विवरण भी लिखा हुआ था, जिसे प्रभावशाली विद्वान हुए हैं जिन्होंने अनके स्थानों में विचर नहीं दिया जा सका । उसे शोधपत्रिका भाग ६ अंक १ कर अच्छा धर्म प्रचार किया और साहित्य-निर्माण में भी में प्रकाशित हमारे 'महोपाध्याय जयसागर और उनकी निरन्तर लगे रहे । पट्टावलियों में आचार्य-परम्परा का ही रचनाएँ नामक लेख में छपवा दिया गया था। विवरण रहता है इसलिए ऐसे विशिष्ट विद्वानों के सम्बन्ध सं. १९९४ में मुनि जयन्तविजयजी का 'श्री अद में भी प्राय: आवश्यक जानकारी हमें नहीं मिल पाती। प्राचीन जैन लेख संदोह' नामक महत्वपूर्ण ग्रन्थ प्रकाशित मुनि जिनविजयजी ने सन् १९१६ में उपाध्याय जयसागर हुआ, उसमें आबू के खरतरवसही या चोमुखजी के प्रतिमा की विज्ञप्ति-त्रिवेणी नामक महत्वपूर्ण रचना सुसम्पादित कर लेख भी प्रकाशित हुए, इनमें से लेखाङ्क ४४६-५६-५७ में जन आत्मानन्द सभा, भावनगर से प्रकाशित करवायी जयसागर महोपाध्याय के मन्दिर निर्माता दरड़ा गोत्रीय थी। इसके प्रारंभ में उन्होंने बहुत महत्वपूण एवं विस्तृत संधपति मण्डलिक के भ्राता होने का उलेख प्रकाशित हुआ। प्रस्तावना ६६ पृष्ठों में लिखी थी, इस में जयसागर उपा- मुनि जय तविजयजी ने आबू की खरतरवसही के लेखों का ध्याय के संबन्ध में लिखा था कि 'इनके जन्म स्थान और गजराती अनुवाद प्रकाशित करते हुए संघपति मन्डलिक माता पितादि के विषय में कुछ भी वृत्तान्त उपलब्ध नहीं का शिलालेखों में प्राप्त वंश वृक्ष भी दे दिया था। उसमें हुआ, होने की विशेष संभावना भी नहीं है। विशेषकर उन्होंने लिखा था कि संघवी मन्डलिक के ६ भाइयों में से
का उल्लेख पट्टावली में हुआ करता है परन्तु उस बडे भाई साह देला और छोटे भाई साह महीपति के स्त्री में भी केवल गच्छपति आचार्य ही के सम्बन्ध की बात- पुत्र परिवार के नाम किसी प्रतिमा लेख में नहीं मिले । लिखी जाने की प्रथा होने से इतर ऐसे व्यक्तियों का विशेष अतः छोटे भाई महीपति की अल्प षय में मृत्यु हो गई होगी हाल नहीं मिल सकता । ऐसे व्यक्तियों के गुर्वादि एवं और बड़े भाई देल्हा ने छोटो उम्र में ही दीक्षा ले ली होगी। समयादि का जो कुछ थोड़ा बहुत पता लगता है वह केवल ऐसा लगता है कि दीक्षित अवस्था में इनका नाम जयउनके निजके अथवा शिष्यादि के बनाये हुए ग्रन्थों वगैरह सागरजी रखा गया होगा। पीछे से योग्यता प्राप्त होने की प्रशस्तियों का प्रताप है।"
पर वे महोपाध्याय हो गए। इसी लिए संघवी मण्डलिक सौभाग्य से हमारे संग्रह में एक ऐसा प्राचीन पत्र के कई लेखों में 'श्री जयसागर महोपाध्याय बान्धवेन' मिला जिसमें उ० जयसागरजी सम्बन्धी कुछ महत्वपूर्ण लिखा मिलता है । अर्थात् महोपाध्याय जयसागरजी संघवो बातें लिखी हुई थी अतः हमने उसका आवश्यक अंश अपने मण्डलिक के संसार-पक्ष में भ्राता होते थे । 'ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह' पृ० ४०० में प्रकाशित कर वास्तव में मुनि श्री जयन्तविजयजी के उपयुक्त दोनों दिया था तथा उसका ऐतिहासिक सार, उनकी रचनाओं अनुमान सही नहीं हैं । पूज्य गगिवर्य श्री बुद्धिमुनिजी को नामावली सह प्रारंभ में दे दिया था। पर उसी पत्र ने हमें उ० जयसागरजी के रचित स्वर्णाक्षरी कल्पसूत्र की
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
एक महत्वपूर्ण प्रशस्ति नकल करके भेजा थी, इससे स्पष्ट स्वर्णाक्षरो कल्पसूत्र-प्रशस्ति (१) है कि संघपति मण्डलिक के भ्राता संघपति महीपति ने सं०
स्वस्ति सर्वास्तिमन्मुख्यः, ऊकेशः ज्ञातिमण्डनः ॥ १५०६ में यह प्रति लिखवायी थी और इस प्रशस्ति में
पद्मसिंहः पुरा जज्ञे, खोमसिंहस्तत: क्रमात् ॥१॥ महीपति की पत्नी पुत्रों और पुत्रवधु के नाम प्राप्त हैं,
खोमणिर्दयिता तस्य हरिपालस्तदङ्गभूः ॥ अत: महीपति को अल्पायु में मृत्यु हो गई ---यह अनुमान
निविष्टं यन्मनः पूष्णि श्राद्धधर्ममयं महः ।।२।। जो आबू के प्रतिमा लेखों में महीपति के स्त्रीपुत्रों के नाम
दसाजकान्हड़ी भोज वीरभावासिगस्तथा ।। न मिलने से किया गया था, प्राप्त प्रशस्ति से असिद्ध हो
बड याकश्च सर्वेऽपि षडमी हरिपालजाः ॥३॥ जाता है। इसी तरह देल्हा के भी स्त्रीपुत्रा द का प्रतिमा
भारमल्लो भावदेवो, भीमदेवस्तृतोयकः ।। लेखों में नाम न मिलने से उन्होने अल्पायु में दोक्षा ले ली
कान्हड़स्य त्रयोऽयेते सुताः सूजनताधिता: ॥४॥ होगी व उनका नाम जयसागर रखा गया होगा --यह
छाड़ादयः पुनः पञ्च नन्दना भोजसम्भवाः ।! अनुमान भी प्राप्त प्रशस्ति में देल्हा के पुत्र कोहट का नाम
आसोद्वोरमसम्भूतो-नगराजः सुताधिकः ।। ५॥ मिल जाने से गलत सिद्ध हो जाता है । सब से महत्वपूर्ण
प्रथमराज इत्यस्ति बडुयाङ्गरुहो महान् ।। बात इस प्रशस्ति से यह मालूम होती है कि हरिपाल के पुत्र
तेषु श्रीमानुदारश्च, साधासाको व्यशिष्यत ।।६।। आसिग या आसराज के पुत्रों में से तृतीय पुत्र जिनदत्त तत्प्रिया प्रियधर्मासो - त्सोरित्यमलाशया । ने बाल्यावस्था में दीक्षा ग्रहण करली थी। आठवें श्लोक तयारष्टनेष्वाद्यः पालः प्रल्हाद भन्मनाः ।।७।। में इसका स्पष्ट उल्लेख होने से यह निश्चित हो जाता द्वितीयो मण्डना नाम कुटुम्ब जनपूजितः ।। है कि जयसागरजो दरड़ा गोत्रीय आसराज के पुत्र थे और तमोयो जिनदत्तश्च यो बाल्येऽप्यत्रहीनतम् ।।८।। उनका 'जिनदत्त' नाम था, तथा बाल्यावस्था में दीक्षा चतुर्थः किल देल्हाख्य झंटाक: पञ्चमः पुन: ॥ ग्रहण कर ली थी। प्रतिमा लेवों में हरिसाल के पूर्वजों मण्डलाधिपवन्मान्यः षष्ठो मण्डलिकस्तथा ।। के नाम नहीं मिलते लेकिन प्रशस्ति में पद्मसिंह-खोमसिंह सप्तमः साधुनालाको -55टमः साधुमहीपतिः ॥६॥ ये दो नाम पूर्वजों के और मिल जाते हैं तथा वंशजों के गोविन्दरतनाहर्ष -- राजा पाल्हाङ्गजास्त्रयः ॥ भी कई अज्ञातनाम प्राप्त हो जाते हैं। साथ ही साथ । कोहटो देल्ह जन्माऽऽस्ते तस्याप्यस्त्यम्बडोङ्गजः ॥१०॥ इस वंश के पुरुषों के कतिपय अन्य सुकृत्यों का भो उल्लेख- श्रीपालो भोमसिंहश्च, द्वाविमौ ऊण्टजातको ॥ नीय विवरण मिल जाता है। यथा
साजण: सत्यनाऽस्ते, पुत्रो मण्डलिकस्य तु ॥११॥ संघपति आसा धर्मशाला, तीर्थयात्रा, उपाध्यायपद पोमसिंहो लज्म क्षम)सिंहो-रगमल्लश्च माल्हजा: ॥ स्थापन और स्वधर्मो-वात्सल्यादि में द्रव्य का सव्ययकर सुस्थिरः स्थावरो नाम, महीपत्यङ्गसम्भव: ॥१२॥ कृतार्थ हए थे। सं० १४८७ में उ.जयसागरजी के सान्निध्य तदभार्या प्रतलि: पूण्य-वती शीलवती सती ॥ में मण्डलिक ने शत्रुञ्जय-गिरनार महातीर्थों की संघ सहित तनयौ सुनयौ तस्या देवचन्द्र-हवाभिधो ॥३॥ यात्रा की थी। एवं दूसरी बार सं० १५०३ में भी उभय- कलां देव चन्द्रस्य, कोबाई नामतः शुभा ॥ तीर्थों की यात्रा की थी। मण्डलिक आदि ने आबू पर महीपतिपरोवार - श्चिरं जयतु भूतले ॥१४॥ चौमुख प्रासाद बनाया था, इसी प्रकार गिरनार तीर्थ के इत्यादि सन्ततिर्भयस्यासाकस्योज्ज्वले कुले। वीर जिनालय में देवकूलिका निर्माग करवायी थो। उत्तरोत्तर सत्कर्म-विरतास्ते निरन्तरम् ॥१५॥ प्रस्तुत प्रशस्ति वा० जयसागर की रचित है ऐतिहासिक धर्मशाला तीर्थयात्रो-पाध्याय स्थापनादिषु । दृष्टि से महत्वपूर्ण होने से नोचे दी जा रही है।
साधम्मिकेषु चासाको धनं निन्ये कृतार्थताम् ॥१६॥
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
अपिच-संवत् १४८७ वर्षे सहोदर भावस्थितोपाध्यायश्रीजय सागरगणिसान्निध्यमासाद्य
महाविभूत्या च महामहिम्ना, यात्रां महातोर्थ युगेऽव्यकार्षीत् । सङ्घयुक्तो महता महिष्ठः सङ्घ शतां मण्डलिकः प्रपन्नः || १७ || सवत् १५०३ वर्षे तत्सान्निध्यादेव -
लोकोत्तरा स्फातिरुदारता च, लोकोत्तरं सङ्घजनच नच । शत्रुञ्ज रैवतके च यात्रा कृताद्भ ता मण्डलिकेन भूयः ॥ १८ ॥ समं मण्डलिनैव, मालाकश्च महीपतिः ।
तदा सङ्घपती जातौ प्रिया मण्डलिकस्य तु ॥ ११॥ रोहिणी नामतः ख्याता मांजुर्मालाङ्गना पुनः ।
काई महोत्साहा, महीपतिसधम्मिणी ॥२०॥ आसदन् सङ्घपत्नीत्वमेतास्तिस्रः कुलस्त्रियः । प्रायेण हि पुरन्ध्रीणां महत्त्वं पुरुषाश्रितम् ॥२१॥ अर्बुदाद्विशिरस्युच्च-स्ते प्रासादं चतुर्मुखम् । भ्रातरं कारयन्ति स्म, त्रयो मण्डलिकादयः ॥२२॥ इतश्च
चान्द्रे कुठे श्रीजिनचन्द्रसूरिः संविज्ञभावोऽभयदेवसूरिः । द्वल्लभः श्री जिनवल्लभोऽपि युगप्रधानो जिनदत्तसूरिः ॥२३॥
कान्हड़
भारमल-भावदेव - भीमदेव
मंडन
दसाज
पाल्हा भा०सारू
जिनदत्त (दीक्षा ली )
गोविंदराज रत्नराज - हर्षराज
[ ८६ ]
भोज
छाडादि ५
देल्हा
1 की हट
―
-
भाग्याद्भुतः श्रीजिनचन्द्रसूरिः क्रियाकठोरो जिनपत्तिसूरिः । जिनेश्वरः सूरिरुदारवृत्तो, जिनप्रबोधो दुरितान्निवृत्तः ||२४|| प्रभावक : श्री जिनचन्द्रसूरिः सूरिजिनादिः कुशलान्तशब्दः । पद्मानिधिः श्रजितपद्मसूरि लब्धेर्निधानं जिनलब्धिसूरिः ||२५|| संगिक : श्रीजिनचन्द्रसूरिजिनोदयः सूरिरभूदभूरिः । ततः परं श्रीजिनराजसूरिः सौभाग्य सीमा श्रुतसम्पदोकः ||२६|| तदास्पदव्योम तुषाररोचि विरोचते श्रीजिनभद्रसूरिः । तस्योपदेशामृतपानतुष्ट स्तेषु त्रिषु भातृषु पुण्य पुष्टः ||२७|| श्रीवते वीरजिनेन्द्र चैत्ये, विधाप्य सद्ददेवकुलीं कुलीनः । महीपतिः सङ्घपतिः सुवर्णाक्षरैर्मुदा लेखयतिस्म कल्पम् ॥
२८ ॥ युग्मम्
संवत् १५०६ वर्षे -
श्रीजयसागर वाचक विनिम्मिता सदसि वाच्यमानाऽसौ । कल्पप्रशस्तिरमला नन्दत्वानन्दकल्पलता ||२६||
इति श्री खरतर गुरुभक्त सङ्घपति मण्डलिक भ्रातृ सङ्घपति सा० महीपति कल्पपुस्तक प्रशस्तिः
पद्मसिंह
खीम सिंह - स्त्री - खीमणी
I
हरिपाल
वीरम
झांटा भा० अमरी
नगराज
आसिग ( आसराज )
स्त्री-सोषु
श्रीपाल - भीमसिंह
1 मंडलिक
भा०होराई - रोहिणी ।
साजण
भा० सोनाई
अंबड
सं० १५११ को प्रशस्ति में गणपति, उदयराज मेघराज के नाम अधिक है ।
माला
भा० मांजू
-
बडुयाक
प्रथमराज
I
महीपति
पोमसिंह-लक्ष्मसिंह - रणमल
T
सहसमल - वस्तुपाल
स्थावर- - पूतली भा० 1 देवचंद्र हरिचंद्र
( स्त्रो को बाई )
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
। ८७
उपाध्याय जयसागरजी की विज्ञति-त्रिवेणी द्वारा अनेक खरतरवसतो तु श्रेयसां धाम शान्तिनये तथ्य और जैन इतिहास तथा अप्रसिद्ध तीर्थ सम्बन्धी स्त्रयतिदमभिनम्याह्लादभावं भजामि ॥१८॥" महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है । मुनि जिनविजयजी ने पंजाब और सिन्ध प्रदेश में शताब्दियों तक खरतरगच्छ लिखा है कि विज्ञप्ति त्रिवेणी रूप पत्र ऐतिहासिक दृष्टि से का बहुत अच्छा प्रभाव रहा है । इस सम्बन्ध में मेरा लेख बड़े महत्व का है। इसमें लिखा गया वृत्तांत मनोरंजक "सिन्ध प्रान्त और खरतरगच्छ" द्रष्टव्य है। होकर जैन समाज की तत्कालीन परिस्थिति पर अच्छा हमारे ऐतिहासिक जेन काव्य संग्रह में जयसागरोपा. प्रकाश डालता है । उस समय भारत के उन (सिन्धु पंजाब) ध्याय सम्बन्धी जो महत्त्वपूर्ण विवरण सं० १५११ का प्रदेशों में भी जैन धर्म का कैसा अच्छा प्रचार व सत्कार लिखा हुआ छपा है उसका सार इस प्रकार है-- था। इन प्रदेशों में हजारों जैन बसते थे व सैकड़ों जिना- "उज्जयन्त शिखर पर नरपाल संघपति ने "लक्ष्मीलय मौजद थे जिनमें का आज एक भी विद्यमान नहीं। तिलक' नामक विहार बनाना प्रारंभ किया तब अम्बादेवी, जिन मरुकोट, गोपस्थल, नन्दनवनपुर और कोटिल्लग्नाम आदि श्री देवी आपके प्रत्यक्ष हुई और सैरिसा पाश्वनाथ जिनालय तीर्थस्थलों का इसमें उल्लेख है उनका आज कोई नाम में श्री शेष, पद्मावती सह प्रत्यक्ष हुआ था। मेदपाटतक भी नहीं जानता । जहाँ पर पांच पांच दस दस साध देशवर्ती नागदह के नवखण्डा-पार्श्व चैत्यालय में श्रीसरस्वती चातुर्मास रहा करते थे वहां पर आज दो घण्टे ठहरने के देवी आप पर प्रसन्न हुई थी। श्री जिनकुशलसूरिजी आदि लिये भी यथेष्ट स्थान नहीं। जिस नगरकोट महातीर्थ की देवता भी आप पर प्रसन्न थे। आपने पूर्व में राजगृह नगर यात्रा करने के लिए इतनी दूर दूर से संघ जाया करते थे उद्दड़-विहारादि, उत्तर में नगरकोट्टादि, पश्चिम में नागद्रह वह नगरकोट कहां पर आया है इसका भी किसी को पता आदि को राजसभाओं में वादि वृन्दों को परास्त कर नही।
विजय प्राप्त की थी। आपने सन्देह, दोलावली वृत्ति, ___ इसमें केवल अलंकारिक वर्णन ही नहीं है परन्तु एक पृथ्वीचन्द्र चरित, पर्व रत्नावलो, ऋषभस्तव, भावारिवारण विशेष प्रसंग का सच्चा और सम्पूर्ण इतिहास भो है। वृत्ति एवं संस्कृत प्राकृत के हजारों स्तवनादि बनाये । ऐसा पत्र अभी तक पूर्व में कोई नहीं प्रगट हुआ। यह एक अनेकों श्रावकों को संघपति बनाये और अनेक शिष्यों को बिल्कुल नई ही चीज है।"
पढ़ाकर विद्वान बनाये।" ___ नगरकोट कांगड़ा में बहुत प्राचीन प्रतिमा थी। इसमें उल्लिखित गिरनार के नरपाल कृत "लक्ष्मीखरतरगच्छ के आचार्य जिनेश्वरसूरिजी के प्रतिष्ठित और तिलक प्रासाद" के संबन्ध में रत्नसिंहसूरि रचित गिरनार साधु खीमसिंह कारित शांतिनाथ मंदिर व मूति का तीर्थमाला में भी उल्लेख मिलता हैउपाध्यायजी ने वहां दर्शन किया। वहां के राजा भी थापी श्री तिलक प्रासादहि, साहनरपालि परंपरा से जैन थे। नरेन्द्र रूपचंद के बनाये हुए मंदिर में
पुण्य प्रसादिहिं सोवनमयसिरिवीरो" स्वर्णमय महावीर बिम्बको भी उन्होंने नमन किया। यहां महो० जयसागर जिनराजसूरिज़ो के शिष्य थे अतः को खरतरवसही का उल्लेख करते हुए लिखा है --- उनकी दीक्षा सं० १४६० के आस-पास होनी चाहिये । "अपि च नगरकोट्टे देशजालन्धरस्थे
इनकी दीक्षा बाल्यकाल में हुई, ऐसा प्रशस्ति में उल्लेख है, प्रथम जिनपराजः स्वर्णमूर्तिस्तु वीरः
अतः दस-बारह वर्ष की आयु में दीक्षित होने से जन्म सं०
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
।
१४४५-५० के बीच होना चाहिये। सं० १४७५ में की विस्तृत प्रस्तावना में आपके शिष्य समूह के सम्बन्ध में श्री जिनभद्रसूरिजी ने आपको उपाध्याय पद से विभूषित भी लिखा है। तदनुसार आपके प्रथम शिष्य मेघराज किया था। श्रोजिनवद्ध' नसूरिजी के पास आपने लक्षण- गणि थे जिनके रचित नगरकोट के आदिनाथ स्तोत्र, साहित्यादि का अध्ययन किया था। सं. १४७८ से सं० चौबीस पद्यों का हारबन्ध काव्य है। दूसरे शिष्य १५.३ तक की आपकी अनेक रचनायें प्राप्त हैं। सं० सोमकुञ्जर के विविध अलंकारिक पद्य विज्ञप्ति त्रिवेणी मे १५११ की प्रशस्ति के अनुसार आपने हजारों स्तुति- प्राप्त हैं। एवं खरतरगच्छ-पट्टावली हमारे एतिहासिक स्तोत्रादि बनाये थे। खेद है कि आपकी रचनाओं की तीन जैन काव्य संग्रह में पद्य ३० की प्रकाशित है। जेसलमेर के संग्रह-प्रतियाँ हमारे अवलोकन में आई वे तीनों ही अधरी श्री संभवनाथ जिनालय की प्रशस्ति सं० १४६७ में आपने थीं, फिर भी आपकी पचासों रचनाएं संप्राप्त हैं। स्वर्गीय निर्माण की जो जैसलमेर जैन लेख संग्रह में मद्रित है। मनि की कान्तिसागरजी के संग्रह में आपकी कृतियों का जयसागरोपाध्याय के विशिष्ट शिष्यों में उ० रलचन्द्र एक गुटका जानने में आया है जिसे हम अब तक नहीं देख भी उल्लेखनीय है जिनकी दीक्षा सं० १४८४ के लगभग सके हैं । सं० १५१५ के आसपास अपका स्वर्गवास अनुमा- हई होगी। सं० १५०३ में जयसागरोपाध्याय के पृथ्वोनित है।
चन्द्र चरित्र को प्रशस्ति में गणि रत्नचन्द्र द्वारा रचना में __ खरतर गच्छ में महोपाध्याय पद के लिए यह परम्परा
सहायता का उल्लेख है। सं० १५२१ से पूर्व इन्हें उपाहै कि अपने समय में जो सब उपाध्यायों से वयोवृद्ध-गीतार्थ
ध्याय पद प्राप्त हो चुका था। इनके शिष्य भक्तिलाभोहो वह अपने समय का एक ही महोपाध्याय माना जाता
पाध्याय भी अच्छे विद्वान थे उनकी कई रचनायें उपलब्ध है। आचार्य-उपाध्याय तो अनेक हो सकते पर महोपाध्याय
हैं। उनके शिष्य पाठक चारित्रसार के शिष्य चाहचन्द्र एक ही होता है, अत: महोपाध्याय जयसागर दीर्घायु,
और भानमेश वाचक थे जिनके शिष्य ज्ञानविमल उपाध्याय पत्रहत्तर-अस्सी वर्ष के हुए होंगे। असाधारण प्रतिभा ।
और उनके शिष्य श्रीवल्लभोपाध्याय अपने समय के नामी सम्पन्न विद्वान होने के नाते आपने सैकड़ों रचना अवश्य की
विद्वान थे। आपके रचित विजयदेव माहाम्य की मुनि होगी। प्रात: रचनाओं का सुसम्पादित आलोच त्मिक
जिन विजयजी ने बड़ो प्रशंसा की है। आपके अरजिनम्तव संग्रह प्रकाशन होने से आपकी विद्वत्ता का सच्चा मुल्यांकन हो सकेगा।
सटीक और संघपति रूपजी वंश प्रशस्ति महो० विनयसागर महो० जयसागरजी की शिष्य-परम्परा भी बड़ी जी संपादित एवं विद्वद्प्रबोध तथा हेमचन्द्र के व्याकरण मरत्वपूर्ण रही है। मनि जिनविजयजी ने विज्ञप्ति त्रिवेणी कोश आदिमी टीका प्रकाशित हो चकी है।
5:):)
WAITI
-
--
----
--
-
-
-
-
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीगुणरत्नगणि को तर्कतरङ्गिणी
[जितेन्द्र जेटली ]
अनेकान्तवाद का आचरण करने वाले जैनाचार्यों ने इस तर्कतरङ्गिणी के अभ्यास से यह स्पष्ट प्रतीत होती अपने सम्प्रदाय के दार्शनिक ग्रन्थों पर टीका-टिप्पण आदि है कि “ी गुणरत्नगणिजी अनेक शास्त्रों के विद्वान होते की रचना की है यह आश्चर्य की बात नहीं है किन्तु अन्य हुए एक अच्छे तार्किक थे । थे खरतरगच्छ के थे इसलिए दर्शन के ग्रन्थों पर भी प्रामाणिक व्याख्या रूप टीकार्ये उस गच्छ के लिए यह अत्यन्त गौरस को बात है। वे किस लिखी हैं । ऐसी रचनाओं में से श्रीगुणरत्नगणिजी की तर्क- प्रकार के उच्च श्रेणी के तार्किक थे यह तर्कतरङ्गिणो से हो तरङ्गिणी भी है।
ज्ञात होता है। श्रीगणरत्नगणि विनयसमद्रगणि के शिष्य थे। विनय
मुद्रगाण के शिष्य थे। विनय- तर्कतरङ्गिणी गोवर्धन की प्रकाशिका की टीका होने समुद्रगगि जिनमाणिक्य के शिष्य थे जो कि जिनचन्द्रसूरि के से सामान्यत: चर्चा में गोवर्धन का वे अनुसरण करते हैं फिर समानकालीन थे। जिनचन्द्रसूरि श्रीहीरविजयसूरि के समान- भी वे जिन सिद्धान्तों की चर्चा गोवर्धनजी ने नहीं की है कालीन थे। उनका समय मोगल सम्राट अकबर के समय उन सिद्धान्तों की चर्चा भी समय २ पर करते हैं। जैसे कि का है क्योंकि वे उनके दरबार में आमन्त्रित हुआ करते थे। गोवर्धन मङ्गलवादकी कोई विशेष चर्चा नहीं करते हैं श्री गुणरत्नगणि ने तर्कतरङ्गिणो के उपरान्त 'काव्यप्रकाश' फिर भी गणरत्नगणि अपनो तर्कतरङ्गिणो में अन्य नैयायिक के ऊपर एक १०००० श्लोकप्रमाण की सुन्दर टीका लिखी है। निहालों की भांति
विद्वानों की भांति मङ्गलवादको चर्चा विरतार से करते हैं। यह टीका उन्होंने अपने शिष्य रत्नविशाल के लिए लिखी।
इस चर्चा में बे उदयनाचार्य, गङ्गश, पक्षधर मित्र आदि है। इसी तरह यह तर्कतरङ्गिणी भी उन्होने उसी शिष्य के रुढ प्राचीन तथा अर्वाचीन f द्वानों को वे मङ्गल विषयक वास्ते लिखो है । तर्कतरङ्गिणी पुस्तिका में यह स्पष्ट निदेश
मतों की आलोचना करके दे गङ्गश उपाध्याय के मत से है । वे लिखते है कि
सम्मत होते हैं। श्रीमदल विशालाख्यस्वशिष्याध्ययनहेतवे ।
मङ्गलवाद के अनन्तर वे न्यायसूत्र के प्रमाण प्रमेय गुणरत्नगणिश्चक्रे टोकां तकंतरङ्गिणीम् ॥ आदि प्रथम सूत्र को लेकर समासवाद की चर्चा करते हैं । यह तर्कतरङ्गिणी गोवर्धन की प्रकाशिका जो कि केशव यद्यपि गोवर्धन ने यह चर्चा मोक्षवाद के अनन्तर की है। मिश्र की तर्कभाषा के ऊपर टीका है उसकी प्रतीक है। परन्तु गुणरत्नगणि ने यह चर्चा यहीं पर की है और तरङ्गिणी की समाप्ति में और मङ्गल में इस विषय का उचित स्थान भी यही है क्योंकि समासवाद की चर्चा से ही निर्देश किया गया है।
न्यायसूत्र के प्रमाण को लेकर अपवर्ग का अर्थ स्पष्टतर होता
१ द्रष्टव्य 'जनेतर ग्रन्थों पर जेन विद्वानों की टोकाएँ' भारतीय विद्या वर्ष २ अङ्क ३ ले० अगरचन्द नाहटा तथा
सप्तपदार्थी जिनवईनसूरि टीका सहित प्रस्तावना पृ० ७ से ६ । प्र० ला० द० भारतीय विद्यामन्दिर अहमदाबाद २ द्रष्टव्य युगध्धान श्रीजिनचन्द्रसूरि पृ० १६३-१६४ श्री अगर चन्द नाहटा, भंवरलाल नाहटा !
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
। १०, है इस वास्ते यह चर्चा यहां की जाय यह अधिक तर्कसंगत न्यायसूत्र के वात्यस्यापन भाष्य में शास्त्र की विविध प्रतीत होता है।
प्रवृत्ति, उद्देश, लक्षण तथा परीक्षा निर्दिष्ट है । तर्कभाषाकार ___ समासवाद में गोवर्धन ने न्यायसूत्र के प्रथमसूत्र में इत- इन तीनों का लक्षण देते हैं। प्रकाशिका के कर्ता गोवर्धन रेतर द्वन्द समास कहकर सूत्र को समझाया है । गुणरत्लग णि ने इन तीनों विषय की विस्तृत चर्चा करते हैं। उन्हीं का भिन्न-भिन्न द्वन्द्व समासों की चर्चा पाणिनि के सूत्र के आधार अनुसरण करते हुए गुणरत्न इन विषयों की ओर विस्तृत पर की है। वे कर्मधाराय और द्वन्द्व के भेद को समझकर चर्चा करते हैं। उनकी इस चर्चा में उनका नव्यन्याय सत्र में इतरेतर द्वन्द्व समास क्यों है इस विषय को स्पष्ट का पाण्डित्य स्पष्ट प्रतीत होता है। करते हैं। इस चर्चा से गुणरत्नगणि अच्छे वैयाकरण थे यह भी प्रतीत होता है।
उद्देश, लक्षण और परीक्षा इन तीनों की चर्चा के पीछे __ समासवाद के अनन्तर प्रकाशिकाकार मोक्षवाद को चर्चा प्रमाण वगैरह सोलह पदार्थो का विचार शुरू होता है । विस्तार से करते हैं। न्याय के सोलह पदार्थों का तत्वज्ञान
प्रमाण का क्रम प्रथम होने से स्वाभाविक रूप से प्रमाण का मोक्ष का कारण किस तरह होता है यह समझाने का प्रयल लक्षण और परीक्षा को जाती है । गुणरत्न प्रमाण के लक्षण करते हैं । वे शास्त्र तथा तत्वज्ञान को मोक्ष का सीधा कारण में प्रमा की यथार्थता क्या है इसको चर्चा गोवर्धन का अनुन मानकर शास्त्र तथा तत्वज्ञान मोक्ष के प्रयोजक हैं ऐसा
सरण करते हुए विस्तार से करते हैं। यथार्थत्व को समसिद्ध करते हैं ।५ गुणरत्न प्रकाशिका के प्रामाणिक टोका- झाते हुए तद्वति तत्प्रकारात्व में गुणरत्न 'तद्वति' पद के कार होनेसे गोवर्धन की इस बात का समर्थन करते हुए इसे अर्थ में जितने भी दिरोधि अर्थ हैं उनका युक्ति से खण्डन विस्तार से समझाते हैं और किस तरह शास्त्र और तत्वज्ञान
करते हैं। प्रमा का करण प्रमाण है ऐसा लक्षण करने मोक्ष का सीधा जनक न होकर प्रयोजक हैं इसे स्पष्ट करते
में जैसे प्रमा के लक्षण की चर्चा करनी होती है उसी हैं। इस चर्चा में गुणरत्नग णि काशीमरण से मुक्ति होती है
तरह करण की भी चर्चा स्वाभाविक रूपसे करनी पड़ती या नहीं इसकी भी चर्चा करते हैं और नैयायिक मतानसार है। गोवर्धन प्रमा करण प्रमाण को समझाते हुए काशीमरण से तत्वज्ञान होता है और तत्वज्ञान मोक्षका 'अनुभवत्वव्याप्याजात्यवच्छिन्नकार्यतानिरूपितकारणताश्रयत्वे प्रयोजक है इस बात को वे सिद्ध करते हैं। यहां काशी
सति प्रमाकरणत्वम् प्रमावं' ऐसी प्रमाण की व्याख्या मरण जैसा सरल मार्ग को छोड़कर शास्त्रभ्यास जैसा कठिन देते हैं। गुणरत्न नव्यन्याय की पद्धति से विस्तार से मार्ग क्यों लिया जाय ? जैसे पूर्वपक्ष का खण्डन गुणरत्न प्रमाण के इस लक्षण का पकृत्य करके समझाते हैं।' प्रामाणिक टीकासार के नाते करते हैं। वे चाहते तो इस कारण के लक्षण को समझाते हुए उन्होंने पांचों विषय का अच्छी तरह खण्डन कर सकते थे पर प्रामाणिक अन्यथासिद्धि को भी विस्तार से स्पष्ट किया है। टीकासार होनसे ही उन्होंने ऐसा यहां नहीं किया है। तदनन्तर तीनों प्रकार के करण तथा समवायि कारण और ३ द्रष्टव्य मङ्गलवाद तर्कतरङ्गिणी पृ० १ से ८ सं० डॉ० वसन्त पारीख ४ द्रष्टव्य वही पृ० १०
७ , वही पृ० ३७-५१
८ द्रष्टव्य वही पृ०५८ ५ द्रष्टव्य तर्कतरङ्गिणी मोक्षवाद पृ० २३-२८
, , पृ०-६७-७१ तथा पृष्ठ ७८-८४ ६ , वही पृ० ३०
१०
, पृ० ८४-६०
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
। ११ ] उपादान कारण में क्या भेद है इपको चर्चा भी की करते हुए केवलव्यतिरेक व्याप्ति अन्वय रूप से भी कैसे
हो सकती है उसे स्पष्ट करने हैं । पक्षता की चर्चा प्रमाण के लक्षण में प्रत्यक्ष प्रमाण की चर्चा में तर्क में 'अनुमित्साविरह विशिष्ट सिद्ध यभावः पक्षता' के लक्षण भाषाकार और प्रकाशिकाकार का अनुसरण करते हुए में विशिष्टाभाव के अर्थ को चर्वा वे विशदतासे और उन्होंने बौद्ध और मोमांसक के प्रत्यक्ष लक्षणों को भी विस्तार से करते हैं१७ ।। विस्तार से चर्चा करके खण्डन किया है१२ ।।
अनुमान की चर्चा में हेत्वाभास की चर्चा अनिवार्य प्रत्यक्ष के अनन्तर अनुमान प्रमाण को चर्चा में 'अनु- है। गुणरत्न हेत्वाभास का गोवर्द्धन से प्रस्तुत लक्षण किस मान का कारण लिंग परामर्श ही है' इस तर्कभाषाकार तरह पांचों हेत्वाभासों को आवृत करता है यह एक
और प्रकाशिकाकार के मत की गुणरत्न ने विशदता से प्रामाणिक टीकाकार के नाते विस्तार दिखाते हैं । वे प्रत्येक नव्यन्याय के आधार पर समझाया है १३ । इस चर्चा में हेत्वाभास में क्या फर्क है, विशेषतः असिद्ध और विरुद्ध व्याप्ति के लक्षण को चर्चा गोवर्धन ने अधिक नहीं को है में क्या अन्तर है इसका सूक्ष्म निरूपण उदयन के मत का परन्तु गुणरल नव्यन्याय के प्रस्थापक गंगेश उपाध्याय अनुसरण करते हुए देते हैं। साथ में एक ही स्थान पर के व्याप्ति के लक्षण को लेकर व्याप्ति के अनेक लक्षण प्रस्तुत हेत्वाभासों का संग्रह हो जाय, अर्थात् अनेक हेत्वाभास हों करते हैं और इससे उनके नव्यन्याय के ज्ञान को विशिष्टता तो उसमें कोई दोष नहीं है, इस बात को भी स्पष्ट रूप स्पष्टतया गोचर होती है । इस चर्चा में वे उपाधि, से प्रतिपादित करते हैं । तर्क वगैरह की चर्चा करते हुए मीमांसक जैसे अन्य दार्शनिकों अनुमान के अनन्तर उपमान को चर्चा टोकाकार के मतों की भी व्याप्तिग्राह्यत्व के विषय में चर्चा करते गोवर्धन के अनुसार अत्यन्त संक्षेप में करके वे शब्दप्रमाण हैं । चार्वाक जोकि प्रत्यक्ष प्रमाण का स्वोकार ही नहीं की चर्चा करते हैं। गोवर्द्धन शब्द प्रमाण को चर्चा को करते हैं उनके मत का भी गुणरत ने नैयायिक पद्धति अधिक विस्तार से "एतावत्प्रपंचस्य बालबोधार्थ करसे खण्डन किया है१५।
णात्' ऐसा कह कर नहीं करते हैं, परन्तु गुणरत्न शब्द अनुमान में व्याप्ति को चर्चा के साथ हेतु की चर्चा प्रमाण की अनेक विशेषताओं की चर्चा विस्तार से करते भी अनिवार्य है। नैयायिक अन्वयव्यतिरेकी केवलान्वयी हैं (पृ० ३०७)। वे गङ्गश के मत को उद्धृत करके गोवऔर केवलव्यतिरेकी तीनों प्रकार के हेतुओं का स्वीकार धंन के दिये हुए लक्षण को विस्तार से समझाते हैं, और करते हैं । इस चर्चा में गुणरत्न उदयन के मत का अनुसरण आप्तत्व क्या है, तथा आकांक्षा, योग्यता आदि भी क्या ११ तर्कतरङ्गिणो पृ० १०० और आगे
१८ 'वायुर्गन्धवान् स्नेहान्' इस हेत्वाभास के उदाहरण १२ , , पृ० १७४
में वे लिखते हैं कि एकस्यैव 'स्नेहस्य अनैकान्तिक१३ द्रष्टध्य वही पु० १८३-१८४ विरुद्धत्यादि पञ्चत्वव्यवहारः कथमित्याशङ्काया
, पृ. १८७ ओर आगे मुत्तरम् -- उपाधेयसङ्करेऽप्युपाध्यसङ्कर इति , पृ. २४२
न्यायादोषगतसंख्यामादाय दुष्टहेतो पञ्चत्वादि, पृ० २७२
संख्याव्यवहारः' - तर्कतरङ्गिणी सं० डॉ० परीख, , पृ० २७५
हस्तलिखित प्रति पृ० ६०५-६०६ ।
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
[
२
]
है, यह भी स्पष्ट करते हैं। तर्कभाषाकार और प्रकाशि- चर्चा होनी चाहिए परन्तु प्रमाण-विचार जितनी चर्चा इन काकार ने शब्द के अनित्यत्व की चर्चा यद्यपि नहीं को है प्रमेयों को नहीं की गई है । इस विषय में तर्कभाषाकार से किन्तु इसका महत्त्व समझते हुए गुणरत्ल इस चर्चा को लेकर तरङ्गिणोकार तक सब समान हैं । शरीर की चर्चा छेड़ते हैं, और शब्द-नित्यत्व आदि मोमांसक के मत का में गुणरत्त ने शरीरत्व जाति है या नहीं इसकी चर्चा छेड़ी खण्डन भी करते हैं। इस चर्चा में शब्द की शक्तियाँ, है (पृ० ४३८-३६) ओर साङ्कर्य दोष होते हुए मी शरीरत्व अभिवा, लक्षणा और व्यञ्जना को चर्चा भो समाविष्ट हो जाति है ऐसा स्वीकार किया है। जाती है (पृ. ३ ५)।
चतुर्थ प्रमेय अर्थ को चर्चा में वैशेषिक मत के सातों ___ चारों प्रमाणों को स्थापना के अनन्तर अर्थापत्ति, पदार्थों का निरूपग तर्कभाषाकार ने किया है। इससे अनुपलब्धि, किंवा अभाव ये दो प्रमाणों का अन्तर्भाव कुछ पदार्थों को चर्चा की पुनरुक्ति होती है। गुणरत्न अनुमान में न्याय और वैशेषिक परम्परा करती है । तर- इस वास्ते इस विषय को कोई विस्तृत चर्चा नहीं करते हैं । डिगीकार भी उनका अनुसरण करते ३ए इन प्रमाणों का यहां 'एवम' पद का विचार श्रीगणरत्न विस्तार से करते हैं अमुमान में अन्तभाव करते हैं। प्रमाण के अन्तर्भाव की इस (पृ० ४४८ )। चर्चा का समापन करते हए ‘एव' पद का चर्चा में विशेषण विशेष्य भाव सम्बन्ध से अभाव का अर्थ अन्योन्याभाव हो सकता है ऐसे लीलावतीकार के मत प्रत्यक्षज्ञान कैसे होता है यह भी विशदता से तरंगिणी में को वे समर्थित करते हैं । समझाया गया है (पृ. ३३५-३५७) ।
अर्थ में से द्रव्य पदार्थ के निरूपण में पृथ्वी का निरूपण प्रमाणों को चर्चा में तर्कभाषाकार ने प्रामाण्यवाद आता है। इसमें विशेष चर्चा पाकज प्रक्रिया की को गई की चर्चा भी की है। इस विषय में तर्कभाषाकार पूर्व है। यह चर्चा यहां संक्षेप में ही की जाती है, क्योंकि इस पक्ष में भट्टमत के सिद्धान्त को रखते हैं। प्रकाशिका का चर्चा का उचित स्थान गुणों की चर्चा में है । द्रव्यों की स्वतः प्रामाण्यवादो मीमांसक के तीनों मतों को लेकर चर्चा में तेजस द्रव्य सूवर्ण की चर्चा भी स्वभावत: की उनका खण्डन करते हैं । गुणरत्न मोमांस और नेयायिक जाती है। इस विषय में तरंगिणीकार सूचन करते हैं कि दोनों के मतों को समझाकर प्रथम ज्ञानप्रामाण्य क्या है, यद्यपि सुवर्ण में तेजस रूप तथा स्पर्श उत्पन्न होता है किन्तु यह विस्तार से समझाते हैं और मीमांसक के प्रत्येक मत वे पृथ्वी के परमाणु को अधिकता होने से पार्थिवरूप और को विशदता से और विस्तार से चर्चा करते हैं (पृ. ३६१- पार्थिव स्वर्श से अभिभूत हो जाते हैं (पृ. ४५२-५४) । ६२)। यद्यपि इस विषय में जैन सिद्धान्त न्याय वैशेषिक पृथ्वी, जल, तेज और वायु के निरूपण के अनन्तर के सिद्धान्त से पृथक है। फिर भी गुणरत इसे प्रामाणिकता चारों द्रव्यों के परमाणुओं की चर्चा में परमाणुवाद की से न्याय वैशेषिक के परतः प्रामाण्यवाद का स्थापन चर्चा की जाती हैजैनदर्शन के पुद्गल ओर न्याय
और मण्डा करते हैं। करीब आधा ग्रन्थ तरंगिगीकार ने वैशेषिक के परमाणु भिन्न होने पर भी श्री गुणरत्न यहां प्रमाण की चर्चा में उपयुक्त किया है।
केवल परमाणुवाद की चर्चा करते हैं। परमाणुओं से सृष्टिप्रमाण को चर्चा के अनन्तर न्याय दर्शन के बारह संहार की प्रक्रिया कैसे होती है, यह वैशेषिक मत के अनुप्रयों की चर्चा शुरू होतो है। इन बारह प्रमेयों में भी सार समझाया गया है। यहां पर प्रलय के समय सारे आध्यात्मिक दृष्टि से मुख्य आत्मा, शरीर, और इन्द्रिय की परमाणुओं का विभाजन कैसे होता है इसे विस्तार से तर्क
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
तरङ्गिगोमें श्रीगुणचन्द्र समझाते हैं (पृ० ४५५-५६) । यहां सति एतेवृत्तिमात्रवृत्तिगुणेचसाक्षाद्व्याप्यजातिकत्वं परिमाणपर प्राचीन और नवीन नैयायिकों के मतभेदमें गुणरत्न प्राचीन त्वम्' (पृ० ५०४ ) स्पष्ट लक्षण देते हैं । 'पृथक्त्व' गुण नैयायिकों के मत को समर्थित करते हुए समवायि कारण को समझाते हुए वे अन्योन्याभाव से पृथक्त्व किस तरह के नाश से कार्य का नाश होता है, इस सिद्धान्त को भिन्न है इसका स्पष्टोकरण विशदतासे करते हैं। स्वीकार करते हैं। द्रव्य की चर्चा में गणरत्न आत्मा की तदनन्तर वे संयोग को समझाते हुए इसका भी समुचर्चा प्रमेय में हो जाने के कारण पुनरुक्ति दोष के वारण के चित लक्षण “विभागप्रतियोगिकान्योन्याभावत्वे सति एकलिये नहीं करते हैं।
वृत्तिमात्रवृत्तिगुणत्वसाक्षाद्व्याप्य जातिकत्वं सयोगत्वम्" देते द्रव्य के अनन्तर गण निरूपण में तर्कभाषाकार गुण हैं। इस लक्षण को पदकृत्य शैली से समझा कर संयोग का लक्षण "सामान्यवानसमाधिकारणमस्यन्यात्मा गण:" के भेद को भी वे समझाते हैं। इस विषय में नैयायिक ऐसा देते हैं। प्रकाशिकाकार गोवर्धन इस लक्षण में 'कर्म- जो कि संयोग को अव्याप्य वृत्ति कहते हैं उनके साथ द्रव्यभिन्नत्वे सति' ऐसा विशेषण बढ़ाते हैं। गुणरत्न इस अपनी असम्मति प्रकट करते हुए श्रीगुणरत्न संयोग को भी विशेषण वृद्धि को विस्तार से समझाते हैं और रघुनाथ व्याप्य वृत्ति सिद्ध करते हैं। अपने मत के समर्थन में वे शिरोमणि के गुण के लक्षण को भी उद्धत करते हैं । गुण की लीलावती को उद्धृत करते हैं (पृ० ५१३-१६) । संयोग चर्चा में रूप को चर्चा भी की जाती है। गणरत्न प्राचोन के अनंतर स्वाभाविक क्रम से विभाग का निरूपण आता नेयायिकों के मत को पुष्ट करते हुए चित्ररूप को आवश्य- है। विभाग यह संयोग का अभाव नहीं है. किन्तु स्वतंत्र कता समझाते हैं (पृ. ४८६)। रूप, रस, गन्ध और स्पर्श गण है--यह बात एक अच्छे तार्किक की तरह गणरत्न इन चारों गुणों के लक्षण को पदकृत्य शैली से समझा कर समझाते हैं । पाचन प्रक्रिया की विस्तार से चर्वा करते हैं। यहां पिठर- तदनन्तर परत्न, अपरत्व इत्यादि गगों को संक्षेप में पाकवादी नैयायिक और पीलााकवादीपिक के मतों को समझा कर वे शब्द निरूपण की चर्चा विस्तार से करते हैं । वे विस्तार से और विशदता से निष्पक्ष रूप से स्थापित 'वोचोतरङ्गन्याय' किंवा 'कदम्ब मुकुलन्याय' से नये-नये शब्द करते हैं। इस प्रक्रिया में विभागज विभाग को सहायता से किस तरह उत्पन्न होते हैं और श्रोत्रन्द्रिय में हो उत्पन्न परमाणु में रूपादि का फर्क कैगे होता है यह बात अपने होकर शब्द का किस प्रकार ग्रहण होता है इसे वे विस्तार शिष्य को स्पष्टता के वास्ते वे समझाते हैं (पृ०४६४)। से समझाते हैं । शब्द का अनित्यत्व और केवल तीन क्षण
चार सुणों के निरूपण में संख्या का निरूपण तर्क- तक शब्द केसे रहता है यह समझाते हुए बुद्धि केवल दो क्षण भाषाकार करते हैं । गुणरत्नजी ने यहां पर गोवर्धन के लक्षण तक ही रहती है ऐसा स्पष्ट करते हैं। शब्द के नाश के के साथ असम्मति प्रगट करते हुए कहा है कि "वस्तुतस्तु तदपि विषय में पूर्व पक्ष के मत को तर्कभाषाकार का मत समलक्षणं न संभवति तस्य लक्षणतावच्छेदकत्वात्" । इतना कह
झने में भल गणरलजी ने यहाँ पर की है। यह कुछ केशव
मिश्र की बात को समझने में गलती से हो गया है। कर वे अपनी ओर से “व्यासज्यवृत्तित्वे सति पृथक्त्वात्म
शब्द के अनन्तर बुद्धि, धर्म, अधर्म आदि आत्मा के गणों गुणत्वव्याप्यजातिमत्वम्" (पृ० ४६६) ऐसा यथार्थ लक्षण
का निरूपण करते हुए भ्रम किंवा अन्यथाख्याति का भी देते हैं। यह बात उनको सूक्ष्मेक्षिका की बोधक है। इसी निरूपण वे करते हैं । इस निरूपण में ख्यातवाद और तरह वे परिमाण नामक गण का भी 'कालवत्तिवृत्तित्वे भिन्न-भिन्न ख्यातियों की चर्चा की गई है (पृ. ५३०) ।
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्रव्य और गुण की चर्चा के अनन्तर कर्म निरूपण में हैं। यद्यपि हेमचन्द्रसूरि ने केवलवाद को ही स्वीकार जैन गुणरत्न कर्म का स्वतंत्र लक्षण ही देते हैं। यह है “संयोग- दर्शन को दृष्टि से प्रमाणमीमांसा में किया है फिर भी यहां विभागयोरनपेक्षकारणं कर्म" (पृ० ५३२)। यहां वे प्रशस्त- प्रामाणिक टीकाकार गुणरत्न तीनों को अच्छी तरह समझा पाद भाष्य का अनुसरण करते हैं। उन्हें तर्कभाषाकार कर तीनों के भेद की आवश्यकता भो समझाते हैं। कथा का और गोवर्धन का दिया हुआ लक्षण संतोष नहीं दे को चर्चा के इस प्रसंग में निग्रहस्थान की चर्चा भी समासका है। सामान्य, विशेष समवाय और अभाव ये चारों विष्ट होती है। कथा में केवलवादी और प्रतिवादी ही पदार्थ वैशेषिक के ही अपने पदार्थ हैं। फिर भी यहाँ भाग लेते हैं इस मत का खण्डन करते हुए गोवर्धन वादी गणरत्न इन पदार्थों का खण्डन नहीं करते हैं सामान्य और प्रतिवादी के समूह अर्थात् एक से अधिक व्यक्ति भो में सामान्य या जाति उपाधि से किस तरह भिन्न है, यह इसमें भाग ले सकते हैं, गुणरल उन्हीं का अनसरण करते समझाते हैं। उनके मतानुसार जाति संकर से मुक्त होनी हैं। इस विषय में रत्नकोशकार ने कथा के जो अन्तर प्रकट चाहिए (पृ० ५३४) । "ब्राह्मणत्व" जाति किस तरह किया है उसका खण्डन भी गुणरत्न करते हैं । निग्रह चारों प्रकार से शक्य होती है यह तार्किक युक्ति से वे स्थान की चर्चा में हेत्वाभास की चर्चा एक बार आचकी प्रस्तुत करते हैं । विशेष की खास चर्चा न करते हए समवाय है वे इस वास्ते पुनरावृत्ति नहीं करते हैं। छल और गति की चर्चा में स्वरूप सम्बन्ध से समवाय किस तरह भिन्न के विषय में भी वे अधिक कुछ विवरण नहीं करते हैं है और अवयवी केवल अवयवों का समूह न होकर अवयवों क्योंकि कथा की चर्चा में ये सब आ जाते हैं। से भिन्न है यह न्याय वैशेषिक का सिद्धान्त वे अच्छी तरह
___ संक्षेप में तर्कभाषाकार और उनके टीकाकार प्रकाप्रतिपादित करते हैं (पृ०५३७ )।
शिकाकार गोवर्धन ने जिन विषयों की विशेष चर्चा नहीं समवाय के बाद अभाव की चर्चा वे विशेष रूप से ।
की है, ऐसे विषयों की चर्चा गणरत्न ने अपनी तर्कतरकरते हैं। अन्योन्याभाव से संसर्गाभाव, जिसके तीन
ङ्गिणी में आधुनिक प्रामाणिक टीकाकार की तरह की है। प्रकार हैं, वह कैसे पृथक हैं इसे विशदता से और विस्तार
ये विषय हैं (१) मङ्गलवाद, (२) काशीमरण मुक्ति, (३) से वे समझते है। इपो चर्चा में प्रत्येक अभाव एक दूसरे
उद्देश्य, लक्षण और परीक्षा का विस्तार से विवरण, (४) से क्यों भिन्न हैं यह भी वे अच्छी तरह समझाते हैं (पृ०.
कारण लक्षण (५) षोढा सन्निकर्ष (६) व्याप्ति (७) अवच्छे५४१-५२) । मीमांसक जो कि अभाव को अलग नहीं
दकत्व (८) सामान्यलक्षणा तथा ज्ञानलक्षणा प्रत्यासत्ति (6) मानते हैं उनका खण्डन भी वे न्याय वैशेषिक के सिद्धान्तों
हेतु केतीन प्रकार (१०) सत्प्रतिपक्ष और संदेह का भेद (११) के अनुसार करते हैं।
शब्द की अनित्यता (१२) शब्द शक्तियाँ (१३) प्रामाण्यवाद आत्मा, शरीर, इन्द्रिय और अर्थ के निरूपण के अनन्तर
में मीमांसकों के तीनों मत की आलोचना (१४) शरीरत्व न्याय के अवशिष्ट आठ प्रभेदों में वे अत्यन्त संक्षेप करते
जाति (१५) प्रलय (१६) गुण का लक्षण (१७) चित्ररूप हैं। सिद्धान्त की चर्चा में गणरल गोवर्धन का अनुसरण
(१८) पाकज प्रक्रिया (१६) पृथक्त्व और अन्योन्याभाव का करते हैं और गोवर्धन ने वार्तिककार के मतानुसार तर्क
भेद (२०) अन्यथाख्याति और अभाव के प्रकारों के भेद भाषाकार जो कि भाष्यकार वात्स्यायन के मत का
इत्यादि हैं। स्वीकार करते हैं उनका खण्डन करते हैं । गुणरल भी उसी तरह तर्कभाषाकार के मत का खंडन विशेषत: अभ्यु- न्याय की अन्य कृतियों में शशधर टिप्पण वगैरह भी पगम सिद्धान्त के भेद के विषय में करते हैं। सिद्धान्त के उन्होंने लिखा है। काव्यप्रकाश की भी विस्तृत टीका उनको बाद तर्क का लक्षण देकर प्रकाशिकाकार के अनुसार तर्क कृति है इस तरह खरतरगच्छ के यह विद्वान अपने समय के प्रकार समझाते हैं (पृ० ५८३-८४)।
के पदवाक्यप्रमाणज्ञ ऐसे एक गच्छ के गौरव प्रदान करने न्याय शास्त्र के अन्य पदार्थों को विशेष चर्चा न करते वाले विद्वान थे। आशा है खरतर गच्छ के श्रेष्ठी उनकी हावे वादजल्प और वितण्डा ये तीन पदार्थों को समझाते कृतियों को प्रकाश में लाने का सविशेष प्रयत्न करगे ।.
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
महत्त्वपूर्ण खरतरगच्छीय ज्योतिष ग्रंथ
जोइसहीर
[पं0 भगवानदास जैन] इस नाम का ज्योतिष शास्त्र के मुहूर्त विषय का "पण परमिट्ठ णमेयं समरीय सुहगुरुय सरस्सई सहियं । प्राचीन ग्रंथ है । इसका दूसरा नाम ज्योतिषसार भी है। कहियं जोइसहीरं गाथा छंदेण बंधेण ॥१॥" यह दो प्रकार की रचना वाला देखने में आता है । एक तो मंगलाचरण में इष्ट देवों को नमस्कार करके ग्नन्थ का दूहा और चौपाई छंदों में भाषामय है। इसकी प्राचीन नाम 'जोइसहीर' (ज्योतिषहीर ) स्पष्ट किया है । इसके हस्तलिखित दो प्रति साक्षर रत्न श्रीअगरचन्दजी नाहटा बाद प्रथम तरंग में ५६ विषयों के नाम की पांच गाथाएं बीकानेर वाले के शास्त्र संग्रह में मौजूद है । इन दोनों प्रति के हैं। विषय यह हैपीछे का कुछ भाग बिना लिखा रह गया है, जिससे इसको "तिथि १, वार २. नक्षत्र ३, योग ४, होराचक्र ५, रचना समय आदि समझने में कठिनता है, परन्तु इसकी राशि ६, दिनशुद्धि ७, पुरुष नव वाहन ८, स्वरनाडी , रचना करने वाला खरतरच्छीय पं० हीरकलश मुनि ही है, वत्सचक्र १०, शिवचक्र ११, योगिनीचक्र १२, राहु १३, ऐसा ग्रन्थ वांचने से मालूम हुआ कि छंदों में कई एक स्थान शुक्र १४, कीलक योग १५. परिधचक्र १६, पंचक १७, शूल पर कर्ता ने अपना नाम जोड़ा है।
१८, रविचार १६, स्थिरयोग २०, सर्वाकयोग २१, रवियोग इस ग्रथ की दूसरी रचना प्राकृत गाथाबद्ध है, इसकी २२, राजयोग २३, कुमारयोग २४, अम्चन योग २५, ज्वालाएक प्रति जालोर ( राजस्थान ) मे ज्ञानमुनि मण्डली मुखी योग २६, शुभयोग २१, अशुभयोग २८, अद्ध - लायब्ररी में है, प्रति में मुख्य ग्रथ के अलावा प्रत्येक पन्ने प्रहर २६, कालवेला ३०, कुलिकयोग ३१, उपकुलिकके चारों तरफ खाली जगह में टिप्पणियां लिखी हुई हैं, योग ३२, कंटकयोग ३३, कर्कटयोग ३४, यमघंटयोग ३५, परन्तु ग्रथ का अन्तिम भाग कुछ बिना लिखा रह गया है। उत्पातयोग ३६, मृत्युयोग ३७, काणयोग ३८, सिद्धिइसकी दूसरी प्रति नाहटाजी ने कलकत्ता गुलाबकुमारी योग ३६, खंजयोग ४., यमलयोग ४१, संवर्तकयोग ४२, लायब्ररी से लाकर मेरे पास भेजी थी यह पूर्ण लिखी हुई आडलयोग ४३, भस्मयोग ४४, उपग्रहयोग ४५, दंडथी। ग्रन्थ के अन्त में ग्रन्थकार की प्रशस्ति होने से मालूम योग ४६, हालाहलयोग ४७, वज्रमूसलयोग ४८, यमदंष्ट्राहुआ कि- 'वृहत्खरतरगच्छीय जंगमयुगप्रथान भट्टारक योग ४६, कंभचक्र ५०, भद्रा (विष्टि) योग ५१, कालपाशजैनाचार्य श्री जिनचन्द्रसूरीश्वरजी के विजयराज्य में पंडित योग ५२, छींक विचार ५३, विजययोग ५४, गमनफल ५५, हीरकलश मुनि ने विक्रमसंवत् १६२७ के वर्ष में रचना की ताराबल ५६, ग्रहचक्र ५७, चन्द्रावस्था ५८ और है । सम्पूर्ण ग्रन्थ में लगभग १२०० गाथायें हैं। इनके दो करण ५६ ।" अध्याय तरंगों के नाम से रखा है। प्रथम तरंग में ५६ इतने विषयवाले प्रथमतरङ्ग में ४१६ गाथार्य हैं । विषय हैं। प्रथम मंगलाचरण यह है
इसके अन्त में ग्रन्थकार ने लिखा है कि-"इतिश्रीखरतर
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
गच्छे पंडित हीरकलशकृते श्रीज्योतिषसारे प्रथमरतरङ्गः।" शलाका, रोगीनाडीवेध, सूर्यकालानक्षत्र, चन्द्रकालानल, ___ इन विषयों में प्रसंगोपात कुछेक चमत्कारि प्रयोग दिये मृत्युकालानल, चतुःनाडीचक्र, चउघडिया, विषकन्या, शीलगये हैं, जो ज्योतिष नीं जाननेवाले भी आसानी से अपना परीक्षा, राशि आयचक्र, खंज चक्र, गतवस्तु ज्ञान, पंच तत्त्व, प्रत्येक दिन का शुभाशुभ फल जान सकते हैं।
समयपरीक्षा, दिशाचक्र, संक्रान्ति विचार, 'चतु:मंडल, "दिनरिक्ख जम्म रिक्खं मेली तिहिवार अंक सव्वेहिं । अकडमचक्र, लग्न और भावफल, सर्वपृच्छा, दीक्षा, वधुप्रवेश, सत्तेण भाग हरए सेसं अंकाइ फल भणियं ॥१३॥ गंडांतयोग, विवाह," इत्यादि विषय हैं। लच्छी दुक्खं लाभं सोगं सुक्खं च जरा असणायं ।
इन विषयों में पोरसी साढ पोरसी आदि पच्चक्खाण सम्वेहि जोइसायं भासि हीरंच निव्वायं ॥१४॥"
पारने का समय अपने जानकी छाया से जानने का बतदिन का नक्षत्र, जन्म का नक्षत्र, तिथि और वार, इन लाया है । गाथा ३३१ से गाथा ४६५ तक वर्ष का शुभासबके अंकों को इकट्ठा कर के सात से भाग देना। जो शेष शुभफल लिखा है वर्ष कैसा होगा ? सुकाल पड़ेगा या बचे उसका फल कहना। एक शेष बचे तो लक्ष्मी की प्राप्ति. दृष्काल, वर्षा कितनी और कब बरसेगी, धान्यादि वस्तु तेज शष दा बचे तो दुख, तीन बचे तो लाभ. चार बचे तो होगी या मंदी इत्यादि जानने का अर्घकांड लिखा है। बाद शोक, पांच बचे तो सुख, छह बचे तो वृद्धपना और सात में जन्म कुंडलियो का वर्णन है । विजय यंत्र आदि लिखने शेष बचे तो भोजन प्राप्ति होवे । ऐसा सब ज्योतिष शास्त्र का प्रकार को लिखा है । ग्रहों को शान्ति के लिये उपासना में कहा गया है, इसका अवलोकन करके ही र मनिने यहाँ विधि बतलाई है, (वं चौबीस तीर्थंकरों को राशि तथा कथन किया है।
किसके लिये कौन तीर्थकर लाभदायक है इत्यादि विषयों ___ इत्यादि कईएक चमत्कारिक कथन इस ग्रन्थमें लिखे का वर्णन है । गये है।
अन्त में ग्रंथकार ने अपनी प्रशस्ति लिखी हैदूसरे तरगमें ६३ विषय इस प्रकार हैं
गाहा छंद विरूद्ध अस्थ विरुद्ध च जमए भणियं । "नक्षत्रों की योनि, नाड़ी, वेध, वर्ण, गण, यजीप्रीति, तं गीयत्था सव्वं करिय पसाउव्व खमियव्वं ॥२७६॥ षडाष्टक, ग्रह मित्र, राशिमेल, व, लेना देनी, द्विद्वादश, सिरिखरतरगण गुरुणो सूरिजिणचंद विजयराएहि । तृतीय एकादश, दशम चतुर्थ, उभय समराप्तक, नवपचम, हीरकलसेहि गुफिय जोइससारं हियगरत्थ ।।२७॥ ग्रामचक्र. गृहारंभ, चुल्ही चक्र, विद्या मुहतं, ग्रहण, शिशु सोलस ए सगवीस वच्छर विकम्मिविजयदसमीए । अन्नप्राशन, क्षौरकर्म, कर्णवेध, वस्त्राभरण, भोजन, श्रीमंत, अहिपुरमझे आगम उद्धरियं जोइस होरं ॥२७८॥" स्नान, नृपमन्त्री, शुभाशुभ, मास अधिक मास, पक्ष, तिथि इति श्रीखरतरगच्छे पण्डितहीरकलशमुनिकृतिः को हानि वृद्धि, न्यूनाधिक नक्षत्रयोग, पांचवार का फल, श्रीज्योतिषसारे द्वितीयम्तरङ्गः सम्पूर्णः । नक्षत्रस्नान, गर्भयोग, पंथाचक्र, ज्येष्ठा और मूल नक्षत्र ऐसा महत्वपूर्ण नथ प्रकाशित हो जाय तो जनता को, जातक शान्ति, रोहिणीचक्र मृतकार्य, रात्रि दिनमान, विशेष लाभ हो सकता है ।
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
महोपाध्याय समयसुन्दरजी के साहित्य में लौकिक-तत्व
[डा0 मनोहोर शर्मा] जैन कवि-कोविदों ने राजस्थान साहित्य को श्रीवृद्धि स्वरों में गाए जानेवालों ज्ञान-तत्व का सहज ही अपनाकर में अपूर्व योगदान किया है। इनमें महोपाध्याय समय- उसको जीवन का अंग बना लेती है। इस मनोवैज्ञानिक सुन्दरजी का ऊंचा स्थान है । आपकी बहुविध रचनाओं से तथ्य को मुनिवरों ने पूर्णतया समझा और इसका अपने राजस्थानी साहित्य गौरवान्वित है । आप एक साथ ही बहुत गीतों में प्रचुरता से प्रयोग किया। इसका मधुर फल यह बड़े विद्वान और और उच्चकोटि के कवि थे । आपने सुदीर्ध हुआ कि उनकी दिव्यवाणी का लोक हृदय में प्रवेश तो काल तक साहित्य-साधना को और जनाधारण में शोल धर्म हुआ ही, साथ ही लोकगीतों का अमूल्य भण्डार भी का प्रचार किया। मध्यकालीन भारतीय संत-साधेको में सुरक्षित हो गया। आज प्राचीन राजस्थानी लोकगीतों के उनका व्यक्तित्व निराला ही है ।
अध्ययन हेतु जैन मुनियों के बनाये हुए गीत ही एक मात्र महोपाध्याय समयसुन्दरजी की साहित्य साधना को साधन स्वरूप उपलब्ध हैं। उन्होंने अपने गीतों की रचना यह एक विशेषता है कि उसमें एक साथ हो शास्त्र और ल
लोक प्रचलित 'देशियों के आधार पर की और साथ ही लोक दोनों का सुन्दर समन्वय हुआ है। जैन मुनि स्वयं उस गीत की प्रथम पंक्ति का प्रारंम्भ में ही संकेत भी कर शीलधर्म का आचरण करके उससे जनसाधारण को भो दिया । 'जैन गुर्जर कवियों' (भाग ३ खण्ड :) में इन लाभान्वित करने की दिशा में सदैव प्रयत्नशील रहे हैं, देशियों की विस्तृत सूची का संकलन देखते ही बनता है। अतः उनके साहित्य में लौकिक तत्त्वों का प्रवेश स्वाभाविक
महाकवि समयसुन्दरजी संगती शास्त्र के प्रेमो एवं है। महाकवि समयसुन्दरजी के साहित्य में तो लोकसाहित्य ज्ञाता थे। आपने अपने गीतों को अनेक राग रागनियों के का रंग भरपूर है। मध्यकालीन राजस्थानी (गुजराती) अतिरिक्त तत्कालीन लोक प्रचलित 'ढालों' (तों) में भी लोकसाहित्य के अध्ययन हेतु उनका साहित्य एक सुन्दर ग्रथित किया है। कहावत प्रसिद्ध है-- 'समयसुन्दर रा एवं उपयोगी साधन है। इस विषय में एक बड़ा ग्रन्थ गीतड़ा नै राणे कुंभैरा भीतड़ा।' समयसुन्दरजी के गीतों लिखा जा सकता है परन्तु यहां विषय को विस्तार न देकर की यह लोकप्रशस्ति कोई साधारण बात नहीं है। परन्तु संक्षिप्त ज्ञातव्य ही प्रस्तुत किया जा रहा है।
ध्यान रखना चाहिये कि इस महिमा का मूल कारण उनके ____ लोकगीतों की महिमा निराली है । इनमें एक साथ द्वारा लोकगीतों की स्वरलहरी को अपना कर उसके आधार ही शब्द और स्वर दोनों का सरल सौन्दर्य समन्वित मिलता पर गीत-रचना करना ही है । इस दिशा में कुछ चुने हुए है। यह रसपूर्ण साधन जनसाधारण में किसी भी तत्व का उदाहरण द्रष्टव्य हैं, जिनमें लोकगीतों का प्रारंभिक अंश प्रचार-प्रसार करने हेतु परमोपयोगी है। जनता अपने हो संकेत हेतु दिया गया है
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ 8
]
१ चरणाली चाड र णि चढइ, चख करि राता चोलो रे विरती दाणव दल विचि, घाउ दीयइ घमरोलो रे, चरणाली चामंड रणि चढइ ।
सीताराम चौपई, खण्ड २, ढाल ३) २ वेसर सोना की धरि दे बे चतुर सोनार, वेसर सोना की। वेसर पहिरी सोना की रंझे नंदकुमार, वेसर सोना की।
(वही, खण्ड ४, ढाल १) ३ तोरा कीजई म्हांका लाल दारू पिअइजी,
पड़वइ पधारउ म्हांका लाल, लसकर लेज्यांजी, तोरी अजब सूरति म्हांको मनड़उ रंज्यो रे लोभी लंज्यो जी।
__(वही, खंड ५, ढाल ३) । सहर भलो पणि सांकड़ों रे, नगर भलो पणि दूर रे, हठीला वयरी नाह भलो पणि नान्हड़ो रे लाल । आयो आयो जोवन पूर रे, हठीला बयरी लाहो लइ हरपालका रे लाल ।
(वही, खंड ५, डाल ४) ५ लंका लीजइगी, पुणि रावण लंका लीजइगी। ___ओ आवत लखमण कउ लसकर, ज्युं घण उमटे श्रावण।
(वही खंड ६, ढाल २) ६ रे रंगरता करहला, मो प्रीउ रत्तउ आणि, हुँ तो ऊपरि काढि नइ, प्राण करू कुरबाण, सुरंगा करहा रे, मो प्रीउ पाछउ वालि, मजीठा करहा रे।
(वही, खंड ७, ढाल ३) ७ सिहरां सिरहर सिवपुरी रे, गळां वडउ गिरनारि रे,
राण्यां सिरहरि रुकमिणी रे, कुमरां नन्दकुमार रे, कंसासुर-मारण आविनइ, प्रल्हाद-उधारण रास रमणि घरि आज्यो,
धरि भाज्यो हो रामजी, रास रमणि घरि आज्यो।
(वही, खण्ड ७, ढाल ५) ८ सूबरा तुं सूलताण, बीजा हो, बीजा हो थारा सुंबरा ओलगू हो
(वही, खण्ड ८, ढाल ६) ६ अम्मां मोरी मोहि परणावि हे,
अम्मां मोरी जेसलमेरा जादवां हे. जादव मोटा राय, जादव मोटा राय हे, अम्मां मोरी कड़ि मोरी नइ घोड़े चढे हे ।
(वही, खण्ड ८, हाल ७) १० गलियारे साजण मिल्या मारुराय,
दो नयणां दे चोट रेधण वारी लाल । हसिया पण बोल्या नहीं मारुराय, काइक मन मांहि खोट खोट रे, आज रहउ रंगमहल मई मारुराय ।
(वही, खंड ६, ढाल २) ११ दिल्ली के दरवार मई लख आवइ लख जाइ, एक न आवइ नवरंगखान जाकी पघरी ढलि
ढलि जावइ वे, नवरंग वइरागी लाल।
(वही, खण्ड ६, डाल ४) यहां महाकवि समयसुन्दरजी के द्वारा अपने गीतों में प्रयुक्त केवल ग्यारह 'देशियों' के संकेत दिये गए हैं, परन्तु ध्यान रखना चाहिए कि इन 'देशियों' के गीत विविध प्रकार के हैं। इनमें भक्तिरस के साथ ही शृगाररस भी है और साथ ही सामाजिक जीवन की झलक भी स्पष्ट है। महाकवि ने कई जगह पर गीत के प्रचलन-स्थान की भी सूचना दी है, जैसे 'ए गीत सिंध मांहे प्रसिद्ध छइ' 'ए गीतनी ढाल जोधपुर, नागौर, मेड़ता नगरे प्रसिद्ध छइ' आदि। इतना ही नहीं, कहीं-कहीं प्रयुक्त 'देशी' के गेयतत्व के सम्बन्ध में भी सूचना दी गई है, जैसे
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
१ 'जा जा रे बांधव तु बड़उ'
ए गुजराती गीतनी डाल
अथवा 'वीसरी मुन्हें वालहइ' तथा हरियानी
( मीताराम चौपई, खण्ड ४, ढाल २ ) २ एहनी ढाल नायकानी ढाल सरीखी छइ
पण आंकणी लहरकउ छइ ।
(वही, खण्ड ५, ढाल ४)
३ ए गीतनी ढाल राग खंभावतो सोहलानी । वही खण्ड ८, ढाल
[ * ]
यहां तक महाकवि के गीतों में चर्चा हुई है । आगे उनके गोतों में के उदाहरण भी द्रष्टव्य हैं, जो एक करते हैं । लोक और शास्त्र का यह समन्वय अन्य राजस्थानी कवियों में भी अनेक देखा जाता है और यह परम्परागत चीज है । नमूने के तौर पर यहां महाकवि समयसुन्दरजी का एक पूरा गीत दिया जाता है -
प्रयुक्त लोक-संगीत पर प्रयुक्त लौकिक दोहों निराली ही छटा प्रकट
श्रोस्थूलिभद्र गीतम् ( राग सारंग )
प्रीतड़िया न कीजइ हो नारि परदेसियां रे, खिण खिण दाझइ देह |
वीछड़िया वाल्हेसर मलवो दोहिलउ रे, सालइ सालइ अधिक सनेह ॥ प्रीत८ ॥ आज नइ तर आव्या काल उठि चालवु रे,
भमर भमंता जोइ ।
साजनिया बोलावि पाछा वलतां थकां रे, धरती भारणि होइ ॥ प्रीत० ॥
राति न त नाव वाल्हा नींदड़ी रे, दिवस न लागइ भूख ।
अन्न नइ पाणी मुझ नइ नवि रुचइ रे, दिन दिन सबलो दुख ॥ प्रीत० ॥
रे,
मत ना मनोरथ सवि मनमा रह्या कहियइ केहनइ रे साथ | कालिया तो लिखता भीजइ आंसूओं रे, आवइ दोखी हाथि ॥ प्रति० ॥ नदियां तणा व्हाला रेला वालहा रे, ओछा तणां सनेह |
बहता वह वाल उतावला रे, कि दिखावइ छेह ॥ प्रीत० ॥ सारसड़ी चिड़िया मोती चुगइ रे, चुगे तो निगले कांइ ।
साचा सदगुरु जो आवी मिलइ रे, मिले तो बिछुड़ कांइ ॥ प्रीत० ॥
परि स्थूलभद्र कोशा प्रतिबूझवी रे, पाली - पाली पूरब प्रीति सनेह । शील सुरंगी दीधी चुनड़ी रे, समयसुन्दर कहइ एह ॥ प्रीत० ॥
( समयसुन्दर कृति कुसुमाञ्जलि, पृष्ठ ३११-३१२) उपर्युक्त गीत की प्रायः सभी 'कड़ियों' में लोकप्रचलित दोहों का सरस एवं सुन्दर प्रयोग सहज ही देखा जा सकता है, जिनमें निम्न दोहे तो अति प्रचलित हैं-राति न आवइ नींदड़ी, दिवस न लागइ भूख । अन्न पाणी नवि दिन दिन सबलो दूख ॥ १ ॥ रुचइ, ओछां केरा नेह ।
डूंगर केरा वाहला,
बहता बहर उतावला, झटकी दिखावइ छेह ॥ २ ॥ सारसड़ी मोती चुगे, चुगै तो निगले काय | साचा प्रीतम जो मिले, मिले तो बिछुड़े काय ॥ ३ ॥
लोक साहित्य का दूसरा प्रमुख अंग लोककथा है । लोककथाओं के संरक्षण में जैन विद्वानों का योगदान अत्यन्त सराहनीय है। उन्होंने शीलोपदेश हेतु अनेक लोककथाओं का प्रयोग किया है और साथ ही उन्हें लिखकर भी सुरक्षित कर दिया है। उनकी टीकाओं में भी लोक
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ १०० ] कथाओं का बालावबोध हेतु प्रयोग हुआ है। इस प्रकार से पालन किया गया। बालावबोध टोकाए लोककथाओं के अध्ययन के लिए बड़ी जब पुण्यसार बड़ा हुआ तो उसको पढ़ने के लिए उपयोगी हैं। जैन कवियों ने अपने कथा-काव्यों में भी पाठशाला में भेजा गया। उसी पाठशाला में सेठ रत्नसार प्रचुरता के साथ लोककथाओं का आधार ग्रहण किया है। को पुत्री रत्नवती भी पढ़ती थी। वह पुरुष-निंदक थी। इस प्रक्रिया ने एक नया ही वातावरण बना दिया है। वहां एक दिन इन दोनों में विवाद हो गया और पुण्यसार ने लोककथाओं को साधारण परिवर्तन के साथ धार्मिक रत्नवती को पत्नी के रूप में प्राप्त करने का निश्चय प्रकट परिवेश में प्रस्तुत किया गया है। पात्रों एवं स्थानों के कर दिया। नाम रख दिए गए हैं और उनके सुख-दुःख का कारण पुण्यसार ने घर आकर अन्न-पान छोड़ दिया और पूर्वजन्म के भले अथवा बुरे कर्मो को प्रगट किया गया है। रत्नवती से विवाह करने का निश्चय सबको कह सुनाया। जिस प्रकार बोद्ध कथा-साहित्य में लोककथाओं का धार्मिक उसका पिता पुरन्दर सेठ नगर में बड़ी प्रतिष्ठा रखता था । दृष्टि से प्रयोग हुआ है, वैसा ही कुछ जैन साहित्य में वह रत्नसार के घर गया और अपने पुत्र के लिए उनकी भी हुआ है। परन्तु दोनों जगह प्रयोग करने की शैली पुत्रो रत्नवती को मांग को। परन्तु रत्नवती इस सम्बन्ध में कुछ भिन्नता अथवा अपनी विशेषता है। साथ ही के लिए एकदम नट गई। फिर भी उसके पिता ने उसे ध्यान रखना चाहिये कि एक ही लोककथा को आधार अबोध समझ कर उसकी सगाई पुण्यसार के साथ मान कर अनेक जैन विद्वानों ने अपनी रचनाएँ प्रस्तुत की कर दी। है, जो उन लोककथाओं की जनप्रियता तथा बोधपूर्णता जब पुण्यसार कुछ और बड़ा हुआ तो वह जुआरियों की सूचक हैं। महाकवि समयसुन्दरजो ने भी अनेक की संगत में पड़ गया और एक दिन उसके पिता के यहां कथा-काव्यों की रचना की है, जिनको परम्परा के अनु- धरोहर रूप में पड़ा हुआ रानी का हार जुए में हार गया। सार 'रास' 'चौपई' अथवा 'प्रबंध' नाम दिया गया है। फल यह हुआ कि पुण्यसार को अपना घर छोड़ना यह विषय अति-विस्तृत विवेचना की अपेक्षा रखता है परन्तु पड़ा और वह जंगल में जाकर एक बड़ के कोटर में रात यहां स्थानाभाव के कारण उनकी केवल एक रचना पर बिताने के लिए बैठ गया। ही कुछ चर्चा की जाती है । महाकवि प्रणोत 'श्री पुण्यतर रात्रि के समय उस बड़ के पेड़ पर पुण्यसार ने चरित्र चौपई' नामक कथाकाव्य प्रसिद्ध है, जो श्री दो देवियों को परस्पर में बातचीत करते हुए सुना। भंवरलाल नाहटा द्वारा सम्पादित 'समयसुन्दर रास पंचक उनके वार्तालाप से प्रगट हुआ कि वल्लभी नगर में सुन्दर सेठ में प्रकाशित हो चुका है। इस काव्य की वस्तु संक्षिप्त रूप ने अपनी सात पुत्रियों के विवाह की पूर्ण तयारी कर में इस प्रकार है
रखी है और लम्बोदर के आदेश से उनके लिए वर पाने ___ धर्मात्मा पुरन्दर सेठ के पुण्यश्री नामक पतिव्रता की प्रतीक्षा में बैठा है। यह कौतुक को वस्तु थी। पत्नी थी, परन्तु उनके कोई पुत्र न था। अतः वे उदास अत: उसे देखने के लिए उन देवियों ने वटवृक्ष को मन्त्र रहते थे। आखिर सेठ ने पुत्र हेतु कुलदेवी को आराधना प्रभाव से उड़ाया और वे वल्लभी आ पहुंचीं। कहना की, जिसके वरदान से उसे पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। पुत्र न होगा कि पुण्यसार भी वृक्ष के कोटर में बैठा हुआ का नाम पुण्यसार रखा गया और उसका बड़े दुलार वहीं आ पहुँचा । फिर दोनों देवियाँ नायिका के रूप में
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुन्दर सेठ के यहां चलीं तो पुण्यसार भी उनके पीछे हो लिया। आगे सेठ ने अपनी सातों पुत्रियों का विवाह उसके साथ करके बड़ा सुख माना ।
। १०१ ।
विवाह के बाद पुण्यसार अपनी पत्नियों के साथ महल में गया परन्तु उसे चिन्ता थी कि कहीं वटवृक्ष उड़ कर वापिस न चला जावे। वह देह चिन्ता की निवृत्तिहेतु अपनी गुणसुन्दरी नामक पक्षी के साथ महल से नीचे आया और वहां एक दीवार पर इस प्रकार लिख दिया
किहां गोपाचल किहां वलहि, किहां लम्बोदर देव । आव्यो बेटो विहि वसहि, गयो सत्तवि परणेवि ॥ गोपालपुरादागां, वल्लभ्यां नियतेर्वशात् । परिणीय वधू सप्त पुनस्तत्र गतोस्म्यहम् ॥
·
इसके बाद पुण्यसार वहां से वटवृक्ष के कोटर में आ बैठा और वापिस अपने स्थान में आ गया ।
चुपचाप चल कर उस देवियों के साथ उड़कर
अगले दिन पुरन्दर सेठ पुत्र की तलाश करता हुआ उसी बड़ के पास आ पहुँचा और पुत्र को वस्त्रालंकारों से सुसज्जित देख कर परम प्रसन्न हुआ। सेठ अपने बेटे को घर ले गया और उसके लाए हुए गहनों को बेच कर रानी का हार प्राप्त कर लिया गया। अब पुण्यसार ने जुए का व्यसन त्याग दिया और वह पिता के साथ अपनी दूकान पर काम करने लगा ।
इधर वल्लभी में जामाता के अचानक चले जाने के कारण सुन्दर सेठ के घर में बड़ी चिन्ता फैल गई और उसकी सातों पुत्रियाँ विरह में विलाप करने लगीं। गुणसुन्दरी ने पुण्यसार द्वारा दीवार पर लिखे हुए लेख को पढ़ कर अपने पति का पता लगाने का निश्चय किया। वह पुरुषवेश धारण करके गुणसुन्दर व्यापारी के रूप में गोपाचल आ पहुँची और वहाँ थोड़े ही समय में उसने अच्छी प्रसिद्धि प्राप्त कर ली ।
यहाँ गुणसुन्दर (युवक व्यापारी) पर रजवती की नजर पड़ी तो वह उसके रूप-सौन्दर्य पर मुग्ध हो गई और उसी के साथ विवाह करने का निश्चय किया। रलसार सेठ ने अपनी पुत्री के विवाह हेतु गुणसुन्दर को कहा परन्तु वह इस प्रस्ताव को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हुआ । फिर बहुत आग्रह किए जाने पर उसे रत्नवती का पाणिग्रहण करना ही पड़ा ।
गुणसुन्दरी ने ६ मास की अवधि में अपने पति का यह अवधि समाप्त
पता लगा लेने का प्रण किया था। होने पर उसने गोपाचल में अग्निप्रवेश करने का निश्चय किया। राजा ने उसे रोका और पुण्यसार को उसे समझाने के लिए भेजा। इस समय वार्तालाप में सारा भेद प्रकट हो गया और गुणसुन्दर ने नारी वेश धारण कर लिया ।
सुन्दर सेठ की पुत्री का विवाह गुणसुन्दर के साथ हुआ था, जो स्वयं एक नारो था। अब उसके पति की समस्या सामने आई तो स्वभावतः ही पुण्यसार उसका पति माना गया। अंत में गुणसुन्दरी की ६ बहनों को भी वल्लभी से गोपाचल बुलवा लिया गया और पुण्य गर अपनी आठों पश्नियों के साथ आनंद से रहने लगा।
1
पुण्यसार विषयक उपर्युक्त कथा के प्रमुख प्रसंग इस प्रकार के हैं कि वे अन्य लोककथाओं में हुए कुछ बदले रूप में भी मिलते हैं । उनका सामान्य परिचय नीचे लिखे अनुसार हैं
१ देवो अथवा देव की आराधना से संतानहीन व्यक्ति को पुत्र की प्राप्ति ।
२ युवक तथा युवती का पाठशाला में एक साथ पढ़ना और उनमें परस्पर प्रेम असा विवाद का पैदा होना ।
३ सेठ-पुत्र का विशिष्ट कन्या से विवाह के लिए हठ करना और उसकी इच्छापूर्ति होना ।
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
४ धन खो देने के कारण सेठ-पुत्र का पिता द्वारा है। 'ठकुरै साह री बात' में पद्य का रूप इस प्रकार है - अपने घर से निकाला जाना ।
__ सरसो पाटण सरस नय, सुसरै ठकुरो नांव । ५ किसी वृक्ष के नीचे सोए हुए अथवा छपे हुए ईसर तूठे पाईये, आ गैहण ओ गांव ॥ कथानायक द्वारा देवो अथवा पक्षियों की बात- उपर्युक्त कथावस्तु में पुरुषवेश धारण करने वाली नारो
चीत सुनना तथा उससे लाभान्वित होना । द्वारा दूसरा नारी के साथ विवाह करना भी आश्चर्यजनक ६ उड़ने वाले वृक्ष पर बैठकर कथानायक का दूर देश घटना है । यह घटना अंग्रेज-कवि शेक्सपीयर विरचित में पहुंचना और वहाँ धन प्राप्त करना तथा विवाह 'बारहवीं रात' ( Twelfth Night ) नामक प्रसिद्ध करना।
नाटक के कथानक का सहज हो स्मरण करवा देती है, - ७ कथानायक का देववाणी से दूर-देश में विवाहित जिसमें समान रूप वाले भाई-बहिन घर से निकलते हैं और होना।
अंत में आश्चर्यजनक रूप से उनके प्रेम-विवाह सम्पन्न होते ८ वर द्वारा दीवार पर या वधू के वस्त्र पर कुछ हैं। वहाँ बहिन पुरुषवेश में एक 'ड्यूक' की सेवा करती
लिख कर चुपचाप अज्ञात-दशा में चले जाना है, जो आगे जाकर उसका पति बनता है। इन दोनों ६ वधू द्वारा पुरुष-वेश धारण करके अपने पति की कथानकों में विशेष समानता न होने पर भी परुषवेश
तलास में निकलना और अंत में अपने पति का धारिणी नारो पर दूसरो नारो का मुग्ध होना और उसके पता लगाने में सफल होना।
साथ विवाह करने के लिए इच्छा करना तो स्पष्ट ही है । १० पुरुष-वेश धारण करने वाली युवती का अन्य इतना ही नहीं, वह भ्रम में पड़ कर उसी के समान रूप
युवती से विवाह होना और अंत में उसके पति वाले उसके भाई से विवाह भी कर लेती है, जिसके साथ
को उसका परिणीता पत्नी के रूप में प्राप्त होना। उपका पूर्व-परिचय नहीं है। महाकवि शेक्सपोयर ने अपने ११ घर से निकले हुए युवक कथानायक का अंत में नाटक का कथानक किसी लोककथा के आधार पर ही
धन-सम्पन्न होना तथा उसे सुन्दरी पत्नी प्राप्त । खड़ा किया है। इस प्रकार लोककथाओं को सार्वभौमिक होना।
समप्राणता सिद्ध होती है। महाकवि समयसुन्दरजी ने अपने काव्य के अंत में जेन- महाकवि समयसुन्दरजी ने अपनी कथानक रचनाओं में परम्परा के अनुसार कथानायक के पूर्वजन्म का वृत्तांत देकर स्थान-स्थान पर लोक-सुभाषितों का प्रयोग करके उनको उसे समाप्त किया है परन्तु उपर्युक्त प्रसंगों पर ध्यान देने से सजाया है । इस क्रिया से उनकी रचना में सामर्थ्य का विदित होता है कि वे देश-विदेश को अनेक लोककथाओं संचार हुआ और साथ ही अनेक लोक-सुभाषितों का सहज में सहज ही देखे जा सकते हैं और कुल मिला कर एक हो संरक्षण भी हो गया। राजस्थान के अन्य कवियों ने रोचक लोककथा का ठाठ सामने खड़ा कर देते हैं। भी इसी प्रकार लोक-सुभाषितों का अपनी रचनाओं में बड़े
इस कथानक में वह पद्य पाठक का ध्यान विशेष रूप चाव से प्रयोग किया है। 'बातों' में तो इनका प्रयोग और से आकृष्ट करता है. जिसे वर एक दीवार पर अपने परिचय भी अधिक रुचि से हआ है। इन लोक-सुभाषितों में कई हेतु लिख कर चुपचाप चला जाता है। इसी प्रकार को प्राकृत-गाथाएं भी हैं, जो काफी लम्बे समय से चली आ अन्य लोक कथा में यह पद्य अनेक रूपान्तरों में देखा जाता रहीं थीं और थोड़ो-बहुत रूपान्तरित होकर लोकमुख पर अव.
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थित थीं। यही कारण है कि ऐसी गाथाओं को अनेक
दोकड़े ताल मादल भला वाजई । रूपों में प्रयुक्त देखा जाता है। आगे समयसुन्दरजी की दोकड़े जिणवर ना गण गाजइ ।। रचनाओं में प्रयुक्त कुछ प्राकृत-गाथाओं के उदाहरण दोकड़े लडी हाथ बे जोडइ । द्रष्टव्य हैं
दोकड़ा पाखइ करड़का मोड़इ ! १ कि ताणं जम्मेण वि, जणणीए पसव दुक्ख जणएण ।
(धनदत्त श्रेष्ठि चौपई) पर उपयार मुणो विहु, न जाण हिययंमि विप्फुरई ॥१॥ ५ जासु कहीये एक दुख, सो ले उठे इकवीस । दो पुरिसे धरउ धरा, अहवा दोहि पि धारिया धरिणी। एक दुख बिच में गयो मिले बीस बगसीस ॥ उवयारे जस्स मई, उवयार जो नवि म्हुसई ॥२॥
(पुण्यसार चरित्र चौपई) लच्छी सहाव चला, तओ वि चवलं च जीवियं होई।
ऊपर जो लोक प्रचलित सुभाषित प्रस्तुत किये गए हैं, भावो तउ वि चवलो, उपयार विलंबणा कोस ॥३॥ वे जनसाधारण में कहावतों के समान काम में लाये जाते २ दोसइ विविहं चरियं, जाणिज्जइ सयण दुजण विसेसो। रहे हैं। बहावत के समान हो उक्तियों के द्वारा वक्ता अप्पाणं च कलिजइ, हिडिजइ तेण पुहवीए ॥२॥ अपने कथन को प्रमाण-पुष्ट बनकर संतोष मानते हैं।
(प्रिय मेलक चौपई)
साथ ही ध्यान रखना चहिये कि महाकवि समयसून्दरजी ३ गेहं पि तं मसाणं, जत्थ न दीसइ धलि सिरीया ने अपने काव्य में स्थान-स्थान पर राजस्थानी कहावतों का आवंति पडंति रडवडंति, दो तिन्नि डिभाई ॥१॥
भी बड़ा ही सुन्दर प्रयोग किया है। आगे इस सम्बन्ध (पुण्यसार चरित्र चौपई) में कुछ चुने हुए उदाहरण दिये जाते हैंआगे राजस्थानी भाषा के कुछ लोक प्रचलित सुभाषित
१ ऊखाणउ कहइ लोक, सहियां मोरी,
पेट इ को घालइ नहीं, अति वाल्ही छुरी रे लो। द्रष्टव्य हैं
(सीताराम चौपई, खण्ड ८, ढाल १) घरि घोड़उ नइ पालउ जाइ,
२ जिण पूठइ दुरमण फिरइ, गाफिल किम रहइ तेह रे, घरि घोणउ नइ लूखउ खाइ।
सूतां री पाडा जिाइ, दृष्टांत कहइ मह एहरे। घरि पलंग नइ धरती सोयइ,
(समयसुन्दर कृति कुसुमालि , पृ० ४३५) तिण री बइरी जीवतइ नाइ रोवइ ।
३ उघतइ विछाणउ लाघउ, आहींणइ बूझांणउ बे। (प्रियमेलक चौपई)
मंग नइ चाउल मांहि, घी घणउ प्रीसाणउ बे॥ २ छटी राते जे लिख्या, मत्थइ देइ हत्थ ।
(सीताराम चौपई, खण्ड १, ढाल ६) देव लिखावइ विह लिखइ, कूण मेटिवा समत्थ ।
उपर्युक्त विवेचन से प्राट होता है कि महोपाध्याय (चंपक सेठ चौपई)
समयसुन्दरजी के साहित्य में लौकिक-तत्व प्रचर परिमाण ३ जसु धरि वहिल न दीसइ गाडउ,
में प्रयुक्त हैं और यही कारण है कि उनकी रचनाओं को जसु धरि भइंसि न रोक पाडउ ।
इतनी जनप्रियता प्राप्त हुई है। इस विषय पर विस्तार जम् घरि नारि न चड़उ खलका,
से विचार किया जाय तो कई रोचक तथ्य प्रकट होंगे। तसु घरि दालिद बहरे लहकइ ।।
आशा है राजस्थानी साहित्य को अध्येता इस दिशा में ४ दोकड़ा वाल्हा रे दोकड़ा वाल्हा ।
प्रयत्नशील होकर अपने परिश्रम का उपयोगी एवं मधुर दोकड़े रोता रहई छै काल्हा ।।
फल साहित्य-जगत् को भेंट करेंगे।
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
योगनिष्ठ प्राचार्य बुद्धिसागरसूरिजी रचित गुंहली (१) श्री अभयदेवसूरि नी गुंहली जेना मन नहीं म्हारु त्हारु, साचु ते मान्यु मन सारु
आतम संयम मा मन धायु'""आतम०-१ राग- भवि तमे वंदो रे
नदी कांठे जंगल मां वसिया, शुद्धातम नां थइया रसिया, भविजन भावे रे, अभयदेवसूरि वंदो,
जे ध्यान समाधि उल्लसिया...आतम०-२ आगमज्ञानी रे, मुनि वाचक सूरि इंदो,
सिद्धियो प्रगटी रही स्हामी, पणसिद्धिना नहीं जे कामी; नव अंगो नी वृत्ति करी ने, जग आगम प्रसराव्यां;
निशदिन रहेंता आतम रामी...आतम०-३ जेनी टीकाभो वांची ने, मुनिगण मन हरखायां, भवि-१
पहाड़ो गुफा मां बहु रहीया, शुद्धातम दर्शन जे लहीया, चैत्यवासी श्री द्रोणाचार्य, शोधी टीकाओ भावे :
अध्यात्म मार्ग विषे वहिया .. आतमः -४ महावी. पाटे मोटा भक्तो, भक्ति रागना दावे, भवि०-२
वाचकजी ए स्तवना कीधी, पाम्या संगत समता सिद्धिः वर्तमान मां अभयदेवसूरि, टीकानी शुभ स्हाय,
चौवीस पद आतम ऋद्धी. ''आतम०-५ बुद्धिसागर सकल संघने, उपकारी सूरिराय, भवि० -३ अवधूत अलख मुनि अवतारी, फकीराई जेनी सुखक्यारी; (२) श्रीजिनदत्तसूरिजी नी गुंहली बुद्धिसागर गुरु जयकारी आतम०.६ राग-- अली सहेली ए
(४) श्रीमद् देवचन्द्रजी नी गंहली जिनदत्तसूरि, जैनधर्म वृद्धि करनारा थइ गया शासन शोभा, कारक जैनो नवा करी शोभा लह्या;
राग- व्हाला गुरुराज उपदेश आपे। जिनदत्तसूरि जगमा दादा, केहवाया गण गणधि सादा गुरुदेवचन्द्र जी पद बंदो, भवोभवना पाप निकंदो, गुरु० धन्य धन्य पिताजी ने माता...जिनदत्त-१
रच्या ग्रन्थ घणा गुणकारी, नयचक्र आगमसार भारी: जगमां जिन शासन उजवाल्यू, धर्मी जीवन सधलं गाल्यु,
बीजा ग्रन्थ घणा सुखकारी- गुरु० १ घटमां परमातम पद भाल्यू.. जिनदत्त-२
जेह अध्यातम उपयोगो, जेह आतम गुण गण भोगी खरतर गच्छे बहु पकाया, दादा भारत सघले छाया, तत्त्वज्ञानी सहज गुण योगी-गु० २ बुद्धिसागर गुणी गुण गाया.. जिनदत्त-३
निज शुद्धातम दिल प्यारो, मोह भाव ने मान्यो न्यारो, (३) श्रीमदू आनंदघनजी नी गुंहली
जेना घट मां ज्ञान अपारो- गु० ३
जैन शासन नी करी सेवा, पाम्या आतम सुखना मेवा ; राग-अली साहेली जंगम तीरथ जावा उभी रहेने,
प्रभु भक्ति नी साची हेवा- गु० ४ आतमज्ञानी आनंदधन जोगी, वंदो नरनारी,
जैन कौम मा जेह प्रसिद्ध, जेना ग्रन्थ दिये सुख ऋद्धि, प्रख्यात थया बहु दर्शन मां, खाखी अतिशयधारी, बुद्धिसागर ल्हावो लीध-गु० ५
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
महाकवि जिनहर्ष : मूल्याङ्कन और सन्देश
[डॉ० ईश्वरानन्द शर्मा एम० ए० पी-एच० डी०] अठारहवीं शती के खरतरगच्छीय जैन साधु महाकवि आदि नाम उन्हें विशेष प्रिय थे। निर्मल नीरगंगा, श्याम जिनहर्ष वागीश्वरी के वरदपुत्र थे। वे जन्मजात काव्य- जलराशि जमुना, परम पवित्र गोदावरी, अन्त:सलिला प्रतिभा, नवनवोन्मेषशालिनी कल्पना और विचारसार- सरस्वती, रजताभ रेवा, सवेगा सरयू, नद्प सिन्धु आदि संदोह के धनी थे । उनकी श्रमशील कुशल लेखनी सरस नदियों, हिमाचल, विन्ध्याचल, गिरिनार, वैताढ्य, रेवतक, काव्य प्रणयन में षष्ठि ६० वर्ष पर्यन्त निरन्तर संलग्न शत्रुजय प्रभृति पर्वतों, विविध जन्तुरकुल वनों, पुष्पराजि रही। उस सुदीर्घ अवधि में उन्होंने पाँच महाकाव्यों, शोभित उपवनों, शतदल विभूषित सरोवरों के वर्णन में उन्नीस एकार्थ काव्यों एवं लगभग पैंतालीस खण्डकाव्यों एवं कवि का देशप्रेम अभिव्यक्त हुआ है। उनके काव्य में शतश: मुक्तकों से मा भारती के भंडार को संभरित किया। टहकती कोकिल, गुंजनरत मधुप, धनगर्जित वनराज, चतुःशती रचनाओं के प्रणेता वाचक एवं गायक जिनहर्ष मदझरित गजराज, चपल विलोचन हरिण, पयस्वती धेनु का सरस रास कथाकारों में भी शीर्षस्थ स्थान रखते हैं। भरिशः वर्णन-चित्रण मिलता है । जैनतीर्थों की सुषमा, गीतकारों, भक्तिपदप्रणेताओं और लोकसाहित्य सर्जकों में प्राचीन भारतीय नगरियों का वैभव और अभ्रकष देवउनका वैशिष्टय निर्विवाद है। भावों की अनुपम अजस्र मन्दिरों का सौन्दर्यवर्णन-उनकी वाणी को प्रबल वेगवती अभिव्यक्ति, भाषा को प्राणवन्त अभिवा जना, जीवन की बनाता रहा है। भारतीय राजा, प्रजा, शासन-व्यवस्था समग्रता का व्यापक आयाम, मर्मस्थलों का संस्पर्श, व्यापक का मनोरम काव्यमय चित्रण कर उन्होंने अपने देशप्रेम वदुष्य और कवि-हृदय की सहृदयता आदि विशिष्ट गुण का प्रकटन ही किया है। कवि ने भारत भूमि की ईषद् उन्हें कलाकोविद रसिक पाठक समुदाय का कलकंठहार वर्तुल आकृति को चढ़ी सींगढ़ी के सदृश बताकर मौलिक बना देते हैं। वे खरतरगच्छीय क्षेमकीर्ति शाखा में दीक्षित अप्रस्तुत का पुरःस्थापन ही नहीं किया; अपितु दक्षिणामुनि थे; किन्तु उनका भावप्रवण मानस किसी भी प्रकार वर्त की भौगोलिक आकृति का स्वरूप साम्य भो व्यंजित के पूर्वाग्रह, दुराग्रह और धर्मासहिष्णुता से सर्वथा मुक्त किया है (चन्दनमल यागिरि चौपई पृष्ठ ४) । कवि की स्वदेश था। जातिभेद, वर्गभेद और सीमित साम्प्रदायिक दृष्टि- भक्ति का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है कि वे कोण से वे ऊपर उठ चुके थे। राग, द्वेष, ईर्ष्या, गच्छ- आर्यदेश में जन्मको प्रबल पुण्यका कारण मानते हैं और मोह, जैसे दुर्गुण उनके उत्तुंग शिखर के समान व्यक्तित्व के अपनी अचल आस्था व्यक्त करते हैं कि भारत में उत्पन्न सम्मुख बौने से प्रतीत होते थे।
हुए बिना पामर प्राणीको ऐहिक सुख और पारलौकिक शान्ति ___ जन्मना के राजस्थानी थे; लेकिन उनके देशप्रेमी कविने प्राप्त ही नहीं हो सकते (शत्रुजय रास पृष्ठ १७३) । भारतभूमि के विविध स्वरूपों को अपनी सरस्वती में कविका वैदुष्य व्यापक और गहन था। उन्हें राजरूपायित किया है। आर्यावर्त, भारतवर्ष, भरतक्षेत्र स्थानी, गुजराती और संस्कृत भाषा का विशिष्ट ज्ञान
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ १०६ ]
था। ज्योतिष शास्त्र में उनकी विशेष अभिरुचि थी। "पंचम प्रवीणवार, सुणो मेरी सीख सार, शास्त्रों के निदध्यासन, विद्वत् प्रवचन-श्रवण, ओर लक्षण तेरमो नखत भैया, नौमी रासि दीजिये । ग्रन्थों के पठन-पाठन से उनकी प्रतिभा शाण पर चढ़े मणि- इहण आये ते द्वारि, मातन को तात छारि, रत्न के समान देदीप्यमान हो गयी थी। उन्हें जैन और तातन को तात किये, सुजस लहीजिये। जैनेतर धर्म ग्रन्थों का तलस्पर्शी बोध था। काव्यशास्त्र के तीसरी संक्रान्ति तू तो, दशमी हि रासि पासि, वे निष्णात विद्वान् थे। स्वाध्याय प्रियता ने उन्हे पुराण, कुगति को घर मनू चौथी रासि कीजिये । इतिहास, सामुद्रिक शास्त्र, आयुर्वेद, संगीत, शालि- पर त्रिया छिपा रासि, सातमी निहारि यार, वाहन प्रभृति शास्त्रों का प्रकाण्ड पण्डित बना दिया था। जिनहर्ष पंचम रासि, उपमा लहीजिये ॥” ज्योतिषशास्त्र सम्बन्धी उनके विशेष ज्ञान का निदर्शन
मृगांकलेखा रास पृष्ठ १३ निम्नांकित पद में प्रकट है। वोरसेन और कुसुमश्री के ज्योतिषशास्त्र के समान ही शकुनशास्त्र में भी विवाह महत के विषय में वे लिखते हैं :
कवि की गति और रुचि थी। उनके काव्यों में अनेक "वीरसेन कुमारनी वृषरासि कहा।
प्रकरणों में चक्रवर्ती सम्राट, महापुरुष और उच्चकोटि के मिथुन रासि कन्यातणो, थापी ज्योतिष राइ ॥
त्यागी पुरुषों के लक्षण वणित हुए हैं। शुभ शकुनों की गौरी गुरुबल जोहयू, बिदनइ रविबल जोइ ।
सूची पठितव्य हैं :चन्द्र बिहू नई पूजतोऊँ, जोयो यू सुष होइ ॥
'तरु ऊपर तीतर लवइ, घुड़सिरि सेव करंत । दुषण दस साहा तणा, टाल्या गणिक सुजाण ॥
शकु प्रमाण जांणिज्यो, एक अनेक विरतंत ॥ माहौं-माहिं विचारनइ, कीधनु लगन प्रमाण ॥
भैरव तोतर कूकर इ, जाहिणजो वासेह । कुसुमश्री रास पृष्ठ ४ । एके कज्जे नीसा , कज्जा सयल करेह ।।
वायस जिमणो ऊतरइ, हुए सांवहू स्वान । कहने की आवश्यकता नहीं कि कवि ने विवाह मुहूर्त
शुभ शकुने पांमइ सही, पग-पग पुरुष निधान ।। और लग्न देखने की पूरी पद्धति का यहाँ विधिवत उल्लेख
[जि० : न० पृ० ४२४ ) किया है। कवि अपनी चलती कविता में भी समय का निर्देश ज्योतिष को सांकेतिक भाषा में करता है-जैसे
शकुनशास्त्र के समान सामुद्रिक शास्त्र में भी
कवि का ज्ञान अत्यन्त व्यापक था। एक उदाहरण 'करक लगन्न भयो वर सुन्दर, राम करै तो सही सुखपावे।
द्रष्टव्य है
ग्रन्थावलो पृष्ठ ४०६ 'दोठा लक्षण नृप तणां, मेंगल मच्छ आकार | उत्तराषाढ़ा विद्युवास 'लालरे'
धज सायर तोरण धनुष, छत्र चामर उदार' ।। [शत्रुञ्जय महात्म्य रास पृष्ठ ६२ ]
-कुमारपाल रास पृष्ठ ८४ कवि ने नवग्रहगर्भित स्तवनों में भी अपनी ज्योतिष कवि के आयुर्वेद सम्बन्धी ज्ञान का परिचय-उसके सम्बन्धी अभिरुचि को प्रकट किया है। कवि का ज्योतिष द्वारा वणित अठारह प्रकार के कुष्ठों और उनके कारणों विद्या पर कितना पाण्डित्य था, उसका निर्देशन नीचे से मिलता है। कूटशैलो में लिखे पद में द्रष्टव्य हैं -
'हुरिचन्द राजानो रास' और 'कलियुग आख्यान'
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
। १०७ ] नाम्नी रचनाओं में कवि का पोराणिक ज्ञान विजृम्भित रोचक वर्णन किया है। एक ओर वह कन्यादान का शास्त्रोक्त हुआ है।
___ फल बताता है तो दूसरी ओर वहीं गेय लोकगीतों की पाटण की राजवंशावली के संवत वार वर्णन में स्मृति भी दिलाता है। उसने राजस्थान के सुप्रसिद्ध लोकउसका प्रमाण-पुष्ट ऐतिहासिक ज्ञान प्रकटित होता है। गीत 'केशरियो लाडों को बड़े चाव और मनोयोग से __ कवि जिनहर्ष वीतराग साधु होने पर भी लोक गवाया है। कवि ने घर-जामाताओं को अपमानावस्था का विमुख नहीं थे। वे जन-कल्याण को अपनी साधना का चित्रण भी किया है और उन्हें अविलम्ब स्वाभिमानी जीवन अंग समझते थे। वे समाज के सच्चे हितचिन्तक थे और के लिए श्वसुर गृह से हट जाने की शुभ सम्पति दी है। अपने ज्ञान, अनुभव तथा आचरणों से उसे सन्मार्ग पर कविने सर्वसाधारण को सत्यपथपर अग्नेसर होने की चलाना चाहते थे। कवि का समस्त साहित्य समाज को प्रेरणा दी है। वह पुरजोर शब्दावली में दुष्ट संग त्याग साथ लेकर चला है। उन्होंने वर्ग-विशेष की तर्कप्रतिष्ठ का आग्रह करता है। ऋण लेने वालों को उसके दुष्फल शुष्क ऊहापोहात्मक मानसिक संतृप्ति का कभी प्रयत्न से परिचित कराता है और कभी भी कर्जा न लेने की शिक्षा नहीं किया । यह भी अनुभव नहीं किया कि साधुवेश देता है। (कुमारपाल रास पृष्ठ १०२) । मे उन्हें गृहस्थ धर्मोपदेश, विवाह विधान, प्रसूता परिचर्या कवि स्वयं भिक्षु याचक था; लेकिन उसने यांचाआदि का वर्णन नहीं करना चाहिये था। वे भेद बुद्धि वृत्ति की कटु भर्त्सना को है । वह उन अभागे निर्धन से सर्वथा परे थे। उनके लिये प्रसूता और नवोढ़ा में व्यक्तियों से शिक्षा ग्रहण करने को कहता है जो स्त्री के कोई अन्तर नहीं था। वे सर्वहित कथन मे तत्पर अविचारित उपदेश, दुष्टजन को कुशिक्षा और श्रावणान्त रहते थे । जब भी उन्हें अवसर मिला-उन्होंने हलकर्षण से भिक्षक बने भटकते फिरते हैं। कवि ने धन उसका सदुपयोग उठाया। इसी सामाजिक कल्याण का महत्त्व इसी रूपमें स्वीकार किया है कि वह जीवन के
उन्हें समाज का प्रकाश-स्तम्भ बना दिया था। अन्यतम साधना का साधन है। उसे साध्य समझने वालों को __महाकवि परिवार हीन थे फिर भी पारिवारिकों को उसने फटकार बनायी है। कवि के पुरुष पात्र बहुविवाह मदुपदेश देते थे। उन्होंने अनेक प्रसंगों में उपदेश दिया है कि करते हैं; परन्तु वह इसके विपरीत है । द्विभार्य पुरुष की सुगृहिणी ही गृहमंडन है और सुस्वामी हो गृहस्थी का वही दुर्गति होती है जो दो पाटों के बीच में पड़े अन्न प्राणतत्त्व । सास और बहू को परस्पर प्रेम से रहने को को। कविने 'प्रेमपत्र' लिखने का ढंग भी बताया है । बात पर वे अत्यधिक बल देते हैं । पत्नी को पति से न लड़ने उसने यह पत्र विरहिणी नायिका की ओर से प्रवासी प्रियको सुमति देते हैं। पितृगृह से श्वसुरगृह के लिए प्रस्था- तम को लिखा है। उसने व्यावहारिक उपदेश भी दिया है नोद्यत नवोढ़ा को शिक्षा दी गयी है कि उसे सहिष्णुता कि राजा, चोर, शेर, सर्प, बालक, कवि और शस्त्रपाणि रखनी चाहिये । सास, ससुर, ननद, देवरानी, जेठानी का को नहीं छेड़ना चाहिये; अन्यथा ये विनाश कर देते हैं । अपमान नहीं करना चाहिये । कवि ने सास बहू के वैर को कहने की आवश्यकता नहीं कि महाकवि जिनहर्ष उन्दुर मार्जार का सा सहज वैर कहा है; इसलिए वह बहू सामाजिकों के अपने ही अभिन्न अंग हैं। सास बाहू का को पूर्व सावचेती का पाठ पढ़ाकर उसको गृहस्थी की झगड़ा हो तो वे वहाँ शान्ति स्थापनार्थ उपस्थित हैं। पुत्र सुखद कामना करता है । कवि ने विवाह-विधि का अत्यन्त अनर्जक हो गया है तो वे उसे उपदेश शिक्षण से उपार्जक
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
। १०८ 1 बनाने का अमोध अस्त्र रखते हैं। व्याधि मन्दिर शरीर को किया। उनकी प्रवृत्ति खण्डनात्मक अधिक रही और मण्डजलोदर और कुष्ट से संरक्षण के लिए वे पूर्व सावचेती' के नात्मक कम । रूपमें यूकानिगरण और करोलिया भक्षण का क्रमशः निषेध महाकवि जिनहर्ष ने भी प्रदर्शन निमित्त किये जाने करते हैं । यात्रा, शकुन, लोक, परलोक, विधि विधान-तप, वाले बाह्याचरण का विरोध किया है। उन्होंने जैन और साधना-संयम-इस प्रकार जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में वह जनेतर दोनों को फटकारा है लेकिन उनकी प्रवृत्ति खंडनहमारे साथ है;- उनका अनुभव हमें सुदूर तक मार्ग-बोध प्रधान नहीं है। उसमें व्यंग्य का असह्य प्रहार नहीं है। कराता है।
वे कहते हैं लेकिन माधुर्य के साथ । इस प्रसंग में यह बता निर्गुणोपासना में ब्रह्म निराकार है। वह अव्यक्त है। देना अनुचित नहीं होगा कि जिनहर्ष ने मूर्तिपूजा का खंडन गुण-रहित होने के कारण निर्गुण है। घर-घर में वह व्याप्त नहीं किया है। हां, मंडन अवश्य किया है। उनकी रचना है। जिनहर्ष का 'सिद्ध' कबीर के ब्रह्म से मिलता है। वह 'जिन प्रतिमा हुँडो रास' का उद्देश्य एक मात्र मूर्तिपूजा भी वीतराग, गुण रहित और निराकृति है। कबीर के ब्रह्म का समर्थन ही है । मूर्तिपूजा के इस बिन्दु पर कवि जिनहर्ष और जिनहर्ष के सिद्ध में इतना ही अन्तर समझना चाहिये निर्गुणियों से मेल नहीं खाते । निर्गुणियों ने तीर्थ और कि प्रथम की व्याप्ति सर्वत्र है जबकि द्वितीय को नहीं है। ब्राह्मणों का घोर विरोध किया है। जिनहर्ष में यह बात वह चैतन्यावस्था में आकाश में स्थान विशेष पर रहता है; नहीं है। उन्होंने अनेक तीर्थों की यात्राएं की थीं और जबकि निर्गुणियों का ब्रह्म अगजग में इस प्रकार घला मिला 'तोर्थ चैत्य परिपाटी' की समर्थ रचना से पुण्य स्थल यात्रा है; जिस प्रकार दही में घी।
के महत्त्व को अभिव्यंजित किया था। हिंसा-प्रधान धर्मों का आत्मतत्त्व विश्वव्यापी ब्रह्म का अंश है। का ।
ना का घोर विरोध दोनों ने ही किया है। जिनहर्ष हिंसा जबकि जिनहर्प की आत्मा कर्मफल क्षयोपरान्त स्वयं ब्रह्म परक धर्म को धर्म और शस्त्रपाणि देवताओं को देवता बन जाती है। वह किसी ब्रह्म का अंश नहीं है। इस स्वीकारने को तत्पर नहीं हैं । निर्गुण सम्प्रदाय में व्रत प्रकार जिनहर्ष के समस्त सिद्ध एक-एक ब्रह्म हैं। वे अनेक उपवास पर अनास्था व्यक्त की गयी है । जिनहर्ष ने ऐसा हैं; निर्गुणियों का एक है ।
नहीं किया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जिनहर्ष और ____ कवीरदास और जिनहर्षने गरु की महत्ता समान रूपसे निर्गुण संत वैचारिक मग में कुछ दूरी तक तो साथ-साथ स्वीकार की है। दोनों में ही गुरुकृपा के लिए आकांक्षा चलते हैं; पर फिर छिटक जाते हैं। है। दोनों ही गुरु के प्रति कृतज्ञता का भाव रखते हैं। सगुण भक्ति में परमात्मा के अंशभूत अवतार की कबीर ने गुरु को गोविन्द से भी बड़ा कहा है लेकिन जिन- भक्ति की जाती है। यह अवतरण अधर्म के नाश और हर्ष ऐसा नहीं कह सके हैं । वे गुरु को ईश्वर की-सी महत्ता धर्म की स्थापना के निमित्त होता है। अवतारी प्रभु भक्तों देते हैं। उनके काव्य में पंचपरमेष्ठियों को पंचगुरु की का दुःख भंजन करते हैं। अपनी लीला से संसार को संज्ञा दी गयी है।
सन्मार्ग दिखाते हैं । वे शोल, शक्ति और सौन्दर्य के निधान निर्गुणियों ने धर्म के बाह्य आचार का खंडन किया होते हैं । श्रीराम और श्रीकृष्ण ऐसे ही ईश्वर रूप थे । है। उनके आलोचना प्रहार से मंदिर मस्जिद तक नहीं सूरदास और तुलसीदास के आराध्य वे ही थे। उनकी बच सके। कर्मकांड, जन्मना जाति का उन्होंने घोर विरोध भक्ति सगण भक्ति की कोटि में आती है।
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ १०६ ]
जिनहर्ष ने अपनी उपासना के पुष्प अर्हन्त के चरणों में अर्पित किये हैं । अर्हन्त वे हैं जिन्होंने पहले तीर्थकर प्रकृति का बन्ध किया हो, किन्तु फिर भी उनको अवतार नहीं कहा जा सकता। वे तब और ध्यान के द्वारा भयंकर परीषहों को सहते हुए चार घातिया कर्मों को जलाते हैं । और तब अर्हन्त कहलाने के अधिकारी बनते हैं । अर्थात् गुण अवतारी पहले से ही प्रभुका विशिष्ट रूप होता है किन्तु अर्हन्त स्व पौरुष से भगवान बनते हैं । साकारता, व्यक्तता और स्पष्टता की दृष्टि से दोनों में कोई अन्तर नहीं है, अतः जैन भक्ति क्षेत्र में अर्हन्त सगुण ब्रह्म के रूप में पूजे जाते हैं ।
वैष्णव भक्तों के और जिनहर्ष के भक्तिपदों में पर्याप्त भावात्मक साम्य पाया जाता है। दोनों ने ही आराध्य को इतर से देवों महत्तम समझा है। सूरदास अन्य देवों से भिक्षा मांगने को रसना का व्यर्थ प्रयास कहते हैं ( सूरसागर प्र० पृ० १२) । तुलसीदास लिखते हैं कि अन्यदेव माया से विवश हैं, उनकी शरण में जाना व्यर्थ है । ( तुलसीदास - विनय पत्रिका पृ० १६२ ) । जिनहर्ष भी यही कहते हैं कि इतर समस्त देवता नट ओर विट के समान हैं ( ग्रन्थावली पृ० २२ ) । उन्हें देखने से मन खिन्न होता है । आराध्य की महत्ता के साथ-साथ भक्त अपनी होनता का अनुभव भी करता है । तुलसी ने "तुम सम दीन बन्धु न कोउ
सम, सुनहु नृपति रघुराई" (विनय पत्रिका पदसंस्था २४२) और सूरदास ने अवध कहो कौन दर जाई में यही भावना व्यक्त की है । ( सूरसागर ) भक्त जिनर्ष का दीनभाव भी द्रष्टव्य है । कवि सांसारिक कष्ट परम्पराओं से संतप्त होकर प्रभु शरण में पहुँचता है । वह दया की भिक्षा मांगता है । उसे स्वाचरित कुकर्मों से ग्लानि का अनुभव होता है और अपने उद्धार की प्रार्थना करता है । दीनता के साथ ही भक्त अपने दोषों का उल्लेख भी किया करते हैं । उन्हें प्रभु की करुणा का अवलम्बन रहता है, इसलिये वे करुणासागर से कुछ भी प्रच्छन्न रखना नहीं चाहते । तुलसो
'विनय पत्रिका' में अपने को 'सब विधि होन, मलीन और विषयलीन' कहते हैं । (१ तुलसी- विनयपत्रिका पद संख्या १४४) सूरदास ने 'मोसम कौन कुटिल खल कामी' ( सूरसागर ) में अपने दोषों को ही गिनाया है । जिनहर्ष भी कहते हैं कि मैं मोहमाया में मग्न हो गया हूँ और उससे ठा भी गया हूँ | मैंने कुकर्मों के कारण अपने दोनों ही भव नष्ट कर दिये हैं । ( मोह मगन माया मैं धूत उ निज भव हारे दो ग्रन्थावली पृ० ३२)
कवि के कोमल चित्र को सर्वाधिक प्रभावित करनेवाली मरुमन्दाकिनी मीराबाई हैं । जो अनन्यता, विरह तीव्रता और विग्रह सौन्दर्य दर्शन को ललाक हम मीरा में पाते हैं, वही जिनहर्ष में | मोरा ने जबसे नन्द नन्दन गिरिधर गोपाल को देखा है, उसके नेत्र वहीं अटक गये हैं " जबसे मोहि नन्दनन्दन दृष्टि पडयो - नैना लोभी रे बहुरि सके नहि आय... मोरापदावली पृ० १६७) | भक्त जिनहर्ष की स्थिति भी यही है । जबसे श्री शीतलजिन को मूर्ति उन्हें दृष्टिगोचर हुई है, उनके नेत्र वही ठिठक गये हैं । वापिस लोटने का नाम तक नहीं लेते । ( 'जबसे मूरति दृष्टि परीरी - नयनन अटके रसिक सनेही, हटके न रहे एक घर रो - जिनहर्ष ग्रन्थावली पृ० ७)
मीरा गिरधर गोपाल की जन्म-जन्मान्तर को दासी है, उसका प्रेम एक जन्म का नहीं, अपितु अनेक जन्मों में उपचित राशि हो चुका है । ( में दासी थांरी जनम जनम को, थे साहिब सुगा' मीरा पदावली पृ० १७६ ) जिनहर्ष भी अपने को भव भवान्तर का प्रभु प्रेमी मानते हैं । प्रभुसे लगी उनकी लगन अनेक जन्मों की है । ( 'भव-भव तुझसूं प्रीतड़ी रे.. जिनहर्ष ग्रन्थावली पृ० १६४ ) | मांग को स्वप्न में प्रभु ने अपना लिया है । गिरिधर के साथ उस विवाह भी स्वप्न में ही हुआ है । ( 'भाई म्हारो सुपणां माँ परण्यो दीनानाथ' मीरा पदावली पृ० २१६) । जिनहर्ष के आराध्य भी उससे स्वप्न में मिलते हैं और सुख उमंग का
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
1
[ ११० संचार करते हैं । ( 'सूतां हो प्रभु सुतां हो, सुपनां मां मिलइ जी' जिनहर्ष प्रत्यावली पृ० १७० ) । मीरा का साध्य प्रभु चरण-वन्दन है | इसो हेतु वह गिरधर गोपाल की चाकरी करने को समुत्सुक है उसमें बसे प्रभुदर्शन, स्मरण और भावभक्ति का विगुणित लाभ प्राप्त होगा । ('चाकरी में दरसण पाऊं-सुमिरण पाऊँ बरची' मीरापदावली पृ० २७) जिन हर्ष भी केवल आराध्य सेवा की कामना रखते हैं। उसके अतिरिक्त उन्हें और कुछ नहीं चाहिये । ( चरण कमलनी चाऊँ चाकरी, हो राज अवर न पाऊँ बीजी बात' - जिन ग्रन्थावली पृ० १८२) ।
महाकवि हर्ष बहुपठित और बहुश्रुत थे । उन्होंने अनेक भाषाओं के ग्रन्थ रनों का अध्ययन, मनन किया था। वे सत्संग प्रसंग में विद्वज्जनों, पट्टधरों और मुनियों के प्रवचन श्रवण से लाभान्वित भी थे । उक्त व्यापक अध्ययन, हुए मनन और श्रवण का प्रभाव उनके काव्यों पर भी पड़ा है । यह मुख्यतः दो रूपों में उपलक्षित होता है।
१ विचार और भाव -साम्य के रूप में ।
२ प्रचलित पद पंक्तियों, सूक्तियों को अविकल स्वीकारने के रूप में ।
महाकवि के महान् काव्यों में ऐसे अनेक भाव और विचार मिलते हैं जिनका वर्णन पूर्ववर्ती कवियों की रचनाओं में उपलब्ध होता है । कतिपय उदाहरण पठितव्य हैं :
'दुर्जनः परिहर्तव्यो विद्ययालंकृतोऽपि सन् । मणिना भूषितः सर्प किमो न भयंकरः ॥ ... 'जिन का छायानुवाद भी द्रष्टव्य है खल संगत तजिये जसा विधा सोभत तोय | पन्नगमणि संयुक्त लें, क्यूं न भाकर होय ॥ इसी प्रसंग में सोमप्रभाचार्य कृत संस्कृत श्लोकों ओर जिनहर्ष द्वारा विहित उनके भावानुवाद का उदाहरण भी पठितव्य है
--
'स्वर्णस्थाले क्षिपति सरजः पादशौचं विधत्ते पीयूषेण प्रवरकरिणं वात्येषभारम् । विस्तारत्नं विकिरति कराद वायसोडावनार्थम् । यो दुष्प्रापं गमयति मुधा मर्त्यजन्म प्रमत्तः ॥ इंधन चंदन काठ करे सुरवृन उपारि धतुरन बोवे।
।
सोवन बाल भरे रजते सुधारस कर पावहिं धोवे। हस्ती महामद मस्त मनोहर, भारबहार के ताड़ विगोवे । मूढ प्रमाद गयो जसराज न धर्म करे नर सोभत षोवे ॥
कहने की आवश्यकता नहीं कि भावानुवाद में कवि बंधकर नहीं चला है । उसने 'इंधन चंदन काठ करें का भाव अपनी ओर से जोड़कर मूल श्लोक के भाव को और भी प्रभावक बना दिया है ।
निम्नांकित उद्धरणों में भी भावसाम्य दृष्टिगोचर होता है।
' षष्ठांशवृत्तेरपि धर्म एष:' कालिदास शाकुन्तलम् - 'लोक दीई धनधान तो रे, रायभणो जिम लाग । तिम मुनिवर पण धम्मं नो रे, छठों भाग सुं राग ॥ जिन हर्ष - हरिबलमा रास पृ० ३८० 'सुभाषित रत्न भाण्डागार' के सुभाषित मूर्ख हि दुखानुभूय शोभते' को जिनहर्ष 'दुखविण सुख किम पाय' से अभिव्यंजित करते हैं।
,
महाकवि जिनहर्ष के काव्य में पूर्ववर्ती कवियों की पद पंक्तियाँ भी मिलती हैं। कतिपय उदाहरण दिये जा रहे हैं । कबीर - नौ द्वारे का पींजरा, तामे पंछी पौन । रहने को आचरज है, गए अचम्भो कौन || जिनहर्ष - दस दुबार
दस दुवार को पींजरों, तामे पंछी पोन ।
"
रहण अबू भो है जसा जान अर्थ'बो कोण ॥ मीरा - जो मैं ऐसो जांणती, नगर ढंडोरो फेरती जिनहर्ष-जो हम ऐसे जानते, सही ढंढोरे फेरते,
प्रीत कियां दुख होय । प्रीत न करियो कोय | प्रीति बीच दुख होय । प्रीति करो मत कोइ ॥
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
'ढोला मारूरां दूहा' में पावस ऋतु का वर्णन जिनहर्ष रचित 'बरसातरा दूहा' से कितना साम्य रखता हैढोला मारूरा हा 'बीजुलियां चलावलि
----
आभइ आभई एक । कदी मिले उण साहिया, कर काजल की रेख ॥ जुलियां चलावलि, आभइ आभइ च्यारि । कवरे मिलउंली सज्जणां, लाबी बांह पसारि ॥ जिनहर्ष बीजुलियां सल भल्लियां, आगे-आगे कोड़ि | करे मिले सजणां, कंचुकी कस छोड़ि ॥ बोलियां गली बादला, सिंहरां माथे खात । कदे मिले सजणां, करी उघाड़ी गात ॥ जैन कवियों में महाकवि जिनहर्ष, धर्मर्द्धन, जिन राजसूरि और विनयचन्द के सम-सामयिक थे । इसलिये ये परस्पर प्रभावित प्रतीत होते हैं।
१११)
मानव समाज के कवि हैं और प्रकृति को मानव के इतस्ततः देखकर ही हर्षित होते हैं। मानव निरपेक्ष प्रकृति का रूप उन्हें आकृष्ट नहीं करता ।
नागरिक संस्कृति की अपेक्षा कवि को जनपद संस्कृति से विशेष अनुराग है। ग्राम्य वेशभूषा, रहन-सहन और पर्व उत्सवों का वर्णन करने में उसका अभिनिवेश देखते ही बनता है । उसने राबड़ी, बाजरे के डंठल, पके बेर, खीचड़ा, सींगड़ी, आगलगी भेड़, दमामी के ऊंट, चर्मरज्जु, चस, मथनी, तिल निष्पीडन, अर्क, अतुल, कृपछाया, एरण्ड वटवृक्ष और अजागलस्तन को अपने काव्य में अप्रस्तुत विधान के रूप में प्रस्तुत किया है, लेकिन इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि वह नागरिक संस्कृति से अनभिज्ञ है।
जिनह 'ओंकार अपार जगत आधारसबै नर नारि संसार जपे है...
धर्मवर्द्धन - ऊँकार उदार अगम्म अपार-संसार में सार पदारथ नामी
1
।
महाकवि जिनहर्ष रससिद्ध कत्रि थे । श्रोताओं पर उनको सरस वाणी का जादुई प्रभाव था। श्रृंगार के संयोग और वियोग वर्णन में उन्हें जितनी सफलता मिली है, उतनी ही शान्त वर्णन में कवि का पर दुःख कातर हृदय करुण में जितना श्मा है, वह हास्य से उतना ही दूर है। बीभत्स और भयानक रस वर्णन की अपेक्षा उनका हृदय वीर और रौद्रमें उल्हसित प्रतीत होता है। भक्तिरस में कवि का श्रद्धोपेत मानस निरन्तर निमजित रहने का अभिलाषी है, जबकि वत्सल रस अवतारणा में वह केवल परम्परा का निर्वाह मात्र करता है। अद्भुतरस में उसकी विशिष्ट रुचि है। कवि को प्रकृति से हादिक लगाव नहीं है। वह उसके उद्दीपक रूप से जितना प्रभावित और उत्साहित होता है उतना उसके आलम्बन रूपसे नहीं । वस्तुतः जिनहर्ष
-
यह निर्विवाद तथ्य है कि अभिव्यञ्चना साहित्य का महत्वपूर्ण अङ्ग है। उत्तम से उत्तम अनुभूति भो अभि व्यक्ति के बिना मूक रह जाती है । वस्तुतः इन दोनों में समवाय सम्बन्ध है एक के अभाव में दूसरी का अस्तित्व सम्भव नहीं है । अनुभूति यदि आत्मा है तो अभिव्यक्ति निश्चय ही शरीर है । एक के अनस्तित्व में दूसरी का अस्तित्व निष्प्रयोजन है। कुशल कवि जिनहर्ष ने अभिव्यक्ति की रमणीयता एवं प्रभाव क्षमता की सिद्धि के लिये अनेक साधनों का उपयोग किया है। इस तथ्य को हम एक दो उदाहरण प्रस्तुत कर स्पष्ट करना चाहते हैं। जिनहर्ष ने मानव जीवन को उसकी समग्रता में ग्रहण किया है; इस लिये उनके काव्य में विभिन्न प्रकार के चित्र उपलब्ध हैं । स्थिर चित्र :
वृद्ध ज्योतिषी का एक शब्दचित्र द्रष्टव्य है :'गोषे बैठ्यो सेठ क्रोधे भर्यो रे, दीठो ब्राह्मण एक । नाम नारायण पोथी काषमें रे, विद्या भण्यो अनेक ॥ पीताम्बरनो पहिरण धावतीयोरे, लटपट बींटी पाग । अबल पछेवड़ी ऊपर उदगीरे, कनक जनोई भाग ॥
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
।
११२ ]
भारी जल भरीयो ग्रहीयो, जिणरे केसर तिलक अषंड । हाथ पवित्री पहिरी सोवनी रे, बांस तणों करदण्ड । गरढ़ी बढ़ौ सौ बरसां तणौ रे, केस थया सिरि पीत। सीस हलावै जमने ना कहै रे, दोत पड्या मुखपीत ॥ बुषुषांस, मसु करे रे, दृष्ट अलप मुख लाल । कहै जिनहरष जरा थयौ जोजरौ रे. एथई छठी ढाल ।
[ गुणाबलो चौपई पृ० ३ ] कवि ने ऐसा सजीव शब्द चित्र प्रस्तुत किया है कि यदि चित्रकार चाहे तो इसके परिवेश में अपनी तुलिका से वह ज्योतिषी का प्रभावक चित्र अंकित कर सकता है। कवि ने अनेक गति चित्रों को भी उभारा है। जिससे उसके अभिव्यंजन कौशल का निदर्शन होता है।
चाहता । इसलिए सभी की सुरत-सुविधा के समुचित वातावरण की सर्जना करनी चाहिये। जीव मात्र पर अहिंसा का भाव रखना चाहिये।
कवि ने बताया है कि सर्वहित कामना का मूल वेर।ग्य है । राग और द्वष बन्धन के कारण हैं। इसलिये उनसे मुक्ति पाने का प्रयास करना चाहिये। प्राणी को बाह्य और आन्तरिक दृष्टियों से इतना पवित्र, निर्विकार ओर निष्कलुष बन जाना चाहिये कि उसका जोवन दोषों से आक्रान्त न होने पावे। उसे अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह जैसे महाव्रतों की स्थूल और सूक्ष्म साधना करनी चाहिये । क्रोध, लोभ, माया, मोह, जैसे दूषणों से बचना चाहिये।
कवि के शब्दों में'खार तजो मनको अरे मानव !
खार ते देह उधार न होई । शान्ति भजो मन भ्रान्ति तजो
कुछ होइहिं सोइ करेगो तुं जोई। जीव को घात की बात निवारिके,
आप समान गणों सब कोई। रागनद्वष धरो मनम जसराज
मगति जों चाहिइं जोई॥
महाकवि जिनहर्ष ने अपने विपुल साहित्य के माध्यम से अभिव्यंजित किया है कि जीवन का अन्यतम उद्देश्य आत्मविकास है। सांसारिक मोह बधनों में पड़कर प्राणी को मूल लक्ष्य से परिभ्रष्ट नहीं होना चाहिये । साधक को सदैव स्मृतिपथ में यह संरक्षित रखना चाहिये कि सब जीना चाहते हैं, कोई मरना नहीं चाहता । दयाहित और उपकार का भाजन केवल मानव ही नहीं है. प्रत्यत संसार के समस्त प्राणी हैं। सभी सुख चाहते हैं. दु.ख कोई नहीं
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
पूज्य श्रीमद् देवचंद्रजी के साहित्य में से सुधाबिन्दु
[आत्मयोग साधक स्वामीजी श्री ऋषभदासजी ]
चित्र विचित्र स्वभाववाले, विविध प्रकार के जड़ चेतन अतः प्राणियों को अपने साध्य बिन्दु की सिद्धि के लिये विश्व पदार्थों से परिपूर्ण इस विशाल विश्व का जब हम अवलो- के पदार्थ विज्ञान का प्रबोध प्राप्त करना अनिवार्य है। वह कन करते हैं और इस विश्वतंत्र का व्यवस्थित ढंग से शक्ति मानव में होने के कारण मानव अपनी महानन्द मुक्ति संचालन देखकर इसके अन्तस्तल में रहे प्रयोजन को सूक्ष्म- पद का अधिकारी माना गया है। दृष्टि से समझने के लिये प्रयत्न करते हैं तो सारा तन्त्र
यद्यपि मानव जन्म की महत्ता को प्रत्येक दर्शन ने सकल जीवराशि के लिये स्वतन्त्र, स्व-पर निर बाध, सहज
प्रधान स्थान दिया है परन्तु मानव जन्म की महत्ता का सुख को सिद्धि के चरम साध्य के उपलक्ष्य में परोपकार की
रहस्य जैसा आईत्-दर्शन में प्रतिपादन किया गया है, वैसा प्रबल भूमिका पर निरन्तर श्रमशील हो, ऐसा भास हुए
कहीं भी नजर नहीं आता । आर्हत् दर्शन में समस्त चराचर बिना नहीं रहता और इसके समर्थन में पूर्व महर्षियों के कई
प्राणियों को तीन कक्षाओं में विभाजित किया गया है। श्लोक मिलते हैं। उदाहरणार्थ
कितने ही प्राणी कर्म चेतना के वश हैं, कितने ही प्राणी परोपकाराय फलन्ति बृक्षाः, परोपकाराय वहन्ति नद्यः ।
कर्मफल चेतना के वश हैं और कितने ही ज्ञान चेतना के परोपकाराय दुहन्ति गाव:, परोपकाराय शतां विभूतयः ॥
वश हैं। तीसरी ज्ञान चेतना का विशेष विकास मानव वास्तव में गगन मंडल में सूर्य-चन्द्र-तारा-ग्रह
जन्म में ही दृष्टिगोचर हो रहा है। आईत् दर्शन में ही नक्षत्र- को जगमगाती हुई ज्योति प्राणियों के प्रबोध प्राप्ति
आत्मा के स्वभाव और विभाव धर्म का सर्वाङ्गसुन्दर के पथ में प्रोत्साहन देती हुई उनके प्राण-रक्षण के अमृत ।
प्रतिपादन है और इस उभय धर्म का अनुसन्धान करने के समान अनेक पोषक तत्वों को प्रदान कर रही है। पवन,
लिये दो प्रकार की द्रव्याथिक और पर्यायाथिक दृष्टि का प्रकाश, पानी, अग्नि आदि भी प्राणियों के प्राण-रक्षण में
बड़ा सुन्दर वर्णन है। स्वभाव से ही यह अनन्त ज्ञान, सम्पूर्ण सहायता कर रहे हैं और पर्वत, नदी, नाले, बन,
दर्शन, चारित्र, अनन्त वीर्य और अनन्त सुख का स्वामी है उपवन, उद्यान, हरे हरियाले खेत प्राणियों के प्राणों का
और अजर, अमूर्त, अगुरुलघु और अव्याबाध गुणों का अस्तित्व अबाधित रखने में बहुत अनुग्रह कर रहे हों, ऐसा
निधान है। इसीलिये सतत् सुखाभिलाषी और उसकी दृष्टिगोचर हो रहा है। अगर नैसर्गिक नियंत्रण के पदार्थ
प्राप्ति के हेतु पूर्ण प्रयत्नशील है परन्तु विश्वतन्त्र की वस्तुविज्ञान में ऐसी परोपकारपूर्ण प्रक्रिया न होती तो प्राणी
स्थिति के विज्ञान का विकास न साधे वहाँ तक यह अपनी क्षण मात्र भी अपना अस्तित्व नहीं टिका सकते क्योंकि प्राणी मात्र सुख चाहते हैं, वह सुख भी सतत् चाहते हैं
अज्ञानदशा में सुख के बदले दुख परम्परावद्धक सुखाभास और सम्पूर्ण सुख चाहते हैं। इसलिये प्राणी मात्र का यह के लिये प्रयास करता रहता है और उस भ्रांति में अपने एक सनातन सिद्ध सहज स्वभाव हो, ऐसा ज्ञात होता है। को चौरासी लाख जोवायोनि के नमर-जाल में फंसाता है
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
। ११४ ।
तथा जन्म मरण को भयानक भवाटवी में भटकता है, क्योकि इसकी आत्मप्रदेश रूप ज्ञान चेतना की विशेषता फिरता है।
मस्तिष्क भाग में केंद्रित है। इसलिये यह सत्यानुसन्धान ___ विश्व यन्त्र का पदार्थ विज्ञान कितना ही परोपकार- करके अपने साध्य-सहजानन्द, सच्चिदानन्द स्वरूप को प्राप्त पूर्ण होने पर भी उसके गर्भ में रहे हुए परमानन्दकारी कर सकता है। तिर्यचों में तो, तिरछे स्वभाव के होने के परमार्थ को हरएक प्राप्त नहीं कर सकता और इसके कई कारण, ज्ञान का बहुत साधारण स्थिति में विकास होता है कारणों पर आर्हत् दर्शन में अनेक प्रकार से प्रकाश डाला क्योकि उनका मस्तिष्क तिरछा है । यह प्रत्यक्ष देखा जाता गया है। उसमें एक कारण यह भी बताया गया है कि यह है कि हाथी, घोड़े आदि का मस्तिष्क कितना ही बड़ा होने आत्मा उर्ध्वगमन स्वभाववाला है। जिस तरह अग्नि का पर भी, उनकी ज्ञान-चेतना बहुत सीमित है, इसलिये धुआँ उर्ध्वगामी होने से उसका उर्ध्वगमन कराने में कोई सत्य को साक्षात्कार करने के वे पात्र ही नहीं हैं। देव प्रयत्न की ज़रूरत नहीं है लेकिन इतर दिशाओं में गमन और नरक के जीव उर्ध्वगामी जरूर हैं परन्तु जन्मान्तरों के कराने में बड़ा प्रयत्न करना पड़ता है क्योंकि वह धुएं का विभाव धर्म में चाहे शुभ या अशुभ न्यूनाधिक मात्रा में विभाव है, स्वभाव नहीं है। इसी तरह आत्मा अपने प्रवृत्ति हुई है जिससे उनके सुख-दुःख की स्थिति उनके उर्ध्वगमन स्वभाव में सहज ही विकास साध सकता है जब
हा विकास साध सकता है जब स्वाधीन नहीं है। अत: वे भी सत्य साधना को चरितार्थ कि अधोगमन एवं तिरछागमन में चेतन शक्ति का विकास करने में समर्थ नहीं हैं। केवल मानव जन्म में ही वैभाविक दुःसाध्य हो जाता है । आत्मा वनस्पतिकाय आदि स्थावर शक्ति समतुल मात्रा में विकसित न होने से इसको स्वाभामें अधोगामी [ Topsy Torby ] स्थिति में है, विक शक्ति साधने का सुन्दर प्रसंग है। इसीलिये मानव तियंच आदि त्रस में तिरछागामी (Oblique) स्थिति जन्म को अति दुर्लभ माना गया है और उसकी दुर्लभता के में है और नरक, देव और मनुष्य गति में उर्ध्वगमन (Per. दस सुन्दर दृष्टांत उत्तराध्ययन सूत्र में बड़े ढंग से दर्शाये pendicular) स्थिति में है। शास्त्रकार महर्षियों ने गये हैं। ऐसा सुन्दर वर्णन और कहीं नहीं मिलता। तीन चेतनाओं का वर्णन करके पहले ही खुलासा कर अब बात यह है कि हमें अपनी स्वाभाविक सच्चिदान द दिया है कि तिथंच गति, चाहे स्थावर में हो चाहे स्थिति को प्राप्त करने के लिये स्वभाव एवं विभाव के कार्य त्रस में हो, कर्म चेतना के वश है; नरक और देव कर्मफल कारण भावों पर खूब विश्लेषण करना नितान्त आवश्यक चेतना के वश है और मानव एक ही ऐसी गति है जिसमें है। आहत-दर्शन में उस विश्लेषण विश्व-विद्या का नाम ज्ञान चेतना-प्रधान है । वनस्पति आदि में उसकी अधोगमन द्रव्य गण-पर्याय का चिंतन है और यही आर्हत्-दर्शन का स्थिति होने से चेतना का बिल्कुल अल्प विकास नजर आता आदर्श ध्यान है, क्योंकि यह विश्वतंत्र इतना विचित्र एवं है क्योंकि उनकी जड़ और धड़ सब उल्टे हैं। यही कारण विज्ञानपूर्ण है कि इसमें कितने ही स्थूल-सूक्ष्म कारण हैं, है कि वृक्षों की शाखा-परिशाखाओं आदि ऊपर के भागों कितने ही उपादान-निमित्त कारण हैं और कितने ही मूर्त को काटने पर भी वे जीवन का अस्तित्व बनाये रखते हैं। अमूर्त कारण हैं । इसलिये आर्हत्-दर्शन में सर्वज्ञ बने बिना मानव के उर्ध्वगमन स्वभाव में विकसित होने से मस्तक के एवं केवलज्ञान प्राप्ति किये बिना कोई मुक्ति प्राप्त नहीं कर नाचे रहे हुए अधोभाग के अंगपात्रों को काटने पर भी वह सकता। इस विश्व-तत्र का संचालन जीव, अजीव दोनों जोवित रहता है व अपने जीवन का अस्तित्व टिका सकता पदार्थों के परस्पर संबंध से चलता है। इसलिये केवल
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ११५ १ जीव की अजर, अमर, अविनाशी, सच्चिदानन्द स्वरूप की मान्यतावाले दर्शन ही जीव को मुक्तिधाम पर पहुँचाने पर पहुँचाने में सफल नहीं बन सकते। साथ में अजीव तत्व जो धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुदगल हैं, उनके पूर्ण स्वरूप को समझे बिना छुटकारा नहीं है। यद्यपि दूसरे द्रव्य अपनी गति, स्थिति, अवकाश, प्रवर्त्तना और परिणाम क्रिया में जीव के साथ सम्बन्धित है तथापि इनपर विशेष मंथन, परिशीलन न भी होवे परन्तु पुद्गल का स्वरूप समझना परम आवश्यक है क्योंकि पुद्गल और जीव परस्पर परिणामी द्रव्य हैं। एक दूसरे का परस्पर सम्बन्ध अलिप्त होने पर भी वे अपना प्रभाव परस्पर डाले बिना रहते नहीं ।
एक दर्पण के सामने काला पर्दा रख दिया जाय तो यद्यपि पर्दा और दर्पण पृथक है, फिर भी पर्दे की परछाया दर्पण की निर्मलता को आवरित किये बिना रहती नहीं। इसी तरह आत्मा के ऊपर पुद्गल का आवरण क्या है, कैसे होता है, कैसे टिकता है ओर कैसे मिटता है, यह सब समझता ही पड़ेगा क्योंकि पुद्गल की भी कई वर्गणायें हैं। खासकर औदारिक आदि आठ वर्गणाएँ जीव से बहुत सम्बन्धित हैं और इनमें भी कार्मण वर्गणा, जो अति सूक्ष्म मानी जाती है अपने परिणाम के असर द्वारा आत्मा को स्व-पर का भान तक भूला देती है और यह जीव पर-परिणामी बन जाता है। संज्ञा काय विषय-वासना, आशा, तृष्णा ये सब पुद्गल परिणामी होने पर भी जीव अपनी अज्ञान दशा में इनको आत्मपरिणामी समझकर उनमें परिणमन करता है और पुद्गल परिणामी बनकर चारों गतियों में परिभ्रमण करता है । अपने अनन्त प्राणों के संयोग-वियोग के चक्कर में अरपट पटि न्यायेन" अनादिकाल से संसार समुद्र के जन्म मरण की तरंगों में गोते खाता रहता है ।
बार्ह दर्शन को परिभाषा में ब्रव्य-गुण-पर्याय की घटना में ही सारे संसार का चक्र चलता है । इसलिये
द्रव्य-गुण पर्याय का जितना भी सूक्ष्म अध्ययन, अवलोकन, चिंतन, मंथन और परिशीलन होगा, उतना ही सत्य का साक्षात्कार एवं वस्तुस्थिति का भान होता जायगा ।
ग्रीष्म ऋतु की ताप से पीड़ित हाथी सरोवर के पंक (कीचड़ ) की शीतलता को देखकर उसमें सुख की भ्रांति में विश्रांति लेने गया । उसे शीतलता का सुख अनुभव जरूर हुआ परन्तु उस कादव में ऐसा फँस गया कि वह फिर बाहर नहीं आ सका । ग्रीष्म ऋतु के प्रचंड ताप से कीचड़ सूखता गया और हाथी को अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी। इस तरह इस संसार का हाल है । इसलिये वैभाविक संबंध विकास मार्ग में कहाँ तक उपयोगी है और कहाँ तक निरुपयोगी है, इसका सम्यग् बोध प्राप्त न हो तो वही विकास विकार रूप बनकर विनाश की तरफ ले जाता है। विश्वतंत्र के प्राणियों के लिए जीवन विकाश की प्रक्रिया को जीव अपनी अज्ञान दशा में निरर्थक बना देता है । विश्वतंत्र में कहो या आर्हत्-दर्शन की परिभाषा में लोकस्थिति कहो या विज्ञान की भाषा में COSMIC ORDER कहो, प्रत्येक पदार्थ अपने स्वाभाविक स्वरूप में अवस्थित रहने के लिये सदा प्रवृत्तिशील है। अतः आत्-दर्शन में सव बड़े तत्वों का परम तत्व (Fulorum of the whole Universe) "उवन्नेइ बा, विगमेइ वा धुवे वा" माना है। अर्हन्त भगवंत धर्म वीर्थ स्थापित करने के लिए अपनी अमृत देशना का मंगलाचरण करते हैं तब ऐसा ही वर्णन है कि गणधर प्रश्न करते हैं कि "भंते । किं वत्तं ? किं तत्त ? उसके प्रत्युत्तर में भगवन्त " उवन्ने वा विगमेइ वा धुवेइ वा" फरमाते हैं । यही द्रव्य-गुण- पर्याय की घटमाल को समझने का परमोस्कृष्ट साधन है और नैसर्गिक नियंत्रण का सारा विश्व विधान इसी विज्ञान को प्रकाश में लाने के लिये नियोजित है ।
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
। ११६ ]
जो पुण्य-पवित्र आत्मा जन्म-जन्मान्तरों में अहिंसा में मुझे जब भिन्न-२ साहित्य का अवलोकन, अध्ययन, मनन संयम-तप का उत्तरोत्तर विकास साधते हुए केवलज्ञान को और परिशीलन करना पड़ा तब उसमें मुझे द्रव्यानुयोगी प्राप्त करके इस लोकालोक प्रकाशक-पूर्ण-विज्ञान प्रतिपादन महात्मा देवचन्द्रजी को 'आगमसार' आदि पुस्तकों का के अधिकारी बनते हैं, वे ही तीर्थकर कहलाते हैं। जीवों तथा उनके तत्वगभित स्तवनों आदि का अध्ययन करने का को तारने के लिये मार्गदर्शक आगमिक भाषा में वे महा- भी सौभाग्य प्राप्त हुआ, जिनमें से उपलब्ध बोध के लिये निमिक, महा-सार्थवाह, महा-माहण और महागोप इन महान उपकारी के उपकार का मैं अनन्त ऋणी हैं, और कहलाते हैं। उनका प्रवचन ही परमोत्कृष्ट धर्म एवं धर्मा- उन्हीं महापुरुष के दिव्य जीवन का यशोगान करने के नुशासन कहलाता है। इस विश्वतंत्र के विशिष्ट विज्ञान उपलक्ष में ही यह लेखनी उठाई है। यद्यपि ऊपर लेख की को प्रकाश में लाये बिना इसकी पदार्थ-व्यवस्था के परदे के मर्यादा के बाहर पूर्व-भमिका बहुत बन गई है, अतः मैं पीछे रहो हुई परोपकार की प्रक्रिया का परमार्थ रूप उनके विषय में अब क्या लिखू ? परन्तु यह कहावत प्रसिद्ध परमानन्द पद प्राणो प्राप्त करे, ऐसा जो गुप्त रहस्य रहा है कि राम के यशोगान में रावण को अनोखी कथनो इतनी हुआ है, उसकी पूर्ति हेतु केवल अर्हन्त भगवंत ही अधिकारी विस्तृत बताई कि राम की कथनी उससे भी विशेष विस्तृत है । अत: वे ही कार्य की सिद्धि के लिये कारण की सम्यग- करना आवश्यक समझा गया, परन्तु उस सूज्ञचिंतक ने तो सामग्री सर्जन करते हैं और उसमें स्वाभाविक वैभाविक एक ही वाक्य में कह दिया कि रावण अनेक विद्या, सिद्धि, धर्मक्षेत्र आदि साधन ऐसा सामग्री जितनी प्राणो को अपने ऋद्धि, वृद्धि, संपत्ति और शक्ति का स्वामो था परन्तु राम परमानन्द पथ की प्राप्ति के लिये चाहिये, उसकी पूर्ति करते की किसी शक्ति का वर्णन किए बिना यहो कहा कि राम ने हैं; अटल नियम है। इसलिये सारा विश्वतंत्र उनकी सेवा में रावण को पराजित किया। इससे सिद्ध हो गया कि राम प्रवृत्त है (The whole Cosmic order re- में रावण से भो अनेक विशिष्ट शक्तियाँ थीं। इसी तरह से
mains at their service )। इसिलिये पदार्थ मैं भी यहाँ कहना चाहता हूं। व्यवस्था के विधान के मुताबिक उनके पंच कल्याणकों में आपके साहित्य में से मैं जो कुछ समझा हूँ, वह सागर देवेन्द्रों, सुरेन्द्रों का शुभागमन होता है और सामग्न की रूपी गागर में बतलाना चाहता हूँ कि अपने जोवन के पूर्ति करनेवाले प्रभु हैं, ऐसा संकेत करनेवाले अशोकवृक्षादि उत्थान के लिये, परमानन्द पद की प्राप्ति के लिये एवं अष्ट महाप्रा तिहार्य का प्रादुर्भाव होता है। प्राणियों को मुक्ति मंगल निकेतन का निवासी बनने के लिए तीन बातें हरएक प्रतिकूलता को पलायन करके सानुकूलता के साधन बहुत जरूरी हैं:जुटाने की विशिष्ट-विभूति जो चौंतीस अतिशयों के नाम (१) प्रभु की प्रभुता (२) समर्पणभाव (३) आशय की से प्रसिद्ध है, वह भी उनके स्वाधीन हो जाती है। विशुद्धि।
इसलिये नैसर्गिक पदार्थ व्यवस्था के प्रमाणभत प्रति- उपरोक्त तीन बातें यदि ठीक तरह से समझी जावे तो निधि (The most bonafide representative) मानव सुखे-सुखे नरेन्द्र देवेन्द्र, सुरेन्द्र और अहमिन्द्रों की तीर्थकरों और उनके स्थापित तीर्थ की आराधना-प्रभावना अनुपम ऋद्धि समृद्धि की सरिता में सुख संपादन करता हो हमारे लिये परमोत्कृष्ट मंगल रूप एवं परम श्रेयस्कर हुआ सिद्धिधाम में पहुंच सकता है। इन बातों को समझे है। इसी आराधना-प्रभावना के यथार्थ बोध के उपलक्ष बिना जो प्रागो आनो परिमित प्रज्ञा व मर्यादित
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
। ११७ ] मेंधा पर आधार रखकर मुक्ति-मार्ग में प्रवास करता विश्व के विभु एवं प्रभु हैं। अतः ऐसे प्रभु को समर्पित होने है तो वह परमार्थ के बदले अनर्थ, धर्म के बदले में ही हमारा सर्वोदय है । इसलिये ऐसा शुद्ध आशय बनाकर बदले अधर्म, पुण्य के बदले पाप, उपकार के बदले अपकार, जो प्रभु का स्मरण करता है एवं उनको आज्ञा का पालन हित के बदले अहित, शुभ के बदले अशुभ और शुद्ध के करता है, वह परमानन्द पद को सुलभता से प्राप्त करता है बदले अशुद्ध आचरण करके पराभव स्थिति को प्राप्त कर क्योंकि वे आगे फरमाते हैं कि-- अपना अध: पतन किये बिना रहेगा नहीं।
"शुभाशय थिर प्रभु उपयोगे, जो-समरे तुज नामजी । ___ जैसे निष्णात डाक्टर से संपर्क साधने के बाद अपने अव्याबाध अनन्तु पामे, परम अमृत सुखधामजी ॥" दिमागो दवाओं के झगड़े में पड़ना महामर्खता है तथा ऐसे ही भाव श्री सविधिनाथ भगवान के स्तवन में निष्णात डाक्टर के ऊपर निर्भर रहने में ही साध्य की सिद्धि मिलते हैं । है, उसो तरह पहले हमें प्रभु को प्रभुना को खूब समझना
___"प्रभु मुद्रा ने योग प्रभु प्रभुता लखे हो लाल चाहिये तभी समर्पण-भाव आयेगा और आशय को शुद्धि के द्रव्य तणे साधर्म्य स्वसंपति ओलखे हो लाल" लिये आतुरता विकसित होती जायगी और वह अपनी
आगे जाते-जाते श्री महावीर स्वामी के स्तवन में तो आदर्श-भावना को सफल बना सकेगा। केवल आत्मज्ञान
यहाँ तक कहते हैं किको अपनो मति-कल्पना को मान्यताय मानने ओर मनाने में
'तारजो बापजी विरुद निज राखवा, अपना ही नहीं, लेकिन अनेकों के उत्थान के बदले पतन में
दास नों सेवना रखे जोसो" अपने शुष्क ज्ञान को उपकरण बनाने के बदले अधिकरण बनाने के समान है। इसलिये परम-पूज्य महात्मा श्रीमद्
इस तरह से मझे तो इन तीन बातों पर श्री देवचन्द्र जो
___ के प्रति अपनो अत्मा में इतना सद्भाव है कि जिसके वर्णन का अपने स्तवनों में प्रशंसनीय प्रयत्न किया है।
के लिये मेरे पास कोई शब्द नहीं है। श्रीशोतलनाथ प्रभु के स्तवन में आप फरमाते हैं कि - वेसे भी इनके रचना ग्रन्यों में नय, निक्षेप प्रमाण,
"शीतल जोन प्रति प्रभुता प्रभु को, लक्षण, मार्गणा स्थान, गुणस्थान, द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव, मुझ थको कहो न जावेजो"
पंच समवाय, औदायिक आदि पंच भाव, पंचाश्रव, पट क्योंकि सारा विश्व-विधान आपको आज्ञा के अधोन। द्रव्य, सप्त धर्म-क्षेत्र, अष्ट कर्म, अष्ट करण, नो तत्व, नौ पद हो गया है।
आदि गहन विषयों का भी इतना सुन्दर और सरल ढंग से "द्रव्य, क्षेत्र ने काल, भाव, गुण,
प्रतिपादन है कि सामान्य बुद्धिवाला भी अपना आत्मोत्थान राजनोति ए चार जी
साध सकता है। संस्कृत, प्राकृत के प्रौढ़ विद्वान होते हुए त्रास बिना जड़ चेतन प्रभु को, भी आपने सारे आगमों का अमृत-रस राजस्थानी, गुजकोई न लोपे कारजो"
राती, हिन्दो, व्रज भाषा में गद्य-पद्य में अपना साहित्य अर्थात् जड़ चेतन रूप षट् द्रव्य के द्वारा सारे विश्व- सर्जन करके बड़ा लोकोपयोगी बनाया जिसके लिये उनका तन्त्र का संचालन हो रहा है; ये सब आपको आज्ञा का जितना भी गुण गान गाया जावे, उसता ही थोड़ा है । लोप नहीं करते। मेरे कहने का आशय यह है कि आप ही वे बड़े आगम व्यवहारी, सच्चे अध्यात्म-मुख थे और
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
। ११८ ] आईत्-दर्शन की मान्यतानुसार वे बड़े आत्म-योगी पुरुष धर्म शास्त्रों में टीटोडी के अंडे समुद्र में जाने से अपने चंचुथे, इसमें कोई शक नहीं।
पात से समुद्र को खाली करने जैसा दृष्टान्त है। परन्तु श्रीमद् देवचन्द्रजी को साहित्य रचना में से प्रभु की टोटोडी के आत्म विश्वास ने गरूङजी को आकर्षित किया, प्रभुता, समर्पण भाव, आशय की विशुद्धि का आधार लेकर गरुड़जी के द्वारा विष्णु भगवान की कृपा हुई। उन्होंने ही मैं आत्म योग सरोवर में चंचुपात कर रहा हूँ। समुद्र उसके साध्य को सफल बनाया और समुद्र को अंडे वापस के प्रवास में जैसे प्रवहण ही आधार रूप है, इसी तरह से देकर क्षमा मांगनी पड़ी। ऐसे ही इस प्रभु की प्रभुता में इनके प्रवचन-रूपी प्रवहण, मेरो आत्म-योग-साधना में वह शक्ति रही हुई है जिनको कृपा एवं अनुग्रह से हमारा मेरे लिये पुष्टावलंबन रूप है। अगर यह आधार न मिला बेडापार हो सकता है। इसलिये दिन प्रति दिन प्रमु के होता तो इस भयानक भवसागर को पार करने का साहस प्रति दासत्व-भाव की वृद्धि करते जाना-यही मुक्ति द्वार भी नहीं होता, जैसे कि अपनी भुजा से समुद्र पार करने- तक पहुँचने का सरल उपाय है । "दासोऽहं" भाव अपने वाले को स्थिति होती है। वह कितना ही पराक्रम करके आप अप्रमत्त गुणस्थानकों में 'सोऽहं' भाव पर पहुंचायेगा प्रवहण बिना अपनी भुजा बल से थोड़ो प्रगति साधे परन्तु और अन्त में “सोऽहं" भाव भी वीतराग गुणस्थानकों में समुद्र की एक ही तरंग में वह शक्ति है कि वह उसका छूटकर ऐसी केवलज्ञान स्थिति में रहा हुआ अपने शुद्ध सारा पुरुषार्थ निष्फल बना सकती है। जिस तरह समुद्र सिद्धात्म स्वरूपस्थ "ह' "एगो मे सासओ अप्पा, नाण मच्छ, कच्छ, मगर आदि भयानक जंतुओं से भरा है, उसी दंसण संजुओ" स्व पर निराबाध सहजानन्द भाव सिद्ध स्वरूप तरह इस भवसागर में भी संज्ञा, कषाय, विषय वासना, को प्राप्त कर यगा । तृष्णा रूपी ऐसे भयानक जंतु भरे पड़े हैं और हम प्रभु के प्रवचन रूपी प्रवण को प्राप्त किये बिना उनसे बच ही नहीं इस प्रकार पूज्य श्रीमद् देवचन्द्रजी का मैं दिन रात सकते। बड़े बड़े पुरुषार्थी पूर्वधर पुरुष भी प्रगति के प्रवाह जितना भी गुण गाऊं, वह थोड़ा ही है परन्तु उनके दिव्य में से पड़कर निगोद तक पहँचे हैं तो मेरे जैसे पुरुषार्थहोन जीवन सम्बन्धी इस स्थान पर दो शब्द उनके प्रति मेरा अज्ञानी इस प्रवास में अपनो हो ज्ञान क्रिया के बल पर पूज्य भाव प्रदर्शित करने के लिये उल्लिखित किये हैं, इसमें कैसे विकास साध सकते हैं ? अत: इस अगम, अपार संसार मति मंदता के कारण कोई त्रुटि रही हो तो क्षमा को पार करने का मेरे जैसे पामर प्राणी का पुरुषार्थ, हिन्दू चाहता हूं। सुज्ञेषु किं बहुना !
-
-
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
खरतर गच्छ को क्रान्तिकारी और अध्यात्मिक-परम्परा
. श्री भंवरलाल नाहटा
आर्यावर्त के धर्म-शरीर की आत्मा जैनधर्म है। जिस ने अपनी साधना का केन्द्र बिन्दु आत्म-विशुद्धि व आत्म प्रकार आत्मा के बिना समस्त शरीर शव के सदृश होता साक्षात्कार को माना। साढ़े बारह वर्ष पर्यन्त ध्यान, है, उसी प्रकार समस्त शुष्क क्रिया काण्ड यदि उनमें अध्या- मौन, कायोत्सर्गादि द्वारा बाहरी आकर्षणों से चित्तवृत्ति त्मिकता का अभाव हो तो वे केवलकाय-क्लेश मात्र होते ओर प्रवृत्ति को हटा कर आत्मा की सम्पूर्ण शक्तियों हैं। आधिभौतिक साधना से आत्म शांति नहीं मिलती। को विकसित किया। देहात्म बुद्धि को मिथ्यात्व बतलाते आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व जब भगवान महावीर का प्रादु. हुए सम्यग्दर्शन ही वास्तव में आत्मदर्शन है, इसके प्राप्त र्भाव हुआ, जनता त्रिविधताप सतप्त थी। शांति के लिए होने पर सांसारिक या पौद्गलिक विषयों की आसक्ति स्वयं तड़फते प्राणियों को मृग-मरीचिका के चक्कर में गोते लगाने छूट जाती है, बतलाया । केवलज्ञान, केवलदर्शन के सिवा परिणाम शून्य था। जहां वेद पुराणादि सभी आत्मा की पूर्ण निर्मलता, विशुद्धता द्वारा प्राप्त आत्मा की शास्त्र भौतिक शिक्षा एवं एकान्तिक आत्म प्ररूपणा तक चैतन्य शक्ति का परिपूर्ण विकास ही है। आचारांग सीमित रह गए, जैनागमों का प्रथम अंग आचारांग "आत्मा सूत्र में उन्होंने कहा है, जो एक आत्मा को जान लेता है क्या है ?'' इस प्राइमरी शिक्षा का उद्घोष करता है। वह सब को जान लेता है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा भगवान महावीर ने आत्मदर्शन को प्रधानता दी और है - आत्मा ही अपना शत्रु और आत्मा ही अपना मित्र लाखों वर्षों की शुष्क अज्ञान तपश्चर्या को व्यर्थ और ज्ञानी- है, बाहरी शत्रुओं से युद्ध करने का कोई अर्थ नहीं; आत्मा आत्मज्ञानी की क्रिया-चर्या को सार्थक बतलाया। वह के शत्रु राग, द्वेष, मोह हैं उन्हीं पर विजय प्राप्त करो। श्वासोश्वास में करोड़ों वर्षों के पापों को क्षय कर देता है। बाह्य तपश्चर्या आत्मलीनता हेतु और देहासक्ति के परित्याग इसीलिए उन्होंने 'अप्प नाणेण मुणो होई" कहा। बाह्य रूप है। छः आवश्यकों में कायोत्सर्ग देहासक्ति का त्याग उपकरणों के मेरु जितने ढेर लगाकर भी कार्यसिद्धि में रूप ही है क्योंकि पुद्गल मोह मिटे बिना अन्तर्मुख वृत्ति अक्षम बताकर आत्मज्ञानी श्रमणत्त्व की नींव दृढ की। नहीं होती और आत्मदर्शन नहीं होता। इच्छा ही धार्मिक क्षेत्र में फैले ढौंग रूपी अन्धकार को दूर करने के बंधन है, इच्छा निरोध ही तप और आत्म-रमणता ही लिए आत्मज्ञान की दिव्य ज्योति प्रकट की। चित्तवृत्ति प्रवाह चारित्र है। हमारे समस्त धर्माचरणों का उद्देश्य आत्म बाहर भटकने से रोक कर अन्तमुखी करके अखण्ड आनंद विशुद्धि ही होना चाहिए। आत्म'केन्द्रित साधना ही प्राप्ति की कला बता कर निवृत्ति मार्ग को प्रशस्त करने सही मोक्ष मार्ग है। में भगवान की अमृत वाणी बड़ी ही अमोघ पिद्ध हुई। भगवान महावीर की इस अध्यात्मिक परम्परा को लाखों प्राणी निर्वाण मार्ग के पथिक होकर अप्रमत्त साधना अनेकों भव्यात्माओं ने अपनाते हुए आत्म कल्याण किया। में लग कर आत्मकल्याण करने लगे। भगवान महावीर समय-समय पर जो बहिर्मुखता को अभिवृद्धि हुई उसे दूर
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
। १२० । करने के लिए ही जेनाचार्यो-मुनियों ने ब्रिया रहार किया मापिघट सरि वे पर श्री जिन चन्द्र सूरि प्रतिष्टित हुए, अर्थात् शिथिलाचार का परित्याग कर के च्यात्मक मार्ग उन्होने अपने गुरु की अस्मि इ छाको बड़े अच्छे रूप में पूर्ण का पुरद्धार किया। मध्यकालीन चेत्यवास शिथिलाचार किया। बीकानेर के मंत्री संग्राम सिंह बच्छावत की विज्ञप्ति का एक प्रवहमान श्रोत था जिसमें बड़े-बड़े आचार्य और से स० १६१३ में बीकानेर आकर उन्होंने स्पष्ट रूप से मुनिगण बहते चले गए फलतः आध्यात्मिक साधना क्षीण घोषणा कर दी कि जो साध्वाचार की ठीक से पालन करना हो गई, आडम्बर और क्रिया काण्डों का आधिक्य हो चाहते हों वे मेरे साथ रहें और जो पालन न कर सकें वे वेश गया। जनता को भी भगवान महावीर को अध्यात्मिक को न लजा कर गृहस्थ हो जाय । कहा जाता है कि उनके शिक्षाएं मिलनी कठिन हो गई। जैन संघ को अध्यात्मिक शंखनाद रे तीन सौ य'तयों मे से वेदल १६ उनके साथी प्रेरणा देने वाले क्रान्तिकारी प्राचार्यों की युग पुकारने साथी बने अवशेष सा देश परित्याग कर गृहस्थ महात्मा आचार्य हरिद्र, जिनवर सूरि, निह सूरि. जि.नदत्त सूरि मथेरण कहलाये। उपाध्याय भावहर्ष ने ब्रियोद्धार करके मणिधारी जिनचंद्रसूर, और जिनपति सूरि जैसे युगप्रधान अपने साधु समुदाय को व्यवस्थित किया जो आगे चलकर आचार्यों को जन्म दया जिन्होंने जैनचैत्यों और मुनियो के भावहर्षीय शाला के कहलाये । युगप्रधान जिन द्रसूरि का आचारों में आई हुई विकृति का प्रबल पुरुषार्थ द्वारा परिहार लोकोत्तर प्रभाव बढ़ा फलत: सम्नाट अकबर भी उनसे किया और सुविहित मनि मार्ग का पुनरद्वार किया। प्रभावित हुआ। जहाँगीर को भी अपनी अनचित ठाम
आचार्य जिनेश्वरसूरि ने चैत्यवास पर एक प्रबल वापस लेनी पड़ी। जैन शास्न का वह स्वर्ण युग था, उस चोट करके उसकी जड़ें हिला दी जिनवल्लभ और जिनदत्त समय अनेक विद्वान हुए जिनके साहित्य ने जनधर्म का सूरिजी ने जगह-जगह घूमकर जनता में जागृति पदाकर गौरव बढ़ाया। युग परिवर्तन कर डाला और जिनपतिसुरिजी ने तो रही आचार्य जिनराजसूरि के बाद फिर साध्वाचार सही शिथिलाचार को प्रवृत्तियों का बड़े बड़े आचार्यो से पालन में थोड़ी शिथिलता आगई अतः श्रीजिन रत्तसुरिजी लोहा लेकर नाम शेष ही कर डाला।
पट्टधर जिनचन्द्रसूरि ने फिर से नये नियम बनाए। जिनराजसूरि मानव स्वभाव की कमजोरी के कारण शनैः शनैः और जिनचन्द्रसूरि के मध्यकाल में ही सुप्रसिद्ध अध्यात्म शिथिलाचार फिर बढ़ता गया और समय-समय पर सुविहित अनुभव योगी आनन्दघनजी हुए जिनका मूल नाम आचार को प्रतिष्ठित करने के लिए क्रियोद्धार की परम्परा लाभानन्द जी था। वे मूलतः खरतरगच्छ के थे। मेड़ता भी चलती रही। सोलहवीं शताब्दी में तपागच्छ के मेंही जन्म और उच्च आत्म साधनरत विचर कर मेडता आनन्दविमलमूरि आदि ने क्रियोद्धार किया तब खरतरगच्छ में हो स्वर्गवासी हुए। उनका उपाय आज भी वहाँ के जिनमाणिक्यसूरि ने भी आचार शैथिल्य को दूर करने मौजूद है । परमगीतार्थ आचार्य कृपाचन्द्रसूरि जी ने योगकी प्रबल भावना की और इसके लिए देरावर पूज्य दादा निष्ठ आचार्य बुद्धिसागर जी को आनन्दघन जो के मूलतः जिनकुशलसूरि जी के मङ्गलमय आशीर्वाद के लिये प्रस्थान खरतरगच्छीय होने की जो बात कही थी उसकी पुष्टि किया पर मार्ग में ही स्वर्गवास हो जाने से उनकी भावना आगम-प्रभाकर मुनिराज श्री पुण्य विजयजी को प्राप्त खरतर मूर्त रूप न ले सकी इस समय खरतरगच्छ के उपाध्याय गच्छोय श्री पुण्य कलश गणि के शिष्यों को लाभानन्दजी कनकतिलक ने क्रियोद्धार किया । सं० १६१२ में श्रीजिन के अष्टसहस्री पढ़ाने के उरलेख द्वारा भी हो गई है ।
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
(20
तू तेरा सम्भाल
- सहजानन्द
योगीन्द्र युगप्रधान श्री सहजानन्दघन (भद्र मुनिजी) महाराज जन्म सं० १६७० भा० सु. १० डुमरा दीक्षा सं० १६१० वै० सु०६ लायजा
युगप्रधान पद सं० २०१८ ज्ये० सु. १५ बोरड़ी महाप्रयाण सं० २०२७ का० सु०३ रत्नकूट हम्पी
चित्र-श्री इन्द्र दूगड़ (जैन भवन कलकत्ता के सौजन्य से)
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
स. १६६४ पालीताना में पंक्ति (१) १ श्री बुद्धिमुनिजी २ उ० श्री लब्धिमुनिजी ३ गणिवर्यरतनमुनिजी ४ भावमुनिजी ५ प्रेममुनिजी पंक्ति (२) श्रीनन्दनमुनिजी २ श्रीभद्रमुनिजी ३सनि मुक्तिी ४ पूर्णानन्दमुनिजी ५ प्रेमसागरजी
श्रीजयानन्दमुनिजी
गणिवर्य श्री बुद्धिमुनिजी
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ १२१ ]
सतरहवीं शती के "सुमति" नामक खरतरगच्छीय कवि अध्यात्म रसिक हुए हैं। जिनके कतिपय पद तत्कालीन लिखित हमारे संग्रह के दो गुटकों में मिले जो "वीर वाणी" में प्रकाशित किये हैं ।
सतरहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में जिनप्रभसूरि शाखा के विद्वान भानुचन्द्रगणि से शिक्षा प्राप्त श्रीमालज्ञातीय बनारसीदास नामक सुकवि हुए। उन्होंने दिगम्बराचार्य कुन्दकुन्द के समयसारादि ग्रन्थों से प्रभावित होकर अध्यात्म मार्ग को विशेष रूप से अपनाया जिससे उनका मत अध्यात्म मती-बनारसीमत नाम से प्रसिद्ध हो गया। थोड़े समय में ही इस अध्यात्म मत का दूर दूर तक जबर्दस्त प्रभाव फैला । सुदूर मुलतान के कई खरतरगच्छीय ओसवाल श्रावकों ने भी उससे अध्यात्मिक प्रेरणा प्राप्त की; फलतः उधर विचरने वाले सुमतिरंग, धर्ममन्दिर, और श्री मद्देवचन्द्रजी ने कई महत्वपूर्ण अध्यात्मिक रचनायें उन्हीं आध्यात्मिरसिक श्रावकों की प्रेरणा से की । बनारसीदासजीका समयसार, बनारसी विल स, अर्द्ध कथानक आदि साहित्य उल्लेखनीय है ।
श्रीमद् देवचन्द्रजी महाराज अकबर प्रतिबोधक चतुर्थ दादा श्रीजिनचन्द्रसूरिजी के शिष्य श्री पुण्यप्रधानोपाध्याय की शिष्य परम्परा में उ० दोपचन्द्रजी के शिष्य थे । आपका जन्म सं० १७४६ में बीकानेर के किसी गांव में लूणिया तुलसीदासजी के यहां हुआ । लघुक्य में दीक्षा लेकर श्रुतज्ञान की जबदरस्त उपासना की । आप अपने समय के महान् प्रभावक, अतिशय - ज्ञानी और अद्वितीय अध्यात्म तत्ववेत्ता थे । आपकी १६ वर्ष की अवस्था में रचित ध्यानदीपिका चौपई जैसी रचनाओं से आपके प्रौढ़ पाण्डित्य और अध्यात्म ज्ञान का अच्छा परिचय मिलता है। चौवीसी आदि रचनाओं में आपने तत्त्वज्ञान और भक्ति की अविरल धारा प्रवाहित की है। स्नात्रपूजा आदि कृतियाँ भक्ति की अजोड़ स्रोतस्विनी हैं । आपकी कृतियों का संकलन करके ४५-५० वर्ष पूर्व योगनिष्ठ आचार्य
प्रवर श्री बुद्धिसागरसूरिजी ने अध्यात्म ज्ञान प्रसारक मंडल से श्रीमद्देवचन्द्र भाग - १-२ में प्रकाशित की थी एवं आचार्य महाराज ने आपकी संस्कृत स्तुति आदि में बड़ी ही भक्ति प्रदर्शित की है । श्रीमद्देवचन्द्रजी ने क्रियोद्धार किया था, वे सर्वगच्छ समभावी और जैनशासन के स्तम्भ थे । आपने सं० १८१२ भा० व० १५ के दिन नश्वर देह का त्याग किया। विशिष्ट महापुरुषों द्वारा ज्ञात अनुश्रुतियों के अनुसार आप वर्तमान में महाविदेह क्षेत्र में केवली पर्याय में विचरते हैं ।
श्रीमद्देवचन्द्रजी महाराज के रास- देवविलास में आपके ध्रांगधा पधारने पर जिन सुखानन्दजी महाराज से मिलने का उल्लेख आया है वे सुखानन्दजी भी खरतरगच्छ के ही अध्यात्मी पुरुष थे उनके कई पद आनन्दघन बहुत्तरी में प्रकाशित पाये जाते हैं तथा कई तीर्थकरों व दादासाहब के स्तवन भी उपलब्ध हैं । दीक्षानन्दी सूची के अनुसार आप सुगुणकीर्ति के शिष्य थे और सं० १७२८ पोष बदि ७ को Satara में श्रीजिनचन्द्रसूरि द्वारा दीक्षित हुए थे । सं० १८०५ में प्रांगघ्रा प्रतिष्ठा के समय देवचन्द्रजी से बड़े प्रेमपूर्वक मिले उस समय आपकी आयु १० वर्ष से कम नहीं होगी । श्रीसुखानन्दजी की कृतियां अधिक परिमाण में मिलनी अपेक्षित है |
उन्नीसवीं शताब्दी के खरतरगच्छीय विद्वानों में श्रीमद्ज्ञानसारजी बड़े ही अध्यात्मयोगी हुए हैं जिन्हें छोटे आनन्दघनजी कहा जाता है। इनकी चौवीसी, बीसी, बहुत्तरी इत्यादि संख्याबद्ध कृतियां हमारे " ज्ञानसार ग्रन्थावली" में प्रकाशित हैं । श्रीमद् आनन्दघनजी की चौवीसी और बहुत्तरी के कई पदों पर आपने वर्षों तक मनन कर बालावबोध लिखे हैं जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं । आपका जन्म सं० १८०१ दीक्षा सं० १८२१ और स्वर्गवास सं० १८६८
में
हुआ था। आपका दीर्घजीवन त्याग, तपस्या, उच्चकोटि की साहित्य साधना व योग साधनामय था । बड़े-बड़े राजा
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
। १२२ महाराजाओं पर आपका बड़ा प्रभाव था। इनकी जीवनी गिरनार पर राजुल गुफा से दक्षिण की ओर अब भी प्रसिद्ध के सम्बन्ध में हमारी 'ज्ञानसार ग्रन्थावली' द्रष्टव्य है। है एवं जूनागढ़ तलहटी में धर्मशाला से संलग्न दादावाड़ी
उन्नीसवीं शताब्दो में काशी में खरतरगच्छ के में मकसूदाबाद निवासी श्री पूरणचन्दजी गोलछा निर्मापित उपाध्याय श्री चारित्रनन्दी गणि परम गीतार्थ थे। जिनके गुरु इनकी चरण पादुकाएं सं० १६२१ में जूनागढ़ संघ व तोर्थ निधि उपाध्याय के दो शिष्य चिदानन्द जी (कपूरचन्दजी) की पेढी सेठ देवचन्द लखमीचंद ने श्री जिन हंससूरि जी द्वारा और ज्ञानानन्द जो बड़े उच्चकोटि के कवि और आध्यात्मिक प्रतिष्ठित कराई थी। पुरुष हुए हैं। श्री चिदानन्दजी महाराज का स्वरोदय
बोसवीं शताब्दो के खरतरगच्छीय योग साधनारत ग्रन्थ उनकी योगसाधना और तद्विषयक ज्ञान का अच्छा
अध्यात्मी पुरुषों में दूसरे चिदानन्दजी महाराज का नाम परिचायक है, आपकी पुद्गल-गीता, बावनी, बहुत्तरी-पद
विशेष उल्लेखनीय है। आप हाथरस के निकटवर्ती ग्राम और स्तवना दि भी उच्चकोटि की काराकला और अनुभव ज्ञान से ओतप्रोत हैं । कविताओं का सर्जन, सौष्टव, फबते उदाहरण और हृदयग्राही भाव अत्यन्त श्लाघनीय हैं । आप गुजरात-भावनगर आदि में काफी विचरे थे। भावनगर की जैनधर्म प्रसारक सभा द्वारा चिदानन्दजी सर्वसंग्रह दो भागों में आपकी समस्त कृतियाँ प्रकाशित हैं।
श्री चिदानन्दजी के गुरुभ्राता श्री ज्ञानानन्दजी भी उच्चकोटि के अध्यात्म योगी थे। आपके शताधिक पदों का संग्रह ज्ञान विलास और संयमतरंग रूप में साठ वीरचन्द पानाचन्द ने प्रकाशित किया था। श्रीचिदानन्द जी महाराज पहले पावापुरी में गांवमन्दिर के पृष्ठ भाग की कोठरी में ध्यान किया करते थे और पीछे गिरनारजो, पालीताना व सम्मेतशिखरजी में भी रहे। सम्मेतशिखरजी में, गिरनारजी में तथा अन्यत्र भी आपकी ध्यान-गफाएँ प्रमिद्ध हैं। भावनगर के पास आपने छींपा जाति को प्रति- के अग्रवाल वैश्य थे। आपका नाम फकीरचन्द था । बोध देकर जैन बनाया था। तीस वर्ष पूर्व जब भद्रमुनिनी कलकत में गंधक, सोरे की दलाली करते हुए विरक्त महाराज भावनगर पधारे । तब उस जाति वालों ने कहा- होकर सर्वस्वत्यागी बने और अजीमगंज जाकर शास्त्राआप खतरगच्छ के हैं । हम भो खतरगच्छ के श्रोचिदानन्दजी भ्यास पूर्वक अपने को जयपुरस्थ खरतरगच्छोय श्री महाराज द्वारा प्रतिबोधित हैं
शिवजीरामजी महाराज के शिष्य के रूप में उद्घोषित इन चिदानन्द जी और ज्ञानानन्दजी के पश्चात खरतर- किया। तदनन्नर पावापुरी ओर राजगृही में जाकर गच्छीय संवेगी मुनि प्रेमचन्द्रजी का नाम आता है जो साधना की। पहले चिदानन्दजी के ध्यान स्थान में गिरनार पर्वत की गुफाओं में ध्यान करते थे। इनको गुफा जाकर ध्यान करने पर ११वे दिन आपको आत्मानुभूति
स्या
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
। १०)
हुई और गुरुकृपा से चिदानन्द नाम पाया। आपको 'बड़ी दीक्षा श्री सुखसागरजी महाराज ने दी थी। आपको हठयोग साधना की जानकारी बहुत जबरदस्त थी। आपने कई ग्रन्थों की रचना की थी। जिनमें (१) द्रव्यानुभव रत्नाकर (२) अध्यात्म अनुभव योगप्रकाश (३) शुद्धदेव अनुभव विचार (४) स्याद्वादानुभव रत्नाकर (५) आगमसार हिन्दी अनुवाद (६) दयानन्दमत निर्णय (७) जिनाज्ञा विधि प्रकाश (८) आत्मभ्रमोच्छेदन भानु (६) श्रुत अनुभव विचार (१०) कुमत कुलिंगोच्छेदन भास्कर प्राप्त हैं। प्रभाव से संसार से विरक्ति होकर सिद्धभूमि में जाकर आपका स्वर्गवास सं० १९५६ पौष बदि ६ प्रातः १० बजे वृक्षवत् साधना करने की आत्मप्रेरणा हुई। इस काल में जावरा में हुआ था।
ऐसी कठिन साधना असम्भव बता कर समुदाय में साधु खरतरगच्छ के चारित्र सम्पन्न योगसाधकों में श्री मोती- जीवन अमुक काल तक बिताने की आज्ञा पाकर पुनशीभाई चन्द्रजी महाराज का नाम भी उल्लेखनीय है । ये पहले की प्रेरणा से खरतरगच्छीय श्री मोहनलालजी महाराज के लूणकरणसर के यतिजी के शिष्य थे। उत्कृष्ट वैराग्य प्रशिष्य चारित्र-चूड़ामणि गणिवर्य श्रीरत्नमुनिजी ( आचार्य भावना से प्रेरित हो यह साधु बने । इनकी साधना बड़ी श्री जिनरत्नसूरि ) के पास सं० १९८६ कच्छ देश के गांव कठोर थी। शास्त्रोक्त विधि से स्वाध्याय ध्यान के पश्चात् लायजा में दीक्षित हुए। उपाध्याय श्रीलब्धिमुनिजी के तीसरे प्रहर की चिलमिलातो धप में शहर में आकर रूखा पास अल्पकाल में समस्त शास्त्रों का अ सूखा आहार लेते। ये बड़े सरलस्भावी और ध्यानयोगी आप षड्भाषा व्याकरण, काव्य, कोश, छंद, अलंकार आदि थे। हमने भद्रावती की प्राचीन गफाओं में आपके दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान बने। बारह वर्ष पर्यन्त गुरुजनों की किये थे । आपका स्वर्गवास भोपाल में हुआ था। तपस्वी निश्रा में चारित्र को उत्कृष्ट साधना करते हुए विचरे । श्री चारित्रमुनिजो आपके ही शिष्य थे। भद्रावती में सं० २००३ मितो पोष सुदि १४ सोमवार संध्या ६ बजे आपकी प्रतिमा विराजमान कर संघ ने आपके प्रति श्रद्धा अमृत वेला में आपने मोकलसर गुफा में प्रवेश किया। व्यक्त की है। आपकी कोई रचना उपलब्ध नहीं है। वहां ऊपर बाघ की गुफा थी और इस गुफा में भी दो
खरतरगच्छ की आध्यात्मिक परम्परा-भवन के शिखर विषधर साँप रहते थे, जिसमें कठिन साधना की। सं० सदृश वर्तमान के अन्तिम महापुरुष श्री भद्रमुनिजी-सहजा- २००४ की कातिक पूर्णिमा को विहार कर वहां से गढ़नन्दधनजी हुए हैं जिनका अभी-अमी मिती कार्तिक सुदी सिवाणा पधारे। तत्पश्चात् पाली, ईडर आदि स्थानों २ को हम्पी में निर्वाण हुआ है। आपकी साधना अद्भुत, में गुफावास किया। ईडर में तप्त-शिलाओं पर घण्टों अलौकिक और बड़ी ही कठिन थी। आपका जन्म सं० कायोत्सर्ग करते थे । चारभुजा रोड ( आमेट) में चन्द्रभागा १६७० मिती भाद्रपद शुक्ला १० के दिन कच्छ के डुमरा तटवर्ती गुफा में केवल एक पंछिया और एक चद्दर के सिवा गाँव में हुआ था। उनोस वर्ष की अवस्था में बम्बई अन्य वस्त्र के बिना, कड़ाके की ठण्ड में तप करते रहे । प्रतिभातबाजार में आपकों ध्यान-समाधि लग गई जिसके दिन ठाम चौविहार एकाशना तो वर्षों से चलता ही था।
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
। १२४ । वह भी हाथ में अल्प आहार करते थे। नये कर्मबन्ध न हों हेमकूट पर कुछ दिन रहकर सामने को पहाड़ी रत्नकूट को
और उदयाधीन कर्मों को खपाने का अद्भुत प्रयोग आपने गुफा में अधिवास किया। श्रीमद्राजचन्द्र आश्रम की मौन रहते हुए किया। फिर हृषीकेश, उत्तर काशी और स्थाना हुई। मैसूर सरकार और हेमकूट के महन्त पंजाब के स्थानों में निर्विकल्प भाव से विचरते हुए सं० जागीरदार ने समूचा पहाड़ जैन संघ को निशुल्क भेंट २०१० में महातीर्थ समेतशिखरजी पधारे । मधुवन व पहाड़ किया । जहाँ के भयानक वातावरण में दिन में भी लोग पर श्रीचिदानन्दजी महाराज की गुफा में रह कर तपश्चर्या जाने में हिचकिचाते थे, आपके विराजने से दिव्यतीर्थ हो की। वहां से विहार कर वीरप्रभु की निर्वाणभूमि पावा- गया । बहुत से मकान और गुफाओं का निर्माण हुआ। पुरी में पधार कर छः सात मास रहे। दहाणु की लोहाणा विद्युत् और जल की सुविधा तो है हो। श्रीमद्राजचन्द्र वकोल पुरषोत्तम प्रेमजी पौंडा की पुत्री सरला के लिये जन्मशताब्दी के अवसर पर पक्को सड़क का निर्माण हो गया समाधि-शतक रचकर मौन साधना में भी एक घण्टा प्रव. है जिससे मोटरें भी ऊपर जाती हैं। विशाल व्याख्यान चन करके उसे समाधिमरण कराया। आत्मभावमा की हाल, फ्री भोजनालय आदि तो हो ही गये, विशाल अखण्ड धुन प्रचारित कर राजगृहादि यात्रा कर गया होते मन्दिर और दादावाड़ी के निर्माण की भी योजनाएं हैं। हुए गोकाक पधारे । वहां तीन वर्ष अखंड मौन साधना में प्रतिवर्ष लाखों रुपयों का आमद-खर्च है। पर्वृषण में तो गफावास किया। इस समय ठाम चौविहार में केवल दूध उस निर्जन स्थल में चार पाँच सौ व्यक्ति पर्वाराधन करते और केला के सिवा अन्नादि का त्याग था। फिर मध्य रहे हैं। प्रतिदिन प्रातःकाल और मध्यान्ह के प्रवचन में भी प्रदेश में पधार कर तारणपंथ के तीर्थ धाम निसिईजी में बहुत से भावुक लाभ उठाते रहे। आपने तीन वर्ष पूर्व कुछ दिन रह कर आत्मसिद्धि का हिन्दी पद्यानुवाद करके समस्त तीर्थ यात्रा और पचासों स्थानों में भ्रमण करके जो प्रवचन किया। मथुरा, बीकानेर आदि पधार कर सं० व्यक्ति हम्पो नहीं पहुँच सकते थे उन्हें भी अपनी अमृत २०१४ का चातुर्मास प्राचीन तीर्थ खण्डगिरि ( भुवनेश्वर ) वाणी से लाभान्वित किया । आप ध्यान और योग के में बिताया। तीर्थयात्रा करते हुए क्षत्रियकुण्ड पहाड़ पर पारगामी थे। चंचल मन को वश करने, देहाध्यास मिटा तपस्वी साधक श्रीमनमोहनराजजो भणशाली के आग्रह से दो कर आत्मदर्शन प्राप्त करने को शास्त्रीय कुंजियाँ आपके मास रहे। फिर हुषोकेश आदि स्थानों में होकर मध्यप्रदेश हस्तगत थीं। आप की प्रवचन शैलो अद्वितीय थी। पधारे ओर चातुर्मास ऊन में बिताया। फिर बीकानेर पधारे, तत्त्वज्ञान और अध्यात्मवाद जैसे शुष्क विषय की निरूपणजैसलमेर की यात्रा को। शिववाड़ी और उदरामसर के शैली आपकी अजोड़ थी। हजारों श्रोताओं के मनोगत धोरों में रहकर बोरड़ी पधारे ।सं० २०१८ के ज्येष्ट शुक्ला प्रश्नों को बिना प्रश्न किये प्रवचन में समाधान कर देने १५ की रात्रि में सातसो नर-नारियों की उपस्थिति में को अद्भुत प्रतिभा थी। अनेक सद्गत महापुरुषों से आपका दिव्य वस्तुओं के साथ युगप्रधान पद का श्लोक प्रकट हुआ संपर्क था, और दिव्य सुंगधी दिव्य वृष्टि आदि होते रहते । जिसके साक्षी स्वरूप अनेक विशिष्ट व्यक्ति विद्यमान थे। अनेक लब्धि सिद्धियाँ जो युगप्रधान पुरुष में स्वाभाविक तत्पश्चात् क्रमशः पूर्व जन्मों की साधना भूमि हम्पी पधारे प्रगट होतो हैं, विद्यमान रहते हुए भी कभी उस तरफ लक्ष्य जो रामायणकालीन किष्किन्ध्या और मध्यकाल के विजय- नहीं करते। ज्वर, सर्दी आदि व्याधि की कृपा बनी रहती नगर का ध्वंशावशेष है। वहां १४० जैन मन्दिर वाले पर कर्म खपाने के लिये वे उसका स्वागत करते और औष
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
t १५ 1
धादि का प्रयोग न कर उदयगत कर्मों को भोगकर नाश करना ही उनका ध्येय था । ऐसे समय में उनकी ध्यान समाधि और भी उच्चस्तर पर पहुँच जाती । सत्य है। जिसे देहाध्यास नहीं, आत्मा के शास्वत अविनाशोपन का अखण्ड ज्ञान है उसे शरीर की चिन्ता हो भी कैसे सकती है ? तो इस प्रकार की आत्मरमणता और शरीर के प्रति निर्मोहीपन से आप के शरीर को अर्शव्याधि ने जोर मारा और अशक्ति बढ़ती गई। गत पर्युषण पर देह व्याधि का पालन कर श्रोताओं को अपने प्रवचनों का खूब लाभ दिया । २८ कीलो से भी क्रमशः शरीर क्षीण होता गया घटता गया पर सतत आत्मचिन्तन में रहे उन महायोगी ने गत कार्तिक शुक्ल २ की रात्रि में इस नश्वर देह का त्याग कर दिया।
इस
दादा साहब श्री जिनदतसूरिजी आदि गुरुजनों के प्रति आपकी अनन्य भक्ति थी ओर आपका जीवन भी उन्हीं के पथ-प्रदर्शन में उदयाधीन प्रवृत्त था । दादा साहब ने ही आपको "तू तेरा संभाल" ध्येय मंत्र देकर आत्म साक्षात्कार की प्रेरणा दी थी। वर्तमान जैन समाज अपने आत्म दर्शन मार्ग से हजारों योजन दूर चला गया है और शास्त्र-निर्दिष्ट आत्मसिद्धि से वंछित आत्म-रमणता से दूर केवल बाह्य चकाचौंध में भटका हुआ है । वर्तमान प्रवृत्ति में आपकी भाव दया प्रेरित उरकार बुद्धि आत्मदर्शन की प्रेरणा देती रही। आपने हृदय में गच्छों की तो बात ही क्या पर दिगम्बर-श्वेताम्बर भेद-भावों को भी मिटा देने की भावना थी वे स्वयं दिगम्बर अध्यात्मिक ग्रंथों को अध्ययन करते और उन्होंने उन ग्रंथों को भाषा पद्यों में गुफित कर अध्यात्मिक जगत् का महान् उपकार किया है । नियमसार, समाधिशतक आदि कृतियां उसी का परिणाम है । श्रीमद् आनंदघन जी की चौबीसी का आपने १७-१८ स्तवनों तक का मननीय विवेचन लिखा व पदों का भी अर्थ संकलन किया था । आपने प्राकृत व भाषा में दादा साहब के स्तोत्र स्तवनादि रचे चेत्यवन्दन चौबीसी अनुभूति की आवाज, संख्याबढ स्तवन व पदों का निर्माण किया । पचास तीस वर्ष पूर्व आपने प्राकृत व्याकरण को भी रचना की थी जिसे गुफा वास की एकाकी भावना ने अलभ्य कर दिया। इसी
प्रकार "सरल समाधि" की दोनों कापियाँ जिसमें अपनी प्रसिद्धि की संभावना समझ कर तीव्र वैराग्यवश अप्राप्य कर दिया। गुरुवर्य श्री जिनरत्नपुरि जो व विद्यागुरु उपा ध्याय जो धो मुनिजों की स्तवना में संस्कृत व श्री भाषा में कई पद्य रचे । आपको सभी रचनाएं प्रकाशित करने की भावना होते हुए भी हम आपको आज्ञा न होने से प्रकाशित न कर सके। आपके प्रवचनों का यदि सांगोपांग संग्रह किया जाता तो वह मुमुक्षुओं के लिए बड़ा हो उपकारी कार्य होता ।
'
वर्तमान युग में श्रीमद् राजचंद्र सर्वोच्च कोटि के धर्मिष्ठ, साधक और आत्मज्ञानी हुए हैं । दादा साहब की उदार प्रेरणावश आपने उनके ग्रन्थों को आत्मसात् कर अधिकाधिक विवेचन अपने प्रवचनों में किया । उनके प्रति आपकी अटूट श्रद्धा भक्ति थी जिससे आपने श्रीमद् के अनुभव पथ को खूब प्रशस्त किया। श्रीमद् राजचंद्र ग्रंथ में से तत्त्वविज्ञान" नाम से उनको चुनी हुई रथनाओं का संग्रह प्रकाशित करवाया। श्रीमद् देवचंद्रजी की रचनाओं का पुनः संपादन प्रकाशन करने के लिए हमें हस्तलिखित प्रतियों के आधार से "श्रीमद् देवचंद्र " ग्रंथ तैयार करने की प्रेरणा दी। इसी प्रकार श्रीमद् आनंदघन जी को कृतियों (बाबोसो स्तवन और पद बहुतरी) के पाठों को भी प्राचीन प्रतियों के आधार से सुसंपादित संस्करण प्रकाशन करने का सुझाव दिया। हमने आपके आदेशानुसार ये दोनों कार्य यथाशक्ति किये हैं और उन्हें शीघ्र ही प्रकाशन किया जायगा। हमारी भावना थी कि ये दोनों ग्रन्थ आपली के निरीक्षण में प्रकाशित हों पर भवितव्यता को ऐसा स्वीकार नहींथा |
खरतरगच्छ में और भी कई स्थानो वैरागी अध्यात्म प्रिय साधु साध्वी हुए हैं उनमें से प्रवर्तिनी स्वयंधी जी विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । उन्नीसवीं शताब्दी में उ० श्री क्षमा हल्याण जी ने संवेगी मुनियों की परम्परा प्रारम्भ को उनमें श्री सुखसागर जी का समुदाय आज विद्य मान है, बीसवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में यति संप्रदाय में से श्रोमोहनलालजी महाराज और श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरिजी महाराज ने किपोद्वार करके पचासों साधु-साध्वियों को संयमाधन में प्रवृत्त किए उनकी परम्परा भी चल रही है ।
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाध्याय क्षमाकल्याणजी और उनका साधु समुदाय
[ लेखक - अगरचन्द नाहटा ]
भगवान महावीर के शासन की यह एक विशेषता रही है कि मानव प्रकृत्यनुसार साध्वाचार में जब-जब शिथि लता आयी तो उसके परिहार के लिए कई क्रान्तिकारी महापुरुष प्रकट हुए। क्योंकि भ० महावीर ने जैनमुनियों का आचार बड़ा कठिन और निरवद्य रखा था इसलिए उनकी वाणी का जिन्होंने भी ठीक से स्वाध्याय मनन किया उन्हें जैनधर्म का आदर्श सदा यह प्रेरणा देता रहा कि विशुद्ध साध्वाचार पालन करना ही प्रत्येक साधु-साध्वी का कर्तव्य है । यदि उसमें कहीं दोष लगता है तो उसका परिमार्जन किया जाना भी अत्यावश्यक है ।
खरतरगच्छ अपनी विशुद्ध साध्वाचार की परम्परा के लिए प्रसिद्ध रहा है। इसे सुविहित विधिमार्ग इस उपनाम से भी उल्लिखित किया जाता रहा है । समय समय पर जब भी गिथिलाचार पनपा तब खरतरगच्छ के आचार्यों और मुनियों ने क्रियोद्वार द्वारा पुनः शुद्ध साध्वाचार प्रतिष्ठित किया । उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में भी वाचक अमृतधर्मणि ने संवेग भाव से कतिपय साधूचित नियमों को ग्रहण कर आचार-निष्ठा का भव्य उदाहरण उपस्थित किया। ये जिनभक्तिसूरिजी के शिष्य प्रीतिसागर उपाध्याय के शिष्य थे । सं० १८३८ मिती माघसुदि ५ को आपने परिग्रह का सर्वथा त्याग कर दिया था । इन्हीं के शिष्य उपाध्याय क्षमा कल्याणजी हुए जिनकी परम्परा का साधु समुदाय आज भी सुखसागरजी के संघाड़े के नाम से विद्य मान हैं ।
पं० नित्यानंदजी विरचित संस्कृत क्षमाकल्याणचरित के अनुसार क्षमाकल्याणजी का जन्म बीकानेर के समो
पर्वत केसरदेसर गाँव के ओसवंशीय मालू गोत्र में सं० १८०१ में हुआ था । आपका जन्म नाम खुशालचन्द्र था ।
नदी सूची के अनुसार सं० १८१५-१६ में श्रीजिनलाभसूरिजी के पास आपने यति-दीक्षा ग्रहण की। आपके धर्म- प्रतिबोधक और गुरु वाचक अमृतधर्मजी थे । विद्यागुरु उपाध्याय राजसोम और उपाध्याय रामविजय ( रूपचन्द्र ) थे । संवत् १८२६ से ४० तक आप वाचक अमृतधर्मजी, श्रीजिनलाभसूरिजी और श्रीजिनचन्द्रसूरिजी के साथ राजस्थान के अतिरिक्त गुजरात - सौराष्ट्र-कच्छादि में विचरे और तत्रस्थ तीर्थों की यात्रा कर सं० १८४३ में पूर्वदेश की ओर अपने गुरु महाराज के साथ विहार किया । सं० १८४३ का चातुर्मास बालूचर में करके भगवती सूत्रकी वाचना की । पाँचवर्ष तक बंगाल- विहार में विचरण कर आपने कई मंदिर-मूर्तियों पादुकाओं आदि की प्रतिष्ठा की। वहां के श्रावकों की प्रेरणा से हिन्दी-राजस्थानी में कई रचनाएँ भी कीं ।
सं० १८५० का चातुर्मास बीकानेर करके सं० १८५१ का जेसलमेर किया और वहीं माघ सुदिप को आपके गुरु महाराज का स्वर्गवास हो गया । जेसलमेर में आज भी अमृतधर्मशाला उनकी स्मृति में विद्यमान है । सं० १८५५
श्रीजिनचन्द्रसूरिजी ने आपको वाचक पद दिया और दो तीन वर्ष बाद श्रीजिनचन्द्रसूरिजी ने आपको उपाध्याय पद से विभूषित किया । सं० १८५८-५६ में आप उपाध्याय के रूप में सूरिजी के साथ जेसलमेर थे । सं० १८२६ से लेकर १८७३ तक आप निरन्तर साहित्य निर्माण करते रहे । अजीमंगज, महिमापुर, महाजन टोली, पटना, देवीकोट,
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
! १२७ ]
अजमेर, बीकानेर, जोधपुर, मंडोवर में आपने प्रतिष्ठाएं करवायीं । अनेक श्रावक श्राविकाओं ने आपसे व्रत ग्रहण किया। सभी प्रसिद्ध तीर्थों की आपने यात्राएं कीं । सं० १८६६ में गिडिया राजाराम व संघपति तिलोकचंद लूनिया के विशाल संघ के साथ शत्रुञ्जय गिरनार आदि तीर्थों की यात्रा की ।
आपने अनेक सुयोग्य शिष्यादि को विद्याध्ययन करवाया । जिनमें से सुमतिवर्द्धन और उमेदचन्द्र को उल्लेखनीय रचनायें प्राप्त हैं । सं० १८६८ में शारीरिक अस्वस्थता के कारण आप किशनगढ़ से बीकानेर आ गये और अन्तिम समय तक वहीं विराजे । सं० १८७३ पोष बदि १४ मंगलवार को बोकानेर में आपका स्वर्गवास हुआ | आपके अनि संस्कार स्थान पर रेल दादाजी में चरणपादुका एवं
स्तूप प्रतिष्ठित हैं । श्री सीमंधर स्वामीजी के मन्दिर व सुगनजी के उपाश्रय में आपकी मूर्तियाँ स्थापित हैं । आपकी तरुण और वृद्धावस्था के कई चित्र भी उपलब्ध हैं । आपके अक्षर बड़े सुन्दर थे आपके लिखे हुए पत्र का ब्लाक, आपका चित्र, रचनाओं की सूची और विशेष जीवन परिचय श्री पुण्यस्वर्ण ज्ञानपीठ, जयपुर से प्रकाशित आपके प्रश्नोत्तर सार्द्ध शतक के हिन्दी अनुवाद में प्रकाशित कर चुका हूँ । आपकी कई संस्कृत की रचनाएँ व स्तवनादि प्रकाशित हो चुके हैं । कल्याणविजय, विवेकविजय, विद्या. नन्दन, धर्मविशाल आपके शिष्य थे । धर्मानन्दजी के शिष्य राजसागरजी उनके शिष्य ऋद्धिसागरजी के शिष्य सुखसागरजी हुए । क्षमाकल्याणजी अपने समय के बड़े आगमज्ञ और गीतार्थ पुरुष थे
1
श्रीज्ञानता उरलडवतमाहिमदिलाया विस्तहीसाघसाया नंदकेबलपाशानीहरु बिमारीएशो धूमशाहीला सीमेवर करड्यागमायदेश नंमनमान्यारे वीरडी बिरानामदनदेवासवरसाहिबत्र कडक साल सेवाउपवास साहऊताहगावाधधर्मसनेहा हीय कपलपालदे।। प्रकृतितछविदेहाप गा| सोत्रकवचनेचाली । तो दोवडू डुमरीति । सरवनतायामीवशा || डोकीवाखप्रीतित्रिय!!! आदितऊल गिविंद्रमसंवतयस्तर वाणि।। दोवीसै चिनदीनाम | दिनमभित्र्याणि निवर्ध रकरे। धोवीराभाजितरामालवधम्। दिशबाजी
(श्रादमुतितिश्रीर्विज्ञातितीर्ध करातास्तदनाती संपूर्णाति ॥ संद१११मतीवदि० दिनमंयदेव वशाल पित्र॥श्रावको प्रत्तावकन्यादका बाईकमा नावनाईः ॥
॥श्रीः॥ 10:01
॥ श्रीः५
श्री भद् देवचन्द्रजी के हस्ताक्षरों में आनंदवर्द्धन कृत चौवीसी का अन्तिम पत्र (१७७० )
[ अभय जैन ग्रन्थालय,
बीकानेर
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुविहिताग्रणी गणाधीश सुखसागरजी का जीवन परिचय
[ लेखक-अगरचन्द नाहटा ] महापुरुषों का नाम स्मरण ही महामाङ्गल्यप्रद माना ग्रन्थों को रचना की थी। आपके शिष्य धर्मानन्दजी के शिष्य जाता है । जन साधारण के जीवनस्तर को ऊँचा उठाने राजसागरजी से चरित्रनायक ने दीक्षा ग्रहण की थी और में महापुरुषों का जीवनचरित्र जितना उपयोगी होता है, उनके शिष्य ऋद्धिसागरजी के शिष्य के रूप में आप अन्य कोई भी साधन नहीं होता । शास्त्रवाक्य मार्ग दिखाते प्रसिद्ध हैं । हैं और उन आदर्शो के उदाहरण महापुरुष अपनी जीवनी स्वर्गीय मुनिवर्य श्रीसुखसागरजी का जन्म सं० १८७६ द्वारा उपस्थित करते हैं । अत: उनसे अधिक एवं सद्यः में सरस्वती पत्तन ( सरसा ) नामक स्थान में हुआ था । प्रेरणा मिलना स्वाभाविक है। यही कारण है कि प्रत्येक आपके पिताजीका नाम मनसुखलालजी व मातुश्री का नाम आस्तिक व्यक्ति महापुरुषों के नाम स्मरण, भक्ति एवं जेती बाई था। ओसवाल जाति के दूगड़ गोत्र के आप पूजादि द्वारा अपने को कृतकृत्य होने का अनुभव करता है। रत्न थे। आपके यौवनावस्था में प्रवेश से पूर्व ही माता __ जैन धर्म में समय-समय पर अनेक महापुरुष हुए हैं। पिता दोनों का वियोग हो गया । अत: अपनी बहन के जिनमें से कइयों का प्रभाव तो अपने समय तक ही अधिक आग्रह से ये जयपुर में आ गये, व गोलछा माणिकचन्दजी रहा और कइयों के दीर्घकाल तक उनके शिष्य सतंतिद्वारा लक्ष्मीचन्दजी की सहायता से किरियाणे का व्यापार करने लोकोपकार होता रहा है। यहाँ जिन महापुरुषों का परि- लगे। थोड़े समय में ही अपनी व्यवहार कुशलता से आप चय कराया जा रहा है वे द्वितीय प्रकार के हैं। उनकी उनके यहां मुनीम जैसे उत्तरदायित्व पूर्ण पद पर सुशोभित पुण्य परम्परा में आज भी दर्जन से अधिक साघव २०० हा गय । के लगभग साध्वियों का विशाल समुदाय विद्यमान है। बाल्यावरथा से ही आपकी रुचि धर्मध्यान की ओर जो कि स्थान-स्थान पर विहार कर स्वपरोपकार कर रहे विशेष थी। इसी से पिताजी के अनुरोध करने पर भी हैं। इन महापुरुष का शुभ नाम मुनिवर्य सुखसागरजी आपने विवाह करना स्वीकार नहीं किया था व सामायिक, था। श्वे. जैन समाज के सुविहित शिरोमणि जिनेश्वर- पूजा, तपश्चर्यादि में संलग्न रहते थे। सं० १९०६ में जयसूरिजी की संतति खरतरगच्छ के नाम से प्रसिद्ध है । इस पुर में मुनि श्रीराजसागरजी व ऋद्धिसागरजी का चातुर्मास गच्छ में १८वीं शती में जिनभक्तिसूरिजो आचार्य हो चुके हुआ। फलत: आपकी धर्मभावना के सींचन का शभन हैं। उनके शिष्य प्रीतिसागरजी के शिष्य अमृतधर्म के सुयोग प्राप्त हो गया । अपनी चढ़ती भावना से आपने शिष्य क्षमाकल्याणजी १६वीं शती के नामांकित विद्वानो में मुनिश्री से साध-धर्म स्वीकार करने को उत्कंठा प्रकट की। से है। आपने तत्कालीन शिथिलाचार से अपने को ऊंचा उन्होंने भी आपको वैराग्यवान व दीक्षा की उत्कट भावना उठाकर सुविहित मार्ग में नवचेतना का संचार किया था। वाला ज्ञात कर चातुर्मास होने पर भी आपके आग्रह को
जनसाधारण के उपकार के लिये आपने अनेक उपयोगी स्वीकार किया। नियमानुसार अपने निकट सम्बन्धियों से
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
NUG
भद्रेश्वर (कच्छ) तीर्थ की दादाबाड़ी
छोटा दादाजी, दिल्ली
*
श्रीइन्द्रदूगड़ चित्रित, श्रीजिनदत्त पूरिजी के जीवनवृत्त चित्र, कलकत्ता दादाबाड़ी
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवर्तिनीजी श्री वल्लभ श्री जी महाराज
शासन प्रमाविका प्रवर्तिनी श्री विचक्षण श्री जी महाराज
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
। १२६ ] चारित्र धर्म स्वीकार करने की अनुमति प्राप्तकर सांवत्सरिक आपका समुदाय हुआ। क्षमत क्षामणा के मांगलिक पर्व के दिन गुरुजी के पास एक बार आपने स्वप्न में मनोहर वाटिका में बछड़ों आपने दीक्षा ग्रहण की । दीक्षा का महोत्सव उपर्युक्त गोलछा के झुण्डसह गायों को विचरते हुए देखा जिसके फलस्वरूप परिवार ने किया। मुनिवर राजसागरजी ने प्रव्रज्या ग्रहण आपने भविष्य में साध्वी समुदाय का विस्तार होना बताया कराते हुए आपको मुनिश्री ऋद्धिसागरजी का शिष्य घोषित और आपकी यह भविष्यवाणी पूर्णरूपसे सिद्ध हुई । किया।
जैनागमों के निरन्तर अध्ययन से आपके ज्ञान की वृद्धि ___ साध्वाचार को समुचित शिक्षा के अनन्तर मार्गशीर्ष हुई और जन साधारण के सुबोध के लिये आपने जीवाजीव, मास में आपको बड़ी दीक्षा भी हो गयी। अब आप जैन राशिप्रकाश (१९१० में सैलाने से प्रकाशित) भाषा कल्पसिद्धान्त के विशेष अध्ययन में संलग्न हो गये और थोड़े ही सूत्र, १०८ बोल, ६२ मार्गणायंत्र, दशक, शतक, अष्टक समय में जेनागमों में दक्षता प्राप्त कर लो।
एवं कई अन्य बोल-चाल के ग्रन्थों की रचना की। आगमवाचना के समय शास्त्रोक्त साधु जोवन से अपने इस प्रकार सुविहित मार्ग का पुनरुद्धार कर धर्मप्रचार वर्तमान जीवन की तुलना करने पर शिथिलता नजर आई। करते हुए ३६ वर्ष ४ महीने १४ दिन का निर्मल संयम अतः साध्वाचार को खप होने से आपने मुनि पद्मसागरजी पालन कर सं० १९४२ के माघ वदि ४ शनिवार के प्रातः व गुणवन्तसागरजी के साथ गुरुजी से अलग होकर सं० काल फलौदी में अनशन द्वारा आप ध्यानपूर्वक स्वर्ग १९१८ सिरोही में क्रिया-उद्धार कर लिया। तदनन्तर सुवि- सिधारे । हित मार्ग का प्रचार व तप संयम से अपनी आत्मा को . आप बड़े पुण्यशाली महापुरुष थे । यद्यपि आपकी भावित करते हुए सर्वत्र विहार करने लगे। अनुक्रम से विद्यमानता में ५ साधु व १४ साध्वियों का समुदाय ही तीर्थाधिराज शत्रुजय को यात्रा करके आप फलौदी हुआ पर वह क्रमशः वृद्धि को प्राप्त हुआ और थोड़े समय पधारे।
के अनन्तर ही साध्वियों की सं० २०० के लगभग पहुँच इधर साध्वीजी रूपधीजी की शिष्या उद्योतश्रीजी गई है। शिथिलाचार से सम्बन्ध विच्छेद कर सं० १९२२ में फलौदी बीसवीं शती के खरतरगच्छीय विद्वान ग्रन्थकार व आयो । और आपको योग्य सुविहित गुरु जानकर आपसे क्रियापात्र योगिराज चिदानन्दजी ने शिवजीराम से अलग वासक्षेप लेकर आज्ञानुवर्तिनि हो गई। सं० १९२४ में होकर पूज्य सुखसागरजी महाराज से अजमेर में उपस्थापना लक्ष्मी बाई दीक्षित होकर उनको लक्ष्मीश्रीजी के नाम से दोक्षा ग्रहण की थी। इससे उस समय आपके विशुद्ध शिष्या हो गयीं। सं० १९२५ में भगवानदास श्रावक ने चारित्र की ख्याति कितनी अधिक थो, इसका भली भाँति गुरुश्री से दीक्षा ग्रहण की। और भगवानसागरजी के नाम परिचय मिलता है। से वे प्रसिद्ध हो गये। मुनि पद्मसागरजी फलौदी पधारने के ऐसे महापुरुष जैन संघ में अधिकाधिक अवतरित हों पूर्व ही अलग हो चुके थे अतः ३ साधु ओर ३ साध्वी का · यही हार्दिक अभिलाषा है ।
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रभावक प्राचार्यदेव श्री जिनहरिसागरसूरीश्वर
[ले० मुनिश्री कान्तिसागरजी] आचार्य पद की महत्ता आबाल-ब्रह्मचारी प्रवचन-प्रभावक पूज्य श्री जिनहरिसागर जैन शासन में आचार्यों का स्थान ी तीर्थकर भगवान् सूरीश्वरजी महाराज थे। आपका ही पुनीत चरित्र से दूसरे नम्बर पर ही आता है क्योंकि जिस समय भव्या- प्रस्तुत लेख में प्रकाशित किया जाता है। स्माओं को मोक्ष-मार्ग दिखा कर श्रीतीर्थकर भगवान् अज
कुमार हरिसिंह रामर पद को प्राप्त हो जाते हैं, उस समय उनके विरहकाल जोधपुर राज्य के नागोर परगने में प्राकृतिक सौन्दर्य से में द्वादशाङ्गी रूप सम्पूर्ण प्रवचन को और जैन-संघ के हराभरा 'रोहिणा' नाम का एक छोटा सा गांव है। वहां विशिष्ट उत्तरदायित्व को आचार्य देव ही धारण करते हैं। खेती-पशुपालन आदि स्वावलम्बो कर्म वाले और युद्धभूमि अतएव प्रवचन-प्रभावक प्रात:स्मरणीय आचार्य-देवों के में दुश्मनों से लोहा लेनेवाले, क्षत्रियोचित गुणों से स्वतन्त्र पुनीत चरित्रों को जानना प्रत्येक आत्महितैषी का कर्तव्य जीवन वाले, जाट वंशीय झुरिया खानदान के हो जाता है। अत: एक ऐसे ही आचार्यदेव के दिव्य लोगों की जमींदारी है। जमींदारों के प्रधान पुरुषजीवन से परिचय कराया जाता है। जिसकी अतुल-कीति- श्रीहनुमन्तसिंहजी की धर्मपत्नी श्रीमती केसरदेवी किरणों से मारवाड का प्रत्येक प्रदेश आज प्रकाश- की पवित्र कँख से वि० सं० १६४६ के मार्गशीर्ष शुक्ला ७ मान है।
के दिन दिव्य मुहूर्त में हमारे चरित-नायक का जन्म हुआ _ पूर्व सम्बन्ध
था। हरि-सूर्य और सिंह के समान तेजोमय भव्य आकृति श्रीमन्महावीर भगवान के ६७वे पट्टधर श्रीजिनभक्ति और महापुरुषों के प्रधान लक्षणों से युक्त अपने सुकुमार को सूरिजी म० के पट्टशिष्य श्रोप्रीतिसागरजी महाराजने वि० देखकर माता पिता ने आपका गुणानुरूप नाम 'श्रीहरिपिह' की १६वीं-शताब्दी में यति समुदाय में बढ़ते हुए शिथिला- रखा था। चार को और प्रभुपूजा विरोधी ढुंढक मत के प्रचार को
सफल संयोग देखकर वाचनाचार्य श्री अमृतधर्मजी म० और महोपाध्याय अपनी अलौकिक लीलाओं से माता-पितादि परिजनों श्रीक्षमाकल्याण जी महाराज-जो कि आपके शिष्य-पशिष्य को आनन्दित करते हुए कुमार हरिसिंह जब करीब ६-७ थे- के साथ श्री सिद्धाचल तीर्थाधिराज पर क्रियोद्धार किया वर्ष के हुए तब अपने पिता के साथ पूज्य गणाधीश्वर श्री था। महोपाध्याय श्रीक्षमाकल्याणजो म० की शिष्य परम्परा भगवान्सागरजी महाराज-जो कि गृहस्थावस्था में आपके में परमोपकारी सिद्धान्तदधि गणाधीश्वर श्रीसुखसागरजी चाचा लगते थे - के दर्शन के लिये फलोदी (मारवाड़) महाराज हुए। आपका समुदाय खरतर गच्छीय साधुओं में गये। बाल लीला के साथ आपने वंदन करके श्रीगुरुमहाअधिक प्राचीन एवं सुविस्तृत रूपसे वर्तमान है। राज की पापहारिणो चरणधूलि को अपने मस्तक में श्रीसुखसागरजी महाराज की समुदाय के अधिनायक लगाई। श्रीगुरुदेव ने दिव्य-दृष्टि से आप में भावी प्रभाव.
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
| १३१ 1
कता के प्रशस्त चिन्ह पाये । लोक कल्याण की भावना से प्रेरित हो गुरु महाराज ने श्रीहनुमन्तसिंह जी को उपदेश दिया कि तुम्हारे ५ लड़के हैं । उनमें से इस मध्यम कुमार को आप हमें दे दो। क्योंकि यह कुमार बड़ा भारी साधु होगा, और अपने उपदेशों से जैनशासन की महती सेवा करेगा । इसको देने से तुमको भी अपूर्व धर्म-लाभ होगा । गुरुमहाराज की इस पुण्य प्रेरणा से प्रेरित हो वीरहृदयो हनुमन्तसिंहजी ने बड़ी वीरता के साथ अपने प्राण प्यारे पुत्र को धर्म के नाम पर श्रीगुरुमहाराज को भेंट कर दिया । गुरुदेव और कुमार के इस सफल संयोग से 'सोने में सुगन्ध की कहावत चरितार्थ हुई । धन्य गुरु ! घन्य पिता !! धन्य कुमार !!!
साधुता के अङ्कुर
श्री गुरु महाराज ने अपनी वृद्धावस्था के कारण कुमार की विशेष देखभाल और पठन-पाठन का भार अपने सहयोगी महातपस्वी श्री छगनसागरजी महाराज को दिया । पूज्य तपस्त्रीजी के योग्य अनुशासन में महामहिम शालिनी मेधावाले कुमार ने साधु क्रिया के सूत्र थोड़े ही समय में सोख लिये । पूर्व जन्म के पुण्योदय की प्रबलता से आठ वर्ष की बाल्य अवस्था में गुरु महाराज की परम दया से ' के बोज अङ्कुरित हो गये । साधुता साधु श्री हरिसागरजी
कुमार हरिसिंह जब कुछ अधिक साढ़े आठ वर्ष के हुए, तब युवकों का सा जोश, और वृद्धों का सा अनुभव रखते थे । गुरु महाराज ने माता पिता को और स्थानीय ( फलोदी) जैन संघ को अनुमति से आपकी दीक्षा का प्रशस्त मुहुर्त्त १९५७ आषाढ़ कृष्ण ५ के दिन निर्धारित किया । अपने आयुष्य की अवधि निकट आ जाने से श्री गुरु महाराज ने श्री संघ से खमत - खामणा करते हुए अन्तिम आज्ञा दो कि 'हरिसिंह को योग्य अवस्था होने पर इसे मेरा उत्तराधिकारी मानना' संघ के मुखिया महा
तपस्वी श्रीछतनसागरजी म० ने अपने पूज्य गणाधीश्वरजी की इस आज्ञा को शिरोधार्य करके, उनको निश्चिन्त बना दिया । गणि श्रीभगवान्सागरजी महाराज आत्मरमण करते हुए दिव्य लोक को सिधार गये तब संघ में एक दम शोक छा गया । परंतु गुरुदेव के प्रतिनिधि स्वरूप कुमार हरिसिंह के दीक्षा महोत्सव ने शोक को मिटा कर अपूर्व आनन्द को फैला दिया। श्री संघ के सामने बड़े भारी समारोह के साथ पू० त० श्री छगनसागरजी महाराज ने कुमार हरिसिंह को उसी पूर्व निश्चित सुमुहुर्त में भगवती दोक्षा प्रदान कर पूज्य गणाधीश्वर श्री भगवानसागरजी महाराज के शिष्य 'श्री हरिसागरजी' नाम से उद्घाषित किये ।
चरित नायक के गुरु भाई गणाधीश्वर पूज्य श्री भगवानसागरजी महाराज
साहब के शिष्य अध्यात्म योगी चैतन्यसागरजी म० उर्फ चिदानन्दजी महाराज महोपाध्याय श्री सुमतिसागरजी महाराज, मुनि श्री धनसागरजी महाराज, मुनि श्री तेजसागरजी महाराज, श्री त्रैलोक्यसागरजी महाराज और हमारे चरितनायक आचार्य श्री जिनहरिसागरसूरीश्वरजी महाराज हुए ।
आदर्श जीवन
पूज्य श्री बगनसागरजी महाराज की वृद्धावस्था होने से और हमारे चरितनायक की बाल अवस्था होने से सं० १९५७ से १९६५ तक के चातुर्मास लोहावट और फलोदी ( मारवाड़) में ही हुए । इस सानुकूल संयोग में ज्ञान- तप और अवस्था से स्थिविर पद को पाये हुए पूज्य श्री छगनसागरजी महाराज ने आपको संस्कृत व प्राकृत भाषा को पढ़ाने के साथ-साथ प्रकरणों का तत्व ज्ञान और आगमों का मौलिक रहस्य भली प्रकार से समझा दिया। विद्यागुरु को परम दया और आपकी प्रोढ़ प्रज्ञा ने आपके को आदर्श और उन्नत बना दिया ।
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
। १३२ । चरितनायक गणाधीश विकट प्रदेशों में भी प्रायः ये लोग ही सुचारु प्रचार कर श्री भगवान्सागरजी महाराज की अन्तिम आज्ञा- रहे हैं। नुसार हमारे चरितनायक को महातपस्वी श्री छगनसागर चरितनायक और प्रतिष्ठाएँ जी महाराज ने सं० १९६६ द्वि० श्रा० शु० ५ को अपने हमारे चरितनायक की अध्यक्षता में कई प्रभु मन्दिरों ५२ वें उपवास की महातपश्चर्या के पुनीत दिन में जोधपुर, की और गुरु मन्दिरों की पुण्य प्रतिष्ठाएँ हुई हैं । सुजानगढ़ फलोदो, तीवरी, जेतारण, पाली आदि अन्यान्य नगरों के में श्रीपनेचंदजी सिंघी के बनाये श्रीपार्श्वनाथ स्वामी के उपस्थित जैन संघ के सामने महा समारोह के साथ लोहावट मन्दिर की, केलु (जोधपुर) में पंचायती श्रीऋषभदेव स्वामी में गणाधीश पद से अलंकृत किया। आपके गणाधीश पद के मन्दिर की, मोहनवाडी (जयपुर) में सेठ श्रीदुलीचंदजी
थत साधओं में मख्य श्री त्रैलोक्यसागरजी हमीरमलजी गोलेछा द्वारा विराजमान किये श्रीपार्श्वनाथ महाराज आदि, साध्वियों में श्री दीपश्रीजी आदि, श्रावकों स्वामो की, श्रीसागरमलजी सिरहमलजी संचेती के बनाये में लोहावट के श्रीयुत् गेनमलजी कोचर, फलोदी के श्रीयुत् श्रीनवपद पट्ट की, कोटे में दिवान बाहादुर सेठ केसरीसुजानमलजी गोलेछा-स्व० फूलचंदजी गोलेछा, जोधपुर सिंहजी के, और हाथरस (उ० प्र०) में सेठ बिहारीलाल के स्व० कानमलजी पटवा आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। मोहकमचंदजी के बनाये श्रीदादा-गुरु के मन्दिरों की, शान्त दान्त धीर गुण योग्य गणाधीश को पाकर साधु- लोहावट में पंचायती गुरु मन्दिर में गणनायक श्रीसुखसाध्वो-श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध संघ ने अपना अहो- सागरजी महाराज साहब को और ग० श्रीभगवान्सागरजी भाग्य माना।
म० एवं श्रोछगनसागरजी म. के मूर्ति चरणों की प्रतिचरितनायक और समुदाय वृद्धि ठाएं उल्लेखनीय है ।
हमारे चरितनायक गणाधीश्वर श्री हरिसागरजी चरित नायक और उद्यापन महाराज के अनुशासन में करीब सवासो साधु-साध्वियों हमारे चरितनायक की अध्यक्षता में कई धर्मप्रेमी की अभिवृद्धि हुई है। इस समय आपको आज्ञा में करीब श्रीमान् श्रावकों ने अपनी २ तपस्याओं की पूर्णाहूति के दो सौ साधु-साध्वियाँ वर्तमान हैं । साधुओं में कई महात्मा उपलक्ष में बड़े बड़े उद्यापन महोत्सव किये हैं। उनमें आबाल-ब्रह्मचारी, प्रखरवक्ता, महातपस्वी, विद्वान् और फलोदी (मारवाड़) में श्रीरतनलालजी गोलेछा का किया कवि रूप से जैन शासन की सेवा कर रहे हैं। साध्वियों हुआ श्रीनवपदजी का, कोटे में दिवान बहादुर सेठ केसरोके तीन समुदाय ( १-प्रवत्तिनी श्री भावधीजी का, सिंहजी का किया हुआ पोष-दशमी का, जयपुर में सेठ २-प्र० श्री पुण्यश्रीजी का और ३-प्र० श्री सिंहश्रीजी का गोकलचन्दजी पुंगलिया, सेठ हमीरमलजी गोलेछा, सेठ है)। इनमें भी कई आजीवन ब्रह्मचारिणी, विशिष्ट व्याख्यान सागरमलजो सिरहमलजो, सेठ विजयचन्दजी पालेचा, आदि दात्री, महातपस्विनी एवं विदुषी प्रचारिका रूप में जैन के किये हुए ज्ञान पंचमी, नवपदजी और वीसस्थानकजी सिद्धान्तों का प्रचार कर रही हैं । अन्यान्य गच्छीय साधुओं के तीवरी (मारवाड़) में श्रीमती जेठीवाई का किया हुआ के जैसे कच्छ, काठियावाड, गुजरात आदि जैन प्रधान देशों ज्ञान-पंचमी का, और देहलो के लाला केसरचन्दजी बोहरा में आपके साधु-साध्वी प्रचार करते हो हैं परन्तु मारवाड़, के किये हुए ज्ञानपंचमो और नवपद जी के उद्यापन महोत्सव मालवा, मेवाड़, उ. प्र., म. प्र०, आदि अजेन प्रवान विशेष उल्लेखनीय हुए हैं।
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ १३३ । चरित नायक-और संघ के किसी मताभिनिवेशी मेनेजर के हटाया हुआ 'श्रीखरतर हमारे चरितनायक के पवित्र उपदेश से प्रेरित हो कई वसही' नाम का साइन बोर्ड उसी पेढ़ी के जरिये वापिस भव्यात्माओं ने तारणहार तीर्थों की यात्रा के लिये छरी- लगवाया। वही श्रीखरतर गच्छ की बिखरी हुई शक्तिकों पालक बड़े-बड़े संघ निकाले हैं। उनमें श्रीजेसलमेर महा- संगठित करने के लिये श्रीखरतरगच्छ संघ सम्मेलन का वृहद् तीर्थ के लिए फलोदी से पहली वार सेठ सहसमलजी आयोजन करवाया। बीकानेर में श्रीक्षमाकल्याणजी के गोलेछा द्वारा, और दूसरी बार सेठ सुगनमलजी गोलेछा और जयपुर में पंचायती के प्राचीन हस्तलिखित जैनज्ञान की धर्मपत्नी श्रीमती राधाबाई द्वारा, श्रीबारेजा पार्श्व- भण्डार का जीर्णोद्धार करवाया। कई तीर्थो के-मूर्तियों नाथ तीर्थ के लिये मांगरोल से पहली बार सेठ जमनादास के प्राचीन शिलालेखों का, प्रभावक आचार्यों की कई मोरारजी द्वारा और दूसरी बार सेठ मकनजी कानजी प्राचीन पट्टावलियों का, और पुण्य प्रशस्तियों का वृहत् द्वारा, श्रीअंजारा पार्श्वनाथ तीर्थ के लिये वेरावलसे खरतर- संग्रह आपने तैयार किया है। गच्छ पंचायती द्वारा, तालध्वज महातीर्थ के लिये श्रीपा- चरित नायक और साहित्यिक लीताना से आहोर निवासी सेठ चन्दनमल छोगाजी द्वारा,
प्रवृत्ति तीर्थाधिराज श्रीसिद्धाचलजी के लिए अहमदाबाद से सेठ हमारे चरितनायक श्री उववाई सूत्र का सटीक हिन्दी डाह्याभाई द्वारा और देहली से श्री हस्तीनापुर महातीर्थ अनुवाद दादागुरु श्री जिनदत्तसूरिजी महाराज की ऐतिके लिये लाला चांदमलजो घेवरिया की धर्मपत्नी श्रीमती सिक पूजा, महातपस्वी श्री छगनसागर जी महाराज का कपूरीदेवी द्वारा आदि २ छरो-पालते हुए बड़े-बड़े संघ दिव्य जीवनवृत्त, हरि-विलास स्तवनावली के दो भाग, विशेष उल्लेख योग्य हुए हैं।
आदि कई ग्रन्थों का नव सर्जन किया है। लोहावट से चरित नायक और संस्थाएं प्रकाशित होनेवाले श्री सुखसागर ज्ञान बिन्दु जिनकी संख्या
हमारे चरितनायक के अमोघ उपदेश से कई शहरों इस समय ५० है-आपकी साहित्यक भावना का मधुर में शिक्षालय, पुस्तकालय, मित्रमण्डल आदि कई संस्थाए फल है। इन्हीं ज्ञान बिन्दुओं से सुप्रसिद्ध इतिहास लेखक स्थापित हुई हैं ! पालीताना में श्रीजिनदत्तसूरि ब्रह्मचर्याश्रम पं० लालचन्द भगवानदास गाँधी द्वारा लिखित श्रीजिनप्रभजामनगर में श्रीखरतरगच्छ ज्ञानमन्दिर-जैनशाला, लोहावट सूरिजी म० का ऐतिहासिक जीवनचरित्र, जयानन्द-केवली में जैनमित्रमण्डल, श्रीहरिसागर जैनपुस्तकालय, कलकत्ते में चरित्र,भाव प्रकरण, संबोध-सत्तरी आदि महत्वपूर्ण साहित्य श्रीश्वेताम्बर जैन सेवासंघ-विद्यालय, बालुचर ( मुर्शि- ग्रन्थों का प्रकाशन हुआ है। श्री हिन्दी जैनागम-सुमति दाबाद) में श्रीहरिसागर जैन ज्ञानमन्दिर-जैन पाठशाला प्रकाशन कार्यालय कोटा से प्रकाशित होनेवाले-जैनागम आदि विशिष्ट संस्थाएँ समाजसेवा और जैन संस्कृति का साहित्य के लिये आप श्री के सदुपदेश से भागलपुर के रहीस प्रचार कर रही हैं।
रायबहादुर सुखराजजी ने, उनके सुपुत्र बाबू रायकुमार चरित नायक और पुरातत्वरक्षा सिंह जी ने अजोमगंज के राजा विजयसिंह जो की माता
हमारे चरित नायक ने श्रीसिद्धाचल तीर्थाधिराज पर श्री सुगनकुमारीजी ने-और कई श्रीमानों ने काफी 'खरतर वसही' के प्राचीन इतिहास की सुरक्षा के निमित्त सहायता पहुँचाई है। आपकी अमूल्य-साहित्यक सम्मति प्रवण्ड आन्दोलन करके श्रीआनन्दजी कल्याणजी की पेढ़ी का स्व. बाबू पूराण वन्दजी नाहर M. A. B.L.
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
बिहार पुरातत्व विभाग के प्रमुख प्रोफेसर जी० सी० चन्द्रा शीर्ष शुद १४ को विजय मुहुर्त में 'श्रीजिनहरिसागरसूरीसाहब, राय बहादुर वृजमोहन जी व्यास आदि जैन अजैन श्वर जी महाराज की जय' ध्वनि के साथ अभिनन्दन पूर्वक विद्वान बहुत आदर करते रहे हैं ।
आचार्य पद से आपको सम्मानित किया। चरित्र नायक का विहार
उपसंहार हमारे चरित नायक ने अपने ३७ वर्ष के लम्बे दोक्षा
पूज्यपाद प्रातःस्मरणीय जैनाचार्य श्रीजिनहरिसागर पर्याय में संयम को साधना, तीर्थो की स्पर्शना और लोक- सूरीश्वरजी महाराज का यह संक्षिप्त चरित्र है। हमारे कल्याण की विशिष्ट भावना से प्रेरित हो काठियावाड़, चरितनायक आचार्यदेव श्री और आपकी आज्ञा को मानने गुजरात, राजपूताना-मारवाड़, मेवाड़, मालवा, यू० पी० वाले लगभग २०० साधु-साध्वियां हैं। एवं आचार्य श्री पंजाब, बिहार, बंगाल आदि प्रदेशों में विहार करके कर्म के शिष्य म० गणाधीश मुनि श्री हेमेन्द्र सागर जी म० वाद, अनेकान्तवाद, अहिंसावाद आदि मुख्य जैन सिद्धान्तों मुनि श्री दर्शनसागरजी म०, मु० श्री तीर्थ सागरजी म०, का प्रचार किया है। आपके हृदयंगम उपदेशों से प्रभावित एवं मुनि श्री कल्याणसागरजी महाराज आदि मुनि महोदय होकर कई बंगाली भाइयों ने आजीवन मत्स्य-मांस और जैन संघ की अभिवृद्धि करते हए अपने आदर्श जीवन के मदिरा का त्याग करके जीवन को आदर्श बनाया है । आप प्रकाश से भव्यात्माओं को प्रकाशित करें। ने तोर्थाधिराज श्री सिद्धाचल-तालध्वज-गिरनार-प्रभास हमारे चरितनायक दो वर्ष तक जेसलमेर में विराजे और पाटन-पोर्तुगीज साम्राज्य के दोवतीर्थ-शंखेश्वर-तारंगा अह- वहाँ प्राचीन भण्डार का निरीक्षण किया। इतना ही नहीं मदाबाद-पाटण-पालनपुर-आबू-देलवाड़ा-राणकपुर-जेसलमेर. पर ५ पंडित और ५ लहिये (लेखक) रखकर गुरुदेव श्री ने लोद्रवा,नाकोड़ा-करेड़ा पार्श्वनाथ-केशरियानाथ-अजमेर-जय- प्राचीन अलभ्य ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ कराई, संशोधनात्मक पुर-देहली-हस्तिनापुर-सौरिपुर-कम्पिलपुर-रत्नपुरी-अयोध्या- कार्यों में विशेष श्रम करने से गुरुदेव का स्वास्थ्य बिगड़ता कानपुर-लखनऊ-बनारस-सिंहपुरी-चन्द्रपुरो-पटना-चम्पापुरी- गया। जेसलमेर से गुरुदेव ने विहार किया, रास्ते में विशेष श्रीसमेतशिखरजी - कलकत्ता - मुर्शिदाबाद-भद्दिलपुर आदि तबीयत बिगड़ने से आचार्य श्री ने फरमाया-मैं अपना अन्तिम तारणहार तीर्थों की यात्राएं की हैं।
समय किसी तीर्थ पर व्यतीत करना चाहता हूँ अतः आप चरितनायक का आचार्य पद श्री फलौदी पार्श्वनाथ मेड़तारोड़ पधारे, स्वास्थ्य प्रतिदिन
हमारे चरितनायक को १६६३ में म० त० श्री छगन- गिरता ही गया, आहार लेना भी बन्द किया और अहम् सागरजी महाराज ने और जोधपुर आदि शहरों के प्रमुख अर्हम ध्वनि लगाते रहे। दो दिन-रात निरन्तर ध्वनि करते जैन संघ ने लोहावट में गणाधीश्वर पूज्य श्री सुखसागरजी रहे, अन्त में जबान बन्द हो गई तब बीकानेर, जोधपुर महाराज के समुदाय के गणाधीश पद से सुचारू रूप से विभू- आदि से बड़े २ वैद्य, डाक्टर आये किन्तु गुरुदेव श्री ने अपना षित किया था। फिर भी अजीमगंज (मुर्शिदाबाद) के राज आयुष्य सन्निकट जानकर 'अपाणं वोसिरामि' कर दिया। मान्य धर्मप्रेमी जैन संघ ने कलकत्ता, देहली, लखनऊ, संवत् २००६ पोषवदि ८ मङ्गलवार प्रातःकाल सूर्योदय फलोदी आदि नगरों के प्रमुख व्यक्तियों के विशाल जन- के पश्चात् आप श्री सर्व चतुर्विध संघ को विलखता हुआ समूह के बीच महा समारोह के साथ वि०सं० १९६२ मार्ग- छोड़कर स्वर्ग पधार गये ।
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
शासनप्रभावक आचार्य श्रीजिनानंदसागरसूरि
[ले०-- मुनि महोदयसागर]
इस संसार की सपाटी पर अनेकों जन्मे और अनेकों केशरदेवी की रत्नकुक्षी से आपका जन्म हुआ। आपका मर गये, किन्तु अमर कौन है ? जो व्यक्ति धर्म, राष्ट्र नाम यादवसिंहजी रखा गया। एवं समाज के हित के लिये शहीद हो गये, वे मर कर भी सैलाना में मुसद्दी कोठारो खानदान, सर्वश्रेष्ठ, धर्मआज संसार में अमर हैं ।
शील, सुसंस्कार युक्त एवं राजखानदान में भी सम्माननीय जिन्होंने अपना पूरा जीवन जगत को भलाई में माना जाता है। आपकी तेजस्वी मुख मुद्रा, व सुन्दर बिताया, सेवा करते समर्पित हो गये, वे देह रूप से भले लक्षण युक्त शरीर, भावि में होनहार की निशानी थी। विद्यमान न हों किन्तु कार्य से वे सदा के लिये अमर हैं। व्यवहारिक शिक्षा आपश्री ने बाल्य अवस्था में प्राप्त
पृथ्वी को 'बहुरत्ना' का पद दिया गया है। इस करली थी। पृथ्वी पर अनेक संत, महंत, पीर पैगम्बर हो गये सभी स्व० प्रवत्तिनीजी श्री ज्ञानश्रीजी का चातुर्मास ने जगत को शान्ति का मार्ग दिखाया, परस्पर मैत्री भाव सैलाना में हुआ। बचपन से ही आप में धार्मिक सुसंस्कार का उपदेश दिया। संसार भो ऐसे ही महापुरुषों की के कारण आप साध्वीजी के प्रवचन में जाया करते थे, अर्चना करता है। उन्हीं महापुरुषों के गुणों को याद समय समय पर आप उनसे धार्मिक चर्चा, शंका-समाधान कर, उनके पथ के अनुगामी बनकर जगत उनके उपकारों किया करते थे। चातुर्मास समय में आपने सत्संग का को कभी नहीं भूलता। उन्हीं महानुभावों की तो जयं- अच्छा लाभ लिया। उसके फलस्वरूप त्यागमय जीवन पर तियां मनाई जाती है। सभी धर्म व सभी सम्प्रदायों आपका अच्छा आकर्षण रहा। में महापुरुष उत्पन्न हुये हैं। सदा से कड़ी से कड़ी जुड़तो विक्रम सं० १९६८ वैशाख शुदी १२ बुधवार के शुभ आई है, ज्योत से ज्योत जलती आ रही है ।
दिन रतलाम नगर में चारित्र-रत्न, पूज्यपाद, गणाधीश्वर उन्हीं महापुरुषों में से है-हमारे परमपूज्य, परम जो श्रीमद् त्रैलोक्यसागर जी म. सा. के करकमलों से उपकारी, परम-आदरणीय, प्रखर-वक्ता, आगम - ज्ञाता, २२ वर्ष की युवावस्था में आपने संयम स्वीकार किया। शासन-प्रभावक आचार्यदेव श्री १००८ वीरपुत्र श्रीजिन शासनरागी, दीवान-बहादुर, सेठ केशरीसिंहजी सा. आनन्दसागरसूरीश्वरजी म. सा० हैं। आपकी संक्षिप्त बाफना ने दीक्षा महोत्सव धाम धूम से किया। जीवनी लिखकर मैं अपने को कृतार्थ समझता हूं।
विनयादि श्रेष्ठ गुण, गुरुभक्ति, एक निष्ठ सेवा, आदि भारत भूमि के मालवा प्रांत में सैलाना नगर में गुणों से तथा जन्म से तीन स्मरणशक्ति वाले होने के विक्रम सं० १९४६ आषाढ़ शुक्ल १२ सोमवार कोठारी कारण कुछ ही समय में आपने शास्त्रों की गहन शिक्षा खानदान में श्रेष्ठिवर्य श्री तेजकरण जो सा० की भार्या प्राप्त कर ली। अंग्रेजी भाषा के साथ हिन्दो पर भी
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
। १६ । आपका वर्चस्व अच्छा था। आपने हिन्दी भाषा में हिन्दी भाषा के आप प्रखर हिमायती थे। छापकी गद्य व पद्य की रचना की। प्राकृत भाषा के कई आगमों व्याख्यान शैली बड़ी विद्वता पूर्ण व रोचक थी। साधु का भाषांतर हिन्दी में किया। कई स्वतंत्र ग्रन्थों की साध्वी वर्ग को अभ्यास कराना उसे प्रवचन ( भाषण ) हिन्दी भाषा में रचना की।
शैली सिखाना आपश्री का खास लक्ष था। __ आपश्री ने राजावाटी, तोरावाटी, शेखावाटी, गोड- प्रतनी श्रीवल्लभश्रीजी, प्र० श्रीप्रमोदश्रीजी, प्र० वाड, झोरामगरा, मालवा, राजस्थान, गुजरात, सौराष्ट्र श्रीविचक्षणश्रीजी आदि साध्वी वर्ग को आपने ही अभ्यास कच्छ, खानदेश आदि भारत के विभिन्न प्रांतों में विचरकर कराया व भाषण शैली सिखायी। समुदाय पर आपका जैनधर्म का प्रचार किया।
भारी उपकार है। आप द्रव्यानुयोग के अच्छे व्याख्याता ___सं० १९८६ में कच्छ प्रान्त के अंजार नगर में देश के थे। कई जिज्ञासु व्यक्ति आपसे तत्वचर्चा कर ज्ञानको प्यास स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी महात्मा गांधी से मुलाकात बुझाने आते थे। तत्वचर्चा के रसिकों के लिये “आगमहुई । “खादी और जैन साधु" इस विषय पर काफो सार" नामक विवेचनात्मक ग्रंथ की रचना की । आपश्री ने महत्वपूर्ण चर्चा हुई। आपके सुधारकवादी विचारधारा से अपने जीवन काल में करीबन ४६ पुस्तकों का प्रकाशन महात्मा जी प्रभावित हुए।
किया। प्रचुर मात्रा में आपने साहित्य की सेवा की, खूब आपश्री के गुरुवर्य, चरितरत्न, गणाधीश्वरजो श्रीमद् ज्ञान दान दिया। जगह-जगह ज्ञान की प्याऊ खोली। त्रैलोक्यसागरजी म. सा. सं० १९७४ राजस्थान के पूज्य स्व० आचार्य श्री ने अपने जन्म स्थान सैलाना लोहावट नगर में श्रावण शुक्ला १५ के दिन स्वर्ग सिधाये। नगर (जि. रतलाम में) ज्ञानमंदिर की स्थापना की। वहाँ उसके पश्चात् प० पू० प्रातः स्मरणीय, शान्त-स्वभावी, के राजा साहब आपके गृहस्थी जीवन के मित्र व सहपाठी आचार्यदेव श्री १००८ श्रीजिनहरिसागरसूरीश्वरजी म० थे। राजा साहब के आग्रह से आपने सैलाना में श्रीआनंदसा० समुदाय के संचालक बने। आपश्री सरल स्वभाव ज्ञानमंदिर की स्थापना की। ज्ञानमन्दिर का शिला के चारित्र-सम्पन्न, आचार्य थे। आप पूज्यपाद श्री ने स्थापन, सेठ बुद्धिसिंहजी बाफना के कर कमलों से सम्पन्न काफी समय तक समुदाय का संचालन किया । सं० २००६ हा, एवं ज्ञानमंदिर का उद्घाटन सेलोना-नरेश के करमें श्री फलोदी पार्श्वनाथ तीर्थ ( मेडतारोड ) में स्वर्ग कमलों से सम्पन्न हुआ। श्रीआनंद ज्ञानमंदिर आपके सिधाये । तत्पश्चात् सं० २००६ माघशुदी ५ को प्रतापगढ़ जीवनकी जीती जागती अमर ज्योति है। (राजस्थान) में भारतवर्ष के समस्त खरतरगच्छ श्रीसंघ ने आचार्य पद पर विभूषित होने के पश्चात् वि० सं० भारी समारोह पूर्वक आपश्री को आचार्य पद पर विभूषित २००७ का चातुर्मास, करने आप कोटा पधारे। सेठ किया। जबसे समुदाय संचालन को सारा उत्तरदायित्व साहब क कई समय से आग्रह था, अतः आप कोटा आपके ऊपर आ गया।
पधारे। कोटा के चातुर्मास को ऐतिहासिक चातुर्मास आपश्री ने कई जगह विद्याशाला, पाठशाला, पुस्त- माना जा सकता है। आप चातुर्मास विराजे वहां उसी कालय आदि को स्थापना करवाई। आप नवयुग के काटा नगर में दिगंबर आचार्य पू० श्री सूर्यसागरजी म. निर्माता थे, उस समय जनता में पढ़ने-लिखने का अधिक व स्थानकवासी सम्प्रदाय के आचार्य श्रोचौथमलजी म. प्रचार नहीं था, जिसमें कन्याशिक्षा प्राय: शून्य-सी थी। भी वहीं चातुर्मास रहे। तीनों महारथयों ने एकही पाद
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
मदागतानंत प्रथमासा सामसीहा
23
श्री जिनेश्वरसूरि (द्वितीय )
युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि और सम्राट अकबर
उपाध्याय श्री क्षमाकल्याणजी महाराज
श्रीगणप
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरि छतरी, महरौली
मणिधारी दादाजी महरौली
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ १३७ ]
पर से वीतराग की वाणी सुनाई। प्रतिदिन व्याख्यान की पड़ा। अन्त में आज्ञा मिली और जीर्णोद्धार का पूरा झडियां बरसने लगी। तीनों महापुरुष भिन्न-भिन्न मान्यता लाभ बम्बई निवासी गुरुदेव भक्त, दानवीर सेठ पुनमचन्दजी वाले होने पर भी एक जगह पर साथ-साथ प्रवचन देते। गलाबचन्दजी गोलेछा ने लिया। जीर्णोद्धार होने के बाद मधुर मिलन से जनता को ऐक्यता का अच्छी प्रेरणा उनकी पुनः प्रतिष्ठा के लिये एवं श्रीजिनदत्तसूरि सेवा संघ मिली।
के द्वितीय अधिवेशन के आयोजन पर पधारने के लिये संघ गच्छ में साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविकाओं का मजबूत के प्रमुख श्रावक वर्ग, पूज्यश्रीको सेवा में सैलाना संगठन एवं योजनाबद्ध प्रचार व विकास के लिये आपश्रीने पहुँचा। श्री संघ की आग्रहपूर्वक की हुई विनति से समस्त श्रीसंघ से परामर्श कर सं० २०११ में अजमेर में लाभ का कारण जानकर आप श्री ने पालीताना की ओर प० पू० युगप्रधान दादा साहब श्रीजिनदत्तसूरिजी म. सा. विहार किया। गच्छ व समुदाय के पू० मुनिवर्ग व की अष्टम शताब्दी समारोह के अवसर पर आप श्री की साध्वीजी गण भी पालीताना पधार गये। सेठ आनन्दजी प्रेरणा व शासनरागी श्रीप्रतापमलजी सा० सेठिया के कल्याणजी की पेढी की ओर से पूज्य आचार्यश्री के भव्य परिश्रम से "अखिल भारतीय श्री जिनदत्तसूरि सेवा-संघ” प्रवेश महोत्सव का आयोजन किया गया । की स्थापना हुई । गच्छ को मानने वाले श्रावक-गण पूरे सं० २०२६ वैशाख शुक्ला ६ को सिद्धाचलजी तीर्थ भारत के कोने-कोने में फैले हुए हैं। अतः एक ऐसी संग- पर नव-निर्मित देहरियों में पू० दादा-गुरुदेवों के प्राचीन ठनात्मक संस्था हो, जो सारे देश में गच्छ के मन्दिर, चरणों की प्रतिष्ठा आप पूज्य श्री के कर कमलों द्वारा दादावाड़ी, ज्ञानभंडार, शिलालेख आदि की देख भाल व सम्पन्न हुई। चातुर्मास का समय निकट आया। श्री संघ उच्च व्यवस्था कर सके, इस वस्तु को सामने रखकर श्री के आग्रह से आप मुनि-मंडल सहित वहीं चातुर्मास जिनदत्तसूरि सेवा संघ की स्थापना हुई।
विराजे । पू० उपाध्यायजी, बहुश्रुत श्री कवीन्द्रसागरजी ___ आप श्री ने कई जगह पर दीक्षाएँ, प्रतिष्ठाएँ, अंजन- म. सा. (बाद में आचार्य) पू० श्रीहेमेन्द्रसागरजी म.. शलाका, उपधान, छःरी पालते संघ निकलवाये जिसमें सा० (वर्तमान गणाधीशजी) पू० आर्यपुत्र श्री उदयप्रमुख :- फलोदी से जैसलमेर, इन्दौर से मांडवगढ़, मांडवी सागरजी म. सा. पू० श्री कान्तिसागरजी म. सा. से भद्रे श्वरजीतीर्थ, मांडवी से सुथरी तीर्थ आदि। आदि १४ मुनिराज, एवं कुल मिला कर २६ मुनिराजों
शाश्वता तीर्थाधिराज श्री सिद्धाचलजी तीर्थ पर दादा व ६२ साध्वीजीगण का संयुक्त चातुर्मास पालीताना में साहब की टोंक में, युगप्रधान पू० दादा गुरुदेव श्री जिन- हुआ। दत्तसूरिजी म. व श्री जिनकुशलमूरिजी म. सा. के चरण चातुर्मास काल में साधु-साध्वियों का पठन-पाठन, जिनको प्रतिष्ठा मुगल सम्राट अकबर-प्रतिबोधक, युग- भाषण देने की शिक्षा आपश्रीने प्रारम्भ की। चातुर्मास में प्रधान, जिनचन्द्रसूरीश्वरजी म. सा. के कर कमलों से वर्षा की झड़ियों के साथ-साथ तपस्या की भी झडिये सेकड़ों वर्ष पूर्व हुई थी, वह छत्री प्रायः जीर्ण अवस्था में लगनी प्रारम्भ हुई । आपश्री की निश्रामें १० मासक्षमण पहुँचने का कारण उनके जीर्णोद्धार के लिये तीर्थ को वहो- हुए। तपस्वियों का भव्यजुलूस, अट्ठाई महोत्सव, शान्तिवट कर्ता, सेठ आनन्दजी कल्याणजी की पेढी से आज्ञा प्राप्त स्नात्र, स्वामी-वात्सल्य का आयोजन हुआ। विजयादशमी करने में श्री जिनदत्तसूरि सेवा संघ को भारी पुरुषार्थ करना से श्री संघ की ओर से स्थानीय नजरबाग में उपधान तर
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
। १३८ ।
की आराधना प्रारम्भ हुई। शानदार ढंग से चातुर्मास का प्लॉट में आपका अग्निदाह हुआ। उन भूमि का भी महान् समय पूरा हुआ।
सौभाग्य समझे कि मकान बनने के पूर्व महापुरुष को प्रतिवर्ष पालीताना में यात्रा के लिये पधारने वाले स्थापित किया। साध-साध्वी व श्रावक-श्राविकाओं को धर्मशाला में ठहरने कंकुबाई की धर्मशाला में पूज्यवरश्रीजी के आत्म का स्थान नहीं मिलता था, और मिलता भी था तो उसमें श्रेयार्थ अट्ठाई महोत्सव व शान्तिस्नात्र का भव्य आयोजन कई झंझटें आती थी। इस संकट को सदा के लिये दूर किया गया । करने की योजना पूज्यवर आपश्री एवं पू० उपाध्यायजी पू० स्व० आचार्यश्री अब हमारे बीच में नहीं रहे किन्तु म० सा० श्रीकवीन्द्रसागरजी म. सा० (बादमें आचार्य) ने आप पूज्यवरश्री का आदर्श जीवन आपकी हित शिक्षायें बनाई। जयपुर संघ के प्रमुख श्रावक श्रेरिठवर्य श्रीहमीर- हमारे सामने हैं। हम उनका पालन करते हुए आपश्री मलजी सा० गोलेच्छा व श्री सिरेमलजी सा० संचेती आदि के चरणों में हमारी नम्रव हार्दिक श्रद्धाञ्जलि समर्पित से परामर्श कर धर्मशाला बनाने के लिये "श्रीजिनहरि करते हैं। विहार" के नाम पर प्लॉट खरीदा गया।
आपके आत्मा की महान पूण्याई थी कि योवन अबचातुर्मास का समय संपूर्ण हो चुका था, सभी बिहार स्था में चारित्र लेकर वीतराग के शासन व गच्छ को की तैयारियाँ में लगे थे। पू० उपाध्यायजी म. सा० ने दीपाया। आपने शासन पर किये महान् उपकार, श्रीसंघ पालनपुर की ओर प्रस्थान किया। आप पूज्यवर भी कदापि नहीं भल सकता। बड़ोदा की ओर प्रस्थान करने वाले थे किन्तु भावी होन
वर्तमान में आपके मुनि व साध्वीगण, पू० गणाधीश्वर हार होकर ही रहता है। एकाएक आपश्री को हार्ट एटेक
श्री हेमेन्द्रसागरजी म. सा. की आज्ञामें महाकौशल, सा हुआ, कि सो प्रकार की बिना बिमारी के समाधिस्थ हुये। मांध्रप्रदेश, तामिलनाडु, वर्नाटक, बंगाल, राजस्थान, गुजआपके अचानक स्वर्गवास से सारे संघ में शोक छागया। रात. सौराष्ट महाराष्ट्र आदि प्रदेशों में विचर कर शासन आकाशवाणी द्वारा सर्वत्र समाचार प्रसारित किये गये। का प्रचार करते हैं। आपश्री के अन्तिम संस्कार का पूरा लाभ बड़ौदा निवासी, जो च्छे हैं, और सभी के भलाई की चिंता करते हैं सेठ शान्तिलाल हेमराज पारख ने लिया ।
वे सदा के लिये जनता के हृदय पटल पर अजर हैं ! भवितव्यता की खास बात तो यह थी की आपकी अमर हैं ! निश्रामें पूर्वाचार्य के नाम पर खरिदे हए प्लाट में पक्की पूज्य गरुदेव की पवित्र आत्मा को शत-शत प्रणाम लिखापढी होने के बाद एकही माह के भीतर उसी ही
ॐ शान्ति
-TOR
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्य श्रीजिनकवीन्द्रसागरसरि [ ले०-साध्वीजी श्री सज्जनश्रीजी 'विशारद']
इस अनादिकालीन चतुर्गत्यात्मक संसार कानन में विचार किया कि हमारा यह बालक जीवित रहा तो इसे अनन्त प्राणी स्व स्व कर्मानुसार विचित्र-विचित्र शरीरधारण शासन सेवार्थ समर्पित कर देंगे। 'होनहार बिरवान के करके कर्म विपाक को शुभाशुभ रूप से भोगते हुए भ्रमण करते होत चीकने पात' के अनुसार यह बालक शैशवावस्था से रहते हैं। उनमें से कोई आत्मा किसी महान् पुण्योदय ही तेजस्वी और तीब्र बुद्धि का था। से मानव शरीर पाकर सद्गुरु संयोग से स्वरूप का भान जब हमारे यह दिव्य पुरुष केवल १० वर्ष के हो थे करके प्रकृति की ओर गमन करते हैं । जन्म और जरामरण तभी पिता की छत्र-छाया उठ गई और यह प्रसंग इस से छूट कर वास्तविक मुक्ति प्राप्त करने के लिये तप संयम बालक के लिये वैराग्योद्भव का कारण बना। की साधना पूर्वक स्व पर कल्याण साधते हैं। ऐसे ही
शोक-ग्रस्त माता पुत्र अपनो अनाथ दशा से अत्यन्त प्राणियों में से स्वर्गीय आचार्यदेव थे, जिन्होंने बाल्यावस्था ःखी हो गये। 'ख' में भगवान याद आता है यह से आत्मविकास के पथ पर चल पर मानव जीवन को
कहावत सही है। कुछ दिन तो शोकाभिभूत हो व्यतीत कृतार्थ किया।
किये। बालक धनपत ने कहा, माँ मैं दोक्षा लूंगा। वंशा-परिचय व जन्म
मुझे किसी अच्छे गुरुजी को सौंप दें। आपश्री के पूर्वज सोनीगरा चौहान क्षत्रिय थे और वीर प्रसविनी मरुभूमि के धन्नाणो ग्राम में निवास करते
माता ने विचार किया, अब एक बार बड़ी बहिन थे। वि० सं० ६०५ में श्री देवानन्दमूरि से प्रतिबोध के दर्शन करने चलना चाहिये। माताजी को बड़ी बहिन, पाकर जैन ओसवाल बो और अहिंसा धर्म धारण किया ।
जिनका नाम जीवीबाई था, स्वनामधन्या प्रसिद्ध विदुषी पूर्व पुरुष जगाजी शाह 'रानो' आकर रहने लो। रानो आरिल श्रीमती पुण्यत्रो जी म. सा. के पास दीक्षा से पाहण और फिर व्यापारार्थ इन्हीं के वंशज श्रीमलजो
लेकर साध्वी बन गई थी। उनका नाम श्रीमती दयाश्री सं० १६१६ में लालपुरा चले गये थे। वहाँ भी स्थिति जी म० था। वे इस समय श्रीमतो रत्नश्रीजी म. सा. ठोक न होने से इनके वंशज शेषमल जो पालमपुर आये के साय मारवाड़ में विचरती थी, वहीं माता पुत्र दर्शनार्थ और वहीं निवास कर लिया। इसो वंश में बेचरभाई जा पहुंचे। के सुपुत्र श्री निहालचन्द्र शाह को धर्मरको श्रीमती बनू श्रीमतो रत्नश्रीजी म. सा० ने इस बुद्धिमान तेजयो बाई की रलक्षि से वि० सं. १९६४ को चैत्र शुका बालक को भावना को वैराग्यमय आख्यानों से परिसुष्ट १३ को शुभ सन सूवित एक दिव्य बाल ने अबतार किया और गणाधीशर श्रीमान हरिसागरजी म. सा. लिया। Hि-पाता के इसके पूर्व कई बाल बाल्पा- के पास वार्मिक पिता-दोसा लेने को कोटे भेज दिया। वथा में ही काल काठिा हो चुके थे। अतः उन्होंने वहीं रह कर शिता प्रात करने लगे। थोड़े दिनों में हो
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ १४० ] इन्होंने जीवविचार, नवतत्त्व आदि प्रकरण एवं प्रतिक्रमण, गुरुवर्य महोदय की सहायता की। स्तवन, सज्झाय आदि सीख लिये।
आप ही के अदम्य साहस और प्रेरणा से वि० सं० गणाधीश महोदय कोटा से जयपुर पधारे। वहीं २००६ में मेड़ता रोड फलोधी पार्श्वनाथ विद्यालय की वि० सं० १६७६ के फाल्गुन मास की कृष्ण पंचमी को स्थापना हुई। उसो वर्ष गुरुदेव ने मेडता रोड में उपधान १२ वर्ष के किशोर बालक धनपतशाह ने शुभ मुहूर्त में मालारोहण के अवसर पर मार्गशीर्ष शुक्ला १० के दिन बड़ी धूमधाम से ४ अन्य वैरागियों के साथ दीक्षा धारण आपको उपाध्याय पद से विभूषित किया। आपके गुरुदेव की। इनका नाम 'कवीन्द्रसागर' रखा गया और गणा- का पक्षाघात से उसी वर्ष पोष कृष्णा अष्टमी को स्वर्गवास धीश महोदय के शिष्य बने ।
हो जाने पर उपस्थित श्रीसंघ ने आप श्री को आचार्यपद अध्ययन
पर विराजमान होने की प्रार्थना की, किन्तु आपश्री ने ___ अपने योग्य गुरुदेव को छत्रछाया में निवास करके फरमाया हमारे समुदाय में पराम्परा से बड़े ही इस पद व्याकरण, न्याय, काव्य, कोश, छन्द, अलंकार आदि शास्त्र को अलंकृत करते हैं । अत: यह पद वीरपुत्र श्रीमान आनन्दपढ़े एवं संस्कृत प्राकृत गुर्जर आदि भाषाओं का सम्यग सागरजी महाराज सा० सुशोभित करेंगे। मुझे जो गुरुदेव ज्ञान प्राप्त किया व जैन शास्त्रों का भी गम्भीर अध्ययन बना गये हैं, वही रहूँगा । कितनो विनम्रता और निःस्पृहता ! किया। 'यथानाम तथागुणः' के अनुरूप आप सोलह
योग-साधन वर्ष की आयु से ही काव्य प्रणयन करने लग गये थे। आपको आत्मसाधना के लिये एकान्त स्थान अत्यधिक स्वल्प काल में ही आशु कवि बन गये। आपने संस्कृत रुचिकर थे। विद्याध्ययनान्तर आपश्री योगसाधना के लिये
और राष्ट्रभाषा में काव्य साहित्य में अनुपम वृद्धि को है। कुछ ससय ओसियां के निकट पर्वत गुफा में रहे थे, एवं दार्शनिक एवं तत्वज्ञान से पूर्ण अनेक चैत्यवन्दन, स्तवन, लोहावट के पास की टेकरी भी आपका साधना स्थल स्तुतियाँ सज्झाएँ और पुजाएं बनाई है जो जैन साहित्य रहा था। की अनुपम कृतियां हैं। जैन साहित्य के गम्भीर ज्ञान जयपुर में मोहनवाड़ी नामक स्थान पर भी आपने का सरल एवं सरस विवेचन पढ़ कर पाठक अनायास हो कई बार तपस्या पूर्वक साधना की थी। वहाँ आपके तत्वज्ञान को हृदयंगम कर सकता है और आनन्द-समुद्र में सामने नागदेव फन उठाये रात्रि भर बैठे रहे थे। यह दृश्य मम हो सकता है। आधुनिक काल में इस प्रकार तत्त्व- कई व्यक्तियों ने आँखों देखा था। आप हठयोग को आसन ज्ञानमय साहित्य बहुत कम दृष्टिगोचर होता है। जैन प्राणायाम मुद्रानेति, धौती आदि कई क्रियायें किया समाज को आपसे अत्यधिक आशाएं थीं, कि असामयिक करते थे। निधन से वे सब निराशा में परिवर्तित हो गई।
तपश्चर्या आपने ४१ वर्ष के संयमी जीवन में ३० वर्ष गुरुदेव के प्रायः देखा जाता है कि ज्ञानाभ्यासी साधु साध्वी चरणों में व्यतीत किये और मारवाड़, कच्छ, गुजरात, वर्ग तपस्या से वंचित रह जाते हैं किन्तु आप महानुभाव उत्तर प्रदेश, बंगाल में विहार करके तीर्थ यात्रा के साथ ही इसके अपवाद रूप थे। ज्ञानार्जन, एवं काव्य-प्रणयन के धर्म प्रचार किया। जयपुर, जैसलमेर आदि कई ज्ञान के साथ ही ताश्चर्या भो समय समय पर किया करते भंडारों को सुव्यवस्थित करने, सोचपत्र बनाने आदि में थे। ४२ वर्ष के संयमी जोवन में आपने मास-ग, पन
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्षमण, अछाइयाँ, पंचौले, आदि किये। तेलों को तो महोत्सव पूर्वक आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया गया। गिनती ही नहीं की जा सकती।
__ आपश्री स्वभाव से ही सरल मिलनसार और गम्भीर साहित्य सेवा
थे। दयालुता और हृदय की विशालता आदि सद्गुणों से आपने सैकड़ों छोटे मोटे चैत्यवन्दन, स्तुतियाँ स्तवन, सुशोभित थे । आपश्री के अन्तःकरण में शाशन, व गच्छ सज्झाय आदि बनाये, रत्नत्रय पूजा, पार्श्वनाथ पंचकल्याणक व समदाय के उत्कर्ष की भावनाएँ सतत् जागृत रहती थी। पूजा, महावीर पंचकल्याणक पूजा, चौसठप्रकारी पूजा, पालीताना में "श्री जिन हरि विहार" आपश्री को सत्प्रेरणा तथा चारों दादा गुरुओं की पृथक २ पूजाएँ एवं चैत्रोपूर्णिमा कार्तिक पूर्णिमा विधि, उपधान, विंशतिस्थानक, वर्षीतप छम्मासी तप आदि के देव-वन्दन आदि विशिष्ट
____ आपश्री के कई शिष्य हुए, पर वर्तमान में केवल श्री रचनाएं की हैं। आप संस्कृत प्राकृत हिन्दी में समान रूप
कल्याणसागरजी तथा मुनिश्री कैलाशसागर जी विद्यमान है । में रचनाएँ करते थे। बहुत सी रचनाओं में आपने अपना समुदाय के दुर्भाग्य से आपश्री पूरे एक वर्ष भी नाम न देकर अपने पूज्य गुरुदेव का, गुरुभ्राताओं का एवं आचार्य पद द्वारा सेवा नहीं कर पाये कि करालकाल ने अन्यों का नाम दिया है। इस सारे साहित्य का पूर्ण निर्दयता पूर्वक इस रत्न को समुदाय से छीन लिया। उग्न परिचय विस्तार भय से यहाँ नहीं दिया जा रहा है। विहार करते हुए स्वस्थ्य सबल ___ आपकी प्रवचन शैली ओजस्वी व दार्शनिक ज्ञानयुक्त अहमदाबाद से केवल २० दिन में मन्दसौर के पास बूढ़ा थी। भाषा सरल, सुबोध और प्रसाद गुणयुक्त थी। ग्राम में फा • शु० एकम को संध्या समय पधारे। वहाँ रचनाओं में अलंकार स्वभावतः ही आ गये हैं। अत: प्रतिष्ठा कार्य व योगोद्वहन कराने पधारे थे किन्तु फा० शु० आपको एक प्रतिभाशाली कवि भी कहा जा सकता है। ५ शनिवार २०१८ को रात्रि को १२॥ बजे अक्समात आचार्य पद
हार्टफेल हो जाने से नवकार का जाप करते एवं प्रतिष्ठा विक्रम सं० २०१७ को पौष शुक्ला १० को प्रखरवक्ता कार्य के लिगे ध्यान में अवस्थित ये महानुभाव संघ व समुव्याख्यान-वाचस्पति वीरपुत्र श्री जिन आनन्दसागर दाय को निराधार निराश्रित बनाकर देवलोक में जा विराजे सूरीश्वर जी म. सा. के आकस्मिक स्वर्ग गमनानन्तर सारी दादा गुरुदेव व शासनदेव उस महापुरुष को आत्मा को शांति समुदाय ने आपही को समुदायाधीश बनाया। अहमदाबाद एवं समुदाय को उनके पदानुसरण को शक्ति प्रदान करें, में चैत्र कृष्ण ७ को श्री खरतरगच्छ संघ द्वारा आपको यही हमारी हार्दिक अभिलाषा है।
|
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
महान् प्रतापी श्रीमोहनलालजी महाराज
[ भँवरलाल नाहटा ]
पंचमकाल में जिनेश्वर भगवान के अभाव में जिनशासन को अक्षुण्ण रखने में जितप्रतिमा और जैनागम दोनों प्रबल कारण हैं जिसकी रक्षा का श्रेय श्रमण परम्परा को है । उन्होंने हो अपने उपदेशों द्वारा श्रावक गृहस्थ वर्ग को धर्म में स्थिर रखा और फलस्वरूप सातों क्षेत्र समुन्नत होते रहे । सुदूर बंगाल जैसे हिंसाप्रधान देश में तो यतिजनों ने विचर कर जैन धर्मी लोगों को धर्म मार्ग में स्थिर रखा है । समय-समय पर आये हुए शैथिल्य को परित्याग कर शुद्ध साध्वाचार को प्रतिष्ठा बढाने वाले वर्तमान साधु-समुदाय के तीनों महापुरुषों ने कियोद्धार किया था । श्रीमद् देवचन्द्रजी, जिनहर्षजी आदि अनेक सुविहित साधुओं को परम्परा अब नहीं रही है पर क्षमाकल्याणजी महाराज जिनका साधु-साध्वी समुदाय खरतर गच्छ में सर्वाधिक है, के पश्चात् महान् प्रतापी तपोमूर्ति श्री मोहनलालजी महाराज का पुनीत नाम आता है । आपने पहले यदि दीक्षा लेकर लखनऊ में काफी वर्ष रहे फिर कलकत्ता- बंगाल में विचरणकर यहीं से वैराग्य में अभिवृद्धि होने पर तीर्थयात्रा करते हुए अजमेर जाकर फिर त्याग मार्ग की ओर अग्रसर हुए थे, उनका संक्षिप्त परिचय यहां दिया जाता है ।
महान् शासन प्रभावक श्री मोहनलालजी महाराज अठारहवीं शताब्दी के आचार्यप्रवर श्रीजिनमुखसूरिजी के विद्वान् शिष्य यति कर्मचन्द्रजी ईश्वरदासजी वृद्धिचन्द्रजीलालचन्दजो के क्रमागत यति श्रीरूपचन्दजी के शिष्यरत्न थे | आपका जन्म सं० १८८७ वैशाख सुदि ६ को मथुरा afra चन्द्रपुर ग्राम में सनाढ्य ब्राह्मग बादरमलजी
की सुशीला धर्मपत्ती सुन्दरबाई की कुक्षि से हुआ था । आपका नाम मोहनलाल रखा गया, जब आप सात वर्ष के
हुए माता-पिता ने नागौर आकर सं० १८६४ में यति श्रीरूपचन्द्रजी को शिष्य रूपमें समर्पण कर दिया । यतिजी ने आपको योग्य समझकर विद्याभ्यास कराना प्रारम्भ किया । अल्प समय में हुई प्रगति से गुरुजी आप पर बड़े प्रसन्न रहने लगे। उस समय श्रीपूज्याचार्य श्रीजिनमहेन्द्रसूरिजी बड़े प्रभावशाली थे और उन्हीं के आज्ञानुवर्त्ती यति श्ररूपचन्द्रजी थे । दीक्षानंदी सूची के अनुसार आप की दीक्षा सं० १६०० में नागोर में होना सम्भव है । मोहन का नाम मानोदय और लक्ष्मीमेरु मुनि के पौत्रशिष्य लिखा है। जोवनचरित के अनुसार आपकी दीक्षा मालव देश के मकसीजी तोर्थ में श्री जिन महेन्द्रसूरिजी के कर कमलों से हुई थी । इन्हीं जिन महेन्द्रसूरि जो महाराज ने तीर्थाधिराज शत्रुञ्जय पर बम्बई के नगरसेठ नाहटा गोत्रीय श्री मोतीशाह की ट्रॅक में मूलनायकादि अनेकों जिन प्रतिमाओं को अंजनशलाका प्रतिष्ठा बड़े भारी ठाठ से कराई थी ।
श्रीमोहनलालजी महाराज ने ३० वर्ष तक यतिपर्याय में रहकर सं० १९३० में कलकत्ता से अजमेर पधारकर क्रियोद्धार करके संवेगपक्ष धारण किया। आपका साध्वाचार बड़ा कठिन और ध्यान योग में रत रहते थे एकवार अकेले विचरते हुए चल रहे थे नगर में न पहुंच सके तो वृक्ष के नोचे ही कायोत्सर्ग में स्थित रहे, आपके ध्यान प्रभाव से निकट आया हुआ सिंह भी शान्त हो गया ।
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
तपश्चर्यारत संयमी जीवन में आपको रात्रि में पानी तक आदि आपके उपदेशो से हुई। सं० १९४६ में महातीर्थ रखने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। पीछे जब साधु शत्रुजय की तलहट्टी में मुर्शिदाबाद निवासी रायबहादुर समुदाय बढा तब रखने लगे। एकबार आप प्राचीन तीर्थ बाबू धनपतसिंहजी दुगड़ द्वारा निर्मापित विशाल जिनालय श्रीओसियां पधारे तो वहां का मन्दिर गर्भगृह और प्रभु की प्रतिष्ठा-अंजनशलाका आपही के कर-कमलो से सम्पन्न प्रतिमा तक बालु में ढंके हुए थे। आपने जबतक जीर्णोद्धार हुई थी। कार्य न हो विगय का त्याग कर दिया। पीछे नगरसेठ को
आपका शिष्य परिवार विशाल था, आपमें सर्वगच्छ मालूम पड़ा और जीर्णोद्धार करवाया गया। ओसियां के मन्दिर में आपश्री की मत्ति विराजमान है।
समभाव का आदर्श गुण था अत: आपका शिष्य समुदाय ___आपमे मारवाड, गजरात, काठियावाड आदि अनेक आज भी खरतर और तपगच्छ दोनों में सुशोभित है। ग्राम नगरों में अप्रतिबद्ध विहार किया था। बम्बई जैसी
___आपके व आपके शिष्यों द्वारा अनेक मन्दिरों, दादावाड़ियों महानगरी में जैन साधुओं का विचरण सर्वप्रथम आपने ही
के निर्माण, जीर्णोद्धारादि हुए, ज्ञान भंडार आदि संस्थाएं प्रारभ किया। वहाँ आपका बड़ा प्रभाव हुआ, वचन-सिद्ध
स्थापित हुई, साहित्योद्धार हुआ। आप अपने समय के एक प्रतापी महापुरुष तो थे ही, बम्बई में घर धरमें आपके चित्र तेजस्वी युगपुरुष थे। निर्मल तप-संयम से आत्मा को देखे जाते हैं। आपने अनेकों भव्यात्माओं को देशविरति
भावित कर अनेक प्रकार से शासन-प्रभावना करके सं० सर्वविरति धर्म में दीक्षित किया। आपका विशाल साधू १९६४ वैशाख कृष्ण १४ को सूरत नगर में आप समाधि समुदाय हुआ। अनेक स्थानों में जोर्णोद्धार-प्रतिष्ठाएं पूर्वक स्वर्ग सिधारे ।
आचार्य-प्रवर श्रोजिनयश:सरिजी
[ भंवरलाल नाहटा]
खरतर गच्छ विभूषण, वचन सिद्ध योगीश्वर श्री मोहन- यात्रा करते हुए अहमदाबाद जा पहुँचे। किसी सेठ की लालजी महाराज के पट्ट-शिष्य श्री यशोमनिजी का जन्म दुकान में जाकर मधुर व्यवहार से उसे प्रसन्न कर नौकरी सं. १९१२ में जोधपुर के पूनमचंदजी सांड की धर्मपत्नी कर ली और निष्ठापूर्वक काम करने लगे। मुनि महाराजों मांगोबाई को कुक्षि से हुआ। इनका नाम जेठमल था, के पास धार्मिक अभ्यास चालू किया एवं व्याख्यान श्रवण व पिताश्री का देहान्त हो जाने पर अपने पैरों पर खड़े होने पर्वतिथि को तपश्या करने लगे। एक बार कच्छ के परासवा और धार्मिक अभ्यास करने के लिये माता की आज्ञा लेकर गांव गए; जहां जीत विजयजी महाराज का समागम हुआ। किसी गाड़ेवाले के साथ अहमदाबाद को ओर चल पड़े। आपकी धार्मिकदृवृत्ति और अभ्यास देखकर धर्माध्यापक इनके पास थोड़ा सा भाता और राह खर्च के लिये मात्र रूप में नियुक्ति हो गई। धार्मिक शिक्षा देते हुए भी आपने दो रुपये थे। इनके पास पार्श्वनाथ भगवान के नाम का ४५ उपवास की दीर्घतपश्चर्या की। स्वधर्मी-बन्धुओं के संबल था अतः भूख प्यास का ख्याल किये बिना आवरत साथ समेतसिखरजी आदि पंचतीर्थी की यात्रा की।
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
• . पन्द्रह वर्ष के दीर्घ प्रवास से जेठमलजी जोधपुर लौटे प्रतिष्ठा के हेतु पालीताना पधारने की प्रार्थना की। .
और विनयपूर्वक माता को स्थानकवासो मान्यता छड़ाकर बाबू साहब की भक्तिसिक्त प्रार्थना स्वीकार कर जिनप्रतिमा के प्रति श्रद्धालु बनाया। तदनन्तर उन्होंने ५१ पूज्यवर श्री मोहनलालजो महाराज अपने शिष्य समुदाय दिन की दीर्घ तपश्चर्या प्रारम्भ की दीवान कुंदनमलजी ने सहित पालीताना पधारे और नौ द्वार वाले विशाल बड़े ठाठसे अपने घर ले जाकर पारणा कराया। माता-पुत्र जिनालय की प्रतिष्ठा सं० १९४६ माघ सुदि १० के दिन दोनों वैराग्य रस ओत-प्रोत थे। माता को दीक्षा दिलाने बड़े ठाठ के साथ कराई। १५ हजार मानव मेदिनी की के अमन्तर जेठमलजी ने खरतरगच्छ नभोमणि श्री मोहनलाल उपस्थिति में अंजनशलाका के विधि-विधान के कार्यों में जो महाराज के वन्दनार्थ नवाशहर जाकर ' दीक्षा की गरु महाराज के साथ श्रीयशोमुनि जी की उपस्थिति और भावना व्यक्त कर जोधपुर पधारने के लिये वोनती को। पूरा पूरा सहयोग था। गुरुमहाराज के जोधपुर पधारने पर आपने सं० १९४१ जेठ इसी वर्ष मिती अषाढ़ सुदि ६ को चूरु के यति रामशु०५ के दिन उनके करकमलों से दीक्षा ली और 'जसमुनि' कुमारजी को दीक्षा देकर ऋद्धिमुनिजी के नाम से यशोबने । व्याकरण, काव्य, जैनागमादि के अभ्यास में दत्त- मनिजी के शिष्य प्रसिद्ध किये। फिर केवलम नि और अमर चित होकर अभ्यास करते हुए गरुमहाराज के साथ अजमेर, मुनि भी आपके शिष्य हुए। सूरत-अहमदाबाद के संघ को पाटण और पालनपुर चातुर्मास कर फलोदी पधारे। आग्रहभरी वीनती थी। अतः सं० १९५२-५३ के जोधपुर संघ की वोनती से गुरु महाराजने जसमुनिजी को चातुर्मास सूरत में करके अहमदाबाद पधारे। सं० १९५४वहां चातुर्मास के लिये भेजा। तपश्वी तो आप थे ही ५५-५६ के चातुर्मास करके पन्यास श्री दयाविमल जी के सारे चातुर्मास में आयंबिल तप करते तथा उत्तराध्ययन पास ४५ आगमों के यो गोद्वहन किये । समस्त संघ ने आपको सूत्र का प्रवचन करते थे। अपनी भूमि के मुनिरत्न को पन्यास और गणिपद से विभूषित किया। तदनन्तर गुरु देख संघ आनन्द-विभोर हो गया। चातुर्मास के अनन्तर महाराज के चरणों में सूरत आकर हर्ष निजी को योगोद्वहन फलोदी पधार कर गुरुमहाराज के साथ जेसलमेर, आबू, कराया। सं० १९:७ सूरत चौमासा कर १९५८ बम्बई अचलगढ आदि तीर्थों की यात्रा करते हुए अहमदाबाद पधारे और हरखमुनिजी को पन्यास पद प्रदान किया। पधार कर चातुर्मास किया। तदनन्तर पालोताना, सूरत, राजस्थान में धर्म प्रचार और विहार के लिये गुरु बंबई, सूरत, पालीताना चातुर्मास किया सातवें चातुर्मास महाराज की आज्ञा हुई तो आपश्री ने सात शिष्यों के साथ में आपने गुणमुनि को दीक्षित किया।
शिवगंज चातुर्मास कर उपधान कराया। राजमुनिजी के __सिद्धाचलजी की जया तलहटी में राय धनपतसिंहजी शिष्य रत्नमनिजी, लब्धिमुनिजी और हेतश्रीजी को बड़ी बहादुर ने धनवसी टुंक का निर्माण कराया। उनकी धर्म- दीक्षा दी। सं० १९६० का चातुर्मास जोधपुर में किया पत्नो रानी मैनासुन्दरी को स्वप्न में आदेश हुआ कि और सं० १६६१ का चातुर्मास अजमेर विराजे। इसी जिनालय की प्रतिष्ठा श्री मोहनलालजी महाराज के समय कान्फ्रेन्स अधिवेशन पर गए हुए कलकत्ताके राय बद्रोकरकमलों से करावे। उन्होंने बाबूसाहब को अपने स्वप्न दास मुकीम बहादुर, रतलाम के सेठ चांदमलजी पटवा, की बात कही। उनके मन में भी वही विचार था अत: ग्वालियर के रायवहादुर नथमलजी गोलछा और फलोदी अपने पुत्र बाबू नरपतसिंह को भेजकर महाराज साहब को के सेठ फूलचन्दजी गोलछा ने श्री मोहनलालजी महाराज
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
महान् प्रतापी श्रीमोहनलालजी महाराज
महान तपश्वी श्रीजिनयशःसूरिजी महाराज
dain जैनाचार्य श्री जिनऋद्धिसूरिजी महाराज
विद्वदर्य उपाध्याय श्नी लगिनिजी
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
हयाना
मस्तयोगी श्री ज्ञानसागरजी और वा. जयकीतिजी
जं. य.प्र. भ. स्व.जैनाचार्य पुज्य श्री हरिसागर सूरीश्वरजी महाराज साहब
शिव्यरत्न
शिष्यरत्न
INSFERENGERSमरमममममसमपात
जन्म १ere: दिक्षा १९५७
आचार्यपद- स्वर्गवास श्रीकांतीसागरजी महाराज साहब.स.१९२-सं.२००ET
मिसर-सं.२००६ श्री दर्शनसागरजी महाराज साहब
जन्म-१९८४ दिक्षा-२००२
जन्म १९६८ दिक्षा-१e७६
चांदा चातुर्मासमें से. २०१२
जैनाचार्य श्री जिनहरिसागरसूरिजी शिष्य रत्न मुनि कान्तिसागरजी व दर्शनसागरजी
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ १४५ ]
से अर्ज की कि आप खरतर गच्छ के हैं और इधर धर्म का उद्योत करते हैं तो राजस्थान, उत्तर प्रदेश और बंगाल को भी धर्म में टिकाये रखिये ! गुरुमहाराज ने पं० हरखमुनिजी को कहा कि तुम खरतरगच्छ के हो, पारख गोत्रीय हो अत: खरतर गच्छ को क्रिया करो । पंन्यास जी ने गुर्वाज्ञाशिरोधार्य मानते हुए भी चालू क्रिया करते हुए उधर के क्षेत्रों को संभालने की इच्छा प्रकट की । गुरुमहाराज ने अजमेर स्थित हमारे चरित्र नायक यशोमुनि जी को आज्ञापत्र लिखा जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया। गुरु महाराज को इससे बड़ा सन्तोष हुआ । चातुर्मास बाद पन्यास जी बम्बई की और पधारे और दहाणु में गुरुमहाराज के चरणों में उपस्थित हुए । आपने गुरु- महाराज की बड़ी सेवाभक्ति की, वेयावच्च में सतत् रहने लगे ।
एकदिन गुरुमहाराज ने यशोमुनिजी को बुलाकर शत्रुजय यात्रार्य जाने की आज्ञा दी। वे ८ शिष्यों के साथ वल्लभीपुर तक पहुँचे तो उन्हें गुरुमहाराज के स्वर्गवास के समाचार मिले |
सं० १९६४ का चातुर्मास पालीताना करके सेठानी आणंदकुंवर बाई की प्रार्थना से रतलाम पधारे । सेठानीजी ने उद्यापनादिमें प्रचुर द्रव्य व्यय किया। सूरत के नवलचन्द भाई को दीक्षा देकर नीतिमुनि नाम से ऋद्धिमुनिजी के शिष्य किये। इसी समय सूरत के पास कठोर गांव में प्रतिष्ठा के अवसर पर एकत्र मोहनलालजी महाराज के संघाड़े के कान्तिमुनि, देवमुनि, ऋद्धिमुनि, नयमुनि, कल्या
मुनि क्षमामुनि आदि ३० साधुओं ने श्रीयशोमुनिजी को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित करने का लिखित निर्णय किया ।
श्रीयशोमुनिजी महाराज सेमलिया, उज्जैन, मक्सीजो होते हुए इन्दौर पधारे और केशरमुनि, रतनमुनि भावमुनि को योगोद्वहन कराया। ऋद्धिमुनिजी भी सूरत से विहार कर मांडवगढ में आ मिले । जयपुर से गुमानमुनिजी भी गुणा 'की छावनी आ पहुँचे । आपने दोनों को योगोहन क्रिया में प्रवेश कराया । सं० १९६५ का चातुर्मास ग्वालियर में किया | योगोद्वहन पूर्ण होने पर गुमानमुनिजी
ऋद्धिमुनिजी और केशरम निजी को उत्सव पूर्वक पन्यास पद से विभूषित किया। पूर्व देश के तीर्थों की यात्रा की भावना होने से ग्वालियर से विहार कर दतिया, झांसी, कानपुर, लखनऊ, अयोध्या, काशी, पटना होते हुए पावापुरी पधारे। वीरप्रभु की निर्वाणभूमि की यात्रा कर कुंड
लपुर, राजगृहो, क्षत्रियकुंड आदि होते हुए सम्मेतशिखरजी पधारे । कलकत्ता संघ ने उपस्थित होकर कलकत्ता पधारने की वीनत की । आपश्री साधुमण्डल सहित कलकत्ता पधारे और एक मास रहकर सं० १९६६ का चातुर्मास किया । सं० १९६७ अजीमगंज और सं० १९६८ का चातुर्मास बालूचर में किया। आपके सत्संग में श्री अमरचन्दजी बोथरा ने धर्म का रहस्य समझकर सपरिवार तेरापंथ को श्रद्धात्यागकर जिनप्रतिमा की दृढ़ मान्यता स्वीकार की। संघ की वीनति से श्रीगुमानमुनिजी, वेशरमुनिजी और बुद्धिमुनिजी को कलकत्ता चातुर्मास के लिए आपश्री ने भेजा ।
आपश्री शान्तदान्त, विद्वान और तपस्वी थे। सारा संघ आपको आचार्य पद प्रदान करने के पक्ष में था। सूरत में किये हुए ३० मुनि सम्मेलन का निर्णय, कृगचन्द्रजी महाराज व अनेक स्थान के संघ के पत्र आजाने से जगत सेठ फते चन्द, रा० ब० केशरीमलजी रा० ब० बद्रीदासजी, नथमलजी गोलछा आदि के आग्रह से आपको सं० १९६६ ज्येष्ठ शुद६ के दिन आपको आचार्य पद से विभूषित किया गया । आपश्री का लक्ष आत्मशुद्धि की ओर था मौन अभिग्रह पूर्वक तपश्चर्या करने लगे। पं० केशरमुनि भावमुनिजी साधुओं के साथ भागलपुर, चम्पापुरी, शिखरजी की यात्रा कर पावापुरी पधारे। आश्विन सुदी में आपने ध्यान और जापपूर्वक दीर्घतपस्या प्रारम्भ की । इच्छा न होते हुए भी संघ के आग्रह से मिगसरवदि १२ को ५३ उपवास का पारणा किया। दुपहर में उल्टी होने के बाद अशाता बढ़ती गई और मि० सु०३ सं० १९७० में समाधि पूर्वक रात्रि में २ बजे नश्वर देह को त्यागकर स्वर्गवासी हुए । पावापुरी में तालाब के सामने देहरी में आपकी प्रतिमा विराजमान की गई ।
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रभावक आचार्य श्रीजिनऋद्धिसरि
[भंवरलाल नाहटा ]
सुविहित शिरोमणि महामुनिराज श्री मोहनलाल जी प्रतिष्ठा समय आगंतुक लोगों ने उत्सव में ग्रामोफोन के महाराज के स्वहस्त दीक्षित प्रशिष्य श्री जिनऋद्धिसूरि जी अश्लील रिकार्ड बजाने प्रारंभ किये। और मना करने पर विद्वान, सरल-स्वभावी और तप जप रत एक चरितवान् भी न माने तो आप मौन धारण कर बैठ गए। ग्रामोफोन भी महात्मा थे। उनका जन्म चूरु के ब्राह्मण परिवार में हुआ मौन हो गया और लाख उपाय करने पर भी ठीक न हुआ। था और वहीं के यतिवर्य चिमनीरामजी के पास आपने आखिर आपसे प्रार्थना की और अहाते से बाहर जाने पर ठीक दीक्षा ली थी, आपका नाम रामकुमारजी थो। आपके हो गया। सं० १९६३ में मोहनलालजी महाराज का स्वर्गबड़े गुरु भाई ऋद्धिकरणजी भी उच्चकोटि के त्याग वास हो गया तो कठोर चौमासा कर आपने गुजरातीवैराग्य परिणाम वाले थे इन्होंने देखा कि उनसे पहले मैं मारवाड़ी का क्लेश दूर कर परस्पर संप कराया। मोहन त्यागी बन जाऊ अन्यथा गद्दी का जाल मेरे गले में आ लालजी म. के चरणों की प्रतिष्ठा करवाई। मारवाड़ी जायगा। आप चुरू से निकल कर बीकानेर गये, मंदिरों व साथ का नया मन्दिर हुआ, चमत्कार पूर्ण प्रतिष्ठा करवाई नाल में दादा साहब के दर्शन कर पैदल ही चलकर आबू यहीं यशोमुनि जी को आचार्य पद पर स्थापित करने का जा पहुंचे क्योंकि रेल भाड़े का पैसा कहां था? वहाँ से मोरे साधु समुदाय ने निर्णय किया। झगडिया संध में एक यतिजी के साथ गिरनारजी गये। और फिर सिद्धा- यात्रा कर बड़ोद में सं० १९६४ माघ में शांतिनाथ भ० चलजी आकर यात्रा करने लगे। श्रीमोहनलालजी महाराज की प्रतिष्ठा कराई। व्यारे में अजितनाथ भ० को वैशाख के पास सं० १९४६ आषाढ़ सुदि ६ को दीक्षित होकर में तथा सरभोण में जेठ महीने में प्रतिष्ठा करवायी। रामकुमारजी से श्रीऋद्धिमुनि जी बने, आपको श्रीयशो- सूरत-नवापुरा में शामला पार्श्वनाथ की प्रतिष्ठा की। मनि जी का शिष्य घोषित किया गया । आपने दत्त चित आपके उपदेश से उपाय का जीर्णोद्धार हुआ। गुरु होकर विद्याध्ययन किया, तप जप पूर्वक संयम साधना महाराज की आज्ञा से मांडवगढ़ पधार कर योगोद्वहन करते हुए गुरु महाराज श्री सेवा में तत्पर रहे जब तक किया । सं० १६६६ मार्गशीर्ष शुक्ल ३ के दिन ग्वालियर में मोहनलालजी महाराज विद्यमान थे, अधिकांश उन्होंने आपको गुरुमहाराज ने पन्यास पद से विभूषित किया। आपको अपने साथ रखा, और उनका वरद हाथ आपके
गुरुमहाराज पूर्व देश यात्रार्थ पधारे आपने जयपुर आकर मस्तक पर रहा। सात चौमासे साथ करने के बाद अलग
चौमासा किया बड़े भारी उत्सव हुए । दीक्षा के बाद प्रथम विचरने की भी आज्ञा देते थे। सं० १९५६ में गुरु श्री यशोमुनि जी के साथ रोहिड़ा प्रतिष्ठा कराई। अनेक बार चूरु में आकर २० दिन स्थिरता की तेरापंथियों को स्थानों में विचर कर तीर्थ यात्राएं की। सं० १९६१ में शास्त्र चर्चा में निरुत्तर किया। नागोर के संघ में अनैक्य बुहारी में प्रतिष्ठा कराने आप और चतुरमुनि जो गए। दूर कर संप कराया, दीक्षा महोत्सवादि हुए ।
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
सं० १९६७ का चातुर्मास पन्यास जी ने कुचेरा खंभात व १९८० कड़ोद चातुर्मास किया। वहाँ लाडुआ किया । यज्ञ-होम, शांतिपाठ और ठाकुरजी जो सवारी श्रीमाली भाइयों को संघ के जीमनवार में शामिल नहीं निकलने पर भी बूंद न गिरी तो आपश्री के उपदेश से किया जाता था, पन्यासजी ने उपदेश देकर भेदभाव दूर जेन रथयात्रा निकली, स्नात्र पूजा होते ही मूसलधार वर्षा कराया। सं० १९८१ वलसाड़ करके नंदरबार पधारे से तालाब भर गए। वहां से तीन मील लूणसर में भी आपके उपदेश से नवीन उपाश्रय का निर्माण हुआ। प्रभु इसी प्रकार वर्षा हुई तो कुचेरा के ३० घर स्थानकवासियों प्रतिष्ठा, ध्वजदंडारोहण आदि बड़े ही ठाठ-माठ से हुए। ने पुनः मन्दिर आम्नाय स्वीकार कर उत्सवादि किए, सं० १९८२ व्यारा चौमासे में भी उपधान आदि प्रचुर दोडसौ व्यक्तियों के संघ ने प्रथमबार शत्रुञ्जय यात्रा की। धर्मकार्य हुए। टांकेल गाँव में मन्दिर और उपाश्रय निर्माण तदनन्तर फलौदो, पुष्कर, अजमेर होकर जयपुर पधारे, उद्याप- हुए, और भी नामानुग्नाम विचरते अनेक प्रकार के शासनोनादि उत्सव हुए। पंचतीर्थी कर अनेक नगरों में विचरते न्नति के कार्य किये। सं० १९८३ वैशाख में सामटा बन्दर बम्बई पधारे। दो चातुर्मास कर पालीताना पधारे ८१ में मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई। सं० १९८३-८४ के चातु
आंबिल और ५० नवकारवाली पूर्वक निन्नाणुं यात्रा की। सि बम्बई हुए । घोलवड़ में मन्दिर व उपाश्रय उपदेश सं०१९७१ का चातुर्मास खंभात में करके मोहनलालजी जैन देकर करवाया। सं० १९८५ सूरत, १९८६ कठोर में हुन्नरशाला और पाठशाला स्थापित की। सं० १९७२ चौमासा किया। आपने चार और पाँच उपवास से एकमें सूरत चातुर्मास में उपधान तप एवं अनेक उत्सव हुए। एक पारणा करने की कठिन तपस्या तीन महीने तक की। सं १९७३-७४ लालबाग बम्बई का उपधान कराया, फिर सायण होकर सूरत आदि अनेक स्थानों में विचरते उत्सवादि हुए । पालीताना पधार कर एकान्तर उपवास हुए सं० १९८७ का चातुर्मास दहाणु किया। बोरड़ी और पारणे में आंबिल पूर्वक उग्रतपश्चर्या को कई वर्षों से पधार कर उपाश्रय के अटके हए काम
प्रति श्रद्धान्तु बने स्थानकवासी मुनि रूपचन्दजी फणसा में उपाश्रय-देहरासर बना । गुजरात में स्थान-स्थान के शिष्य गुलाबचन्द जी ने अपने शिष्य गिरीधारीलालजी में विचर कर विविध धर्म कार्य कराये । मरोली में उपाश्रय के साथ आकर आपके पास सं० १९७५ वै० शु. ६ को हुआ। खंभात की दादावाड़ो को चारों देहरियों का दीक्षा ली। उनका श्री गलाबमनि और उसके शिष्य का जीर्णोद्धार होने पर सरत से विविध गांवों में विचरते हए गिरिवर मुनि नाम स्थापन किया । तदनन्तर सं० १९७६ का खंभात पधार कर दादावाड़ी की प्रतिष्ठा सं० १९८८ चौमासा बम्बई कर भात आये और अठाई-महोत्सवादि ज्येष्ठ सुदि १० को की। कटारिया गोत्रीय पारेख छोटालाल के बाद सूरत पधारे।
मगनलाल नाणावटी ने प्रतिष्ठा, स्वधर्मीवत्सल आदि में सूरत में दादागुरु श्रीमोहनलालजी के ज्ञानभंडार को अच्छा द्रव्य व्यय किया। चातुर्मास के बाद मातर तीर्थ सुव्यवस्थित करने का बीड़ा उठाया और ४५ अलमारियों को यात्रा कर सोजिते पधारने पर माणिभद्रवार की देहरी को अलग-अलग दाताओं से व्यवस्था की। आलोशान से आकाशवाणी हुई कि खंभात जाकर माणेकची के मकान था, उपधान तप में माला की बोली आदि के उपाश्रय स्थित माणिभद्र देहरी को जीर्णोद्धार का उपदेश मिलाकर ज्ञानभण्डार में तीस हजार जमा हुए। मोहन- दो। खंभात में पन्यासजी उपदेश से सं० १९८६ फा० सु० लालजी जैन पाठशाला को भी स्थापना हुई। सं० १९७६ १ को जीर्णोद्धार सम्पन्न हुआ। कार्तिक पूर्णिमा के दिन
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
। १४६ j
महोदयमुनि को दीक्षा देकर श्री गुलाबमुनिजी के शिष्य बम्बई संघ पन्यासजी महाराज को आचार्य पद पर प्रतिबनाये । अनेक गाँवों में विचरते हुए अहमदाबाद पधारे। ष्ठित करने का विचार करता था पर पन्यासजी स्वीकार संघ की वीनति से जीर्णोद्धारित कंसारी पाश्वनाथजी की नहीं करते थे। अन्त में रवजो सोजपाल आदि समस्त श्री प्रतिष्ठा खंभात जाकर बड़े समारोह से कराई। अहमदा
___ संघ के आग्रह से सं० १९६५ फागुण सुदि ५ को बड़े भारी बाद पधार कर दादासाहबकी जयन्ती मनाई, दादावाड़ी
समारोह पूर्वक आपको आचार्य पद से अलंकृत किया गया। का जीर्णोद्धार हमा। अनेक स्थान के मन्दिर-उपाश्रयों के सम जीर्णोद्धारादि के उपदेश देते हुए दवीयर पधार कर प्रतिष्ठा अब पन्यास ऋद्धिमुनिजी श्रीजिनयश:सूरिजी के पट्टधर कराई । घोलवड में जैन बोडिंग की स्थापना करवायी। जैनाचार्य भट्टारक श्रीजिनऋद्धिसूरिजी नाम से प्रसिद्ध हुए। सं० १९९१ का चातुर्मास बम्बई किया। पन्यास श्रीकेशर- सं
में जब आप दहाण में विराजमान थे तो मनिजी ठा० ३ महावीर स्वामी में व कच्छी वीसा ओस- गणिवर्य श्री रत्नमनिजी, लब्धिमनिजी भी आकर मिले । वालों के आग्रह से श्रीऋद्धिमुनिजी ने मांडवी में चौमासा अपर्व आनन्द हआ। आपश्री की हार्दिक इच्छा थी ही किया । वर्द्धमानतप आंबिल खाता खुलवाया । अनेक धर्मकार्य कि सयोग्य चारित्र-चडामणि रलमनिजी को आचाये पद हुए। सं० १६६२ लालवाड़ी चौमासा किया भाद्रव दो होने और श्रीलब्धिमनिजी को उपाध्याय पद दिया जाय। बम्बई से खरतरगच्छ और अंचलगच्छ के पर्दूषण साथ हुए। दूसरे संघने श्री आचार्य महाराज के व्याख्यान में यही मनोरथ भाद्रव में गलाबम निजी ने दादर में व पन्यासजी ने लाल- प्रकट किया। आचार्य महाराज और संघ की आज्ञा से वाड़ी में तपागच्छीय पर्युषण पर्वाराधन कराया। पन्यास रत्नमनिजी और लब्धिमनिजी पदवी लेने में निष्पृह होते केशरमुनिजी का कातो सुदि ६ को स्वर्गवास होने पर हुए भी उन्हें स्वीकार करना पड़ा । दश दिन पर्यन्त महोत्सव पायधुनी पधारे।
करके श्रीजिनऋद्धिसरिजी महाराज ने रत्नमनिजी को जयपुर निवासी नथमलजी को दीक्षा देकर बुद्धि
आचार्य पद एवं लब्धिमनिजी को उपाध्याथ पद से अलंकृत मुनिजी के शिष्य नंदनमुनि नाम से प्रसिद्ध किये । पन्यासजी
जो किया। मिती आषाढ़ सुदि ७ के दिन शुभ मुहूर्त में यह का १९६३ का चातुर्मास दादर हा। ठाणा नगर में पद महात्सव हुआ। पधार कर संघ में व्याप्त कुसंप को दूर कर बारह वर्ष से तदनंतर अनेक स्थानों में विचरण करते हुए आप राजअटके हुए मन्दिर के काम को चालू करवाया। सं० १९९४ स्थान पधारे और जन्म भूमि चूरु के भक्तों के आग्रह से मिती वै० सु०६ को ठाणा मन्दिर की प्रतिष्ठा का महत वहां चातुर्मास किया। उपधान तपके मालारोपण के अवसर निकला। यह मन्दिर अत्यन्त सुन्दर और श्रीपाल चरित्र पर बीकानेर पधार कर उ० श्रीमणिसागरजी महाराज को के शिल्ल चित्रों से अद्वितीय शोभनीक हो गया। प्रतिष्ठा आचार्य-पद से अलंकृत किया। फिर नागोर आदि स्थानों कार्य वै० ब० १३ को प्रारम्भ होकर अठाई महोत्सवादि में विचरण करते हए जोर्णोद्ध द्वारा बड़े ठाठ से हुआ। वै० सु० १२ को पन्यासजी महा. शासनोन्नति कार्य करने लगे। राज विहार कर बम्बई के उपनगरों में विचरे। माटुंगा अन्त में बम्बई पधार कर बोरीवली में संभवनाथ जिनामें रवजी सोजपाल के देरासर में प्रतिमाजी पधराये। लय निर्माण का उपदेश देकर कार्य प्रारम्भ करवाया। सं० मलाड़में सेठ बालूभाई के देरासर में प्रतिमाजी विराजमान २००८ में आपका स्वर्गवास हो गया। महावीर स्वामी के को । सं० १९९४ का चातुमास ठाणा संघ के अत्याग्रह मन्दिर में आपकी तदाकार मूत्ति विराजमान की गई। से स्वयं विराजे । दादासाहब की जयन्ती-पूजा बड़े ठाठ से आपका जीवन वृतान्त श्रीजिनऋद्धिसूरि जीवन-प्रभा में हुई। वर्द्धमानतप आयंबिल खाता खोला गया। साहमी सं० १६६५ में छपा था और विद्वत शिरोमणि उ० लब्धिपच्छलादि में कच्छी, गुजराती और मारवाड़ी भाइयों का मुनिजी ने सं० २०१४ में संस्कृत काव्यमय चरित कच्छ सहभोज नहीं होता था, वह प्रारम्भ हुआ। ठाणा और मांडवी में निर्माण किया जो अप्रकाशित है।
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्यरत्न श्रीजिनरत्नसूरि
[भंवरलाल नाहटा] जगत्पूज्य मोहनलालजी महाराज के संघाड़े में आचार्य चाणोद गये । उनके पास आपका शास्त्राम्यास अच्छी तरह श्रीजिनरत्नसूरिजी वस्तुतः रत्न ही थे। आपका जन्म कच्छ चलता था, इधर श्रोमोहनलालजी महाराज की अस्वस्थता देश के लायजा में सं० १९३८ में हुआ । आपका जन्म के कारण पन्यासजी के साथ बम्बई को और विहार किया, नाम देवजी था । आठ वर्ष की आयु में पाठशाला में पर भक्तों के आग्रहवश मोहनलालजो महाराज ने सूरत की प्रवेश किया। धार्मिक और व्यावहारिक शिक्षा प्राप्त कर ओर विहार किया था, अतः मार्ग में ही दहाणुं में गुरुदेव बम्बई में अपने पिताजी की दुकान का काम संभाल कर के दर्शन हो गए। श्रीमोहनलालजी महाराज १८ शिष्यअर्थोपार्जन द्वारा माता-पिता को सन्तोष दिया। देश में प्रशिष्यों के साथ सूरत पधारे। श्रीरत्नमुनिजी उनकी सेवा आपके सगाई-विवाह की बात चल रही थी और वे उत्सु. में दत्तचित्त थे। उनका हार्दिक आशीर्वाद प्राप्त कर उनकी कता से देवजी भाई की राह देखते थे । पर इधर बम्बई में आज्ञा से पन्यासजी के साथ आप पालीताणा पधारे । फिर श्रीमोहनलालजी महाराज का चातुर्मास होने से संस्कार- रतलाम आदि में विचर कर उनकी आज्ञासे भावमुनिजी संपन्न देवजी भाई प्रतिदिन अपने मित्र लधाभाई केसाथ के साथ केशरियाजी पधारे । शरीर अस्वस्थ होते हुए भी व्याख्यान सुनने जाते और उनकी अमृत वाणी से दोनों आपने २१ मास पर्यन्त आंबिल तप किया। पन्यासजी ने की आत्मा में वैरग्य बीज अंकुरित हो गए। दोनों मित्रों सं० १९६६ में ग्वालियर में उत्तराध्ययन व भगवती सूत्र ने यथावसर पूज्यश्री से दीक्षा प्रदान करने को प्रार्थना का योगोद्वहन श्रीकेशरमुनिजी, भावमुनिजी और चिमन की। पूज्यश्री ने उन्हें योग्य ज्ञातकर अपने शिष्य श्रीराज- मुनिजी के साथ आपको भी कराया। तदनन्तर आप मुनिजी के पास रेवदर भेजा। सं० १९५८ चैत्रबदि ३ को गणि पद से विभूषित हुए । सं० १९६७ का चातुर्मास गुरु दीक्षा देकर देवजी का रत्नमुनि और लधाभाई का लब्धि महाराज श्रीराजमुनिजी के साथ करके १९६८ महीदपुर मुनि नाम दिया । सं० १६५६ का चातुर्मास मंढार में पधारे । तदनन्तर सं० १९६६ का चातुर्मास बम्बई किया। करने के बाद सं० १९६० वै०-शु०-१० को शिवगंज में यहां फा० सु० २ को गुरु महाराज की आज्ञा से वोछडोद पन्यास श्रीयशोमुनिजी के करकमलों से बड़ी दीक्षा हुई। के श्रीपन्नालाल को दीक्षा देकर प्रेममुनि नाम से प्रसिद्ध सं० १९६० शिवगंज, १६६१ नवाशहर सं० १९६२ का किया। सं० १९७० का चातुर्मास भी बम्बई किया । चातुर्मास पीपाड़ में गुरुवर्य श्रीराजमुनिजी के साथ हुआ। यहाँ श्रीजिनयश:सूरिजी महाराज के पावापुरी में स्वर्गव्याकरण, अलंकार. काव्यादिका अध्ययन सुचारुतया करके वासी होने के दुःखद समाचार सुने। कूचेरा पधारे । यहां राजमुनिजी के उपदेश से २५ घर गणिवर्य श्रीरत्नमुनिजी को जन्मभूमि छोड़े बहुत वर्ष स्थानकवासी मन्दिर आम्नाय के बने ।
हो गए थे अतः श्रावकसंघ की प्रार्थना स्वीकार कर शत्रुजय श्रीरत्नमुनिजी योगोद्वहनके लिए पन्यासजी के पास यात्रा करते हुए अपने शिष्यों के साथ कच्छ में प्रविष्ट हो
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
अंजार होते हुए भद्रेश्वर तीर्थ की यात्राकर लायजा पधारे। और पड़ाणा में गुरुपादुकाएं प्रतिष्ठित की। डग पधारने यहाँ पूजा प्रभावना, उद्यापनादि अनेक हुए। सं० १९७१ पर श्रीलक्ष्मीचन्दजी बैद के तरफसे उद्यापनादि हुए और का चातुर्मास बीदड़ा, १६७२ का मांडवी किया। यहां दादा जिनकुशलसूरिजी व रत्नप्रभसूरिजी की पादुका प्रतिष्ठा से नांगलपुर पधारने पर गुरुवर्य राजमुनिजी के स्वर्गवास की। मांडवगढ यात्रा करके इन्दौर मक्सीजी, उज्जैन, होते होने के समाचार मिले । सं० १९७३ भुज, १६७४ लायजा हुए महीदपुर पधारे । लब्धिमुनिजी और प्रेममुनिजी को चातुर्मास किया। फिर मांडवी में राजश्रीजी को दीक्षा वीछडोद चातुर्मासार्थ भेजा। स्वयं भावमुनिजी के साथ दी। कच्छ देश में धर्म प्रचार करते हुए १९७५ सं० रुणीजा पधारकर सं० १९८३ का चातुर्मास किया। में दुर्गापुर (नवावास) चौमासा किया और संघ में पड़े हुए १६.८४ महीदपुर, सं० १९८५ का चातुर्मास भाणपुरा दो तड़ोंको एक कर शान्ति की । इन्फ्ल्युएजा फैलने से शहर किया। उद्यापन और बड़ी दीक्षादि हुए । मालवा में खाली हुआ और रायण जाकर चातुर्मास पूर्ण किया। गणिजी महाराज को विचरते सुनकर बम्बई से रवजी सोजसं० १९७३ में डोसाभाई लालचन्द का संघ निकला ही था, पाल ने आग्रह पूर्वक बम्बई पधारने को विनती की । आपश्री फिर भुज से शा० वसनजी वाघजी ने भद्रेश्वर का संघ नामानुग्राम विचरते हुए घाटकोपर पहुँचे। मेघजी सोजपाल, निकाला । गणिवर्य यात्रा करके अंजार पधारे । इधर गणसी भीमसी आदि की विनतिसे बम्बई लालवाड़ी पधारे । सिद्धाचलजी यात्रा करते हुए श्रीलब्धिमुनिजी आ मिले। दादासाहब की जयन्ती श्रीगौड़ीजी के उपाश्रय में श्री विजउनके साथ फिर भद्रेश्वर पधारे । सं० १६७६ का चातु- यवल्लभसूरिजी की अध्यक्षता में बड़े ठाट-माठ से मनायी।
सि भूज और सं० १६७७ का मांडवी किया। फिर जाम- सं० १९८६ का चौमासा लालवाड़ी में किया । नगर, सूरत, कतार गांव, अहमदाबाद, सेरिसा, भोयणीजी, गणिवर्य श्रीरतनमुनिजी के उपदेश और मूलचन्द हीरापानसर, तारंगा, कुंभारियाजी, आबू यात्रा करते हुए चन्द भगत के प्रयास से महावीर स्वामी के पीछे के खरतरअणादरा पधारे । लब्धिमुनिजी, भावमुनिजी को शिवगंज गच्छीय उपाश्रय का जीर्णोद्धार हुआ। सं० १९८७ का भेजा और स्वयं प्रेममुनिजी के साथ मंढार चातुर्मास चातुर्मास वहीं कर लब्धिमुनिजी के भाई लालजी भाई को किया । पाली में पन्यास श्रीके शरमुनिजी से मिले। सं० १९८८ पो० सु० १० को दीक्षितकर महेन्द्र मुनि नाम दयाश्रीजी को दीक्षा दो। सं० १९८० का चातुर्मास से लब्धिमुनि जी के शिष्य बनाये । प्रेममुनिजी को योगोजेसलमेर किया। किले पर दादा साहब की नवीन देहरी द्वहन के लिए श्री केशरमुनिजी के पास पालीताना भेजा। में दोनों दादासाहब की प्रतिष्ठा कराई । सं० १९८१ में वहां कच्छ के मेधजी को सं० १९८६ पोष सुदि १२ के फलोदी चातुर्मास किया । ज्ञानश्रीजीव वल्लभश्रीजी के आग्रह दिन केशरमुनिजी के हाथ से दीक्षित कर प्रेममुनिजी का से हेमश्रीजी को दीक्षा दी। लोहावट में गौतमस्वामी और शिष्य बनाया। चक्रेश्वरीजो की प्रतिष्ठा कर अजमेर पधारे । तदनन्तर श्री रत्नमुनिजी महाराज सूरत, खंभात होते हुए रतलाम, सेमलिया, पधारे । सं० १९८२ नलखेड़ा चातु- पालीताना पधारे । श्री केशरमुनिजी को वन्दन कर फिर
र्मास किया, चौदह प्रतिमाओं की अंजनशलाका की। गिरनारजी को यात्रा की और मुक्तिमुनिजी को बड़ी दीक्षा मंडोदा में रिखबचन्दजी चोरडिया के बनवाये हुए गुरुमदिर दी। सं० १९८६ का चातुर्मास जामनगर करके अंजार में दादा जिनदत्तसूरि आदि की प्रतिष्ठा करवायी । खुजनेर पधारे । भद्रेश्वर, मुंद्रा, मांडवी होकर मेरावा पधारे ।
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
.
.
नेणबाई को बड़े समारोह और विविध धर्मकार्यों में सद् श्रीजी की शिष्या प्रसिद्ध की गई। वहीं से रायण में सं० द्रव्यव्यय करने के अनन्तर दीक्षा देकर राजश्रीजी की १६६४ चातुर्मास कर सिद्धाचलजी पधारे । इस समय आप शिष्या रत्नश्री नाम से प्रसिद्ध किया।
का १० साधु थे। प्रेममुनिजी के भगवती सूत्र का योगोद्वहन सं० १९९१ का चातुर्मास अपने प्रेममुनिजी और मुक्ति और नन्दनमनिजी की बड़ी दीक्षा हुई। कल्याणभुवन मुनिजी के साथ भुज में किया। महेन्द्रमुनिजी की में कल्पसूत्र के योग कराये, पन्नवणा सूत्र बाचा, प्रचुर बीमारी के कारण लब्धिमुनिजी मांडवी रहे। उमरसी तपश्चर्याएं हुई। पूजा प्रभावना स्वधमीवात्सल्यादि खूब भाई की धर्मपत्नी इन्द्राबाई ने उपधान. अठाई महोत्सव हुए। मर्शिदाबाद निवासी राजा विजयसिंहजी की माता पूजा, प्रभावनादि किये । तदनन्तर भुज से अंजार, मुद्रा, सुगण कुमारी को तरफ से उपधानतप हुआ। मार्गशीर्ष होते हुए मांडवो पधारे । यहां महेन्द्रमुनि बीमार तो थे ही सूदि ५ को गणिवर्य रत्नम निजी के हाथ से मालरोपण चै० सु० २ को कालधर्म प्राप्त हुए। गणिचर्य लायजा हुआ। दूसरे दिन श्री बुद्धिगु निजी और प्रेममुनिजी को पधारे, खेराज भाई ने उत्सव, उद्यापन, स्वधर्मीवात्सल्यादि 'गणि' पद से भूषित किया गया । जावरा के सेठ जड़ावकिये।
चन्दजी की ओर से उद्यापनोत्सव हुआ। कच्छ के डमरा निवासी नागजी-नेणबाई के पुत्र
___ सं० १६६६ का चातुर्मास अहमदाबाद हुआ। फिर मलजी भाई-जो अन्तर्वैराग्य से रंगेहए थे-माता पिता
बड़ौदा पधारकर गणिवर्य ने नेमिनाथ जिनालय के पास की आज्ञा प्राप्त कर गणिवर्य श्री रत्नमुनिजी के पास आये । दीक्षा का मुहुर्त निकला। नित्य नई पूजा-प्रभा
गरुमन्दिर में दादा गरुदेव श्रीजिनदत्तसूरि की मूर्ति पादुका वना और उत्सवों की धूम मच गई। दीक्षा का वाघोडा बहुत आदि की प्रतिष्ठा बड़े ही ठाठ-बाठ से की। वहाँ से बंबईकी ही शानदार निकला। मूलजी भाई का वैराग्य और दीक्षा और विहार कर दहाणु पधारे। श्रीजिनऋद्धिसूरिजी वहाँ लेने का उल्लास अपूर्व था। रथ में बैठे वरसीदान देते हुए विराजमान थे, आनन्द पूर्वक मिलन हुआ। संघ की विनति जय-जयकारपूर्वक आकर वै० शु०६ के दिन गणीश्वरजी से बम्बई पधारे। संघ को अपार हर्ष हुआ। श्रीरत्नमुनिजी के पास विधिवत् दीक्षा ली। आपका नाम भद्रमनिजी के चरित्र गुण की सौरभ सर्वत्र व्याप्त थी। आचार्य श्री रखा गया। सं० १९६२ का चातर्मास रत्नमनिजी ने जिनऋद्धिसूरिजी महाराज ने संघ की विनति से आपको लायजा, लब्धिमुनिजी, भावमुनिजी का अंजार व प्रेम आचार्य पद देना निश्चय किया । बम्बई में विविध प्रकार मुनिजी, भद्रमुनिजी, का मांडवी हआ। चातुर्मास के के महोत्सव होने लगे। मिती अषाढ़ सूदि ७ को सूरिजी ने बाद मांडवो आकर गुरु महाराज ने भद्रम निजो को बडी आपको आचार्य पद से विभूषित किया। सं० १९९७ का दीक्षा दी।
चातुर्मास बम्बई पायधुनी में किया। श्री जिनऋद्धिसूरि तुंबड़ी के पटेल शामजी भाई के संघ सहित पंचतीर्थी दादर, लब्धिमुनिजी घाटकोपर और प्रेममुनिजी ने लालयात्रा की। सुथरी में घुतकलोल पार्श्वनाथजी के समक्ष बाड़ी में चौमासा किया। चरितनायक के उपदेश से श्री संघपति माला शामजी को पहनायी गई। सं० १९६३ जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार स्थापित हुआ । लालबाड़ी में मांडवी चातुर्मास कर मुंद्रा में पधारे और रामश्रीजो को में विविध प्रकार के उत्सव हुए। आचार्य श्री ने अपने दीक्षित किया। वहीं इनकी बड़ी दीक्षा हुई और कल्याण- भाई गणशी भाई की प्रार्थना से सं० १८६८ का चातुर्मास
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ १५२ |
लालबाड़ी किया । वेलजी भाई को दीक्षा देकर मेघमुनि नाम से प्रसिद्ध किया, बहुत से उत्सव हुए।
सं० १६६६ में दश साधुओं के साथ चरित्रनायक ने सूरत चौमासा किया | फिर बड़ौदा पधारकर लब्धिमुनिजी के शिष्य मेघमुनिजी व गुलाबमुनिजी के शिष्य रत्नाकर मुनि को बड़ी दीक्षा दी । सं० २००० का चातुमस रतलाम किया, उपधान तप अ दि अनेक धर्म कार्य हुए । सेमलिया जी की यात्रा कर महीदपुर पधारे। महीदपुर में राजमुनि जी के भाई चुनीलालजी बाफणा ने मन्दिर निर्माण कराया था, प्रतिष्ठा कार्य बाकी था, अतः खरतरगच्छ संघ को इसका भार सौंपा गया पर वह लेख पत्र उनके बहिन के पास रखा, वह तपागच्छ की थी उसने उनलोगों को दे दिया। कोर्ट चढ़ने पर दोनों को मिलकर प्रतिष्ठा करने का आदेश हुआ, पर उन्होंने कब्जा नहीं छोड़ा तो क्लेश बढ़ता देख खरतरगच्छ वालों ने नई जमीन लेकर मन्दिर बनाया और उसमें राजमुनिजी व नयमुनिजी के ग्रन्थों का ज्ञान भंडार स्थापित किया। प्रतिमा की अप्राप्ति से संघ चिन्तित था क्योंकि उत्सव प्रारंभ हो गया था फिर उपा ध्यायजी, रत्नश्रीजी और श्रावक और श्राविका गोमी बाई की एक सा प्रतिमा प्राप्त होने व पुष्पादि से पूजा करने का स्वप्न आया । आचार्य श्री ने बीकानेर जाकर प्रतिमा प्राप्त करने की प्रेरणा दी। सं० ११५५ की प्रतिमा तत्काल प्राप्त हो गई और आनन्दपूर्वक प्रतिष्ठासम्पन्न हुई । दादा साहब की मूर्ति पादुकाएँ, राजमुनिजी व सुखसागर जी की पादुकाएं तथा चक्रेश्वरी देवी की भी प्रतिष्ठा हुई । सं० २००१ का चातुर्मास महोदपुर हुआ । बड़ोदिया में पधारने पर उद्यापन व दादासाहब की चरण प्रतिष्ठा हुई शुजालपुर के मंदिर में दादासाहब की चरण प्रतिष्ठा की । स० २००२ का चातुर्मास कर आसामपुरा, इन्दीर होते हुए मांडवगढ़ यात्रा कर रतलाम पधारे। गरवट्ट गाँव में दादासाहब की चरण प्रतिष्ठा की । तद
नन्तर भानपुरा कुकुटेश्वर, प्रतापगढ़ व चरणोद पधारे । चरणोद में प्रतिष्ठा कार्य सम्पन्न कराके सं० २००३ को प्रतापगढ़ में चातुर्मास किया । मंदसौर में चक्रेश्वरीजी की प्रतिष्ठा कराई । जावरा से सेमलियाजी का संघ निकला, संघपति चांदमलजी चोपड़ा को तीर्थमाला पह नायी । रतलाम से खाचरोद पधारे । जावरा के प्यारचं द जी पगारिया ने वइ पार्श्वनाथजीका संघ निकाला । तदनंतर जयपुर की ओर बिहार कर कोटा पधारे। गणि श्री भावमुनिजी को पक्षाघात हो गया और जेठ वदि १५ की रात्रि में उनका समाधिपूर्वक स्वर्गवास हो गया ।
स० २००४ का चातुर्मास कोटा में हुआ । भगवती सूत्रवाचना, अठाई महोत्सव एवं स्वधर्मी वात्सल्या दि अनेक धर्मकार्य सेठ केशरीसिंहजी बाफणा ने करवाये । तदनंतर सूरिजो जयपुर पधारे । अशातावेदनीय के उदय से शरीर में उत्पन्न व्याधि को समता से सहन किया । श्रीमालों के मंदिर में देशगाजीखान से आई हुई प्रतिमाए स्थापित की । कच्छ भुज की दादाबाड़ी की प्रतिष्ठा के लिये संघ की ओर से विनती करने रवजी शिवजी बोरा आये । सं० २००५ का चातुर्मास जयपुर कर स० २००६ का अजमेर में किया । सं० २००७ ज्येष्ठ सुदि ५ को विजयनगर में प्रतिष्ठा महोत्सव हुआ, चन्द्रप्रभस्वामी आदि के सह दादासाहब के चरणों की प्रतिष्ठा की । फिर रतनचन्दजी संचेती की विनती से अजमेर पधारे । उनके बीस स्थानक का उद्यापन हुआ । भगतियाजी की कोठी के देहरासर में दादा साहब जिनदत्तसूरि मूर्ति की प्रतिष्ठा करवायी । अजमेर से व्यावर पधार कर मुलतान निवासी हीरालालजी भुगड़ी को स० २००७ आषाढ़ सुदि १ को दीक्षित कर हीरमुनि बनाये | उपधान तप हुआ। सूरिजी चातुर्मास पूर्ण कर पाली, राता महावीर जी, शिवगंज, कोरटा होते हुए गढ़सिवाणा पधारे। फिर वांकली, तखतगढ़ होकर श्रीकेशरमुनिजी की जन्मभूमि
2.
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
। १५३ ।
चूडा पधारे। सं० २००८ जेठ बदि ७ को दादा जिनदत्तसूरि मूर्ति, मणिधारी जिनचंद्रसूरि व जिनकुशलसूरि एवं पं० केशरमुनिजी की पादुकाऐं प्रतिष्ठित की। वहां से आहोर जालोर होते हुए गढ़सिवाणा आकर चातुर्मास किया । फिर नाकोड़ाजी पधार कर मार्गशिर सुदि १ को दादासाहब जिनदत्तसूरि मूर्ति व श्रीकीर्तिरत्नसूरिजी की जीर्णोद्धारित देहरी में प्रतिष्ठा करवाई । नाकोड़ाजी से विहार कर सूरिजी डीसा कैंप भीलड़ियाजी होते हुए राधनपुर, कटारिया, अंजार होते हुए भद्रेश्वर तीर्थं पहुँचे ।
भद्रेश्वरजी की यात्रा कर मांडवी होते हुए भुज पधारे, संघ का चिरमनोरथ पूर्ण हुआ । यहाँ दादाबाड़ी निर्माण का लम्बा इतिहास है पर इसकी चेष्टा करने वाले हेमचन्द भाई जिस दिन स्वर्गवासी हुए उसी दिन आपने स्वप्न में पुरानी और नई दादावाड़ी आदि सहित उत्सव को व हेमचंद भाई आदि को देखा वही दृश्य भुज की दादावाड़ी प्रतिष्ठा के समय साक्षात् हो गया । सं० २००६ माघ सुदि ११ को बड़े समारोह पूर्वक प्रतिष्ठा हुई। सूरत से सेठ बालूभाई विधि-विधान के लिये आये। जिनदत्तसूरि की प्रतिमा व मणिधारी जिनचन्द्रसूरि व श्री जिनकुशलसूरि के
बीसवीं शताब्दी के महापुरुषों में खरतरगच्छ विभूषण श्री मोहनलालजी महाराज का स्थान सर्वोपरि है । वे बड़े प्रतापी, क्रियापात्र, त्यागी तपस्वी और वचनसिद्ध योगी पुरुष थे। उनमें गच्छ कदाग्रह न होकर संयम साधन और समभावी श्रमणत्व सुविशेष था । उनका शिष्य समु दाय भी खरतर और तपा दोनों गच्छों की शोभा बढ़ाने
चरणों की प्रतिष्ठा बड़े धूमधाम से हुई ।
सं० २०१० का चातुर्मास सूरिजी ने मांडवी किया । मि० व० २ को धर्मनाथ जिनालय पर ध्वजदंड चढ़ाया गया, उत्सव हुए। मोटा आसंबिया में मंदिर का शताब्दी महोत्सव हुआ । भुज की दादाबाड़ी में हेमचंद भाई की ओर से नवीन जिनालय निर्माण हेतु सं० २०११ वै० शु० १२ को सूरिजी के कर कमलों से खात मुहूर्त हुआ । तदनंतर सूरिजी ने अंजार चातुर्मास किया ।
चातुर्मास के पश्चात् भद्रेश्वर यात्रा कर मांडवी पधारे। वहां की विशाल रमणीय दादावाड़ी में दादा जिनदत्तसूरि प्रतिमा विराजमान करने का उपदेश दिया, पटेल वीकमसी राघवजी ने इस कार्य को सम्पन्न करने की अपनी भावना व्यक्त की । सूरिजी का शरीर स्वस्थ था, आँख का मोतियाबिंद उतरता था जिसका इलाज कराना था पर माघ वदी ८ को अर्द्धाङ्ग व्याधि हो गयी ओर माघ सुदि १ के दिन समाधिपूर्वक स्वर्गवासी हुए । आपने अपने जीवन में शुद्ध चरित्र पालन करते हुए, शासन और गच्छ की खूब प्रभावना की थी ।
विद्वद्वर्य उपाध्याय श्रीलब्धिमुनिजी
[ भंवरलाल नाहटा ]
वाला है । उ० श्रीलब्धिमुनिजी महाराज ने आपके वचनामृत से संसार से विरक्त होकर संयम स्वीकार किया था ।
श्रीलब्धिमुनिजी का जन्म कच्छ के मोटी खाखर गाँव में हुआ था। आपके पिता दनाभाई देढिया वीसा ओसवाल थे । सं० १९३५ में जन्म लेकर धार्मिक संस्कार युक्त माता-पिता की छत्र-छाया में बड़े हुए । आपका नाम
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
w] लधाभाई था। आपसे छोटे भाई नानजी और रतनबाई केशरमुनिजी व रत्नमुनिजी के साथ विचर कर चार वर्ष नामक बहिन थी। सं० १६५८ में पिताजी के साथ बम्बई बम्बई विराजे । सं० १९८९ का चौमासा जामनगर करके जाकर लधाभाई, मायखला में सेठ रतनसी की दुकान में फिर कच्छ पधारे । मेराऊ, मॉडवी, अंजार, मोटी खाखर, काम करने लगे। यहाँ से थोड़ी दूर पर सेठ भीमसी करमसी मोटा आसंबिया में क्रमश: चातुर्मास करके पालीताना को दुकान थी, उनके ज्येष्ठ पुत्र देवजो भाई के साथ और अहमदाबाद में दो चातुर्मास व बम्बई, घाटकोपर में आपकी घनिष्ठता हो गई क्योंकि वे भी धार्मिक संस्कार दो चातुर्मास किये । सं० १९९६ में सूरत चातुर्मास करके वाले व्यक्ति थे। सं० १९५८ में प्लेग की बीमारी फैली फिर मालवा पधारे। महीदपुर, उज्जैन, रतलाम में जिसमें सेठ रतनसी भाई चल बसे। उनका स्वस्थ शरीर चातुर्मास कर सं० २००४ में कोटा, फिर जयपुर, अजमेर, देखते-देखते चला गया, यही घटना संसार की क्षणभंगुरता व्यावर और गढ़ सिवाणा में सं० २००८ का चातुर्मास बताने के लिये आपके संस्कारी मनको पर्याप्त थी। मित्र बिता कर कच्छ पधारे। सं० २००६ में भुज चातुर्मास देवजी भाई से बात हुई, वे भी संसार से विरक्त थे। कर श्रीजिनरत्नसूरिजी के साथ ही दादाबाड़ी को प्रतिष्ठा संयोगवश उस वर्ष परमपूज्य श्रीमोहनलालजी महाराज को। फिर मांडवी, अंजार, मोटा आसंबिया, भुज आदि का बम्बई में चातुर्मास था। दोनों मित्रों ने उनकी अमृत- में विचरते रहे। सं० १६७६ से २०११ तक जबतक वाणी से वैराग्य-वासित होकर दीक्षा देने की प्रार्थना की। श्रोजिनरत्नसूरिजी विद्यमान थे, अधिकांश उन्हीं के साथ
पूज्यश्री ने मुमुक्षु चिमनाजी के साथ आपको अपने विचरे, केवल दस बारह चौमासे अलग किये थे। उनके विद्वान शिष्य श्रीराजमुनिजी के पास आबू के निकटवर्ती स्वर्गवास के पश्चात् भी आप वृद्धावस्था में कच्छ देश के मंढार गांव में भेजा। राजमुनिजो ने दोनों मित्रों को विभिन्न क्षेत्रों को पावन करते रहे । सं० १९५८ चैत्रवदि ३ को शुभमुहर्त में दीक्षा दी। आप बड़े विद्वान, गंभीर और अप्रमत्त विहारी थे । श्रीदेवजी भाई रत्नमुनि (आचार्य श्रीजिनरत्नसूरि) और लधा विद्यादान का गुण तो आप में बहुत ही श्लाघनीय था। भाई लब्धिमुनि बने । प्रथम चातुर्मास में पंच प्रतिक्रमणादि काव्य, कोश, न्याय, अलंकार, व्याकरण और जैनागमों का अभ्यास पूर्ण हो गया । सं० १६६० वैशाख सुदि १० के दिग्गज विद्वान होने पर भी सरल और निरहंकार रह को पन्यास श्रीयशोमुनिजी (आ० जिनयशःसूरिजी) के पास कर न केवल अपने शिष्यों को ही उन्होंने अध्ययन कराया आप दोनों की बड़ो दीक्षा हुई। तदनन्तर सं० १९७२ तक अपितु जो भी आया उसे खूब विद्यादान दिया। श्रीजिनराजस्थान, सौराष्ट्र, गुजरात और मालवा में गुरुवर्य श्रीराज- रत्नसूरिजी के शिष्य अध्यात्मयोगी सन्त प्रवर श्रीभद्रमुनि मुनिजी के साथ विचरे । उनके स्वर्गवासी हो जाने से डग ( सहजानंदघन ) जी महाराज के आप ही विद्यागुरु थे । में चातुर्मास करके सं० १६७४-७५ के चातुर्मास बम्बई उन्होंने विद्यागुरु की एक संस्कृत व छः स्तुतियाँ भाषा
और सूरत में पं० श्रीऋद्धिमुनिजी और कान्तिमुनिजी के में निर्माण को जो लब्धि-जीवन प्रकाश में प्रकाशित हैं । साथ किये। तदनन्तर कच्छ पधार कर सं० १९७६-७७ के उपाध्यायजी महाराज अपना अधिक समय जाप में तो चातुर्मास भुज व मॉडवी में अपने गुरु-भ्राता श्रीरत्नमुनिजी बिताते ही थे पर संस्कृत काव्यरचना में आप बड़े सिद्धके साथ किये। सं० १९७८ में उन्हीं के साथ सूरत हस्त थे। सरल भाषा में काव्य रचना करके साधारण चौमासा कर १६७६ से ८५ तक राजस्थान व मालवा में व्यक्ति भो आसानीसे समझ सके इसका ध्यान रख कर
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १५ ] क्लिष्ट शब्दों द्वारा विद्वत्ता प्रदर्शन से दूर रहे। आप आपने जैनमन्दिरों, दादावाड़ियों और गुरु चरणसंस्कृत भाषा के प्रखर विद्वान और आशुकवि थे। सं० मूर्तियों की अनेक स्थानों में प्रतिष्ठाए करवायी। आपके १९७० में खरतरगच्छ पट्टावली की रचना आपने १७४५ उपदेश से अनेक मन्दिरों का नवनिर्माण व जीर्णोद्धार श्लोकों में की। सं० १९७२ में कल्पसूत्रटीका रची । नवपद हआ। सं० १९७३ में पणासली में जिनालय की प्रतिष्ठा स्तुति, दादासाहब के स्तोत्र, दीक्षाविधि, योगोद्वहन विधि कराई। सं० २०१३ में कच्छ मांडवी की दादावाड़ी का आदि की रचना आपने १९७७-७६ में की। सं० १६६० माघबदि २ के दिन शिलारोपण कराया । सं० २०१४ में में श्रीपालचरित्र रचा।
निर्माण कार्य सम्पन्न होने पर श्रीजिनदत्तसूरि मन्दिर की सं० १९६२ में हमारा युगप्रधान श्रीजिनचन्द्रसूरि प्रतिष्ठा करवायी और धर्मनाथ स्वामी के मन्दिर के पास ग्रन्थ प्रकाशित होते ही तदनुसार १२१२ श्लोक और छः खरतर गच्छोपाश्रय में श्रीजिनरत्नसूरिजी की मूर्ति प्रतिष्ठित सर्गो में संस्कृत काव्य रच डाला। सं० १९८० में करवायी। सं. २०१६ में कच्छ-भुज की दादावाड़ी में आपने जेसलमेर चातुर्मास में वहाँ के ज्ञानभंडार से कितने सं० हेमचन्द भाई के बनवाये हुए जिनालय में संभवनाथ ही प्राचीन ग्रन्थों की प्रतिलिपियां की थीं। सं० १९६६ भगवान आदि जिनबिम्बों की अञ्जनशलाका करवायी। में ६३३ पद्यों में श्रीजिनकुशलसूरि चरित्र, सं० १६९८ में और भी अनेक स्थानों में गुरुमहाराज और श्रीजिनरत्नसूरि २०१ श्लोकों में मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरि चरित्र एवं जी के साथ प्रतिष्ठादि शासनोन्नायक कार्यों में बराबर सं० २००५ में ४६८ श्लोकमय श्रीजिनदत्तसूरि चरित्र भाग लेते रहे । काव्य की रचना की।
___ ढाई हजार वर्ष प्राचीन कच्छ देश के सुप्रसिद्ध भद्रेश्वर ____सं० २०११ में श्री जिनरत्नसूरि चरित्र, सं० २०१२ तीर्थ में आपके उपदेश से श्रीजिनदत्तसूरिजी आदि गुरुदेवों में श्रीजिनयश:सूरि चरित्र, सं० २०१४ में श्रीजिनऋद्धि का भव्य गुरु मन्दिर निर्मित हुआ। जिसको प्रतिष्ठा आपके सूरि चरित्र, सं० २०१५ में श्री मोहनलालजी महाराज स्वर्गवास के पश्चात बडे समारोह पूर्वक गणिवर्य श्रीप्रेमका जोवन चरित्र श्लोकबद्ध लिखा । इस प्रकार आपने मनिजी व श्रीजयानन्दमुनिजी के करकमलों से सं० २०२६ नौ ऐतिहासिक काव्यों के रचने का अभूतपूर्व कार्य किया। बैशाख सुदि १० को सम्पन्न हुई। इनके अतिरिक्त आपने सं० २००१ में आत्म-भावना, सं. २००५ में द्वादश पर्व कथा, चैत्यवन्दन चौबीसी, बीस
उपाध्याय श्रीलब्धिमुनिजी महाराज बाल-ब्रह्मचारो, स्थानक चैत्यवन्दन, स्तुतियाँ और पांचपर्व-स्तुतियों की भी उदारचेता, निरभिमानी, शान्त-दान्त और सरलप्रकृति के रचना की। सं० २००७ में संस्कृत श्लोकबद्ध सुसढ चरित्र
दिग्गज विद्वान थे। वे ६५ वर्ष पर्यन्त उत्कृष्ट संयम का निर्माण व २००८ में सिद्धाचलजी के १०८ खमासमण साधना करके ८८ वर्ष की आयु में सं० २०२३ में कच्छ भी श्लोकबद्ध बनाये।
के मोटा आसंबिया गाँव में स्वर्ग सिधारे ।
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्वर्गीय गणिवर्य बुद्धिमुनिजी
[ अगरचन्द नाहटा ]
जैन धर्म के अनुसार सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र ही मोक्षमार्ग है । जो व्यक्ति अपने जीवन में इस रत्नत्रयी की जितने परिमाण से आराधना करता है वह उतना ही मोक्ष के समीप पहुंचता है, मानव जीवन का उद्देश्य या चरम लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना ही है । मनुष्य के सिवा कोई भी अन्य प्राणी मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता । इसलिये मनुष्य जीवन को पाकर जो भी व्यक्ति उपरोक्त रत्नत्रयी की आराधना में लग जाता है उसी का जीवन धन्य है, यद्यपि इस पंचम काल में इस क्षेत्र से सीधे मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती, फिर भी अनन्तकाल के भव-भ्रमण को बहुत ही सीमित किया जा सकता है । यावत् साधना सही और उच्चस्तर की हो तो भवान्तर ( दूसरे भव में) भी मोक्ष प्राप्त हो सकता है । चाहिये संयमनिष्ठा और निरंतर सम्यक साधना | यहां ऐसे ही एक संयमनिष्ठ मुनि महाराज का परिचय दिया जा रहा है जिन्होंने अपने जीवन में रत्नत्रयी की आराधना बहुत ही अच्छे रूप में की है, कई व्यक्ति ज्ञान तो काफी प्राप्त कर लेते हैं पर ज्ञान का फल विरति है उसे प्राप्त नहीं कर पाते और जब तक ज्ञान के अनुसार क्रिया चारित्र का विकास नहीं किया जाय वहां तक मोक्ष प्राप्त नहीं किया जा सकता 'ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्षः । गणिवर्य बुद्धिमुनिजी के जीवन में ज्ञान और चारित्र इन दोनों का अद्भुत सुमेल हो गया था यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है ।
आपका जन्म जोधपुर प्रदेशान्तर्गत गंगाणी तीर्थ के समीपवर्ती बिलारे गांव में हुआ था। चौधरी (जाट) वंश में जन्म लेकर भी संयोगवश आपने जैन - दीक्षा ग्रहण की।
आपके पिता का स्वर्गवास आपके बचपन में ही हो गया था और आपकी माता ने भी अपना अन्तिम समय जान कर इन्हें एक मठाधीश- महंत को सौंप दिया था, वहां रहते समय सुयोगवश पन्यास श्री केसरमुनिजी का सत्समागम आपको मिला और जैन मुनि की दीक्षा लेने की भावना जाग्रत हुई । पन्यासजी के साथ पैदल चलते हुए लूणी जंकशन के पास जब आप आये तो सं० १९६३ में ह वर्ष की छोटी सी आयु में ही आप दीक्षित हो गये आपका जन्म नाम नवल था, अब आपका दीक्षा नाम बुद्धिमुनि रखा गया वास्तव में यह नाम पूर्ण सार्थक हुआ आपने अपनी बुद्धि का विकास करके ज्ञान और चारित्र की अद्भुत आराधना की। थोड़े वर्षों में ही आप अच्छे विद्वान हो गये और अपने गुरुश्री को ज्ञान सेवा में सहयोग देने लगे ।
तत्कालीन आचार्य जिनयशः सूरिजी और अपने गुरु केसरमुनिजी के साथ सम्मेतशिखरजी की यात्रा करके आप महावीर निर्वाण - भूमि पावापुरी में पधारे आचार्यश्री का चतुर्मास वहीं हुआ और ५३ उपवास करके वे वहीं स्वर्गवासी हो गये, तदनन्तर अनेक स्थानों में विचरते हुए आप गुरुश्री के साथ सूरत पधारे, वहां गुरुश्री अस्वस्थ हो गये और बम्बई जाकर चतुर्मास किया उसी चातुर्मास में कार्तिक शुक्ला ६ को पूज्य केसरमुनिजी का स्वर्गवास हो गया । करीब २० वर्ष तक आपने गुरुश्री की सेवा में रहकर ज्ञानवृद्धि और संयम और तप - जो मुनि जीवन के दो विशिष्ट गुण हैं - में आपने अपना जीवन लगा दिया आभ्यंतर तप के ६ भेदों में वैयावृत्य सेवा में आपकी बड़ी रुचि थी, आपके गुरुश्री के भ्राता पूर्णमुनिजी के शरीर में
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
। १५७ ]
एक भयंकर फोड़ा हो गया उससे मवाद निकलता था स्थ रहने लगे. फिर भी ज्ञान और संयम की आराधना में और उसमें कीड़े पड़ गये थे दुर्गन्ध के कारण कोई आदमी निरन्तर लगे रहते थे । पास भी बैठ नहीं पाता था, पर आपने ६ महीनों तक
कदम्बगिरि के संघ में सम्मिलित होकर सौभागचन्दजी अपने हाथों से उसे धोने मल्हमपट्टी करने आदि का काम
मेहता को आपने संघपति की माला पहनाई और तदनन्तर सहर्ष किया। इससे पूर्णमुनिजी को बहुत शाता पहुँची,
उपाध्यायजी की आज्ञानुसार अस्वस्थ होते हुए भी भुजवे स्वस्थ हो गये।
कच्छ के सम्भवनाथ जिनालय की अंजनशलाका और आगमों का अध्ययन करने के लिए आपने सम्पूर्ण प्रतिष्ठा उपाध्यायजी के सान्निध्य में करवाई फिर पालोआगमों का योगोद्वहन किया। इसके बाद सं० १९६५ में ताना पधारे और सिद्धगिरि पर स्थित दादाजी के चरणसिद्धक्षेत्र पालीताना में आचार्य श्रोजिनरत्नसूरिजी ने आपको पादुकाओं की प्रतिष्ठा और श्रीजिनदत्तसूरि सेवा संघ के गणिपद से विभूषित किया।
अधिवेशन में सम्मिलित हुए। वहां श्रीगुलाबमुनिजी काफी
दिनों से अस्वस्थ थे। आपने उनकी सेवामें कोई कसर नहीं मारवाड़, गुजरात, कच्छ, सौराष्ट्र और पूर्व प्रदेश तक
रखी, पर उनकी आयुष्य की समाप्ति का अवसर आ चुका में आप निरंतर विचरते रहे। कच्छ और मारवाड़ में तो
था, अतः सं० २०१७ वैसाख सुदि १० महावीर केवलज्ञान आपने कई मन्दिरमूर्तियों एवं पादुकाओं की प्रतिष्ठा भो करवायी। श्रीजिनरत्नसूरिजी की आज्ञा से भुज में दादा
तिथि के दिन गुलाबमुनिजी स्वर्गस्थ हो गये। जिनदत्तसूरिजी की मूर्ति एवं अन्य पादुकाओं को प्रतिष्ठा आपका स्वास्थ्य पहले से हो नरम चल रहा था और बड़ी धूमधाम से करवाई। वहाँ से मारवाड़ के चूड़ा ग्राम में काफी अशक्ति आ गई थी। तलहट्टो तक जाने में भी आकर जिनप्रतिमा, नूतन दादावाड़ी और जिनदत्तसूरिजी आप थकजाते थे। पर सं० २०१८ के मिगसर से स्वास्थ्य को मूर्ति-प्रतिष्ठा करवाई । चूडा चातुर्मास के समय ही और भी गिरने लगा और वेद्यों के दवा से भी कोई फायदा आपको जिनरत्नसूरिजी के स्वर्गवास का समाचार मिला नहीं हुआ तो आप को डोली में विहार करके हवापानी आचार्यश्री को अन्तिम आज्ञानुसार आपने जिनऋद्धिसूरिजो बदलने के लिए अन्यत्र चलने को कहा गया । पर आपने के शिष्य गुलाबमुनिजी को सेवा के लिए बम्बई की ओर यही कहा कि मैं डोली में बैठकर कभी विहार नहीं करूंगा विहार किया और उनको अंतिम समय तक अपने साथ रख फाल्गुन महीने से ज्वर भी काफी रहने लगा और वैद्यों ने कर उनकी खूब सेवा की, उनके साथ गिरनार, पालीताना आपको श्रम करने का मना कर दिया। पर आप ज्वर में आदि तीर्थों की यात्रा को । इसी बीच उपाध्याय लब्धि- भी अपने अधूरे कामों को पूरा करने-लिखने आदि में लगे मुनिजी का दर्शन एवं सेवा करने के लिये आप कच्छ पधारे रहते थे। चिकित्सक को आपने यही उत्तर दिया कि यह
और वहाँ मंजलग्नाम में नये मन्दिर और दादावाड़ी की तो मेरी रुचि का विषय है, लिखना बन्द कर देने पर तो प्रतिष्ठा उपाध्यायजी के सान्निध्य में करवाई, इसी तरह और भी बीमार पड़ जाऊँगा । वैद्यों की दवा में लाभ अंजार (कच्छ) के शान्तिनाथ जिनालय के ध्वजादंड एवं होता न देखकर आपसे डाक्टरी इलाज करने का अनुरोध गुरुमूर्ति आदि की प्रतिष्ठा करवाई। वहां से विचरते हुये किया गया, तो आपने कहा कि मैं कोई डाक्ट्री दवा-इजेपालीताना पधारे अशाता वेदनीय के उदय से आप अस्व- क्शन-मिक्सचर आदि नहीं लूंगा। तुम लोग आग्रह करते
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
होतो फिर सूखी दवा ले सकता हूं। दो तीन महीने दवा सुव्यवस्था की, सूची बनाई । आप जो काम स्वयं कर ली भी, पर कोई फायदा नहीं हुआ। तब श्रीप्रतापमलजी सकते थे, दूसरों से न हो करवाते थे। श्रावक समाज का सेठिया और अरचतलाल शिवलाल ने बम्बई से एक कुशल थोड़ा-सा भी पैसा बरबाद न हो और साध्वाचार में तनिक वैद्य को भेजा। पर अशाता वेदनीय कर्मोदय से कोई भी भी दूषण न लगे इसका आप पूर्ण ध्यान रखते थे। अनेक दवा लागू नहीं पड़ी। आप अपने शिष्यों को हित की ग्रन्थों का सम्पादन एवं संशोधन बड़े परिश्रम पूर्वक शिक्षा देते रहते थे। शिष्यों ने कहा कि कल्प सूत्र के गुजराती आपने किया था। खरतरगच्छ गुर्वावली के हिंदी अनुअनुवाद का मद्रण अधरा पड़ा है। उसे कौन पूरा करेगा? वाद का संशोधन-कार्य जब आपको सौंपा गया तब ग्रन्थ प्रत्युत्तर में आपने कहा- इसको चिन्ता मत करो, जहां के शब्द व भाव को ठीक से समझ कर पंक्ति पंक्ति का तक वह पूरा नहीं होगा, मेरी मृत्यु नहीं होगी। आपका संशोधन किया। आपके सम्पादित एवं संशोधित ग्रन्थों दृढ़ निश्चय और भविष्यवाणी सफल हुई और आपके स्वर्ग- में प्रश्नोत्तरमञ्जरी, पिंडविशुद्धि, नवतत्व संवेदन, चातुर्मावास के दो-तीन दिन पहले ही कल्पसूत्र छप कर आ गया सिक व्याख्यान पद्धति, प्रतिक्रमण हेतुगर्भ, कल्पसूत्र संस्कृत और उसे दिखाने पर आपने उसे मस्तक से लगाया, ऐसी टीका, आत्मप्रबोध, पुष्पमाला लघुवृत्ति आदि प्राकृतआपकी अपूर्व ज्ञान-भक्ति थी।
संस्कृत ग्रन्थों का तथा जिनकुशलसूरि, मणिधारी जिन___ श्रावण सुदी पंचमी से आपकी तबियत ओर भी
चन्द्रसूरि, युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि आदि ग्रन्थों के गुजराती बिगड़ने लगो पर आप पूर्ण शांति के साथ उत्तराध्ययन,
व्ययन, अनुवाद के संशोधन में आपने काफी श्रम किया। सूत्रपदमावती सज्झाय, प्रभंजना व पंचभावना की सज्झाय
कृतांग सूत्र भाग १-२ द्वादशपर्वकथा के अतिरिक्त जयसोआदि सुनते रहते थे। सप्तमी के दिन आपका शरीर मोपाध्याय के प्रश्नोत्तर चत्वारिंशत् शतक का सम्पादन ठंडा पड़ने लगा। उस समय भी आपने कहा- मुझे एवं गुजराती अनुवाद बहुत ही महत्वपूर्ण है। इस अन्य जल्दी प्रतिक्रमण कराओ। प्रतिक्रमण के बाद नवकार के सम्पादन के द्वारा आपने खरतरगच्छ की महान् सेवा मंत्र की अखण्ड धुन चालू हो गयी। सबसे क्षमापना की है। आपने और भी कई छोटे मोटे ग्रन्थों का सम्पाकर ली। दूसरे दिन साढ़े तीन बजे आपने कहा मुझे दन एवं संशोधन नाम और यश की कामना रहित होकर बैठाओ ! पर एक मिनट से अधिक न बैठ सके और नवकार किया। ऐसे महान मुनिवर्य का अभाव बहुत ही खटकता मन्त्र का स्मरण करते हुए श्रावण शुक्ल अष्टमी पाश्वनाथ
है। श्री जयानंदमनिजी आदि आपके शिष्यों से भी आशा मोक्ष कल्याणक के दिन स्वर्गवासो हो गये।
है, अपने गुरुदेव का अनुकरण कर गच्छ एवं शासन को ___ आप एक विरल विभूति थे। आपके चारित्र की सेवा करने का प्रयत्न करेंगे। की प्रशंसा स्वगच्छ और परगच्छ के सभी लोग मुक्त कण्ठ स्वर्गीय गणिवर्य को श्रीमदेवचन्द्रजी की रचनाओं से करते थे। ज्ञानोपासना भी आपकी निरन्तर चलती के स्वाध्याय एवं प्रचार में विशेष रुचि थी। कई वर्ष रहती थी। एक मिनट का समय भी व्यर्थ खोना आपको पूर्व श्रीमद् देवचन्द्रजी को अप्रसिद्ध रचनाओं का संकलन
करके एक पुस्तक प्रकाशित करवाई थी। जिस रहस्य बहुत ही अखरता था। साध्वोचित क्रियाकलाप करने
को श्रीमद् देवचन्दजी ने अपूर्व शैली द्वारा प्रकाशितकिया है, के अतिरिक्त जो भी समय बचता था; आप ज्ञान सेवा में पूज्य बुद्धिमुनिजी का जीवन बहुत कुछ उन्हीं आदर्शों से लगाते थे। इसीलिए आपने कई ज्ञानभन्डारों की ओतप्रोत था।
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरिजी और उनका साधु समुदाय
[भंवरलाल नाहटा]
बीसवीं शताब्दी के चारित्रनिष्ठ प्रभावक महापुरुषों मन्दिर, नाल को धर्मशाला आदि लाखों की सम्पत्तिमें श्री जिनकृपाचन्द्रसूरिजी का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण परिग्रह का त्याग कर क्रियोद्धार किया। इन्दौर में पैंताहै। उन्होंने अपने जीवन में जैन शासन की उल्लेखनीय लीस आगम वांचे। आपने बत्तीस वर्ष पर्यन्त विद्याध्ययन सेवायें की और गुजरात, राजस्थान, कच्छ और मध्यप्रदेश किया था । यति अवस्था में आपने ज्योतिष विषयकग्रन्थों का में उनविहार करके खरतरगच्छ को प्रतिष्ठा में समुचित भी गहन अध्ययन किया था पर साधु होने के बाद उस ओर अभिवृद्धि की थी। वे एक तेजस्वी, विद्वान और महान् लक्ष नहीं दिया। कायथा में एक दोक्षा दी। यति अवस्था प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी थे। उन्हें देखकर पूर्वाचार्यों के शिष्य तिलोकमुनि भी कुछ दिन साधुपने में रहे थे । की स्मृति साकार हो जाती थी। खरतरगच्छ की सुवि- सं० १९५२ में उदयपुर चौमासा कर केशरियाजी पधारे । हित परम्परा में अनेक महापुरुषों ने यतिपने के परिग्रह खैरवाड़ा में जैनमन्दिर की प्रतिष्ठा करवायो। सं० १९५३ त्याग स्वरूप क्रियोद्धार करके आत्म-साधना क्रम को देसूरी, १९५४ जोधपुर, सं० १६५५ जेसलमेर, १९५६ अक्षुण्ण रखा है उन्हीं में से आप एक थे।
फलौदी चौमासा करके १६५७ में बीकानेर पधारे और ___ आपका जन्म जोधपुर राज्य के चानु गांव में बाफणा अपनी यतिपने की सारी सम्पत्ति को जिसे पहले ही परिमेघराजजी की धर्मपत्नी अमरादेवी को कुक्षि से सं० त्याग कर चुके थे विधिवत् ट्रष्टी आदि कायमकर संघ को सुपुर्द १९१३ में हुआ था। पूर्व पुण्य के प्राबल्य से आपको की। सं० १६५८ जैतारण चौमासा कर गोड़वाड़ पंचतीर्थी साधारण विद्याध्ययन के पश्चात् गुरुवर्य श्रीयुक्तिअमृत करते हुए फलोदी निवासी सेठ फूलचन्दजी गोलछा के संघ मुनि का संयोग प्राप्त हुआ जिससे पंचप्रतिक्रमणादि धार्मिक सहित शत्रुञ्जय-यात्रा की। सं० १९५६ पालीताना, अभ्यास के पश्चात् व्याकरण, न्याय, कोष आदि विषयों का १९६० पोरबन्दर चातुर्मास कर कच्छ देश में पदार्पण अच्छा ज्ञान हो गया। सदाचारी और त्याग वैराग्यवान् किया । मुंद्रा, मांडवी, बिदड़ा, भाडिया, अंजार आदि होने से सिद्धान्त पढ़ाने योग्य ज्ञात कर गुरुजी ने आपको स्थानों में पाँच वर्ष विचरे और पाँच उपधान करवाये। सं. १९३६ में यति दीक्षा दी। गुरुमहाराज के साथ दस साधु-साध्वियों को दोक्षा दी। माण्डवी से आपके अनेक स्थानों को तीर्थयात्रा व धर्मप्रचार हेतु आपने अनेक उपदेश से सेठ नाथाभाई ने शत्रुजय का संघ निकाला। स्थानों में चातुर्मास किये। रायपुर, नागपुर आदि मध्य सं० १९६६ में आपश्री ने १७ ठाणों से चातुर्मास पालीप्रदेश में आपने पर्याप्त विचरण किया था। संयम मार्ग में ताना में किया। नन्दीश्वर द्वीप की रचना हुई और पाँच आगे बढ़ने की भावना थी ही । सं० १९४१ में गुरु महाराज साधु-साध्वियों को दीक्षित किया। सं० १९६० में जामका स्वर्गवास हो जाने से वैराग्य परिणति में और भी अभि- नगर चातुर्मास कर उपधानतप कराया, चार दीक्षाएं हुई। वृद्धि हुई । परिणाम स्वरूप आपने ज्ञानभंडार, दो उपाश्रय सं० १९६८ में मोरबी चातुर्मास कर भोयणी, संखेश्वर होते
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
हुए अहमदाबाद पधारे। १९६१ का चातुर्मास किया। केशरीचन्द ने उद्यापन किया। धम्माभाई, पानाभाई, फिर तारंगाजो, खंभात यात्रा कर सं० १९७० का मोतीभाई आदि ने चतुर्थ व्रत ग्रहण किया। सं० १९७५-७६ चौमासा पालीताना किया। रतलाम वाले सेठ चाँदमलजी का चातुर्मास करके सं० १९७७ में बड़ौदा चातुर्मास किया। को धर्मपत्नी फूलकुंवर बाई ने आपसे भगवतीसूत्र बंचाया, रतलाम वाले सेठजो ने आकर मालवा पधारने की वीनती की उपधान करवाया । सोने को मोहरों की प्रभावना और और रुपया-नालेर की प्रभावना की । तदनन्तर आप अहमस्वधर्मीवात्सल्यादि किये।।
दाबाद, कपड़बंज, रम्भापुर, झाबुआ होते हुए रतलाम पालीताना से आपश्री भावनगर, तलाजा होते हुए पधारे। उपधानतप के अवसर पर रतलाम-नरेश सजनखंभात पधारे। वहाँ से सेठ पानाचन्द भगूभाई की विनती सिंहजी भी दर्शनार्थ पधारे। यहाँ पाँच साधु-साध्वियों से सूरत पधार कर सं० १९७१ का चौमासा किया। वहाँ को दीक्षित कर इन्दौर पधारे । सं० १९७६ का चातुर्मास साधुओं को दीक्षा दी। तदनन्तर जगड़िया, भरौंच, कावी कर भगवती मूत्र वांचा। रतलाम वाले सेठाणीजी ने तीर्थ होते हुए पादरा पाधारे । वहाँ से बड़ौदा होते हुए रुपया नारेल की प्रभावना को। श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरिजी बम्बई पधारे । मोतोसाह सेठ के वंशज सेठ रतनचन्द खीम- ज्ञान भण्डार की स्थापना हुई। उ० सुमतिसागरजी को चन्द, मूलचन्द हीराचन्द, प्रेमचन्द कल्याणचन्द, के शरीचन्द महोपाध्याय पद, राजसागरजी को वाचक पद व मणिकल्याणचन्द आदि संघ ने आपका प्रवेशोत्सव बड़े ठाठ से सागरजी को पण्डित पद से विभूषित किया गषा। कराया। लालबाग में सं० १९८२ का चौमासा करके संघ सहित मांडवगढ़ की यात्रा कर भोपावर, राजगढ़, भगवतीसूत्र वाँचा। आपको विद्वत्ता, वाचनकला और खाचरोद, सेमलिया होते हुए सैलाना पधारे । सैलाना नरेश उच्चचरित्र से संघ बड़ा प्रभावित हुआ और आपकी इच्छा न आपके उपदेशों से बड़े प्रभावित हुए। तदनन्तर प्रतापगढ़ होते होते हुए भी संघ के अत्यन्त आग्रह से आचार्यपद स्वीकार हए मंदसौर में सं० १९७६ का चातुर्मास किया। वहाँ से करना पड़ा। इस अवसर पर लालबाग में पंचतीर्थी को नीमच, नींबाहेड़ा, चित्तौड़ होते हुए करहेड़ा पार्श्वनाथ और रचना हुई । बीकानेर से श्रीजिनचारित्रसूरिजी को साम्नाय देवलवाड़ा होकर उदयपुर पधारे। कलकत्ता बाले बाबू सूरिमंत्र देने के लिए बुलाया गया।
चंपालाल प्यारेलाल के संघ सहित केशरिया जी पधारे । सं० १६७३ का चौमासा भी बम्बई हुआ। विहार वहाँ से लौटकर सं० १९८१ का चातुर्मास ठाणा २५ से करके मार्ग में तीन साधुओं को दोक्षित किया । सूरतवालो उदयपर किया। तदनन्तर राणकपुर पंचतीर्थी करके जालौर, कमलाबाई को विनती से बुहारी पधार कर चातुर्मास
बालोतरा पधारे। सं० १९८२ का चातुर्मास बातोतरा किया और श्रीवासुपूज्य भगवान के जिनालय की प्रतिष्ठा
किया । नाकोड़ा पार्श्वनाथ यात्राकरके संघसहित जेसलमेर करवायी। तीन दीक्षाएं दीं। सुरत चातुर्मास के लिए पधारे । साध-विहार न होने से मारवाड़ में लोग धर्म पानाचन्द भगुभाइ आर कल्याणचन्द घलाभाइ आदि का विमख हो गये थे। ओपने जिनप्रतिमा के आस्थावान करके विशेष विनति से शोतलवाड़ो उपाश्रय में विराजे । पाना• बाहड़मेर में एक दिन में ४०० मुहपत्तियां तोड़वाकर श्रद्धालु चन्द भाई ने जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार बनवाया व उद्यान
बनाया। सं० १९८३ में जेसलमेर चातुर्मासकर वहां के किया। इस अवसर पर श्रीजयसागरजी को उपाध्यायपद श्रीजिनभद्रसरि ज्ञानभंडार के ताडपत्रीय ग्रन्थों का जीर्णोव सुखसागरजी को प्रवर्तक पद से विभूषित किया। प्रेमचंद द्धार कराया । कई प्रतियों के फोटो स्टेट व नकले करवाई।
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
कई ग्रन्थों की प्रेसकापियाँ करवा लाये । सं० १९८४ का का अवसर मिला। जो गुण उनमें देखे गये अद्यतन कालीन चौमासा फलौदी करके मा० सु० ५ को बीकानेर पधारे। साधुओं में दुर्लभ हैं। उनमें समय की पाबन्दी बड़ी बीकानेर में आपने तीन चातुर्मास किये जिसमें उपधान, दीक्षा ज़बर्दस्त थी। विहार, प्रतिक्रमणादि किसी भी क्रिया में उद्यापनादि हुए। श्री प्रेमचन्दजी खचानची ने उपधान कोई आवे या न आवे, एक मिनिट भी विलम्ब नहीं करते। करवाया। उस समय रुग्णावस्था में भी उन्होंने शिष्यों को शास्त्रों का अध्ययन-अभ्यास एवं स्मरणशक्ति भी बहुत समस्त आगमों की वाचना दी थी। हमारी कोटड़ी में गजब की थी। भगवती सूत्र जैसे अर्थ गंभीर आगम को चातुर्मास होने से हमें धार्मिक अभ्यास, धर्मचर्चा, बिना मूल पढ़े सीधा अर्थ करते जाते थे। यह उनके गहरे व्याख्यान-श्रवण, प्रतिक्रमणादि का अच्छा लाभ मिला। आगम ज्ञान का परिचायक था। ___ सं० १९८७ के चातुर्मास के अनन्तर आप सूरतवाले आप एक आसन पर बैठे हुए घण्टों जाप करते, व्याख्यान श्री फतचन्द प्रेमचन्द भाई की वीनति से पालीताना पधार देते । आपके पास गुरु-परम्परागत आम्नाय और गच्छमर्यादा कर सं० १६६४ मिती माघ सुदि ११ के दिन स्वर्गवासी आदि का पूर्ण अनुभव था। आपने अपने जीवन में जैन
संघ का जो उपकार किया, वर्णनातीत है। आप प्रतिदिन आपकी प्रतिमाएं शत्रुजय तलहटी मंदिर-धनावसही एकाशना व तिथियों के दिन प्रायः उपवास किया करते दादावाड़ी में, जैन भवन में, और बीकानेर श्रोजिन- थे। आप अप्रमत्त संयम पालन में प्रयत्नशील रहते थे। कृपाचन्द्रसूरि उपाश्रय में है रायपुर के मंदिर में भी आपकी आचार्य श्रीजयसागरसूरिजी प्रतिमा पूज्यमान है।
श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरिजी का शिष्य-समुदाय बड़ा ___ आपके उपदेश से इन्दौर, सूरत, बीकानेर आदि ज्ञान- विशाल था। आपके विद्वान शिष्य आणंदमुनिजी का स्वर्गभंडार, पाठशालाएँ, कन्याशालाए, खुली। कल्याणभवन, वास आपके समक्ष ही बहुत पहले हो गया था। द्वितीय चांदभवन आदि धर्मशालाएं तथा जिनदत्तसरि ब्रह्मचर्याश्रम शिष्य उपाध्याय जयसागरजी थे जिन्हें आचार्य पद देकर संस्थाओं के स्थापन में आपका उपदेश मुख्य था। आपने आपने जयसागरसूरिजी बनाया, बड़े विद्वान और कियापात्र बहुत से स्तवन, सज्झाय, गिरनार पूजा आदि कृतियों को थे। श्रीजयसागरसूरिजी के छोटे भाई राजसागरजी ने भी रचना की जो कृपाविनोद में प्रकाशित हैं। कल्पसूत्र टीका सूरिजी के पास दीक्षा ली थी उन्होंने सूरिजी की बहुत सेवा द्वादश पर्वव्याख्यान व श्रीपाल चरित्र के हिन्दी अनुवाद की और छोटी बहिन ने भी दीक्षा ली थी जिनका नाम करके आपने हिन्दी भाषा की बड़ी सेवा की। हेतश्रीजी था, जिनकी शिष्याए' कीत्तिश्रीजी, महेन्द्रश्रीजी __सूरत से श्रीजिनदत्तसूरि प्राचीन पुस्तकोंडार फण्ड आदि हैं, कीतिश्रीजी अभी मन्दसौर में विराजमान हैं। ग्रन्थमाला चालू कर बहुत से महत्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रकाशन श्रीजयसागरसूरिजी महाराज प्रकाण्ड विद्वान थे । बिना करवाया। स्वर्गवास के समय आपकी साधु साध्वी समुदाय शास्त्र हाथ में लिए भी शृंखलाबद्ध व्याख्यान देने का लगभग ७० के आस पास था। तदनन्तर नए साधु दीक्षित अच्छा अभ्यास था। आपने श्रीजिनदत्तसूरि चरित्र दो न होने से घटते २ अभी साधुओं में केवल वयोवृद्ध मुनि भागों में तथा गणधर-सार्धशतक भाषान्तर आदि कई मंगलसागर जी और २०-२२ साध्वियाँ ही रहे हैं। पुस्तकें लिखी थीं। पाप ठाम चौविहार करते थे, अपने
सूरिजी के तीन चौमासा में हमें उन्हें निकट से देखने व्रत-नियमों में बड़े दृढ़ थे। बीकानेर की भयंकर गर्मी में
For Private &Personal Use Only
.
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी आपने पानी लेना स्वीकार नहीं किया और समाधि हुए। आपका नाम सुखसागर रखा गया । शास्त्राम्यास पूर्वक अपनी देह का त्याग कर दिया। बीकानेर रेलदादाजी करके विद्वान हुए और व्याख्यान-वाणी मैं निष्णात में आपके अग्निसंस्कार स्थान में स्मारक विद्यमान है। हो गए। सं० १९७४ मा० सु०१० को गुरुमहाराज गढसिवाणा, मोकलसर आदि में आपने चातुर्मास किए थे ने सूरत में मंगलसागरजी को दीक्षित करे आपके गडसिवाणा में आपके ग्रन्थों का दादावाड़ी में संग्रह विद्य- शिष्य रूप में प्रसिद्ध किया। उस समय कृपाचन्द्रमान है। श्रीजिनजयसागरसूरिजी कृत श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरि सूरिजी १८ ठाणों से थे, इनका १६वां नंबर था। सूरिजी चरित्र ५ सर्ग और १५७० पद्यों में सं० १६६४ फा० सु० के प्रत्येक कार्यो में आपका पूरा हाथ था। इन्दौर १३ पालीताना में रचित है जो जिनपालोपाध्यायकृन में श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरि ज्ञानभण्डार की स्थापना की। द्वादशकुलकवृत्ति के साथ श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरि ज्ञानभंडार आपको सूरिजी ने प्रवर्तक पद से विभूषित किया । पालोताना से प्रकाशित है। इसमें इन्होंने अपना जन्म बालोतरा चौमासा में बहुत से स्थानकवासियों को उपदेश १९४३ दीक्षा १६५६ उपाध्याय पद १९७६ व आचार्य देकर जिनप्रतिमा के प्रति श्रद्धालु बनाया। मध्याह्न में आप पद १९६० पालीताना में होना लिखा है।
जसौल गांव में व्याख्यान देने जाते व शास्त्रचर्चा व धर्मोउपाध्याय मुनिसुखसागरजी पदेश देकर जिनप्रतिमा-पूजा की पुष्टि करते थे। आप
श्रोजिनकृपाचन्द्रसूरिजी के शिष्यों में उपाध्यायजी का उपधान आदि की प्रेरणा करके स्थान-स्थान पर करवाते, स्थान बड़ा महत्त्वपूर्ण है। आप प्रसिद्ध वक्ता थे। आपकी संस्थाएं स्थापित करवाते एवं सामाजिक कुरीतियों के बुलन्द वाणी बहुत दूर-दूर तक सुनाई देती थी। आप विरुद्ध क्रान्तिकारी उपदेश देकर समाज में फैले हुए अधिकतर गुरुमहाराज के साथ विचरे और धार्मिक क्रियाएं मिथ्यात्व को दूर कर व्रत-पच्चक्खाण दिलाते थे। आपके कराने आदि से संघ को सम्भालने का काम आपके जिम्मे कई चातुर्मास गुरुमहाराज के साथ व कई अलग भी हुए । था। आप ने संस्कृत, काव्य, अलंकार आदि का भी
जैसलमेर चौमासे में ज्ञानभण्डार के जीर्णोद्धार, अच्छा अभ्यास किया था। बीकानेर चातुर्मास के समय
व प्राचीन प्रतियों की नकलें फोटोस्टेट करवाने में आपका आपको हजारों श्लोक कण्ठस्थ थे। ग्रन्थ सम्पादनादि
पूरा योगदान था। फलोदी, बीकानेर में भी उपधान आदि कामों में आप हरदम लगे रहते और श्रोजिनदत्तसूरि प्राचीन
हुए। फिर गुरुमहाराज के साथ पालीताना पधारे। सं. पुस्तकोद्धार फंड सूरत से सर्व प्रथम गणधर सार्द्धशतक
१६६२ में शत्रुञ्जय तलहटी की धनवसही में आपकी प्रेरणा प्रकरण व बाद में पचासौं ग्रन्थों का प्रकाशन हो पाये से भव्य दादावाडी हुई जिसमें श्रीपूज्य श्रीजिनचारित्रसुरिजी वह आप के ही परिश्रम और उपदेशों का परिणाम के पास प्रतिष्ठा सम्पन्न करवायी उस समय आप उपाथा। गुरुमहाराज के स्वर्गवास के पश्चात् भी आपने वह
ध्याय पद से विभूषित हुए एवं मुनि कान्तिसागरजी की काम जारी रखा और फलस्वरूप बहुत ग्रन्थ प्रकाश में टोक्षा हुई। इसके बाद सरत. अमलनेर, बम्बई आदि में आये।
चातुर्मास किया। ग्रन्थ सम्पादन-प्रकाशन तो सतत् चालू आप इन्दौर के निवासी मराठा जाति के थे। सेठ ही था। नागपुर, सिवनी, बालाघाट, गोंदिया आदि कानमलजी के परिचय में आने पर उल्लासपूर्वक उनके स्थानों में चातुर्मास किये। उपधान तप आदि हुए। सहाय्य से गुरुमहाराज के पास कच्छ में जाकर दीक्षित गोंदिया का पन्द्रह वर्षों से चला आता मनमुटाव दूर कर
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
के सं० १९६६ के माघ महीने में समारोह पूर्वक मन्दिर को उदयपुर चातुर्मास किया। तदनन्तर गढसिवाणा चातुर्मास प्रतिष्ठा करवायी । तदनन्तर राजनांदगांव के चातुर्मास में कर गोगोलाव जिनालय की प्रतिष्ठा कराई । गुजरात छोड़े भी उपधान आदि करवाये । रायपुर होकर महासमुन्द में बहुत वर्ष हो गये थे, अहमदावाद संघ के आग्रह से वहां चातुर्मास किया। धमतरी पधारकर सं० २००१ के चातुर्मास कर पालीताना पधारे सं० २०१६ में उपधान फाल्गुन में अञ्जनशालाका प्रतिष्ठा, गुरुमूर्ति प्रतिष्ठादि तप हुआ। गिरिराज पर विमलवसही में दादासाहब को विशाल रूप में उत्सव करवाये। कान्तिसागरजी की प्रेरणा प्रतिष्ठा के समय जिनदत्तसूरि सेवासंघ के अधिवेशन व साधु से महाकोशल जैन सम्मेलन बुलाया गया जिसमें अनेक सम्मेलन आदि में सब से मिलना हुआ। विद्वान पधारे थे । फिर रायपुर चातुर्मास कर सम्मेतशिखर
पालीताना-जैन भवन में चातुर्मास किये। आपकी महातीर्थ को यात्रार्थ पधारे। कलकत्ता संघ की वीनती
प्रेरणा से जनभवन की भूमि पर गुरुमन्दिर का निर्माण से दो चातुर्मास किये, बड़ा ठाठ रहा। फिर पटना और वाराणसी में चातुर्मास किये, फिर मिर्जापुर, रीयां होते
हुआ। दादा साहब व गुरुमूर्तियों की प्रतिष्ठा हुई। सं०
२०२२ में घण्टाकर्ण महावीर को प्रतिष्ठा हुई। पालनपुर हुए जबलपुर पधारे। वहां ध्वजदण्डारोपण, अनेक तप
के गुरु भक्त केशरिया कम्पनी वालों के तरफ से ५१ किलो श्चर्यादि के उत्सव हुए। वहां से सिवनी होते हुए राजनांद गांव में सं० २००८ का चातुर्मास किया। आपके उपदेश
का महाघण्ट प्रतिष्ठित किया। दादासाहब के चित्र, से नवीन दादावाड़ी का निर्माण होकर प्रतिष्ठा सम्पन्न
पंचप्रतिक्रमण एवं अन्य प्रकाशन कार्य होते रहे । हुई। वहां से सिवनी हो भोपाल व लश्कर, ग्वालियर
वृद्धावस्था के कारण गिरिराज की छाया में ही विराजमान चातुर्मास किये। जयपुर पधारकर चातुर्मास किया। अज- "
रह कर सं० २०२४ के वैशाख सूदि६ को आपका स्वर्गमेर दादासाहब के अष्टम शताब्दी उत्सव में भाग लेकर वास हो गया। .
पुरातत्व एवं कलामर्मज्ञ प्रतिभामूर्ति मुनि श्रीकान्तिसागरजी को श्रद्धांजलि
[लेखक-अगरचन्द नाहटा ]
संसार में दो तरह के विशिष्ट व्यक्ति मिलते हैं । जिनमें जीका असामयिक स्वर्गवास ताः २८ सितम्बर की शाम से किसी में तो श्रमकी प्रधानता होती है किसी में प्रतिभा को हो गया है, वे ऐसे ही प्रतिभा सम्पन्न विद्वान मुनि थे। को। वैसे प्रतिभा के विकास के लिए श्रमको भी आवश्य- जिनका संक्षिप्त परिचय यहां दिया जा रहा है । कता होती है और अध्ययन व साधना में परिश्रम करने वीसवीं शताब्दो के जैनाचार्यों में खरतरगच्छ के से प्रतिभा चमक उठती है । फिर भी जन्म जात प्रतिभा आचार्य श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरिजी बडे गीतार्थ विद्वान और कुछ विलक्षण ही होती है, जो बहुत परिश्रम करने पर भी क्रियापात्र आचार्य हो गये हैं। जो पहले बीकानेर के प्रायः प्राप्त नहीं होती। अभी-अभी जयपुर में जिन साहि- यति सम्प्रदाय में दीक्षित हुए थे। आगे चलकर अपने सारे त्यालंकार पुरातत्ववेत्ता और कलामर्मज्ञ मुनिश्री कान्तिसागर परिग्रह को बीकानेर के खरतरगच्छ संघ को सुपुर्द करके
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्रियाउद्धार करते हुए साधु हो गये । आगमों आदि का कलावशेषों के खोज एवं अध्ययन में आपकी जबरदस्त विशेष अध्ययन करके आचार्य बने । उनके शिष्य उपा. रुचि थी। मध्यप्रदेश के अनेक गांव नगरों में घूमकर आपने ध्याय सुखसागरजी ने अनेकों ग्रन्थों को प्रकाशित कराया उपरोक्त दोनों ग्रन्थ और बहुत से महत्वपूर्ण लेख लिखे थे।
और अच्छे वक्ता थे। उनके लघुशिष्य स्वर्गीय कान्तिसा- छोटी-छोटी बातों पर भी आप बहुत सूक्ष्मता से ध्यान गरजी हुए। जिनके बड़े गुरुभाई मंगलसागरजी अभी देते थे और थोड़ी सी बात को अपनी प्रतिभा के बल पर पालीताना में हैं।
बहुत विस्तार से और बड़े अच्छे रूप में प्रगट कर सकते थे। ___ जन्मतः वे सौराष्ट्र जामनगर के थे। छोटी अवस्था इतिहास, पुरातत्व और कला में तो आपकी गहरी पेठ थी। में ही जैनेतर कुल में जन्म लेने पर भी उ० सुखसागरजी जबलपुर चौमासे के समय आपने काफी प्राचीन अवशेषों के दीक्षित शिष्य बने । अपनी असाधारण प्रतिभा से थोड़े (मूर्तिखण्डों) को इधर उधर से बड़े प्रयत्न पूर्वक संग्रह किया समय में ही उन्होंने अनेक विषयों में अच्छी गति प्राप्त कर था। जिसे मध्यप्रदेश सरकार ने अधिकार में ले लिया। ली। हिन्दी भाषा पर उनका बहुत अच्छा अधिकार हो राजस्थान में रहते हुए आपने उदयपुर महाराणा के इष्ट गया। संस्कृतनिष्ठ प्राञ्जल भाषामें उनके लिखे हुए प्रन्थ देव-एकलिंगजी पर एक बहुत महत्वपूर्ण ग्रन्थ तैयार किया एवं लेख विद्वद्-मान्य हुए। 'खण्डहरों का वैभव' और था। आस-पास के नागदा आदि प्राचीन कलाधामों-जैन 'खोज को पगडंडिया' ये दो महत्वपूर्ण ग्रन्थ तो भारतीय मन्दिरों व मूर्तियों पर आपने नया प्रकाश डाला । सैकड़ों ज्ञानपीठ जैसी प्रसिद्ध संस्था से प्रकाशित हुए। उत्तरप्रदेश कलापूर्ण प्राचोन अवशेषों के फोटो लिवाये । खेद है आप सरकार ने इनकी श्रेष्ठता पर पुरस्कार भी घोषित किया। के घोर परिश्रम से तैयार किया हुआ एकलिंग जी वाला विशालभारत, अनेकान्त, भारतीय, साहित्य, नागरी महत्वपूर्ण वृहद् ग्रंथ अभी तक प्रकाश में नहीं आ सका । प्रचारणी पत्रिका आदि हिन्दी की कई प्रसिद्ध और विशिष्ट प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति जिस किसी विषय को हाथ में लेता पत्रिकाओं में आपके महत्वपूर्ण लेख प्रकाशित होते रहे हैं। है उसी में अद्भुत चमत्कार पैदा कर देता है। उदयपुर जिनसे हिन्दी साहित्य में आपका अच्छा स्थान बन गया। रहते हुए कई कारणों से आपको आर्युवेद का अध्ययन व 'ज्ञानोदय' आदि कई पत्रों के तो आप सम्पादकमण्डल में प्रयोग करना आवश्यक हो गया, तब आपने बहुत से भी रहे हैं।
असाध्य रोगियों को रोग मुक्त कर दिया था। आयु ___ वक्तृत्वकला भी आपकी उच्चकोटि की थी साधा- र्वेदिक सम्बन्धी अनुभूत प्रयोगों का एक संग्रह “आयुर्वेदना रणतया बहुत से व्यक्ति अच्छे लेखक तो होते हैं वे उत्कृष्ट अनुभूत प्रयोगो" भाग १ नामक ग्रन्थ आपने गुजराती वक्ता नहीं होते। या वक्ता होते हैं तो अच्छे लेखक नहीं में प्रकाशित किया है। वैसे और भी कई ग्रन्थ आप होते । पर आप दोनों में समान गति रखते थे। अर्थात् प्रकाशित करने वाले थे। पर आयुष्य कर्म ने साथ अच्छ लेखक और प्रभावशाली वक्ता दोनों रूपों में आपने नहीं दिया। 'जैन धातु प्रतिमा लेख, नगर वर्णनात्मक हिन्दी अच्छी प्रसिद्धि प्राप्त की थी।
पद्य संग्रह आदि आपके और भी ग्रन्थ प्रकाशित है। संगीत पुरातत्त्व और कला के तो आप मर्मज्ञ विद्वान थे। के भी आप अच्छे ज्ञाता थे। बुलन्द आवाज और अच्छा जैनसाधुओं और आचार्यों में तो इन विषयों के आप सर्वोच्च कंठ होने से आप 'अजित शान्ति स्तोत्र' आदि को ताल लय विद्वान माने जा सकते हैं। प्राचीन मन्दिरों, मूर्तियों और बद्ध बड़े अच्छे रूप में गाते थे।
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
।१५)
पुरातत्व और कला के प्रति आपको बाल्यकाल से ही किया है, फलस्वरूप खण्डहरों का वैभव एवं प्रस्तुत गहरी अनुरक्ति रही है । खोज की पगडण्डियां के प्रार- पुस्तक है।" म्भिक वक्तव्य में आप ने लिखा है कि "बचपन से ही मुझे
उपरोक्त दोनों पुस्तकें सन् १९५३ में प्रकाशित हुई थी। निर्जन वन व एकांत खण्डहरों से विशेष स्नेह रहा है। 'खोज को पगडण्डियों को प्रस्तावना डा० हजारीप्रसाद अपनी जन्मभूमि जामनगर की बात लिख रहा हूं। वहां दिवेदी जैसे विद्वान ने लिखी थी। उन्होंने लिखा है "श्री का खण्डित दुर्ग ही मेरा क्रीडास्थल रहा है। आज से २२ मनि कान्तिसागरजी प्राचीन विद्याओं के मर्मज्ञ अनुवर्ष पूर्व की बात है-सरोवर के किनारे पर टूटे हुए सन्धाता हैं। मुनिजी प्राचीन स्थानों को देखकर स्वयं खण्डहरों की लम्बी पंक्ति थीं। जहां बारहमास प्रकृति
आनन्द विह्वल होते हैं और अपने पाठकों को भी उस स्वाभाविक शृगार किये रहतो है । कहना चाहिये वे खण्ड
आनन्द का उपभोक्ता बना देते हैं। उनकी दृष्टि बहुत ही हर संस्कृति, प्रकृति और कला के समन्वयात्मक केन्द्र थे।
व्यापक एवं उदार है। जैन शास्त्रों के वे अच्छे ज्ञाता भी उनदिनों में गुजराती चौथी कक्षा में पढ़ता था। पढ़ने में मनिजी के कहने का ढंग भी बहुत रोचक है । बीच-बीच भारी परेशानी को अनभव होता था। शाला के समय में उन्होंने व्यंग विनोद की भी हल्की छींट रख दी हैं। अपने बस्ते लेकर हमलोग सरोवर तटवर्ती खण्डहरों में
इतिहास को सहज और रसमय बनाने का उनका प्रयल छिपा देते और वहीं खेला करते। खण्डहर बनाने वालों के
बहुत ही अभिनन्दनीय है।" प्रति उन दिनों भी हमारे बाल-हृदय में अपार श्रद्धा थी। जैन कल में उत्पन्न न होते हैं भी अल्पवय में मैंने जैन मनि करीब डेढ़ साल पहले जयपुर संघ के अनुरोध से वे दोक्षा अंगीकार की। सौभाग्यवश चातुर्मास के लिये बंबई लम्बा विहार करके पालोताना से जयपुर चौमासा करने जाना पड़ा। वहां प्राचीन गुजराती भाषा और साहित्य पहुँचे तो अस्वस्थ हो गये। उसी हालत में पर्युषणा के के गम्भीर गवेषक श्रीयुक्त मोहनलाल भाई दलीचन्द देसाई व्याख्यान आदि का श्रम अधिक पड़ा। तब से उनका एडवोकेट, भारतीय विद्या भवन के प्रधान संचालक-पुरा- शरीर क्षीण होने लगा। जयपुर संघ ने उपचार में कोई तत्वाचार्यमुनि श्रीजिनविजय और प्रख्यात पुरातत्वज्ञ डा. कमो नहीं रखी पर स्वास्थ्य गिरता हो गया और ता० २८ हंसमुखलाल धीरजलाल सांकलिया आदि अध्यवसायी सितम्बर को शाम को हृदयगति अवरुद्ध हो के स्वर्गवास हो अन्वेषकों का सत्संग मिला। उनके दीर्घ अनुभव द्वारा गया। जैन संघ ने एक नामी लेखक और उद्भट पुरातत्वज्ञ शोधविषयक जो मार्ग दर्शन मिला उससे मेरी अभिरुचि और विद्वान और प्रतिभाशालो मुनि को खो दिया जिसकी पूर्ति भी गहरी होती गयी। मेरे मानसिक विकाश पर और होनी कठिन है । मुनिजी के प्रति मैं अपनो हार्दिक श्रद्धांजलि कलापरक दृष्टिदान में उपर्युक्त विद्वत् त्रिपुटी ने जो श्रम अर्पित करता हूँ।
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्य श्रोजिनमणिसागरसूरि
[ भंवरलाल नाहटा]
श्रीक्षमाकल्याणजी महाराज के संघाड़े में श्रीजिनमणि- (द्वितीय) कृत 'आत्मभ्रमोच्छेदन भानु' नामक ८० पृष्ठ की सागरसूरिजी महाराज एक विशिष्ट विद्वान, लेखक, शान्त- पुस्तिका को विस्तृत कर ३५० पेज में उन्हीं के नाम से मूर्ति और सत्क्रियाशील साधु हुए हैं। वे निस्पृह, त्यागी प्रकाशन करवाया, यह घटना आपकी निःस्वार्थता और और सुविहित क्रियाओं, विधि-मर्यादाओं के रक्षक थे। उदारता को प्रकट करतो है। आपका जन्म संवत् १९४३ में रूपावटी गांव के पोरवाड़ उस समय समेतशिखरजी के अधिकार को लेकर गुलाबचन्दजी की पत्नी पानीबाई की कुक्षि से हुआ। श्वेताम्बर और दिगम्बर समाज में बड़ा भारी केस चल आपका मनजो नाम था और मनमौजी ऐसे थे कि साधुओं रहा था. उधर सरकार अपनी सेना के लिये बूचड़खाना के पास तो नहीं जाते पर सांपों से खेलते थे, उन्हें उनका खोलना चाहती थी। श्वे० समाज की ओर से पैरवी करने कोई भय नहीं था। एक वार गाँव वालों के साथ सिद्धा- वाले कलकत्ता के राय बद्रीदासजी थे। उन्होंने कार्य सिद्धि चलजी यात्रार्थ चैत्रोपूनम पर गये और वहाँ पर आपको के लिये अध्यात्मिक शक्ति को आवश्यकता महसूस की और अपूर्व शान्ति मिली। आपका हृदय आत्मकल्याण करने देवो सहायता प्राप्त करने के लिये साधु समाज से निवेदन
और प्रभु के मार्ग पर चलने के लिये लालायित हो गया। किया। समय इतना कम था कि पैदल पहुँचना सम्भव माता-पिता वृद्ध थे, लोगों ने गाँव जाकर कहा-माता नहीं था। सुमतिसागरजी के पास यह प्रस्ताव आया तो पिता आये पर मनजी तो अपनी धुन के पक्के थे भगवान उन्होंने मणिसागरजो को माननीय गुलाबचंदजी ढड्ढा और के समक्ष सर्व त्याग का ब्रत ले लिया था। माता-पिता धनराजजी बोथरा के साथ रेल में सम्मेतशिखरजी भेज को निरुपाय होकर आज्ञा देनी पड़ो। आपने सं० १९६० दिया । मणिसागरजी की तरुणावस्था थो, धुन के पक्के और वैशाख सुदि २ को सिद्धाचलजी में मुनि सुमतिसागरजी के गुरु आम्नाय के बल पर उन्होंने तपश्चर्यापूर्वक सम्मेतपास दीक्षा लो। दीक्षा से दो दिन पूर्व एक वृद्ध मुनिराज शिखरजी पर जाकर जो अनुष्ठान किया, उससे श्वेताम्बर ने कहा-तुम तपागच्छ के पोरवाड़ हो, खरतरगच्छ में समाज को पूर्ण सफलता प्राप्त हो गई। समाज में इनकी क्यों दीक्षा लेते हो! पर उन्होंने सोचा धर्म के नाम पर बहुत बड़ी प्रतिष्ठा बढी, कलकत्ता संघ ने इन्हें कलकता यह भेद बुद्धि क्यों ? मुझे आत्म कल्याण करना है, शास्त्रों का बुलाया और छः वर्ष कलकत्ता बिताये । अनुष्ठान के लिये अध्ययन करके सही मार्ग पर चलना हो श्रेयस्कर है न कि रेल में शिखरजी आने का दण्ड प्रायश्चित मांगा तो उस गड्डर प्रवाह से। उन्होंने शास्त्रों का अध्ययन प्रारम्भ समय के महामुनि कृपाचन्दजी, आदि खरतरगच्छ एवं तपाकिया ओर सं० १९६४ में तो संघ के आग्रह और उपकार गच्छ के मुनियों की ओर से निर्णय मिला कि यह दण्ड देने बुद्धि से गुरु-शिष्यों ने रायपुर और राजनांदगाँव अलग का काम नहीं, शासन प्रभावना के कार्य में साधुजोवन के अलग चातुर्मास किया। योगिराज श्रीचिदानन्दजी उपवासादि तथा ईर्यापथिको नित्य-क्रिया ही पर्याप्त है ।
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
सं० १९६६ में विद्याविजयजी ने "खरतरगच्छ वालों किया। जब टालमटूल होने लगी तो मणिसागरजी ने की पर्युषणादि क्रियायें लौकिक पंचांगानुसार होने से अशा- देवद्रव्य निर्णयः नामक एक पुस्तिका प्रकाशित की। स्त्रीय हैं, इस विषय का विज्ञापन निकाला । राय बद्रीदास इन्दौर में स्थानकवासी प्रसिद्धवक्ता चोथमल जी के शिष्य जी आदि खरतरगच्छ के श्रावकों के आग्रह से उन्होंने इस ने 'गुरु गुणं महिमा' पुस्तिका में मुखवस्त्रिका को लेकर भ्रमपूर्ण प्रचार को रोकने के लिये विद्वतापूर्ण उत्तर देने की विवाद खड़ा किया जिसमें मूर्तिपूजक समाज की निन्दा की प्रार्थमा को तो आपने शास्त्र प्रमाण के हेतु ग्रन्थ सुलभ गई। आचार्य श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरिजी वहां पर थे । करने के लिये लम्बी सूची दी । बद्रीदासजी ने तत्काल पाटण, उपधान चलता था, पूर्णाहुति पर सुमतिसागरजी को खंभात आदि स्थानों से प्राचीन ताडपत्रीय और कागज की महोपाध्याय पद व मणिसागरजी को पन्यास पद दिया हस्तलिखित प्रतियां मंगा कर प्रस्तुत की। मणिसागरजो गया। स्थानकवासियों की ओर से आचार्य श्री के पास न पहल ता एक सारगभित छोटा लेख लिखकर जिनयशः पुस्तक का उत्तर मांगा गया तो शान्तमत्ति आचार्य सूरिजी, शिवजीरामजी, कृपाचन्दजी व प्रतिनी पुण्यश्रीजी महाराज ने मणिसागरजी की ओर साभिप्राय देखा। आदि को भेजा। सबने णिसागरजी के लेख को मत. उन्होंने दूसरे ही दिन विज्ञप्ति f कालकर शास्त्रार्थ के लिए कण्ठ से प्रशंसा को, उसे प्रकाशित करवाया यही लेख आह्वान किया, पर निर्धारित मिती से पूर्व ही मुनि चौथमल आगे चलकर एक हजार पेज के 'वृहत्पर्यषणा निर्णय' जी अपने शिष्य सहित विहार कर गये। मणिसागरजी मन्थरुप में प्रकाशित हुआ।
चुप न बैठे उन्होंने आगम प्रमाण सह आगमानुसार ___कलकत्ते से विचरते हुए बम्बई पधारने पर कृपाचन्द्र- मुँहपत्ति का निर्णय और जाहिर उद्घोषणा न० १-२-३ सरिजी ने सुमतिसागरजी को उपाध्याय पद व मणिसागरजी पुस्तक लिखकर प्रकाशित करवा दी। को पण्डित पद से विभूषित किया। सं० १६७. में तपा- वर्तमान काल में हिन्दी भाषा में जैनागमों के प्रकाशन गच्छ के कई महारथी बम्बई में आ विराजे और तपागच्छ से जनता का विशेष उपकार हो सकता है, इस उद्दश्य से की ओर से कलकत्ते वाले विवाद को उठाने के साथ साथ आपने कोटा में जैन प्रिण्टिंग प्रेस को स्थापना करवाई प्रभु महावीर के षट् कल्याणक मान्यता का भी विरोध और इसके द्वारा ७-८ आगमों के हिन्दी अनुवाद प्रकाकिया । दोनों ओर से इस विवाद में चालोसों पर्चे निकले। शित करवाये। गुरुजी की वृद्धावस्था और प्रकाशनादि मणिसागरजी द्वारा शास्त्रार्थ का आह्वान करने पर कोई के लिए आप १४ वर्ष तक कोटा के आस-पास रह । उनका सामना न कर सका जिससे सर्वत्र खरतरगच्छ का प्रकाशन व्यवस्था आदि बन्धन उनके त्यागी जीवन के सिक्का जम गया और कोई खरतरगच्छ की मान्यता को लिये बाधक था, अत: सब कुछ छोड़कर निकल पड़े और अशास्त्रीय कहने का दुस्साहस न कर सका।
केशरियाजी यात्रा करके आबू में योगिराज शांतिविजयजी जैन समाज में मणिसागरजी अपने पाडित्य और महाराज के पास गये। ये उनके पास एक वर्ष रहे, शास्त्रार्थ के लिये प्रसिद्धि पा चुके थे। देवद्रव्य के विषय रात्रि में घण्टों एकान्त वार्तालाप करते, गुप्त साधना को लेकर सागरानन्दसूरिजी और विजयधर्मसूरिजी के करते। योगिराज ने आपको उपाध्याय पद से अलंकृत मतभेद-विवाद चलता था। मणिसागरजी भी शास्त्र चर्चा किया। मणिसागरजी में यह विशेषता थी कि प्रतिके लिये इन्दौर पधारे । और विजयधर्मसूरिजी से पत्र व्यवहार पक्षियों की कड़ी आलोचना करते हुए भी शिष्ट भाषा
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
। १६८ 1
और प्रेम व्यवहार रखते थे। योगिराज ने आपकी स्वनामधन्य जैनाचार्य श्रीजिनऋद्धिसूरिजी महागज ने योग्यता, विद्वत्ता, निराभिमानीपन आदि का बड़ा आदर आपको आचार्य पदसे अलंकृत किया। यद्यपि आपको किया।
पद-लालसा लेशमात्र भी नहीं थी। सम्मेतशिखर तीर्थ रक्षा आबू से विहार कर मणिसागरजी लोहावट पधारे। के समय २२ वर्ष की उम्र में कलकत्ता संघ ने आचार्य श्रीहरिसागरजी महाराज और आपके गुरु महाराज एक पद देना चाहा तो आपने सर्वथा अस्वीकार कर दिया ही गुरु के शिष्य थे अत: छोटे होने पर भी वे काका गुरु था पर बीकानेर में संघ के आग्रह और आचार्य महाराज थे। दोनों का कभी परस्पर मिलना नहीं हुआ परन्तु की आज्ञा को शिरोधार्य करना पड़ा। आचार्यश्री इन्हें गच्छ का 'प्राण' समझते थे और वर्षों सं० २००३ कोटा चातुर्मास में आपने गुणचंद्र, से बुलाते थे, अत: लोहावट जाकर आचार्य महाराज से भक्तिचन्द्र और गौतमचन्दजी को दीक्षित किया। आचार्य बड़े प्रेम पूर्वक मिले। श्रावकों के आग्रह से फलोदी श्रीजिनरत्नसूरिजी, उपाध्याय लब्धिमुनिजी आदि के पधारे। फलोदी चातुर्मास में कई बालक आपके पास साथ चतुर्मास कर अन्यान्य स्थानों में विचरण करने लगे। धार्मिक ज्ञान प्राप्त करने आते थे उनमें से बस्तीमल मालवाड़ा में आपने उपधान तप करवाया और मालारोपण झाबक ने मित्रों के बीच दीक्षा लेने की प्रतिज्ञा कर ली महोत्सव पर विनयसागरजी को उपाध्याय पद दिया। इसके और वह दीक्षा मणिसागरजी से ही लेने के कृतप्रतिज्ञ डेढ़ महीने बाद ता० ६ फरवरी १९५१ को वे स्वर्गवासी थे। मणिसागरजी ने कभी किसी को दीक्षित नहीं किया हो गये। था पर वस्तीमल के निश्चय के आगे उनको दीक्षा देकर
आप बड़े गीतार्थ, सरल और आत्मार्थी थे । २२ घंटे मुनि विनयसागर बनाना पड़ा। आचार्य महाराज और तक का मौन धारण करते और १५-१६ घंटे जप-ध्यान में वीरपुत्र आनंदसागरजी के पारस्परिक मतभेद को मिटा
बिताते थे। विनय-वेयावच्च का अद्भुत गुण था, अपने कर गच्छ में ऐक्य स्थापित करने के लिये आपने सत्प्रयत्न
गुरुमहाराज की तो सेवा की हो पर साथियों द्वारा त्यक्त करके फलोदी में एक वृहत्सम्मेलन बुला कर संगठन
इतर साधुओं की महीनों सेवा की। मलमूत्र उठाया। किया।
आप साध्वी और श्राविका समाज से कम परिचय रखते । कवलागच्छीय मुनि ज्ञानसुन्दरजी ने एक पुस्तक विद्वार में आरम्भ आदि न हो इसलिए रसोइया आदि साथ लिखी-'क्या पुरुषों की परिषद् में जैन साध्वी व्याख्यान नहीं रखते। जैनों का घर न होता तो मार्गदर्शक के पास खाखरे दे सकती है ?' इसे पढ़कर आपकी शास्त्रार्थ-प्रवृत्ति जाग आदि लेकर गाँव-गोठ में छाछ आदि लेकर बिहार करते उठी और 'जनध्वज में' 'हाँ !' साध्वी को व्याख्यान देने रहते । विहार में गरम पानी आदि की व्यवस्था-आरम्भ का अधिकार है" शीर्षक लेखमाला २० अंकों में निकाली से बचकर लौंग-त्रिफलादि के प्राशुक जल से संयम साधना जो “साध्वी व्याख्यान निर्णय" नामक पुस्तक के रूप में करते थे। आपको नाम का मोह नहीं था। लम्बे जीवन
में हजारों ग्रन्थ आये, अध्ययनकर ज्ञानभंडार आदि में दे दिये भी प्रकाशित हुई।
पर अपने नाम से कोई ज्ञानभंडार आदि संस्था नहीं आपने उपधान तप की आवश्यकता महसूस कर छः
खोली। निस्पृह, शान्त और साधुता की मूर्ति मणिसागरजी
गोली उपधान कराये थे । सं० २००० में बीकानेर में पौष कृष्णा वास्तव में एक मणि ही थे। उनका आदर्श जीवन साधकों १ को उपधान कराया और मालारोपण के अवसर पर के लिए प्रेरणासूत्र बने ।
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
खरतरगच्छ के साहित्यसर्जक श्रावकगण
[ लेखक - अगरचन्द नाहटा ]
की
जैनधर्म महान् तीर्थङ्करों की एक साधना परम्परा है । साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका चतुर्विध संघ - तोर्थ स्थापना तीर्थङ्कर करते हैं । साधना के दो मुख्य मार्ग उन्होंने बतलाये हैं, अणगार धर्म और सागार धर्म साधुसाध्वी अणगार धर्म का व श्रावक-श्राविका आगार धर्म का पालन करते हैं अर्थात् साधु-साध्वी पचमहाव्रतधारी होते हैं और श्रावक-श्राविका सम्यक्त्व तथा बारह व्रतों के धारक होते हैं । साधु-साध्वी की आवश्यकताएं सीमित होने से उनका अधिकांश समय स्वाध्याय ध्यान और तप संयम में व्यतीत होता है अतः उन्हें अपनी ज्ञान-वृद्धि, साधुसाध्वियों को वाचना प्रदान, श्रावक-श्राविकादि भव्यों को धर्मोपदेश देने के साथ-साथ ग्रन्थ-निर्माण और लेखन के लिए काफी समय मिल जाता इसलिए अधिकांश जैन साहित्य जैनाचार्यों व मुनियों द्वारा रचित प्राप्त है । पर श्रावक समाज अपनी आजीविका व गृह व्यापार में अधिक व्यस्त रहता है इसलिए उनके रचित साहित्य अल्प परिमाण में प्रास होता है । खरतरगच्छ में भी आचार्यों व मुनियों का जितना विशाल साहित्य उपलब्ध है, उसके अनुपात श्रावकों का रचित साहित्य बहुत ही कम है। फिर भी समय-समय पर जिन विद्वान एव कवि श्रावकों ने प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश राजस्थानी गुजराती हिन्दी आदि में जो रचना की है उनका यथाज्ञात विवरण यहां प्रकाशित किया जा रहा है ।
में
ग्यारहवीं शताब्दी के आचार्य वर्द्धमानसूरि और उनके विद्वान शिष्य जिनेश्वरसूरि से खरतरगच्छ को विशिष्ट परम्परा प्रारम्भ होती है । सं० १४२२ में खरतरगच्छ के
रुद्रपल्लीय शाखा के सोमतिलकसूरि रचित सम्यक्त्व सप्ततिका वृत्ति के अनुसार ग्यारहवीं शताब्दी के सुप्रसिद्ध तिलकमंजरी नामक अप्रतिम कथा ग्रन्थ के प्रणेता महाकवि धनपाल के पिता जिनेश्वरसूरि के मित्र थे और धनपाल के भ्राता शोभन (चतुर्विंशति के प्रणेता) जिनेश्वरसूरि के शिष्य थे । इस प्रवाद के अनुसार खरतरगच्छ के प्रथम श्रावक कवि धनपाल माने जा सकते हैं । महाकवि धनपाल की तिलकमंजरी के अतिरिक्त ऋषभपंचाशिका, सच्चउरीय महावीर उत्साह, जिनपूजा व श्रावक-विधि प्रकरण आदि रचनाएं प्राप्त है। प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश तीनों भाषाओं में प्राप्त रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं।
श्रीजिनदत्तसूरिजी के उल्लेखानुसार श्रीजिनवल्लभसूरिजी कालीदास के सदृश विशिष्ट कवि थे । उनकेभक्त नागोर निवासी धनदेव श्रावक के पुत्र पद्मानंद संस्कृत भाषा के अच्छे कवि थे । उनके रचित वेराग्य शतक प्रकाशित चु है ।
श्रीजिनदत्तसूरिजी के श्रावक पल्हकवि रचित जिनदत्तसूरि स्तुति की ताड़पत्रीय प्रति जेसलमेर भंडार में प्राप्त है । यह स्तुति हमारे 'ऐतिहासिक जैनकाव्य-संग्रह' में प्रकाशित है। जिनदत्तसूरिजी के अन्य श्रावक कपूरमल ने ब्रह्मचर्यं परिकरणम् ( गा० ४५ ) मणिधारी जिनचन्द्रसूरिजी के समय में बनाया था जिसे हम 'मणिधारी जिनचन्द्रसूरि' की प्रथमावृत्ति में प्रकाशित कर चुके हैं । मणिधारीजी के श्रावक 'लखण' कृत 'जिनचन्द्रसूरि अष्टक' उपर्युक्त ग्रन्थ की द्वितीयावृत्ति में प्रकाशित है ।
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
। १५० , ___ वादि-विजेता जिनपतिसूरिजो ने मरोट के नेमिचन्द चलकर दिल्ली सम्राट अलाउद्दीन खिलची के कोश और टंकभंडारी को सं० १२५३ में प्रतिबोध दिया। भंडारीजी के शाल के अधिकारी बने और अपने विविधविषयक अनूभव पुत्र ने जिनपतिसूरिजी से दीक्षाग्रहण की वे उनके पुत्र के आधार से रत्नपरीक्षा सं० १३७२ में पुत्र हेमपाल के जिनेश्वरसूरि बने । श्रीनेमिचन्द्र भंडारो अच्छे विद्वान थे, लिए गा० १३२ में रचा, जिसको हिन्दी अनुवाद और अन्य उनका प्राकृत भाषा में रचित "षष्टिशतक प्रकरण" श्वेता. महत्त्वपूर्ण रचनाओं के साथ हमने अपने "रत्नपरीक्षा' म्बर समाज में ही नहीं, दिगम्बर समाज तक में मान्य ग्रन्थ में प्रकाशित किया है। वास्तुशास्त्र संबन्धी वस्तुसार हुआ। उसकी कई टीकाए और बालावबोध विद्वान नामक रचना भी प्राकृत की २०५ गाथाओं में है जो मुनियों द्वारा रचित उपलब्ध और प्रकाशित हैं। भंडारीजो कन्नाणापुर में सं० १३७२ विजयादशमी को रची गई और को दूसरी रचना जिनवल्लभसूरि गुणवर्णन । गा० ३५ ) है हिन्दी अनुवाद सह पंडित भगवानदासजी ने इसे प्रकाशित और हमारे ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह में प्रकाशित हो कर दी है। ज्योतिष विषयक गा० २४३ का ज्योतिषसार चकी है। इनके अतिरिक्त एक गाथा का पार्श्वनाथ ग्रन्थ भी सं०१३७२ में रचा। गणित विषयक गणितसार स्तोत्र जेसलमेर भंडार में मिला है।
नामक महत्वपूर्ण ग्रन्थ ३११ गाथा का रचा। आपकी __ जिनपतिसूरिजी के दो भक्त श्रावक साह रयण और अन्य महत्वपूर्ण रचना धातोत्पत्ति गा०५७ की है इसे भी कविभत्तउ ने २० गाथाओं के "जिनपतिसूरि धवल गीत हमने अनुवाद सहित यू. पी. हिस्टोरीकल जर्नल में प्रकाबनाये जो हमारे ऐतिहासिक जैनकाव्य संग्रह में प्रका- शित करवा दिया है। शित हैं।
भारतीय साहित्य का अद्वितोय ग्रन्थ-द्रव्यपरोक्षा मुद्राजिनेश्वरसूरि के समय श्रावककवि झगड़ने “सम्यक्त्व शास्त्र सम्बन्धी है जो १४६ गाथाओं में सं० १३७५ में माई चौपाई' सं०१.३१ में बनाई जो बड़ौदा से प्रका
रचा गया। इसमें भारतीय प्राचीन सिक्कों का बहत हो महत्वशित "प्राचीन गूर्जर काव्य संचय में छप चुकी है। पूर्ण वैज्ञानिक विवरण दिया है जिससे अनेक महत्वपूर्ण
श्रीजिनकुशलसूरिजी के गुरु श्रीजिनचन्द्रसूरिज़ी के नवीनतथ्य प्रकाश में आते हैं। उन सिक्कों का माप तोल श्रावक लखमसीह रचित जिनचन्द्रसूरि वर्णनारास ( गा० भी सही रूप में दिया गया है क्योंकि वे स्वयं अलाउद्दीन ४७ ) जेसलमेर भडार से प्राप्त हुआ है, प्रतिलिपि हमारे बादशाह को टंकशाल में अधिकारी रहे थे। अत: उसमें संग्रह में है।
अलाउद्दीन के समय तक की मुद्राओं का विशद विवरण दिया उपर्युक्त श्रीजिनचन्द्रसूरिजी के समय में ठक्कुर फेरू गया है। ठक्कुर फेरू के ग्रन्थों की एकमात्र प्रति हमने नामक बहुत बड़े ग्रन्थकार खरतरगच्छ में हुए। उनकी कलकत्ते के नित्य मणि जीवन जैन लाइब्रेरी के ज्ञानभंडार प्रथम रचना "युगप्रधान चतुष्पदिका" सं० १३४७ में रची में खोज के निकाली थी। इन महत्वपूर्ण ग्रन्थों के सम्बन्ध गई उक्त रचना को हमने संस्कृत छाया व हिन्दी अनुवाद में सर्वप्रथम हमने विश्ववाणी में लेख प्रकाशित किया था। सहित 'राजस्थान भारतो' में प्रकाशित की थी। ठक्कुर स्वर्गीय मुनि कान्तिसागरजी के भी विशाल-भारत में लेख फेरू कन्नाणा निवासी थे यह चतुष्पदिका अपभ्रश के २६ प्रकाशित हुए थे। प्राप्त सभी ग्रन्थों का संकलन करके हमने पद्यों में राजशेखर वाचक के सानिध्य में माघ महीने में पुरातत्त्वाचार्य मुनिजिनविजयजी द्वारा राजस्थान प्राच्य रची गई। ये फेरू, श्रीमाल धांधिया चन्द्र के सुपुत्र थे, आगे विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर से "रत्नपरीक्षादि-सप्त-ग्रन्थ संग्रह"
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
। १७ नाम से प्रकाशित करवा दिया है। स्व० मुनि कान्ति- (द्रौपदी विषयक ) ३ कादम्बरी मंडन ( कादम्बरी का सागरजी ने इनके एक अन्य ग्रन्थ भूगर्भप्रकाश (श्लोक सार ) ४ शृगार मंडन ५ अलंकार मंडन ६ संगीत मंडन ५१) का उल्लेख किया है पर हमें अभी तक कहीं से प्राप्त ७ उपसर्ग मंडन ८ सारस्वत मंडन ( सारस्वत व्याकरण पर नहीं हो सका है।
विस्तृत विवेचन ) चंद्रविजय प्रबन्ध ।" इनमें से कई चौदहवीं शताब्दी के श्रावक कवि समधर रचित नेमि- नथ तो मंडन नथावली के नाम से दो भागों में 'हेमचंद्र नाथ फागु गा० १४ का प्रकाशित हो चुका है। पन्द्रहवीं सूरि नथमाला" पाटण से प्रकाशित हो चुके हैं । शताब्दी के जिनोदयसूरि के श्रावक विद्धणु की शानपंचमी
"मंडन की तरह धनराज या धनद भी बड़ा अच्छा चौपई सं० १४२१ भा० शु० ११ गुरु को रची गई।
विद्वान था। इसने 'धनद त्रिशती' नामक नथ भर्तृहरि कवि विद्धणु ठक्कुर माहेल के पुत्र थे, इसकी प्रति पाटण के
की तरह शतकत्रयी का अनकरण करने वाला लिखा है। संघ भंडार में उपलब्ध है। खरतरगच्छ के महान् संस्कृत विद्वान श्रावक कवि
यह काव्यत्रय निर्णयसागर प्रेप काव्यमाला १३ वे गुच्छक
में छप चुका है। इन मंथों में इनका पाण्डित्य और कवित्व मण्डन मांडवगढ में रहते थे और आचार्य श्रीजिनभद्रसूरिजी
अच्छी तरह प्रगट हो रहा है । के परम भक्त थे। इन्होंने ठक्कुर फेरू को भांति इतने अधिक विषयों पर संस्कृत ग्रन्थ बनाये हैं जितने और किसी
मंडन का वंश और कुटुम्ब खरतरगच्छ का अनुयायी श्रावक के प्राप्त नहीं है। मंत्री मंडन श्रीमाल वाहड़ के
था। इन भ्राताओं ने जो उच्च कोटि का शिक्षण प्राप्त
किया था वह इसी गच्छ के साधुओं की कृपा का फल पुत्र थे इनके जीवनी के संबन्ध में इनके आश्रित महेश्वर कवि ने "काव्य मनोहर" नामक काव्य रचा है। मुनि
था। इस समय इस गच्छ के नेता जिनभद्रसूरि थे इस जिन विजयजी ने विज्ञप्ति-त्रिवेणी में मंत्री मंडन संबन्धी
लिये उनपर इनका अनुराग व सद्भाव स्वभावत: ही
अधिक था। इन दोनों भाइयों ने अपने अपने प्रथो में इन अच्छा प्रकाश डाला है। वे लिखते हैं-"ये श्रीमाल जाति के सोनिगिरा वंश के थे । इनका वंश बड़ा गौरवपूर्ण
आचार्य की भूरि भूरि प्रशंसा की है। इनने जिन भद्रसूरि व प्रतिष्ठावान था। मंत्री मंडन और धनदराज के पितामह के उपदेश से एक विशाल सिद्धान्त कोष लिखाया था। का नाम 'झंझण' था। मंडण बाहड़ का छोटा पुत्र था व
वह ज्ञानभंडार मांडवगढ़ का विध्वंश होने से विखर गया धनदराज देहड़ का एक मात्र पुत्र था इन दोनों चचेरे
सोही नर पर उसकी कई प्रतियां अन्यत्र कई ज्ञानभंडारों में प्राप्त है।
पर उसका भाइयों पर लक्ष्मीदेवी की जैसो प्रसन्न दृष्टि थी वैसे सर- प्रगट-प्रभावी श्रीजिनकुशलसूरिजी के दिव्याष्टक, स्वती देवी की पूर्ण कृपा थो अर्थात् ये दोनों भाई श्रीमान् जिसकी रचना जिनपद्मसूरिजी ने की थी, पर घरणीधर को होकर विद्वान भी वैसे ही उच्चकोटि के थे।"
अवचूरि प्राप्त है पर कवि का विशेष परिचय और समय को "मंडन ने व्याकरण, काव्य, साहित्य, अलंकार और निश्चित जानकारी नहीं मिल सकी। सोलहवीं शताब्दी के संगीत आदि भिन्न-भिन्न विषयों पर मंडन शब्दाडित अनेक श्रावक कवि लक्ष्मोसेन वीरदास के पौत्र एवं हमीर के ग्रंथ लिखे हैं। इनमें से ६ नथ तो पाटण के बाड़ी पार्श्व- पुत्र थे। उन्होंने केवल सोलह वर्ष की आयु में जिन नाथ भंडार में सं० १५०४ लिखित उपलब्ध हैं: जो ये वल्लभसूरि के संघपट्टक जैसे कठिन काव्य की वृत्ति सं० हैं-१ कायमंडन (कौरव पांडव विषयक ) २ चम्पूमंडन १५११ के श्रावण में बनाई।
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
। १२ । जिनदत्तसूरि ज्ञान भंडार सातवें ग्रन्थांक के रूप में उ. बनारसीदासजी का अर्द्धकथानक नामक हिन्दी की हर्षराज को लघु वृत्त एवं साधुकीति की अवचूरि सह पहला पद्यबद्ध आत्मचरित हिन्दी साहित्य में अपने ढंगका प्रकाशित हो चुकी है।
अद्वितीय ग्रन्थ है। समयसार, बनारसी-विलास, नाममाला सतरहवीं शताब्दी में हिन्दी जैन कवियों में कविवर आदि आपको रचनाएं पर्याप्त प्रसिद्ध हैं और प्रकाशित हैं। बनारसोदास सर्व श्रेष्ठ कवि माने जाते हैं। वे श्रीमाल सतरहवीं शताब्दी के अंत में लखपत नामक खरतरजाति के खडगसेन विहोलिया के पुत्र और जौनपुर के निवासी गच्छ के एक श्रावक कवि हुए हैं जो सिन्धु देश के सामुही थे। खरतरगच्छ की श्रोजिनप्रभसूरि शाखा के विद्वान नगर के कूकड़ चोपड़ा तेजसी के पुत्र थे। इनकी प्रथम भानुचन्द्रगणि से आपने विद्याध्ययन और धार्मिक अभ्यास रचना तिलोयसुंदरी मंगलकलश चो० सं० १६६१ के आ० किया था । बनारसीदासजो के लिये भानुचन्द्रजी ने मृगांक- सु० ७ थट्टानगर में बुहरा अमरसी के कथन से रचित है। लेखा चौपाई सं० १६६३ में जौनपुर में बनाई। बनारसी. १२ पत्रों की प्रति का केवल अंतिम पत्र ही तपागच्छ भंडार दासजी ने अपनी नाममाला आदि रचनाओं में अपने जेसलमेर में हमारे अवलोकन में आया था। कवि की विद्यागुरु भानुचन्द्र का सादर स्मरण किया है। आगे दूसरी रचना मृगांकलेखा रास सं १६६४ श्रा० सु० १५ चलकर ये व्यापार के हेतु आगरा आये और समयसार, बुधवार को जिनराजसूरि-जिनसागरसूरि के समय में रची गोमट्टसार आदि दिगम्बर ग्रन्थों के अध्ययन से इनका गई। २५ पत्रों के अन्तिम २ पत्र ही तपागच्छ भंडार झुकाव दिगम्बर सम्प्रदाय की ओर हो गया। उनके साथी जेसलमेर में हमारे देखने में आये । कुवरपाल चोरडिया भी 'सिंदुरप्रकर के' पद्यानुवाद में १८वीं शताब्दी में कवि उदयचन्द मथेन बीकानेर में सहयोगी रहे हैं और भी कई व्यक्ति आपकी अध्यात्मिक हुए, जो महाराजा अनूपसिंह से आदर प्राप्त थे। अनूपसिंह चर्चा से प्रभावित हुए और बनारसीदासजी का मत अध्या- के नाम से इन्होंने हिन्दी में अनूप शृगार नामक ग्रन्थ सं० स्ममती या बनारसीमत नाम से प्रसिद्ध हुआ। मुलतान १७२८ में बनाया, जिसकी एक मात्र प्रति अनुप संस्कृत
आदि दूरवर्ती खरतरगच्छ के ओसवाल भी अध्यात्ममत से लायब्ररी, बीकानेर में है। इसको रचना सं० १७६५ में प्रभावित हुए और वहाँ जो भी श्वेताम्बर कवि एवं विद्वान हुई। उदयचन्द मथेन का तीसरा ग्रन्थ पांडित्य-दर्पण गए उन्हें भी अध्यात्मिक रचना करने के लिये प्रेरित किया। प्राप्त है। बनारसीदासजी का वह अध्यात्म-मत अब दिगम्बरों में मलुकचन्द रचित पारसी वैद्यकग्रन्थ तिव्वसहावी का तेरहपंथ नाम से प्रसिद्ध है और लाखों व्यक्ति दिगम्बर हिन्दी पद्यानुवाद 'वैद्यहुलास'नाम से प्राप्त है। कवि ने सम्प्रदाय में उस तेरहपंथी सम्प्रदाय के अनुयायी हैं। अपना विशेष परिचय या रचनाकालादि नहीं दिए पर मलतः कविवर बनारसीदासजी खरतरगच्छ के ही विशिष्ट इसकी कई हस्तलिखित प्रतियां खरतरगच्छ के ज्ञानभंडारों कवि थे। उपाध्याय मेघविजय ने भी अपने युक्ति-प्रबोध में देखने में आई अतः इसके खरतर गच्छोय होने की नाटक में इनके खरतर गच्छानुयायी होने का उल्लेख किया संभावना है। है। बनारसीदासजी की प्रारम्भिक रचनायें श्वेताम्बर १९वीं शताब्दी में अजीमगंज-मकसूदावाद के श्रावक सम्प्रदाय से सम्बन्धित हैं।
सबलसिंघ अच्छे कवि हुए जिन्होंने सं० १८९१ में चौबीस
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ १७३ ]
जिन स्तवनों और विहरमान बोसो की रचना को इन्होंने अपनी रचना में भोजनहर्षसूरि के प्रसाद से रखे जाने का उल्लेख किया है ।
२०वीं शताब्दी में नाथनगर में श्री अमरचन्द जो बोचरा खरतरगच्छ के कट्टर अनुयायी और सुकवि थे। इनके रचित दो चौवासियां प्रकाशित हो चुकी है । ये पहले तेरापंथी थे भोजिनवशः सूरिजी महाराज के अजीमगंज पधारने पर अनेक वादविवाद के पश्चात् मे खरतरगच्छा नुयायो मन्दिर मार्गों बने खरतरगच्छ को आचरणाओं आदि के विषय में आपका गहरा अध्ययन व चिन्तन था। श्रीमद्देवचन्द्रजी की रचनाएं आपको अत्यन्त प्रिय थी।
उपर्युक्त खरतरगच्छ के श्रावक कवियों के अतिरिक्त कतिपय छोटे मोटे और भी अनेक कवि हुए हैं जिनके जिनभद्रसूरि गीत आदि रचनाएं हमारे अवलोकन में आई है । खोज करने पर और कई खरतरगच्छीय कवियों की रचनाएं प्राप्त होगी। बीसवीं शताब्दी में तो हिन्दी गद्यपद्य लेखक, कई कवि हो गए हैं जिनमें से राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद बहुत ही प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। खरतरगच्छीय यति रायचन्द जी ने इनके खानदान के राजा डालचन्द के लिये सं० १८३८ में कल्पसूत्र का पद्यानुवाद किया था। उन्होंने विचित्र मालिका और अवयदी शकुनावली को रचना की। राजाशिवप्रसाद सितारे हिन्द' के बहुत से ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं उनकी दादी रत्नकुंदरि बोबो लखनऊ के राजा बच्छराज नाहटा की पुत्री थी। उसने सं० १८४४ में माथ दि ५ को प्रेम नामक हिन्दी काव्य बनाया । कवियित्री कुंवरि बहुत बड़ी पंडिता थी और उसका झुकाव कृष्ण
भक्ति को ओर दिखाई देता है। राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद को लड़की गोमती बीबी जेनधर्म की अच्छी जानकार थी । यहखानदान खरतरगच्छीय हैं।
स्वयं ग्रन्थ रचना करने के अतिरिक्त खरतरगच्छ के बहुत से श्रावकों ने विद्वान यतिमुनियों से अनुरोध कर अनेकों रचनाएं करवायी थी । उनसब का विवरण देखने से खरतर गच्छीय श्रावकों के साहित्य प्रेम का अच्छा परिचय मिल जाता है।
ज्ञानभंडारों को स्थापना ओर अभिवृद्धि में तो भावक समाज का महत्वपूर्ण योग रहा है। हजारों प्रतियां उन्होंने प्रचुर द्रव्य व्यय कर लिखवायी । कविजनों को समय समय पर पुरष्कार आदि देकर प्रोत्साहित किया। कई धावक अच्छे विद्वान थे, पर साहित्य निर्माण का उन्हें सुयोग प्राप्त नहीं हुआ । विद्वानों का सत्संग, स्वाध्याय प्रेम उन्हें बहुत रुचिकर रहा है। समय समय पर विद्वान मुनियों से उन्होने गम्भीर विषयों पर प्रश्न उपस्थित कर उनसे समाधान किया जिसका उल्लेख कई प्रश्नोत्तर ग्रन्थों में पाया जाता है ।
O
खरतर गच्छ को कई संस्थाओं ने विद्वान बनाने की योजना बनाई थी पर खेद है कि वह योजना सफल नहीं हो पायी। आज भी इस बात की बड़ी आवश्यकता प्रतीत होती है कि उचित व्यवस्था करके उच्चस्तरीय अध्ययन कर जिज्ञासु विद्यार्थियों को विद्वान बनाने का पूर्ण प्रयत्न किया जाय। खरतरगच्छ के साहित्य के संपादन प्रकाशन, नवीन साहित्य निर्माण में विद्वान श्रावकों की अत्यन्त आवश्यकता है |
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
अपभ्रं शकाव्यत्रयी : एक अनुशीलन
[ ले० डॉ० देवेन्द्रकुमार शास्त्री ]
युगप्रधानाचार्य जिनवल्लभसूरिजी के पट्टधर, खरतर - गच्छ के परमगुरु एवं बहुश्रुत विद्वान् कवि श्रीजिनदत्तसूरि खरतरगच्छ के प्रसिद्ध आचार्य थे । यतः -.. एतत्कुले श्रीजिनवल्लभाख्यो गुरुस्ततः श्रीजिनचन्द्रसूरिः । सुपूर्वसूरिस्तदनुक्रमेण बभूव वर्यो बहुलैस्तपोभिः ॥ - अपभ्रंशकाव्यत्रयी, पृ० ३५ उन्होंने केवल संस्कृत और प्राकृत भाषा में ही नहीं अपभ्रंश भाषा में भी अनेक ग्रन्थों की रचना कर भारतीय साहित्य के भाण्डार को अत्यन्त समृद्ध किया । उनका जन्म गुर्जर देश में धवलकपुर में वि० सं० १९३२ में हुआ था । वे हूमड़ जाति के वणिक थे । वि० सं० ११४१ में उन्होंने दीक्षा धारण की थी और वि० सं० ११६६ में वे सूरि-पद को प्राप्त हुए थे । अपभ्रंश भाषा में रची हुई उनकी तीन काव्य-कृतियाँ परिलक्षित होती है। ये तीनों रचनाएँ टीका सहित 'अपभ्रंशकाव्यत्रयी' में संकलित हैं । अपभ्रं शकाव्यत्रयी का सम्पादन बड़ौदा के प्रसिद्ध जैनपण्डित श्रीलालचन्द्र भगवानदास गांधी ने सुयोग्य रीति से किया और जिसका प्रकाशन सन् १९२७ में ओरियन्टल इन्स्टीट्यूट, बड़ौदा से ग्रन्थ क्रमांक ३७ के अन्तर्गत गायकवाड़ ओरियण्टल सीरिज में हो चुका है।
अपभ्रंश भाषा में रचे गये श्रीमजिनदत्तसूरि के ग्रन्थ निम्नलिखित हैं
१. चर्चरी २. उपदेशरसायनरास ३. कालस्वरूप कुलकम् चर्चरी ४७ पत्रों की लघु तथा सुन्दर रचना है । लोकभाषा तथा शैली में यह रचना नृत्यपूर्वक गान करने के लिए पूज्य गुरु श्रीजिनवल्लभसूदि के गुणों की स्तुति के
निमित्त रची गई । श्रीजिनपालोपाध्याय के द्वारा विहित वृत्ति से यह स्पष्ट है कि इस चर्चरी की रचना वाग्डदेश के प्रमुख भ० धर्मनाथ के जिनालय व्याघ्रपुर में श्री जिनदत्तसूरि द्वारा की गयी थी । श्रोजिनवल्लभसूरि का स्मरण दो विशेषणों के साथ किया गया है
जुगपवरागमसूरिहि गुणिगणदुल्लहह ।
युगप्रवर तथा आगमसूरि श्रीजिनवल्लभसूरि का स्मरण बहुविध किया गया है। वस्तुतः अपभ्रंश लोकभाषा होने के कारण गुरु-स्तुतियाँ इस भाषा में लिखी जाती थीं । अपभ्रंश में चर्चरी या गीत लिखे जाने के दो मुख्य कारण थे— लोक प्रचलित शैली में भावों की अभिव्यक्ति तथा जन साधारण की समझ में आने वाली बोली का प्रयोग | अभी खोज करते समय लेखक को चित्तौड़गढ़ से श्रीजिनवलभसूरि के गीत अपभ्रंश भाषा में लिखे हुए मिले हैं। इस रचना से यह भी पता चलता है कि श्रीजिनदत्तसूरि की कवित्वशक्ति गुरु परम्परा से प्राप्त हुई थी। उनका कथन है - लोक में कवि कालिदास की रचनाओं का वर्णन किया जाता है । किन्तु वह तभी तक है जब तक कवि जिनवल्लभ को नहीं सुना । इसी प्रकार सुकवि वाक्पतिराज की अत्यंत प्रसिद्धि है, किन्तु वह भी जिनवल्लभ के आगे फोकी पड़ जाती है । अन्य अनेक सुकवि उनके काव्यामृत के लोभी इनकी समता नहीं कर पाते। जो सिद्धान्त के जानकार हैं वे उनका नाम सुनकर ही सन्तुष्ट हो जाते हैं । इसलिये लोकप्रवाह से बचकर कुमार्ग को छोड़ कर सत्मार्ग में लगना चाहिये । यथा
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
। १७१ ] परिहरि लोयपवाहु पयट्टिउ विलिविसउ तालरासक एवं विविध वाद्य-ध्वनियों का भा वादन होता पारतंति सहु. जेण निहोडि कुमग्गसउ । था। विविध प्रकार से लोग अपने भक्ति-भावों को प्रददसिण जेण दुसंघ-सुसंघह अंतरउ शित करते थे। कवि का कथन है--जिन मन्दिरों में वमाणजिणतित्थह कियउ निरन्तरउ ॥१०॥ उचित स्तुति और स्तोत्र पढ़े जाते थे, जो जिनसिद्धान्तों के दूसरी रचना उपदेश (धर्म) रसायनरास है। इस पर अनुकुल होते थे । श्रद्धाभरित होने पर भी रात में तालभी श्रीजिनपालोपाध्याय की वृत्ति मिलती है। यह पद्ध- रासक प्रदर्शित नहीं होता था। दिन में भी महिलायें पुरुषों ड़ियाबन्ध रचना है। वृत्ति से स्पष्ट है कि कवि ने लोक- के साथ लगुडरास नहीं खेलती थीं। प्रवाह के विवेक को जाग्रत करने के हेतु सद्गुरु स्वरूप, उचिय थुत्ति थुयपाढ पढिज्जहिं चैत्य विधिविशेष, तथा धर्मरसायनरास की रचना की।
जे सिद्ध तिहिं सहु संधिज्जहिं । सद्गुरु के सम्बन्ध में उसके लक्षणों का निर्देश करता हुआ
तालारासु वि दिति न रयणिहिं कवि कहता है
दिवसि वि लउडारसु सहँ पुरिसिहि ॥६॥ सुगुरु सु वुच्चइ सच्चउ भासइ
धार्मिक लोग केवल नाटकों में नृत्य करते थे और चक्रवर्ती परपरिवायि नियरु जसु नासइ ।
भरत तथा सगर के अभिनिष्क्रमण का एवं अन्य चक्रवर्ती सव्वि जीव जिव अप्पउ रक्खइ
चरितों का प्रदर्शन करते थे। मुक्खु मग्गु पुच्छियउ जु अक्खइ ॥४॥
धम्मिय नाडय पर नच्चिज्ज हिं अर्थात् जो सच बोलता है उसे सुगुरु कहते हैं। जिस
भरहसगरनिक्खमण कहिज्जहि । के वचनों को सुनकर अन्य वादियों का भय नष्ट हो जाता
चक्कवटिबलरायहं चरियई है, सभी जीवों की रक्षा अपनी रक्षा की भांति करने लगते
नविवि अंति हंति पव्वइयई ॥३७॥ हैं और मोक्ष-मार्ग के पूछने पर जो सभी को बतलाता है इस प्रकार कवि ने यह बताया है कि इन विविध रासों, वह सुगरु है। तथा
नृत्य-गानों का अभिप्राय मनोरंजन न होकर अन्त में ___ जो जिनवचनों को ज्यों का त्यों जानता है. द्रव्य वैराग्य-भावना की अभिव्यंजना रही है । अतएव माघमाला क्षेत्र, काल और भाव को भी जानता है और उनके अन- जलक्रीड़ा तथा झूला-पालना तीनों जिनालय में करना सार वर्तन भी कराता है तथा उन्मार्ग में जाते हुए लोगों निषिद्ध है। घर पर किये जाने वाले कार्य भी जिन-मंदिर को रोकता है (वह सुगुरु है)।
में करना उचित नहीं है। जो जिणवयणु जहट्ठिउ जाणइ
माहमाल - जलकोलंदोलय दव्वु खितु कालु वि परियाणइ ।
तिवि अजुत्त न करति गुणालय । जो उस्सग्गववाय वि कारइ
बलि अत्थमियइ दिणयरि न धरहि उम्मग्गिण जणु जंतउ वारइ ॥५॥
घरकज्जई पुण जिणहरि न करहिं ॥३६॥ इस रचना में कुल ८० पद्य हैं । कवि के युग में माघमाला लोकव्यवहार के सम्बन्ध में उन के विचार थे-कि जो जलक्रीड़ा, लगुडरास तथा विविध नृत्य-गानों का चैत्यगृहों बेटा-बेटियों को परणाते हैं वे समानधर्म वाले घरों में में विशेष प्रचार था। मन्दिरों में नाटक भी खेले जाते थे। विवाह रचते हैं। क्योकि यदि विमत वालों के घर
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
। १७६ ] सम्बन्ध किया जाता है तो निश्चय से सम्यक्त्व की हानि कवि का यह कथन कितना सुन्दर है कि यह संसार धतूरे के होती है। आचार्य श्री का यह भी कथन है कि अल्प धन उस सफेद फूल के समान सुन्दर तथा आकर्षित करने वाला से ही संसार के सावद्य कार्य सम्पन्न हो जाते हैं। धन है, जो पौधे में लगा हुआ मनोहर लगता है । किन्तु जब केवल मनुष्य के कुटुम्ब के निर्वाह का साधन है। अतएव उसका रस पिया जाता है तब सब सूना लगता है। मनुष्य धार्मिक कार्यो में धन का सदुपयोग कर सभ्यक्त्त्व की प्राप्ति का आयुष्य थोड़ा है । अतएव गुरुभक्ति कर मनुष्यजन्म का प्रयत्न करना चाहिये। सम्यक्त्व की प्राप्ति प्रतिक्रमण, सफल बनाना चाहिए। वन्दना, नवकार को सज्झाय आदि से होती है। उनके हो
जहिं धरि बंधु जुय जुय दीसइ शब्दों में
तं घरु पडइ वहंतु न दोसइ । पडिकमणह वंदणइ आउल्ली
जं दढबंधु गेहु तं बलियउ चित धरंति करेइ अभुल्ली
जडि भिज्जंतउ सेसउ गलिउ ॥२६॥ मणह मज्झि नवकारु वि ज्झायइ
अर्थात जिस घर में बान्धव अलग-अलग दिखलाई तासु सुटछु सम्मतु वि रायइ॥१॥ अपभ्रंश की तीसरी रचना कालस्वरूपकूलकम है। यद्यपि
पड़ते हैं वह घर नष्ट हो जाता है। जिस प्रकार से बन्धु
बान्धवों के एक घर से अलग-अलग हो जाने पर वह घर यह बत्तीस छन्दों में निबद्ध लघु रचना है, किन्तु विषय और भावों की दृष्टि से यह सशक्त रचना है। जन सामान्य के ।
फूट जाता है उसी प्रकार संयमी जनों से रहित घर भो लिए यह रचना अत्यन्त उपयोगी है। रचना सरल और
विनष्ट हो जाता है । दृढ़बन्ध होने पर भी जिस घर को नोंव
में पानी हो वह गल कर नष्ट हो जाता है । अतएव भावपूर्ण है। इसपर सूरप्रभ उपाध्याय की लिखी हुई वृत्ति भो साथ में प्रकाशित है।
लौकिक समृद्धि प्राप्त करना हो तो घर को बुहारी की
भाँति बाँधना चाहिए। यदि बुहारी का एक-एक तिनका मनुष्य जन्म के सफल न होने का कारण बताता हुआ
अलग-अलग कर दिया जाये तो फिर उससे कैसे बुहारा कवि कहता है-यह जन मोह की नींद में सो रहा है. कभी
जा सकता है? जागता ही नहीं है। मोहनींद में से उठे बिना यह शिवमार्ग में नहीं लग सकता । यदि किसी सुखकर उपाय से कोई
कजउ करइ बुहारी बद्धो गरु उसे जगाता है तो उसके वचन उसे अच्छे नहीं लगते।
सोहइ गेह करेइ समिद्धी। मोहनिद्द जण सुत्तु न जग्गइ
जइ पुण सा वि जुयं जय किजइ तिण उटि ठवि सिवमग्गि न लग्गइ।
ता किं कज तीए साहिजइ ॥२७॥ जइ सुहत्थु कु वि गुरु जग्गावइ
युगप्रवर आचार्य जिनदत्तसूरिजो के पट्टधर शिष्य तु वि तव्वयणु तासु नवि भावइ ॥५॥ मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरि के अष्टमशताब्दी समारोह के जिस प्रकार हिन्दी भाषा में निर्गुण सन्तों ने सिर मुंडा लेने शुभ सन्देश के रूप में आज भी उनके वे वचन अत्यन्त महमात्र का निषेध किया है उसी प्रकार आचार्य जिनदत्तसूरि त्वपर्ण तथा प्रेरणादायक हैं कि हम सबको ( सभी सम्प्रभी कहते हैं कि लोक में बहुत से साधु सन्यासी मुण्डित दायों को) अब एक जुट होकर बुहारो की भाँति जिनशासन दिखलाई पड़ते हैं, किन्तु उनमें राग द्वेष भरपूर विलसित के एक सत्र में बंध जाना चाहिए, ताकि मानवता एवं धर्म है। इसी प्रकार बहुत से शास्त्र पढ़ते हैं, उनका निर्वचन की अधिक से अधिक सेवा हो सके । तथा व्याख्यान करते हैं, किन्तु परमार्थ नहीं जानते हैं।
पताउनके शब्द हैंबहु य लोय लुंचियसिर दोसहिं
डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री, एम० ए०, पर रागद्दो सिहि सहुँ विलसहिं ।
पी-एच. डी०, पढहिं गुणहि सत्यइ वक्खाणहि
शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, परि परमत्थु तित्थु सु न जाणहि ॥७॥
नीमच (मन्दसौर) म. प्रा
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
खरतरगच्छ परम्परा और चित्तौड़
[ रामवल्लभ सोमानी ]
मेवाड़ का जैनधर्म से सम्बन्ध अत्यन्त प्राचीन काल से था। बड़ली के वीर सं० ८४ के लेख में मध्यमिका नगरी का उल्लेख है ' । इवेताम्बर परम्परा के अनुसार यहां कई उल्लेखनीय साधु हुये हैं । इनमें सिद्धसेन दिवाकर, और हरिभद्रसूरि बड़े प्रसिद्ध हुये हैं । हवीं शताब्दी में कृष्णर्षि २ नामक एक जैन साधु बड़े विख्यात हुए हैं । इन्होंने चित्तौड़ में कई श्रावकों को जैन धर्म में दोक्षित किया, इस समय चित्तौड़ में श्वेताम्बरों के साथ-साथ दिगम्बरों का भी प्राबल्य था । महारावल अल्लट के शासनकाल में श्वेताम्बरों को राज्याश्रय मिलना शुरू हुआ था । इस समय कई श्वेताम्बर मन्दिर बने जिनकी प्रतिष्ठा संडेरगच्छ के यशोभद्रसूरि ने को थो । समय चैत्यवासियों का बड़ा प्रबल प्रचार था ।
उस
खरतरगच्छ के साधुओं का प्रारम्भ में जालोर, गुजरात आदि क्षेत्रों में अच्छा प्रचार था । उस समय ये चन्द्रगच्छीय कहलाते थे । मेवाड़ के चित्तौड़ में सबसे अधिक सम्पर्क इस गच्छ के जिनवल्लभसूरिका हुआ ये प्रारम्भ में चैत्यवासी थे और आसिका दुर्ग के कुर्चपुरीय गन्छ के जिनेश्वरसूरि के शिष्य थे । ये पाटन में अभयदेवसूरि के पास शिक्षार्थ आये थे । इन्होंने चैत्यवासियों को शास्त्र विरोधी प्रक्रियाओं से अप्रसन्न होकर उसे त्यागकर अभयदेवसूरि से फिर से दीक्षा ग्रहण को थी । यह घटना वि०
(१) पूर्णचन्द्र नाहर जैन लेख संग्रह भाग १ पृ० T૭ (२) अगरचन्द्र नाहटा शोधपत्रिका वर्ष १ अक १ में लेख (३) लेखक द्वारा लिखित 'महाराणा कुम्भा' पृ० १६६ वीरभूमिचित्तौड़ पृ० ११६ । (अपभ्रं शकाव्य(४)
33
त्रयी की भूमिका ४) ।
सं० ११३८ के बाद सम्पन्न हुई थी क्योंकि इस संवत् में लिखो “विशेषावश्यक टोका" की प्रगस्ति में जिनवल्लभसूरि ने अपने आपको जिनेश्वरसूरि का शिष्य वर्णित किया है । ये घूमते-घूमते चित्तौड़ आये। यहां चेत्यवासियों के विरोध के कारण ये चण्डिका के मठ में ठहरे । ये कई शास्त्रों के ज्ञाता थे । अतएव शीघ्र ही इनको बड़ी प्रसिद्धि हो गई। इनके कई उपासक भी हो गये। इनमें श्रेष्ठि बहुदेव साधारण, वोरक, रासल मानदेव आदि थे। जो कुछ धर्कटजाति के और कुछ खंडेलवाल थे । इन्हीं श्रेष्ठियों के सहयोग से जिनवल्लभसूरि ने चित्तौड़ में विधिचैत्य को स्थापना की । इस समय एक विस्तृत प्रशस्ति भी खुदाई जिसका नाम "सप्तसप्तिका " रक्खा गया है। इसमें ७७ श्लोक हैं । इसकी प्रतिलिपि आदरणीय नाहटाजी की कृपा से मुझे प्राप्त हुई है। इस प्रशस्ति में चित्तौड़, नागौर आदि कई स्थानों पर सम्भवतः खुदाया गया था ।
खरतरगच्छ परम्परा के अनुसार एक बार नरवर्मा के दरबार में एक समस्या पूर्ति हेतु आई । इसकी नरवर्मा के पंडितगण पूर्ति नहीं कर सके तब चित्तौड़ में इसे जिनवल्लभसूरि के पास भेजी । इन्होंने तत्काल पूर्ति करके भिजवा दो । कालान्तर में जब वे घूमते-घूमते धारानगरी पहुँचे
(५)
चित्रकूट नरवर नागपुर महपुरादिसम्बन्धिनि सुप्रशस्तिषु लिखित्वा च निदर्शितानि... " ( अपभ्रंशकाव्यत्रयी में प्रकाशित चर्चरी गाथा १२१ )
"
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
तो नरवर्मा ने इनका बड़ा सम्मान किया और इन्हें काफी दान देने की इच्छा प्रकट की । इन्होंने इसे अस्वीकार करते हुये केवल इतना ही कहा कि वे चित्तौड़ में निर्मित विधिचेत्य की पूजा के निमित्त व पारुत्थ मुद्राओं की व्यवस्था चित्तौड़ की मंडपिका से करवा देवें । तदनुसार व्यवस्था करा दी गई। इनका देहावसान चित्तौड़ में वि० स० ११६७ कार्तिक बदि १२ को हुआ था । इसके कुछ समय पूर्व ही इनका पाटोत्सव चित्तौड़ में ही सम्पन्न कराया गया था। इनके द्वारा विरचित ग्रन्थों में संघपट्टक, धर्मशिक्षा, पिंडविशुद्धि, द्वादशकुलक प्रकरण आदि प्रसिद्ध हैं ।
जिनदत्तसूरि जिनवल्लभसूरि के बाद आचार्य बने । इनका पाटोत्सव चित्तौड़ में वि० सं० १९६६ वैशाख सुदि ६ को हुआ । इनका प्रारम्भ का नाम सोमचन्द्र था और आचार्य बनने पर इन्हें जिनदत्त नाम दिया गया था । चैत्यवासियों का बड़ा प्रचार चित्तौड़ में चल रहा था । जब ये चित्तौड़ में प्रवेश कर रहे थे तब एक साँप और एक नकटी औरत को इनके सामने भेजा ताकि अपशुकुन हो जाये किन्तु ज्ञानादित्य जिनदत्तसूरि ने कहा कि यह अपशकुन नहीं है। इसका फल वे लोग ही भोगेंगे। इस प्रकार बड़े समारोह पूर्वक इन्होंने चित्तौड़ में प्रवेश किया था ।
श्रेष्ठि राल्हा का उल्लेख खरतरगच्छ पट्टावली के अनुसार मिलता है । इसने जिनेश्वरसूरि के उपदेश से वि० सं० १२०८ में चित्तौड़ में बड़ा महोत्सव किया। इसमें अजित सेन, गुणसेन, अमृतमूर्ति, धर्ममूर्ति, राजमती, हेमावलो कनकावलो, रत्नावली आदिको दीक्षा दो । (६) चित्रकूट मण्डपिकातस्तत् शाश्वतदानं भविष्यतोति कृतम्” युगप्रधान गुर्वावली पृ० १३ ।
(७) शोधपत्रिका वर्ष १ अंक ३ में प्रकाशित श्रीनाहटाजी
37
। १७४ ।
t
का लेख | वीरभूमि चित्तौड़ पृ० १५७ । (८) वरदा वर्ष ६ अंक ३ पृ० ६-७ में प्रकाशित मेरा
c
इसी वर्ष आषाढवदि २ को चित्तौड़ मैं नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, ऋषभदेव आदि की प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा भी की। इसमें ८००० रु० श्रेष्ठि लक्ष्मीधर ने और शेष राशि श्रेष्ठि राल्हा ने व्यय की । जैसलमेर भंडार में संगृहीत "कर्मविपाक" नामक ग्रन्थ की प्रशस्ति से पता चलता है कि राल्हा ने वि० सं० १२८६ में शत्रुंजय आदि तीर्थों की यात्रा उक्त आचार्य के उपदेश से की थी । वि० सं० १२६५ में उक्त ग्रन्थ की प्रतिलिपि करवाई थी । सम्भवतः उस समय जिनेश्वरसूरि धारा में थे और राल्हा उनके दर्शनार्थ वहां गया हुआ था ।
मेवाड़ में महारावल जैतसिंह, तेजसिंह और समरसिंहका शासनकाल बड़ा महत्वपूर्ण था । इस काल में जैन धर्म की बड़ी उन्नति हुई । चित्तौड़ से बड़ी संख्या में शिल| लेख और ग्रन्थ प्रशस्तियां इस काल की मिली हैं । खरतरगच्छ परम्परा के अनुसार वि० सं० १३३४ में जिनप्रबोधसूरि यहां आये थे । फाल्गुन सुदि ५ को प्रतिष्ठा मुहूर्त हुआ । इनमें मुनिसुव्रतस्वामी, युगादिदेव, अजितनाथ, वासुपूज्य, महावीर स्वामी, समवसरणपट्टिका आदि की प्रतिमा शांतिनाथ चैत्यालय में स्थापित की थी। इस उत्सव के समय महारावल समरसिंह, राजकुमार अरिसिंह आदि भी उपस्थित थे । इस समय श्रेष्ठि आल्हक और धांधल प्रमुख श्रावक थे । श्रेष्ठिधांधल और उसके पुत्रों का उल्लेख कई ग्रन्थ प्रशस्तियों में भी है । वि० सं० १३४३ की जैसलमेर भंडार की चन्द्रदूताभिधान की प्रशस्ति में भी इसका उल्लेख है। इस परिवार ने लाखों रुपये सार्वजनिक कार्यों के लिये व्यय किये थे । फाल्गुन सुदि
लेख और उक्त पत्रिका के वर्ष ६ अंक ४ में प्रकाशित डा० दशरथ शर्मा की टिप्पणी । वोरभूमि चित्तोड़ पृ० १५७ ।
(E) युगप्रधान गुर्वावली पृ० ५६, ( वीरभूमि चित्तोड़ पृ० १५६ )
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
। १७५५ ।
१४ वि० सं० १३३४ में श्रेष्ठि आल्हाक ने चित्तौड़ में की प्रशिस्त वाली ताऽपर्य परिशुद्धि पुस्तक मिली है। पार्श्वनाथ चैत्यालय का जीर्णोद्धार कराया था, इस समय इन्होंने देलवाड़ा में समाचारी मिमांमिली है। इस समय चित्तौड़ में खरतरगच्छ के अतिरिक्त चैत्रगच्छ वृहद्गच्छ
खरतरगच्छ के जयसागर नामक एक प्रसिद्ध पडित हुये थे। और भर्तृ पुरीयगच्छ के साधु भी कार्य कर रहे थे। प्रसिद्ध इसी प्रकार मेरुसुन्दर नामक एक उपाध्याय का भी उल्लेख शृगार चंवरी का निर्माण भी इसी काल में हुआ था। मिलता है जिसने कई "बालावबोध'' लिखे थे ।
अल्लाउद्दीन खिलजी के आक्रमण से चित्तौड़ के कई मन्दिर महाराणा कुम्भा के शासन काल में शृगारचंवरी विध्वंश हो गये थे किन्तु महाराणा हमीर के राज्यारोहण के का वि० सं० १५०५ का भंडारी बेला का शिलालेख बाद स्थिति में बड़ा परिवर्तन हुआ। प्रसिद्ध मंत्री रामदेव बड़ा प्रसिद्ध है। इसी मंदिर में वि० सं० १५१२ और नवलखा खरतरगच्छ का श्रावक था। इसने करेड़ा जैन १५१३ के ४ शिलालेख और लग रहे हैं जिनमें जिनमन्दिर में बड़ा प्रसिद्ध दीक्षा महोत्सव कराया था। यह सुन्दरसूरि द्वारा प्रतिष्ठा कराने का उल्लेख है। वि० सं० वि० सं० १४३१ में सम्पन्न हुआ था। और इसका विज्ञप्ति १५३८ का एक और लेख "रामपोल" पर लगा रहा है। लेख भी प्रकाशित हो गया है। इस परिवार ने कई खरतर- इसमें खरतरगच्छ जिनहर्षसूरि का उल्लेख है। इनके गच्छके आचार्यों की मूर्तियां भी देलवाड़ा (देवकुल पाटक) में अतिरिक्त जयकीर्ति महोपाध्याय, हर्षकुंजरगणि रत्नशेखरबनवाई । इसकी पत्नी मेलादेवी ने भी कई ग्रन्थ लिखवाये। गणि ज्ञानकुंजरगणि आदि का भी उल्लेख है।४ । वि० सं० उस समय देलवाड़ा में इस परिवार ने एक ग्रन्थ भंडार भी १५३८ के एक मूर्ति के लेख में भंडारी भोजा का स्थापित किया था । रामदेव के २ पुत्र थे (१) सहणा
उल्लेख है। इसकी प्रतिष्ठा जिनहर्षगणि ने की थी।
खरतरगच्छ का एक वृहद् शिलालेख वि० सं० १५५६ का और (२) सारंग। सहणा के वि० सं० १४६१ के तीन
है। यह वृहद् शिलाओं पर उत्कीर्ण था। इसमें से एक शिला मूर्ति लेख मिले हैं। जिनमें खरतरगच्छ के जिनचन्द्रसूरि के श्लोक सं० ८३ से १२८ का ही अंश वाला मिला है। इसमें शिष्य जिनसागरसूरि द्वारा प्रतिमाओं को प्रतिष्ठा का महाराणा रायमल के राज्य का उल्लेख है।१५ इसमें जिनउल्लेख मिलता है। वि० सं० १४१४ के नागदा के हर्षगणि जयकीति उपाध्याय आदि का उल्लेख है। वि० सं० मति लेख में और वि० सं० १५०५ के शृगार १५७३ को महाराणा सोगा के समय लिखी "खंडन विभक्ति" चंवरी चित्तौड़ के शिलालेख में कई आचार्यों के नाम हैं१२ नामक ग्रन्थ की प्रशस्ति देखने को मिली। इसे खरतरगच्छ यथा-जिनराजसरि, जिनवर्धन, जिनचन्द्र, जिनसागर, के कमलसंयमोपाध्याय ने लिखा था। यह ग्रन्थ अब पाटण जिनसुन्दर, जिनहर्ष आदि जिनराज का जन्म वि० सं० भंडार में है।' १४३३ और मृत्यु वि० सं० १४६१ में हुई। इनकी महाराणा बणवीर के समय श्रेष्ठि सूरा का उल्लेख मूर्ति देलवाड़ा में स्थापित की गई थी। इनके समय मिलता है। उस समय विभिन्न चैत्य-परिपाटियों में की वि० सं० १४५० में लिखी “आचारांग चूर्णि" खरतरगच्छ के शांतिनाथ के मन्दिर का उल्लेख मिलता है। पुस्तिका मिली है जिसकी प्रतिलिपि मेरुनन्दन उपाध्याय ने इस प्रकार दीर्घ काल तक चित्तोड़ खरतरगच्छ का की थी। जिनवर्द्धन के समय की लिखी वि० सं० १४७१ केन्द्र रहा है।
................
.......
(१०) महाराणा कुम्भा पृ० ३०५३३०-३३२ (११) उक्त पृ० ३७०-७१ (१२) उक्त पृ० ३.११ ७२ (१३) उक्त पृ० २१५-१६
(१४) वीरभूमी चित्तौड़ पृ० २४६ (१५) उक्त पृ० २४६-४७ ११६) उक्त पृ० २५७
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
खरतरगच्छ की भारतीय संस्कृति को देन
[ लेखक-रिषभदास रांका ]
भारत में जैन मन्दिरों की व्यवस्था और स्वच्छता सफलता भी प्राप्त हुई, उनके बाद भी वह संघर्ष चलता बहुत अच्छी समझी जाती है क्योंकि जैन मन्दिर की रहा । उस काल में चेत्यवासियों का बहुत प्रभाव था । व्यवस्था किसी ऐसे सन्त-महन्त के हाथ में नहीं होती जो चावड़ा तथा चौलुक्य वंश के गुरु थे। जैन धर्म को जिसमें उनका स्वार्थ या सत्ता जुड़ी हो। जिन धर्म या पतन के गर्त से बचाने तथा प्राचीन श्रमण परम्परा और सम्प्रदायों में मन्दिर या मठों की व्यवस्था सन्त-महन्तों की आचार की प्रतिष्ठापना करने का काम प्रभावशाली ढंग होती है वहाँ क्या होता है इसके किस्से अखबारों में छपते से जिन महापुरुष ने किया, जिन्होंने 'खरतरगच्छ' की पदवी हैं और उनमें चलनेवाले दुराचार या विलासिता की कहा- प्राप्त कर खरतरगच्छ की परम्परा चल ई। वे थे श्रीजिनेनियाँ पढने या देखने को मिलती हैं। कई इतिहासज्ञों का स्वरसरि और उनकी परम्परा के आचार्य जिनवल्लभ, कहना है कि बौद्धों का इस देश से निष्काल या प्रभाव कम जिनदत्तसूरि, जिनचन्द्रसूरि, जिनपतिसूरि आदि। इन्होंने होने के कारणों में राजाओं की कृपा तथा विहारों की चैत्यवास का विरोध एवं पुनः कठोर जैन श्रमण आचार की विलासिता और दुराचार भी एक कारण था । बौद्धों को प्रतिष्ठापना की। जैन श्रमण संस्था को विशुद्ध संयमयुक्त तरह जैनियो में यह विकृति न आई हो ऐसी बात नहीं। तथा तेजस्वी बनाने का प्रयास किया। विशुद्धि से समाज ८वीं शताब्दी में वे भी पतन की ओर तेजी से बढ़ रहे थे। में आई हुई चैत्यवास की विकृति को दूर करने के प्रबल आचार्य हरिभद्रसूरि ने लिखा है कि "कई जैन साधु प्रयास किये । मन्दिरों में रहने लग गये थे, मन्दिरों के धन का अपने भोग- खरतरगच्छ ने जो जैन संस्कृति की सेवा की है उसका विलास में उपयोग करते, मिष्टान्न तांबूलादि से जिह्वा को ठीक मूल्यांकन जैन समाज में भी नहीं हो पाया । कारण तृप्त करते, नृत्य संगीत का आनन्द लूटते । केश-लुचन का अनेक हैं उसमें से एक कारण गच्छ और सम्प्रदाय का त्याग कर दिया था। स्त्री-संग को वे सर्वथा त्याज्य नहीं अभिनिवेश है। जब सम्प्रदाय या गच्छों में विचारों की मानते, धनिकों का आदर करते और ऐसी बहुत सी बातें भिन्नता रहते हुए भी एक दूसरे के गुणों और विशेषताओं जो जैनाचार के विपरीत थीं उसे करने लग गये थे। से लाभ उठाया जाता है तब ये गच्छ अथवा सम्प्रदाय एक धनिकों तथा राजाओं पर उनका अत्यन्त प्रभाव था उसका दूसरे के लिये लाभदायक होते हैं पर इसके स्थान में उनमें उपयोग वे अपना सम्मान बढ़ाने तथा सुखोपभोग में करते। जब प्रतिस्पर्धा या ईर्ष्या का भाव निर्माण होता है तब हाथियों पर सवारी और छत्र-चामर आदि द्वारा राजाओं एक दूसरे से लाभ लेना तो दूर, वे एक दूसरे की हानि की तरह उनका मान-सम्मान होता था।
पहुंचाने में भी कसर नहीं छोड़ते। इस साम्प्रदायिक अभिश्री हरिभद्राचार्य जैसे प्रतापी तथा प्रभावशाली निवेश ने जैन समाज को बहत हानि पहुँचाई है। हम न आचार्य ने इस स्थिति को सुधारने का प्रयल किया. कुछ तो अपना निष्पक्ष और ठीक इतिहास ही लिख पाये हैं, न
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
। १७७ ]
८7
ऐतिहासिक भूलों से शिक्षा ही ले सके हैं और न पूर्वजों की स्थिति बदली और उनके प्रबल प्रयत्नों का यह परिणाम विशेषताओं से लाभ हो उठा सके हैं।
आया कि जैन-मन्दिर चैत्यवासियों के प्रभाव से मुक्त हुए। खरतरगच्छ की स्थापना के समय के भारत के इति- इतना ही नहीं, मन्दिरों का द्रव्य, देव-द्रव्य समझा जाकर हास का गहराई से अध्ययन होना आवश्यक है । वह समय उसका उपयोग मन्दिरों की व्यवस्था, सुरक्षा और पुनभारत के इतिहास में इसलिये महत्वपूर्ण है कि उस समय निर्माण में ही होने लगा। फलस्वरूप जैन मन्दिरों की भारत में आपसी झगड़े और द्वेष बढ़कर छोटे-छोटे राजा सुव्यवस्था हो सको, वे सुरक्षित रह सके । आज हमारी अपने अहंकार के प्रदर्शन के लिये एक दूसरे का नाश करने प्राचीन वास्तुकला को जिस रूप में हम देखते हैं उसका पर तुले हुए थे। जब देश में धर्म रूढ़िगत आचार बन कारण चैत्यवासियों के प्रभाव से जैन मन्दिरों को मुक्त
। है. और उसे साम्प्रदायिक लोग महत्व देकर चरित्र- कराना है और इस महान कार्य को खरतरगच्छ के आचार्यों धर्म एवं नैतिकता को भूल जाते हैं तब प्रजा अनैतिक ने कर जैनधर्म और भारतीय संस्कृति को बहुत बड़ी बनती है, उसमें दुर्बलता आती है। धर्म के ऊंचे सिद्धान्तों सेवा की। की पूजा तो होती है लेकिन वे जीवन से लुप्त हो जाते हैं। मंदिरों, मठों, विहारों को चरित्रहीन व्यक्तियों के मनुष्य स्वार्थी बनकर धर्म का उपयोग भौतिक सुख प्राप्ति प्रभाव से बचाने का काम कितना महत्वपूर्ण था यह जब में करने लगता है। उसके गुण या विशेषतायें दुर्गुण बन हम अन्य सम्प्रदाय के उपासना-स्थलों व मंदिरों की बातें जाती हैं। साधु-सन्तों की विद्या, शक्ति, साधना विकृत सुनते हैं तब पता चलता है। हंसा दामोदरलालजी के बनती है। राजाओं का शौर्य व शक्ति भो आत्मनाश का विवाह जैसी अनेक घटनाए घटती हैं। मदिरों का करोड़ों कारण बनती है। वे समाज और राष्ट्र को दुर्बल बनाते हैं। रुपया जब इन धर्मगुरुओं के भोग-विलास या बड़प्पन के इसलिये ऐसे समय में राष्ट्र के चरित्र निर्माण का प्रश्न मह- दिखावे में खर्च होता है तब धर्मस्थान धर्म-साधना के नहीं त्वपूर्ण बन गया था । यदि राष्ट्र में फिर से नेतिकता प्रति- पर भ्रष्टाचार के स्थान बन जाते हैं। ष्ठित नहीं होती और हम उदार तथा व्यापक दृष्टिकोण खरतरगच्छ के इस कार्य ने जैन साधुओं को फिर से नहीं अपनाते तो राष्ट्र को विदेशियों के आक्रमण से बचा संयमधर्म को ओर मोडा और जैनधर्म को बौद्धधर्म की नहों पावेंगे, ऐसी दृष्टिवाले जो कुछ दीर्घ-द्रष्टा थे उनमें तरह भारत से लुप्त होने से बचाया। इतना ही नहीं, से खरतरगच्छ को स्थापना करने वाले आचार्य व मानसूरि जैन समाज को एक और बहुत बड़ी सेवा ओसवाल जाति थे। जिन्होंने संयम धर्म को अपना कर उसका प्रचार करने को प्रतिबोध देकर उन्हें जैनधर्म में दीक्षित करके की थी। का प्रबल प्रयत्न किया और चैत्यवासियों को संयम और उस ओसवाल जाति ने जैन समाज को ही नहीं, भारत विहित धर्मपालन को तरफ आकृष्ट करने लगे।
तथा भारतीय संस्कृति के विविध क्षेत्रों में जो सेवा की उस प्रारम्भ में यह काम बहुत कठिन था। क्योंकि चैत्य- विषय में प्रसिद्ध इतिहासज्ञ मुनि जिनविजयजो ने जो कहा वासियों के पास साधन और सत्ता का बल था। और वह यहां देने जैसा है:श्रमण संस्कृति को विशुद्ध और तेजस्वी बनाने वालों के पास 'श्वेतम्बर जैन संघ जिस स्वरूप में आज विद्यमान है. तो आध्यात्मिक त्याग और सहन की शक्ति के सिवाय उस स्वरूप के निर्माण में खरतरगच्छ के आचार्य, यति, भौतिक साधन थे ही नहीं. पर आहिस्ता-आहिस्ता परि- और श्रावक समूह का बहुत बड़ा हिस्सा है। एक तपा
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
गच्छ को छोड़कर दूसरा और कोई गच्छ इसके गौरव की जन देना उचित नहीं समझते किन्तु उनके गुणों से लाभ बराबरी नहीं कर सकता। कई बातों में तो तपागच्छ से उठाकर पुरुषार्थ युक्त परिश्रम को अधिक महत्व देते हैं, भी इस गच्छ का प्रभाव विशेष गोरवान्वित है । भारत वही आत्मविकास की दृष्टि से श्रेयस्कर भी है। उस दृष्टि के प्राचीन गौरव को अक्षण्ण रखने वाली राजपूताने की से खरतरगच्छ के महान आचार्यो' ने जो कार्य किया उसका वीरभूमि का पिछले एक हजार वर्ष का इतिहास, ओसवाल महत्व इतना अधिक है कि जैन समाज ही नहीं पर भारजाति के शौर्य, औदार्य, बुद्धि-चातुर्य और वाणिज्य व्यव- तीय संस्कृति के उपासक उनके कार्यो का ठीक मूल्यांकन साय-कौशल आदि महद् गुणों से प्रदीप्त है और उन गुणों करे। वैसा सम्यक् मूल्यांकन तभी हो सकेगा जब हम उनके का जो विकास इस जाति में इस प्रकार हुआ है वह मुख्य- द्वारा लिखे गये साहित्य का गहराई से अनुशीलन व अध्यतया खरतरगच्छ के प्रभावान्वित मूल पुरुषों के सदुपदेश यन करेंगे। इस विषय में भी मुनिजिनविजयजी के शब्द तथा शुभाशीर्वाद का फल है। इसलिए खरतरगच्छ का उद्धृत किये बिना नहीं रहा जाता, मुनिजी कहते हैं :उज्ज्वल इतिहास यह केवल जैनसंघ के इतिहास का ही एक "खरतरगच्छ में अनेक बड़े-बड़े प्रभावशाली आचार्य, महत्वपूर्ण प्रकरण नहीं है, बल्कि समग्र राजपूताने के इति- बड़े-बड़े विद्यानिधि उपाध्याय, बड़े-बड़े प्रतिभाशाली पंडित हास का एक विशिष्ट प्रकरण है।" ।
मुनि और बड़े-बड़े मांत्रिक, तांत्रिक, ज्योतिर्विद, वैद्यक भारतीय संस्कृति और इतिहास में खरतरगच्छ के विशारद आदि कर्मठ यति-जन हुए जिन्होंने अपने समाज आचार्यो ने महत्वपूर्ण काम किया, उसका महत्व खरतर- की उन्नति, प्रगति और प्रतिष्ठा बढ़ाने में बड़ा योग दिया गच्छ और ओसवाल समाज के लिए तो और भी अधिक है। सामाजिक और साम्प्रदायिक उत्कर्ष के सिवा खरतरहो जाता है। ओसवाल समाज को जैनधर्म में दीक्षित कर गच्छ के अनुयायियों ने संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश एवं देशी उच्च परस्परा की देन दो है, इसलिए ओसवाल समाज का भाषा के साहित्य को भो समृद्ध करने में असाधारण उद्यम इस परम्परा के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना स्वाभाविक है किया और इसके फलस्वरूप आज हमें भाषा, साहित्य, और वैसा ओसवाल समाज ने किया भी है । उनको प्रति- इतिहास, दर्शन, ज्योतिष, वैद्यक आदि विविध विषयों का बोध देनेवाले दादा जिनदत्तसूरिजी को स्मृति ताजा रहे, निरूपण करनेवाली छोटो बड़ी सैंकड़ों हजारों ग्रन्थ-कृतियां इसलिए दादावाड़ियों का जगह-जगह निर्माण किया है। जैन भडारों में उपलब्ध हो रही हैं । खरतरगच्छोय विद्वानों एक तरह से ये दादावाड़ियाँ समाज के मिलन का स्थान की की हुई यह उपासना न केवल जैनधर्म की दृष्टि से ही
और दादा जिनदत्तसूरिजो के प्रति कृतज्ञता के सुन्दर प्रतीक महत्त्व वाली है, अपितु समच्चय भारतीय संस्कृति के गौरव हैं। जहाँ उनके चरणों की स्थापना कर पूजा की जाती की दृष्टि से भी उतना हो महत्व रखती है।" है। उनके गुणों और कार्यो को याद को जाती है। खरतरगच्छ द्वारा चैत्यवास का उन्मूलन संयम मार्ग
लोगों में मान्यता है कि उन्होंने केवल अपने जीवन को पुनः प्रतिष्ठा का ही परिणाम है। लेकिन पिछले दो काल में ही कल्याण नहीं किया था पर वे आज भी उनके सौ वर्षों में इस कार्य में कुछ शिथिलता आई है। कारण भक्तों के संकट दूर करते हैं। चूंकि हम किसी महापुरुष स्पष्ट है, हमने पार्थिव शरीर या रूढ़ आचारों का तो की पूजा, भक्ति कामना-भाव से करना जैन तत्वों की महत्त्व दिया पर उसके पीछे जो समाज कल्याण की भावना दृष्टि से प्रतिकूल मानते हैं इसलिए इस बात को हम उत्ते- और साधना थी, वह नहीं रही। फिर उन युगपुरुषों ने
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
। १७६ मंत्र, तंत्र, ज्योतिष, चिकित्सा आदि विद्याओं का उपयोग के गुण और कार्यो का अनुसरण कर, गच्छ को महत्वपूर्ण किया था, वह विशुद्ध समाज हित की भावना से किया स्थान प्राप्त कराने का प्रयत्न करें तभी हमारा जयन्ती था। कहीं अपने व्यक्तिगत प्रभाव बढ़ाने या स्वार्थ के मनाना सार्थक होगा। नहीं तो बड़े बड़े जुलूस, सभा, लिए नहीं किया। परन्तु वह परम्परा आगे नहीं चली। भाषण, साहित्य प्रकाशन, स्वामी-वत्सल आदि में लाखों उल्टे हम उन उत्तम, महापुरुषों की भक्ति अपने व्यक्तिगत का खर्च करके भी विशेष लाभ नहीं उठा पावेंगे। आशा भौतिक सुखों की प्राप्ति और दुःख-विमुक्ति के लिये करने यह करनी चाहिये कि हमारे बन्धु इस विषय में चिन्तन लगे। इस कामनिक भक्ति ने हमें भिखारी या दीन बनाया, कर ऐसा मार्ग अपनावेंगे जिससे समाज, राष्ट्र और मानव हमारे पुरुपार्थ और सुप्त आत्मिक शक्ति का विकास होने कल्याण में खरतरगच्छ महत्त्वपूर्ण योगदान दे। महा में बाधा पहुंचायी। फलस्वरूप हमारा तेज नष्ट हुआ प्रभावी पुरुषों को शताब्दियों या जयन्तियों के मनाने की
और हम उन युगप्रधान आचार्यों को परम्परा निभा परम्परा और हमारा उन्हें श्रद्धांजलि अर्पण करना तभी नहीं सके।
उपयोगी हो सकेगा। आज ऐसे महान प्रभावशाली आचार्य मणिधारी
हमें आशा ही नहीं पर पूर्ण विश्वास है कि खरतरजिनचन्द्रसूरि की ८ वीं शताब्दी के अवसर पर हम सब
गच्छ संघ उस दिशा में अवश्य ही सही कदम उठावेगा खरतरगच्छ के साधु, साध्वी, श्रावक-श्राविकाए गहराई से चिन्तन कर हमारे तेजस्वी और प्रभावशाली आचार्यो और युग के अनुकुल समाज व संघ के हित के कार्य करेगा।
Kutingदिवास्वमस्वशानिमाकादक समिविभूवरहाइकीय-स्तदददि, दसतरादिक मुहमपामसतिश्लोयादिवविविध सीतनिकायसाहित्य समाजवनमोहिनदीको महासमिरिनपासवंदतमसुयमामी सारी निजनिरमलताविशनयंताशीराजारानाने। मिननितबेकरकाजानिावीनतापजना नावामीकदिशकान्हमारधीमाबाडामालमत
यानडाहिजनराधयानिबावीसमव जाहाबलियन सोराय अरमन बिनाकावाहाशविफलभाज्या-4S मुख्यातक मानिनिनायकवादीबा। तिनकटहरमविशिवेगिमानारामानशशिधापासुंसामाणिज्याला वामनीविजयादवरिणामीलेया तिश्राबलवतधाराधरण श्रीन मिना जितकरारा समामालगशवायोगदिशवामाशश्रीरवरसगावाटणाभाजिनमाणिक्यात
शानाचिरचिरापविण्मुमतिधारनिरलिवतानाविकाचणाप्रताविकाकवौवाचनाची स्वगायचा यात लिखवावाचकामामालनलगायाधीश्वाघयमादायी
सं० १६११ में सुमतिधीर (अकबर प्र० श्रीजिनचन्द्रसूरि, आचार्य पद से पूर्व मुनि की हस्तलिपि
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
जेसलमेर के महत्त्वपूर्ण ज्ञानभंडार
[ आगम प्रभाकर मुनिश्रीपुण्यविजय जी ]
[ जैसलमेर के ज्ञानभण्डारों में श्रीजिनभद्रसूरि ज्ञानभण्डार ही प्राचीन एवं प्रमुख है । जैसलमेर को सुरक्षित व जैन समाज का केन्द्र समझकर अन्य स्थानों की प्राचीन प्रतियाँ भी मंगवा कर वहीं सुरक्षित की गई और श्रीजिनभद्रसूरिजी ने सैकड़ों नवीन प्रतियाँ भी लिखवायी इस भण्डार का समय-समय पर अनेक विद्वानों ने निरीक्षण किया । इस ज्ञानभण्डार के महत्त्व से आकृष्ट हो विदेशी विद्वान भी यहाँ कष्ट उठाकर पहुंचे । बड़ोदा सरकार ने पं० ची० डा० दलाल के भेजकर सूची बनवायी जो ला० भ० गांधी द्वारा संपादित होकर प्रकाशित की। श्री जिनकृपाचन्द्रसूरिजी हरिसागरसूरिजी ने इस ज्ञानभण्डार का उद्धार करवाया मुनिजिनविजय ने भी अनेक ग्रन्थों की प्रेस कापियां ६ मास रह कर करवायो इसे वर्तमान रूप देने में मुनिपुण्यविजयजी ने सर्वाधिक उल्लेखनीय कार्य किया उन्हीं के गुजराती लेख कासार यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है - सम्पादक ] विशेष रूप से उल्लेखनीय है । ताड़पत्रीय प्रतियों में ऐसे बहुत से ग्रन्थ हैं जिनकी अन्यत्र कहीं भी प्रतियां प्राप्त नहीं हैं । प्राचीनतम और महत्त्वपूर्ण प्रतियों का संशोधन की दृष्टि से बड़ा महत्त्व है ।
जेसलमेर अपने प्राचीन और महत्त्वपूर्ण ज्ञानभडार के लिये विश्व-विश्रुत है । कहा जाता है कि अब से डेढ़सी वर्ष पूर्व वहां जैनों के २७०० घर थे । जेसलमेर के किले में खरतरगच्छीय जेनों के बनवाये हुए भव्य कलाधाम रूप आठ शिखरबद्ध मन्दिर हैं । इनमें अष्टापद, चिन्तामणि पार्श्वनाथ का युगल मन्दिर और दूसरे दो मन्दिर तो भव्य शिल्प स्थापत्य के उत्कृष्ट नमूने हैं । विशेषत: मन्दिर में प्रवेश करते हो तोरण में विविध भावों वाली भव्याकृतियां शालभञ्जिकाएं आदि दर्शनीय हैं ।
जेसलमेर में सब मिलाकर दस ज्ञानभण्डार थे । जिनमें से तपागच्छ और लौंकागच्छ के दो ज्ञानभंडारों को छोड़कर सभी खरतरगच्छ की सत्ता ओर देखरेख में हैं । जेसलमेर के भंडारों में ताड़पत्र को चारसौ प्रतियां हैं । दो मन्दिरों के बीच के गर्भ में जिनभद्रसूरि ज्ञानभण्डार सुरक्षित है जिसमें प्राचीनतम ताड़पत्रोय एवं कागज की प्रतियां विशेष महत्त्वपूर्ण हैं ।
जेसलमेर के ताड़पत्रीय ज्ञानभंडार में काष्ठ चित्रपट्टिकाएं एवं स्वर्णाक्षरी रौप्याक्षरी एवं सचित्र प्रतियां
यहां के ज्ञानभंडारों में चित्रसमृद्धि और प्राचीन काष्ठपट्टिकाएं आदि विपुल परिमाण में संगृहीत हैं । १३वीं से १५वीं शताब्दी तक की चित्रित काष्टपट्टिकाएं व सचित्र प्रतियों में तोर्थकरों के जीवन-प्रसङ्ग, प्राकृतिक दृश्य व अनेक प्राणियों की आकृतियां देखने को मिलती है । १३वीं की चित्रित एक पट्टिका में जिराफ का चित्र है जो भारतीय प्राणी नहीं है । इन वित्र पट्टिकाओं के रङ्ग इतने जोरदार हैं कि पांच सातसौ वर्ष बीत जाने पर भी फीके और मेले नहीं हुए । ताड़पत्रीय प्रतियों में भी तीर्थकरों, जैनाचार्य और श्रावकों आदि के चित्र हैं वे आज भी ज्यों के त्यों देखने को मिलते हैं । ताड़पत्रीय प्रतियोंमें काली स्याही से चक्ल, कमल आदि सुशोभन रूप चित्राङ्कित हैं ।
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन ताडपत्रीय प्रतियों की संख्या को दृष्टि से मल्लवादी की व्याख्या की प्राचीन ओर शुद्ध प्रति भी पाटण के भडार बढ़े-चढ़े हैं पर जैसलमेर के भण्डारों में कई यहीं है । आगम साहित्य में दशवकालिक की अगस्त्यसिंह ऐसी विशेषताए हैं जो अन्यत्र कहीं नहीं हैं। जिनभद्रसूरि स्थविर की चूर्णि भी यहाँ है जो अन्य किसी भी ज्ञानभंडार ज्ञान भडार में जिनभद्रगणि क्षमायमण के विशेषावश्यक में नहीं है। पादलिप्तसूरि के ज्योतिष करण्डक टीका की महाभाष्य को प्राचीनतम ताडपत्रीय प्रति नौंवीं दसवीं अन्यत्र अप्राप्त प्राचीन प्रति भी इसी भंडार में है। जयदेव शताब्दो का है। इतना प्राचीनतम और कोई भी प्रति के छंद शास्त्र और उस पर लिखी हुई टोका तथा कइसिट्ट किसी भी जैनभण्डार में नहीं है। अतः यह प्रति इस भंडार सटीक छंद ग्रंथ भी यहीं है। वक्रोक्तिजीवित और प्राकृत के गौरव की अभिवृद्धि करती है। प्राचीन लिपियों के का अलङ्कारदर्पण, रुद्रट काव्यालंकार, काव्यप्रकाश की अभ्यास की दृष्टि से भी प्राचीन प्रतियों का विशेष सोमेश्वर की अभिधावृत्ति, मातृका, महामात्य अम्बादास महत्त्व है।
की काव्यकल्पलता और संकेत पर की पल्लवशेष व्याख्या ___ ताड़पत्रीय प्राचीन प्रतियों के अतिरिक्त कागज पर को सम्पूर्ण प्रति भी इसी भण्डार में सुरक्षित है। इस लिखी हुई विक्रम सं० १२४६-१२७८ आदि को प्रतियाँ प्रकार यह ग्रन्थ-भण्डार साम्प्रदायिक दृष्टि से ही नहीं विशष महत्वपूर्ण हैं। अब तक जैन ज्ञानभण्डारों में कागज व्यापक दृष्टि से भी बड़े महत्व का है। यहाँ के ग्रन्थों के पर लिखी हुई इतनी प्राचीन प्रतियाँ कहीं नहीं मिलीं। अन्त में लिखी पुष्पिकाए भी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक इस प्रकार यह ज्ञानभण्डार साहित्य संशोधन को दृष्टि से दृष्टि से बड़े महत्त्व की हैं। इनमें से कई प्रशस्तियों और अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
पुष्पिकाओं में प्राचीन ग्राम-नगरों का उल्लेख है जैसे मल्ल___ व्याकरण, प्राचीन काव्य, कोश, छंद, अलंकार, धारी हेमचन्द्र की भव-भावनाप्रकरण को स्वोपज्ञ टोका साहित्य, नाटक आदि विषयों की अलभ्य विशाल सामग्री सं० १२४० की लिखी हई है उसमें पादरा, वासद आदि यहां है। केवल जैन ग्रन्थों की दृष्टि से ही नहीं वैदिक और गांवों का उल्लेख है। इस तरह अनेक ऐतिहासिक और बौद्ध साहित्य संशोधन के लिए भी यहां अपार और अपूर्व सांस्कृतिक सामग्री जेसलमेर के ज्ञानभण्डारों में भरी पड़ी सामग्री है। बौद्ध दार्शनिक तत्व-संग्रह ग्रन्थ को बारहवीं है, इसीलिए देश-विदेश के जन-जेनेतर विद्वानों के लिए ये के उत्तराई की प्रति यहां है. उसकी टीका और धर्मोत्तर पर आकर्षण केन्द्र हैं।
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
खरतरगच्छ की महान् विभूतिदानवीर सेठ मोतीशाह
[लेखक-चाँदमल सीपाणी ]
मतिमान धर्मरूप संघपति स्व० सेठ मोतोशाह ने "मोतीशाह सेठ' की ट्रॅक यहाँ याद आये बिना नहीं धामिक संस्कार के बल पर प्राप्त की हुई लक्ष्मी का उपयोग रहती। शाश्वतगिरि पर गहरी खाई को पूरकर, जिस रंग-राग में या संसार के क्षण-भंगुर विलासों में नहीं मङ्गल धाम का निर्माण किया वह लाखों आत्माओं की करके, आत्म श्रेय के अपूर्व साधन सम, स्वपर का एकांत आत्म कल्याण को-जीवन-सफल करने को लक्ष्मी मिली कल्याण करनेवाले मार्ग पर उपयोग किया। स्व. मोती हो तो ऐसे प्रशस्त मार्ग पर खर्च करने को प्रेरणा देने को शाह ने गृहस्थ जीवन में जैन शासन की प्रभावना के तथा मौजूद है। इसको देखकर कहे बिना नहीं रहा जाता कि जोवदया आदि के अनेक सुन्दर कार्य अपने अमुल्य मानव सेठ मोतीशाह चाहे देह रूप में न हो, परन्तु ऐसी अद्भुत जीवन में पुरुषार्थ पूर्वक आत्मा का ऊर्चीकरण कर अपने कृति के सर्जकरूप में अमर है। जीवन को सफल किया।
सेठ मोतीशाह में दान का गुण असाधारण था। बम्बई के श्री चिंतामणि पार्श्वनाथ तथा गोडीजी
विक्रम को उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में बम्बई के जैन पार्श्वनाथ के मंदिरों को देखकर, सहसा मोतीशाह सेठ को धन्यवाद दिये बिना नहीं रहा जाता। इसके सिवा प्रति
समाज में जो जागृति व प्रभाव पैला उसमें उनके यश का वर्ष का तिकी-चत्रीपूर्णिमा पर सम्पूर्ण बम्बई की जैन
पर बहुत बड़ा श्रेय इन्हीं को है। कर्जदार के रूप में जीवन
र
यात्रा को शुरू करनेवाले व संवत् १८७१ में सारे कुटुम्ब जनता भायखला के श्रीआदिनाथ मंदिर पर जाती है।
में अकेले रह जानेवाले जिस व्यक्ति ने दानवीरता के जो यह देवालय व दादावाड़ी सेठ मोतीशाह ने ही बनवाये और इसके आसपास की विशाल जगह जैन समाज को दे
अनेक शुभ कार्य किये हैं, उसकी राशि अटठाईस लाख से
भी ऊपर जाती है । इसमें सबसे बड़ा काम जिनमें उन्होंने धन गये । इ.1 प्रकार बम्बई पांजरापोल के आद्य प्रेरक
व्यय किया वह है पालीताना के शत्रुजय पर्वत पर मोतीवआद्य संस्थापक और मुख्य दाता थे। उनका नाम आज
सहि ढूंक का काम । इस कार्य के निर्माण में ग्यारह लाख भी लोग दयावीर और दानवीर के रूप में स्मरण करते हैं।
एवं उनकी आज्ञा इच्छा के अनुसार प्रतिष्ठा महोत्सव में पांजरापोल को तन, मन और धन से सहयोग देकर अमर
सात लाख सात हजार मिलकर कुल अठारह लाख सात आत्मा सेठ मोतीशाह आज भी जीवित हैं। उस विशाल पांजरापोल का प्रत्येक पत्थर और ईट उनके जीते जागते
हजार खर्च हुआ। दो लाख रुपया बम्बई की पांजरापोल
के लिये खर्च किये। इनके सिा नीचे का वर्णन खास नमूने हैं।
ध्यान देने लायक है। यह सब उनकी धर्म भावना, अहिंसाकेवल बम्बई में हो नहीं सम्पूर्ण भारतवर्ष के आबाल वृद्ध नर-नारी और विदेश से आनेवाले पर्यटक जिसकी मय हृदय और तत्कालीन जनता को आवश्यकताओं पर
मुक्तकंठ से प्रशंसा करते हैं ऐसी श्री शत्रुज्य पर की उनको तत्परता को बताते हैं।
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
भूलेश्वर:-भार टुकहा के चितामणी पादनाथ इस मोटी रकम के अलावा छोटी-छोटी रकमें तो कई देहरासर की प्रतिष्ठा सं० १८६८ के दूसरे वैशाख सुद ८ थी जिनका कोई हिसाब नहीं। बम्बई की कोई चन्दाशुक्रवार के दिन सेठ नेमचन्द भाई ने कराई और उसके पानडी ऐसी नहीं होती थी जिसमें उनका नाम न होता लिये रु० ५००००/- दिये।
हो। इस प्रकार की रकम भी कई लाख है। आप प्रायः भीडो बाजार:-शान्तिनाथ महाराज के देहरासर सब दान सेठ अमोचन्द साकरचन्द के नाम से ही देते थे और की प्रतिष्ठा सं० १८७६ माह सुद १३ के रोज हुई, उसके इसी में अपना गौरव समझते थे। लिये रु. ४००००/- दिये।
इनका रहन-सहन बिलकुल साधारण नहीं था। सिर
पर सूरती पगडी और शरीर पर बालाबंधी केडियू लम्बो कोट बोरा बाजार :-शान्तिनाथ महाराज के देहरा
कडचलो वाला पहनते थे। सर की प्रतिष्ठा सं० १८६५ माह बद ५ के दिन हुई उनकी सं० १८५५ में सेठ मोतीशाह के पिता की मृत्यु के प्रतिष्ठा के लिये और देहरासर के निर्माण हेतु उनके कुटम्ब बाद उनकी उत्तरोत्तर उन्नति होती गई। इसके बाद सारे ने दो लाख रुपये खर्च किये। सेठ अमोचन्द जिस जगह जीवन में धन सम्बन्धी दु:ख तो इन्होने देखा नहीं। उनके रहते थे और जिसके पास शान्तिनाथजी का मन्दिर है वह
ग्रह सं० १८८० से तो और भी बलवान हो गये।
कंतासर के तालाब को पूरने के समय से लेकर के अंतिम वास्तव में उपाश्रय था जिसे उनके बड़े भाई नेमचन्द ने
तक दिनोंदिन बलवान ही होते रहे। तीन हजार रुपये खर्च कर बनवाया था। पीछे और जगह
मोतीशाह सेठ का अपने मुनीमों के साथ सम्बन्ध लेकर वहाँ नेमचन्दभाई ने एक लाख और खर्च कर मन्दिर
कुटम्बी जनों के समान था। उनको यही इच्छा रहती बनवाया । प्रतिष्ठा और निर्माण में कुल दो लाख खर्च हुए। थी कि उनके मुनीम भी उनके से धनी बने । मुनीमों को
मदरास की दादावाड़ी की जमीन खरीदने और अच्छे बुरे अवसरों पर उदारता पूर्वक मदद करते। सेठ निर्माण हेतु रु. ५००००/- सं० १८८४ में दिया।
मोतीशाह के मुनीम लक्षाधिपति हुए हैं, इसके कई पालीताना की धर्मशाला के निर्माण में रु०
उदाहरण मौजूद हैं। उनको ट्रॅक में उनके मुनीमों ने ८६,०००/- खर्च हुए।
मन्दिर बनवाये हैं। उनके यहां अधिक कार्यकर्ता जेन भायखला की दादावाड़ी:- मन्दिर को जमीन, निर्माण थे। इसके अलावा हिन्दू व पारसी भी थे। सेठ मोती व प्रतिष्ठा में. (सं० १८८५ मगसर सुद ६ ) दो लाख शाह का जैन, हिन्दू व पारसी व्यापारियों व कुटम्बों के रुपये खर्च किये।
साथ भी अच्छा सम्बन्ध था। इनमें सम्बन्धित जैनों ने बम्बई गोडीजी के मन्दिर की प्रतिष्ठा सं०१८६८ मोतीशाह हूंक में देहरासर बनाये। हिन्दू व पारसों के वैसाख सुद १० के दिन हुई जिसमें पचास हजार रुपये कुटुम्ब भी इनके प्रत्येक कार्य में हर प्रकार की सलाह दिये।
एवं मदद देने को तैयार रहते थे। जिस समय उनके पुत्र पायधनी के आदोश्वरजी के मन्दिर को प्रतिष्ठा खेमचन्द भाई ने पालोताणा का संघ निकाला तब सर सं. १८८२ के ज्येष्ठ सुद १० के दिन हुई। उसको उछा- जमशेदजी ने एक लाख रुपया खर्च किया यह उल्लेखनीय मणि में पचास हजार को बोली बोली।
एवं महत्वपूर्ण घटना है। इससे ज्ञात होता है कि परस्पर कर्जदारों को छूट-अंत समय नजदीक आया जान जिन सहकार व सम्बन्ध किसप्रकार हृदय की भावना से कई अशक्त लोगों में रुपया लेना था उनको कर्ज मुक्त करने निभाया जाता था। यही कारण था कि सेठ की मृत्यु के लिये एक लाख रुपया छोड़ दिया।
के बाद पालीताणा संघ व प्रतिष्ठा के अवसर पर अनेक इन सब का योग २८,०८,००० अट्ठाइस लाख आठ लोगों ने सहयोग दिया। उनके पुत्र खेमचन्द भाई तो हजार होता है।
एक राजा की तरह रहे।
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
जजोमान्ने निर्दिवालिकोबीवरजरानीहरतरणपतेसादापुजनांना मदतनिसमनियूकापसमायोनिया हिनीपिककरुणतनन्तानिननम्त्रणकाजासकटजनटिनिककातानिकारक Haकानालाकाटनटनरकोनाछानामामारवल्याचार मोकनेलोकोटिलोरी पनीरजामिनटोरिलायनोसोरतीक्षासनिक
अनिळाखभनोस्लाटिकवमानहानि नाकामावरंबावरका बारेमा
मानांकारमाननाउकसानोटकथActre बरलकलनवडाव
लम्हटलोमन का मामला टागोर निरामयतेकालापत्योन्यादिरतामाकोशबानमा ममेको निलमतानोनlazळालामाका
दावादमा mahaeerनामसलामानस
महोपाध्याय कविवर समयसुन्दरजो को हस्तलिपि
से
माना जा
PLEOरसपाटाहर नाटकवाद सन्दिर -२१२१ कातिवारमा रामका साटासा
साप 41RRARE
तमामालादादरायाaazineey RI F मसि श्रीनवाचारजनावरसगालामासान
मतदारामा मसू६ १३२ विमान टिका विकार
Jessmanslation
मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरि लिखापित कागज की प्राचीनतम ध्वन्यावलोकलोचन का अन्तिमपत्र
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
EALLLLLL
श्रीभानाजी भण्डारी कारित पार्श्वनाथ जिनालय, कापरड़ाजी :
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
ध्या पार्श्वनाथायनमो नमः deeonline
कम
मान
खरतर गच्छाचार्य श्रीजिनचन्द्रसूरि प्रतिष्ठित स्वयंभू पार्श्वनाथ, कापरड़ा तीर्थ
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
मणिधारी पूजा स्थान, महरोली
प्रवेश द्वार, दादाबाड़ी महरोली
मुनि श्री उदयसागरजी, प्रभाकरसागर जी
प्रवर्तिनीजी श्री प्रमोदश्रीजी
विदुषी आर्याश्री सज्जनश्रीजी आदि
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
मणिधारो श्रीजिनचन्द्रसूरि अष्टम शताब्दी
स्मृति ग्रन्थ
द्वितीय खण्ड
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
ख र त रग च्छ-सा हि त्य स ची
संकलन कर्ता-अगरचंद नाहटा, भँवरलाल नाहटा संपादक-महोपाध्याय विनयसागर, साहित्याचार्य, दर्शनशास्त्री, साहित्यरत्न, शास्त्रविशारद
भगवान महावीर के, महान् और पवित्र शासन में समय-समय पर अनेक गण, कुल, गच्छादि प्रगट हुए। कल्पसूत्र की स्थविरावली में प्राचीन गण एवं कुलों का अच्छा विवरण प्राप्त होता है। आगे चल कर वज्रशाखा व चन्द्रकुल में जो चौरासी गच्छ हुए उनमें खरतर गच्छ का मूर्धन्य स्थान है। लगभग एक हजार वर्ष से इस गच्छ के महान् आचार्यों ने जैन शासन की जो विशिष्ट सेवा की है, वह स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने योग्य है। मध्यकाल में जो चैत्यवास की विकृति छा गई थी उसका प्रबल परिहार इस गच्छ के महान् ज्योतिर्धरों ने अपने दीर्घकालीन विशिष्ट प्रयास द्वारा करके जैनधर्म की उन्नति में चार चांद लगा दिये । लाखों अजैनों को जैनधर्म का प्रतिबोध देकर उन्हें एक संगठित जाति और गोत्र में प्रतिष्ठित किया, इस महान उपकार और विशिष्ट देन को जैन समाज कभी भुला नहीं सकता।
___ खरतर गच्छ के महान आचार्यों और साधु-साध्वियों ने जैन धर्म के प्रचार का खूब प्रयत्न किया। भारत के कोने-कोने में उन्होंने भगवान् महावीर का सन्देश राजमहलों से लेकर झोंपड़ियों तक प्रसारित किया। उनके उपदेश से प्रभावित होकर श्रावक-श्राविकाओं ने हजारों विशाल जिनालय और लाखों प्रतिमाएं प्रतिष्ठित करवायीं। ताड़पत्र और कागज पर लाखों प्रतियां लिखवाकर अनेक स्थानों में बड़े-बड़े ज्ञान भण्डार स्थापित किये, जिनमें जैन साहित्य ही नहीं, अनेकों जैनेतर ग्रन्थों की भी अन्यत्र अप्राप्य, अज्ञात एवं प्राचीनतम प्रतियाँ भी पायी जाती हैं । इस गच्छ के विद्वान मुनियों ने स्वयं भी हजारों प्रतियाँ लिखकर साहित्य के संरक्षण में बड़ा भारी योग दिया है उधर से कोई भी अच्छा ग्रन्थ उन्हें प्राप्त हो गया तो उसे बड़ी सावधानी से अपने ज्ञानभण्डारों में संभाल के रखा और किसी भी विषय के किसी भी अच्छे ग्रन्थ के मिलते ही स्वयं उसकी प्रतिलिपि करके या करवाके अपने ज्ञानभण्डार को समृद्ध किया।
. साहित्य निर्माण में खरतर गच्छ के आचार्यो, साधु-साध्वियों और श्रावकों का भी बहुत बड़ा और विशिष्ट योग रहा है । ग्यारहवीं शती के वर्द्धमानसूरिजी से लेकर आज तक · साहित्य सर्जन की वह अखण्ड धारा निरन्तर प्रवाहित होती रही है। इसके फलस्वरूप हजारों उल्लेखनीय रचनाए प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हि राजस्थानी, सिन्धी आदि भाषाओं में प्रत्येक विषय की प्राप्त हैं। गांव-गांव, नगर-नगर में साधु-साध्वी विहार करते थे, यतिजन रहते थे, अतः उस साहित्य का विखराव इतना अधिक हो गया कि उसका पूरा पता लगाना भी असंभव हो गया है। असुरक्षा, उपेक्षा आदि अनेक कारणों से गत सौ वर्षों में बहुत बड़े परिमाण में वह साहित्य नष्ट एवं इतस्तत: हो गया फिर भी जो कुछ बच गया है, उसकी एक सूची बनाने का प्रयत्न हम गत चालीस वर्षों से निरन्तर करते रहे
हैं। भारत के प्रायः सभी प्रदेशों और सैकड़ों गांव-नगरों में जाकर तथा प्रकाशित-अप्रकाशित सूचियों द्वारा जो भी ... जानकारी हमें अब तक मिल सकी है, उसे अपने साहित्य सूची की पुस्तक में बराबर नौंध (नोट) करते रहे हैं। हमने
यह सूचो . प्रायः संवतानुक्रम और लेखक के नामानुसार तैयार की थी। वर्षों से उसे सुसंपादित कर प्रकाशित करने का विचार रहा पर अब तक वैसा सुयोग प्राप्त नहीं हो सका । अभी मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरिजी के अष्टम शताब्दी स्मारक ग्रन्थ की योजना बनने पर हमारा वह चिरमनोरथ पूर्ण होते देख कर अत्यन्त प्रसन्नता हो रही है।
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
खरतर गच्छ के मान्य विद्वान आचार्य श्री मणिसागरसूरिजी का जब बीकानेर के हमारे शुभविलास में चातुर्मास हुमा तो उनके अन्तेवासी श्री विनयसागरजी में साहित्य और इतिहास की रुचि जाग्रत की गई और योग्यतम विद्वान बनाने का पूर्ण प्रयत्न किया गया। तब से आज तक उन्होंने साहित्य के संग्रह, संरक्षण, सूची-निर्माण, सम्पादन, प्रकाशन आदि में पर्याप्त श्रम किया है। खरतर गच्छ के कई छोटे-बड़े ग्रन्थों को उन्होंने सुसंपादित कर प्रकाशित करवाया और महान् विद्वान आचार्य श्रीजिनवल्लभसूरि पर "वल्लभ-भारती" नामक शोध-प्रबन्ध लिखकर हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग से “महोपाध्याय' उपाधि प्राप्त की। राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर द्वारा आपके सम्पादिप्त छंद शास्त्रीय "वृत्तमौक्तिक" ग्रन्थ तो बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। जिनपालोपाध्याय का सनत्कुमार चरित महाकाव्य भी आपके सम्पादित वहीं से प्रकाशित हुआ है । और भी आपके सम्पादित कई ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं व हो रहे हैं।
खरतर गच्छ की साहित्य-सूची जब अष्टम शताब्दी स्मारक ग्रन्थ में प्रकाशन की योजना बनी तो महो. विनयसागरजी को उसके सम्पादन का भार दिया गया। उन्होंने बड़े परिश्रम व लगन से हजारों चिट बना के विषय वार और अकारादिक्रम से ग्रन्थ नामों को व्यवस्थित करके अपनी नई जानकारी के साथ यह सूची सम्पादित की है इसके लिए हम उनके बहुत आभारी हैं। उनके सत् सहयोग से ही इतने थोड़े समय में तैयार होकर यह प्रकाशित की जा रही है।
इस सूची के अतिरिक्त उन्होंने खरतर गच्छ के स्तोत्रों, स्तवनों, सज्झायों, ऐतिहासिक गीतों आदि लघु रचनाओं की सूची भी बड़े परिश्रम से तैयार की है जिसे इस ग्रन्थ की सीमित पृष्ठ संख्या में देना सम्भव नहीं हुआ। इस सूची के अनेक परिशिष्ट भी ग्रन्थकार नाम व ग्रन्थों की अकारादि सूची आदि को देना बहुत आवश्यक है उन सबका प्रकाशन यथावसर किया जायगा।
यह सूची अपने ढंग की एक ही है । अभी तक किसी भी गच्छ के साहित्य की ऐसी शोधपूर्ण सूची न तो किसो ने तैयार की है और न प्रकाशित ही हुई है। इस सूची द्वारा खरतर गच्छ को महान् साहित्य-सेवा का भली. भांति परिचय मिल जाता है। इसमें कई ऐसे ग्रन्थ हैं जो विश्व और भारतीय साहित्य में बेजोड़ व अद्वितीय हैं । उदाहरणार्थ कविवर समयसुन्दर रचित अष्टलक्षी, ठक्कुर फेरु रचित द्रव्य-परीक्षा, जिनपालोपाध्यायादि की युगप्रधानाचार्य गुर्वावली, जिनप्रभसूरिजी का विविध तीर्थकल्प आदि के नाम लिये जा सकते हैं । आगम प्रकरणादि की टीकाओं के अतिरिक्त जेनेतर ग्रन्थों की टीकाएं भी सर्वाधिक रू रतर गच्छ के विद्वान मुनियों ने बनायी हैं । उपाध्याय श्रीवल्लभ ने जिस उदारभाव से तपागच्छ के आचार्य श्री विजयदेव सूरि सम्बन्धी "विजयदेव माहात्म्य' काव्य की रचना की, वह तो अन्य गच्छ-सम्प्रदायों के लिए बहुत ही प्रेरणादायक व अनुकरणीय है। एक-एक विषय के अनेकों महत्वपूर्ण ग्रन्थ और विशिष्ट ग्रन्थकारों के सम्बन्ध में महो० विनयसागरजी एक अध्ययनपूर्ण भूमिका लिखने वाले हैं जो समयाभाव से इस कृति के साथ नहीं दी जा सकी है।
इस सूची में आए हुए ग्रन्थों के अतिरिक्त और भी बहुत सी रचनाएं खरतर गच्छ की हैं जिनकी प्रामाणिक जानकारी प्राप्त करने में हम प्रयत्नशील हैं । अन्य जिन सजनों को एतद्विषयक नवीन जानकारी प्राप्त हो वे कृपया हमें सूचित कर इस साहित्यिक महायज्ञ में सहयोग दें।
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुद्रित अमुद्रित प्राति स्थान
क्रमाङ्क १
३
५
अ० राप्राविप्र० जोधपुर मु० कुछ अंश
खरतर गच्छ-साहित्य सूची
___ आगम-टीकाएं ग्रन्थ नाम
कर्ता रचना संवत् तथा स्थान अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र टोका अभयदेवसूरि १२वीं
, हिन्दी अनुवाद जिनमणिसागरसूरि २०वीं अन्तकृद्दशाङ्ग सूत्र टोका अभयदेवसूरि
१२वीं , हिन्दी अनुवाद जिनमणिसागरसूरि २०वीं आवारांगसूत्र टोका 'आचार- जिनचन्द्रसूरि, आद्यपक्षीय १८वीं
चिन्तामणि' आचारांगसूत्र टोका 'दीपिका' जिनहंससूरि
१५७२ बीकानेर उत्तराध्ययन सूत्र टीका कमलसंयमोपाध्याय १५४४, 'सर्वार्थसिद्धि
चारित्रचंद्र P/. जयरंग १७२३ रिणी तपोरल
१५५० " ,, मकरंदोद्धार' धर्ममंदिर P/. दयाकुशल १७५०
P/. मतिकोत्ति १७वीं ,,,
लक्ष्मीवल्लभोपाध्याय PI. १८वीं
वादी हर्षनन्दन P/. समयसुंदर १७११ बीकानेर उत्तराध्ययनसूत्र 'बालावबोध' अभयसुंदर P/. समयराजापाध्याय १७वीं
मु०
", दीपिका ,, ,, लघुवृत्ति
अ० विनय० कोटा अ० लींबडी
अ०
॥
अ. अभय बीकानेर
मु०
अ० बड़ा भंडार बोकानेर अ० सेठिया बाकानेर
(१३ वां अध्ययन) अ० विनय ३६१
मु०
अ० अभय बीकानेर
कमललाभ P/. अभयसुंदर १६७४-१६६६ के मध्य उपासकदशाङ्गसूत्र टीका अभयदेव सूरि
१२वीं ,, बालावबोध हर्षवल्लभ P जिनचन्द्रसूरि १६६२ राजनगर
,, हिन्दी अनुवाद विनयश्री P/. हुल्लासश्री २०वीं २० औपपातिकसूत्र टीका अभयदेवसूरि १२वीं
, हिन्दी अनुवाद जिनहरिसागरसूरि २०वीं २२ कल्पसूत्रटोका 'कल्पसुबोधिका कीत्तिसुंदर P/. धर्मवद्धन १७६१
मु०
अ० हरि० लोहावट अ० बाल चित्तौड़
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ४ ] २३ कल्पसूत्र टीका 'पर्युषणा कल्पसूत्र' केशरमुनि २०वीं ,, संदेहविषौषधि' जिनप्रभसूरि P/. जिनसिंहसूरि १३६४ अयोध्या राजसोम P/. जयकीति, १७०६
अ. चारित्र राप्राविप (चतुर्दशस्वप्नानां) जिनसागरसूरिशाखायां
बीकानेर कल्पसूत्र टीका 'कल्पद्रु मकलिका' लक्ष्मोवल्लभोपाध्याय १८वीं मु० बालचित्तौड़ ८६, १७२६ लि.
लब्धिमुनि उपाध्याय २०वीं अ० ,, (समाचारी) विमलकीति P/. विमलतिलक १७वीं अ० धर्म आगरा ,, कल्पलता समयसुन्दरोपाध्याय १६८५ रिणी मु० विनय ८२८, ., कल्पमंजरी सहजकीर्ति P/. हेमनन्दन १६८५ अ० ख० कोटा
विनय ५७३ ., कल्पचन्द्रिका सुमतिहंस P/. जिनहर्षसूरि १८वीं अ० केशरिया जोधपुर आद्यपक्षीय
बद्रीदास कल्पसूत्र बालावबोध गुणविनयोपाध्याय P/. जयसोम १७वीं अ० बद्रीदास कलकत्ता
चन्द्र P/. देवधीर १६०८ अजयदुर्ग अ० , कलकत्ता जिनसमुद्रसूरि P/. जिनचन्द्रसूरि १८वीं अ० डूंगर जेसलमेर
बेगड़ रलजय Pा. रत्नराज
अ० महिमा बीकानेर राजकीति P/. रत्नविमल , १९वीं अ० गोपाल मथेरण
वीकानेर रामविजय (रूपचन्द्र) P/. दयासिंह १८१६ वीदासर अ० शिवनिधानोपाध्याय १६८० अमरसर अ० अभय बीकानेर
समयराजोपाध्याय P/. जिनचंद्रसूरि १७वीं अ० अभय बीकानेर (चतुर्दश स्वप्नानां) साधुकीर्ति P/. अमरमाणिक्य १७वीं राप्राजोधपुर २५४७२
सुमतिहंस P/. जिनहर्षसूरि १८वीं अ० जनरत्न पुस्तकालय
आधपक्षीय P/. अमरमाणिक्य
अ० अभय बीकानेर कल्पसूत्र स्तवक
विद्याविलास P/. कमलहर्ष १७२६ अ० अभय बीकानेर
कमलकीत्ति P/. कल्याणलाभ १७०१ मरोट अ० कल्पसूत्र हिन्दीपद्यानुवाद रायचन्द्र
१८३८ बनारस मु. कल्पसूत्र हिन्दी अनुवाद वीरपुत्र आनन्दसागरसूरि २०वीं मु०
जिनकृपाचन्द्रसूरि २०वीं मु०
१८वीं
१७वीं
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
५६
१८वीं
अ०
कल्पसूत्र हिन्दी अनुवाद जिनमणिसागरसूरि २०वीं मु० कल्पसूत्रगत वचनिकाम्नाय जिनसागरसूरि, जिनसागरसूरिशाखायां १७वीं, उल्लेख जिनरलकोष, कल्पान्तर्वाच्य
जिनसमुद्रसूरि, बेगड, १८वीं अ० वृद्धि० जेसलमेर जिनहससूरि P/. जिनसमुद्रसूरि १६वीं अ० डूंगर, जेसलमेर
भक्तिलाभोपाध्याय P/. रत्नचन्द्र १६वीं अ० विनय, कोटा ४५ ३५६६ चतुःशरणप्रकीर्णक बालावबोध मुनिमेरु १७वीं अ० तपाभंडार, जेसलमेर
जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति टीका पुण्यसागरोपाध्याय P/. जिनहससूरि १६४५ जेसलमेर अ० हरि, लोहावट ५५ ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र टीका अभयदेवसूरि १२वीं, मु० कस्तूरचन्द्र P/. भक्तिविलास, १८६६ जयपुर अ० सेठिया बीकानेर
विनय, कोटा ५७ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्र स्तवक रत्नजय P/. रत्नराज
अ० पालणपुर ५८ दशवकालिकसूत्र टीका समयसुन्दरोपाध्याय १६६१ खंभात मु० ५६ , पर्याय (४ अध्याय मात्र) , १७वीं अ० अभय, बीकानेर , बालावबोध
राजहंस P/. हर्षतिलक १६वीं ६१ , स्तवक 'दीपिका' चारित्रचन्द्र P/. जयरंग लघुखरतर १७२३ अ० विनय ५८५
विमलकीत्ति P/. विमलतिलक १६५२ अ० हरि, लोहावट
सहजकीर्ति (यतीन्द्र ?) P. हेमनन्दन १७११ ६४ , हिन्दी अनुवाद
जिनमणिसागरसूरि २०वीं ६५ दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र टीका सुबोध' मतिकीत्ति P/- गुणविनयोपाध्याय १६६७ अ० जैन स्थान
लु धयाना ६६ निशीथसूत्र अर्थ
सहजकी त्ति P/, हेमनन्दन १७वीं अ. जैन भवन, कलकत्ता ६७ नन्दीसूत्र मलयगिरि टीमोपरिटीका श्रीजिनचारित्रसूरि P/. २०वीं श्रीपूज्यजी, बीकानेर ६८ पञ्चनिन्थी टीका
अभयदेवसुरि १२वीं (प्रज्ञापना तृतीयपद संग्रहणो) ६६ ,, बालावबोध मेरुसुन्दरोपाध्याय P7. रत्नमूत्ति १६वीं अ० नाहर, कलकत्ता
१६४५ लि. ७० पाक्षिकसूत्र बालावबोध विमलकीत्ति P/. विमलतिलक १७वीं अ० ७१ प्रतिक्रमणसूत्र स्तवक रत्लजय P/. रत्नराज १८वीं अ० दान० बीकानेर विमलकीत्ति P/. विमल तिलक १७वीं अ० आचार्य बीकानेर
केशरिया जोधपुर ७३ , बालावबोध (वन्दित्तुसूत्र) सहजकीर्ति १७०४
अ० हरि, लोहावट
स्तवक
मु०
म०
७२
"
"
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
७४ प्रतिक्रमण ( वन्दित्तसूत्र ) स्तबक ७५ प्रश्नव्याकरण सूत्र टीका
७६ बृहत्कल्पसूत्र अर्थ
७७ बृहत्कल्पादि छेदग्रन्थ लघु भाष्यादि टिप्पण
७८ भगवती
७६
८७
सूत्र
33 33
( शतक उद्देशक २२-२३ मात्र )
30 31
हिन्दी अनुवाद
ور در
८० विपाकसूत्र टीका
अभयदेवसूरि
८१
17
वीरपुत्र आनन्दसागरसूरि
२०वीं
८२ व्यवहारसूत्र अर्थ
सहजकीर्ति P / हेमनन्दन १७वीं
८३ श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र बाला० मेहसुन्दरोपाध्याय P / रत्नमूर्ति १६वीं ८४ षडावश्यक सूत्र प्रणिधानावचूर्णिः जिनप्रभसूरि P / जिनसिंहसूरि १४वीं ८५ षडावश्यकसूत्र बालावबोध
८६
८८ षडावश्यकसूत्र बालावबोध
८६
33 77
टोका
९० समवायाङ्ग सूत्र टोका
६१ साधु प्रतिक्रमणसूत्र वृत्ति ६२ साधु समाचारी व्याख्यान
६३ साधु समाचारी बालावबोध
૨૪
""
"
६५ सूत्रकृताङ्गसूत्र टीकादीपिका बालावबोध
६
६७ स्थानाङ्गसूत्र टीका
६८
39 78
६ स्थानाङ्गसूत्र गाथागतवृत्ति
F
is i
विद्यासागर P / सुमतिकल्लोल १७वीं अभयदेवसूरि १२वीं
सहजकीर्ति P / हेमनन्दन १७वीं साधु रंगोपाध्याय P / सुमतिसागर १७वीं
अभयदेवसूरि ११२८ पाटण
जिनराजसूर P / जिनसिंहसूरि १७वी
१२वीं
जयकीर्ति P / . वादी हर्षनन्दन १६९३ जेसलमेर तरुणप्रभसूरि १४११ पाटण
सुन्दरोपाध्याय P/. रत्नमूर्ति १५२५ माण्डवगढ विमलकीति P / विमलतिलक १६७१ समयसुन्दरोपाय्याय १६८३ जेसलमेर अभयदेवसूरि १२वीं जिनप्रभसूरि P / जिनसिंहसूर १३६४ अयोध्या गुणविनयोपाध्याय P / जयसोम १७वीं
साधुरंग P/ भुवनसोम आद्यपक्षीय १५६६ बरलू जिनोदयसूरि P / जिनसुन्दरसूरि बेगड १८वीं
अभयदेवसूर १२वीं जिनराजसूरि P / . जिनसिंहसूरि १७वीं
वादो हर्षनन्दन तथा सुमतिकल्लोल १७०५
अ० आचार्य बीकानेर
मु०
उल्लेख स्वकृत निशोथसूत्र अर्थ
उल्लेख - देवचन्द्र कृत
विचारसावर टीका
मु०
अ० चंपालाल बंद भीनासर
पुण्य अहमदाबाद
मु०
मु०
उल्लेख स्वकृत निशीथसूत्र अर्थ
अ० महर, बीकानेर
अ० ख० जयपुर
धर्मकीर्ति P / . धर्मनिधान १६६६ बीकानेर अ० समयराजोपाध्याय
१६६२
अ० अभय, बीकानेर अ० हरि लोहावट विनय ८०६
अ० भावनगर भंडार
अ० अभय, बीकानेर
अ० अभय,
बीकानेर
मु०
अ० अभय, बीकानेर
अ० चारित्र, राप्राविप्र बीकानेर
अ० धर्म, आगरा अभय बीकानेर
मु० विनय ५६४
अ० डूंगर - जेसलमेर
मु०
अनुपलब्ध
उ० श्रीसार कृत रास में
अ० हंस, बड़ौदा
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
१ अध्यात्म अनुभव योगप्रकाश २ अध्यात्मप्रबोध
३ अध्यात्मशान्तरसवर्णन,
४ अनुयोग चतुष्क गाथा
५ अनेक शास्त्रसार समुच्चय
८ आगम अष्टोत्तरी
६ आगमसार (देवचन्द्रीय अनुवाद )
""
१२
१३ ईर्यावहो मिथ्या दुष्कृत -
बालावबोध
१४ उदयस्वामित्व पंचाशिका १५ उदययन्त्र
१६ एकविंशतिस्थानकप्रकरण
७ अष्टकमं विचार
६ अल्पबहुत्वगर्भितस्तव स्वोपज्ञटीकासह समयसुन्दरोपाध्याय P / १७वीं रामचन्द्र P / शिवचन्द्रोपाध्याय १६वीं, अभयदेवसूरि P / जिनेश्वरसूरि १२वीं,
चिदानन्द द्वि० २०वीं,
""
१७
स्तवन
१८ कर्मग्रन्थ (तृतीय) विवरण
37
१०
११ आगमिकवस्तुविचारसार जिनवल्लभसूरि P / अभयदेवसूरि १२वीं,
प्रकरण (षडशीति)
टिप्पणक
१६ कर्मग्रन्थ पञ्चक स्तबक २० कर्मग्रन्थ स्तबक
सैद्धान्तिक - प्रकरण
चिदानन्द द्वि० १६५५ जावद
देवचन्द्रोपाध्याय P / दीपचन्द्र १८वीं
२१ कर्मग्रन्थ चतुष्टय- स्तबक.
19
जिनप्रभसूरि P /, जिनसिंहसूरि १४वीं,
सहजकीर्ति P / . हेमनन्दन १७वीं,
""
"
देवचन्द्रोपाध्याय P / दीपचन्द्र १७७६ मरोट
रामदेवगण P / जिनवल्लभसूरि राजसोम P / जयकीर्ति १८वीं, ( जिनसागरसूरिशाखा) देवचंद्रोपाध्याय P / दीपचंद्र १८वीं, सुमतिवर्द्धन P / विनीतसुन्दर १६वी अवचूरि धर्ममेरु P / चरणधर्म १६७६ पूर्व विमलकीर्ति P / विमलतिलक १७वीं, जिनकी र्त्तिसूरि १६वीं, (जिनसागरसू रिशाखा)
""
देवचन्द्रोपाध्याय P / दीपचंद्र १८वीं, साधुकीति P / अमरमाणिक्य १७वीं,
साधुकीर्ति P/
"1
मु०
अ० हितविजय पं० घाणेराव,
नकल अभय बीकानेर
अ०
.
उरलेख - जैन साहित्यनो
सं० इतिहास देशाई
मु०
अ० हरि लोहावट
मु०
मु०
मु० विनय १५५, पाल १३७'
मु०
अ० हरि लोहावट, जेसलमेर आचार्यशाखा बीकानेर
अ० ख० जयपुर विनय कोटा विनय ३०६
अ० जेनरत्न पुस्तकालय
अ० महरचंद भं, बीकानेर
अ० आचार्यशाखा, बीकानेर
मु०
अ० नाहर कलकत्ता, शाखा बीकानेर, अ० विनय ६८८
आचार्य
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
[८] २२ कर्मग्रन्थादि यन्त्र
सुमतिवद्धन P/. विनीतसुन्दर १६वीं, अ० ख जयपुर, हरि लोहावट, २३ कर्मबन्धविचार (पन्नवणानुसार) रामचन्द्र P), शिवचन्द्रोपाध्याय १९०७ ग्वालियर अ० २४ कर्म विचारसार प्रकरण साधुरंग P/. भुवनसोम आद्यपक्षीय १६वीं अ० राप्राविप्र जोधपुर २८४३ गुटका २५ कर्मविपाक, कर्मस्तव स्तबक सुमति P/. जयकी तिपिप्पलक १७वीं अ० चारित्र राप्राविप्र बीकानेर २६ कर्मसम्बेध
देवचन्द्रोपाध्याय P/. दीपचन्द्र १८वीं मु० ख० जयपुर २७ कर्मस्तव स्वोपज्ञ टीकासह, जिनवल्लभसूरि P/. अभयदेवसूरि १२वीं उल्लेख, पाइअभाषा अने साहित्य
पृ० १६०, मूल मुद्रित भाष्य रामदेव गणि P/. जिनवल्लभसूरि १२वीं अ० अभय बीकानेर, २६ , विवरण
कमलसंयमोपाध्याय १५४६ अ० पुण्य अहमदाबाद, भांडाकर पूना ३० कल्पप्रकरण बालावबोध मेरुसुन्दरोपाध्याय //. रत्न मूत्ति १६वीं अ० ३१ कायस्थिति प्रकरण बालावबोध साधु की त्ति P/. अमर माणिक्य १६२३ महिमनगर अ० धरणेन्द्र, जयपुर ३२ कालचक्रकुलक
जिनप्रभसूरि P/ जिनसिंहसूरि १४वीं अ० अभय बीकानेर ३३ कालस्वरूपकुलक जिनदत्तसूरि P). जिनवल्लभसूरि १२वीं मु० ३४ , टीका जिनपालोपाध्याय P/. जिनपतिसूरि १३वीं मु० ३५ क्षुल्लक भवावलिका स्तोत्र जिनचन्द्रसूरि P/. जिनहर्षसूरि, पिप्पलक, १७वीं डंगर जेसलमेर, ३६ क्षेत्रसमास प्रकरण बालावबोध उदयसागर P/. सहजरत्नपिप्पलक १६५६ उदयपुर मु०
क्षमामाणिक्य P/. १९वीं अ० वर्द्धमान भं, बीकानेर ३८ क्षेत्रसमास प्रकरण बालावबोध
क्षेम P!. रत्नसमुद्र १७वीं अ० महिमा बीकानेर वृद्धि जैसलमेर
उदयचन्द जोधपुर, बाल २७२ श्रीदेव P/ ज्ञानचन्द्र १८वीं अ० नाहर कलकत्ता, विनय कोटा यन्त्र ____ सुमतिवर्द्धन P), विनीतसुन्दर १६वीं अ० उदयचन्द जोधपुर, खजान्ची बीकानेर ४१ गणधरवाद बालावबोध
क्षमामाणिक्य P/. १८३८ अ० वर्द्धमान भं० बीकानेर, ४२ गत्या दिमार्गणा स्वोपज्ञ टीका देवचन्द्रोपाध्याय P), दीपचंद्र नूतनपुर १७८२ मु० ४३ गाथासहस्री समयसुन्दरोपाध्याय १६६८ मु० विनय ६२५, बाल ३५८ ४४ गुणस्थानक अधिकार देवचन्द्रोपाध्याय P/, दीपचन्द्र १८वीं मु० ४१ गुणस्थानक्रमारोह बालावबोध श्रीसारोपाध्याय P/, रत्नहर्ष १६९८ महिमावती अ० फतहपुर भंडार ४६ गुणस्थान प्रकरण बालावबोध
शिवनिधानोपाध्याय १६६२ सांगानेर अ० केशरिया, जोधपुर, ४७ गुणस्थान शतक स्वोपज्ञटीका देवचंद्रोपाध्याय P), दीपचंद्र १८वीं मु० ४८ गुरुगुणषट्त्रिंशिका स्तबक ४६ चतुरशीतिराशातनास्थान वि० जिनप्रभसूरि P/, जिनसिंहसूरि १४वीं अ० संघ भंडार पाटण ५० 'चत्तारि परमंगाणि' टीका समयसुन्दरोपाध्याय १६८७ पत्तन अ०
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
[१] ५१ चरणसत्तरी करणसत्तरी भेद गुणविनयोपाध्याय P/. जयसोम १७वीं अ० ५२ चैत्यवन्दनक
जिनेश्वरसूरि Pा. वर्द्धमानसूरि १०८० जालोर अ० थाहरू जेसलमेर, जिन विजय सं० ५३ चैत्यवन्दन कुलक
जिनदत्तसूरि P/. जिनवल्लभसूरि १२वीं मु० ५४ चैत्यवन्दन कुलक वृत्ति जिनकुशलसूरि P/. जिनचंद्रसूरि १३८३ बाडमेर मु. ५४A ,, ,, टिपणक लब्धिनिधानोपाध्याय P/. जिनकुशलसूरि १४वीं मु० ५५ चैत्यवन्दनभाष्य वृत्ति 'तत्त्वार्थ दीपिका' धर्मप्रमोद P/. कल्याणधीर, १६६४ अ० बड़ा भंडार बीकानेर ५६ चेत्यवन्दन भाष्य यन्त्र समत्विर्द्धन P/. दिनीतसुंदर ६६वीं अ० ख० जयपुर, हरि लोहावट ५७ चैत्यवन्दनस्थान विवरण जिनप्रभसूरि P/. जिन सिंहसूरि १४वीं अ० संघ भंडार पाटण ५८ चावीस दण्डक विचारकुलक लक्ष्मीवल्लभोपा० P/. लक्ष्मी की त्ति १८वीं अ० दिगंबर भंडार, जयपुर ५६ जिनसत्तरी प्रकरण
जिनभद्रसूरि PI, जिनराजसुरि १५वीं अ० नाहर कलकत्ता. अभय बीकानेर ६० जीवविचार प्रकरण टीका क्षमाकल्याणोपाध्याय P/. अमृतधर्म १८५० बीकानेर मु० अभय क्षमा बीकानेर पाल ४२४
, , रत्नाकरोपाध्याय P/. मेघनन्दन १६१० अ०वि० कोटा ६११, ६१२ अ० बी० , बालावबोध विमल कीर्ति P. विमल तिलक १७वीं अ० , ६०६ ,, स्तबक महिमसिंह (मानकवि)P/. शिवनिधान १७वीं अ० फतहपुरभण्डार, कान्तिसागरजी , , साधुकीर्ति P/.
१७वीं विनय ८८२ ,, यन्त्र सुमतिवर्द्धनP/. विनीतसुन्दर
अ० ख० जयपुर ६५ जीवविचारादि प्रकरण स्तबक जिनकृपाचन्द्रसूरि
२०वीं मु० ६६ जीवविभक्ति
जिनचन्द्रसूरि P/. जिनेश्वरसूरि १२वीं अ० पाटण भंडार ६७ जैनतत्त्वसार स्वोपज्ञ टीका सुरचन्द्रोपाध्याय
१६७६
अमरसर मु. ६८ ज्ञानसारको ज्ञानमञ्जरी टीका देवचन्द्रोपाध्याय P/. दीपचंद्र १७९६ नवानगर मु० ६६ शनार्णव भाषा लब्धिविमल P/. लब्धिरंग १७२८ अ. फतहपुर भंडार ६६A , ध्यानदीपिका देवचन्द्र P/. दीपचन्द्र १८वीं ७० तत्त्वावबोध
देवचन्द्रोपाध्याय P) दीपचन्द्र १८वीं उल्लेख-स्वकृत विचारसारस्तबक ७१ तिथि पयन्नादि
अभयदेवसूरि P. जिनेश्वरसूरि १२वीं अ० अभय बीकानेर ७२ दर्शनकुलक
जिनदत्तसूरि P/ जिनवल्लभसूरि १२वीं मु० ७३ द्रव्यप्रकाश
देवचन्द्रोपाध्याय Pा. दीपचन्द्र १७६७ बीकानेर मु० ७४ द्रव्यसंग्रह बालावबोध हंसराज P/. पिप्पलक १७वीं अ० स्टेट लायब्ररी ७५ द्रव्यानुभव रत्नाकर चिदानन्द द्वि०
१६५२ फलौदी मु० विनय १००३ ७६ द्वादशाङ्गीप्रमाणकुलक जिनभद्रसूरि PI. जिनराजसूरि १५वीं अ० अभय बीकानेर ७७ नयचक्रसार
देवचन्द्रोपाध्याय P/. दीपचन्द्र १८वीं मु. विनय २५१ ७८ नवकार यन्त्र सुमतिवद्धन PI, विनीतसुन्दर १९वीं अ० उदयचन्द जोधपुर
१६वीं
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
। १० ]
७६ मवतत्वप्रकरणशब्दार्थवृत्ति समयसुन्दरोपाध्याय १६५८ अमदाबाद अ० ., बालावबोध
__ जिनोदयसूरि (जिनसागरसूरि शा०) १८वीं ___ अ० आचार्य शाखा बीकानेर रत्नलाभ PI. विवेकरत्नसूरि पिप्पलक १६वीं अ० चारित्र राप्राविप्र बीकानेर विमलकीति P/. विमलतिलक १७वीं अ० ,, विनय ६०६ हर्षवर्द्धन
१७८५ अ० अभय बीकानेर स्तबक जिनराजसूरि P/. जिनसिंहसूरि १७वीं अ० विनय कोटा हरि लोहावट
रामविजयोपाध्यायP/. दया सिंह १८३६ अजीमगंज अ० हीराचन्द्रसूरि बनारस ,, भाषाबन्ध लक्ष्मोवल्लभोपा० P). लक्ष्मीकीर्ति १७४७ हिसार अ०
स्वरूपयन्त्र सुमतिवद्धन P/ विनीतसुन्दर १६वीं अ०ख० जय० बद्रीदासकल• खजांची बीका० ८८ नवपदप्रकरण भाष्य अभयदेवसूरि P/. जिनेश्वरसूरि १२वीं अ० जेसलमेर भण्डार ८६ नवपदप्रकरण अभिनववृत्ति देवेन्द्रसूरि P/. संघतिलकसूरि रुद्रप० १४५२ उल्लेख जिनरत्नकोष १० निगोदषट्त्रिंशिका अभयदेवसूरि P. जिनेश्वरसूरि १२वीं अ० ६१ नियुक्ति स्थापन मतिको ति P/. गुणविनयोपाध्याय १६७६ अ० बड़ा भं० बीकानेर डूंगर जेसलमेर ६२ पांचचारित्रके ३६ द्वार भाषा रामचन्द्र P). शिवचन्द्रोपाध्याय २०वीं अ० वृद्धि जेसलमेर ९३ पंचलिङ्गी प्रकरण जिनेश्वरसूरि P/. वर्धमानसूरि ११वीं ६४ ,, टीका जिनपतिसूरि P/. मणि जिनचन्द्रसूरि १३वीं मु० ६५ , लघुटीका सर्वराजगणि
अ० तपा भं० जेसलमेर १६ ,, टिप्पणक जिनपालोपा० P/- जिनपतिसूरि १२६४ १७ पंच समवाय विचार ज्ञानसारP/. रत्नराज १९वीं अ० अभय बीकानेर १८ पंचाशक टीका अभयदेवसूरि PI जिनेश्वरसूरि १२वीं मु० ६६ पन्नावणा २ गाथा के २. द्वार यंत्र ज्ञानसार १६वीं अ० डूंगर जेसलमेर १०० परमात्माप्रकाश हिन्दीटीका धर्मवर्द्धन P/. विजयहर्ष १७६२ अ० दिगंबरभं० अजमेर १०१ परसमयसारविचारसंग्रह क्षमाकल्याणोपाध्याय P! अमृतधर्म १९वीं अ० १०२ पिण्डविशुद्धिप्रकरण
जिनवल्लभसूरि P1. अभय देवसूरि १२वीं० मु० १०३ पुद्गलषट्त्रिंशिका
अभयदेवसूरि PI. जिनेश्वरसूरि १२वीं० अ० १०४ परमसुखद्वात्रिंशिका तत्त्वावबोध) जिनप्रभसूरि P. जिनसिहसूरि १४वीं० अ० अभय बीकानेर १०५ प्रतिक्रमणहेतवः क्षमाकल्याणोपाध्याय P/ अमृतधर्म १६ वी० बीकानेर अखजय० अभय क्षमा बीका० १०६ प्रतिलेखनाकुलक जिनवर्द्धनसूरि PI जिन राजसूरि १५ वीं० १०७ प्रत्याख्यानप्रमुख विचार समयसुन्दरोपाध्याय
१७ वीं
उल्लेख जिनरत्नकोश १०८ प्रत्याख्यानस्थानविवरण जिनप्रभसूरि P. जिनसिंहसूरि १४ वीं. अ० संघभंडार पाटण १०६ प्रवचनविचारसार नयकुञ्जर P/. जिनराजसूरि १६ वीं ११० प्रवचनसारोद्धार बालावबोध पद्ममन्दिर PI. विजयराज
अ० चारित्रराप्राविप्रबीकानेर
अ०
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
१११ प्रवचनसारोद्धार बाला० सहजकीर्ति P /- हेमनन्दन ११२ प्रव्रज्याविधानकुलकबाला • जिनेश्वरसूरि बेगड
०
११३ बृहद्वन्दनकभाष्य
अभयदेवसूरि P / जिनेश्वरसूरि
११४ वृहत्संग्रहणी बालावबोध गुणविनयोपाध्याय P / जयसोम ११५ भाषाविचार प्र० स्वोपज्ञअव० चारुचन्द्र P / भक्तिलाभ
११६ भाष्यत्रय स्तबक
मतिकीत्ति P / गुण वनयोपाध्याय
११७ महादण्डक
११८ लोकतत्त्वबालावबोध
37
""
33
3.
17
"1
११६ लोकनालवार्त्तिक
१७ वीं ०
उदयसागर P / . सहजरत्न पिप्पलक जनप्रभसूरि P / जिन सिंहसूरि
१२० वन्दनकस्थान विवरण
१४ वीं ०
१२१ विचारषट्त्रिंशिका स्वोपज्ञ टीका० गजसारगणि P / . धवलचन्द्र १५८१ पाटण
१२२
समय सुन्दरोपाध्याय
१२३
१२४
१२५
१२६
१२७
१२८
यन्त्र
१२९ विचार त्रिशिका स्वोपज्ञ
अर्थसह ( १ से ३६ तक की १३० विचारसारस्तबक १३१ विंशिका
१३२ शुद्धदेवअनुभवविचार
१३३ श्रावकधर्मविधि
१३४
१३२ श्रावकमुखस्त्रिकाकुलक
(मुखवस्त्रिका स्थापनप्रकरण ) १३६ श्रावक विधिदिनचर्या
१३७ षट्स्थान प्रकरण १३
ܕܕ
را
टीका बालावबोध
"
t 2 ]
बृहदवृत्ति
अभयदेवसूरि P / जिनेश्वरसूरि नयविलास P / . जिनचन्द्रसूरि
अर्थ (पद्यानुवाद) ज्ञानसार
प्रश्नोत्तर
भाष्य
आनन्दवल्लभ P / रामचन्द्र
देवचन्द्रोपाध्याय P / दीपचन्द्र विमलकीर्त्ति P / . विमलतिलक
१६६१
१७ वीं०
जिनेश्वरसूरि P / जिनपतिसूरि लक्ष्मी तिलकोपाध्याय P/ वर्द्धमानसूरि
१२ वीं०
जिनचन्द्रसूरि P / जिनेश्वरसूरि जिनेश्वरसूरि P / वर्द्ध मानसूरि अभयदेवसूरि P / जिनेश्वरसूरि
१७ वीं०
१६ वीं ०
१७ वीं०
१२ वीं
१७ वीं०
१६६६ अमदाबाद अ०
अ० चारित्र राप्राविप्र बीकानेर
१८८० अजीमगंज अ० दान भं० बीकानेर १८०३ नवानगर अ० अभय बीकानेर १७ वीं० १९ वीं ० जिनसमुद्रसूरि P / . जिन चन्द्रसूरि बेगड १७२४ सुमतिवर्द्धन विनीतसुन्दर होरकलश P / हर्षप्रभ
१६ वीं० १७ वीं ०
वस्तुओं )
देवचन्द्रोपाध्याय P / दीपचन्द्र
जिनदत्तसूरि P / जिनवल्लभसूरि चिदानन्द द्वि०
अ० तेरापंथी सभा सरदारशहरं
अ० जेसलमेर भंडार
१२ वीं ०
११ वीं ०
१२ वीं०
मु०
अ० अनंतनाथ ज्ञान भं० बंबई
अ० आचार्यशाखा बीकानेर
ro भंडियालागुरु भंडार
अ० अभय बीकानेर
अ० अभय बीकानेर चारित्रराप्रावि बीकानेर विनय ८६२
अ० अभय बीकानेर
अ० संघभंडार पाटण
मु० विनय ८८५
१७९६ नवानगर मु० १२ वीं०
मु०
१९५२
मु०
१३१३ पालणपुर मु०
१३१७ जालोर अ० जेसलमेर भंडार हंसबड़ोदा अ० हंसबड़ोदा, अभय बीकानेर
११ वीं ०
मु० ख जयपुर
अ० विनयचन्द्रज्ञान भं० जयपुर
अ० ख० जयपुर
अ० नाहर कलकत्ता
अ०
अ०
मु०
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३६ षट्स्थान प्रकरण टीका
१४० षष्टिशतकप्रकरण
१५२
१५३
37
१४१
१४२
१४३
१४४
१४५
१४६
१४७
१४८
विमलकीर्ति P / . विमलतिलक
".
१४६ षोडशकप्रकरण टीका ( हारि०) अभयदेवसूरि P / जिनेश्वरसूरि साधुसोम P / सिद्धान्तरुचि
१५० संग्रहणी अवचूरि
१५१
टीका गुणविनयोपाध्याय P / जयसोम बालावबोध आनन्दवल्लभ P / रामचन्द्र शिवनिधानोपाध्याय सुमतिवद्धन P / विनीत सुन्दर जिनदत्तसूरि P / जिनवल्लभसूरि प्रबोधचन्द्रगणि P / जिनेश्वरसूरि
37
22
37
11
"
"
"
"
"
"
در
32
टीका
77
"
22
टिप्पणक
बालावबोध
13
१५४
यन्त्र
""
१५५ संदेह दोलावली प्रकरण
१५६
, बृहद्वृत्ति
१५७
लघुटीका
१५८
पर्याय
१५ सप्ततिका भाष्य
37
21
१६० टिप्पणक १६१ सप्ततिशतप्रकरण वालाबोध १६२ सम्बोध अष्टोत्तरी
१६३ सम्बोधसप्तति टीका
,
१६८ सम्यक्त्वसप्तति टोका
१६९ सम्यकत्वस्तवावचूरि
[१२]
जिन पालोपाध्याय P/. जिनपतिसूरि १२६२ श्रीमालपुर मु० नेमिचन्द्र भण्डारी पिता जिनेश्वरसूरिद्वि०
१३वीं ०
१६वीं ०
गजसार P / धवलचन्द्र
तपोरत्न P /
राजहंस P / हर्षतिलक लघुखरतर भक्तिलाभ P / जिनचन्द्र
जिनसागरसू० P / जिनेश्वरसूरि पिप्पलक १४९१
धर्मदेव P/. क्षान्तिरत्न
सुन्दरोपाध्याय P / रत्नमूर्ति
जयसाग रोपाध्याय
समय सुन्दरोपाध्याय
१६४
बालावबोध
१६५ सम्यकत्वकुलक बालावबोध १६६ सम्यक्त्वभेद
१६७ सम्यक्त्वविचारस्तवबालावबोध चारित्रसिंह
अभयदेवसूरि P/. जिनेश्वरसूरि
रामदेवगण P / जिनवल्लभसूरि धर्मकीर्ति P / धर्मनिधान
ज्ञानसार
गुण विनयोपाध्याय P / जयसोम
सुन्दरोपाध्याय P / रत्नमूर्ति मतिकीर्ति P / गुणविनयोपाध्याय क्षमामाणिक्य P /
मु०
अ० दानबी० राप्राविप्र जोध ० मु० विनयकोटा ६३३
१५०१
१५७६ सिकंदरपुर दि० भण्डारसूचीभाग ४ १५७२ अ० दि० भण्डार सूचीपत्र भाग ४
संघतिलकसूरि रुद्रपल्लीय
गजसार P / धवलचन्द्र
१५१५
१६वीं
१७वीं ०
मु०
अ० सेठिया बीकानेर
१२वीं०
अ० केशरिया जोधपुर
१५१० मांडवगढ़ अ० जेसलमेर भण्डार १७वीं ० अ० अनंतनाथ ज्ञानभं० बंबई १८५० अजीमगंज अ० ज्ञानभण्डार बीकानेर
१६८० अमरसर अ० ख० जयपुर राप्राविप्र जोधपुर १६वीं ० अ० ख० जयपुर, विनय ४२४ १२वीं० मु०
अ०
ro विजयेन्द्रसूरि सं० आ० क० पेढी
१३२० प्रल्हादनपुर मु०
१४६५
१६९३
१२वीं ०
१२वीं ०
१७वीं ०
१८५८
१६५१
१६वीं ०
१७वीं ०
अ० महरचंद भ० बीकानेर
१८३४ राजपुर अ० वर्द्धमान भं० बीकानेर
१६३३ झर्झरपुर अ० ड्रॅगरजेसलमेर, अभय बीकानेर विनय ७४२
अ० अभय बीकानेर, विनय ६०२
अ०
अ०
अ० हरिलोहावट
अ० क्षमा बीकानेर
अ० क्षमाबीकानेर, अभयबीकानेर
मु० विनय ६३२
अ० डूंगरजेसलमेर, ख० जयपुर
१४२२ सारस्वत मु० पत्तन
१६वीं ०
अ० ख जयपुर
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
[१३]
१७० सर्वजीवशरीरावगाहनास्तव जिनवल्लभसूरि P / अभयदेवसूरि
जिनकी तिरि जिनसागरसूरिशाखा
१७१ सामायिककुलक
१७२ सिद्धिसप्तशतिका
१७३ सिद्धान्तबोल
१७४ सिद्धान्तसारोद्धार
१७५ सूक्ष्मार्थविचारसारोद्धार प्र० टिप्पणक
१७६
१७७ स्थण्डिल के १०२४ भांगे
१७८ स्याद्वादानुभव रत्नाकर
१
२
३
४
ܕ
५
६
७
८
ε
११
१२
१३
१४
१५.
१६
१७
2
१८
sw
१६
33
""
आत्मभावना
औपदेशिक प्रकरण
अष्टककरण टीका ( हारिभ० ) जिनेश्वरसूरि P/- वर्द्धमानसूरि
आत्मप्रबोध
लाभरि
पद्मोदय ( पन्नालाल ) लब्धिमुनि उ०
जिनेश्वरसूरि P / जिनपतिसूरि गुणविनयोपाध्याय P / जयसोम जिनसमुद्रसूरि P / जिनचन्द्रसूरि बेगड जिनरत्नसूर
जिनदत्तसूरि P / जिनवल्लभसूरि
जिनप्रभसूर P / जिनसिंहसूरि जिनेश्वरसूरि P / वर्द्धमानसूरि
हिन्दी अनुवाद
आत्मानुशासनम्
इन्द्रियपराजयशतक टीका
ईस र शिक्षा
उत्तमपुरुषकुलक
उपदेशकुलक
उपदेशकोष
उपदेशपद टीका
उपदेशमणिमाला
शिवचन्द्रोपाध्याय P / पुण्यशील
ज्ञानचन्द्र P1 सुमतिसागर
कमलसंयमोपाध्याय
जिनवल्लभसूरि P / अभयदेवसूरि
रामदेवगण P / जितवल्लभसूरि
पद्मराज P / पुण्यसाग रोपाध्याय चिदानन्द द्वि०
उपदेशमालास्तबक
उपदेश रसायन
,,
उपदेश मालावृहद्वृत्ति (धर्मदासीय) वर्द्धमानसूरि
उपदेशमाला - संस्कृतप० तथा स्तबक शिवनिधानोपाध्याय
उपदेशमाला बालावबोध
टीका
वर्द्धमानसूरि
जिनेश्वरसूरि P / वर्द्धमानसूरि
१२वीं ०
१६वीं ०
१६वीं
१७वीं०
१६वीं ०
१२वीं०
१२वीं ०
अ० विनयवल्लभभारती
अ० अभय बीकानेर
अ० बालराप्राविप्रचित्तोड़
अ०
अ० हरिलोहावट, अनूपबीकानेर
१७वीं ०
१९५० अजमेरा मु०
मु०
उ०- गणधर सार्द्ध • वृहद्वृत्ति
१४ वीं०
१२ वीं०
१४ वीं
११ वीं
१०८० जालोर मु०
१८३३ मिनराबंदर मु० २० वीं ०
मु०
२० वीं ० मु० विनय १००४ १३वीं० अ० जेस० मं० हरिलोहावट १६६४
अ०
१८ वीं ०
अ० अभयबीकानेर
अ० जेसलमेरभंडार
ॐ० ख० जयपुर
१०५५
११ वीं ०
अ० जेसलमेरभंडार
११ वीं ० १६६० जोधपुर अ० वृद्धि जेसलमेर १६ वीं०
अ
सुन्दरोपाध्याय P / रत्नमूर्ति विमलकीर्ति P / . विमलतिलक
१६६६
अ० जेसलमेरभंडार
जिनदत्तसूरि P / जिनवल्लभसूरि १२ वीं० जिनपालोपाध्याय Py. जिनपतिसूरि १२९२
मु०
मु०
मु०
अ० जेसलमेरभंडार
अ० हरिलोहावट, अ० बी०
अ० हरिलोहावट
अ० अभयबीकानेर
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
, बृहवृत्ति
उपदेशसप्ततिका स्वोपज्ञटीका सह क्षेमराज PI. सोमध्वज १५४७ हिसार मु. ऋषिमण्डलप्रकरण अवचूरि गुणविनयोपाध्याय P/. जयसोम १७ वीं. अ० समयसुन्दरोपाध्याय
१६६२ सांगानेर अ० , टीका पद्ममन्दिर
१५५३ जेसलमेर मु० विनय ३६८ वादी हर्षनन्दन P/. समयसुन्दर १७०५ अ० बड़ा भंडार बी० विनय ६६६ , बालावबोध
,
१७ वी० अ० बड़ाभंडार जेसलमेर कर्पूरप्रकर टोका जिनसागरसूरि P/. जिनवद्ध नसूरि पिप्पलक१६ वीं अ० चारित्रराप्रावित्र
वी० कान्तिछाणी , बालावबोध मेरुसुन्दरोपाध्याय P/. रत्नमूर्ति १५३४ अ० वृद्धि जेसलमेर क्षपकशिक्षाप्रकरण धर्मोपदेशकाव्य) जिनचन्द्रसूरि P/. जिनेश्वरसूरि १२ वी० मु० गणधरसप्तति (सुगुरुगुणसंथवसत्तरिया) जिनदत्तसूरि P/. जिनवल्लभसूरि १२ वीं मु० गणधरसार्द्धशतक प्रकरण जिनदत्तसूरि P/. जिनवल्लभसूरि १२ वीं मु० सुमतिगणि P/. जिनपतिसूरि १२६५ अ० जेसलमेरभंडार
बडाभंडार बीकानेर पुण्य अहमदाबाद ३२ गणधरसा शतकप्रकरण-लघुवृत्ति सर्वराजगणि P/. जिनेश्वरसूरि द्वितीय अ० तपाभंडार जेसलमेर, उदयचंद
जोधपुर कांतिछाणी विनय ४३३ पद्ममन्दिर P/. विजयराज १६४६ जेसलमेर मु० ख० जयपुर ३४
स्तवक विमलकीति P. विमलतिलक १७वी० अ० कांतिसागरजी १६८०लि प्रति ३५ गणधरसार्द्धशतकान्तर्गतप्रकरण चारित्रसिंह P/. मतिभद्र १७वीं मु० ३६ गुणमाला प्रकरण रामविजयोपाध्याय P. दयासिंह १८१७ जेसलमेर अ० ख जयपुर बालचित्तोड़
१२४ अभय बीकानेर, विनय ६०५ ३७ गुणविलास
ऋद्विपार (रामलाल) कुशल निधान २०वी० अ० ३८ गुणानुरागकुलक
जिनप्रभसूरि PP. जिनसिंहमूरि १४वीं० अ० लींबडीभंडार, पाटणभंडार ३६ गौतमकुलक टीका
ज्ञानतिलक P/. पद्मराज . १६६० मु० विनय ८४
सहजकीर्ति P. हेमनन्दन १६७१ अ० नाहर सं कलकत्ता ४१ गौतमपृच्छा-भाषा नयरंग
१७वीं० अ० अभय बीकानेर ख. जयपुर क्षमा बीकानेर ४२ गौतमपृच्छा टीका भतिवद्धन P/ सुमतिहंस आद्याक्षीय १७३८ जैतारण अ० अभय बीकानेर ख.
जयपुर चरित्रराप्राविप्र बीकानेर श्रीतिलक P/. देवभद्रसूरि रुद्रपल्लोय १५वीं० अ० चारित्रराप्राविप्र बीकानेर
कान्तिसागरजी राप्राविप्र जोधपुर शिवसुन्दर /. क्षेमराज १५६६ खीमसर अ० अभय बीकानेर
" बालावबोध
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
४५ चर्चरी
जिनदत्तसूरि P). जिनवल्लभसूरि १२वी मु० ४६ , टिप्पणक जिनपालोपाध्याय P/. जिनपतिसूरि १२६४ मु० विनय ४१८ ४७ जिनवचनरत्नकोष
राजहंस P. ज्ञानतिलक लघुखरतर १५७२ अ० आहोर भंडार ४८ जीवप्रबोधप्रकरण भाषा विद्याकीति P. जिनतिलकसूरि लघुखरतर १५०५ हिसार अ० चारित्रराप्राविप्र बीकानेर ४६ जैन दिग्वजयपताका ऋद्धिसार (रामलाल) P}. कुशल निधान २०वी० म० ५० ज्ञानानन्दप्रकाश पुण्यशील P/ रामविजय
१९वीं० अ० बाल राप्राविप्र चित्तोड़ ५१ दानोपदेशमाला दिवाकराचार्य P/ संघतिलकसूरि रुद्रपल्ली १५ वी० अ० ख० जयपुर प्रतिलिपि
. विनय कोटा ५२ , टो० दिवाकरीय ) देवेन्द्रसूरि P. संघतिलकसूरि १४१८ अ० ख ज० अं० भ० कांतिबडोदा ५३ द्वादशकुलक
जिनवल्लभसूरि P. अभयदेवसूरि १२वीं० म० ५४ , टोका जिनपालोपाध्याय P! जिनपतिसूरि १२९३ मु० ५५ द्वादशभावनाकुलक जिनेश्वरसूरि P जिनपतिसूरि १३वों अ० खजांचो बीकानेर ५६ धर्मरत्नकरण्डक स्त्रोपज्ञ टीका बर्द्धमानसूरि P/ अभयदेवसूरि ११७२ दायिकाकूप अ० हरिलोहावट बृद्धि जेस० ५७ धर्मविलास
मतिनन्दन P. धर्मचन्द्र पिप्पलक १६वीं० म० ५८ धर्मशिक्षाप्रकरण
जिनवल्लभसूरि P/. अभयदेवसूरि १२वीं० मु. ५६ , टीका _ जिनपालोपाध्याय P/. जिनपतिसूरि १२६३ अ० विनय कोटा ६० धर्माधर्मप्रकरण
जिनप्रभसूरि P/ जिनसिंहसूरि ६१ धर्मोपदेश साधुरंग P. सुमतिसागर
१७वीं० अ० ६२ पञ्चपरमेष्ठिनमस्कारफलकुलक जिनचन्द्रसूरि PP. जिनेश्वरसूरि १२वीं० मु. ६३ पर्युषणव्याख्यानपद्धति समयराजोपाध्याय P/ जिनचन्द्रसूरि ।
अ० धर्म आगरा ६४ पुष्पमालाप्रकरण टीका साधुसोम Pा. सिद्धान्तरुचि
१५१२ अह० ख० जयपुर विनयकोटा ६०४ (मल हेमचन्द्रोथ ) ६५ पुष्पमाला प्रकरण बालावबोध मेरुसुन्दरोपाध्याय P. रत्नमूर्ति १५२२ अ० अभय, चारित्र राप्राविन बीकानेर ६६ प्रश्नोत्तररत्नमाला टीका देवेन्द्रसूरि P/. संघतिलकसूरि ( रुद्र०) १४२६ अ० चारित्र राप्राविप्र बीकानेर ६७ लेखन प्रशस्तिः देवमूर्ति P. जिनेश्वरसूरि द्वि०
अ० जेसलमेर भंडार, ६८ प्रश्नोत्तररत्नमालिका बालावबोध जिनराजसूरि P/. जिनसिंहसूरि १७वीं
अ० वृद्धि जेसलमेर, ६६ , स्तबक जिनरंगसूरि P/. जिनराजसूरि १८वीं
अ० पाटण भंडार, ७. प्रास्तविक अष्टोत्तरी
ज्ञानसार
१८८० बीकानेर ७१ बलिराम आनन्दसार संग्रह लाभोदय P/. भुवनकी त्ति १७वीं
अ० पुण्य अहमदाबाद ७२ ब्रह्मचर्यपरिकरण
कपूरमल्ल
१२वीं ७३ भावनाकुलक जिनप्रभसूरि P/. जिनसिंहसूरि १४वीं
अ०
१४वी.
अ०
मु०
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
अ०
वा
७४ भावनाप्रकाश
शिवचन्द्रोपाध्याय P/. रामविजय १६वीं अ० बाल राप्राविप्र चित्तोड़ ७५ भावना विलास
लक्ष्मीवल्लभोपाध्यायPा. लक्ष्मी कीत्ति १७२७ अ० अभ्य बीकानेर, हरिलोहावट ७६ भावपदविवेचन
गणविनयोपाध्याय P/. जयमोम १७वीं ७७ मध्याह्नव्याख्यानपद्धति ___ वादी हर्षनन्दन, P/. समय सुन्दर १६७४ पाटण अ० बड़ाभंडार बो० हरिलोहावट ७८ मातृकाक्षर धर्मोपदेश स्वोपज्ञ टीका लक्ष्मीवल्लभोपाध्याय P/. लक्ष्मीकीर्ति १७४५ अ० हरिलोहावट ७६ रत्नकरण्ड
अभयचन्द्र P/. आणंदराज, लघुखरतर १६वीं अ० अभय बीकानेर ८० रूपकमाला
पुण्यनन्दी P/. समयभक्ति १६वीं अभय बीकानेर विनय ६७५ ८१ , अवचूरि समयसुन्दरोपाध्याय P). सकलचन्द्र १६६३ बी० अ० थाहरु जेसलमेर ८२ , टीका
चारित्रसिंह P/. मतिभद्र १६४३ अ० अंबाला भं० गधैया मं० सरदारशहर ८३ , बालावबोध
रत्नरंगोपाध्याय १५८२ अ० आचार्यशाखा बीकानेर ८४ वादीकूलक
जिनदत्तसूरि P. जिनवल्लभसूरि १२वीं अ. पाटण भंडार ८५ विंशतिपदप्रकाश
शिवचन्द्रोपाध्याय P. पुण्यशील १६वीं अ० बाल राप्राविप्र, चित्तौड़ ८६ शिक्षाकुलक
जिनदत्तसूरि P/. जिनवल्लभसूरि १२वीं अ० पाटण भंडार ८७ शीलकल्पद्रु ममञ्जरी
चारित्रसिंह P. मतिभद्र १७वीं अ० 'जाब भंडार अंबाला ८८ शीलोपदेशमाला टीका रणविनयोपाध्याय P. ज्यसो म १७वीं अ. आत्मानंद सभा भावनगर
ललितकीर्ति १६७८ लाटद्रह अ० विनय ६०० कोटा ख० जयपुर, चारित्र, बीका० ६० ., (शीलतरंगिणी) सोमति लकसूरि P). संघतिलकसूरि रुद्रपल्लीय १३६२ म० ६१ ,, बालावबोध क्षमामूर्ति P/. मतिवद्धन पिप्पलक १७वीं अ० कृपा भंडार बिकानेर ६२ ,
मेरुसुन्दरोपाध्याय P/. रत्नमूर्ति १५२५ मांडवगढ़ अ० ख० ज० रा. जोधपुर विनय २२, ६३ श्राद्धदिनकृत्य बालावबोध आनन्दवल्लभ P/. रामचन्द्र १८८२ अजीमगंज मु० ६४ सज्ज्ञानचिन्तामणि ऋद्धिसार (रामलाल) P/. कुशलनिधान २०वीं . मु० ६५ समयसार बालावबोध रामविजयोपाध्यय P/. दयासिंह १७६२ जालोर अ० ६६ संवेगकुलक धनेश्वरसूरि (जिनभद्रसूरि)
१२वीं अ« प्रतिलिपि विनय कोटा ९७ संवेगमञ्जरी देवभद्रसूरि P/. सुमतिवाचक
१२वीं अ० पाटण भंडार १८ संवेगरंगशाला जिनचन्द्रसूरि P/. जिनेश्वरसूरि १२वीं मु० १६ सर्वतीर्थमहर्षिकुलक जिनेश्वरसूरि P). जिनपतिसूरि ११वीं मु० १०० सिन्दूप्रकरण टीका . चारित्रवर्द्धन P/. कल्याणराजलघुखरतर १५०५ अ० १०१ , ,
धर्मचन्द्र P/. जिनसागरसूरि पिप्पलक १५१३ अ० १०२ , बालावबोध
राजशील P/. साधुहर्षोपाध्याय १६वीं अ० जनरत्नपुस्तकालय, संस्कृत लाइब्रेरी १०३ स्वधर्मीवात्सल्यकुलक
अभयदेव सूरि P/. जिनेश्वरसूरि १२वीं मु० १०४ , स्तबक
समयप्रमोद P/. ज्ञानविलास १६६१ वीरमपुर अ० अभय बीकानेर
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
। १७ ।
१०५ स्वप्नप्रदीप
वर्द्धमानसूरि P/. रुद्रपल्लीय १५वीं मु० १०६ स्पप्नफलविवरण
जिनपालोपाध्याय P/. जिनपतिसूरि १३वीं अ० प्रेसकापी विनय कोटा १०७ स्वप्नविचारभाष्यवृत्ति १०८ स्वप्नसप्ततिका
जिन वल्लभसूरि P/. अभयदेवसूरि १२वीं अ० विनय 'वल्लभभारती' १०६ स्वप्नसप्ततिका टीका
सर्वदेवसूरि
१२८७ अ० कान्ति छाणी ११० स्वात्मसम्बोध (ज्ञानसारप्रकाश) धर्मचन्द्र P/. जिनसागरसूरि पिप्पलक १६वीं अ० देशाई संग्रह १११ हितशिक्षा भाषा
भद्रसेन
१७वीं अ० ११२ हितोपदेशप्रकरण
प्रभानन्दसूरि P/. देवभद्रसूरि १२वीं अ० जेसलमेर भंडार
वैधानिक, सैद्धान्तिक प्रश्नोत्तर एवं चार्चिक ग्रंथ
१ अविधिकुलक
जिनेश्वरसूरि P/. वर्द्धमानसूरि ११वीं अ० कान्ति छाणी २ अष्टोत्तरीस्नात्रविधि जयसोमोपाध्याय १७वीं लाहोर अ० ह० लोहावट ३ आगमानुसार मुंहपत्ति निर्णय जिनमणिसागरसूरि P/. सुमतिसागरजी २०वीं मु० ४ आचारदिनकर
वर्द्धमानसूरि P/. रुद्रपल्लीय १४६८ जालंघर नंदनवनपुर मु० विनय कोटा ७०३ ५ आत्मभ्रमोच्छेदनभानु चिदानन्द
१९५२ नागोर मु. ६ आरात्रिकवृत्तानि जिनदतसूरि PI. जिनवल्लभसूरि १२वीं मु० ७ बाराधना
जिनचन्द्रसूरि P). जिनेश्वरसूरि १२वीं अ० प्रतिलिपि रमणीकवि अहमदाबाद ८ आराधनाप्रकरण
अभयदेवसूरि P/. जिनेश्वरसूरि १२वीं अ० जेसलमेर भंडार १२६५ लि. है आलोचनाविधिप्रकरण
अ० प्रतिलिपि विनय कोटा १० इच्छापरिमाण टिप्पणक समयराजोपाध्याय P/. जिनचन्द्रसूरि १६६० अ० महताबसिंह संग्रह बीकानेर ११ ईर्यापथिकी षट्त्रिंशिका स्वोपज्ञ टीका जयसोमोपाध्याय १६४० टी० १६४१ मु० १२ उपधानविधिपंचाशक प्रकरण अभयदेवसूरि
खंभात भंडार ताड़पत्रीय प्रति १३ उत्सूत्रोद्घाटनकुलक जिनदत्तसूरि P/. जिनवल्लभसूरि १२वीं मु. १४ , (कुमतिमतखंडन) गुणविनयोपाध्याय P/ जयसोम १६६५ नवानगर मु. १४A एक सौ अडतीस वक्तव्य , ,, , १७वीं अ० विनय ७८० १५ कल्याणकपरामर्श
बुद्धिमुनि P/. केशरमुनि २०वीं मु० १६ कुमतकुलिंगोच्छेदनभास्कर (जेनलिंगनि०) चिदानन्द द्वि० १९५५ जीरण मु० कोटा भंडार १७ कुम्भस्थापना भाषा देवचन्द्रोपाध्याय P/. दीपचन्द १८वीं अ० ख० जयपुर १८ क्या पृथ्वी स्थिर है ? जिनमणिसागरसूरि P/. सुमतिसागरजी २०वीं मु. १६ चर्चाप्रश्नोत्तर तिलोकचन्द लुणिया प्रश्नकर्ता १९वीं अजमेर अ० हंस बड़ौदा
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
मु०
२० चैत्रीपूर्णिमा देववन्दनविधि क्षमाकल्याणोपाध्याय F/. अमृतधर्म १६वीं अ० ह० लोहावट जिनपूजाविधि
जिनप्रभसूरि P/. जिनसिंहसूरि १४वीं २२ जिनप्रतिमास्थापितग्रन्थ प्रश्नोत्तर ज्ञानसार
१८७४ अ० क्षमा बीका, ला. द. अह. २३ जिनाज्ञाविधिप्रकाश चिदानन्द द्वि०
१९५१ अजमेर मु० २४ तपागच्छचर्चा
गणविनयोपाध्याय P/. जयसोम १७वीं अ० आत्मानन्द सभा भावनगर २५ तपोटमतकुट्टनकम् जिनप्रभसूरि P/. जिन सिंहसूरि १४वीं
अ० अभय बीकानेर जेसलमेर भं० २६ तेरापंथी नाटक प्रेमचन्द यति
१९६५ रतनगढ़ मु० २७ दयानन्दमतनिर्णय (आर्यसमाजभ्रमोच्छेदनकुठार) चिदानन्द द्वि० १९४७ अ० विनय कोटा ६०४ २८ दिगम्बर ८४ बोलविसंवाद जिनसमुद्रसूरि P/. जिनचन्द्रसूरि बेगड़ १८वीं अ० २६ देवद्रव्य निर्णय जिनमणिसागरसूरि PI. सुमतिसागरजी २०वीं मु० ३० देवार्चन एक दृष्टि जिनमणिसागरसूरि Pा. सुमतिसागरजी २०वीं मु० ३१ द्वादशव्रत टिप्पणिका क्षमाकल्याणोपाध्याय P/. अमृतधर्म हवीं अ० ख० जयपुर ३२ नवकार अनपूर्वी क्षेमराज P/. सोमध्वज १६वीं
अ० ख० जयपुर ३३ निर्णयप्रभाकर बालचन्द्रसूरि
१९२० अ. विनय कोटा ५८७ ३४ पदव्यवस्था जिनदत्तसूरि P/. जिनवल्लभसूरि १२वीं मु० ३५ पर्युषणापरामर्श बुद्धिमुनि P/. केशरमुनि २०वीं ३६ पिण्डकद्वात्रिंशिका जिनप्रभसूरि PI. जिनसिंहसूरि १४वीं अ० पालणपुर भंडार ३७ पिण्डालोचन विधानप्रकरण ३८ पूजाष्टकवातिक कमललाभ P/ अभयसुन्दर १७वीं अ० चंपालाल बैद भीनासर ३६ पौषधविधिप्रकरण जिनवल्लभसूरि P/. अभयदेवसूरि १२वी मु० ४० , टीका जिनचन्द्रसूरि P/. जिनमाणिक्यसूरि १६१७ पाटण अ० बड़ा भंडार बीकानेर ४१ पौषधषट्त्रिंशिका स्वोपज्ञ टीका जयसोमोपाध्याय १६४३ टी० १६४५ मु० विनय ६६० ४२ प्रतिक्रमण समाचारी जिनवल्लभसूरि P. अभयदेवसूरि १२वीं ४३ , स्तवक विमलकीर्ति P/. विमलतिलक १७वीं अ० आचार्यशाखा बीकानेर ४४ प्रतिमापुष्पपूजासिद्धि देवचन्द्रोपाध्याय P/. दीपचन्द्र १८वीं मु० ४५ प्रबोधोदयवादस्थल जिनपतिसूरि P/. मणिधारी जिन चन्द्रसूरि १३वीं अ० जे० भं० वि० को० ४६७ क्षमा बी. ४६ प्रश्नपद्धति हरिश्चन्द्रगणि P/. अभयदेवसूरि १२११ (?) पाटण मु. पाटण भंडार ४७ प्रश्नोत्तर जयसोमोपाध्याय
१७वीं अ० चारित्र राप्राविप्र बीकानेर
,, लाहोर अ० चारित्र राप्राविप्र बीकानेर ४६ , १४१
जिनसुखसुरि
१७६७ पाटण अ० जयचन्द्र राप्राविप्र बीकानेर
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
५१ प्रश्नोत्तरग्रन्थ मेरुसुन्दरोपाध्याय P/. रत्नमूत्ति १५३५ ।। अ० महिमा बीकानेर ५१A , , ज्ञानसार P/. रत्नराज १६वीं ५२ प्रश्नोत्तरमाला चिदानन्द (कपूरचन्द्र) १९०६ भावनगर मु० ५३ प्रश्नोत्तरशतक उम्मेदचन्द्र P/. रामचन्द्र १८८४ जयपुर अ० वर्द्धमान भं० बीकानेर ५४ प्रश्नोत्तरसारसंग्रह समयसुन्दरोपाध्याय १७वीं अ० कान्ति बड़ोदा ५५ प्रश्नोत्तरसार्द्धशतक क्षमाकल्याणोपाध्याय P/. अमृतधर्म १८५१ जेसलमेर मु० हरि लोहावट, अभय बीकानेर ५६ प्रश्नोत्तरसार्द्धशतक भाषा ,
, १८५३ बीकानेर अ० हरि लोहावट, विनय २५२, ३६७ ५७ बारहव्रत की टीप हर्षकल्याण
१६२० अ० ख० जयपुर, स्वयं लि. ५८ बारहव्रत टिप्पण मेघ P/. जिनमाणिक्यसूरि १६०६ अ० ५६ ,, सहजकीर्ति P/. हेमनन्दन १६८८ अ० अभय बीकानेर ६० वृहत्पर्युषणानिर्णय जिनमणिसागरसूरि P/. सुमतिसागरजी २०वीं मु० ६१ मूत्तिमण्डनप्रकाश (कु०) सुमतिमंडन (सुगनजो) P/. धर्मानन्द २०वीं अ० हरि लोहावट ६२ यतिश्राद्धालोचन जिनप्रभसूरि P/. जिनसिंहसूरि १४वीं अ० सुराणा लायब्ररी चूरू ६३ यत्याराधना समयसुन्दरोपाध्याय १६८५ रिणी अ० ख० जयपुर ६४ लखमसीकृत २१ प्रश्नोत्तर मतिकीति P/. उ०गणविनय १७वीं अ० बड़ा भंडार बीकानेर ह० लोहावट ६५ लघुतपोटविचारसार उ० गुणविनय P/. जयसोम १७वीं अ० चारित्र राप्राविप्र कोटा ६६ लघुविधिप्रपा शिवनिधानोपाध्याय १७वीं ६७ वादस्थल
उ०अभयतिलक P/. जिनेश्वरसूरि १४वीं अ० अभय बीकानेर ६८ विचार आलावा गुणरत्लसूरि P/. कीतिरत्नसूरि १६वीं अ० जेसलमेर भंडार ६६ विचाररत्नसंग्रह (हुंडका) उगुण विनय P/. जयसोम १६५७ सेरूणा अ० बड़ा भंडार बीकानेर ७० विचाररत्नसार देवचन्द्रोपाध्याय P/. दीपचन्द्र १८वीं मु० ख० जयपुर अभय बीकानेर ७१ विचारशतक समयसुन्दरोपाध्याय
१६७४ मेड़ता अ० विनय ९८८ ७२ , बीजक क्षमाकल्पाणोपाध्याय P/. अमृतधर्म १६वीं अ० ख० जयपुर ७३ विचारादि रामचन्द्र P/. शिवचन्द्रोपाध्याय १६वों ७४ विधिकन्दली स्वोपज्ञ टीका नयरंग
१६२५ वीरमपुर अ० हरि लोहावट, चारित्र राप्राविप्र बी० ७५ विधिमार्गप्रपा जिनप्रभसूरि P/. जिनसिंहसूरि १३६३ कोसलानगर मु० बाल ३६१ ७६ विविधप्रश्नोत्तर, नं० १, २ ज्ञानसार P/. रत्नराज १६वीं ७७ विशेषशतक
समयसुन्दरोपाध्याय १६७२ मेड़त । मु० ७८ , भाषा आनन्दवल्लभ P/. रामचन्द्र १८८१ बालूचर अ० अभय बीकानेर ७६ विशेषसंग्रह
समयसुन्दरोपाध्याय १६८५ अ० ख० जयपुर विनय ६८३ ८० विसम्वादशतक
अ० अभय बीकानेर हरि लोहावट
अ०
१७वीं
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
मु०
८१ वीरायु ७२ वर्ष स्पष्टीकरण रामविजयोपाध्याय P/. दयासिंह १८३७ मेड़ता अ० ८२ व्यवस्थाकुलक मणिधारी जिनचन्द्रसूरि P/. जिनदत्तसूरि १३वीं ८३ शान्तिपर्वविधि जिनदत्तसूरि P/. जिनवल्लभसूरि १२वीं अ० थाहरू जेसलमेर ८३A शास्त्रीयप्रश्नोत्तर बालचन्द्राचार्य १९२५ अ० विनय ४४१ ८४ शुद्धसमाचारीमण्डन चिदानन्द द्वि० २०वीं अ० हरि लोहावट ८५ श्रावकव्रतकुलक जिनवल्लभसूरि P/. अभयदेवसूरि १२वीं अ० विनय 'वल्लभभारती' ८६ , समयसुन्दरोपाध्याय १६८३ बीकानेर मु० ८७ श्रावकविधिप्रकाश क्षमाकल्याणोपाध्याय P/. अमृतधर्म १८३८ जेसलमेर मु० विनय ३७०, ३९६, बालचित्तोड़ ४१ ८८ श्रावकाराधना समयसुन्दरोपाध्याय १६६७ उच्चानगर अ० अभय बीकानेर ख० जयपुर ८६ , भाषा राजसोम P/. जयकीति जिनसागरसूरिशाखा १७१५ नोखा अ० बालचित्तोड़ ५५४ १० षटकल्याणकनिर्णय जिनमणिसागरसूरि P/. सुमतिसागरजी २०वीं मु० ११ संक्षिप्तपौषधविधि जिनपालोपाक्ष्याय P/. जिनपतिसूरि १३वीं अ० प्रतिलिपि अभय बीकानेर ६२ सङ्घपट्टक जिनवल्लभसूरि P/. अभयदेवसूरि १२वीं मु० ६३ ., वृहद्वृत्ति जिनपतिसूरि P/. मणिधारी जिनचन्द्रसूरि १३वीं मु० विनय ७६३ १४ , टीका लक्ष्मीसेन S/. हम्मोर १५१३ मु० विनय कोटा ७६२ ६५ , , साधुकीर्ति P/. अमरमाणिक्य १६१६ मु० ६६ , , हर्षराज P/. अभयसोम १६वीं मु० विनय ७६१ १७ , पंजिका
P/. ज्ञानचन्द्र १८वीं अ० आचार्यशाखा बीकानेर १८ , बालावबोध ऋद्धिसार (रामलाल) P/. कुशलनिधान १९६७ अ० RE , लक्ष्मीवल्लभोपाध्याय P/. लक्ष्मीकीति १८वीं अ० अबीर बीकानेर १०० सद्रत्नसार्द्धशतक चारित्रनन्दी P/. नवनिधि १९०६ इन्दोर अ० आचार्यशा० बी० मुनि कांतिसागरजी १०१ समाचारी जिनपतिसूरि P/. मणिधारी जिनचन्द्रसूरि १३वीं मु० अभय बीकानेर १०२ समाचारीशतक समयसुन्दरोपाध्याय १६७२ मेडता मु० १०३ सम्वेगी मुखपटाचर्चा जयचन्द्र P/. कपूरचन्द्र १९वीं अ० महरचंद भंडार बीकानेर १०४ साधुप्रायश्चित्तविधि क्षमाकल्याणोपाध्याय P/. अमृतधर्म १६वीं बालूचर अ० ह. लो० ख० ज० वि० को० बाल ५७४ १०५ साधुविधिप्रकाश , ,
१८३८ मु० १०६ , भाषा चारित्रसागर P/. सुमतिवर्द्धन १८६६ नागोर अ० केशरिया जोधपुर १०७ साध्वाचारषट्त्रिंशिका रामविजयोपाध्याय P/. दयाशिंह १९वीं अ० ख० जयपुर १०८ साध्वीव्याख्याननिर्णय जिनमणिसागरसूरि P/. सुमतिसागरजी २०वीं मु० १०६ सिद्धमूर्तिविवेकविलास ऋद्धिसार (रामलाल) P/. कुशलनिधान २० वीं मु० ११० सिद्धान्तबोल
ज्ञानचन्द्र P/. सुमतिसागर १७वीं
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
अ०
[ २१ ] १११ स्थापनापत्रिंशिका जयसोमोपाध्याय १७वीं ११२ स्नात्रपूजा पंच० (शुभशीलीय) बालावबोध जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष १७६३ अ० पाटण भंडार, खजांची बीकानेर ११३ स्नात्रविधि कुमारगणि P/. जिनेश्वरसूरि द्वि० १४वीं अ० विनय कोटा, अभय बीकानेर ११४ स्फुट प्रश्नोत्तर समयसुन्दरोपाध्याय १७वीं अ० ११५ , देवचन्द्रोपाध्याय P/. दीपचन्द्र १८वीं ११६ हुण्डिकाचौरासी बोल (तकराणामुपरि) नयरंग १६२५ वीरमपुर अ० अभय बीकानेर ११७ हुण्डिका १२५ बोल (लुकोपरि , , , अ० उदयचंद जोधपुर
अ०
काव्य-साहित्य तथा टीकादि ग्रंथ
१७वीं
१ अप्रगल्भ्येति पद्यस्यषोडशार्था
मुनिमेरु
अ० बड़ा भं० बी० ख० बी० २ अभयकुमारचरित महाकाव्य चन्द्रतिलकोपाध्याय P/. जिनेश्वरसूरि द्वि० १३१२ खंभात मु० विनय ५४७ ३ अभयकुमारचरितप्रशस्तिः कुमारगणि P/. जिनेश्वरसूरि द्वि० १३१३ बीजापुर मु० ४ अमरूशतक बालावबोध रामविजय (रुपचन्द्र) P/. दयासिंह १७६१ अ० बालचित्तोड़ १६० ५ अरजिनस्तवः (चित्रकाव्य) स्वोपज्ञ टीकासह श्रीवल्लभोपाध्याय P/. ज्ञानविमलो० १७वीं मु० विनयसागर ६ अविदपदशतार्थी विनयसागर P/. सुमतिकलश पिप्पलक १७वीं म० ७ अष्टलक्षी (अनेकार्थरत्नमंजूषा) समयसुन्दरोपाध्याय १६४६ लाहोर मु० ८ अष्टसप्ततिका (चित्रकूटोयवीरचैत्यप्रशस्तिः) जिनवल्लभसूरि ११६३ चित्तोड़ अ० विनय वल्लभभारती ६ अष्टा श्लोकवृत्ति सूरचन्द्रोपाध्याय १७वीं अ० यतिऋद्धिकरण चूरू १० आईय क्लबितें श्लोकव्याख्या सूरचन्द्रोपाध्याय १७वीं अ० पुण्य० अहमदाबाद ११ आचारदिनकर-लेखनप्रशस्ति: वादीहर्षनन्दन P/. समयसुन्दर १७वीं अ० १२ उद्गच्छत्सूर्यबिम्बाष्टक समयसुन्दरोपाध्याय १७वीं मु० १३ उपकेश शब्दव्युत्पत्तिः श्रीवल्लभोपाध्याध्य P/. ज्ञानविमल १६५५ बीकानेर अ० बड़ा भंडार बीकानेर १४ कर्पूरमञ्जरी-सट्टक-टीका (राजशेखरीय) धर्मचन्द्र P/. जिनसागरसूरि पिप्पलक १६वीं अ० रॉयल एशि० सो० बं० १५ कर्मचन्द्रवंशप्रबन्ध जयसोमोपाध्याय १६५० लाहोर मु० १६ , टीका गुणविनयोपाध्याय P/. जयसोम १६५६ तोसामपुर मु० १७ कल्पसूत्र-लेखनप्रशस्तिः साधुसोम P/. सिद्धान्तरुचि १५१७ पाटण अ० भावनगर भंडार १८ कादम्बरीमण्डन मन्त्रि-मण्डन P/. वाग्भट (वाहड़) १५वीं मंडवगढ़ मु० १६ कामोद्दीपन (जयपुरप्रतापसिंहवर्णन) ज्ञानसार १८५६ जयपुर अ० अभय बीकानेर २० काव्यमण्डन मन्त्रि-मण्डन S/. वाग्भट (बाहड) १५वीं मु० २१ कुमारसम्भव महाकाव्य (कालिदासीय) टीका क्षेमहंस १६वीं उल्लेख-स्वकृत रघुवंश टीका
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्तबक
। २२ ) २२ कुमार संभव चारित्रवर्द्धन P/. कल्याणराज लघुखरतर १६वीं मु० हेमचन्द्र भंडार बीकानेर २३ , , जिनभद्रसूरि ?
१५वीं अ० २४ , ,, जिनसमुद्रसूरि P). जिनचन्द्रसूरि लघुखरतर १६वीं अ० डेक्कन कॉलेज २५
लक्ष्मीवल्लभोपाध्याय P/. लक्ष्मीकोत्ति १७२१ सूरत अ० महिमा बी० ह० लो० वि० ६०१ , , समयसुन्दरोपाध्याय
१७वीं अ० २७ कृष्णरुक्मिणीवेली टीका श्रीसार P/. रत्नहर्ष १७०३ अ० गोविन्द पुस्तकालय बीकानेर
, बालावबोध कुशलधोर P/. कल्याणलाभ १६६६ अ० बड़ा भंडार बीकानेर २६ ,
जयकीर्ति P/. हर्षनन्दन १६८६ बीकानेर अ० अभय बीकानेर ३० , , लक्ष्मोवल्लभ P/. लक्ष्मीकीर्ति १८वीं अ० पुण्य अहमदाबाद, १७५० लि.
दानधर्म PI. कमलरत्न १७२७ अ० महिमा बीकानेर
शिवनिधानोपाध्याय १६८६ अ० सेठिया बीकानेर ३३ 'खचराननपश्य सखे खचर' काव्यअर्थत्रयी श्रीवल्लभोपाध्याय P/. ज्ञानविमल १७वीं उल्लेख निघंटुशेष टीका भूमिका ३४ खण्डप्रशस्ति (हनुमत्कृता) टीका गुणविनयोपाध्याय P/. जयसोम १६४१ फलवद्धि मु० संपादक विनयसागर ३५ गायत्री विवरण जिनप्रभसूरि P/. जिनसिंहसूरि १४वीं मु० ३६ गीतासार टीका गुणविनयोपाध्याय P/. जयसोम १७वीं उल्लेख-'नलचम्पू' प्रस्तावना-नन्दकिशोर ३७ गौतमीयमहाकाव्य रामविजयोपाध्याय P/. दयासिंह १८०७ जोधपुर मु० विनय ५५१, बाल ३३८ ३८ ., टीका उ० क्षमाकल्याण P/. अमृतधर्म १८५२ जेसलमेर मु० विनय ५५१, बाल ३३८ ३६ चंद चौपाई समालोचना (मोहनविजयकृता) ज्ञानसार P/. रत्नराज १८७७ बीकानेर अ० ४० चन्द्रदूतम्
विमलकीति P/. विमलतिलक १६८१ मु. अभय बीकानेर विनय ८ ४१ चन्द्रविजय मंत्रि-मण्डन P/. बाहड १५वीं ४२ चम्पूमण्डन
मु० ४३ चाणिक्यनीति-स्तबक लाभवर्द्धन P/. शान्तिहर्ष १८वीं अ० बालापुर भंडार ४४ जयन्तविजय महाकाव्य अभयदेवसूरि मुद्रपल्लीय: १२७८ ४५ जिनसिंहसूरिपदोत्सवकाव्य समयसुन्दरोपाध्याय
१७वीं अ. प्रतिलिपि अभय बोकानेर (रघुवंशद्वितीयसर्गपादपूर्तिः) ४६ तत्वप्रबोधनाटक जिनसमुद्रसूरि P/. जिनचन्द्रसूरिबेगड १७३० अ० ४७ तृणाष्कम् समयसुन्दरोपाध्याय
१७वीं ४८ दमयन्तोकथाचम्पू टीका गुणविनयोपाध्याय P/. जयसोम १६४६ सेहणा अ० रामावि जोधपुर प्रेकॉपी विनय ४६ द्वयाश्रय महाकाव्य स्वोपज्ञ टोकासह जिन प्रभसूरि P/. जिनसिंहसूरि १३५६ अ० जेसलमेर, हरि लोहावट ५० द्वयाश्रयमहाकाव्य टीका हेमचन्द्रीय (संस्कृत) अभयतिलकोपाध्याय P/. जिनेश्वरसूरि द्विः १३१२ पालमपुर मु. ५१ द्वयाश्रयमहाकाव्य टोका हेमवन्द्रीय (प्राकृत) पूर्ण करा ?/. जिनेश्वरसूरि द्वि० १३०७ मु०
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
मु.
१४वीं
। २३ । ५२ नलवर्णनमहाकाव्य विनयसागर P). सुमतिकलश पिपलक १७वीं उल्लेख-स्वकृत अविदपदशतार्थी ५३ नीतिशतकम् धनराज S/. देहड १४६० मंडपदुर्ग मु० ५४ नीतिशतक भाषा (भर्तृहरि) नैनसिंह P7. जशशील १७८६ बीकानेर १० ५५ नेमिनाथ महाकाव्य कीर्तिरत्नसूरि
१४६५ ५६ नेमिदूतम् विक्रम P/. सांगण
मु० विनय ७५६, ७९६, ५७ , टोका गुणविनय P/. जयसोम १६४४
म० खजांची बी० स्वयं लि. वि० ५३२ ५८ नेमिसन्देशकाव्य हंसप्रमोद P/. हर्षचन्द १७वीं अ० दिगंबर भंडार अजमेर ५६ नैषधचरितमहाकाव्य टीका चारित्रवर्द्धन P/. कल्याणराज १५११ अ० ६० . ., जिनराजसूरि PP. जिनसिंहसूरि १७वीं अ० भांडारकर पूना विनय ३६० कोटा ६१ पदकविंशतिः सूरचन्द्र
१७वीं अ० ६२ पासदत्त प्रति प्रेषितपत्र रघुपति
१९वीं अ० अभय बीकानेर ६३ 'प्रणम्य' पदम्यार्थः सूरचन्द्र
१७वीं अ० अभय बीकानेर ६५ प्रतापसिंह समुदबद्ध काव्यवचनिका ज्ञानसार P/. रत्नराज १६वीं ६५ प्रद्युम्नलीलाप्रकाश शिवचन्द्रोपाध्याय P/. पुण्यशील १८७६ जयपुर अ० बाल राप्राविप्र चित्तोड़ ३७० ६६ प्रत्येकबुद्ध चरितमहाकाव्य लक्ष्मीतिलकोपाध्या P/. जिनेश्वरसूरि द्वि०१३११ पालणपुर अ० हरिलोहावट हंस बड़ोदा ६७ प्रशस्ति: लब्धिनिधानोपाध्याय P/. जिनकुशलसूरि १४वीं अ० जेसलमेर ६८ प्रेश्नप्रबोधकाव्यालङ्कार स्वोपड़ टोकासह विनयसागर P/. सुमतिकलश १६६७ दिल्ली अ० कांति बड़ोदा-स्वयं लिखित ६६ प्रश्नमय काव्य धर्मवर्द्धन P/. विजयहर्ष १८वीं मु० ७० प्रश्नोत्तरेकषष्टिशतककाव्यम् जिनवल्लभसूरि १२वीं मु० ७१ , अवचूरि कमलमन्दिर P/. जिनगुणप्रभसूरि १६२७ अ० अभय बीकानेर ७२ ., टीका पुण्यसागरोपाध्याय १६४० बीकानेर अ० विनय कोटा ७६० ७३ फलवद्धिपार्श्वनाथ माहात्म्यमहाकाव्य सहजकीत्ति P/. हेमनन्दन १७वीं मु० ७४ मातृकाप्रथमाक्षरदोधक पृथ्वीचन्द्र P/. अभयदेवसूरि रुद्रपल्लीय १३वीं मु० । ७५ मातृकाश्लोकमाला श्रीवल्लभोपाध्याय P/. ज्ञान विमल १६५५ बीकानेर अ० पुण्य अहमदाबाद ७६ मानमनोहर कल्याणचन्द्र P/. कोतिरत्नसूरि १५१२ अ० ७७ मूलराजगुणवर्णनसमुद्रबद्धकाव्य शिवचन्द्रोपाध्याय पुण्यशील १८६१ जेसलमेर भ० बाल चित्तोड़ ३६२ ७८ मेघदूत कालोदासीय) अवचूरि कनककोति P/. जयमन्दिर १७वीं अ० विनय कोटा चारित्र रा० बीकानेर ७६ , विनयचन्द्र P/. सागरचंद्र शाखा १६६४ राडद्रह अ० ८० , टीका क्षेमहंस
अ० विनय कोटा ८०० ८१ , ,, पंजिका' गुणरत्न P/. विनयसमुद्र १७वीं अ० मोहनलाल भंडार सूरत ५२ , चारित्रवर्द्धन P/. कल्याण राज १६वीं मु. विनय ९६०
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
। २४ ]
८३ मेघदूत , महिमसिंह (मानकवि) P. शिवनिधानोपाध्याय १६६३ अ० चारित्र राप्राविप्र बीकानेर ८४ , , सुमतिविजय P/. विनयमेरू १८वीं अ. भांडारकरपूना दि० भ० आमेर ८५ , , समयसुन्दरोपाध्याय १७वीं अ० विश्वेश्वरानंद शो० सं० होशियारपुर ८६ मेघदूत प्रथमपद्यस्य त्रयोऽर्थः समयसुन्दरोपाध्याय १७वीं अ० इंग० जेसलमेर अभय बीकानेर ८७ रघुवंश महाकाव्य (कालीदासोय) टीका क्षेमहंस १६वीं अ० राप्रावित्र जोधपुर , ,, सुबोधिनी गुणरत्न P/ विनयसमुद्र १६६७ जोधपुर अ० जेसलमेर भंडार
, गुणविनयोपाध्याय P/. जयसोम १६४६ बीकानेर अ० रा० जो० ब० भ० बी० विन १७३ , ,, शिष्यहितैषिणी चारित्रवर्द्धन P/. कल्याणराज १५०७ मु० विनय ५११
,, जिनसमुद्रसूरि P/, जिनचन्द्रसूरिलघुखरतर १६वीं अ० अभय बीकानेर , , धर्ममेरु P/. चरणधर्म १७वीं ० रा. जो० दि० भ० आं० औं० कॉ ला. , , पुण्यहर्ष P/. ललितकी त्ति (?) १८वीं दिगम्बर जयपुर सूची भाग ४ , , अर्थलापनिका समयसुन्दरोपाध्याय १६६२ खंभात अ० डूंगर जे० स्व० लि. रा. जो० वि० ५१२
, , सुमतिविजय P/. विनयमेरु १६६८ बी० अ० जयकरणफेतपुर अभय बीकानेर ६६ रघुवंशसर्गाधिकारः जयसागरोपाध्याय १५वीं अ तपा भंडार जेसलमेर ६७ रजोष्टकम् . समयसुन्दरोपाध्याय १७वीं मु० १८ राक्षसकाव्य टोका विनयसागर P/. सुमतिकलशपिप्पलक १७वीं उल्लेख-स्वकृत अविदपदशतार्थी ६६ राघवपाण्डवीयकाव्य टोका चारित्रवर्द्धन P/ कल्याणराज १६वीं १०० , , विनयसागर P/, सुमतिकलशपिप्पलक १७वीं उल्लेख-स्वकृत अविदपदशतार्थी १०१ राजगृहप्रशस्तिः भुवनहिताचार्य
१४१२ मु. १०२ रामेअष्टादशार्थाः धर्मवर्द्धन P/. विजयहर्ष १८वीं मु० १०३ विचित्रमालिका (व्रजविलासकासार) रायचन्द्र १९वीं अ० पं० रघुनाथराय बनारस १८३४ लि. १०४ विजयदेवमहात्म्यमहाकाव्य श्रीवल्लभोपाध्याय P/. ज्ञानविमल १७वीं मु. १०५ विज्ञप्तिपत्रम् (महादण्ड कस्तुतिगर्भ) समयसुन्दरोपाध्याय १८वीं मु० १०६ विज्ञप्तित्रिवेणी जयसागरोपाध्याय १४८४ मलिकवा० मु० १०७ विज्ञप्तिपत्र ज्ञानतिलक P/. विजयवर्द्धन १८वों मु० अभय बीकानेर १०८ , १०६ विज्ञप्तिमहालेख-लोकहिताचार्यप्रति मेरुनन्दन P/. जिनोदयसूरि १४३१ पत्तन मु० ११० विज्ञानचन्द्रिका क्षमावल्याणोपाध्याय १८५६ जेस० अ० ख० जयपुर चारित्र राप्राविप्र जोधपुर १११ विद्वत्प्रबोधकाव्यम् श्रीवल्लभोपाध्याय P/. ज्ञान विमल १७वीं मु० अभय बीकानेर विनय ७ ११२ विषमकाव्य-अवचूरि जिनप्रभसूरि P/. जिन सिंहसूरि १४वीं अ. धर्म आगरा
२१ पदानां सं प्रा० अपन्न शभाषायां षट्पदीनां टीका)
अ०
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
। २५ ।
११३ वैराग्यशतकम् धनराज S/. देहड
१४६० मंडपदुर्ग मु० पमानन्द S/. धनदेव १२वीं मु० ११५ , सहजकीति P/. हेमनन्दन १७वीं अ० अभय बीकानेर ११६ वैराग्यशतक टीका (प्राकृत) गुणविनयोपाध्याय P/. जयसोम १६४७ मु० ११७ , ज्ञानसागर P/. क्षमालाभ १८वीं अ० केशरिया भंडार जोधपुर ११८ , ,, सर्वार्थसिद्धि मणिमाला जिनसमुद्रसूरि P/. बेगड जिनचन्द्रसूरि १७४० अ० अभय बीकानेर ११६ शतकत्रयभर्तृहरि बालावबोध अभयकुशल १७५५ सिणली अ० यति प्रेमसुन्दर फलौदी १२० , , रामविजयोपाध्याय P/. दयासिंह १७८८ सोजत अ० रा. जो० वि० ७६ बा० चि० १६३-१६५ १२१ शतकत्रयस्तवक (भर्तृ०) लक्ष्मीवल्लभोपाध्याय P/. लक्ष्मीकीत्ति १८वीं अ० खजांची बीका० पंजाब भं० सूची १२२ शतकत्रय हिन्दी पद्यानुवाद भाषाभूषण विनयलाभ P/. विनयप्रमोद १८वीं १७२७ अ० अभय बीकानेर १२३ शत्रुञ्जयतीर्थोद्धारकल्प महिमसुन्दर P/. साधुकोत्ति १६६६ जे० अ० अभय बी० १२३ शत्रुजयोद्धारलहरी स्वरूपचन्द्र P/. हितप्रमोद २०वीं अ० सुमेरमल भीनासर १२३B शत्रुजयोत्पत्ति सुमतिकल्लोल P. १७वीं अ० विनय २०८ १२४ शान्तिलहरी सूरचन्द्र P/. वीरकलश १७वीं अ० प्रेसकापी-विनय को. आमेट भं० १२५ शिशुपालवधमहाकाव्य टीका चारित्रवर्द्धन P/. कल्याणराज १६वीं म. स्टेट लायन्नेरी १२६ , , धर्मरुचि P/. मुनिप्रभ १७वीं अविनय कोटा १२७ , , 'संदेहध्वान्तदीपिका' ललितकीत्ति १७वीं अ० विनयकोटा राप्राविप्र जोधपुर ६८१ १२८ , (तृतीयसर्ग) समयसुन्दरोपाध्याय १७वीं अ० सुराणा चूरू-स्वयंलिखित १२६ शृङ्गरमण्डन मन्त्रि-मण्डन
मु० १३० शृङ्गाररसमाला सूरचन्द्र P/. वीरकलश १६५६ नागोर अ० जयकरण १३१ शृङ्गारवैराग्यतरंगिणी टीका नन्दलाल १८वीं मु० विनय ६८९ १३२ शृङ्गारशतकम् जिनवल्लभसूरि १२वीं अ० विनय 'वल्लभभारती' १३३ , धनराज P/. देहड १४६० मंडपदुर्ग मु० १३४ शृङ्गारादिसंग्रह सोदाहरण श्लोक सूरचन्द्र P/. वीरकलश १७वीं अ० बड़ोदा इंस्टीट्यूट १३५ संघपतिरूपजीवंशप्रशस्तिः श्रीवल्लभोपाध्याय P/. ज्ञानविमल १७वीं मु० संपादक-विनयसागर १३६ सनत्कुमारचक्रिचरित महाकाव्य जिनपालोपाध्याय P/. जिनपतिसूरि १३वीं मु० , १३७ , स्वोपज्ञटीका
उल्लेख-गणधरसार्द्धशतक वहवृत्ति १३८ संदेशरासक टीका लक्ष्मीचन्द्र P/. देवेन्द्रसूरि रुद्रपल्लीय १४६५ मु० १३६ समुद्रबद्धचित्रकाव्य दुर्गादास P/. विनयाणंद १७८० कर्णगिरि अ० बाल चितौड़ १४० संयोगद्वात्रिंशिका मान P/. सुमतिमेरु १७३१ अ० अभय बीकानेर १४१ सम्वत्थशब्दार्थसमुच्चय गुणविनयोपाध्याय P/. जयसोम १७वीं मु०
१५वीं
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४२ सारङ्गसार टोका हंस प्रमोद P/. हर्षचन्द्र १६६२ अ. हरिलोहावट १४३ सूक्तिमुक्तावली जिनवर्द्धमानसूरि पिप्पलक १७३९ उदयपुर अ० सरस्वती भंडार उदयपुर १४४ सूक्तिरत्नावली स्वोपज्ञ टीका क्षमाकल्याणोपाध्याय P). अमृतधर्म १८४७ मकसूदाबाद ख० जयपुर १४५ स्थूलिभद्रगुणमाला महाकाव्य सूरचन्द्र PI. वीरकलश १६८० संग्रामनगर सांगानेर अ० वेश० जोध० घाणेराव १४६ स्वर्णाक्षरी कल्पसूत्रलेखनप्रशस्तिः शिवसुन्दर P/. क्षेमराज १६वीं मु० नाहर कलकत्ता १४७ ,, , साधुसोम P/. सिद्धान्तरुचि १५२४ पाटण अ० तपा भंडार जेसलमेर १४८ सभाकुतूहल कुशलधीर P/. कल्याणलाभ १८वीं अ० आचार्यशाखा भंडार बीकानेर १४६ समस्यापूत्तिश्लोकादिपद्य १८ समयसुन्दरोपाध्याय १७वीं १५० समस्यापूर्तिस्फुटपद्याः धर्मवर्द्धन P/. विजयहर्ष १८वीं मु० ।
( संस्कृत ३८, भाषा ३५ पद्य ) १५१ समस्याष्टकम्
समयसुन्दरोपाध्याय
१७वीं
काव्य-कथा-चरित्र
अ०
"
"
१ अञ्जनासुन्दरी कथा मेरुसृन्दरोपाध्याय P/. रत्नमूत्ति १६वीं अ० सिद्धक्षेत्र साम० पालीताणा २०४६ २ , चरित्र गुणसमृद्धिमहत्तरा १४०६ जेस० अ० जेसलमेर भंडार ३ अतिमुक्तक चरित्र पूर्णभद्रगणि P/. जिनपतिसूरि १२८२ मु० ४ अम्बडचरित्र क्षमाकल्याणोपाध्याय P/. अमृतधर्म १८५४ पाली• मु० विनय कोटा ३९४ ५ आदिनाथचरित्र व र्द्धमानसूरि P/. अभयदेवसूरि ११६० खंभात अ० हरि लोहावट ६ , (कल्पसूत्रान्तर्गत) ज्ञाननिधान P/. मेघकलश १८वीं अ० अभय बीकानेर ७ ,
जिनसागरसूरि पिप्पलक १५वों अ० विनय ६७५ ७५ आदिनाथ व्याख्यान वादीहर्षनन्दन P/. समयसुन्दर १७वीं ८ आरामशोभा कथा जिनहर्षसूरि P/. जिनचन्द्रसूरि पिप्पलक १५३७ लींबडी भंडार ६
मलयहंस P/. जिनचन्द्रसूरि पिप्पलक १६वीं अ० कान्ति छाणी १. उत्तमकुमार चरित्र चारुचन्द्र P/. भक्तिलाभ १६वीं अ० अ० बी० सं० १५७१ स्वलि० विनय ३०१ ११ , सुमतिवर्द्धन P/. विनीतसुन्दर १९वीं अ० हरि लोहावट १२ उपमितिभवप्रपशुकथासमुच्चय वर्द्धमानसूरि १३ कथाकोष समयसुन्दरोपाध्याय
१६६७ मरोट अ० विनय कोटा अपूर्ण १A , १४ कथाकोषप्रकरण स्वोपज्ञ टोका जिनेश्वरसूरि P/. वर्द्धमानसूरि ११०८ डीडवाणा मु० १५ कथारत्नकोष देवभद्रसूरि P/. सुमतिवाचक ११५८ भरुच मु.
६१वीं
अ०
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६वी
मु०
१७वीं
१६ कन्यानयन (कन्नाणा) तीर्थकल्प सोमतिलकसूरि P/. संघतिलकसूरि रुद्रपल्लीय १४वीं मु० १७ कालिकाचार्य कथा कनकनिधान P/. चारुदत्त १८वीं अ० चारित्र राप्राविप्र बीकानेर कनकसोम P/.
१६३२ जेस० अ० कमलसंयमोपाध्याय
अ० ख० जयपुर कल्याणतिलक P/. जिनसमुद्रसूरि १६वीं अ० अभय बीकानेर
जयकीर्ति P/. वादीहर्षनन्दन १७वीं अ० बाल राप्राविप्र चित्तोड़ ७६४ जिनदेवसूरि P). जिनप्रभसूरि १४वीं ज्ञानमेरु P/. महिमसुन्दर
अ० बाल राप्राविप्र चित्तोड़ जोध० २१९२० लक्ष्मीवल्लभोपाध्याय P/. लक्ष्मीकीर्ति १८वीं अ० ख० जयपुर शिवनिधानोपाध्याय
अ० वृद्धि जेसलमेर समयसुन्दरोपाध्याय १६६६ वीरमपुर मु० बाल चित्तोड़ ६६ , सुमतिहंस P/. जिनहर्षसूरि आद्यपक्षीय १७१२ अ० यति सूर्यमल संग्रह २८ कुन्थुनाथ चरित्र विबुधप्रभसूरि
१३वीं उल्लेख-वृहट्टिप्पनिका २६ कुमारपालप्रबन्ध सोमतिलकसूरि P/. संघतिलकसूरि रुद्रपल्लीय १४२४ मु० केशरिया जोधपुर कांतिवाणी ३० कृतपुण्यचरित्र पूर्णभद्रगणि P/. जिनपतिसूरि १३०५ अ० जेसलमेर भंडार, बढवाणकेप भंडार ३१ गुणदत्तकथा अभयचन्द्र P/. आणंदराजलघुखरतर १६वीं म० ३२ गुणसागरप्रबोधचन्द्रयुद्धप्रकाश जिनसमुद्रसूरि P/. जिनचन्द्रसूरि बेगड १८वीं अ० जेसलमेर भंडार ३३ चन्द्रप्रभचरित्र जिनेश्वरसूरि P/. जिनपतिसूरि १३वीं मु० ३४ , टीका , साधुसोम P/. सिद्धान्तरुचि १६वीं अ० आचार्यशाखा भंडार बीकानेर ३५ , जिनप्रभसूरि P/. जिनसिंहसूरि १४वीं अ० प्रेसकॉपी विनय कोटा ३६ जयसेनचरित्र रत्नलाभ P/. विवेकरत्नसूरि पिप्पला १८वीं अ० पालणपुर भंडार ३७ जिनकुशलसूरि चरित्र लब्धिमुनि उ.
२०वीं ३८ जिनकृपाचन्द्रसूरिचरित जयसागरसूरि १६ जिनचन्द्रसूरिचरित (मगिधारी) लब्धिमुनि उ. ४० , , (युगप्रधान) । ४१ जिनदत्तसूरिचरित लब्धिमुनि उ० २०वों ४२ जिनयशःसूरिचरित
अ० ४३ जिनरत्नसूरिचरित ४४ जिनवल्लभीय (आदि-शांतिनेमि-पाव-महावीरचरित पं० टीका कनकसोम १७वीं अ० ख० बी० १६१५ स्वलिखित ४५ ,,, टोका साधुसोम P/. सिद्धान्तहवि १५१६ अ० आ० शा० भ० बी० म० च० वि० ८०१ ४६ ,, बालावबोध काल नीति १६६८ जेस० अ.
०
अ
अ०
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
४७ जिनवल्लभीय आदिनाथचरित जिनवल्लभसूरि P/. अभय देवसूरि १२वीं मु० ४८ , शान्तिनाथचरित
नेमिनाथ , ५० , पार्श्वनाथ ,
महावीर ५२
, टीका समयसुन्दरोपा० १६८४ लूण० अ० क्षमा बीकानेर ख० जयपुर ५२॥ " बालावबोध ..
१६६६ अ० स्वलिखित वि.२५९०६ " , , , रघुपति P/. विद्यानिधान १८१३ अ० ५४ , , , , विमलरत्न P/. विजयकोति १७०२ सा० अ० ब० भ० बी० ख० बी० जेनर ५५ , , , स्तवक रामविजयोपाध्याय P/. दयासिंह १८१३ बी० अ० बा० राप्राविप्र वितौड़ ई० जेस० ५६ , , , सुमति P/. जयकीर्ति पिप्पलक १५वीं अ० महिमा बीकानेर ५७ जनरामायण (भाषा) जिनराजसूरि P/. जिनसिंहसूरि १७वीं अ० ख० कोटा ५८ थावच्चा सुकोशलचरित्र कनकसोम
१६५५ नागोर अ० आचार्यशाखा भंडार बीकानेर ५६ दश आश्चर्यका णि पद्मलाभ
१८वीं अ० अभय बीकानेर ६० जिनवल्लभीय महावीरचरित बालावबोध नयमेरु P/. १६७८ अ० विनय ७१५ स्वयंलिखित ६१ दशदृष्टान्तकथानक बालावबोध अभयधर्म
१५७६ अ० संस्कृतालय कलकत्ता १२३ ६२ दश श्रावकचरित्र पूर्णभद्रगणि P/. जिनपतिसूरि १२७५ अ० जेसलमेर भंडार ६३ देवदिन्न चरित्र जयनिधान P/. राजचन्द्र
अ० ६४ देवदूष्यवस्त्रार्पण कथानक समयसुन्दरोपाध्याय १७वीं ६५ द्रौपदीसंहरण
अ० खजांची बीकानेर ६६ धन्यशालिभद्रचरित्र पूर्णभद्रगणि P/. जिनपतिसूरि १२८५ जेस० मु० ६७ धूर्ताख्यान संघतिलकसूरि रुद्रपल्लोय १५वीं मु० ६८ नरवर्मचरित्र विद्याकीति P. पुण्यतिलक १६६६ अ० हिम्मत राप्राविप्र बीकानेर ६६ , विनयप्रभोपाध्याय P/. जिनकुशलसूरि १४१२ खंभात मु० विनय ६७३ ७० , विवेकसमुद्रोपाध्याय
१३२० खंभात अ० धर्म आगरा ७१ निर्वाणलोलावतीकथा जिनेश्वरसूरि P/. वर्द्धमानसूरि १०९२ आशापल्ली अनुपलब्ध ७२ निर्वाणलीलावतीकथासार जिनरत्नसूरि
१३४० अ० जेसलमेर भंडार ७३ पञ्चकुमारकथा लक्ष्मीवल्लभोपाध्याय P/. लक्ष्मीकीत्ति १७४६ रिणी अ० केशरिया जोध० चा० राप्राविप्र० बीकानेर ७४ परमहंससम्बोधचरित्र नयरंग
१६२६ बाल. मु० विनय कोटा ९०३ ७५ पर्वरत्नावली जयसागरोपाध्याय
१४७८ पाटण अ० ख० जयपुर विनय ९०७ ७६ पार्श्वनाथ चरित्र देवभद्रसूरि P/. सुमतिवाचक ११६८ भरुच मु० जेसलमेर भंडार ७७ पार्श्वनाथदशभव बालावबोध पदममन्दिर P/. विनयराज १६वों अ. जेसलमेर भंडार
१७वीं
अ०
.
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
मु०
७८ पार्श्व-नेमिचरित भाषा वादीहर्षनन्दन P/. समयसुन्दर १७वीं
अ० आत्मानन्द सभा भावनगर ७६ पुण्यसारकथानक विवेकसमुद्रोपाध्याय १३३४ जेस० ८० पृथ्वीचन्द्र चरित्र जयसागरोपाध्याय १५०३ पालणपुर अ० ख० जयपुर ८१ प्रत्येकबुद्ध चरित्र जिनवर्द्धनसूरि
१५वीं
अ० हीराचन्द्रसूरि बनारस ८२ प्रदेशी चरित्र चारित्रनन्दी P/. नवनिधि . १६१३ खंभात अ० पुण्य अहमदाबाद ८३ बकनालिकेर कथानक पंचाख्याने हीरकलश १६४६
अ० अभय ८४ भुवनभानुकेवलो चरित्र प्राकृतगद्य लक्ष्मीलाभ लघुखरतर १७वीं अ० जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार सूरत ८५ , (लक्ष्मीलाभीय का संस्कृतानुवाद) तत्वहंस १८०१ अ० जनानन्दपुस्तकालय सूरत ८६ मदननरिंदचरित्र दयासागर P/. उदयसमुद्र पिकाला १६१९ जालोर अ० वर्द्धमान भंडार उदयपुर ८७ मनोरमाचरित्र वर्द्धमानसूरि P/. अभयदेवसूरि ११४० अ० ते० सभा सरदार० भावहर्ष बालोतरा ८८ महावीरचरित देवभद्रसूरि P/. सुमतिवाचक ११३६ मु० ८८A महावीर चरित्र अभयदेवसूरि
अ० खंभात ताडपत्रीय ८६ महावीर २७ भव कथानक रंगकुशल P/. कनकसोम १६७० अ० आचार्य उपासरा, बीकानेर
समयसुन्दरोपाध्याय
१७वीं० अ० , बालावबोध
रत्ननिधानोपाध्याय P/. जिनचंद्रसूरि १७वों० अ० आचार्य शाखा बोकानेर १२ मुनिसुव्रतचरित्र
पद्मप्रभसूरि P/. विबुधप्रभसूरि १२६४ म० ६३ मूंछ मांखण कथा
अमरविजय P/. उदयतिलक १७७५ राहसर अ० अभय बीकानेर ६४ मोहजीतचरित्र
क्षेमसागर
१६३६ कोटा मु० ९५ यशोधरचरित्र क्षमाकल्याणोपाध्याय P/. अमृतधर्म १८३६ जे०, अ० विनय कोटा ४२८ बा० वि० १३८ १६ यशोधरसम्बन्ध
सहजकीर्ति P/. हेमनन्दन १७वीं० अ० धरणेन्द्र जयपुर, अभय बी. १७ रणसिंहनरेन्द्रकथा
मुनिसोम P), सिद्धान्तरुचि १५४० शितपत्र मु० अभय बी०, विनय १०१२ ९८ रत्नसेनपद्मावती कथा जिनसमुद्रसूरि P/. जिनचन्द्रसूरि बेगड १८वीं० अ० अभय बोकानेर ९९ रूक्मिणी चरित्र १०० वर्द्धमानदेशना
राजकीर्ति P/. रत्नलाभ १७वीं० मु. १०१ वागविलासकथा संग्रह कीर्तिपुन्दर P/. धर्मवर्द्धन १८वीं० अ० जेपलमेर भं०, वृद्धि जेसलमेर १०२ विविधतीर्थकल्प
जिनप्रभसूरि P/. जिनसिंहसूरि १३८६ दिल्ली मु. १०३ वीरचरितम् जिनवल्लभसूरि P/. अभयदेवसूरि १२वीं० अ० विनय 'वल्लभभारती' १०४ वैतालपच्चीसी हेमाणंद PI, हीरकलश
१६४६ अ. १०५ शीतवसन्तराजकथा लक्ष्मीचन्द्र P/. बालचन्द्रसूरि १६६० काशी अ० होराचन्द्रसूरि बनारस १०६ शीलवतीकथा आज्ञासुन्दर P/. आणंद पुन्दर रुमल्लोय १५६२ काडि उंपुर अ• तमा भंडार जेस मेय १०७ श्रीमालवरित्र (रन रोज रोय) टोका सना ल्यागोपाध्याय P/. अनुतधर्म १८६६ बोकानेर नु. विनय ७०२
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०८ श्रीपालचरित्र बालावबोध मनसोम
१७२५ ? १०६ श्रीपालचरित्र
चारित्रनन्दी Pा. नवनिधि १६०८ अ० कान्ति बड़ौदा १९१० स्वयं लि. जयकीर्ति
१८६८ जेसलमेर मु० विनय ७१२ १११ ,, (प्राकृत का स्तबक) जिनकृपाचन्द्रसूरि २०वी० मु. ११२ लब्धिमुनि उ०
२०वी० म० ,, भाषा देवमुनि . १९०७ अ० अभय बी०, क्षमा बी० हरि लोहावट, विनय १८ ११४ ' ,, ,, ऋद्धिसार (रामलाल) P/. कुशलनिधान १९५७ अ० विनय कोटा १८
,, हिन्दीअनुवाद वीरपुत्र आनन्दसागरसूरि १२वीं० मु० ११६ समरादित्य केवलोचरित्र पूर्वार्द्ध क्षमाकल्याणोपाध्याय P/. अमृतधर्म १९वीं० अ० ११७ , उत्तरार्द्ध सुमतिवर्द्धन १८७४ अजमेर अ० वर्द्ध० बी०, पुण्यश्री जयपुर, हंस बड़ौदा ११८ शत्रुञ्जय लघुमाहात्म्य जिनभद्रसूरि P/. जिनराजसूरि १५वीं० अ० जेसलमेर भंडार ११६ शिवरात्रिकथा मुनिराज P/. गुणसागर पिप्पलक १६८४ मांडवगढ़ अ० हरि लोहावट १२० सिंहासनबत्तीसी हीरकलश
१६३६ अ० अभय बोकानेर खo जयपुर १२१ सुमित्रचरित्र हर्षकुंजरोपाध्याय P/. जयकीर्ति पिप्पलक १५३५ ज्यायहपुरी अ० तपा भं० जे०, वि० ३१६ १२२ सुरसुन्दरीचरित्र धनेश्वरसूरि (जि नभद्रसूरि)- १०६५ चन्द्रावती मु० १२३ सुसढ़चरित्र लब्धिमुनि उ०
२०वी० अ० १२४ स्वप्नाधिकार
राजलाभ P/. राजहर्ष . १७६५ केला अ०
पर्व-व्याख्यान
१ द्वादशपर्वकथा लब्धिमुनि उ०
२०वी० अ० २ द्वादश पर्वव्याख्यान हिन्दी अनुवाद, वीरपुत्र आनन्दसागरसूरि २०वी० मु० ३ अष्टाह्निकाव्याख्यान क्षमाकल्याणोपाध्याय P/. अमृतधर्म १८६० जेसलमेर मु० नन्दलाल
१७६६ अ० दान बी० अभय बी० हीराचंदसूरि बनारस ५ , भाषा आनन्दवल्लभ P/. रामचन्द्र १८७३ अ० जनभवन कलकत्ता
मतिमन्दिर १८८२ अ० खजांचो बी०, यतिजयकरण बी० आचार्य शाखा भ० बी०
ऋद्धिसार (रामलाल) P/. कुशलनिधान १६४६ अ० खजांची बीकानेर ८ अक्षयतृतीयाव्याख्यान क्षमाकल्याणोपाध्याय P/. अमृतधर्म १६वीं० मु० ६ , भाषा
चारित्रसागर P/. सुमतिवर्द्धन १६०१ अ० बद्रीदास सं० कलकत्ता . १० कार्तिकपूर्णिमाव्याख्यान जयसार
१८७३ जेसलमेर मु० खजांची बीकानेर
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६
, भाषा
११ चातुर्मासिक व्याख्यान क्षमाकल्याणोपाध्याय P/. अमृतधर्म १८३५ पाटोदी मु०
शिवनिधानोपाध्याय १७वीं० अ० चारित्र राप्रा धिप्र, खजांची, आचार्य शाखा बी० समयसुन्दरोपाध्याय
१६६५ अमरसर मु० विनय कोटा सूरचन्द्र
१७वीं० अ. क्षमा बी०, चारित्र राप्राविप्र बी० , भाषा आनन्दवल्लभ P/. रामचन्द्र १८७३ अ० जैनभवन कलकत्ता १६ चैत्रीपूर्णिमाव्याख्यान जीवराज P/. भवानीराम जिनसागरसूरि शाखा १९वीं० मु. १७ ज्ञानपञ्चमीव्याख्यान (सौभाग्यपंचमी) बालचन्द्रसूरि २०वी० अ० हीराचन्दसूरि बनारस १८ ., बालावबोध जिनहर्ष आनन्दवल्लभ P/. रामचन्द्र
१८७३
अ० २० दीपमालिका व्याख्यान उम्मेदचन्द्र P/. रामचन्द्र १८८६ अजीमगंज मु० २१ दीपमा'लकाकल्प (जिनसुन्दरीय) बाला० जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष १७५१ पाटण अ०
,, जिनहर्षसूरि P/. पिप्पलक १८२० अ० विनय ४८१ २३ ,
समयसुन्दरोपाध्याय
१६८२ अ० आचार्यशाखा बी० खजांची बी. २४ पौषदशमी व्याख्यान जीवराज P/. भवानीराम जिन सा०शाखा १६वीं मु० चा० राप्राविप्र आचार्यशाखा बी० २५ मेरुत्रयोदशी व्याख्यान क्षमाकल्याणोपाध्याय १८६० बीकानेर मु० २६ , भाषा चारित्रसागर P/. सुमतिवर्द्धन १९०६ १० बद्रीदास सं० कलकत्ता २७ मौनकादशो व्याख्यान जीवराज P/. भवानीराम (जिनसागर शाः) १८४७ बीकानेर अ० डूंगर जेसलमेर
, शिवचन्द्रोपाध्याय P/. पुण्यशील १८८४ जेसलमेर अ० बालराप्राविप्र जोधपुर ., बालावबोध जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष
१८वीं अ० राप्राविप्र० जोधपुर ,, भाषा आनन्दवल्लभ P/. रामचन्द्र
अ० चारित्रसापर P/. सुमतिवर्द्धन १९०६ अ० बद्रीदास सं० कलकत्ता ३२ रोहिणी व्याख्यान भाषा आनन्दवल्लभ P/. रामचन्द्र १८७३ ३३ होलिका व्याख्यान क्षमाकल्याणोपाध्याय
मु० ३४ भाषा आनन्दवल्लभ Pा. रामचन्द्र १८७३
अ०
१६वीं
अ.
१६वीं
पट्टावली एवं गीत
१ खरतरगच्छ पट्टावली
क्षमाकल्याणोपाध्याय P/. अमृतधर्म १८३० जीर्णगढ़ मु. उ० लब्धिमुनि
१९७० अ० अभय बोकानेर समयसुन्दरोपाध्याय P/. सकलचन्द्र १६६० खंभात अ० प्रेसकापी अभय बीकानेर ४ खरतरगच्छालङ्कारयुगप्रधानाचार्यगुर्वावलो जिनपालोपाध्यायP/.जिनपतिसूरि१३०५ मु०
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
६ गुरुपर्वक्रम
१७वीं १७वीं १८वों
१७वीं
५ गुरुपट्टावली गणविन योपाध्याय Pा. जयसोम
अ० जयसोमोपाध्याय
अ० केशिरिया जोधपुर, पूना ७ पट्टावलो राजलाभ P/. राजहर्ष
अ० ८ बच्छावत वंशावली समयसुन्दरोपाध्याय लि.
अ० विनय २५६ ६ महाजनवंश मुक्तावली ऋद्विसार (रामलाल) P). कुशलनिधान १९६० मु० १० वर्द्धमानसूरि आदि प्राकृत प्रबन्ध राजहंस P/. हर्षतिलक, लघु खरतर १६वीं म०
गुर्वावली गीतादि ११ खरतरगच्छगुर्वावली (गुरुपरम्परा गीत) गुणविनयोपाध्याय P/. जयसोम १५वीं अ० पद्य३१ प्रणमुपहिली श्रीवर्द्धमान' १२ खरतरगच्छ पट्टावली (खरतर गुर्वावली) सोमकुंजर
१५वीं मु० 'धण धण जिनशाशन' प० ३० १३ खरतर गुरु गुणवर्णन छप्पय अभय तिलकोपाध्याय, आदि १४वी १५वीं मु०'सो गुरु सुगुरु जु छविह जीव' १४ खरतर गुरुप् ट्टावली समय सुन्दरोपाध्याय F/. सकलचन्द १७वीं मु० प्रणमी वीर जिनेश्वर' ८ १५ गुर्वावली
चारित्रसिंह P/. मतिभद्र १७वीं मु० सिवसुखकर रे पास जिनेसर'प०२१ १६ गुर्वावली
नयरंग
१७वीं मु० भारति भगवति रे तुं वसि मुखकजे' प० ४ १७ गुर्वावली गीत
समयसुन्दरोपाध्याय P/. सकलचन्द्र १७वीं मु० उद्योतन वर्द्धमान जिणेसर'३ १८ गुर्वावली फाग
खेनहंस
१६वीं मु. पणमवि केवललच्छिवर १६ १६ गुर्वावली रेलुआ सोममूत्ति P/. जिनेश्व रसूरि १४वीं म. अभय २० जिनप्रभसूरि परम्परा गुर्वावली
.. १५वीं मु० 'वंदे सुहम्म सामि' १४ २१ पिप्पलक खरतर पट्टावली चौपई राजसुन्दर P). जिनचन्द्रसूरि पिप्पलक १६६६ मु० 'समरु सरसति गौतम पाय' १६ २२ बेगड खरतरगच्छ गुर्वावली
म० 'पणमिय वीर जिनंदचन्द'७ २३ सुगुरु वंशावली कुशलधीर P/. कल्याणलाभ १७वीं मु० 'भट्टारक जिनभद्र खरउ' २
योग १ ध्यानशतक बालावबोध सुगनचन्द्र P/. जयरंग १७३६ जैसलमेर अ० सूर्यमल यति संग्रह, जैनरत्नपुस्तकालय २ योगप्रकाश बालावबोध मेरुसुन्दरोपाध्याय P/. रत्नमू ति १६वीं अ० उ० जैन गू० क० . ३ योगशास्त्र बालावबोध (हेमचन्द्रीय) :, ,,
अ० महिमा बीकानेर ४ , स्तबक शिवनिधानोपाध्याय १७वीं अ० तपा भण्डार जेसलमेर
दर्शन १ प्रमाण प्रकाश देवभद्रसूरि P/. प्रसन्नचन्द्राचार्य सुमतिवाचक १२वीं मु० २ प्रमालक्ष्म स्वोपज्ञ टीकासह जिनेश्वरसूरि P). वर्द्धमानसूरि
११वीं मु. ३ षड्दर्शन स० टीका (हरि०) सोमतिलकसूरि P/.संघतिलकसूरिरुद्रपल्लीय १३६२ आदित्यवर्द्धनपुर मु० राप्राविप्र० जोधपुर ४ षड्दर्शनसमुच्चय (हरि०) बालावबोध कस्तूरचन्द्र
१८६४ बीकानेर अ० मुकनजी बीकानेर ५ स्याद्वादपुष्पकलिका प्रकाश स्वोपज्ञटीकासह चारित्रनन्दी १६१४ अ० सिद्धोत्र साहित्यमदिर पालीतापा
१६वीं
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
न्याय १ तत्त्वचिन्तामणि टिप्पणक सुमतिसागर P/. पुण्यप्रधान १७वों उल्लेख-देवचन्द्रकृत विचारसार टीका २ तर्कभाषा 'प्रकाश' व्याख्या तर्कतरङ्गिणी (गोवर्द्धनीय) गुणरत्न P/. विनयसमुद्र १७वीं अ०बड़ौदाइन्स्टीट्यूट. वि०म्यु० ३ तर्कसंग्रह फक्किका समाकल्याणोपाध्याय P/. अमृतधर्म १८५४ मु० ४ ., पदार्थबोधिनी टीका कर्मचंद P. दीपचंद्र
१८२२ नागपुर उ० जैन सं० सा०३० ५ न्यायसार चूर्णि
भक्तिलाभ P/. रत्नचन्द्र १६वीं अ० जैन भवन कलकत्ता ६ न्यायरलावली
दयारत्न P/. जिनहर्षसूरि आद्यपक्षीय १६२६ अ० भ० पूना तेरापंथी सरदारशहर ७ न्यायसिद्धान्तदीप शश० टिप्प० (मंगलवाद) गुणरत्न P). विनयसमुद्र १७वीं अ० स्टेट लाइब्रेरी बीकानेर ८ न्यायालङ्कार टिप्पणक उ. अभयतिलक P/. जिने द्वितीय १४वीं अ० जेसलमेर भण्डार पञ्जिकाप्रबोध
जिनप्रबोधसूरि P/. जिने० द्वितीय १४वीं उल्लेख ख० यु० गुर्वावली पृ० ५७ १० बौद्धाधिकार विवरण ११ मङ्गलवाद
समयसुन्दरोपाध्याय
१६५३ इलादुर्ग अ० जेसलमेर भण्डार १२ सप्तपदार्थी टीका
जिनवर्द्धनसूरि P/. जिनराज १४७४ मु० अभय बी० हरिलाहावट वि० कोटा भावप्रमोद P/. भावविनय १७३० बेनातट अ०
व्याकरण
१७वीं
१ अनिटका रिका समयसुन्दरोपाध्याय
अ० अभय बीकानेर २ अनिटकारिका अवचूरि क्षमामाणिक्य
१९वीं० जालंधर अ० चारित्रराप्राविप्र बीकानेर ३ उक्तिरत्नाकर साधुसुन्दर P/. साधुकीत्ति
म. चारित्र राप्राविप्र बी. विनय ७६८ ४ उक्तिसमुच्चय जयसागरोपाध्याय
१५वीं० अ० अभय बोकानेर ५ उपसर्गमण्डन मन्त्रि-मण्डन S/. बाहड १५वीं० मंडपदुर्ग मु० ६ ऋजुप्राज्ञव्याकरण सहजकीति P/. हेमनन्दन १७वीं अ० जेसलमेर भं० क्षमा बीकानेर ७ एकादिशतपर्यन्तशब्दसाधनिका
, १७वीं० अ० यतिरामलाल भीनासर यति विष्णुदयाल फतहपुर ८ कातन्त्रदुर्गपदप्रबोधटीका जिनप्रबोधसूरि P/. जिनेश्वरसूरि द्वितीय १३२८ अ० ६ कातन्त्रविभ्रमवृत्ति जिनप्रभसूरि P/. जिनसिंहसूरि १३५५ दिल्ली अ० विनय कोटा ८०२ १. कातन्त्रविभ्रमावचूरि चारित्रसिंह P/. मतिभद्र १६३५ धवलकपुर अ० विनय कोटा राप्राविप्र जोध बाल ४०८ ११ गुणकित्वषोडशिका मतिकीति P. गुणविनय १७वीं० अ० ख० जयपुर, प्रेसकॉपी विनयकोटा १२ चतुर्दशस्वरवादस्थल श्रीवल्लभोपाध्याय P/. ज्ञानविमल १७वीं० २० अभय बीकानेर १३ धातुरत्नाकर 'क्रियाकल्पलता' रवोपज्ञटीका साधुसुंदर P/. साधुकीर्ति १६८० अ० बड़ा भ० चा० बी० कान्ति छाणी १४ पञ्चग्रन्थीव्याकरण (शब्दलक्ष्मलक्षण) बुद्धिसागरसूरि १०८० जालोर अ० जेसलमेर भंडार
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५ पदव्यवस्था
विमलकीर्ति P/. विमलतिलक १७वीं० अ० अनुप बीकानेर भं० पूना १६ , टीका उदयकीति P/. साधुसुन्दर १६८१ १७ प्रक्रियाकौमुदी टीका विशालकीर्ति P/. ज्ञानप्रमोद १८वीं० अ० चारित्रराप्राविप्र बी० अ०बी० १८ प्राकृतशब्दसमुच्चय तिलकगणि
१५६६ अ० १६ बालशिक्षाव्याकरण (जयानन्दसूरिकृत शब्दानुसारतः) भक्तिलाभ
अ० जेसलमेर भंडार २० भूधातुवृत्तिः उ० क्षमा कल्याण P/. अमृतधर्म १८२६ राजनगर अ० ख० जयपुर प्रेसकॉपी विनयकोटा २१ रुचादिगणवृत्ति: जिनप्रभसूरि P/. जिनसिंहसूरि १३७६ अ० लींबड़ी भं०, अभय बी० राप्रा० जो २२ वेट्थपदविवेचन समयसुन्दरोपाध्याय
१६८४ बीकानेर अ० २३ व्याकरणकठिनशब्दवृत्तिः श्रीवल्लभोपाध्याय P/. ज्ञानविमल १७वीं० अ० बड़ा भंडार बीकानेर २४ शब्दाणंवव्याकरण धातुपाठ) सहजकीत्ति P/. हेमनन्दन १७वीं अ० धर्म आगरा २५ षटकारक
जयसागर P/. जिनसागरसूरि १८वीं० अ० धरणेन्द्र, जयपुर २६ सारस्वतधातुपाठ (धातुमुक्तावली) जिनसमुद्रसूरि P/. जिनचन्द्रसूरि बेगड १८वीं० अ० २७ सारस्वतप्रयोगनिर्णय
श्रीवल्लभोपाध्याय P/. ज्ञानविमल १७वी० अ० अभय बीकानेर २८ सारस्वतमण्डन
मन्त्रि-मण्डन S/. वाहड १५वीं मंडपदुर्ग अ० विनयकोटा ५२६ स्टेटलायब्ररी २६ सारस्वतरहस्य
समयसुन्दरोपाध्याय १७वीं० अ० बड़ा भं० बी० प्रेसकॉपी वि.कोटा ४६६ १० सारस्वतव्याकरण टीका 'क्रियाचन्द्रिका' गुणरत्न १६४१ अ० ३१ सारस्वत टोका विशालकीर्ति P/. ज्ञानप्रमोद १७वीं० अ० गधया सं० सरदारशाहर
समयसुन्दरोपाध्याय १७वीं०
सहजकोति P). हेमनन्दन १६८१ अ० चारित्रराप्राविप्र बीकानेर ३४ , बालावबोध (पंचसन्धिपर्यन्त) राजसोम १८वीं० अ० आचार्यशाखा बीकानेर
श्रीसारोपा० P/. रत्नहर्ष १०वी० अ० जेसलमेर भंडार ३६ , भाषाटीका आनन्दनिधान P/. मतिवर्द्धन आद्यपक्षीय १८वीं० अ० बहादुरमलबांठिया भीनासर ३७ सारस्वतानुवृत्त्यवबोधक ज्ञानमेरु (नारायण)P/. महिमसुन्दर १६६७ डीडवाणा अ० अनूपसंस्कृत ला० बी० ३८ सारस्वतीय शब्दरूपावली समयसुन्दरोपाध्याय १७वीं० अ० पूनमचन्ददुधेरिया छापर स्वयंलिखित ३६ सिद्धहेमशब्दानुशासनलघुवृत्ति जिनसागरसूरि पिप्पलक १६वीं० अ० हीराचन्द्रसूरि बनारस ४० सिद्धहेमशब्दानुशासन टीका श्रीवल्लभोपाध्याय P/. ज्ञानविमल १७वीं० अ० धर्म आगरा ४१ सिद्धान्तचन्द्रिका टीका ज्ञानतिलक P/. विजयवर्द्धन १८वीं० अ० महिमा-अबीर बो० ख० जयपुर ४२ , पूर्वार्द्ध रामविजयोपाध्याय P/. दयासिंह १८वीं० अ० दान बी०, बाल चि० २५८ वि० ७३७ ४३ ,
सदानन्द P/. भक्तिविनय १७६६ मु० ख० जयपुर, बाल २६०-२६१ ४४ सिद्धान्तरत्नावली P/. जिनहेमसूरि जिनसागरसूरिशाखा १८६७ जयपुर अ० ४५ , टीका नन्दलाल
१८वीं अ० दान बीकानेर
३२
"
अ०
mmm
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
________________
। ३५ ) ४६ हैमलिङ्गानुशासन अवचूर्णि समयसुन्दरोपाध्याय १७वी० अ० आचार्य भं० बीकानेर ४७ हैमलिङ्गानुशासन दुर्गपदप्रबोधटीका श्रीवल्लभोपाध्याय P/ ज्ञानविमल १६६१ जोधपुर मु० ख० जयपुर ४८ सिद्धान्तरनिका ब्याकरण जिनचन्द्रसूरि
___ मु० विनय १२
कोष
१ अनेकार्थसंग्रह (हेमचन्द्रीय) टीका जिनप्रभसूरि P/. जिनसिंहसूरि १४वीं० अ० पाटण भंडार २ अभिधानचिन्तामणि नाममाला चारित्रसिंह P). मतिभद्र १७वीं० अ० मोहन भं० सूरत
(हेमचन्द्रीय) टोका 'दीपिका' ३ , ,, सारोद्धार श्रीवल्लभोपाध्याय P/ ज्ञानविमल १६६७ जोधपुर अ० राप्राविप्र जोधपुर ४ , , सारोद्धारस्य सं० (श्रीवल्लभीयः) रत्नविशाल P/. गुणरत्न १७वीं० राप्राविप्र० जोधपुर ४३०५ ५ , भाषाटीका रामविजयोपाध्याय P/. दयासिंह १८२२ कालाऊना अ० डूंगर जे० बाल चित्तौड़ ११७,३५० ६ ? अमरकोष टीका धर्मवर्द्धन P/. विजयहर्ष १८वीं. अ० हरिलोहावट ७ पञ्चवर्गपरिहारनाममाला (अपवर्गनाममाला) जिनभद्रसूरि P/. जिनप्रियोपाध्याय १३वी० अ० प्रेसकोंपी वि०कोटा ८ विशेषनाममाला साधुकीलुपाध्याय P/. अमरमाणिक्य १७वीं० अ० चारित्र राप्राविप्र बीकानेर ६ शब्दप्रभेद टीका ज्ञानविमलोपाध्याय P/. भानुमेरु १६५४ बोकानेर अ० बड़ाभंडार बीकानेर ख० जयपुर १० शब्दरत्नाकर (शब्दप्रभेदनाममाला) साधुसुन्दर P/. साधुकीर्ति १७वीं० मु० ११ शिलोञ्छनाममाला जिनदेवसूरि P/. जिनप्रभसूरि १४वीं० मु० १२ , टीका श्रीवल्लभापाध्याय P/. ज्ञान विमल १६४५ नागोर अ० चारि० जेठी बाईबी० प्रेकॉ० वि० १३ शेषसंग्रह (हेमचन्द्रीय) टोका
, १६५४ बी० अ० विनयकोटा ७७७ १४ , जिनप्रभसूरि P/. जिनसिंहसूरि १४वीं० अ० खजांची बीकानेर १५ सिद्धशब्दार्णव नामकोष सहजकीर्ति P/. हेमनन्दन १७वीं० मु० डेक्कन कॉलेज पूना हरि० लो० १६ हैमनिघण्टुकोष टीका श्रीवल्लभोपाध्याय P/ ज्ञानविमल १७वीं० मु..
छन्दःशास्त्र
१ छन्दोनुशासन २ छन्दोरहस्य ३ छन्दोऽवतंस ४ छन्दस्तत्त्वसूत्रम् ५ छन्द शास्त्र ६ पिङ्गलशिरोमणि ७ मालापिंगल
जिनेश्वरसूरि प्रथम
११वीं जेस० ज्ञानभं प्रेसकॉपी विनय कोटा धनसागर P/. गुगवल्लभोपाध्याय १६वीं अ० राप्राविप्र जोधपुर २१४३२ लाभवर्द्धन P/. शान्तिहर्ष १८वीं अ० राप्रा०चि० आशा बोका० बाल ४१५ धर्मनन्दन वाचक
१६वीं अ० राप्राविप्र जोधपुर १७३०२ बुद्धिसागरसूरि
११वीं उल्लेख-देवभद्रीय महावीरचरित्रप्रशस्ति कुशललाभ
१५७५ जेस. मु० विनय कोटा ५०५ ज्ञानसार १८७६ बीका० मु० अभय बीकानेर
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ३६ ) ८ वृतप्रबोध जितप्रबोधसूरि P/. जितेश्वरपूरे द्वितोय १४वीं उल्लेख-खजांची यु० गुर्वावलो पृ० ५७ ६ वृत्तरताकर टिप्पण क्षेमहंस
१६वीं अ० राप्रा विप्रजोधपुर हेमचन्द्रसूरि पु० बी० १० , टीका समयसुन्दरोपाध्याय १६६४ जालोर अ० विनय कोटा ७३२, ७३३ अभय बीका० ११ , बालावबोध मेरुसुन्दरोपाध्याय P/. रत्नमूर्ति १६वीं अ० राप्रा. जोध० गधेया सं० सरदारशहर
लक्षण-ग्रंथ
१ अनूपशृङ्गार उदयचन्द्र
१७२८ अ० स्टेट लायब्ररी २ अलङ्कारमण्डन मन्त्रि-मण्डन S/. बाहड १५वीं मंडपदुर्ग मु. ३ कविमुखमण्डन ज्ञानमेह (नारायण) P/. महिमसुन्दर १६७२ फतह० अ० दिगंबर भंडार जयपुर ४ काव्यप्रकाश टीका (मम्मटीय) गुणरत्न P/. विनयसमुद्र १६१० अ० दान बीकानेर ५ , , नवमोल्लासस्य क्षमामाणिक्य १८८४ राजपुर अ० बड़ा भंडार बीकानेर ६ चतुर प्रिया कीर्तिवर्द्धन (केशव) P/. दयारत्नआद्यपक्षीय १७०४ अ० राज० शोधसंस्थान चौपासनी ७ पाण्डित्यदर्पण उदयचन्द्र
१७३४ अ० हरि लोहावट ८ भावशतक समयसुन्दरोपाध्याय
१६४१ अ० प्रेसकॉपी अभय बीकानेर ६ रसमञ्जरी महिमसिंह (मानकवि) P/. शिवनिधान १७वीं अ० अभय बीकानेर १० रसिकप्रिया टीका (संस्कृत) समयमाणिक्य (समरथ) १७५५ जालिपुर० अ० दान, चारित्र बीकानेर ११ रसिकप्रिया भाषा टोका कुशलधीर P/. कल्याणलाभ १७२४ जो० अ० अभय बीकानेर १२ वाग्भटालङ्कार टीका उदयसागर P/. सहजरत्न पिप्पलक १७वीं अ० सरस्वती भंडार उदयपुर
क्षेमहंस
१६वीं उल्लेख-स्वकृत वृत्तरत्नाकर विनय ५२४ टीका १४ , जिनवर्द्धनसूरि P/. जिनराजसूरि १५वीं अ० विनय कोटा ६६५, ७२६ राप्राविप्र जो० १५ , , ज्ञानप्रमोद १६८१ अ० बड़ाभंडार बी० अ० बीका० रा. जोधपुर १६ , , राजहंस P/. जिनतिलकसूरि लघुखरतर १४८६ तेजपुर अ० भंडारकर पूना १७ वाग्भटालंकार टीका समयसुन्दरोपाध्याय १६६२ अ० बीका० १८ , , साधुकोत्ति P/. अमरमाणिक्य १७वीं अ०। १६ , बालावबोध मेरुसुन्दरोपाध्याय १५३५ अ० स्टेट लायब्ररी जोधपुर २० विदग्धमुखमण्डन अवचूरि जिनप्रभसूरि P/. (जिनसिंहसूरि) १४वीं अ० विनय कोटा ५४४, ५५५ २१ , टीका विनयसागर P/. सुमतिकलश पिप्पलक १६६६ तेज० अ०वृद्धि जेस०ज० राप्राविप्र बी०वि० को० २२ ,, 'सुबोधिका' शिवचन्द्र P/. लब्धिवर्द्धन पिप्पलक १६६६ अल० अ० डूं० जे० चा० ख० रा०बी० तथा जो० २३ ,,, 'दर्पण' श्रीवल्लभोपाध्याय P/. ज्ञानविमल १७वीं अ० अभय बीकानेर २४ , बालावबोध मेरुसुन्दरोपाध्याय P/. रत्नमूर्ति १६वीं अ० कोटडी भंडार जोधपुर
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
क
। ३७
संगीत १ सङ्गीतमण्डन मन्त्रि-मण्डन S/. बाहड १५वीं मंडपदुर्ग अ० पाटण भंडार
वास्तुशास्त्र १ वास्तुसार प्रकरण ठक्कुर फेरु S/. चन्द्र १३७२ कन्नाणा मु०
मुद्रा-रत्न-धातु १ द्रव्यपरीक्षा (मुद्राशास्त्र) ठक्कुरफेरु S/. चन्द्र १३७५ २ धातूत्पत्तिः " , १४वीं , । भूगर्भप्रकाश " "
१४वीं अ० ४ रत्नपरीक्षा
१३७२ मु० ५ रत्नपरीक्षा हिन्दी तत्त्वकुमार P/. दर्शनलाभ १८४५ राजगंज मु० अभय बीकानेर कांतिसागरजी
मन्त्र १ महाविद्या पूर्णकलश P/. जिनेश्वरसूरि १४वीं । ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन व्यावर २ बृहत्सूरिमन्त्रकल्प विवरण जिनप्रभसूरि P/. जिनसिंहसूरि १४वीं ३ बृहत्ह्रींकारकल्प विवरण , , ४ वर्धमानविद्यापट्ट भक्तिलाभ P/. रत्नचन्द्र ५ ., कल्प संघतिलकसूरि, रुद्रपल्लीय ६ सूरिमन्त्रकल्प जिनभद्रसूरि
अ. धरणेन्द्र जयपुर ७ सूरिमन्त्रचूलिका जिनप्रभसूरि P/. जिनसिंहसूरि १४वों
आयुर्वेद १ कविप्रमोद मान P/. सुमतिमेरु १७४६ राप्रा. जोधपुर चा० राप्राविप्र बोकानेर २ कविविनोद
१७४५ लाहोर ३ गुणरत्नप्रकाशिका गुणविलास P/. सिद्धिवर्द्धन १७७२ आचार्यशाखा भंडार बीकानेर ४ तिब्बसहावी भाषा-वैद्यहुलास मलूकचन्द १८वीं अभय बीकानेर ५ पथ्यापथ्यनिर्णय दीपचन्द्र P/. दयातिलक १७६२ जय० राप्राविप्र जोधपूर अभय बीकानेर ६ पथ्यापथ्य स्तवक चैनरूप
१८३५ दान बीकानेर ७ बालतन्त्र-बालावबोध दीपचन्द्र P/. दयातिलक १७९२ जयपुर अभय बीकानेर ८ भोजनविधि रघुपति P/. विद्यानिधान १८वीं अभय बीकानेर ९ माधवनिधान-ज्वराधिकार टीका कर्मचन्द्र PI. चौथजी १८वीं हीराचन्दसूरि बनारस
१६वीं १५वीं
अ०
१५वीं
मान PI.
.
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६वों
१० माधवनिधान-स्तबक ज्ञानमेरु P/. महिमसुन्दर १७वीं दान बीकानेर ११ मूत्रलक्षण
हंसराज पिप्पलक १८वीं ख० जयपुर १२ योगचिन्तामणि बालावबोध रत्नजय P/. रत्नराज १८वीं महिमा बीकानेर भांडारकर पूना १३ रामविनोद वैद्यक
रामचन्द्र P/. पद्मरंग १७२० मु०सक्कीनगर हरि लोहावट १४ वातशितम्
चारुचन्द्रसूरि रुद्रपल्लीय १५वीं उल्लेख-पुरातत्त्ववर्ष २ पृ० ४१८ १५ वैद्यक ग्रन्थ दीपचन्द्र P/. दयातिलक १८वों आचार्यशाखा भंडार बीकानेर १६ वैद्यजीवन स्तबक चैनसुख PI. लाभनिधान
फतहपुर भंडार सुमतिधीर
१६वीं चूरू भंडार १८४१ लिखित १८ वैद्यदीपक ऋद्धिसार (रामलाल) P/. कुशलनिधान २०वीं मुद्रित १६ शतश्लोको स्तवक चैनसुख P/. लाभनिधान १८२० फतहपुर भंडार २० , , रामविजयोपाध्याय P/. दयासिंह १८३१ पाली बाल राप्राविप्र चित्तोड़ ३६ २१ सन्निपातकलिका स्तबक ,
१८३१ पाली २२ ,
हेमनिघान १७३३ चारित्र राप्राविप्र बीकानेर २३ सारंगधर चापाई-वैद्य विनोद रामचन्द्र P/. पद्मरंग १७२६ मरोट अ० २४ समुद्रप्रकाश जिनसमुद्रसूरि P/. जिनचन्द्रसूरि बेगड १८वीं जेसलमेर भंडार
ज्योतिष-गणित १ अङ्कप्रस्तार
लाभवर्द्धन P/.शान्तिहर्ष १७६१ गूढा मु० २ अवयदी शकुनावली रायचन्द्र P/.
१८१७ नागपुर अभय बीकानेर ३ अनलसागर मुनिचन्द्र लघुखरतर
राप्राविप्र जो० २५८०७ ४ उदयविलास
जिनोदयसूरि P/. जिनसुन्दरसूरि बेगड़ १८वी० डूंगर जेसलमेर ५ करणराजगणित
मुनिसुन्दर P/. जिनसुन्दरसूरि रुद्रपल्लोय १६५५ स्थाणवीश्वरपुर स्टेट लायने री बी० ६ कालज्ञानभाषा लक्ष्मोवल्लभोपाध्याय P/. लक्ष्मीकोत्ति १७४१ अभय बी० वि० १६२ बाल २८७ ७ खेटसिद्धि
महिम दय P/. मतिहंस . १८वीं० राप्राविप्र जोधपुर ८ गणित साठिसौ
१७३३ अभय बीकानेर ६ गणितसार ठ० फेरू S/ चन्द्र
१४वीं मुद्रित १. ग्रहलाघवसारिणी टिप्पण राजसोम P/.
१८वीं० धरणेन्द्र जयपुर ११ ग्रहायुः
पुण्यतिलक P/. हर्षनिधान १८वीं. अभय बीकानेर १२ चमत्कारचिन्तामणि टीका अभयकुशल P/. पुण्यहर्ष १८वीं० चारित्र राप्राविप्र बीकानेर १३ , स्तबक मतिसार P/.
१८वीं फरीदकोट दान बीकानेर १४ जन्मपत्रीपद्धति
महिमादय P/. मतिहंस १८वीं० अभय बीकानेर
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५ जन्मपत्री पद्धति रत्नजय P/. रत्नराज १८वीं० मानमल कोठारी बीकानेर
लब्धिचन्द्र P/. कल्याणनिधान १७५१ महिमा बीकानेर १७ जन्मपत्री विचार श्रीसारोपाध्यय P/.
१७वीं० आचार्यशाखा भं० बीकानेर १८ जन्मप्रकाशिका ज्योतिष की त्तिवर्द्धन (केशव) P/. दयारत्न आद्यपक्षीय १७वीं० मेडता वृद्धि जेसलमेर १६ जोइसहीर (ज्योतिसार ) हीरकलश P/. हर्षप्रभ १६२१ पं० भगवानदास जयपुर, नाहर क० २० ज्योतिषचतुर्विशिका अवचूरि साधुराज P/.
१६वीं. अभय बीकानेर २१ ज्योतिषरत्नाकर महिमोदय P/ मतिहंस
१७२२ अ० २२ ज्योतिषसार ठ० फेस S/. चन्द्र
१३७२ मुद्रित २३ दीक्षाप्रतिष्ठाशुद्धि समयसुन्दरोपाध्याय
१६८५ लूणकरणसर २४ नरपतिजयचर्या टीका पुण्यतिलक P. हर्षनिधान १८वीं० हरिलोहावट २५ पञ्चाङ्गानयनविधि महिमोदय P/. मतिहंस १७२३ महरचन्द भं० बीकानेर २६ प्रेमज्योतिष
१८वीं० राप्राविप्र जोधपुर २७ भुवनदीपक बालावबोध । रत्नधीर P/ ज्ञानसागर १८०६ पं० भगवानदास जयपुर २८ , , लक्ष्मी विनय P/ अभयमाणिक्य १७६७ अ० २६ मुहूर्तमणिमाला रामविजयोपाध्याय P/ दयासिह १८०१ बालोतरा भंडार ३० भौधरी नहसारणी भूधरदास P. रंगवल्लभ जिनसागरसूरि शाखा १८२७ अभय बीकानेर ३१ लघुजातक टीका भक्तिलाभ P/. रत्नचन्द्र १५७१ बीकानेर महिमा बीकानेर ३२ विवाहपटल अर्थ विद्याहेम
१८३० वर्द्धमान भं० बोकानेर ३३ , बालावबोध अमर P/. सोमसुन्दर
१८वीं अभय बीकानेर ३४ , भाषा अभयकुशल P/. पुण्यहर्ष
अभय बीकानेर हरिलोहावट ३५ , ,,
रामविजयोपाध्याय P/. दयासिंह १७वी. अभय बीकानेर ३६ जातकपद्धति व्याख्या जिनेश्वरसूरि P.
बड़ोदा इन्स्टीट्यूट २८०५ ३७ शकुन रत्नावली-वर्द्धमानसूरि P/. अभयदेवसूरि
उ०-जे. सा. वृ० इ० भाग ५ पृ० १६८ ३७A शकुनविचार दोहा P/. लक्ष्मीचन्द्र
इंगर जेसलमेर ३८ षटपञ्चाशिका वृति बालावबोध महिमोदय P/. मतिहस १८वीं चारित्र राप्राविप्र बीकानेर ३६ सामुद्रिक भाषा रामचन्द्र P/.
१७२२ अ. ४० स्वरोदय चिदानंद (कपूर चन्द्र) P7. चुन्नीजी १६०७ मु० सेठिया बीकानेर ४१ स्वरोदय भाषा लाभवर्द्धन (लालचन्द, शान्तिहर्ष १७५३ - महिमा-रामलाल जी बीकानेर ४२ होरकलश (जोइसहीर) हीरकलश P/. हर्षप्रभ १६५७ मु. भावहर्ष भंडार ४३ होरावबोध लब्धोदय P/. ज्ञानराज
अभय बीकानेर ४४ सईकी जयचन्द P/. विनयरंग
१७७१
मद्रित कांतिसागरजी
१८वी०
१२वीं
१८वीं
१८वीं
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
GK0
कक-फागु-वेलि-विवाहलो-संधि-चौपई-रासादि १ अंग फुरकण चौपई हेमाणंद P/. हरिकलश १६३६ अभय बीकानेर २ अंचलमत स्वरूपवर्णन चौपई गुणविनयोपाध्याय P/. जयसोम १६७४ मालपुरा थाहरू जेसलमेर ३ अंजनासुन्दरी चौपई कमलहर्ष P/. मानविजय १७३३ आचार्यशाखा भंडार बीकानेर
, , जिनोदयसूरि P/. जिनसुंदरसूरि बेगड १७७३ ईंगर, जेसलमेर ५ ,, प्रबन्ध गुणविनयोपाध्याय P/, जयसोम १६६२ खंभात अभय बोका० चा०राप्रावि बी०स्व०लि. ६ , रास पुण्यभुवन (जि नरंगीय) १६८४ (?) उदयपुर राणा जगतसिंह राजकोट
भुवनकीत्ति P/. ज्ञानमन्दिर १७०६ उद० अभय बीकानेर ८ अंतरंग फाग रंगकुशल P/. कनकसोम १७वीं केशरिया जोधपुर ६ अगड़दत्त चौपई पुण्यनिधान P/. विमलोदय भावहर्षीय १७०३ वैरागर पाटण वाड़ी० १० , प्रबन्ध श्रीसुन्दर Pा. हर्षविमल
१६६६ भाणवड़ अभय बी० झंडियाला गह भंडार ११ , रास कुशललाभ
१६२५. वीरमपुर १२ , , गुणविनयोपाध्याय P/. जयसोम १७वीं अभय बीकानेर १३ , , ललितकीत्ति
१६७६ भुजनगर उ० जे० गु० क० १४ अघटकुमार चौपई मतिकोत्ति P/. गुणविनयोपाध्याय १६७४ आगरा , १५ अघटित राजर्षि चौपई भुवनकीर्ति P/. ज्ञानमन्दिर १६६७ लवेरा ख० जयपुर १६ अजापुत्र चौपई पद्मरत्न P/. विजयसिंह आद्यपक्षीय १६६५ मेडता झूझणू १७ , , भावप्रमोद P/. भावविनय १७२६ बीकानेर सेठिया बीकानेर १८ ,
रूपभद्र P/. उदयहर्ष १७६८ देवीकोट केशरिया जोधपुर १६ अजितसेन कनकावती रास जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष १७५१ पाटण क्षमा बीकानेर सेठिया बीकानेर २० अध्यात्म रास रंगविलास P/. (जिनचन्द्रसूरि जिनसागरसूरिशाखा) १७७७ मु० २१ अनाथी सन्धि विमलविनय P/. नयरंग १६४७ कसूरपुर अभय बीकानेर ख० जयपुर २२ अभयंकर श्रीमतो चौपई लक्ष्मीवल्लभ P/. लक्ष्मोकीति १७२५ बद्रीदास कलकत्ता जिन विजयजी २३ अभयकुमार चौपई पद्मराज P/. पुण्यसागरोपाध्याय १६५० जे० ख० जयपुर अभय बीकानेर २४ , रास जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष १७५८
पाटण २५ , , लक्ष्मीविनय P/. अभयमाणिक्य १७६० मरोट २६ अभयकुमार जयसाधु रास कीर्तिसुन्दर P/. धर्मवर्द्धन १७५९ जयतारण. अभय बीकानेर २७ अमरकुमार रास लक्ष्मीवल्लभ P/. लक्ष्मीकीति १८वीं क्षमा बीकानेर २८ अमरतेज धर्मबुद्धि रास रत्नविमल P/. कनकसागर १९वीं राप्राविप्र जोधपुर २६ अमरदत्त मित्रानन्द रास जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष १७४६ पाटण
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
३० अमरदत्त मित्रानन्द रास यशोलाभ
३१
11 17
३२ अमरसेन जयसेन रास
लक्ष्मीप्रभ P / . कनकसोम
जिनहर्ष P / शान्तिहर्ष
३३ अमरसेन जयसेन चौपई धर्मसमुद्र P / विवेकसिंह पिप्पलक ३४ अमरसेन वयरसेन चौपई जयरंग (जैतसी) F / पुण्यकलश
३५
दयासार P / धर्मकीत्ति
३६
३७
३८
३६
29
13
21
"2
"
"P
"1
ܕܕ
31
धर्मवर्द्धन P / . विजयहर्ष
पुण्यकीर्त्ति P / हंसप्रमोद राजशील P / साधुहर्ष
जिनहर्ष P / शान्तिहर्ष रंगकुशल P / कनकसोम
४०
,
४१ अयवंती सुकुमाल चौढालिया कीर्तिमुन्दर P / धर्मवर्द्धन १७५७ मेड़ता
रास
जिनहर्ष P / शान्तिहर्ष
४२ ४३ अरदास चौपई
१७४१ राजनगर अभय बीका० क्षमा बीकानेर बाल ४५८ १६वीं सेठिया बीकानेर, पार्श्वनाथ जैनपुस्तकालय सूरतगढ १७३२ दंतवासपुर क्षमा बीकानेर सुमतिहंस P / . जिनहर्षसूरि आद्यपक्षीय १७१२ बुरहानपुर दि० भट्टारक भंडार नागोर नयप्रमोद P / . हीरोदय
खुश्यालचंद P / जयराम राजहर्ष P/. ललितकीर्ति
४४ अरहन्तक चौपई
४५
४६
१७१३
४७
आनन्दवर्द्धन P / महिमसागर
१७०२
૪૬
विमलविनय P / नयरंग
१७वीं
४६
समयप्रमोद P / ज्ञानविलास
१६५७
५० अर्जुनमाली चौपई
१७३८
विद्याविलास P / कमल हर्ष नयरंग P / -
५१
१६२१ वीरमपुर बद्रीदास कलकत्ता
संधि ५२ अर्हद्दास चौपई
हीरकलश P /
१६२४
विनय ५८२
५३ अर्हद्दास संबंन्ध महिम सिंह ( मानकवि ) P / शिवनिधान १६७५ झूठापुर बद्रीदास कलकत्ता ५४ अशनादिविचार चौपई राजसोम P / जयकीर्त्ति जिनसागरसूरिशाखा १७२६ आचार्यशाखा भंडार बीकानेर
५५ अष्टमद चौपई यु० जिनचन्द्रसूरि P / जिन माणिक्यसूरि १७वीं
до
५६ आनंद संधि
श्रीसारोपाध्याय P / रत्नहर्ष
१६८४ मु० पुष्करणी अभय बीकानेर विनय कोटा
५७ आतमकरणी संवाद (रसरचना चतुष्पदिका) जिनसमुद्रसूरि P / जिनचन्द्रसूरि बेगड १७११ मुलतान डूंगर जेसलमेर ५८ आत्ममतप्रकाश चौपई धर्ममन्दिर P / - दयाकुल १८वीं
५९ आराधना चौपई
हीरकलश P / हर्षभ १६२३ नागोर
६० आरामनन्दन पद्मावती चौपई दयासार P/ धर्मकीत्ति १७०४ मुलतान कांतिसागरजी
"
33
39
11
33
33
"
27
+7
33
12
प्रबन्ध
रास
12
"
P ४१ ।
"
रास
संधि
१८वीं
१६७६
१७५६ पाटण मुद्रित
१६वीं
१७१७ जेसल० अभय बीकानेर
१७०६ शीतपुर क्षमा बीकानेर
अभय बीकानेर
अभय बीकानेर हरि लोहावट
१७२४ सरस
22
१६६६ सांगानेर फूलचंदजी भाबक फलौदी
१५६४
१७४४ पाटण
१६४४ सांगानेर अभय बीकानेर
अभय बीकानेर
अभय - मुकनजी-बीकानेर चारित्र राप्रा० बी० धरणेन्द्रसूरि जयपुर हरिलोहावट
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८वीं
६१ आरामशोभा चौपई जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष १७६१ पाटण ६२ , , दयासार P/. धर्मकीत्ति
१७०४ मुलतान राप्राविप्र जोधपुर राजसिंह P/. विमलविनय
१६८७ बाडमेर समयप्रमोद P/. ज्ञानविलास १६५१ बीकानेर अभय बीकानेर ६५ आर्द्र कुमार धमाल कनकसोम
१६४४ अमरसर अभय बीकानेर ६६ आषाढ़भूति धमाल कनकसोम
१६३२ खंभात अभय बीकानेर विनय ४११ ६७ ,, प्रबंध साधुकीति P/. अमरमाणिक्य १६२४ दिल्ली क्षमा बीकानेर ६८ इक्षुकार सिद्ध ? चौपई अमर P/. सोमसुन्दर
सेठिया बीकानेर ६६ इक्षुकारी चौपई क्षेमराज P/. सोमध्वज
१६वीं अभय-क्षमा बीकानेर विनय ६४ ७० इलापुत्र , दयासार P/. धर्मकीर्ति
१७१० सुहावानगर ,, , , ७१ ,, रास गुणनन्दन P/. ज्ञानप्रमोद १६७५ विहारपुर अभय बीकानेर धरणेन्द्र जयपुर ७२ . ., दयाविमल P/. कनकसागर
१८१९ राजनगर ७३ इलायची कुमार चौपई जिनसमुद्रसूरि P/. जिनचन्द्रसुरि बेगड १७५१ जीवातरोग्राम डूंगर जेसलमेर ७४ उदर रासो राजसोम
१८वों महिमा बीकानेर ७५ उत्तमकुमार चौपई जिनचन्द्रसूरि P/. जिनेश्वरसूरि बेगड १७०८ जेसलमेर डूंगर जेसलमेर . , जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष
१७४५ पाटण मुद्रित , ,, जिनसमुद्रसूरि P/. जिनचन्द्रसूरि बेगड १७३२ जेसलमेर भंडार
, महिम सिंह (मानक वि) P/. शिवनिधान १६७२ महिम भट्टारक भंडार नागोर महीचन्द्र P1. कमलचन्द्र लघुखरतर
१५६१ जवणपुर दान-जयचंद भंडार बोकानेर तत्त्वहंस
१७३१ मडाहडा नगर विनयचन्द भंडार जयपुर विनय ६८४ ८१ , , विनयचन्द्र F/. ज्ञान तिलक (जिनसागरसूरिशाखा) १७५२ पाटण मुद्रित्र ८२ उद्यम-कर्म संवाद कुशलधीर P/. कल्याणलाभ . १६६६ किसन गढ़ अभय बीकानेर ८३ , , वादी हर्षनन्दन P/. समयसुन्दर १७वीं तेरापंथी सभा सरदारशहर ८४ उपमितिभवप्रपंच कथारास जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष १७४५ पाटण ८५ ऋषभदत्त चौपई रत्नवर्द्धन P/. रत्नजय
१७३३ शंखावती ८६ ऋषभदत्त रूपवती चौपई अभयकुशल P]. पुण्यहर्ष १७३७ महाजन खजांची बीकानेर ८७ ऋषिदत्ता चौपई क्षमासमुद्र P/. जिनसुन्दरसूरि बेगड १८वीं जेसलमेर भंडार
गुणविनयोपाध्याय P/. जयसोम १६६३ खंभात अभय बीकानेर स्वयं लिखित जिनसमुद्रसूरि P/. जिनचन्द्रसूरि बेगड १६९८ जेसलमेर भंडार, अभय बीकानेर
ज्ञानचन्द्र P/. सुमतिसागर १७वीं मुलतान जैन भवन कलकत्ता, अभय बीकानेर प्रीतिसागर P/. प्रीतिलाभ जिनरंगीय १७५२ राजनगर नाहर कलकत्ता
|
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ४३]
९२ ऋषिदत्ता चौपई जिनसमुद्रसूरि P / जिनचन्द्रसूरि बेगड रंगसागर P / . भावहर्षसूरि भावहर्षी जिनहर्ष P / शान्तिहर्ष
६३
६४
रास
""
६५ एकादशी प्रबन्ध
९६ ओसवाल (गोत्र) रास
६७ कनकरथ चौपई
१८ कयवन्ना चौडालिया जिनोदयसूरि P / जिनतिलकसूरि भावहर्षीय ज्ञानसागर P / क्षमालाभ १७६४ विनयमेरु P / हेमधर्म
६६
चौपई
समय प्रमोद P / ज्ञानविशाल
"
कयवन्ना
"
""
१००
१०१
१०२
१०३
१०४
१०५
,,
१०६ करसंवाद
१०७ करमचन्द वंशावली रास
१०८ कलावती चौपई
१०६
११०
१११
११२
११३ कामलक्ष्मीकथा चौपई प्रबन्ध ११४ कालासवेल चोपई ११५ कीर्तिधर सुकोशल चौढालिया
33
37
"
""
13
و"
चौपाई
ܙ ܝ
रास जयरंग (जैतसो ) P/- पुण्यकलश १७२१ बीकानेर अभय-सेठिया बीकानेर हरिलो०, विनय ६३, बाल २५३
१६८६ बुरहानपुर राप्राविप्र जोधपुर १७वीं ख० जयपुर, जैनभवन कलकत्ता १६५४ महिम
१७४७
"1
31
संधि
"
"
11
21
रास
११६ ११७ कुबेरदत्ता चौपई
११८ कुमतिकदली कृपाणिका चौपई
११६ कुमति - विध्वंसन चौपई
در
१७११
अमर P / सोमसुन्दर रामविजयोपाध्याय P / दयासिंह १६वीं. मु०
कनकनिधान P / चारुदत्त
१८वीं
१२० कुमारपाल रास १२१ कुमारमुनि रास १२२ कुलजकुमार चौरई
१६६८ जेसलमेर भंडार, अभय बीकानेर १६२६ जोधपुर अभय बीकानेर हरिलोहावट
१७४९ पाटण
वर्द्धमान भंडार बीकानेर
अभय बीकानेर
कमलसंयमोपाध्याय
हीरकलश P / हर्षप्रभ
जिनहर्ष P / शान्तिहर्ष १७४२ पुण्कोति P / हंसप्रमोद १७ वीं आनन्दनिधान P / मतिवर्द्धन आद्यपक्षीय
कांतिसागरजी
१६६२ हुंबड़ मं० भंडार मण्डन उदयपुर सेठिया बीकानेर
१६५५
निराजसूरि P / . जिन सिंहसूरि लाभोदय P / भुवनकीति गुणक्तियोपाध्याय P / जयसोम अभय P / सोमसुन्दर गुणविनयोपाध्याय 1 / जयसोम गुणविनयोपाध्याय P / जयसोम रंगविनय P / . जिनरंगसूरि जिनरंगीय विद्यासागर P / सुमितकल्लोल सहजकीर्त्ति P / हेमनन्दन जिनहर्ष P / शान्तिहर्ष जयनिधान P / राजचन्द्र अमर विजय P / उदयतिलक
१६७३ १७०६ खंभात अभय बीकानेर १६७३ नागोर
१६६७ चारित्र राप्राविप्र बीकानेर १७५६ पाटण बाल राप्राविप्र चित्तोड़ १६७९ (१४९) जेसलमेर भंडार
१७६७ राजपुर जयचन्द्र भं० बीकानेर आनन्दनिधान P / मतिवर्द्धन आद्यपक्षीय १७३६ बगड़ी केशरिया जोधपुर प्रबन्ध महिमसिंह (मानकवि ) P / शिवनिधान १६७० पुष्कर नयरंग
१६२१ थाहरू जेसलमेर १६ वीं हंस बड़ोदा
१६८६ बुरहानपुर राप्राविप्र जोधपुर १६६३ सेवावा अभय बीकानेर
अभय बीकानेर
तो सामनगर मुद्रित
सांगानेर पादरा ज्ञानभंडार
१६१७ कर्णपुरी, नाहर कलकत्ता पाटण मुद्रित, विनय ४३७, बाल चितोड़ २२२
१७३४ सोजत कांतिसागरजी
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२३ कुलध्वजकुमार चौपई
१२४
१२५
१२६
१२७
33
१२८ कुलध्वज रास - रसलहरी
१२६ कुसुमश्री महासती चौपई
33
77
"
१३० कुर्मापुत्र चौपई
१३१ कृतकर्म रास
"
در
"
१३२ केशी गौतम चौढालिया १३३ केशी चौपाई
१३४ केशी प्रदेशी संधि
प्रबंध
12
१३५ " १३६ क्षुल्लककुमार चौपई
१३७
१३८
१३६
"
33
13
"
"
12
33
रास
33
१४०
१४१
" "
१४२ खन्धकमुनि चौडालिया १४३ खापरा चोर चौपई १४४ गजभंजन कुमार चौपई १४५ गजसिंह चरित्र चौपई
१४६ नरिंद
"
प्रबंध मुनि प्रबंध
रास
"
33
[४४ ]
कमलहर्ष P / मानविजय विद्याविलास P / कमल हर्ष उदयसमुद्र P / कमलहर्ष निप्पलक धर्मसमुद्र P / विवेकसिंह पिप्पलक राजसारP/ धर्मसोम
उदयसमुद्र P / कमलहर्ष
""
१४७ गजसुकुमाल चौपई
१४८
१४६
१५०
१५१
रास
13
१५२ गुणकरंड गुगावली चौरई ज्ञानमेह (नारायण) P / महिमसुंदर १६१६
१५३
रास
जिनहर्ष P / शान्तिहर्ष
१७५१ पाटण
77
१७२८ अहमदाबाद डूंगर जेसलमेर १७०७ अभय बीकानेर
१६७२ देरावर जयचन्द मं० बीकानेर १६५२ बाबेरापुर जयकरण बीकानेर हरिलोहावट १८६७ दशपुर आचार्य शाखा भं० बीकानेर १८०६ गारबदेसर १७वीं १६६६ अहमदाबाद मुद्रित
अभय बीकानेर
समय सुन्दरोपाध्याय
सिंह (मानव) P / शिवनिधान १७वीं
अभय बीकानेर
मेघनिधान P / रत्नसुन्दर भावहर्षीय १६८८ तिमरी बालोतरा भंडार मंडियालागुरु भंडार पद्मराज P / पुण्यसागरोपाध्याय १६६७ मुलतान
अभय बीकानेर
हरि लोहावट
सिंहसूर P / यु० जिनचन्द्रसूरि १७वीं ० श्रीसुन्दर P / हर्षविमल
१७वीं
भट्टारकभंडार नागोर
समय सुन्दरोपाध्याय
उदयरत्न P / विद्या हेम
अभयसोम P / सोमसुन्दर मुनिप्रभ P / जिनचन्द्रसूरि जिन हर्ष P / शान्तिहर्ष
जिनहर्ष P / शान्तिहर्ष जयनिधान P / राजचन्द्र लब्धिकल्लोल P / . विमलरंग गुमानचंद P / खुश्यालचन्द अमरविजय P / उदयतिलक नयरंग
१८वीं आचार्य शाखाभं० बीकानेर
१७४२ लूणकरणसर सुमेरमल भीनासर १८वीं अहमदावाद
१५८४ सेठिया बीकानेर
१७०४ हाजीखानदेरा
१६६४ जालौर
१८८३ देशणोक
१७२३ सिरोही
१६४३ बीकानेर
१७०८
१८वीं
नन्दलाल
जिन हर्ष P / शान्तिहर्ष
१७१४
१७८६
पूर्णप्रभ P / शान्तिकुशल भुवनकीर्ति P / ज्ञानमन्दिर १७०३ खम्भात लावण्यकीर्ति P / ज्ञानविलास १७वीं जिनराजसूरि P / जिनसिंहसूरि १६६६ अहमदाबाद
मुद्रित
महिमाभक्ति खजांची बीकानेर विनय २८, २०५
17
खजांची बीकानेर
21
जेसलमेर अनंतनाथज्ञान भं० बम्बई आचार्य शाखा भं० बीकानेर
to जोधपुर, नाहर कलकत्ता मुद्रित से० बीकानेर हरिलो०
अभय बीकानेर विनय २६
27
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ४५ ]
१५८ ॥ १५६ ॥
१५४ गुणधर्म कुमार चौपई ज्ञान विमल P/. लब्धिरंग १७१६ झुंझनू हरि लोहावट १५५ गुणसुन्दर
जिनसुन्दरसूरि बेगड १८वीं गुणविनय P/. जयसोम १६६५
चारित्रराप्राविप्र बीकानेर १५७ गुणसुन्दरी , कुशल लाभ P/. कुशलधीर १७४८
दिगम्बर ज्ञा० भ० कोटा जिनोदयसूरि P/. जिनसुंदर० बेगड १७५३ सकतीपुर जेसलमेर भण्डार
विनयमेरु P/. हेमधर्म १६६७ फतेपुर ख० जयपुर १६० गुणस्थानकविचार चौपई साधुकीर्ति P/. अमरमाणिक्य १७वीं १६१ गुणस्थानविवरण चोपई कनकसोम
१६३१
धर्मआगरा खजांची बी० १६२ गुणावली चौपई अभयसोम P/. सोमसुन्दर १७४२ सोजत. उदयचन्द जोधपुर
जिनोदयसूरि P/. जिनसंदरसूरि बेगड १७७३ जेसलमेर भंडार लब्धोदय P/. ज्ञानराज
१७४५ उदयपुर १६५ गौडी पाश्वनाथ चोपई सुमतिरंग P/. चन्द्रकीर्ति १८वीं बड़ौदा इंस्टीच्यूट १६६ गोतमपृच्छा चौपई समयसुन्दरोपाध्याय P/ सकलचंद्र १६६५ चांद्रेड अभय बोकानेर १६७ गौतम स्वामी ,,
लक्ष्मीकीर्ति
१८वीं
ख० जयपुर १६८ . . छन्द मेरुनन्दन P/. जिनोदयसूरि १५वीं
अभय जयसागरोपाध्याय १७० , ,
विनयप्रभोपाध्याय
१४१२ खम्भात मुद्रित
लक्ष्मीवल्लभ P/. लक्ष्मीको ति १८वीं कान्ति० लावण्यकीर्ति गुटका १७२ चन्दन रास
करमचन्द P/. गुणराज १६८७ कालधरी मुद्रित १७३ चन्दनवाला रास
आसिगु
१३वीं
प्र० १७४ चन्दन मलयगिरि चौपई ।
कल्याणकलश
१६६३ मरोट केशरिया जोधपुर १७५
क्षेमहर्ष P1. विशालकीर्ति १७०४ मरोट महिमा बीकानेर जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष १७०४
अभय सेठिया बोकानेर
१७४४ पाटण १७८
भद्रसेन
१७वीं
अभय बीकानेर १७६
सुमतिहंस P/. जिनहर्ष० आद्य० १७११ खजांची बीकानेर प्र० १८०
यशोवर्द्धन P/. रत्नवल्लभ १७४७ रतलाम अ० बी० विनय ४८३,७५६ १८१ चन्द्रप्रभ जन्माभिषेक
वीरप्रभ
१४वीं ___ अभय बीकानेर १८२ चन्द्रलेहा चौपई मतिकुशल P/. मतिवल्लभ १७२८ पचियाख अ०-क्ष० बी० ख० जयपुर विनय ८०, ४८३ १८३ चन्द्रोदयकथा,,
अभयसोम P/. सोमसुन्दर १७२० नवसर अभय बीकानेर १८४ चंपक ,
रंगप्रमोद P/. ज्ञानचन्द्र १७१५ मुलतान
१६६
१५वीं
१७१
,
१७६
,
रास
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८५ चंपकमाला चौपई
जगनाथ P/. इलासिंधुर १८२२ साचोर घेवर पुस्तकालय १८६ चंपक श्रेष्ठि ,,
समयसुन्दरोपाध्याय १६६५ जालोर अ० क्षमा बी० हरिलो वि० ६६ १८७ चंपकसेन ,, जिनोदयसूरि P/. जिनतिलकसूरि भावहर्षीय १६६६ बीरमपुर से० बी० जनरत्न पु० जोधपुर १८८ चतुःशरणप्रकीर्णक संधि चारित्रसिंह P/. मतिभद्र १६३१ जेसलमेर दान बीकानेर १८९ चारकषाय संधि विद्याकीर्ति P/, पूण्यतिलक १७वीं
अभय बीकानेर १६० चार प्रत्येकबुद्ध रास
समयसुन्दरोपाध्याय १६६५ आगरा राप्राविप्र जोधपूर अ०बी० विनय २८१ १९१ चारित्र मनोरथ माला क्षेमराज P/. सोमध्वज १६वीं
अभय १९२ चित्तोड़ आदिनाथ फाग शिवसुन्दर P/. क्षेमराज ,
अभय बीकानेर १६३ चित्रलेखा चौपई दयासागर P/. जीवराज पिप्पलक १६६६ दिल्ली स्थानक० पुस्तकालय जोधपुर १६४ चित्रसंभूति रास ज्ञानचन्द्र P/. सुमतिसागर १७वीं क्षमा बीकानेर १६५ , संधि
जिनगुणप्रभसूरि-बेगड १७वीं जेसलमेर जेसलमेर भंडार
नयप्रमोद P/. हीरोदय १७१६ जेसलमेर खजाँचो बीकानेर १६७ चित्रसेन पद्मावती चौपई उदयरल P/. जिनसागरसूरि (शा.) १६६७ हरिलोहावट, स्टेट लाइवरी १६८ , , , जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष १८वीं
हरि लोहावट १६६ , , , भावसागर
१८वीं
अभय बीकानेर २०० , " "
यशोलाभ २०१ चित्रसेन पद्मावतो चौपई रामविजयोपाध्याय PI. दयासिंह १८१४ बीकानेर अभय बीकानेर २०२
, रास विनयसागर P) सुमतिकलश पिप्पलक १७ वीं २०३ चौदह स्वप्न चौपई अबीरजी
२० वीं जैनभवन कलकत्ता २०४ चौदह स्वप्न भाषा धवल विनयलाभ P/ विनयप्रमोद १८ वी चतुर्भुज बोषानेर २०५ चौपर्वी चौपई
समयप्रमोद P/ ज्ञान विलास १६७३ जूठाग्नाम दान-चतुभुज बीकानेर २०६ चौबोली चौपई
अभयसोम P/. सोमसुन्दर १७२४ विनय १६७ २०७ चौबोलो ,, कोत्तिसुन्दर P/. धर्मवर्द्धन
१७६२ थाणलेनगर भं० बीकानेर २०८ , वार्ता ,, जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष १८वीं मु० जेसलमेर भंडार २०६ जंबु स्वामी चौढालिया जगरूपP/. दुर्गादास १७६३ बद्रोदास कलकत्ता २१० ,
दुर्गादास P/. विनयाणंद १८६३ बाकरोद अभयबीकानेर २११ , चौपई उदयरत्न P/. जिनसागरसूरि जिनसागरसूरि शाखा १७२० आचार्य शाखाभं० बीकानेर
P/. जिनेश्वरसूरि बेगड़ १८वीं जेसलमेर भंडार २१३ , , भुवनकीति P/. ज्ञानमंदिर १६६१ खंभात दान बीकानेर २१४ , , रामचन्द्र P/. पद्मरंग १८वीं उल्लेख-मिश्रबन्धुविनोद २१५
सुमतिरंग P/. चन्द्रकीर्ति १७२६ मुल० चारित्र राप्राविप्र जोधपुर
२१२
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
W
२१६ जंबूस्वामी चौपई हीरकलश P/. हाप्रभ १६३२ महिमा बीकानेर २१७ , फाग विजयतिलक P/. विनयप्रभ १४३० प्र० २१८ , रास गुणविनयोपाध्याय P/ जयसोम १६७० बाडमेर अभय बीकानेर २१६ . , जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष १७६० पाटण २२० , ,
पद्मचन्द्र P/. पद्मरंग १७१४ सरसा खजांची बीकानेर २२१ , "
यशोवर्द्धन P/. रत्नवल्लभ १७५१ अभय बीकानेर २२२ , , समयसुन्दरोपाध्याय १७वीं २२३ जयंती संधि अभयसोम P/. सोमसुन्दर १७२१ विनय कोटा २८८ २२४ जयविजय चौपई धर्मरत्न ). कल्याणधीर १६४१ आगरा २२५ , .. श्रीसारोपाध्याय P/. रत्नहर्ष १६८३ अभय बीकानेर २२६ जयसेन , धर्मसमुद्र P/.
लेखन १६१० विनय ३१५ २२७ जयसेन , सुखलाभ Pा. सुमतिरंग १७४८ जेसलमेर रामचन्द्र भंडार बीकानेर २२८ , प्रबंधरास पूर्णप्रभ P. शान्तिकुशल १७६२ बाली अनन्तनाथ ज्ञान भंडार बम्बई २२६ ,, लीलावती रास सुमतिहंस P/. जिनहर्ष सूरि आद्यपक्षोय १६६१ जोधपुर अभय बोकानेर २३० (२४) जिनचतुष्पदिका मोदमन्दिर १४वीं अभय २३१ जिनगुणरस वेणीदास (विनयकीति) P/. दयाराम आद्यपक्षीय १७६ ६ पीपाड़ २३२ जिनपाल जिनरक्षित चौढालिया रंगसार P/. भावहर्षसूरि भावहर्षीय १६२१ मानमल कोठारी बीकानेर २३३ जिनपालित जिनर क्षित चौपई क्षेमराज P/. सोमध्वज १६वीं कांतिसागरजी २३४ , रास उदयरत्न P/. विद्याहेम १८६७ बीकानेर खजांची चतूर-वद्धमान भंडार बीकानेर २३५ जिनपालित जिनरक्षित रास कनकसोम १६३२ नागोर अभय बोकानेर २३६ ,, ,, ., ज्ञानचन्द्र P/. सुमतिसागर १७वीं क्षमा बोकानेर २३७ , , , पुण्यहर्ष P/. ललितकीत्ति १७०६ २३८ , , संधि कुशललाभ १६२१ महिमा बीकानेर २३६ जिनप्रतिमा वृहद रास P ). नयसमुद्र १७वीं तपा भंडार जेसलमेर १६३२ लि. प्रति २४० जिन प्रतिमा मंडन रास कमल सोम P/. धर्मसुन्दर १७वीं खजांची बीकानेर २४१ जिनप्रतिमा हंडो रास जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष १७२५ अभय बीकानेर हरिलोहावट ख० जयपुर २४२ जिनमालिका सुमतिरंग P/. चन्द्रकीत्ति १८वीं भुवन भक्ति बीकानेर २४३ जीभदांत संवाद हीरकलश P/ हर्षप्रभ १६४३ बी० अभय बीकानेर २४४ जोवदया रास आसिगु
१२५७ प्र. २४५ जोवस्वरूप चौपई गुणविनयोपाध्याय P/. जयसोम १६६४ राजनगर भंडारकर पूना अभय बोकानेर २४६ ज्ञानकला चौपई सुमतिरंग ।।. १७२२ मुलतान विनय ६६१ बाल २३१
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४७ ज्ञानदीप कुशल लाभ
१७वीं पुण्य अहमदाबाद २४८ ज्ञानपंचमी चौपई विद्धण S/. ठ० माहेल १४२३ संघ भंडार पाटण २४६ ज्ञानसुखड़ी धर्मचन्द्र P/. पद्मचन्द्र बेगड १७६७ थट्टा भुवनभक्ति-सेठिया बीकानेर २५० ढंढणकुमार चौपई रतलाभ P). क्षमारंग १६५६ जयतारण २५१ ढुंढकरास हेमविलास P/ ज्ञानको ति १८७६ कुचेरा अभय २५२ ढोला मारवण चौपई कुशललाभ १६१७ मुद्रित बाल २३४, ४६६ २५३ तपा ५१ बोल चौपई सटीक गुणविनयोपाध्याय P/. जयसोम १६७६ राडद्रह देशाई अभय चा० रा०बि० बी० २५४ तपोट चतुष्पदिका , , १७वीं हरि लोहावट २५५ तिलकसुन्दरी प्रबन्ध लब्धोदय P/. ज्ञानराज १८वीं बाल राप्राविप्र चित्तोड़ २५६ तेजसार चौपई रत्नविमल F/. कनकसागर १८३६ बावडीपुर २५७ , रास कुशललाभ १६२४ वीरम० अभय बीकानेर हरि लोहावट २५८ तेतलीपुत्र चौपई क्षेमराज P/. सोमध्वज १६वीं कांतिसागरजी २५६ त्रिविक्रम रास जिनोदयसूरि '). जिनलब्धिसूरि १४१५ २६० थावच्चा चौपई क्षमाकल्याण P/. अमृतधर्म १८४७ महिमपुर अभ्य-क्षमा-बीकानेर २६१ ,, समयसुन्दरोपाध्याय ६६१ खंभात अभय सेटिया-बीकानेर बाल २३५ २६२ , मुनि संधि श्रीदेव P/. ज्ञानचन्द्र १७४६ जेसलमेर २६३ , सुत चौपई राजहर्प P/. ललितकीत्ति १७०३१७०७) बीकानेर आचार शाखा मं० बी० सुमेर भीनासर २६४ डंभक्रिया चौपई धर्मवर्द्धन P/. विजयहर्ष १७४४ प्र० २६५ दयादीपिका ,, धर्ममन्दिर P/. दयाकुशल १७४० मुलतान अनूप २६६ दश दृष्टान्त ,, वीरविजय P/. तेजसार १७वीं केशरिया जोधपुर २६७ दशार्णभद्र इन्द्र संवाद छंद आणंद P/. कनकसोम १६६८ बीकानेर अभय बीकानेर २६८ दशार्णभद्र चौपई धर्मवर्द्धन P/. विजयहर्ष १७५७ मेड़ता मुद्रित २६६ , नवडालिया समयप्रमोद P/. ज्ञानविलास १६६० २७० , भास हेमाणंद P/. हीरकलश १६५८ अभय २७१ दानादि चौढालिया समयसुंदरोपाध्याय १६६६ रंगानेरप्र० अभय बीकानेर विनयकोटा, राप्राविप्र० जोधपुर २७२ दामनक चौपई गुणनन्दन P/ ज्ञानप्रमोद
१६९७ सरसा अभय बीकानेर २७३ दामनक ,, ज्ञानधर्म P/ राजसार १७३५ आचार्य शाखा बीकानेर २७४ , "
ज्ञानहर्ष P/. सुमतिशेखर १७१० नोखा अभय बीकानेर २७५ दुमुह प्रत्येकबुद्ध , गुणविनयोपाध्याय P/. जयसोम १७वीं रामलालजी बीकानेर २७६ दुर्गा सातसी , कुशललाभ
१७वीं स्टेट लाइब्रेरी बीकानेर २७७ दुर्जन दमन-चौपई ज्ञानहर्ष P/. सुमतिशेखर
१७०७ पूगल सुराणा-लाइब्रेरी चूरू
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८३
२८५
२८६
। ४९ ] २७८ देवकी छ पुत्र रास लावण्यकीति P/. ज्ञान विलास
१७वीं अभय बीकानेर २७९ देवकी रास
मतिवर्डन P/. सुमतिहंस आद्यप० १८वीं ख० जयपूर, चारित्र राप्राविप्र० बीकानेर २८० देवकुमार चौपई लालचंद P/. होरनन्दन १६७२ खजांची बीकानेर यति सूर्यमल २८१ देवराज बच्छराज चौपई आनन्दनिधान P/. मतिवर्द्धन आद्यपक्षीय १७४८ सोजत महिमा बीकानेर २८२ " " "
कनकविलास P/. कनककुमार १७३८ जेसलमेर
परमाणंद P/. जीवसुन्दर १६७५ मरोट आचार्यशाखा भं० बीकानेर २८४
मतिकुशल P/. मतिवल्लभ १७२६ तलवाड उदयचन्द जोधपुर सत्यरत्न
१९वीं मुकनजी बीकानेर , , , सहजकीर्ति P). हेमनन्दन १६७२ खीमसर खजांचो बीकानेर बाल चित्तोड़ २१८
,, ,, प्रबंध विनयमेरु P/. हेमधर्म १६८४ रिणी ,, , २८८ रोहा कथा चौपई विनयचन्द्र P/. ज्ञानतिलक ? १८वीं अभय बीकानेर २८६ द्रौपदी चौपई जिनचन्द्रसूरि P/. जिनेश्वरसूरि बेगड १६६८ जेसलमेर २६. , , विनयमेरु P/. हेमधर्म १६६८ यति प्रेमसुन्दर २६१ , "
समयसुन्दरोपाध्याय १७०० अहमदाबाद २६२ पंचसती ,,,, हीरकलश P/. हर्षप्रभ २६३ रास
कनककीर्ति P/. जयमंदिर १६६३ बीकानेर अभय-क्षमा-बोकानेर विनय ७६५ २६४ धनंजय रास भुवनसोम P/. धनकीत्ति १७०३ नवानगर केशरिया जोधपुर २६५ धनदत्त चौपई समयसुन्दरोपाध्याय
१६९६ अहमदाबाद अभय बीकानेर हरिलोहावट २९६ धन्ना , कमलहर्ष P/. मानविजय १७२५ सोजत २६७
जिनवर्द्धमानसूरि पिप्पलक १७१० खंभात रामलालजी बोकानेर २९८ , चरित्र, पुण्यकीत्ति P/. हंसप्रमोद १६८८ बीलपुर २६६ धन्य, ,
राजसार P/. धर्मसोम १७०९ ३०० धन्ना चौपई हितधीर P/. कुशलभक्ति १८२६ पार्श्वनाथ पुस्तकालय सूरतगढ ३०१ , रास (संधि) कल्याणतिलक P/. जिनसमुद्रसूरि १६वीं जेसलमेर अभय बीकानेर ३०२
॥
दयातिलक P/. रत्नजय १७१७ ३०३ धन्ना शालिभद्र चौपई गण विनयोपाध्याय P7. जयसोम १६७४ महिमा बीकानेर ३०४ , , , यशोरंग P/. हीररत्न १७३४ पूनमचन्द दूधेड़िया छापर ३०५ , , , राजलाभ P/. राजहर्ष १७२६ वणाड दान बीकानेर
रास जिनराजसूरि P/ जिन सिंह सूरि १६७८ अभय बीकानेर विनय ३० कोटा मद्रित ३०७ धर्मदत्त चन्द्रधवल चौपई क्षमाप्रमोद P/. रत्नसमुद्र १८२६ जेसलमेर वृद्धि जेसलमेर स्वयं लिखितप्रति ३०८ धर्मदत्त चौपई अमरविजय P/. उदयतिलक १८०३ राहसर जयचन्द भंडार बीकानेर
३०५
"
"
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०६ धर्मदत्त चौपई जिनरंगसूरि P/. जिनराजसूरि १७३७ किसनगढ़ कांतिसागरजी ३१० धर्मदत्त धनपति रास जयनिधान P/. राजचन्द्र १६५८ अहमदाबाद क्षमा बीकानेर ३११ धर्मबुद्धि चौपई कुशललाभ P/. कुशलधीर १७४८ नवलखी अभय बीकानेर ३१२ धर्मबुद्धि पापबुद्धि चौपई चन्द्रकीत्ति P/. हर्षक ल्लोल १६८२ घडसीसर केशरिया जोधपुर ३१३ , , , प्रीतिसागर P/. प्रीतिलाभ जिनरंगीय १७६३ उदयपुर प्रेमसुन्दरयति विनयचन्द ज्ञान भं० जयपुर ३१४ , ,, रास लाभवर्द्धन P/. शान्तिहर्ष १७४२ सरसा दान-अभय-बीकानेर ३१५ , मंत्री चौपई विद्याकीति P/. पुण्यतिलक १६७२ बीकानेर अभय बीकानेर ३१६ , रास म तिकीर्ति P/. गुणविनय १६६७ राजनगर ३१७ धर्ममंजरी चौपई समयराजोपाध्याय P/. जिनचन्द्रसूरि १६६२ बीकानेर खजांची जयपुर अभय बीकानेर ३१८ धर्मसेन , यशोलाभ
१७४० नापासर सेठिया बीकानेर ६१६ ध्यानदीपिका चौपई देवचन्द्रोपाध्याय P/. दीपचन्द्र १७६६ मुलतान प्र० ३२० ध्वजभंगकुमार चौपई लब्धिसागर (लालचन्द) P/. जयनन्दन जिनरंगीय १७७० चूहाग्नाम उदयचन्द जोधपुर ३२१ नंदन मणिहार संधि चारुचन्द्र P/. भक्तिलाभ १५८७ आचार्य भंडार जेसलमेर हरिलोहावट ३२२ नंदिषेण चौपई दानविनय P/. धर्मसुन्दर १६६५ नागोर अभय बीकानेर ३२१ ,, ,, रघुपति P/. विद्या विलास १८०३ केसरदेसर क्षमा बीकानेर ३२४ , फाग ज्ञानतिलक P/. पद्मराज १७वों १२५ नमि राजर्षि चौपई क्षेमराज P/. सोमध्वज १६वीं कांतिसागरजी ३२६ ,, , , साधुकीर्ति P/. अमरमाणिक्य १६३६ नागोर ३२७ , , संबंध गुण विनयोपाध्याय P/. जयसोम १६६० धनेरापुर पुण्य अहमदाबाद ३२८ नरदेव चौपई सहजको त्ति P/. हेमनन्दन १६८२ पाली केशरिया जोधपुर ३२६ नरवर्म चतुष्पदी विद्याकीर्ति P/. पुण्यतिलक १६६६ हिम्मत राप्राविप्र बीकानेर ३३० नर्मदासुन्दरी चौपई भुवनसोम P/. धनकीत्ति १७०१ नवानगर ३३१ , रास जिनहर्ष P. शांतिहर्ष १७६१ पाटण ३३२ नल दमयंती चौपई ज्ञानसागर P/. क्षमालाभ १७५८ अभय बीकानेर ३३३ ,, ,, समयसुन्दरोपाध्याय १६७३ मेडता अभय बीकानेर ख० जयपुर हरिलोहावट विनय २११ ३३४ ,,, प्रबंध गुणविनयोपाध्याय P/. जयसोम १६६५ नवानगर अभय बीकानेर ३३५ नवकार महात्म्य चौपई जिनल ब्धिसूरि P/. जिनहर्षसूरि आद्यपक्षीय १७५० जयतारण खजांची बीकानेर ३३६ नवकार रास धर्ममन्दिर P/. दयाकुशल १८वीं अभय बीकानेर ३३६A " " विजयमूत्ति P/.
१७५५ विनय ७६८ ३३७ नागश्री चौपई श्रीदेव P/ ज्ञानचन्द्र ३३८ नारद चोपई लब्धिरत्न P/. धर्ममेरु १६७६ नवहर खजांची बोकानेर
Page #278
--------------------------------------------------------------------------
________________
"रास
३३६ नेमिनाथ कलश नयकुंजर P/. जिनराजसूरि १५वीं ३३६A , छन्द शिवसुन्दर P). क्षेमराज १६वीं अभय बीकानेर ३४० नेमिनाथ धमाल ज्ञानतिलक P/. पद्मराज १७वीं अभय बीकानेर ३४१ , फाग कनकसोम
१७वीं रणथंभोर ३४१A ,
कल्याणकमल
१७वीं
आचार्यशाखा भंडार बीकानेर ३४२
जयनिधान P/. राजचन्द्र , चारित्र राप्राविप्र बीकानेर ३४२A . ,, जिनसमुद्रसूरि P/. जिनचन्द्रसूरि बेगड १६६८ साचोर ३४३
महिमामेरु P). सुखनिधान , नागोर केशरिया जोधपुर ३४४
राजहर्ष P/. ललितकीर्ति १८वीं अभय बीकानेर ३४५ फागु समधरु
१४वीं ३४६
कनककोत्ति P/. जयमंदिर १६६२ बीकानेर ३४७
जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष १७७९ (?) पाटण ३४८
दानविनय P/. धर्मसुन्दर १७वीं कांतिसागरजी १६८७ लिखितप्रति ३४६
धर्मकीर्ति Pा. धर्मनिधान १६७५ बड़ोदा इन्स्टीट्यूट
सुमतिगणि P). जिनपतिसूरि १३वीं जेसलमेर भंडार ३५१ , राजीमती ,, समयप्रमोद P/. ज्ञानविलास १६६३ जिनविजयजी ३५२ ,, विवाहलो जयसागरोपाध्याय, जिनराजसूरि १५वीं
,,, महिमसुन्दर P/. साधुकीर्ति १६६५ सरस्वतीपत्तन महिमा कांतिसागर १६६६ ज्ञानमेरु लि. ३५४ पदमण रासो गिरधरलाल
१८३२ जोधपुर बड़ा भंडार बीकानेर ३५५ पद्मरथ चौपई स्थिरहर्ष P/. मुनिमेरु १७०८ शेरगढ दान बीकानेर ३५६ पद्मावती चतुष्पदिका जिनप्रभसूरि P/ जिनसिंहसूरि १४वीं प्र० ३५७ पद्मिनी चौपई लब्धोदय P/. ज्ञानराज १७०६-७ उदयपुर मुद्रित बाल ४५७ ३५८ परमात्मप्रकाश चोपई धर्ममन्दिर P/. दयाकुशल १७४२ जेसलमेर विनय १६५ कोटा क्षमा बीकानेर ३५६ पवनाभ्यास चौपई आनंदवर्द्धनसूरि (धनवर्द्धनसूरि) भावहर्षीय १६७८ ३६० पाण्डवचरित्र चौपई लाभवद्धन P/. शान्तिहर्ष १७६७ वील्हावास अभय सेठिया बीकानेर हरिलोहावट वि० १५६ ३६१ , , रास कमलहर्ष P). मान विजय १७२८ मेडता हूंबड मंदिर भंडार उदयपूर ३६२ पार्श्वनाथ धवल भुवनकोति P/. ज्ञानमन्दिर १६६२ जेसलमेर कांतिसागरजी लावण्यकोत्ति लिखित गुटका ३६३ पार्श्वनाथ फाग समयध्वज P/ सागरतिलक लघुखरतर १७वीं अभय बीकानेर ३६४ , रास जिनसमुद्रसूरि P/. जिनचन्द्रसूरि बेगड १७१३ गाजीपुर जेसलमेर भंडार ३६५ ,, श्रीसारोपाध्याय P/. रत्नहर्ष १६८३ जेसलमेर १६६ पाल्हणपुर वासुपूण्य बोली जिनेश्वरसूरि P/. जिनपतिसूरि १३वीं
३५३
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६७ पुंजाऋषि रास समयसुन्दरोपाध्याय १६९८ मुद्रित ३६८ पुंडरीक कंडरीक संधि राजसार PI. धर्मसोम १७०६ अहमदाबाद अभय बीकानेर हरिलोहावट ३६६ पुण्यदत सुभद्रा चौपई पूर्णप्रभ P/. शान्तिकुशल १७८६ धरणावास अनंतनाथ ज्ञान भंडार बम्बई ३७० पुण्यपाल श्रेष्ठि चौपई क्षेमहर्ष P/. विशालकीर्ति १७०४ तपागच्छ भंडार सिरोही ३७१ पुण्यरंग चौरई लब्धिसागर (लालचंद) P/. जयनंदन जिनरंगीय १७६४ अभय बीकानेर ३७२ पुण्यसार चौपई लक्ष्मीप्रभ P/. कनकसोम १७वीं जिनविजयजी ३७३ ,, रास पुण्य कीर्ति P/. हंसप्रमोद १६६२ सांगानेर अभय बीकानेर विनय ११३ ३७४ , , समयसुन्दरोपाध्याय
१६७२ अभय सेठिया बीकानेर हरिलोहावट ३७५ पुरंदर चौपई रत्नविमल P/. कनकसागर १८२७ कालाऊना खजाँचो बीकानेर ३७६ पुरुषोदय धवल लावण्यकोत्ति P/. ज्ञानविलास १७वीं तेरापंथी सभा सरदारशहर ३७७ प्रतिमा रास जयचन्द्र P1. कपूरचन्द्र १८७८ आगोलाई महरचन्द बीकानेर ३७८ प्रतिमा स्थापन रास शिवमन्दिर
१६०५ जेसलमेर भंडार ३७६ प्रदेशी चौपई अमरसिंधुर P/. जयसार १८६२ बम्बई धरणेन्द्र जयपुर ३८० , ज्ञानचन्द्र P/. सुमतिसागर १७वीं अभय-खजांची बीकानेर विनय ११७ ३८१ , संधि कनकविलास P/. कनककुमार १७४२ बाडमेर अभय बीकानेर ३८२ , संबंध तिलकचंद P/. जयरंग १७४१ जालोर अभय बीकानेर ३८३ प्रभाकर गुणाकर चौपई धर्मसमुद्र P/- विवेकसिंह पिप्पलक १५७३ अजिलाणा ३८४ प्रवचन रचनावेली जिनसमुद्रसूरि P/. जिनचन्द्रसूरि बेगड १८वीं जेसलमेर भंडार ३८५ प्रश्नोत्तर चौपई जिनसुन्दरसूरि बेगड १७६२ आगरा ३८६ प्रश्नोत्तरमालिका (पाश्र्वचन्द्रमतदलन) चौपई गुणविनयोपाव्याय P/. जयसोम १६७३ सांगानेर ख० ज० थाहरु जेस. ३८७ फलवद्धिपार्श्वनाथ रास क्षेमराज P/. सोमध्वज १६वीं अभय बीकानेर ३८८ बारह भावना संधि जयसोमोपाध्याय १६४६ बीकानेर अभय बीकानेर ३८६ बारहवत रास आनन्दकीर्ति P/. हेममन्दिर १६८० धर्मआगरा ३६० ,, ,, कमलसोम P/. धर्मसुन्दर
१६२० सारंगपुर अभय-बड़ा भंडार बीकानेर गुणविनयोपाध्याय P/ जयसोम १६५५ संघभंडार पाटण __ जयसोमोपाध्याय
१६४७ तथा १६५० अभय बीकानेर ३९३ ,, विमलकीर्ति P/. विमलतिलक १६७६ ३६४ बारहवत रास ! समयसुन्दरोपाध्याय १६८५ लूणकरणसर मुद्रित ३६५ , , P/. यु० जिनचन्द्रसूरि ३६६ बुड्ढा रास फकीरचन्द
१८३६ महर-चतुर-महिमा बीकानेर ३६७ ब्रह्मसेन चौपई दयामेरु
१८८० भागनगर जयचन्द भंडार बीकानेर
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६८ भद्रनंद संधि राजलाभ P/. राजहर्ष १७२५ चारित्र राप्राविप्र बीकानेर ३९९ भरतसंधि पद्मचन्द्र P/. जिनचन्द्रसूरि बेगड १८वीं वृद्धि जेसलमेर ४०० भरत बाहुबली रास भुवनकोत्ति P/ ज्ञाननंदि १६७५ जेसलमेर अ० ४०१ भवदत्त भविष्यदत्त चौपई दयातिलक P/. रत्नजय १७४१ फतेहपुर अभय बीकानेर ४.२ भीमसेन चौपई जिनसुन्दरसूरि बेगड १७५८ सवालख कुंडपारा ग्राम ४०. , , विद्यासागर P/. सुमतिकल्लोल १७वीं आचार्यशाखा भंडार बीकानेर ४०४ भुवनानन्द , सुमतिधर्म P/. श्रीसोम १७२५ आसनीकोट दान बीकानेर ४०५ भृगुपुरोहित , जयरंग P/. नेमचन्द १८७२ लखनऊ अभय बीकानेर ४०६ भोज चरित्र ,, हेमाणंद P/- हीरकलश १६५४ भदाणइ ४०७ भोज चौपई कुशलधीर P/. कल्याणलाभ १७२६ सोजत विनय ४८६ ४०८ भोसर रासो खेता P/. दयावल्लभ १७५७ अभय-आचार्यशाखा भंडार बीकानेर ४०६ मंगलकलश चौपई जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष १७१४ अभय बीकानेर हरिलोहावट विनय २३६ ४१० , , रंगविनय P/. जिनरंगसूरि जिनरंगीय १७१४ अभयपुर पाटोदी दि० भंडार जयपुर ४११ ,,, रत्नविमल P/. कनकसागर १८३२ बेनातट अभय बीकानेर ४१२ , , लखपत S/. तेजसी १६६१ थट्टा तपा भंडार जेसलमेर ४१३ , रास कनकसोम
१६४६ मुलतान अभय बीकानेर विनय १६७ ४१४ मणिरेखा चौपई हर्षवल्लभ P. जिनचन्द्रसूरि १६६२ महिमावती ४१५ मतिमूत्तिमंडन चौढालिया हेमविलास P/. ज्ञानकोत्ति १९वीं हरिलोहावट ४१६ मतिसागर (रसिकमनोहर) चौपई विद्याकीर्ति P/. पुण्यतिलक १६७३ सरसा अभय बीकानेर ४१७ मत्स्योदर चौपई पुण्यकोत्ति P/. हंसप्रमोद १६८२ वीलपुर ... लब्धोदय P/. ज्ञानराज १७०२
बाल राप्राविप्र चित्तोड़ ४१६ ,, समयमाणिक्य (समरथ) P/. मतिरत्न १७३२ नागोर ४२० , रास जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष १७१८ बाडमेर सेठिया बीकानेर ४२१ मयणरेहा ,, विनयचन्द्र P/. ज्ञानतिलक ? १८वीं ४२२ मलयसुन्दरी चौपई लब्धोदय P/. ज्ञानराज १७४३ गोधूंदा अभय बीकानेर क्षमा बीकानेर ४२३ महाबल मलयसुन्दरी रास चारुचन्द्र P/. भक्तिलाभ १६वीं अभय बीकानेर ४२४ ,, ,, जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष १७५१ पाटण अभय सेठिया बीकानेर बाल २२५ ४२५ महाराजा अजितसिंहजी रो नीसाणी लाभवर्द्धन P1. ,, १७६३ केशरिया जोधपुर ४२६ महावीर रास अभयतिलकोपाध्याय P/. जिनेश्वरसूरि द्वि० १३०७ मुद्रित जेसलमेर भंडार ४२७ महावीर विवाहलो कोतिरत्नसूरि १५वीं ४२८ महाशतक श्रावक संधि धर्मप्रमोद PI. कल्याणधीर १७वों
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२६ महीपाल चरित्र चौपई कमलकोत्ति P/. कल्याणलाभ १६७६ हाजी खानदेरा ४३० मांकड रास कीर्तिसुन्दर P/. धर्मवर्द्धन १७५७ मेडता प्र० ४३१ माताजी री वचनिका जयचन्द P/. चतुरभुज १७७६ कुचेरा मुद्रित ४३२ माधवानल कामकंदला रास कुशललाभ १६१६ जेसलमेर मुद्रित ४३३ मानतुंग मानवती चौपई अभयसोम P/. सोमसुन्दर १७२७ अभय बीकानेर चारित्र राप्राविप्र बीकानेर ४३४ , ,, ,, जिनसुन्दरसूरि बेगड १७५० मरुधर छठोपाटण जनरत्नपुस्तकालय जोधपुर ४३५ , ,, रास पुण्यविलास P}. पुण्यचन्द्र १७८० लूणकरणसर विनयचन्द ज्ञानभंडार जयपुर ४३६ मुनिपति चौपई धर्ममन्दिर P/. दयाकुशल १७२५ पाटण अभय-सेठिया बोकानेर विनय १८३
नयरंग
१६१५ डूंगर जेसलमेर ४३८ , होरकलश P/ हर्षप्रभ
१६१८ बीकानेर ४३६ मुनिमालिका चारित्रसिंह P/. मतिभद्र १६३६ रिणी अभय-क्षमा-बीकानेर खजांची जयपुर ४४० , पुण्यसागरोपाध्याय P/. जिनहंससूरि १७वीं अभय बीकानेर ४४१ मूलदेव चौपई गुणविनयोपाध्याय P/. जयसोम १६७३ सांगानेर मुकनजी बीकानेर ४४२ ,,, रामचन्द्र P/. पद्मरंग १७११ नवहर झंडियाला गुरु भंडार ४४३ मृगध्वज ,, पद्मकुमार P/. पूर्णचन्द्र १७वीं मुकनजी बीकानेर जिनविजयजो ४४४ मृगांक पद्मावती चौपई धर्मकीति P. धर्मनिधान १६६१ सोवनगिरी अभय बीकानेर ४४५ मृगांकलेखा चौपई भानुचन्द्र लघुखरतर १६६३ जौनपुर दिगंबर भंडार अजमेर ४४६ . ,, सुमतिधर्म P/. श्रीसोम १८वीं अभय बीकानेर ४४७ , रास जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष १७४८ पाटण ४४८ ,, ,, लखपत S/. तेजसी कूकड़ चोपड़ा १६६४ तपा भंडार जेसलमेर ४४६ मृगापुत्र चौपई श्रीसारोपाध्याय P/. रत्नहर्ष १६७७ बीकानेर विनय कोटा ७७६ ४२०
जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष १७१५ साचोर चतुरभुज बी ख० जयपुर ४५१ , , सुमतिकल्लोल
१६७७ महिमनगर अभय बीकानेर ४५२ , , कल्याणतिलक P/. जिनसमुद्रसूरि १५५० ४५३ , , लक्ष्मीप्रभ P/. कनकसोम १६७७ मुलतान खजांची बीकानेर ४५४ मृगावती रास समयसुन्दरोपाध्याय १६६८ मुलतान अभय-सेठिया बीकानेर हरिलोहावट विनय ६१, ६८१ ४५५ मेघकुमार चौढालिया अमरविजय P/. उदयतिलक १७७४ बगसेऊ अभय बीकानेर ४५६ , , कविकनक
१७वीं
अभय-क्षमा बीकानेर हरि लोहावट ४५७ , जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष १८वीं खजांची जयपुर मुद्रित ४५८ , चौपई जिनचन्द्रसूरि P/. जिनरंगसूरि जिनरंगीय १७२७ ४५६ ,, सुमतिहंस P/. जिनहर्षसूरि आद्यपक्षीय १६८६ पीपाड
, संधि
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
४६० मेघकुमार रास ४६१ मेतार्य ऋषि पोपई
४६२ मुनि
४६३
***
४६५ मोती कपासिया छंद
४६६
संवाद
कनकसोम P /
महिमसिंह ( मानकवि) P /
अमरविजय P / . उदय तिलक उदय P/ होरराज
क्षेमराज P / सोमध्वज श्रीसारोपाध्याय P / होरकलश P / प्रभ धर्ममंदिर P / दया कुशल
४६०
(जान 'गार चौपई) सुमतिरंग P / चन्द्रकीर्त्ति १७२२ मुलतान अभय-क्षमा बीकानेर
337
४६६ मौनकादशी चोपई आनन्दनियान P / मतिवर्द्धन आयपक्षीय १७२७ ० ० भंडार बीकानेर विनय २०७
४७०
आलमचंद P/ आसकरण
४३१
४७२ यशोधर रास
कनकमूर्ति P / गजानंद जयनिधान P / राजचन्द्र जिन P / शान्तिहर्ष विमलकीर्ति P. विमलतिलक १६६५ अमरसर
४७३
१७४० पाटण
४७४
४७५ यामिनी भानु मृगावती पोपई चन्द्रकीति P / हर्षकहोल १६८६ बाडमेर नाहर कलस्ता ठ० फेह S/ चन्द्र १३४७ कन्नाणा मुद्रित
४७६ युगप्रधान चतुष्पदिका
कृपा०
४७७ युवराज चौई शोभाचन्द्र P / विनयकीत्ति (वेणीवास) आध० १८२२ मेड़ता कोटड़ी भंडार जोधपुर ४७८ योगशास्त्रभाषा चौरई सुमतिरंग P / चन्द्रकीर्ति १७२४ ४७६ रतिसार केवली चौप चारुचन्द्र P / भक्तिलाभ ४८० रनकुमार चतुष्पदिका सुमतिकोल ४०१ रखकेतु चोप
१६वीं
अभय बीकानेर
१६७९ मुलतान हुंबड़ मं० भंडार उदयपुर
१६६८
४०२ खचूड
४०३
४८४
21
31
13
"1
,'
2.
४६७ मोहविवेक रास
"
ور
33
"
11
."
"
,
71
ז'
सुमतिमेह P/ हेमधर्म हीरकलश P / हर्षप्रभ
जिनहर्ष P / शान्तिहर्ष
रास
मंत्रिचूर चोपई
व्यवहारी रास
४८५
लक्ष्योदय P / शनराज कनक विधान P/ चारुदत्त १७२५ गुणरस्म / विनयसमुद्र
४०६ रनपाल चोप
४८७
रघुपति P / विद्यानिधान रत्नविशाल P/ गुणरत्न
४८८
४८६ रत्नशेखर रत्नावती रास जिनहर्ष P / शान्तिहर्ष
४६० रत्नसार नृप रास
[ ५५ ]
१औं
शिव विधान १६७० पुष्कर
१७८६ सरसा जयचन्द भंडार बीकानेर
अभय बीकानेर
21 31
ܙܕ
विनय २२६
१७०६
१६वीं
कांतिसागरजी
१६८७ फलोधी अभय क्षमा बीकानेर
१६३२ स्टेट लायब्रेरी
१७४१ मुलतान अभय बीकानेर ख० जयपुर हरिलोहावट
१८१४ मकसूदाबाद अभय क्षमा बीकानेर
१७६५ जेसलमेर अभय बोकानेर
१६४३
१६३६
१७५७ पाटण
१७३१ उदयपुर
अभय बोकानेर धरणेन्द्र जयपुर
तपा भंडार जेसलमेर
अभय बीकानेर विनय ३ १६६२ महिमावती तपाभंडार जेसलमेर १८१९ कालू क्षमा बीकानेर १६६२ महिमावतो अभय बीकानेर १७५६
अ० बाल चित्तोड़ २५१
१७५१ पाटण
Page #283
--------------------------------------------------------------------------
________________
४९१ रत्नसिंह राजर्षि रास जिनहर्ष P / शान्ति हर्ष
१७४१ पाटण
४९२ रत्नहास चौपई
यशोवर्द्धन P / रत्नवल्लभ
१७३२
४६३
लक्ष्मीवल्लभोपाध्याय P / लक्ष्मीकीर्ति १७१५ ४९४ रमतियाल शिष्य प्रबंध बालावबोध रत्नाकर P / मेघनंदन १७वीं ४६५ रसमंजरी चौपई समयमाणिक्य ( समरथ) P / . मतिरत्न १७६४
४६६ राजप्रश्नीय उद्धार चौपई सहजकीर्त्ति P / . हेमनन्दन १६७६
"
12
"
हीराचंदर बनारस
४६७ सूत्र चौपई जिनचन्द्रसूरि P / जिनेश्वरसूरि बेगड १७०६ सक्कीनगर वन्नूदेश जेसलमेर भंडार
४१८ राजर्षि कृतवर्म चौपई कुशलधीर P / कल्याणलाभ १७२८ सोजत
४६९ राजसिंह चौपई जिनचन्द्रसूरि P / जिनेश्वरसूरि बेगड १६८७
जेसलमेर भंडार
५०० राठौड़ वंशावली (अनूपसिंहवर्णनादि) सर्वयाबद्ध जिनसमुद्रसूरि P / जिनचन्द्रसूरि बेगड यतिइन्द्रचंद बाडमेर ५०१ रात्रिभोजन चौपई अमरविजय P / . उदयतिलक १७८७ नापासर जयचन्द भंडार बीकानेर हर्ष P / मानविजय १७५० लूणकरणसर सेठिया बीकानेर लक्ष्मीवल्लभोपाध्याय P / लक्ष्मीकीर्ति १७३८ बीकानेर अभय सेठिया बीकानेर
५०२
५०३
५०४
सुमतिहंस P / . जिनहर्षसूरि आद्यपक्षीय १७३० जयतारण अभय बीकानेर छतीबाई उपाश्रय बीकानेर
५०५
( हंस केशव चौपई) जिनहर्ष P / शान्तिहर्ष १७२८ राधनपुर बद्रीदास कलकत्ता
15
५०६ रामकृष्ण चौपई
13
"
11
"
37
11
17
"
५०७ रामायण चौपई
५०८ रिपुमर्दन भुवनानन्दरास
लावण्यकीर्त्ति P / ज्ञाननन्दी १६७७ बीकानेर अभय ख० जयपुर हरिलो० बाल ४६३ विद्याकुशल- चारित्रधर्म P / आनन्दनिधान, आद्यपक्षीय १७६१ ० २९ २०३० ज्ञानसुन्दर P /. १७०८ सुराणा लायब्रेरी चूरू जेसलमेर भण्डार अभय बी० जेसलमेर
५०६ "
लब्धिकल्लोल P / . विमलरंग
५१० रुक्मिणी चरित्र चौपई जिनसमुद्रसूरि P / जिनसमुद्रसूरि बेगड
५११ रुघरास ५१२ रूपसेन राज चौपई ५९३ रूपसेन राज चतुष्पदी ५१४ ललितांग रास ५१५ लीलावती रास
५१६
"
37
[辉”
मतिकीर्ति P / गुणविनय कुशलधीर P / कल्याणलाभ लाभवर्द्धन P / शान्तिहर्ष
गणित
१७वीं
१७२८ सोजत
१७२८ सत्रावा केशरिया जौधपुर विनय २०१ १७३६ बीकानेर अभय बीकानेर
५१७
"
५१८ पकमत तमो दिनकर चौपई गुणविनयोपाध्याय P / जयसोम १६७५ सांगानेर हरि लो०, ख० ज० बड़ा० भं० बी०
५१६ लुंपकमतनिर्लोठनरास शिवसुन्दर P / क्षेमराज
१५६५ अभय बीकानेर
५२० बंकचूल चौपई जिनोदय सूरि P / जिनसुन्दरसूरि बेगड १७८० यति ऋद्धिकरण जैनरत्न पुस्तकालय जोधपुर
५२१
रास
गंगदास
१६७१ पाली ख० जयपुर
रघुपति P / विद्यानिधान पुण्यकीर्ति P / हंसप्रमोद लालचन्द P / . हीरनन्दन
"
सेठिया बीकानेर
अभय बीकानेर
अभय बीकानेर
"
१६४९ पालनपुर
१८वीं
१८वीं
१६८१ मेडता आचार्य भं० जेसलमेर फूलचन्द भाबक फ० १६६३ मेडता मेडता भण्डार
अभय बीकानेर
Page #284
--------------------------------------------------------------------------
________________
। ५७ 1
@
। ५७ ] ५८४ शीलवतो रास कुशलधीर P/. कल्याणलाभ १७२२ साचोर अभय बीकानेर
,, जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष १७५८ ५८६ ,, ,, दयासार P/. धर्मकीर्ति १७०५ फतेपुर केशरिया जोधपुर ५८७ शीलरास धर्मवर्द्धन P/. विजयहर्ष १८वीं बीकानेर मुद्रित अभय बीकानेर ख० जयपुर १७७७ लि. ५८८ , सिद्धिविलास P/. सिद्धिवर्द्धन १८१० लाहोर आचार्यशाखा भंडार बोकानेर ५८६ शुकराज चौपई जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष १७३७ पाटण ५६० , , सुमतिकल्लोल
१६६२ बीकानेर खजांची बीकानेर विनय ५८३ ५६१ श्रावकगुणचतुष्पदिका समयराजोपाध्याय P/. जिनचन्द्रसूरि १७वीं केशरिया जोधपुर पाटण भंडार ५६२ श्रावकविधि चौपई क्षेमकुशल P). क्षेमराज १५४१ अभय बीकानेर ५६३ श्रावकविधि चौपई क्षेमराज P/. सोमध्वज १५४६ अभय क्षमा बीकानेर ख० जयपुर ५६४ श्रीपाल चौपई जिनहर्ष P/. शांतिहर्ष १७४० पाटण मुद्रित विनय ६७
, गुणरत्न P. विनयसमुद्र १७वीं राप्राविप्र जोधपुर ५९६
तत्त्वकुमार P/. दर्शनलाभ १६वीं मु०
रघुपति P/. विद्यानिधान १८०६ घडसीसर ५६८
रामचन्द्र P/. पद्मरंग १७३५ बीकमनयर रास (लघु) जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष १७४२ पाटण ६००
महिमोदय P/. मतिहंस १७२२ जहाणावाद हीराचंद्रसूरि बनारस ६०१ , , रत्नलाभ P]. क्षमारंग १६६२ ६०२ ,,, लालचंद (लावण्यकमल) P/. रत्नकुशल १८५७ अजीमगंज अभय बीकानेर ६०३ श्रीमती चौढालिया धर्मवर्द्धन P/. विजयहर्ष १८वीं मुद्रित ६०४ , रास जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष १७६१ पाटण रामलालजी बीकानेर ६०५ श्रेणिक चौपई जयसार P/. युक्तिसेन १८७२ जेसलमेर बद्रीदास कलकत्ता धरणेन्द्र विनयचन्द ज्ञान भंडार जयपुर ६०६ ,, धर्मवर्द्धन P/. विजयहर्ष १७१६ चंदेरीपुर हरि लोहावट ६०७ , रास भुवनसोम P/. धनकीर्ति १७०२ अंजार केशरिया जोधपूर ६०८ षट्स्थान० प्रकरण संधि चारित्रसिंह P/. मतिभद्र १६३१ जेसलमेर ६०६ सम्प्रति चौपई आलमचंद P/. १८२२ मकसूदाबाद विनय ७०४ ६१० संप्रति चौपई चारित्रसुन्दर P/. १६वीं चतुर्भुज बीकानेर ६११ सत्यविजयनिर्वाण रास जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष १७५६ पाटण मुद्रित ६१२ संयति संधि गुणरत्न P/. विनयसमुद्र १६३० डूंगर जेसलमेर अभय बीका ६१३ संघपति सोमजी बेलि समयसुन्दरोपाध्याय १७वीं मुद्रित बीकानेर ६१४ सदयवच्छ सावलिंगा चौपई कीर्तिवर्द्धन (केशव) P/. दयारत्न आद्यपक्षीय १६६७ मु०
५९४
60
Page #285
--------------------------------------------------------------------------
________________
६१५ सनत्कुमार चौपई
६१६
कल्याणकमल P / १७वीं यशोलाभ P/
१७३६
६१७
रास पद्मराज P / पुण्यसागरोपाध्याय १६६९
६१८ सम्मेलशिखर रास बालचन्द्र (विजयविमल) P/ अमृतसमुद्र १९०७ अजीमगंज मु० अभय बीकानेर
सत्यरत्न
क्षमा बीकानेर खजांची जयपुर विनय ४८६
ख० जयपुर
आलमचंद P / आसकरण १८२२ मकसूदाबाद हरि लोहावट
हीरकलश P / हर्षप्रभ
१६२४
जगडू
साधुकीर्ति P / अमर माणिक्य मतिकुशल १८३२ कल्याणधीर P / . जिनमा निक्यसूरि १७वीं जय सोमोपाध्याय
१७वीं
33
"
"
६१६
१८५०
12
६२० सम्यक्त्व कौमुदी जिनहर्ष P / शान्तिहर्ष १८वीं
६२१
चौपई
६२२
71
” रास
६२३ सम्यक्त्वमाइ चौपई
६२४ सव्वत्थवेलि
६२५ सहज बीठल दूहा
11
,
""
12
"
,, जिनसमुद्रसूरि P / . जिनचन्द्रसूरि बेगड
देवचन्द्रोपाध्याय P / दीपचन्द्र
सारोपाध्याय
.
"
६२६ साधुगुणमाला
६२७ साधुवंदन
६२८
६२६
६२६१
६३०
६३१
६३२
१६६७
33
६३३ सागर सेठ चौपई सहजकीर्ति P / हेमनंदन १६७५ बीकानेर, विनय ६६४, ७६४ ६३४ सिंहलसुत प्रिय मेलक रास समयसुन्दरोपाध्याय १६७२ ,, मु० विनय कोटा २१७ ६३५ सिंहासन बत्तीसी चौपई विनयलाभ P / विनयप्रमोद १७४८ फलोदी ६३६ सिद्धाचल रास निमहेन्द्रसूरि P / . जिनहर्षसूरि मंडोवरा २०वीं ६३० सीताराम चौपई समयसुन्दरोपाध्याय १६७७ मेडता मु०,, ६३८ सीता सती समयध्वज P/. सागर तिलक लघुखरतर १६११ ६३६ सीमंधर वीनती चौढालिया अगरचन्द P / हर्षचन्द्र १८९४ राजपुर ६४० सुकमाल चौपई अमरविजय P / उदयतिलक १७६० आगरा ६४१ सुकोशल,, १७६० आगरा ६४२ सुख दुःख विपाक संधि धर्म मेरु P / चरणधर्म १६०४ बीकानेर खजांची जयपुर ६४३ सुखमाला सती रास जीवराज P / राजकलश १६६३ ६४४ सुदर्शन चौपई कीर्तिवर्द्धन ( केसव) P / दयारत्न आद्यपक्षीय १७०३ कांतिसागरजी
"
13
[ * ]
91
भावहर्षसूरि भावहर्षीय
श्रीदेव P/. ज्ञानचन्द्र समयसुन्दरोपाध्याय
37
१३३१ मु०
१७वीं अभय बीकानेर
अभय बीकानेर
सुमेरमलजी भीनासर अभय बीकानेर
१८वीं
१८वीं
अभय बीकानेर
जेसलमेर भंडार
अभय बीकानेर
१७वीं
विनय ७५८
१६२६ जोधपुर केशरिया जोधपुर
१८वीं
अ० विनय १०८
अभय बीकानेर कांतिसागरजी
19
""
विनय कोटा ४९० बाल २२६
कांति बड़ोदा
विनय कोटा
ताराचन्द तातेड़ हनुमानगढ
Page #286
--------------------------------------------------------------------------
________________
। १९ ] ५२२ बच्छराज चोपई महिमाहर्ष P/. जिनसमुद्रसूरि बेगड, १८वीं सेठिया बीकानेर ५२३ ,, देवराज , कल्याणदेव P). चरणोदय १६४३ बीकानेर ५२४ ,, , , विनयलाभ P/. विनयप्रमोद १७३० मुलतान ५२५ वन राजर्षि चौपई कुशललाभ P/. कुशलधीर १७५० भटनेर अभय बीकानेर ५२६ वयरस्वामी चौपई जयसोमोपाध्याय
१६५६ जोधपुर खजांचो बीकानेर दान बीकानेर ५२७ वयरस्वामी चोपई जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष १७५६ धरणेन्द्र जयपुर ५२८, रास जयसागरोपाध्याय १४८६ जूनागढ विनय ४१६ अंतिमपत्र ५२६ वल्कलचीरी रास समयसुन्दरोपाध्याय १६८१ जेसलमेर अ० बी० हरिलोहावट, बाल ५६३ ५३० वसुदेव चौपाई जिनसमुद्रसूरिP/. जिनचन्द्र बेगड़ १८वों जेसलमेर भण्डार ५३१ , रास जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष १७६२ पाटण ५३२ वस्तुपाल तेजपाल रास अभयसोम P/. सोमसुन्दर १७२६ ५.३ , , , समयसुन्दरोपाध्याय १६८२ तिमरी मुद्रित ५१४ विक्रमचरित्र लोलावतो चोपई अभयसोम P/. सोमसुन्दर १७२४ अभय बोकानेर ५३५ विक्रमादित्य चौपई दयातिलक P/. रत्नजय १८वीं ५२६ ,, विजयराज P/. ललितकीर्ति १७वीं ख० जयपुर ५३७ विक्रमादित्य खापरा चोर चोपई राजशोल P/. साघुर्ष १५६३ चितोड़ बड़ोदा इन्सस्टीच्यूट ५३८ , , , ,, लाभवर्द्धन P/. शान्तिहर्ष १७२३ जयतारण अभय बीकानेर ५३९ विक्रमादित्य ६०० कन्या चौपई
१७२३ क्षमा बीकानेर ५४. विक्रमादित्य पंचदण्ड चौपई
, १७३३ सेठिया बीकानेर ५४१ , , रास लक्ष्मीवल्लभोपाध्याय P/. लक्ष्मीकीर्ति १७२८ अ० बी० ख० जयपुर विनय ५३ ५४२ विजयसेठ चौपई राजहंस P/. कमललाभ १६८२ मुलतान अभय बीकानेर ५४३ , रास गंगविनय P/. यशोवर्द्धन १७८१ अभय बीकानेर ५४४ विजयसेठ विजया चोई उदयकमल P. रसकुशल १८२१ कमालपुर ५४५ , , प्रबन्ध ज्ञानमेरु P/. महिमसुन्दर १६६५ सरसा अभय बीकानेर ५४६ विजयसेन राजकुमार चतुष्पदिका सुमतिसेन P/.रत्नभक्ति जिनरं० १७०७ पंचायती मंदिर दिल्ली ५४७ विद्याविलास चोपई जिनोदयसूरि P/. जिनतिलक भावह० १६६२ मुकनजो, खजांचो बीकानेर ५४८ , रास जिनहर्ष P). शान्तिहर्ष १७११ सरसा अ०बो० जैन भ० कलकत्ता ५४६
, जिनसमुद्रसूरि P/.जिनचन्द्र बेगड १८वीं विनय २५३ ५५० , , यशोवर्द्धन P/. रलवल्लभ १७५८ बेनातट ख० जयपुर ५५१ , राजसिंह P/. विमलविनय १६७६ चंपावतो ५५२ विद्यानरेन्द्र (विद्याविलास) चौपई आज्ञासुन्दर जिनवर्द्धन पिप्प० १५१६ आ० भ० जे० अ० बी० विनय ३८५
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ६०]
५५३ वीजलपुर वासुपूज्य बोली जिनेश्वरसूरि P / जिनपतिसूरि १३वीं
५५४ वीर जन्माभिषेक
जिन हर्ष भंडार बीकानेर
"
31
५५५ वीरभाण उदयभाण चौपई कुशलसागर P / लावण्यरत्न ( केशवदास) १७४२ नवानगर जैनरत्नपुस्तकालय जोधपुर ५५६ वीसस्थानक - पुण्यविलास रास जिनहर्ष P / शान्तिहर्ष १७४८ पाटण
मुद्रित
५५७ वृद्धदन्त शुद्धर्दत (केसवो) रास जिनोदयसूरि P / जिनतिलपूरि भावहर्षाय १८वीं गोकुलदासलालजी राजकोट ५५८ वैदर्भी चौप
५५६
"
५६० वैद्यविरहिणो प्रबंध
५६१ शकुनदीपिका चौपई
५६२ शकुन्तला रास
५६३ शत्रुञ्जंय रास
५६४
५६५
५६६
५६७
५६८
५६६
"
५७० शान्तिनाथ कलश
५७१
बोली
५७२
रास
५७३
देव
५७४
प्रबंध
५७५
विवाहलो
५७६ शांब प्रद्युम्न चौपई
५७७ शालिभद्र कक्क
५७८
रास
"2
५७६ सिलोको ५८० शोलनववाड रास ५८१ शील फाग
५०२ शील रास ५८३ शीलवती चोपर्ड
73
"
,, उद्धार,
17
"
21
"
"
ܕܝ
"
12
13
"1
माहात्म्य"
"
यात्रा
""
"
अभयसोम P/. सोमसुन्दरा
सुमतिहंस P / जिनहर्षसूरि
11
19
"
१७११
१७१३ जयतारण अभय - रामलालजी बीकानेर
उदयराज S / . भद्रसार श्रावक भावहर्षीय १८वीं अभय बीकानेर
लाभवर्द्धन P / शान्तिहर्ष १७७०
धर्मसमुद्र P / विवेक सिंह पिप्पलक १६वीं पूर्णप्रभ P / शान्तिकुशल समयसुन्दरोपाध्याय
१७६०
१६८२ नागोर मुद्रित
जिनसागरसूरिशाखा ९८१६ सूरत
१७५५ पाटण मुद्रित क्षमाबीकानेर हरिलोहावट बाल २३३
१६८४ आसनीकोट अभय बीकानेर
१७वीं
भीमराज P / गुलाबचन्द
हर्ष P / शान्तिहर्ष सहजकीर्ति P / . हेमनंदन कुशललाभ P/.
नियमेरु P/ धर्म
ور
सिंह P / . कनकप्रिय जिनहर्ष P / शातिहर्ष धराज P / धर्ममेरु सहजकीर्ति P / हेमनंदन
देवरत्न P / देवकीर्ति
तपाभंडार जेसलमेर बाल चित्तोड ६४१
मुद्रित
अनंतनाथ ज्ञानभंडार बंबई
अभय बीकानेर ख० जयपुर
१६७६ जालोर अभय बीकानेर १४वीं
रामचन्द्र
जिनेश्वरसूरि P / जिनपतिसूरि १३वीं रंगसार P / भावहर्षसूरि भावहर्षीय १६२० लक्ष्मीतिलकोपाध्याय P / जिनेश्वरसूरि १४वीं लब्धिविमल P / लब्धिरंग १८वीं भूँझनू भंडार
सहजकीति P / हेमनन्दन १६७८ बालसीसर तेरापंथी सभा सरदारशहर समय सुन्दरोपाध्याय
१६५६ खंभात अभय-क्षमा बीकानेर
कवि पद्म
१४वीं
राजतिलक P / . जिनेश्वरसूरि
१४वीं
मुद्रित
मुद्रित
पुण्य-अहमदाबाद
अभय बीकानेर राप्राविप्र जोधपुर ३०३६७
१७८१
१७२६ मु० क्षमाबीकानेर हरिलोहावट विनय २१२ १६७६ नवहर खजांची रामलालजो बीकानेर अभय बीकानेर
१६८६
१६६८ बालसीसर खजांची चारित्र राप्राविप्र बीकानेर
Page #288
--------------------------------------------------------------------------
________________
६४५ सुदर्शन चौपई सहजकोत्ति P/. हेमनन्दन १६६१ बगडीपुर ...बि० उ० अहमदाबाद भंडार ६४६ , रास धर्मसमुद्र P/. विवेकसिंह, पिप्पलक १६वीं अभय बोकनेर ६४७ , सेठ चौपई अमरविजय P/. उदयतिलक १७६८ नापासर ६४८ , , , जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष १७४६ पाटण ६४६ सुदर्शन चौपई विनयमेरु P/. हेमधर्म १६७८ सीधपुर अभय बीकानेर ६५० सुप्रतिष्ठ चौपई अमरविजय P/. उदयतिलक १७६४ मरोट ६५१ सुबाहु संधि पुण्यसागरोपाध्याय P. जिनहंससूरि १६०४ अभय-सेठिया बीकानेर ख० जयपुर, विनय ७०० ६५२ सुभद्रा चौपई जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष
१७वीं, हरि लौहावट ६५३ " , रघुपति P/. विद्यानिधान
१८२५ तोलियासर क्षमा बीकानेर ६५४ , , विद्याकोर्ति P/. पुण्यतिलक
१६७५ जैनशाला भंडार, खंभात ६५५ , , हेमनन्दन
१६४५ ख० जयपुर, ६५६ सुमंगल रास अमरविजय P/. उदयतिलक
१७७१ जयचन्दजी मं० बीकानेर. ६५७ सुमति नागिला सम्बन्ध चौपई धर्ममन्दिर P/. दयाकुशल १७३६ बीकानेर । ६५८ सुमित्रकुमार रास
धर्मसमुद्र P/. विवेकसिंह पिप्पलक १५६७ जालोर, ६५६ सुरप्रिय चौपई
दोपचन्द्र P/. धर्मचंद्र, बेगड १७८१ जयचन्द पं० बीकानेर ६६० , रास
जयनिधान P/. राजचन्द १६६५ मुलतान केशरिया जोधपुर ६६१ सुरसुन्दरी अमरकुमार रास जिनोदयसूरि P/. जिनसुन्दरसूरि वेगड़ १७६६ ६६२ सुरसुन्दरी चौपई मतिकुशल P/. मतिवल्लभ १७३१ धरणेन्द्र जयपुर ६६३ , रास
धर्मवर्द्धन P. विजयहर्ष १७३६ बेनातट अभय-क्षमा-बोकानेर विनय ५५,१६६ ६६४ सुसढ चौपई समयनिधान P/. राजसोम जिनसागरसूरि शाखा १७३१ अकबराबाद सेठिया बोकानेर ६६५ , रास राजसोम P/. जयकोत्ति, जिनसागरसूरि शाखा १८वीं, आचार्य शाखा भं० बीकानेर ६६६ सोमचन्द राजा चौपई विनयसागर P/. सुमतिकलश पिपलक १६७० जौनपुर ६६७ सोलह स्वप्न चौडालिया अमरसिन्धुर P/. जयसार
१६वीं तपा-भंडार जेसलमेर ६६८ सौभाग्यपंचमी चौपई जिनरंगसूरि P/. जिनराजसूरि
१७३८ जयचन्द भंडार बीकानेर ६६६ स्तम्भन पार्श्वनाथ फाग मुनिमेरु P/.
१७वी. केशरिया जोधपुर ६७० स्थूलिभद्र चौपई चारित्रसुन्दर P/.
१५२४ अजीमगंज जयचन्द भं. बीकानेर ६७१ , छन्द मेरुनन्दन P/ जिनोदयसूरि
१५वीं ६७२ , फागु जिनपद्मसूरि . जिनकुशलसूरि १४वीं मुद्रित ६७३ , रास जिनहर्ष P). शान्तिहर्ष
१७५६ पाटण क्षमा बीकानेर ६७४ रंगकुशल P/. कनकसोम
१६४४ जिनविजयजी १७५ समयसुन्दरोपाध्याय
१७वीं महावीर विद्यालय बंबई
Page #289
--------------------------------------------------------------------------
________________
६८८
"
"
६७६ स्थूलिभद्र चौपई
साधुकीति P/. अमरमाणिक्य १७वीं पमान भं० बीकानेर ६७७ हंसराज बच्छराज चौपई महिमसिंह (मानकवि) P/. शिवनिवान १६७५ कोटड़ा ६७८ , , प्रबन्ध विनयमेरु P/. हेमधर्म
१६६६ लाहोर अभय बीकानेर ६७६ , , रास बिनोदयसूरि P/. जिनतिलक० भावहर्ष. १६८० अभय बी०स० जयपुर वि०१२०, २२८ ६८० हरिकेशी संधि कनकसोम
१६४० वैराट ६८१ " "
सुमतिरंग P/. कनककोत्ति १७२७ मुलतान ६८२ ,साधु,
सुखलाभ P/. सुमतिरंग १७२७ बड़ौदा इन्स्टीच्यूट ६८३ हरिबल चौपाई चास्चन्द्र P]. भक्तिलाभ १५८१ जयचन्द भं• बीकानेर ६८४ , "
जिनसमुद्रमूरि P/. जिनचंद्र० बेगड १७०१ जेसलमेर भंडार ६८५ ॥ "
दयारल P/. हर्षकुशल आद्यपक्षीय १६६१ जोधपुर नाहर कलकत्ता ६८६ " "
पुण्यहर्ष P/. ललितकीर्ति १७३५ सरसा खजांची बीकानेर ६८७ , , राजशील P/. साधुहर्ष १५६६ हरि लोहावट
लावण्यकोति P/. ज्ञानविलास १६७१ जेसलमेर यति नेमिचंद वाउमेर ६८६ मच्छी चौपई राजरत्नसूरि P/. विवेकरत्नसूरि पिप्पलक १५९६ खजांची बीकानेर ६६० , , रास जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष १७४६ पाटण मुद्रित ६६१ , संधि कनकसोम ६६२ हरिवाहन चौपई P/. जिनसिंहसूरि
महिमा बीकानेर ६६३ हरिश्चन्द्र रास जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष १७४४ पाटण
लालचन्द P/. होरनन्दन १६७६ गंगाणी ६९५ , , सहजकीर्ति P/. हेमनन्दन १६९७ अभय बीकानेर, विनय ७६३ वीसो, चौवोसो, पच्चोलो, बत्तोसो, छत्तीसी, बावनी सित्तरी बारहमासा आदि १ विहरमान वोसो जिनराजसूरि P/. जिनसिंहसूरि १७वों मुद्रित विनय ३८३ स्वयंलिखित जिनसागरसूरि P/.,
अभय बीकानेर सेठिया बीकानेर जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष १७२७ मुद्रित
१७४५
मुद्रित देवचन्द्र P/. दीपचन्द्र राजलाभ P/. राजहर्ष
जयकरण जी बीकानेर रामचन्द्र P/. कोर्तिकुशल जिनसागर । आचार्य शाखा भ० बीकानेर लालचन्द P/. हीरनन्दन १६६२ पालडो अभय बीकानेर विनयचन्द्र P/. ज्ञानतिलक जिनसागर १७५४ राजनगर मुद्रित
१७वीं १७वों
१८वीं
Page #290
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
4
-
१० विहरमान वीसी सबलसिंह श्रावक
१८११ मकसूदाबाद महिमा बीकानेर समयसुन्दरोपाध्याय
१६९७ अहमदाबाद-मुद्रित हर्षकुशल
१७वीं अभय बीकानेर १३ ज्ञानसार
१८७८ बीकानेर मुद्रित
चौवीसी १ चौवीसी मानन्दवर्द्धन P/. महिमासागर १७१२ अभय बीकानेर
कुशलधीर P/. कल्याणलाभ १७२९ सोजत जेसलमेर भंडार गुणविलास P/. सिद्धिवर्द्धन
१७१२ जेसलमेर अभय बीकानेर चारित्रनन्दी P. नवनिधि २०वीं खजांची जयपुर जयसागरोपाध्याय P/. जिनराजसूरि १५वीं अभय बीकानेर जिनकीर्तिसूरि जिनसागरसूरिशाखा १८०८ बीकानेर जिनमहेन्द्रसूरि मंडोवरा P/. जिनहर्षसूरि १८६८ धरणेन्द्र जयपुर जिनरलसूरि P/. जिनराजसूरि १८वीं अभय बीकानेर
जिनराजसूरि P/. जिनसिंहसूपि १७वीं मुद्रित ,, (बड़ी) जिनलाभसूरि P/. जिनभक्तिसूरि १९वीं अभय बीकानेर , (छोटी) , , ,
जिनसुखसूरि P/. जिनचन्द्रसूरि १७६४ खंभात ,, जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष
१७३८ मुद्रित
१८वीं , ____दयासुन्दर P/. दयावल्लभ
१७४३ विनय कोटा , बालावबोध सह देवचन्द्र P/. दीपचन्द्र १७९८ मुद्रित धर्मवर्द्धन P/. विजयहर्ष
१७७१ जेसलमेर मुद्रित अमरचन्दबोथरा
२०१८ मुद्रित
राजसुन्दर P/. राजलाभ १७७२ महिमा बीकानेर
लक्ष्मीवल्लभ Pा. लक्ष्मीकीत्ति १८वीं अभय बीकानेर विनयचन्द्र P/. ज्ञानतिलक जिनसागरसूरिशाखा १७५५ राजनगर मुद्रित अभय बीकानेर हरिलोहावट
सबलसिंहश्रावक १८६१ मकसूदाबाद अजीमगंग बड़ामन्दिर समयसुन्दरोपाध्याय १६५८ अहमदाबाद मुद्रित सिद्धितिलक P. सिद्धिविलास १७६६ जेसलमेर आचार्यशाखाभंडार बीकानेर
२५
॥
Page #291
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०वी
२६ चौवीसी
सिद्धिविलास P/. सिद्धिवर्धन सुमतिमण्डन P/. धर्मानन्द सुमतिहंस P/. जिनहर्षसूरि, आद्यपक्षीय हीरसागर P/. जिनचन्द्रसूरि पिप्पलक क्षेमराज P/. सोमध्वज ज्ञानचन्द्र P/. सुमतिसागर
ज्ञानसार ३३ अतीतचौवीसी के २१ स्तवन देवचन्द्र P/. दोपचन्द्र २४ ऐरवत क्षेत्रस्थ चौवोसी समयसुन्दरोपाध्याय ३५ सवैया चौवीसी लक्ष्मीवल्लभ P/. लक्ष्मीकोति १६ सैंतालीस बोलगर्भित चौवीसी ज्ञानसार P/ रलराज ३७ बावीसी आनंदघन (लाभानंद)
१७वीं-१८वीं
सोलही १ मूर्खसोलही
लाभवर्द्धन P/. शान्तिहर्ष
२०वीं १६९७ मेडता १८१७ पीपलिया उदयचन्द जोधपुर, १६वीं थाहरु जेसलमेर १७०१ मुकनजी बीकानेर १८७५ बीकानेर मुद्रित १८वीं, मु० ख० जयपुर, १६९७ मुद्रित
१८वीं १८५८
१८वीं
पच्चीसी
१८वीं,
१८वीं मुद्रित १७६१ अभय बीकानेर १८५६ ॥ १८वीं मुद्रित
१ अध्यात्म पच्चीसी जिनसमुद्रसूरि P/. जिनचन्द्रसूरि बेगड २ उपदेश
रघुपति P/. विद्यानिधान ३ कुगुरु
जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष ४ कौतुक
कीत्तिसुन्दर P/. धर्मवर्द्धन ५ खरतर
रत्नसोम P. ६ गौतम
जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष ७ छिनाल
लाभवर्द्धनP/. ,, ८ भाव
अमरविजय P/. उदयतिलक ६ राजुल , लालचन्द P/. हीरनन्दन १० सुगुरु
जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष ११ सप्तभंगी ,हिन्दी भीमराज P/. गुलाबचन्द जिनसागरीय
बत्तोसी १ अक्षर बत्तीसी अमरविजय Pा. उदयतिलक २ , "
विद्याविलास P/. कमलहर्ष ३ उपदेश ।
अमरविजय P), उदय तिलक
१७६१ जयचन्द्रजी भंडार बीकानेर १७वीं हरिलोहवट, ख० जयपुर १८वीं ख० जयपुर मुद्रित १९२६ जेसलमेर मुद्रित
१८०० आगरा अभय बीकानेर १८वीं महिमा बीकानेर १८०० आगरा अभय बीकानेर
Page #292
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८वीं
"
मुद्रित
[ ६५ ] ४ उपदेश बत्तीसी रघुपति P/. विद्यानिधान ५ , , लक्ष्मीवल्लभ P/. लक्ष्मीकीर्ति
अभय बीकानेर ६ , रसाल, रघुपति P/. विद्यानिधान
ऋषि , जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष
कर्म , जिनराजसूरि P/. जिनसिंहसूरि १६६६ मुद्रित __ चेतन , (राजबत्तीसी) लक्ष्मीवल्लभ P/. लक्ष्मीकोति १७३६ अभय बीकानेर १० जीभ , गुणलाभ P/. जिनसिंहमूरि, पिप्पलक १६५७अलवर अभय बीकानेर ११ दीपक , कीर्तिवर्द्धन (केशव) P). दयारत्न, आद्यपक्षोय १७वीं, विनय कोटा १२ दूहन , खेमराज P/. सोमध्वज
१६वीं भुवनभक्ति भं० बीकानेर १३ नवकार , जयचन्द्र P/. सकलहर्ष
१७६५ बोलावास कांतिसागरजो १४ परिहाँ (अक्षर),, धर्मवद्धन P/. विजयहर्ष
१८वीं मुद्रित १५ पवन , क्षेमराज P/. सोमध्वज
१६वीं भुवनभक्ति भं० बीकानेर १६ पूजा , अमरविजय PI. उदय तिलक
१७४६ फलोधी जयचन्दजी मं० बीकानेर १७ , , श्रीसार P/. रत्नहर्ष
१७वीं अभय बीकानेर १८ पृथ्वी , क्षेमराज P/. सोमध्वज
१६वीं भुवनभक्ति भं० बीकानेर १६ भ्रमर
कीर्तिवर्द्धन (केशव) P/. दयारत्न आद्यपक्षीय १७वीं मु० विनय कोटा २० राज राजलाभ P/ राजहर्ष
१७३८ अभय बीकानेर २१ विचार जयकुशल P/. ज्ञाननिधान
१७२६ ,, , २२ शील , जिनराजसूरि P/. जिनसिंहसूरि १७वीं मुद्रित ज्ञानकीर्ति P/. जिनराजसूरि
, अभय बोकानेर २४ सामायिक दोष ,, गुणरंग P/. प्रमोदमाणिक्य
अभय बीकानेर २५ सुगण , रघुपति P/. विद्यानिधान २६ हितशिक्षा ,, क्षमाकल्याण P/ अमृतधर्म
छत्तोसो १ अक्षर छत्तीसी ज्ञानसुन्दर P/. कल्याणविनय
१७८६ २ आगम , श्रीसार P/. रत्नहर्ष
१७वीं अभय बीकानेर ३ आत्मप्रबोघ ,, ज्ञानसार
१६वीं मुद्रित ४ आलोयणा ,, समयसुन्दरोपाध्याय
१६६८ मुद्रित अमदाबाद ५ आहारदोष , जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष
१७२७ क्षमा बीकानेर उपदेश सहजकीत्ति P/. हेमनन्दन
१७वीं अभय बीकानेर
२३
, "
१८वीं १६वीं
Page #293
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७वीं
१८
॥ ॥
७ उपदेश छत्तीसी बारहखडी खश्यालचन्द P/. जयराम १८३१ सवाई पार्श्वनाथजैन पूस्तकभवन सूरतगढ़ ८ . , , सवैया जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष
१७१३ मुद्रित ६ कर्म , समयसुन्दरोपाध्याय
१६६८ मुद्रित १० कुगुरु , ज्ञानमेरु P/. महिमसुन्दर ११ गुरु , श्रीसार P/. रत्नहर्ष
, हरिलोहावट १२ गुरुशिष्यदृष्टान्त ,, धर्मवर्द्धन P/. विजयहर्ष
१८वीं १३ चारित्र , ज्ञानसार
१६वीं मुद्रित १४ जिनप्रतिमा ,, नयरंग P/. गुणशेखर
१७वीं अभय बीकानेर १५ तप , गंगदास
१६७५ मसूदा , १६ तीर्थभास,, समयसुन्दरोपाध्याय
१७वीं मु. पालणपुर भंडार १७ दया , चिदानन्द (कपूरचन्द)
१९०५ भावनगर मु० साधुरंग P/. सुमतिसागर
१६८५ अमदाबाद अभय बीकानेर १६ दान , राजलाभ P/. राजहर्ष
१७२३ २० दृष्टान्त धर्मवर्द्धन P/. विजयहर्ष
१८वीं मुद्रित २१ दोधक , जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष २२ धर्म श्रीसार P/. रत्नहर्ष
१७वीं आचार्यशाखा भं० बीकानेर २३ परमात्म , चिदानन्द (कपूरचन्द)
२०वीं मुद्रित २४ पार्श्वनाथ दोधक ,, जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष
१८वीं मुद्रित २५ पुण्य , समयसुन्दरोपाध्याय
१६६६ सिद्धपुर मुद्रित २६ प्रस्ताव सवैया ,,
१६६० खंभात , २७ प्रीति , कीर्तिवर्द्धन (केशव) P/. दयारत्न आद्यपक्षीय १७वीं विनय कोटा २८ " " सहजकीति P/. हेमनन्दन
१६८८ सांगानेर २६ भजन ,
उदयराज S/. भद्रसार श्रावक, भावहर्षीय उदयराज / भद्रता
१६६७ मांडावार ३० भाव ज्ञानसार
१८६५ किसनगढ़ मुद्रित ३१ मतिप्रबोध ,,
१६वीं मुद्रित ३२ मद , पुण्य कीर्ति P.. हंसप्रमोद
१६८५ मेडता महिमा बीकानेर ३३ मोह छत्तीसी पुण्यकोर्ति P/. हंसप्रमोद
१६८४ नागोर महिमा बीकानेर ३४ विशेष धर्मवर्द्धन P/. विजयहर्ष
१८वीं ३५ वैराग्य जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष
१७२७ ३६ शिक्षा
महिमसिंह (मानकवि) P/. शिवनिधान । १७वीं राजलाभ P/. राजहर्ष
१७२६ जोधपुर अभय बीकानेर
३७ शील
,
Page #294
--------------------------------------------------------------------------
________________
161
१८वीं .
१८वीं भुजनगर ,,
३८ शील छत्तीसी समयसुन्दरोपाध्याय
१६६६ मुद्रित ३६ सत्यासीयादुष्कालवर्णन ,, "
१७वीं
॥ ४० सन्तोष ,
१६८४ ४१ सवासौ सीख धर्मवर्द्धन P/. विजयहर्ष ४२ सुगुरु , हर्षकुशल
२७वीं अभय बीकानेर ४. ज्ञान
कोर्तिसुन्दर P/धर्मवद्धन १७५६ जयतारण जेसलमेर भंडार
ज्ञानसमुद्र P/. गुणरत्न, आद्यपक्षीय १७०३ ४५ क्षमा , समयसुन्दरोपाध्याय
१७वीं नागोर मुद्रित
पंचाशिका १ चौवीसजिन पंचाशिका क्षमाप्रमोद P/. रत्नसमुद्र १६वीं ख० जयपुर
बावनी १ बावनी खेता P/. दयावल्लभ
१७४३ दहरवास अभय बीकानेर जिनसिंहसूरि P/. जिनचन्द्रसूरि १७वों राजलाभ P/. राजहर्ष
समरथ (समयमाणिक्य) P/. मतिरल १८वों आचार्यशाखा भंडार बीकानेर ५ अध्यात्म बावनी जिनोदयसूरि P/. जिनसुन्दरसूरि बेगड १७७० राप्राविप्र जोधपुर ६ , प्रबोध ,, जिनरंगसूरि P/. जिनराजसूरि १७३१ दान-अभय बीकानेर ७ अन्योक्ति ,, मुनिवस्ता (वस्तुपाल विनयभक्ति) १८२२ । अभय बोकानेर . ८ अष्टापदतीर्थ ,, जयसागरोपाध्याय P/. जिनराजसूरि १५वीं & आलोयणा ,, कमलहर्ष P/. मानविजय १८वीं । हरि लोहावट १० कवित्त ,, जयचंद P/. सकलहर्ष १७३० सेमणा कांतिसागरजी ११ ,, जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष १८वीं अभय बोकानेर १२ कवित्त बावनी लक्ष्मीवल्लभ P. लक्ष्मीकीर्ति १८वीं अभय खजांची बोकानेर १३ कुंडलिया , धर्मवर्द्धन P/. विजयहर्ष ,
मुद्रित १४ , , रघुपति P/. विद्यानिधान . १८०८
लक्ष्मीवल्लभ P). लक्ष्मीकीति १८वीं भुवनभक्ति भंडार बीकानेर , १६ केशव , केशवदास (कुशलसागर) P/. लावण्यरत्न १७३६ ।। अभय बीकानेर १७ गुण , उदयराज P/. भद्रसार श्रावक भावहर्षी १६७६ बबेरइ ,, १८ गूढ (निहाल बावनो), ज्ञानसार P/. रत्नराज १८८१ मुद्रित १६ छप्पय , धर्मवर्द्धन P/. विजयहर्ष १८वीं मुद्रित
Page #295
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८वीं
२० छप्पय बावनी लक्ष्मीवल्लभ PI. लक्ष्मीकीति
खजांची बीकानेर २१ जसराज ,, जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष १७३८ मु० अभय बीकानेर २२ जैनसार,
रघुपति P/. विद्यानिधान १८०२ नापासर । २३ दूहा ,
लक्ष्मीवल्लभ P/. लक्ष्मीकात्ति १८वीं अभय-खजांची बीकानेर २४ दोहा , जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष
१७३०
मुद्रित २५ धर्म ,, धर्मवर्द्धन P/. विजयहर्ष १७वीं मुद्रित २६ प्रास्ताविक छप्पय ,, रघुपति P/. विद्यानिधान १८२५ तोलियासर २७ मनोरथमाला ,, जिनसमुद्रसूरि P/. जिनचन्द्रसूरि बेगड १७०८ २८ मातृका , जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष १७३८ मुद्रित २६ योग ,, महिमसिंह (मानकवि) P/ शिवनिधान १७वीं बद्रीदास कलकत्ता विनय कोटा ३० लौद्रवा चिन्तामणि पार्श्वनाथ ,, वादीहर्षनन्दन P/. समयसुन्दर १७वीं मु० आचार्यशाखा भंडार बीकानेर ३१ वैराग्य ,, लालचंद P/. हीरनंदन १६६५ अभय बीकानेर ३२ शाश्वत जिन ,, हर्षप्रिय
विनय कोटा ३३ सवैया ,, चिदानन्द (कपूरचन्द) २०वीं
मु. १४ ,, जयचन्द P/. सकलहर्ष १७३३ जोधपुर कांतिसागरजी ३५ ,, लक्ष्मीवल्लभ Pा. लक्ष्मीकीर्ति १८वीं अभय खजांची बीकानेर विनयलाभ P/. विनयप्रमोद
अभय बीकानेर ३७ सार, श्रीसार P/. रत्नहर्ष १६८९ पाली अनूप सं० ला बीकानेर ३८ सीमन्धर,
१७वों नाहर कलकत्ता ३६ ज्ञान ,, हंसराज़ पिप्पलक
मु० जयचंद भं० बीकानेर
१७वीं
वितर
"
१७वों
१ उपदेशसत्तरी २ व्यसन सत्तरी ३ समकित सत्तरी
सत्तरी पीसार P/. रत्नहर्ष १७वीं मु० क्षमा बीकानेर ख० जयपुर सहजकीति P/. हेमनन्दन १६६८ नागोर अ० जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष १७३६ पाटण मु०
बहुत्तरी ___ श्रीसार P/. रत्नहर्ष
हरि लोहावट जिनहर्ष P/- शान्तिहर्ष १७१४ वीलावास मुद्रित चिदानन्द (कपूरचन्द) २०वीं मु० आनंदघन
१८वीं मु०
१७वीं
१ उत्पत्ति बहुत्तरी २ नंद , ३ पद ,,
Page #296
--------------------------------------------------------------------------
________________
५ पद बहुत्तरी (७४पद) ज्ञानसार
१९वीं ६ रंग , जिनरंगसूरि P/. जिनराजसूरि १८वीं
मुद्रित अभय बीकानेर
सईकी
१ सईकी
जयचंद्र
मु० कान्तिसागर
पूनमचन्द दूधेड़िया छापर
अभय बीकानेर
मुद्रित
मुद्रित अभय बीकानेर
बारहमासा १ बारहमासा केशवदास (कुशलसागर) P/. लावण्यरल १८वीं २ , लक्ष्मीवल्लभ P/. लक्ष्मीकीर्तिी ३ , लाभोदय P/. भुवनकीर्ति १६८९ ४ बारहमास रा दूहा जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष १८वीं ५ जिनसिंहसूरि बारहमासा जिनराजसूरि P/. जिनसिंहसूरि १७वीं ६ नेमिनाथ बारहमासा खुश्यालचंद P/. नगराज १७६८ ,, जिनसमुद्रसुरि P/. जिनचन्द्रसूरि बेगड १८वीं जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष
१८वीं धर्मकीर्ति P/- धर्मनिधान माल
श्रीसार P/. रत्नहर्ष
समयसुन्दरोपाध्याय १४ , राजीमती , धर्मवर्द्धन P/. विजयहर्ष
१७३२
१७वों
कांतिसागरजी मुद्रित जेसलमेर भंडार कांतिसागरजी गटका धर्मकीत्ति लि. अभय बीकानेर मुद्रित मुद्रित
१८वीं
जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष
१८ , राजुल ,, विनयचन्द्र P/. ज्ञानतिलक जिनसागर ,, १६ , , , जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष , २० पार्श्वनाथ ,, जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष , २१ राजुल ,, केशवदास (कुशलसागर) P/. लावण्यरत्न १७३४ २२ ,, जिनहर्ष P]. शान्तिहर्ष १८वीं २३ स्थूलिभद्र , जिनहर्ष P/. शान्तिहर्ष
१८वीं २४ , , " " २५ ,
" "
मुद्रित
"
Page #297
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६ स्थूलिभद्र बारहमासा विनयचन्द्र P/. ज्ञान तिलक १८वीं . मुद्रित २७ नेमिराजुल बारहमासा लब्धिकल्लोल P/. विमलरंग १७वीं अभय बीकानेर
अष्टोत्तरी १ प्रास्ताविक अष्टोत्तरी ज्ञानसार P/. रलराज १८८० बीकानेर मुद्रित २ संबोध अष्टोत्तरी , P/. , १८८८ ,
पूजा १ अष्टप्रकारी पूजा देवचन्द्रोपाध्याय P/. दीपचन्द १८वीं मु० २ अष्टप्रवचनमाता पूजा सुमतिमण्डन (सुगनजी) P/. धर्मानन्द १९४० बीकानेर मु० ३ अष्टापद ,, ऋद्धिसार (रामलाल) P/. कुशल निधान २०वीं मु० ४ आबू ,, सुमतिमण्डन (सुगनजी) P/. धर्मानन्द १९४० बीकानेर मु० ५ इक्कीसप्रकारी, चारित्रनन्दी P/. नवनिधि १८६५ बनारस अ० विनय कोटा हरिलोहावट ६ . , , शिवचन्द्रोपाध्याय P/. समयसुन्दर १८७८ मु० ७ ऋषिमण्डल २४ जिन ,, , , १८७६ जयपुर मु. ८ एकादश अंग ,, चारित्रनन्दी P/. नवनिधि १८६५ अ० नाहर कलकत्ता ६ एकादश गणधर ,, सुमतिमण्डन (सुगनजी) P/. धर्मानन्द १९५५ बीकानेर मु० १० गिरनार ,, जिनकृपाचन्द्रसूरि
१९७२ बंबई मु० ११ ,, सुमतिमण्डन (सुगनजी) P/. धर्मानन्द २०वीं . १२ गौतमगणधर ,, , ,
२०वीं १३ चौदह पूर्व , चारित्रनन्दी P/. नवनिधि १८६५ अ० नाहर कलकत्ता १४ चौदह राजलोक ,, सुमतिमण्डन (सुगनजी) १९५३ बीकानेर मु. १५ चौबीस जिन ,, जिमचन्द्रसूरि P/. जिनयशोभद्र पिप्पलक १६वीं अ० केशरिया जोधपुर १६ जम्बूद्वीप , सुमतिमण्डन (सुगनजी) १९५८ बीकानेर मु० १७ दादाजी अष्टप्रकारी ,, जिनचन्द्रसूरि P/. जिनलाभसूरि १८५३ अ० अभय बीकानेर १८ दादाजी की पूजा रामलाल (ऋद्धिसार) P/. कुशलनिधान १९५३ बोकानेर मु० १६ दादाजिनकुशसूरि अष्टकारी पूजा ज्ञानसार १६वीं अ० अभय बीकानेर मुदित २० दादाजिनकुशसूरि पूजा जिनहरिसागरसूरि P/. भगवानसागरजी २०वीं मु० २१ दादाजिनदत्तसूरि ,, , , २२ ध्वजपूजा २नन्दीश्वर द्वीप पूजा जैनचन्द्र
शिवचन्द्रोपाध्याय P/. पुण्यशील
१९वी
Page #298
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५ नवपदपूजा
२६
२७ नवपदपूजा उल्लाला २८ मवपदलघुपूजा २६ नवा प्रकारी पूजा
३० पञ्चकल्याणक पूजा
"
३१
33
३२ पञ्चज्ञानपूजा
३३ पत्र ज्ञानपूजा ३४ पञ्च परमेष्ठि
"
"
३५ पार्श्वनाथप्रभु
23
३६ पैंतालीस आगम,
11
४५
37
"1
४६ शासनपति पूजा
27
29
४२ रत्नत्रय आराधन पूजा
४३ वीस विहरमान पूजा
४४ वीस स्थानक पूजा
४७ श्रुतज्ञान पूजा ४८ संघ पूजा ४६ सतरहभेदी पूजा
५०
५१
५२
५३
"
५४ समवसरण पूजा ५५ सम्मेतशिखर पूजा
11
"
चारित्रनन्दी P / नवनिधि ज्ञानसार P / रत्नराज
"2
"
अमर सिन्धुर P / जयसार नन्दी P / नवनिधि १८८६ बालचन्द्र (विजय विमल ) P / अमृतसमुद्र चारित्रनन्दी P / नवनिधि सुमतिमंडन (सुगनजी)
27
३७ बारहव्रत ३८ मणिधारी जिनश्चन्द्रसूरि, जिनहरिसागरसूरि P / भगवानसागर ३६ महावीरषट्रकल्याणकपूजा विनयसागर P / जिनमणिसागरसूरि
मु०
"
२०१२ महासमुंद मु०
४० महावीरस्वामी ६४ प्रकारीपूजा जिनकवीन्द्रसागरसूरि P / जिनहरिसागरसूरि २०१३ मेड़तारोड़ मु०
४१ युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि पूजा जिनहरिसागरसूरि P / भगवानसागर जनकवीन्द्रसागरसूरि P / जिनहरिसागरसूरि २०१२ बीकानेर ऋद्धिसार ( रामलाल ) P / कुशल निधान जिन हर्ष सूरि शिवचन्द्रोपाध्याय
१६४४
१८७१ बालूचर
५६ सहस्रकूट पूजा ५७ सिद्धाचल पूजा ५८ स्नात्र पूजा
देवचन्द्रोपाध्याय P / दीपचन्द्र १८वीं
लालचन्द्रोपाध्याय
१६वीं
[ ७१ ]
د.
33
२०वीं
१८७१ बीकानेर अ० ख० जयपुर मुद्रित
चतुरसागर P / . जिनकृपा चंद्रसूरि
राजसोम
सुमतिमण्डन (सुगनजी)
नयरंग
चिदानन्द
वीरविजय P / तेजसार साधुकीर्ति P / अमरमाणिक्य
पद ४८ जिनसमुद्रसूरि P/. जिनचन्द्रसूरि बेगड़
29
चारित्रनन्दी P / नवनिधि
बालचन्द्र (विजय विमल) P / अमृतसुन्दर सुमतिमंडन (सुगनजी)
96
जनकवीन्द्रसागरसूरि P / जिनहरिसागरसूरि २०१३ मेड़तारोड़ मु० ऋद्धिसार (रामलाल ) P / कुशलनिधान कपूरचन्द ( कुशलसार)
१६३० बीकानेर मु०
१९३६
मु०
मु०
१८८८ बम्बई मु०
कलकत्ता अ० कुशलचन्द्र पुस्तकालय बीकानेर हरिलोहावट १९१३ बीकानेर मु० १६वीं अ० विनय कोटा
१६४० बीकानेर मु०
१६५३
मु०
11
देवचन्द्रोपाध्याय P / दीपचन्द्र
मु०
17
१८७१ अजीमगंज
१६वीं
१९६१ बीकानेर
13
영영영
मु०
१६१५ खंभात अ० उदयचन्द जोधपुर उज्जैन सिन्धिया
१६५३ राजधामपुर अ० अभय बीकानेर
मु०
१६१५ पाटण १७१८
अ० जेसलमेर भंडार
१६१... खंभात
१६०८
१६४० बीकानेर
१६३०
१८वीं
मु०
म०
मु०
मु०
अ० नाहर कलकत्ता
मु० अभय बीकानेर अ० क्षमा बीकानेर
मु०
देशवर्णन एवं चैत्य परिपाटियाँ
१ ऊजलगिरिचत्यपरिपाटी स्तवन शुभवर्द्धन (शिवदास) P / गजसार १६०५ पूनमचन्द दूधेड़िया छापर
२ उदयपुर गजल
खेता P/. दयावल्लभ
१७५७
अभय बीकानेर विनय ७७०
Page #299
--------------------------------------------------------------------------
________________
1
"
३ कापरहेडा रास
Y
दयारत्न P / हर्षकुशल आद्यपक्षीय लक्ष्मीरलP / कल्याण P /.
13
५ गिरनार गजल
१८२८
६ गिरनार चैत्यपरिपाटी
रंगसार P / भावहर्षसूरि भावहर्षी १७वीं खेता P / दयावल्लभ
७ जित्तोड़ गजल
१७४८
८ जेसलमेर चैत्य परिपाटी स्त० जिनसुखसूरि P / जिनचन्द्रसूरि १७७१
१७वीं
१६७६
१८६८
१८६३
ܕܕ
17
11
१०
११
१२
१३
31
१४ डीसा गजल
१५ तीर्थचेत्यपरिपाटी स्तवन
१६ तीर्थमाला स्तवन
""
"
37
ار
"
ور
"
31
सहजकीति P / हेमनन्द्रन
"
पटवासंघ वर्णन अमरसिंधुर P / जयसार
23
"
बद्रीदास कलकत्ता
मुद्रित
73
"
तीर्थमाला स्तवन यात्रावर्णन केशचन्द P / . जिनमहेन्द्रसूरि १८६६ कांति छाणां देवह
१वीं
अभय बीकानेर
for कल्लोल P / . विमलरंग १७वीं देवचन्द्र P / दीपचन्द्र
१८वीं
१६१
समयसुन्दर
१७वों
11
मुद्रित
१७ तीर्थराज चेत्यपरिपाटी साधुचन्द्र
१५३३
मुद्रित
मु०
१८ तोर्थयात्रा स्तवन जयसाग रोपाध्याय P / जिनराजसूरि १५वीं १६ नगरकोट महातीर्थ चैत्यपरिपाटी २० पत्तनचेत्यपरिपाटी स्तवन शुभवर्द्धन ( शिवदास ) P / गजसार ५६०५ पूनमचन्द दूधेड़िया छापर २१ पाटण गजल देवर्ष
31
""
मु०
१८५६
अभय बीकानेर
२२ पूर्वदेश चेत्यपरिपाटी जिनवर्द्धनसूरि P / जिनराजसूरि पिप्पलक १५वीं २३ पूवदेश वर्णनछंद २४ बीकानेर गजल चैत्य परिपाटी
३ ध्वों
ज्ञानसार P / रत्नराज उदयचन्द्र ( मथेन )
17
गुणविनय P / जयसोम
"
"
[ ७२
धर्मवर्द्धन विजयहर्ष
"
7
13
२५ २६ मण्डपाचल चैत्यपरिपाटी
२७ मरोट गजल दुर्गादास P / विनयानंद
१७६५
२८ शत्रुंजय चेत्यपरिपाटी
गुणविनय P / जयसोम १६४४ देवचन्द्र P / दीपचन्द्र १८वीं
२६
स्तवन
""
३०
३१
:, स्तवन वादीहर्षनन्दन P / समयसुन्दर १६७१ तीर्थपरबाड़ी सोमप्रभ P / जिनेश्वरसूरि द्वि० १४वीं संघयात्रा परिपाटी गुणरंग P / प्रमोदमाणिक्य १७वीं ३३ सिद्धाचल गजल
३२
33
कल्याण
१६६५
१६८३ सोजत
क्षेमराज P/ सोमध्वज
१७६५
१८वीं
१६वीं
१८६४
३४ सम्मेतशिखर चेत्यपरिपाटी स्त० वीरविजय P / तेजसार १६६१
३५ तीर्थमाला स्तवन समयसुन्दर
३६ तीर्थमाला (ईडर से आबू यात्रा )
"
केशरिया जोधपुर अभय बीकानेर
در
हीराचन्दसूरि बनारस
अभय बीकानेर
अभय बीकानेर
मु०,
21
हीराचन्द्रसूरि बनारस
मुद्रित केशरिया जोधपुर
मुद्र
सुमतिकल्लोल P / विमल रंग गा० १७१६५४ अभय बीकानेर
३७ शत्रुंजय तीर्थचैत्यप्रवाड स्तवन ज्ञानचन्द्र P / सुमतिसागर P / पुण्यप्रधान गा० ४११८वीं राप्राविप्र जो० ३०३६७
मुद्रित
अभय बीकानेर
मुद्रित
मुद्रित
अभय बीकानेर
धर्म० आगरा
अभय बीकानेर
जेसलमेर भंडार अभय बीकानेर
Page #300
--------------------------------------------------------------------------
________________