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दादा भगवान प्ररुपित
कर्म का सिद्धांत
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कर्म का सिद्धांत
'मैं ने किया' बोला कि कर्मबंध हो जाता है। 'ये मैं ने किया', इसमें 'ईगोइज्म' (अहंकार) है और ईगोइज्म से कर्म बंधाता है। जिधर ईगोइज्म ही नहीं, "मैं ने किया ऐसा ही नहीं है, वहाँ कर्म नहीं होता है।
-दादाश्री
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दादा भगवान प्ररूपित
प्रकाशक : दादा भगवान फाउन्डेशन की ओर से
श्री अजित सी.पटेल 5, ममतापार्क सोसायटी, नवगुजरात कोलेज के पीछे, उस्मानपुरा, अहमदाबाद - 380014 फोन - 7540408, 7543979 E-Mail: info@dadabhagwan.org
संपादक के आधीन
कर्म का सिद्धांत
प्रथम आवृति : प्रत ३०००,
मार्च, २००३
भाव मूल्य : 'परम विनय' और
'मैं कुछ भी जानता नहीं', यह भाव! द्रव्य मूल्य : ५ रुपये (राहत दर पर)
लेसर कम्पोझ : दादा भगवान फाउन्डेशन, अहमदाबाद.
मुद्रक
-संपादकपूज्य डॉ. नीरबहन अमीन
: महाविदेह फाउन्डेशन (प्रीन्टींग डीवीझन), पार्श्वनाथ चेम्बर्स, नई रिझर्व बैंक के पास, इन्कमटेक्स, अहमदाबाद-३८००१४. फोन : KK
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त्रिमंत्र
दादा भगवान कौन ?
जून १९५८ की एक संध्या का करीब छह बजे का समय, भीड़ से भरा सूरत शहर का रेल्वे स्टेशन। प्लेटफार्म नं. 3 की बेंच पर बैठे श्री अंबालाल मूलजीभाई पटेल रूपी देहमंदिर में कुदरती रूप से, अक्रम रूप में, कई जन्मों से व्यक्त होने के लिए आतुर 'दादा भगवान' पूर्ण रूप से प्रगट हुए और कुदरत ने सर्जित किया आध्यात्म का अद्भुत आश्चर्य। एक घण्टे में उनको विश्व दर्शन हुआ। 'मैं कौन ? भगवान कौन ? जगत कौन चलाता है ? कर्म क्या ? मुक्ति क्या ?' इत्यादि जगत के सारे आध्यात्मिक प्रश्नों के संपूर्ण रहस्य प्रकट हुए। इस तरह कुदरत ने विश्व के सन्मुख एक अद्वितीय पूर्ण दर्शन प्रस्तुत किया और उसकेमाध्यम बने श्री अंबालाल मूलजीभाई पटेल, चरोतर क्षेत्र के भादरण गाँव के पाटीदार, कान्ट्रेक्ट का व्यवसाय करने वाले, फिर भी पूर्णतया वीतराग पुरुष !
उन्हें प्राप्ति हुई, उसी प्रकार केवल दो ही घण्टों में अन्य मुमुक्षु जनों को भी वे आत्मज्ञान की प्राप्ति करवाते थे, उनके अद्भुत सिद्ध हुए ज्ञानप्रयोग से । उसे अक्रम मार्ग कहा। अक्रम, अर्थात बिना क्रम के, और क्रम अर्थात सीढ़ी दर सीढ़ी, क्रमानुसार उपर चढ़ना। अक्रम अर्थात लिफ्ट मार्ग । शॉर्ट कट ।
आपश्री स्वयं प्रत्येक को 'दादा भगवान कौन ?' का रहस्य बताते हुए कहते थे कि "यह दिखाई देनेवाले दादा भगवान नहीं है, वे तो 'ए. एम. पटेल' है। हम ज्ञानी पुरुष हैं और भीतर प्रकट हुए हैं, वे 'दादा भगवान' हैं दादा भगवान तो चौदह लोक के नाथ हैं। वे आप में भी हैं। सभी में हैं। आपमें अव्यक्त रूप में रहे हुए हैं और 'यहाँ' संपूर्ण रूप से व्यक्त हुए हैं। दादा भगवान को मैं भी नमस्कार करता हूँ ।"
'व्यापार में धर्म होना चाहिए, धर्म में व्यापार नहीं, इस सिद्धांत से उन्होंने पूरा जीवन बिताया। जीवन में कभी भी उन्होंने किसी के पास से पैसा नहीं लिया। बल्कि अपने व्यवसाय की अतिरिक्त कमाई से भक्तों को यात्रा करवाते थे।
परम पूजनीय दादाश्री गाँव-गाँव, देश-विदेश परिभ्रमण करके मुमुक्षु जनों को सत्संग और स्वरूपज्ञान की प्राप्ति करवाते थे। आपश्री ने अपने जीवनकाल में ही पूजनीय डॉ. नीरूबहन अमीन को स्वरूपज्ञान (आत्मज्ञान) प्राप्त करवाने की ज्ञानसिद्धि प्रदान की थी। दादाश्री के देहविलय पश्चात आज भी पूजनीय डॉ. नीरूबहन अमीन गाँव-गाँव, देश-विदेश भ्रमण करके मुमुक्षुजनों को सत्संग और स्वरूपज्ञान की प्राप्ति, निमित्त भाव से करवा रहे हैं, जिसका लाभ हजारों मुमुक्षु लेकर धन्यता का अनुभव कर रहे हैं।
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संपादकीय
जीवन में ऐसे कितने प्रसंग आते है, जब आदमी के मन को समाधान नहीं मीलता कि ऐसा क्यों हो गया ? धरतीकंप में कितने सारे लोग मर गये, बद्री-केदार की यात्रा करनेवाले बर्फ में मर गये, निर्दोष बच्चा जन्म लेते ही अपंग हो गया, किसी की ऐक्सिडन्ट में मृत्यु हो गई... तो यह किस वजह से? बाद में कर्म का सिद्धांत है ऐसा समाधान कर लेते है। मगर कर्म क्या है ? कर्म का फल कैसे भुगतना पडता है ? इसका रहस्य समज में नहीं आता है।
सब लोग कर्म किसे कहते है ? नौकरी-धंधा करे, सत्कार्य करे, धर्म, पूजा-पाठ करे, सारा दिन जो भी करता है, उसे कर्म कहते है। मगर ज्ञानीओं की द्रष्टि से यह कर्म नहीं है, लेकिन कर्मफल है। जो पांच इन्द्रियों से अनुभव में आता है, वह सब कर्मफल है। और कर्म का बीज वह तो बहुत सूक्ष्म है। वह अज्ञानता से 'मैं ने किया', यह कर्ताभाव से कर्म चार्जिग होता है।
कोई आदमी क्रोध करता है और भीतर में पश्चाताप करता है, कोई आदमी क्रोध करके भीतर में खुश होता है कि मैंने ठीक ही किया, तो ही सुधरेगा। तो ज्ञानी की द्रष्टि में क्रोध करना वह तो कर्म का फल है मगर आज नये कर्मबीज भीतर में डाल देता है। भीतर में खशी होती है तो बरा बीज डाल दिया और पश्चाताप करने से नया बीज अच्छा डाल रहा है और जो क्रोध करता है, वह सूक्ष्म कर्म है, उसका फल कोई उसे मारेगाडारेगा। वह कर्मफल का परिणाम इधर ही मिल जाता है। आज क्रोध हो गया, वह पूर्वकर्म का फल आया है।
कर्म का चार्जिंग कैसे होता है ? कर्ताभाव से कर्म चार्जिंग होते हैं। कर्ताभाव किसे कहते हैं ? कर रहा है कोई और 'मैं ने किया ऐसा मान लेते हैं, वो ही कर्ताभाव है।
कर्ताभाव क्यों हो जाता है ? अहंकार से। अहंकार किसे कहते है ? जो खुद नहीं है फिर भी वहाँ मैं हूं' मान लेता है, खुद करता नहीं फिर भी
'मैं ने किया' मान लेता है, वही अहंकार है. खुद देह स्वरूप नही, वाणी स्वरूप नहीं, मन स्वरूप नही, नाम स्वरूप नहीं, फिर भी खुद यह सब 'मैं ही हैं' ऐसा मान लेता है, वही अहंकार है। याने अज्ञानता से अहंकार खडा हो गया है। और उसी से निरंतर कर्मबंधन चालु ही रहता है।
ज्ञानी पुरुष मिल जाये तो अज्ञानता फ्रेकचर कर देते है और खद कौन है, उसका ज्ञान देते है और यह सब कौन कर्ता है, यह भी ज्ञान देते है। तब से अहंकार चला जाता है। नया कर्म चार्ज होना बंध हो जाता है, फिर डिस्चार्ज कर्म ही बाकी रह जाते है। उसका समभाव से निकाल कर देने से मुक्ति हो जाती है।
परम पूज्य दादाजी के पास दो ही घंटे में ज्ञानप्राप्ति हो जाती थी।
कर्म के बीज पूर्वजन्म में डाल देता है और आज इस जन्म में कर्म फल भूगतने पड़ते है। तो यहाँ कर्म का फल देनेवाला कौन? यह रहस्य का पूज्य दादाजी ने समझाया कि only scientific circumstential evidences से यह फल आता है। वह फल भूगतने के टाइम पर अज्ञानता से राग-द्वेष करता है, 'मैं ने किया' मानता है, जिससे नया कर्म चार्ज होता है। ज्ञानी पुरूष नया कर्म चार्ज न हो ऐसा विज्ञान देते हैं। ताकि पिछले जन्मों के फल पूरे हो जायेंगे ओर नया कर्म चार्ज नहीं हुआ तो फिर मुक्ति हो जायेगी।
प्रस्तुत ग्रंथ में परम पूज्य दादा भगवान ने ज्ञान में अवलोकन करके दुनिया को कर्म का सिद्धांत दिया है। वह दादाजी की बानी में संकलित हुआ है। वह बहुत संक्षिप्त में है, फिर भी वाचक को कर्म का सिद्धांत समज में आ जायेगा और जीवन के प्रत्येक प्रसंग में समाधान प्राप्त होगा।
- डॉ. नीरुबहन अमीन के जय सच्चिदानंद
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अनुक्रमणिका
निवेदन आप्तवाणी मुख्य ग्रंथ है, जो दादा भगवान की श्रीमुख वाणी से, ओरिजिनल वाणी से बना है, वो ही ग्रंथ के सात विभाजन किये गये है, ताकी वाचक को पढ़ने में सुविधा हो ।
1. ज्ञानी पुरूष की पहेचान 2. जगत कर्ता कौन? 3. कर्म का सिद्धांत 4.अंत:करण का स्वरूप 5. यथार्थ धर्म 6. सर्व दुःखो से मुक्ति 7. आत्मा जाना उसने सर्व जाना
परम पूज्य दादाश्री हिन्दी में बहुत कम बोलते थे, कभी हिन्दी भाषी लोग आ जाते थे, जो गुजराती नहीं समज पाते थे, उनके लिए पूज्यश्री हिन्दी बोल लेते थे, वो वाणी जो केसेटो में से ट्रान्स्क्राईब करके यह आप्तवाणी ग्रंथ बना है ! वो ही आप्तवाणी ग्रंथ को फिर से संकलित करके यह सात छोटे ग्रंथ बनाये है ! उनकी हिन्दी 'प्योर' हिन्दी नहीं है, फिर भी सननेवाले को उनका अंतर आशय 'एक्झेट' पहुँच जाता है। उनकी वाणी हृदयस्पर्शी, हृदयभेदी होने के कारण जैसी निकली वैसी ही संकलित करके प्रस्तुत की गई है ताकि सज्ञ वाचक को उनके 'डिरेक्ट' शब्द पहुँचे। उनकी हिन्दी याने गुजराती, अंग्रेजी और हिन्दी का मिश्रण। फिर भी सुनने में, पढने में बहुत मीठी लगती है, नेचरल लगती है. जीवंत लगती है। जो शब्द है, वह भाषाकीय द्रष्टि से सीधे-सादे है किन्तु 'ज्ञानी पुरुष' का दर्शन निरावरण है, इसलिए उनके प्रत्येक वचन आशयपूर्ण, मार्मिक, मौलिक और सामनेवाले के व्यु पोईन्ट को एक्झेट समजकर निकलने के कारण श्रोता के दर्शन को सुस्पष्ट खोल देते है और ओर ऊंचाई पर ले जाते है।
- डॉ. नीरबहन अमीन
१. Responsible कौन? २. कर्मबंध, कर्तव्य से या कर्ताभाव से? ३. कर्म, कर्मफल का Science ! ४. कर्तापद या आश्रितपद? ५. निष्काम कर्म से कर्मबंध? ६. कर्म, कर्म चेतना, कर्मफल चेतना! ७. जिवन में मरजियात क्या? ८. प्रारब्ध, पुरुषार्थका Demarkation ! ९. प्रत्येक effect में causes किसका? १०. 'सूक्ष्म शरीर' क्या है? ११. Indent -किया किसने? जाना किसने?
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कर्म का सिद्धांत
लगती है। आखी जिंदगी में आप जो भी कुछ करता है, उसका जिम्मेदार कोई नहीं है। जन्म से लेकर 'last station' तक जो कुछ किया, उसकी जिम्मेदारी तुम्हारी है ही नहीं। मगर तुम खुद ही जिम्मेदारी लेता है कि, 'ये मैं ने किया, ये मैं ने किया, मैं ने खराब किया, मैं ने अच्छा किया।' ऐसे खुद ही जोखिमदारी लेता है।
प्रश्नकर्ता : कोई श्रीमंत होता है, कोई गरीब होता है, कोई अनपढ़ होता है, ऐसा उसका होना वह किस पे है?
कर्म का सिद्धांत
Responsible कौन ? प्रश्नकर्ता : जब दूसरी शक्ति हमसे कराती है तो ये कर्म जो हम गलत करते है, वो कर्म के बंधन मुझे क्यों लगते है? मुझसे तो करवाया गया था?
दादाश्री : No body is responsible.
वो कर्म का कितना जोखिमदार है? वो 'हमने किया ऐसा बोलता है, इतना ही जोखिमदार है, दूसरा कुछ नहीं। हमने किया ऐसा egoism करता है, इतना जोखिमदार है। ये जो जानवर है, वो सब जोखिमदार है ही नहीं, क्योंकि वो egoism करते ही नहीं है।
ये बाघ है न, वो इतने सारे जानवर मार डालता है, खा जाता है मगर उसको जोखिमदारी नहीं है। बिलकुल no responsibility. मगर आदमी तो. 'मैं ने ये किया, मैं ने वो किया' कहता है, 'मैं ने बुरा किया, मैं ने अच्छा किया' ऐसा egoism करता है और सब जिम्मेदारी सिर पे लेता है। बिल्ली इतने चुहे खा जाती है, मगर उसको जोखिमदारी नहीं। No body is responsible execpt mankind. Carita ft responsible नहीं है।
दादाश्री : क्योंकि आप जिम्मेदारी स्वीकारते है कि 'ये मैं ने किया।' और हम ये जोखिमदारी नहीं लेते है, तो हमको कोई गुनहगारी नहीं है। आप तो कर्ता है। मैं ने ये किया. वो किया, खाना खाया, पानी पिया, ये सबका मैं कर्ता हूँ,' ऐसा बोलता है ने आप? इससे कर्म बांधता है। कर्ता के आधार से कर्म बांधता है। कर्ता खुद नहीं है। कोई आदमी कोई चीज में कर्ता नहीं है। वो तो खाली egosim करता है कि 'मैं ने किया। दुनिया ऐसे ही चल रही है। 'हमने ये किया, हमने लडके की शादी की' ऐसी बात करने में हरकत नहीं। बात तो करना चाहिए, मगर ये तो egoism करता है।
__ 'आप रविन्द्र है', वो गलत बात नहीं है। वो सच्ची बात है। मगर relative में सच्चा है, not real और आप real है। Relative सापेक्ष है
और Real निरपेक्ष है। आप खुद निरपेक्ष है और बोलते हो, कि 'मैं रविन्द्र हैं। फिर आप 'relative' हो गये| All these relative are temporary adjustments. ये चोरी करता है, दान देता है, वो सब भी परसत्ता कराती है और वो खद ऐसा मानता है कि 'मैं ने किया। तो फिर इसकी गुनहगारी
इधर आपको संपूर्ण सत्य जानने को मिलेगा। ये gilted सत्य नहीं है, complete सत्य है। हम 'जैसा है वैसा' ही बोलते है।
दुनिया ऐसे ही चल रही है। वो egoism करता है, इसलिए कर्म बाँधता है।
कर्मबंध, कर्तव्य से या कर्ताभाव से? प्रश्नकर्ता : मगर ऐसे कहा है न कि कर्म और कर्तव्य से ही
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कर्म का सिद्धांत
कर्म का सिद्धांत
मोक्ष है न?
दादाश्री : आप जो कर्म करते है, वो कर्म आप खुद नहीं करते मगर आपको ऐसा लगता है कि, 'मैं करता हूँ।' इसका कर्ता कौन है? 'रविन्द्र' है। 'आप' अगर 'रविन्द्र' है, तो 'आप' कर्म के कर्ता है और 'आप' अगर 'आत्मा' हो गये, तो फिर 'आप' कर्म के कर्ता नहीं है। फिर
आपको कर्म लगता ही नहीं। आप 'मैं रविन्द्र हूँ' बोलकर करता है। हकीकत में आप रविन्द्र है ही नहीं, इसलिए कर्म लगता है।
प्रश्नकर्ता : रविन्द्र तो लोगों के लिए है मगर आत्मा जो होती है. वो कर्म कराती है न?
दादाश्री : नहीं। आत्मा कुछ नहीं कराता, वो तो इसमें हाथ ही नहीं डालता। only scientific circumstential evidences सब करता है। आत्मा वो ही भगवान है। आप आत्मा को पिछानो (पहचानो) तो फिर आप भगवान हो गये, मगर आपको आत्मा की पहचान हुई नहीं है न! इसके लिए आत्मा का ज्ञान होना चाहिए।
प्रश्नकर्ता : उसके लिए, आत्मा की पहचान होने के लिए टाईम लगता है, Study करनी पडती है न?
दादाश्री : नहीं, वो लाखों जन्म Study करने से भी नहीं होता है। "ज्ञानी पुरुष" मिल जावे तो आपको आत्मा की पहचान हो जायेगी।
'मैं ने किया' बोला कि कर्मबंध हो जाता है। ये मैं ने किया' इसमें 'egoism' है और 'egoism' से कर्म बंधता है। जिधर egoism ही नहीं, 'मैं ने किया' ऐसा ही नहीं है, वहाँ कर्म नहीं होता है। खाना भी रविन्द्र खाता है, आप खुद नहीं खाते कभी। सब बोलते है कि, 'मैं ने खाया', वो सब गलत बात है।
आत्मा नहीं है। बात समझ में आती है न ? आपका सब कौन चलाता है? धंधा कौन करता है?
प्रश्नकर्ता : हम ही चलाते है।
दादाश्री : अरे, तुम कौन है चलानेवाला? आपको संडास (शौच) जाने की शक्ति है? कोई डॉक्टर को होगी?
प्रश्नकर्ता : किसी को नहीं है।
दादाश्री : हमने बडोदा में foreign return सब Doctors को बुलाया और बोला कि, 'तुम्हारे किसी में संडास (शौच) जाने की शक्ति है?' तब वो कहने लगे, 'अरे, हम तो बहुत पेशंट को करा देते हैं।' फिर हमने बताया कि भई, जब तुम्हारा संडास बंध हो जायेगा, तब तुमको मालूम हो जायेगा कि वो हमारी शक्ति नहीं थी, तब दूसरे डॉक्टर की जरूरत पड़ेगी । खुद को संडास जाने की भी स्वतंत्र शक्ति नहीं है और ये लोग कहते है कि 'हम आया, हम गया, हम सो गया, हमने ये किया, वो किया, हमने शादी की।' शादी करनेवाला त चक्कर कौन है?! शादी तो हो गई थी। पूर्व योजना हो गई थी, उसका आज रूपक में आया। वो भी तुमने नहीं किया, वो कुदरत ने किया है। सब लोग 'ईगोइज्म' करता है कि मैं ने ये किया, मैं ने वो किया। मगर तुमने क्या किया? संडास जाने की तो शक्ति नहीं है। ये सब कुदरत की शक्ति है। वो भ्रांति है। दूसरी शक्ति आपके पास कराती है और आप खुद मानते है कि मैं ने ये किया।
कर्म, कर्मफल का Science ! दादाश्री : आपका सब कुछ कौन चलाता है?
प्रश्नकर्ता : सब कर्मानुसार चल रहा है। हर आदमी कर्म में बंधा हुआ है।
दादाश्री : वो कर्म कौन कराता है?
प्रश्नकर्ता : वो रविन्द्र सब करता है? दादाश्री : हाँ, रविन्द्र सब खाता है और रविन्द्र ही पुद्गल है, वो
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कर्म का सिद्धांत
कर्म का सिद्धांत
प्रश्नकर्ता : आपका यह सवाल बहुत कठिन है। कई जन्मों से कर्म का चक्कर चल रहा है। कर्म की theory समझाईए।
दादाश्री : रात को ग्यारह बजे आपके घर कोई गेस्ट आये, चारपाँच आदमी, तो फिर आप क्या बोलते है कि, 'आइए, आइए, इधर बैठिये' और अंदर क्या चलता है, 'ये अभी कहाँ से आ गया, इतनी रात को', ऐसा नहीं होता? आपको पसंद न हो तो भी आप खुश होते हो
वो सब कर्म है। जिसको लोग देख सकते है, वो कर्म का फल इधर ही भुगतना पड़ता है। और वो कर्म करने के time जो राग-द्वेष उत्पन्न होता है, वो अगले भव में भुगतना पडता है। राग-द्वेष है वो सूक्ष्म बात है, वो ही योजना है। फिर योजना रूपक में आ जायेगी, जो कागज पे है, ड्रोइंग में है, वो रूपक में आ जायेगी और रूपक में जो आया वो कर्म है। जो दूसरा आदमी देख सकता है कि इसने गाली दीया, इसने मारा, इसने पैसा नहीं दिया, वो सभी इधर का इधर ही भोगने का। देखो, मैं तुमको बात बताऊँ कि ये किस तरह से चलता है!
न?
प्रश्नकर्ता : नहीं, मन में उसके पर गुस्सा आता है।
दादाश्री: और बाहर से अच्छा रखते हो?! हाँ. तो वो ही कर्म है। बाहर जो रखते हो, वो कर्म नहीं है। अंदर जो होता है. वो ही कर्म है। वो cause है, उसकी effect आयेगी। कभी ऐसा होता है कि तुम्हारी सास पे गुस्सा आता है?
प्रश्नकर्ता : मन में तो ऐसा बहुत होता है।
दादाश्री : वो ही कर्म है। वो अंदर जो होता है न, वो ही कर्म है। कर्म को दूसरा कोई नहीं देख सकता है। और जो दूसरा देख सकता है, तो वो कर्मफल है। मगर दुनिया के लोग तो, जो आँख से दिखता है कि तुमने गुस्सा किया, उसको ही कर्म बोलते है। तमने गस्सा किया, इसलिए तुमको सास ने मार दिया, उसको ये लोग कर्म का फल आया ऐसा बोलते है न।
एक तेरह साल का लडका है। उसका Father बोले कि. 'तम होटल में खाने को क्यों जाता है? तुम्हारी तबियत खराब हो जायेगी। तुमको कुसंग मिला है, तुमको ये करना अच्छा नहीं।' ऐसा बाप बेटे को बहुत डाँटता है। लडके को भी अंदर बहुत पश्चाताप हो जाता है और निश्चय करता है कि अभी होटल में नहीं जाऊँगा। मगर वो कुसंगवाला आदमी मिलता है, तब सब भूल जाता है या तो होटल देखी कि होटल में घुस जाता है। वो उसकी मरजी से नहीं करता। वो उसके कर्म का उदय है। अपने लोग क्या बोलते है कि खराब खाता है। अरे, ये क्या करेगा बिचारा ! उसके कर्म के उदय से ये बिचारे को होता है। आपको उसे बोलने का छोड देने का नहीं है। Dramatic बोलने का कि 'बाबा, ऐसा मत करो, तुम्हारी तबियत खलास हो जायेगी।' मगर वहाँ तो सच्चा बोलता है कि 'नालायक है, बदमाश है' और मारता है। ऐसा नहीं करने का। इससे तो you are unfit to be a father. Fit तो होना चाहिए न? वो Unqualified Father & Mother क्या चलते हैं? qualified नहीं होना चाहिए?
प्रश्नकर्ता: इस जन्म में जो भी राग-द्वेष होते है. उसका फल ये जन्म में ही भुगतना पडता है कि अगले जन्म में भुगतना पडता है? जो भी हम अच्छे कर्म करते है, बुरे कर्म करते है, उसका ये जन्म में ही फल मिलता है कि अगले जन्म में फल मिलता है?
दादाश्री : ऐसा है, अच्छा किया, बुरा किया, वो कर्म है। उसका फल तो ये जन्म में ही भुगतना पड़ता है। सब लोग देखता है कि इसने ये बुरा कर्म किया, ये चोरी किया, इसने लुच्चाई किया, इसने दगा किया,
ये बच्चा जो खाता है, उसको अपने लोग बोलते है, कि 'उसने कर्म बांधा।' अपने लोगों को आगे की बात समझ में नहीं आती। सच में तो, बच्चे से उसकी इच्छा के विरुद्ध हो जाता है। मगर ये लोग उसको कर्म बोलते है। उसका जो फल आता है, उसको पेचिश, Dysentery होता है, तो बोलते है कि 'तुमने ये कर्म खराब किया था, कि होटल
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कर्म का सिद्धांत
कर्म का सिद्धांत
में खाना खाता था, इसलिए ऐसा हुआ।' वो कर्मफल का परिणाम है। ये जन्म में जो काम किया, उसका परिणाम इधर ही भुगतना पडता है।
प्रश्नकर्ता : इस जन्म में हम नया कर्म कैसे बांधेगे? जबकी हम पिछले जन्म का कर्म भुगत रहे है, जो पिछे का हिसाब भुगत रहे है, वह कैसे नया आगे बनायेगा?
दादाश्री : ये 'सरदारजी' है, वो पिछे का कर्म भुगत रहा है, उस वक्त अन्दर नया कर्म बांध रहा है। आप खाना खाते हो, तो क्या बोलते है कि 'बहुत अच्छा हुआ है' और फिर अंदर पथ्थर आया तो फिर आपको क्या होगा?
प्रश्नकर्ता : ये दिमाग फिर जाता है।
दादाश्री : जो मिठाई खाता है, वो पिछले जन्म का है और अभी वो अच्छी लगती है, खुश होकर खाता है, घरवालों पर खश हो जाता है, इससे उसको राग होता है। और फिर खाते समय पथ्थर निकला तो नाखुश हो जाता है। खुश और नाखुश होता है, उससे नये जन्म का कर्म बंध गया। नहीं तो खाना खाने में कोई हरकत नहीं। हलवा खाओ, कुछ भी खाओ मगर खुश, नाखुश नहीं होना चाहिए। जो हो वो खा लिया।
बांधते है?
दादाश्री : हमको कभी कर्म बंधता ही नहीं है और हमने जिसको ज्ञान दिया है, वो भी कर्म बांधता नहीं है। मगर जहाँ तक ज्ञान नहीं मिला, वहाँ तक हमने बताया वैसा करना चाहिए, इससे अच्छा फल मिलता है। जिधर पाप बंधता था, उधर ही पुण्य बांधता है और वो धर्म बोला जाता है।
प्रश्नकर्ता : हम दान-पुण्य करते है, तो उसका फल अगले जन्म में मिले, इसलिए करते है? ये सत्य है क्या?
दादाश्री : हाँ, सत्य है, अच्छा करो तो अच्छा फल मिलेगा, बुरा करो तो बुरा फल मिलेगा। इसमें दूसरा किसी का obstruction नहीं है। दूसरा कोई भगवान या दूसरा कोई जीव तुम्हारे में obstruct नहीं कर सकता है। आपका ही obstruction है। आपका ही कर्म का परिणाम है। आपने जो किया है, ऐसा ही आपको मिल गया है। अच्छाबुरा इसका पूरा अर्थ ऐसा होता है, देखोने, आपने पाँच हजार रुपये भगवान के मंदिर के लिए दिये और ये भाई ने भी पाँच हजार रुपये मंदिर के लिए दिये। तो इसका फल अलग अलग ही मिलता है। आपके मन में बहुत इच्छा थी कि, 'मैं भगवान के मंदिर में कुछ दूँ, अपने पास पैसा है, तो सच्चे रस्ते में चले जावे,' ऐसा करने का विचार था। और ये तुम्हारे मित्र ने पैसा दिया, बाद में वो क्या बोलने लगा कि, 'ये तो मेयर ने जबरजस्ती किया, इसके लिए देना पड़ा, नहीं तो मैं देनेवाला ऐसा आदमी ही नहीं।' तो इसका फल अच्छा नहीं मिलता है। जैसा भाव बताता है, ऐसा ही फल मिलता है। और आपको पूरेपूरा फल मिलेगा।
प्रश्नकर्ता : नाम की लालच नहीं करनी चाहिए।
दादाश्री : नाम वो तो फल है। आपने पाँच हजार रुपये अपनी कीर्ति के लिए दिये तो जितनी कीर्ति मिल गई, इतना फल कम हो गया। कीर्ति नहीं मिले तो पूरा फल मिल जायेगा। वहाँ तो cheque with interest, bonus पूरा मिल जायेगा। नहीं तो, आधा फल तो कीर्ति में
प्रश्नकर्ता : वो तो ठीक है, मगर वो जो पिछला बुरा कर्म हम भुगत रहा है, फिर नया जन्म अच्छा कैसे होगा?
दादाश्री : देखो, अभी कोई आदमी ने तुम्हारा अपमान किया, तो वो पिछले जन्म का फल आया। उस अपमान को सहन कर ले, बिलकुल शांत रहे और उस वक्त ज्ञान हाजिर हो जावे कि 'गाली देता है वो तो निमित्त है और हमारा जो कर्म है, उसका ही फल देता है, उसमें उसका क्या गुनाह है।' तो फिर आगे का अच्छा कर्म बांधता है और दूसरा आदमी है, उसका अपमान हो गया तो वो दूसरे को कुछ न कुछ अपमान कर देता है, इससे बुरा कर्म बांधता है।
प्रश्नकर्ता : आप तो लोगों को ज्ञान देते है, तो आप अच्छा कर्म
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कर्म का सिद्धांत
कर्म का सिद्धांत
है, तो उसको देना बंध कर दो।
कोई नुकसान करता है, जेब काटता है, तो वो सब तुम्हारा ही परिणाम है। वो जितना दिया था, उतना ही आता है। वो कायदेसर ही है सब, कायदे की बाहर दुनिया में कुछ नहीं है। जिम्मेदारी खुद की है। You are whole and sole responsible for your life ! वो एक life के लिए नहीं, अनंत अवतार की life के लिए। इसलिए life में बहुत जिम्मेदारीपूर्वक रहना चाहिए। Father के साथ, Mother के साथ, wife के साथ, बच्चों के साथ, सबके साथ जिम्मेदारी है आपकी। और ये सबके साथ तुम्हारा क्या संबंध है? घराक का व्यापारी के साथ संबंध रहता है, वैसा ही संबंध है।
ही चले गया, फिर bonus आधा हो जायेगा। कीर्ति तो आपको इधर ही मिल जाती है। सब लोग बोलते है कि, 'ये शेठने पाँच हजार दिया, पाँच हजार दिया' और आप खुश हो जाते है। इसलिए दान गुप्त रखना चाहिए। देखादेखी में दान करे, स्पर्धा में आकर दान करे तो उसका पूरा फल नहीं मिलता। भगवान के यहाँ एक भी रुपेया गुप्त रूप से दिया.
और दूसरे सब ने २० हजार देकर तख्ती लगाया, तो उसका उसको इधर ही फल मिल गया। इधर ही उसको यश, कीर्ति, वाह वाह मिल गई। उसका payment तख्ती से हो गया। फिर payment बाकी नहीं रहा। नहीं तो एक रुपेया दो, मगर कोई न जाने ऐसे दो। तख्ती नहीं लगाये, तो बहुत ऊँचा फल मिलता है। तख्ती तो मंदिरो में सारी दिवारों पर तख्ती ही लगी हुई है। इसका कोई meaning है? उसको कौन पढ़ेगा? किसी का बाप भी नहीं पढ़ेगा।
दान याने दूसरे कोई भी जीव को सुख देना। मनुष्य हो या दूसरा कोई भी जानवर हो, वो सबको सुख देना उसका नाम दान है। दूसरों को सुख दिया तो उसके reaction में अपने को सुख मिलता है और दु:ख दिया तो फिर दुःख आयेगा। इस तरह आपको सुख-दुःख घर बैठे आयेगा। कुछ न दे सके तो उसको खाना दो, पुराने कपड़े दो। उससे उसको शांति मिलेगी। किसी के मन को सुख दिया तो अपने मन को सुख प्राप्त होगा, ये सब व्यवहार है। क्योंकि जीवमात्र के अंदर भगवान है, इसलिए उसके बाहर के काम को हमें नहीं देखना चाहिए, उसको मदद करनी चाहिए। उसको मदद की तो वो help का परिणाम अपने यहाँ सुख आयेगा और दुःख दिया तो दुःख का परिणाम अपने यहाँ दुःख आयेगा। इसलिए रोज सुबह में नक्की करना चाहिये कि मेरे मन-वचनकाया से कोई भी जीव को किंचित् मात्र दु:ख न हो, न हो, न हो। और कोई अपने को दुःख दे जाए तो उसको अपने चोपडे में जमा कर देने का। नंदलालने दो गाली आपको दिया तो उसको नंदलाल के खाते में जमा कर देने का, क्योंकि पिछले अवतार में आपने उधार दिया था। आपने दो गाली दिया था तो दो वापस आ गया। आज पाँच गाली फिर से दो तो वो फिर से पाँच देगा। अगर आपको ऐसा व्यापार करना पसंद नहीं
प्रश्नकर्ता : अभी मैं कोई कार्य करूं तो उसका फल मुझे इसी जन्म में मिलेगा या आगे के जन्म में मिलेगा?
दादाश्री : देखोने, जितना कर्म आंख से दिखता है, इसका फल तो इधर ही ये जन्म में मिलेगा और जो आँख से दिखता नहीं, अंदर हो जाता है, वो कर्म का फल आगे के जन्म में मिलेगा।
एक आदमी मुस्लिम है, उसको पाँच लडके है और दो लडकी है। उसके पास पैसा भी नहीं है। उसकी औरत किसी दिन बोलती है कि अपने बच्चों को गोस खिलाओ। तो वो बोलता है कि 'मेरे पास पैसा नहीं, कहाँ से लाऊँ।' तो फिर उसने विचार किया के जंगल में हिरण होता है ने, तो एक हिरण को मार के लायेगा और बच्चे को खिलायेगा। फिर उसने ऐसा एक हिरण मार के लाया और बच्चे को खिलाया। एक शिकारी आदमी था। वो शिकार का शोखवाला था। वो जंगल में गया और उसने भी हिरण को मार दिया। फिर खुश होने लगा कि देखो, एक ही दफे में हमने इसको मार दिया।
वो मुस्लिम को, बच्चों को खाने को नहीं था. तो हिरण को मार दिया मगर उसको अंदर ये ठीक नहीं लगता है, तो उसका गुनाह २०% है। १०० % normal है, तो मुस्लिम को २०% गुनाह लगा और वो
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कर्म का सिद्धांत
कर्म का सिद्धांत
शिकारी शौक करता है, उसको १५० % गुनाह हो गया। क्रिया एक ही प्रकार की है, मगर उसका गुनाह अलग अलग है।
प्रश्नकर्ता : किसी को दु:ख देकर जो प्रसन्न होता है, वो १५०% गुनाह करता है?
बुरा काम मेरे हिस्से कहाँ से आया। मुझे ऐसा काम नहीं चाहिए, मगर ये काम करना पडता है। मेरे को ये काम करनेका विचार नहीं है, मगर करना पडता है।' और अंदर के भगवान के पास ऐसी प्रार्थना करे तो उसको चोरी का फल नहीं मिलता है। जो गुनाह दिखता है, वो गुनाह करने के time अंदर क्या कर रहा है, वो देखने की जरूर है। वो time ऐसी प्रार्थना करता है, तो वो गुनाह, गुनाह नहीं रहेता है, वो छूट जाता $1 You are whole & sole responsible for your deeds! अभी जैसा करेगा, वैसा ही फल आगे आ जायेगा। वो तुम्हारा ही कर्म का फल है।
दादाश्री : वो शिकारी खुश हुआ, इससे ५० % ज्यादा हो गया। खुश नहीं होता तो १०० % गुनाह था और ये उसने पश्चाताप किया तो ८० % कम हो गया। जो कर्ता नहीं है, उसको गुनाह लगता ही नहीं है। जो कर्ता है उसको ही गुनाह लगता है।
प्रश्नकर्ता : तो अनजाने में पाप हो गया तो वो पाप नहीं है?
दादाश्री : नहीं, अनजाने में भी पाप तो इतना ही है। देखोने, वो अग्नि है, उसमें एक बच्चे का हाथ ऐसे गलती से पडा, तो कुछ फल देता है?
प्रश्नकर्ता: अभी अच्छा किया तो अगले जन्म में अच्छा ही मिलेगा कि ये जन्म में अच्छा मिलता है?
प्रश्नकर्ता : हाँ, बच्चा जल जाता है।
दादाश्री : फल तो सरीखा ही है। अनजाने करो या जानके करो, फल तो सरीखा ही है। मगर उसके भुगतने के time हिसाब अलग होता है। जब भुगतने का time आया तो जिसने जानबूझ कर किया है, उसको जानबूझ कर भुगतना पडता है और जिसने अनजाने किया, उसको अनजाने भुगतना पडता है। तीन साल का बच्चा है, उसकी mother मर गई और बाईस साल का लडका है, उसकी mother मर गई तो mother तो दोनों की मर गई मगर बच्चे को अनजानपूर्वक का फल मिला और वो लडके को जानपूर्वक का फल मिला।
प्रश्नकर्ता : आदमी इस जीवन में जो भी काम करता है, कुछ गलत भी करता है तो उसका फल उसको कैसे मिलता है?
दादाश्री : कोई आदमी चोरी करता है, इस पर भगवान को कोई हरकत नहीं है। मगर चोरी करने के time उसको ऐसा लगे कि 'इतना
दादाश्री : हा, ये जन्म में भी अच्छा मिलता है। आपको अभी उसका trial लेना है? उसका trial लेना हो तो एक आदमी को दोचार 'थप्पड' मार कर, दो-चार गाली देकर घर को जाना तो क्या होगा?
प्रश्नकर्ता : कुछ न कुछ तो result नीकलेगा।
दादाश्री : नहीं, फिर तो नींद भी नहीं आती है। जिसको गाली दिया, थप्पड मारा उसको तो नींद नहीं आती है, मगर अपने को भी नींद नहीं आती है। अगर आप उसको कुछ न कुछ आनंद करवा के घर गये तो आपको भी आनंद होता है। दो प्रकार के फल मिलते है। अच्छा किया तो मीठा फल मिलता है और किसी को बूरा बोला तो उसका कडवा फल मिलता है। किसी का बूरा मत बोलो, क्योंकि जीवमात्र में भगवान ही है।
प्रश्नकर्ता : लेकिन अच्छा किया उसका फल ये जन्म में तो नहीं मिलता?
दादाश्री : वो अच्छा किया न, उसका फल तो अभी ही मिलता है। मगर अच्छा किया वो भी फल है। आप तो भ्रांति से बोलते है कि
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कर्म का सिद्धांत
कर्म का सिद्धांत
'मैं ने अच्छा किया।' पिछले जन्म में अच्छा करने का विचार किया था, उसके फल स्वरूप अभी अच्छा करता है। जन्म से पूरी जिंदगी तक वो फल ही मिलता है। आपको 53years हो गया, अभी तक जो service मिला वो भी फल था। body को कितना भी सुख है, कितना भी दुःख है, वो भी फल है। लडकी मिली, औरत मिली, सब कुछ मिला, Father-Mother मिले, मकान मिला, वो सब फल ही मिलता है।
प्रश्नकर्ता : कर्म का ही फल अगर मिलता है, तो उनमें कुछ भी सुसंगत तो होना चाहिए न?
दादाश्री: हाँ, सुसंगत ही। This world is ever regular!
प्रश्नकर्ता : कर्म यहाँ पर ही भुगतने पडते है न?
दादाश्री : हाँ, जो स्थूल कर्म है, आँखो से देख सके ऐसे कर्म है, वो सब यहाँ ही भुगतने पडते है और आँखो से नहीं दिखे वैसे सूक्ष्म कर्म वो अगले जन्म के लिए है।
प्रश्नकर्ता : कर्म का उदय आता है तो उसमें तन्मयाकार होने से भुगतना पडता है कि नहीं तन्मयाकार होने से?
दादाश्री : उदय में जो तन्मयाकार नहीं होता, वो ज्ञानी है। अज्ञानी उदय में तन्मयाकार हुए बगैर नहीं रह सकता, क्योंकि अज्ञानी का इतना बल नहीं है कि उदय में तन्मयाकार न हो। हाँ, अज्ञानी कौन सी जगह पे तन्मयाकार नहीं होता है? जो चीज खुद को पसंद नहीं, वहाँ तन्मयाकार नहीं होता और ज्यादा पसंद है, वहाँ तन्मयाकार हो जाता है। जो पसंद है, उसमें तन्मयाकार नहीं हुआ तो वो पुरुषार्थ है। मगर ये अज्ञानी को नहीं हो सकता।
ये सब लोग जो बोलते है कि, कर्म बंधते है। तो कर्म बंधते है, वो क्या है कि कर्म charge होते है। charge में कर्ता होता है और discharge में भोक्ता होता है। हम ज्ञान देगें फिर कर्ता नहीं रहेगा, खाली
भोक्ता ही रहेगा। कर्ता नहीं रहा तो सब charge बंध हो जायेगा। खाली discharge ही रहेगा। ये science है। हमारे पास ये पूरे world का science है। आप कौन है? मैं कौन हूँ? ये किस तरह चलता है? कौन चलाता है? वो सब science है।
प्रश्नकर्ता : आदमी मर जाता है, तब आत्मा और देह अलग हो जाता है, तो फिर आत्मा दूसरे शरीर में जाती है या परमेश्वर में विलीन हो जाती है? अगर दूसरे शरीर में जाती है तो क्या वह कर्म की वजह से जाती है?
दादाश्री : हाँ, दूसरा कोई नहीं, कर्म ही ले जानेवाला है। वो कर्म से पुद्गल भाव होता है। पुद्गल भाव याने प्राकृत भाव, वो हलका होवे तो देवगति में, ऊर्ध्वगति में ले जाता है, वो भारी होवे तो अधोगति में ले जाता है, Normal होवे तो इधर ही रहेता है, सज्जन में, मनुष्य में रहेता है। प्राकृत भाव पूरा हो गया तो मोक्ष में चला जाता है।
प्रश्नकर्ता : कोई आदमी मर गया तो उसकी कोई ख्वाहिश बाकी रह गई हो, तो वह ख्वाहिश पूरी करने के लिए वह क्या कोशिश करता है?
दादाश्री : अपना ये 'ज्ञान' मिल गया और उसको इच्छा बाकी रहेती है तो उसके लिए आगे का जन्म as for as possible तो देवगति का ही रहता है। नहीं तो कभी कोई आदमी बहुत सज्जन आदमी का, योगभ्रष्ट आदमी का अवतार आता है, मगर उसकी इच्छा पूरी होती है। इच्छा का सब circumstantial Evidence पूरा हो जाता है। मोक्ष में जाने के पहले जैसी इच्छा है, वैसे एक-दो अवतार में सब चीज मिल जाती है और सब इच्छा पूरी होने के बाद मोक्ष में चले जाता है। जब सब इच्छा पूरी हो गई के फिर मनुष्य में आकर मोक्ष में चला जाता है। मगर मनुष्य जन्म इधर ये क्षेत्र में नहीं आयेगा, दूसरे क्षेत्र में आयेगा। इस क्षेत्र में कोई तीर्थंकर भगवान नहीं है। तीर्थंकर भगवान, पूर्ण केवलज्ञानी होने चाहिए, तो वहाँ जन्म हो जायेगा(होगा) और उनके दर्शन से ही मोक्ष मिल जाता है, मात्र दर्शन से ही! सुनने का बाकी नहीं रहा कुछ, खुद
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कर्म का सिद्धांत
कर्म का सिद्धांत
को सब समझ में आ गया, और सब कुछ तैयारी है तो मात्र दर्शन, संपूर्ण वीतराग दर्शन हो गये कि मोक्ष हो गया।
प्रश्नकर्ता : मनुष्यों की इच्छा दो तरह की हो सकती है, एक आध्यात्मिक और दूसरी आधिभौतिक। आध्यात्मिक प्राप्त होने के बाद अगर आधिभौतिक वासनाएँ कुछ रह गई हो, तो उसे इसी जन्म में पूरी कर दे तो अगले जन्म का सवाल ही नहीं रहता न?
दादाश्री : नहीं, वो पूरी हुई तो हुई, नहीं तो अगले जन्म में पूरी होती है।
प्रश्नकर्ता : इसी जन्म में पूरी कर ले तो क्या बुरा है?
दादाश्री : वो पूरी हो सके ऐसा ही नहीं है, ऐसे evidence मिले ऐसा नहीं है। उसके लिए fully evidence चाहिए, Hundred percent evidence चाहिए।
प्रश्नकर्ता : अभी आध्यात्मिक तो कर रहे है, मगर उसी के साथ साथ संसार की वासनाएँ भी सब पूरी कर ले तो क्या बुरा है?
दादाश्री : मगर वो पूरी नहीं हो सकती नहीं न! वो पूरी नहीं होती है क्योंकि इधर ऐसा वो time भी नहीं है, Hundred percent evidence मिलता ही नहीं। इसलिए इधर वासना पूरी नहीं होती है और एक-दो अवतार तो बाकी रह जाता है। वो सब वासना, fully satisfaction से पूरी होती है और उसमें फिर वो वासना से ऊब जाता है, तो फिर वो केवल शुद्धात्मा में ही रहता है। वासना तो परी होनी चाहिए। वासना पूरी हुए बिना तो कोई जगह entrance ही नहीं मिलता। इधर से direct मोक्ष नहीं है। एक-दो अवतार है। बहुत अच्छा अवतार है, तब सब वासनाएँ पूरी हो जाती है। इधर सब वासनाएँ पूरी हो जावे ऐसा timing भी नहीं है और क्षेत्र भी नहीं है। इधर सच्चा प्रेमवाला, complete प्रेमवाला आदमी नहीं मिलता है, तो फिर अपनी वासना कैसे पूरी हो जायेगी। इसके लिए एक-दो अवतार बाकी रहते है और शुद्धात्मा
का लक्ष हो गया, बाद में ऐसी पुण्याई बंधती है कि वासना पूरी हो जावे, ऐसी १०० % की पुण्यै बन जाती है।
कर्तापद या आश्रितपद? कर्म तो मनुष्य एक ही करता है, दूसरा कोई कर्म करता ही नहीं है। मनुष्यलोग निराश्रित है इसलिए वो कर्म करता है। दूसरे सब गाय, भेंस, पेड, देवलोग, नर्कवाले सब आश्रित है। वो कोई कर्म करते ही नहीं। क्योंकि वो भगवान के आश्रित है और ये मनुष्यलोग निराश्रित है। भगवान मनुष्य की जिम्मेदारी लेता ही नहीं। दूसरे सब जीवों के लिए भगवान ने जिम्मेदारी ली हुई है।
प्रश्नकर्ता : मनुष्य खुद को पहचान जाये, फिर निराश्रित नहीं है।
दादाश्री : फिर तो भगवान ही हो गया। खुद की पहचान करने के लिए तैयारी किया वहाँ से ही भगवान होने की शरुआत हो गई। वहाँ से अंश भगवान होता है। दो अंश, तीन अंश, ऐसा फिर सर्वांश भी हो जाता है। वो फिर निराश्रित नहीं। वो खुद ही भगवान है। मगर सब मनुष्य लोग निराश्रित है। वो खाने के लिए, पैसे के लिए, मोज करने के लिए भगवान को भजते है। वो सब निराश्रित है।
मनुष्य निराश्रित कैसे है, वह एक बात बताऊँ? एक गाँव का बडा शेठ, एक साधु महाराज और शेठ का कुत्ता, तीनो बहारगांव जाते है। रास्ते में चार डाकू मिले। तो शेठ के मन में गभराट हो गया कि 'मेरे पास दस हजार रुपये है, वह ये लोग ले लेंगे और हमको मारेंगे-पीटेंगे, तो मेरा क्या होगा?' शेठ तो निराश्रित हो गया। साधु महाराज के पास कुछ नहीं था, खाने का बर्तन ही था। मगर इनको विचार आ गया कि ये बर्तन लूट जायेगा तो कोई हरकत नहीं, मगर मुझे मारेगा तो मेरा पाँव तट जाएगा. तो फिर में क्या करूंगा? मेरा क्या होगा? और जो कुत्ता था, वो तो भोंकने लगा। वो डाकू ने एक दफे लकडी से मार दिया तो चिल्लाते चिल्लाते भाग गया, फिर वापस आ गया और भोंकने लगा। उसको मन में विचार नहीं आता है कि मेरा क्या होगा। क्योंकि वो आश्रित है। वो दोनों, शेठ और
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कर्म का सिद्धांत
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साधु महाराज के मन में ऐसा होता है कि मेरा क्या होगा। मनुष्य लोग ही कर्ता है और वो ही कर्म बांधता है। दूसरा कोई जीव कर्ता नहीं है। वो सब तो कर्म में से छूटता है। और मनुष्य लोग तो कर्म बांधता भी है और कर्म से छूटता भी है। Charge और discharge दोनों होता है। Discharge में कोई worries करने की जरूर नहीं है। Charge में worries करने की जरूरत है।
खाने-पीने का मिले, सब कुछ मिले और भगवान की भक्ति करने में कोई तकलीफ न हो। ये निष्काम कर्म में फायदा है मगर यह सब कर्म ही है और कर्म है, वहाँ तक बंधन है।
कृष्ण भगवानने बोला है कि स्थितप्रज्ञ हो गया फिर छूटता है और दूसरा भी बोला है, वीतराग और निर्भय हो गया, फिर काम हो गया।
निष्काम कर्म करो मगर कर्म का कर्ता तो आप ही है न? कर्ता है, वहाँ तक मुक्ति नहीं होती। मुक्ति तो 'मैं कर्ता हूँ' वो बात ही छूट जानी चाहिए और कौन कर्ता है, वो मालूम होना चाहिए। हम सब बता देता है कि 'करनेवाला कौन है, तुम कौन है, ये सब कौन है।' सब लोग मानते है कि 'हम निष्काम कर्म करता है और हमको भगवान मिल जाएगा।' अरे, तुम कर्ता हो, वहाँ तक कैसे भगवान मिलेगा? अकर्ता हो जाओगे तब भगवान मिल जायेगें।
ये Foreign वाला सब सहज है, वो निराश्रित नहीं है। वो आश्रित है। वो लोग 'हम कर्ता है' ऐसा नहीं बोलता और हिन्दुस्तान के लोग तो 'कर्ता' हो गये है।
निष्काम कर्म से कर्मबंध? गीता में श्रीकृष्ण भगवान ने सब रस्ता बताया है। धर्म का ही सब लिखा है। मगर मोक्ष में जाने का एक वाक्य ही लिखा है, ज्यादा लिखा नहीं। धर्म क्या करने का? निष्काम कर्म करने का, इसको धर्म बोला जाता है। मगर कर्ता है न? निष्काम है, मगर कर्ता तो है न?
प्रश्नकर्ता : कृष्ण भगवान ने भी युद्ध किया था, कृष्ण भी तो अर्जुन के सारथी बने थे।
प्रश्नकर्ता : तो कर्म ही प्रधान है न?
दादाश्री : मगर पहले सकाम कर्म करता है, अभी निष्काम कर्म करता है और इसके फायदे में धर्म मिलेगा, मुक्ति नहीं मिलेगी। सकाम कर्म करो या निष्काम कर्म करो, मगर मुक्ति नहीं होगी। कर्म करने से मुक्ति नहीं होती है। मुक्ति तो जहाँ भगवान प्रकट हो गये है, वहाँ कृपा हो जाये तो मुक्ति होती है।
प्रश्नकर्ता : मगर बगैर काम किए भगवान की कृपा हो जाती है?
दादाश्री : काम करे तो भी भगवान की कृपा नहीं होती और काम नहीं करे तो भी भगवान की कृपा नहीं होती। कृपा तो जो भगवान को मिला, उसके पर भगवान की कृपा ऊतर ही जाती है। काम करते है, वो अपने फायदे के लिए करने का। निष्काम कर्म किस लिए करने का कि इससे अपने को कोई तकलीफ न हो, आगे आगे धर्म करने को मिले.
दादाश्री : हाँ, अर्जन के सारथी बने थे. मगर क्यों सारथी बने थे? भगवान, अर्जुन को बताते थे कि, 'देख भई, तम तो पाँच घोडे की लगाम पकडते हो, मगर रथ चलाना तुम नहीं जानते और लगाम को खींच खींच करते हो। कब खींचता है? जब चढ़ान होती है, तब खींचता है और उतार पे ढीला छोड़ देता है। लगाम खींच खींच करने से घोडे के मुँह से खून निकलता है। इसलिए तुम रथ में बैठ जाओ, में तुम्हारा रथ चलाऊँगा।'
और तुम्हारा कौन चलाता है? आप खुद चलाते है? प्रश्नकर्ता : हम क्या चलाएगें? चलानेवाला एक ही है। दादाश्री : कौन? प्रश्नकर्ता : जिसको परमपिता परमेश्वर हम मानते है। दादाश्री : श्रीखंड-पूरी तुम खाते है और चलाता है वो ?!!!
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कर्म का सिद्धांत
कर्म का सिद्धांत
जहाँ तक आदमी कर्मयोग में है, वहाँ तक भगवान को स्वीकार करना पडेगा कि हे भगवान, आपकी शक्ति से मैं करता हैं। नहीं तो 'मैं कर्ता हूँ' वह कहाँ तक बोलता है? जब कमाता है, वो बोलता है, 'मैं ने कमाया' मगर घाटा (नुकसान) होता है, तो 'भगवानने घाटा कर दिया' बोलेगा। मेरे पार्टनर ने किया', नहीं तो 'मेरे ग्रह ऐसे है, भगवान रूठा है, ' ऐसा सब गलत बोलता है। ऐसा नहीं बोलना चाहिए, भगवान के लिए। वो सब ही भगवान करता है, ऐसा समजकर निमित्त रूप में काम करना चाहिए।
कर्मयोग क्या है? भगवान कर्ता है, मैं उसका निमित्त हूँ। वो जैसा बताता है ऐसा करने का। उसका अहंकार नहीं करने का। इसका नाम कर्मयोग। कर्मयोग में तो, सब काम अंदर से बताता है, ऐसा ही आपको करने का। बाहर से कोई डर नहीं रहना चाहिए कि लोग क्या बोलेगें और क्या नहीं। सब कुछ भगवान के नाम से ही करने का। हमें कुछ नहीं करने का। हमें तो निमित्त रूप से करने का। हम तो भगवान के हथियार है, ऐसे काम करने का।
कर्म, कर्म चेतना, कर्मफल चेतना!
दादाश्री : हाँ, तो दूसरा क्या है? पिछले जन्म का जो कर्म है, उसका ये जन्म में फल मिलता है। तुमको नहीं चाहिए तो भी फल मिलता है। उसका फल दो प्रकार का रहता है। एक कडवा रहता है और एक मीठा रहता है। थोडे दिन कडवा फल मिलता है तो वो आपको पसंद नहीं आता और मीठा फल आपको पसंद आ जाता है। इससे दूसरा नया कर्म बांधता है, नये बीज डालता है और पिछे का फल खाता है।
प्रश्नकर्ता : इस जन्म में हम जो कर्म करते है, वो अगले जन्म में फिर से आयेंगे?
दादाश्री : अभी जो फल खाता है, वो पिछले जन्म का है और जिसका बीज डालते है, उसका फल अगले जन्म में मिल जायेगा। जब किसी के साथ क्रोध हो जाता है, तब उसका बीज खराब (बुरा) पडता है। इसका जब फल आता है, तब अपने को बहुत दुःख होता है।
प्रश्नकर्ता : पिछला जन्म है कि नहीं, वह किस तरह मालूम होता है?
प्रश्नकर्ता : अपना कर्म कौन लिखता है?
दादाश्री : अपने कर्म को लिखनेवाला कोई नहीं है। ये बडे बडे computer होते है, वो जैसा result देता है, उसी तरह ऐसे ही तुमको कर्म का फल मिलता है।
दादाश्री : स्कूल में तुम पढ़ते है, उसमें सभी लडकों का पहेला नंबर आता है या किसी एक का पहेला नंबर आता है?
प्रश्नकर्ता : किसी एक का ही आता है। दादाश्री : कोई दूसरे भी नंबर आते है? प्रश्नकर्ता : हाँ।
दादाश्री : ये change क्युं है? सब एकसरीखा क्यों आता नहीं?
प्रश्नकर्ता : जो जितना पढता है, उतने ही उसको marks मिलते है।
कर्म तो क्या चीज है? जो जमीन में बीज डालता है, उसको कर्म बोला जाता है और उसका जो फल आता है, वो कर्मफल है। कर्मफल देने का सब काम Computer की माफिक machinery करती है। Computer में जो भी कुछ डालता है, उसका जवाब मिल जाता है, वो कर्मफल है। इसमें भगवान कुछ करता नहीं है।
प्रश्नकर्ता : पिछले जन्मों के कर्म से ऐसा सब होता है?
दादाश्री : नहीं, कई लोग तो ज्यादा पढते भी नहीं, तो भी फर्स्ट
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कर्म का सिद्धांत
कर्म का सिद्धांत
आता है और कई लोग ज्यादा पढते है तो भी फेईल होते है।
प्रश्नकर्ता : उन लोगों का दिमाग अच्छा होगा।
दादाश्री : इन लोगों का दिमाग अलग अलग क्यों है? वो पिछले जन्म के कर्म के फल के मुताबिक दिमाग है सब का।
प्रश्नकर्ता : जो पिछे का होता है, उसका ये जन्म में कहने से क्या फायदा? करनी-भरनी तो इसी जन्म में ही होनी चाहिए। ताकि हमको पता चले कि हमने यह पाप किया तो उसका यह फल भोग रहे है।
दादाश्री : हाँ, हाँ, वो भी है। मगर ये कैसे है कि जो causes किया है, उसका फल क्या मिलता है? ये छोटा बच्चा होता है, वो किसी को पथ्थर मारता है, वो उसकी जिम्मेदारी है। मगर उसको मालूम नहीं है कि इसकी क्या जिम्मेदारी है। वो पथ्थर मारता है, वो पिछले कर्म से ये करता है। फिर जिसको पथ्थर लग गया, वो आदमी ये बच्चे को मारेगा तो ये पथ्थर मार दिया, उसका फल मिलता है।
कोई आदमी किसी के साथ गुस्सा हो गया, फिर वो आदमी बोलता है कि, 'भाई, मेरे को गुस्सा होने का विचार नहीं था, मगर गुस्सा ऐसे ही हो गया। तो फिर ये गुस्सा किसने किया? वो आगे के कर्म का परिणाम है। वो क्रोध करता है, वह आगे के causes की effect है। ये भ्रांतिवाले लोग क्या बोलते है? ये गस्सा किया. उसको कर्म बोलते है और मार खाया, वो उसके कर्म का फल है, ऐसा बोलते है। फिर लोग क्या बोलते है कि 'क्रोध मत करो।' अरे, मगर गुस्सा करना अपने हाथ में नहीं है न? वो आपको नहीं करने का विचार है, तो भी हो जाता है, उसका क्या इलाज? ये तो पिछले जन्म के कर्म का फल है।
experience नहीं हुआ है? तुम्हारा विचार है, आज जल्दी नींद लेना है, तो फिर नींद नहीं आती ऐसा नहीं होता?
प्रश्नकर्ता : होता है।
दादाश्री : तुम्हारी तो मरजी है, मगर तुमको कौन अंतराय करता है? कोई दूसरी शक्ति है, ऐसा लगता है न? कभी गुस्सा आ जाता है कि नहीं, तुम्हारी इच्छा गुस्सा करने की न हो, तो भी?
प्रश्नकर्ता : फिर भी हो जाता है। दादाश्री : वो गुस्सा के creator कौन? प्रश्नकर्ता : उसको हम आत्मा कहता है।
दादाश्री : नहीं, आत्मा ऐसा नहीं करती। आत्मा तो भगवान है। वो क्रोध तो तुम्हारी weakness है। कर्म देखा है आपने? ये आदमी कर्म कर रहे है, ऐसा देखा है? कोई आदमी कर्म करता है, वो आपने देखा है?
प्रश्नकर्ता : उसके action से अपने को मालूम पडता है।
दादाश्री : कोई आदमी किसी को मारता है तो आप क्या देखता है?
प्रश्नकर्ता: वह पाप करता है, वह कर्म करता है।
दादाश्री: ये world में कोई आदमी कर्म देख सकता ही नहीं। कर्म सूक्ष्म है। वो जो देखता है, वह कर्मचेतना देखता है। कर्मचेतना निश्चेतन चेतन है, वो सच्चा चेतन नहीं है। कर्मचेतना आपकी समझ में
आयी?
कौन चलाता है, वो समझ में आ गया न? Pass होने का कि नहीं होने का, वो आपके हाथ में नहीं है। तो वो 'रविन्द्र के हाथ में है?' हाँ, थोडा 'रविन्द्र' के हाथ में है, only 2 % और 98% दूसरे के हाथ में है। तुम्हारे उपर दूसरे की सत्ता है, ऐसा मालूम नहीं होता है? ऐसा
प्रश्नकर्ता : कर्म की defination बताईए। दादाश्री : जो आरोपित भाव है, वो ही कर्म है।
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कर्म का सिद्धांत
कर्म का सिद्धांत
आपका नाम क्या है?
हो गया। चोबीस तीर्थंकरो ने खुद को पहचान लिया था। ये खुद नहीं है, जो दिखता है, जो सुनता है, वो सब खुद नहीं है। वो सब परसत्ता है। आपको परसत्ता लगती है? चिंता-उपाधि कुछ नहीं लगता? वो सब परसत्ता है, अपनी खुद की स्वसत्ता नहीं है। स्वसत्ता में निरूपाधि है। निरंतर परमानंद है!! वो ही मोक्ष है!!! खुद का आत्मा का अनुभव हुआ, वो ही मोक्ष है। मोक्ष दुसरी कोई चीज नहीं है।
प्रश्नकर्ता : रविन्द्र।
दादाश्री : आप, 'मैं रविन्द्र हूँ' ऐसा मानते है, इससे आप पूरा दिन कर्म ही बांधते है। रात को भी कर्म बांधते है। क्योंकि आप जो है. वो आप जानते नहीं है और जो नहीं वो ही मानते है। रविन्द्र तो आपका नाम है मात्र और मानते है कि, 'मैं रविन्द्र हैं'। ये wrong belief, ये स्त्री का हसबन्ड हूँ, ये दूसरी wrong belief है। ये लडके का father हूँ, ये तीसरी wrong belief है। ऐसी कितनी सारी wrong belief है? मगर आप आत्मा हो गये, इसका realise हो गया, फिर आपको कर्म नहीं होता है। 'मैं रविन्द्र हूँ', ये आरोपित भाव से कर्म होता है। ऐसा कर्म किया, उसका फल दूसरे जन्म में आता है, वो कर्मचेतना है। कर्मचेतना अपने हाथ में नहीं है, परसत्ता में है। फिर इधर कर्मचेतना का फल आता है, वो कर्मफल चेतना है। आप शेरबाजार में जाते है, वो कर्मचेतना का फल है। धंधे में घाटा होता है, मुनाफा होता है, वो भी कर्मचेतना का फल है। उसको बोलता है, 'मैं ने किया, मैने कमाया', तो फिर अंदर क्या कर्म चार्ज होता है। 'मैं रविन्द्र हूँ' और 'मैं ने ये किया' उससे ही नया कर्म होता है।
प्रश्नकर्ता : कर्म में भी अच्छा-बुरा है?
दादाश्री : अभी यहाँ सत्संग में आपको पुण्य का कर्म होता है। आपको २४ घंटे कर्म ही होता है और ये हमारे 'महात्मा', वो एक minute भी नया कर्म नहीं बांधते और आप तो बहुत पुण्यशाली (!) आदमी है कि नींद में भी कर्म बांधते है।
प्रश्नकर्ता : ऐसा क्यों होता है?
ये सब पदगल की बाजी है। नरम-गरम, शाता-अशाता, जो कुछ होता है, वो पुद्गल को होता है। आत्मा को कुछ नहीं होता। आत्मा तो ऐसा ही रहेता है। जो अविनाशी है, वह खुद अपना आत्मा है। वो विनाशी तत्त्वों को छोड देने का। विनाशी तत्त्वों का मालिक नहीं होने का. उसका अहंकार नहीं होना चाहिये। ये 'रविन्द्र' जो कुछ करता है, उसके पर आपको खाली देखने का कि, 'वह क्या कर रहा है।' बस, ये ही अपना धर्म है, 'ज्ञाता-द्रष्टा', और 'रविन्द्र' सब करनेवाला है। वो सामायिक करता है, प्रतिक्रमण करता है, स्वाध्याय करता है, सब कुछ करता है, उसकी पर आप देखनेवाला है। निरंतर ये ही रहना चाहिये बस। दूसरा कुछ नहीं। वो 'सामायिक' ही है। अपना आत्मा शुद्ध है। कभी अशुद्ध होता ही नहीं है। संसार में भी अशुद्ध हुआ नहीं है और ये नाम, रूप सब भ्रांति है।
'रविन्द्र' क्या कर रहा है। उसकी तबियत कैसी है, वो सब 'आपको' देखने का है। अशाता हो जाये तो फिर हमें बोलने का कि, 'रविन्द्र, 'हम' तुम्हारे साथ है, शांति रखो. शांति रखो', ऐसा बोलने का। दूसरा कोई काम करने का ही नहीं।
आप 'खुद' ही शुद्धात्मा है और ये 'रविन्द्र' वो कर्म का फल है, कर्मचेतना है। इसमें से फिर फल मिलता है, वो कर्मफल चेतना है। शुद्धात्मा हो गये फिर कुछ करने की जरूरत नहीं है। शुद्धात्मा तो अक्रिय है। 'हम क्रिया करता है, ये मैं ने किया' वो भ्रांति है। 'आप' तो ज्ञाताद्रष्टा, परमानंदी है और रविन्द्र 'ज्ञेय' है और चलानेवाला 'व्यवस्थित' चलाता है। भगवान नहीं चलाते, आप खुद भी नहीं चलाते है। हमें चलाने
दादाश्री : Self का realise करना चाहिए। Self का realise हो गया, फिर कर्म नहीं होता।
खुद को पहचानने का है। खुद को पहचान लिया, तो सब काम पूरा
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कर्म का सिद्धांत
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की लगाम छोड देने की और कैसे चल रहा है, 'रविन्द्र' क्या कर रहा है, वो ही 'देखने' का है। ये 'रविन्द्र' है, वो अपना गत अवतार (पूर्वजन्म) का कर्मफल है। वो हमें फल देखने का है कि कर्म क्या हुआ है, कर्म कितने है और कर्मफल क्या है? वो कर्मचेतना भी 'तुम्हारी' नहीं और कर्मफल चेतना भी तुम्हारी नहीं है। आप तो देखनेवाला-जाननेवाला है।
जिवन में मरजियात क्या?
फरजियात किया है। आपने शादी किया, वो भी फरजियात किया।
फरजियात को दुनिया क्या बोलती है? मरजियात बोलती है। मरजियात होता तो कोई मरनेवाला है ही नहीं। मगर मरना तो पडता है। जो अच्छा होता है, वो भी फरजियात है और बरा होता है वो भी फरजियात है। मगर उसके पीछे अपना भाव क्या है, वो ही तुम्हारा मरजियात है। आपने क्या हेतु से कर दिया, वो ही तुम्हारा मरजियात है। भगवान तो वो ही देखता है कि तुम्हारा हेतु क्या था। समझ गया न?
सब लोग नियति बोलता है कि जो होनेवाला है वो होगा, नहीं होनेवाला है वो नहीं होगा। मगर अकेली नियति कुछ नहीं कर सकती है। वो हरेक चीज इकट्ठा हो गई, scientific cirumstantial evidence इकट्ठे हो गये तो सब होता है, parliamentary पद्धति से होता है।
प्रश्नकर्ता : आप्तवाणी में फरजियात (compulsory) और मरजियात (voluntary) की बात पढ़ी। फरजियात तो समझ में आया मगर मरजियात कौन सी चीज है, वह समझ में नहीं आया।
दादाश्री : मरजियात कुछ है ही नहीं। मरजियात तो जब 'पुरुष' होता है, तब मरजियात होता है। जहाँ तक पुरुष हुआ नहीं, वहाँ तक मरजियात ही नहीं है। आप पुरुष हुए है?
आप इधर आये तो आपके मन में ऐसा होता है कि इधर आये वह बहुत अच्छा हुआ और दूसरे एक के मन में ऐसा होता है कि इधर नहीं आया होता तो अच्छा था। वो दोनों पुरुषार्थ अलग है। तुम्हारे अंदर जो हेतु है, जो भाव है, वो ही पुरुषार्थ है। इधर आये वो सब फरजियात है, प्रारब्ध है और प्रारब्ध तो दूसरे के हाथ में है, तुम्हारे हाथ में नहीं है।
प्रश्नकर्ता : यह आपका प्रश्न समझ में नहीं आया।
दादाश्री : आपको कौन चलाता है? आपकी प्रकृति आपको चलाती है। इसलिए आप पुरुष नहीं हुए है। प्रकृति और पुरुष, दोनों जुदा हो जावे, फिर ये प्रकृति अपनी फरजियात है और पुरुष मरजियात है। जब तुम पुरुष हो गये, तो मरजियात में आ गये, मगर प्रकृति का भाग फरजियात रहेगा। भूख लगेगी, प्यास लगेगी, ठंडी भी लगेगी मगर आप खुद मरजियात रहेगा।
प्रश्नकर्ता : यहाँ सत्संग में है, वह फरजियात है कि मरजियात?
दादाश्री : वो है तो फरजियात, मगर ये मरजियातवाला फरजियात है। जो पुरुष नहीं हुआ है, वो तो मरजियातवाला फरजियात से नहीं आया है। उसको तो फरजियात ही है।
ये world तो क्या है? फरजियात है। आपका जन्म हुआ वो भी फरजियात है। आपने सारी जिंदगी जो कुछ किया है, वो भी सब
आप जो कर सकते है, आपको जो भी करने की शक्ति है मगर आपको खयाल नहीं है और जिधर नहीं करने का है, जो परसत्ता में है, उधर आप हाथ डालते हो। सर्जन शक्ति आपके हाथ में है और विसर्जन शक्ति आपके हाथ में नहीं है। जो सर्जन आपने किया है, इसका विसर्जन आपके हाथ में नहीं है। ये पूरी जिंदगी विसर्जन ही हो रहा है मात्र । उसमें सर्जन भी हो रहा है, वो आँख से नहीं दिखे ऐसा है।
प्रारब्ध-पुरुषार्थ का Demarkation ! भगवान कुछ देते नहीं है। तुम जो करते हो, उसका फल तुमको मिलता है। तुम अच्छा काम करेगा तो अच्छा फल मिलेगा और बुरा काम
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करेगा तो बुरा फल मिलेगा। तुम ये भाई को गाली दोगें तो वो भी तुमको गाली देगा और तुम गाली नहीं दोगें तो तुमको कोई गाली नहीं देगा । प्रश्नकर्ता: हम किसी को गाली देता नहीं, फिर भी मुझे गाली देता है, ऐसा क्यों?
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दादाश्री : ये जन्म के चोपडे का हिसाब नहीं दिखता है, तो पिछले जन्म के चोपडे का हिसाब रहता है। मगर आपको ही गाली क्युं दिया ?
प्रश्नकर्ता: वह ऐसी परिस्थिति है ऐसे समझना है?
दादाश्री : हाँ, परिस्थिति! हम उसको scientific circumstantial evidence बोलते है। परिस्थिति ही ऐसी आ गई तो उसमें कोई खराबी मानने की जरूर नहीं है। सच्ची बात क्या है? कोई आदमी किसी को गाली देता ही नहीं। परिस्थिति ही गाली देती है। Only scientific circumstantial evidence ही गाली देता है। जेब कोई काटता ही नहीं, परिस्थिति ही गजवा काटती है। मगर आदमी को परिस्थिति का खयाल नहीं रहेगा। मैं दूसरी बात बता दूँ?
कोई आदमी ने तुम्हारी जेब काट ली और दो सौ रुपिया ले गया। तो तुमको, दुनियावाले को ऐसा लगेगा है कि ये बूरे आदमी ने मेरी जेब काट ली, वह गुनहगार ही है। मगर वो सच्ची बात नहीं है। सच्ची बात ये है कि तुम्हारा दो सौ रुपिया जाने के लिए तैयार हुआ, क्योंकि वह पैसा खोटा था। तो इसके लिए वो आदमी निमित्त मात्र हो गया। वो निमित्त है, तो आपको उसे आशीर्वाद देने का कि तुमने हमें ये कर्म से छुडाया। कोई गाली दे तो भी वो निमित्त है। तुमको कर्म से छुडाता है। आपको उसे आशीर्वाद देना चाहिए। कोई पचास गाली दे मगर वो इक्यावन नहीं हो जायेगी। पचास हो गई फिर आप बोलेगें कि भाई, हमें ओर गाली दो, तो वो नहीं देगा। ये मेरी बात समझ में आयी? ये one sentence में सब puzzle solve हो जाता है। कोई गाली दे, पथ्थर मारे तो भी वो निमित्त है और जिम्मेदारी तुम्हारी है। क्युं कि तुमने पहले किया है, इसका आज फल मिला।
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जो पिछे भावना की थी, आज ये उसका फल है। तो फल में आप क्या कर सकते हो? Result में आप कुछ कर सकते हो? आपने शादी की तो वो समय tender निकाला था कि औरत चाहिए ? नहीं, वो तो पहले भावना कर दी थी। सब तैयार हो रहा है, फिर result आयेगा । तो औरत मिले, वो result है। बाद में तुम बोलोगें कि हमको ये औरत पसंद नहीं। अरे भई, ये तो तुम्हारा ही result है। फिर तुमको पसंद नहीं, ऐसा कैसा बोलते हो? परीक्षा के result में नापास हो गये, फिर इसमें पसंद-नापसंद करने की क्या जरूरत है?
प्रश्नकर्ता : तो फिर पुरुषार्थ जो है, वो क्या है?
दादाश्री : सच्चा पुरुषार्थ तो पुरुष हुआ उसके बाद होता है। प्रकृति relative है, पुरुष real है। पुरुष और प्रकृति का demarkation हो गया कि ये प्रकृति है और ये पुरुष है, फिर सच्चा पुरुषार्थ होता है। वहाँ तक पुरुषार्थ नहीं है । वहाँ तक भ्रांत पुरुषार्थ है। वो कैसे होता है कि आपने हजार रुपये दिये और आप egoism करेगें कि 'हमने हजार रुपये दान में दे दिया', फिर ये ही पुरुषार्थ है। 'मैं ने दिया' बोलता है, उसको भ्रांत पुरुषार्थ बोला जाता है। आपने किसी को गाली दी और आप पश्चात्ताप करो कि 'ऐसा नहीं होना चाहिए', तो वो भी भ्रांत पुरुषार्थ हो गया। आपको ठीक लगता है, ऐसा शुभ है तो उसमें बोलो कि, 'मैं ने किया तो भ्रांत पुरुषार्थ होता है और जब अशुभ होता है, उसमें मौन रहो तो, पश्चात्ताप करो तो भी पुरुषार्थ होता है। 'में ने किया' ऐसा सहज रूप से बोले तो egoism नहीं करता है, वो तो आगे के लिए पुरुषार्थ करता है। मगर egoism normality में रखना चाहिए। Above normal egoism is poison and below normal egoism is poison, वो पुरुषार्थ नहीं हो सकता है।
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हमको बडे बडे साहित्यकार लोग पूछते है कि, 'दादा भगवान के असीम जय जयकार हो' बोलते है, तो आपको कुछ नहीं होता है? तो मैं ने क्या बोला कि मेरे को क्या जरूरत है? हमारे अंदर इतना सुख है तो इसकी क्या जरूरत है? ये तो तुम्हारे फायदे के लिए बोलने का है।
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कर्म का सिद्धांत
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हम तो सारे जगत के शिष्य है और लघुत्तम है। By relative view point, में लघुत्तम हूँ और by real view point, में गुरुत्तम हूँ! ये बाहर सब लोग है, वो relative में गुरुतम होने गये। मगर relative में गुरुत्तम नहीं होने का है। Relative में लघुत्तम होने का है, तो real में automatic गुरुतम पद मिल जायेगा।
भगवान की भक्ति करते है, वो भी प्रारब्ध है। हरेक चीज प्रारब्ध ही है और बिना पुरुषार्थ प्रारब्ध हो नहीं सकता। पुरुषार्थ बीज स्वरूप है
और उसका जो पेड़ होता है, वो सब प्रारब्ध है। पैसा मिलता है, वो भी प्रारब्ध है मगर पैसा दान में देने की भावना है, वो पुरुषार्थ है। आप भगवान की भक्ति करने के लिए बैठे है और बाहर कोई आदमी आपको बुलाने आया। तो आपके मन में भक्ति जल्दी पूरा कर देने का विचार हो गया। तो जल्दी पूरा करने का विचार वो पुरुषार्थ है और भक्ति किया वो सब प्रारब्ध है। अपने अंदर जो भाव है, वो ही परुषार्थ है। ये मन. बद्धि. शरीर सब साथ होकर जो होता है, वो सब प्रारब्ध है। ये line of demarkation प्रारब्ध और पुरुषार्थ के बीच है, वो आप समझ गया न?!
है, मगर भाव है कि 'ऐसा कभी नहीं करना चाहिए' तो वो परुषार्थ है। चोरी करता है मगर हर दफे बोलता है कि 'मर जावे तो भी ऐसे चोरी नहीं करना चाहिए', तो वो पुरुषार्थ है।
प्रश्नकर्ता : गरीबों की घर जाकर सेवा की है, मुफ्त दवाईयाँ दी है। खुद आध्यात्मिक विचार के है, फिर भी उनको एक ऐसा शारिरीक दर्द हुआ है, उससे उनको बहुत तकलीफ होती है। वो क्यों? ये समझ में नहीं आता।
दादाश्री : आपने जो देखा, उसने बहुत अच्छे अच्छे काम किये, उसका फल आगे के जन्म में मिलेगा। ये जन्म में पिछले जन्म का फल मिला है।
प्रश्नकर्ता : आगे की बात नहीं है? आगे क्युं मिलेगा? why not now itself ? अभी भूख लगती है, तो अभी खाता है। अभी खाया तो उसको संतोष होता है।
देर से उठा, वो प्रारब्ध है मगर भगवान की भक्ति करने का भाव किया था, वो पुरुषार्थ है। कोई जल्दी उठता है, वो भी प्रारब्ध है। किसी ने आपके उपर उपकार किया मगर उसको तकलीफ आया तो तुम help करते हो वो प्रारब्ध है, मगर तुमने विचार किया कि 'उसको help करने की जरूरत नहीं है, तो वो तुमने पुरुषार्थ गलत कर दिया। भाव को मत बिगाडो। भाव वो तो पुरुषार्थ है। किसी ने आपको पैसा दिया है. तो पैसा देनेवाले का भी प्रारब्ध है, आपका भी प्रारब्ध है। मगर आपने विचार किया कि 'पैसा नहीं देगें तो क्या करनेवाला है', तो वो उल्टा पुरुषार्थ हो गया। अगर तो उसको पैसा वापस देने का भाव है, तो वो भी पुरुषार्थ है, सीधा पुरुषार्थ है।
चोरी किया वो भी प्रारब्ध है, मगर पश्चात्ताप हो गया, तो वो पुरुषार्थ है। चोरी किया फिर उसको आनंद हो गया तो वो भी प्रारब्ध
दादाश्री : ये दु:ख आता है, वो पिछले जन्म के बुरे कर्म का फल है। अच्छा काम करता है, वो भी पिछले जन्म के अच्छे कर्म का फल है। मगर इसमें से अगले जन्म के लिए नया कर्म बांधता है। कर्म का अर्थ क्या है कि एक लडका होटेल में ही खाता है। आपने बोला कि होटेल में मत खाव, वो लडका भी समझता है कि ये गलत हो रहा है, फिर भी रोज जाकर खाता है। क्यों? वो पीछे का कर्म का फल आया है और अभी खाता है, इसका फल उसको अभी मिल जाएगा। वो शरीर की खराबी हो जाएगी और इधर ही फल मिल जाएगा। मगर आंतरिक कर्म है. भावकर्म कि 'ये नहीं खाना चाहिए', तो उसका फल आगे मिल जाएगा। ऐसे दो प्रकार के कर्म है। स्थल कर्म है, उसका फल इधर ही मिलता है। सूक्ष्म कर्म है, उसका फल अगले जन्म में मिलता है।
प्रश्नकर्ता : I can't believe this ! दादाश्री : हाँ, आप नहीं मानो तो भी कायदे में तो रहना ही पड़ेगा
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कर्म का सिद्धांत
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न? मानेगा तो भी कायदे में ही रहना पड़ेगा। इसमें आपका कुछ नहीं चलेगा! किसी का कुछ नहीं चलेगा। The world is ever regular! यह world कोई दिन भूलचूकवाला हुआ नहीं है। यह world ever regular ही है और वो आपके ही कर्म का फल देता है। उसको regularity में कोई हरकत नहीं। वो हमेशा न्यायी ही रहता है। कुदरत न्यायी ही है। वो कुदरत न्याय के बाहर कभी जाती ही नहीं।
दादाश्री : तो फिर किसके है? तुम्हारे खुद के है के दूसरे के?
प्रश्नकर्ता : Expectation जो है, वो तो अपने खुद के ही रहते है।
दादाश्री : हाँ, लेकिन वह बुरे पसंद नहीं आते है न? जो कुछ होता है, वो अपना expectation है, तो बुरे क्युं पसंद नहीं आते है?
प्रश्नकर्ता : अपने जो expectation है, वो तो हम चाहते है कि अच्छे ही रहने चाहिए, लेकिन ऐसे नहीं होता न?
दादाश्री : क्यों? उसमें तुम खुद' नहीं हो? प्रश्नकर्ता : है।
दादाश्री : तो फिर बदलाव क्यों नहीं करता? जिधर signature करता है, वो सब समझकर करता है। तो जो signature किया है, उसका हिसाब से expectation आता है। फिर अभी क्यों गलती निकालता है? अभी गलती क्यों लगती है?
प्रत्येक effect में causes किसका? दादाश्री : इस शरीर में कितने साल रहना है?
प्रश्नकर्ता : जब तक अपने expectation है, fulfilment है, वो पूरे नहीं होते, वहाँ तक तो रहेंगे न?
दादाश्री : वो हिसाब है, वो तो पूरा हो जाता है। मगर नया क्या होता है उसमें से?
प्रश्नकर्ता : एक के बाद एक नयी वस्तु तो आती ही है। दादाश्री : नयी वस्तु अच्छी आनी चाहिये कि बूरी? प्रश्नकर्ता : अच्छी ही आनी चाहिए।
दादाश्री : तुमको पसंद ना आये ऐसा खराब expectation किया है, पिछले जन्म में?
प्रश्नकर्ता : मालूम नहीं। दादाश्री : तुमको पसंद ना आये ऐसा कभी आता है? प्रश्कर्ता : आता है।
दादाश्री : जो तुमको पसंद नहीं आये वो क्यों आता है? किसी ने जबरजस्ती किया?
प्रश्नकर्ता : नहीं।
प्रश्नकर्ता : नहीं, गलती नहीं लगती। कुछ expectation ऐसे होते है कि अपनी तरफ से परा नहीं कर सकते है।
दादाश्री : तुम्हारा तो expectation है, वो पूरा नहीं होता? प्रश्नकर्ता : हाँ।
दादाश्री : Expectation दो प्रकार के है। पिछले जो expectation है, वो पूरे हो जायेगें और नया expectation है, वो अभी पूरा नहीं हो जायेगा। जो नया है, वो पूरा नहीं होनेवाला। वो अगले जन्म में आयेगा। जो पुराना है, वो इधर पूरा होता है। पुराना expectation है, वो effect के रूप में है, जिसको पिछले जन्म में किया था। ये जन्म में उसकी effect आ गयी है, Effect में कुछ बदल नहीं सकता है। अभी अंदर causes हो रहा है, उसकी अगले जन्म में effect आयेगी। इसीलिए
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causes अच्छा करना।
Friend का उसकी औरत के साथ झगडा आपने देखा तो आप सोचते है कि, 'शादी करनी ही नहीं चाहिए।' तो अगले जन्म में आपकी शादी नहीं होगी। ऐसे causes नहीं करने का। जैसा देखा है, ऐसा causes नहीं करने का। जो अच्छा है, उसका causes करो।
अच्छा causes कैसा होना चाहिए, उसकी तलाश करो। मेरे को ये भौतिक सुख चाहिए, तो क्या causes करने का ? उसके लिए हम causes बतायेगें कि ऐसे causes करना। मन-वचन काया से किसी भी जीव को मारना नहीं, दुःख नहीं देना। फिर आपको सुख ही मिलेगा। ऐसे causes करने चाहिए।
तुम्हारी birth से death तक सब effect ही है। इसमें से causes हो रहे है अभी ।
प्रश्नकर्ता : यह rebirth का कोई end रहेता है क्या?
दादाश्री : वो end तो होता है। causes बंध हो जाता है, फिर end हो जाता है। जहाँ तक causes चालु है, वहाँ तक end नहीं होता है।
प्रश्नकर्ता: causes बंध हो जाना चाहिए ऐसे कहा तो अच्छे causes और बुरे causes, दोनो बंध होने चाहिए क्या?
दादाश्री : दोनो बंध करने का। Causes होता है egoism से और effects से संसार चलता है। Egoism चला गया तो causes बंध हो जायेगें, तो संसार भी बंध हो जायेगा। फिर permanent सनातन सुख मिल जाता है। अभी जो सुख मिलता है, वो कल्पित सुख है, आरोपित सुख है और दुःख भी आरोपित है। सच्चा दुःख भी नहीं है, सच्चा सुख भी नहीं है।
'सूक्ष्म शरीर' क्या है?
प्रश्नकर्ता : यह पुनर्जन्म सूक्ष्म शरीर लेता है क्या? स्थूल शरीर
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तो यहीं रह जाता है न?
दादाश्री : हाँ, जो physical body है, वह इधर रह जाती है। और सूक्ष्म शरीर साथ में जाता है। जहाँ तक weakness नहीं गई, रागद्वेष नहीं गये, वहाँ तक पुनर्जन्म है।
प्रश्नकर्ता: ये मन, बुद्धि, चित, अहंकार को ही सूक्ष्म शरीर बोलते है क्या?
दादाश्री : नहीं, वो सूक्ष्म शरीर नहीं है। सूक्ष्म शरीर तो electrical body को बोलते है। मन, बुद्धि, चित, अहंकार - वो तो अंत:करण है। Electrical body हरेक देह में होती है, पेड़ में, पशु में, सब में होती है। जो खाना खाता है, उसका पाचन होता है, वे electrical body से ही होता है। मरते समय आत्मा के साथ causal body और electrical body जाती है। दूसरे जन्म में causal body वो ही effective body हो जाती है।
प्रश्नकर्ता: causal body का कारण आत्मा ही है न? दादाश्री : नहीं, causal body का कारण अज्ञानता है। प्रश्नकर्ता : ये electrical body क्या है, वह फिर से जरा समझाईए।
दादाश्री : ये खाना खाता है, वो electrical body से पचता है, उसका blood होता है, urine हो जाता है, ये separation उससे होता है, ये बाल होता है, नाखून होते है, ये सब electrical body से होता है। इसमें भगवान कुछ नहीं करता ।
ये electrical body जो पीछे मेरुदंड है, उसमें तीन नाडियाँ नीकलती है, इडा, पींगला और सुषुमणा। इसमें से electricity पूरे body में जाती है। ये गुस्सा भी उससे होता है। ये electrical body जीवमात्र common है। Electrical body कहाँ तक रहेती है? जहाँ तक
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कर्म का सिद्धांत
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है, तब body को चाहिए। जो taste वाला है, वो मन का indent है
और जो detasted है, वो body का indent है। इसमें आत्मा का indent नहीं है।
मोक्ष नहीं होता है, वहाँ तक रहेती है। Electrical body से ये आँख से दिख सकता है। Body की magnetic effect है, वो भी electrical body से है। आपका विचार न हो, फिर भी आकर्षण हो जाता है न? ऐसा experience आपको जिंदगी में कभी हुआ है या नहीं? एक दफे या दो दफे हुआ है? ये magnetic effect है और आरोप करता है कि 'मेरे को ऐसा होता है।''अरे भाई, तेरे विचार में तो नहीं था, फिर क्यों सिर पे ले लेता है।'
ये पानी पीता है, वो किसको चाहिए? वो भी body का indent है। और जो दूसरा कुछ पीता है, cold drinks, वो किसका indent है? उसमें मन का और body का - दोनों का indent है।
शरीर का जो नर, जो तेज होता है. वो चार प्रकार से प्राप्त होता है, १) कोई बहुत लक्ष्मीवान हो और सुख-चैन में पड़ा रहे तो तेज आता है, वो लक्ष्मी का नूर । २)जो कोई धर्म करे तो उसके आत्मा का प्रभाव पड़ता है, वो धर्म का नूर । ३) कोई बहुत पढता है, relative विद्या प्राप्त करता है, उसका तेज आता है, वो पांडित्य का नूर। ४) ब्रह्मचर्य का तेज आता है, वो ब्रह्मचर्य का नूर। ये चारों ही नूर सूक्ष्म शरीर से आते है।
प्रश्नकर्ता : ये electrical body का संचालन 'व्यवस्थित शक्ति' करती है क्या?
दादाश्री : इसका संचालन और व्यवस्थित शक्ति का कोई लेनादेना नहीं है। Electrical body उसके स्वभाव में ही है। बिलकुल स्वतंत्र है। किसी के भी ताबे में नहीं है।
तो indent किसका है, वो सब मालूम हो जाये तो फिर उन सबका उपरी कौन है, वो मालूम हो जाता है। इन सबको जाननेवाला है, वो खुद ही भगवान है। सब लोग बोलते है, 'हमने खाया'। वो गलत बात है।
नींद लेता है वो किसका indent है? प्रश्नकर्ता : शरीर का।
दादाश्री : हाँ, शरीर का है। मगर इतना सब, पूरा indent शरीर का नहीं है। जितना टाईम पूरी नींद आती है, सच्ची नींद - गाढ निद्रा आती है, इतना ही indent body का है। दूसरा नींद है न, वो सब mind का है। जिसको ऐशोआरामी बोलते है। Body को pure नींद चाहिए, ऐशोआराम नहीं चाहिए। ऐशोआराम मन को चाहिए।
ये सूनता कौन है? Mind सूनता है? ये किसका indent है? प्रश्नकर्ता : वैसे तो कहते हैं, कान सूनते है।
दादाश्री : नहीं, मगर indent किसका है? सूनने की इच्छा किसकी है?
प्रश्नकर्ता : मन की।
दादाश्री : वो egoism की इच्छा है। जितना phone आये वो सब egoism ले लेता है। मन को पकडने नहीं देता। वो शेठ ऐसा है कि दूसरे किसी को हाथ नहीं लगाने देता। चूप, तुम बैठ जाओ, हम
Indent-किया किसने? जाना किसने? दादाश्री : ये खाना खाता है उसका indent कौन देता है? ये indent कौन भरता है? ये indent किसका है? तुम खुद है इसमें?
प्रश्नकर्ता : वो तो नहीं मालूम।
दादाश्री : वो indent body करती है। ये body के परमाणु है, वो indent करते है। इसमें मन की कोई जरूरत नहीं। मन की कब जरूरत होती है? मन का evidence कब होता है, कि जब taste के लिए खट्टा-मीठ्ठा चाहिए, तब वो मन के लिए चाहिए और out of taste
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पकड़ेगा, ऐसा ही करता है।
प्रश्नकर्ता : तो आँख का indent कौन करता है?
दादाश्री : आँख का indent में मन का, अहंकार का और आँख का अलग अलग time पे अलग अलग indent रहता है। मगर कान का indent खास करके अहंकार की आदत है।
ये अंदर सब science चल रहा है, इसमें सब देखने का है, जानने का है। ये अंदर की Laboratory में जो प्रयोग होता है, इतना सब प्रयोग को पूरा जान लिया, वो खुद भगवान हो गया। परे world का प्रयोग नहीं, इतने प्रयोग में world का सब प्रयोग आ जाता है और इसमें जैसा प्रयोग है, ऐसा सब जीव के अंदर प्रयोग है। एक अपना खुद का जान लिया के सबका जान लिया और सबको जो जानता है वो ही भगवान है।
भगवान खाना भी कभी खाता नहीं, नींद भी नहीं लेता है। ये सब विषय है न, वो कोई विषय का भोक्ता भगवान नहीं है। विषय का भोक्ता भगवान हो जाये तो भगवान को मरना पडेगा। ये मरण कौन लाता है? विषय ही लाता है। विषय नहीं होता, तो मरना ही नहीं होता।
ये बोडी में सब सायंस ही है। लोग नहीं करता और बाहर उपर चांद पे देखने को जाता है? वहाँ रहेंगे कर लेंगे और वहाँ शादी भी कर लेंगे। ऐसे लोग है। __Really speaking आदमी खाता ही नहीं। तुम्हारे dinner में खाना कहाँ से आता है? Hotel में से आता है? ये खाना कहाँ से आया, उसकी तलाश तो करना चाहिए न?! तब आप कहते है, बीबीने दिया। मगर बीबी कहाँ से लाई? बीबी कहेगी, 'मैं तो व्यापारी के पास से लाई।' व्यापारी बोलेगा, 'हम तो किसान के पास से लाया।' किसान को पूछेगें, तुम कहाँ से लाया? तो वो कहेगा, 'खेत में बीज डालने से पैदा हुआ।' इसका अंत ही मिले ऐसा नहीं है। Indent वाला indent करता है, Supplier supply करता है। Supplier आप नहीं हो। आप तो देखनेवाले है कि, क्या खाया
और क्या नहीं खाया, वो जाननेवाले तम हो। तम बोलते हो कि. मैं ने खाया। अरे, तुम ये सब कहाँ से लाया? ये चावल कहाँ से लाया? ये सब सब्जी कहाँ से लाया? तुमने बनाया? तुम्हारा बगीचा तो है नहीं, खेती तो है नहीं, फिर कहाँ से लाया?! तो कहे, 'खरीदकर लाया।' तुमको potatoes (आलु) खाने का विचार नहीं था, मगर आज क्यूं खाना पडा? आज तुमको दूसरा सब्जी मंगता था मगर आलु की सब्जी आई, ऐसा नहीं होता है? तुम्हारी इच्छा के मुताबिक सब खाने का आता है? नहीं! अंदर जितना चाहिए इतना ही अंदर जाता है, दूसरा ज्यादा जाता नहीं। अंदर जितना चाहिए, जितना indent है, उससे एक परमाणु भी ज्यादा अंदर जाता नहीं है। वो ज्यादा खा जाता है, बाद में बोलता है कि, 'आज तो मैं बहुत खाया।' वो भी वो खाता नहीं है। ये तो अंदर मँगता है, उतना ही खाता है। खाना खाने की शक्ति खुद की हो जाये तो फिर मरने का रहेगा ही नहीं ने?! मगर वो तो मर जाता है न?!
अंदर के परमाणु indent करते है और बाहर सब मिल जाता है। ये बेबी को तो आपको दूध देने का और खाना देने का। बाकी सब naturally मिल जाता है। वैसे ही तम्हारा सब चलता है, लेकिन तुम egoism करते हो कि मैं ने किया। तमको आम खाने की इच्छा हुई तो बाहर से आम मिल जायेगा। जिस गाँव की होगा वो ही गाँव का आकर मिलेगा।
लोग क्या करते है कि अंदर की इच्छाओं को बंद करते है, तो सब बिगड जाता है। इसलिए ये जो अंदर Science चल रहा है, उसको देखा करो। इसमें कोई कर्ता नहीं है। ये Scientific है, सिद्धांत है। सिद्धांत, सिद्धांत ही रहता है।
आपको मेरी बात समझ में आती है न? ऐसा है कि हमारा हिन्दी Language पे काबु नहीं है, खाली समझने के लिए बोलता है। वो ५% हिन्दी है और ९५% दूसरा सब mixture है। मगर tea जब बनेगी, तब tea अच्छी बनेगी।
- जय सच्चिदानंद
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________________ दादा भगवान फाउन्डेशन के द्वारा प्रकाशित _ हिन्दी - अंग्रेजी पुस्तकें 1. ज्ञानी पुरूष की पहचान जगत कर्ता कौन? कर्म का सिद्धांत अंत:करण का स्वरूप यथार्थ धर्म 6. सर्व दु:खो से मुक्ति 7. आत्मबोध 8. दादा भगवान का आत्मविज्ञान 9. टकराव टालिए 10. हुआ सो न्याय 11. एडजस्ट एवरीव्हेयर 12. भूगते उसी की भूल 13. वर्तमान तीर्थकर श्री सीमंधर स्वामी 14. HarmonyinMarriage 84. Generation Gap 16. Whoaml? 17. Ultimateknowledge 18. Anger 19. Worries 20. The essence of all religions 21. Pratikraman 22. Thescience ofkarma 73. The Fault is of the sufferer 24. AdjustEverywhere 25. Whatever happens isjustice 26. Avoid Clashes प्राप्तिस्थान पूज्य डॉ. नीरुबहन अमीन तथा आप्तपुत्र दीपकभाई देसाई अहमदाबाद मुंबई दादा दर्शन, 5, ममतापार्क सोसायटी, | बी-904, नवीनआशा एपार्टमेन्ट, नवगुजरात कॉलेज के पीछे, उस्मानपुरा, | दादासाहेब फालके रोड, अहमदाबाद-३८००१४. दादर (से.रे.), मुंबई-४०००१४, फोन: 7540408,7543979, फोन : 24137616 E-mail : info@dadabhagwan.org | मोबाईल : 9820-153953 अडालज : त्रिमंदिर संकुल, अडालज ओवरब्रीज के पास, अहमदाबाद कलोल हाईवे, अडालज, जि, गांधीनगर - 382423. फोन: (079)3970102-3-4-5-6, 3971717 वडोदरा : श्री योगीराज पटेल, 2, परमहंस सोसायटी, मांझलपुर, वडोदरा, फोन : 0265-2644465 सुरत : श्री विठ्ठलभाई पटेल, विदेहधाम, 35, शांतिवन सोसायटी, लंबे हनुमान रोड, सुरत. फोन : 0261-28544964 राजकोट : श्री अतुल मालधारी, माधवप्रेम एपार्टमेन्ट, माई मंदिर के पास, 11, मनहर प्लोट, राजकोट फोन : 0281-2468830 चेन्नाई : अजितभाई सी. पटेल, 9, मनोहर एवन्यु, एगमोर, चेन्नाई-८ फोन : 044-8191369, 8191253, Email : torino@vsnl.com USA. : Dada Bhagwan Vignan Institue : Dr. Bachu Amin, 902 SW Mifflin Rd, Topeka, Kansas 66606. Tel : (785) 271-0869, E-mail: bamin@cox.net Dr. Shirish Patel, 2659, Raven Circle, Corona, CA 92882 Tel. : 909-734-4715, E-mail : shirishpatel@attbi.com UK Mr. Maganbhai Patel, 2, Winifred Terrace, Enfield, Great Cambridge Road, London, Middlesex, ENI IHH, U.K. Tel : 020-8245-1751 Mr. Ramesh Patel, 636, Kenton Road, Kenton Harrow. Tel.:020-8204-0746,E-mail: dadabhagwan_uk@yahoo.com Canada: Mr. Bipin Purohit, 151, Trillium Road, Montreal, Quebec H9B 1T3, Canada. Tel. : 514-421-0522, E-mail: bipin@cae.ca Africa : Mr. Manu Savla, Nairobi, Tel : (R)254-2-744943 Website: www.dadabhagwan.org, www.dadashri.org