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श्री कुलक संग्रह.
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छपाची प्रसिद्ध करनार, शा. बालामाई ककलभाई.
मांडवीनी पोळ, नागनी भुदरनी पोळ-अमदावाद.
प्रथमावृत्ति-प्रत ....]
किंमत रू. ०-७-०.
[सने १९१५-संवत १९॥
भमदाबादशाहापुर नवी पोळी पटेक दलपतराम मकनदासे
पोताना भी मजाहितार्थ मुद्रालयमा छाप्यो.
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- आ पुस्तक छपावी प्रसिद्ध करवामां नीचे मुजब मदद मळी छे ते तेमना उपकार साथे
घणा मानपूर्वक स्वीकारवामां आवी छे. तेटली कीमतनां पुस्तको तेमनी तरफथी साधु साधवी विगेरेने भेट आपवामां आवशे.
रू. ५०) सौभाग्यवंती बेन रतनबेन (शेठ. मणीभाई दलपतभाईनी पत्नी) तरफथी. रू. ५०) सौभाग्यवंती बेन मोतीबेन (शेठ. जगाभाई दलपतभाईनी पत्नी) तरफयी. रू. ५०) शेठ. दलपताई मगनभाईनी दीकरी सरस्वती बेन तरफयी.
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प्रस्तावना. ___ आ नाना पुस्तकमां पूर्वाचार्य प्रणीत जूदा जूदा अगत्यना विषयो संबंधी सत्तर कुलकोनो संग्रह करवामां आव्यो छे. तेमां पहेला गुणानुराग कुलकमां दरेक साधु साधवी श्रावक श्राविका तेमज बीजा कोइ पुरुषमा जे जे सद्गुण जोवामां आवे तेने गुणदृष्टिथी ग्रहण करवा खास भ. 18 लामण करवामां आवी छे. तेना [गुणानुराग कुलकना] तथा त्रीजा संविज्ञ साधुयोग्य नियम ,
कुलक के जेमां 'संयमवंत' भावित आचार्यादिक महापुरुषो उत्तम वैराग्ययोगे देशकाळ अनुसारे है| जे जे आचार विचार सेवी शके तेनुं आचरण पूर्वक वर्णन करवामां आव्यु छे.आ बंने कुलकना है
कर्ता श्रीमान् मुनिसुंदरसूरिजीना पूज्य गुरु महाराज श्री सोमसुंदरसूरिराज छे. हवे आवा R| चारित्र पात्र महापुरुषोनां पवित्र दर्शन करी भावना उल्लासथी जे स्तुति करवानी छे तेनुं हुंक
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18| वर्णन बीजा गुरु प्रदक्षिणा कुलकमां करवामां आवेलुं छे. पुण्य कुलकमां पुण्य प्रकृतिना योगे ||
केवीं केवी सारी सामग्रीओ मेळवी शकाय छे ते जणावामां आव्युं छे. दान, शील, तप अने % भावना कुलकोमा ते ते दानादिक धर्मनो महिमा अने तेना आराधक उत्तम पुरुषोनां दृष्टांत है आपवामां आव्यां छे जे आत्मार्थी जनोने 'अनुकरण' करवा योग्य छे, आ 'चारे' कुलकोना | कर्ता तप गच्छनायक श्री जगचंद्रसूरिजीना पटोधर श्रीमान् देवेंद्रसूरिजी छे. अभव्य कुलकमा कया कया गुणो अभव्य जीव न पामे तेनुं वर्णन करेलुं छे. पुण्य पाप कुलकने विषे धर्मकरणी | करवाथी केवा प्रकारना फायदा अने पाप आचरण करखाथी केवा गेरफायदा थाय छे तेनी हकीकत
आवे छे. श्रीमद् गौतमऋषिकृत गौतम् कुलकने विषे प्रस्ताविक गुणोथी थता लाभ तथा दोषोथी 3 15 थता गेरलाभ विषे अमूल्य गाथाओवडे सारो उपदेश आप्यो छे.
आत्मावबोध कुलक श्रीमत् जयशिखरसूरिए रचेलं छे अने तेमां अध्यात्म ज्ञान विषे संवेद | पमां घणो सुंदर बोध आपेलो छे. जीवानुशास्ति कुलकमां जीवने संसार उपरथी वैराग्य थवानी सारी शीखामण आपी छे. इंद्रियादि विकार निरोध कुलकमां इंद्रियोना विकारोने रोकवानो बोध कर्यो छे. कर्म कुलकने विषे कर्म विपाकथी थता फळनो दृष्टांत साथे उत्तम उपदेश आपी कर्मनी | आस्था दृढ करी बतावी छे. दशश्रावक कुलकमां दसे श्रावकोनुं वर्णन संक्षेपमा करी बताव्युं छे अने इरियावहि कुलकमां इरियावहिना [३०४९२०] भांगावडे मिच्छामि दुक्कडं दीधुं छे..
आ कहेलां सत्तर कुलको मधेनां पहेलं गुणानुराग कुलक वारंवार समजीने वांचतां मने एम लाग्युं के जेटलां कुलको मळी आवे तेटलां बधांनो जो एक पुस्तकमां संग्रह करवामां आवे तो
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साधु साधवी श्रावक श्राविका जे तेमनो लाभ लेवा उत्सुक होय तेमने घणी सगवड थइ पडे. एवामां श्रेयस्कर मंडळ तरफथी आठ कुलकोनो संग्रह बहार पडेलो मळ्यो, तेम छतां शोध करतां मालम पड के हजु ते सिवाय बीजां नव कुलको बाकी रहे छे तेथी उपर लखेली कुलक संग्रह, अमदावाद विद्याशाळावाळी प्रकरणमाळाओ, मास्तर भोगीलाल ताराचंदवाली प्रकरणमाळा तथा आत्मावबोध कुलक विगेरे पुस्तकोनी मदद लेइ आ नाना पुस्तकमां कुलकोनो संग्रह करवामां आव्यो छे; मा सदरहु पुस्तकोना प्रसिद्ध कर्त्ताओनो हुं तेमना पुस्तकोनी मदद माटे उपकार मानुं छु. तेमां श्रेयस्कर मंडळवाळा कुलक संग्रहमां मागधी भाषामां रचेला कुलकोनो गुजरातीमां भावार्थ लखी आपनार शांतमूर्ति श्रीमान् कर्पूरविजयजी महाराज साहेबनो अंतःकरण पूर्वक उपकार मानुं हुं अने आ कुलक संग्रह मधेन जीवानुशास्ति, इंद्रियादि विकार निरोध, कर्म, दशश्रावक अने इरियावहि ए पांच कुलक मूळने घणो श्रम लेइ सुधारनार तथा गुजराती भाषांतर करी आपनार पंडितजी सुखलालजी
भाइ तथा भगवानदास हरखचंदनो सविनय अंतःकरण पूर्वक आभार मानुं छं.
आ पुस्तकनो अंदर कानो, मात्रा, मींडी विगेरे जे कांइ जिनाज्ञा विरुद्ध लखाण लखाणं होय अथवा प्रुफ सुधारतां दृष्टि दोषथी जे भूल रही गइ होय तेने माटे चतुर्विध श्रीसंघनी पासे हुं मिथ्या दुष्कृत मा छु. वळी आ ग्रंथने उंचे आसने मूकी मुखे यत्ना राखीने वांचवा मारी नम्र भलामण छे. छी. श्रीसंघनो दासानुदास, शा. बालाभाई ककलभाई ..
मांडवीनी पोळ, नागजी मुदरनी पोळं अमदावाद.
ता. १०-४-१५.
आ पुस्तकनी अनुक्रमणिका खेले पाने जूओ.
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पातुं. बाजु, छीटी. अशुद्ध. २ १ ४ दोषं
१
देहानुं
१
१
.१
१.
२
२
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१
२
२६ १
६ नयरइ
६ यरइ
६ पई
४. सठ्ठी
९ गिन्हे
१२ मूलं
११ १
१७ २
१९८२ - १३
१९२
२३ १
३
७ घरइ
८ सव्वत्तमुत्तमा सव्वुत्तमुत्तमो
८ पण
१२ पाव
शुद्ध.
दोसं देहाणं
धरह
विच्छरिअं ४ मत्ताखत्तेसु प्रबळ ध्यानरूप
१
४ अहलाओ
पुण
पावं
नायरइ
शुद्धिपत्रक.
चरइ
तइं
अहो
गिण्हे
मुलं
वित्थरिअं
सत्तखित्तेसु तप अने प्रबळ
ध्यानना अफलाओ
पातुं. बाजु. लीटी अशुद्र.
' मामतुम'
२७ १ ३ ३० २ १
मो
३१ २ १० वृत
३२ १ ७ सुराउ ३३ २ १ प्रणामीने
३७ २
१४ कुटुंब ३९ १ ६ सप्पुत्तो ३९ १ ६ कुटुंबं
३९ २
१० निरता
शुद्ध.
'मासतुस'
सो
व्रत
सुराओ बंधो परिणामी
कुटुंब
सुपुतो
कुटुंब
निरया
४५ २ १
अख्खाओ
जख्खाओ वि (व) वहार
४८ १
५
विवहार
४८ १ ७
महावीरजीरना महावीरजीनना समो
૪૮ ૨
१२
सभो
४९ २
३
सवि
सव्वेव
५१ २ ३ पांचमो ५१ २ ९ करणकारण
पांचसो करणकारवण
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जाहेर खबर.
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सर्वे जैन बंधुओने खबर आपवामां आवे छे के श्री आघ जैन धर्म प्रवर्तक सभा तरफयी मगट थरला नीचेना पुस्तको नीचे बखेले ठेकाणेथी रोकडेयी मळी शकशे. परदेशवाळाने टपाल खरच जूतुं पडशे. बीवविचार (गाया मूळ सळंग थ्री लाइन पैका टाइपयो) गायाभोना छूटा शमोना अर्थ. गाथा मूळ, शब्दार्थ, विस्तारार्थ तथा तेना छूटा चोळ. (छपाय छे.)
किंमत रु. ०-४-६ नव तत्त्व [ गाथा मूळ रुळंग श्रीलाइन पैका टाइपथी ] गाया भोना छूटा शब्दोना अर्थ, गाथा मूळ, शब्दार्थ, विस्तारार्थ तथा तेना छुटा बोल. पाका पुंठावाली.
- किंमत रु. ०-८-० | नीवविचार प्रकरण ( गाया मूळ श्री लाइन पैका टाइपयी).
किंमत.क. ०-०-९. नबतच प्रकरण (गाथा मूळ श्री लाइन पेका टाइपथी)
किंमत रु. ०-१-०. | दंडक तथा सघु संघयणी (गाया मूळ भी लाइन पैका टाइपथी)
किंमत रु. ०-१-३. जीवविचार, नवतस्व, दंडक तथा लघु संघयणी [ माथा मूळ भी लाइन पैका टाइपची] किंमत रु. ०-३8| दंडक तथा लघु संघयणी [माथा मूळ सलंग श्रीलाइन पैका टाइपथी ] गाथाभोना छूटा शन्दोना
अर्थ, गाथा मूळ, शब्दार्थ विस्ताराथ तथा तेना छूटा बोल पाका पुंगवाली. किंमन इ. ०-1- भी बीस स्थानक तप कथा संग्रह:-तेनी र वीसे स्थानक उपर वीस ज्दी जूदी घणी असरकारक कथाभोनो समावेश यएलो के.
किंमत रु. ०-१२ बाष्यत्रयम्:-तेनो अंदर त्रणे भाष्यो मूळ, शब्दार्थ छुटा शन्दोना अर्थ तथा विस्तार साये अर्थ भापेलो छे. मळनी गाथा मोटा श्रीलाइन पैका टाइपथी छापेली छे.
किंमत रु.१
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| चतुर्विशति जिन स्तुति देशना संग्रह नामे पुस्तक शास्त्री लीपियां प्रतना आकारे बहार पडयं
के जेनी अंदर त्रिशष्टि शलाका पुरुष चरित्रमाथी चोवीसे तिर्थकर भगवाननी जन्म बखते अने केवळझान बखते इंद्रमहाराजे करेलो स्तुतिओनो तथा तेमनी केवळशान थया वाद पेहेली देशनाभोनो समावेश थाय छे. वळी तेमां आवेळा अघरा श.
दोना अर्थ पण दाखल कर्या छे, जे वांचीने समनता सरळता पडे. किंमत रु. ०-१२-० जैन बोल संग्रह भाग १ लो नामे पुस्तक गुजराती लीपिमा नानाकदा बहार पडयुं छे. तेया मार्गाः
नुसारीना ३५ बोल, भवाभिनंदी जीवोना लक्षण, मिथ्यात्वना बोल, समकितना ६७ पोल, श्रावकना २१ गुण, भाववावकना लक्षण, पत्रिीस चोळनो थोकडो, पांच महाव्रतनी २५ भावना, भाव साधुना ७ लिंग, चरण सित्तरी करण सित्तरीना बोल, साधने गोपरोना ४२दोष, ५मांडलिक दोष, जीवने स्वरुपर्नु ध्यान, जीवना ५६३ अने अनीवना ५६० भेद, अरिहंत भगवानना ३४ अतिशय, ३५ वाणी गुण, पंचपरमेष्ठीना १०८ गुण, पाकीना ४ पदना गुण, चार ध्यान, तथा परचुरण बोलनो विस्तार, साधु साध्वीने खपना बोल विगेरेनो समावेश ययेलो छे. ते श्रावकभाइयो तथा घेनोने भणवा प्रती
उपयोगी छे. जेमने जोइए तेमणे ते नीचेने सरनामेथी मंगावी छेवू. किंमत रु. ०-२ जैन बोस संग्रह भा. २ जो:--जेमा जिवविचार, नवतत्त्व, दंडक, आठ कर्मनी १५८ प्रकृति, देववं.
दनादि प्रण भाष्य विगेरेन। बोलनो संग्रह करेलो के. जैनशालाभोमा अने सभागोमा भणनारांभोने खास करीने शीखवा योग्य छे.
किंमत रु. ०-४-० रस्नाकर पच्चीसी, आत्मनिंदा अष्टक तथा आत्मगस्तित्र [ छुटा शन्दोना अर्थ, गाथा, शब्दार्थ साधे शास्त्री टाइपयी छापेली छ.]
किंमतक..-२--
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तीर्थ स्तवनावळी
सामावक व्रत तथा देशावकाशिक व्रत का छींटनुं पुंटुं
पाकुं पुंटुं
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मळवानुं ठेका -
किंमत रु. ०-८-० किंमत रु.०-४-०
पोषोपवास व्रत
श्री सम्यक्त्व मुळ बार व्रतनी संक्षिप्त टीप [ जेनी अंदर बारे बतनी खा जोग समजूनी आपवामां आजीछे अने पाछळना भागमां बारे व्रतना बार पानामां जूदा जूदा कोठा पाडी केवी रीते पाळवां तेनी नधि लेवा जगा गखीछे ते शास्त्री ठाइपे छापेली छे.
शा. बालाभाई ककलभाई.
किंमत रु. ०-५-० किंमत रु. ०-४-०
किंमत रु. ०-५-०
मांडवीना पोळ, नागजी भुदरनी पोळ - अमदावाद.
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श्रीसोमसुंदरसूरेः शिष्येण जिनहर्ष गणिनाकृतं
गुणानुराग कुलकं. सयलकल्लाणनिलयं, नमिऊण तित्थनाहपयकमलं; परगुणगहणसरूवं, भणामि सोहग्गसिरिजणयं ॥१॥
अर्थ:-सफल कल्याणना निवास स्थान तीर्थकर भगवानना चरणकमळने नमीने सौभाग्यश्रीकारक एवं पराया गुणोने ग्रहण करवानुं स्वरूप कहुं छु ॥ १ ॥ उत्तम गुणाणुराओ-निवसइ हिययंमि जस्स पुरिसस्स, आतित्थयरपयाओ, न दुल्लहा तस्स रिद्धीओ ॥२॥ अर्थः-जे पुरुषना हृदयमा उत्तम गुणवान जनो तरफ अनुराग वसतो होय तेने तीर्थकर पद सूचीनी रिद्धीओ दुर्लभ नथी. ते धन्ना ते पुन्ना, तेसु पणामो हविज महनिचं; जेसिं गुणाणुराओ, अकित्तिमो होइ अणवरयं ॥३॥ . अर्थः-तेओ वखाणवा लायक छे, तेओ पुण्यशाली छे अने तेओना प्रते मारो हमेश नमस्कार हो के जेमने
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विषे निरंतर खरेखरो गुणानुगग रहेछे ॥३॥
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ग. किं बहुणा भणिएणं, किं वा तविएण किं व दाणेणं;
इक्कं गुणाणुरायं, सिख्खह सुख्खाण कुलभवणं ॥४॥
अर्थः-बहु भणवाथी अथवा बहु तप करवाथी अथवा बहु दान देवाथी भुं थनार छे, एकला गुणानुरागने शीखो के जे सुखोनुं ( खास ) उत्पत्तिस्थान छे ॥ ४ ॥
जइवि चरसि तव विउलं, पढसि सुयं करिसि विविहकठ्ठाइं; न धरसि गुणाणुरायं, परेसु ता निप्फलं सयलं ॥५॥ ..... अर्थ:-जो के तुं भारे तप करे छे, शास्त्र भणे छे अने अनेक कष्ट करे छे, पण बीजाना गुणो तरफ अनुराग । नथी धरतो तो ए वधुं निष्फळ छे ॥ ५॥ सोऊण गुणुक्करिसं, अन्नस्स करेसि मच्छरं जइवि: ता नूणं संसारे, पराहवं सहसि सव्वत्थ ॥ ६॥
अर्थः-बीजाना गुणोनी प्रशंसा सांभळीने जो तुं मत्सर करे छे, तो तुं नक्कीपणे आ संसारमा सघळा स्थळे पराभव पामीश ॥ ६॥ | गुणवंताण नराणं, ईसाभरतिमिरपूरिओ भणसि;
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जइ कहवि दोसलेसं, ता भमसि भवे अपारंमि ॥ ७ ॥ . अर्थः-गुणवंत पुरुषोना तुं इयांना जोररुप अंधाराथी आंधळो बनीने जो कोई पण रीते लेश मात्र दोष कहाडीश, तोपण अपार संसारमा भमीश ॥ ७॥ जं अब्भसेई जीवो, गुणं च दोषं च इत्थ जम्मंमि; तं परलोए पाई, अभ्भासेणं पुणो तेणं ॥८॥ - अर्थ:-जीव ा जन्ममा गुण अथवा दोषमांथी जेनो अभ्यास पाडे ते अभ्यासे करीने फरी परलोकमा तेनेज पामे जो जंपइ परदोसे, गुणसयभरिओ वि मच्छरभरेणं; सो विउसाणमसारो, पलालपुंज व्व पडिभाइ ॥९॥ . ___अर्थः-जे पुरुष पोते सेंकडो गुणोथी भरेलो छता पण मत्सरना आवेशथी पराया दोष बोले तो ते विद्वान जनोमां पराळना पूळा माफक दम वगरनो जणाय छे ॥ ९॥ जो परदोसे गिण्हइ, संतासंतेवि दुठभावेणं; सो अप्पाणं बंधइ, पावेण निरत्थएणावि.॥ १० ॥
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अर्थ:-जे पुरुष दुष्ट भावथी छता के अछता पराया दोष ग्रहण करे ते पोताना आत्माने निरर्थक पापथी जोडे छे ॥१०॥
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तं वत्थु धारिजा जेणोवसमो कसायाणं ॥११॥ अर्थः-जेनाथी कषायरुप अग्नि प्रदीप्त थाय ते कामने चोकसपणे छोडी देवु भने जेनाथी कपायो दवे ते वस्तु धारण करवी. जइ इच्छह गुरुयत्तं, तिहुयण मज्झमि अप्पणो नियमा; वा सव्वपयत्तेणं, परदोसविवजणं कुणह ॥ १२॥ . अर्थः-जो तमे त्रण जगतनी अंदर पोतानी मोटाइ मेळववा खरेखर इच्छता हो तो सर्व प्रयत्नथी पराया दोषोनी | निंदा करवानुं पूरती रीते वर्जन करो ॥ १२॥ चउहा पसंसणिज्जा, पुरिसा सव्वुत्तमुत्तमा लोए;। उत्तम उत्तम उत्तम, मज्झिमं भावाय सव्वेसि ॥१३॥ __अर्थः-आ जगतमा चार प्रकारना पुरुष सर्वेने प्रशंसा करवा योग्य छे;-एक सर्वोत्तमोत्तम, बीजा उत्तमोत्तम, | जे अहम अहम अहमा, गुरूकम्मा धम्मवजिया पुरिसा; ते विय न निंदणिज्जा, किंतु दया तेसु कायव्वा ॥१४॥
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|त्रीजा उत्तम, अने चोथा मध्यम ॥ १३ ॥
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अर्थः-पांचमा अधम अने छठा अधमाधम जे भारे कमी अने धर्मवीत होय छे, तेओनी पण निंदा करवी नहि जोइए, किंतु तेभी उपर दया धारची जोइए ॥ १४ ॥ ... | पञ्चंगुब्भडजुब्वण वंतीणं सुरहिसारदेहाणुं;
जुबईणं मज्झगओ, सव्वुत्तम रूववंतीणं ॥ १५॥ __अर्थः-दरेक अंगमा प्रगटी नीकळेल आकरा योवनवाळी, गंधयी बेहेकना शरीरवाळी, अने सर्वे करता उत्तम रुपवाली स्त्रीभोना बच्चे रहीने ॥ १५॥
आजम्म बंभयारी, मणवयकाएहिं जो घरइ सीलं; सव्वुत्तमुत्तमा पण, सो पुरिसो सव्वनमणिज्जो ॥१६॥
अर्थ-जे पुरुष ब्रह्मचारी रह्यो थको मन वचन अने कायाथी शीळवान रहे ते पुरुष सर्वोत्तमोत्तम जाणवो अने ते सर्व कोइने नमवा लायक होय छे ॥ १६ ॥ एवं विहजुवइगओ, जो रागीहुज कहवि इग समय; बीयसमयंमि निंदइ, तं पाव सव्वभावेणं ॥१७॥
अर्थः-एवा प्रकारनी [सर्वोत्तम रुपवाळी] स्त्रीओनी बच्चे र बोथको जे पुरुष कदाच कोइ प्रकारे मात्र एक क्षणभ मनमा डोलायमान थाय, पण अकार्यमा नहि फसता तरत सावचेत थइ, बीमा क्षणे ते (मानसिक) पापने पूर्ण भावथी निदे.
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जम्मंमि तम्मि न पुणो, हविज्ज रागो मणमि जस्स कया; कु. सोहोइ उत्तमुत्तम, रूवो पुरिसो महासत्तो॥१८॥
अर्थः-अने फरीने ते जन्ममा क्यारे पण तेना मनमा तेवो राग उत्पन्न न थाय ते पुरुष उत्तमोत्तम जाणवो ते पण महा बळवानज गणाय छे ॥ १८ ॥ पिच्छई जुवईरूवं, मणसा चिंतेई अहव खणमेगं; जो न यरइ अकज्जं, पत्थिज्जंतो वि इत्थीहिं ॥ १९॥
अर्थः-जे पुरुष स्त्री रुप जोइ क्षणभर मनथी तेना तरफ खेचाया छतां पण अने ते स्त्रीए तेने भोळव्या छता पण अकार्यमां नहि फसे ॥ १९॥ | साहू वा सड्ढोवा सदारसंतोससायरो हुज्जा; सो उत्तमो मणुस्सो, नायव्वो थोवसंसारो ॥२०॥
अर्थः-किंतु साधु होय तो साधु तरीके पोतानुं ब्रह्मचर्य व्रत जाळवी राखे, अने श्रावक होय तो स्वदार संतोषी रहे ते साधु अथवा श्रावक उत्तम पुरुष जाणवो. ते पुरुष पण अल्प संसारी जाणवो ॥ २० ॥ 1 पुरिसत्थेसु पवट्टइ, जो पुरिसो धम्मअत्थपमुहेसु;
३
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अनुन्न मवाबाहं, मज्जिमरुवो हवइ एसो ॥ २१ ॥
अर्थ:- जे पुरुष धर्म, अर्थ अने काम ए त्रणे पुरुषार्थने अरसपरस बाघ न आवे ते रीते तेमां प्रवर्ते ते मध्यम पुरुष जाणवो.
एएस पुरिसाणं, जइ गुणगहणं करेसि
बहुमाणा;
तो आसन्न सिवसुहो, होसि तुमं नत्थि संदेहो ॥ २२ ॥
अर्थ:- ए चारे प्रकारना पुरुषोना गुणोनी जो तुं बहु मान घरी प्रशंसा करीश, तो तुं नजीकमांज मुक्तिसुख मेळ - वीश, तेमां कशो संदेह नथी ॥ २२ ॥
पासत्थाइसु अहुणा, संजम सिढिलेसु मुक्कजोगेसु; नो गरिहा कायव्वा, नेव पसंसा सहामज्झे ॥ २३ ॥
अर्थ:- आजकाल संयम पाळवामां ढीला पडेला योग क्रियाहीन पार्श्वस्थ वगेरे यतिवेषधारी जनोनी सभा मधे नहि तो निंदा करवी अने नहि प्रशंसा करवी ॥ २३ ॥
काउण तेसु करुणं, जइ मन्नइ तो पयासए मग्गं;
अह रुसइ तो नियमा, न तेसि दोसं पयासेइ ॥ २४ ॥
अर्थ :- भोपर करुणा लावीने जो तेश्रो माने एम होय तो खरो रस्तो बतावत्रो, पण जो तेम करतां तेओ गुस्से थाय तो खचित आपणे तेमना दोष नहि प्रकाशवा ॥ २४ ॥
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बहु मान बतावता रहे, ॥२५॥
संपइ दूसमसमए, दीसइ थोवो वि जस्स धम्मगुणो; बहुमाणो कायव्वो, तस्स सया धम्मबुद्धीए ॥२५॥
अर्थः-आजना विषम बखतमा जेनामां थोडो पण धार्मिक गुण देखवामां आवे तेना तरफ हमेशां धर्मबुद्धिथी जउ परगच्छि सगच्छे, जे संविग्गा बहुस्सुया मुणिणो; तेसिं गुणाणुराय, मा मुंचं सु मच्छरप्पहओ॥२६॥ ___ अर्थ:-जो के पराया गया अगर पोताना गळा जे वैराग्यवान भने विद्वान मुनिश्रो होय तो तेमना तरफ II गुणरयण मंडियाणं, बहुमाणं जो करेइ सुद्धमणो; सुलहा अन्नभवंमि य, तस्स गुणा हुँति नियमेणं ॥२७॥
अर्थः-गुणरुपी रत्नोथी शणगारापेला पुरुषो जे शुध्ध मन्थी बहु मान करे, तेने बळता भषे ते ते गुणो नियमा एयं गुणाणुरायं, सम्मं जो धरइ धरणि मज्झमि;
मत्सरे भराइ गुणानुगग मुकनो ना ॥ २६ ॥
मुलभ थइ पडे छे ॥ २७॥
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सिरिसोमसुंदरपर्यं, सो पावइ सव्वनमणिज्जं ॥ २८ ॥
अर्थ:- गुणानुरामने जे पुरुष सम्यक् रीते या पृथ्वीमा रही चारण करे, ते श्रीसोमसुंदर मद शोषता चंद्र जेवा शांतिमय भने सर्वने नमनीय ( तीर्थकररूप ) पदने पाये ॥ २८ ॥
श्री गुरुप्रदक्षिणा कुलकम्.
गोअम सुहम्म जंबु, पभवो सिजंभवाइ आयरिया; अन्नेवि जुगप्पहाणा, पई दिट्ठे सुगुरु ते दिश ॥ १ ॥
अर्थ :- हे सद्गुरुजी ! आपनुं दर्शन कर्ये छते श्री गौतमस्वामी, श्रीसुधर्मास्वामी, श्री जंबुस्वामी, श्री ममवस्वामी भने सिज्जंभव आदिक आचार्य भगवंतो तेमज बीजा पण युग प्रधानोनुं दर्शन कर्यु मानुंं. ॥ १ ॥
अज्ज कयथ्थो जम्मो, अज कयथ्थं च जीवियं मज्झ; जेण तुह दंसणामय-रसेण सत्ताइं नयणाई ॥ २ ॥
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अर्थ :- आज मारो जन्म कृतार्थ भयो. आज मारुं जीवीत सफळ थयुं, के जेथी आपना दर्शन रूप अमृत रस बढे करीने मारा नेत्र सिंचित थथ, अर्थात् आपनुं अद्भुत दर्शन मने प्राप्त थयुं ॥ २ ॥
सो देसो तं नगरं तं गामो सो अ आसमो धन्नो;
जथ पहु तुम्ह पाया, विहरंति सयावि सुपसन्ना ॥ ३ ॥
'अर्थ:- ते देश, ते नगर, ते गाम अने ते आश्रम (स्थान) धन्य के के, ज्यां हे मधु ! आप सदाय सुप्रसन्न यता विचरो छो अर्थात् विहार करो छो. ॥ ३ ॥
हथ्था ते सुकयथा, जे किईकम्मं कुणंति तुह चलणे; वाणी बहुगुणखाणी, सुगुरुगुणा वन्निआ जीए ॥ ४ ॥
अर्थः- हाथ सुकृतार्थ छे के, जे आपना चरणे द्वादशावर्त वंदन करे छे, अने ते बाणी (जीव्हा) बहु गुणबाळी छे के, जे बढे सद्गुरुना गुणोनुं वर्णन करवामां आव्युं छे. ॥ ४ ॥
अवयरिया सुरधेणू, संजाया महगिहे कणयवुट्टी; दारिद्द अज्ज गयं, दिट्ठे तुह सुगुरु मुहकमले ॥ ५ ॥
अर्थ :- हे सद्गुरु ! आपनुं मुखकमल दीठे छते आज कामधेनु मारा घर भांगणे आवी जाणुं छं. तेमज सुवर्ण दृष्टि यह जानुंलुं. अने आजयी पारुं दारिद्र दुर पयुं मानुं ॥ ५ ॥
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अंत थयो मान ढु.॥६॥
चिंतामणिसारिच्छं, समत्तं पावियं मए अज; | संसारो दूरीकओ, दिले तुह सुगुरु मुहकमले ॥६॥
. अर्थ:-हे सद्गुरु ! आपनें मुख कमल दीठे छते चिंतामणि रत्न सरखं समकित मने माप्त थयुं, अने तेथी संसारनो जा रिद्धि अमरगणा, भुंजता पियतमाइसंजुत्ता; सा पुण कित्तियमित्ता, दिखे तुह सुगुरु मुहकमले ॥७॥
अर्थः-हे सद्गुरु ! आपनुं मुख कमल दीठे छते जे ऋद्धि देवतायो पोतानी देवांगनादिक सहित भोगवे छे ते मारे कई हिसाबमा नथी. ॥ ७ ॥
मणवयकायेहिं मए, जं पावं अज्जियं सया भयवं]; | तं सयं अज गयं, दिठे तुह सुगुरु मुहकमले ॥८॥ | अर्थः-हे सद्गुरु ! आपनुं वदनकमल दीठे छते जे मन, वचन, कायाथी में जे पाप आज पर्यंत उपार्जन कर्यु छे; ते बधुं आजे स्वतः नष्ट थयुं मानुछु. ॥ ८ ॥ दुल्लहो जिणिंद धम्मो, दुल्लहो जीवाण माणुसो जम्मो;
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लद्धेपि मणुअजम्मे, अइदुल्लहा सुगुरुसामग्गी॥९॥
अर्थः-जीवोने सर्वज्ञभाषित धर्म पामवो दुर्लभ छे तथा मनुष्य जन्म मळयो दुर्लभ छे. अने ते मनुष्य जन्म मळे छते पण सद्गुरु सामग्री मळवी अति दुर्लभ छे. ॥९॥ | जत्थ न दिसंति गुरु, पञ्चुसे उठिएहिं सुपसन्ना;
तत्थ कहं जाणिजइ, जिणवयणं अमिअसारिच्छं॥१०॥ 18| अर्थ:-ज्या प्रभाते उठतांज सुप्रसन्न गुरुना दर्शन यता नथी, त्या अमृन सदृश जिनवचननो लाभ शी रीते लइ शकाय?१०
जह पाउसंमि मोरा, दिणयरउदयम्मि कमलवणसंडा; . विहसंति तेम तचिय(?), तह अम्हे दंसणे तुम्ह ॥११॥ ___ अर्थः-जेम मेघने देखी मोरो प्रवदित थाय छे अने सूर्यनो उदय थेये छते कमळनां वन विकसित थाय छे, तेम ज आपनुं दर्शन थये छते अमे पण प्रमोद पामाए छीए. ॥ ११॥ जइ सरइ सुरहि वच्छो, वसंतमासं च कोइला सरइ विंझं सरइ गइंदो, तह अम्ह मणं तुमं सरइ॥१२॥ .. अर्थः- सद्गुरुजी ! जेम गाव पोताना बाछरडाने संभाळे छ, भने जेम कोयक वसंतमासने इच्छे थे, तथा
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tat fire eat अटवीने याद करे छे; तेम अपारं मन (सदाय) आपनुं स्मरण कर्या करे छे. १२
बहुया बहुयां दिवसडा, जइ मई सुहगुरु दीठ; लोचन a विकसी रह्यां, हीअडई अमिय पइठ ॥ १३ ॥
अर्थ:-बहु बहु दहाडा जता रह्या अने हवे में सुगुरु दीठा तेथी मारी वे आंखो विकस्वर थइ अने हृदयमां अमृत पेतुं ॥१३॥
अहो ते निजिओकोहो, अहो माणो पराजिओ; अहो ते निरक्किया माया, अहो लोहो वसीकिओ ॥१४॥
अर्थ:- अहो ! इति आश्चर्ये ! आपे क्रोधनो केवो जय कर्यो छे माननो केवो पराजय कर्यो छे ? मायाने केवी दूर करी छे ? अने लोभने केवो वश कर्यो छे ? ।। १४ ।।
अहो ते अज्जवं साहु, अहो ते साहु महवं;
अहो ते उत्तमा खंती, अहो ते मुत्ति उत्तमा ॥ १५ ॥
अर्थ:- अहो आप आर्जव (सरलपणुं ) केनुं उत्तम छे ? अहो आपनुं मार्दव [ नम्रपणुं ] केतुं रुई छे ? हो आपनी क्षमा केवी उत्तम छे ? अने आपनी संतोष वृत्ति केवी श्रेष्ठ छे. ॥ १५ ॥
इहं सि उत्तमो भंते, इच्छा होहिसि उत्तमो;
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गु. लोगुत्तमुत्तमं ठाणं, सिद्धिं गच्छसि नीरओ॥१६॥
REASURESA
___अर्थ:-हे भगवंत ! आप अहिं प्रगट ज उत्तम छो! वळी आपनी इच्छा के मनोरथ वडे करीने पण उत्तम छो अने अंते पण कर्ममलने टाळीने आप मोक्ष नामनुं सर्वोत्तम स्थानन पामवाना छो. ॥ १६॥ .
हैं| आयरिय नमुक्कारो, जीवं मोएइ भव सहस्साओ;
भावेण किरमाणो,'होइ पुणो बोहिलाभाए ॥१७॥
PROCEDEKARENEUR
M ACHAR
अर्थः-आचार्य महाराजने करेलो नमस्कार जीवने हजारो गमे भवभय थकी मुक्त करे छे, अने ते भाव सहित करवामां आवतो नमस्कार जीवने समकितनो लाभ आपे छे. ॥१७॥ | आयरिय नमुक्कारो, सव्वपावप्पणासणो; | मंगलाणं च सव्वेसि, तइयं हवइ मंगलं ॥१८॥ | अर्थ:-भावाचार्यने भावसहित करेलो नमस्कार सर्व पापने प्रकर्षे करीने नाश करनारो थाय छ भने ते सर्व | मंगळमां श्रीजु मंगल छे. १८
OLOG
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संविज्ञसाधु योग्यं नियमकुलकम्. । भुवणिक्कपइवसमं, वीरं नियगुरुपए अ नमिऊणं; | वीरइअर दिख्खिआणं जुग्गे नियमे पवख्खामि ॥१॥
___अर्थः-प्रम भुवनने विषे एक ( असाधारण ) मदीप समान श्री वीर प्रभुने अने निज मुरूनां चरण कमळने 18 है नीने सर्व विरतिवंत-साधु जनो योग्य (मुखे निर्वही शमाय एवा) नियमो हुं ( सोमसुंदर मूरि) कहीच. ॥ १॥ ३ निअउअरपूरणफला, आजीविअमित्तं होइ पवज्जा; धूलिहडीरायत्तणज्जा-सरिसा, सव्वेसिं हसणिज्जा ॥२॥
- अर्थः-योग्य नियमोनुं पालन कर्या वगरनी प्रव्रज्या ( दीक्षा) फक्त निज उदर पूरण करवा रुप आजीविका चलाववा मात्र फळवाली कहीछे अने एवी दीक्षा (तो) होळीना राजा(इलानी) नी जेवी सहु कोइने हसवा योग्य बनेछे.२ तम्हा पंचायारा,--राहणहेउं गहिज्ज इअ निअमे; लोआइकटरुवा, सव्वज्जा जह भवे सफला ॥३॥
CARRCAUSESARKARISORRE*
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KRECRUGAREKOREGAOLORROCORRHONORK
अर्थः-ते माटे पंचाचार ( ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप-वीर्य आचार ) ना आराधन हेतें छाचादिक कठण नियमो | ग्रहण करवा जोइए के जेथी ( आदरेली.) पव्रज्या सफळ थाय. ॥ ३॥ नाणाऽराहणहेउं, पइदिअहंपंचगाह पढणं मे; परिवाडीओ गिण्हे, पणगाहाणं च सठी य॥४॥ ___ अर्थः-ज्ञान आराधन हेतें म्हारे हमेशा पांच गाथाओ भणवी, कंठाग्र करवी अने परिपाटीथी ( क्रपवार ) पांच पांच गायानो अर्थ गुरु समीपे ग्रहण करवो. ॥ ४ ॥ अण्णेसिं पढणथ्थं, पणगाहाओ लिहेमि तह निच्चं; परिवाडीओ पंच य, देमि पढंताण, पयदियहं ॥५॥ .. अर्थः-वळी हुं बीमाओने भणवा माटे हमेशां पांच गाथाओ लखु अने भणनाराभोने हमेशा परिपाटीयी (क्रमबार) पांच पांच गाथा मापुं. (भणाधू-अर्थ धरा, विगेरे ). ॥ ५॥ .. वासासु पंचसया, अठय सिसिरे अ तिन्नि गिम्हमिः पइदियहं सज्झायं, करेमि सिद्धतगुणणेणं ॥६॥
अर्थ:-सिद्धांत-पाठ गणवा बडे वर्षा स्तुमा पांचसो, शिशिर रुतुमा आठसो, भने ग्रीष्य रुतुमा प्रणसो गाथा प्रमाण सज्वाय ध्यान सदाय या कर.॥६॥
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ACROSCORRECAKACEKACCOM
परमिहिनवपयाणं, सयमेगं पयदिणं समरामि अहं, | अह देसणआयारे, गहेमिनिअमे इमे सम्मं ॥७॥ B: अर्थः-परमेष्टी नवपद ( नवकार महामंत्र ) → एकसो वार हुं सदाय रटण करूं. ॥ ७ ॥ | देवे वंदे निच्चं, पणसक्कथ्थएहिं एकवारमहं; | दोतिन्निय वा वारा, पइजामं वा जहासत्ति ॥८॥
अर्थः-पांच शक्रस्तव वडे सदाय एक वखत देववंदन करुंज अथवा वे वखत, त्रण वखत के पहोरे पहोरे यथाअठ्ठमीचउद्दस्सीसुं, सव्वाण वि चेइयाइं वंदिज्जा; | सब्वेवि तहा मुणिणो, सेसदिणे चेइअं इक्कं ॥९॥
__अर्थ:-दरेक अष्टमी चतुर्दशीने दियसे सघळां देरासरो जुहारवां तेमज सघळाय मुनिजनोने वांदवा. त्यारे बाकीना २ दिवसे एक देरासरे (तो) अवश्य जवं. ॥९॥
पइदिण तिन्निय वारा, जिढे साहू नमामि निअमेणं; | वेयावच्चं किंची, गिलाण वुढ्ढाइणं कुव्वे ॥१०॥
शक्ति आळसरहित देववंदन करु.॥८॥.
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अर्थ:-हमेशा वडिळ साधुने निश्चे प्रण वार (त्रिकाळ) वंदन करुंज अने बीना ग्लान (व्याधिग्रल) तेमम वृद्धादिक मुनिजनोनुं वैयावच्च यथाशक्ति करूं. ॥ १०॥ .
अह चारित्तायारे, निअमग्गहणं करेमि भावेणं; बहिभूगमणाईसुं, वजे वत्ताइं इरियथ्थं ॥११॥ ___अर्थः-हषे चारित्राचार विषे नीचे मुजब नियमो भाव सहीत अंगिकार करूंछु. १ इर्या समितिः-वडी नीति, लघु नीति करवा अथवा आहार पाणी वहोरवा जतां इर्यासमिति पाळवा माटे ( जीव रक्षा अर्थे ) वाटमा वार्तालाप विगेरे करवानुं हुं वर्जु-त्याग करूं. ॥ ११ ॥
अपमजियगमणमि अ, संडासा पमजिउंच उवविसणे; पाउंछणयं च वि--उवविसणे पंचनमुक्कारा ॥१२॥
अर्थ:-यथाकाळ पुंज्या प्रमाा वगर चाल्या जवाय तो, अंग पडिछेहणा प्रमुख संडासा पडिछेह्या वगर घेसी जवाय तो अने कटासणा (कांबळी ) वगर बेसी जवाय तो (तत्काळ ) पांच नमस्कार करवा (खमासमगा देवा अथवा पांच नवकार मंत्रनो जाप करवो. ॥१२॥
उग्घाडेण मुहेणं, नो भासे अहव जत्तिया वारा; १ भासे तत्तिअमित्ता, लोगस्स करेमि उस्सग्गं ॥१३॥
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18 . अर्थः-२ भाषासमिति-उघाडे मुखे (मुहपत्ति राख्या वगर) बोलुंज नहि. तेम छतां गफलतथी जेटली वार खुल्ला
मुखे बोली जाउं तेटलीवार (इरियावहीपूर्वक) लोगस्सनो काउस्सग्ग कलं. ॥ १३ ॥ असणे तह पडिक्कमणे, वयणं वजे विसेसकजविणा; सिक्किय मुवहिं च तहा, पडिलेहंतो न बेमि सया॥१४॥
अर्थः-आहार पाणी करता तेमज भतिक्रमण करता कोइ महत्वना कार्य वगर कोइने का कहुं नहि एटछे के कोइ संगाते वार्तालाप करुं नहि. एज रीते आपणी ( सुखे निर्वही शकाय अने उपयोगमा लई शकाय एटली बधी) उपधिनी पडीलेरणा करता हुं कदापि बोलु नहि. ॥ १४ ॥ अनैजले लम्भंते, विहरे नो धावणं सकज्जेणं; अगलिअजलं न विहरे, जरवाणीयं विसेसेणं ॥१५॥ ___अर्थः-३ एषणा समिति-धीजां निर्दोष मासुक (निर्जिव) जळ मळता होय त्या सुधी पोताने प्रयोजन (खप) छता धोवण (वाल्लं जळ) हुं ग्रहण करु नहि. वळी अणगळ (गाळ्या वगरनु) जळ हुं लहुं नहि अने जरवाणी (परेलं ) तो विशेष करीने लेउ नहि. ॥१५॥ सिक्कियमुवहिमाइ, पमजिउं निख्खिवेमि गिन्हेमि; जइ न पमज्जेमि तओ, तथ्थेव कहेमि नमुक्कारं ॥ १६॥
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अर्थ:- ४ आदान-निक्षेपणासमिति - आपणी पोतानी उपधि प्रमुख पुंजी - ममार्जिने तेने भूमि उपर स्थापन करूं तेमज भूमि उपरथी ग्रहण करूं. जो तेम पुंजत्रा ममार्जनामा गफलत थाय तो त्यांज नवकार महामंत्रनो उच्चार करें (नवकार गर्नु)
जथ्थ व तथ्थव उज्झणि, दंडगउवहीण अंबिलं कुव्वे; सयमेगं सज्झायं, उस्सग्गे वा गणेमि अहं ॥ १७॥
अर्थः- दांडो प्रमुख पोतानी उपधि ज्यां त्यां [ अस्तव्यस्त ढंग घडा वगर ] मूकी देवाय तो ते बदल एक आर्यचिल करूं अथवा उभा उभा काउसग्ग मुद्राए रही एक सो श्लोक या सो गाथा जेटलुं सझाय ध्यान करूं ॥ १७ ॥
मत्तगपरिवर्णमि अ, जीवविणासे करेमि निव्वियं; अविहीइ विहरिऊणं, परिठवणे अंबिलं कुव्वे ॥ १८ ॥
अर्थ:-५ पारिठावणिया समिति - लघुनीति बडीनीति के खेळादिकनुं भाजन परठवतां कोइ जीवनो विनाश थाय तो faat करूं अने अविधिथी ( सदोष ) आहार पाणी प्रमुख वहोरीने परठवतो एक आयंबिल करुं ॥ १८ ॥
अणुजाणह जस्सुग्गह, कहेमि उच्चारमत्तगठाणे;
तह सन्ना डगलग जोग, कप्पतिप्पाइ वोसिरे तिअगं । १९ ।
अर्थ:-वीनीति के लघुनीति करवाना के परठववाना स्थाने 'अणुजाणह जस्सग्गहो ' प्रथम कहुं, तेमन ते लघु-वडी नीति पाणी छेप अने डगल प्रमुख परठव्या पछी त्रण वार 'वोसिरे '
॥ १९ ॥
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रागमये मणवयणे, इकिकं निव्वियं करेमि अहं; कायकुचिठाए पुणो, उववासं अंबिलं वा वि ॥२०॥
अर्थः-मन-वचन-काय गुप्ति - मन अने वचन रागमय-रागाकुळ थाय तो हुँ एक एक निवि करूं. अने जो कायकुचेष्टा थाय-उन्माद जागे तो उपवास अथवा आयंबिल करूं. ॥ २० ॥ बेंदियमाईण वहे, इंदिअसंखा करेमि निवियया; भयकोहाइवसेणं, अलीयवयणंमि अंबिलयं ॥२१॥
____ अर्थ:-अहिंसात्रते-चे इंद्रिय प्रमुख जीवनी विराधना (प्राण हानि) मारा प्रमादाचरणथी थइ जाय तो तेनी | इंद्रियो जेटली निविभो करूं. सत्यव्रते-भय, क्रोध लोभ अने हास्यादिकने वश थइ जइ जुठं बोली जाउं तो आंबिळ करूं. पढमालियाइ न गिन्हे, घयाइ वत्थूण गुरुअदिवाणं; दंडगतप्पणगाइ, अदिन्नगहणे य अंबिलयं ॥ २२॥ _____ अर्थः-अस्तेय व्रते-पढमालिया (प्रथम भिक्षा) मा आवेला जे घृनादिक पदार्थ गुरु महाराजने देखाड्या नगरना होय ते हुं लेउं नहिं (वापरु नहि) अने दांडो, तर्पगी वगेरे बीजानी रजा कार लेउं वापरुं तो आंबिल करूं. ॥ २२ ॥ एगथ्थीहिं वत्तिं, न करे परिवाडिदाण मवि तासिं;
CHURCHANAGORKHORRORONG
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हैं। इगवरिसारिहमुवहि, ठावे अहिगं न ठावेमि ॥२३॥
अर्थ:-ब्रह्मव्रते-एकली स्त्री संगाये वार्तालापन करुं अने स्त्रीओने (स्वतंत्र) भणावू नहि. परिग्रहपरिहारवते
वर्ष योग्य (चाले तेटलोज) उपधि राखं, पण एथी अधिक नज ग. ॥ २३ ॥ ६ पत्तग टुप्परगाइ, पनरस उवरिंन चेव ठावेमि; आहाराण चउन्हें, रोगे वि अ संनिहं न करे॥२४॥ .
अर्थः-पात्रां अने काचला प्रमुख पंदर उपरान नज ग. रात्रिभोजनविरमणव्रते-अशन, पान, खादिम अने ॐ स्वादिम रुप चार प्रकारना आहारनो (लेश मात्र) संनिधि, रोगादिक कारणे पण राखं-करु नहि. ॥ २४ ॥
महरोगे वि अ काढं, न करेमि निसाइ पाणीयं न पिबे; सायं दोघडियाणं, मज्झे नीरंपि न पिबेमि ॥२५॥
अर्थ-महान् रोग थयो तोय तोपण क्वाथ न करूं-उकालो पोउ नहीं, तेमज रात्री समये जळपान करुं नहि. अने छ Rसांजे छेल्ली बे घडीमा (सूर्यास्त पहेलांनी घे घडीना काळमा) जळपान पण करुं नहिं, तो पछी बीजा अशनादिक आहार करवानी तो वातज शी? ॥२५॥ अहवा निच्छिअ सूरे, काले नीरं करेमि सयाकालं; अणहारोसहसंनिहि,-मवि नो ठावेमि वसहीए ॥ २६॥ ६११
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___अर्थः-अथवा सूर्य निश्चे देखाते छतेज उचित अवसरे सदाय जळपान करी ले-सूर्यास्त पहेलोन सर्व आहार संबंधी पञ्चख्खाण करी लउं. अने अणाहारी औषधनो संनिधि पण उपाश्रयमा राखं-रखावु नहि. ॥ २६ ॥ तवआयारे गिन्हे, अह नियमे कइवि सत्तीए; ओगाहियं न कप्पइ, छठाइतवं विणा उ जोगं च ॥२७॥
अर्थः-हवे तप आचार विषे वेटलाक नियमो शक्ति अनुमारे ग्रहण करुं छु. छठ (साये उपवास) आदिक प को होय तेमज योग वहन करतो होउं ते वगर मने अवग्राहित भिक्षा लेवी कल्पे नहि. ॥ २७ ॥ | निम्वियतिगं च अंबिल,-दुगं चविणु नो करेमि विगयमह; है। | विगइ दिणे खंडाई, णकार नियमो अजाजीवं ॥२८॥
अर्थः-लागलागां त्रण नीवीभो अथवा चे आंबिल कर्या वगर हुं विगइ (द्ध दहीं घी प्रमुख) वापरुं नहिं अने | ल विगइ वापरुं तो दिवसे खांड प्रमुख विशिष्ठ (साथे मेळवीने नहि वापरवानो) नियम जावजीव सुधी पाळ. ॥ २८॥
निव्वियाइं न गिन्हे, निव्वियतिगमज्झि विगइ दिवसे अB | | विगई नो गिन्हेमि य, दुन्नि दिणे कारणं मुत्तुं ॥२९॥
अर्थः-त्रण नीवी लागोलाग थाय ते दरमीयान तेमन विगइ वापरवाना दिवसे निवियाता ग्रहण करुं नहिवापरु नहि. तेमन बे दिवस मुधी लागट कोइ तेवा पुष्ट कारण वगर विगइ वापरुं नहि. ॥ २९ ॥
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अमीचउदसी, करे अहं निव्वियाई तिन्नेव; अंबिलदुगं च कुव्वे, उववासं वा जहासत्तिं ॥ ३० ॥
अर्थः- प्रत्येक अष्टमी अने चतुर्दशीने दिवसे शक्ति होय तो उपवास करूं, नहि तो ते बदल वे आंबिल अथवा निविय पण करी आपुं ॥ ३० ॥
दव्वखित्ता इगया, दिणे दिने अभिग्गहे अव्वा;
जीयंमि जओ भणिअं पच्छित्तमभिग्गहाभावे ॥ ३१ ॥
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अर्थः - प्रतिदिन द्रव्य क्षेत्र काळ अने भावगत अभिग्रह * धारण करवा केमके अभिग्रह न धारीए तो प्रायश्चित आवे एमजीत कल्पमां भाख्युं छे. ॥ ३१ ॥
विरियायारनियमे, गिन्हे कइअवि जहासत्ति;
दिण पण गाहाइणं, अध्थं गिन्हे मणेण सया ॥ ३२ ॥
अर्थ:-वीर्याचार संबंधी केटलाक नियमो यथाशक्ति हुं ग्रहण करुहुँ. सदा-सर्वदा पांच गाथादिकना अर्थ हुं ग्रहण करी मनन करूँ.
पण वारं दिण मज्झे, पमाययंताण देमि
हियसिख्खं;
* अमुक वस्तु अमुक स्थळे अमुक वखते भने अमुक रीते मळे तेज भिक्षा वखते लेवी एवा प्रकारनी विशिष्ट प्रतिज्ञा धारवी से.
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* एगं परिठवेमि अ, मत्तयं सव्वसाहूणं ॥३३॥
__अर्थः--आखा दिवसमा संयम मार्गमा (धर्मकार्यमा) प्रमाद करनाराओने हुं पांच वार हितशिक्षा (शिखामण) आ अने सर्व साधुबोने एक मात्रक (परठववानुं भाजन.) परठवी आपुं. ॥ ३३ ॥ चउवीस वीस वा, लोगस्स करेमि काउस्सग्गंमि; कम्मखयठा पइदिण, सज्झायं वा वि तम्मित्तं ॥ ३४ ॥ ____ अर्थः-प्रतिदिवस कर्मक्षय अर्थे चोवीस के वीस लोगस्सनो काउस'ग करूं, अथवा एटला प्रमाणमा सज्झाय ध्यान काउसम्ममा रही स्थिरताथी कई. ॥ ३४ ॥ | निदाइपमाएणं, मंडलिभंगे करेमि अंबिलय, | नियमा करेमि एग; विस्सामणयं च साहणं ॥ ३५॥
... अर्थः--निद्रादिक प्रमादवडे मंडलीनो भंग थइ जाय (मंडलीमा बराबर वखते हाजर न थइ शकुं) तो एक ऑविक | कलं. अने सहु साधु जनोनी एक वखत विश्रामणा-वैयावच्च निश्चे करु. ॥ ३५ ॥ | सेहगिलाणाइणं, विणावि संघाडयाईसंबंध, | पडिलेहणमल्लगपरि--ठवणाई कुव्वे जहासत्ति ॥३६॥
अर्थः-संघाडादिकनो कशी संबंध न होय तो पण लघु शिष्य ( बाळ ) अने ग्लान साधु प्रमुख पडिलेहण करी
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8 मा तेमज मना खेळ प्रमुख मलनी कुंडीने परउवया विगेरे काम पण हुं यथाशक्ति करी भाई. ॥ ३६ ॥
वसही पवेसि निग्गमि, निसीहि आवस्सियाण विस्सरणे; * १३५ पायाऽपमजणे विय, तथ्थेव कहेमि नवकारं॥३७॥
अर्थ:-वसति ( उपाश्रय-स्थान) मा प्रवेश करतां निस्सीही अने तेमाथी निकळत आवस्सही कहेवी भूली जाउं तेमज गाममा पेसता के निसरतां पग पुंजवा विसरी जाउं तो (याद आये तेज स्थळे ) नवकार मंत्रगणु.॥२७॥
भयवं पसाउ करिउं, इच्छाइ अभासणंमि वुड्ढेसु; | इच्छाकाराऽकरणे, लहुसु साहूसु कज्जेसु ॥ ३८॥ सव्वथ्थवि खलिएसुं, मिच्छाकारस्स अकरणे तह य; सयमनाउ विसरिए, कहियव्वो पंच नवकारो॥३९॥
अर्थ:-कार्य प्रसंगे वृद्ध साधुओने हे भगवान् ! पसाय करी भने मधु साधुने 'इच्छकार ' एटछे तेमनी इच्छा अनुसारे ज करवान कहे भूजी जाउं, तेमज सर्वत्र ज्यारे ज्यारे भूल पडे त्यारे त्यारे 'मिच्छाकार' एटछे पियामि दुख एप कहे जोइए ते विसरी जाउं तो ज्यारे मने पोताने सांभरी आवे अथवा कोइ हितस्वी संभारी मापे त्यारे तत्काळ मारे नवकार मंत्र गणवो. ॥ ३८ ॥ ३९ ॥
धुवस्स विणा पुच्छं, विसेसवथ्थु न देमि गिन्हे वा;
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| अन्नपि अ महकजं, वुद्धं पुच्छिय करेमि सया ॥४०॥
अर्था-वृद्ध ( वडील ) ने पूछया वगर विशेष वन ( अथवा वस्तु ) लडं दउं नहिं अने मोटा काम शख (परीक) 18/ ने पूर्वीने ज सदाय करूं, पण पूछया वगर करुं नहि. ॥ ४० ॥
दुब्बल संघयणाण वि, एए नियमा सुहावहा पायं; | किंचिवि वेरग्गेणं, गिहिवासो छड्डिओ जेहिं ॥४१॥
अर्थः-जेमनो शरीरनो बांधो नग्लो छे एवा दुर्बळ संधयणवाला छतां पण जेपणे कंइक वैराग्यथी पृहस्थपास 2 छाडयो छे तेमने आ उपर अणावेला नियमो पाळया प्रायः मुलभ छे. ॥ ४१ ॥
संपइकाले वि इम, काउं सक्के करेइ नो निअमे; 1 सो साहुत्त गिहित्तण, उभय भडो मुणेयव्वो ॥ ४२ ॥
अर्थः-संपति काळे पण सुखे पाली शकाय एवा आ नियमोने जे आदरे पाळे नहिं, ते साधुपणाथकी अने परस्थपणाथकी उभय भ्रष्ट थयो जाणवो. ॥ ४२ ॥ जस्स हिअयंमि भावो, थोवो वि न होइ नियमगहणंमि; तस्स कहणं निरथ्थय,-मसिरावणि कूवखणणं व ॥४३॥
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अर्थः--जेना हृदयमा उक्त नियमो ग्रहण करवानो लगारे भाव न होय तेमने आ नियम संबंधी उपदेश करवो ए (सिरा)--सर वगरना स्थळे कुवो खोदवा जेवो निरर्थक-निष्फळ थाय छे. ॥ ४३ ॥ संघयणकालबलदूसमा,-रयालंबणाई घित्तुणं; सव्वं चिअ निअम धुरं, निरुज्जमाओ पमुच्चंति ॥ ४४ ॥
_ अर्थः नवळा संघयण, काळ, बळ, अने दुषम आरो ए आदि हीणां आलंबन पकडीने पुरुषार्थ वगरना पामर ॐ जीवो आळस ममादयी बधी नियम धुराने छंडी दे छे. ॥ ४४ ॥
वृच्छिन्नो जिणकप्पो, पडिमाकप्पो अ संपइ नथ्थि; | सुद्धो अथेर कप्पो, संघयणाईणि हाणीए॥४५॥
अर्थः-( संपति काळे ) जिनकल्प व्युच्छिन्न थयेलो छे. घळी प्रतिमाकल्प पण अत्यारे वर्ततो नथी तथा संघयणादिकनी हानीथी शुद्ध स्थवीरकल्प पण पाळी शकातो नथी. ॥ ४५ ॥ : तहवि जइए अनियमा-राहणविहिए जएज चरणंमि; सम्ममुवउत्तचितो, तो नियमाराहगो होइ ॥ ४६॥
__ अर्थ:--तो पण जो मुमुक्षुभो आ नियमोना आराधन विधिवडे सम्पग उपयुक्त चित्त या चारित्र सेवनमा उत्र15 माळ बनशे तो ते नियमा--नोश्चे आराधक भावने पापेशे ॥ ४६ ।।
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सफळ थाप एटले ते शीव मुख फळने आपे छे. ॥ ४७ ॥
। ए ए सव्वे नियमा, जे सम्मं पालयंति वेरग्गा; ६ तेसिं दिख्खागहिआ, सफला सिवसुहफलं देइ ॥४७॥ . अर्थ:--आसर्वे नियमोने जे ( शुभाशयो ) वैराग्यथी सम्यग रीते पाळे छे, आराधे छे तमनी ग्रहण करेली दीक्षा
इति श्री संविज्ञ साधु योग्य नीयम कुलक भाषांतर समाप्तं.
अथ पुण्य कुलकम. संपुन्नइंदियत्तं, माणुसत्तं च आयरियखित्तं; जाइकुलजिणधम्मो, लम्भंति पभूयपुण्णेहिं ॥१॥
अर्थः-संपूर्ण इंद्रियपणु-कंइ पण खोड खोपण वगरनी सघळी (पांचे) इन्द्रियोनी प्राप्ति, मनुष्य पणुं, आर्यक्षेत्रपा अवतार, उत्तम जाति, उत्तम कुळ अने बीतराग भाषित जन धर्म-ए सघळांवानां मभुत (पुष्कळ) पुन्यथी प्राप्त थइ शके छे.
जिणचलणकमलसेवा, सुगुरुपायपज्जुवासणं चेव; 'सज्झायवायवडत्तं, लम्भंति पभूय पुण्णेहिं ॥ २॥
“सम्भाववा यवतं" एवोज पाठ होय तो सद्भुत यथातथ्य वादो अपराजितपणु एवो अर्थ संभवे छे.
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अर्थ:-जिन--अरिहंतना चरणकमळनी सेवा-भक्ति, अने सद्गुरुना चरणनी पर्युपासना, सपाय ध्यान तथा धर्मवादमा वदापणु-पराभव नहि पामवापणुं ए सघळा वानां प्रभूत पुन्य योगे प्राप्त थइ शके छे. ॥२॥ १५४ सुद्धो बोहो सुगुरुहिं, संगमो उवसमं दयालुत्तं;
दाखिन्नं करणंज, लम्भंति पभूयपुण्णेहिं ॥३॥ ____अर्थः--शुद्धबोधिबीज रुप समकितरत्ननुं पाम, मुगुरुनो समागम, उपशम भाव--शमता, दयाळूपणु, भने दाक्षिण्यता गुणतुं पालन ए बी वानां प्रभुत पुन्ययोगे प्राप्त थाय छे. ॥३॥ संमत्तं निचलंतं, वयाण परिपालणं अमायत्तं; पढणं गुणणंविणओ, लम्भंति पभूयपुण्णेहिं ॥ ४ ॥ . अर्थः-सम्यक्त्व (समकित ) म निश्चळता, व्रतोतुं (अथवा बोलेला वचनोनू) परिपालन, निर्मायीपणु, भगवू, गण, भने विनय ए चर्चा वानां महापुन्य योगे माप्त थइ शके छे. ॥ ४ ॥ उस्सग्गे अववाये, निच्छहविवहारंमि निऊणत्तं; मणवयणकायसुद्धी, लम्भंति पभूयपुण्णेहिं ॥५॥ अर्थः--उत्सर्ग-विधिमार्ग अने अपवाद--निषेधमार्ग तेमा तथा निश्चय--साध्यमार्ग भने व्यवहार--साधनमार्ग तेमा निपुण पणुं, तेमज मन बचन कायानी शुद्धि पवित्रता-निर्दोषता-निष्कलंकता एषा वाना मभूत पुन्यनायोगे माणीने माप्त थानके
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अवियारं तारुनं, जिणाणं राओ परोवयारत्तं; निकंपया य झाणे, लम्भंति पभूयपुण्णेहिं ॥६॥ र अर्थः निर्विकार--विकार वगरनुं यौवन, जिन शासन उपर चोळममीठ जेबो गग, परोपकारीगj भने ध्यानयां 8) निश्चकता एपर्धा पानां महापुन्य योगे प्राप्त यइ शके छे. ॥६॥
परनिंदापरिहारो, अप्पसंसा अत्तणो गुणाणं च; ६ संवेगो निव्वेओ, लम्भंति पभूयपुण्णेहिं ॥७॥
अर्थ:--परनिंदानो त्याग अने आपणा गुणोनी श्लाघा--प्रसंसायी दूर रहे, तेमज संवेग--मोक्षामिछाप भने/Re-fa 12 भव वैराग्य ए वर्धा बाना मभूत पुन्य योगे माप्त थाय . ॥७॥ | निम्मलसीलाम्भासो, दाणुल्लासो विवेमसंवासो;
चउगइदुहसंतासो, लम्भंति पभूयपुण्णेहिं ॥८॥ __अर्थ--निर्मळ-शुद्ध शीलनो अभ्यास, सुपात्रादिक दान देता उल्लास, हिताडित संबंधी विवेक सहितपणुं भने चार गतिना दुःखथकी संपूर्ण त्रास एषां वानां महा पुन्यना योमे प्राप्त थाय छे. ॥ ८ ॥ दुक्कडगरिहा सुकडा-णुमोयणं पायच्छित्त तवचरणं;
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सुहझाण नमुक्कारो, लम्भंति पभूयपुण्णेहिं ॥ ९ ॥
अर्थः करेला पाप कृत्यनी आलोचना--निंदा, सारा कृत्यो को होय तेनी अनुमोदना, करेला पाफ्नो छेद करवा १६/8| माटे गुरु महाराजे बतावेला तपy करवू. आचर. शुभ ध्यान धर, अने नवकार महामंत्रनो जाप करवो ए सघळां
पानां महा पुत्ययोगे. प्रप्त थइ शके छे. ॥९॥
इयगुणमणिभंडारो, सामग्गी पाविऊण जेणकओ: * विच्छिन्नमोहपासा, लहंति ते सासयं सुख्खं ॥१०॥
अर्थ:-- उपर बताव्या मुजब गुणमणि--रत्नना भंडार जेवां सुकृत्यो, सघळी रुडी सामग्री प्राप्त करीने जे महानुभावो करे छे.-आचरे छे ते पुण्यात्माओ सघळा मोहपासथी सर्वथा मुक्त थइने शाश्वत सुखरुप मोक्ष पदने पामे छे.१०
॥ इति पुण्यप्रभाव प्रदर्शक श्री पुण्यकुलकं ॥
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अथ दानमहिमागर्भित श्रीदानकुलकम्. | परिहरिअ रजसारो, उप्पाडिअ संजमिक्कगुरुभारो; खंधाओ देवदूसं, विअरंतो जयउ वीरजिणो॥१॥
अर्थ:-समस्त राज्य ऋद्धिनो अनादर करीने संयम संबंधी अनि घणो भार जेपणे उपाड्यो छे अने इन्द्र महाराजे 18दीक्षा समये स्कंध उपर स्थापेलु देवदुष्य वस्त्रपण जेमणे पछाडी लागेला विपने आपी दीधुं ते श्री वीरमभु जयवंता व.१
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धम्मथ्थकामभेया, तिविहं दाणं जयंमि विख्खायं; तहवि अ जिणिदमुणिणो, धम्मदाणं पसंसंति ॥ २ ॥
अर्थ:-धर्म दान, दान अ काम दान एम ग प्रकारनुं दान दुनीआमां प्रसिद्ध छे, तो पण जिनेश्वर मभुनी ज्ञाना रसिक निओ धार्मिक दानने ज पशंसे छे, ॥ २ ॥
दाणं सोहग्गकरं, दाणं आरुग्गकारणं परमं; दाणं भोगनिहाणं, दाणं ठाणं गुणगणाणं ॥ ३ ॥
अर्थ:-दान सुख-सौभाग्यकारी छे. दान परम आरोग्यकारी छे. दान पुण्यनुं निधान छे एटले भोगफलकारी के भने अनेक गुणगणोनुं ठेकाणुं छे. ॥ ३ ॥
दाणेण फुरइ कित्ती, दाणेण होइ निम्मला कंति; दाणावजिअहिअओ, वैरी वि हु पाणियं वहइ ॥ ४॥
अर्थ:- दानवडे कीर्ति बधे छे, दानथी निर्मळ कांतिरूप लावण्य, सुख सौभाग्य वधे छे भने दानयी क्श थयेला - हृदयबाळो दुश्मन पण दातारना घरे पाणी भरे छे. ॥ ४ ॥
धणसथ्थवाह जम्मे, जं घयदाणं कथं सुसाहूणं,
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तक्कारणमुसभजिणो, तेलुक्कपियामहो जाओ ॥ ५॥
अर्थ:- धनसार्थवाहना भवमां सुसाधुजनोगे जे घीनुं दान दीधुं हतुं ते पुण्यना मभावथी ऋषभदेव भगवान् भन कोकना पितामह (नाथ) थया. ॥ ५ ॥
करुणाई दिन्नदाणो, जम्मंतरगहिअपुन्नकिरिआणो; तिथ्थयरचक्करिद्धिं, संपत्तो संतिनाहो वि ॥ ६॥
अर्थ:- पाइला भव करुणाकडे पारेवाने अभयदान आप्युं भने पुण्य करीयानुं खरीदो कीधुं तेषी शांतिनाथजी साकर भने चक्रवर्तीभी ऋद्धि पाया ॥ ६ ॥
पंचसय साहु भोयण, दाणावज्जिअ सुपुन्नपप्भारो; अच्छारिअ चरिअ भरिओ, भरहो भरहाहिवो जाओ ॥७॥
अर्थ:- पांचसो साधुओ ने भोजन दान भागवावडे जेने बहु भारे पुण्य वेदा कर्तुं के एवी भने आश्चर्यकारक चरित्रधी भरेको एवो भरत भरतक्षेत्रनो नायक - चक्रवर्ती थयो. ॥ ७ ॥
मूलं विणावि दाउँ, गिलाण पडिअरण जोग वथ्थूणि; सिद्धो अ रयणकंबल - चंदण वणिओ वि तंमि भवे ॥ ८ ॥
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अर्थ:-हान (मांदा) मनिने बापरवा योग्य वस्तुओ बग़र मूल्ये भापवायी रत्नकंबल भने पावनाचंदननो ₹ मापारी पाणीयो-पणिक तेज भवमा सिद्धिपद पाम्योः ॥ ८॥
दाऊण खीरदाणं, तवेण सुसिअंगसाहुणो धणिअं; जणजणिअचमकारो, संजाओ सालिभद्दोवि ॥९॥
अर्थः-तपस्यावडे शोषित देहवाळा साधु मुनिराजने क्षीरतुं दान देवाथी तत्काळ सहु कोश्ने चमत्कार उपजारे एवो ऋद्धिपात्र शालिभद्र कुमार थयो. ॥ ९ ॥ जम्मंतरदाणाओ, उल्लसिआऽपुवकुसलझाणाओ; कयउन्नो कयपुन्नो, भोगाणं भायणं जाओ॥१०॥
अर्थः-पूर्व जन्ममा दीधेला दानना प्रभावी प्रगट थयेला अपूर्व ( अद्भूत ) शुभ ध्यान थकी पुण्यशाळी एयो | कयवनो शेठ विशाळ मुख भोगनो भागी थयोः ॥ १० ॥ घयपूस वथ्थपूसा, महरिसिणो दोसलेसपरिहीणा; लद्धीई सब्वगच्छो-वग्गहगा सुहगई पत्ता ॥११॥
अर्थः-बीलकुल दोष रहिन एवा घृतपुष्य अने वपुष्य नामना महा मुनिओ स्वलन्धिवडे सकळ भक्ति करता छतां सद्गतिने पाम्या. ॥ ११ ॥
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जीवंतसामिपडिमाए, सासणं विअरिऊण भत्तीए; । पव्वइऊण सिद्धो, उदाइणो चरमरायरिसी ॥१२॥
___अर्थः-जीवंत (महावीर स्वापीनी प्रतिमा माटे भक्तियी शासनमा विचरीने (गाम गरास आपीने) छेवटे दीक्षा है। ग्रहण करीने उदायी नामनो छेल्लो राज-ऋषि मोक्षगतिने पाभ्यो. ॥ १२ ॥ / जिणहरमंडिअवसुहो, दाउं अणुकंपत्तिदाणाई; तिथ्थप्पभावगरेहिं, संपत्तो संपइराया ॥ १३ ॥
_भर्थः- जेणे पृथ्वीने मिनचैत्योथी अंडित करी छे एवो संपति राजा अनुकंपादान अने भक्तिदान देवावडे शासनप्रभावकनी पंक्तिमा लेखायो. ॥ १३ ॥ दाउं सद्धासुद्धे, सुद्धे कुम्मासए महामुणिणो; सिरिमूलदेवकुमारो, रजसिरि पाविओ गुरुई ॥ १४ ॥
भा-रुडी श्रद्धावडे-शुद्ध भावयुक्त निर्दोष एवा अहदना बाकळा महा मुनिने देवावडे श्री (जितशत्रु राजानो पुत्र) मूळदेव कुमार विशाळ राज्य लक्ष्मीने पाम्यो. ॥ १४ ॥ ६ अइदाण मुहर कविअण,विरइअसयसंखकव्व विच्छरिअं; १८
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विकमनरिंदचरिअं, अज्जवि लोए परिप्फुरइ ॥१५॥ ..... वर्षः-प्रसिदान बन्यायी वाचाळ थयेला कवियो( पंडितो)ए सेंकड़ो काल्योवडे विस्तारेलं श्री विक्रमादित्यः | गमा चरित्र अद्यापि पर्यंत कोकया मसिध्ध थइ गयुं छे. ॥ १५ ॥ तियलोयबंधवेहि, तम्भवचरिमेहिं जिणवरिंदेहि; कयकिच्चेहिं वि दिन्नं, संवच्छरियं महादाणं ॥१६॥
अर्थ:-जीयोकी बंधु एया भिमेश्वरो तेज भवमा मोक्ष जवाना निश्चित अने कृतकृत्य छतां पण तेमणे सांवत्सरिक है| | (एक वर्ष पर्वत ) महादान आप्पु. ॥ १६ ॥
सिरि सेयंसकुमारो, निस्सेयससामिओ कह न होइ; | फासुअदाणपवाहो, पयासिओ जेण भरहंमि ॥१७॥ अर्थः-अणे मामुक (निर्दोष) दाननो प्रवाह आ भरतक्षेत्रमा चलाव्यो एवो श्रीश्रेयांसनुमार मोक्षनो अधिकारी केम न थाय? कह सा न पसंसिजइ, चंदणबाला जिणंददाणेणं; छम्मासिअतव तविओ, निव्वविओ जिए वीरजिणो॥१८॥
अर्थः- मासी रुप मजे करेलो के एका वीरप्रभुने जेणीए अडदना शकुना परिलाभवावडे संतोप्या ते चंदन
बाळानी केम प्रशंसा न करीए ? ॥१८॥
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पढमाइ पारणाई, अकरिंसु करंति तह करिस्संति;
अरिहंता भगवंतो, जस्स घरे तेसिं धुव सिद्धि ॥ १९ ॥ | अथः-अरिहंत भगवंतोए जेमना घरे प्रथम (तपना) पारणां काँछे,करेछे अने करशे ते भव्यात्मा श्री अवश्य मोक्षगामीन जाणवा. | जिण भवण बिंब पुथ्थय, संघसरुवेसु सत्ताखत्तेसु; ।
बविअंधणंपि जायइ, सिवफलयमहो अणंतगणं ॥२०॥ | भर्यः-भहो इति आश्चर्ये जिनभुवन (जिनमंदिर) जिनबिंब (पतिमा) पुस्तक अने चतुर्विधसंघरूप साते क्षेत्रोमां वावेलं |
अथ शीलमहिमागर्भित शीलकुलकम्. १६ सोहग्ग महानिहिणो, पाए पणमामि नेमिजिणवइणो; बालेण भुयबलेणं, जणदणो जेण निजिणिओ॥१॥
- भर्यः-जेमणे बाल्यावस्थामा पोताना सुनावलवडे कृष्णजीने सर्वथा नीती कीषा इता ते मुख सौभाग्यना समुद्र एका श्री नेमिनाथ प्रभुना चरण कमळने हुं पण छु. ॥ १॥
ॐापन नं] अक्षयफळ आपनाएं थाय के एम समनी धन ममता तनी तेनो सदव्यय करी धनवंत लोकोए तेनोसावोचो.२०
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सीलं उत्तमवित्तं, सीलं जीवाण मंगलं परमं; | सीलं दोहग्गहरं, सीलं सुख्खाण कुलभवणं ॥२॥
अर्थः-शीक-सदाचरणज भागीओ→ उत्तम धन के, शील अ परम मंगलरूप के. शीला दुःख दारिद्रने हरनारं | भने शील ज सकळ मुख→ धाम के ॥२॥ |सीलं धम्मनिहाणं, सीलं पावाण खंडणं भणियं; |सीलं जंतूण जए, अकित्तिमं मंडणं परमं ॥३॥
अर्थ:-शील धर्मनुं निधान है. शील-सदाचरणज पापने खंडनकारी कणु के अने शीला जगतमा पाणीगोनी है। | स्वाभाविक श्रेष्ठ शणगार के एम भाख्यं ॥३॥
नरयदुवारनिरंभण, कवाडसंपुडसहोअरच्छाय; सुरलोअधवलमंदिर-आरुहणे पवरनिस्सणिं ॥४॥ ___अर्थः-शीलज नरकनां दार बंध करवाने कमानी जोड जे, जबरजस्त छे, अने देवलोकना उज्वळ विमानो पर 18/ | बारूद थवाने उत्तम नीसरणी समान के. ॥ ४॥
सिरिउग्गसेणधूया, राईमई लहउ सीलवईरहें;
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गिरिविवरगओ जीए, रहनेमि ठाविओ मग्गे ॥५॥
भर्थ-श्री ब्रसेन राजानी पुत्री राजीमतीने शीलवतीमा श्रेष्ठ गणवा योग्य छ के जेणे गुफामा प्रमथी आधी २०१६ चडेला भने मोहित थयेडा रहने मिने संयम मार्गमा पाछा स्थापित कर्थ छे-स्थिर कर्या छे. ॥ ५ ॥ . .
पजलिओ विहु जलणो, सोलप्पभावेण पाणीअं होई; सा जयउ जए सीआ, जीसे पयडा जस पडाया ॥६॥
KUMORRECRUIRECRUCHARC
अर्थ:-शीलना प्रभावथी. प्रज्वलित करेलो एवो पण अग्नि खरेखर जळरुप थइ गयो एवी जश-पताका जेनी करकी रहीछे ए सीतादेवी जयवंती वा ॥६॥
चालणीजलेण चंपाए, जीए उग्घाडि दुवारतिगं;
कस्स न हरेइ चित्तं, तीए चरिअं सुभद्दाए ॥७॥ 12 अर्थः-चालणीना जळवडे जेणे चंपानगरी त्रण द्वार उघाड्यां इतां ते सुभद्रा सतीन (शील) चरित्र कोना चित्तने हरण नथी करतुं?
नंदउ नमयासुंदरी, सा सुचिरं जीए पालिअंसीलं; * गहिलत्तणं पि काउं, सहिआ य विडंबणा विविहा॥८॥
। अर्थ:-से नर्मदा सुंदरी सती सदाय जयवंती वर्तो ! के जेणीए ग्रहिलपणुं (गांडापj) आदरीने पण शीलव्रतनुं
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HAR
पाखन कर्यु अमे (तेनी लातर) विविध प्रकारनी विडंबना सहन करी. ॥८॥
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भई कलावई ए, भीसणरत्नंमि रायचत्ताए; 18| जं सा सीलगुणेणं, छिन्नंगा पुणन्नवा जाया ॥९॥ 8. अर्थः-भयंकर अटवीमा राजाए तजी दीघेली कलावती सती, कल्याण याश्रो ! के जेना शीलगुणना प्रभावी | छेदायेगां अंगो पग फरी नवा थइ गया. ॥ ९ ॥ सीलवईए सीलं, सक्कइ सक्को वि वन्निउं नेव; रायनिउत्ता सचिवा, चउरो वि पवंचिआ जीए ॥१०॥
अर्थः-शीलवती सतीना शीलने शक्र-इन्द्र पण वर्णववाने समर्थ थइ शके नहि. के जेणीए राजाए मोकळेला चारे प्रधानोने छेतरी स्वशीलनुं रक्षण कर्यु छे. ॥ १० ॥ सिरिवद्धमाणपहुणा, सुधम्मलाभुत्ति जीए पठविओ; सा जयउ जए सुलसा,सारयससिविमलसीलगुणा॥११॥
अर्थ:-श्री वर्धमान प्रभुए जेणीने उत्तम धर्मलाभ पाटव्यो इतो ते शरदरुतुना चंद्रमा समान निर्मळ शील गुण₹ वाली सुलसा सती सर्वत्र जयवंती वर्तो. ॥ ११ ॥ | हरिहरबंभपुरंदर,-मयभंजण पंचबाणबलदप्पं;
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चित्तवाळा (दृढ) रह्या ते श्री वज्रस्वामि महाराज जयवंता वर्ताः ॥ १३ ॥
RECORIANRAKANKARI
लीलाइ जेण दलिओ, स थूलभद्दो दिसउ भदं ॥ १२॥ है।
अर्थः-हरि, घर, ब्रह्मा अने इन्द्रना मदने गाळी नाखनारा कामदेवनी शक्तिनो गर्व जेणे लीला मात्रमा दळी नाख्यो ते स्थूलभद्र (मुनिराज ) अमारु कल्याण करो. ॥ १२ ॥ | मणहरतारुन्नभरे, पथ्थिजंतो वि तरुणि नियरेणं; सुरगिरिनिचलचित्तो, सो वयरमहारिसी जयउ॥१३॥
अर्थः-मनोहर यौवन वयमा अनेक स्त्रीसमुदायवडे (विषय माटे) प्रार्थना कराता छतां जे मेरुगिरि जेवा निश्चळ | थुणिउं(मुणिउ) तस्स नसक्का,सस्ससुदंसणस्सगुणनिवह: ।। जो विसमसंकडेसु वि, पडिओ वि अखंड सीलधणो॥१४॥
. अर्थः-ते मुटर्शन श्रावकना गुणगणने गावा इन्द्र पण समर्थ थइ शके नहि के जे भारे संकटमा आवी पड्या | | छतां अखंड शीलने राखी शक्यो छे. ॥१४॥ | सुंदरि सुनंद चिल्लण-मणोरमा अंजणा मिगावई अ; | जिणसासणसुपसिद्धा, महासई ओ सुहं दिंतु ॥१५॥
अर्थः-मुंदरी, सुनंदा, चिलणा, मनोरमा, अंजना अने मृगावती विगेरे जिनशासनमा प्रसिद्ध थयेली महा |8|२१
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सतीभो सुखशांति आपो ! ॥ १५ ॥ | अच्चंकारिअ दळूण, (सुणिऊण)को न धुणइ किर सीसं; जा अखंडिअ सीला; भिल्लवई कयथिआ वि ॥१६॥
अर्थ:-अचंकारीमटानं ( अदभुत) चरित्र सांभळीने स्वशीर्ष (मस्तक) कोण न धुणावे? के जेणीप भिलए अत्यंत कदर्थना कर्या छतां अडगपणे स्वशीलने अखंड साचवी राख्यु.॥ १६ ॥
ते लोकोने पिय थइ शकशे नहि. ॥ १७ ।।
नियमित्तं नियभाया,निय जणओनिय पियामहो वा वि।। नियपुत्तो वि कुसीलो, न वल्लहो होइ लोआणं ॥ १७॥
अर्थः-गमे तो निज भित्र, निज बंधु, निज तात, निज तातनो तात के निज पुत्र होय पण जो कुशील हशे तो | सव्वेसि पि वयाणं, भग्गाणं अथ्थि कोइ पडिआरो; पकघडस्स व कन्ना, ना होइ सीलं पुणो भग्गं ॥ १८॥
_ अर्थः-बीना बघा व्रत भग्न थयां होय तो तेनो उपाय कड़ने कई आलोचना--निदा मायश्चितादिक रुप होइ शके | वेआलभअरख्खस-केसरिचित्तयगइंदसप्पाणं;
पण पाका घडाने वांना सांधवानी परे भागेना शीलने सांधवू दुर्घट--दुःशक्य छे. ।। १८ ॥
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लीलाइ दलइ दप्पं, पालंतो निम्मलं सीलं ॥१९॥
अर्थ:-निर्मल शीलनुं रक्षण करनार भव्यात्मा, पैनाल, भूत राक्षस, केसरीसिंह, चित्रा, हाथी भने सर्पना दर्द | (अहंकार ) ने लोला मात्रमा (जोत जोनामा) दळी नाखे छे. ॥ १९ ॥ जे केइ कम्ममुक्का, सिद्धा सिझंति सिझिहिंति तहा; सव्वेसिंतेसिंबलं,विसालसीलस्सदुल्ललिअं(माहप्पं)॥२०॥
अर्थ:-जे कोइ महाशयो सर्व कर्मथी मुक्त थइने सिद्धि पदने पाम्या के. वर्तमानकाळमां (महाविदेहादिक क्षेत्रपा) सिद्धि पदने पामे छे अने भविष्यकाळमा आ भरतादिक क्षेत्रमा पण सिद्धिपदने पामशे ते आ पवित्र शीलनोन प्रभार जाणवो. उत्तम शील चारित्र (यथाख्यान चारित्र) नी माप्ति करनारनी अवश मिद्धि थापन के. शोल-चारित्रनं भावं उत्तम माहात्म्य शास्त्रकारोए जणावे टु छे, ते निघामा लइ भव्यजनोए (सहु भाइ मेनोए निर्मळ शीर--रत्ननुं परिपाळण करवा सदोचन (हमेशा उद्यमवाळा ) रहेवं चिन के. ॥ २० ॥ इति शील कुलकं.
___ अथ श्रीतपःकुलकम्. सो जयउ जुगाई जिणो, जस्संसे सोहए जडामऊडो; तवझाणग्गिपज्जलिअ-कम्मिंधण धूमलहरिव[पंतिब्व] १२२
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__अर्थ:-मघळ ध्यानरुप नया अभिवडे पाली नांखेला कर्मइन्धनोनी धूमपंक्ति जेवो जटाकलाप जेमना खभा छपर शोभी होते युगादिस जयवंता वर्तो ! ॥१॥ संवच्छरिअ तवेणं, काउस्सग्गंमि जो ठिओ भयवं; पूरिअ नियय पइन्नो, हरउ दुरिआई बाहुबली ॥२॥
- अर्थः-एक वर्ष पर्यंत तपवडे काउसग्ग मुद्राए खडा रही जे महात्माए स्वप्रतिज्ञा पूर्ण करी छे ते बाहुबली महा 18 गज (बमारा ) दुरित- पाप दूर करो ! ॥२॥
अथिरं पि थिरं वकंपि उजुअं दुलहपि तह सुलहं; | दुस्सझंपि सुसझं, तवेण संपज्जए कजं ॥३॥
अर्थः-तपना प्रभावयी अस्थिर होय ते पण स्थिर याय छे, वाकुं होय ते पण सरळ थाय , दुर्लभ होय ते पण मुखम थाय छे भने दुःसाध्य होय ते पण मुसाध्य थाय छे. ॥३॥ छठं छठेण तवं, कुणमाणो पढमगणहरो भयवं; अख्खीणमहाणसीओ, सिरिगोयमसामिओ जयउ॥४॥ ___ :-उच्च छह तप आंतरारहित करता प्रथम गणधर श्री गौतमस्वामी महाराज प्रक्षीण मानसी नामनी पहा
धिने माया अवता यतों! ॥४॥
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त. सोहइ सणंकुमारो, तवबलखेलाइलद्धिसंपन्नो; निहुअ खवडियंगुलिं, सुवन्नसोहं पयासंतो॥५॥
अर्थः-शंकवडे खरडे ली प्रांगळीने सुवर्ण जेवी शोभती करी देखाडता एवा सनत्कुमार राजर्षि तपोवळथी | खेलादिक लब्धि संपन्न छना शोभे छे. ॥५॥ गो बंभ गभ्भ गम्भिणी, बंभिणीघायाइ गुरुअपावाई; । काऊण विकणयं पि व, तवेण सुद्धो दृढप्पहारी॥६॥
अर्थः-गो, ब्रह्मा गर्भ अने गर्भवती ब्राह्मणीनी हत्यादिक महा उग्र पापने कर्या छतां दृढमहारी (ठेवटे) मुनिषणे तप सेवनवडे सुवर्णनी पेरे शुद्ध थया. ॥ ६॥ पुव्वभवे तिव्व तवो, तविओ जं नंदिसेण महरिसिणा;
वसुदेवो तेण पिओ, जाओ खयरी सहस्साणं ॥७॥ ॐ अर्थः- पूर्व जन्ममां नंदिपेण महर्षिए जे तीव्र तप को हतो तेना प्रभावथी वसुदेव हजारो गमे विद्याधरीभोना मिय--पति थया.
७४ देवावि किंकरतं, कुणंति कुलजाइविरहिआणंपि; तवमंतपभावेणं, हरिकेसबलस्स व रिसिस्स ॥ ८॥
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अमर-
२-RHGREE
. अर्थः--तीव्र तप मंत्रना प्रभावथी हरिकेशबळ ऋषिनी पेठे (उत्तम) कुळ अने जातिहीन होय तोपण तेमनी देवताओ पण सेवा उठावे छे. ॥ ८॥ पडसय मेग पडेणं, एगेण घडेण घडसहस्साई; जं किर कुणंति मुणिणो, तव कप्पतरुस्स तं खु फलं॥९॥ है|
अर्थः-मुनिजनो जे एक पट (वस्त्र) वडे सेंकडो पट खो बारे छे अने एक घट-भाजनवडे हजारो घट--भाजनों | करे छे ते निश्च सपरुष कल्पवृक्षमुंज फळ छे. ॥ ९॥ ..
अनिआणस्स विहिए, तवस्स तविअस्स किं पसंसामो; किज्जइ जेण विणासो, निकाईयाणं पि कम्माणं ॥१०॥ अर्थः जेनावडे निकाचित कमेनिो पण ध्वंस करी शकाय छे एवा यथाविध नियाणा रहित करेला तपनी अमे वेटली मशंसा करीए? |
अईदुक्कर तवकारी, जगगुरुणा कन्हपुच्छिएण तदा; वाहरिओ सो महप्पा, समरिजओ ढंढणकुमारो॥११॥
अर्थः- अढार हजार मुनिश्रोमा अति दुष्कर तप करनार कया साधु छ ? एम कृष्णे एकदा पूछये छत्ते नेमि- | पइदिवसंसत्तजणे,हणिऊण वहिऊण]गहियवीरजिणदिस्खा ।
जे महाशय ने वखाण्या ते ढंढणमुनि (सदाय) स्मरणीय छे. ॥११॥
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दुग्गाभिग्गहनिरओ, अजुणओ मालिओ सिद्धो॥१२॥/.
सर्थः--पति दिवस ( भूतावेशथी ) सात सात जणनो वध करीने छेवटे वीरप्रभु पासे दीक्षा ग्रही जे घोर-दुष्कर अभिग्रह पाळवामां उजमाळ यवो ते अर्जुनमाळीमुनि सिद्धिपद पाम्यो.॥ १२॥ .
नंदीसररुअगेसु वि, सुरगिरिसिहरेवि एगफालाए; जंघाचारणमुणिणो, गच्छंति तवप्पभावेणं ॥१३॥
अर्थः-नंदीश्वर नामना आठमा द्वीपे तथा रुचक नामना तेरमा द्वीपे तेमज मेरु पर्वतना शिखरो उपर एक फाळे करी जंघाचारण अने विद्याचारण मुनिओ तपना पभावे जइ शके छे. ॥ १३ ॥
सेणियपुरओ जेसिं, पसंसिअं सामिणा तवोरुवं; | ते धन्ना धन्नमुणी, दुन्हवि पंचुत्तरे पत्ता॥१४॥
अर्थः-श्रेणिकराजानी पासे पीर परमात्माए जेमतुं तपोबळ वखाण्यु हतुं ते धनोनि (शालिभद्रना पनेवी) अमे धन्नकाकंदी बने मुनिको सर्वार्थ सिद्ध विमाने गया. ॥ १४ ॥
सुणिऊण तव सुंदरी-कुमरीए अंबिलाण अणवरयं; सडिं वाससहस्सा, भण कस्स न कंपए हिअयं ॥१५॥
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अर्थः--ऋषभदेव स्वामीनी पुत्री सुंदरीए ६० हजार वर्ष पर्यंत कायम आंग्लि तप कर्यो ते सांभळी कहो ! कोर्नु हृदय कंप्या वगर रहेशे ? ॥ १५ ॥ | जं विहिअमंबिलतवं, बारसवरिसाइं सिवकुमारेण; तं दछु जंबुरुवं, विम्हइओ सेणिओ राया ॥१६॥
अर्थः- (पूर्व भवमा ) शिवकुमारे चार वर्ष पर्यंत आंबिल तप को हतो तेना प्रभावथी जंबुकुमारन अद्भुतरु' देखीने श्रेणिक गजा विस्मय पाम्यो हतो. ॥ १६ ॥ जिणकप्पिअ परिहारिअ, पडिमापडिवन लंदयाईणं; सोऊण तवसरुवं, को अन्नो वहउ तवगवं ॥१७॥
अथ:-निकल्पी, परिहार विशुद्धि, प्रविमामतिपन्न अने यथालंदी तपस्वी साधुओनां तपतुं स्वरुप. सौमळीने बीनो कोण तपनो गर्व करचो पसंद करशे ? ॥ १७ ॥ मासद्ध मासखवओ, बलभद्दो रुपवं पि हु विरत्तो; सो जयउ रन्नवासी, पडिबोहिअ सावयसहस्सो॥ १८॥
, अर्थ:-अति रुपवंत छता विरक्त थइ अरण्यमा वसी जेणे हजारो श्वापद जानवरोने प्रतिबोरा छे ते मास अर्थ मासनी तपस्या करता बलिभद्रमुनि जयवंता वर्तो ॥ १८ ॥
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थरहरिअधरं झलहलिअ-सायरं चलियसयलकुलसेलं; जमकासी जयं विण्ह, संघकए तं तवस्स फलं ॥१९॥
___ अर्थ:-श्री संघनं कष्ट निवारण करवा माटे विष्णुकुमारे लक्ष योजनपमाण रुप विकुव्यु त्यारे पृथ्वी कंपायमान थइ, सागर जळहळ्या-हाळकलोल थया, अने हिमवंतादिक पर्वतो चलायमान थया अने छेनटे श्री संघन रक्षण
| सर्व तपन फळ जाणधुं ॥ १९
है| किं बहुणा भणिएणं, जं कस्सवि कहवि कथ्थवि सुहाई;
दीसंति(तिहुअण)भवणमझे,तथ्थ तवोकारणंचेव २० | ___ भर्थः-तपनो प्रभाव केटलो वर्णवी शकाय ? जे कोइने कोइ पण प्रकारे क्यांय पण त्रिभुवन मध्ये मुख-समाधि || प्राप्त थाय छे त्या सर्वत्र (बाह्य अभ्यंतर) तपन कारणरुप छे एमचोकस समजवू अने तेनुं आराधन करका यथाविध उद्यम सेवको.
_ अथ श्री भावकुलकम्. कमठासुरेण रइयंमि, भीसणे पलयतुल्ल जयबोले; ( भावेण केवललच्छि, विवाहिओ जयउ पासजिणो॥१॥
CAPRICORRECRUCAKACRICK
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अर्थ:-कमठासुरे रचे ग भारे भयंकर पलपकाळना जेवा जन उपद्रव काळे समभाग्ने धारण करवावडे जे केवळ ज्ञान वक्ष्मीने वर्या ते श्री पार्थपभु जयवंता वों! ॥१॥ निचुन्नो तंबोलो, पासेण विणा न होइ जह रंगो तह दाणसीलतवभावणाओ, अहलाओसव भावविणा॥२॥ __अर्थः-जेम ( काया) चूना वगर तायूल (नागरवेली पान) अने पास वार बस्न ठीक रंगातुं नयी तेम भाव 81 वगर दान शील तप अने भावना भो पण फळदायी महि था-- प्रफळ धाय छे. ॥ २ ॥ मणिमंत ओसहीणं, जंततंताण देवयाणं पि; भावेण विणा सिद्धि, न हु दीसइ कस्स वि लोए॥३॥ ___ अर्थ:-मणि, मंत्र, औषधी तेमज जंत्र तंत्र अ देवतानी पण साधना दुनीयामा कोइने भाव पगर सफळ थती नथी. भाव योगेन ते ते वस्तु भोनी पिद्धि यती देवाय छे ॥३॥ सुहभावणावसेणं, पसन्नचंदो मुहुत्तमित्तेण;" खविऊण कम्मगंठिं, संपत्तो केवलं नाणं ॥४॥ अर्थः-शुभ भावना योगे पसमचंद्र (राजर्षि) वे घडी मात्रमा रागद्वेशपय कर्म गे गुंफील ग्रंथी गांउने भेदी नांखी केवळज्ञान पाम्या. | सुस्सूसंती पाए, गुरुणीणं गरहिऊण नियदोसे;
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उप्पन्न दिवनाणा, मिगावई जयउ सुहभावा ॥ ५ ॥
अर्थ:- निजदोष (अपराध) नी निंदा गर्दा करीने गुरुणीनां चरणनी सेवा करतां जेणीने शुभ भावधी केवळज्ञान उपन्यु ते मृगावती साध्वी जयवंती वर्तो ! ॥ ५ ॥
भयवं ईलाइपुत्तो, गुरुए वंसंमि जो समारुढो;
दहूण मुणिवरिंद, सुहभावओ केवली जाओ ॥ ६॥
अर्थ:-मोटा वांस उपर नाचवा माटे चढ्या छतां कोई महामुनिराजने देखी शुभ भावयी पूज्य इकाचिपुत्रने केवलज्ञान प्रगट थयुं. ए सद्भावनेाज प्रभाव समजत्रो ॥ ६ ॥
कविलो अ बंभणमुणी, असोगवणिआई मज्झयारंमि; लाहालोहत्ति पयं, पढंतो (झायंतो ) जायजा इसरो ॥७॥
अर्थ:- कपिल नामनो ब्राह्मण मुनि अशोक वाटिकामां "जहा काहो नहा लोहो: लाहा लोहो पवई " ए पदनी विचारणा करतो शुभ भावयी जातिस्मरण ज्ञान पायो ॥ ७ ॥
खवग निमंतणपुत्रं, वासिअभत्तेण सुद्धभावेण;
भुंजतो वरनाणं, संपत्तो कूरगडू वि (कूरगड्डूओ ) ॥ ८॥
अर्थ:-वासित भाववडे तपस्वी साधुओने निमंत्रण करवा पूर्वक भोजन करता शुद्ध भावथी कूरगडमुनि केवळज्ञान पाया. ८
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। पूवभवसूरिविरइअ-नाणासाअणपभाव दुम्मेहो; नियनामं झायंतो, मासतुसो केवली जाओ॥९॥ _अर्थः-पूर्व भवे आचार्यपणे करेली ज्ञाननी आशातनाना प्रभावथी बुद्धिहीन थयेला 'मा' तुम मुनि निज नामने | ध्याता छता कोइनी उपर गग के रीस न करवारुप गुरु महाराजाए बतावेला परमार्थ सामे दृष्टि गवी म्हेन) घाति | कर्मनो क्षय करी (शुद्ध निर्मळ भावथी) केवळज्ञान पाम्या. ॥९॥ हथिमि समारुढा, रिद्धिं दण उसभसामिस्स; तख्खण सुहझाणेणं, मरुदेवी सामिणी सिद्धा॥१०॥
अर्थ:-हाथीना स्कंध उपर आरुद थयेला मरुदेवीमाता ऋषभदेव स्वमीनी ऋद्धि-सिद्धि देखीने तत्काळ शुम धानथी अंतकृत् केवळी थइ मोक्षपद पाम्या. ॥ १० ॥ पडिजागरमाणीए, जंघाबलखीण मनिआपुत्तं; संपत्तकेवलाए, नमो नमो पुप्फचलाए॥११॥
अर्थः-जंघावळ जेनुं क्षीण थयु छे एवा अणिकापुत्र आचार्यनी सेवा (उचित वैयावच्च ) करता जेने केवळज्ञान प्राप्त थयुं ते पुष्पचूला साध्वीने पुनःपुनः नमस्कार हो ! ॥ ११ ॥ पन्नरसयतावसाणं, गोअमनामेण दिनदिख्खाणं;
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उप्पन्नकेवलाणं, सुहभावाणं नमो ताणं ॥१२॥ अर्थः-गौत्तमस्वामीए जेमने दीक्षा दीधी ले अने शुभ भाववर केवळ ज्ञान उत्पन्न थयु छे एवा पदरमो तापसोने नमस्कार हो.१२ जीवस्स सरीराओ, भेअंनाउं समाहिपत्ताणं; उप्पाडिअनाणाणं, खंदक सीसाण तेसि नमो॥१३॥
अर्थ:-पापी पालक वहे यंत्रमा पीलाता छना जीवने शरीरथी जुदो जाणीने समाधि प्राप्त थयेला जेमने केवलझान पदा थयुं ते स्कंदमूग्ना मघळा शिष्योने नमस्कार हो! ॥१३॥ सिरिवद्रमाणपाए, पूअथी सिंदुवारकुसुमेहिं; भावेणं सुरलोए, दुग्गइनारि सुहं पत्ता ॥ १४ ॥ . अर्थः-श्री वर्धपान सामीनां चरणने मिंदुगरना फूलयी पूजनाने इच्छती दुर्गता नारी शुभ भाववडे काळ करीने भावेण भुवणनाहं, वंदेउं दडुरोवि संचलिओ; मरिऊण अंतराले, नियनामंको सुरो जाओ॥ १५॥
.. अर्थः-एक देवको पण भावथी भुवनगुरु श्री वर्धमानस्वामीने बांदवा चाल्यो त्या मार्गमा घोडानी खरी नीचे -- 181 चाइ मरण पाीने निजनामांकित-दर्दूर्गक नामे देवता ययो. ॥ १५ ॥
देवगतिमा उपजीने सुम्बी थइ. ॥ १४
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| विरयाविरयसहोअर, उदगस्स भरेण भरिअसरिआए; भणीयाअ सावियाए, दिन्नो मग्गुत्ति भाववसा ॥ १६ ॥
___अर्थः-विरत साधु अने अविरत श्रावक ( गना) जे बने सगा भाई हता तेमने उद्देशीने ा साधु सदाय उपवासी होय भने आ श्रावक मदाय ब्रह्मचारी होय तो अपने हे नदीदेवी ! मार्ग आपजे. एम उक्त मुनिने वंदना करवा मता भने पाछा बळता मार्गमा पाणीना पूरथी भरेली नदीने संबोधी ते श्राविका ( राणीओ) ए पो उते तेमना साचा भावषी नदीए मने तरतज पेठे पार जवा देवा माटे मार्ग करी आप्पो हतो. ॥ १६ ॥ सिरिचंडरुद्दगुरुणा, ताडितो वि दंडघाएण; तक्कालं तस्सीसो, सुहलेसो केवली जाओ॥१७॥ अर्थः श्री चंडरुद्र गुरुवडे दंडपहारथी ताडन करातो एवो तेनो (शान्त) शिष्य शुभ लेश्यावंत छतो तत्काल केवळज्ञान पाम्यो. | जं न हु भणिओ बंधो, जीवस्स वहं वि समिइगुत्ताणं; | भावो तथ्थ पमाणं, न पमाणं कायवावारो॥१८॥
अर्थः-सपिति गुमीवंत साधुभोने कवचित् जीवनो वध थइ जाय छे तो पण जे तेमने निश्चे बंध को नयी तेथी। सेमा भावज प्रमाण छे पण कायव्यापार ममाण नथी. ॥ १८ ॥
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भावञ्चिय परमत्थो, भावो धम्मस्स साहगो भणिओ; सम्मत्तस्स वि बीअं, भावच्चिय बिति जगगुरुणो॥१९॥
अर्थः-भावज खरो परमार्थ छे, भावन धर्मनो साधक-मेळवी आपनार छे अने भावज निश्चयने उत्पन्न करी आपनार छे; एम त्रिभुवन गुरु श्री तीर्थ करो कहे थे. ॥ १९ ॥ किं बहुणा भणिएणं. तत्तं निसुणेह भो! महासत्ता! मुख्खसुहबीयभूओ, जीवाण सुहावहो भावो ॥२०॥
अर्थः-घj घणुं भुं कहीए ? हे सत्त्ववन महाशयो ! हुं तमीने तत्व निचोळरुप वचन कहुं छु ते तमे सावधानपणे सांभळो-मोक्ष सुखना बीज रुप जीवोने सुखकारी भावज छे अर्थात् म् भाव योगेज जीवो मोक्ष सुष्व मेळवी शके छे. ॥२०॥ इय दाणसीलतवभावणाओ, जो कुणइ सत्तिभत्तिपरो; देविंदविंदमहिअं, अइरा सो लहइ सिद्धिसुहं ॥ २१॥
अर्थः-आ दान शील तप अने भावनाओने भव्यात्मा शक्ति अने भक्तिना उल्लास योगे करे ते महाशय इंद्रोना समूह बढे पूजित एवं अक्षय मोक्ष मुख अल्पकाळमा मेळवी शके छे. आकुलकमा छेवटे ग्रंथकारे पोतानुं देवेन्द्रमूरि एवं नाम गर्भितपणे सूचव्युंजणाय से. रक्त महाशयनां अतिहितकर वचनोने खरा भावथी आदरवां ए पापणुं खास कर्तव्य छे. ॥२१॥
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S
सठ शलाका पुरुषपणुं अने नव नारदपणुं ॥१॥
HRSHANGANA
अथ अभव्य कुलकम्. जह अभविय जीवहिं, न फासिया एवमाइया भावा; इंदत्तमणुत्तरसुर, सिलायनर नारयत्तं च ॥१॥ ___अर्थः-अभव्य जीवोए आ हवे पछी कहेवामा आवशे ते भावो स्पर्शा नथी. ते इंद्रपणुं, मनुचरवासी देवपणु, | केवलिगणहरहथ्थे, पवजा तिथ्थवच्छरं दाणं;
पवयणसुरी सूरतं, लोगंतिय देवसामित्तं ॥२॥ ___अर्थः-चली केवली तथा गणधरना हाथे दीक्षा, तीर्थकग्नुं वार्षिक दान, प्रवचननी भधियापक देसी तथा देव8 पणु, लोकांतिक देवपणुं अने देवपतिपणुं न पामे ॥२॥
तायत्तीससुरत्तं, परमाहम्मिय जुयलमणुअत्तं; संभिन्नसोय तह. पुबधराहारयपुलायत्तं ॥३॥
अर्थः-प्रायत्रिंशकदेवपणु, पंदर जातिना परमाधामीपणुं, युगलिया मनुष्यपणुं, वली संभिन्न श्रोत अग्नि, पूर्वपर
, पाझरकलन्धि, भने पुढाकळधिपणं पण न पामे ॥ ३॥
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मइनाणाई सुलद्धी, सुपत्तदाणं समाहिमरणत्तं; चारणदुगमहुसिप्पय, खीरासव खीणठाणत्तं ॥४॥
__अर्थ:-पतिज्ञान तथा श्रुतज्ञानादिकनी लब्धि, सुपात्रदान, समाधिमरण, विद्याचारण अने जंघाचारणनी लब्धि, मधुसपिलब्धि, क्षिरावलब्धि, अक्षिणमाणसी लब्धि पण न पामे ॥ ४ ॥
तिथ्थयर तिथ्थपडिमा, तणुपरिभोगाइ कारणेवि पुणो; पुढवाइय भावंमि वि, अभवजीवहिं नो पत्तं ॥५॥ अर्थः-तीर्थकर तथा तीर्थकरनी प्रतिमाना शरीरना परिभोगादि कारणमा पण अभव्य जीवो पृथ्वीकायना भावोने न पामे. ॥५॥ चउदस रयणत्तंपि, पत्तं न पुणो विमाणसामित्तं ॥ सम्मत्तनाणसंयम, तवाइ भावा न भावदुगे॥६॥
अर्थः-चौद रत्नपणुं अने वली विमान स्वामीपणुं न पामे. वली सम्यक्त ज्ञान, दर्शन, चारित्र, अने तवादि | अणुभवजुत्ता भत्ती, जिणाणसाहम्मियाण वच्छलं; नय साहेइ अभवो, संविगत्तं न सुप्पख्खं ॥७॥
बाह्याभ्यंतर ए पे भाव पण न पामे.॥६॥
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C
अर्थः-अभव्य जीव अनुभव युक्त भक्ति, जिनेश्वरनी आज्ञा प्रमाणे साधर्मिनी सेवा भक्ति, संसारथी वैराग्यपणुं तेमज शुक्लपक्ष न पामे.॥७॥
C
जिणजणयजणणिजाया,जिण जख्खाजख्खणी जुगपहाणा आयरियपयाइ दसगं, परमत्थ गुणढ्ढ मप्पत्तं ॥ ८॥
अर्थः--जिनेश्वरना माता, पिता, स्त्री, जक्ष, जक्षणी अने युगमधान पण न थाय. वल्ली आचार्यादि दश पदनो | विनय तेमज परमार्थथी अधिक गुणवंतपणुं न पामे ॥ ८ ॥ अणुबंधहेउसरूवा, तत्थ अहिंसा तिहा जिदि दव्वेण य भावेण य, दुहावि तेसिं न संपत्ता ॥९॥
___ अर्थ:--वली अभव्यजीव अनुबंध हेतु अने स्वरूप एवी ऋण प्रकारे श्री निलेश्वरे कहेली अहिंमा द्रव्य अने भाव एवा बे भेदथी न पामे. ॥ ९॥
CCORRCHCHE CORRECRUCHAR
अथ पुण्यपाप कुलकम्. छत्तीसदिनसहस्सा, वाससये होइ आउपरिमाणं; डिज्झंतं पईसमयं, पिच्छओ धम्म मि जइअवं ॥१॥
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अर्थः मो बरसना छत्रीस हजार दिवस, आयुष्यनुं एटलं परिमाण होय छे. ते समये समये बोछु वतुं जायचे, पु.18| एम जाणीने धर्मपां यत्न करवो. ॥१॥ ३० जइ पोसहसहीओ तव, नियमगुणेहिं गम्मइ एगदिणं; है ता बंधइ देवाउ, इत्तियमित्ताई पलियाई॥२॥
___अर्थः-जो कोइ जीव पोसह सहित तप नियमना गुणोथी एक दिवस गाळे तो ते आग कोशे सेटण परयो पपर्नु देवनानुं आयुष्य बांधे छे. ॥२॥ सगवीसं कोडीसया, सत्तहत्तरी कोडिलख्ख सहस्सा य; सत्तसया सत्तहुत्तरि, नवभागा सत्तपलियस्स ॥ ३ ॥
अर्थः--सत्तावीस सो क्रोड, सीत्योतेर क्रोड; सीत्योतेर टास्व सीत्योतेर हार, सातसोमे सीत्योतेर पडणा प. अष्टासीई सहस्सा, वाससये दुनिलख्ख पहराणं; एगोविअ जइ पहरो, धम्मजुओ ता इमो लाहो ॥४॥
अर्थः--एक सो वर्षना बे लाख बने अठासी हजार पहोर छे. तेमाथी जो कोइ जीव एक पण पोर वर्मबुद्ध
ल्योपम अमे वली एक पल्योपमनो सातमो भाग ॥३॥
सहकृत युक्त) चाय तो तेने आग कोशे एटलो नाम थाय छे.॥४॥
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पहोर पोसह करनारने देवतानां आयुष्यनो एटलो बंध थाय छे. ॥ ५॥
तिसयसगं चत्तकोडि, लख्खा बावीस सहस बावीसा; दुसय दुवीस दुभागा, सुराउबंधो य इगपहरे ॥५॥
मर्थः--प्रणसो सुडताली क्रोड, बावीस लाख, बावीस हजार बसो भने बावीस, वली पर पे भाग. पर्पया एक | दस लख्ख असीय सहसा, मुहुत्त संखाय होइ वाससए;
जइ सामाइअसहिउ, एगोविअत्ता इमो लाहो ॥६॥ _अर्थः-सो वर्षनां मूहूर्त (बे घडीयो ) दस लाख अने ऐसी हजार पाय छे. जे जीव ए एक मुहूर्त सामायिक 18 बहे तो तेने आगली गाथामा कहेशे तेटको लाभ थाय छे. ॥ ६॥
बाण वयकोडीओ, लख्खा गुणसडि सहस्स पणवीसं;
नवसयपणवीस जूआ, सतिहा अडभाग पलियस्स॥७॥ ___अर्थः-वाणुं क्रोड, ओगणसाठ लाख, पच्चीस हजार नवसो पच्चीस अने उपर एक पल्योपमना पाठीया सात भाग; एटलं देवगतिनुं आयुष्य वे घडी सामायक करनार जीव बांधे छे. ॥ ७॥ वाससये घडिआणं, लख्खिगवीसं सहस्स तह सही;
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एगावि अ धम्मजूआ, जइ ता लाहो इमो होइ॥
. अर्थः-एक वर्षनी घडियो पकवीस लाख अने साठहजार थाय, तेमाथी एक घडी पण जो जीव धर्म युक्त होष तो तेने भागली गाथामा कदेशे लेटलो लाभ थाय के.॥ ८ ॥ छायालकोडी गुणती-स लख्ख छासड्डी सहस्स सयनवर्ग; | ते सटीकिंचूणा, सुराउ बंधोइ इगघडिए ॥९॥ | अर्थः-एक घडी धर्म करनार जीव छेतालीस क्रेड, ओगणबीस लाख, छासठ हजार, नवसो अने काइक ओछा | एरा सठ एटला पल्योपमनुं आयुष्य बांधे. ॥ ९॥ ..
सही अहोरत्तेणं, घडीआओ जस्स जंति पुरिसस्स; । नियमेणवि रहीआओ, सो दिअहओ निष्फलो तस्स।१०॥
अर्थः एक दिवसनी साठना प्रमाणे जे पुरुषनी घडीओ जाय छे तेमा दृत नियमथी पण रहित नाय ते दिवस तेनो निष्फल जाणवो. ॥ १० ॥ | चत्तारीअ कोडिसया, कोडीओ सत्तलख्ख अडयाला; ६ चालीसं च सहस्सा, वाससय हुंति ऊसासा ॥११॥
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अर्थः-एकसो वर्षना चारसोने सातक्रोड अडतालीस लाख, चालीस हजार एटला श्वासोश्वास थाय छे. ॥११॥ इक्कोवि अ ऊसासो, न य रहिओ होइ पुण्णपावेहिं; | जइ पुण्णेणं सहिओ, एगोविअ ता इमो लाहो ॥१२॥
__ अर्थ:-तेमांची एक पण श्वासोश्वास पुण्य पाप रहित होय नहिः परंतु कोइ जीव जो एक श्वासोश्वास पुण्य सहित होय तो ने आगली गाथामां कहेशे तेटको लाभ थाय छे. ॥ १२ ॥ लख्ख दुग सहस पण चत्तं, चउसया अठचेव पलियाइं; किंचूणा चउभागा, सुराउ बंधे इगुसासे ॥१३॥
अर्थः-वे लाख, पीसताळीस हजार, चारसोने आठ पल्योपम वली काइक ओठा चार भाग, एटलं देवतानुं भायुष्य एक श्वासोश्वास धर्म करनारो पामे. ॥१३॥ | एगुणवीसं लख्खा, तेसही सहस्स दुसय सत्तठी;
पलियाइं देवाउ, बंधइ नवकार उस्सग्गो॥ १४ ॥ ... अर्थः-ओगणीम लाख, ग्रेसठ हजार बसोने अटसठ पल्पोपमनुं देवायु नवकार गणनारो अथवा आठ श्वासोश्वाप्त धर्म सेवनारो पामे. ॥१४॥ लख्खिगसटी पणती-स सहस दुसय दसपलिय देवाउ;
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होगस्सनो काउसम्म करनार जीव बांधे.॥१५॥
बंधई अहियं जीवो, पणवीसुसास उस्सग्गो॥१५॥
अर्थ:-एकसठ लाख, पात्रीस हजार, बसो मे दश पन्योपमनुं देवतानुं आयुष्य पचीस पासोबास या एक एवं पाव परायाणं, हवेओ निरयाओ अस्स बंधोवि%3B * इअनाउसिरिजिणकित्ति-अंमिधम्ममि उज्झमंकुणह।१६ ...अर्थः-रे भव्य जीवो ! पाप करनाराने ए प्रमाणे नरकनो बंध पण होत . एम पाणीने भी बीने घरे कोण
श्री गौतम कुलकं. लुद्धा नरा अथ्थ परा हवंति, मूढा नरा काम परा हवंति, बुद्धानराखंतिपराहवंति, मिस्सानरातिन्निविआयरंति॥१॥
४ धर्मने विषे उद्यम करो. ॥ १९ ॥
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अर्थ:--लोभी पुरुषो धन मेळवग तत्पर होय छे. मूर्ख पुरूषो काम भोगमा तत्पर होय हे तत्त्वना पान पुरुषो मामा तत्पर होय छे अने मिभ पुरुषो धन, काम, अने समायाँ तत्पर होय छे. ॥१॥
ते पंडिया जे विरया विरोहे, ते साहुणो जे समयंचरंति; 5.
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ते सत्तिणो जे न चलंति धम्म, ते बंधवा जे वसणे हवंति२३
अर्थ:- जे विरोधयी विरम्या तेज पंडितो, जे सिद्धांतनी रीते चाले तेज साधो; जे धर्मथी न चळे तेज सत्व। आपदा समये आपणा थाय तेज बांधवो कहीए. ॥ २॥
कोहाभिभूया न सुहं लहंति, माणंसिणो सोयपरा हवंति;| मायाविणो हुंति परस्स पेसा,लुद्धा महिच्छा नरयं उविति३४॥
अर्थ:-क्रोधथी भरेला जीवो सुख न पामे, मान राखनारा जीवो सोच करवामां तत्पर होय छे मायावी जीवो पारका चाकर थाय लोभथी महा इच्छाबाळा जीवो नरकमा उत्पन्न थाय. ॥ ३ ॥
कोहोविसं किंअमयंअहिंसा,माणोअरी किंहिय-मप्पमाओ मायाभयं किंसरणं तु सच्चं,लोहो दुहो किंसुह-माह तुहि॥४ । अर्थः-(विष ते शुं ? अमृत ते शुं ? शत्रु ते शुं ? हित ते शुं ? भय ते शुं ? शरण ते शृं? दुःख ते शुं ? सुख है ते शृं?) क्रोध तेज विष. अहिंसा तेज अमृत, मान तेज शत्रु, अपमाद तेज हित, माया तेज भय, सत्य तेन शरण. लोभ तेज दुःख, संतोष तेज सुख, ॥ ४॥ बुद्धी अचंडं भयए विणीयं, कुद्धं कुसीलं भयए अकित्ती; संभिन्न चित्तं भयए अलच्छी,सच्चे ठियंसं भयए सिरीया५॥
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अर्थः- विनयवंत सौम्य प्रणामीने बुद्धि भजे, क्रोधी अने कुशीळियाने अपकीर्ति भजे, भग्न चित्तवाळाने अक्षमी भजे, सत्यम स्थित थलाने लक्ष्मी भजे ॥ ५ ॥
चयंति मित्ताणि नरं कयग्धं, चयंति पावाई मुणिं जयंतं; चयंति सुक्काणि सराणि हंसा, चएइ बुद्धि कुवियं मणुस्सं । ६
अर्थः- कृतघ्न पुरुषने मित्रो तजे छे, यत्नावंत मुनिने पापो तजे छे, सुकाइ गएका सरोक्रोने हंस पक्षी भी तजे छे, कोपवंत मनुष्यने बुद्धि तजे छे. ॥ ६ ॥
अरोई अत्थं कहीए विलावो, असंपहारे कहीए विलावो; विख्खित्त चित्तो कहीए विलावो, बहु कुसीसे कहीए विलावो ७
अर्थ:- अरुचीबाळाने अर्थनी बात कहेवी, ते विलाप तुल्य जाणवी. अनिश्चित अर्थ कहेबो, ते विलाप तुल्य जामो. व्याक्षिप्त चित्तवाळाने जे कहेतुं ते विकाप तुल्य जाणवुं कुशिष्यमे घणुं कहेतुं ते विलाप तुल्य जाणवुं ॥ ७ ॥
दुहिवा दंड परा हवंति, विज्जाहरा मंत परा हवंति; मुख्खा नरा को परा हवंति, सुसाहुणो तत्त परा हवंति ॥ ८
अर्थ:-दुष्ट राजाओ दंडवामां तत्पर होय छे. विद्याघरी मंत्र साधवानां तत्पर होत्र छे. सूर्ख पुरुषो कोष करवा तत्पर होय . उतम साधुओ नत्र अर्थात् परमार्थनां तत्वर होय . ॥ ८ ॥
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सोहा भवे उग्गतवस्स खंती, समाहिजोगोपसमस्स सोहा; नाणं सुझाणं चरणस्स सोहा, सीसस्स सोहा विणए पवित्ती९
अर्थ :- उग्र तपस्यायंत क्षमाथी शोभा पाये. जे समाधियोग • सेअ उपशमनी शोभा के ज्ञान अने शुभ ध्यान तेज चारित्रनी शोभा हे. विनयमां प्रवृत्ति करवी तेज शिष्यनी शोभा . ॥ ९ ॥
अभूसणो सोहइ बंभयारी, अकिंचणो सोहइ दिख्खेधारी; बुद्धिजुओ सोहइ रायमंती, लज्जाजुओ सोहइ एगपत्ति १०
अर्थ:- ब्रह्मचारी आभूषण विना पण शोभे छे; दिक्षाघारी अकिंचनपणे शोभे छे. राजानो मंत्री बुद्धियुक्त होय तो शोभे छे. लज्जा युक्त पतिव्रता स्त्री शोभे छे. ॥ १० ॥
अप्पा अरी होइ अणवडिअस्स, अप्पा जसो सीलमओनरस्स; अप्पा दुरप्पा अणवडियस्स, अप्पा जिअप्पा सरणं गई य ११
अर्थ:- अनवस्थित चित्तवाळाने पोतानोज आत्मा वैरी होय. शीळवंत पुरुषनो आत्मा सर्व ठेकाणे जश पामे. अवस्थित वाळा पोतानोज आत्मा दुरात्मा जाणवो. ज्यारे आत्मा इंद्रियोने जीती मनने वश करे, स्मारे जीतात्मा संसारथी व्होता प्राणीओने आश्रयभूत थाय ॥ ११ ॥
न धम्मका परमत्थि कज्जं न पाणिहिंसा परमं अकज्जं
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ROCRACREA
SSASARAI
नपेमरागापरमत्थिबंधो,नबोहिलाभापरमथिलाभो ___अर्थः-धर्मकार्यो समान उत्कृष्ट कार्य नथी. जीवहिंसा समान उत्कृष्ट अकार्य नथी. प्रेमराग समान उत्कृष्ट बंधन नथी. बोधिलाभ समान उत्कृष्ट लाभ नथी. ॥ १२ ॥
नसेवियत्वा पमया परक्का, न सेवियत्वा पुरिसा अविजा; * नसेवियवाअहिमानिहीणा,नसेवियवापिसुणामणुस्सा१३
अर्थः-डाह्या पुरुषे पारकी स्त्री न सेववी. विया रहित पुरुषोने न सेववा. अभिमानी तथा नीच पुरुषोने न से| ववा. चाडिया पुरुषोने न सेववा. ॥ १३ ॥ जे धम्मिया ते खलु सेवियबा,जेपंडियाते खलु पूछियवा; जेसाहुणोतेअभिवंदियव्वा,जे निम्ममातेपडिलाभियव्वा१४६ | अर्थः-जे पुरुषो धर्मवंत होय, ते पुरुषो निश्चे सेववा. जे पुरुषो पंडित होय, ते पुरुषो निश्चे पूछवा योग्य जाणवा. 2 जे साधु मुनिराज छे, ते सर्व प्रकारे यांदवा थोग्य जाणवा. जे साधुओ निर्मम होय तेवा मुनिराजोने अशनादिक वहोराववा।१४। | पुत्ता य सीसाय समं विभत्ता,रिसी य देवाय समं विभत्ता; । मुखातिरिख्खायसमं विभत्ता,मुआदरिदायसमविभत्ता ॥ ३४
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अर्थः-डाया पुरुषे पुत्रो अने शिष्यो, ए बेउ सरखा जाणवा. ऋषी अने देवो ए बेउ सरखा 10/ अने तिर्यंचो ए बेउ सरखा जाणवा. मरण पामेला अने दरिद्रि ए बेउ सरखा जाणवा. ॥ १५ ॥
सव्वा कलाधम्मकला जिणाई, सव्वा कहाधम्मकहाजिणाइं; सवं बलं धम्मबलं जिणाई, सवं सुहं धम्मसुहं जिणाई॥१६॥ ॥ अर्थ:-सर्व कलाओने धर्मनी कळा जीतनारी जाणवी. सर्व कथाओने धर्मनी कथा जीतनारी जाणवी, सर्व वळने || ४ धर्मचं बळ जीतना नाण, सर्व प्रकारना सुखने धर्मनुं सुख जीतनारं जाण. ॥१६॥
जूए पसत्तस्स धनस्स नासो, मंसं पसत्तस्स दयाइ नासो; मजंपसत्तस्सजसस्स नासो, वेसा पसत्तस्स कुलस्स नासो॥१७॥
___ अर्थः-जे पाणी जूवटु रमवामां आसक्त होय, ते पाणीने धननो नाश थाय. जे पाणी मांसमां आसक्त होय, ते प्राणीने दयानो नाश थाय. जे पाणी मदिरामां आसक्त होय, ते पाणीनो जश नाश पामे. जे पाणी वेश्यामां आसक्त होय, ते पाणीना कुळनो नाश थाय. ॥ १७ ॥ | हिंसा पसत्तस्स सुधम्म नासो, चोरी पसत्तस्स सरीर नासो; तहापरत्थिसुपसत्तयस्स,सबस्स नासोअहमागई य॥१८॥
अर्थः-जे पाणी जीवहिंसामा आसक्त होय, ते प्राणीना भला धर्मनो नाश याय. जे पाणी चोरीमा आसक्त होय ते पाणीना शरीरनो नाश थाय. तेमज जे पाणी परस्त्रीमा आसक्त होय ते पाणीना सर्व द्रव्यनो अथवा सर्व गुणनो नाश
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याव; एटलुंज नहि परंतु अधमगति पण पामे ॥ १८ ॥
दाणं दरिद्दस्स पहुस्स खंति, इच्छा निरोहोय सुहोइयस्स; तारुन्नए ईदिय निग्गहो य, चत्तारि एआणि सुदुक्कराणि १९
अर्थ:- दरिद्र अवस्वामां दान देवं ते दुष्कर प्रभुत्वषणामां क्षमा राखत्री ते दुष्कर. सुखोचित माणोने इच्छानो रोध करतो ते दुष्कर, तरुणावस्थामां इंद्रियनो निग्रह करवो ते दुष्कर छे. ॥ १९ ॥
असासयं जीविय-माहु लोए. धम्मं चरे साहु जिणो बईठ्ठ; धम्मोय ताणं सरणं गई य, धम्मं निसेवित्तु सुहं लहंति ॥ २० ॥
अर्थ:- लोकमां जीवितव्य आशाश्वत कयुं छे. जिनेश्वर महाराज अने साधु मुनिराजना उपदेशेला धर्ममां मवa. धर्म त्राण शरणभूत अने रुडी गतिने आपनारो छे. एत्रा धर्मने जे प्राणी से वे छे, ते पाणी शाश्वत सुखने पाये डे. ॥२०॥
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श्री आत्मावबोध कुलकं.
धम्मप्पहारमणिज्जे पणमित्तु जिणे महिंद नमणिज्जे; अप्पावबोहकुलयं वुच्छं भवदुहकयपलयं ॥ १ ॥
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अर्थ:-आस्म समावड़े रमणीय अने मरेंद्रोवडे नमनीय एवा जिनेंद्रोने प्रणाम करी भवदुःखनो मलय करना आ मात्यावघोष ( अनुभव ) कुलक कही ॥२॥ अत्तावगमो नज्जई सयमेव गुणेहिं किं बहु भणसि; सूरुदओ लखिज्जई पहाइ न उ सवहनिवहेणं ॥२॥
अर्थ:-जेम र्यउदय सूर्यनी प्रभाथी जणाय रे, प्रमा सिवाय सोगन लागथी पण ते जणानो नयी, तेम बारमबोभ आप गुणोवडेज पोतानी मेळे जगाइ आवे छे. परंतु आत्मगुण विना संख्याबंध सोगन खाचायो आत्मबोध यवो नयी पाटे वधारे शा माटे चोछे छे ?"
दम सम समत्त मित्ती संवेअ विवेअ तिव निब्बेआ: | एए पगूढअप्पा-वबोहबीअस्स अंकुरा ॥३॥
अर्थः-इंद्रिय दमन, मनोविकार शमन, सम्यकत्व, मैत्री, संवेग, अने तीव्र निर्वेद ए सर्वे आत्मयोधरुपी बीजना अंकुराछे.॥३॥ । जो जाणइ अप्पाणं, अप्पाणं सो सुहाणं नहु कामी;
पत्तम्मि कप्परक्खे, रुख्खे किं पथ्थणा असणे ॥४॥
___ अर्थ:-जे आत्माने जाणे , तेओ ( संयोग वियोग धर्मवाळा संसारना ) अल्प सुखोना कापी नथी होता. जेने कल्पवृक्ष प्राप्त थयु होय ते असन वृक्षनी प्रार्थना करे. ॥ ४ ॥
ॐॐREE
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निअविन्नाणे निरया, निरयाइ दुहं लहंति न कयावि; जो होइ मग्गलग्गो कहं सो निवडेइ कूवंम्मि ॥ ५ ॥
अर्थः- आत्मविज्ञानमां निरंतर रक्त एवो जीव नरक, तिर्यच, मनुष्य अने देवतानां दुःखो कदापि पण पात नथी. कारण जे आत्मविज्ञानरुपी - स्वसंवेदनरूपी सीधी सडकपर जाय छे, ते जीव ( नरकादि जेमां छे, एवा संसाररूपी) कुवामां केम पडे ? ॥ ६ ॥
तेसिं दूरे सिद्धी रिद्धी रणरणयकारणं तेसिं; तेसिमपूण्णा आसा जेसिं अप्पा न विन्नाओ ॥ ६ ॥
अर्थ:- जेणे आत्मा जाण्यो नथी, तेनी आशा अपूर्ण रहे छे, तेने कीधे सिद्धि तेनाथी दूर रहे छे अने लक्ष्मी तेने दुःखनुं कारण थाय छे. ॥ ६ ॥
तादुत्तरो (र) भवजलही ता दुज्जेओ महालओ मोहो; ता अइविसमो लोहो जा जाओ न (नो) निओ बोहो ॥७॥
अर्थ:- भवसमुद्र दुस्तर त्यां सुधीज छे के ज्यां सुधी महा विस्तारवाळो मोह दुर्जय छे, अने लोभ पण त्यां सुधी विषम छे के ज्यां सुधी आत्मबोध नथी थयो. ॥ ७ ॥
जेण सुर अ ( रा ) सुरनाहा हहा अणाहुन वाहिया सोवि;
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SANSAR
अज्झप्पझाणजलणे पयाइ पयगत्तणं कामो॥८॥
अर्थ:-आहा ! जेणे सुरेंद्रोने अने असरेंद्रोने अनाथनी पेठे पीडित कर्या छे, ते मबळ काम पण अध्यात्म ध्यानहै। नी अग्निमां पतंगीमानी पेठे भस्म यह जाय छे. ॥ ८॥ .
जंबद्धपिनचिटइ,वारिजंतं विसदइ असेसा(तपि पसरइ असेसे) झाणबलेणं तं पिहु सयमेव विलिज्जई चित्तं ॥९॥ _____ अर्थः-जे बांध्या छतां पण एक स्थाने रहेतुं नथी, वार्या छता पण चारे बाजुए फर्या करे छे; तेवू दुर्जय-या | चपळ मन पण आत्म ध्यानना बलवडे पोतानी मेळे शांत थाय छे. ॥९॥ बहिरंतरंगभेया विविहा वाही न दिति तस्स दुहं; गुरुवयणाओ जेणं सुहझाण रसायणं पत्तं ॥१०॥
. अर्थः-जेणे सद्गुरुना वचनथी उपदेशायेलं शुद्ध ध्यानरुपी रसायण प्राप्त कर्यु छे, तेने बहिरंग ( रागादि) अने | जिअमप्पचिंतणपरं न कोइ पीडेइ अहव पीडेइ; ता तस्स नत्थि दुक्खं रिणमुक्खं मन्नमाणस्स ॥११॥
अर्थ:-जे जीव आत्म चिंतनमा तत्पर थयेल होय, तेने कोइ पीडा नथी करतुं, अथवा पीडा करे तोपण दुःख
(कामक्रोधादि) विविध कारनी व्याधिो दुःख आपी शकती नथी. ॥ १० ॥
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SARSO
नयी थतुं, कारण के ते दुःखोयी पोताने पण मुक्त थयेलो माने छे. ॥ ११ ॥ दुक्खाणखाणीखलुरागदेसा,तेहुँतिचित्तंमिचलाचलंमिः | | अज्झप्पजोगेण चएइचित्तं, चलत्तमालाणिअकुञ्जरुव१२३
अर्थ:-खरेखर रागद्वेष ए दुःखोनी खाणो छे. तेनी उत्पत्ति चित्तनी चलायमान अवस्थामा थाय छे. जेम स्थंभे बांधेलो हाथी (जवा भाववाना) चपळपणानो त्याग करेछे; तेम अध्यात्म योगथी चित्त चपलतानो त्याग करे ॥१२॥
RRORAKARSAREERSIRBIRBER
एसो मित्तममित्तं एसो सग्गो तहेव नरओ अ%; । एसो राया रंको अप्पा तुट्ठो अतुठ्ठो वा ॥१३॥
___अर्थ:-आत्मा तुष्टमान थयो तो मित्र छ, स्वर्ग छे, अने राजा पण छे, अने जो अनुष्टमान थयो तो शत्रुछे, 21 नरक छे, तेमज रंक पण छे. आम आत्मानी उत्तम या अधम स्थितियीज उत्तम या अधम परिणाम आवे छे. ॥ १३ ॥ लद्धा सुरनररिद्धि विसया वि सया निसेविआणेण; पुण संतोसेण विणा किं कत्थ वि निबुई जाया॥१४॥
अर्थः-आ जीवे देवोनी अने मनुष्योनी ऋद्धि पण मेळवी, अने सदा विषयो पण वारंवार सेव्या, तथापि संतोष | विना कोइ पण ठेकाणे जरा पण जीवने शांति यह नहि. ॥ १४ ॥
जीव! सयं चिअ निम्मिअ-तणुधणरमणीकुटुंबनेहेणं;
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है मेहेण व दिणनाहो छाइजसिं तेअवंतो वि ॥१५॥ है अर्थ:-जेम तेजवान सूर्य पण मेघवडे आच्छादित थाय छे, तेम हे जीव, तुं लोकालोक मकाशक एवो ज्ञान भकाशे करी है।
तेजवान छे, छता पोतानी मेळेज उत्पन्न करेळा-निर्मेला शरीर, धन, स्त्री कुटुंबना स्नेहथी आच्छादित थाय छे.
जं वाहिवालवेसानराण तुह वेरिआण साहीणे; | देहे तत्थ ममत्तं जिअ! कुणमाणो वि किं लहसि?॥१६॥
अर्थः-आ देह, व्याधि. व्याल-सादि अने अग्नि वगेरे तारा (बाह्यांतरंग ) शत्रुभोने स्वाधीन छे. ते देह है। से उपर ममत्व करवायी तने \ फायदो थाय छे ? ॥१६॥
वरभत्तपाणण्हाण य सिंगारविलेवणेहिँ पुट्ठो वि; निअपहुणो विहडंतो सुणएण वि न सरिसो देहो॥१७॥ | अर्थः--उत्तम भोजन, पान, स्नान, शृंगार, लेपनादियी पोषण:( पुष्टि ) कर्या छता, पोताना मालिकने छोडी ज- 21
कठाइ कडुअ.बहुहा जं धणमावजिअंतए जीव! है कटाइ तुज्झ दाउं तं अंते गहिअमन्नेहिं ॥१८॥
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नार श्वानना सरखो पण गुण तेमां नथी. ॥ १७ ॥
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अर्थः--हे जीव ! बहु बहु प्रकारे अणगमता कष्टो सहन करी ते जे धन उपार्जन कर्यु ते धने तने तो कष्टज आआ प्युं अने मृत्युाद तेने बीजाएज ग्रहण कयु. ॥ १८ ॥ ३८४ जह जह अन्नाणवसा धणधनपरिग्गहं बहुं कुणसि; 12 तह तह लहं निमज्जसि भवे भवे भारिअतरिव॥१९॥
___ अर्थ:-हे जीव ! जेम जेम तुं अज्ञान दशाथी धनधान्यादि परिग्रह घणो एकठो करे छे, तेम तेम प्रमाणथी अधिक 121 भार भरेला नावनी माफक तुं तरतज भवोभत्रमा डुवे छे. ॥ १९ ॥ जा सुविणे वि हु दिछी हरेइ देहीण देहसव्वस्स;
सा नारी मारी इव चयसु तुह दुबलत्तेणं ॥२०॥ 6 . अर्थः- मानसिक दुर्बळपणाथी स्वप्न विषे देखवा मात्रयी पण जे स्त्री मनुष्यना देहर्नु सर्वस्व हरी ले छे, ते स्त्रीने ४ - खुन करनारी जाणी ( रोग विशेषरूप जाणी ) तुं तेनो त्याग कर. ॥ २० ॥
अहिलससि चित्तसुद्धिं रजसि महिलासु अहह मृढत्तं; 13 नीलीमिलिए वत्थंमि धवलिमा किं चिरं ठाई॥२१॥
. अर्थः-मन शुद्धिनी अभिलाषा राखे छे अने स्त्रीभो विषे आसक्त थाय छे. अहा ! शुं तारुं मह-पणुं ! गळीनी श्री साये मळेळा वखमा घोळाश केटघो वखत टकी शकशे ? ॥ २१॥
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मोहणं भवदुरिए बंधिअ खित्तोसि नेहनिगडेहिं; बंधवमिसेण मुक्का पाहरिआ तेसु को राओ ? ॥ २२ ॥
अर्थ:-मोह राजा तने स्नेह-रुपी बेडीओोथी बांधी संसाररूप बंबीखानामांनांख्यो छे. आ बंधुमोना (मातापिता, सगा संबंधी वगेरेना) व्हानाथी (नाशी न जाय माटे) पहेरेगीर मूक्या छे, माटे संसारमां पूरी राखनार ते बांधवादिपर शो राग करवो?
धम्मो जणओ करुणा माया भाया विवेगना मेणं;
खंति पिआ सप्पुत्तो गुणो कुटुंबं इमं कुणसु ॥ २३ ॥
अर्थः--धर्म एज पिता, करुणा तेज माता, विवेक नामनो भ्राता, क्षमा ए पिय स्त्री, अने ज्ञान, दर्शन, चारित्रादि गुरुप उत्तम पुत्रोने तुं तारुं अंतरंग कुटुंब बनाव. ॥ २३ ॥
अइपालिआइ पगइत्थिआइ जं भाभिओसि बंधेउं; संते वि पुरिसकारे न लज्जसे जीव ! तेपि ॥ २४॥
अर्थ:-- हे जीव ! तारापां पुरुषाकार ( पुरुषार्थ ) होवा छतां पण अति पालन करेली एवी कर्म प्रकृतिरूप स्त्रीओए तने बांधी चार गतिमां परिभ्रमण कराव्यो, तेथी तने (हजी ) पण शु लज्जा नयी आवती ? ॥ २४ ॥
यमेव कुणसि कम्मं तेण य वाहिज्जसि तुमं चेव;
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रे जीव ! अप्पदेरिअ अन्नरस य देसि किं दोसं ॥ २५ ॥
अर्थ:--तुं पोतेज कर्म करे छे अने तेनाथीज निश्चय चारे गतियां परिभ्रमण करे छे. ते छतां हे आत्मबैरी जीव ! तुं बीजाने ( कर्मने) शा माटे दोष आपे छे ? ॥ २५ ॥
तं कुणसि तं च जंपसि तं चिंतसि जेण पडसि वसणोहे; एयं सहिरहस्सं न सक्किमो कहिउ मन्नस्स ॥ २६ ॥
अर्थः- आत्मन्! तेवां काम करे छे, तेवा शब्द बोले छे अने तेवा विचार करे छे, के जेथी दुःखना समुहमाज जइ पडे छे. आ पोताना घरनी छूपी वात बीजाने कहेत्राने हुं शक्तिमान् नथी, अर्थात् घरनी गुप्त बात बीजे हुशुं कहुं ? ( एवं समता पोताना पतिने कहे छे. ) ॥ २६ ॥
निअनिअअत्थेनिरता
पंचिंदियपरा चोरा मणजुवरन्नो मिलित्तु पावस्स; मूलइि तुज्झ लुंपंति ॥ २७ ॥
अर्थ :- हे आत्मन् ! पोतपोताना विषयमा आसक्त आ पांच इंन्द्रियरूप महान चोर, पापी मनरुप युवराजनी साथै मी तारी (ज्ञान, दर्शन, चारित्रादि) मूळ स्थितिने अर्थात् तारा आत्मगुण रुप मूळ धनने लूंटी छे छे. ॥ २७ ॥
चउरंगधम्मचक्कंपि;
हणिओ विवेगमंती भिन्नं मुठ्ठे नाणाइधणं तुमंपि छूढो कुइकूवे ॥ २८ ॥
३९
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SHASTRI
RECRURUGRAH
- अर्थ:-एओए आ विवेकरुषी मंत्रीने हणी नाख्यो, चतुरंग धर्मचक्रने (मनुष्यजन्म, धर्मश्रवण, श्रद्धा अने || संयमवीरुपने ) पण भेदी नारयुं, ज्ञानादि धनने लूटयुं अने तने पण दुर्गति कूपमा नाख्यो. ॥ २८ ॥ इत्तिअ कालं हुंतो पमायनिदाइगलियचेअन्नो; जइ जग्गिओसि संपइ गुरूवयणा ता न वेएसि ॥ २९॥ ___अर्थः-आटला काळ सुधी तुं प्रमादरुप निद्राए करी गलित चेतनवाळो थइ गयो हतो, परंतु हवे जो, तुं जागृत | थयो के, वो गुरुना वचनोथी सारं स्वरूप तुं केम जाणतो नथी ? ॥२९॥
लोगपमाणोसि तुमं नाणमओ गंतवीरिओसि तुमं; निय रजठिइं चिंतसु धम्मज्झाणासणासीणो॥३०॥
- अर्थ:-हे आत्मा ! तुं लोक प्रमाण छे-ज्ञानमय छे, अनंत वीर्यवान छे, धर्मध्यानरुपी आसनपर बेसी तारी आत्म | राज्य स्थिति केगी तेनो विचार तो कर. ॥ ३० ॥ को व मणो जुवरायाको,वारायाइ (रजपन्भंसो) रजापझंसो; जइ जग्गिओसि संपइ परमेसर पइस चेअन्नो(चेअन्नं॥३१॥ ___अर्थः-नो हमणां तुं जागृतज थयो छे तो तुं ( तारा चेतना ) पोतेज परमेश्वर के, अने तेम छे तो पछी अव- 2
म रकरवरून
मानित मनरुपी युवराजना अने चोररुपी राजाना शा भार छे, अने तने हवे राज्ययी कोण भ्रष्ट करे एम छे? ॥ ३१॥
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नाणमओ वि जडो विव पह वि चोरु व जत्थ जाओ सि; भवदुग्गमि किं तथ्थ वससि साहीण सिवनयरे॥३२॥
-ज्ञानमय छतां जड जेवो कां थइ गयो छे ? बळी धणी होवा छतां चोर जेवो कां बनी गयो के ? जे भव दुर्गममा (संसाररुपी, दुःखे प्रवेशाय एवा केदखानामां) मोक्षनगर (मुखे) स्वाधिनमा होवा छता केम वशी रह्यो के? ३२ 5 जथ्थ कसाया चोरा महावया सावया सया घोरा; रोगा दुठभुअंगा आसा सरिआ घणतरंगा ॥३३॥ ___अर्थ:-( भंवरुप दुर्गम शैल-पर्वत केवो छे अने तेने लीला मात्रमा केम भेदाय ते कहे छे.) ज्यां चोरो जेवा | | चार कषाय छे, महा भयंकर हिंसक प्राणी जेवी सदा आपदाओ वसे छे न्यां दुष्ट सो जेवा रोगो आवी रहेला छे || अने घणा तरंगोवाळी नदी जेवी आशा छ, ॥ ३३ ॥ चिंताड्डवी सकठा बहुलतमा सुंदरी दरी दिला; | खाणी गई अनेआ सिहराइं अष्ठमयभेआ॥३४॥
अर्यः-लाकडा सहित अटवी जेवी चिंता छे अने ज्यां घणाज अंधकारवाळी गुहाना जेवी स्त्री देखाय छे, अनेक खीणो होय एवी चार गतियो के, अने जेना आठ भेद छे एका पदना ज्या शिखरो छे, ॥ ३४ ॥ रयणिअरो मिच्छत्तं मणदुक्कडओ सिलातल ममत्तं;
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। तं भिंदसु भवसेलं झाणासणिणा जिअ सहेलं ॥ ३५॥
___ अर्थः-ज्या राक्षस जेवू मिथ्यात्व रहे छे, अने ज्या मनना पापथी उत्पन्न ययेल ममत्वरुपी शिला छे, ते संसाररुपी & कठिण-दुर्गम पर्वतने ध्यानरुपी वज्रवडे लीलामात्रमा हे जीव ! तुं भेदीनांख ॥ ३५ ॥ . ६ जत्थत्थि आयनाणं नाणंवि(विर)याण सिद्धसुहयंतं; सेसं बहुं वि अहियं जाणसु आजीविआमित्तं॥३६॥
अर्थः-ज्यां आत्मज्ञान छे, त्या निश्चयज्ञान छे, अने सिद्ध मुखने आपनारं पण तेज ज्ञान छे. बीजु घणुं पण कांतो ॐा अहित करे छे, अने कांतो आजीविका मात्र छ एम जाण. ॥ ३६॥ | सुबहु अहिअं जह जह तह तह गब्वेण पूरिअं चित्तं; हिअअप्पबोहरहिअस्स ओसहाउ उडिओ वाही॥३७॥
अर्थः-जेम जेम अधिक भणायुं, तेम तेम गर्वथी चित्त अधिक पुरायुं अने हृदय-आत्म बोध वगरनाने ए बहु 9 भणतररुपी औषधमाथी रोग उत्पन्न थयो. ॥ ३७॥
अप्पाणमबोहंता परं विबोहंति केइ तेवि जडा; भण परियणंमि छुहिए सत्तागारेणकिं कजं ॥ ३८॥
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आ.
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अर्थ:- आत्माने बोध कर्यावगर केटलाक बीजाने विशेष बोध करवा जाय छे, तेओ पण खरेखरा जड (मूर्ख) छे. एक बाजु पोतानो परिवार भूख्यो छे, छतां तेओने दानशाळा मांडवानुं भुं प्रयोजन के ते तूं कहे ? ॥ ३८ ॥
बोहंति परं किंवा मुणंति कालं खरा ( नरा) पठंति सुअं; ठाण मुअंति सयावि हु विणाय बोहं पुण न सिद्धी ॥ ३९ ॥
अर्थ:- बीजाने बोध आपे छे, ज्योतिष वगेरेथी काळनुं स्वरुप जाणे छे, सुत्र जाणे छे, वळी सदा पोतानुं स्थान ( घरवार, देश) छोटे छे, छतां तेओने आत्मज्ञान न होवाथी सिद्धि तो नथीज. ॥ ३९ ॥
अवरो न निंदिअवो पसंसिअवो कया वि न हु अप्पा; समभाव काय बोहस्स रहस्समिणमेव ॥ ४० ॥
अर्थ:- परनी निंदा न करवी. कोइ वखते पण पोतानी प्रशंसा न करवी अने समभाव राखवो. आज (आत्म) बोधनुं रहस्य छे. ४०
परसक्खित्तं भंजसु रंजसु अप्पाण मप्पणा चेव; वज्जसु वि (विह) कहाओ जइ इच्छसि अप्पविन्नाणं ॥ ४१ ॥
अर्थ:- जोतने आत्मविज्ञाननी ( आत्माना अनुभवनी ) इच्छा होय तो बीजाना साक्षीपणाने छोडी दे, आत्माने आत्मा वडे राजी कर, विकथा मूकी दे. ॥ ४१ ॥
तं भणसु गणसु वायसुझायसु उवइससु आयरेसु जिआ;
कु.
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खणमित्तमपि विअक्खण, आयारामे रमसि जेणं॥४२॥
. अर्थ:-जीव ! ते भण, ते गण, ते वाच, तेनुं ध्यान घर, ते उपदेच, ते आचर, क्षण मात्र पण जो, के जेवी हे 18 विचक्षण तुं आत्मरुपी वागमा रमे. ॥ ४२ ॥
इय जाणिऊण तत्तं गुरूवईई परं कुण पयत्तं; हलहिउण केवलसिरिं जेणं जयसेहरो होसि ॥४३॥
_अर्थः-आ प्रकारे गुरुश्रीए उपदेशेला तत्त्वने जाणीने प्रयत्न कर, के जेयी केवळ श्री [ केवल ज्ञान ] पामीने | 15 जयशेखर [ आठ कर्मनो जय करनारो ] थइश. ॥ ४३ ॥ ॥ इति ॥
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____ अथ जीवानुशास्ति कुलकम. रे जीव! किं न बुज्झसि चउगइसंसारसायरे घोरे; भमिओ अणंतकालं अरहट्टघडि व जलमज्झे॥१॥
अर्थः-हे. जीव ! चारगतिरुप भयंकर संसार समुद्रमां, पाणीमां रेंटना घडामोनी पेठे अनंतकाल मुधी तुं भन्यो [छता ] केम बोध पामतो नथी ? ॥१॥ रे जीव! चिंतसि तुमं निमित्तमित्तं परो हवइ तुज्झ%;
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असुहपरिणामजणियं फलमेयं पुवकम्माणं ॥ २॥
अर्थ:-हे जीव ! बीजो तो तने निमित्तमात्र छे. अने आ [ वधुं ] अशुभ परिणामयी उत्पन्न थयेलं, पुर्वकर्मन्नुं फल छे. ते तुं चितवे छे ? ॥ २ ॥
रे जीव ! कम्मभरियं उवएसं कुणसि मूढ ! विवरीअं; दुग्गय (३) गमणमणाणं एसच्चिय हियइ (हवाई) परिणामो ३
अर्थ:-- हे मूढ 'जीव ! कर्मथी भरेलो विपरीत उपदेश तुं करे छे. दुर्गतिमां जवानी इच्छावाळाना मनमां आज परीणाम होयछे. ३
रे जीव ! तुमं सीसे ! सवणा दाऊण सुणसु मह वयणं; जं सुक्खं न विपाविसि ता धम्मविवज्जिओ नृणं ॥ ४ ॥
अर्थ :- हे शिष्य जीव !तुं कान दइने मारुं वचन सांभळ, तुं सुख पामतोज नथी माटे खरेखर धर्म रहितज छे. ॥ ४ ॥
रे जीव ! मा विसायं जाहि तुमं पिच्छिऊण पररिद्धी; धम्मरहियाण कुत्तो ? संपजइ विविहसंपत्ती ॥ ५ ॥
अर्थ :- हे जीव ! बीजानी ऋद्धि जोइने तुं विषाद पाम नहीं. धर्म विनाना जीवने विविध प्रकारनी संपत्ति ओ क्याथी माप्त थाय. ५
रे जीव ! किं न पिच्छसि ? झिज्झतं जुवणं धणं जीअं;
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तहवि हु सिग्धं न कुणसि अप्पहियं पवरजिणधम्म॥६॥
अर्थ:-हे जीव! योक्न, धन; अने जीवित्तने नाश पामतां तुं नथी जोतो? तो पण आत्महितकारी श्रेष्ठ जीनधर्म | खरेखर तुं नथी करतो ( नयी आदरतो ). ॥ ६॥ रे जीव! माणवजिअ साहसपरिहीण दीण गयलजा अच्छसि किं वीसत्थो न हु धम्मे आयरं कुणसि ॥ ७॥
. अर्थः-हे मान विनाना, साहस रहित, गरीयदा, निर्लज, जीव ! विश्वासवाळो थइने केम थेठो छे ! तुं धर्ममा रे जीव ! मणुयजम्मं अकयत्थं जुब्वणं च वोलीणं; ॥ न य चिण्णं उग्गतवं न य लच्छी माणिआ पवरा ॥८॥
. अर्थ:-हे जीव ! निष्फल मनुष्य जन्म, अने यौवन व्यतीत थयां, उग्र तप पण न आचर्यु भने उत्तम प्रकारनी | रे जीव! किं न कालो तुज्झ गओ परमुहं नीयंतस्स; जं इच्छियं न पत्तं तं असिधारावयं चरसु ॥९॥
बिलकुल आदर करतोज नथी. ॥ ७॥
EXCARCANCHORORSCRECRUGARCANCY
लक्ष्मी पण न मेळवी.॥८॥
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घ प्रयत्नवडे तेनं रक्षण कर.॥१०॥
... अर्थ:-हे जीव ! बीजाना मोढा सामु ( जोइने घेसी रहेतां ) जोतां तारो वखत ( नकापो ) नथी गयो ? जे तने 18| इच्छित हतुं ते तो न मळ्युं माटे खड्गधारा सरखं वा आदर. ॥ ९ ॥
इय मा मुणसु मणेणं तुज्झ सिरी जा परस्स आइत्ता; ता आयरेण गिण्हसु संगोवय विविहपयत्तेण ॥१०॥
अर्थः-तारी लक्ष्मी पारकाने ताचे छे एम तुं मनयी न मान ते माटे आदरपूर्वक तेने ( बत्तने ) गृहण कर अने जीवं मरणेण समं उप्पज्जइ जुवणं सह जराए; रिद्धी विणाससहिआ हरिसविसाओ न कायबो॥११॥ अर्थः-जीवित मरणनीसाथे, यौवन भरा साथे अने ऋद्धिभोविनाश साचे उत्पन्न थाय छे, (तेथी) हर्ष के विषाद न करवो११ इति अथ इन्द्रियादिविकार निरोधकुलकम्. | रज्जाइभोगतिसिया अट्टवसट्टा पडंति तिरिएसुं;
जाईमएण मत्ता किमिजाइ चेव पावंति ॥१॥
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पर्यः-राज्यादि भोगनी तृष्णानाळा भात ध्यानयी पीडा पामी नरकमां पडे छे. जाति मदबडे मदोन्मत ययेश ४ा कृमि जातिमा जन्म पामे छे. ॥१॥
कलमत्ति सियालित्ते उहाईजोणि जंति स्वमए; | बलमत्ते वि पयंगा बुद्धिमए कुक्कडा हुँति ॥२॥
अर्थः-कुळ मदवडे करीने शियालपणे, अने रुपमहे करीने उंटादिनी योनिमा उत्पन्न थाय छे. बलमदवडे पतं-है गीभा, अने बुद्धिमदी कुकडा थाय छे. ॥२॥ रिद्धिमए साणाइ, सोहग्गमएण सप्पकागाई; नाणमएण बइल्ला हवंति मय अठ अइदुष्ठा॥३॥ अर्थः-रुद्धिमदे करीने कुतरा विगरे, सौभाग्यमदे करीने सर्प कागडा विगेरे, ज्ञानमदवडे करीने बलदो थाय छे. ॥३॥ कोहणसीला सीही माया वि बगत्तणंमि वचंति; लोहिल्ल मूसगत्ते एव कसाएहिं भमडंति ॥४॥ | अर्थः-क्रोधी पाणीओ अग्निमां उत्पन्न थाय छे. मायावी बगलापणु, अने लोभी उदरपणुं पामे छे. ए मका
कषायो वडे जीव भमे छे. ॥ ४ ॥ | माणसदंडेणं पुण तंदुलमच्छा हवंति मणदुष्ठा;
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लावर विगेरें पक्षीओ बंधनां पडे छे. ॥५॥
अर्थ:-कायदंडवडे करीने क्रूर एवा मोटा मत्स्यो अने बिळाडामो
य छे. वळी ते ते भवोमा ते ते कर्मो करे
सुयतित्तरलावाई होउ वायाइ बज्झंति ॥५॥
अर्थः-वळी मन दंडवडे करीने मनमा अत्यन्त दुष्ट तंदुलीया मत्स्यो थाय छे. अने वचनदंडवडे करीने पोपट, |काएण महामच्छा मंजारा(उ) हवंति तह करा;
तं तं कुणंति कम्मं जेण पुणो जंति नरएसुं॥६॥ हूँ ले के जेथी फरी नारकीमा जाय छे. ॥ ६॥
फासिंदियदोसेणं वणसुयरत्तमि जंति जीवा वि, जिहालोलय वग्घा घाणवसा सप्पजाईसं ॥७॥
अर्थः-स्पर्शइन्द्रियना दोपथी जीवो बनमा भुंडपणे उपजे छे. जीव्हा इंद्रिपमा लोलुप्त जोवो वाघ थाय छे. अमे || | घ्राण इंद्रियने वश पडवाथी सर्पनी जातिमां उत्पन्न थाय छे. ॥ ७ ॥ नयणिदिए. पयंगा हुंति मया पुण सवणदोसेण; एए पंच वि निहण वयंति पंचिंदिएहिं पुणो ॥८॥
___ अर्थ:-चक्ष इंद्रियना-दोषयी पतंगीश्रा, अने श्रोत्र इंद्रियना दोपथी मृगो थाय छे. एम ए पांवे जीवो पंवेन्द्रियवडे फरीथी नाश पामे छे.॥ ८॥
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जत्थ य विसयविराओ कसायचाओ गुणेसु अणुराओ; | किरिआसु अप्पमाओ सो धम्मो सिवसुहो लोए॥९॥
अर्थः-जेमां विषयोथी विरक्ति होय, कषायनो त्याग होय, गुणोमा मिति होय, क्रियाओमा अप्रमादीपणुं होय | तेज जगतमा मोक्ष मुख आपवावाळो धर्म छे. ॥ ९ ।। इति ॥
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श्री कर्म कुलकं. | तेलुकिकस्स मल्लस्स महावीरस्स दारुणा;
उवसग्गा कहं हुंता ? न हुँतं जइ कंमयं ॥१॥ अर्थः-त्रण लोकमां अद्वितीय मल्ल जेवा महावीर प्रभुने भयंकर उपसर्गो थया ते जो कर्म न होय तो केम संभवे. ॥ १ ॥ वीरस्स मिनुयग्गामे केवलिस्सावि दारूणो; अइसारो कहं हुतो न हुँतं जइ कम्मयं ॥२॥ ___ अर्थ:-जो कर्म न होय तो श्रीमहावीर स्वामिने केवलज्ञानी छतां मिनुक गाममां भयंकर अतिसार केम थयो. ॥२॥
RECRULARGICALCREC
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वीरस्स अडिअग्गामे अक्खाओ सूलपाणिणो; वेअणाओ कहं हुंती न हुँतं जइ कम्मयं ॥३॥ अर्थः-कर्मनुं अस्तित्व न होय तो अस्थिक गाममा शूलपाणियक्षथी समर्थ वीरभगवानने पण वेदना भो थइ ते केम संभवे. ३ दारुणाओ सलागाओ कन्नेसू वीरसामिणो; पख्खिवंतो कहं गोवो न हुंतं जइ कम्मयं ॥४॥ | अर्थः-जो कर्म न होय तो महावीर स्वामिना कानोमां गोवाळीए भयंकर खोला केम ठोक्या ? ॥ ४ ॥
वीसं वीरस्स उवसग्गा जिणिंदस्सावि दारुणा; * संगमाओ कहं हुंता न हुँतं जइ कम्मयं ॥५॥
... अर्थ:- जो कर्म न होय तो तीर्थकर वीरपरमात्माने पण संगमदेवथी भयंकर वीस उपसर्गो केम थया. ? ॥ ५ ॥
गयसुकुमालस्स सीसंमि खाइरंगारसंचयं; है। परुिखवंतो कहं भट्टो न हुँतं जइ कम्मयं ॥६॥
अर्थ:-जो कर्म न होय तो गजमुकुमालना मस्तक उपर खेरनावळना अंगारा सोमिल नामना ब्राह्मणे नांख्या ते केम घटे. ६ || ४५
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SARKARI
| सीसा उ खंदगस्सावि पीलिज्जंता तया कहं; | जं तेण पालएणावि न हुंतं जइ कम्मयं ॥ ७॥ ____ अर्थ:-जो कर्म न होय तो ते वखते खंधक मुनिना शिष्यो पालकवडे करीने यंत्रमा केप पीलाया. ? ॥ ७ ॥ सणंकुमारपामुख्खचकिणो वि सुसाहुणो; वेयणाओ कहं हुंता न हुँतं जइ कम्मयं ॥८॥ _अर्थ:-जो कर्म न होय तो सनत्कुमार वगेरे चक्रवर्तिने साधु अवस्थामा पण वेदना थइ तेनु शं कारण. ? ॥८॥ | कोसंबीए नियंठस्स दारुणा अच्छिवेयणा; धणिणो वि कहं हंता न हतं जइ कम्मयं ॥९॥
. अर्थ:-जो कर्म मानवामान आवे। हनी तेनुं शुं कारण.? ॥९॥
गरीमा धनवान छतां पूर्वावस्थामा मनिने भयंकर नेत्र पीडा
नमिस्संतो महादाहो नरिंदस्सावि दारुणो; महिलाए कहं हुँतो न हुतं जइ कम्मयं ॥१०॥
अर्थः-नमिराजर्षि जैवा नरेन्द्रना अंतःपुरमा भयानक मोटो दाह थयो तेनुं कर्म सिवाय शुं कारण होइ शके??
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क. अंधत्तं बंभदत्तस्स सुदेवस्सावि दुस्सह;
चकिस्सा वा कहं हुंतं न हुतं जइ कम्मयं ॥११॥ अर्थः-देवोथी सेवाता ब्रह्मदत्त चक्रवतिने पण कर्म विना बोजा कया कारणयो दुस्पह अंधाणु प्राप्त थपुं. ॥ ११॥ नीयगुत्ते जिणिंदो वि भूरि पुण्णो वि भारहे; ऊपजंतो कहं वीरो न हुंतं जइ कम्मयं ॥१२॥
अर्थ:- भरतक्षेत्रमा मोटा. पुन्यवान । जिनेन्द्र श्री महावीर पण नीच गोत्रमा उत्पन्न थया कारण होइ शके.? ॥ १२ ॥
अन्य
अवंती सुकुमालो वि उज्जेणीए महायसो;
कहं सिवाइ खजंतो न हुतं जइ कम्मयं ॥१३॥ 8/ अर्थ:-उज्जेयिनी नगरीमां मोटा गशवाला अवन्ति सुकुमार शोयाळीये भक्षण कीधुं तेनु कारण कर्पज होइ शके. ॥१३॥
सईए सुद्धसीलाए भत्तारा पंच पंडवा; दोवईए कहं हुंता न हुंतं जइ कम्मयं ॥१४॥
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*******OF ROCHA*****SURASHOGHOST
अर्थः-पवित्र शीयळवाळी सती द्रौपदिने पांच पांडवो धणी थया ते कर्म सिवाय केम बने. ? ॥ १४ ॥ मियापुत्ताइ जीवाणं कुलीणाण वि तारिसं; महादुख्खं कहं हुंतं न हुतं जइ कम्मयं ॥ १५॥ अर्थः-कुलीन एवा मृगापुत्र विगेरे केटलाक जीवोने पण तेवा प्रकारचं दुःख थयुं छे तेनुं कारण १ण फक्त कर्मज. ॥१५॥ २ वसुदेवाईणं हिंडी रायवंसोब्भवाण वि; | तारूण्णे वि कहं हुंता न हुंतं जइ कम्मयं ॥१६॥
अर्थः-जो कम न होत तो, राजाना वंशमा उत्पन्न थयेला वसुदेवादिने यौवनावस्थामा केप भ्रमण करवू पडत. ॥६॥ वासुदेवस्स पुत्तो वि नेमिसीसो वि ढंढणो; अलाभिल्लो कहं हुतो न इंतं जइ कम्मयं ॥१७॥ .अर्थः-वासुदेवनो पुत्र तेमन तीर्थ कर परमात्मा ने मिनाथना शिष्य ढंडगरुपिने गोचरो जवा छतां पण ते मळी नाहि तेनुं कर्म मिवाय चीजें व युं कारण मानी शाय. ? ॥ १७ ॥ कण्हस्स वासुदेवस्स मरणं एगागिणो वणे; भाउयाओ कहं हुतं न हृतं जइ कम्मयं ॥१८॥
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क.
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अर्थः- वननी अंदर एकाकि कृष्ण वासुदेवनुं पोताना माइथोज जो कर्म न हो तो मरण केम थाय. ? ॥ १८ ॥
नावारुढस्स उवसग्गो वद्धमाणस्स दारुणो सुदाढाओ कहं तो न हुतं जइ कम्मयं ॥ १९॥
अर्थः- जो कर्म न मानीये तो नाव उपर चडेला श्रीमान् वर्द्धमान स्वामिने सुदृट्टयो भयंकर उपसर्ग केम थाय. ? ॥ १९ ॥
पासनाहस्स उवसग्गो गाढो तिथ्थंकरस्स वि; कमठाओ कहं तो न हुतं जइ कम्मयं ॥ २० ॥
अर्थ:- तीर्थकर परमात्मा पार्श्वनाथ महाराजने कपडयी आकरो उपसर्ग थयो तेवां कर्मज कारण छे. ॥ २० ॥
अणुत्तरा सुरासाया सुख्ख सोहग्गलीलया; कहें पार्वति चवर्ण न तं जइ कम्मयं ॥ २१ ॥
:- अनुत्तर विमानवासि श्रेष्ठ देवो जेओ के सुखनी पूरी सामग्रोथी युक्त छे ते पण व्यवी मृत्युलोकमां आवे छे तेनुं कारण कर्मज मानवुं पडशे ॥ २१ ॥
॥ इति श्रीकर्मकुलकं संपूर्ण ॥
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अथ दशश्रावक कुलकं. वाणियगामपुरंमि, आणंदो जो गिहवई आसी%B सिवनंदा से भज्जा, दस सहसा गोउला चउरो॥१॥ अर्थः-वाणिज्यग्राम नगरमा आनंद नामे गृहस्थ हता, तेने शिवनंदा स्त्री हती अने चालीस हजार गोकुल हता. ॥ १ निहिविवहारकलंतरठाणेसु कणयकोडि बारसगं; मो सिरिवीरजिणेसरपयमले सावओ जाओ॥२॥ अर्थः-तेनी पासे भंडारमा व्यापारमांच्याजे कुल मळी बार क्रोड सोनैया हता, ते (आनंद)श्री महावीरजीरना चरण सेवी श्रावक थयो | चंपाई कामदेवो, भद्दाभज्जो सुसावओ जाओ; छग्गोउल अठारस, कंचण कोडीण जो सामी॥३॥ अर्थः-चंपा नगरीमा कामदेव सुश्रावकथयो. तेने भद्रा स्त्री इती. छ गोकुल हुता भने ते अद्धार क्रोद सोनयानो स्वामीहतो.॥३॥ कासीए चुलणिपिया, सामा भन्जा य गोउला अह;
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चउवीस कणयकोडी, सड्ढाण सिरोमणी जाओ॥४॥ ____अर्थः-फाशीमा चुलनीपिता श्रावकोमा शिरोममी थयो. तेने श्यामा स्त्री हती. आठ गोकुल तेमन चोवीसकोड सोनेया तेनी पासे हता. ॥ ४॥ कासीई सूरदेवो, धन्ना भन्जा य गोउला छच्च; कणयहारसकोडी, गहीयवओ सावओ जाओ॥५॥
अर्थः-काशीमा सुरदेव नामे गृहस्थ हतो तेने धन्या नामे स्त्री हती, अने छ गोकुल तथा अढारकोड सोनैया तेनी पासे हता, ते व्रत ग्रहण करी श्रावक थयो. ॥ ५॥ आलभियानयरीए, नामेणं चुल्लसयगओ सट्टो; बहुलानामेण पिया, रिद्धी से कामदेवसमा ॥६॥ अर्थ:-आलभिका नगरीमा चुल्लशतक नामे श्रावक थयो, तेने बहुला नामनी स्त्री हती अने तेनी ऋद्धि कामदेवना सरस्वी हती. कंपिल्लपट्टणंमि, सड्ढो नामेण कुंडकोलियओ;
पुस्सा पुण जस्स पिया, विहवो सिरिकामदेव सभो॥७॥ 18| अर्थः-कापिल्यपुरमा कुंडकोलिक नामे श्रावक हतो चली तेने पुष्या नामे स्त्री हती भने तेनो वैभव कामदेव श्रावकना समान हतो.७ | PIre
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सद्दालपुत्तनामो, पोलासंमी कुलालजाईओ; भजा य अग्गिमित्ता, कंचणकोडीण से तिन्नि ॥ ८॥ अर्थः-सहालपुत्र नामना श्रावक पोलासमा कुंभार जातीना थया तेने अग्निमित्रा स्त्री हती भने त्रणकोड सोनामहोरो तेनीपासेहतो चउवीस कणयकोडी; गोउल अठेव रायगिहनयरे; सयगो भज्जा तेरस रेवइ अडसेस कोडीओ॥९॥
___ अर्थः-चोवीस क्रोड सोनया, अने आठ गोकुल वाळो गया नगरीमा शतक (श्रावक) हतो तेने रेवती आदि तेर स्त्रीभो हती. तेमा रेवती आठकोड सोनामहोर लावी हती अने बाकीनी एकेक क्रोड लावी हती. ॥९॥
सावत्थीनयरीए, नंदणिपियनाम सडओ जाओ; । अस्सिणिनामा भज्जा, आणंदसमो य रिद्धीए॥१०॥ | अर्थ:-श्रावस्ती नगरीमा नन्दनीमिय नामे श्रावक थयो, तेने अश्विनी नामे स्त्री हती, अने ते ऋद्धिमा आनंद समान हतो. १०
सावत्थीवत्थबो, लंतगपिय सावगो य (जो प) वरो; । फग्गुणि नाम कलत्तो, जाओ आणंदसम विहवो॥११॥
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अर्थ:-श्रावस्ती नगरीमां कान्तकप्रिय नामे श्रेष्ठ श्रावक बसतो हतो तेने फल्गुनी नामे स्त्री हती ते विभवर्मा आनंद सरखो हतो. ॥ १॥ १६] इक्कारस पडिमधरा, सवि वीरपय कमलभत्ता;
सन् वि सम्मदिछी, बारसवयधारया सवे ॥१२॥ ____ अर्थः-ए सर्व श्रावको अग्यार प्रतिमाने धारण करनार, महावीर स्वामीना चरण सेवी, सम्यग्दृष्टी अने वार
व्रतने धारण करवा वाळा इता.॥ १२ ॥
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अथ इरियावहि कुलकं. २ नमवि सिरिवद्धमाणस्स पयपंकयं सेविअजिअभमरगण निच्चपरिसेविअं। चउरगइजीवजोणीण खामणकए भणिमु कुलयं अहं निसुणिअंजह सुए॥१॥
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.. अर्थ:-जीवरुपि भ्रमरना समूहथी नित्य सेवायेला महावीर प्रभुना ते (पसिद्ध) चरणकपलने नपोने तथा सेबोने चार गतीना जीवनी योनीभो खमाववाने माटे जेम सिद्धान्तमा समिळेलु-छे तेम कुळकने कछ.॥१॥
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नारयाणं जिआ सत्तनरय(उब्भ)भवा, अपज पज्जत्त भेएहिं चउदसधूवा । पुढविअपतेयवाउवणईणं तया, पंच है। | ते सुहूम थूला य दस हूंतया ॥२॥ - अर्थ नरकना जीवोना सात नरक पृथ्वीना भेदे सात प्रकार छ. ते पर्याप्ता अने अपर्याप्ता मळीने कुल चउद 151 भेद थाय तथा पृथ्वीकाय, अप्काय तेजसकाय वायुकाय अने साधारण वनस्पति ए पांच भेद सूक्ष्म अने बादर ए| | बन्ने मळी दश भेद थाय छे. ॥ २॥
अपजपज्जत्तभेएहिं वीसं भवे, अपज पजत्तपत्तेयवणस्सइ 'दुवे। एम एगिदिआ वीमदोजुत्तयाअपजपजबिंदितेइंदि चउरिंदिया ॥३॥
- अर्थ:-अपर्याप्ता अने पर्याप्ता 'ए बन्ने प्रकारे दश भेदो' होवाथी वीस भेद थाय छे तथा अपर्याप्त अने पर्याप्त ए बे भेदे प्रत्येक वनस्पति छे. ए प्रकारे एकेन्द्रियना कुल २० भेद थाय छे पर्याप्त अने अपर्याप्त बेइंद्रि, तेइंद्रि अने RI चौरिद्रियना छ भेद थाय छे. ॥३॥
नीरथलखेअरा उरगपरिसप्पया भुयगपरिसप्प सन्निसन्नि पंचिंदिया। दसवि ते पज्ज अपजत्त वीसं तया तिरिय
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इ. सबे डयालीस भेया मया ॥४॥ ५०/8| अर्थः-संज्ञी पंचेद्रिय, अने असंज्ञी पंचेद्रियं प्रत्येकना जलचर, स्थलचर, खेचर, उरः परिसर्प, भुजपरिसर्प ए पांच भेद
| होवाथी दश भेद थाय छे अने पर्याप्त अने अपर्याप्त ना भेदयी २० भेद थाय छे, सर्व मळी तिर्यंचना ४८ भेद थायछ.।४। | पंचदसकम्मभूमीय सुविसालयातीसअक्कम्मभूमी असुह
कारया । अंतरदीवा तह पवर छप्पण्णयं मिलिय सय महियमेगेण नरठाणयं ॥५॥ ___अर्थः-सुविशाल एवी पंदर कर्म भूमीमां उत्पन्न थयेला अने मुख करवावाळी त्रीश अकर्म भूमिमा उत्पन्न ययेला अने छपन्न अंतर द्वीपमा उत्पन्न थयेक मनुष्योना १०१ भेद थाय छे. ॥ ५॥
तत्थ अपजत्त पजत्त नरगन्भया, वंतपित्ताइ असनिअ| पजत्तयामिलियसब्वेवि तेतिसय तिउत्तरा मणुयजम्मंमि इय हंति विविहप्पयरा ॥६॥
, अर्थः-तेमा पर्याप्त अने अपर्याप्त एवा वे भेद गर्भन मनुष्यना छे तेथी २०२ भेद थया तथा मनुष्यना वमन पिचादिकमा उत्पन्न ययेग १०१ भेद अपर्याप्त समूर्छिम मनुष्यना धाय के सर्व मळी ते ३०३ मनुष्यना भेद थायळे..६। 51
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भवणवई देव दस पनर परहम्मिया, जंभगा दसय तह सोल वंतरगया । चरथिरा जोइसया चंदा सूरा गहा तहय
नख्खत्त तारा दस भावह ॥ ७ ॥
अर्थ:-भवनपति देवोना दश भेद, पंदर परमधार्मिकना, दश तिर्यगजृंभकना तथा सोल व्यंतरना चंद्रसूर्य ग्रह नक्षत्र अने तारा ए पांच वर ज्योतिषि अने पांच स्थिर ज्योतिषी मळी दश भेद थया ॥ ७ ॥
किब्बिसा तिणि सुर बार वेमाणिया, भेय नव नवय
सुरवरा, ते जुया
गेविज्ज लोगंतिया । पंच आणुत्तरा एगहीणं सयं देवदेवीजुयं ॥ ८ ॥
अर्थ:- किल्विष देवना त्रण भेद, वार भेद वैमानिकना, नव ग्रैवेयकना, अने नव लोकान्तिकना, पांच भेद अनुचरना ते बघा जोडतां देव अने देवीओ सहीत नत्राणुं थाय छे। अने ॥ ८ ॥
अपज पज्जत्त भेएहिं सओठाणुआ, भवणवणजोइवेमाणिया मिलिया । अहिअ तेसही सविं हुंति ते पणसया,
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| अभिहयापयदसयगणिअ जायातया ॥९॥
___ अर्थ:--पर्याप्त अपर्याप्त भेदे भुवनपति व्यंतर ज्योतिष अने वैमानिक ए चारेना एकसोने अठाणु भेदो थाय छे. बधा मळीने जीवना पांचसो ने प्रेसठ भेदो थाय छे अभिहयादिक दश पदोए गुण्या त्यारे. ॥ ९ ॥ पंचसहसा छसय भेय तीसाहिया, रागदोसेहिं ते सहस | एगारसा । दुसय सहीत्ति मणवयणकाएपुणो, सहस ते तीस सयसत्त असिई घणो॥१०॥ - अर्थः -पच ह नार छमोने त्रीश थाय, राग अने द्वेष. ए भेदे गुणना अग्यार हजार बसो अने साठ थाय, मन वचन अने काया एत्रणे गुणीए त्यारे तेत्रीच हजार सातमोने ऐंशी थाय. ॥ १० ॥ करणकारणअणुमईसंजोडिया, एगलख्खह इगसहस तिसय चालीसया। कालतिअंगणिय तिन्निलख्ख च उसहसया वीसहिअ इरिअ मिच्छामिदुक्कड पया॥ ११ ॥ ___अर्थः-करवं, कराव, अने अनुमोदq एग भेदे गुणवायी एक लाख एक हजार प्रगसाने चाळीश थाय. ४ा अने प्रण काळे गुणतां त्रग लाख चार हजार वीश इरियावहिना मिरछामि दुडंना भेदो थाय. ॥1॥
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ईणपरि चउरगइमाहिं जे जीवया, कम्मपरिपाकि नव
नवियजोणीठिया। ताह सबाह कर करिय सिर उप्परे । ६ देमि मिच्छामिदुक्कडं बहु बहु परे॥१२॥
| अर्थ:--आ प्रमाणे पोतपोनाना कर्म विपाकने अनुसारे जुटी जुटी जाननी योनिश्रोमा रहेला चार गतिमा जे जीवो || छे ते दरेकने मस्तक उपर राय मुकीने बहु प्रकारे मिच्छापि दुक दउं . ॥ १२ ॥
इअजिअ विविहप्परिमिच्छा दुक्कडि करिहि जिभविआ सूटुमणति छिंदिअ भवदुहं पामिअ सुरसुहं सिद्धिनयरि । सुहं लहईघणं ॥१३॥ इति इरियावहि कुलकं ॥
अर्थः-ए प्रकारे जे भविक सारा मनवडे कगेने विविध प्रकारे जीगे प्रत्ये मिथ्या दुष्कृत करे ते भवना दुःख | छेदीने, देवतान सुख पापोने मोक्ष नगरोनुं अत्यंत सुख मेळो छे. ॥१३॥
॥ इति इरियावहि कुलकं संपूर्ण ॥
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________________ शरु पाने. कुलकनुं नामः 72-GROOR - - अनुक्रमणिका. अंक. कुलगनु नाम. गाथा. अंक. शरुपाने. 1 गुणानुराग 1 28 9 अभव्य 29 2 गुरुप्रदक्षिणा 5 1810 पुण्यपाप 30 3 संविज्ञ साधयोग्य 11 गौतम 32 2046 नियम 84712 आत्मावबोध 35 43 / / 4 पुण्य प्रभावदर्शक 13 जीवानुशास्ति४२ 11 / 15 10 14 ईद्रियादि वि४५ दान 16 20 कार निरोध 43 9 / / 6 शीळ 19 2015 कर्म .45 21 / / 7 तप 22 2016 दशश्रावक 48 123 ८भाव 25 2117 इरियावहिय 49 13 // Adda - पुण्य -