Book Title: Magnopnishad
Author(s): Yashovijay Gani, Kalyanbodhisuri
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मग्नोपनिषद महोपाध्याय श्री यशोविजयगणिवरा: MAGNC IAGNOPANISHA Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स श्री प्रेम-भुवनभानु-पद्म-जयघोषसूरिभ्यो नमः श्री भुवनभानुसूरि जन्मशताब्दी पर नया नजराना-७३ न्यायविशारद-न्यायाचार्य-लघुहरिभद्र-महोपाध्याय श्री यशोविजयगणिवर विरचित-ज्ञानसारान्तर्गतमग्नाष्टकस्य सानुवाद-सचित्र-प्रस्तुतिरूपा मग्नोपनिषद् हिन्दी-गुजराती अनुवाद: + चित्रनिर्देशनम् + सम्पादनम् प्राचीनश्रुतोद्धारक प. पू. आचार्यदेव श्रीमद्विजय हेमचन्द्रसूरीश्वर शिष्य आचार्य विजय कल्यागबोधिसूरीश्वराः । प्रकाशक श्री जिनशासन आराधना ट्रस्ट Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक का नाम मूल कृति मूल कृतिकार हिन्दी - गुजराती अनुवाद + चित्रनिर्देशन + संपादनम् अंग्रेजी अनुवाद विषय विशेषता मूल्य प्रकाशक मग्नोपनिषद् ज्ञानसार प्रकरण अंतर्गत मग्नाष्टक न्यायविशारद न्यायाचार्य लघुहरिभद्र महोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज प्राचीन श्रुतोद्धारक प. पू. आचार्यदेव श्रीमद्विजय हेमचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के शिष्य प. पू. आचार्यदेव श्रीमद्विजय कल्याणबोधिसूरीश्वरजी महाराज श्री मनीशभाई मोदी मग्नता परमानंद की मस्ती, महानंद की मनोहरता एवं जीवनमुक्ति की अनूभूति करने के लिये एक अनुपम आलंबन | सुगम अनुवाद एवं हृदयंगम चित्रों के साथ प्रथम प्रस्तुति । वि. सं. २०६७, प्रथम आवृत्ति, १००० प्रति ७५/ श्री जिनशासन आराधना ट्रस्ट (C) All rights reserved Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुकृत सहयोगी श्री वासुपूज्यस्वामि जैन देरासर कर्वे रोड, पुना. प्रेरक प. पू. मुनिराजश्री ज्ञानप्रेम वि. म. सा. प. पू. मुनिराजश्री हितप्रेम वि. म. सा. प्राप्तिस्थान श्री जिनशासन आराधना ट्रस्ट, श्री अक्षयभाई शाह 506, पद्म अपार्ट, जैन देरासर के सामने, सर्वोदयनगर, मुलुंड (प.), मुंबई-400 080. मो.: 9594555505. Email : jinshasan108@gmail.com श्री बाबुभाई बेडावाला सिध्दायल बंग्लोझ, सेन्ट जेन हाईस्कूल पासे, हीरा जैन सोसायटी, साबरमती, अमदाबाद-380 005. मो.: 9426585904. Email : ahoshrut.bs@gmail.com श्री चंद्रकांतभाई एस. संघवी 6-बी, अशोका कोम्पलेक्स, जनता होस्पिटल के पास, पाटण, उत्तर गुजरात. मो.: 9909468572 मल्टी ग्राफिक्स 18, Khotachi Wadi, Vardhaman Bldg., 3rd Floor, V. P. Road, Prarthana Samaj, Mumbai - 400 004. Ph.: 23873222/23884222. E-mail : support@multygraphics.com . www.multygraphics.com Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौज मग्नता की... Can any spiritual benefit be derived without self-immersion? भवसागर को तरने का केवल एक Supreme bliss... Supreme ही उपाय है... आत्मसागर में डूब happiness... Supreme जाओ... परमानन्द... परमसुख... परम awareness... Supreme अनुभूति... परम समाधि... जो भी कहो, वह। immersion... call it इस इबकी में है और जो आत्मसागर में नही डूबा, वह बाह्य विश्व में चाहे कितना भी प्रतिष्ठित whatever you like, व्यक्ति क्यों न हो, उसका जीवन व्यर्थ है। बिल्कुल it is this complete व्यर्थ... डूबने के यही रहस्य का उपहार आप immersion in the के हाथों में है। कहीं रह न जाओ... self that leads to true - आ. कल्यागबोधिसूरि bliss. One who has not immersed oneself in the ભવસાગરને તરવાનો માત્ર એક જ atman, has wasted उपाय छ... अात्मसागरमा इना नामा... this life. Irrespective परमानंद... परमसु... परम अनुभूति... of his/her worldly પરમ સમાધિં... જે પણ કહો, એ આ ડુબડીમાં છે અને જેણે આ ડુબક્કી નથી લાગાડી, એ ચાહે બાહ્ય achievements, his જગતમાંકોઈપણ હોય, એનું જીવન વ્યર્થ છે.તદ્દન spiritual quotient વ્યર્થ... ડુબડીના આ જ રહસ્યનો ઉપહાર will remain nil. मापना हाथमा छ. रणे रहा Yai... And one who has - मा. प्याजोधिसूरि dipped in the nectar of the atman, has attained the jewel of treasures, selfrealisation. So come, immerse yourself in your divine atman. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मग्नाष्टकम् प्रत्याहृत्येन्द्रियव्यूह, समाधाय मनो निजम् । दधच्चिन्मात्रविश्रान्तिं, मग्न इत्यभिधीयते ।।१।। यस्य ज्ञानसुधासिन्धौ, परब्रह्मणि मग्नता । विषयान्तरसञ्चार - स्तस्य हालाहलोपमः ।।२।। फस्वभावसुखमग्नस्य, जगत्तत्त्वावलोकिनः । कर्तृत्वं नान्यभावानां, साक्षित्वमवशिष्यते ।।३।। परब्रह्मणि मग्नस्य, श्लथा पौद्गलिकी कथा । क्वामी चामीकरोन्मादाः, स्फारा दारादराः क्व च? ।।४।। तेजोलेश्याविवृद्धिर्या, साधोः पर्यायवृद्धितः । भाषिता भगवत्यादौ, सेत्थम्भूतस्य युज्यते ।।५।। ज्ञानमग्नस्य यच्छम, तद् वक्तुं नैव शक्यते । नोपमेयं प्रियाश्लेषै - र्नापि तच्चन्दनद्रवैः ।।६।। शमशैत्यपुषो यस्य, विप्रुषोऽपि महाकथा । किं स्तुमो ज्ञानपीयूषे, तत्र सर्वाङ्गमग्नताम् ? ।।७।। यस्य दृष्टिः कृपावृष्टि - र्गिरः शमसुधाकिरः । तस्मै नमः शुभज्ञान - ध्यानमग्नाय योगिने ।।८।। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्याहृत्येन्द्रियव्यूह, समाधाय मनो निजम्। दधच्चिन्मात्रविश्रान्तिं, मग्न इत्यभिधीयते।।१।। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द आदि विषयों के प्रति आकर्षित इन्द्रियों का जिसने आत्मा के प्रति संहरण किया है, जिसने अपने मन को समाधि में प्रतिष्ठित किया है. एवं जो ज्ञान में ही विश्रान्ति लेता है, उसे कहते है मग्न। શબ્દ વગેરે વિંષયો પ્રત્યે આકર્ષિત ઈન્દ્રિયોનું જેણે આત્મા પ્રત્યે સંહરણ કર્યું છે, જેણે પોતાના મનને સમાર્ધાિમાં પ્રતિષ્ઠિત કર્યું છે, તથા જે જ્ઞાનમાં જ વિંધ્રાન્તિ લે છે, એને કહેવાય છે મન. | One who has focused his senses, which tend to be attracted to words and other objects, towards his soul, one who has stilled his mind in contemplation, and finds peace in knowledge only, is called self-immersed. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यस्य ज्ञानसुधासिन्धौ, परब्रह्मणि मग्नता। विषयान्तरसञ्चार-स्तस्य हालाहलोपमः।।२।। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान है एक सुधा का सागर, यही है परम ब्रह्म। जो इसमें मग्न हुआ है, उसे कभी बाह्य भाव में संचार नहीं करना चाहिये, क्योंकि यह तो वह ज़हर है. जो आत्मसाधक के प्राण हर लेता है। જ્ઞાન છે એક સુધાનો સાગર, | આ જ છે પરમ બ્રહ્મ. જે એમાં મન બન્યો છે. એણે કદી બાહ્ય ભાવમાં સંચાર ન કરવો જોઈએ, | કારણ કૅ આ તો તે ઝેર છે, 'જે આત્મસાધના પ્રાણ હરી લે છે. Knowledge is like an ocean of nectar. It is the supreme divinity. One who is immersed in it, should never be concerned with external dispositions, for they are the poison that takes the life of a spiritual mendicant. Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वभावसुखमग्नस्य, जगत्तत्त्वावलोकिनः। कर्तृत्वं नान्यभावानां, साक्षित्वमवशिष्यते।।३।। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो आत्मस्वभाव के अनुपम सुख में मग्न है, जो विश्वतत्व का दर्शन करता है, वह किसी भी बाहा प्रवृत्ति का कर्ता नहीं, वह तो है केवल साक्षी। જે આત્મસ્વભાવના અનુપમ સુખમાં મગ્ન છે, જે વિશ્ચતવનું દર્શન કરે છે, તે કોઈ પણ બાહ્ય પ્રવૃત્તિનો ડર્તા નથી, તે તો છે માત્ર સાક્ષી. One who is immersed in the unequalled bliss of the true nature of the soul, one who can perceive the world in its vast, immense reality, cannot be the doer of any external activities. He is the witness only. RECE Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परब्रह्मणि मग्नस्य, श्लथा पौद्गलिकी कथा । क्वामी चामीकरोन्मादाः, स्फारा दारादराः क्व च ? ॥४॥ 69 C Aloo जो परम ब्रह्म के परमानंद में मग्न है, उसके वचन में पुद्गलों की तुच्छ बातें कैसे आ सकती हैं? सुवर्ण-समृद्धि के प्रति उसका पागलपन भी कैसे हो सकता है? एवं कामिनी के प्रति उसका लगाव भी कैसे हो सकता है? Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જે પરમબ્રહ્મના પરમાનંદમાં મગ્ન છે, તેના વચનમાં પુદગલોની તુચ્છ વાતો શી રીતે હોઈ શકે? સુવર્ણ-સમૃદ્ધિની પાછળ એ પાગલ પણ શી રીતે બને? ' અને હાર્મિની પ્રત્યે તેનો લગાવ પણ શી રીતે હોઈ શઠે? How can one who is immersed, in the immense bliss of the supreme divinity, talk about lowly material things? How could he have the lunatic desire for gold and wealth? And how could he long for a beauteous maiden? Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसूत्र आगम आदि शास्त्रों में कहा है, कि श्रमण के संयमपर्याय की । जैसे जैसे वृद्धि होती है, वैसे वैसे उसकी तेजोलेश्या की भी वृद्धि होती है, उसका सुख बढ़ता ही जाता है, यह बात है परमब्रह्म में निमग्न साधक की। तेजोलेश्याविवृद्धिर्या, साधोः पर्यायवृद्धितः। भाषिता भगवत्यादौ, सेत्थम्भूतस्य युज्यते।।५।। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ભગવતી સૂત્ર આગમ આદિ શાસ્ત્રોમાં કહ્યું છે કે શ્રમણના સંયમપર્યાયની જેમ જેમ વૃદ્ધિ થાય છે, તેમ તેમ તેની તેજોદ્વેશ્યાની પણ વૃદ્ધિ થાય છે, એનું સુખ વધતું જ જાય છે. આ વાત છે પરમબ્રહ્મમાં નિમગ્ન સાધડની. For the votary immersed in the supreme divinity, it is said in the Bhagavati Sutra and other agamas, that as the duration of ascetic vows increases, his tejoleshya [mystic ability} also increases. His happiness is constantly increasing. Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमग्नस्य यच्छर्म, तद् वक्तुं नैव शक्यते। नोपमेयं प्रियाश्लेषै- पि तच्चन्दनद्रवैः।।६।। जो ज्ञान में मग्न है, उसके सुख का वर्णन करना मुमकिन नहीं है, यह सुख इतना कल्पनातीत है, कि न तो इसे प्रिया के आलिंगन जैसा कह सकते हैं, न ही चन्दन रस के विलेपन जैसा कह सकते हैं। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જે જ્ઞાનમાં મગ્ન છે, તેના સુખનું વર્ણન કરવું શક્ય નથી. આ સુખ એટલું કલ્પનાતીત છે, ડેન તો એને પ્રિયાના આલિંગન જેવું કહી શકાય, ઠે ન તો ચંદનરરાના 'વિલેપન જેવું કહી શકાય. It is impossible to describe the happiness of one who is immersed in knowledge. His happiness is utterly beyond description. It can neither be described as the embrace of the beloved, nor as massage with sandalwood paste. Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शमशैत्यपुषो यस्य, विप्रुषोऽपि महाकथा। किं स्तुमो ज्ञानपीयूषे, तत्र सर्वाङ्गमग्नताम् !।।७।। ज्ञान एक ऐसा अमृत है, जिसके एक बूंद की भी भारी महिमा है। वह भी प्रशमसुख की शीतलता की पुष्टि करता है। तो फिर उस ज्ञानामृत में जो सर्वांग निमग्नता हो, उसकी तो हम क्याँ प्रशंसा करे? Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'જ્ઞાન એક એવું અમૃત છે, જેના એક ટીપાનો પણ મોટો મહિમા છે, એ પણ પ્રશમસુખની શીતળતાની પુષ્ટિ કરે છે. 'તો પછી એ જ્ઞાનામૃતમાં જે સર્વાગ નિમગ્નતા હોય, એની તો અમે શું પ્રશંસા કરીએ? Knowledge is such a nectar, even one drop has tremendous importance. It strengthens the soothing coolness, of the bliss of equanimity. What can one say in praise of one who is completely immersed in the nectar of knowledge? Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यस्य दृष्टिः कृपावृष्टि-गिरः शमसुधाकिरः। तस्मै नमः शुभज्ञान-ध्यानमग्नाय योगिने ।।८।। जिन की दृष्टि कृपा की वृष्टि है, जिन की वाणी प्रशम सुधा की बौछार करती है, जो शुभ ज्ञान-ध्यान में मग्न है, ऐसे ओ योगी ! आप को हमारे लाख लाख नमस्कार है। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'જેમની દષ્ટિ કૃપાની વૃષ્ટિ છે, જેમની વાણી પ્રશમ સુધાના છાંટણા કરે છે, જે શુભ જ્ઞાન-ધ્યાનમાં મગ્ન છે, એવા ઓ યોગી ! આપને અમારા | લાખ લાખ નમરડાર છે. Those, whose very glance is like the rainfall of blessings, whose words shower down the nectar of equanimity and who are immersed in auspicious knowledge and meditation, we genuflect a hundred thousand times, before such Yogis. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरिता, धन्यता की धारा सुख की सरिता और परमानंद की प्रणाली... बह रही है. हम मग्न हो ज MULTY GRAPHICS 1022) 23873222423884222