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लो इसको भी पढ़लो ?
महात्मा रिषभदास
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निवेदन
मैं जैसा ओसवाल जाति का शुभचिन्तक हूँ वैसा ही सेवग जाति का भी हितेच्छुक हूँ। मैंने यह लेख न तो सेवगों को हानी पहुँचाने या हलके दिखाने की नीयत से लिखा है और न सेवगों के साथ मेरा जरा भी द्वेष है इस लेख की ५००० प्रतिएँ वित्तीर्ण करने से जितना फायदा ओसवालों को हुआ उतना ही लाभ सेवगों को भी हुआ है मेरा लेख पहिला तो सेवगों को कुछ कटु सा लगा ही होगा कारण कटु दवाई का स्वभाव है कि लेते समय दिल को दुख देती है पर परिणाम उसका अच्छा हो आता है इस भाँति मेरे लेख को पढ़ कर बहुत सेवर्गों ने स्वयं ओसवालों से मांगना त्याग दिया है और वे नौकरी व्यापार हुन्नरादि में लगकर पराधीनता की जंजीरों को तोड़ दो है और बहुतसे सेवग इसका अनुकरण करने को तैयार भी होगये हैं आशा है कि थोड़े ही अर्से में सेवग जाति स्वतंत्र बन सुख का अनुभव करने लग जायगी ।
जिन महानुभाव ओसवालों ने मेरा लेख पढ़ा है। वे जैन मंदिरों सेवगों को हटा दिया और उनको त्याग सीख बिदा देना भी बंद कर दि वे लोग न तो सेवगों से राखी बंधाते हैं न तिलक करवाते हैं और न पगलागना भी करते हैं । किन्तु अभी ऐसे ओसवालों की भी कमी नहीं है। कि मेरा लेख पूर्ण पढ़ा भी न होगा इतने में ही इस लेख की सब नकलें खतम होगई उन महानुभावों के लिये मुझे दूसरी आवृति छपवानी पढ़ी है ।
मैंने मेरे लेख में सेवर्गों को भाट बतलाया है और सेवग कहते हैं कि हम शाकद्वीपीय मग हैं यदि वे प्रमाणिक प्रमाणों द्वारा बतला दें तो मुझे मानने में एतराज भी नहीं हैं क्योंकि मुझे इनके साथ किसी प्रकार का सम्बन्ध तो करना ही नहीं है इस हालत में चाहे वे भाट हों चाहे मग हो ?
महात्मा रिषभदास
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जैनों आप पढ़ो ! अपने मित्रों को पढ़ाश्रो ! !
और सोती हुई समाज को जगाओ ! ! ! ओसवालो के साथ भाट, भोजक और सेवगों
का
सम्बन्ध।
(लेखक : महात्मा रिखभदास ) “करिबन दो वर्षों पूर्व दो किताबें मेरे हस्तगत हुई जिसमें भक तो जैसलमेर निवासी सेवग तेज कवि की लिखो
सूर्यमगप्रकाश" और दूसरी सेवग जयलाल रचित * मगाशिषभाष्य "। इन दोनों किताबों का अवलोकन करने से ज्ञात हुआ कि सेवग लोग शाकद्वीप' से आये हुए हैं और वे लिखते हैं कि हम श्रोसवालों के ही नहीं पर जैनियों के परम पूजनीय भगवान् ऋषभदेव' के दोदा के भी गुरु हैं
१ शाकद्वीप अनार्य देशों में एक द्वीप हैं । वहाँके रहनेवाले लोग भी अनार्य ही थे। तेज कवि क मतानुसार मग विप्रों के पूर्व वहाँ क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र एवं तीन ही वर्ण थे यह एक अनार्यों की ही निशानी हैं। ( देखो पत्रिका न० २)
२. “ मगर्यप्रकाश" पुस्तक के ५९ वा पृष्ठ पर तेज कवि एक कवित में लिखता है कि
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इसलिये जैन समाज हम को गुरु मानकर पगे लागना करें-इत्यादि ।
श्रोसवालों से दाफत करने पर वे कहते हैं कि सेवग लोग हमारे मंगते.( मांगनेवाले ) हैं और हमारे घरों में ढोलियों व नाइयों की मुश्राफिक कमीनपने के काम करते हैं-इत्यादि । इन दोनों की मान्यतामें जमीन आकाश सा अन्तर है जिसके निर्णय के लिये मैंने दो वर्ष तक खूब परिश्रम के साथ अभ्यास किया, प्रोचीन इतिहोस और ग्रन्थोंद्वारा जो कुछ पत्ता मिला वह मैं पब्लिक के सामने पेश कर देता हूँ कि वे सत्यासत्य का निर्णय स्वयं करलें।
विक्रम पूर्व ४०० वर्ष की घटना है कि पार्श्वनाथ प्रभुके छठे पट्टधर आचार्य, श्री रत्नप्रभसूरिने मरुधर में पदार्पण कर उपकेशपुरनगर ( ओशियों ) में राजा उत्पलदेवादि राजपूतों ब्राह्मणो और वैश्य वर्ण के ३८४००० कुटम्बों को जैन धर्मकी शिक्षा-दिक्षा दे उन की शुद्धि कर जैन बनाये और उन जनसमूह को समभावी बना के प्रेमरूपी सूत्र में संकलित ऋषभदेव स्वामि का पिता नाभिराजा नृप ।
दादा अग्नीन्दा भूप जम्बुद्वीप जाने हैं ॥ ताके निज भ्रात शाकद्वीप राज भोगे तहाँ।
भेगा तिथि नाम को पुराण सब माने हैं ॥ जाके गुरु मग विप्र भोजक कहलाते सो।
गुरु सप्त भ्रातन के हृदयभाव ठाने हैं। जैन धर्मवालों के ऋषभादि तीर्थकर । पूर्ण भगवान् पद्य आदउँका माने हैं ॥ .
. (देखो पत्रिका नं० १) १. देखो पत्रिका नम्बर ३. कमीनाने के काम की विस्तृत सूची।
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कर अर्थात् “महाजन संघ." स्थापन किया और उनके आत्मकल्याणार्थ श्रीमहावीर देवका मन्दिर बनवाकर उसकी प्रतिष्ठा भा करवाई । जिसकी खुशी में स्वामीवात्सल्य भी किया । जिमन के लिये उन्हों को ही आमन्त्रण किया कि जिन्होंने जैन धर्म स्वीकार किया था। उस समय राजपूतों कों मांगनेवाले भाटोंने महाजनसंघ से अरज की कि हम लोग आपके : आश्रित है, आप हमारे मा, बाप और हम आप के बेटाबेटी हैं, अतएव आप के प्रत्येक जमणवार में हम लोक सदैवसे जीमते आये हैं फिर आज के जीमणवार से हम लोगों को दूर क्यों रखे जाते है ? यदि ऐसा होगा तो यह पुराणा सम्बन्ध सदा के लिये तूट जायगा इत्यादि । इस पर महाजनसंघने कहा कि यह स्वामीवात्सल्य हमारे धर्म सम्बन्धी हैं, इस में वे ही सामील हो सकते हैं जो जैन धर्म स्वीकार कर ठीक पालन करते हो। भाटोने कहा कि जब आप लोगोने जैन धर्म को स्वीकार कर लिया हैं तो हम लोग भी जैन धर्म पालन करने को तैयार है, तथापि चिरकोल के संस्कारों को लेकर महाजन संघ' ने उन भाटों को अपनी पंक्ति में जीमना स्वीकार नही किया। इस पर भाट लोगः एकत्र हो कर आचार्य रत्नप्रभसूरि के पवित्र चरणकमलों में जाकर अपनी दुःखगाथा कह सुनाई। परम दयालु आचार्यदेवने महाजन संघ को कहो यदि यह लोग श्री संघ की सेवा और मन्दिरो, उपासरों का यथोचित कार्य करे तो इनका निर्वाह आप को करना अनुचित नही है.। श्री संघ सूरीश्वरजी के इन इसारों को शिरोधार्य कर लिया और एक ऐसी योजना तैयार की कि जिस से उन भाटों के साथ चिरस्थायी सम्बन्ध बना रहे । वह योजना निम्न लिखित थी । भाटों को कहा गया कि
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(१) वाममार्गीयों का परिचय सर्वथा छोडना होगा ।
(२) मांस मदिरादि अभक्ष पदार्थों का सर्वथा त्याग करना होगा।
(३) श्रद्धापूर्वक जैन धर्म का सदैव पालन करना होगा। ..(४) जैन मन्दिरों वह उपासरों का काजा, कचरा सदैव निकालना होगा।
(५) जैन मन्दिरों के बरतन चरकादि हमेशां घास मांज के तैयार करना होगा ।
(६) मुनि महाराजों की सेवाभक्ति सदैव करता रहना ।
(७) महाजनों की सेवा-चोकरी में सदैव हाजर रहेना होगा।
(८) महाजनो के न्याति कार्यों में नेता तेड़ा देना होगा।
(९) महाजन संघको एकत्र करने को घर घर बुलानेकों जाना होगा।
. (१०) महाजनोंकी बहु बेटियों सासरे वह पीयर जानेके समय तुम्हारी औरतें साथ पहुँचानेकों जावेगी।
(११) महाजनों के सिवाय अन्य कोम से याचना नहीं करनी।
(१२) महाजनों के साथ आजसे तुम्हारा यह व्यवहार रहेगा कि महाजनों को देखते ही तुमका कहना होगा कि " पार्श्वनाथ उदय करे” “भगवान सहाय करे”. इस पर महाजन कहगा कि "हाँ आओ भाट राव." __पूर्वोक्त शर्ते तुम लोग सादर पालन करोंगे तो महाजन संघ निम्नलिखित शौसे तुम्हारी सहायता करेंगे।
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(१) प्रत्येक घरसे: महोजन तुमको सदैव एक एक रोटी देता रहेगा कि तुम्हारा निर्वाह होगा ।
(२) महाजनों के न्याति जाति जीमणवारों में तुम सबको जीमा देंगे।
(३) महाजनों के वहाँ लग्न शादी में ढोल बजाई (त्याग) के रूपये तुमको देंगे जो पहले ढोलियों को दिये जाते थे जिससे तुम्हारा अन्य खर्च का निर्वाह होगा।
(४) पर्व त्याहारों में महाजनों के वहाँ मिष्टान भोजन बनेगा वह प्रत्येक घर से थोडा थोडा तुमको भी दिया जायगा, जो प्रत्येक घरोंसे तुम लोग मांग के ले जाते रहोगे।
(५) जैन मन्दिरों में फल, फूल, नैवेद्य, और अक्षत अर्पण किया जाता है वह सब तुम को मिलेगा। जो पहिले मन्दिरों के उपर 'बलपीठ' पर रख दिया जाता था जिसको कौवादि पक्षी भक्षण करते थे। इत्यादि.
महाजन संघने उन भाटों को कहा कि तुम्हारे लिये यद स्कीम है। यदि तुम लोग महाजन संघ की तथा जैन मन्दिरों वह उपासरा और जैन मुनियों की सेवाभक्ति और कार्य दिलोंजानसे करते रहोगे तो महाजनसंघ तुम्हारी अच्छी खातरी रखेंगे। इन दोनों प्रकार की शर्तों को भाट लोगोंने सहर्ष स्वीकार करली तब महाजनसंघ जीम लेने के बाद नाई वगेरह जीमते हैं उनकी पंक्तिमें भाटों को भी भोजन करवा दिया। उसी दिनसे भाट भोजक कहलाये। भोजकोंने महाजन संघ की अच्छी तरहसे टहल बन्दगी अर्थात् सेवा. चाकरी करके उन के हृदय में स्थान प्राप्त कर लिया। महा. जनोंने भी भोजकों को खूब अपनाया। करिबन ३० वर्षों तक तो पूर्वोक्त शर्तोका ठीक तौर से पालन होता रहा ।
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महाजनों का अधिक परिचय होने के कारण भोजकों में भाटपने का बहुतसा कुरिवाज मिट गया परन्तु भाटों में जो डिंगल' कविता अर्थात् देनेवालों के गुण और नहीं देनेवालों के अतिशय अवगुणवाद बोलने के संस्कार थे वे जैसे के वसे बने रहे। इसका मुख्य कारण मांगन वृत्ति ही थी।
ढोलियों और भोजकों के आपस में कई अर्सा तक खूब द्वंद्वत्ता अर्थात् परस्पर विरोध चलता रहा। इसका कारण ढोल बजाई के रूपये ढोली लेते थे वह भोजक लेने लग गये, परन्तु महाजन संघ की उदारताने इस झगड़े को मिटा दिया कारण ढोलियों के लिये और कई प्रकार की आमन्द के मार्ग खोल दिये।
भोजकोंने वाममागियों का धर्म त्याग दिया और जैनों की चाकरी करना स्वीकार कर लिया इस पर वाममार्गियों के नेताओंने शेष रहे हुए अन्य स्थानोंके भाटों को बहकाये कि वे लोग भोजकों के साथ न्याति सम्बन्ध तोड़ दियो अर्थात् न्याति से बाहर कर दिया, परन्तु भोजकों पर महाजन संघ का जबर्दस्त हाथ होने से उनका कुछ भी जोर न चल सका । आखिर भोजकों का परिवार बढ जाने से एक स्वतंत्र जाति बन गई और आगे चल कर कई गौत्र भी स्थापन हो गये।
वीर निर्वाण संवत् ३७३ वर्षे उपकेशपुर नगर में ग्रन्थी. १. देखो पत्रिका नं. ४
२. चामुंडा देवी महावीर प्रभुकी मूर्ति गाय का दूध और वेलू रेती से बना रही थी और ६ मास में सर्वाङ्ग सुन्दराकार मूर्ति बन जाना पहली से सूचित भी कर दिया था पर भवितव्यता के वशीभूत हो श्री संघने सात दिन पहला मूर्ति निकाल ली ईस कारण से मूर्ति के हृदयस्थल पर निंबु फल सदृश दो गांढे रह गई । वीर संवत ३७३ में किसी अज्ञान व्यक्तिने एक सुतार को लाकर वे गांठों छिदवाना
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छेद का एक बड़ा भारी उपद्रव हुआ । इस कारण महाजन संघ से कई लोग उपकेशपुर त्याग कर चले गये, कई लोगोंने नया नगर बसाया और कई लोगोंने अन्य नगरों में जाकर वास किया । उन महाजनों की सेवार्थ भोजक लोग भी साथ में गये इस कारण भोजकों का अपर नाम "सेवग " हुआ । महाजन उपकेशपुर से अन्य प्रदेश में जाने से लोग उनको उपकेशी कहने लगे वे ही उपकेशवंशी लोग आगे चल कर ओसवालों के नाम से मशहूर हुए ।
महाजनों का भाग्य भास्कर - राज तथा राजसेवा और व्यापारादि कार्यो से मध्यान्ह के सूर्य सदृश प्रचण्ड एवं तपतेज पराक्रम तथा धन-धान की वृद्धि और उनकी सन्तान भारत के चारों ओर प्रकाश डालने में भाग्यशाली बनती गई। इसका मुख्य कारण उनकी विशाल उदारता, विश्वप्रेम, स्वाधर्मियों से प्रीति - वात्सल्यता और धर्म भावना ही थी ।
महाजनों के सोलह संस्कारादि क्रियाकाण्ड श्रीमाली ब्राह्मण करते थे और उनका जुल्मी टेक्स इतना भारी था कि साधारण जनता को सहन करना मुश्किल था, पर ऊहड़ मंत्रीने इस जुल्म का अन्त कर दिया' अर्थात् महाजन संघने
का दुःसहास किया कि टांकी लागते ही रक्तधारा निकली । सुतार वहाँ ही गिर गया, देवी का कोप हुआ। बाद श्राचार्य कक्कसूरिने वहाँ देवी को प्रसन्न कर शान्ति कराई ।
१ तस्मात् उकेशज्ञातिनां गुरवो ब्राह्मणा नहीं । उएस नगरं सर्वकरण समृद्धिमत् ॥
सर्वथा सर्व निर्मुक्तामुसा नगरं परम् ।
तत्प्रभृति संजात मितिलोकः प्रवीणम् ॥ ( समरादित्य कथासार )
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किसी ब्राह्मणों के साथ नियमित सम्बन्ध नहीं रखा; उन के संस्कारादि सब क्रिया काण्ड निगमवादी जैन ही करते थे।
महाजनों की उदारता जगप्रसिद्ध है । महाजनोंने सेवगों को खूब अपनाया यहाँ तककि ढोल बजाई के पांच-सात रुपये दिये जाते थे वह सेकड़ों नहीं पर हजारों तक देने लगे । इतना ही नहीं पर लग्न-शादियों को सीख विदा में ऊंट, घोडा, गायों और सोना के कड़ा कण्ठी प्रदान करने में तनक भी संकोच नहीं किया । परस्पर वाद और मान ठकुराईने देने की हद तक नहीं रहने दी। यह कहना भी अतिशय युक्ति न होगा कि अन्योन्यो जातियों के मंगतों से महाजनों के मंगते (सेवग) कई गुने चढ बढ के थे । इसका खास कारण महाजन संघ की अमर्यादित उदारता ही थी। प्रत्येक पदार्थ की मर्यादा होती है पर महाजनों के उदारता की मर्यादा नहीं थी। वे सेवगों को मकान बनाके देना तो क्या पर ग्राम आदि भूमितक भी 'बक्सीस कर देते थे, तथापि कृतघ्नी सेवग महाजनों का प्रमाद व बैदरकारी देख जो प्रारंभ में शर्ते थी उनमें बहुतसा परावर्तन करदिया, इतना ही नहीं पर कई नयि २ रुढियों दाखल कर महाजनों को अनेक प्रकारसे नुकशान भी पहुँचाया, जिसका संक्षिप्त उल्लेख कर हमारे कुम्भकरणी घौर निद्रा में सुते हुए ओसवाल भाईयों को जागृत करना हम हमारा कर्तव्य समझते हैं।
(१) ओसवालों के घरों में सेवगों को कांसो को थाली जीमने को नहीं दी जाती थी। अब धीरे २ कांसी की थाली में जोमने लग गये हैं।
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(२) सेवगों को जीमने को पीतल की थाली दी जाती थी और वे अपनो थाली मांज के साफ कर लेते थे तथा सेवगनियों ओसवालों की सब थालिये मांजती थी। अब सेवग पीतलकी थाली में जीमते हैं पर वह झूठी थाली रखके चले जाते हैं। यह कितना अन्याय ! बहुत से ग्रामड़ों __जो अब पंचायती से लिखत हो गये हैं कि सेवग को कांसी को थाली न दी जाय और पीतल की थाली दी जाय तो पहले शर्त कर ली जाय की तुम्हारी थाली तुमको मांजनो होंगी।
(३) सेवगों के हाथ की रोटी ओसवाल नहीं खाते थे अब सेवगनीए ओसवालो के घरों में रसोई तक करने लग गई है और जिन्ह सेवगों के हाथ की रोटी ओसवाल नहीं खातेथे वेही सेवग आज ओसवालों के वहां कची रसाई जिमने में शरमाते है।
(४) जैन मन्दिरों के मूल गम्भारा में प्रवेश करना सेवगों को अधिकार नहीं था । आज वे प्रभु को पक्षाल तक कराने लग गये हैं। फिर भी दिगम्बरों में यह रिवाज है कि नौकर पूजारो मूल गम्भारा में नहीं जाते हैं वे श्रावक स्वयं प्रभुपूजा-प्रक्षाल करवाते हैं।
(५ ) जैन धर्म पालन करने को शर्त. पर भाटों को भोजक व सेवग बना के हजारों लाो रुपये लग्नशादी में दिये जारहे है। आज वे जैन धर्म के कट्टर शत्रु होने पर भी जैनों पर वह टैक्स वसा का तैसा बना हुआ है। सेवग लोग कुण्डोपन्थी और लिंगोपासक होने पर भी जैनो पर दम जगा रहे है । जैन मन्दिरों में मनमाना व्यवहार
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कर रहे है । इतने पर भी जैन समाज की निद्रा दूर नही होती हैं, यह कितनी शोचनीय दशा हैं।
(६ ) सेवग लोग ओसवालों के घरों से खीच-खड़ी रोटी मांग के सदैव ले जाया करते थे । आज नगरों में आटाकी चिवटी मांग ले जाते है । हां गांवडों में खीचखाटा अवश्य मांग लाते है।
(७) न्याति जीमणवारों में महाजन जोम लेने के बाद नाई सेवक एक ही पंक्ति में जीमते और सब काम किया करते थे आज सेवक महाजनों की पंक्ति में जीमने लग गये हैं।
(८) कीसी सेवक के गला में जीनेउ नहीं थी, हाल २५-३० वर्षों से भाट कर्तबी ब्राह्मण बनने के लिये जीनेउ धारण करी है, पर भारतीय ब्राह्मण तो सेवको को अपने चोका में नहीं आने देते हैं अर्थात् चोको बहार बैठा के उपरसे रोटी डाल देते है।
(९) शुभ मङ्गलिक कार्यों के समय दक्षिणावृत शंक्ख बजाया जाता था उसके अभाव आज डपोल शंख बजा कर खुद डपोल बन गये । उस नकली शंखों को जैनाचार्योने मन्दिर के मूल दरवाजा के पास गढवा दिया कि आइन्दा से कोई ऐसा डपोल शंख न बजावे, पर आज तो सेवकोने पुनः वही डपोल शंख बजाना शुरू कर दिया । ओसवालों को पुच्छने की फुरस्त ही नहीं हैं।
(१०) सेवक ओसवालों के मंगते जाजम के किनारे जूत्तौं की जगह खडे रहते थे वे ही प्राज ओसवालों के शिर पर तिलक करने को तैयार हो गये है। अरे ! ओसवालों जरो शोचो कि जिस के घर पर न्यात या संघ पदार्पण
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किया हो वह अपना अहोभाग्य समझ अपने हाथों से तिलक कर अपने को कृतार्थ हुआ समझता था । आज आपकी यह दशा कि भाटों ( मंगतों ) से तिलक करवाते हो यह बडा ही अफसोस हैं ।
( ११ ) आधुनिक एक ऐसी प्रथा डाल दी है कि मन्दिर में पूजा पढाई जाती हैं तब बिच में सेवग थाली ले कर पैसे मांगने को फिरता हैं, इससे पूजा में तो विघ्न पड़ता हो है पर पूजा पढ़ाने व सुनने को आते है उन पर भी टैक्स पड़ जाता है । एक धनाढ्य देता हैं तब दूसरा न देवे तो शरम आती है । कितनेक लोग इसको अनुचित समझ पूजा में आना ही दिया हैं वह नादरशाही नहीं तो और क्या है ?
छोड़
(१२) कितनेक सेवगोंने तो रखा है कि अमुक द्रव्य हो तबही पढ़ाई जाती है । जैसे एक एक पद होना चाहिये, पदों में इत्यादि ।
अमुक नाणा
यहाँ तक जुलभ मचा हमारा मन्दिर में पूजा पर नालेर और गोला रोकड़ होना चाहिये
प्रभात
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(१३) पर्युषणों के महामंगलिक दिन हैं उस दिन आटा का 'पेटिया जैन मन्दिर में ले जाना अमंगलिक तो है ही पर साथ में कुशकुन भी हैं । वीतराग के मन्दिर में आटा ले जाना कितना अयुक्त है ? पर गाड़री प्रवाही लोग इसका निर्णय क्यों करे कि यह धौर आशातना के साथ दुर्गति का भी कारण है ।
(१४) कई अज्ञ लोगों को तो धूर्त सेवगोंने यहाँ तक बहकाया है कि शाक रोटी आदि कोई भी चिज हो पहले : मन्दिर चढ़ानी चाहीए । इस कारण भद्रिक गांवड़ो के लोग
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रोटी शाक तोरू भीण्डी, काकडी, बौर, कोला आदि तुच्छ वस्तुओं भी अन्य देवों के मुवाफिक वीतराग के मन्दिर में चढ़ाया करते हैं। यह भक्ति नहीं पर महान् कर्मबन्ध का कारण है।
(१५) भारतीय ब्राह्मण श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को उनके यजमानों के राखी बांधते हैं। उनके देखादेखी सेवक लोग भी जैनीयों के राखी बांधना शुरू कर दिया है और अनभिज्ञ लोक बन्धाय भी लेते हैं। यह कितना अन्धेर और अज्ञानता! जैनों में न तो राखी का त्यौर है और न राखी बन्धानो चाहिये। कई धूर्त सेवक तो श्रावण मास लागते ही गामड़ों में जाकर राक्खी का नाम से बिचारा भद्रिक ओसवालों को ठगबाजी कर लूट लाते हैं । ओसवालों को चाहिये कि वे सेवकों से राखी नहीं बंधावे ।
(१६) गामड़ों के भोले आसवाल तथा दक्षिण बरारादि के.कितनेक अनभिज्ञ लोग सेवकों को" पगे लागणा" भी करते हैं कि वास्तव में सेवक ओसवालों के मंगते हैं। इस लिये अब पगे लागना बिलकुल नहीं करना चाहिये ।
(१७) भाट और ढोलियों के चिड़ाने से सेवकोंने करीबन् १५० वर्षों से लग्न-शादी जैसे महा मंगलिक कार्य में आशीष के नाम पर एक छप्पया बोलते है जिस में बार बार 'तीन तेरह तेतीसा' बोलते । यह आशीष नहीं पर दुराशीष है । वास्तव में ओसवालों की तोन तेरह और तेतीसा कराने में यह छप्पय ही कारणभूत है। फिर भी ओसवालों को इस बातका विचार ही क्यो आता है ? छप्पया हम आगे के पृष्ठों पर लिख देंगे। .
(१८) जैन मन्दिर की चाबियों सेवकों के पास रहतो
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है और कहाँ २ पर तो वे अपना हक्क तक जमा लिया है । गामड़ों में तो क्या पर कई तीर्थों पर जहाँ मुनीम गुमास्ता रहते हैं यहाँ भी चाबियों सेवक के पास रहती है, यह कितना अन्धेर ? जब दर्शनार्थी यात्रु आते हैं तब चाबियों के लिये सेवको को ढूंढना पड़ता है, इसी कारण बहुत से मन्दिरों से सेवकों को हटा दिया या चाबियों छीन ली है, वास्तव में सब जगह ऐसा होना चाहिये ।
(१९) जैन मन्दिरों के पोछे जंगम और स्थावर जायदाद तथा राजसे मिली हुई भूमि ( खेत भेरादि ) आज कई वर्षो से उनकी आमंद सेवग खा रहे हैं । आज तनख्वाह से मन्दिर पूजने पर या मन्दिरों की सेवा पूजा छीड़ देने पर भी वे अपना हक बताते हैं । मेवाड़ादि प्रदेशों में तो सेवगोंने अपना हक साबित करने को राज में दावा भी पेश करदिया हैं | क्या जैनों के नशों में खून: है कि मन्दिरों की मिली हुई भूमि इस प्रकार पाखण्डियों के हाथ से बचा कर देवद्रव्य का रक्षण कर सके ? मुकदमाबाजी में सेवक कुठे हो चुके हैं और जैनियों का हक साबित रहा ।
(२०) जैन मन्दिरों की सेवा पूजा के बदले ही त्याग सीख विदा दी जाती है। आज सेवा पूजा के बदले तनख्वाह देनेपर या पूजा सेवा छोड़ देनेपर भी त्यागादि के लाखों रुपये दे कर इन मंगतों का होसला बडाया जो रहा है क्या ओसवाल समाज इस पर तनक भी विचार करेंगे कि हम सर्प को दूध क्यों पिलाते हैं ?
(२१) यदि सेवक शाकद्वीपी ब्राह्मण हैं वे शिवलिंग या विष्णुधर्मोपासक हैं तो फिर इनके साथ जैनियों का क्या सम्बन्ध रहा ? जैसे भारतीय ब्राह्मणों के साथ व्यवहार है
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वैसा ही इनके साथ रखना चाहिये । लग्न-शादो में लाखों रुपये देने का अर्थ क्या ? अर्थात् सेवकों को किसी प्रकार एक पाई भी नहीं देनी चाहिये । यदि कोई अज्ञ सजन सेवकों की हिमायती करता हा तो उनको सेवकों की लिखी किताबें पढना चाहिये कि उन निंदकोंने जैन धर्म वह ओसवालों की कैसी निंदा लिखी है।
(२२) गोडवाड, जालौरी, सिवाणवी और थली प्रान्त के सेवक ओसवालों के वहां कच्ची रसोई जीमते हैं जिन्हों को कई सेवक हलके और नीच समझते हुए भी उन्हों के साथ भोजन व्यवहार करते हैं ऐसे कृतघ्नी सेवकों को देने की बजाय गायों और कुत्तों को डालना अच्छा है ।
(२३) जैनों के सिवाय अन्य जातियों से याचना करने में सेवक कहते थे कि एक हाथ तो ओसवालों के नीचे दूसरा गुदा पक्षालन करने को है। तीसरा हाथ कुदरतने नहीं दिया कि दूसरों के नीचे मांडे परन्तु धर्महार धन इच्छक सेवक अब हरेक जाति के नीचे हाथ मंडने को तैयार है।
(२४) गामडों के या दक्षिण बरार के ओसवालों को सेवक इतनी तकलीफ देते हैं कि विवाह आदि या आसरमोसर में मेहमान १०० आते हैं तब सेवक ५००-७०० एकडे हो जाते हैं । वे खाने की बजाय लडू चोरके अधिक ले जाते है' और घरधणी को इतनी तकलीफ देते है कि उनके दुःख के मारे वे गाम २ जाकर घर बैठे सेवकों को त्याग चुकाते है । अरे ओसवालों ! अब भी आप घोर निद्रा में सुते ही रहोगे ? इस कर्तव्यी त्याग को बन्ध करो और वह ही द्रव्य देशहित में व्यय करो।
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( २५ ) प्रतिष्टा, उपधान, उजमणा और अठाई महोत्सवो में भी आजकल सेवक लोग एकत्र होजाते है और वे शोभार्थी प्रोसवाल उन निंदकों को सीख विदा देकर मिथ्यात्व का पोषण करते हैं । सेवक कहते हैं कि हम ब्राह्मण हैं तो फिर उनको हजारों रूपये देकर सर्प को दूध पीलाने में क्या लाभ हैं ? इसकों विचारों । ओसवालों के देखादेखो पोरवाल भी डूबने को तैयार हुए हैं पर पोरवालो को सोचना चाहिये कि सेवकों के साथ हमारा क्या सम्बन्ध हैं ? ओसवालों के साथ सम्बन्ध था वे तो जहां तहां इस शक्रान्तको दूर करना चाहते हैं इस हालत में पोरवाल इन निंदको को क्यों अपनाने को तैयार होते है ?
इनके अलावा और भी कई प्रकार के अत्याचार करते है थोडीसी कंसर पड जाने पर यह निंदक अनेक प्रकार के अवगुणबाद बोलते हैं, बूरे कवित बनाते हैं, भगवे कपडे करते हैं, पुतला बना के जलाते हैं, ओसवालों का अनिष्ट होना चाहते हैं क्या यह कंगला या नानकशाहीपना नहीं ? फिर भी सेवक कहेते है कि हम पुरोहित या ब्राह्मण है पर किसी भारतीय ब्राह्मण या पुरोहितोने स्वप्न में भी ऐसा नीच कृत्य किया हैं क्यो कि वे आर्य है, सेवक अनार्य हैं और यह नीच कृत्य अनार्य ही करते हैं । ओसवालों ! अब इन निंदको के धतींग से डरने की आप को आवश्यकता नहीं हैं । इनके पास कुच्छ भी करामात नही हैं । तुम्हारा बाल भी का कर नहीं शकते हैं। यदि फेल करे तो पुलिस का थाना बतला दो ।
अहो ओसवाल भूपालो ! कहाँ तक निद्रा देवी की गोद में लेटे रहोगे। तुम्हारे जाति भाई इन नीच भाटों से कितने दुःख सहन करते है ? कितना कष्ट उठाते है ? इस हालत में
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भी एक दूसरासे चढबढ के त्याग देना, ढोल बजाना और प्रतिवर्ष लाखों करोडों रुपये इन निंदको को देकर पाखण्ड का पोषण कर उन का होसला बडा रहे हो; पर इस का नतीजा क्या हो रहा है वह आप के सामने है। जब दूसरी
ओर आप का जाति भाई द्रव्य सहायता के अभाव बैकार बैठे है, दुःखमय जीवन गुजार रहे है, धर्म से पतित बन रहे है, आपके बालबच्चे अज्ञान में सड़ रहे हैं क्या उन पर भी आप को कभी करुणा, दयो, रहमता आती है ? अतएव आपकी पतन दशा का मुख्य कारण आप की ही अज्ञानता है । जरा एकान्त में बैठ के सोचो, समजो और इन सेवको की शैक्रान्त से शीघ्रातिशीघ्र मुक्त हो जाईये । ईन भोजकोने कर्तव्यी ढांचा बना के जनता को किस प्रकार से धोखा दिया हैं जरा ईन सेवको की गप्पे भी सुन लीजिये ।
- कवि तेज अपनी “ सुर्यमगप्रकाश " किताब में लिखते हैं कि शाकद्वीपमें पहले क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र एवं तीन ही वर्ण थे, बाद सूर्यने मगको पेदा किया । ठोक है सेवगों अाकाश में चलता फरता सूर्य का वीर्य पतन हुआ और किड़ो की माफिक उस से मग विप्र उत्पन्न हुए हो या सूर्यने जैसे सती कुंती का सतीत्व नष्ट किया था इसी मुवा. फिक और किसी सती से गमन कर मगों कों पैदा किया होगा इसी कारण मगों के पिता तो सूर्य हैं पर माता का आज पर्यन्त पत्ता नहीं है कि किस के उदर से सेवक पैदा हुए । अरे दंभियो ! यह सृष्टिविरुद्ध कार्य कभी हो सकता है कि ब्रह्मा के विधान में भूल रही जिसको सूर्यने सुधार कर चोथा वर्ण बनाया ? वास्तव में बात यह है कि अनार्य देश में वर्ण व्यवस्था नहीं थी पर अनार्य सेवक ब्राह्मण बनने के लिये यह कल्पना की हैं, पर इस से भारतीया किसी ब्राह्मणोने इन
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को न तो ब्राह्मण माना है और न ब्राह्मणत्व का इन के साथ व्यवहार ही रखते हैं ।
आगे चल कर कवि तेजने लिखा है कि शाखद्वीप का राजा मेगातीथी जो भगवान ऋषभदेव के पिता नाभिराजा के काका था जिन के गुरु मग चित्र थे । इन निंदकों का अभिप्राय यह है कि हम केवल प्रोसवालों के ही गुरु नही पर जैनीयों के परम पूजनीय तीर्थंकर ऋषभदेव के भी गुरु हैं । यदि सेवगों से पूछा जाय कि भगवान ऋषभदेव किस समय हुए और मग विप्रों को सूर्यने किस समय पैदा किया ? इन दोनों के समय में असंख्य वर्षो का अन्तर है । भगवान ऋषभदेव के समय मग विप्रो का जन्म भी नहीं हुआ था । इस हालत में यह निंदक बिलकुल निराधार गप्पे ठोकने में नहीं शरमाते हैं । इन कृतघ्नीयों को अन्न-जल देने का यह फल हुआ कि जो मंगते थे वे आज गुरु बनने को तैयार हो रहे है । धिक्कार है उन ओसवालों कों और जैनियों कों कि इन निंदकों कों अपने द्वार पर चडने देते हैं । इससे तो बेतर है कि गायों कुत्तों का पालन करे ।
इन भाटोंने केवल ओसवालों की ही नहीं पर तमाम भारतीय ब्राह्मणो की भी भरपेट निंदा की है। आगे कवि तेज. लिखते है कि श्री कृष्ण का पुत्र साम्बकुमार के शरीर में कुष्ट का रोग हुआ तब उसने सूर्य की आराधना कि जिस से आरोग्य हुआ । प्रत्युपकार में ऊसने सूर्य का मंदिर बनाया पर उस मन्दिर की सेवा-पूजा करनेवाला अखिल भारत में कोई भी ब्राह्मण न था तब शाकद्वीप से अठारा (कोटी) मग विप्रों के कुटुम्ब को एक निरापराधी गुरुड पर बैठा के भारत में लाना पड़ा। इतना ही नही पर श्री कृष्णने ऊन मंगों की
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पूजा कर मात्र एक शिवलिंग वरज के सब तीर्थ और मन्दिरो की पूजा का अधिकार मगविप्रो को दे दिया अर्थात् ऊस समय भारतीय सब ब्राह्मण तीर्थ व मन्दिर पूजने में अयोग्य व भ्रष्ट समझे गये थे इत्यादि मनःकल्पित गप्पो से थोथा पोथा भर मारा है।
इन मगों को पूछा जाय कि श्री कृष्ण के पहेला भी भारत में सूर्य के मन्दिर और सूर्योपासक सूर्यवंशी विद्यमान थे तो क्या तुम्हारी मान्यता से तुम अनार्यो से भी भारतीय ब्राह्मण पतित हो गये थे कि सूर्य की पूजा के लिये शाकद्वीप से अनार्य मगों कों बुलना पडा ?। अरे मगो! जरा आंख बिचके विचारो। तुम्हारी इन गप्पों को इस सुधारा हुआ जमाना में कौन मानेगें कि बिचारा निरपराधी एक गुरुड पक्षी पर अठारो करोड़ निर्दय मग बैठ गये और पक्षी जीवत रह गया ? श्रीकृष्णने कोशी, मथुरा, प्रयाग, अयोध्या और द्वारकादि सब तीर्थ और मन्दिरों की प्रजा का अधिकार तुम को दे दिया तब भारतीय ब्राह्मणों का क्या हाल हुआ होगा ? पर आज भारतीय ब्राह्मणों की विस्तृत संख्या और प्रायः सव तीर्थ व मन्दिरों की पूजा उन के अधिकार में है
और आज वे सर्वत्र पूजा-सत्कार पा रहे हैं तब तुम्हारा हाथ में डपोल शंक्ख और आटा की चरी रही कि पोसवालों के घरों से आटा मांग लाभो । वह भी खूब तिरस्कार के साथ। क्यों रे भाटों तुम किस समय और किस प्रकार से भ्रष्ट हुए कि तुमारे अधिकार से सब तीर्थ व मन्दिरों की सेवा-पूजा चली गई ? और तुप को ओसवालों की चाकरी ही नहीं पर कमीनपने के कार्य करना पड़ा । अरे सेवगों ! गप्पे की भी कुछ हद होती है । क्या तुम को यह विश्वास है कि इस सभ्यता
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का जमाना में विद्वान तुमारी इन निराधार गर्ने को सच्च समझ लेगा ? हरगिज नहीं ।
सेवगों ! तुम्हारे पूर्वजोंने शिवलिंग पूजने से इन्कार क्यों किया होगा ? क्या लिङ्ग की स्थापना योनि में होने से शरम या भय हुआ था और तुम लोग प्रतिज्ञाभ्रष्ट हो फिर लिंग की पूजा, उपासना करने लग गये तो यह लिंग से प्रेम किस कारण हुआ ?
आगे चल कर कवि तेजने अपनी किताब में घसोट मारा है कि कोई व्यक्ति एक भोजक को अपने घरपर बुलाकर भोजन करवाता है उस के वहां ब्रह्मा, विष्णु, महेश और सूर्यादि सब देवता जीम जाते हैं । इस विषय में तो सेवगोंने वैकुण्ठ की सड़क ही साफ करदो है । पर आज पर्यन्त किसीने इस वाक्यों को स्वीकार नहीं किया, कारण ब्रह्मकर्म और तपजप, क्रियाकाण्ड करानेवाले आर्य ब्राह्मणों को छोड कर इन कुंडापन्थी अनार्यो को भोजन करवाने में कुत्तों को टुकडा डालने जितना ही पुन्य शायद ही होता हों ? इस कारण ही सेवग ओसवालों के यहां मजूरी करते हैं और खीचखाटों व आटा मांग कर अपना गुजारा करते हैं ।
उसी किताब के आगे के पृष्ठों पर अंकित है कि मग विप्रों की स्त्रियों कों सूर्य को स्त्री समझ उनके सामने नहीं देखता । इत्यादि इस विषय में विशेष लिखने की आवश्यक्ता नहीं है । लेखक के समय सेवगनियों की चालचलन कैसी होगी वह लेखक के इस गूढ वाक्य से ही पाठक स्वयं समझ सकते हैं । यह है ब्राह्मणों की करतूत का नमूना ।
आगे ओशियोंनगरी के बारा में कवि तेजने लिखा है कि ओशियां जैसलमेर के पँवारोंने तथा जयलालने लिखा
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है कि धारा के पँवारोंने बसाई । तथा विक्रम सं० २२२ में
ओसवाल हुए इत्यादि । इन सेवगों को मांग खाने के सिवाय इतिहास का ज्ञान नहीं था कारण जैसलमेर वि० सं० १२१५ में राव जैसलने बसाया । जैसलमेर में भाटियों का राज था न कि पँवारों का । धारानगरी विक्रम की दशवी शताब्दि में राजा भोजने अाबाद की जब ओशियां ( उपकेशपुर ) श्रीमालनगर का राजकुमार उत्पलदेवने वि० सं० ४०० पूर्व से भी पहिला बसाई थी और उसी शताब्दि में जैनाचार्य रत्नप्रभसूरिने वहाँ के निवासियों को प्रतिबोध कर 'महाजनसंघ' स्थापन किया । इस विषय में प्राचीन ग्रन्थ पट्टावलियों और वंशावलियों में अनेक प्रमाण मिल सकते हैं ।
(१) आचार्य रत्नप्रभसूरि पार्श्वनाथ के छठे पट्टधर थे। पार्श्वनाथ और महावीर के बिच में २५० वर्षों का अन्तर और महावीर प्रभु से ७० वर्षो में आचार्य रत्नप्रभसूरि उपकेशपुर (ओशयों) में पधार के महाजन संघ स्थापन किया अर्थात् ३२० वर्षो में छ पट्ट होना युक्तियुक्त है, पर वि० सं० २२२ में ओसवाल हुए माना जाय तो पोर्श्वनाथ प्रभु से ८४२ वर्ष में रत्नप्रभसूरि होना चाहिये । ८४२ वर्षों में ६ पाट्ट होना बिलकुल असंभव है। दूसरा महाजनवंश स्थापन किया उसी अर्सा में वहां महावीर प्रभु का मन्दिर की प्रतिष्ठा आचार्य रत्नप्रभसूरिने करवाई जिस विषय में कहा है कि
सप्तत्या वत्सराणं चरमजिनपतेर्मुक्तजातस्य वर्षे । पंचम्यां शुक्लपक्षे सुरगुरुदिवसे ब्राह्मणसन्मुहूर्ते ॥ रत्नाचार्यैः सकलगुणयुक्तः सर्वसंधानुज्ञातैः । श्रीमद्वीरस्य बिम्बे भवशतमथने निर्मितेयं प्रतिष्ठाः ।।
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उपकेशपुर में महावीर मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई उसी समय आचार्यश्रीने कोरंटपुर नगर में भी महावीर मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई थी जिस के विषय में भी कहा है कि--
उपकेशे च कोरंटे तुल्यं श्रीवीरबिम्बयोः । प्रतिष्ठा निर्मिता शक्त्या श्रीरत्नप्रभसूरिभिः ॥
प्रभाविक चरित्रादि ग्रन्थों में इस मन्दिर का अस्तित्व विक्रम की दूसरी शताब्दि में होना उपलब्ध है, इस लिये इस प्रमाण को हम ऐतिहासिक प्रमाण कह सकते हैं। पर यह मन्दिर इस से भी पहेले बनो हुआ लेना चाहिये। इस के अलावा भी बहुत से प्रमाण मिल सकते हैं । देखो मुनिश्री ज्ञानसुन्दरजी का बनाया "ओसवाल जाति समय निर्णय " नामक ग्रन्थ । वि० सं० २२२ में ओसवालों को उत्पत्ति नहीं पर आभानगरी का जगाशाह सेठ ओशियों यात्रार्थ आया और उसने सवाकरोड़ रुपयों का दान सेवगों को दिया। उन के गुणानुवाद के कवितों में सेबगोंने ओसवालसिरोमणी जगाशाहादि के साथ ओसवालों की उत्पत्ति होना लिख मारा हैं और इस बात को चारों ओर फैला भी दी है कि
ओसवाल वि० स० २२२ में हुए पर यह बिलकुल मिथ्या हैं । वास्तव में ओसवालों की उत्पत्ति का समय वि० सं० पूर्व ४०० वर्ष का है।
आगे चलकर सेवग लोग पुरोहित अर्थात् ब्राह्मण होने का दावा करते हैं और ओसवालों के गुरु बनने का होसला रखते हैं। इसलिये उनको कुछ हितशिक्षा देकर उनके बन्ध नेत्रों को खोल दिये जाते हैं ।
(१) सेवगो! यदि तुम ब्राह्मण हो तो भारतीय किस २ ब्राह्मणों से तुम्हारा क्या २ सम्बन्ध हैं ?
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( २ ) भारतीय ब्राह्मण तुमको चोकामें क्यों नहीं आने देते हैं अर्थात् तुमको चोका के बहार बेठा के उपर से रोटी क्यों डालते हैं ?
( ३ ) यदि तुम ब्राह्मण हो तो तुमारे अन्दर ब्राह्मणपने के क्या लक्षण है और तुम शुद्रपने के कार्य क्यों करते हो ?
( ४ ) आचार्य रत्नप्रभसूरिने सबसे पहले उपकेशपुर ( ओशियों) में क्षत्रीय, ब्राह्मण और वैश्यों की शुद्धि कर सब को जैन बनाए और महाजन वंश स्थापन किया उससमयसे आज पर्यन्त तुम मंगते के मंगते कैसे रह गये ? तुम्हारे अन्दर क्या कलंक था ? तुम यह भी नहीं कह सकते हो कि हमारे पूर्वजोंने जैन धर्म स्वीकार नहीं किया कारण तुमारे वंशपरम्परा से जैनसंघ, जैनमन्दिर, जैनाचार्यों की सेव- चाकरी करते आये और जैनधर्म के सब वसुलों को पालते आये हो । इस विषय में निम्न लिखित दोहा चिरकाल से प्रचलित है।
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राजपूतों के चारण भाट, मेसरियों के जागा । ओसवालों के मंगतासेवग, तीनों लारे लागा ॥ "
( ५ ) यदि तुम राजपूतों के पुरोहित ही थे तो भोजक और सेवग कैसे कहलाये ? राजपूतों के पुरोहित आज भारतमें मोजूद हैं उनका अच्छा आदरसत्कार और बहुतसों को जागीरियों ग्राम व भूमि प्राप्त है तो तुम ओसवालों के मंग और कमीनपना के काम कैसे करने लग गये ? क्या आज तुमको कहा ही पर पुरोहित मानते हैं ?
( ६ ) यदि तुम ओसवालों के गुरु थे तो फिर ओसवालों के घरोंमें नाइ और ढोलीयों की पंक्तिमें काम क्यों
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करते आये और आज भी क्यों करते हो ? क्या ऐसे हलके काम करनेवालो को ओसवाल कभी गुरु माना या मानेगा ? कभी नहीं । ओसवालोंने तो यह शब्द ही अब सुना है नहीं तो उसी समय कान पकड़के निकाल देते । याद राखियें ओसवालों के घरों में इतनी पोल नहीं है कि वे मंगतो को गुरु मान लें ।
( ७ ) ओशियों में राजपूत थे और तुम उनके पुरोहित थे तब तो अन्य प्रान्तों में रहनेवाले तुमारे भाई मगविप्र अन्य राजपूतों के भी पुरोहित रहे होंगे। जब ओशियों के राजपूत जैनी बन गये और तुम उनके वहाँ भोजन करने से भोजग तथा उनकी सेवा करने से सेवग बन गये । बतलाइये अन्य प्रान्तों में रहनेवाले तुमारे भाई किस पंक्ति में मिले और उनके साथ तुमारा कैसा सम्बन्ध रहा ? तुम ओसवालों की चाकरी कर या उनके वहाँ कच्ची रसोई जीम कर भ्रष्ट हो गये तो तुम्हारे अन्य प्रान्त में बसनेवाले मगविप्र तुमको न्यात बहार कर दिये या वह भी तुमारे सामिल मिल भ्रष्ट हो गये ? सेवगो अब तुमारी मनःकल्पित गप्पे मानने को और तो क्या पर तुमारे शाकद्वीपी समझदार लोग भी तैयार नही हैं ।
(८) भोजको ! यदि तुम ओसवालों के गुरु ही थे तो बतलावो धर्मगुरु थे या कुलगुरु ? क्योंकि ओसवालों के धर्मगुरु तो कनक, कामिनी के अर्थात् संसार के त्यागी है वह तो तुम बन ही नहीं सकते हों। दूसरा कुलगुरु भी तुम नहीं बन सकों कारण ओसवालों का कुल जैन है और तुम्हारा कुल ब्राह्मण है । जैनियो के जन्म से मरण पर्यन्त सोलह संस्कार व प्रतिष्ठादि धर्मकार्य और उनकी वंशावली वगैरह लिखना जैन निगमबादियों के अधिकार में था । आज
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ऊन निगमबादियों के अभाव ओसवालों के लग्न - शादी वगेरह क्रियाकाण्ड तुमारे कट्टर शत्रु भारतीय ब्राह्मण करवाते हैं और तुम जीते हुए देखते हो । शेष रहा ओसवालों के घरों में कमीनपने के काम वह ही तुमारे हाथ लगा हैं फिर भी तुम को शरम नहीं आती है कि ओसवालो के गुरु बनने को तैयार हो रहे हैं।
( ९ ) क्योंर सेवगो ! ओसवालों के गुरु निम्न लिखित कार्य की किया या करते हैं ? जैसाकि आज तुम करते है । (क) अपनी चाकरी के एवजाना में घर घर से आटा, रोटी, खीचखडी मांग के हमेशां लाना ।
(ख) घर घर में नेता तेड़ा देना बुलाने को फिरना ।
(ग) लग्न - शादी, ओसरमोसर के समय चिठियों व कुकुमपत्रिका ग्रामोग्राम देनेको जाना जैसे राजपूतों में ढेड जाते हैं ।
(घ) ओसवालों की बहु बेटियों को सासरे पियर पहुंचाने को जाना
(च) ओसवालों के गामान्तर जाने के समय चाकरी में साथ जाना ।
( प ) तनाजा होनेपर प्रोसवालों कों मांबाप कहना और आप बेटा बेटी बनना ।
(स) भाटों की माफिक देनेवालों का गुण और नहीं देनेवालों का अतिशय अबगुनबाद बोलना ।
(र) यदि तुम ओसवालों के गुरु ही थे तो तुमारे लिये यह कहावत कैसे चली कि
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" ओशियों नगरी में भये, उपलदेवकी वार | भाटों से भोजक बन्या, जाणे युग संसार |
(न) जब तुम मेवाड़ के सेवगों के लिये कहते हो कि " भोमा तूं भारमल को, कुलने लगायो काट ।
आदू सेवग छोड़के, लारे लगाया भाट || " इसके प्रतिबाद में मेवाड़ के सेवग कहते हैं कि" भोमां उदयो भांण, धरा राखी मेवाड़ की ।
देश निकाले भाट, राह लीवी मारवाड़ की | "
अर्थात् मारवाड़ के सेवग मेवाड के सेवगों को भाट बतलाते हैं तब मेवाड़ के सेवग मारवाड के सेवगों को भाट बतलाते है यदि इन दोनों का कहना सत्य है तो इस बात में किसी प्रकार का संदेह नहीं कि सेवग जाति भाट एवं अनार्य बहार से आई हुई एक जाति हैं ।
पूर्वोक्त बातों से निर्विवाद सिद्ध है कि सेवगलोग न तो राजपूतों के पुरोहित थे न ओसवालों के गुरु ही थे । वास्तव में ये लोग अनार्य देश से प्राये हुए भाटों की गिनती में एक जाति है और ओसवालों के घरों में जो बतलावे वह काम करता रहना बदले में ओसवालोंने कई प्रकारकी लागत बाध रखी है कि जिन से सेवगों का निर्वाह हो सके पर ओसवालों के' और सेवगों के ऐसा सम्बन्ध नहीं है कि जिस से एक दूसरा अलग न हो सके अर्थात् यह सम्बन्ध दोनों की मरजी पर ही रह सकता है ।
आज जो सेवगों का होसला बढ़ रहा है यह ओस
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वालों की बैदरकारी का ही फल है चौर चोरी कर माल ले जाता है इस में चौरों की बजाय घरधणी (साहुकार) की ही बेदरकारी है, क्यों कि चोरों को जान लेने पर भी साहुकार घोर निद्रा में पड़ा रहता है । यह ही हाल हमारे ओसवालों का हो रहा है। यदि ओसवालों को पुछा जाय कि आप जैन धर्मोपासक है, आप के राखी बन्धन से क्या सम्बन्ध है ? सेवगों से तिलक करवाते हैं इस का क्या अर्थ हैं। सेवगों को पगे लागना करते हो इस का क्या रहस्य है ? मंगलिक प्रसंग पर 'तीन तेरह तेतीसा' का छप्पया सुनने का क्या मतलब है ? विधर्मी अनार्य भाटों से जैन मन्दिर पूजा के घोर आशातना क्यों करवाते हो ? इन सब का उत्तर में सिवाय 'गाडरिया प्रवाह' के ओर कोई अर्थ ही नहीं निकलता है।
कवि तेज लिखता है कि सेवग वेदपाठी है पर आज पर्यन्त इन सेवगों में ऐसी कोई व्यक्ति नहीं कि जिसने संस्कृत, प्राकृत या अन्य किसी भाषा में जनोपयोगी ग्रन्थ की रचना की हो जैसे कि भारतीय ब्राह्मणोंने साहित्य की सेवा कर यश कमाया । जिन्होंने न्याय, काव्य, तर्क, छन्द, अलंकार, ज्योतिष, वैद्यक आदि अनेक विषयों पर ग्रन्थों की रचना की
और करते हैं । सेवग लोगोंने एक “चाहाड" नामक कवि को अपनी समाज का विद्वान कवि बतलाया हैं जिस की एक कविता यहां उधृत कर के पाठकों को बतला देना हम उचित समझते हैं।
सताँइस साँत आँठ अठारा तीसी । छ छ छंतीस तीन तेरह तेतीसौं ।
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बेयोलीस बावन चार बारहा बहुत्तर | आउट चोट पांच पन्द्रह एकवीस ||
नैव नैव चर्डेदह रयण दिन । चाहाड़ जपे अभय भृंव । गुरु मुख प्रमाण हित्याणसु । ऐते इच्छ करत तुंव ॥
१ ॥
सेवग लोग ओसवालों के लग्न-शोदी में ढोल बजाई ( त्याग ) के रूपये लेते हैं । उस महामंगलिक समय पर यह कृपया बोलते हैं और इस कवित्त का अर्थ सेवग ईस मुजब करते हैं । २७ मुनिवरों के गुण, ७ नय, ८ कर्म, १८ पापस्थान, ३० महामोहनी कर्मबन्ध के स्थान, ६ काया, ६ लेश्या, ३६ उत्तराध्यान के अध्ययन, ३ गुप्ति, १३ काठिया ३३ गुरु आशातना, ४२ मुनिवरों के गौचरी के दोष, ५२ अनाचार, ४ धर्म, १२ भावना, ७२ तीन काल के तीर्थंकर, साढेतीन करोड़ रोमराय, ६४ इन्द्र, ५ प्रमाद, २१ सबला दोष, ९ तत्त्व, ९ निधान और १४ रत्न । पाठकवर्ग इन अपठित सेवगों की विद्वत्ता की ओर जरा ध्यान लगा कर देखिये कि लग्न जैसे मंगलिक प्रसंग पर शुभ, सुख, सौभाग्यादि की आशीष दी जाती है जिस के बदले में आठ कर्म, अठारा पाप, बावन अनाचार, तेरह काठीया आदि का क्या सम्बन्ध है ? इस को एक बच्चा भी समझ सकता है कि बिना अज्ञानियों के ऐसे शब्द कौन उच्चारण पर हमारे ओसवाल भाईयों को इन बातों की परवाह ही
कर सकते हैं ?
क्यों ? आजपर्यन्त किसीने यहांतक ही नहीं पूछा कि ऐसे मङ्गलिक समय ' तीनतेरह तेतीसा ' क्यों बोला जाता है ? वास्तव में ओसवाल समाज के तीनतेरह एवं तेतीसा करवानेवाला यह छप्पया ही हैं । यह कवित प्राचीन नहीं करिबन १०० - १५० वर्षोसे प्रचलित हुआ हैं । इस का
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मुख्य कारण नाई, ढोली और ब्राह्मण कहते हैं कि हम तो हमारा हक्क बजा कर पैसे लेते हैं पर यह भाट तो गुपचुप ही हजारों रुपये ले जाते हैं । इस हालत में ओसवालो की पोल में यह कवित कहना शरू कर दिया । जप से हमारा लेख श्रोसवाल समाजने पढ़ा और उन्हों को मेरी बात सोलह श्राना सत्य मालुम हुई तब से पूर्वाक्त छप्पया बोलनो बन्ध करवा दिया और सेवगों को साफ कह दिया कि जैसे पूर्व जमाने में तुम कहेते थे कि “ पार्श्वनाथ उदय करो, भगवन् सहाय करो " वैसे ही कहा करो। इस में उभय पक्ष का कल्याण है।
__अन्त में हम हमारे ओसवाल भाईयों से नम्रतापूर्वक निवेदन करते हैं कि जब सेवगलोग श्राप के साथ इस प्रकार का व्यवहार करते हैं तो आप का भी कर्तव्य है कि आप भी सेवगों के साथ ऐसा ही व्यवहार रखे जैसे कि
(१) यदि सेवग आप को कहें कि हम ब्राह्मण हैं तो उत्तर में आप भी साफ कह दो कि हमारे ब्राह्मणों के साथ नियमित प्रतिबन्ध नहीं है कि तुम लोग हमारे पिच्छे फिरतेघूमते रहो । जैसे हम भारतीय ब्राह्मणों के साथ व्यवहार रखते हैं ऐसा तुमारे साथ भी रखेंगे। फिर लग्न-शादीओसर-मोसर और प्रतिष्ठादि कार्यों में लाखों रूपये देने की क्या जरूरत है। वह द्रव्य देशहित में क्यों नहीं लगाया जाय ?
(२) भाटों को। जैन धर्म पालन करना, तथा श्री संघ की टहल चाकरी और मन्दिरों वह उपासरों की सेवाभक्ति करने की शर्त पर हो लाखों करोड़ों रुपये दिये जाते हैं, यदि वे लोग पूर्वोक्त कार्य करने से इन्कार हैं तो प्रत्येक वर्ष इतनी रकम देना तो मानो एक सर्प को दूध पिला करके विषवृद्धि ही करना है।
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(३) सेवग लोग ओसवालों के वहाँ कच्ची पका रसोई जीमते आये और आज भी जोमते हैं । यदि कोई इस बातको इन्कार करे तो सीधा रस्ता बतला दो । सेवगों को चाहिये कि वे अपने को ब्राह्मण साबित कर भारतीय ब्राह्मणों के साथ रोटी व्यवहार करे, बाद कची पक्की रसोई का नाम लें ।
(४) कोई भी ओसवाल न तो सेवगों से राखी बन्धावे, न तिलक करावें, न पगे लागना करे और न तीन तेरह तेतीसावाला छप्पया बोलने देवे ।
(५) जहाँ जैन मन्दिर की चाबियों सेवर्गों के पास है, यह शीघ्र छीन ले । यदि मन्दिरों की पूजा करते हो तो जिस समय पूजा करे चाविए देवा और पूजा करने के बाद चाविए वापिस लेलो ।
(६) जैन मन्दिरों में सेवगोंने जहाँ जहाँ अन्य देवताओं की मूर्तियाँ रखदी हो उन सब को शीघ्र उठा दो ।
(७) ओसवालों का कोई भी काम सेवगों बिना नहीं रुकेगा क्योंकि सेवगों के सुप्रद सिवाय मजूरी के कोई काम नहीं है । यदि सेवग नहीं करे तो दूसरे मजूरो से करवालो । गोडवाड़ वगेरह में रावलादि श्रोसवालों के काम करते हैं ।
(८) जैन मन्दिरों की पूजा भाड़ायती पूजारियों से न करवाके स्वयं श्रावकों को पूजा करनी चाहिये । आपके भाई दिगम्बर स्वयं पूजा करते हैं । जहाँ ३ घर दिगम्बरों के हैं वहीं मन्दिर हो तो दश दश दिन का बारा है कि वे स्वयं पूजा पक्षाल करवाते हैं; पर श्वेताम्बर पराधीन हैं । ४०००० मन्दिरों में १००००० नोकर चाकर और भाड़ायती पूजारी है। प्रत्येक आदमी को कम से कम प्रत्येक वर्ष में २५०) दिया
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जाता हो तो एक वर्ष में २५००००००) रुपये विधर्मीयों कों दिये जाते हैं । मन्दिरों का निर्माण करानेवालो का इरादा जनकल्याण करने का था, न कि इस प्रकार आर्थिक संकट के समय इतनी बड़ी रकम केवल मन्दिरों की पूजाई के बदले दिलाके समाज का द्रव्य वरवाद करनेका।
(९) यदि कोई जैन भाई साधारण की तनख्वाह लेकर जैन मन्दिरों की प्रजा करे तो न तो इतनी अाशातना होगी, न अन्य देवदेवियोंको जैन मन्दिरों में स्थान मिलेगा, वैकारी की पूकारें भी मिट जायगी और देवद्रव्य या साधारण के प्रतिवर्ष ढाई करोड़ रुपये भी बच जायेंगे । और इसमें कोई हर्ज जैसी बात भी नहीं है कारण मन्दिरों की पूजा करना श्रावकों का खास कर्तव्य ही है। मैं तो यहवात जोर देकर कहता हुँ कि जैन मन्दिरों और तीर्थों पर खास कर जैन ही होना चाहिये। ईसकी बेदरकारी से ही शत्रुजय को टेक्स के ६००००) तथा केशरियाजी का मामला बना है।
(१६) जोधपुर बिलाडा, नागोर, कुवेरा, पालो आदि बहुतसे नगरों वह ग्रामों में सेवगों के साथ व्यवहार बन्ध करदिया और उनको त्याग वगेरह नहीं दिया जाता है। इसका अनुकरण प्रत्येक ग्राम नगर में होना चाहिये । कम से कम जिस ग्राम के श्री संघने सेवगों के साथ व्यवहार बन्ध किया उस ग्राम के सेवगों को अन्य ग्रामों में त्याग वगेरह कतई नहीं देना चाहिये ।
(११) जब सेवग निक्कमें बैठे रहते हैं तब ग्रामों में या दिशावरों में मांगने को निकल जाते हैं और अद्रिक ओसवालों को तंग कर हजारों रुपये बदोर लाते हैं । अब सेवगों को एक पाई देने की भी जरूरत नहीं है। पहिले पूछो कि तुम किस ग्राम के मन्दिर की पूजा करते हो, उस ग्रोम
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के श्री संघ का पत्र लावो । और तुम पूजा विरत पर करते हो या तनख्वाह से, यह पूछने पर आपको क्या साबूती मिलती है । तनख्वहा से मन्दिर पूजता हो तो एक पाई देने की जरूरत नहीं हैं ?
(१२) सीरा लापसी के जोमनवार में सेवग सिरो दुबारे सेकने का नाम लेवे तो कुवेरा हरसाला आसावरीवालों की भाफिक सीधा रस्ता बतलादो।
(१३) सेवगों को शूद्र समझ राज से कर लगाया जाता था पर ओसवालोंने अपने मंगते समझ बचा दिया :जिसका ही फल है कि आज सेवग ओसवालों के साथ पूर्वोक्त बरताव रख रहे हैं।
(१६) जैन मन्दिरों को जंगम स्थावर जायदाद सेवगोंके पास हो, वे श्री संघ को शीघ्र अपने कबजे में करलेना जरूरी है।
(१५) ओसवालों ! सेवग गला में सूत का डोर डाले चाहे बड़ा रस्ता डाले यदि वह तुम्हारे कहने माफिक मजूरी कार्य करते रहें तो जैसी तुम रोटी खाते हो वैसी सेवगों को भो खिला दो । जिस मजूरी के ऐवजाने में लागलागन देते हो यदि सेवग मजूरी करने से इन्कार हो तो तुमारे एक पाई भी देने की जरूरत नहीं है।
(१६) सेवगोंने गला में सूत का डोर करीबन २५-३० वर्षो से डाला हैं पर फिर भी उन्होंने एक बड़ी भारी भूल की कि सेवगनियों का गला शून्य रखा । सेवगनिये आसवालों के घरों में रसोई जीमती हैं और उनके हाथों की कच्ची रसोई सेवग खातेपीते हैं। यदि ओसवालों के वहाँ कची रसोई जीमने में सेवगनियों प्रष्ट हो गई तो उनके हाथकी कश्ची रसोई
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खाने में सेवग भ्रष्ट क्यों नहीं होते हैं ? यदि सेबगनियों के हाथकी कच्ची रसोई जीमने में सेवग भ्रष्ट नहीं होते हैं तो ओसवालों के वहां की कच्ची रसोई जीमने में सेवग कैसे भ्रष्ट होजाते हैं ? यदि ऐसे भ्रष्ट होते हो तो गोडवाड सिवाणची, जालोरी और थली वगरह के सेवग आजपर्यन्त ओसवालों के वहां कच्ची रसोई जीमते हैं और उन सेवगों के साथ वे लोग भोजन व्यवहार करते हैं कि जो ओसवालों के वहां कच्ची रसोई नहीं खाते हैं । समझ में नहीं आता है ये लोग ऐसी कारवाई क्यों करते हैं ? खेर ! इस विषय को अधिक लिखने का अब कारण ही नहीं रहा है जो कि ओसवाल सेवगों के साथ सम्बन्ध ही रखना नहीं चाहते हैं ।
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( १७ ) सेवगों ! तुमारी बदनीति के कारण जहां तहां ओसवाल तुमारा तिरस्कार करते हैं और तुम मुर्दा के माफिक सहन कर रहे हो । क्या तुम्हारे अन्दर कुछ भी जीवन का खून रहा है ? यदि रहा हो तो अपनी समाज का संगठन कर के या तो ओसवालों के साथ पूर्व की भांति सम्बन्ध रखो या सर्वथा तोड दो । सब से पहला तो स्वतंत्र रहना ही इस जमाने में सच्चा सुख है और पराधीनता दुःखों का मूल है ।
सेवगों ! तुमारे कारण ओसवालों को बडा भारी नुक शान होता है। इतना होने पर भी तुम को ऐसा लाभ भी नहीं नहीं है। मांग खाने की बजाय काम कर के खाना उभयलोक में फायदामंद है | चेतो ! सावधान हो जाईये ! अभी समय हाथ में है । ओसवालों प्रति भी हम इतना तो अवश्य कह सकते हैं कि आप लोगोंने सेवगसमाज का जीवन बरबाद कर दिया है, मंगते बना दिये हैं । अब तो इन को रजा दो कि वे अपना जीवन सुख और स्वतंत्रता से गुजारें । अधिष्ठाकि सब को सद्बुद्धि प्रधान करें ।
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किसी
श्रोसवालों आपकी उदारता की हद पर आप के घर में पोल का भी तो पार नहीं है बतलाइये मांस मदिरादि दुर्व्यसन सेवन करने वाले भाटों से आपका क्या सम्बन्ध है कि वे भाट आज कितनेक ओसवालों की वंशावलियों लिख रहे हैं और ओसवाल समाज उनको प्रति वर्ष हजारों रूपये दे रहा है फिर भी उन भाटों के पास ओसवालों की प्राचीन वंशावलियों नहीं हैं वे इधर उधर की बातें सुन के एक ढांचा खडा कर श्री.सवालों को खूब ल रहे हैं पर ओसवाल लोग इतना ही विचार नहीं करते हैं कि हमारे पूर्वज ऐसे ही थे कि इन भाटो से अपने नाम लिखावे ? नहीं, मैं आप को सावचेत करता हूँ कि भी ओसवालों के यहां भाट नाम लिखने को आवे / तो पहिले उनसे यह पूछो कि किस समय, किस नगर में, किल आचार्य ने हम को ओसवाल बनाये हमारे पूर्वज किस स्थान में क्या क्या काम किया हमारी जाति का नाम संस्कारण का क्या कारण है इत्यादि उनसे अपना खुर्शी नामा उत्तर लो बाद उस हकीकत को प्रसिद्ध अखबारों में छपवा दो कि इस बातका आपको पता मिल जायना कि इन भाटों को बंशावलियों में सत्यताका अंश कितना है ? या यह सब कल्पना का कलेवर ही है। महाजन लोग यों तो हिसाब करते हैं पाई पाई का और यों लाखों रुपये बरबाद हो जाते हैं जिसकी परवाह ही नहीं यह कैसा अन्धेरा ? खैर अब भी समझो और सावधान हो कर हिताहित का विचार करो
इत्यलम् ।
Rishabhedas
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________________ 'धन्यवाद AURA मा श्रीमान मिश्रीमलजी जैन। आपकी ओर से प्रका " जैनमन्दिरों के पुजारी सेवगों की काली करतूतें" ना किताब एक सज्जन द्वारा अाज मरे हस्तगत हुई जिसको श्रा पान्त पढ़ने से ज्ञात हुआ कि आप केवल ओसवाल समाज ही नहीं पा जैन समाज के शुभचिन्तक हैं और आपका लिग अक्षर अक्षर सत्य भी है इस भारत में ओसवाल जैसी न समाज शायद ही होगा। कि जो सेवग लोग ओसवाल ही नहीं पर जैनधर्म और जैन धर्म के पूज्यपुरुषों की भ निंदा करती हैं उनको भी आज करोड़ों रुपये खुले दिल से / संकोच दिया करते हैं और सेवगों जैसी कोई कृतन्नी कौम है कि जिनाका लूणपाणी खाते पीते हैं उनके ही अवगुण बोले और निंदा करे ? परन्तु आपने प्रस्तुत किताब लिए ओसवाल जाति पर ठोक प्रकाश डाला यानि जागृत करी है। में आपने सेवागों को भी हित शिक्षा दी है वह सेवगों के लिये कम लाभ दायिक नहीं हैं। यदि सेवग लोग उन पर गौर : उनका पतन शीघ्र ही रुक जावे और जो सेवग जाति पराधी की जंजीरों में दुःख का अनुभव कर रही है उससे भी मुक्त जाय / खैर आपका तो अभिप्राय सुन्दर और शुभ है भले मा न माने उनकी मरजी की बात है पर मैं तो इस सेवा के / आपको धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकता हूँ। RAMAN भवदीय महात्मा रिषभदा