Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
महावीर जयन्ती
अप्रैल
स्मारिका
Jain Education Interational
For Privale & Personal use only
www.jainelipeet
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राच्य साहित्य के प्रकारात ...... .. ..त्वपूर्ण योग
राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर के सात संग्राह्य नये प्रकाशन
राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला
प्रधान सम्पादक : मुनि - जिनविजय, पुरातत्वाचार्य १. काव्य प्रकाश : भट्ट सोमेश्वर विरचित संकेत सहित । जैसलमेर ग्रन्थ भण्डार ।
से प्राप्त प्राचीनतम प्रति के आधार पर, प्राध्यापक रसिकलाल छोपारिख द्वारा सम्पादित अन्यतम संस्करण (दो भागों में)
मूल्य-प्रथम भाग १२.००, द्वितीय भाग ८.२५ न. पै. | २. वस्तु रत्न कोष : अज्ञात कर्तृक नाना वस्तु प्रतिपादक विशिष्ट कोषग्रन्थ
सम्पादिका : प्रिय बालाशाह एम. ए., पी. एच. डो., डी. लिट
मूल्य ४.०० रु० । ३. मुंहता नेणसी ख्यात भाग : जोधपुर के प्रधानामात्य मुहता नेणसी लिखित
मूल भाषा में राजस्थान का इतिहास
सम्पादक : बदरीप्रसाद साकरिया मूल्य ८.५० न.पै. ४. भगतमाल : चारण ब्रह्मदास विरचित राजस्थानी काव्यमय भक्त चितरावली सम्मादक : उदयराज 'उज्ज्वल'
मूल्य १.७५ न. पै. ५. रघुवर जस प्रकास : चारण कवि किसना जी आढा निर्मित राजस्थानी भाषा
__ में काव्य शास्त्र संबंधी ग्रन्थ ।
सम्पादक : सीताराम लालस मूल्य ८.२५ न. पै. ६. राजस्थान हस्तलिखित ग्रन्थों की सूची भाग-१ मूल्य ४.५० न. पै. ७. राजस्थान प्राच्य-विद्या प्रतिष्ठान के हस्तलिखित ग्रंथों की सूची भाग २
मूल्य १२.०० रु.
-
-
प्राप्ति स्थान : राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, रेजीडेन्सी रोड, जोधपुर ।
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयपुर नगर की सफाई के लिये
नगर परिषद
Heacemeroemse
सहयोग दीजिए
* रास्ते में कूड़ा न फैकिये
★ मकान साफ करके कूड़ा गाड़ी आने से पहले नियत स्थान पर ढोल, कनस्तर,
मटके इत्यादि में डालिये * गलियों, रास्तों व नलियों में बच्चों को तहारत के लिये मत विठाइये N★ फ्लश के तहारत बनाने में जल्दी कीजिये
* टूटे नालों की मरम्मत कराके खस्सी बनाइये ★ जो गलियां साफ करदी गई हैं उन्हें फिर गन्दी न होने दीजिये ★ बड़े नालों में कूड़ा न डालिये
lveercuremaceuter
नगर परिषद, जयपुर, राजस्थान द्वारा प्रसारित
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
महावीर जयन्ती स्मारिका
सम्पादक पं. चैनसुखवास न्यायतीर्थ
राजस्थान जैन सभा, जयपुर
अप्रेल - १९६४
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रकाशक : रतनलाल छाबड़ा मन्त्री : राजस्थान जैन सभा, जयपुर।
सम्पादक मंडल
अध्यक्ष पं.चैनसुखदास न्यायतीर्थ
सदस्य
राजमल संघी डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल
मूल्य - दो रुपया
मुद्रक : अजन्ता प्रिन्टर्स, जयपुर।
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
१. सन्देश
२. सम्मतियां
३. प्रकाशकीय
४. सम्पादकीय
५. भगवान महावीर का स्तवन
६. भगवान महावीर एक सिद्धान्त थे
अनुक्रमणिका
७. भारतीय संस्कृति को जैन संस्कृति का योगदान
८. जैन धर्म की प्राचीनता
६. भारतीय भाषाओं को जैन साहित्यकारों की देन
१०. जैनधर्म और राज्य व्यवस्था
११. जैन दर्शन और विज्ञान के आलोक में आरोह-अवरोहशील विश्व
१२. वेदों में तीर्थंकरों की स्तुति
१३. पांच मुक्तक ( कविता ) १४. धर्म का मापदण्ड - आध्यात्मिकता
१५. संवत्सरी पर्व का सांस्कृतिक महत्व
१६. जैन धर्म का उदय और विकास
१७. संदेश काव्य परम्परा में जैन कवियों का योगदान
१८. महावीर और गोशालक
१६. महयंदिण मुनि
२०. बैराठ स्थित मुगलकालीन जैन-मन्दिर २१. अपरिग्रह और समाजवाद २२. जैन अभिलेखों का ऐतिहासिक महत्व २३. महावीर का अनैकांतिक अहिंसा-दर्शन २४. धर्म व संस्कृति की आत्मा
--
-
---
-
-
पं० चैनसुखदास
डा० छविनाथ त्रिपाठी
डा० ज्योति प्रसाद जैन
मुनि श्री बुद्धमलजी
श्री रामावतार शर्मा, एम. ए.
डा० पुरुषोत्तमलाल भार्गव
प्रो० शान्तिकुमार पारख एम. ए.
मुनि श्री नगराजजी
डा० वासुदेवसिंह
डा० सत्यप्रकाश श्री बिरधीलाल सेठी
श्री रामबल्लभ सोमानी
श्री
युगल जैन
श्री सत्यदेव विद्यालंकार
73672
13
16
17
19
21
Dal
.
मुनि श्री महेन्द्र कुमारजी द्वितीय
मुनि श्री महेन्द्र कुमारजी प्रथम श्री ' तन्मय' बुखारिया
४३
डा० रतन कुमार जैन पी एच. डी. ४४
श्री बद्रीप्रसाद पंचोली
५२
५८
६१
६५
දිය
७१८
१५
३०
३५
३७
७३
15
S
८३
८६
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५. जैन कवि नवल और उनकी भक्ति
२६. ढूंढाड़ी जैन गद्य साहित्य २७. जैन कवियित्री जड़ावजी की काव्य-साधना २८. महाश्रवण महावीर का दिव्य-जीवन
२६. अहिंसा का व्यापक चिंतन और आचार ३०. भगवान महावीर की मंगलमय वाणी ३१. नैतिक सद्गुण
३२. जैन धर्म का श्रात्मत्व और कर्म सिद्धान्त
३३. भारतीय दर्शनों में चेतनास्तित्व
३४. महावीर वर्धमान
३६. तुम्हें मिला जब जन्म
1. Lord Mahavira and the Mission of Jainism
6
2. The Role of the Idea of Action (Kriyavada) in Jaina Philosophy
3. Jainism in Modern Times
4. War and Ahimsa Ideology
5. The Ancient Town of Rajorgarh
6. Sramanic Foundations of Ancient
Egypt
=7. Sramana Tradition and Vedic Literature
8. Practicability of Ahimsa (Nou-violenee)
9. The Eight fold Path of Yoga and Jainism
--
--
-
डा० सोमनाथ गुप्त
श्री गंगाराम गर्ग, एम. ए.
डा० नरेन्द्र भानावत
डा० कस्तूरचन्द कासली वाल
एम. ए., पीएच. डी.
श्री जवाहिरलाल जैन
श्री अगरचन्द नाहटा
डा० ईश्वरचन्द्र शर्मा
पं० चैन सुखदास न्याय तीर्थ
आचार्य रमेशचन्द्र शास्त्री
राजकुमारी लुहाडिया
Lothar Wendel
G. C. Pande
६४
६७
Sh. Rajmal Sanghi M. A., Sahityaratna
१०१
१०८
१११
११३
११६
११२
१२६
१३५
१३६
1
6
Wilfried Noelle Ph. D. Dr. Bool Chand
10
Dr. Kailash Chand Jain 14
4
Sh. Ram Chandra Jain 17 Dr. S. K. Gupta 22
28
Dr. Kamal Chand Sogani 38
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
शुभ-कामनाएं व संदेश
यह खुशी की बात है कि आप गत वर्षों की भांति इस वर्ष भी भगवान महावीर के पावन जयन्ती समारोह पर महावीर जयन्ती स्मारिका प्रकाशित करने जा रहे हैं ।
समयाभाव के कारण मैं स्मारिका के लिए लेख लिखने में असमर्थ हूँ। आशा है कि आप इसके लिए क्षमा करेंगे।
तदेव मैं आपके इस समारोह एवं स्मारिका की सफलता के लिए अपनी हार्दिक शुभ कामनाएं भेजता हूँ।
जाकिर हुसैन उपराष्ट्रपति, भारत
भगवान महावीर के पावन जयन्ती के अवसर पर मैं अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ और आशा करता हूँ कि भगवान महावीर के आदर्शों का प्रसार आप के स्मारिका द्वारा पर्याप्त मात्रा में किया जावेगा।
ह. वि. पाटस्कर राज्यपाल, मध्य प्रदेश
I am desired to refer to your letter No. 224 dated the 15th of March, 1964, and to convey the good wishes of the Governor of West Bengal on the occasion of the third anniversary cf Mahavir Jayanti celebration proposed to be held under the auspices of Rajasthan Jain Sabha on the 24th of April, 1964.
Shri S. K. Mukerjei Secretary to the Governior, West Bengal
CALCUTTA
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
भगवान महावीर के पावन जयन्ती समारोह पर महावीर जयन्ती स्मारिका इस वर्ष भी प्रकाशित की जा रही है यह जानकर प्रसन्नता हुई। वे आपके कार्य की सफलता चाहते हैं।
जगदीशचन्द्र सक्सेना नई दिल्ली
___ सचिव, गृह मन्त्री, भारत सरकार
यह जानकर मुझे खुशी हुई कि भगवान महावीर के पावन जयन्ती समारोह पर महावीर जयन्ती स्मारिका प्रकाशित की जा रही है।
जैनी लोग इस देश में पुरातन काल से अहिंसा का प्रचार करते आये हैं। यह परम्परा अटूट रूप से आज तक चली आ रही है। आज के युग में जैन विचारों की ओर लोगों का काफी झुकाव है। इसलिए यह आवश्यक है कि भगवान महावीर की शिक्षादीक्षा तथा उनके साहित्य का प्रचार जन-साधारण में हो ताकि लोग उससे लाभ उठायें और अपने जीवन में उसे उतारने का प्रयत्न करें। में इस अवसर पर अपनी शुभकामनायें भेजता हूँ।
राम सुभगसिंह नई दिल्ली
कृषि मन्त्री, भारत सरकार
+ + -
- - - -- हाक भगवान महावीर
कादार
यह अत्यन्त हर्ष की बात है कि गत वर्ष की भांति इस वर्ष भी भगवान महावीर के पावन जयन्ती समारोह के अवसर पर आप एक स्मारिका का प्रकाशन कर रहे हैं। जैन दर्शन और जैन धर्म पर शोधपूर्ण लेखों के लिये आपकी स्मारिका ने साहित्य जगत में एक विशेष स्थान प्राप्त किया है।
__ भौतिकता की ओर द्रतगति से अग्रसर हो रही हमारी आधुनिक सभ्यता के उद्धार के लिये यह अत्यन्त आवश्यक
रा प्रतिपादित सर्व जीव समभाव, सर्व जाति समभाव एवं सर्व धर्म समभाव आदि के सिद्धान्तों का अधिक से अधिक प्रचार एवं अनुसरण हो।
इस जयन्ती समारोह के अवसर पर मैं भगवान महावीर की स्मृति में अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ और आपकी स्मारिका की सफलता की कामना करता हूं।
मोहनलाल सुखाड़िया जयपुर
मुख्य मन्त्री, राजस्थान
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
9
मुझे यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि गत वर्षों की भांति इस वर्ष भी भगवान महावीर की पावन जयन्ती समारोह पर महावीर जयन्ती स्मारिका, राजस्थान जैन सभाद्वारा निकाली जा रही हैं ।
भगवान महावीर ने विश्व को "जीश्रो और जीने दो" का मूल मंत्र दिया। आज के युग में इस बात की नितान्त आवश्यकता है कि हम उनके इस आदर्श का अनुसरण करें और युद्ध की आशंका से त्रस्त मानव समाज को शांति की राह बतायें । उनके अनुसार हमें जीने का अधिकार है पर दूसरे की जिन्दगी छीनने का अधिकार नहीं । दूसरे का जीवन छीन कर हमें अपना जीवन समृद्ध बनाने का कोई अधिकार नहीं है । जिस विश्व बन्धुत्व, पंचशील और सहप्रस्तित्व की बात हम करते हैं वह तभी साकार हो सकती है जब हम उनके "जीओ और जीने दो' के सिद्धान्त का पूर्ण अंशों में पालन करें ।
आज के इस युग में जब कि बुराइयां अच्छाइयों पर बुरी तरह हावी हो रही हैं हम महापुरुषों के प्रादर्शों पर चल कर ही समभाव समाज व्यवस्था कायम करा सकते हैं । मुझे आशा ही नहीं बल्कि पूर्ण विश्वास है कि "श्री महावीर जयन्ती स्मारिका" में ऐसे लेखों का समावेश होगा जो कि आम जनता के नैतिक एवं चारित्रिक उत्थान में सहायक होंगे ।
इस शुभ अवसर पर मेरी शुभ कामनाएं प्राप सब के साथ हैं ।
जयपुर
मुझे यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हो रही है कि हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी भगवान महावीर के पावन जयन्ती समारोह पर महावीर जयन्ती स्मारिका दर्शन शास्त्र के प्रसिद्ध विद्वान पण्डित चैनसुखदासजी न्यायतीर्थ के सम्पादकत्व में प्रकाशित हो रही है । भगवान महावीर ग्रहिंसा के पुजारी थे । ग्राज देश में ही नहीं बल्कि सारी दुनिया में हिंसा से ही शान्ति रह सकती है। इस अवसर पर मैं ग्रापके प्रकाशन की सफ़लता की कामना चाहता हूँ ।
जयपुर
रामप्रसाद लड़ा उप मंत्री, राजस्व, खनिज एवं देवस्थान, राजस्थान
हरिश्चन्द्र
मंत्री, निर्माण, विद्युत और उद्योग, राजस्थान
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
10
यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता है कि गत वर्षों की भांति इस वर्ष भी भगवान महावीर को पुनीत जयन्ती समारोह पर श्री महावीर जयन्ती स्मारिका प्रकाशित होने जा रही है । यह एक आदर्श और जनोपयोगी प्रयास है। इससे न केवल जैन धर्मावलम्बी ही लाभान्वित होंगे वरन इससे समूचे समाज को जैन धर्म के तत्त्व और मर्म को समझने में सहायता मिलेगी। भगवान महावीर का जीवन और उनकी शिक्षाएं समस्त मानव के उत्थान के लिये एक खुला पृष्ठ है जो मानव समाज का मार्ग प्रशस्त करने में सदा सहायक रहा है और अनन्तकाल तक रहेगा। भगवान महावीर केवल एक समुदाय विशेष के श्राराध्य नहीं हैं वरन समूचे पूर्ण विकसित मानव समाज, मानव धर्म के प्रतीक हैं जो सत्य अहिंसा पर आधारित है। यह एक और हर्ष की बात है कि इस ग्रन्थ का संकलन और प्रकाशन एक उच्चकोटि के विद्वान पं० चैनसुखदास न्याय तीर्थ कर रहे हैं। मुझे आशा ही नहीं वरन विश्वास है कि इस ग्रन्थ में पर्याप्त पठनीय और उपयोगी साहित्य रहेगा जो मानव समाज को पर्याप्त प्रेरणा देकर उनका मार्ग प्रशस्त करता रहेगा ।
मैं श्री महावीर जयन्ती स्मारिका की सफलता की हृदय से कामना करता हूँ । मिश्रीलाल गंगवाल योजना तथा विकास मन्त्री, मध्यप्रदेश
भोपाल
मुझे यह जानकर प्रसन्नता है कि मानव जाति के परमोद्धारक श्री महावीर स्वामी की जयन्ती सदा को भांति इस वर्ष भी राजस्थान जैन सभा द्वारा अप्रैल मास में मनाई जा रही है । महावीर जयन्ती के इस पावन पर्व पर जयन्ती स्मारिका के रूप में जो उपहार ग्रंथ प्रकाशित किया जा रहा है वह एक स्तुत्य प्रयास है ।
भगवान महावीर जी ने आज से २५६१ वर्ष पूर्व समाज में व्यापक रूढिवादिता के विरोध में नवीन जागृति दी थी सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह और स्याद्वाद आदि सिद्धांतों के प्रतिपादन तथा उन्हें अपने जीवन में अपना कर जो पथ बताया था उस पर चलना आज समस्त देश एवं विश्व के लिये आवश्यक है ।
मुझे आशा है महावीर जयन्ती स्मारिका अपने उद्देश्य को पूरा करने में समर्थ होगी ।
राजमद्दल, जयपुर
गायत्री देवी संसद सदस्या
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
यह जानकर बड़ी प्रसनता हुई कि इस वर्ष भी महावीर जय ती स्मारिका प्रकाशित की जा रही है और विशेष कर श्री आदरणाय पं० चैनसुखदासजी सा. न्याय तीर्थ के सम्पादकत्व में मैं आपके इस प्रयास की सराहना करता हूँ और आशा करता हूँ आपकी यह योजना इसी प्रकार से उन्नतशील होती रहेगी । मैं आपके इस सद् प्रयास की सफलता की कामना करता हूं। अजमेर
भागचन्द्र सोनी
यह जानकर प्रसन्नता हुई कि सदा की भांति इस वर्ष भी भगवान महावीर के जयन्ती समारोह के अवसर पर महावीर जयन्ती स्मारिका का प्रकाशन किया जा रहा है ।
मुझे पूर्ण विश्वास है कि गत वर्षों की भांति स्मारिका में उत्कृष्ट सामग्री के प्रकाशन का आपका प्रयत्न अवश्य सफल होगा।
भगवतसिंह महता जयपुर
मुख्य-सचिव, राजस्थान
श्री महावीर जयन्ती के अवसर पर मेरी भगवान से प्रार्थना है कि मानव में प्रज्ञाबल या बुद्धि शक्ति का अधिकाधिक उदय हो और उसके साथ ही जीव मात्र के लिए हृदय की महा करुणा का अक्षय स्रोत भी प्रवाहित हो। आज के युग में मानव के संघर्षमय विचारों के लिए महावीर के. आदर्शों का शीतल पुट चाहिए। सर्वहारा हिंसा को कैसे वश में किया जाय यही इस युग की समस्या है जिसके लिए हमारे श्रवण महावीर की अहिंसा वाणी के दो-चार शब्द चाहते हैं।
वासुदेवशरण बनारस
काशी विश्व विद्यालय
मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि गत वर्षों की भांति इस वर्ष भी आप भगवान महावीर के पावन जयन्ती समारोह पर 'महावीर जयन्ती स्मारिका' दर्शन शास्त्र के प्रसिद्ध विद्वान पं० चैनसुखदास न्यायतीर्थ के सम्पादन में प्रकाशित कर रहे हैं। मुझे आशा है कि अापके इस प्रकाशन से सामान्य जन जैन धर्म, दर्शन शास्त्र, कला और इतिहास प्रादि के विषय में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त कर सकेंगे। तथा उनके नैतिक एवं चारित्रिक उत्थान में यह परमोपयोगी सिद्ध होगी।
आपके इस प्रयास की सफलता की कामना करता हूँ। नई दिल्ली
राजबहादुर
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
12
आप महावीर जयन्ती के पुण्य पर्व पर विगत वर्षों के समान ही इस वर्ष भी ' स्मारिका' का प्रकाशन करने जा रहे हैं यह जानकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई। इस माध्यम से प्राप सचमुच ही भगवान महावीर के मंगलमय उपदेशों का प्रचार एवं प्रसार कर एक ठोस रचनात्मक कार्य कर रहे हैं ।
भगवान महावीर एक सच्चे लोकनायक महापुरुष थे। उन्होंने लोकहित के लिये लोकभाषा में अपने कल्याणकारी उपदेशों का प्रचार कर विश्व में एक नवीन क्रान्ति का शंखनाद किया था ।
राजस्थान युगों-युगों से भारत की गौरव - भूमि रहा है । एक ओर जहां मातृभूमि की प्रान-बान की रक्षा के लिये वहां के ग्राबाल-वृद्ध नर-नारी अपना सर्वस्व समर्पण करते रहे, वहीं दूसरी ओर साहित्य एवं संस्कृति की रक्षा में भी अनवरत एवं अथक श्रम एवं प्रयत्न करते रहे। वहां के विविध प्राचीन शास्त्रागारों में सुरक्षित हजारों-लाखों हस्तलिखित प्राचीन चित्र-विचित्र विविध विषयक ग्रन्थ रत्न तथा सहस्रों पुरातत्व एवं कलाकृतियां इसके ज्वलन्त साक्षी हैं । इन्हीं सभी गौरवयुक्त कार्यों से प्राज राजस्थान का एक - एक करण हमारे लिये महान तीर्थ क्षेत्र बन गया है । यथार्थ ही वह भारत माता का शृंगार है ।
आपके प्रयोजनों के सकुशल एवं सफलतापूर्ण सम्पन्न होने की में वीर प्रभु ... मंगल कामना करता हूँ ।
आरा
राजाराम जैन
महावीर जयन्ती स्मारिका भगवान महावीर एवं उनके द्वारा उपादिष्ट धर्म दर्शन आदि के विषय में नानाविध दृष्टिकोणों से प्रकाश डालने वाला एक उपहार ग्रन्थ है । ऐसे - साहित्य का लगातार प्रकाशन आवश्यक है ।
जैन धर्म का प्राचीन वाङ्मय इतना महत्त्वपूर्ण है कि उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। अपने दर्शन, पुरातत्व, आचार संहिता, स्थापत्य कला एवं मूर्ति कला श्रादि के कारण दुनियां के धर्मों में जैन धर्म का अपना विशिष्ट स्थान है ।
सत्य, अचौर्य, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य आदि जैन सिद्धान्तों को दैनिक जीवन में उतारने से देश एवं विश्व का नैतिक स्तर काफी ऊँचा उठ सकता है । मनुष्य अपनी स्वार्थ वृत्ति • छोड़कर ऊंचा उठे इसी में कल्याण है । इससे सम्बन्धित साहित्य से मानव की बहुत बड़ी सेवा हो सकती है ।
मैं भगवान महावीर के प्रति अपनी श्रद्धांजली अर्पित करता हुवा राजस्थान जैन सभा के प्रयास की सराहना करता हूँ ।
सवाई मानसिंह
राजमहल, जयपुर
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्मतियां
Mahabir Jayanti Smarika Contains a mine of information of which quite a number of us are ignorant. The book is of great value to me.
Balbhadra Prasad, Vice-Chancellor, University of Allahabad.
Mhavir Jayanti Smarika presented a large volume of information on Jainism, and a number serves as a valuable Book of Reference.
--Dr. W. Nolle of Germany. राजस्थान जैन सभा, जयपुर की ओर से महावीर जयन्ती स्मारिका का प्रकाशन इधर दो वर्षों से हो रहा है । यह संकलन सदा संग्रहणीय होता है, विशेषकर स्मारिका का इस वर्ष का अंक इसके योग्य संपादक चैनसुखदासजी न्यायतीर्थ के उद्यम से सविशेष उपादेय बन पडा है । महावीर के जीवन काल के देश व समय का आकलन और चित्रण तो हुआ ही है इसके अतिरिक्त उनकी देशना और शासना का व्याख्यान भी प्रस्तुत संग्रह से प्राप्त होता है । इसके अतिरिक्त भी जैन तत्व के सम्बन्ध में प्रभावशाली और उपयोगी सामग्री एक स्थान पर संकलित मिलजाती है । पं० चैनसुखदासजी हमारी बधाई के पात्र हैं और राजस्थान जैन सभा का यह उद्यापन सराहनीय और स्तुत्य है ।
-- जैनेन्द्र कुमार, दिल्ली
महावीर जयन्ती स्मारिका १६६३ को प्रति मिली । कितनी उपयोगी सामग्री का संकलन आपने इसमें किया है | भगवान महावीर और उनके सिद्धांतों पर तो आपने रचनाएं दी ही हैं पर साथ ही अन्य विषयों का भी समावेश करके प्रापने इस संग्रह को लोकोपयोगी बना दिया है । इसकी सामग्री में उतनी विविधता है कि पाठक उसके अध्ययन से ऊबता नहीं है, बल्कि
उसकी रुचि उत्तरोतर बढती है । सबसे बडी विशेषता यह है कि इसको सभी रचनाएं गंभीर और ज्ञानवर्द्धक हैं ।
प्राजके युग में जबकि लोक रुचि हलकी-फुलकी चीजों की प्रोर श्राकर्षित हो रही है, इतनी गंभीर सामग्री देना साहस का काम हैं और में इसके लिये हृदय से प्रभिनंदन करता हूं। मुझे आशा है कि प्रति वर्ष इस प्रकार की स्मारिका निकालने का आपका संकल्प पाठकों के लिये अत्यन्त लाभदायक सिद्ध होगा और परिश्रम से स्थायी महत्व की बहुत सी सामग्री एकत्र हो जायगी । - यशपाल जैन, दिल्ली
महावीर जयन्ती स्मारिका को प्रति मिली, इसे देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई । कलेवर को देखते हुये आपने इसमें काफी खोजपूर्ण, रोचक और उद्बोधक सामग्री जुटादी है । इस महत्वपूर्ण प्रकाशन के लिये मेरी हार्दिक बधाई ।
-- सत्यनारायण मिश्र, बम्बई
आपकी भेजी महावीर जयन्ती स्मारिका मिली । इसके लिये प्रभारी । स्मारिका को वाचनक्षम सामग्री देखकर प्रसन्नता हुई ।
- कस्तूरभाई, अहमदाबाद
महावीर जयन्ती स्मारिका के लेख, चित्र, कागज छपाई, गेटअप सब एक से एक उत्कृष्ट | जैनकोषसाहित्य, यशस्तिलक का अध्ययन, वेदों में ग्रहिंसा समन्वय की आवश्यकता आदि लेख तो बहुत ही उत्कृष्ट हैं । वस्तुतः प्राज के घासलेटी साहित्ययुग में आपका यह कार्य सवर्था प्राशातीत, उत्कृष्ट तथा अभिनंदनीय है । सफलता के लिये हमारी हार्दिक बधाई स्वीकार करें 1
- चिम्मनलाल गोस्वामी,
सम्पादक, कल्याण
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
14
महावीय जयन्ती स्मारिका १६६३ देखकर हृदय अनुसंधानात्मक, तुलनात्मक-दृष्टिकोण से परमोपयोगी में जो प्रसन्नता हुई उसे किन शब्दों में व्यक्त करू? अमूल्य तथा प्रेरणात्मक हैं। प्रस्तुत स्मारिका किसी भी यह स्मारिका युगों तक भगवान महावीर और उनकी विश्व विद्यालय से स्वीकृत जैन धर्म संबंधी विषयों पर दिव्यदेशना के विविध अंगों का स्मरण दिलाती रहेगी। शोधात्मक निबन्ध लिखने वालों, इतिहास के तत्ववेताओं ऐसी. स्मारिका प्रतिवर्ष प्रकाशित होनी चाहिए । एक एवं जैन दर्शन के जिज्ञासुमों के निमित्त वस्तुतः हजार व्याख्यान सभाएं भी उतनी प्रभावना नहीं कर संग्रहणीय एवं उपादेय उपलब्धि ही कही जा सकती सकती जितनी एक स्मारिका अनायास ही कर सकती है। है । यही नहीं, यदि इसे भारतीय धर्मों की विविधता इस नवीन प्रणाली के लिये प्रापको बहुत-बहुत धन्यवाद। में भी भावात्मक एकता लाने का सफल प्रयास कहा -अमृतलाल, वाराणसी
जाये तो कोई अत्युक्ति न होगी । निःसन्देह स्मारिका
के अन्तः पक्ष एवं बाह्यपक्ष दोनों ही आकर्षक हैं । .. महावीर जयन्ती स्मारिका १६६३ के अंक का भी
ऐसी सुन्दर ठोस, सुव्यवस्थित, सुसम्पादित, प्रकाशित महत्व निःसंदिग्ध है । भाषा, साहित्य एवं संस्कृति के ।
अमूल्य सामग्री के लिये सम्पादक एवं राजस्थान जैन विभिन्न पहलुपों पर नूतन प्रकाश डालने वाला यह .
__ सभा जयपुर दोनों का प्रस्तुत प्रयास स्तुत्य तथा पूर्ण प्रयास निश्चय ही स्तुत्य है । इसके कतिपय लेख
रूपेण सफल रहा है। एतदर्थ दोनों बधाई के पात्र शोधमूलक हैं और उस क्षेत्र में कार्य करने वाले व्यक्ति
हैं। सभा की प्रार्थिक स्थिति को स्थाई बनाने में का मार्गदर्शन करेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है।
योगदान देकर स्मारिका को प्रतिवर्ष निकालने में -बासुदेवसिंह, सीतापुर सभी को योग देना चाहिए । .. महावीर जयन्ती स्मारिका १६६३ वास्तव में
-सुलतानसिंह, शामली प्रत्यन्त सुन्दर बन पडी है । धर्म, संस्कृति, साहित्य गत वर्ष की भांति इस वर्ष भी जैन सभा ने और पुरातत्व आदि के अनेक गवेष्णापूर्ण एवं महावीर जयन्ती के शुभावसर पर प्र प्राधुनिक शैली से लिखे गये लेख उसे नवीनता और प्रकाशन किया है । प्रसिद्ध विद्वान पं० चैनसुखदासजी गौरव प्रदान कर रहे हैं।
के सुयोग्य संपादकत्व एवं निर्देशन में यह योजना जिस -पं. गोपीलाल, अमर सागर प्रकार कार्यान्वित हो रही है उससे यह स्मारिका एक
उच्चकोटि की वार्षिक जैन शोध पत्रिका का रूप लेती महावीर जयन्ती स्मारिक में जिन लेखों का संचयन दीख पड रही है। लेखों एवं निबन्धों का ऐसा सुन्दर हमा है. उनके पीछे साधना और संस्कार का बल है। एवं उपयोगी संकलन जैनाध्ययन में प्रेरक और उसकी यही कारण है कि स्मारिका स्थाई महत्व की वस्तु प्रगति का सूचक है। बन गई है।
-शोधांक, जैन सन्देश -
-कन्हैयालाल सहल, पिलानी राजस्थान जैन सभा महावीर जयन्ती के अवसर युग प्रवर्तक भगवान महावीर की पावन जयन्ती के पर स्मारिका निकालती है वह महावीर के विचारों शभप्रवसर पर प्रकाशित महावीर जयन्ती स्मारिका और सिद्धांतों का प्रतीक है। इससे जैन धर्म और जैन अप्रेल १६६३ का मैंने प्राद्योपान्त अध्ययन किया। संस्कृति पर ही प्रकाश नहीं पड़ता है वरन भारतीय इसमें जैन धर्म, दर्शन, संस्कृति, कला, साहित्य
दर्शन का ज्ञान होता है जो भारतीय धर्मों की विविधता में पुरातत्व प्रादि जैन वाङ्गमय के प्रभृति विषयों का भावात्मक एकता की ओर प्रेरित करती है। साहित्यिक अनेकानेक जैन एवं जै नेतर उच्चकोटि के विद्वानों द्वारा
दृष्टि से भी इस ग्रन्थ का अपना विशेष महत्व है। प्रतिपादन किया गया है । इसके अनेक लेख अन्वेषणात्मक.
----नवभारत टाईम्स, दिल्ली
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
15
महावीर जयन्ती के अवसर पर प्रकाशित महावीर सभी लेख बहुत ही महत्वपूर्ण है और उनके यशस्वी जयन्ती स्मारिका अनूठा प्रयास है । स्मारिका १६६३ ।। लेखकों ने उन्हें निश्चय ही बड़े श्रम से लिखा है। जैन में विभिन्न विषयों के और विभिन्न दृष्टिकोणों से प्रकाशनों में इस प्रकार की उच्चकोटि की रचनाओं लिखे गये लेख हैं। इस स्मारिका के अनेक गोधपूर्ण का संकलन विरला ही देखा जाता है। प्रकाशन निबन्ध उत्तम सामग्री से समृद्ध बनाए गये हैं। हिन्दी अभिनन्दनीय है। के विकास में जैन धर्म, अपभ्रंश साहित्य प्रादि का
- जैन सन्देश विशेष योग है। इस दृष्टि से भी यह ग्रंक संग्रहणीय है।
महावीर जयन्ती स्मारिका के लेखों को पढ़ने से इस ज्ञानवद्धक और उपयोगी अंक के लिये संपादक
हृदय प्रसन्न हो जाता है और विद्वान सम्पादक को बधाई महोदय का प्रयत्न अभिनन्दनीय है।
देने की इच्छा होती है। सभी लेख पढने और मनन -नवभारत
करने योग्य हैं। .. राजस्थान जैन सभा द्वारा महावीर जयन्ती
-श्वेताम्बर जैन स्मारिका का प्रकाशन हो रहा है । आज के इस यांत्रिक राजस्थान जैन सभा द्वारा प्रकाशित स्मारिका सभी युग में जब प्रात्मा, परमात्मा, धर्म और दर्शन सम्बन्धी दृष्टियों से सर्वाङ्ग सुन्दर बन पड़ी है। प्राचीन जैन मूल्यों का विघटन हो रहा है ऐसे प्राणजीवी और साहित्य को प्रकाश में लाने की दिशा में जैन सभा लोकोपदेशक साहित्य का प्रकाशन एक शुभ कदम है। को यह एक सराहनीय प्रयास है । ऐसी स्मारिका की यह स्मारिका जैन धर्मावलम्बी के लिये ही उपयोगी काफी अर्से से कमी महसूस की जा रही थी। ऐसी नहीं हैं वरन् जिसे कला, साहित्य और संस्कृति से स्मारिकामों का प्रकाशन प्रति वर्ष होता रहे तो साहित्य थोडा भी प्रेम है उसके लिये भी संग्रहणीय है।
की एक बहुत बड़ी कमी पूरी हो सकती है। स्मारिका __-शोध पत्रिका एवं जिनवाणी की छपाई सुन्दर है तथा पृष्ठ संख्या को देखते हुए महावीर जयन्ती स्मारिका में चयन की गई सामग्री
- मूल्य दो रुपया काफी कम हैं । ऐसे प्रकाशन का हम
__ स्वागत करते हैं। जैन धर्म, दर्शन, तत्व साहित्य, संस्कृति कला और .
-दैनिक राष्ट्रदूत संस्थान के साथ साथ कतिपय अध्यात्म मनीषियों के
सभी लेख पठनीय हैं। सभी लेखकों ने विभिन्न व्यक्तित्व और कृतित्व पर भी एक सुन्दर प्रकाश डालती विषयों पर अपने दृष्टिकोण को लेकर मौलिक एवं है। अधिकारी विद्वानों के शोधपूर्ण हिन्दी व अंग्रेजी
नूतन लेख लिखे हैं जो अत्युपयोगी हैं । प्रत्येक को निबन्धादि का यह संग्रह पाठकों को एक खुराक एवं इस विशेषांक को मंगाकर अवश्य पढ़ना चाहिये। इस विद्वानों को एक स्फुरणा और विभिन्न तथ्यों को
स्मारिका द्वारा जैन धर्म, दर्शन, कला, इतिहास आदि जानकारी देने वाला है। प्रकाशक और सम्पादक इस
की जनता को सच्ची जानकारी प्राप्त होती है। चित्र तो हेतु अवश्य ही बधाई के पात्र हैं।
बड़े ही सुन्दर हैं जिनसे वैराग्यता प्रगट होती है। ...जैन भारती, कलकत्ता
--जैनमित्र, सूरत
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रकाशकीय राजस्थान जैन सभा द्वारा प्रकाशित महावीर जयन्ती स्मारिका का तीसरा अंक पाठकों की सेवा में प्रस्तुत करते हुये हमें अत्यन्त हर्ष अनुभव हो रहा है । गत दो वर्षों से प्रकाशित महावीर जयन्ती स्मारिका का पाठकों ने जो स्वागत किया है तथा विद्वानों ने उसकी जो सराहना की है उसी से प्रेरित होकर हम स्मारिका का यह तीसरा अङ्क प्रस्तुत कर रहे हैं । हमें विश्वास है, पाठकों ने जिस सहृदयता से दोनों अङ्कों को अपनाया है उसी सहृदयता से इस तृतीय अङ्क को भी अपनायेंगे।
गत दो वर्षों में प्रकाशित स्मारिकामों के अनुरूप यह स्मारिका नहीं बन पाई है, इसका हमें खेद है। इसका मुख्य कारण धनाभाव रहा है । स्मारिका के प्रकाशन तथा राजस्थान जैन सभा के अन्य कार्यक्रमों में जैन समाज का जो सहयोग प्राप्त होना चाहिये वह नहीं मिल पा रहा है । अपने अथक प्रयासों के बावजूद भी हम इस प्रकाशन के लिये वांछित धन संग्रह नहीं कर पा रहे हैं । सभा के सामने सदा ही आर्थिक संकट रहा है । यदि अार्थिक कष्ट की समस्या न हो तो इस प्रकार के अनेक प्रकाशनों की योजना बनाई जा सकती है तथा इस स्मारिका को भी अधिक सुन्दर एवं उपयोगी बनाया जा सकता है ।
स्मारिका के प्रकाशन में प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से जिन महानुभावों ने सहयोग प्रदान किया है उनके हम आभारी हैं। हम विशेष तौर पर उन सभी विज्ञापन दाताओं के भी कृतज्ञ हैं जिनकी सहायता के फलस्वरूप स्मारिका का प्रकाशन सम्भव हो सका है।
हम सम्पादक मण्डल के अध्यक्ष पं० चैनसुखदासजी न्यायतीर्थ एवं सम्पादक मण्डल के सदस्य सर्व श्री राजमल संघो एवं डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल के भी अत्यधिक प्राभारी हैं जिनके अथक प्रयास से इस स्मारिका का प्रकाशन सम्भव हो सका है। हम स्मारिका के मुद्रक अजन्ता प्रिन्टर्स के श्री सौभागमल जैन को भी धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकते जिन्होंने इसके समय पर प्रकाशन में पूर्ण सहयोग दिया है।
हमें आशा है, पाठक गणों तथा जैन समाज के धनी मानी सज्जनों से भविष्य में अधिक सहयोग प्राप्त होगा ताकि इस स्मारिका को हम अधिक विकसित रूप में पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत कर सकें।
रतनलाल छाबड़ा जयपुर
मन्त्री २४-४-६४
राजस्थान जैन सभा
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्पादकीय वक्तव्य
सन १९६४ की यह महावीर जयन्ती स्मारिका पाठकों के सन्मुख प्रस्तुत करते हुए हमें बड़ी प्रसन्नता होती है । सन १९६२ और सन १९६३ की महावीर जयन्ती स्मारिकाएं हमारे विद्वान पाठकों ने बहुत पसन्द की हैं । हिन्दी के प्रख्यात दैनिक एवं साप्ताहिक आदि पत्रों ने भी इनकी अनुकूल समालोचनाएं की हैं । संक्षेप में सभी ने हमारे इस प्रयत्न की प्रशंसा की है। इससे सचमुच हमें बड़ा बल मिला है और हमारे उत्साह में वृद्धि हुई है । इस सबके लिए हम उनके बहुत बहुत कृतज्ञ हैं ।
हम सब से अधिक कृतज्ञ उन विद्वान लेखकों के हैं जिन्होंने हमें इन स्मारिकाओं के लिए अपनी खोज पूर्ण रचनाएँ भेजकर उपकृत एवं अनुगृहीत किया है ।
हम इन स्मारिकाओं में जो कमियां रही हैं उनसे अच्छी तरह अवगत हैं । इनसे हमें स्वयं असन्तोष है; किन्तु हमारे साधन बहुत सीमित हैं और इसका कारण है प्रार्थिक कठिनाई । मुख्य रूप से यही कठिनाई मनुष्य के किसी भी लौकिक काम में बाधा उपस्थित कर देती है । इस बाधा पर विजय प्राप्त करना भी कोई सरल कार्य नहीं है । यदि जैन समाज के धनी सज्जन ऐसे पावन पवित्र कार्यों में अपने दान का सदुपयोग करें तो भगवान श्री महावीर की सर्व जीवन कल्याणकारिणी पुनीत वाणी को जन साधारण तक पहुंचाने में हमें बहुत मदद मिल सकती है ।
आवश्यकता इस बात की है कि जैन वाङ्मय के प्रचार प्रसार के लिए कोई योजना बद्ध काम हो । भारत की विविध भाषाओं में निबद्ध इस निधि के उपयोग की ओर अभी तक किसी का भी यथेष्ट ध्यान नहीं गया है । जो इस वाङ्मय में युगानुसारी एवं लोकोपयोगी तत्त्व है उससे सर्व साधारण तभी लाभ उठा सकता है जब यह हरएक के लिए सुलभ बना दिया जाय । चाहे किसी भी धर्म का
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
18
वाङ्मय हो वह राष्ट्र की सम्पत्ति है, क्यों कि वह मानव मात्र के उपयोग की वस्तु है। इसमें जो चिरंतन सत्य निहित होता है मानव निर्माण में उसका बहुत बड़ा हाथ होता है । जो कभी पुराना नहीं होता और नित्य नूतन होना ही जिसकी विशेषता है वही सत्साहित्य कहलाता है। ऐसे साहित्य पर काल और क्षेत्र की सीमाओं का कोई असर नहीं होता इसलिए कुछ. लोगों का यह कहना कि प्राचीन साहित्य आज के युग के लिए उतना उपयोगी नहीं है जितना अपने निर्माण के समय था बिलकुल व्यर्थ है। यह ठीक है कि प्राचीन को सदा ही संस्कार की जरूरत रहती है इसलिए नये निर्माण द्वारा उसका संस्कार होते रहना चाहिए। इसके लिए सतत प्रयत्नों की जरूरत है।
महावीर जयन्ती स्मारिका का प्रकाशन एक प्रकार से ऐसा ही एक प्रयत्न है। हमें बहुत बहुत प्रसन्नता होगी अगर हमारा यह सत् प्रयत्न आगे आने वाले अनेक वर्षों तक चालू रहा ।
इस सन १६६४ की महावीर जयन्ती स्मारिका में जिन विद्वान लेखकों ने अपनी रचनाएं भेजकर हमें अनुगृहीत किया है उनके प्रति फिर एक बार कृतज्ञता प्रकट करते हुए हम आशा करते हैं कि वे भविष्य में भी हम पर ऐसा ही अनुग्रह रखेंगे।
-चैनसुखदास
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
भगवान् महावीर का स्तवन
की महत्या भुवि वर्द्धमानं त्वां वर्द्धमानं स्तुति गोचरत्वम् । निनीषवः स्मो वयं मद्यवीरं विशीर्ण दोषाशय पाश बन्धम् ॥१॥
याथात्म्य मुल्लंध्य गुणोदयाख्या लोके स्तुति भूरि गुणो दस्ते । अणिष्ठ मध्यंश भशक्नुवन्तो वक्तुं जिनत्वां किमिव स्तु यामः ॥ २ ॥
तथापि वैयात्यमुपेत्य भक्त्या स्तोतास्मि ते शक्त्यनु रूप वाक्यः । इष्टे प्रमेयेऽपि यथा स्वशक्ति किन्नोत्सहन्ते पुरुषाः क्रियाभिः ||३||
त्वं शुद्धिशक्त्यो रुद्यस्य काष्ठां तुलाव्यतीतां जिन शाति रूपाम् ।
पिथ ब्रह्म पथस्य नेता महानितीयत् प्रतिवक्त मीशाः || ४ || कालः कलिर्वा कलुषाशयो वा स्तोतुः प्रवक्तुर्वचना नयो वा । त्वच्छास नैकाधिपतित्व लक्ष्मी- प्रभुत्वशक्ते रपवाद हेतुः ||५||
( युक्त्यनुशासन-प्राचार्य समन्तभद्र )
जगत में अपनी महान कीर्ति से चारों ओर जिनका आदर बढ़ रहा है ऐसे कर्म (विकार) विजेता भगवान वर्द्धमान महावीर को श्राज हम अपनी स्तुति का विषय बना रहे हैं अर्थात् स्तवन कर रहे हैं । ॥१॥ गुणों को अधिक बढ़ाकर कहना हो जगत में स्तुति कहलाती है । किन्तु गुरणों के समुद्र स्वरूप आपके गुणों के छोटे से छोटे अंश को भी कहने में असमर्थ हम प्रापका कैसे स्तवन करें ? ||२|| तो भी धृष्टता से शक्ति के अनुसार वाक्य बोलकर मैं यथाशक्ति आपका स्तवन करूंगा। क्या अपनी योग्यता के अनुसार अपने इष्ट विषय में लोग उत्साह नहीं करते ? || ३ || हे जिन ! शुद्धि और शक्ति के उदय की उपमा हीन शान्ति स्वरूप दशा को तुम प्राप्त हो । तुम ही ब्रह्मपथ मुक्ति के मार्ग के नेता हो । ( आपके अपार गुणों का हम वर्णन नहीं कर सकते ) । हम तो प्रापको केवल एक शब्द में यही कह सकते हैं कि आप महान हैं ||४||
यह कलिकाल है । श्रोता का प्राशय कलुषित है और वक्ता तत्त्व प्रतिपादन में नय दृष्टि का प्रयोग नहीं करता । यही तीनों तुम्हारे शासन की एकाधिपतित्व रूप प्रभुत्व शक्ति के अपवाद के कारण हैं || ५ ||
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
20
जरा जरत्याः स्मरणीयमी श्वरं-स्वयं वरी भूत मनश्वरश्रियः । निरामयं वीत भयं भवच्छिदं नमामि वीरं नृ सुरा सुरैः स्तुतं ॥१॥
(चन्द्र प्रभ चरित-महाकवि वीर नन्दी) जरा रूपी वृद्धा स्त्री के द्वारा जो सदा स्मरण करने योग्य है अर्थात जिनको जरा कभी प्राप्त नहीं होती, जो अनंत शक्तिमान हैं, जिनको शाश्वत लक्ष्मी ने स्वयं संवरण किया है, जो रोग रहित, भय रहित, भव बन्धन के विनाशक अतएव जो मनुष्य, सुर और असुरों के द्वारा स्तुत हैं ऐसे महावीर को मैं प्रणाम करता हूं।
भूयाद गाधः स विवोध वाधि-वीरस्य रत्नत्रय लब्धयेवः । स्फुरत् पयो बुबुद विन्दु मुद्रा-मिदं यदन्त स्त्रिजगत्तनोति ।।१।। ।
(धर्म शर्माभ्युदय-महाकवि हरिचन्द्र) महावीर का वह अगाध ज्ञान समुद्र तुम्हारे लिए रत्नत्रय-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, एवं सम्यक चारित्र-की प्राप्ति का कारण हो जिसज्ञानरूपी समुद्र में यह तीनों लोक एक जल के बुदबुदे के समान मालूम होते हैं।
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
भगवान महावीर एक सिद्धान्त थे
• पं. चैनसुखदास न्यायतीर्थ
हम यह समझने का प्रयत्न करें कि महावीर कोई व्यक्ति नहीं है। वह तो एक सिद्धान्त है, अहिंसा और अनेकान्त की बहती हुई विचार धारा है, मानव की लोकोत्तर जीवन पद्धति है। बुद्ध और ईसा पैथा गोरस और गांधी ने भी इसी जीवन पद्धति पर जोर दिया। इन सबने प्रेम सहानुभूति दया और करुणा का पावन स्रोत मानव मन में प्रवाहित करने का प्रयत्न किया है। महावीर केवल हमारे हैं यह कहकर कोई महावीर को नहीं समझ सकता । सूरज और चाँद के विशाल प्रकाश को सीमा में प्राबद्ध मानने का आग्रह करने वाला न सूरज को समझता है और न चाँद को। ___ महावीर की महत्ता को समझने के लिए हमें अपने हृदय को असंकीर्णं, उदार और महान् बनाना होगा।
भगवान महावीर बिहार के कुण्डलपुर नगर में राजा भगवान महावीर संसार के महान उपदेष्टा थे।
- सिद्धार्थ के यहाँ उनकी रानी माता त्रिशला के उनका आदर्श हमें जीवन शुद्धि की प्रेरणा देता है। गर्भ से उत्पन्न हुए थे।
बंधन-मुक्ति बिना-जीवन शुद्धि के नहीं हो सकती और उनकी प्रायु करीब ७२ वर्ष की थी। ३० वर्ष की जीवन शुद्धि का प्राधार अहिंसा है, इसलिए उन्होंने अवस्था तक वे घर में रहे ! फिर जगत् से विरक्त होकर ।
और अपने प्रवचनों में सर्वाधिक जोर अहिंसा पर दिया। तपस्वी जीवन की दीक्षा ले ली। १२ वर्ष तक उन्होंने उनकी अहिंसा का विस्तार मनुष्य तक ही नहीं, ऐसा घोर तप किया जिसे देख कर लोगों को प्राश्चर्य पशु पक्षियों तक ही नहीं कीट-पतंग भृग तक ही नहीं होता था। उनका तपस्वी जीवन परीषह और उपसर्गों
अपितु पेड़-पौधे और लताओं तक है। से भरा पड़ा था, पर वे एकस्थ और एकनिष्ठ होकर महावीर ने अहिंसा में ही विश्व कल्याण देखा और विनिश्चल भाव से अपने लक्ष्य की प्राप्ति में लगे रहे उनका संपूर्ण जीवन अहिंसामय बन गया। किसी भी और अन्त में ज्ञानावरण और दर्शनावरण, मोहनीय धर्म, जाति, प्रांत, और देश का मनुष्य उनके लिए और अन्तराय नामक चारघाति कर्मों का नाशकर लोकालोक प्रकाशक केवल ज्ञान को प्राप्त हए । इसके बाद की तेजस्विता इतनी प्रभावक थी कि शेर और गाय जैसे ३० वर्ष तक सारे भारतवर्ष में भ्रमण कर वे अहिंसा जाति विरोधी जीव भी उनके सामने अहिंसक हो सत्य और असम्प्रदायवाद का प्रचार करते रहे।
जाते थे।
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
22
हम यह समझने का प्रयत्न करें कि महावीर कोई दिया क्योंकि उन्होंने अपने गहरे अनुभव से यह जान व्यक्ति नहीं हैं। वह तो एक सिद्धान्त है, अहिंसा और लिया था कि वह भी जगत की एक नाम अनेकान्त की बहती हुई विचार धारा है, मानव की मात्र है। लोकोत्तर जीवन पद्धति हैं । बुद्ध और ईसा, पैथा गोरस
त्रिकालाबाधित सत्य को प्रकट करने वाली उनकी पौर गांधी ने भी इसी जीवन पद्धति पर जोर दिया है।
दिव्य वाणी में मानव की सभी समस्याओं का हल था। इन सब ने प्रेम, सहानुभूति, दया और करुणा का पावन
उनके उपदेश निवृत्ति मय भी थे और प्रवृत्तिमय भी। स्रोत मानव मन में प्रवाहित करने का प्रयत्न किया है ।
उनकी शिक्षाएं न एकान्त आध्यात्मिक थीं और न महावीर केवल हमारे हैं यह कहकर कोई महावीर को
एकान्त भौतिक । वे पारलौकिक होकर भी ऐहिक थीं। नहीं समझ सकता । सूरज और चांद के विशाल प्रकाश
उनमें आग्रह का मोह नहीं था। यह प्राग्रह का मोह ही को सीमा में प्राबद्ध मानने का आग्रह करने वाला न
मनुष्य को सांप्रदायिक मूढ़ बनाता है । वे संप्रदाय के सूरज को समझता है और न चांद को । महावीर की
मोह को एक भयंकर हलाहल मानते थे। क्योंकि महत्ता को समझने के लिए हमें अपने हृदय को असंकीर्ण,
सांप्रदायिकता के किले में कैद होने से मनुष्य विश्व में उदार और महान बनाना होगा।
विस्तृत सत्य के कणों को एकत्रित कर उनका यथार्थ महावीर का जीवन, संघर्ष का ज्वलंत उदाहरण उपयोग नहीं कर सकता और न कभी व्यापक सत्य के है। पर यह संघर्ष किसी व्यक्ति, समाज अथवा राष्ट्र दर्शन ही कर सकता है । जगत कल्याण के लिये सांप्रके साथ नहीं अपितु अपनी ही बुराइयों के साथ था । दायिक बुद्धि कितनी भयंकर है इसकी चर्चाएं उनकी समववे पहले अपनी ही बुराइयों पर विजय प्राप्त कर जिन सररण सभा में खूब रहती थीं। अथवा जिनेन्द्र कहलाये और फिर मानव मन की शुद्धि
भगवान महावीर ने ब्रह्म भेष पर कभी जोर नही के प्रयत्न में लगे । कोई भी आदमी उनके लिए बुरा न
दिया वे तो प्रात्मा की अभ्यंतर शुद्धि को महत्त्व देते थे।
। था केवल बुराइयां बुरी थी।
एक स्थान पर उन्होने कहा है :महावीर के मानस में विश्व कल्याण की प्रेरणा थी और इसी प्रेरणा ने उन्हें तीर्थंकर बनाया । उनका न बि मुडि एण समणो, न ओंकारेण बंमणो । सर्वोदय तीर्थ प्राज भी उतना ही ग्राह्य, ताजा और
न मुणी रण वासेरण, कुस चीरेण न तावसो।। प्राण प्रद है जितना उनके समय में था। उनके तीर्थ में
अर्थात्-मूड मुडा लेने से कोई श्रमण नहीं होता में संकीर्णता थी और न मानवकृत सीमाएं। जीवन की
और न 'ओं' के उच्चारण मात्र से ब्रह्मण होता है। जिस धारा को वे मानव के लिए प्रवाहित करना चाहते थे
बनवास करने मात्र से कोई मुनि नहीं होतावही वस्तुतः सनातन सत्य है । महावीर परिस्थितियों के
और न बल्कल-चीर धारण करने से कोई तापस दास नहीं थे । विपत्तियों की चट्टानों के बीच रहकर
हो जाता हैउन्होंने प्रात्मा के चैतन्य स्वरूप का अनुभव किया था । कठिनाइयों और यातनाओं के विष को घोलकर मानो
गो वालो भंडवालो वा जहा तद्दब्बरिणस्सरो । वे इस तरह पी गये थे कि उनका उन पर कुछ भी असर
एवं अरिणस्सरो तं पि सामण्णस्य भविस्ससि ।। नहीं होता था। यही कारण है कि जगत की कोई भी जैसे ग्वाल गायों को चराने पर भी उनका मालिक प्रतिकूल स्थिति उन्हें क्षुब्ध नहीं कर सकी । जीवन की नहीं हो सकता और न भंडारी धन की संभाल करने से सुविधाएं उन्हें ग्राह्य नहीं थीं। स्वर्ग उनके पैरों में धन का मालिक वैसे ही केवल वेष की रक्षा करने मात्र में लोटता था, पर उस ओर उन्होंने कभी ध्यान ही नहीं से कोई साधुत्व का अधिकारी नहीं हो सकता।
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
28
प्रात्म विजय पर जोर देते हुए भगवान ने संयम के प्रति द्वष भाव को छिन्न-भिन्न करो, विषयों के कहा है कि :
प्रति राग भाव का नाश करो, ऐसा करने से ही संसार - इमेण चेब जुज्झाहि किं ते जुज्झेरा बज्झयो जुद्धा- में सुखी होंगे । रिहं खलु दुल्लभं ।
मनुष्य को कर्तव्य के प्रति सावधान करते हुए । अर्थात् तेरी आत्मा के साथ ही युद्ध कर, बाहरी युद्ध भगवान महावीर अपने प्रधान गणधर गौतम को सम्बोधन करने से क्या प्रयोजन है। दुष्ट प्रात्मा के समान युद्ध करने करते हुए कहते हैं :योग्य दूसरी चीज नहीं है।
दुम पतए पंड्यए निवडइ राइ गणाण अच्चए क्योंकिः
एवं मरणयारण जीवियं समयं गोयम मा पमायए। गुरणेहि साहू अगुरणेहिऽसाहू गिण्हाहि साहू गुण मुचऽसाह ।।
जैसे अनेक रात्रियों के चले जाने पर वृक्ष के पत्ते वियाठिया अप्पग पप्प एणं
पीले पड़कर झड़ जाते हैं उसी तरह मनुष्य जीवन भी जो राग दोसे हि समो स पुज्जो॥
आयु के समाप्त होने पर खत्म हो जाता है, इसलिए हे अर्थात् -मनुष्य गुणों से साधु होता है और दोषों गौतम ! क्षणभर भी प्रमाद मत करो। से असाधु ।
आज की दुनियां में संसार के राष्ट्र परस्पर अनेक इसलिए सद्गुणों को ग्रहण करो और दुर्गुणों को संघर्षों में लगे हुए हैं। छोड़ो। जो अपनी ही आत्मा के द्वारा अपनी आत्मा को
किसी को शान्ति नहीं है । एक दूसरे से भय भीत जानता है वही पूज्य है।
हैं । वे भयभीत ही सोते हैं और भयभीत ही उठते हैं । सखी होने का उपाय बतलाते हुए भगवान एक सब के मन में हिंसा है, इसलिए किसी का दिल साफ नहीं जगह कहते हैं कि :
है और घातक शस्त्रों के निर्माण की होड़ में एक दूसरे आयाब याही चय सोग्रमल्लं
को पीछे ढकेलना चाहते हैं । यह एक ऐसी समस्या है कामे कमाहि कमियं क्खु दुक्खं ।
जिसका हल किसी के पास नहीं है । यदि वे भगवान छि दाहि दोसं बिरणयेज्ज रागं
महावीर के उपदेशों का अनुसरण कर अहिंसा, सत्य, एवं सुहीं होहिसि संपराये ॥
और अपरिग्रह वाद को अपने जीवन में उतारें तो उनकी अर्थात-पात्मा को तपायो, सुकुमारता का त्याग सभी समस्याएं हल होकर जगत में स्थायी शान्ति करो, कामना को दूर करो अवश्य ही दुःख दूर होगा, उत्पन्न हो सकती है ।
|
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
World's Best » » »
TALC POWDER
EXPORTED ALL OVER THE WORLD USED BY WORLD'S BEST COSMETIC
MANUFACTURERS
Locally consumed by all Leading Textile, Paper and Rubber Mills and Sundry Consumers.
Manufactured by :
M/s. JAIPUR MINERAL DEVELOPMENT SYNDICATE (Private) LTD.
MOTI SINGH BHOMIA-KA-RASTA, JOHARI BAZAR,
POST BOX No. 19
JAIPUR (Rajasthan)
Phone H. O. Jaipur 3091 & 3092 Phone :
Factory at Dausa 5
Grams JAITALC JAIPUR Grams: JAITALC DAUSA
DISTRIBUTORS ALL OVER THE WORLD
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री महावीर अतिशय श्रेत्र के निज मन्दिर का प्रवेश द्वार ।
.
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
नौतयागुरुपानऽहल्लाअगिगारदहियाज्योतुलपहल्ला
मायदसतगुरुदादसनाकरित्राअवदीवाडिलीपयडीमो घदी करमकपाटउधाडि-॥ नवथितिजिन्हकाघटिगशा तिन्दकीयहडपदेसाकहतबमारिसिदासयोगमुदनसमुके लस।
॥संवतपश्चग बसा वर्धमानकी पोथीलिपीकृतालिघतामथेन जेमलागढबाबतीमध्या।
प्रसिद्ध जैन कवि श्री बनारसीदास द्वारा रचित एवं १८वीं शताब्दी के प्रारम्भ में लिपिबद्ध किये
उनके एक प्रमुख ग्रन्थ का एक पृष्ठ ।
-
HOOL
-
DOOR
TOTRALol.
20.
चौधरियों के मन्दिर, जयपुर का कलात्मक पुटा ।
.
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
भारतीय संस्कृति को जैन संस्कृति का योगदान
• डा० छविनाथ त्रिपाठी हिन्दी विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय
ऋषिभदेव, अरिष्ट नेमि, पार्श्वनाथ और महावीर द्वारा प्रवर्तित प्राध्यात्मिक परम्परा त्याग और तप को प्रमुखता देती रही, इसीलिए वे सम्पूर्ण भारतीय समाज के लिए आदर के पात्र रहे,... ........ .......सन्यास, साधना, कृच्छतप, निस्पृहता और वैराग्य के प्रतिष्ठापक इन जैन तीर्थङ्करों ने समाज को संतुलित रखने का महान् प्रयत्न किया। वृहस्पति और चार्वाक हेय और निंद्य माने गए, परन्तु जैन तीर्थङ्कर सदाचार के कारण ही समाज के आदरणीय बने ।
सार-भर में जो कुछ सर्वोत्तम है, उससे परिचित सातत्य और परिवर्तन की शक्तियों में निरन्तर संघर्ष
होना ही संस्कृति से परिचित होना है । सर्वोत्तम चलता रहता है। परिवर्तन की गति शक्तिशालिनी होती क्या है ? इसका निर्णय करना किसी के लिए भी संभव है, वह विजयिनी भी होती है, परन्तु सातत्य की शक्ति नहीं है। देश, काल और परिस्थिति भेद से एक ही अपनी छाप, अपनी मुहर, उस पर ठोक देती है जिसे वस्तु, एक ही विचार और एक ही सिद्धान्त उत्तम, सर्वथा मिटा पाना परिवर्तन के लिए भी संभव नहीं मध्यम और अधम की श्रेणी में बिठा दिये जाते हैं। हो पाता। संस्कृति के स्थायी तत्त्व इन्हीं से निर्मित मानसिक शक्तियों और उनके प्रतिस्फलन को अभिव्यक्त होते हैं । करने वाली संस्कृति भी देश-काल और परिस्थिति से भारत में आज अनेक जातियां बसती हैं। इसकी परे, उसके प्रभाव से रहित, कोई अलिप्त वस्तु नहीं कोई भी जाति यह दावा नहीं कर सकती कि भारत के है। अतः कालक्रम से आ पड़ने वाले मानव-मन पर; समस्त मानव-मनों और विचारों पर उसी की छाप है. उसके प्राचार और उसकी रुचियों पर विकृति की मलि- उसी का आधिपत्य है। आज के इस भारत की संस्कृति नता को परिष्कृत या संस्कृत करने वाली शक्ति का न वैदिक है न हिन्दू, न जैन है न बौद्ध, न यवन है न नाम ही संस्कृति है। संस्कृति का स्वरूप परिवर्तित होता मुसलिम, वह पूर्ण रूप से प्रांग्ल भी नहीं है। इस पर रहता है। सभ्यता के जड़ आवरण में संस्कृति की इन सभी की छाप है, केवल इन्हीं की नहीं अपितु उन चेतना आबद्ध होकर भी अपनी दीप्ति से, अपना महत्त्व जातियों की भी, जो भारतीय जनसागर में पूर्णतः स्थापित कर लेती है । बाह्य-परिवेष्ठन की भिन्नता विलीन हो गई हैं । ईरानी, पार्थियन, वैक्ट्रियन, सीथियन संस्कृति के बाह्य रूप को भी परिवर्तित कर देती है, हूण, तुर्क, यहूदी अादि समय समय पर आये, भारतीय फिर भी उसके मूल तत्वों में से कुछ ऐसे शाश्वत और समाज में घुल मिल गये, अपनी विशेषताओं और संस्कृतिचिरन्तन होते हैं जिनके आधार पर न केवल उसे जन्य विचारों और परम्पराओं की भेंट इस भारतीय पहचाना जा सकता है, अपितु उसके अतीत का-इतिहास संस्कृति को देकर । सुप्रसिद्ध इतिहासकार डाडवेल के का भी अन्वेषरण कर सकना संभव हो जाता है। शब्दों में भारतीय-संस्कृति उस महासमुद्र के समान है.
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
जिसमें अनेक संस्कृति - सरितायें आकर विलीन हो गई हैं। भारत में आज जो कुछ है उसको रचना में भारतीय जनता के प्रत्येक भाग का योगदान है। जोट ने भारतीय समाज की इसलिए प्रशंसा की है कि उसमें विभिन्न जातियों, यादों और विचारों तथा धर्मों को एक ही सांधे में ढाल लेने की अद्भुत क्षमता रही है । भारतीय समाज की बहुविधता, उसकी संस्कृति की बहुमुखता सदा विश्व समाज और विश्व संस्कृति का प्रतीक रही है । आज भी वह विश्व के परस्पर विरोधी विचारों के लिए आदर्श बन सकती है । ऐसी महान भारतीय संस्कृति के स्वरूप निर्माण में, उसके निखारने में जैन संस्कृति का महान् योग रहा है। पाज की भारतीय संस्कृति में जैन संस्कृति स्वयं समाहित है, ग्रतः उसके योगदान के लिए तो प्रतीत के इतिहास पर ही दृष्टिपात करना होगा ।
"
जैन धर्म और उसकी प्रमुख विचारधारा प्राग्वैदिक मानी जाने लगी है। इतिहासकारों को दृष्टि मोहेनजोदरो में प्राप्त चित्रों की मुद्रात्रों की ओर गई है और वे उसमें जैन - भावना का दर्शन करने लगे हैं। खड़े मूर्तिचित्रों में कायोत्सर्ग की छाया दोख पड़ी है। बैल, हाथी, घोड़ा आदि प्रर्तक चिन्हों पर चैत्यवृक्षों के अंकन से भी इसकी पुष्टि होती है । जो तर्क या तथ्य जैन पक्ष में प्रस्तुत किए जाते हैं, वे हो शैव या रुद्र- पक्ष में । ऋषभ देव और वृषभ - देव (शिव) को एकता पर खोज का कार्य बहुत कम हुआ है। योग और तप की प्रमुखता के कारण आरम्भ में दोनों एक ही रहे हों यह तथ्य संभावना से परे नहीं है।
जैन धनुश्रुतियों के अनुसार चौदह मनु हुए हैं। अन्तिम मनु नाभिराज थे उन्हीं के पुत्र ऋषभदेव ने अहिंसा धौर अनेकान्तवाद का प्रवर्तन किया। लिपि की देन इन्हीं की मानी जाती है । क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इस विवर्ग की रचना उन्होने ही की उनके पुत्र भर ने हो तीनों वर्णों में से व्रत और चरित्र धारण करने वाले व्यक्तियों को ग्राहारण बनाया। इस अनुभूति में सत्य का पर्याप्त अंश है। यह तो निश्चित है कि वैदिक संहिताओं के काल में, वर्णव्यवस्था का परवर्ती स्वरूप
I
नहीं था । "ब्राह्मणस्य मुखमासीत् बाहू राजन्य : " जैसे एकाध मन्त्र बाद के सिद्ध हो जाते हैं । वैदिक जीवन की जैसी कल्पना ऐतिहासिकों और अध्येताओं ने की है। उसके अनुसार उस जीवन में उल्लास था, स्वच्छन्दता थी; परलोक के भय से मुक्त वे इह लोक के भौतिक सुखों के अर्जन में अधिक संलग्न थे। स्वर्ग के लिए भी त्याग करते थे पर स्वर्गीय देवताओं में ऐहिक सुख की अधिक याचना करते थे। यहीं के शत्रुयों का संहार चाहते थे । वे भावुक थे, अतः प्रकृति के प्रत्येक उपकरण में देवत्व की प्रतिष्ठा कर लेते थे। जीवन का प्रत्येक
कर्म यश था वे मुबी थे। इस जीवन मे
-
और शरीर कष्ट देने वाले विविध व्रतों का मेल बिठाना संभव नहीं है । इसका अर्थ यही है कि वैदिक संहिताकाल में ही दोनों विचारधारायें समान रूप से प्रवाहित हो रही थीं और सत्य के साथ तप का उल्लेख करने वाले अनेक मन्त्र उपलब्ध हो जाते हैं-ऋतं च सत्यं चाभिधातपसो ऽभ्यजायत जैसे मन्त्रों की कमी नहीं है। यज्ञ घोर तप मार्ग में निरत मानव सृष्टि के बहुविध रूपों के साथ प्रकृति-सृष्टि के अनेक रूपों को देख कर यदि कोई वैदिक ऋषि-
इयं विसृष्टि र्यत श्राबभूव यदि वा दधे यदिवा न । योश्याध्यक्षः परमे व्योमन्सो अंग वेद यदि वा न वेद ।
। नासदीय सूक्त ७ ॥
कह उठता है कि ये नाना सृष्टियां कहां से हुई ? किसने की, किसने नहीं की? परमधाम में रहनेवाला इसका अध्यक्ष भी यह जानता है या नहीं ? यो आश्चर्य नहीं होना चाहिए । ऋषभ देव प्रौर अरिष्ट नेमि दोनों हो वैदिक ऋषि हैं और उन दोनों की विचारधारा - तपोमार्ग ने वैदिक संहिताओं के मन्त्रों को भी प्रभावित किया है । सदाचार और तप एवं हिंसा की जो त्रिवेणी ऋषभ देव ने प्रवाहित की संहिता क्षेत्र
में कम है पर उसकी धारा का प्रभाव नहीं ।
ऋतस्य पत्यों न तरन्ति दुष्कृतः । ६४७३।६ अहमतात्सत्यमुपैमि ॥ यजुः ११५ ॥ ऋतस्य यथा प्रेत । यजुः ७१४५ ।।
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
नानृतं बदेन्न मांसमश्नोयात् न स्त्रियमुपेयात् ।।
मधुरवाणी बोलनी चाहिए। जीवों के प्रति प्रमाद तैत्तरीय सं० २,५,५,३२ न हो। देवताओं ने यज्ञ से श्रम से, तपस्या से और ये या इसी प्रकार के बहत से मन्त्र इस तथ्य की आहुतिया
आहतियों से स्वर्ग लोक को प्राप्त किया। स्पष्टतः यहां पुष्टि कर सकते हैं कि ऋत, सत्य, अहिंसा और सदाचार जिन चार मार्गों का निर्देश है, उनमें तप भी है । ऐतरेय को वैदिक संहिता काल में पूर्ण मान्यता प्राप्त थी। तो ऋग्वेद का ब्राह्मण है, पर उससे अधिक परवर्ती
अथर्ववेद के गोपथ ब्राह्मण में जबपुराण, वैदिक आख्यानों एवं संकेतों के वद्धित, पल्लवित और पुष्पित, स्वरूप हैं। पुराणों की भावना, ब्राह्मणो नैव गायेन्न नृत्येत्' । पूर्वार्ध २।२१ ।। वैदिक भावना के मार्ग का ही अनुसरण करती है ।
जैसा निर्देश मिलता है, तब उस जैन अनुश्र ति श्रीमद्भागवत में ऋषभदेव का चरित विस्तृत रूप में
की पुष्टि ही होती है, जिसके अनुसार ऋषभदेव के पुत्र प्रस्तुत किया गया है और उन्हें पुण्यश्लोक माना
भरत ने क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वणों में से व्रत और गया है
चरित्र धारण करने वाले व्यक्तियों को ब्राह्मण बनाया । _ 'इति ह स्म सकल वेद लोक देव ब्राह्मण गवां उनके शील और सदाचार के कुछ निश्चित नियम
परमगुरो भगवतः निर्धारित किए गये। ब्राह्मण काल में ब्राह्मणों के ऋषभाख्यस्य विशुद्ध चरितमीरितं पुसो समस्त । अभ्युदय का श्रेय उनके शील और सदाचार को ही दिया दश्चरितानां हरणम्'
जा सकता है। इसके व्यवस्थापक भरत थे । गृहस्थ ऋषभदेव का चरित्र विष्णुपुराण में भी वरिणत है
जीवन का नियन्त्रण ब्राह्मणों के हाथ पाया और
ब्राह्मणों तथा गृहस्थ जीवन दोनों का ही नियन्त्रण, और दोनों ही स्थानों पर उन्हें चरम योगिन् और गृह
उन गृह त्यागी श्रमणों और तपोनिरत सन्यासियों के त्यागी कहा गया है । वे संन्यस्त हैं श्रमण हैं । श्रमण
हाथ पाया, जो समाज से यत्किचिन लेकर प्रचुर संस्कृति को अवैदिक या प्राग्वैदिक सिद्ध करने की भी
देते थे । इसी द्वितीय वर्ग के प्रतीक ऋषभ देव थे । यदि कोशिश होती है। वेद, लोक, देव और ब्राह्मण का
इस तथ्य को स्वीकार कर लिया जाय, तो पागे का गुरुत्व ऋषभदेव को कदापि न प्राप्त होता यदि वे
सारा इतिहास अपने पाप स्पष्ट हो जाता है, तीर्थ करों अवैदिक होते । अतः यह स्वीकार किया जा सकता है
की देन सामने आ जाती है। जब जब गृहस्थ जीवन कि वैदिक साहित्य में तप और सदाचार को कुछ मन्त्रों
और उसके नियन्त्रकों में विकृतियां पाई, तीर्थकरों ने में जो प्रमुखता प्राप्त हुई है, वह ऋषभदेव की साधना
उन्हें सचेत, सजग और सतर्क किया। उनके चिन्तन, का ही फल है।
ध्यान तप और समाधि में व्यक्ति निष्ठता ही नहीं, परवर्ती अथर्ववेद और ब्राह्मण अन्यों में भी यह समाज निष्ठता भी थी। परम्परा उत्तरोत्तर बल पकड़ती गई है । संहितागत
भारण्यक और उपनिषद्, ब्राह्मण ग्रन्थों के ही भाग मन्त्रों की अपेक्षा, ब्राह्मण ग्रन्थों में अहिंसा तप और
माने जाते हैं। उपनिषद् काल की जो भी सांस्कृतिक सदाचार के निर्देशक उद्धरण प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हो
विचारधारा थी, उसी के ये तीन रूप हमारे सामने झाले जाते हैं।
हैं। यज्ञ एवं कर्मकाण्ड से सम्पन्न ब्राह्मण प्रधान गृहग्य मधुमती वाचमुदेयम् । अथर्व ७१५२१८
जीवन की विचारधारा, अरण्य में तपोनिष्ठ, ज्ञान और मा जीवेभ्यः प्रमदः । अथर्व ८।१७।
चिन्तन को प्रमुखता देने वाले आरण्यक और उपनिषदों देवावै यज्ञेन, श्रमेण, तपसाऽऽहुतिभि :
के मनीषियों की विचारधारा, तथा वैखानस और श्रमरण स्वर्गलोकमायन् ।। ऐतरेय ३।४२। जीवन की विचारधारा । उपनिषदों के चिन्तन की
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
४
मुखता इस बात का प्रमाण है कि इस क्षेत्र में न तो संकीर्णता थी, न किसी प्रकार को निश्चित विचारधारा ही बन पाई थी । उपनिषदों से एक तथ्थ निश्चित रूप से प्रमाणित हो जाता है कि उस समय तक यज्ञ एवं उसकी दक्षिणा का स्वरूप विकृत हो गया था । वह एक
डम्बरपूर्ण दिखावा मात्र रह गया था । कठोपनिषद् का नचिकेता जब अपने पिता के दान का विरोध करते हुए कहता है
पीतोदका जग्धतृणा दुग्धदोहा निरिन्द्रिया : अनन्दा नाम ते लोकास्तान्स गच्छति ता ददत् | १३ |
तो दोनों ही स्थितियां हमारे सामने आ जाती हैं, दान में ठठरी और निकम्मी गायें दी जाने लगीं, जो रिटायर्ड हो चुकी होतीं और ऐसे प्रदर्शन का विरोध स्वयं नई पीढ़ी ( अपना पुत्र ही ) करने लगी थी । इस परिस्थिति ने श्रमण संस्कृति को बल दिया। साधना और तप, चिन्तन और ज्ञान यज्ञ उन प्राडम्बरपूर्ण यज्ञों से उत्तम समझे जाने लगे. जिनका नेतृत्व गृहस्थ जीवन में ब्राह्मण करते थे ।
उपनिषद् का ऋषि, स्वर्गसुख को हेय समझता था । वह जीवन व मृत्यु के वास्तविक रहस्यों के उद्घाटन के लिए सचेष्ट था । उसे आत्मविद्या के विकास का श्रेय प्राप्त हुआ | पंचतत्व, महत्तत्व के लोम और विलोम गति से वह परिचित हुया । शरीर की क्षणभंगुरता, आत्मा की श्रमरता, पुनर्जन्म, कर्मफल, संस्कार और शुद्धि, द्वेत और श्रद्वैत का द्वन्द्व, ऋत और अमृत के द्वन्द्व में नीति और अनीति के द्वन्द्व की प्रतिष्ठा, संबुद्धिजन्य सहजज्ञान को साधना का अंग मानना, ग्रादि उपनिषद् के चिन्त्य और प्रतिपाद्य थे । ग्रात्मज्ञान प्रौर ब्रह्मज्ञान किसी जाति विशेष की सम्पत्ति या उसके साध्य नहीं रह गये । उपनिषद् के ऋषियों में सत्य काम जाबाल जारज था, जनश्रुति शूद्र थे, रेक्व गाड़ी वाला था । यज्ञीय हिंसा से विरत वैराग्य और संन्यास को प्रमुखता देने वाले इन उपनिषदों के स्वरों में यज्ञवाद का विरोध तो है ही, उन यज्ञ कराने वालों पर भी आक्रमण किया गया है । इस दिशा में छान्दोग्योपनिषद्
अधिक कटु है । वह दान ग्राहक पुरोहितों की पंक्ति को श्वान पंक्तिवत् कहने में संकोच नहीं करता । केवल हिंसा ने ही नहीं, प्रति लोभ ने भी यज्ञों के प्रति विद्रोह को बल दिया ।
प्राचार्य नरेन्द्र देव ने बौद्ध दर्शन में लिखा है कि 'ब्राह्मण आस्तिक थे वे निस्पृह और सरल होते थे, उन्हें विद्या का व्यसन था, इसीलिए वे समाज में प्रादरणीय समझे जाते थे । ब्राह्मण काल में पुरोहित मानुषी देवता हो गए थे, किन्तु जब वे संकीर्ण हृदय और स्वार्थी होने लगे एवं अपने को समाज में सबसे ऊंचा समझने लगे, तब समाज में उनके प्रति प्रतिक्रिया उत्पन्न हो गई। इस प्रतिक्रिया की अभिव्यक्ति उपनिषदों के चिन्तन में हुई । इसका नेतृत्व नई पीढ़ी के हाथ में था जो वैदिक या जैन ग्रनुति के अनुसार निर्मितवर्णं व्यवस्था को नहीं मानता था । जो नरबलि से पशुबलि तक और पशुबलि से भी अन्न बलि तक मानव को खींच लाने में सफल हो गये, वे जैन तीर्थकर भी इस नेतृत्व में योगदान कर रहे थे । निश्चय ही ऐतरेय ब्राह्मण के हरिश्चन्द्रोपाख्यान में वर्णित नरबलि के विधि को पूर्ण व्यवस्था हो जाने पर भी उसके रोकने में सफल विश्वामित्र जाति व्यवस्था के शैथिल्य के ही पक्षपाती थे । ऋषियों की, ऋषभदेव और विश्वामित्र की परम्परा का मिलन उपनिषद् काल में ही हो गया। दोनों को समान मंच मिला और भारतीय समाज का नेतृत्व उन श्रमणों और सन्यासियों के हाथ श्रा गया जो अपने शील और सदाचार, तप और कृच्छ साधना द्वारा समाज में ब्राह्मरणों से अधिक प्रादरणीय बन गये थे ।
वेद को प्रसारण मानने वाले छः श्रास्तिक दर्शनों का मूल तो उपनिषदों में ढूंढ लिया जाता है पर जैन और बौद्ध दर्शन के मूल स्रोतों को उपनिषदों में ढूंढने का प्रयास त्याज्य माना गया । कुछ कुछ उपेक्षा के कारण और कुछ कुछ साम्प्रदायिक कट्टरता के कारण । उपनिषदों की देन श्रमरणवर्ग को है जो वैदिक और
वैदिक ब्राह्मण और प्रब्राह्मण दोनों ही थे। पर न जाने क्यों, जैन और बौद्ध दर्शन ने उपनिषदों से अपना
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करना उचित नहीं समझा । आगे चल कर जैन दर्शन में जिस स्याद्वाद और अनेकान्तवाद की प्रतिष्ठा हुई उसके पोषक सैकड़ों उद्धरण उपनिषदों में भरे पड़े है । केनोपनिषद् का एक मन्त्र देखिए
नाहं मन्ये सुवेदति नो न वेदेति वेद च । यो नस्तद्व ेद नो न वेदेति वेद च ||२२
मेरा विचार है कि जैन और बौद्ध दर्शन के मूल उत्स भी उसी प्रकार उपनिषद् हैं जिस प्रकार अन्य छः आस्तिक दर्शनों के । इन्हें नास्तिक दर्शन भी केवल इसलिए कहा गया कि वे वेदों को प्रमाण नहीं मानते । जैन दर्शन का उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य, तर्क को दृष्टि से अधिक वैज्ञानिक भी है और वैशेषिक के अरतुवाद से इसका विशेष ग्रन्तर भी नहीं है ।
जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाश में पुद्गल मूर्त और शेष अमूर्त हैं । जीव और पुद्गल के सम्बन्ध के प्रति जैन दृष्टिकोण वेदान्त के कर्म और संस्कारवाद के अधिक समीप है । जीव अजीव, प्राश्रव, बंध] संवर, निर्जरा और मोक्ष की प्रक्रिया, कर्म संस्कारों से मुक्ति प्रक्रिया की ही हो जैन दर्शन का भी
कहानी है मोक्ष है
।
।
कर्म शरीर से मुक्ति
प्रास्रव पर नियन्त्रण
पर प्रतिबन्ध भी योग
तप से ही सम्भव है । संस्कारों
और तप पर ही निर्भर करता है । वेदान्त का जीवन्मुक्त स्थितप्रज्ञ, परमहंस वही है जो जैनों का अर्हत् है । वह स्वयं सशरीर परमात्मा है । अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख र अनन्तवीर्य ग्रन एवं सिद्ध ग्रात्मा के गुण हैं । पुद्गल के गुणों से उसे सर्वदा के लिए मुक्ति मिल जाती है । योगियों का ईश्वर भी मनुष्यों केउच्चतम विकास का प्रतीक है । साधना के द्वारा वहां तक पहुंचना ही मानवता का लक्ष्य है । समन्वय सह-अस्तित्व और सहिष्णुता को ही शारीरिक स्तर पर रखने का नाम हिंसा है और मानसिक स्तर पर उसे ही अनेकान्तवाद कह सकते हैं । प्रत्येक वस्तु अनन्त गुण, पर्याय और धर्मों का प्रखंड पिण्ड है । किसी भी वस्तु को एक व्यक्ति जिस दृष्टिकोण से देख रहा है वह उतनी ही नहीं है । उस वस्तु में अनेक
५
कोण से देखे जाने की क्षमता है । उसका विराट स्वरूप, अनन्त धर्मात्मक है | किसी भी विरोधीदृष्टिकोण में सत्य का अंश विद्यमान हो सकता है। जैन - भावना के इस स्वरूप की अनेकान्तवाद की स्थिति की घोषणा सारे ही उपनिषद् कर रहे हैं । केनोपनिषद् का उक्त उद्धरण साक्षी रूप में प्रस्तुत कर दिया गया है। जैन दर्शन का यह समन्वयवादी दृष्टिकोण भारतीय संस्कृति के लिये एक बहुमुल्य तात्त्विक देन है ।
उपनिषद् के परवर्ती काल में श्रमरण - संस्कृति का विकसित और प्रतिवादी रूप भी हमें रामायण आदि में दृष्टिगोचर होता है । वाल्मीकि अब्राह्मण ऋषि थे । रामायण के माध्यम से उन्होंने मर्यादा पुरुषोत्तम के चरित्र द्वारा सामाजिक व्यवस्था के स्वरूप और प्रदर्शो को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया । शरभंग और सुतीक्ष्ण आदि की कृच्छतप साधना जैन मुनियों की साधना का ही रूप प्रस्तुत करती है । दुर्धर्षतप, चान्द्रायण व्रत, कृच्छ साधना पंचाग्नि सेवन आदि का उद्देश्य मुक्ति के मार्ग में बाधक इस शरीर से मुक्ति पाना ही था । राम का चरित्र ऐसा है, जिसने अयोध्या से लेकर लंका तक की संस्कृति को एक मंच पर प्रस्तुत कर दिया । उत्तर का ब्राह्मणवाद, मध्य भारत का जातिविहीन तप और कृच्छ्रसाधनावाद, दक्षिरण का भोगवाद, सभी राम के प्रयत्न से एक ही संस्कृति के अंग बन गये । ब्राह्मण धर्म में विष्णु के अवतार, शैव धर्म में परम शैव, बौद्ध धर्म में बोधिसत्व और जैन धर्म में आठवें बलदेव के रूप में राम की प्रतिष्ठा हुई । विविध विचारधाराम्रों, सामाजिक व्यवस्थानों, वर्णों और जातियों के संगम स्थल इस भारत के, राम प्रतीक बन गये और भारतीय संस्कृति का प्रतीक राम का चरित । बौद्धों का दशरथ जातक और स्वयंभू का पउम चरिउ इसी सांस्कृतिक एकता के दो साहित्यिक रूप हैं । उपनिषद् काल में जिस संन्यास या श्रमरण मार्ग का जोर बढ़ा, उसके उच्छेद का प्रयास उत्तर के ब्राह्मणवाद में नहीं, दक्षिण के भोगवाद ने किया । राम ने विश्वामित्र की प्रेरणा से इसी ऋषि, संन्यास या श्रमण मार्ग को रक्षा के लिए दक्षिण की ओर प्रस्थान किया था ।
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
तपोनिरत श्रमरगों को अस्थियों के राम को करुणाविगलित तेईसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ थे । इनका समय लगभग कर दिया। उन्होंने उनकी रक्षा का सफल प्रयत्न किया आठवीं सदी ई० पू० माना जाता है। ये काशीवासी थे। और वे जैन धर्म में पाठवें बलदेव के रूप में प्रतिष्ठित सुप्रसिद्ध तीर्थ स्थान काशी और ग्यारहवें तीर्थकर हो गये ।
श्रेयांसनाथ की जन्मभूमि सारनाथ के समीप रहने के महा भारत काल में जैन सम्प्रदाय के तीर्थकर कारण इन्हें अवसर मिला कि श्रमणों का सुदृढ और नेमिनाथ थे । नेमिनाथ का सम्बन्ध घोर पांगिरस से जोडा सुगठित संघ स्थापित कर सकें । अहिंसा-धर्म और जाता है। पांगिरस भरत के ही अवतार माने जाते अहिंसक-यज्ञ की कल्पना तो पार्श्वनाथ से पूर्व ही साकार हैं। पांगिरस के उपदेश छान्दोग्य उपनिषद में हैं। जिसका हो चुकी थी। इसके प्रतिष्ठाता तो ऋषभदेव तथा घोर दृष्टिकोण यज्ञ की ब्राह्मण-पद्धति के सर्वदा विपरीत आंगिरस थे । बाद के तीर्थकरों ने इसका प्रचार और है। श्री कृष्ण भी घोर आगिरस के शिष्य थे और प्रसार भर किया। सन्यासियों या श्रमरणों के लिए उन्होंने अर्जुन को जो उपदेश दिया उसमें यज्ञ का अर्थ तपस्विता रूक्षता, जुगुप्सा और प्रविविक्तता को प्रमखता ही बदल दिया। उनकी दृष्टि में
मिली और गृहस्थो के लिए सदाचार के पृथक् नियमों के द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथाऽपरे ।
निर्देश किए गये । अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और स्वाध्याय ज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ।४।२८।
अपरिग्रह गृहस्थों के लिए अनिवार्य व्रत-नियम घोषित
किये गये । श्रमण और गृहस्थ दोनों के लिए समान द्रव्य यज्ञ, तप यज्ञ, योग यज्ञ, स्वाध्याय यज्ञ,
रूप से बुद्धि, धार्मिकता, वंश जाति, शरीर यौगिक ज्ञान यज्ञ तो हैं ही, हठ योग यज्ञ (४।२६) नियताहार
शक्तियां, योग और तप, तया रूप और सौन्दर्य-जन्य व्रत यज्ञ (४।३०) भी हैं, परन्तु उन्होंने स्वयं माना
अहंकारों को त्याज्य माना गया । पार्श्वनाथ जी के समय है कि
श्रमरणों के लिए कृच्छ तप और गृहस्थों के लिए सदाचार श्रेयान्द्रव्य मयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप । के नियम कठोरता ग्रहण करने लगे । इस समय तक सर्वकर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥४॥३३ ब्राह्मण-परम्परा में दो परस्पर विरोधी दृष्टिकोण रहे __ज्ञान यज्ञ सबसे श्रेष्ठ है । निश्चय ही यह मान्यता
होगे। एक अभी प्राचीन यज्ञ शैली और उसके दृष्टिकोण उपनिषदों की परम्परा को ही सूचित करती है। गीता का अनुयायी रहा होगा और दूसरे ने श्रमण वर्ग की का समन्वयवादी दृष्टिकोण है। जिसमें ज्ञान, भक्ति, और
सांस्कृतिक देन को अपना कर धर्म और उसके स्वरूप कर्म को ही नहीं, अनेकानेक पद्धतियों को भी समेटने का को पुनमूतित कर दिया होगा । इस द्वितीय वर्ग के प्रयत्न किया गया है। मुण्डकोपनिषद् में, विद्या के प्रतिनिधिया का दृष्टिकोण थापरा (प्रात्म) और अपरा (भोगदा) विद्या के विभाजन धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रहः की प्रक्रिया प्रारम्भ हो गई थी। कृष्ण ने उन पद्धतियों धो विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ।।मनु०॥ में भी समन्वय करने का प्रयत्न किया पर श्रेष्ठता पर या धर्म के इन दश लक्षणों में सदाचार के नियमों का अात्मविद्या को, द्रव्ययज्ञ की अपेक्षा ज्ञान-यज्ञ को, कर्म ही समावेश किया गया है। को अपेक्षा सन्यास को, और सामान्य जीव से स्थितप्रज्ञ, ई०पू० ५६४ या ५६७ में जब भगवान महावीर या सिद्ध को ही महत्त्व दिया है। नेमिनाथ बाइसवें का जन्म हुया, उस समय तक अहिंसा की पूर्ण प्रतिष्ठा
थे और श्री कृष्ण के चचेरे भाई माने जाते हैं। हो चुकी थी। सदाचार के निश्चित नियमों का पालन महाभारत से पूर्व २१ तीर्य करों की स्थिति ही जैन धर्म करना अनिवार्य बन गया था। हिंसक यज्ञों को मान्यता और उसकी सांस्कृतिक देन की परम्परा को सदर प्रतीत देने वाले ब्राह्मण सम्प्रदाय का प्रभूत्व क्षीण हो चुका तक खींच ले जाने में समर्थ है।
था। मनु की उपरोक्त धर्म व्यवस्था से यह भी स्पष्ट
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
हो जाता है कि जैन तीर्थकरों के सुधारवादी दृष्टिकोण को वैदिक हिन्दू या तत्कालीन भारतीय संस्कृति के मूल तत्त्वों में समाविष्ट कर लिया गया था। भगवान महावीर उसके पोषक थे, प्रवर्तक नहीं । यह सत्य है कि सांसारिकता पर विजयी होने के कारण वे जिन कहलाये और सारा सम्प्रदाय ही जैन कहलाने लगा। परन्तु जिन वचनों में हिंसा और सदाचार पर जितना बल दिया गया है, उतनी कठोरता के साथ ब्राह्मण विरोध जन्य वचन उपलब्ध नहीं होते ।
बुद्ध का गृह त्याग वैदिकी हिंसा के विरुद्ध नहीं थावे जरा रोग और मृत्यु से छुटकारा चाहते थे। स्वयं महावीर का गृह त्याग केवल ज्ञान की उपलब्धि द्वारा विश्व प्राणी का कल्याण था उन्होंने बारह वर्षों तक घोर तप किया । जीवन, जाति और धर्म के समभाव पर बल देना, अहंकार से मुक्ति का निर्देश करना, अनेकान्त दृष्टि से अहिंसा का प्रतिपादन करना ऐसे तथ्य हैं जो प्रतिक्रियात्मक नहीं, समाज व्यवस्था के क्रियात्मक समन्वयन की चेष्टा है; जिसका प्रारम्भ ऋषभदेव से हुआ था । बुद्ध का मध्यम मार्ग भी एक सुधारवादी प्रान्दोलन था । यदि इसे प्रतिक्रियात्मक माना जाय तो यह वैदिकी हिंसा के प्रति उतना नहीं था, जितना अपरिमित कष्ट सहिष्णुता और कृच्छू साधना के प्रतिवाद के प्रति बुद्ध के समय तक श्रमणों के लगभग ६३ संघ थे, सभी यज्ञ विरोधी थे - ग्रहिंसक ये। उनके सपने दृष्टिकोण थे। इनमें पूर्ण कश्यप का क्रियवाद, मक्खलि गोसाल का देववाद, प्रजित का उच्छेदवाद पकु कास्यायन का प्रकृततावाद, निठ नाम का समन्वयवाद, संजय बेलतिका प्रनिश्चि ततावाद, दीर्घनिकाय में चर्चा के विशेष विषय बने हैं । श्रमण संघ के ये अधिष्ठाता स्वयं एक मत न थे, किन्तु साधना और तप द्वारा समाज का ग्रादर ग्रवश्य प्राप्त कर चुके थे। ये सभी कृ साधना के प्रतिवाद से भी पीड़ित फलस्वरूप जब बुद्ध ने मध्यम मार्ग थेका निर्देश कर दिया तो उस सहज साधना को सबने अपना लिया। बुद्ध संघ प्रबल हो गया और शेष संघ उसमें समाहित हो गये या जातक के इस कथन से इसकी पुष्टि होती है—
-
'यदा च सर सम्पन्नो बुद्धो धम्मं प्रदेसयि । ग्रंथ लाभो च सक्कारो तित्थियानं ग्रहायथा' तिं ॥
जैन संघ का बल भी क्षीण हो गया । यह द्रष्टव्य है कि बुद्ध ने वही सुधारवादी पद्धति अपनायी जिसका प्रचलन ऋषभदेव आदि से हुआ था। अतः ऋषभदेव और बुद्ध तो तारों में परिगणित हो गये, पर प्रतिवादी साधना के कारण महावीर तीर्थंकर ही रहे । ऋषभदेव, श्ररिष्टनेमि, पार्श्वनाथ और महावीर द्वारा प्रवर्तित प्राध्यात्मिक परम्परा त्याग और तप को प्रमुखता देती रही, इसीलिए वे सम्पूर्ण भारतीय समाज के लिए मादर के पात्र रहे; भने ही उन्होंने यशीय हिंसा का विरोध करते करते वेदों का ही विरोध कर डाला हो । सन्यास, साधना, कृच्छतप निस्पृहता और वैराग्य के प्रतिष्ठापक इन जैन तीर्थकरों ने समाज को संतुलित रखने का महान् प्रयत्न किया। वृहस्पति और पार्वाक हेय और निद्य माने गये; परन्तु जैन तीर्थकर सदाचार के कारण ही समाज के आदरणीय बने ।
मौर्यकाल में जैन तपस्वी समस्त सिम्तटवर्ती प्रदेश में फैले हुए थे । मगध में तो जैन धर्म प्रबल था ही चन्द्रगुप्त मौर्य के सम्बन्ध में भी यह अनुश्रुति है कि वे जैन थे और मगध में पढ़ने वाले अकाल के कारण दक्षिण भारत की ओर सदल बल आये और अनशन द्वारा प्राण त्याग किया। इस सम्बन्ध में एक शिलालेख भी मिलता है पर यह जैन सिलास चन्द्रगुप्त मौर्य से लगभग बारह तेरह सौ वर्ष बाद का है और अनुश्रुति पर ही साधित है। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि मौर्य काल तक जैन परम्परा, उसके नियम, भारतीय समाज के सामान्य वर्ग के लिए ही नहीं राजवर्ग के लिए भी अनुकरणीय बन गये थे । जैन धम के प्रचार का पता अशोक के कुछ अभिलेख भी देते हैं मौर्य काल में ही भद्रबाहु के नेतृत्व में जैन श्रमणों ने मैसूर और दक्षिण भारत में जैन धर्म का प्रचार किया। ई० सन् की पहली शताब्दी में खारवेल ने जैन धर्म स्वीकार किया। कुदान काल में मथुरा और भ्रमण बेत गोला जैन धर्म के प्रमुख केन्द्र रहे।
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुशन काल और उसके कुछ पूर्व से ही बौद्ध चैत्यों, वट-वृक्ष की भांति ही मूल के नष्ट होने पर भी विदेशों गुहा मन्दिरों, स्तूपों और बौद्ध मूर्तियों का निर्माण में फैले शाखा-प्रशाखाओं में जीवित और हराभरा रहा, प्रारम्भ हो चुका था। कुशन काल शिल्प विद्या का पर जैन धर्म एक सबल वृक्ष की तरह भारत में सदा उत्कर्ष काल था। कुशन, मथुरा और अमरावती की ठोस और सुदृढ़ रहा तया भारतीय एकता और समाजशैलियों का प्रचलन हया । जैनों ने भी इसमें योगदान संगठन का परम्परागत कार्य करता रहा । किया। चैत्य मन्दिर और गुहामन्दिरों के निर्माण के
जैन सम्प्रदाय को पांचवी से बारहवीं शताब्दी तक साथ जिन मूर्तियों और तीर्थकरों की मूर्तियों का निर्माण
गंग कद ब, चालुक्य और राष्ट्रकूट राजवंशों का प्राश्रय भी प्रारम्भ हुआ। बक्सर और सिंहभूमि (बिहार) से
प्राप्त रहा। अतः इस काल में जैन मुनियों, कवियों जैन तीर्थ करों की कायोत्सर्ग मूर्तियां मिली हैं। मथुरा
और दार्शनिकों ने संस्कृत, प्राकृत अपभ्रश और तमिल की खुदाई से प्राप्त मूर्तियों से ज्ञात होता है कि ५वीं सदी
आदि में एक विशाल वाङमय का निर्माण किया । सच से पूर्व की तीर्थकरों की मूर्तियां नग्न ही बनाई जाती थीं
तो यह है कि छठी से बारहवीं शताब्दी तक का जो और दिगम्बर सम्प्रदाय अधिक शक्तिशाली था । हां,
कुछ साहित्य हमें उपलब्ध होता है, उसमें जैन साहित्य आदिनाथ के केश, पार्श्व और सुपार्श्व के सर्प फरण,
मात्रा, गुण और प्रभाव की दृष्टि से सर्वोत्तम है। मूर्तियों में अवश्य दिखलाये जाते थे, शेष में नहीं। इतिहासविद् चौधरी के अनुसार तीर्थंकरों की मूर्तियों के तमिल साहित्य की सर्वाधिक प्राचीन रचना साथ यक्ष-यक्षिणियों की मूर्तियां भी बनाई जाती थीं। 'शिलप्पदिकारम्' जैन कवि इलंगो की देन मानी जाती कछ मतियों से ऐसा आभास होता है कि जिन पूजन के है । एक और तमिल में पीथी से दसवीं शताब्दी तक कार्य में गणिकायें और नर्तकियां भी भाग लेती थी। के भक्तिकाल में जैन मुनियों की बहमूल्य देन सामने आठवीं से दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी तक के प्राप्त जैन पाती है, तो दूसरी और प्राकृत और अपभ्रश में ही साहित्य में जैन मन्दिरों में नत्यादि के निषेध के वर्णन नहीं संस्कृत में भी काव्य के नये नये प्रयोग उनके द्वारा मिलते हैं. इनसे भी उक्त तथ्य की पुष्टि होती है। यह हुए। ईसा की नवीं शताब्दी में रचित 'श्री पूराराम' भी एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि इस काल के तीर्थकरों तथा 'गद्य-चिन्तामरिग' तमिल की प्रसिद्ध जैन के विशेष चिह्न, बैल आदि बनाने की प्रथा न थी और कृतियां हैं। मोहेन जोदरो की शैली इससे सर्वथा भिन्न थी।
तमिल में मणि प्रवाल शैली के प्रयोक्तानों में जैन गुप्तकाल और उसके बाद जैन सम्प्रदाय और जैन कवि प्रमुख रहे हैं। संस्कृत में गद्य-काव्यों से भिन्न मनियों का योगदान केवल साधना और चिन्तन के चम्प काव्यों और मिश्र शैली के प्रवर्तक जैन मुनि और क्षेत्र में ही नहीं साहित्य और कला के क्षेत्र में प्राचार्य थे । जैन शिलालेखों से ही चम्पकाव्यों के बहत अधिक बढ़ जाता है। दक्षिण भारत में निर्ग्रन्थ निर्माण की प्रेरणा मिली । अपभ्रश में रास, रासक और महाश्रमण, श्वेतपट महाश्रमण तथा यापनीय और कूर्चक रासा काव्यों का श्रीगणेश जैन मुनियों द्वारा हा । संघों की विद्यमानता से उनके बल का पता चलता 'उपदेश रसायन रास' उपलब्ध रास ग्रन्थों में सबसे है। यापनीय संघ का विकास अधिक हुना और आगे के प्राचीन एवं जैन मुनि जिनदत्त सूरि की रचना है। अनेक गण और संघों का सम्बन्ध इसी से है । यह द्रष्टव्य 'यशस्तिलक चम्प' सोमदेव सूरि की वह अमर रचना है कि मगध में चौबीसवें तीर्थकर ने जिस परम्परा की नींव है जिसमें तत्कालीन सारा भारतीय समाज चित्रित हमा सुदृढ़ की, उसका जोर दक्षिण और दक्षिण पश्चिम भारत है। प्राचार्य हेमचन्द्र पहले प्राचार्य हैं जिन्होंने संस्कृत
अधिक रहा । इस प्रकार सम्पूर्ण भारत की एकता में की प्रचलित काव्य परम्परा को विवेच्य बना कर पिष्ट जैन मुनियों का कार्य अधिक सराहनीय रहा । बौद्ध-धर्म
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
की नूतन विधाओं को ग्राचार्य को सूक्ष्म दृष्टि से विश्ले पण और विवेचन का विषय बनाया। हिन्दी और गुजराती के प्राचीन साहित्य का अधिकांश जैन कवियों की देन है। उन्हीं की परम्परा का विकास आगे चल कर इन दो भाषाओं के विशाल समुद्र का रूप ग्रहण
कर सका ।
मुगल काल में जैन परम्परा धौर उसका बल उसी प्रकार दब गया, जिस प्रकार अन्य धर्मों और सम्प्रदायों का। इसके पूर्व कि प्राधुनिक युग में जैन संस्कृति के योग दान की चर्चा की जाय इतिहास पर जिस विहंगम दृष्टि से विचार किया गया है उसके निष्कर्षो को प्रस्तुत कर देना आवश्यक है ।
(१) जैन धर्म कोई बाहर से माया धर्म नहीं था। उसका लक्ष्य वैदिक धर्म का सुधार था। ऋषभदेव और अरिष्टनेमि वैदिक ऋषियों में ही थे जो यज्ञीय ग्राडम्बरों से पृथक्, तप, साधना और सदाचार पर अधिक बल देते थे । वैदिक मन्त्रों का सृजन जिस वातावरण में हुआ था उस पर ऋषभदेव का प्रभाव या अनेक मन्त्र इस तथ्य की पुष्टि करते हैं ।
(२) मोहेनजोदड़ों से प्राप्त रेखा वित्रों से ऋषभदेव और वृषभदेव (शिव) की एकता सिद्ध करने में सहायता मिलेगी। क्योंकि आगे जब कुशन काल और बाद में तीर्थकरों पीर बाहुबली की मूर्तियां बनी तो उनमें प्रतीक पशु-पूर्तियां नहीं मिलती।
(३) तप, कृच्च साधना, वशाडम्बरों का विरोध, अहिंसा कार बल और गृहस्थ जीवन के सदाचारपूर्ण बनाने पर बल देने का कार्य जैन भ्रमणों के प्रयत्नों का फल है। उपनिषदों की विद्रोही भावना में नई पोढ़ी और जैन साधकों की समान भावना देखी जा सकती है।
(४) जैन संस्कृति समन्वयवादी रही है। दर्शन के क्षेत्र में भी पीर साधना तथा उपासना के क्षेत्र में भी स्यादवाद या मनेकान्तवाद के साथ-साथ गीता के अहिंसक यज्ञों की देन इसी समन्वयवादी दृष्टिकोण के
&
कारण संभव हो सको । भारतीय संस्कृति के प्रमुख मूल तत्वों में से यह एक है ।
(५) वैदिक और हिन्दू संस्कृति ने जैन तीर्थंकरों का सदा यादर किया मौर सामाजिक विकृतियों को दूर करने के लिए उनके द्वारा सुझाये गये सुधारों को सदा स्वीकार किया। ऋषभदेव की गणना अवतारों में की गई। जैन प्रतिवाद को कभी स्वीकार नहीं किया गया और बोद्ध धर्म इसकी प्रतिक्रिया का एक रूप था।
(६) जैन धर्म के सदाचार सम्बन्धी नियम भारतीय समाज के सर्वमान्य धर्म के दश लक्षण बन गये । भगवान् महावीर के उपदेश वैष्णवों को मान्य हो गये ।
(७) पुनर्जग्मवाद, कर्मफलवाद और संस्कारवाद पर बल देकर जैन संस्कृति ने जहां भारतीय संस्कृति की प्रमुख विशेषताओं में इन्हें शामिल करा दिया वहां मुक्ति के लिए तप साधना और सदाचार के साथ साथ संन्यास की आवश्यक प्रतिष्ठा कर दी ।
(८) अहिंसा पर प्रत्यधिक बल दिए जाने के कारण भारतीय संस्कृति अधिक मानवतावादी बन गई। नरबलि अश्वबलि भेड़ और मनावली अन्न और पुरोडाश की बलि के क्रमिक विकास में मानवता के विकास की कहानी छिपी हैं । दसवीं शताब्दी तक का जैन साहित्य अन्न और माटे के कुक्कुट की बलि का भी विरोध करता रहा है - यशस्तिलक, जसहरचारिउ प्रादि रचनायें देखी जा सकती हैं। प्रन्नवलि में भावनात्मक हिंसा है इसका विरोध होता रहा । भारतीय संस्कृति के इस मानवता बाद के उत्कर्ष और विकास में जैन मुनियों और उनकी संस्कृति का महत् योगदान है ।
-
(६) संस्कृति मूलतः विचार और भावना जगत् की वस्तु हैं । इसके परिष्कार का सतत प्रयत्न जैन मुनियों ने किया है। इन विचारों और भावनाओं की अभिव्यक्ति, साहित्य दर्शन, कला और सामाजिक आन्दोलनों में होती है। जैन साहित्य का भण्डार विशाल है | काव्य ओर साहित्य की अनेक धाराम्रों के प्रर्वतन, नवीकरण मौर प्रचलन का नेतृत्व जैन साहित्य ने किया है। भारतीय साहित्य को उसकी महान देन है। हिन्दी
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
और गुजराती साहित्य उसके विशेष ऋणी हैं। कन्नड़ के, नहीं केवल स्वयंभू के उनके राम समन्वय के का प्रारंभिक साहित्य जैनों की रचना है। दार्शनिक प्रतीक हैं । सत्य, अहिंसा, विश्वकल्याण, जाति-विहीन चिन्तनधारा को रसने अधिकाधिक युक्ति संगत, तर्कपूर्ण मानवता और समन्वयवादी के प्रतिफलन हैं। और वैज्ञानिक रखने का प्रयत्न किया है। समन्वयवादी आज भी भारतीय समाज की विकृतियां उसे दर्बल दृष्टिकोण ने उसे कभी भी असहिष्णु नहीं बनाया। और हीन बना रही हैं। भ्रष्टाचार, नैतिक-पतन और कला के क्षेत्र में भी मन्दिरों, मूर्तियों, स्तूपों, अति भौतिकवादिता ने भारतीय संस्कृति के उज्ज्वल
नैन कलाकारों ने और दमकते रूप पर मलिनता का प्रावरण डाल रखा प्रचुर योग दिया है। बक्सर, सिंहभूमि उडीसा. बन्देल- है । विकास की सम्पूर्ण प्रक्रिया इन विकृतियों के पंक खण्ड और मथुरा में प्राप्त मूर्तियों के अतिरिक्त, श्रवण ।
में फंस गई है। विश्व शान्ति के लिए भारतीय स्वर नहीं बेलगोला-कारकल की विशाल गोमटेश्वर की प्रतिमा
सबल हो पा रहा है। क्योंकि उसके विचारों और अपने ढंग की अनूठी है। उड़ीसा की हाथी गुफा के सिद्धान्तों को स्वर देने वाला गला फटा हमा है। घर में भित्तिचित्र जहां ईस्वी पूर्व द्वितीय शताब्दी के माने ही सिद्धान्तों और प्राचरण के विरोधाभास ने विश्व जाते हैं। वहां ग्वालियर के पास चट्टानों पर जैन मूर्तिकारों के सामने उसका फटा हुमा व्यक्तित्व प्रस्तुत किया है। के नमूने १५वीं सदी तक के उपलब्ध हैं ।
इन विकृतियों के सुधार का बोझ वैदिक काल से ही
जैन तीर्थंकरों और मुनियों पर रहा है । प्राचार्य तुलसी दसवीं शताब्दी तक के सम्पूर्ण सामाजिक प्रान्दो
और उनके ही सदृश जैन मुनियों और प्राचार्यों ने जिस लनों को हिन्दू, बौद्ध या जैन मुनियों द्वारा नेतृत्व
अणुव्रत-सामाजिक आन्दोलन का श्रीगणेश किया है प्रदान किया गया। ऋषभदेव से लेकर सोमदेव तक
वह उसी सुधारवादी आन्दोलनों से प्रथम-प्रथम गति और वशिष्ठ से लेकर शंकर तक सभी ऋषि थे, मुनि थे।
शीलता मिली, पार्श्वनाथ और भगवान् महावीर ने प्राधनिक भारत के निर्माताओं में महात्मागांधी जिलको बल दिया और पाज प्रणवत पान्दोलन के सर्वोच्च स्थान पर विराजमान हैं । उनका सन्पूर्ण जीवन रूप में जिसने नया मोड़ लिया है । जैन संस्कृति तप ऋषिकल्प रहा है। विश्व-मानव और अन्य प्राणियों और सदाचार से पूर्ण उस सोहागे का कार्य करती रही के कल्याणार्थ उन्होंने जिस सत्य और अहिंसा को है जो भारतीय संस्कृति के स्वर्ण को समय-समय पर अपनाया उस पर वैष्णवों और जैन मुनियों तथा खरा बनाने में, दीप्तिमय और विकृति रहित करने में. परम्परानों का समान प्रभाव दिखाई पड़ता है । सामा- सहायक रही है। यही उसकी महत्त्वपूर्ण देन रही हैं जिक व्यवस्था को प्रादर्श माना वह न तो केवल और युग धर्म के सतत परिवर्तनों के मध्य आज भी वाल्मीकि के राम हैं, न तुलसी के, न कबीर के, न कम्बन अपनी छाप लगाने का कार्य सम्पन्न कर रही है।
जीवितात्तु पराधीनात् जीवानां मरणं वरम् । मृगेन्द्रस्य मृगेन्द्रत्वं वितीर्ण केन कानने ॥१॥
'वादीभसिंह' पराधीन जीवन जीने की अपेक्षा जीवों का मर जाना श्रेष्ठ है। जंगल में सिंह को सिंहत्व किसने दिया है ?
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म की प्राचीनता
• डा० ज्योतिप्रसाद जैन .
एम.ए., एल.एल.बी., पी.एच.डी., लखनऊ
बौद्ध साहित्य में वैशाली के लिच्छवियों का निर्ग्रन्थों के प्राचीन चैत्यालयों के पूजक होने के उल्लेख तथा तीर्थङ्कर पार्श्व के चातुर्याम धर्म के उल्लेख से स्पष्ट है कि प्राद्य बौद्ध लोग तेइसवें तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ के उपदेशों से सम्बन्धित जैनों की महावीर पूर्व परम्परा से भी अवगत थे। बौद्ध धम्मपद में प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभ और अंतिम तीर्थङ्कर महावीर के नामोल्लेख हैं और बौद्धा चार्य आर्यदेव ने अपने षट्शास्त्र में ऋषभदेव को ही जैनधर्म का मूल प्रवर्तक बताया है।
किसी धर्म की श्रेष्ठता उसकी प्राचीनतम अथवा बौद्ध अनुश्रुतियां ही नहीं ब्राह्मणीय (हिन्दू ) अनुश्रुतियां
अर्वाचीनता पर अनिवार्यत: निर्भर नहीं होती, भी अत्यन्त प्राचीनकाल से जैन धर्म की स्वतन्त्र सत्ता किन्तु यदि कोई धार्मिक परम्परा प्राचीन होने के साथ स्वीकार करती चली आती हैं। इस विषय में भारतवर्ष ही साथ सुदीर्घ काल पर्यन्त सजीव, सक्रिय एवं प्रगति- के पुरातन प्राचार्यों एवं मनीषियों में से किसी ने कभी वान बनी रहती है और लोक की उन्नति, नैतिक वृद्धि कोई विवाद ही नहीं उठाया । अतएवं जैन धर्म की तथा सांस्कृतिक समृद्धि में प्रबल प्रेरक एवं सहायक सिद्ध प्राचीनता सिद्ध करने की कोई आवश्यकता न थी । हई होती हैं तो उसकी वह प्राचीनता जितनी अधिक किन्तु अाधुनिक प्राच्यविदों एवं इतिहासकारों ने भारतीय होती हैं वह उतनी ही अधिक उक्त धर्म के स्थायी इतिहास की अन्य अनेक बातों की भांति उसे भी एक महत्व एवं उसमें निहित सर्वकालीन एवं सार्वभौमिक समस्या बना दिया। तत्त्वों की सूचक होती है। इसके अतिरिक्त, किसी भी
___ अठारहवीं शती के अन्तिम पाद में यूरोपीय प्राच्यसंस्कृति के उद्भव एवं विकास का सम्यक् ज्ञान प्राप्त
विदों ने जब भारतीय इतिहास, समाज, धर्म, संस्कृति, करने तथा उसकी देनों का उचित मूल्याङ्कन करने के
साहित्य, कला आदि का अध्ययन प्रारंभ किया तो लिये भी उसकी आधारभूत धार्मिक परम्परा की प्राचीनता
उन्होंने उस प्राधुनिक ऐतिहासिक पद्धति को अपनाया का अन्वेषण प्रावश्यक हो जाता हैं।
जिसमें वर्तमान को स्थिर बिन्दु मानकर प्रत्येक वस्तु के यह प्रश्न हो सकता है कि जैनधर्म की प्राचीनता इतिहास को पीछे की ओर उसके उद्गम स्थान या उदय में शंका करने की अथवा उसे एक अत्यन्त प्राचीन धार्मिक काल तक खोजते चला जाना था। जो तथ्य प्रमाणसिद्ध परम्परा सिद्ध करने की आवश्यकता ही क्यों हई ? स्वयं होते जाते और अतीत में जितनी दूर तक निश्चित रूप जैनों की परम्परा अनुश्रुति तो सुदूर अतीत में जब से से लेजाते प्रतीत होते वहीं उनका अथवा उनकी ऐतिहाभी वह मिलनी प्रारंभ होती है निर्विवाद एवं सहजरूप सिकता का प्रादिकाल निश्चित कर दिया जाता । में उसे सर्वप्राचीन धर्म मानती ही चली आती है और कालान्तर में नव उपलब्ध प्रमारणों के प्रकाश में उक्त
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
अवधि को और अधिक पीछे को पोर हटालेजाना संभव प्रबल प्रतिद्वन्दी धर्म के रूप में तो उल्लेख किया गया है होता तो वैसा करने में भी विशेष संकोच न होता । १६वीं किन्तु इस बात का कहीं कोई संकेत नहीं हैं कि वह एक शती के प्राच्यविदों द्वारा पुरस्कृत एवं कार्यान्वित यह नवस्थापित समुदाय था। इसके विपरीत उनके उल्लेख खोज शोध पद्धति ही प्राज के युग की सर्वमान्य वैज्ञानिक इस प्रकार के हैं कि जिनसे यह सूचित होता है कि बुद्ध अनुसन्धान पद्वति मानी जाती है इस परीक्षा प्रधान के समय में निर्ग्रन्थों (जैनों) का सम्प्रदाय पर्याप्त प्राचीन बौद्धिक युग में प्रत्येक तथ्य को परीक्षा द्वारा प्रमाणित हो चुका था-वह बौद्ध धर्म की स्थापना के बहुत पूर्व करके ही मान्य किया जाता है। इसी पद्धति के अवलम्बन से प्राचीन था-बौद्ध साहित्य से यह भी प्रतीत होता हैं द्वारा गत डेढसौ वर्षों में जैनधर्म की ऐतिहासिकता कि बोधिप्राप्त करने के पूर्व गौतमबुद्ध ने सत्यान्वेषण के सातवीं शताब्दी ईस्वी में बौद्धधर्म की शाखा के रूप में लिये जो विभिन्न प्रयोग किये थे उनमें एक जैन मुनि प्रगट होने वाले एक छोटे से गौण सम्प्रदाय की स्थिति के रूप में रहकर जैन विधि से तपश्चरण प्रादि करना से शनै: शनै: उठकर कम से कम वैदिक धर्म जितने भी था। इस तथ्य का समर्थन उस जैन अनुश्रुति से भी प्राचीन एवं सुसमृद्ध संस्कृति से समन्वित एक महत्त्वपूर्ण होता है जिसके अनुसार बौद्ध धर्म की स्थापना एक जैन भारतीय धर्म की स्थिति को प्राप्त होगई है। प्राधुनिक साधु द्वारा हुई थी। दोनों धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन युग में जैनधर्म सम्बन्धी ज्ञान के विकास की तथा से यह बात भी स्पष्ट हो चुकी है कि बौद्धधर्म पर जैन परिणामस्वरूप उसकी ऐतिहासिकता एवं प्राचीनता के धर्म का पर्याप्त प्रभाव पड़ा था और बुद्ध ने अनेक बातें निर्णय एक अपनी कहानी हैं जो रोचक होने के साथ ही जैनधर्म से लेकर अपने धर्म में समाविष्ट की थी । साथ ज्ञानप्रद भी हैं । इस समय उस में न जाकर जैन
बौद्ध साहित्य में वैशाली के लिच्छवियों का परम्परा की आपेक्षिक प्राचीनता के कतिपय प्रमुख प्रमाण
निर्ग्रन्थों के प्राचीन चैत्यालयों के पूजक होने के उल्लेख प्रस्तुत किये जाते हैं।
तथा तीर्थङ्कर पार्श्व के चार्याम धर्म के उल्लेख से जैन परम्परा के चौबीसवें एवं अन्तिम तीर्थङ्कर
स्पष्ट है कि प्राद्य बौद्धलोग तेइसवें तीर्थङ्कर भगवान निर्ग्रन्य ज्ञातृपुत्र श्रमण भगवान वर्द्धमान महावीर का
पार्श्वनाथ के उपदेशों से सम्बन्धित जैनों की महाबीर निर्वाण सन् ईस्वीपूर्व ५२७ ( विक्रमपूर्व ४७० और
पूर्व परम्परा से भी अवगत थे । बौद्ध धम्मपद में प्रथम शकशालिवाहन पूर्व ६०५ ) में हना था और वे बौद्वधर्म
तीर्थङ्कर ऋषभ और अन्तिम तीर्थंकर महावीर के के प्रवर्तक एवं संस्थापक शाक्य मुनि तथागत गोतमबुद्ध नामोल्लेख हैं और बौद्वाचार्य प्रार्यदेव ने अपने षटशास्त्र के. जिनकी कि परिनिर्वाण तिथि ईस्वीपूर्व ४८३ प्रायः में ऋषभदेव को ही जैनधर्म का मूल प्रवर्तक बताया है। मान्य की जाती है, ज्येष्ठ समकालीन थे । बौद्वों के पालित्रिपिटक नामक प्राचीनतम धर्म ग्रन्थों में भ० महा
महावीर और बुद्ध के प्रायः समकालीन मक्खलि
गोशाल ने, जो कि ग्राजीविक नामक एक अन्य श्रमण वीर का उल्लेख 'निगंठनातपुत्त' (निर्ग्रन्य ज्ञातृपुत्र) नाम
सम्प्रदाय का प्रवर्तक था, समस्त मानव जाति को छः से हुआ हैं और उन्हें श्रमणपरम्परा में उत्पन्न उस काल
समूहों में विभक्त किया है जिनमें से तीसरा समुदाय के छः तीर्थकों ( सर्व महान धर्म मार्ग प्रदर्शकों) में
निग्रन्थों का बताया है। इस पर विद्वानों का कहना है परिगणित किया गया है । बौद्धग्रन्थों के भ० महावीर
कि मानव जाति के ऐसे मौलिक विभाजन में किसी एवं जैनधर्म सम्बन्धी उल्लेखों से डा० हर्मन जेकोबी
नवीन, गौरण या थोड़े समय से प्रचलित सम्प्रदाय को ग्रादि प्रकाण्ड प्राच्यविदों ने यह फलित निकाला है कि 'इस विषय में कोई सन्देह नहीं हैं कि महावीर और इतना महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त नहीं हो सकता था। बुद्ध एक दूसरे से स्वतन्त्र किन्तु परस्पर प्रायः समकालीन इसके अतिरिक्त जैसा कि डा० जैकोबी का कहना धर्मोपदेष्टा थे । प्राचीन बौद्ध ग्रन्थों में जैन धर्म का एक है, जैनों जैसे 'एक बहुसंख्यक सम्प्रदाय की लिपिबद्ध
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३ परम्परा अनुश्रुति को निरर्थक एवं असत्य पृञ्ज मानकर प्राचीन भारतीय अनुश्रुतियों के अनुसार महाभारत अस्वीकार करने के लिये भी तो कोई उचित कारण होना में वरिणत घटनाओं के पूर्व रामायण में वरिणत घटनाओं चाहिये । वे समस्त तथ्य एवं घटनाएं जो जैनों की का युग था। इस महाकाव्य के नायक अयोध्या के अत्यन्त प्राचीनता की सूचक हैं प्राचीन जैन ग्रन्थों में भरी इश्वाकुवंशी (अथवा सूर्यवंशी) भ० राम का जैन परम्परा पड़ी हैं और ऐसी वास्तविकता के साथ लिखी गई हैं में भी हिन्दू परम्रा जैसा ही आदरणीय स्थान है । वे कि उन्हें तब तक अस्वीकार नहीं किया जासकता बीसवें जैन तीर्थङ्कर भूनिसूवृतनाथ के तीर्थ में उत्पन्न जब तक कि उन तकों एवं यक्तियों से अधिक सबल हए थे । उसके भी पूर्व काल की राजा व तु और प्रमाण प्रस्तुत न किये जाय जिन्हें कि जैन धर्म की वेन सम्बन्धी पौराणिक कथाएं जैन अनुश्रुतियों से प्राचीनता में शंका करने वाले विद्वान बहुधा प्रस्तुत समर्थित हैं। करते हैं।
वास्तव में 'भारत वर्ष का प्राचीन इतिहास, जैसा वस्ततः भ० महावीर के निर्वाण से अढाई सौ वर्ष कि प्रो. जयचन्द्र विद्यालङ्कार का कहना है, "उतना ही पूर्व (ई० पू० ७७७ में) एक सौ वर्ष की प्रायु में सम्मेद जैन है जितना कि वह अपने आपको वेदों का अनुयायी शिखर (बिहार राज्य के हजारीबाग जिले में स्थित कहने वालों का है । जैनों की मान्यता के अनुसार महापारसनाथ पर्वत) से निर्वाण प्राप्त करने वाले २३ वें वीर के पूर्व २३ अन्य तीर्थकर हो चुके थे । इस विश्वास तीर्थ धर भ० पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता में अब को सर्वथा भ्रमपूर्ण और निराधार मानलेना तथा समस्त प्रायः किसी पौर्वात्य या पाश्चात्य विद्वान को सन्देह पूर्व तीर्थङ्करों को काल्पनिक और अनै तिहासिक मान नहीं है।
बैठना न तो न्याय संगत ही है और न उचित ही है। इतना ही नहीं, जैसा कि भारत के वर्तमान राष्ट्र- इस मान्यता में विश्वास न करने योग्य बात कुछ भी पति एवं सुप्रसिद्ध दार्शनिक डा० राधाकृष्णन का कहना नहा है ।' है 'इस बात में कोई सन्देह नहीं है कि जैनधर्म वर्धमान जैनों की असन्दिग्ध मान्यता कि प्रथम तीर्थ डर या पार्श्वनाथ के भी बहत पहिले से प्रचलित था ।' डा० भ० वृषभदेव (आदिनाथ) ने ही सर्वप्रथम धर्म का प्रवर्तन नगेन्द्रनाथ वस का मत है कि 'भ. पार्श्वनाथ के पूर्ववर्ती किया एवं कर्म युग का सूत्रपात किया, उन्हीं ऋषभदेव बाईसवें जैन तीर्थङ्कर नेमिनाथ भ० कृष्ण के ताऊजात को पुराणों में विष्णु का एक प्रारंभिक अवतार तथा भाई थे । यदि हम कृष्ण की ऐतिहासिकता स्वीकार आहेत (जैन) मत का प्रवर्तक मानना और ऋग्वेदादि करते हैं तो कोई कारण नहीं कि हम उनके समकालीन में उनका नामोल्लेख होना तथा प्रागार्य एवं प्राग्वैदिक २२ वें तीर्थ हर भ० नेमिनाथ को एक वास्तविक एवं सिन्धु घाटी सभ्यता के अवशेषों में उन्हीं वृषभ लांछन ऐतिहासिक व्यक्ति मान्य न करें ।' प्रो० करवे. कर्नल योगी ऋषभ की कायोत्सर्ग मुद्रा में ध्यानस्थ ग्राकृतियां टाड, मेजर फलाङ्क, डा० प्राणनाथ विद्यालङ्कार, डा० मुद्राङ्कित पाया जाना, इसके अतिरिक्त जीववाद प्रादि हरिसत्य भट्टाचार्य आदि अनेक विद्वान भ० नेमिनाथ की सम्बन्धी जैनों की अत्यन्त मौलिक, आदिमयुगीन तात्त्विक ऐतिहासिकता को स्वीकार करते हैं। यजुर्वेद आदि में एवं दार्शनिक मान्यताएं इस धर्म को न केवल एक भी तीर्थकर नेमिनाथ अपरनाम अरिष्ट नेमि का उल्लेख सर्वथा स्वतन्त्र एवं शुद्ध भारतीय धार्मिक परम्परा सिद्ध पाया जाता है। और डा० काशीप्रसाद जायसवाल आदि करती हैं वरन् उसे प्राग्वैदिक कालीन भी सुचित विद्वानों का मत है कि अथर्ववेद में उल्लेखित प्रात्य वह करती हैं। व्रात्यक्षत्रिय या क्षोभ बन्धु थे जिनकी निन्दा अवैदिक अस्तु, उपरोक्त प्रमाण बाहुल्य के आधार पर होने के कारण वैदिक साहित्य में की गई है और जो अनेक प्रख्यात विद्वान जैन परम्परा की प्रापेक्षिक प्राचीवस्तुतः जैनधर्म के अनुयायी थे।
नता में सन्देह नहीं करते । यदि कुछ विद्वानों के अनुसार
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
यह अहिंसा प्रधान जैनधर्म अधिक भी नहीं तो कम से कम उसका स्वतन्त्र अस्तित्त्व है।' प्रतएव यह बात प्रायः वेदों और वैदिक धर्म जितना प्राचीन अवश्य है' तो निस्संकोच कही जासकती है कि प्रागऐतिहासिक काल कुछ अन्य विद्वानों का कहना है कि "जैनों और उनके के प्रकृत्याश्रित पाषाण युग से ही-जब से भी भारतवर्ष धार्मिक साहित्य सम्बन्धी वर्तमान ज्ञान के आधार पर एवं भारतीयों का इतिवृत्ति किसी न किसी रूप में मिलना हमारे लिये यह सिद्ध करना तनिक भी कठिन नहीं है प्रारंभ हो जाता है तभी से उसके साथ वर्तमान में जिसे कि बौद्धधर्म अथवा वैदिक धर्म की शाखा होना तो दूर जैनधर्म और जैन संस्कृति के नाम से जाना जाता है की बात हैं, जैनधर्म निश्चयतः भारत वर्ष का अपना उस धार्मिक परम्परा एवं तत्संबंधी संस्कृति का सम्बन्ध एक सर्वप्राचीन धर्म है । अत्यन्त प्राचीन काल से ही बराबर मिलता चला पाता है।
अन्यदीयमिवात्मीयमपि दोषं प्रपश्यता । कः समः खलु मुक्तोऽयं, युक्तः का येन चेदपि ॥१॥
'वादीभसिंह
दूसरे दोष की तरह जो अपने दोष को भी देखता है उसके बराबर कौन है ? ऐसा मनुष्य यद्यपि शरीरसहित है फिर भी कर्मयुक्त-सिद्धात्मा है।
ज्ञानमेव फलं ज्ञाने - ननु श्लाघ्यमनश्वरम् । अहो मोहस्य माहात्म्यं यदन्यदपि मृग्यते ॥१॥
'गुगभद्राचार्य'
यह निश्चित है कि ज्ञान का प्रशंसनीय फल कभी नष्ट नहीं होने वाला ज्ञान ही है । यह तो मोह का माहात्म्य ही समझिए कि अनश्वर ज्ञान के अतिरिक्त ज्ञान का अन्य कोई फल ढूढने का प्रयत्न किया जाता है।
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
भारतीय भाषाओं को बेन साहित्यकारों की देन
• मुनि श्री बुद्धमल्लजी
जैनों के मूल आगम संस्कृत में न होकर उस समय जनसामान्य की भाषा प्राकृत ( अर्ध-मागधी ) में लिखे गए। स्वयं भगवान् महावीर ने पाबाल-गोपाल द्वारा समझी और बोली जाने वाली अर्ध-मागधी को ही अपने उपदेश का माध्यम बनाया। उसका बिहार क्षेत्र मुख्यतः मागध और उसके पास-पास का क्षेत्र था । मागध में बोली जाने वाली उस समय की जन-भाषा को मागधी कहा जाता था। भगवान् महावीर की भाषा को अर्ध-मागधी इसलिए कहा गया कि वह मागधी से कुछ भिन्न थी। मागध के सीमान्त प्रदेशों तथा अन्य प्रदेशों की अठारह भाषाओं का उस पर प्रभाव रहता था। इस नाम के पीछे दूसरा कारण यह भी बतलाया जाता है कि वह प्राधे मागध देश में बोली जाती थी।
मानव-संस्कृति के विकास में भाषा का अप्रतिम के विषय में वे बहुत ही उदार रहे हैं। वे जहां भी गए
योग रहा है । आज तक के सम्पूर्ण कला- प्रायः वहीं की भाषा को उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति का विकास तथा वैज्ञानिक उपलब्धियों के मूल में भाषा का माध्यम बनाने का प्रयास किया। वे उस कार्य में दो वरद हाथ रहा है। मनुष्य में यदि भाषा-शक्ति का सफल तो हुए ही साथ ही साथ उन-उन भाषाओं को विकास नहीं होता तो यह संसार पशुओं के विभिन्न भी उन्होंने बहुत बड़ी देन दी। एक प्रकार से उन्होंने चीत्कारों से ही भरा होता, न बातें होती और न विभिन्न जन-भाषाओं के साहित्य की सरिता बहा दी। पस्तकें न सरस भावाभिव्यक्तियां होती और न विचारा जैनों के मूल पागम संस्कृत में न होकर उस समय का आदान-प्रदान, सब कुछ या तो मूक ही होता या जन-सामान्य की भाषा प्राकृत ( अर्धमागधी ) में लिए फिर चीत्कार पूर्ण ही। वस्तुतः भाषा का जल-सेक
गए। स्वयं भगवान् महावीर ने आबालगोपाल द्वारा पाकर ही मानवीय संस्कृति और सभ्यता का यह उपवन समझी और बोली जाने वाली अर्धमागधी को ही अपने अपनी सर्वाङ्गीण शोभा के साथ लहलहा रहा है। उपदेश का माध्यम बनाया । उनका विहार-क्षेत्र
हर प्रदेश की अपनी भाषा होती है। लोग उसे मुख्यतः मगध और उसके आसपास का क्षेत्र था। मगध प्यार करते हैं। जो उनकी भाषा में बोलता है उसकी में बोली जाने वाली उस समय की जनभाषा को मागधी बात आदर सहित सुनी और समझी जाती है। जो कहा जाता था। भगवान् महावीर की भाषा को वैसा नहीं करता या नहीं कर पाता उसे असफलता का अधमागधी इसलिए कहा गया कि वह मागधी से कळ म देखना पडता है। जैन श्रमणों ने इस तथ्य को भिन्न थी। मगध के सीमांत प्रदेशों तथा अन्य प्रदेशों बत गम्भीरता से ग्रहण किया था। इसीलिए भाषा की अठारह भाषामों का उस पर प्रभाव रहा था। इस
१-"बालस्त्रीमन्द मूर्खाणं, नृणां चारित्र काङ रक्षिणाम् अनुग्रहार्थ तत्वज्ञैः, सिद्धान्तः प्राकृतः कृतः।"
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
नाम के पीछे दूसरा कारण यह भी बतलाया जाता है मूल का सेचन जैसा जैन-साहित्यकारों ने किया है वैसा कि यह प्राधे मगध देश में बोली जाती थी।
और किसी ने किया भी नहीं होगा। अपने साहित्य के प्रारम्भकाल से ही जैनों का उपयुक्त भाषाओं में भी जो साहित्य लिखा गया दृष्टिकोण जनभाषाओं को महत्व देने का रहा, फिर है, विषय की दृष्टि से वह केवल जैन--धर्म विषयक ही भी उन्होंने संस्कृत की कभी कोई अवज्ञा नहीं की। नहीं; अपितु भारतीय वाड्मय के हर अंग को पुष्ट संस्कृत को नीचा गिरा देने की भावना नहीं, किन्तु करने वाला है। अध्यात्म, योग, तत्व निरूपरण और प्राकृत को ऊंचा उठा देने की भावना ही उनके अन्तरंग दर्शन जैसे गम्भीर साहित्य के समान ही काव्य, कथा में काम करती रही थी। संस्कृत को देवभाषा और और नाटक प्रादि ललित-साहित्य भी प्रचुर मात्रा में प्राकृत को ग्राम्यभाषा बतलाने वालों को जैनों का उत्तर लिखा गया है। इनके अतिरिक्त इतिहास, पुराण, था-सक्कयं पागयं चेवे, पसत्थं इसि भासियं २ अर्थात नीति, राजनीति, अर्थशास्त्र, व्याकरण, कोश, छंद, संस्कृत और प्राकृत दोनों ही ऋषि भाषित हैं अतः । अलंकार, भूगोल, गणित, ज्योतिष, प्रायुर्वेद ग्रादि दोनों ही महान् हैं। भाषा विषयक इस उदार दृष्टि- विषयों पर भी जैन साहित्यकारों ने अधिकार पूर्ण कोण के कारण ही वे अनेक भाषाओं की समान रूप से साहित्य लिखा है। इतना ही नहीं उनकी लेखनी सेवा कर सके । इस प्रवृत्ति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण मंत्र, तंत्र, संगीत और रत्न-परीक्षा जैसे विषयों पर एक सफल यह हुआ कि भारत के विभिन्न प्रदेशों और भी चली है। इससे जैन-साहित्यकारों के व्यापक विभिन्न कालों की भाषाए ५००-६०० ईस्वी पूर्व से दृष्टिकोण तथा सर्वाङ्गीण ज्ञान का परिचय सहज ही लगाकर अाज तक के जैन साहित्य में अपने-अपने प्राप्त किया जा सकता है । वास्तविक रूप में सुरक्षित रह गई।
प्राकृत भाषा भारत की अनेक लोकभाषामों को समृद्ध बनाने
जैनों का प्राचीनतम पागम-साहित्य प्राकृत भाषा तथा अनेकों को साहित्यिक रूप प्रदान करने का श्रेय में है। भगवान् महावीर की उपदेशात्मक प्रकीर्ण वाणी जैन श्रमणों को ही है। ऐसी भाषामों में भारत के पार
का गणधरों ने जब सूत्ररूप में गुफन किया, तब वह उत्तर और पश्चिम प्रदेशों में प्रचलित शौरसेनी, पूर्व में
गरिणपिटक नाम से प्रसिद्ध हुअा। उसके मुख्य बारह अर्धमागधी, दक्षिण में कन्नड़ तथा तमिल आदि को भाग-ग्रंग थे अतः द्वादशांगी भी उसे कहा गया। वे गिनाया जा सकता है।
बारहें अंग ये हैं-१ आचारांग २ सूत्रकृतांग, ३ प्राचीन भारतीय भाषानों के समान ही हिन्दी, स्थानांग, ४ समवायांग, ५ भगवती ६ ज्ञातृ-धर्म कथा, गुजराती, राजस्थानी, मराठी आदि अर्वाचीन भाषानों ७ उपासक दशांग, ८ अन्तकृद्दशा, ६ अनुत्तरोपपातिक की भी जैन साहित्यकारों ने उतनी ही लगन से सेवा दशा, १० प्रश्न व्याकरण, ११ विपाक, १२ दृष्टिबाद । की है। उन सभी में यहां तक कि फारसी में भी जैन स्थविर ने उस साहित्य का पल्लवन किया। सहस्रों माहित्य उपलब्ध है। उदाहरण स्वरूप फारसी में प्रकरण-ग्रन्व बनें। उसके पश्चात् आगामों के व्याख्या जिनप्रभ रचित 'ऋषभ स्तोत्र' तथा विक्रमसिंह रचित ग्रन्थ लिखे जाने लगे। वे नियुक्ति भाष्य और चूर्णी 'फारसी भाषानुशासन' आदि ग्रन्थ गिनाए जा सकते के रूप में प्राकृत की विशालकाय साहित्य-राशि हैं। हैं। इस भाषानुशासन में १ हजार फारसी शब्दों के नियुक्ति और भाष्य पद्यात्मक हैं जबकि चूणियां संस्कत पर्याय दिए गए हैं। राष्ट्रभाषा हिन्दी के तो गद्यात्मक , चूणियों की भाषा संस्कृत-मिश्रित प्राक्त
१-"मगदद्ध विसय मासा णिबद्ध अद्धमागहं, अद्वारस देसी भासा गिभयं बा अद्धमागहं (निशीथ चूर्णी) २-अनुयोग द्वार
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
है। ये रचनाएं ऐसे संक्रमण काल को हैं जिसमें कि जैन लेखकों का रुझान संस्कृत की ओर होने लगा था ।
नियुक्तिकार द्वितीय भद्रबाहु ने वि० पांचवी - छठी शती से निम्नोक्त ११ नियुक्तियां लिखी थीं—
१ आवश्यक नियुक्ति २ दशकालिक नियुक्ति
३ उत्तराध्ययननियुक्ति
४ श्रावाराग नियुक्ति
५ सूत्रकृतांग नियुक्ति ६ दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति
भाष्यकार थे धर्मसेन गरणी और जिनभद्र क्षमाश्रमण । एक का समय छठी शती और दूसरे का सातवीं शतो था । धर्मसेन ने पंचकल्प भाष्य लिखा था जबकि जिनभद्र ने दशवेकालिक, व्यवहार, वृहत्कल्प, निशीथ और विशेषावश्यक के भाष्य लिखे थे ।
९ श्रावश्यक २ दशवेकालिक
७ वृहत्कल्प नियुक्ति व्यवहार नियुक्ति ६ पिण्ड नियुक्ति
चूरिकार विभिन्न हुए हैं तथा विभिन्न समय में हुए हैं । निम्न श्रागम ग्रन्थों पर चूरियां उपलब्ध हैं
३ नंदी
४ अनुयोगद्वार
५ उत्तराध्ययन
६ आचारांग
७ सूत्रकृतांग
८ निशीथ
६ व्यवहार
१० प्रोघ नियुक्ति ११ ऋषिभाषित नियुक्ति
१० दशाश्रुतस्कंध
११ वृहत्कल्प
१२ जीवाभिगम
१३ भगवती
१४ महानिशीथ
१५ जीतकल्प
१६ पंचकल्प
१७ नियुक्ति
प्रथम आठ चूरियों के कर्ता जिनदासगणी महत्तर हैं । उनका समय सातवीं शती है । जीतकल्प चूर्णी के कर्ता सिद्धसेन सूरी है । उनका समय बारहवीं शती है । वृहत्कल्प चुरिण के कर्ता प्रलम्ब सूरि हैं। शेष चूरिंणकारों के नाम अभी प्रज्ञात हैं । दशवेकालिक को एक अन्य चूरिंग भी प्राप्त है। उसके कर्त्ता श्रगस्त्य सिंह मुनि हैं ।
१७
श्वेताम्बर श्राचार्यों के समान ही दिगम्बराचार्यों ने भी प्राकृत साहित्य का महत्वपूर्ण - पल्लवन किया है । उनका परम मान्य ग्राद्य ग्रन्थ षट्खंडागम है । यह पुष्पदन्त भूतबलि प्राचार्य द्वारा वि० दूसरी शताब्दी में लिखित है । इसी प्रकार प्राचार्य गुणधर का कषायप्राभृत भी परम मान्य ग्रन्थ है । वि० नवम शताब्दी में प्राचार्य वीरसेन ने षट्खंडागम पर ७२ हजार श्लोक प्रमाण धवला टीका लिखी । उन्होंने कषाय- प्राभृत पर भी टीका लिखनी प्रारम्भ को थो, बोस सहस्र श्लोकप्रमाण लिखी भी थी पर वे उसे पूर्ण नहीं कर सके | बीच में ही दिवंगत हो गए। उनके शिष्य जिनसेनाचार्य ने उसे पूर्ण किया । वह ६० श्लोक प्रमाण है और जयघवला नाम से प्रसिद्ध है । इसी प्रकार वि० दूसरी शती में कुरंदकुदाचार्य के प्रवचनसार, समयसार प्रौर पंचास्तिकाय आदि ग्रन्थ अध्यात्म का नया स्रोत बहाने वाले हुए हैं । वि० दशमी शती आचार्य नेमीचन्द्र रचित गोम्मटसार और लब्धिसार ग्रन्थ भी बहुत महत्वपूर्ण माने जाते हैं ।
।
उपर्युक्त आगम साहित्य के अतिरिक्त जैनाचार्यों प्राकृत में प्रचुर मात्रा में काव्य तथा कथा - साहित्य भी लिखा है । पादलिप्स को तरंगवई, विमलसूरि का पउमचरिय, संघदासगणी की वसुदेवहिंड़ी, हरिभद्र की समराइच्चकहा आदि एतद् विषयक महत्वपूर्ण कृतियां हैं ।
इनके अतिरिक्त व्याकरण, निमित्त, ज्योतिष, सामुद्रिक, आयुर्वेद आदि के विषयों पर भी प्राकृत भाषा में प्रचुर मात्रा में लिखा गया है । "
साधारणतया प्राकृत साहित्य का काल विभाजन तीन युगों में किया जाता है (१) ईस्वी पूर्व ५०० से १०० ईस्वी तक प्राचीन प्राकृतों का युग, (२) १०० ईस्वी से ६०० ईस्वी तक अन्तरकालीन महाराष्ट्री, शोरसेनी प्रादि साहित्यिक प्राकृतों का युग और (३) ६०० ईस्वी से १२०० ईस्वी तक प्रपभ्रंश युग कहा जाता है | अपभ्रंश के विषय में आगे पृथक रूप से बतलाया जाएगा।
१ - विशेष जानकारी के लिए देखिये 'पाइए भाषाओ ने साहित्य'
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृत भाषा
यशोविजय जी ने भी अपनी नई परिभाषा में इसकी जैन साहित्यकारों ने धर्म-प्रचारार्थ जनभाषा को टीका की । यह कहना अत्युक्ति नहीं होगा कि अधिकांश महत्व दिया था, परन्तु कालान्तर में उन्होंने विचार- जैन-दार्शनिक-साहित्य का विकास तत्वार्थ सूत्र को केन्द्र प्रसार के क्षेत्र में संस्कृत को भी उतना ही महत्व दिया। में रखकर ही हुआ है । अन्य मतावलम्बी दार्शनिकों के मंतव्यों को समझने तथा उसके पश्चात तो जैन-संस्कृत-साहित्य का एक उनका खंडन कर अपने मंतव्यों को स्थापित करने के स्रोत ही उमड़ पड़ा। प्रत्येक विषय के प्राकार-ग्रन्थों की लिए जैन साहित्यकारों ने इस क्षेत्र में पदन्यास किया मानो होड़-सी लग गई। उन सबका परिचय देना तो
और शीघ्र ही प्राकृत भाषा के समान संस्कृत पर भी एक बड़ा सा ग्रन्य बना डालने जैसा कार्य है। यहां अपना पूर्ण आधिपत्य स्थापित कर लिया।
उनमें कुछ की केवल सूचनामात्र ही दी जा सकती है । परम्परा से यह एक जनश्रुति चली आ रही है कि जब भारतीय दर्शनों में नवजागरण हा तब सभी जैनागम द्वादशांगी के अंगभूत चौदह पूर्व संस्कृत भाषा ओर से खंडन-मंडन की प्रवृत्ति बढ़ी। यूक्तियों का में ही रचे गए थे। उनके रचनाकाल के विषय में दो आदान-प्रदान हुआ । इस संघर्ष में पड़कर दार्शनिक प्रवाह विचार-धाराएं हैं-एक विचारधारा के अनुसार भगवान् बहुत पुष्ट हुआ । जैनों को भी अपने विचारों की सुरक्षा महावीर के पूर्व से जो ज्ञान चला आ रहा था उसी को के लिए दर्शन-ग्रन्थ लिखने की तैयारी करनी प्रावश्यक उत्तरवर्ती साहित्य-रचना के समय 'पूर्व' कहा गया । हो गई। उन्होंने अपनी कलम को दर्शनशास्त्र की ओर दुसरी विचार धारा के अनुसार द्वादशांगी से पूर्व ये मोड़ा । बहुत शीघ्र ही अन्य दार्शनिक-ग्रन्थों से टक्कर चौदह शास्त्र रचे गए थे इसलिए इन्हें पूर्व कहा गया। लेने योग्य ग्रन्थों का निर्माण हया । इस क्रम में पहल साधारण बुद्धि वाले इन्हें पढ़ नहीं सकते थे। उनके करने वाले थे प्रचंड तार्किक श्री सिद्धसेन दिवाकर । लिए द्वादशांगी की रचना की गई। वर्तमान में पूर्वज्ञान प्रागमों में विकीर्ण अनेकान्त के बीजों को पल्लवित विछिन्न हो चुका है अतः कहा नहीं जा सकता कि करने तथा जैन-न्याय की परिभाषाओं को व्यवस्थित उन में प्रयुक्त संस्कृत-भाषा वैदिक संस्कृत (प्राचीन संस्कृत) करने का प्रथम प्रयास उनके ग्रन्थ 'न्यायावतार' में ही थी या लौकिक संस्कृत (वर्तमान में प्रचलित प्रविीन मिलता है। उन्होंने जो बत्तीस द्वात्रिशिकाएं रची थी संस्कृत)।
उनमें भी उनकी प्रखर ताकिक प्रतिभा का चमत्कार वर्तमान में उपलब्ध जैन संस्कृत-साहित्य में प्राचार्य
देखने को मिलता है । समंतभद्र भी इसी कोटि के
दार्शनिक गिने जाते है । उनका समय कुछ इतिहास कार उमास्वामि का तत्वार्थ सूत्र प्रथम ग्रन्थ माना। जाता है। इसे मोक्षशास्त्र' भी कहा जाता है। जैन
चतुर्थ शताब्दी और कुछ सप्तम शताब्दी बतलाते १
हैं। उनकी रचनाएं देवागमरतोत्र, युक्त्यनुशासन, स्वयंदर्शन का परिचय पाने के लिए आज भी यह ग्रन्य प्रमुख रूप से व्यवहृत होता है। उम स्वामि का समय तीसरी भूस्तोत्र प्रादि हैं । उनके पश्चात् प्रकलंक, विद्यानन्द, शताब्दी माना जाता है। उनका यह ग्रन्थ इतना मान्य हारभद्र, जिनसेन, सिद्धषि, हेमचन्द्र, देवसरि. यशोविजय हा कि विविध समयों में इसकी बीसियों टीकाएं लिखी आदि अनेकानेक दार्शनिकों ने इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण ग्रन्थ गई । सिद्धसेन, हरिभद्र, अकलंक और विद्यानन्द जैसे लिखे । दार्शनिक-ग्रन्थों में न्यायावतार य धूरंधर विद्वानों ने भी अपने दार्शनिक मंतव्यों की स्थापना प्राप्तमीमांसा, लघीयस्त्रय, अनेकान्त जयपताका, पडदर्शन के लिए तत्वार्थ सूत्र की टीकाएं रची । यहां तक कि समुच्चय, प्राप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा परीक्षामुख. वादमप्रहारहवीं शती में जैन नव्य न्याय के संस्थापक उपाध्याय हार्गव, प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्याय कुमुदचन्द्र, स्याद्वादोप
१-रत्नाण्ड श्रावकाचार, प्रस्तावना, पृष्ठ १५७
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
निषद्, प्रमाणनयतत्वालोक, स्याद्वाद रत्नाकर, धर्माभ्युदय महाकाव्य. जैनकुमार सम्भव, यशोधर रत्नाकरावतारिका, प्रमाणमीमांसा, व्यतिरेकद्वात्रिंशिका, चरित्र, पांडवचरित्र आदि की गणना प्रमुख रूप से कराई स्याद्वाद मंजरी, जैन-तर्कभाषा प्रादि के नाम प्रमुख रूप जा सकती है। गिनाए जा सकते हैं।
नाटकों में सत्य हरिश्चन्द्र, राघवाभ्युदय, यदुप्राकृत-भाषा के प्रागम ग्रन्थों पर संस्कृत-टीकाएं विलास, रघुविलास, नलविलास, मल्लिका मकरंद, लिखने का क्रम प्रारम्भ करने वालों में हरिभद्र का नाम रोहिणी मृगांक, वनमाला, चन्द्रलेखा विजय, मानमुद्रा सर्व प्रथम पाता है। उनका समय ८वीं शती है। भंजन, प्रबुद्ध रौहिणेय, मोहपराजय, करुरावजायुध, उन्होंने प्रावश्यक, दशवै कालिक, नन्दी, अनुयोगद्वार, द्रौपदी स्वयंवर आदि उल्लेखनीय हैं। हेमचन्द्राचार्य वे जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति और जीवाभिगम पर विशद टीकाएं प्रधान शिष्य रामचन्द्र ने अकेले ने ही अनेक नाटकों की लिखी है । मलधारी हेमचन्द ने अनुयोगद्वार पर और रचना की थी। इसी प्रकार उपमिति भवप्रांचा, कुवलयमलयगिरी नेनंदी, प्रज्ञापना, जीवाभिगम, वृहत्कल्प, माला, पाराधना कथाकोष, आख्यानमरिएकोश, कथाव्यवहार, राजप्रश्नीय, चन्द्रप्रज्ञप्ति पर और आवश्यक पर रत्नसागर प्रादि कथा-साहित्य द्वारा जैन विद्वानों ने टीकाएं लिखीं । इनके अतिरिक्त दशवैकालिक उत्तरा- संस्कृत के कथा-साहित्य को भी अपूर्व देन दी है। ध्ययन आदि प्रागमों पर और भी अनेक विद्वानों ने प्रादि पुराण, उत्तर पुराण.. शांतिपुराण, महापुराण, टीकाएं तथा वृत्तियां लिखी हैं।
हरिवंश पुराण आदि ग्रन्थों से उनके पुराण-साहित्य की संस्कृत-व्याकरण क्षेत्र में भी जैनों का योग बहत समृद्धि को भी प्रच्छी तरह से जाना जा सकता है। महत्वपूर्ण रहा । जैनेन्द्र, स्वयंभू, शाकटायन, शब्दा- इसी प्रकार नीतिवाक्यामृत, अर्हन्नीति आदि म्भोज-भास्कर आदि संस्कृत-व्याकरणों के पश्चात् नीतिग्रन्थ, समाधितंत्र, योगदृष्टि समुच्चय, योगबिन्दु, हेमचन्द्राचार्य का सर्वा गपूर्ण हेमशब्दानुशासन उस क्रम योग विद्या, अध्यात्म रहस्य, ज्ञानार्णव, योगचिन्तामणि, का उन्नत प्रयास कहा जा सकता है। उसके पश्चाद्वर्ती योगदीपिका आदि योग सम्बन्धी ग्रन्थ, सिद्धान्तशेखर, शब्दसिद्धि व्याकरण, मलयगिरी व्याकरण, विद्यानन्द ज्योतिष रत्नमाला गणित तिलक, भुवनदीपक, प्रारम्भव्याकरण, और देवानन्द व्याकरण रहे हैं । ये सब सिद्धि, नारचंद्रज्योतिषसार, वृहतपर्वमाला प्रादि ज्योतिष तेरहवीं शती तक के हैं । व्याकरण रचना का यह क्रम ग्रन्थ, छन्दोनुशासन, छन्दोरत्नावली आदि छन्दोग्रन्थ, वहीं समाप्त नहीं हो गया। बीसवीं शती में तेरापंथ काव्यानुशासन, अंलकार-चूड़ामणि, कवि शिक्षा, वाग्भटाश्रमणसंघ के विद्वान मुनि चौथमलजी ने भिक्षु शब्दा- लंकार, कविकल्पलता, अलंकारप्रबोध, अलंकार महोदधि . नुशासन नामक महाव्याकरण लिखकर उस कड़ी को प्रादि अलंकार-ग्रन्थ ओर भक्तामर, कल्याणमन्दिर, वर्तमान काल तक पहुंचा दिया है।
एकीभाव स्तोत्र, : जिनशतक, यमकस्तुति, वीरस्तव, इसी प्रकार कोश ग्रन्यों में धनंजय नाममाला, वीतराग स्तोत्र, महादेव स्तोत्र, ऋषिमण्डल स्तोत्र प्रादि अपवर्ग नाममाला, अमर कोश, अभिधान चिन्तामणि. स्तोत्र ग्रन्थ अपने-अपने क्षेत्र के महत्वपूर्ण ग्रन्थो में शारदीया नाममाला आदि महत्वपूर्ण ग्रन्थ हैं । गिनाए जा सकते हैं । इनके अतिरिक्त रत्नपरीक्षा, काव्य क्षेत्र में भी जैन विद्वान किसी से पीछे नहीं।
संगीतोपनिषद्, संगीतसार, संगीतमण्डल, यंत्रराज, रहे हैं। उन्होंने पद्यमय तथा गद्यमय अनेक उत्कृष्ट कोटि
सिद्धयंत्र चक्रोद्धार, वैद्यसारोद्वार, वंद्यवल्लभ आदि ग्रन्थ के काव्यों की रचना की है । उनमें पार्वाभ्युदय,
भी जैन विद्वानों के विस्तीर्ण ज्ञान क्षेत्र का बोध द्विसन्धानकाव्य, यशस्तिलक, भरत बाहुबलि महाकाव्य, द्वयाश्रय काव्य, त्रिषष्टिशलाकापूरुष चरित्र, नेमि निर्वाण जैन विद्वानों ने बहुत से जेनेतर-ग्रन्थों की टीकाएं महाकाव्य, शांतिनाथ महाकाव्य, पद्यानन्द महाकाव्य, भी लिखी है। साहित्य क्षेत्र में उनका यह उदार
सास कराते हैं।
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
दृष्टिकोण अभिनन्दनीय रहा है । अनेक ग्रन्थों की टीकाएं श्लोक पढे जाते हैं और खड़ी लाइन में पढ़ा जाए तो बहुत प्रसिद्धि प्राप्त हैं । जै नेतर-ग्रन्थों पर लिखे गए कुछ दूसरी भाषा के । इसी प्रकार टेढ़ी लाइनों से पढ़े जाने प्रसिद्ध जैन ग्रन्थ इस प्रकार हैं-पाणिनिव्याकरण पर पर अन्य-अन्य भाषाओं के श्लोक सामने आ जाते हैं। शब्दावतारन्यास, दिङनाग के न्याय-प्रवेश पर वृत्ति, वह ग्रन्थ अभी कुछ वर्ष पूर्व ही प्राप्त हुना है। अभी श्रीघर की न्यायकंदली पर टोका, नागार्जुन की योग उसे पूर्ण रूप से पढ़ा भी नहीं जा सका है। वह एक रत्नमाला पर वृत्ति, प्रक्षपाद के न्यायसूत्र पर टीका, वृहत्काय-ग्रन्थ है और कहा जाता हैं कि अपने समय वात्स्यायन के न्याय-भाष्य पर टीका भारद्वाज के वातिक के सभी विषयों का उसमें समावेश किया गया है । पर टीका वाचस्पति की तात्पर्य टीका पर टीका, उदयन उसमें उत्तर तथा दक्षिण भारत की भाषामों ने तो की न्यायतात्पर्य-परिशुद्धि की टीका, श्रीकंठ की न्याया स्थान पाया ही है पर अरबी आदि अनेक भारतीय लंकार वृत्ति की टीका । इनके अतिरिक्त मेघदूत, रघुवंश, भाषाओं का भी उस में प्रयोग हया है। कहा नहीं जा कादंबरी, नैषध और कुमार सम्भव प्रादि काव्यों की सकता कि उसके कर्ता कितनी भाषामों के धुरंधर टीकाएं भी सुप्रसिद्ध हैं ।
विद्वान थे और कितने विषयों में उनकी प्रतिभा ने जैन विद्वानों ने साहित्य-क्षेत्र में कछ ऐसे ना तथा चमत्कार दिखलाया था। भारत के प्रथम राष्ट्रपति विचित्र प्रयोग भी किए है जो उनकी विद्वत्ता का प्रमाण डा०
डा० राजेन्द्रप्रसाद से जब प्राचार्य श्री तुलसी का दिल्ली तो देते ही हैं पर साथ ही अपने प्रकार के केवल वे ही में मिलन हुअा था तब उन्होंने इस विषय में विस्तीर्ण कहे जा सकते हैं । उदाहरणार्थ सत्रहवीं शती के जैन
जानकारी देते हुए प्राचार्य श्री से कहा था कि यह विद्वान श्री समयसुन्दर का 'प्रष्टलक्षी' नामक ग्रन्थ
संसार के अनेक प्राश्चर्यों में से एक आश्चर्य कहा गिनाया जा सकता है। उसमें 'राजानों ददते सौख्यम्'
जा सकता है। इस एक पद के १०२२४०७ अर्थ किए गए हैं । ग्रन्थ उपलब्ध जैन-संस्कृत-साहित्य का स्रोत विक्रम के नामकरण में उन्होंने पाठलाख से ऊपर की संख्या की तीसरी शती से प्रारम्भ हमा और १८वीं शती तक को शायद इसलिए छोड़ दिया कि भूल से कहीं पुनरुक्त विभिन्न उतार चढ़ावों के साथ प्रबल वेग से बहता हो गया हो तो उसके लिए पहले से ही अवकाश छोड़ रहा । उसके पश्चात् वह ह्रासोन्मुख हो गया। वह दिया जाए । पाठ अक्षरों के पाठ लाख अर्थ करने ह्रास केवल जैन-संस्कृत साहित्य में ही पाया हो ऐसी का सामर्थ्य असाधारण ही कहा जा सकता है। उन्होंने बात नहीं है, अपितु वह सार्वत्रिक ह्रास था; जो कि
में अकबर सम्राट की विदन जैनों में भी पाया। फिर भी उसका प्रवाह सर्वथा मण्डली के समक्ष रखा था। सभी विद्वान उनकी इस रुक गया हो-ऐसी बात नहीं है। आज भी अनेक विचित्र प्रतिभा से चमत्कृत हए थे। शब्दों की अनेका- जैन विद्वान विभिन्न क्षेत्रों में संस्कृत-साहित्य का र्थता के लिए यह ग्रन्थ एक प्रतिमान के रूप में कहा। निर्माण कर रहे हैं। अरावत-पआन्दोलन के प्रवर्तक जा सकता है।
प्राचार्य श्री तुलसी और उनके संघ का इस दिशा में ___इसी प्रकार का एक अन्य विचित्र प्रयोग प्राचार्य विशेष परिश्रम चल रहा है। इन चारों दशकों में कुमुदेन्दु द्वारा अपने 'भूवलय' नामक ग्रन्थ में किया है। व्याकरण काव्य, दर्शन निबंध, टीका और स्तोत्र प्रादि वह ग्रन्थ अक्षरों में न होकर अंकों में है। एक से लगा- विषयक अनेकानेक महत्वपूर्ण संस्कृत-ग्रन्थों का निर्माण कर चौसठ तक के अंकों का उसमें विभिन्न अक्षरों के हुआ है । उनमें भिक्षुशब्दानुशासन-महाव्याकरण, स्थान पर प्रयोग हुआ है । वह कोष्ठकों में ही लिखा भिक्षुशब्दानुशासन-वृहद्वृत्ति, भिक्षुशब्दानुशान, लघुवृत्ति, गया है। उसकी सर्वाधिक विशेषता तो यह है कि कालकौमुदी, तुलसी प्रभा प्रादि व्याकरण-ग्रन्थ, भिक्ष उसे यदि सीधी लाइन में पढ़ा जाए तो एक भाषा के चरित, अर्जुनमालाकार, प्रभव प्रबोध, प्रश्र वीणा आदि
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
गद्य और पद्य काव्य, जैन सिद्धान्त दीपिका, भिक्षु उसके पश्चात् उसका स्वरूप धीरे-धीरे प्रांतीय भाषाओं न्याय-कणिका, युक्तिवाद, अन्यापदेश प्रादि दर्शन-ग्रन्थ, के रूप में ढलने लगता है। इसीलिए बारहवीं शती के शिक्षाषण्णवति, कर्त्तव्य षट्त्रिंशिका, मुकुलम्, उत्तिष्ठत! पश्चाद्वर्ती अपभ्रंश साहित्य को हिन्दी, मराठी, गुजजागृत !!, निबन्ध-निकुज आदि विभिन्न स्फुट नथ, राती आदि प्रान्तीय भाषाओं के आदि युगीन साहित्य शांतसुधारस टीका ग्रन्थ और समुच्चय जिनम्तुति, देवगुरु में गिन लिया जाता है। स्त्रोत्र, जिनस्तव, कालुभक्तामर, कालुकल्याण मन्दिर, अपभ्रश को प्रान्तीय भाषामों की जननी कहा तुलसी स्तोत्र आदि अनेक स्तोत्र ग्रन्थ गिनाए जा सकते जाता है। उसका प्रारम्भ छठी शती से हुआ और हैं। पं. चैनसुखदास जी न्यायतीर्थ द्वारा रचित जैनदर्शन- स्वल्पकाल में ही वह जन-साधारण की भाषा बन गई। सार, भावना विवेक, पावन प्रवाह संस्कृत की अच्छी ७-८ वीं शती में उसका प्रसार हिमालय की तराई से रचनाएँ हैं।
गोदावरी और सिंध से ब्रह्मपुत्रर्पयत हो गया था। यह अपभ्रंश भाषा
एक बहुत ही सजीव और भाव-प्रवण भाषा रही है। किसी समय प्राकृत भाषा लोकभाषा थी, पर। जैनाचार्यों ने इसमें स्तोत्र काव्य से लेकर चरित्र-काव्य, कालान्तर में उसका अध्ययन केवल व्याकरण की सहा- खण्ड काब्य और महाकाव्य तक लिखें हैं। यता से ही सुलभ रह गया था। विद्वानों की भाषा बन अपभ्रश का प्रथम जैन कवि जोइंदु (योगीदु) जाने पर जन साधारण तक पहुँचने के लिए उसका माना जाता है। उसका समय छटठी शताब्दी था। कोई विशेष उपयोग नहीं रह गया । जनता के उसके ग्रन्थ परमात्म प्रकाश और योगसार अपभ्रश कल्याणार्थ फिर तत्कालीन लोक भाषा का सहारा लेना भाषा के उत्कृष्ट कोटि वे ग्रन्थ माने जाते हैं। जोइंद् अावश्यक था । अपभ्रश के साहित्यकारों ने साहसपूर्वक
ने इन ग्रन्थों में दोहा छंद का प्रयोग किया है। यह वैसा करने का निश्चय किया। पण्डित समाज जैसे अपभ्रश का प्रमख छंद रहा है। जोइंद को इसका पहले प्राकृत को हेय दृष्टि से देखा करता था और उसे
एक सफल प्रयोक्ता कहा जा सकता है। इसके अतिरिक्त निम्न कोटि के मनुष्य की भाषा माना करता था, वैसे
गाहा, पत्ता, पद्धड़िया, चौपाई, दुवई, सर्गिणी पौर ही उस समय वह स्थिति अपभ्रश के लिए थी। पंडित त्रिभंगी प्रादि छंद अपभ्रंश के अपने मुख्य छंद रहे हैं । समाज संस्कृत और प्राकृत में लिखने वालों को प्रादर
___जोइंदु के पश्चात् ८-६वीं शताब्दी में स्वयंभू अपभ्रंश की दृष्टि से देखता था पर अपभ्रश के लेखकों का
के अतिश्रेष्ठ कवि हुए हैं । उन्होंने पउमचरिय (रामायण) उसकी दृष्टि में कोई आदरणीय स्थान नहीं था । वस्तुतः
और रिट्टणेमिचरिय महाकाव्य की रचना की थी। उनके अपभ्रश नाम भी उन्हीं पण्डितों का दिया हुआ है जो कि
पूत्र त्रिभुवन स्वयंभू भी श्रेष्ठ कवि थे । स्वयंभू को महाअनादर-सूचक ही हैं । जैन साहित्यकारों ने पंडितजनों
पंडित राहुल सांकृत्यायन ने विश्व का महाकवि माना की इस अनादर सूचक प्रवृत्ति की न तो प्राकृत को अपनाते
है। उनके मतानुसार तुलसी रामायण स्वयंभू रामायण समय कोई परवा की थी और न अपभ्रश को अपनाते
से बहुत प्रभावित रही है । स्वयंभू और उनकी रामायण समय ही । उन्होंने सदैव साहसपूर्वक जनभाषा को ।
के विषय में एक जगह वे लिखते हैं-"स्वयंभू कविराज आगे बढ़ाने में ही अपनी शक्ति को लगाया था।
कहे गए है किन्तु इतने से स्वयंभू की महत्ता को नहीं अपभ्रश के जैन-साहित्यकारों ने लोक कथाओं को
समझा जा सकता। मै समझता हूं-८वीं से लेकर अपने रंग में रंगकर अपने धार्मिक संस्कारों को जनसुलभ बनाने का सफल प्रयास किया है। यही कारण
२०वीं शती तक की १३ शताब्दियों में जितने कवियों है कि लोक-जीवन के स्वाभाविक चित्र अपभ्रश-काव्य ने अपनी अमर कृतियों से हिन्दी-कविता-साहित्य को पूरा में बहुलता से प्राप्त होते हैं। अपभ्रंश भाषा का काल किया है, उनमें स्वयंभू सबसे बड़े कवि हैं। मैं ऐसा ईश्वी छठी से सत्रहवीं शती तक का माना जाता है। लिखने की हिम्मत न करता, यदि हिन्दी के कुछ जीवित
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३
चोटी के कवियों ने स्वयंभू-रामायण के उद्धरणों को प्राता जाएगा, त्यों त्यों यह प्रभाव अधिकाधिक स्पष्ट सुनकर यही राय प्रकट न की होती।
होता जाएगा। इन प्रादिकालीन साहित्यकारों के पश्चात् १०वी हिन्दी भाषा शती में पुष्पदन्त मान्य कवि हुए। उन्होंने महापुराण हिन्दी भाषा का आदि स्त्रोत अपभ्रंश भाषा है की रचना की । इन्हीं शताब्दियों में देवसेन, महेश्वरसूरी, जिस प्रकार प्राकृत का अंतिमकाल अपभ्रंश का आदिमपद्मकीर्ति धनपाल, हरिषेण, नयनंदि, धवल, प्रादि काल माना जाता है, उसी प्रकार अपभ्रंश का अंतिमने तथा उनके पश्चात् वीर, श्रीधर, कनकामर, धाहिल. काल ही हिंदी आदि प्रान्तीय भाषामों का आदिमकाल यशकीति प्रभृति जैन कवियों ने संसार को अपभ्रंश माना जाता है। कुछ विद्वानों का तो यह मत है कि की प्रति सरस कृतियां प्रदान की। तेरहवीं शती में अपभ्रंश के सम्पूर्ण साहित्य को हिन्दी भाषा का अभिन्न कलिकाल सर्वज्ञ सुप्रसिद्ध आचार्य हेमचन्द्र ने इस भाषा अंग मानकर उसे उसका आदिकालीन साहित्य मानना का जो व्याकरण लिखा; उसमें उदाहरण स्वरूप दोहों चाहिए । डा. वासुदेव शरण अग्रवाल इस विषय में का बहुत ही सुन्दर उपयोग हुआ है। उनका वह लिखते हैं-हिंदी काव्यधारा का मूल विकास सोलह व्याकरण शृगार, करुण, वीर, भय एवं शांत आदि आने अपभ्रंश काव्यधारा में अन्तनिहित हैं, अतएव सभी रसों के जन-प्रचलित दोहों का संरक्षण करने वाला हिन्दी साहित्य के ऐतिहासिक क्षेत्र में अपभ्रंश भाषा सिद्ध हया है। उपर्युक्त सभी साहित्यकारों को अपभ्रंश को सम्मिलित किए बिना हिंदी का विकास समझ में के मध्यकालीन साहित्यकार कहा जा सकता है। पाना असम्भव है । भाषा, भाव, शैली तीनों दृष्टियों पश्चाद्वर्ती कवियों में नरसेन, सिंह, धनपाल, मारिण
से अपभ्रश का साहित्य हिन्दी भाषा का अभिन्न अंग क्यराज, पद्मकीति और रइधू आदि प्रसिद्ध कवि हैं। समझा जाना चाहिए । अपभ्रंश (८ से ११ तक), देशी महाकवि रइघू की २३ अपभ्रश कृतियां उपलब्ध है। भाषा (१२ से १७ तक) और हिन्दी (१८ से आज तक) उनमें पुराण, कथा, चरित्र, प्राचार, सिद्धान्त और पूजा
ये ही हिंदी के आदि, मध्य और अंत तीन चरण २ है। सम्बन्धी ग्रन्थ हैं । ये उस समय के कवि थे जब अपभ्रश मूलतः अपभ्रश की प्रकृति में १३वीं शती से जो भाषा का विभिन्न प्रान्तीय भाषाओं में परिगमन प्रारम्भ परिवर्तन प्रारम्भ हुआ था, वह १७वीं शती तक एक हुअा था ।
कम से ढ़ल चुका था। वही हिन्दी का आदिकाल या अपभ्रंश भाषा प्राकृत और वर्तमान भाषाओं को प्राचीन हिंदीकाल माना जाना चाहिए । १६वीं शती जोड़ने वाली बीच की कड़ी के रूप में रही है । उनका तक उसका मध्यकाल और उसके पश्चात् अर्वाचीनकाल आदिमकाल प्राकृत से और अंतिमकाल हिन्दी आदि का प्रारम्भ होता है। वर्तमान भाषामों से सम्बद्ध रहा है। अपभ्रश भाषा अपने प्राथमिक काल में प्राकृत और अपभ्रश के के साहित्य ने भावधारा, विषय, छंद, शैली आदि अनेक समान प्राचीन हिन्दी साहित्यकारों को भी उस समय प्रकार के साहित्यिक उपकरण हिन्दी प्रादि वर्तमान के विद्वानों की अवज्ञा का शिकार होना पड़ा हो तो कोई भाषामों के साहित्य को प्रदान किए हैं। अभी तक आश्चर्य नहीं। तभी तो उस समय का प्रायः प्रत्येक अपभ्रश-साहित्य बहुत कम मात्रा में प्रकाश में आया लेखक जनभाषा में लिखने के लिए अपनी ओर से कोई है; अत: उसके प्रभाव का पूरा-पूरा अनुमान नहीं लगाया न कोई स्पष्टीकरण प्रस्तुत करता प्रतीत होता है। जा सका है, परन्तु ज्यों-ज्यों उसका साहित्य प्रकाश में अपभ्रश के कवियों ने जब काव्य की श्रेष्ठता का
१-हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास २-हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास-भूमिका
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३
में तो यह क्रम बीसवीं शती तक भी मिलता है । जयाचार्य लिखित 'भिक्षु जस रसायण' इस क्रम का सम्भवत: अंतिम ग्रन्थ हो ।
मध्यकालीन हिन्दी जैन साहित्य भी प्रचुरमात्रा में उपलब्ध होता है । इस काल में अनेक महाकाव्य, खण्डकाव्य, कथाकाव्य, आत्मकथा आदि लिखे गए है। पंडित बनारसीदास का 'अर्थ कयानक' जैन हिन्दी साहित्य में ही नहीं; अपितु समग्र हिन्दी साहित्य में लिखा गया प्रथम आत्मकथा का ग्रन्थ माना जाता है । भूधरदास, यानतराय, टोडरमल आदि इसी युग के मान्य साहित्यकार हुए हैं।
मापदंड उसका अर्थ- गांभीर्य बतलाया सौर भाषा को केवल बाह्य आवरण मात्र कहा, तब उनको उस दार्शनिकता के नीचे यही तो ध्वनित होता था कि हमारे भाषा के माध्यम पर मत सोचिए, धर्य गांभीर्य को देखिए और यह प्रकारान्तर से एक विद्वतापूर्ण स्पष्टी करण ही तो था । हिन्दी के प्राचीन कवि भी विभिन्न प्रकार के स्पष्टीकरण प्रस्तुत करते हैं । विद्यापति ' देसिल वयना सबजन मिट्ठा' कहकर यह बतलाना चाहते हैं कि उन्होंने देशी भाषा को इसलिए स्वीकार किया है कि वह सबको मिठास देने वाली है। कबीर अपने दबंग स्वभाव के अनुसार संस्कृत की कमजोरी और देशी भाषा की विशेषता बतलाते हुए अपना कारण प्रस्तुत करते हैं कि 'संसकिरत है कूपजल भाषा बहता नीर इसी प्रकार संतमना तुलसीदासजी प्रपनी भक्त-प्रकृति के अनुकूल नम्रता प्रदर्शित करते हुए' भाखा भणित मोर मति बोरी, कहकर बतलाते हैं कि में तो देशी भाषा में अपनी बात कहने वाला ग्रल्पक्ष व्यक्ति हूं। यह सब यहां बतलाने का तात्पर्य यह है कि उस समय देशी भाषा का पक्ष लेना साधारण कार्य नहीं था । बड़े-बड़े कवियों को भी स्पष्टीकरण देना आवश्यक प्रतीत होता था परन्तु जैन साहित्यकारों की प्रारम्भ से ही यह प्रकृति रही थी कि वे जनता तक पहुंचने के लिए जनभाषा को ही अपना माध्यम स्वीकार करते आए थे । हिन्दी भाषा के प्राविकाल में भी उन्होंने अपनी उस प्रकृति के अनुसार कार्य किया था ।
।
1
तेरहवीं शती से अपभ्रंश - प्रभावित प्राचीन हिन्दी में रचना होने लगी थी जैन लेखकों की कृतियों में सोमप्रभ का कुमारपाल प्रतिबोध, मेरुतुरंग का प्रबन्ध चिन्तामणि धादि हिन्दी साहित्य के उसी प्रादिम युग की कृतियां कही जा सकती हैं। धर्मसूरि के जबरासा में अपेक्षाकृत हिन्दी का अधिक निखार पाया जाता है । वह भी तेरहवीं शती का ही ग्रन्थ है तेरहवीं से सोलहवीं शती तक रासाग्रन्थों का बाहुल्य देखा जाता है। यों आगे अठारहवीं शती तक भी इस क्रम के हिन्दी ग्रन्थ लिखे जाते रहे हैं। 'रासा' शब्द की व्युत्पत्ति 'रहस्य' श्रथवा 'रसायरण' शब्द से मानी जाती है । राजस्थानी
अर्वाचीन काल में हिन्दी जैन साहित्य ने नया मोड़ लिया प्रतीत होता है और वह उल्लासवर्धक है । प्राचीनकाल में प्रायः जो साहित्यकारों ने नया उतना नहीं लिखा जितना कि पौराणिक या सैद्धान्तिक साहित्य का भाषान्तर करते रहे। इस युग में अनेक नए क्षितिज सामने आए हैं। पौराणिक ग्रन्थों में से ऐतिहासिक गवेषणा की जाने लगी है । दार्शनिक मंतव्यों का तुलनात्मक विवेचन करने और समन्वय करने को प्रवृत्ति बढ़ी है। नए परिपेक्ष्यों में अपने मंतव्यों को परखने और उन्हें दुनियां के समक्ष रखने का सामर्थ्य विकसित 'हुधा है। अनेकानेक विद्वज्जन इस कार्य में जुटे हुए हैं। उन सब का धम जहां हिन्दी जैन साहित्य का मस्तक ऊंचा करेगा, वहां हिन्दी साहित्य में भी अपना गौरवपूर्ण
स्थान बनाएगा ।
मराठी भाषा
मराठी भाषा का जैन साहित्य अधिक प्राचीन नहीं है। यह प्रायः इधर के बार-सौ साढ़े चार सौ वर्षों में ही लिखा गया प्रतीत होता है। ज्ञातक साहित्य तो और भी कम समय का है। जो मराठी साहित्य उपलब्ध है वह प्रायः स्वतंत्र कृति न होकर संस्कृत, प्राकृत या अपभ्रंश आदि अन्य भाषाओंों की कृतियों का अनुवाद मात्र है। मराठी जैन साहित्य के बहुत से प्राचीन लेखक तो भट्टारक सम्प्रदाय के मुनि हैं। सर्वाधीन लेखकों में अनेक गृहस्थों का भाग रहा है आगे कुछ प्रमुख लेखकों तथा उनके ग्रन्थों का दिग्दर्शन कराया जाता है।
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
भट्रारक जिनदास ने हरिवंशपुराण (पूर्वार्ध) लिखा। स्थानों में विभिन्न रूप से परिपाक पाता गया। भोज मराठी जैन साहित्य के प्रथम ज्ञात कर्ता ये ही माने ने गुर्जर साहित्यकारों के भाषा विषयक स्वाभिमान पर जाते हैं इनका समय ईस्वी १७२८ से १७७८ तक का मधुर कटाक्ष करते हए जो यह लिखा है "अपभ्रशेन अनुमानित किया जाता है ।
तुष्यन्ति, स्वेन नान्येन गुर्जरा १।" वह यही सिद्ध गुरदास अपरनाम गुरणकोत्ति ने मराठी में श्रेणिक करता है कि गुजरों ने अपनी भाषा का कोई विशिष्ट पुराण, रुक्मिणी हरण, धर्मामृत और पद्मपुराण (अपूर्ण)
क्रम विकसित किया था और वे उसको विशेष महत्व
देने लगे थे। आदि की रचना की ।
जैन कवियों ने गुजराती भाषा के उस प्रारम्भिक ब्रह्म शांतिदास के शिष्य मेघराज, कामराज और
विकासकाल से ही विशेष भाग लिया है। उन्होंने अपनी सुरिजन गुरुभाई थे । उनमें से मेघराज ने यशोधर चरित्र.
कृतियों द्वारा उसके रूप को निरन्तर संवारा और सजाया गिरनारयात्रा (इसमें प्रथम चरण मराठी में और दूसरा
यद्यपि जैन साहित्यकारों का दृष्टिकोण प्रायः काव्यचरण गुजराती में है) और पारसनाथ भवान्तर पादि,
प्रधान न होकर अध्यात्म-प्रधान रहा है। उनकी प्रायः कामराज ने सुदर्शन पुराण, और चैतन्य फाग तथा
कृतियां धार्मिक परिधि में ही लिखी गई हैं। फिर भी सूरिजन ने परमहंस नामक रूपक काव्य तथा दान-शील
उस धार्मिकता की गोद में किलकारियां भरता हा तप-भावना-रास प्रादि ग्रन्य लिखे हैं।
कवित्व भी प्रचुर मात्रा में पाया जाता है । रास, फागु, वीरदास अपरनाम पासकीत्ति ने ईस्वी १३२७ में
बारहमासा, कक्का आदि उस समय की विभिन्न विधानों सुदर्शन चरित्र तथा बहतरी (७२२ श्लोकों का समुदाय),
में कवित्व का अजस्र प्रवाह बहा है ।। महाकत्ति ने ईस्वी १६६६ में आदि पुराण, लक्ष्मीचन्द्र ने
रामायण, महाभारत जैसे बड़े-बड़े पौराणिक ईस्वी १७२८ में मेघमाला, जनार्दन ने ईस्वी १७६८ में
पाख्यानों, तीर्थकरों के जीवन-चरित्रों तथा अनेकानेक श्रेणिक चरित्र; महितसागर ने सम्बोधसहस्रपदी, दामा
लघु पाख्यानों से भी गुजराती भाषा के साहित्य को ने धर्मपरीक्षा, गंगादास ने पारसनाथ भवान्तर, जिनसागर
समृद्ध बनाने में जैन लेखकों का विशेष योग रहा है। ने जीवंधर-पुराण और कैको प्रादि रत्नकीति ने ईस्वी
गुजराती भाषा में जैनों द्वारा आगमिक तथा आध्यात्मिक १८१२ में उपदेश सिद्धान्त रत्नमाला, जिनसेन ने
साहित्य भी प्रचुरता से लिखा गया है । साहित्यिक स्तर ईस्वी १८२१ में जम्बू पुराण, ठकाप्पा ने ईस्वी १८५०
पर उसका चाहे उतना महत्व न भी हो, पर इतिहास में पांडव पुराण, मकरंद ने रामटेक वर्णन, सटवा ने
तथा भाषा विज्ञान की दृष्टि से वह समग्र साहित्य एक नेमिनाथ भवान्तर और देवेन्द्रकीत्ति ने कालिका पूराण
अमूल्य निधि कहा जा सकता है । गुजराती भाषा के की रचना की। उपयुक्त सभी लेखक प्राचीन धारा के
क्रमिक विकास का अध्ययन करते समय प्रत्येक शताब्दी वाहक कहे जाते हैं।
में लिखे गए विभिन्न जैन ग्रन्थों तथा ग्रन्थकारों की अर्वाचीन लेखकों ने भी सैद्धान्तिक तथा पौराणिक जोखा यादी
उपेक्षा किसी भी प्रकार से नहीं की जा सकती। संस्कृत अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों का अनुवाद मराठी भाषा को
प्राकृत और अपभ्रश के प्रायः समग्र प्राचीन वाङमय प्रदान किया है ।
का गुजराती में अनुवाद उपलब्ध किया जा सकता है। गुजराती भाषा
आगमों के स्तवकार्थ तथा बालावबोध भी गुर्जर भाषा अपभ्रश भाषा जब प्रादेशिक भाषानों का रूप की ही देन है। कहना चाहिए कि जैन गुर्जर साहित्यदेने लगी थी. तभी से उसमें प्रदेशानुसार थोड़ा-थोड़ा कारों ने समग्र जैन वाङमय, जैन तत्वज्ञान और जैन पाक्य प्रारम्भ हो गया था । धीरे-धीरे वह विभिन्न संस्कृति को सफलतापूर्वक गुजराती भाषा में ढाला है ।
१-सरस्वती कंठाभरण २-१३ ।
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचार्य हेमवन्द्र के समय से गुजरात जैन-साहित्य बुद्धरास, नलदमयंती रास, प्रियमेलक चौपाई, सीताराम और जैन संस्कृति से विशेष प्रभावित रहा है। विभिन्न चौपाई ग्रादि तथा क्षमा छत्तीसी आदि अनेक छत्तीसियां विषय के धुरीण विद्वानों ने गुजरात के साहित्य-भंडार, प्रमुख हैं। को भरा है। आनन्दघन, यशोविजय और श्रीमद्रायचन्द्र उन्हीं के समसामयिक उपाध्याय गुणविनय ने भी जसे अनेक योगनिष्ठ व्यक्तियों की अध्यात्म-रस-प्लावित
अनेक ग्रन्थों की रचना की है। उनमें कयवन्नासंधि वाणी भी मुख्यतः गुजराती में ही प्रस्फुटित हुई है १ अंजना प्रबंध, गुणसागर चौपाई, नलदमयंती रास, राजस्थानी भाषा
धनशालिभ्रद्र चौपाई आदि अनेक ग्रन्थ है। इस शती के ईस्वी पंद्रहवीं शती तक गुजराती और राजस्थानी अन्य प्रसिद्ध ग्रन्थकार सहजकीत्ति, श्रीसार, जिनराजसरि, में भाषाभेद बहत अस्पष्ट और अल्प ही था अतः उस हेमरत्न, कुशललाभ, कनकसोम आदि हैं। समय तक के साहित्य को दोनों ही अपना-अपना साहित्य अठारहवीं शती में रास, चौपाई आदि के अतिरिक्त मानते हैं । भाषागत इतनी समानता का कारण दोनों बावनो, छत्तीसी आदि भी बहुलता से लिखी गई हैं । प्रदेशों में जैन संतों का अबाध पावागमन ही मुख्यतः इस शती के प्रमुख लेखक कविवर जिनहर्ष एक लाख कहा जा सकता है। दोनों देशों की सीमानों के इधर- पद्यों के रचयिता माने जाते हैं। उन्होंने रास, चौपाई उधर पाने-जाने वाले मुनिजनों के कारण दोनों के प्रादि के अतिरिक्त ज्ञातासूत्र सज्झाय, दशवैकालिक गीत सांस्कृतिक सम्बन्ध अविच्छिन्न रहे हैं । उन के साहित्य आदि भी लिखें हैं । उनके अतिरिक्त महोपाध्याय
र उपदेशों से भी दोनों की अभिन्नता पुष्ट होती रही लब्धोदय, धर्मवर्धन, लाभवर्धन, कुशलधीर, जिनसमुद्र है । पश्चात्काल में जब विहार क्षेत्र सीमित होता गया, सूरि, लक्ष्मीवल्लभ, रामविजय प्रादि भी प्रसिद्ध लेखक तब कुछ संत केवल गुजरात में तो कुछ केवल राजस्थान हुए है। में ही विहार करने लगे। फलतः उनकी भाषा में रामविजय ने पद्य की अपेक्षा गद्य अधिक लिखा है। प्रादेशिक विशेषताओं का समावेश होता गया । दूरी को उन्नीसवीं शती में रघुपति, ज्ञानसार, क्षमाकल्याण, पाटने वाला आदान-प्रदान बंद हो जाने से स्पष्ट रूप प्राचार्य जयमलजी आदि अनेक कवि हए हैं। मे भिन्नता लक्षित होने लगी। १६वीं शती के अन्तिम
उन्नीसवीं शती में तेरापंथ के संस्थापक प्राचार्य भाग में यह भेद निखरने लगा था । १७वी-१८वीं शती
भीखणजी ने राजस्थानी जैन साहित्य में एक नया स्रोत में दोनों का मिश्रित रूप चलता रहा था। परन्तु १६
बहाया। उन्होंने प्राचार-क्रान्ति करके तेरापंथ की स्थापना २०वीं शती तक वह एक निश्चित रूप धारण कर चुका
की थी; अतः उनके लेखन में भी उसी क्रान्ति के स्वर था, यही काल संतों के बिहार क्षेत्रों के सीमित होने
बहुलता से आए हैं । उनकी समस्त कृतियों में प्राचार का भी है। यति, दि० भट्टारक, स्थानकवासी, तेरापंथ
और विचार को शोधन करने वाली भावधारा कार्य पादि सभी श्रमण-समुदायों ने राजरथानी में प्रचुर मात्रा
करती दृष्टिगत होती है । उनका समग्र साहित्य ३८ में लिखा है।
सहस्र पद्य-प्रमाण है । उन्होंने धार्मिक समीक्षा, अध्यात्म, सत्रहवीं शती में राजस्थानी के समर्थ रचनाकार
अनुशासन, ब्रह्मचर्य, रूपक, लोककथा और प्रात्मानुभूति श्री समयसुन्दर हए है। वे संस्कृत के भी धुरंधर विद्वान के माध्यम से राजस्थानी के साहित्यिक क्षितिज को थे । 'प्रलक्षी' उन्हीं की कृति है। उनका समग्र साहित्य ब्यापकता प्रदान की है। प्राचार की चौपाई, अनुकंपा एक लाख पद्य-प्रमाण कहा जाता है। उसमें काफी बड़ा की चौपाई, विनित-अविनित की चौपाई, निक्षेपों की भाग राजस्थानी का है । उसमें शांवप्रद्युम्नरास, प्रत्येक चौपाई, नवपदार्थ सद्भाब निर्णय, बारहवत की चौपाई,
१-गुजराती के साहित्य और साहित्यकारों की विशेष जानकारी के लिए देखिए 'जैनगुर्जर कवियो'
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६
शील की नवबाड़, सुदर्शन चरित्र, उदाईराजा, जंबूकुवर जमाली, महाबल, खंदक सन्यासी आदि उनमें प्रमुख चरित्र. कृष्णाबलभद्रचरित्र. नन्दन मणियार है। इनके अतिरिक्त अध्यात्म रस से प्लावित कर देने अर्जुनमाली, ढंढरणमनि जिनरिख जिनपाल आदि उनकी वाले उनके अाराधना. चौबीसी प्रादि ग्रन्थ भी बढ़त अमर कृतियां है। उन्होंने गद्य भी काफी लिखा है। प्रसिद्धि प्राप्त हैं। मघवागणी ने उनके जीवन-चरित्र बीसवीं शती के समर्थ जैन-साहित्यकार श्री जया
'जयसुजस' में उनके द्वारा रचित ग्रन्थों की सूची बतलाते चार्य हुए हैं। उन्होंने राजस्थानी में साढ़े तीन लाख
हए ७१ ग्रन्थों के नाम दिए है और अंत में कहा है कि पद्य-प्रमाण साहित्य लिखा है। उनकी लेखनी से गद्य
इनके अतिरिक्त सैकड़ों स्फुट ढालों तथा थोकड़ों के रूप और पद्य दोनों ही प्रकार का साहित्य प्रसूत हुआ है।
में भी उनका पुष्कल साहित्य विद्यमान है । जयाचार्य उनका साहित्य विविध विषयक है । उसमें प्रागमटीका,
जहां ग्रन्थ-निर्माण में कुशल थे, वहां संकलन और तत्वसमीक्षा, जीवन चरित्र, पाख्यान, अनुशासन,
सम्पादन में भी प्रवीण थे । भिक्ष-दृष्टान्त उनकी
संकलन-पद्धति और सिद्धान्तसार तथा गरग विशुद्धिकरण स्तवन आदि विषय प्रमुख रहे हैं। प्रागम टीकानों के
हाजरी आदि उनकी संपादन पद्धति के उत्कृष्ट उदाअवरुद्व क्रम को बीसवीं शती तक पहुंचा देने का श्रेय हा एक मात्र उन्हीं को है । उन्होंने जिन अनेक प्रागमों को
हरण कहे जा सकते हैं। पद्यबद्ध टीकाएं की हैं, उनमें भगवती सबसे बड़ा
तेरापंथ के वर्तमान प्राचार्य श्री तुलसी तथा उनका पागम है। उसकी पद्य टीका का नाम भगवती की शिष्य संघ संस्कृत, हिन्दी ग्रादि भाषाओं में साहित्य जोड़े है । जयाचार्य की अकेली इसी कृति का गंथमान रचना के साथ-साथ भी तत्परता के साथ राजस्थानी ६३७६० पद्य-प्रमाण है। इसमें राजस्थानी गीतों की भाषा के साहित्य-निर्माण में लगा हना है । प्रतिवर्ष विभिन्न लयों में ५०१ गीतकाएं है । जैनागमों के अनेकों ग्रन्थों का योजनाबद्ध निर्माण चालू है। प्राचार्य तत्वज्ञान को लोक-गीतों की धुनों में बांधने में सबसे श्री तुलसी की राजस्थानी कृतियो में कालूयशोविलास, बड़ा और सर्वोत्कृष्ट प्रयास जयाचार्य का ही रहा है। मारएक महिमा, डालिमचरित्र आदि जीवन-चरित्र तथा इसके अतिरिक्त पाचारांग प्रथम श्रतस्कंध, निशीथ यादि गजसुकुमाल, उदाई सुकुमालिका ग्रादि प्राख्यान ग्रन्थ और अन्य अनेक प्रागमों की भी उन्होंने पद्य-टीका (जोडी कालू उपदेश वाटिका प्रादि प्रौपदेशिक अन्य महत्वकी थीं। तत्त्वसमीक्षा विषयक भी उनने अनेक प्रसिद्ध
पूर्ण है। ग्रन्थ है, उनमें भ्रमविध्वंसन, कुमति विहंडन, संदेह
राजस्थानी भाषा में साहित्य रचना की मुख्यतः विषौषधि, जिनाज्ञामुख मण्डन, प्रश्नोत्तर सार्थशतक.
तीन शैलियां मानी जाती हैं । जैन शैली, चारण शैल प्रश्नोतर तत्वबोध, झीणीचर्चा ग्रादि प्रमुख हैं। इनमें
और डिंगल शैली । डिंगल शैली अपभ्रंश भाषा का ही
एक विकसित रूप है। चार शैली में मुख्यतः चारण कुछ गद्यात्मक है तो कुछ पद्यात्मक । भिक्षजस रसायण.
कवियों ने और कुछ जैन, ब्राह्मण आदि अन्य कवियों ने खेतसीचरित्र, ऋषिराय-चरित्र, शांतिविलास, हेमनबरसो,
भी लिखा है । जैन शैली का विकास मुख्यतः जैन सरूपनवरसो आदि के रूप में उन्होंने १५ जीविनयां
साहित्य कारों ने ही किया है । इसमें कुछ गुजराती का पद्यबद्ध रूप से लिखी थीं । इन जीवनियों ने तेरापंथ के
प्रभाव रहा है । यह शैली मुख्यत: जनभाषा के अधिक इतिहास को जीवित रखने में बहत बड़ा सहयोग
समीप रही है। यही कारण है कि अपने प्रारम्भकाल दिया है।
से आज तक की इस शैली की राजस्थानी-कृतियां बड़ी जयाचार्य ने अनेक प्राख्यान ग्रन्थ भी लिखे हैं। प्रासानी से टीका ग्रादि के बिना ही समझी जा सकती धनजी, महीपाल, दयमंती, पार्श्वचरित्र, मंगलकलश, है। चार-सौ वर्षों के प्रलंबकाल में भी इसमें बहुत मोह जीत, शीलमंजरी, ब्रह्मदत्त,भरतबाहुबलि, व्याघ्रक्षत्रिय स्वल्प अंतर पाया है।
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
कन्नड़-भाषा
पाठ सौ वर्ष सम्बन्धी जैनों के प्रभ्युदय-वासित-निमित्त दक्षिण भारत में प्रचलित द्राविड़ भाषाएं संस्कृत, जो वाङ्मय है, उसका अवलोकन करना समुचित है। प्राकृत प्रादि प्रार्य भाषामों के परिवार से भिन्न हैं । तत्कालीन करीब २८० कवियों में ६० कवियों को इस भाषा वर्ग का व्याकरण आर्यभाषानों के व्याकरणों स्मरणीय एवं सफल कवि मान लेने पर इनमें ५० जैन से प्रायः समग्ररूप से भिन्न है। लिंग, बचन प्रत्यय कवियों के नाम ही हमारे सामने प्रा उपस्थित होते हैं । प्रादि का क्रम सर्वथा भिन्न है। शब्द भंडार को दृष्टि इन ५० कवियों में ४० कवियों को निस्सन्देह हम प्रमुख से भी ये भाषाएं इतनी समृद्ध हैं कि इन्हें संस्कृत प्रादि मान सकते हैं । लौकिक चरित्र, तीर्थकरों के पारमार्थिक पार्य-भाषामों से शब्द उधार लेने की बहधा अावश्यकता पुराण और दार्शनिक प्रादि अन्यान्य ग्रन्थ भी जैनों के नही रहती। इस कथन का तात्पर्य यह नहीं कि आर्य द्वारा ही जन्म पाकर कन्नड़ साहित्य पर अपना शाश्वत भाषामों का एक भी शब्द द्राविड़ भाषाओं में नहीं है। प्रभाव जमाए हुये है। साधारण पादान-प्रदान तो चलता ही है । काल के
कन्नड़ के जैन साहित्यकारों में जो विशेष प्रसिद्धि लम्बे प्रवाह में द्राविड़ भाषानों ने आर्य भाषाओं से
प्राप्त लेखक है। उनमें महाकवि पंप का नाम प्रादि अनेक शब्द लिए हैं तो साथ ही अनेक शब्द दिए है।
कवि के रूप में लिया जाता है । पोन्न. रन्न और जन्न ये भाषा तत्व के धुरंधर विद्वान डा० काल्डीवेल के मतानु
तीनों कवि वहां के 'रत्नत्रय' कहनाते है । कंति वहां सार नीर, पल्लि, मीन, वल्लि, मुकुल, कुतल, काक, ताल, मलय, कलि, कल्प, तल्प और खजु आदि शब्द
की प्रादि कवियित्री कही जाती है। उसे 'अभिनव
वागदेवी' की उपाधि प्राप्त थी। महाकवि नागचन्द्र को द्राविड़ भाषामों से ही संस्कृत में पाए है । कुछ पाश्चात्य भाषा-शास्त्रियों के मतानुसार तो संस्कृत में वर्ग
अभिनव पंप कहा गया है। इस प्रकार के ख्यातनामा के अक्षर द्राविड़ भाषानों से ही लिए गए हैं।
परःशत जैन कवियों और उनके ग्रन्थों ने कन्नड़ साहित्य
में प्रमर स्थान प्राप्त किया है। उनमें पंप का आदिपुद्राविड़-भाषा-परिवार की मुख्य पांच भाषाएं
राण (सन् ६४१ ) पोन्न का शांतिनाथ पुराण गिनी जाती हैं-कन्नड़, तमिल तेलगू, मलयालम और
(सन् १५० लगभग), रन्न का अजितनाथ पुराण तुलु । इनमें से कन्नड़, तमिल और तेलगु में जैन
(सन् ६६३ ), चावुडराय का त्रिषष्टिशलाका पूराण साहित्यकारों ने प्रमुख रूप से लिखा है। कन्नड़ को तो
(सन् १७८), अभिनव पंप नागचन्द्र का मल्लिनाथ साहित्यिक रूप प्रदान करने का समग्र श्रेय जैन लेखकों । को ही है। प्राज भी इस भाषा का दो तिहाई साहित्य पुराण ( सन् ११०० ), बुधवमों का हरिवंश पराण जैन साहित्य माना जाता है। तेरहवीं शताब्दी तक तो ( सन् १२०० ), कुमुददु का रामायण ( सन् १२७५ ). इस भाषा के साहित्य पर जैनों का ही एकाधिपत्य रहा
रत्नाकरवर्णी का भारत वैभव ( सन् १५५७), आदि
अनेक ग्रन्थ रत्न प्रमुख रूप से गिनाए जा सकते हैं । है । उनमें नवमीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक का
तीर्थकरों, चक्रवत्तियों और महान राजामों आदि के काल विशेष उत्कर्ष पूर्ण माना जाता है । कहा जाता है कि यदि कन्नड़ भाषा में से जैन साहित्य को बाद दे जीवन-चरित्र पर आधारित सभी महाकाव्य भाषा लालित्य दिया जाए तो पीछे उसका प्राचीन साहित्य कुछ भी न के उत्कृष्ट उदाहरण माने जाते हैं । उपर्युक्त नाम तो रह जाए । इस बात की पुष्टि कन्नड साहित्य के मर्मज्ञ केवल सूचनामात्र हैं. मूलतः ऐसे सहस्रों ग्रन्थ हैं । कन्नड विद्वान शेष वी० पारिशवाड़े के कथन से भी होती है। के इन जैन लेखकों में श्रमण और गृहस्थ दोनों ही रहे वे कहते है-लगभग ईस्वी छठी शताब्दी तक के सात है। इसीलिए उसके साहित्य में जहां काव्य, व्याकरण,
१-करनाटक कवि चरिते, भाग ३ की प्रस्तावना देखें ।
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
ज्योतिष, गणित प्रादि विषय रहे हैं, वहां सुपशास्त्र फल था कि दक्षिण में नए प्रादर्शों, नए साहित्य और और कामशास्त्र जैसे विषय भी रहे हैं ।
नए भावों का संचार हुआ ।' दक्षिणात्य विद्वान काल की दृष्टि से कन्नड़ साहित्य को प्राचीन, रामस्वामी अय्यंगार का कथन है-'जैन लोग बड़े विद्वान माध्यमिक और वर्तमान इन तीनों श्रेणियों में विभक्त
और ग्रन्थ रचयिता थे। वे साहित्य और कलाप्रेमी थे । किया जाता है। छठी शताब्दी से बारहवीं तक प्राचीन
जैनों की तमिल सेवा तमिल देशवासियों के लिए अमूल्य काल, बारहवीं से सत्रहवीं में शताब्दी तक माध्यमिक है । तमिल भाषा में संस्कृत शब्दों का उपयोग पहले काल और सत्रहवीं से आज तक वर्तमान काल माना पहन सबसे अधिक जैनों ने ही किया । उन्होंने संस्कृत जाता है। प्राचीन काल में जैन. माध्यमिक काल में शब्दों को उच्चारण की सुगमता की दृष्टि से यथेष्ट लिंगायत और वर्तमान काल में ब्राह्मण धर्मानुयायी रूप स
रूप से बदला भी है । कुरल के पश्चादवी युग में कन्नड़ के प्रमुख लेखक रहे है । यह विभाजन केवल प्रधानतः जैनों को संरक्षता में तमिल-साहित्य अपने प्रमुखता की दृष्टि से ही किया गया है । अन्यथा हर
विकास की चरम सीमा तक पहुंचा। तमिल साहित्य की काल में जैन लेखक कन्नड़ को समृद्ध बनाते रहे हैं । उन्नति का वह सर्वश्रेष्ठ काल था ! वह जैनों की विद्या आज भी यह कार्य चालू है।
और प्रतिभा का समय था ।" तमिल भाषा
तमिल में जैन साहित्यकारों के ग्रन्थ निर्माण का तमिल भाषा को द्राविडी भाषामों में सबसे अधिक प्रवाह मुख्यतः ईस्वी की छठी शताब्दी तक ही रहा प्राचीन माना जाता है । भाषा शास्त्रियों का मत है कि था। उसके पश्चात् वह क्षीण प्रायः हो गया । अाजकल ईस्वी सन् से शताब्दियों पूर्व भी यह काफी उन्नत
उन ग्रन्थों में से बहुत कम ही उपलब्ध हैं। अधिकांश स्थिति में थी। साथ ही विद्धज्जनों का यह भत भी है
साहित्य नष्ट हो चुका है, किन्तु जो उपलब्ध है, वह कि सुप्राचीनकाल में विध्यपर्वत के दक्षिण भाग में एक
तत्कालीन जैन साहित्यकारों के पांडित्य और ज्ञान पर ही भाषा बोली जाती थी। बाद में उसीसे समस्त द्राविड़
यथेष्ट प्रकाश डालने वाला है । कुछ प्रमुख तमिल जैन भाषाएं पैदा हुई । वह आदिम भाषा प्राचीन तमिल से
ग्रन्थों का परिचय आगे दिया जाता है। बहुत कुछ मेल खाती है । कुछ भी हो, इसमें तनिक भी तोलकाप्पियम्-यह एक व्याकरण ग्रन्थ है। तमिल संदेह नहीं कि द्राविड़ भाषाओं में तमिल सर्वाधिक भाषा के सभी व्याकरण ग्रन्थों का मूल तो यह माना प्राचीन है। इस भाषा पर संस्कृत का प्रभाव अन्य जाता है ही, पर साथ ही उपलब्ध सभी तमिल साहित्य द्राविड भाषाओं की अपेक्षा बहुत कम पड़ा है।
का यह पूर्ववती ग्रन्थ माना गया है। इसके कर्ता का समस्त तमिल साहित्य को तीन युगों में विभक्त
नाम तथा धर्म यद्यपि अज्ञात है, परन्तु इस ग्रन्थ के किया जाता है-संघकाल, शैवकाल और अर्वाचीनकाल ।
। कतिपय प्रसंगों की अन्तरंग समीक्षा द्वारा विद्वानों ने ईस्वी पूर्व पंचमशती से लेकर पंचम-षष्ठ शती तक
- इसे एक जैन ग्रन्थ माना है और यह सिद्ध किया है कि अर्थात् लगभग एक सहस्र वर्ष तक का काल संघकाल
इसका कर्ता संस्कृत, व्याकरण तथा साहित्य में भी
निर्विवाद रूप से प्रवीण रहा है। कहा जाता है। यही काल मुख्यतः जन-साहित्यकाल रहा है। कन्नड़ के समान तमिल के मूल को भी जैन तिरूक्कुरल-यह एक नीति ग्रन्थ हैं । तमिल साहित्य साहित्यकारों ने ही सींचा था । पाश्चात्य विद्वान मि० में इसका सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान है। इसे एक प्रकार फेजर ने भारत के साहित्यिक इतिहास का विवरण से तमिल वेद कहा जाता है । एक परम्परा के अनुसार प्रस्तुत करते हए लिखा है-'यह जैनों के हो प्रयत्नों का इसके रचयिता का नाम कुदकुद ( अपरनाम एलाचार्य)
1-A Literary history of India.
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
है तो दूसरी परम्परा के अनुसार इसके लेखक तिरूवल्लुवर प्रख्यात पांच महाकाव्यों में से एक है। इन पांच महाकहे जाते हैं । अहिसा सिद्धान्त इस ग्रन्थ का आद्योपांत काव्यों में से तीन जैन ग्रन्थ हैं और दो बौद्ध ग्रन्थ । प्राधार रहा है ।
अवशिष्ट दो जैन महाकाव्यों के नाम हैं-बलैयापति और नालडियार-यह एक संग्रह ग्रन्थ माना जाता है।
जीवकचिंतामणि । पांचों महाकाव्यों में जीवकचिन्ताकहा जाता है कि उत्तर में दुष्काल पड़ने के कारण पाठ ।
मणि सबसे बड़ा तो है ही, साथ ही उपलब्ध समस्त हजार जैनसाधू दक्षिण-पांडयदेश में पाए थे। कालान्तर तमिल साहित्य में सवोत्कृष्ट भी है। में वे वापस जाने की तैयारी करने लगे । पांड्य नरेश तमिल में पांच लघुकाव्य भी अति प्रसिद्ध हैं ।
है वहीं ठहराना चाहते थे, पर वे नहीं माने । वे राजा उनके नाम हैं-यशोधर काव्य, चूलामणी, उदयनन् कथे, से प्रच्छन्न होकर चले गए। जाते समय प्रत्येक साधु ने नागकुमार काव्य और नीलकेशि । ये पांचों ही जैन ताड़ के पत्तों पर एक-एक पद्य लिखकर छोड़ दिया। कृतियां हैं । यशोधर काव्य इन सबमें प्रथम कोटि का बाद उन्हीं पद्यों का संग्रह करने पर उपयुक्त ग्रंय माना जाता है। अस्तित्व में पाया । यह ग्रन्थ भी कुरल के समान ही उपयुक्त ग्रन्थों के अतिरिक्त अनेरिच्चारम. आदरणीय तथा एक उत्कृष्ट कोटि का नीति ग्रन्थ माना पलनोलि आदि नीतिग्रन्थ, मेरूमंदर पुराणाम.श्रीपराणम जाता है।
आदि पुराणग्रन्थ यप्परंगुलक्करिकै, यप्परंगुलवृत्ति, शिलप्पदिकारम्-यह एक महाकाव्य है । इसके लेखक नेमिनाथम् और नानूल आदि व्याकरण ग्रन्य, अच्चनंदिचेर के युवराज हैं जो कि जैन मुनि हो गए थे। इसमें भालै आदि छन्दःशास्त्र और जिनेन्द्रभालै आदि ज्योतिष दक्षिण भारत के इतिहास में दिलचस्पी रखने चालों को ग्रन्थ भी जैन साहित्यकारों की तमिल में बहत महत्त्व प्रचुर सामग्री उपलब्ध हो सकती है । यह तमिल के पूर्ण कृतियां मानी जाती है।
धर्म-श्रुत-धनानां प्रतिदिनं लवोऽपि संगृह्यमाणो भवति समुद्रादप्यधिकः ।
नीतिवाक्यामृतसोमदेवाचा । धर्म ( मानव कर्त्तव्य ) श्रुत ( ज्ञानाभ्यास) और धन इनका यदि प्रतिदिन थोड़ा-थोड़ा अंश संगृहित किया जाय तो किसी दिन इनकी राशि समुद्र से भी अधिक हो सकती है।
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म और राज्य व्यवस्था
• रामावतार शर्मा, एम. ए.
राजनीति विभाग श्रमजीवी कॉलेज, उदयपुर
ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि का अवलोकन करने से स्पष्ट हो गया कि जैनधर्म ने राज्य व्यवस्था को अच्छी तरह प्रभावित किया है । जैन आचार्यों का यह क्रम रहा है कि वे सदैव से ही अपने ध्येय की सिद्धि करने के लिए शक्तिभर स्वयं भाग लेते हैं और अपने आस पास शक्तिशाली ( सम्प्रभू) लोगों की सत्ता का भी अधिक से अधिक उपयोग करते आए हैं । जो कार्य वे स्वयं सरलता से नहीं कर सकते उस कार्य की सिद्धि के लिए अपने अनुयायी या अनुयायी राजा, मंत्री और दूसरे अधिकारी तथा अन्य समर्थ लोगों का पूरा-पूरा उपयोग करते हैं।
विशाल संस्कृत साहित्य में यद्यपि सदियों से मौलिक की भी कमी नहीं है, बौद्ध और जैन साहित्य भी
' कृतियों की वृद्धि नहीं हुई तथापि ऐसा कोई भी राज्य व्यवस्था विषयक निर्देशों से शून्य नहीं है । विषय नहीं है जिसके तत्वों का प्राभास बीज रूप में
प्राचीन भारतीय परम्परा के अनुसार राजशक्ति उपलब्ध नहीं होता । विज्ञान, कला, धर्म, दर्शन राजनीति
और धर्म एक दूसरे के प्रतिद्वन्द्वी कभी नहीं रहे, अपितु और राज्य व्यवस्था सभी का वर्णन विविध रूपों में ।
एक दूसरे के सहयोगी रहे हैं। इनका पारस्परिक सान्निध्य संस्कृत साहित्य में अतुल मात्रा में प्राप्त होता है।
इतना सघन था कि धर्मनीति और राजनीति एक भारतीय संस्कृति के इतिहास में राज्य से सम्बन्धित
दुसरी में घुली मिली दिखाई देती है। यहां के शासक ज्ञान का रूप लेकर कोई भिन्न शास्त्र नहीं रचा गया,
वर्ग ने धर्म को ही राज्य की आधारशिला माना है-फिर यह विषय विशुद्ध नीति विषयक ग्रन्थों के प्रतिरिक्त
क्यों न राज्य व्यवस्था धर्म द्वारा प्रभावित नहीं होती। प्रचीन भारतीय साहित्य के अन्य भी बहुत से ग्रन्थों से
भारत बहुत ही बड़ा देश है । कतिपय विदेशी विद्वान प्राप्त होता है जो धर्म के साथ ही साथ राज्य व्यवस्था
इसे उप महाद्वीप भी कहते हैं । यद्यपि इसकी भौगोलिक का भी प्रतिपादन करते हैं। प्रायः सभी स्मृति-ग्रन्थों में राजधर्म का भी समावेश है इसलिये मनु, याज्ञवल्क्य
धार्मिक और संस्कृतिक एकता से इन्कार नहीं किया जा
सकता। पर यह सत्य हैं कि राजनैतिक दृष्टि से इस देश आदि की स्मृतियाँ प्राचीन भारतीय राज्य व्यवस्था के
में कभी अविकल रूप से एकता कायम नहीं रही । अनुशीलन के लिये बहुत ही उपयोगी हैं । धर्म सूत्रों के विषय में भी यही बात कही जा सकती है-पुराण,
प्राचीन काल में भारत में बहुत से 'जनपद' थे जिनकी रामायण, काव्य ग्रन्थों में भी राज्य व्यवस्था विषयक संख्या सैकड़ों में थी। महाभारत, पाणिनि की अपाध्यायी अनेक निर्देश मिलते हैं। पुराण संख्या में अठारह हैं बौद्ध व जैन साहित्य प्रादि में भारत के बहत से जनपदों जिनमें प्राचीन इतिवृत्त संग्रहीत है वहाँ प्रसंगवश का उल्लेख है और यह बात शिलालेखों व सिक्कों से भी उनमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सम्बन्धित संदर्भो विदित होती है।
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
जनपद
६. शनुद्रि नदी के पूर्व में-भरत, भित्सु पुरू, जिस समय पार्य भारत में प्रविष्ट हये और उन्होंने पारावत और अंजय यहां के आदिम वासियों को परास्त कर इस देश में
७. यमुना के क्षेत्र में-उशीनर, वश, साल्व शक्ति का विस्तार किया, वे राजनैतिक दृष्टि से संगठित और किती। हुये उस समय उस संगठन को 'जन' कहते थे। इन
इन जनों के अतिरिक्त अन्य बहत से जनों का जनों का संगठन परिवार के नमूने पर होता था। एक
उल्लेख वैदिक साहित्य में पाया है । वैदिक युग के जन के सभी व्यक्ति 'सजात' अथवा एक ही वंश के
पार्यों की इन विविध शाखाओं व जनों का निवास प्रायः समझे जाते थे। आर्यों के अत्यन्त प्राचीन जन प्रायः
उत्तर पश्चिमी भारत व पंजाब के क्षेत्र मे ही था। 'अनबस्थित' दशा में होते थे, क्योंकि वे किसी प्रदेश पर प्रारम्भ में स्थायी रूप से नहीं बसे थे । पर इन
वैदिक युग की शासन संस्थाओं का अनुशीलन अनव स्थित जनों में भी संगठन का प्रभाव न था । करते हुये हमें यह ध्यान में रखना चाहिये कि 'जन' के प्रत्येक जन के अनेक विभाग होते, जिन्हें ग्राम' कहते
रूप में जो राजनैतिक संगठन था उसका स्वरूप क्या थे । ग्राम का अर्थ समुदाय है। बाद में जब मनुष्यों का था। इस प्राचीन युग के भारतीय, राज्यजनों पर ही कोई समूह या समुदाय ( ग्राम ) किसी स्थान पर स्थाई आश्रित थे, ऐसे जनों पर जो कि ग्रामों व गोत्रों (कूलों) रूप से बस गया तो वह स्थान भी ग्राम कहलाने लगा। में विभक्त थे। वर्तमान समय के राज्यों से उनका मा इसी प्रकार जब कोई जन जो अनेक ग्रामों में विजयी भिन्न था। होता था। किसी भी प्रदेश पर स्थाई रूप से बस जाता राजा तो वह प्रदेश 'जनपद' कहलाने लगता, और स्वाभाविक जनपद का मुखिया राजा होता था। सामान्यतया रूप से उसमें अनेक ग्रामों की सभा होती। सारे जनपद राजा का पुत्र ही पिता की मृत्यु के बाद राजा के पद के शासक को राजा कहते थे ।
को प्राप्त करता था, पर यह प्रावश्यक था कि उसको वैदिक यग के प्रार्य राजनैतिक दृष्टि से जिन 'जनों' जनमत 'विशः' या प्रजा स्वीकार करे । यदि राजा का में संगठित थे वेदों के अनुशीलन से उनके सम्बन्ध में पुत्र प्रजा की सम्मति में राजा के पद के लिये प्रयोग भी परिचय मिलता है। Vedic Index में इन जनों हो तो प्रजा उसे राजा के रूप में स्वीकार नहीं करती का भौगोलिक दृष्टि से विभाजन निम्न प्रकार से किया थी तब कुलीन घराने के किसी अन्य व्यक्ति को कर गया है
स्थान दिया जाता था। १. उत्तर-पश्चिम के क्षेत्र में-कम्बोज, गान्धारी, जनता जिस राजा का वरण करती थी उससे वह अलिन, पक्थ, मलान और विद्यारिणन।
कतिपय कर्तव्यों के पालन की भी प्राशा रखती थी।
इन कर्तव्यों में सर्व प्रधान कर्तव्य जनता को धन २. सिन्धु नदी के पश्चिम में-अजिकीय, शिक,
वैभव पैदा करवाना और धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान केकय और वृचीवन्त ।
करना था। धर्म के प्रति सहिष्णुता ही पर्याप्त न थी ३. सिन्धु और वितस्ता नदियों के मध्यवर्ती क्षेत्र
अपितु मुक्त हस्त अनुदान की भी जनता प्राशा में यदु।
करती थी। ४. वितस्ता नदी के पूर्ववर्ती पार्वत्य क्षेत्र में
इस प्रकार स्पष्ट है कि राजा सृष्टि का सेवक महावृक्ष, उत्तर कुरू और उत्तर भद्र।
योग्य पुरुष था। उसका जीवन निरन्तर परिपलन के ५. असिक्नी और पुरुष्णी नदियों के मध्य में लिये ही होता था। जैनचार्यों ने साम्राज्य पद को सात वाल्हीक, द्रु द्य , तुर्वंशु और अनु ।
परम स्थानों में गिनकर राजा के महात्म्य की घोषणा
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
की है । जो राजा अपने जीवन को केवल भोग विलास
का ही साधन समझते हैं वे आत्म कर्त्तव्य ज्ञान से शून्य हैं। अपने ऊपर संपूर्ण राज्य के जीवन का भार लेकर भी यदि भोग विलास को ही अपना लक्ष्य बनालें तो उनसे अधिक आत्मवञ्चक तथा प्रमत कौन होगा ? आचार्य सोमदेव ने राजा और राज्य की त्यागमयता के कारण उसे पूज्य समझकर अपने 'नीतिवाक्यामृत' के प्रारम्भ में राज्य को ही नमस्कार किया है । उनका पहिला सूत्र है - प्रथ धर्मार्थ कामफलाय राज्याय नमः । शुक्राचार्य के नीतिशास्त्र में भी सन्धि विगृह प्रदि शाखा, साप, हान आदि पुष्प तथा धर्म अर्थ काम रूप फलयुक्त राज्यवृक्ष को नमस्कार किया गया है । राजा कौन हो सकता है उसके उत्तर में आचार्य सोमदेव कहते हैं, धर्मात्मा कुल अभिजन और प्राचार से शुद्ध प्रतापी, नैतिक, न्यायी निग्रह धनुग्रह में तटस्थ आत्म सम्मान आत्मगौरव से व्याप्त कोश एवं बल सम्पन्न व्यक्ति राजा होता है ।"
सोमदेव सूरि
प्राचार्य सोमदेव सूरि ने चालुक्य वंशीय राजा प्ररिकेसरी के प्रथम पुत्र श्री वद्दिगराज की गंगाधारा नगरी में चैत्र सुदी १३ शक संवत् ८८१ को यशस्तिलक चम्पू को पूर्ण किया, इनका एक और भी सुविख्यात ग्रन्थ 'नीतिवाक्यामृत' भी है जो राजशास्त्र की प्रमूल्य निधि है । इन दोनों ग्रन्थों में राजाओंों के राजनैतिक जीवन को व्यस्थित और अधिक से अधिक राजव्यवस्था को सफल बनाने के लिये मर्यादा निर्देशन दिया है । राजव्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के लिये माचार्य ने राजा को देशना दी है कि अपने राज्य का समस्त भार मन्त्रियों आदि पर छोड़ कर बैठने से ही राजा राजव्यवस्था में असफल होते हैं । प्राचार्य कहते हैं कि राजाश्रों को प्रत्येक राजकीय कार्य स्वयं अवलोकन करना चाहिये। क्योकि जो राजा अपना कार्य स्वयं नहीं देखता है उसे निकटवर्ती लोग उल्टा सीधा सुझा देते हैं । शत्रु भी उसे अच्छी तरह धोखा दे सकता है । "जो राजा मन्त्रियों को राज्य का भार सौपकर स्वेच्छाविहार करते हैं वे मूर्ख, बिल्लियों के उपर दूध की रक्षा
३२
का भार सौंपकर ग्रानन्द से सोते हैं। कदाचित् जल में मछलियों का और ग्राकाश में पक्षियों का मार्ग जाना जासकता है किन्तु हाथ के प्रॉबले को लुप्त करने वाले मन्त्रियों की प्रवृत्ति नहीं जानी जासकती। जिस प्रकार वैध लोग धनाढ्य पुरुषों के रोग बढ़ाने के लिये वैद्य सदैव तत्पर रहते हैं उसी प्रकार मन्त्री भी राजा की आपत्तियां बढ़ाने में सदा प्रयत्नशील रहते हैं। आचार्य ने जहाँ मन्त्रियों के प्रति राजा को जागरुक रहने का उपदेश दिया है वहां मन्त्रियों को उपयोगिता का भी सुन्दर प्रतिपादन किया है । मन्त्रियों के बिना केवल राजा के ही द्वारा राज्य का संचालन नहीं हो सकता । अतः राजा को राज्य व्यवस्था के लिये अनेक मन्त्री गण रखने चाहिये |
1
आन्तरिक शान्ति व्यवस्था के लिये राजानों को उदार बनना आवश्यक है। अपनी सम्पत्ति का उचित भाग दूसरों के लिये भी देना चाहिये जो राजा संचय शीलता के कारण प्रश्रितजनों में अपनी सम्पदा नहीं बांटते उनका अन्तरंग सेवक भ्रष्ट हो जाता है । इस प्रकार प्रजा में शनैः शनैः प्रनीति बढ़ने लगती है, और अन्ततोगत्या अराजकता फैलजाती है। यहाँ दान उपाय के समर्थन के आगे भेदनीति का भी सुन्दर प्रतिपादन किया है। 'जो राजा शत्रुओं में भेद डाले बिना ही पराक्रम दिलाता है वह ऊँचे बांसों के समूह में से किसी एक बांस को सींचने वाले वली के समान होता है।'
प्राचार्य सोमदेव सूरि ने अनेकों प्रकार के प्रमाण और उक्तियों द्वारा राजा की स्थिति को सुदृढ़ करने की बात कहीं हैं।
यह प्रावश्यक नहीं कि शत्रुओं को अपने वश करने के लिये उनके देश पर प्राक्रमण ही करे जिस प्रकार कुम्भकार अपने घर बैठकर चक्र चलाता हुप्रा अनेक प्रकार के बर्तन बना लेता है ठीक उसी प्रकार राजा भी अपने घर बैठकर चक्र नीति एवं सैन्य ) चलाये और उसके द्वारा दिग दिगन्त के राजा-भाजनों को सिद्ध ( वश में करे जिस प्रकार किसान अपने ) 1 खेत के बीच मञ्च पर बैठकर ही खेत को रक्षा करता
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
है उसी प्रकार राजा को भी अपने सिंहासन पर प्रारूढ़ है। पाणिनि की प्रसिद्ध अष्टाध्यायी का काल भी छटी होकर समस्त पृथ्वी का पालन करना चाहिये।
सदी ई.पू० के लगभग ही माना जाता है । अष्टाध्यायी यह सब वे मार्मिक उपदेश हैं जिनसे राजानों का
यद्यपि व्याकरण ग्रन्थ है पर उसके तद्धित प्रकरण में जीवन लोक कल्याण कारी बन जाता है। प्राचार्य ने बहुत से ऐसे सूत्र हैं जो इस युग के जनपदों व उनकी गुप्तचरों की महता का वर्णन करके उनको राजोपयोगी शासन संस्थानों पर अच्छा प्रकाश डालते हैं। बताया है। उनके शब्दों में ही दूत वह है जो चतर हो. गणतंत्र जनपद शूरवीर हो, निर्लोभी हो, प्राज्ञ हो, गम्भीर हो, प्रतिभा
बौद्ध साहित्य में स्थान-स्थान पर सोलह महाजन शाली हो, विद्वान् ही प्रशस्त वचन बोलने वाला हो,
पदों का उल्लेख पाता है । यह सूची बौद्ध साहित्य में सहिष्ण हो, द्विज हो, प्रिय हो और जिसका प्राचार अनेक स्थानों पर एक ही ढंग से उपलब्ध होती है। यह निर्दोष हो ।
सूची एक श्लोक के रूप में है । इस सोलह महाजन पदों पूर्ण राजतंत्र का संचालन अर्थ द्वारा होता है में एक ही प्रकार की शासन पद्धति न थी-उनमें से इसलिये राजाओं को राज की प्राय वृद्धि के लिये प्रत्येक कुछ राजतंत्र थे और अन्य गणतंत्र । गणतंत्र में कोई उपाय करने चाहिये।
वंश क्रमानुगत राजा नहीं होता था। जनता स्वयं ही महाजनपद
अपना शासन करती थी। सोलह महाजनपदों में वज्जि, जिन जन पदों का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है मल्ल और शूरसेन राज्यों का गणतन्त्र होना निश्चित है शासन पद्धति की दृष्टि से ये जनपद प्रधानतया दो माना जाता है । पर इनके अतिरिक्त अन्य भी अनेक प्रकार के थे-राजतन्त्र और गणतन्त्र । दुर्भाग्यवश गणराज्यों का उल्लेख बौद्ध साहित्य में मिलता है जो महाभारत के समय और छटी सदी ईसा पूर्व का राज- निम्नलिखित हैंनैतिक इतिहास प्रायः प्रज्ञात ही है। इतिहासकारों ने (१) कपिल वस्तु के शाक्य, (२) राम ग्राम के लिये थोड़ा बहत इस अन्धकारमयी काल को भेदने का प्रयास कोलिप (३) मिथिला के विदेह (४) पिप्पलिवन के भी किया है किन्तु उन में बड़ा ही मतभेद है। कारण
मल्ल, (५) पावा के मल्ल (६) पिप्पलिवन के मोरिय, इस काल का कोई ऐसा साहित्य भी उपलब्ध नहीं है (७) अल्ल कप्प के बुलि, (८) ससुभार पर्वत के मग्ग. जिसके माधार पर जहां राजनैतिक इतिहास को क्रमबद्ध (६) केसपुत्र के कालाम और वैशाली के लिच्छवी। रूप से तैयार किया जा सके वहाँ साथ ही इस युग की मिथिला के विदेह और वैशाली के लिच्छवी राज्यों शासन संस्थानों का भी परिचय प्राप्त किया जा सके। के संघ को वज्जि कहा जाता था। परन्तु छटी सदी ईसा पूर्व से इस दिशा में अन्तर पाना लिच्छवी गण प्रारम्भ हुा । इस सदी में महात्मा बुद्ध ने अष्टांगिक महात्मा बुद्ध के कारण कपिल वस्तु के शाक्यों का प्रार्य धर्म का प्रतिपादन किया और जैन धर्म के चौबीस जितना महत्व है ठीक उसी प्रकार वैशाली के लिच्छवी वें तीर्थकर बर्द्धमान महावीर भी इसी सदी में उत्पन्न भी विशेष महत्ता है । भगवान् महावीर की यह पुण्य हये । बौद्ध और जैन साहित्यों में जहां बुद्ध और महावीर
भूमि है, इनका प्रादुर्भाव वैशाली के राज्य संघ में हमा का चरित्र संकलित है वहाँ साथ ही उन जनपदों और था। वैशाली के शक्तिशाली राज्य संघ में सम्मिलित राजारों के सम्बन्ध में भी उनके द्वारा बहुत सी बातें ज्ञातृकगण में उनका जन्म हुअा था । ज्ञातृकगण वज्जि जात होती हैं जिनका इन धर्माचार्यो के साथ घनिष्ट राजसंघ के प्रतर्गत था। यही कारण सम्बन्ध था। निरन्तर विकास द्वारा भारत के विविध धार्मिक साहित्य इस संघ के विषय में विशेष प्रकाश जन पदों में जिस प्रकार की शासन संस्थाएँ स्थापित डालता है । बौद्ध साहित्य से भी इसके विषय में हो गई थीं उनका भी इस साहित्य से परिचय मिलता बहुत सी ज्ञातव्य बातें विदित होती हैं।
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन ग्रन्थों में वैशाली का बहुत सम्बद्ध तथा वैभवशाली नगर के रूप में वर्णन किया गया है। लिच्छवी गण की राजधानी होने के अतिरिक्त यह बज राज्य संघ जिसमें कुल मिलाकर पाठ गणराज्य सम्मलित घे की भी राजधानी थी। इस दिशा में बिलकुल स्वाभाविक है कि यह बहुत ही उन्नत और समृद्ध दशा को पहुँचा होगा। वर्तमान समय में बिहार राज्य के मुजफ्फरपुर जिले में बसा नामक एक गांव है जो गण्डक नदी के बायें तट पर स्थित है। इसी स्थान पर प्राचीन समय की प्रसिद्ध वैभवशाली वैशाली नगरी विद्यमान यी ।
३४
वैशाली के निवासियों में उच्च, मध्य, वृद्ध, ज्येष्ठ आदि के भेद का विचार नहीं किया जाता या वहां प्रत्येक प्रादमी अपने विषय में सोचता था कि वह स्वयं राजा है, और कोई किसी से छोटा बनना स्वीकार नहीं करता था ।
निधी राज्य की राजसभा के अधिवेशन सभ्यागार में होते थे । इस सभा में कितने लिच्छवी 'राजा' सम्मलिए होते थे, इसका निर्देश भी बौद्ध साहित्य में मिलता है एक पण जातक में लिखा है कि वैशाली में जो राजा राज्य करते हैं, उनकी संख्या सात हजार मात सौ सात है। साथ ही राजाओ के साथ शासन करने वाले उपराजा, सेनापति और भाण्डागारिकों की संख्या भी इतनी ही है। यह वेवल इतना ही सूचित करता है कि लिच्छवी राज्य में शासन करने वाली श्रेणी बहुत बड़ी थी कुछ ऐतिहासकारों का मत है का मत है कि यह सात हजार सात सौ सात शासक परिवार थे ।
वैसे तो वैशाली को ग्राबादी बहुत थी । महात्मा बुद्ध वहां जब यात्रा करते हुये पहुँचे तो १,६८,००० प्रादमी उनका स्वागत करने के लिये आये । इससे वैशाली की आबादी के घनत्व पर प्रचुर मात्रा में प्रकाश पड़ता है ।
इन राजाओं का राज्याभिषेक भी होता था, क्योंकि प्रत्येक लिच्छवि अपने को राजा समझता था। राज्य में एक शासनाधिकारी होता था, जिसे नायक कहते थे । इस नायक की नियुक्ति निर्वाचन द्वारा होती थी। सम्भव है कि लिच्छवि राजाओं में प्रधान प्रथमा राष्ट्रपति का कार्य यही नायक करता हो। इसका कार्य विि राजसभा के नियमों को क्रिया रूप में परिणत करना होता था ।
लिच्छवि का यह शक्तिशाली राज्य समीप के साम्राज्यवादी शासकों की दृष्टि में अखर गया। इस राज्य की स्वतंत्रता का विनाश मगधराज के प्रजातशत्रु ने किया।
ऐतिहासिक पृष्ट भूमि अवलोकन करने से स्पष्ट हो गया कि जैन धर्म ने राज्य व्यवस्था को अच्छी तरह प्रभावित किया है। जैन आचायों का यह कम रहा है कि वे सदैव से ही अपने ध्येय सिद्धि करने के लिये शनिभर स्वयं भाग लेते हैं और अपने पास पास शक्तिशाली (सम्प्रभू) लोगों को सत्ता का भी अधिक से अधिक उपयोग करते पाये है जो कार्य वे स्वयं सरलता से नहीं कर सकते उस कार्य की सिद्धि के लिये अपने अनुयायी या धनुयायी राजा, मंत्री धीर दूसरे अधिकारी तथा अन्य समर्थ लोगों का पूरा २ उपयोग करते हैं ।
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन दर्शन और विज्ञान के आलोक में पारोह-अवरोहशील विश्व
• मुनि श्री महेन्द्रकुमार
"द्वितीय' बी. एस. सी. (Hens)
आईन्स्टीन के 'द्रव्य और शक्ति की समानता' के नियम पर आधारित यह सिद्धान्त विश्व को निर्माण और ध्वंश के अनन्त चक्रों में से गुजरने वाला शाश्वत घोषित करता है । वैज्ञानिक जगत् में यह एक ऐसा सिद्धान्त है, जो जैन दर्शन के कालचक्र-सिद्धान्त के साथ अधिकतम सामंजस्य रखता है। "चक्रीय विश्वसिद्धान्त" और "अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी का सिद्धान्त" स्थूल रूप से एक ही तथ्य का निरूपण करते हैं कि विश्व की प्रक्रियामों में काल-प्रवाह के साथ निर्माण और ध्वंस क्रमशः होता रहता है और इन चकों के चलो रहो पर भी विश्व का अस्तित्व अनादि-अनन्त है।
लाल-प्रवाह के साथ विश्व-प्रक्रियानों में प्रारोह- करते हैं और वाल-प्रवाह के साथ विश्व के प्रारोह
- अवरोह पाते रहते हैं।' इस प्रकार का अवरोह का प्रतिपादन भी। किन्तु यह प्रतिपादन विश्व निरूपण वैज्ञानिकों के द्वारा 'स्वतः संचालित कम्पनशील के भिन्न-भिन्न पहलुओं के विषय में है। 'स्वतः संचाविश्व', 'प्रतिपरवलीय विश्व' और 'चक्रीय विश्व' के लित कम्पनशील विश्व-सिद्धान्तों' विश्व-प्राकाश में सिद्धान्त के रूप में किया गया है। दूसरी ओर जैन दर्शन संकोच और विस्तार के रूप में प्रारोह-अवरोह की के अवसर्पिणी-उत्सपिणी काल-चक्र का सिद्धान्त इसी तथ्य कल्पना करता है। जब कि जैन दर्शन प्रथसपिणी और का निरूपण करता है, इनमें परस्पर कहां तक समानता उत्सर्पिणी काल-चक्र के रूप में 'समयक्षेत्र' की कुछ हो सकती है, इसकी चर्चा सरस और उपयोगी होगी। प्राकृतिक प्रक्रियानों के विषय में यह निरूपण करता है। स्वतः संचालित कम्पनशील विश्व
इस प्रकार यह साम्य केवल औपचारिक हो जाता है। ___ स्वतः संचालित कम्पनशील विश्व की कल्पना प्रस्तुत सिद्धान्त के विषय में ध्यान देने योग्य दूसरी विश्व-विस्तार के सिद्धान्त पर आधारित है। अत: जैन बात यह है कि 'विस्तारमान-विश्व' के सम्बन्ध में दर्शन का जो मतभेद विश्व-प्राकाश के विषय मै लाल-रेखा- परिवर्तन की प्रक्रिया वेवल तारा पुजों की 'विस्तारमान-विश्व-सिद्धान्तों के साथ है, वह इसके साथ गति की सूचक है, प्रकाश के विस्तार की नहीं। भी स्वाभाविक रूप से हो ही जाता है। परन्तु काल के प्रो० टोलमेन का 'स्वतः संचालित कम्पनशील विश्व' दृष्टिकोण से विश्व के निरूपण के विषय में यह सिद्धान्त का प्रतिपादन 'नये जड़ की उत्पत्ति' की परिकल्पना पर और जैन दर्शन एक-दूसरे के वहुत निकट आ जाते हैं। प्राधारित है । यदि उक्त सुझाव को स्वीकार कर लिया दोनों ही विश्व के अस्तित्व को प्रनादि-अनन्त स्वीकार जाये, तो इस परिकल्पना की अावश्यकता नहीं रहती.
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६
और परिणामस्वरूप जितनी भी समस्याएं इस परिकल्पना के स्वीकार से जन्म लेती हैं स्वयं ही समाप्त हो जाती हैं । श्रतः प्रस्तुत सिद्धान्त और उक्त सुझाव के संयुक्त आधार पर कहा जा सकता है कि विश्व श्राकाश स्थित तारा पुंज काल-प्रवाह के साथ एक दूसरे से दूर और समीप गति करते रहते हैं, जब ये तारा पुज एकदूसरे से दूर या निकट होते हैं, तब लाल - रेखा में तदनुरूप परिवर्तन श्राता रहता है। वर्तमान काल में ये एक दूसरे से दूर हो रहे हैं, इसलिए हम लाल - रेखा की कम्पन प्रावृत्ति में कमी होती देख रहे हैं। भविष्य में जब इनकी वर्तमान विरोधी गति उत्कृष्ट स्थिति को प्राप्त कर लेगी, ये एक दूसरे के निकट होना प्रारम्भ कर देगे और लाल रेखा का परिवर्तन वर्तमान में निरीक्षित परिवर्तन से विपरीत होगा अर्थात् लाल रेखा की कम्पनश्रावृत्ति में वृद्धि होगी। जब इनका निकट होना उत्कृष्ट स्थिति को प्राप्त होगा, पुनः ये दूर होना प्रारम्भ कर देंगे । इस प्रकार काल-प्रवाह साथ तारापुजों की गति की दिशा बदलती रहेगी और परिणामस्वरूप तारापुंज दूर और निकट होते रहेंगे । परन्तु इन गतियों का ( दूर और निकट होने का ) विश्व प्रकाश पर कोई गति सम्बन्धी प्राभाव नहीं पड़ेगा अर्थात् किसी भी स्थिति में विश्व आकाश तो प्रगतिशील हो रहेगा और अपने वर्तमान घनफल ( Volume ) को चाहे वह सान्त हो या अनन्त, अचल रख लेगा ।
यह प्रतिपादन हमने केवल मूलभूत विश्व-समीकरण के फ्रीडमान द्वारा लिए गये एक प्रकार के हल पर श्रावारित 'स्वतः संचालित कम्पनशील विश्व' सिद्धान्त तथा सामान्य तर्क पर आधारित उस सुझाव के संयुक्त आधार पर किया है। इस प्रतिपादन को जैन दर्शन का समर्थन कहां तक प्राप्त हो सकता है, इसके विषय में भी चिन्तन करना चाहिए। यह प्रतिपादन प्रगतिशील, स्थिर घनफल आकाश के निष्कर्ष पर हमें पहुंचाता है, इस दृष्टिकोण से जैन दर्शन का समर्थन इसे प्राप्त हो जाता है । किन्तु तारा पुजों की गति वास्तविक है या नहीं, इसके विषय में जैन दर्शन न तो समर्थन करता है और न विरोध ।
चक्रीय विश्व
आइन्स्टीन के 'द्रव्य और शक्ति की समानता' के नियम पर ग्राधारित यह सिद्धान्त विश्व को निर्माण और ध्वंश के अनन्त चक्रों में से गुजरने वाला शाश्वत घोषित करता है । वैज्ञानिक जगत् में यह एक ऐसा सिद्धान्त है जो जैन दर्शन के कालचक्र- सिद्धान्त के साथ अधिकतम सामंजस्य रखता है । 'चक्रीय विश्व- सिद्धान्त' और 'अवसर्पिणी- उत्सर्पिणी का सिद्धान्त' स्थूल रूप से एक ही तथ्य का निरूपण करते हैं कि विश्व की प्रक्रियामों में काल-प्रवाह के साथ निर्माण और ध्वंस क्रमशः होता रहता है और इन चक्रों के चलते रहने पर भी विश्व का अस्तित्व अनादि श्रनन्त है । दोनों सिद्धान्तों की सूक्ष्म दृष्टि से तुलना करना वर्तमान में सम्भव नहीं है, क्योकि जैन दर्शन में 'कालचक्रों' की काल-गणना जिन मानों में हुई है, उनका व्यावहारिक गणित में परिवर्तन करना कठिन है । दूसरा, चक्रीय विश्व- सिद्धान्त जिस रूप में ध्वंस और निर्माण की कल्पना करता है, वह प्रति स्थूल । उसका व्यावहारिक जगत् को प्रक्रियाओं के साथ सम्बन्ध नहीं है । जबकि जैन दर्शन में 'अवसर्पिणी - उत्सर्पिणी' द्वारा व्यवहारिक प्रक्रियाओं में आने वाले प्रारोह-अवरोहों का चित्रण किया गया है।
'चक्रीय विश्व- सिद्धान्त' के विषय में निम्न दो बातें उल्लेखनीय हैं :
१. यह सिद्धान्त जिन परिकल्पनाओं पर प्राधारित है, वे ठोस प्रयोगिक और सैद्धान्तिक आधार पर निर्मित हैं ।
२. चक्रीय विश्व- सिद्धान्त के विषय में विश्व का केवल काल को दृष्टि से ही निरूपण किया गया है । अतः, विश्व श्राकाश विस्तारमान है या स्थिर इसके विषय में यह सिद्धान्त कुछ भी नहीं कहता । अतिपरवलीय विश्व
अतिपरवलीय विश्वसिद्धान्त और स्वतः संचालित कम्पनशील विश्व- सिद्धान्त में केवल इतना हो अन्तर है कि अतिपरवलीय विश्व-सिद्धान्त विश्व को काल की दृष्टि से अनादि अनन्त मानता हुआ भी उसमें केवल एक संकोच विस्तार की कल्पना करता है, जब कि स्वत:
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
संचालित कम्पनशील विश्व में अनन्त संकोच-विस्तार क्रम से चलती थी? यह प्रश्न हम हमारी कल्पना के की कल्पना की गई है। अतः स्वतः संचालित कम्पनशील- बल पर अपने पापको पूछ सकते हैं। इससे आगे यह विश्व के साथ जैन दर्शन के अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी कल्पना भी कर सकते हैं कि क्या साठ से अस्सी करोड सिद्धान्त की जितनी सदृशता उतनी इस सिद्धान्त के वर्ष पूर्व प्राप यह पुस्तक उल्टे क्रम से अन्तिम पृष्ठ से साथ नहीं है ।
प्रारम्भ कर आदिम पृष्ठ की अोर पढ़ रहे थे ? अथवा डा. ज्योर्ज गेमो का 'उद्विकासी विश्व-सिद्धान्त'
कल्पना को इससे भी प्रागे दौड़ाने पर, यह प्रश्न भी भी 'प्रतिपरवलीय विश्व-सिद्धान्त पर आधारित है। हो सकता है कि क्या उस समय मनुष्य अपने मुह में यद्यपि डा० गेमो के सिद्धान्त की चर्चा' 'सादि विश्व- से पकाई हुई मुर्गी निकाल कर, अपने रसोई घर में सिद्धान्तों के अन्तर्गत की जाती है, फिर भी वस्तुतः उसमें जीवन डाल कर, उसे बाहर खेत में भेजा करते तो अतिपरवलीय विश्व-सिद्धान्त' पर आधारित होने के थे, जहा वे मुगियां वृद्धावस्था से युवावस्था और यूवावकारण डा० गेमो द्वारा प्रतिपादित 'उद्विकासी विश्व' भी स्था से बाल-अवस्था को प्राप्त होती हुई अन्त में अण्डे काल की दृष्टि से अनादि अनन्त हो ही जाता है। इस
का स्वरूप धारण कर लेती थी ? इस प्रकार के प्रश्नों तथ्य की पुष्टि डा० गेमों के शब्दों में ही होती हैं।
का उत्तर निकेवल वैज्ञानिक आधार पर नहीं दिया जा इस प्रकार काल की दृष्टि से शाश्वत विश्व के साथ
सकता। क्योंकि जब विश्व सिकुड़ता सिकुड़ता उत्कृष्ट सामंजस्य तो रखता है, किन्तु इससे अधिक इनमें कोई
स्थिति को प्राप्त हना था तब विश्व-स्थिति समस्त जड़सादृश्य नहीं है।
राशि केवल एक छोटे-से अरण के भीतर समाहित हो
गई थी और इस प्रक्रिया के कारण संकोचमान विश्व में ___ जैन दर्शन के अवसपिणी-उत्सर्पिणी सिद्धान्त और
कौन-सी क्रिया किस रूप में होती थी? 'इसका उद्विकासी विश्व-सिद्धान्त में एक विलक्षण वैसदृश्य
सारा इतिहास ध्वस्त हो गया ।' डा. गेमो द्वारा किये दिखाई देता है । जैन दर्शन के अनुसार वर्तमान युग
गये इस निरूपण की समीक्षा जैन दर्शन के 'कालचक्रीय अवसपिणी कालचक्र के अन्त के समीप का है। अर्थात
सिद्धान्त' के प्राशोक में करने से सुसिद्ध वैज्ञानिक की वर्तमान काल से लगभग ३६५०० वर्ष पश्चात् उत्स
दिचित्र कल्पनामों का और प्रश्नों का समाधान सहज पिणी काल का प्रारम्भ होगा, जब कि उद्विकासी विश्व
रूप से मिलना सम्भव हो सकता है । अवसर्पिणी सिद्धान्त के अनुसार वर्तमान युग विस्तार-मान' काल
और उत्सपिणी काल में प्रकृति की प्रक्रिया का प्रारोहके प्रारम्भ के समीप का है। अर्थात् लगभग ५० करोड़
अवरोह होता है, इसके आधार डा० गेमो के प्रश्नों का वर्ष पूर्व ही विश्व का 'संकोच' काल समाप्त हमा।
उत्तर यही है कि प्रकृति की प्रक्रियाओं के उलटने का इस प्रकार प्रथम जहां वर्तमान को 'अवरोह' के अन्त
अर्थ 'पुस्तक को अन्त से शुरू कर प्रादि तक पढ़ाना' के समीप मानता है वहां दूसरा प्रारोह' के प्रारम्भ के
मोर 'मुह से मुर्गो निकाल कर मुर्गी ह्रास होकर अण्डे समीप स्वीकार करता है।
में प्रविष्ट होना' प्रादि नहीं है । किन्तु उसका अर्थ होता डा० गेमो ने 'उद्विकासी-विश्व' के प्रतिपादन में है-पूगल के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श इन मूल गुरणों एक मनोरंजक कल्पना की है । सिकुड़ते हुए और की पर्यायों में हानि-वृद्धि होना और इसके परिणाम विस्तत होते हए विश्व में काल-प्रवाह के साथ विश्व की स्वरूप ही मनुष्यों के प्रायुष्य, ऊंचाई, अस्थि-संख्या अन्य प्रक्रियामों पर क्या प्रभाव रहा होगा, इस विषय प्रादि जीवन से सम्बन्धित प्रक्रियाओं में प्रवसर्पिणी काल में निरूपण करते हए डा. गेमो लिखते हैं, १ जब विश्व में उत्तरोत्तर ह्रास और उत्सपिणी काल में उत्तरोत्तर सिकूड़ रहा था, तब क्या विश्व की सभी प्रक्रियाएं उल्टे विकास होता है।
१–'वन, दू, थी,. . . . . . . . . . . 'इनफिनिटी', पृ० ३३५
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
इस प्रकार प्रकृति ह्रास-विकास को पहेलिका को १. डा० गेमो का सिद्धान्त काल को अनन्तता को सुलझाने के लिए जहां एक सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक चित्रविचित्र स्वीकार करता है फिर भी केवल एक ही संकोच कल्पनाएं करता है, वहां जैन दर्शन सुस्पष्ट विवेचन के विस्तार का प्रतिपादन करता है। द्वारा उसका समुचित समाधान करता है ।
२. स्थायी प्रयस्थावान् विश्व-सिद्धान्त के निरूपको डा. गेमो के सिद्धान्त के विषय में ये दो बातें ध्यान ने डा. गेमो के सिद्धान्त को प्रति सन्दिग्ध बताया है देने योग्य हैं:
और इसके लिए अनेक प्रमाण ' उपस्थित किए हैं।
राग मालकोष जिया जग धोके की टाटी । टेक ॥ झूठा उद्यम लोक करत है
जिसमें निश दिन घाटी ॥ १ ॥ जान बूझ कर अंध बने हो
___ आखिन बांधी पाटी ॥ २ ॥ निकल जायेंगे प्राण छिणक में
पड़ी रहेगी माटी ॥३॥ 'दौलतराम' समझ नर अपने
दिल की खोल कपाटी ॥४॥
१-ये प्रमाण अधिक मात्रा में पारिभाषिक होने के कारण यहां नहीं दिये जाते हैं। इसके लिए देखें.
दी यूनिवर्स, पृ० ८५, ८६
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
वेदों में तीर्थंकरों की स्तुति
• मुनो श्री महेन्द्र कुमार
'प्रथम'
[ वेदों में ऋषभदेव, सुपार्श्व, अरिष्टनेमि, महावीर प्रादि तीर्थकरों का उल्लेख किया गया है । इसकी पुष्टि राष्ट्रपति डा. राधाकृष्णन्, डा० अलबेट बेबर, प्रो० विरुपाक्ष वाडियर, डा. विमला चरण लाहा प्रभृति विद्वज्जन भी करते हैं।
वेदों में अर्हन् ' तथा अर्हन्त २ शब्द का प्रयोग-बाहुल्य अरिष्टनेमि , महावीर५ आदि की नाम-ग्राहपूर्वक की
उस परम्परा की धर्म के प्रति विशेष भावना तो गई स्तुति तथा उन्हें अनिर्वचनीय पुरुष मानकर उनके व्यक्त करता ही है, साथ ही ऋषभदेव, सुपार्श्वनाथ उपदेशों पर चलने की प्रेरणा भी दी गई है। १. अर्हन विभिषि सायकानि धर्वाहन्निष्कं यजतं विश्वरूपम् । अर्हन्निदं दयसे विश्वमभ्वं न वा प्रोजीयो रुद्र त्वदस्ति ।।
-ऋग्वेद, मं० २, अ० ४, सू० ३३, वर्ग १० । २. क-इमंस्तोममहते जातदेवसेरथमिव संमहेमामनीषया । दाहिनः प्रमतिरस्यसंसद्यग्ने सख्ये मारिषाभावयं तव ।।
-ऋग्वेद, मं० १ ० १५ सू० ६४ ख-प्रहन्तो ये सुदानवो नरो असामि शवसः । प्रयजं यज्ञियेभ्यो दिवो अमिहद्भयः ।।
--ऋग्वेद, मं० ५ प्र० ४ सू० ५२ ग-तावृधन्तावनु घन्मर्ताय दैवावदभा। अर्हन्ताचित्सुरो दवे शेव देवावर्वते ।।
ऋग्वेद, मं०५ प्र० ६ ० ८६ घ-ईडितो अग्ने सनसानो अहन्देवान्यक्षि मानुषात्पूर्वो अद्य । स ग्रावह मरुतां शो अच्युतमिन्दं नरोबहिषदंयजध्वं ॥
ऋग्वेद, मं० २ अ० ११ सू० ३ ३. ऊ सुपार्श्वमिन्द्र हवै-यजुर्वेद ४. क-ऊं रक्ष रक्ष अरिष्टनेमि स्वाहा-यजुर्वेद, अ० २६ ख-तवां रथं वयद्याहुवेमस्तो मेरश्विना सविताय नव्यं । अरिष्टनेमि परिद्यामियानं विद्यामेषं वृजनं जीरदानम् ।।
-ऋग्वेद, म. २ प्र. ४ व २४
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
ऋग्वेद व अथर्ववेद में ऐसे अनेकों मंत्र हैं, जिनमें हे प्रात्मद्रष्टा प्रभो! परम सुख पाने के लिए मैं ऋषभदेव की स्तुति 'अहिंसक प्रात्म-साधकों में प्रथम तेरी शरण में प्राता है, क्योंकि तेरा उपदेश और वाणी 'अवधूत चर्या के प्रणेता' तथा 'मत्यों में सर्वप्रथम पूज्य और शक्तिशाली हैं । उनकों मैं अवधारण करता अमरत्व अथवा महादेवत्व पाने वाले महापुरुष के रूप में हूं। हे प्रभो ! सभी मनुष्यों और देवों में तुम्ही पहले की गई है। एक स्थान पर उन्हें ज्ञान का प्रागार तथा (पूर्वगत ज्ञान के प्रतिपादक) हो । दुःखों व शत्रुनों का विध्वंसक बताते हुए कहा गया है।
कुछ एक मंत्रों में उनका नामोल्लेख नहीं हुआ है, प्रसूतपूर्वा वृषभों ज्यायनिभा प्रस्य शुरुधः सन्तिपूर्वीः। पर उनकी प्राकृति को विशेष लक्ष्य करते हुए उनकी दिवा न पाता विदथस्यधीभिः क्षत्रं राजाना प्रदिवो दधाथे। गरिमा व्यक्त की गई है।
-ऋग्वेद, ५-३८ । जिस प्रकार जल से भरा हुया मेघ वर्षा का मुख्य
त्रिणी राजना विनथे पुरूरिण परिविश्वानिभूषयः सदासि ।
अपश्यमत्र मनसा जगन्वान्वते गन्धर्वा अपि वायुकेशान् । स्रोत है और जो पृथ्वी की प्यास को बुझा देता है, उसी प्रकार पूर्वी अर्थात् ज्ञान के प्रतिपादक वृषभ महान् हैं।
-ऋग्वेद, २०३८।६ उनका शासन वर दे । उनके शासन में ऋषि-परम्परा दोनों ही राजा अपने त्रिरत्न ज्ञान में सभात्रों के से प्राप्त पूर्व का ज्ञान प्रात्मा के क्रोधादि शवनों का हित में चमकते हैं । वह सर्वथा निज ज्ञान में जागरूक विध्वंसक हो । दोनों (संसारी और शुद्ध) प्रात्माए अपने व्रतों के पालक हैं एवं वायुनेश गंधवों से वेष्टित रहते ही आत्मगुणों में चमकती हैं, अतः वे ही राजा हैं, वे हैं। वे गन्धर्व (गरगधर) उनकी शिक्षाओं को अवधारण पूर्ण ज्ञान के प्रागार हैं और प्रात्म पतन नही होने देते। करते है। हमें उनके दर्शन प्राप्त हों।
ऋग्वेद के एक दूसरे मंत्र में उपदेश और वाणी ऋषभदेव का प्रमुख सिद्धान्त था कि प्रात्मा में ही की पूजनीयता तथा शक्ति-सम्पन्नता के साथ उन्हें परमात्मत्व का अधिष्ठान , अतः उसे प्राप्त करने का मनुष्यों और देवों में पूर्वयावा माना गया है। उपक्रम करो । इसी सिद्धान्त की पुष्टि करते हुए वेदों में मखस्य ते तीवषस्य प्रजूतिमियभिं वाचमृताय भूषन् ।।
उनका नामोल्लेख करते हुए कहा गया है। इन्द्र क्षितीमामास मानुषीणां विशां देवी नामुत पूर्वयावा। त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीती, महादेवो मानाविवेश । . . -ऋग्वेद, २०३४।२
-ऋग्वेद, ४।५८१३ ग-वाजस्यनु प्रसव प्राबभूवेमा, च विश्वा भुवनानि सर्वतः । स नेमिराजा परियाति विद्वान, प्रजां पूष्टिं वर्धयमानो अस्मे स्वाहा ।।
-यजुर्वेद, अ० ६ मंत्र २५ घ-स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः, स्वस्ति नः पूषा विश्वदेवाः । स्वस्ति न स्ताक्ष्यो अरिष्टनेमिः, स्वस्ति नो वृहस्पतिर्दधातु ।।
--सामवेद,प्रपा०प्र०३। ५. क-अतिथ्यरूपम्भासरम्महावीरस्य नग्नहः । रूपमुपदामेततिस्त्रो रात्रीं सुरासुता ॥
--यजुर्वेद, प्र० १६ मं० १४ ख-देववहिवर्धमानं सुवीरं, स्तीर्ण रायेसुमर वेद्यस्याम् ।
धृतेनाक्तवसव: सीदतेदं, विश्वे देवा प्रादित्यायज्ञियासः ।।
3
वद, म० २ प्र०१. सू०३
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
मन, वचन, काय, तीनों योगों से बद्ध (संयत) समस्त पापों से मुक्त, अहिंसक वृत्तियों के प्रथम वृषभ (ऋषभदेव) ने घोषणा की कि महादेव (परमात्मा) राजा, श्रादित्यस्वरूप श्री ऋषभदेव को में ग्राह्वान मयों में आवास करता है।
करता हूं। वे मुझे बुद्धि और इन्द्रियों के साथ बल उन्होंने अपनी साधना व तपस्या से मनुष्य-शरीर प्रदान कर । में रहते हुए उसे प्रमाणित भी कर दिखाया था, ऐसा ऋग्वेद में उन्हें स्तुति-योग्य बताते हुए कहा उल्लेख भी वेदों में है।
गया है। तन्मय॑स्य देवत्वमजानमगे ।
अनर्वाणं ऋषभं मन्द्रजिहवं, वृहस्पति वर्धया नव्यमर्के । -ऋग्वेद, ३१११७
--मं० १ मूत्र १६० मंत्र १ ऋषभ (वयं प्रादि पुरुष थे, जिन्होंने सबसे पहले
मिष्टभाषी, ज्ञानी, स्तुति-योम ऋषभ को पूजा मर्त्य दशा में देवत्व की प्राप्ति की थी।
साधक मंत्रों द्वारा वर्धित करो । वे स्तोता को ऋषभदेव प्रेम के राजा के रूप में विख्यात थे। उन्होंने
नहीं छोड़ते। जिस शासन की स्थापना की थी, उसमें मनुष्य व पशु,
प्राग्नये वाचमीरय सभी समान थे । पशु भी मारे नहीं जाते थे ।
-ऋग्वेद, मं० १० सू० १८७ नास्य पशून समानान् हिनास्ति ।
अथर्ववेद तेजस्वी ऋषभ के लिए स्तुति प्रेरित करो। सब प्राणियों के प्रति इस मैत्री-भावना के कारण यजुर्वेद, अ० ३१ मंत्र ८ की एक स्तुति में कहा ही वे देवत्व के रूप में पूजे जाते थे ।।
गया है। ऋषभं मा समासानां सपत्मानां विषासहितम् । वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्ग तमसः पुरस्तात् । हन्तारं शत्रणां कृषि विराज गोपितं गवाम् । तमेव निदित्वाति मृत्यु ति नान्य पन्था विधते यनाय । -ऋग्वेद, अ० ८ मं० सू० २४
मैंने उस महापुरुष को जाना है जो सूर्य के समान मुदगल ऋषि पर ऋषभदेव की वाणी के विलक्षण तेजस्वी, प्रज्ञानादि अंधकार से दूर है। उसी को जानकर प्रभाव का उल्लेख करते हुए कहा गया हैं।
मृत्यु से पार हुअा जा सकता है, मुक्ति के लिये अन्य ककर्दवे वृषभो युक्त पासीद् अवावचीत् सारथिरस्थ केशी। कोई मार्ग नहीं है। दधेय क्तस्यंद्रवतः सहानस ऋच्छन्ति ष्मा निष्पदोमुद्गलानीम् यह स्तति और जैनाचार्य मानतग द्वारा की गई
---ऋग्वेद, १०।१०२।६ भगवान ऋषभदेव की स्तुति शब्द-साम्यता की दृष्टि से मुद्गल ऋषि के सारथी (विद्वान् नेता) केशी वृषभ विशेष ध्यान देने योग्य है। भक्तामर स्तोत्र में वे जो शत्रुनों का विनाश करने के लिए नियुक्त थे, उनकी कहते है। वाणी निकली, जिसके फलस्वरुप जो मुद्गल ऋषि की
त्वामामनन्ति मुनयः परमं पुमान्स गौवें (इन्द्रियां) जुते हए दुर्धर रथ (शरीर) के साथ दौड़ मादित्यवर्णममलं तमसः पुरस्तात् । रहीं थी वे निश्चल होकर मौद्गलानी मुद्गल की
त्वामेव सम्यगुपलभ्य जयन्ति मृत्यु। स्वात्मवृति) की ओर लौट पड़ी।
नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनीन्द्र पन्थाः । इसीलिए उन्हें पाह्वान करने की प्रेरणा दी गई है। हे ऋषभदेव भगवान् ! तुम्हें मुनिजन परम पुरुष अहोमुचं वृषभं यज्ञियानां विराजतं प्रथममध्वराणाम् । मानते हैं । तुम सूर्य के समान तेजस्वी, मल-रहित और अपां न पातमश्विनाहं वेधिय इन्द्रियेण इन्द्रियं दतमोजः । अज्ञान और अंधकार से दूर हो । तुम्हें भली-भांति जान
-अथर्ववेद, कां० १६४२।४ लेने पर ही मृत्यु पर विजय पाई जा सकती है। हे
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२
मुनीन्द्र । मुक्ति प्राप्त करने का और कोई सरल मार्ग प्रो० विरुपाक्ष वाडियर वेदों में जैन तीर्थ करों के नहीं है।
उल्लेखों का कारण उपस्थित करते हुए लिखते हैं:उपयुक्त दोनों उद्धरणों के शब्द और भाव देखने प्रकृतिवादी मरीचि ऋषभदेव का पारिवारिक था। वेद से सहज ही यह निष्कर्ष निकलता है कि दोनों स्तुतियां उसके तत्वनुसार होने के कारण ही ऋग्वेद आदि ग्रन्थों एक ही व्यक्ति को लक्षित करके की गई हैं।
की ख्याति उसीके ज्ञान द्वारा हुई है । फलतः मरीचि वेदों में ऋषभदेव, सुपार्श्व, अरिष्टनेमि, महावीर ऋषि के स्तोत्र वेद-पुराण आदि ग्रन्यों में हैं और स्थान आदि तीर्थकरों का उल्लेख किया गगा है। इसकी स्थान पर जैन तीर्थकरों का उल्लेख पाया जाता है। पुष्टि राष्ट्रपति डा० राधाकृष्णन', डा० अलब्र खेबर२, कोई ऐसा कारण नहीं कि हम वैदिक काल में जैन धर्म प्रो० विरुपाक्ष वाडियर, डा० विमलाचरण लाहा।
का अस्तित्व न मानें ५ प्रभृति विद्वज्जन भी करते हैं।
कह चरे ? कहं च? ? कहमासे ? कहं सए ?
कहं भुजन्तो भासन्तों पावं कम्मं न बन्धइ ? ( भन्ते ! कैसे चले ? कैसे खड़ा हो ? कैसे बैठे ? जैसे सोए ? कैसे भजन करे ? कैसे बोले ?--जिससे कि पाप कर्म का बन्ध न हो )
जयं चरे जयं चट्टे जय मासे जयं सए !
जयं भुजन्तो भासन्तो पाव कम्मं न बन्धइ !! ( आयुषमन् ! त्रिवेक से चलो; विवेक से खड़ा हो; विवेक से बैठे; विवेक से सोप: विवेक से भोजन करे और विवेक से ही बोले तो पाप कर्म नहीं बंध सकता
1 Indian Philosophy, Vol. I. P. 287 2. Indian Antiquary, Vol. 3, P. 901 ३. जैनपथ प्रदशक (आगरा) भा० ३, अं० ३, पृ० १०६ । 4. Historical Gleanings. P. 78 ५. अजैन विद्वानों की सम्मतियां, पृ० ३१
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
पाँच मुक्तक
• 'तन्मय' बुखारिया
देह नित निबंध, प्रात्मन् फंस रहा है, मन अपाहिज हो धरा में धंस रहा है, दिल्लगो इससे बड़ी क्या और होगी, आदमी अब चन्द्रमा पर बस रहा है ।
उम्र की सूखी चिता पर जल रहा है, मौत खुद छलना उसे नर छल रहा है, मुक्ति की मंजिल नजर आए कहाँ से, कर्म की पगडंडियों पर चल रहा है ।
नर ही नारायण है, स्वयमेव को पहिचानो तुम, आँख के काजल के अस्तित्व को अनुमानो तुम, कर्म के कस में है कैद मगर सोता नहीं, अपने चैतन्य को हरवक्त सजग जानो तुम ।
लक्ष्य से दूर, बहुत दूर हो, मुख को मोड़ो, बुद्धि के तीर को चतुराई से साधो, छोड़ो, राग भी पाप कहा, जिसने तुम उसके साधक, द्वेष के पूर्व स्वपर राग से नाता तोड़ो ।
नीर बदली में नहीं, भादों में सावन में है, ज्योति तारों में नहीं, नेत्र के दर्पण में है, धर्म के नाम पै नफरत को उगाने वालो, धर्म मन्दिर में नहीं, विश्व के जन-जन में है।
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
धर्म का मापदराडआध्यात्मिकता
• डॉ. रतनकुमार जैन
एम. कॉम., पीएच. डी. नागपुर
प्राध्यात्मिकता का कलात्मक ढंग से प्रस्फुटन धर्म से होता है। धर्म अध्यात्मिकता को विकसित करने के लिये सहकारी संगठन प्रदान करता है। यह धार्मिक संगठन भी प्रतिस्पर्धी तत्वों से सर्वथा मुक्त है इसमें विशाल पैमाने पर समूतात्तर्गत प्राध्यात्मिकता के साथ-साथ समूहवाय प्राध्यात्मिकता पाई जाती है । इसमें आध्यात्मिकता का प्रदर्शन आत्यंतिक तीव्रता, पूर्ण विशुद्धता, सर्वोतम मानवता-प्रेम तथा असीम लोक कल्याण के रूप में होता है। सच बात तो यह है कि समग्र धर्म का मापदण्ड ही आध्यात्मिकता है । आध्यात्मिकता के बिना धर्म थोथा है, विषाक्त साम्प्रदायिकता है और संकीर्णता तथा क्षुद्रता का पतनोत्मुख प्रवेश द्वार है ।
धार्म मानवीय जीवन के अंतिम मूल्यों और सर्वोच्च गहनतम नियम साथ-साथ है। धर्म केवल नैतिक तथा
- प्राचार-विचार की व्याख्या करता है। जीवन के सामाजिक व्यवस्था को प्रेरित करने वाला मत, पद्धति इन चरम सत्यों और प्राचार-विचार का प्रादुर्भाव मनुष्य या आदर्श मात्र नहीं है, प्रत्यु। यह हमारे जीवनके प्रबुद्ध अन्तर्ज्ञान, तर्कसंगत अनुभूति तथा इन्द्रियजन्य व्यवहारों के सभी अंगों को अनुप्राणित करता है । वे वस्तुबोध से होता हैं : इस प्रकार धर्म में मानव जीवन प्रवृत्तियां जो मनुष्य को न्यायोचित तथा शुद्ध जीवन के श्रेष्ठतम तत्वों और सर्वोच्च प्राचार-विचार का व्यतीत करने में सहायता प्रदान करती हैं स्वभावतः धर्म अतिशय सम्मिश्रण पाया जाता है । उच्च धरातल पर का अनिवार्य अंग बन जाती हैं। इस प्रकार धर्म हमारे स्थित यह अन्तश्चेतना और जागृत अनुभूति प्रात्मा को लिये एक वास्तविक आवश्यकता है, काल्पनिक आदर्श एक ऐसी अवस्था में केन्द्रित कर देती है जो ईश्वरत्व नहीं। प्रकृति-प्रदत्त जीवन का कार्यकारी विधान होने के साक्षात्कार का संकेत देती है। परमात्मा की प्रोर के कारण धर्म समाज के सभी सदस्यों के लिये आदर्श अग्रसर करने वाली प्रात्मा की इस अवस्था का तर्क या जीवन-व्यवहार की व्याख्या करने वाला सचेतन इन्द्रियगम्य अनुभूति के जरिये व्याख्यान नहीं किया प्रयत्न है। जा सकता। संक्षेप में इतना कथन ही पर्याप्त है कि धर्म यद्यपि हर एक व्यक्ति का स्वभाव भिन्न-भिन्न होता प्रबद्ध अन्तश्चेतना, सद्विवेक और श्रेष्ठ प्राचार-विवार के है, अतएव एक ही तरह की अपरिवर्तनीय और सुनिश्चित सम्मिश्रण से उत्पन्न एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें आत्म व्यवस्था से उसके जीवन-व्यवहार को नियंत्रित नहीं स्वानुभूत प्रयोगों के जरिये परमात्मा बन जाता है। किया जा सकता । फिरभी, सभी प्राणियों में कुछ
धर्म की लौकिक कसौटी यह है कि यह हमारे सामान्य तत्व पाये जाते हैं और उनके आधार पर जीवन का व्यावहारिक विधान और हमारी प्रकृति का जीवन के व्यवहार तथा प्रादर्श को अवश्य तय किया
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
जा सकता है । इस दृष्टि से धर्म एक ऐसी व्यवस्था है प्रारम्भ करने के लिये अनंत पथयात्रा में पाथेय प्रदान जो विकास के लिये मनुष्य के मन तथा मस्तिष्क को करती है। सव बात तो यह है कि उत्तरोत्तर समृद्ध परिपूर्ण आदर्श प्रदान करती है। यह आदर्श है-वैज्ञा- और शक्ति सम्पन्न जीवनयापन की दिशा में, उत्थान और निक और विवेकयुक्त मस्तिष्क का निर्माण, गहनरूप से पतन मनुष्य की धार्मिक तैयारी को ही परिलक्षित करते धार्मिक तथा व्यवहार कुशल चैतन्य का उद्बोध, सुनि- हैं तथा प्रगति के घुमारदार पथ में धार्मिक उतार-चढ़ावों श्चित किन्तु आवश्यकता के अनुसार परिवर्तनीय जीवन- को व्यक्त करने वाले पथचिह्नों का परिचय देते हैं । व्यवस्था, धैर्य सम्पन्न तथा जीवन की कठिनाइयों एवं अतएव इसमें कोई सन्देह नहीं है कि धार्मिकता न केवल मानवीय कमजोरियों के प्रति सहिष्ण प्रात्मत्व की व्यक्ति के विकास का पथ-प्रदर्शन करती है, वरन् संसार उपलब्धि एवं अनुशासित प्राचार-विवार ।
की कई बुराइयों को भी समाप्त कर सकती है। कई भारतवासियों का यह विश्वास है कि प्राणी जगत् सामाजिक बुराइयों के विस्तार को रोकने की क्षमता केवल इस भूमण्डल पर ही व्याप्त नहीं है अपितु स्वगिक इसमें है, सामाजिक चेतनाशक्ति में प्रारण फूकने की और नारकीय अवस्थिति से भी इसका गूढ संबंध है। ताकत इसमें है एवं व्यक्तियों के मानसिक, नैतिक तथा परमात्मा के अलौकिक स्वरूप की खोज करते-करते उन्होंने शारीरिक स्वास्थ्य को सुधारने की सामर्थ्य इसमें है । यह तत्व टूढ निकाला कि स्वर्ग, मयं और नरक इन फिरभी शामिकता सभी बार तीनों लोकों के बीच में एक विशिष्ट अनुरूपता है तथा में असमर्थ रही है, इसकी प्राणसंचार की सामर्थ्य कुठित यात्म द्रव्य इन सभी में सर्वत्र विद्यमान है। इन तीनों रही है तथा कई विषाक्त तत्वों के समिधा से इसकी ही लोकों में प्राणियों की शक्तियों का प्रवाध प्रादान- रोगनाशक शक्ति क्षीण हो गई है। फलतः संसार में प्रदान चल रहा है ताकि परमशक्ति के अनुरूप बिस्तृत सूख तथा शांति स्थापित करने में धार्मिकता असफल सिद्ध जीवन का विकास करने के लिये एकता को स्थापित
हुई है । इतिहास साक्षी है कि जो धर्म जितना प्रभावकिया जा सके । हाँ, प्रात्मा और परमात्मा के एकीकरण
शाली और विशाल रहा है उसने उतना ही अधिक का केन्द्र स्थल यह मर्त्यलोक ही है।
रक्तपात कर जन जीवन का संहार किया है । जो जमाना __भारतवासियों का दूसरा विश्वास यह है कि प्राणी. धार्मिक वातावरण से जितना ओतप्रोत और साधु-संतों जगत् के रहस्य में यह तत्व छिपा हुआ है कि इसमें से जितना अधिक व्याप्त रहा है वह युद्ध की विभीषिका सत्य और असत्य, नित्यत्व, और अनित्यत्व, प्रकाश और तथा नरबलि से भी उतना ही अधिक संतप्त रहा है। अंधकार जैसे परस्पर विरोधी स्वरूप एक साथ विद्यमान हिंसा का उत्पात धार्मिक और अधार्मिक सभी समाजों हैं, किन्तु जीवन की गति सत्य, अमरत्व और प्रकाश की में प्रायः समान रहा है। सुख तथा शांति की सुविधा पोर है ताकि अनंत सुख, अनंत ज्ञान, अनंत वीर्य और की दृष्टि से वर्तमान बीसवीं सदी को सर्वश्रेष्ठ माना अनंत दर्शन युक्त स्थिति उसे प्राप्त हो सके । जा सकता है, फिरभी मानव समाज के इतिहास में
प्रतएब भारतवासियों के लिये धर्म एक ऐसी जितना संहार इस सदी में हया है वह अकल्पित है। प्रकिया है जिसके जरिये मनुष्य की विविध वैयक्तिक मनुष्यों में मानवीयता जैसे-जैसे बढ़ती जाती है, युद्ध और सामाजिक प्रवृत्तियों को प्रभावशाली ढंग से उत्तरो- की विभीषिका भी उतनी ही विकराल होती चली जाती त्तर शुद्ध और लोकमंगल के उन्मुख बनाया जाता है। है। लगता है जैसे संसार सर्वनाश के किनारे पर खड़ा इस प्रक्रिया में ऐसी अनेक स्थितियां है जहां पर मनुष्य है, जैसे धर्म और अधर्म कल्पनाविलास मात्र हैं, जैसे अपनी प्रवृत्तियों से अनुभव प्राप्त करके शक्ति-संचय के धर्म से शांति की कल्पना एक मिथ्या उपचार हैं एवं अनुसार स्व-परकल्याण के कार्य करता है। शुद्धीकरण जो लोग इसका गुणगान करते हैं वे "नीम हकीम खतरे को इस प्रक्रिया में उसकी अवनति भी उसे नया जीवन जान' से अधिक नहीं हैं। लोगों का यह विश्वास दृढ
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
४६
से दृढ़तर होता चला जा रहा है कि यद्यपि संसार का करने में कठिनाई नहीं होती कि केवल स्वार्थवश किया हर नया पंथ दुर्दशाग्रस्त संसारी जनों के लाभार्थ उच्च- गया कार्य प्राध्यात्म में अन्तभूत नहीं होता। स्वार्थहम प्राशामों और महानतम संभावनाओं के वातावरण साधना से ऊपर उठ कर लोकहित की दृष्टि से किये में प्रस्फुटित हया है। फिरभी, कुछ ही वर्षों के उपरान्त गये कार्य अध्यात्म में समाविष्ठ होते हैं । संक्षेप में यह वह निर्वीर्य होकर अंधकाराच्छन्न भी हो गया है। कुछ कहा जा सकता है कि परोपकार की भावना अध्यात्म लोग यह भी कहते हए पाये जाते हैं कि यद्यपि धर्म का मूलाधार है। मानवीय विवेक का उच्चतम प्राधार है, किन्तु संसार
उदाहरणार्थ, यह सभी जानते हैं कि कोई भी के प्रत्येक धर्म का उदय गर्भपतित बालक की भांति हुआ
व्यक्ति अपने वर्ग के सदस्यों के प्रति थोड़ी-बहुत परोपहै धार्मिक श्रद्धा की महामारी में न मालूम कितने नीम
कारी वृत्ति दर्शाये बिना जीवित नहीं रह सकता । यदि हकीम सुधारक पाखण्ड को बांट-बाट कर अपने जेबें
नव जात शिशुनों का माताएं लालन-पालन न करें तो गरम कर चुके हैं और प्राज भी गरम कर रहे हैं। ऐसे
उनका जिंदा रहना सम्भव नहीं है, और उनकी मृत्यु धार्मिक प्रतिनिधि विश्वासघाती है, क रता के नग्न उपासक
से उनके वर्ग की समाप्ति ही हो जायगी । उनका हैं एवं शून्यता के प्रतीक हैं।
पालन-पोषण भी सदा सुखद नहीं होता, कभी-कभी तो __छान बीन करने पर उपयुक्त आक्षेपों में निहित
इसका प्रतिफल हानि कारक भी हो जाता है । उसी सचाई से इन्कार नहीं किया जा सकता । विश्व इतिहास
प्रकार, यदि बीमारों, अपंग और वृद्ध व्यक्तियों की सेवा यह भी बतलाता है कि संसार में जो भी बड़ी-बड़ी
भावना से परिचर्या न की जाय तो उनका जीवित बच संस्कृतियां उत्पन्न हुई उनका मूलाधार धर्म हो रहा है।
सकना भी अशक्य है । अतएव यह स्पष्ट है कि प्रेम, किंतु, धर्म बदलती हुई परिस्थितियों, वैज्ञानिक दृष्टिकोण
सहानुभूति, परोपकार, दया और करुणा की भावनाओं और प्रगतिशील विचार धारामों के अनुसार अपने बाह्य
पर ही संसार जीवित हैं । केवल स्वार्थपूर्ण भावनामों रूप में परिवर्तन नहीं कर सका । फलतः वह कालान्तर
के आधार पर ही कोई भी समाज जिंदा नहीं रह में पुराना पड़ गया और धीरे-धीरे उसका कल्याणकारी
सकता । केवल स्वार्थसाधक सदस्य शांतिपूर्ण, सुखी और सामर्थ्य क्षीण होता चला गया। धर्म की शक्ति क्षीण
निर्माणकारी समाज को रचना नहीं कर सकते । यदि होते ही संस्कृतियों का सामर्थ्य भी लुप्त होता चला
मनुष्यों में पारस्परिक सहानुभूति और कर्तव्य-भावना गया । प्रगतिशील वैज्ञानिक विचार धारा और स्वकीय
__ न हो तो इसका अंत निरन्तर संघर्ष में ही हो सकता है । ऐतिहासिक परम्परा के परस्पर सम्मिश्रण का प्रभाव
ऐसी स्थिति में केवल संदेह, अविश्वास और पारस्परिक वस्तुतः संसार के सभी धर्मों की एक बहुत बड़ी कम
षड़यंत्र तथा छीना झपटी की फसल ही उग सकती है। जोरी रही है। इस कमजोरी का मुख्य कारण धर्मों में सोशल मेंनिसकी सारी उसकी प्राध्यात्मिकता का अभाव या हास रहा है । प्राध्या
कहावत जन जीवन का सामान्य नियम बन जाएगा। त्मिक सामर्थ्य के प्रभाव में धर्म प्रायः आदर्श जीवन
एक सुखी, शांत और समृद्ध समाज की कल्पना तभी की नीति मात्र बन कर रह गये हैं; जीवन के प्रभिन्न
की जा लकती है जबकि इसके सदस्यों में न्यूनतम मात्रा और अपरिहार्य अंग नहीं।
में प्रेम, सहानुभूति, दया और सेवा की भावना मौजूद यहाँ पर प्राध्यात्मिकता की पाण्डित्यपूर्ण परिभाषा हो। इसके बिना पारस्परिक सहकार, सद्भावना और करने की प्रावश्यकता नहीं है। हम अपने दैनिक कार्य- भलाई सम्भव नहीं है। एक सखी समाज में सम्म व्यापार में लोगों के व्यवहार को देख कर यह अनुमान परस्पर संगठित होते हैं और 'अहं' का त्याग कर सामूसहज ही लगा सकते हैं कि कौनसा कार्य प्राध्यात्मिक हिक रूप से "हम'' के जरिये भावाभिव्यक्ति करते हैं। है और कौनसा नहीं। सामान्यतया हमें यह अनुभव ऐसी स्थिति में उनके सुख-दुख की अभिव्यक्ति व्यक्तिगत
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
४७
न होकर सामूहिक बन जाती है। इस प्रकार के समाज का प्रत्येक सदस्य एक अलग-अलग इकाई न होकर निर्माणकारी समाज का अभिन्न अंग होता है । इस प्रकार के वातावरण में प्रत्येक सदस्य हँसते-हंसते अपने उत्तरदायित्व का पालन करता है, सहज ही बड़े-से-बड़े बोझ को हो लेता है, प्रयोजनपूर्णा जीवन व्यतीत करता है पौर शांतिपूर्ण तथा सुखद वातावरण सर्वत्र व्याप्त रहता है।
अतएव यह सष्ट है कि मानवीयता के विकास में आध्यात्मिकता एक विशिष्ट प्रकार की सर्जन-यशक्ति है। विज्ञान, दर्शन और कला में प्रतिभासित होने वाले अनुभूति प्रधान जीवन-सत्यों की में यह नैतिकता तुलना प्रधान सत्यों के साक्षात्कार पर अधिक जोर देती है। संसार के सभी प्राध्यात्मिक संत प्रमुख वैज्ञानिकों, दार्शनिकों और कलाकारों की भांति ही मानवीय श्रेष्ठता के क्षेत्र में सर्जनहार महान व्यक्ति हुए हैं। यह प्राध्यात्मिक साधना भी अन्य साधनानों की ही तरह सतत प्रयत्नसाध्य है। अन्य क्षेत्रों में महान् प्रयत्नों के बाद विधान संभव है; किन्तु आध्यात्मिक पथ का पथिक एक बार इस मार्ग पर चल कर रुकना नहीं जानता । श्रध्यात्म साधना का पथ अनेक प्रकार के कष्टों, निराशाओं, सफलताओं पर अग्निपरीक्षाओं से परिव्याप्त होने पर भी ग्रानंदहीन, शुष्क तथा अंधकारपूर्ण नहीं है। वस्तुतः अध्यात्मवादी व्यक्ति के लिये यही अरण प्रसीम आनंदा नुभूति और विशुद्ध सर्जकता के क्षण है। अध्यात्म का सच्चा साधक किसी भी मूल्य पर इन साधनापूर्वक क्षणों का सौदा करने के लिये तैयार नहीं हो सकता ।
आध्यात्मिकता का उद्देश्य उस परम सत्य का साक्षात्कार करना है जो ऋद्धि-सिद्धि और धन-संपदा से परे है, जो प्राणीमात्र के प्रति समताभाव जाग्रत करता है एवं जो प्रत्येक जीवात्मा के प्रति प्रादर बुद्धि उत्पन्न करता है। यह एक ऐसा लक्ष्य है जिसमें मनुष्य अपने सामाजिक वातावरण एवं समूचे विश्व के साथ तादात्म्य संबंध स्थापित करके श्रात्म शक्ति में निस्पृहतामूलक परिवर्तन उत्पन्न करता है । श्रतएव आध्यात्मिक प्रक्रिया सर्वा विशुद्ध होती है। माध्यात्मिक व्यवहार केवल
प्राध्यात्मिकता के लिये ही किये जाते हैं, सुखाभिलाषा या उपयोगिता उनका उद्देश्य नहीं होता उदाहरणार्थं, हम अपने जीवन में सच्ची मित्रता और मित्रताभास में अंतर करते हैं। सच्ची मित्रता का मूलाधार परोपकार वृत्ति है और यह अपने आप में परिपूर्ण है। मित्रताभास । में एक व्यक्ति दूसरे को केवल मित्रता के लिये नहीं चाहता वरन उसकी उपयोगिता या उससे अभिलाषा पूर्ति की कामना ही संबंध स्थापित करने की मूलधार होती है। यदि मित्र की उपयोगिता या मनोकामना पूर्ण करने की क्षमता समाप्त हो जाय तो मित्रता का भी संत हो जाता है। आध्यात्मिक प्रवृत्ति भी समी मित्रता की तरह, निस्पृह और कल्याणकारी होती है । आध्यात्मिकता से परिपूर्ण स्थिति में शत्रुओं से भी प्यार किया जाता है, घृणा करने वालों का भी भला किया जाता है, अभिशाप देने वालों को भी आशीर्वाद दिया जाता है और हिंसकों को भी हिंसा का वरदान दिया जाता है। माध्याम-साधना की इससे बडी परिभाषा और क्या हो सकती है कि मनुष्य प्राणी मात्र को अपना मित्र समझे, गुणी जनों को देखकर ग्राह्लादित होना सीख ले, स्लिष्ट प्राणियों की सेवा करना सोख ले, विपरीतवृत्ति वालों के साथ तटस्थता से रहना सीख ले और चोट पहुंचाने वालों के साथ भी सहिष्णुता दर्शाना सीख ले | सच बात तो यह है कि सर्वोदयीकरण हो अध्यात्म साधना में अभीष्ट है। यह आजकल प्रचलित अधिक से अधिक लोगों का अधिक से अधिक कल्याण वाली लोकतंत्री भावना से सर्वथा विपरीत है । बहुसंख्यक समाज का उत्कर्ष एवं कल्याण मध्यात्मवादी दृष्टि नहीं है, अपितु प्रत्येक जीवात्मा का कल्याण ही इसकी विषयवस्तु है।
किंतु संकुचित मौर एकांगी दृष्टिकोण के साथ आध्यात्मिकता का तालमेल किसी भी प्रकार नहीं बैठ सकता । संकोच और एकलांगता में स्वार्थवासना हो पनप सकती है, कल्याण मूलक प्राध्यात्मिक प्रवृत्ति नहीं । अनेकान्तवादी दृष्टिकोण, वस्तुतः अध्यात्मवाद का प्राणस्थल है । अनेकान्तवादी दृष्टि की तुलना जननी माता के साथ की जा सकती है जो अपने सभी परस्पर
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहयोगी या विरोधी पुत्रों को समानुरूप से स्नेह प्रदान कर निःस्वार्थ भाव से पालन-पोषण करती है । इसके प्रभाव में सभी शक्तियां और विचार निराकुलतापूर्वक तथा स्वतंत्रतापूर्वक प्रश्रय पाते हैं । सभी शक्तियां अपने अपने प्रकाश का विस्तार तो करती हैं पर उनमें कहीं कोई संकोच नहीं है, कहीं कोई मनोमालिन्य नहीं है, कहीं कोई प्रतिद्व ंदिता नहीं है एवं अपने-अपने व्यक्तित्व को सुरक्षित रखते हुए भी सभी में एक दूसरे के साथ सम्मिलन, समीकरण और एकीकरण की भावना पाई जाती है । यह एक प्रेम का सौदा हैं जो श्रादि से अंत तक और जीवन के हर स्वरूपों में उत्तरोत्तर प्रगाढ़ होता जाता है । यह प्रेम व्यापार स्फटिक की भांति विशुद्ध है, मेंमने की तरह सौम्य है, सिंह की तरह वीर्यवान है और तनिक भी त्रुटि के प्रति विजयी योद्धा की तरह प्रचण्ड है ।
यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि साधना की तरतमता के अनुपात में प्राध्यात्मिकता को भी अनेक भागों में बांटा जा सकता है । प्राध्यात्मिक उत्कर्ष की श्रेणी में सबसे ऊपर वे व्यक्ति हैं जिनकी करूरणा का विस्तार अनंत है, जिनका व्यक्तित्व समग्र विश्व के साथ मिलकर तदाकार हो गया है, जिनकी भूतदया की तीव्रता सर्वोत्कृष्ट है, जिनका विश्वप्रेम सर्वोत्तम विवेक तथा सर्वश्रेष्ठ निर्माण शक्ति पर आधारित है, जिनके व्यवहारों का प्रेरणास्त्र केवल विश्वकल्याण है एवं प्रतीत, वर्तमान तथा भविष्य जिनकी कल्याण भावना से ओतप्रोत हैं । अर्हत् तीर्थंकर अवतार, पैगम्बर, शास्ता इसी कोटि के महापुरुष हैं । इसके विपरीत, सबसे निचली सतह पर वे प्राणी हैं जिनमें काम, क्रोध, मान, मोह माया, लोभ जैसे दुर्गुण भरे हुए हैं। ये अध्यात्मविरोधी या स्वार्थसाधक प्राणी हैं जिनमें परोपकार-वृत्ति का प्रभाव है । इन दो छोरों के बीच में श्राध्यात्मिक लोगों को अनेक श्रेणियां हैं ।
अध्यात्म विरोधी स्थिति के ऊपर श्रमाध्यात्मिकता को अवस्था है | यह एक ऐसी अवस्था है जिसमें प्राध्यात्मिकता का विरोध तो नहीं है किंतु जिसमें प्राध्यात्मिकता की विशेषताएं भी नहीं पाई जातीं । उदाहर
४८
णार्थ, मानव समाज में ऐसे भी व्यक्ति पाये जाते हैं जो ऊपर से समग्र मानवता के प्रति प्रेम तो प्रदर्शित करते हैं किंतु जिनमें प्राणी दयामूलक मानवीय भावनायें नहीं पाई जाती। उनका मानवता प्रेम इतना शिथिल, कमजोर और उथला होता है तथा इतनी कम मात्रा में प्रयुक्त होता है कि इसे आध्यात्मिकता को अपेक्षा अनाध्यात्मिक उदासीनता कहना ही उपयुक्त होगा । वे न तो मानवता-प्रेम के लिये अत्यधिक उत्सुक होते हैं और न अत्यधिक उदासीन । वे एक तरह से स्वार्थ और न्यूनतम प्राध्यात्मिकता को मिलाने वाली सीमांत रेखा पर बैठे हैं । इस प्रकार के व्यक्ति साधारणतया समाज सम्मत कानून का पालन करने वाले होते हैं । इनमें वे व्यक्ति भी शामिल हैं जो सार्वजनिक कार्यकर्ता या सरकारी कर्मचारी होने के कारण सहायता कार्य तो करते हैं किंतु इसके लिये वे पारश्रमिक या वेतन लेते हैं । ऐसे व्यक्ति ईमानदार, सदाचारी, न्यायपरायण और जिम्मेदार नागरिक तो हो सकते हैं, किंतु उन्हें प्राध्यास्मिक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यदि कुर्की करना, मांसाहार गिरवी रखना, दास रखना या किसी व्यक्ति को और किसी तरह क्षति या पोड़ा पहुंचाना जैसे कार्य कानून सम्मत हों तो उनके करने में उन्हें कोई बुराई नहीं दीखती ।
आध्यात्मिक उदासीनता से कुछ ऊंची सीमान्त आध्यात्मिकता की स्थिति है । इस स्थिति में व्यक्ति अपने वैध अधिकारों का इस प्रकार प्रयोग करता है और अपने वैध कर्तव्यों का इस प्रकार पालन करता है जिससे किसी को कोई हानि नहीं पहुंचे तथा दूसरों के अधिकारों एवं कर्तव्यों का कोई उल्लंघन न हो ! समाज व्यवस्था को दृष्टि से बनाये गये कायदे-कानूनों से यह कुछ अधिक ऊंची स्थिति है । यह सीमान्त स्थिति इसलिये है कि इसे वैध उपायों के जरिये सामाजिक सीमाओं के भीतर अनिवार्य रूप से बांध दिया गया है । इस सीमा उल्लंघन करने पर कानून में नाना प्रकार के दण्डों का विधान किया गया है । अतएव वैधानिक व्यवहार न तो स्वार्थमूलक होते हैं और न परोपकार मूलक । वैधानिक व्यवहार में जीवदया, प्राणीप्रेम और सदाशयता जैसे
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
कभी-कभी ऐसा भी होता है कि लोग प्राध्यात्मिकता का उपदेश तो देते हैं किंतु तदनुसार प्रावरण नहीं करते | यह आध्यात्मिकता भास या ढोंगी प्राध्यात्मिकता की स्थिति है और लोगों को बेवकूफ बनाना ही इसका मुख्य उद्द ेश होता है । शुद्ध आध्यात्मिकता में मन, वचन और कर्म में कोई अंतर नहीं होता ।
तत्व नहीं पाये जाते । फलतः प्राध्यात्मिकता का उदय समाजव्यवस्था से संबंधित कानूनी प्रावश्यकानों को पूर्ति के उपरान्त ही होता है । अर्थात् जब एक व्यक्ति स्वेच्छा से अन्य व्यक्तियों के हितार्थ अपने अधिकारपूर्ण हितों का बलिदान करने के लिये तत्पर हो जाता है, कानून द्वारा जब हानि पहुंचाना उपयुक्त होते हुए भी वह दूसरों को कोई हानि नहीं पहुंचाता और कानून द्वारा बाध्य न होते हुए भी जब वह हर संभव उपाय से सहायता पहुंचाने को तत्पर रहता है तो यह कहा जा सकता है कि उसमें प्राध्यात्मिकता का उदय हो रहा है । श्रतएव यह स्पष्ट है कि सामाजिक कानूनी प्रावश्यकताओं को पूरा करने के बाद ही प्राध्यात्मिकता संभव है । वैध व्यवहार एक अनिवार्य सामाजिक व्यवहार है, जबकि आध्यात्मिक व्यवहार किसी भी प्रकार को जोर-जबरदस्ती या अनिवार्यता से सर्वथा मुक्त है । इमे स्वेच्छा से अंगीकार किया जाता है और यह स्वेच्छापूर्ण व्यवहार का शुद्धतम स्वरूप है । यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि आधुनिक विज्ञानवादी दृष्टिकोण अध्यात्म के सीमांत से आगे नहीं जाता। यदि कोई व्यक्ति विवेकपूर्वक स्वार्थसाधन करता है या विशेष हानि न पहुंचाते हुए दूसरों के हितों पर श्राघात पहुंचाता है तो आधुनिक दृष्टि को यह स्वीकृत है । किंतु, अध्यात्मीकरण की प्रकिया इससे सर्वथा भिन्न है । यह ऐसी साधना है। जिसमें मनुष्य अपनी शारीरिक इच्छात्रों तथा मनोव्यापारों की प्रबुद्ध चेतनाशक्ति से नियंत्रित कर देता है एवं शरीर और चेतना को परमचेतना के अधीन कर देता है ।
जब श्राध्यात्मिक व्यवहारों को स्वेच्छा से केवल आध्यात्मिकता के लिये ही किया जाता है तो यह शुद्ध आध्यात्मिकता है। इसके विपरीत, जब उन्हें उपयोगिता
४६.
या प्रभिलाषा पूर्ति के निमित्त किया जाता है तो वे अशुद्ध आध्यात्मिकता के रूप हैं । यद्यपि शुद्ध प्राध्यात्मिक व्यवहारों में किंचित् प्रभिलाषा या उपयोगिता को प्रच्छन्न भावना पाई जाती है किंतु यह व्यवहार का मूलाधार नहीं होती । यदि आत्मपीड़न या हानि हो तो भी शुद्ध प्राध्यात्मिक व्यवहार किये जाते हैं ।
आध्यात्मिक व्यवहार विवेकपूर्ण और श्रविवेकपूर्ण भी होते हैं । विवेकपूर्ण प्राध्यात्मिक व्यवहार निर्माणकारी होते हैं और उनमें अन्य पक्ष को कष्ट या हानि पहुंचाने की भावना बिलकुल नहीं होती । इस प्रकार के कार्य-व्यवहारों में साध्य और साधन दोनों ही प्राध्यात्मिक होते हैं । विवेकपूर्ण प्राध्यात्मिकता में, इसके विपरीत, साध्य तो आध्यात्मिक होता है किंतु साधन नहीं । प्रविवेकपूर्ण आध्यात्मिक व्यवहार अंधी आत्मपरक स्नेहासक्ति के उद्र ेक का परिणाम होते हैं और इनसे अन्य पक्ष को कष्ट या हानि पहुँचती है । उदाहरगार्थ अंधे प्यार के वशीभूत होकर अपनी सन्तान का भला चाहने वाली मां सन्तान की सभी सार्थक और निरर्थक आवश्यकताओंों को पूरा करके उसका जीवन बरबाद कर सकती है । उसी प्रकार, यदि स्वामिभक्त बन्दर को मालिक की रक्षा करने के लिये तलवार दे दी जाय तो उसका उपयोग वह स्वामी के विरुद्ध भी कर सकता है । प्रविवेकपूर्ण आध्यात्मिक व्यवहारों में अभिप्राय यद्यपि पवित्र और परोपकारपूर्ण होता है किंतु जिन साधनों का अवलम्बन लिया जाता है परिणाम अन्य पक्ष को हानिकारक होता है ।
उनका
आध्यात्मिकता का क्षेत्र भी व्यक्तिविशेष को साधना के अनुसार विस्तृत या संकुचित हो सकता है । एक व्यक्ति का प्राध्यात्मिक व्यवहार कुछ थोड़े से व्यक्तियों तक सीमित हो सकता है और समाज के अन्य सदस्यों के प्रति अध्यात्मविरोधी या प्रनाध्यात्मिक सकता है । इसके विपरीत, प्राध्यात्मिकता का विस्तार समस्त प्राणीजगत् तक विस्तृत भी हो सकता है । इस प्रकार आध्यात्मिकता का विस्तार प्रत्यंत संकीर्ण और असीम भी हो सकता है ।
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
उसी प्रकार आध्यात्मिकता की तीव्रता में भी अंतर निर्माण होता है। वस्तुतः प्रत्येक प्राध्यात्मिक व्यक्ति पाया जाता है। यह तीव्रता केवल मौखिक सहानुभूति संसार व्यापी प्रयोगशाला में जीवन के परम सत्यों की से लेकर विश्वबंधुत्व की सीमा तक व्याप्त हो सकती खोज में लगा हुआ वैज्ञानिक है । इस प्रकार के महापुरुष है। प्रारंभ में सूखाभिलाषा या उपयोगिता या वैयक्तिक हमारी अर्चना-वन्दना के पात्र होने ही चाहिये। लाभ की इच्छा ही इसके प्रमुख कारण होते हैं जो बढ़ते x
x
x बढ़ते असीम, सर्वस्वदान, सर्वस्व समर्पण और सब प्राध्यात्मिकता का कलात्मक ढंग से प्रस्फुटन धर्म मे प्राणियों से क्षमायाचना तक पहुंच जाते हैं। तीव्रता के होता है । धर्म आध्याकिमता को विकसित करने के इन दों छोरों के बीच में आध्यात्मिकता के अनेक रूप लिये सहकारी संगठन प्रदान करता है । यह धार्मिक हो सकते हैं। जैसे-मित्रभाव, दया, कृपा, शुभाकांक्षा, संगठन भी प्रतिस्पर्धी तत्वों से सर्वथा युक्त है, इसमें करुणा, अनुग्रह, निष्ठा, भक्ति, श्रद्धा, प्रशंसा, आदर, विशाल पैमाने पर समूहान्तर्गत प्राध्यात्मिकता के साथपूज्यता, प्रगाढ़ श्रद्धा, इत्यादि । उसी प्रकार, प्राध्या- साथ समूह-बाह्य आध्यात्मिकता पाई जाती है, इसमें त्मिकता क्षणिक भी हो सकती है और अनंतकालिक आध्यात्मिकता का प्रदर्शन प्रात्यंतिक तीव्रता, पूर्ण भी साथ ही, शुद्धता की मात्रा के अनुसार भी प्राध्या- विशुद्धता, सर्वोत्तम मानवता-प्रेम तथा असीम लोक त्मिकता का श्रेणीविभाजन किया जा सकता है। कल्याण के रुप में होता है । सच ब त तो यह है कि
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि आध्यात्मिकता का अंत समग्र धर्म का मापदण्ड ही आध्यात्मिकता है । प्राध्याप्राध्यात्मिकता स्वयं है। सफलता और प्रतिस्पर्धा के
त्मिकता के बिना धर्म थोथा है, विषाक्त साम्प्रदायिकता तत्व इस में नहीं पाये जाते । अभिमान अ.र स्वकीय है और संकीर्णता तथा क्षुद्रता का पतनोन्मुख प्रवेशश्रेष्ठता की भावनामों से यह सर्वथा रहित है। इसमें
द्वार है। विनम्रता और सदाशयता का वातावरण सर्वत्र व्याप्त किंतु, महान संस्कृति का निर्माण करने के लिए रहता है । प्राध्यात्मिक पुरुष लोककल्याण की भावना नाना प्रकार के धर्मो का सद्भाव अवश्यक है । मानव से प्रेरित होकर ही स्वेच्छा से यथासाध्य कार्य करते हैं, जाति के नानाविध मूल्यों, प्राचार-विचारों, नैतिक. इसके लिये उन्हें अनिवार्य वैध और समाजनम्मत सामाजिक प्रादर्शों और प्रादेशिक विषमताओं का अन्तप्राज्ञानों को लेने की जरूरत नहीं है, न वे पुरुस्कार- भवि एक ही धर्म में नहीं किया जा सकता । जिस तरह प्राप्ति की इच्छा से कार्य करते हैं और न दण्डित होने एक ही भाव को नाना प्रकार की भाषानों और महावरों के भय से, न उनमें विजय की आकांक्षा होती है और में व्यक्त किया जा सकता है. उसी तरह मानवता के न हार की ग्लानि, वे न यशः प्राप्ति की लालसा से
सनी लालसा से नैतिकतावादी प्रादर्श का पाख्याम भी अनेक प्रकार की पीड़ित होते हैं और न अप्रियता का डर ही उन्हें सताता
धार्मिक संस्थानों के जरिये किया जाना चाहिये । नाना है । प्राध्यात्मिकता वह सेतु है जहां प्रात्मा और परमा
प्रकार के धर्मों, पंथों और धर्म-संस्थानों की उत्पत्ति का स्मा, एकता और अनेकता, दुःख और सूख, संसार और रहस्य भी यही है। सभी धर्म अपनी-अपनी भाषा में मोक्ष तथा निवृत्ति और प्रवृत्ति परस्पर मिलकर एकाकार एक ही प्रध्यात्मवादी नैतिक तत्व का निरूपण करते हैं। हो जाते हैं । ईश्वरत्व का मानवीयकरण, मानवीयता प्रत्येक धर्म मनुष्य का ईश्वर से सम्बन्ध जोडता है. का देवीकरण, प्राणी में आस्था, अनेकांतवादी जीवन- संस्कृति के विकास में सृजनशील शक्तियां और स्थितियां दृष्टि, अंधश्रद्धा का अभाव, तर्कसम्मत विवेकशीलता, उत्पन्न करता है तथा नै तिक-सामाजिक जीवन में प्राध्यापरीक्षा-प्रधान जीवन-प्रवृत्ति और परम्परा तथा प्रगति- त्मिकता को प्रोत्साहन देता है। शीलता का समामेलन-ये कुछ ऐसे तत्व हैं जिनसे यह मानव समाज का दुभाग्य है कि वर्तमान काल प्राध्यात्मिक व्यक्ति के व्यक्तित्व तथा लोकमंगल का में धर्म संस्थानों में आध्यात्मिक तत्वों का उत्तरोत्तर
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
ह्रास होता जा रहा है । प्राध्यात्मिकता के प्रभाव में वे परम्पराप्रिय और रुढ़िवादी संस्थायें मात्र बनकर रह गई हैं, समन्वय और सहकार के स्थान पर वे सामाजिक उच्छेद का साधन बन गई हैं, प्रगतिशील तत्वों की श्रवहेलना से उनकी नैतिक शक्ति कुठित हो गई है तथा कर्मकांडी ग्रंधविश्वासों का पिटारा बन कर रह गई हैं, एवं भावी पीढ़ियों को मार्गदर्शन करने की उनकी सामर्थ्य क्षीण हो गई है । प्राध्यात्मिकता और धार्मिकता का पुनर्गठन आज समय की सबसे बड़ी मांग है । हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि धार्मिकता को प्राणप्रतिष्ठा आध्यात्मिकता से हो होती है । धार्मिकता विश्व कल्याण तथा व्यक्तित्व के विकास का नैतिकता मूक तंत्र है जबकि आध्यात्मिकता उसका मंत्र, धार्मिकता वर्ग विशेष की ऐतिहासिक परंपरा है जबकि आध्यात्मिकता वर्तमान और भविष्य को अनुप्राणित करने वाली प्रगतिशीलता, आध्यात्मिकता साध्य है जबकि धार्मिकता साधन । प्राध्यात्मिकता मनुष्य के वैयक्तिक उत्कर्ष का परीक्षण करती है जबकि धार्मिकता उन परीक्षणों को सामाजिक चेतना के विकास में प्रयुक्त करती हैं । एवं आध्यात्मिकता जहां धर्म का मापदण्ड है धर्म आध्यात्मिकता को उर्वरा भूमि । इस कथन में दो मत नहीं हो सकते कि वैयक्तिक, सामाजिक, नैतिक और मानवीय उत्कर्ष के लिये तथा जीवन में सुख और शांति को सृष्टि करने के लिये प्राज आध्यात्मिक तत्वों के प्रसार तथा परिष्कार की नितान्त आवश्यकता है ।
किन्तु, यह तभी संभव है जबकि मनुष्यों के व्यक्तिगत जीवन, उनकी सामाजिक और सांस्कृतिक संस्थानों तथा धार्मिक दृष्टिकोणों में उपयुक्त परिवर्तन हो । इसके लिये लोगों के दिल और दिमागों में क्रान्तिकारी परिवर्तन करने की आवश्यकता है । इस तरह की क्रांति में किसी प्रकार की जोर जबरदस्ती या हसात्मक साधनों को अपनाने की जरूरत नहीं है । यह परिवर्तन व्यवस्थित ढंग से तथा शांतिमय उपायों से किया जा सकता है । यदि मनुष्यों को प्रेरणा शक्ति, विचारधारा, अनुभूति और विवेक में उपयुक्त परिवर्तन किया जा सका तो सफलता मिलने में कोई संशय नहीं है । यह ध्यान रखना चाहिये कि किसी बाहरी दबाव से मनोवांछित प्रभाव उत्पन्न नहीं किया जा सकता, फिर चाहे भले ही साधु-संत महात्मानों के जरिये हो जबरदस्ती क्यों न करवाई जाय । हिंसात्मक क्रान्तियां और युद्ध विनाशकारी तथा विध्वंसक प्रवृत्तियों के प्ररिचायक है । घृणा, हिंसा और रक्तपात बदले में घृणा, हिंसा और रक्तपात को ही उत्पन्न करते हैं । सनातन काल से यही नियम चला आया है और अनंतकाल तक यही चलता रहेगा । युद्ध और क्लेश से संत्रस्त इस विश्व में यदि बीच-बीच में शांति और सर्जन नशील तथा रचनात्मक उपायों का सिलसिला दिखलाई देता है तो यह मानव के शांतिप्रयत्नों, अध्यात्मवादी प्रवृत्तियों और मानवतावादी निष्ठा का ही वरदान है ।
जैन जाति दया के लिए खास प्रसिद्ध है, और दया के लिये हजारों रुपया खर्च करती हैं । जैनी पहले क्षत्री थे, यह उनके चेहरे व नाम से भी जाना जाता है। जैनी अधिक शान्ति प्रिय हैं ।
जैन हितेच्छु पुस्तक १६ अङ्क ११ में से ।
- श्री नाटोरोय फिल्ड सा० कलेक्टर
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
संवत्सरी पर्व का सांस्कृतिक महत्व
• बद्रीप्रशाद पंचोली मदनगंज किशनगढ़
अपने अपने समाज और सभ्यता के अनुसार किसी वस्तु को देखने की जिसी जाति या राष्ट की अपनी प्रांखें होती हैं। भारत में भी श्रद्धा व तप को केन्द्र मान कर जीवन यापन के लिए स्वतंत्र दृष्टिकोण का विकास हुआ है व तप से भारतीय स्वयं को वत्स के रूप में ढालता है व श्रद्धा से विश्वचेतना से पोषण प्राप्त करता है। संवत्सरी तपोमय जीवन के अभ्यास द्वारा मन को वत्सवत् संयत करके विश्वात्मक भाग का वात्सल्य प्राप्त करने के लिए मनाया जाने वाला उत्सव है।
शदा और तप भारतीय जीवन-दर्शन की सबसे बड़ी नगर (सद्ध नगरं किच्चा) ६ कहा गया है। यही नही
' विशेषताएँ हैं । वैदिक, जैन व बौद्ध-तीनों परंप- त्रिविधि सभ्यक्त्व की सिद्धि के लिए श्रद्धा अनिवार्य रानों में इनका स्थान असंदिग्ध है । भगवान बुद्ध ने गुण माना गया है ७ । श्रद्धा ने भारतीयों को धर्मनिष्ठ प्रध्यात्म-कृषि के लिए श्रद्धा को बीज तथा तप को वृष्टि बनाया है तो तप ने कर्मजीवी । (सद्धा बीजं तपो वुट्ठि)' कहा है। ऋग्वेद में श्रद्धा उपयुक्त तीनों परंपरानों को एक दूसरे से असंपृक्त को सम्पत्ति का शीर्ष, प्रार्थितफलदात्री व उपासना करने मानकर अध्ययन करने पर भारतीय सांस्कृतिक जीवन योग्य २ कहा गया गया है। गीता में यो यच्छद्ध स एव के ऐसे तथ्य सामने आते है, जिनकी पोर (सामान्यतया) सः' कह कर श्रद्धा को सर्वोपरि माना गया है । इसी अध्येतानों का ध्यान अभी तक नहीं गया है। उत्सबों तरह तप से स्वर्ग जाने की बात भी कही गई है । के सम्बन्ध में इन पररंपराओं को एक साथ मिलकर अभी सत्य, ऋत, ब्रह्म, यज्ञ आदि प्राध्यात्मिक-विभूतियों के तक अध्ययन नहीं हुआ हैं। जब कि इस दृष्टि से भारत साप तप राष्ट्र को धारण करने वाला है । इसी तरह में सांस्कृतिक एकता के निर्माण का मार्ग प्रशस्त होता जैन-परम्परा में भी तप को ज्योति (तपोज्योति)५ तथा प्राया है । उत्सव शब्द का तात्पर्य है- उन्-उत्कृष्ट+ श्रद्धा को जीवन संग्राम में विजय प्राप्त करने का साधन सब-यज्ञ । ये वैदिक यज्ञों से ही समाज की बदलती हुई
१. सुत्तनिपात-उरगवम्ग-कसि भारद्वाज मुन्न । २. ऋग्वेद १०.१५१ ३. ऋग्वेद १४१५४०२, १६७.? ४. अथर्ववेद १२।११ ५. उत्तराध्ययन सूत्र १२४३ ६. उपयुक्त सूत्र ६ ७. दर्शन पाहुड़ (कुन्दकुन्द)-२२
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
५३
परपरामों में विकसित हए जान पड़ते हैं। संवत्सरी संवत्सरी । दोनों ही यह उत्सव वात्सल्य प्राप्ति के हेतु जिनधर्मानुयायियों का महत्त्वपूर्ण उत्सव है जिसका मनाते हैं । वत्स बनने के लिए व्रत का वरण करने से संबन्ध संवत्स व संवत्सर से ज्ञात होता है।
चार वर्णों का विकास हुमा है । तो जैन परंपरा में कावेद के एक मत से ज्ञात होता है कि व्रतवारी सम्यक्त्व का वरण करना संवर कहा गया है। विषयों वर्ष भर के लिए वर्ष काल में व्रत धारण किया करते से विरक्त होकर प्रात्मा को मनोहारी विषयों से संवत थे । प्रतियों के २७ सम्प्रदायों का उल्लेख 'चूलनिह स' करना संवर है; ११ सम्यक् दर्शन, अणुव्रत, महाव्रत, नामक बौद्ध ग्रन्थ में मिलता है। इनमें एक सम्प्रदाय
कषायों को जीतना भी संबर कहा गया है १२ । बरणीय समिती /गोवतिका वो देवता । निशा सम्यक है-सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, सम्यक चारित्र । निसाय इसमें पथक उल्लिखित है। ऐसा इन्हें रत्नत्रय कहा जाता है। तपाचार व वीर्याचार द्वारा ज्ञात होता है कि निगण्ठ व गोब्रतिकों में कभी धनिष्ठ जीवन में रत्नत्रय की प्रतिष्ठा संभव है। सम्यक्त्व श्रद्धा सम्बन्ध रहा होगा । अतः ऋषभ, गोवतिको के पाराध्य,
का पर्याय है। श्रद्धा व तप से जीवन में सत्य की जैन धर्म के प्रथम तीर्थकर माने गए होंगे । अथवा यह
संसिद्धि होती है। वैदिक यज्ञों का उद्देश्य भी जीवन भी संभव है कि गोवतिक, ऋषभवतिकों से स्वतंत्र हों।
में श्रद्धा व सत्य को समन्वित करना ही है १३ । वत्स गोव्रत का पुराणों में उल्लेख मिलता है। ऋग्वेदों। भाव से व्रत ग्रहण करना वात्सल्य प्राप्ति के लिए में चैतन्याधिष्ठित प्रकृति अदिति ६ या विराज गौ १०
प्रावश्यक है । जैनशासन में सम्यक्त्व के पाठ अंगो में के रूप में वर्णित हैं। उसका पोषण प्राप्त करने के लिए वात्सल्य ( वच्छल ) भी गिनाया गया है १४ जिसके अपने प्राप को वत्स या वत्सतर बना लेना ही गोव्रत का
विषय में कहा गया है कि धर्मात्मानों का प्रियवचन व प्राधार है। मनुष्य में विश्वप्रकृति का एक अंश मन आचरण से अनुसरण करने वाले सम्यक दृष्टि जीवन बुद्धि, प्राण, इन्द्रियादि के रूप में उपस्थित है। मन व
का वात्सल्य अंग होता है। १५ प्रादिजिन ऋषभ पु-गव इन्द्रियों को इस प्रकार संयत किया जाय कि वे प्रकृति हैं, सम्यक् आचरण से वत्स बन जाने पर उनके वात्सल्य रूपी कामधेनु से यथेष्ट पोषण प्राप्त करले । यह पोषण की प्राप्ति संभव है। वात्सल्य कहा जाता है।
बृहदारण्यकोपनिषद् में वाक् को धेनु, प्राण को ___ भाद्रपद शुल्क पंचमी को वैदिक-परंपरानुयायी ऋषभ और मन को वत्स कहा गया है १६ । अन्यत्र भी ऋषि पंचमी उत्सव मनाते है और जिनधर्मानुयायी वाक् को धेनु १७ व मन को वत्स १८ कहा गया है ।
८. ऋग्वेद ७।१०३११ ६. ऋग्वेद ८१०१११५ १०. अथर्व वेद २०१११३।२ ??. कार्तिकेयानुप्रेक्षा-१०१ १२. उपर्युक्त-६५ १३. ऐतरेय ब्राह्मण ७।१० १४. चारित्रपाहुड़ (कुन्दकुन्द)-७ १५. कार्तिकेयानुप्रेक्षा-३५ १६. वृ० उ० ५।८।१ १७. बाग्वै धेनु:-ता० महा-ब्राह्मण १८।२१ गोपथ ब्रा०पू० २।२१ शथपथ ।।१।२।१७ प्रादि । १८. शतपथ ११०३।११ जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मण १।१।१६
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
वाक,प्राण व यज्ञ से संवत्सर को अभिन्न माना गया सहज वत्सलता के कारण प्रकृतिरूपी गो को है १६ । अतः संवत्सरी का बाप धेनु व प्रारण रूप सहवत्सा, २८ वत्सिनी, २.६ नित्यवत्सा 3° कहा गया ऋषभ से तो सम्बन्ध है ही; मन रूप वत्स के लिए वह है। वत्स और पुनर्वत्स ऋग्वेद के ऋषि हैं । ऋषि नाम दीक्षा का पर्व भी है । गौ ही विश्व का भरण करती है मंत्रार्थ व्यक्त करने वाला संकेत हैं । पुनर्वत्स शब्द (गौर्वा इदं सर्व बिभति° । प्राण रूप ऋषभ गौ को का तात्पर्य है-जो पुनः वत्स बन जाय-A weanedधारण करने वाला ( गन्धर्व )२१ कहा गया है । प्रारण calf, that begis to suck again. इन्द्र है,२२ गौ से अभिन्न है २३ इसी लिए एक सूक्त में
ब्रह्मचर्य-गृहस्थ-वानप्रस्थ इस क्रम से सन्यास ऋषभ की इन्द्र रूप में स्तुति की गई है २४ । . के रूप में ब्रह्मचर्य को पुनः अपना लेना ही पुनर्वत्स
गौ वत्स से इतना प्रेम करती है कि मानवी प्रेम भी की कल्पना का मूल है। पुनर्वत्स ऋषि द्रष्ट मंत्र में उसके सामने तुच्छ है २५ । ऋग्वेद के इस मंत्र में रंभाती इस व्यवस्था का पृश्नि से तीन सरोवरों के दोहन ३२ के हुई, वत्स के प्रति गमन करती हुई, दुधारू गाय का रूप में उल्लेख मिलता है। इस व्यवस्था को प्राश्रम वर्णन है
ब्यवस्था कहा गया है । पाश्रम शब्द का अर्थ है जिसमे हिङकृण्वन्ती वसुपत्नी वसूनां वत्समिच्छन्ती मनसाभ्यागात् श्रम व्याप्त हो ( प्रासमन्तात् श्रमः यस्मिन् )। दहाश्विभ्यां पयो अध्न्येयं सा वर्धतां महते सौभगाय २६॥ श्रम को वैदिक-साहित्य में ऋत, सत्य, तप जैसी
गो के वत्स प्रेम को आदर्श मानकर अथर्ववेद में प्राध्यात्मिक-विभूतियों तथा राज्य, धर्म एवं कर्म जैसी मानव मात्र में वैसे प्रेम को प्रतिष्ठित करने की बात पार्थिव शक्तियों के साथ गिनाया गया है 331 श्रम कही गई है २७।
के बिना देवता मनुष्य की सहायता नहीं करते ३४ । १६. वाक् संवत्सरः । ताण्ड्य म० ब्रा० १०।१२।७, प्राणो वै संवत्सरः । ता० म. ब्रा० ५।१०।२ संवत्सरो
यज्ञः प्रजापतिः-शतपथ १२.५।१२ को० ब्रा०६।१५ ऐतरेय ब्रा० ४।२५ . २०. शतपथ ३।१२।१४ २१. जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मण ३१३६३ २.. प्राण इंद्रः । शतपथ १४।४।३।१६, १२।४।१।१४ २३. इमा या गावः सजनास इन्द्रः । ऋग्वेद ६।२८।५ २४. ऋग्वेद १०११६६ २५. ऋग्वेद १६१६४।२६ २६. ऋग्वेद १११६४।२७ (कुछ विद्वान् इस मंत्र के प्रथमाक्षरो के संयोग से 'हिन्दू' को निष्पत्ति मानते हैं
जिसका अर्थ हुमा गो (प्रकृति) का दोहन करने वाला । विचार उत्तम किन्तु विचारणीय है) २७. अथर्ववेद ३।३०।१ २८, ऋग्वेद १३२॥ २६. ऋग्वेद ७.१०३।२ ३०. अथर्ववेद ७१०६१ ३१. द्रष्टव्य लेखक का 'ऋग्वेद के मंत्रद्रष्टा ऋषि' निबन्ध । वेदवाणी वर्ष १५ अंक १ तथा डा० सुधीर
___ कुमार गुप्त-'ऋग्वेद के ऋषि और उनका सन्देश और दर्शन' पुस्तिका । ३२. ऋग्वेद ८७।१० ३३. अथर्ववेद ११।६।१७ ३४. न ऋते श्रान्तस्य सख्याय देवाः । ऋग्वेद ४१३३।११
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
५५
पाश्रम व्यवस्था का उद्देश्य न केवल प्रत्येक व्यक्ति के मोक्ष प्राप्ति में सहायक होता है । इसीलिए बुद्ध ने कहा लिए श्रम को अनिवार्य कर देना है, अपितु-इसका लक्ष्य "शमयिता हि पापानां श्रमण इति कथ्यते। 3 । जैन उचित उद्देश्य की पूर्ति के लिए उचित ढंग से श्रम का परंपरा में भी आत्मतत्त्व की प्राप्ति के लिए प्राध्यात्मिक उपयोग करवाना भी है ३५ । प्रथम दो आश्रमों में श्रम श्रम करने वाले श्रमण कहे जाते है ४० । शम पर्यवसित का प्रवृत्तिपरक रूप देखने को मिलता है तो अन्तिम दो श्रम ही जैन गण या शासन का मूलाधार है । इस में निवृत्तिपरक । इस श्रम को उत्तरोत्तर 'शम' रूप देने आध्यात्मिक-गणराज्य के प्रवर्तक-महावीर बुद्ध के समय का प्रयत्न किया गया है २५ ।
में ही संघी, गरणी, गणाचार्य आदि नामों से विख्यात वैदिक-यज्ञों में प्रतीकात्मकता बढ़ जाने पर उनका हो चुके थे। परवर्ती जैन गणधरों की एक लम्बी स्थान सहजसाध्य प्रक्रियाओं ने ले लिया। ऐसी प्रक्रि- अविच्छिन्न परंपरा है। इस गण के विभाग है-मुनि, यानों को उत्सव नाम दिया गया। उत्सवों के प्रचार में आर्यिका, श्रावक-व श्राविका । बौद्ध संघ में साधारण सारे भारत में फैले हुए गणराज्यों ने प्रमुख रूप से योग गृहस्थ को कोई स्थान दिया गया; परन्तु जैन शासन में दिया। गरगों का विकास महाभारत युद्ध में प्राचीन राज- श्रावक व श्राविका भी विशिष्ट स्थान रखते हैं । अतः वंशों की समाप्ति के उपरान्त हा था । इस युद्ध के जैन शासन की समाज में सफल रूप से प्रतिष्ठा हई। बाद भारत में सांस्कृतिक-दृष्टि से हास का युग पाया
जैन मत अवैदिक नहीं है। श्रम के प्राध्यात्मिक और गणों में अर्थकामपरायणता बढ़ गई । मानव व
रूप को ग्रहण करके विकसित होने के कारण जैनमत मानवाश्रम की उपेक्षा होने लगी । बुद्ध व महावीर ने
में यज्ञ का यह ऋषि प्रशस्त रूप ग्राह्य माना गया है। गणों की यह अवस्था देख कर भारतीय-संस्कृति के मूल
तपो ज्योतिः जीवो ज्योतिस्थान श्रमवाद की प्रतिष्ठा श्रमणधर्म के नाम से की।
योगस्न वा शरीरं करीषम् । श्रमण संस्था भारत में बुद्ध से पूर्व विद्यमान थी; ३७
कर्मेधः संयमयोगशान्तिः परन्तु इसका नवीकरण नितान्त स्वतंत्र रूप से हुआ।
होम जुहोमि ऋषिणां प्रशस्तम् ।।४१ बुद्ध व महावीर ने श्रम का पर्यवसान शम' में दिखाया तथा प्राध्यात्मिक-गणराज्य का प्रादर्श समसामयिक प्रारण्यक व उपनिषदों में यज्ञ का ऐसा रूप गणों के सामने रक्खा ७८ । ....
. व्याख्यात है । अतः महावीर ने अपने मत को सत्पुरुष श्रम के कारण मानव मानव में सहज सम्बन्ध तो पार्यों का अनुपम मार्ग कहा है ४३ ।। स्थापित होता ही है. मानव मन की पशुता का अन्त भी वर्तमान महावीर को एक स्थान पर तायी नाम उससे होता है । इस प्रकार श्रम शम में पर्यवसित होकर से अभिहित किया गया है ४३ । जिसका अर्थ प्रति
३५. डा० फतहसिंह-वैदिक समाज शास्त्र में यज्ञ की कल्पना पृ० २३ ३६. उपयुक्त पृ० २४ ३७. डा० राधाकुमुद मुकर्जी-हिन्दू सभ्यता पृ१ २४६ ३८. द्रष्टव्य-लेखक का 'प्राचीन भारत में गणतांत्रिक शासन व्यवस्था' निबन्ध ।
साहित्य संस्थान उदयपुर की शोधपात्रिका वर्ष १५ अंक १ । ३६. धम्मपद २०१० ४०. द्रष्टव्य-पं० चैनसुखदास लिखित प्रहत् प्रवचन की भूमिका पृ०३ ४१. उत्तराध्ययन सूत्र १२४३ की संस्कृत छाय।। ४२. सूत्रकृतांग सूत्र ७५६ ४३. उपयुक्त सूत्र सं० ५६८
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
माना गया है । यह शब्द वैदिक तर्य (तुरीय- मिथ्यात्व की वासना से जीत्र सम्यक्त्व में रमण संन्यासी)४४ का विकसित रूप ज्ञात होता है । अतः नहीं करता (ण रमिाह सम्मत्ते) ५१ । संवत्स के महावीर संन्यासी थे। जैनों का एक वर्ग उनके गृहस्थ सम्यक्त्व में रमरण करने का कालपर्व ही संवत्सर है। जीवन को भी स्वीकार करता है; परन्तु अधिकतर लोग जिसका प्रारम्भ सांवत्सरिक उत्सव से होता है। पुनर्वत्स उन्हें बाल सन्यासी मानते हैं । इस मान्यता के अनुसार जीवन प्रक्रिया में भोग व योग का सुन्दर समन्वय देखने महावीर पुनर्वसन होकर संवत्स (सम्यक रूपेण वत्स:- को मिलता है। इसके विपरीत संवत्स-प्रक्रिया कठोर जन्मना वत्सः) थे।
संयम पर बल देती है। जैन मुनियों के जीवन में कठोर संवत्स शब्द ऋग्वेद में केवल एक मन्त्र में उपमेय प्रात्मसंयम का आदर्श रूप देखने को मिलता है। के रूप में प्रयुक्त हुअा है;४५ परन्तु पुनर्वत्स की तुलना ऋग्वेद के एक सूक्त के ५२ ऋषि वैराज ऋषभ में इसका अर्थ स्पष्ट हो जाता है। संवत्स के जीवन में हैं। विराज गौ और उसके दोहन का वर्णन अथर्ववेद सम्यक्त्व की प्रधानता होती है । जैन शास्त्रों में सम्य- में मिलता है। ऋषभ उसी विराज के पुत्र हैं । ऋषि क्व को ज्ञान श्रियो मूलम्, अपास्त दोषम्, चारित्र प्राणतत्व से अभिन्न हैं ५४ । इस प्रकार ऋषभ ऋषि बल्लीवन जीवनम् प्रादि विभूषणों से विभूषित किया। प्राणतत्व का ही नाम है जिसका कालान्तर में परमगया है ४६ । प्रानन्दमय, शुद्ध, चिद्रप प्रात्मा में दृढ़ । भागवत नाभेय ऋषभ के ऐतिहासिक चारित्र पर प्रारोप निश्चय की स्थिति ही सम्यक्त्व है४७ । सम्यक्त्व की हा । नाभेय ऋषभ को निगदेनाभिष्ट्रयमान५५, प्रात्मप्राप्ति को त्रलोक्य की प्राप्ति से भी श्रेष्ठ माना गया तन्त्र५६प्रादि विशेषणों से विभूषित किया गया है। जैन है ४८ । यही मनुष्यत्व का सार (सारो वि रणरस्स)४६ शास्त्रों में प्रादि जिन ऋषभ का विशिष्ट लांछन वृषभ है । सम्यक् जीवन के ८ अंग - निःशंकित, निःकांक्षित, माना गया हैं ५७ । चारसींग, तीन पाद, दो शीर्ष, सात निविचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगृहन, स्थितिकरण, हाथ वाला त्रिधा बद्ध गोमुख यक्ष भी ऋषभ के साय वात्सल्य और प्रभावना हैं ५० । इन पाठों में वात्सल्य संयुक्त है ५६ इसका स्वरूप ऋग्वेदिक महावृषभ रूप ६ को ही प्रमुखता प्राप्त है।
यज्ञ पुरुष से अभिन्न है। ४४. ऋग्वेद ५।४४१२. ४५. संवत्स इव मातृभिः-यथा संवत्स अपनी माता से मिलता है ।-ऋग्वेद हा२०५।२.. ४६. भारतीय ज्ञान पीठ पूजा पदावली-पृ०२३२. ४७. उपयुक्त । ४८. भगवती आराधना ७४२. ४६. दर्शन पाहुड़ (कुन्दकुन्द)-३१. ५०. चारित्रपाहुड़ (कुन्दकुन्द) ७. ५१. भगवती आराधना ७२८. ५२. ऋग्वेद-ऋग्वेद १०।१६६. ५३. अथर्ववेद ८।१०१२-५. ५४. ऐतरेय ब्रा० २।२७. ५५. श्रीमद्भागवतपुराण ५।३।१६. ५६. उपयुक्त ५।४।१४. ५७. Jain Iconography, BC. Bhattacharya : पृ० ४६ पर प्रवचनसारोध्दार से उध्दुत । ५८. उपयुक्तः पृ०६६ पर प्रतिष्ठासार संग्रह का उद्धरण ।
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
इस ऋषभ का वात्सल्य प्राप्त करने के लिए संवत्स जीवन अपनाया जाता है। ऋग्वेद के एक मंत्र के अनुसार विश्वरूपा कामदुघा गो का पय संवत्सर में व्याप्त है जिसे दिखावा मात्र करने वाले ( यातुधान - जादूगर ) नहीं पा सकते ३० । इस पय रूप पुष्टि की प्राप्ति के लिये ही पुनर्वत्स व संवत्स साधनाओं के व्रत लिए जाते हैं । पुनर्वत्मों को ऋषि पंचमी हो संवत्सों को संवत्सश्री या संवत्सरी है । संवत्स अहिंसा, सत्य अस्तेय, ब्रह्मचर्य अपरिग्रह — इन यमों को महाव्रत के रूप में अपनाते हैं । साधारण श्रावक भी अणुव्रतों द्वारा महाव्रतों के लिए अपने जीवन को अभ्यस्त बनाते हैं ।
५७
कठोर शारीरिक साधना के कारण ये ऊर्ध्वमन्थो श्रमण कहे गये हैं # ६१
अपने अपने समाज और सभ्यता के अनुसार किसी वस्तु को देखने को किसी जाति या राष्ट्र की अपनी माँ होती हैं ६२ । भारत में भी श्रद्धा व तप को केन्द्र मान कर जीवन-यापन के लिए स्वतन्त्र दृष्टि कोण का विकास हुआ है। तप से भारतीय स्वयं को बत्स के रूप में ढालता है व श्रद्धा से विश्व चेतना से पोषण प्राप्त करता है । संवत्सरी तपोमय जीवन के प्रभ्यास द्वारा मन को वत्सवत् संयत् करके विश्वात्मक प्राण का वात्सल्य प्राप्त करने के लिए मनाया जाने वाला उत्हव है |
(१) अतियारे अस्तीत्व धरावतां धर्मो मां जैन धर्म एक एवो धर्म छै के जेमां अहिंसा नो क्रम सम्पूर्ण छै अने जो शक्य तेटली दृढ़ता थी सदा तेने लगी रह्यो छ ।
(२) ब्राह्मण धर्म मां पण घरणां लांबा समय पच्छी सन्यासियों माटे आ सूक्ष्मतर अहिंसा वादित धई अने आखरे वनस्पति आहार का रूप मां ब्राह्मण ज्ञाति मां पण ते दाखील थई हती कारण एछे के जैनो ना धर्म तत्वो एज लोक मत जीत्यो हतो तेनी असर सज्जड रीने बघती जाती हती ।
- डा० एफ० प्रोटो सचरादर पी० एच० डी०
५६. चत्वारि 'गा त्रयो अस्य पादा द्वो शीर्षे सप्त हस्तासो अस्य ।
त्रिधा बढो वृषभो रोरवीति महो देवो भर्त्या श्रा विवेश ॥ ऋग्वेद ४५८१३.
६०. ऋग्वेद १०८७/१७.
६१. तैत्तिरीय प्रारण्यक २७.
६२. डा० जनार्दन मिश्र - भारतीय प्रतीक विद्या०पृ०१३३.
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
न धर्म का उदय और विकास
• डा. पुरुषोत्तमलाल भार्गव
अध्यक्ष, संस्कृत विभाग राजस्थान विश्व विद्यालय, जयपुर
श्री कृष्ण और नेमिनाथ दोनों ही ऐसे समय में हुए थे जब भारतीय समाज में अनेक दोष पागए थे और नैतिक दृष्टि से उसका अधःपतन हो गया था। सामाजिक क्षेत्र में ही नहीं धार्मिक क्षेत्रों में भी यही स्थिति थी । यज्ञों में पशुबलि जैसे क्रर कर्म की प्रचुरता समभ.दार मनुष्यों को अवश्य खलती होगी। अतः इन दोषों को दूर करने के लिए एक ही कुल में दो महापुरुष उत्पन्न हुए जिन्होंने अपने ढंग से लोगों को सन्मार्ग पर लाने का प्रयत्न किया।
जैन और बौद्ध दोनों ही अपने अपने धर्म के चौबीस पुराणों में भी मिलता है। दुर्भाग्यवश हमारे वर्तमान
प्राचार्य मानते हैं । जैन धर्म के प्राचार्य जिन ज्ञान की हीन अवस्था के कारण इनके समय और अथवा तीर्थङ्कर कहलाते है और बौद्ध धर्म के प्राचार्य ऐतिहासिकता के सम्बन्ध में कुछ कहना असम्भव है। बद्ध कहलाते हैं। प्रारम्भ में पाश्चात्य विद्वान् वर्धमान यही दशा इनके बाद के बीस तीर्थङ्करों की है। परन्तु महावीर और सिद्धार्थ गौतम के अतिरिक्त उनके पूर्व बाईसवें तीर्थङ्कर नेमिनाथ के समय और ऐतिहासिकता के सभी तीर्थङ्करों और बुद्धों को कपोलकल्पित मानते पर प्रकाश डालने के लिए हमारे पास पर्याप्त साक्ष्य थे परन्तु बाद मे हर्मन जैकोबी नामक जर्मन विद्वान् ने उपलब्ध हैं। जैन साहित्य के अनुसार नेमिनाथ श्रीकृष्ण जैनों के तेईसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता के चचेरे भाई थे। इस कथन की सत्यता में सन्देह को स्वीकार किया। यदि तत्त्वान्वेषण की भावना से करने का कोई कारण नहीं है। सौभाग्यवश श्रीकृष्ण के इस प्रश्न का अध्ययन किया जाय तो मानना पड़ेगा कि समय का अनुमान करने के लिए ऐतिहासिक सामग्री का जैन और बौद्ध दोनों ही धर्म छठी शताब्दी ई. पू. के प्रभाव नहीं है । चन्द्रगुप्त मौर्य ने लगभग ३२० ई. पू. बहत पहले जन्म ले चुके थे । अशोक के एक अभिलेख में मौर्य साम्राज्य की स्थापना की थी। चन्द्रगुप्त मौर्य से ज्ञात होता है कि उसके भी समय के पूर्व नेपाल की तराई में निगलीवा नामक स्थान में बाईसवें बुद्ध कनक- पुराणों के अनुसार चौतीस पीढ़ियों ने राज्य किया । मुनि का स्तूप था जिसे अशोक ने परिवधित कराया था। यदि हम एक पीढ़ी का औसत राज्यकाल बीस वर्ष मानें यह निश्चित है कि यह स्तूप एक काल्पनिक व्यक्ति की तो ३४ पीढ़ियों का समय ६८० वर्ष होगा। ३२० में स्मृति में नहीं बनी होगा। जैन धर्म भी महावीर स्वामी ६८० जोड़ने पर हमें युधिष्ठिर का समय १००० ई. पू. से ही नहीं पार्श्वनाथ से भी पहले का है इसे अनेक प्राप्त होता है अतः श्रीकृष्ण और उनके भाई नेमिनाथ प्रमाणों से सिद्ध किया जा सकता है।
का भी यही समय हुप्रा । जैन धर्म के आदि तीर्थङ्कर ऋषभदेव माने जाते श्रीकृष्ण और नेमिनाथ दोनों ही ऐसे समय में हुए हैं । ऋषभदेव का उल्नेख जैन साहित्य में ही नहीं थे ज़ब भारतीय समाज में अनेक दोष आगये थे और
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
५६
नैतिक दृष्टि से उसका अध: पतन होगया था । सामाजिक की प्राप्ति हुई और उन्होंने अपनी अनुभूति से प्राप्त तत्व क्षेत्र में भी यही स्थिति थी। यज्ञों में पशु बलि जैसे ज्ञान का प्रचार प्रारंभ किया। उस समय से वे अहंत्, कर कर्म की प्रचुरता समझदार मनुष्यों को आवश्य ही जिन और निग्रन्थ कहलाने लगे। बौद्ध ग्रन्यों में तो खलती होगी। अतः इन दोषों को दूर करने के लिए उन्हें निग्गंठ नातपुत्र अर्थात् निग्रन्थ ज्ञातृपुत्र नाम से ही एक ही कुल में दो महापुरुष उत्पन्न हुए जिन्होंने अपने पुकारा गया है । ढंग से लोगों को सन्मार्ग पर लाने का प्रयत्न किया ।
महावीर ने पार्श्वनाथ के बताये हए अहिंसा, सत्य, इसमें कोई सन्देह नहीं है कि जैनधर्म के मूलभूत सिद्धान्त
अस्तेय और अपरिग्रह नामक चार व्रतों में पांचवां अहिंसा का ऐतिहासिक उपदेश सबसे पहले नेमिनाथ ने
ब्रह्मचर्य और जोड़ दिया और इन पांच व्रतों के पालन ही दिया । नेमिनाथ सौराष्ट्र के निवासी थे और गिरनार
पर जोर दिया । उन्होंने तीस वर्ष तक अपने मत का के नाम से विख्यात हैं । अतः हम गुजरात को जैन धर्म
प्रचार किया और श्रावस्ती, मिथिला, वैशाली, राजगृह, को प्रादिभमि मान सकते हैं जहां से यह पूर्व दिशा में
चम्पा आदि अनेक नगरों का भ्रमण करके बहुत से लोगों फैला।
का अपना अनुयायी बनाया । बहत्तर वर्ष की आयु में नेमिनाथ के बाद जैनों के तेईसवें तीर्थङ्कर पार्श्व
राजगृह के निकट पावापुरी में उनका निर्वाण हुमा । नाय हए। पार्श्वनाथ के समय तक जैनधर्म काशी तक।
उनके निर्वाण की तिथि प्रायः ५२७ ई.पू. मानी फैल चुका था। पार्श्वनाथ काशी के राजा अश्वसेन और
जाती है। उनकी पत्नी वामा के पुत्र थे। उनका जन्म लगभग ८७७ ई.पू. में हुप्रा । तीस वर्ष तक उन्होंने ऐश्वर्य
इन महान तीर्थंकरों ने जिस धर्म की स्थापना की पूर्ण गृहस्थ जीवन बिताया। तदनन्तर उन्होने सारे उसके सिद्धान्त भी संक्षेप में बता देने आवश्यक हैं। ऐश्वर्य का त्याग करके तपस्या और समाधि का जीवन
जैनधर्म के अनुसार संसार का कोई कर्ता-हर्ता नहीं है। ग्रहण किया। ८४ दिनों की समाधि के बाद उन्हें सम्यक्
संसार अनादि अनन्त है। प्रत्येक प्रारमा भी अनादि और ज्ञाना प्राप्त हुना और उसके बाद उन्होंने सत्तर वर्ष अनन्त है। कर्म ही जन्म का कारण है प्रतः कर्म से तक सन्मार्ग का उपदेश दिया। १०० वर्ष की अवस्था छुटकारा पाने से ही मोक्ष प्राप्त हो सकता है। कर्म से में उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया। पार्श्वनाथ ने अहिंसा.
छुटकारा पाने के लिए तीन बातें आवश्यक हैं जिन्हें सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह इन चार नियमों के पालन
रत्न त्रय कहते हैं । ये रत्न त्रय सम्यक दर्शन, सम्यक पर बल दिया।
ज्ञान और सम्यक् चारित्र हैं। तीर्थङ्करों और उनके पार्श्वनाथ के अनन्तर जैनों के अन्तिम और सर्व
बताये हुए मार्ग में पूरी श्रद्धा को सम्यक् दर्शन कहते
हैं। तीर्थकरों के उपदेशों द्वारा प्राप्त प्रात्मज्ञान को महान तीर्थ कर महावीर स्वामी हुए । इनके समय तक
सम्यक् ज्ञान कहते हैं । अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह जैनधर्म वैशाली और उससे भी आगे तक बढ़ गया था।
और ब्रह्मचर्य नामक पांच ब्रतों के पालन को सम्यक महावीर का जन्म का नाम वर्धमान था और वे वैशाली
चारित्र कहते हैं । जैन धर्म सर्वाधिक बल प्रात्म शुद्धि के निकट कुण्डग्राम के ज्ञातृक नामक क्षत्रिय कुल के
पर देते हैं। मुखिया सिद्धार्थ और उनकी पत्नी त्रिशला के पुत्र थे। उनका जन्म ५६४ ई.पू. में हप्रा । वर्धमान भी अपने जैन धर्म में सात तत्त्व बताये गये हैं जिनके जाने पूर्वगामी तीर्थङ्कर की भांति तीस वर्ष की आयु में बिना मनुष्य सम्यक् ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकता । घरबार छोड़ कर सत्य की खोज में निकले । बारह वर्ष पहना तत्त्व जीव है । प्रत्येक प्रात्मधारी जीव कहलाता तक समाधि और तप में लीन रहने के बाद बयालीस है । दूसरा तत्त्व अजीव हैं जिसके पांच भेद हैं-पुद्गल, वर्ष की अवस्था में उन्हें कैवल्य अर्थात् सर्वोच्च ज्ञान धर्म, अधर्म, आकाश और काल । स्पर्श, वर्ण, रस और
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
गन्ध से युक्त मूर्त द्रव्य को पुद्गल कहते हैं जो प्रारूप प्राना प्रास्रव कहलाता है । चौथा तत्त्व बन्ध है। कर्म भी होता है और स्कन्ध अर्थात् अणुनों का समूह भी का पात्मा से संलग्न होना बन्ध कहलाता है। पांचवा हो सकता है । शेष चारों द्रव्य प्रमूर्त और सर्वव्यापी हैं तत्त्व संवर है । कर्म से विरत होना संवर कहलाता है। दिक कालाणु प्रदेश प्रचयालक नहीं है । लोका काश के छठा तत्त्व निर्जरा है। पहले से बंधे हु प्रत्येक प्रदेश पर एक एक काला स्थित है। धर्म जीव को तपयोग आदि से नष्ट करना निर्जरा कहलाता है। और पुद्गल को गतिमान बनाता है । अधर्म जीव और सातवां तत्त्व मोक्ष है । कर्म के सर्वथा नाश होने पर पुद्गल को स्थिर अथवा गतिहीन करता है। प्राकाश जब जीव जन्म मृत्यु से रहित होकर अपने शुद्ध स्वरूप गतिहीन करता है। प्राकाश सब पदार्थों को अवकाश को प्राप्त कर लेता है उस दशा को मोक्ष कहते हैं। देता है । काल सब पदार्थों को परिवर्तित करता रहता ऊपर जो कुछ लिखा गया है उससे स्पष्ट है कि है ये चारों ही द्रव्य अपने अपने कार्य को उदासीन जैन धर्म समय की दृष्टि से अत्यन्त प्राचीन और सिद्धान्तों होकर करते है प्रेरक बनकर नहीं। तीसरा तत्त्व की दृष्टि से अत्यन्त उत्कृष्ट है । इसका प्रादुर्भाव ऐतिहासिक प्रास्रव है। रागद्वेष आदि के कारण मन, वचन दृष्टि से कम से कम ग्यारहवीं शताब्दी ई.पू. में हो चुका
और शरीर से जो क्रियाएं होती हैं उनके कारण था। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि यह धर्म वैदिक धर्म कर्म परमाणुओं का प्रात्मा के पास खिच कर के बाद भारत का सबसे प्राचीन धर्म है ।
वास्कोडिगामा द्वारा किये गये उल्लेखों से यह बात पूर्ण रूप से विदित हो जाती है कि, मालावार प्रान्त के समुद्री किनारे पर उस समय जो बस्ती थी वह न कभी हिंसा करती थी, इतना ही नहीं किन्तु समुद्र के किनारे पर रहने पर भी मांस मच्छी आदि के आहार को निषिद्ध ही मानती थी। इस वस्तु स्थिति से अनुमान होता है कि वह प्रजा जैनधर्मी ही होनी चाहिए, जिसका प्रभाव तमाम प्रजा पर पूर्ण रूप से पड़ा था। इसके उपरांत जैनधर्म के सम्बन्ध में इष्ट इण्डिया कम्पनी के समय के अनेक उल्लेख मि० कोल ब्रक की डायरी में पाये जाते हैं।
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
संदेश काव्य परंपरा में जैन कवियों का योगदान
संदेश काव्यों को परम्परा में एक दृष्टिकोण से जैन आचार्यों को निःसंदेह सर्वथा प्रयोगवादी कवि कहा जा सकता है, शृंगार रस की परम्परा में धार्मिक तत्वों का समावेश कर इन महान कवियों ने अपनी प्रतिभा से एक नवीन दिशा का निर्देशन किया है । इनके द्वारा लिखे गए संदेश काव्यों में जिनसेन का 'पाश्वभ्युदय' अत्यन्त महत्वपूर्ण है । सम्पूर्ण काव्य चार सर्गो में विभक्त है तथा 'मेघदूत' के छन्दों के चरणों की समस्यापूर्ति बड़े कौशल से की गई है । कमठ तथा मरुभूति को कर्मानुसार अनेक योनियों में जन्म लेने की कथा वरिणत की गई है । अन्त में मरुभूति (श्री पार्श्वनाथ तीर्थंकर का पूर्व भव का जीव ) की सहिष्णुता कमठ के सारे पाप धुल जाते हैं ।
संदेश काव्यों की अखंड परंपरा का प्रारंभ संस्कृत साहित्य के महाकवि कालिदास द्वारा निर्मित प्रसिद्ध कृति मेघदूत से ही माना जा सकता । यद्यपि इसके पूर्व ऋग्वेद में सरमा के, वाल्मिकी रामायण में हनुमान के महाभारत में कृष्ण के, श्री मद्भागवत में उद्धव के दूत कर्म का उल्लेख हुआ है, परन्तु महाकवि कालिदास ने अपनी तीव्र एवं गंभीर भावानुभूतियों द्वारा मानव मन को गंभीर विरहानुभूति का मार्मिक चित्रण जिस ग्रात्मीय तल्लीनता के साथ अंकित किया है, वैसा अन्यत्र नहीं मिलता, कालिदास का 'मेघदूत' आने वाली कई शताब्दियों तक कवियों का प्रेरणा स्रोत रहा | 'मेघदूत' के माधुर्यं एवं लालित्य ने केवल जैनेतर कवियों को हो दूत काव्यों के रूप में मधुर भाव की विरहासक्ति व्यक्त करने को प्रेरित नहीं किया, प्रत्युत कुछ जैन कवियों ने भी धार्मिक रचनाओं में उसकी शैली का अनुकरण किया 19
१. डॉ० ब्रजेश्वर बर्माः हिन्दी साहित्य कोष, भाग १, पृ० सं० ७६१
•
प्रो. शांतिकुमार पारख एम. ए., साहित्यालंकार
संदेश काव्यों की परंपरा में एक दृष्टिकोण से जैन आचार्यों को निस्संदेह सर्वथा प्रयोग वादी कवि कहा जा सकता है । शृंगार रस की परपरा में धार्मिक तत्वों का समावेश कर इन महाकवियों ने अपनी प्रतिभा से एक नवीन दिशा का निर्देशन किया है । इनके द्वारा लिखे गये संदेश काव्यों में जिनसेन का 'पाव भ्युदय' प्रत्यंत महत्वपूर्ण है । संपूर्ण काव्य चार सर्गों में विभक्त है तथा 'मेघदूत' के छंदों के चरणों की समस्यापूर्ति बड़े कौशल से की गई है । कमठ तथा मरुभूति को कर्मानुसार अनेक योनियों में जन्म लेने की कथा वरित की गई है । अंत में मरुभूति (श्री पार्श्वनाथ तीर्थकर का पूर्वभव का जीव ) की सहिष्णुता से कमठ के सारे पाप घुल जाते हैं । इस प्रकार श्री पार्श्वनाथ को पूर्व महिमा के द्वारा काव्य में भक्ति तत्व का समावेश किया गया है। समस्या पूर्ति की दृष्टि से काव्य को सफलता संदिग्ध है, परन्तु विभिन्न जन्मों को
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
कथा होने से काव्य की स्वाभाविकता को बड़ी ठेस प्रयत्न है । राजमती का विरह वर्णन वास्तव में बड़ा पहँची है। स्थल-स्थल पर दुरूहता के कारण नीरसता मार्मिक है। उसके विरहपर्ण उदगारों में एक पोर का समावेश हो गया है । प्रस्तुत काव्य की वर्णन योजना। जीवन के प्रति नैराश्यपूर्ण भावना है तो दूसरी पोर बड़ी भव्य है । प्राकृतिक दृश्यों एवं अनेक भावपूर्ण उसके सर्वोत्कृष्ट स्वरूप को भी प्रदर्शित किया गया है। स्थलों पर कवि की प्रतिभा निखर उठी है। कई स्थानों उसका चरित्र वास्तव में एक आदर्श है । कवि द्वारा पर संश्लिष्ट वर्णन भी मिलता है। ऋतुनों के अनुसार अंकित यह चित्रण बड़ा मनोवैज्ञानिक एवं अनुभूति विभिन्न दृश्यों का बड़ा ही मनोहारी चित्र कवि ने पूर्ण है। इसमें जीवन की मार्मिक वेदना स्पष्ट हुई है । अंकित किया है। भाषा की दृष्टि से बड़ी प्रौढ कृति वैवाहिक जीवन की इस विडम्बना युक्त बेला में उसके है। जैन साहित्य में धार्मिक, साहित्यिक एवं दार्शनिक जीवन की समस्त प्राशा-आकांक्षानों पर पानी फिर गया दृष्टि से इसका स्थान बड़ा महत्वपूर्ण है।
है। बिना किसी दोष के असमय में ही त्यागी गई
राजमती के जीवन की ये घडियां किस प्रकार व्यतीत चौदहवी एवं पंद्रहवी शताब्दी में जैन धर्म के
हुई होंगी, जबकि प्रिय वियोग में केवल प्राण व सौन्दर्य २२वें तीर्थकर श्री नेमिनाथ के जीवन की कथा से संबंद्ध
ही शेष रहे होंगे १ तथा एक-एक घड़ी की प्रतीति बीते दो अन्य कृतियां क्रमशः विक्रम कवि की 'नेमिदूत' तया
हुए अनेक युगो की भांति हुई होगी। २ इस प्रकार के मेरुतुग की 'जैन मेघदूत' उपलब्ध होती है । इन काव्यों
वर्णनों में कितनी सुन्दर व्यंजना है ? जहाँ कहीं ऐसे में भगवान नैमिनाथ के जीवन की महत्वपूर्ण घटना
प्रसंग पाये हैं, वहां हृदय द्रवी भूत हुए बिना नही संसार त्याग व राजमती का संदेश वर्णित है तथा अंत
रहता । काव्य का प्रारंभ विरह वर्णन से हुआ है तथा में राजमती को प्रात्मानंद की प्राप्ति होती है । इस
अंत भी । संपूर्ण काव्य में शृगार रस का साम्राज्य हैं; संक्षिप्त कथानक का इन काव्यों में बड़ा ही सजीव एवं
परन्तु अंतिम श्लोकों में शांत रस की सृष्टि हुई है। मार्मिक वर्णन है। राजमती मेघ को दूत बनाकर अपने
दोनों कृतियों में प्रलंकार योजना बड़ी सुन्दर है। यथा-' प्रिय के पास संदेश भेजती है । अतः काव्य का शीर्षक
मुक्ताहारा सजलनयना त्वद्वियोगार्तदीना। बिल्कुल उपयुक्त है । कया में कहीं विशृखलता दृष्टि गोचर नहीं होती। भाषा-शैली, विचार तारतम्य एवं
कार्ययेन त्यजति विधिना सत्वयैवोपपाद्यः ॥ रस की दृष्टि से दोनों कृतियाँ अत्यंत समृद्ध है। दोनों
अथवा कृतियों में एक महत्वपूर्ण अंतर यह है कि 'नेमिद्रत' में उद्यन्मोह प्रसवएजसा चाम्बरं पूरयन्तोऽगिरनार से द्वारिका के बीच प्राने वाले विविध प्राकृतिक भीकाभीष्टा मलयमरुतः कामवाहाः प्रसनु ॥ दृश्यों का सुंदर चित्रांकन है, वह 'जैन मेघदूत' में नहीं
प्रथम उदाहरण 'नेमिदूत' तथा द्वितीय "जैन मिलता । 'नेमिदूत' में यत्र-तत्र समुद्रों, नदियों, नगरों, मेघदूत' का हैं, जिन में क्रमश. काव्यलिंग एवं उत्प्रेक्षा यामों एवं वक्षों आदि का बड़ा स्वाभाविक वर्णन हुमा की छटा दर्शनीय है। अलंकारों की भरमार के कारण है। इस प्रकार के भौगोलिक ज्ञान का 'जैन मेघदूत' में कल्पना कहीं-कहीं अवश्य क्लिष्ट हो गई है। काव्य में प्रभाव रहा है। दोनों ही कृतियों का सर्वाधिक मामिक प्रारंभ से अंत तक स्वाभाविक प्रवाह है। कहीं भी प्रसंग राजमती का विरह वर्णन है । 'मेघदूत' में जहां कृत्रिमता दृष्टि गोचर नहीं होती। नायक अपनी प्रेयसी के वियोग में व्ययित है, वहाँ पंद्रहवीं शताब्दी की एक अन्य रचना चारित्र सुन्दर प्रस्तत काव्यों में विरक्त नायक को अनुरक्त करने का गणि की 'शीलदूत' है, जिसमें राजकुमार स्यूल भद्र का
१. विक्रम कविः नेमिदूत, श्लोक ११६ २. विक्रम कविः नेमिदूत, श्लोक ६७, १०८
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
६३
गृह त्याग कर श्री भद्रबाहु स्वामी द्वारा दीक्षित होना तथा प्र ने शील के प्रभाव से रानी कोशा को भी जैन धर्म में दीक्षित करने को कथा वर्णित है । काव्य का शीर्षक उपयुक्त एवं वर्णन योजना भव्य है । श्लोक ६० में राजधानी का बड़ा विस्तृत वर्णन है । विरह वन में अनुभूति की तीव्र व्याकुलता है। भाषा पर कवि का पूर्ण अधिकार है। अलंकारों में कवि को उत्प्रेक्षा अधिक प्रिय रहा है। गंगा की उठती हुई तरंगों को लेकर कवि ने सुन्दर उत्प्रेक्षाएँ की है । 3 काव्य में स्थल २ पर कवि को मौलिक प्रतिभा व कल्पना शक्ति का परिचय मिलता है ।
वादिचंद्र सूरि द्वारा निर्मित 'पवन दूत' (१७वीं शताब्दी) में उज्जयिनी के राजा विजय नरेश तथा उनकी रानी तारा का विरह वरित है। कथा का कोई निश्चित आधार नहीं है, वह कल्पनिक है । तारा की चरित्रगत विशेषताओं का अच्छा विश्लेषरण हुआ है । मार्ग वर्णन का प्रभाव है । भाषा बडी सरस तथा प्रसाद गुरण युक्त है | साहित्यिक, धार्मिक तथा सामाजिक दृष्टि से यह पर्याप्त सफल संदेश काव्य है ।
साहित्य में पशु-पक्षी, पवन, मेघ, चंद्रमा आदि द्वारा समय-समय पर कवियों ने संदेश भिजवाये हैं; शील व चित्त जैसे भावों को दूत बनाकर किसी परन्तु ने नहीं भेजा। यद्यपि 'चेतोदूत' का कवि अज्ञात है तथापि भावों एवं विषयों की नवीनता की दृष्टि से इस काव्य को मौलिकता को अस्वीकार नहीं कियाजा सकता । प्रस्तुत काव्य में एक शिष्य का गुरु के चरणों में चित्त रूपी दूत के माध्यम से संदेश प्रेषित किया गया है। प्रतः काव्य के उपयुक्त एवं सुन्दर शीर्षक के संबंध में आशंका को कोई गुंजाइश नहीं है । काव्य में यत्र-तत्र जैन धर्म के सिद्धान्तों का उल्लेख है तथा श्रृंगार की प्रपेक्षा सर्वत्र भक्ति व शांति का साम्राज्य है।
१८वीं शताब्दी में श्री विनयविजय गरिण द्वारा निर्मित 'इन्दुदूत' संदेश काव्य में चातुमास के अंत में स्वयं कवि ने अपने गुरु श्री विजय प्रभु सूरीश्वर को ३. पारिव सुन्दर गरिणः शीलदूत, श्लोक ४४
चंद्रमा द्वारा सांवत्सरिक क्ष्मापरण संदेश प्रेषित किया है । जोधपुर मे सूरत तक बीच में आने वाले पर्वतों जैन मंदिरों, दुर्गों, नदियों तथा नगरों विशेषतया सूरत नगर के वैभव का बड़ा सुन्दर वर्णन है। जैन मंदिरों का वर्णन करते हुए कवि कहता है
चित्रे-श्विक इह न जनो वीक्ष्य चित्रीयते
काव्य में संदेश तो थोड़ा है पर उसके माध्यम से धर्म सिद्धान्तों का उल्लेख किया गया है। भाषा प्रसाद गुणयुक्त, शैली सरस, रस शांत तथा वर्णन प्रभावक है ।
संस्कृत जैन कवियों का अंतिम संदेश काव्य 'मेघदूत समस्या लेख' (१८वीं शताब्दी) में कवि मेघ विजय ने देवपतन में स्थित अपने गुरु श्री विजय प्रभु सूरि के पास मेघ द्वारा कुशल वार्ता का संदेश प्रेषित किया है । काव्य में वर्णन योजना शानदार है। प्रौरङ्गाबाद को समृद्धि का वर्णन कवि ने कितने सुन्दर ढंग से किया है। यथा
अस्यां मुक्तामरकत पवि श्री प्रसुनेन्दु रत्नपूगान दृष्ट्वातरणिशशिनोः श्रांत कार्तस्वरूपान् ।। पण्य श्रेणी विपरिगणितान् विद्र मच्छेदराशीत् संलक्ष्यन्ते सलिल निद्ययस्तोय मात्रावशेषाः ||३४||
इसके अतिरिक्त शांतिनाथ मंदिर, एलोर पर्वत, देवगिरी की शोभा, नर्मदा नदी एवं जैनतीर्थों का वर्णन भी अच्छा बन पड़ा है। भाव, भाषा, विषय एवं उद्देश्य की दृष्टि से यह एक सफल काव्य है । कवि का नाम मेघ विजय काव्य का नाम मेघदूत समस्या लेख, समस्या भी मेघदूत की तथा दूत भी मेघ ही है। संदेश काव्यों में इसका बड़ा विशिष्ट स्थान है ।
जैन कवियों के उपर्युक्त संदेश काव्यों पर यदि हम सूक्ष्म दृष्टि से विचार करें तो निम्न लिखित विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती है
१. समस्त जैन संदेश काव्यों में सात्म चिन्तन की प्रधानता रही है।
२. श्रृंगार के साथ-साथ शांत रस की सृष्टि हुई है ।
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
३. लौकिक होते हुए भी इनमें प्रलौकिक तत्व की १०. विश्व प्रेम की भावना के विकास में इनका योगदान प्रधानता है ।
बड़ा महत्वपूर्ण हैं। ४. भौगोलिक ज्ञान की दृष्टि से ये काव्य महत्वपूर्ण है। ११. साहित्यिक, धार्मिक, नैतिक, एवं दार्शनिक, दृष्टि
से उपयोगिता असंदिग्ध है। ५. 'शील' एवं 'चित्त' जैसे भावों को दूत बनाया गया है, जो कि एक सर्वथा नवीन प्रयोग है।
इस प्रकार जैन संदेश काव्यों की कुछ निजी विशेष६. 'मेघदूत' के मूल भावों को पूर्ण रक्षा हुई है, तथा
ताएँ हैं, जो अन्य संदेश काव्यों में शायद ही उपलब्ध साथ ही कवियों की मौलिक प्रतिभा भी दर्शनीय है।
हो सके, इसका कारण यह है कि जैन धर्म त्यागपूर्ण हा
जीवन में अधिक विश्वास करता है । मानव जीवन में ७. नायक-नायिकाओं के चरित्र में मानवीय गुणों का
अहिंसा, त्याग तपस्या, सात्विकता तथा सहिष्णुता आदि समावेश हुग्रा है।
गुणों का होना अनिवार्य है। अपने काव्यों में जैन ६. इन काव्यों में जैन धर्म का उल्लेख प्रसंग वश हुमा
प्राचार्यों ने इन्हीं गुणों के महत्व को प्रतिपादित कर है; परन्तु कहीं भी सांप्रदायिकता की भावना
__ संपर्ण मानव जाति के लिये एक प्रेरणा दायक शुभ नहीं मिलती।
संदेश प्रेषित किया है जिसके अनुकरण में ही संपूर्ण है. समस्त काव्यों में महान चरित्रों की सृष्टि हई है। मानव समाज का कल्याण निहित है।
मनुष्य की उन्नति के लिए जैन धर्म का चरित्र बहुत ही लाभकारी है। यह धर्म बहुत ही ठीक, स्वतन्त्र, सादा तथा मूल्यवान है। ब्राह्मणों के प्रचलित धर्मों से वह एकदम भिन्न है। साथ ही साथ बौद्ध धर्म की तरह नास्तिक भी नहीं है।
-मेगास्थनीज, ग्रीक इतिहासकार
साफ प्रगट है कि भारतवर्ष का अधःपतन जैनधर्म के अहिंसा सिद्धान्त के कारण नहीं हुआ था, बल्कि जब तक भारतवर्ष में जैनधर्म की प्रधानता रही थी, तब तक उसका इतिहास स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने योग्य है और भारतवर्ष के ह्रास का मुख्य कारण आपसी प्रतिस्पर्धामय अनैक्यता है जिसकी नींव शंकराचार्य के जमाने से दी गई थी।
-मि० रेवरेन्ड जे० स्टीवेन्सन सा० (जैनमित्र वर्ष २४ अङ्क ४० से )
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
महावीर और गोशालक
• मुनिश्री नगराजजी
अणुव्रत परामर्शक
इतिहास और शोध के क्षेत्र में तटस्थता पाए, यह पृष्ठभूमि में यह भी माना है-"महावीर पहले तो - नितान्त अपेक्षित है। साम्प्रदायिक व्यामोह इस पार्श्वनाथ के पंथ में थे, किन्तु एक वर्ष बाद जब वे क्षेत्र से दूर रहे, यह भी अनिवार्य अपेक्षा है । पर अचेलक हुए, तब पाजीवक पंथ में चले गए २।" इसके तटस्थता और नवीन स्थापना भी भयावह हो जाती है; साथ-साय डा० बरुया ने इस प्राधार को ही अपने पक्ष जब वे एक व्यामोह का रूप ले लेती हैं। गोशालक के में गिनाया है कि गोशालक भगवान महावीर से दो वर्ष सम्बन्ध में विगत वर्षों में गवेषणात्मक प्रवृत्ति बढ़ी है। पूर्व जिनपद प्राप्त कर चुके थे 3 । यद्यपि डा० बरुया ने प्राजीवक मत और गोशालक पर पश्चिम और पूर्व के यह स्वीकार किया है कि-"ये सब कल्पना के ही विद्वानों ने बहुत कुछ नया भी ढूढ निकाला है। पर महान प्रयोग ४ हैं।" तो भी उनकी उन कल्पनाओं ने ग्वेद का विषय यह है कि नवीन स्थापना के व्यामोह में किसी-किसी को अवश्य प्रभावित किया है और तदनुसार कुछ एक विद्वान गोशालक सम्बन्धी इतिहास मूल से ही उल्लेख भी किया जाने लगा है और श्री गोपालदास अोंधे पैर खड़ा कर देना चाह रहे हैं । डा. वेणी माधव जीवाभाई द्वारा अनुदित सूत्रकृतांग (गुजराती) के उपोबरुपा कहते हैं-"यह तो कहा ही जा सकता है, कि द्घात (पृ. ३४) में वह उल्लेख द्विगुणितरूप से मिलता जैन और बौद्ध परम्परामों से मिलनेवाली जानकारी से है। वे लिखते हैं-महावीर और गोशालक ६ वर्ष यह प्रमाणित नहीं हो सकता कि जिस प्रकार जैन तक एक साथ रहे थे । अतः जैन सूत्रों में गोशालक के गोशालक को महावीर के दो ढोंगी शिष्यों में से एक विषय में विशेष परिचय मिलना ही चाहिए। भगवती, ढोंगी शिष्य बताते हैं, वैसा वह था। प्रत्युत उन सूत्रकृतांग, उपासकदशांग प्रादि सूत्रों में गोशालक के सूचनामों से विपरीत ही प्रमाणित होता है, अर्थात् मैं विषय में विस्तृत या संक्षिप्त कुछ उल्लेख मिलते भी कहना चाहता हूं कि इस विवादग्रस्त प्रश्न पर इतिहास- हैं। किन्तु उन सब में गोशालक को चारित्र-भ्रष्ट तथा कार प्रयत्नशील होते हैं तो उन्हें कहना ही होगा कि- महावीर का एक शिष्य ठहराने का इतना अधिक प्रयत्न उन दोनों में एक दूसरे का कोई ऋणी है तो वास्तव में किया गया लगता है, कि सामान्यतया ही उन उल्लेखों गुरु ही ऋणी है, न कि जैनों द्वारा माना गया उनका को आधारभूत मानने का मन नहीं ढोंगी शिष्य।" डा० बरुमा ने अपनी धारणा की गोशालक के सिद्धान्त को यथार्थ रूप से रखने का
1. The Ajivkas J. D. L. Vol. [I 1920 pp. 17-18 २. वही, पृ० १८ ३. वही, पृ० १८ ४. वही, पृ० २१
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
६६
यथाशक्य प्रयत्न डा. वैरणी माधव बसपा ने अपने विदेशी विद्वानों व उनके ग्रन्थों के प्रमाण दिये जाते हैं। अन्य' में किया है।
जैन प्रागमों के एतद् विषयक वर्णनों को केवल प्राक्षेधर्मानन्द कौशाम्बी प्रभृति लोगों ने भी इसी प्रकार
पात्मक समझ बैठना भूल है। जैन आगम जहां का आशय व्यक्त किया है । यह सुविदित है कि गोशालक
गोशालक व प्राजीवक मत की निम्नता व्यक्त करते हैं, सम्बन्धी जो भी तथ्य उपलब्ध हैं, वे जैन और बौद्ध
वहां वे गोशालक को अच्युतकल्प तक पहुंचा कर और परम्परा से ही सम्बद्ध हैं। उन आधारों पर ही हम
उनके अनुयायी भिक्षुषों को वहां तक पहुंचने की क्षमता गोशालक का समग्र जीवन-वृत्त निर्धारित करते हैं। जैन
प्रदान कर उन्हें गौरव भी तो देते हैं । गोशालक के और बौद्ध परम्परानों से हट कर यदि हम खोजने बैठे
विषय में वह गोशाला में जन्मा था, वह मंख था, वह तो सम्भवतः हमें गोशालक नामक कोई व्यक्ति ही न
पाजीवकों का नायक था प्रादि बातों को तो हम जैन
प्रागमों के आधार से माने और जैनागम की इस बात मिले । ऐसी स्थिति में एतद् विषयक जैन और बौद्ध
को कि वह महावीर शिष्य था,निराधार ही हम यों कहें आधारों को, भले ही वे किसी भाव और भाषा में लिखे
कि वह महावीर का गुरु था, बहुत ही हास्यास्पद होगा। गये हों, हमें मान्यता देनी ही होती है। कुछ प्राधारों को हम सही मानलें और बिना किसी हेतु के ही कुछ
यह तो प्रश्न ही तब पैदा होता, जब जैन प्रागम उसे
शिष्य बतलाते और बौद्ध व पाजीवक शास्त्र उसके गुरु एक को हम असत्य मानलें, यह ऐतिहासिक पद्धति नहीं हो सकती । वे प्राधार निर्हेतुक इसलिए भी नहीं माने
होने का उल्लेख करते । प्रत्युत स्थिति तो यह है कि जा सकते कि जैन और बौद्ध दो विभिन्न परम्परागों के
महावीर के सम्मुख गोशालक स्वयं स्वीकार करते हैं कि उल्लेख इस विषय में एक दूसरे का समर्थन करते हैं।
गोशालक तुम्हारा शिष्य था, पर मैं वह नहीं हूं। मैंने डा० जेकोबी ने भी तो परामर्श दिया है-"अन्य
तो उस मृत गोशालक के शरीर में प्रवेश पाया है। यह प्रमाणों के प्रभाव में हमें इन कथाओं के प्रति सजगता
शरीर उस गोशालक का है, पर प्रात्मा भिन्न है। इस
प्रकार विरोधी प्रमाण के अभाव में ये 'कल्पनात्मक रखनी चाहिए ।
प्रयोग' नितान्त अर्थ शून्य ही ठहरते । यह प्रसन्नता हैं तथारूप निराधार स्थापनाएं बहुत बार इसलिए भी
की बात है कि इस निराधार धारणा के उठते ही अनेकों प्रागे से आगे बढ़ती जाती हैं कि वर्तमान गवेषक मूल गवेषक विद्वान इसका निराकरण भी करने लगे हैं। की अपेक्षा टहनियों का प्राधार अधिक लेते हैं। प्राकृत आजीवक भिधों के प्रब्रह्म-सेवन का उल्लेख व पाली की अनन्यास दशा में वे आगमों और त्रिपिटकों प्रार्दकुमार प्रकरण में पाया है, इसे भी कुछ एक लोग का सर्वागीण अवलोकन नहीं कर पाते और अंग्रेजी निता प्राप मानते हैं ५। केवल
नितान्त आक्षेप मानते हैं ५ । केवल जैन आगम ही व हिन्दी प्रबन्धों के एकांगी पूरावे उनके सर्वाधिक ऐसा कहते तो यह सोचने का प्राधार बनता, पर बौद्ध आधार बन जाते हैं। यह देख कर तो बहुत ही आश्चर्य शास्त्र भी आजीवकों के प्रब्रह्म-सेवन की मुक्त पुष्टि होता है कि सामान्य शास्त्र-सुलभ तथ्यों के लिए भी करते हैं ६ । निग्गण्ठ ब्रह्मचर्यवास में और प्राजीवक
१. प्री बुद्धिस्टिक इन्डियन फिलोसोफी, पृ० २८७-३१८ २. महावीर स्वामी नौ संयम धर्म, पृ० ३४ 3. S. B. F. Vol. XLV, Introduction, P. XXXIII ४. देखें-डा० कामताप्रसाद द्वारा लिखित लेख, वीर, वर्ष ३ अंक १२-१३; चीमनलाल जयचन्द शाह
एम० ए० द्वारा लिखित प्रबन्ध-उत्तर भारत मां जैन धर्म, पृ० ५८ से ६१ ५. महावीर तो संयम धर्म, पृ० ३४ 6. Ajivkas Vol. I; मज्झिम निकाय, भाग १, पृ० ५१४ Encylopaedia of Religion and
Ethics, Hoernle, P. 261
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
ब्रह्मचर्यवास में गिनाए भी गए | गोशालक कहते थे, तीन प्रवस्थाएं होती है-बद्ध, मुक्त, और नबद्ध नमुक्त । वे स्वयं को मुक्त कर्मलेप से परे मानते थे । उनका कहना था - मुक्त पुरुष स्त्री सहवास करे तो भी उसे भय नहीं । ये सारे प्रसंग भले ही उनके आलोचक सम्प्रदायों के हों, पर आजीवकों को प्रब्रह्म विषयक मान्यता को एक गवेषणीय विषय प्रवश्य बना देते हैं । एक दूसरे के पोषक होकर ये प्रसंग अपने प्राप में निराधार नहीं रह जाते । इतिहासविद् डा० सत्यकेतु डी० लिट् ने गोशालक के भगवान महावीर से होने वाले तीन मतभेदों में एक स्त्री सहवास बताया है 3 कुल मिलाकर कहा जा सकता है, जैन आगमों का
1
६७
प्राजीवकों को प्रब्रह्म के पोषक बतलाना श्राक्षेप मात्र ही नहीं है । कोई सम्प्रदाय विशेष ब्रह्मचर्य को सिद्धान्त रूप से मान्यता न दे, यह भी कोई अनहोनी बात नहीं है । भारतवर्ष में अनेकों सम्प्रदाय रहे हैं, जिनके सिद्धान्त त्याग और भोग के सभी सम्भव विकल्पों को मानते चले हैं । हम अब्रह्म की मान्यता पर ही प्राश्चर्यान्वित क्यों होते हैं, उन्हीं धर्म नायकों में प्रजित केशकम्बल जैसे भी थे जो आत्म अस्तित्व भी स्वीकार नहीं करते थे। यह भी एक प्रश्न ही है कि ऐसे लोग तपस्यायें क्यों करते थे । अस्तु नवीन स्थापनाओं के प्रचलन में और प्रचलित स्थापनाओं के निकाररण में बहुत ही जागरूकता और गंभीरता अपेक्षित है ।
निम्न महाशय ने जैतपुर विराजमान लीबडी सम्प्रदाय के महाराज श्रीलवजी स्वामी से भेंट की । आपने महाराज श्री के साथ जैन रिलीजन सम्बन्धी चर्चा पौन घण्टे तक की आखिर में आपने जैन मुनियों के पारमार्थिक जीवन और त्याग धर्म की योग्य प्रशंसा की और पीछे से पत्र द्वारा अपना सन्तोष जाहिर किया । इसमें बहुत तारीफ करने के साथ समयाभाव से अधूरा विषय छोड़ना पड़ा, इसका अफसोस जाहिर किया ।
- मि० एच. डब्लयू वर्धन सं० एजेंट जैन वर्तमान १४ जून १९३३ ई० से
१. चुल्ल वग्ग, स्यन्दक सुत्त ६-२
२. महावीर कथा, पृ० ११७; तीर्थंकर वर्धमान पृ० ८३ ।
३. भारतीय संस्कृति और उसका इतिहास, पृ०१६३
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
महयंदिर
• डा० वासुदेव सिंह
एम. ए., पी-एच. डी. हिन्दी विभाग काशी विद्यापीठ-विश्व विद्यालय वाराणसी
मुनि
महापंदिण नामक मुनि का एक ग्रंथ-'दोहा पाहुड श्रीकुन्दकुन्दाचार्यान्वये । भट्टारक श्री पद्मनन्दी देवातत्य?
(बारहखड़ी)' प्राप्त हुआ है । इसको एक हस्तलि- भट्टारक श्री सुभचन्द्र देवा तत्प? भट्टारक श्री जिनचन्द्र खित प्रति श्री कस्तूरचन्द कासलीवाल को जयपुर के 'बड़े देवा तत्पट्ट भट्टारक श्री प्रभाचन्द्र देवा तत् शिष्य मंदिर के शास्त्र भाण्डार' से प्राप्त हुई थी, जिसकी मण्डलाचार्य श्री धर्मचन्द्र देवा । तदाम्नाये रेलवात्मान्वये सूचना उन्होंने 'अनेकान्त' (वर्ष १२, किरण ५) में दी ऽस्मस्तगोठिक सास्त्र कल्याण व्रतं निमित्ते अर्जिका थी । इसकी एक अन्य हस्तलिखित प्रति मुझे 'आमेर विनय श्री संजोग्यू दत्तं । ज्ञानवान्यादेन निर्मयो । शास्त्र भण्डार जयपुर' में देखने को मिली थी। कासली- अभइट्टानतः अंबदानात सुषीनित्यं निम्बाधी भेषजाद वाल जी की प्रति में ३३५ दोहे हैं । लिपिकाल पौष सुदी भवेत् ।।६।।' १२ बृहस्पतिवार सं० १५६१ है । उसकी प्रतिलिपि श्री छन्द संख्या और रचनाकाल चाहड सौगाणी ने कमें क्षय निमित्त की थी। मुझ प्राप्त कवि ने एक दोहे में ग्रंयका रचनाकाल ग्रोर छन्दों प्रति में दोहों की संख्या ३३५ ही है। इसका प्रारम्भ की संख्या इस प्रकार दिया है। एक श्लोक द्वारा जिनेश्वर की वंदना से हुआ है । श्लोक
'तेतीसह छह छंडिया विरचिन सत्रावीस । इस प्रकार है:
बारह गुणिया तिणिसय हमा,दोहा वउबीस ॥६॥ 'जयत्य शेषतत्वार्थ प्रकाशिप्रथितश्रियः ।
. अर्थात् १७२० में विरचित्र ३३६ ( तेतीस के साथ मोहध्वांतौधनिदि ज्ञान ज्योति जिनेशिन ॥१॥
छः छन्दों को यदि १२४३०) तिणिसय-विंशतः ३६० अन्त में लिखा है कि इस प्रति को सं० १६०२ में में छोड़ दिया जाय या निकाल दिया जाय तो २४ दोहे वैशाख सदि तिथि दसमी रविवार को उत्तर फाल्गुन शेष रह जाएंगे अथात् ३६० में जिस संख्या को निकाल नक्षत्र में राजाधिराज शाह आलम के राज्य में चंपावती देने से २४ संख्या शेष रह जाती है, कवि ने उतने ही नगरी के श्री पार्श्वनाथ चैत्यालय के भट्टारक श्री कुन्द- छन्दों में यह काव्य लिखा । यह संख्या ३३६ होती है । कन्दाचार्य के यह भट्टारक श्री पद्मनन्दी देव के पट्ट 'दोहा पाहड' की प्राप्त हस्तलिखित प्रतियों में छन्द भट्टारक श्री शुभचन्द्र देव के पट्ट भट्टारक श्री प्रभाचन्द्र
संख्या ३३५ ही है, जिनमें दो श्लोक और शेष दोहा के शिष्य मण्डलाचार्य श्री धर्मचन्द्र देव ने लिपिबद्ध
छन्द हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि लिपिकारों से एक किया।
दोहा छूट गया है। मामेर शास्त्र भाण्डार वाली प्रति में संवत १६०२ वर्षे वैसाख सुदि १० तिथौ रविवासरे तो एक श्लोक भी अधूरा है। 'नमोऽस्त्वनन्ताय जिनेश्वनक्षत्र उत्तर फाल्गुने नक्षत्रे राजाधिराज साहि पालमराजे। राय' के बाद छन्द ( संख्या ३ ) प्रारम्भ हो गया हैं। नगर-चम्पावती मध्ये ॥ श्री पार्श्वनाथ चैत्यालय ।। श्री ग्रंथ में एक स्थान पर दोहों की संख्या ३३४ दी भी गई मुलसिंधे नव्याम्नायेवताकार गणे सरस्वती गदे भद्रारक हैं। वह अंश इस प्रकार है।
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
'उतीस गल्ल तिरिण सय विरचिन दोहाबेल्लि' ॥५॥ है। ककहरा और अखरावट भी इसी प्रकार का एक इस प्रकार ३३४ दोहों में दो श्लोक मिला देने से कुल काव्य-रूप होता है। बावनी काव्य की रचना हिन्दी छन्द संख्या ३३६ हो जाती है ।
वर्णमाला के आधार पर होती है । हिन्दी में स्वर और कवि ने रचनाकाल १७२० दिया है। यह विक्रम व्यञ्जन मिलाकर ५२ अक्षर होते हैं । 'इन बावन अक्षरों सं० नहीं हो सकता, क्योंकि वि० सं० १५६१ और को नाद स्वरूप ब्रह्म की स्थिति का अंश मानकर इन्हे १६०२ को तो हस्तलिखित प्रतियां ही उपलब्ध हैं। पवित्र अक्षर के रूप में प्रत्येक छन्द के प्रारम्भ में प्रयुक्त अतएव यह वीर निर्वाण सम्वत् प्रतीत होता है। कवि किया जाता है । हिन्दी में इस प्रकार के लिखे गए बावनी ने वीर निर्वाण सं०१७२० अर्थात् विक्रम सम्बत् १२५० काव्यों की संख्या बहुत अधिक है। केवल अभय जैन में यह काव्य लिखा। काव्य की भाषा भी १३ वीं शती ग्रंथालय बीकानेर में ही लगभग २५-३० बावनी काव्यों की प्रतीत होती है। १८ वीं शताब्दी में इस प्रकार के की हस्तलिखित प्रतियां सुरक्षित हैं। अपभ्रश के प्रचलन का कोई प्रमाण नहीं मिलता। उस बारहखड़ी काव्य में प्रत्येक व्यञ्जन के सभी स्वर समय तो जैन कवि भी हिन्दी में वाक्य रचना कर रूपों के आधार पर एक-एक छन्द की रचना होती हैं। रहे थे ।
इस प्रकार एक ही व्यञ्जन के दस या ग्यारह रूप (जैसे कवि-परिचय
क, का, कि, की, कु, कू, के, के, को, को, कं आदि) ग्रंथ के अनेक दोहों में कर्ता के रूप में 'महयंदिण बन जाते हैं महयं दिरण मुनि ने इसी पद्धति का प्रयोग मनि' का नाम पाया है। लेकिन इनका कोई विशेष किया है। महयंदिरण मुनि के अतिरिक्त अन्य कवियों ने परिचय नहीं प्राप्त होता । उन्होंने इतना ही लिखा है भी इस काव्य-रूप को अपनाया। सं० १७६० में कवि कि सांसारिक दुःख के निवारण के लिए बीरचन्द के दत्त ने हिन्दी में एक 'बारहखड़ी' की रचना की थी। शिष्य ने दोहा छन्द में यह वाक्य लिखा।
लेकिन इसमें ७६ पद ही हैं। प्राचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने 'भव दुक्खह निन्विरणएण, वीरचन्दसिस्सेण ।
अपने इतिहास में किशोरी शरण लिखित 'बारहखड़ी' भवियह पडिबोहण कया दोहाकव्व मिसेण ॥४॥
का उल्लेख किया है (पृष्ठ-३४५)। इसका रचनाकाल
सं० १७६७ है । सं० १८५३ में चेतन नामक कवि ने इसके अतिरिक्त केवल इतना ही ज्ञात होता है कि
४३६ पदों 'अध्यात्म बारहखड़ी' की रचना की थी। वे विक्रम की १३ वीं शती में विद्यमान थे ।
और उसी समय की सूरत कवि द्वारा लिखित एक काव्य रूप, नामकरण तथा ग्रंथ का विषय
'जैन बारहखड़ी' भी मिलती है। काव्य का नाम 'दोहापाहड' है और वह 'बारहखडी' महयंदिण मुनि ने अंत में ग्रंथ के महत्व और पद्धति पर लिखा गया है। कवि ने 'बारह खड़ी या उसके पढ़ने का फल बताने के बाद कहा है कि 'दोहापाहड' 'बारह प्रक्खर' का उल्लेख दो दोहों में किया है । प्रारम्भ समाप्त । में जिनेश्वर की वंदना के बाद वह कहता है :- 'जो पढ़इ पढ़ावइ संभलइ, देविगुदविलिहावइ ।
_ 'बारह विउणा जिगणवमि, किय बारह अक्खरक्क महयंदु भणइ सो नित्तुलउ, अवखइ सोक्ख परावइ ॥३३॥ इसी प्रकार ३३३ ३ दोहे में लिखा है।
॥ इति दोहापाहुडं समाप्त ॥ 'किम बारक्खम कक्क, सलक्खण दोहाहिं।
इससे स्पष्ट है कि ग्रंथ का नाम 'दोहापाहडं' है मध्यकाल में अनेक काव्य-रूप जैसे शतक, बावनी, और 'बारहखड़ी' उसका काव्य-रूप है। तीसी, छत्तीसी, पचीसी, चौबीसी, अष्टोत्तरी प्रादि मुनि रामसिंह के दोहापाहड़ के समान यह भी एक चिलित थे। उनमें एक 'बारहखड़ी' भी था। बारहखड़ी रहस्यवादी काव्य है । यद्यपि जिस ढंग से मूनि रामसिंह को 'बावनी' का विकसित काव्य-रूप माना जा सकता ने प्रात्मा-परमात्मा के मधुर सम्बन्ध का वर्णन किया है
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथवा बाह्याचार और पाषण्ड का उपहास किया है है, तिल में तेल होता है और काठ में अग्नि होती है,
क्त के मिलन या समरसता की दशा का उसी प्रकार परमात्मा का वास शरीर में ही है। यह उल्लेख किया है, वह व्यापकता महयंदिरण मुनि में नहीं परमात्मा रूप, गंध, रस, स्पर्श, शब्द, लिंग और गुण पाई जाती। इसके अतिरिक्त 'बारहखड़ी' का कवि जैन आदि से रहित है । उसका न कोई प्राकार है, न गुण। २ धर्म को मान्यतामों से अधिक दबा हुआ प्रतीत होता है। गौरवर्ण या कृष्णा वर्ण दुर्बलता अथवा सबलता तो अनेक दोहों में तो उसने सामान्य ढंग से केवल जिनेश्वर शरीर के धर्म हैं। आत्मा सभी विकारों से रहित और की वंदना या अहिंसा का उपदेश मात्र दिया है। लेकिन अशरीरी है। ३ ऐसे ब्रह्म की प्राप्ति किसी बाह्याचार से पूरे ग्रय के अध्ययन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि नहीं हो सकती। सिर मुडाने या केश बढ़ाने में कोई कवि पर मुनि रामसिंह की रहस्यवादी भावना का प्रभाव अन्तर नहीं है। जप, तप, व्रत प्रादि से उसकी प्राप्ति है। उसने भी अन्य रहस्यवादी कवियों के समान ब्रह्म की कामना अविवेक है । ४ रेचक, पूरक, कुम्भक, इड़ा, की स्थिति घट में स्वीकार की है, गुरु को विशेष महत्व पिंगला तथा नाद विन्दु आदि के चक्कर में न पड़कर, दिया है, माया से मुक्ति का उपाय बताया है, बाह्याचार अपने अन्तर में स्थित 'संत निरंजन' को ही खोजना की अपेक्षा चित्र शुद्धि और इन्द्रिय-नियन्त्रण पर बल चाहिए। ५ इस प्रकार आपने सहज भाव से
या है और पाप-पुण्य दोनों को बंधन का हेतु बताया पद प्राप्ति में विश्वास व्यक्त किया है और इसी को है। उसका कहना है कि जिस प्रकार दूध में धी होता सर्वोत्तम साधना स्वीकारा है।
१. रवीरहं मंझहं जेम घिउ, तिलह मंझि जिम तिलु । - कट्ठिउ वासरगु जिम वसइ, तिम देहहि देहिल्लु ।। २३ ।। २. रूप गंध रस फंसडा, सद्द लिङ्ग गुण हीण।
अछइसी देहडिय सउ, घिउ जिम खीरह लोरणु ॥ २७ ॥ ३. गोरउ कालउ दुब्बलउ, बलियउ एउ सरीरु ।
अप्पा पुरणु कलिमल रहिउ, गुणवंतउ असरीरु ॥ २८ ॥ ४. जब तब वेयहि धारणहिं, कारणु लहण न जाइ ।
५. रेचय पूरय कुभयहि, इउ पिंगलहि म जोइ ।
नाद विद कलिवज्जियउ, संतु निरंजरगु जोइ ॥२७८।।
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
बैराठ स्थित मुगलकालीन जैन मन्दिर
• डा. सत्यप्रकाश
सम्राट अकबर श्री हरिविजय सूरिजी महाराज के दया सम्बन्धी धर्मोपदेशों से इतने प्रभावित हुये कि उन्होंने अपने राज्य भर में १०६ दिन 'अमारी' की आज्ञा प्रसारित कर दी। इससे सब प्रकार के जीवों को अभयदान कम से कम वर्ष के १०६ दिन एक समय मिल गया। यह प्राज्ञा सम्राट अकबर द्वारा सन् १५८२ ई० को जारी की गई थी। इसके अनुसार पशु वध सारे राज्य में १०६ दिन दण्डनीय अपराध था।
राजस्थान राज्य की राजधानी जयपुर की चहल पहल तीर्थङ्करों की मूर्तियां उस मन्दिर में स्थापित की गई
से ५३ मील दूर जयपुर दिल्ली राजमार्ग पर थीं। इन मूर्तियों में पार्श्वनाथ की एक पाषाण प्रतिमा स्थित बैराठ नगर में जो किसी समय किम्वदन्तियों के उन्होंने अपने पिता की स्मृति में तथा दूसरी ताम्र प्रतिमा
आधार पर विराट नगर कहा जाता था और जिसे चन्द्रप्रभाजी अपने नाम पर तथा तीसरी ऋषभदेवजी की महाभारत युगीन कहाजाता है तहसील के निकट एक अपने भाई अजयराज के नाम पर स्थापित कराई जैन मन्दिर है जो राजस्थान के इतिहास में ही नहीं थीं। इन प्रतिमाओं को उन्होंने मुख्य देवता विमलनाथजी वरन् जैन साहित्य के इतिहास में अपना महत्वपूर्ण के नाम पर मन्दिर में स्थापित कराई थी। इस मन्दिर स्थान रखता है।
में विमलनाथजी की प्रतिमा मुख्य प्रतिमा थी। इस स्थापत्य कला की दृष्टि से इस मन्दिर में गर्भगृह मन्दिर को इन्द्र विहार की संज्ञा दी गई थी। इस मन्दिर के पूर्व एक सभा मण्डप है । गर्भगृह के तीनों प्रोर एक का एक दूसरा नाम भी था और वह था महोदय प्रदक्षिणा पथ है । यह पथ चौड़ा है । ऊंची दीवालों से प्रासाद । इस मन्दिर को बैराठ में उन्होंने बहत धन घिरा एक लम्बा चौकोर चौक इस मन्दिर के अन्दर है। व्यय करके निर्मित कराया था। पूर्व दिशा में सामने की मोर एक सुन्दर अलङ्करणों से इस मन्दिर की मूर्तियों की प्रतिष्ठा एक बहुत बड़े प्रयुक्त स्तम्भोदार द्वार मण्डप है । अन्दर की ओर चौक सन्त द्वारा की गई थी। ये सन्त तत्कालीन महान की दक्षिणी दीवार में एक बड़ा पत्थर पर अङ्कित लेख है विभूतियों में से थे । उनका नाम था हर विजय सरिजीजिसे सर्व प्रथम डा० भण्डारकर प्रकाश में लाये थे। महाराज श्री कल्याण विजय गरिणजी महाराज श्रीहरि यह शिलालेख अद्यावधि पूरी तरह से प्रकाश में नहीं विजय सूरिजी के पट्ट शिष्य थे। उन्होंने अपने गुरु को लाया गया है। शिलालेख में ४० पंक्तियां हैं। यद्यपि इस पुण्य कार्य में बड़ा ही सहयोग प्रदान किया था। शिलालेख का बहुत सा भाग खण्डित है और अस्पष्ट है तत्कालीन साहित्य के अध्ययन के आधार पर यह ज्ञात इसके अध्ययन के आधार पर यह ज्ञात होता है कि होता हैं कि श्रीहीर विजय सुरि का तो कहना ही क्या राकमाण गोत्रोत्पन्न श्रीमाल वंशज इन्द्रराज द्वारा तीन उनके शिष्य श्री कल्याण विजय गरिणजी महाराज
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्कालीन धर्मात्माओं के मस्तिष्क रूपी क्षेत्र के तत्य ज्ञानरूपी बीज बोने में सिद्धहस्त थे और उनको उस समय इस कला का विशारद मानते थे ।
मूर्तियों की स्थापना की तिथि शक सं० १५०६ के फाल्गुण मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया बताई गई है । यह तिथि मकबर सम्राट के शासन काल में जाकर पड़ती है। शक सम्बत का समकालीन विक्रम सम्वत भी इस लेख में कभी दिया हुआ था पर अब वह मिट सा गया है । इस लेख की तीन से लेकर ११ पंक्तियों में अकबर के सम्बन्ध में प्रशस्ति दी गई है। इस प्रशस्ति के आधार पर अकबर ने अपने शौर्य की पाक पारों दिशाओं में जमादी थी। यही नहीं उसने प्रपने विरोधियों के समूह रूपी अन्धकार का नाश किया था और नल, रामचन्द्र, युधिष्ठिर और विक्रमादित्य के समान प्राचीन राजाओं की उत्तम श्रेणी वाली ख्याति को प्राप्त कर लिया था। सम्राट अकबर भी हरि विजय सूरिजी महाराज के दया सम्बन्धी धर्मोपदेशों से इतने प्रभावित हुये कि उन्होंने अपने राज्य भर में १०६ दिन 'समारी' की माज्ञा प्रसारित करदी। इससे सब प्रकार के जीवों को अभयदान कम से कम वर्ष के १०६ दिन सब समय मिल गया । यह प्राज्ञा सम्राट अकबर द्वारा सन् १५८२ ई० को जारी की गई। इसके अनुसार पशुवध सारे राज्य में १०६ दिन में दण्डनीय अपराध था। इन १०६ दिनों में १५ दिन पर्युषण पर्व के, ४० दिन अपने जन्म दिवस के उपलक्ष में और वर्ष के ४५ रविवार सम्मिलित थे। बेराठ के जैन मन्दिर में स्थान पाने वाले शिलालेख में दानी इन्द्रराज की वैशखली के साथ साथ महात्मा होर विजयसूरि की वंशावली का भी उल्लेख है ।
हमें इस शिलालेख से यह भी ज्ञात होता है कि हीर विजय सूरिजी महाराज को संसार का गुरु उस समय कहा जाता था । यह उपाधि सम्राट अकबर ने
७२
उनके प्रति श्रद्धावनत होकर दी थी। इस उपाधि के साथ साथ सम्राट ने उन्हें एक ग्रन्थ भण्डार भी भेंट किया था तथा बहुत से बन्दियों को मुक्त करने का प्रादेश भी प्रदान किया था । शिलालेख में लिखा है कि यद्यपि हुमायूँ के पुत्र जलालुद्दीन अकबर के चरणों की रज मे विभूषित होने के लिये कश्मीर, कामरूप, काबुल, वदखशां, मरुस्थली, गुर्जराभा, मालव आदि के राजा लोग तत्पर रहते थे । श्री हीर विजय सूरिजी महाराज उन्हें अपने देवीरणों के कारण नतमस्तक करने में सफल हुये थे ।
यहां यह ध्यान रखने की बात है कि श्री हीर विजयसूरि की फतेह सीकरी जाकर अकबर से मिलने की घटना का उल्लेख तथा वर्ष की कुछ तिथियों पर राज्य भर में पशुवध बन्द करने की याज्ञा का उल्लेख देवविमल गरि रचित महाकाव्य हीर सौभाग्यम में बड़ी रोचक भाषा में वरिंगत है। इस ग्रन्थ में मुनिवर के विषय में काव्यमय विशद उल्लेख है । किन्तु जो तिथि पशुवध निषेध की इस काव्य में वर्णित हैं, वह बैराठ में प्राप्त शिलालेख में दी गई तिथियों से विभिन्न है यद्यपि इस महाकाव्य के १४ सर्ग के २६१ और २६३ श्लोकों में इन्द्रराज के निमन्त्रण पर श्री होर विजयसूरि द्वारा बैराठ में जैन मन्दिर की प्रतिमानों की प्रतिष्ठा का वन दिया हुआ है ।
इस महा काव्य का रचना काल ज्ञात नहीं है पर दोनों महा काव्य और शिलालेख के तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर हम यह परिणाम निकाल सकते हैं कि महा काव्य वैराठ के शिलालेख के बहुत बाद रखा गया होगा ।
कुछ भी हो बैराठ का जैन मन्दिर तथा उनमें स्थान पाने वाला शिलालेख जैन संस्कृति तथा इतिहास की प्रारम्भ विधियां हैं ।
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
अपरिग्रह और समाजवाद
• बिरधीलाल सेठी
अपरिग्रहवाद अचेतन (प्रकृति ) से भिन्न चेतन तत्व (प्रात्मा ) के प्रनादि अस्तित्व को मानता है ( कि सुख दुख अनुभव करना अचेतन का गुण नहीं हो सकता ) जब कि समाजवाद प्रकृति को मूल तत्व मानता है, आत्मा को नहीं ( वह अचेतन से ही चेतन को उत्पत्ति मानता है ) । यही अपरिग्रहवाद और समाजवाद में सबसे बड़ा और बुनयादी अन्तर है कि जिसके कारण दोनों की "सुख क्या है" इस विषय की धारणा अलग अलग हो गई है।
समाज को शोषणमुक्त करके भौतिक दृष्टि से सुखी सुख साधनों की वृद्धि ही उनका उद्देश्य है तथा उसकी
" बनाने के लिए "समाजवाद" ( जिसे प्राधुनिक पूर्ति के लिए राज्य सत्ता पर मजदूर वर्ग के एकाधिपत्य भौतिक वाद या आधुनिक वैज्ञानिक समाजवाद भी कहते तथा उत्पादन के साधनों के समाजीकरण के लिए संघर्ष हैं) वर्तमान समय में अधिकांश देशों में किसी न किसी किया जाता है मौर संघर्ष में हिंसात्मक उपायों की भी रूप में अपनाया जा रहा है। इसके प्राचार्य कार्ल मार्कस प्रावश्यकता हो तो उनका भी प्रयोग किया जा सकता है के अनुसार इसका ध्येय ऐसी वर्गहीन समाजव्यवस्था और किया गया है समाजवाद में कोई भी व्यक्ति स्थापित करना है कि जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्य- निठल्ला या बेरोजगार नहीं रह सकता और वयक्तिक तानुसार काम करे और अपनी प्रावश्यकतानुसार संपत्ति भी समाजवाद के लिए असह्य है । समाजवाद भोगोपभोग के पदार्थ प्राप्त करे। इसका चरम लक्ष्य ऐसे मानता है कि व्यक्ति समाज के लिए है। व्यक्ति समाज राज्यसत्ता रहित समाज (Stateless society) की का एक कलपुरजा मात्र है, उसका कोई स्वतंत्र महत्व स्थापना है कि जिसमें मानव समाज एक सम्मिलित नहीं है। कुट्रम्ब के रूप में बदल जावे और कोई भी व्यक्ति, वर्ग समाजवाद का सर्वप्रथम और महत्वपूर्ण प्रयोग या समुदाय दूसरे व्यक्ति, वर्ग या समुदाय का शोषण सोवियत रूस ( सोवियत समाजवादी गणराज्य ) में नहीं कर सके । उनकी मान्यतानुसार प्रकृति ही मूल हुमा है। वहां सशस्त्र क्रांति के द्वारा रूस की जारशाही तत्व है (मात्मा नहीं) और उनके द्वारा प्रतिपादित, का अंत किया गया तथा पूंजीपति और जमींदार वर्गों विकास की द्वदात्मक प्रणाली, इतिहास की भौतिक को समाप्त कर दिया गया। उनके संविधान के अनुसार व्याख्या और वर्गसंघर्ष के सिद्धांतों के अनुसार आर्थिक शासनतंत्र में प्रजातंत्रीय पद्धति से चुनाव होते हैं । प्राधार पर ही शोषण करने वाले और शोषित वर्गों के प्रत्येक वयस्क को चाहे वह समाजवादी पार्टी का सदस्य बीच समाज में संघर्ष रहता प्रारहा है प्रतः उनका है या नहीं, मत देने का समान अधिकार है। मतदान इष्टिकोण केवल प्रार्थिक है और भौतिक सुख एवं भौतिक गोपनीय प्रणाली से होता है। परन्तु श्रमिक वर्ग ही
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
बहुमत में होने से शासनतंत्र में उन्हीं का एकाधिपत्य को नहीं (वह अचेतन से ही चेतन की ( Dictatorship ) है । उद्योग धंधों और बैंकों का है)। यही अपरिग्रहवाद और समाजवाद में सबसे बड़ा समाजीकरण करदिया गया है । कृषि फार्मों पर संयुक्त और बुनियादी अंतर है कि जिसके कारण दोनों की या सहकारी संस्थानों का स्वामित्व है (भूमि स्टेट की है) "सुख क्या है" इस विषय की धारणा अलग २ होगई यद्यपि ऐसे भी खेत हैं जिनमें राज्य स्वयं खेती करता है । जहाँ अपरिग्रहवाद आध्यात्मिक सुख को ही महत्व है। संयुक्त या कृषि सहकारी संस्थाएं खेती ही नहीं देता है, समाजवाद भौतिक सुख को ही सुख मानता है, करती, पशुगलन, पानी व पाटे की चक्कियां, डेरी फार्म, समाजवाद भौतिक सुख को ही 'सुख' मानता है। जूते बनाना, इंटें बनाना, लकड़ी के काम तथा बर्तन अपरिग्रहवाद की 'सुख' संबंधी मान्यता यह है कि सुख बनाने प्रादि उद्योग भी चलाती हैं। किसान अपने २ का स्रोत मात्मा के अंदर है । सुख बाहर से नहीं पाता। मकान से लगी हुई जमीन पर वैयक्तिक खेती भी कर भौतिक वस्तुप्रों में सुख नहीं है, प्रत्युत भौतिक वस्तुओं सकते हैं परन्तु केवल इतनी सी ही कि जिसे वे अपने ही में व्यक्ति जितना अधिक ममत्व (प्रासक्ति) रक्खेगा श्रम, बिना किसी को नौकर रक्खे कर सकते हों । उतनाही अधिक दुखी होगा। यदि भौतिक वस्तुओं में इसी प्रकार दस्तकार लोग भी बिना किसी को नौकर ही सुख का स्रोत होता तो प्रत्येक वस्तु उसका व्यवहार रक्खे अपनी छोटी २ दुकानें व्यक्तिगत रूप से चला करने वाले सब व्यक्तियों को सर्वदा एकसा सुख देती परन्तु सकते हैं। वहां प्रत्येक स्वस्थ मनुष्य के लिए श्रम करना अनुभव से यह बात सिद्ध नहीं होती । जिस रोटी को एक पावश्यक है । जो श्रम नहीं करता उसे समाज से कुछ व्यक्ति घृणा करके फेंक देता है उसी को दूसरा व्यक्ति बड़े लेने का भी अधिकार नहीं है। वेतन काम के अनुसार प्रानंद के साथ खाता है । एक व्यक्ति अपनी सुदर पत्नी दिया जाता है (आवश्यकतानुसार नहीं कि जैसा मार्कस से बड़ा स्नेह करता है परन्तु जिस क्षण उसे यह ज्ञात होता ने प्रतिपादित किया है), "From each accor- है कि वह दूराचारिणी है उसे दुश्मन समझने लग ding to his ability. to each accor- जाता है। इससे सिद्ध होता है कि सुख का स्रोत हमारे ding to his work" वहां अपनी प्राय से बचाकर अन्दर है बाहर नहीं । हम बाह्य वस्तुओं के सम्बन्ध में प्रत्येक व्यक्ति वैयक्तिक संपत्ति भी रख सकता है और जैसी हमारे लिए इष्ट या अनिष्ट होने की धारणा उसे अपने रहने के मकान, घरेलू उपयोग के सामान बना लेते हैं सी ही अच्छी या बूरी हमें प्रतीत होने और अपने गृह उद्योग में लगा सकता है परन्तु उससे लगती हैं। जिस वस्तु को हम अपने लिए अनिष्ट बडे २ उद्योग धधे चलाकर लाभ नहीं कमा सकता। समझते हैं उसका संयोग होने पर हम दुःख अनुभव प्रस्तु अपने ही श्रम से कमाई हुई प्राय की बचत एक करने लगते हैं और जिसे इष्ट समझते हैं उसके संयोग सीमा तक ही संग्रह हो सकती है। वैयक्तिक संपत्ति के से अपने पापको सुखी अनुभव करते हैं। इसके अतिरिक्त उत्तराधिकार का अधिकार भी वहां है । इस प्रकार जहाँ प्राध्यात्मिक सुख स्थायी होता है, भौतिक वस्तनों सोवियत रूस ने कार्लमार्कस के सिद्धांतों में व्यवहारिकता से प्राप्त सुख अस्थायी होता है । अस्तु अपरिग्रहवाद के का विचार कर संशोधन कर लिया है। अन्य कई देशों अनुसार, भौतिक वस्तुओं के प्रति ममत्व प्रौर पर द्रव्य में भी राज्य व्यवस्था में भिन्न २ प्रकार के परिवर्तनों के में इष्ट अनिष्ट कल्पना ही दुख का कारण है। इसीको साथ समाजवाद प्रयोग किया जारहा है ।
उसने 'परिग्रह' संज्ञा दी है और बताया है कि मानव अपरिग्रहवाद प्रचेतन (प्रकृति) से भिन्न चेतन तत्व उतना ही अधिक सुखी होगा जितना अधिक वह अपने (मात्मा) के प्रनादि अस्तित्व को मानता है (क्योंकि परिग्रह को, संग्रह की भावना को, वैयक्तिक संपत्ति को सुख दुख अनुभव करना अचेतन का गुण नहीं हो सकता) और अपने जीवननिर्वाह की आवश्यकताओं को स्वेच्छा. जबकि समाजवाद प्रकृति को मूल तत्व मानता है, प्रात्मा पूर्वक कम कर देगा । अपरिग्रहवाद, तरह तरह के वैज्ञानिक
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
७५
प्राविष्कारों द्वारा भौतिक सुखों की वृद्धि की लालसा का प्रस्तु ऐसे व्यक्ति जो समाज के उत्पादन का भाग तो भी विरोधी है। महात्मा गांधी के शब्दों में "सच्चे लेना चाहते हैं परन्त उसके उत्पादन श्रम में हिस्सा सुधार, सच्ची सभ्यता का लक्षण परिग्रह बढ़ाना नहीं बटाना नहीं चाहते. समाज के लिए भार रूप हो जाते है, बल्कि उसका विचार और इच्छापूर्वक घटाना है। हैं। जब तक उनकी संख्या अल्प रहती है तब तक ज्यों ज्यों परिग्रह. घटाइये त्यों त्यों सच्चा सुख और उनकी पोर उपेक्षा रहती है परन्तु जब उनकी तथा ऐसे सच्चा संतोष बढ़ता है।" "मात्मा की दृष्टि से विचार अन्य व्यक्तियों की भी जो भोगोपभोग वस्तुनों के उत्पादन करने से तो शरीर भी परिग्रह है। भोगेच्छा से हमने में श्रम तो नहीं या नगण्य सा करते हैं परन्तु लेना अधिक शरीर का प्रावरण खड़ा किया है और उसे कायम रखते से अधिक चाहते हैं। समाज में संख्या बढ़ जाती है कि हैं। भोगेच्छा प्रत्यंत. क्षीण होजाय तो शरीर की कुल उत्पादन सबके लिए पर्याप्त नहीं होता या उसके आवश्यकता मिट जाय, मनुष्य को नया शरीर धारण वितरण में विषमता बढ़ जाती है, समाज में उनका करने को न रहजाय ।" इससे यह बात स्पष्ट है कि विरोध शुरू हो जाता है। ऐसी ही परिस्थिति का अपरिग्रहवाद का लक्ष्य व्यक्ति है, समाज नहीं (वैसे वह परिणाम राज्य व्यवस्था है और समाजवाद उसका परोक्ष रूप से समाज का भी सुख वर्धन करता है कि प्राधुनिक रूप है। यदि प्रत्येक व्यक्ति स्वेच्छापूर्वक अपनी अपनी आवश्य- समाजवाद का लक्ष्य समाज है। राज्य सत्ता को कतामों को कम से कम करदे और धन का पानावश्यक
हाथ में लेकर, सम्पूर्ण समाज ( जिसमें प्रत्येक व्यक्ति संग्रह न करे तो किसी को तंगी न पड़े और सबको शामिल है ) के भौतिक सुख की वृद्धि के लिए प्रत्येक संतोष रहे)। आध्यात्मिक सुख है, भौतिक सुख नहीं और व्यक्ति से काम कराना और उत्सादन का समाज में इस प्रत्येक व्यक्ति से अपनी प्रात्मा को ऊँचा उठाने के लिए प्रकार वितरण कराना कि सब सुखी हों, उसका ध्येय ही बाह्य पदार्थों के प्रति ममत्व अर्थात् बाह्य पदार्थों के है। जहां अपरिग्रहवाद व्यक्ति की बाह्य तथा मन की परिग्रह का त्याग कराना चाहता है । अपरिग्रहवाद क्रिया (दोनों) के नियमन पर जोर देता है, समाजवाद भोगोपभोग के पदार्थों के संग्रह का और वैयक्तिक संपत्ति केवल बाह्य क्रिया का ही नियमन करता है, मनकी का विरोधी ही नहीं, प्रादर्श के रूप में उनकी आवश्य- क्रिया पर नियमन उसके लिए संभव भी नहीं है । अस्तु कता को इतनी सीमित कर देना चाहता है कि व्यक्ति जो अपरिग्रहवादी है वह समाजवादी भी अवश्य है परन्तु स्वाद का विचार किये बिना केवल इतना सा जिससे जो समाजवादी है उसका अपरिग्रहवादी होना निश्चित शरीर कायम रह सके भोजन मात्र लेकर अपने आपको नहीं है। परिणामस्रूप, समाजवादी राज्य व्यवस्था का अत्यंत सुखी अनुभव करे, वस्त्र की भी उसे आवश्यकता आदर्श ऊंचा होते हुए भी उसमें भी निम्न प्रकार के न रहे और यह सब स्वेच्छापूर्वक ( किसी के दबाव से दोष पैदा होजाते हैंनहीं) कराना चाहता है क्योंकि दूसरों के दबाव से १. मार्कस के प्रसार व्यक्ति समाज का एक करने पर व्यक्ति अपने आप को सुखी अनुभव नहीं कर
कलपुरजा मात्र है, उसका कोई स्वतंत्र महत्व नहीं है। सकता। परन्तु बाह्य पदार्थों से ममत्व केवल कह देने मात्र
उनकी दृष्टि में उत्तम उद्देश्य की पूर्ति के लिए अर्थात से नहीं छूट जाता, इसके लिए साधना करनी पड़ती है। समाजवादी व्यवस्था की स्थापना के लिए यह आवश्यक बहुधा व्यक्ति ऐसा किये बिना और इसके सिद्धांत को
नहीं है कि उत्तम व न्यायानुमोदित उपायों का ही पूर्णतया समझे बिना अपरिग्रहवादी होने की विडंबना। प्रयोग किया जावे प्रत्युत किसी भी प्रकार के छल, कपट, करने लगजाता है। शरीर में ममत्व बनाये रखता है, झूठ और हिंसात्मक उपायों के प्रयोग का उनने अनुमोअच्छे से अच्छे सुस्वादु और पौष्टिक भोजन करना दन किया है। अस्तु रूस और चीन में राज्यसत्ता को चाहता है परन्तु उसके लिए श्रम नहीं करना चाहता। हथियाने और पूंजीपति और जमींदार वर्गों की सम्पत्ति
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
७६
छीनने के लिए उनका खून किया गया, उनके साथ तक के अनुभव से पूर्णतया प्रमाणित है। यदि समाजप्रमानवीय व्यवहार किया गया। यही नहीं, जिन लोगों वादी विचार धारा से जनसाधारण को लाभ होना है को वहां राज्य सत्ता प्राप्त हुई उनने अपनी सत्ता, कायम तो इस पद्धति तथा चुनाव प्रणाली में मामूलचूल परिवरखने के लिए लोगों की विचार प्रगट करने की स्वतंत्रता र्तन आवश्यक है। का हनन कर दिया और अपने विरोधियों को, चाहे वे
२. समाजवाद चाहता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी समाजवादी विचार धारा वाले ही थे, मौत के घाट
योग्यतानुसार तो काम करे परन्तु लेवे केवल अपनी उतार दिया । अत: समाजवादी विचार धारा वा ने कुछ
आवश्यकतानुसार । परन्तु रूस तथा अन्य समाजवादी देशों ने इस दोष को दूर करने का प्रयत्न किया है ।
देशों ने भी इसे अव्यवहारिक पाया है। रूस में ही जहां उनने निश्चय किया है कि समाजवाद वैधानिक तरीकों
एक व्यक्ति को २५० रुबल मासिक मिलता है, दूसरे से ही लाया जावेगा, बलपूर्वक नहीं । बिना उचित
को ४००० रुबल मिलता है । और अधिक वेतन पाने मुप्रावजा दिये किसी की संपत्ति नहीं छीनी जावेगी
बाले लोग अपनी बचत को बैंक में जमा कर ब्याज भी और प्रत्येक व्यक्ति को विचार प्रगट करने की पूर्ण
कमा सकते हैं और उसका उत्तराधिकार भी दे सकते हैं। स्वतंत्रता होगी। परन्तु उननै पूजीवादियों से पोषण
इससे प्रगट होता है कि जिसका जितना महत्वपूर्ण व पाने वाली उस पार्ल मेंट्री पद्धति को अपना लिया है
उपयोगी कार्य हो उसको उतनाही अधिक वेतन व लाभ जिसके संबंध में हमारे राष्ट्र पिता महात्मा गांधी ने
देना व बचत के संग्रह व उत्तराधिकार का अधिकार "हिंद स्वराज्य" में पृष्ठ ३० से ३८ पर निम्न विचार
देना समाजहित में अच्छा काम करने वाले तथा योग्य व्यक्त किये हैं।
व्यक्तियों के प्रोत्साहन के लिए आवश्यक है । इसका - "इंग़लेंड की इस समय जो हालत है उसे देखकर परिणाम-उँचा वेतन पाने वाले व्यक्तियों और उनकी तो सचमुच दया पाती है और मैं तो ईश्वर से मनाता संतानों के पास कालांतर में पूजी का संग्रह । धनी हूं कि वैसी हालत हिंदुस्तान की कभी न हो । जिसे आप व्यक्तियों की उत्पत्ति समाज में सर्वदा इसी प्रकार होतं पार्लमेंटों की मां कहते हैं वह तो बांझ और वेश्या है। रही है और विशेष योग्यता, प्रतिभा बाले और उत्तर"इतना तो सभी मानते हैं कि पार्लमेंट के मेम्बर ढोंगी दायित्व उठाने वाले व्यक्ति समाज में सर्वदा अन्य लोगों और स्वार्थी हैं। सब अपनी ही खेंचातानी में लगे रहते की अपेक्षा अधिक धनवान रहे हैं और रहेंगे प्रतः समाज. हैं।" "कार्लाइल ने पार्लमेंट को दुनिया भर की बकवास वादी व्यवस्था में भी न तो उन्हें धनवान बनने से रोका की जगह बतलाया है। जिस दल का जो मेम्बर होता जा सका है और न उनका धन छीना जा सका है। है, वह उसी दल को आँख मूद कर अपना मत देता ऐसी स्थिति में, धनवान व्यक्तियों के पास जनसाधारण है।" "जितना समय और धन पार्लमेंट बरबाद करती की अपेक्षा जो अधिक धन हो उसे निरुपयोगी न बना है, उतना समय और धन कुछ अच्छे प्रादमियों को मिले दिया जावे तो वे उससे इन्द्रिय सुख व विलासिता के तो जनता का उद्धार हो जाय । यह पार्लमेंट तो जनता ऐसे २ साधन जुटा लेते हैं जो साधारण लोगों को का सिर्फ एक मनोरंजन है, जिसमें उसका बड़ा खर्च उपलब्ध नहीं होते । जिनके पास इतनी प्राय नहीं होती होता है । इन्हें आप मेरे ही मनघढन्त विचार न समझे, उन्हें उससे ईर्षा होती है। उदाहरण के लिए एकबार बल्कि बड़े २ अक्लमंद अंग्रेजों के भी यही विचार है।" एक मजदूर ने मेक्सिम गोर्की से ( जो रूस के सर्वोच्च
"मेरा तो यह पक्का विचार है कि हिन्दुस्तान ने इङ्गलैंड लेखक और लेनिन के मित्र थे ) कहा "कामरेड, आपके . की नकल की तो उसका सर्वनाश हो जावेगा।" प्रचलित पास जो कोट है वह फटा हुमा नहीं है और मेरे पास
पार्लमेंटी पद्धति के संबंध में महात्मा गांधी द्वारा ५६ जो कोट है वह फटा हzा है, यह कहां का न्याय है।" - वर्ष पूर्व व्यक्त किये गये उपरोक्त विचारों का तथ्य अब प्रस्तु जब साधारण प्राय वाले व्यक्ति, अधिक प्रायवाले
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
७७
व्यक्तियों के सुख साधनों को देखते हैं तो उन्हें ईर्षा होती है और वे भी चोरी या बेइमानी से पैसा कमाकर वैसे ही सुख साधन प्राप्त करना चाहते हैं । यही कारण है कि रूस जैसे समाजवादी देश तथा अमरीका जैसे सम्पन्न देश में भी जुर्म करने वालों की संख्या कम नहीं है । इस विषम स्थिति का एक ही उपाय है, वह यह कि जिनके पास अधिक धन है उनके धनको ( छीनने के बजाय ) निरुपयोगी कर दिया जावे। इसके लिए देश की उत्पादन क्षमता और प्रति व्यक्ति प्रसत प्राय का विचार करते हुए जीवन निर्वाह का एक स्टैंडर्ड (Standard of Living) नियत किया जावे और सम्पूर्ण देश को एक कुटुम्ब के समान समझकर ऐसी योजना बनाई जावे कि जिन २ वस्तुत्रों व सुख साधनों का उस स्टेंडर्ड के अनुसार उत्पादन किया जावे वह इतनी मात्रा में हो कि प्रत्येक व्यक्ति को आवश्यकतानुसार उपलब्ध हो सके तथा विशेष सुख सामग्री तथा विलासिता की वस्तुओं का उत्पादन नहीं होने दिया जावे और यदि पहले से उत्पादन हो रहा हो तो निकास कर दिया जावे, रेलों में केवल एक क्लास हो । ताकि एक धनवान को भी वे ही और उसी क्वालिटी की वस्तुऐं और सुख साधन उपलब्ध हो सकें जो एक साधारण प्राय वाले व्यक्ति को प्राप्त हो सकते हैं । ऐसा करने पर धनवानों का, साधारण लोगों के स्तर से बेशी धन निरुपयोगी ही नहीं होजावेगा प्रत्युत देश की अनेकों समस्याऐं जैसे मंहगाई, ब्लेक मारकेट से पैसा कमाना, भ्रष्टाचार, सत्ता की भूख, अनाव
श्यक उद्योग धंधों के स्थापित किये जाने से होनेवाली विदेशी विनिमय की कमी श्रादि, अपने प्राप हल हो जायेंगी, बहुतसी शासन व्यवस्था अनावश्यक हो जावेगी और शासन खर्च कम होजायेगा । जबकि वर्तमान स्थिति में ज्यों ज्यों अधिक से अधिक अच्छा इलाज किया जा रहा है बीमारी मौर बढ़ती जारही | परन्तु जीवन निर्वाह का स्टेंडर्ड ( Standard of Living ) नियत करने से पूर्व तत्संबंधी भ्रामक धारणाएँ दूर होजानी आवश्यक हैं प्रतः मैं विलासिता प्रधान प्राजकल को सभ्यता के संबंध में महात्मा गांधी के कुछ शब्द उद्घृत कर देना उचित समझता हूँ, "यह सभ्यता धर्म है पर इसने यूरोपवालों पर ऐसा रंग जमाया है कि वे इसके पीछे दीवाने हो रहे हैं", "जो लोग हिंदुस्तान को बदल कर उस हालत पर लेजाना चाहते हैं जिसका मैने ऊपर वर्णन किया है, वे देश के दुश्मन और पापी हैं ।"
अपरिग्रहवाद और समाजवाद का जो तुलनात्मक विवेचन किया गया है उससे प्रगट होगा कि दोनों का अलग २ क्षेत्र है। जहां अपरिग्रह वाद का लक्ष्य व्यक्ति है, समाजवाद का लक्ष्य समाज है । परन्तु क्योंकि व्यक्ति समाज का अंग है अतः समाजवाद अपने ऊँचे आदर्श को प्राप्त कर सके इसके लिए आवश्यक है कि समाज के अंग (व्यक्ति) या कम से कम वे लोग, जिनके हाथ में राज्यसत्ता हो, अपरिग्रहवादी भी हों ।
जैन-धर्म सर्वथा स्वतन्त्र है । मेरा विश्वास है कि वह किसी का अनुकरण नहीं है । और इसलिए प्राचीन भारतवर्ष के तत्व ज्ञान का, धर्म पद्धति का अध्ययन करने वालों के लिये वह बड़े महत्व की वस्तु है ।
-डा० हर्मन जैकोवी
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन अभिलेखों का ऐतिहासिक महत्व
• रामबल्लभ सोमानी
बी. ए., साहित्यरत्न जयपुर
कमबद्ध एवं प्रामाणिक इतिहास के लिए शिला लेखों को हराकर कृष्णानदी तक के भू-भाग पर अधिकार " का बड़ा महत्व है । इतिहास के रंगमंच पर कई किया, महाराष्ट्र के भोजकों को पराजित किया एवं मगध राजवंश प्राये एवं घूम केतु की तरह चमक कर विलीन को विजित किया । ' इस लेख की ७वीं और ८वीं भी हो गये। निश्चित प्रामाणिक सामग्री के प्रभाव में पंक्ति में बड़ी महत्वपूर्ण सूचना यह भी दी गई है कि उनका प्रब वर्णन प्रस्तुत करना अत्यन्त ही कठिन है। उसने यवन राजा दिमित को मध्यदेश से भगाया । एवं इस दिशा में शिलालेखादि सामग्री ही ऐसी हैं जिनसे इसी यवन राजा के भारत पाक्रमण सम्बन्धी उल्लेख यथेष्ठ सहायता ली जा सकती है। यद्यपि जैन शिला- पंतजलि के २ महा भाष्य, मालविकाग्निमित्र 3 एवं लेखों और ग्रंय प्रशस्तियों में प्रायः किसी राजवंश का गर्ग संहिता के युग पुराण ४ में भी है । लेकिन पतंजलि क्रमबद्ध इतिहास नहीं लिखा रहता है किन्तु प्रासंगिक एवं कालीदासने राजा का नाम नहीं दिया है। युग वर्णन भी समसामयिक इतिहास के लिए बड़ा पुराण में इसको धर्ममीत कहा है जो अस्पष्ट है। महत्व का है।
इस लेख के मिलने के पूर्व यमन राजा मेनेन्डर जो प्राचीनतम जैन लेखों में उडीसा हाथी गुम्फा का
का
"
"मिलिन्द नामक" पन्दो नामक बौद्ध ग्रंथ का नायक कलिंग चक्रवर्ती खारवेल का लेख बड़ा प्रसिद्ध है। यह भी है पाक्रान्ता माना जाता था किन्तु इस लेख के लेख समसामयिक इतिहास के लिए बड़ा महत्वपूर्ण है। मिल जाने से भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण सूचना इसमें राजा खारवेल को दिग्विजय का भी उल्लेख है। प्राप्त हो गई है। इसके अतिरिक्त इस लेख और वीर इस लेख के अनुसार उसने सातवाहन राजा शातको संवत ८४५ के अजमेर के बड़ली के लेख से पता
१. नागरी प्रचारिणी पत्रिका भाग ८ अंग ३ पृ० ३०१ २. "अरुणद्यववः साकेतम्" ३. मालविकाग्निमित्र में कालीसिंधु के दक्षिणी तट पर यवनों से वसुमित्र का युद्ध होने का उल्लेख है।
दोनों घटनायें सम सामयिक हैं क्योंकि पतंजलि ने महा भाष्य में "पुष्यमित्रं याजयामः" कहकर
अपने को पुष्यमित्र का समकालीन बतलाया है । ४. धर्ममीत तमा वृद्धाजनं भोक्ष्यन्ति निर्भयाः । यवना क्षाप यिष्यति (नश्येरन) च पार्थिवाः । मध्यदेशे न स्थापयन्ति यवना युद्ध हर्मदा ।
तेषामन्योय संभावं भविष्यवि न संशय । -(कोशोत्कव संग्रह में जायसवाल का लेख) ५. वीर निर्वाण संवत और विक्रमी संवत के मध्य ४७० वर्ष का अन्तर है।
"विक्रमकालाज्जिनस्य वीरस्य कालो जिनकालः शून्वमुनिवेद युक्तः चत्वारिशतग्नि सतत्यधिक वर्षाणि श्री महावीर विक्रमादित्ययोरंतर मित्यर्थः । विचार श्रेणी-मेरुतुग सर्ग द्वारा विरचित ।
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
चलता है कि उत्तरी भारत में जैनधर्म राजस्थान से . उडीसा तक प्रचलित था । खारवेल मगध से एक "कलिंगजिन" को मूर्ति भी लाया था जिसे उसने अपने राज्य में प्रतिष्ठित किया था । संभवतः भगवान महावीर के समय में भी जैन तीर्थंकरों को प्रतिमाएं बनना शुरू हो गई थी उडीसा में खारवेल के पहले भी जैन धर्म प्रचलित था । खंडगिरी के जैन स्तूप में किसी 'श्रर्हत्' की अस्थियां भी रखी जाना ज्ञात हुआ है ।
कालकाचार्य कथानक भी बड़ा प्रसिद्ध है । इसके - अनुसार जैनाचार्य कालकाचार्य उज्जैन के राजा गर्द के प्रत्याचारों से तंग आकर शक राजा के पास गये और उन्हें भारत श्राक्रमरण के लिए प्रेरित किया । यह घटना चीर निर्वारण के ४५३ के प्रासपास सम्पन्न हुई मानी जाती है ।
मथुरा से कनिष्क के वंशजों के शासन काल के कई जैन लेख मिले हैं। जिनमें तत्कालीन राजाओं और उनके शासन काल के संवत दिये हुये हैं । वल्लभी, भीन • माल और गुजरात के प्रारंभिक इतिहास के लिए जैन सामग्री बड़ी महत्वपूर्ण है । वल्लभी खंडन ३ बार होना जैन साहित्य में प्रसिद्ध है । पहला खंडन, वि सं ०
३७५ के आसपास, दूसरा वि० सं० ५१० एवं तीसरा ८४५ में । ७ भीनमाल का उल्लेख वि० सं० ७३३: में लिखी निशोथ चूरिंग में वरिंगत है। शक सं० ६६६ (वि० सं० ८३५) में लिखी कुवलयमाला में भी इसका उल्लेख है । इस ग्रंथ में जबालीपुर के राजा वत्मराज का भी उल्लेख है । इसी वत्सराज का उल्लेख जैन हरिवंश पुराण में भी है । यह ग्रंथ शक सं० ७०५ १० में पूर्ण हुआ था । इस ग्रन्थ के अनुसार उत्तर में इन्द्रायुद्ध दक्षिण में कृष्ण का पुत्र वल्लभ पूर्व में वत्सराज़ और पश्चिम में जयवराह राजा था। इन दोनों में ५-६ वर्ष का अन्तर है । इन वर्षों में वत्सराज जबालीपुर (जालोर) से मालवा पर अधिकार कर लिया प्रतीत होता है । राष्ट्रकूटराजा गोविन्द का जिसे यहां कृष्ण का पुत्र वल्लभ कहा है, बहुत थोडे लेखों में हो वर्णन है । उसके शासनकाल की तिथि इसी हरिवंशपुराण के आधार पर निश्चित की जाती है । दक्षिण भारत के श्रवणबेलगोला के एक लेख में अकलंक देव और राष्ट्रकूट राजा कृष्ण का उल्लेख है । इसी का वंशज अमोघवर्ष बडा प्रतापी राजा हुआ। इसके शासनकाल में दिगम्बर जैन सम्प्रदाय के कई ग्रन्थ लिखे गये। जिनसेन ११ इस का
६. जिन प्रथ सूरि के तीर्थ कल्प में इस प्रकार वर्णन है :
तह गछ भिल्ल रज्जस्सच्छेयगो काल गायरिम्रो हो हो । तेंवरण उसएहि गुण सयकलियो सु प उत्ती । श्री मोहनलाल द०
देसाई जैन साहित्य नो इति० पृ० ६६
७. वही पृष्ट १३०
८. रूप्यमयं जहा भिल्लमाले वम्म लातो नि० चू० १०।२५५ ६. श्री मोहनलाल द० देसाई - जैन साहित्य नो इति० पृ० १७५/७६ श्री नाथूराम प्रेमी – जैन साहित्य का इतिहास पृ० ११५
१०. शाकेष्ववद शतेषु सत्यषु दिशं पंचोत्तरेषूत्तरां । पातीन्द्रायुधनाम्नि कृष्णनृपजे श्री वल्लभे दक्षिणां । पूर्वा श्री मदवन्ति भूभृति नृपे वत्सादि राजेऽपरां । सौराणांमधिमण्डलं जययुते वीरे वराहेऽयति ॥ ५२ ॥
श्री नाथूराम प्रेमी - जैन साहित्य का इतिहास पृ० ११६ पर दिया गया उदाहरण ११. पाश्वभ्युदय में उसने लिखा है कि
" इत्यमोघवर्षं परमेश्वर परमगुरु श्री जिनमेनाचार्य विरचित मेघदूत वेष्टित" (ज० ष० बी० रा०
ए० सी० भाग १८ पृ० २२४)
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
८०
गृहपा। इसके शासनकाल का वर्णन कई जैन ग्रंथों में मर्दन नामक नाटक में है। इसे वि० सं० १२८६ प्राषाढ मिलता है। प्रथम बार इसका मूलनाम "बोछुणाये" १२ बदि को पूर्ण किया गया है १५ । यह घटना वि. जैन ग्रन्थों में ही मिलता है। अमोघ वर्ष संभवतः सं० १२८४-८५ को सम्पन्न हुई थी। वि० सं० १३६० उपनाम था। १३ सोमदेव के यश तिलक की प्रशस्ति में में कक्क सूरि द्वारा लिखित "नाभिनन्दन जिनोद्धार ग्रंथ" लिखा है कि शक सं० ८८१ चैत्र सुदी १३ को जिस में अलाउद्दीन के मेवाड आक्रमण और रावल रत्नसेन समय कृष्णराज पांड्य, चोल, सिंहल चेर आदि राजाओं को पकड़ कर ले जाने का उल्लेख है। १३ यह उल्लेख को जीतकर, मेलपाटी नामक सैनिक शिविर में था उस समसामयिक फारसी ग्रंथ "खजाइन उलफतुह' में भी समय उनके सामंत वछि गकी के राजत्व काल में ग्रंथ नहीं है। इसी प्रकार तीर्थ कल्प के सत्यपुर कल्प में पूर्ण हुआ।
अलाउद्दीन के वि० सं० १३५३ में गुजरात माक्रमण का . . . मध्यकालीन इतिहास के लिए जैन सामग्री अपेक्षा- उल्लेख है। इसमें यह भी उल्लेख है कि अलाउद्दीन कृत अधिक महत्व की है। गुजरात के चालुक्यों का का छोटा भाई उलूगखां मेवाड के रावल समरसिंह से इतिहास जैन कवियों ने बड़े गौरव के साथ लिखा है। हारा था। हेमचन्द्र के द्वयाश्रय काव्य एवं कुमारपाल चरित में कई मध्य कालीन जैन शिलालेख अधिकांशतः मूर्तियों ऐतिहासिक प्रसंग हैं । मेरुतुग द्वारा विरचित "प्रबन्ध पर उत्कीर्ण हुए मिले हैं। इनके प्रारंभ में सेवन दिया चिन्तामणि" में चावडों और सोलंकियों का इतिहास दे रहता है। प्राचीनतम लेखों में संवत ही दिया गया है रखा है लेकिन प्रसंगवश कई अन्य राज्यवंशों का भी जबकि बाद के लेखों में तिथियां भी दी हुई हैं। मेवाड इतिहास है। चावडों के इतिहास के बारे में कुछ अशु- के करेडा के पार्श्वनाथ की मूत्ति के वि० सं०१०३६ के द्धियां रह गई थी जिसे पुनः विचारश्रेणी नामक ग्रंथ में लेख १८ में केवलमात्र "सं०१०३१ वर्षे' शब्द अंकित उसने ठीक किया है। कुमारपाल पर कई पुस्तकें लिखी है। सांडेराव के मूलनायक शांतिनाथ के वि० सं० गई हैं । इनमें जयसिंह सूरी और चारित्र सुन्दर की १२२१ १६ के लेख में “१२२१ माघ वदि २ शुक्र" रचनाएं बडी प्रसिद्ध हैं। वस्तुपाल चरित वि० सं० लिखा हुआ है । इनके पश्चात् तत्कालीन राजा का नाम १४४० में लिखा गया इसमें भी सोलंकियों का इतिहास दिया हा मिलता है। नाडोल के वि० सं० ११९५ के है१४। मेवाड पर हये आक्रमण का उल्लेख हमीर मद लेख में "महाराजाधिराज २० रायपाल देव विजय राज्ये"
१२. बोछणं रायरिंदे नरिंद चूडमणिम्हि भुजते ॥६॥
नाथुराम प्रेमी जै० इ० पृ० १४७ १३. वही पृ० १७८ १४. प्रोझा निबन्ध संग्रह भाग १ पृ० ३८।४८ १५. प्रोझा-उदयपुर राज्य का इति० भाग १ पृ० १६. श्री भंवरलाख नाहटा पद्मिनी चरित चोपाई की भूमिका १७. "अह तेरसय छपन्न विक्कम वरिसे अलावदोण सुरताणस्य कणिट्ठो भाया उलूखान नामधिज्जो दिल्ली
पुरानो मति मादव पेरिप्रो गुज्जरधरं पट्ठिो चित्तकूडादिवई समरसिंहेणं दउं दाउं मेवाड देसो ...... तथा रक्खि प्रो" (तीर्थ कल्प में सायपुर कल्प पृ० ६५)
१८. जैन सर्वतीर्थ संग्रह भाग २ पृ० ३४४ .:: १९. वही भाग १:खंड ii पृ० २१२
२०. वही पृ० २२४
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्द लिखा हुआ है । इसी प्रकार १३५६ के बाघीण २१ के शांतिनाथ मंदिर के लेख में "नडुलदेशे बाघसीग्रामे श्री सामन्त देव" शब्द है । रणकपुर के वि० सं० १४६६ २२ व बिजोलिया के १२२६ २३ के विस्तृत लेखों में पूरी वंशावली दी हुई हैं । किन्तु अधिकांशतः लेखों में वंशावलियां नहीं है । संवत के पश्चात् कहीं कहीं श्रेष्ठियों के और कहीं प्राचार्यों के नाम दिये गये हैं । दिगम्बर लेखों में प्रायः प्राचार्यों का उल्लेख पहले आता है। नागदा वि० सं० १३६१ २४ के लेख में " सं० १३६१ वर्षे चेत्र वदि ४ रवौ देव श्री पार्श्वनाथस्यमूल संघाचार्य शुभचन्द्र "बिजोलियां के वि० सं० १४८३ के लघु लेख में" श्री बलात्कारगणे । सरस्वती गच्छे | माईसंघे । कुंदकुंदाचार्यान्वये भट्टारक श्री कीर्तिदेव " लिखा है । इनके पश्चात् बिंबया शिला पत्रका जिसकी प्रतिष्ठा हुई है उल्लेख मिलता है । अन्त में शुभं भवतु आदि होता है ।
२५
इन लेखों में सबसे उल्लेखनीय बिजोलियां का १२२६ का श्रेष्ठि लोलाक द्वारा उत्कीर्ण कराया जैन उन्नत शिखर पुराण का लेख है । इस लेख में चोहानों को वंशावली दी हुई है । इससे चोहानों के प्रारंभिक इतिहास के शोध में बड़ी सहायता मिली है । इसी लेख के आधार से पृथ्वी राज रासों को जाली सिद्ध करने में भी सहायता मिली है, रणकपुर के वि० सं० १४६६
८१
२३. ज० आर० एस० बी० भाग ५५ पृ० ४१।४३
के लेख में मेवाड के गुहिलवंशी राजाम्रों का इतिहास दे रखा है । यह लेख मध्य कालीन अन्य लेखों को तुलना में वंशावली के लिए बढे महत्व का है ।
२१. वही पृ० २३८
२२. प्रावियोलोजिकल सर्वे रिपोर्ट ग्राफ इंडिया वर्ष १६०७/८ पृ २१३।२१५
इसमें कुंभा के शासनकाल के प्रारंभिक ६ वर्षों के कार्यकाल में हुये युद्धों का एवं विजयों का भी सविस्तार वर्णन है । इन लेखों के प्रतिरिक्त अन्य कई लेखों से राजनैतिक स्थिति का परिचय मिलता है । वि० सं० १२०१ के पाली के एक मूत्ति के लेख से ज्ञात होता है कि "महामात्य" वा पद प्रायः वश परम्परागत हो दिया जाता था । इस लेख में "महामात्य श्रानन्दसुत महामात्य पृथ्वी पाल” २६ शब्द अंकित हैं | वि० सं० १३३३ के भीनमाल के एक लेख के २७ अनुसार चाचिगदेव सोनगरा के मुख्यामात्य " गजसिंह " जो पंचकुल का भी प्रधान था उल्लेख है । इसमें पंचकुल संस्था को सम्बोधित कर दान दिया है प्रतएव उसकी स्थिति का पता चलता है । मंडपिकात्रों का और कर व्यवस्था सम्बन्धी भी कई उल्लेख मिलते हैं । करेडा के वि० सं० १३२६ के चाचिगदेव सोनगरा के लेख में नाडोल को मंडपिका से कुछ द्रव्य देने का उल्लेख है । चित्तौड के वि० सं० १३३५ २८ के बैशाख सुद ३ के एक लेख के अनुसार भटेश्वरगच्छ के एक जैनाचार्य के उपदेश से रावल समरसिंह की माता जयतल्लदेवी ने श्याम पार्श्वनाथ का मंदिर बनवाया एवं चित्तौड सज्जन
वीर विनोद भाग को शेष संग्रह में छपा मूल लेख ।
२४. प्राकियोलोजिकल सर्वे रिपोर्ट ग्राफ वेस्टर्न सर्कल वर्ष १६०५/६ पृ० ६३ २५. वही पृ० ६३७
जैन एक्टी क्युरी भाग १७ अंक १ पृ० ६७
२६. सं० १२०१ ज्येष्ठ वदि ३ रवौ श्री पल्लि कायां श्री महावीर चैत्ये महामात्य श्री मानन्द सुत महा मात्य श्री पृथ्वीपालेनाल श्रेयार्थं जिन पुगलं प्रदत (मूल छापसे)
२७. ग्रह श्री श्रीमाले महाराजकुल श्री चाचिगदेत कल्याण विज्य राज्ये तन्नियुक्त मंह० गजसिंह प्रभूति पंचकुल प्रतिपती (जैन सर्व तीर्थ संग्रह भाग १२ पृ० १७५)
२८. प्रज्ञा उदयपुर राज्य का इति० भाग १ पृ० १७६
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
पूर प्राघाट आदि मंडपिकानों से दान की भी व्यवस्था और वंशावलियां ही मिलती है। प्रोसवालों की प्राधुनिक की। कई बार इन मंडपिकानों से सीधा ही दान दे जातियां मध्यकाल में ही स्थिर हो चुकी थी। उस दिया जाता था। सोडेराव के वि० सं० १२२१ के लेख काल की विशेषता यह भी है कि श्रेष्ठियों के नाम प्रायः में २६ कल्हण सोनगरा की माता मानलदेवी ने एक शब्दात्मक थे। लेख पूरा संस्कृत में होते हये भी राजकीय भोग में से एक दापल ज्वार देने की व्यवस्था श्रेष्ठियों के नाम लोकिक भाषा में ही मिलते हैं। की थी। इनके अतिरिक्त कई प्रकार के करों का भी कई श्रष्ठि लोग संघ निकाला करते थे। संघपति की उल्लेख मिलता है। प्राबू के वि० सं० १३५० के उपाधि धारण करना गौरव की बात मानी जाती सारंगदेव बाथैला और १५०६ के कुभा के लेखों में है। वि० सं० १३५२ के खंभात के एक लेख में ऐसे करों का उल्लेख है जो जैन मंदिरों के दर्शनार्थ मालवा, चितोड एवं सपादलक्ष से यात्रियों के माने का माते थे।
उल्लेख है। ... सामाजिक दृष्टिकोण से भी ये लेख बढे महत्व के जैन सामग्री का शोध होने पर और भी कई हैं। इनमें विविध जातियों की व्युत्पति, उनके इतिहास महत्वपूर्ण सामग्री प्राप्त हो सकती है।
महावीर के युग में हिंसा, सम्प्रदायवाद और जातिवाद भारतीय राष्ट्र की शक्तियों को छिन्न-भिन्न कर रहे थे। भगवान ने इन शैतानों को मानव मानस से निकालने के लिये जो अविश्रान्त प्रयास किया उसे इतिहास कभी नहीं भूल सकता।
__यदि हमें मानव को वास्तविक और स्थायी मान देना है तीर्थंकर महावीर के उपदेशों को जन-जन के हृदय तक पहुँचाना चाहिये।
२६. प्रमेह श्री करहण देव राज्ये तरयमातृ राज्ञी मानल देव्या श्री षंडरेकी मूलनायक महावीर देवाय
चैत्रवदि १३ कल्याणक निमित्तं राजकीय भोग मध्यात् युगंधर्माः हाएता एकः प्रदतः।
ध्यदेश्य श्री डिरेकी मुलनायक महावीर देवा
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
महावीर का अनेकांतिक अहिंसा दर्शन
• 'युगल' जैन
एम.ए., साहित्य रत्न कोटा
जीवन के निर्माण में अहिंसा को महती उपयोगिता को विस्मृत करके अाज उसे केवल 'जीयो और जीने दो' को संकुचित सीमानों में प्रतिबद्ध कर दिया गया है। इससे जन-जीवन में अहिंसा विकृत ही नहीं हुई है वरन् उसका स्वरूप ही जीवन और जगत से लुप्त सा हो गया है। इसका फल यह हुआ कि आज व्यक्ति को अपने जीवन के लिए अहिंसा की कोई उपयोगिता नहीं रही। उसका उपयोग केवल दूसरे प्राणी को बचाने को अनधिकृत तथा विफल प्रयास तक ही सीमित रह गया है।
अहिंसा जीवन का शोधक तत्व है। अहिंसा का इससे जनजीवन में अहिंसा विकृत ही नहीं हुई है वरन्
सीधा सबंध आत्मा से है। वह प्रात्मा का ही उसका स्वरूप ही जीवन और जगत से लुप्त-सा हो गया निर्विकार कर्म है । प्रात्मा ही उसका साधकतम कारण है । इसका फल यह हुप्रा कि आज व्यक्ति को अपने है। प्रात्मा ही उसकी सुरम्य जन्म-स्थली है और अहिंसा जीवन के लिये अहिंसा की कोई उपयोगिता नहीं रहीं। का संपूर्ण क्रिया-कलाप आत्मा के लिये ही होता है। उसका उपयोग केबल दूसरे प्राणी को बचाने का अनधिउसके फलका उपभोक्ता भी आत्मा ही है। वह आत्मा कृत तथा विफल प्रयास तक ही सीमित रह गया है। के अंतरंग बंधनों को तोड़कर जीवन के विकास का पथ कोई प्राणी बच गया है उसका संपूर्ण श्रेय अहंकार के प्रशस्त करती है । वास्तव में बहिर्जगत से उसका कोई शिखर पर चढ़ा प्राज का अहिंसक अपने ऊपर लेकर संबंध नहीं।
पुण्य-संचय से मन में परम संतुष्ट होता हा स्वर्ग के ...अहिंसा के साथ महावीर का नाम छाया और शरीर कृत्रिम सुखमय जीवन की कल्पनाओं से मन ही मन की भांति जुड़ा हुप्रा है । वास्तव में महावीर ने मौलिक पुलकित होता रहता है, दूसरे प्राणी को बचाने के वस्तु स्वरूप के आधार पर अहिंसा का जो अनेकांतिक विफल प्रयास मूलक अहंकार गभित अहिंसा का यह रूप स्वरूप जगत् के समक्ष रक्खा, जगत् को उनकी वह देन महावीर के दर्शन में हिंसा ही घोषित किया गया है। .. प्रदर्भत एवं अद्वितीय है। महावीर का हिसा दर्शन अहिंसा के मूलाधार प्रात्मा को यदि हम भारतीय एक-सर्वागीण जीवन-दर्शन है । वह जीवन को जहां से
दर्शनों के स्तर पर परीक्षण करके देखें तो हमें विदित उठाता है. उसे विकास के चरम बिंदु पर लेजाकर रख
होगा कि लगभग सभी भारतीय दर्शनों ने एक स्वर से देता है ।
आत्मा की अमरता को स्वीकार किया है। वहां हमें जीवन के निर्माण में अहिंसा की महती उपयोगिता सुनने को मिलता है कि प्रात्मा प्रजर है, अमर है, वह विस्मत करके आज उसे केवल 'जीरो और जीने दो' शस्त्रों से नहीं छिदता, अग्नि में नहीं जलता इत्यादि। की संकुचित सीमानों में प्रतिबद्ध कर दिया गया है। एक अोर से हमें प्रात्मा की ममरता के ये गीत सुनाई
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
देते हैं और दूसरी और हम 'जीम्रो मोर जीने दो' का राग भी बलाते चलते हैं। यदि धारमा स्वभाव से अमर है तो फिर एक प्राणी के द्वारा दूसरे प्राणी के वध और रक्षा की बात में कितनी सचाई है ? जो कभी मरता ही नहीं है उसके वध और रक्षा को बात कभी भी वास्तविक नहीं हो सकती। हां प्रारमा प्रमर होते ! हुए भी उसके वध और रक्षा की सतत् श्रद्धा प्रशान के कारण उत्पन्न तो हो सकती है किंतु इस प्रास्या के साथ आत्मा के वध और रक्षा जैसी अघटित बातें घटित होने लग जांय यह असंभव है अथवा ग्रात्मा के वध और रक्षा की व्यवहार नयात्मक शैली में निहित अपेक्षाओं को समझे बिना प्रात्मा के एकान्त वध और रक्षा का सिद्धांत स्वीकार कर लिया जाय तो झात्मा की भ्रमरता का सिद्धांत काल्पनिक ही रह जायगा ।
महावीर ने महिसा का जो भव्य स्वरूप विश्व को दिया वह अनेकांत से अनुशासित होने के कारण अपने में इतना परिपूर्ण है कि दूसरे जीव को बचाने रूप स्थूल लौकिक हिंसा तो उसमें सहज ही पालित होती पलती है | आत्मा की अमरता का सिद्धांत स्वीकार कर लेने पर क्यों कि जीव मरता ही नहीं है इस सिद्धांत से छल ग्रहण करके हिंसावृत्तियों को प्रोत्साहित करने के लिये वहां रंव भी अवकाश नहीं किंतु क्योंकि जीव मरता ही नहीं है' प्रतः जीव को मारने के धमकी विफलता ज्ञात होजाने पर वध और रक्षामूलक अहंकार तो समाप्त होही जाता है साथ ही शनैः शनैः हिंसावृत्तियों का भी शमन होने लगता है । फलस्वरूप श्रात्मपौरुष का उपयोग एवं प्रयोग आत्म विकास के लिये हो होने लगता है ।
महावीर के अनेकांतिक शासन में चेतन एवं जड़ सभी की अपनी अपनी स्वतंत्र सत्ता है। सभी पदार्थ एक दूसरे से प्रत्यंत पृथक रहकर अपने गर्भ में विद्यमान अनंत शक्तियों के बल पर ही अपना जीवन संचालित करते रहते हैं। प्रत्येक जड़ चेतन पदार्थ की काया परस्पर विरुद्ध अनंत धर्मों से निर्मित है । ये परस्पर विरुद्ध धर्म उस वस्तु के वस्तुत्व की रक्षा करते हैं । समयसार परमागम की गाया की टीका करते हुए भावार्य
श्री अमृतचन्द ने वस्तु के इस प्रनैकांतिक स्वभाव की महिमा के गीत गाये हैं।
इस प्रकार लोक में एक पदार्थ का दूसरे पदार्थों के प्रति यही महान उपकार है कि वह अपने अविरुद्ध स्वभाव के कारण अपने स्वरूप में ही रहता और विरुद्ध स्वभाव के कारण पर को अपने रूप में नहीं होने देता । प्रर्थात् वह सदा पर से विभक्त रहकर अपने एकत्व में प्रतिष्ठित रहता है । यह एकत्व हो वस्तु का परम सौंदर्य है । आत्मा स्वभाव से एकाकी होते हुए भी अपने से पृथक् वस्तु के प्रति विविध विकल्प करता है और यह बंध की कथा ही चेतन की पर्याय में विसंवाद उत्पन्न करती है । यही हिंसा है।
वस्तु के अनैकांतिक स्वरूप में परस्पर विरुद्ध दो पहलू स्पष्ट दृष्टि गोचर होते है । एक उसका वह पहलू है जिसके कारण जो कुछ उसका अपना कुछ उसका अपना है उसी में रहता हैं। यह पदार्थ अपने द्रव्य (त्रं कालिकता) अपने क्षेत्र (प्रदेश) अपने काल (अणिक पर्याय) और अपने भाव ( अनंत शक्तियां) की चतुः सोमा में ही विद्यमान रहता है । इसे वस्तु का अस्ति धर्म कहते हैं। इसके विरुद्ध उसका एक दूसरा पहलू है जिसके कारण उसको चतुः सीमा (चतुष्ट) में उससे भिन्न सम्पूर्ण विश्व का प्रवेश निषिद्ध है। इसे पदार्थ का नास्ति धर्म कहते हैं। इस प्रकार पदार्थ एक एकाकी रहता है। इन्हीं विशेपताओं के कारण चेतन सदा चेतन रहता है मोर जड़ सदा जड़ । चेतन सदा अपना काम करता है और जड़ कभी अन्य जड़ तथा चेतन को लाभ हानि नहीं करता । चेतन कभी जड़ के कार्य का कर्ता तथा कारण नहीं बनता और जड़ कभी अन्य जड़ तथा चेतन के कार्य का कर्त्ता तथा कारण नहीं बनता । चेतन तथा जड़ सभी पदार्थ अपने में विद्यमान अनित्य धर्म के कारण सदा स्वतः प्रतिक्षण अपनी प्रवस्थाओं में परिवर्तन किया करते हैं यही वस्तु की मर्यादा है। अपनी इस मर्यादा में विद्यमान पदार्थ को अपने अनादि धनंत जीवन में अन्य अनंत पदार्थों का संयोग भी होता है और वियोग भी किंतु वह समस्त संयोग वियोग वस्तु की सीमा के बाहर ही होता । वस्तु में प्रति समय उत्पन्न होने वाले कार्यों में अनंत
>
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
पदार्थ निमित्त भी बनते हैं किंतु वे भी वस्तु की सीमा है। पदार्थों के परस्पर प्रात्यंतिक पृथकत्व के कारण जड़ के बाहर ही रहते हैं। वस्तु के कार्य-क्षेत्र में उनका चेतन, चेतना-चेतन, तथा जड़-जड़ में कभी कर्ता-कर्म प्रवेश नहीं होता। यह जैन-दर्शन में अनेकांत की स्थिति तथा कारण-कार्य भाव बनता ही नहीं है। इस प्रकार है जिसके कारण सारा अनंत विश्व अपने स्वरूप में एकही पदार्थ में अस्ति-नास्ति, नित्य-अनित्य, एक-अनेक, व्यवस्थित रहता हा अनंत सौंदर्य को प्राप्त होता है। तत्-प्रतत् आदि परस्पर विरुद्ध अनंत सापेक्ष धर्म विद्यमान पदार्थ एक ही समय में स्वः अपेक्षा अस्तिरूप ही
, रहते हैं जिन्हें अनेकांत कहते हैं और यह अनेकांत वस्तु
रह था पर प्रपेक्षा नास्तिरूप ही है। इस प्रकार बह प्रस्ति- स्वभाव है। पदार्थ में अनंत शक्ति की विद्यमानता अन्य रूप भी है और अपने में परके अभाव के कारण वही
दर्शन भी स्वीकार करते हैं किंत जो बस्तु के वस्तत्व के नास्तिरूप भी है। वह द्रव्य अपेक्षा नित्य ही है। क्यों
नियामक है उन परस्पर विरुद्ध अनंत सापेक्षा धर्मों की कि पदार्थ संबंध में 'यह वही है जो पहिले देखा था'
एक ही वस्तु में विद्यमानता केवल जैन दर्शन ही स्वीकार इस प्रकार की प्रत्यभिज्ञानात्मक प्रतीति उसकी नित्यता
करता है । इस प्रकार जैन दर्शन का संपूर्ण तत्वज्ञान को घोषित करती है। तया वही पदार्थ पर्याय अपेक्षा
प्रासाद अनेकांत की ठोस आधार शिला पर खड़ा हुआ है। अनित्य ही है । क्यों कि उसका रूपान्तर प्रति समय
अनेकांत की इस कसौटी पर यदि हम हिंसा-अहिंसा प्रतिभासित होता है । इस प्रकार वह एक ही समय में की परीक्षा करके देखें तो हमें विदित होगा जब एक नित्यानित्यात्मक है। वह द्रव्य अपेक्षा भी नित्य हो जीव संपूर्ण जड़-चेतन विश्व से भिन्न अपने स्वरूप में
और पर्याय अपेक्षा भी नित्य हो, अथवा वह द्रव्य अपेक्षा ही सदा प्रतिष्ठित रहता है और नित्य ध्र व रहकर नित्य भी हो और अनित्य भी ऐसा नहीं है । एक जीव प्रतिक्षण अपना विकारी अथवा निर्विकारी उत्पाद-व्यय स्व अपेक्षा से भी जी जीव हो और अन्य जीव तथा जड़ स्वयं ही निरपेक्ष भाव से किया करता है तो एक जीव की अपेक्षा भी जीव हो अथवा वह जीव भी हो और हिंसक और दूसरा हिंस्य-इस प्रकार का द्वैत ही उत्पन्न अजीव भी हो अथवा वह स्वकार्य भी करता हो और पर नहीं होता। जीव का प्रति समय का उत्पाद-व्यय ही कार्य भी। अनेकांत में 'भी' का ऐसा गलत प्रयोग नहीं उसका जीवन-मरण है जो वस्तु स्वभाव है। इस
विकोई कल्पना नहीं उतपाद-व्यय की सरिता में जीव प्रति समय उन्मग्न होती। यदि कर्ता कोई एक पदार्थ हो उसका कार्य किसी निमग्न हुमा करता है । यही उसका व्यापार है। तब दसरे पदार्थ में हो और कारण कोई तीसरा पदार्थ हो फिर कौन किस समय किसकी हिंसा अथवा रक्षा करे। तो तीनों में से कार्य के फल का उपयोग कौन करेगा?
और होगा यदि एक जीवके जीवन और मरण में किसी अन्य जड़ यहीं बड़ी दुविधा उत्पन्न हो जायेगी । प्रतः एक पदार्थ अथवा चेतन पदार्थ का अधिकार स्वीकार कर लिया अभिन्न भाव से स्वका कर्ता, कर्म, करण है ऐसा अस्ति- जाय तो फिर किसी जीव के वध के सहस्र सहस्र मूलक भाव और वह परका कर्ता, कर्म, करण नहीं है प्रयत्न करने पर भी उसका वध शक्य क्यों नहीं होता ऐसा नास्ति-मूलक-भाव अनेकांत है । कर्ता, कर्म, करण मोर किसी जीव की रक्षा के लक्ष लक्ष प्रयत भी अभिन्न एक ही वस्तु में होते हैं। ऐसा अबाधित नियम क्यों हो जाते हैं?
प्रतः भिन्न पदाथों में यदि कर्ता, कर्म, करणत्व की इस प्रकार एक जीव तथा अन्य जड़-चेतन पदार्थों संभावना को जाय तो उनके ऐक्य का प्रसंग उपस्थित में परस्पर वध्य-घातक भाव प्रसिद्ध होने पर भी यह होगा और यहीं एकांत है। और दो पदार्थ कभी एक प्रश्न उत्पन्न होना स्वाभाविक है कि लोक में जीव को
लोक होते नहीं है. मारने और बचाने का जो प्रनादि व्यवहार प्रचलित है यदि ऐसा होने लगे तो विश्व का स्वरूप ही नष्ट भृष्ट क्या वह सर्वथा असत् है ? यदि मनेकांत के प्रकाश में हो जायगा। अतः ऐसे एकांत की कल्पना सर्वथा मिथ्या वस्तु-स्थिति का अवलोकन किया जाय तो यह निविवाद
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
है कि वस्तु-स्थिति का इस लोक व्यवहार से कोई सदा ही परोक्ष है कि कोई जीव किसी के प्राणों का सम्बन्ध नहीं है । कोई जीव अपने चतुष्टय की चतुः अपहरण अथवा रक्षा नहीं कर सकता किन्तु प्रत्येक सीमा से बाहर कभी निकलता ही नहीं है। जिसे हम प्राणी मायु परिवर्तन के क्षण को प्राप्त होकर स्वयं ही व्यवहार में हिंसक कहते हैं वह भी सदा अपनी सीमा में अन्य गति के प्रति गमन करता हैं तब सहज विद्यमान विद्यमान है और जिसे हम हिंसक कहते हैं वह भी अपनी अनुकूल चतुर्दिक वातावरण पर उसकी रक्षा अथवा सीमा कभी छोड़ता नहीं है। दोनों स्व-स्व कार्य निरत मरण के कर्तत्व का उपचार किया जाता है, यह व्यवहार हैं । जिसे हम हिंसक कहते हैं वह हिंसा के विकल्परूप नयकी औपचारिक शैली है जो वस्तु की बहिरंग स्थिति अपने विकारी कृत्य में निरत हैं तथा जिसे हम हिंस्य के द्वारा वस्तु को प्रस्तुत करती है। इस प्रकार लोक में कहते हैं वह अपनी अवस्या के वर्तमान आकार का वध एवं रक्षा के रूप में हिंसा-अहिंसा का जो व्यवहार परित्याग करके दूसरे प्राकार को प्राप्त करने जा रहा प्रचलित है वह वास्तविक नहीं वरन् प्रौपचारिक ही है। है। प्रतः वध और रक्षा का व्यवहार वास्तविक नहीं . इस संपर्ण विवेचन से यह बात स्पष्ट की जा वरन औपचारिक ही है । 'भगवान की कृपा से मुक्ति सकती है कि जब कोई किसी का वध नहीं कर सकता मिली' तथा 'गुरु के प्रसाद से ज्ञान मिला' आदि निमित्त और किसी प्राणी की किसी के द्वारा रक्षा नहीं की मुख्यता से अगणित उपचार होते हैं। किन्तु वस्तु- हो सकती तो फिर हिंसा अहिंसा नाम की कोई स्थिति इस कथन के अनुकूल नहीं होती। भगवान की
चीज भी नहीं है ? इस प्रश्न के समाधान के वीतरागता में कृपा के लिये कोई अवकाश नहीं है। हां!
!! लिये हमें हिंसा-अहिंसा के स्वरूप पर विचार करना प्रत्येक वही प्राणी उनकी वीतरागता से अपनी पात्रता ।
" चाहिये । वास्तव में हिंसा-अहिंसा प्रात्मा की पर्यायें हैं । के अनकल प्रेरणा ले सकता है यही उनका निमित्तत्व हैं। जड में उनका जन्म नहीं होता । यदि कोई पत्थर है और इसी को व्यवहार में उनकी कृपा करते हैं। किसी प्राणी पर गिर जाय और उसके निमित्त से उस इसी प्रकार गुरु के द्वारा प्रदिपादित तत्व को सम्पादित
प्राणी की वर्तमान पर्याय का अंत हो जायें अर्थात् मरण किये बिना गुरु का प्रसाद भी कुछ नहीं है । इस प्रकार हो जाय तो पत्थर को हिंसा नहीं होती। किंतु कोई के कथन में विद्यमान, अनुकूल निमित्त का कार्य के कतृत्व जीव किसी के वध का विकल्प करे तो उसे अवश्य हिंसा का श्रेय देते हुए भी उसी के साथ परिणत उपादान को
होती है, अतः हिंसा-अहिंसा चेतन की विकारी तथा ही कार्य के कर्तृत्व का संपूर्ण श्रेय है । क्योंकि कार्य
निर्विकारी दशायें हैं, आत्मा अपने में स्वाधीनता से उनको उपादेन में उसकी स्वशक्ति से ही निष्पन्न होता है।
उत्पन्न करता है। हिंसा का लक्ष्य 'प्रमत्त योगात् प्राणवस्तु की इस अंतरंग (उपादान सबंधित) एवं ... व्यपरोपणं' कहा है । प्रमत्त-योग प्रात्मा का ही विकारी
निमित्त एवं संयोग से संबंधित), स्थिति को कर्म है अतः उस प्रमत्त योगरूप विकारी कर्म का फल जानने एवं प्रस्तुत करने की दो पद्धतियां लोक एवं प्राण-व्यपरोपण भी प्रात्मा में ही होता है। प्रमत्त योग मागम सम्मत हैं । जो वस्तु की अंतरंग स्थिति को रूप अपराध एक आत्मा करे और उसका फल प्राणनिरपेक्ष रूप में प्रस्तुत करती है उस शैली को निश्चय- व्यपरोपण कोई दूसरा प्राणी भोगे, यह अनर्थ लोक में नय कहते हैं और जो वस्तु के बाह्य वातावरण का भी सह्य नहीं होता। प्रात्मा का एक नित्य शुद्ध त्रैकाअध्ययन के द्वारा वस्तु का ही प्रतिपादन करती है लिक ध्रव स्वरूप है । वही उसका वास्तविक रूप है। उस शैली को व्यवहार नय कहते हैं। इन दोनों नयों के उसका पर्यायाश्रित वर्तमान स्वरूप विकारी है अत: वह प्रकाश में यदि हम हिंसा अहिंसा की समीक्षा करें तो वास्तविक नहीं है। वस्तु की इन दोनों स्थिति को 'एक जीव दूसरे जीव का वध अथवा रक्षा करता है। समझ कर जो अपने शुद्ध त्रैकालिक स्वरूप में अपनी इस निमित्त सापेक्ष कथन में निश्चय-नयका यह रूप तो वर्तमान पर्याय का विलय अर्थात् तल्लीनता करता है
...
..
उत्पन्न करता है
बहिरंग
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
तब द्रव्य से तप वह पर्याय अपने स्वरूप में सावधान हिंसा से बचने के लिये रक्षा मूलक शुभ विचार तथा (प्रप्रमत्त) होकर प्रवर्तित होती है और वस्तु की उस शुभाचार का निर्बल दशा में अंगीकार करना पड़ता है निर्विकारी द्रव्य से सहकृत निर्विकारी पर्याय को अहिंसा पर यह अंगीकार अनुपादेय दृष्टि पूर्वक छोड़ने के लिये कहते हैं और चैतन्य की वह पर्याय जो अपने शुद्ध स्वरूप ही होता है। से बिछुड़ कर पर की अपेक्षा करती है, अपने स्वरूप में
लोक में आज हिंसा और अहिंसा का स्वरूप केवल प्रसावधान होकर पर में युक्त होती है पर के संबंध में
बाह्याचार में ही संकुचित हो गया हैं, उसके मूलाधार रागद्वेषात्मक विविध विकल्प करती हैं, उस विकारी
आत्मा के परिणाम से मानों उसका संबंध ही टूट गया पर्याय को हिंसा कहते हैं। प्राचार्यों ने भी 'अप्रादुर्भावः
है । यह अविवेक की पराकाष्ठा है जो लोक में अनाचार खलरागादीनां भवत्यहिंसेति' रागादि के अप्रादुर्भाव को।
___ को प्रोत्साहित करती है। मनमें चाहे कितने ही निंद्य अहिंसा और उनकी उत्पत्ति को ही हिंसा कहा हैं।
पाप-मय विचार उत्पन्न हो किंतु यदि उनके साथ किसी प्रतएव चित् विकार ही हिंसा है और झूठ, चोरी आदि
प्राणी को पीड़ा नहीं हुई तो वह हिंसा नहीं मानी सभी में चित्-विकार का अविनाभाव होने के कारण वे ।
जाती। यह विचार न केवल जैन दर्शन वरन् समग्र सब हिंसा की ही पर्यायें हैं। किसी प्राणी के वध अथवा
भारतीय दर्शन के ही विपरीत है। किसी व्यक्ति को रक्षा के विकल्प को अर्थ क्रिया कारित्व प्रदान कर
हमारे मायाचार का पता न लगे और वह प्रपीड़ित न सकना जीव के अधिकार क्षेत्र के बाहर होने के कारण
हो तो हम हिंसक ही नहीं हैं । कोई व्यक्ति परिस्थिति वह विकल्प अशक्यानुष्ठान है अतएव चित्त-विकार है
की विवशता में अपनी वस्तु हमें अर्द्ध मूल्य में प्रस्तावित और हिंसा है, अतएव किसी प्राणी के वध और रक्षा करे तो अर्द्ध मूल्य में उसके क्रय जैसा निर्दय कृत्य करके का प्रहं छोंड कर विज्ञ पुरुष सभी प्रकार के विकल्पों से
भी हम अहिंसक ही बने रहते हैं। यदि परप्राण प्रतीत अपने शुद्ध स्वरूप में ही विश्राम करना श्रेयस्कर परिपीडन तक ही हिंसा की सीमा हो तो मुनि के गले समझते हैं और यही शुद्ध प्रात्मव्यवहार हैं।
में सर्प डालकर श्रेणिक सातवें नरक का कर्म क्यों . अहिंसा का यह स्वरूप स्थिर हो जाने पर पुनः उपार्जित करते ? मुनि को तो इस कृत्य से कोई पीड़ा पर प्रश्न उत्पन्न होता है कि किसी प्राणी का वध तो नहीं हई थी। किसी के पैर का कांटां निकालने अथवा हिंसा है ही किन्तु यदि उसकी रक्षा का विचार भी शल्य-क्रिया करने में शरीर रूप द्रव्य प्राण का छेद भी हिसा है तो फिर दूसरे प्राणी की रक्षा का भद्र विचार होता है और भाव-प्राणों का पीड़न भी होता है पर प्रौर व्यवहार भी छोड़ देना चाहिये ? इसका समाधान शल्य कर्ता हिंसक तो नहीं कहलाते, किसी अंधे को पह है कि दोनों प्रकार के विफल विकल्पों का परित्याग पत्थर मारने पर यदि उसके नेत्र खुल जावें तो पत्थर करके यदि आत्म स्वरूप की उपलब्धि का अवसर हो मारने वाला अहिंसक तो नहीं है। न केवल चेतन वरन अब तो दोनों विकल्पों का परित्याग ही उपादेय है और किसी जड़ प्राकृति पर भी रोष की उत्पत्ति में हिंसा पडतो दोनों प्रकार के विकल्पों का परित्याग सहज हो अनिवार्य है। प्राज प्रात्म परिणाम शून्य कुछ निश्चित हो जाता है अन्यथा रक्षामूलक शुभ विचार का परित्याग शुभाचार नित्य करके हम 'धर्मात्मा' का ताज अपने करके वध मूलक अशुभ विचार में प्रवृत्ति करना युक्त शीश पर पहिन लेने का दंभ करते हैं किन्तु यह विस्मरनहीं है। जैसे औषधि अनुपा य होने पर भी उसे छोड़ णीय नहीं है कि जिस प्राचार के साथ विचार की कर रोग में प्रवृत्ति करना अच्छा नहीं होता । हां! तद्र पता नहीं है उसके फल में हमें शुभत्व की प्राशा प्रारोग्य लाभ के अवसर में औषधि का परित्याग अवश्य नहीं करनी चाहिये वरन् वहां अशुभ फल की ही उपादेय होता है । प्रतः 'विषस्य विष प्रौषधम्' के संभावनायें अधिक होती हैं । अत: जीवन को मुक्ति के पमान वध-मूलक प्रशुभ-विचार तथा प्रशुभाचार रूप प्रशस्त पथ पर अग्रसर करने के किये यह अनिवा
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
कि उसमें सद्विचार और सदाचार का उदय हो। लोक जीवन की निर्बल भूमिकामों में वस्त्र, व्यापार प्रादि की में दंभ, द्वेष, और घणा का उन्मूलन करने के लिये भी अपेक्षा रूप चारित्र का जो विकार शेष रहा होता है यही आवश्यक है कि हम अपनी वासनायें घटायें और वह भी शुद्ध अहिंसाचरण से शनैः शनैः जीवन से परिग्रह की संचय वृत्ति घटा कर सभी प्राणियों को अपने बहिष्कृत होता जाता है और जीवन निरपेक्षता की स्वत्व की उपलब्धि का अवसर दें।
उच्चतर भूमिकाओं पर प्रारोहण करता हा अंत में प्रमत्त-योग पूर्वक चित्-विकार के अभाव के रूप में
पूर्ण निरपेक्ष अथवा मुक्त बन जाता है । जीवन की
इस उच्चतम निरपेक्षता को सिद्ध अथवा परमात्मा कहते अहिंसा का स्वरूप हृदयंगम कर लेने पर विश्व के स्व ।
हैं। और यह परम निराकुल निविकार स्थिति ही संचालन क्रम बद्ध जीवन-प्रवाह पर अपना स्वत्व स्थापित करके उसमें पद पद पर हस्तक्षेप करके उस ।
_अहिंसा का अमृत फल हैं। प्रवाह क्रम को अपने अधिकार में लेने के अहं रूप महा यही महावीर की अहिंसा का अनेकांतिक दर्शन है पाप का तो अंतिम संस्कार हो ही जाता है साथ ही और यही महावीर के दर्शन की अनेकांतिक अहिंसा है।
राग मांद जब आतम अनुभव आत्रै
तब और कछु ना सुहावै ॥टेक।। रस नीरस हो जात तत्क्षण
- अक्ष विषय नहीं भावे॥॥ गोष्ठी कथा कुतूहल विघटै
पुद्गल प्रीति नशावे॥ राग द्वेष जुग चपल पक्षयुत
मन पक्षी मर जावै ॥२॥ ज्ञानानन्द सुधारस उमगै
घट अन्तर न समावै ।। 'भागचन्द' ऐसे अनुभव को
हाथ जोरि शिर नावै ॥३॥
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
धर्म व संस्कृति की प्रात्मा
• सत्यदेव विद्यालकार नई दिल्ली
मानव जीवन की प्रयोग शाला में जो सांस्कृतिक अनुसंधान सदियों तक निरन्तर होते रहे उनका निचोड़ जैन धर्म कहा जा सकता है....."वह ऐसी कोई बनी बनाई अथवा घड़ी हुई व्यवस्था नहीं थी जिसमें रंग मंच की तरह मानव को लाकर खड़ा कर दिया गया हो । वह तो अनुभूत प्रयोगों की ही निष्पत्ति है जिनका सूत्रपात भगवान ऋषभदेव के समय हया और जिनका भ्रम निरन्तर बना ही रहा।
रतीय जीवन का प्रवाह यदि एक महानद के स्थिति अथवा महत्त्व नहीं है। धर्म पर आचरण करने
समान है, तो उसके दो किनारों को 'वैदिक' वालों के बिना धर्म स्थिर नहीं रह सकता । श्रीकृष्ण ने व 'श्रमण' नाम दिया जाना चाहिए। धर्म समाज के इसी स्थिति को "धर्मग्लानि" कहा है। समाज में धर्म जीवन का नियमन करता है, तो संस्कृति उसका नियंत्रण के प्रति ग्लानि पैदा होकर जब उस पर आचरण करना करती है । पावार-विचार और व्यवहार के लिए व्यव- छोड़ दिया जाता है, तब समाज में अव्यवस्था पैदा हो स्था देने वाला धर्म है, तो उस व्यवस्था को व्यावहारिक जाती है। समाज की इस हानि को ही धर्म की हानि रूप देने का काम संस्कृति करती है । दूसरे शब्दों में यह कहा गया है । तात्पर्य यह है कि धर्म की हानि उसके भी कहा जा सकता है कि धर्म जब मानव जीवन में अनुसार या अनुकूल पाचरण न करने में ही है । इसलिए व्यावहारिक रूप धारण करलेता है तब उसे संस्कृति के धर्म के विधि विधान की अपेक्षा उस विधिविधान के नाम से पुकारा जाता है। इसीलिए धर्म और संस्कृति अनुसार प्रावरण करना कहीं अधिक महत्त्व रखता है। दोनों को मुख्यतः व्यवहार की कसौटी पर कसा जाने श्रमण संस्कृति के अनुसार इसको सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान की आवश्यकता है।
और सम्यक् चरित्र कहा गया है। वैदिक संस्कृति में
भी इसी प्रकार जीवन में धर्माचरण का समावेश करने धर्म का व्यवहार
के लिए जो स्तुति, प्रार्थना और उपासना शब्दों का धर्म की प्रात्मा क्या है ? इस प्रश्न की दार्शनिक
प्रयोग किया गया है। वह भी एक भ्रम को ध्याख्या बहुत अधिक. को गई है, परन्तु व्यावहारिक
बतलाता है। दृष्टि से विचार किया जाय तो इस परिणाम पर पहंचना प्रप्रासंगिक न होगा कि धर्म की आत्मा उसके व्यवहार धर्माचरण का महत्त्व में ही नीहित है । एक जैनाचार्य ने यह बिल्कुल ठीक श्रमण संस्कृति के सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और ही कहा है कि धर्मो धामिकैबिना" अर्थात् धर्म पर सम्यक चरित्र का अभिप्राय संक्षेप में यह है कि माचरण करने वाले धार्मिक लोगों के बिना धर्म की कोई धर्माचरण की पहली सीढ़ी उसकी सम्यक श्रद्धा प्राप्त
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
६०
करना है । किसी भी वस्तु के विषय में पूरी श्रद्धा प्राप्त किए बिना उसके प्रति आकर्षण लगाव अथवा अनुरक्ति पैदा नही होसकती। श्रद्धा प्राप्त करने के बाद ही उसके प्रति मनुष्य का झुकाव होता है । उस श्रद्धा के बाद ही ज्ञान की सचाई प्रकट होती है और उसे चिंतन, मनन प्रादि के द्वारा सफल बनाया जाता है। श्रद्धा के बिना ज्ञान कभी सच्चा नहीं होता। इसी को सम्यक् ज्ञान कहते हैं। लेकिन वह चिन्तन, मनन प्रथवा ध्यान भी निरर्थक है, जिस को जीवन व्यवहार अथवा चरित्र में पूरा नहीं उतारा जा सकता। जीवन व्यवहार अथवा चरित्र ही मन्तिम सोड़ी है।
वैदिक संस्कृति के अनुसार स्तुति प्रार्थना मोर उपासना का भी यही अभिप्राय है । वैदिक संस्कृति का मुख्य आधार 'ब्रह्म' अथवा 'परमेश्वर' है । मानव जीवन का सारा व्यवहार उसके अनुसार ब्रह्म अथवा परमेश्वर की प्राप्ति के लिए ही किया जाना चाहिए । उसकी प्राप्ति को ही मानव जीवन का परम लक्ष्य और परम पुरुषार्थ माना गया है। पहली सीढ़ी उसके लिए उसकी स्तुति है । अभिप्राय यह है कि उसके गुणों को भली प्रकार जानने का प्रयत्न किया जाना चाहिए, जिससे मानव के सम्मुख सणी बनने के लिए ऊचे से ऊंचा आदर्श उपस्थित होसके। उनके विचारकों का तो मत यह है कि मानव जीवन के लिए आदर्श इतना अधिक ऊंचा होना चाहिए कि उसको कभी पूर्णरूप में प्राप्त ही न किया जा सके जिससे कि साधारण मनुष्य उसकी प्राप्ति के लिए सदैव प्रयत्नशील बना रहे। पूरी जानकारी प्राप्त करने के बाद ही साधारण मनुष्य उसके सम्मुख अपनी प्रार्थना उपस्थित कर सकता है 'ब्रह्म' अथवा 'परमेश्वर' के गुणों को जानकर सद्गुणी बनने का प्रयत्न करने वाला ही उपासना का अधिकारी बनता है। उपासना का अभिप्राय है 'उपासन' अर्थात् ग्रात्मा में परमात्मा की ऐसी प्रतीति या अनुभूति पैदा होना, जो भक्त को भगवान के समीप पहुंत्रा दे । साधारण लौकिक व्यवहार में भी यह देखने में आता हैं कि साधारण मनुष्य अपनी किसी इच्छा या अभिलाषा की पूर्ति के लिए जिसके पास जाना चाहता है, पहले उसके सम्बन्ध में पूरी जानकारी प्राप्त करता है, उस जानकारी
|
के आधार पर जब उसको यह विश्वास होजाता है कि उसके द्वारा उसकी इच्छा या प्रभिलाषा की पूर्ति हो सकती है, तब वह उसके पास अपना प्रार्थना पत्र लेकर जाता है और प्रार्थना पत्र स्वीकार होजाने के बाद उसको उसके पास बैठकर काम करने के लिए एक छोटा सा प्रासन या स्थान मिल जाता है । यही है वह उपासना या उपासन की स्थिति, जिसके लिए वह सारा प्रयत्न अथवा पुरुषार्थं करता है।
इस प्रकार भ्रमण और वैदिक दोनों ही दृष्टियों से धर्म की आत्मा उसके अनुरुप आवरण करने में निहित है। धर्म के नाम से जो भी व्यवस्था की जाती है, उसका उद्देश्य यही होता है मानव के लिए उसके अनुकूल श्राचरण करने में कोई विशेष कठिनाई नहीं होती । धर्माचरण के मार्ग को सरल, प्रशस्त और निष्कटक बनाने के लिए ही धर्म के नाम से विविध प्रकार के सामाजिक एवं धार्मिक विधि-विधान बनाए जाते हैं। शासन व्यवस्था में जिस प्रकार कानूनी व्यवस्था की जाती है और हमारे देश में जिस प्रकार 'इंडियन पिनल कोड' अथवा 'ताजीरातहिन्द' की व्यवस्था की गई है, ठीक इसी प्रकार धार्मिक व सामाजिक क्षेत्र में धर्म के नाम से सदाचार सम्बन्धी विधि-विधान का प्रतिपादन किया गया है। इसी कारण इस धर्म व्यवस्था के लिए भी शासन शब्द का प्रयोग किया गया है। धार्मिक शासन व्यवस्था का सम्बन्ध मानव की अन्तरात्मा के साथ अधिक है। उसको बाहर से थोपने की अपेक्षा उसके पालन की प्रवृत्ति का प्रादुर्भाव अन्तरात्मा से ही होना चाहिए प्रश्न यह है कि विभिन्न धर्मों और संस्कृतियों में इस सम्बन्ध में जो व्यवस्था की गई है, वह कितनी सरल, कितनी बुद्धिगम्य और कितनी तर्क सम्मत है । एक को ऊंचा बताकर दूसरे को नीवा बताने की दृष्टि से तुलनात्मक अध्ययन करना अभीष्ट नहीं है । परन्तु मानव के लिए उपादेय दृष्टि से तुलनात्मक अध्ययन श्रावश्यक होजाता है ।
।
वैदिक संस्कृति का आधार
वैदिक संस्कृति का साधार मुख्यतः चार वेद है। उपनिषद, ब्राह्मण ग्रन्थ पुराण तथा अन्य ग्रन्थ सहायक
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
हैं। उनमें प्रतिपादिा व्यवस्था में ' न नु न च' के लिए वीभत्स स्थिति बज्यान के कारण बौद्धधर्म के लिए पदा कोई गुंजाइश नहीं है । उसका मन्तव्य एकान्तवादी होगई । बज्यान के कारण बौद्ध धर्म में खान-पान तथा है। उसमें कहा गया है कि 'नान्यःपंथा विद्यते अयनाय' प्राचार-विचार की सब मर्यादानों का अन्त कर दिया अर्थात् मृत्युरूपी दुःखसागर से पार होने के लिए उसको गया । अहिंसा पर आधारित बौद्ध धर्म में अहिंसा का जानने के सिवाय दुसरा कोई मार्ग नहीं है । ऐसा प्रतीत दिवाला पिट गया और संयम का नामोनिशां भी बाकी होता हैं, जैसे कि मानव संसाररूपी नाटक में केवल न बचा । बाममार्ग वैदिक धर्म तथा वैदिक संस्कृति को अपना पार्ट अदा करने पाता है । सारा रंगमंच उसको ले डूबा और ब्रजयान ने बौद्ध धर्म का दिवाला पोट पहले से ही तैयार मिलता है। यद्यपि गीता भगवान दिया। यह कितनी शोचनीय स्थिति है कि जो बौद्ध श्रीकृष्ण ने 'कर्मण्येवाधिकारस्ते' का प्रतिपादन किया धर्म महात्माबुद्ध की घोर तपस्या के फलस्वरूप फलाहै; परन्तु प्रतीत यह होता है कि वस्तुतः उसको उतना फूला था और जो सम्राट अशोक तथा सम्राट कनिष्क भी अधिकार नहीं है । विकृत एवं जन्मपरक वर्णव्यवस्था का प्रश्रय पाकर देश-विदेशों में चारों ओर फैला था, में तो निश्चितरूप से उसको इस अधिकार से बिल्कुल वह सम्राट हर्ष के समय में संयम तथा अहिंसा से वंचित कर दिया गया है । जन्म की आकस्मिक घटना विचलित या विमुख होकर मुख्यतः जादू टोने का मंत्रयान के बाद उसके अपने श्रम का कुछ भी महत्त्व नहीं बन गया और उसके विशाल विहार सेना के अड्डे बन रहता । धर्म के विधि-विधान का पालन या पाचरण गए। उसने सैनिक धर्म का रूप धारण कर लिया । भी कमीशन एजेंसी का विषय बन गया है। दान दक्षिणा इस कारण भी वह बज यान को झोंके को झेल न को सामर्थ्य की तुलना पर धार्मिक विधि-विधान का सका। भारत में वह नामाशेष होगया । वेवल अशोक प्रनुष्ठान तोला जासकता है और मेरे धर्माचरण का के नष्ट-भ्रष्ट शिलालेखों में और इतिहास के जीर्ण-शीर्ण सारा लाभ वह उठा सकता है, जो मुझे भारी भरकम पत्रों में उसका नाम रह गया। उसके विशाल बिहार, दान दक्षिणा दे सकता है । धर्म के ठेकेदारों या दलालों स्तूप और गुफायें आदि पुरातत्व विभाग के विषय बनकर के हाथों में सारा धार्मिक विधि-विधान एक खिलोना रह गए । अांधी की तरह वह चारों ओर फैला और बन गया है। ऐसी स्थिति में प्राडम्बर प्रपंच और तूफान की तरह शान्त होगया। विकृतिजन्य स्थिति का दिखावे आदि से धार्मिक विधि विधान को अलग नहीं दुष्परिणाम उसको प्रकृति के दण्ड की तरह भोगने को रखा जासकता । एक विकार अनेक विकारों को जन्म बाध्य होना पड़ गया । प्रकृति बड़ी कठोर है। वह देने का कारण बन जाता है और शतमुखी पतन अनिवार्य किसी को भी क्षमा नहीं करती। हो जाता है।
जैन धर्म की स्थिति श्रमण संस्कृति - बौद्ध धर्म - दूसरी और श्रमण संस्कृति भी विकृति से सर्वथा इसी पृष्ठभूमि में जैन धर्म की स्थिति पर कुछ सुरक्षित नहीं रह सकी और उसकी एक मुख्य शाखा विचार किया जाना चाहिए । इतिहास के प्रध्ययनशीन बौद्ध धर्म के लिए तो उसमें पैदा हुई विकृति उसके विद्यार्थी से यह छिपा नहीं है कि जैनधर्म बाममार्ग तया गले की फांसी बन गई । धर्मग्लानि की स्थिति का बजयान सरीखे विकारों से प्रायः सर्वथा सुरक्षित रहा सम्बन्ध किसी धर्मविशेष के साथ नहीं है। प्रत्युत वह है । उसमें विकृतिजन्य वैसी स्थिति प्रायः पैदा नहीं सभी धर्मों से सम्बन्धित है और सभी में धर्मग्लानि की हुई और उसका दुष्परिणाम उसको भोगना नहीं पडा। स्थिति पैदा होना सम्भव है। बाममार्ग के कारण वैदिक मानव जीवन की प्रयोगशाला में जो सांस्कृतिक अनसन्धान कर्म अथवा वैदिक संस्कृति के लिए विकृतिजन्य जो सदियों तक निरन्तर होते रहे, उनका निचोड़ जैनधर्म कहा स्थिति पैदा हुई. उससे भी कहीं अधिक भयानक तथा जासकता है । वह किसी व्यक्ति विशेष द्वारा प्रतिपादित
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
किसी अन्य विशेष पर आधारित नहीं है । यह उन यह प्रमुख विचारणीय विषय है कि दिगम्बर तथा धार्मिक विधि-विधानों में जकड़ा नहीं है, जिनका प्रति- श्वेताम्बर शाखायें किस प्रकार कब व कैसे प्रस्फुटित पादन विशेष परिस्थितियों में किसी विशिष्ट महापुरुष हुई। यह निर्विवाद और सन्देह रहित हैं कि मन्दिर द्वारा किया गया मिलता है। वह चमत्कारों का पिटारा मार्ग के साथ बाहरी पाडम्बर प्रपंच तथा निरर्थक दिखावे नहीं है। वह तो उन चौबीस तीर्थकारों की तपःपूत प्रादि स्वतः ही जुड़ जाते हैं। दान-दक्षिणा का महत्व साधना का परिणाम है, जिसको मानवजीवन की रसायन बढ जाता है । धर्म की ठेकेदारी और कमीशन एजेंसी साला का सर्वोत्कृष्ट प्रयोग कहा जा सकता है। प्रथम की प्रवृतियाँ पनपने लगती है। इसी कारण लगभग चार तीर्थकर ऋषभदेव के समय से अर्थात् सृष्टि के प्रारम्भ सौ वर्ष पहले जैन धर्म में वीर लोकाशाह के रूप में से करीब-अड़ाई हजार वर्ष पूर्व चौबीसवें तीर्थकर एक उत्क्रान्ति हुई, जिसको स्थानकवासी नाम दिय. गया। भगवान महावीर के समय तक मानव जीवन के निखार वीर लोकाशाह ने पूरे साहस, विश्वास और निष्ठा के व परिष्कार की जो प्रक्रिया सतत् व निरन्तर चलती ___साथ यह प्रतिपादन किया कि जैन प्रागमों में मन्दिर रही. उसको भगवान महावीर के बाद जैनधर्म का नाम मार्ग का विधान नहीं है । उनकी वही गति प्राप्त हुई दे दिया गया । वस्तुतः जैन शब्द का प्रयोग भगवान जो महान सुधारकों के भाग्य में लिखी होती हैं । सुकरात महावीर से पहले व्यवहार में नहीं था, और जैनधर्म को जहर का प्याला पिलाया गया। ईसा को फांसी पर उनसे पहले अनेक रूपों और अनेक नामों से विद्यमान लटकाया गया। स्वामी दयानन्द को आहार में विष था। व्यावहारिक दृष्टि से उसके आधारभूत पांचों दिया गया। स्वामी श्रद्धानन्द और महात्मागांधी को प्राणुव्रतों तथा महाव्रतों का प्रतिपादन भी क्रमशः हमा गोली के घाट उतारा गया। वीर लोकाशाह को भी है। वह ऐसी कोई बनी बनाई अथवा घड़ी हई व्यवस्था प्राहार में विष दिया गया था। नहीं थी, जिसमें रंगमंच की तरह मानव को लाकर खडा
जैन धर्म में एक और उत्क्रांति प्राज से लगभग कर दिया गया हो । वह तो उन अनुभूत प्रयोगो को ही दो सौ पर्व हई। चार सौ वर्ष पूर्व पश्चिम से इस्लाम के निष्पति है, जिनका सूत्रपात भगवान ऋषभदेव के समय
रूप में जो प्रचण्ड वेगवती लहर हमारे देश में पाई थी हुप्रा और जिनका क्रम निरन्तर बना ही रहा । समभावना
और जिसका लक्ष्य बलात् मन्दिर मार्ग पर आक्रमण से प्रादुर्भूत इन अनुभूतियों में से ही अहिंसा, सत्य,
करना था, उससे स्थानकवासी उत्क्रांति ने जैनधर्म को प्रस्ततेय और ब्रह्मवर्य के व्रतों का प्रादुर्भाव हुप्रा । जब
बचा लिया। इसी प्रकार दो सौ पूर्व पश्चिम से इसाई यह अनुभव किया गया कि ब्रह्मवर्य की साधना के लिए
धर्म के रूप में जो एक और प्रचण्ड लहर आई, उससे केवल बाहरी अपरिग्रह पर्याप्त नहीं है और भीतर की
तेरापंथ उत्क्रांति ने जैनधर्म को बचालिया । दोनों ही रागद्वेष जन्य प्रवृत्तियों पर भी विजय प्राप्त करना
उत्क्रांन्तियों का शुभ परिणाम यह भी हुप्रा कि संयम प्रावश्यक है, तब जितेन्द्रियता की भावना में से 'अपरि
और अहिंसा पर समाज की निष्ठा हढ़तर हुई। वह उस ग्रह' का प्रादुर्भाव हुमा । धर्म के चातुर्याम रूप में पांचवें
नैतिक पतन से बच गया, जिस पर ज्ञानमुखी पतन की व्रत प्रथवा महाव्रतों की प्रतिष्ठा हुई । इस जितेन्द्रियता स्थिति चरितार्थ होती है। जैन साधु चाहे किसी भी की ही भावना में से 'जैन' नाम का प्रादुर्भाव हुआ। शाखा से सम्बन्धित क्यों न हो, वह समाज के सम्मुख भगवान महावीर के बाद
त्याग-तपस्या, संयम और अपरिग्रह का उच्चतम व मानव जीवन के निखार या परिष्कार की प्रकिया। उत्कृष्ट मादर्श उपस्थित करता है । उसके ही कारण भगवान महावीर के बाद भी जारी रही । जैनधर्म में जैन समाज में इन गुणों की प्रतिष्ठा कायम है। इस मन्दिर मार्ग का समावेश कब, कैसे और क्यों हमा,-यह प्रकार जैनधर्म और जैन समाज दोनों विकारों से सुरक्षित इस निबन्ध का मुख्य विचारणीय विषय नहीं है और न रहने में सफल हुए।
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
जनधर्म की उत्क्रान्तिमूलक शाखायें
में प्रस्फुटित हुई है। साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से उनके . _ एक विशाल पेड़ अपनी शाखामों से फलता-फूलता, सम्बन्ध में विचार करना उनके ऐतिहासिक महत्त्व से और फैलता है। बहुत से पेड़ ऐसे होते हैं, जो अपनी ___ इनकार करना है। उनके ही कारण जैन धर्म की आत्मा शाखामों का भार सहन न कर सकने के कारण उनके का निरन्तर निखार एवं परिष्कार भार से नष्ट होजाते हैं। लेकिन, ऐसे पेड़ भी कुछ कम समाज के जीवन व्यवहार में उसकी प्रतिष्ठा की उत्तरोत्तर नहीं हैं, जिनकी शाखाओं पर फल-फूल उपजते है । उनके वृद्धि हुई है। इस उदार एवं व्यापक दृष्टि से जैनधर्म ही कारण उसकी शोभा और उपयोगिता में चार चांद के सम्बन्ध में विचार किया जाना चाहिए और लगते रहते है। नि.सन्देह जैनधर्म दूसरे प्रकार के पेड़ उसकी उत्क्रांतिमूलक परम्परा का महत्त्व प्रांका जाना के समान है। उससे विभिन्न शाखायें उत्क्रांति के रूप चाहिए।
पाश्चात्य विद्वान मि० सर यिलियम और हैमिल्टन के मध्यस्थ विचारों के विशाल मन्दिर का आधार जैनों के इस अपेक्षावाद का ही दूसरा नाम नयवाद है।
'विशेषतः प्राचीन भारत में किसी धर्मान्तर से कुछ ग्रहण करके एक - नूतन धर्म प्रचार करने की प्रथा ही नहीं थी, जैन-धर्म हिन्दू-धर्म से सर्वथा स्वतन्त्र है, उसकी शाखा रूपान्तर नहीं।'
-वैदज्ञ प्रो० मैक्समूलर सा.
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
चैन कवि नवल और उनकी भक्ति
• डा. सोमनाथ गुप्त
जयपुर ..
भक्ति पदक कविता केवल वैष्णव कवियों की ही वपौती नहीं है। जैन धर्मावलम्बियों ने भी भवित भाव से अपने आराध्य का स्तवन किया है और उनकी कविता में भगवान के प्रति अलौकिक अनुराग, असीम श्रद्धा एवं अतुल विश्वास कूट-कूट कर भरा हुअा व्यंजित हुअा है । नवल भी एक ऐसे ही कवि थे। हिन्दी साहित्य में उनका साहित्य अपने स्थान का अधिकारी है।
याध्यात्म की परम्परा में 'भक्ति' का बड़ा महत्व है। माना जाता है । इनके दो अन्य प्रसिद्ध हैं-"वर्तमान
"भागवत सम्प्रदाय के विकास के साथ साथ भक्ति- पुराण" और बुद्धि-विलास"। भावना ने भी बड़ा प्रसार पाया। और भक्ति मार्ग अनेक
एक तीसरी रचना फुटकर पदों के रूप में है । इन रूपों में जन साधारण को प्रानन्दानुभूति एवं प्रात्म- पदों संतोष में सहायक सिद्ध हुप्रा।
भक्ति की यह प्रवहमान धारा किसी एक टी नवल क आराध्य सम्प्रदाय तक सीमित न रह सकी, हिन्दू धर्म, संस्कृति जैन तीर्थंकर-'जिन भगवान' भक्त कवि नवल और उनके विभिन्न भेदों-प्रभेदों में भक्ति के अनेक रूपों के प्राराध्य थे । अपने उपास्य का वर्णन उन्होंने अनेक का प्रचार हमा। भागवत की "नवधा भक्ति" से प्रत्येक प्रकार से किया है । उनको उपाधियों का वर्णन करते विद्वान परिचित ही है। कुछ मूल, कुछ रूपान्तरित हुए नवल कहते हैंप्राकृतियों के साथ यही भक्ति भावनायें सम्प्रदायों में जड़ १. सांत छवि मति प्रानन्द कारी. पकड़ती चली गई।
देखत नैन भजत भ्रम भारी । वास्तव में अपने उपास्य के प्रति प्रलौकिक अनुराग
कुमति कुभाव सकल हू टारी, का नाम ही 'भक्ति' है। यह अनुराग प्रेम के द्वारा प्रगट
नवल गही प्रभू सरनि तिहारी॥' होता है। अतएव भक्ति के तीन प्रधान तत्व हैं-भक्त,
२. वाह्य अभ्यंतर तज्यो उपास्य और भक्ति का स्वरूप ।
परिग्रह आत्मकाज करईया । जैन कवि 'नवल' ढूंढाड़ प्रदेश के अन्तर्गत बसवा
तप करि केवल ग्यान उपायो ग्राम के निवासी थे । इनका समय सं० १७६०-१८५५
पाठी करम खिवईया ॥२
१. पदस नं० १०८७ पत्र सं० १३-१४; वधीचन्द्र मंदिर जयपुर २. वही, पत्र १३
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
... ३. दुवादि दोष ताके न लेस,
सीमा है । जैन धर्म का यह पक्ष भागवत सम्प्रदायों में . ग्यानादिक गुन पीजे असेस ॥3 प्रस्फुटित नहीं हो पाया है। उन सम्प्रदायों में वह केवल ४. जीवा जीव पदारथ जेते
दार्शनिक रूप तक सीमित होकर समाप्त होगया है । __ लोकालोक अछेव ।
नवल की यह अभिव्यक्ति सराहनीय है। अपने ऐसे ही जुगपति येक समैं सवहि
पाराध्य के सामने उन्हें अपने अवगुणों को प्रगट करते को है जानन की टेव ॥४
हुए तनिक भी संकोच नहीं होता । भक्त अनुभव करता उपरोक्त आधार पर कहा जा सकता है कि नवल के
है कि वह स्वयं हिंसा, लोभ, असत्य, अस्तेय और
परनिंदा प्रादि अवगुणों का दास है, परतिय की रूपउपास्य का बाह्य स्वरूप अत्यन्त शान्त छवि से सम्पन्न हैं,
माधुरी उसे अपनी ओर ललचाती हैं, संचय करने की उनका दर्शमात्र ही सारे भ्रमों के निराकरण का साधन हैं, सभी अमंगलकारी प्रभावों को दूर हटाने वाला है।
पादत उसका पीछा नहीं छोड़ती। इन्हीं सब कारणों
से विवश होकर वह अपने प्रात्मनिवेदन में कहता है। नवल के पाराध्य-बाह्य और प्राम्यंतर दोनो प्रकार के पहिग्रह से दूर, आत्मानुकूल कार्य करने के प्रेरक एवं प्रभु जी ! मैं बहुत कु-बुद्धि करी। .. तप द्वारा ज्ञान उत्पन्न कराने वाले तथा प्राठों प्रकार के
थावर जंगम जीव सताये करुणा उर न धरी ।।.. कर्मों के बंधन से छुटकारा दिलाने वाले हैं। उनमें स्वयं
ये जी लोभ लग्यो विषयन संग राच्यौ निज सुध विसरी। क्षुधा आदि दोषों की लेशमात्र भी स्थिति नहीं: वहां तो झूठ ही झूठ वचन मुख भाख्यौ, पर धन लेतन डरी।। केवल मात्र ज्ञान ही की उपलब्धि है । उनके उपास्य की
ये जी बहु प्रारंभ कियौ मन मान्यौ पर निंदा उचरी। दृष्टि में जीब-अजीव, लोक-अलोक सभी समान हैं।
पर-तिय रूप निरखि ललचानौ परिग्रह भार भरी।।
ये जी और अन्याय करी मैं जेती तुम जानत सगरी । उपास्य के स्वरूप में उपरोक्त गुरण केवल जैन धर्न
या ते 'नवल' सरनि अब पकरी है प्रभु विपति हरी।। के अनुरूप ही नहीं है वरन प्राय: सभी धर्मों में उपास्य के इसी प्रकार वर्णन पाये जाते हैं । आगे चलकर नबल
यह आत्म-बोध कि वह पाप का भंडार और ने उन्हें 'जगनायक' तक कह दिया है- . .
अनाचार का वृहत कोष है भक्त को अपना प्रायश्चित्त .
करने की प्रेरणा देता है तथा उसे भक्ति की ओर प्रवृत्त १. तेरे जगनायक नाम सही।
करता है। जीवन के इसी मनोवैज्ञानिक सत्य के दर्शन जगत उधारक दीसत हो तुम
हमें नवल की उपरोक्त पंक्तियों में होते हैं। कर्म के निहचे मो परतीति भई॥५
फन्दों में जकड़े रहने तथा लोभ-मोह में फंसे रहने का २. जगत नायक जगबंदन कहिये
उल्लेख कवि ने अनेकों स्थानों पर किया है। अपने यही जगत में सारवे।
उपास्य नाभि-कुमार से अपना उद्धार करने की प्रार्थना
उन्होंने अनेक स्थलों पर की है । क्योंकि कवि का रटल दीन दुखी सव ही के रक्षक कहिए अरु निरवारिन ।।६।
विश्वास है कि भक्त का उद्धार उपास्य की कृपा या अध्यात्मक स्वरूप के उपरान्त सार्वजनिक नेता के अनुग्रह पर ही अवलम्बित है । रह-रह कर भक्ति अपने रूप में अपने उपास्य की परिणिति मानववाद की चरम उपास्य का ध्यान इस ओर भी दिलाता जाता है कि
३. वही, पत्र ६ ४. वही, पत्र १४ ५. महावीर शोध संस्थान जयपुर से प्राप्त । ६. पद संग्रह ६२,६-२, वधीचंद मंदिर जयपुर ।
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
यदि उसके अवगुणों पर ही ध्यान दिया गया और भगवान ने अपने 'पतितोद्धारन' विरद की रक्षा स्वयं न की तो भक्त का निस्तार होना असंभव है। "अधम-उधारक प्रगट जगत में सुनियो नाम तिहारो। मो गुन पौगुन परि नहिं जइये अपनो विरद संभारो॥" (पद संग्रह ४६२, पत्र १८७ वधीचंद मंदिर जयपुर)
ऐसा निवेदन मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भक्त को बड़ा निर्भीक एवं प्राशा से सम्पन्न बना देता है। कभी कभी तो स्थिति यह होजाती है कि भक्त भगवान को व्यंगोक्ति में बुरा भला भी कह देता है, सखा-भाव की यह अभिव्यंजना प्रायः सभी ऊंचे भक्तों में पाई जाती है।
नवल जैसे भक्त में उपरोक्त सभी गुण विद्यमान हैं । यद्यपि कवि की भाषा प्रधानतया ब्रजभाषा हैं जिसमें कहीं कहीं थोड़ा सा ढूढाड़ी का भी मिश्रण होगया है परन्तु साथ ही साथ उनकी भाषा में कई वोलियों के उदाहरण मिलते हैं । खड़ी बोली में वह कहते हैं"मुझे है चाव दर्शन का निहारोगे तो क्या होगा? सुनो तुम नाभि के नंदन! परम सुख देन जगवंदन ! मेरी विनती अपावन की, विचारोगे तो क्या होगा? फंसा हूं कर्म के फंदे, मुझे तुम क्यों छुड़ावो ना, तुम्ही दातार हो जगके सुधारोगे तो क्या होगा?
प्ररज सुन लीजिये मेरी करू विनती प्रभु! तुम से, नवल को जग के दुखों से छुड़ा दोगे तो क्या होगा? एक दूसरा उदाहरण उनका रेख्ता भाषा का देखिये"नित मूरति तेरी प्रान विलोकू भाइया हो मैनू, तेरे देखन दी अभिलाषा नित चहन्दा होहे मेरा मना,
नहिं भूल्यू रयन दिन तेनू । जिया जिन विन अति अकुलानो ।
नहीं रहन्दा हो इकहु छिना,
- जिन देखा मिटत अचैन। सून लीजिए अरज कर छा
यह अचल वास शिवदा मिले: ..
ये नवल कहै मोहे देनू॥ -प्राचीन जैन भजन संग्रह, भजन ४२ उपसंहार में यह कहा जा सकता है कि भक्ति परक कविता केवल वैष्णव कवियों की ही बपौती नहीं है। जैन धर्मावलम्वियों ने भी भक्ति भाव से अपने आराध्य का स्तवन किया है और उनकी कविता में भगवान के प्रति अलौकिक अनुराग, असीम श्रद्धा एवं अतुल विश्वास कूट कूट कर भरा हुप्रा व्यं जित हुआ है । नवल भी एक ऐसे ही कवि थे। हिन्दी साहित्य में उनका सहित्य अपने स्थान का अधिकारी है।
महावीर वाणी कोहो पीइ पणमेइ, माणो विषय नासणो।
माया भित्ताणि नासेइ, लोभो सय विणासणो । क्रोध भीति का नाश करता है, मान विनय का नाश करता है । माया मित्रता का नाश करती है और लोभ सभी सद्गुणों का नाश करता है।
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
अतिशय क्षेत्र श्री पदमपुरा की नवनिर्मित वेदी।
से.
in Education International
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
ठोलियों के मन्दिर, जयपुर का कलात्मक पुट्ठा।
2222222222222222222222
बैराठियों के मन्दिर, जयपुर का कलात्मक पुट्टा ।
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
दंदाड़ी जैन गद्य साहित्य
• गंगाराम गर्ग एम. ए., रिसर्च स्कोलर जयपुर
जैन गद्यकारों के ग्रन्थ दो प्रकार के हैं-टीका ग्रन्थ एवं मौलिक ग्रन्थ । ढुंढाड़ प्रदेश में टीकाएं अधिक लिखी गई हैं। संस्कृत, प्राकृत व अपभ्रंश में लिखे लिखे ग्रन्थों को समझना जब साधारण जनता के लिए कठिन हो गया तो धर्मप्रेमी विद्वानों ने उनका अनुवाद जन-प्रचलित भाषा में करना शुरू किया जिससे वे सहज बोध गम्य हो सकें।
बहत् राजस्थान बनने से पूर्व यह प्रान्त कई भागों में टब्बा-टब्बा बहुत संक्षिप्त टीका होती है। ट विभाजित था-मारवाड़, मेवाड़, ढाड़ आदि। इनमें मूल शब्द का अर्थ उसके नीचे, पार्श्व में अथवा शेखावाटी के अतिरिक्त समस्त जयपुर राज्य का नाम अधिकांशतः ऊपर लिख दिया जाता है। यह टीका इंढाड़ है। प्रदेश के नाम के आधार पर ही यहां की जन-साधारण के लिए उपयोगी नहीं कही जा सकती; भाषा ढाडी कहलाई जो राजस्थानी और ब्रज दोनों के क्योंकि शब्दार्थ लिखे जाने मात्र से मूल का भाव मेल-जोल से बनी है। जयपुर को सदा विद्वानों का समझना कठिन होता हैक्षेत्र बनने का सौभाग्य प्राप्त होने के कारण ढूढाड़ी को
उदाहरण:
दी भी साहित्यिक भाषा होने का गौरव प्राप्त हुआ है।
मोहक्षयात् ज्ञानदर्शनावरणांतराय क्षयाच्चं केवलं इस भाषा में पद्य तो अन्य सम्प्रदायों के कवियों का भी
___ अर्थात्-मोह कर्म के क्षय तै, ज्ञानावरणी दर्शनाय मिलता है, किन्तु गद्य की रचनाएं अद्यावधि केवल जैन
वरणीय, अन्तराय, इन च्यारि. कर्मनि के क्षय ते नि लेखकों की ही उपलब्ध हुई हैं।
केवल ज्ञान ही है। जैन गद्यकारों के ग्रन्थ दो प्रकार के हैं-टीका ग्रन्थ
बंधहेत्वभावनिजराभ्यां कृष्णकर्मविप्रमोक्षो मोक्ष ।' एवं मौलिक ग्रन्थ । ढूंढाड़ प्रदेश में टीकाएं अधिक लिखी
अर्थात्-बंध हेतु कारण जु है मिथ्यात्वादि तिनके गई हैं। संस्कृत, प्राकृत व अपभ्रश में लिखे ग्रंयों को
प्रभाव करि अरु निर्जरा करि, समस्त कर्मों सेती मोक्ष समझना जब साधारण जनता के लिए कठिन हो गया तो धर्म-प्रमी विद्वानों ने उनका अनुवाद जन-प्रचलित
कहिए छूटिबौ सोई मोक्ष कहिए । भाषा में करना शुरू किया जिससे वे सहज बोध गम्य राजस्थानी टब्बा का भी यही स्वरूप है ।२।। हो सकें । टीकानों के भी तीन प्रकार है-(१) टब्बा बालावबोध-बालावबोध ऐसी सरल और सुबोध (२) बालावबोध (३) वचनिका ।
टीका है जिसे कम पढ़ा लिखा व्यक्ति भी आसानी से १. दौलतराम कृत तत्वार्थ सूत्र की टब्बा टीका अध्याय १०, १, २. २. शिवस्वरूप शर्मा कृत राजस्थानी गद्य साहित्य का उद्भव और विकास ५-१४
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
६८
समझ सकता है | राजस्थानी बालावबोध में मूल के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए परम्परागत, जातक अथवा मनगढन्त कथायों का बड़ा संग्रह रहता है किन्तु ढाड़ी के बालावबोधों में यह बात नहीं । वहां तो बालावबोध टीकाकार मुलं छंद का ग्रन्वय करते हुए प्रत्येक शब्द के अर्थ को खोल खोल कर समझाता चलता है । तदुपरान्त दो-तीन पंक्तियों में मूल छंद का साधारण अर्थ लिख कर उसका संक्षिप्त भावार्थ भी लिख देता है - यदि कहीं प्रावश्यकता हुई तो । शैलो को दृष्टि से ढूंढ़ाड़ी बालावबोध राजस्थानी बालावबोध से भले हो भिन्न हो किन्तु उसका मुख्य उद्देश्य बालक को समझाने के समान सरल, सोधे व स्पष्ट ढंग से कहना राजस्थानी बालाववोध से भिन्न नहीं कहा जा सकता 1 उदाहरण:- प्रात्मनश्चितयैवालं मेचकामेचकत्वयोः । दर्शनज्ञानचारित्रः साध्यसिद्धिर्न चान्यथा ॥ 'मेचका मेचकत्वयोः श्रात्मनः चिन्तया एव प्रलं' - मेचक कहतां मलिन, अमेचक कहतां निर्मल इसौ छै दोइ नय पत्तपातरूप । श्रात्मः कहतां चेतन द्रव्यकौ, चिन्तया कहतां विचारुतेनै विचारे, श्रलं कहतां पूरी होउ । इसमें विचारतां पुनि साध्यसिद्धि नहि 'एव' कहता इसौ निहची जानिव ।
स्वरूप
भावार्थ - इसी जु श्रुत ज्ञानकरि ग्रात्म विचारतां बहुतविकल्प ऊपजै छै । एक पक्ष विचारतां श्रात्मा अनेक रूप छे, दूर्ज पक्ष विचारतां श्रात्मा श्रभेद रूप छै, इसी विचारतां फुनिं स्वरूप अनुभव नहीं । इहां कोई प्रश्न करे छे विचारतां तो अनुभव नहीं, अनुभव क्यों छै ? ऊतरुः — इसौ जु प्रत्यक्षपनै वस्त कौ स्वाद करतां अनुभव छे सोइ कहि जे छ ।
' दर्शनज्ञानचारित्रैः साध्यसिद्धि' - दर्शन कहतां शुद्ध स्वरूप को अवलोकन, ज्ञान कहतां शुद्ध स्वरूप को प्रत्यक्षपने जानपनौ, चारित्र कहतां शुद्धस्वरूप को आचरण; इसी कारण कहतां साध्यसिद्धि-साध्य कहतां
सकलकर्म क्षय लक्षण मोक्ष, तिहि की सिद्धि कहता प्राप्ति होइ ।
भावार्थ - इसउ जु शुद्धस्वरूप को अनुभव मोक्ष' को प्राप्ति छै । कोई प्रश्न करेछै-जु इतनी ही मोक्षमार्ग छै? कै कोई श्ररु भी मोक्ष मार्ग छे ? ऊतरु -- इसी जु इतनी ही मोक्ष मार्ग छे - ' न चान्यथा' - च कहतां पुनः अन्यथा कहतां अन्य प्रकारन कहतां साध्य सिद्धि नहीं ।
वचनिका - राजस्थानी गद्य में 'वचनिका' का प्रयोग टीका के अर्थ में नहीं हुआ प्रत्युत ऐसे गद्य के रूप में, जिसमें गद्य के साथ-साथ पद्य का भी प्रयोग हो; दूसरे शब्दों में राजस्थानी 'वर्षानिका' को 'चम्पू' कहा जा सकता है । ढाड़ी गद्यकारों ने 'वचनिका' शब्द का प्रयोग संस्कृतादि भाषाम्रों में लिखे गये ग्रन्थों का जनसाधारण की भाषा में अनुवाद के अर्थ में किया है । वचनिका, टब्बा और बालावबोध दोनों से अधिक बोधगम्य और विस्तृत टीका होती है । इसमें सबसे पहले मूल छंदका साधारण अर्थ लिख दिया जाता है फिर भावार्थ के रूप में उसकी खुलकर व्याख्या की जाती है । व्याख्या को अधिक स्पष्ट करने के लिए वचनिकाकार कभी-कभी उदाहरणों का सहारा भी लेता है ।
उदाहरण:
नित्यतां केचिदाचख्युः केच्चिचानित्यतां खलाः । मिथ्यात्त्वान्नैव पश्यन्ति नित्यानित्यात्मकं जगत् ॥
अर्थ - केतौ वस्त को नित्यपणां ही कह हैं बहुरि केई अनित्य ताही कह हैं पर यह जगत् नित्यानित्य स्वरूप है ताहि मिथ्यात्व के उदय करि नाहीं देखे हैं ।
भावार्थ - सांख्य, नैयायिक वेदान्त मीमांसक मत्त के तौ आत्मा कु नित्य हो माने है पर जगत कू' प्रनित्य विद्यादि का विलास भ्रम रूप माने है । श्रर कहै हैं जो श्रात्मा की अनित्य मानें तो श्रात्मा का नाश होय तब नास्तिक मत्त प्रा; अर नित्यानित्य स्वरूप मानें तो
३. वही, पृ. १४
४. राजमल्ल कृत समयसार कलश टीना- पृ. २७
५. शिवस्वरूपशर्मा कृत राजस्थानी गद्य साहित्य का उद्भव और विकास पृ० २५
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
६६
विरोध प्रादि दूषण पावै । जैसें अपनी बुद्धि सू कल्पित संवत् १८६१ में जयचन्द्र छाबड़ा प्रख्यात वचनिकासिद्ध करें है। बहुरि ऐसे ही बोधमती वस्त कूक्षणिक कार हुए। ये फागी ग्राम में छाबड़ा गोत्रीय खंडेलवाल अन्यत्य रूप माने हैं । नित्य मानने कू अविद्या कहै हैं। वैश्य श्री मोतीराम जी के यहां उत्पन्न हुए थे । जयचन्द्र नित्यानित्य मान में विरोध आदि दूषण कहै हैं, तहां जयपुर में अपने समय के सर्वोत्तम विद्वानों में गिनेजाते ऐसा जानूं। जो वस्त का स्वरूप है सो स्याद्वाद त सिद्ध थे। इनकी अभिलाषा थी कि राजवार्तिक ग्रादि बड़े-बड़े होय है । ता मैं विरोध प्रादि दूषण नाही आवे है। ग्रन्थों के अनुवाद किये जायं, किन्तु अपने पुत्र नंदलाल ऐसा स्वरूप अन्यमती समझे नाहीं अपनी बुद्धि में कल्पना की प्रेरणा से इन्होंने केवल उन्हीं ग्रन्यों की वचनिकाएं करि जैसे तैसें थापि संतुष्ट भये । परंतु वस्त विचारिए लिखीं जिनसे सर्व साधारण को अधिक लाभ हो। ७ इनके तब तिनि के ध्याता ध्यान ध्येयादिक किछू भी सिद्ध अनूदित ग्रन्थ सर्वार्थ सिद्धि, प्रमेयरत्नमाला. द्रव्य संग्रह, नाहीं होय है तात तिनिका कहनां सर्व प्रलाप मात्र है; स्वामि कार्तिकेयानुप्रेक्षा, समयसार, अष्ट पाहुड़, प्राप्त ऐसा जानना।
मीमांसा, परीप्रमुख, भक्तामर स्तोत्र, देवागम स्तोत्र 'ढाड़ी भाषा में टब्बा टीका लिखने वालों में ज्ञानावर्णव, सामायिक पाठ, धन्यकुमार चरित्र, तत्वार्थ शीर्ष स्थान दौलतराम कासलीवाल का है। इन्होंने व- सूत्र, चन्द्रप्रभ चरित्र ( द्वितीय सर्ग ) पत्रपरीक्षा और सुनन्दि श्रावकाचार और तत्वार्थ सूत्र की टब्बा टीकाएं मतसमुच्चय है । जयचन्द्र के बाद सदासुख कासलीवाल की हैं। दौलतराम बसवा निवासी खंडेलवाल वैश्य
भी अच्छे वचनिकाकार हए । भगवती पाराधना, तत्वार्थ मानंदराम के पुत्र थे । इनका रचनाकाल संवत् १७- सूत्र, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, अकलंक स्तोत्र, समयसार ७७ है।
आदि ग्रन्थों पर इनकी वचनिकाएं उपलब्ध हैं। परवर्ती
गद्यकारों में नाथूलाल दोषी, पन्नालाल चौधरी, शिवलाल बालावबोध टीका के लिए राजमल्ल पाण्डे और हेमराज पाण्डे प्रसिद्ध हैं। समयसार कलशटीका राजमल्ल
व दुलीचन्द प्रमुख हैं जिन्होंने कई ग्रन्थों की वचनिकाएं
लिखी हैं। की सत्रहवीं शताब्दी के प्रथम चरण में लिखी गई प्रथम ढाड़ी गद्य रचना है। हेमराज ने पंचास्तिकाय,
स्वतंत्र ग्रन्थकार :-विभिन्न प्रकार की टीकामों प्रवचनसार, नयचक्र, गोम्मटसार तथा परमात्म प्रकाश
के अतिरिक्त ढूढ़ाड़ी में स्वतंत्र ग्रन्थ भी लिखे गये हैं; पर बालावबोध टीकाएं की हैं। हेमराज सत्रहवीं इस लिए भाषा में मौलिक ग्रन्थों का पूर्णतः प्रभाव शताब्दी के सर्वोत्तम विद्वानों में से थे। पाण्डे रूपचन्द, रहा हो ऐसी बात नहीं । टोडरमल और दीपचन्द बनारसीदास आदि आध्यात्मिक पुरुष व मनीषियों से ढूढ़ाड़ी भाषा के सबसे बड़े मौलिक गद्यकार हैं। इनकी घनिष्ठता थी।
टोडरमल जयपुर में गोदीका ( ढोलाका ) गोत्रीय ढाडी में घनिकाएं अधिक लिखी गई। टोडरमल खंडेलवाल वैश्य परिवार में संवत् १७६७ में उत्पन्न ने गोम्मटसार नामक प्रख्यात मय पर सम्यग्ज्ञान
हए थे । इनके पिता जोगीदास और माता रमाबाई चन्द्रिकाटीका पुरुषार्थ सिध्धुपाय टीका भाषा, प्रात्मानु थी। टोडरमल बड़े धार्मिक, दार्शनिक तथा प्रतिभासम्पन्न शासन टीका भाषा प्रादि वचनिका-ग्रंथ लिखे । टब्बा व्यक्ति थे । संवत् १८२३-२४ में अल्पवय में ही टीकाकार दौलतराम ने भी पद्मपुराण, आदि पुराण, साम्प्र
साम्प्रदायिक झगड़ों में इनकी मृत्यु हो गई थी। हरिवंश पुराण, श्रीपाल चरित्र, पुण्याश्रव कथाकोष व टोडरमल के वचनिका-ग्रन्थों की चर्चा पहले हो परमात्म प्रकाश की वनिकाएं लिखीं। इसके उपरान्त चुकी है। उनका मौलिक ग्रन्थ मोक्षमार्ग प्रकाशक है।
६. जयचन्द्रकृत ज्ञानार्णव भाषा, २१ ७. , सर्वार्थ सिद्धि भाषा, ३१-३२
-
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
१००
मोक्षमार्ग प्रकाशक में नौ अधिकार हैं; प्रथम अधिकार में पुराण आदि ग्रन्थों की रचनाएं की हैं। इस सभी में मंगलाचरण व अन्यान्य बातें दूसरे में कर्म, तीसरे में प्रात्मा के अनुभव व विलास का वर्णन है। दीपचन्द की संसार के दुःख, चौथे में दर्शन ज्ञान और चारित्र का शैली उपदेश-प्रधान रही है । वाक्य छोटे-छोटे हैं । मिथ्यात्त्व, पांचवें में विविध मतो का खंडन, छटे में भाषा मुहावरेदार तथा अलंकारिक है । "जोरावरी कुदेव, कुगुरु व कुधर्म का निरूपण, सातवें में जैन ठीकरी कौ रुपयो चलावै, चौरासी को बन्दीखानों आदि मतानुयायी मिथ्यातियों का स्वरूप आठवें में अनुयोग मुहावरे बड़े अच्छे हैं। रूपकत्त्व की नियोजना भी लेखक और नवें अधिकार में जिन-मतानुसार मोक्ष-मार्ग का को बड़ी प्रिय है; एक-दो उदाहरण देखिये। स्वरूप वरिणत है। 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' में टोडरमल
__"सद्गुरु बचन-अंजन ते पटलदुरि भये ज्ञान-नयन साम्प्रदायिक आडम्बर तथा वंशानुगत ऊचनीच मानने
प्रकाशै तब लोकालोक दरसै । . के घोर विरोधी परिलक्षित होते हैं । विभिन्न मतों की चर्चा करने में लेखक जहां एक दर्शन-वेता प्रतीत होते
"इस पर-परिणति नारी सौं ललचाये कुमति-सखी हैं वहां उनका खंडन करने में अच्छे ताकिक और स्वतंत्र
संग गति गति मैं डोले निज परिणति राणी के वियोग विचारक भी। पिता का उदाहरण देकर ईश्वर के कर्तत्व त बहुत दुःखी भये ।'' का निराकरण करने में लेखक की सूझ-बूझ देखिए ।
अपने दार्शनिक विचारों को समझाने के लिए "सो जैसे कोई पुरुष प्राप कुचेष्टा कर अपने दीपचन्द ने लौकिक उदाहरणों का बड़ा सहारा लिया है। पनि को सिखावै. बहरिवैतिस चेष्टा रूप प्रवर्ते तब "जैसे कोई राजा मदिरा पीय निन्द्य स्थान में रति उनको मारै तो ऐसा पिता को भला कैसे कहिए । तैसे मान से चिदानंद देह में रति मानि रहया है" ११ ब्रह्मादिक आप काम क्रोध रूप चेष्टाकरि निपजाए लोकनिकै प्रवृत्ति करावै; बहुरि वे लोक तैसे तैसे प्रवत्तै तब जैसें श्वान हाड़को चाबै अपने गाल तालु मसूढ़े सोमानिया माहित नावाने का रक्त उतरें ताकों जाने भला स्वाद है, ऐसे मूढ प्राप का फल शास्त्रनि विसे लिख्या है सो ऐसा प्रभू का भला दुःख में सुख कल्प है।" १२२ कैसे मानिए।"
__उक्त विवरण से स्पष्ट हुआ कि ढूंढाड़ी गद्य -दीपचन्द कासलीवाल सांगानेर में उत्पन्न हुए थे। साहित्य के विकास में जैन लेखकों का अपूर्व योग-दान कुछ समय बाद ये वहां से आमेर आगये थे । दीपचन्द ने है। हिन्दी साहित्य की समृद्धि के लिए उसका सम्यक् अनुभव प्रकाश, आत्मावलोकन, चिद्विलास, परमात्म अध्ययन व मूल्यांकन परम अनिवार्य है।
८. जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय द्वारा प्रकाशित मोक्ष मार्ग प्रकाशक पृ० १४५ है. परमानंदजी द्वारा संपादित अनुभव प्रकाश, पृ.३७ १०. वही,
पृ० ६८
पृ० २३ १२. वही,
पृ० ८०
वही,
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन कवियित्री : बड़ावली की काव्य साधना
• डॉ. नरेन्द्र भानावत
एम. ए. पी-एच. डी. जयपुर
. जैन पुरुष कवि तो कई हुए हैं पर जैन स्त्री कवियों की संख्या नगण्य है। सती जड़ावजी जैन कवयित्रियों में नगाने की तरह जड़ी हुई प्रतीत होती है। कविता करना उनकी जीवन चर्चा का एक अंग बन गया था। ५० वर्ष की सुदाघ साधना-काल में जड़ावजी ने जीवन के विविध अनुभव प्रात्मयात कर काव्य में उतारे । उनका जीवन जितना साधनामय था काव्य उतना ही भावनामय ।
कविता हृदय की सहज अभिव्यक्ति है । इसके प्रणयन प्रात्म बोध का परिचय देती है तो दूसरी ओर काव्य
" में प्रेम, पीड़ा और पिपासा की प्रधानता रही है। क्षेत्र से उनका यह अलगाव हमें आश्चर्य में ही नहीं नर ने अपने पौरुष, सामर्थ्य और बल का दिग्दर्शन इसके डालता वरन हमारे शोध-मस्तिष्क को बार बार कुरेदता माध्यम से कराया तो नारी ने अपनी करुणा, ममता भी है।। और विसर्जन का स्वर इसके शब्द प्रति शब्द में फूका। हिन्दी कवयित्रियों १ पर अब तक जो शोध कार्य पर संरक्षित साहित्य में पूरुष का कृतित्व ही अधिक हया है उसके द्वारा विभिन्न प्रवृत्तियों और धाराओं उभर कर हमारे सामने पाया है। स्त्री के कृतित्व की का प्रतिनिधित्व करने वाली कई कवयित्रियां हमारे सामान्यतः उपेक्षा ही बनी रही। यों वैदिक संस्कृत सामने आई हैं । एक ओर भीमा और पद्माचारणी जैसी साहित्य से ही विश्वपा, घोषा, नितम्बा, गार्गी, मैत्रेयी, कवयित्रियों ने डिंगल काव्य-धारा को अपने प्रोज और लोपामुद्रा, यमी चैवस्वती आदि की सृजनात्मक प्रतिभा माधुर्य से सींचा है तो दूसरी और सहजो और दमा बाई का संवेत मिलने लगता है। बौद्ध भिक्षुणियां भी अपने जैसी संत कवयित्रियों ने निगुण काव्य धारा को अपना विरक्तिमूलक पद गा गा कर प्रात्मा का विस्तार करती आध्यात्मिक भाव बोध दिया है। इसी युग में गीति रहीं पर उस युग की जैन कवयित्रियों का पता अब तक काव्य की साम्राज्ञी मीरा ने जन्म लेकर सगुण और नहीं लगा है। एक ओर भगवान महावीर के चरणों में निर्गुण भक्ति सरिता को सन्तुलित प्रवाह और तट का सर्वस्व समर्पित कर देने वाली महान सतियों की बन्धन दिया। प्रताप कुवरी तुलछराय, चन्द्रकला बाई (आर्यापों) उज्जवल गाथा हमें उनके गूढ़ ज्ञान और आदि कवयित्रियों ने जहां राम को अपना प्राराध्य
१. इस संबंध में दो ग्रन्थ दृष्टव्य हैं(अ) मध्यकालीन हिन्दी कवयित्रियाँ ।
-डा. सावित्री सिन्हा (ब) राजस्थानी कवयित्रियाँ ।
-श्री दीनदयाल प्रोझा (प्रेरणा : फरवरी १६६३)
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
बनाकर शक्ति और प्रेम का चित्रण किया वहां गंगा
कवयित्रियों ने लीलाओं का
बाई, सोढ़ानाथी, सौभाग्य कुंवरी आदि कृष्ण को अपना प्राराध्य बनाकर विविध गान किया । प्रवीण राय पातुर जैसी कवयित्रियां शृंगारिक प्रवृत्तियों को चित्रित करने में भी पीछे न रहीं ।
१०२
इन विभिन्न प्रवृत्तियों और धाराओं के समानान्तर ही जैन काव्य धारा भी प्रवाहित होती रही । पर अब तक के शोध कर्त्ताओं का ध्यान इस विशिष्ट काव्यधारा की साधना करने वाली कवयित्रियों को प्रोर नहीं गया। इसका प्रधान कारण जैन भण्डारों की अव्यवस्था तथा उनके ग्रन्थों की सूचियों के प्रकाशन का प्रभाव रहा। पिछले दिनों जब हमने 'आचार्य बिनय चन्द्र ज्ञान भण्डार' लाल भवन, जयपुर के संग्रह को देखा तो श्वेताम्बर परम्परा की कुशलांजी, रूपांजी गुलाबांजी लाछांजी, केसरजी, भूर सुन्दरीजी, चन्दाजी, लज्जावतीजी, सौभाग्यवतीजी, जड़ावजो प्रादि जैन विदुषो कवयित्रियों का पता चला। अन्य जैन भण्डारों के अवलोकन से मौर कवयित्रियां भी प्रकाश में आ सकती हैं । प्रस्तुत निबन्ध में हम जड़ावजी की काव्य-साधना पर संक्षेप में प्रकाश डाल रहे हैं ।
जड़ावजी का जीवन वृत्त
जड़ावजी का जन्म वि० सं० १८६८ में हुआ । बाल्यावस्था में ही सेठों की रीयां ( मारवाड़ ) में इनका विवाह कर दिया गया । कुछ समय बाद ही इनके पति का देहान्त हो गया । परिणाम स्वरूप इन्हें संसार के प्रति विरक्ति हो गई । कालान्तर में यह वैराग्य भावना बलवती हुई और २४ वर्ष की अवस्था में संवत् १६२२ में जड़ावजी से प्राचार्य रतनचन्दजी महाराज के सम्प्रदाय की प्रमुख शिष्या रंभाजो के हाथों दीक्षा अंगीकृत कर लो । रंभाजी के सान्निध्य में रह कर ही जड़ावजी ने विविध ग्रंथों का अध्ययन किया । सं० १६४६ तक ये रंभाजी के साथ विहारादि करती रहीं । रंभाजो को १६ विशिष्ट शिष्याएं थीं। जड़ावजी उनमें प्रधान थीं । काव्य-रचना की प्रतिभा र क्षमता के कारण इन्हें प्रसिद्धि भी खूब मिली। ये रंभाजी के साथ जोधपुर, बीकानेर अजमेर मादि क्षेत्रों में विचरण करती रहीं ।
सं० १६४६ में रंभाजी का स्वर्गवास हुआ। इधर जड़ावजी की नेत्र ज्योति भी धीरे-धीरे क्षीण होने लगी । फलतः सं० १६५० से अन्तिम समय तक ये जयपुर में ही स्थिरवासी बन कर रहीं। गर्मी के दिनों में प्रायः दाह ज्वर की प्रबल वेदना से ये पीड़ित रहती । सं० १६७१ के ज्येष्ठ मास में यह वेदना अधिक प्रबल हो उठी । अन्ततः सं० १६७२ ज्येष्ठ कृष्णा १४ को दिन के दो बजे जयपुर में इनका स्वर्गवास हुआ । इनकी सेवा में इनको बड़ी शिष्या तेजकंवर अधिक रही । जसकंबर, मल्काजी, आदि साध्वियों ने भी मनोयोग पूर्वक इनकी परिचर्या की ।
जड़ावजी की काव्य साधना
जैन पुरुष कवि तो कई हुए हैं पर जैन स्त्री कवियों की संख्या नगण्य है । सती जड़ावजी जैन कवयित्रियों में नगीने की तरह जड़ी हुई प्रतीत होती हैं । कविता करना उनको जीवन चर्या का एक प्रङ्ग बन गया था।
५० वर्ष के सुदीर्घ साधना काल में जड़ावजी ने जीवन के विविध अनुभव आत्मसात कर काव्य में उतारे । उनका जीवन जितना साधनामय था काव्य उतना ही
भावनामय ।
प्रवृत्तियों के आधार पर इनको समस्त रचनाओं को ४ भागों में बाँटा जा सकता है
(१) स्तवनात्मक (२) कथात्मक (३) उपदेशात्मक और (४) तात्विक ।
१. स्तवनात्मक
स्तवनात्मक रचनाओं में श्रद्धय लौकिक पुरुषों और लोकोत्तर पद प्राप्त करने वाले विशिष्ठ महापुरुषों तीर्थंकरादि का गुरण कीर्तन किया गया है । यह गुण कीर्तन किसी लोकेषणा का प्रतिफल न होकर ग्रात्मशक्ति को प्रबुद्ध करने का माध्यम तथा श्रद्ध ेय के गुणों को प्रात्म सात करने का विनम्र प्रयत्न है । जड़ावजी की इस कोटि की रचनाओं के दो स्पष्ट वर्ग हैं। पहले वर्ग में तीर्थंकर, अरिहंत, गणधर, सतियां श्रादि आती हैं । दूसरे वर्ग में कवयित्री के सम्पर्क में प्राने वाले संत-महात्मा हैं | तीर्थंकरों में सामान्य रूप से २४ तीर्थंकरों का स्तवन किया गया है। इस काव्य रूप को
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०३
'चौवीसी' कहा जाता है। इन चौवीस तीर्थंकरों में ढाल, लावणी सज्झाय आदि काव्य रूप भी कथाकवियित्री ने नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर स्वामी काव्य से संबंधित हैं। सीमंधरजी री ढाल, देवानंदारी को ही विशेष रूप से अपना गेय विषय बनाया है। ढाल, नेमजी री लावणी पारसनाथ री लावणी, मेघरथ जैन-परम्परा के अनुसार महाविदेह क्षेत्र में सदा सर्वदा राजा री लावणी, नेमजी री सज्ज्ञाय आदि रचनाएं बीस तीर्थंकर विचरते रहते हैं । इस समय भी वे वहां धर्म प्रचार का कार्य कर रहे हैं। इसी कारण इनकी एक ३. उपदेशात्मक संज्ञा 'विहर मान भी है। कवयित्री ने इन बीस विहर जैन काव्य धारा की प्रवृत्ति काव्य-चमत्कार और रस मानों की भी स्तुति की है । इस काव्य रूप को बीसी' बोध की अोर उतनी नहीं रही जितनी आत्म परिष्कार संज्ञा दी जाती है। इन विहरमानों में प्रथम विहरमान और प्रात्म-बोध की प्रोर। ये कवि पहले साधक और श्री सीमंधर स्वामी ही उसके प्राराध्य रहे हैं । इनके उपदेशक होते थे। प्रात्म-कल्याण और लोक कल्याण जितने स्तवन मिले हैं उतने किसी और के नहीं। की भावना परत बोका रविले
अन्य संत महात्माओं के सम्बन्ध में जो गुण कीर्तन उसी वैराग्य-भावना को जन-जन में जगाने की इनकी किया गया है उसे 'स्तवन' की अपेक्षा गुण कहना अधिक दृष्टि होती । कविता का सृजन वे इसी प्रौपदेशिक भाव समीचीन है। इस गुरण वर्णन में संतों का संक्षिप्त जीवन से करते । यही कारण है कि यहां उपदेश की प्रधानता वृत्त भी समाविष्ट हो गया है । कवयित्री ने जिन मुनि- है। इनके उपदेश एक रस और सामान्य होते हैं। सब महात्माओं का गुणगान किया है उनमें प्रमुख हैं-तपस्वी में लगभग कषाये (क्रोध, मान, माया, लोभ) त्याग, बालचन्दजी प्राचार्य विनयचन्दजी, सुजान मलजी चन्दन- इन्द्रिय-दमन, मन-निग्रह, व्यसन-त्याग, व्रत पालन, मल कजोडमली मं० प्राचार्य विनय चन्दजी मं०, सुजान- प्रात्म-निंदा, ब्रह्मचर्य-पालन, सत्य वचन, प्राण-रक्षा, मलजी मं० चन्दनमलजी मं० कजोड़मलजी देवीलालजी जीव दया, तप-त्याग, दान-महिमा, कर्म सिद्धान्त प्रादि म० । साध्वियों में अपनी गुरुणी रम्भाजी के प्रति का विवेचन रहता है। पालोच्य कवयित्री ने इन्हीं बातों कवयित्री ने श्रद्धा-भावना प्रकट की है।
को अपने ढंग से रखा है। विधि-निषेध की शैली ही २. कथात्मक
सामान्यतः उपदेशात्मक रचनामों में प्रयुक्त की जाती ___कथात्मक रचनाओं में सामान्यत- पौराणिक धार्मिक है। यहाँ जड़ावजी ने बारह भावना भाने की, समकित कथानों को पद्यबद्ध किया गया है। जन साधारण को
धारण की चंचल मन को वशीभूत करने की प्रेरणा दी धार्मिक शिक्षा देने के लिये ये कथा काव्य बडे उपयोगी है तो भांग तम्बाखू छोड़ने की, जमीकंद न खाने की. होते हैं। इन कथा-काव्यों में इतिवृत्त की ही प्रधानता क्रोधादि कषाय न करने की बात भी कही है। है । रसात्मक स्थलों की पहचान कर उनका मनोवैज्ञानिक ४. तात्विक विश्लेषण यहां नहीं किया गया है । एक रूढ़िगत शैली जैनागम प्राकृत भाषा में है। जैन दर्शन का अटूट में ही ये कथाएं प्रारंभ होती हैं और किसी प्राध्यात्मिक भण्डार प्राकृत भाषा ही सुरक्षित f भावना का संकेत कर साधारण ढंग से समाप्त हो जाती साधारण को जैन धर्म से परिचित कराने के लिये जैन हैं। इन कथाओं को कई ढालों में विभक्त किया जाता विद्वानों ने एक पोर इन ग्रंथो की लोक भाषा में है। चार ढालों की कथा 'चौढ़ालिया, नाम से और "बालावबोध" व "टब्बा" नाम से टीकाएं की तो दूसरी सात ढालों की कथा "सातालियां नाम से अभिहित और सार्वजनीन सिद्धान्तों को लोक भाषा में पद्य बद्ध होती है ।" श्रावक रोचौढालियों, "सुमति कुमति रो कर जन साधारण के लिये सुलभ बनाया। तात्विक चौढालियो",अनाथो मुनि रो सतढालियों, “जबू स्वामी रचनाएं इसी कोटि की हैं। इनमें मौलिकता का प्राग्रह रो सत ढालियो" ऐसी ही रचनाएं हैं।
नहीं, तत्व प्रचार की दृष्टि ही प्रधान है। जड़ावजी
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०४
१८
ने नवबाड़, २२ परिषह, ३३ प्रासातना, पौषध के दोष, सामायिक के ३२ दोष १८ पाय, १४ नियम १० बोल, चार शरणा यादि का तत्वज्ञान सर्व सुलभ बनाने की दृष्टि से इन विभिन्न प्रागमिक सिद्धान्तों और बोलों को पद्यबद्ध कर दिया है। यहां कविता के माध्यम से तास्विक मीमांसा न होकर तत्व बोध के आग्रह से ही कविता को माध्यम बनाया गया है । भक्ति भावना
।
जड़ावजी की भक्ति भावना पर विचार करते समय इस तथ्य को नहीं भुनाया जाना चाहिये कि जैन दर्शन ने श्रात्मा को ही परमात्मा बनाने के लिये साधना का पथ प्रदास्त किया है। सतः धन्य दर्शनों में भक्त पौर भगवान के बीच जो पारिवारिक दाम्पत्य मूलक, वात्सल्य मूलक आदि सम्बन्ध स्थापित हो सकते हैं वे यहाँ इतने सहज नहीं एक नारी प्रेम मांसू और करुणा का अर्ध्य चढ़ा-चढ़ा कर प्रियतम को रिझाना चाहती है पर यहां उस प्रकार की मनुरक्ति के लिये स्थान कहाँ ? यहां तो पद पद पर विरक्ति है । यहां का श्राराध्य यदि तीर्थंकर हैं तो बालक होने से पूर्व ही भगवान है । युवा होने के पूर्व ब्रह्मचारी है। उसके नर रूप में ही नाराय रणत्व की प्रतिष्ठा है । ऐसे प्राराध्य के प्रति श्रद्धा हो सकती है । पर कृष्ण भक्त कवयित्रियों की तरह उसके साथ गलवाही डाल कर रास लीला नहीं खेली जा सकती। यही कारण है कि जैन कवयित्री होने के नाते भक्ति के नाम पर प्रेम का उद्दाम वेग जडावजी की रचनाओं में नहीं मिलेगा । पर यह भी स्मरणीय है कि जडावजी स्त्री है। उनमें भी हृदय है। इसलिये इनकी भक्ति केवल मात्र ज्ञान मूलक विरक्ति मूलक या नीरस न होकर सात्विक प्रेम भावना से सजल और सरस भी है।
1
कृष्ण भक्त कवियित्रियों ने जहां कृष्ण को अपना द्वाराध्य बनाया वहां इस कवयित्री ने श्री मंधरस्वामी को नेमिनाथ और पार्श्वनाथ के प्रति भी इस प्रकार की अनन्य भावना व्यक्त की गई है । कृष्ण भक्त कवयित्रियों ने रुक्मरिण के माध्यम से अपनी कोमल प्रेम भावना बिबेरी है तो इस जैन कवयित्री ने राजुल को
मधुर भावना का प्रतीक मान कर उसकी विरह व्यथा और करुणा का चित्र खींचा है।
कवयित्री अपने प्रिय से मिलना चाहती है। पर कैसे मिले ? दोनों के बीच दूरी है। यह दूरी स्थानगत ही नहीं भावगत भी है उसके धाराध्य महाविदेह क्षेत्र में विराजमान है और वह अकेली इस भरत क्षेत्र में पड़ी है। बीच में बड़ी बड़ी घाटियां है। ऊँचे-ऊंचे पर्वत हैं, वेगवती नदियों का बहाव है। वह भाखिर पहुंचे तो कैसे ? उसके पास कोई लब्धि नहीं, शक्ति नहीं, विद्याधर उसके मित्र नहीं वह तो पातक की भांति इक टक अपने प्रिय को निहारती रहती है उसकी तो यही 'पीपी' की पुकार हैं।
'खेत्र विदेह विराजियाजी, श्रीमंधर स्वामी । हो जी म्हारा अन्तर गामी ॥ हूं इस भरत मोझारे, सिवगत गामी ग्रांकड़ी || १ || बिन देख्या मन भुलसे जी, जिम चातिक जलधार ॥२॥ लबद विद्या नहीं मां कने जी, पांखे नहीं तन माय ||३|| विद्याधर मैत्री नहीं जी, किन विद मेलो धाय ॥४॥ दूर दिसावर यापरो जी, बिच में विखमी बाट ||५|| आडा इगर बने गणां जी, नदियां प्रो घट घाट ॥६॥
भावगत दूरी इस स्थानगत दूरी से भी अधिक गंभीर सूक्ष्म और भयावह है। वह कमों के घेरे में बंदी । है। राग द्वेष दो पोलिया खड़े हैं, चार कपास चौकीदार हैं। घेरे को तोड़ कर वह कैसे आये ?
राग ने पेक दोनु पोलिया चौकी चार कवाय आठ करम रो घेरो लागियो, मिलरण न दे म्हाराय || तन मन तरसै हो दर्शन देखवा, बरस रह्या मुरंज नै । लबद विद्या तो हम पासै नहीं, किरण विध ग्राऊँ सैरण || चंद चकोरा श्री मोरा मोहन, पति वरता पति जेम । इण विद चाऊँ श्रो दर्शरण प्रापरो पिरण प्राइजे केम ||
कवयित्री विवश है असहाय है पर क्या करे ? स्थूल बाधाओं को दूर करने की तो उसमें हिम्मत है। वह समुद्र को तो लांघ सकती है पर संसार सागर को कैसे लांघे ? वह बालक का तो मन बहला सकती है पर स्वयं अपने मन को कैसे रक्खे ? वह लोह श्रृंखला को
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
न
जाय ||
समद्र वेतो डाकल्यू जीवांजी । हारे जीवा, भव जल डास्यों न जाय । बालक ने तो राख लू जीवा । हारे जीवा, मन बस राख्यो सांकल ने तो तोडल्यू जीवा हारे जीवा, त्रिसना तोड़ी न जाय । घोड़ो ने तो मोड लू ममता मोड़ी न
जीवा । हारे जीवा,
जाय ॥
धातु ने तो गालद् जीवा । रुस्यो ने तो मनाय ल्यू जीवा । मरता राख्यों न जाय 1
घाव लगे तो भूली ए जीवा हारे जीवा,
तो तोड़ सकती है पर तृष्णा को कैसे तोड़े ? वह घोड़े की रास तो मोड़ सकती है पर ममता को कैसे मोड़े ? वह धातु को तो गला सकती है पर श्रभिमान को कैसे गलाये ? रुठे हुए को मना सकती है पर मृत्यु को कैसे मनाए ? घावों को भूल सकती है पर कुवचनों की जलन को कैसे भूले ? बांधे हुए को छोड़ सकती है। पर कुलक्षणों को कैसे छोड़े ? दुश्मन को जीत सकती है पर मोह कर्म पर कैसे विजय प्राप्त करे ? कागज को बांच सकती है पर कर्म-रेखा को कैसे बांचे?
1
गरबन गाल्यो जाय, हारे जीवा,
जाय भुल्या न
जीवा हारे जीवा, छोड्यो न जाय
11
कुवचन पकड्यो वे तो छोड़ कुल कुलछरण वेरी वे तो जीतल्यू जीवा । हारे जीवा, मोह क्रम जीत्यो न जाय । कागद वे तो बांच लू जीवा हारे जीवा, कर्म न वाक्यां जाय I
यही विवशता है भक्त की भगवान के धागे पर भक्त में मारया है, विश्वास है। वह इस दूरी को मिटाने का प्रयत्न करता है। कवयित्री अपने प्रयत्न में कभी नो उपास्य को उपालंभ देती है
१०५
"भेलाइ सुख दुख भोगव्याजी, भेलाइ खेल्या खेल । श्राप तो भुगत पधार्या, मां ने चोरासी में भेल ।। " कभी मोरां को भांति उसके साथ " पूर्व जन्म की प्रीत" का सम्बन्ध जोड़ती है
" पर दुख भंजरण प्राप तो छो, मारी पाल जो पूरण प्रीत" और कभी धात्म साक्षात्कार के लिये पूर्ण तैयारी करती है
"ज्ञान का घोड़ा पित्त की चाबुक, विनय लगाम लगाई। तप तरवार भाव का भाला, खिम्पा ढाल बंधाई || सत संजम का दिया मोरचा, किरिया तोप चढ़ाई । सझाय पंच का दारू सोसा, तोया दीवी चलाई || राम नाम का रथ सिरगगारिया, दान दया की फौज । हरख भाव से हाथी हौदे बैठा पावो मौज ॥ साच सिपाही पायक पाला, संवर का रस वाला धर्म राय का हुकुम हुआ जब फौजा श्रागी चाला || " पर आत्म साक्षात्कार की अनुभूति के गीतों का उल्लास यहां नहीं है । यहां केवल परमात्मा के स्वरूप और स्वभाव का चित्रण किया गया है।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि जड़ावजी की भक्ति भावना में ब्रह्म के प्रति मिलन की तड़फ तो है पर यह मिलन क्षण जीवी न होकर अपने अन्तराल में चिरन्तन सुख और अबाध मानन्द को साथ छिपाये है जिसकी पूर्ति जीवनमुक्त दशा में ही संभव है ।
आध्यात्म-चिन्तन
प्रालोच्य कवियित्री की दूसरी प्रवृत्ति संत काव्य धारा से मेलखाती है। संतों ने नारी को साधना में बाधक माना है वहां भक्त कवियों ने नारी बन कर ही भगवान की उपासना की है। जड़ावजी ने प्रत्यक्ष रूप से नारी की निंदा नहीं की पर सुमति कुमति का द्वन्द बता कर कुमति की निन्दा कर नारी जाति की दुष्प्रवृत्तियों की भर्त्सना की है। संत काव्य में गुरु को आध्यात्मिक महत्व दिया गया है। जड़ावजी ने भी गुरु महिमा में कई भावपूर्ण पद लिखे हैं इनकी प्रेरणा से ही वह जीवन नैया को पार लगाना चाहती है
"गुरुजी मारी नावा पार लगावो । मुगति की राह बतामो ॥ काया में माया भोत भरी है, हीरो, लाल, चूनी मोती । पंना पांच पर तीन रतन महाहे लागि जिगामग ज्योति ॥
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०६
करम झकोला दे छ हो लोला,
दृश्य । कला की दृष्टि से यहां बड़े सुन्दर और सटीक अरदी परदी डोले ।
सांग रूपक निर्मित हुए। गुरु पर बीण लगाई,
बारहमासा को आध्यात्मिक रूप देते हए चैत्र मास थाग पाणी से तोलै ॥
से चेतना की प्रेरणा ग्रहण की गई। प्राषाढ़ में जीवन मुक्ति में सबसे बड़ी बाधा मनकी चंचलता प्राशा को फलीभूत होते देखा गया । श्रावण में है । इस चंचल मन को वश में करना बड़ा मुश्किल है- जिनवाणी श्रवण की बाढ़ आई । मगसर में ममता को मन चंचल कैमे मुडे री पापी बिन पांख उदेरी। मिटते देखा । फाल्गुन में समकितरूपी स्त्री के साथ
फाग खेला गया। मन की इस गति को कवियित्री ने कई पदों में प्रकट किया है। यहां एक उदाहरण दृष्टव्य है
"प्रासाढ़ पासा फली रे, मोरया करत मलार ।
सतगुरु इन्द्र धड़कियो, वाणी बरसे सधन घने धार ।। "मन चंचल हाय न आवे । दौड़यो बाहर जावे।। प्रांकई॥
सावण श्रवण रस पीजिए रे, जिनवाणी भरपूर ।
मिथ्या रोग मिटावसी, ज्यांर सिब सुख नहीं छे दूर ।। घेर घेर लामें निज गुण में, तो पिण फंद लगावै, फाल भरे बन्दर की नाइ, कूद किनारे जावे ।।
मिगसर ममता मारने रे, समता करो घर नार ।
सहल करो सिवपुर तरणी, राखो केवल चौकीदार ।। इ चंचल मन को वशीभूत करने का एक उपाय है राम नाम का स्मरण । कवियित्री अपने प्रात्मा राम को
फागण फाग खेलो भवप्राणी, समकित स्त्री के संग। जागृत कर यही उपदेश देती है
पिचकारी पछशारण री, भर डारो सील सुरंग ।।पृ०७०।। उठो रे मेरा पातम राम, जिन गुण गा जाए । उठो।
राखी के त्यौहार पर कवियित्री ने सुमति के परिवार राम नाम का रोक रुपया, अही मैरे माया रे,
को जीमने का अच्छा न्यौता दिया है--तो दीपावली के कुसी पड़े तो करज ले जावो, समरण व्याज लगाया रे।
का
शुभ अवस
शुभ अवसर पर उसने दान के दीपक में समकित की मोह निद्रा में गाफल मत रे, तक र पांच लूटेरा ॥१॥
बाती प्रज्जवलित कर ज्ञान की ज्योति जगाई है । तप के प्रभु नाम का पहरा लगावो, लूट सके नही डेरा ॥२॥ पकवान सजाय हैं और क्षमा की खिड़की से लोक व्यवहार
देखा है। खेलने की प्राध्यात्मिक विधि का एक नमूना प्रकृति चित्रण
देखिये :संत-काव्य प्रकृति पूजक नहीं रहा । वहां प्रकृति
"सुमत गुपत की करो पिचकारी, सौन्दर्य के चटकीले चित्र नहीं मिलते प्रकृति पाई अवश्य
समवर सील भरो पाणी। है पर प्राध्यात्म-चिन्तन को गति देने, मन को विकृति से छुटकारा दिलाने और प्रात्मा को विरागयुक्त करने ।
मन मिरदंगी सुरत सारंगी, जडावजी ने स्वतंत्र रूप से प्रकृति को काव्य का विषय
मधुर मधुर गावो जिनवाणी ।। नहीं बनाया। पर राजुल और नेमिनाथ के संबंध में
नेम धर्म का दोए मजीरा, बारहमासा लिखने की जो परिपाटी चली आ रही थी
सरदा लेर करो प्राणी। उसे अवश्य आगे बढ़ाया। इसी प्रकार होली, दिवाली,
भ्यान गुलाल, अबीर ध्यान को, राखी जैसे लौकिक त्यौहारों को अपना विषय बनाया
पाठ करम करों धूल धारणी ।। पर उन मबको प्राध्यात्म-भावभूमि पर ला उतारा। इस रूपक-योजना प्रवृति का परिणाम यह हना कि प्रकृति का जो प्राकृत कवियित्री ने जगह जगह लौकिक व्यवहार और रूप था वह तो अदृश्य हो गया और उभर कर सामने प्राकृतिक वातावरण की भाव भूमिका पर लम्बे-लम्बे या गया उस पर प्रारोपित शील निरूपण का रूढ़िगत सुन्दर रूपक बांधे हैं। यहां शील-रथ और मुक्ति का
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
वरण करने वाले वीर दूल्हे का स्वागरूपक नमूने के लिए खिम्मा खड्ग ज्यार हाथ में, ग्यान घोड़े असवार दृष्टव्य है
मुकति रा डंका बाजिया, संजम सैन्या लार । (१) सील रथ के जुपादयो २ गुरुजी माने,
अचल अखै सुख मागवा, होय रह्या छो त्यार ।। मुगति को पंथ बतादयो। जड़ावजी अधिक पढ़ी लिखी न थी। चलती हुई दया धरम की भूल करणी कर फुघरमाल राजस्थानी में उन्होंने हृदय की भाव-घटा को विविध
बंदादयो २ गुरुजी० राग-रागिनियों के साथ बरसाया है । यह सहज अमृतक्रिया किलंगी, व्रत की बागा,
वर्षा कला-समीक्षकों को चाहे आकर्षित न कर सके पर मेमा का मुगट धरादयो २ गुरुजी० जो रस से मग्न होना चाहते हैं उन गोताखोरों को इसमें चेतन राजा माह विराज्या,
राशि राशि भावदर्शन मिलेंगे। __ जस का बाजा बजादयो २ गुरुजी. ग्यान लगास, ठाम मन घोड़ा,
धारा का प्रतिनिधित्व करने वाली कवियित्री जड़ावजी समता की सड़क चलादयो २ गुरुजी०
का हिन्दी कवियित्रियों में विशिष्ट स्थान है। उसने न सतगुरु सारथी खेड़ण वाला,
तो डिंगल कवियों की भांति अन्तःपुर में रह कर सिवपुर की सैर करादयो २ गुरुजी०
रानियों के मनोविनोद के लिए काव्य रचना की न किसी (२) पंच इन्द्री ने बस करो, सुमत गुपत सुखकार । की प्रतिस्पर्धा में ही कलम तोड़ी । वह तो सबको
संवर बांध्यो सेवरो, सी लरो कियो सिणगार ॥ समान रूप से अपने हृदय का प्रेम प्रसाद बांटती हुई क्रिया किलंगी खुल रई, तपस्यां रो तिलक लिलार। विश्व मन्दिर के विशाल प्रांगण में लोक-धुन गाती रही।
जैन-कवियों ने मूलतः धर्मप्रधान काव्यों की रचना करते हुए भी उन्हें कोरा धर्मोपदेशक ग्रन्थ नहीं बना दिया।
काव्य धर्म के प्रमुख तत्त्व कल्पना की सुरक्षा करते हुए इन्हें वाग्वैदग्ध्य के बल पर चमत्कृत किया है-यह अलग प्रश्न है कि ऐसे स्थलों से ये अनुस्यूत नहीं है। वस्तुतः यह समुचित भी हुआ है अन्यथा मूल विषय के प्रति अन्याय होने का भय रहता।
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
महाश्रमण महावीर का दिव्य जीवन
महाश्रमण महावीर जगत के उन महापुरुषों में से हैं
जिन्होंने अपने त्याग तपस्या एवं पावन उपदेशों से प्राणी मात्र को जीवन विकास का एक नया मार्ग दिखलाया । महावीर ने राज पाट छोड़ा, भोग विलास छोडे । संसार की सभी सुख सुविधानों को सामग्री त्यागी और निर्ग्रथ तपस्वी बन कर स्वयं सुख शान्ति का मार्ग खोजा एवं जगत के दुखी प्राणियों को बताया । उस मार्ग पर पहिले स्वयं अवतरित हुये और फिर मानव मात्र को उस पर चलने का उपदेश दिया । उन्होंने सर्वप्रथम १२ वर्ष की घोर तपस्या के पश्चात् पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया, सर्वज्ञ बने और फिर अपने ज्ञानामृत से जगत को सिञ्चित किया । श्रात्मोद्धार का जो मार्ग उन्होंने बतलाया वह सीधा सादा था । इसलिये लाखों मानव स्वतः ही उनकी ओर प्राकृष्ट हो गये और अपने जीवन को उनके बतलाये हुये मार्ग पर चलकर पावन किया । ऋषभदेव राम कृष्ण एवं पार्श्वनाथ के इस देश में उन्होंने अहिंसा एवं प्रेम की गंगा बहायी तथा भारत के एक छोर से दूसरी छोर तक जनमानस को पवित्र किया। वे जबरदस्त प्रभावशाली थे; इसलिये जो भी उनके पास श्राता वह उनका हो जाता | शास्त्रार्थ करने वाले बड़े २ दिग्गज पंडित उनके शिष्य बनकर लौटते । श्रहिंसा और सत्य के वे मसीहा थे ।
महावीर अपने समय के सर्वोपरि महापुरुष थे । वे मानवों द्वारा ही पूजित नहीं थे किन्तु देवताओं द्वारा भी
भगवान महावीर जहां उपदेश देते थे उस सभा को समवसरण कहा जाता था। वहां बैठने के लिये १२ कक्ष नियत थे जिनमें मुनि, आर्जिका मनुष्य एवं स्त्रियों के अतिरिक्त पशु पक्षी भी आकर धर्म श्रवण करते थे । उनकी इस सभा में मनुष्य मात्र को आने का अधिकार था तथा जाति, धर्म एवं वर्ण का कोई प्रतिबन्ध नहीं था । परम अहिंसक प्रशम मूर्ति एवं क्षमाशील तीर्थंकर के प्रभाव से समवसरण में प्राये हुये विरोधी प्राणी भी अपने जातिगत विरोध को भूल जाते और उनके पावन उपदेश का पालन करते थे ।
·
कस्तूरचंद कासलीवाल
एम. ए. पी-एच. डी.
वन्दनीय थे । देव एवं मानव दोनों ही उनकी सेवा एवं सुरक्षा में तत्पर रहते - लेकिन वे किसी से कुछ सेवा नहीं लेते। उनका कहना था कि श्रात्म स्वातन्त्र्य के युद्ध में मानव को अपने स्वयं के बल पर ही आगे बढना चाहिए । सफलता उन्हीं का चरण चूमती है जो परमुखापेक्षी नहीं होते । इसलिये उन्होंने भारतीय जीवन में परिवर्तन लाने के लिये जो भी क्रान्तिकारी कदम उठाये उसमें वे पूर्ण सफल हुये । श्राज हम ऐसे ही महामानव एवं महाश्रमण की जयन्ती मना रहे हैं ।
जन्म
महावीर का जन्म ग्राज से २५६२ वर्ष पूर्व चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन बिहार प्रदेश के कुण्डल ग्राम में हुआ था । उनके पिता क्षत्रिय वंश के थे और उसी ग्राम के राजा थे । उस समय वहां गणतन्त्र था और महाराजा सिद्धार्थ उस गणतन्त्र के प्रमुख थे । उनको माता प्रियकारिणी त्रिशला थी जो लिच्छवियों के गणतन्त्र के प्रधान राजा चेटक की बहिन थी । महाराजा सिद्धार्थ उस समय के प्रभावशाली एवं जनप्रिय
शासक थे ।
बाल्यावस्था
महावीर जन्म से ही विशिष्ट ज्ञान के धारी थे । उनकी बुद्धि प्रखर थी और वे अपने साथियों में प्रमुख थे । वे मेघावी एवं व्युत्पन्नमति थे । विपत्ति में वे
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
अपना सन्तुलन नहीं खोते थे । एक बार बाल्यावस्था में महावीर की सभा ही जब वे अपने साथियों के साथ उद्यान में बाल सुलभ भगवान महावीर जहां उपदेश देते थे उस सभा को खेल खेल रहे थे तो उन्होंने सामने से आते हुये भयंकर समवसरण कहा जाता था। वहां बैठने के लिये १२ कक्ष विषधर को उठा कर फेंक दिया था। जबकि उनके अन्य नियत थे जिनमें मुनि, प्रायिका, मनुष्य एवं स्त्रियों के साथी उसे देखकर ही भाग खड़े हुये थे।
अतिरिक्त पशु पक्षी भी पाकर धर्म श्रवण करते थे। उन शिक्षा एवं गृहत्याग
की इस सभा में मनुष्य मात्र को पाने का अधिकार था वे जब पढने लगे तो शीघ्र ही सब ग्रन्थों का अध्ययन तथा जाति, धर्म एवं वर्ण का कोई प्रतिबन्ध नहीं था। कर लिया। उनकी प्रखर एवं गतिशील बुद्धि को देखकर परम अहिसक प्रशम मूर्ति एवं क्षमाशील तीर्थङ्कर के शिक्षक भी दंग रह जाते लेकिन महावीर ने अपने
प्रभाव से समवसरण में आये हुये विरोधी प्राणी भी अपने विशिष्ट ज्ञान होने का कभी गर्व नहीं किया । वे जातिगत विरोध को भूल जाते और उनके पावन उपदेश सुन्दरता में कामदेव को भी लज्जित करते थे। जब वे का पालन करत थ । वन विहार एवं नगर दर्शन के लिए निकलते तो प्रजा महावीर की भाषा उनके मनमोहक-सौंदर्य को देखकर फूली नहीं समाती। महावीर तीर्थकर थे । उनकी वाणी दिव्य ध्वनि बड़े बड़े राजा महाराजा महावीर के विवाह के लिये कही जाती है । भगवान की वाणी की भाषा अर्ध अपनी २ राजकुमारी को देने का प्रस्ताव रखते। इस मागधी थी जो उस समय की जनसाधारण की प्रिय एवं तरह आये दिन विवाह के प्रस्ताव पाते लेकिन वे उन्हे बोलचाल की भाषा थी। यद्यपि संस्कृत का भी उस सदैव टालते रहते। अन्त में उन्होंने तीस वर्ष की समय काफी प्रचलन था लेकिन अर्धमागधी जन-साधारण अवस्था में निर्ग्रन्थ साधु की दीक्षा लेने के अपने निश्चय की भाषा होने के कारण भगवान महावीर ने इसी भाषा को सब के सामने रख दिया। माता त्रिशला रोने लगी में ही उपदेश देना प्रारम्भ किया । यह प्रथम अवसर एवं सिद्धार्थ असमंजस में पड़ गये । उन्हें बहुत समझाया था जब एक सर्वोपरि धार्मिक नेता ने बोलचाल की भाषा गया अनेक प्रलोभन दिखलाये गये । राज्य शासन समाप्त में अपना प्रवचन दिया इसलिये महावीर के धर्म की पोर
' का डर दिखलाया गया तथा साधु जीवन में आने शीघ्र ही लाखों भारतवासी उनके अनुयायी होगये। वाली विपत्तियों को गिनाया गया। लेकिन भगवान महावीर अपने निश्चय पर अटल रहे और मंगसिर बूदी
भगवान महावीर ने सर्व प्रथम 'जीमो और जीने दो' १० को वे घरबार छोड़ कर निर्ग्रन्थ बन गये।
यानी अहिंसा धर्म को अपनाने एवं उसे जीवन में तपस्वी जीवन
उतारने का उपदेश दिया। सब जीवों के समान प्रात्माऐं १२ वर्ष तक महावीर स्वामी ने घोर साधना एवं हैं । जैसे हमारी प्रात्मा को दुःख होता है वैसा ही दुःख तपस्या की। उनका तपस्वी जीवन रोमांचकारी था। दूसरों की प्रात्मा को भी होता है। अहिंसा सब धर्मों का वे महीनों तक ध्यानस्थ रहते । वे जंगलों की कन्दरानों मूल है । कायिक, वाचिक एवं मानसिक तीनों ही प्रकार में मौन साधे हये खडे रहते । भूमि पर शयन करते। की हिसा से मनुष्य को बचना चाहिए । वस्तुतः अहिंसा उन्हें एकान्त वास प्रिय था । वे प्रात्म ध्यान में तल्लीन ही धर्म का सार है । अतः महावीर ने अपने प्रवचन में रहते और जीवन-मरण के प्रश्न पर तथा प्रात्म तत्व अहिंसा को ही सर्वप्रथम स्थान दिया। पर विचार किया करते । अन्त में १२ वर्ष के पश्चात् उन्होंने सर्व जाति सम भाव का मंत्र फूका । सभी उन्हें पूर्ण ज्ञान होगया । और भूत भविष्यत वर्तमान की जातियाँ समान हैं । जन्म मात्र से न कोई ऊँचा है और समस्त घटनायें साक्षात्कार होने लगी । अब उनके ज्ञान न नीचा । नीच-ऊंच तो अपने कर्मों से होता है। के बाहर कोई वस्तु नहीं रही । वे सर्वज्ञ कहलाने लगे। उच्चकुल में जन्म लेने मात्र से किसी की पूजा करना एवं
नासर बुदा
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
नीच कहेजाने वाले के यहां उत्पन्न होने से ही किसी से निश्चित राशि से अधिक धन धान्य, दासी दास, मकान घृणा करना उचित नहीं है । मानव की पूजा गुणों से की आदि संपत्ति किसी भी श्रावक को नहीं रखना चाहिये । जानी चाहिए जाति वर्ण एवं गोत्र से नहीं । भगवान यदि ये परिग्रह की वस्तुएँ अधिक होगी तो समाज में महावीर के इस क्रान्तिकारी कदम से बड़े २ पुरोहितों किन्हीं लोगों का ही प्रभुत्व रहेगा। समाज के सर्वोदय एवं पुजारियों के पासन हिल गये । उन्होंने सबको के लिए आवश्यक है कि धन धान्य आदि के वितरण जीवन विकास का समान अवसर दिया और इससे सारे एवं संग्रह में अधिक विभिन्नता न हो। किसी गृहस्थ के भारत में उस समय उपेक्षित, पददलित एवं पीडित पास जरूरत से इतना अधिक न हो कि वह उससे खाया समाज में पूनः प्राशा का संचार हया और वे भी अपने भी न जाय और दूसरे लोग भूखे पेट ही सोवें । महावीर विकास के सुनहले स्वप्न देखने लगे ।
ने सभी जीवनोपयोगी वस्तुओं का संग्रह करने पर अंकुश भगवान महावीर ने सर्वधर्म समभाव का भी।
लगाने का प्रयत्न किया जिससे समाज में सभी सुखी उपदेश दिया। उनके समय में ३६३ प्रकार के विभिन्न
एवं साधन सम्पन्न हो सकें । इस प्रकार महावीर ने
परिग्रह परिणाम के नाम पर २॥ हजार वर्ष पूर्व ही मत मतान्तर प्रचलित थे और जो एक दूसरों को नीचा दिखलाने के लिये लड़ा करते थे। इसलिये महावीर ने समाजवाद के सिद्धान्त का सूत्रपात कर दिया था जिसकी
आज चारों ओर चर्चा है। सबसे सर्वधर्म समभाव अपनाने के लिये कहा । और आ अनेकान्तवाद तथा स्याद्वाद के सिद्धान्त को जन्म दिया। भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित पंचागवत उन्होंने कहा कि प्राग्रह ही लडाई झगडे का कारण (अहिंसा सत्य अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं परिग्रह परिमाण । बनता है अतः सभी धर्मों का आदर करना चाहिए। जो आज भी जीवन के लिए उतने आवश्यक है जितने कि ये कुछ हम कहते हैं वहीं एक मात्र सही नहीं है किन्तु उस समय थे। आज जहां नैतिकता का दिनों दिन हास किसी दृष्टि से दूसरे का कथन भी सही हो सकता है । होता जारहा है, फैशन परस्ती बढ रही है तथा व्यक्ति इस सिद्धान्त को जीवन में उतारना चाहिए। तभी अपने कर्तव्य से विमुख होता जारहा है उस समय जगत में सुख शान्ति स्थापित हो सकती है । सर्वधर्म महावीर के इन सिद्धान्तों को जीवन में उतारा जाय समभाव के रूप में उन्होंने सहमस्तित्व के सिद्धान्त तो हम सबका जीवन फिर से सूखी एवं सम्पन्न बन का ही मानों प्रतिपादन किया जिसकी आज के युग में सकता है । इन उपदेशों को जीवन में उतारने के लिए सबसे अधिक आवश्यकता है।
किसी सम्प्रदायवाद के चक्कर में पड़ने की आवश्यकता
नहीं। धर्म के नाम पर समाज के नाम पर वर्ण भेद के पार्श्वनाथ के चातुर्याम धर्म में महावीर ने ब्रह्मचर्य
नाम पर जो जगत् के कोने २ में अत्याचार एवं उत्पीडन व्रत को और जोड़ कर पांच व्रत किये । उस जमाने में
हो रहा है वह तभी मिट सकता है जब हम अपने लोगों का चरित्र भी बहुत गिर चुका था तथा वे असंयमी
जीवन में सर्वजीव समभाव ( अहिंसा ) सर्वधर्म समभाव बन चुके थे । कूमार्ग में जाने में जरा भी संकोच नहीं
(अनेकान्त ) एवं सर्व जातिसमभाव के सिद्धान्तों को करते थे। स्त्रियों का बाजार लगता तथा वे बिका
जीवन में उतारें। यदि हम ऐसा नहीं करसकें तो हमारा करती थीं । वैश्याओं की दुकानें लगती तथा अनैतिक
समाज की भविष्य में क्या गति होगी इसका सहज ही व्यापार का भी बाहुल्य था। इसे रोकने के लिये महावीर
अनुमान लगाया जा सकता है । आशा है भगवान महावीर ने ब्रह्मचर्य को जीवन का प्रमुख अंग घोषित किया।
की इस पावन जयन्ती पर हम भारतीय फिर से उनके परिग्रह परिमाण व्रत के नाम पर महावीर ने द्वारा दिखलाये हये मार्ग पर चलने का पूनः प्रयास करेंगे आर्थिक समानता के सिद्धान्त को जन्म दिया। एक जिससे हम अपने जीवन का विकास कर सकें।
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
अहिंसा का व्यापक चिंतन और आचार
• जवाहिरलाल जैन
मानव में जीने और जानने की मूलभूत प्रवृत्तियां हैं। प्राणियों की हिंसा से बचने का प्रयत्न इस देश में बहुत
जीने की प्रवृत्ति पशु में भी है पर मानव में अधिक रहा । चिंतन. वाणी, भाषा और लेखन के विकास और विस्तार लेकिन अहिंसा का एक पहल हिंसा से बचने का. ने उसके ज्ञान का बढ़ाया है, विवेक का विकासत किया हिंसा न करने का है. तो दूसरा पहलू प्राणियों के कष्ट है, इसी से मानव में सभ्यता और संस्कृति का विकास को दूर कर उनकी सेवा करने का, उनको अधिक हमा है। जहां सभ्यता और संस्कृति है वहां मानव- सुखी बनाने का भी है । ऐसा लगता है कि इस दिशामें समाज में अपनी सुरक्षा, कमजोर को संरक्षण, जियो इस देश में अपेक्षाकृत चिंतन कम हया । यद्यपि पक्षियों और जीने दो का चिार और दूसरों के लिए स्वयं कष्ट- के रोग हर करने के उनको चारा-दाना देने के लिए महत और त्याग तथा बलिदान की भावना और प्राचार
मा पार प्राचार चिकित्सालयों के कुछ उदाहरण मिलते हैं और गायों के पनपे और बलवान बने हैं। संक्षेप में यह कहा जा सकता लिए पिंजरापोलों की व्यवस्था भी हर देश में व्यापक है कि मानव-सभ्यता और संस्कृति अहिंसा के विचार के रही है पर गायों के अतिरिक्त अन्य प्राणियों के लिए विकास पर ही आधारित हैं । यह अवश्य है कि विभिन्न ऐसी व्यवस्थाएं कम ही सोची गई और रोगियों की, यगों और देशों में इस विचार के विभिन्न पहलुओं पर घायलों की सेवा की सामूहिक और व्यापक परम्परा विभिन्न परिमारण में जोर दिया गया है और वह कुछ ज्यादा नहीं बनी और मानव-समाज में गरीबी, विषमता, उनकी अपनी-अपनी' परिस्थितियों और मानव-समूहों की बीमारी क्यों होती है और उसे किसी विशेष प्रकार विकास-श्रेणी के अन्तर का प्रभाव है । यह सारा का समाज-संगठन के द्वारा दूर किया जा सकता है या नहीं सारा अध्ययन अपने आपमें बहुत रोचक, ज्ञान वह क इस दिशा में भी बहुत अधिक नहीं सोचा गया । हो और उपयोगी है।
सकता है कि आवागमन और भाग्य के सिद्धांतों की भारत में अहिंसा का विचार मुख्यतः पशुओं के प्रबलता के कारण हर तरफ ज्यादा ध्यान भारतीय प्रति करुणा से प्रारंभ हुमा लगता है । यज्ञों में की संस्कृतियों का न गया हो। जाने वाली पशु-हिंसा का विरोध भी इसी का परिणाम मध्यपूर्व में उत्पन्न होने वाली यहदी, ईसाई और है और मांसाहार निषेध का जो महान् और व्यापक इस्लामी संस्कृतियों में मांसाहार निषेध पर जोर कम प्रयोग भारतीय सभ्यता और संस्कृति में गये हजारों रहा, यद्यपि रोजा, उपवास आदि के द्वारा प्राहार में वर्ष से चला है, वह भी इसी का सूचक है। वैदिक, संयम पर विचार किया गया और अमुक पशु का मांस बौद्ध और जैन सभी संस्कृतियों में इसके विचार और न खाया जाय, या केवल मछली ही उपवास के दिन प्राचार पर गंभीर चितन चला और अनेक पद्धतियां खाई जाय पर सोचा गया । मानवों की सेवा का विचार प्रयोग में लाई गई। जैन सूक्ष्म प्राणियों तक की हिंसा विशेष हमा, घायल रोगी-कोढ़ी प्रादि के दुःख हर करने के बचाव की दिशा में बहुत गहराई में गये। मानवेतर पर जोर दिया गया। सूदखोरों का निषेध हमा।
-
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
११२
अहिंसा के नकारात्मक पहलू के बजाय प्रेम के विधेयात्मक जीवन के इस पहलू को जितना प्रभावपूर्ण और प्रबल पहलू को बल मिला । युद्ध का निषेध जो भारतीय बनाना चाहिये था संभवत- नहीं बना पाया। संस्कृतियों में शायद ही कहीं मिलता हो, ईसाई-संस्कृति गांधीजी ने अहिंसा के व्यक्तिगत और सामाजिक, में विशेष रूप से किया गया। अपराधों के कारण दी प्राध्यात्मिक और भौतिक पहलों का समन्वय और जाने वाली सजानों पर विचार गंभीरता से हुमा । फांसी
संतुलन करने का प्रयत्न किया और इसके साथ ही की सजा किसी व्यक्ति को न दी जाय यह प्रांदोलन पश्चिम के अहिंसा-विचार का ही परिणाम है।
लाने की कोशिश की । विनोबाजी प्रात्मज्ञान और युद्ध-विरोध, निःशस्त्रीकरण-तलवारों को हल के विज्ञान के समन्वय की चर्चा करते हैं और ऐसा मानते फालों में बदल दिया जाय-ईसा मसीह की इस हैं कि भविष्य में प्राध्यात्म और विज्ञान से ही दो महान् कल्पना के मूल में है। यह प्रान्दोलन पश्चिम में ही विचार शक्तियां रहने वाली हैं जो मानव को तारक पनपा और बढा । यद्धों में मानव-समूहों को जो अपमान या मारक सिद्ध होंगी। यदि ये दोनों मिल कर चलेंगी और कष्ट सहने पड़े, अन्याय और निर्दयता पूर्वक तो दुनियां इस धरती पर स्वर्ग बन सकेगी और ये दोनों इंसानों को मौत के घाट उतारा जाता हैं, जो अत्याचार एक दूसरे के विपरीत गई तो धरती पर से मानव-जाति स्त्री-बालकों पर होते हैं, उनका गहरा प्रभाव पश्चिम के का या शायद प्राणिमात्र का ही सफाया हो सकता है। विचारकों पर पड़ा है और उसी में से युद्ध-विरोध का विज्ञान के संहारक विकास और विस्तार ने अहिंसा और वितन और प्रयोग निकले हैं और सारी नयां में फैले आध्यात्मिकता के सामने यह चुनौती रखी है विशेष रूप हैं। रोग के उपचारों में रोगी को कष्ट कम से कम किस से उनके सामने जो इनमें प्रास्था रखते हैं और इन पर प्रकार हो यह चिंता और उसके परिणाम स्वरूप होने
गर्व करते हैं। वाले प्राविष्कार पश्चिम से प्रवाहित होने वाली अहिंसा आवश्यकता इस बात की है कि दुनियां के विभिन्न की एक धारा है।
भागों में प्राचीन तथा मध्यकाल में अहिंसा के संबंध में
जो चिंतन और प्राचरण हुआ है उनका व्यापक दृष्टि से इस विचार की अन्य दिशा मानव-समाज की
तुलनात्मक अध्ययन किया जाय और आधुनिक काम में व्यवस्था और संगठन का चिंतन इस दृष्टि में है जिससे
जो चिंतन तथा प्रयोग चल रहे हैं उनकी जानकारी की मानव की गरीबी, विषमता और कष्ट में कमी हो सके,
जाय तथा कराई जाय । यह काम देश-विदेश अहिंसा सारे मानव अलग-अलग और कुल मिला कर अधिक
तथा शांति के शोध-संस्थानों को करना चाहिये। इस के सुखी, ज्ञानवान दीर्घजीवी और प्रसन्न हो सकें । भौतिक 1 और प्रसन्न हो सके । भौतिक साथ ही दुनियां में आज अनेक देशों में चलने वाले
, दृष्टि से अहिंसा के इस पहलू का विचार पश्चिम में अहिंसा तथा शांति के प्रांदोलनों को बल देना चाहिये । हा है। भारत में तथा पूर्व के देशों में मानवीय सुख ऐसा करने से ही वर्तमान प्ररणुयुग में अहिंसा की शक्तियों का प्राध्यात्मिक और प्रास्तिक दृष्टिकोण से किया गया को बल मिलेगा और प्राध्यात्मिकता तथा विज्ञान का है। यद्यपि उसमें अगले जन्म, और मृत्यु के पश्चात् समन्वय हो सकेगा। संसार का भविष्य इसी समन्वय प्राप्त होने वाले स्वर्ग और मोक्ष के विचारने वर्तमान पर निर्भर है।
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
भगवान महावीर की मंगलमय वाणी
• अगरचन्द नाहटा
जैन धर्म के प्रवर्तक एवं प्रचारक तीर्थंकर महापुरुषों बढ़ाता पा रहा है यदि वह साधना के द्वारा प्रागामी
ने कई जन्मों की साधना के अनन्तर मात्म जन्मों को सीमित कर सके तो भविष्य के अनन्तकाल का साक्षात्कार करके केवल ज्ञान प्राप्त किया और जगत के दुःख तो सहज ही मिट सकता है और इतनी उपलब्धि जीवों के उद्धार के लिए कल्याण मार्ग का उपदेश कोई मामुली उपलब्धि नहीं है। निरन्तर घूमकर सर्वत्र प्रचारित किया उसे श्रवण करके महापुरुषों का प्रभाव उनकी प्राकृति से भी दूसरों लाखों व्यक्तियों ने आत्मोद्धार का मार्ग अपनाया। पर पड़ता है। साधारणतः अहिंसक व्यक्ति के निकट कुछ ने प्ररण व्रत, कुछ ने महा व्रत तथा जो व्रतों को सम्पर्क में आने वाले हिंसक जीव-जन्तु भी अपने बूरे धारण न कर सके, उन्होंने सम्यक्त्व प्राप्त करके ही स्वभाव और पारस्परिक वैर भाव को भूल जाते हैं। अपने चिरकालीन भव भ्रमण को बहुत ही सीमित कर यद्यपि महापुरुषों की वाणी को समझने की योग्यता दिया और अनेकों प्राणियों ने तो उसी भव में मोक्ष उनमें नहीं होती, पर वाणी केवल मुह से निकले हुये प्राप्त किया। ऐसी मंगलमय वाणी का जितना अधिक शब्दों को ही नहीं कहते, प्राकृति से पड़ने वाला प्रभाव प्रचार हो, उतना ही भव्य जीवों के लिए प्रशस्त और भी एक तरह से मूल बाणी है अर्थात् बिना शब्दोच्चारण उचित है।
के भी अन्दर का भाव बाहर झलकता है भौर उससे इस अवसर्पिणी काल के चौबीस तीर्थंकरों में से दूसरे व्यक्ति ऐसा अनुभव करते हैं कि उन्हें महा-मानव तेबीस तीर्थंकरों की वाणी तो हमें प्राप्त नहीं है पर की सौम्यमुद्रा भी एक अद्भुत संदेश दे रही है एवं केवल ज्ञान प्राप्त होने के बाद सभी एक ही भूमिका पर इससे वे परम शान्ति का अनुभव करते हैं । जैनागमों समानरूप से पहुँच जाते हैं, अतः यह माना गया है कि में यह कहा गया है कि महावीर के समवसरण में तात्विक या कल्याण-मार्ग का उपदेश सभी तीर्थंकरों नर-नारी और देव-देवी ही नहीं पर पशु-पक्षी भी पाकर का एकसा होता है, इसलिए भगवान महावीर की वाणी धर्म सन्देश ग्रहण करते थे। बहत से तिर्यच प्राणी का जो कुछ भी अंश हमें प्राप्त है उसे ही अनन्त तीर्थ- सम्यगदर्शन और कुछ एक अणुव्रत धर्म को भी ग्रहण करों का उपदेश मान सकते हैं और यह कि यदि उनके कर लेते थे। उपदेश के अनुसार साधना की जाय तो सिद्धि अवश्य महावीर के समय में भी अपने को तीर्थंकर कहने मिलेगी। यह ठीक है कि पंचम काल में भाव-विशुद्धि वाले कई धर्म प्रर्वतक थे, पर महावीर जैसी उग्र और इतनी उच्च भूमिका की नहीं होती और जो कभी-कभी उच्च साधना करने वाला उनमें से कोई न था। इसोबहुत अच्छे भाव प्राप्त होते हैं, वे भी चिरकाल टिक लिये उनकी परम्परा अधिक नहीं बढ़ पाई। मनुष्य के नहीं पाते । इसलिए इस जन्म में मोक्ष न भी हो, पर विचार, वाणी द्वारा व्यक्त होते हैं किन्तु उनका प्रभाव धर्म करणी का फल तो मिलेगा ही अर्थात् इसपे निकट साधना की गहराई पर अाधारित है। मनुष्य के व्यक्तिगत भविष्य में मोक्ष प्राप्त हो सकेगा। यह जीव जो प्रनादि भाचरण का प्रभाव भी जबरदस्त पड़ता है। महावीर काल से विषय और कषाय के सेवन से भव भ्रमण का जीवन, प्राचार और विचार दोनों दृष्टियों से अन्य
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
समस्त साधकों की अपेक्षा विलक्षण रहा है। अहिंसा और भी अधिक कषाय, वैर-विरोध और हिंसा एवं मादि धर्मों का निरूपण करने से पहले उन्होंने अपने प्रतिहिंसा को बढ़ाने वाला होता है । जीवन में पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित किया। अहिंसा की २. अप्पाणं जइत्ता सुहमेंहए । जितनी सूक्ष्म व्याख्या महावीर ने की वैसी ही अहिंसा की
अपनी प्रात्मा को सांसारिक भोगों से हटाकर राजस उत्कृष्ट साधना भी । इसलिए उनका जीवन भी दूसरा और तामसिक दुर्गुणों पर विजय प्राप्त कर, सात्विकता के लिये प्रकाश-स्तम्भ स्वरूप है । इससे दूसरों को सहज
प्राप्त करने पर ही सुखी बन सकते हैं। ही सत्प्रेरणा मिलती है । कथनी और करनी की एकता
३. सव्वं अप्पे जिएं जियं । से वाणी में जो ताकत पैदा होती है केवल जोशीले
केवल एक प्रात्मा को जीत लेने पर ही यानी कषायों मौर चटपटे शब्दों से कभी भी नहीं। समभाव की
पर विजय प्राप्त कर लेने से ही सब कुछ जीत लिया साधना महावीर के जीवन का मूल मंत्र था। अनुकूल
जाता है। इसके बाद कुछ भी जीतना शेष नहीं और प्रतिकूल दोनों परिस्थितियों में उन्होंने समभाव
रहता है। रखा । गरीब और अमीर छोटे एवं बड़े ऊंच तथा नीच
४. अप्पा मित्तममितं च, टुप्पटिठ्य सुपट्ठियो। सभी उनकी दृष्टि में समान थे। इसी तरह मारणन्तिक कष्ट देने वाले और सदा सेवा में रहने वाले परम प्रशंसक
अपने पापको दुःख मय स्थान में पहुंचाने वाला भक्त पर भी वे समान भाव रखते थे। राग-द्वेष पर । नाना
अथवा सुख मय स्थान में पहुंचाने वाला यह स्वयं विजय प्राप्त करने के कारण ही वे "जिन' कहलाये।।
कहलाये। प्रात्मा ही है, यह प्रात्मा ही स्वयं का शत्रु है और मित्र
भी है । सन्मार्ग-गामी हो तो मित्र है और उन्मार्ग सूक्ष्म से सूक्ष्म दोष या पाप से वे निवृत्त हो गये। तभी मा हार उन्हें वस्तु तत्व का वास्तविक रूप पूर्ण रूप से ज्ञात ना गामा हो तो शत्रु है। इसीलिये उन्हें 'सर्वज्ञ' और 'केवली' कहते हैं । ऐसे . ५. अप्पाकत्ता विकत्ताय, दुहारण य सुहाण य । महान साधक एवं सिद्ध व्यक्ति की वाणी में न परस्पर यह प्रात्मा ही अपने लिये स्वयं सुख का और दुःख विरोध हो सकता है, न छलना प्रौर संशय ही । १२॥ का कर्ता है। कर्मो का बांधने वाला यही है और कर्मो वर्षों की कठोर साधना के बाद प्राणी मात्र का जो को काटने वाला भी यही है । कल्याण मार्ग उन्होंने प्रवर्तित किया वह चिरकाल तक
६. अप्पा कामदुहा घेणू, अप्पा में नन्दणं वर्ण संख्य जीवों के उद्धार का कारण हुआ और होता
सन्मार्ग में प्रवृत्ति करने की दशा में यह प्रात्मा रहेगा । सुप्त मानव-चेतन को और भ्रांति बुद्धि मानव
स्वयं खुद के लिये काम दुग्धाधेनु यानी इच्छा पूर्ति करने को उन्होंने जागृत किया तथा तथ्यों के प्रकाश द्वारा
करने वाली गाय के समान है। नैतिक और आध्यात्मिक अज्ञानान्धकार को नष्ट कर दिया। यहां उनकी उस
मार्ग पर चलने की दशा में यह प्रात्मा स्वयं नंदनवन के शक्ति संदेश-मयी और परम कल्याणमयी वाणी में से
समान है। पवित्र और सेवा मय कार्य करने से यह थोडीसी सुक्तियों को उद्धृत किया जा रहा है जिनके प्रात्मा स्वयं मनोवंछित फल देने वाला हो जाता है, द्वारा व्यक्ति और समष्टि सभी को समान रूप से शांति स्वर्ग और मोक्ष के सुखों को प्राप्त कराने वाला स्वयं मिल सकती है और दीर्घकालीन दुःख की परंपरा नष्ट यही है। हो सकती है।
७. अप्पा नई वेयरणी, अप्पा में कूड सामली। १. अप्पाणमेव जुज्झाहि, किं ते जुज्झेरण बज्झनों। यह प्रात्मा ही स्वयं-खुद के लिये अनीति पूर्ण
अपनी प्रात्मा में स्थित कषाय विकार, वासना से मार्ग पर चलने से कार्यों में फंसे रहने की दशा में कुट ही यद्ध करो. बाह्मयुद्ध में क्या रखा है ? बाह्य युद्ध तो शाल्मली वृक्ष के समान है। उन्मार्ग-गामी होने की दशा
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
११५
प्रात्मा स्वयं अपने लिये वैतरणो और कूट शाल्मली वृक्ष कारण हैं और कर्मो के कारण ही संसार है। कर्म को जैसे ना ना विध दुःखों को पैदा कर लेता है।
बांधने वाला व्यक्ति स्वयं है और कर्मों से मुक्त होने के . ८. न तं प्ररी कंठ छित्ता करई,
लिये पुरुषार्थ भी स्वयं को ही करना पड़ेगा। जं से करे अप्परिणचा दुरप्पा ।
सभी जीवों को अपना जीवन प्रिय है। दुःख और दुराचार में प्रवृत्त हुप्रा यह प्रात्मा स्वयं का जैसा मरण कोई नहीं चाहता। इसलिये प्राणी मात्र को अपने और जितना अनर्थ करता है, वैसा अनर्थ तो कंठ को ही जैसा मानते हुए किसी को भी कष्ट न दो. हिंसा छेदने वाला या काटने वाला शत्रु भी नहीं करता है।
न करो। जीवन क्षेत्र में जो कुछ पाप प्रवृति हुई है अनर्थ मय प्रवृति शत्रु की प्रतिक्रिया से भी भयंकर और
उसके लिये पश्चाताप करो और किसी भी जीव के साथ अनेक जन्मों में दुःख देने वाली होती है।
कोई वैर विरोध का मौका हो गया तो क्षमा मांगो। ___अब महावीर ने मानव को जो नया प्रकाश दिया क्षमा दे दो । संयम और तप आत्म विशुद्धि के महान उसके कतिपय सूत्र नीचे दिये जा रहे हैं । महावीर का साधन हैं । संयम के द्वारा कर्मों के प्राने का मार्ग अवरुद्ध सबसे बड़ा धर्म सन्देश यह है कि यह प्रात्मा ही होता है । और तप के द्वारा पुराने कर्म जीर्ण-शीर्ण परमात्मा है। अनन्त शक्ति और गुणों का यह भण्डार होकर नष्ट हो जाते हैं। स्वाध्याय और ध्यान निरन्तर है। ईश्वर एक नहीं, अनेक है। प्रत्येक प्रात्मा में करते रहो। कषाय और प्रमाद से बचे रहो । सभी परमात्मा अर्थात् सिद्ध होने की पूर्ण क्षमता है उसे प्रकट जीवों के साथ मैत्री भाव रखो। किसी के साथ भी करने के लिये पराश्रित न होकर स्वावलम्बी होना पैर न रखो । सद्धर्म की प्राप्ति सब जीवों को हो ऐसी आवश्यक है । अपने स्वरूप को हम भूल चूके हैं । और भावना रखो और उनके प्रात्मोत्थान में सहायक बनो। पौद्गलिक शरीर, धन और कुटुम्ब प्रादि को अपना गुणी जनों की पूजा निरन्तर करते रहो, पापियों के मान रहे है।
प्रति भी घणा का भाव न रखो। ममत्व ही दुःख का यही सबसे बड़ी भूल है। विषय और कषाय पात्मा । कारण है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र की प्राप्ति ही मोक्ष के दो महान शत्रु हैं। राग और द्वेष ही कर्मबन्ध के मूल का मार्ग है।
___ करता हो तथा चाहे कितना ही तप करता हो। शुद्धात्मा के लक्ष्य को सदैव दृष्टि के सामने रखना नैतिक या मोक्षमार्गीय चेतना का सर्वस्व है । इस दृष्टि का अभाव होते ही जीव मोक्षमार्ग के अपने चरम उद्देश्य से भ्रष्ट हो जाता है। निश्चय नय इसी चरम लक्ष्य के साक्षेप वस्तु की व्याख्या करता है।
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
नैतिक सद्गुण
अधिकारों तथा कर्तव्यों के परस्पर सम्बन्ध का ज्ञान होना नैतिक दृष्टिकोण से विशेष महत्व रखता है। न तो हम किसी व्यक्ति को केवल अधिकार देकर उसके व्यक्तित्व का विकास कर सकते हैं और न ही बार २ कर्तव्य की दुहाई देकर किसी को नैतिक बना सकते हैं । अधिकारों तथा कर्तव्यों का उद्देश्य नैतिकता का निर्माण और सच्चरित्रता का संचार है । यह उद्देश्य तभी पूरा हो सकता है, जब मनुष्य के स्वभाव में नैतिकता स्वच्छन्दरूप से प्ररस्फुटित हो उठे और जब उसे सदाचारी बनने के लिए न तो बाहरी प्रदेशों की जरूरत हो और न ही वह किसी प्रकार के अधिकारों की उपेक्षा करता हुआ नैतिक जीवन में पिछड़ा हुआ रह जाय । नैतिक व्यक्ति वही है, जो सर्वगुण सम्पन्न है, जिसकी श्रादतें इस प्रकार स्थिर हैं कि नैतिक कर्तव्य का पालन करना उसका स्वच्छन्द व्यवहार बन जाता है । सद्गुण सम्पन्न अथवा धार्मिक जीवन ही सम्पूर्ण जीवन है । जिस व्यक्ति में सद्गुण स्थित हो जाते हैं, उसके लिए सदाचार उसके व्यक्तित्व का प्रान्तरिक अंग बन जाता है और स्थितप्रज्ञ बन जाने के कारण उसका जीवन अधिकार और कर्तव्य का सुन्दर समन्वय बन जाता है ।
सद्गुरण शब्द के दो प्रकार के अर्थ किए जाते हैं । विस्तृत दृष्टिकोण से सद्गुरण को मानवीय चरित्र की कोई भी उत्कृष्ट अवस्था एवं मानवीय श्रेष्ठता कहा जा सकता है । इसी दृष्टिकोण से सद्गुण का अर्थ शक्तिमत्ता है । अतः हम सद्गुरण को वह गुण मानते हैं जो कि किसी भी प्रकार की श्रेष्ठता होती है । जब हम यह कहते हैं कि अमुक श्रौषधि में यह गुण है, तो हमारा कहने का अभिप्राय यह होता है कि इसमें एक विशिष्ट प्रभाव है । इसी दृष्टि से हम शूरवीरता, साहस श्रादि को सद्गुण कहते हैं । यूनानी दार्शनिकों ने भी सद्गुण की ऐसी ही व्याख्या की थी और मानवीय चरित्र के गुणों
को मूल्य माना था । इन सद्गुरणों की विशेषता यह है कि ये सरलतम हैं और इनमें व्यापकता है। ये सद्गुण निम्नलिखित हैं :
(१) विवेक (३) संयम
• डा. ईश्वरचन्द्र शर्मा
(२) साहस (४) न्याय
ये चारों सद्गुण निस्सन्देह सर्वमान्य हैं और आज तक भी विश्व में इनको वही मान्यता दी जाती है, जो कि इन्हें प्राचीनकाल में प्राप्त थी । वैदिक, जैन, बौद्ध एवं अन्य सभी धर्मों ने इन पर जोर दिया है । यद्यपि कुछ आलोचकों ने इन सद्गुणों की निरपेक्षता के प्रति आपत्ति की है, तथापि सरलता की दृष्टि से यह सूची स्वीकार करने योग्य है । यह भी कहा जाता है कि प्रथम सद्गुण विवेक के अन्तर्गत अन्य सभी सद्गुण सापेक्ष हैं । एक दृष्टि से विवेक की व्यापकता को स्वीकार किया जा सकता है, क्योंकि प्रत्येक सद्गुण पर आधारित क्रिया वही होती है जो विवेकपूर्ण होती है । यही कारण है कि सुकरात ने सद्गुरण को ज्ञान
माना था ।
विवेक, साहस, संयम तथा न्याय चारों सद्गुणों को स्वतन्त्र और मुख्य माना गया है। इनमें विषमता होते हुए भी समानता का तत्त्व उपस्थित रहता है । श्राधारभूत एवं मुख्य सद्गुण वास्तव में उन मानवीय गुणों तथा संस्कारों की अभिव्यक्ति हैं जो कि नीचे के स्तर के मूल्यों की अपेक्षा ऊंचे स्तर के मूल्यों के निर्वाचन की क्रिया के द्वारा विकसित होते है । उदाहरणस्वरूप, साहस को ले लीजिए। यह एक ऐसा संकल्प का गुण है जो कि भय अथवा शारीरिक दुःख की उपस्थिति में भी मनुष्य को दृढ़ता देता है । यह सद्गुरण सदैव स्वलक्ष्य होने के कारण प्रशंसनीय होता है और इसके मूल्य का स्तर उतना ही ऊंचा होता है, जितना कि वे मूल्य ऊंच होते हैं, जिनकी प्राप्ति के लिए भय श्रथवा दुःख का
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
११७
सामना किया जाता है। इसी प्रकार न्याय, व्यक्तिगत का विरोध करने की प्रेरणा देता है। इसी प्रकार संचय पक्षपात और हित की उपस्थिति में तटस्थता धारण करने भी हमें व्यक्तिगत जीवन के प्रलोभन से दूर करने की का दृढ़ संकल्प है। इसी प्रकार विवेक का अर्थ सत्य को प्रेरणा देता है। हमारे जीवन में दो प्रकार के मुख्य जानने के लिए और कर्म को ज्ञान पर प्राधारित करने प्रलोभन उपस्थित रहते हैं। एक तो वह प्रलोभन है, के लिए दृढ़ निश्चय है।
जो हमें दुःख से दूर भागने की प्रेरणा देता है। दूसरा इस दृष्टि के कुछ अन्य गुणों को भी सद्गुण माना वह प्रलोभन है, जो हमें सुख की ओर आकर्षित करता जा सकता है। उदाहरणस्वरूप. बचत का पार्थिक है। जो व्यक्ति पहले प्रकार के प्रलोभन से प्रभावित सगुण, काम से सम्बन्धित ब्रह्मचर्य का सदगुण तथा होता है, वह पलायनवादी कहलाता है और जो विषयसामाजिक दृष्टि से निष्ठा का सद्गुण भी चार मुख्य भोग आदि में संलग्न हो जाता है, उसे सुखवादी कहते सद्गुणों के सदृश हैं किन्तु यदि इन सद्गुणों की व्याख्या हैं । इन दोनों अवगुणों से बचने का एकमात्र उपाय की जाय, तो इन सभी को चार मुख्य सदगुणों के साहस और संयम के द्वारा, बुद्धि की स्थिरता बनाए अन्तर्गत माना जा सकता है। इनमें वही समान तत्त्व रखना है । जो व्यक्ति स्थिर बुद्धि वाला है उसीमें ये उपस्थित रहता है, जो चार मूल सद्गुणों में है। दोनों सद्गुण उपस्थित रहते हैं। उदाहरणस्वरूप, बचत में विवेक के अतिरिक्त संकल्प का भारतीय तथा पश्चिमीय प्राचारशास्त्र के अध्ययन वह स्थायित्व है जो व्यक्ति को वर्तमान आर्थिक सुख की से हम इस परिणाम पर पहुँचते हैं कि बुद्धि की स्थिरता अपेक्षा भविष्य के आथि:5 शुभ का निर्वाचन करने के ही व्यक्तिगत सद्गुणों का लक्ष्य है और वही नैतिकता
त करता है । इसी प्रकार ब्रह्मचर्य एक प्रकार का का उच्चतम प्रादर्श है । जिस प्रकार प्लेटो ने साहस और संयम है, किन्तु इसका मूल तत्त्व भी संकल्प का वह संयम के साय २ विवेक को अनिवार्य सद्गुण बताया है. स्थायित्व है जो व्यक्ति को वर्तमान शारीरिक कामवृत्ति उसी प्रकार भगवद्गीता में भी ज्ञान को संतुलित जीवन की तृप्ति की अपेक्षा उत्कृष्ट मूल्यों का निर्वाचन करने के लिए प्राधार माना गया है । कोई भी व्यक्ति तब तक के लिए प्रेरित करता है। इसी प्रकार सभी मूल्यों को संतुलित व्यक्तित्व बाला नहीं कहा जा सकता, जब तक चार मुख्य मूल्यों के अन्तर्गत किया जा सकता है ।। कि वह साहस और संयम के साथ २ विवेक न रखता
ये चारों मूल सद्गुण या तो व्यक्तिगत विकास के हो । जो व्यक्ति इन तीनों सद्गुणों का अनुसरण करता मूल्य हैं या सामाजिक कल्याण को प्रेरित करने वाले है, वह निस्सन्देह न्याय का भी अनुसरण करेगा। इस
किन्त इसका अभिप्राय यह नहीं कि इनको हम दो प्रकार यद्यपि हम साहस और संयम को व्यक्तिगत जीवन भागों में विभक्त कर सकते हैं। वास्तव में व्यक्ति कदापि । के आधारभूत सद्गुण मानते हैं, तथापि सम्पूर्ण वैयक्तिक समाज से पृथक नहीं हो सकता और जो सद्गुण व्यक्ति विकास के लिए विवेक तथा न्याय के सदगुण भी के विकास के लिए है, वही सामाजिक विकास के लिए उपयोगी होते हैं। अतः हम कह सकते हैं कि चारों भी उपयोगी होता है। अतः एक दृष्टि से चारों सद्गुण मूल सद्गुण व्यक्ति तथा समाज के विकास के लिए सामाजिक सद्गुरण हैं। किन्तु साहस और संयम दो समान महत्त्व रखते हैं। सदगुण ऐसे हैं, जो प्रत्यक्षरूप से व्यक्ति के जीवन पर संकुचित दृष्टिकोण से सद्गुण को कर्तव्य से सम्बद्ध प्रभाव डालते हैं और विवेक तथा न्याय ऐसे सद्गुण हैं, किया जाता है । इस दृष्टिकोण से सद्गुरण चरित्र के वे जिनका सीधा सम्बन्ध सामाजिक कल्याण से है। यदि अंग तथा प्रादतें हैं जो कि व्यक्ति अपने कर्तव्यों का हम साहस का प्रथ, दुःख के भय का सामना करना एवं पालन करते हुए तथा अनेक प्रकार के अधिकारों का दःख सहन करने की वीरता समझे, तो इसका अभिप्राय उपभोग करते हुए ग्रहण करता है । इस दृष्टि से सद्गुरण यह होता है कि साहस व्यक्तिगत जीवन में हमें लोभ उत्कृष्टता का वह प्राकार है, जो शुभ संकल्प में
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
अभिव्यक्त होता है और जिसको काँट ने स्वलक्ष्य मूल्य माना है । इस दृष्टिकोण से सद्गुण का मानवीय व्यवहार के बाहरी अंग से वैसा हो सम्बन्ध रहता है, जिस प्रकार कि निहित शक्ति का गत्यात्मक गति से । सद्गुणात्मक प्रवृत्तियां कर्तव्यों को निभाने की स्थिर श्रादतें मात्र हैं । किन्तु ये प्रादतें निमित्त रूप से हो मूल्य प्रमाणित होती हैं। इसलिए सद्गुरण की यह परिभाषा शूरवीरता, संयम, पवित्रता आदि सब को निमित्त मूल्य बना देती है । इसमें कोई सन्देह नहीं कि यह दृष्टिकोण भी एक यथार्थ दृष्टिकोण है । वास्तव में सद्गुण को परिभाषा के दोनों दृष्टिकोण इस बात में सहमत हैं कि सद्गुण का अर्थ चरित्र को उत्कृष्टता है । सद्गुण का श्राचरण करने से निस्सन्देह व्यक्तित्व का उत्थान होता है । श्रतः सद्गुण ही सच्चरित्रता का एकमात्र आधार है । दूसरे शब्दों में, वह शुभ की ज्ञानात्मक तथा क्रियात्मक अभिव्यक्ति है । शुभ की यह अभिव्यक्ति जो कि सर्वथा मानवीय चरित्र में उपस्थित होती है, मनुष्य की श्रेष्ठता का एकमात्र चिह्न है । सद्गुरण की उपस्थिति पशुग्रों में नहीं हो सकती, क्योंकि उनमें न तो ज्ञान होता है और न वे शुभ को लक्ष्य बना कर सद्गुण का क्रियात्मक जीवन में अनुसरण कर सकते हैं। सुकरात ने सद्गुण को इस दृष्टि से ज्ञान माना है और कहा है कि कोई भी व्यक्ति अज्ञानवश सद्गुण का श्राचरण नहीं कर सकता। इसी प्रकार अरस्तूने सद्गुण को सविकल्पक निर्वाचन की आदत कहा है, क्योंकि ऐसी प्रदत केवल मानवीय चरित्र का ही अंग हो सकती है । सद्गुणों का नैतिक महत्त्व
अरस्तू ने प्लेटो के दृष्टिकोण पर आधारित सद्गुणों को व्याख्या करते हुए मनुष्य की आत्मा के निम्नलिखित तीन अंग स्वीकार किए हैं :
(१) आत्मा का वनस्पति भावात्मक अंग (२) श्रात्मा का पशुभावात्मक अंग (३) आत्मा का तर्कात्मक अंग
नैतिकता का उद्देश्य मनुष्य के तर्कात्मक अंग को अधिक प्रभावशाली बनाना और उसके अन्य दोनों अंगों
११८
को तर्क के आधीन करना है। मनुष्य के व्यक्तित्व के दो प्रथम स्तर उसे स्वच्छन्द जीवन व्यतीत करने के लिए प्रेरित करते हैं और उसे प्रलोभन से आकर्षित होने को बाध्य करते हैं । नैतिक जीवन व्यतीत करने के लिए एक ओर उन प्रेरणाओंों का नियंत्रण करना आवश्यक है जो मनुष्य के वनस्पति भावात्मक अंग से तथा पशुभावात्मक अंग से उत्पन्न होती हैं और दूसरी ओर तर्कात्मक अंग को इस प्रकार विकसित करना है कि वह मनुष्य को उसके चरम लक्ष्य की ओर ले जाय । सद्गुरण का उद्देश्य यही द्विविध उद्देश्य है । सद्गुरण नैतिक जीवन की वह प्रक्रिया है, जो कि मनुष्य को प्रवृत्तियों को व्यवस्थित करती है और उसकी स्वच्छन्द प्रेरणाओं, भावनात्रों तथा इच्छाओं को तर्कात्मक क्रिया प्रदान करती है ।
पश्चिमीय आचार-विज्ञान के अनुसार सद्गुणों को व्यावहारिक सद्गुण तथा सैद्धान्तिक सद्गुण नामक दो विभिन्न श्रेणियों में विभक्त किया जाता है । व्यावहारिक सद्गुरण वे सद्गुण हैं, जो कि उच्च स्तर वाले सद्गुणों के निर्वाचन में संकल्प को स्थायित्व देते हैं तथा न्यून स्तर वाली प्रवृत्तियों को तिरस्कृत करने में सहायता देते हैं। ये व्यावहारिक सद्गुण साहस, संयम, ब्रह्मचर्यं श्रादि हैं । इस दृष्टि से व्यावहारिक सद्गुरण वह सद्गुण है, जो कि तर्क के आधार पर दो प्रत्यन्त विरोधी दृष्टियों में मध्यम मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करता है । उदाहरणस्वरूप साहस, कायरता तथा आवेश में श्राने की प्रवृत्ति के दो विरोधी तत्त्वों के बीच का तत्व है एवं उनका सुन्दर समन्वय है । व्यावहारिक सद्गुण हमें वनस्पतिभावात्मक तथा पशुभावात्मक प्रेरणाओं को तर्कात्मक व्यक्तित्व के नियन्त्रण में लाने के लिए सहायक होते हैं । इसके विपरीत सैद्धान्तिक सद्गुण वे सद्गुण हैं जो हमारे व्यक्तित्व के विशुद्ध तर्कात्मक विकास के लिए सहायक होते हैं । उदाहरणस्वरूप, विवेक तथा अन्य ऐसे सभी सद्गुण, जो कि बौद्धिक सौन्दर्यात्मक तथा आध्यात्मिक स्वलक्ष्य मूल्यों से समन्वित हैं, सैद्धान्तिक सद्गुण हैं । ये सद्गुण व्यावहारिक सद्गुणों की अपेक्षा ऊंचे स्तर पर होते हैं और क्षणिक सुख की अपेक्षा उत्कृष्ट आनन्द को देने वाले हैं ।
1
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
११६
और व्यवहार के पार्थक्य ने व्यवहार पर अधिक बल देकर वैज्ञानिक प्रगति और भौतिक विकास को इतना ? प्रश्रय दिया है कि आज मनुष्य प्रकृति पर शक्ति की दृष्टि से विजयी हो रहा है । किन्तु इसके साथ २ प्राध्यात्मिक मूल्यों को केवल सैद्धान्तिक घोषित करके और उन्हें व्यावहारिक जीवन से पृथक् मानकर उनकी इतनी अवहेलना की गई है कि पश्चिमीय जीवन में व्यक्तित्व का प्राध्यात्मिक विकास श्राज तक भी पिछड़ा हुआ रह गया है ।
पश्चिमीय प्राचार शास्त्रियों की धारणा है कि वर्तमानयुग में जबकि उपयोगितावादी वातावरण हमारी तर्क की धारणा पर प्रभुत्व जमाए हुए है, सैद्धान्तिक सद्गुणों को सर्वश्र ेष्ठ नहीं माना जा सकता । यदि कोई श्रेष्ठ सैद्धान्तिक सद्गुण हैं, वे आध्यात्मिक मूल्यों पर आधारित न हो कर उपयोगिता पर आधारित, जीवन के उच्चत्तम मूल्यों से समन्वित वैज्ञानिक सद्गुण हैं। वर्तमान समय में श्राध्यात्मिक मूल्यों को श्रेष्ठ स्वीकार करते हुए भी यह स्वीकार नहीं किया जाता कि जो व्यक्ति इन मूल्यों को अपनाने वाले हैं, वे उन साधारण व्यक्तियों से श्रेष्ठ हैं जो कि व्यावहारिक सद्गुणों का अनुसरण करते हैं । पश्चिमीय प्राचारशास्त्र में यह प्रवृत्ति प्रजातन्त्रीय दृष्टिकोण पर प्राधारित है प्रौर सैद्धान्तिक सद्गुणों को प्रव्यावहारिक घोषित करती है । यहां पर इस पश्चिमीय दृष्टिकोण की भारतीय दृष्टिकोण से तुलना करना अनुचित न होगा। भारतीय आचारशास्त्र की दृष्टि से श्रर्थ, काम, धर्म और मोक्ष चारों मूल्यों को मनुष्य के जीवन के विकास के लिए श्रावश्यक माना जाता है। इन चारों मूल्यों में से अर्थ और काम को धर्म की अपेक्षा गौण माना जाता है और धर्म, अर्थ तथा काम को मोक्ष की अपेक्षा गौण स्वीकार किया जाता है । मोक्ष उच्चतम प्राध्यात्मिक मूल्य है और धर्म एवं नैतिकता उसका साधन है ।
इसका अभिप्राय यह नहीं कि अर्थ और काम, जिनमें कि साहस और संयम की प्रावश्यकता रहती है, अवांछनीय मूल्य हैं । विपरीत, इन दो मूल्यों को प्रथम स्थान इसलिए दिया गया है कि इन पुरुषार्थों की प्राप्ति के बिना धर्म एवं नैतिकता का अनुसरण करना असम्भव
और धर्म के बिना मोक्ष का चरम लक्ष्य कदापि उपलब्ध नहीं हो सकता । पुरुषार्थों पर आधारित यह प्राचीन नैतिक सिद्धान्त निस्सन्देह व्यावहारिक तथा सैद्धान्तिक सद्गुणों एवं नैतिकता का सुन्दर समन्वय है । इसके विपरीत, अरस्तू का व्यावहारिक तया सैद्धान्तिक सद्गुणों का वर्गीकरण विश्लेषणात्मक होने के कारण पार्थक्य तथा द्वतवाद को जन्म देने वाला 1 हमें यह तो स्वीकार करना पड़ेगा कि पश्चिम में सिद्धान्त
इसका अभिप्राय यह नहीं कि भारतीय जीवन में व्यक्तित्व का समन्वित विकास हुआ है । इसके विपरीत, राजनैतिक तथा ऐतिहासिक दुर्घटनाओं के कारण भारत में भी जहां तक जनसाधारण के जीवन का सम्बन्ध है, सिद्धान्त और व्यवहार में एक बड़ी खाई उत्पन्न हो गई है। भारतीय श्राध्यात्मवादियों ने मोक्ष के पुरुषार्थं पर आवश्यकता से अधिक बल देकर और निवृत्ति मार्ग को ही एकमात्र उसका साधन मान कर भौतिक तथा व्यावह रिक मूल्यों का इतना तिरस्कार किया है कि कुछ सीमा तक भारतीय दृष्टिकोण में निराशावाद उत्पन्न हो गया है । यही कारण है कि पश्चिमीय देशों में भारतीय दर्शन के प्रति अनेक भ्रान्तियां प्रचलित हैं और भारतीय दर्शन को नैतिकता शून्य, पारलौकिक और निराशावादी दर्शन ही माना जाता है । मैंने स्वयं संयुक्त राज्य अमेरिका के विश्वविद्यालयों में भारतीय दर्शन के प्रति इन भ्रान्त धारणाओं का अनुभव किया । मैं जिस जिस स्थान पर भारतीय दर्शन के अध्यापन के लिए गया तो मुझे यह जान कर प्राश्वर्य हुआ कि भारतीय दर्शन का एक निराशावादी सिद्धान्त बुद्धवाद वहां पर अत्यन्त प्रभावशाली था और प्रायः सभी अमरीकी अध्यापक तथा छात्र भारतीय दर्शन के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ थे । इन भ्रन्तियों का मूल कारण यह है कि विदेशी साम्राज्यवादियों ने भारतीय दर्शन के वास्तविक स्वरूप को जानने की चेष्टा नहीं की और न ही भारतीय दर्शन को पनपने का अवसर दिया। जब तक भारत परतन्त्र रहा, तब तक उसकी भौतिक और वैज्ञानिक प्रगति अवरुद्ध रही । किन्तु इसके साथ ही साथ भारत के
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२०
कोने २ में, हर युग में ऐसी महान श्रात्मानों ने जन्म लिया, जिन्होंने कि ग्राज तक भारतीय प्राध्यात्मवाद की पूँजी को न ही केवल सुरक्षित रखा है, अपितु उन्होंने एक समन्वित प्रादर्श जीवन व्यतीत करके प्रमाणित किया है कि व्यावहारिक जीवन में श्राध्यात्मिक मूल्यों को लागू किया जा सकता है । भारतीय अध्यात्मवाद की यह अद्वितीय प्रगति और पश्चिमीय भौतिकवाद द्वारा उत्पन्न प्रसीम शक्ति का सुन्दर समन्वय और सामंजस्प मानव समाज के कल्याण का एकमात्र साधन प्रमाणित हो सकते हैं । मूल्यों का सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक वर्गीकरण यह नहीं बताता कि सद्गुरण अथवा मूल्य, मूल रूप से किसी प्रकार की विभिन्नता उत्पन्न करता है । इसके विपरीत सद्गुण विभिन्न होते हुए भी सामूहिक व्यवहार उत्पन्न करते हैं और यही समरूपता चरित्र निर्माण का दूसरा नाम है ।
यदि हम प्राचीनकाल के लोगों के व्यवहार पर दृष्टि डालें, तो हम यह अनुभव करेंगे कि वे भी शक्ति, वीरता, विश्वासपात्रता, सत्यपरायणता दि मूल्यों की सराहना इसलिए करते थे कि ये मूल्य स्वलक्ष्य सद्गुण हैं और चरित्र निर्माण की आधार शिला हैं । इसलिए ऐसे सद्गुणों को चरित्र सम्बन्धी मूल्य भी कहा जाता है | ये चरित्र सम्बन्धी मूल्य एवं सद्गुण उन लोगों को प्रत्यक्ष तुष्टि प्रदान करते हैं जिनमें कि ये मूल्य उपस्थित होते हैं । न ही केवल इतना, अपितु जो व्यक्ति चरित्र सम्बन्धी मूल्यों को दूसरों में उपस्थित देखता है, वह भी आनन्दित होता है और तुष्टि का अनुभव करता है । इस आनन्द का कारण यह है कि ये सद्गुण स्वलक्ष्य होते हैं । जिस प्रकार कि हम किसी कलाकार की दक्षता की प्रशंसा इसलिए करते हैं कि उसकी कला में स्वलक्ष्य मूल्य है, इसी प्रकार हम पौरुषयुक्त साहस तथा श्रात्मत्याग की प्रशंसा इसलिए करते हैं कि वह सद्गुण कला की भांति स्वलक्ष्य होता है । ऐसा करते समय हम उन परिणामों की ओर ध्यान नहीं देते, जो उस सद्गुण द्वारा प्रेरित कर्म की उत्पत्ति होते हैं । इसलिए चरित्र की उत्कृष्टता को हो सदगुणों के विकास का आत्मिक लक्ष्य स्वीकार किया जाता है । दूसरे शब्दों में सद्गुणों
का नैतिक मूल्य केवल इतना है कि वे नैतिक दृष्टि से मनुष्य के चरित्र का मूल्यांकन करने में सहायता देते हैं ।
कुछ लोग सद्गुरण की स्वलक्ष्यता का विरोध करते और कहते हैं कि सद्गुणों का अनुसरण करना निरर्थक है । उदाहरणस्वरूप, विश्वयुद्ध के दौरान एक राजनीतिज्ञ ने यह घोषणा की थी कि युद्ध की विजय पहले ही प्राप्त हो चुकी है और कि उन मनुष्यों के नैतिक गुणों में उसकी संगतता प्रमाणित हो चुकी है जो एक लक्ष के लिए युद्ध कर रहे हैं । इस प्रकार की घोषणाएं सन्देह उत्पन्न करने वाली होती हैं, क्योंकि ज्यों २ युद्ध का समय व्यतीत हुआ, यह स्पष्ट होगया कि ऐसी घोषणा सद्गुरणों की भ्रान्त अभिव्यक्ति थी । किन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं कि चरित्र स्वलक्ष्य नहीं है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि धैर्य, माता पिता का ग्रात्म त्याग, साहस तथा युद्ध में नागरिकों की विश्वासपात्रता ऐसे सद्गुरण हैं जो कि जीवन के लिए निमित्त मूल्य हैं । क्योंकि नैतिक नियम जीवन के लिए होते हैं और जीवन नैतिक नियमों के लिए नहीं होता, इसलिए हम कह सकते हैं कि सद्गुरण जीवन के लिए अस्तित्व रखता है न कि जीवन सद्गुरण के लिए । यदि हम सद्गुणों का गम्भीर विश्लेषण करें, तो हम इस परिणाम पर पहुंचेंगे कि इनकी उत्पत्ति और इनको आदर्श स्वीकार करने का कारण सार्वजनिक प्रवृत्ति को निरपेक्ष मूल्य स्वीकार करना है । यह सार्वजनिक वृत्ति मनुष्य के नैतिक स्वभाव पर हो प्राश्रित है । प्रतः सद्गुणों का महत्त्व यही है। कि वे नैतिक मूल्यांकन का मुख्य साधन
1
जिस व्यक्ति में सद्गुण स्वभाव में परिवर्तित हो जाते हैं, वह बिना किसी बाहरी प्रदेश के सद्व्यवहार पर चलने वाला हो जाता है । अब प्रश्न यह होता है कि किस प्रकार से किसी व्यक्ति में सद्गुणों को स्वभाव में परिवर्तित किया जाय। इस प्रश्न का उत्तर देना अत्यन्त कठिन है । इसका कारण यह है कि स कोई सैद्धान्तिक धारणा न होकर एक ऐसा तत्त्व है जो वास्तविक जीवन से सम्बन्ध रखता है । सद्गुण का ज्ञान प्राप्त करना नितान्त आवश्यक है, किन्तु केवल ज्ञान ही सद्करण को किसी व्यक्ति में विकसित नहीं कर
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२१
सकता। अरस्तु ने यथार्थ ही कहा था कि सद्गुरण एक व्यक्ति भी सदगुण को कोने-कोने में प्रसारित कर सकते सविकल्पक निर्वाचन का अभ्यास है। चरित्र में सद्गुरण हैं । नैतिक शिक्षा के लिए किसी बल के प्रयोग करने को विकसित करना सरल कार्य नहीं है। ऐसा करने के की आवश्यकता नहीं है। प्रत्येक मनुष्य का अन्तःकरण लिये सर्वप्रथम दृढ़ संकल्प की पावश्यकता है मन तथा सद्गुण ग्रहण करने के लिए सदैव तत्पर रहता है। इन्द्रियों पर संयम रखने के लिए कड़े अनुशासन की अतः जब वह किसी अन्य व्यक्ति को सद्गुण का अनुसआवश्यकता है। चरित्र के निर्माण के लिए न ही केवल रण करते हुए देखता है, वह तुरन्त उसे स्वयं अपनाता कड़े अनुशासन की आवश्यकता है, अपितु उसमें ऐसे है और स्वयं अपनी भूल पर पश्चाताप भी करता है। उदाहरणों की भी आवश्यकता है, जिनमें कि कुछ व्यक्ति यही कारण है कि चरित्र की प्रशिक्षा सैद्धान्तिक ज्ञान व्यावहारिक रूप से सद्गुणों का प्राचरण करते हों। अथवा उपदेश द्वारा नहीं दी जा सकती, अपितु साक्षात अंग्रेजी भाषा में कहा गया है "व्यावहारिक उदाहरण व्यावहारिक उदाहरण के द्वारा दी जा सकती है। केवल धारणा प्रस्तुत करने की अपेक्षा श्रेष्ठ होता है। इसी प्रकार संयम का अनुसरण करने से नैतिकता जिस प्रकार बुरी आदतें एक छूत के रोग की भांति तुरन्त का स्वतः ही विकास होता है । पूर्व तथा पश्चिम में फैल जाती हैं, उसी प्रकार सद्गुरण भी मनुष्यों द्वारा उत्कृष्ट से उत्कृष्ट धर्मों में संयम को प्राध्यात्मिक विकास अनुकरण की प्रवृत्ति के कारण ग्रहण किए जाते हैं। का अनिवार्य साधन माना गया है। संयम हमारा ध्यान प्रायः लोग यह तर्क प्रस्तुत करते हैं कि जब बहुमत ___ अान्तरिक जीवन की पोर ले जाता है और हमारे दुराचारियों का हो, तो वहां सदाचारियों की अल्प संख्या व्यक्तित्व का कायाकल्प कर देता है। भारत में तो समाज में नैतिक क्रान्ति उत्पन्न नहीं कर सकती। किन्तु संयम को जीवन का मूल प्राधार माना गया है और ऐसी धारणा सर्वथा भ्रान्त धारणा है । यदि एक व्यक्ति । कहा गया है कि "संयम ही जीवन है।" जब किसी भी दृढ़ प्रतिज्ञ होकर सदाचार का जीवन व्यतीत करता समाज में थोड़े से व्यक्ति भी प्रादर्शों को अपने जीवन में है. तो असंख्य अन्य व्यक्ति उससे प्रेरित होकर सदाचारी उतारते हैं, वे संयम का अनुसरण करके ही न केवल स्वयं बन जाते हैं। राम, कृष्ण, महावीर बुद्ध, ईसा आदि परम आनन्द का अनुभव करते हैं, अपितु सच्ची समाज महापुरुषों ने जगत के असंख्य जीवों को सदाचारी बनने सेवा द्वारा अन्य प्राणियों का भी लाभ करते हैं। जिस की प्रेरणा दी है। यह उनकी सदाचार शक्ति थी। समाज में इस प्रकार की नैतिकता का विकास होता भारत के स्वतन्त्रता संग्राम का इतिहास इस बात का है और जिसमें प्रत्येक व्यक्ति सद्गुणों की प्रतिमूर्ति बन साक्षी है कि महात्मा गांधी जैसा छोटे शरीर वाला एक जाता है, तो उस समाज के लिए न तो किसी प्रकार के व्यक्ति कोटि २ मनुष्यों में सत्य और अहिंसा के प्रति बाहरी अनुशासन की अावश्यकता रहती है और न उसे प्रेम उत्पन्न कर सकता है और उन्हें सत्याग्रह का पालन किसी प्रकार की नैतिक प्रशिक्षा से लाभ होता है। करने पर प्रेरित कर सकता है । महात्मा गान्धी के जीवन सदगुणों के विकास का व्यक्ति तथा समाज दोनों के लिए का उदाहरण एक ऐसा शाश्वत नै तिक स्रोत है, जिससे भारी महत्त्व है किन्तु अभी तक विश्व में किसी भी ऐसे असंख्य व्यक्तियों ने नैतिक जीवन व्यतीत करने की समाज की स्थापना नहीं हो सकी, जो सर्वगुण-सम्पन्न हो देशमा प्राप्त की है और पागे पाने वाली पीढ़ियों में भी और जिसमें राजकीय अनुशासन और व्यवस्था की जरूरत असंख्य व्यक्ति ऐसी प्रेरणा प्राप्त करते रहेंगे।
न हो । यही कारण है कि प्रत्येक समाज में नैतिकता की न ही केवल महापुरुष सदाचारी जीवन का प्रेरणा- प्रगति के लिए नैतिक प्रशिक्षण की आवश्यकता रहती है त्मक उदाहरण प्रस्तुत कर सकते हैं, अपितु सामान्य और नैतिक सुधारकों का क्षेत्र बना रहता है।
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का आत्मतत्व और कर्म सिद्धांत
• पं. चैनसुखदास न्यायतीर्थ
कर्म और आत्मा का सम्बन्ध अनादि है। जब से प्रात्मा है, तब से ही उसके साथ कर्म लगे हुए हैं। समय पुराने कर्म अपना फल देकर प्रात्मा से अलग होते रहते हैं और प्रात्मा के रागद्वषादि भावों के द्वारा नये प्रत्येक कर्म बधते रहते हैं। यह क्रम तब तक चलता रहता है जब तक आत्मा को मुक्ति नहीं होती जैसे अग्नि में बीज जल जाने पर बीज वृक्ष की परम्परा समाप्त हो जाती है वैसे ही रागद्वषादि विकृत भावों के नष्ट हो जाने पर कर्मों की परम्परा आगे नहीं चलती। कर्म अनादि होने पर भी शान्त है। यह व्याप्ति नहीं है कि जो अनादि हो उसे अनन्त भी होना चाहिए-नहीं तो बीज और वृक्ष की परम्परा कभी समाप्त नहीं होगी।
व अथवा प्रात्मा एक अत्यन्त परोक्ष पदार्थ है । दर्शन होने के कारण प्रात्मा को भी विभिन्न दृष्टिकोणों
' संसार के सभी दार्शनिकों ने इसे तर्क से सिद्ध से देखता है। उसके विभिन्न धर्मों और स्वभावों की करने की चेष्टा की है । स्वर्ग, नरक, मुक्ति प्रादि अति ओर जब उसका ध्यान जाता है तब उसके ( प्रात्मा के ) परोक्ष पदार्थों का मानना भी आत्मा के अस्तित्व पर नाना रूप उसके सामने आते हैं और वह उन्हीं रूपों ही प्राधारित है । आत्मा न हो तो इन पदार्थों के मानने अथवा गुणधर्मों एवं स्वभावों को विभिन्न अपेक्षा का कोई प्रयोजन नहीं है। यही कारण है कि जीव के मानकर प्रात्मा की दार्शनिक विवेचना करता है। यह स्वतन्त्र अस्तित्व का निषेध करने वाला चार्वाक इन विवेचना प्रात्मा के सारे रूप उसके सामने ला देती है। पदार्थों के अस्तित्व को कतई स्वीकार नहीं करता। ग्रात्मा का वर्णन करने के लिए जैन दर्शन ये नौ प्रात्मा का निषेध सारे ज्ञानकाण्ड और क्रियाकाण्ड के विशेषताएं बतलाता है। निषेध का एक अभ्रान्त प्रमाण पत्र है । पारलौकिक
(१) वह जीव है (२) उपयोगमय है (३) अमूर्न जीवन से निरपेक्ष लौकिक जीवन को समुन्नत और है (४) कर्ता है (५) स्वदेह परिमाण है (६) भोक्ता है सखकर बनाने के लिए भी यद्यपि ज्ञानाचार और (७) संसारस्थ है (८) सिद्ध है (8) स्वभाव से ऊर्ध्वगमन क्रियाचार की जरूरत तो है । और इसे किसी न किसी करने वाला है। रूप में चार्वाक भी स्वीकार करता है तो भी पर
पहिले हमने कहा है कि चार्वाक प्रात्मा का लोकाश्रित क्रियानों का आत्मा प्रादि पदार्थों का अस्तित्व
स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं मानता, उसी को लक्ष्य करके नहीं मानने वालों के मत में कोई मूल्य नहीं है।
'जीव' नाम का पहला विशेषण है। जीव सदा जीता जैन दर्शन एक मास्तिक दर्शन है । वह प्रात्मा रहता है, वह अमर है, कभी नहीं मरता । उसका और इससे सम्बन्धित स्वर्ग, नरक, और मुक्ति प्रादि का वास्तविक प्राग्ग चेतना है । जो उसकी तरह ही अनादि स्वतन्त्र अस्तित्व मानता है । आत्मा के सम्बन्ध में और अनन्त है। उसके कुछ व्यावहारिक प्राण भी होते उसके समन्वयात्मक विचार हैं । वह अनेकान्तवादी हैं जो विभिन्न योनियों के अनुसार बदलते रहते हैं।
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२३
इन प्राणों की संख्या दस है, पांच ज्ञानेन्द्रियां मनोबल, उसका पात्र प्रादि इस दृष्टि से तो प्रात्मा ज्ञान का वचन बल और कायबल यह तीन बल, श्वासोच्छवास प्राधार नहीं अपितु ज्ञानमय उपयोगमय अर्थात् ज्ञान
और प्राय । यह दस प्राण मनुष्य, पशुपक्षी देव और दर्शनात्मक ही है। यह मान्यता भी समन्वयवादी है। नारकियों के होते हैं । इनके अतिरिक्त भी दुनियां प्रात्मा का तीसरा विशेषण है अमूर्त । यह विशेषण में अनन्तानन्त जीव होते हैं । जैसे वृक्ष लता प्रादि, लट भद्र और चार्वाक दोनों को लक्ष्य करके कहा गया है। आदि, चींटी प्रादि, भ्रमर आदि, और गोहरा आदि। ये दोनों दर्शन जीव को अमूर्त नहीं मूर्त मानते हैं । इन जीवों के क्रमशः चार, छह, सात, पाठ, और नौ किन्त जैनदर्शन की मान्यता है कि वास्तव में प्रात्मा प्राण होते हैं।
में पाठ प्रकार के स्पर्श पांच प्रकार के रूप, पांच प्रकार अात्मा नाना योनियों में विभिन्न शरीरों को प्राप्त के रस, और दो प्रकार के गंध इन बीस प्रकार के हमा कर्मानुसार अपने व्यावहारिक प्राणों को बदलता पौद्गलिक गुणों में से एक भी गुरण नहीं हैं। इसलिए रहता है। किन्तु चेतना की दृष्टि से न वह मरता है प्रांत्मा मूर्त नहीं, अपितु अमूर्त है। तो भी अनादिकाल और न जन्मधारण करता है। शरीर की अपेक्षा वह से कर्मों से बंधा हा होने कारण व्यवहार दृष्टि से भौतिक होने पर भी प्रात्मा की अपेक्षा वह अभौतिक उसे मूर्त भी कहा जा सकता है। इस प्रकार आत्मा को है । जीव को व्यवहार नय और निश्चयनय की अपेक्षा कथंचित अमूर्त और कथंचित् मूर्त भी कह सकते हैं। कथंचित भौतिकता और कथंचित अभौतिकता मानकर अर्थात शुद्ध स्वरूप की अपेक्षा वह प्रमूर्त और कर्मबंध जैन दर्शन इस विशेषण के द्वारा चार्वाक आदि के साथ
रूप पर्याय की अपेक्षा मूर्त है । यदि उसे सर्वथा मूर्त ही समन्वय करने की क्षमता रखता है । यही उसके स्याद्वाद माना जाय तो उसके भिन्न अस्तित्व का ही लोप हो की विशेषता है।
जाय तथा पुद्गल और उसमें कोई भिन्नता ही नहीं आत्मा का दूसरा विशेषण उपयोगमय है । आत्मा रहे। जैन दर्शन की यह समन्वय दृष्टि उसे दोनों उपयोगमय है, अर्थात ज्ञानदर्शनात्मक है । यह विशेषण मानती है और यही तर्क सिद्ध भी है। नैयायिक एवं वैशेषिक दर्शन को लक्ष्य करके कहा गया प्रात्मा का चौथा विशेषण है:-कर्ता । यह है। यह दोनों दर्शन प्रात्मा को ज्ञान का आधार मानते।
विशेषण उसे सांख्य दर्शन को लक्ष्य करके दिया हैं । जैन दर्शन भी प्रात्मा को प्राधार और ज्ञान को गया है। उसका प्राधेय मानता है ।
यह दर्शन प्रात्मा को कर्त्ता नहीं मानता । उसे प्रात्मा गुणी और ज्ञान उसका गुण है । गुण गुणी केवल भोक्ता मानता है । कर्तृत्व तो केवल प्रकृति में में आधार प्राधेय भाव होता है । जब प्रखण्ड प्रात्मा है, किन्तु जैन दर्शन सांख्य के इस अभिमत से सहमत में उसके गुणों की दृष्टि से भेद कल्पना की जाती है नहीं है। बल्कि उसका कहना है कि आत्मा व्यवहारतब आत्मा को ज्ञानाधिकरण माना जाना युक्ति संगत नय से पुद्गल कर्मों एवं घटघटादि पदार्थों का अशुद्ध है। किन्तु यह मानना कथंचित है । और इसी लिए निश्चयनय से चेतन कर्मों (रागद्वेषादि) का और शुद्ध एक दूसरी दृष्टि भी है जिससे आत्मा का ज्ञानाधिकरण निश्चयनय से अपने ज्ञान दर्शनादि शुद्ध भावों का कर्ता नहीं, किन्तु ज्ञानात्मक मानना ही अधिक युक्ति संगत है। इस प्रकार वह एक दृष्टि से कर्ता और दूसरी दृष्टि से है । प्रश्न यह है कि क्या आत्मा को कभी ज्ञान से अकर्ता है । यदि प्रात्मा को कर्ता न माना जाय तो उसे अलग किया जा सकता है ? प्रात्मा और ज्ञान जब भोक्ता भी कैसे माना जा सकता है । वस्तुतः कतत्व और किसी भी अवस्था में भिन्न नहीं हो सकते तब उसे ज्ञान भोक्त्तत्व का कोई विरोध नहीं है। यदि इन दोनों में का प्राश्रय मानने का आधार क्या है ? आधाराधेय भाव विरोध माना जाय तब तो प्रात्मा को 'भुजि' क्रिया का तो उन में होता है जो भिन्न भिन्न हों जैसे दुध और कर्ता भी कैसे माना जा सकता है ? क्योंकि भोगने की
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२४
क्रिया के कर्ता को ही तो भोक्ता कहते है । इस प्रकार आत्मा के कर्तृत्व को स्वीकार न करने का पर्य है उसका भोक्तृत्व भी न मानना । इस लिए यदि उसे भोक्ता मानना है तो कर्त्ता भी जरूर मानना चाहिए । आत्मा का पांचवा विशेषरण है 'भोक्ता'। यह विशेषरण वौद्ध दर्शन को लक्ष्य करके कहा गया है। यह दर्शन क्षणिकवादि होने के कारण कर्ता घोर भोक्ता का ऐक्य मानने की स्थिति में नहीं है, किन्तु यदि मात्मा को कर्मफल का भोक्ता नहीं माना जाय तो कृतप्रणाश और प्रकृत के अभ्यागम का प्रसंग प्रावेगा अर्थात् जो कर्म करेगा उसे उसका फल प्राप्त न होकर उसे प्राप्त होगा जिसने कर्म नहीं किया है और इससे बहुत बड़ी प्रव्यवस्था हो जायगी । इस लिए आत्मा को अपने कर्मों के फल का भोक्ता अवश्य मानना चाहिए। हां यह बात अवश्य है कि ग्रात्मा सुख दुःख रूप पुद्गल कर्मों का भोका व्यवहार दृष्टि से है । निश्चय दृष्टि से तो वह अपने चेतन भावों का हो भोक्ता है, कर्मफल का भोक्ता नहीं है इसलिए वह कथंचित भोक्ता है, और कथंचित् अभोक्ता है।
आत्मा का छठा विशेषण 'स्वदेह परिमाण' हैं । इसका अर्थ है इस मात्मा को जितना बड़ा शरीर मिलता है उसीके अनुसार इसका परिमाण हो जाता है । यह विशेषरण नैयायिक, वैशेषिक, मीमांसक, पौर सांख्य इन चार दर्शनों को लक्ष्य करके कहा गया है। क्योंकि ये चारों ही दर्शन प्रात्मा को व्यापक मानते हैं । यद्यपि उसका ज्ञान शरीरावच्छेदेन ( शरीर में ) ही होता है तो भी उसका परिमाण शरीर तक ही सीमित नहीं है वह सर्वव्यापक है। जैन दर्शन का इस सम्बन्ध में यह कहना है कि प्रात्मा के प्रदेशों का दीपक के प्रकाश की तरह संकोच और विस्तार होता है । हाथी के शरीर में उसके प्रदेशों का विस्तार और चींटी के शरीर में संकोच हो जाता है । किन्तु यह बात समुद्धात दशा के प्रतिरिक्त समय की है। ( समुद्धात का पर्य है मूल शरीर को छोड़कर तेजसकारण शरीर के साथ ग्रात्मा के प्रदेशों का बाहर निकल जाना), समुद्धात में तो उसके प्रदेश शरीर के बाहर भी फैल
जाते हैं। यहां तक कि वे सारे लोक में व्याप्त हो जाते हैं। यहां यह बात ध्यान देने योग्य है कि श्रात्मा स्वशरीर परिमाण वाला व्यवहार नय से है। निश्चय नय से तो वह लोकाकाश की तरह असंख्यात प्रदेशी है अर्थात् लीक के बराबर बड़ा है। यही कारण है कि वह लोक पूरण समुद्धात में सारे लोक में फैल जाता है। इस प्रकार जैन दर्शन मात्मा को कथंचित् व्यापक और कथंचित् ग्रव्यापक मानता है और उक्त चारों दार्शनिकों के साथ इसका समन्वय हो जाता है। आत्मा का सातवां विशेषण है 'संसारस्य' यह विशेषरण 'सदाशिव' दर्शन को लक्ष्य करके कहा गया है । इसका अर्थ है श्रात्मा कभी संसारी नहीं होता, वह
हमेशा ही शुद्ध बना रहता है। कर्मों का उस पर कोई असर ही नहीं होता, कर्म उसके हैं ही नहीं, इस सम्बन्ध में जैन दर्शन का दृष्टिकोण यह है कि हर एक जीव संसारी होकर मुक्त होता है । पहिले उसका संसारी होना जरूरी है । संसारी जीव शुक्ल ध्यान के बल से कर्मों का संवर, निर्जरा और पूर्ण क्षय करके मुक्त होता है । संसारीका अर्थ है अशुद्ध जीव । अनादि काल से जीव अशुद्ध है और वह अपने पुरुषार्थ से शुद्ध होता है । यदि पहिले जीव संसारी न हो तो उसे मुक्ति के लिए कोई प्रयत्न करने की आवश्यकता ही नहीं है । किन्तु जैन दर्शन का यह भी कहना है कि जीव को संसारस्थ कहना व्यवहारिक दृष्टिकोण है शुद्ध नय से तो सभी भव शुद्ध हैं। इस प्रकार जैन दर्शन जीव को एक नय से विकारी मानकर भी दूसरी नय से अधिकारी मान लेता है । यह जैन दर्शन का समन्वयात्मक दृष्टिकोण है ।
श्रात्मा का आठवां विशेषरण है 'सिद्ध' इसका अर्थ है ज्ञानावरणादि प्राठ कर्मों से रहित । यह विशेषरण भट्ट और नाक को लक्ष्य करके दिया गया है। भट्ट मुक्ति को स्वीकार नहीं करता । उसके मत में आत्मा का प्रतिम आदर्श स्वर्ग है । जो मुक्ति को स्वीकार नहीं करता वह आत्मा का सिद्ध विशेषरण कैसे मान सकता है ? उसके मत में आत्मा सदा संसारी ही रहता है, उसकी मुक्ति कभी होती ही नहीं अर्थात मुक्ति नाम का कोई पदार्थ ही नहीं है । चार्वाक तो जब जीव की सत्ता ही नहीं
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानता तब मुक्ति को कैसे स्वीकार कर सकता है ? वह जैन धर्म का कर्मवाद तो स्वर्ग का अस्तित्त्व भी स्वीकार नहीं करता इसलिए संसार अवस्था में सदा ही प्रात्मा कर्माधीन बना भट्ट से भी वह एक कदम आगे है । पर इस सम्बन्ध में
रहता है अतः प्रात्मा को समझने के लिए कर्म को जैनदर्शन का कहना है कि प्रात्मा अपने कर्म बन्धन काट
समझना भी बहत जरूरी है। कर्म को समझने के लिए कर सिद्ध हो सकता है। जो यह बन्धन नहीं काट सकता मा को
की जान बाई वह संसारी ही बना रहता है। प्रात्मा का संसारी और
सिद्धान्त है। जो वाद कर्मों की उत्पत्ति, स्थिति और मुक्त होना दोनों ही तर्क सिद्ध हैं। जैन दर्शन में कुछ साल
twari नामानित ऐसे जीव अवश्य माने गये हैं जो कभी सिद्ध नहीं होंगे। हर
विवेचन करता है वह कर्मवाद है। जैन शास्त्रों में ऐसे जीवों को प्रभव्य कहते हैं। उन जीवों की अपेक्षा कर्मवाद का बड़ा गहन विवेचन है। कर्मों के सर्वा गीण ग्रात्मा के सिद्धत्व विशेषण का मेल नहीं बैठता। किन्तु विवेचन से जैन शास्त्रों का एक बहत बड़ा भाग सम्बन्धित यह भी याद रखना चाहिए कि जीवों में सिद्ध बनने की
__ है। कर्म स्कन्ध परमाणु समूह होने पर हमें दीखता शक्ति अथवा योग्यता तो है ही।
नहीं। प्रात्मा का नौवां विशेषण है 'स्वभाव से ऊर्ध्व प्रात्मा, परलोक, मुक्ति आदि अन्य दार्शनिक तत्त्वों गमन' । यह विशेष मांडलिक ग्रन्थकार को लक्ष्य करके की तरह वह भी अत्यन्त परोक्ष है। उसकी कोई भी कहा गया है। इसका अर्थ है प्रात्मा का वास्तविक विशेषता इन्दियगोचर नहीं है । कर्मोका अस्तित्व स्वभाव ऊर्ध्वगमन है। इस स्वभाव के विपरीत यदि प्रधानतया प्राप्त प्रणीत पागम के द्वारा ही प्रतिपादित उसका गमन होता है तो इसका कारण कर्म है। कर्म किया जाता है (जैसे आत्मा आदि पदार्थों का अस्तित्त्व उसे जिधर ले जाता है उधर ही वह चला जाता है। सिद्ध करने के लिए प्रागम के अतिरिक्त अनुमान का भी जब वह सर्वथा कर्म रहित हो जाता है तब तो अपने सहारा लिया जाता है वैसे ही कर्मों की सिद्धि में वास्तविक भाव के कारण ऊपर ही जाता है और अनुमान का प्राश्रयः भी लिया गया है। लोक के अग्रभाग में जाकर ठहर जाता है। उसके प्रागे इस कर्मवाद को समझने के लिए सचमच तीक्षण धर्मास्तिकाय नहीं होने के कारण वह नहीं जा सकता। बद्धि और अध्यवसाय की जरूरत है। जैन ग्रन्थकारों इस सम्बन्ध में माडलिक का यह कहना है कि जीव ने इसे समझाने के लिए स्थान-स्थान पर गणित का सतत गतिशील है, वह कहीं भी नहीं ठहरता चलता ही उपयोग किया है। प्रवक्ष्य
उपयोग किया है । अवश्य ही यह गणित लौकिक गणित रहता है। जैन दर्शन उसकी इस बात को स्वीकार नहीं से बहुत भिन्न है। जहां लौकिक गणित की समाप्ति करता । वह उसे ऊर्ध्वगमन स्वभाव वाला मानकर भी उसे
होती है वहां इस अलौकिक गणित का प्रारम्भ होता है। वहीं तक गमन करने वाला मानता है जहां तक धर्म द्रव्य
कर्मों का ऐसा सर्वागीण वर्णन शायद ही संसार के है, यह द्रव्यगति का माध्यम है, ठीक-ऐसे ही जैसे प्रकाश
किसी वाङ् मय में मिले ! जैन शास्त्रों को ठीक समझने की गति का माध्यम ईथर और शब्द की गति का माध्यम
के लिए कर्मवाद को समझना अनिवार्य है ! वायु है ! जहां गति का माध्यम खतम हो जाता है वहीं
कर्मो के अस्तित्व में तर्क जीव की गति रुक जाती है ! इस प्रकार जीव उर्ध्वगामी कम होकर भी निरन्तर उर्ध्वगामी नहीं है, यह जैन दर्शन
संसार का प्रत्येक प्राणी परतन्त्र है ! यह पौद्गलिक की मान्यता है । प्रात्मा के इन नौ विशेषणों से यह (भौतिक) शरीर ही उसकी परतन्त्रता का द्योतक है। अच्छी तरह जाना जा सकता है कि जैन दर्शन कहीं भी। बहुत से प्रभाव और अभियोगों का वह प्रतिक्षण शिकार प्राग्रहवादी नहीं है उसके विचार सभी दार्शनिकों के । बना रहता है। वह अपने आपको सदा पराधीन अनुभव साय समन्वयात्मक हैं।
करता है। इस पराधीनता का कारण जैन शास्त्रों के
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२६
कर्म बंधते रहते हैं । यह क्रम तब तक चलता रहता है जब तक ग्रात्मा की मुक्ति नहीं होती जैसे अग्नि में बीज जल जाने पर बीज वृक्ष की परम्परा समाप्त हो जाती है वैसे ही राग पादि विकृत भावों के नष्ट हो जाने पर कर्मों की परम्परा मागे नहीं चलती। कर्म अनादि होने पर भी शान्त है। यह व्याति नहीं है कि जो अनादि हो उसे मनन्त भी होना चाहिए नहीं तो बीज और वृक्ष की परम्परा कभी समाप्त नहीं होगी ।
अनुसार कर्म है | जगत में अनेक प्रकार की विषमताएं हैं। आर्थिक और सामाजिक विषमताओं के प्रतिरिक्त जो प्राकृतिक विषमताएं हैं उनका कारण मनुष्य कृत नहीं हो सकता । जब सब में एक सा म्रात्मा है तब मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट और वृक्ष लताओं आदि के विभिन्न शरीरों और उनके सुख दुःख धादि का कारण क्या है ? कारण के बिना कोई कार्य नहीं हो सकता । जो कोई इन विषमताओंों का कारण है वही कर्म हैंकर्म सिद्धान्त यही कहता है
जैनों के कर्मवाद में ईश्वर का कोई स्थान नहीं है, उसका अस्तित्व ही नहीं है । उसे जगत की विषमताओं का कारण मानना एक तर्क हीन कल्पना है । उसका अस्तित्व स्वीकार करने वाले दानिक भी कमों को सत्ता अवश्य स्वीकार करते हैं। ईश्वर जगत के प्राणियों को उनके कर्मों के अनुसार फल देता है! उनकी इस कल्पना में कर्मों की प्रधानता स्पष्टरूप से स्वीकृत है। 'सब को जीवन की सुविधाएं समान रूप से प्राप्त हों मीर सामाजिक दृष्टि से कोई ऊंच-नीच नहीं माना जाए' मानव मात्र में यह व्यवस्था प्रचलित हो जाने पर भी मनुष्य की व्यक्तिगत विषमता कभी कम न होगी । यह कभी सम्भव नहीं है कि मनुष्य एक से बुद्धिमान हों, एक सा उनका शरीर हो, उनके शारीरिक अवयवों और सामर्थ्य में कोई भेद नहीं कोई स्त्री कोई पुरुष और किसी का नपुंसक होना दुनियां के किसी क्षेत्र में बन्द नहीं होगा। इन प्राकृतिक विषमताओं को न कोई शासन बदल सकता है और न कोई समाज । यह सब विविधताएं तो साम्यवाद की चरम सीमा पर पहुंचे हुए देशों में भी बनी रहेंगी। इन सब विषमताओं का कारण प्रत्येक आत्मा के साथ रहने वाला कोई विजातीय पदार्थ है और वह पदार्थ कर्म है ।
,
कर्म आत्मा के साथ कब से है और कैसे उत्पन्न होते हैं ?
कर्म और मात्मा का सम्बन्ध अनादि है। जब से आत्मा है, तब से ही उसके साथ कर्म लगे हुए हैं । प्रत्येक समय पुराने कर्म म्रपना फल देकर प्रात्मा से अलग होते रहते हैं और मात्मा के राग पादि भावों के द्वारा नये
।
यह पहले कहा है कि प्रतिक्षण आत्मा में नये-नये कर्म प्राते रहते हैं। कर्मबद्ध श्रात्मा अपने मन, वचन, और काय की क्रिया से ज्ञाता वरणादि पाठ कर्मरूप और प्रौदारिकादि ४ शरीर रूप होकर योग्य पुद्गल स्कन्धों को ग्रहण करता रहता है । श्रात्मा में कषाय हो तो यह पुद्गल स्कन्ध कर्मवद्ध मात्मा के चिपट जाते हैं — ठहरे रहते हैं । कषाय (राग द्व ेष) की तीव्रता और मन्दता के अनुसार श्रात्मा के साथ ठहरने की कालमर्यादा कर्मों का स्थिति बन्ध कहलाता है। कपाय के अनुसार ही वे फल देते हैं यही अनुभवबन्ध या अनुभाग बन्ध कहलाता है । योग कर्मों को लाते हैं, आत्मा के साथ उनका सम्बन्ध जोड़ते हैं । कर्मों में नाना स्वभावों को पैदा करना भी योग का ही काम है । कर्मस्कन्धों में जो परमाणुओं की संख्या होती परमाणुत्रों की संख्या होती है, उसका कम ज्यादा होना भी योग हेतुक है। भोग का सूर्य आत्मा के प्रदेशों का चंचल होना है। भोग से होने वाली ये दोनों क्रियाएं क्रमशः प्रकृतिबन्ध और प्रदेश बन्ध कहलाती हैं । कर्म के भेद और उनके कारण
1
कर्मों के मुख्य ग्राठ भेद हैं । ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, प्रायु, नाम, गोत्र, और अन्तराय । जो कर्म ज्ञान को प्रगट न होने दे वह ज्ञानावरणीय, जो इन्द्रियों को पदार्थों से प्रभावान्वित नहीं होने दे वह दर्शनावरणीय जो सुख दुःख का कारण उपस्थित करे अथवा जिससे सुख दुःख हो यह वेदनीय, जो प्रारमरमण न होने दे वह मोहनीय, जो म्रात्मा को मनुष्य, तियंच, देव और नारक के शरीर में रोके वह आयु, जो शरीर की नाना अवस्थाओं आदि का कारण हो वह नाम, जिससे ऊंच नीच कहलावे वह गोत्र, मौर
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२७
जो प्रात्मा की शक्ति आदि के प्रकट होने में विघ्न डाले वह अन्तराय कर्म है ।
जाता है तब यही कर्म कहलाने लगता है । यह सामर्थ्य दूर होते ही यही पुद्गल दूसरी पर्याय धारण कर लेता है । कर्म आत्मा से अलग कैसे होते हैं।
संसारी जीव के कौन-कौन से कार्य किस किस कर्म के प्रसव के कारण है यह जैन शास्त्रों में विस्तार के साथ बतलाया गया है। उदाहरणार्थ - ज्ञान के प्रकाश में बाधा देना, ज्ञान के साधनों को छिन्न-भिन्न करना, प्रशस्त ज्ञान में दूषण लगाना, आवश्यक होने पर भी अपने ज्ञान को प्रगट न करना और दूसरों के ज्ञान को प्रकट न होने देना यादि अनेकों कार्य ज्ञानावरणीय कर्म के प्रास्रव के कारणों को भी जानना चाहिए। जो कर्मास्रव से बचना चाहे वह उन कार्यों से विरक्त रहे जो किसी भी कर्म के प्रास्रव के कारण हैं । तत्वार्थ सूत्र के अध्याय में प्रसव के कारणों का जो विस्तार पूर्वक विवेचन किया गया है वह हृदयंगम करने योग्य है।
कर्म आत्मा के गुण नहीं हैं
कुछ दार्शनिक कर्मों को आत्मा का गुण मानते हैं पर जैन मान्यता इसे स्वीकार नहीं करती। अगर पुण्य पाप रूप कर्म आत्मा के गुण हों तो वे कभी उसके बन्धन के कारण नहीं हो सकते। यदि आत्मा का गुण स्वयं ही उसे बांधने लगे तो कभी उसकी मुक्ति नहीं हो सकती । बन्धन मूल वस्तु से भिन्न होता है, बन्धन का विजातीय होना जरूरी है । यदि कर्मों को ग्रात्मा का गुण माना जाय तो कर्म नाश होने पर प्रात्मा का नाश भी प्रवश्यंभावी है, क्योंकि गुण पोर गुणी सर्वया भिन्न भिन्न नहीं होते । बन्धन यात्मा की स्वतन्त्रता का अपहरण करता है; किन्तु अपना हो गुण अपनी ही स्वतन्त्रता का अपहरण नहीं कर सकता । पुण्य और पाप नामक कर्मों को यदि आत्मा का गुण मान लिया जाय तो इनके कारण ग्रात्मा पराधीन नहीं होगा; और यह तर्क एवं प्रतीति सिद्ध है कि ये दोनों ग्रात्मा को परतन्त्र बनाये रखते हैं। इसलिए ये ग्रात्मा के कुरण नहीं किन्तु एक भिन्न द्रव्य हैं । ये भिन्न द्रव्य पुद्गल हैं यह रूप, रस, गंध और स्वर्ण वाला होता एवं जड़ है। जब राग द्वेषादिक विकृतियों के द्वारा आत्मा के ज्ञानादि गुणों को घात का सामर्थ्य जड़ पुद्गल में उत्पन्न हो
आत्मा और कर्मों का संयोग सम्बन्ध है इसे ही जैन परिभाषा में एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध कहते हैं। संयोग तो अस्थायी होता है । आत्मा के साथ कर्म संयोग भी अस्थायी है अतः इसका विघटन अवश्यं भावी है। खान से निकले हुए स्वर्णपापा में स्वर्ण के अतिरिक्त विजातीय वस्तु भी है । वह ही उसकी अशुद्धता का कारण है। जब तक वह अशुद्धता दूर नहीं होती उसे सुवर्णत्व प्राप्त नहीं होता । जितने ग्रंशों में वह विजातीय संयोग रहता है उतने ग्रंशों में सोना शुद्ध रहता है। यही हाल बात्मा का है। कर्मों की अशुद्धता को दूर करने के लिए म्रात्मा को बलवान प्रयत्न करने पड़ते हैं । इन्हीं प्रयत्नों का नाम तप है । तप का प्रारम्भ भीतर से होता है । बाह्य तपों को जैन शास्त्रों में कोई महत्व नहीं दिया गया है । अभ्यन्तर तप की वृद्धि के लिए जो बाह्य तप अनिवार्य हैं वे स्वतः ही हो जाते हैं। तपों का जो ग्रन्तिम भेद ध्यान है वही कर्मनाश का कारण है। श्रुतज्ञान की निश्चल पर्यायें हो ध्यान हैं। यह ध्यान उन्हीं को प्राप्त होता है। जिनका ग्रात्मोपयोग शुद्ध है। शुद्धोपयोग ही मुक्ति का साक्षात् कारण अथवा मुक्ति का स्वरूप है आत्मा की पुण्य और पाप रूप प्रवृत्तियां उसे संसार की ओर खींचती हैं । जब इन प्रवृत्तियों से वह उदासीन हो जाता है तब नये कर्मों का आना रुक जाता है । इसे ही जैन शास्त्रों की परिभाषा में 'संवर' कहा गया है। संवर हो जाने पर जो पूर्व संचित कर्म हैं वे अपना रस देकर ग्रात्मा से अलग हो जाते हैं । और नये कर्म प्राते नहीं । तब ग्रात्मा की मुक्ति हो जाती है । एक बार कर्मबन्धन से आत्मा अलग होकर फिर कभी कमों से संक्त नहीं होता। मुक्ति का प्रारम्भ है, पर अन्त नहीं वह अनन्त । | मुक्ति ही ग्रात्मा का परम पुरुषार्थ है । इसकी प्राप्ति अभेद रत्नत्रय से होती है। जैन शास्त्रों में फर्मों के नाश होने का अर्थ है आत्मा से उनका सदा के लिए अलग हो जाना। यह तर्क सिद्ध है कि किसी पदाथ
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२८
का कभी नाश नहीं होता । उसका केवल रूपान्तर होता अादि जैना जैन महान दार्शनिक सत के विनाश है। पदार्थ पूर्व पर्याय को छोड़कर उत्तर पर्याय ग्रहण का और असत् के उत्पाद का स्पष्ट विरोध करते हैं। कर लेता है। कर्म पुद्गल कर्मत्व पर्याय को छोड़कर जैसे साबुन प्रादि फेनिल पदार्थों से धोने पर कपड़े का दूसरी पर्याय धारण कर लेते हैं। उनके विनाश का मेल नष्ट हो जाता है अर्थात् दूर हो जाता है, वैसे ही यही अर्थ है :
मात्मा से कर्म दूर हो जाते हैं। यही कर्मनाश कर्ममूक्ति "सतो नात्यन्तसंक्षयः" (प्राप्त परीक्षा)
अथवा कर्मभेदन का अर्थ है । जैसे प्राग में तपाने की "नासतो विद्यते भावो न भावो विद्यते सतः” (गीता) विशिष्ट प्रक्रिया से सोने का विजातीय पदार्थ उसने "नेवासत्तो जन्म सतो न नाशो दीपस्तमः पुद्गल पृथक हो जाता है वैसे ही तपस्या से कर्म दूर हो भावतोऽस्ति' (स्वयंभूस्तोत्र)
जाता है।
चरिणहिं कत्थमाणो सगुणं सगुणेसु सोभदे सगुणो।
वायाए वि कहिंतो अगुणो व जणस्मि अगुणम्मि ।। गुणवान आदमी गुणवालों में अपने गुण को अपने कार्यों से ही प्रकट करता हुआ शोभा को प्राप्त होता है जैसे गुणहीन गुणरहित लोगों में वचनों से अपनी प्रशंसा करता हुआ।
जाव न जरकंडपूयणि सव्वंगयं गसइ । जाब न रोयभुयंगु उग्गु निदउ उसइ ॥ ताव धम्मि मणु दिज्जउ किज्जउ अप्पहिउ ।
अज्ज कि कल्लि पयाणउ जिउ निच्चप्पहिउ । जब तक जरारूपी राक्षसी सारे शरीर के अंगों को न ग्रस ले और जब तक उग्र एवं निर्दय रोगरूपी भुजंग न डसले तबतक (उसके पहले ही) धर्म में मन लग
और आत्मा का हित करो क्योंकि आज या कल जीव को निश्चय ही प्रयाण करना पड़ेगा।
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
भारतीय दर्शनों में चेतनास्तित्व
• प्राचार्य रमेशचन्द्र शास्त्री विद्यालंकार जयपुर
विश्व के दो प्रमुख तत्व जड़ और चेतन पर प्रायः है। प्राचार्य शंकरने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन बड़े ही
- सभी पाश्चात्य एवं पूर्वीय दर्शनों में विभिन्न सुन्दर ढंग से किया है। विचार व्यक्त किए गये हैं। चार्वाक दर्शन को छोड़कर प्रात्मातु प्रमाणादि व्यवहारा श्रयत्वात् प्रागेव सभी भारतीय दर्शनों ने जड़ से पृथक चेतनास्तित्व को प्रमाणादि व्यवहारात् सिध्यति । न चेदशस्य निराकरणं स्वीकार किया है, फिर चाहे उसका स्वरूप अथवा लक्षण संभवति । अागन्तुकं हि वस्तु निराक्रियते न स्वरूपम् । कुछ भी किया हो या नाम कोई भी रखा हो । प्रस्तुत नहि अग्ने रौष्व्यग्नि ना निराक्रियते । लेख में हम चेतन सत्ता के विषय में विभिन्न मतों के
वेदान्त दर्शन शां. भा. २।३ (७)। विचार प्रदर्शित करना चाहते हैं। भिन्न २ दर्शनों में
इस उद्धरण का भाव यह है कि प्रात्मा ही समस्त चेतन सत्ता के जो नाम हमें मिलते हैं उन में प्रात्मा, प्रमाण व्यवहार का पाश्रय है । प्रतः प्रमाण व्यवहार में जीव, जीवात्मा, पुरुष ये चार प्रमुख हैं । यद्यपि इस पूर्व प्रात्मा सिद्ध है। उसका निराकरण नहीं किया जा विषय के प्रतिपादन में नाम भेद का विशेष महत्व नहीं सकता । निराकरण आगन्तुक-बाहर से आने वाली वस्तु माना जाता । चेतनास्तित्त्व के निरूपण में भारतीय होला
का होता है, स्वभाव का नहीं जैसे उष्णता का निराकरण
। दर्शनों में वेदान्त दर्शन का अपना विशिष्ट स्थान है। अग्नि के द्वारा न
अग्नि के द्वारा नही किया जा सकता । क्योकि वह उसका वेदान्त दर्शन में चेतनास्तित्व
स्वभाव है। प्राज वेदान्त दर्शन के नामसे दर्शन शास्त्र में प्रत
इस विषय में शंकर ने दूसरी जो बात कही है वह दर्शन-जिसे शांकर वेदान्त भी कहते हैं-का ही ग्रहण प्रायः ।
स
है प्रत्येक व्यक्ति का प्रात्मा के अस्तित्व में अटल विश्वास । किया जाता है । यद्यपि वेदान्त का यही एकान्त अर्थ हर व्यक्ति यही विश्वास करता है कि ' मैं हं", "मैं नहीं नहीं है, फिर भी हम यहां उसी के मतानुसार प्रस्तुत हूं" ऐसा विश्वास किसी को भी नहीं होता। विषय का विवेचन करेंगे।
सर्वो हि प्रात्मास्तित्वं प्रत्येति, न नाह्यस्मीति । यदि अद्वैत वेदान्त में प्रात्मा का प्रत्यय स्वयं सिद्ध है। नात्मत्व प्रसिद्धिःस्यात् सर्वोलोको नाह्य स्मीति प्रतीयाम् । उसे अन्य किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं। संसार
ब. सू. शा. भा. १३१३१॥ के समस्त व्यवहार अनुभव के आधार पर चलते हैं। जब प्रतः प्रात्मा के अस्तित्व में शंका करने का कोई हम किसी विषय का अनुभव करते हैं तो उस के साथ अवसर है ही नहीं। याग्यवल्क्य ने भी बहुत पहले यह विषयीमात्मा स्वयं सिद्ध रहता है। यदि हम आत्मा को कह दिया है। ज्ञानरूप से विषय के साथ उपलब्ध न करें तो निश्चय ही विज्ञातारमो केन विजानीयात्-बृह. २।४।१४। विषय का ज्ञान भी उपपादित नहीं किया जासकता । जो सब का ज्ञाता है उसे किस प्रमाण से जाना जाय । अनुभव के साथ साथ अनुभवकर्ता की सत्ता अवश्यंभावी सुरेश्वराचार्य ने भी कहा है
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३०
यतोराद्धि प्रमाणानां सकथं तैः प्रसिध्यति । वह त्रिगुण विलक्षण है अत: नित्य-मुक्त है। वह जिससे प्रमाणों की सिद्धि होती है, उसे प्रमाणों के द्वारा स्वभावत: ही कैवल्य सम्पन्न है । सांख्य में उसे मध्यस्थ कैसे सिद्ध किया जा सकता है ?
कहा गया है। वेदान्त दर्शन में प्रात्मा को शाता और ज्ञानरूप सांख्य में पुरुष को विविध सुदृढ़ तर्कों के आधार दोनों माना जाता है । ज्ञाता वास्तव में ज्ञान से अलग पर खड़ा किया गया है। उन सभी तकों का संग्रह नहीं होता। इनमें भिन्नता स्थापित नहीं की जासकती। सांख्यकारिकाकार ईश्वर कृष्ण ने इस प्रकार किया हैनित्य पात्मा को ज्ञान स्वरूप मानने में किस विप्रतिपत्ति
संघातपरार्थत्वात् विणादि विपर्यायादधिष्ठानात् । का सामना हो सकता है ? इसमें संशय की गृक्षायश
पुरुषोऽस्ति भोक्त भावात् कैवल्यार्थं प्रवृत्तेश्च ॥ महीं है । प्रात्मा की अद्वैतता के विषय में भी वेदान्त के विचार बड़े प्रौढ़ प्रतीत होते हैं, यद्यरि व्यवहार दृष्टि
१. संघातपरार्थत्वात्-संघात-समुदाय सदा ही
दूसरों के लिये होता है, उसी प्रकार यह समुदायमय से अनुभव में दो पृथक् सत्तायें प्रतिभासित होती हैं। इस
जगत् भी किसी अन्य के उपयोग के लिये है। यही अन्य एक जीव तथा दूसरा जगम, परन्तु परमार्थतः सूक्ष्म
वस्तु 'पुरुष' है। दृष्ट्या प्रात्मा ही एक मात्र सत्ता सिद्ध होता है । जगत की सत्ता व्यवहार मात्र है । प्राचार्य शंकर का कहना है २. त्रिगुणादि विपर्ययात्-वह त्रिगुणात्मक कि हम प्रत्येक अनुभूति में-विषयी या विषय रूप से, नहीं है इसलिये वह अधिष्ठाता है। प्रकृतिः त्रिगुणात्मिका या कर्ता और कर्म रूप से प्रात्मा की ही एक अखण्डाकार है वह अधिष्ठान है, अधिष्ठान बिना अधिष्ठान के नहीं उपलब्धि पाते हैं। एक ही अद्वैत सता सर्वत्र उपलब्ध रह सकता। इसलिये अधिष्ठाता पुरुष की कल्पना होती है। विषयी तथा विषय का पार्थक्य परमार्थतः नहीं आवश्यक है। है, वह तो व्यवहारतः है ।
३. अधिष्ठानात्-जड़ पदार्थ में जब चेतन का सांख्य दर्शन में चेतनास्तित्व
अधिष्ठान होता है तभी वह प्रवृत्त होता है। रथ में जब चेतनास्तित्व के निरूपण में सांख्य दर्शन का अपना
चेतन सारथि का अधिष्ठान नहीं होता तो रथ चल नहीं महत्व सब से अलग ही है । सांख्य में जो चेतन सत्ता
सकता। ऐसे ही सुख दुःखात्मक यह जड़ जगत् भी
किसी चेतन पदार्थ से अधिष्ठित होकर ही प्रवृत्त स्वीकृत की गई है उसे "पुरुष" संज्ञा दी है ! सांख्य में
होता है। पहला तत्व प्रकृति को स्वीकार किया गया है। पुरुष दूसरा तत्व है। यह त्रिगुणातीत है, सत्, रज और तम। ४. भोवतभावात्-संसार के सभी विषयभोग्य इन तीनों गुणों से परे है । विवेकी, विषयी, विशेष्य, हैं इनका भोक्ता भी कोई होना चाहिये, यह भोक्ता ही चेतन तथा अप्रसव धर्मी है । चैतन्य इसका गुरण नहीं चेतन पुरुष है। है, अपितु स्वरूप है । जगत के पदार्थों में त्रिगुणात्मकत्ता प्रकृति का अंश है और चैतन्यास्तित्व चेतन पुरुष का
५. कवल्यार्थ प्रवृत्तेश्च--इस विश्व में बहुत से भाग है । पुरुष सदृश तथा विसदृश परिणाम से रहित मनुष्य दुखा से छूटकर मोक्ष प्राप्त कर लेना चाहते है। है । यह विकार-रहित, कूटस्थ, नित्य तथा सर्वव्यापक यह माक्ष चाहने वाला कौन है ? बस यही पुरुष है। है। यह निष्क्रिय है तथा अकर्ता है । चैतन्य संयुक्त सांख्य के मत में पुरुष अनेक हैं। इसके लिये अनेक पदार्थों मे जो क्रियाशीलता तथा कर्तत्व दिखाई देता है प्रमाण हैं। पुरुष देश कालातीत है इसलिए वह एक वह वास्तव में प्रकृति का धर्म है। जगत् का कत्तत्व होगा, इस मान्यता का कोई ठोस प्रामाणिक प्राधार प्रकृति में है, पुरुष तो केवल साक्षीमात्र एव दृष्टा है। नहीं है।
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३१
न्याय वैशेषिक और योग में चेतनास्तित्व समान ही योग में भी उसे पुरुष नाम से अभिहित किया
न्याय दर्शन में-इच्छा, द्वेष प्रयत्न, सुख, दुःख गया है । पुरुष स्वभावतः शुद्ध, चेतन स्वरूप एवं दैहिक और ज्ञान प्रात्मा के सिंग-परिचायक बताये गये हैं। तथा मानसिक बन्धनों से रहित है। परन्तु वह प्रज्ञानामुक्त अवस्था में प्रात्मा में इन गुणों का अत्यन्ताभाव वस्था में चित्त से सम्बद्ध रहता है । यद्यपि चित्त प्रकृति होजाता है। न्याय के मत में मुक्ति में सुख का भी जन्य होने से अचेतन है, परन्तु पुरुष के प्रतिबिम्ब के प्रभाव होने के कारण प्रानन्द की उपलब्धि नहीं कारण वह चेतन के समान भासता है, पदार्थ के साथ होती । वेदान्त का मत इसके सर्वथा विपरीत है। सम्बन्ध होने के कारण चित्त ही वस्तु के स्वरूप को इसीलिये मुक्तावस्था में प्रात्मा में नित्य प्रानन्द को ग्रहण करता है, पुरुष को चित्त के परिवर्तनों के कारण मानने वाले श्री हर्ष ने अपने नैषधीय चरित में ही पदार्थ का ज्ञान होता है । पुरुष स्वतः अपरिणामी है नैयायिकों की मुक्ति की हंसी उड़ाते हए लिखा है- पर चित्त में प्रतिबिम्बित होने के कारण परिणामी प्रतीत मको यः शिलात्वाय शास्त्रमूचे सचेतसाम् । होता है। पुरुष चैतन्यात्मक होते हुए भी चैतन्य से गोतमं तमवेक्ष्येव यया वित्थ तथैव सः ।।
भिन्न नहीं है।
नैषध १७.७५॥ जैन तथा बौद्ध दर्शन में चेतनास्तित्व अर्थात् जिस सूत्रकार ने सच्ता पुरुषों के लिए जैन दर्शन में चेतनास्तित्व के विषय में ज्ञान प्राप्त ज्ञानसुखादि रहित शिलारूप प्राप्ति को जीवन का परम करने से पूर्व द्रव्य का ज्ञान प्राप्त करना जरूरी है । लक्ष्य बतला कर उपदेश दिया है, उनका अभिधान द्रव्य सत् है इस सत के विषय में विविध दर्शनों में 'गोतम' शब्दतः ही यथार्थ नहीं है अपितु अर्थतः भो पर्याप्त मतभेद है । वेदान्त में केवल ब्रह्म को ही सत् यथार्थ है । वह केवल गो-बैल न होकर गोतम-प्रति- माना गया है बौद्ध दर्शन सत् को निरन्वय क्षणिक शयेन गौ-अत्यधिक बैल है अर्थात् निरा मूढ । अर्थात् उत्पादन विनाशशील मानता है, सांख्य चेतन
न्याय में प्रात्मा को स्वतन्त्र स्वीकार किया है तथा (पुरुष ) रूप सत् पदार्थ को कूटस्थनित्य मानता है, उसे देह एवं इन्द्रियों से अलग एक नित्य स्यायी पदार्थ परन्तु अचेतन प्रकृतिरूप पदार्थ को परिणामिनित्य माना है।
मानता है । जैन दर्शन में इस सत् की व्याख्या एक वैशेषिक दर्शन में भी प्रात्मा के स्वरूप को करीब २
विशेष रूप से ही प्रस्तुत की गई हैं। उपर्युक्त प्रकार का ही स्वीकार किया है। वह शरीर जैन दर्शन अनेकान्तवादी है । उसके मत में प्रत्येक तथा इन्द्रियों से तो पासार है ही अपितु मन से भी पदार्थ के दो अंश होते हैं, एक शाश्वत अंश, दूसरा पृयक है। अनुभव तथा स्मरण ये दोनों समानाधिकरण अशाश्वत अंश । शाश्वत अंश की वजह से विश्व की में विद्यमान रहते हैं, अतः प्रात्मा इन्द्रियादि से भिन्न है प्रत्येक वस्तु 'ध्रोव्यात्मक' अर्थात नित्य है तथा प्रशाश्वत और अनुभव तथा स्मरण का अधिकरण है। वेदान्त में ___ अंश के कारण वही वस्तु उत्पाद-व्ययात्मक अर्थात् प्रात्मा को एक माना है, परलोक व्यवहार के अनुरोध उत्पत्ति तथा विनाशशील-अनित्य है । जैन दर्शन इस पर वैशेषिक में उसकी अनेकता स्वीकार की है। तरह हर वस्तु को उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्त मानता है ।
महर्षि कणाद ने अहं प्रत्यक्ष रूप से प्रात्मा को इस द्रव्य के दो बड़े विभाग हैं । १-एक देश व्यापी प्रत्यक्ष माना है । वह न पागम प्रमाण से सिद्ध है और द्रव्य २-बह देश व्यापी द्रव्य । काल एक ही पदार्थ है न अनुभेद है । वह प्रत्यक्ष गम्य है ।
जो एक प्रदेश व्यापी माना जाता है। जगत् के अन्य योग दर्शन का अभिमत प्रात्मा के विषय में थोड़ा सभी पदार्थों में विस्तार पाया जाता है, इसलिये वे बहत अन्तर से साक्ष्य के साथ सम्बद्ध है। सांख्य के बहदेश व्यापी कहे जाते हैं। जैन दर्शन में विस्तार वाले
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३२
द्रव्य 'प्रस्तिकाय' कहे जाते हैं । सत्ता के कारण वे को विभु माना है और वैष्णव दर्शनों ने उसे अरगु 'अस्ति' हैं तथा शरीर के समान विस्तार युक्त होने से स्वीकार किया है इन दोनों से भिन्न जैन दर्शन ने 'काय' हैं। ऐसे पांच द्रव्य माने गये हैं
मध्यममार्ग स्वीकार किया है। जीव शरीरत्वच्छिन्न है। १-जीयास्तिकाय, २-पुद्गलास्तिकाय, ३-पाका- अन निवासस्थान शरार क पारमारणवाला ह ।
अपने निवासस्थान शरीर के परिमारणवाला है। वह हाथी शास्तिकाय, ४-धर्मास्तिकाय, ५-अधर्मास्तिकाय ।
के शरीर में हाथी के परिमाण बाला और चीटी के
शरीर में चींटी के समान स्वल्प परिमाण वाला हैं। देश व्यापक (अस्तिकाय) द्रव्य प्रधानतः दो भेद
प्रदीप के समान जीव संकोच विकासशील है। वह धाला है । १-जीव और अजीव । ये जीव सामान्यतः
तत्वतः प्ररूपी है, इन्द्रियों से उसका ज्ञान नहीं हो सकता, दो तरह के होते हैं एक बद्ध तथा दूसरे मुक्त । बद्ध संसारी कहाते हैं। इनके अनेक भेद किए गए हैं। जो फिर भी स्वसंवेदन प्रत्यक्ष तथा अनुमान से उसे जाना जीव किसी उद्देश्य को लेकर एक स्थान से दूसरे स्थान जा सकता है। पर जाने की शक्ति रखते हैं उन्हें त्रस कहा जाता है। बौद्ध दर्शन नैरात्म्यवादी दर्शन कहा जाता है फिर जो जीव ऐसी शक्ति से रहित हैं वे स्थाबर कहाते हैं। भी वह चेतनास्तित्व को तो मानना ही है। हां, अन्य संसारी जीव के चार अन्य भेद भी किए गये हैं।
दर्शनों के समान उसने आत्मा को पृयक सत्तावान् पदार्थ १-नारक २-मनुष्य ३-तिर्यश्च ४-देव । स्थावर जीव ।
स्वीकार नहीं किया है। यह चेतनास्तित्व-प्रत्यक्ष गोचर सब से निःकृष्ट हैं ये मात्र स्पर्शनिय ही होते हैं।
मानस प्रवृत्तियों का एक समूह है। इस समूह के अलावा जंगम जीवों में कुछ में दो, कुछ में तीन, कुछ में चार
प्रात्मा की कोई सत्ता दिखाई नहीं देती। इस विषय में इन्द्रियां होती है। मनुष्य पशुपक्षी आदि उन्नत जीवों में
बौद्ध दर्शन वर्तमान मनोवैज्ञानिकों के अभिमत के तुल्य पांचों इन्द्रियां पाई जाती हैं ।
है। बौद्ध प्रतिपादित यह चेतनास्तित्व नाम रूपात्मक चेतन द्रव्य जीव कहलाता है। चैतन्य जीव का है। इन्द्रियों के अनुभव से निरूपित पदार्थों की संज्ञारूप मामान्य लक्षण है। संसार के सभी जीवों में चैतन्य
है, पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु एवं एतज्जन्य शरीर मिलता है। हर जीव स्वभावतः अनन्त ज्ञान, अनन्त
रूप कहाता है, भारीपन तथा परिमारण रहित द्रव्य को दर्शन, अनन्त सामर्थ्य आदि गुणों से युक्त है। जीव के
नाम कहते हैं । यह मन तथा मानसिक प्रवृत्तियों की संज्ञा इन स्वाभाविक गुणों पर अपने ही शुभाशुभ कर्मों का है। इसलिये यहां नामरूप से तात्पर्य शरीर व मन प्रावरण पड़ा रहता है । जब मात्र शुभ कार्यों के अनुष्ठान
अर्थात् शारीरिक कार्य एवं मानसिक प्रवृत्तियां हैं । शरीर से यह प्रावरण तिरोहित हो जाता है तो जीव अपने के कार्य तथा मानसिक प्रवृत्तियों के समुच्चय से अलग उपयुक्त गुणों का साक्षात् करता है । जीव शुभ अशुभ
प्रात्मा कुछ नहीं है। रूप एक है, पर नाम के चार भेद कर्मों का कर्ता और कर्म फलों का भोक्ता स्वयं ही है। -वेदना, संज्ञा, संस्कार तथा विज्ञान । बौद्धों का तथाविश्व के प्रत्येक भाग में जीवों का अस्तित्व है।
कथित 'आत्मा' रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार एवं विज्ञान 'वस्तुओं का ज्ञाता, कर्मों का सम्पादक और सुखों का इन पञ्चस्कन्धों का एक पूञ्ज है। उसे आत्मा यह भोक्ता जीव ही है । वह दुःखों का सहने वाला है। वह नाम केवल व्यवहार के लिये दिया गया है। उसकी अपने को भी प्रकाशित करता है और अन्य पदार्थों का वास्तविक सत्ता कुछ नहीं है। पञ्च स्कन्धों का समूह. भी प्रकाशक है । वह नित्य होने पर भी परिणामी है। रूप यह व्यवहत प्रात्मा भी अनित्य है। त्रिपिटकों के वह शरीर से अलग है, चैतन्य की उपलब्धि जीव के अनुसार इसका कालिक सम्बन्ध दो क्षण तक भी नहीं अस्तित्व में प्रबल प्रमाण है। जैन दर्शन जीव को रहता । यह प्रतिक्षण परिणामी है। वह दीप शिखा मध्यम परिमाण वाला मानता है । वेदान्तियों ने जीव एवं जल प्रवाह के समान सनातनशील है।
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३३
इस उपयुक्त विवेचन से हम यह भली भांति जान कि बौद्ध दर्शन का नैरात्म्यवाद भी यत्किञ्चित रूप से सकते हैं कि भारतीय दर्शनकारों में आस्था के अस्तित्व व्यवहारतः ही सही, चेतनास्तित्व को स्वीकार करता है के विषय में कितना गहन तथा सूक्ष्म विचार प्रस्तुत चाहे वह क्षणिक ही हो । जैन दर्शन का प्रात्म विवेचन किया गया है। वेदान्त, सांख्य, न्याय, वैशेषिक, योग, जैन अत्यन्त प्रौढ़ है। उसका द्रव्य स्वरूप बड़ा विलक्षण तथा बौद्ध दर्शनों ने अपने अपने ढंग से प्रात्मा की सत्ता तथा बहुतर्क सम्मत लगता है । जगत् का प्रत्येक पदार्थ तथा प्रामाणिकता को स्वीकार करके और विस्तृत उत्पाद व्यय तथा धौव्य युक्त है। वस्तुत: यह मान्यता विवेचन करके भारतीय दर्शन को विस्तार प्रदान दर्शन में एक विशेष महत्व रखती है । वेदान्त द्वारा किया है।
स्वीकृत आत्मा की स्वयं सिद्धता और सांख्य स्वीकृत इस समस्त विवेचन का यदि तुलनात्मक अध्ययन पुरुष का स्वरूप भी बड़ा अद्भुत प्रतीत होता है। न्याय किया जाय तो बड़े रोचक परिणाम निकल सकते हैं और वैशेषिक द्वारा सुख-दुःख ग्रादि के आधार पर प्रात्मा का संभवतः अन्त में सभी दर्शनों के मत एक स्थान पर अनुमान तके साध्य लगता है। जो भी हो, उपयुक्त सभी आकर मिल भी सकते हैं । वस्तुतः अध्यात्य में प्रात्मा दर्शनों के हम ऋणी हैं जिन्होंने प्रात्मस्वरूप को पहचानने का विवेचन बड़ा रूचिपूर्ण विषय है। कहना न होगा के लिये विभिन्न मार्ग बताये हैं ।
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
महावीर वर्द्धमान
महावीर के जन्म के समय भारत का सामाजिक एवं धार्मिक वातावरण पूर्णतः विषाक्त था । लोग क्रिया कांड़ों में उलझे हुए थे स्त्री और शूद्रों की स्थिति प्रत्यन्त शोचनीय एवं दयनीय थी । ऐसी स्थिति का जनमत विरोधी था लेकिन उसके विरुद्ध बोलने का किसी में साहस नहीं था । जाति एवं धर्म के नाम पर गरीबों एवं छोटी जातियों के सभी लोगों पर जुल्म ढाये जाते थे । शिक्षा का पूर्णतः प्रभाव या । ऐसे समय में महावीर स्वामी का जन्म विराट प्रदेश के कुण्डलपुर के राजा सिद्धार्थ के यहां हुआ । उनकी माता का नाम त्रिशला था जो उस समय के शक्ति सम्पन्न महाराज चेटक की पुत्री थी । उनका जन्म चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन की शुभ बेला में हुआ ।
महावीर के जन्म होते ही सारे जगत में श्रानन्द की लहर दौड़ गयी । पीड़ित, दलित एवं त्रसित प्राणियों ने सुख की सांस ली। चारों ओर उत्सव मनाये जाने लगे, नगर को विशेष रूप से सजाया गया । तोरण एवं बंदनवार बांधी गयी । बाजे बजाये गये एवं घर घर में मंगल गीत गाये जाने लगे । सिद्धार्थ एवं माता त्रिशला अपने लाड़ले पुत्र का मुख देख कर फूले नहीं समाये । श्रौर ऐसा होनहार बालक को पैदा कर अपने जीवन को धन्य माना ।
महावीर के बचपन का नाम वर्धमान था । वे धीरे धीरे बड़े होने लगे । अपनी बाल-सुलभ क्रीड़ामों से वे सारे महल को अनन्दित कर देते थे। जो भी उन्हें गोद में लेता वही अपने जीवन को धन्य समझता । बचपन में ही वे साहसी एवं व्युत्पन्न मति थे । वे जब अपने साथियों के साथ खेलते तो खेल हो खेल में अपनी बुद्धि कौशल का खूब परिचय देते। एक बार जब वे उद्यान
1
•
राजकुमारी लुहाड़िया
धर्मालकार
जयपुर
में खेल रहे थे तो उन्हें प्रकस्मात ही उधर हो दौड़ कर प्राता हुआ सर्प दिखाई दिया । सब साथी उसे देखते ही भाग गये । लेकिन महावीर डरे नहीं और उन्होंने उसकी पूंछ पकड़ कर उसे बहुत दूर फेंक दिया । यह उनके साहस एवं अहिंसक जीवन का प्रथम स्वरूप था ।
वर्द्धमान बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि थे । वे प्रतिभा सम्पन्न थे । श्राप समस्याओं को सुलझाने में बड़े चतुर थे । उनसे समस्यानोंके समाधान के लिये कितने ही व्यक्ति प्राते और महावीर बातों ही बातों में उनका समाधान इस तरह से करते कि सभी उनको बुद्धि को भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए जाते। एक बार दो चारण ऋिद्धिचारी मुनियों को शंका हो गई और वह शंका उनके दर्शन भाव से दूर हो गई । क्यों न हो महावीर तीर्थङ्कर जो ठहरे । मति, श्रुति, अवधि तीनों ज्ञान के वे धारी थे । उन्होंने शीघ्र ही शिक्षा समाप्त कर लो । गम्भीर ग्रंथों का उनको ज्ञान हो गया । इनकी बुद्धि एवं स्मरण शक्ति को देखकर बडे बडे विद्वान भी हैरान हो जाते । इस प्रकार थोड़े ही समय में महावीर अपनी बुद्धि, ज्ञान एवं प्रतिभा के लिये भारत के कोने-कोने में प्रसिद्ध हो गये । वे गंभीर प्रकृति के थे । चिंतन मनन एवं स्वाध्याय में वे अपना अधिक से अधिक समय लगाते ।
जब वे युवावस्था में पहुँचे तो उनकी गम्भीरता और भी बढ गयी । वे अत्यंत एकांत प्रिय हो गये । सांसारिक वैभव से दूर एकांत में ही वे मानव जीवन को गंभीर समस्याओं पर मनन करने लगे। जब महावीर बडे हुये तो उनके विवाह का प्रश्न उपस्थित हुआ | वे विवाह के प्रश्न को सदा ही टालते रहे क्योंकि उनका मन तो किसी ही ग्रन्य प्रोर हो लगा हुआ था । महावीर ने भो
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३५
३० वर्ष की उम्र में घर छोड कर बन का मार्ग लिया । सभी बाधायें स्वयमेव दूर हो गई। बारह वर्ष पांच इसके पश्चात वे करीब साढ़े बारह वर्ष की प्रखंड माह और पन्द्रह दिन की कठोर तपस्या करने के पश्चात तपस्या में लीन हो गये।
ऋजुकूला नदी के किनारे वैशाख शुक्ला दशमी के दिन वमान अधिकतर मौन रहते थे । इन बारह
चार घातिया कर्मों को नाश कर महावीर ने वेवल ज्ञान
प्राप्त किया। इस समय आपकी अवस्था ४२ वर्ष की वर्षों में उन्हें अनेक उपसर्ग सहने पड़े । यह एक
थी। अब वे केवली हो गये थे । वे भूत, भविष्य एवं वास्तविक तथ्य है कि प्रत्येक महान कार्य के बीच में
वर्तमान के दृष्टा एवं ज्ञाता हो गये थे। इसके बाद कोई न कोई अड़चन अवश्य पाती है । मोक्ष मार्ग
पाप ३० वर्ष और जीवित रहे तथा अपने उपदेशों के के विचरण में महावीर को भी अनेकों कठिनाइयों का
द्वारा संसार को कल्याण का मार्ग दिखाते रहे। स्ट कर मुकाबला करना पड़ा।
भगवान महावीर अनेक देश देशान्तरों में बिहार एक बार भगवान किसी भयंकर जंगल में कायोत्सर्ग
करके धर्मोपदेश देने लगे । वे जहां पहुंचते वहीं अलौकिक के लिये खड़े थे। उसी मार्ग से एक ग्वाला दो बैलों को
समवसरण (सभाभवन) की रचना होती। जिसमें १२ लेकर गुजरा । उसने बद्धमान से कहा "मैंरे बैलों की
कक्षाएं होती थीं। अपनी सभा में सभी को पाने की सम्भाल रखना' और स्वयं गायों का दूध दुहने चला
अनुमति थी । ऊँच, नीच, जाति-पाति एवं गरीब-अमीर गया। जब वापस पाया तो बैलों को न पाकर ग्वाले के
बिना वैर भाव के धर्मोपदेश सुनते और अपना जीवन क्रोध का ठिकाना न रहा। वह महावीर से कहने लगा
सफल बनाते । भगवान महावीर अर्द्धमागधी भाषा में "मो बाबाजी मेरे बैल किधर गये, सुनते नहीं क्या ?"
अपना प्रवचन करते । जिसे सभी श्रोतागरण प्रासानी से एक बार भगवान श्वेताम्बरी नगरी की प्रोर चले।। समझ लेते थे। आपके शासन में सिंह और मृग एक ही ग्राम वासियों ने उन्हें बताया कि इस मार्ग से न जाइये घाट पर पानी पिया करते थे अर्थात हिंसक पशु तक अपनी इसमें एक भयंकर विषधर रहता है। महावीर योगी थे। जातिगत क रता को छोडकर भक्ति से भगवान के आदेश अहिंसा के मसीहा थे । वे जानते थे कि जो स्वयं शुद्ध सुनते थे । इस तरह भगवान काशी, कोशल, पंचाल, होता है उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता , वे उधर कथिंग, सिन्धू, कुरुणांगल, कम्बोज, गांधार मादि देशों ही चल दिये जिधर विषधर का बिल था । जब महावीर में बिहार करते हुये अन्त में परवा नगरी में पधारे । उस सर्प के बिल के पास से बिहार कर रहे थे तो वह और वहां से कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि में अर्थात क्रोधित होकर अपने बिल से निकला और लगा महावीर अमावस्या के प्रातःकाल लाभ किया। को डसने । उसने पूरे वेग से महावीर पर प्रहार किया।
. महावीर ने अहिंसा एवं सत्य का जो उपदेश दिया। लेकिन जब वह उनका कुछ भी नहीं बिगाड सका तब
उसमें भारत में सभी वर्गों में शान्ति एवं सद्भावना महावीर ने उसे आदेश दिया। महावीर के वचनामृत से स्थापित हो गयी। ऊँच-नीच का भेद भाव समाप्त हो उसे अपने पूर्व भव का स्मरणा हो गया और वह गया और सभी को धर्म पालन की सुविधा प्राप्त हो गयी। महावीर का भक्त बन गया।
देश में शिक्षा का प्रचार फैल गया और लोग अपने भगवान महावीर का ध्येय सभी प्राणियों को सूमार्ग प्रापको सुशील समझने लगे। पर लगाना था। उनका अवतार ही प्राणी मात्र के उद्धार ऐसे शान्ति एवं अहिंसा के अवतार भगवान महावीर के लिये हरा था। इसीलिये कष्टों तथा बाधानों की की फिर से महावीर जयन्ती आ रही है। इसलिये हम परवाह किये बिना अपने ध्येय की ओर बढते रहे। सब फिर उनके ऊच्च पादशों पर चलने का प्रयत्न करें। भगवान के तप, त्याग, तेज और प्रात्म बल के सामने जिससे हमारा जीवन शान्त एवं निरापद बन सके।
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
"तुम्हें मिला जब जन्म"
तुम्हें मिला जब जन्म, धरा प्राकाश तुम्हें मिला निर्वाण
झुक
कि सौ सौ दीप जल
तुम मुक्तक की प्रथम पंक्ति में ही जीवन का काव्य बन गये जिस को खोज रही सदियां उस मंजिल की तुम राह बन गये तुम मानव से ऊपर उठ कर वीतराग भगवान बन गये । तुम्हें मिला जब जन्म.
तुम तत्वों के निज स्वरूप को धर्मों का विश्वास दे गये निज स्वरूप का पाठ पढ़ा तुम जीने का अधिकार दे गये जन्म-मरण से ऊपर उठ कर सृष्टि- पुत्र प्रतिवोर बन गये । तुम्हें मिला जब जन्म..
तुम मृत्यु का ग्रहम जीत युग युग शाश्वत् सत्य बन गये तुम संयम की घोर साधना लक्ष्य स्वयं का स्वयं बन गये तुम अवनी से ऊपर उठकर वर्धमान महावीर बन गये । तुम्हें मिला जब जन्म..
गये ।
गये |
सतत साधना से तुम अपनी विश्व वन्द्य वरदान बन गये तुम ऊंच-नीच के तोड़ कगारों को समता की धार बन गये तुम जीवन से ऊपर उठ कर भूत भविष्य वर्तमान बन गये तुम्हें मिला जब जन्म..
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
राजस्थान जैन सभा, जयपुर
कार्य-विवरण
राजस्थान, जैन सभा जैन समाज का एक मात्र
सभा की प्रवृत्तियां प्रतिनिधि संगठन है । वह अपने जीवन के ११ वर्ष समाप्त कर बारहवें वर्ष में पदार्पण कर रही है। अपने १. पयूषण पर्व इस अल्पकाल में वह जो कुछ कर पाई है उससे इस युवकों में धार्मिक विषयों का अध्ययन एवं मनन सभा की कार्य प्रगति का संकेत मिल सकता है। समाज करने की दिशा में रुचि बढ़े एवं जन साधारण में भी में प्राज से ११ वर्ष पूर्व कई संस्थायें विद्यमान थीं और धर्म के प्रति श्रद्धा बनी रहे इसी उद्देश्य से सभा ने सामाजिक कार्यकर्ता उनमें विभक्त थे । समाज के उत्साही प्रारम्भ से ही भाद्रपद मास में पर्युषण पर्व प्रायोजित नवयुवकों ने संगठन के महत्व को समझ परस्पर के किया है। समस्त मतभेदों को भुलाकर तत्कालीन संस्थानों के नाम
इस वर्ष पर्युषण पर्व की विशेषता यह रही है कि का मोह त्यागकर समाज के हित में राजस्थान स्तर पर
अनेक माने हुये विद्वानों के जैन धर्म और उसकी महत्ता एक संगठन बनाने का निश्चय किया। जिसके फलस्वरूप
पर महत्वपूर्ण भाषण हये । इस पर्व गज का उद्घाटन सन १९५२ में कई जैन संस्थानों के अभूतपूर्व एवं
राज्य के उद्योग एवं वित्त विभाग के उप मंत्री श्री चन्दनअद्वितीय एकीकरण से राजस्थान जैन सभा की स्थापना
मलजी वैद ने किया । पयूषण में प्रतिदिन जैन दर्शन
के प्रसिद्ध विद्वान पं० चैनसुखदासजी न्यायतीर्थ के इस सभा की स्थापना समाज-हित को हाष्ट से ग्रोजस्वी एवं सारभित प्रवचन हए । प्रापके समस्त राजस्थान में जैन समाज के प्रत्येक स्त्री पुरुष को अतिरिक्त प्रतिदिन अधिकारी विद्वानों, बक्तामों प्रादि का संगठित करने, विभिन्न जैन संस्थानों से सम्पर्क स्थापित विभिन्न विषयों पर प्रभावोत्पादक एवं प्रेरणादायक करके एक सूत्र में लाने, जैन समाज की सर्वागीण भाषणों का प्रायोजन किया गया जिनमें सर्वश्री रामउन्नति के लिये यथा सम्भव प्रयत्न करने एवं जैन प्रसाद लढा. उप मंत्री, देवस्थान एवं राजस्व, समाज के हितों की रक्षा के लिये प्रयत्नशील रहने के डा० हीरालाल माहेश्वरी, राजस्थान विश्व विद्यालय, उद्देश्य से हुई।
डा० नरेन्द्र भानावत, राजस्थान विश्व विद्यालय ____ अपने उद्देश्य की पूर्ति में समाज में जीवन, जागृति श्री केवलचन्द ठोलिया, श्री मोहनलाल रांवका, श्री ताराएवं स्फूति उत्पन्न करने के अतिरिक्त जनमानस को चन्द शाह, श्री फूलचन्द जैन सदस्य विधान सभा, धर्म एवं कर्तव्य की ओर आकृष्ट करने के लिये अनेक डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल, डा० राजमल कासलीवाल, प्रवृत्तियां प्रारम्भ की।
प्रिन्सिपल मेडिकल कालेज, श्री कपूरचन्द्र पाटनी एवं
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३८
डा० सुधीरकुमार गुप्त, राजस्थान विश्व विद्यालय के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं।
भाषणों के अतिरिक्त नित्य भजन, कविता पाठ यदि हुये जिनमें बहिन श्रीमती चमेली देवी वैद्य, एवं सर्वश्री प्रसन्नकुमार सेठी, महेन्द्रकुमार रांवका, दासूलाल आदि के विशेष रुचिकर रहे ।
सामूहिक क्षमापन पर्व
सभा के तत्वावधान में यह पर्व प्रतिवर्ष आसोज कृष्णा २ को मनाया जाता है। इस दिन समाज के समस्त वृद्ध, युवक व बाल एक स्थान पर एकत्रित होकर अपने समस्त गत वर्ष के मतभेदों को भुलाने की दिशा में अग्रसर होते हैं । सभा का यह एक अनूठा प्रयास है । इस वर्ष यह पावन दिवस राज्य के राज्यपाल महामहिम डा० सम्पूर्णानन्दजी की अध्यक्षता में मनाया गया । सभा के अध्यक्ष श्री केशरलालजी बक्षी ने आपका स्वागत क्रिया । इस वर्ष इस समारोह की यह विशेषता रही कि वर्षा आने पर भी हजारों की संख्या में नरनारी शांतिपूर्वक बैठे रहकर इस पर्व के कार्यक्रम को मन्त्रमुग्ध होकर सुनते रहे । महावीर निर्वागोत्सव
अपने शिशुकाल से ही इस सभा के तत्वावधान में प्रतिवर्ष कार्तिक कृष्णा श्रमावस्या को भगवान महावीर का निर्वाणोत्सव आयोजित किया जाता है । इस वर्ष यह महोत्सव दर्शन शास्त्र के प्रसिद्ध विद्वान तथा दर्शन विभाग, महाकौशल महाविद्यालय जबलपुर ( म०प्र० ) के प्राध्यापक आचार्य रजनीशजी की अध्यक्षता में दो दिन तक समारोह पूर्वक मनाया गया। इस अवसर पर व्यापार उद्योग मण्डल, जैन श्वे० स्थानक वासी संघ, श्रात्मानन्द मण्डल, फ्राइडे क्लब राष्ट्रदूत प्रेस आदि स्थानों पर चर्चा सभाप्रो, विचार गोष्ठि आदि का प्रायोजन किया गया ।
निर्वाणोत्सव पर्व पर प्राचार्य रजनीशजी के अतिरिक्त डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल पं० चैनमुखदासजी न्यायतीर्थ के इस दिवस की महता पर भाषण हुये तथा
श्री दासूलाल एवं प्रसन्नकुमार सेठी ने अपनी मनमोहक कवितायें प्रस्तुत की 1
महावीर जयन्ती समारोह
प्रति वर्ष चैत्र शुक्ला १३ को भगवान महावीर का पावन जयन्ती समारोह सभा के तत्त्वावधान में प्रायोजित किया जाता है । इस अवसर पर भगवान महावीर तथा उनके सिद्धांतों पर जैन श्रजैन विद्वानों के भाषणों का प्रायोजन तथा विशाल जुलूस एवं झण्डारोहण प्रादि का कार्यक्रम सम्पन्न किया जाता है ।
इस वर्ष समारोह के अन्तर्गत महिला सम्मेलन, जुलूम, झण्डा-प्रभिवादन, विचार गोष्ठी एवं ग्राम सभा श्रादि का दो दिवसीय कार्यक्रम सम्पन्न हुआ :
क - महिला सम्मेलन
भगवान महावीर के २५६१ वें जन्मोत्सव समारोह के प्रथम दिन दिनांक ५ अप्रेल ६३, चैत्र शुक्ला १२ को, जैन समाज के प्रसिद्ध सभा भवन शिवजीराम भवन के प्रांगण में श्रीमती सुमित्रा देवी, सदस्या राजस्थान विधान सभा की अध्यक्षता में मनाया गया जिसमें अनेक जैन अजैन महिलाओंों ने भगवान महावीर व उनके सिद्धांतों पर प्रकाश डाला । जैन दर्शन विद्यालय की बालिकाओं के द्वारा एक रोचक संवाद प्रस्तुत किया गया। समाज की महिला शिक्षण संस्थानों द्वारा भजन, गायन, नृत्य श्रादि के कार्यक्रम भी प्रस्तुत किये गये ! इस कार्यक्रम की संयोजिका श्रीमती हीरादेवी जैन थी ।
ख - जुलूस एव झण्डाभिवादन
समारोह के मुख्य दिन अर्थात चैत्र शुक्ला १३ तारीख ६ अप्रेल १६६३ को प्रातः एक विशाल जुलूस महावीर पार्क से प्रमुख बाजारों में होता हुग्रा निकाला गया। जुलूस की समाप्ति पर रामलीला मैदान के विशाल प्रांगण में श्री अम्बुजकुमारजी जैन डिप्टी प्रकाउन्टेन्ट जनरल राजस्थान के कर कमलों द्वारा झण्डारोहण का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ । इस वर्ष सदा को भांति समाज की संस्थाम्रों का पूरा सहयोग प्राप्त हुआ । इस कार्यक्रम के संयोजक श्री हीराचन्द बंद थे ।
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३८
ग-विचार गोष्ठी
विशेष प्रवृत्तियां - भगवान के जन्मोत्सव के दिन दोपहर को समाज १. वीर वाचनालय के प्रसिद्ध सभा भवन प्रात्मानन्द सभा भवन में भारत के
घी वालों के रास्ते में स्थित बनजी ठोलिया की प्रसिद्ध विद्वान, साहित्यकार श्री सत्यदेव विद्यालंकार की
धर्मशाला में सभा द्वारा एक वाचनालय चलाया जाता अध्यक्षता में विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया।
है जिसमें दैनिक, पाक्षिक, साप्ताहिक, मासिक समाचार घ-आम सभा
पत्र पत्रिकायें पाती हैं। - सदा की भांति इस वर्ष भी भगवान महावीर के २. विशेष सभाओं के आयोजन जन्मोत्सव के दिन एक विशाल आम सभा का आयोजन
बौद्धिक एवं मानसिक विकास के लिये तथा महान राजस्थान के गृहमंत्री श्री मथुरादासजी माथुर की
मात्मानों के प्रति श्रद्धांजलियां अर्पित करने हेतु सभा अध्यक्षता में किया गया। राजस्थान के राज्यपाल
द्वारा समय समय पर प्रायोजन किये जाते हैं। इस वर्ष डा० सम्पूर्णानन्दजी ने इस विशाल आम सभा का के मुख्य प्रायोजन निम्न है :शुभारम्भ किया। श्री सत्यदेव विद्यालंकार इस समारोह के (क) गुजरात के वयोवृद्ध महान सन्त क्रातिकारी विचारक मुख्य अतिथि थे। समारोह में राजस्थान के प्रसिद्ध
तथा उच्चकोटि के साहित्यकार मुनि श्री सन्तसैनापी कवि मेघराजजी मुकुल ने कविता पाठ किया।
बालजी का दिनांक ५ मई १६६३ को बडे अचानक अांधी और तूफान आजाने के कारण समारोह दीवानजी के जैन मन्दिर के प्रांगण में मानव के अध्यक्ष श्री माथुर साहब ने भगवान के प्रति श्रद्धांजलि धर्म विषय पर व्याख्यान करवाया गया। अर्पित करते हुये सभा की समाप्ति की घोषणा की। इस
(ख) सैद्धांतिक चर्चा में भाग लेने हेतु आये हये वर्ष इस समारोह की यह विशेषता रही कि सभी कार्य
जैन विद्वानों के सम्मान में तथा धार्मिक विषयों क्रमों में जैन समाज के सभी सम्प्रदायों का पूरा २
पर जनता को जानकारी मिले इस उद्देश्य से सहयोग सभा को मिला।
दिनांक २१ व २२ प्रक्टूबर १९६३ को बडे 6-महावीर जयन्ती स्मारिका
दीवानजी के मन्दिर में सभात्रों के प्रायोजन
किये गये। गत वर्ष की भांति इस वर्ष भी लगभग २५० पृष्ठ
भारत के प्रसिद्ध साहित्यकार श्री सत्यदेव विद्याकी महावीर जयन्ती स्मारिका का प्रकाशन किया गया।
लंकार का दिसम्बर १६६३ में बड़े दीवानजी के इस स्मारिका में भगवान महावीर के जीवन दर्शन एवं सिद्धांतों के अतिरिक्त जैन धर्म, दर्शन, कला, इतिहास
मन्दिर में भाषण का आयोजन किया गया जिसमें प्रादि के विषय में महत्त्वपूर्ण लेख व रचनायें आदि हैं।
उन्होंने भगवान महावीर नामक एक २५० पृष्ठ इस स्मारिका को साहित्यिक जगत के अतिरिक्त सभी
की पुस्तक पं० साहब को प्रकाशनार्थ भेंट की। क्षेत्रों में भारी सम्मान मिला है। जिसने देखा है उसने (ङ) प्रमुख उद्योगपति साह श्री शांति प्रसादजी के जयपर ही मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है। आर्थिक कठिनाई के प्रागमन पर एक सभा का आयोजन बडे दीवानजी कारण जैसी स्मारिका निकलनी चाहिये वैसी नहीं
के मंदिर के प्रांगण में दिनांक १६ दिसम्बर प्रकाशित हो सकती है फिर भी जैसी है वह एक सफल ।
१६६३ को किया गया । प्रयास ही कहा जा सकता है। इसका सम्पादन भी
__ अभिनन्दन समारोह श्रद्धय पं० चैनसुखदासजी न्यायतीर्थ ने किया है। यह
सभा के सम्माननीय सदस्य श्री प्रवीणचन्द्र छाबडा उन्हीं की कृपा का शुभ फल है। सभा उनकी अत्यन्त
के विदेश यात्रा से लौटने पर उनके सम्मान में दिनांक कृतज्ञ है।
२४ नवम्बर १६६३ को बड़े दीवानगी के मंदिर में
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४०
श्रद्धय पं० चैनसुखदासजी की
अभिनन्दन समारोह श्रद्धय अध्यक्षता में किया गया ।
स्मृति दिवस समाज के मूक सेवक स्व० मास्टर श्री मोतीलालजी का स्मृति दिवस सन्मति पुस्तकालय के प्रांगण में दिनांक १७ जनवरी १६६४ को पं० देवीशंकरजी तिवाडी की अध्यक्षता में प्रायोजित किया गया। इस स्मृति दिवस में जैन भजैन लोगों ने काफी संख्या में भाग लिया । सभा के इस कार्यक्रम से प्रेरित होकर स्व० मास्टर मोतीलालजी की स्मृति में एक उपयुक्त स्मारक बनाने तथा सन्मति पुस्तकालय को अधिक विकासोन्मुख बनाने के अभिप्राय से एक समिति का गठन भी हुआ। जैन कर्मचारियों के लिये सुविधा
राजस्थान में सरकारी कार्यालयों का समय प्रातः ६ बजे से सांयकाल साढे ५ बजे तक का हो जाने के कारण शरद ऋतु में सूर्यास्त जल्दी होने से जैन कर्मचारियों को अपना सायंकालीन भोजन रात्रि से पूर्व करने में बडी कठिनाई होने लगी थी। सभा ने सरकार का ध्यान इस ओर प्राकृष्ट किया । फलस्वरूप राज्य सरकार ने आधा घण्टा लन्च समय का उनके लिये कम कर सायंकाल में साधा घण्टा जल्दी जाने की नवम्बर मास से जनवरी मास तक प्रति वर्ष के लिये घोषणा की। सभा राज्य सरकार के इस सहयोग के लिये प्राभारी है । श्रद्धांजलि एवं शोक
प्रसिद्ध जैनाचार्य मुनि श्री गणेशलालजी महाराज के निधन पर सभा द्वारा श्रद्धाञ्जलि अर्पित की गई। हिंसक प्रवृत्तियों का विरोध
महाराष्ट्र सरकार द्वारा देवनार में खोले जाने वाले बूचडखाने का एक प्रस्ताव द्वारा विरोध किया गया।
पंजाब सरकार द्वारा बच्चों को पौष्टिक भोजन के लिये झंडा स्कूल में वितरण किये जाने की योजना का विशेष दिया गया ।
राजस्थान सार्वजनिक प्रन्यास अधिनियम
इस संबंध में एक स्मरणपत्र द्वारा सरकार का ध्यान भेजे गये प्रावश्यक सुझावों की घोर शीघ्र प्रादेश प्रसारित करे, निवेदन किया गया ।
संस्था की आर्थिक स्थिति
संस्था की आर्थिक स्थिति सुदृढ नहीं है । सदस्यता शुल्क केवल मात्र २५ नया पैसा वार्षिक है। इसके अतिरिक्त जयन्ती पर समाज से अधिक सहायता प्राप्त की जाती है। संस्था को समय समय पर सार्वजनिक कार्यक्रम व अन्य प्रकार की अनेकों प्रवृत्तियों का प्रायोजन करना पडता है । प्राय के इन अल्प साधनों में यह सब करना अत्यधिक कठिन हो जाता है । परिणामतः हमेशा ही प्रार्थिक विषमता का सामना करना पडता है । इन कठिनाइयों के कारण संस्था उतना काम नहीं कर पाती जितनी की इससे अपेक्षा की जा सकती है।
आभार प्रदर्शन
सभा को समाज के सभी सम्प्रदायों की संस्थानों, कार्यकर्ताओं एवं सहयोगियों का पूरा पूरा सहयोग मिला है जिसके फलस्वरूप ही उसे अपने कार्यों में सफलता प्राप्त हुई है। उन सभी के लिये यह सभा उनका साभार प्रगट करती है। स्मारिका ग्रन्थ की तैयारी में तथा इसके लिये साधन व सामग्री जुटाने में जिन लेखकों कवियों, विज्ञापन दाताओं यादि से सहयोग व सहायता प्राप्त हुई है उन सब के प्रति सभा प्रभारी हैं। विशेषतौर पर बाबू छोटेलालजी कलकता, मूलचन्दजी पाटनी बम्बई, प्रवीणचन्दजी छाबडा, हीराचन्दजी पाटनी, जुबली ब्लाक वनर्स हेमेन्द्र जैन बगडा, केवलचन्दजी ठोलिया, मालयन्दजी जैन, विजयचन्दजी वेद, चतुरमलजी अजमेरा पं० मिलापचन्दजी आदि का नाम उल्लेखनीय है।
यहां मैं अपनी प्रवन्ध समिति के सभी सदस्यों की सराहना करता हूं जिन्होंने सभा के सभी कार्यों में पूर्ण सहयोग प्रदान किया है जिनके कारण सभा अपने कार्यों में सफल रही है विशेष तौर पर श्री बेशरलालजी बक्षी के हम अत्यन्त कृतज्ञ हैं जिनके नेतृत्व में सभा फली व फूली है और धार्थिक सहयोग प्रदान कर सभा को सहायता पहुँचाई है । अन्त में वर्तमान कार्यकारिणी के सभी सदस्यों का पुनः प्राभार प्रकट करता हूं और और माशा करता हूं कि उन इसी भांति नवनिर्वाचित कार्यकारिणी को पूरा पूरा सहयोग मिलता रहेगा। •
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४१ सभा की नवनिर्वाचित कार्यकारिणी
प्रध्यक्ष
उपाध्यक्ष
१. श्री केशरलालजी जैन अजमेरा २. श्री केवलचन्दजी ठोलिया ३. श्री माणिक्यचन्द्रजी जैन ४, श्री रतनलालजी छाबडा ५. श्री ताराचन्दजी गोदीका ६. श्री देवकुमारजी साह
मंत्री संयुक्त मंत्री
कोषाध्यक्ष
सदस्य
१. श्री सूरजमलजी साह २. श्री राधाकिशनजी जैन ३. श्री हेमेन्द्रजी जैन ४. श्री ताराचन्द्रजी साह ५. श्री सुरज्ञानीचन्दजी लुहाडिया ६. डा. कस्तूरचन्दजी कासलीवाल
७. श्री प्रोमप्रकाशजी बाकलीवाल ८. श्री कुबेरचन्दजी काला ६. श्री प्रकाशचन्दजी पाटनी १०. श्रीमती कपूरीदेवीजी गोधा ११. श्री कपूरचन्दजी पाटनी १२. श्री बलभद्रकुमारजी जैन
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
Lord Mahavira and the Mission of Jainism
THE
HE great importance of Lord Mahavira for Jainism is emphsized by the mere fact that the very name 'Jainism' derives from Jina, the victor as Lord Mahavira was called. He gave to Jainism the final shape for the current cosmical age. He hailed from a Kshatrya family in which the aristocratic tradition was integrated by a kind of simple democracy based on the feeting for human dignity. Bihar was a picturesque background to a religion of which Lord Mahavira was the last great prophet. If one travels through Bihar and visits Pavapuri the place where Lord Mahavira was born, and the nearby laketemple, where he, obtained omniscience, if one visits Rajgiri, where the lecturing-hall of the Tirthankara was built up by the devas and where he preached to men and animals, one feels an atmosphere of saintliness. And one feels deeply moved if one climbs barefooted in the Parashnath-Hills, where most of the Tirthankaras obtained omniscience.
In Bihar one feels that the 24 Tirthankaras have cosmic importance and that the number 24 reflects the rhythm of time taken as a cosmic entity. And it is certainly not a mere accident that we find this number of 24 elders in that
Lothar Wendel
Count Hermann Keyserling Library, Pilani (Rajasthan)
book of the bible which is revealing us the great world drama, filling our hearts with awe and admiration of the glory of God-in Jainism God is equal to Jiva considered in difference to Buddhism as substance which is immortal, blissfull and of unlimited powers.-These Tirthamkaras belong together like the ages and their teaching is one. But to our human eyes the most conspicuous morg them are the first and the last : Lord Rishaba Deva with the sign of the bull and Lord Mahavira, with the sign of the lion. Lord Mahavira was a contemporary of Lord Buddha who lived also mostly in Bihar and as late Dr. Vate suggests they might have repeatedly met in rainy-season. Nonetheless Jainism is quite independent from Buddism inspite of some. fartures they have in common.
What are the essential features of Jainism? One of its most conspicuous features is certainly its very old age. Instead of a single founder who is a historical person in its usual sense, in Buddhism, when 24 Tirthankers, who descended to the earliest times of humanity.
A renowned Jain Scholar S. C. Diwakar emphasized the antiquity of Jainism in a paper read on the 5th
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
January, 1964 at the conference of the third striking element of Jainism orientalists at New Delhi. He refers is Jain logic with its finest flower the particularly to the excavations made at Sapta Bangha, which, according to traMohanjadaro and Harappa : "..... the dition is ascribed to Lord Mahavira. pose of standing dieties on the Indus We have here a good introduction in scale resembled the pose of standing form of a book 'Anekantavada' by Shri image of Rishaba Dev obtained from Harisatya Bhattacharya published by Mathura. The feeling of abandonment Shree Jaina Atmanand Sabha, Bhawnathat characterises the standing figures gar. The number seven has here of the indus scale, three to five (Plate a particular importance. "The Jainas'. II, I. J.H., with a bull in the foreground so the author points out, 'urge that the may be the prototype of Rishabha-- doctrine of the Sapta Banga does not Rishabha has been spoken of as Yogish- mean that a thing is possessed of only wara by poet Jinsena in his Maha- seven attributes or that it has only purana. Therefore, the Indus valley seven modes. It recognises on the excavated material glaringly estab- contrary that the thing has an infinite lishes the fact that the Founder of number of attributes and modes but Jainism belonged to the pre-Vedic holds that if one of these attributes or peried."
modes is considered in relation to the The second striking feature is Jain thing, the thing would present seven Cosmology and in this context its aspects, neither more nor less." conception of soul. Scholars like Let us sum up : The first mentioned Glasenapp Kirfel and Schubring and striking feature of Jainism is its hoary among the younger generation Josejh antiquity. What does this mean to Kohl from Wurzburg University in modern man living in a state of contiGermany and among Indian Scholars nuous change ? Jainism, at least in its recently Muni Shri Nagrajji in his ex- deeper layers, offers, something percellent book 'Jain Philosophy and manent which has stood the test of time Modern Science' have published very and helps humanity to regain its inner acute treatises on this subject. Parti- balance. cularly the book of Muni Shri Nagraj The second striking feature is the shows to what an extent and what a majestic cosmology, developed by the great authenticity the ancient Jain Philo- lain Philosophers. The knowledge, sophers have expounded the subtle gained at a time when there were no element of the Universe thousands of scientific instruments, was obtained by years ago, when the seeds of the an unique strength of intuition. Today science were not even sown. Even the merely calculating function of the today', so the author assures, 'Science mind is overstressed and leads often is just staggering on the ladder of to narrowness, We need a new balance knowledge to reach that stage.'
between calculation and intuition and Published by P. D. Divakar, Nayayatirth, B. A., LL. B.
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
here Jainism might have a great adopt a Jain philosophy on the basis of mission.
any authenttc religion. So I could The intuition was stimulated by a write to late Prof. von Glasenapp, when system of logic which keeps touch with he once inquired about my philoso. reality and sacrifices mere formality phical development, that I was a to it.
Christian with a Jain Philosophy and In our world, striving for unity, but that I did see here any contradiction. handicapped by all kinds of sectari- Glasenapp thought this information imanisms which is the ransam of speciali- portant enough to mention it in his sation - the Jain philosophy of non- book 'Das Indienbild Deutscher absolutism could have a great practical Denker' (The India Image of German importance. In the sense of teachings Thinkers), in which he points also-see of Lord Mahavira, my teacher Champat the chapter, 'Indian Religious ComRai Jain applied Jain logic to the science munities in Germany'-to the Indian of comparative religion, with the result Library (Champat Rai Jain Library) at it was possible to his discipline to Bad Godesberg.
१. जैनियों के अहिंसा तत्त्व की प्रशंसा में निम्न महानुभावों ने लिखा है कि
इसका प्रभाव अजैनों पर पड़ा है जैनियों के उद्योग से बहुत सी पशुबलि
बन्द हुई है। २. उनका (जैनों का) साहित्य तो बहुत ही गम्भीर और देखने योग्य है । ३. जैन कषियों ने हिन्दू व मुसलमान राजाओं के साथ बहुत काम किया है। १. बड़े साहित्य भण्डार के स्थापित करने वाले जैन लोग हैं।
-भि० जष्टन हर्टन, जर्मनी
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
The Role of the idea of Action (Kriyavada) in Jaina Philosophy
Dr. G. C. Pande University of Rajasthan Jaipur.
THE earliest Jaina texts like the Avara. The acceptance of the reality and
inga, Uttarajjhayana, and Suyagada crucial significance of 'action' has faringa are marked by a strong emphasis reaching philosophical implications. on the notion of Kriya or willed action. Real action implies an acting person That man has freedom or will Purusa- who changes and yet persists and a kara, Visya) sufficeint for working out similar mutable but ordered world of his salvation was claimed almost as a other persons and things. The being distinctive feature of Jaina faith and of things given in experience must be contrasted with rival doctrines espe- modifiable and hence imperfect and the cially of the Ajivakas who presented an nature of the soul moreover perfectible. extreme contrast. This dominant moral Multiplicity and change must be real attitude continued as a persistent back- by the side of identity and persistence. ground in which alone some of the Moreover, to make purposive action characteristic features of later, systema- possible tentative and fragmentary tic Jaina philosophy can best be under knowledge, which is all we usually stood
have in the contexts of practical Kriya has to be distinguished from
urgency, must be held to have a defiKarman. Kriya has its ultimate source
nite though limited reliability and must in the inherent and inalienable power
be regarded as revealing real though of the soul (Jiva). Karmiin, on the other part
partial aspects of things. hand represents a subtle physical po- The Jainas accepted and formulated wer which hinders, envelops and binds these iniplications in the course of their the soul. One may describe Kriya as the philosophization. Thus as early as the activity of the soul, Karman as its passi- Ayaramga the Nirgrantha is declared to vity. Moral and spiritual effort consists be a believer in the Soul, the World and in repelling (Samvaru) and expungingWill (Agravai, loyavai, Kirigavai). The (Nirjara) the influence of matter by the classic definition of reality "Utpadaforce of will. The heroic affirmation of vyagu-dhrouvya suktam sat" follows in the freedom of the soul over the impri- this same direction, and the logical soning mould and world of matter is doctrines of anekanta, naya and Syadvada Tapas and it makes one ultimately represent its culminating refinement. Victor Gjina), Worthy (Arhant), and Self- Jaina logic has often been misundersufficient (Kevalin).
stood by its critics as implying a denial
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
of the law of contradiction and hence unavoidable sickness of language' or as itself contr adictory. The point of the application of a purely negative jaina logic is philosophical viz., that the dialectic but to discover the empirical really genuine way in which a thinker and logical conditions which lend them should seek knowledge is not by crea- plausibility and value. ting a private or purely hypothetical world which achieves formal consis
Different actual philosophies are tency by depending entirely on a
thus seen to be true within different
abstract worlds. Thus we can have process of arbitrary definition and the
a Vedantic philosophy of Being or a exclusion of empirical significance, but
Buddhist philosophy of Flux. Jaina logic by remembering the complex and
conceds to both a partial truth and is variable nature of reality and thus
basically opposed to the separation holding that every judgment about it
of 'semantic' and 'syntactical questions. where abstraction necessarily enters, is
Alternatively, Jaina logic is like the meaningful and true only under certain
concrete Hegelian dialectic which rests conditions. Thought cannot afford to
on the principle that 'tout comprendre become a Procrustean bed, especially
C est tout pardonner'. Thus Beingwhen Reality is Protean. This is the co
Non-being Becoming as the succession mmon assumption of scientific as wellas
of Being and Non-being Becoming as historical thinking. In illustrating the
the unintelligible Union of Being and 'self-contradiction' of Jaina logic as
Non-being, illustrate the first four steps 'Sctosnavat' 'Sankaracharya' Comy ad B. S. 2. 2. 33) has unwittingly shown its
of the Sapta-bhangi naya. Svabhavavada
which accepts the unintelligible unistrength. In experience, 'heat' and
verse, Sunyavada which denies it and 'cold' are relative terms and by adop
Mayavada which assigns to it a limited ting two different standards the same
reality but a deeper unintelligibility, thing can be described as 'hot' or 'cold'.
can be given as illustrations of the last The great Vachaspati Misra realizing
three steps of the seven-fold logic. this weakness of the Master's illustration has to step outside empirical know
With an equal interest in the real ledge and adduce Brahman and Prapa“ process of change, while modern scie. richa.as examples of absolute Being and nce turns to the measurement, correnon-being.
lation and control of physical phenoBasically, rational thought seeks mena, the Jainas turned to the analysis practically significant knowledge. In of the stages and means of the soul's understanding major philosophies the bondage and liberation from physical important thing is not to bring out their phenomena. Science leads to the maniobvious mutual inconsistencies and pulation of Nature through a physical serious inner inconsistencies are either mechanism; Jaina askesis (Tapas) leads rare or only apparent due to an to freedom from mechanism,
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
JAINISM IN MODERN TIMES
We humans, the best of His creation, are imperfect and not everlasting. We are born, we grow, live and die. Birth is an event of rejoicing as death is that of gloom and dismay. At birth we thank
TAN'S achievements in the realm
of technology are almost baffling. So baffling indead are they, being so proliferative in character, that the human mind itself is assailed with doubts whether it is man himself who is the creator and destroyer of all life or is he merely an instrument. Curiously enough this spell of doubt does not last long. A certain realisation dawns upon him inspite of lurking scepticism that howsoever clever he might be in shaping and reshaping fluid and solid matter to raise his living standards, he remains in the final analysis, an impotent entity, in the face of even a puny challenge, hurled at him by nature, to thwart his resolutions. Despits this, man goes on advancing by dint of his prowess, ingeniousness, his art and craft. This advancement, however, is mundane. There is a saying: "Man does not live by bread alone". What does man want besides his crust of bread which symbolically means his material well-being? Mentally man will
For a western, toned up in a reli
be sick if he neglects his soul, his religious philosophy which lays stress on life affirmation, it is no easy matter for gion, his God. him to reach the roots of an oriental philosophy like Jainism, which origi. nates with life negation and tends to flow down into the shoreless oceans of Nirwana. If he does he would either accept it and discard his own beliefs
• Wilfried Noelle, Ph. D. Hony. Profeessor
God and at death we do say "they will be done" but invariably we are left in a perplexed state of mind. We humans philosophise differently about death, the ultimate end because we follow different religions and we interpret everything, both blessing and disasters, according to the teachings of the religions we are initiated into from birth or the religion of our adoption.
In this article we discuss some of the tenets of Jainism, and their short or long range influence on the mind of man. The writer in the course of his stay in India came into contact with many followers of this religion, who held with him many religious discourses. This led him to study this religion. at some length. Jainism he would say is one religion which claims to have thrashed the problems of life and death in no dogmatic but in quite a rational way although that scope was not exhausted fully.
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
or strike a balance and arrive at a describe Jainism as a scientific religion compromise. The Nobel laureate Albert because "right faith, right knowledge Schweitzer has also made a similar and right conduct with compassion as observation in his book "Indian Thou. its basis", being the qualities of such a ght and its Development". He said, religion were present in it. But what ''the real significance of a disputation is essentially intriguing is that a subtle between Western and Indian thought religion that jainism is and which in lies in the fact that each becomes aware unmistakeable terms seeks to lift the of what constitutes the inadequacy of human mind to heights of celestial both, and is thereby stimulated to turn purity should remain confined to a in the direction of what is more comparatively small section of the Indian complete".
community. Why is this religion not When one thinks of Jainism, one's
expanding and bringing more and thoughts irresistibly travel towards that
more people into its fold ? Perhaps it magic word which, like the Ramayna
would not be far too wrong to say that
the reason for this religion's limited passes on from one epoch to another. Ahimsa is that word. Ahimsa which
following was the presence of an according to V. S. Apte's Practical
overdose of rigidity of rituals. In fact Sanskrit English Dictionary signifies
some of the outward symbols, which harmlessness or abstinence from giving
people notice in everyday life, as for
instance strictly orthodox jain munis pain to others in thought, word or deed is not only to be practised for its own
sporting a piece of cloth and covering sake throughout the span of human
their faces partly tend to make them
somewhat inquisitive. The unthinking existence but is also to be directed
might dismiss the whole affair as a towards a definite objective. That
mere mockery of religion and a sign objective is the attainment of Nirvana or Moksha - the ultimate goal of life with
of fanaticism. The serious-mainded
among them would, however, take it in the followers of jainism.
a different light. They would ask themThere is a book on Jainism which says selves wheiher the followers of Lord that modern age of science had lost its Mahavira who preached compassion faith in Religion" because "Religion" for all life were indeed so good as not itself had lost its scientific foundation to hurt even the tiniest of creatures in According to Einstein, "Religion and thought, word, or deed. The crucial Science do not only not stand in con- question is whether it is at all possible flict but actually complete each other'', to translate this nobility into actuality. So a rational religion is essentially a If we think hard on this or any other scientfic religion. But no religion can relevant question we would be drawn become scieniiftc merely on insistence; to the conclusion that one sign of a it must have a scientific approach. living religion is that its lofty ideals do Science is not static; experiment and not hamper the mental growth of its correction is inherent in it. It is good to followers to the exent of isolating them
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
from other members of the human race. In fact it should offer solutions to all vexed problems arising in different epochs. It should, for example, be capable of breaking the physical national boundaries in order to communicate with others. In short it should not become the monopoly of a limited number of people but a valuable heritage of mankind itself.
The teachings of Jainism prepare and impart training to the votaries of this religion as to how to live a pious life on earth in order to lighten the burden of the soul to such a pitch that it escapes tha pull of the vicious circle of life and death. It is an intricate process a part of which revolves round self-immolation. This in itself is not attractive enough and cannot hold out an absolute appeal to a rational being. But Jainism has one outstanding feature of its whole gamut of philosophy and that is Ahimsa. The philosophy of Ahimsa has a certain amount of fascination provided it is shorn of its rigid application. Jains would not take to agriculture because it infringed the tenets of their Dharma. Can they afford to maintain the same self-imposed aloofness from the defence of their country in a time of crisis? It is, therefore, imperative that even Ahimsa should be interpreted in a manner that it transcends its narrow bigotry and becomes an inter-religious catch-word. Today we need an Ahimsa which could penetrate into the hearts of those who believe and indulge in perpetuating racial and colour differences among the humans. To kill is by all standarads an awful crime but to spread hatred which makes the hated,
especially if they happen to be weak. and defenceless, live in constant dread and peril is still worse. Let Jain religious leaders give a modern interpretation to Jainism and make other people aware of its import. Jainism was created to spread the idea of peace when brutality was much in evidence. In fact brutality has never vanished from human society although emphasis of values have undergone a change. A religion which has its roots in peace has a prior right to go to the people, for people do not come forth themsellves to embrace. Religion like a new idea is taken to them. It is not to suggest that people of other faiths be proselytised but there is a good deal of scope to give them food for thought, It is not quite charitable to say so but Ahimsa, which is the key-word of ancient as well as modern India, would have almost shrivelled into a tiny shell had it been denied a new lease of life at the hands of Mahatma Gandhi himself. For the Mahatma Ahimsa could be equ ated with God. These were no empty words when he wrote in his autobiography "My uniform experience has convinced me that there is no other God than truth. The only means for the realisation of Trust is Ahimsa". Indeed the Father of the Indian nation put it to test many times during his freedom struggle with the British Power and emerged triumphant. He believed in its efficacy.
For the Jain community it is a matter of great pride that it was the founder of their faith, Lord Mahavira, who, having been deeply distressed by animal sacrifice built up a positive resistance to stop it. It could not have been a simple
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
affair to stand against powerful adver- organised effort is made to give the saries who quoted the vedas in support world a modern interpretation of of their indulgence in animal sacrifice. Ahimsa. The message of Ahimsa before Lord Mahavira, who, today, is respected being exported should spread far and and worshipped by his followers, led a wide in the land of the birth of Lord life of dedication to a great cause. He Mahavira. The foreigners who come fought his battles with many weapons and see India do not find that the conand the best in his 'armoury' was cept of Ahimsa is being pursued with Ahimsa,
an iron will. When it becomes evident Times have changed and so have here in this country the whole world values, No religion,
will look to it and draw sustenance great its founder, can serve from it. humanity if its followers see only the Let it not be forgotten that Manusamtrees for the wood. Academic discus- hita, which has a high place among the sions on vegetarianism and Moksha Dharmashastras says that Ahimsa is will not be of much avail unless an common duty of all!
“Jainism is one of the great religions of the East which has moulded the lives of countless people to a higher plane of mental discipline and purity of thought. I am much attracted by the teachings of Lord Mahavir."
AHMED ALI Former Dy. High Commissioner
PAKISTAN
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
WAR & AHIMSA IDEOLOGY
• Dr. Bool Chand
Director, Ahimsa Shodh-Peeth
THERE are those who argue that relief and the urge to return to 'normal'
e aggressivness being a fundamental as quickly as possible. In this cycle instinct of man, war is an inevitable the adjustment of individuals and groups factor in human affairs. With such to the conditions of war has to be made thinkers Ahimsa philosophers do not perforce. The psychological patterns agree.
of violent human behaviour such as are Ahimsa believes, first, that aggressi
noticeable in times of confict are neither veness is merely a derived instinct,
a natural nor a normal condition of and secondly, that even if aggressi- men. veness of man were regarded as a Permanent Elimination of war primary instinct it is quite easily possi- Living in a world in which violence ble to give to it an outlet that would between man and man is an unceasing provide personal satisfaction and yet fact of life, however, Ahimsa philosonot destory society. A sociological phers have naturally concentrated analysis of war shows that war is in their thought on the analysis of the reality a stage in a cycle, the cycle of causes of violence. At the same time war, peace and war again. In human the ethos of their integral thinking has societies this cycle takes more or less been naturally directed to a society distinctive forms. In the beginning a where violence would disappear and strain or problem occurs in the normally perfect harmony and integration would peaceful and accomodative relations of rule. sovereign states, this is followed by the It is interesting to note that even the development of what is called the war Marxists have been doing their thinking fever; after that hostilities begin, when on the same lines. They have sought military and international policies come to explain human conflicts in terms of to overshadow domestic ones and economic interest and then concentrated restrictions on free speech and freedom their attention upon the ultimate establiof assembly are willingly accepted; shment of a class-less non-vioient the newly developing situation is found society of the socialist civilisation. The to have effects on family, education, assumption of economic class interest as recreation and other phases of commu- an explanation of all violence in human nity life; ultimately there is the termi- society appears wholly unrealistic to nation of war with a general sense of the Ahimsa analysts. But a society
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
based upon the idea of common good it is quite clear that there can be no would be clearly non-violent, from real elimination of war in the internawhich war would be eliminated for tional sphere, however desirable it ever; that is the view of Ahimsa philo- may be on humanitarian and other sophers as also of the Marxian socia- grounds. lists.
Conditions of Parpetual Peace Slavery and war have bean regarded The great German philosopher as the two cancers of civilisation by all Emmanuel Kant had stated in an essay thinkers from quite early times. The on 'Perpetual Peace' written in the conquest of slavery in the early ninete. year 1795 that the pre-requisites of enth century appeared to be a good international peace are that every omen for the prospect of a campaign nation should have a republican constiagainst war. In this campaign against tution, that each people should possess war neither the unrestricted economic national self-determination, that there individualism of the Liberals nor the should be a general disarmament, and totalitarian control of economic activi- that there should be a federation of ties by the State of the Marxist school states agreeing to abolish war for ever. was able to achieve any real success, Kant's programme is as realistic today although both had been preached as as when he had formulated it, and it panaceas for over a hundred years. appears to be as far from the realm of At one stage the modern western spirit attainment. Kant had felt that the fedeof democracy gave mankind a new ration of states will have to take the form hope, but it was soon realised that even of a world republic. this hope cannot be effectually fulfilled
Ahimsa thinkers feel quite emphatiuntil an international state is established.
cally that beyond all questions of natioAs a result of the two World wars, the nal self-interest every people has a number of the great powers has been
moral obligation to humanity as a whole. reduced from a fluctuating plurality to Ahimsa programme is and has to be just two, namely the U.S.A and U.S.S.R. international in character and aim. It is but two is always an awkward number only when a majority of the world's in any international balance of powers. population come to see the underlying Nor are the Russian and the American principles of Ahimsa ideology that war people very well equipped for under- as an institution and also as a weapon standing each other. In a world tech
for the settlement of international nologically unified, the competition for
disputes can be really and permanently power between the U.S. A. and the abolished. U.S. S. R. is going to be decided in the While aiming at the permanent abolong run by the suffrages or those who lition of war, however, Ahimsa does are today reckoned as the undevelo- not preach unthinking pacifism, It ped or backward nations; but so long realises that world peace involves the as the competition for power continues, private renunciation of war on the part
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
of an immense majority, and it does not therefore preach that men and nations should agree to submit to being the booty of others who do not renounce war. Nor does Ahimsa countenance cowardice of the running away from dangers, should dangers come one's way in the pursuit of the path of peace and virtue, War itself may well be such a danger; and when involvement in a war takes place, Ahimsa thinkers recommend that all rational steps should be taken with a view to sustain the morale of the army and the civilian population at the highest level.
Modern War
Ahimsa thinkers have not failed to see that mdoern war involve the complete mobilisation of manpower and of the economic and industrial resources of the community. The distinction which used formerly to be made between the home front and the battle front has almost completely disappeared today. This is true with particular force in the countries in which the fighting actually takes place. In any future war, if the present lethal weapons are used, the industrial and production centres may become prime targets even more prominently than the locus of military forces. The need for sustaining civilian morale in war time, therefore, becomes particularly great.
a
Psychologists have analysed that among the elements which help to sustain moral at a high level in democracy, there are (1) sound physical and mental health, marked by zest, ability to strive, a sense of humour and a purpose in life; (2) sound religious
12
and spiritual values, involving the presence of a goal or aim to fight for and confidence and faith in ourselves; (3) realistid understading of our past and present situation, the gains to be obtained from victory and the evil consequences of defeat: and (4) a sense of solidarity, including co-operation with all classes and groups in the commu nity. Ahimsa thinkers support the cultivation of the above attitudes and strongly warn against apathy, distrust, scepticism and the acceptance of the enemy values.
Ahimsa thinkers further recommend that all help should be given to ensure that the effects of a total war on family and on children and youth are the least harmful, and also that when war ends the return of the armed forces and civilians to peace is least rugged. In our own country, Ahimsa leaders have strongly recommended the formation of shanti senas for the above and like purposes. Weapons of War
Recognising, however, that the waging of wars may be unavoidable for defensive, If not for offensive, purmmend that even more important than poses, Ahimsa philosophers recothe elimination of war is the need to fight it by means which are free from violence. When Mahatma Gandhi had to wage a war against the British with the object of freeing the country from their domination, he employed for this purpose only non-violent weapons, including fasting, non-cooperation and boycott of things British. The waging of war by such means necessarily invo
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
13
Ived great suffering for the whole peo- he made on 29th August 1939, Mahatma ple. This suffering was borne by all willi- Gandhi had said that he would advise ngly and patiently, with the result that Hitler to use Satyagraha weapons in the waging of the war left no scars which order to gain his just demands from remained unhealed. Despite the waging the foreign powers of Europe. There of a relentless war between the Indians are others who think that the use of and the British, the ralations between satyagraha weapons alone in an interthe Indians and the British people are national war would be unwise. Our today cordial and happy. Ahimsa own Government, although generally philosophers ascribe this happy result committed to pursuing the policies for wholly to the fact the weapons used on which Mahatma Gandhi, the Father of the side of the Indians were non-violent the Nation, had stood, is, for instance, (satyagraha).
finding it difficult to do away with the How far it is possible to employ the armed forces and to forsake recourse weapons of satyagraha for waging awar to arms. Among the Jain and Buddhist against a foreign power in our present rulers in history also the same diffetransitional stage, is a question upon rence of view is noticeable as evidenwhich Ahimsa thinkers are not quite ced by the practice followed by, for agreed. There are those who feel that instance, Ashoka and Kanishka among satyagraha weapons can be as effectual the Buddhist rulers and Samprati and and powerful against foreign aggressors the rulers of Rajasthan in medieval as against domestic ones. In a statement times among the Jains.
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
THE ANCIENT TOWN OF RAJORGARH
Dr. Kailash Chand Jain Alwar
DAJORGARH, the old capital of have founded it after the seventh cen
ILBadagurjaras, is a place of great tury A. D. The Baghola embankment. antiquity. It is situated on a lofty range which spans the valley near the palace of hills 28 miles to the south west of is believed lo have received this name Alwar. It is a large fortified city and from him. In course of time, the rulers was once inaccessible. In the tenth of this place became feudatories of the century A. D. it was known by the imperial Pratiharas of Kanauj. In 959 name of Rajyaputra' but it began to be A. D.. Mathanadeva was governing this called Paranagra in mediaeval times. place as feudatory of Vijayapaladeva It appears that the town Paranagara of Kanauj. His predecessor was Savata derived its name from the Jaina Tirthan- residing at Rajaur. Ajayapala and kara Parasanatha. A large number of Lachchha are known to have ruled over Jaina monuments found at Rajorgarh this place in the 10th century A. D.3 prove that it was a great centre of Jain- Ajabgarh, a place of great antiquity ism. Alwar in the neighbourhood of in Alwar district, seems to have been Rajorgarh was also the famous Tirtha of founded by Ajayapala. Lachchha is said Ravana Parsvanatha in medieval times. to have constructed an old tank called In this way, Paranagara may have assu- Lachoro. An inscription of 1152 A. D. med such name.
refers to the reign of Prithvipala. Most Rajorgarh was ruled by the Bada probably, he is a Badagurjara ruler. Gurjara rulers in early times. It is said The badagurjara rulers of Machari who that Bada Gurjara Raja Baghasimha started to rule from the 13th century, founded this town in about 145 A. D.?
were descendants of the rulers of RajoThis time seems to be doubtful because
rgarh. Matsyadeva started his separathe Bada Gurjara Pratiharas actually
te dynasty at Machari. began to rule from the seventh century After the Badagurjaras, Rajorgarh A. D. Therefore, Baghasimha may was occupied by the Khanzadas. From
1. EI, III, p. 263. 2. ASC. XX, pp. 121-122. 3. EI, III, p. 263. 4 Marg. March, 1959. p. 63. 5 ARRMA, 1919, p. 2.
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
15
them; it was conquered by the Mughals. midal domed temple, richly decorated The importance of this place continued with figures. The central structure of up to the eighteenth century A. D. this temple is ancient. The mandapa because there is a gateway of the city of the temple has four central pillars that had been built by Jayasimha, Raja over ten feet in height. These pillars of Jaipur in 1689 A. D. The walls of the are found 16}" in diameter. They are fort are attributed to Madhosimha Raja exquisitely sculptured with Nayikas and of Jaipur, who reigned from 1760 A,D, with frescos of musicians and dancers. to 1718 A D. He also constructed the The garbha-griha contains a black stone fine tank Madhu Tala at the foot of lingam. On the south face of the the hill. Its importance declined when temple, there is an image of Siva with the capital shifted from this place to eight arms. To the east is one of the Alwar.
most interesting image of Surya riding As Rajor became a great centre of a chariot drawn by seven horses. It is saivism under the patronage of the three headed and eight armed holding Bada Gurjar rulers, Mathanadeva, eight objects. Around the main temple, built the temple of Mahadeva and there are innumerable fragments of named it Lachchhukesvara Mahadeva sculptured stone. A bearded three after his mother Lachchuka. This headed figure of Brahma wonderful temple became famous by the name of
Siva as Nataraja, Siva and Parvati riding Nilakanthesvara Mahadeva. Mathande
a bull and an eight armed dancing va granted the village of Vijaghrapata
Ganesa in a dark blue stone are noteka now known as Baghor to this temple.
worthy. This Ganesa image is without Grass, pasture land, trees, grains and
doubt one of the most exquisite in the gifts were given to this temple for meet- country.' ing the expenses of the temple. Certain
The temple of Nilakanthesvara Maadditional taxes or tolls were also made hadeva remained a place of pilgrimage over to the same deity. These taxes
even in the past as it is today. An inswere three vimsopakas as customary in cription engraved on the pedestal of a the market on every sack (or agricultu- broken image of Ganesa in this temple ral produce) brought for sale to the
records its erection by Mahajanas who market; two palikas from every ghataka
had come from Varvara Nagara for the kupaka of clarified butter and oil; two
pilgrimage. For the residence of the timsopakas per mensem for every shop
Saiva saints, there was also the monasand fifty leaves from every Choukka tery of Nityapramodityadeva connecbrought from outside the town.
ted with the Gopaladevi tadagapali The temple of Nilakanthesvara Ma- matha at Chhatrasiva. The administrahadeva is a comparatively large pyra- tion of the grant made by the Bada
6. ASC, VI, p. 77. 7. EI, III, p. 263. 8. Marg, March, 1959, p. 61: 9. ARRMA, 1919, p. 2.
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
Gurjara king Mathanadeva was entrus ted to the holy ascetic Omkarasivacharya, a member of the Sopuriya line,"
Besides the temple of Nilakanthesvara Mahadeva there were several other temples. An inscription dated 997 A. D. records that some members of the Mathura Kayastha family erected the temple of Siva. The name of the queen Prabhavati is also mentioned.10 An inscription of 1152 A. D. in the temple of Chaturbhujanatha in the fort of Rajorgarh records the erection of an image of Chakra Swami by Valhana, Nalhana and others, sons of Delhana, son of Ralhana, a great devotee of Vishnu when Prithvipaladeva was ruling."
Jainism also flourished side by side with Saivism at Rajorgarh in the early medieval period under the Bada Gurjara rulers who were liberal in their religious out look. As the name Paranagara of this town in the medieval times indicates, that it was associated with Parsvanath. Jaina saints used to have performed penances in some caves which are visible in the hills. By their inspiration, their followers constructed magnificient temples and
ARRMA ASC
ΕΙ
10. EI, III, p. 264. 11. ARRMA, 1919, p 2. 12. ARRMA, 1919, p. 2. 13. ASC, XX, p. 124. 14. Ibid.
***
16
placed images in them. Three life size Jain figures are all standing upright." There are also the two jambs of a highly ornamented doorway of temple, besides numerous broken figures all apparently Jaina. In one of the ruined. temples, there is a colossal Jaina figure of Parsvanatha 13 feet 9 inches with a canopy of 2 feet 6 inches over head which is supported by two elephants." The whole height of the sculpture is 16'3" and its breadth 6 feet. It is known as Nowgaza and it is said to have been. built by Bhainsa Mahajana during the reign of some Bada Gurjara ruler. Such a big Jaina image is not noticed in the Northern India.
Most of these Brahamanical and Jaina ruined temples definitely belong to the Gurjara Pratihara period. They appear to have been constructed in a period between eighth and twefth centuries. The Gurjara Pratihara rulers inherited the aesthetic traditions of the Gupta period. They added vigour and dynamism to the Gupta Art. By the integration of these two impul ses, they became successful in creating great master pieces of medieval sculpture for the decoration of their capital and for satisfying their religious zeal.
ABBREVIATIONS
Annual Report Rajputana Museum, Ajmer. Archaeological Survey of India Reports by Sir Alexander Cunningham. Epigraphia Indica
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
अमळरुसबसिरणसखरखरणारघडरवसावलासाचल्लामिाणदिययथासपसिंहमदाम कामक्षण कार्याणदीपपरिपूरियासुजसपसरपसालियसहिसासुपरमाणपरमुसहसहि अभयमस्याहरणलाखायहथणपययणधियवसमयासिरिदेविछायगनुसक्यामाध्यतण यतणुस्कपसछ्वावदाणानियदान मदमसक्ष्यवाहासालकपलक क्लियर। सरीरुडबसणसाहसंघावरसडाणायामाहाकयामेणसरकालाबाउमाहादामाका रुायणायंदिरुसुकत्यक्षायजाणा शसोराणमणजिउतियणखलड निक।
महाकवि पुष्यदंत कृत प्रादि पुराण की सचित्र प्रति का एक चित्र
रकेसिरलाककानाताकेलेषग्रंथसंष्याचारदसस ताईसन्याधिकानेदान्तावादया समसार आतम दरबानाटकनावअनंत सोहैआगमनाममें परमार थबिरतन192MBPादरमो
समान ॥अथसंवत००वर्षकान्त्रिकमा सेनयुक्तपक्षतिथुसप्तमाचंद्रवासरेरासत
हश्रीमानुआत्मापठनापीलीघतोसास्यामदासा मरामाकोश्अक्षर सुलोचूकाकीदानाकरिवूकवकसिध्याना
समय सार की अत्यधिक प्राचीन सं० १७०० की प्रति का चित्र
lain Education International
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
Sramanic Foundations of Ancient Egypt
Ram Chandra Jain Advocate, Ganganagar
LTUMAN society, through its long of the efforts is indicated by the word
I experiences, developed an "N" both in Prakrta and Sanskrta. understanding that in the motly of these The word Samana or Sramana, thus, ever-changing events, there is some- means Right Atmic Efforts. The way thing permanent without which the founded on right Atmic effort is called changes would be unmeaningful. There Sramanalogy. The basic foundations is grief, suffering and woe which none of the science of Sramanalogy are the cherishes; then why bring grief, five well-known tenets of Non-violence suffering and woe to a fellow human (Ahimsa) Truth, Non-stealing, Continabeing, nay, to my being on earth en-nce and Non-attachment, (Aparigraha). joying life. The discovery of the iden- A group of expert mariners, led by tity of something permanent in the plu- great engineers and accompained by rality of living being became the foun- spiritual leaders, under the supreme dation stone of the human society, this leadership of Menes, reached the shore permanentsubstance came to be called
of Egypt in the middle of the fourth Atma or soul. The discovery of soul millenium B. C. He was the first pharawas the result of the dialectical histori- oh the supreme leader of the peoples, cal efforts of mankind. Human efforts who founded the great city of Memphis conditioned the nature of society. The and excavated a lake on the north and efforts of the individual member of the west sides of the city'. He peacefully society reduced the woe and suffering
developed the new country as the interof his fellow beings to the minimum. The pretation of the Slate Palette of Narmer ideal individual efforts began to be indicates, Menes and his people redirected to the end which would membered their original home as Punt. cause the least suffering to the other
The root of the word is Pwn, the T living beings. The second discovery being the usual feminine ending for a of the efficacy of effort became the foreign country? The Pwn may be driving force of the Soul or Atma. This identified with Pani of Bharata. Punt, is what we call Sama in Prakrta and thus means "the country of the Panis". Srama in Sanskrta. Sama in Prakrta' and The Panis of the Ahi sub-race were a Sanskrta? means Efforts. The rightness great seafaring adventurers of Bharata.
* Read hefore the Egyptology Section of XXVIth. International Congress of Orientalists at New Delhi on 5.1.1964.
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
18
Menes, thus appears to be great Pani leader who took his Sramanalogical culture and civilization from Bharata to Egypt.
The Sramanalogical beliefs of the ancient Egyptians are contained in the Book, "The Manifestation of Light" miscalled, "Book of the Dead". The essential parts of this originated in the most ancient times. This book claims to be revelation from Thoth, The oldest monumental evidence of the existence of Thoth is available in the oldest existing Egyptian temple be
longing to the reign of Chefren (Shaf ra) the builder of the second pyramid. He belonged to the fourth dynasty and lived circa 2800 B. C. Thoth is the same as Tet. Tet was son of Menea (Narmer
Sramanalogy reflects itself in political istitutions as a Republican system. Kingship, Ganapatiship and dictatorship is abhorrent to it. Menes was the first great personage at the dawn of the Egyptian history who united the regions of Upper and lower Egypt. Menes, Mena or M'ns means the estab
of Petrie and Breasted) who flourished
circa 2:50 B C. This Thoth was later regarded as essentially the god of learning; he was the master of the words of god, i. e., Hieroglyphies; he was the scribe and messenger of the gods; he was the Measurer of time and the Mathematician. Hesepti or Hesep is mentioned in several copies of the Book as the author of the two of its most important chapters. Thoth or Tet and Hespti or Hesep, the plebians, certainly do belong to the first Dynasty
lishers of the station. He is the first pharaoh. At first no single minister stood between the paraoh and the various branches of the administration. There was no grand vizier. The vizierata was however, introduced under the IV Dynasty12. The Egyptian state was divided into various nomar chs. Nomarch was the local adminis trator resembling the modern pattern. of a provincial executive head. No. march Nesutnefer, of the fifth Dynasty
and lived also during the times of is marked by his title as "Leader of
Menes",
the Land". He led the people; he did not govern them. Perhaps the people selected him and the Pharaoh nominated him. He enjoyed the confidence of the both the pharaoh and the people. The election or selection of this official was dependent on the moral virtues of the incumbent of the office
The Egyptians believed in Soul; its Right Effortiveness, Transmigration of Soul and its final Attainment (Siddhi). They believed in body and intelligence Matter and Spirit. The five Sramanalogical tenets of the Egyptians are given in manifold details in the 125th
chapter of the Book. This chapter "Hall of Truth" is very significant. This chapter contains 48 Sramanalogical tenets of Non-Violence, Truth Nonstealing, Continance and Non Attachmant along with three tenets of RightKnowledge, Right Conduct and final aim of Siddhi".
These Sramanlogical beliefs of the most ancient Egyptians were at the foundations of their political, social and economic institutions.
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
The ideal official was "the silent man" who is respectful of established authority and just, since maat (which means Truth, Justice, Rightness) is part of the world order of which his royal master, the pharaoh is the champion. The silent man is not the meek sufferer, but the wise, self-possessed, welladapted man, modest and self-effacing upto a point but determinate and firm in the awareness that he is thoroughly in harmony with the world in which he lives13. His ideology was not of the coward, it was of the brave. Pharaoh, the supreme leader of the people possessed these qualities almost to at point of perfection. He was the best and noblest servant of the people. Men of high moral fibre, possessing great intellectual and spiritual qualities, self-effacing, having little material possessions occupied high public offices with no hereditary rights. This ancient type of republican society flourished in Egypt itll circa 2200 B.C.
Sramanalogy reflects itself in the social sphere as freedom, equality and progress of the individual and the and the group. This was the age of Tirthankar Mallinah when the first-servants of Egypt, under the leadership of Menes, went from Bharata to their new home. Egypt imported custom of matrilineal descent from her first immigrants. Monogamy was the general custom. The position of women was of equality and prestige. She was economically independent and enjoyed status and freedom. She would attain the position of a priestess. She could go anywhere without molestation. All landed property descended in the female line.
19
from mother to daughter11. Family was the social unit and based on a single individual, was of necessity small. The marriage took place outside the family. Monogamy was cumpulsory. Polygamy was unknown to the inhabitants of the Nile Valley. Women constantly appeared in public, were equal in the eye of law, could ascend the throne and administer the government of the country. The Nobles also limited themselves to a single wife whom one made the partner of his cares and joys and treated her with respect and affection15.
The economic life of the ancient Egyptians was marked with simplicity equality, peace and progress. Though the people voluntarily granted certain privileges to the priests for their specific services, their general living was marked by simplicity. The society generally was composed of middle classes. They lived in one-storeyed or twostoreyed simple houses. Side by side. the houses of the common people, we find massive, huge, spacious and palatial buildings; pyramids and temples. Private houses and community buildings characterise the individual and state-governed economic life of the people. It was a mixed economy.
Egypt in the fourth millenium B. C. was the granary of the civilised world. The peasantry was simple. It was really free from the entire class of restrictions and interferences. It was not vaxatiously interefered by the Government. It had freedom of choice with respect of crops and farming operations". The people were mostly tied to the land which
common
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
20
they tilled for their own living and principles of human freedom, equality for the maintenance of the State, The and harmony. The people lived like Egyptian peasants lived wonderfully brother in peace and happiness. simple and unpretending. The Though the pattern of family earning Egyptians were good and industrious was private, there was no greed and peasants and employed improved vulgarity attached to it as no private methods of husbandry. Their natural wealth was counter-balanced by comintelligence was remarkable as they munity wealth. There was no private were free tenants of their land. They or public display of wealth. The dishad not to render forced labour. They parities in incomes and possessions employed elaborate system of canals, appear to be negligible hence there with embankments, slinves and flood were no classes. There might have gates and constructed reservoirs for been high and low people but that was flood water. Land was extensively not on account of the differences in reclaimed from marshes for cultivation material possessions. That was due to They had abundant surplus yields. the inherent merit in intelligence and
The Egyptian industries were diver- prosperons for want of social tensions. sified and individual owned. The It was an integrated society. most important Egyptian industries
This study of this integrated society were building, stone.cutting, weaving,
of the most ancient Egypt is of prime furniture-making, glass-blowing, pottery, metallury, boat building and
importance in the present age of dis
integration wrought by the Aryan embalming 20
materialism of history that established The surplus agricultural and indus
its begemany over the whole world by trial outputs were stored by the society
the heginning of the first millenium B.C. in the community buildings. It appears
The communist tribalism and the capithat the internal trade was left largely
talist tribalism both, the ultimate dialecin private hands. The international
tical developments of the Aryan matetrade was centrally organised by the
rialism, stand at the brink of self-ancommunity. Pharoh was the wholesale
nihilation. Matter is characterised by merchant. Foreign trade was the royal
division and disruption. It has divided, monopoly.
disrupted and disintegrated the human The earliest immigrants into Egypt soul and the human society. How the peacefully developed their new home. materialistic tribal force displaced the Egypt shows its peaceful development Sramanic free society is an interesting till the fourth Dynasty. Snefru built a chapter of history. The fundamental fleet of sixty ships of one type for way that would regain to humanity its trade purposes. His times were free lost freedom, equality and peace has from wars.
to be rightly understood and follow. This picture of the most ancient This is the imperative necessity of the Egyptian people reveals their basic age. This purpose of the age forces
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
21
upon us the necessity of undertaking sity has to give birth to the science of the Sramanalogical research on an Sramanalogical Research to discover international scale. The imperialistic the principles which may lead to the necessity gave birth to the science of establishment of an integrated society Oriental Research. The human neces- of mankind.
REFERENCE
1. M. D. T. Seth; Pai-Sadda-Mahannavo; 1928; Page 1081. 2. Monier-Williams; A Sanskrta-English Dictionary; 1956, Page 1096. 3. M. D. T. Seth; op. cit; Page 467. 4. Monier-William; op. cit; Page 431. 5. Herodotus; The Histories; 955, Page 138. 6. (1) M. A. Murray; The splendour that was Egypt; 959; Plate LXVIII on
Page 196. (2) R. C. Jain, the Most Ancient Aryan society, 1964; Chapter "Origins"
The plate is given detailed interpretation here. 7. M. A. Murray; op. cit; Page XXI. 8. (1) G. Rawlinson; Ancient Egypt; 1881; Vol I Page 136 Vol II Pages 38, 31, 28.
(2) M. A. Murray; op. cit; Pages 330, 161. 9. J. H. Breasted; Development of Religion and Thought in Ancient Egypt; 1959,
Pages 52, 55, 56, 418. 10. (1) James. B. Pritchard; Ancient Near Eastern Texts; Relating to the old
Testament; 1955; Pages 34, 36. (2) R. C. Jain; op. cit; These tenets have been reclassified and re-organised in
the chapter "The Sramanic Way." 11. G Rawlinson; op. cit; Page 27. 12. H. Frankfort; The Birth of Civilization in the Near East: 1954; Page 84. 13. H. Frankfort; op. cit. Page 87. 14. M. A. Murray; op. cit; Pages 101, 104. 15. G. Rawlinson; op. cit; Vol I Pages 534, 539, 552; Vol II Page 324. 16. G. Rawlinson; op. cit; Vol I Page 439. 17. G. Rawlinson; op. cit; Vol I Pages 151, 153. 18. H. Frankfort; op. cit; Page 90. 19. G. Rawlinson; op. cit; Vol II Page 42, 20. G. Rawlinson; op. cit; Vol I Page 483. 21. H. Frankfort; op. cit; Pages 98, 99. 22. M. A. Murray; op. cit; Page 97.
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
Sramana (Я) Tradition
श्रमण)
and Vedic Literature
We are publishing this article by Dr. S. K. Gupta, as a rejoinder to a paper by Acharya Tulsi Maharaj on Sraman traditions. The author may hold his own views on the subject, but it has not yet been finally accepted by others that Sraman tradition is not Pre-Vedic. Elsewhere in this book itself we have published the article of Mr. R. C. Jain on "Sramanic Foundations of Ancient Egypt". We would like to invite more articles on this subject in our next issue. -Editors
SEVE
EVERAL scholars have tried to show that Sramana () tradition (as () tradition (as identified with the Jain religion) is preVedic. Recently Acharya Shri Tulsi Ji read a paper on this topic before the International Congress of Orientalists held this January in New Delhi, Indirectly Shri R. C. Jain concurred with his views by trying to establish that the ancient Egyptian and Sumerian cultures. Sramanic. He also opined that the Egyptians were the Vedic Panis and as such they were followers of Sramana (Jain) beliefs. It is proposed to study in this paper some of the arguments advanced from the Vedic literature in support of the pre-Vedic existence of Sramanic tradition.
2. A reference to Jain monks and their practices has been seen in Rv. X. 136. The Jains have two types of ascetics(i) those who keep nude and do not use any clothes or any other type of cover on their body; and (ii) those who are clad in
Dr. S. K. Gupta Reader in Sanskrit, Rajasthan University, Jaipur
white clothes. These munis do not keep any hair on their head. An exception to this practice has been pointed out in the case of Lord Risabha Deva who is said to have retained his beautiful locks of hair on two sides of his head at the request of Sakrendra. For this reason he is called Kesin in the Jain tradition.
3. Now Rv. X. 136 is attributed to seven sages who are styled as Vatarasana (araar gaa:). This name has been treated by Sayana as a patronymic title meaning sons of sage Vatarsana. These sages wore yellow barks ( मुनयो वातरशना: प्रिशङ्गा वसतेमलो). By meditation they identified themselves with the various gods of the mid region represented by wind. People ignorant of this reality cannot reach the ecstacy of their joy and realisation. They can only see and feel the worldy forms (bodies) of these seers:
उम्मदिता मौनेयेन वालों म्रा तस्थिमा वयम् । शरीरेदस्माकं यूयं मतीसो अभि पश्यथ ||
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
23
4. The following translation of the hymn (although disputable at several places) by R. T. H. Griffith will give a rough idea as to the nature of these Vatarasana sages (wind-girdled seers).
"The hymn shows the conception that by a life of sanctity the Muni can attain. to the followship of the deities of the air, the Vayus, the Rudras, the Apsarasas, and the Gandarvas; and, furnished like them with wonderful powers, can travel along
long hair is called this light.
He is all sky to look upon; he with with them on their course......The beautiful-haired, the long-haired, that is to say, the Muni, who during the time of his. austerities does not shave his hair, upholds fire, moisture, heaven, and earth, and resembles the world of light, ideas which the later literature so largely contains."
1. "He with long loose locks supports Agni, and moisture, heaven and moisture, heaven and earth.
2. The Munis, girdled with the wind. wear garments sailed of yellow hue.
They, following the wind's swift course go where the Gods have gone before.
6. On the basis of a passage in the Taittiriya Aranyaka, viz., "वातरशना ह वा पयः श्रमणा ऊर्ध्वमन्यिनो बभूवुः " these wind-girdles sages have been surmised to be Jain monks. This passage (11.7) contains a story to eulogize the verses employed in. The story narrates that Vatarasana Rsis were celebates
Looking upon all varied forms flies and were devoted to penances (ie., they through the region of the air.
were Sudras). Other sages came to them to beg. Fearing to something to happen. which may be beyond their power they In both the oceans hath his home, in entered the 13 verse. The other sages eastern and in western sea. later on discovered them in those This story indirectly points out that the subject matter or the content of the कूष्माण्ड verses is called वातरशना ऋषय work at four other places also. In one These sages have been mentioned in this place (1. 23.2) they are described to have been fashioned out of the flesh of the desire of Tad Eka (of Rv. X. 129, 2) and in two places (I. 21.3, 31.6) they are described as performers of the Istaka ceremony and attainers of svah (light of heaven) thereby. In the fourth place (1.24.4)
3. Transported with our Munihood we have pressed on into the winds:
You therefore, mortal men, behold our natural bodies and no more. 4. The Muni, made associate in the holy work of every God.
5. The Steed of Vata, Vayu's friend, the Muni, by the Gods impelled.
6. Treading the path of sylvan beasts, Gandharvas, and Apsarases.
He with long locks who knows the wish, is a sweet most delightful friend.
7. Vayu hath churned for him; for him he poundeth things most hard to
bend.
5. Roth has given the following note (as quoted by Griffith) about these seers:
When he with long loose locks hath drunk, with Rudra, water from the cup."
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
24
they ha ve been associated as performers the word Kesin (charioteer of Mudgala) with the afacer ceremony. Moreover, signifies the bull yoked to the chariot of only seers of vedic verses are called Rsis, Mudgala in his race where he won a who can, therefore, be none other than thousand cows. Griffith has translated the believers and followers of the Vedic the two verses (viz., X. 102. 5-6) bearing religion. The very fact that a hymn on the problem as follows. attributed to the wind-girdled sages appears "5. They came anear the bull; they in the Rg-Veda indicates that they were made him thunder, made him pour rain strict followers of the Vedic religion- down ere the fight was ended. sacrificial and spiritual.
And Mudgala thereby won in the 7. There is no other passages in the contest well-pastured kine in hundVedic literature containing the word reds and in thousands. Vatarasana.
6. In hope of victory that bull was The word Kesi
harnessed : Kesi the driver urged him on 8 The word Kesi in the hymn Rv. X with shouting. 136 cannot refer to Lord Risabha Deva As he ran swiftly with the car bemerely because this dignity has been called hind him his lifted heels pressed alatta by the Bhagavata Purana and be- close on Mudgalani," cause he had matted hair on two sides of
This bull has been described as his head. The Vasisthas were also con
follows in verse 4. spicuous on account of their hair and "4. The bull in joy had drunk a lake were called Kapardinah (Rv. VII. 331, of water. His shattering horn encounter83.8). Moreover, the Rg-Veda refers to ed an opponent. three #fema: (Rv. I. 164.44) who have been
Swiftly, in vigorous strength eager explained as fire, sun and wind or as for glory, he stretched his forefeer, matter, individual soul and the Supreme
fain to win and triumph." Soul. Indra, his horse, Agni's horses and
10. The word Vrsabha in Rv. I. 190.). his flames and charioteer of Mudgala have
II. 33.15, v. 28.4, VI. 18; 19,11 and X. also been called by this name. In the
99.11 has been used as an adjective to the Vatarasana hymn Kesi has been described
gods Brhaspati, Rudra, Agni and Indra. as the All-Powerful Entity which bears
Modern scholars translate it as 'bull'. fire, water, the earth and the heaven. It is
Sayana and others as 'fulfiller of desires' the light of the whole world. This Entity
'sprinkler of semen' etc. It remains to be moves in the Gandharvas, the Apsarasas
shown how this word interpreted as Lord and all beings (mrga) and drinks water
Rsabha Deva fits in the verses and their along with Rudra :
hymns. The word Vrsabha
The word Muni 9 Vrsabha in the Rg-Veda has been 11. The Rg-Veda says that the leader confused with Lord Rsabha Deva. In Rv. of the Maruts is like a muni 'an inspired X. 102.6 Vrsabha mentioned along with being' (VII. 56.8 Griffith's translation).
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
Indra has been described as a friend of munisti er'. The Atharva Veda (VII. 78 1) ascribes an arrow to a muni whom Sayana identifies with Atharvan. Munikesa (having hair like a muni) is described by Sayana as demon (VII. 6.17). As has already been said the Vatarasana Munayah are Vedic seers and the Taittiriya Aranyaka expressly states it. The Vedic Munis, therefore, were a part and parcel of the Vedic society, lived in it and worked for it. It is not clear from the scanty description in the Vedic Samhitas as to whether they were householders or recluses. They cannot, however, be regarded as belonging to a non-Vedic tradition. The mention of Satam Vaikhanasah and Vamro Vaikhanasah as Vedic seers and the statement that persons practising penances etc. in mountains and on river banks become vipras-kavis-munis indicate that forest hermits existed among the Vedic Aryans.
The Vratya Kanda
12. According to the Atharva Veda. a Vratya is a dynamic force who is the source of all this world and its accompaniments including men, animals, the moveable and the immoveable elements, actions and all else. Nothing can move without this force is seen in human guests and scholars also who have been described at length in the Vratya Kanda. Dr. Sampurnanand preceeded by Ksema Karana and Jai Deva have correctly called this force 'the Supreme Soul'. The Atharava Veda has described this force by various names as Prana, Rohita, Kala, Kama, Brhmachari and so on. Referring to this force appearing in the form of a guest or a scholar Sayana says that such a scholarly
25
person respected by all, pure in nature is hated by persons who are devoted to actions only. Such persons, in the words of the Yajurveda, live in darkness and are to be condemned:
अन्धन्तमः प्रविशन्ति येऽ विद्यामुपासते ।
Sayana has nowhere said that the Vratya of the Atharva Veda is hated by all types of Brahmanas.
13. The description of the Vratyas as persons not observing religious practices and celibacy and not devoted to worldly duties like agriculture and trade and duties like agriculture worthy of condemnation (Tandya Brahmana XVII. 2.) refers to a later degenerated class of persons who called themselves Vratyas and who were far below the standard of Vedic Vratyas described above. It must have happened just in the same way as we have these days spurious mendicants and ascetics who are a slur on the Hindu society.
14. It does not appear to be natural to read or infer a description of Lord Rsabha Deva in some of the verses of the Vratya Kanda. When Vratya has been. described as standing for a year he has been associated with all the seasons of the year, all the different types of Vedic verses, various Samans and the Veda. In his movements for the various directions he has been associated with the Vedic texts gods, rites and ceremonies and other forces of the universe. Among other things he has been associated with samiti, sena and sura (which is of special significance if it means wine or liquor). His company makes a man fit to achieve various objects including the Devayan and Pitryana and knowledge of vital airs, earth, heaven and sky. He is not opposed to sacrifices and visits sacrificers.
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
26
Sacrifices performed with his permission 18. Again to declare Asuras as nonbear full fruit to the sacrificer.
Aryan tribes merely because they have Arhan
been described as enemies of Vedic Aryans
is not sound. It may be noted in this 15. This word has been used several
connection that the word "asura' is one times in the Mantras. It has been used
of the epithets of Vedic gods. Modern there as an adjective (meaning 'adorable,
scholars have opined that this word worthy') to Jatavedas, Agni, Idhma, Ila,
changed its meanings and came to denote Rudra, India (Nahusa), Jantavah (crea
demons towards the close of the Rg-Vedic tures) Marutah and Indragni. In view of
period. In a passage (Rv. 1. 108. 6) asuras this usage of this word it is unnecessary
are no other than the seers of Angirasa to quote and discuss all the passages where
order who are devotees of Vedic gods and this word occurs. It is, however, quite
perform sacrifices. In a verse of Nodhas obvious that the root, arh' is a very
Maruts have been called asuras and in a favourite one with the Vedic seers and
passage of Tirasci or Dyutana Indra has has been used several times in the
been asked to destroy the asuras. Maruts Samhitas and later literature.
are great allies of Indra. These two 16. The word 'arhan' and its root passages read together clearly indicate 'arh', therefore, do not refer to any non- that the word asura had two meaningsVedic or pre-Vedic Stamana tradition. one good and the other bad. It, therefore, It was later that the word 'arhan' was does not indicate that it is a name of some adopted by the Jains and was particularly non-Aryan tribe. used by them for their religious preceptors 19. This is not the place to discuss on account of its import the adorable
the problem of the original home of the one. Their use has misled persons igno
Vedic Aryans. Scholars are sharply divirant of the Vedic usage. It is no wonder
ded on this point. A group also advocaif such persons make statements describ
tes and not without strong grounds that ing Vedic practices, beliefs and descrip
the Vedic Aryans were either the original tions as non-Vedic.
inhabitants of the Indian territory or were Asuras
the first occupants of this country. The 17. Evidences of the identity of the doctrine of their conflict with the indi. Asuras with the civilized non-Aryan genous tribes is in their view a pure myth tribes of pre-Vedic India and for their and has to be discarded. Not a single belief in Jainism are based on Pauranic reference has so far been traced throughstatements which have to be carefully out the range of ancient Sanskrit literature shifted, interpreted and examined. Theit (Vedic and non-Vedic) which may clearly examination is beyond the scope of this point out that the Aryans came from paper. However, the passages quoted in outside. On the other hand the Aitareya support of these views unmistakably point Brahmana (VII. 18) states that the dasyus out that the Asuras were not originally were the descendents of Visvamitra, a Jains but were converted to that faith, Vedic seer. There is no use of the term obviously after its birth and propagation. 'Dravida' in the early Vedic literature. It
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
27
might have originated from the term and culture there will remain no vedic 'Dravadida Saman' or it might have had religion, philosophy and culture. If something to do with this Saman.
deva' is non-Aryan then Vedic religion, 20. As stated by the authors of the philosophy and culture is also non-Aryan. pre-vedic existence of the Jain tradition 22. A word about the pre-Vedic existheory the Mahabharata holds that the tence of the snake worship. The. Rg. Asuras were Vedic people with Vedic Veda does not appear to have recorded beliefs. The learned author, however, any reference to snakeworship. However, discards the authority of the Mahabharata there is a seer Sarparajni (Rv. X. 189). on this point since he feels that 'the calm Arbuda Kadraveya Sarpa is the author of and peaceful attitude towards life and the Rv. X 94. The word Sarpa has been used belief in equality for all adopted by the in various senses in the Samhitas. It has Asuras are essentially, originally (and been explained as 'devah' and 'lokah' in perhaps finally also) Jain or Sramanic. the Brahmanas Yajurveda reads' '77: Such an assumption is not acceptable in th:'. Sarparajni has been identified view of the evidences of the existence of with 'earth'. Reverence to sarpa sages, such an attitude and belief in the pre- to gods and to the worlds (in the form of Jain Vedic literature.
their knowledge) coupled with the Yajur 21. It has been stated that Shri K. Veda passage cited above appear to have Sen holds that certain words including
afforded a sufficient background for the
origin of snakeworship in India. If it be tirtha, puja, deva, bhakti, asvattha, tulasi, and sindura are non-Vedic terms and
so, snake worship would cease to be nonwere borrowed from pre-Aryan tribes.
Aryan. The problem needs a thorough
examination from the historical and reliMajority of these words do not appear to have been used in the Vedic Samhitas
gious points of view. and the Brahmanas. They were a later
23. The Rg-Veda mentions several acquisition in Sanskrit. Naturally they rivers. Rv. X. 75 records most of the would have been acquired when the so- rivers of Northern India. In other verses called conflict of the Aryans ar.d the non- also references to some rivers are found. Aryan indigenous people had long vani
There is nothing in the Vedic hymns shed from the Indian soil and the Aryan
which may suggest that their characteristic sacrificial religion with its spiritual deve- nature is absent from the mind of the lopments embodied in the entire Vedic
died in the entire Vedic Vedic seer and that he considers them as literature had fully gained ground. The sacred and god-like. The conception of a words 'deva' and 'yajan' are the backbones deity in relation to a Vedic stanza has to of Vedic religion, philosophy and culture, be fully borne in mind before the nature Out of these two the former, viz, deva of river-hymns can be correctly grasped. is more important than the other since 24. The Vedic literature, therefore, all yainas are connected with the concep- does not testify to the existance of any tion of deva'. Take any one or both 'non-Vedic pre-Aryan 'Sramana Tradiaway from the Vedic religion, philosophy tion.'
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
Practicability of Ahimsa (Non - violence)
• Raimal Sanghi
THE world is weary of hate, fear and have, no doubt with honest motives,
violence. We see that the fatigue achieved the desired aim by using brute which has overcome the world has not against them, have in their turn become benefitted humanity. Only it is through a prey to it. Good brought through force Ahimsa or non-violence as we may call it destroys individuality. that the world can be saved from the
Moral equivalent of Violence orgies of violence and war-fare. We have already seen the bankruptcy of violence
Non-violence is the moral equivalent to solve the problems of humanity which
of violence. Reason alone can do nothing. in turn has been threatened by violence.
Things of fundamental importance can be Yet there is nothing to be despaired and
secured not merely by satisfying reason, we can hope for a brilliant future, when
but by change of heart. The appeal of man will achieve peace and unity. But
reason is more to the head, but the this peace and unity will be attained only
opening up of the inner understanding in by following the paths laid down by the
man can only be attained by the change seers of old and not through pure intell
of heart. This change of heart can be ect of today. This path will be the path
achieved by an appeal to the higher spirit of love, cooperation and truth and non
of man which is possible by adopting the violence, where there is absolutely no
method of love and non-violence. room to fraud, hatred, distrust, deceit, Non-violence may be defined as nonfalsehood and all the ugly broods of injury to any body in thought, speech and violence.
action (#781, 9191, #HUI) A non-violent The methods of Himsa to solve our
othods of Himsa to solve our man looks upon all beings including problems are intended to exert pressure animals, insects and birds with equal comwhich is insane and full of anger and
passion. He is ever ready to undergo any illwill, but this pressure is ineffec. hardship to save others from pains tive, as it is not based on goodwill and for the welfare of others. He looks and gentleness, since violence appears to to the whole humanity as one family and be used to achieve quick results, but they is always ready to behave with others. rarely turn out to be the results really as he would with his own kiths and kins. desired. The good which is sought through His guiding principle in this regard is is can never be permanent. History "atra FG a ' i.e., "the whole universe supplies ample proof of it that those who is his family." He cannot even imagine
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
29
bad of others. Love, forgiveness and world of evil. A non-violent man never friendliness, peace, kindness, and civility, hates others, he believes in the principle frankness, service and protection, phi- 'hate not the sinner, but the sin." For lanthrophy, generosity, truth and coopera- we can only win over the opponent by tion are his virtues. Violence springs up love, never by hate, Hate is the highest from fear, enemity, selfishness, anger and form of violence. Hate and non-violence cruelty. The man who practises non- both cannot tread pace to pace. violence and who is pure-minded disci- Because non-violence consists in not plines his senses in such a way as to keep injuring others even by action, thought the above springs of violence under and words. Therefore a non-violen control. Therefore, it may be said that never uses words which injure others non-violence is not only non-killing. 'feelings. He never speaks a lie and what Violence means causing pain to or killing
is true however, harsh or unpopular it
is true however h any life out of anger or from a selfish may appear to be for the moment and he purpose, or with the intention of injuring never anchors at the source of hypocracy. it. Ahimsa or non-violence is quite Non-violence of thought can be evolved opposite to it, and consists in refraining only be speaking truth, which means from doing so. Thus Ahimsa is uttermost that a man practising non-violence never seltlessness which means complete absence uses words whose essence is violent, that of regard for one's body. When man does is an intention to do harm to the opponothing for himself and is quite selfless, nent. If the present distrust among the others do not fear of him and feel safe various nations is shed off and true and from him. Therefore, a man who is im
honest relations are established among bibed in non-violence, never does any- them, there is no fear of war in future. thing which may harm or pain others.
Gandhiji once told "the way of peace is Though it is impossible to sustain once
the way of truth' Truthfulness is even one's body without the destruction of more important than peacefulness. Indeed other bodies to some extent as for exam. lying is the mother of violence, a truthful ple. all have to destroy some life forman cannot long remain violent." sustaining their own bodies. Though this
Biological and physiological evidences is unavoidable, but he takes his best care
show that by his very anatomy, by the to avoid it as far as possible. But Himsa
structure of his nervous system, man is committed not far personal gain or with
compelled to seek the truth and that selfish motive, but for the sake of large man's spiritual nature and his emotional humanity may also be unavoidable and nature are also a part of the truth. performed as a duty. This may also be
Strength of Non-violence called Ahimsa.
In its positive form, non-violence A non-violent man therefore, always means the largest love, the greatest charity. tries to overcome evil by good, anger by A non-violent man cherishes a feeling of jove. untruth by truth, Himsa by Ahimsa love, even towards his enemy and wrongThere is no other way of purging the doers. But it requires truth and fearless
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
30
ness. It creates a way for an honourable understanding and removes mistrust among them. Gandhiji said, "Love is the strongest force the world possesses and yet it is the humblest imaginable. The hardest heart and the grossest ignorance must disappear before the rising sun of suffering without anger and without malice. Love makes a man invincible and can unite the whole world in one bond and will be more effective than the ties secured by agreemennt on paper or by arms. We have seen that love acts as a great channel of sublimation for our ego which is the root cause of all our evils. It reduces frustration to a minimum and reduces anger, resentment and violence. What is necessary today is to change the mind and heart of the people and these changes cannot be affected by killing or wounding the opponents which creates in them a feeling of retaliation and hatred, but by pursuing them to adopt new ideas and assumptions by love."
A man adhered to the principles of love and non-violence never indulges in extravagance of thought, action and deed and practises the greatest self-restraint because of his to be detached from all unnecessary things. Attachment breeds desires which, if not satisfied, causes dissatisfaction, sorrow and frustration. Frustration, in its turn, brings violence. It makes man selfish and a selfish man is the saddest man in the world. It is why Mahavir, Buddha, and Gandhi all preached to keep self-restraint, non-possession and 'Aparigarh'. They went even to such an exent as to advising the man to retain only things of his barest necessity and discarding others. Fasting is also a sort
of self-restraint and it grows strength of soul in man. Multiplication of wants. increases velocity of dissatisfaction and therefore, spirit of non-possession is very essential as love and exclusive possession can never go together. Because a nonviolent man is not selfish and loves everyone irrespective of anything, therefore, he practises tolerance also. Tolerance sheds off man's false notions of superiority of one's religion over the other, as he believes in the oneness of God and a spiritual unity in all the human beings. Looking at all religions with an equal eye brings forth adherants of other religions into confidence of the non-violent man. Tolerance necessarily does not mean indifference to one's own faith, rather a more intelligent and purer love for it. It gives us spiritual insight and breaks down the barriers between faith and faith and man and man. It broadens his outlook and brings the entire humanity under his orbit. Forgiveness
Non-violence is the extreme limit of forgiveness but forgiveness is the quality of brave. Non-violence is impossible without fearlessness. As non-violence. is superior to violence, similarly forgiveness is superior to punishment. Forgiveness adorns a soldier. But it is meaningless if a weak fellow unable to strike pretends forgiveness out of cowardiceness. Abstinence is forgiveness only when there is the power to punish. A man who fears none on earth would consider it troublesome even to show anger against one who is vainly trying to injure him. Non-violence and Cowardice
Thus there is no room for cowardice or even weakness in the dictionary of a
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
31
non-violent man. Non-violence and suffering. A non-violent man cannot cowardice cannot go side by side. A non- submit meekly to the will of the evil-doer, violent man fears none, therefore, he rather he will put his whole might against needs no arms to defend himself while a the will of the tyrant. If one submits violent man keeps arms as he fears of meekly in a cowardice way and in a helpothers. True non-violence is an impossi- less condition, it is no non-violence, rather bility without the possession of unadul- it is better to take arms and defend one's trated fearlessness. Therefore non-vio- honour and prestige. Thus non-violence lence is of the strong, not of cowards; is infinitely superior to violence in all Gandhiji once said, "He who has not cases evercome all fear cannot practise But certain people are afraid that the Ahimsa to perfection. The votary of method of non-violence is a slow long Ahimsa has only one fear, that is of drawn out process. But this is not so. god. He who seeks refuge in God It is the swiftest the world has ever seen, ought to have a glimpse of the Atman for it is the surest. It works subtly and that transcends the body; and the moment invisibly. Besides being a swifter way, one has a glimpse of the imperishable Arma non-violence is also the nobler way. It one sheds the love of perishable body. raises people themselves and the whole of Training in non-violence is thus diame- humanity who voluntarily suffer from trically opposed to training in violence." others. It breaks down the morale of the A non-violent man cannot take to his opponents or the exploiters for they who heels the moment he sees others in danger loses their lives in the true cause of rather he will even put his life in risk to bumanity through non-violence ennoble protect him. He knows how to face
themselves and morally enriches the danger and death fearlessly and courageo- world, for their sacrifices. Gandhiji called usly. He possesses capacity to endure
it, an all-sided sword' for it can be used all types of hardships. Thus a non- any way, it blesses him who uses it and violent man fears nothing external but him against whom it is used. the internal foes as passion and anger, he
After discussing the theory of nonalways must fear. The only remedy to
violence, the question arises whether nonshed off fear is to have the idea that
violence is always applicable. Several nothing whatever in the world is ours, he
objections have been raised as to its should shake off attachment for wealth,
practicability in modern times. It is
being held that truth and non-violence for family and for the body and the
are individual morals and have no place in moment this idea creeps into the mind of
politics and worldly affairs. We do not a man and makes his place there, fear rolls
agree to it. Countries and nations consist there like mists.
of individuals and if the character of Ahimsa not a negative force
individuals is based on highest morals, It is, therefore, wrong to call Ahimsa on such virtues as truth, love and nonnegative passive force, for non-violence violence, there is nothing which can in its dynamic conditions means conscious oppose it in any way.
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
32
Its Applicability
such a concentration of power as to set It has been said that non-violence may
up and maintain an adequate peace be an infallible weapon, but whether it is organisation throughout the world, it will possible for man not to resort to arms certainly not be admitted by the easy and fighting. It is also pointed out that road of non-resistance. The Pax Romana Lord Mahavir and Buddha tried for a was the outcome of acquisition and time to lead people along the path of conquest and the Pax Muindi will surely Ahimsa, but what happened after them ? call for as steadfast resolution and as firm Society went back to its old ways, forget a treatment of recalcitrants." But we ting their teachings. A few persons can be have shown that if peace is sought by inspired to study Ahimsa and not the violence, it cannot be a permanent one society as a whole.
rather it will be an imposed peace and a Fighting is not an instinct and its
suppressed conflict. It will be unstable
and will contain seeds of its own destrucdevelopment depends on circumstances &
tion. In such a peace there is always a conditon in which a man is brought up. If
conflict between the external and the non-violence can be accepted as an infal
inner conditions. But in peace secured lible weapon then there is nothing in this
by non-violent resistance there is no world to match a man who has achieved
longer any conflict between the inner non-violence to the fullest extent. More
and outer conditions and therefore only over, if we turn our eyes to the records
such peace is enduring and none else. of history it would be clear that the world has been progressively and steadily advan- Objections cing towards Ahimsa since long times as Others have objected it in other ways. we have already seen in the historical Certain modern writers have undermined analysis of the world events. The very the value of love and universal brotherargument that the war and violence has hood. Lames Harvey R failed to solve the problem of the recur- that it has proved compatible with slavery rence of war and violence, weakens their and serfdom, and wars and industrial force. The world has to progress towards
operations. He opines that only a very it still further.
rare soul can dare profess that he loves H. G. Wells in 'A Short History of the his enemy, otherwise suspicion and dislike World' admits that there is a wide dem
are much more congenial to our natures and for coordination and a widespread
than love. While on the other hand, craving for something called 'peace', but
Archibald Robertson emphasises a change he regrets that there is no self-sacrifice,
of head rather than a change of no great urgency towards a sane, vigorous
heart. Though he believes that on the and creative life. But we have seen that
whole people are peaceable, desiring only self-sacrifice is an essential quality of a to live and let live, the root of mischief non-violent man and therefore, there is is not sinfulness of these people but the nothing to be regretted. He further points social relations in which they and the rest out that even if at last men do achieve of us live and move and have our being,
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
33
He concludes that the fault is not in multitude of men of different temptations average human nature but in the frame and stages of culture, and when the object work within which average human nature for which such repression is exercised, functions. Therefore, he suggests that a needs a prolonged period of struggle, change of mind is very essential. J. A. C. complex in character, I cannot think it Brown, the eminent Psychologist, is also possible of attainment." of the same view and holds that writers George Russell and Captain Liddell who try, like Aldous Huxley, Gerald Hart have also raised similar objections Heard, and others, to change society by about its practicability to solve great advocating a change of heart philosophy, conflicts though they recognised its great are missing the point. He, also, like other potentialities. This is the general objecwesterns. believes in the change of tion against non-violence. outlook together with a fundamentlly alteration in the environment without
The doctrine of Ahimsa is generally which the change of mind would be
considered to be a weapon only for spiritual ineffectual.
per fection of an individual, and is not
considered to be meant for the furtherance With Tagore also the doctrine of
of a movement for political gains by men Ahimsa was a broken truth although he
who have not abandoned the path of recognised the strength of non-violence.
self. But it is mistaken to think nonHe did not believe in the efficacy of
violence not applicable to masses or for Ahimsa for the attainment of an immedi
permanent benefits in the political field. ate attainment of an immediate political
These critics seem to take for granted objective. He observed inclusively, "like
that the disciplines available to establish every other moral principles Ahimsa has
mass habits of powerful gentleness are to spring from the depth of mind, and it
only in the realm of spirit. I am wholly must not be forced upon man from some
of the opinion that if peace and permaoutside appeal of urgent need. The great
nent peace is to come on earth, it will personalities of the world have preached
come only through the weapon of nonlove, forgiveness, and non-violence, pri
violence and not through wars and marily for the attainment of some imme
violence. diate success in politics and similar depart
As a matter of fact reason alone, which ments of life. They were aware of the
is the product of mind, can do nothing. difficulties of their teaching being realised
Things of fundamental importance can be within a fixed period of time in a sudden secured by satisfying reason as well as by and wholesale manner by man whose change of heart. Social aims we must previous course of life had cheifls pursued have in view. Social service will engender the path of self. Nodoubt, though a in the plastic young mind a feeling of strong compulsion of desire for some brotherhood and sisterhood. As Jodh external results, men are capable of repres. Dewy aptly says, "It is not enough to sing their habitual inclination for a limited teach the horrors of war and to avoid time, but when it concerns an immense everything which would stimulate inter
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
94
national jealousy and animosity. The bers of one brotherhood, children of one emphasis must be put upon whatever spirit, peace can prevail in the world. binds people together in cooperative The Jains generally refrain from taking human pursuits and results apart from even some fresh vegetables because they geographical limitations." Aldous Huxley are living and according to them even also says, "there are some who believe killing of vermin is forbidden under the that desirable social changes can be law of Ablmsa. Though evidently the brought about most effectively by chang- way which Jains preach and follow seems ing the individuals who compose society. to be impracticable and unreasonable, but O the people who think in this way, some it is a wrong notion. It may be difficult pin their faith to education, some to
to follow but it is not absolutely unreasonpsychoanalysis, some to applied behav- able. Prof. Tan Yun Shan, Director of jourism. The real obstacles to peace are Vishwa Bharati Cheena Bhawn, observed human will and feelings, human convic- "Te is impact
"It is impracticable because humanity has tions, prejudices, and opinions." And it
not yet progressed enough. When requires a change of heart as well as a humanity has sufficiently developed and change of mind to remove the obstacles, reached a certain higher stage, this law of for the appeal to man works best through
Ahimsa should be and would be followed heart and not the head. If a band of
by all." Therefore, it may be said that firm believers in non-violence suffers for
so long as we do not recognize the suprea right cause but does not retaliate, then
macy of the moral law of love and nonthe heart of the exploiters is bound to be violence in our national and inter-national touched by the suffering, and a way is sure to be open for human reconciliation
Examples and new social synchesis.
There are innumerable instances of Horace Alexandra rightly pointed out
the triumph of this wonderful weapon in "it is a superficial judgment that sees individual sphere. Only few examples humanity as a mass of innocent people
are quoted her to shov the strength of wanting to be left in peace (as Archibald
the weapon of non-violence in political Robertson remarked) while a few war
and mass spheres. mongers seize power and force the peoples
In Hungary, during the mid-nineto fight their battles." The true peace
teenth, when Emperor Franz Josef of makers are those who spend their lives,
Austria, attacked over that country, the and who devise means by which others
Hungarians, under the guidance of Franmay spend their lives in loving service to
cis Deak offered a non-violent resistance others : not in self-righteousness, hardly
to the outrageous and violent activities of even in pity for suffering but in pure the belligerent. Deak advised them to love for their enemies. Only when man refuse to recognize the Austrian Governlearns to be loyal first and foremost ment in any way and asked them to admoto all makind, irrespective of any differ- nish acts of violence and abandon grounds ences of caste, colour, and creed, as mem- of legality. "Thus is the sate ground", he
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
said, "on which; unarmed ourselves, we suffer in brutal concentration camps. can hold ourselves against armed force. When the Nazies invaded Denmark the If suffering must be necessary, suffer with Danes instead of meeting armed might dignity." This advice was obeyed throu- with armed resistance, offered non-violent ghout Hungary till the Emperor finally resistance. They did what was consistent capitulated and gave Hungary her consti- with human dignity and the Germans did tution on Feb. 18, 1867.
not dare lay rough hands on them. The
result was that loss and damage in DenAnother outstanding example of the
mark was negligible and her recovery application of non-violence has been
became much easier than in other occuquoted by Prof. Tan Yun San in 'Lord
pied countries. Mahaveer Memorial Granth' (Agra). In
Heinz Kraschutzki, German delegate ancient China Lao Tsu, Confucious Men
to the World Pacifist Conference in India, cious and Mo Tsu preached the gospel of
related before the session of the Connon-violence or Jen as they called it. Mo
ference an account of the defeat of Tse lived a little later than Lao Tsu and
General Kapp's attempt in 1920 to seize Confucius but earlier than Men Cius. He
the German Government, by military was born about 500 B. C. Mo Tsu prea
force. A complete general strike had ched the gospel of non-violence and
paralysed this military invasion. Krasopposed not only by words but also by
chutzki held that freedom from fear is the action. Having heard of the news that
most important requisite for a peacethe Chin State was to attack the Sung State he immediately went from his native
Havelock Ellis in his 'Impressions and State Lu, walked for ten days and ten
Comments' records an incident of nights on foot to see the king of Chin.
January 9, 1915. "French and German When he reached there he persuaded him
soldiers who had fraternized between the to stop the aggression and he succeeded in
trenches at Christmas subsequently rehis efforts.
fused to fire on one another and had to In the West though there is no memo- be removed and replaced by another rable achievement of the change of heart, men." He says that amid the vast stream yet there are some remarkable examples of war-news which then flowed all over of the application of this principle, the newspapers he chanced to find that Hoares Alexander gives a little known little paragraph in a corner of a halt-penny example about the heroic resistance of evening journal. This most important Finnish people to the policy of "Russifi- item of news how clearly shows that the cation" by the Tsars of Russia at the be- end of fighting might be reached. If we ginning of this century. We also know might be able to bring men together as about the heroic actions of the Norwegian human beings, they will be prepared to teachers during the German occupation violate all the abstract principles of war of Norway, how they refused to teach the and Patriotism, to break any rule of disNazi and Fascist doctrines to the school. cipline, rather than kill one another. If children, though for that they had to persons whose hatred of each other had
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
86
been artificially excited to the highest pitch could show it only on a single Chaistmas Eve, it is not too much to ask of the humanity in this connection. "Patriotism and War are not human facts" has been rightly pointed out by the seers of old.
The next example occurred in Ireland during the time of Cromwell. The history of Cromwell's conquest of Ireland, and the record of the laws and punishments of those days clearly show that the English in that country acted in a fearfully brutal and callous manner, yet the nonviolent resistance of the quackers prevailed against them.
An instructive example of the way a group as a whole can acquire a peaceable and non-violent tradition is given by the relationship between two neighbouring peoples in the Malaya Peninsula the Semang and Malaya. For a long time the more powerful Malayas oppressed the Semang by raiding them for slaves, cheating them in trade and ousting them from their lands. Originally the Semang resisted their powerful opponents but they were severely suppressed. Later they adopted the passive resistance and in due course the aggression of Malaya over them came to an end. Though they had no idea or intention of using non-violence-but unconciously its use resul ted in a success for them. (Social Learning and Imitation-by N. Miller and J. Dollard).
In Jain traditions we get several examples how warfare and bloodshed were 'avoided by the intervention of persons who followed the principles of nonviolence. Such an example belongs to very ancient times when Bharat Chakra
varty, a very powerful king, who ruled over Aryavrat decided an issue with his own brother Babubali by a dual between both of them giving up the path of warfare and thus saving lives of lacs of living beings.
The fact that there were several Jain and Buddhist rulers who carried on their administration for long periods quite efficiently prove that Ahimsa can also be worked out in political sphere.
I have not included here what Gandhiji did in his whole life trying to demonstrate the power of non-violence as they are well known to all persons of this age.
This shows that non-violence has been actually used on several occasions in the past and is practicable to solve the various problems of mankind, but the question arises how does it work.
Anger, fear and hatred are the basis of violence and are incapable enough to solve the various problems set before us, but they are required to be sublimated into such channels where they may be utilised. That is why, peace imposed from outside as a result of conflict cannot be stable.
The reason how non-violence works in masses is that even barbarians resexhibit rare courage in opposing their pect courage. The non-violent men enemies, as they undergo all sorts of hardships. Non-violent resistance touches human nature itself, not merely its cultured areas. "The psychological forces in non-violent resistance would operate in different ways against different nations, but they will operate effectively against them all, as surely as violent war has operated against them all.."
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
37
Non-violence can also be an effective A non-violent man should inculcate in substitute for war. But as the main him the habit of obedience and self respestrength of the armies is their discipline ct; self-reliance and self-control; tenacity which is more important even than of will and sense of order; cooperation weapons, similarly the non-violent resis- and unity with others; endurance of ters must also have a discipline which is common hardships and protection of commore thorough, deeper, more moral and munity; energy and courage and equanimore effective than military discipline. mity and poise; besides these qualities he The foremost requirement of a non- should possess a practice of handling the violent man is to have the power of self moral equivalent of weapons, tolerance, control, which if he does not possess, patience, satisfaction, humility, love ot it would be a vain hope for a better truth, love of people and faith in the ultiworld.
mate possibilities of human nature.
" My faith in non-violence remains as strong as ever. I am quite sure that only should it answer all our requirements in our country, but that it should, if properly applied, prevent the bloodshed that is going on outside India and is threatening to overwhelm the Western world."
--GANDHIJI
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
The Eight-Fold Path of Yoga and Jainism
Dr. Kamal Chand Sogani Lecturer in Philosophy, Raj Rishi College, Alwar.
THE term 'Yoga' does not signify any Charitra (conduct) as compared with the
sort of conjunction or union of the other meaning attributed to 'Yoga' as has self with the other reality like God or been shown above. The actualisation of the Absolute, but implies the arrest and such a state is not a bed of roses, as may negation of mental modifications, the perhaps be conceived, but necessitates an practical discrimination between the arduous and persistent effort on the part Purusa and Prakrti, and the attainment of the Sadhaka. The most general and of, and establishment in, the original fundamental discipline required to ascend nature of Purusa. These three implica- the sublime heights consists in developing tions are not separate from one another. detachment (Vairagya) and in adhering One leads to the other without being to incessant practice (Abhayasa)". The incompatible. Another meaning ascribed former comprises the spirit of denial from to the word 'Yoga' by Patanjali is indica- indulging in the attractions of the world tive of the process to achieve the above or the pleasures of the heaven", the latter ideal". The equivalent expression in signifies the endeavour to proceed on the Jainism for the term 'Yoga' in the sense Yogic path for curbing the unstable of the highest state is Suddhopayoga, nature of mind and that too for a long Samadhi and Dnyana, wherein the con time without any break”. Vai:agya is ceptual transformations of the mind occur. negative in character, while Abhyasa is ring in the form of auspicious and inauspi- positive. The former includes wholesale cious deliberations are stopped and negated turning from the objects of the transitory in their entirety on account of the fact world, whereas the latter induces the that the self has established itself exclus self to pursue the Yogic path. The twelve sively in its own intrinsic purity and reflections (Anupreksas). enunciated by excellence. The practical discipline to the Jaina Acharyas are potent enough to be adopted for this highest ascent is styled engender the spirit of detachment from
1. Y. Su. I. 2 2. Ibid. II. 25, 26. 3. lbid. I. 3. ; IV. 34. 4. Y. Su & Vrtti II. 1. 5. Y. Su. I. 12 6. Y. Su. Bhoja Vrtti. 1. 15. 7. Y. Su. 1. 13, 14. 8. T. Su. IX. 7.
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
the sordid ways of the world and to give impetus for the constant application of one's own energies for higher life. Thus Vairagya and Abhyasa summarise the whole Yogic movement. Patanjali enjoins eight-fold means of Yogic process, the constant and single minded devoted ness to which bears the fruit in the form of emancipation after the filth of nescience is wiped out. They are (1) Yama (2) Niyama (3) Asana (4) Pranayama (5) (4) Pranayama (5) Pratyahara (6) Dharana (7) Dhyana (8) Samadhi,10
39
(1) Yama is of five kinds." (a) Ahimsa (non-injury), (b) Satya (truthfulness), (c) Asteya (non-stealing), (d) Brahmacarya. (celibacy), (e) Aparigraha Non-acquisition). The pronouncement of Patanjali that these Yamas may bear the credit of Mahavratas' when they transcend the limitations of kind, space, time, and purpose indicate the possibility of the limited or partial vratas. Besides, we may derive by implication that Patanjali is in favour of ascetic life, inasmuch as the life of the householder inevitably presents certain stumbling blocks in the way of observing Mahavratas. Hence the life of asceticism constitutes an indispensable discipline of the yogic process. The Vyasa-Bhasya pronounces Ahimsa to be
9. Y. Su. Bhasya & Vrtti. II 28. 10. Y. Su. II. 29.
11. Ibid. II. 30.
12. Ibid. II. 31.
13. Y. Su. & BHASYA. II. 30.
14. Ca. Pa. 30, 31.; Acara. II. 15.
15. Sarvartha. VII. 1.
16. Y. Su. & Bhasya II. 31.
17. Ca. Pa. 24.
18. Y. Su. II. 32.
19. T. Su IX. 6.
at the root of both Yama and Niyama. and further tells us that Yama and Niyama are pursued to observe Ahimsa in its pure and unadulterated form13. These Mahavratas are in perfect argeement with the Mahavratas prescribed for a Jaina monk along with Ahimsa as the basis. The Anuvratas are for the householder. It is not possible to guess the mind of Patanjali regarding the limited character of vows. from his Sutras, but Vyasa seems to have included the killing of animals etc. for some purpose or the other under partial vows, which spirit is quite repugnant to Jainism16. Jainism observes that the householder should refrain from the Himsa
of mobile beings"".
(2) Niyama. It is also of five kinds (a) Sauca (purity), (b) Santosa (contentment), (c) Tapa (austerities), (d) Svadhyaya (scriptural study), (e) Isvarapranidhana (devotion to God). The Sadhaka who has purged his mind of sins cultivates the above mentioned positive virtues. The Jaina Acharyas prescribe a number of virtues to be assimilated by the aspirant, namely, forbearance, modesty, straightforwardness, purity from greed, truth, self-restraint, austerity, renunciation, nonattachment, and celibacy.19 Svadhyaya has been included in internal austerity,
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
40
while devotion, in Stuti and Vandana. though he recognises its importance for The statement of Patanjalia0 that when the development of concentration."? the aspirant finds himself under sway of
(5) Pratyahara. It implies the withdsinful thoughts he should throw them
rawal of the senses from their natural aside by reflecting on their evil conse
objects of attractions.28 This may be quences in order to regain firmness in the
compared with the control of five senses virtuous path, may be compared with the
as one of the mulagunas of the Jainapronouncement of the Tattvarthasutra?
monk.29 that for the proper maintenance of the
These five constitute the moral and vows one should reflect on the afflictions
the intellectural preparation of the saints that may befall here and hereafter as a
who move higher on the spiritual path. result of not observing them properly The extern
The external and internal distractions at or violating them.
this stage lose all their potency to seduce (3) Asana and (4) Pranayama. Steady the aspirant. Nevertheless, certain obsand comfortable posture is Asana.22 tacles may intervene and imperil his Rythmical and regulated breathing is advancement. They are (1) Vyadhi Pranayama.23 The importance of posture (sickness)- disturbance of physical equilihas also been recognised in Jainism. The brium, (2) Styana (languor) - the lack of Mulachara tells us that the saint engaged mental disposition for work, (3) Samsaya in study and meditation is not subjected (Indecision)-thought debating between to sleep and passes his night in some caves the two sides of a problem, (4) Pramada after having seated himself in the postures (heedlessness) - the lack of reflection on of Padmasana, or Virasana and the like.24 the means of samadhi, (5) Alasya (IndoThe Kartikeyanupreksa and the Jaanar- lence)-inertia of mind and body owing nava prescribe certain postures to prac- to heaviness (6) Avirati (sensuality)- the tise meditation.as Pranayama has not desire aroused when sensory objects posfound favour with Jainism. This recog- sess the mind, (7) Bhranti darsana (false, nition may be corroborated by the enun- invalid notion)-false knowledge, (8) Alaciation of Subhachandra that Pranayama bhdabhumikatva (inability to see reality acts as a barricade to the saint aspiring because of psychomental mobility), (9) for emancipation on account of the acqui- Anavasthitatva (Instability which hampers sition of supernormal powers by it,26 the stability of mind, inspite of achieving
20. Y. Su. II. 33, 34 21. T. Su. VII 9. 22. Y. Su. II. 46. 23. Ibid. II. 49, 50, 24. Mula. 794, 795 25. Karti. 355 ; Jnana XXVIII 10 26. Jnana XXX. 6, 11, 27. Ibid. XXIX 1. 28. Y. Su. II. 54. 55 29. Mula. 16.
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
Yoga Bhumi).30 This concept of obstacles Samadhi." This Samadhi admits of twomay be compared with the twentytwo fold classification, Samprajnata and Asamparisahas in Jainism but the details do not prajnata, or Sabija and Nir bija or Salamcorrespond to each other. The cultiva- bana and Niralambana. Jainism does not tion of friendship with the prosperous, distinguish between Dhyana and Samadhi; compassion towards the unhappy, com- rather it includes these under Sukla mendation for the meritorious and indif- - Dhyana which is of four types. Samprajference towards the vicious have heen nata Samadhi may be compared with the recognised as aids to mental purification." Prthaktva - Vitarka and Ekatva - Vitarka The Tattvarthasutra also prescribes uni- types of Sukla-Dhyana and Asamprajnata versal friendship with the living beings in Samadhi, with the consummation of Ekatva general, commendation for the virtuous, Vitarka type of Sukla Dhyana. Here the compassion for the distressed, and indiffe. soul, according to Jainism, attains omnisci. rence towards the immodest, in order ence; this is embodied liberation. The to facilitate the proper observance of the disembodied liberation is arrived at by vows."
the last two types of Sukla Dhyana, (6) Dharana, (7) Dlyana and (8) Sa- Suksmakriya Pratipati & Vyuparatakriyamadhi. These are the three stages of Nivarti. one and the same process of concentration Inspite of these certain resemblances, on an object.33 They are so much alike there are fundamental differences with the that the Yogin who attempts one of them mystical way adopted by the Jaina-monk, (Dharana) cannot easily remain in it and Yoga system has not recognised the sometimes finds himself quite against his imperativeness of mystical conversion, will slipping over into Dhyana or Sama- probably confuses moral with mystical dhi. Ic is for this reason that these last conversion, the importance of initiation three yogic exercises bave a common by a Guru, and the necessity of seeking name-samyama?”. Dharana is fixation his guidance at every step, the possibility of mind on a particular object. Dhyana of fall from certain heights i.e. drak-nights implies the continuous flow of thought on of the soul, the significance of Pratikrathat object.96 When Dayana becomes free mana, and Pratyakhyana. All these from the distinctions of subject, object factors are of enormous importance for and the process of meditation we have mystical advancement.
30. Y. Su & Bhasya. I. 30. (Trans pertly from 'Yoga, immortality and freedom' by Miercea
Eliade. P. 381. 31. Y. Su. & Bhasya. I. 33. 32. T. Su. VII. 11. 33. Date. Yoga of the Saints. P. 87. 34. Y. Su. III. 4. (Crans. vide Yoga, Immortality and Freedom, P. 70.) 35. Y. Su. IIT. 1. 36. Ibid. III. 2. 37. Y. Su. & Bhasya. III 3.
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
1. Acara
2. Ca. Pa.
3. Jnana.
4. Karti
5. Mula
6. Sarvartha
7. T. Su.
10. Yoga
11. Yoga
42
BIBLIOGRAPHY AND LIST OF ABBREVIATIONS
-Acarasara of Viranandi (Santisagare Digambar Jaina Grnthamala).
-Cariera Pahude of Kunda-kunda (Patani Digambar Jaina Granthamala, Marotha under the title 'Asta Pahuda'). -Jnanrnava of Subhacandra (Rayachandra Jaina Sastramala Bombay).
- Karti Keyanupreksa (Rayacandra Jaina Sastramala, Bombay).
8.
Y. Su.
-Yoga-Sutra of Patanjali (Gita Press, Gorakhpur).
9. Bhasya and Vrti Yoga-sutra Bhasya and Bhozvitti (Madanlal Laxminiwas,
Candaka, Ajmer).
-Yoga of the Sainti by Dr. Date (Popular Book Depot Bombay).
-Yoga, Immortality and Freedom by Micrcee Eliade Routledge and Kegan Paul, London).
-Mulacare of Vattakera (Anantakirti Digambar Jaina Ganthamala, Bombay).
-Sarvarthasiddi of Puzyapada (Bharatiya Jnana-Pitha, Kasi).
-Tattvartha-Sutra of Umasvati (Bharatiya Jnana Pitha, Kasi Under the title Sarvarthasiddhi).
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________ THE RAMBAGH PALACE JAIPUR Arrangements for special Banquets, Luncheon, Dinner and Tea Parties undertaken in its large and beauti. fully decorated Banquet Hall, Private Dining Room or on the vust green lawns, at very reasonable price. Private Halls for Conferences and Meetings are also available. For first class catering and efficient service. CONTACT: THE RAMBAGH PALACE TELEPHONE : 3200, 3224 CABLE RAMBAGH" sry.org