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THE FREE INDOLOGICAL
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- The TFIC Team.
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हिन्दी अनुसन्धान परिषद् ग्रन्थमाला - प्रन्थ १
पण्डितवरश्रीवामनविरचिता
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तिः
[ 'काव्यालङ्कारदीपिका' हिन्दीव्यास्याविभूषिता ]
व्याख्याकार
आचार्य विश्वेश्वर सिद्धान्तशिरोमणि अध्यक्ष, 'श्रीधर अनुसन्धान विभाग' गुरुकुल विश्वविद्यालय, वृन्दावन
तथा
सम्मान्य सदस्य, हिन्दी अनुसन्धान परिषद् दिल्ली विश्वविद्यालय
सम्पादक
डा० नगेन्द्र, एम. ए., डी.लिट्
हिन्दी अनुसन्धान परिषद्, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली की ओर से
आत्माराम एण्ड संस
प्रकाशक तथा पुस्तक - विक्रेता काश्मीरी गेट, दिल्ली-६ द्वारा प्रकाशित
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प्रकाशक रामलाल पुरी आत्माराम एण्ड सस काश्मीरी गेट, दिल्ली-६
मूल्य १२) सं० २०११ . १९५४ ई०
मुद्रक न्यू इण्डिया प्रेस कनाट सर्कस नई दिल्ली
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हमारी योजना
'हिन्दी काव्यालङ्कारसूत्र', 'हिन्दी अनुसन्धान परिषद् ग्रन्थमाला' का पहला ग्रन्थ है । हिन्दी अनुसन्धान परिषद्, हिन्दी- विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली, की संस्था है जिसकी स्थापना अक्तूबर १९५२ में हुई थी । इसका कार्य - क्षेत्र हिन्दी भाषा एवं साहित्य विषयक अनुसन्धान तक ही सीमित है और कार्यक्रम मूलतः दो भागो में विभक्त है। पहले विभाग पर गवेषणात्मक अनुशीलन का और दूसरे पर उसके फलस्वरूप उपलब्ध साहित्य के प्रकाशन का दायित्व है ।
परिषद् ने इस वर्ष पाँच ग्रन्थो के प्रकाशन की योजना बनाई है । प्रस्तुत ग्रन्थ के अतिरिक्त दो ग्रन्थ और प्रकाशित हो चुके है : (१) मध्यकालीन हिन्दी कवयित्रियों और (२) अनुसन्धान का स्वरूप । श्रन्य दो ग्रन्थ-'हिन्दी वोक्तिजीवित' तथा 'हिन्दी साहित्य पर सूफीमत का प्रभाव' भी प्रेस में है । उपर्युक्त ग्रन्थो में से 'अनुसन्धान का स्वरूप' अनुसन्धान के मूल सिद्धान्त तथा प्रक्रिया के सम्बन्ध में मान्य आचार्यों के निबन्धो का सङ्कलन है; 'हिन्दी वक्रोतिजीवित' श्राचार्य 'कुन्तक' के प्रसिद्ध ग्रन्थ 'वक्रोक्तिजीवितम्' की हिन्दीव्याख्या है, और शेष दोनो ग्रन्थ दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा पी-एच डी के लिए स्वीकृत गवेषणात्मक प्रबन्ध है । इस योजना को कार्यान्वित करने में हमें हिन्दी की सुप्रसिद्ध प्रकाशन - सस्था - ' श्रात्माराम एण्ड सस' के अध्यक्ष श्री रामलाल पुरी का सक्रिय सहयोग प्राप्त है । उनके अमूल्य सहयोग ने हमे प्रायः सभी प्रकार की व्यावहारिक चिन्तानो से मुक्त कर यह अवसर दिया है कि हम अपना ध्यान और शक्ति पूर्णतः साहित्यिक कार्य पर ही केन्द्रित कर सकें । 'हिन्दी अनुसन्धान परिषद्' श्री पुरी के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करती है ।
चैत्र शुक्ला प्रतिपदा, २०११ वि०
नगेन्द्र
अध्यक्ष
हिन्दी अनुसन्धान परिषद् दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
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भूमिका
आचार्य वामन
और
रीति सिद्धान्त
लेखक - डा० नगेन्द्र
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तत्त्रों में उन्होंने गुणों को ही ग्रहण किया है - रस का गुण के ही एक तत्व रूप में उल्लेख किया गया है ।
काव्य की परिभाषा और स्वरूप :
वामन ने यद्यपि काव्य की परिभाषा पृथक रूप से नहीं दी, फिर भी आरम्भ में ही उन्होंने काव्य के लक्षण और स्वरूप का निर्देश किया है : काव्यशब्दोऽय गुणालङ्कारसस्कृतयोः शब्दार्थयोर्वर्तते - अर्थात् गुणों और अलङ्कारों से संस्कृत (भूषित) शब्द और अर्थ के लिए 'काव्य' शब्द का प्रयोग होता है । इसी तथ्य को और स्पष्ट करते हुए वामन ने लिखा है :- काव्य अलङ्कार के कारण ही ग्राह्य होता है । * अलंकार का अर्थ है सौन्दर्य और सौन्दर्य का समावेश दोषों के बहिष्कार और गुण तथा अलंकार के आदान से होता है । गुण नित्य धर्म हैं, अलङ्कार अनित्य — केवल गुण सौन्दर्य की सृष्टि कर सकते हैं परन्तु केवल अलङ्कार नहीं : अर्थात् गुण की स्थिति अनिवार्य है, अलङ्कार की वैकल्पिक । इस प्रकार वामन के अनुसार गुणो से अनिवार्यत और अलङ्कारों से साधारणतः युक्त तथा दोष से रहित शब्दअर्थ का नाम काव्य है । वामन की इसा परिभाषा को ध्वनिवादी मम्मट ने यथावत् स्वीकार करते हुए काव्य का लक्षण किया है. तददोषौ शब्दार्थों सगुणावनलकृती पुनः क्वापि - काव्य उस शब्दार्थ का नाम है जो दोषों से रहित और गुणों से युक्त हो— साधारणतः अलंकृत भी हो परन्तु यदि कही अलकार न भी हो तो कोई हानि नहीं । अर्थात् दोषों से रहित तथा गुणो से अनिवार्यतः एवं श्रलङ्कारों से साधारणतः युक्त शब्द- श्रर्थ को काव्य कहते हैं । मम्मट ने वामन का सिद्धान्त रूप से घोर विरोध किया है, परन्तु काव्यलक्षण उन्होंने वामन का ही ज्यों का त्यों उद्धृत कर दिया है । संस्कृत काव्य-शास्त्र में वामन के पूर्व भरत, भामह और दरडी के काव्य-लक्षण मिलते
। भरत का वामन से मौलिक मतभेद है, भरत अन्तर्तत्व- रस को प्रधानता देते हैं, वामन बाह्य तत्व रीति को । भामह और दरडी भी देहवादियो मे ही आते हैं, अतएव इस प्रसंग में उन्हीं के लक्षणों का तुलनात्मक विवेचन अधिक सार्थक होगा ।
भामह का लक्षण इस प्रकार है : शब्दार्थों सहितौ काव्य- सहित अर्थात् सामंजस्यपूर्णं शब्द-अर्थं को काव्य कहते हैं
।
भामह ने शब्द और अर्थ
* काव्यं ग्राह्यमलकारात् ||१|| सौन्दर्यमलकारः ॥२॥
भ्याम् ॥३॥
(+)
स दोषगुणालक | रहानादाना
(कान्याल कारसूत्रवृत्ति. १, १ )
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के सामंजस्य को काव्य को संज्ञा दी है। इसी प्रकार दण्डी ने काव्य को 'इष्टार्थव्यवच्छिन्नापदावली'-अर्थात् अभिलषित अर्थ को व्यक्त करने वाली पदावली माना है। उपर्युक्त दोनों लक्षणों में केवल शब्दावली का भेद हैइष्टार्थ को अभिव्यक्त करने वाला शब्द-और शब्द-अर्थ का साहित्य या सामंजस्य एक ही बात है क्योंकि शब्द इष्ट अर्थ की अभिव्यक्ति तभी कर सकता है जब शब्द और अर्थ में पूर्ण सामंजस्य एवं सहभाव हो। आगे चलकर भामह और दण्डी के विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि शब्द और अर्थ का सामंजस्य ही काव्य-सौन्दर्य है और वह अलङ्कार से अभिन्न है। इस प्रकार उनके अनुसार काव्य निसर्गतः अलङ्कार-युक्त होता है । भामह और दण्डी ने वास्तव में गुण और अलङ्कार में भेद नहीं किया-दोनों ही अलङ्कार हैं । देहवादी प्राचार्यों में कुन्तक का स्थान अन्यतम है। उनका मत है कि वक्रोक्तियुक्त बन्ध (पद-रचना) में सहभाव से व्यवस्थित शब्द-अर्थ ही काव्य
शब्दार्थों सहितौ वक्रकविव्यापारशालिनि
वन्धे व्यवस्थितौ काव्यं"" । यहां भी मूल तथ्य वही है-वचन-भंगिमा भिन्न है। 'गुण और अलङ्कार से युक्त के स्थान पर कुन्तक ने केवल एक शब्द 'चक्रकविव्यापारशाली' प्रयुक्त किया है : वास्तव में भामह तथा दण्डी के अलङ्कार और वामन के गुण तथा अलंकार को कुन्तक ने वक्रोक्ति में अन्तर्भूत कर लिया है और वे उसी के प्रस्तार मात्र बन गए हैं।
इनके विपरीत दूसरा वर्ग साहित्यिक प्रात्मवादियों का है जिसके अन्तर्गत भरत, आनन्दवर्धन, मम्मट, विश्वनाथ, पण्डितराज जगन्नाथ आदि श्राचार्य पाते हैं । भरत ने रसमयी, सुखबोध्य मृदु-ललित पदावली को काव्य माना है-आगे के प्राचार्यों ने इसी मे सशोधन करते हुये उसे रसात्मक वाक्य अथवा रमणीयार्थ-प्रतिपादक शब्द कहा है । इन प्राचार्यों ने स्पष्टतया आंतरिक तत्व अर्थ-सम्पदा पर अधिक बल दिया है, जबकि उपर्युक्त साहित्यिक देहवाढियो ने बाह्य रूपाकार पर ।
इस पृष्ठभूमि में वामन के लक्षण का विवेचन करने पर निम्नलिखित तथ्य सामने आते हैं :
(१) वामन शब्द और अर्थ दोनो को समान महत्व देते हैं सहित
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शब्द का प्रयोग न करते हुए भी वे दोनों के साहित्य को ही काव्य का मूल अंग मानते हैं। दोष को वे काव्य के लिए असह्य मानते हैं : इसीलिए सौन्दर्य का समावेश करने के लिए दोष का बहिष्कार पहला प्रतिबन्ध है। गुण काव्य का नित्य धर्म है अर्थात् उसकी स्थिति काव्य के
लिए अनिवार्य है। (१) अलङ्कार काव्य का अनित्य धर्म है-उसकी स्थिति वांछनीय है,
अनिवार्य नहीं।
यह तो स्पष्ट ही है कि वामन का लक्षण निर्दोष नहीं है। लक्षण अतिव्याप्ति और अध्याति दोषों से मुक्त होना चाषिये : उसकी शब्दावली सर्वथा स्पष्ट किन्तु संतुलित होनी चाहिये-उसमें कोई शब्द अनावश्यक नहीं होना चाहिए । इस दृष्टि से, पहले तो वामन का और वामन के अनुकरण पर मम्मट का दोष के प्रभाव को लक्षण में स्थान देना अधिक संगत नहीं है। दोष की स्थिति एक तो सापेक्षिक है, दूसरे, दोष काव्य मे बाधक तो हो सकता है, परन्तु उसके अस्तित्व का सर्वथा निषेध नहीं कर सकता। काणत्व अथवा क्लीवल्ब मनुष्य के व्यक्तित्व की हानि करता है, मनुष्यता का निषेध नहीं करता । इसलिए दोषाभाव को काव्य-लक्षण में स्थान देना अनावश्यक ही है। इसके अतिरिक अलङ्कार की वांछनीयता भी लक्षण का अंग नहीं हो सकती । मनुष्य के लिए अलंकरण वांछनीय तो हो सकता है, किन्तु वह मनुष्यता का अनिवार्य गुण नहीं हो सकता । वास्तव में लक्षण के अन्तर्गत वांछनीय तथा वैकल्पिक के लिए स्थान ही नहीं है। लक्षण में मूल, पार्थक्यकारी विशेषता रहनी चाहिए : भावात्मक अथवा अमावात्मक सहायक गुणों की सूची नहीं। इस दृष्टि से भामह का लक्षण "शब्द-अर्थ का साहित्य कहीं अधिक तत्व-गत तथा मौलिक है। जहां शब्द हमारे अर्थ का अनिवार्य माध्यम बन जाता है वहीं वाणी को सफलता है। यही अभिव्यक्षनावाद का मूल सिद्धान्त है-क्रोचे ने अत्यन्त प्रबल शब्दों में इसी का स्थापन और विवेचन किया है। आस्माभिव्यंजन का सिद्धान्त भी यही है। मौलिक और व्यापक दृष्टि से भामह का लक्षण अत्यन्त शुद्ध और मान्य है । परन्तु इस पर अतिव्याप्ति का आरोप किया जा सकता है, और परवर्ती प्राचार्यों ने किया भी है। आरोप यह है कि यह तो अभिव्यजना का लक्षण हुा-काव्य का नहीं । शब्द और अर्थ का सामंजस्य उक्ति की सफलता है-अभिव्यञ्जना
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की सफलता है । परन्तु क्या केवल सफल उक्ति अथवा सफल अभिव्यंजना ही काव्य है ? हमारे श्राचर्यों ने भरत से लेकर रामचन्द्र शुक्ल तक ने इम्पका निषेध किया है। उधर विदेश में भी अरस्तु से लेकर रिचर्डस तक सभी ने इसका प्रतिवाद किया है । भारतीय काव्य शास्त्र में इसीलिए विश्व - नाथ को 'रसात्मक' शब्द का प्रयोग करना पडा और पडितराज जगन्नाथ को 'रमणीयार्थ प्रतिपादक' विशेषण लगाना पडा - शुक्ल जी ने भी इसीलिए रमणीय और रागात्मक शब्दों का प्रयोग किया है। इन श्राचार्यों के अनुसार प्रत्येक अर्थ और शब्द का सामंजस्य काव्य नहीं है - रमणीय अर्थ और शब्द का सामंजस्य ही काव्य है । दूसरे शब्दों में प्रत्येक (सफल) उक्ति काव्य नहीं
सरस या रमणीय ( रमणीय अर्थ को व्यक्त करने वाली) उक्ति ही काव्य है । ग्ररस्तू ने भी भाव-वैभव पर इसी दृष्टि से अधिक बल दिया है—और याधुनिक मनोवैज्ञानिक आलोचक रिचर्डस भी, जो कि काव्य को मूलतः एक अनुभव मानते हैं, इस अनुभव के लिए - प्रकार की दृष्टि से नहीं - प्रभाव आदि की दृष्टि से कतिपय गुणों की स्थिति अनिवार्य मानते हैं । स्थूल शब्दों में प्रत्येक अनुभव काव्य नहीं है- समृद्ध अनुभव' ही काव्य है ।
परन्तु इस तर्क के विरुद्ध भामह के लक्षण के समर्थन में भी युक्ति दी जा सकती है - और वह यह कि शब्द और अर्थ का सामंजस्य अपने आप में ही रमणीय होता है उसके लिए रमणीय विशेषण की श्रावश्यकता नहीं । क्रोचे का यही मत है कि सफत उक्ति स्वयं सौंदर्य है—उसके अतिरिक्त सौन्दर्य कोई बाह्य तत्व नहीं है । "सफल अभिव्यंजना ही सौन्दर्य है क्यों कि
सफल अभिव्यंजना तो अभिव्यंजना ही नहीं होती ।" (क्रोचे ) । भारतीय काव्य-शास्त्र में कुन्तक को सूक्ष्म दृष्टि इस तथ्य तक पहुची है और उन्होंने इस विरोधाभास को दूर करने का प्रयत्न किया है । एक स्थान पर साहित्य ग्रर्थात् शब्द और अर्थ के सहभाव का अर्थ स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा है कि शब्द और अर्थ का यह सहभाव केवल चाच्य वाचक-सम्बन्ध-रूप नहीं होना चाहिए— उसमे तो चक्रता- चैचित्रय गुणालंकार-सम्पदा की मानो परस्पर स्पर्धा रहनी चाहिए । अन्यथा केवल वाच्य वाचक सम्बन्ध होने से तो वह श्राह्लाद्
१ रिच एक्सपीरियस
२ चक्रनाविंचित्रगुणालकारसम्पदा परस्परस्पर्धाधिरोह॰ ।
(=)
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हुए चार श्लोकों में उसका निरूपण किया है : वाणी के अनेक मार्ग हैं जिनमें परस्पर अत्यन्त सूक्ष्म भेद हैं। इनमें से पैदर्भ और गौडीय मार्गों का, जिनका पारस्परिक भेद अत्यन्त स्पष्ट है, अब वर्णन किया जाएगा। श्लेष, प्रसाद, समता, माधुर्य, सुकुमारता, अर्थव्यक्ति, उदारता, भोज, कान्ति और समाधि-ये दश गुण वैदर्भ मार्ग के प्राण हैं। गौड मार्ग में प्रायः इनका विपर्यय लक्षित होता है । + + + + इस प्रकार प्रत्येक का स्वरूपनिरूपण कर इन दोनों मार्गों का अन्तर स्पष्ट कर दिया है। किन्तु जहां तक प्रत्येक कवि में स्थित (प्रत्येक कवि को अपनी प्रकृति के अनुसार) इनके भेदों का सम्बन्ध है, उनका वर्णन सम्भव नहीं है।
दण्डी का उपर्युक्त विवेचन संक्षिप्त होते हुए भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। उनके मन्तव्य का सार इस प्रकार है :
(१) रीति का अस्तित्व सर्वथा वस्तुगत नहीं होता : प्रत्येक कवि की अपनी विशिष्ट रीति होती है-कवि अनेफ हैं अतएव रीतियों की संख्या भी अनेक हैं । इस प्रकार दण्डी ने अत्यन्त निर्धान्त शब्दों में रोति में व्यक्ति-तस्व की सत्ता स्वीकार की है।
(२) सामान्यतः अपनी अत्यन्त पृथक विशेषताओं के कारण दो मार्ग या रीतियां-वैदर्भ और गौड़ीय दण्डी के समय तक कवियों और काव्यरसिकों में प्रसिद्ध हो चुके थे । दण्डी ने उनका अस्तित्व तो लोक-परम्परा के अनुसार निश्चयरूप से स्वीकार किया है, परन्तु उनको निरपेक्ष नहीं माना
अस्त्यनेको गिरा मार्ग. सूक्ष्ममेदः परस्परम् । तत्र वैदर्भगौडीयो वण्येते प्रस्फुटान्तरौ ॥४०॥ श्लेपः प्रसादः समता माधुर्य सुकुमारता ।। अर्थव्यक्तिरुदारत्वमोजः कान्तिसमाधयः ॥ ४ ॥ इति वैदर्भमार्गस्य प्राणा दशगुणाः स्मृताः। एपा विपर्यय प्रायो लक्ष्यते गोडवमनि ॥ ४२ ॥
+ + + + इति मार्गदय मिन्न तत्स्वरूपनिरूपणात् ।। तोदास्तु न शक्यन्ते वक्तुं प्रतिकविस्थिताः ॥ १०१ ॥
(प्र० परिच्छेद-काव्यादर्श) (३४).
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(३) दण्डी ने सबसे प्रथम रीति और गुण का सम्बन्ध स्थापित किया है - बाण भट्ट ने जिसका संकेत मात्र किया था— दण्डी ने उसे नियम- बद्ध कर दिया ।
(४) भरत ने श्लेष, प्रसाद आदि को काव्य गुण माना है, परंतु दरडी ने उन्हें वैदर्भ मार्ग के गुण माना है। इसका अभिप्राय कदाचित् यह है कि वे वैदर्भ मार्ग को काव्य के लिए आदर्श मानते हैं - अथवा वैदर्भ काव्य और सत्काव्य को अभिश मानते हैं ।
"
(५) गौड़ीय मार्ग में दण्डी के अनुसार उपर्युक्त गुणों का प्रायः विपयय रहता है । प्रायः का अभिप्राय यह है कि उनमें से (१) अर्थव्यक्तिअर्थात् अर्थ की स्फुट प्रतोति कराने की शक्ति, (२) श्रदार्य - श्रर्थात् प्रतिपाद्य अर्थ में उत्कर्ष का समावेश, और (३) समाधि — अर्थात् एक वस्तु के धर्मं का दूसरी वस्तु में सम्यकू रीति से प्रधान - लाक्षणिक और औपचारिक प्रयोग शक्ति- ये तीन गुण दोनों में समान हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि इन तीन गुणों को दण्डी काव्य के लिए अनिवार्य मानते हैं क्योंकि अर्थ - व्यक्तिहीन काव्य हृदयंगम नहीं हो सकता, औदार्य - रहित होकर वह इतिवृत्त कथन रह जाता है और समाधि को तो दण्डी ने स्पष्ट शब्दों में 'काव्य-सर्वस्व' माना ही है । इन तीन गुणों के अतिरिक्त शेष सात गुणों का विपर्यय गौडीय मार्ग का आधार है ।
संस्कृत के विद्वानों में दरडी के 'एषां विपर्ययः - इनका विपर्यय' इन दो शब्दों को लेकर बड़ा विवाद चला है । कुछ विद्वान एषां (इनके) का अर्थ करते हैं दशगुणों का, और विपर्यय का अर्थ करते हैं वैपरीत्य । दूसरे विद्वान एषां का सम्बन्ध प्राणा:- मूलतत्व से स्थापित करते हैं और विपर्यय का करते हैं अन्यथात्व; इस प्रकार उनके अनुसार दण्डी का श्राशय : श्लेषादि वैदमं मार्ग के मूल तत्व हैं; गौडीय मार्ग के मूलतत्व इनसे अन्यथा है । विद्वानों का एक तीसरा वर्ग इन दोनों से भिन्न अर्थ करता है— एषां को तो गुणों का ही वाचक मानते हैं, परन्तु विपर्यय का अर्थ अन्यथात्व करते हैं । इसका अभिप्राय यह हुआ कि गौड़ीय मार्ग में श्लेषादि दश गुणों का अन्यथा रूप मिलता है ।
अब उपर्युक्त आख्यानों की परीक्षा कीजिए । पहले आख्यान के बिरुद्ध यह आक्षेप है कि जब उपर्युक्त दश गुण सौन्दर्य-बोधक हैं तो इनके विपरीत
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रूप कुरूपता-बोधक हुए अर्थात् दोष हुए । गौड़ीय मार्ग के मूलतत्व यदि कुरूपता-बोधक दोष है तो फिर उसे काव्य-मार्ग कैसे माना जा सकता है ?
और वास्तव में दण्डी ने गौडीय मार्ग के प्रसंग में जितने उदाहरण दिए हैं वे कुकाव्य के उदाहरण नहीं हैं । इस आक्षेप का उत्तर दिया जा सकता है: दण्डी ने गुण के विपर्यय को दोष नहीं माना है-व्युत्पन्नता, दीति और अत्युक्ति तो दोष हैं ही नहीं-शैथिल्य और वैषम्य को भी निरपेक्ष रूप से दोष नहीं माना जा सकता । वामन ने तो बन्ध-शैथिल्य को शब्द-गुण माना ही है। उनके उपरान्त इसी सत्य का उद्घाटन आनन्दवर्धन ने और भी स्पष्ट शब्दों में किया है । पद-रचना का कोई रूप-समस्त अथवा असमस्त पद, गाढ अथवा स्फुट बन्ध अपने आप में न काव्य का अपकर्षक है न उत्कर्षक : विषय और भाव के अनुसार ये दोनों ही गुण हो सकते हैं, और दोनों ही दोष । इसलिए श्लेषादि गुणों के विपर्यय-जिनकी स्थिति गौडीय मार्ग में मानी गई है-दोष-वाचक नहीं हैं, श्लेषादि के तुल्य उत्कर्षवाचक चाहे न हों।
उपयुक्त तर्फ दूसरे पाख्यान की क्लिष्ट कल्पना को अनावश्यक बना देता है । दण्डी ने निश्चय ही पैदर्भ मार्ग को श्रेष्ठ और गौड़ीय को निकृष्ट माना है। इसलिए श्लोक के उत्तरार्ध का यह अर्थ कि गौड़ मार्ग के मूल तत्व वैदर्भ के मूल तत्वों से केवल भिन्न होते हैं क्लिष्टान्धय होने के अतिरिक्त प्रसंग-विरुद्ध भी है।
तीसरा अख्यान भी हमारे उपयुक्त विवेचन के प्रकाश में अनावश्यक हो जाता है : जब वैपरीस्य दोष नहीं है तो अन्यथात्व की कल्पना ही क्यों की जाए ? वैसे भी दण्डी के व्युत्पन्न प्रादि विपर्ययों में वैपरीत्य के साथ साथ चाहे अन्यथात्व भी भले ही हो, परन्तु शैथिल्य और वैषम्य के विषय में तो ऐसी कोई शंका नहीं हो सकती-वे तो निश्चय ही पूर्णतया विपरीत रूप हैं। इसलिए विपर्यय का अर्थ अन्यथात्व करने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योकि दण्डी के पूर्वोद्धृत विपर्ययों में से किसी में भी वैपरीत्य का अभाव नहीं है :-व्युत्पन्न आदि में प्रांशिक वैपरीत्य है और शैथिल्य आदि मे पूर्ण।
निष्कर्ष यह है कि 'एषां से दण्डी का श्राशय दश गुणों का और 'विपर्यय से चैपरीत्य का ही है । दण्डी ने गौड मार्ग को हीनतर मानते हुए भी
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काव्य-मार्ग ही माना है, अतएव गुणों के विपर्ययों की कल्पना भी काव्य की परिधि के भीतर ही की है : उदाहरण के लिए प्रसाद का विपर्यय 'क्लिष्ट' कान्ति ( स्वाभाविक वर्णन) का 'अस्वाभाविकता', और सौकुमार्य (कोमल और निष्ठुर वर्णों का रमणीय मिश्रण) का विपर्यय केवल 'स्त्रेण श्रथवा श्रुतिकटु वर्णों का प्रयोग' नहीं माना क्यों कि ये सभी विपर्यय काव्य की परिधि से बाहर पढ जाते । इसके विपरीत उन्होंने काव्य की परिधि के भीतर ही क्रमशः व्युत्पन्न - अर्थात् शास्त्र ज्ञान पर श्राश्रित, अत्युक्ति तथा दीप्ति को ही प्रसाद कान्ति और सौकुमार्य का विपर्यय माना है । इसी कारण अर्थव्यक्ति औदार्य और समाधि के विपर्यय दिये ही नहीं गए क्योंकि उनसे काव्य की हानि हो जाती — उन्हें वैदर्भ और गौड दोनों के लिए समान रूप से श्रावश्यक मान लिया गया है।
दण्डी के उपरान्त तो वामन द्वारा रीति सम्प्रदाय की स्थापना हो ही जाती है । उनके विवेचन के फल-स्वरूप रीति का स्वरूप, आधार, क्षेत्र, प्रकार आदि का निर्धारण हो जाता है ।
रीति को परिभाषा और स्वरूप
रीति का अर्थ :- रीति शब्द का प्रयोग सबसे पहले वामन ने किया है। जैसा कि भोज ने अपनी परिभाषा में स्पष्ट किया है रीति शब्द रोड् धातु से बना है— इसका व्युत्पत्ति-अर्थ है गति, मार्ग या प्रस्थान, और रूढ अर्थ है पद्धति, विधि श्रादि । वामन से पूर्व दण्डी ने और वामन के उपरान्त कुन्तक आदि ने रोति के लिए मार्ग शब्द का ही प्रयोग किया है ।
परिभाषा :- वामन से पूर्व यद्यपि भामह और
दण्डी ने रीति की
लक्षण या परिभाषा
इस प्रकार रोति
चर्चा की है, परन्तु उन दोनों में से किसी ने भी रीति का नहीं की । यह कार्य भी सर्व प्रथम वामन ने ही किया । शब्द के प्रथम प्रयोक्ता, रीति के लक्षणकर्ता, और रीति-सम्प्रदाय के संस्थापक वामन ही हैं । श्रतएव रीति का स्वरूप समझने के लिए श्राधार रूप में उनकी ही शब्दावली का श्राश्रय लेना संगत होगा ।
वामन के अनुसार रीति का अर्थ है विशिष्ट पद-रचना - विशिष्टा पदरचना रीतिः । का० सू० ११२७ । विशिष्ट का अर्थ है गुण-सम्पन्न --विशेषो
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गुणात्मा । १॥२॥८॥ गुण से तात्पर्य है काव्य- शोभा - कारक ( शब्द और अर्थ के) धर्म का || २२|१|
क्योंकि यह तो समस्त
के
धर्म' का अर्थ हुआ—
इस प्रकार वामन के अनुसार रीति की परिभाषा हुई :- - काव्य- शोभाकारक शब्द और अर्थ के धमो से युक्त पद-रचना को रीति कहते हैं। यहां 'काव्य-शोभा-कारक शब्द और अर्थ के धर्मों से युक्त' शब्दावलो कुछ बिखरी हुई है। इसमें एक तो 'काव्य' शब्द अनावश्यक है प्रपंच ही काव्य का है । 'शाभा -कारक शब्द और अर्थ शब्द और अर्थ -गत सौन्दर्य - या शब्द- चमत्कार तथा अर्थवामनकृत परिभाषा का रूप हुआ : शब्द तथा अर्थ-गत चमत्कार से युक्त पदरचना का नाम रीति है । इसको और भी संक्षिप्त किया जा सकता है : 'शब्द तथा अर्थ- गत सौन्दर्य से युक्त' के स्थान पर केवल 'सुन्दर' का प्रयोग किया जा सकता है । सुन्दर पदरचना या सम्यक् पदरचना का नाम रीति है ।
- चमत्कार | और
श्रतएव वामन के अनुसार " शब्द और अर्थ - गत सौन्दर्य से युक्त पदरचना का नाम रीति है ।" अथवा "सुन्दर पदरचना का नाम रोति है—यह सौन्दर्य शब्द-गत तथा श्रर्थगत होता है ।"
वामन के उपरान्त धन्य श्राचार्यों ने भी रीति का लक्षण - श्रथवा स्वरूप निरूपण किया है । श्रानन्दवर्धन ने उसको संघटना नाम दिया है । सम्यक् अर्थात् यथोचित घटना — पदरचना का नाम संघटना अथवा रीति है । श्रानन्दवर्धन ने वास्तव में वामन की परिभाषा को ही संक्षिप्त कर दिया है । वामन का पद-रचना और श्रानन्दवर्धन का घटना शब्द तो पर्याय ही हैं : दोनो के विशेषणों में भी कोई मौलिक अन्तर नहीं है । वामन ने पदरचना को शब्द और अथं-गत सौन्दर्य से युक्त (गुणात्मक) कहा है, आनन्दवर्धन ने उसके लिए सम्यक् (यथोचित) विशेषण का प्रयोग किया है । श्रानन्दवर्धन के सामने रस का मानदण्ड था— - इसलिए उन्होंने तदनुकूल 'सम्यक्' – यथोचित् शब्द का ही प्रयोग किया क्योंकि रस को प्रमाण मानने के उपरान्त उसके अनुसार श्रौचित्य-निर्धारण सहज हो जाता है। वामन के समक्ष इस प्रकार का मानदण्ड कोई नहीं था —— उन्होंने शब्द अर्थ का ही चरम मान स्वीकार करते हुये शब्द और अर्थगत सौन्दर्य को विशेषण माना है । अतएव श्रानन्दवर्धन और वामन की परिभाषाओं में मौलिक साम्य होते हुए भी विशेषणों मे सूक्ष्म अंतर है श्रानन्दवर्धन के सिद्धान्तानुसार रीति रसाश्रयी है, अतएव उन्होंने घटना — या
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पदरचना के लिए 'सम्यक्-यथोचित्' विशेषण का प्रयोग किया है । वामन की रीति स्वतंत्र है-अतएव उनके मत से पदरचना का वैशिष्ट्य अपने शब्द और अर्थगत सौन्दर्य से अभिन्न है।
आनन्दवर्धन की रीति रस-रूप सौन्दर्य की साधन है : "व्यनक्कि सा रसादीन्" (२०३५), वामन की रीति अपने आप में सिद्धि है।
___ आनन्द ने अपने मत का व्याख्यान करते हुए आगे लिखा है। संघटना तीन प्रकार की कही गई है-असमासा, मध्यमसमासा और दीर्घसमासा । ३, २॥ वह माधुर्यादि गुणों के आश्रय से स्थित रसों को अभिव्यक्त करती है । ३, ६॥२
___ इस प्रकार आनन्दवर्धन ने रोति के सम्बन्ध मे तीन बाते कहो हैं:(७) रोति या संघटना के स्वरूप का आधार केवल समास है : उसी का श्राकार अथवा सद्भाव-अभाव रीतियों के विभाजन का आधार है। अर्थात् मूर्तरूप में रीति का स्वरूप-निर्धारण समास की स्थिति अथवा आकार द्वारा होता है। (२) रीति की स्थिति गुणों के आश्रय से है-नीति गुणाश्रयी है। (१) वह रसाभिव्यक्ति का माध्यम है।
आनन्दवर्धन के उपरान्त राजशेखर ने रीति का विस्तारपूर्वक विवेचन किया है। उन्होंने रीति की परिभाषा की है : वचन-विन्यास-क्रमो रीतिः अर्थात् वचन-विन्यास का क्रम रीति है। यह परिभाषा वामन को परिभाषा से मूलतः भिन्न नहीं है केवल शब्दों का अंतर है। वचन का अर्थ है शब्द या पद और विन्यास-क्रम का अर्थ है रचना । राजशेखर ने काव्यपुरुष के रूपक का प्रसंग होने के कारण वाणी से सम्बन्ध रखने वाले शब्द प्रयुक्त किये हैंलेखन से सम्बद्ध शब्द नहीं। इसीलिए पद अथवा शब्द के स्थान पर वचन और रचना के स्थान पर विन्यास-क्रम का प्रयोग किया गया है।
कुन्तक ने रीति का नाम फिर मार्ग रख दिया और रीति-विषयक विवेचन मे क्रान्ति उपस्थित करने का प्रयत्न किया । कुन्तक स्वतंत्र विचारवान् श्राचार्य थे-उन्होंने काव्य में कवि-स्वभाव को मुख्य मानते हुए उसी के
१ असमासा, समासेन मध्यमेन च भूषिता ।
तथा दीर्घसमासेति त्रिधा सघटनोदिता ॥३, ५॥ २ गुणानाश्रित्य तिष्ठन्ती, माधुर्यादीन् व्यनक्ति सा । रसान्" "३, ६॥
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तत्व मानते थे । उत्तर-ध्वनि श्राचार्यों ने अलङ्कार और अलङ्कार्य —-वस्तु और शैली अथवा प्राण और देह का अन्तर स्पष्ट किया और रस ध्वनि को काव्य का प्राणतत्व तथा रीति को बाह्यांग माना - जिस प्रकार श्रंग संस्थान श्रात्मा का उपकार करता है, इसी प्रकार रीति रस की उपकनीं है। उन्होंने रीति को काव्य का माध्यम मानते हुए वर्ण-संयोजन, तथा पद-रचना अर्थात् शब्दगुम्फ तथा समास को उसके बहिरंग तत्व और गुण को अन्तरग तत्व स्वीकार किया जिसके श्राश्रय से वह रस की अभिव्यक्ति करती है ।
रीति के नियामक हेतु
वामन ने तो रीति को स्वतन्त्र तथा सर्वतन्त्र सत्ता मानी थी— अतएव उनके लिए तो रीति के नियमन तथा नियामक हेतुश्नों का प्रश्न ही नहीं उठता -- परन्तु श्रागे चलकर स्थिति बदल गई । रीति को परतन्त्र होना पडा । अनन्दवर्धन ने रस को रोति का प्रमुख नियामक हेतु माना है । रोति पूर्णतया रस के नियन्त्रण में रहती है-उसी के अधीन कुछ और भी हेतु हैं जो उपचार से रीति का नियमन करते हैं। रस के अतिरिक्त ये हेतु तीन हैं वक्तुऔचित्य, वाच्य औचित्य और विषय चचित्य 1
तन्नियमे हेतुरौचित्यं वक्तृवाच्ययोः ॥ ३६ ॥
उस ( संघटना) के नियमन का हेतु वक्ता तथा वाच्य का श्रौचित्य
है ।
इसके अतिरिक्त
विषयाश्रयमप्यन्यदौचित्यं तां नियच्छति ।
काव्यप्रभेदाश्रयतः स्थिता भेदवती हि सा ॥ ३७ ॥
अर्थात् विषयाश्रित औचित्य भी उसका ( संघटना का ) नियन्त्रण करता I काव्य के भेदों के आश्रय से भी उसका भेद हो जाता है ।
उपर्युक्त तोन नियामक हेतुओं की थोडी व्याख्या अपेक्षित है। इनकी परिभाषा स्वयं श्रानन्दवर्धन ने की है ।
"वक्ता कवि या कवि- निबद्ध ( दो प्रकार का ) हो सकता है। और कवि-निबद्ध (वक्ता) भी रसभाव (आदि) से रहित अथवा रसभावयुक्त (दो
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प्रकार का) हो सकता है । रस भी कथानायक-निष्ठ और उसके विरोधी (प्रतिनायक)-निष्ट (दो प्रकार का) हो सकता है । कथानायक भी धीरोदात्यादि भेद मे विभिन्न मुख्य नायक अथवा उसके बाद का (उपनायक पीठमद) हो हो सकता है । इस प्रकार वन्ना के अनेक विकल्प हैं"। (हिन्दी ध्वन्यालोक पृ० २४४)।
वास्तव में यह वक्ता के स्वभाव और मन : स्थिति की व्याख्या हैवक्ता के स्वभाव और मन स्थिति के अनुकूल ही रीति का प्रयोग उचित है।
"इसी प्रकार वाच्य (अर्थ भी ) ध्वनिरूप (प्रधान) रस का अंग (अभिव्यंजक) अथवा रसाभास का अंग (अभिव्यक्षक), अभिनेयार्थ या अनमिनेयार्थ, उत्तम प्रकृति में प्राश्रित, अथवा उसमे मिन्न (मध्यम, अधम) प्रकृति में आश्रित-इस तरह नाना प्रकार का हो सकता है। (हिन्दी श्वन्यालोक, पृ० २४४) वाच्य से अभिप्राय यहां विषय-अथवा विषयवस्तु या वर्ण्य वस्तु का है जो निश्चय ही रीति का नियामक है क्योंकि रीति का प्रयोग निस्संदेह ही वर्य विषय पर निर्भर रहता है। सुकुमार विषयों की वर्णन-शैली में मार्दव और परुष विषयों की शैली में परुषता स्वाभाविक ही है।
अानन्दवर्धन के अनुसार तीसरा नियामक हेतु है विषय | विषय का अर्थ, जैसा कि स्वयं लेखक ने ही स्पष्ट कर दिया है, विषय-वस्तु अथवा वर्य विषय नहीं है: उसका उल्लेख तो वाच्य के द्वारा किया ही जा चुका है। विषय मे यहां काव्य के रूप का अभिप्राय है। 'मुक्तक, पर्यायवन्ध, परिकथा खण्डकया, सकल कथा, सर्गबन्ध (महाकाव्य), अभिनेयार्थ (रूपक), श्राख्यायिका और कथा श्रादि (काध्य के) अनेक प्रकार हैं। इनके आश्रय से भी मंघटना या रीति में मेट हो जाता है।" (हि. ध्व० पृ० २४.)। संस्कृत काव्य-शास्त्र में बाह्यांगों के आधार पर वर्गीकरण करने की प्रवृत्ति कुछ अधिक बलवती रही है। उसमें प्रायः अनावश्यक भेट-विस्तार किया गया है इसीलिए उमके अनेक काव्य-मेट आगे चलकर मान्य नहीं हुए : विशेषकर शैली मात्र पर श्राश्रित काव्य-रूप प्रायः सभी लुप्त हो चुके हैं। फिर भी आनन्दवर्धन के उपर्युक मन्तव्य से असहमत होने के लिए कोई अवकाश नहीं है। महा. फाव्य और नाटक महश काव्य-रूपों का प्रभाव तो रचना-रीति पर अत्यन्त प्रत्यच ही रहता है-उनके अतिरिक्त अनेक सूक्ष्म भेदों का प्रभाव भी सहन
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हीं लक्षित किया जा सकता है । उदाहरण के लिए उपन्यास और कहानी मुक्तक और गीत के रूप-भेद से उनकी शैली में भी निश्चय ही भेद रहता है
1
उपर्युक्त विवेचन अत्यन्त सार्थक होने के अतिरिक्त सर्वथा आधुनिक भी है । यूरोप के काव्यशास्त्र में शास्त्रीय - श्रथवा छद्म शास्त्राय परम्परानों के बाह्य मूल्यों के विरुद्ध मनोविज्ञान सम्मत आन्तरिक मूल्यों की प्रतिष्ठा के निमित्त जो कार्य उन्नीसवीं शताब्दी में किया गया (यद्यपि वहां भी लोंजाइनस, दांते आदि अनेक प्राचीन श्राचार्य उसका संकेत सेकड़ो हज़ारों वर्ष पूर्व कर चुके थे), उसे हमारे यहा श्रानन्दवर्धन आठवी-नवीं शताब्दी में विधिवत् सम्पादित कर चुके थे ।
रीति का प्रवृत्ति, वृत्ति तथा शैली से अन्तर
शास्त्र में रीति के सहधर्मी कुछ अन्य काव्यांगों का भी प्रयोग मिलता है— उनसे पार्थक्य किये बिना रीति का वास्तविक रूप उद्घाटित नहीं हो
सकता ।
रीति और प्रवृत्ति कालक्रमानुसार सबसे पहले तो प्रवृत्ति को लीजिए । प्रवृत्ति का विवेचन सर्व प्रथम भरत में और फिर उनके अनुकरण पर राजशेखर, भोज और शिंगभूपाल आदि में मिलता है । जैसा कि मैंने आरम्भ में विवेचन किया है, भरत के अनुसार प्रवृत्ति उस विशेषता का नाम है जो नाना देशों के वेश, भाषा तथा श्राचार का ख्यापन करे ।" इस प्रकार प्रवृत्ति का सम्बन्ध केवल भाषा से ही न होकर वेश तथा प्रचार से भी है— जबकि रीति का सम्बन्ध केवल भाषा से ही है। प्रवृत्ति पूरे रहन-सहन के ढंग से सम्बन्ध रखती है, और रीति केवल बोलने तथा लिखने के ढंग से । प्रवृत्ति के मूल तत्व प्रायः बाह्य तथा मूर्त हैं — रीति के आन्तरिक । श्रतएव प्रवृत्ति का निश्चयात्मक आधार भौगोलिक है परन्तु रोति का श्राधार कवि-स्वभावगत ही अधिक है । प्रवृत्ति व्यवहारात्मक है, इसीलिए राजशेखर ने उसको केवल वेश- विन्यास-क्रम ही माना है, रीति एकान्त साहित्यिक ।
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१ पृथिव्या नाना देशवेशभाषाचारवार्ता ख्यापयतीति प्रवृत्ति
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(नाट्यशास्त्र)
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इसीलिए प्रवृत्ति का प्रत्यक्ष सम्बन्ध नाटक से ही है-रीति का काव्य से (या नाटक के काव्यांग से)। परन्तु इस भेद के रहते हुए भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि रीति की कल्पना के पीछे प्रवृत्ति की प्रेरणा निस्संदेह वर्तमान थी।
रीति और वृत्ति :-प्रवृत्ति का प्रचलन अत्यन्त सीमित हो रहा-अतएव उसके विषय में विशेष भ्रान्ति उत्पन्न नहीं हुई। परन्तु वृत्ति और रीति में अन्त तक भ्रान्ति के लिए अवकाश रहा।
वृत्ति के संस्कृत काव्य-शास्त्र में अनेक अर्थ है- किन्तु उन सबका प्रस्तुत प्रसंग से सम्बन्ध नहीं है । वृत्ति के केवल दो रूप ऐसे हैं जो रीति के समानधर्मी हैं जिनसे उसका पार्थक्य आवश्यक है । ये दो रूप हैं (१) नाट्य वृत्तियां : भारतीय, सात्वती, कैशिकी तथा प्रारमटी—जिन्हें पान्दवर्धन और अभिनव ने अर्थवृत्तियां कहा है। (२) काव्य-वृत्तियां : उपनागरिका, परुषा
और कोमला (ग्राम्या)-जिन्हें आनन्दवर्धन तथा अभिनव ने शब्दवृत्तियां कहा है। इन्हें अनुप्रासजाति भी कहते हैं।
___ आनन्दवर्धन ने वृत्ति की परिभाषा इस प्रकार की है : व्यवहारो हि वृत्तिरित्युच्यते- अर्थात् व्यवहार या व्यापार का नाम वृत्ति है। अभिनवगुप्त ने इसी की तात्विक व्याख्या करते हुए लिखा है : तस्माद् व्यापारः पुमर्थसाधको वृत्तिः-पुरुषार्थ-साधक व्यापार का नाम ही वृचि है। और स्पष्ट शब्दों में, पात्रों की कायिक, वाचिक और मानसिक विचित्रता से युक्त चेष्टा ही वृत्ति है । इस व्यापार का वर्णन काव्य में सर्वत्र होता है-कोई भी वर्णन व्यापार-शून्य नहीं होता, इसीलिए वृत्ति को काव्य की माता कहा गया है :
सर्वेषामेव काव्यानां वृत्तयो मातृकाः स्मृताः । (भरत) यहां वाचिक के साथ ही कायिक और मानसिक चेष्टाओं का भी अन्तर्भाव है इसलिए वृत्ति का रूप शब्दगत और अर्थगत दोनों प्रकार का होता है ।
आगे चलकर ये दोनों रूप पृथक् हो जाते हैं। आनन्दवर्धन के शब्दों में रसानुगुण अर्थ-व्यवहार भारती, सास्वती श्रादि वृत्तियों का रूप धारण कर लेता है, और रसानुगुण शब्द-व्यवहार उपनागरिका, परुषा और कोमला वृत्तियों का जिनके उद्भावक हैं प्राचार्य उद्भट । उनट ने इन्हें अनुप्रासजाति ही माना है, अतएव उनके मत से ये वृत्तियां वर्ण-व्यवहार मात्र ही है-इनमें पदसंघटना का विचार नहीं है । इन वृत्तियों के स्वरूप के विषय में प्राचार्यों में
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मतभेद रहा है । रुद्रट ने वृत्ति को समास के श्राश्रित माना है और समासयुक्त पद - सघटना को उसका आधार स्वीकार किया है :
नाम्नां वृत्तिद्वेधाभवति समासासमाभेदेन ।
श्रानन्दवर्धन ने थोडा और व्यापक रूप देते हुए उसे शब्द - व्यवहाररूप माना है । परन्तु श्रागे चलकर मम्मट ने फिर उद्भट के अनुसरण पर उसे नियतवर्णव्यापार मात्र ही स्वीकार किया है । और बाद में चलकर तो वृत्ति का रीति में अंतर्भाव ही हो गया ।
अर्थ-वृत्ति उपयुक्त
I
दो प्रकार की वृत्तियो में पहली का रीति से निकट सम्बन्ध नहीं है : इनका प्रयोग प्रायः नाटक के प्रसग में ही होता हैनाज उपन्यास के क्षेत्र में भी इनकी सार्थकता हो सकती है । कायवाङ्मनसां चेष्टा (अभिनवगुप्त) होने के कारण इनकी परिधि अत्यंत व्यापक है । रीति का सम्बन्ध जहां वाणो से ही है वहां इनका सम्बन्ध शारीरिक तथा मानसिक व्यापारो से भी है । अर्थ-वृत्ति का सम्बन्ध चरित्र - विधान तथा व्यक्तित्वचित्रण से है : रीति वचन -रचना का प्रकार मात्र है। हां दोनों के मूल मे रसानुकूल्य का आधार होने के कारण रस के सम्बन्ध से उनका पारस्परिक सम्बन्ध स्थिर किया जा सकता है । इस दृष्टि से कैशिकी पांचाली के समानान्तर है, सात्वती और आरभटी गौडाया के, और भारती वदर्भी केभरत ने यद्यपि केवल शब्द-वृत्ति मानते हुए उसका क्षेत्र अत्यत सीमित कर दिया है फिर भी परवर्ती श्राचार्यों ने उसकी सत्ता सर्वत्र मानी है : वृत्ति: सर्वत्र भारती (शारदातनय ) ।
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का
वर्ण-वृत्ति : दूसरी वृत्तियों का — उपनागरिका, परुषा तथा कोमला -रीतियों से इतना प्रत्यक्ष तथा घनिष्ठ सम्बन्ध है कि प्रायः उनके विषय भ्रान्ति हो जाती है। इस विषय में श्राचार्यों के तीन मत हैं :
(१) वृत्ति की सत्ता रीति से स्वतंत्र है । उद्भट ने केवल वर्ण-व्यवहार रूप वृत्तियों का ही विवेचन किया है । रुद्रट ने भी समास को आधार मानते हुए वृत्ति का रीति से ईषत् पृथक उल्लेख किया है। उधर आनन्दवर्धन तथा अभिनव में भी दोनों का पृथक वर्णन है— यद्यपि आगे चलकर आनन्दवर्धन ले वृत्ति को शब्द - व्यवहार मानकर वृत्ति और रोति की एकता स्वीकार करली है ।
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(२) मम्मट और उनके परवर्षी श्राचार्य पण्डितराज जगन्नाथ आदि वृत्ति और रोति को एक ही मानते हैं। मम्मट ने तो उपनागरिका श्रादि वृत्तियों का विवेचन करने के उपरान्त स्पष्ट ही लिख दिया है कि इन्हें ही वेदी आदि रीतियों के नाम से अभिहित किया जाता है। जगन्नाथ ने रीति और वृत्ति दोनों शब्दो का ही बंदी आदि के लिए प्रयोग किया है।
(8) कुछ प्राचार्य वृत्ति को रीति का अंग मानत हैं : वृत्ति से उनका तात्पर्य वर्ण-गुरफ का है और वर्ण-गुम्फ रीति के अनेक तत्वो में से एक है-श्रतएव वह उसका अग है । वामन ने वृत्ति का कैशिकी श्रादि के अर्थ में ही उल्लेख किया है, अनुप्रास जाति के अर्थ मे वृत्ति का प्रयोग उद्भट का
आविष्कार है जिसे चामन ने ग्रहण नहीं किया । परन्तु उनके रीति-विवेचन से स्पष्ट है कि अनुप्रासजाति को वे रीति का एक बाह्य आधार-तत्व मानते हैं। इस प्रकार अप्रत्यक्ष रूप से वे वृत्ति को रोति का अग मानते हैं। विश्वनाथ ने रीति के तीन तत्व माने हैं : रचना (शब्द-गुम्फ), समास, तथा वर्णसंयोजना । अतएव उनके मत मे भी वर्ण-संयोजना रूप वृत्ति सम्भवतः ही रीति का अंग है।
उपर्युक्त अभिमतों के परीक्षण के उपरांत यह परिणाम निकलता है कि यदि उद्भट का मत मान्य है और तदनुसार वृत्ति केवल वर्ण-गुम्फ का नाम है तब तो वह रोति का एक वाह्य अाधार तत्व है, परन्तु यदि आनन्दवर्धन के अनुसार उसे शब्द-व्यवहार माना जाए तो फिर वह रीति का पर्याय मात्र है . उत्तर-ध्वनि काल के प्राचार्यों का यही मत रहा है। हमारा अपना विनम्र मंतव्य यह है कि वृत्ति शब्द की इस अर्थ में उद्भावना और उसका अंत तक प्रयोग उसके पृथक अस्तित्व के प्रमाण हैं । वह वर्ण-व्यवहार-आधुनिक शब्दावली में वर्ण-संयोजना-रूप है, और रीति का एक बाह्य अग है। रीति के दो बाह्य तत्व हैं : (१) संघटना (शब्द-योजना, समास श्रादि) और (२) वर्ण-योजना जिसका दूसरा नाम है वृत्ति ।
रीति और शैली : रीति का समानधर्मी अब केवल एक शब्द रह जाता है : शैली । वैसे तो यह शब्द अत्यंत प्राचीन है और इसकी व्युत्पत्ति शील से हुई है। शाल का अर्थ है स्वभाव जो कुन्तक के मत में रीति का नियामक प्राधार है। जिस प्रकार स्वभाव की अभिव्यक्ति का मार्ग रोति है, उसी प्रकार शील (स्वभाव) की अभिव्यक्ति-पद्धति शैली भी है और उसके
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व्युत्पत्ति अर्थ में भी वैयक्तिक तत्व मूलतः वर्तमान है। परन्तु फिर भी भारतीय काव्यशास्त्र में इसका प्रयोग प्रस्तुत अर्थ मे प्राय. नहीं हुआ । शास्त्र में यह शब्द व्याख्यान-पद्धति श्रादि के प्रसंग में ही प्रयुक्त हुआ है: यथा'प्रायेण आचार्याणामियं शैली यत् सामान्येनाभिधाय विशेषेण विवृणोति । (कुल्लूक भट्ट की टोका-मनुस्मृति : बल्देव उपाध्याय-भारतीय सा. शा० से उद्धृत)। अभिव्यक्ति की पद्धति के अर्थ में शैली का प्रयोग आधुनिक ही है जो अंगरेज़ी के स्टाइल शब्द का पर्याय है।
विशिष्ट अर्थ में रीति और शैली में बहुत अंतर नहीं है। शैली की अनेक परिभाषाएं की गई हैं। शैली विचारों का परिधान है। शैली उपयुक्त शब्दावली का प्रयोग है। अभिव्यक्ति की रीति का नाम शैली है । शैली भाषा का व्यक्तिगत प्रयोग है । शैली ही व्यक्ति है, इत्यादि।
शैली के दो मूलतत्व हैं : एक व्यक्ति-तत्व, और दूसरा वस्तु तत्व ।
यूरोप के काव्य-शास्त्र में इन दोनों तत्वों का विस्तृत विवेचन किया गया है। यूनानी प्राचार्यों के उपरांत रोम के, और उनके उपरांत फ्रांस, इगलैंड आदि के अनेक काव्य-शास्त्रियों ने शैली के वस्तु-तत्व का सम्यक विवेचन किया है । अब रह जाता है शैली का वैयक्तिक तत्व । वास्तव में शैली के व्यक्ति-तत्व और वस्तु-तत्व में व्यक्ति-तत्व ही प्रधान है। उसी के द्वारा शैलीकार शैली के बाह्य उपकरणों का समन्वय-अनेकता में एकता की स्थापना करता है । वैयक्तिक तत्व के दो रूप हैं: एक तो शैली द्वारा कवि की आत्माभिव्यजना-अर्थात् शैलो का आत्माभिव्यंजक रूप और दूसरा पात्र तथा परिस्थिति के साथ शैली का सामंजस्य । भारतीय रीति-विवेचन में पहला रूप विरल है। परन्तु इस प्रसग में एक बात याद रखनी चाहिए : इसमें संदेह नहीं कि उसे वाछित महत्व नहीं दिया गया फिर भी उसको स्वीकृति का सर्वथा प्रभाव नहीं है। दण्डी ने काव्य-मार्ग को प्रतिकविस्थित माना है और कुन्तक ने तो कविस्वभाव को ही शैली का मूल आधार माना है । उनके उपरान्त शारदातनय आदि ने भी पुसि पुसि विशेषेण कापि कापि सरस्वती' कह कर व्यक्तिनत्व को स्वीकृति दी है। वैयक्तिक तत्व के दूसरे रूप का विधान तो भारतीय
यशास्त्र में निश्चय ही मिलता है। यद्यपि वामन ने इसका स्पष्टीकरण नहीं ा किन्तु वामन से पूर्व भरत ने स्पष्ट निर्णय दिया है कि नाटक में भाषा
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पात्र के शील-स्वभाव की अनुवर्तिनी होनी चाहिए। उधर श्रानन्दवर्धन ने तो वक्ता, वाच्य और विषय के औचित्य को रीतियों का नियामक ही माना है।
अब प्रश्न यह है कि क्या शैली और रीति पर्याय शब्द हैं । अथवा उनमें अन्तर है । डा. सुशीलकुमार डे ने उनको एक मानने के विरुद्ध चेतावनी दी है। उनका कहना है कि रीति में व्यक्ति-तत्व का अभाव है, और व्यक्तितत्त्व शैली का मूल श्राधार है अतएव दोनों को एक मानना भ्रान्ति है। हिन्दी के विद्वानों ने भी उनके आधार पर इन दोनों का भेद स्वीकार किया है। जहां तक शैली के वस्तु-रूप का सम्बन्ध है, वहां तक तो रोति से उसका पार्थक्य करना अनावश्यक है । जैसा मैंने रीतिकाव्य की भूमिका में स्पष्ट किया है, यूरोप के प्राचार्यों द्वारा निर्दिष्ट शैली के तत्त्व नामान्तर से रीति के तत्वों में ही अन्तर्भूत हो जाते हैं-अथवा रीति के तत्वों का उपयुक्त शैलीतत्वों में अन्तर्भाव हो जाता है। लय, स्वर-लालित्य आदि कला तत्व वर्णगुम्फ और शब्द-गुम्फ के अन्तर्गत आ जाते हैं, बौद्धिक तत्वों का समावेश अर्थव्यक्ति प्रसादादि गुणों और कतिपय अर्थालङ्कारों के अन्तर्गत हो जाता है, और रागात्मक तत्व रस (कान्ति-गुण) माधुर्य और भोज गुणों में अन्तर्भूत हो जाते हैं । ऐसी स्थिति में वरतु-तत्त्व शैली और रीति दोनों के सर्वथा समान हैं केवल नाम-भेद है। व्यक्ति-तत्व के सम्बन्ध में भी दोनों में इतना भेद नहीं है जितना कि डा० डे ने माना है : रीति पर व्यक्तित्व का प्रभाव दण्डी
आदि प्राचीन आचार्यों तथा कुन्तक, शारदातनय आदि नवीन प्राचार्यों ने मुक्तकण्ठ से स्वीकार किया है । कुन्तक का विवेचन तो सर्वथा आधुनिक ही प्रतीत होता है- तो यूरोप के रोमांटिक पालोचकों की भाँति ही स्वभाव पर बल देते हैं। यूरोप में भी पुनर्जागरण काल और विशेषरूप से रोमांटिक युग के बाद ही व्यक्तित्व को यह उभार मिला है। यूनान और रोम के बाद में इटली और फ्रांस के आलोचकों ने तो प्रायः शैली के वस्तुतत्त्व पर ही बल दिया है।
उपर्युक्त विवेचन के परिणाम इस प्रकार हैं:
(१) रीति और शैली का वस्तु-रूप एक ही है। प्रारम्भ में भारत और यूरोप दोनों के काव्य शास्त्रों मे प्रायः वस्तु-रूप का ही विवेचन हुआ है।
(२) भारतीय रीति में व्यक्ति-तत्व की सर्वथा अस्वीकृति नहीं है, जैसा कि डा. हे श्रादि ने माना है।
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(३) फिर भी अपने वर्तमान रूप में शैली में व्यक्ति-तत्व का जितना महत्त्व है, उतना भारतीय रीति में कभी नही रहा । विधान रूप में उसमें वस्तु-तत्त्व का ही प्राधान्य रहा है । वामन की दृष्टि तो वस्तु-परक है ही श्रानन्दवर्धन जैसे सर्वमान्य आलोचकों ने भी- जिन्होंने व्यक्ति की सता को उचित स्वीकृति दी है, रीति के स्वरूप में व्यक्ति-तत्व का प्रभाव अत्यन्त संयत मात्रा में ही माना है ।
(४) इस प्रकार रीति और शैली के वर्तमान रूप में व्यक्ति तत्त्व की मात्रा का अन्तर अवश्य हो गया है। कम से कम 'शैली ही व्यक्ति है' की भाँति भारतीय रीति व्यक्ति से एकाकार नहीं हो पाई। इस सम्बन्ध में कुन्तक जैसे आचार्य की एक आध उक्ति को अपवाद ही मानना चाहिये ।
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गुण-विवेचन
गुण की परिभापा : वामन से पूर्व भरत और दण्डी ने दश गुणों का सांगोपांग वर्णन तो किया है, परन्तु परिभाषा नहीं की। भरत :-भरत ने गुणों को भावात्मक तत्व न मान कर अभावारमकअर्थात् दोषों का विपर्यय माना है : गुण विपर्ययाद् ऐषाम् माधुयौदार्यलक्षणाः । (नाट्यशास्त्र, काव्यमाला १६६१)-अथवा एत एव विपर्यस्ता गुणाः काव्येषु कीर्तिताः । (नाट्यशास्त्र-चौखम्बा~११९१०)। विपर्यय का वास्तविक अर्थ क्या है इस विषय में प्राचार्यों में मतभेद रहा है। इस शब्द के तीन अर्थ किये गये हैं : प्रभाव, अन्यथा भाव और वैपरीत्य । अभिनवगुप्त ने विधात या प्रभाव को ही ग्रहण किया है। उनके अनुसार भरत का मत है कि दोष का अभाव गुण है। उत्तरध्वनि काल के प्राचार्यों ने भी दोष के प्रभाव को गुण (सद्गुण) माना है : महान् निर्दोषता गुणः । परन्तु फिर भी भरत के गुण-विवेचन से यह सिद्ध नहीं होता कि उनके सभी गुणों की स्थिति अभावास्मक है । उनके लक्षणों से स्पष्ट है कि कुछ गुणों को छोडकर शेष सभी की स्थिति निश्चय ही भावात्मक है। उदाहरण के लिए समता की स्थिति अवश्य ही अभावात्मक है, परन्तु उदारता, सौकुमार्य, प्रोजस् आदि गुण जिनमें दिव्यभाव, सुकुमार अर्थ, और शब्दार्थ-सम्पत्ति आदि का निश्चित रूप से सद्भाव रहता है अभावात्मक कैसे हो सकते हैं । अन्यथाभाव और चैपरीस्य की स्थिति विलोम रूप से भावात्मक हो जाती है-धन का सद्भाव भावात्मक स्थिति है, धन का प्रभाव प्रभावात्मक है, परन्तु ऋण का सद्भाव पुनः भाषास्मक स्थिति है क्योंकि ऋण के अभाव-रूप में उसकी अभावात्मक स्थिति भी
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होती है । इसलिए विपर्यय का अर्थ वैपरीत्य ही मानना संगत है—भरत ने दोषों का विवेचन पहले किया है अतएव उसी क्रम में दोषों के सम्बन्ध सेउनके विपर्यय रुप में—उन्होंने गुणों का भी विवेचन किया है । और, जैसा कि जैकोबी ने समाधान किया है, यह क्रम सामान्य व्यवहार-दृष्टि से रखा गया है जिसके अनुसार मनुष्य के दोष अधिक स्पष्ट रहते हैं— और गुणों की कल्पना हम प्रायः उन सहज ग्राह्य दोषों के निषेध ( प्रभाव अथवा विपर्यय) रूप में ही करते है ।
तएव हमारा निष्कर्ष यह है कि भरत ने गुण को दोष का वैपरीत्य हो माना है, परन्तु, (जैसा कि भिन्न मत रखते हुए भी एक स्थान पर डा० लाहिरी ने संकेत किया है) निर्दिष्ट दश गुण पूर्व-विवेचित दश दोषों के ही क्रमशः विपरीत रूप नहीं हैं : यह तो उनके नामकरण से हो स्पष्ट है । अर्थात् यह वैपरीत्य सामान्य है, विशिष्ट नहीं है ।
इसके अतिरिक्त भरत के अनुसार लक्षण ( काव्य-बन्ध ) तथा अलंकार की भाँति गुण की भी सार्थकता यही है कि वह वाचिक अभिनय को प्रभावशाली बनाता है । नाटक में जो वाचिक अभिनय है काव्य में वही काव्य भाषा या शैली है, इस प्रकार काव्य के प्रसंग में गुण का कार्य है काव्य-शैली को समृद्ध करना - प्रभावशाली बनाना ।
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भरत ने नाटक का और उपचार से काव्य का मूल तत्व रस माना - वाचिकाभिनय रस का साधन है अतएव रस के अधीनस्थ है, और उपर्युक्त गुण आदि तत्व भी जो वाचिकाभिनय के चमत्कार के अंग है, परम्परा-सम्बन्ध से रस के अधीनस्थ हैं ।
उपर्युक्त विवेचन के सार रूप हम भरत के अनुसार गुण का लक्षण इस प्रकार कर सकते हैं :
दोषों के विपर्यय (वैपरीत्य) रूप गुण काव्य- शैली को समृद्ध करने वाले तत्व हैं जो परम्परा -सम्बन्ध से रस के प्राश्रित रहते हैं ।
दण्डी :- दगडी ने भा दशगुणों का विवेचन तो विस्तार से किया है, किन्तु गुण का सामान्य लक्षण नहीं किया । तथापि उनके दो श्लोक ऐसे हैं जिनसे यह निष्कर्ष निकालने में कठिनाई नहीं होती कि गुण के स्वरूप के विषय में उनकी धारणा क्या थी ।
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काव्यशोभाकरान धर्मानलंकारान् प्रचक्षते । ते चाद्यापि विकल्प्यन्ते, कस्तान कात्स्येन वक्ष्यति ॥२,१॥ काश्चिन्मार्गविभागार्थमुक्ताः प्रागप्यलंक्रियाः साधारणमलंकारजातमन्यत् प्रदर्श्यते ॥२,३॥
(काच्यादर्श) काव्य के शोमाकारक धर्म अलंकार कहलाते हैं उनकी कल्पना अब भी बराबर हो रही है । उनका समग्र रूप में वर्णन कौन कर सकता है ?
(इससे) पूर्व भी मार्गों का विभाग करने के लिए कुछ अलकारों का वर्णन किया जा चुका है। (अब) साधारण अलंकारों का वर्णन किया जाता
उपर्युक्त रलोकों का विश्लेषण इस प्रकार किया जा सकता है :
कान्य के शोभा-विधायक सभी धर्म अलंकार कहलाते हैं उनकी संख्या नित्य वर्धमान है-चे असंख्य हो सकते हैं।
उपमा रूपक आदि प्रसिद्ध अलंकारों को दण्डी ने साधारण अलंकार' कहा है।
इन साधारण अलंकारों के अतिरिक्त अन्य सभी सौन्दर्य-विधायक तत्व भी अलंकार ही हैं।
मार्ग-विभाजन के आधारभूत दश गुण भी अलंक्रिया अथवा अलंकार ही हैं।
अतएव (१) दण्डी के अनुसार गुण भी एक प्रकार के अलंकारअर्थात् काव्य-शोभा-विधायक धर्म हैं : शोभाकरत्वं हि अलंकारलक्षणं, तल्लक्षणयोगात् तेऽपि (श्लेषादयो दशगुणा अपि) अलंकाराः (तरुणवाचस्पति)।
(२) ये काव्य के स्वतंत्र अग हैं-रस के आश्रित नहीं है, अर्थात् इनके द्वारा काव्य का सीधा उपकार होता है रस के श्राश्रय से नहीं। दण्डी १ दण्डी के टीकाकारों ने इनका अर्थ अनुप्रास आदि शब्दालकार किया है परन्तु
डा० लाहरी इनसे गुणों का आशय ग्रहण करते हैं । हमको डा० लाहरी का ही मत अधिक समीचीन प्रतीत होता है।
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ने काव्य को इष्टार्थवाचक पदावली माना है-अतएव काव्य-शोभा का अर्थ हुधा शब्दार्थ की शोभा और उसके विधायक गुणों का सम्बन्ध सीधा शब्दार्थ
वामन .- गुण का लक्षण सबसे पहले वामन ने किया है . 'काव्य के शोभाकारक धर्म गुण कहलाते हैं। शब्द और अर्थ के वे धर्म जो काव्य को शोभा-सम्पन्न करत हैं गुण कहलाते हैं । वे हैं भोज, प्रसादादि-यमक उपमादि नहीं क्यो कि यमक उपमादि अलंकार, अकेले, काव्य-शोभा की सृष्टि नहीं कर सकते । इसके विपरीत ओज प्रसादादि अकेले ही काव्य को शोभा-सम्पन्न कर सकते है। + + + + गुण नित्य है-उनके बिना काव्य में शोभा नहीं आ सकती।
(काव्यालकारसूत्र ३,१) अर्थात् (१) गुण शब्द और अर्थ के धर्म हैं। (२) वे काव्य के मूल शोभाधायफ तत्व हैं।
(३) वे काव्य के काव्यत्व के लिए अनिवार्य हैं। उनके बिना काव्य काव्य-पद का अधिकारी नहीं होता।
इसके अतिरिक्त (५) भरत के प्रतिकूल तथा दण्डी के अनुकूल वामन गुणों को रस के धर्म न मानकर शब्दार्थ के ही धर्म मानते हुए काव्य में उनको स्वतन्त्र तथा प्रमुख सत्ता मानते हैं। गुण रस के आश्रित नहीं है वरन् कान्ति गुण का अंग होने के कारण रस हो गुण का अंग है :दीप्तरसत्व कातिः।
ध्वनिकार तथा उनके अनुयायी : ध्वनिकार ने गुणों का स्वतन्त्र अस्तित्व न मानकर उन्हे रस के आश्रित माना है। उन्होंने गुण का लक्षण इस प्रकार किया है : "तमर्थमवलम्बन्ते येऽगिनं ते गुणाः स्मृता. " अर्थात् जो प्रधानभूत (रस) अगो के आश्रित रहने वाले हैं उनको गुण कहते हैं। इस प्रकार ध्वनिकार ने उन्हें प्रात्मभूत रस के धर्म माना है शरीरभूत शब्दार्थ के नहीं।
ध्वनिकार के उपरान्त प्रायः उन्हीं का मत मान्य रहा । मम्मट ने उनके लक्षण को और स्पष्ट करते हुए लिखा है :
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ये रसस्यांगिनो धर्मा शौर्यादय इवात्मनः उत्कर्षहेतवः ते स्युः अचलस्थितयो गुणाः ॥
__(काव्यप्रकाश) आत्मा के शौर्यादि (गुणों) की भांति अंगीभूत रस के उत्कर्षकारी अचलस्थिति धर्म गुण कहलाते हैं । अर्थात्
(१) गुण रस के धर्म हैं। (२) वे अचलस्थिति अथवा नित्य हैं। (३) वे रस का उत्कर्ष करते हैं।
विश्वनाथ आदि परवर्ती आचार्यों ने प्रायः इसी लक्षण को प्रकारान्तर से दुहराया है। केवल पण्डितराज जगन्नाथ ने गुण को रसधर्म मात्र मानने में आपत्ति की है। उनका तर्क है कि काव्य का आत्मन् होने के कारण रस तो गुणशून्य हुआ-उसका धर्म अथवा गुण फैसा ? (परमात्मा गुणशून्य एवेति मायावादिनो मन्यन्ते ।) अतएव गुण शब्दार्थ का धर्म है। परन्तु आगे चलकर उनके विवेचन में शब्द-अर्थ के साथ साथ रस को भी गुण का आधार माना गया है जिससे गुण का रसधर्मस्व फिर स्थापित हो जाता है। और वास्तव में अन्ततोगत्वा पण्डितराज ने इसका निषेध नहीं किया। ध्वनि की मान्यता स्वीकार कर लेने पर वह सम्भव भी नहीं था।"
निष्कर्ष यह है कि गुण काव्य के उत्कर्ष-साधक तत्व हैं इस विषय में सबकी पूर्ण सहमति है। परन्तु वामन आदि पूर्व-ध्वनि काल के प्राचार्यों ने उन्हें शब्दार्थ के धर्म माना है जिनको सत्ता स्वतन्त्र है-रस कान्ति का अंग होने के नाते गुण का अंग है, गुण रस के आश्रित अथवा रस के धर्म नहीं है । अर्थात् वे शब्दार्थ रूप काव्य का साक्षात् उपकार करते हैं-रस के
आश्रय से नहीं । इसके विपरीत उत्तरध्वनि काल के प्राचार्य उन्हें प्राण रूप रस के धर्म मानते हैं—शरीर-रूप शब्दार्थ के नहीं।-वे रस के श्राश्रय से ही काव्य की उत्कर्ष-साधना करते हैं। आगे चलकर गुण की यही परिभाषा सर्वमान्य हो गई और मम्मट ने उत्तर-ध्वनि काल के प्राचार्यों की गुण-विषयक धारणाओं को पारिभाषिक शब्दों में बांध दिया। गुणो का साक्षात् सम्बन्ध रस से ही स्थापित हो गया-शब्दार्थ के साथ उसका सम्बन्ध केवल औपचारिफ ही माना गया । परन्तु इस विषय में स्थिति सर्वथा निर्धान्त और संशय
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होन नहीं रही-जगनाथ ने तो स्पष्ट ही गुणों को शब्दार्थ के (कम से कम शब्दार्थ के भी) धर्म माना । मम्मट और विश्वनाथ ने भी माधुर्य तथा प्रोज आदि का वर्णों से स्पष्ट सम्बन्ध माना है-व्यंग्य-ज्याक सम्बन्ध भी एक प्रकार का घनिष्ठ सम्बन्ध है । माधुर्यादि के स्वरूप-निर्धारण में वर्ण-गुम्फ तथा शब्द-गुम्फ का आधार सदा ही निश्चय-पूर्वक ग्रहण किया गया है। श्रतएव मूलतः रस के साथ सम्बद्ध होते हुए भी गुण शब्दार्थ से सर्वथा असम्बद्ध नहीं है : उन्हें रस के धर्म तो मानना ही चाहिए, परन्तु साथ ही शब्दार्थ के धर्म मानने में भी आपत्ति नहीं करनी चाहिए। शौर्यादि को उपमा भी इस मन्तव्य को पुष्ट ही करती है क्योंकि इसमें सदेह नहीं कि वे मूलतः आत्मा के अन्तरंग व्यक्तित्व के धर्म हैं-परन्तु बाह्य व्यक्तित्व से उनका कोई सम्बन्ध ही न हो यह भी नहीं माना जा सकता । मधुर व्यक्तित्व अथवा ओजस्वी व्यक्तित्व के लिए श्रात्मा के हो माधुर्य अथवा भोज को अपेक्षा नहीं होती आकृति के माधुर्य और तेज की भी आवश्यकता रहती है केवल औपचारिक कह कर उसको टाल देना पर्याप्त नहीं है।
अतः गुण उन तत्वों को कहते हैं जो विशेषरूप से प्राणभूत रस के और समान्य रूप से शरार-भूत शब्दार्थ के श्राश्रय से कान्य का उत्कर्ष करते हैं।
अथवा
गुण काव्य के उन उत्कर्ष-साधक तत्वों को कहते हैं जो मुख्य रूप से रस के और गौण रूप से शब्दार्थ के नित्य धर्म हैं।
गुण के आधार-तत्व
दण्डी और वामन आदि पूर्व-ध्वनि श्राचार्यों ने गुण को शब्द और अर्थ का धर्म माना है। उनके गुण-विवेचन से स्पष्ट है कि शब्द और अर्थ के चमत्कार (वर्ण-गुम्फ, शब्द-गुम्फ आदि शब्द-चमत्कार और उधर अग्राम्यस्व, अपारुष्य, रस आदि अनेक प्रकार के अर्थ-चमत्कार) गुण के आधार-तत्व हैं। इनके उपरान्त जब ध्वनिकार ने और उनके अनुयाइयों ने गुण को रसधर्म मान लिया तो स्वभावतः ही उसका स्वरूप सूचमतर हो गया : वह शब्दचमत्कार या अर्थ-चमत्कार न रह कर 'चित्त-वृत्ति' माना गया। अभिनव,
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मम्मट, विश्वनाथ तथा जगन्नाथ ने उसे स्पष्ट शब्दों में चित्तवृत्ति रूप माना है : वर्णादि व्यंजक रूप में उसके श्राधार हैं। -जगन्नाथ ने, इससे भी अधिक, उन्हें प्रयोजन रूप माना है । रस-ध्वनिवादियों के अनुसार माधुर्याटि गुण द्रुति आदि चित्तवृत्तियों के तन्द्र प ही है-उनका वास्तविक आधार रस ही है, परन्तु व्यंजक रूप में वर्ण-गुम्फ, समास तथा रचना प्रादि भी गुण के आधार है। जैसा कि मैंने अभी स्पष्ट किया है गुण रस और शब्दार्थ दोनों का ही धर्म है : रस का धर्म होने के नाते वह चित्तवृत्ति रूप है और शब्दार्थ का धर्म होने के नाते उसे वर्णगुम्फ और शब्द-गुम्फ पर आश्रित भी मानना पढ़ेगा : गुण के स्वरूप निरुपण में वर्ण, समास आदि का अनिवार्य आधार इसका प्रमाण है । अतएव गुण अपने सूचम-रूप में चित्तवृत्ति रूप है और स्थूल अथवा मूर्तरूप में वर्ण-गुम्फ तथा शब्द-घटना रूप हैं, द्रति, दीप्ति व्यापकत्व नामक चित्तवृत्ति उसका प्रांतर आधारतत्व हे तथा वर्ण-गुम्फ और शब्द-गुम्फ
बाह्य।
गुण की मनोवैज्ञानिक स्थिति
उपर्यत व्याख्या से गुण का लक्षण तो निर्धारित हो जाता है, परन्तु उसके वास्तविक स्वरूप का उद्घान पूर्णतः नहीं होता। उसके लिए गुण की मनोवैज्ञानिक स्थिति का स्पष्टीकरण आवश्यक है। आनन्दवर्धन ने तो केवल यही कहा है कि शृङ्गार, रौद्र आदि रसों में, जहां चित्त श्राह्लादित और दीप्त होता है, माधुर्य, भोज आदि गुण वसते हैं, परन्तु श्राह्वादन (इति) और दीप्ति से गुणों का क्या सम्बन्ध है, यह उन्होंने स्पष्ट नहीं किया । क्या माधुर्य और चित्त की दुति अथवा ओज और चित्त की दीप्ति परस्पर अमिन्न हैं अथवा उनमें कारण-कार्य सम्बन्ध है ? इस समस्या को अभिनव ने सुलझाया है। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि गुण चित्त की अवस्था का ही नाम है। माधुर्य चित्त को द्रवित अवस्था है, प्रोज दीप्ति है और प्रसाद व्यापकत्व है । चित्त की यह दति, दीप्ति अथवा व्याप्ति रस-परिपाक के साथ ही घटित होती है। कहने का तात्पर्य यह है कि शृङ्गार रस की अनुभूति से चित्त में जो एक प्रकार की आता का संचार होता है वही माधुर्य है, वीर रस के अनुभव से उसमें जो एक प्रकार की दीप्ति उत्पन्न होती है वही भोज है, और सभी रसों के अनुभव से चित्त में जो एक व्यापकत्व पाता है वही प्रसाद है। इस प्रकार अभिनव
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के अनुसार माधुर्य श्रादि गुण चित्त को द्रुति आदि अवस्थाओं से सर्वथा अभिन्न हैं और चूंकि ये अवस्थाए रसानुभूति के कारण ही उत्पन्न होती है, अतएव रस को कारण और गुण को उसका कार्य कहा जा सकता है । कारण और कार्य में अन्तर होना अनिवार्य है, इसलिए रस और चित्त-द्र ति आदि के अनुभव में भी अन्तर अवश्य मानना होगा कम-से-कम काल-क्रम का अन्तर तो है ही। परन्तु चूकि रस की पूर्ण स्थिति में दूसरे अनुभव के लिए स्थान नहीं रहता, अतएव चित्तद्रुति आदि का भी सहृदय को पृथक अनुभव नहीं रह पाता। वह रस के अनुभव में ही निमग्न हो जाता है । आनन्दवर्धन ने गुणों को रस के नित्य धर्म इसी दृष्टि से माना है।
अभिनव के उपरांत माधुर्य श्रादि गुणों को मम्मट ने रस के उत्कर्षवर्द्धक एवं अचल-स्थिति धर्म माना और उन्हें चित्त-द्रुति आदि का कारण माना । अभिनव ने रस को गुण का कारण माना था और गुण को चित्त-ब्रुति
आदि से अभिन्न स्वीकार किया था। मम्मट गुण को चित्त-द्रुति आदि का कारण मानते हैं । गुण का स्वरूप क्या है इस विषय में मम्मट ने कुछ प्रकाश नहीं डाला । मम्मट का प्रतिवाद विश्वनाथ ने किया। उन्होंने फिर अभिनव के मत की हो प्रतिष्ठा की । अर्थात् चित्त के द्रति दीप्तत्व-रूप आनन्द को ही गुण माना। परन्तु उनका मत था कि 'द्रवीभाव या द्रति आस्वाद-स्वरूप आहाद से अभिन्न होने के कारण कार्य नहीं है, जैसा कि अभिनव ने किसी अश तक माना है। आस्वाद या श्राह्लाद रस के पर्याय हैं। द्रति रस का ही स्वरूप है, उससे भिन्न नहीं है। इस तरह विश्वनाथ ने एक प्रकार से गुण को रस से ही अमिन्न मान लिया है।
इन मान्यताओं को पण्डितराज जगनाथ ने चुनौती दी। सबसे पहले उन्होंने अभिनव गुप्त के तर्फ का प्रतिवाद किया। अभिनव गुप्त के अनुसार एक ओर तो गुण रस के धर्म हैं और दूसरो ओर द्रुति आदि के तद्प होने के कारण रस के कार्य हैं-अतएव वे रस के धर्म और कार्य दोनो ही हैं। पडितराज की तार्किक बुद्धि ने इस मन्तव्य को प्रसिद्ध धाषित किया क्यो कि धर्म और कार्य को स्थिति अभिन्न नहीं होती . उष्णता अनल का धर्म है, दाह कार्य है-उष्णता की स्थिति दाह के बिना भी सिद्ध है अतएव दोनो को अभिन्न नही माना जा सकता । ऐसी दशा में गुण रस का धर्म और कार्य कैसे हो सकता है ? विश्वनाथ की स्थापना तो और भी असंगत है—यदि गुण रस से अभिन्न
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है तो उसकी पृथक सत्ता क्यों मानी जाये ? पण्डितराज ने इन दोनों का खंडन करते हुए मम्मट के दृष्टिकोण को प्रांशिक रूप में स्वीकार किया। मम्मट ने गुण और चित्तवृत्ति को एक नहीं माना-उन्होंने गुण को कारण और चित्तवृत्ति को कार्य माना है । जगन्नाथ इनमें प्रयोजक-प्रयोज्य सम्बन्ध मानते हैं : गुण प्रयोजक है और चित्तवृत्ति प्रयोज्य-अयोजक और प्रयोज्य सम्बन्ध से दोनों को एक भी माना जा सकता है : प्रयोजकता सम्बन्धेन द्र त्यादिक्रम एवं वा माधुर्यादिकमस्तु । रसगंगाधर पृ०१५। यह विवेचन भी निर्धान्त नहीं है। एक ओर तो पण्डितराज गुण को वस्तु रूप में ही रस और शब्दार्थ दोनों का धर्म मानते हैं और दूसरी और प्रयोजक-प्रयोज्य सम्बन्ध से उसे चित्तवृत्ति रूप भी मानते हैं। रसधर्म होने के नाते तो गुण चित्तवृत्ति रूप अवश्य हो सकता है । परन्तु शब्दार्थ का धर्म होने के नाते यह सम्भव नहीं है क्योंकि द्रुति आदि चित्तवृत्तियों को बाहादरूप रस मे तो स्थिति सम्भव है, परन्तु शब्द और अर्थ में उनकी अवस्थिति कैसे मानी जा सकती है।
वास्तव में संस्कृत साहित्य-शास्त्र में गुण की स्थिति पूर्णतया स्पष्ट नहीं है। काव्य में उसको पृथक सत्ता स्वीकार करने में भी यत्किंचित सदेह अंत तक बना रहता है। फिर भी उसकी सत्ता निरपवाद रूप से मानी ही गई है और उसका एक साथ निषेध करना अधिक संगत न होगा।
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो रस और गुण दोनों ही मनःस्थितियां हैं (इस विषय में अभिनव, मम्मट आदि सभी सहमत हैं)। रस वह श्रानन्द रूपी मनःस्थिति है, जिसमें हमारी सभी वृत्तियां अन्वित हो जाती है और यह स्थिति अखण्ड है। उधर गुण भी मनःस्थिति है, जिसमें कहीं चित्त-वृत्तियां द्रवित हो जाती हैं, कहीं दीप्त और कहीं परिव्यास । यहां तक तो कोई कठिनाई नहीं है। यह भी ठीक है कि विशेष भावों में और विशेष शब्दों में भी चित्तवृत्तियों को द्रवित अथवा दीप्त करने की शक्ति होती है। उदाहरण के लिए मधुर वर्गों को सुनकर और प्रेम, करुणा श्रादि भावों को ग्रहण कर हमारे चित्त में एक प्रकार का विकार पैदा हो जाता है, जिसे तरलता के कारण द्रति कहते हैं । और महाप्राण वर्षों को सुनकर एवं वीर और रौद्र श्रादि भावों को ग्रहण कर हमारे चित्त में दूसरे प्रकार का विकार हो जाता है जिसे विस्तार के कारण दीप्ति कहते हैं । परन्तु इन विकारों को पूर्णतः श्राहाद रूप नहीं कह सकते। यहां काव्य (वस्तु) भावकत्व की स्थिति को पार करके भोजकत्व की ओर बढ़
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मम्मट ने इसी को स्पष्ट करते हुए लिखा है :
श्रात्मा के शौर्यादि गुणों की भाँति जो अगभूत रस के उत्कर्षवर्धक अचल स्थिति धर्मं हैं वे गुण कहलाते हैं ।
इसके विपरीत अलंकार शब्द अर्थ के धर्म है और वे अचल स्थिति नहीं है : सगुणावनलंकृती पुनः क्वापि । काव्य के लिए सगुणता अनिवार्य है, परन्तु अलंकृति कभी नहीं भी होती ।
विश्वनाथ ने अलंकार की परिभाषा में ही यह भेद निहित कर दिया - "शब्दार्थयोरस्थिरा ये धर्माः शोभातिशायिनः – अलंकार शब्द - अर्थ के शोभातिशायी अस्थिर धर्म हैं ।” गुण के समान उनकी स्थिति आवश्यक नहीं है : अस्थिरा इति नैषां गुणवदावश्यकी स्थितिः (सा० दर्पण) ।
अतएव रस-ध्वनिवादियों के अनुसार गुण और अलंकार का भेद इस प्रकार है :
(१) गुण प्राणभूत रस के धर्म हैं, अलंकार अंगभूत शब्द अर्थ के ।
(२) स्वभावतः गुण काव्य के आंतरिक तत्व हैं—वे द्रुति, दीप्ति आदि चित्तवृत्तियों के तप हैं, अलंकार बाह्य तत्व हैं ।
(३) रसानुभूति की प्रक्रिया में गुणों का योग प्रत्यक्ष रहता है। अलंकारों का अप्रत्यक्ष, वे वाच्य-वाचक का उपकार करते हुए व्यंग्य रस के परिपाक योग देते हैं ।
(४) अतएव गुण काव्य के नित्य धर्म हैं, अलंकार अनित्य ।
(५) रसादि अंतर्तत्वों की भांति गुण व्यंग्य रहते हैं, अलंकार वाच्य ।
साधारणतः रस-ध्वनिवादियों का यह विवेचन ही मान्य रहा और वास्तव में यही संगत भी है यद्यपि इसमें थोड़ा अतिवाद अवश्य है । वह प्रतिवाद यह है कि इन्होंने गुण को सिद्धान्त में एकान्त रसधर्म मान लिया है। परन्तु जैसा कि हमने अन्यत्र सिद्ध किया है, और व्यवहार में रस-ध्वनिवादियों ने भी माना है, गुण शब्द और अर्थ से सर्वथा असम्बद्ध नहीं हैं। इसी प्रकार अलंकार भी मूलतः वाचक शब्द और वाच्य अर्थ के धर्म होते हुये भी व्यंग्य अर्थ से सर्वथा असम्बद्ध नहीं होते । गुण चित्तवृत्ति रूप हैं, अलंकार वाणी के
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प्रसाधन हैं अर्थात् अभिव्यंजना को प्रभावशाली बनाने के उपकरण हैं। परन्तु मूलतः चित्तवृत्ति रूप होने पर भी जिस प्रकार गुण गौण रूप में शब्द और अर्थ : वर्ण-गुम्फ और शब्द-गुम्फ, से भी सम्बन्ध रखते हैं इसी प्रकार मुख्य रूप में शब्द और अर्थ के धर्म-अभिव्यंजना के चमत्कार होते हुए भी अलंकार गौण रूप में चित्त को भी चमत्कृत करते हैं। आंतरिक और बाह्य तत्व की यही सापेक्षिक प्रमुखता गुण और अलंकार का मुख्य अंतर है-गुण मूलतः काव्य के आंतरिक तत्व हैं, और अलंकार बाह्य ।
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दोष-दर्शन
दोषों का वर्णन संस्कृत साहित्य-शास्त्र में प्रारम्भ से ही मिलता है और प्राचार्यों ने प्रायः दोष-विवेचन पहले किया है, गुण-अलंकार-वर्णन बाद में । यह मानव-स्वभाव की सहज प्रवृत्ति का ही परिणाम है, इसीलिए श्रादि वैदिक ऋषि ने अपनी प्रार्थना में दुरित के परिहार की वांछा पहले की है और भद्र की कामना बाद में विश्वानि देव सवितरितानि परासुव-थद्भद्र तन्न प्रासुव । भारतीय काव्य-शास्त्र में भी दोष-वर्णन इतने आग्रह के साथ इसीलिए किया गया है क्योंकि दोष-परिहार को काव्य की पहली शर्त माना गया है। दण्डी ने प्रबल शब्दों में घोषणा की है कि काव्य में रंचमान्न दोष की भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए क्योंकि एक छोटा सा भी कुष्ट का दारा सुन्दर से सुन्दर शरीर को कुरूप कर सकता है । (काव्यादर्श, १,७)। प्राचीन प्राचार्यों ने ही नहीं, उत्तर-ध्वनिकाल के प्राचार्यों ने भी निर्दोषता को काव्यलक्षण का अनिवार्य अंग माना है। पूर्व-ध्वनिकाल से वामन और उत्तरध्वनिकाल से मम्मट का काव्य-लक्षण उदाहरण-रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। निर्दोषता को अपने आप में एक महान गुण माना गया है । महान् निर्दोषता गुणः । काव्य के लिए निर्दोषता की अपेक्षा अधिक है अथवा रसवत्ता की दोनों में से कौनसा काव्य के लिए अनिवार्य है ? या मनुष्य अथवा काव्य में निदोषता कहां तक सम्भव है। ये विवादास्पद प्रश्न है जिनका समाधान अन्यत्र किया जाएगा। परन्तु दोष का विवेचन काव्यशास्त्र का-विशेष कर रीति-सिद्धात का-अत्यंत महत्वपूर्ण अंग है, इसमे सदेह नहीं । काव्य के सौदर्य-असौंदर्य अथवा प्रभाव का विश्लेषण करने के लिये दोष-दर्शन सर्वथा अनिवार्य है।
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यहां एक प्रश्न उठ सकता है मेरे मन में भी उठा है। वैदर्भी और गौड़ी ही असं क्यों नहीं है-क्या पांचाली की कल्पना भी अनावश्यक नहीं है ? इसका उत्तर यह है कि पैदर्भी में पांचाली का यदि अंतर्भाव मान लिया जाता है तो फिर गौड़ी भी उसकी परिधि से बाहर नहीं पडती क्यों कि समग्रगुणसम्पदा से अलंकृत वैदर्भी में जिस प्रकार माधुर्य और सौकुमार्य का समावेश रहता है, उसी प्रकार ओज और कांति का भी । अतएव वैदर्भी गौडी को विपरीत रोति नहीं --गौडी की विपरीत रोति पांचाली ही है। जिस प्रकार मानव-रवभाव के दो छोर है नारीत्व और पुरुषत्व, इसी प्रकार अभिव्यंजना के भी दो छोर हैं स्त्रीण पांचाली और परुषा गोडी । नारीत्व की अभिव्यंजक पांचाली, और पुरुषत्व की अभिव्यंजक गोटी-इनके अतिरिक्त इन दोनों के समन्वय से समृद्ध व्यक्तित्व की माध्यम चैदी। बस प्रकार चामन ने पांचाली की उद्भावना द्वारा वास्तव में एक प्रभाव अथवा असंगति का ही निराकरण किया है, अनावश्यक नवीनता का प्रदर्शन नहीं।
मम्मट के आधार पर भी यदि इस प्रश्न पर विचार किया जाए तो भी रीतियों या वृत्तियों की संख्या तीन ही ठीक बैठती है : माधुर्यगुण-विशिष्ट उपनागरिका और प्रोजोमयी परुषा क्रमश: द्रवणशील मधुर स्वभाव और दीप्तिमय ओजस्वी स्वभाव की प्रतीक हैं। मधुर और ओजस्वी के अतिरिक्त एक तीसरे प्रकार का भी स्वभाव होता है जिसमें न माधुर्य का अतिरेक होता है और न अोज का वरन् इन दोनों का संतुलन रहता है। इसको सामान्य (नार्मल) या स्वस्थ-प्रसन्न (विशद ) स्वभाव कह सकते है। मानव-स्वभाव का यह भेद भी इतना ही स्पष्ट है जितने कि मधुर और • ओजस्वी । अतएव इसकी अभिव्यंजक कोमला रीति या वृत्ति का अस्तित्व भी मानना उचित ही है।
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पाश्चात्य काव्यशास्त्र में रीति
भारतीय काव्यशास्त्र तथा पाश्चात्य काव्यशास्त्र में विचित्र साम्य है और यह साम्य केवल मूल सिद्धान्तों में ही नहीं है, रूप-भेदों में भी है । भारतीय रीति और पाश्चात्य शैली-विवेचन की पारस्परिक समानता तो वास्तव में आश्चर्यजनक है । यूरोप में शैली का प्रारम्भिक विवेचन और विकास बहुन कुछ उसी पद्धति पर हुआ है जिस पर भारतीय रीति काअथवा कालक्रमानुसार यह कहना संगत होगा कि भारतीय रीति-निरूपण प्रायः उसी पद्धति पर हुआ है जिस पर यूरोप में यूनानी और रोमी प्राचार्यों का शैली-विवेचन, क्योंकि यूनानी तथा कतिपय रोमी प्राचार्य भारत के कान्याचार्यों के पूर्ववर्ती हैं इसमें सदेह नहीं। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह साम्य पारस्परिक सम्पर्क अथवा प्रभाव का घोतक नहीं है-मानव-चिंतन की मूलभूत एकता का घोतक यह साम्य बहुत कुछ आकस्मिक ही था।
यूरोपीग अालोचना के उदय-युग के तोन चरण हैं :
१. यूनानी व्यग्य नाटकों में प्राप्त सैद्धान्तिक तथा व्यवहारिक पालोचना-इस दृष्टि से ऐरिस्टोफेनीस का नाटक 'फ्राग्स' अत्यन्त महत्वपूर्ण है। २. यूनानी दार्शनिकों का सौन्दर्य-विवेचन । २. यूनानी-रोमी रीतिशास्त्रियों का रीति-विवेचन ।
एरिस्टोफ़नीस ने फ्रान्स' नामक व्यंग्य-नाटक में अपने युग के नाव्यकारों तथा उनकी शैली आदि का अत्यन्त सूचम विश्लेषण किया है। उन्होंने यूरिपाइडीज़ और ऐसकाइलस नामक प्रसिद्ध नाट्यकारों के विवाद द्वारा अपने युग में प्रचलित दो विरोधी काव्य-शैलियों का अत्यन्त स्पष्ट
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निर्देश किया है। यूरिपाइढीज़ सरल और सहज शैली का समर्थक है । वह एक ओर सहज मानवीय भाषा और वाणी को स्वाभाविक स्वतंत्रता का प्रबल पक्षपाती है, दूसरी ओर कृत्रिम गर्जन:-तर्जन तथा शब्दाडम्बर का घोर विरोधी । इसके विपरीत ऐसकाइलस उदात्त शैली को महत्व देता हैवह इस कथित सहजता को निस्सार मानता है। उसकी.मान्यता है कि विषय-वस्तु नथा भाव के गौरव के साथ भाषा भी अनिवार्यतः गौरवसम्पन्न हो जाती है । इस प्रकार यूरोपीय साहित्य-शास्त्र के आदिम काल में ही इन दो परस्पर-विरोधी शैलियों का अन्तर स्पष्ट हो गया था : वहां भी भारतीय वैदर्भी और गौड़ी के समान दो काव्य-रीतियाँ पारम्भ से ही प्रचलित तथा स्वीकृत थीं।
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प्लेटो
व्यंग्य-नाटकों के उपरान्त यवन दार्शनिकों के ग्रंथों में प्रसंगानुसार काव्यालोचन की झाँकियां मिलती हैं। प्लेटो तथा अरस्तू आदि ने शैली को नस्व रूप में प्रायः हेय ही माना है, परन्तु व्यवहार रूप में उन्होंने भी प्रस्तुत विषय पर अत्यन्त महत्वपूर्ण विचार व्यक्त किये है-अरस्तू ने तो रीतिशास्त्र (रहेटरिक) नाम से एक स्वतन्त्र ग्रन्थ ही लिखा है। प्लेटो ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्य गणराज्य (रिपटिलक) में काव्यभाषा (शैली) का विवेचन इस प्रकार किया है : 'काव्य-भापा (शैली) के ये दो भेद हैं। + + + इनमे से पहली में कोई बड़ा उतार-चढाव नहीं होता । भाषा के अनुकूल संगीत तथा लय का माध्यम प्राप्त हो जाने पर वह समगति से चलती रहती है।
तो फिर दूसरी का क्या स्वरूप है ? क्या उसे सर्वथा विपरीत माध्यम की अपेक्षा नहीं होती ? सभी राग और सभी लये उसके लिए अपेक्षित होती है क्यो कि उसमें अत्यधिक परिवर्तन होते रहते हैं+ + +
१ Oh let us atleast use the language of men I (यरिपाइडीज) ? Next I taught all the town to talk with freedom ("'). ? I never crashed and lightened. ("') ४ When the subject is great and the sentiment, then, of necessity, great grows the word (एसकाइलस)
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ही है । इस प्रकार भारतोय तथा यूनानी-रोमी रीतिशास्त्रों में शैलियों के वर्गीकरण का आधार ही नहीं वरन् उनके तत्वों का विश्लेषण भी बहुत कुछ समान है।
डिमैट्रियस
अरस्तू सिसरो तथा डायोनीसियस की रीति- परम्परा को डिमैट्रियस तथा क्विन्टीलियन ने और आगे बढाया । डिमैट्रियस ने शैली पर एक स्वतन्त्र रीति-ग्रन्थ ही लिखा है । उन्होंने शैली की कोई औपचारिक परिभाषा नहीं की। अपने पूर्ववर्ती आचार्यों की भाँति वे भी शैली को लेखक के व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति और व्यक्ति-तत्व को शैली की आत्मा मानते हैं, परन्तु इसके साथ ही वे कुछ ऐसे निर्देशक सिद्धान्तों तथा नियमों का अस्तित्व भी स्वीकार करते हैं जो कलात्मक रचना (रीति) में सहायक होते हैं । इसी प्रकार वे यह भी स्वीकार करते हैं कि वस्तु-विषय शैली का प्रमुख नियामक तत्व है - किन्तु साथ ही उसको प्रस्तुत करने के ढंग पर भी बहुत कुछ निर्भर करता है।
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डिमैट्रियस ने शैली के चार प्रकार माने हैं :
उदात्त', १, मधुर या मसृण े, प्रसादमय और श्रोजस्वी ४ । इनमें पहले तीन तो सिसरो तथा डायोनांमियस द्वारा प्रतिपादित शैली-भेद ही हैं—-शोजस्वी इन्होंने अपनी ओर से और जोड़ दिया है । परन्तु वह भी इनकी अपनी उद्भावना नहीं है - इनसे पूर्व फिलोडेमस उपर्युक्त तीन भेदों के अतिरिक्त एक चौथे भेद ' प्रबल' का उल्लेख कर चुके थे ।
डेमैट्रियस के अनुसार उदात्त शैली का मूल तत्व है सामान्यता क्यों कि उनका मत है कि 'प्रत्येक सामान्य वस्तु प्रभावहीन होती है । उदात्त शैली के तत्व इस प्रकार हैं विशिष्ट तथा विचित्र शब्दावली, समास, अलंकार, काव्य - रूढ भाषा का बहुधा प्रयोग । उसकी पदावली उल्बण होती है, मसृण और कोमल के लिए उसमें अधिक अवकाश नहीं होता ।
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३ प्लेन
१ ऐलीवेटेड २ एलीगेन्ट (माक्सन ने इसे पालिश्ड कहा है ।) ४ फोर्सीवल ५ वैमैंट
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उसको वर्ण योजना प्रगाढ होती है जिसके प्रारम्भ में तथा अंत में गुरु वर्णों का प्रयोग रहता है क्यों कि इस प्रकार प्रयुक्त गुरु वर्णों में प्रायः विस्फोट का प्रभाव होता है । इस शैली की पद-रचना में क्रमिक श्रारोह रहता है और रूपक, पर्यायोक्त तथा 'अन्योक्ति-रूपक श्रादि अलंकारों का सयत्न प्रयोग होता है : रूपकों से शैली में गरिमा और रमणीयता का समावेश होता है, अन्योक्तिरूपक के प्रयोग से शैली उदात्त बनती है— क्यों कि अन्योति-रूपक रात्रि और अंधकार का व्यंजक है। इसी प्रकार वक्रतामूलक अलंकार तथा समासगुणयुक्त पदावली का भी यही उपयोग है ।
मधुर अथवा मसृण शैली शोभा और कान्तियुक्त होती है । इसके विषय हैं परियों के उपवन, विवाह उत्सव - गीत, प्रम-कथाएं श्रादि - इस प्रकार की विषय-वस्तु में ही एक प्रकार की उज्ज्वलता एवं कांति होती है । इस शैली के उपादान है मधुर शब्द, मसृण गुम्फ, छन्द-लय की अन्तर्धारा, आदि । मधुर शब्दों से अभिप्राय ऐसे शब्दों का है जो किसी मधुर चित्र को व्यंजना करते हों अथवा जिनकी ध्वनि मधुर हो : उदाहरण के लिए 'गुलाबरंजित ' शब्द को चित्र - व्यंजना रमणीक है, और 'ल' 'न' आदी वर्णों की ध्वनि मधुर । मसृण गुम्फ का अर्थ यह है कि वर्ण और शब्द एक दूसरे में घुलते चले जाएं । इस प्रकार रचना में एक मधुर तारल्या जाता हैइसे हो डिमैट्रियस ने संगीत की अंतर्धारा कहा है । वे छन्द को नहीं छन्द की व्यंजना को शैली का गुण मानते हैं ।
तीसरी शैली है प्रसादमयी (प्रसन्न ) शैली जिसका मूल लक्ष्य है स्पष्टता और सरलता । श्रतएव इसमें नित्य प्रति की भाषा का प्रयोग रहता है जिससे सभी सामान्य तत्वों, जैसे रूपक, समास, नव-रचित शब्द आदि का बहिष्कार कर दिया जाता है। दीर्घ स्वर व्यंजन - योजना, विचित्र लकार, अत्यधिक समासगुण (श्लेष) श्रादि समस्त अलंकरण-प्रसाधन इस शैली के लिए त्याज्य हैं | वास्तव में इसका प्राण तत्व है अर्थ-वैमल्य - और अर्थ वैमल्य के प्रमुख उपादान हैं १. सामान्य शब्दावली २. सामान्य पद - रचना ३. लघु वाक्य ४. लघु वर्ण-योजना ५. श्रानुगुणत्व (एक्यूरेसी) - अर्थात् 'न्यून'श्रनतिरिक्त' शब्द प्रयोग | ये ही प्रसन्न शैली के भी आधारभूत गुण है । डैमेट्रियस की चौथी शैली है श्रोजस्वी । इस शैली के तत्व हैं १. उल्बण
१ एलिगरी
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दोनों गुण अनिवार्यतः होने चाहिए । प्रसाद के विषय में एक बात स्मरण रखनी चाहिए : अनेक शब्द सर्वसाधारण के प्रयोग के कारण क्षुद्र बन जाते हैं:-'अतिपरिचयात् श्रवज्ञा । श्रतएव प्रसाद को अतिप्रचलित शब्दों तथा मुहावरों की क्षुद्रता से मुक्त रखना चाहिए। किन्तु उदात्त शैली के लिए प्रसाद पर्याप्त नहीं है— गरिमा भी उतनी ही अनिवार्य है । गरिमा का समावेश करने के लिए अरस्तू ने अनेक उपकरणों का निर्देश किया है— एडिसन उन्हों को उद्धृत कर देते हैं। वास्तव में एडिसन अरस्तु की भाषा ही बोलते है - इस प्रसंग में उन्हें अपना कुछ नहीं कहना है ।
पोप
पोप में नव्यशास्त्रवाद का प्रतिनिधि रूप मिलता है । उन्होंने भी बोइलो के स्वर में स्वर मिलाते हुए प्रकृति की गौरव प्रतिष्ठा की— उनकी प्रकृति भी वही रीतिबद्ध प्रकृति है जो शास्त्र का पर्याय है । नव्यशास्त्रवादियों के सिद्धान्त और व्यवहार में एक विचित्र विरोध दृष्टिगत होता है : उनके सिद्धान्तों में जहां काव्य के मौलिक तत्वों की प्रतिष्ठा है, वहां व्यवहार में काव्य की अनेक कृत्रिमताओं का नियमित रूप से समावेश रहता है । उदाहरण के लिए उन्होंने काव्य में शब्द को अपेक्षा अर्थ को हो महत्व दिया है, परन्तु उनके अपने काव्य का प्रधान गुण है भाषा की मसृणता तथा प्रसन्नता । उन्होंने भाषा को निखारने के लिए भाव की प्रायः बलि दे दी है। वास्तव में यही युग यूरोप में रीतिवाद का युग है। पोप ने अपने श्रालोचना-विषयक छन्दोबद्ध निबन्ध में शैली के सम्बन्ध में विचार व्यक्त किये हैं: शैली ( अभिव्यंजना) विचार का परिधान है और वह जितना संगत होगा उतना ही सुन्दर लगेगा । किसी क्षुद्र कल्पना को यदि चमक-दमक चाली शब्दावली में श्रभिव्यक्त किया जाए तो वह ऐसी लगेगी मानों विदूषक को राजसी परिधान पहना दिये हों, क्यों कि जैसा विषय हो वैसी ही शैली होनी चाहिए जिस तरह कि ग्राम, नगर शोर राजदराबर की पोशाक अलग अलग होती है । +
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देखिए - पोप का 'एसे ऑन क्रिटिसिज्म ।
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अशद्ध शैली और शुद्ध शैली:- मिथ्या वाग्मिता ही अशुद्ध शैली है। उसकी स्थिति एक ऐसे शीशे के समान है जो चारों ओर अपने भड़कीले रंगों को बिखेर देता है जिससे हम पदार्थों के सहज स्वरूप को नहीं देख पाते। सभी में एक जैसी चमक-दमक उत्पन्न हो जाती हैकिसी में कोई भेद नहीं रहता । परन्तु शुद्ध शैली का यह गुण है कि वह सूर्य के प्रकाश के समान प्रत्येक पदार्थ को व्यक्त कर देती है । उसके रूप को भी चमका देती है। वह सभी को स्वर्णिम भामा से दीप्त कर देती है किन्तु किसी के स्वरूप को नहीं बदलती ।
आगे चलकर पोप वर्ण-योजना की चर्चा करते हैं। केवल अतिपेशल वर्ण-गुम्फ अपने आप में स्तुत्य नहीं है केवल संगीत के लिए काव्य का अनु शोलन करना असंगत है। परिवर्तनहीन रणन-ध्वनियों की झंकार एक प्रकार को अरुचिकर एकस्वरता को जन्म देती है। किसी गतिहीन पंक्ति में रेंगते हुए निर्जीव शब्द काव्य का उत्कर्ष नहीं कर सकते । शब्द में अर्थ की गूंज रहनी चाहिए । काव्य के पारखी प्रसन्न अर्जस्विता का ही प्रादर करते है-- जहां भोज और माधुर्य का समन्य रहता है।
पोप के इन विचारों में भारतीय रीति-सिद्धान्त के अनेक तस्व वर्त. मान हैं । पोप ने एक और वस्तु-औचित्य की अत्यन्त निन्ति शब्दों में प्रतिष्ठा की है, दूसरी ओर प्रसाद, ओज और माधुर्य तीनों गुणों के समन्वय पर बल दिया है। उनकी आदर्श शैली वैदी की भाँति ही प्रसादमयी,
ओजस्वी और माधुर्य-संवलित है । "केवल अतिपेशल' के विरुद्ध उनका अभिमत भामह की निम्न-लिखित उक्ति का स्मरण दिलाता है।
अपुष्टार्थमवक्रोक्ति प्रसन्नमूजु कोमलम् । भिन्नगेयमिवेदं तु केवलं श्रुतिपेशलम् ।।
भामह-॥३॥
१ देखिए-'एसे ऑन क्रिटिसिज्म' - २ तुलना कीजिए:
हू हान्ट पारनेसस बैट टू प्लीज दिभर ईभर नाट मेन्ड दिभर माइन्ड्स, -पोष
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भों में यदि पुष्ट अर्थं तथा चक्रोक्ति का प्रभाव, औौर केवल ऋजु
प्रसन्न कोमल शब्दावली मात्र हो तो वह गीत की भाँति केवल श्रुतिपेशल हो सकती है - प्रर्थात् वह हमारे कानों को प्रिय लग सकती है परन्तु उससे हमारी चेतना का परिष्कार नहीं हो सकता है - जो काव्य का चरम उद्देश्य है ।
व्यवहार में इस युग के काव्य- सिद्धान्त रीति- सिद्धान्त के और भी अधिक निकट हैं । सिद्धान्त की दृष्टि से तो इस युग में अर्थ - गौरव तथा भावसौन्दर्य पर ही बल दिया गया परन्तु वास्तविक व्यवहार में इन कवियों का ध्यान मूलतः भाषा-शैली पर ही केन्द्रित रहा । भाषा-शैली को सँवार और सजाकर इन्होंने काव्य-भाषा को एक पृथक रूप ही दे दिया- सिद्धान्त में अर्थ को गौरव देते हुए व्यवहार में इन्होंने शैली या रीति को ही काव्य की श्रात्मा माना | रीतिवाद औौर नव्यशास्त्रवाद में निम्नलिखित समानताएं त्यन्त स्पष्ट हैं :
१. काव्य में भाव (रस) की अपेक्षा रीति का महत्व |
२. काव्य के प्रति वस्तु-परक दृष्टिकोण |
३. काव्य के बाह्य रूप के उत्कर्षकारी तथा उत्कर्षवर्धक तत्वों (गुण तथा अलंकार) का यत्नपूर्वक ग्रहण और अपकर्षकारी तत्वों (दोष) का त्याग |
स्वच्छन्दतावाद
अठारहवीं शताब्दी के अन्त तक पहुँचते पहुँचते अनेक श्राध्यात्मिक तथा प्राधिभौतिक कारणों से काव्य-दर्शन में भी मौलिक परिवर्तन प्रारम्भ हो गया | कान्ट, फ़िक्टे, रॉलिंग आदि जर्मन दार्शनिकों ने दृष्टि को वस्तु से हटाकर श्रात्माभिमुख कर दिया । कान्ट ने स्पष्ट लिखा - "श्रव तक यह विश्वास रहा है कि हमारा समस्त ज्ञान वस्तु के अनुकूल होना चाहिए परन्तु
व इस बात पर विचार करने का समय श्रा गया है कि क्या मानव उन्नति के लिए (इसके विपरीत) यह धारणा अधिक श्रेयस्कर नहीं है कि वस्तु को हमारे ज्ञान के अनुकूल होना चाहिए ।" इन दार्शनिकों के प्रभाव से काव्य में विवेक और रीति के स्थान पर अन्तप्रेरणा, अन्तरष्टि, अन्तप्रकाश, कल्पना,
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हिन्दी में रीति - सिद्धान्त का विकास
हिन्दी में रीति-सिद्धान्त लोकप्रिय नहीं हुआ । वास्तव में रीतिवाद को हिन्दी साहित्य में कभी मान्यता नहीं मिली । यह एक विषमता ही है कि स्वयं रीतिकाल का ही दृष्टिकोण सिद्धान्त रूप में रीतिवादी नहीं रहा व्यवहार की बात हम नहीं करते । हिन्दी में कोई भी ऐसा कवि श्रथवा श्राचार्य नहीं हुआ जिसने रीति को काव्य की आत्मा माना हो । फिर भी रोति और उसके विभिन्न तत्वों गुण, रचना ( अर्थात् वर्ण-गुम्फ तथा शब्द-गुम्फ या समास ), और अभावात्मक रूप में दोष आदि की उपेक्षा न काव्य में सम्भव है और न काव्यशास्त्र में, अतएव उनके प्रति हिन्दी साहित्य के भिन्न भिन्न युगों में कवियों तथा श्राचार्यों का अपना कोई न कोई निश्चित दृष्टिकोण रहा हो है और उनका यथाप्रसंग विवेचन भी किया गया है । प्रस्तुत निबन्ध में हम उसी की ऐतिहासिक समीक्षा करेंगे ।
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हिन्दी साहित्य के श्रादिकाल में एक चोर स्वयंभू आदि प्राचीन हिन्दी के कवियों की और दूसरी ओर चन्द आदि पिगल के कवियों की कतिपय काव्य-सिद्धान्त-सम्बन्धी पंक्तियां मिल जाती हैं। उनके आधार पर किसी निश्चित सिद्धान्त की स्थापना करना चाहे कठिन हो, किन्तु समग्र काव्य के अध्ययन के साथ साथ तो उनकी सहायता से उनके रचयिताओं के काव्यगत दृष्टिकोण के विषय में धारणा बनाई ही जा सकती है । उदाहरण के लिए स्वयंभू की निम्नलिखित प्रसिद्ध पंक्तियां लीजिए :
अक्खर वास जलोह मोहर । सुयलंकार -छंद मच्छोहर । दीह समास - पवाहा बंकिय । सक्कय पायय- पुलियालंकिय ।
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देसी-भाषा उभय तडुज्ज्ज । कवि-दुक्कर घण-सद्द सिलायल। अथ्थ-बहल कल्लोला णिट्ठिय ।आसा-सय-सम अह परिट्टिय ।
अर्थात् रामकथा-रूपी सरिता में अक्षर ही मनोहर जलौक हैं, सुन्दर अलंकार तथा छन्द मीन हैं, दीर्घ समास बंकिम प्रवाह हैं। संस्कृत-प्राकृत के पुलिन हैं-देशी भाषाएं दो उज्ज्वल तट हैं। कवियों के लिए दुष्कर सधन शब्दों के शिलातल हैं। अर्थ-बहुला कल्लोलें हैं शतशत प्राशनों के समान तरंगे उठती है।
___ उपर्युक पंक्तियों में स्वयंभू ने स्वभावतः उन उपकरणों का उल्लेख किया है जिन्हे वे सरकान्य के लिए आवश्यक समझते हैं : अक्षर-गुम्फ, अलंकार, छन्द, दीर्घ समास, संस्कृत-प्राकृत के शब्द, सधन शब्द-बंध, अर्थबाहुल्य आदि । इनमें से अक्षर-गुम्फ, दीर्घ समास, सधन शब्द-बंध आदि स्पष्टतः रीति के तत्व हैं। महाकाव्य की शैली स्वभाव से ही प्रोज-प्रधान होती है-अतएव उसके लिए गौड़ीया रीति के तत्व प्रायः अनुकूल पड़ते हैं। इस प्रकार स्वयंभू रीति को कान्य का आवश्यक अंग मानते हैं। परन्तु पैसे उनका दृष्टिकोण निस्संदेह रसवादी ही है वे तुलसीदास के साहित्यिक पूर्वज हैं।
चन्द श्रादि कवि भी रसवादी ही थे।-शास्त्रविद् होने के कारण काव्य के शास्त्रीय तत्वों का रीति, गुण, अलंकार, आदि का-उनके काव्य में यथावत् सनिवेश है, परन्तु रीतिवाद से उनका कोई सम्बन्ध नहीं था। विद्यापति में रसवाद अपनी चरम सीमा पर है-परतु उनको अपनी काव्यभाषा पर भी कम अभिमान नहीं था: बालचन्द के समान उनकी भाषा में नागर-मन को मुग्ध करने की अद्भुत शक्ति थी। इसी प्रसंग में उन्होंने काव्यभाषा के विषय में एक बार फिर अपने विचार का संकेत दिया है।
सक्कय वाणी बुहयन भावई, पाउन रस को भम्म न पावई । देसिल बना सव जन मिट्ठा, तें तैसन जम्पओं अवहट्ठा ।
(कीर्तिलता)
संस्कृत केवल विद्वानों को ही रुचिकर हो सकती है, प्राकृत रस का मर्म नहीं पाती । देशी वाणी सभी को मीठी लगती है, इसलिए मैं अवहट्ट भाषा में
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संस्कृत काव्यशास्त्र में, जैसा कि मैंने प्रारम्भ में स्पष्ट किया है, रीति धौर गुण के पारस्परिक सम्बन्ध के विषय में तीन मत हैं : आनन्दवर्धन श्रादि श्राचार्य रीति को गुणाश्रित मानते हैं, उद्भट श्रादि गुण को रीति-श्राश्रित मानते है, और वामन इन दोनों को प्राय: अभिन्न ही मानते हैं । वामन का मत है कि विशिष्ट पदरचना का नाम रोति है और यह विशिष्टता गुणात्मक है । इस प्रकार रीति का स्वरूप गुणात्मक है । परन्तु तत्व रूप में दोनों का ऐकात्म्य मानते हुए भी वामन ने व्यवहार रूप में दोनों की पृथक सत्ता मानी है : वैदर्भी, गौडी, पांचाली रीतियां है— श्लेष, प्रसाद, समता, आदि गुण हैं । गुण इन रीतियों के प्राण हैं - इनका वैशिष्ट्य सर्वथा गुणात्मक है, किन्तु फिर भी दोनों को सत्ता अलग ही है ।
भरत ने दश गुण माने हैं :- १. श्लेष, २. प्रसाद, ३. समता, ४. समाधि, २. माधुर्य, ६. श्रोज, ७. सौकुमार्य, ८ श्रयंव्यक्ति, ६. उदारता, १०. कांति । भरत के उपरान्त दरडी और वामन दोनों ने लक्षणों में परिवर्तन-परिशोधन करते हुए इनको ही स्वीकार किया है— दण्डी और चामन ही एक प्रकार से रीति-गुण सम्प्रदाय के अधिनायक हैं । परन्तु श्रागे चलकर ध्वनिकार ने गुणों की संख्या दस से घटाकर तीन करदी - उन्होंने माधुर्य, श्रोज और प्रसाद में ही शेष सात गुणों का अतर्भाव कर दिया । - मम्मट आदि ने भी इन्हीं को स्वीकृति दी और तब से प्रायः ये तीन गुण ही प्रचलित रहे हैं। परन्तु देव ने इस विषय में पूर्व-ध्वनि परम्परा का अनुसरण करते हुए उपर्युक्त दल गुणों (रीतियों) को ग्रहण किया हैचरन् उन्होंने तो अनुप्रास और यमक को भी गुणों (रीतियों) के अन्तर्गत मानते हुए उनकी संख्या बारह तक पहुंचा दी है । यमक और अनुप्रास को रीति (गुण) मानना साधारतः असंगत है क्योंकि गुण काव्य की श्रात्मा का धर्म है, दुमरे शब्दों में काव्य का स्थायी धर्म है, इसके विपरीत यमक और श्रनुप्रास रस के प्रांतरिक तत्व न होने से काव्य के अस्थायी धर्म ही रहेंगे । परन्तु देव की इस स्थापना से एक महत्वपूर्ण संकेत अवश्य मिलना है : वह,
यह कि पण्डितराज जगन्नाथ की भाँति वे गुणों की स्थिति श्रर्थ के साथ-साथ चर्णों में भी मानते हैं । उपर्युक्त दस गुणों के विवेचन में उन्होने भरत और चामन की अपेक्षा प्रायः दण्डी का ही अनुसरण किया । — क्रम भी बहुत कुछ दण्डी से हो मिलता है, लक्षण तो कहीं कहीं काव्यादर्श से अनूदित हो कर दिए गए हैं। श्लेष, प्रमाद, समता, माधुर्य, सुकुमारता, श्रर्थव्यक्ति और थोज के
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लक्षण प्रायः दण्डी के ही अनुसार हैं। केवल दो-तीन गुण ही ऐसे रह जाते हैं जिनके लक्षण भरत, दण्डी और वामन तीनों से भिन्न हैं । कांति गुण में, देव के अनुसार, सुरुचिपूर्ण चारु वचनावली होनी चाहिये जिसमें लोकमर्यादा की अपेक्षा कुछ विशेषता हो और जो अपने इसगुण के कारण लोगोंको सुखकर हो :
अधिक लोकमर्जांद ते, सुनत परम सुख जाहि । चारु वचन ये कांति रुचि, कांति बखानत ताहि ॥
( शब्द - रसायन)
इस लक्षण का शेष भाग तो दण्डी से मिल जाता है, परन्तु दण्डी जहां लोक-मर्यादा के अनुसरण को (लौकिकार्थनातिक्रमात् ) अनिवार्य मानते हैं वहां देव में उसके अतिक्रमण का स्पष्ट उल्लेख है । दण्डी के अनुसार तो अप्राकृतिकता अथवा अस्वाभाविकता का बहिष्कार करते हुए लौकिक मर्यादा के अनुकूल स्वाभाविक वर्णन करना ही कांति गुण का मुख्य तत्व है । वामन ने समृद्धि अर्थात् श्रज्ज्वल्य और रस-दीप्ति को कांति गुण का सार तत्व माना - जिसके लिए साधारण प्रचलित शब्दावली का बहिष्कार अनिवार्य है । देव ने या तो दण्डी का अभिप्राय नहीं समझा - या फिर कुछ पाठ की गड़बड़ है । इसके अतिरिक्त एक सम्भावना यह हो सकती है कि 'अधिक लोक द' से देव का अभिप्राय कदाचित् वामन द्वारा निर्दिष्ट साधारण बचना - वली के बहिष्कार का ही हो परन्तु यह कुछ क्रिष्ट कल्पना ही लगती है । इसी प्रकार उदारता के लक्षण में भी 'यस्मिन् उक्ते (जाहि सुनत हो), तथा 'उत्कर्ष' आदि शब्द देव ने दरडी से ही लिए हैं, परन्तु दण्डी जहां उत्कर्ष की भावना को उदारता का प्राण मानते हैं, वहां देव का कहना है
जाहि सुनत ही धोज को दूर होत उत्कर्ष ।
( शब्द-रसायन)
प्रोज का उत्कर्ष दूर होने से उनका क्या अभिप्राय है यह जानना कठिन है । प्रयत्न करने पर यही अर्थ निकाला जा सकता है कि उदारता में एक प्रकार का उत्कर्ष होता है, जो प्रोज के उत्कर्ष से भिन्न होता है या फिर
यहां भी प्रतिलिपिकार की कृपा से पाठ की कुछ उलट फेर है । इसी प्रकार
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समाधि के लक्षण देव और दरडी के यों तो समान है— किन्तु दण्डी के वहां "लोकसी मानुरोधिना (लोक मर्यादा के भीतर) के स्थान पर देव ने न जाने
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क्यों "लोक सीव उलँधै अरथा लिख दिया है ! यहां भी या तो पाठ की गढवड़ है या अर्थ समझने में भ्रांति हुई है।
इस प्रसंग में भी देव ने एक नवीन उद्भावना कर डाली है-वह यह है कि आपने प्रत्येक रीति (गुण) के दो भेद माने हैं-नागर और ग्राम्य । इन दोनों में यह अन्तर है कि नागर रीति में सुरुचि का प्राधान्य होता है, ग्राम्य में रस का प्राधिक्य होते हुए भी सुरुचि का प्रभाव रहता है। नागर गुन ागर, दुतिय रस-सागर रुचि-हीन ।
(शब्द-रसायन) वैसे दोनों को अपनी अपनी विशेषता है-एक को उत्कृष्ट और दूसरी को निकृष्ट कहना अरसिकता का परिचय देना होगा। -देव की अन्य उद्भावनाओं की भाँति यह भी महत्वहीन ही है और एक प्रकार से असंगत भी क्योंकि पहले तो मानव-स्वभाव में नागर और ग्रामीण का मूलगत भेद मानना ही युक्तिसंगत नहीं है (देव अपने उदाहरणों द्वारा यह अन्तर स्पष्ट करने में प्रायः असफल रहे हैं), फिर यदि इस स्थूल भेद को स्वीकार भी कर लिया जाए, तो कांति, उदारता आदि कतिपय गुण ऐसे हैं जिनके लिए अग्राम्यत्व अनिवार्य है। ऐसी दशा में इनके भी नागर और ग्रामीण भेद करना इनकी आत्मा का ही निषेध करना है।
शब्द-शक्ति, रीति, गुण आदि के अतिरिक देव ने कैशिकी, भारभटी, सात्वती और भारती वृत्तियों का वर्णन भी किया है जो कि अव्यकाव्य का अंग न होकर दृश्यकाव्य का ही अंग मानी जाती हैं । शृङ्गार, हास्य और करुण में कैशिकी (कौशिकी); रौद्र, भयानक और वीभत्स में प्रारमटी; वीर, रौद्र, अद्भुत और शांत में सात्वती; तथा वीर, हास्य और अद्भुत में भारती वृति का प्रयोग होता है । संस्कृत में नाट्य-शास्त्र, दशरूपक, साहित्य-दर्पण आदि में भी रसों के अनुक्रम से ही इनका विवेचन है-परन्तु देव का आधार यहां उपर्युक अन्य न होकर केशवदास की रसिक-प्रिया ही है। रसिक-प्रिया में ठीक इसी क्रम से इनका रसों के साथ सम्वन्ध बैठाया गया है, एक थोड़ा सा अन्तर यह है कि सात्वती के अन्तर्गत शृङ्गार के स्थान पर देव ने भरत के आधार पर रौद्र को माना है, बस, परन्तु केशव में भी शायद यह लिपि-दोष है।
देव के उपरान्त दास तक प्रायः किसी भी कवि ने रीति अथवा रीतितत्वों का विशेष विवेचन नहीं किया । इनके प्रसंग में दो बातें उल्लेख योग्य
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हैं : एक तो सूरति मिश्र ने अपने लक्षण में रीति का समावेश करते हुए उसको । काव्य का आवश्यक अंग माना है :
बरनन मन-रंजन जहां रीति अलौकिक होइ ।
निपुन कर्म कवि को जु तिहि काव्य कहत सब कोइ । जहां तक मुझे स्मरण है संस्कृत-हिन्दी के किसी कवि ने रीति का काव्य-लक्षण . में समावेश नहीं किया-गुण का ही प्रायः किया है। दूसरी विशेष बात यह
है कि श्रीपति ने अपने श्रीपति-सरोज में अर्थ-गुणों का अलग वर्णन किया है। हिन्दी में अर्थ और शब्द के आधार पर गुणमेद प्रायः नहीं किये गये। एक चिंतामणि ही अपवाद है । संस्कृत में भी वामन या भोजराज आदि दो एक प्राचार्य को छोड़ किसो ने इस भेद को स्वीकार नहीं किया। इस दृष्टि से श्रीपति का अर्थ-गुण-वर्णन एक उल्लेखनीय विशेषता है। सोमनाथ ने अपने रसपीयूषनिधि में गुण का काव्य-लक्षण में उल्लेख किया है-मम्मट के आधार पर उनका लक्षण इस प्रकार है:
सगुन पदारथ दोष बिनु, पिंगल मत अविरुद्ध ।
भूषणजुत कवि-कर्म जो सो कवित्त कहि बुद्ध ॥ परन्तु इन प्राचार्यों का गुण-लक्षण वामन से थोडा भिन्न है। ये गुण को रस का धर्म मानते हैं जबकि वामन उसे शब्द-अर्थ का ही धर्म मानते हैंफिर भी व्यवहार रूप में दोनों के गुण-वर्णन में बहुत कुछ सादृश्य भी है, इसीलिए गुण का रीति के साथ अविच्छिन्न सम्बन्ध रहा है।
दास दास का गुण-वर्णन रीतिकाल के प्रायः अन्य सभी आचार्यों की अपेक्षा अधिक मूल्यवान है। उन्होंने इस प्रसंग का वर्णन अधिक मनोयोगपूर्वक और साथ ही स्वतन्त्र रीति से भी किया है।
दस विधि के गुन कहत है, पहिले सुकवि सुजान । पुनि तीनै गुन गनि रचौ, सब तिनके दरम्यान ।। ज्यों सतजन हिय ते नहीं सूरतादि गुन जाय । त्यों विदग्ध हिय में रहें, दस गुन सहज स्वभाय ।
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श्रर्थात् जिस प्रकार सज्जन के हृदय में शौर्य आदि का वास रहता है। इसी प्रकार विदग्ध सहृदय के हृदय में स्वभाव से ही दश गुण निवास करते हैं । दास की यह स्थापना परम्परा से कुछ भिन्न है । परम्परा के अनुसार स्थायी भावों के विषय में यह प्रसिद्ध है कि वे वासना रूप में सहृदय के हृदय में वर्तमान रहते हैं । दास गुणों की भी यही स्थिति मानते हैं उनका तर्क कदाचित् यह है कि रस के धर्म होने के कारण गुणों का भी वासना से सहज सम्बन्ध है, और शौर्य आदि गुणों की भाँति वे भी श्रात्मा में ही निवास करते हैं ।
मम्मट श्रादि रस ध्वनिवादी भी गुणों को चित्त की दुति, दीप्ति तथा व्याप्ति ( समर्पकत्व) रूप मानते हुए इस तथ्य की ओर संकेत करते हैंऔर इसी कारण वे गुणों की संख्या दश न मान कर केवल तीन मानते हैं दास का भी यही मत है : प्राचीन आचार्यों के अनुसार दश गुणों का वर्णन करने के उपरांत वे मूल गुणों की संख्या केवल तीन मानते हैं ।
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दश गुणों के वर्गीकरण में दास ने फिर परम्परा से भिन्न मार्ग का अवलम्बन किया है। उन्होंने गुणों के चार वर्ग किये हैं: (१) अक्षर - गुणा--- माधुर्य, भोज तथा प्रसाद (२) दोषाभाव-रूप गुण - समता, कान्ति और उदारता (३) अर्थ -गुण---अर्थम्यक्ति और समाधि (४) वाक्य-गुण- श्लेष तथा पुनरुक्तिप्रकाश |
अक्षर गुन माधुर्य, ओज प्रसाद विचारि । समता कान्ति उदारता, दूषन-हरन निहारि ॥ अर्थव्यक्ति समाधि अर्थ करै प्रकास | वाक्यन के गुन श्लेष श्ररु, पुनरुक्ती- परकास |
यहां पहली बात तो यही विचारणीय है कि दास ने पुनरुक्तिप्रकाश नामक एक नये गुण की कल्पना की है और वामनादि के सौकुमार्य गुण को छोड़ दिया है।
एक शब्द बहु बार जहँ, परै रुचिरता अर्थ । पुनरुक्तीपरकाश गुन, बरनै बुद्धि समर्थ ॥
दास ने सौकुमार्य के स्थान पर इस नवीन गुण को कल्पना क्यों की यह कहना कठिन है, फिर भी यह अनुमान किया जा सकता है कि सौकुमार्य की
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कदाचित् वे माधुर्य से पृथक सत्ता स्वीकार नहीं कर सके, अतएव उसे छोड़ कर उन्होंने एक अन्य प्रकार के पदरचना - चमत्कार को जिसका ब्रजभाषा में यथेष्ट प्रचार था, दशगुणों में समाविष्ट कर लिया। वामन ने शब्द गुण सौकुमार्य का अर्थ किया है शब्द-गत अपारुष्य — इस दृष्टि से पुनरुक्तिप्रकाश की रुचिर पदावृत्ति को सौकुमार्य का एक साधन भी माना जा सकता है । सौकुमार्य का यह रूप अन्य रूपों की अपेक्षा अधिक विशिष्ट था, अतएव दास ने कदाचित् इसका स्वतन्त्र अस्तित्व मानना प्रचलित काव्य-भाषा के अधिक स्वरुपानुकूल समझा ।
शेष नौ गुणों में से माधुर्य, श्रोज, प्रसाद, श्लेष, कान्ति, और अर्थ - व्यक्ति के लक्षण तो दास ने प्रायः दगडी अथवा वामन के अनुसार ही दिये हैं — परन्तु समता, श्रौदार्य और समाधि में परम्परा से चैचित्र्य है ।
समता - प्राचीनन की रोतिसों, भिन्न रीति ठहराइ | समता गुन ताको कहै, पै दूषनन्ह बराइ ॥
अर्थात् दास के अनुसार समता गुण वहां होता है जहां परिपाटी-भुक्त रीति का परित्याग कर नवीन रोति का अवलम्बन किया जाये - किन्तु परिपाटी से मुक्ति दुष्ट प्रयोगों की छूट नहीं देती । यह लक्षण कुछ-कुछ वामन के अर्थ - गुण माधुर्य से मिलता है । दण्डी और वामन के अनुसार समता का अर्थ है रोति का श्रवैषम्य 1
उदारता
जो अन्य बल पठित हवै, समुमि पर चतुरैन । रन को लागे कठिन, गन उदारता ऐन ॥
अर्थात् जहाँ अन्वय बल-पूर्वक लगाया जा सके जो केवल विदग्ध जन की ही समझ में आये और दूसरों को कठिन प्रतीत हो वहाँ उदारता गुण होता है । प्रस्तुत लक्षण दास ने कहां से लिया है यह कहना कठिन है । भरत, दण्डी, तथा वामनादि किसी ने भी इसका संकेत नहीं किया ।
तीसरा गुण समाधि है जिसमें दास ने कुछ वैचित्र्य प्रदर्शित किया है। जहां रुचिर क्रम से आरोह-अवरोह हो वहां समाधि गुण होता है : जुलै रोह-अवरोह गति रुचिर भाँति क्रम पाय ।
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गुणों तथा वृत्तियों का विवेचन मम्मट के आधार पर किया गया है। मिश्रजी ने भी केवल तोन ही गुणों की सत्ता स्वीकार की है-शेष का उन्हीं में अन्तर्भाव माना है । वृत्तियों का वर्णन वृत्यनुप्रास के अन्तर्गत हुआ हैइन्होंने भी प्रदीप के आधार पर माधुर्य का सम्बन्ध उपनागरिकता से, प्रोज का गौड़ी से, और कोमला का प्रसाद से माना है।
हिन्दी काव्यशास्त्र की दूसरी प्रवृत्ति का सम्बन्ध है आधुनिक श्रालोचना-पद्धति से जिसका प्राधार पाश्चात्य काव्यशास्त्र तथा मनोविज्ञान है। स्वभावतः यह दूसरी प्रवृत्ति हो आज अधिक समर्थ है। इसके अन्तर्गत पं० महावीरप्रसाद द्विवेदी, प्राचार्य रामचन्द्र शुक्ल, डा. श्यामसुन्दरदास तथा श्री लक्ष्मीनारायण सुधांशु आदि का महत्वपूर्ण स्थान है। रोति अर्थात् काव्यभाषा-शैली के विषय में इन विद्वानों ने भी विचार व्यक्त किए हैं जिनका अपना विशेष मूल्य है।
आधुनिक आलोचक पण्डित महावीरप्रसाद द्विवेदी के सामने काव्य-भाषा और गद्य-भाषा का प्रश्न एक नवीन रूप में उपस्थित हुआ। उस समय काव्य की भाषा ब्रजभाषा थी, और गय की भाषा खड़ी बोली। द्विवेदी जी ने बसवर्थ के सिद्धान्त के आधार पर ज्यावहारिक रूप से इस अंतर को मिटाने का प्रयत्न किया। "मतलब यह कि भाषा बोलचाल की हो क्योंकि कविता की भाषा से बोलचाल की भाषा जितनी ही अधिक दूर जा पड़ती है, उतनी ही उसकी सादगी कम हो जाती है। + + इसी तरह कवि को मुहावरे का भी ख्याल रखना चाहिए + + हिन्दी उर्दू में कुछ शब्द अन्य भाषाओं के भी आ गये हैं, वे यदि बोलचाल के हैं तो उनका प्रयोग सदोष नहीं माना जा सकता।" (रसज्ञ-रंजन पृ० ४६-४७) । कहने की प्रविश्यकता नहीं कि वई सवर्थ के प्रयत्न के समान ही यह प्रयत्न भी विफल ही रहा। इससे यह लाभ तो हुआ कि खड़ी बोली को काव्य-भाषा रूप में स्वीकृति मिल गई-किन्तु बोलचान की गध से अभिन्न भाषा काव्य-भाषा नहीं बन सकी । द्विवेदीजी की कविता तो गद्यमयी हो गई—किन्तु गद्य-भाषा काव्य की भाषा न बन सको। द्विवेदी जी ने उपयुक्त सिद्धान्त के अनुसार भाषा के गुणों की अपेक्षा उसकी शुद्धता आदि पर अधिक बल दिया है।
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काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती
'अवन्ति मुन्दरी' का मत ५२ / अश्लीलत्व के तीन प्रकार के 'साहित्य मीमासा' की कारिकाएँ ५३ | अपवाद । काव्य के गद्य पद्य दो भेट ५५ / अ. गुप्तार्थ गद्य काव्य के तीन भेद
व. ललितार्थ पद्य काव्य के भेद
५७ / स. सवृत प्रवन्व-काव्य और मुक्तक
अग्लीलत्व के तीन भेद प्रवन्ध-काव्यो मे रूपक का महत्व ६० | ५. क्लिप्टार्थ भामहकृत; काव्यो के 'सर्गवन्ध', अश्लीलत्व तथा क्लिप्टत्व का 'अभिनयार्थ' और 'आख्यायिका रूप ।
वाक्यटोपत्व तीन भेद काव्य भेदों के विपय में आनन्द वन का मत
द्वितीय अध्याय [वाक्य वाक्यार्थ दोप विभाग
८८-१०२] 'दोप-दर्शन' नामक द्वितीय
तीन प्रकार के वाक्य दोप ८८ अधिकरण
१. भिन्न वृत्त [पृष्ठ ६७-११२ तक] २. यति भ्रप्ट प्रथम अध्याय
धात भाग तथा नाम भाग के
मंद में यति भ्रष्टत्व के उदाहरण ८९ पदपदार्थ-दोष विभाग ६६-८७ ] भिन्न वत्त तथा यति भ्रष्ट का गत प्रथमाध्याय के साथ सम्बन्ध ६७ परस्पर भेद टोप का सामान्य लक्षण
| ३. विसन्धि पाँच प्रकार के पद दोप
विसन्धि दोप के तीन भेद १ असा पटत्व
७१. अ. सन्धि विश्लेप २. कप्टपद
७२ व अश्लील सन्वि ३. ग्राम्यपट
७२ | स कप्ट सन्धि ४. अप्रतीत पद
७३ | सात प्रकार के वाक्यार्य दोप ९८ ५ अनर्थक पद
७४ १ व्यर्थ पाँच प्रकार के पदार्थ दोप २ एकार्थ १. अन्याय
एकार्य या पुनरुक्ति की अदोपता १०० २. नेयार्य .
वना आदि पदो की अदोपता १००' ३ गूढार्य
कर्णावतमादि पदो की अदोपता १०१ ८८ / मुक्ताहार आदि पदो की अदोपता १०२
, ४. अग्लील
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विषयानुक्रमणिका
पुष्पमाला आदि पदो की अदोषता १०३ | आरोह अवरोह के ओज प्रसाद रूप होने से समाधि गुण का
खण्डन
१२६
उष्ट्र-कलभ आदि पदो की अदोषता
यह अदोषता प्रयुक्त पदो मे ही मानी जाती है ।
३ सन्दिग्ध
४ अप्रयुक्त ५ अपक्रम
६ लोक विरुद्ध
७ विद्या विरुद्ध
१०४
१०५
१०६ |
१०७
१०७
१०८
११०
'गुण विवेचन' नामक तृतीय अधिकरण
[ पृष्ठ ११३ - १५९ तक ]
प्रथम अध्याय
[ गुणालङ्कार विवेक और शब्द गुण ]
११३-१३९
गुण तथा अलङ्कार का भेद
काव्य शोभा के जनक गुण काव्य शोभा के अतिशय हेतु
उपपादन
३ श्लेष गुण
४ समता गुण ५ समाधि गुण
११३
११३
अलङ्कार मम्मटाचार्य कृत गुण अलङ्कार भेद गुणो की नित्यता
दस प्रकार के शब्द गुण
१ ओज गुण
११४
११५
११८
११९
१२०
२. प्रसाद, गुण
शैथिल्य रूप प्रसीद के गुणत्व का
१२०
१२३
समाधि
युक्ति का निराकरण
माधुर्यं गुण
सौकुमार्य गुण
' के खण्डन मे प्रस्तुत
६
७
गुण
८ उदारता गुण
९ अर्थ व्यक्ति गुण
१० कान्ति गुण
११ शब्द गुणो के विषय मे
सग्रह श्लोक
गुणो की अभावरूपता का
निराकरण
गुणो की भ्रमरूपता का निराकरण
गुण के पाठधर्मत्व का निरा
करण
घ अर्थ का सक्षेप कथन
• ड अर्थ की साभिप्रायता
ग
२ अर्थ गुण प्रसाद
१२४३ अर्थ गुण श्लेप
१२४ | ४ अर्थ गुण समता
१२६
१३१
१३२
१३२
१३३
१३४
१३५
१३५
१३७
१३८
द्वितीय अध्याय
[ अर्थ गुण विवेचन १४० - १५९ ]
ओज आदि दश अर्थ गुण
१४०
१. अर्थ गुण ओज
१४१
अर्थ प्रौढि रूप ओज के पाँच भेद १४१
क पद के अर्थ मे वाक्य रचना १४१
ख वाक्य के अर्थ मे पद का
प्रयोग
ग अर्थ का विस्तार से कथन
१३९
१४६
१४४
१४५
१४५
१४६
१४७
१४८
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१५४
काव्यलङ्कारसूत्रवृत्ती ५. अर्थ गुण समाधि १५० भङ्ग से यमक का उत्कर्ष क अयोनि अर्थ १५० भङ्ग के तीन भेद ख अन्यच्छाया योनि अर्थ १५१ क श्रृंखला भग अर्थ के व्यक्त, सूक्ष्म दो भेद १५२ ख. परिवर्तक भग सूक्ष्म के भाव्य और वासनीय ग चूर्ण भङ्ग दो भेद
१५२ | यमक के विषय में सात सग्रह ६ अर्थ गुण माधुर्य १५३
श्लोक
१७४ ७ अर्थ गुण सौकुमार्य | अनुप्रास का लक्षण
१७७ ८ अर्थ गुण उदारता १५५ अनुल्वण अनुप्रास की श्रेष्ठता ७९ ९ अर्थ गुण अर्थ व्यक्ति १५६ पाद यमक के समान पादानुप्रास १८० १०. अर्थ गुण कान्ति १५७ यमक के अन्य भेदो के समान काव्यपाक विषयक तीन सग्रह
| अनुप्रास के अन्य भेद १८४ श्लोक
१५८ काव्य पाक विषयक राजशेखरमत १५९ द्वितीय अध्याय
[उपमा विचार १८५-२१०] 'आलङ्कारिक' नामक
उपमा का लक्षण
१८५ चतुर्थ अधिकरण
उपमान और उपमेय का लक्षण १८६ पृष्ठ १६०-२७०
उपमा लक्षण में दोनो की प्रथम अध्याय आवश्यकता
१८६ [शब्दालङ्कार विचार १६०-१८४ ]
उपमा के कल्पिता और लौकिकी
दो भेद गुण अलङ्कार का भेद
| उनके उदाहरण
१८० यमक, अनुप्रास दो शब्दालड्वार १६०
पदवृत्ति, वावयार्थ वृत्ति रूप यमक का लक्षण
उपमा के दो और भेद यमक के स्थान
प्रकारान्तर से उपमा के पूर्णा क. पाद यमक
१६३ तथा लुप्ता दो भेद ख. एक पाद के आदि मध्य अन्त | अन्य आचार्यों द्वारा किए हुए यमक
उपमा के २७ भेदो की चर्चा १९३ ग. दो पादो के आदि मध्य अन्त | उपमा के कारण यमक
१६५ स्तुति, निन्दा और तत्त्वाख्यान घ. एकान्तर पादान्त यमक १६७ / के उदाहरण ङ. समस्त पादान्त यमक १६८ | उपमा के दोष घ. एकाक्षर यमक १६९ | १. हीनत्व उपमा दोष
पानी की
१८०
१६२ १६३
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सूत्र ५]
प्रथमाधिकरणे प्रथमोऽध्यायः
अपनाया है । और अपने ग्रन्थो मे उसको उद्धृत किया है। इसके अनुसार
कीर्ति और प्रीति के अतिरिक्त पुरुषार्थचतुष्टय और कला तथा व्यवहार आदि में ' नैपुण्य का लाभ भी काव्य का प्रयोजन है।
कुन्तक ने अपने 'वक्रोक्तिजीवितम' मे इसको और अधिक स्पष्ट करने का ' प्रयत्न किया है। उन्होने काव्य के प्रयोजनो का निरूपण करते हुए लिखा है
१धर्मादिसाधनोपायः सुकुमारक्रमोदितः । काव्यबन्धोऽभिजाताना हृदयाह्लादकारकः ॥ ३ ॥ व्यवहारपरिस्पन्दसौन्दर्य व्यवहारिभिः । सत्काव्याधिगमादेव नूतनौचित्यमाप्यते ॥ ४ ॥ चतुर्वर्गफलास्वादमप्यतिक्रम्य तद्विदाम् ।
काव्यामृतरसेनान्तश्चमत्कारो वितन्यते ॥५॥ अर्थात् काव्य की रचना अभिजात श्रेष्ठकुल मे उत्पन्न राजकुमार आदि के लिए कहा हुआ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि का सरल मार्ग है ।
सत्काव्य के परिज्ञान से ही, व्यवहार करने वाले सब प्रकार के लोगों को अपने-अपने व्यवहार का पूर्ण एवं सुन्दर ज्ञान प्राप्त होता है ।
[और सबसे बड़ी बात यह है कि ] चतुर्वर्ग फल की प्राप्ति से भी बढ़ कर सहृदयों के हृदय मे चमत्कार उससे उत्पन्न होता है।
कुन्तक के इस काव्य प्रयोजन के निरूपण को काव्यप्रकाशकार श्री मम्मटाचार्य ने और भी अधिक व्यापक तथा स्पष्ट करके इस प्रकार लिखा है
काव्य यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये ।
सद्यः परनिवृतये कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे ॥२॥ इसमे काव्यप्रकाशकार ने काव्य के ६ प्रयोजन प्रतिपादन किए हैं। जिनमें से तीन को हम मुख्यतः कविनिष्ठ और शेष तीन को मुख्यतः पाठकनिष्ठ प्रयोजन कह सकते हैं। 'यशसे', 'अर्थकृते' और 'शिवेतरक्षतये अर्थात् यश और अर्थ की प्राप्ति तथा अनिष्ट का नाश यह तीनों प्रयोजन कवि के उद्देश्य
'वक्रोक्तिजीवितम् १, ३, ४,५। २ काव्यप्रकाश १, २॥
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१०]
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती
[सूत्र ५
से और 'व्यवहारविदे', 'सद्यः परनिवृतये' तथा 'कान्तासम्मिततया उपदेशयुजे' यह तीन प्रयोजन पाठक के उद्देश्य से रखे गए हैं। इस प्रकार कान्य प्रयोजनों के निरूपण में उत्तरोत्तर विकास हुआ जान पड़ता है।
कीर्ति को काव्य का मुख्य प्रयोजन बतलाते हुए वामन ने जिस प्रकार के तीन श्लोक इस अध्याय के अन्त मे लिखे हैं, उसी प्रकार के श्लोक भामह के 'काव्यालङ्कार' में भी पाए जाते हैं । जो इस प्रकार हैं
'उपयुषामपि दिव सन्निबन्धविधायिनाम् ।
आस्त एव निरातङ्क कान्तं काव्यमय वपुः ॥ ६ ॥ रुणद्धि रोदसी चास्य यावत् कीर्तिरनश्वरी। तावत् किलायमध्यास्ते सुकृती वैबुध पदम् ॥ ७ ॥ अतोऽभिवाञ्छता कीर्ति स्थेयसीमाभुवः स्थितः । यत्नो विदितवेद्येन विधेयः काव्यलक्षणः ॥ ८॥ सर्वथा पदमप्येकं न निगाद्यमवद्यवत् । विलक्ष्मणा हि काव्येन दुःसुतेनेव निन्द्यते ॥ ११ ॥ अकवित्वमधर्माय व्याधये दण्डनाय वा।
कुकवित्व पुनः साक्षान्मृतिमाहुर्मनीषिणः ॥ १२ ॥
अर्थात् उत्तम काव्यों की रचना करने वाले महाकवियों के दिवगत हो जाने के बाद भी उनका सुन्दर काव्य शरीर [यावच्चन्द्रदिवाकरौ] अक्षुण्ण बना रहता है।
और जब तक उसकी अनश्वर कीर्ति इस भूमण्डल तथा आकाश में व्याप्त रहती है तब तक वह सौभाग्यशाली पुण्यात्मा देव पद का भोग करता है।
इसलिए प्रलय पर्यन्त स्थिर कीति को चाहने वाले कवि को कवि के उपयोगी समस्त विपय का ज्ञान प्राप्त कर उत्तम काव्य रचना के लिए परम प्रयत्न करना चाहिए ।
काव्य मे एक भी अनुपयुक्त पद न आने पावे इस बात का ध्यान रखे। क्योंकि कुकाव्य की रचना से कवि उसी प्रकार निन्दा का भाजन बनता है जिस प्रकार कुपुत्र को उत्पन्न करके ।
'भामह काव्यालङ्कार १।
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सूत्र ५ ]
प्रथमाधिकरणे प्रथमोऽध्यायः
इति श्री पण्डितवरवामनविरचित काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तौ 'शारीरे' प्रथमेऽधिकरणे प्रथमोऽध्यायः । इति प्रयोजनस्थापना ।
[ कुकवि बनने से तो कवि रहना अच्छा है । क्योंकि ] कवित्व से तो अधिक-से-अधिक व्याधि या दण्ड का भागी हो सकता है परन्तु कुकवित्व को तो विद्वान् लोग साक्षात् मृत्यु ही कहते हैं ।
[११
वामन ने जिस प्रकार के तीन सग्रह श्लोक इस अध्याय की समाप्ति में दिए हैं इसी प्रकार के श्लोक सारे ग्रन्थ में उन्होने अनेक जगह उद्धृत किए हैं। इनमे से विकाश श्लोकों का यह पता नहीं चलता है कि उन्होंने कहा से लिए हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि वह श्लोक उनके स्वय अपने ही बनाए हुए हैं । 'ध्वन्यालोक' तथा 'वक्रोक्तिजीवित' आदि में यह शैली देखी जाती है। इन ग्रन्थो के लेखकों ने भी अपने मूल ग्रन्थों की रचना कारिका रूप मे करके उनकी वृत्ति भी स्वय ही लिखी है । उन्होंने वृत्ति लिखते हुए अनेक स्थलो पर कुछ सग्रह श्लोक लिखे हैं । वह श्लोक कारिकाओं से भिन्न और वृत्ति ग्रन्थ के भाग हैं। कुन्तक ने इन श्लोकों को 'अन्तरश्लोक' शब्द से कहा है । 'ध्वन्यालोक' में 'सग्रह' नाम से उनका निर्देश हुआ है। इसी प्रकार वामन ने अपने सूत्रों पर स्वयं 'वृत्ति' लिखते हुए स्थान-स्थान पर इस प्रकार के श्लोक लिखे हैं । इन्हीं को प्रायः 'अत्र श्लोकाः ' श्रादि शब्दों से वामन ने निर्दिष्ट किया है | कही कहीं इस प्रकार के श्लोक वामन ने भामह के काव्यालङ्कार श्रादि प्राचीन ग्रन्थों से भी उद्धृत किए हैं। जहा उनका पता लग जाता है वहा तो वह प्राचीन श्लोक ही मानने होंगे, शेष श्लोक वामन के अपने श्लोक मानने होंगे । इसी लिए यह श्लोक भी वामन स्वरचित 'संग्रह' रूप ही हैं ।
श्री पण्डितवरवामनविरचित 'काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ति' मे
प्रथम 'शारीराधिकरण' में प्रथमाध्याय समाप्त हुना । प्रयोजन की स्थापना समाप्त हुई ।
श्रीमदाचार्यविश्वेश्वर सिद्धान्तशिरोमणिविरचिताया काव्यालङ्कारदीपिकाया हिन्दीव्याख्याया प्रथमे शारीराऽधिकरणे प्रथमोऽध्यायः समाप्तः ।
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२४]
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती
[सूत्र १२ समस्तात्युद्धटपदामोजःकान्तिगुणान्विताम् । गौड़ीयामिति गायन्ति रीति रीतिविचक्षणाः ।। उदाहरणम, 'दोर्दण्डाञ्चितचन्द्रशेखरधनुईण्डावभङ्गोद्यतप्रकारध्वनिरार्थवालचरितप्रस्तावनाडिण्डिमः । द्राक्पर्यस्तफपालसम्पुटमिलद्ब्रह्माण्डमाण्डोदरभ्राम्यत्पिण्डितचण्डिमा कथमहो नाद्यापि विश्राम्यति ।। १२ ॥
गुणों से समन्वित रीति को रीति [ शास्त्र] के पण्डित 'गौडीया रीति कहते हैं।
[गौडीया रीति का ] उदाहरण [ निम्न श्लोक है ]
महाकवि भवभूतिनिर्मित 'महावीरचरितम्' नाटक के प्रथमात्र में रामचन्द्र के द्वारा शिव-धनुप के तोड दिए जाने के बाद यह लक्ष्मण की उक्ति है। लक्ष्मण कह रहे हैं कि रामचन्द्र जी के तोडे हुए धनुष का भयङ्कर शब्द अब तक भी शान्त नहीं हुश्रा है। श्लोक का शब्दार्थ इस प्रकार है
[श्री रामचन्द्र जी के द्वारा अनायास ] हाथ में उटाए हुए[चन्द्रशेखर] शिव जी के धनुष के दण्ड के टूटने से उत्पन्न हुआ और आर्य [रामचन्द्र जी] के बाल चरित्र रूप [उनके भावी जीवन की प्रस्तावना का उद्घोषक , टकार-ध्वनि [ उस मीपण टङ्कार के कारण ] एक्दम कांप उठने [दाक् झटिति पर्यस्ते चलिते ] वाले [पृथ्वी तथा श्राकाश रूप छोटे-छोटे ] कपाल-संपुटों में सीमित [ छोटे से ] ब्रह्माण्ड रूप भाण्ड [घडा आदि रूप वर्तन ] के भीतर घूमने के कारण और अधिक भयङ्करता को प्राप्त होकर अब तक भी शान्त नहीं हुआ है। यह पाश्र्घ्य है।
इसमें बन्ध की गाढ़ता और पदों की उज्ज्वलता के कारण 'श्रोज' और 'कान्ति' नामक दोनों गुण स्पष्ट हैं । इसलिए ग्रन्थकार ने इसे 'गौड़ी' रीति के उदाहरण रूप में यहा प्रस्तुत किया है |॥ १२ ॥
इसके वाट क्रमप्राप्त तीसरी पाञ्चाली रीति का निरूपण करते हैं।
'महावीरचरितम् १,१४॥
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[ २५
प्रथमाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः
माधुर्यसौकुमार्योपपन्ना पाञ्चाली | १, २, १३ | माधुर्येण सौकुमार्येण च गुणेनोपपन्ना पाञ्चाली नाम रीतिः । ओजःकान्त्यभावादनुल्वणपदा विच्छाया च । तथा च श्लोकःअश्लिष्टश्लथभावां तां पूरणच्छाययाश्रिताम् । मधुरां सुकुमाराश्च पाञ्चाली कवयो विदुः ||
यथा,
सूत्र १३ ]
'प्रामेऽस्मिन् पथिकाय नैव वसतिः पान्थाधुना दीयते, रात्रावत्र विहारमण्डपतले पान्थ प्रसुप्तो युवा । तेनोत्थाय खलेन गर्जति घने स्मृत्वा प्रियां तत्कृतम्, येनाद्यापि करङ्कदण्डपतनाशङ्की जनस्तिष्ठति ॥
[ ओज और कान्ति के विपरीत ] 'माधुर्य' और 'सौकुमार्य' [ रूप दो गुणों ] से युक्त पाञ्चाली रीति होती है ।
'माधुर्य' तथा 'सौकुमार्य' गुणों से युक्त 'पाञ्चाली' नामक रीति होती है । [ उसमें ] श्रोज और कान्ति का अभाव होने से उसके पद [ गाढत्व रूप 'प्रोज' से विहीन ] सुकुमार और [ कान्ति का अभाव होने से ] विच्छाय [ कान्तिविहीन ] होते हैं। जैसा कि [ उस 'पाञ्चाली' के विषय मे निम्नलिखित प्राचीन ] श्लोक है
गाढ़बन्ध से रहित [ श्रोनोविहीन ] श्रोर शिथिल [ अनुज्ज्वल ] पद वाली, [ गौडी रीति के विषय भूत, 'श्रोज' के विपरीत ] 'माधुर्य' और [ कान्ति के विपरीत ] 'सौकुमार्य' से युक्त सम्पूर्ण सौन्दर्य से शोभित 'रीति' को कवि 'पाचाली' रोति कहते हैं ।
जैसे :
हे पथिक इस ग्राम में अब पथिकों को [ रात्रि में ठहरने के लिए ] स्थान नहीं दिया जाता है। [ क्योंकि एक बार ऐसे ही किसी पथिक को यहां ठहरा लिया था, परन्तु ] रात्रि में यहां विहार [ बौद्ध मठ ] के मण्डप के नीचे सोते हुए उस [ नवयुवक पथिक ] ने [ वर्षा ऋतु की रात्रि में ] मेघ के गर्जने पर उठ कर [ उसके कारण अपनी प्रिया को स्मरण करके वह
१ शाङ्ग घर पद्धतिः ३८३९ |
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२६]
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती [सूत्र १४ एतासु तिसृषु रीतिषु रेखाविव चित्र काव्यं प्रतिष्ठितमिति ॥ १३ ॥
तासां पूर्वा ग्राह्या गुणसाकल्यात् । १, २, १४ ।
[कर्म ] किया [जो कहने योग्य भी नहीं है और ] जिसके कारण यहां [ग्राम ] के लोग [ पथिक के ] वध के दण्ड की शङ्का से भयभीत हैं।
करङ्क शब्द का अर्थ टीकाकार ने 'शव' और 'तत्कृत' से पथिक की मृत्यु सूचित होती है, ऐसी व्याख्या की है । अर्थात् वर्षा की रात्रि मे मेघों के गर्जन को सुनकर और अपनी प्रिया का स्मरण कर वह पथिक युवक इतना दुःखी और उत्तेजित हुअा कि दुःख के आवेग में उसकी मृत्यु हो गई। प्रातःकाल उसका शव पड़ा मिला। जिसके कारण यहा लोग यह समझने लगे कि इस पथिक की हत्या का दोष हमारे सिर पड़ेगा कि गाव वालो ने इसे मारकर इसका धन आदि छीन लिया है। इसलिए इसका दण्ड गाववालों को भोगना पड़ेगा। इस भय से ग्राम के लोग अाज तक भयभीत हैं। इसलिए तब से इस गाव में रात्रि में किसी पथिक को ठहरने की अनुमति न दिए जाने का नियम बना लिया है।
किसी गृहस्थ के यहा कोई पथिक रात्रि को ठहरने के लिए स्थान मागने गया। उसके उत्तर में गृहपति, गृहस्वामिनी अथवा कुलवृद्धा का यह वचन उस दूसरे पथिक के प्रति कहा गया है।
इस पद्य में माधुर्य और सौकुमार्य गुण स्पष्ट प्रतीत हो रहे हैं और उनके कारण सम्पूर्ण पद्य सौन्दर्ययुक्त प्रतीत होता है इसलिए ग्रन्थकार ने इसे 'पाञ्चाली रीति' के उदाहरण रूप मे प्रस्तुत किया है।
इन तीन रीतियों के भीतर काव्य इस प्रकार समाविष्ट हो जाता है जिस प्रकार रेखाओं के भीतर चित्र प्रतिष्ठित होता है ॥ १३॥
इस प्रकार रीतियो का निरूपण करने के बाद उनके श्रापेक्षिक महत्त्व तथा उपादेयता के तारतम्य का प्रश्न स्वयं उपस्थित हो जाता है। क्या ये तीनों रीतिया समान महत्व की हैं अथवा उनकी उपादेयता में तारतम्य है। इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए ग्रन्थकार अगला प्रकरण प्रारम्भ करते हैं।
उनमें से प्रथम [अर्थात् वैदर्भी रीति समस्त [अर्थात् दशों ] गुणों से युक्त होने के कारण ग्राह्य है। [शेष दोनों उतनी ग्राह्य नहीं हैं ] ।
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सूत्र १५] प्रथमाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः [२७
तासां तिसृणां रीतीनां पूर्वा वैदर्भी ग्राह्या गुणानां साकल्यात् ॥ १४॥
न पुनरितरे स्तोकगुणत्वात् । १, २, १५ । इतरे गौड़ीयपाञ्चाल्यौ न ग्राह्य, स्तोकगुणत्वात् ॥ १५ ॥
उन तीनों रीतियों में से प्रथम अर्थात् वैदर्भी [ रीति सबसे अधिक ] ग्राह्य है, सम्पूर्ण [दशों ] गुणों से युक्त होने के कारण ॥१४॥
- अन्य दोनों [ गौदी तथा पाञ्चाली रीतियां ] अल्प गुण [केवल दो-दो गुण ] वाली होने से [ उतनी ] ग्राह्य नहीं हैं।
दूसरी गौड़ी और पाबाली [ यह दोनों रीतियां ] स्वल्पगुण वाली [ केवल दो-दो गुण वाली ] होने से [ उतनी ] ग्राह्य नहीं हैं ॥१२॥ - इन तीनो रीतियो में से वामन ने केवल वैदर्भी को ग्राह्य और शेष दोनों को अग्राह्य अथवा वैदर्भी की अपेक्षा अल्पग्राह्य कहा है। यह मत केवल उनका ही नहीं है अपितु अन्य अनेक सिद्धहस्त और प्रसिद्ध कवियों ने भी उनके इस मत का समर्थन किया है, अथवा कम-से-कम वैदर्भी रीति की अत्यधिक प्रशंसा की है। 'नवसाहसाङ्कचरितम्' काव्य के रचयिता श्री पद्मगुप्त परिमल ने वैदर्भी रीति को जहा सबसे उत्तम मार्ग कहा है वहा उसका अनुसरण तलवार की घार पर चलने के समान कठिन बताया है। उन्होंने लिखा है
'तत्वस्पृशस्ते कवयः पुराणा श्रीमतृ मेएठप्रमुखा जयन्ति |
निस्त्रिंशधारासदृशेन येषा वैदर्भमार्गेण गिरः प्रवृत्ताः॥
'विक्रमाकदेवचरितम्' के रचयिता महाकवि 'विल्हण' ने भी वैदर्भी रीति की अत्यन्त प्रशसा करते हुए लिखा है
'अनभ्रवृष्टिः श्रवणामृतस्य सरस्वतीविभ्रमजन्मभूमिः ।
वैदर्भीतिः कृतिनामुदेति सौभाग्यलाभप्रतिभः पदानाम् ॥
महाकवि नीलकण्ठ ने अपने 'नलचरितम्' नामक नाटक में वैदर्भी रीति की प्रशंसा करते हुए लिखा है
'श्रादिः स्वादुषु या परा कवयता काष्ठा यदारोहणे, या ते निःश्वसितं नवापि च रसा यत्र स्वदन्तेतराम्
'नवसाहसाडुचरितम् १, ५।
विक्रमाङ्कदेवचरितम् १, ६ । ३ नलचरितम् नाटक अड़ २.
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२८ ]
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती
[ सूत्र १५
पाञ्चालीति परम्परापरिचितो वादः कवीना पर, वैदर्भी यदि सैव वाचि किमितः स्वर्गेऽपवर्गेऽपि वा ॥ नीलकण्ठ के मत मे 'वैदर्भी रीति स्वादु, श्रह्लाददायक वस्तुओं मे
सबसे प्रथम है। उसका अवलम्बन करने से कवियो को अपने कवित्व की परा - काष्ठा प्राप्त होती है । 'या ते निःश्वसितम्' जो वैदर्भी तेरी अर्थात् सरस्वती 1 की प्राण स्वरूप है जिसमें नवो रसों का श्रास्वादन हो सकता है । कुछ लोग 'पाञ्चाली' को भी रीति कहने हैं परन्तु यह उन कवियों का केवल परम्परापरिचितवादमात्र [ भेड़चाल ] है, उसमे तथ्य नही है । वास्तव मे तो वैदर्भी रीति ही इन गुणो से युक्त है । यदि वाणी मे उस वैदर्भी रीति का राज्य है तो फिर उसके सामने स्वर्ग या अपवर्ग में भी कुछ तत्व नही हैं ।
महाकवि 'श्रीहर्ष' पण्डित कवि थे । उनकी कविता कठिन और शास्त्रचर्चा बहुल है । परन्तु वह भी अपने को 'वैदर्भी' के पाश मे फसा हुआ पाते हैं । जैसे वैदर्भी दमयन्ती ने अपने सौन्दर्यादि गुणो से नैषध नल को अपनी चोर खीच लिया था इसी प्रकार 'समग्रगुणसम्पन्ना' वैदर्भी रीति ने महाकवि श्रीहर्ष के नैषध काव्य को भी अपनी ओर आकृष्ट कर लिया है। इस रहस्य को श्रीहर्प श्लेष मुख से स्वय ही स्वीकार करते हुए नैषध काव्य मे लिखते हैं
धन्यासि वैदर्भि गुणैरुदारैर्यया समाकृष्यत नैषधोऽपि । इतः स्तुतिः का खलु चन्द्रिकाया यदब्धिमप्युत्तरलीकरोति ॥ नैषध के श्लेषमय चौदहवें सर्ग में भी श्रीहर्ष ने श्लेष से वैदर्भी रीति, की प्रशंसा करते हुए लिखा है
१ नंबघ ३, ११६ ॥
घ १४, ६१ ॥
गुणानामास्थानी नृपतिलकनारीति विदिता रसस्फीतामन्तः तव च तव वृत्ते च कवितुः । भवित्री वैदर्भीमधिकमधिकण्ठ रचयितु परीरम्भक्रीडा चरणशरणामन्वहमयम् ॥ अधिक क्या इस अध्याय के अन्त मे स्वय ग्रन्थकार वामन ने भी वैदर्भी रीति की प्रशसा मे दो प्राचीन श्लोक उद्धृत किए हैं। फलतः इस वैदर्भी रीति के सामने श्रन्य दोनों रोतिया हेय अर्थात् अल्प महत्व की हैं यह वामन का अभिप्राय है । जिसे उन्होंने इन दोनो सूत्रो मे अभिव्यक्त किया है ॥ १५ ॥
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सूत्र १६-१८] प्रथमाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः [२६
तदारोहणार्थमितराभ्यास इत्येके ॥ १, २, १६ ॥
तस्या वैदO एवारोहणार्थमितरयोरपि- रील्योरभ्यास इत्येके मन्यन्ते ॥ १६ ॥
तच्च न, अतत्त्वशीलस्य तत्त्वानिष्पते. ॥१, २, १७॥ न ह्यतत्त्वं शीलयतस्तत्त्वं निष्पद्यते ॥ १७ ॥
निदर्शनमाहन शणसूत्रवानाभ्यासे त्रसरसूत्रवानवैचित्यलाभ ॥१,२,१८॥
कुछ लोगो का मत है कि वैदर्भी मार्ग की प्राप्ति का साधन पाञ्चाली तथा गौडी रीतियों का अभ्यास है। अर्थात् गौड़ी तथा पञ्चाली रीति मे रचना करना सरल है और उसका अभ्यास करते-करते कवि समय पर वैदर्भी रीति में स्चना करने में भी समर्थ हो सकता है। परन्तु वामन इस मत के अत्यन्त विरुद्ध हैं। उनका कहना है कि अतत्त्व के अभ्यास से तत्व को प्राप्त नहीं किया जा सकता है। जैसे सन की सुतली से टाट की पट्टी बुनने वाला व्यक्ति अपने उस अभ्यास से टसर के सुन्दर रेशमी वस्त्र बुनने में कौशल प्राप्त नहीं कर सकता है। इसी प्रकार पाञ्चाली तथा गौड़ी रीतियों का अभ्यास करने वाला कवि उनके अभ्यास के द्वारा वैदी रीति मे अभ्यास-पाटव प्राप्त नहीं कर सकता है । इसी बात को ग्रन्थकार आगे कहते हैं।
उस [ वैदर्भी रीति ] के श्रारोहण के लिए दूसरी [ गौडो तथा पाञ्चाला रीति ] का अभ्यास [ उपयोगी या साधनभूत होता] है ऐसा कोई लोग मानते हैं।
उस [वैदर्भी रीति ] के आरोहण [ उसकी प्राप्ति के लिए ही शेष दोनों [ गौडी तथा पाञ्चाली ] रीतियों का अभ्यास होता है ऐसा कोई लोग मानते हैं ॥ १६ ॥
उनके मत का खण्डन करते हैंवह ठीक नहीं है । अतत्व के अभ्यास से तत्त्व की प्राप्ति नहीं होती। अंतत्त्व का अभ्यास करने वाले को तत्व की सिद्धि नहीं होती है ॥ १७॥ [अपने इस कथन को पुष्टि में ] उदाहरण [ के लिए ] कहते हैसन की डोरी [ की पट्टियों ] के वुनने के अभ्यास करने पर टसर
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३०
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तौ [सूत्र १८-१६ न हि शणसूत्रवानमम्यसन् कुविन्दस्त्रसरसूत्रवानवैचित्र्य लभते ॥ १८ ॥
सापि समासाभावे शुद्धवैदर्भी । १, २, १६ ।
सापि वैदर्भी शुद्धवैदर्भी भण्यते, यदि समासवत् पदं न भवति ॥१६॥
तस्यामर्थगुणसम्पदास्वाद्या । १, २, २० । [ रेशम ] के सूत्र के तुनने में विचक्षणता [कौशल ] की प्राप्ति नहीं होती है।
सन के सूत्र से बुनने का अभ्यास करने वाला धुनकर टसर [रेशम] के सूत्र के वुनने में वैचित्र्य को प्राप्त नहीं करता है।
इसी प्रकार का एक प्रसङ्ग योगदर्शन के प्रथम पाद में पाया है। योग दर्शन में सम्प्रजात और असम्प्रज्ञात दो प्रकार की समाधि मानी गई है। जिस प्रकार यहा अतत्त्व के अभ्यास से तत्व की प्राप्ति नहीं हो सकती है यह कहा है, उसी प्रकार वहा सम्प्रजात या सालम्बन समाधि के अभ्यास से असम्प्रज्ञात समाधि की सिद्धि नहीं हो सकती है यह बात कही गई है।
"सालम्बनो ह्यन्यासस्तत्साधनाय न कल्पत इति विरामप्रत्ययो निर्वस्तुक श्रालम्बनीक्रियते । ॥ १८॥
ऊपर जिस समग्रगुण विभूषित वैदी रीति का वर्णन किया है वह और भी उत्कृष्ट शुद्ध वैदर्भी हो जाती है यदि उसमें समास का प्रयोग न हो। इसको ग्रन्थकार अागे कहते हैं।
वह [ वैदर्भी रीति ] भी समास के न होने पर [और भी उत्कृष्ट ] शुद्ध वैदर्भी कहलाती है।
वह वैदर्भी भी शुद्ध वैदर्भी कही जाती है यदि उसमें समासयुक्त पद न हों। [वैदर्भी का भी उत्कृष्ट रूप यह शुद्ध वैदर्भी है । यह अभिप्राय है] ॥१६॥
___ उसमें अर्थ गुणों का वैभव [ सम्पत्ति, समग्रता, पूर्ण सौन्दर्य प्रास्वाद्य अर्थात ] अनुभव करने योग्य होता है। -- - - - - - -- १ योग० १, १५॥
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सूत्र २०] प्रथमाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः [३१
तस्यां वैदामर्थगुणसम्पदास्वाद्या भवति ॥२०॥
तदुपारोहादर्थगुणलेशोऽपि । १, २, २१ । तदुपधानतः खल्वर्थलेशोऽपि स्वदते । किमङ्ग पुनरर्थगुणसम्पत् । तथा चाहुः
-
___ उस वैदर्भी [रीति ] में अर्थगुणों का वैभव प्रास्वाद के योग्य होता है।
वामन ने जो दश गुण माने हैं उनको शन्दगुण तथा अर्थगुण दोनों रूप मे माना है। उनके नाम दोनों जगह समान हैं परन्तु लक्षण दोनों जगह भिन्न-भिन्न हैं। इनमें से शब्दगुणों का क्षेत्र कुछ सीमित है परन्तु अर्थगुणों का क्षेत्र बहुत व्यापक है। उसमें वस्तुतः कान्य के उपयोगी और उत्कर्षाधायक प्रायः समस्त अंशों का समावेश हो जाता है । (१) अर्थ की प्रौदि 'प्रोज' नाम से, (२) उक्ति का वैचित्र्य 'माधुर्य' नाम से, (३) नवीन अर्थ की कल्पना अर्थदृष्टिरूप 'समाधि' नाम से,(४) रसो का प्रकर्ष कान्ति नाम से, (५) अर्थवैमल्य प्रसाद नाम से, इत्यादि रूप से काव्य के उत्कर्षाधायक समस्त अंशों का समावेश अर्थगुणों के अन्तर्गत हो जाता है । वह सारी अर्थ सम्पत्ति वैदर्भी रीति के अन्तर्गत आस्वाद्य अथवा अलौकिक चमत्कार रूप से अनुभव योग्य होती है। इसीलिए वैदी रीति विशेषरूप से ग्राह्य और प्रशंसा के योग्य मानी गई है ॥२०॥
वैदर्भी रीति में अर्थगुणों की सम्पत्ति या वैभव तो अनुभव योग्य होता ही है परन्तु यदि उसमें गुणो का पूर्ण विकास न हुआ हो और लेश मात्र ही हो तो उस लेशमात्र का भी सौन्दर्य कुछ अलौकिक रूप से मासने लगता है। जिसके कारण उसमें वर्णित एक छोटी-सी बात भी बड़ी चमत्कार युक्त प्रतीत होती है। इसी बात को ग्रन्थकार अगले सूत्र में कह रहे हैं।
उस [वैदर्भी रीति ] के सहारे मे अर्थगुणों का लेश मात्र भी आस्वाद योग्य हो जाता है [अर्थगुण-सम्पत्ति की तो बात ही क्या।]
उस [वैदर्भी रीवि] के सहारे से अर्थ का लेग [सामान्य अर्थ ] भी आस्वाद योग्य हो जाता है अर्थगुण सम्पत्ति की तो बात ही क्या कहना ।
जैसा कि [ वैदर्भी रीति की प्रशंसा में लिखे गए निम्न श्लोकों में] कहा है
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३२]
[सूत्र २१
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तौ किन्त्वस्ति काचिदपरैव पदानुपूर्वी, यस्यां न किञ्चिदपि किञ्चिदिवावभाति । आनन्दयत्यथ च कर्णपथं प्रयाता, चेतः सताममृतवृष्टिरिव प्रविष्टा ।
किन्तु वह [वैदर्भी रीतिमयी ] कुछ और ही [प्रकार की लोकोत्तर] पद रचना है जिसमें [ निबद्ध होने पर ] न कुछ [ तुच्छ या असत् ] सी वस्तु भी कुछ [अलौकिक चमत्कारमय ] सी प्रतीत होती है । और सहृदयों के कर्णगोचर होकर उनके चित्त को इस प्रकार श्राह्लादित करती है मानो [कहीं से ] अमृत की वर्षा हो रही है।
इस श्लोक की व्याख्या के प्रसङ्ग में श्री गोपेन्द्रत्रिपुरहरभूपालविरचित 'वामनालङ्कार सूत्रवृत्ति' की कामधेनु नामक व्याख्या में इसके पूर्वार्द्ध रूप मे यह दो पक्तिया और उद्धृत की है ,
जीवन् पदार्थपरिरम्भणमन्तरेण
शब्दावधिर्भवति न स्फुरणेन सत्यम् । इन पक्तियों का अभिप्राय यह है कि जीवित अर्थात् चमत्कारयुक्त पदार्थ के बिना केवल वैदी रीति के स्फुरणमात्र से वाक्य या काव्य के सौदर्य की पराकाष्ठा नहीं होती है, यह सत्य है किन्तु, इस प्रकार इस पूर्वार्द्ध की अगले श्लोक के साथ सङ्गति तो लग जाती है परन्तु वह इस 'किन्त्वस्ति० इत्यादि श्लोक का पूर्वार्द्ध नहीं है | किन्तु इसके पूर्व यदि एक पूर्वपक्ष का श्लोक दिया जाय यह पंक्किया उस पूर्वपक्ष के श्लोक का उत्तरार्द्ध हो सकती हैं।
परन्तु यह श्लोक स्वयं परिपूर्ण है। ग्रन्थकार ने पुरा श्लोक उद्धृत किया है । केवल उत्तरार्द्ध नही । फिर टीकाकार ने न जाने क्यों 'अत्र... इति पूर्वार्द्ध पठन्ति लिख कर ऊपर की दोनों पक्तिया उद्धत की हैं । श्लोक में आए हुए 'न किञ्चिदिव' शब्द का असद्वस्तु और किञ्चिदिवावमाति' का अर्थ सदिवावभाति' यह अर्थ टीकाकार ने भी अपनी टीका मे दिया है।
ग्रन्थकार श्री वामन वैदर्भी रीति की प्रशसा में आगे एक और श्लोक उद्धृत करते हैं
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[३३
सूत्र २२] प्रथमाधिकरणे द्वितीयोऽध्याय
वचसि यमधिगम्य स्पन्दते वाचकश्रीवितथमवितथस्व यत्र वस्तु प्रयाति । उदयति हि स ताहा क्वापि वैदर्भरीतौ सहृदयहृदयानां रञ्जकः कोऽपि पाकः ॥२१।।
साऽपि वैदर्भी तात्स्थ्यात् । १, २, २२ ।
सापीयमर्थगुणसम्पद् वैदर्भीत्युक्ता । तास्थ्यादित्युपचारतो व्यवहार दर्शयति ॥ २२ ॥
___जिस [वैदर्मी रीति ] को [ काव्य रूप] वाक्य में प्राप्त करके शब्द सौन्दर्य [वाचकली.] थिरकने लगता है, जहां [वैदर्भी रीति में पहुंच कर ] नीरस [वितय वस्तु भी सरप्त अवितय ] हो उठती हैं, सहृदयों के हृदयों को बाह्नादित करने वाला कुछ ऐसा अनिर्वचनीय शब्दुपाक वैदर्भी रीति में [हो] कहीं उदय हो जाता है. I. [ जिसके कारण शब्द शोभा मानों नाचने ली लगती है और नीरस वस्तु भी सरस हो जाती है । टीकाकार ने विवय शब्द का अर्थ नीरस और अवितथ शब्द का अर्थ सरस किया है। ] ॥२॥
उस [वैदर्भी रीति ] में रहने के कारण वह [अर्थगुण सम्पत्ति भी ]' [उपचार या लक्षणा से ] वैदर्भी [ नाम से कही जा सकती है।
वह अर्थगुण सम्पत्ति भी वैदर्भी [ नाम से ] कही गई है । [ सूत्र में प्रयुक्त 'तारस्थ्यात्' इस पद से ] उस [ वैदर्भी रीति ] में स्थित होने के कारण [अर्थसम्पत्ति भी वैदर्भी नाम से कही गई है ] | इस प्रकार उपचार [ लक्षणा] से व्यवहार दिखलाते हैं।
किसान लोग खेतों की रक्षा के लिए उनसे मचान बना कर और उन पर बैठ कर अनाज आदि को खाने वाले पक्षी आदि को उडाते हैं। वहा पक्षियों को उड़ाने की आवाज मचानों पर स्थित पुरुष देते है परन्तु वहा 'मञ्चा: क्रोशन्ति-मचान पुकारते हैं। इस प्रकार का व्यवहार होता है । यह व्यवहार 'तास्थ्य सम्बन्ध से लक्षणा वृत्ति के द्वारा गौण रूप से होता है । वहा जैसे 'ताल्थ्य' सम्बन्ध से मञ्चस्थ पुरुषो के लिए मञ्च शब्द का औपचारिक प्रयोग होता है, इसी प्रकार यहा वैदी रीति में स्थित अर्थगुणसम्पत्ति के लिए भी उपचार अर्थात् लक्षणा से वैदर्भी शब्द का प्रयोग किया गया है। यह ग्रन्थकार का अभिप्राय है।
भामहकालीन दो मार्गों का सिद्धान्तवामन ने इस.अध्याय मे 'वैदर्भी', 'पाञ्चालो' तथा 'गौड़ी' इन तीन
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३४]
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती
[सूत्र २२
रीतियों का वर्णन किया है और उन्हीं को काव्य की आत्मा माना है । वामन के पूर्ववर्ती भामह ने रीति के स्थान पर 'मार्ग' शब्द का प्रयोग किया है और उसके तीन की जगह केवल दो भेद किए हैं—'वैदर्भ मार्ग' तथा 'गौड़ीय मार्ग' । ऐसा प्रतीत होता है कि भामह के समय मे काव्य-रचना के यह दो मार्ग प्रचलित थे । परन्तु वह स्वयं दोनों मार्गों का भेद मानने के पक्ष में नहीं हैं । मार्ग-भेद के विषय मे अरुचि सी दिखलाते हुए उन्होंने लिखा है
वैदर्भमन्यदस्तीति मन्यन्ते सुधियः परे । तदेव च किल ज्यायः सदर्थमपि नापरम् ।। ३१ ।। गौड़ीयमिदमेतत्तु वैदर्भमिति किं पृथक् । गतानुगतिकन्यायान्नानाख्येयममेघसाम् ॥ ३२ ॥ ननु चाश्मकवंशादि वैदर्भमिति कथ्यते । कामं तथास्तु प्रायेण सज्ञेच्छातो विधीयते ॥ ३३ ॥ अपुष्टार्थमवक्रोक्तिं प्रसन्नमूजु कोमलम् । मिन्नं गेयमिवेदन्तु केवलं श्रुतिपेशलम् ॥ ३४ ॥ अलङ्कारवदग्राम्यमध्ये न्याय्यमनाकुलम् ।
गौड़ीयमपि साधीयो वैदर्भमिति नान्यथा ॥ ३५ ॥ इसका अभिप्राय यह है कि कुछ लोग 'वैदर्म मार्ग' को 'गौड़ीय मार्ग से अलग मानते हैं और यह कहते हैं कि वही वैदर्भ मार्ग उत्तम मार्ग है । सदर्थ युक्त होने पर दूसरा अर्थात् 'गौड़ीय मार्ग उस वैदर्भ 'मार्ग' के बराबर नहीं हो सकता है। परन्तु भामहाचार्य का कथन यह है कि यह 'वैदर्भ' और 'गौड़ीय' मार्ग के भेद की कल्पना व्यर्थ है। मूर्ख लोग गतानुगतिक न्याय से, या भेड़-चाल से क्या नहीं कह सकते हैं। सब प्रकार की अनर्गल वातें कहने लगते हैं । अर्थात् उनके मतानुसार यह 'वैदर्भ' तथा 'गौड़ीय मार्ग के भेद की कल्पना केवल मेड़चाल के आधार पर चल रही है और मूर्खतापूर्ण है।
कोई यदि यह कहे कि नहीं, मार्ग की यह कल्पना निराधार नहीं है अपितु देश के आधार पर की गई है। अश्मक वंश आदि देश विदर्भ कहलाता है। उसी के आधार पर 'वैदर्भमार्ग' माना जाता है। और वह 'गौड़ीयमार्ग' से भिन्न है । इसके उत्तर में भामहाचार्य कहते हैं कि यह वैदर्भ श्रादि संज्ञाएं तो आपने अपनी इच्छा के अनुसार कर ली हैं। काव्य का सौन्दयोधायक तत्व तो एक ही है। उसे चाहे 'वैदर्भ मार्ग से, चाहे 'गौड़ीय मार्ग से निरू
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सूत्र २२ ]
प्रथमाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः
[३५
पण करो यदि वह तत्व पा जाता है तो दोनों अवस्थाओं में कान्य उपादेय होगा अन्यथा उससे मिन्न होने पर 'वैदर्भ मार्ग' भी काव्य को उपादेय नहीं बना सकता है । यदि अलङ्कारयुक्त, ग्राम्यता दोष से रहित, सुन्दर अर्थ से युक्त और सुसङ्गत काव्य है तो वह भले ही 'गौड़ीय मार्ग से लिखा गया हो, वह अवश्य सहृदयों के हृदय मे चमत्कार को उत्पन्न करेगा । और यदि इन गुणों से विहीन काव्य है तो फिर वह भले ही वैदर्भ मार्ग से लिखा गया हो वह सहृदयों के लिए चमत्कारजनक नहीं हो सकता है।
इस प्रकार भामह ने अपने समय के मार्गों के प्रचलित भेद के प्रति अरुचि प्रकट की है परन्तु उस से यह स्पष्ट है कि वामन की तीन रीतियो के स्थान पर भामह के समय दो मार्ग का मानने वाला कोई सम्प्रदाय प्रचलित था।
कुन्तंक का त्रिमार्ग सिद्धान्त
'वक्रोक्ति जीवितम्' नामक प्रसिद्ध सहित अन्य के निर्माता कुन्तक ने देश के आधार पर माने गए दोनों मार्गों तथा वामन की तीनों रीतियो का खण्डन कर 'रचना शैली' के आधार पर 'सुकुमार', 'मध्यम' और 'विचित्र' इन तीन प्रकार के मार्गों का प्रतिपादन किया है।
'सम्प्रति तत्र ये मार्गाः कविप्रस्थानहेतवः ।
सुकुमारो विचित्रश्च मध्यमश्चोभयात्मकः ॥ अर्थात् काव्य रचना के केवल तीन मार्ग हो सकते हैं। न इससे कम एक या दो और न इससे अधिक चार या पाच । इन तीनो मार्गों में से पहिला सुकुमार, दूसरा विचित्र और तीसरा सुकुमार तथा विचित्र के योग से बना मध्यम मार्ग है।
देशाधित रीतिवाद तथा मार्गवाद का खण्डन
विदर्भादि देशों के आधार पर मानी गई वामन की तीन रीतियों तथा भामह द्वारा उल्लिखित दो मागों के सिद्धान्त का खण्डन करते हुए कुन्तक ने लिखा है
'अत्र बहुविधा विप्रतिपत्तयः सम्भवन्ति । यस्माच्चिरन्तनैर्विदर्भादिदेशसमाश्रयेण वैदर्भीप्रभृतयो रीतयस्तिस्रः समाम्नाताः । तासा चोत्तमाधममध्यमत्वेन त्रैविध्यम् । अन्यैश्च वैदर्भगौड़ीयलक्षणं मार्गद्वितयमाख्यातम् । एतच्चोभयमप्ययुक्ति
' वक्रोक्तिनीवितम् १, २४ । वक्रोक्तिजीवितम् १, २४ ।
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३६ ]
[ सूत्र २२
युक्तम् । यस्माद्देशभेदनिबन्धनत्वे रीतिभेदाना देशानामानन्त्यादसख्यत्वं प्रसज्यते । न च विशिष्टरीतियुक्तत्वेन काव्यकरणं मातुलेयभगिनी विवाहवद् देशधर्मतया व्यवस्थापयितु ं शक्यम् । देशधर्मो हि वृद्धव्यवहारपरम्परामात्रशरणः शक्यानुष्ठानता नातिवर्तते । तथाविधकाव्यकरणं पुनः शक्त्यादिकारणकलापसाकल्यमपेक्षमाणो न शक्यते यथाकथञ्चिदनुष्ठातुम्' |
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तौ
इसका अभिप्राय यह हुआ कि मार्ग के विषय में अनेक प्रकार के मतभेद हो सकते हैं। क्योंकि वामन आदि प्राचीन श्राचार्यों ने विदर्भ आदि देश विशेष के श्राश्रय से वैदर्भी आदि तीन रीतिया मानी है । और उन रीतियों में वैदर्भी को सर्वोत्तम मान कर उत्तम, मध्यम, अधम रूप से तीन विभाग किए हैं । इसके अतिरिक्त भामह के काव्यालङ्कार मे पाए जाने वाले मत के अनुसार अन्य लोगों ने वैदर्भ तथा गौड़ीय रूप दो प्रकार के मार्ग माने हैं । यह दोनो मत युक्तिसङ्गत नही हैं। क्योंकि काव्य रचना की रीतियों को यदि देशविशेष के आधार पर विभक्त किया जायगा तो देशो के अनन्त होने से रीतियों की अनन्तता माननी होगी । जो कि असङ्गत है । किसी देशविशेप में प्रचलित ममेरी बहन के साथ विवाह आदि के समान रीतियों को दैशिक आचारमात्र नही माना जा सकता है। क्योंकि दैशिक श्राचार में तो केवल वृद्धव्यवहारपरम्परा ही प्रमाण है । इसी लिए वृद्धव्यवहार के अनुसार उसका अनुष्ठान किया जा सकता है परन्तु काव्य की रचना तो वृद्धव्यवहार के ऊपर श्राश्रित नहीं हैं । उसके लिए तो शक्ति और व्युत्पत्ति श्रादि कारणकलाप की श्रावश्यकता होती है। उसके बिना केवल दैशिक धर्म के रूप में काव्य की रचना नही की जा सकती है । इसलिए दैशिक श्राचारों के समान देश-भेद के धार पर काव्य-रचना की रीतियों का भेद करना उचित नहीं है ।
* किञ्च शक्तौ विद्यमानायामपि व्युत्पस्या दिराहार्य कारणसम्पत् प्रतिनियतदेशविपयतया न व्यवतिष्ठते । नियमनिबन्धनाभावात् तत्रादर्शनादन्यत्र च दर्शनात् ।
श्री शक्ति के होने पर भी व्युत्पत्ति श्रादि उपार्जित कारण सामग्री की भी काव्य-रचना मे श्रावश्यकता होती है। वह कारण सामग्री भी किसी देशविशेष में नियमित नहीं है। क्योंकि विदर्भ श्रादि उस-उस देश में रहने वाले अन्य बहुत से पुरुषों को उस प्रकार की शक्ति तथा व्युत्पत्ति प्राप्त नही होती है और उस देश से भिन्न स्थल में भी उस प्रकार की सामग्री प्राप्त हो जाती है । इसलिए काव्य
१,२
वक्रोक्तिजीवितम् का० १, २४ ।
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सूत्र २२
प्रथमाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः
[ ३७
रचना की कोई भी समग्री देशविशेष के ऊपर अवलम्बित नहीं है । न प्रतिभा किसी देशविशेष से सम्बन्ध रखती है और न व्युत्पत्ति श्रादि । वह दोनो प्रकार 1 की सामग्री सब देशो और कालों में सर्वत्र उपलब्ध हो सकती है। सभी देशों में उत्तम कवि हो सकते हैं। इसलिए देशविशेष के अाधार पर काव्य-रचना की. रीतियों का विभाजन करना उचित नही है ।
आगे देश-भेद के श्राधार पर मानी हुई उन रीतियों के उत्तम, मध्यम, अधम भाव का मानना भी उचित नहीं है, यह दिखलाते हुए कुन्तक लिखते हैं
'न च रोतीनामुत्तमाधममध्यमत्वभेदेन त्रैविध्यमवस्थापयितु न्याय्यम् । यस्मात् सहृदयाह्लादकारिकाव्यलक्षण प्रस्तावे वैदर्भीसदृश सौन्दर्यासम्भवान्मध्यमाधमयोरुपदेशवैयर्थ्यमायाति । परिहार्यत्वेनाप्युपदेशो न युक्ततामवलम्बते । तैरेवानभ्युपगतत्वात् । नचागतिकगतिन्यायेन यथाशक्ति दरिद्रदानादिवत् काव्यं करणीयतामर्हति । तदेव निर्वचनसमाख्यामात्रकरणकारणत्वे देशविशेषाश्रयणस्य वय न ग्विदामहे | मार्गद्वितयवादिनामप्येतान्येव दूषणानि । तदलमनेन निःसारवस्तुपरिमल नव्यसनेन ।
अर्थात् देशविशेष के आधार पर मानी गई रीतियों का जो उत्तम, मध्यम अधम रूप से तीन प्रकार का जो विभाजन किया गया है वह भी उचित नहीं हुआ । क्योंकि सहृदयहृदयाह्लादकारी काव्य की रचना के प्रसङ्ग मे यह तीन प्रकार का रीतिविभाग किया गया है। और यह कहा गया कि वैदर्भी रीति सबसे अधिक सहृदयहृदयाह्लादकारी है। इसका अभिप्राय यह हुआ कि अन्य रीतिया 'वैदर्भी' के समान हृदयाह्लादक नही हो सकती हैं। अतः जो सहृदयहृदयाह्लादकारी है वही काव्य की एकमात्र रीति हो सकती है। इसलिए तीन रीतिया नही अपितु केवल एक ही रीति माननी चाहिए ! शेष दो रीतियो का उपदेश व्यर्थ हो जाता है । यदि यह कहा जाय कि शेष रीतियों का उपदेश उनके परित्याग के लिए किया गया है तो यह कहना उचित नहीं होगा क्योंकि रीतियों का प्रतिपादन करने वाले वामन इस बात को नहीं मानते हैं कि शेष रीतियों का उपदेश उनका परित्याग करने के लिए किया गया है। दो मार्गों के मानने में भी यही दोष आते हैं ।
इस प्रकार कुन्तक ने देशभेद के आधार पर माने गए दो मार्ग और तीन रीतियो के सिद्धान्त का खण्डन कर वस्तुतः 'शैली' के आधार पर सुकुमार, विचित्र तथा मध्यम मार्ग का निरूपण किया है ।
वक्रोक्तिजीवितम् का० १, २४ ।
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३८ ]
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तौ
इति श्री पण्डितवरचा मनविरचितकाव्यालङ्कारसूत्रवृत्तौ 'शारीरे' प्रथमेऽधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः । अधिकारिचिन्ता रीतिनिश्चयश्च ।
[
सूत्र २२
पाश्चात्य 'रीति' विवेचन
न केवल भारतीय साहित्य में अपितु पाश्चात्य साहित्य मे भी 'रीतियों' का विवेचन बडे सुन्दर ढंग से किया गया है। पाश्चात्य दर्शन तथा साहित्य के जन्मदाता प्रसिद्ध यूनानी विद्वान् ' अरस्तू' ने साहित्य शास्त्र सम्वन्धी दो महत्वपूर्ण है ग्रन्थ लिखे हैं जिनके नाम 'रेटारिक्स' तथा 'पोइटिक्स' है । इनमे से 'रेटारिक्स' के तृतीय खण्ड में रीतियों का विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है । अरस्तू ने 'साहित्यिक' तथा 'वादात्मक' दो प्रकार की रीतियों का विवेचन किया है। हमारे यहा 'साहित्यिक' रीतियों का विवेचन साहित्यशास्त्र मे और 'वादात्मक' रीतियों का विवेचन न्याय शास्त्र में किया गया है ।
'अरस्तू' के बाद 'डिमेट्रियस' नामक एक और प्रसिद्ध यूनानी श्रालङ्कारिक ३०० ईसवी पूर्व हुए हैं। उन्होने 'श्रान स्टाइल' [On Style] नामक उत्कृष्ट ग्रन्थ रीति ग्रन्थ मे चार प्रकार की रीतिया मानी हैं
श्रीमदाचार्य विश्वेश्वर सिद्धान्त शिरोमणिविरचिताया काव्यालङ्कारदीपिकाया हिन्दीव्याख्याया प्रथमे शारीराऽधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः समाप्तः ।
१ प्रसन्न मार्ग [Plain Style], २ उदात्त मार्ग [Stately Style] ३ मटण मार्ग [Polished Style], ४ ऊर्जस्वी मार्ग [ Powerful Style] हमारे यहा जैसे 'कुन्तक' ने अपने मार्गों के साथ अथवा वामन ने अपनी रीतियों के साथ गुणो का सम्बन्ध प्रदर्शित किया है, इसी प्रकार 'डिमेट्रियस' ने भी अपने मार्गों के साथ गुणो का सम्बन्ध दिखलाया है। उन गुणों के अभाव में चार दूपित रीतिया उत्पन्न हो जाती हैं
१ शिथिल मार्ग [Frigid Style], २ कृत्रिम मार्ग [Affected Style], ३ नीरस मार्ग [Arid Style] ४ श्रननुकूल मार्ग [ Disagreeable Style] श्री पडितवामनविरचित 'काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ति' में
प्रथम 'शारीराधिकरण' में द्वितीय अध्याय समाप्त हुत्रा । श्रधिकारिचिन्ता और रीतिनिश्चय समाप्त हुआ ।
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शारीरनाम्नि प्रथमाधिकरणे
तृतीयोऽध्यायः [काव्याङ्गानि काव्यविशेषाश्च] अधिकारिचिन्तां रीतितत्वञ्च निरूप्य काव्याङ्गान्युपदर्शयितुमाहलोको विद्या प्रकीर्णञ्च काव्याङ्गानि । १, ३, १।।
शारीर नामक प्रथम अधिकरण में तृतीय अध्याय
[काव्य के अङ्ग और काव्य के भेद] पिछले अध्याय में ग्रन्थकार ने इस अन्य के 'अधिकारी तथा उसके प्रतिपाद्य विषय के मुख्य भाग 'रीति' का विवेचन किया था । उसके पूर्व अर्थात् प्रथमाधिकरण के प्रथम अध्याय मे अन्य के प्रयोजन का निरूपण कर चुके हैं । इस प्रकार इन विगत दो अध्यायो में 'अनुबन्ध चतुष्टय' में से 'अधिकारी', 'प्रयोजन' और 'विषय' इन तीनों अनुबन्धो का निरूपण हो गया। अब शेष चौथा 'सम्बन्ध' नामक अनुबन्ध रह जाता है। उसके स्पष्ट होने से ग्रन्थकार ने अलग नहीं दिखाया है। ग्रन्थ का, विषय के साथ 'प्रतिपाद्य-प्रतिपादक भाव', और अधिकारी के साथ 'बोध्य-बोधकमाव' सम्बन्ध सदा ही होता है। इसलिए उसको अलग दिखलाने की अधिक आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार यहा तक 'अनुबन्ध चतुष्टय' का निरूपण कर चुकने के बाद अन्धकार अब अपने विषय का प्रतिपादन प्रारम्भ करते हैं।
जैसे पिछले अध्याय मे 'अधिकारी' तथा 'रीति निश्चय' रूप दो विषयों का प्रतिपादन किया था इसी प्रकार इस अध्याय में 'काव्य के अङ्ग' और 'कान्य के भेद' इन दो विषयों का निरूपण करेंगे। काव्य के अङ्ग शब्द से काव्य के अवयवों का नहीं अपितु साधनो का ग्रहण करना चाहिए । अन्यकार इस अध्याय के प्रारम्भिक २० सूत्रों में काव्य के साधनों का और अन्तिम १२ सूत्रों में काव्य के मुख्य भेदो का निरूपण करेंगे। सबसे पूर्व पिछले अध्याय के साथ इस अध्याय की सङ्गति जोड़ते हुए ग्रन्थकार अध्याय का प्रारम्भ करते हैं
अधिकारिचिन्ता और रीतिनिश्चय का [पिछले अध्याय में ] निरूपण करके [अब इस अध्याय में ] काव्य के साधनों [अङ्गों ] को दिखलाने के लिए कहते हैं
(१) लोक [ अर्थात् स्थावर-जगमात्मक लोक का व्यवहार], (२) विद्या
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४० ]
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती
[ सूत्र १
चौदह अथवा अठारह भेदों से प्रसिद्ध समस्त विद्याएं ], और ३. [ काव्यों का -ज्ञान, काव्यों की सेवा, पदों के निर्वाचन की सावधानता, और स्वाभाविक प्रतिभा तथा उद्योग रूप पांच को मिलाकर ], प्रकीर्ण [ फुटकर इस प्रकार यह तीन मुख्य ] काव्य [ निर्माण में कौशल प्राप्त करने ] के साधन हैं ॥ १ ॥
काव्य के इन्हीं साधनों को लेकर काव्यप्रकाशकार श्री मम्मटाचार्य ने अपने ग्रन्थ में काव्य के हेतुत्रो का इस प्रकार निरूपण किया है'शक्तिर्निपुणता लोकशास्त्रकाव्याद्यवेक्षणात् । काव्यज्ञशिक्षायाभ्यास इति हेतुस्तदुद्भवे ॥
इसमें वामन के लोक और विद्या दोनों का 'लोकशास्त्राद्यवेक्षणात् निपुणता ' के अन्तर्गत और प्रकीर्ण में से शक्ति को अलग करके तथा वृद्धसेवा श्रादि को 'काव्यज्ञशिक्षयाभ्यासः' मे अन्तर्गत करके, 'काव्यप्रकाशकार' ने भी वामन के समान ही ८ काव्याङ्गों को मुख्य रूप से तीन काव्य-साधनों के रूप में प्रस्तुत किया है । वामन के पूर्ववर्ती श्राचार्य 'भामह' ने काव्य के साधनों का निरूपण इस प्रकार किया है -
P
" शब्दश्छन्दोऽभिधानार्था इतिहासाश्रयाः कथाः । लोको युक्तिः कलाश्चेति मन्तव्या काव्ययैरमी ॥६॥ शब्दाभिधेये विज्ञाय कृत्वा तद्विदुपासनाम् । विलोक्यान्यनिबन्धाश्च कार्यः काव्यक्रियादरः ||१०||
इन सब काव्याङ्गों के निरूपण की तुलना करने से प्रतीत होता है कि काव्य के साधन सव लोगो की दृष्टि में लगभग एक जैसे ही हैं। परन्तु उन्हीं के पौर्वापर्य 'अथवा विभाग आदि में भेद करके भिन्न-भिन्न श्राचार्यों ने अपनेअपने ढंग से उनका निरूपण कर दिया है ।
1
भामह के ऊपर उद्धृत किए हुए श्लोकों में अन्तिम पद का पाठ भ्रष्ट मालूम होता है । ग्रन्थ के सम्पादक महोदय स्वय भी शुद्ध पाठ का निश्चय नहीं कर सके हैं। उन्होने मूल में ही 'काव्ययैर्वशी' और 'काव्ययैरमी' यह दो पाठ दिए हैं । और एक तीसरा पाठ 'काव्ययैामी' नीचे टिप्पणी रूप में दिया है। इन तीनों में से किसी से भी अर्थ की सद्धति ठीक नहीं लगती है । फिर भी 'स्थितस्य गतिश्चिन्तनीया' इस सिद्धान्त के अनुसार
१ काव्यप्रकाश १, २ ।
, भामह काव्यालङ्कार १, ६-१० ।
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[४१
सूत्र २] प्रथमाधिकरणे तृतीयोऽध्यायः उद्देशक्रमेणैतद् व्याचष्टे- .
लोकवृत्त लोकः । १, ३, २। लोकः स्थावरजङ्गमात्मा । तस्य वर्तनं वृत्तमिति ॥२॥
स्थित पाठ की ही व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है। इस पाठ मे वस्तुतः 'काव्ययैः' पद अस्पष्ट है । उसको यदि 'काव्यं याति इति कान्ययः' अर्थात् जो काव्य निर्माण की ओर चलना चाहता है वह 'काव्यय हुआ ऐसा अर्थ कर लें तो पाठ की कथञ्चित् सङ्गति लग जावेगी । उस दशा मे प्रथम श्लोक का अर्थ यह हो जावेगा कि जो काव्य निर्माण की ओर प्रवृत्त होना चाहे उस अभिनव कविपदाकाक्षी को 'शब्द-स्मृति' अर्थात् 'व्याकरण', छन्द, कोश, इतिहासाश्रित कथाएं, लोकव्यवहार, न्यायादि युक्तिशास्त्र और चौसठ प्रकार को कलाओं का मनन और ज्ञान प्राप्त करना चाहिए । यह पहिले श्लोक का अर्थ हुा । और उसके बाद शब्द और अर्थ को भली प्रकार समझ कर, दूसरे महाकवियो के काव्यो का अवलोकन, तथा कान्यज्ञ विद्वानो की सत्सङ्गति करते हुए काव्यरचना का अभ्यास करना चाहिए । यह भामह के काव्यसाधन-प्रतिपादक दोनों श्लोको का भावार्थ हुना । वामन ने भी प्रायः इन्हीं साधनो का निरूपण किया है।
____१'नाममात्रेण वस्तुसङ्कीर्तन उद्देश:'-नाम मात्र से वस्तु के कथन करने अर्थात् पदार्थों के केवल नाम गिनाने को 'उद्देश' कहते हैं । जैसे कि यहा प्रथम सूत्र मे लोक, विद्या, और प्रकीर्ण यह काव्यागों के नाम मात्र गिना दिए हैं। उनका लक्षण आदि नही किया है । इसी को 'उद्देश' कहते हैं। 'उद्देश' के समय पदार्थों के पौर्वापर्व का जो क्रम रहता है उसी क्रम से आगे उनकी व्याख्या, लक्षण आदि किए जाते हैं। इसलिए यहा भी अन्धकार 'उद्देश-क्रम' से काव्यानो के लक्षण आदि करने के लिए अवतरणिका करते हैं
उद्देश के क्रम से इनकी व्याख्या करते हैंलोक व्यवहार [ यहां ] लोक [ शब्द से अभिप्रेत ] है।
स्थावर [वृक्षादि अचल ] और जङ्गम [चल मनुष्यादि] रूप [जगत् ] लोक [ शब्द का मुख्यार्थ ] है । उसका वृत्त अर्थात् व्यवहार यह [लोकवृत्त पद का अर्थ है ।।२।।
२ तर्कभाषा पृ० ५।
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५४]
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती [सूत्र १६-२० विविक्तो देशः । १, ३, १६ । विवित्तो निर्जनः ॥ १६ ॥ । रात्रियामस्तुरीयः कालः । १, ३, २० ।
रात्रेामो रात्रियामः प्रहरस्तुरीयश्चतुर्थः काल इति । तद्वशाद् विषयोपरतं चित्तं प्रसन्नमवधत्ते ॥२०॥
___ वह विशेष देश और काल कौन-से हैं जिनमें एकाग्रता उप्पन्न होती है यह कहते हैं
विविक्त [अर्थात् निर्जन ] देश [ एकाग्रता के लिए आवश्यक ] है । विविक्त [का अर्थ] निर्जन है। [स्थान की निर्जनता, चित्त की एकाग्रतासम्पादन के लिए अत्यन्त आवश्यक है ] ॥१९॥
___ रात्रि का चौथा पहर [ ब्राह्ममुहूर्त का काल चित्त की एकाग्रता के लिए सबसे अधिक उपयुक्त ] काल है।
रात्रि का याम रात्रियाम [ यह षष्ठी तत्पुरुष समास ] है। [याम का अर्थ ] प्रहर है । तुरीय [ का अर्थ ] चतुर्थ । [ रात्रि का चतुर्थ पहर, अर्थात् ब्राह्ममुहूर्त का समय चित्त को एकाग्रता का उपयुक्त ] काल है । उस [ समय] के प्रभाव से विषयो से विरत और निर्मल चित्त एकान हो जाता है। [वह समय काव्य निर्माण के लिए अत्यन्त उपयोगी है।]
ब्राह्ममुहूर्त का समय काव्य रचना श्रादि बौद्धिक कार्यों के लिए विशेष रूप से उपयुक्त और अनुकूल है। उसमें नवीन भावों की स्फूर्ति होती है। इसलिए महाकवि कालिदास ने
'पश्चिमाद् यामिनीयामात् प्रसादमिव चेतना।" यह पद लिखा है। महाकवि माघ ने भी लिखा है कि
गहनमपररात्रप्राप्तबुद्धिप्रसादाः
कवय इव महीपाश्चिन्तयन्त्यर्थजातम् ॥२०॥ इस प्रकार इस अध्याय के इन प्रारम्भिक बीस सूत्रो में काव्य के साधनों
' रघुवंश १७,१॥ २ माघ ११,६।
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सूत्र २१-२३ ] प्रथमाधिकरणे तृतीयोऽध्यायः [५५ एवं काव्याङ्गान्युपदिश्य काव्यविशेषकथनार्थमाह
काव्यं गद्यं पद्यञ्च । १, ३, २१ । गद्यस्य पूर्वनिर्देशो दुर्लक्ष्यविशेषत्वेन दुर्बन्धत्वात् । तथाहुः'गद्य कवीनां निकष वदन्ति ॥ २१ ॥ तच्च त्रिधा भिन्नमिति दर्शयितुमाहगद्यं वृत्तगन्धि चूर्णमुत्कलिकाप्रायञ्च । १, ३, २२ । तल्लक्षणान्याह
पद्यभागवद् वृत्तगन्धि । १, ३, २३ । पद्यस्य भागाः पद्यभागाः। तद्वद् वृत्तगन्धि । यथा'पातालतालुतलवासिषु दानवेषु' इति ।
-
-
का निरूपण कर अब अगले १० सूत्रों मे काव्य के भेदो का निरूपण प्रारम्भ करते हैं।
इस प्रकार काव्य के साधनो का कथन करके काव्य के भेदों के निरूपण के लिए कहते है
काव्य गद्य और पद्य [ रूप से दो प्रकार का होता है।
[काव्य के इन दोनो भेदों में से ] गद्य का पहले निर्देश उसको विशेषतामों के दुर्जेय और उसकी रचना के कठिन होने के कारण किया गया है। जैसा कि [ लोकोक्ति में ] पहा है
गद्य को कवियो की [ प्रतिभा को ] कसोटी कहते है ॥२१॥ वह [ गद्य ] भी तीन प्रकार का होता है यह दिखलाने के लिए
गध (१) वृत्तगन्धि, (२) चूर्ण, और (३) उत्कलिकाप्राय [ तीन प्रकार का होता है ॥ २२ ॥
उन [ तीनों गधभेदो ] के लक्षण कहते है
[जो गद्य पढने में] पद्यभाग से युक्त [ या उसके समान प्रतीत हो [उसमें वृत्त प्रर्थात् छन्द की गन्ध होने से ] उसको 'वृत्तगन्धि' कहते है ।
'पद्यभागवत्' का समास कहते है ] पद्य का भाग पद्यभाग यह षष्ठी समास है ] उससे युक्त [ या उसके समान गद्य ] 'वृत्तगन्धि' [कहलाता है।
पाताल के ताल के तले में रहने वाले वानवो में।
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५६]
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती [सूत्र २४ अत्र हि 'वसन्ततिलका' वृत्तस्य भागः प्रत्यभिज्ञायते ॥ २३॥
अनाविद्धललितपद चूर्णम् १, ३, २४ ।
अनाविद्धान्यदीर्घसमासानि ललितान्यनुद्धतानि पदानि यस्मिंस्त- । दनाविद्धललितपदं चूर्णमिति । यथा
अभ्यासो हि कर्मणां कौशलमावहति । न हि सकृन्निपातमात्रेणोदबिन्दुरपि प्रावणि निम्नतामादधाति ॥ २४ ॥
इस [ उदाहरण ] में 'वसन्ततिलका' छन्द का भाग [ एक चरण, पढ़ते हो ] पहिचान लिया जाता है। [ इसलिए इस गद्यांश में 'वसन्ततिलका' वृत्त की गन्ध होने से यह सारा गद्य भाग जिसका यह एकदेश उदाहरणार्थ लिया गया है। 'वृत्तगन्धि' गद्य कहलाता है । _ 'वसन्ततिलका' छन्द का लक्षण है 'उक्ता वसन्ततिलका तभजा जगौ गः ।' यद्दी पंक्ति उसका उदाहरण भी है । इसके अनुसार वसन्ततिक्षका वृत्त में प्रत्येक चरण मे १४ अक्षर होते हैं। उनका विन्यास तगण, भगण, जगण, जगण, गुरु, गुरु इस प्रकार होता है। ऊपर के उदाहरण 'पातालतालुतलवासिषु दानवेषु' की रचना इसी क्रम से है । इसलिए वह पद्य के समान प्रतीत होता है । इसलिए वह जिस गद्यभाग का अंश है वह सब 'वृत्तगन्धि' गद्य कहलाता है ॥२३॥
___दूसरे प्रकार की गद्यरचना को 'चूर्ण' कहते हैं । अगले सूत्र मे ग्रन्थकार उस 'चूर्ण ग का लक्षण करते हैं ।
असमस्त [अनाविद्ध ] और ललित पदो से युक्त [गधभाग] 'चूर्ण' कहलाता है।
अनाविद्ध अर्थात् वीर्घसमासरहित और सुन्दर कोमल पद जिस में हो वह अनाविद्ध ललितपद वाला गद्य 'चूर्ण' कहलाता है । जैसे
कर्मों के अभ्यास से ही कौशल प्राप्त होता है । केवल एक बार गिरने से तो जल की बूंद भी पत्थर में गड्ढा नहीं डालती ॥ २४ ॥
___ गद्य का तीसरा भेद 'उत्कलिकाप्राय' कहलाता है। उसका स्वरूप चूर्णास्मक गद्य से बिल्कुल विपरीत होता है । चूर्णात्मक गद्य दीर्घसमासरहित और कोमल पद युक्त होता है, तो 'उत्कलिकाप्राय' गद्य उसके विपरीत दीर्घसमास
और उद्धत पदों से युक्त होता है । इसी प्राशय से ग्रन्थकार उसका लक्षण आगे करते हैं।
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प्रथमाधिकरणे तृतीयोऽध्याय
विपरीतमुत्कलिकाप्रायम् । १, ३, २५ | विपरीतमाविद्धोद्धतपदमुत्कलिकाप्रायम् । यथाकुलिशशिखरखरनखरप्रचयप्रचण्ड चपेटापाटितमत्तमातङ्गकुम्भस्थलगलन्मदच्छटाच्छुरितचारुकेसर भारभासुरमुखे केसरिणि ॥ २५ ॥
सूत्र २५–२६ ]
―――――
[ ५७
पद्यमनेकभेदम् । १, ३, २६ ।
पद्यं खल्वनेकेन समार्थसमविषमादिना भेदेन भिन्नं भवति ॥ २६ ॥
[ चूर्णात्मक गद्य से ] विपरीत 'उत्कलिकाप्राय' [ गद्य ] होता है ।
[ चूर्णात्मक गद्य से ] विपरीत प्रर्थात् दीर्घसमासयुक्त [ श्राविद्ध ] और उद्धत पदो से युक्त [ गद्य ] 'उत्कलिकाप्राय' [ गद्य नाम से कहा जाता ] है | जैसे
बज्रकोटि के समान तीक्ष्ण नखो के कारण भयङ्कर थप्पड से विदीर्ण मत्त हाथी के कुम्भस्थल से गिरती हुए मवधारा से भीगे हुए अयालो के समूह से देदीप्यमान मुख वाले सिंह के होने पर ॥ २५ ॥
गद्यकाव्य का निरूपण कर चुकने के बाद पद्य का निरूपण प्रारम्भ करते हैं। पद्य अनेक प्रकार के होते है ।
सम, अर्धसम और विषम आदि भेद से पद्म अनेक प्रकार के होते हैं ॥ २६ ॥
'काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ति' के टीकाकार श्री 'गोपेन्द्र त्रिपुरहरभूपाल' ने सम, असम और विषम वृत्तों के लक्षण 'भामह' के मतानुसार इस प्रकार उत किए हैं
सममर्धसमं वृत्तं विपमञ्च त्रिधा मतम् ।
यो यस्य चत्वारस्तुल्यलक्षणलक्षिताः । तच्छ्रुन्दःशास्त्रतत्त्वज्ञाः समवृत्त प्रचक्षते ||१|| प्रथमात्रिसमो यस्य तृतीयश्चरणो भवेत् । द्वितीयस्तुर्यवद् वृत्त तदर्धसममुच्यते ॥२॥ यस्य पादचतुष्केऽपि लक्ष्म भिन्न परस्परम् । तदाहुर्विषम वृत्त छन्दः शास्त्रविशारदाः ॥३॥
ये श्लोक यद्यपि 'भामह' के नाम से टीका मे उद्धृत किए गए हैं परन्तु 'भामह' के 'काव्यालङ्कार' में उनका कही पता नही चलता है। इसी प्रकार ऊपर १, ३, १५ वें सूत्र की वृत्ति मे 'श्राधानोद्धरणे तावत् यावद्दोलायते मनः '
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सूत्र २-३] द्वितीयाधिकरणे प्रथमोऽध्यायः [६६
अर्थतस्तदवगम । २, १, २ । गुणस्वरूपनिरूपणात् तेषां दोपाणां अर्थादवगमोऽर्थसिद्धिः ॥२॥ किमर्थन्ते पृथक् प्रपञ्च्यन्त इत्याह
सौकर्याय प्रपञ्च । १, १, ३ । सौकर्यार्थ प्रपञ्चो विस्तरो दोषाणाम् । उद्दिष्टा लक्षिता हि दोपाः सुज्ञाना भवन्ति ॥ ३॥ की आवश्यकता नहीं है। फिर दोष निरूपण के लिए इस 'दोषदर्शन' अधिकरण की रचना आपने क्यो की है ? ग्रन्थकार इस प्रश्न का उत्तर यह देते हैं कि यह ठीक है कि गुणो के परिज्ञान से भी उनके विरोधी दोपों का ज्ञान हो सकता है। परन्तु यदि उनका साक्षात् लक्षण कर दिया जाय तो पाठक को अधिक सरलता होगी इसलिए पाठकों के सौकर्य के लिए यहा दोपो का प्रपञ्च अथवा निरूपण किया है । इसी पूर्वपक्ष तथा उत्तर पक्ष को अगले दो सूत्रो में दिखलाते हैं ।
[प्रश्न ] अर्थापत्ति से उन [गुणविरोधी दोषो] का ज्ञान हो सकता है।
गुणो के स्वरूप के निरूपण से उन दोषों का अर्थापत्ति से ज्ञान या अर्थतः सिद्धि हो सकती है ॥२॥
[फिर ] उनका पृथक् निरूपण किस लिए कर रहे है, यह कहते है
[उत्तर–पाठको की] सरलता के लिए [ दोषों का] प्रपञ्च [विस्तार] किया है।
सुगमता के लिए प्रपञ्च अर्थात् दोषो का विस्तृत विवेचन [किया] है। [बोषो के ] नाम गिना देने [ उद्देश] और लक्षण कर देने से दोष सरलता से समझ में आते है।
यहा वृत्तिग्रन्थ मे 'उद्देश' तथा 'लक्षण' शब्दों का प्रयोग किया गया है । 'उद्देश' का अर्थ 'नाममात्र का कथन करना' अर्थात् अभिमत पदार्थों का केवल नाम गिना देना है। 'नाममात्रेण वस्तुसङ्कीर्तनमुद्देशः' । और लक्षणन्तु असाधारणधर्मवचनम्' । असाधारण धर्म का कथन करना लक्षण कहलाता है। जैसे 'गन्धवती पृथिवी' अथवा 'सास्नादिमत्त्व गोत्वम्' यह पृथिवी तथा गौ के लक्षण हैं। अभिमत पदार्थों के नाम गिनाकर उनके असाधारण धर्मों को बता देने अर्थात् लक्षण कर देने से पदार्थ भली प्रकार समझ मे आ जाते हैं । इसीलिए
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७० ]
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तौ
[ सूत्र ४
पददोपान् दर्शयितुमाह
दुष्टं पदमसाधु कष्ट ग्राम्यमप्रतीतमनर्थकञ्च । . २, १, ४ ।
उद्देश तथा लक्षण करने की पद्धति सर्वत्र पाई जाती है । न्याय शास्त्र में त्रिविध शास्त्र प्रवृत्ति का वर्णन आया है। अर्थात् उसमे 'उद्देश' और 'लक्षण' इन दो के साथ 'परीक्षा' को और बढ़ा दिया गया है। इन तीनो रूपो मे न्यायशास्त्र की प्रवृत्ति होती है । परन्तु वैशेषिक आदि दर्शनो में 'परीक्षा' को छोड़ कर 'उद्देश' तथा 'लक्षण' रूप द्विविध शास्त्र प्रवृत्ति का ही वर्णन किया गया है । यहा वामन ने भी 'उद्देश' तथा 'लक्षण' दो का ही कथन किया है।
इस श्रधिकरण मे स्थूल रूप से ही प्रतीत होने वाले काव्य के साधुत्वापादक स्थूल दोपों का ही निरूपण किया गया हैं । श्रागे ग्रन्थकार लिखेगे कि 'ये त्वन्ये शब्दार्थदोषाः सूक्ष्मास्ते गुणविवेचने वच्यन्ते' । इस पति से यह अभिप्राय निकलता है कि यहा निरूपण किए जाने वाले दोष, स्थूल दोष ही हैं, सूक्ष्म दोष नही । गुण विपर्यय स्वरूप सूक्ष्म दोषो का निरूपण गुणनिरूपण के प्रसङ्ग में किया जायगा ||३||
इस प्रकार दोप का सामान्य लक्षण और उसके निरूपण की उपयोगिता का प्रतिपादन करके अब दोपो का निरूपण प्रारम्भ करते हैं ।
पद दोषों को दिखलाने के लिए कहते है
१ श्रसाधुपद, २ कष्टपद, ३ ग्राम्यपद, ४ अप्रतीतपद, और ५ अनर्थक पद [ यह पांच प्रकार के पददोष अथवा ] दुष्ट पद होते है ॥४॥
शब्द और अर्थ काव्य के शरीर हैं। उनमे से शब्द, पद और वाक्य रूप, तथा अर्थ, पदार्थ, वाक्यार्थं रूप से दो-दो प्रकार के हैं। पद और पदार्थ की प्रतीति हो जाने के बाद हो वाक्य और वाक्यार्थ की प्रतीति हो सकती है। इसलिए वाक्य या वाक्यार्थं के दोषो के निरूपण के पूर्व पद और पदार्थ के दोषों का निरूपण किया है । उनमें भी पद से ही पदार्थ की प्रतीति हो सकती है इसलिए 1 पदार्थ दोषो की अपेक्षा पद-दोषो का निरूपण पहिले किया है ।
यह सूत्र पद दोषो का 'उद्देश' सूत्र है । इसमे पद दोषों के नामों का सङ्कीर्तन मात्र किया गया है । उनके लक्षण आदि आगे किए जायेगे । सूत्र मे श्राया 'पद' शब्द श्रसाधु, कष्ट, ग्राम्य, अप्रतीत और अनर्थक इन पाचों के साथ जोड़ कर असाधुपर्द, कष्टपद, ग्राम्यपद, अप्रतीतपद, और अनर्थकपद यह पाच प्रकार के पददोप समझने चाहिए । यहा सूत्रकार ने केवल पाच प्रकार के ही
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सूत्र ५]
द्वितीयाधिकरणे प्रथमोऽध्यायः
क्रमेण व्याख्यातुमाह
[ ७१
शब्दस्मृतिविरुद्धमसाधु । २, १, ५ ।
शब्दस्मृत्वा व्याकरणेन विरुद्ध' पद्मसाधु । यथा 'अन्यकारक - वैयर्थ्यम्' इति । छात्र हि,
1
षष्ठ्यतृतीयास्थस्यान्यस्य दुक् आशीराशास्थास्थितोत्सुकोतिकार करागच्छेपु' इति दुका भवितव्यम् इति ॥ ५ ॥
पददोषों का निरूपण किया है परन्तु वामन के बाद दोषो की सख्या मे वृद्धि होकर अन्त मे साहित्यदर्पण के युग में पहुच कर पाच की जगह १८ प्रकार के पद दोष हो गए है । साहित्यदर्पणकार ने उनको इस प्रकार गिनाया हैदुःश्रवत्रिविधाश्ली लानुचिनार्था प्रयुक्तता । ६ ग्राम्याप्रतीतिसन्दिग्धनेयार्थनिहितार्थता ॥
पू
३
वाचकत्वं क्लिष्टत्वं विरुद्धमतिकारिता । अविमृष्टविधेयाशभावश्च पदवाक्ययोः ॥ दोषाः केचिद् भवन्त्येषु पदाशेऽपि पदे परे । निरर्थकासमर्थत्वे च्युतसस्कारता तथा ॥
१८
[ उद्देश के ] क्रम से व्याख्या करने के लिए कहते हैव्याकरणशास्त्र के विपरीत [ शब्द का प्रयोग ] 'असाधु ' [ पद ] कहलाता है ।
शब्दस्मृति अर्थात् व्याकरणशास्त्र से विरुद्ध पद 'असाधु ' [ पद ] कहलाता है । जैसे, श्रन्यकारक व्यर्थ है। यहां [ इस प्रयोग में ] श्रषष्ठ्यतृतीयास्यस्यान्यस्य दुक् प्राशी-प्राशा-प्रास्था-स्थित उत्सुक ऊति कारक-राग-न्छेषु इस सूत्र से [ अन्य शब्द के अन्त्य अच् से परे ] टुक् [ का आगम होकर 'श्रन्यत्कार कवैयर्थ्यम्' ऐसा प्रयोग ] होना चाहिए ।
यहा टुक् का आगम न करके 'अन्यकारक' पद का प्रयोग किया गया है । उक्त पाणिनि सूत्र का श्राशय यह है कि श्राशी श्रादि पदों के परे रहते अन्य शब्द को दुक् का आगम हो । इस प्रकार दुगागम होकर अन्यदाशी, अन्यदाशा, अन्यदास्था, अन्यदास्थितः, श्रन्यदुत्सुकः, अन्यदूतिः, श्रन्यद्रागः, और प्रत्यय का अन्यदीयः श्रादि प्रयोग बनते हैं । ' षष्ठी' आदि देने से षष्ठी
' अष्टाध्यायी ६, ३, ६६
ર साहित्यदर्पण ७,२-४ ।
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७२ ]
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तौ
श्रुतिविरस कष्टम् । २, १, ६ ।
श्रुतिविरसं श्रुतिकटु पदं कष्टम् । तद्धि रचनागुम्फितमप्युद्वे जयति ।
यथा
अचूचुरच्चण्डि कपोलयोस्ते कान्तिद्रवं द्राग् विशदः शशाङ्कः ॥६॥
[ सूत्र ६
तथा तृतीया में अन्यस्य श्रन्येन वाशीः अन्याशीः प्रयोग ही होगा । यह कहा जा सकता है कि यहा 'अन्यकारक' पद का प्रयोग करने वाले ने भी 'अन्येषा कारकाणा वैयर्थ्य अन्यकारक वैयर्थ्यम्' इस प्रकार का षष्ठी तत्पुरुष समास और पष्ठी विभक्ति मान कर ही गहा 'अन्यकारकवैयर्थ्यम्' इस प्रकार का प्रयोग किया है । उसमे असाधुत्व का अवकाश कहा है ? इसका उत्तर यह है कि फिर भी | उनका यह प्रयोग ठीक नही है । क्योकि इस पाणिनीय सूत्र के महाभाष्य में भाष्यकार ने सूत्र को दो भागों में विभक्त करके इस प्रकार उसका न्यास किया
का
। १. अन्यस्य दुक् छकारकयोः, २. पष्ठ्यतृतीयास्थस्याशीराशास्थास्थितोत्सुकोतिरागेपु । भाष्यकार के इस प्रकार के न्यास करने का आशय यह हुआ कि 'छ' प्रत्यय और 'कारक' के परे रहते 'अन्य' शब्द' को सब विभक्तियों मे नित्य दुक् का श्रागम हो और श्राशी, आशा आदि शब्दो के परे रहते पष्ठी तथा तृतीया से भिन्न विभक्तियों के 'अन्य' शब्द को ही दुक् का श्रागम हो । अर्थात् श्राशी, आशा आदि शब्दो के परे रहते षष्ठी और तृतीया के अन्य शब्द को दुक् आगम न होकर यन्याशी, अन्याशा आदि प्रयोग बन जावेगे । परन्तु 'छ' प्रत्यय तथा 'कारक' शब्द के परे रहते टुक् का श्रागम अवश्य होगा इसलिए वहा 'ग्रन्यकारक' प्रयोग न होकर 'अन्यत्कारक' ही बनेगा । 'अन्यकारक ' पद का प्रयोग साधु है | नवीन प्राचार्यों ने इस दोष को च्युतसस्कार नाम से कहा है ||५|| सुनने में विरस अर्थात् कर्णकटु पद 'कष्टपद' [ दोष ] कहलाता है । कानों को अरुचिकर कर्णकटु पद 'कष्टपद' है । [ नवीन आचार्यों ने इसे दुःश्रव नाम से 'व्यवहृत' किया है । ] वह तो रचना में [ लेख रूप में ] निबद्ध होकर भी अरुचिकर होता है । जैसे
हे चण्डि [ क्रोधनशीले तुम्हारे नाराज होने पर ] जान पड़ता है कि तुम्हारे गालो के सौन्दर्य रस को एक वम चमकने वाले चन्द्रमा ने चुरा लिया है [ इसीलिए वह तुरन्त चमकने लगा है ] ।
[ यहां द्राक् यह पद कष्ट श्रुतिकटु या दुःश्रव है ] ॥६॥
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सूत्र ७-८] द्वितीयाधिकरणे प्रथमोऽध्यायः
[७३ लोकप्रयुक्तमात्र ग्राम्यम् । २, १, ७ । लोक एव यत्प्रयुक्तं पदं न शास्त्रे तद् प्राम्यम् । यथा
'कष्टं कथं रोदिति फूत्कृतेयम् ।'
अन्यदपि तल्लगल्लादिकं द्रष्टव्यम् ॥७॥ - शास्त्रमात्रप्रयुक्तमप्रतीतम् । २, १, ८ । शास्त्र एव प्रयुक्तं यन्न लोके तदप्रतीतम् । यथा'किं भापितेन बहुना रूपस्कन्धस्य सन्ति मे न गुणाः । गुणनान्तरीयकच प्रेमेति न तेऽस्त्युपालम्भः ॥ अत्र रूपस्कन्धनान्तरीयकपदे न लोके इत्यप्रतीतम् ।। ८॥
जो केवल लोक में ही प्रयुक्त हो [शास्त्र में नहीं ] वह ग्राम्य पद कहलाता है।
जो पद केवल लोक में ही प्रयुक्त हो शास्त्र में नहीं वह ग्राम्य [पद] कहलाता है । जैसे
हाय यह [चूल्हा आदि ] फूकने वाली [ घुए आदि के कारण ] कैसे रो रही है । [ यहाँ फूत्कृता शब्द प्राम्य है । उसका काव्यो में सत्कवियो द्वारा प्रयोग नहीं किया जाता है ।
इसी प्रकार तल्ल गल्ल प्रादि शब्द भी [ग्राम्य पद] समझने चाहिएं [जैसे-ताम्बूलभूतगल्लोऽयं तल्लं जल्पति मानवः । पान से भरे हुए गालो वाला यह आदमी अच्छी बकवाद कर रहा है। इस उदाहरण में प्रयुक्त 'गल्ल' और 'तल्ल' शब्द भी गाम्यपद ही समझने चाहिएं ] ॥७॥
केवल शास्त्र में प्रयुक्त होने वाला [ लोक में प्रयुक्त न होने वाला] पद 'अप्रतीत पद' [ दोषग्रस्त ] कहलाता है।
जो केवल शास्त्र में ही प्रयुक्त होता है लोक में नहीं वह [पद ] 'अप्रतीत पद' होता है । जैसे
___ बहुत कहने से क्या लाभ, सीधी बात यह है कि मेरे भीतर शरीर [रूपस्कन्ध ] के [ सौन्दर्य प्रादि ] गुण नही है और प्रेम [ उन शारीरिक सौन्दर्य प्रादि ] गुणो का [ नान्तरीयक ] अविनाभावी है इसलिए [ तुम मुझे प्रेम क्यो नहीं करते यह ] तुम्हे उलाहना [ तो] दिया ही नहीं जा सकता है।
यहा 'रूपस्कन्ध [पद मुख्य रूप से बौद्ध दर्शन में रूप, वेदना, विज्ञान,
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७४ ]
[ सूत्र
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तौ
पूरणार्थमनर्थकम् । २, १, ६ । पूरणमात्रप्रयोजनमव्ययपदमनर्थकम् । दण्डापूपन्यायेन पदमन्य
दप्यनर्थकमेव ।
संज्ञा और संस्कार इन 'पञ्च स्कन्धों' में से प्रथम 'स्कन्ध' के लिए प्रयुक्त होता है और उससे विषय तथा इन्द्रिय का ग्रहण होता है ] और नान्तरीयक [ पद मुख्य रूप से न्यायादि दर्शन में अविनाभाव या 'व्याप्ति' के अर्थ में प्रयुक्त होता है ] यह दोनो पद लोक में प्रयुक्त नहीं होते इसलिए 'श्रप्रतीत पद' [ दोष. ] कहलाते है । [ नवीन आचार्यों ने भी इस दोष को 'अप्रतीतत्व' नाम से पद दोष कहा है ] ॥८॥
[ केवल पाद की ] पूर्ति के लिए प्रयुक्त पद अनर्थक होते है । [ श्लोक में ] केवल [पाद ] पूति मात्र के लिए प्रयुक्त होने वाले [च आदि ] श्रव्यय पद अनर्थक [ पद कहलाते ] है । 'दण्डापूपिका न्याय' से अन्य पद भी अनर्थक होते है ।
श्लोक रचना करते समय कभी-कभी वर्णों की गणना मे एक दो अक्षरो की कमी पड़ती है और उसके लिए कोई अधिक उपयुक्त शब्द कवि को नही मिलता है उस समय कवि च, तु, हि, खलु, वे, श्रादि श्रव्ययो का प्रयोग करके उसकी पूर्ति कर देता है। उनसे छन्द के पाद की पूर्ति तो हो जाती है, परन्तु उसका वहा कोई अर्थ नहीं होता है । इसलिए इस प्रकार के पदो का प्रयोग 'अनर्थक पद' कहलाता है। जब इन अव्यय पदों को भी अनर्थक, या दोपयुक्त पद कहा जा सकता है तब अन्य पद यदि कहीं निष्प्रयोजन प्रयुक्त किए जाय तो 'दण्डापूपिका' न्याय से वह अन्य पद भी अनर्थक ही होगे ।
' दण्डापूपिका- न्याय' का अभिप्राय यह है कि जैसे किसी ने पूप अर्थात् पुत्रा या गुलगुला कपडे में रख कर अपने डडे में बाध कर रख दिए थे । उसके किसी दूसरे साथी ने उसको रखते देख लिया। जब वह कही बाहर गया तो उस दूसरे साथी ने पुए तो लेकर स्वय खा लिए और डंडा उठाकर कहीं इधर-उधर फेंक दिया । जब पहिला पुरुष लौट कर श्राया तो उसने अपना डढा जहा रखा था वहा न देख कर अपने साथी से पूछा कि बडा कहा गया ? तो उसने उत्तर दिया कि मालूम नही, जान पड़ता है चूहे डडा उठा ले गए । पहिले आदमी को भूख लग रही थी । उसे उस समय डंडे की इतनी श्रावश्यकता न थी जितनी पुत्रों की। इसलिए उसने, अच्छा फिर पुए कहा गए ? इस प्रकार का
I
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सूत्र
]
द्वितीयाधिकरणे प्रथमोऽध्यायः
[७५
यथा
उदितस्तु हास्तिकविनीलमयं,
तिमिरं निपीय किरणैः सविता ॥ अत्र 'तु' शब्दस्य पादपूरणार्थमेव प्रयोग : न वाक्यालङ्काराथम् । वाक्यालङ्कारप्रयोजनं तु नानर्थकम् । अपवादार्थमिदम् । यथा
नल्विह गतागता नयनगोचरं मे गता ॥६॥ दूसरा प्रश्न किया । परन्तु उसके साथी ने इस दूसरे प्रश्न का उत्तर दिया कि जब डंडा ही चूहे ले गए तो क्या पुए उन्होंने छोड़ दिए होगे। पुए भी चूहे ही ले गए यह तो स्वय ही सिद्ध हो जाता है, कहने की आवश्यकता नहीं होती। इस प्रकार जहा एक बात के कहने से दूसरा परिणाम तो स्वयं ही निकल आता है उसको दण्डापिका-न्याय' कहा जाता है । दार्शनिक क्षेत्र में इसी को अापत्ति प्रमाण भी कहा जाता है । इसका नाम है 'दण्डापप-न्याय' । प्रकृत में, 'च'
आदि निपात, जो किसी अर्थ के वाचक नहीं होते केवल द्योतक होते हैं, वह ही केवल पादपूर्ति के लिए प्रयुक्त होने पर जब अनर्थक कहलाने लगते हैं तब वाचक पद यदि निष्प्रयोजन कहीं प्रयुक्त हो जावे तो वे भी अनर्थक कहलाने लगेगे यह तो 'दएडापूपिका-न्याय' से स्वतःसिद्ध है ही। इसी बात को ग्रन्थकार ने 'दण्डापुपन्यायेन पदमन्यदपि अनर्थकमेव ।' लिख कर प्रकट किया है। आगे अनर्थक पद का उदाहरण देते हैं।
हाथियो के समूह को नीलिमा से निर्मित [जैसे] अन्धकार को [अपनी ] किरणो द्वारा पान [ नाश ] करके सूर्यदेव उदय हुए।
___ यहां [मूल श्लोक में ] 'तु' शब्द का प्रयोग पादपूरणार्थ ही किया गया है, वाश्यालङ्कार के लिए नही । [ इसलिए वह अनर्यक है ] 1 वाक्यालङ्कार के लिए किया गया [तु आदि का प्रयोग ] तो अनर्थक नहीं होता।
अर्थात् 'तु', 'खलु' आदि का प्रयोग कही केवल पादपति मात्र के लिए किया जाता है और कही वाक्यालङ्कार के लिए भी उनका प्रयोग किया जाता है। इनमे से जहा केवल पादपूर्ति के लिए 'तु' आदि का प्रयोग किया जाता है वहा 'अनर्थकपद' दोप होता है । और जहा वाक्यालङ्कार मे उनका प्रयोग होता है वहा दोष नहीं होता है। यह ग्रन्थकार का अभिप्राय है।
यह [पूर्वोक्त नियम के ] अपवाद के लिए कहा है। जैसे[वह ] यहां पाती जाती मुझे दिखाई नहीं दी।
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७६)
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती (सूत्र १० इति । तथा, हि 'खलु हन्तेति । सम्प्रति पदार्थदोपानाह
अन्यार्थनेयगूढार्थाश्लीलक्लिष्टानि च । २, १, १० ।
दुष्टं पमित्यनुवर्तते, अर्थश्च, वचनविपरिणामः । अन्यार्थादीनि पदानि दुष्टानीति सूत्रार्थः ॥१०॥
यह [ यहां खलु पद वाक्यालङ्कार के लिए प्रयुक्त हुआ है पादपूर्ति के लिए नहीं। इस लिए यह अनर्थक पद नहीं है ।] इसी प्रकार, हि, खल, हन्त इत्यादि [पद वाक्यालङ्कार के लिए प्रयुक्त होने पर अनर्थक नहीं होते ] है ॥६॥
इस प्रकार वामन ने यहा पाच प्रकार के पद-दोपों का निरूपण किया है परन्तु साहित्यदर्पण मे १८ प्रकार के पद दोप माने हैं। उनमें अश्लील दोप का उल्लेख वामन ने पददोपी मे न करके केवल पदार्य दोपों में किया है परन्तु नवीन प्राचार्यों ने पद दोप तथा अर्थ दोप दोनों में उसकी गणना की है।
पदार्थ दोपो का निरूपण
इसी प्रकार वामन ने अन्यार्थ, नेयार्थ, गूढार्थ, अश्लील और क्लिष्टत्व रूप पाच प्रकार के पदार्थ दोप माने हैं। परन्तु साहित्यदर्पण के समय तक अर्थदोपों की संख्या बढ़कर पाच के स्थान पर २३ तक पहुच गई है । साहित्य दर्पणकार ने तेईस प्रकार के अर्थदोप इस प्रकार गिनाए हैं
'अपुष्ट-दुाक्रम-ग्राम्य-व्याहता-अश्लील-कटता। अनंवीकृत-निर्हेतु-प्रकाशितविरुद्धता ॥ सन्दिग्ध-पुनरुतत्वे ख्याति-विद्या-विरुद्धते । साकाक्षता-सहचरमिन्नता-ऽस्थानयुक्तता || अविशेपे विशेपश्चा-नियमे नियमस्तथा। तयोविपर्ययो विध्यनुवादायुक्तते तथा ॥ निमुकपुनरुतत्वमर्थदोषाः प्रकीर्तिताः ॥
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[ ग्रन्थकार वामन ] अव पदार्थ दोषों को कहते है
१. अन्यार्थ, २. नेयार्थ, ३. गूढार्थ, ४. अश्लील, और ५. क्लिष्ट [ यह पांच प्रकार के पदार्थ दोष है।]
दुष्ट पदं इस [शब्द अथवा दुष्टं पदं शब्दों के अर्थ ] की
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सूत्र ११] द्वितीयाधिकरणे प्रथमोऽध्यायः [७७ एषां क्रमेण लक्षणान्याह
रूढिच्युतमन्यार्थम् । २, १, ११ ।
रूढिच्युतं रूढ़िमनपेक्ष्य यौगिकार्थमात्रोपादानात् । अन्यार्थ पदम् स्थूलत्वात् सामान्येन घटशब्दः पटशब्दार्थ इत्यादिकमन्याथै नोक्तम् । यथा
ते दुःखमुच्चाबचमावहन्ति,
ये प्रस्मरन्ति प्रियसङ्गमानाम् । अत्र 'आवहतिः' करोत्यर्थो धारणार्थे प्रयुक्तः । प्रस्मरतिविस्मरणार्थः प्रकृष्टस्मरण इति ॥११॥
की अनुवृत्ति [पूर्वसूत्रो से] पाती है। और अर्थ [ इस शब्द की] भी [अनुवृत्ति पाती है। और दुष्ट पदं में जो एक वचन है उसका] वचनविपरिणाम [ परिवर्तन करके बहुवचन कर लेना चाहिए । तब इस सूत्र का अर्थ इस प्रकार ] होगा । अन्य प्रादि [ के बोधक ] पद दुष्ट होते है। यह सूत्र का अर्थ हुआ ॥ १० ॥
[इस प्रकार इस सूत्र में पदार्थ दोषो का 'उद्देश' अर्थात् नाममात्र से कथन करके मागे] क्रम से इनके लक्षण कहते है
[योगढ़ अथवा रूढ़ शब्द जब ] रूढ़ि से च्युत [अर्थात् रूढ़ अर्थ से भिन्न अर्थ में प्रयुक्त होता है तो वह ] अन्यार्थ होता है।
रूढ़ि से च्युत अर्थात् रूढ़ि को पर्वाह किए बिना यौगिकार्थ मात्र का उपादान करने से [ रूढ़ अर्थ से भिन्न अर्थ में प्रयुक्त हुआ पद ] अन्यार्थ पद कहलाता है । साधारणतः घट शब्द पट शब्द के अर्थ में प्रयुक्त होने पर अन्यार्थ पद होता है [ यह अन्यार्थ का लक्षण कहा जा सकता है। परन्तु] यह मोटी [स्थूलबुद्धि ग्राह्य ] बात होने से नहीं कहा। [अपितु 'रूढिंच्युतमन्यार्थम्' इस प्रकार अन्यार्थ का तनिक सूक्ष्म लक्षण किया है। आगे उसका उदाहरण देते है जैसे
जो प्रियजनो के सङ्गो को विशेष रूप से स्मरण करते है वह नाना प्रकार के दुःखो को उठाते है।
यहां करने [कृञ् घातु] के अर्थ में प्रयुक्त होने वाला प्राइ-पूर्वक वह धातु का [प्रावहति ] प्रयोग धारण के अर्थ में किया गया है । और
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८०]
काव्यालद्धारसूत्रवृत्ती
[१३-१४ अप्रसिद्धार्थप्रयुक्त गूढार्थम् । २, १, १३ । यस्य पदस्य लोकेऽर्थः प्रसिद्धश्चाप्रसिद्धश्च तदप्रसिद्धेऽर्थे प्रयुक्त गूढार्थम् । यथा
सहस्रगोरिवानीकं दुस्सहं भवतः परैः।
इति । सहस्रं गावोऽक्षीणि यस्य स सहस्रगुरिन्दः । तस्येवेति, गोशब्दम्याक्षिवाचित्वं कविष्वप्रसिद्धमिति ॥ १३ ॥ असभ्यार्थान्तरमसभ्यस्मृतिहेतुश्चाश्लीलम् । १, १, १४ ।
अप्रसिद्ध अर्थ में प्रयुक्त पद 'गूढार्थ [ दोष से युक्त ] होता है। जिस [अनेकार्थक ] पद का [ एक ] अर्थ लोक में प्रसिद्ध और [दूसरा अर्थ लोक में ] अप्रसिद्ध होता है उसका अप्रसिद्द अर्थ में प्रयोग [ होने पर वह पद ] गूढार्थ होता है । जैसे
___सहन नेत्र वाले इन्द्र के समान प्रापको सेना शत्रुओं के लिए असह्य है। यह । [ इसमें गो शब्द का इन्द्रिय अर्थ मान कर ] सहस्र गौएं अर्थात् चक्षु रूप इन्द्रियां जिसके है वह 'सहस्रगु' इन्द्र हुमा । उसके समान [प्राप] यह [कवि का विवक्षित अर्थ है ] गो शब्द का नेत्रवाचकत्व कवियो में अप्रसिद्ध है।
गौनांके वृपभे चन्द्रे वाग्-भू-दिग-धेनुपु स्त्रियाम् ।
द्वयोस्तु रश्मि-दृग् वाणस्वर्ग वज्रा-ऽम्बुलोमसु ॥ इस कोश के अनुसार 'गो' शब्द का नेत्र अर्थ भी हो सकता है परन्तु गो शब्द को मुकविगण प्राय. नेत्र अर्थ में प्रयुक्त नहीं करते हैं । इसलिए प्रकृत उदाहरण मे प्रयोग 'गूढार्थ दोप कहलाता है । इसी प्रकार
तीर्थान्तरेषु स्नानेन समुपार्जितसत्वयः ।
सुरखोतस्विनीमेप हन्ति सम्प्रति सादरम् ।। इत्यादि स्थलो मे 'हन्ति' पद का गमनार्थ में प्रयोग भी 'गूढार्थ दोप का उदाहरण है। 'इन हिंसागत्योः' इस धातु पाठ के अनुसार 'हन्' धातु के हिंसा और गति दोनों अर्थ हैं। परन्तु कविगण 'इन्' का गमनार्थ में प्रयोग नहीं करते है। इमलिए 'मुरखोतस्विनीमेष हन्ति' यहा गमनार्थ में 'इन्ति' का प्रयोग 'गूढार्थ' टोप कहा जाता है। नवीन प्राचार्य इसी गूढार्थ' दोष को 'अप्रयुक्तत्व' दोष कहते हैं ।। १३ ॥
[आगे अश्लीलार्य रूप पदार्थ दोष का निरूपण करते है -
जिसका दूसरा अर्थ असभ्य [असभ्यता सूचक हो और जिससे असभ्यार्थ की स्मृति होती हो उसको 'प्रक्लील' कहते है।
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सूत्र १५-१६] द्वितीयाधिकरणे प्रथमोऽध्यायः
[८१ यस्य पदस्यानेकार्थस्यैकोऽर्थोऽसभ्यः स्यात् तदसम्यार्थान्तरम् । यथा वर्चः इति पद तेजसि विष्ठायाश्च । यत्तु पदं सभ्यार्थवाचकमपि एकदेशद्वारेणासभ्यार्थ स्मारयनि तदसभ्यस्मृतिहेतुः यथा 'कृकाटिका इति ॥ १४ ॥
_____न गुप्तलक्षितसवृतानि । २, १, १५ । अपवादार्थमिदम् । गुप्त लक्षितं संवृत्तश्च नाश्लोलम् ॥ १५ ॥ एषां लक्षणान्याह
अप्रसिद्धासभ्य गुप्तम् । २, १, १६ ।
जिस अनेकार्थक पद का एक अर्थ असभ्य हो, वह [ इस सूत्र में ] असभ्यार्थान्तर [पद से कहा गया है । जैसे 'वर्चस्' पद तेन तथा विष्ठा [दोनो] अर्थो में [ प्रयुक्त होता है इनमें से विष्ठा रूप दूसरा अर्थ जुगुप्सा व्यञ्चक अश्लील है । इसलिए यह पद 'असभ्यान्तर' पर होने से अश्लील है ] । और जो पद [ केवल ] सभ्यार्थ का वाचक होने पर भी एकदेश से असभ्यार्थ का स्मरण कराने वाला हो, वह [ भी] असभ्य अर्थ की स्मृति का हेतु होने से अश्लील है। जैसे 'कृकाटिका' पद । [ 'कृकाटिका' पद कर्ण के नीचे के भाग कनपटी का वाचक है। कर्णापरभागवाचकमपि कृकाटिका पदं ] परन्तु उसके एकदेश 'कार्टि' से मुर्दे को लेजाने वाली 'काठी' का स्मरण हो पाता है इसलिए वह 'अमङ्गल व्यजक अश्लीलता' का उदाहरण है। प्रेतयान खटिः काटी' इम वैजयन्ती कोश के अनुसार 'काटी' शब्द 'प्रेतयान' अर्थात् मुर्दा ले जाने वाली 'काठी' का बोधक है। एकवेश से उसका स्मारक होने से 'कृकाटिका' पद भी 'अमङ्गल व्यञ्जक अश्लील' कहलाता है । | ॥१४॥
यिदि असभ्यार्थ] गुप्त [अप्रसिद्ध अथवा लक्षित [लक्षणाबोध्य] अथवा [लोकव्यवहार से] दब गया [सवृत हो गया हो तो वह अश्लील नहीं होता।
___ यह [ सूत्र ] अपवाद के लिए है । गुप्त [अप्रसिद्ध ], लक्षित [ लक्षणागम्य ] अथवा [ लोकव्यवहार से ] सवृत [ दब जाने वाले असभ्यार्थ का बोधक पद ] अश्लील नहीं है ॥१५॥
इन [ गुप्त, लक्षित तथा संवृत] के लक्षण कहते है[जिसका ] असभ्य अर्थअप्रसिद्ध हो वह गुप्त [असभ्यार्य ] होता है।
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८२]
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती [ सूत्र १७-१८ अप्रसिद्धासभ्यार्थान्तरं पदमप्रसिद्धासभ्यं तद् गुप्तम् । यथा 'सम्वाधः' इति पदम् । तद्धि सङ्कटाणे प्रसिद्ध, न गुह्यार्थमिति ॥ १६ ॥
__ लाक्षणिकासभ्य लक्षितम् । २, १, १७ ।
तदेवासभ्यार्थान्तरं लाक्षणिकेनासभ्येनार्थेनान्वितं पदं लक्षितम् । यथा 'जन्मभूमिः' इति । तद्धि लक्षणया गुह्यार्थ न स्वशक्त्येति ॥ १७॥ ।
लोकसवीत सवृतम् । २, १, १८ । लोकेन संवीत लोकसंवीतम् । यत् तत् संवृतम् । यथा 'सुभगा', 'भगिनी', 'उपस्थानम्', 'अभिप्रेतम', 'कुमारी', 'दोहदम्' इति । अत्र हि श्लोक:
[जिसका ] दूसरा [अर्थात् ] असभ्य अर्थ [ हो पर ] प्रसिद्ध न हो वह अप्रसिद्धासभ्य पद 'गुप्त' [कहलाता ] है । जैसे 'सम्बाघः' यह पद । ['वेशेऽपि गन्धः सम्बाघो गुह्यसङ्कटयोर्द्वयोः' इस कोश के अनुसार 'सम्वाध' पद गुह्येन्द्रिय उपस्थ तथा सङ्कट दोनो का वाचक है । परन्तु इनमें से ] वह [सम्बाघ पद ] सङ्कट अर्थ में प्रसिद्ध है गुह्य [ उपस्थेन्द्रिय ] अर्थ में [प्रसिद्ध] नहीं। [ इसलिए अश्लील अर्थ के गुप्त अर्थात् अप्रसिद्ध होने से इस पद का प्रयोग अश्लीलतायुक्त नहीं है। ] ॥१६॥
[असभ्य अर्थान्तर वाला पद] असभ्य अर्थ के लाक्षणिक [ लक्षणागम्य] होने पर लक्षित [असभ्य अर्थ ] होता है [ और वह अश्लील नहीं कहलाता है।
वही असभ्यार्थान्तर वाला पद, यदि लाक्षणिक असभ्यार्थ से युक्त हो तो लक्षित [ लक्षितासभ्यार्थ ] कहलाता है [और वह अश्लील नहीं होता है ] । जैसे 'जन्मभूमि यह [पद]। वह लक्षणा से गुह्य [स्त्री की योनि या उपस्थ ] का बोधक है अपनी [अभिधा ] शक्ति से नही। [ इसलिए वह अश्लील नहीं है ]॥ १७ ॥
लोक [व्यवहार ] से [असभ्यार्थ ] दवा हुआ [ होने पर ] सवृत [प्रसभ्या कहलाता है [और वह भी अश्लील नही होता है ।
लोक [ व्यवहार ] से [ संवीत ] दवा हुआ 'लोफ सवीत' जो पद होता है वह सवृत [पद ] है [वह अश्लीलता दोष युक्त नहीं होता] । जैसे 'सुभगा', 'भगिनी', [-न दोनो पदो में 'भग' शब्द रत्री के गहाङ्ग अर्थात् योनि का
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द्वितीयाधिकरणे प्रथमोऽध्याय.
सवीतस्य हि लोकेन न दोषान्वेषणं क्षमम् । शिव लिङ्गस्य संस्थाने कस्यासभ्यत्वभावना ॥ १८ ॥ तत्त्रैविध्य व्रीडाजुगुप्साऽमङ्गलातङ्कदायिभेदात् । २,१,१६ । तस्याश्लीलस्य त्रैविध्यं भवति, ब्रीडाजुगुप्साऽमङ्गलातङ्कदायि - भेदात् । किचिद् व्रीडादायि यथा 'वाक्काटवम्', 'हिरण्यरेता.' इति । किचिज्जुगुप्सादायि यथा 'कपर्दकः' इति । किञ्चिदमङ्गलातकदायि यथा 'संस्थितः' इति ॥ १६ ॥
[ ८३
सूत्र १६]
वाचक है ], 'उपस्थान' [ समीपस्थ होना या स्तुति करना । इसमें 'उपस्थ' अंश
से पुरुष के गुह्याङ्ग अर्थात् उपस्थंन्द्रिय का बोध होता है ], 'अभिप्रेतम्' [ का अर्थ अभिप्राय होता है परन्तु उसके 'प्रेत' अश से मुर्दा का बोध होता है ], 'कुमारी', 'दोहद' [ वोहद पद इच्छा का बोधक है परन्तु उससे 'हद पुरीषोत्सर्गे' धातु की स्मृति होती है जो जुगुप्सा व्यञ्जक है । परन्तु इन सब स्थलों में यह अश्लीलता व्यञ्जक अर्थ लोक व्यवहार से दब गए है । भगिनी आदि शब्दो का बहिन आदि सुन्दर प्रर्यो में अत्यधिक प्रयोग होता है । जिसके कारण अन्य असभ्य अर्थ सामने नहीं आते है । उन शब्दो के प्रयोग में अश्लीलता नहीं है ] इस विषय में [ किसी प्राचीन श्राचार्य का ] श्लोक [ भी ] है
[ असभ्यार्थ के ] लोक व्यवहार से दबे हुए [ असभ्यार्थं वाले भगिनी श्रादि पदो ] के दोष का अनुसन्धान उचित नहीं है । [ साक्षात् ] शिवलिङ्ग की स्थापना में [भी] प्रसभ्यार्थ की भावना किम को होती है [ किसी को नहीं । क्योकि लोक व्यवहार में शिवलिङ्ग सार्वजनिक पूजा का पात्र वन' गया *1] 11 25 11
उस [ अश्लील अर्थ ] के व्रीडा [ लज्जा ], जुगुप्सा, [ घृणा ] और [ अनिष्ट भय को देने वाला ] श्रमङ्गलातङ्कायो भेद ने तीन प्रकार होते है ।
उस अश्लील के तीन भेद होते है । व्रीडादायी [ लज्जाजनक ], जुगुप्सादायी [ घृणाकारक ] घोर कमङ्गलातङ्कदायी [ अनर्थभय के देने वाला ] भेद होने से । कोई [ पद ] लज्जाजनक होता है, जैसे 'वाक्काटवम् और 'हिरण्यरेता.' यह । [ 'arenaम्' का जर्थ होता है वचन को तीक्ष्णता । परन्तु इसका 'काट' यह एक देश लिङ्ग की प्रतीति कराने वाला होने से व्रीडादायी. लज्जाजनक, होने से अश्लील है । इसी प्रकार 'हिरण्यरेता.' में रेतम् क्रश वीयं का बोधक होने से ब्रोडादायी ली है । ] कोई [ पद ] जुगुप्सावानी [ घृणा
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काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती
[ सूत्र २०
व्यवहितार्थप्रत्यय क्लिष्टम् । २, १, २० । अर्थस्य प्रतीतिरर्थप्रत्ययः । स व्यवहितो यस्माद् भवति तद् व्यवहितार्थप्रत्ययं क्लिष्टम् । यथा-
८४ ]
दक्षात्मजादयितवल्लभवेदिकानां ज्योत्स्नाजुपां जललवास्तरलं पतन्ति । दक्षात्मजास्ताराः । तासां दयितो दक्षात्मनादयितश्चन्द्रः । तस्य वल्लभाश्चन्द्रकान्ताः । तद्वेदिकानामिति श्रत्र हि व्यवधानेनार्थ
प्रत्ययः ।। २० ।।
जनक होने से अश्लील होता है ] जैसे 'कपर्दक' यह [ कौड़ी वाचक होने पर भी 'पर्द' शब्द 'पर्द कुत्सिते शब्दे' इस धातु पाठ के अनुसार और 'पदंस्तु गुदजे शब्दे ' इस कोष के अनुसार अपान वायु का बोधक होने से जुगुप्साव्यञ्जक अश्लील है ] कोई [ पद ] श्रमङ्गलातङ्कदायी [ अनिष्ट अनर्थ का भय दिखाने वाला होने से अमङ्गल व्यञ्जक अश्लील ] होता है । जैसे 'सस्थित ' यह पद । [ भली प्रकार से स्थित, इस अर्थ में प्रयुक्त होता है । परन्तु उसका दूसरा अर्थ 'मृतः ' भी होता हैं, इसलिए यह श्रमङ्गलातङ्कदायी अश्लील है । ] ॥ १६ ॥
जिस पद के अर्थ की प्रतीति व्यवधान से हो उसको 'क्लिष्ट' कहते है । अर्थ की प्रतीति को प्रर्थ प्रत्यय कहते है । वह [ अर्थ प्रत्यय ] जिस [ पद ] से व्यवहित [ व्यवधान से ] होती है [ साक्षात् नहीं ] वह व्यवहित अर्थ प्रतीति वाला [ पद ] क्लिष्ट कहलाता है । जैसे
[ दक्षात्मजा ] दक्ष की पुत्री [ तारा ] के [दयित ] प्रिय [ चन्द्रमा ] की वल्लभाम्रो [ चन्द्रकान्त मणियो ] की वेदिकाओ के चादनी के साथ संयोग से चञ्चल जल कण गिर रहे है ।
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[ इस श्लोक में ] दक्षात्मजा [ का अर्थ ] तारा है । उनका दयित [ अर्थात् प्रिय हुआ ] दक्षात्मजादयित अर्थात् चन्द्रमा । उसकी वल्लभा चन्द्रकान्त [ मणि हुई ] उस [ चन्द्रकान्त मणि ] को [ बनी हुई ] वेदिकानो के । यहा [ दक्षात्मजाद विनवल्लभ पद से चन्द्रकान्त मणि रूप ] अर्थ की प्रतीति व्यवधान 'होती है [ इसलिए इसे क्लिष्टत्व दोष का उदाहरण समझना चाहिए ] |
यह क्लिष्टत्व दोप का उदाहरण दिया है । इसके पूर्व 'नेयार्थ' का जो उदाहरण ग्रन्थकार ने दिया था वह भी कुछ इसी प्रकार का उदाहरण था । इसलिए 'नेयार्थत्व' और 'क्लिष्टत्व' का भेद दिखलाने की आवश्यकता है । वामन ने
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सूत्र २१-२२ ] द्वितीयाधिकरणे प्रथमोऽध्याय.
[ ८५
अरूढार्थत्वात् । २, १, २१ । रूढार्थत्वेऽपि यतोऽर्थप्रत्ययो झटिति, न तत् क्लिष्टम् । यथाकाचीगुणस्थानमनिन्दितायाः ।
इति ॥ २१ ॥
अन्त्याभ्या वाक्य व्याख्यातम् । २१, २२ ।
अश्लीलं क्लिष्टचेत्यन्त्ये पदे । ताभ्यां वाक्यं व्याख्यातम् | तदप्यश्लील क्लिष्टश्च भवति । अश्लीलं यथा
जिसको 'कल्पितार्थं नेयार्थम्' कहा है उसी को नवीन आचार्यों ने 'रूढ़िप्रयोजनाभावादशक्तिकृतलक्ष्यार्थप्रकाशनं नेयार्थम्' कहा है । अर्थात् जहा रूढ़ि अथवा प्रयोजन रूप लक्षणा के प्रयोजक हेतुत्रों के अभाव मे लक्ष्यार्थ का प्रकाशन हो उसे 'नेयार्थ' कहते हैं । और व्यवहितार्थ प्रतीति को 'क्लिष्टत्व' कहते हैं । अर्थात् 'क्लिष्टत्व' मे लक्षणा की आवश्यकता नही होती है केवल अर्थ की प्रतीति में विलम्ब होता है। जैसे 'दक्षात्मजादयित' का अर्थ तारापति चन्द्र, अथवा 'दक्षात्मजादयितवल्लभा' का चन्द्रकान्ता अर्थ लक्षणा से नही, अभिधा से ही हो सकता है । उसकी प्रतीति झटिति नही तनिक विलम्ब से होती है । इसलिए यहा 'क्लिष्टत्व' दोष माना है | परन्तु 'विहङ्गमनामभृत्' का 'रथ' यह अर्थ अभिधा से नही हो सकता है। इसी प्रकार 'उलूकजिता' मे भी मेघनाद अर्थ अभिधा से सम्भव न होने से लक्षणा का ही श्राश्रय लेना होगा । इसलिए उसे 'नेयार्थ' का उदाहरण कहा है।
[ क्लिष्ट दोष के स्थल में व्यवहित अर्थ की प्रतीति ] अरूढ़ अर्थ होने से [ बिलम्ब से होती है ] |
[ अरूढ अर्थात् अप्रसिद्ध अर्थ होने के कारण जहाँ अर्थ की प्रतीति में विलम्ब होता है वहाँ क्लिष्टत्व दोष होता है । परन्तु ] अरूढ़ [ अप्रसिद्ध ] प्रर्थ होने पर भी जिस [ शब्द ] से श्रर्थ की प्रतीति झट से हो जाती है वह 'क्लित्व' नहीं कहलाता है । जैसे
कमर ] यह । [ यहाँ परन्तु उससे अर्थ की
सुन्दरी के करघनी पहिनने का स्थान [ अर्थ 'काञ्चीगुणस्थान' पद कटि देश के अर्थ में रूढ नहीं है, प्रतीति तुरन्त बिना विलम्ब के हो जाती है इस लिए यहाँ क्लिष्टत्व दोष नहीं माना जाता है । ] ॥२१॥
अन्तिम दोनो [ श्रर्थात् अश्लीलत्व तथा क्लिष्टत्व रूप पद-दोषो ] से
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८६]
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती [सूत्र २२ न सा धनोन्नतिर्या स्यान् कलारतिदायिनी। परार्थबद्धकक्ष्याणां यन् सत्यं पेलवं धनम् ॥ १ ॥ सोपानपथमुत्सृज्य वायुवेगः समुद्यतः ।
महापथेन गत्वान् कीर्त्यमानगुणो जनैः ॥ २॥ वाक्य [ वाक्यगत अश्लीलत्व तया क्लिप्टत्व ] को व्याख्या हो गई । [अर्थात् इस अध्याय में यद्यपि चादय-दोषो का निरूपण नहीं किया गया है परन्तु क्लिष्टत्व और प्रश्लीलत्व यह दोनों दोष पदार्थदोष के अतिरिक्त वाक्यदोष भी होते है। उनके वाक्यगत उदाहरण प्रागे वृत्ति ग्रन्थ में देते है। ]
अश्लील और क्लिष्टत्व यह अन्तिम दो पद है । उनके द्वारा वाक्य [अर्थात् वाक्यगत अलीलत्व तथा क्लिप्टत्व ] की व्याख्या हुई [ समझना चाहिए। ] वह [ वाक्य ] भी अश्लील तथा क्लिष्टत्व हो सकता है।
[वाक्यगत ] अश्लील [ का उदाहरण ] जैसे
उस को धन की उन्नति नहीं कहते है जो [किसी दूसरे के या परोपकार के काम में न आवे ] केवल अपनी स्त्री [अपने बीवी-बच्चों ] के ही सुख के लिए हो । दूसरो के उपकार] के लिए कमर कसे हुए लोगो का धन ही वस्तुतः सुन्दर [और यथार्थ] धन है।
___ यह इस श्लोक का अभिप्रेत अर्थ है । परन्तु उससे दृमरा ब्रीडादायि अश्लील अर्थ भी निकलता है । 'साधन' का अर्थ लिङ्ग होता है । कलत्र अर्थात् स्त्री की गतिदायिनी, साधन अर्थान् लिङ्ग की उन्नति, जो केवल अपनी स्त्री के लिए श्रानन्ददायक लिड्न की उन्नति है वह वास्तविक 'साधनोन्नति नहीं है अपितु पगर्थ के लिए कमर कस हुए अर्थात् अन्य स्त्रियों के साथ भी मन्नोग के लिए समर्थं पुरुषों की 'साधनोन्नति' ही यथार्थ 'साधनोन्नति' है । यह अर्थ ब्रीडादायि अश्लील होता है । और वह एक पद में नहीं परन्तु समस्त वाक्य से निकलता है। अत. वाक्यगत दोप है।
जगप्सा व्यजक वाक्यगत अग्लीलता का दूमरा उदाहरण देते है। लोगों के द्वारा जिसके वेग भयङ्करता प्रादि] गुणो का कीर्तन किया जा रहा है ऐसा वायु का प्रचण्ड वेग [आंघो] सीढियो के [सङ्कीर्ण ] मार्ग को छोड़कर महापय [अर्थात् राजमार्ग] से निकल गया। [ इममें वह तीव, वायु का वेग अपानवायु के मार्ग को छोड़ कर महापय अर्थात् मुखमार्ग से बड़ी जोर से उकार रूप से निकल गया ऐमा दूसरा अर्थ भी प्रतीत होता है । अत. यह वाक्यगत जगुप्सा
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सूत्र २२ ]
क्लिष्टं यथा
द्वितीयात्रिकरणे प्रथमोऽध्यायः
धम्मिलस्य न कस्य प्रेक्ष्य निकामं कुरङ्गशावाच्याः । रज्यत्यपूर्वबन्धन्युत्पत्तेर्मानसं शोभाम् ॥ २२ ॥
एतान् पढपदार्थदोषान् ज्ञात्वा कविस्त्यजेदिति तात्पर्यार्थः ॥ २२॥
इति श्री पण्डितवरवामनविरचित काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तौ 'दोषदर्शने' द्वितीयेऽधिकरणे प्रथमोऽध्यायः । पदपदार्थदोषविभागः ।
[ ८७
व्यञ्जक अश्लीलता का उदाहरण होता है ] ।
इसी दूसरे उदाहरण मे 'महापथेन गतवान् ' का दूसरा अर्थ 'परलोकमार्गेण गतवान्' अर्थात् मर गया, यह भी हो सकता है । उस दशा मे यह वाक्यगत श्रमङ्गलातङ्कदायी अश्लीलता का उदाहरण हो जायगा ।
इस प्रकार इन दोनों श्लोको मे अश्लीलता दोष के व्रीडादायी, जुगुप्सादायी और श्रमङ्गलातङ्कदायी तीनो प्रकार के भेद के वाक्यगत उदाहरण दिखा दिए हैं। अब आगे एक श्लोक वाक्यगत 'क्लिष्टत्व' दोप का दिखलाते हैं । क्लिष्टत्व [ का उदाहरण ] जैसे
मृग शावक के नेत्रो के समान नेत्र वाली [उस सुन्दरी ] के केशपाश [ धम्मिल जूडा, केशपाश ] के बाघने की अपूर्व चतुरता की शोभा को देखकर किस का मन अत्यन्त प्रसन्न नहीं होता ।
इस श्लोक का अर्थ दूरान्वय के कारण समझना कठिन हो जाता है । 'कुरङ्गशावाच्या. धम्मिलस्य पूर्वबन्धव्युत्पत्तेः शोभा निरीक्ष्य कस्य मानस निकाम न रज्यति' इस प्रकार इसका अन्वय होता है । परन्तु इन सब पर्दों के अत्यन्त व्यवहित होने से वाक्य के अर्थ की प्रतीति बढी कठिनता से होती है । श्री पण्डितवरवामनविरचित 'काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ति' मे द्वितीय 'दोषदर्शन' श्रधिकरण मे प्रथम अध्याय समाप्त हुआ । पढ़ और पदार्थ के दोपो का विभाग समाप्त हुआ |
-००-००
इति श्रीमदाचार्य विश्वेश्वर सिद्धान्तशिरोमणिविरचिताया काव्यालङ्कारद पिकाया हिन्दीव्याख्याया द्वितीये 'दोषदर्शनाधिकरणे' प्रथमोऽध्याय समाप्तः ।
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दोषदर्शननाम्नि द्वितीयाधिकरणे द्वितीयोऽध्याय
[ वाक्य वाक्यार्थ- दोष विभागः ] पदपदार्थदोषान् प्रतिपाद्य वाक्यदोषान् दर्शयितुमाहभिन्नवृत्तयतिभ्रष्टविसन्धीनि वाक्यानि । २, २, १ ।
दुष्टानीत्यभिसम्बन्धः ॥ १ ॥ क्रमेण व्याचष्टे
स्वलक्षणच्युतवृत्त भिन्नवृत्तम् । २,२, २, स्वस्माल्लक्षणाच्च्युत वृत्तं यस्मिस्तत् स्वलक्षणच्युतं वृत्तं वाक्यं भिन्नवृत्तम् । यथा—
अयि पश्यसि सौधमाश्रितामविरल सुमनोमालभारिणीम् ।
'दोषदर्शन' नामक द्वितीय श्रधिकरण का द्वितीय श्रध्याय
[ वाक्य तथा वाक्यार्थ दोषों का विभाग ]
[ द्वितीय अधिकरण के पिछले प्रथम अध्याय में ] पद-दोषो तथा पदार्थदोषो का प्रतिपादन करके [ अब इस द्वितीय अध्याय में ] वाक्य-दोषो को दिखाने के लिए कहते हैं
भिन्नवृत्त, यतिभ्रष्ट और विसन्धि [ तीन प्रकार के ] वाक्य [ दोष ] है । [ पिछले अध्याय के चतुर्थ सूत्र से 'दुष्ट' पद के एक वचन का 'दुष्टानि ' बहुवचन में वचन - विपरिणाम करके भिन्नवृत्त, यतिभ्रष्ट और विसन्धि तीन प्रकार के वाक्य ] दुष्ट होते है यह सम्बन्ध [ पिछले प्रकरण से ] है ॥ १ ॥
,
[ इन तीनो प्रकार के वाक्य दोषो की ] क्रम से व्याख्या करते है । अपने लक्षण से हीन वृत्त [ छन्द ] को भिन्नवृत्त [ दोष ग्रस्त ] कहते है । जिस [ श्लोक वाक्य ] में वृत्त [ छन्द ] अपने लक्षण से च्युत हो वह स्वलक्षणच्युत वृत्त वाला [ इलोक ] वाक्य भिन्नवृत्त होता है। जैसे
अरे [ मित्र ] सघन [ श्रविरल ] पुष्पो की माला के भार को धारण
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सूत्र ३-४ ] द्वितीयाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः [८९
वैतालीययुग्मपादे लध्वक्षराणां षण्णां नैरन्तर्य निषिद्धम् , तच्च कृतमिति भिन्नवृत्तम् ॥२॥
विरसविराम यतिभ्रष्टम् । २, २, ३ । विरसः श्रुतिकटुर्विरामो यस्मिंस्तद् विरसविरामं यतिभ्रष्टम् ॥३॥ तद्धातुनामभागभेदे स्वरसन्ध्यकृते प्रायेण । २, २, ४ ।
तद् यतिभ्रष्टं धातुभागभेदे नामभागभेदे च सति भवति । स्वरसन्धिनाऽकृते प्रायेण ।
करने वाली, महल [ सोध-प्रासाद] के ऊपर खडी हुई [ नायिका ] को देख रहे हो।
यह श्लोक 'वैतालीय' वृत्त मे लिखा गया है । 'वैतालीय' वृत का लक्षण 'वृतरत्नाकर' ग्रन्य में इस प्रकार किया गया है
षड्विषमेऽष्टौ समे कलाम्ताश्च समे स्युर्नो निरन्तराः।
न समात्र पराश्रिताः कला वैतालीयेऽन्ते रलो गुरुः ॥
वैतालीय [ वृत्त] के सम[ अर्थात् द्वितीय तथा चतुर्थ ] चरणो में निरन्तर छ लघु अक्षरो [ एकसी छः मात्रानो ] का निषेध किया हुआ है। [ परन्तु उक्त उदाहरण में 'अविरलसुम यह छहो लघु मात्राएं निरन्तर प्रयुक्त करके, जो निषिद्ध है वह ही किया गया है इसलिए [ यहां 'वतालीय' वृत्त अपने लक्षण से च्युत हो जाने से ] 'भिन्नवृत्त' [बोष से युक्त ] है। [ अतएव इस को भिन्नवृत्त के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया गया है ] ॥२॥
'भिन्नवृत्त के बाद 'गतिभ्रष्ट' नामक दूसरे वाक्यदोष का निरूपण करते हैं
विरस [अरुचिकर स्थल में] विराम वाला [श्लोक वाक्य ] यतिभ्रष्ट [ कहलाता है।
विरस अर्थात् श्रुतिकट [ सुनने में बुरा लगने वाला] विराम जिस [श्लोक वाक्य ] में हो वह विरस विराम [ यह बहुव्रीहि समास है ] वाला , [ श्लोक वाक्य ] यतिभ्रप्ट [ दोष से युक्त कहलाता है ॥३॥
वह [ यतिभ्रष्ट दोष ] प्रायः स्वरसन्धि के [ नियम के ] विना [ स्वर ' सन्धि के नियम के विपरीत ] किए हुए धातु अथवा [ नाम ] प्रातिपादिक भाग में दुकडे कर देने पर होता है।
वह यतिभ्रष्ट [ दोष ] प्रायः स्वरसन्धि के बिना, [स्वर सन्धि के
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१०]
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती
[ सूत्र धातुभागभेद मन्दाक्रान्तायां यथा
एतासां रानति सुमनसां, दाम कण्ठावलम्वि । नामभागभढ़े शिखरिण्याम यथा
कुरङ्गाक्षीणां गण्डतलफलक स्वेदविसरः । नियम के बिना धातु-भाग अथवा प्रातिपदिक-भाग [ नाम ] का भेद [दुकड़े] कर देने पर होता है।
धातु-भाग के विभाग कर देने पर [ यतिभ्रष्ट का उदाहरण ] मन्दाशान्ता [छन्द ] में जैसे
इनके गले में पड़ी हुई फूलों की माला शोभित होती है ।
यह मूल श्लोक 'मन्दाक्रान्ता' छन्द मे लिखा गया है । मन्दाक्रान्ता छन्द का लक्षण इस प्रकार है
मन्दाक्रान्ता, जलधिपडगे, म्भी नती ताद गुरू चन् । अर्थात् मन्दाक्रान्ता छन्द में प्रत्येक पाद १७ अक्षर का होता है । वह १७ अक्षर भगण, मगण, नगण, तगण-तगण और दो गुम इस प्रकार पूरे होते हैं। इनमे चार, छ: और सात अन्नरों के बाद 'यति' होनी चाहिए । अर्थात् पहली यति चौथे अक्षर के बाद, उमकं छः अक्षरी के बाद अर्थात् टसर्वे अनर के अन्त में दूसरी और उसके सात अक्षर वाद अर्थान सत्रहवे अनर के बाद अन्तिम पनि होनी चाहिए । इम लक्षण के अनुसार पहिली 'यति चार अक्षर के बाद अर्थान् एतासा ग, यहा पर होनी चाहिए । यह 'रा' 'राजति' पढ के मूलभूत 'राज' धातु का एक अंश है । इसके बाद 'यति' कर देने में राज धानु के टुकडे हो जाते हैं। इमलिए धानुभाग के मंद होने से यहा 'यतिभ्रष्ट दोष माना गया है।
[नाम ] प्रातिपदिक भाग के भेद [ भङ्ग] होने पर शिखरिणी [छन्द ] में [ यतिभ्रष्ट का उदाहरण ] जैसे
मृगनयनियों के [ कपोलफलक ] गाल के ऊपर पसीना बह रहा है ।
यह शिखरिणी छन्द का एक पाट है। शिखरिणी छन्द का लक्षण इस प्रकार है
रमः न्;श्च्छिन्ना, यमनमभला गः शिखरिणी । अर्थात् यगण, मगरण, नगण, सगण, भगण, लघु तथा गुरु इस प्रकार
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सूत्र ४ ]
द्वितीयाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः
मन्दाक्रान्तायां यथा— दुर्दर्श श्चक्र शिखिकपिशः, शार्ङ्गिणो वाहुदण्डः । धातु-नाम-भागपदग्रहणात् तद्भागातिरिक्तभेदे न भवति यति
भ्रष्टत्वम् ।
जैसे
[ ६१
यथा मन्दाक्रान्तायाम् -
शोभां पुष्यत्ययमभिनवः, सुन्दरीणां प्रबोधः ।
से १७ अक्षरों के पाद वाला छन्द 'शिखरिणी' होता है । इसमे रस अर्थात् छः और रुद्र ग्यारह अक्षरों के बाद 'यति' होती है। पहली 'यति' छठे वर्ण के बाद और दूसरी 'यति' १७ वर्णं के बाद अर्थात् पादान्त मे होती है। इस लक्षण के अनुसार कुरङ्गाक्षीणा ग', यहा पर छः अक्षरो के बाद पहिला 'यति' पडती है । परन्तु यह 'ग' गण्ड अथवा 'गण्डतल फलके' इस समस्त प्रातिपदिक का एक देश हैं । इसके बाद 'यति' करने से प्रातिपादिक दो टुकडों में बट जाता है। अतएव नामभागभेद के कारण यहा यतिभ्रष्टत्व दोष श्राता है ।
'मन्दाक्रान्ता' [ छन्द ] में [ नामभागभेद से यतिभ्रष्ट का उदाहरण ]
चक्र [ सुदर्शनचक्र ] की अग्नि से [ अथवा के समान ] दीप्यमान [ श्रथवा पीताम्बर परिवेष्टित अतएव पीत ] विष्णु का भुजदण्ड है ।
मन्दाक्रान्ता के पूर्वोक्त लक्षण के अनुसार प्रथम चार ग्रहरों के बाद अर्थात् 'दुर्दर्शश्च', यहा पर यति होनी चाहिए। परन्तु यह 'च' 'चक्र' पढ का एक देश है। उसके बाद यति कर देने से 'चक्र' इस प्रातिपदिक ग्रथवा नामभाग में भेद हो जाता है। इसलिए यह 'यतिभ्रष्ट' दोप ग्रस्त है ।
सूत्र में धातु [ भाग ] और नाम भाग पदो का ग्रहण करने से [ यह अर्थ निकलता है कि ] उन भागो से भिन्न [ प्रकृति प्रत्यय प्रादि ] में भेद [ या खण्ड ] हो जाने पर 'यतिभ्रष्टत्व' दोष नहीं होता है ।
जैसे 'मन्दाक्रान्ता' में [ प्रकृति-प्रत्यय के बीच में यति होने पर भी 'यतिभ्रष्टत्व' दोष के न होने का निम्न उदाहरण ] -
यह [ रतिश्रमास ] सुन्दरियो का नवीन [ प्रातःकालीन ] जागरण [ उनकी ] शोभा को बढ़ा रहा है ।
इस मूल मन्दाक्रान्ता के चरण में चतुर्थाक्षर 'शोभा पुष्य' के बाद यति पडती है। यह 'पुप्य' का अन्तिम अक्षर 'पुष्यति' इस पद का श है । परन्तु
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६२ ]
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तो
[ सूत्र ४
शिखरिण्यां यथा
विनिद्रः श्यामान्तेष्वधरपुटसीत्कारविरुतैः । स्वरसन्ध्यकृत इति वचनात् स्वरसन्धिकृते भेदे न दोपः । यथाकिञ्चिद्भावालसम सरलं प्रेक्षितं सुन्दरीणाम् ॥ ४ ॥
इस यति से धातु भाग के खण्ड नही होते हैं अपितु प्रकृति और तिप् प्रत्यय के बीच में यति पड़ती है इसलिए वह दोपाधायक नहीं है ।
[ इसी प्रकार प्रातिपदिक और प्रत्यय के बीच हुई यति का ] शिखरिणी [ वृत्त ] में [ निम्न उदाहरण है ] जैसे
-
रात्रि [ श्यामा रात्रि ] के अन्त में [ प्रातःकाल ] श्रधरपुर के सीत्कार के शब्द से जगा हुथा ।
'शिखरिणी' छन्द के इस चरण में, छठे अक्षर के बाद ' विनिद्रः श्यामान्ते' यहा पर 'यति' पड़ती है । परन्तु 'श्यामान्ते' यहा पद पूर्ण नहीं होता है । 'श्यामान्तेपु' यहा पर पद पूर्ण होता है । इसलिए यह 'यति' पद के बीच में पड़ती है परन्तु उमसे प्रातिपदिक के खराड नही होते अपितु प्रातिपदिक और सुप् प्रत्यय के बीच मे 'यति' पड़ती है । इस प्रकार की 'यति' वैरस्यतापादक नहीं होती है । इसलिए यहा 'यतित्व' दोष नही होता है ।
[ सूत्र में ] 'स्वरसन्ध्यकृते' स्वर सन्धि के बिना [ मूल रूप से ] किये हुए कहने से स्वर- सन्धि से किए हुए [ श्रर्थात् स्वर- सन्धि से बने हुए धातुभागप्रातिपदिक अथवा नामभाग के ] भेद होने पर दोष नहीं होता है [ यह अभिप्राय निकलता है | इस प्रकार का उदाहरण देते है ] जैसे -
कुछ भाव भरी [ श्रतः ] अलसाई सी सुन्दरियो की तिरछी चितवन । यह भी 'मन्दाक्रान्ता' छन्द का एक चरण है । नियमानुसार इसमें चतुर्थ अक्षर के बाद अर्थात् 'किञ्चिद्भावा' के बाद 'यति' पड़ती है । किन्तु यहा पूरा पद 'किञ्चिद्भावालस' है । उसके बीच में 'यति' पढ़ रही है । परन्तु वहा भाव और लस दो पटों के बीच 'कः सवर्णे दीर्घः' इस सूत्र से दीर्घ होकर 'किञ्चिद्भावालम' बनता है | इस सन्धिकृत पद मे से 'यति' के अवसर पर 'किञ्चिदभावा' अश एक थोर, और 'लस' दूसरी श्रोर निकल जाता है । परन्तु फिर भी इस प्रकार की यति वैरस्याधायक नहीं होती है । इसलिए स्वरसन्धिकृत अर्थात् स्वर सन्धि से बने हुए नाम अर्थात् प्रातिपदिक अथवा धातु के खण्ड होने पर भी ऐसे स्थलो मे 'यतिभ्रष्टत्व' टोप नहीं होता है । यह सूत्रकार का अभिप्राय है || ४ ||
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सूत्र ५-६]
द्वितीयाधिकरणे द्वितीयोऽध्याय.
[६३
न वृत्तदोषात् पृथग्यतिदोषो वृत्तस्य यत्यात्मकत्वात् ।२,२,५।
__ वृत्तदोषात् पृथग् यतिदोषो न वक्तव्यः । वृत्तस्य यत्यात्मकत्वान् ॥५॥
यत्यात्मकं हि वृत्तमिति भिन्नवृत्त एव यतिभ्रष्टस्यान्तर्भावान्न पृथग् ग्रहणं कार्यम् । अत आह
न, लक्ष्मण पृथक्त्वात् । २, २, ६ । नायं दोपः, लक्ष्मणो लक्षणस्य पृथक्त्वात् । अन्यद्धि लक्षणं वृत्तस्यान्यद् यतेः । गुरुलघुनियमात्मक वृत्तं, विरामात्मिका च यतिरिति ॥ ६॥
यहा तक वाक्यदोषों मे 'भिन्नवृत्त' और 'यतिभ्रष्ट' दो दोष दिखाए हैं। यहा यह शङ्का उपस्थित होती है कि यह दोनो प्रकार के दोष वृत्त अर्थात् छन्द में ही पाए जाने वाले दोष हैं । दोनों ही वृत अर्थात् छन्द के वैरस्यापादक होते हैं। इसलिए 'भिनवृत्त' से 'यतिभ्रष्ट दोष को पृथक् मानने की क्या
आवश्यकता है। इस प्रश्न को उठाकर उसका समाधान करने के लिए ग्रन्थकार अगले प्रकरण का प्रारम्भ करते हैं।
वृत्त के [ भी ] यतिविशिष्ट [ यत्यात्मक ] होने से वृत्तदोष से पृथग् यतिदोष [ 'यतिभ्रष्ट' दोष का मानना उचित ] नहीं है।
वृत्त दोष से पृथक् यति दोष कहना उचित नहीं है। वृत्त के यतिविशिष्ट [या यति स्वरूप होने से ॥५॥
वृत्त यत्यात्मक [ यतिविशिष्ट हो ] होता है इसलिए भिन्न वृत्त में ही यतिभ्रष्ट [दोष ] का [ भी ] अन्तर्भाव हो जाने से [ यतिभ्रष्ट दोष का ] पृथग् ग्रहण नहीं करना चाहिए । [यह शड्डा हो सकती है ] इसलिए [ उसके समाधानार्थ ] कहते है
[भिन्नवृत्त' और 'यतिभ्रष्ट' दोनो के ] लक्षणो के भिन्न होने से यह [दोनो दोषो को अभिन्न कहना ] ठीक नहीं है।
यह [आपका दिखाया हुआ ] दोष [गेक ] नहीं है। [भिन्नवृत्तत्व तथा यतिभ्रष्टत्व दोनो के ] लक्ष्म अर्थात् लक्षण के पृथक् होने से। वृत्त का लक्षण
और है और यति का लक्षण अन्य है। [वाक्य में ] गुरु लघु [रूप से वर्ण विन्यास ] का नियामक वृत्त होता है और विराम रूप [विराम को नियामिका ] यति होती है।
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ε४]
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तौ
[ सूत्र ७-८
विरूपपदसन्धिविसन्धि । २,२, ७ ।
पदानां सन्धिः पदसन्धिः स च स्वरसमवायरूपः प्रत्यासत्तिमात्ररूपो वा । स विरूपो यस्मिन्निति विग्रह. ॥ ७ ॥ पदसन्धिवैरूप्य विश्लेषोऽश्लीलत्व कष्टत्वञ्च । २, २, ८ ।
विश्लेषो विभागेन पदाना संस्थितिरिति । अश्लीलत्वमसभ्यस्मृतिहेतुत्वम् । कष्टत्वं पारुष्यमिति । विश्लेषो यथा
इस प्रकार दोनो के लक्षण भिन्न होने से दोनो को अभिन्न मानना उचित नही है । इसी कारण स्थान मे विराम रूप यतिभ्रष्टत्व रहने पर भी गुरु-लघु नियम के यथावत् विद्यमान रहने पर भिन्नवृत्तत्व दोष नहीं होता । इसी प्रकार गुरु-लघु नियम का भत हो जाने से भिन्नवृत्तत्व दोष के होने पर भी विराम मे वैरस्य न होने से यतिभ्रष्टत्व दोष नही होता । श्रतः श्रन्वयव्यतिरेक के भेद से भी भिन्नवृत्तत्व र यतिभ्रष्टत्व दोष एक नही हो सकते हैं । उनको अलग-अलग मानना ही उचित है ॥ ६ ॥
जहां पदो की विरूप [ अनुचित ] सन्धि हो उसको 'विसन्धि' दोष कहते है ।
पदो को सन्धि [ यह ] पदसन्धि [ समास का विग्रह ] है । और वह [ सन्धि ] स्वरो का मिश्रण [ समवाय ] रूप अथवा [ स्वरो की ] प्रत्यासत्ति [ समीपस्थिति मात्र दो प्रकार का ] होता है । वह [ स्वरसमवाय रूप अथवा स्वर प्रत्यासत्ति रूप सन्धि ] जहा [ जिस शब्द या वाक्य में ] विरूप [ अनुचित, वैरस्यापादक ] हो [ वह विसन्धि कहलाता है ] यह विग्रह हुआ ॥ ७ ॥
[ पूर्व सूत्र में कहा हुआ ] पद- सन्धि का वैरूप्य ९. विश्लेष रूप २. अश्लीलत्वरूप, और ३ कष्टत्व रूप [ तीन प्रकार का ] होता है ।
[ सन्धि होने योग्य स्थलो पर सन्धि न करके ] अलग-अलग [ विभान] पदो की स्थिति [ रखना ] विश्लेष [ या सन्धि विश्लेष दोष कहलाता ] है । [ पदो की सन्धि कर देने से जहा ] असभ्यार्थ की स्मृति का हेतुत्व [ उस सन्धि में हो जाय वहा सन्धि का ] अश्लीलत्व [ दोष होता ] है । और कष्टत्व [ का अर्थ सन्धि से उत्पन्न पारुष्य ] कठोरता । [ उनमें से ] विश्लेष [ का उदाहरण ] जैमे—
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सूत्र ८] द्वितीयाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः [६५
१-मेघाऽनिलेन अमुना एतस्मिन्नद्रिकानने । २-कमले इव लोचने इमे अनुबध्नाति विलासपद्धतिः। ३-लोलालकानुविद्धानि आननानि चकासति । इस पहाड़ी वन [प्रान्त ] में इस मेघ की [ वृष्टि सहित तीन ] वायु ने ।
इस उदाहरण मे अनिलेन+अमुना मे दीर्घ तथा अमुना+एतस्मिन् मे वृद्धि नहीं की गई है इसलिए सन्धि विश्लेष रूप 'विसन्धि' दोष है ।
कमलों के समान सौन्दर्य इन नेत्रो को सुशोभित करता है।
दूसरे उदाहरण मे १, कमले इव, २. लोचने इमे, ३. इमे अनुबध्नाति इन तीनों स्थानों पर प्राप्त होने वाली सन्धि १ देद द्विवचन प्रगृह्यम्' इस पाणिनि सूत्र से प्रगृह्य सजा हो जाने से और "प्लुप्तप्रगृह्या अचि नित्यम् ।' इस मूत्र से प्रकृतिवद्भाव हो जाने से नही हो पाती है । इस प्रकार यह सन्धिविश्लेष शास्त्रादेश के अनुसार किया गया है। फिर भी अनेक बार इकहा ही इस प्रकार का विश्लेष पाया जाता है । इसलिए वह श्रोता को वैरस्यापादक प्रतीत होता है । और कवि की अक्षमता का सूचक होने से दोष ही । होता है। यह सन्धि विश्लेष का 'प्रगृह्य सजा' निमित्तक एक प्रकार का भेद है। इस सन्धिविश्लेष का दूसरा भेद 'सन्ध्यविवक्षा' निबन्धन होता है अर्थात् जहा कवि, सन्धि की विवक्षा नहीं है ऐसा मान कर सन्धि नहीं करता है। इस प्रकार का दूसरा उदाहरण देते हैं
चञ्चल केशपाश से घिरे हुए मुख शोभायमान हो रहे है।
यहा 'लोलालकानुविद्धानि' के बाद 'माननानि' पद होने के कारण "इको यणचि' सूत्र से यणादेश प्राप्त है । उसके अनुसार 'अनुविद्धान्याननानि' ऐसा प्रयोग होना चाहिए । परन्तु यदि ऐसा प्रयोग किया जाता है तो यह छन्द ठोक नही बनता है । इसलिए कवि ने यहा जान-बूझ कर सन्धि नहीं की है। यद्यपि सर्वत्र सन्धि करना नितान्त आवश्यक नहीं है अपितु सन्धि के विवक्षा के आधीन होने से, कवि, विवक्षित न होने पर सन्धि न करने के लिए स्वतत्र है । परन्तु ऐसे पटो का प्रयोग कवि की अशक्ति का सूचक अवश्य होता है । जहाँ सन्धि होनी चाहिए वहा सन्धि न करने के लिए बाधित होकर
१ अप्टाध्यायी १, १, ११। ३ अप्टाध्यायी६, १.७७ ॥
२ अप्टाध्यायी ६, १, १२५ ।
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६६]
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तो
[सूत्र ८
अश्लीलत्वं यथा -
१. विरेचकमिदं नृत्तमाचार्याभासयोजितम् ।
सन्धिविश्लेप का आश्रय लेना एक प्रकार का श्रापद्धर्म ही हो सकता है। उसका अवलम्बन तभी करना उचित है जब कोई अन्य मार्ग न हो । इसलिए जब कवि इस प्रकार का प्रयोग करता है तो यह निश्चित है कि उसके पास दूसरा और कोई मार्ग नहीं रह गया है। यही उसकी अशक्ति का परिचायक है। इसलिए विवक्षाधीन सन्धिविश्लेष यदि एक भी बार प्रयोग किया जाय तो भी वह दोषाधायक होता है। और प्रगृह्यसंज्ञा-निमित्तक सन्धि विश्लेष एक बार करने से दोष नहीं होता परन्तु इकट्ठा अनेक बार करने पर वह भी दोष हो जाता है। इसी लिए आगे इसी ग्रन्थ के 'काव्यसमयाध्याय' में 'निर सहितकपदवत् पादेष्वर्धान्तवर्जम्' यह सूत्र कहेगे । इसके अनुसार काव्य में एक चरण के अन्तर्गत पदों मे सन्धि नित्य करना चाहिए । व्याकरण के अनुसार सन्धि को विवक्षाधीन भले ही माना जाय परन्तु कवियो की परम्परा या 'समय' यह ही है कि जैसे एक पद के अन्तर्गत सन्धि अनिवार्य है इसी प्रकार श्लोक के एक चरण के अन्तर्गत भी नित्य सन्धि होती है इसलिए यदि विवक्षाधीन मानकर एक बार भी सन्धिविश्लेष होता है तो वह काव्य दोष ही माना जायगा।
सन्धिविश्लेष दोष का निरूपण करने के बाद सन्धि अश्लीलता दोप का । निरूपण करते हैं । जैसाकि पहिले कहा जा चुका है १ जुगुप्सा व्यञ्जक, २.बीड़ा व्यञ्जक और ३. अमङ्गलातकदायेि तीन प्रकार की अश्लीलता होती है । उन तीनों को दिखाने के लिए तीन उदाहरण देते है।
१ [ सन्धिविश्लेष में जुगुप्सादायि ] अश्लीलत्व का उदाहरण] जैसे
अयोग्य प्राचार्य [प्राचार्याभास ] द्वारा योजित [ होने से ] यह 'नृत्त' रेचक [ नामक 'नृत्त' के भेव ] से रहित [ अतः विरेचक ] है ।
इस उदाहरण मे 'विरेचक' पद का प्रयोग किया गया है। जिसका अर्थ । 'रेचक' रहित होता है । रेचक' शब्द नाट्यशास्त्र का पारिभाषिक शब्द है । नृत्यकाल में हाथ, पैर, कमर, गर्दन, आदि की विशेष प्रकार की जो चेष्टाएं होती है उनको 'रेचक' कहते है। सङ्गीतरत्नाकर मे कहा है
'रेचकानय वक्ष्यामश्चतुरो भरतोदितान् । पदयोः करयोः कट्या ग्रीवायाश्च भवन्ति ते ॥
१ काव्यालङ्कार सूत्रवृत्तिः ५, १, २।
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सूत्र ८ ]
द्वितीयाधिकरणे द्वितीयोऽध्याय
२. चकासे पनसप्रायैः पुरी घण्डमहाद्रुमैः । ३. विना शपथदानाभ्यां पदवादसमुत्सुकम् ।
[ ६७
नाट्यशास्त्र के नियमो के अनुसार 'नृत्त ताललयाश्रयम् ' प्रत्येक सुन्दर 'नृत्त' में इन 'रेचको' का होना आवश्यक है । नाट्यशास्त्र का जानने वाला कोई श्राचार्य 'रेचको' से हीन 'विरेचक' 'नृत्त' नही करवा सकता है। किन्तु यह 'नृत्त' 'विरेचक' अर्थात् उक्त 'रेचको' से हीन है इसलिए जान पड़ता है कि किसी 'श्राचार्याभास' अर्थात् अयोग्य किन्तु श्राचार्यम्मन्य व्यक्ति ने इसकी योजना की है | 'विरेचकभिद नृत्तमाचार्याभासयोजितम्' इस पद का यही अभिप्राय है । परन्तु इसमें 'विरेचक' पद दस्तावर का और 'याम' पद मैथुन का स्मारक भी है, इसलिए यह दोनों क्रमशः 'जुगुप्सादायी' तथा 'वीडादायी' अश्लीलता के उदाहरण हो जाते हैं । 'विरेचक' पद मे अश्लीलता की स्थिति सन्धिदोष के कारण नहीं है । ' श्राचार्याभास' में 'याम' अश जो मैथुन का स्मारक होने से 'व्रीडादायी' होता है उसमें अश्लीलता का प्रयोजक सन्धि ही है । इस लिए यह 'व्रीडादायी' अश्लीलता रूप सन्धि-दोष का उदाहरण है । 'जुगुप्सादायी ' सन्धिदोष का उदाहरण दूसरा देते हैं
1
जिनमें कटहल बहुतायत से है ऐसे बड़े-बड़े वृक्षो के झुण्डो से [ घिरी हुई यह ] नगरी शोभित हो रही थी ।
इस उदाहरण 'पुरी पण्डमहाद्र ुमैः ' यह श्रश 'जुगुप्सा' व्यञ्जक अश्लीलता दोष से युक्त है । यहा यद्यपि स्वरसमुदाय रूप कोई सन्धि नहीं हुई है । परन्तु पुरी + षण्ड के समीपस्थ होने से 'प्रत्यासत्ति' रूप सन्धि मात्र से 'पुरीष' शब्द बन गया है जो 'विष्ठा' का स्मारक होने से यह 'जुगुप्सा व्यञ्जक' अश्लीलता का उदाहरण है। तीसरा निम्न उदाहरण अश्लीलता के तीसरे भेद 'श्रमङ्गलातङ्कदायी' अश्लील का दिया गया है -
विना किसी [ लोकोपकार श्रादि कार्य के ] प्रतिज्ञा [ शपथ ] या [ किसी प्रकार के ] दान [ आदि कार्य ] के [ किए हुए भी ] पदवाद [ पद प्राप्ति की योग्यता सूचन ] के लिए उत्सुक को ।
इसमें 'विना' और 'शपथ' शब्दों की प्रत्यासत्ति रूप सन्धि से 'विनाशपथ' शब्द बन गया है और उससे 'विनाशपथ' अर्थात् मृत्यु मार्ग की स्मृति होती है, तः वह 'श्रमङ्गलातङ्कदायी' अश्लीलता का उदाहरण हे और उसका कारण विना + शपथ शब्दों की प्रत्यासत्ति रूप सन्धि है । यहा मुख्यतः सन्धिदोप
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६८ ]
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तो
कष्टत्वं यथा-
मयुद्गमगर्भास्ते गुर्वाभोगा द्रुमा बभुः ॥ ८ ॥ एवं वाक्यदोपानभिधाय वाक्यार्थदोपान् प्रतिपादयितुमाहव्यर्थैकार्थसन्दिग्धाप्रयुक्तापक्रमलोकविद्या
विरुद्धानि च । २, २, ६ |
वाक्यानि दुष्टानीति सम्बन्धः ॥ ६ ॥
[ सूत्र ६-१०
क्रमेण व्याख्यातुमाह
व्याहतपूर्वोत्तरार्थं व्यर्थम् | २, २, १० |
के प्रसङ्ग मे अश्लीलता का निरूपण हुआ है इसलिए ऐसे उदाहरण अधिक उपयुक्त रहते जिनमे वास्तव में सन्धि होने पर अश्लीलता बाई होती । यह जो उदाहरण दिए गए हैं उनमे प्रत्यासत्ति मात्र के कारण अश्लीलता है । इसलिए वह उतने उपयुक्त नही बने हैं ।
-
[ सन्धि होने पर ] कष्टत्व [ दुःश्रवत्व का उदाहरण ] जैसेमञ्जरी के उद्गम से युक्त वे बड़े-बड़े वृक्ष शोभित हुए ।
इस उदाहरण में मञ्जरी + उद्गम तथा गुरु + ग्राभोग पदों में यणादेश हो कर बने हुए 'मञ्जर्युद्गम' और गुर्वाभोग' पदों मे सन्धि के कारण ऊपर चढ़े हुए रैफ के संयोग से 'कष्टता' या 'दुःश्रवता' श्रा गई है । अतएव यह 'सन्धिकता' के उदाहरण हैं ॥ ८ ॥
इस प्रकार वाक्यदोषों का कथन करके शव वाक्यार्थ दोषो का प्रतिपादन करने के लिए कहते है
१ व्यर्थ, २ एकार्थ, ३ सन्दिग्ध, ४ अप्रयुक्त, ५ अपक्रम, ६ लोकविरुद्ध और ७ विद्याविरुद्ध [ सात प्रकार के ] वाक्यार्थ दोष है ।
[ पूर्वोक्त सात प्रकार के ] वाक्य दुष्ट [ अर्थ वाले ] है यह [ पिछले सूत्र के साथ ] सम्बन्ध है । [ इस प्रकार इस सूत्र में सात प्रकार के वाक्यार्थ दोषों का 'उद्देश' अर्थात् 'नाममात्रेण कथन' किया गया है । आगे उनके लक्षण करेंगे ] ॥ e ॥
क्रम से [ उन वाक्यार्थ दोषों की ] व्याख्या करने के लिए कहते हैश्रागे पीछे के [ पूर्व और उत्तर ] श्रर्थ का जिसमें [ विरोध, व्याघात ] हो वह 'व्यर्थ' [ दोष ] कहलाता है ।
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सूत्र ११] द्वितीयाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः [LE ____ व्याहतौ पूर्वोत्तरावौँ यस्मिंस्तद् व्याहतपूर्वोत्तरार्थ वाक्यं व्यर्थम् । यथा
अद्यापि स्मरति रसालसं मनो मे
मुग्धायाः स्मरचतुराणि चेष्टितानि ॥ मुग्धायाः कथं स्मरचतुराणि चेष्टितानि । तानि चेत् कथं मुग्धा । अत्र पूर्वोत्तरयोरर्थयोविरोधाद् व्यर्थमिति ॥ १० ॥
उक्तार्थपदमेकार्थम् । २, २, १५ । उक्तार्थानि पदानि यस्मिंस्तदुक्तार्थपरमेकार्थम् । यथा
चिन्तामोहमनङ्गमङ्ग तनुते विप्रेक्षितं सुभ्र वः।
अनङ्गः शृङ्गारः। तस्य चिन्तामोहात्मकत्वाचिन्तामोहशब्दौ प्रयुक्ताचुक्ताौँ भवतः । एकार्थपदत्वाद् वाक्यमेकार्थमित्युक्तम् ॥ ११॥
जिस [ वाक्य ] में [पूर्व और उत्तर] आगे-पीछे के अर्थ परस्पर विरुद्ध [ व्याहत ] हो वह परस्पर विरुद्धार्थ वाला वाक्य 'व्यर्थ [कहलाता] है। जैसे
[सम्भोगकालीन ] मानन्द से परिपूर्ण मेरा मन अब भी 'मुग्धा' पली को रति-क्रीड़ा की चतुरतापूर्ण चेष्टामो को याद कर रहा है।
[इसम वधू को 'मुग्धा और उसकी चेष्टामो को 'स्मरचतुराणि चेष्टितानि' कहा है। यह दोनों बातें परस्पर विरुद्ध है । क्योकि यदि वह 'मुग्धा है तो [ मुग्धा तु 'रतौ वामा'] 'मुग्धा' की चेष्टाएं रतिचतुर' कैसे [ हो सकती है] और यदि [ उसकी चेष्टाएं ] उस प्रकार की [रति चतुर] है तो वह 'मुग्या' कैसे [ हो सकती है इस प्रकार ] यहां प्रागे-पीछे की बातो [पूर्व और उत्तर प्रर्थों ] में विरोध होने से 'व्ययंत्व' दोष है ॥१०॥
पुनरुक्त [ उक्त अर्थ वाला ] पद 'एकार्थ' [ दोष कहलाता है।
जिस [ वाक्य ] में [ उक्तार्थ ] पुनरुक्त पद हो वह उक्तार्थ [पुनरुक्त] पद वाला [ वाक्य ] 'एकार्थ' [ वाक्यदोष कहलाता है । जैसे
उस सुन्दरी का कटाक्ष चिन्ता, मोह और काम को उत्पन्न करता है।
[यहां ] अनङ्ग [का अर्थ ] श्रृङ्गार है। उसके [ स्वयं ही ] चिन्ता और मोहात्मक होने से [अर्थात् चिन्ता तथा मोह के उसी काम के अन्तर्गत हो .
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१०० ]
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तौ [ सूत्र १२-१३ न विशेषश्चेत् । २, २, १२ । न गतार्थ दुष्ट, विशेषश्चेत् प्रतिपाद्यः स्यात् ॥ १२॥ तं विशेष प्रतिपादयितुमाहधनुध्विनौ धनुश्रुतिरारूढ़े. प्रतिपत्त्यै । १३ ।
धनुाध्वनावित्यत्र ज्याशब्देनोक्तार्थत्वेऽपि धनुःश्रुतिः प्रयुज्यते। जाने से ] चिन्ता और मोह शब्द का [पृथक् ] प्रयोग [ उक्तार्थ ] पुनरुक्त हो जाता है। [ वाक्य के ] पुनरुक्त पद वाला होने से [छत्रि-न्याय से समस्त ] वाक्य को पुनरुक्त [ उक्तार्थ ] कहा है।
[इसका अभिप्राय यह है कि उक्तार्थता या पुनरुक्ति तो पदो की होती है इसको वाक्यार्थ दोष कैसे कहा है। यह प्रश्न है। इसका समाधान ग्रन्थकार ने इस प्रकार किया है कि पुनरुक्ति का सम्बन्ध दो या अनेक पदो से होता है अतः उसको वाक्य दोष ही समझना चाहिए। अथवा इस समाधान का दूसरा अभिप्राय यह भी हो सकता है कि जैसे बहुत से व्यक्ति एक साथ जा रहे हों उनमें एक छतरी लगाए हो और अन्य निना छतरी के हों तो कभी-कभी उन सबके लिए जरा उन छतरी वालों को बुला लेना इस प्रकार का प्रयोग होता है। इस को 'छत्रिन्याय' कहते है । इस 'छत्रिन्याय' से वाक्यान्तर्गत एक पद की पुनरुक्तता से वाक्य की पुनरुक्ति मान कर इस उक्तार्थता को वाक्यदोष कहा जा सकता है ] ॥११॥
___ यदि [ इस उक्तार्थता में कोई ] विशेष [प्रयोजन ] हो तो [ यह 'उक्तार्थ' या 'एकार्थ ] दोष नहीं होता है।
यदि कोई विशेष [बात पुनरुक्ति से प्रतिपाद्य हो तो गतार्थता [उफ्तार्थता या पुनरुक्ति ] दोष नहीं होती है ॥१२॥
[जिस विशेषता के प्रदर्शन के लिए पुनरुक्ति होने पर भी उसको दोष नही माना जाता है ] उस विशेष का प्रतिपादन करने के लिए [अगले सूत्रों में कुछ उदाहरण] कहते है।
'धनुpध्वनों धनुष के चाप की टङ्कार [ इस प्रयोग] में ज्या' शब्द [प्रत्यञ्चा के ] चढाव की प्रतीति के लिए है।
'धनुpध्वनौ इस [प्रयोग ] में [ज्या अर्थात् प्रत्यञ्चा धनुष के सिवाय और किसी की होती ही नहीं इसलिए ज्या पद से ही धनुःपद के गतार्थ
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सूत्र १४ ] द्वितीयाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः १०१ आरूढः प्रतिपत्त्यै । आरोहणस्य प्रतिपत्त्यर्थम् । न हि धनुःश्रुतिमन्तरेण धनुष्यारूढा ज्या धनु]ति शक्यं प्रतिपत्तुम् । यथा
धनुर्व्याकिणचिन्हेन दोष्णा विस्फुरितं तव । इति ॥ १३ ॥ कर्णावतंसश्रवणकुण्डलशिर शेखरेषु कर्णादिनिर्देश. सन्निधेः । २, २, १४ ।
__ कर्णावतंसादिशब्देषु कर्णादीनामवतंसादिपदैरुक्तार्थानामपि निर्देशः सन्निधे. प्रतिपत्त्यर्थमिति सम्बन्ध. । न हि कर्णादिशब्दनिर्देशमन्तरेण कर्णादिसन्निहितानामवतंसादीनां शक्या प्रतिपत्तिः कर्तुमिति । यथा
१.दोलाविलासेषु विलासिनीनां
करणावतंसा. कलयन्ति कम्पम् ।। हो जाने पर भी] धनुः सुद [का प्रयोग क्यिा गया है। ] पारूढ़ता के बोष के लिए [प्रयुक्त किया गया है । 'मारूढः प्रतिपत्त्यै' का अर्थ आरूढ़ता के बोध के लिए है । धनुःपद के बिना, धनुष पर चढ़ी हुई प्रत्यञ्चा धनुष की प्रत्यञ्चा है [अथवा उतरी हुई ] यह नहीं समझा जा सकता है। [धनुर्ध्या शब्द के प्रयोग का उदाहरण ] जैसे
धनुष की प्रत्यञ्चा को चोट से चिन्हित तुम्हारा बाहु फड़क रहा है।
[यहां धनुर्ध्या पद के प्रयोग से चढ़ी हुई प्रत्यञ्चा का ही ग्रहण होता है अन्यथा प्रत्यञ्चा के बन्धन प्रादि से भी चिन्ह हो सकता है ] ॥ १३ ॥
[इसी प्रकार कर्णावतंस, श्रवणकुण्डल, शिरशेखर आदि [प्रयोगो] में कर्ण [श्रवण, शिर ] आदि [ पदो] का निर्देश सामीप्य [बोधन के कारण ]
कर्णावतंस प्रादि शब्दो में कर्णादि के अवतंस, प्रादि पदो से गतार्थ हो जाने पर भी [अलग] निर्देश सन्निधि [ सामीप्य ] के बोध के लिए [किया जाता है, यह [ सूत्र के पदो का सम्बन्ध हुमा । कर्णादि पदो के प्रयोग के बिना कर्ण आदि में सन्निहित [पहिने हुए ] अवतंस प्रादि का ज्ञान नहीं किया जा सकता है। [क्योकि कान के प्राभूषण कर्णफूल अलग भी रखे हुए हो सकते है । कर्णावतंस पद के प्रयोग से कानो में पहिने हुए रूप में ही उनका बोध होता है, अलग रखे हुमो का नहीं ] जैसे
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१०२]
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती । सूत्र १५ २. लीलाचलच्छवणकुण्डलमापतन्ति ।
३. आययुभृङ्गमुखराः शिरःशेखरशालिनः ॥ १४॥ मुक्ताहारशब्दे मुक्ताशब्द. शुद्धे. । २, २, १५ । मुक्ताहारशब्दे मुक्ताशब्दो हारशब्देनैव गतार्थः प्रयुज्यते, शुद्धः प्रतिपत्त्यर्थमिति सम्बन्धः। शुद्धानामन्यरत्नैरमिश्रितानां हारो मुक्ताहारः। यथा
झूला झूलने के समय सुन्दरियो के फानो के आभूषण हिल रहे है।
[ इसी प्रकार का दूसरा उदाहरण देते है ] लीला से हिलते हुए श्रवएकुण्डल पर [ भ्रमर प्रादि ] गिरते है । [अथवा लीला से हिलते कुण्डलों वाले या वाली होकर गिरते है या गिरती है ] ।
यह उदाहरण श्रवणकुण्डल पद मे कुण्डल की श्रवण-सन्निधि कान में पहिने होने की सूचना के लिए प्रयुक्त श्रवण पद के प्रयोग समर्थन के लिए दिया है । परन्तु यहा 'लीला-चलत्' पद से ही उनका कान मे पहिना होना प्रतीत हो सकता है । इसलिए यह उदाहरण अधिक सुन्दर नहीं रहा उसकी अपेक्षा निम्न उदाहरण अच्छा रहेगा
अस्याः कर्णावतसेन जित सर्व विभूषणम् ।
तथैव शोभतेऽत्यन्तमस्याः श्रवणकुण्डलम् ॥ इसके पूर्व धनुर्ध्या आदि सूत्र मे ही कर्णावतंसादि पदों का भी एकत्र ही निर्देश किया जा सकता था उस दशा मे अलग सूत्र बनाने की आवश्यकता न होती । परन्तु प्रयोजन के भेद को दिखाने के लिए इस सूत्र और इसके अगले चार सूत्रों की रचना अलग की गई है। तीसरा उदाहरण देते हैं
भृङ्गो के गुञ्जन से युक्त [ मुखरित ] शिर-मौर [शेखर ] वाले [लोग ] पाए।
[यहा शेखर के साथ शिरः पद का प्रयोग मौर [शेखर ] को शिर पर स्थिति के वोपन के लिए है ] ॥१४॥
मुक्ताहार [ इस प्रयोग ] में मुक्ता पद [का प्रयोग] शुद्धि [ के बोधन के प्रयोजन ] से हुआ है।
'मुक्ताहार' इस शब्द में मुक्ता शब्द हार शब्द से ही गतार्थ होकर [ भी अलग] प्रयुक्त होता है। [क्योकि मुफ्ता के बने हुए हार को ही हार
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११६]
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती
[सूत्र २
तदतिशयहेतवस्त्वलङ्काराः । ३, १, २।। तस्याः काव्यशोभाया अतिशयस्तदतिशयः, तस्य हेतवः । तु शब्दो व्यतिरेके । अलङ्काराश्च यमकोपमादयः । अत्र श्लोको
नियम से नही अपितु कभी-कभी उपकृत करते है वे हारादि के समान अलङ्कार होते है । हार आदि अलङ्कारो की प्रायः तीन प्रकार की स्थिति देखी जाती है।
१. अलङ्कार्य स्त्री आदि में वास्तविक सौन्दर्य होने पर हारादि अलङ्कार उसके उत्कर्षाधायक होते है । २. सौन्दर्य न होने पर वह दृष्टिवैचित्र्य मात्र के हेतु होते है । इसी प्रकार काव्य में रस होने पर उपमादि अथवा अनुप्रासादि अलङ्कार उसके उत्कर्षांधायक होते है । जहा रस नही होता वहा उक्तिवैचित्र्यमात्र रूप से प्रतीत होते है । और रस के विद्यमान होने पर भी कभी उसके उत्कर्षांधायक नही भी होते है । जैसे अत्यन्त भनिन्ध सौन्दर्यशालिनी युवति को धारण कराए हुए ग्रामीण अलङ्कार उसके सौन्दर्य के अभिवर्धक नहीं होते।
इसलि काव्यप्रकाशकार के मत मै गुण तथा अलङ्कारो के भेद का मुख्य प्राधार यह है कि 'गुण रस के नियत धर्म है' और 'अलङ्कार शब्द तथा अर्थ के अनियत धर्म है।
प्रकृत 'काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ति के निर्माता वामन भी गुण तथा अलङ्कारो का भेद मानते है। परन्तु उनके मत में उस भेद का प्राधार मानन्दवर्धनाचार्य तथा मम्मटाचार्य से भिन्न कुछ और ही है।
वामन का मत यह है कि काव्यशोभा के उत्पादक धर्मों का नाम 'गुण' है और उस शोभा के प्रतिशय-हेतुप्रो को 'अलङ्कार' कहते है । इसी प्राशय से 'काव्यशोभायाः कर्तारो धर्मा गुणा ।' यह गुणो का सामान्य लक्षण करने के बाद अलड्वारो का उनसे भेद दिखाने वाला लक्षण 'तदतिशयहेतवस्त्वलकाराः । अगले सूत्र में करते है
उस [ काव्यशोभा ] के अतिशय के हेतु अलङ्कार होते है ।
उस काव्यशोभा का अतिशय तदतिशय [ का अर्थ ] हुमा । उसके हेतु [अलङ्कार होते है ] तु शब्द [ गुणो से अलङ्कारो का] भेद [प्रदर्शन में [प्रयुक्त हुआ ] है । यमक और उपमा प्रादि [शब्द तथा अर्थ के ] अलङ्कार है। [ गुण और अलङ्कारो का जो भेद हमने प्रतिपादित किया है इसके [समर्थन के ] विषय में [ निम्न लिखित ] दो श्लोक [ भी ] है
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सूत्र २]
तृतीयाधिकरणे प्रथमोऽध्यायः
युवतेरिव रूपमङ्ग काव्यं, स्वदते शुद्धगुणं तदप्यतीव । विहितप्रणयं निरन्तराभिः, सदलङ्कारविकल्पकल्पनाभिः || यदि भवति वचश्च्युत गुणेभ्यो, वपुरिव यौवनवन्ध्यमङ्गनायाः । अपि जनदयितानि दुर्भगत्वं, नियतमलङ्करणानि संश्रयन्ते ॥
[ ११७
[शुद्ध अर्थात् अलङ्कारो से श्रमिश्रित गुण प्रोजः प्रसाद आदि जिस में हो वह ] शुद्धगुण वाला वह काव्य भी युवति के [ अलङ्कारविहीन शुद्ध ] रूप के समान [ रसिक जनो को ] अत्यन्त रुचिकर होता है । और प्रत्यधिक [ निरन्तराभिः ] अलङ्कार रचनाश्रो से विभूषित रूप भी अत्यन्त प्रह्लाददायक होता है । [ युवति में सौन्दर्य रूप गुए होने पर अलङ्कार हो या न हो दोनो अवस्थानो में रसिको को वह रूप रुचिकर होता ही है ] |
[ परन्तु ] यदि स्त्री के [ यौवन वन्ध्य जिसमें यौवन भी लावण्य को उत्पन्न न कर सकने के कारण व्यर्थ हो ऐसे ] लावण्यशून्य शरीर के समान etou - वाणी [ वचः ] गुणो [ प्रोज प्रसाद आदि ] से शून्य हो तो निश्चय ही [ उसके धारण किए हुए ] लोकप्रिय [ जनदयितानि ] आभूषण भी भद्दे मालूम होने लगते है [ दुर्भगत्व संश्रयन्ते ] ।
इन श्लोको का अभिप्राय यह हुआ कि गुरणो के होने पर अलङ्कारो के विना भी काव्य की शोभा हो सकती है और गुरणो के प्रभाव में केवल अलङ्कारो से काव्य की शोभा नही होती । इसलिए अन्वय तथा व्यतिरेक से गुण ही काव्य- शोभा के उत्पादक है और अलङ्कार उस शोभा की वृद्धि के हेतु
होते है ॥ २ ॥
गुण और अलङ्कारो का मुख्य भेद ग्रन्थकार ने बता दिया, परन्तु वामन के मत में गुरण तथा श्रलङ्कारो का इसके अतिरिक्त एक भेद और है । वह यह है कि गुण काव्य के नित्य अर्थात् अपरिहार्यं धर्म है और अलङ्कार नित्य या अपरिहार्यं धर्म नही है । अर्थात् गुणो के विना काव्य की शोभा नही हो सकती है । परन्तु अलङ्कारो के बिना काव्य की शोभा हो सकती है । इसी बात को ग्रन्थकार अगले सूत्र में कहते है ।
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काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तौ
पूर्वे नित्याः । ३, १, ३ ।
पूर्वे गुणा नित्याः । तैर्विना काव्यशोभानुपपत्तेः ॥ ३ ॥ एवं गुणालङ्काराणां भेदं दर्शयित्वा शब्दगुणनिरूपणार्थमाहप्रोजः- प्रसाद-श्लेष-समता- समाधि - माधुर्य-सौकुमार्यउदारता-ऽर्थव्यक्ति-कान्तयो बन्धगुणाः । ३, १, ४, बन्धः पदरचना, तस्य गुणा बन्धगुणाः श्रोजःप्रभृतयः ॥ ४ ॥
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११८]
[ सूत्र ३-४
।
[ उन गुण तथा अलङ्कारों में से ] प्रथम [ अर्थात् गुण ] नित्य है । पूर्व [ अर्थात् ] गुण नित्य [ काव्य में अपरिहार्य ] है । उन [ गुणों ] के बिना [ काव्य की ] शोभा अनुपपन्न होने से ॥ ३ ॥
इस प्रकार गुण तथा अलङ्कारों के भेद का निरूपण करके शब्द - गुणों के निरूपण करने के लिए [ सबसे पहिले उनका 'उद्देश' अर्थात् नाममात्रेण कथन करने के लिए अगला सूत्र ] कहते है
१. भोज, २. प्रसाद, ३. श्लेष, ४, समता, ५. समाधि, ६. माधुर्य, ७. सौकुमार्य, ८. उदारता, ६. श्रर्थव्यक्ति, और १०. कान्तिं [ नामक यह १० ] ara [ अर्थात् रचना ] के गुण है ।
बन्ध भ्रर्थात् पद-रचना उसके गुण बन्धगुण, भोज, प्रसाद आदि [ १० प्रकार के बन्धगुण ] होते है ।
यहा प्रोज, प्रसाद, प्रादि को 'बन्ध' का गुण कहा है। 'बन्ध' का अर्थ पद-रचना है । अर्थात् भोज प्रसाद प्रादि पद-रचना के गुरण है | इस 'पदरचना' के लिए 'सङ्घटना' शब्द का प्रयोग भी, साहित्यग्रन्थो मे हुआ है । ध्वन्यालोककार ने इस अर्थ में मुख्य रूप से 'सङ्घटना' शब्द का ही प्रयोग किया है । उन्होने 'सङ्घटना' तथा 'गुणों' के सम्बन्ध का विवेचन बहुत विस्तार के साथ किया है । इनके सम्बन्ध का निरूपण करते हुए भी उन्होने 'अभेदवादी' तथा 'भेदवादी' दो पक्ष दिखलाए है । 'अभेदवादी' पक्ष में उन्होने वामन के मत को रखा है । वामन पद- रचना को 'बन्ध' कहते है । श्रीर विशेष प्रकार की पद-रचना के लिए 'रीति' शब्द का प्रयोग करते है । प्रथम अधिकरण में 'विशिष्टपद - रचना रीति' यह रीति का लक्षण कर चुके है । 'पद-रचना की वह विशिष्टता क्या है इसका प्रतिपादन करते हुए अगले ही सूत्र में 'विशेषो गुणात्मा' लिख कर गुणरूपता - गुणात्मकता को ही पद-रचना का वैशिष्ट्य या
I
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[११६
मंत्र ५]
तृतीयाधिकरणे प्रथमोऽध्यायः तान क्रमेण दर्शयितुमाह
गाढबन्धत्वमोजः । ३, १, ५। वन्धस्य गाढत्वं यत् तदोनः । यथा
'रीति' कहा है । इसलिए वामन के मत में पद-रचना या रीतियो को गुणात्मक माना गया है। इसका अर्थ यह हुआ कि 'गुण' और 'रीति' अलग-अलग नही है। इसीलिए मानन्दवर्धनाचार्य ने वामन के मत को 'गुण' तथा 'सङ्घटना' का 'अभेदवादी' मत कहा है।
इस 'अभेदवादी' पक्ष के विपरीत दूसरा 'भेदवाटी' पक्ष है जो 'सङ्घटना' तथा गुण दोनो को अलग-अलग भिन्न-भिन्न मानता है । इस 'भेदवादी' पक्ष में गुणो के 'सङ्घटना' के साथ सम्बन्ध के विषय में दो प्रकार के मत पाए जाते है । एक मत में 'गुण' 'सङ्कटना' के आश्रित रहते है। और दूसरे मत में 'सङ्घटना' गुणो के प्राधित रहती है । इन दोनो मतो को प्रानन्दवर्धन ने 'सङ्घटनाश्रया गुणा' और 'गुणाश्रया वा सङ्घटना' इस रूप में प्रस्तुत किया है। इनमें से 'सङ्घटनाश्रया गुणा' अर्थात् गुण, 'सङ्घटना' के आश्रित रहते है । यह पक्ष 'भट्टोद्भट' प्रादि का है । उन्होने गुणो को सङ्घटना का धर्म माना है । धर्म सदा धर्मी के आश्रित रहता है । इसलिए 'गुण', 'सङ्घटना' के माश्रित रहते है। अर्थात् 'गुरा' आधेय और 'सङ्घटना' आधार रूप है । इस प्रकार गुण और सङ्घटना का भेद है।
तीसरा पक्ष 'गुणाश्रया सङ्घटना' है अर्थात् सङ्घटना गुणो के माश्रित रहती है । यह मानन्दवर्धनाचार्य का अभिमत पक्ष है । इस प्रकार तीन प्रकार के विकल्प ध्वन्यालोककार ने दिखलाए है । ध्वन्यालोककार स्वयं 'रीति सम्भदाय के मानने वाले नहीं है । वह 'रीति' को नही अपितु ध्वनि को काव्य का प्रात्मा मानते है और 'ध्वनि सम्प्रदाय के प्रवर्तक है । फिर भी उन्होने 'सद्धटना' नाम से रीतियो का निर्देश कर गुणो के साथ उनका सम्बन्ध दिखाने का प्रयत्न किया है । और तीनो का समन्वय करने का भी यल किया है ॥४॥
क्रम से उन [ वसो गुणो के लक्षणादि ] को दिखाने के लिए कहते है। रचना की गाढ़ता [ गाढ़ बन्धत्व ] पोज [गुण कहलाता है।
वन्ध [अर्थात् रचना] का जो गाढत्व है वह प्रोच [गुण कहलाता] है। गाढत्व का अभिप्राय अवयवो अथवा अक्षरविन्यास का परस्पर संश्लिमत्व
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१२० ]
न पुनः,
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तौ
विलुलितमकरन्दा मञ्जरी र्नर्तयन्ति ।
विलुलितमधुधारा मञ्जरीर्लोलयन्ति ॥ ५ ॥ शैथिल्य प्रसादः । ३, १, ६ ।
बन्धस्य शैथिल्यं शिथिलत्वं प्रसादः ॥ ६ ॥ नन्वयमोनो विपर्ययात्मा दोषस्तत् कथं गुण इत्याह
[ सूत्र ६
है । सयुक्त अक्षरो और रेफशिरस्क वर्गों के प्रथम द्वितीय, अथवा प्रथम-तृतीय श्रथवा तृतीय- चतुर्थ वर्णों के सयोग होने पर बन्ध की गाढ़ता अथवा श्रोज गुण माना जाता है ] जैसे
मकरन्द को कम्पित करते हुए [ भौरे प्रास्त्र आदि को ] मञ्जरियो को
नचाते है ।
[ यहा 'मकरन्द' और 'मञ्जरीर्तर्तयन्ति' में बन्ध की गाढ़ता होने से श्रोज गुण माना है ] ।
परन्तु यहां [ नीचे के उदाहरण में, प्रोज गुण ] नही हैमधुधारा को कम्पित करते हुए मञ्जरियो को हिलाते है ।
[ यहां 'मकरन्द' के स्थान पर 'मधुधारा' 'मञ्जरीर्नर्तयन्ति' की जगह 'मञ्जरीर्लोलयन्ति' कर देने से बन्ध की गाढता समाप्त होकर शैथिल्य श्राजीता है । इसलिए इस परिवर्तन के कर देने पर रचना में प्रोज नहीं रहता है । अतः यह प्रत्युदाहरण दिया है ] ॥ ५ ॥
अगले सूत्र मे दूसरे गुरण 'प्रसाद' का लक्षण करते है
[ रचना के ] शैथिल्य [ का नाम ] प्रसाद [ गुण ] है |
बन्ध [ रचना ] के शैथिल्य अर्थात् शिथिलत्व [ का नाम ] प्रसाद है ॥ ६ ॥
यहा प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि 'प्रसाद' को गुण कँसे माना गया है क्योकि 'बन्धगाढत्व रूप' 'भोज' के प्रभाव का नाम बन्ध-शैथिल्य या 'प्रसाद'
1
होता है । अर्थात् बन्धगाढस्व रूप श्रोज का विरोधी होने से 'बन्ध-शैथिल्य' रूप 'प्रसाद' को काव्य का दोष मानना चाहिए, उसको गुरण कैसे कहते है ? इसका उत्तर देने के लिए ग्रन्थकार अगले चार सूत्रो का प्रकरण प्रारम्भ करते है । [ प्रश्न ] यह 'नोज' का विपर्यय रूप [शैथिल्य तो काव्य का ] दोष है व गुग कैसे हो सकता है । इस [ प्रश्न ] का उत्तर देने के लिए कहते है -
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सूत्र ७-६] तृतीयाधिकरणे प्रथमोऽध्यायः [ १२१
गुणः सम्प्लवात् । ३, १, ७ । गुणः प्रसादः । श्रोजसा सह सम्प्लवात् ॥ ७ ॥
न शुद्धः । ३, १, ८।
शुद्धस्तु दोष एवेति ॥८॥ ननु विरुद्धयोरोनःप्रसादयोः कथं सम्प्लव इत्याह
स त्वनुभवसिद्धः । ३, १, ६ । स तु सम्प्लवस्त्वनुभवसिद्धः । तद्विदां रत्नादिविशेषवत् । अत्र श्लोकः
[रचना शैथिल्य रूप ] 'प्रसाद' गुण है [ोज के साथ ] मिश्रित होने से।
'प्रसाद' गुण [ही ] है । भोज के साथ मिश्रण [सम्प्लव ] होने से । [अर्थात जहा 'प्रोज' और 'प्रसाद' दोनो मिले जुलं रहते है वहाँ 'प्रसाद' गुण होता है। और जहां प्रोन से सर्वथा रहिन एक दम बन्ध-शैथिल्य होता है वह शुद्ध शैथिल्य गुण नहीं है। यही बात अगले सूत्र में कहते है ] ॥७॥
शुद्ध [ प्रोन से विहीन केवल बन्ध-शैथिल्य रूप प्रसाद ] तो गुण नहीं [अपितु दोष हो ] है।
[बन्धगाढ़त्व रूप भोज से सर्वथा विहीन ] शुद्ध [वन्ध-शैथिल्य ] तो दोष ही है । [ उसे हम गुण नहीं कहते है ] ॥८॥
[ इस पर फिर प्रश्न उत्पन्न होता ह कि ] विरुद्ध स्वभाव वाले प्रोन और प्रसाद का सम्प्लव [अर्थात् मिश्रण ] कैसे हो सकता है ? इस [शद्वा] का समाधान करने ] के लिए कहते है
वह [ बन्धगाढ़ता रूप भोज तथा बन्ध-शथिल्य रूप प्रसाद का सम्प्लव अर्थात् मिश्रण ] तो [ सहृदय विद्वानों के अनुभव [ से ] सिद्ध है।
वह [गाढ़बन्ध रूप प्रोज तथा वन्धर्शथिल्य रूप प्रसाद का] सम्प्लव [मिश्रण ] तो उसको समझ सकने वालो [ सहृदय विद्वानो] को उसी प्रकार अनुभवसिद्ध है जिस प्रकार रत्लो को विशेषता [ रत्नो को पहिचानने वाले कुशल ] जौहरियों को [अनुभव सिद्ध होती है । इस विषय में निम्नलिखित] श्लोक भी है
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सूत्र २१] तृतीयाधिकरणे प्रथमोऽध्यायः [१४३
पृथक्पदत्वं माधुर्यम् । ३, १, २१ । बन्धस्य पृथक्पदत्वं यत् तन्माधुर्यम् । पृथक् पदानि यस्य सः पृथक्पदः, तस्य भावः पृथक्पदत्वम् । समासदैयनिवृत्तिपरं चैतत् । पूर्वोक्तमुदाहरणम् । विपर्ययस्तु यथा
चलितशबरसेनादत्तगोशृङ्गचण्डध्वनिचकितवराहव्याकुला विन्ध्यपादाः ॥ २१ ॥
-
सकता है। उसे आप काव्य-गुणो में क्यों गिना रहे है । इसका खण्डन करने के लिए वृत्तिकार कहते है कि उस प्रारोह या अवरोह को] पाठ का धर्म नहीं कहा जा सकता है यह बात [हम इस अध्याय के अन्तिम सूत्र] 'न पाठधर्माः सर्वत्रादृष्टेः' इस सूत्र में कहेंगे।
यहा समाधि गुण को अलग सिद्ध करने का बहुत प्रयास ग्रन्थकार ने किया है परन्तु वह पूर्णतया सफल नही हुआ है । इसी लिए अन्य लोग इसको अलग गुण नही मानते है ॥ २० ॥
'माधुर्य रूप चतुर्थ गुण के निरूपण के लिए ग्रन्थकार अगला सूत्र लिखते है
[रचना के ] पदो को पृथक्ता [ अर्थात् समासरहित पदों के प्रयोग] को माधुर्य [ गुण ] कहते हैं।
बन्ध [ अर्थात् रचना ] का जो पृथक्पदत्व है वह माधुर्य कहलाता है। जिसके पद पृथक् [अलग-अलग असमस्त ] है वह [बन्ध ] पृथक्पवः [बन्धः] हुआ और उसका भाव पृथक्पदत्व [कहलाता है । यह समास की दीर्घता का निषेध करने वाला है । [ इस माधुर्य गुण का] पूर्वोक्त ['प्रस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा' आदि श्लोक ही ] उदाहरण है। [ उसका विपर्यय ] प्रत्युदाहरण जैसे [ निम्न लिखित वाक्य ]
चलती हुई शबरसेना के बजाए हुए तुरही [ गोशृङ्ग नामक वाद्य ] की भयकर ध्वनि से चकित वराहो से व्याप्त [ व्याकुल ] विन्ध्याचल की तलहटी है।
यहा 'चलित' से लेकर 'व्याकुला' तक एक लम्बा समस्त पद विशेषण रूप में दिया हुआ है । इसलिए यहा पृथक्पदत्व रूप 'माधुर्य' गुण नही है । इसलि यह प्रत्युदाहरण हुमा ॥ २१ ॥
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काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तौ
[ सूत्र २२–२३
अजरठत्वं सौकुमार्यम् । ३, १, २२ । बन्धस्याजरठत्वमपारुष्यं यत् तत् सौकुमार्यम् । पूर्वोक्तमुद्राहरणम् । विपर्ययस्तु यथा
१३२ ]
निदानं निद्वैतं प्रियजन सहक्त्वव्यवसितिः । सुधासे कप्लोषौ फलमपि विरुद्ध मम हृदि ॥ २२ ॥
विकटत्वमुदारता । ३,१, २३ ।
बन्धस्य विकटत्वं यदसावुदारता । यस्मिन् सति नृत्यन्तीव पदा
सप्तम गुण 'सौकुमार्य' का निरूपण करने के लिए अगला सूत्र लिखते है
[ बन्ध की ] अकठोरता सौकुमार्य [ कहलाती ] है ।
ara [ रचना शैली ] का अजरठत्व [ अर्थात् ] अपारुष्य [ कठोरता का प्रभाव ] जो है वह 'सौकुमार्य' [ गुण कहलाता ] है । [ इसका भी ] पूर्वोक्त [ 'अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा' प्रादि श्लोक ही ] उदाहरण है । [ उसका विपर्यय ] प्रत्युदाहरणं तो जैसे [ निम्न श्लोक है ]
[ वियोगावस्था में ] प्रिय जन [ प्रियतमा या प्रियतम श्रादि के मुख, नेत्र, केश आदि ] के सादृश्य की [ चन्द्रमा, कमल, मयूरपिच्छ प्रादि में ] स्थिति ही निश्चित [ निद्वैतं असन्दिग्ध ] रूप से उसकी स्मृति और वियोग के उद्दीपन का निदानम् ] कारण है । और [ उसकी स्मृति से ] सुधा सिञ्चन [ तथा वियोग से हृदय का प्लोष अर्थात् ] और बाह रूप विरुद्ध [ दो प्रकार के ] फल भी मेरे हृदय में उत्पन्न होते है । [ श्रर्थात् चन्द्रमा कमल श्रादि को देख कर सादृश्यवश प्रियतमा के सुख प्रादि की स्मृति हो आती है उससे हृदय में आनन्द का सञ्चार होता है । परन्तु उसके साथ ही उसका वियोग हृदय को और अधिक जलाने लगता है ] 1
"
इस पद्य की रचना में 'सौकुमार्य' नही अपितु 'पारुष्य' है । अतएव यह 'सौकुमार्य' गुरण का उदाहरण नही अपितु प्रत्युदाहरण है ॥ २२ ॥
नाठवें 'उदारता' नामक गुण का लक्षण अगले सूत्र में करते है[ रचना शैली की ] 'विकटता', 'उदारता' [ कहलाती ] है । रचनाशैली [ बन्ध ] को जो 'विकटता' है वह 'उदारता' [ कहलाती ]
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सूत्र २४ ]
तृतीयाधिकरणे प्रथमोऽध्यायः
[ १३३
नीति जनस्य वर्णभावना भवति तद्विकटत्वम् । लीलायमानत्वमित्यर्थः ।
यथा
न पुनः-
म्व चरणविनिविष्टैनू पुरैर्नर्तकीनां
मणिति रणितमासीत् तत्र चित्र कलञ्च ॥
-
चरणकमललग्नैन पुरैर्नर्तकीनां
झटिति रणितमासीन्मज्जु चित्रव्च तत्र ॥ २३ ॥ अर्थव्यक्तिहेतुत्वमर्थव्यक्तिः । ३, १, २४ ।
है । जिसके होने पर [ रचना के ] पद नाच से रहे है इस प्रकार की वर्णों के विषय में [ श्रोता ] लोगो की भावना होती है वह 'विकटत्व' [ कहलाता ] है । [ अर्थात् वर्णों का नृत्य के समान ] लीलायमानत्व [ हो विकटत्व अथवा उदारता है ] यह अर्थ हुआ । [ उसका उदाहरण ] जैसे
वहाँ नर्तकियों के अपने पैरो में पहिने हुए नूपुरो का विचित्र और सुन्दर शब्द होने लगा ।
इस श्लोक के पढते समय उसके पद नाचते हुए से प्रतीत होते है । नाचने में जैसे जैसे उतार-चढाव की विशेष प्रकार की गति होती है इसी प्रकार यहाँ झटिति रणितमासीत् तत्र चित्र कलञ्च' आदि पदो को पढते समय विशेष प्रकार की गति प्रतीत होती है। इस लिए यह विकटत्व' अथवा 'उदारता' का उदाहरण है ।
[ परन्तु यदि इस श्लोक के पदो में परिवर्तन नीचे लिखे प्रकार से कर दिया जाय तो ] फिर [ वह गुण ] नहीं रहेगा । [ जैसे ] -
नर्तकियो के चरण कमलो में पहिने हुए [ लग्न ] नूपुरो ने वहाँ विचित्र और सुन्दर शब्द किया ।
श्लोक के इन दोनो चरणो के ऊपर दिए हुए दोनो पाठो को पढते समय उनके उच्चारण में स्पष्ट रूप से अन्तर प्रतीत होता है। उससे ही पदो के 'विकटत्व' अथवा 'उदारता' गुण का स्वरूप निर्णय हो जाता है ||२३||
अगले सूत्र में 'अर्थव्यक्ति' रूप नवम गुरण का निरूपण करते है -
अर्थ की [ स्पष्ट और तुरन्त ] प्रतीति का हेतुभूत [ शब्द गुण ] श्रर्थव्यक्ति' [ नाम से कहा जाता ] है ।
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१३४ ]
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती
[ सूत्र २५
यत्र टित्यर्थप्रतिपत्तिहेतुत्वं स गुणोऽर्थव्यक्तिरिति । पूर्वोक्तमुदाहरणम् । प्रत्युदाहरणन्तु भूयः सुलभा ॥ २४ ॥ श्रज्ज्वल्यं कान्तिः । ३, १,२५ ।
बन्धस्योज्ज्वलत्वं नाम यदसौ कान्तिरिति । यदभावे पुराणच्छायेत्युच्यते । यथा
कुरङ्गीनेत्राली तब कितवनालीपरिसरः ।
जहाँ [ जिन शब्दों में ] तुरन्त [ और विस्पष्ट रूप से ] अर्थ को प्रतीति कराने की [ हेतुत्व ] क्षमता होती है वह 'अर्थव्यक्ति' [ नामक ] गुण होता है । [ इस व्यक्ति गुण का भी ] पूर्वोक्त [ 'अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा' इत्यादि श्लोक हो ] उदाहरण है । [ उसके विपरीत ] प्रत्युदाहरण बहुत [ हो सकते है ] प्रोर सुलभ है । [ इसलिए हम यहां उसका प्रत्युदाहरण
अपने वृत्तिग्रन्थ में नहीं दे रहे है ] ।
वास्तव में इस 'अर्थव्यक्ति' गुरण के प्रभाव में १. प्रसाधुत्व, २. अप्रती - तत्व, ३ अनर्थकत्व, ४. श्रन्यार्थत्व, ५. नेयार्थत्व, ६. यतिभ्रष्टत्व, ७. क्लिष्टत्व, ८ सन्दिग्धत्व और 8. श्रप्रयुक्तत्व श्रादि दोष हो जाते है । उन दोषो के निरूपण में जो उदाहरण दिए है वह सब इस 'अर्थव्यक्ति' के प्रत्युदाहरण हो सकते है । इस लिए उसके प्रत्युदाहरणो को अलग दिखलाने की आवश्यकता नही है । यह मान कर वृत्तिकार ने अलग प्रत्युदाहरण नही दिखाया है ||२४|| 'कान्ति' नामक दशम गुरण का लक्षरण अगले सूत्र में करते है । [ रचना शैली को ] उज्ज्वलता [ नवीनता का नाम ] कान्ति [ गुण ] है ।
बन्ध की जो उज्ज्वलता [ नवीनता ] है वह ही कान्ति [ नामक ] है | जिस [ कान्ति] के अभाव में [ यह श्लोक या काव्य ] पुरानी नक्कल [ छाया ] है यह कहा जाता है । [ इस कान्ति नामक गुण का उदाहरण ]
जैसे
मुगियो के नेत्रों की पंक्ति से वनश्रेणी का किनारा [ पुष्पों के ] गुच्छों से युक्त सा [ प्रतीत हो रहा ] है ।
यहाँ 'कुरङ्गीनेवाली' से 'बनालीपरिसरः' अर्थात् वन प्रान्त को, हरिणियो के नेत्रो से फूलो के गुच्छो से भरा सा 'स्तबकित' सा कह कर जो वर्णन
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सूत्र २५) तृतीयाधिकरणे प्रथमोऽध्यायः
६.१३५ विपर्ययंस्तु भूयान सुलभश्च । लोकाश्चात्र भवन्ति
पदन्यासस्य गाढत्वं वदन्त्योजः कवीश्वराः। अनेनाधिष्ठिताः प्रायः शब्दाः श्रोत्ररसायनम् ॥ १॥ लथत्वमोनसा मिश्रं प्रसादञ्च प्रचक्षते । अनेन न विना सत्यं स्वदते काव्यपद्धतिः ॥ २ ॥ यत्रैकपदवद्भाव पदानां भूयसामपि । अनालक्षितसन्धीनां स श्लेषः परमो गुणः ॥३॥ प्रतिपादं प्रतिश्लोकमेकमार्गपरिग्रहः । दुर्बन्धों दुर्विभावश्च समवेति गुणो मतः॥४॥
किया है, वह फेवि की अपनी नई कल्पना या नई सूझ है । यही उसका 'भोज्ज्वल्य' गुण है । जहाँ कवि की कल्पना में कोई नूतनता नही रहती वहां लोकपिटाई सो प्रतीति होती है और कोई चारुता नही रहती।
[इस प्रोज्ज्वल्य के विपर्यय रूप] प्रत्युदाहरण बहुत और सुलभ है। [अतः उनको दिखलाने को प्रावश्यकता यहाँ नहीं है।]
[इस प्रकार अन्यकार ने सूत्र और वृत्ति द्वारा इस प्रकार के शब्द गुणो का प्रतिपादन कर दिया। अब उन्हीं दस गुणों को श्लोकों द्वारा दिखलाने के लिए कुछ संग्रह श्लोक स्वयं लिखते है ] इस [अर्थात् शब्द गुणो के स्वरूप निरूपण ] के विषय में [ निम्नलिखित ११ ] श्लोक भी है। [इन ११ श्लोको में क्रमशः उन्हीं दस 'शब्द-गुणों' का निरूपए किया गया है । जो इस प्रकार है
___१. पद रचना को गाढ़ता को कवीश्वर लोग 'मोज' [नामक गुण] फहते है । इस [पोज गुण ) से युक्त पद प्रायः [स्फूति पैदा करने वाले ] कानो के लिए रसायन के समान [स्फूर्तिदायक ] होते है।
२. प्रोन से मिश्रित [ रचना के ] शैथिल्य को 'प्रसाद' [ गुण नाम से ] कहते है । इस [ प्रसाद गुण ] के बिना वस्तुतः काव्य रचना का आनन्द हो नहीं पाता है।
३. जहाँ सन्धि के दिखाई न देने पर भी बहुत से पदो में एकपद के समान प्रतीति हो वह 'श्लेष [नामक ] परम गुण है।
४. [श्लोक के ] प्रत्येक पाव में और प्रत्येक श्लोक में एक-से मार्ग
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१४६ ]
काव्यालङ्कारसूत्रवत्ती
[ सूत्र ३
रतिविगलितबन्धे केशपाशे सुकेश्याः । इत्यत्र सुकेश्या इत्यस्य च साभिप्रायत्वं व्याख्यातम् ॥ २ ॥ अर्थवैमल्य प्रसाद । ३,२,३ ।
अर्थस्य वैमल्यं प्रयोजकमात्रपरिग्रहः प्रसादः । यथासवर्णा कन्यका रूपयौवनारम्भशालिनी । विपर्ययस्तु —
उपास्तां हस्तो मे विमलमणिकाची पदमिदम् ।
कालीपदमित्यनेनैव नितम्बस्य लक्षितत्वात् विशेषणस्याप्रयोजक
त्वमिति ॥ ३ ॥
इस [ पूर्वोक्त उदाहरण ] से
'सुकेशी के रतिकाल में खुले हुए केशपाश में '
इत्यादि [ उदाहरण ] में 'सुकेश्या' इस [ पद ] के 'साभिप्रायत्व' की व्याख्या समझ लेनी चाहिए ॥ २ ॥
दूसरे श्रर्थगुरण 'प्रसाद' का लक्षण अगले सूत्र में करते है
श्रर्थं का नैर्मल्य [ श्रर्थात् स्पष्टता ] 'प्रसाद' [ गुण कहलाता ] है । अर्थ का नैर्मल्य विवक्षित अर्थ के समर्पक - [- प्रयोजक ] पद का प्रयोग 'प्रसाद' [ नामक श्रर्थगुण ] है । जैसे
रूप और नवयौवन के प्रारम्भ से युक्त यह सवर्णा कन्या है । [ यह अपने ही क्षत्रिय प्रादि व की होने से समान वर्ण वाली प्रथवा सुन्दर इस का बोधक 'सवर्णा' पद कन्या की उपादेयता अर्थात् विवाहयोग्यता का सूचक है ]।
इसका विपर्यय [ प्रभाव होने पर 'प्रपुष्टार्थत्व' और 'अनर्थकत्व' दोष हो जाते है । उनमें से 'पुष्टार्थत्व' का उदाहरण देते है ] जैसे
मेरा हाथ विमल मणियो को तगड़ी के इस स्थान को स्पर्श करे । इसमें ‘काञ्ची पदं' इस [ कथन ] से ही नितम्ब का लक्षणा से बोध हो जाने से [ काञ्ची के साथ दिए हुए विमलमणि ] विशेषण प्रप्रयोजक [ अविaft a पुष्टार्थं ] है । [ अतः इस प्रत्युदाहरण में 'प्रसाद' गुण' नहीं है ] ॥ ३ ॥
तृतीय प्रगुरण श्लेष का निरूपण प्रगले सूत्र में करते है
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सूत्र ४]
तृतीयाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः [१४७ घटना श्लेष.। ३, २, ४। क्रमकौटिल्यानुल्वणत्वोपपत्तियोगो घटना । स श्लेषः । यथा
दृष्ट्कासनसंस्थिते प्रियतमे पश्चादुपेल्यादरादेकस्या नयने निमील्य विहितक्रीडानुवन्धच्छलः। ईषद्वक्रितकन्धर. सपुलकः प्रेमोल्लसन्मानसा
मन्तोसलसत्कपोलफलका धूर्तोऽपरां चुम्बति ॥ शूद्रकादिरचितेषु प्रबन्धेष्वस्य भूयान् प्रपञ्चो दृश्यते ॥४॥
["श्रम', 'कौटिल्य', 'अनुल्वणत्व' और 'उपपत्ति' के योग को 'घटना' कहते है । ] यह घटना 'श्लेष [कहलाती ] है।
क्रम, कौटिल्य, अनुल्वणत्व और उपपत्ति का योग [ ही यहां ] घटना [ कहलाती ] है । वह [ विशेष प्रकार से श्लिष्ट होने से ] "श्लेष' है । जैसे
दोनो [अपनी ] प्रियतमानो [ इन दोनो में से एक नायक को स्वकीया नायिका है और दूसरी सखी है जिसके प्रति नायक का प्रच्छन्न अनुराग है। अन्यया यदि दोनो सपत्नी हो तो उनकी एकासनसस्थिति सुसङ्गत नहीं होगी।] को एक [ हो ] पासन पर इकट्ठी [वैठी ] देखकर 'धूर्त' [नायक चुपके से ] पीछे से पाकर प्रादर से एक [ अपनी स्वकीया पत्नी ] को [ दोनो] अाँखें बन्द कर [प्रांखमिचौनी के ] खेल का बहाना करता हुआ तनिक सी [अधिक नहीं अधिक गर्दन झुकाने से तो सन्देह हो जाता ] गर्दन मोडकर प्रेम से मानन्दित मन वाली और [अन्तर्हास ] मुस्कराहट से सुशोभित कपोलो वाली [प्रच्छन्न अनुरागा] दूसरी [ प्रियतमा ] को चुम्बन करता है।
इसमें 'क्रम' शब्द का अर्थ अनेक क्रियानो की परम्परा है। जैसे यहा 'दृष्ट्वा, पश्चादुपेत्य, नयने पिधाय, विहितक्रीडानुबन्धच्छल , वक्रितवन्धर, चुम्बति'
आदि क्रियानो की परम्परा पाई जाती है । इसी को 'क्रम' कहते है। और इस सबके भीतर अनुस्यूत विदग्ध-चेष्टित को 'कौटिल्य' कहते है । अप्रसिद्ध वर्णन के विरह अर्थात् प्रसिद्ध वर्णन शैली को 'अनुल्वणत्व' कहते है । और युक्तिविन्यास का नाम 'उपपत्ति' है । इन सबका योग जिसमें हो उस रचना में अर्थगुण 'श्लेष' होता है। इस उदाहरण रूप श्लोक में दर्शनादि क्रियानो का क्रम, उभयसमर्थनरूप 'कौटिल्य', लोकसव्यवहार रूप 'अनुल्वरणत्व', और 'एकत्रासनसस्थिते, पश्चादुपेत्य, नयने पिघाय, वक्रितकन्धरः' इत्यादि उपपादक युक्ति रूप 'उपपत्ति का योग होने से यह श्लेष' रूप अर्थगुण का उदाहरण होता है ।
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१४८]
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तो
[सूत्र ५
अवैपम्य समता । ३, २, ५ । अवैपभ्यं प्रक्रमाभेदः समता । कचित् क्रमोऽपि भिद्यते । यथा
च्युतसुमनसः कुन्दाः पुष्पोद्गमेष्वलसा द्रुमाः मलयमरुतः सर्पन्तीमे वियुक्तधृतिच्छिदः। अथ च सवितुः शीतोल्लासं लुनन्ति मरीचयो
न च जरठतामालम्वन्ते क्लमोदयदायिनीम् ।।
ऋतुसन्धिप्रतिपादनपरे द्वितीये पादे क्रमभेदो, मलयमरतामसाधारणत्वात् । एवं-द्वितीयः पादः पठितव्यः
शूद्रक आदि रचित [ मृच्छकटिक आदि ] प्रबन्धों [ नाटकों अथवा काव्यो ] में इस [प्रकार के श्लेष ] का बहुत विस्तार पाया जाता है ॥४॥
चतुर्थ अर्थगुण 'समता' का अगले सूत्र में निरूपण करते है
प्रवैषम्य [अर्थात् १. प्रक्रम के प्रभेद और २. सुगमत्व का नाम ] 'समता' है।
अवैषम्य अर्थात् प्रक्रम का अभेद 'समता' [नामक अर्थगुण ] है।
इस 'प्रक्रमाभेद' रूप 'समता' को समझने के पहिले उसके विरोधी 'प्रक्रम-भेद' को समझना आवश्यक है । इसलिए पहिले 'प्रक्रमाभेद' रूप 'समता' का उदाहरण देने के बजाय उसके विरोधी 'प्रक्रम-भेद' का उदाहरण अथवा 'समता' के प्रत्युदाहरण की अवतारणा करते हुए वृत्तिकार लिखते है ।
कहीं क्रम का भेद भी होता है । जैसे [ निम्न श्लोक में 'प्रक्रम-भेद' पाया जाता है।
[इस श्लोक में कवि शिशिर और वसन्त को 'ऋतुसन्धि' का वर्णन कर रहा है । शिशिर ऋतु में खिलने वाले ] कुन्द [शिशिर के समाप्तप्राय होने से ] फूलो मे रहित हो गए है, और [ वसन्त में खिलने वाले ] वृक्षो में [ऋतुसम्धि के कारण अभी फल निकल नहीं रहे हैं। अभी उनका खिलना प्रारम्भ नहीं हुया है ] वियोगियों के घेर्य को नाश करने वाला मलय पवन चल रहा है। और सूर्य की किरणें सर्दी के वेग को नष्ट करने लगी है । परन्तु पसीना लाने वाली तीव्रता को [अभी ] प्राप्त नहीं हुई है।
ऋतु सन्धि [ शिशिर और वसन्त की सन्धि ] का प्रतिपादन करने वाले इस [ श्लोक ] में द्वितीय पाद में [णित ] मलय पवन के [ वसन्त ऋतु का ] विशेष [धर्म ] होने से [ उसका स्पष्ट वर्णन ऋतु सन्धि के विपरीत होने से ]
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सूत्र ६ ],
तृतीयाधिकरणे द्वित्तीयोऽध्यायः
[ १४e
मनसि च गिरं बध्नन्तीमे किरन्ति न कोकिलाः । इति ॥ ५ ॥
सुगमत्व वाऽवैषम्यमिति । ३, २, ६ । सुखेन गम्यते ज्ञायत इत्यर्थः । यथा'अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा' इत्यादि ।
यथा वा-
का स्विदवगुण्ठनवती नातिपरिस्फुटलावण्या | मध्ये तपोधनानां किसलयमिव पाण्डुपत्राणाम् । प्रत्युदाहरणं सुलभम् ॥ ६ ॥
प्रक्रम-भेद [ रूप दोष ] है | [ प्रतएव यहां 'प्रक्रमाभेद' रूप 'समता' श्रर्थगुण के न होने से यह 'समता' गुण का प्रत्युदाहरण है। इसको 'समता' गुण का उदाहरण बनाने के लिए ] द्वितीय चरण को इस प्रकार पढ़ना चाहिए
यह कोकिल मन में बोलना चाहते है परन्तु [ ऋतु सन्धि के कारण ] अभी बाहर व्यक्त रूप से बोल नहीं रहे है ॥ ५ ॥
इस 'समता' गुण के लक्षण में जो 'अवैषम्य' पद का प्रयोग किया है उसकी दूसरी प्रकार की व्याख्या अगले सूत्र मे करते हैं ।
अथवा सुगमता [ को ] प्रवैषम्य [ कहते ] है ।
[ जो ] सरलता से समझ में आ जावे [ वह सुगम या श्रविषम कहलाता है ] यह अभिप्राय है । जैसे-
'प्रत्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा' इत्यादि । प्रथवा जैसे----
[ वृक्ष के सूखे हुए ] पीले पत्तो के बीच [ नवीन कोमल ] किसलय के समान [ इन रूखे-सूखे ] तपस्वियो के बीच घू ंघट वाली [ अतएव ] जिसका सौन्दर्य स्पष्ट दिखाई नहीं देता ऐसी यह [ शकुन्तला ] कौन है ?
प्रत्युदाहरण [ श्रर्थात् सुगमता रूप 'समता' के प्रत्युदाहरण रूप कठिन दुर्ज्ञेय श्लोक ] सुलभ है । [ पाठक उन्हें स्वय समझ सकते है। इसलिए यहां नहीं दिखलाए है ] ।
कालिदास के 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्' नाटक के पञ्चमप्र में कण्व की श्राज्ञा से जब 'शारगरव' और 'शारद्वत' शकुन्तला को लेकर राजा दुष्यन्त के यहा राजसभा में उपस्थित होते है । उस समय अवगुण्ठनवती प्रर्थात् घू घट काढ हुए शकुन्तला को उन तपस्वियों के साथ देखकर राजा दुष्यन्त की यह उक्ति
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१५०] काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती
[ सूत्र ७-८ अर्थदृष्टिः समाधि. । ३, २, ७ । अर्थस्य दर्शनं दृष्टिः । समाधिकारणत्वात् समाधिः । अवहितं हि चित्तमर्थान् पश्यतीत्युक्तं पुरस्तात् ॥ ७ ॥
अर्थो द्विविधोऽयोनिरन्यच्छायायोनिर्वा । ३, २, ८ ।
यस्यार्थस्य दर्शनं समाधिः सोऽर्थो द्विविधः । अयोनिरन्यच्छायायोनिर्वेति । अयोनिरकारणः । अवधानमात्रकारण इत्यर्थः । अन्यस्य काव्यस्य छायाऽन्यच्छाया तद्योनिर्वा । तद्यथा
सुगमता से समझ में प्राजाने के कारण 'समता' गुण का सुन्दर उदाहरण है।
समझ में साफ आ जावे फसाहत इसको कहते है ।
प्रगर हो सुनने वालो पर बलागत इसको कहते है ॥ ६ ॥ पञ्चम अर्थगुण समाधि' का निरूपण अगले सूत्र में करते हैअर्थ [ विषयक ] दृष्टि [ विशेष ] 'समाधि' [ अर्थगुण ] है।
अर्थ का दर्शन दृष्टि [ शब्द से अभिप्रेत ] है [ उसके ] समाधिमूलक [समाधिःकारणं यस्य अर्थात् समाधि अथवा प्रवधान जिसका कारण है । इस प्रकार का बहुव्रीहि समास ] होने से [ कार्य कारण का प्रभेद मान कर समाधि अथवा अवधानमूलक अर्थदृष्टि को ] 'समाधि' [कह दिया है। एकाग्र [ समाहित अवहित ] चित्त ही अर्थों को [ भली प्रकार ] देख सकता है [ इसलिए अर्थदृष्टि प्रवधान अथवा समाधिमूलफ है इससे कार्य-कारण का अभेद मान कर उसी को 'समाधि' कह दिया है ] यह बात पहले कह चुके है ॥७॥
[जिस अर्थ का दर्शन 'समाधि' कहलाता है वह ] अर्थ "अयोनि' अथवा 'अन्यच्छायायोनि' [ भेद से ] दो प्रकार का होता है। ।।
जिस अर्थ का वर्शन [ ज्ञान ] 'समाधि' [ नामक अर्थगुण कहा जाता] है वह अर्थ दो प्रकार का होता है। [एक ] अयोनि और [ दूसरा ] 'अन्यच्छावायोनि' । 'अयोनि' अर्थात् अकारण अर्थात् अवधानमात्रनिमित्तक - [अर्थात् कवि किसी दूसरे कवि के वर्णन से स्फूति पा कर नहीं, अपितु स्वय जिस अर्थ का वर्णन करता है वह 'अयोनि' कहलाता है । इसके विपरीत ] दूसरे [कवि ] के काव्य की छाया अन्यच्छाया [ पद से अभिप्रेत है। वह [ दूसरे के काव्य को छाया ] जिस का योनि [ कारण है वह 'अन्यच्छायायोनि' [ दूसरा भेद ] है ।
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सूत्र ८] तृतीयाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः [१५१
आश्वपेहि मम शीधुभाननाद् यावदप्रदशनैर्न दश्यसे । चन्द्र महशनमण्डलाङ्कितः खं न यास्यसि हि रोहिणीभयात् ॥
मा भैः शशाङ्क मम शीधुनि नास्ति राहुः खे रोहिणी वसति कातर किं बिभेषि । प्रायो । विदग्धवनितानवसङ्गमेषु पुंसां मनः प्रचलतीति किमत्र चित्रम् ॥. पूर्वस्य श्लोकस्यार्थोऽयोनिः । द्वितीयस्य च छायायोनिरिति ॥८॥
जैसे [प्रागे दिए हुए वो उदाहरणो में से पहिला श्लोक कवि को नूतन कल्पना होने से पहले अर्थात् अयोनि भेव का उदाहरण है और उसके आधार पर लिखा गया दूसरा श्लोक 'अन्यच्छायायोनि' भेव का उदाहरण है।
[शोधुभाजन मदिरा पात्र में प्रतिबिम्बित ] हे चन्द्र ! मेरे इस मदिरा पात्र [ को छोड़ कर यहाँ ] से जल्दी भाग जायो । जब तक [प्रिया का या प्रिय का मुख समझ कर ] मैं तुम्हें अपने दान्तो से काट न लूं [ उसके पहले ही यहां से निकल जानो तो अच्छा है। नहीं तो फिर] मेरे दांतो के चिन्हों से अद्धित होकर [अपनी प्रिया ] रोहिणी [ को यह दन्तक्षत युक्त मुख कैसे दिखानोगे उस ] के भय से [ दुबारा यहां से लौट कर ] आकाश को भी न पा सकोगे।
यह कवि की अपनी अनूठी कल्पना है । इसको 'अयोनि' अर्थ कहते है। इसकी छाया को लेकर दूसरे कवि ने जो दूसरा श्लोक इसी अभिप्राय का लिखा है वह 'अन्यच्छाया' के आधार लिखा जाने से 'अन्यच्छायायोनि' अर्थ का उदाहरण है । जैसे
[मदिरापात्र में प्रतिबिम्बित ] हे चन्द्र ! अब डरो मत मेरी इस मदिरा [ पात्र ] में राहु नहीं बैठा है, और रोहिणी प्राकाश में रहती है [ वह भी मेरे मदिरा पात्र में स्थित तुमको देख नहीं सकती है ] अरे कायर फिर क्यों डरता है । [अथवा] विदग्ध [ रतिकेलि-चतुर प्रौढा] वनिताओं के साथ [रतिकालीन ] नव सङ्गमो के अवसर पर पुरुषो का मन चञ्चल [ भयभीत ] हो जाता है [ इसलिए तुम्हारे । इस [ डरने ] में क्या प्राश्चर्य की बात है।
[इन दोनों श्लोको में से ] पहले श्लोक का अर्य [ कवि को स्वयं अनूठी
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१५२]
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती [सूत्र ६-१० अर्थो व्यक्त. सूक्ष्मश्च । ३, २, ६ ।
यस्यार्थस्य दर्शनं समाधिरिति स द्विधा, व्यक्तः सूक्ष्मश्च । व्यक्तः स्फुटा, उदाहृत एव ॥४॥
सूक्ष्मं व्याख्यातुमाह
सूक्ष्मो भाव्यो वासनीयश्च । ३, २, १० ।
सूक्ष्मो द्विधा भवति भाव्यो वासनीयश्च । शीघनिरूपणागम्यो भाव्यः । एकाग्रताप्रकर्षगम्यो वासनीय इति । भाव्यो यथा
अन्योन्यसंवलितमांसलदन्तकान्ति सोल्लासमाविरलसं वलितार्थतारम् । लीलागृहे प्रतिकलं किलकिञ्चितेषु
व्यावर्तमाननयनं मिथुनं चकास्ति ।। कल्पना होने से ] 'अयोनि है और दूसरे का [ श्लोक में उस पूर्व श्लोक की छाया का प्राश्रय होने से ] 'छायायोनि' [अर्थ ] है ॥८॥
अर्थ [प्रकारान्तर से ] दो प्रकार का [ और ] होता है । एक व्यक्त [स्थूल, सर्वजनसवेद्य ] और [ दूसरा ] सूक्ष्म [ सहृदयमात्रसंवेध] ।
जिस अर्थ का दर्शन 'समाधि' [रूप अर्थगुण कहलाता ] है वह व्यक्त [स्थूल ] और सूक्ष्म दो प्रकार का होता है। व्यक्त स्पष्ट [अर्थ ] है। उसका उदाहरण [पूर्वोक्त 'पाश्वपेहि' तथा 'मा भैः शशाडू मादि दोनो श्लोक ] दे ही चुके है ॥६॥
[दूसरे प्रकार के ] सूक्ष्म [अर्थ ] को व्याख्या करने के लिए कहते हैसूक्ष्म [अर्थ ] 'भाव्य' और 'वासनीय [ दो प्रकार का होता है।
सूक्ष्म [ अर्थ ] दो प्रकार का होता है [एक ] 'भाव्य' और [ दूसरा] 'वासनीय' । सरसरी दृष्टि [शीघ्र निरूपण ] से [ही ] समझ में आजानेवाला 'भाव्य' [ होता ] है । और अत्यन्त ध्यान देने [ एकाग्रता के प्रकर्ष ] से सम. झने योग्य [अर्थ ] 'वासनीय' [होता है । 'भाव्य' [ का उदाहरण ] जैसे
[रतिकाल में अपने लोलागृह मे नायक-नायिका का जोडा ] एक दूसरे से मिश्रित हो रही है सुन्दर वन्तकान्ति जिसकी,[ इससे परस्पर सस्मित संल्लाप और अधरपान आदि सूचित होते है ] सोल्लास [ इससे हर्ष औत्सुक्य ] तथा प्राविरलसं ] पालस्ययुक्त [ इससे रतिश्रम प्रगदौर्बल्य सूचित होते है ] एवं [रतिकोड़ा की ] प्रत्येक कला पर [ मानन्द से ] अर्धमुद्रित, और [ नायिका के ]
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सूत्र १४
तृतीयाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः
[ १५३
वासनीयो यथाअवहित्थवलितनधनं विवतितामिमुखकुचतट स्थित्वा । अवलोकितोऽहमनया दक्षिणकरकलितहारलतम् ॥ १० ॥
उक्तिवैचित्र्य माधुर्यम् । ३, २, ११ । उक्तवैचित्र्यं यत्तन्माधुर्यमिति । यथा
किलकिञ्चितो [क्रोधाश्रुहर्षभीत्यादेः सङ्करः किलकिञ्चितम् ] के अवसर पर [व्यावर्तमान ] एक दूसरे की ओर घूमते हुए नेत्र वाला [ नायक नायिका का] जोडा शोभित होता है।
इस में नायक नायिका का मिथुन 'पालम्बन विभाव', लीलागृह 'उद्दीपनविभाव', अधरपान, अङ्गभङ्ग, स्मित, कम्प, नयनव्यावर्तन, भ्रू भेदादि 'अनभाव', उल्लसित, उन्मीलित, हर्ष, प्रौत्सुक्यादि, और 'किलकिञ्चित' से पाक्षिप्त क्रोध, शोक, भय, गर्वादि 'सञ्चारीभाव' है । इन 'विभाव', 'अनुभाव' और 'सञ्चारी भाव' के सयोग से 'रति' रूप 'स्थायीभाव' 'साधारणीकरण' की प्रक्रिया से रसिक जनो के चर्वण का विषय बनकर रस पदवी को प्राप्त होता है । यह भावको की अवधान रूप भावना का विषय होने से 'भाव्य' अर्थ का उदाहरण है।
दासनीय [अर्थ का उदाहरण ] जैसे
प्राकार-गोपनपूर्वक ["प्रवहित्था प्राकारगुप्तिः अपनी दोनों ] जवानो ' को मिलाकर, कुचतटों को सामने की ओर करके और दाहिने हाथ से हार-लता को पकड़ कर उस [ नायिका ] ने मुझ को देखा।
इस श्लोक में तुम्हारा सम्भोग दुर्लभ है, मेरा मन तुम्ही में लगा हुआ है, मेरे दुरन्त सन्ताप की शान्ति मे केवल यह हारलता ही दाक्षिण्य का अवलम्बन कर रही है इत्याद रूप नायिका का स्वाभिप्राय प्रकाशन विशेष ध्यान देने से सहृदयो को अनुभव होता है इसलिए यह 'वासनीय सूक्ष्म अर्थ का उदाहरण दिया है ॥ १०॥
छठे अर्थगुण 'माधुर्य' का निरूपण अगले सूत्र में करते है। उक्ति-वैचित्र्य माधुर्य [ कहलाता है। उक्ति का जो वैचित्र्य है वह 'माधुर्य [नामक प्रर्यगुण ] है। जैसे
अमृत [बड़ा] सरस [ सुस्वादु ] है इसमें कोई सन्देह नहीं । शहद भी पौर तरह का[ अस्वादु ] नहीं है [ किन्तु मधुर और सुस्वादु ही है ] ।प्राम का
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सूत्र १ ]
चतुर्थाधिकरणे प्रथमोऽध्यायः
[ १६१
सूत्र में दिया हुआ ' अनेकार्थं विशेषरण केवल पद का है अक्षर का नही । क्योकि पद ही अनेकार्थं हो सकता है । यमक पद का अर्थ 'यम्यते गुण्यते श्रावर्त्यते पदमक्षर वेति यम' । बहुल ग्रहरण से कर्म मे 'घ' प्रत्यय करके 'यम' शब्द बना है । उससे स्वार्थ में 'क' प्रत्यय करके 'यम एव यमकम्' इस प्रकार यमक पद की व्युत्पत्ति होती है । जिससे भिन्नार्थक एक अथवा अनेक पदो की प्रावृत्ति का 'यमक' कहते है । इसका अभिप्राय यह हुआ कि यदि एक अथवा अनेक पूरे पदो की प्रावृत्ति होती है तो उन दोनो का अर्थ अवश्य भिन्न होना चाहिए । समानार्थ पदो की श्रावृत्ति इस यमकालङ्कार का विषय नही है । जहां पूर्ण पद की प्रावृत्ति न होकर उसके किसी एक देश की आवृत्ति हो उसको अक्षर की श्रावृत्ति कहा जायगा । यह एकदेश भूत अक्षर सार्थक न होने से अनर्थक हैं इसलिए सूत्र का प्रनेकार्थं विशेषरण इस प्रक्षर प्रवृत्ति के साथ सङ्गत नही होता | केवल पदो के साथ अन्वित होता है ।
भामह ने अपने काव्यालङ्कार मे यमक का लक्षरण इस प्रकार किया है— ' तुल्यश्रुतीना भिन्नानामभिधेयैः परस्परम् । वर्णाना य पुनर्वादो यमक तन्निगद्यते ॥
अर्थात् सुनने मे समान प्रतीत होने वाले और अर्थ से भिन्न वर्गों की पुनरुक्ति या आवृत्ति को 'यमक' कहते है ।
इस लक्षरण मे पदो की आवृत्ति का उल्लेख नही किया है । परन्तु 'भिन्नानामभिधेयं परस्परम्' से पद की प्रतीति हो जाती है । क्योकि केवल वर्णं सार्थक नही होते । पद ही सार्थक होते है । इस प्रकार वर्णो की आवृत्ति में, आवृत्त वर्णों की चार प्रकार की स्थिति होसकती है— १. जहा दोनो सार्थक हो । इस दशा मे दोनो पद होगे और उनको सामानार्थक नही अपितु भिन्नार्थक ही होना चाहिए । २ दूसरी दगा मे दोनो अनर्थक होगे । यह पदो की नही अपितु केवल वर्णों की प्रवृत्ति कहलावेगी । 3 तीसरे रूप में प्रथम श्रश सार्थक और उत्तर भाग अनर्थक हो सकता है । इसमें पहिला सार्थक भाग पद होगा और दूसरा अनर्थक भाग पाश अथवा वर्ण रूप होगा । ४ चौथी स्थिति मे पूर्वभाग अनर्थक और उत्तर भाग सार्थक हो सकता है । इसमे सार्थक उत्तर भाग पद और अनर्थक पूर्वभाग पदाश रूप वर्ण
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9
भामह काव्यालङ्कार २, १७ ।
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१६२]
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती [ सूत्र । पदमनेकार्थ भिन्नार्थमेकमनेक वा, तद्वदक्षरमावृत्तं स्थाननियमे सति यमकम् । स्वावृत्या सजातीयेन वा कास्न्यैकदेशाभ्यामनेकपादव्याप्तिः स्थाननियम इति ।
अथवा अक्षर कहलावेगा । इस प्रकार पदो अथवा वर्गों की भावृत्ति को 'यमक' कहते है । परन्तु जहा पदो की प्रावृत्ति हो वहा उन दोनो की भिन्नार्थकता अपरिहार्य है । इसलिए साहित्यदर्पणकार विश्वनाथ ने यमक का लक्षण करते हुए लिखा है
' सत्यर्थे पृथगाया स्वरव्यञ्जनसहते. ।
क्रमेण तेनैवावृत्तिर्यमक विनिगद्यते ।। 'यमक' के लक्षण मे प्राचीन भामह तथा नवीन विश्वनाथ प्रादि दोनो के लक्षणो से प्रकृत ग्रन्थकार वामन के लक्षण मे यह विशेषता है कि इन्होने अपने लक्ष्य मे स्थान-नियम का विशेष रूप से उल्लेख किया है । और उन स्थानो का विस्तारपूर्वक विवेचन भी किया है । अन्य भामह प्रादि प्राचार्यों ने इस स्थान नियम को स्वय समझ लेने योग्य मान कर न उस का उल्लेख अपने लक्षण मे ही किया है और न उसका अधिक विस्तार ही किया है।
अनेकार्थ अर्थात् भिन्न अर्थ वाला एक पद अथवा अनेक पद, और उसी के समान [ एक अथवा अनेक ] अक्षर स्थान नियम के होने पर प्रावृत्त होने से 'यमक'[नामक शब्दालडार कहलाते है। यमक के प्रयोजक पद की अपनी वृत्ति , उपस्थिति ] से अथवा [ दो भिन्न-भिन्न पदो के अंशो से मिलकर एक पद जैसा प्रतीति होने वाले ] सजातीय के साथ सम्पूर्ण रूप से अथवा एक देश से अनेक पादों में व्याप्ति को स्थान नियम [कहा जाता है। [इसका अभिप्राय यह हुआ कि प्रावृत्त पदो की स्थिति एक पाद में न होकर मुख्यतः अनेक पादो में होनी चाहिए। यह भी वामन का विशेष सिद्धान्त है । परन्तु यदि एकपादस्थ प्रावृत्ति को यमक न माना जाय तो]
' अथ समाववृते कुसुमैर्नवै-स्तमिव सेवितुमेकनराधिपम् ।
यमकुवेरजलेश्वरवविणा समधुर मधुरञ्चितविक्रमम् ।।
' साहित्य-दर्पण १०, । २ रघुवंश ६, २४ ।
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१७६ ]
काव्यालङ्कारवृत्तौ
विभक्तीनां विभक्तत्वं संख्यायाः कारकस्य च । आवृत्ति: सुप्तिङन्तानां मिथश्च यमकाद्भुतम् ॥ १६ ॥
इसलिए वह प्रावृत्ति दोषयुक्त हो जाय 'दुष्येच्चेत्' तो फिर उस को अनुप्रास का भी उदाहरण नही मानना चाहिए। 'न पुनस्तस्य युक्तानुप्रासकल्पना' । यदि उससे काव्य की शोभा की वृद्धि होती हो तो वह यमक ही हो सकता है । परन्तु जब वह यमकसदृश होने पर भी प्रतिमात्रा में प्रयुक्त होने से दोषाधायक हो गया है, तब वह अनुप्रास रूप अलङ्कार भी नही हो सकता है, यह ग्रन्थकार का अभिप्राय है ।
सुबन्त अथवा तिङन्त [ पदो की ] की अलग-अलग अथवा मिलकर भी [ ऐसी ] श्रावृति जिसमें विभक्तियों, संख्या [ वचन ] और कारको का भेद हो उसको 'यमकाद्भुत' [ श्रथवा 'अद्भुत यमक' अलङ्कार ] कहते है ॥ १६ ॥
इनके क्रम से उदाहरण इस प्रकार हो सकते है -
विश्वप्रमात्रा भवता जगन्ति,
[ सूत्र ७
व्याप्तानि मात्रापि न मुञ्चति त्वाम् ।
विश्व के प्रमाता भ्रापसे सारे जगत् व्याप्त है । उसका कोई भी अश प्राप से रहित नही है । इस उदाहरण में 'विश्वप्रमात्रा' और 'मात्रापि' इन दोनो मे 'मात्रा' इस अश की प्रावृत्ति होने से यह 'यमकाद्भुत' का उदाहरण होता है ।
इसी प्रकार --
एताः सन्नाभयो बाला यासा सन्नाभय. प्रिय I
इस उदाहरण मे 'सन्नाभय' इस पद की प्रवृत्ति है । परन्तु पहली जगह 'एताः सन्नाभयो बाला.' मे 'सन्नाभय' पद बहुवचनान्त 'एताः बाला ' का विशेष है । और दूसरी जगह 'सन्नाभय' पद, एकवचनान्त 'प्रिय' का विशेषरण है । दोनो पदो मे प्रथमा विभक्ति ही होने से यह विभक्ति भेद का नही अपितु सख्याभेद रहते हुए पद की प्रावृत्ति का उदाहरण है । 'सन्नाभय बालाः' मे 'सन्नाभय.' का अर्थ सुन्दर नाभि वाली बालाए है ।
इसी प्रकार -
प्राप्तगुणः प्रभावे, भासतेऽयम् ।
यतस्तत
यतस्ततश्चेतसि
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चतुर्थाधिकरणे प्रथमोऽध्याय
शेष सरूपोऽनुप्रास । १, १, ८ ।
पदमेकार्थ मनेकार्थं च स्थानानियतं तद्विधमचरं च शेषः । सरूपोऽन्येन प्रयुक्तेन तुल्यरूपोऽनुप्रासः ।
सूत्र ८ ]
[ १७७
इस उदाहरण मे 'यतस्तत. ' पद की प्रवृत्ति है । यह पद सार्वविभक्तिक 'सि' प्रत्यय करके बना है। इसमें पहली जगह पञ्चम्यर्थ मे और दूसरी जगह सप्तम्यर्थं में 'तसि' प्रत्यय हुआ है। इसलिए यह 'कारक भेद' का उदाहरण है साक्षात् विभक्ति का प्रयोग न होकर ' तसिल्' प्रत्यय के द्वारा प्रयोग होने से विभक्ति - भेद का उदाहरण नही है । इसी प्रकार ----
सरति सरति कान्तस्ते ललामो ललाम, ।
यह सुबन्त र तिङन्त पदो की मिश्रित प्रावृत्ति का उदाहरण है । इसमे 'सरति सरति' तथा 'ललामो ललाम' पदो की प्रावृत्ति है । इनमे 'सरति सरति' पदो में से एक 'सरति' पद शतृप्रत्ययान्त 'सरत्' शब्द का सप्तम्यन्त या सति सप्तमी का रूप है और दूसरा तिडन्त का लट् लकार का रूप होने से सुबन्त और तिडन्त की मिथ श्रावृत्ति का उदाहरण है । इसी प्रकार 'ललामो ललाम मे एक 'ललाम . ' पद प्रथमा का एकवचन और दूसरा लट् लकार के उत्तम पुरुष का वहुवचन होने से यह भी सुबन्त तथा तिङन्त पदो की मिथ श्रावृत्ति का उदाहरण है ।
इन उदाहरणो मे यदि केवल विभक्तिविपरिणाममात्र माने तो ऊपर दिये हुए श्लोक के अनुसार यमकत्व की हानि माननी होगी । परन्तु केवल विभक्ति विपरिणाम न मान कर प्रकृति का भी भेद मानते है तो यमकाद्भुत अलङ्कार होता है । यह यमकत्वहानि और यमकाद्भुत का भेद समझना चाहिये ॥ ७ ॥
इस प्रकार यमक का निरूपण कर चुकने के बाद दूसरे शब्दालङ्कार का निरूपण प्रारम्भ करते है ।
[ यमक से भिन्न ] अन्य सारूप्य को 'अनुप्रास' कहते है ।
यमक में स्थान नियत होता है । और प्रावृत्त पदो में भिन्नार्थकता अनिवार्य होती है । इमलिए शेष अनुप्रास से तात्पर्य अनियत स्थान तथा एकार्थ अथवा अनेकार्थक पदो की प्रवृत्ति से है । इसी को वृत्तिकार कहते हैं । एकार्थक और अनेकार्थक [ दोनो प्रकार के ] और अनियत स्थान वाले पद तथा उसी प्रकार के प्रनियत स्थान वाले प्रक्षर शेष [ पद से अभि
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१७८ काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती
[सूत्र ननु च 'शेषोऽनुप्रासः' इत्येतावदेव सूत्रं कस्मान्न कृतम् । आवृत्तिशेषोऽनुप्रास इत्येव हि व्याख्यास्यते ।
सत्यम् । सिद्धत्येवा वृत्तिशेषे कि त्वव्याप्तिप्रसङ्गः। विशेषार्थ च सरूप-ग्रहणम । कास्न्येनैवावृनिः कात्स्न्यैकदेशाभ्यां तु सारूप्यमिति ||८|| प्रेत ] है । [ इस प्रकार जो शेष ] सरूप [ अर्थात् ] अन्य प्रयुक्त [ हुए पद] के तुल्य रूप [ पद को ] अनुप्रास कहा जाता है। [अर्थात् एकार्य अथवा अनेकार्थ स्थानानियत पद के अन्य प्रयुक्त हुए पद के साथ सावृश्य अथवा प्रावृत्ति को 'अनुप्रास' कहते है। यह 'अनुप्रास' का लक्षण हुआ |
[प्रश्न ] 'शेषोऽनुप्रासः' इतना ही सूत्र क्यों नहीं बनाया। [ यमक से भिन्न ] शेष [अन्य प्रकार की प्रावृत्ति को 'अनुप्रास' कहते है । यह इस प्रकार की उस सूत्र की व्याख्या हो जावेगी।
[उत्तर] भापका कथन ठीक है । प्रावृत्ति शेष अनुप्रास होता है [ यह लक्षण ] बन ही सकता है। किन्तु [ उतना लक्षण रखने से ] अन्याप्ति की सम्भाचना हो सकती है। [इसलिए ] विशेष [ रूप से अव्याप्ति दोष रहित अनुप्रास का लक्षण करने के लिए [ सूत्र में ] 'सरूप पद का ग्रहण किया है। [इस सरूप पद के ग्रहण करने से भेद यह हो जाता है कि यमक में अभिप्रेत प्रावृत्ति स्वरव्यञ्जन संघात की सम्पूर्ण रूप से 'प्रावृत्ति होती है और अनुप्रास में स्वरव्यञ्जन संघात रूप] सम्पूर्ण अथवा एकदेश [ दोनो प्रकार से सारूप्य हो सकता है।
इसका अभिप्राय यह हुआ कि यमक मे पूर्ण रूप से स्वर-व्यञ्जनसङ्घात की आवृत्ति आवश्यक है। परन्तु अनुप्रास मे स्वरभेद होने पर भी केवल व्यञ्जन की भी प्रावृत्ति हो सकती है । यही यमक और अनुप्रास का भेद है । इसी लिए श्री विश्वनाथ ने अपने साहित्यदर्पण मे इन दोनो के लक्षण इस प्रकार किए है -
' सत्यर्थे पृथगाया. स्वरव्यञ्जनसहते. ।
क्रमेण तेनैवावृत्तियंमकं विनिगद्यते ॥ अर्थात् सार्थक होने पर भिन्नार्थक स्वरव्यञ्जनसङ्घात की उसी क्रम से पावृत्ति को 'यमक' कहते है। इसके विपरीत
३ अनुप्रासः शब्दसाम्य वैषम्येऽपि स्वरस्य यत् । स्वर का भेद होने पर शब्द का साम्यमात्र अनुप्रास कहलाता है ॥८॥
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' साहित्यदर्पण १०, ८। २ साहित्यदर्पण १०,७।
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सूत्र ३] चतुर्थाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः [१६१
तस्या उपमाया द्वैविध्य, पदवाक्यार्थवृत्तिभेदात् । एका पदार्थवृत्तिः, अन्या वाक्यावृत्तिरिति । पदार्थवृत्चिर्यथा
हरिततनुषु बभ्रुत्वग्विमुक्तासु यासां
कनककणसधर्मा मान्मथो रोमभेदः ॥५॥ वाक्यार्थवृत्तिर्यथापाण्ड्योऽयमंसार्पितलम्बहारः क्लृप्ताङ्गरागो हरिचन्दनेन । आभाति बालातपरक्तसानुः सनिझरोद्गार इवाद्रिरानः ॥६॥३॥
उस उपमा के दो प्रकार होते है । पद [पदार्थ ] और वाक्य के अर्थ में रहने के भेद से [अर्थात् ] एक पदार्थ में रहने वाली [पदार्थवृत्ति ] और दूसरी वाक्यार्थ में रहने वाली [ वाक्यार्थवृत्ति ] होती है । [ उनमें से ] पदार्थवृत्ति [उपमा का उदाहरण ] जैसे [ निम्न लिखित श्लोक में है]
जिनका मटली खाल से रहित हरित देहों पर स्वर्णकण के समान मन्मय सम्बन्धी रोमाञ्च [ रोमभेद दिखाई देता ] है ॥५॥
वाक्यार्थ वृत्ति [ उपमा का उदाहरण ] जैसे
कन्धे पर लम्बा हार धारण किए और लाल चन्दन का अङ्गराग लगाए यह पाण्डय [ देश का राना] प्रांत कालीन [ लाल-लाल ] बालातप से रक्त शिखर वाले और झरने के प्रवाह से युक्त पर्वतराज के समान सुशोभित हो
इस उदाहरण में पाण्डव देश के राजा की उपमा कालिदास ने अद्रिराज से दी है । परन्तु वह केवल पाण्ड्य और अद्विराज का ही उपमेय उपमान भाव नहीं है, अपितु पाण्डय के साथ 'प्रसार्पितलम्बहार' और 'हरिचन्दनेन क्लृप्ताड्राग.' यह दो विशेषण जुड़े हुए है । इसलिए उसके साम्य को पूर्ण करने के लिए प्रद्रिराज रूप उपमान में भी 'बालातपरक्तसानु' और 'सनि:रोद्गार' यह दो विशेषण जोडे गए हैं । अन्यथा उन दोनो का उपमानोपमेय भाव अपूर्ण ही रहता । इस प्रकार अनेक पदो में व्याप्त अनेक पदो में पूर्ण होने के कारण 'वाक्यार्थवृत्ति' उपमा कहलाती है । इसके विपरीत प्रथम उदाहरण में उपमा का सम्बन्ध इतना व्यापक नहीं है । वह केवल कनककणसधर्मा रोमभेद.' में समाप्त . हो गई है । इसलिए वह वाक्यार्थवृत्ति नही अपितु पदार्थवृत्ति' उपमा का उदाहरण है । यद्यपि उपमा में उपमान, उपमेय, सादृश्य और उपमा वाचक इवादि पदो की स्थिति आवश्यक होने से उसका सम्बन्ध अनेक पदो से होता
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१९२] काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती
[सूत्र ४ सा पूर्णा लुप्ता च । ४, २, ४ । । सा उपमा पूर्णा लुप्ता च भवति ॥ ४॥ गुणद्योतकोपमानोपमेयशब्दानां सामग्र्ये पूर्णा । ४, २, ५ । गुणादिशब्दानां सामध्ये साकल्ये पूर्णा । यथा
कमलमिव मुख मनोज्ञमेतत् ।। ७ ॥ इति ॥५॥ ही है । वह केवल एक पद मे समाप्त नही हो सकती है । फिर भी यह उमान उपमेयादि अनेक पद मिल कर भी पूर्ण वाक्य नही होते है । इसलिए इस प्रकार की उपमा को पदार्थवृत्ति' उपमा ही कहा है । जहाँ यह सब मिलकर पूरा वाक्य बन जाता है वहा उपमा को 'वाक्यार्थवृत्ति' उपमा कहा जाता है । इसी से 'पाण्डयोऽयमसापितलम्बहार.' इत्यादि श्लोक में वाक्यार्थवृत्ति उपमा है ॥३॥
___पहिले उपमा के 'लौकिकी' और 'कल्पिता' यह दो भेद किए थे। उसके बाद प्रकारान्तर से उसके 'पदार्थवृत्ति' और 'वाक्यार्थवृत्ति' यह दो भेद किए है। इसके बाद तीसरे प्रकार से उपमा के 'पूर्णा' और 'लुप्ता' उपमा इस प्रकार के दो भेद करते है । वामन के पहिले दोनो प्रकारो को उत्तरवर्ती प्राचार्यों ने विशेष महत्व नही दिया है । परन्तु इस 'पूर्णा' और 'लुप्ता' उपमा वाले भेद को उत्तरवर्ती पालङ्कारिक प्राचार्यों ने अपनाया है ।
वह [ उपमा ] पूर्णा और लुप्ता [ दो प्रकार को ] होती है। वह उपमा पूर्णा और लुप्ता [ भेद से दो प्रकार का ] होती है ॥४॥
१ गुण [अर्थात् उपमान उपमेय का साधारण धर्म ], २. द्योतक [अर्थात् उपमा का द्योतक इवादि शब्द ], ३. उपमान [चन्द्र आदि ] और ४. उपमेय [ मुखादि, इन चारो के वाचक शब्दो के पूर्ण [ रूप से उपस्थित ] होने पर पूर्णा [ उपमा ] होती है ।
गुणादि [१. साधारण धर्म, उपमावाचक इवादि शब्द, ३. उपमान और ४. उपमेय इन चारो के वाचक ] शब्दो के पूर्ण [ रूप से उपस्थित ] होने पर 'पूर्णा [ उपमा होती ] है। जैसे
यह मुख कमल के समान सुन्दर है।
इस उदाहरण में १ 'कमल' 'उपमान', २. मुख" उपमेय', ३. 'मनोज्ञ' यह इन दोनो का 'साधारण धर्म', तथा ४. 'इव' यह उपमा 'वाचक' पद है। इन चारो के उपस्थित होने से यह 'पूर्णोपमा' का उदाहरण है ॥ ५॥
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२०६] काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती
- [सूत्र १० सूर्याशुसम्मीलितलोचनेषु दीनेषु पद्मानिलनिर्मदेषु ।। साध्व्यः स्वगेहेष्विव भत हीनाः केका विनेशुः शिखिनां मुखेष ॥
अत्र बहुत्वमुपमेयधर्माणामुपमानात् ।
न, विशिष्टानामेव मुखानामुपमेयत्वात् । तादृशेष्वेव केकाविनाशस्य सम्भवात् ॥१०॥ इसी प्रकार वर्षा ऋतु के बीत जाने पर मोरो की केका ध्वनि उनके मुखो में ही लीन हो गई। इसी बात को कवि कहता है
[शरद् ऋतु मे ] सूर्य की किरणों [ के असह्य होने ] से मुंदी हुई प्रांखों वाले और कमलो [ को स्पर्श करके प्राने वाली शरत्काल ] की वायु से मद रहित [अतएव ] दीन मयूरों के मुखो में [ उनकी ] केका [ध्वनि ] इस प्रकार लुप्त [ण प्रदर्शने ] हो गई जैसे भर्तृ विहीना पतिव्रता स्त्रियां अपने घरों में ही लीन हो जाती है [बाहर नहीं निकलती। इसी प्रकार मोरों की केका ध्वनि उनके मुखो में ही लीन हो गई बाहर नहीं निकल रही है।
[शङ्का] इस [ 'साध्व्यः स्वगेहेष्विव भर्तृ होना' ] में उपमान को अपेक्षा उपमेय के धर्मों का बहुत्व [१. सूर्याशुसम्मीलितलोचनेष, २. 'पद्मानिलनिर्मवेषु' और ३ 'दीनेषु' इन तीन विशेषण युक्त होने से ] है। [अर्थात् उपमान में धर्मन्यूनता होने से इसको भी 'हीनत्व' दोष प्रस्त मानना चाहिए।
उत्तर-प्रन्थकार इस प्रश्न का उत्तर देते है] यह कहना ठीक नहीं है। [ यहा तीनो विशेषणो से विशिष्ट मुखो का ही उपमेयत्व है । उसी प्रकार के [ 'सूर्यांशुसम्मीलितलोचनेषु' प्रादि तीनों विशेषणो से युक्त ] मुखो में केका ध्वनि का विनाश सम्भव होने से [ यह दोष नहीं है ।
ग्रन्थकार का यह समाधान प्रसङ्गत सा प्रतीत होता है । प्रश्नकर्ता ने भी यही कहा था कि यहा उपमेय अनेक धर्मो से विशिष्ट है परन्तु उपमान उन धर्मों से विशिष्ट नहीं है इसलिए उपमान मे धर्मन्यूनता होने के कारण यहा दोष मानना चाहिए । समाधान करते समय यह दिखलाना चाहिए था कि उपमान भी उन धर्मों से युक्त है इसलिए कोई दोष नही है । अर्थात् उपमेय के जो तीन विशेषण दिये ग है उनको उपमान पक्ष मे भी लगाने का प्रयास किया जाता तव तो इसका समाधान हो सकता है। परन्तु ग्रन्थकार उस मार्ग का अवलम्बन न करके कुछ और ही बात कह रहे है । यह तो 'माम्रान्
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सूत्र ११] चतुर्थाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः [२०७
तेनाधिकत्व व्याख्यातम् । ४, २, ११।। तेन हीनत्वेनाधिकत्वं व्याख्यातम् । जातिप्रमाणधर्माधिक्यमधिकत्वमिति । नात्याधिक्यरूपमधिकत्वं यथा
विशन्तु विष्टयः शीघ्र रुद्रा। इव महौजसः । प्रमाणाधिक्यरूपं यथा
पातालमिव नाभिस्ते स्तनौ क्षितिधरोपमौ । वेणीदण्डः पुनरय कालिन्दीपातसन्निभः ॥
पृष्ट कोविदारानाचष्टे' के समान बात हुई । इसलिए यह उत्तर ठीक नही है ॥ १०॥
उपमागत हीनत्व दोष की व्याख्या कर चुकने के बाद ग्रन्थकार दूसरे उपमादोष 'अधिकत्व' का निरूपण अगले सूत्र में करते है
इस [ हीनत्व दोष की व्याख्या] से अधिकत्व [ दोष ] को व्याख्या [भी ] हो गई [ समझना चाहिए।
___ उस होनत्व [ की व्याख्या से प्राधकत्व की व्याख्या हो गई। [अर्थात् जैसे हीनत्व तीन प्रकार का होता है इसी प्रकार ] नाति, प्रमाण और धर्म के [उपमेय की अपेक्षा उपमान में अधिक होने पर अधिकत्व [दोष ] होता है । जात्याधिक्य रूप अधिकत्व [का उदाहरण] जैसे
रुख [शिव ] के समान महापराक्रमी कहार ["विष्टिः कारो कर्मकरें इति वैजयन्ती] शीघ्र भीतर आ जावें।
यहाँ 'कहार' उपमेय है 'रुद्र' उपमान है । 'महौजसत्व' साधारण धर्म तथा 'इव' उपमा वाचक शब्द है। इन चारो के विद्यमान होने से यह पूर्णोपमा है। इसमें 'उपमानभूत रुद्र' में 'उपमेयभूत कहार' की अपेक्षा जातिगत प्राधिक्य होने से 'अधिकत्व' दोष है । यो तो उपमान में उपमेय की अपेक्षा प्राधिक्य होता ही है परन्तु वह मर्यादा से अधिक नहीं होना चाहिए। शिव से कहार की उपमा देने में मर्यादा का प्रतिक्रमण कर दिया गया है। इसलिए दोष है।
प्रमाणाधिक्य रूप [अधिकत्व दोष का उदाहरण ] जैसेतुम्हारी नाभि पाताल के समान [गहरी ], स्तन पहाड़ के समान
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२०८ ]
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तौ
धर्माधिक्यरूपं यथा
सरश्मि चञ्चलं चक्रं दधद् देवो व्यराजत । सवाडवाग्निः सावर्तः स्रोतसामिव नायकः ॥ सवाडवाग्निरित्यस्योपमेयेऽभावाद् धर्माधिक्यमिति ।
•
[ सूत्र ११
[ ऊँचे ] और यह वेणी दण्ड [ केशपाश ] यमुना की धारा के समान [ काले ] है ।
[ इन तीनों उपमानों में उपमान में परिमाणगत आधिक्य है । पाताल से नाभि की, और पर्वत से स्तन की उपमा देना अत्यन्त प्रसङ्गत है । इसलिए उपमान में मर्यादा को अतिक्रमण करने वाला परिमाणगत प्राधिक्य होने के कारण 'अधिकत्व' रूप उपमा- दोष है ] ।
धर्माधिक्य रूप [ श्रधिकत्व दोष का उदाहरण ] जैसे
रश्मियो से युक्त चञ्चल चक्र को धारण किए विष्णु, वडवानल और [ श्रावर्त ] भंवर से युक्त [ नदीपति ] समुद्र के समान सुशोभित हुए ।
इसमे 'विष्णु' उपमेय और 'समुद्र' उपमान है। विष्णु चक्र को धारण किए हैं, और समुद्र प्रावर्त युक्त है । चत्र के दो विशेषरण 'सरश्मि' और 'चञ्चल' उपमेय पक्ष में है । पर उपमान पक्ष मे केवल 'सवाडवाग्नि' एक विशेषण है वह भी चक्र स्थानीय 'प्रावर्त' का नही अपितु स्वयं उपमानभूत समुद्र का । इसलिए वास्तव में यहाँ उपमानगत धर्म की न्यूनता प्रतीत होती है । परन्तु ग्रन्थकार ने इसे उपमानगत धर्माधिक्य का उदाहरण दिया है। उसकी सङ्गति इस प्रकार लगती है कि उपमेय पक्ष मे 'सरश्मि' तथा 'चञ्चल' यह दोनो विशेषरण केवल चक्र के है । मुख्य उपमेयभूत देव का केवल एक विशेषण है । परन्तु उपमान पक्ष में मुख्य उपमानभूत समुद्र के दो विशेषण है । इनमे से उपमान के प्रावर्त के स्थान पर उपमेय पक्ष में चक्र है । परन्तु उपमान के दूसरे विशेषरण 'सवाडवाग्नि' के स्थान पर उपमेय पक्ष में कोई धर्म दिखाई नही देत । । इसलिए यह उपमानगत धर्माधिक्य का उदाहरण हो सकता है । इसी बात को वृत्तिकार स्पष्ट करते है ।
सवाडवाग्नि इस [ उपमानगत धर्म के समकक्ष किसी धर्म ] के उपमेय [ देव पक्ष ] में न होने से [ उपमान में ] धर्म का प्राधिक्य है । [ श्रतएव यहाँ 'प्रषिकत्व' रूप उपमा दोष विद्यमान है ] ।
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सूत्र ११] चतुर्थाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः [२०६
__ अनयोर्दोषयोविपर्ययाख्यस्य दोषस्यान्तमोवान्न पृथगुपादानम् । अत एवास्माकं मते षड् दोषा इति ॥ ११ ॥
इस प्रकार ग्रन्थकार ने 'हीनत्व' और 'अधिकत्व' दोप को यह व्याख्या की है कि उपमान को जाति, प्रमाण और धर्मगत न्यूनता होने पर 'हीनत्व' तथा अधिकता होने पर अधिकत्व' दोष होता है। अर्थात् 'हीनत्व' तथा 'अधिकत्व' दोनो जगह उपमान मे ही धर्म आदि की न्यूनता या अधिकता गिनी गई है। उपमेयगत हीनता या अधिकता का विचार नही किया गया है। इससे किसी के मन में यह शङ्का हो सकती है कि उपमेयगत हीनत्व और अधिकत्व के आधार पर ही दो दोष और भी मानने चाहिए। इस प्रकार उपमा दोषो की सख्या ६ के स्थान पर पाठ हो जानी चाहिए। इस शङ्का का समाधान ग्रन्थकार अगली पक्ति में यह करते है कि उपमान की अधिकता तभी होगी जव उपमेय मे हीनता हो। इसी प्रकार उपमान मे हीनता तभी होगी जब उपमेय में प्राधिक्य हो। इसलिए उपमानगत हीनता और अधिकता में ही उपमेयगत हीनता और अधिकता का अन्तर्भाव हो जाने से उसके प्रतिपादन के लिए अलग दोष दिखलाने की आवश्यकता नही है और उपमा के छ दोष मानना ही उचित है । पाठ दोष मानने की आवश्यकता नही है। इसी बात को वृत्ति में कहते है।
इन दोनो दोषो के विपर्यय [अर्थात् उपमेयगत हीनत्व तथा उपमेयगत अधिकत्व ] नामक दोष का इन्हीं [ उपमानगत हीनत्व तथा अषिकत्व ] में अन्तर्भाव हो जाने से अलग ग्रहण [ प्रतिपादन] करने की आवश्यकता नहीं है। इसलिए हमारे मत में [ऊपर गिनाए हुए ] छः [ही उपमा के ] दोष है [अधिक नहीं।
इस प्रकार वामन ने हीनत्व और अधिकत्व नाम से जो उपमा के दोप प्रतिपादन किए है उनको वामन के उत्तरवर्ती प्राचार्य विश्वनाथ आदि अलग मानने की आवश्यकता नहीं समझते है। विश्वनाथ ने इन दोनो दोषो का अन्तर्भाव अनुचितार्थता' दोष में कर लिया है। इसलिए न केवल इन दोनो का अपितु असादृश्य तथा असम्भव दोषो का भी अनुचितार्थत्व दोष में अन्तर्भाव करते हुए वह लिखते है
"उपमायामसादृश्यासम्भवयो, जातिप्रमाणगतन्यूनत्वाधिकत्वयो, अर्थान्तरन्यासे उत्प्रेषितार्थसमर्थने चानुचितार्थत्वम् ।" ॥ ११ ॥ 'साहित्यदर्पण ७-१६॥
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२१.]
काव्यालङ्कारसूत्रवृती [१२-१३ उपमानोपमेययोलिङ्गव्यत्यासो लिङ्गभेद. । ४, २, १२ । ___ उपमानस्योपमेयस्य च लिङ्गयोय॑त्यासो विपर्ययो लिङ्गभेदः ।
यथा
सेन्यानि नद्य इव जग्मुरनगैलानि ॥ १२ ॥ : ष्ट: पुन्नपु सकयो प्रायेण । ४, २, १३ ।
इस प्रकार हीनत्व तथा अधिकत्व इन दो प्रकार के उपमा-दोषो का निरूपण करने के बाद ग्रन्थकार लिङ्गभेद रूप तृतीय उपमा-दोष का प्रतिपादन अगले सूत्र में करते है।
उपमान और उपमेय के लिङ्ग का परिवर्तन लिङ्गभेद [ दोष ] है।
उपमान और उपमेय के लिङ्ग का परिवर्तन बदल जाना लिङ्गभेद [उपमा-बोष कहलाता है। जैसे
सेनाएं नदियो के समान अबाधित रूप से चलने लगीं।
इस उदाहरण में 'सैन्यानि' उपमेय है और 'नद्य' उपमान है । 'अनर्गल गमन' उनका साधारण धर्म है और 'इव' उपमावाचक शब्द है। इन चारो के होने से यह पूर्णोपमा का उदाहरण है परन्तु इसमे उपमेय रूप 'सैन्यानि' पद नपुंसकलिङ्ग का और उपमानभूत 'नद्य' पद स्त्रीलिङ्ग का है। इस लिङ्गभेद हो जाने के कारण यहाँ लिङ्गभेद' नामक उपमा-दोष हो जाता है ॥ १२ ॥
इस प्रकार लिङ्गभेद दोष का साधारण निरूपण किया। परन्तु कही. कही इसका अपवाद भी पाया जाता है अर्थात् इस प्रकार का लिङ्गभेद होने पर भी दोष नही माना जाता है । इस प्रकार के अपवादो को अगले दो सूत्रो में दिखलाते है।
पुलिङ्ग और नपुंसक लिङ्ग का [ लिङ्ग विपर्यय ] प्रायः इष्ट होता है। [अर्थात् उपमान और उपमेय में से एक पुलिङ्ग हो और दूसरा नपुंसक लिङ्ग हो इस प्रकार का लिङ्गभेद प्रायः इष्ट होता है अर्थात दोष नहीं माना जाता है।
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सूत्र १४]
चतुर्थाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः [२११ पुन्नपुसकयोरुपमानोपमेययोलिङ्गभेदःप्रायेण बाहुल्येनेष्टः । यथा 'चन्द्रमिव मुखं पश्यति' इति । 'इन्दुरिव मुखं भाति', एवम्प्रायन्तु नेच्छन्ति ॥ १३ ॥ लौकिक्यां समासाभिहितायामुपमाप्रपञ्चे । ४, २, १४ ।
लौकिक्यामुपमायां समासानिहितायामुपमायामुपमाप्रपन्चे चेष्टो लिङ्गभेदः प्रायेणेति । लौकिक्यां यथा 'छायेव स तस्याः', 'पुरुष इव स्त्री'
इति।
पुलिङ्ग और नपुसक लिङ्ग उपमान और उपमेय का लिङ्गभेद बहुधा इष्ट होता [ दोष नहीं माना जाता है। जैसे 'चन्द्रमिव खं पश्यति'-चन्द्रमा के समान मुख को देखता है। यहां [ उपमानभूत 'चन्द्र' शब्द पुलिङ्ग है और उपमेयभूत मुख शब्द नपुसक लिङ्ग है। ऐसा लिङ्गभेद होने पर भी कवियो में इस प्रकार का बहुल प्रयोग होने के कारण उसको दोष नहीं माना जाता। उस प्रकार का प्रयोग कवियो को इष्ट है परन्तु उसी के आधार पर 'इन्दुरिव मुखम्' इस प्रकार के प्रयोग को प्रायः [ कवि गण] पसन्द नहीं करते है। [इसमें भी 'इन्दु' शब्द पुलिङ्ग और 'मुखम् शब्द नपुंसक लिङ्ग है। परन्तु इस प्रयोग को कविगण नहीं पसन्द करते है। इसलिये इसमें लिङ्गभेद दोष होगा। इसी के बोधन के लिए अपवाद सूत्र में 'प्रायेण पद का ग्रहण किया है] ॥१३॥
इसी प्रकार लिङ्गभेद दोप के और भी अपवाद अगले सूत्र मे दिखलाते है।
१. लौकिकी [ उपमा ] में, २. समासाभिहित [ उपमा ] में और ३ उपमा के [प्रतिवस्तूपमा प्रादि अन्य ] भेदो में [ भी लिङ्गभेद इष्ट है। दोष नहीं होता है ।
लौकिको उपमा में, समासाभिहित उपमा.में और उपमा के [प्रतिवस्तूपमा आदि ] भेदो में लिङ्गभेद प्रायः इष्ट होता है । [दोष नहीं होता। जैसे लौकिको [ उपमा ] में 'स तस्याः छाया इव' वह [पुरुष ] उस [स्त्री] की छाया के समान है। [ इसमें उपमेय 'स' पुल्लिङ्ग और उपमानभूत 'छाया' स्त्रीलिङ्ग है। परन्तु यह लिङ्गभेद दोष नहीं माना जाता। [अथवा इसी का दूसरा उदाहरण जैसे यह ] स्त्री पुरुष के समान है। [यहाँ उपमेय 'स्त्री' स्त्री
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२१२] काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती
[सूत्र १४ समासाभिहितायां यथा-'भुजलता नीलोत्पलसरशी' इति । उपमाप्रपन्चे यथा
शुद्धान्तदुर्लभमिदं वपुराश्रमवासिनो यदि जनस्य ।
दूरीकृताः खलु गुणैरुद्यानलता वनलतामिः ॥ एवमन्यदपि प्रयोगजातं द्रष्टव्यम् ॥ १४ ॥ लिङ्ग में और उपमान पुरुष पुलिङ्ग में है। परन्तु यहाँ भी लिङ्गभेद को दोष नही माना जाता है । इसका कारण यह है कि लोक में इस प्रकार के प्रयोग के प्रचुर मात्रा में पाए जाने से इस प्रकार के प्रयोग को इष्ट ही मानना पड़ता है।
समासाभिहित [ उपमा ] में [ लिङ्गभेद की अघोषता का उदाहरण ] जैसे--'भुजलता नीलोत्पलसदृशी' [इस उदाहरण में उपमेय 'भुजलता' स्त्रीलिङ्ग है और उपमानभूत 'नीलोत्पल' नपुसकलिङ्ग है । परन्तु 'नीलोत्पलसदृशी' इस समास में आ जाने से नीलोत्पल का नपुसकत्व दब जाता है इसलिए वह दोष बाधक नहीं रहता है ।
उपमा के [ प्रतिवस्तूपमा प्रादि भेदों में लिङ्गभेव को श्रदोषता का उदाहरण ] जैसे
महलो में भी दुर्लभ यह शरीर यदि प्राश्रमवासी [ इस शकुन्तला रूप] जन का हो सकता है [ यदि एक तपस्विनी वनवासिनी को भी रानियो से बढ़ कर इस प्रकार का अलौकिक देह-सौन्दर्य प्राप्त हो सकता है ] तो [निश्चय हो ] वन को [ जंगली ] लताओं से उद्यान की लताएँ तिरस्कृत हो गई।
कालिदास के शकुन्तला नाटक मे शकुन्तला को देखकर यह राजा दुष्यन्त की उक्ति है। इसमें 'प्रतिवस्तूपमा' अलङ्कार है । 'प्रतिवस्तूपमा' का लक्षण विश्वनाथ ने इस प्रकार किया है :
'प्रतिवस्तूपमा सा स्याद् वाक्ययोर्गम्यसाम्ययो.।
एकोऽपि धर्म. सामान्यो यत्र निर्दिश्यते पृथक् ।। इस प्रकार [प्रतिवस्तूपमा के उदाहरणभूत ] अन्य प्रयोग भी समझ लेने चाहिएं ॥१४॥
इस प्रकार लिङ्गभेद और उसके अपवाद स्थलो को दिखलाने के बाद ग्रन्थकार चतुर्थ उपमादोष 'वचनभेद' की व्याख्या अगले सूत्र में करते है ।
'साहित्यदर्पण १०,५०।
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सूत्र १५-१६ } चतुर्थाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः [२१३
तेन वचनभेदो व्याख्यातः । ४, २, १५ । तेन लिङ्गभेदेन वचनभेदो व्याख्यातः । यथापास्यामि लोचने तस्याः पुष्पं मधुलिहो यथा ॥ १५ ॥ अप्रतीतगुणसादृश्यमसादृश्यम् । ४, २, १६ । अप्रतीतैरेव गुणैर्यत सादृश्यं तदप्रतीतगुणसादृश्यम् । यथा
प्रथनामि काव्यशशिनं विततार्थरश्मिम् । काव्यस्य शशिना सह यत् सादृश्यं तदप्रतीतैरेव गुणैरिति ।
उस [ लिङ्गभेद रूप दोष के निरूपण ] से वचनभेद [ रूप उपमादोष ] को व्याख्या [ भी ] हो गई।
उस लिङ्गभेद से वचनभेद को व्याख्या [ भी ] हो गई [अथात् उपमान और उपमेय में यदि वचन का भेद हो तो वहां वचनभेद नामक उपमादोष होता है ] । जैसे
भौंरो के समान उस [ नायिका ] के नेत्रो का [पान ] चुम्बन करूगा।
यहाँ 'पास्यामि' पद से उपमेय में एकवचन सूचित होता है परन्तु उपमानभूत 'मधुलिह.' पद बहुवचनान्त है। इसलिए उपमेय में एकवचन तथा उपमान मे बहुवचन होने से यहा वचनभेद नामक उपमा-दोष होता है ॥ १५॥
अगले सूत्र में 'प्रसादृश्य' रूप पञ्चम उपमादोष का निरूपण करते है
[लोक में] प्रतीत न होने वाले गुणो से सादृश्य [ दिखलाना] असादृश्य [ रूप उपमा-दोष ] है।
प्रतीत न होने वाले गुणो से ही जोसादृश्य दिखलाया जावे वह अप्रतीतगुणसादृश्य [ पद का अर्थ हुआ और ] असादृश्य [नामक उपमादोष कहलाता] है। जैसे
फैली हुई अर्थ रूप रश्मियो से युक्त काव्य [ रूप ] चन्द्रमा को ग्रथित करता [ बनाता–निर्माण करता है।
[इस उदाहरण में ] काव्य का चन्द्रमा के साथ जो सादृश्य [ दिखलाया गया है वह अनुभव में न पाने वाले [अप्रतीतैरेव ] गुणो से हो [ दिखलाया गया ] है इसलिए [ यहां प्रसादृश्य रूप उपमा-दोष है ]
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२१४]
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती [ सूत्र १७ ननु चार्थानां रश्मितुल्यत्वे सति काव्यस्य शशितुल्यत्वं भविष्यति ।
नैवम् । काव्यस्य शशितुल्यत्वे सिद्धेऽर्थानां रश्मितुल्यत्वं सिद्धयति । न ह्यानां रश्मीनां च कश्चित् सादृश्यहेतुः प्रतीतो गुणोऽस्ति । तदेवमितरेतराश्रयदोषो दुरुत्तर इति ।। १६ ।। असादृश्यहता ह्य पमा तन्निष्ठाश्च कवयः । ४, २, १७ ।
असादृश्येन हता असाहश्यहता उपमा। तन्निष्ठा, उपमानिष्ठाश्च कवयः इति ॥ १७॥
[प्रश्न ] अर्थ में रश्मितुल्यता मान लेने पर [उस प्रतीत सादृश्य के प्राधार पर ] काव्य में शशितुल्यता हो जावेगी [अतः दोष नहीं रहेगा।
[उत्तर] आपका यह कहना ठीक नहीं है [ क्योंकि अर्थ में रश्मितुल्यता-रश्मि-सादृश्य भी तो अप्रतीत है। उस अर्थ के रश्मि के साथ सादृश्य का उपादान करने के लिए आप यह कहोगे कि ] काव्य की शशितुल्यता सिद्ध हो जाने पर अर्थों की रश्मितुल्यता सिद्ध हो जावेगी [ इस प्रकार तो अन्योन्याश्रय दोष होगा। काव्य में शशितुल्यता होने पर अर्थों की रश्मितुल्यता होगी
और अर्थो की रश्मितुल्यता सिद्ध होने पर काव्य की शशितुल्यता होगी। यह अन्योन्याश्रय दोष हो जावेगा। क्योकि अर्थो और रश्मियो के सादृश्य का कोई हेतु रूप गुण प्रतीत नहीं होता है । इसलिए [ जिस शैली से प्राप काव्य का शशि के साथ सादृश्य का उपपादन करना चाहते है उसमें ] अन्योन्याश्रय दोष का समाधान नही हो सकता है। [अतएव इस उदाहरण में प्रसादृश्य रूप उपमा दोष है।] ॥१६॥
___ उपमा अलङ्कार का जीवन ही सादृश्य पर अवलम्बित है । सादृश्य ही उपमा का सार है। इसलिए यदि उपमा में भी सादृश्य का यथोचित निर्वाह न किया जाय तो सादृव्यविहीन उपमा ही कहा रहती है। इस प्रकार असादृश्यमलक उपमा भी नही बनती और उसका अवलम्बन करने वाले कवि का भी गौरव नष्ट होता है । इस वात को ग्रन्थकार अगले सूत्र में दिखलाते है ---
सादृश्य के प्रभाव में उपमा नष्ट हो जाती है और उस [ सादृश्यविहीन उपमा ] में लगे हुए [ उस प्रकार को सादृश्यविहीन उपमा का प्रयोग
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चतुर्थाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः
[ २१५
उपमानाधिक्यात् तदपोह इत्येके । ४, २, १८ । उपमानाधिक्यात् तस्याऽसादृश्यस्याऽपोह इत्येके मन्यन्ते । यथाकर्पूरहारहरहाससितं यशस्ते ।
सूत्र १८ ]
करने वाले ] कवि भी मारे जाते है [ यश और प्रतिष्ठा से वञ्चित रहते हैं ] ॥ १७ ॥
इस प्रकार के असादृश्य दोष के निवारण के लिए कुछ लोग यह कहते है कि जहा एक उपमान से सादृश्य प्रतीत नही होता है वहा यदि अनेक उपमान रख दिए जावें तो वह प्रतीत न होने वाला सादृश्य स्फुट रूप से प्रतीत होने लगता है और वह असादृश्य दोष नही रहता । जैसे—यश की उपमा कोई कर्पूर से दे तो शायद काव्य और शशि के सादृश्य के समान कर्पूर और यश का सादृश्य भी प्रतीत न हो। परन्तु उसी सादृश्य के स्पष्टीकररण के लिए यदि केवल कर्पूर के बजाय उसी प्रकार के अनेक उपमान एक साथ जोड कर 'कर्पू' रहारहर हाससित यशस्ते' कहा जाय तो अनेक उपमानो से उनका शुक्लता रूप सादृग्य स्पष्ट हो जायगा ।
परन्तु सिद्धान्त पक्ष मे प्राचार्य वामन इस बात से सहमत नही है । उनके मत में जहा एक उपमान से सादृश्य स्पष्ट नही होता है तो उस प्रकार के अनेक उपमानो से भी उसकी पुष्टि नही हो सकती है । 'कर्पू रहा रहरहाससित यशस्ते' । इस उदाहरण मे 'यश' का 'कपूर' आदि के साथ सादृश्य तो 'सित' पद से स्वय उपात्त है । वह अनेक उपमानो के कारण प्रतीत नही होता है अपितु शब्दत. प्रतिपादित होने से ही प्रतीत होता है । इसलिए उपमानो के प्राधिक्य से असादृश्य दोष का प्रपोह या परिमार्जन हो जाता है यह कहना ठीक नही है ।
इसी विषय का प्रतिपादन करने के लिए ग्रन्थकार ने अगले दो सूत्र लिखे है । पहिले सूत्र मे पूर्वपक्ष दिखाया है और दूसरे सूत्र मे उसका उत्तर दिया है ।
उपमानो [ की संख्या ] के प्राधिक्य से उस [ अप्रतीत-सादृश्यमूलक प्रसादृश्य रूप उपमादोष ] का परिमार्जन [ पोह-दूरीकरण ] हो जाता है यह कुछ लोग कहते है ।
उपमान के [संख्याकृत] प्राधिक्य से उस प्रसादृश्य [ रूप उपमादोष ] का [ पोह ] परिमार्जन [ दूरीकरण ] हो जाता है ऐसा कुछ विद्वान् मानते
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फाव्यालङ्कारसूत्रवृत्तौ
[ सूत्र १६
कर्पूरादिभिरुपमानैर्बहुभिः सादृश्यं यशसः सुस्थापितं भवति ।
२१६ ]
तेषां शुक्लगुणातिरेकात् ॥ १८ ॥
नापुष्टार्थत्वात् । ४, २, १६ ।
उपमानाधिक्यात् तदपोह इति यदुक्तं तन्न । अष्टार्थत्वात् । एकस्मिन्नुपमाने प्रयुक्ते उपमानान्तरप्रयोगो न कश्चिदर्थविशेषं पुष्णाति । तेन 'बल सिन्धुः सिन्धुरिव तुभितः ' इति प्रत्युक्तम् ।
है । जैसा - तुम्हारा यश कर्पूर, [ मुक्ता ] हार, और शिवहास के समान शुभ्र है ।
[ इस उदाहरण मे ] कर्पूर आदि अनेक उपमानो से यश का [ उनके साथ शुक्लातिशय रूप ] सादृश्य भली प्रकार स्थापित होता है । उन [ कर्पूर, मुक्ताहार और हरहास- शिवहास्य ] में शुक्ल गुण का बाहुल्य होने से [ यश में भी उसी प्रकार का शुक्लातिशय है यह बात प्रतीत होती है । इस प्रकार उपमान के आधिक्य से प्रसादृश्य का प्रपोह हो जाता है यह पूर्वपक्ष का अभिप्राय हुआ ] ॥ १८ ॥
इस पूर्वपक्ष का उत्तर प्रगले सूत्र में करते है ।
[ आपका कहना ] ठीक नही है । [ उपमानो की संख्या में आधिक्य कर देने पर भी ] अर्थ की पुष्टि [ सम्भव ] न होने से ।
।
उपमान [ की संख्या में ] का प्राधिक्य होने से उस [ प्रतीत गुणमूलक असादृश्य रूप उपमा- दोष ] का परिमार्जन [ अपोह, दूरीकरण ] हो जाता है यह जो [ पूर्वपक्षी ने ] कहा है, वह ठीक नहीं है [ उपमानों की संख्यावृद्धि से ] श्रर्थ की पुष्टि न होने से। एक उपमान के प्रयुक्त होने पर [ यदि सादृश्य स्पष्ट रूप से प्रतीत नही होता है तो उसी प्रकार के ] धन्य उपमानों का प्रयोग भी किसी प्रर्थविशेष का पोषक नही होता । [ उन उपमानों की उस संख्यावृद्धि से भी कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता है ] इसलिए'सैन्यसागर, सागर के समान क्षुब्ध हो गया ।'
यह [ उदाहरण भी ] खण्डित हो गया ।
इसका अभिप्राय यह है कि इस उदाहरण मे बल अर्थात् सैन्य की उपमा सिन्धु अर्थात् सागर से दी गई है । अर्थात् 'बल' उपमेय है और 'सिन्धु' उपमान है । परन्तु सिन्धु रूप उपमान का दो बार प्रयोग किया गया है। इसलिए इसमें
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सूत्र १९ ]
चतुर्थाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः
ननु सिन्धुशब्दस्य द्विः प्रयोगात् पौनरुक्त्यम् ।
न । अर्थविशेषात् । बलं सिन्धुरिव वैपुल्याद् बलसिन्धुः । सिन्धुरिव चुमितः इति क्षोभसारूप्यात् । तस्मादर्थभेदान्न पौनरुक्त्यम् । अर्थपुष्टिस्तु नास्ति । सिन्धुरिव तुभित इत्यनेनैव वैपुल्यं प्रतिपत्स्यते । उक्तं हि "धर्मयोरेकनिर्देशेऽन्यस्य संवित् साहचर्यात' ॥ १६ ॥
[ २१७
उपमान का सख्यागत प्राधिक्य हुम्रा इसलिए यहां असादृश्य रूप उपमा- दोष नही होता है । अर्थात् यहाँ प्रसादृश्य के प्रपोह या निवारण के लिए ही सिन्धु रूप उपमान का दो बार प्रयोग किया गया है । यह पूर्व पक्ष का आशय हुआ । उत्तर पक्ष का कहना यह है कि यहाँ सिन्धु शब्द के दुवारा प्रयोग से अर्थ की कोई पुष्टि नही होती है इसलिए सिन्धु शब्द का दुवारा प्रयोग व्यर्थ और दोषग्रस्त ही है ।
इस पर शङ्का यह होती है कि अच्छा यदि सिन्धु शब्द के प्रयोग में दोष है तो वह पुनरुक्ति दोष हो सकता है । असोदृश्य दोष नही हो सकता है । इसका भी सिद्धान्त पक्ष की ओर से खण्डन किया जा रहा है। उसका अभिप्राय यह है कि यहाँ सिन्धु गब्द का दो वार प्रयोग होने पर भी पुनरुक्ति दोष नही होता है क्योकि उन दोनो के अर्थ में भेद है । पहिली बार के प्रयोग से 'बल सिन्धुरिव वलसिन्धु:' इस से वल की विपुलता सूचित होती है । और 'सिन्धुरिव क्षुभित.' इस प्रश से क्षोभ बाहुल्य सूचित होता है इसलिए अर्थभेद होने से पुनरक्ति दोप तो नही है । किन्तु प्रपुष्टार्थता दोष अथवा तन्मूलक प्रसादृश्य दोष ही कहा जा सकता है ।
[प्रश्न ] 'सिन्धु' शब्द का [ 'बलसिन्धुः सिन्धुरिव क्षुभित:' इस उदाहरा में ] दो बार प्रयोग होने से [ इस श्लोक के अंश में ] पुनरुक्ति दोष हो सकता है।
[ उत्तर ] नहीं [ यहाँ पुनरुक्ति दोष ] अर्थभेद के कारण नही हो सकता है । 'बलं सिन्धुरिव' [ इस विग्रह में ] विपुलता [ के सूचित ] होने से 'वलसिन्धु' [ बल अर्थात् सैन्य को विशालता को बोधित करता है ] और 'सिन्धुरिव क्षुभित:' में [ यह दूसरी बार सिन्धु शब्द का प्रयोग ] क्षोभरूपता [ का सूचक होने ] से । [ उन दोनो में अर्थभेद है ] सलिए श्रर्थभेद होने से [ सिन्धु रूप उपमान का दो बार प्रयोग होने पर भी ] पुनरुक्ति नहीं है। किन्तु [ उस
'काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ति ४, २, १० ।
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२१८ ]
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तौ
अनुपपत्तिरसम्भवः ४ २, २० ।
अनुपपत्तिरनुपन्नत्वमुपमानस्यासम्भवः । यथा— चकास्ति वदनस्यान्तः स्मितच्छायाविकासिनः । उन्निद्रस्यारविन्दस्य मध्ये मुग्धेव चन्द्रिका ||
[ सूत्र २०
चन्द्रिकायामुन्निद्रत्वमरविन्दस्येत्यनुपपत्तिः । नन्वर्थविरोधोऽयमस्तु किमुपमादोषकल्पनया । न । उपमायामतिशयस्येष्टत्वात् ॥ २० ॥
दो बार के प्रयोग से ] अर्थ की पुष्टि नही होती है । [ इन दोनो में से पहली बार का सिन्धु शब्द का प्रयोग व्यर्थ है क्योंकि ] 'सिन्धुरिव क्षुभित:' इससे ही [ सैन्य की ] विपुलता [ और क्षोभ दोनो ] की प्रतीति [ प्रतिपत्ति ] हो जावेगी । जैसा कि 'धर्मयोरेकनिर्देशेऽन्यस्य संवित् साहचर्यात्' [४, २, १० सूत्र में अभी ] कह चुके है । [ समुद्र का वैपुल्य और क्षोभ दोनो सहचरित धर्म है । उनमें से 'सिन्धुरिव क्षुभितः' कह कर जब क्षोभ का प्रतिपादन करते है तो उसके साथ वैपुल्य भी स्वयं प्रतीत हो जाता है । अतएव वैपुल्य सूचन के लिए प्रथम / सिन्धु शब्द का प्रयोग व्यर्थ है औौर श्रपुष्टार्थ दोषग्रस्त है ] ॥ १६ ॥
अगले दो सूत्रो में छठे उपमा - दोष 'असम्भव' का निरूपण करते है । [ उपमान की ] अनुपपत्ति [ ही ] 'असम्भव' [ नामक उपमा- दोष ] है । अनुपपत्ति [ प्रर्थात् ] उपमान का अनुपपन्नत्व 'असम्भव' [ नामक छठा उपमा- दोष ] है । जैसे—
खिले हुए कमल के भीतर सुन्दर चॉदनी के समान [ नायिका के खिले हुए मुख के भीतर मुस्कराहट को छाया चमक रही है ।
[ इस उदाहरण में खिले हुए कमल के भीतर चांदनी का वर्णन है । परन्तु चांदनी में तो कमल खिलता ही नहीं । कमल तो दिन में खिलता है रात्रि में नही। ऐसे में चॉदनी का सम्बन्ध बताना अनुपपन्न है । क्योंकि ] चाँदनी [ खिलने के समय श्रर्थात् रात्रि ] में कमल का खिलना अनुपपन्न है [ इसलिए इस उपमा में असम्भवत्व दोष है ] ।
[प्रश्न ] यहाँ अर्थ-विरोध [ नामक सामान्य दोष ] मान लो, [ असम्भव नामक ] उपमा- दोष की कल्पना से क्या लाभ ?
[ उत्तर ] यह कहना ठीक नहीं है । क्योकि [ इस प्रयोग से कवि को अपनी ] उपमा में विशेषता [ प्रतिपादन करना ] इष्ट है । [ इसलिए इसको सामान्य दोष न मान कर उपमा-दोष ही कहना चाहिए ] ॥ २० ॥
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सूत्र २१ ] चतुर्थाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः [२१६ कथं तर्हि दोष इत्यत आह
न विरुद्धोऽतिशय. । ४, २, २१ । विरुद्धस्थातिशयस्य संग्रहो न कर्तव्य इति, अस्य सूत्रस्य तात्पर्यार्थः । तानेतान् षडुपमा-दोषान् ज्ञात्वा कविः परित्यजेत् ॥ २१ ॥
इति पण्डितवरवामनविरचितकाव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती 'पालद्वारिके' चतुर्थेऽधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः ।
उपमाविचारः।
[प्रश्न] यदि 'उन्निद्रस्यारविन्दस्य मध्ये मुग्धेव चन्द्रिका' कह कर कवि अपनी उपमा में कुछ वैशिष्टय प्रतिपादन कर रहा है ] तो फिर [ यह ] दोष कैसे होगा। [तब तो वह दोष नहीं गुण होगा । आप उसको दोष कसे कहते है ?]
[उत्तर ] विरुद्ध अतिशय [ का प्रदर्शन ] नहीं [फरना ] चाहिए ।
[अनुभव अथवा प्रकृति के ] विरुद्ध प्रतिशय का वर्णन नहीं करना चाहिए। यहां कवि ने उपमा में अतिशय लाने के लिए प्रकृतिविरुद्ध वात का संग्रह अपनी उपमा में कर दिया है इसलिए यह दोष हो गया है और वह उपमा दोष ही है ] यह इस सूत्र का तात्पर्य है ॥
इन छ: प्रकार के उपमा-दोषो को जान कर कवि उनका परित्याग [करने का प्रयत्न करे ॥२१॥
___ इति श्री पण्डितवरवामनविरचित काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ति में चतुर्थ 'पालङ्कारिक' अधिकरण में द्वितीय अध्याय समाप्त हुआ।
उपमा-विचार समाप्त हुआ।
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श्रीमदाचार्यविश्वेश्वरसिद्धान्तशिरोमणिविरचितायां
'काव्यालङ्कारदीपिकाया' हिन्दीव्याख्याया चतुर्थे 'पालङ्कारिकाधिकरणे' द्वितीयोऽध्याय समाप्त. ।
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'आलङ्कारिक' नानि चतुर्थेऽधिकरणे
तृतीयोऽध्यायः । उपमाप्रपञ्चविचारः] चतुर्थाधिकरण में तृतीयाध्याय
[उपमा-प्रपञ्च का विचार ] चतुर्थ अधिकरण के प्रथम अध्याय में अनुप्रास तथा यमक रूप दो शब्दालङ्कारो का और द्वितीयाध्याय मे उपमालङ्कार का विचार करने के बाद अब इस तीसरे अध्याय में वामन अपने अभिमत अलङ्कारो का निरूपण प्रारम्भ करने जा रहे है । इन सब अलङ्कारो को वह उपमा का ही प्रपञ्चमात्र मानते है । इसलिए इस अध्याय मे उन्होने उपमा के प्रपञ्चभत इन अलङ्कारो के निरूपण की प्रतिज्ञा की है। वामन के अभिमत इन अलङ्कारो की संख्या ३० है । उनका सग्रह काव्यालङ्कार-सूत्रवृत्ति के टीकाकार गोपेन्द्र त्रिपुरहरभूपाल ने इस प्रकार किया है
प्रतिवस्तुप्रभृतय उद्दिश्यन्ते यथाक्रमम् । प्रतिवस्तु समासोक्तिरथाप्रस्तुतशसनम् ॥ अपह्न ती रूपकञ्च श्लेषो वक्रोक्त्यलंकृति.। उत्प्रेक्षाऽतिशयोक्तिश्च सन्देह सविरोधक' ॥ विभावनाऽनन्वयः स्यादुपमेयोपमा तत· । परिवृत्ति. क्रम. पश्चाद् दीपक च निदर्शना ।। अर्थान्तरस्य न्यसन व्यत्तिरेकस्तत परम् । २ विशेपोक्तिरथ व्याजस्तुतियाजोक्त्यलकृतिः ॥ स्यात्तुल्ययोगिताक्षेप सहोक्तिश्च समासत । अथ ससृष्टिभेदी द्वौ उपमारूपक तथा ॥ उत्प्रेक्षावयवश्चेति विज्ञेयोऽलकृतिक्रम । १
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इस प्रकार वामन ने ३० प्रकार के अलङ्कारो का निरूपण किया है। अनुप्रास तथा यमक दो प्रकार के शब्दालङ्कार इन से भिन्न है । उनको भी जोड देने पर वामनाभिमत काव्यालङ्कारो की कुल संख्या ३२ होगी।
अलङ्कारो की संख्या के विषय में प्राचीन समय से पालद्वारिक प्राचार्यों
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सूत्र १]
चतुर्थाधिकरणे तृतीयोऽध्याय.
[२२१
में बहुत मतभेद रहा है । भरत ने अपने नाट्यशास्त्र में उपमा, रूपक, दीपक
और यमक केवल इन चार ही अलङ्कारो का वर्णन किया है । वामन ने ३० अर्थालङ्कार और २ शब्दालङ्कार मिला कर कुल ३२ अलङ्कारो का निरूपण किया है । दण्डी ने ३५ ही अलङ्कारो का निरूपण किया है । परन्तु इनके पूर्ववर्ती भामह ने ३६ प्रकार के और उद्भट ने ४० प्रकार के अलङ्कारो का वर्णन किया है । इनके उत्तरवर्ती रुद्रट ने ५२ प्रकार के, उसके आगे काव्यप्रकाशकार मम्मटाचार्य ने ६७, उनके बाद जयदेव ने अपने 'चन्द्रालोक' मे १०० और उनके भी व्याख्याकार प्रप्यय दीक्षित ने अपने 'कुवलयानन्द' नामक ग्रन्थ में १२४ अलड्रारो का निरूपण किया है। इस प्रकार, भरतमुनि के प्रारम्भिक चार अलबारो से बढकर अप्यय दीक्षित के समय में अलङ्कारो की संख्या १२४ तक पहुंच गई है । हमने अपने 'साहित्य-मीमांसा' नामक ग्रन्थ मे अलङ्कारो की इस सख्यावृद्धि का निरूपण इस प्रकार से किया है
'दृष्टा वेदेऽप्यलङ्कारास्तूपमारुपकादय. । भूतोपमादिभेदेन यास्केनापि निरूपिता ॥१॥ शिलालेनटसूत्राणामुल्लेखः पाणिनिकृत । सूचयत्यस्य शास्त्रस्य प्रलता पारिपनेरपि ॥२॥ तथापि प्रल भरतात् साहित्य नोपलभ्यते । तस्मात् तदादि विज्ञ या घारासाहित्यिकी त्वियम् ॥ ३॥ यथोत्तर च धाराणा ग्रन्थाना च प्रवेशत.। सरितामिव वेगेन वद्धतेऽस्या. कलेवरम् ॥ ४॥ उपमा रूपकञ्चव दीपक यमक तथा । चत्वार एवालद्वारा भरतेन निरूपिताः ॥ ५॥ वामनेन च द्वात्रिंशद् भेदास्तस्य निरूपिता.। पञ्चविंशद्विपश्चाय दण्डिना प्रतिपादित ॥ ॥ नवत्रिंशद्विष पूर्व भामहेन प्रदर्शित. । चत्वारिंशद्विधरचव उद्भटेन प्रकीर्तित. ॥ ७ ॥ द्विपचाशद्विघ प्रोक्तो रुद्रटेन तत. परम् । सप्तषष्टिविघ. प्रोक्त प्रकाशे मम्मटेन च ॥८॥
"साहित्य-मीमांसा।
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२२२]
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तौ
सम्प्रत्युपमाप्रपञ्चो विचार्यते । कः पुनरसावित्याहप्रतिवस्तुप्रभृतिरुपमाप्रपञ्चः । ४, ३, १ ।
[ सूत्र १
प्रतिवस्तु प्रभृतिर्यस्य स प्रतिवस्तुप्रभृतिः । उपमायाः प्रपञ्च उपमाप्रपन्न इति ॥ १ ॥
शतधा जयदेवेन विभक्तो, दीक्षितेन च ।
कृता भेदा' पुनस्तस्य सशत चतुर्विंशतिः ॥ ६ ॥
/
इस प्रकार साहित्यशास्त्र के श्राकर ग्रन्थो में भी अलङ्कारो को सख्या के विषय मे बहुत भेद पाया जाता है । इन श्राचार्यों में से प्रकृत ग्रन्थकार श्री वामन ने दो शब्दालङ्कारो के अतिरिक्त ३० अर्थालङ्कारो को माना है । इस अध्याय में उन्ही ३० अर्थालङ्कारों का वर्णन है ।
अब उपमा के प्रपञ्च [ भूत ३० प्रकार के प्रर्थालङ्कारों ] का विचार किया जाता है । वह [ उपमा प्रपञ्च ] कौन सा [ कौन कौन से अलङ्कार इस उपमा प्रपञ्च में सम्मिलित होते ] है यह [ प्रथम सूत्र में ] कहते है ।
प्रतिवस्तु [ प्रतिवस्तूपमा ] इत्यादि [ आगे कहे जाने वाले ३० अलङ्कार ] उपमा का प्रपञ्च [ कहे जाते ] है ।
प्रतिवस्तु [ प्रतिवस्तूपमा ] जिस के श्रादि में है वह [ तद्गुण संविज्ञान बहुव्रीहि समास मान कर प्रतिवस्तूपमा सहित ३० श्रर्थालङ्कार ] 'प्रतिवस्तुप्रभृति' हुए। उपमा का प्रपञ्च [ विस्तार ] उपमा प्रपञ्च [ यह षष्ठी तत्पुरुष समास से ] है । [ प्रतिवस्तु प्रभृति वह ३० प्रर्थालङ्कार हम अभी ऊपर दिखला चुके है ] ॥१॥
अगले सूत्र से इस उपमा-प्रपञ्च का निरूपण प्रारम्भ करते हुए सबसे पहिले 'प्रतिवस्तूपमा' का लक्षरण करते है । 'प्रतिवस्तूपमा' उपमा का ही प्रपञ्च है इसलिए उपमा के अन्य भेदो से उसका जो विशेष भेद है उसको दिखलाते हुए उसका लक्षण करेगे । अभी पिछले अध्याय मे पदार्थ और वाक्यार्थवृत्ति उपमो के दो भेद किए थे । उनमें से 'प्रतिवस्तूपमा' और 'वाक्यार्थ उपमा' मे बहुत कुछ सादृश्य होने से उन दोनो के विशेष भेद को प्रदर्शित करने की भावश्यकता समझ कर ग्रन्थकार 'वाक्यार्थ उपमा' से 'प्रतिवस्तूपमा' का भेद दिखाते हुए उसका लक्षरण करते है
--
1
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२३६] काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तों
[ सूत्र 'उन्मिमील कमल सरसीनां कैरवन्च निमिमील मुहूर्तात् ।। अत्र नेत्रधर्मावुन्मीलननिमीलने सादृश्याद् विकाससङ्कोचौ लक्षयतः । 'इह च निरन्तरनवमुकुलपुलकिता हरति माधवी हृदयम् । मदयति च केसराणां परिणतमधुगन्धि निःश्वसितम् ।' अत्र निश्वसितमिति परिमलनिर्गमं लक्षयति । 'संस्थानेन स्फुरतु सुभगः स्वार्चिषा चुम्बतु द्याम् ।' 'आलस्यमालिङ्गति गात्रमस्याः।
इत्यादि वचनो के अनुसार ] लक्षणा के अनेक कारण होते है । उन [अनेक कारणो ] में सादृश्य [ नामक कारण ] से [ की गई ] लक्षणा [ हो] 'वक्रोक्ति' [ नामक अलङ्कार ] है । जैसे
[प्रातःकाल के समय सूर्योदय होते ही ] तनिक देर में तालाबों के कमल खिल गए और क्षण भर में करव बन्द हो गए।
यहां नेत्र के धर्म उन्मीलन तथा निमीलन सादृश्य से [कमलों के ] क्किास तथा सङ्कोचन को लक्षणा से बोधित करते है। [प्रतएव सादृश्यमूलक लक्षणा होने से 'वक्रोक्ति' अलङ्कार है । इसी का दूसरा उदाहरण देते है ]
__ यहां [ उद्यान में ] ऊपर से नीचे तक [ निरन्तर ] नवीन कलियो से [ लदी हुई ] पुलकित माधवी [ लता दर्शको के ] हृदय को हरण कर रही है
और केसर [ वृक्षविशेष ] का पके मधु को गन्ध से युक्त निश्वास मत्त सा कर देता है।
पहा [ इस उदाहरण में ] निःश्वसित [ मुख्य रूप से प्राणी का धर्म है परन्तु वह सादृश्यनिमित्तक लक्षणा से ] सुगन्ध के निकलने को लक्षित करता है। [ इसी प्रकार के और भी बहुत से उदाहरण हो सकते हैं जिनमें सादृश्य से लक्षणा का प्राश्रय लिया जाता है। उनमें से पाच उदाहरण आगे देते है ।
अपने संस्थान [प्राकार कलेवर ] से सुन्दर रूप से प्रकाशित हो और अपनी कान्ति से आकाश का चुम्बन करे। [ इसमें 'चुम्बन' पद सादृश्य लक्षणा से स्पर्श को लक्षित करता है ।
पालस्य उसके शरीर का मालिङ्गन कर रहा है। [ इसमें पालस्य का शरीर को पालिङ्गन करना लक्षणा से शरीर में पालस्य की व्याप्ति को सूचित करता है ।
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सूत्र८] चतुर्थाधिकरणे तृतीयोऽध्यायः
[२३७ 'परिम्लानच्छायामनुवदति दृष्टिः कमलिनीम् ।'
'प्रत्यूषेषु स्फुटितकमलामोदमैत्रीकषायः।' ___'ऊरद्वन्द्वं तरुणकदलीकाण्डसब्रह्मचारि ।'
इत्येवमादिषु लक्षणार्थो निरूप्यत इति । लक्षणायाञ्च झटित्यर्थप्रतिपत्तिक्षमत्वं रहस्यमाचक्षत इति । असादृश्यनिबन्धना तु लक्षण न वक्रोक्तिः । यथा
'जरठकमलकन्दच्छेदगौरैमयूखैः । अत्र 'छेदः' सामीप्याद् द्रव्यं लक्षयति । तस्यैव गौरत्वोपपत्तेः ॥८॥
[दुःखित नायिका की दृष्टि मुरझाई हुई कमलिनी के समान है। [यहां 'अनुवदति' पद सादृश्य लक्षणा से कमलिनी के साथ समानता का सूचक है ।
प्रात.काल के समय में खिले हुए कमलो के सुगन्ध के साथ मैत्री के कारण कषाय [ वायु चल रहा है । इसमें मंत्री पद सादृश्य लक्षणा से संसर्ग को लक्षित करता है।
[ नायिका की ] दोनों जघाएं तरुण कदली काण्ड की सहाध्यायिनी है। [यहां 'सब्रह्मचारि' पद लक्षणा से सादृश्य को लक्षित करता है] ।
__ इत्यादि [ उदाहरणो] में [धर्म को प्रतीति के लिए | लक्षणा से अर्थ का कथन किया जाता है । लक्षणा के होने पर तुरन्त अर्थ को प्रतीति की क्षमता प्रा जाती है यही लक्षएा का रहस्य [ लक्षणा अथवा वक्रोक्ति अलड्डार मानने वाले ] कहते है।
असादृश्य [ सादृश्य से भिन्न ] निमित्तक लक्षणा 'वक्रोक्ति' नहीं कहलाती। जैसे
पुराने पके हुए ] कमल की जड़ [ भसीण्डे, मृणालदण्ड ] के टुकड़े के समान [गौर ] सफेद किरणो से ।
यहां 'छेद' [पद ] सामीप्य [अर्थात् धर्ममिभाव सम्बन्ध ] से [खण्डरूप ] द्रव्य को लक्षित करता है । उस [ खण्ड रूप द्रव्य ] में ही गौरत्व सम्भव होने से [ इसका अभिप्राय यह है कि 'छेद' शब्द मुत्य रूप से छेदनक्रिया का बोधक है। परन्तु यहां वह छेदन-क्रिया का प्राधारभूत या कर्मभूत
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सूत्र १६ ]
चतुर्थाधिकरणे तृतीयोऽध्यायः
[२५१
यथा वा
-
" विहाय साहार महार्यनिश्चया विलोलदृष्टिः प्रविलुप्तचन्दना । बबन्ध बालारुणबभ्रु वल्कलं पयोधरोत्सेधविशीर्ण संहति ॥ १६ ॥
श्रथवा जैसे
उस दृढ़ निश्चय वाली और चन्दन | आदि श्रृङ्गार या लेपन द्रव्य ] से रहित चपलनयनी [ पार्वती ] ने [ शिव प्राप्ति की तपस्या के लिए ] भोजन छोड कर [ निराहार व्रत करके ] प्रात कालीन सूर्य के समान अरुण वर्ण और स्तनों की उठान के कारण [ वक्षः स्थल पर ] जिसकी सन्धि खुली जा रही है इस प्रकार के वल्कल [ वस्त्र ] को धारण किया ।
इन दोनो उदाहरणो में से पहले उदाहरण में सम से विनिमय और दूसरे में विसदृश से विनिमय दिखलाया गया है। पहले श्लोक में चरण, किसलय के समान है इसलिए उन दोनो का साम्य होने से समविनिमय का उदाहरण है । नायिका ने कर्ण किसलय लेकर उसको चरण अर्पण किया किस प्रकार किया इसके उपपादन के लिए कामशास्त्र के ' प्रसारितक' नामक करण विशेष का निर्देश टीकाकार ने किया है । वात्स्यायन 'कामसूत्र' मेंनायकस्यासे एको द्वितीय प्रसारित इति प्रसारितकम् ।
यह 'प्रसारितक' का लक्षण किया है । 'रति रहस्य' में इसकी व्याख्या इस प्रकार की है -
प्रियस्य वक्षोऽसतल शिरोधरां नयेत सव्य चरण नितम्बिनी । प्रसारयेद् वा परमायत पुनर्विपर्यय स्यादिति हि प्रसारितम् ॥ कामशास्त्र के इस ' प्रसारित' नामक करण के द्वारा चरण और करणं किसलय का विनिमय हो सकता है ।
दूसरे श्लोक में भोजन का परित्याग कर उनके बदले में वल्कल को धारण किया यह जो विनिमय दिखलाया गया है। उसमें वल्कल तथा भोजन मे कोई साम्य नही है | इसलिए वह विसदृश विनिमय का उदाहरण है । भामह ने इस परिवृत्ति श्रलङ्कार का लक्षण इस प्रकार किया है• विशिष्टस्य यदादानमन्यापोहेन वस्तुन । श्रर्थान्तरन्यासवती परिवृत्तिरसी यथा ॥
१ कुमारसम्भव ५, ८ में 'विहाय' के स्थान पर 'विमुच्य' पाठ है | ૧ भामह काव्यालङ्कार ३, ३६ ।
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२५२ ]
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती
उपमेयोपमायाः क्रमो भिन्न इति दर्शयितमाहउपमेयोपमानानां क्रमसम्बन्धः क्रमः । ४, ३, १७ ।
१
[ सूत्र १७
'प्रदाय वित्तमर्थिभ्य. स यशोधनमदित. ।
सता विश्वजनीनानामिदमस्खलित व्रतम् ॥ ४० ॥
1
श्रर्थात् भामह के अनुसार परिवृत्ति अलङ्कार के साथ 'अर्थान्तरन्यास' भी अवश्य रहना चाहिए । इसी बात को बोधन करने के लिए उन्होने परिवृत्ति के लक्षण में स्पष्ट रूप से 'अर्थान्तरन्यासवती परिवृत्ति' यह लिख दिया है । श्रीर उसका उदाहरण भी उसी प्रकार का दिया है । परन्तु वामन तथा उत्तरवर्ती प्राचार्यो ने परिवृत्ति के साथ 'प्रर्थान्तरन्यास' का होना श्रावश्यक नही माना है। साहित्यदर्पणकार ने परिवृत्ति का लक्षण इस प्रकार किया है
--
परिवृत्तिविनिमय समन्यूनाधिकैर्भवेत् ।
अर्थात् परिवृत्ति या विनिमय सम, न्यून और अधिक तीनो के साथ हो सकता है । वामन ने जिस 'विसदृग' इस एक भेद के अन्तर्गत न्यून और अधिक दोनो का सग्रह कर लिया था, साहित्यदर्पणकार ने न केवल उसको न्यून श्रौर अधिक करके दो भागो में विभक्त कर दिया है । अपितु उस 'विसदृश' की जिसमें न्यून और प्राधिक्य की नही अपितु केवल भेद की ही प्रधानता थी न्यूनाधिकपरक व्याख्या करके कुछ नूतनता भी प्रदर्शित की है। तीनो प्रकार की परिवृत्ति के उदाहरण इस प्रकार दिए है
दत्त्वा कटाक्षमेणाक्षी जग्राह हृदय मम । मया तु हृदय दत्त्वा गृहीतो मदनज्वर ॥
इसके प्रथम चरण में सम से श्रौर द्वितीय चरण में न्यून से विनिमय दिखलाया है ।
तस्य च प्रवयसो जटायुष स्वर्गिणः किमिव शोच्यतेऽधुना । येन जर्जरकलेवरव्ययात् क्रोतमिन्दुकिरणोज्ज्वलं यशः ॥ इसमें अधिक से विनिमय किया गया है ।
[ पूर्व कहे हुए ] उपमेयोपमा [ श्रलङ्कार ] से 'क्रम' [ यथासंख्य अलङ्कार ] भिन्न है इस बात को दिखलाने के लिए [ अगले सूत्र में 'क्रम' जिसे अन्य लोग 'यथासंख्य' नाम से कहते है, का लक्षण ] कहते है
उपभान और उपमेयों का क्रम से सम्बन्ध [ प्रदर्शित करना ] 'क्रम' [ नामक अलङ्कार होता ] है |
२
भामह काव्यालङ्कार ३, ४० | साहित्यदर्पण १०, ८१ ।
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२६६] काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती
[सूत्र २४ व्यतिरेकविशेषोक्तिभ्यां व्याजस्तुति भिन्नां दर्शयितुमाहसम्भाव्यविशिष्टकर्माकरणान्निन्दा स्तोत्रार्था व्याजस्तुतिः। ४, ३, २४ । ___ अत्यन्तगुणाधिको विशिष्टः । तस्य च कम विशिष्टकर्म । तस्य सम्भाव्यमानस्य कर्तुं शक्यस्याकरणान्निन्दा विशिष्टसाम्यसम्पादनेन स्तोत्रार्था व्याजस्तुतिः । यथा
बबन्ध सेतु गिरिचक्रवातबिभेद सप्तकशरेण तालान् । एवंविधं कर्म ततान रामस्त्वया कृतं तन्न मुधैव गर्वः ॥ २४॥
व्यतिरेक और विशेषोक्ति से व्याजस्तुति को अलग दिखलाने के लिए [अगले सूत्र में उसका लक्षण ] कहते है
कर सकने योग्य [ सम्भाव्य ] विशिष्ट [ पुरुष के ] कर्म के न करने से [ वस्तुतः ] स्तुति के लिए जो निन्दा करना है वह व्याजस्तुति [अलङ्कार कहलाता है।
गुणो में [ उपमेय की अपेक्षा] अत्यन्त ‘अधिक [पुरुष ] विशिष्ट [पुरुष ] कहलाता है। उसका कर्म विशिष्ट कर्म [ यह षष्ठी तत्पुरुष समास] हुआ । उस सम्भाव्य अर्थात् कर सकने योग्य [ कर्म ] के न करने से [जो] निन्दा [ उस ] विशिष्ट के साथ साम्य सम्पादन द्वारा [उपमेय को वास्तविक स्तुति के लिए [ की जाय ] वह व्याजस्तुति [अलंकार कहलाता है । जैसे
[रामचन्द्र ने] पर्वतो [ के पत्थरों के समूह से [ समुद्र का] पुल बांधा, एक बाण से सात ताल वृक्षो का भेदन किया। इस प्रकार के [पाश्चर्य जनक ] कर्म रामचन्द्र ने किए थे। तुमने उनमें से एक भी नहीं किया फिर व्यर्थ ही गर्व क्यों करते हो।
। यहा रामचन्द्र के किए हुए विशिष्ट कर्मों के न करने से राजा की ऊपरी तौर से निन्दा की गई है । परन्तु उससे राजा का राम के साथ सादृश्य अभीष्ट है इसलिए यहा निन्दा के स्तुतिपरक होने से 'व्याज स्तुति है। भामह ने इस 'व्याज स्तुति' अलङ्कार का निरूपण इस प्रकार किया है
'दूराधिकगुणस्तोत्रव्यपदेशेन तुल्यताम् । किञ्चिद् विधित्सोर्या निन्दा व्याजस्तुतिरसौ यथा ।
'भामह काव्यालंकार ३, ३१ ।
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चतुर्थाधिकरणे तृतीयोऽध्यायः
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सूत्र २५ ]
व्याजस्तुतेर्व्याजोक्ति भिन्नां दर्शयितुमाह
- व्याजस्य सत्यसारूप्यं व्याजोक्तिः । ४, ३, २५ । व्याजस्य छद्मना सत्येन सारूप्यं व्यानोक्तिः । यां मायोक्तिरित्याहुः । यथा
[ २६७
'राम. सप्ताभिनत् तालान् गिरिं क्रौञ्च भृगूत्तम । शताशेनापि भवता किं तयो सदृश कृतम् ॥
भामह तथा वामन दोनो ने केवल स्तुति के लिए की जाने वाली निन्दा को 'व्याजस्तुति' कहा है । परन्तु मम्मट विश्वनाथ आदि आचार्यो ने निन्दा के लिए की जाने वाली स्तुति को भी 'व्याजस्तुति' कहा है । साहित्यदर्पण मे 'व्याजस्तुति' का निरूपण इस प्रकार किया है-
उक्ता व्याजस्तुति पुन ।
निन्दास्तुतिम्या वाच्याभ्या गम्यत्वे स्तुतिनिन्दयो ॥
स्तुति से गम्यमान निन्दा का उदाहरण निम्न श्लोक दिया है
व्याजस्तुतिस्तव पयोद मयोदितेय यज्जीवनाय जगतस्तव जीवनानि । '
स्तोत्र तु ते महदिद घन धर्मराजसाहाय्यमर्जयसि यत् पथिकान्निहत्य |
यहा मेघ की वास्तविक स्तुति यह बतलाई गई है कि वह वियोगियो को मार कर धर्मराज-यम-का सहायक होता है । यह देखने में भले ही स्तुति हो परन्तु वह वस्तुत उसकी 'निन्दा' ही है । कही गई है ॥२४॥
इसलिए यह 'व्याजस्तुति'
व्याजस्तुति से व्याजोक्ति भिन्न [ अलङ्कार ] है [ उसको दिखलाने के लिए [ अगले सूत्र में व्याजोक्ति का लक्षण ] कहते है
व्याज [ बहाने से कही हुई बात ] का सत्य के साथ सारूप्य [ प्रदर्शित करना ] व्याजोक्ति [ अलङ्कार कहलाता ] है ।
असत्य [ व्याज ] के बहाने से सत्य का सादृश्य [ प्रतिपादन करना ] व्याजोक्ति [ अलकार कहलाता ] है । जिसको अन्य लोग 'मायोक्ति' कहते है । [ उसका उदाहरण ] जैसे-
"भामह काव्यालङ्कार ३, ३२ ।
१
साहित्यदर्पण १०, ६० ।
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२६८ ]
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तो
शरच्चन्द्रांशुगौरेण वाताविद्धेन भामिनि । काशपुष्पलवेनेदं सानुपातं मुखं कृतम् ॥ २५ ॥ - व्याजस्तुतेः पृथक् तुल्ययोगितेत्याह
[ सूत्र २५
शरच्चन्द्र की किरणों के समान शुभ्र, वायु से लाए गए, काशपुष्प के तिनके ने [ श्रांख में पड़ कर ] यह मुख अश्रुपातयुक्त कर दिया ।
यहा सात्विक भाव से होने वाले अश्रुपात को कानपुप्प के तिनके के आख मे पड जाने से होने वाला अश्रुपात कह कर सत्य को छिपाने का यत्न किया गया है । इसलिए यहा व्याजोक्ति अलकार है । नवीन आचार्यों ने जो छिपाने योग्य बात किसी प्रकार दूसरे पर प्रकट हो जाय उसको किसी वहानें से छिपाने के प्रयत्न को व्याजोक्ति अलकार कहा है । विश्वनाथ ने उसका लक्षण इस प्रकार किया है
Compan
'व्याजोक्तिर्गोपन व्याजादुद्भिन्नस्यापि वस्तुन. ।
जैसे----
शैलेन्द्रप्रतिपाद्यमानगिरिजाहस्तोपगूढोल्लस--- द्रोमाञ्चादिविसष्ठुलाखिलविधिव्यासङ्गभङ्गाकुलः । आः शैत्य तुहिनाचलस्य करयोरित्यचिवान् सस्मितं शैलान्त पुरमातृमण्डलगणैद् ष्टोऽवताद् व शिवः ॥
यहा शिव और पार्वती के विवाह के अवसर पर कन्यादान करने के समय, पार्वती के हाथ का गिव के हाथ से स्पर्ग होने से उनके भीतर कम्प आदि मात्विक भावो के उदय होने के कारण जब विधि में गडवड होने लगी तो अपने कम्पादि को छिपाने के लिए शिव जी पर्वतराज के आश्रय लेते है । 'आ: शैत्य तुहिनाचलस्य करयो' कह कर उस सात्विक भाव रूप यथार्थ कम्प को छिपाने का प्रयत्न किया गया है । इसलिए यहा व्याजोक्ति अलङ्कार है । वामन के लक्षण का भी अभिप्राय यही है । पर वह उतना स्पष्ट नही
सात्विक हाथो की
भाव जन्य शीतलता का
||२५||
व्याजस्तुति से तुल्ययोगिता [ अलङ्कार ] पृथक है यह [दिखलाने के लिए अगले सूत्र में तुल्ययोगिता का लक्षण ] कहते है-
' साहित्यदर्पण १०, ९२ ।
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सूत्र २६ चतुर्थाधिकरणे तृतीयोऽध्यायः [२६९ विशिष्टेन साम्यार्थमेककालक्रियायोगस्तुल्ययोगिता ।
४, ३, २६ । विशिष्टेन न्यूनस्य साम्यार्थमेककालायां क्रियायां योगस्तुल्ययोगिता । यथा
जलधिरशनामिमां धरित्रीं वहति भुजङ्गविमुर्भवद्भुनश्च ॥१६॥
विशिष्ट [ अधिक गुण' वाले उपमान ] के साथ [ न्यून गुण वाले उपमेय के ] साम्य [प्रतिपादन ] के लिए [ उन दोनो का ] एक काल [एक साथ ] होने वाली क्रिया के साथ योग [ सम्बन्ध प्रदर्शित करना] तुल्ययोगिता [ नामक अलङ्कार कहलाता है।
विशिष्ट [ अधिक गुण वाले उपमान ] के साथ न्यून गुण [ वाले उपमेय] के साम्य के [प्रतिपादन] के लिए [उन दोनो का] एक काल में होने वाली क्रिया में योग [ तुल्यकालीन क्रिया में योग होने के कारण ] 'तुल्य योगिता' अलङ्कार [ कहलाता है । जैसे
समुद्ररूप रशना को धारण किए हुई [चारों ओर समुद्र से घिरी हुई ] इस पृथिवी को सर्पराज [ शेषनाग ] और आपकी भुजा [ यह दोनो] धारण करते है।
यहा तुम्हारी भुजा शेषनाग के समान है इस प्रकार विशिष्ट अर्थात् अधिक गुण वाले उपमानभूत शेषनाग के साथ साम्य दिखलाने के लिए भूमि के धारण करने रूप तुल्य क्रिया, एककालीन क्रिया के साथ उन दोनो का योग किया गया है। 'धरित्री वहति भुजगविमुर्भवद्भुजश्च ।' इस प्रकार उपमानभूत शेषनाग और उपमेय भूत भुजा के साथ एक तुल्य धर्म का योग होने से यहा तुल्ययोगिता अलकार है।
भामह ने तुल्ययोगिता अलकार का जो निरूपण किया है। उसके अनुसार तुल्ययोगिता के लक्षण और उदाहरण इस प्रकार होगे
न्यूनस्यापि विभिप्टेन गुणमाम्यविवक्षया। तुल्यकार्यक्रियायोगादित्युक्ता तुल्ययोगिता ॥ शेपो हिमगिरिस्त्वञ्च महान्तो गुरव स्थिरा.। यदलघितमर्यादाञ्चलन्ती विभृथ नितिम् ॥
'भामह काव्यालङ्कार ३, २७-२८ ।
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२७०] काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती
[सूत्र २७ उपमानाक्षेपश्चाक्षेप । ४, ३, २७ ।। उपमानस्याक्षेपः प्रतिपेधः उपमानाक्षेपः । तुल्यकार्यार्थस्य नरर्थक्यविवक्षायाम् यथा
तस्याश्चेन्मुखमस्ति सौम्यसुभगं कि पार्वणेनेन्दुना, सौन्दर्यस्य पदं दृशौ यदि च ते किं नाम नीलोत्पलैः । किं वा कोमलकान्तिभिः किसलयैः सत्येव तत्राधरे, हा धातुः पुनरुक्तवस्तुरचनारम्भेष्वपूर्ण प्रहः ॥
मम्मट, विश्वनाथ आदि नवौन आचार्यों ने अपने लक्षणो मे विशेष वात यह कही है कि जिन पदार्थों में एक धर्म का सम्वन्ध वर्णन किया जाय वह सव या तो प्रस्तुत अर्थात् वर्ण्य हो अथवा सव अप्रस्तुत हो । यदि उनमे से कोई पदार्थ प्रस्तुत तथा कोई अप्रस्तुत होगा तो वहा 'तुल्ययोगिता' नही अपितु 'दीपक' अलङ्कार होगा। साहित्यदर्पण मे लिखा है
' पदार्थाना प्रस्तुतानामन्यपा वा यदा भवेत् ।
__एकधर्माभिसम्वन्ध. स्यात् तदा तुल्ययोगिता ॥ प्रस्तुत पदार्थों के एक धर्माभिसम्वन्धरूप तुल्ययोगिता का उदाहरणअनुलेपनानि कुमुमान्यवला. कृतमन्यव. पतिपु दीपदशाः ।
समयेन तेन मुचिर गयितप्रतिवोधितस्मरमवोधिपत ॥
इसमे मन्च्या काल का वर्णन है अतएव अनुलेप, कुसुम, अवला, दीपदगा यह सव ही वर्ण्य प्रस्तुत है। उन सव मे प्रबोधन रूप एक धर्म का सम्बन्ध होने मे तुल्ययोगिता अलकार हुआ । अप्रस्तुत पदार्थों के एक धर्माभिसम्बन्धरूप तुल्ययोगिता का उदाहरण
तदङ्गमार्दव द्रष्टु. कस्य चित्ते न भासते । ____ मालतीगगभृल्लेखाकदलीना कठोरता ॥
यहा मालती आदि सभी अप्रस्तुत पदार्थो मे कठोरता रूप एकवर्माभिसम्बन्ध होने से तुल्ययोगितालङ्कार है ॥ २६ ॥
उपमान का आक्षेप [प्रतिषेध ] आक्षेप [ अलंकार है।
उपमान का आक्षेप अर्थात् प्रतिषेध उपमानाक्षेप [ कहलाता ] है । तुल्य कार्य वाले अर्थ की निरर्थकता की विवक्षा होने पर ! यह आक्षेप अलङ्कार होता है। जैसे
' साहित्यदर्पण १०, ४८॥
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सूत्र २७]
चतुर्याधिकरणे तृतीयोऽध्यायः [२७१ उपमानस्याक्षेपतः प्रतिपत्तिरित्यपि सूत्रार्थः । • यथाऐन्द्रं धनुः पाण्डुपयोधरेण शरद् दधाना नखक्षतामम् । प्रसादयन्ती सकलङ्कमिन्दु तापं रवेरम्यधिकञ्चकार ॥
अत्र शरद् वेश्येव, इन्दु नायकमिव, रखेः प्रतिनायकस्येव इत्युपमानानि गम्यन्ते इति ॥ २७ ॥
यदि उस [ नायिका ] का सौम्य और सुन्दर मुख विद्यमान है तो फिर [ उसी के समान कार्य करने वाले ] पूर्णिमा के चन्द्रमा से क्या लाभ ।
और यदि सौन्दर्य के निधानभूत [ उस नायिका के ] नेत्र विद्यमान है तो [ उसी के समान ] नील कमलो से क्या लाभ । और वहां [ उस मुख में ] यदि अधर विद्यमान है तो फिर [ उसके सदृश ही ] कोमल कान्ति वाले किसलयो से क्या प्रयोजन । [ इन सब की रचना बिल्कुल व्यर्थ है। लेकिन फिर भी विधाता ने इनको रचा है। ] खेद है कि विधाता को पुनरुक्त [ व्यर्थ ] वस्तुओ के बनाने का [ ऐसा ] अपूर्व प्राग्रह [ शौक ] है।
यहा तुल्यकार्यकारी चन्द्र, नीलोत्पल, किसलय आदि उपमानो के आनर्थक्य का प्रतिपादन किया गया है। अतएव यहा आक्षेपालकार है ।
उपमान की प्राक्षेप से [अर्थतः] प्रतिपत्ति [ज्ञान] भी [प्राक्षेप अलंकार कहा जा सकता है यह इस ] सूत्र का अर्थ [ हो सकता है।
जैसे [निम्न श्लोक में]
[पाण्डु ] शुभ्रवणं के मेघो के ऊपर [ दूसरे पक्ष में स्तनो के ऊपर ] ताजे नखक्षतो के समान इन्द्र धनुष को धारण किए हुए [शरद ऋतु, दूसरे पक्ष में नायिका ] कलंकी [ कलंकयुक्त, दूसरे पक्ष में पराङ्गनोपभोग रूप कलंक से युक्त ] चन्द्र को, निर्मल करती [ दूसरे पक्ष में मनाती] हुई शरद् [ऋतु, दूसरे पक्ष में नायिका ] ने [नायक रूप] सूर्य के ताप [ दूसरे पक्ष में धूप की तीव्रता] को और अधिक कर दिया। ___इस में शरद् वेश्या के समान, इन्दु नायक के समान और सूर्य प्रतिनायक के समान यह उपमान [ प्राक्षेप से ] प्रतीत होते है । [ इसलिए यहां दूसरे प्रकार का प्राक्षेप अलंकार है।
नवीन आचार्यों ने दूसरे प्रकार के इस 'आक्षेप' को 'समामोक्ति अलकार माना है, आक्षेप नही । समासोक्ति का लक्षण विश्वनाथ ने
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२७२
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती
[सूत्र २७
'समासोक्ति समैर्यत्र कार्यलिगविशेषण ।
व्यवहारसमारोप. प्रकृतेऽन्यस्य वस्तुन । इस प्रकार किया है । यहा समान कार्य और लिग से शरद् में वेश्या अथवा नायिका और सूर्य तथा चन्द्रमा मे नायक प्रतिनायकादि के व्यवहार का आरोप होने से नवीन मत मे यह 'समासोक्ति' का उदाहरण है, 'आक्षेप' का नही । आक्षेप अलङ्कार का लक्षण नवीन आचार्यों ने बिल्कुल भिन्न प्रकार से इस प्रकार किया है
'वस्तुनो वक्तुमिष्टस्य विशेपप्रतिपत्तये ।
निपेधाभास आक्षेपो वक्ष्यमाणोक्तगो द्विधा ॥ अर्थात् जो बात कहना चाहते हो परन्तु उसमे विशेपता लाने के लिए उसका निपेध सा किया जाय उसको 'आक्षेप' अलकार कहते है। यह निषेध कही वात को कह चुकने के वाद कही हुई बात का किया जाता है । और कही आगे कही जाने वाली वात का कहे बिना पहिले ही निषेध कर दिया जाता है । इस प्रकार के निपेधसे बात की विशेपता बढ जाती है। उसी विशेष प्रतिपत्ति के लिए निपेध सा किया जाता है । इन दोनो प्रकार के आक्षेपो के उदाहरण निम्न प्रकार है
स्मरशरशतविधुराया भणामि सख्या कृते किमपि ।
क्षणमिह विश्रम्य सखे निर्दयहृदयस्य कि वदाम्यथवा ।।
यहा विरहिणी की व्यथा का सामान्यत: सूचन करने के बाद 'निर्दयहृदयस्य किं वदाम्यथवा' कह कर उसका निपेध किया गया है । इसलिए यहा उक्तविपयक 'आक्षेप' अलङ्कार है । वक्ष्यमाण विषयक 'आक्षेप' का उदाहरण इस प्रकार दिया गया है
तव विरहे हरिणाक्षी निरीक्ष्य नवमालिका दलिताम् । हन्त नितान्तमिदानीमा. किं हत जल्पितैरथवा ।।
यहा 'मरने वाली है' यह अश नही कहा है उसी वक्ष्यमाण अश का निपेध किया गया है । अतएव यह दूसरे प्रकार का 'आक्षेप' अलवार है ।
इन दो भेदो के अतिरिक्त अनिष्ट अर्थ का विध्याभास रूप एक तीसरे प्रकार के आक्षेप अलङ्कार का निरूपण भी साहित्यदर्पणकार ने किया है
अनिष्टस्य तथार्थस्य विध्याभासः परो मत ।
' सा० द० १०, ५६। २ सा० ८० १०, ६५ । ३ सा० द० १०, ६६ ।
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सूत्र २७]
चतुर्थाधिकरणे तृतीयोऽध्यायः
[२७३
____इस अनिप्ट अर्थ की विध्याभासता रूप 'आक्षेप' अलवार का उदाहरण इम प्रकार है
गच्छ गच्छसि चेत् कान्त पन्थान सन्तु ते शिवा ।
ममापि जन्म तत्रैव भूयाद्यत्र गतो भवान् ।। यहा प्रिय का परदेश गमन नायिका को अनिष्ट है । तुम्हारे चले जाने पर मै जीवित नही रह सकूगी यह कह कर वह उसको रोकना चाहती है। परन्तु ऊपर मे 'गच्छ गच्छसि चेत् कान्त' कह कर जाने को कह रही है । साथ ही 'ममापि जन्म तत्रैव भूयाद्यत्र गतो भवान्' कह कर अपने भावी मरण की सूचना दे रही है । इस प्रकार यहां गमन का विधान वस्तुत विधि रूप नही अपितु विघ्याभास रूप है। इसलिए 'आप' अलङ्कार है। इस प्रकार नवीन आचार्यों ने 'आक्षेप' अलवार के तीन भेद माने है । परन्तु वह सब ही वामन के आक्षेप' के लक्षण से विल्कुल भिन्न है । वामन ने जो आक्षेप के दो लक्षण किए है उनको नवीन आचार्यों ने नहीं माना है। उनके दोनो उदाहरणो मे मे अन्तिम उदाहरण को 'समासोक्ति' अलङ्कार मे नवीन लोग मानते है यह अभी ऊपर दिखला चुके है । उसका पहिला भेद नवीन आचार्यों के यहाँ प्रतीप' अलवार नाम से कहा जाता है । 'प्रतीप' अलङ्कार का लक्षण माहित्यदर्पणकार ने इस प्रकार किया है
प्रसिद्धस्योपमानस्योपमेयत्वप्रकल्पनम् ।
निष्फलत्वाभिवान वा प्रतीपमिति कथ्यते । उमका उदाहरण निम्न दिया है । तद् वक्त्र यदि मुद्रिता गगिकया हा हेम मा चेद् द्युति तच्चक्षुर्यदि हारित कुवलयस्तच्चेत् स्मित का सुधा । विक् कन्दर्पधनुवौ यदि च ते किं वा बहु ब्रूमह
यत्सत्यं पुनरुक्तवस्तुविमुख सर्गक्रमो वेवम ॥ __ इस प्रकार वामन ने आक्षेपालड्वार के जो दो रूप प्रदगित किए है नवीन आचार्यों ने वह दोनो रूप 'प्रतीप' तथा 'समामोक्ति' अलवार माने है। उनके यहा आक्षेप' अल ड्कार वामन से विलकुल भिन्न रूप में माना गया है ।
वामन से प्राचीन भामह ने भी आक्षेप अलवार का जो स्वल्प माना है वह वामन मे भिन्न है ओर नवीन आचार्यों के मत में बहुत-कुछ मिलता हुआ है । भामह ने लिखा है
.
१ सा० ८०, ८७।
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काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तौ
तुल्ययोगितायाः सहोक्तेर्भेदमाह– वस्तुद्वय क्रिययोस्तुल्यकालयोरेकपदाभिधानं
सहोक्ति । ४, ३,२८ ।
२७४ ]
[ सूत्र २८
वस्तुद्वयस्य क्रिययोस्तुल्यकालयोरेकेन पद्देनामिधानं सहार्थशब्दसामर्थ्यात् सहोक्तिः । यथा
स्तंभास्वान् प्रयातः सह रिपुभिरयं संहियन्तां बलानि । अत्रार्थयोन्यू नत्वविशिष्टत्वे न स्तः । इति नेयं तुल्ययोगिता ॥ २८॥
' प्रतिपेध इवेप्टस्य यो विशेपाभिधित्सया । आक्षेप इति त सन्त शसन्ति द्विविध यथा ॥ अह त्वा यदि नेक्षेय क्षणमप्युत्सुका तत' । इयदेवास्त्वतोऽन्येन किमुक्तेनाप्रियेण ते ॥ स्वविक्रमाक्रान्तभुवश्चित्र यन्न तवोद्धति' । को वा सेतुरल सिन्धोविकारकरण प्रति ॥ 'तुल्ययोगिता' से 'सहोक्ति' का भेद [ दिखलाने के लिए सहोक्ति अलङ्कार का लक्षण ] कहते है --
दो वस्तुओं को तुल्यकालीन [ दो ] क्रियाओं का एक [ ही ] पद से [ एक साथ ] कथन करना सहोक्ति अलङ्कार [ कहलाता ] है ।
'
दो वस्तुओ की तुल्यकालीन दो क्रियाओं का एक ही पद से कथन करना सहार्थक शब्द [ के प्रयोग ] के सामर्थ्य से 'सहोक्ति' [ श्रलङ्कार कहलाता ] है । जैसे
शत्रुओ के साथ यह सूर्य [ भी ] अस्ताचल की ओर चल दिया । श्रतएव श्रव सेनाओं को वापिस कर लो ।
१
भामह काव्यालङ्कार २, ६८-७० ।
[ तुल्ययोगिता श्रलङ्कार में भी दो पदार्थों में एक ही क्रिया का योग होता है । परन्तु वहां अर्थो में न्यूनाधिक भाव विवक्षित होता है । ] यहां [ सहोक्ति अलङ्कार में ] अर्थो का न्यूनाधिकत्व [ विवक्षित ] नही है इसलिए यह तुल्ययोगिता [ श्रलङ्कार ] नही है । [ श्रपितु उससे भिन्न अलङ्कार है । ]
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-
सूत्र २९] चतुर्थाधिकरणे तृतीयोऽध्यायः [२७५
समाहितमेकमवशिष्यते, तल्लक्षणार्थमाहयत्सादृश्य तत्सम्पत्तिः समाहितम् । ४, ३, २६ । यस्य वस्तुनः सादृश्यं गृह्यते तस्य वस्तुनः सम्पत्तिः समाहितम् । तन्वी मेघजलार्द्रपल्लवतया धौताधरेवाश्रुभिः शून्येवाभरणैः स्वकालविरहाद् विश्रान्तपुष्पोद्गमा । चिन्तामौनमिवास्थिता मधुलिहां शब्दैविना लक्ष्यते
चण्डी मामवधूय पादपतितं जातानुतापेव सा॥
अत्र पुरूरवसो लतायामुर्वश्याः सादृश्यं गृह्णतः सैव लतोर्वशी सम्पन्नेति ॥२६ साहित्यदर्पणकार ने सहोक्ति का लक्षण इस प्रकार किया है
सहार्थस्य वलादेक यत्र स्याद्वाचक द्वयो । ___सा सहोक्तिर्मूलभूतातिशयोक्तिनिगद्यते ॥ भामह ने सहोक्ति का लक्षण इस प्रकार नही किया है ॥ २८ ॥
[ हमारे उद्दिष्ट ३३ अर्थालङ्कारो में से ३२ के लक्षण आदि यहां तक किए जा चुके है । अब ] एक समाहित [अलङ्कार] शेष रह जाता है। उसका लक्षण करने के लिए [अगला सूत्र] कहते है।
जिस वस्तु का सादृश्य [ उपमेय में दिखलाना अभीष्ट ] है, [उपमेय को ] तद्रूपता प्राप्ति [को ] समाहित [अलङ्कार कहा जाता है।
जिस वस्तु का सादृश्य [ उपमेय में ] गृहीत होता है [उपमेय के द्वारा ] उस वस्तु [ के स्वरूप ] की प्राप्ति [को ] समाहित [अलङ्कार कहा जाता है। जैसे
तन्वी [ उर्वशी ] पैरो पर पड़े हुए मुझ [ पुरूरवा] को तिरस्कृत करके पश्चात्तापयुक्त होकर प्रांसुमो से गीले अधर के समान वर्षा के जल से आई पल्लवो को धारण किए हुए, ऋतुकाल के न होने से पुष्पोद्गम से रहित पाभरण शून्य-सी, भौंरो के शब्द के अभाव में चिन्ता से मौन को प्राप्त [ लता रूप में] दिखलाई दे रही है।
यहां लता में उर्वशी के सादृश्य को देखने [ ग्रहण करने ] वाले पुरूरवा के लिए [कल्पनावश ] उर्वशी वह लता ही बन गई है [ इसलिए यहां 'समाहित' अलङ्कार है ] ॥ २९ ॥ , साहित्यदर्पण १०, ५५ ।
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२७६ ]
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तौ
[ सूत्र ३०-३२
एते चालङ्काराः शुद्धा मिश्राश्च प्रयोक्तव्या इति विशिष्टानामलङ्काराणां मिश्रितत्वं संसृष्टिरित्याह-अलङ्कारस्यालङ्कारयोनित्व ससृष्टि: । ४,३३० ॥ अलङ्कारस्यालङ्कारयोनित्वं यदसौ संसृष्टिरिति । संसृष्टिः संसग: सम्बन्ध इति ॥३०॥
तद्भेदावुपमारूपकोत्प्रेक्षावयवी । ४, ३, ३१ । तस्याः संसृष्टेर्भेदावुपमा रूपकश्चोत्प्रेक्षावयवश्चेति ॥ ३१ ॥ उपमाजन्यं रूपकमुपमारूपकम् । ४, ३, ३२ । स्पष्टम् । यथानिरवधि च निराश्रयञ्च यत्र स्थितमनिवर्तित कौतुकप्रपञ्चम् । प्रथम इह भवान् स कूर्ममूर्तिर्जयति चतुर्दशलोकवल्लिकन्दः ॥
Com
यह अलङ्कार शुद्ध और मिश्र रूप में भी प्रयुक्त हो सकते है । इसलिए विशिष्ट अलङ्कारो का मिश्रण संसृष्टि [ अलङ्कार ] होता है, यह [ अगले सूत्र में] कहते है-
[ एक ] अलङ्कार का जो अलङ्कार हेतुत्व [ अर्थात् दूसरे अलङ्कार के साथ कार्यकारण भाव सम्बन्ध ] है उसको संसृष्टि [ अलङ्कार ] कहते है ।
[ एक ] अलङ्कार का जो [ दूसरे ] अलङ्कार के प्रति हेतुत्व [ अर्थात् दूसरे अलङ्कार के साथ जो कार्यकारण भाव सम्बन्ध ] है वह संसृष्टि [ अलङ्कार कहलाता ] है । संसृष्टि [ का अर्थ ] संसर्ग [ अर्थात् ] सम्बन्ध है ॥ ३० ॥ उसके 'उपमारूपक' तथा 'उत्प्रेक्षावयव' दो भेद है ।
उस संसृष्टि के उपमारूपक और उत्प्रेक्षावयव [ यह ] दो भेद है । 'अलङ्कारयोनित्व' जो संसृष्टि का लक्षण किया है उसमे एक 'अलङ्कार कारण है जिसमें' इस प्रकार का बहुव्रीहि समास करके उपमारूपक को सृष्टि कहा जाता है क्योकि उसमे उपमा रूपक का कारण है । ओर दूसरे भेद 'उत्प्रेक्षावयव' मे अलङ्कारयोनित्व पद मे तत्पुरुष समास किया जाता है । उत्प्रेक्षा का अवयव ‘उत्प्रेक्षावयव' कहलाता है । इस प्रकार ससृष्टि के दो भेदो मे 'अलङ्कारयोनित्व' पद के दो भिन्न-भिन्न समास किए जाते है ॥ ३१ ॥
इन भेदो मे से पहले उपमारूपक का लक्षण करते हैं । उपमा से जन्य रूपक उपमारूपक [ कहलाता ] है | [ सूत्र का अर्थ ] स्पष्ट है । [ उदाहरण ] जैसेजिनके ऊपर यह अनन्त [ निरवधि ] और [ अन्य ] किसी ग्राधार पर
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सूत्र ३३ ]
चतुर्थाधिकरणे तृतीयोऽध्यायः
| ૨૭૭
एवं 'रजनीपुरन्धिलोधतिलक' इत्येवमादयस्तद्भेदा द्रष्टव्याः ॥३२॥ उत्प्रेक्षाहेतुरुत्प्रेक्षावयव. । ४, ३, ३३ |
उत्प्रेक्षाया हेतुरुत्प्रेक्षावयवः । श्रवयवशब्दो यारम्भकं लक्षयति ।
यथा
अंगुलीभिरिव केशसञ्चयं सन्निगृह्य तिमिरं मरीचिभिः । कुडमलीकृतसरोनलोचनं चुम्बतीव रजनीमुखं शशी ॥ ३३ ॥
न टिका हुआ [ निराश्रय ], आश्चर्यमय [ श्रनिवर्तितकौतुक ] ससार [प्रपञ्च ] स्थित है, चौदह लोकरूप लताओ के मूलरूप कूर्म स्वरूप, श्राप जगत् में श्रद्वितीय और सर्वोत्कर्षशाली० है ।
यहा 'उपमित व्याघ्रादिभि सामान्याप्रयोगे' इस सूत्र से 'लोको वल्लिरिव इति लोकवल्लि.' इस प्रकार का उपमित समास होकर 'लोकवल्लि' पद वनता है । फिर उसका कन्द के साथ पष्ठी तत्पुरुष समास होकर 'लोकवल्ल्या कन्द इति लोकवल्लिकन्द ' यह पद बनता है । इस प्रकार पहले 'लोकवल्लि' का उपमित समास होने के बाद कूर्ममूर्ति के ऊपर 'कन्द' का आरोप किया जाता है । इसलिए यह उपमाजन्य, उपमामूलक, रूपक अलङ्कार है अत 'उपमारूपक' कहलाता है । इसमे उपमा और रूपक दोनो का मिश्रण होने से 'ससृष्टि' अलङ्कार कहलाता है ।
दूसरे ढग से.विचार करे तो पहिले 'कूर्ममूर्ति' पर कन्दत्व का आरोप करके फिर लोक पर वल्लित्व का आरोप पीछे किया जाय यह भी हो सकता है । उस दशा मे यह रूपकमूलक रूपक होगा । जिसे नवीन लोग 'परम्परित रूपक' भी कहते है । परन्तु वामन ने यहा रूपक मूलक या परम्परित रूपक न मान कर उपमाजन्य रूपक माना है । इसका अभिप्राय यह है कि वामन को यहा पहिले 'लोकवल्लि' पद मे उपमित समास ही अभीप्ट है ।। ३२ ।।
उत्प्रेक्षा का हेतु [ रूपकादि दूसरा अलङ्कार ] उत्प्रेक्षावयव [ कहलाता ]
उत्प्रेक्षा का हेतु [ दूसरा श्रलङ्कार ] उत्प्रेक्षा अवयव [ कहलाता ] है । प्रवयव शब्द [ लक्षणा से ] प्रारम्भक [ इस श्रयं ] को वोधित करता है । [ उदाहरण ] जैसे—
अंगुलियो के समान [ मरीचियो ] किरणो से [ नायिका के ] केश
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२७८]
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती
[ सूत्र ३६
सञ्चय रूप अन्धकार को हटा कर मुदे हुए कमल-नयनो वाले रजनी [ नायिका ] के मुख को चन्द्रमा चुम्बन-सा कर रहा है।
यहा 'चुम्बतीव रजनीमुख शशी' यह उत्प्रेक्षा अलङ्कार है । यह उपमा और रूपक से अनुप्राणित हो रहा है । इसलिए उत्प्रेक्षा हेतु या उत्प्रेक्षावयव रूप ससृष्टि अलङ्कार का उदाहरण है। . भामह ने 'उपमारूपक' तथा उत्प्रेक्षावयव' अलङ्कारो का निरूपण तो किया है, परन्तु वामन के समान उन्हे ससृष्टि का भेद नही माना है । ससृष्टि को उन दोनो से भिन्न अलग ही अलङ्कार माना है और तीनो अलङ्कारो का स्वतन्त्र रूप से अलग-अलग इस प्रकार निरूपण किया है
' उपमानेन तद्भावमुपमेयस्य 'साधयत् । या वदन्त्युपमामेतदुपमारूपक यथा ॥ समग्रगगनायाममानदण्डो रथागिनः ।
पादो जयति सिद्धस्त्रीमुखेन्दुनवदर्पण ॥ २ श्लिष्टस्यार्थेन च सयुक्त किञ्चिदुत्प्रेक्षयान्वित । रूपकार्थेन च पुनरुत्प्रेक्षावयवो यथा ॥ तुल्योदयावसानत्वाद् गतेऽस्त प्रति भास्वति । वासाय वासर क्लान्तो विशतीव तमीगुहाम् ।।
3 वरा विभूपा ससृष्टिर्बह्वलङ्कारयोगत ।
रचिता रत्नमालेव सा चैवमुदिता यथा ॥ गाम्भीर्यलाघववतोयुवयो प्राज्यरलयो. । सुखसेव्यो जनाना त्व दुष्टग्राहोऽम्भसा पति ॥ अनलकृतकान्त ते वदन, वनजाति । निशाकृत प्रकृत्यैव चारो. का वास्त्यलकृति ॥ अन्येपामपि कर्तव्या ससृष्टिरनया दिशा ।
कियदुट्टितज्ञेभ्य शक्य कथयितु मया ॥ इस प्रकार भामह तथा वामन के मत में बहुत भेद है । वामन उपमारूपक तथा उत्प्रेक्षावयव को ससृष्टि का भेद मानते है । परन्तु भामह उन तीनो को अलग-अलग अलङ्कार मानते है ।
१ भामह काव्यालङ्कार ३, ३५-३६ । २ भामह काव्यालङ्कार ३, ४७-४८ । भामह काव्यालङ्कार ५, ४९-४२ ।
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सूत्र ३३]
चतुर्थाषिकरणे तृतीयोऽध्यायः
[ २७९
नवीन आचार्यों ने अनेक अलङ्कारो के मिश्रण की स्थिति मे सङ्कर और ससृष्टि दो प्रकार के अलङ्कार माने है । जव कि वामन और भामह दोनो मिश्रण की स्थिति में केवल एक ससृष्टि अलङ्कार ही मानते है । मम्मट, विश्वनाथ आदि नवीन आचार्यों के मत मे यदि दो या अधिक अलङ्कारो की परस्पर निरपेक्ष स्थिति होती है तभी ससृष्टि अलङ्कार माना गया है। कार्यकारणभावादि होने पर ससृष्टि नही अपितु सकर अलङ्कार होता है । उन्होने सङ्कर के अगागिभाव सकर, २ सन्देह सकर, तथा एकाश्रयानुप्रवेश सकर इस प्रकार तीन भेद माने है । और परस्पर निरपेक्ष अलङ्कारो की स्थिति मे ससृष्टि अलङ्कार माना है । साहित्यदर्पण मे इनका निरूपण इस प्रकार किया है
यदैत एवालद्वारा परस्परविमिश्रिता ।
तदा पृथगलड्कारो ससृष्टि सकरस्तथा। मिथोऽनपेक्षतयपां स्थिति ससृष्टिरुच्यते ।
अगागित्वेऽप्यलकृतीना तद्वदेकाश्रयस्थितौ ।
सन्दिग्धत्वे च भवति सकरस्त्रिविध पुन ॥ ससृष्टि के भी फिर अनेक भेद हो सकते है । जैसे शब्दालड्वारो की ससृष्टि, अथवा अर्थालङ्कारो की ससृष्टि अथवा शब्दार्थालङ्कारो की ससृष्टि । इन तीनो प्रकार की ससृष्टि एक ही उदाहरण में इस प्रकार दिखलाई गई है।
देव पायादपायान्न स्मरेन्दीवरलोचन । - ससारध्वान्तविध्वसहस कसनिपूदन ।
इसके पहिले चरण 'पायादपायाद्' मे यमक है । तीसरे चरण 'ससार-ध्वान्त विध्वसहस' मे अनुप्रास अलङ्कार है । यह दोनो परस्पर निरपेक्ष रूप से स्थित है। इसलिए यह शब्दालड्कारो की ससृष्टि हुई । द्वितीय पाद मे 'स्मेरेन्दीवरलोचन' में उपमा अलङ्कार और श्लोक के उत्तरार्द्ध मे सूर्य के आरोप मूलक रूपक अलङ्कार होने मे यहा अर्थालङ्कारो की ससृष्टि हुई । और ग्लोक में शब्दालङ्कार अर्थालङ्कार दोनो के होने से उभयालङ्कार की ममृष्टि हुई।
इस ससृष्टि के विषय में प्राचीन तथा नवीन आचार्यों के मत में बहुत भेद है । वामन आदि तो कार्य-कारण भाव आदि होने पर समृष्टि मानते है परन्तु नवीन आचार्य उसको ससृष्टि न कह कर सङ्कर कहते है । और अनेक अलङ्कारो की निरपेक्ष स्थिति को संसृष्टि कहते है । सङ्करालङ्कार के सन्देह
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२८०]
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती [ सूत्र ३३ एभिनिदर्शनैः स्वीयैः परकीयैश्च पुष्कलैः । शब्दवैचित्र्यगर्भयमुपमैव प्रपञ्चिता ॥ अलङ्कारैकदेशा ये मता सौभाग्यमागिनः ।, तेऽप्यलङ्कारदेशीया योजनीयाः कवीश्वरैः ॥
इति श्री काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती पालङ्कारिके चतुर्थेऽधिकरणे
तृतीयोऽध्यायः समाप्तञ्चेदमालङ्कारिक चतुर्थमधिकरणम् ॥
सङ्कर, अगागिभाव सङ्कर और एकाश्रयानुप्रवेश सङ्कर तीनो प्रकार के अनेक उदाहरण दिए गये है।
___ इस अधिकरण के अन्त मे अधिकरण का उपसहार करते हुए ग्रन्थकार लिखते है ~~
अपने [ स्वरचित ] तथा बहुत से दूसरो के [ बनाए हुए] इन उदाहरणो के द्वारा, शब्दो के वैचित्र्य से परिपूर्ण [अनेक अलङ्कारों के रूप में ] यह उपमा [ अलङ्कार] का ही [प्रपञ्च ] विस्तार किया है।
इन अलङ्कारो के जो [कोई ] भाग [ एकदेश ] सुन्दर [ सौभाग्य भागिनः] हो अलङ्कारदेशीय [ईषदसमाप्तो कल्पकल्पब्देश्यदेशीयरः । अलङ्कारसदृश ] वह भी कवीश्वरों को [अपने काव्यो में ] प्रयुक्त करने चाहिएं ॥ ३४॥
इति श्री काव्यालङ्कार सूत्रवृत्ति में अलङ्कारनिरूपणपरक [पालङ्कारिक ] चतुर्थ अधिकरण में
तृतीय अध्याय समाप्त हुआ। और यह मालङ्कारिक चतुर्थ अधिकरण [ भी ] समाप्त हुआ।
श्रीमदाचार्यविश्वेश्वरसिद्धान्तशिरोमणिविरचिताया काव्यालङ्ककारदीपिकायां हिन्दीव्याख्यायां चतुर्थाधिकरणे तृतीयोऽध्यायः समाप्त :
समाप्तञ्चेदमालङ्कारिकं चतुर्थमधिकरणम् ।।
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'प्रायोगिक नाम पञ्चममधिकरणम्
प्रथमोऽध्यायः
[काव्यसमयः] सम्प्रति काव्यसमयं शब्दशुद्धिश्च दर्शयितु प्रायोगिकाख्यमधिकरणमारभ्यते । तत्र काव्यसमयस्तावदुच्यते ।
__ नैक पदं द्वि. प्रयोज्य प्रायेण । ५, १, १ ।
पञ्चम अधिकरणका प्रथम अध्याय पिछले अधिकरणो मे से 'शारीर' नामक प्रथम अधिकरण मे काव्य का प्रयोजन, रीति तथा काव्याङ्गो का, 'दोपदर्शन' नामक द्वितीय अधिकरण मे शब्द-दोप और अर्थ-दोपो का, 'गुणविवेचन' नामक तृतीय अधिकरण मे गुण तथा अलवार का भेद और गब्द-गुण तथा अर्यगुणो का, और चतुर्य अधिकरण मे शब्दालड्कारो तथा उपमा और उपमाप्रपञ्च रूप अन्य अर्थालङ्कारो का विवेचन कर चुके है । इस प्रकार काव्यालङ्कार ग्रन्थ का विषय प्राय प्रतिपादित हो चुका है । अव 'प्रायोगिक' नामक इस पञ्चम अधिकरण मे 'काव्य-समय' अर्थात् काव्य की अनुसरणीय परम्पराओ ओर 'शब्दशुद्धि' रूप प्रयोगसम्बन्धी वातो का निरूपण करेंगे इमलिए इस अधिकरण का नाम 'प्रायोगिक' अधिकरण है । इसके दो अध्याय है । जिनमे से पहले अध्याय मे 'काव्य-समय' अर्थात् महाकवियो की काव्यसम्बन्धी परम्पराओ का निरूपण प्रारम्भ करते है।
अब [ इस पञ्चम अधिकरण में ] 'काव्य-समय' [ काव्य में ध्यान देने योग्य आचार या परम्परानो ] और शब्दशुद्धि के दिखलाने के लिए 'प्रायोगिक' नामक [ यह पञ्चम] अधिकरण प्रारम्भ करते है । उसमें पहिले [प्रयम अध्याय में ] 'काव्य-समय' [ काव्य के परम्पराप्राप्त नियम या प्राचार] कहते हैं।
[काव्य में प्राय एक पद का दो बार[एक साय या एक वाक्य में ] प्रयोग नही करना चाहिए।
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२८२ ]
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तौ
[ सूत्र २
एकं पदं न द्विः प्रयोज्यं प्रायेण बाहुल्येन । यथा पयोद पयोद इति । किञ्चिदेव चादिपदं द्विरपि प्रयोक्तव्यमिति । यथासन्तः सन्तः खलाः खलाः ॥ १ ॥
नित्यं संहितैकपदवत् पादेष्वर्धान्तवर्जम् । ५, १, २ ।
एक पद का [ एक साथ या एक वाक्य में ] दो बार प्रयोग अधिकता से नही करना चाहिए । [ क्योकि इस प्रयोग की पुनरुक्ति से काव्य को शोभा नहीं रहती है । और कवि की शक्ति का परिचय मिलता है ] । जैसे 'पयोद पयोद' [ इस प्रकार का प्रयोग किसी कवि ने किया है, वह अनुचित है ] । 'च' श्रदि कोई-कोई पद ही [ एक ही वाक्य मे ] दो बार भी प्रयुक्त हो सकते है । जैसे-
सज्जन [ पुरुष ] सज्जन ही होते हैं और दुष्ट दुष्ट ही ठहरे ।
यहा दूसरा 'सन्त' पद दयाभावनादिविशिष्ट सन्त का बोधक होने से और दूसरा खल शब्द क्रूरत्वादि विशिष्ट खल अर्थ का बोधक होने से विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । इसलिए पुनरुक्त न होने से दोषाधायक नही है ।
वाराणसीय प्रथम सस्करण में इस सूत्र की वृत्ति में 'किञ्चिदिवादिपद द्विरपि प्रयोक्तव्यमिति' इस प्रकार का पाठ दिया हुआ है । इसकी व्याख्या करते हुए त्रिपुरहर भूपाल ने लिखा है
किञ्चिदिति यथा---
ते च प्रापुरुदन्वन्त बुबुधे चादिपुरुष । इति ।
इसे टीकाकार ने 'किञ्चिदिवादिपद' का उदाहरण दिया है । इस उदाहरण में चकार का दो बार प्रयोग किया गया है । इसलिए यह चादि पद के द्वि प्रयोग का उदाहरण हुआ । इससे प्रतीत होता है कि वृत्तिग्रन्थ में च छपने में छूट गया है । और इव के स्थान पर एव पाठ उचित प्रतीत होता है | इसलिए 'किञ्चिदिवादि पद' के स्थान पर 'किञ्चिदेव चादिपद' पाठ होना चाहिए था । 'किञ्चिदिवादिपद' पाठ ठीक नही है । इसीलिए हमने यहा मूल मे 'किञ्चिदेव चादिपद' यह पाठ ही रखा है । आदि पद से पादानुप्रास, पादयमक आदि में द्वि प्रयोग उचित ही है यह बात सूचित की है ॥ १ ॥
काव्य निर्माण करते समय ध्यान रखने योग्य दूसरा नियम या 'काव्यसमय' बतलाते है
एक पद के समान [ श्लोक के ] पादो मे [ आए हुए पदो में ] सन्धि श्रवश्य [ नित्य ] करनी चाहिए । [ श्लोकार्थं रूप ] श्रर्धान्त को छोड़ कर ।
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[ २८३
नित्यं संहिता पादेष्वेकपदवदेकस्मिन्निव पदे । तत्र हि नित्या
सूत्र ३]
पञ्चमाधिकरणे प्रथमोऽध्यायः
संहितेत्याम्नायः । यथा
संहितैकपदे नित्या नित्या धातूपसर्गयोः । इति । श्रर्घान्तवर्जमर्धान्तं वर्जयित्वा ॥ २ ॥
न पादान्तलघोर्गुरुत्वञ्च सर्वत्र । ५, १, ३ ।
।
एक पद के समान अर्थात् जैसे [ सुरेश, महेश आदि ] एक पद में [ सन्धि नित्य अपरिहार्य है ] इसी प्रकार [ श्लोक के प्रथम, द्वितीय प्रथवा तृतीय और चतुर्थ ] [ चरणो में प्राप्त सन्धि ] नित्य [ अपरिहार्य ] सन्धि होनी चाहिए । वहां [ एकपद में, सहिता ] सन्धि नित्य होती है इस प्रकार का [ श्राम्नाय ] शास्त्र वचन है । जैसे----
एक पद में सन्धि नित्य होती है, और धातु तथा उपसर्ग [ के बीच ] में भी नित्य सन्धि होती है ।
यह 'अर्धान्त वर्ज' अर्थात् [ श्लोक के ] अर्धान्त को छोड़ कर ।
अर्थात् ग्लोक के पूर्वार्द्ध के अन्त मे आए हुए और उत्तरार्ध के प्रारम्भ मे आए हुए अक्षरो मे यदि नियम के अनुसार कोई सन्धि प्राप्त होती है तो नित्य सन्धि नही होगी । परन्तु उसको छोड कर श्लोक के पादो मे आए हुए शब्दो मे अथवा प्रथम और द्वितीय चरण के बीच मे या तृतीय और चतुर्थ चरण के बीच मे जहा सन्धि प्राप्त हो वहा सन्धि अवश्य करनी चाहिए । इस प्रकार की सन्धि न करने मे 'विसन्धि' दोप हो जाता है । उसे वामन ने 'विसन्धि' और नए आचार्यो ने 'सन्धि विश्लेप' दोप कहा है । 'दोपाधिकरण' मे इसका निरूपण किया जा चुका है ॥ २ ॥
छन्द शास्त्र मे वृत्त के लघु - गुरु वर्णों की व्याख्या करते हुए 'पादान्तस्थ विकल्पेन' इस नियम के अनुमार पादान्त में स्थित लघु वर्णं विकल्प मे गुरु हो सकता है । अर्थात् पादान्त मे आया हुआ लघु वर्ण आवश्यकतानुसार गुरु या लघु कुछ भी माना जा सकता है । जहा छन्द के लक्षण के अनुमार पादान्त मे लघु अक्षर की आवश्यकता है वहा वह लघु वर्णं गिना जायगा । और जहा गुरु वर्ण की आवश्यकता है वहा पादान्त मे स्थित वह लघु वर्ण गुरु गिना जायगा यह नियम है । इस नियम के विषय में ग्रन्थकार कहते है कि यह नियम सार्वत्रिक नही है । अर्थात् मब छन्दो में यह लागू नही होता है । इन्द्रवजा आदि कुछ छन्दों में अन्तिम लघु वर्ण गुरु हो जाता है परन्तु कुछ छन्दों में वह गुरु नही
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'प्रायोगिक' नाम्नि पञ्चमाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः
[ शब्दशुद्धि: ]
साम्प्रतं शब्दशुद्धिरुच्यते ।
रुद्रावित्येकशेपोऽन्वेष्यः । ५, २, १ ।
रुद्रावित्यत्र प्रयोगे एकशेपोऽन्वेप्योन्चेपणीयः । रुद्रश्च रुद्राणी
'प्रायोगिक' पञ्चम अविकरण में द्वितीय अध्याय
पञ्चम अधिकरण का नाम 'प्रायोगिक' अधिकरण है । इसमें कवियो के लिए शब्द वाक्य आदि के प्रयोग के नियम बतलाए है इसलिए इसका नाम 'प्रायोगिक' अविकरण रखा गया है। इस के प्रथम अध्याय में 'काव्य- समय नाम से काव्य में प्रयुक्त होने वाली सामान्य वातो का उल्लेख किया गया है । इम अध्याय में 'शशुद्धि' के विषय में लिखेंगे । कुछ शब्द ऐसे होते है जो देवने में शुद्ध मालूम होते है परन्तु वास्तव में पाणिनीय व्याकरण के अनुसार उनका प्रयोग उचित नहीं होता है । और कुछ होते हैं जिनको अशुद्ध मानकर कवि लोग उनका प्रयोग नही करते है । पर वास्तव में वह शुद्ध होते है और प्रयुक्त किए जा सकते है । इन दोनो प्रकार के कुछ प्रचलित दो की विवेचना इस अध्याय में करेंगे । सबसे पहले शिव और पार्वनी दोनो के लिए मम्मिलित रूप से होने वाले 'रुद्रों' इस प्रयोग को लेने है ।
शब्द इस प्रकार के
व शब्दगुद्धि का कथन करते है ।
खों' इस [ प्रयोग ] में एकशेप [ का विधान ] खोजना होगा [ श्रर्थात् मिलता नहीं है । अतएव यहां एकशेष करके शिव तथा पार्वती दोनो के लिए 'रुख' यह प्रयोग करना उचित नहीं ] है ।
[ शिव और पार्वती दोनों के लिए सम्मिलित रूप में एकशेष द्वारा ] 'eat' इम प्रयोग में एकशेष [ विधायक सूत्र का ] अन्वेषण करना होगा । रुद्र और [ रुद्रस्य पत्नी ] खाणी [ 'इन्द्रवरुणभवशर्वरुद्रमृडहिमारण्यमातुला
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सूत्र १] पञ्चमाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः [२९७ चेति 'पुमान् स्त्रियाः' इत्येकशेषः । स च न प्राप्नोति । तत्र हि "तल्लक्षणश्वेदेव विशेष' इत्यनुवर्तते । इति तत्रैवकारकरणात् स्त्रीपुंसकृत एव विशेषो भवतीति व्यवस्थितम् । अत्र तु 'पुयोगादाख्यायाम्' इति विशेषान्तरमप्यस्तीति । एतेन इन्द्रौ, भवौ, शवौं इत्यादयः प्रयोगाः प्रत्युक्ताः ॥ १॥
चार्याणामानुक' इस सूत्र से स्त्रीलिंग में ख शब्द से डी प्रत्यय और आनुक का पागम होकर 'रुद्राणी' पद बनता है। ] इस [विग्रह ] में 'पुमान् स्त्रिया' [अष्टाध्यायी १, २, ६७] इस सूत्र से एकशेष हो सकता था। परन्तु वह प्राप्त नहीं होता है। क्योकि उस [ 'पुमान् स्त्रिया' सूत्र ] में [ इससे पहिले के 'वृद्धो यूना तल्लक्षणश्चेदेव विशेषः' अष्टाध्यायी १, २, ६६ सूत्र से ] 'तल्लक्षणश्चेदेव विशेषः' इसको अनुवृत्ति पाती है। उसमें 'एवकार' के होने से . स्त्रीत्व-पुंस्त्वकृत भेद [ में ] हो [ एकशेष ] होता है । [अन्य किसी प्रकार का अन्तर होने पर एकशेष नहीं होता है ] यह व्यवस्था की गई है । यहा ['रुद्रश्च रुद्राणी' च इस विग्रह म] तो 'पुयोगादाख्यायाम्' इससे [ अष्टाध्यायो ४, १, १८ पुरुष के योग से 'रुद्रस्य पत्नी रुद्राणी प्रयवा 'गोपस्य पत्नी गोपी' इत्यादि के समान केवल स्त्रीत्व नहीं अपितु पत्नीत्व रूप] अन्य विशेषता भी है। '[ इसलिए यहां एकशेष नहीं हो सकता है । अत. एकशेष करके शिव और पार्वती दोनो के लिए 'रुद्रौ' पद का प्रयोग अनुचित है ] । इससे ['रुद्रौ' पद में एकशेष की विवेचना से उसी के समान ] 'इन्द्रौ', 'भवौं', 'शवों" इत्यादि ['इन्द्रवरुण-भव-शर्व' इत्यादि अष्टाध्यायी के ४, १, ४९ सूत्र के आधार पर बने हुए पदो में भी एकशेष करके किए हुए] प्रयोगो का भी खण्डन हो गया। [अर्थात् उनका भी एकशेष करके 'भवो', 'शवौं' आदि प्रयोग नहीं करना चाहिए] ॥१॥
"मिलति', 'विक्लवति', 'क्षपयति' इत्यादि प्रयोग महाकवियो ने किए है। परन्तु इनके मूलभूत धातु धातुपाठ मे नही मिलते है । तव यह प्रयोग कैसे बनते है इस प्रकार की शका हो सकती है। इसका समाधान करने के लिए अगला सूत्र कहते है
'अष्टाध्यायी १, २, ६७॥
प्राटाध्यायी १, २, ३६ । 3-अष्टाध्यायी ४, १, ४८ ।
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२९८ ]
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तौ
[ सूत्र २-३
मिलि क्लब-क्षपि प्रभृतीनां धातुत्वं, धातुगणस्यासमाप्तेः ।
५, १, २ ।
मिलति, विक्लबति, क्षपयति इत्यादय. प्रयोगाः । तत्र मिलिक्लब -पि प्रभृतीनां कथं धातुत्वम् । गणपाठाद्, गणपठितानामेव धातुसंज्ञाविधानात् । तत्राह । धातुगणस्यासमाप्तेः । वर्धते धातुगण इति हि शब्दविद श्रचक्षते । तेनैषां गणपाठोऽनुमतः, शिष्टप्रयोगादिति ॥ २ ॥
वलेरात्मनेपदमनित्यं ज्ञापकात् । ५, २, ३
वलेरनुदात्तेत्वादात्मनेपदं यत्, तदनित्यं दृश्यते, 'लज्जालोलं वलन्ती' इत्यादिप्रयोगेषु । तत्कथमित्याह ज्ञापकात् ॥ ३ ॥
''मिलि', 'क्लब' और 'क्षपि' आदि [ धातुपाठ में अपठित ] का धातुत्व है । धातुगण [ धातुपाठ मात्र में समस्त धातुओं ] के समाप्त न होने से [ धातुपाठ के अतिरिक्त धातु भी होते हैं ]
'मिलति', 'विक्लबति', 'क्षपयति' इत्यादि प्रयोग पाए जाते हैं । उनमें [ उनके मूलभूत ] मिलि, क्लब, क्षपि श्रादि का धातुत्व [ धातुपाठ में पठित न होने के कारण ] कैसे होगा ? गणपाठ से, [ भ्वादि ] गण पठितो की ही धातुसंज्ञा का विधान [ "भूवादयो धातवः' इस सूत्र में ] होने से । [ गणो में अपठित मिलि आदि का धातृत्व कैसे होगा, यह प्रश्न हुआ ] ।
इसका उत्तर देते है । धातुगण के [ उसी परिगणित धातुपाठ के भीतर ] समाप्त न होने से [ धातुपाठ के बाहर भी बहुत धातु शिष्ट प्रयोग से मानी जा सकती है । इसीलिए ] धातुगण बढ़ सकता है । यह शब्दशास्त्रज्ञ [ व्याकरण के प्राचार्य ] कहते है । इसलिए इन [ मिलि, क्लब आदि ] का गणपाठ [ धातुत्व ] शिष्ट प्रयोग से श्रभिमत हैं । [ 'प्रभृति' -ग्रहण से 'बीज' 'आन्दोल' आदि का ग्रहण भी करना चाहिए । 'शिष्ट' प्रयोग [ शब्द ] से प्रतिप्रसङ्ग का वारण किया है ॥ २ ॥
'बलि' [ धातु ] का [ अनुदात्तेत् निमित्तक ] श्रात्मनेपद [ चक्षिड् धातु में इकार तथा डकार दो अनुबन्ध करने रूप ] ज्ञापक [बल ] से अनित्य है । [ इसलिए परस्मैपद में भी उसका प्रयोग हो सकता है ] ।
Eff [ धातु ] के अनुदात्त [ इकार के ] इत् होने से [ "अनुवातति
' अप्टाध्यायी १, ३, १ ॥
२ अष्टाध्यायी १, ३, १२
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सूत्र ४ ]
पञ्चमाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः
किं पुनस्तज्ज्ञापकमत आह
[ २९९
चक्षिङो द्व्यनुबन्धकरणम् । ५, २, ४ ।
चचिङ इकारेणैवानुदात्तेन सिद्धमात्मनेपदं किमर्थ डित्करणम् । यत् क्रियते श्रनुदात्तनिमित्तस्यात्मनेपदस्यानित्यत्वज्ञापनार्थम् । एतेन वेदि-भसि तर्जि-प्रभृतयो व्याख्याताः । श्रवेदयति, भर्त्सयति तर्जयति इत्यादीनां प्रयोगाणां दर्शनात् । अन्यत्राप्यनुदात्तनिवन्धनस्य श्रात्मनेपदस्यानित्यत्वं ज्ञापकेन द्रष्टव्यमिति ॥ ४ ॥
श्रात्मनेपदम्' इस सूत्र से विहित ] जो श्रात्मनेपद हुआ है वह 'लज्जालोलं वलन्ती' इत्यादि प्रयोगो में अनित्य दिखलाई देता [ पाया जाता ] है । वह [ 'वलन्ती' पद में परस्मैपदनिमित्तक शतृ प्रत्यय ] कैसे हुआ [ इस शङ्का के होने पर उस के समाधान के लिए ] यह कहते है । [ चक्षिड् धातु में इकार तथा डकार अनुदात्तेत् और डित्करण रूप अनुबन्धद्वय की रचना रूप ] ज्ञापक के होने से । [ अनुदात्तेत् निमितक श्रात्मनेपद की अनित्यता होने से 'वलन्ती' में श्रात्मनेपद को अनित्य मान कर ही कवि ने 'बलन्ती' पद का प्रयोग किया है ] ॥ ३ ॥
[ 'वलन्ती' में अनुदात्तेत् निमित्तक आत्मनेपद की प्रनित्यता का ] वह ज्ञापक क्या है । इसके [ दिखलाने के ] लिए [ अगले सूत्र में ज्ञापक ] कहते है --- afts [ धातु ] के [ इकार और डकार रूप ] दो अनुबन्धों का करना [ ही इस विषय में ज्ञापक है ] ।
चक्षि [ धातु में ] के अनुदात्त 'इकार' [ के इत् होने ] से ही [ 'अनुदातडित श्रात्मनेपदम्' इस सूत्र से ] श्रात्मनेपद सिद्ध हो सकता है फिर डिस्करण किसलिए किया है । जो [ यह डित्करण ] किया है वह अनुदात्तेत् निमित्तक श्रात्मनेपद के अनित्यत्वज्ञापन के लिए [ ही ] किया है । इस [ अनुदात्तेत्-निमित्तक श्रात्मनेपद के श्रनित्यत्व-ज्ञापन ] से वेदि, भत्स, र्ताज प्रभृति [ धातुत्रो में अनुदात्तेत् अर्थात् इकार की इत् सज्ञा होने पर भी प्रात्मनेपद के न होने के कारण ] की व्याख्या हो गई । [ उन धातु के प्रनुदात्तेत्होने पर भी श्रनुदात्तेत्-निमित्तक श्रात्मनेपद के अनित्य होने से ही ] प्रवेदयति, भर्त्सयति, तर्जयति श्रादि [ परस्मैपद के ] प्रयोग देखे जाने से । [ चक्षिड् धातु से ] अन्यत्र भी अनुदात्तनिमित्तक श्रात्मनेपद का प्रनित्यत्व [इस ] ज्ञापक से समझना चाहिए ॥ ४ ॥
इस प्रकार आत्मनेपदी धातुओ के परस्मैपद के रूपो का समर्थन कर आगे परस्मैपदी 'क्षि' ओर खिद आदि धातुओ के 'क्षीयते', 'खिद्यने' आदि आत्मने
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३००]
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती
[सूत्र ५ क्षीयते इति कर्मकर्तरि । ५, २, ५ । क्षीयते इति प्रयोगो दृश्यते । स कर्मकर्तरि द्रष्टव्यः । क्षीयतेरनात्मनेपदित्वात् ॥ ५॥
पद प्रयोगो के समर्थन का प्रकार अगले दो सूत्रो में दिखलाते है। इन दोनो • प्रयोगो का समर्थन ग्रन्थकार ने कर्मकर्ता मे उनका प्रयोग मान कर किया है। जव सौकर्य के अतिशय के द्योतन के लिए कर्तृत्व की अविवक्षा हो जाती है तव कर्म, करण आदि अन्य कारक भी कर्ता का स्थान ग्रहण कर लेते है। जैसे हम कलम से लिखते है । लिखने मे कलम साधन या करण है। परन्तु कभी कभी 'यह कलम वडा अच्छा लिखती है' अथवा 'यह कलम तो चलती ही नहीं इस प्रकार के प्रयोग करते हैं। यहाँ वास्तविक कर्ता मे कर्तृत्व की अविवक्षा होने से करणभूत कलम मे कर्त त्व आ जाता है । 'साध्वसिक्छिन त्ति' आदि प्रयोग ऐसे ही है। इसी प्रकार ओदनं पचति', 'काष्ठ भिनत्ति' आदि वाक्यो मे जव सौक
तिशय द्योतन के लिए कर्तत्व की अविवक्षा होती है तव कर्मरूप ओदन तथा काण्ठ भी कर्ता का स्थान ले लेते है। तव 'पच्यते ओदन स्वयमेव, 'भिद्यते काष्ठ स्वयमेव' इस प्रकार के प्रयोग होते है । इन्ही को कर्मकर्ता मे प्रयोग कहते है । जब कर्म कारक कर्ता का स्थान लेता है तब "कर्मवत् कर्मणा तुल्य क्रिय' सूत्र से कर्मवद्भाव होने से यक्, आत्मनेपद, चिण्वद्भाव, चिण्वद् इट् आदि कार्य होते है । इसलिए जिन धातुओ से साधारणतः कर्ता में प्रत्यय होने की अवस्था में परस्मैपद होता है जैसे 'ओदन पचति'. 'काष्ठ भिनत्ति आदि में उन्ही धातुओ के कर्मकर्ता मे यक् प्रत्यय और आत्मनेपद होकर 'पच्यते ओदन "भिद्यते काण्ठ' इस प्रकार के प्रयोग होते है । यह 'कर्मकर्ता के प्रयोग कहलाते है । इसी प्रकार 'क्षीयतें' तथा 'खिद्यते' प्रयोग भी कर्मकर्ता मे होने से उनमे आत्मनेपद होता है इस बात का प्रतिपादन अगले दो सूत्रो मे करते है।
क्षीयते यह [प्रयोग ] कर्मकर्ता में [ होने से यहां प्रत्मनेपद ] है ।
क्षीयते यह प्रयोग देखा जाता है । वह कर्मकर्ता में समझना चाहिए । "क्षि' धातु के परस्मैपदी होने से ।
क्षि' धातु, धातुपाठ मे तीन जगह आया है। पहिला भ्वादि गण मे 'क्षि क्षये' धातु आया है, वह अकर्मक है । उसका 'क्षयति' रूप वनता है । दूसरा
१अष्टाध्यायी ३, १, ८७ ।
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पञ्चमाषिकरण द्वितीयोऽध्यायः
खिद्यते इति च । ५, २, ६ १
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खिद्यते इति च प्रयोगो दृश्यते । सोऽपि कर्मकर्तर्येव द्रष्टव्यो, न कतेरि । अदैवादिकत्वान् खिढ़ेः ॥ ६ ॥
सूत्र ६]
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[ ३०१
'क्षि हिसायाम्' 'स्वादिगण' मे आया है वहाँ 'क्षिणोति' रूप वनता है । और तीसरा 'क्षि निवासगत्यो' 'तुदादि गण' मे आया है वहा भी परस्मैपदी धातुओ में ही उसका पाठ है इसलिए सभी जगह 'क्षीयते' मे आत्मनेपद का उपपादन कर्मकर्ता मे प्रयोग मान कर ही हो सकता है । 'व्यय धन क्षिणोति' इस वाक्य मे जब व्यय रूप कर्ता मे कर्तुं त्व की अविवक्षा हो जाती है तव कर्मकर्ता मे प्रयोग होकर 'घन स्वयमेव क्षीयते' इस प्रकार का प्रयोग हो जाता है ॥ ५ ॥
और [ इसी प्रकार ] 'खिद्यते' यह [ प्रयोग ] भी [ कर्मकर्ता का ही प्रयोग समझना चाहिए ]
और 'खिद्यते' यह प्रयोग भी पाया जाता है वह भी कर्मकर्ता में [ हो ] समझना चाहिये, कर्ता में नहीं । 'खिद' घातु के [ यहा ] दैवादिक [ दिवादिगणपठित ] न होने से ।
यहा ग्रन्थकार लिख रहे है कि 'खिद' धातु 'दिवादिगण' की नही है। इसलिए 'खिद्यते' रूप केवल कर्मकर्ता मे वन सकता है । कर्ता मे नही । परन्तु ग्रन्थकार का यह मत चिन्त्य है । क्योकि 'दिवादि गण' मे 'खिद दैन्ये' धातु पाया जाता है और वहाँ कर्ता मे ही 'खिद्यते' रूप भी बनता है । वस्तुत 'खिद' धातु भी धातुपाठ में तीन जगह आया है । 'तुदादिगण' मे 'खिद परिघाते' धातु है उसका 'खिन्दति' रूप बनता है । इसके अतिरिक्त' रुघादि' तथा 'दिवादि' गणो मे 'खिद दैन्ये' इस रूप मे 'खिद' धातु का पाठ हुआ है । 'रुघादिगण' मे उसका 'खिन्ते' रूप बनता है और 'दिवादिगण' में 'खिद्यते ' रूप कर्ता मे वनता हैं । 'तुदादिगण' में 'खिद परिघाते' धातु के प्रकरण मे ही सिद्धान्तकौमुदीकार ने 'अय दैन्ये रुधादौ दिवादी च' यह स्पष्ट रूप से लिख भी दिया है । परन्तु वामन मालूम नही किस आधार पर 'अदैवादिकत्वात् खिदे ' अर्थात् खिद धातु दैवादिक~~दिवादिगण पठित नही है, यह लिख रहे है । 'स्थितस्य गतिश्चिन्त - नीया' के अनुसार यदि इसकी सगति लगानी है तो इस प्रकार लगाई जा सकेगी कि वामन ने किसी विशेष स्थल के प्रयोग विशेष को 'परिघातार्थक तुदादिगणीय 'खिद' धातु से बना हुआ मान कर यह लिखा है कि यहा इस विशेष प्रयोग में प्रयुक्त 'खिद' धातु दिवादिगण पठित दैवादिक धातु नही है । इमलिए उम स्थल मे 'खिद्यते' यह प्रयोग कर्मकर्ता मे समझना चाहिए । दिवादिगण पठित खिद
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काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तों
मार्गेरात्मनेपदमलक्ष्म । ५, २, ७ ।
चुरादौ 'मार्ग अन्वेषणे' इति पठ्यते । 'आ धृपाद्वा' इति विकल्पितणिच्कः । तस्माद् यदात्मनेपदं दृश्यते 'मार्गन्तां देहभारमिति' तदलक्ष्म अलक्षणम् । परस्मैपदित्वान्मार्गेः । तथा च शिष्टप्रयोगः
'करकिसलयं धूत्वा धूत्वा विमार्गति वाससी' ॥ ७ ॥
३०२]
[ सूत्र ७-८
लोलमानादयश्चानशि । ५,२,८ ।
ललमानो वल्लमान इत्यादयश्चानशि द्रष्टव्याः । शानचस्त्वभावः । परस्मैपदित्वाद् धातूनामिति ॥ ८ ॥
धातु का तो कर्ता में भी 'खिद्यते' प्रयोग वन सकता है । ग्रन्थकार का यह अभिप्राय मान कर ही प्रकृत ग्रन्थ की संगति लगानी चाहिए ॥ ६ ॥
'मार्ग' थातु का श्रात्मनेपद शुद्ध है ।
'चुरादिगण' में 'मार्ग' श्रन्वेषणे' यह [ धातु ] पढ़ा जाता है । 'आधृषाद् वा' इस नियम से उससे [ चुरादि सुलभ ] णिच् विकल्प से कहा गया है । उस [ 'मार्ग' धातु ] से जो आत्मनेपद देखा है जैसे 'मार्गन्तां देहभारम्' इस प्रयोग में [ मार्ग धातु से लोट् लकार में 'मार्गन्ताम् ' प्रयोग बनता है ]। वह [ श्रलक्ष्म ललणहीन - दूषित ]अशुद्ध है । 'मार्ग' धातु के परस्मैपदी होने से । इसीलिए [ 'मार्ग' धातु का ] शिष्ट प्रयोग [ परस्मैपद में ही किया जाता है ] जैसे—
[ सम्भोग के अनन्तर नग्ना नायिका ] कर किसलय को हिला हिला कर [ नीचे पहनने और ऊपर प्रोढ़ने के ] दोनों वस्त्रों को [ पलंग पर इधर-उधर ] खोजती है ।
यहा 'विमार्गति' यह 'मार्ग' वातु का परस्मैपद में प्रयोग किया गया हैं । यही गिष्टानुमोदित प्रयोग होने से शुद्ध प्रयोग है । और 'मार्गन्ताम्' आदि आत्मनेपद में बनाए हुए 'मार्ग' बातु के प्रयोग अशुद्ध है ॥ ७ ॥
लोलमान श्रादि [ श्रात्मनेपदी सदृश प्रयोग ] चानशू [ प्रत्यय ] में [ बने समझने चाहिएं, आत्मनेपदी धातुश्री से विहित शानच् प्रत्यय से बने हुए नहीं समझने चाहिएं ] 1
नोलमानः बेल्लमानः इत्यादि [ श्रात्मनेपदी धातुग्रो के सदृश दिखलाई
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सूत्र ८]
पञ्चमाधिकरणे द्वितीयोऽध्याय.
[३०३
देने वाले प्रयोग आत्मनेपदी धातु से शानच् प्रत्यय में मुक् का आगम होकर नहीं अपितु परस्मैपदी धातु से ही ] चानश [प्रत्यय] में [ मुगागम करके बनाए हुए ] समझने चाहिए। [उन] धातुओ के परस्मैपदी होने से।[उन धातुओ से परे] शानच [ प्रत्यय ] का अभाव है। [परस्मैपदी धातु से शानच् प्रत्यय नही हो सकता है अतएव 'ताच्छील्यवयोवचनशक्तिषु चान' सूत्र से 'चान' प्रत्यय करके उनकी सिद्धि होती है यह समझना चाहिए ।
___लोलमान, वेल्लमान शब्दो का प्रयोग निम्न श्लोक मे इकट्ठा ही किया गया है
लोलमाननवमौक्तिकहार वेल्लमानचिकुररुलथमाल्यम् । स्विन्नवत्रिमविकस्वरनेत्र कौशल विजयते कलकण्ठया ॥८॥
लभ धातु 'डुलभप् प्राप्तौ' इस रूप मे प्राप्ति अर्थ मे भ्वादिगण में पढा गया है। इस के 'भयन्तावस्था' मे दो प्रकार के प्रयोग काव्यो मे-पाए जाते है । कही तो 'अण्यन्तावस्था' का लभ धातु का कर्ता ण्यन्तावस्था में कर्म हो गया है और उसमे द्वितीया विभक्ति का प्रयोग हो रहा है। और कही अण्यन्तावस्या का लभ धातु का कर्ता ण्यन्तावस्था में कर्म नही हुआ है और उसमे ण्यन्तावस्था मे द्वितीया के बजाय तृतीया विभक्ति का प्रयोग हो रहा है। पहिले प्रकार का उदाहरण
दीधिकासु कुमुदानि विकास लम्भयन्ति गिगिरा शशिभास । है । इसमे 'लम्भयन्ति' यह णिजन्त का प्रयोग है । इसका अण्यन्तावस्था में 'कुमुदानि विकास लभन्ते' इस प्रकार का प्रयोग होता है । इसमे 'कुमुदानि' कर्ता है, 'विकास' कर्म है, लभन्ते' अण्यन्तावस्या की क्रिया है । 'कुमुदानि विकास लभन्ते, तानि शगिभास प्रेरयन्ति' इस प्रकार प्रयोजक कर्ता मे णिच् प्रत्यय करने पर 'शशिभास कुमुदानि विकाम लम्भयन्ति' यह प्रयोग बनता है । इसमें कुमुदानि यह कर्म विभक्ति है और द्वितीया का रूप है। पाणिनि के 'गतिवृद्धिप्रत्यवसानार्थगन्दकर्माकर्मकाणामणि कर्तास णौ' इस मूत्र से गत्यर्थक आदि धातुओ का अण्यन्तावस्था का कर्ता ण्यन्तावस्था मे कर्म सजक हो जाता है । और उसमे द्वितीया विभक्ति होती है । जैसे
'अप्टाध्यायी ३, २, १२९
अष्टाध्यायी १,४,५२
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३०४ ]
कोव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती सूत्र ९ लभेर्गत्यर्थत्वाण्णिच्यणौ कर्तुः कर्मत्वाकर्मत्वे । ५,२, ६ ।
शत्रूनगमयत् स्वर्ग वेदार्थ स्वानवेदयत् । आगयच्चामृत देवान् वेदमध्यापयद्विधिम् ।
आसयत् सलिले पृथिवी य. स मे श्रीहरिगति ॥ इसी प्रकार 'शशिभास कुमुदानि विकास लम्भयन्ति' यह प्रयोग किया गया है । इसमें लभ धातु के प्राप्त्यर्थक होने पर भी उसमे गति का प्राधान्य
और प्राप्ति की गौणता होने से गत्यर्थक मान कर अण्यन्तावस्था का कर्ता ण्यन्तावस्था मे कर्म हो गया है।
दूसरे उदाहरण मे 'सुतरा सित मुनेर्वपु विसारिभि , द्विजावलिव्याजनिगाकराशुभि सितिम्ना लम्भयन् अच्युत शुचिस्मिता वाचमवोचत्' इस दूसरे उदाहरण में 'सितिमा मुनेर्वपु लभते' श्वेतिमा मुनि नारद के शरीर को प्राप्त करती है त कृष्ण प्रेरयति' कृष्ण उसको प्रेरित करते है, इसलिए कृष्ण नारद मुनि के शरीर को शुक्लता से युक्त करते हुए बोले । यहा अण्यन्तावस्या के कर्ता की कर्म सज्ञाहोकर द्वितीया विभक्ति नही हुई है। अपितु कर्ता के उसके कर्तृकरगयोस्तृतीया' इस सूत्र से उसके कर्ता मे तृतीया विभक्ति होती है। यहा कर्मसज्ञा न होने का कारण लभ धातु की गत्यर्थता का न होना है । लभ धातु का साधारण अर्थ तो धातुपाठ के अनुसार प्राप्ति है । परन्तु वह प्राप्ति गतिपूर्वक ही होती है । उसमे कही गति का प्राधान्य और प्राप्ति का अप्राधान्य होता है तथा कही प्राप्ति का प्राधान्य और गति का अप्राधान्य होता है। इनमे से जहा गति का प्राधान्य होता है वहा धातु को गत्यर्थक मान कर 'गतिबुद्धिप्रत्यवसानार्थ शब्दकर्माकर्मकाणामणि कर्ता स णौ' इस सूत्र से अण्यन्तावस्था के कर्ता की ण्यन्तावस्था में कर्म सज्ञा होती है। और उसमे द्वितीया विभक्ति का प्रयोग होता है । और जहा प्राप्ति का प्राधान्य होता है गति गौण होती है वहा लभ धातु को गत्यर्थक नही माना जा सकता है अतएव वहा अण्यन्त अवस्था का कता कर्मसजक नही होता है । वहा कर्ता मे तृतीया विभक्ति होजाती है इस प्रकार लभ धातु के ण्यन्तावस्था में यह दो प्रकार के प्रयोग पाए जाते है। इस वात को ग्रन्थकार अगले सूत्र में कहते है -
लभ धातु के गत्यर्थक होने [ और कही गत्यर्थक न होने से णिजन्त अष्टाध्यायी २, ३, १८ । अप्टाध्यायी १,४,५२ ।
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सूत्र ९]
पञ्चमाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः
[ ३०५
अस्त्ययं लभिर्य: प्राप्त्युपसर्जनां गतिमाह । अस्ति च गत्युपसर्जन प्राप्तिमाहेति । अत्र पूर्वस्मिन् पक्षे गत्यर्थत्वाभावाल्लभेर्णिच्यणौ कर्ता तस्य 'गत्यादिसूत्रेण कर्मसंज्ञा । यथा
दीर्घिका कुमुदानि विकास लम्भयन्ति शिशिराः शशिभासः । द्वितीयपक्षे गत्यर्थन्वाभावाल्लभेणिच्यौ कतुर्न कर्मसंज्ञा ।
यथा
सितं सितिम्ना सुतरां मुनेर्वपु
विसारिभिः सौधमिवाथ लम्भयन् ।
द्विजावलिव्याज निशाकरांशुभिः शुचिस्मितां
[ मे प्रयोजक कर्ता की अवस्था ] में श्रण्यन्त श्रवस्या के कर्ता का कर्मत्व और अकर्मत्व [ कहीं कर्मसंज्ञा और कहीं उसका प्रभाव ] होता है ।
वाचमवोचदच्युतः ॥ ६ ॥
एक इस प्रकार का लभ धातु [ का प्रयोग ] है जो, प्राप्ति जिसमें उपसर्जन [ गुणीभूत ] है ऐसी गति को कहता है । और [ दूसरा इस प्रकार का लभ धातु का प्रयोग है ] जो, गति जिसमें उपसंर्जनीभूत है इस प्रकार की प्राप्ति को कहता है । उन [ दोनो में से प्राप्ति जिसमें गुणीभूत है ऐसे गतिप्रधान ] प्रथम पक्ष में लभ धातु के गत्यर्थक [ गतिप्रधानार्थक ] होने से श्रण्यन्तावस्था में जो कर्ता उसकी [ 'गतिबुद्धिप्रत्यवसानार्थ शब्दकर्माकर्मकाणामणि कर्ता स 'ण' इत्यादि ] गत्यादि सूत्र से कर्मसज्ञा हो जाती है । जैसे-
चन्द्रमा की शीतल किरणें बावडियो में कुमुदो को खिलाती [ विकास को प्राप्त कराती ] है ।
--
यहा कुमुद विकास को प्राप्त करते है इस बण्यन्तावस्था के वाक्य मे कुमुद कर्ता है । गीतल शशिकिरणे कुमुदो को विकास प्राप्त करवाती है । इस णिजन्तावस्था मे प्रयोजक कर्ता गशिकिरणे है । और अण्यन्तावस्था का कर्ता कुमुद यहा कर्म हो गया है ।
[ प्राप्ति प्रधान ] दूसरे पक्ष में [ लभ धातु के ] गत्यर्थक न होने से णिजन्त में ण्यन्तावस्था के कर्ता को कर्म संज्ञा नहीं होती है । जैसे
स्वभावत: गौर वर्ण [ नारद ] मुनि के शरीर को [ चारो श्रोर ] फैलने
अष्टाध्यायी १, ४, ५२ । अष्टाध्यायी १, ४, ५२ ।
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३०६] काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती [सूत्र १०-११
ते मे शब्दौ निपातेषु ॥ ५,२,१० ॥ त्वया मयेत्यस्मिन्नर्थे ते मे शब्दौ निपातेषु द्रष्टव्यौ । यथा
श्रुतं ते वचनं तस्य ।
वेदानधीत इति नाधिगतं पुरा मे ॥१०॥ तिरस्कृत इति परिभूतेऽन्तध्युपचारात् ॥ ५,२,११॥ वाली दन्तपक्ति के बहाने चन्द्रमा की किरणो से [ और भी अधिक ] श्वेतिमा को प्राप्त कराते हुए कृष्ण जी शुभ्रस्मित युक्त वाणी बोले।
यहा 'लम्भयन्' यह ण्यन्तावस्था की क्रिया है उसका अण्यन्तावस्था का कर्ता 'सितिमा' है । परन्तु यहा गत्यर्थ की प्रधानता न होने से 'गतिबुद्धि' इत्यादि सूत्र से 'सितिमा' की कर्म सज्ञा नही हुई। तब 'कर्तृकरणयोस्तृतीया इस सूत्र से उसमे तृतीया होकर 'सितिम्ना लम्भयन्' यह प्रयोग बना है ॥ ९ ॥
__ युष्मद्-अस्मद् शब्द के षष्ठी और चतुर्थी विभक्ति के एकवचन मे 'तुभ्य', 'ते' और 'तव', 'ते' यह दो प्रकार के रूप बनते, है । परन्तु इन दो विभक्तियो के अतिरिक्त कही-कही तृतीयादि विभक्ति मे भी 'ते' 'मे' पदो का प्रयोग देखा जाता है । जैसे 'श्रुत ते वचन तस्य' यहाँ 'त्वया के स्थान पर 'ते' प्रयुक्त किया गया है । वेदानधीते इति नाधिगत पुरा में यहाँ 'मे नाधिगत' का अर्थ 'मया नाधिगतम्' है । इस प्रकार इन उदाहरणो मे तृतीया विभक्ति में 'ते', 'मैं' शब्दो का प्रयोग कैसे हुआ है यह शङ्का होती है। उसका समाधान ग्रन्थकार यह करते है कि 'ते', 'मे' शब्दो का निपातो मे पाठ मान कर यहा प्रयोग किया गया है। इसी बात को अगले सूत्र मे कहते है
'ते', 'मे' शब्द निपातो में [पठित ] है।
'त्वया' 'मया' इस [तृतीयान्त के ] अर्थ में ते[त्वया ], 'मे' [ मया ] शब्द निपातो में देखने चाहिएं । जैसे-- ।
तुमने उसका वचन सुना। [वह ] वेद पढता है यह बात मैने पहले नही जानी ।
[इन दोनो उदाहरणो मे निपात पठित 'ते', 'मे' शब्दो का प्रयोग समझना चाहिए] ॥१०॥
'तिरस्कृत' यह [ शब्द ] परिभूत अपमानित] अर्थ में मन्तर्धान [छिप जाने ] के सादृश्य से [ गौणीवृत्ति लक्षणा से प्रयुक्त होता है।
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सूत्र ११]
पञ्चमाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः [३०७ तिरस्कृत इति शब्दः परिभूते दृश्यते । 'राज्ञा तिरस्कृत' इति । स च न प्राप्नोति । तिरः शब्दस्य हि "तिरोऽन्तधौं" इत्यन्तधौं गतिसंबा । तस्यां च सत्यां "तिरसोऽन्यतरस्याम्" इति सकारः । तत्कथं तिरस्कृत इति परिभूते।
आह, अन्तध्यु पचारात्, इति । परिभूतो ह्यन्तर्हिनवद् भवति । मुख्यस्तु प्रयोगो यथा
लावण्यप्रसरतिरस्कृताङ्गलेखाम् ॥ ११ ॥ "तिरस्कृतः' यह शब्द अपमानित इस अर्थ में [प्रयुक्त हुआ ] देखा जाता है। जैसे ] 'राजा से तिरस्कृत [राजा से अपमानित]। वह[परिभूत या अपमानित अर्थ में तिरस्कृत शब्द का प्रयोग व्याकरण के नियमानुसार ] प्राप्त नहीं होता है । तिरः' शब्द को अन्तर्धान [अर्थ ] में "तिरोऽन्तौसूत्र से गति सज्ञा होती है । और उस [ गतिसंज्ञा ] के हो जाने पर तिरसोऽन्यतरस्याम्' इस सूत्र से [विसर्ग को क के परे रहते ] सकार [ होकर 'तिरस्कृत' यह रूप] होता है । तब परिभूत अर्थ में [ गतिसज्ञा न होने से ] तिरस्कृत' यह [प्रयोग] कैसे होगा।
[इस शङ्का के होने पर उसके समाधान के लिए ] कहते है । अन्तर्धान का [ अपमानित में ] सादृश्य होने से । अपमानित [व्यक्ति ] अन्तहित के समान [अलक्ष्य, उपेक्षित ] हो जाता है। [इसलिए सादृश्य लक्षणा से परिभूत के लिए भी तिरस्कृत शब्द का प्रयोग किया जा सकता है। इस तिरस्कृत शब्द का ] मुख्य प्रयोग तो [ इस प्रकार के उदाहरणो में समझना चाहिए] जैसे
सौन्दर्य के प्रसार से जिसकी देह रेखाएं छिप गई है [ ऐसी सुन्दरी को] ॥ ११॥
निपेष के अर्थ मे नन् का प्रयोग होता है। इसका "नन्' इम मूत्र से सुवन्त के माथ समाम होता है। उसके बाद नलोपो नत्र ' इम सूत्र से उत्तरपद परे रहते नन् के न का लोप हो जाता है। उसके बाद यदि 'द्वितीय' आदि उत्तरपद परे है तव अद्वितीय स्प बन जाता है। परन्तु जहाँ अजादि 'एक' आदि
1-3 अष्टाध्यायी १, ४, ७१ । २-१ अप्टाध्यायी ८, ३, ४२।
५ अप्टाघ्यायो २, २, । ६ अष्टाध्यायी ६,३.७।
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३०८]
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती
[ सूत्र १२ नैकशब्दः सुप्सुपेति समासात् ॥ ५,२,१२ ॥
अरण्यानीस्थानं फलनमितनैकद्र ममिदम् । इत्यादिषु नैकशब्दो दृश्यते । स च न सिद्धयति । नसमासे हि "नलोपो नमः' इति नलोपे "तस्मान्नुडचि' इति नुडागमे सति अनेकमिति रूपं स्यात् । निरनुबन्धस्य न शब्दस्य समासे लक्षणं नास्ति । तत्कथं 'नक' शब्द इत्याह । सुप्सुपेति समासात् ॥१२॥
गब्द परे हो वहाँ 'तस्मान्नुडचि' इस सूत्रसे लुप्त नकार नन्' से परे, अजादि 'एक' के पूर्व 'नुट्' का आगम होकर 'अनेक' पद बनता है । इसलिए नन् का 'एक' पद के माथ समास होकर अनेक' यह रूप बनता है । 'नैक' पद नही बनता है । 'नन के अतिरिक्त निपेधार्थ मे 'न' पद भी हो सकता है। परन्तु उसके समास का विधायक कोई सूत्र नही है । 'नन्' इस सूत्र से 'नन्' का ही समास होता है 'न' का नही । तव 'नैक' पद का प्रयोग कैसे होता है । यह शङ्का है। इसका उत्तर ग्रन्थकार ने यह दिया है कि 'नक' इस पद मे नम् का नहीं अपितु निषेधार्थक केवल 'न' पद का 'एक' पद के साथ सुप्सुपा'-'सुबन्त सुबन्तेन सह ममस्यते' इस नियम के अनुसार समास करके 'नक' पद का प्रयोग किया जाता है । इमी वात को अगले सूत्र में कहते है
'नेक' शब्द [ का प्रयोग] सुप्सुपा [ इस नियम के अनुसार किए हुए] समास से [ सिद्ध होता है ।
यह वनस्थान फलो से झुके हुए अनेक वृक्षो से युक्त है।
इत्यादि [ उदाहरणो ] में 'नक' शब्द का प्रयोग ] देखा जाता है। [परन्तु व्याकरण के नियम के अनुसार ] वह सिद्ध नही होता है। क्योकि 'मन' सूत्र मे] नम् समास होने पर 'नलोपो नमः' इस सूत्र से [ नन के ] न का लोप होने पर और तस्मान्नडचि' इस सत्र से नडागम करने पर 'अनकम्' यह रूप [ मिद्ध ] होगा।['नकम्' यह सिद्ध नहीं होगा। और नकार रूप ] अनुबन्ध रहित [ केवल ] न शब्द का समास होने का [ विधायक ] सूत्र नहीं है। तब 'नक' इस शब्द [ की सिद्धि ] को होगी [ इस शडा का समाधान करने ] के लिए कहते है। 'सुप्सपा' इस नियम 7 से समास होने से [ 'नैक' शब्द सिद्ध होता है।
१-४ सप्टाध्यायी ६, ३, ७२। 1-3 अप्टाध्यायी ६, ३, ७३ ।
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सूत्र १३] पञ्चमाधिकरणे द्वितीयोऽध्याय [३०९ मधुपिपासुप्रभृतीनांसमासो गमिगाम्यादिषु पाठात् ॥५,२,१३।।
मधुपिपासुमधुव्रतसेवितं मुकुलजालमजृम्भत वीरुधाम् ।
इत्यादिषु मधुपिपासुप्रभृतीनां समासो गमिगाम्यादिपु पिपासुप्रभृतीनां पाठान् । श्रितादिषु गमिगाम्यादीनां द्वितीयासमासलक्षणं दर्शयति ॥१३॥
'सुप्सुपा' समास का अभिप्राय यह है कि महाभाष्यकार ने 'सह सुपा' सूत्र का योग-विभाग कर जो 'सुवन्त सुवन्तेन सह समस्यते' यह नियम बनाया है उसके अनुसार 'न' और 'एक' पद का समास होकर 'नक' पद सिद्ध किया जा सकता है ॥ १२ ॥
समास के प्रसग मे 'मधुपिपासु' सदृश समासो का विषय भी सदिग्ध हो सकता है इसलिए उसका स्पष्टीकरण करने के लिए अगला सूत्र लिखते है। 'मधुपिपासु' मे मधु को पीने की इच्छा वाला इस प्रकार का द्वितीण समास अथवा मधु का पिपासु इस प्रकार का षष्ठी तत्पुरुप समाम हो सकता है। परन्तु द्वितीया समास के विधायक २'द्वितीयाश्रितातीतपतितगतात्यस्तप्राप्तापन्न' इस सूत्र मे पिपासु आदि पदो का पाठ न होने से द्वितीया तत्पुरुष नहीं हो सकता है । और 'न लोकाव्ययनिष्ठाखलर्थतनाम्' इस सूत्र से 'पिपामु' 'दिदृक्षु आदि 'उ' प्रत्ययान्तो के, योग में पप्ठी विभक्ति का ही निपेध होने मे पछीतत्पुरुप समास भी नही हो मकता है। तव 'मधुपिपासु' आदि प्रयोग कैने वन सकते है। यह शङ्का होती है । उसका समाधान यह करते है कि इस प्रकार के प्रयोगो मे 'गमिगाम्यादीनामुपसख्यानम्' इस वार्तिक के अनुसार द्वितीया तत्पुरुप समास हो सकता है। इसी बात को अगले सूत्र में कहते है।
मधुपिपासु इत्यादि [ पदो] का[ द्वितीया तत्पुरुष ] समास [ 'गमिगाम्यादीनामुपसंख्यानम्' इस वार्तिक के अन्तर्गत ] गमिगाम्यादिको में पाठ होने से [ हो जाता है।
मघुपिपासु भूमरकुल से सेवित लताओ का पुष्पसमूह विकसित हुआ। इत्यादि [ प्रयोगो ] में 'मधुपिपासु' इत्यादि [ शब्दो] का ममास 'गमिगाम्या
१ अप्टाध्यायी २, १, ४। २ अष्टाध्यायी २, १, २४ । ३ अप्टाध्यायी २, ३, ६९ ।
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३१०]
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती [सूत्र १४-१५ त्रिवलीशब्दः सिद्धः सज्ञा चेत् । ५, २, १४ ।
त्रिवलीशब्दः सिद्धो यदि संज्ञा । "दिक्संख्ये संज्ञायाम्' इति संज्ञायामेव समासविधानात् ॥ १४ ॥
बिम्बाधर इति वृत्तौ मध्यमपदलोपिन्याम् । ५, २, १५। . दिको' में 'पिपासु प्रभृति [ पदो ] का पाठ होने से [ हो सकता है। श्रितादि' में 'गमिगाम्यादिको' के [ द्वितीया तत्पुरष ] समास का विधान [ विधायक सूत्र ] दिखलाया है ॥ १३ ॥
समास के प्रसग मे ही 'त्रिवली' शब्द का समास भी सन्देहास्पद हो सकता है । यदि त्रिवली शब्द असज्ञा हो तो उसमे "तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे च' इस सूत्र से सख्यावाचक 'त्रि' शब्द का 'वली' के साथ समास कहा जा सकता है । परन्तु यहाँ ‘पञ्चकपाल' के समान 'तद्धितार्थ' विपय नही है । और न 'पञ्चगवधन' के समान 'उत्तरपद' विषय है और नही 'पञ्चपात्र' इत्यादि के समान 'समाहार' विवक्षित है क्योकि समाहार पक्ष मानने पर "स नपुसकम्' इस सूत्र के अनुसार 'त्रिवली' पद नपुसक लिग हो जाना चाहिए था। इसलिए 'तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे च' इस सूत्र से समास नही हो सकता है। यह शङ्का होती है । इसका समाधान सूत्रकार इस प्रकार करते है. कि 'त्रिवली' शब्द को सज्ञा शब्द मान कर 'दिक्सख्ये सज्ञायाम्' इस सूत्र से 'त्र्यवयवा वली त्रिवली' इस विग्रह मे समास होकर 'त्रिवली' पद सिद्ध होता है । यह वात अगले सूत्र मे कहते है ।
त्रिवली शब्द [ का समास ] सिद्ध है यदि वह संज्ञा है।
'त्रिवली' शब्द सिद्ध है यदि संज्ञा है। 'दिकसंख्ये सज्ञायाम् [अष्टाध्यायी २, १५० ] इस [ सूत्र] से संज्ञा में ही समास का विधान होने से।
'त्रिवली' शब्द का प्रयोग निम्न उदाहरण मे पाया जाता है। कोणस्त्रिवल्येव कुचावलावूस्तस्यास्तु दण्डस्तनुरोमराजि। हारोऽपि तन्त्रीरिति मन्मथस्य सगीतविद्यासरलस्य वीणा ॥ १४ ॥
'बिम्बाधर' यह [ समस्त पद ] मध्यमपदलोपी समास होने पर [ सिद्ध हो सकता है। १- अष्टाध्यायी २, १, ५० । २ अष्टाध्यायी २, १,५१ ।
अष्टाध्यायी २, ४, १७ । * अष्टाध्यायी २, १,५१ ।
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सूत्र १६ ]
पञ्चमाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः
[ ३११
'बिम्बाधरः पीयते' इति प्रयोगो दृश्यते । स च न युक्त: । 'अधरविम्ब' इति भवितव्यम् । उपमितं व्याघ्रादिभि' रिति समासे सति कथं बिम्वाधर इत्याह । वृत्तौ मध्यमपदलोपिन्याम् । 'शाकपार्थिवत्वात्' समासे । मध्यमपदलोपिनि समासे सति विम्बाकारोऽधरो विम्बाधर इति । तेन बिम्बोष्ठशब्दोऽपि व्याख्यात । अत्रापि पूर्ववद् वृत्तिः । शिष्टप्रयोगेषु चैप विधिः । तेन नातिप्रसङ्गः ॥ १५ ॥
आमूललोलादिषु वृत्तिर्विस्पष्टपटुवत् । ५, २, १६ । 'आमूललोलम्' 'आमूलसरसम्' इत्यादिषु वृत्तिर्विस्पष्टपटुवन् * मयूरव्यंसकादित्वात् ॥ १६ ॥
'बिम्बाधरः पीयते' इस प्रकार का प्रयोग पाया जाता है । वह उचित नहीं है । [ अधरो बिम्बमिव इस विग्रह में ] 'उपमितं व्याघ्रादिभिः सामान्याप्रयोगे' इस सूत्र से समास होने पर 'घरबिम्ब' यह [ प्रयोग ] होना चाहिए । [ बिम्बाधर नहीं ] तो 'बिम्बाधर' प्रयोग कैसे होता है । इस [ शङ्का के होने ] पर [ उसके समाधान के लिए ] कहते हैं । [ 'बिम्बाकारोऽघर: बिम्बाधरः इस प्रकार 'आकार' रूप ] मध्यमपदलोपी वृत्ति में 'शाकपार्थिवत्वात् समास होने पर [ बिम्बाधर पद बनता है । श्रर्थात् 'शाकपार्थिवादीना सिद्धये उत्तरपदलोपस्योपसख्यानम्' इस वार्तिक से 'शाकप्रिय. पार्थिव शाकपार्थिवः' के समान 'शाकपार्थिवत्वात्' ] । मध्यमपदलोपी समास करने पर 'बिम्बाकारो श्रवरः बिम्बाधर.' इस प्रकार 'बिम्बाधर' यह [ पद बन सकता ] है । इसी से 'विम्बोष्ठ' शब्द की भी व्याख्या हो गई । [ यहा 'विम्वाकार ओष्ठ' इस विग्रह में 'शाकपार्थिवत्वात्' मव्यमपदलोपी समास होकर 'बिम्बोष्ठ ' पद सिद्ध हो सकता है ] । यहा भी पूर्व [ बिम्बाधर ] के समान [ मध्यमपदलोपी ] समास है । यह प्रकार शिष्ट प्रयोगो के लिए ही है। इसलिए [ 'व्याघ्राकारः पुरुष व्याघुपुरुष' इस प्रकार के नए प्रयोग में ] प्रतिव्याप्ति नही हो सकती है ॥१५॥
'श्रमूललोलम्' इत्यादि में 'विस्पष्टपटु' के समान [ ४" मयूरव्यसकादयश्च' इस सूत्र से श्रविहितलक्षण तत्पुरुष समास होता है ] ।
‘नामूललोलम्’ ‘श्रामूलसरसम् इत्यादि [ प्रयोगो ] में 'विस्पष्ट पटु' के समान 'मयूरव्यसकादित्वात्' समास होता है ॥ १६ ॥
१- ३ अष्टाध्यायी २, १, ५६ ।
२-४ अप्टाध्यायी २, १,७८ ।
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काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तो
[ सूत्र १७-१८
न धान्यपष्ठादिषु पष्ठीसमासप्रतिषेधः 'पूरणेनान्यतद्धि
तान्तत्वात् ।। ५, २, १७ ।
'धान्यपष्ठम्', 'तान्युच्छपष्ठाङ्कितसैकतानि' इत्यादिपु न षष्ठीसमासप्रतिषेधः । पूरणेन, पूरणप्रत्ययान्तेनान्यतद्धितान्तत्वात् । षष्ठो 'भागः षष्ठ इति "पूरणाद्भागे तीयादन्' "पष्ठाष्टमाभ्यां न च' इत्यन विधानात् स प्राप्तः ॥ १७ ॥
३१२ ]
पत्रपीतिमादिषु गुणवचनेन । ५२, १८ ।
'पत्रपीतिमा, पचमाली - पिङ्गिलिमा' इत्यादिपु पष्ठीसमासप्रतिषेधो गुणवचनेन प्राप्तो, बालिश्यान्तु न कृतः ॥ १८ ॥
3
'धान्यषष्ठः' इत्यादि [ प्रयोगो ] में पूरण-गुण-सुहितार्थ सदव्यय-तव्यसमानाधिकरणेन' [ इत्यादि सूत्र से 'सतां षष्ठः' के समान ] षष्ठी समास का प्रतिषेध नहीं होता है । [ क्योकि 'धान्यषष्ठः' में प्रयुक्त षष्ठ शब्द के ] पूरण, [ श्रर्थक प्रत्यय ] से अन्य [ ४' पूरणाद्भागे तीयादन्', इस सूत्र के अधिकार में 'पष्ठाष्टमाभ्यां न च' ५, ३, ५० इस सूत्र से श्रन् प्रत्यय रूप ] तद्धितान्त होने से ।
'धान्यषष्ठम्' 'उञ्छषष्ठ से श्रङ्कित बालू वाले' [ प्रयोगों] में [पूरणगुणसुहितार्थसदव्ययतव्यसमानाधिकरणेन २, २, ११ इस सूत्र से 'षष्ठ' शब्द को 'पूरणप्रत्ययान्त' मान कर ] षष्ठी समास का निषेध नहीं किया जा सकता है [ क्योकि पण्ठ शब्द में ] पूरण अर्थात् पूरण प्रत्ययान्त से श्रन्य [ 'पूरणाद्भागे तीयादन् ' ५, ३, ४८ के अधिकार में 'बष्ठाष्टमाभ्यां न च' ५, ३, ५० इस सूत्र से विहित 'अन्' प्रत्यय रूप ] तद्धितान्त होने से । 'षष्ठो भागः षष्ठ' इस [ विग्रह ] में 'पूरणाद्भागे तीयादन्' [ की अनुवृत्ति मे ] ' षष्ठाष्टमाभ्या च' [ ५,३, ५० ] इस से अन् का विधान होने से वह [ षण्ठी तत्पुरुष समास ] प्राप्त है ॥१७॥
'पत्रपोतिमा' इत्यादि [ प्रयोगों] में [ पीतिमा रूप ] गुण [ का ] वचन होने से [ ‘पूरणगुण' इत्यादि पूर्वोक्त सूत्र के अनुसार षष्ठी समास का निषेध होना चाहिए । वह नहीं किया गया है । श्रतः यह प्रयोग दूषित है ] 1 'पत्रपोतिमा', 'पक्ष्मालीपिङ्गलिमा' इत्यादि [ प्रयोगो ] में गुणवचन
१- ४ श्रष्टाध्यायी ५, ३, ४८ ।
* श्रष्टाध्यायी ५, ३, ५० । अष्टाध्यायो २२.११ ।
"
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सूत्र १९ ]
पञ्चमाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः
[ ३१३
अवर्ज्यो बहुव्रीहिर्व्यधिकरणो जन्माद्युत्तरपदः । ५, २, १६ । अवर्थो न वर्जनीयो व्यधिकरणो बहुव्रीहिः । जन्माद्युत्तरपदं यस्य स जन्माद्युत्तरपदः ।
यथा—
'सच्छास्त्रजन्मा हि विवेकलाभ:' । 'कान्तवृत्तयः प्रारणा' इति ॥ १६ ॥
[ पीतिमा, पिङ्गलिमा आदि गुणो का कथन होने ] से गुणवचन से [ अर्थात् 'पूरणगुण' इत्यादि पूर्वोक्त सूत्र से ] षष्ठी समास का प्रतिषेध प्राप्त है । [ परन्तु इन प्रयोगो में प्रयोगकर्ता ने ] सूर्खतावश [ समास का निषेध ] नहीं किया [ अर्थात् समास कर दिया ] है । [ अत. यह प्रयोग दूषित है ] ।
सिद्धान्तकौमुदीकार ने 'अनित्योऽय गुणेन निषेध. । तदशिप्य सज्ञाप्रमाणत्वात् इत्यादिनिर्देशात्' लिख कर इस गुण के साथ षष्ठी समास के प्रतिषेध की अनित्यता सूचित की है। उस दशा में यह गिष्टप्रयोग वन सकते है । यह अन्य लोगो का मत है ॥ १८ ॥
जन्मादि उत्तरपद वाला बहुव्रीहि [ समास ] श्रवर्जनीय है ।
यद्यपि साधारणत. ' पीत अम्बर यस्य स पीताम्बर' आदि के समान बहुव्रीहि समास मे समस्यमान दोनो पदो का सामानाधिकरण्य अर्थात् विशेष रूप से प्रथमान्तत्व ही होता है । इसका प्रतिपादन 'बहुव्रीहि समानाविकरणानाम्' इम वार्तिक मे किया गया है । परन्तु इम वार्तिक का बाघक 'न वा नभिधानादसमानाधिकरणेषु समामसजाभाव' यह बार्तिक भी पाया जाता है । इस वार्तिक मे व्यधिकरण समास का भी समर्थन होता है इसलिए जन्मादि के उत्तरपद होने पर व्यधिकरण बहुव्रीहि भी हो सकता है यह तात्पर्य है ।
व्यधिकरण बहुव्रीहि अवर्ण्य अर्थात् वर्जनीय [ निषिद्ध ] नहीं है । जन्मादि [ पद ] जिसके उत्तरपद है वह जन्माद्युत्तरपद वाला [ व्यधिकरण 'बहुव्रीहि समास वर्जनीय नही है ] ।
जैसे
'सच्छास्त्रजन्मा हि विवेकलाभ ' [ में 'सच्छास्त्रात् जन्म यस्य' इस बहुव्रीहि में सच्छास्त्रात् पञ्चमी विभक्ति और 'जन्म' प्रयमान्त होने से व्यधिकरण बहुव्रीहि हं ] और 'कान्तवृत्तयः प्राणा.' [ में कान्ते प्रिये वृत्तिर्येषां ते कान्तवृत्तय' में 'कान्ते' सप्तम्यन्त तया 'वृत्ति.' प्रथमान्त होने मे व्यधिकरण बहुव्रीहि है ] ॥ १९ ॥
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३१४ ]
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तौ
[ सूत्र २०
हस्ताग्राग्रहस्तादयो गुणगुणिनोर्भेदाभेदात् । ५, २, २० ।
हस्ताग्रम् अग्रहस्तः, पुष्पाग्रम्, अग्रपुष्पमित्यादयः प्रयोगाः कथम् । श्राहिताग्न्यादिषु पाठात् । पाठे वा तदनियमः स्यात् । श्रह, गुणगुणिनोर्भेदाभेदात् । तत्र भेदाद् हस्ताम्रादयः अभेदादप्रहस्तादयः ॥ २० ॥
१
'हस्तान' तथा 'अग्रहस्त' आदि [ प्रयोग ] गुण-गुणी के भेद और प्रभेद [ सिद्ध हो सकते ] है ।
'हस्ताग्रम्', 'अग्रहस्तः', 'पुष्पाग्रम्' और 'अग्रपुष्पम्' इत्यादि [ परस्पर भिन्न ] प्रयोग कैसे [ सिद्ध ] होते हे । [ श्राहिताग्नि गण में पठित शब्दो में .. 'वाहिताग्न्यादिषु' इस सूत्र से विकल्प होने के कारण 'श्राहिताग्निः' और 'अग्न्याहितः' यह दोनो प्रकार के प्रयोग देखे जाते है । उसी प्रकार इन 'हस्ताग्रम्' 'अग्रहस्त' श्रादि प्रयोगो को सिद्ध करना चाहे तो वह भी नही हो सकता है ] । 'आहिताग्नि आदि' [ गण ] मे [ हस्ताग्रम्, अग्रहस्तः श्रादि का ] पाठ न होने से । [ और यदि 'आहिताग्नि गण' को 'श्राकृतिगण' मान कर उसमें अपठित 'हस्ताग्रम्' आदि शब्दो का पाठ मानना चाहे तो भी उचित नही होगा क्योकि वह सूत्र बहुव्रीहि समास के प्रकरण का है और 'हस्तानम्' आदि में षष्ठीतत्पुरुष समास ही सङ्गत हो सकता है बहुव्रीहि नही । इसलिए 'श्राहिताग्नि गण' में हस्ताग्रम् श्रादि का ] पाठ मानने पर उस [ 'वाहिताग्न्यादिषु' इस सूत्र ] का [ बहुव्रीहि समासविषयक ] नियम नहीं बनेगा । [ यह शङ्का हो सकती है ] इसलिए [ उसके समाधानार्थ ] कहते है । गुण और गुणी के भेद तथा भेद से [ यह द्विविध प्रयोग बनते है । यहां गुण शब्द का अर्थ अवयत है । 'अत्र गुणशब्देन परार्थत्वसादृश्यादवयवा लक्ष्यन्ते ] | उसमें [ हस्त रूप गुणी और उसके अवयव भूत श्रग्न रूप गुण का ] भेद [ मानने ] से [ 'हस्तस्य अग्नम्' इस प्रकार षष्ठी तत्पुरुष समास करके ] 'हस्ताग्रम्' आदि [ प्रयोग बनते है । ] श्रौर [ हरत रूप तथा उसके श्रवयवभूत अग्र रूप का ] अभेद मानने पर [ अग्रश्चासौ हस्तः ] 'प्रग्रहस्त' आदि [ प्रयोग सिद्ध ते है ]। इनमें विशेषण विशेष्येण बहुलम्' इस सूत्र से समास होता है ] ॥ २० ॥ '
१ अष्टाध्यायी २, २, ३७ ।
२ श्रष्टाध्यायी २, १,५७ ॥
1
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काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तौ
[ सूत्र ३९-४०-४१
.
गुणविस्तरादयश्चिन्त्या. । ५, ३, ३६ । गुणविस्तरः, व्याक्षेपविस्तरः इत्यादयः प्रयोगाश्चिन्त्याः । " प्रथने वावशब्दे' इति घन् प्रसङ्गात् ॥ ३२ ॥ अवतरापचायशब्दयोर्दीर्घ ह्रस्वत्वव्यत्यासो बालानाम् । ५, २,४० । अवतरशब्दस्यापचायशब्दस्य च दीर्घहस्वत्वव्यत्यासो बालानां बालिशानां प्रयोगेष्विति । ते ह्यवतरणमवतार इति प्रयुञ्जते । मारुतावतार इति । स ह्ययुक्तः । भावे तरतेरविधानात् । अपचायमपचय इति प्रयुञ्जते पुष्पापचय इति । अत्र "हस्तादाने चेरस्तेये' इति घन् प्राप्त इति ॥ ४० ॥ शोभेति निपातनात् । ५, २, ४१ ।
शोभेत्ययं शब्दः साधुः । निपातनान् । 'शुभ शुम्भ शोभार्थी' इति ।
३२६ ]
गुणविस्तर श्रादि [ प्रयोग ] चिन्त्य [ अशुद्ध ] है ।
'गुण विस्तरः' 'व्यक्षेप विस्तरः' इत्यादि प्रयोग चिन्त्य [साधु ] है । 'प्रथने बाव शब्द' इस सूत्र से [ वि पूर्वक स्तृ धातु से ] घञ् का विधान होने से [ 'गुणविस्तारः' प्रयोग होना चाहिए । 'गुणविस्तर . ' नही ] ॥ ३९ ॥ 'अवतर' और 'अपचाय' शब्दो मे दीर्घ हस्व का परिवर्तन मूर्खो का [ प्रयोग ] है ।
'अवतर' शब्द और 'अपचाय' शब्द के दीर्घ ह्रस्व का उलट-पुलट बालको अर्थात् मूर्खो [ बालिशो ] के प्रयोगो मे हो जाता है । वे [ मूर्ख पुरुष ] अवतरण को 'अवतार' इस रूप सें प्रयुक्त करते हैं । जैसे 'मारुतावतार' । वह [ अवतार रूप प्रयोग ] प्रयुक्त है । भाव में तृ धातु से [ 'ऋदोरप्' इस सूत्र से ] अप् [ प्रत्यय ] का विधान होने से । 'अपचाय' के स्थान पर 'अपचय' यह प्रयोग करते है । जैसे 'पुष्पापचय' । यहा 'हस्तादाने चेरस्तेये' इस सूत्र से घञ, प्राप्त है । [ अतः यहां 'पुष्पापचायः ' यह प्रयोग होना चाहिए । 'अवतरः' की जगह 'अवतार' और 'अपचाय:' की जगह 'श्रपचयः' प्रयोग में दीर्घ ह्रस्व की गड़बड़ बालिशता की सूचक है ] ॥ ४० ॥
-
शोभा यह [ शब्द ] निपातन से [ बनता ] है ।
शोभा यह शब्द [ भी ] शुद्ध है । निपातन से । 'शुभ शुम्भ शोभायौँ”
' श्रष्टाध्यायी ३, ३, ३३ । • भ्रष्टाध्यायी ३, ३५७ ।
२ अष्टाध्यायी ३,३,४०
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सूत्र ४२] पञ्चमाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः [३२७ शुभेमिंदादेराकृतिगणत्वात् अड् सिद्ध एव । गुणप्रतिषेधाभावस्तु निपात्यते इति । शोभार्थावित्यत्रैकदेशे कि 'शोभा' आहोस्वित् 'शोभ' इति विशेषावगतिराचार्यपरम्परोपदेशादिति ।। ४१ ॥ अविधौ गुरो. स्त्रिया बहुल विवक्षा । ५, २, ४२ । अविधौ 'अ' विधाने 'गुरोश्च हल' इति स्त्रियां बहुलं विवक्षा।
यह ['शोभा' पद का पाठ 'शोभा' शब्द को साधुता को सूचित करता है। शुभ धातु से भिदादि ['पिभिदादिभ्योड्इस सूत्र में पठित भिवादि] [गण] के प्राकृति गण होने से अड् प्रत्यय ] तो सिद्ध ही है। परन्तु अड् प्रत्यय के होने पर डित् होने से गुण का प्रतिषेध प्राप्त होने पर गुण के प्रतिषेध का प्रभाव [अर्थात् गुण की प्राप्ति ] निपातित है। 'शोभायौँ इस पद के एक देश में क्या 'शोभा' [यह पदच्छेद किया जाय ] यह अथवा 'शोभ' यह [पदच्छेद किया जाय ] इस विशेष ['शोभा' या 'शोभ' पद] का निर्णय प्राचार्य परम्परा के उपदेश से समझना चाहिए ।
अर्थात् धातुपाठ 'शुभ शुम्भ शोभायों' मे शोभायाँ' इस निपातन से ही 'अड्' प्रत्यय परे रहते गुभ धातु मे गुण का निपातन किया है। इस प्रकार 'शोभ गब्द वन जाने के बाद 'अ प्रत्ययात्' ' सूत्र से स्त्रीलिंग मे 'अ' प्रत्यय होकर 'शोभा' शब्द बन सकता है । और या जैसे कि अगले सूत्र मे 'अ' प्रत्यय की 'बहुल विवक्षा' का वर्णन करेगे उसके अनुसार यदि यह 'अ' प्रत्यय न किया जाय तो 'शोम' यह पुल्लिंग प्रयोग भी बन सकता है । जैसे 'वाधा' और 'वाघ, 'ऊहा
और 'ऊह, 'व्रीडा' और 'वीड' यह दोनो प्रकार के रूप बनते है । इसी प्रकार 'शोमा' और 'शोभ' यह दोनो प्रकार के रूप बन सकते है। उनमे से यहा 'शोभायौं' इस पाठ में 'शोभा' पदच्छेद किया जाय या 'शोभ', यह वात आचार्य परम्परा से समझनी चाहिए । अर्थात् यहा 'शोभा' पदच्छेद ही करना चाहिए क्योकि 'शोभा' शब्द की सिद्धि करने के लिए ही यह सूत्र लिखा गया है ॥४१॥
___'' प्रत्यय के विधान में [ 'गुरोश्च हल' इस सूत्र से ] स्त्रीलिङ्ग में गुरुवर्णयुक्त शब्द से 'अ' प्रत्यय की बहुल विवक्षा होती है। ___'' प्रत्यय के विधान में 'गुरोश्च हल.' २ [ इस सूत्र से विहित
'अष्टाध्यायी ३, ३, १०२। २ अष्टाध्यायी ३, ३, १०३।
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३२८]
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती [सूत्र ४३ क्वचिद्विवक्षा, क्वचिदविवक्षा, क्वचिदुभयमिति। विवक्षा यथा 'ईहा', 'लज्जा' इति । अविवक्षा यथा 'आतंक' इति । विवक्षाविवक्षे यथा 'बाधा', 'वाधा', 'उहा', 'अहः'; 'ब्रीडा', 'ब्रीड' इति ॥ ४२ ॥
व्यवसितादिषु क्तः कर्तरि चकारात् । ५, २, ४३ ।
'व्यवसितः' 'प्रतिपन्न' इत्यादिपु भावकर्मविहितोऽपि क्तः कर्तरि । गत्यादिसूत्रे चकारस्यानुक्तसमुच्चयार्थत्वात् । भावकर्मानुकर्षणार्थत्वचकारस्येति चेत्, आवृत्तिः कर्तव्या ।। ४३॥
'अ' प्रत्यय ] की स्त्रीलिङ्ग में बहुल करके विवक्षा होती है । १. कहीं विवक्षा हो २. कहीं विवक्षा न हो, ३. कही दोनो हो [ यह 'बहुल' पद का अभिप्राय है ] । विवक्षा [का उदाहरण] जैसे 'ईहा', 'लज्जा' [यहां '' प्रत्यय हुमा है । अविवक्षा [का उदाहरण ] जैसे 'आतङ्क' [यहा 'अ' प्रत्यय नही हुआ है। विवक्षाविवक्षा उभय [ का उदाहरण ] जैसे 'बाधा' 'बाध'; 'ऊहा' 'ऊह'; 'व्रीडा, 'बीड' [ इनमे 'अ' प्रत्यय हुआ भी है और नही भी हुआ है । इसलिए विकल्प से दो प्रकार के रूप बने है ।
वाहुलक का इसी आशय का लक्षण व्याकरण ग्रन्थो मे इस प्रकार किया गया है
क्वचित् प्रवृत्ति क्वचिदप्रवृत्ति क्वचिद्विभापा क्वचिदन्यदेव । विधैर्विघान वहुधा समीक्ष्य चतुर्विध बाहुलक वदन्ति ।। ४२ ॥
'व्यवसितः' इत्यादि में 'क्त' प्रत्यय कर्ता में होता है [गत्यादि सूत्र में ] चकार से [अनुक्त का समुच्चय होने से ] ।
[साधारणतः] भाव कर्म मे विहित [ होने पर ] भी 'क्त' [प्रत्यय ] 'व्यवसितः' [ किमसि कतुं व्यवसितः] 'प्रतिपन्नः' इत्यादि [प्रयोगो ] में [भाव या कर्म में न होकर ] कर्ता में हुआ है । गत्यादि [ गत्यर्थाकर्मकश्लिषशीस्थासवसजनाहजीर्यतिभ्यश्च ] सूत्र में [गत्यर्थक, अकर्मक, श्लिष, शोड्, स्था, अस, वस, जन, रह, जृ धातुओ से क्त प्रत्यय का कर्ता में विशेष रूप से विधान किया गया है। सूत्र के अन्त में जोड़े हुए] 'चकार' के अनुक्त समुच्चयार्थक होने से। [उस अनुक्त समुच्चय वश से हो 'व्यवसितः' 'प्रतिपन्न इत्यादि में भी दर्ता में 'क्त' प्रत्यय हो जाता है। यदि यह कहो कि उक्त गत्यादि सूत्र में अनुक्त समुच्चय के लिए चकार का ग्रहण नहीं किया गया अपितु] भाव कर्म के अनुकर्षण [अनुवृत्ति लाने ] के लिए चकार [ का ग्रहण ] है तो
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सूत्र ४४] पञ्चमाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः [३२९
आहेति भूतेऽन्यणलन्तभ्रमाद् ब्रुवो लटि । ५, २, ४४।
'बुवः पञ्चानाम्' इत्यादिना 'आह' इति लटिव्युत्पादितः । स भूते प्रयुक्तः । 'इत्याह भगवान् प्रभुः' इति । अन्यस्य भूतकालामिधायिनो एलन्तस्य लिटि भ्रमात् । निपुणाश्चैवं प्रयुञ्जते । 'आह स्म स्मितमधुमधुराक्षरा गिरम्' इति । 'अनुकरोति भगवतो नारायणस्य' इत्यत्रापि मन्ये 'स्म' शब्दः कविना प्रयुक्तो लेखकैस्तु प्रमादान्न लिखित इति ॥ ४४ ॥ [फिर चकार को ] भावृत्ति करनी चाहिए। [जिससे एक चकार से भाव कर्म का अनुकर्षण हो सके और प्रावृत्ति किये हुए दूसरे चकार से अनुक्त का समुच्चय भी हो सके । इस प्रकार गत्यादि सूत्र में उक्त चकार अथवा प्रावृत्ति द्वारा सिद्ध । चकार से अनुक्त का समुच्चय मान कर 'व्यवसित , 'प्रतिपन्नः' इत्यादि सकर्मक घातुमूलक प्रयोगो में कर्ता में भी 'क्त' प्रत्यय हो सकेगा] ॥ ४३ ॥
दू[ 'नून व्यक्तायां वाचिं] धातु का [ वर्तमान काल सूचक ] लट् [लकार] में [ बना हुआ ] 'आह' इस [ वर्तमान काल के बोधक प्रयोग को कुछ लोग कभी-कभी "उवास' आदि ] अन्य गलन्त [प्रयोगो] के [ समान समझकर] भ्रम से भूत काल में [ प्रयुक्त कर देते है । यह उचित नहीं भ्रान्त प्रयोग ] है।
'ब्रुव पञ्चानामादित पाहो बुव.' अष्टा० ३, ४, ८४ इत्यादि [सूत्र] से [ परस्मैपद में बू धातु के लट् लकार के प्रादि से पाच अर्थात् १. तिप्, २. तस्, ३. झि ४. सिप्, ५. थस् के स्थान पर क्रमश. १. गल्, २. अतुस्, ३. उस्, ४ थल्, ५. प्रथुस्, यह पाच आदेश, और '' धातु को 'पाह' आदेश होर] 'आहे यह पद [ वर्तमानता सूचक ] लट् लकार में सिद्ध किया गया है । [कहीं-कहीं ] वह भूतकाल में प्रयुक्त हुआ है । जैसे यह
[स्वय ] भगवान् प्रभु ने यह कहा [ इत्याह ]
[परन्तु भूतकाल में किया गया 'आह' का प्रयोग] अन्य [प्रयोगो में] भूतकाल के वोधक [ लिट् लकार के ] णलन्त का [अन्य प्रयोगो के समान यहा भी आदेश हुए ‘णल्' प्रादि लिट् लकार में ही हुए है ऐसा समझ कर ] लिट् में [बने हुए प्रयोग का ] भ्रम होने से [ ही 'आह' पद भूतकाल में प्रयुक्त ] होता है। चतुर लोग तो इम [भूतकाल के वोधन के लिए, लट् लकार के रूप के साथ 'स्म' जोड़ कर ] इस प्रकार प्रयुक्त करते है
स्मित रूप मधु से मधुर अक्षरो वाली वाणी को ['आह स्म' बोलता भया] वोला । 'भगवान नारायण का अनुकरण करता है' यहा नी [ अनुकरोति
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३३०]
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती [सूत्र ४५-४६ . शवलादिभ्यः स्त्रियां टापोऽप्राप्तिः । ५, ५, ४५ ।
'उपस्रोतः स्वस्थस्थितमहिषशृङ्गाप्रशबला: स्रवन्तीनां जाताः प्रमुदितविहङ्गास्तटभुवः ॥
'भ्रमरोत्करकल्माषाः कुसुमानां समृद्धयः ॥ इत्यादिपु स्त्रियां टापोप्राप्तिः। "अन्यतो डीए' इति डीप विधानात् । तेन 'शवली' 'कल्मापी' इति भवति ॥ ४५ ॥
प्राणिनि नीलेति चिन्त्यम् । ५, २, ४६ ।
शब्द के साथ ] कवि ने [ भूतकाल सूचक ] 'स्म' का प्रयोग किया था [ परन्तु वाद में ] लेखको ने असावधानी से उसको लिखा नहीं, ऐसा [ मैं मानता हूं] मालूम होता है। [अर्थात् 'आह' आदि का वर्तमान काल में प्रयोग अनुचित है। यदि उनको प्रयुक्त किया जाय तो उनके साथ 'स्म' पद का भी प्रयोग करना चाहिए । तव दोष नही रहेगा] ॥ ४४ ॥
'शवल' आदि [शब्दो] से स्त्रीलिङ्ग में 'टाप्' नहीं हो सकता है। [ इसलिए 'शबला' आदि प्रयोग न करके 'शबली प्रयोग करना उचित है ] ।
प्रमुदित विहङ्गो से युक्त नदियो के किनारे की भूमिया, धारा के समीप स्वस्थ [ निश्चिन्त ] होकर बैठे हुए भैसो के सींगो के अग्रभागों से 'शवल [चित्रविचित्र, कर्वर] हो गई थी।
__.पुष्पो की समृद्धिया [ समूह ] भ्रमर पंक्तियो से चित्रित ['शबला कर्बुर] हो रही है।
___ इत्यादि [प्रयोगो ] में स्त्रीलिङ्ग में [जो टाप करके 'शवला', 'कल्माषा' आदि प्रयोग बनाए है, वह उचित नहीं है क्योकि उनमें ], टाप नही [ प्राप्त ] हो सकता है । 'अन्यतो 'डी' [अष्टा० ४, १, ४० ] इस सूत्र से [ तकारोपध से भिन्न वर्णवाची अनुदात्तान्त प्रातिपदिक से स्त्रीलिङ्ग में ] डी' का विधान होने से। इसलिए [ इन शब्दो से 'डी' प्रत्यय करके ] 'शबली', 'कल्माषी यह [प्रयोग शुद्ध होता है।['शवला', 'कल्माषा' यह प्रयोग अनुचित है] ॥४५॥
प्राणी [ के सम्बन्ध बोधन ] में स्त्रीलिङ्ग में 'नोला' यह [ प्रयोग भी ] चिन्त्य [ अशुद्ध है।
'अष्टाध्ययी ४, १, ४० ।
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सूत्र ४७]
पञ्चमाधिकरणे द्वितीयोऽध्याय.
[३३१
'कुवलयदलनीला कोकिला बालचूते' इत्यादिषु 'नीला' इति चिन्त्यम् । 'कोकिला नीली' भवितव्यम् । नीलशब्दात् "जानपद' इत्यादि सूत्रेण 'प्राणिनि च' इति डीपविधानात् ॥ ४६॥
मनुष्यजातेविवक्षाविवक्षे! ५, २, ४७ ।
आम्र के नये वृक्ष पर कुवलय दल के समान नीला [ नीलवर्णा] कोकिला [ बैठी है।
इत्यादि [प्रयोगो] में [कोकिला के विशेषण रूप में प्रयुक्त ] नीला' यह [पद] चिन्त्य [अशुद्ध ] है । कोकिला [ के साथ स्त्रीलिङ्ग में ] 'नोलो' यह [विशेषण ] होना चाहिए । नील शब्द से [ जानपद-कुण्ड गोण-स्थल-भाज-नागकाल-नील-कुश-कामुक-कबराद् वृत्यमत्रवपनाकृत्रिमात्राणास्थौल्यवर्णाच्छादनायोविकारमैथुनेच्छाकेशवेशेषु । अप्टा० ४, १, ४२] जानपद इत्यादि सूत्रसे ['नोलादोषधौ' इस वार्तिक से औषधि अर्थ में तथा ] 'प्राणिनि च' इस [ वानिक ] से [प्राणी के सम्बन्ध वोध में ] 'डी' का विधान होने से ['नीलो गौ'. 'नीली कोकिला' इत्यादि प्रयोग होने चाहिएं। 'नोला कोकिला' प्रयोग नहीं होना चाहिए। प्रत नीला प्रयोग अशुद्ध है ] ॥४६॥
[इकारान्त उकारान्त मनुष्यजातिपरक शब्दो में ] मनुष्य जाति की विवक्षा और अविवक्षा [ दोनो होती है।
मनुष्य जाति की विवक्षा होने पर इकारान्त 'निम्ननाभि' आदि गन्दो से 'इतो मनुप्यजाते' सूत्र से 'डी' होकर 'निम्ननाभी' पद बना और उसके सम्बोधन में 'अम्वार्थनद्योह्रस्व' सूत्र से ह्रस्व होकर हे 'निम्ननाभि' पद वनता है । इसी प्रकार उकारान्त सुतनु' शब्द से ऊडुत ४, १, ६६, सूत्र से 'ऊ' प्रत्यय हो कर 'सुतनू' शब्द वना और उसका सम्बुद्धि मे 'अम्बार्थनद्योह्र स्व.' पा० ७, ३, १०७ । सूत्र से ह्रस्व होकर हे सुतनु' गन्द बनता है । और मनुष्यजाति की अविवक्षा मे इकारान्त 'निम्ननाभि' शब्द का पठी मे निम्ननाभे' प्रयोग बनता है अन्यथा निम्ननाम्या' होता । 'वरतनु में मनुष्य जाति की विवक्षा न होने पर 'ऊ' नही होता है इसलिए 'वरतनु' प्रथमा के एक वचन मे बनता है । अन्यथा विवक्षा होने पर अड् होकर 'वरतनू' प्रयोग होगा। इसलिए---
'अष्टाध्यायी ४, १, ४२ ।
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३३२ ]
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती
[ सूत्र ४७
"इतो मनुष्यजाते:' 'ऊडुतः' इत्यत्र मनुष्यजातेर्विवक्षा अविवक्षा
च लक्ष्यानुसारतः ।
मन्दरस्य मदिराक्षि पार्श्वतो निम्ननाभि न भवन्ति निम्नगाः । वासु वासुकिविकर्षणोद्भवा भामिनीह पदवी विभाव्यते ॥ अत्र मनुष्यजातेर्विवक्षायां 'इतो मनुष्यजातेः' इति 'डीषि' सति ''अम्बार्थनद्योह्न 'स्वः' इति सम्बुद्धौ ह्रस्वत्वं सिद्ध्यति ।
3
मनुजाते. [ पा० ४, १, ६५ ] और ऊडुतः [ पा० ४, १, ६६ ] यहा [ इन सूत्रो मे ] मनुष्यजाति को विवक्षा और अविवक्षा लक्ष्य के अनुसार होती है ।
हे निम्ननाभि [ वाली ] मदिराक्षि [ वासु ] बालिके [ भामिनि ] प्रिये मन्दराचल के किनारे यह नदिया नहीं है [ तुम जिनको नदी समझ रही हो ] वह [ समुद्र मन्थन के समय वासुकि सर्प जिसको मन्थनदण्ड रई के स्थानापन्न मन्दराचल के चारो ओर रस्सी के स्थान पर बाध कर और उसको खींच-खींच कर समुद्र का मन्थन किया गया था । उस ] वासुकि के [ बार-बार ] खीचने से उत्पन्न हुई लकीर दिखलाई देती है ।
यहा मनुष्यजाति की विवक्षा में [ निम्ननाभि तथा मदिराक्षि प्रादि शब्दो में ] 'इतो मनुष्यजाते' [ पा० ४, १, ६५ ] इस सूत्र ते 'डी' [ प्रत्यय ] होने पर [ निम्ननाभी मदिराक्षी शब्दो के ] सम्बोधन के एकवचन में 'अम्बार्थनद्योह्र स्व.' [ अ० ७, ३, १०७ ] इस सूत्र से हस्वत्व [ और सु का लोपादि होकर हे निम्ननाभि, हे मदिराक्षि आदि पद ] सिद्ध होता है [ श्रन्यथा हे निम्ननाभे आदि रूप वनेंगे ] ।
यह हो सकता है कि निम्ननाभि में 'इतञ्च प्राण्यगवाचिनो वा डीष् वक्तव्य. ' इस नियम के अनुसार नाभि शब्द से डीप् कर लेने पर भी 'अम्वार्थ नद्योर्ह्रस्व ' से ह्रस्व होकर 'हे निम्ननाभि' रूप वन सकता है । तब मनुष्य जाति की विवक्षा अविवक्षा मानकर डीप् करने का प्रयत्न क्यो किया जाय ।
इसका उत्तर वृत्तिकार यह करते है कि 'निम्ननाभि' पद मे 'निम्न है नाभि जिसकी वह निम्ननाभि है इस प्रकार का बहुव्रीहि समास है । उस
१ अष्टाध्यायी ४, १, ६५ अष्टाध्यायी ४, १, ६६ । 3 अष्टाध्यायी ७,३, १०७ ।
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सूत्र ४७] पञ्चमाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः [३३३
नाभिशब्दात् पुनः "इतश्च प्राण्यगात्' इतीकारे कृते निम्ननाभीकेति स्यात् ।।
हतोष्ठरागैर्नयनोदविन्दुभिर्निमग्ननाभेनिपतद्भिरक्षितम् । च्युतं रुषा मिन्नगतेरसंशयं शुकोदरश्याममिदं स्तनांशुकम् ॥ अत्र निमग्ननाभेरिति मनुष्यजातेरविवक्षेति डीप न कृतः ।
बहुव्रीहि समास वाले पद मे स्त्रीलिंग मे 'इतश्च प्राण्यगवाचिनो वा डीप वक्तव्य' इस नियम के अनुसार यदि डीप करके 'निम्ननाभी' यह स्त्रीलिंग का रूप बनाया जाय तो उससे 'नवृतश्च [अ० ५, ४, १५३ ] इस सूत्र से समासान्त कप् प्रत्यय होकर 'केऽण' [ अष्टा० ७, ४, १३ ] से प्राप्त होने वाले ह्रस्व का 'न कपि' [अष्टा० ७,४,१४] से निषेध हो जाने से 'निम्ननाभीका' यह प्रयोग वनने लगेगा। 'निम्ननाभि' यह प्रयोग नही बनेगा। इसी बात को वृत्तिकार इस प्रकार कहते है ।
और नाभि शब्द से 'इतश्च प्राण्यगात्' इस से ईकार अर्थात् डीए करने पर 'निम्ननाभीका' यह प्रयोग होने लगेगा।
यह स्थल कुछ सन्दिग्ध है । मूल ग्रन्थ मे 'निम्ननाभिकेति' स्यात् यह पाठ दिया है । ड्रा० गगानाथ ने भी अपने आग्लभापानुवाद मे 'निम्ननामिका' यही पाठ माना है । परन्तु काव्यालकार सूत्रवृत्रि के टीकाकार त्रिपुरहर भूपाल ने ईकार होने के वाद कप् प्रत्यय और उसके परे रहते ह्रस्वत्व का निपेध करके 'निम्ननाभीका इति स्यात्' ऐसा पाठ दिया है । टीकाकार के अनुरोध से हमने भी यहाँ मूल में 'निम्ननाभीकेति' पाठ ही रखा है ।
मनुष्यजाति की अविवक्षा मे डीप् के अभाव का दूसरा उदाहरण दिखलाते है
क्रोध के कारण विशृखल गतिवाली निमग्ननाभि [ प्रियतमा ] के प्रोण्ठ पर गिर कर ओण्ठराग का हरण करने वाले [ रोने के कारण ] टपकते हुए आसुत्रो से अकित शुक के उदर के समान हरित वर्ण यह चोली [ स्तनाशुक] गिर पड़ी है।
___ यहा ननुष्यजाति को अविवक्षा है इमलिए 'निमग्नामें.' इस पद में डोष नहीं किया है। [अन्यथा पप्ठी विभक्ति में नदी शब्द के समान 'निमग्ननाभ्या' यह रूप बनता] ।
१अष्टाध्यायी।
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३३४] काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तौ
[सूत्र ४८ 'सुतनु जहीहि मानं पश्य पादानतं माम् ।' इत्यत्र मनुष्यजातेर्विवक्षेति सुतनुशब्दाद् 'ऊडुतः' इत्यूङि सति ह्रस्वत्वे 'सुतनु' इति सिद्धयति ।
___'वरतनुरथवासौ नैव दृष्टा त्वया मे ।' अत्र मनुष्यजातेरविवक्षेति अङ्न कृतः ॥ ४७ ॥
ऊकारान्तादप्यूङ प्रवृत्तेः । ५, २, ४८ । उत ऊ विहित ऊकारान्तादपि क्वचिद् भवति । आचार्यप्रवृत्तः । क्वासौ प्रवृत्तिः । 'अप्राणिजातेश्चारज्ज्वादीनाम्' इति । अलाबूः कर्कन्धरित्युदाहरणम् । तेन
'सुभ्र किं सम्भ्रमेण .
अत्र 'सुभ्र' शब्द ऊङि सिद्धो भवति । अडि त्वसति “सुभ्र' इति स्यात् ॥ ४८ ॥
___ 'हे सुतनु [ सुन्दरी ] मान को छोडो और पैरों पर झुके हुए मुझको देखो' यहा [सुतनु शब्द मे ] मनुष्यजाति की विवक्षा है इसलिए सुतनु शब्द से उडुतः [अष्टा० ४, १, ६६ ] इस सूत्र से ऊड् प्रत्यय होने पर [ सम्बोधन के एक वचन में पूर्वोक्त 'अम्वार्थनघोह स्वः [ इस सूत्र से ] ह्रस्व होने पर 'सुतनु' यह सिद्ध होता है ।
अथवा तुमने मेरी वरतन [ सुन्दरी प्रियतमा ] को नही देखा है।
यहां मनुष्यजाति को विवक्षा नहीं है इसलिए ऊड़ नही किया है। [अन्यथा ऊ करने पर 'वरतनूः' का रूप होता] ॥ ४७ ॥
अडुतः ४, १, ६६ में जो उकारान्त शब्दों से ऊड् प्रत्यय ] कहा है वह ] ऊकारान्त [ शब्द से ] भी ऊड होता है। प्राचार्य [वातिककार ] की प्रवृत्ति [ सूत्ररचना ] होने से।
[ऊडुतः इस सूत्र से केवल ] उकारान्त से ऊड्' का विधान किया गया है। वह कहीं कही ऊकारान्त [शब्द ] से भी हो जाता है। प्राचार्य [वातिककार ] की प्रवृत्ति [ एतद्विषयक सूत्र रचना ] होने से। वह अकारान्त से ऊ विधायक प्रवृत्ति [ सूत्र रचना ] कहां की गई है। [यह प्रश्न किया गया है । इसका उत्तर करते है ] 'अप्राणिजातेश्चारज्ज्वादीनाम् [प्राणिजातिवाचक शब्दो से भिन्न और रज्जु आदि शब्दो को छोड़ कर शेष उकारान्त शब्दो से ऊड् प्रत्यय हो ] । इस [ सूत्र ] में ह्रस्व तथा दीर्घ दोनो प्रकार के उकारान्त शब्दो से ऊड का विधान पातिककार ने किया है ] । 'अलाबूः, कर्कन्धू'
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सूत्र ४९-५०-५१ ] पञ्चमाधिकरणे द्वितीयोऽध्याय.
[ ३३५
कार्तिकीय इति ठञ दुर्घर: ५,२,४९ । ‘कार्तिकीयो नभस्वान्' इत्यत्र ‘कालाट्ठन्' इति ठन् दुर्धरः । ठ भवनं दुःखेन धियते ॥ ४६ ॥
शार्वरमिति च । ५, २, ५० ।
‘शार्वरं तम' इत्यत्र च ‘कालाट्ठब्' इति ठब् दुर्धरः ॥ ५० ॥ शाश्वतमिति प्रयुक्तेः । ५, २, ५१ ।
यह उसके उदाहरण है । [ 'अलाबू: कर्कन्धू' शब्द स्वतः ही दीर्घ ऊकारान्त शब्द है । फिर भी उनसे ऊड् प्रत्यय करने का फल 'नोड्घात्वोः ' भ्रष्टा० ६, १, १७५ इस सूत्र से विभक्ति के उदात्तत्व का प्रतिषेध करना ही है । प्राणिजातिवाची 'कृकवाकु.' इत्यादि में तथा 'रज्जुः हनु.' इत्यादि में यह ऊड् प्रत्ययः नहीं होता है । अन्य उकारान्त शब्दो से ऊड़ हो सकता है ] इसलिए
हे सुभ्र, घबडाती क्यो हो ।
यहां सुभ्र, शब्द से ऊड् प्रत्यय करके [ सम्बुद्धि में 'श्रम्वार्थनद्योह्र स्व.' इस सूत्र से ह्रस्व करके ] सुभ्र. यह [ रूप ] सिद्ध हो जाता है । ऊड् [ प्रत्यय ] के न होने [ हे श्री. के समान हे ] 'सुभ्रू:' यह [ रूप ] होगा ॥ ४८ ॥
afanta इस [ प्रयोग ] में [ 'कालाट्ठन्' इस सूत्र से प्राप्त होने वाला ] a [ प्रत्यय ] रोका नहीं जा सकता है। [ श्रतः कार्तिक शब्द से ठन् प्रत्यय होकर 'कार्तिकिक.' प्रयोग होना चाहिए । कार्तिकीय. प्रयोग अशुद्ध है ] ।
'कार्तिकीयो नभस्वान्' [कार्तिक का वायु] इस [ प्रयोग ] में 'कालाट्ठम्' [ अष्टा० ४, ३, ११ ] इस सूत्र से [ प्राप्त होने वाला ] ठञ् प्रत्यय का रोकना कठिन है । [ ठन् का होना मुश्किल से रुक सकता है, नहीं रुक सकता है । अतएव 'कार्तिकीय.' यह प्रयोग शुद्ध नहीं है 'कार्तिकिक ' यह प्रयोग होना चाहिए ] ॥ ४९ ॥
और शार्वरं यह भी [ प्रयोग ठीक नहीं है ]
'शार्वरं तम' रात्रि का अन्धकार यहां भी [ 'शार्बर' पद में 'शर्वरी' शब्द से ] 'कालाट्ठञ' इस सूत्र से ठज्ञ रुक नहीं सकता है । [ इसलिए 'शार्वरिकं तम.' ऐसा प्रयोग होना चाहिए था 'शार्वरं तम' प्रयोग उचित नही है ] ॥ ५० ॥
'शाश्वतम्' यह [ शब्द, वार्तिककार के 'शाश्वते प्रतिषेध' इस ] प्रयोग से [ सिद्ध होता है ] |
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३३६ ] काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती
[ सूत्र ५२ 'शाश्वतं ज्योतिः' इत्यत्र शाश्वतमिति न सिद्धयति । 'काला' इति ठ प्रसङ्गात् । 'येषाञ्च विरोधः शाश्वतिकः' इति सूत्रकारस्यापि प्रयोगः ।
___ आह प्रयुक्तेः । 'शाश्वते प्रतिषेध' इति प्रयोगात्, शाश्वतमिति भवति ॥ ५१ ॥
राजवंश्यादय साध्वर्थे यति भवन्ति । ५, २, ५२ ।
'राजवंश्याः' 'सूर्यवंश्या' इत्यादयः शब्दाः, 'तत्र साधुः' इत्यनेन साध्वर्थे यति प्रत्यये सति साधवो भवन्ति । भवार्थे पुनर्दिगादिपाठेऽपि वंशशब्दस्य वंशशब्दान्तान यत् प्रत्ययः । तदन्तविधेः प्रतिपेधात् ।। ५२ ॥
पूर्वपक्ष ] 'शाश्वत ज्योतिः' इस [ खण्डवाक्य ] मे 'शाश्वत' यह [ पद ] सिद्ध नही होता है । 'कालान्' इस [पूर्वोक्त सूत्र ] से ठन् प्राप्त होने से [ 'शाश्वतं' के बजाय 'शाश्वतिक' प्रयोग होना चाहिए । 'येषां च विरोधः शाश्वतिक.' [ अष्टाध्यायी २, ४, ९] यह सूत्रकार [ पाणिनि ] का भी [ 'शाश्वतिकः' ही ] प्रयोग है। [अतएव 'शाश्वतम्' यह प्रयोग उचित नही है।
[उत्तरपक्ष ] कहते है । [ 'शाश्वतम्' यह प्रयोग भी वार्तिककार द्वारा] प्रयुक्त होने से [ ठीक है। वातिककार के ] 'शाश्वते प्रतिषेधः' इस [प्रकार अण् प्रत्ययान्त 'शाश्वत' शब्द के ] प्रयोग से 'शाश्वतम्' यह [ प्रयोग भी शुद्ध ] होता है ॥ ५१॥
'राजवंश्य' आदि शब्द [ 'तत्र साधु: अष्टाध्यायी ४,४, ८९ इस सूत्र से ] साधु अर्थ में यत् [ प्रत्यय ] होने पर [ सिद्ध ] होते है । [ भवार्थ में नहीं ]।
राजवश्य, सूर्यवश्य इत्यादि शब्द 'तत्र साधुः' [अष्टाध्यायी ४, ४, ८९] इस [ सूत्र ] से साधु अर्थ में यत् प्रत्यय होने पर शुद्ध होते है। भवार्थ में [ यत् प्रत्यय का विधान करने वाले 'दिगादिभ्यो यत्' अष्टाध्यायी ४, ३ ५४ में निर्दिष्ट ] दिगादि [गण ] में वश शब्द का पाठ होने पर भी वश शब्दान्त [राजवश, सूर्यवश इत्यादि शब्दो] से यत् प्रत्यय नहीं होता है। ["ग्रहणवता प्रातिपदिकेन तदन्तविधिप्रतिषेध' इस परिभाषा के अनुसार ] तदन्नविधि का प्रतिषेध होने से [ 'राजवंशे भव राजवंश्या', 'सूर्यवशे भवः सूर्यवंश्य' यह प्रयोग
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सूत्र ५३–५४ ]
पञ्चमाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः
दारवशब्दो दुष्प्रयुक्त । ५, २, ५३ ।
'दारवं पात्रम्' इति 'दारव' शब्दो दुष्प्रयुक्तः । 'नित्यं वृद्धशरादिभ्यः' इति मयटा भवितव्यम् । ननु विकारावयवयोरर्थयोर्मयड विधीयते । अत्र तु दारुण इदमिति विवक्षायां 'दारवम्' इति भविष्यति । नैतदेवमपि स्यात् । 'वृद्धाच्छ:' इति 'छ' विधानात् ॥ ५३ ॥
मुग्धिमादिषु इमनिज् मृग्यः । ५, २, ५४ |
[ ३३७
नह" बन सकते । किन्तु 'तत्र साधु:' इस सूत्र से साधु अर्थ में 'यत्' प्रत्यय करके 'राजवंशे साधुः राजवंश्यः', 'सूर्यवंशे साधुः सूर्यवंश्य' इस प्रकार के प्रयोग वन सकते है । ] ॥ ५२ ॥
[ 'दारुण इदं दारव' लकड़ी का इस अर्थ में प्रयुक्त ] 'दारवम्' यह शब्द goप्रयुक्त [ शुद्ध प्रयोग ] है ।
[ लकड़ी का बना हुआ पात्र है इस अर्थ में प्रयुक्त ] 'दारवं पात्रम्' यह 'दारव' शब्द अनुचित [ अशुद्ध ] प्रयोग है । [ यहां दार शब्द से ] 'नित्यं वृद्धशरादिभ्यः [ अष्टाध्यायी ९, ३, १४४ ] इस [ सूत्र ] से मयट् [ प्रत्यय होकर 'दारुमय' इस प्रकार का प्रयोग ] होना चाहिए ।
[प्रश्न ] मयट् प्रत्यय तो विकार और श्रवयव अर्य में होता है । यहां तो 'दारुण इद' यह लकड़ी का है इस [सम्बन्ध सामान्य ] की विवक्षा में ['तस्येद' अध्याय ४, ३, १२० इस सूत्र से ऋण प्रत्यय होकर ] 'दारव' यह ' [ प्रयोग ठीक ] हो जायगा । [ फिर आप उसको दुष्प्रयुक्त या अशुद्ध प्रयोग क्यो कहते हैं ? ]
[ उत्तर ] इस प्रकार भी यह [ दारवम् ] नहीं बन सकता है। 'वृद्धाच्छ.' [ अष्टाध्यायी ५, २, ११४] इस [ सूत्र ] से 'छ' का विधान होने ते [ 'दार्वीयं पात्रम्' यह प्रयोग होना चाहिए। श्रत. 'दारवं पात्रम्' यह प्रयोग ठीक नहीं है ] ॥ ५३ ॥
मुग्धमा आदि [ प्रयोग ] में [ दिखाई देने वाला ] इमनिज् [ प्रत्यय ] खोजना पड़ेगा । [ साधारणत. 'पृथ्वादिभ्य इमनिज् वा' अष्टाध्यायी ५, १, १२२ इस सूत्र से पृथ्वादि गण पठित शब्दो से इमनिच् प्रत्यय विकल्प से होता है । परन्तु उस पृथ्वादिगण में मुग्ध, प्रौढ, आदि शब्दो का पाठ नहीं है । इसलिए इन शब्दो से इमनिच् प्रत्यय सम्भव नहीं है ] ।
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३३८]
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती [ सूत्र ५५-५६ 'मुग्धिमा' 'प्रीढिमा' इत्यादिपु इमनिज़ मृग्यः । अन्वेपणीय इति ॥ ५४॥
औपम्यादयश्चातुर्वर्ण्यवत् । ५, २, ५५ ।
औपम्यं, सान्निध्यम् , इत्यादयश्चातुर्वण्यवत् । 'गुणवचन' इत्यत्र 'चातुर्वाढीनामुपसंख्यानम्' इति वार्तिकात् स्वार्थिकज्यमन्तः ॥ ५५ ।।
प्या पित्करणादीकारो वहुलम् । ५, २, ५६ ।
'गुणवचनब्राह्मणादिभ्य' इति पित्करणादीकारो भवति । स बहुलम् । 'ब्राह्मण्यम्' इत्यादिपु न भवति । 'सामग्रय' सामग्री, वैदग्ध्यं वैदग्धीति ।। ५६ ॥
मुग्धिमा, प्रौढिमा इत्यादि [प्रयोगो] में [श्रूयमाण ] इमनिच् [प्रत्यय मृग्य अर्थात् ] अन्वेषणीय है । [ पृथ्वादि गण में मुग्ध,प्रौढ आदि शब्दो का पाठ न होने मे इमनिज् विधायक 'पृथ्वादिभ्य इमनिज् वा अष्टाध्यायी ५, १, १२२ इम मूत्र से इमनिच् प्रत्यय होना सम्भव नहीं है । अतः यह प्रयोग अशुद्ध है ] ॥५४॥
श्रौपम्य प्राटि [ शब्द ] चातुर्वर्ण्य [गन्द ] के समान ['चतुर्वर्णादीनां म्बार्थे उपसंस्थानम्' इस वार्तिक मे स्वार्थ में प्यञ् प्रत्यय करके बनते ] है।
'श्रीपम्य', 'मान्निध्य' इत्यादि [प्रयोग ] चानुर्वर्ण्य [शब्द ] के समान [म्बार्य में प्यन् प्रत्यय करके सिद्ध होते ] है । [ 'गुणवचनब्राह्मणादिभ्यः कर्मणि च' सप्टाध्यायी ५, १, १२४ इम सूत्र के प्रतीक रूप ] गुणवचन इस [सूत्र ] में 'चतुर्वर्णादीनाम् म्बार्थ उपाख्यानम्' इस वातिक से स्वार्य में प्यन् प्रत्ययान्त [जमे चातुम पद बनता है। इसी प्रकार स्थायिक ज्या प्रत्यय करके ही 'उपमं श्रीपम्म , 'मन्निधिरेव सान्निध्यम्' प्रादि प्रयोग बनते ] है ॥ ५५ ।।
(गणवचनब्राह्मणादिभ्यः प्यन्न इस सूत्र से विहित ] प्यम् [प्रत्यय ] के शिकरण मे [ उनके आधार पर विद्गारादिभ्यश्च' । अष्टा० ४, १, ४१ इस मून ने कि हुए 'डी' प्रत्यय का अवशेष रूप] ईकार बहुल करके होता है।
'गुणवचनब्राह्मणादिभ्य.कर्मणिच [ अष्टाध्यायी ५, १, १२४ ] इस [सूत्र] मे जो [टीप प्रत्यय का अवशेष स्प] ईकार होता है वह बहुल करके [ कहाँ होता, कहीं नहीं ] होना है। [स] 'ब्राह्मण्यम्' इत्यादि [प्रयोगो] में नहीं
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पञ्चमाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः
धन्वीति व्रीह्यादिपाठात् । ५, २, ५७ ।
व्रीह्यादिषु 'धन्व' शव्दस्य पाठात् 'धन्वी' इति इनौ सति सिद्धो भवति ॥ ५७ ॥
सूत्र ५७-५८ ]
चतुरस्रशोभीति णिनो । ५,२,५८ । बभूव तस्याश्चतुरस्रशोभि वपुर्विभक्तं नवयौवनेन ।
[ ३३९
होता है । सामग्रयम् सामग्री, वैदग्ध्यम् वैदग्धी [इन प्रयोगो में विकल्प करके होता है । अर्थात् जहाँ स्वार्थिक ष्यन् प्रत्यय होता है वहाँ उसके षित होने से 'षिद्गौरादिभ्यश्च' इस सूत्र से विहित डोष् प्रत्यय बहुल करके होता है । इसलिए 'ब्राह्मण्यम्' आदि में डीषु नहीं होता और अन्यत्र विकल्प से होता है ] ।
यहाँ काशी वाले सस्करण मे सामग्रयम्-सामग्री, वैदग्ध्यम् - वैदग्धी इन उदाहरणो को इसी सूत्र की वृत्ति मे जोड दिया है । परन्तु डा० गगानाथ जी भी ने इस ग्रन्थ का जो अग्रेजी अनुवाद किया है उसमे इस सूत्र के बाद 'सामग्रयादिषु विकल्पेन' यह सूत्र ओर दिया है । और 'सामग्रयम्' आदि को उस नूत्र का उदाहरण माना है । काशी वाले सस्करण में वह सूत्र नही है ॥ ५६ ॥
1
धन्वी यह [ पद ] ब्रह्मादि [ गण में धन्व शब्द का ] पाठ होने से [ सिद्ध होता है ] ।
[ धन्वन् शब्द के श्रदन्त न होने से 'श्रुत इनिठनौं' अष्टाध्यायी ५, २, ११५ सूत्र से इनि प्रत्यय नही हो सकता है। इसलिए ] व्रीह्यादि गण में [ उमको श्राकृतिगण मान कर ] 'धन्व' शब्द का पाठ होने से [ 'व्रीह्यादिभ्यश्च' अष्टा० ५, २, ११६ । इस सूत्र से ] इनि प्रत्यय होकर 'धन्वी' यह [ पद ] सिद्ध होता है । [ वृत्ति के वाराणसीय सस्करण में 'धन्वन्' शब्द का व्रीह्यादि गण में पाठ माना है । उसके स्थान पर डा० गंगानाथ झा ने 'धन्वं' शब्द का पाठ रखा है । वही अधिक अच्छा है इसलिए हमने भी मूल में उसी पाट को स्थान दिया है ] ॥ ५८ ॥
[ 'सुप्यजाती णिनिस्ताच्छील्ये' श्रष्टा० ३,२, ७८ सूत्र से ताच्छील्य अर्य में 'चतुरत शोभितु शील अस्य' इस विग्रह में ] णिनि प्रत्यय होने पर 'चतुरस्त्र - atit' यह [ पद ] सिद्ध होता है ।
नव यौवन से विभक्त उसका शरीर चारो ओर मे शोभायुक्त होगा ।
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३४० ] काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती
[ सूत्र ५८ इत्यत्र 'चतुरस्रशोभि' इति न युक्तम् । ब्रीह्यादिषु शोभाशब्दस्य पाठेऽपि इनिरत्र न सिद्धयति 'ग्रहणवता प्रातिपदिकेन तदन्तविधिप्रतिषेधात्।
भवतु वा तदन्तविधिः । कर्मधारयान्मत्वर्थीयानुपपत्तिः। लघु
'यहां चतुरस्रशोभि' यह [ वपु का विशेषण ] ठीक नहीं है । [क्योकि 'शोभा शब्द' अवन्त नहीं है इसलिए 'अत इनिठनौं', अष्टा० ५, २, ११५ । -सूत्र से इनि प्रत्यय नहीं हो सकता है। ब्राह्मादि गण मे यदि उसका पाठ होता तो 'ब्रह्मादिभ्यश्च' अष्टा० ५, २,११६ सूत्र से इनि प्रत्यय हो सकता था। परन्तु वहां भी 'शोभा' शब्द का पाठ नही है। तीसरा मार्ग यह हो सकता था कि जैसे पिछले सूत्र में व्रीह्यादि गण को प्राकृतिगण मान कर उसमें अपठित 'धन्व' शब्द का व्रीह्यादि गण में पाठ मान लिया गया है। इसी प्रकार इस 'शोभा' शब्द का भी बीह्यादि गण में पाठ मान कर 'इनि' प्रत्यय कर लिया जाय । सो भी ठीक नहीं है। क्योंकि ], बीह्यादि [गण को प्राकृति गण मान कर उस ] मे शोभा शब्द का पाठ मानने पर भी यहां इनि [प्रत्यय] सिद्ध नही हो सकता है । 'ग्रहणवता प्रातिपदिकन' [इत्यादि के अनुसार] से तदन्तविधि का निषेध होने से। [शोभा शब्द' जिसके अन्त में है ऐसे 'चतुरस्रशोभा' पद' से 'इनि' नहीं हो सकता है।
___ अथवा दुर्जनतोष-न्याय से तदन्त विधि भी मान ले तो भी 'चतुरस्रशोभी' यह पद नही बन सकता है । क्योकि 'चतुरस्रा च सा शोभा चतुरस्रशोभा' यह कर्मधारय समास हुआ । 'सा अस्यास्ति इति चतुरस्रशोभि' इस प्रकार कर्मधारय से मत्वर्थीय इनि प्रत्यय करने पर 'चतुरस्रशोभि' पद को सिद्ध किया जाय यह चौथा प्रकार हो सकता था । परन्तु वह भी सम्भव नही है । क्योकि 'न कर्मधारयान् मत्वर्थीयो बहुव्रीहिश्चेत् तदर्थप्रतिपत्तिकर' इस के अनुसार कर्मधारय ममास से मत्वर्थीय इनि प्रत्यय नही हो सकता है। क्योकि 'चतुरस्रा शोभा यस्य तत् चतुरस्रशोभम्' इस वहुव्रीहि समास से भी वह अर्थ निकल आता है। और इस वहुव्रीहि को प्रक्रिया मे लाघव रहता है । इसलिए 'चतुरस्रशोभि' पद की सिद्धि के लिए कर्मधारय से मत्वर्थीय इनि प्रत्यय के गुरुभूत चतुर्थ मार्ग का भी अवलम्बन नहीं किया जा सकता है । इसी बात को आगे कहते है ।
अथवा [ दुर्जनतोष-न्याय से कथञ्चित् ] तदन्तविधि भी [ मान्य] हो जाय [फिर भी] कर्मधारय [ समास ] से मत्वर्थीय [ इनि प्रत्यय] की अनुपपत्ति है। [ क्योकि उसमें प्रक्रिया का गौरव, प्राधिक्य होता है। और
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सूत्र ५८ ]
पञ्चमाधिकरणे द्वितीयोऽध्याय.
[ ३४१
त्वात् प्रक्रमस्येति बहुव्रीहिणैव भवितव्यम् । तत्कथमिति मत्वर्थीयस्याप्राप्तौ चतुरस्रशोभीति प्रयोगः ।
आह । णिनौ । चतुरस्र' शोभते इति ताच्छीलिके गिनाचयं प्रयोगः । अथ, अनुमेयशोभीति कथम् । नह्यत्र पूर्ववद् वृत्ति: शक्या कतुमिति ।
शुभेः साधुकारिण्यावश्यके वा सिनिं कृत्वा तदन्ताच्च भावप्रत्यये पश्चाद् बहुव्रीहिः कर्तव्यः । अनुमेयं शोभित्वं यस्य इति । भावप्रत्ययस्तु गतार्थत्वान्न प्रयुक्त' । यथा निराकुलं तिष्ठति, सधीरमुवाच इति ॥ ५८ ॥
बहुव्रीहि समास में दुबारा 'इनि' श्रादि के करने बिना ही वह अर्थ प्रतीत हो जाता है इसलिए ] प्रक्रिया के लाघव से बहुव्रीहि [ समास ] ही होना चाहिए । तो इस प्रकार [ कर्मधारय से ] मत्वर्थीय [ इनि प्रत्यय ] के प्राप्त न होने पर 'चतुरस्रशोभि' यह प्रयोग कैसे होगा । [ यह पूर्वपक्ष हुआ । ] |
[ उत्तर ] कहते है । [ 'व्रीह्यादिभ्यश्च' से इनि प्रत्यय नहीं अपितु 'चतुरस्रं शोभितु शीलं प्रस्य' इस विग्रह में 'सुप्यजातौ णिनिस्ताच्छील्यै श्रष्टा० ३,२,७८ इस सूत्र से ] 'चतुरखं शोभते' इस प्रकार ताच्छील्यक णिनि [ प्रत्यय ] के होने पर यह [ चतुरस्रशोभि ] प्रयोग सिद्ध होता है।
[प्रश्न ] अच्छा 'अनुमेयशोभि' [ यह प्रयोग ] कैसे बनेगा । [ यह प्रश्न करने की आवश्यकता इसलिए पड़ी कि 'चतुरस्रशोभि' के समान ताच्छील्य में णिनि करने से भी इस 'श्रनुमेयशोभि' शब्द की सिद्धि नही हो सकती है । क्योकि ] यहां [ 'अनुमेयशोभि' इस पद में ] पूर्व [ चतुरस्रशोभि ] के समान [ 'अनुमेयं शोभितु ं शील अस्य' इस प्रकार का ] विग्रह नही किया जा सकता है । [ क्योकि यहा इस प्रकार के अर्थ को सङ्गति नहीं लगती है । और ताच्छील्य में णिनि करने के लिए कर्म का उपपद होना आवश्यक है । परन्तु यहां किसी कर्म की विवक्षा सम्भव नहीं है। और उसके बिना ताच्छील्य णिनि नहीं हो मकता है । तव 'अनुमेयशोभि' पद कैसे बनेगा । यह पूर्वपक्षी का प्रश्न है । श्रागे इसका उत्तर देते है ] ।
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[उत्तर] शुभ [ धातु ] से साधुकारी [ अर्थ ] में [ साधुकारिण्युपसख्यानम् इस वार्तिक से ] श्रथवा श्रावश्यक [ अर्थ ] में [ श्रावश्यकाधमर्ण्ययोणि नि. अप्टा० ३, ३, १७० इस सूत्र से ] णिनि [ प्रत्यय ] करके [ 'शोभि' पद बन जाने पर ] उस णिनिप्रत्ययान्त ['शोभि' शब्द ] से [ 'तस्यभावस्त्वतलों' श्रष्टा० ५, १, ११९ सूत्र से ] भाव प्रत्यय [ त्व ] होने पर पीछे [ उस 'शोभित्व' शब्द का 'अनुमेय' शब्द के साथ ] बहुव्रीहि [ समास ] करना चाहिए । 'अनुमेय है शोभित्व
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काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती [ सूत्र ५९-६० कञ्चुकीया इति चि । ५, २, ५६ ।
'जीवन्ति राजमहिषीमनु कञ्चुकीयाः' इति कथम् ? मत्वर्थीयस्य 'छ' प्रत्ययस्याभावात् । अत आह, 'क्यचि' । क्यच' प्रत्यये सति कञ्चुकीया इति भवति । 'कञ्चुकमात्मन इच्छन्ति' कञ्चुकीयाः ।। ५६ ॥
बौद्धप्रतियोग्यपेक्षायामपि आतिशायनिकाः । ५, २, ६० ।
जिसका' [ यह बहुव्रीहि समास का स्वरूप होगा। इस प्रकार के समास होने पर 'अनुमेयशोभित्व' पद बन सकता है। इसमें से अनुमेयशोभित्व पद के अन्त का 'त्व' रूप] भावप्रत्यय तो [ बिना बोले भी ] गतार्थ हो जाने से [ यहां अनुमेयशोभि पद में ] प्रयुक्त नहीं किया है । जैसे [ 'निराकुलत्वं यथा स्यात् तथा तिष्ठति' अथवा 'धीरत्वेन सह इति सधीरमुवाच' इन विग्रहो में प्रयुक्त ] 'निराकुलं तिष्ठति तथा 'सधीरमुवाच' [प्रयोगों में [गतार्थ होने से 'त्व' रूप भाव प्रत्यय का प्रयोग नहीं किया जाता है । इसी प्रकार 'अनुमेयं शोभित्वं यस्य' इस विग्रह में 'स्व' रूप भाव प्रत्यय का प्रयोग न करने पर 'अनुमेयशोभि' पद की सिद्धि हो सकती है। ] ॥ ५८॥
'कञ्चुकीयाः' यह [प्रयोग 'सुप आत्मनः क्यच्' सूत्र से ] क्यच् [प्रत्यय ] होने पर [ सिद्ध होता है।
राजमहिषी के साथ कञ्चुकीय जीवित रहते है।
यह ['कञ्चुकीयाः' पद का प्रयोग] कैसे [सिद्ध होगा] ? [ क्योंकि . 'कञ्चुका येषा सन्ति इति कञ्चुकीयाः' इस अर्थ में कञ्चुक शब्द से ] मत्वर्थीय
छ प्रत्यय का [ विधायक कोई सूत्र न होने के कारण ] प्रभाव होने से। (कञ्चुकीया पद सिद्ध नही हो सकता है । यह पूर्वपक्ष हुआ ] इस [समाधान ] 'के लिए कहते है । क्यचि अर्थात् [ 'सुप प्रात्मनः क्यच्' अष्टा० १,१,८ सूत्र से] श्यच् प्रत्यय होने पर [ और 'क्यचि च' अष्टा० ७, ४, ३३ सूत्र से कञ्चुक शब्द के अन्तिम प्रकार के स्थान पर ईकार होकर ] 'कञ्चुकीयाः' यह [ पद सिद्ध ] होता है । [ उसका विग्रह अथवा अर्थ ] 'कञ्चुकमात्मन इच्छन्ति' अपने लिए 'कञ्चुक' चाहते है इस अर्थ में 'कञ्चुकीयाः [ यह प्रयोग सिद्ध होता है ॥ ५९॥
बौ . [शब्द से उपात्त न होने पर भी बुद्धि में सन्निकृष्ट ] प्रतियोगी की अपेक्षा म भी अतिशयार्थक [तरप् तमप् आदि प्रत्यय ] हो सकते है ।
[साधारणतः देवदत्त यज्ञदत्त से अधिक बलवान् है इस प्रकार देवदत्त यज्ञदत्त रूप दोनो प्रतियोगियो के शब्दतः उपात्त होने पर ही 'बलवत्तरः'
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सूत्र ६१] पञ्चमाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः
[३४३ बौद्धस्य प्रतियोगिनोऽपेक्षायामप्यातिशायनिकास्तरवादयो भवन्ति । घनतरं तमः, बहुलतरं प्रेम इति ।। ६० ।।
कौशिलादय इलचि वर्णलोपात् । ५, २. ६१ ।
'कौशिलो' 'वासिल' इत्यादयः कथम् ' आह । कौशिकवासिष्ठादिभ्यः शब्दभ्यो नीतावनुकम्पायां वा 'घनिलचौ च" इति इलचि कृते, 'ठाजादावूवं द्वितीयादचः इति वर्णलोपात् सिद्धयन्ति ॥ ६१॥
'बलवत्तमः' आदि तर तमप् प्रत्ययान्त प्रयोग होते है । परन्तु कहीं-कहीं शब्दतः उपात्त न होने पर भी ] बुद्धि निष्ठ प्रतियोगी को अपेक्षा में भी अतिशयार्यक तरप आदि [प्रत्यय होते है । जैसे 'घनतर' अन्धकार, अथवा बहुलतर' प्रेम है । [ यहा किसकी अपेक्षा 'धनतर' अथवा किसको अपेक्षा 'बहुलतर है यह बात शब्दतः उपात नहीं है। परन्तु 'इदं धनं, इदं च घन, इदमनयोरतिशयेन घनमिति धनतर' इस रूप में वृद्धिनिष्ठ प्रतियोगी की अपेक्षा में घनतर शब्द का प्रयोग हुआ है ] ॥ ६ ॥
कौशिल प्रादि [शब्द 'घनिलचौ च' अष्टा० ५,३,७९ सूत्र से] इलच् [प्रत्यय ] होने पर ['गजादावूवं द्वितीयादचः' अष्टा० ५, ३, ८३ सूत्र से कौशिक शब्द के द्वितीय अच् से परे 'क' इसका, और वासिष्ठ शब्द के द्वितीय अच् से परे 'ठ' इस ] वर्ण के लोप से [ और 'यस्येति च' अष्टा० ६, ४, १४८ सूत्र से इकार का लोप होकर 'कौशिल.', 'वासिल.' आदि शब्द सिद्ध होते है ।
['अनुकम्पित. कौशिक , कौशिलः' 'अनुकम्पितो वसिष्ठः वासिल.' इस अर्थ या विग्रह में ] कौशिल वासिलः इत्यादि [शब्द प्रयुक्त होते है वह ] कैसे [बनते है । यह प्रश्न है ], [इसका उत्तर] कहते है। कौशिक और वसिष्ठ आदि शब्दो से नीति अथवा अनुकम्पा में ['अनुकम्पायाम्' अष्टा० ५, ३, ७६, 'नीती च तद्युक्ते' अष्टा० ५, ३, ७७ इन सूत्रो के प्रकरण में ] 'घनिलचौ च [अष्टा० ५, ३, ७९ ] सूत्र से इलच् [प्रत्यय ] करने पर 'गजादावूर्ध्व द्वितीयादच. [अष्टा० ५, ३, ८३ ] इस [ सूत्र] से [द्वितीय अच् 'ई' के बाद के 'क' तथा 'ठ' ] वर्ण को लोप होने से [ कौशिल वासिल यह शब्द ] सिद्ध होते है ॥६१॥
म. टाध्यायी ५, ३, ७९ ।
अप्टाध्यायी ५, ३, ८३ ।
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________________ सूत्र 87] पञ्चमाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः [359 'मन्दं मन्द नुरति पवनः' इत्यत्र मन्द मन्दं इत्यप्रकारार्थे भवति / प्रकारार्थत्वे तु 'प्रकारे गुणवचनस्य' इति द्विवंचने कृते कर्मधारयवद्भावे च मन्दमन्दमिति प्रयोगः / मन्द मन्दं इत्यत्र तु नित्यवीप्सयोरिति द्विर्वचनम् / अनेकभावात्मकस्य नुदेर्यदा सर्वे भावा मन्दत्वेन व्याप्तुमिष्टा भवन्ति तदा वीप्सेति // 86 // न निद्राद्रुगिति भष्भावप्राप्ते. / 5, 2, 87 / 'निद्राद्रुक-काद्वैवच्छविरुपरिलसद्घर्घरो वारिवाहः / ' इत्यत्र 'निद्राद क' इति न युक्त.। एकाचो वशो भए' इति भण्भाषप्राप्तेः / अनुप्रासप्रियस्त्वपत्रंशः कृतः / श्र८७॥ [अष्टा० 8, 1, 11 ] इस [ सूत्र ] से [ गुणवाचक 'मन्द शब्द को द्विवचन करने पर [ उस 'प्रकारे गुणवचमस्य' सूत्र के 'कर्मधारयवदुत्तरेषु' अष्टा० 6, 1, 11 इस सूत्र के अधिकार में होने से कर्मधारयवद्भाव [ कर्मधारय समास के समान कार्य ] होने से [ सु आदि विभक्ति लोप होकर ] 'मन्दमन्द' यह प्रयोग होगा।'मन्द मन्द प्रयोग नही बनेगा]। 'मन्द मन्द' इस कालिदास के प्रयोग ] में तो 'नित्य वीप्सयो'[अष्टा० 8, 1, 4 ] इस [ सूत्र ] से द्विवचन हुआ है ['प्रकारे गुणवचनस्य' से नही]। [अनेकभावविषय व्याप्त इच्छा वीप्सा ] अनेक भावात्मक [अनेक पदार्थों से सम्बद्ध] नुद् [णु प्रेरणे] धातु के [ सम्बद्ध ] सव पदार्थों में [एक साथ ] जब व्याप्ति इष्ट हो तब 'वोप्सा कहलाती है। [यह वीप्सा का लक्षण है / यहां वीप्सा में द्विवंचन हुआ है। अतएव कर्मधारयवद्भाव न होने से विभक्ति लोप प्रादि नही होता है। अतः 'मन्दं मन्दं नुदति पवन' यह प्रयोग बन जाता है। ] // 86 // "निबाहुक्' यह प्रयोग उचित नहीं है / [ 'एकाचो बशो भए झपन्तस्य स्थ्वोः ' अष्टा० 8, 2, 37 इस सूत्र से ट के स्थान पर घरूप] भए भाव की प्राप्ति होने से। [निद्राघ्र प्रयोग होना चाहिए। ऊपर गड़भाड करता हुआ राक्षस के समाम [ भयंकर ] बादल निद्रानाशक है [ सोने नहीं देता है। यहा [ इस उदाहरण में ] 'निद्रानुक् यह [प्रयोग] उचित नहीं है। 'एकाचो वशो भए ['एकाचो वशो भए प्रपन्तस्य स्वो.' अष्टा० 8, 2, 37] इस [ सूत्र] से भ भाव [द के स्थान पर ध] के प्राप्त होने में [निद्राध्रुव प्रयोग होना चाहिए था। परन्तु ] अनुप्रामप्रिय [कवियो ] ने [ उन शब्द को ] विगाड [कर निद्राद्रुक कर दिया है / / 87 //