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प्रस्तावना.
यद्यपि पाश्चात्य विद्वान यह स्वीकार करचुके हैं कि बौद्ध धर्म से जिसको कि आज केवल चौवीस शताब्दियां ही हुई जैनधर्म अधिक प्राचीन है तथापि आजकल के छोटे २ इतिहास आदि पुस्तकों में तथा साधारण पुस्तकों में बौद्ध धर्म सम्बन्धी अनेक बातें देखीं जातीं हैं किंतु जैनधर्म सम्बन्धी बहुत ही कम देखने में आती हैं. इसके अतिरिक्त बौद्ध सिद्धांत से परिचित कितने ही विद्वान मिलेंगे किन्तु जैन सिद्धांत से परिचित जैनेतर तो दूर रहे स्वयं जैन लोगों में भी भली प्रकार से समझने वाले कम देखे जाते हैं इसका कारण यही कहा जासता है कि प्रथम तो बौद्ध साहित्य का वर्त्तमान काल की प्रायः सर्व भाषाओं में अधिक मंचार है किन्तु जैन साहित्य का संसार की वर्तमान काल की प्रचलित भाषाओं में यथोचित प्रचार नहीं है द्वितीय संसार में वौद्धों की संख्या अब भी ४० करोड़ है किन्तु जैनियों की संख्या केवल साढे बारह लाख ही रद्द गई है । जिनमें भी निज धर्म का साधारण ज्ञान रखने वाले भी इने गिने ही देख पड़ते हैं. एक समाज का स्वयं अपने ही धर्म सिद्धांतों से अनभिज्ञ होना उसके लिये कितना लज्जा का विषय है। आज इसी कारण भारतवर्ष में जैनधर्म पर अनेक तर्क विशेषतया कुतर्क होते हैं कोई “ जैनियों की अहिंसा"
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को भारतवर्ष के अधःपतन का कारण बतलाता है तो कोई "ईश्वर कर्तृत्व न मानने से " नास्तिक कहते हैं तो कोई कर्म प्रधानी मानकर पुरुषार्थहीन बतलाते हैं. इसही प्रकार के अनेक आक्षेप हुआ करते हैं इन आक्षेपों को दूर करने के लिये तथा जैन समाज में प्रत्येक स्त्री पुरुष को निज धर्म के सिद्धांतों का उत्तम ज्ञान कराने के लिये तथा संसार के अन्य विविध देशों के विशेषकर भारतवर्ष के जैनेतर जनसमुदाय में जैन धर्म के सिद्धांतों का प्रचार करने के लिये परम आवश्यक है कि जैन धर्म के ग्रन्थों का अनुवाद वर्तमान काल की विविध भाषाओं में विशेषकर भारतीय भाषाओं में प्रकाशित किया जावे और उन ग्रन्थों का खूब ही मुफ्त वा अल्प मूल्य पर प्रचार किया जावे.
उपरोक्त उद्देश्य के अनुसार ही कर्मग्रन्थ के प्रथम भाग का हिन्दी भाषान्तर 'इस पुस्तक में पाठकवर्ग की सेवा में उपस्थित किया है। ___ यदि हमारे भ्राता विशेष कर नवयुवक लोग जिनपर कि धर्म तथा समाज की उन्नति निर्भर है जैन धर्म के सिद्धान्तों का पठन पाठन करें तो प्रथम रहस्य मय विषय जैन धर्म का अनेकांतवाद है अर्थात् प्रत्येक कार्य किसी न किसी अपेक्षा से ही होता है इसको जैन धर्म की स्याद्वाद शैली कहते हैं इसके पश्चात् कर्मवाद का रहस्य समझना चाहिये इसही कर्मवाद विषय पर
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( ३ )
" ईश्वर का जगत्कर्त्ता न होना " आदि विषयों का निर्णय निर्भर है । अन्य धर्मों और जैन धर्म में मुख्य यही भेद हैं: कि जैन धर्म में स्याद्वाद ( अनेकांत ) शैली मानी गई है और जड़ और चेतन रूप यह सर्व जगतः अनादि माना गया है किंतु नैनेतर धर्मों में एकान्तवाद और जगत्कर्त्ता ईश्वर ही माना. गया है ।
संसार में जीवों को हम भिन्न भिन्न दशा में देखते हैं कोई राज्य लक्ष्मी भोग रहा है तो कोई दारिद्र्य दुख भोग रहा है. कोई पंडित होकर प्रतिष्ठा प्राप्त करता है तो कोई मूर्ख कहा जाता
इत्यादि बातों से स्वतः सिद्ध हो जाता है कि जीवों का इस दशा से किसी पूर्व दशा ( पूर्व भव) से संबंध है यह संबंध किन कारणों से हुवा हैं. इस विषय में संसार में दो मत हैं ।
( १ ) जैनेतर धर्मों में किसी का तो संतव्य है किं जीव सर्व सुख दुःख, ईश्वरेच्छानुसार ही भोगते हैं जीवों का किसी पूर्वदशा ( पूर्व जन्म ) से कोई संवन्ध नहीं है और किसी २ का मत है कि ईश्वर जीवों का जन्म मरण करने वाला तो है. किन्तु उनके शुभाशुभ कर्मानुसार न्यायाधीश की तरह न्याय पूर्व उनको सुख दुख देता है इस प्रकार कोई पुनर्जन्म को मानते हुवे और कोई पुनर्जन्म को न मानते हुवे न्यून २ भिनता से सृष्टि का आदि कर्त्ता पालन कर्त्ता न्यायानुसार शुभ
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.( ४ ) शुभ कर्ता और प्रलय कर्ता इत्यादि रूप से जगत्का कर्ता हत्ती ईश्वर को मानते हैं.
(२) किन्तु जैनधर्म सूक्ष्म दृष्टिपूर्वक प्रवल प्रमाणों द्वाग सिद्ध करता है कि ईश्वर तो परम पवित्र निदूषण रागद्वेष रहित सर्वज्ञ वीतराग है उस ( ईश्वर ) को जगत्का कर्त्ता हत्ती तथा शुभाशुभ कर्म फलदाता मानना ईश्वरत्व को दुपित करना है ईश्वरत्व के परम उत्तम गुणों से ईश्वर को रहित वतलाना
और ईश्वर की निदूषणता में कलंक लगाना है तो जगत्कर्तृत्व के विषय में जैन धर्म का क्या मत है ? - जैन धर्म का मत है कि जगत् अनादि है इस जड़ और धेतन रूपी संसार के जितने परिवर्तन होने हैं सर्व काल, स्वभाव, कर्म, पुरुषार्थ और निनि के ( द्वारा ) अनुसार ही होते हैं. ' संसार में जो अनन्त जीव हैं प्रत्येक जीव कभी किसी कारण से अपने पूर्व कर्मका फल भोग कर उस कर्म से रहित होते हैं तो कभी नवीन कर्म उपार्जित कर लेते हैं 'अनादि काल से इस ही प्रकार सर्व जीव कर्म लिप्त है संसार में भ्रमण का जीव कभी कर्म रहित दशाम नहीं रहते ज्ञानकी, दर्शनकी आयु की न्यूनाधिक प्राप्ति होना उच्च नीच कुल में उत्पन्न होना सुख दुस्खादि की प्राप्ति इत्यादि सर्व पूर्व संचित कर्मों ही का
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फल है अज्ञान दशा के कारण हितकारी को अहित कर और अहितकारी को हित कर समझ जीव सुख दुख भोगते हैं. .
शुभ कर्मों के उदय से सुख मिलता है और अशुभ कर्मों के उदय से दुख मिलता है तो प्रश्न हो सका है कि पूर्व कर्मानुसार सुख दुख जो होना है सो निस्संदेह होही गा तो उद्यम करने की क्या आवश्यक्ता ? यह पूर्व बतला दिया है कि एकान्त में किसी वान को नहीं समझना चाहिये अतएव उद्यम भी कर्तव्य है कर्म दो प्रकार के होते हैं (१, सोपक्रम जिन कर्मों की कि ध्यान तपस्या आदि ज्ञान पूर्वक क्रियादि उद्यम से निर्जरा हो सकी है (२) निरुपक्रम (निकायश्चित) कि. जो कर्म किसी भी प्रकार से विना उनका फल भोगे नहीं छूट सक्ते हैं.
शुभा शुभ कर्मों का विविध प्रकार से कैसे बंधन होता है और कैसे उनके विविध फल रूप जीवों को भवोभव में भ्रमण तथा अनेक प्रकार के सुखदुख आदि प्राप्त होते हैं तथा किसप्रकार उन कर्मों का अंत करकं कर्म रहित हो सक्ते हैं इत्यादि कर्मवाद के विषयों को समझाने के लिये ही श्रीमान् देवेन्द्रसरि महाराज ने प्राकृत भाषा में कर्म ग्रन्थ को छ: भागों में लिखा है जिनमें से कर्म विपाक नामक प्रथम भाग हिंदी भाषान्तर सहित इस पुस्तक में प्रकाशित किया गया है जिसमें कौकी आठ मूल प्रकृतियां और १५८ उत्तर प्रकृतियों का वर्णन है.
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( ६ )
बुद्धिमान पाठकों का कर्त्तव्य है कि विवेक बुद्धि द्वारा कर्म वादका सद् ज्ञान प्राप्त करें और ज्ञान सहित ध्यान तपादि उत्तम क्रियाओं से सोपक्रम कमों का अंत करें और निरुपक्रम कर्मों का फल भोगते समय अशुभ परिणाम न रखकर शुभ परिणाम रखें जिंससे उन शुभ परिणाम का शुभ फल ऋद्धि सिद्धि अनेक सुख भोगे पश्चात् सोपक्रम और निरूपक्रम दोनों कर्मों का अंत कर कर्म मुक्त होकर मोक्ष सुख प्राप्त करें ।
निवेदन ।
मुझमें इतनी विद्वता कहां है! कि मैं किसी ग्रन्थ को प्राकृत भाषा से हिंदी भाषान्तर लिखसकूं किंतु परमगुरुवर्य श्री १०८ श्री माणिक मुनिजी महाराज को अनेकानेक धन्यवाद है जिन की मुख्य सहायता से और कृपा दृष्टि से मैं इस कार्यको करने में समर्थ हुआ हूं । .
इस ग्रन्थ में जो अशुद्धियें रह गई हों उनको शुद्धिपत्र से सुधारकर पढियेगा इसके अतिरिक्त भी यदि कोई अशुद्धियें रही हों तो उनके लिये क्षमा मांगते हैं और उनको 'गीतार्थो से समझ कर पढियेगा.
मिती आसोज शुक्ल १५
बुधवार . संवत् १६७३
हिन्दी भाषान्तर लेखक.
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डाः हरक चन्द धाडीवाल बी.ए., एल.एम.ऐस. अजमेर।
___ असिस्टेण्ट सर्जन, बीकानेर। जन्म ताः १६ डिमम्वर १८७६-मृत्यु ताः ११ जुन्लाई १८१५ ।
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डाक्टर हरकचन्दजी का संक्षिप्त जीवन चरित्र और ग्रन्थ प्रसिद्ध करने का प्रयोजन.
जैन जाति का भाग्य अभी तक दुर्बल हैं और विशेषकर राजपूताना के जैनियों की स्थिति बहुत ही शोचनीय है पहिले तो धनिक मारवाड़ी जैनों के धन की भी कमी होती जाती है पर जो कुछ धन है वह भी केवल आडम्बरों, विवाहोत्सवों, वेश्यानृत्यों, मृतक भोजनों तथा अन्य कई त्योहारों पर कुव्ययों में ही खर्च होता है. और यदि कोई महानुभाव अपने द्रव्य का सदुपयोग करके अपनी संतान को शिक्षा देकर इस योग्य करें कि जाति की सेवा करने में समर्थ हो तो इस काल शत्रु से ऐसा नहीं देखा जाता. जैन जाति के दुर्भाग्य से आज हम देखते हैं कि कितने शिक्षित युवक युवावस्था ही में अपनी मनोवांछना सफल किये विना हो, जाति की मनोकामना पूर्ण किये बिना ही अपने मातापिता भाई बन्धु की आशाओं पर पानी फेर कर इस अभागी जाति को रोती हुई छोड़कर परलोक सिधार जाते हैं । प्रभो, क्या इस जाति के, क्या तेरी संतान के दिन
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फिरेंगे, क्या इस जाति की अवस्था सुधारने वालों पर काल
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दया नहीं करेगा ? क्या इस जाति में वीर चन्द गांधी जैसे पुत्र उत्पन्न फिर नहीं होंगे ?
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( २ ) इसी अजमेर नगर में जैन युवकोंने उत्तमोत्तम शिक्षा पाई उच्चपद प्राप्त किये, जाति में बड़ी २ श्राशाएं खड़ी की पर हाय, दुर्दैव से यह नहीं देखा गया. यहां पर श्रीयुत फतहचन्दजी स्वाविया ने बैरिस्टरी की परीक्षा पास करके वकालत में नाम पैदा किया, जज्ज हुये, सिरहमलजी सांड बी. ए. ऐलऐल. वी. में उत्तीर्ण होकर इन्दोर में जज हुये पर उनको युवावस्था में ही संसार छोड़ना पड़ा, ऐसी मृत्यु देखकर हमारी माताओं को वहम होने लगे कि यह शिक्षा का ही फल है कि उनकी सन्तान जल्दी मरजाती है. हमारे चरित्रनायक भी इसी दुष्ट काल के ग्रास बने.
डाक्टर हरकचन्दजी धाड़ीवाल का जन्म ओसवाल जाति के धाड़ीवाल कुटुम्ब में पोप सुदि ११ सं० १९३३ को हवा. आपके पिता श्रीयुत सेठ मदनचन्दजी धाड़ीवाल अजमेर के एक प्रतिष्ठित पुरुष हैं और आपके बड़े भाई श्रीयुत शिवचन्दजी धाडीवाल कई वर्षों तक वीकानेर राज्य में प्रतिष्ठित पदों पर रहे और अब अपने पिता की सेवा में अजमेर में ही रहते हैं डाक्टर साहब के पिता के भाई श्रीयुत मिलापचन्दजी और नेमीचन्दजी बीकानेर राज्य में बहुत उच्चपद पाचुके हैं और श्रीयुत मिलापचन्दजी अब तक १००) पेन्शन पारहे हैं. हरकचन्दजी को विद्यानुराग देखकर उनके पिताने उनको उच्च कोटि
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( ३ )
की शिक्षा देना निवय किया ।
हरकचन्दजी का विवाह सम्वत १६५० में नागोर के सेट सुपार्शमलजी लोढा की सुशीला पुत्री से किया गया. राजपूताना की ओसवाल जाति में, जहां कि १३ वर्ष की आयु होते ही माता पिता को अपने पुत्रों का जीवन नष्ट करने की सुझती हैं, आज से २३ वर्ष पहले १७ वर्ष की आयु तक अपने पुत्र को अविवाहित रखना डाक्टर साहिब के मातापिता की संतान वात्सल्यता तथा विद्या प्रेम को दर्शाता है. आज हम देखते हैं कि कितने श्रोसवाल भाई अपनी संतान को सुखी देखने के लिये अथवा दुख के गहरे कूप में डालने और जाति तथा देश का नाश करने के हेतु १३-१४ वर्ष के वालकों का विवाह ६-१० वर्ष की बालिकाओं के साथ करदेते हैं फिर वह चालक किस प्रकार उच्च शिक्षा पासकते हैं, किस प्रकार अपना स्वास्थ्य ठीक रख सकते हैं ?
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ए.
अजमेर गवर्नमेन्ट कालेज से सम्वत १६५५ में वी. की डिग्री प्राप्त कर लाहोर मैडीकल कालेज में एल. एम. एस. की उपाधि प्राप्त करने के लिये भरती हुये. वहां पांच वर्ष की पढाई थी, परन्तु अति प्रेम होने पर भी उनके मातापिता ने उनसे अनुचित प्रेम नहीं किया. उनका भविष्य जीवन विगाड़ कर उनकी उच्च अभिलाषाओं पर पानी फेरकर अपने
पुत्र को
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घर पर ही रखकर किसी दफ्तर में नौकर नहीं करादिया - उच्च शिक्षा के फायदे बुद्धिमान लोग ही जानते हैं. यदि इसी
प्रकार हमारे धनिक भाई अपने ही पुत्रों को दूर. देशों में उच्च शिक्षा पाने के लिये भेजते रहें तो हमको, अपनी जाति को गिरी हुई कहने का भी अंवसर नहीं मिले, पर सूखी रोटी खाकर ही गुजर करलेंगे' या 'हमारा. धन पीदियों तक नहीं खूटेगा हम क्यों पहें ' इन सिद्धांतों ने भारत का नाश किया, जैन जाति का नाश किया, निर्लोभता की आड. में पुरुषार्थ हीनता कार्य करने लंगी. ... ... ... . .. .. : : ... कठिन परिश्रम करके पांच ही वर्ष में सम्बत् १९६० में
एल. एम. एस. की परीक्षा में उत्तीर्ण हुये, और डाक्टर हरक• चन्दजी राजपूताना की ओसवाल जाति में प्रथम ही और आज
तक एक ही डाक्टर हुये थोड़े ही काल में आपको रेवाड़ी में रेलवे . • लाइन पर असिस्टेंन्ट सरजनी का पद प्राप्त हुवा सम्वत् १९६१ में पटियाला स्टेट की ओर से राजपुरा में असिस्टेंन्ट सजन हुये वहां से:१६६३ में श्रीमान् अलवर नरेश ने अपनी राजधानी के बड़े अस्पताल में बुलालिया अलवर में पहले असिस्टेन्ट सर्जन का पद नहीं था पर श्रीमान् अलवर नरेश ने इनके लिये यह पद स्थापित कर इनको नियत किया. यहां पर डाक्टर हरकंचंदजीने अपनी बुद्धि दक्षता के कारण और इससे भी अधिक
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अपने सच्चरित्र लोकप्रियता और रोगियों के प्रति सदव्यवहार के कारण ख्यातिपाई अलवर नरेश आप से बहुत प्रसन्नथे जव श्रीमान् ने सुनाकि बीकानेर नरेश डाक्टर हरकचंदजी को बुलारहे हैं तब आपने कहा कि हरकचंद को नहीं जाने दूंगा परन्तु अंन में अधिक वेतन पर बीकानेर जाने की आज्ञादेवी अलवर में पांच वर्ष रहकर सन् १९११ सम्बत १९६८ में बीकानेर में नियत हुये यहां भी उन्हों ने राजा और मजा दोनों ही की ओर से बहुत मान पाया पर दुर्भाग्यवश डाक्टर हरकचंदनी को विद्यार्थी अवस्था ही से ( Diabetes ) का रोग होगया था और इसी ने सम्वत १९७२ के असाढ वदी १४ के दिवस डाक्टर साहिब को इस.असार संसार से उठालिया शोक! शांक! उनके माता पिता बन्धुओं के शीक का पार नहीं रहा पर कर्म के आगे किसी की शक्ति काम नहीं आसक्ती.
डा० हरकचंदजी एक गुणी पुरुष थे. इस हाय पैसा हाय पैसा के जमाने में जब कि मनुष्य हरमकार से, न्याय से 'अन्याय से, अमीरों को लूट कर या' ग. रीबों को सताकर, वहका कर या ललचा कर, दूसरे का हक छीन कर या जिस प्रकार हो सकेधन समेटन में ही लगा रहता
है डाक्टर साहब.की. निर्लोभता धन उपार्जन करने में न्याय. • प्रियता अपने मातहतों के अधिकार का रक्षण करना. अपने
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शरण आये हुये रोगियों की निस्पृह होकर सेवा शुश्रुपा करना और सेवा के लिये चाह रात हो या दिन सदा तत्पर रहना उनकी दयालु प्रकृति दर्शाते हैं रोगियों की हाय सुनने पर श्री अकसर डाक्टरों का प्रथम सवाल फीस का ही होता है. निर्धन के रक्षक बहुत कम होते हैं परः डा. हरकचंदजी ने, कभी रोगी से फीस का सवाल नहीं किया. भोजन का समय हो अथवा आराम का रात हो या दिन रोगी की पुकार सुनते ही तैयारः उनके इस सद् व्यवहार के कारण आज भी उन नगरों में कि जिनमें इनको. अपने गुण प्रकट करने का अवसर मिला इनका यशोगान होरहा है। .:. . . . . . . पर काल विकराल ने उन्हें अपने गुण प्रगट करने को विशेष समय नहीं दिया उनको अपने न्यायोपार्जित द्रव्य से अपने ही हाथों जाति तथा देश सेवा करने का अवसर नहीं दिया विद्यार्थी अवस्था समाप्त करने के केवलः ११ वर्ष के ही पश्चात् जीवन संग्राम में घुसते ही सेवा के योग्य होते ही उनको काल विकरोल ने उठा लिया. उनका प्राइवेट जीवन बहुत ही सादा था यह उनकी तसवीर से ही प्रकट होता है. यह उनकी आंतरिक इच्छा थी कि धन.का सदुपयोग हो और उनके धन से उचित लाभ मिले उनके पिताने भी उनके विचारों की अनुमो. दना की और अपने प्रिय पुत्र के स्मार्थ यह कर्म ग्रन्थ तथा
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(.७ ) संग्रहणी सूत्र हिन्दी भापान्तर सहित प्रकट कराये कि जिसको पढकर भव्य जीव लाभ उठावें इस कार्य में डा० हरकचंदजी की धर्म पत्नी की अनुमोदना भी सराहनीय है क्योंकि हमारी जाति मस्त्रियां प्रायः ब्राह्मणों को मिष्टान खिलाने में ही परलोक गत जीवों को सुख मिलता मानती है. .
जैन जाति में सैकड़ों रुपैये स्वर्गवासी महानुभावों के नाम । पर व्यय होते हैं पर किस प्रकार? संडों मुसंडों को मिठाई खि. लाने में, मोसरादि करने में, ब्राह्मणों के जिमाने में वा स्मार्थ छतरियां बनवाने में परन्तु जैन साहित्य तथा धर्म से अनभिज्ञ रहकर धर्म त्यागने वालों को बचाने के लिये हिन्दी भाषा में ग्रन्थ प्रकट करने में, जाति की दशा सुधरने तथा देशका उद्धार करने को शिक्षा प्रचार के लिये कन्याशाला स्कूल इत्यादि उपयोगी संस्थाओं की सहायता में क्या व्यय होता है ? तब ही तो जैन जाति में पुरुष रत्न उत्पन्न नहीं होते. क्या डाक्दर हरकचंदजी के पिता और धर्मपत्नी का अनुकरण करके अन्य भाई अपने स्व
वाली बन्धुओं के स्मार्थ रुपया ऐसे शुभ कार्यों में व्यय करके कि जिन से वास्तविक लाभ हो पुण्योपार्जन करेंगे ?
अनुवादक
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* श्री वर्द्धमान जिनविजय
श्री कर्मविपाक नामक ग कर्मग्रन्थ प्रारम्भः ॥
सिरि वीर जिणं वंदिय, कम्म विवागं समास कुच्छं । कीरह जिरण हेउहिं, जेणं तो भरणए कम्मं ॥ १ ॥
अष्ट महा प्रातिहार्य रूपी बाह्य लक्ष्मीयुक्त, केवल ज्ञानादि रूपी अंतरंग लक्ष्मीयुक्त, चौंतीस अतिशयादि रूपी बाह्य लक्ष्मी से सुशोभित, कर्मशत्रु को जय करने वाले, और तपश्चर्या रत्न से विभूषित ऐसे अंतिम तीर्थंकर श्री महावीर प्रभु को नमस्कार करके आठ कर्मों के फलों को बतलाने वाले श्री कर्मविपाक सूत्र को संक्षेप से आरंभ करते हैं ।
जिन सत्तावन बन्ध ( ५ मिथ्यात्व
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१२ अविरति, २५ कषाय और १५ योग ) हेतुओं से जीव क्रिया करता है उनको
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शास्त्रों में कर्म कहा है - जैसे कोयले की कोठरी में यदि कोई
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अनुष्य शरीर पर तेल लगाकर जावे और उसमें कुछ समय तक ठहरे तो कोयले की सूक्ष्म रज (का रस) उसके शरीर पर चिपक ही जाती है ऐसे ही मिथ्यात्वादि अनादि ५७ बंध के हेतुओं से आत्मा के असंख्यात आत्म प्रदेशों पर अनंतानंत कर्म वर्गणा रूपी जड़ परमाणुओं के समूह लगजाते हैं किन्तु विशेष ता यह होती है कि जिस प्रकार दूध में पानी और लोहे में अग्नि पूर्ण रूप से मिल जाया करते हैं उसी ही प्रकार कमे प्रदेश श्रात्म प्रदेशों से सर्वोत्म प्रदेशों में मिलजाते हैं और उनका फल आत्मा को अनुभव करवाते हैं जो अपने को भी प्रत्यक्ष सुख दुःख का अनुभव होता है । ___यह कर्म सम्बन्ध अनादि है। भव्य जीव कर्म सम्बन्ध छूट जाने पर मुक्ति में जावेगा इस अपेक्षा से जीव का कर्म सम्बन्ध अनादि सान्त है और अभव्य जीव कदापि कर्ममुक्त न होगा इस अपेक्षा से जीव का कर्म सम्बन्ध अनादि अनन्त है। जिस प्रकार सुवर्ण के साथ मिट्टी, पाषाणादि का सम्बन्ध अनादि होने पर भी अग्नि के तीव्र संयोग से सुवर्ण शुद्ध हो जाता है इस ही प्रकार जीव के साथ कर्मों का सम्बन्ध अनादि होने पर भी तपश्चर्यादि और शुक्ल ध्यानादि से जीव शुद्ध अर्थात मुक्त होजाता है। जैसे वीज के अग्नि में जल जाने से उससे वृक्ष उत्पन्न नहीं होसक्ता वैसे ही जीव के कर्मों का तपश्चर्यादि
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( ३ )
और शुक्ल ध्यानादि से विनाश होजाने पर कर्मों का सम्वन्ध जीव के साथ नहीं रह सक्ता । वही जीव जिसका कर्म सम्ब न्ध छूट गया है शुद्ध आत्मा, परमात्मा कहा जाता है। जैन शास्त्रों में उस कर्म मुक्त जीव का नाम सिद्ध है। पूर्व में ऐसे अनन्त सिद्ध होगये हैं जो अपने कर्मों का विनाश कर मोक्ष में गये । ऐसे अनन्त होगये हैं और होते रहेंगे ।
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rava प्रत्येक मनुष्य का कर्त्तव्य है कि भवः भ्रमण से छूटने के लिये कर्मों का स्वरूप समझकर कर्म बंधन के ५७ कारणों से दूर रहने को यथाशक्ति प्रयत्न करें यह ही कर्म-ग्रंथ पढने का सार है ।
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प्रथम कर्म ग्रंथ में आठ मूल कर्म और उनकी १५८८ प्रति विभाग प्रकृतियों का स्वरूप कहते हैं ।
यह ठिइ रसपरसा, तं दिट्ठता । मूल : पगट्ठ उत्तर, सयभेां ॥ २ ॥
कर्म के बंध के ४ मेद ।
हा मो पगइ अडवन्न.
कर्म के बंध के ४ भेद मोदक का दृष्टांत देकर समझाते हैं । ..१ प्रकृति-जैसे मोदक (लड्डू) जिस वस्तु का बना हुवा हो उस वस्तु के गुण स्वभाव के अनुसार ही मोदक की मकृति
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( ४ )
अर्थात् गुण स्वभाव होते हैं इसही प्रकार कर्म जैसी प्रकृति के किये जाते हैं वैसी ही प्रकृति के आत्मा को अनुभव होते हैं।
२ स्थिति - जैसे मोदक की स्थिति उसके अन्दर की वस्तु के अनुसार ही होती है वैसेही कर्मों का बंध जितना होता है श्रात्मा को भी उतनी ही स्थिति तक अनुभव होता है ।
३ रस - जैसे मोदक उसके अंदर की वस्तु के रस के अनुसार ही मीठा वा कटु, नम्र वा कठोर होता है वैसेही कर्म जिस प्रकार किये गये हों उसही प्रकार न्यूनाधिक सुखदायी दुखदायी आत्मा को अनुभव होते हैं ।
४ प्रदेश - जैसे मोदक उसके अंदर की वस्तु के प्रदेशों के अनुसार ही भारी हलका होता है वैसेही कर्म पुद्गल जिस प्रकार और जितने संगठित हुवे हों उतने और उसी प्रकार कर्म प्रदेश आत्म प्रदेशों के साथ हलके वा गहरे मिलते हैं ।
इन चारों भेदों का विशेष स्वरूप विस्तार से आगे बतायेंगे ।
कर्मो की प्रकृति २ प्रकार की होती है । ।
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१- मूल प्रकृति- मूल प्रकृति के आठ भेद हैं ।
*
- उत्तर प्रकृति- उत्तर प्रकृति के १५८ भेद हैं ।
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इहना दंसणवर, ग वेत्र मोहाउ नाम गाणी | विग्धं च पण नव दुध, द्ववीस तिसय दुपविहं ॥ ३ ॥
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( ५ ).
मूल कर्मों की आठ प्रकृतियां ।
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१ - ज्ञानावरणीय कर्म - जिस कर्म के उदय से स्वयं आत्मा का वा अन्य वस्तुओं का अनुभव अर्थात् ज्ञान होने में जो आवरण अर्थात् रोक वा विघ्न आते हैं उस कर्म को ज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं इसके ५ भेद हैं ।
२ - दर्शनावरणीय कर्म - जिस कर्म के उदय से स्वयं आत्मा वा अन्य वस्तुओं को देखने में जो रोक वा विघ्न आते हैं उसको दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं इसके भेद हैं ।
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.
३ - वेदनीय कर्म - जिस कर्म के उदय से सुख और दुख आत्मा को मिलते हैं उसको वेदनीय कर्म कहते हैं इसके २ भेद हैं। ४ मोहनीय कर्म - जिस कर्म के उदय से आत्मा पुद्गलादि से भिन्न (चेतन) होने पर भी जड़ पुद्गलों पर, सांसारिक सम्बंधियों पर ममत्व करता है किसी पर राग करता है किसी पर द्वेष करता हैं उस कर्म को मोहनीय कर्म कहते हैं इसके २८ भेद हैं।
:: ५ आयुकर्म - जिस कर्म के उदय से आत्मा को शरीर रूपी बंधन में रहना पड़ता है उसको आयु कर्म कहते है इसके ४' - भेद हैं ।
१ ६ नामकर्म - जिस कर्म के उदय से आत्मा नवीन नवीन' प्रकार के स्वरूप ग्रहण करता है उसको नामकर्म कहते हैं. इस के १०३ . भेद हैं ।
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...७. गोत्रकर्म-जिस कर्म के उदय से प्राणी उच्च वा नीच समझा जाता है उस को गोत्र कर्म कहते हैं इसके २ भेद हैं।
८ अंतसय कर्म-जिस कर्म के उदय से आत्मा की अनन्त शक्तिये रुकी हुई हैं उसको अंतराय कर्म कहते हैं इस के ५ भेद हैं। ": इस प्रकार सर्व मिलकर ८ मूल प्रकृति के भेदों के १५८ -इत्तर प्रकृति भेद होते हैं। .:. . . . . . . . . .. 'मइ सुत्र श्रोही मणके वलाणि नाणाणि तत्थ मइनाण । वंजण वग्गह चउहा, मण नयण विणिं दिय चउका ॥४॥:.:
.........:
ज्ञानके ५ भेद । :
...१ मंतिज्ञान-इंद्रियों और मनद्वारा जो ज्ञान आत्मा को "होता है वह मति ज्ञान है। ........ :::
२.श्रुतज्ञान-उपदेश से चेष्टा से वा पुस्तकों से जो ज्ञान आत्मा को होता है वह श्रुतंज्ञान है। ..: ....... ... ...
३ अवधिज्ञान-जो आत्मा में द्रव्य क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा वाला:ज्ञान इंद्रियों के बिना ही हो वह अवधि ज्ञान है । .....४ मनः पर्यवज्ञान-जिस से मनुष्यादि क्षेत्र में संज्ञी तिर्यंच पंचेंद्रिय और मनुष्य का ज्ञान हो वह मनः पर्यवज्ञान है । ' .
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. . ५ केवलज्ञान-जो संपूर्ण.निरावरण तीनों काल.का एकही .समय में निश्चल निरंतर ज्ञान रहे वो केवल ज्ञान है। . : ..
मतिज्ञान और श्रुतज्ञान 'इंद्रिय प्रत्यक्ष हैं और अवधि ज्ञान, मनः पर्यवज्ञान और केवल ज्ञान आत्म प्रत्यक्ष हैं। ' मति, श्रुत, अवधि, और मनापर्यव इन चार ज्ञानों में उपयोग रखना पड़ता है किन्तु केवल ज्ञान में न उपयोग की आवश्यक्ता है और न इन्द्रियों की। . उस ही केवल ज्ञान को धारण करने वाले सर्वज्ञ के वचन प्रमाणे भूत होते हैं जैन शास्त्रों के मूल . उत्पादक वही सर्वज्ञ केवल ज्ञानी हैं और उन्हीं के पचनानुसार सूत्रों की रचना
· मतिज्ञान के २८ भेदः । - १ व्यंजन अवग्रह-व्यंजन अवग्रह चार प्रकार का होता है स्पर्शद्रिय व्यंजन अवग्रह, रसेंद्रिय व्यंजन अवंग्रह, घ्राणेंद्रिय व्यंजन अवग्रह: और श्रोत्रंद्रिय व्यंजन अवग्रह । मन और चक्षु का व्यंजन अवग्रह नहीं होता। . . . . .
, स्पर्श, रस, धाण और श्रोत्र इन चार इन्द्रियों का पदार्थ के साथ स्पर्श होते ही प्रथम "ही. जो ज्ञान होता है वों व्यंजन अवग्रह है उपरोक्त चारों इन्द्रियों से जो स्पर्श होते ही प्रथम
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ज्ञान होता है उसको उपरोक्त चार प्रकार के व्यंजन अवग्रह समझना चाहिये।: ::::: : : :: . . - चचुका :व्यंजन अवग्रह नहीं होने का कारण यह है कि चक्षु से पदार्थ का ज्ञान बिना स्पर्श के होता है. आंख में जो अंजन डाला जाता है उस अंजन को आंख नहीं देखती है
और जो. अंजन का गुण मालुम होता है वो स्पशैद्रियः का . विषय है इस ही प्रकार मनका भी व्यंज़न अवग्रह नहीं होता कारण कि मन भी शरीर में रहा हुवा ही जानता है मन का पदार्थ से स्पर्श नहीं हुआ करता है और व्यंजन अवग्रह विना 'स्पर्श के नहीं होता है।..:....:.: .
अत्थुगह ईहावा, यधारणा करण माणसेहिं छहा । इन अट्ठवीस भेनं, चउंदसहा वीसहा. चसुत्रं ॥५॥..... ... ... ..
२ अर्थावग्रह-व्यंजन अवग्रह होने पश्चात् आत्मा में जिस . से पदार्थ का खयाल होता हैं उसको अर्थावग्रह कहते हैं वह पांच इंद्रियें और छठे मन से होता है इसलिये उसके ६ भेद "कहे जाते हैं. १ स्पर्शेन्द्रिय अर्थावग्रह, २ रसनेन्द्रिय अर्थावग्रह, ' ३ घ्राणेन्द्रिय अर्थावग्रह, ४ चक्षुरिन्द्रिय अर्थावग्रह, ५:श्रोत्रेन्द्रिय अर्थावग्रह ६ मननोइन्द्रिय अर्थावग्रह ।
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३ ईहा-अर्थावग्रह के पश्चात् पदार्थ के गुणादि का जो खयाल आत्मां में होता है उसको ईहा कहते हैं। अर्थावग्रह की तरह उन्हीं ५ इन्द्रियों और छठे मन में ईहा होती है इस.. लिये ईहा के भी वैसे ही ६ भेद समझना चाहिये । . .
४ अपाय-पदार्थों का खयाल हुवे पश्चात् पदार्थों के गुणों में परस्पर क्या भेद है वह अपाय है वह भी ५ इन्द्रियों
और छठे मन में होता है इसलिये उसके भी वैसे ही ६ भेद समझना चाहिये।
५ धारणा-आत्मा में सर्व ज्ञान स्थित रहे उसको धारणा कहते हैं वह भी ५ इन्द्रियों और छठे मनमें होती है इसलिये ।' उसके भी वैसे ही ६ भेद जानना चाहिये। . व्यंजन अवग्रह का काल मिश्रगुण स्थान के काल 'जितना है. अर्थावग्रह, ईहा और अपाय इन तीनों का काल
अन्तमहर्त के काल जितना है और धारणा का काल सागरोपम के काल जितना है। .. ... स्मृति रहना और पूर्वभवों का ज्ञान होना अर्थात् जाति स्मरण ज्ञान होना भी मतिज्ञान की धारणा का ही भेद है। .
मित्र गुण स्थानक-चौदह गुण स्थानों में से तीसरे गुण स्थान का नाम है गाथा दूसरे कर्म अन्य में देखो। .
३ अन्तर्मुहूर्त-४८ मिनिट (मुहूर्त) से कम समय । '३ सागरोपम-असंख्यात वर्षों का काल.।
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श्रुत निःसृत मतिज्ञान के २८ भेदों का यंत्र ।
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"
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। स्पर्शद्रिय
घाणेंद्रियः ।रसनेहिय : श्रोनेंद्रिय - चक्षुरिन्द्रियः । मननो इंद्रिय
.
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१ व्यंजन : | १ ग्यअन . १ व्यञ्जन | "अवग्रह .. अवग्रह । श्रवग्रह 1
व्यंजन । श्रवग्रह : |.
२ श्रावग्रह : २ अर्थावग्रह : २ अर्थावग्रहः | २.अर्थावग्रह | २ अर्थावग्रह | २. अर्थावग्रह |६|
३ ईहा::.
३. ईहा :,
३ ईहा
.
३ ईहा
३ इहा..
३ इहा
..४ अपाय..
...
अंपायः - ४ अपाय
४ अपाय | .-४ अपाय
.. ४:अपाय
१ धारणा :
धारणा..
५ धारणा
६
. धारणा
५ धारणा
.५ धारणा
.
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इन २८ भेदों के प्रत्येक के बारह २ भेद भी होते हैं जैसे कहीं वाजिन बजरहा हो उस समय १ कोई थोड़ा सुने २ कोई ज्यादा सुने ३ कोई धीर सुने ४ कोई जोर से सुने ५ कोई जल्दी सुने ६ कोई देर से सुने ७ कोई चिन्ह से सुने ८ कोई बिना चिन्ह भी सुने है कोई शंका सहित सुने १० कोई शंका रहित सुने ११ कोई एकवार कहने से सुने १२ कोई अनेकवार कहने से सुने।
उपरोक्त अनुसार प्रत्येक के बारह २ भेद होने से २८x १२:३३६ तीनसो छत्तीस भेद होते हैं। . . इसके अतिरिक्त ४ प्रकार की बुद्धि भी होती है।
• १ उत्पातिकी-जो तात्कालिक बुद्धि कार्य करने में सहायक होती है वो उत्पातिकी बुद्धि है। . . २.वैनायकीवुद्धि-जो गुरु सेवा से प्राप्त होती है वो वैनयिकी बुद्धि है।
३ कार्मिकीवुद्धि-जो अभ्यास करने से प्राप्त होती है वो कार्मिकी बुद्धि है। ." . : . .:.४ पारिणामिकाबुद्धि-जो दीर्घायु होने पर संसार में अनुभव लेने से प्राप्त होती है वो पारिणामिकी बुद्धि है.। . : ..
पूर्वोक्त ३३६ भेदों को श्रुत निःसृत मतिज्ञान के भेद केहते है । और इन चार प्रकार की वृद्धि के भेदों को अश्रुत निः
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(१२) सृत मति ज्ञान के भेद कहते हैं । इस प्रकार मतिज्ञान के २८५४ बत्तीस और ३३६+४ तीन सो चालीस भेद होते हैं। ::
श्रुत ज्ञान के चौदह भेद होते हैं और वीस भेद भी होते हैं.
अक्खर सन्नी सम्म, साईनं खलु सपज्झ वसिघ्रं च गमित्रं अंगः परिह, सत्तविए ए सपडिवक्खा ॥६॥ ...: श्रुत ज्ञान के.१४ भेद । .....
. १ अक्षर श्रुत, २ अनक्षर श्रुत, ३ संज्ञीश्रुत, ४ असंज्ञीश्रुत, ५ सम्यक् श्रुतं, ६ असम्यक् श्रुत, ७ सादिश्रुतं, ८ अनादिश्रुत, ९. सपर्यवसित श्रुत १० अपर्यवसित श्रुत ११ गमिकचैत १२ अगमिक श्रुत १३. अंगप्रविष्ट Qत. १४ अंगवाह्य श्रुतं । , " . : ... १ अतरश्रुत-अक्षर ३ प्रकार के होते हैं संज्ञा अक्षर व्यंजन . अक्षर और लब्धिक्षर। . ........ : संज्ञाअक्षर-जो अक्षर लिखने के कार्य में लिये जाते हैं। ___ व्यंजन अक्षर-जो बोलने के कार्य में आते हैं। ... ... .' लब्धि अंतर-आत्मा में जो संज्ञा और व्यंजन अतरों का ज्ञान होता है... ...... .. ::::::::...:
"संज्ञा और व्यंजन अक्षरों को द्रव्यश्रुतं भी कहते हैं । 'लब्धि अक्षरों को भावभुत भी कहते हैं।
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(१३) : २ अनदर श्रुत-किसी के श्वास, डकार, छींक, खांसी आदि से जो प्राणी का ज्ञान व पहचान होती है उसको अनपर श्रुत कहते हैं। - ६ संझी श्रुत-दीर्घकालिकीसंज्ञा वाले जो पंचेंद्रिय तियेच और मनुष्यादि गर्भज प्राणी हैं उनके ज्ञान को संज्ञी भुत कहते हैं।
जो दृष्टि वाद संज्ञा वाले चौदह पूर्व के ज्ञानी सर्वश्रुत के पारंगामी अंमंमादी मुनि श्रुत केवली होते हैं उनके ज्ञान को उत्कृष्ट संज्ञाश्रुत कहते हैं उसका ज्ञान विशेष आगे बतायेंगे।
४ असंज्ञी श्रुत-हेतुउपदेशिकीसंज्ञा वाले मन रहित माणी के ज्ञान को असंज्ञी श्रुत कहते हैं एकद्रिय, वेंद्रिय, तेंद्रिय, चतुरिंद्रिय और सन्मूर्छिम पंचेंद्रिय जो मनरहित प्राणी हैं उनको केवल अपने आहार, भय आदि की संज्ञा है उनका ज्ञान बहुत अल्प है वे धर्म अंगीकार करने को भी अयोग्य होते हैं इसलिये जनको असंही में लिया गया है। .. ५ सम्यक् श्रुत--सर्वज्ञ वीतराग भापित तत्वज्ञान को सः मझने और मानने से जो ज्ञान हो इसका नाम सम्यक् श्रुत है। - दीर्घ कालि की संज्ञा-संज्ञी पंचेन्द्री (मन वाले ) प्राणी का ज्ञान।
४ हेतु उपदेशि की संज्ञा-प्रसंजी (विना मन के ) प्राणी का अल्प ज्ञान।
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( १४ ) ..६ असम्यक् श्रुत-सर्वज्ञ भाषित तत्वज्ञान के विमुख प्राणी का जो ज्ञान हो वो असम्यक् श्रुत है,।
७ सादि श्रुत-किसी प्राणी को जो नवीन ज्ञान प्राप्त होता हो वो,सादिश्रुत है । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावं की अपेक्षा से जो नवीन ज्ञान होता है वो चार प्रकार का है। द्रव्यसादि, क्षेत्र सादि, काल संदि और भाव सादि ।
८ अनादि श्रुत-जो ज्ञान पूर्व से ही है वह अनादिश्रुत है।
इसपर्यवसित श्रुत-जिस ज्ञान का कभी अंत होजावे वह सपर्यवसित श्रुत अथवा सांत श्रुत है।
१० अपर्य वसित श्रुत-जिस ज्ञान का कभी अंत ही न होवे वह अपयेवसित श्रुत अथवा अनन्त श्रुत है।
११ गमिक श्रुत-एक ही समान बार २ वही आलावा ( शब्द समूह ) आते हैं उनके ज्ञान को गमिक श्रुत कहते हैं ऐसे सूत्र को गमिक सूत्र कहते हैं ऐसे पाठ वारहवें दृष्टिवाद अंग में आते हैं।
१२ अगभिक श्रुत-एक ही समान शब्द समूह वार । नहीं आते हैं उसके ज्ञान को अगमिक श्रुत कहते हैं ऐसे पाठ कालिक सूत्र में हैं। । १३ अंग प्रविष्ठ श्रुत-आचारांग आदि बारह अंग शास्त्रों के ज्ञान को अंग अविष्ठ श्रुत कहते हैं।
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(१५)
. . १४ अंग वाह्य श्रुत-उपांग, उत्तराध्ययन दशकालिक
आदि शास्त्रों के ज्ञान को अंग वाह्य श्रुत कहते हैं ।" .. ... पज्झय अक्खर पयसं, धाय पडिवात्त तय अणु ोगो । पाहुड पाहुड, वत्थु छुव्वाये ससमासा ।॥ ७
- श्रुत ज्ञान के २० भेद । १ पर्यायश्रुत-सूक्ष्म निगोद के जीव को जन्म के प्रथम समय में ज्ञान होता है और उससे दूसरे समय में जितना ज्ञान बढता है वह पर्यायश्रुत है। ....
२ पर्यायसमासश्रुत-ऐसे दो चार, पर्यायश्रुत को पर्याय समासश्रुत कहते हैं।
३ अक्षरश्रुत-अकारादि लब्धि अक्षर को अनेक व्यंजन पर्याय सहित जानने का नाम अक्षरश्रुत है । . . .
. ४ अतर समासश्रुत-ऐसे दो चार लब्धि अक्षरों का ज्ञान होने का नाम अक्षर समासश्रुत है। . .. ... .५ पदश्रुत-'अकारादि दो चार अक्षर भिन्न २.अर्थ के वाचक हो इसका नाम पदश्रुत है.।. . ..:: : : : ....६ पद समासश्रुतः ऐसे दो चार पदश्रुत का नामः पद समासश्रुत है।
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.. .७ संघात श्रुत-जो गति आदिः चौदह मार्गणाद्वार में से मनुष्य आदि कोई भी गति के जीव.का. ज्ञान हो उस को संघातश्रुत कहते हैं। .. ..
८ संघात समासश्रुत-ऐसे दो चार गति के जीवों के ज्ञान को समासश्रुत ज्ञान कहते हैं। ............ ___ प्रतिपत्तिश्रुत-गति आदि चौदह मार्गणा में से एक मा
प्रणा में संसार के सर्व जीवों के भेद समझना इसको प्रतिपत्ति · श्रुत कहते हैं।
। १० प्रतिपत्तिसमासंश्रुत-ऐसे दो चार मार्गणा में जीव के भेदों का वर्णन समझना इसको प्रतिपत्ति समासश्रुत कहते हैं।
११ अनुयोग श्रुत-सत्पद प्ररूपणा में जीव आदिक पदार्थों का विवरण करना इसको अनुयोगश्रुत कहते हैं। ..
१२ अनुयोग समासश्रुत-ऐसे दो चार पदार्थों का भिन्न-२ रीति से वर्णन करना इसको अनुयोग. समासचुत कहते हैं। . : १३ प्राभृत भाभृत श्रुत-दृष्टिवाद नाम बारहवें अंग में ‘भिन्न २ प्रकरणों के स्थान में छोटे २ विभाग हैं ऐसे एक ' विभाग के ज्ञान को प्राभृतश्रुत कहते हैं। :...::...:. . .. १४ प्राभृत प्रामृत समास श्रुत-ऐसे दो चार विभाग के , ज्ञान को प्राभूत प्रामृत समास श्रुत. कहते हैं।...... ... : . ६ मार्गरयां द्वार-(देखो नवतत्व ] सम्पूर्ण जीव हन्यका जिसके जरिये विचार किया जावे-उनकी संख्या १४ है।
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( १७ )
१५ प्राभृत, श्रुत- दृष्टिवाद नामक बारहवें अंग में अनेक
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विभागों का एक भाग होता है जैसे अनेक उद्देशा मिलकर अध्ययन बनता है ऐसेही अनेक प्राभृत प्राभृतों का एक प्राभृत होता है. उसके ज्ञान को प्राभृत श्रुत कहते हैं ।
१६ प्राभृत समास श्रुत - ऐसे दो चार माभृतों के ज्ञान को प्राभुत समास श्रुत कहते हैं ।
१७ वस्तु श्रुत- अनेक प्राभृतों का एक वस्तु होता है उस एक वस्तु के ज्ञान को वस्तु श्रुत कहते हैं ।
१८ वस्तु समास श्रुत - ऐसे दो चार वस्तुओं के ज्ञान का नाम वस्तु समास श्रुत हैं ।
I
१६. पूर्वश्रुत – अनेक वस्तुओं का एक पूर्व होता है उस 'एक पूर्व के ज्ञान को पूर्वश्रुत कहते हैं ।
२० पूर्व समाम श्रुत - ऐसे दो चार पूर्व के ज्ञान को पूर्व समास श्रुत कहते हैं ।
यहां पर संगोपात १४ पूर्व के नाम भी लिख देते हैं । १ उत्पाद, २ अग्रायणीय, ३. वीर्यप्रवाद, ४ अस्ति प्रवाद, ५ ज्ञानप्रवाद, ६ सत्यप्रवाद, ७ आत्मप्रवाद, ८ कर्ममवाद, प्रत्याख्यान प्रवाद, १० विद्यामवाद, ११ कल्याण, १२ प्राणवाद. १३ क्रियाविशाल, १४ लोकबिंदुसार ।
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ऋण गामि वड्ढमाणय: पडिवाईयर -विहा
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(१८) छहा श्रोही । रिउमइ विउलमई मण, नाणं के. वल मिगविहाणं ॥ ८ ॥
अवधि ज्ञान के ६ भेद । . .१ अनुगामी-जो ज्ञान सदा साथ रहता है।
२ अननुगामी-जो ज्ञान सदा साथ नहीं रहता है। ३ वर्द्धमान-जो निरंतर बढता रहता है।
४ हीयमान-जो दिन प्रतिदिन घटता रहता है। • ५ अप्रतिपाती-जो ज्ञान निरंतर रहता है। ।
६ प्रतिपाती-जो ज्ञान आकर चला जाता है।
किन्तु इन सवका वर्णन विस्तार से सूत्रों से समझना चा. हिये अव द्रव्य क्षेत्र काल और भावकी अपेक्षा से समझाते हैं। - (क) द्रव्य से अवधि ज्ञानी अनंत रूपी द्रव्यों को जानते और देखते हैं । उत्कृष्ट से सर्व रूपी द्रव्यों को जानते हैं और देखते हैं।
:( ख ) क्षेत्र से अंगुलका असंख्यातवां भाग जानते है 'और देखते हैं। और उत्कृष्ट से लोकाकाश के रूपी पदार्थों को जानते हैं और देखते हैं । अलोक में आकाश के अतिरिक्त कुछ नहीं है। नहीं तो वहां परभी रूपी पदार्थों को असंख्यात लोकक्षेत्र प्रमाण तक जाने और देखे ।
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६ १६.)
(ग) काल से प्रावली का असंख्यातवां भागः परिमाण अतीत अनागत काल जानते हैं और देखते हैं । उत्कृष्ट से अभ संख्यात काल चक्र समय परिमाण अतीत अनागत रूपी द्रव्य के विषय को जानते हैं और देखते हैं।
(घ) भावसे अनन्तं भावको जानते हैं, और देखते हैं। उत्कृष्ट से भी अनन्त भाव को जानते हैं और देखते हैं।
जैसे मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के विरुद्ध मतिज्ञान और श्रुत अज्ञान होते हैं।
ऐसे ही अवधिज्ञान के विरुद्ध विभंग ज्ञान होता है अर्थात् बीतराग भाषित तत्वज्ञान पर जहांतक श्रद्धा नहीं वहांतक अ-- वधिज्ञान से कुछ सत्यं जाने और कुछ असत्य भी जाने । ___ अतएव मति, श्रुत और अवधि इन तीन ज्ञानों के तो दो २ भेद होगये किन्तु मनः पर्यव ज्ञान और केवल ज्ञान में मिथ्यात्व का अंश न रहने से इन दोनों के इसप्रकार के भेद नहीं होते। .: मनके पर्यायों को जानने को मनः पर्यव ज्ञान कहते हैं व स्तु में रूपान्तर होने को पर्याय (पर्यव) कहते हैं। :: मुनिराजों को चारित्र लेने पश्चात् अप्रमाद अवस्था में शुद्ध ' भाव से संयम पालने पर मनःपर्यव-ज्ञान होता है । : ..:
१ श्वासोश्वास से भी छोटा काल प्रमाण...
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Ambe
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मनः पयत्रज्ञान कदा भूद हः .
..किंतु जम्बू स्वामी के निर्वाण पश्चात् भरत क्षेत्र में नहीं होता है महाविदेह क्षेत्र में होता है.. ......
ज्ञान के दो भेद हैं: जुमती मनः पर्यवज्ञान-एक मनुष्य. मनमें कोई बात बिचाररहा हो उसको थोड़े पर्यायों की जान लेने का नाम रुजुमती मन पर्यवज्ञान हैं..:.::....
२ विपुलंमती मनं पर्यवज्ञान किसी के मन की बात को. अनेक पर्यायों में जानलेने का नाम विपुलमती मनः पर्यवज्ञान है... - अब दूव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से समझाते हैं. ... (क) द्रव्य से रुजुमति अनंतानंद प्रदेश वर्गणा वाले मन द्रव्य को जानता है और विपुल. मती बहु प्रदेशी अति सूक्ष्ममनं .द्रव्य को जानते हैं..........
(..) क्षेत्र से रुजुमती तिरबी दिशा में अड़ी द्वीप पर्यंत : जानते हैं और उंचाई में ज्योतिषि देवताओं के रहने के देव
लोक के उपर के तलेंतक जानते हैं और नीचाई में विजय तक जानते और देखते हैं अर्थात् नौ सो योजन ऊंचे और नौ सी योजन नीचे जानते हैं और देखते हैं और विपुलमती अढीद्वीप बाहर अहाई अंगुल अधिक शुद्ध जानते हैं और देखते हैं, : . १ महाविदेह का एक भाग है.::
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( २.१ )
(ग) काल से रुजुमती पल्योपम के श्रसंख्यातवें भागकी aniaat को जानते हैं और विपुलमती उससे कुछ अधिक जानते हैं.
(घ) भाव से रुजुमती द्रव्य की चेतावनी के असंख्यात पर्यायों को जानते हैं और विपुलमती कुछ अधिक जानते हैं. केवल' ज्ञान.
पीक
+
केवल ज्ञान में किसी प्रकार के भेद नहीं होते हैं क्योंकि पदार्थों में जितने रुपान्तर होते हैं होगये हैं, और होवेंगे उन सर्व को एक ही समय में एक ही साथ केवलज्ञानी जानते हैं और देखते हैं.
( क ) १. क्षय - आठ कर्मों का जितना अंश में नाश होता है वो उनका क्षय होना कहा जाता है 'क्षय हुवे कर्मों को तायिक कहते हैं ।
(ख) कर्मों के शांत होने को उपशम कहते हैं.
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(ग) क्षयोपशम - कुछ अश में तय हो और कुछ अंश में उपशम हो ' उसको क्षयोपशम कहते हैं । ज्ञानावरणीय कर्म का संपूर्ण क्षय होता है तब केवल " ज्ञान होता है वहां तक चार ज्ञान में क्षयेो पशम जानना चाहिये । क्षयोपशम भाव में प्रमाद हो जाय तो कुछ अश मे ज्ञान में हानि हो जाती है और भाव शुद्धि से अप्रमाद अवस्था में ज्ञान की वृद्धि होती है.
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(२२)
एक साधु को उपाश्रय में काजा लेते समय भाव शुद्धि से अवधिज्ञान हुवा था किंतु जब वो अवधिज्ञान में इन्द्र और इंद्रानी का झगडा देख रहाथा तो उसको हसी आगई जिसस अवधिज्ञान तुरंत चला गया। इस प्रकार और भी ज्ञान में समझ लेना चाहिये. .
ज्ञान वृद्धि के इच्छुक को निम्न लिखित बात अवश्य स्मणं रखना चाहिये. ... कालेविणए बहुमाणे, उवहाणे तहय निन्हवणे, वंजण अस्थतदुभए, अहविहो नाण मायारो॥
१ योग्य समय पर पढना २ पढानेवाले का विनय करना ३ पुस्तक ग्रंथादि का बहुमान करना ४ इंद्रियों की उन्मत्तता दूर करनेको यथा शक्ति तपस्या करना, ५ पढानेवाले का जीघन पर्यंत उपकार मानना, ६ उच्चारण में सूत्रों का शुद्ध पढना ७ मूल के साथ ही साथ अर्थ भली प्रकार समझना ८ मूल और अर्थ दोनों को सम्यक् प्रकार से स्मृति में रखना.
इस प्रकार ज्ञान के अठावीस, चौदह वा बीस, छ:, दो और एक ऐसे सर्व मिलकर इक्यावन अथवा सत्तावन भेद हुवे. . .. एसि.जं आवरणं पडुच्च चक्खुस्स तं तयावरणं, दंसण चउ पण निद्दा, वित्तिसमं दसणा वरणं ॥४॥
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( २३ )
ज्ञानावरणीय ( ज्ञान के आवरण) का स्वरूप,
पूर्व गाथाओं में बतलाये अनुसार मति आदि ५ प्रकार के ज्ञान को जो आवरण करते हैं अर्थात् जैसे आंख को पाटा बांधने से आँख का तेज ढक जाता है इस ही प्रकार मति ज्ञानावरणीय कर्म मति को नहीं बढने देते हैं । श्रुत ज्ञानावरणीय कर्म विद्याध्ययनादि में विघ्न करते हैं । अवधिज्ञानावरणीय कर्म अवधिज्ञान प्राप्त करने में रोकते हैं । मनः पर्यवज्ञानावरणीय कर्म मनः पर्यवज्ञान को रोकते हैं और केवल ज्ञानावरणीय कर्म केवल ज्ञान को रोकते हैं ।
जैसे दिन में सूर्य के प्रकाश को बादल ढककर उसकी प्रभा को रोक देते हैं तथापि सूर्य है इतना बतलाने को प्रकाश कुछ अंश में तो अवश्य रहता है इस ही प्रकार श्रावरण होनेपर भी ज्ञान का कुछ अंश प्रत्येक जीव में अवश्य रहता है अर्थात् ज्ञान रहित कोई भी जीव नहीं है ।
"
चेतना चैतन्यता को कहते हैं और जिसमें चेतना है? उसको सचित् कहते हैं और चेतना रहित को अचित्' अथवा जड़ कहते हैं ।
शुद्ध जीव सिंद्ध भगवान का है उसको केवल ज्ञानी ही देख सक्ते हैं और कर्मधारी जीव की चेष्टाओं से चार ज्ञान वाले उसे जानते हैं कि वह जीव है वा जीव है ।
...
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( २४ )
.. "श्रुत केवलज्ञान " 'पर्यव अक्षर को समझना चाहिये क्योंकि अभिधेय ( कहने योग्य ) वस्तु धर्म स्वपर्याय है और अनभिधेय ( नहीं कहने योग्य.) वस्तुधर्म परपर्याय है।... .. केवल ज्ञानी को अभिधेय और अनभिधेय दोनों ही स्वपर्याय है इस प्रकार श्रुतकेवलज्ञान और केवलज्ञान इस प्रकार जो दोनों ही ज्ञान के पर्यायं समान हों उसको, पर्यव अक्षर
. : * उत्कृष्ट से उस (केवलज्ञान) का अनंतवां भाग श्रुतं केवली को मालुम होता है। ....
.. ". जघन्य से निगोद के जीव की संज्ञा आदि चेतना रूप ज्ञान का भान रहता है। ...... ::::::::: '':* जो पदार्थ केवलज्ञानी श्रुतं ज्ञान से कह सके वह अभिधेय है और
जो नहीं कही जा सके वह अनभिधेय है. अभिधेयं को चौदह पूर्वधारी श्रुत . केवल ज्ञानी सम्पूर्ण जान सकता है यानि अभिधेय. दोनों केवली में समान है. उसे ही पर्यव,असर कहते हैं किन्तु केवलज्ञानी' को अनभिधेय का भी ज्ञान: है परन्तु उसको नहीं कहे जा सकने के कारण श्रुत केवलज्ञानी नहीं जानते इसी कारण श्रुत केवली के लिये अनभिधय ज्ञान पर पर्याय है और अभिधेय स्वपर्याय है, केनलज्ञानी के लिये तो दोनों ही स्वपर्याय है।..
* उत्कृष्ट श्रुतज्ञान श्रुत कैवली का कहते हैं और वह केवल ज्ञानका अनन्तवां भांग हैं, जघन्यश्रृंत ज्ञान निगोद जीवको होता है क्योंकि उसे भी संज्ञा चेतनादि श्रुतज्ञान के लक्षण है।
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(२५) श्रुतज्ञानी श्रुतज्ञान से वृद्धि करते. २. केवली के अनुसार अभिधेय पदार्थों का स्वरूप जानते हैं। ' . ... . .. केवलज्ञानी सबसे अधिक सम्पूर्ण जानते हैं और निगोद
का जीव सबसे कम जानता है। : ___ केवलज्ञान पर पूर्ण आवरण होता है और दूसरे चार ज्ञानों पर अपूर्ण आवरण होता है इसलिये केवलज्ञान का आवरण सर्वघाती और दूसरे अन्य ४ ज्ञानों का आवरण देशघाती कहे जाते हैं।
. दर्शनावरणीय कर्म के ६ भेद .... चार प्रकार के आवरण और पांच प्रकार की निद्रा इस प्रकार दर्शना वरणीय कर्म के ह भेद होते हैं.।
. चार प्रकार के आवरणं । .: १ चक्षुदर्शनावरणीय, २ अचक्षुदर्शनावरणीय, ३ अबघिदर्शनावरणीय, ४ केवलदर्शनावरणीय ।
: • पांच प्रकार की निद्रा १, निद्रा, :२. निद्रानिद्रा, ३. प्रचला, .४ प्रचलाप्रचला, और ५ थीनदी (स्त्यानदि)।
: पदार्थ का स्वरूप जानने को ज्ञान कहते हैं और सामान्य रीति से जानने को और देखने को: अर्थात् विशेष रूप से न जा
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(२६) नने को और देखने को किन्तु कुछ अंश में (मकट) देखने को दर्शन कहते हैं । चार प्रकार के आवरण और पांच प्रकार की निद्रा ये कारण इंद्रियों को देखने और जानने में, विघ्न करते हैं
और रोकते हैं इसलिये इनको दर्शनावरणीय कर्म के भेद कहते हैं !:...... .................... .... .: जिस प्रकार यदि कोई राजा प्रजा का सुख दुःख जानना चाहें किन्तु द्वारपाल विघ्न, किया करे तो राजा और प्रजा का मिलाप न होने से राजा प्रजा का हाल नहीं जानसका है इस ही प्रकार जीव किसी वस्तु का स्वरूप जानता वा देखना चाहें तो दर्शनावरणीय, कर्मों के विघ्नादि से जीव भी नहीं जान सक्का है और न देख सक्ता है। ..चक्खू दिट्टि अचक्खू, सेसिदिय श्रोहि केवलेहिं च दंसण मिहसामन्नं, तस्सावरणं. हवइ
चउहा ॥ १० ..... ४ प्रकार के दर्शनों का स्वरूप] .... . १ चक्षुदर्शन-पदार्थ को विना स्पर्श आंखों से देखने को कहते है।
२ अंचक्षु दर्शन-पदार्थ को आंखों के सिवाय चार इंद्रियों तथा मनके द्वारा सामान्य प्रकार के ज्ञान को कहते है।
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. (२७) ३ अवधि दर्शन-उसे कहते हैं जो अवधिज्ञान से पदार्थ को प्रथम समय में जाने वा देखे... :: . . - . ४ केवल दर्शन-केवल ज्ञान और केवल दर्शन में भेद होना असम्भव है उसमें न सामान्य होते हैं. न विषेश होते हैं. उसका विशेष स्वरूप गीतार्थों से समझना चाहिये। .....
सूत्रों की टीका में मतिज्ञान के व्यंजन अवग्रह, अर्थावग्रह और ईहा इन तीनों को दर्शन में लिया है और अपाय और धारणा को ज्ञानमें लिया है। . .. . . ::: ..मनपर्यव ज्ञान को दर्शन. में नहीं लिया है क्योंकि उसमें विशेष अववोध होता है ।... :: . ' श्रुतज्ञान को भी दर्शन में नहीं लिया है क्योंकि श्रुतज्ञान का विशेष सम्बन्ध मनके साथ होता है। श्रुतंज्ञान और, मतिज्ञान दोनों ही साथ हुवा करते हैं इन दोनों का विशेष संबंध है। :: उपरोक्त चार दर्शनों को जो . आवरण अर्थात् रुकना है
उनको दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं। . . . : .. सुह पंडिबोहा निद्दा, निदा निहाय दुक्ख पंडिबोहा पयला ठिोव विट्ठस्स, पयल पयलाय चकमश्रो ॥ ११ ॥............... . . .. 1 सम्पूर्ण शास्त्रों के ज्ञाता..
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( २८ )
५ प्रकार की निद्रा का स्वरूप |
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१ निद्रा - किसी सोते हुवे को कोई ' जगावे वा न जगावें किन्तु वो सुख पूर्वक जगजावे ' अर्थात् इच्छानुसार ही शांति के लिये निद्रा ले और इच्छानुसार हो जागे उसकी नीद को निद्रा कहते हैं ।
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. २ निद्रानिद्रा - कोई अत्यंत कठिनता से जगाया जा सके अर्थात् इच्छापूवर्क जाग न सके किन्तु उसको जागने में भी दुःख होवे उसकी निद्रा को निद्रानिद्रा कहते हैं ।
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- ३ प्रचला - जो बैठे हुवे कुछ काम कर रहे हो वहां भी निद्रा आने लगे जिससे काम में विघ्न होना भी सम्भव हो उस निद्रा को प्रचला कहते है - जैसे कोई मनुष्य दीपक के समीप बैठकर वहीं लिख रहा था उसको निद्रा आई और उसकी पगड़ी जलगई ।..
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.४, प्रचला चला - किसी को घोड़े की तरह चलते हुवे भी निद्रा आती हो जैसे घोड़ा चलते २ मुंह में दाना खाता, हुवा चलता है किन्तु दाने में जब कंकर आजाता है वा ठोकर लगजाती है तब जाग जाता है वैसे ही चलते ? कोई निद्रा लेता है और उसको धक्का या ठोकर लगता है या लोहू निकलता है तब जागता है उसकी निद्रा को प्रचला प्रचला कहते हैं ।
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रोगी, अशक्त और बालक आदि की निद्रा से उपरोक्त
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( २६) निद्राओं का संबन्ध नहीं है किन्तु युवान और निरोगी आदि की निद्रा से तात्पर्य है।
दिणंचिंति अत्थ करणी, थीणद्धी श्रद्ध चकि श्रद्धवला।
पांचवीं थीनद्धी निद्रा का स्वरूप । उपरोक्त ४.प्रकार की निद्राओं के अतिरिक्त थीनद्धी (स्त्यानाई ) नामक पांचवीं निद्रा है इस निद्रा में अर्द्ध चक्रवर्ती अ
र्थात वासुदेव से आधा वल रहता है इस वल से निद्रा ही में हाथी के दातों को उखाड़ फेंक देता हैं इस निद्रा में बल का दुरुपयोग ही होता हैं। ...
यदि किसी दिक्षित साधु को ऐसी निद्रा आती हो तो - सके गुरू उसको निकाल देते हैं । वर्तमान में ऐसी निद्रा किसी भी प्राणी को नहीं होती है। ऐसी निद्रा वाला प्राणी मरने पर अवश्य नरक जाता है। "
उपरोक्त निद्राओं से आत्मा को पदार्थ को जानने और देखने में आवरण अर्थात् विघ्न होते हैं इसलिये इनको दर्शना वरणीय कर्म कहते हैं ।
महुलित खग्गधारा, लिहणं वदुहाउने प्रणिनं ॥ १२॥ .
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(३०) ' श्रोसनं सुरमणुए, सायमसायं तु तिरिम निरिएसु।
वेदनीय कर्म के २ भेदों का स्वरूप । . संसार में २ प्रकार के जीव देखने में आते हैं कोई सुखी
और कोई दुखी अर्थात् जो निरोगता, लक्ष्मी आदि से युक्त हो उसको सुखी कहते है और जो दारिद्रय और विविधचिन्ताओं और रोगादि से पीड़ित हो उसको दुखी कहते है जिन कर्मों के उदय से जीव को सुख और दुख मिलता है उनको वेदनीय कर्म कहते हैं वे वेदनीय कर्म २ प्रकार के होते हैं। ।
१ शातावेदनीय-जिन कर्मों के उदय से पूर्वकृत पुण्यानुसार प्राणी को शाता अर्थात् संसारी सुख मिलता है उनको शातावेदनीय कर्य कहते है।
२ अशाता वेदनीय-जिन कर्मों के उदय से पूर्वकृत पापों के अनुसार अशाता अर्थात् दुख मिलता है उनको अशाता वेदनीय कर्म कहते हैं।
शास्त्रों में संसारी सुख को भी तलवार की धार पर शहद लगाकर चाटने के आनन्द तुल्य बतलाया है अतएव ज्ञानी पुरुप संसारी सुख की भी बांधा नहीं करते हैं किन्तु मुक्ति की ही अभिलाषा रखते हैं।
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(३१) दुःख तो सवको ही अप्रिय है उसको कोई नहीं चाहता है.ज्ञानी पुरुष पूर्वकृत पापानुसार दुख आपड़ने पर सहन शीलता से दुःख भी भोग लेते हैं और ज्ञान द्वारा कर्ममुक्त होते हैं। ... प्रायः नरक और निगोद में सबसे अधिक दुःख है तिर्यच में न्यून सुख और अधिक दुःख है. देवलोक और मनुष्य में मायः अधिक सुख है । (किन्तु स्मरण रहे.कि नरंक और निगोद के जीवों को भी तीर्थंकरों के कल्याणकादि समय पर थोड़े समय के लिये सुख हुआ करता है वैसे देवताओं को भी कभी पारस्परिक द्वेष के कारण. दुःख हुआ करता है इस ही. कारण ओसन्न अर्थात् मायः शब्द का यहां उपयोग किया गया है)
मभंव मोहणीनं, दुविहं दंसणं चरण. मोहा ॥ १३ ॥.. ..... ... ... !
__ मोहनीय कर्म का स्वरूप और उसके दो भेद। .:: '' जैसे मदिरा पीये हुवे मनुष्य को अपने हिताहित का ज्ञान नहीं रहता है वैसे ही मोहनीय कर्म के कारण जीव को आत्म हित अहित का ज्ञान नहीं होता है मोहनीय कर्म के दो भेद हैं।
१ दर्शन मोहनीय, २ चारित्रं मोहनीय । - देसण मोहं तिविह, सम्ममीसं तहेव मिच्छतं, सुद्धं अद्ध विसुद्धं, अविसुद्धं तं हवइ कमसो॥१४॥
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( ३२ )
दर्शन मोहनीय और उसके ३ भेदों का स्वरूप.
दर्शन का अर्थ जो पहले (दर्शनावरणीय कर्म के वर्णन में) बंता चुके हैं वह अर्थ यहां नहीं समझना चाहिये ।.
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यहां पर दर्शन शब्द का अर्थ धर्म पर श्रद्धा समझना चाहिये दर्शन मोहनीय के ३ भेद हैं।
केवली भगवान ने पदार्थों का स्वरूप जो यथायोग्य जाना और देखा है और उनसे सुनकर गणधरों ने शास्त्रों में जो तत्व बतलाया है उसको सच्चा समझना उसे सम्यक्दर्शन कहते हैं और सम्यक्दर्शन को प्राप्त करने में जो विघ्न बाधाएं होती हैं उनके कारण को दर्शन मोहनीय कर्म कहते हैं. इसके तीन भेद हैं: - १ सम्यक दर्शन मोहनीय, २. मिश्र मोहनीय, ३ मिध्यात्व मोहनीय । प्रथम ज्यादा शुद्ध होता है द्वितीय अर्द्धशुद्ध होता है और तृतीय अशुद्ध होता है । .
जैसे कि गुजरात में कोदरवा नामक एक नशेदार अन्न होता है उसको प्रथम वार धोने से उसके छिलके हट जाते हैं किन्तु वह वैसा ही नशेदार बना रहता है द्वितीय वार धोने से उसमें आधा नशा रहजाता है और तृतीय वार धोने से उसमें नशा विलकुल नहीं रहता है और खाने योग्य होजाता Test प्रकार सम्यक्त पाने पूर्व जीव तीन करण करता है। १ यथा महत्तिकरण २ अपूर्वकरण ३ अनिवृत्तिकरण इन तीनों
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( ३३ )
में अनुक्रम से शुद्धि होती जाती है तीसरे में उपशम सम्यक्त्व होता है उस समय पर मिथ्यात्व के चार स्थानिक, तीन स्थानिक और दो स्थानिक रस को निकाल देने पर एक स्थानिक अर्थात् - मिथ्यात्व प्रदेश मात्र जो शांत होने से ज्यादा विन नहीं करते हैं वो रहने पर उपशम सम्यक्त्व होता है ।
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द्रव्य कर्म को केवली या अवधि ज्ञानी जानते हैं क्योंकि वे सूक्ष्म रूप में आत्मा के साथ मिल जाते हैं और भावकर्म जो चेष्टा वा परिणाम रूप हैं उनको अपन भी जान सक्ते हैं ।
जि अत्रि पुराण पावा, सव संवर बंध मुक्ख निज्झरणा; जेणं सद्द हई तयं, सम्मं खइगाई बहुभे ॥ १५ ॥ ॥
नवतत्व प्रकरण में ६ तत्वों का स्वरूप बतलाया गया है और विस्तार से आगे आवेगा किन्तु संक्षेप से यहां भी बतला देते हैं ।
नवतत्वों का संक्षेप से स्वरूप |
,. १ जीवतत्व - ५ इंद्रिय, ३ बल, १ श्वासोश्वास और १ चायु इन दश वा कमसे कम चार द्रव्य प्राण का धारी, अथवा ज्ञानादि भाव प्राण का धारी जीव कहलाता है. ऐसे जीव को
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( ३४ ) जीच समझना जीवतत्व है.इस के १४ भेद हैं विशेष वर्णन जीव विचार से समझना चाहिये । . . २ अजीवतत्व-जिसमें चेतना लक्षण नहीं हो और जीवके प्राणों से रहित हो उसको अजीव समझने का नाम अजीवतत्व है। इसके १४ भेद हैं। : :
३ पुण्य तत्व-जीवों को दुख न देना, सहाय करनादान देना, आदि दयालु कार्यों के परिणाम को भाव पुण्य कहते हैं. और शाता वेदनीय सुख भोगने में आवे वो द्रव्य पुण्य हैं इन द्रव्य और भाव पुण्यों का यथोचित समझ ने का नाम पुण्यतत्व है इसके ४२ भेद हैं ।
४ पापतत्व-मिथ्यात्व अविरति आदि के उदय से दूसरों को दुख देने के मलीन परिणामों को भाव पाप कहते हैं। और यहां जो प्रत्यक्ष दुख भोगते हैं और मिथ्यात्व से दूसरों के साथ कपट करने की जो बुद्धि है वो द्रव्य पाप है उसे यथायोग्य समझने का नाम पापतत्व है इसके ८२ भेद हैं।
५ श्राश्रव तत्व-अनादि काल से इंद्रियों में लुब्ध होने से राग द्वेष रूप जो परिणाम होते हैं और मिथ्यात्व अविरति आदि उदय में आते हैं.वो भाव आश्रय है और उसके साथ नये कर्म समूह का आकर मिलना वो द्रव्य आश्रव है इन आश्रवों को यथा योग्य समझने का नाम आश्रय तत्त्व है इसके ४२ भेद, हैं।
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६ संबर तत्व-कमी के रोकने के उपाय रूपी क्षायिक श्रादि भावों से प्रात्मा को शुद्ध करने का नाम भाव संवर है और भावसंवर से नये आश्रवों को रोकने का नाम द्रव्य संवर है इस प्रकार इन द्रव्य और भाव संवर को यथा योग्य समझने का नाम संवर तत्व है इसके ५७ भेद है।
. ७ बंध तत्व-शुद्ध आत्मा को प्रतिकूल क्रोधादि कपायों से कर्म बंध हेतु रूपी जो चिकनाई होती है उसको भाव बंध कहने हैं और उस चिकनाई से कर्म दल एकरूप होकर जो वंध होता है उसको द्रव्य बंध कहते हैं इन द्रव्य और भाव दंघको । वथा योग्य समझने का नाम बंध तत्व है इसके चार भेद हैं ।
: मोक्ष तत्व-कर्मनाश करने को शुद्ध आत्म स्वरूप का जो अनुभव होता है उसको भाव मोक्ष कहते हैं और जीय प्रदेशों से सर्व कर्म प्रदेशों के छूट जाने का नाम द्रव्य मोक्ष है इन दोनों का यथा योग्य द्रव्य और भाव मोक्ष. समझने का नाम मोक्ष तत्व है इसके ह भेद है।
हनिर्जरा तत्व-कर्म की शक्ति को कम करने वाले तप संयम आदि शुद्ध उपयोग रूप शक्ति को भाव निर्जरा कहते हैं और उससे कर्म प्रदेशों का आत्म प्रदेशों से पृथक् होजाने को द्रव्य निर्जरा कहते हैं इन दोनों प्रकार की निर्जरा को यथा योग्य जानने का नाम निर्जरा तत्व है।
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(१६)
सम्यक्त्व का स्वरूप
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न. 8.arti को जैसा श्री तीर्थंकर केवली भगवान् ने बतलाया है कि १ मूलद्रव्य से नित्य, २ पर्याय से अनिल्प, ३ निश्चय से अभिन्न ४ व्यवहार से भिन्न, ५ सामान्य से एक, ६ विशेष से अनेक, ७ ज्ञान से ज्ञेय, ८ क्रिया से हेय और 8 उपादेय इस प्रकार नये निक्षुपे से मिलाकर सापेन अनंत धर्म वाला १ कथंचित् उत्पन्न २ कथंचित् नष्ट और ३ कथंचित् भूत्र इस प्रकार एक ही समय में तीनों ही स्वरूप में पदार्थ होता है ऐसे कुंवली भाषित तत्वज्ञान के वचनों पर रुचि अथवा श्रद्धा हो उसका नाम सस्यवत्व हैं उपरोक्त यतिरिक्त अनेक भेद हैं उनमें से कुछ यहां भी बतलाते हैं १ तत्वार्थ की श्रद्धा हो तो एक विध सम्यक्त्व जानना चाहिये ।
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(अ) निश्चय सम्यक्त्व - आत्मा के शुद्ध ज्ञानादिक परिणाम की, शुद्ध परिणाम आत्मा के स्वरूप को अथवा वीतरांग अंबस्थां के सम्यक्त्व को निश्चय सम्यक्त्व कहते हैं ।
(च) ब्यवहार सम्यक्त्व - सराग अवस्था में जो सम्यक्त्व हो
१ नय सात है उसमें दो मुख्य हैं. : निश्चय और व्यवहार - नयकर्णिका'
२. निदेषा मुख्य चार है, नात स्थापना कृष्प और भाव
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( ३७ )
अथवा कुगुरु कुदेव का जो अस्वीकार और सुंगुरु सुदैव का स्वीकार हो उसको व्यवहारं सम्यक्त्व कहते हैं ।
सम्यक्त्व के विशेष प्रचलित तीन भेद यह हैं ।
१ क्षायिक सम्यक्त्व - अनंतानुबंधी क्रोधादि ४ कषाय और दर्शन मोहनीय की ३ प्रकृति इन सात प्रकृतियों के क्षय होने पर जो तत्वरुचि होती है उसको क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैं ।
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२ उपशम सम्यक्त्व - उन्हीं सात प्रकृतियों के शांत होने अर्थात् दवा देने का नाम उपशम सम्यक्त्व हैं |
३ क्षायोपशमिक सम्यक्त्व जो उन्हीं सात प्रकृतियों के उदय में आने पर जो उसका नाश किया हो और उदय में न आने पर जो शेष कायम भी रहा हो तो उसके क्षायिको
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पशमिक सम्यक्त्व कहते हैं - तत्पश्चात् सम्यक्त्व मोहनीय के रुक जाने से जो तत्व रुचि प्रगट होती है उसको वेदक सम्यक्त्व कहते हैं उपशम में इतना विशेष है कि मिथ्यात्व प्रदेश का भी यहां उदय नहीं और क्षय उपशम में रसोदय मिथ्यात्व का उदय नहीं प्रदेश का उदय हैं.
. वेदक सम्यक्त्व और क्षायोपशमिक: सम्यक्त्व दोनों एक ही है इसलिये इसको अलग भेद नहीं समझा जाता है । : :
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... इस प्रकार सम्यक्त्व के ३. भेद हुवे जिनोक्त क्रिया को
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(३८). करे उसको कारक सम्यक्त्व कहते हैं, उसमें रुचि रक्खे उसको रोचक सम्यक्त्व कहते हैं उसको संसार में प्रकाश करे उसको दीपक सम्यक्त्व कहते हैं इस प्रकार सम्यक्त्व के अनेक भेद है सो गीतार्थ गुरू महाराज से जानना चाहिये। . . . . . .. अब दर्शन मोहनीय के तीनों भेदों को समझाते हैं.....
सम्यक् दर्शन मोहनीय जिसके उदय से वीतराग भगवान् भाषित तत्व ज्ञान पर श्रद्धा अर्थात् सम्यक्त्व हो किंतु बुद्धि की न्यूनता से सूक्ष्म तत्वों की सत्यता में शंका हो. जिससे मिथ्यात्व के पुज संचित होते हों इसको सम्यक् दर्शन मोहनीय कहते है.. ..... .., " मीसान राग दोसो, जिण धम्मे अंत मुह जहा अन्ने। नालिअर दीव मणुणो, मिच्छं जिण
धम्म विवरीअं.॥ १६॥. . . . . . . . .: : ..::.:. २ मिश्र मोहनीय । ।. ..
मिश्र मोहनीय के उदय से जीवको सर्वज्ञ भापित धर्म पर न तो अभ्यन्तर प्रेम और न द्वेष होता है अर्थात् केवली भाषित वचनों में.जरा भी असत्य नहीं हैं उनके वचनों के अतिरिक्त जगत में और कोई भी हितकारी नहीं हैं ऐसा चित्तमें न तो प्रतिबंध (भाव) होता है और न केवली भापित धर्म से द्वेष होता है. ...
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(३६) इसका काल दो से लेकर नो श्वासोश्वास प्रमाण है पश्चाह चाहे मिथ्यात्व रहे वा सम्यक्त्व रहे। __. मिश्रमोहनीय को समझाने के लिये यहां पर नारियल का दृष्टांत बतलाते हैं जैसे कि यदि किसी द्वीप में नारियल अतिरिक्त किसी भी प्रकार के अन्न फलादिक न तो उत्पन्न होते हैं और न मिल सक्ते है तो उस द्वीप के निवासी नारियल के अतिरिक्त अन्नफलादि से न तो प्रेम रखते हैं और.न द्वेष रखते हैं इसही प्रकार मिश्रमोहनीय वाला वीतरागभाषित धर्मको न तो सत्य मानता है और न असत्य मानता है अथवा कभी कुछ सत्य भी मानता है वा कुछ असत्य भी मानता है।
सिद्धांत वालों और कर्म ग्रन्थ वालों में किसी २ स्थान में विषमवाद आता है क्योंकि पूर्वो के विच्छेद के पश्चात् अग्यारह अंग शेष रहे तो पूर्वाचार्यों ने कर्म ग्रन्थ को उपयोगी समझ इसका उद्धार किया इसलिये जो सिद्धांतिक मत में और कर्म ग्रन्थ में कहीं कहीं भेद पड़ता है उसको बहुश्रुत गीतार्थों से समझना चाहिये। ___ सिद्धान्तिक मत से सम्यक्त्व से गिर मिश्र में नहीं आता है किन्तु मिथ्यात्व से मिश्र में आता है क्योंकि सम्यक्त्व की उतमता का अनुभव होने पर यदि उसको त्यागकर दे तो उसको मिथ्यात्वी ही कहना चाहिये ।
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(४०)
३.मिथ्यात्व मोहनीय । मिथ्यात्व मोहनीय के उदय से केवली भाषित तत्वज्ञान पर श्रद्धा (विश्वास ) के स्थान में स्वयं अश्रद्धा रखता है और दूसरों को भी अश्रद्धा कराता है जैसे किसी ने धतूरा खा रक्खा हो तो सुवर्ण नहीं हो वह उसको भी सुवर्ण समझता है उसी तरह मिथ्यात्व मोहनीय के उदय से कुगुरु को सुगुरु, कुदेव को सुदेव और कुधर्म को सुधर्म मानता है।
मिथ्यात्व के दश भेद । १-साधु को असाधु समझना और मानना २-असाधु को साधु मानना . '३-क्षमा आदि धर्म को अधर्म मानना ।
४-हिंसा आदि अधर्म को धर्म मानना । "५-अंजीव को जीव मानना |
६-जीवको अजीवं मानना '७-उन्मार्ग को सुमार्ग मानना
८-सुमार्ग को उन्मार्ग मानना 'ई-कर्मरहित को कर्म सहित मानना १०-कर्मसहित को कर्मरहित मानना
सोलस कसाय नवनो कसाय दुविहं चरित्त,
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. (४१) मोहणियं; अण अप्पचक्खाणा, पञ्चक्खाणाय संजलणा ॥१७॥ . चारित्र मोहनीय और उसकी २५ प्रकृत्रियों का स्वरूप । श्रात्मा की शुद्ध प्रवृत्ति अर्थात् आत्म रमणता में आत्मा की चेष्टा रहे और पुद्गलों से और बाह्य क्रियादि से रमणता छूट जावे इसको भाव चारित्र कहते हैं किन्तु क्रोधादि कषायों के कारण आत्म रमणता नहीं होसक्ती है अतएव इन क्रोधादि कथायों को चारित्र मोहनीय कर्म का उदय समझना चाहिये. चारित्र मोहनीय की २५ प्रकृतियें इस प्रकार होती हैं:- .
क्रोध, मान माया और लोभ ये जो ४ कषाय हैं इन के प्रत्येक के चार २ भेद होते हैं. . - अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी और संज्वलन इस प्रकार १६ प्रकृति हुई और कषाय के सम्बन्धी ही हनव नो कषाय होते हैं इस प्रकार सर्व मिलकर चारित्र मोहनीय की २५ प्रकृतियें होती हैं. . . . . . . .. श्रीमद शीलांगाचार्य ने इन २५ में से ४ अनंतानुबंधी की प्रकृतियें दर्शन मोहनीयं में ली हैं क्योंकि इनः चार; सें. दर्शन मोहनीय भी होता है। , . . . . . . . . .....
अर्थात् मोहनीय की जो २८ प्रकृति होती हैं वे एक अपे
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(४२) क्षा से तो दशन मोहनीय की ३ और चारित्र मोहनीय की २५ इस प्रकार २८ होती हैं दूसरी अपेक्षा से चार अनंतानुवंधी की और तीन दर्शन मोहनीय में ऊपर वतलाई हुई इस प्रकार सात दर्शन मोहनीय की और ४ अनंतानुबंधी की कम करदेने एर २१ चारित्र मोहनीय की इस प्रकार कुल २८ प्रकृति होती हैं. कषायों के १६ भेद..
. १ अनंतानबंधी क्रोध. २ अनंतानबंधी मान. ३ अनंता. नुबंधी माया, ४ अंनंतानुबंधी लोभ, ५ अप्रत्याख्यानी कोष, ६ अप्रत्याख्यानी मान, ७ अप्रत्यारल्यानी माया, ८ अप्रत्याख्यानी लोभ, 8 प्रत्याख्यानी क्रोध, १० प्रत्याख्यानी मान, ११ प्रत्याख्यानी माया, १२ प्रत्याख्यानी लोभ, १३ संज्वलन क्रोध, १४ संज्वलन मान,१५ संज्वलन माया, १६ संज्वलन लोभ.
प्रथम ४ अनंतानुवंधी प्रकुतियां सम्यक्त्व की वाधक हैं. , द्वितीय ४ अप्रत्याख्यानी प्रकृतियां, देशविरति श्रावकके गुणों की वाधक हैं.
ततीय ४ प्रत्याख्यानी, प्रकृतियों से सर्व विरति सराग संयम की प्राप्ति में वाधा आती है.
चतुर्थ ४ संज्वल की प्रकृतियों से यथाख्यात चारित्र की प्राप्ति रुकती है.
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(४३) इसही विपय में निम्नलिखित विवरण में विशेप बतलाते हैं.
जा जीव वरिस चउमास, पक्खग्गा निरय, - तिरिय नर अमरा । सम्माणु सम्बविरई, अंह खाय चरित्त घायकरा ॥ १८ ॥
(क) जो क्रोधादि कपायों के कारण परस्पर विरोध होगया हो उसके लिये संवत्सरी (वार्षिक) प्रति क्रमण करके नक्षमा करे और न क्षमा मांगे और मनमें द्वेष ही रक्खे यदि ऐसे द्वेष को जीवन पर्यंत रक्खे और मृत्यु समय भी उसके लिये न क्षया मांगे और न क्षमा करे तो सम्यक्त्वं प्राप्त न होवे और प्रायः नरक गति में जाता हैं ऐसे क्रोधादि अनंतानुबंधी होते हैं यदि इनके लिये प्रत्येक चौमासी प्रतिक्रमण में क्षमा ने की हो न मांगी हो किंतु संवत्सरी प्रति क्रमण करके क्षमा मांगलें और क्षमा करदे तो सम्यक्त्व की प्राप्ति भी होसक्ती है
. .(ख) जो चौमासी प्रतिक्रमण करके न . क्षमा मांगी हो न जमा की हो और द्वेप ही रक्खा हो तो देश विरति: धर्म नहीं मिल सक्ता हैं.और उसकी मृत्यु होने पर प्रायः तिर्यंच गति में जाता है उसे अप्रत्याख्यानी क्रोधादि कहते हैं:
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(४४) .... (ग) जो. पक्खी प्रतिक्रमण करके क्षमा न मांगी. हो . और न तमा की हो और द्वेष ही रक्खा हो तो · सर्व विरति धर्म नहीं मिल सका है और मृत्यु होने पर प्रायः मनुष्य गति में आता है. ऐसे क्रोधादि प्रत्याख्यामी होते हैं । . . . .
(घ ) जो प्रातः और सांयकाल को दोनों समय प्रतिक्रमण करके क्षमा न मांगी हो और न मा की हो और द्वेष ही रक्खा . हो तो यथाख्यात चारित्र प्राप्त नहीं होता है और मृत्यु हो तो प्रायः देवलोक में ही जाता है ऐसे क्रोधादि को संज्वलन कपा यादि समझना चाहिये किंतु जो निरंतर प्रति दिन दोनों समय प्रातः.और सायं प्रतिक्रमण में क्षमा किया करे तो यथाख्यात चारित्र की प्राप्ति होती है । ...... .... अतएव प्रत्येक का कर्तव्य है कि अपने पापों की शुद्धि के लिये नित्य दोनों समय प्रतिक्रमण कर. अपने अपराधों की सर्व जीवों से क्षमा मांग कर द्वेष दूर करना चाहिये और और सर्व जीवों के अपराधों की क्षमा करके उनके हृदय को शांत करना चाहिये. ': यदि क्षमा देने वाले उपस्थित न हो; बा देने योग्य न हों वा जान बूझ कर कोई.क्षमा न करते हों तो देव गुरु. की साक्षी से कोमल हृदय से पश्चात्ताप पूर्वक अपने पापों की निंदा गाँ करके क्षमा मांगना चाहिये.
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(४५) ': कपाय अधिकाधिक हो वह अनंतानुबंधी होता है और ज्यों २ कम हों उनको अन्य तीन समझना चाहिये. अधिकाधिक से नरकगति और ज्यों २ कम ही उनसे शेप ३ गतिय मिलती है. कपायों के सर्वथा अभाव से केवलज्ञान की प्राप्ति होजाती है.
दृष्टांत-जैसे किसीने अपनी हानि हुई देखकर किसी पर . अत्यंत क्रोधकर उसकी हत्या करडाली तो फांसी का कारण हवा यदि उसको दंड दिया मार पीट दी तो कैद जाने का कारण हुवा यदि उसको गाली दी तो दंड का कारण हुघा. क्षमा की तो कोई हानि नहीं हुई इसलिये क्रोध, मान, माया ओर लोभ का त्याग करना चाहिये और क्षमा सरलता आदि गुण प्राप्त करना चाहिये अन्यथा ज्यों २ कपाय अधिक करेंगे त्यो २ अधमगति प्राप्त होंगी और त्यों २ सम्यक्त्व, देशपिरति सर्दविरति और यथाख्यात चारित्र प्राप्त होने में हानि होगी. ___ कम बुद्धि वाजों के लिये यह दृष्टान्त बतलाये हैं किंतु प्रसनचन्द्र, राजर्षि की तरह दो घड़ी में अनंतानुबंधी क्रोधादि होजाते हैं और बाहुबलिंजी की तरह एक वर्ष तक भी संज्वलन मान रहसकता है.
जलरेणु पुढवि पव्वय, राई सरिसो चउब्धि
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(४६ ) हो कोहो तिणसलया कट्ठाद्विन, सेलत्थंभो वमोमाणो ॥ १६ ॥
क्रोध के ४ भेद । १ संज्वलन क्रोध-पानी में रेखा बँची जावे तो तत्काल । मिट जाता है ऐसे ही जो क्रोध तत्काल शांत होजावे उसको संज्वलन क्रोध कहते हैं ऐसा क्रोध प्रायः साधु मुनिराज भी अपने शिष्यों के हित शिक्षार्थ किया करते है।
२ प्रत्याख्यानी क्रोध-रेती में रेखा बँची जाने तो वो वायु से शीध्रही मिट जाती है ऐसे ही जो क्रोध समझाने पर वा क्षमा मांगने पर अथवा उचित दंड देने के पश्चात् शीघ्र ही मिट जाये उसको प्रत्याख्यानी क्रोध कहते हैं ऐसा क्रोध प्रायः श्रावक को होता है जो ज्ञान द्वारा विचार कर शीघ्र ही क्रोध का त्याग कर देता है।
३ अप्रत्याख्यानी क्रोध- तालाव की मिट्टी में कहीं रेखा ( दरार ) होगई हो तो वो वर्षा होने पर मिलजाती है ऐसे ही क्रोध वश बदला लेकर वा अल्प समय के पश्चात् यदि क्रोध त्याग दिया जावे तो उसको अप्रत्याख्यानी क्रोध कहते हैं जैसा कि जिसको क्रोध के त्याग का व्रत नहीं है किन्तु उसको
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( ४७ )
अनुचित समझने पर त्याग कर देता है अर्थात् अविरति का. क्रोध समझना चाहिये ।
. ४ अनंतानुबंधी क्रोध - यदि किसी कारण से पर्वत में दरार होगई हो तो वो कभी नहीं मिटती है ऐसे ही जो क्रोध कभी नहीं शांत होता है उसको अनावधी क्रोध कहते हैं ऐसा air faarata को होता है क्योंकि वो मिध्यात्व के कारण . ही से उस क्रोध को शांत नहीं कर सक्ता हैं ।
मान का स्वरूप
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संज्वलन मान बैत के ऊपर की छाल जैसे शीघ्र नम जाती है वैसे ही जिस मान में उपदेश से वा अवसर पड़ने पर विनय उत्पन्न होजावे उसको संज्वलन मान कहते हैं।
'प्रत्याख्यानी मान- सुखा काष्ट तेल लगाने पर जैसे नम जाता है वैसे ही जिस मान में अधिक समझाने पर विनय उत्पन्न हो. जावे उसको प्रत्याख्यानी मान कहते हैं ।
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श्रमत्याख्यानी मान–हड्डी, अत्यंत प्रयोगादि करने पर, जैसे नम जाती है वैसे ही जिस मान में अनेक कष्ट पाकर सपझने पर विनय उत्पन्न हो जावे उसको अमत्याख्यानी मान कहते हैं ।
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अनंतानुबंधी मान - पत्थर का स्थंभ अनेक प्रयोगादि करने
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(४ ) पर भी जैसे कदापि नहीं नमता है वैसे ही जिस मान में कदापि विनय उत्पन्न नहीं हो उसको अनंतानुबंधी मान कहते हैं । - माया क्लेहि.गोमुत्ति, मिंढसिंग घणवंस मूलसमा: लोहो हलिद्द खंजण, कदम किमिराग सारितथो. ॥ २०॥
: . . माया के ४ भेद . .' संज्वलन माया-जैसे बंसपटी (वांस की छाल ) बँचने से सीधी हो जाती है वैसे ही समझ पड़ने से जो कपदं स्वभाव शीन छूट: जावे उसको संज्वलन माया कहते हैं।
प्रत्याख्यानी माया-जैसे वैल के (चलते २ मूत्र करने के कारण) मूत्र की तिरछी रेखा सूख जाने पर मिट जाती है ऐसे ही बोध मिलने पर भी जो कपट स्वभाव छूट जावे उसको प्रत्याख्यांनी माया कहते हैं.
अप्रत्याख्यानी माया-जैसे मैंढ़े के सींघ की टेढाई प्रयोग करने पर सीधी होजाती है वैसे ही दंड मिलने पर भी जो कपट छूट जाये उसको अप्रत्याख्यानी माया कहते हैं. । अनंतानुबंधी मायां-जैसे वांस का मूल ('गांठ ) कितने भी प्रयोग किये से सीधा नहीं होता है वैसे ही जो कपटकदापि न छूटे उसको अनंतानुवंधी मायां कहते हैं।
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(४६)
लोभ के ४ भेद । संज्वलन लोभ-जैसे हलदी का रंग वस्त्रादि से सहज ही में छूटजाता है वैसे ही जो ममत्व सहज ही में छूट जावे उसको संज्वलन लोभ कहते हैं.। . . . . . . . - प्रत्याख्यानी लोभ-जैसे मिट्टी के बरतन ( करवा) का मैल कठिनता से छूटता है वैसे ही जो ममत्व कठिनता से छूटता है उसको प्रत्याख्यानी लोभ कहते हैं।
• अप्रत्याख्यानी लोभ-जैसे गाड़ी का वांग (5का काला चीकट.) की चीकनाई वस्त्रादि पर लग जाये तो अनेक प्रयोगों से:अत्यंत कठिनता से छूटती है वैसे ही जो ममत्व अत्यंत कठिनता से छूटता है उसको अप्रत्याख्यानी लोभ कहते हैं।
अनंतानुवंधी लोभ-जैसे पक्के लाल रंग का दागः कदापि भी दूर नहीं होता है वैसे ही जो ममत्व कदापि नहीं छूटता हो उसको अनंतानुबंधी लोभ कहते है: .. . . . . . . . . . . "पाय के दो भेद भी होते हैं "-१ प्रशस्त. २ अप्रशस्त प्रशस्त कपाय वह है जो परमार्थ के लिये किया जावे जैसे वह क्रोध जो शिष्य या बच्चों को सन्मार्ग पर लाने को किया जावे इसी प्रकार जो माया या लोभ परमार्थ के लिये किया जावे वह प्रशस्त है. इससे विपरीत जो कपाय स्वार्थ के लिये
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(५०) किया जावे वह अप्रशस्त है. प्रशस्त की मर्यादा प्रत्याख्यानी वा संज्वलन से नहीं बढनी, चाहिये.
- जस्सु दया होइ जिए हासरह अरइ सोगभय कुत्था, सनिमित्त मन्नहा वा ते इह हासाइ मोहणिग्रं ॥ २१ ॥
हनो कषाय का स्वरूप. , १ हास्य मोहनीय-जिसके उदय से ( भांड की) चेष्टा से बा विना कारण ही हंसी आवे उसको हास्य मोहनीय कहते हैं. . . २ रति मोहनीय-जिसके उदय से बिना कारण वा कारण से अनुकूल विषय में आनंद प्राप्त हो और ममत्व उत्पन्न हो उसको:रति. मोहनीय कहते हैं. . . ,
३ अरति मोहनीय-जिसके उदय से .अपने, विरुद्ध कोई कार्य होने पर अथवा कोई भी कार्य अपने विरुद्ध न होने पर जो मनमें द्वेष भाव उत्पन्न होता है और उद्वेग होता है उसको अरतिमोहनीय कहते हैं.
४ शोक मोहनीय-जिसके उदय से बिना कारण ही वा इष्ट वियोग से चित्त में खेद और रुदन उत्पन्न हो उसको शोके मोहनीय कहते हैं....
५ भय'मोहनीय-जिसके उदय से दुष्टों से वा भूत प्रेतादि
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(५१) से भय उत्पन्न होता है उसको भय मोहनीय कहते हैं इसके ७ भेद हैं:
(१) इहलोक भय अर्थात् बलवानों और दुष्टों को देख कर इसलोक में डरना: . "
(२) परलोक भय अर्थात् भूत प्रेतादि से वा. नरक गति से डरना । .. . (३) आदान भय-अर्थात् चोर, लुटेरों से डरना। . (४:) अकस्मात् भय-विजली अग्नि आदि अकस्मात
... (५':) आजीविका भय-जीवन निर्वाह में विघ्नदि का भय, , (६) मरण भय-मृत्यु होने का डर ।. . . . . . . : . (७.) अपयशः भय-बदनामी होने का डर । ..
६ जंगुप्सा मोहनीय--जिसके उदय से मल मूत्रादि से 'घृणा उत्पन्न होने ले मुंह टेवा करते हैं उसको जुगुप्सा मोह.नीय कहते हैं.। . :::: . ... . . . • . . . . . . . . ७-६ तीन वेद . . :: : : : पुरिसित्थि तदुभयं पइ अहिलासोजव्वसा हवइसोउ-थी. नर नपुवेनो दो, फुफुम तण नगर दाहसमो ॥२२॥
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( ५२ )
तीन प्रकार के वेद
स्त्री वेद, पुरुष वेद, और नपुंसक वेद,
७ स्त्री वेद-- जिससे पुरुष के साथ भोग करने की इच्छा हो उसको स्त्री वेद कहते हैं ।
८ पुरुष वेद - जिससे स्त्री के साथ भोग करने की इच्छा उत्पन्न हो उसको पुरुष वेद कहते हैं ।
६ नपुंसक वेद - जिससे दोनों के साथ भोग करने की इच्छा हो उसको नपुंसक वेद कहते हैं ।
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स्त्री वेद के लक्षण -- जिस प्रकार छाणों की अग्नि फूंक देने से वार २ जलती है और अधिक समय तक ठहरती हैं इसी प्रकार स्त्री को पुरुष के साथ वर्ताव होने से वार २ भोग की अभिलाषा होती है और अधिक समय तक रहती हैं ।
पुरुष वेद के लक्षण--जिस प्रकार तृण की अग्नि शीघ्र ही जलती हैं और शीघ्र ही बुझ जाती है उसी ही प्रकार पुरुष को भोग की अभिलाषा शीघ्र ही होती है और शीन ही शांत हो जाती है ।
नपुंसक वेद के लक्षण - जिस प्रकार नगर जलने लगे ती अनेक दिनों तक जलता रहता है उसी ही प्रकार नपुंसक के भोग की अभिलाषा सदाही रहती है कभी शांत ही नहीं होती है !
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( ५३ ) .
सुर नर तिरि निरयाउ, हडिसरिसं नाम कम्म चित्तिसमं । बायाल तिनवह विहं, उत्तर ति सयं च सत्तट्ठी ॥ २३ ॥
आयु कर्म और उसके ४ भेद |
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• जितने समय तक जीव स्थूल शरीर रूपी बंधन में रहता है उस समय को आयु कहते हैं जैसे अपराधों के कारण कैदी को कैद की अवधि पूरी होने तक कैदखाने में ही रहना पड़ता है वैसेही जिस कर्म से जीव स्थूल शरीर रूपी बंधन में आयु पर्यंत रहना पड़ता हैं उसको आयु कर्म कहते हैं
आयु कर्म के चार भेद हैं ।
१. देव आयु कर्म - जिस कर्म के उदय से देवता की आयु पर्यंत देवता के शरीर रूपी बंधन में जीव रहता है उसको देव आयु कर्म कहते हैं ।
२ मनुष्यायु कर्म - जिस कर्म के उदय से मनुष्य की आयु तक जावे मनुष्य के शरीर रूपी बंधन में रहता है उसको मनुध्यायु कर्म कहते हैं
।
३ तिर्यचायु कर्म - जिस कर्म के उदयसे तिर्यच की आयु पर्यंत जीव तिर्यचः के शरीर रूपी बंधन में रहता है उसको ति च आयु कर्म कहते हैं ।
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(५४) · ४ नरकायु कर्म-जिस के उदय से नारकी की आयु पर्यंत नारकी के शरीर रूपी बंधन में रहना पड़ता है उसको नरकायु कर्म कहते हैं।
आयु २ प्रकार की होती है १ सोपक्रम २ निरुपक्रम ।
देव और नरक का आयु निरुपक्रम है अर्थात् विना पूरा भोगे जीव छूट नहीं सक्ता है वहां जीवको आयु पूरी भोगनी पड़ती है आयु पूर्ण होने पर मृत्यु होती है पहले नहीं होस
• ' मनुष्य और तिर्यंच का आयु सोपक्रम भी है और निरुपक्रम भी है अर्थात् कितने मनुष्य, तिथंच तो अपनी आयु पूरी भोग कर ही मरते हैं और कितने ही मनुष्य तिर्यंच की मृ'त्यु आयु पूर्ण होने पूर्व भी होजाती है जिसको अकाल मृत्यु कहा करते हैं। . . विशेष वर्णन संग्रहणी सूत्र से समझना चाहिये. .. . : नाम कर्म और उसकी १०३ प्रकृतियां ।
जैसे चित्रकार अनेक प्रकार के चित्र बनाता है. वैसे. ही जिस कर्म के उदय से जीव अपने अनेक नये नये शरीर आदि वनाता है उसको नाम कर्म कहते हैं उसके ४२-६३-और १०३ भेद होते हैं जिनका विवेचन आगे करते हैं।
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(५५) गइ जाइ तणु उवंगा, बंधन संघायणाणि संघयणा संठाणु वरण गंधरस, फास अणुमुवि विहगगई२४
१४ पिंड प्रकृतियां के नाम '. " .... १ गति, २ जाति, ३ शरीर, ४ उपांग, ५ बंधन, ६ संयातन, ७ संघयण, में संस्थान, ९ वर्ण, १० गंध, ११ रस. १२ स्पर्श, १३ अनुपूर्वी, १४ विहाय गति.
..... इनका स्वरूप आगे समझायेंगे.... पिंड पयडित्ति चउदस, परघा उस्सास प्राय वुज्जो अगुरु लहुतित्थ निमिणो बधाय मिय अपत्तेत्रा
प्रथम ( उपरोक्त ) १४ प्रकृतियों के विभाग होते हैं इसलिये वे पिंड प्रकृतियां कही जाती हैं।
प्रकृतियों के नाम ... १ पराघात, २ उच्छवास, ३ आतप, ४ उद्योत, ५ अगुरु लघु, ६ तीर्थकर, ७ निर्माण, ८ उपघात । .... इन ८ प्रकृतियों के विभागः नहीं होते हैं इसलिये. इनको प्रत्येक प्रकृतियां कहते हैं।
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(५६) '- तसवायर पज्जतं, पत्तेय थिरं सुभं च सुभगं चः सुसराइज्ज जसं तस, दसगं थावर दसं तु इमं ॥ २६ ॥ .. त्रस दशक अथवा पुण्य प्रकृतियों के नाम । - १ त्रस, २ वादर, ३ पर्याप्त, ४ प्रत्येक, ५ स्थिर, ६शोक, ७ सौभाग्य, ८ सुस्वर, 8 आदेय, यश।
ये १० प्रकृतियां पुण्य प्रकृतियां कहीं जाती है।
इसही प्रकार इनके विरुद्ध १० स्थावर प्रकृतियां होती हैं जिनको पाप-प्रकृतियां कहते हैं। . ...
थावर सुहुम अपज्ज, साहारण अथिर असुभ दुभगाणि दुस्सर अणाइज्झा. जस, मित्रनामे से भरा वीसं.॥ २७ ॥.
स्थावर दशक अर्थात् १० पाप प्रकृतियों के नाम ।
१ स्थावर, २ सूक्ष्म, ३ अपर्याप्त, ४ साधारण, ५ अस्थिर, ६ अशुभ, ७ दुर्भाग्य, ८ दुस्वर, ह अनादेय १. अपयश ।
इस प्रकार १४.पिंड प्रकृतियां ८ प्रत्येक प्रकृतियां और (१० नस १० स्थावर दोनों मिलाकर ) २० त्रस स्थावर प्रकृतियां सब मिलकर नाम कर्म की ४२ प्रकृतियां होती है।
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(५७) पिंड प्रकृतियों के पृथक् २ ६५ भेद, प्रत्येक प्रकृतियों के भेद और त्रस स्थावर प्रकृतियों के २० भेद इस प्रकार सब मिलकर नाम कर्म के ६३ भेद होते है। - और यदि पिंड प्रकृतियों के भेद ७५ गिने जावे तो नाम कर्म के १०३ भेद भी होते हैं।
तस चउ थिर छक अथिर छक्क सुह, मतिग थावर चउकं । सुभग तिगाइ विभासा तयाइ संखाहि पयंडीहि ॥ २८ ॥ वगणचउ अगुरु लहु चउं, तस्साइदुति चउर छक मिच्चाइ। इय अन्नांवि विभासा, तयाइ संखाहि पयडीहिं ॥ २६ ॥.. ..प्रसंगोपात विभासा अर्थात् कुंछ संज्ञाएँ समझा देते हैं क्योंकि ये संज्ञाएं आगे बहुत काम में आवेगी। .....
स चतुष्क-प्रथम ४ पुण्य प्रकृतियां अर्थात् त्रस, वादर, पर्याप्त और प्रत्येक इन चारों को मिलाकर बस चतुष्क कहते हैं। *. "स्थिर घटक अन्तिम ६पुण्य प्रकृतियां अर्थात् स्थिर, शुभ, सौभाग्य, सुस्वर, आदेय और यश इन छः को मिलाकर स्थिर पटक कहते हैं।
.:.:...: . अस्थिर पटक-अन्तिम छै पाप प्रकृतियों अर्थात् अस्थिर
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(५८) अशुभ, दुभाग्य, दुस्वर, अनादेय और अपयश इन छ: को मिलाकर अस्थिर षटक कहते हैं. ..' स्थावर चतुष्क-प्रथम चार पाप प्रकृतियां अर्थात् स्थावर, . सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इन चार को मिला कर स्थावर, ' चतुष्क कहते हैं।. . .: ...... ... : .:..:. . : ..
सूक्ष्मत्रिक-सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इन ३ प्रथम स्थावर पाप प्रकृतियों को मिलाकर सूक्ष्मत्रिक कहते है। .. • सौभाग्य त्रिक-सौभाग्य, सुस्वर और आदेयः इन तीनों वस पुण्य प्रकृतियों को सौभाग्यत्रिक कहते हैं।
वर्ण चतुष्क-वर्ण गंध, रस और स्पर्श इन चारों को मि: लाकर वर्ण चतुष्क कहते हैं ! ...................
अगुरु लघु चतुष्क-अगुरु लघु उपघात पराघात और . उच्छवास इन ४ प्रत्येक प्रकृतियों को मिलाकर - अगुरु लघु . चतुष्क कहते हैं।":. :: :
प्रसद्विक त्रस और वादर दोनों को मिलाकर त्रसद्विक कहते हैं। : : :: ..... ... .. ... त्रस त्रिक-वस वादर और पर्याप्त इन तीनों को मिलाकर .. त्रसत्रिक कहते हैं 1.... ... .. ............ ... .. त्रस पटक-त्रस, वादर, पर्याप्त, प्रत्येक स्थिर और शुभ इन छ.को मिलाकर त्रस पटक कहते हैं .....:
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( ५६) आवश्यकतानुसार,आगे.भी अन्य कई संज्ञाएं इसी ही प्रकार बनी हुई मिलेगी जिन से बुद्धि से विचार समझ लेना चाहिये जैसे थीनद्धी त्रिक अर्थात् पांच प्रकार की निंद्रा में से थीनद्धी, प्रचला प्रचला और निद्रा निद्रा इन तीनों प्रकार की निंद्रा मिलाकर थीनद्धी त्रिक कहा जाता है। ... ..गइ श्राईण उक्कमसो, चउपण पणति पण पंच छ छक्कं । पणं दुग पण चउद्ग इन उत्तर भेद पणसट्ठी ॥३०॥ ....
१४ पिंड़ प्रकृतियों के ६५ उत्तर भेद ..१ गति-जिस कर्म के उदय से जीव ४. गतियों में गमन करता है : उसको गति नाम : कर्म कहते हैं: चारों गतियों की अपेक्षा से उसके ४ ही भेद होते हैं. .. ... ..
.२ जाति-जिस कर्म के : उदय से इन्द्रिय वाले जीवों से लेकर ५. इन्द्रिय वाले जीवों की योनियों में जीव को जन्म मरण करना पड़ता है. उसको जाति नाम कर्म कहते हैं। पांचों इन्द्रियों की अपेक्षा से जाति नाम कर्म भी ५ प्रकार के होते हैं.
३.शरीर--जिस कर्म के उदय से औदारिक: आदि. ५ प्रकार के शरीर में जीव को जन्म लेना पड़ता है उसको शरीर
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( ६०० )
नाम कर्म कहते हैं ५ प्रकार के शरीरों की अपेक्षा से शरीर के. नाम कर्म के भी ५ भेद होते हैं.
४ उपांग- जिस कर्म के उदय से जीव को हस्त आदि उपांग माप्त होते हैं, उसको उपांग नाम कर्म कहते हैं तीन उपांग की अपेक्षा से इस के ३ भेद होते हैं.
५ बंधन - जिस कर्म के उदय से जीव के श्रदारिक आदि शरीर के पुद्गलों का परस्पर बंधन होता है उसको बंधन नाम कर्म कहते हैं पांच प्रकार के बंधन की अपेक्षा से बंधन नाम कर्म के ५ भेद होते हैं.
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६ संघातन - जिस कर्म के उदय से औदारिक आदि शरीर के पुदगल संगठित होते हैं उसको संघातन नाम कर्म कहते हैं पांच प्रकार के संघातन की अपेक्षा से ५ प्रकार के संघातन नाम कर्म होते हैं. 67
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७ संघयण - जिस कर्म के उदय से जीव के शरीर में हड्डियों के जोड़ परस्पर मिलते हैं उसको संघयण नाम कर्म कहतें हैं ६ प्रकार के संघयण की अपेक्षा से इसके ६ भेद होते हैं.
८ संस्थान - जिस कर्म के उदय से जीव के शरीर को शुभा शुभ आकार होता है उसको संस्थान नाम कर्म कहते है ६ प्रकार के संस्थान की अपेक्षा से इसके भी भेंट है।
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(६१) है वर्ण-जिस कर्म के उदय से जीव के शरीर का रंग ५ प्रकार का होता है उसका वर्ण नाम कर्म भी कहते हैं ५ प्रकार के वर्ण की अपेक्षा से वर्ण नाम कर्म के भी, ५ भेद होते हैं। . . . . . . . .. १०.गंध-जिस कर्म के उदय से जीव के शरीर से संगंधी दुर्गन्धि उत्पन्न होता है उसको गंध नाम कर्म कहते हैं २ प्रकार की गंध की अपेक्षा से गंध नाम कर्म के भी २ भेद होते हैं ।
११ रस-जिस कर्म के उदय से जीव के शरीर में रस उत्पन्न होता है उसको रस नाम कर्म कहते हैं ५ प्रकार के रस की अपेक्षा से रस नाम कर्म के ५ भेद होते हैं। . . १२ स्पर्श-जिस कर्म के उदय से जीवें के शरीर को शीत उष्ण आदि स्पर्श होता है उसको स्पर्श नाम कर्म कहते हैं
आठ प्रकार के स्पर्श की अपेक्षा से स्पर्श कर्म के भी ८ भेद - होते हैं।
' १४ अनुपूर्वी--जिस कर्म के उदय से बेल की तरह जीव योग्य गति में पहुंचाती है उसको अनुपूर्वी नाम कर्म कहते हैं. ५ गति की ४ अनुपूर्वी की अपेक्षा से अनुपूर्वी कर्म के भी ४. भेद होते हैं। ...१४ विहायो गति जिस कर्म के उदय से जीव की शुभा शुभ चाल हो उसको विहायो गति नाम कर्म कहते हैं. २ प्रकार
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. . . (.६२ ) ..... के चालों की अपेक्षा से विहायो गति नाम कर्म भी २ प्रकार के होते हैं।
अडवीस जुना तिनवइ, संते वा. पनर बंधणे तिसर्य, बंधण संघाय गहो तणुसु सामण्ण . वण चऊ ॥३१॥
वध उंदीरणा और उदय की अपेक्षा. से नाम कर्म की
.....६.७ प्रकृति. : . २८. और ६५ मिलाकर संव. १३ भेद हुवै किन्तु यदि
५ प्रकार के बंधन के स्थान में बंधन १५ प्रकार के समझे जावे • तो. २८ और ७५ मिलाकर १०३ भेद भी होते हैं...
किन्तु शरीर, वंधन और संघातन इन तीनों प्रकार के... कर्मों के पांच २ भेद होने से जो.१५ भेद ऊपर उनके समझे गये हैं, अब यदि शरीर, बंधन और संघातन इनको तीन प्रकार के कर्म न समझ कर एक ही प्रकार के समझ लिये जावे तो केवल ५ ही भेद होंगे इस प्रकार १० भेद कम होगये :
और इसी ही प्रकार वर्ण गंध रस और स्पर्श के विशेष भेद न लेकर इनको एक ही समझा जावे तो २०. भेदों के स्थान . में ४ भेद रहगये इस प्रकार १६ भेद इन में से कम होगये १० ::
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(६३) और १६ जो २६ भेद कम हुवे तो १३ में से २६ कम होकर करते हैं. केवल ६७ प्रकृति रहती है. .
शरीर, बंधन और संघातन तीनों ही एक साथ परस्पर मिले होते हैं इसलिप बंध में तीनों का एक ही में समावेश किया हैं. ___इस ही प्रकार वर्ण, गंध, रस और स्पर्श इन में एकेक का ही बंध होता है इसलिये सामान्य रीति से चार भेद समझे गये हैं।
इन सत्तही बंधो, दएअ नय सम्म मीसया बंधे। बंधु दए. सत्ताए वीस दुवीस टुवरण
संयं ॥ ३२ ॥
बंध उदीरणा और उदय की अपेक्षा से आठ ही कर्मों की प्रकृतियां. . . वैध, उदीरणा और उदय की अपेक्षा से नाम कर्म की तो उपर बतलाये अनुसार ६७ प्रकृति होती है. . . .
बंध की अपेक्षा.से नाम कर्म की ६७ प्रकृति और अन्य सात कर्मों की ५५ प्रकृति किन्तु दर्शन मोहनीय में बंध तो केवल मिथ्यात्व मोहनीय का होता है सम्यक् “मोहनीय और मिश्र मोहनीय का नहीं होता है इससे दर्शन 'मोहनीय की प्रकतियां वध की अपेक्षा से २ कम होगई इसलिये बंध की अपे. ता से नाम कर्म की ६७ और सात कर्मों की ५५ दोनों मिला कर १२२ जिसमें से २ दर्शन मोहनीय की प्रकृतियों में कम
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होने से बाकी १२० रही इस प्रकार बंध की आगे कर्मों की मिल १२० प्रकृति होती है........... ... उदीरणा और उदय की अपेक्षा से १२२ प्रकृति ही होती हैं क्योंकि उदीरणा और उदय तो दर्शन मोहनीय में तीनों ही प्रकृतियों का होता है इस प्रकार उदीरणा और उदय की अपेक्षा से नाम कर्म की ६७ और अन्य सात कर्म कर्मों की ५५ प्रकृति इस प्रकार १२२ प्रकृतियां होती है... .
सत्ता में तो सर्व प्रकृतियों भिन्न ही रहती हैं इसलिये नाम की १०३ प्रकृति होती हैं और अन्य सात कर्मों की ५५ होती हैं दोनों को मिलाने से आठ कर्मों की १५८ प्रकृतियां होती हैं. . नरय तिरिनर सुरगई, इगबित्र तित्र चल -पणिदिजाइयो।ओराल विउवाही, तेत्र कम्मण पण सरीरा ॥.३३ ।। ..
गति नाम कर्म के ४ भेदः : नारकी जिस कर्म के उदय से जीव नारकी जीवयोनि में उत्पन्न होता है उसको नरकगति नाम कर्म कहते हैं..'
तिर्यच-जिस कर्म के उदय से जीव तिर्यंच जीव योनि में उत्पन्न होता है. उसको तिर्यंचगति नाम कर्म कहते हैं...। ....३ मनुष्य-जिंस को के उदय से जीव मंनष्य जीवंयोनि
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में उत्पन्न होता है उसको मनुष्यगति नाम कर्म कहते हैं.' ..... ४ देव-जिस कर्म के उदय से जीव देव जीवयोनि में उत्पन्न होता है उसको देवगति, नाम कर्म कहते हैं. : " . . . . जाति नाम कर्म के ५ भेद।
. १ एकेंद्रिय-जिस कर्म के उदय से जीव एकेंद्रिय योनि में उत्पन्न होता है और उसको केवल १ इंद्रिय ही प्राप्त होती है उसको एकेंद्रिय जाति नाम कर्म कहते हैं।... . . २.३द्रिय-जिंस - कर्म के उदय से जीव वेंद्रिय योनि में उत्पन्न होता है और उसको केवल २ ही इंद्रिय प्राप्त होती है उसको वेंद्रिय जाति नाम कर्म कहते हैं। ...
३त्रींद्रिय-जिस कर्म के उदय से जीव त्रींद्रिय योनि में उत्पन्न होता है और उसको केवल.३.ही इंद्रिय प्राप्त होती है उसको त्रींद्रिय जाति नाम कर्म कहते हैं। . .. . : ... .....४ चौरींद्रिय-जिस कर्म के उदय से जीव चौंरीद्रिय योनि में उत्पन्न होता है और उसको केवलाही इन्द्रिय प्राप्त होती है उसको चौंरींद्रिय जाति नाम कर्म कहते हैं । ... .......
५. पंचेंद्रिय-जिस कर्म के उदय से जीव पंचेंद्रिय जीव योनि में उत्पन्न होता है और उसकों.५ इन्द्रियें प्राप्त होती है उसको पंचेंद्रिय जाति नाम कर्म कहते हैं।
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....शरीर नाम कर्म के ५ भेद । ..१ औदारिक-जिस कर्म के उदय से जीव को औदारिक शरीर प्राप्त होता है. उसको औदारिक शरीर कहते हैं: हड्डी, मांस, रक्तादि का बना हुवा शरीर औदारिक शरीर नाम कर्म कहलाता है ऐसा शरीर तियच और मनुष्य को प्राप्त. हुआ करता है तिर्यंच को इस शरीर में मुक्ति नहीं प्राप्त होसक्ती है किंतु मनुष्य को इस शरीर में मुक्ति भी प्राप्त होसक्ती है और तीर्थकरादि पद भी प्राप्त होता है......... ... ... .." २ वैक्रिय-जिस कर्म के उदय से जीव को ऐसा शरीर मिले जिससे भिन्न २ आकार रूप क्रिया होसक्ती हो उसको वैक्रिय शरीर नाम कर्म कहते हैं इस शरीर में हड्डी मांसादि नहीं होते हैं। देवता और नारकी जीवों को वैक्रिय शरीर स्वाभाविक होता है किंतु तिथंच और मनुष्य को लब्धि द्वारा प्राप्त होता है। .. . ... . . . .
३.आहारक-जिस कर्म के उदय. सें. जीव को ऐसा शरीर प्राप्त हो जिससे चौदह पूर्वधारी मुनि की अवस्था में तीर्थकर की ऋद्धि देखने को नवीन शरीर उत्पन्न कर सके उसको आहारक शरीर नाम कर्म कहते हैं आहारक शरीर के वल अम्मादी मुनि अवस्था में प्राप्त हो सकता है इसका परि. माण १ हाथ (कलाई से कोहनी तक) का होता है।
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(६७) . . . ४ तेजस-जिस कर्म के उदय से जीव को ऐसा. शरीर प्राप्त हो जिससे आहारादि पाचन क्रिया हो और जिससे तेजोलेश्या.की उत्पत्ति भी होती हो उसको तेजसःशरीनाम कर्म कहते हैं तेजस शरीर सूक्ष्म रूप में होता है और ...कर्म धारी सर्व जीवों के साथ होता है। : ... ... ... ... . : . ५ कार्मण-जिस कर्म के उदय से जीव को ऐसा :शरीर मिले जिससे कर्म प्रदेशों का समूह जीव प्रदेश के साथ क्षीर नीर के समान मिले उसको कार्मण. शरीर नाम कर्म करते हैं कार्मण शरीर सूक्ष्मरूप में होता है और प्रत्येक कर्म धारी जीव के साथ होता है कर्म ..परमाणु से उत्पन्न होने के कारण भी इसको कार्मण कहते हैं...... .......::.;
इस प्रकार कम से कम ३. और विग्रहगति में दो शरीर तो प्रत्येक कर्मधारी जीव के साथ होते हैं। विशेष वर्णनः संग्रहणी सूत्र से जान लेना चाहिये. :::, . . :: .. : , बाहूरुपिटि: सिर, उर, उअरंग उवंग अंगु
ली. पमुहा। सेसा अंगोवंगा, पढम तणुःति गस्सु वंगाणि ॥ ३४॥ .::.::
- उपांग नाम कर्म के ३ भेदः औदारिक, वैक्रिय और आहारक इन ३ शरीरों में पाठ
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(६८) अंग और उपांग होते हैं अतएव ३ शरीरों की अपेक्षा से ३ प्रकृति अंग उपांग की होती है. .. १ औदारिक शरीर अंगोपांग.२ वैक्रिय शरीर अंगोपांग. - ३.नाहारक शरीर अंगोपांग.
तेजस और कार्माण शरीरों में अंग उपांग आदि नहीं होते हैं.
२ भुजा २ जंघा १ पीठ १ छाती १ मस्तक और १ पेट ये आठ अंग कहे जाते हैं,
_अंगुली आदि को उपांग कहते हैं और हस्त आदि की. रेखाओं को अंगोपांग कहते हैं. - जिस कर्म के उदय से जीव को शरीर के साथ अंग उपांग आदि प्राप्त होते हैं उसको उपांग नाम कर्म कहते हैं. . ऊपर बतलाये अनुसार उपांग नाम कर्म ३ प्रकार के होते हैं. ,,१ औदारिक उपांग नाम, कर्म २ वैक्रिय उपांग नाम कर्म ३ आहारक उपांग नाम कर्म । ।
ओरलाइ पुग्गलाणं, निवद्ध वज्झ तयाण , संबंध, जं.कुणइ जउ समं लं, बंधण मुरलाइ तणु नामा ॥ ३५॥ ...
____बंधन नाम कर्म के ५ भेदः पूर्व संचित और नवीन संचित कर्मों का औदारिक शरीरों
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. (६६ )
के साथ लाख और राल की भांति युक्त करे उस कर्म का नाम बंधन नाम कर्म है.
:
पांच प्रकार के शरीरों की अपेक्षा से नवीन और पूर्वकम के सम्बन्ध होने से ५ प्रकार के बंधन नाम कर्म होते हैं - १ श्रौदारिक बंधन नाम कर्म-२ वैक्रिय बंधन नाम कर्म-३ आहारक बंधन नाम कर्म - ४ तैजस बंधन नाम कर्म - ५ कार्मण बंधन नाम कर्म ।
''; "
श्रदारिक वैक्रिय और आहारक इन ३ शरीरों का बंध आरंभ में सर्व (पूर्ण) बंध होता है किन्तु पश्चात् शरीर पूर्ण धारण कर वहांतक देश ( थोड़े अंश ) बंध होता हैं ।
'तेजस और कार्मण का निरंतर देशबंध होता है क्योंकि a नये नहीं बनते हैं इसलिये उनका प्रारंभ समय भी नहीं है । मृत्यु समय भी तेजस और कार्मण शरीर जीव के साथ जाते हैं और साथ रहकर कर्मानुसार श्रदारिक आदि शरीर उत्पन्न करते हैं । a par
जं संघायइ उरलाइ पुग्गले तणगांव दंताली, तं संघायं बंधण मिव तण नामेण पंच
विहं ॥ ३६ ॥
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..
"
(७०). . · संघातन नाम कर्म का स्वरूप । • जिस कर्म से औदारिक आदि शरीरों के बंधन होने के लिये बंधन के पूर्व कर्म पुद्गल इकठे होते हैं जैसे कि दंताली से तृण समूह इकठा होता है उस कार्य को पांच प्रकार के शरीरों की अपेक्षा से पांच प्रकार के संघातन नाम कर्म जानना चाहिये। .१ औदारिक संघातन नाम कर्म. २ वैक्रिय संघातन नाम कर्म..
३ आहारक संघातन नाम 'कर्मः ४ तैजस संघातन नाम कर्म, ५.कार्मण संघातन नाम कर्म .
.. . ओराल विउव्वा हारयाणं सग ते कम्म जुत्ताणं, नव बघणाणि इअर दु. सहिआणि तिनि तेसिंच ॥३७॥
... प्रकारान्तर से १५ प्रकार का बंधन
औदारिक, वैक्रिय और आहारक इन ३: शरीरों का उस · ही. शरीर का उसही शरीर से युक्त होने से ३ प्रकार के बंधन
होते हैं और इन शरीरों को तैजस और कार्मण के साथ . के साथ प्रत्येक को युक्त करने से तीन २ अर्थात् छः बंधन
होते हैं इस प्रकार ९ प्रकार के बंधन होते हैं. :
.
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(७१)
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और तेजस और कार्मण के साथ दोनों को साथ युक्त करने से तीन २: अर्थात् छः प्रकार के बंधन और होते हैं इस प्रकार १५ प्रकार के बंधन होते हैं. नीचे. १५, प्रकार के बंधन को पृथक् २ नाम बतलाते हैं:-. ..
१ औदारिक औदारिक , २ वैक्रिय वैक्रिय . '३ आहारक आहारक' ४ औदारिक तेजस
५ वैक्रिय तेजस ६ आहारक तेजस ७ औदारिक कार्मण ८ वैक्रिय कार्मण
६ आहारक कार्मणं · · · १० औदारिक तेजस कार्मण .. ११ वैक्रिया तेजसं कार्मण : १२ आहारक. तेऊसकार्मण
१३ तेजस तेजस : .......१४ कार्मण कार्मण .. १५ तेजस.कामण. . . . ... :: . . ... ...:. ..
कितने ही ग्रन्थों में निम्नलिखित अनुसार भी १५ प्रकार के बंधन पतलाये हैं:-... ::::: ::
१ औदारिक औदारिक, २ वैक्रिय वैक्रिय
३ श्राहारक आहारक : ४ तेजस तेजस .:.:कार्मण कार्मण .. .६ औदारिक तेजसः . ७: वैक्रिय तेजस:::::.८ आहारक तेजस:: ::." कार्मण तेजस १० औदारिक कार्मण
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( ७२ )
११ वैक्रिय कार्मण
: १२ आहारक कार्मण
'
- १३ औंदारिक तेजस कार्मण: १४ वैक्रिय तेजस कॉमण -१५ आहारक तेजस कार्मण..
संघयण मट्ठि निचो. तं बद्धा वज्भरिसह नाराय । तहय रिसह नाराय, नारायं श्रद्ध - नारायं ॥ ३८ ॥
संघयण नाम कर्म के ६ भेद |
1
4
41
जिस कर्म के उदय से हड्डियों का मिलाप होता हैं उस को संघयण नाम कर्म कहते हैं इसके ६ भेद हैं ।
१ - वज्र ऋषभ नाराच संघयण जिस कर्म के उदय से २ हड़िये मर्कट बंध की भांति संयुक्त हुई हों और १ हड्डी ऊपर पटी की भांति लगी हो और इन तीनों में १ हड्डी कीली की भांति लगी हुई हो ऐसा दोनों तरफ होता है उसको वज्र ऋषभ नाराच. संघयण नाम कर्म कहते हैं..
२. ऋषभ नाराचं संघयण - इसही तरह दोनों हड्डी मर्केट, बंध की भांति युक्त हुई हो और १ हड्डी ऊपर पटी की तरह लगी हो किन्तु हड्डी की कोई कीली न लगी हो जिस कर्म
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(७३) के उदय से ऐसा संघर्यण (हड्डी की मिलाप ) हों उसको ऋषभनाराच संघयण नाम कर्म कहते हैं.. .
.. ३ नाराच संघयण हड्डियों को मर्कट बंध दोनों तरफ हों किन्तु न पटी हो न कीली हो. ऐसा संघयणं जिस कर्म से हो उसको नाराच संघयण नाम कर्म कहते हैं, ...:
४ अर्द्धनाराच संघयण-एक तरफ हड़ियों का मर्कट बंध हों और दूसरी तरफ केवल कीली हो ऐसा संघयण जिस कर्म से हो उसको अर्द्धनासंच संघयण नाम कर्म कहते हैं. .
कीलिप वर्ल्ड इह रिसहो, पट्टोत्र कीलि अावज्ज । उभो मकड़ बंधो नारायं इम मुलिंगे ॥३६॥... ... ... .... ....५ कीलिका संघयण-दो हड्डियों के बीचमें पटा न हो. केवल १. कीली हो जिस कर्म से ऐसा: संघयण हो उसको की: लिं का संघयण कहते हैं।
. . ६ सेवा संघयण-केवल २ हड्डिये पास पास लगी हो ऐसे: संघयण का:नाम सेवा संघयण है और जिस ; कमें से ऐसा:संघयण प्राप्त हो उसको सेवा नाम को कहते हैं.::
वैक्रिय शरीर में, आहारक शरीर में, देवता के शरीर में .
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( ७४ )
नारकी के शरीर में, १. इंद्रिय के शरीर में संघयण (हड्डी का मिलाप ) नहीं होता है ।
सम चउरसं निग्गो हसाड़ खज्झाइ वामणं हुंड सठाणी वरण किएह नील लोहिय हलिद्द सिया ॥ ४० ॥
"
संस्थान, नाम कर्म के ६ भेद |
जिस कर्म के उदय से शरीर की आकृति बनती है उसको संस्थान नाम कर्म कहते हैं संस्थान नाम कर्म ६ प्रकार के होते हैं ।।
1
.
. १ 'सम चतुरंखसंस्थान - जिस कर्म के उदय से ( पालधी लगाकर बैठने से ) दाहिने कंधे से बांये गोडे तक का अंतर, दाहिने गोडेसे बांये कंधे तक का अंतर, दाहिने गोड़े से बांये गोडे तक का अंतर और पालधी से मस्तक तक का अंतर ये चारों ही अंतर सम अर्थात् बराबर हो अथवा सामुद्रिक शास्त्रानुसार शरीर सुंदर हो उसको सम चतुरस्र संस्थान नाम कर्म कहते हैं ।
२ न्यग्रोध संस्थान - जिस कर्म के उदय से न्यग्रोधं (वंट) के सदृश ऊपर का भाग मात्र सुंदर हो उसको न्यग्रोध संस्थान नाम कर्म कहते हैं.
..
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( ७५ ) ...३ सादि संस्थान-जिस कर्म के उदय से नाभिः नीच का भाग मात्र सुंदर और ऊपर का सुंदर न हो उसको सादि संस्थान नाम कम कहते हैं: . .. . . . . . . . . .
४ कूब्ज संस्थान जिस कर्म के उदय से हाथ, पैर, मुख, 'गर्दन सुंदर हों और छाती पेंट और पीठ सुंदर न हो उसको उसको कूब्ज संस्थान नाम कर्म कहते हैं. .
५ वामन संस्थान-जिस कर्म के उदय से हाथ पैर से अपूर्ण हो और सर्व अंग हो उसको वामन संस्थान: नाम कर्म कहते हैं.
६ हुंड संस्थान-जिस कर्म के उदय शरीर के सर्व अंग न सुंदर हो न उपयोगी हो किंतु खराब हो उसको हुंड संस्थान
नाम कर्म कहते हैं
नाम कर्म के ५ भेद.
..
..
....वणे नाम कर्म के ५ भेद.. • जिस.कर्म के उदय से शरीर को वर्ण भिन्न २ वर्ण का
ण नाम कर्म कहते हैं वर्ण नाम कर्म के ५ भेद हैं. १ कृष्णवर्ण-जिस कर्म के उदय से शरीर शाही या गुली जैसा काला हो उसको कृष्णवर्ण नाम कहते हैं........
२:नीलवर्ण-जिस कर्म से तोते के पंख जैसा शरीर हरा हो उसको नीलवर्ण नाम कर्म कहते हैं.
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. . . (७६) . ... ३ रक्तवर्ण-जिस कर्म से हींगलु जैसा. लालवर्ण शरीरं का. :: हो उसको रक्तवर्ण नाम कर्म कहते हैं. ... ... ... ..... • ४ हरिद्रक पीतवर्ण-जिस कर्म से शरीर हलदी जैसा पीला वर्ण का हो उसको हरिद्रक पीतवर्ण नाम कर्म कहते हैं. .: .... ५ श्वेतवर्ण-जिस कर्म के उदय से शरीर शख जैसा सुफेद होवे उसको श्वेतवर्ण नाम कर्म कहते हैं. .......... .: सुरही. दुरही रसा: पण तित्त कड्डु कसाय
अंबिला महुरा । फासा गुरु लहु मिउ खरसी. उपहं सिणिद्ध रुक्खट्टा ॥ ४१ ॥ ........ ., " :गंध नाम कर्म के दो भेद - जिस कर्म के उदय से जीव के शरीर से गंध निकलती है उसको गंध नाम कर्म कहते हैं इसके २ भेद हैं..
सुरभिगंध-जिसः कर्म के उदय. से शरीर में से. सुगन्धि निकलती हो उसको सुरभिगंध नाम कर्म कहते हैं जैसे तीर्थकर भगवान के शरीर में से, पद्मिनी स्त्री के शरीर में से.. ____२.दुरभिगंध-जिस कर्म के उदय से शरीर में से दुर्गधि 'निकलती है उसको दुरभिगंध नाम कर्म कहते हैं जैसे लशुन में ' से दुर्गधि निकलती है....
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(७७)
.. रस नाम कर्म के. ५ भेद. . . .. .. , जिस कर्म के उदय से जीव के शरीर में रस आदि हों उसको रस नाम कर्म कहते हैं. इसके ५ भेदः . . . .
• १ तिक्तरस जिस कर्म के उदय से शरीर का रस सुंठ और काली मिर्च जैसा चरका हो उसको कटुरस नाम कर्म कहते हैं।
२. कटुरस-जिस कर्म के उदय से शरीर २ रस चिरायते जैसा कड़वा हो उसको कटुरस नाम कर्म कहते हैं। .. . ३ कषायलरस-जिस कर्मके उदय से शरीर रस हड़ें बहेड़ा जैसा कसायला हो उसको कषायल रस नाम कर्म कहते है।... .. ४ आमलरस-जिस कर्म के उदय से शरीर नींबू और इमली जैसा खट्टा हो उसको आम्लरस नाम कर्म कहते हैं। .. .५ मधुरस-जिस कर्म के उदय जीवका शरीर रस से लड़ी, मधु और शकर जैसामीग हो, उसको मधुरल नाम कर्म कहते. है.। ___ व्यवहार में लवण रस भी एक प्रकार का रस कहा जाता है किन्तु वो रस अन्य प्रकार के रसों के मिश्रण से वन जाता है इस लिये कर्म प्रकृति में नहीं लिया गया है विशेष वर्णन. गीतार्थों से जानना चाहिये। ...... स्पर्श नाम कर्म के = भेद । ... जिस कर्म के उदय से जीव के शरीर का विविध प्रकार
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(७८) का स्पर्श होता है उसको स्पर्श-नाम कर्म कहते हैं। . .. १ गुरुस्पर्श जिस कर्म के उदय से शरीर लोहे जैसा भारी
हो और नीचे ही दवता हो उसको गुरुस्पर्श नाम कर्म कहते हैं। ___२ लघुस्पर्श जिस कर्म के उदय से शरीर आक के तूल की तरह हलका होकर उड़ताहोउसको लघुस्पर्श कर्म कहते हैं।
. ३ मृदु स्पर्श-जिस कर्म के उदय से शरीर मक्खन जैसा मुलायम हो उसकों मृदु स्पर्श नाम कमें कहते हैं. . ., ४ बरसठ स्पर्श-निस कर्म के उदय से शरीर गाय की जीभ जैसा खरदरा हो उसको वरसठ स्पर्श नाम कर्म कहते हैं. __ ५ शीत स्पर्श-जिस कर्म के उदय से शरीर वर्फ जैसा ठंडा हो उसको शीतं स्पर्श नाम कर्म कहते हैं. ..
६ उष्ण स्पर्श-जिस कर्म के उदय से शरीर अग्नि जैसा उष्ण हो उसको उष्ण स्पर्श नाम कर्म कहते हैं. . स्निग्धं स्पर्श-जिस कर्म के उदय से शरीर घी तेल जैसा चिकना हो उसको स्निग्धस्पर्श नाम कर्म कहते हैं. - ८ रुक्षस्पर्श-जिस कर्म के उदय से शरीर.राख जैसा लूखा हो उसको रुक्ष स्पर्श.नाम. कर्म कहते हैं.
नील कसिणं दुगंधं तित्तं कडुअं गुरुं खरं
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( ७६ )
रुक्खं ॥ सीयं च असुह नवगं, इक्कारसगं सुभं सेसं ॥ ४२ ॥ :
वर्ण, गंध, रस और स्पर्श की २० प्रकृतियों में ६ अशुभ कौनसी और ११ शुभ कौनसी होती हैं सो बतलाते हैं.
५ वर्णों में नीला और काला अशुभ होते हैं शेष रक्त पीला सुफेद वर्ण शुभ होते हैं.'
२ गंध में दुर्गंधि अशुभ और सुगंधि शुभ होती. · ५ रसों में कटु और तिक्त (चरका ) अशुभ होते हैं शेष कपायल, आम्ल और मृदु शुभ होते हैं.
८ स्पर्शो में गुरु, बरसठ, और शीत ये चारों अशुभ होते हैं और शेष लघु, मृदु, उष्ण और स्निग्ध शुभ होते हैं.
""
उपरोक्त लोक व्यवहार से बतलाया गया हैं किन्तु तीर्थकर भगवान के जो श्याम रंग हो वह भी शुभ समझा जाता इस ही प्रकार पुण्यवान पुरुषों के लिये प्रायः सर्व प्रकृतियों में हो सकता है.
...
चउह गइव्व णुपुव्वी गइ पुब्बिदुगं तिगं निचाउजुत्रं ॥ पुव्वी उदओ वक्के, सुह असुह वसुट्ट विहग गइ ॥ ४३ ॥
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( ८० )
पूर्वी कर्म के ४ भेद.
जैसे नाथ के द्वारा बैल इच्छित स्थान पर लेजाया जाता है वैसे ही जिस कर्म द्वारा जीव चारों गति में पहुंचता है उस को अनुपूर्वी कर्म कहते है । यह कर्म एक गति से दूसरी गति में जाते हुवे मार्ग में जीव को उदय में आता है.
चारों गतियों की अपेक्षा से अनुपूर्वी कर्म के ४ भेद होते हैं, १ देवानुपूर्वी - जिस कर्म द्वारा किसी गति से जीव देवगति में पहुंचते हैं उसको देवानुपूर्वी कर्म कहते हैं.
२ मनुष्यानुपूर्वी - जिस कर्म द्वारा किसी गति से जीव 'मनुष्यगति में पहुंचते हैं उसको मनुष्यानुपूर्वी कर्म कहते हैं.
३ तिर्यचानुपूर्वी - जिस कर्म द्वारा किसी गति से जीव तिर्यच गति में पहुंचता है उसको तिर्यचानुपूर्वी कर्म कहते हैं.
४ नरकानुपूर्वी - जिस कर्म द्वारा किसी गति से जीव नरक गति में पहुंचता है उसको नरकानुंपूर्वी कर्म कहते हैं.
कुछ संज्ञाऐं बतलाते हैं । जहां द्विक शब्द वे वहां गति 1 और अनुपूर्वी दोनों जानना चाहिये। जहां त्रिक शब्द आवे हां गति, अनुपूर्वी और आयु तीनों जानना चाहिये जैसे.
- तिर्यचद्विक- अर्थात् तिर्यंच गति और तिर्यच अनुपूर्वी. तिर्यचत्रिक - अर्थात् तिर्यंचगति, तिर्यचानुपूर्वी और तिर्यच आयु
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(८१) एक गति त्याग करके दूसरी गति में जीव जावे तव मार्ग में अनुपूर्वी कर्म, उत्पन्न हो तव गति कर्म, जितने काल तक उस (नवीन) योनि में रहे तव तक आयु कर्म, का उदय रहता है।
अनुपूर्वी नाम कर्म का उदय जहां दो समयादि की विग्रह गति होती है वहां होता है चारों गति में वक्रगति होती है इसलिये चारोंगति में जाते समय अनुपूर्वी कर्म का उदय रहता है देवगति में जाते देवानुपूर्वी, का मनुष्य गति में जाते मनुष्यानु पूर्वी का इत्यादि।
जहां एक ही समय में सम श्रेणी में जीव जाता है वहां अनुपूर्वी की आवश्यक्ता नहीं अर्थात् जव जीव मोक्ष में जाता हैं तब अनुपूर्वी नहीं होती है अर्थात् जहांजीव सीधी गति (चाल) से दूसरी गति में जाता है तव अनुपूर्वी नहीं होती है। यह गति मोक्ष की है पिछे संसार भ्रमण नहीं रहता।
विहायो गति नाम कर्म फे २ भेद । जिस कर्म के उदय से जीवकी शुभा शुभ चाल होती है उस को विहायो गति नाम कर्म कहते हैं। . : १ शुभ विहायंगति-जिस कर्म के उदय से जीव (शरीर धारी.) शुभ चाल से चलता है उसको शुभ विहायगति नामकर्म कहते हैं जैसे बैल की चाल सीधी होती है मनुष्य की सीधी चाल होती है हाथी की सीधी चाल होती हैं।
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(८२) २ अशुभविहायोगति-जिस कर्म के उदय से जीव अशुभ चाल से चलता है उसको अशुभ विहायो गति नाम कर्म . 'कहते है जैसे ऊंट टेढा चला करता है मनुष्य भी कभी टेढा चला करता है जब कि पैर टकरा जाते हैं।
विहाय शब्द से अर्थ आकाश का होता है गति से चाल का अर्थ होता है आकाश में ही गमन किया जाता है इसको विहाय गति कहते हैं यह गति का उपयोग त्रस जीव ही करते हैं. पिंड प्रकृतियों का विषय समाप्त होचुका अव प्रत्येक प्रकृतियों
__ का स्वरूप बतलाते हैं. परघा उदया पाणी परेसिं बलिणंपि होइ दुद्धरिसो, उससिण लद्धिजुत्तो, हवेइ सास नाम 'चसा ॥४४॥
पराघात नाम कर्म का स्वरूप । 'जिस कर्म के उदय से जीव का प्रभाव उससे अधिक प्रतिभाशाली और अधिक शक्तिमान आदि पर भी अधिक पड़ता है शत्रु भी उस से भय भीत होते हैं उससे किसी भी प्रकार का बाद करने को किसी का साहस नहीं होता हैं उस को पराघात नाम कर्म कहते हैं. :
जिम कर्म के उदय से जीव श्वासोश्वास सुख पूर्वक लेता
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- ( ८३ ) है उस को उच्छ्वास नाम कर्म कहते हैं ... :: .
उच्छ्वास नाम कर्म का स्वरूप। . . . उच्छ्वास प्रकृति लब्धि आश्रित होती है और इस को शास्त्रों में शायोपशमिक बतलाया है किन्तु वो वचन प्रायिक होने से उदयिक भी बतलाया है उदयिक और क्षायोपशमिक का भेद चतुर्थ कर्म ग्रन्थ में विस्तार से बतलायेंगे। ... __ . 'उच्छ्वास लब्धि के समान आहारक लब्धि और वैक्रिय लब्धि इन को भी उदयिक जानना चाहिये।
रवि बिंबेङ जिअंगं, तावजुनं श्रायवाउनउजलणे, जमुसिण फांसस्स तर्हि, लोहिय वएणस्स उदउत्ति ॥ ४५ ॥ . . . ... . . आतप नाम कर्म का स्परूप । । । ... .जिस कर्म के उदय से जीव के शरीर से उष्ण प्रकाश निकलता है उसको आतप नाम कर्म कहते हैं जैसे कि सूर्य मंडल में रत्न के वादर एकेंद्रियः पर्याप्त पृथ्वी काय के जीव हैं. उनका शरीर शीतल है तथापि उनके शरीर से उष्ण प्रकाश निकलता है जिस से अन्य जीवों को ताप उत्पन्न होता है यह. आतप नाम कर्म का उदय है। ., ... ...". : . . .: किन्तु अग्नि कार्य के जीवों का शरीर उष्ण होने पर भी
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( ८४ :)
और शरीर का प्रकाश भी उष्ण होने पर भी उनको श्रातप नाम कर्म का उदय नहीं है कारण कि उनके शरीर का ताप जितनी २ दूर बढ़ें इतनी कम होती जाती हैं इसलिये उनको उपर्श नाम कर्म और रक्त वर्ण नाम कर्म का उदय है ।
प्रसुसि पयास रूवं, जिचंग मुज्जो ए इहुज्झोत्रा, जइ देवुत्तर विविध, जोइस खज्जो - अ माइव्व ॥ ४६ ॥
उद्योत नाम कर्म का स्वरूप |
जिस कर्म प्रकृति से जीव के शरीर में से शीत प्रकाश निकलता है उसको उद्योत नाम कर्म कहते हैं ।
देवताओं को उद्योतनाम प्रकृति भव आश्रित होती है और जब कहीं अन्यत्र जाते हैं और नया शरीर बनाते हैं तब भी उन को उद्योत नाम प्रकृति के उदय से उनके शरीर से शीतप्रकाश निकलता है ।
लब्धिवंत मुनिराज भी जब नया शरीर ग्रहण करते हैं तो उद्योतं नाम कर्म के उदय से उनके शरीर से शीतप्रकाश निकलता है । .
सूर्य के सिवाय चंद्र, ग्रह, नक्षत्र और तारा आदि के विमानों में जो रत्न के जीव है उनके शरीर में भी उद्योत नाम
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( ५ )
कर्म से शीतप्रकाश निकलता है इस ही तरह खर्जवा (आगिया) आदि जन्तुओं के शरीर से और अनेक वनस्पति के जीवों के . शरीर से उद्योत. नाम कर्म से शीतप्रकाश निकलता हैं ।
अंगं न गुरु न लहुअं, जायह जीवस्स अगुरु लहु उदया, तित्थे तिहुं अस्सवि पुज्कोसे उदय केवलिणो ॥ ४७ ॥
गुरु लघु कर्म का स्वरूप.
जिस कर्म के उदय से शरीर न तो इतना भारी हो कि हलचल न सके न इतना हलका हो कि वायु में उड़जावे किंतु मध्यस्थ हो जिससे इच्छानुसार गमन कर सके उस कर्म को अगुरु लघु कर्म कहते हैं.
तीर्थकर नाम कर्म का स्वरूप,
जिस कर्म के उदय से जीव को तीर्थंकर पद प्राप्त होता उसको तीर्थंकर नाम कर्म कहते हैं.
.. तीर्थंकर प्रत्येक अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी में चोवीस चौवीस होते हैं ये तीसरे और चौथे आरे में होते हैं इनका जन्म क्षत्रियादि उत्तम कुल में होता है इनके माता के उदर में आने पर इन्द्रादि देव आकर इनकी स्तुति वंदनादि करते हैं इनके जन्म समय इन्द्रादि देव मेरु पर्वत पर जन्माभिषेक करते हैं
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( ६ )
पश्चात् छद्मस्थ अवस्था में रहते हुवे भोगावली कर्म वाकी हो, तो विवाहादि भी करते हैं पश्चात् दान द्वारा दरिद्रियों के दुख दूर करं स्वयं दिक्षा ग्रहण करते हैं पश्चात् जब उनको केवलज्ञान होता है तब देवता समवसरण की रचना करते हैं जहां देव देवी मनुष्य स्त्री तिर्यंच आकर उनका बहुमान करते हैं और उपदेश सुन सम्यक्त्व प्राप्त करते हैं कितनेक मनुष्यं स्त्री उनके पास दीक्षा लेकर साधु साध्वी होते हैं जिनको तीर्थंकर यथायोग्य गणधर आचार्य उपाध्याय साधु साध्वी आदि पद देते हैं और देश विरति धर्म ग्रहण करने वालों को श्रावक श्रविकादि पद देते हैं इस प्रकार परम पूज्य परमात्मा जगदीश्वर तीर्थंकर भगवान का धर्मोपदेश सुनकर अनेक जीव मोक्ष जाते
4
अनेक जीवों को केवलज्ञान और अनेक जीवों को सम्यक्त्व प्राप्त होता है । साधु साध्वी श्रावक श्राविका इस प्रकार चतुर्विध संघरूपी जंगम तीर्थ की स्थापना करने से इनको तीर्थंकर कहा जाता है यही परम ईश्वर ( परमेश्वर ) है जो कि सच्चे ज्ञान का उपदेश करते हैं इस भव समुद्र से स्वयं तरते हैं अर्थात् मुक्त होकर सिद्ध पद प्राप्त करते हैं और अनंत जीवों को तारते हैं विशेष गुरु गम से जानकर इन्हीं तीर्थंकर वीतराग भगवान का ध्यान वंदन स्तवन पूजन आदि करना चाहिये जिससे हमें श्री वही वीतरागता प्राप्त होकर हमारी भी मुक्ति हो । इन्हीं के
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( ८७ ) वचन निर्दोष परस्पर विरोधी और प्राणी मात्र के. हितकारी हैं जिनको कि जैनसूत्र अर्थात् जिनेंद्र भगवान कथित शास्त्र कहते हैं इस ईश्वरीयज्ञान को गुरुगम से अवश्य पढना चाहिये.. ___अंगोवंग नियमणं, निम्माणं कुणइ सुत्तहारसमं, उवधाया उव हम्मइ, सतणु अवयवलंबि गाईहि ॥४८॥
: ... निर्माण नाम कर्म. जिस कर्म के उदय से शरीर के भाग यथोचित् युक्त होकर शरीर का निर्माण होजाता है उसको निर्माण नाम कर्म कहते हैं जैसे कि-खाती द्वारा लकड़ी के भाग यथावत् युक्त होकर कुरसी बन जाती है... ... ....
उपघात नाम कर्म. . . . . . . ३. जिस कर्म के उदय से 'जीव अपने ही अंगों के कारण दुःख पाता है उसको उपघात नाम कर्म कहते हैं जैसे कि किसी को एक अधिक जीभ वा अंगुली हो चोर दंत हो वारसौली हो.
..बिति चउ पणिदि तस्सा, बायरो बायरा जित्रा थूला, निश्र निथ पज्झति जुश्रा, पज्जता
लद्धि करणेहिं ॥४६॥ . . . . . .:: :: : 'अव नस दशक और स्थावर दशक का साथ साथही वर्णन करते हैं,
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त्रस दशक... १. सकाय
३ वादर
५ पर्याप्त
७ प्रत्येक
हस्थिर,
११ शुभ १३ सौभाग्य
r
१५. सुस्वर १७ आदेय १६ कीत्तियश
('cz)
3
स्थावर दशक.
२ स्थावरकाय
४ सूक्ष्म
६
८ साधारण
१० अस्थिर
१२ अशुभ
१४ दुर्भाग्य
१६ दुःस्वर १८ अनादेय
२० अपयश
१ स नाम कर्म - जिस कर्म के उदय से त्रसकाय प्राप्त हो उसको त्रस नाम कर्म कहते हैं. त्रसकाय उसको कहते हैं जिसकाय के जीव त्रास पाकर हट जाने और उसका त्रास दूसरों के देखने में भी आवे, बेंद्रिय, तेंद्रिय, चौरींद्रिय पंचेंद्रिय जीव सब सकाय हैं.
4
&
२ स्थावर नाम कर्म-जिस कर्म के उदय से स्थावरकाय प्राप्त हो उसको स्थावर नाम कर्म कहते हैं, स्थावरकाय उसको कहते हैं जिसको में दुःख पाकर भी वहीं स्थिर रहना पड़े जलकाय, वायुकाय, अग्निकाय वनस्पतिकाय और पृथ्वीकाय
❤
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( 8) के एकेंद्रिय जीव स्थावरकाय है. . . ३ वादर नाम कर्म-जिस कर्म के उदय से जीव को ऐसा शरीर मिले जो दूसरों के देखने में आसके उसको वादर नाम कर्म कहते हैं.
४ सूक्ष्म नाम कर्म जिस कर्म के उदय से जीव को ऐसा शरीर मिले जो दूसरों के देखने में नहीं आसके उसको सूक्ष्म नाम कर्म कहते हैं. ५प्रकार के एकेंद्रिय जीव जो सूक्ष्म होते हैं वे एकेंद्रिय जीव १४ राजलोक में सर्वत्र व्याप्त है जो चर्म चक्षु से नहीं दिखते हैं विशेष अधिकार जीव विचार से जानना चाहिये.
म कर्म-जिस कर्म के उदय से आरम्भ की हुई पर्याप्ति पूर्ण किये बिना ही जीव की मृत्यु नहीं हो उसको पर्याप्ति नाम कर्म कहते हैं. . पुद्गलों के उपचय से पुद्गल परिणमन की जो शक्ति होती है उसको पर्याप्ति कहते हैं. पर्याप्ति सामान्य रीति से दो प्रकार की होती है:
अ. लब्धि-जो जीव की पर्याप्ति पूर्ण किये पश्चात् मृत्यु हो उसको लब्धि पर्याप्ति कहते है
ब. करण-जो जीव की पर्याप्ति पूर्ण किये पश्चात् मृत्यु हो वा न हो किन्तु पर्याप्ति पूर्ण हुवे पश्चात् करण पर्याप्ति कहते हैं.
विशेष रीति से पर्याप्ति ६ प्रकार की होती है. जिस में
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( 20 )
एकेंद्रिय को ४ पर्याप्त होती हैं, विकलेंद्रिय और असंज्ञा पंच: द्रिय को ५ पर्याप्ति होती है और संज्ञी पंचेंद्रिय को ६ पर्याप्ति होती है." पर्याप्ति के ६ भेद इस प्रकार होते हैं ।
"
(क) आहार पर्याप्ति - जिस कर्म शक्ति से दूसरी गति में जाने के समय जीव नवीन पुद्गल ग्रहण करता है उसको आहार पर्याप्ति कहते हैं |
( ख ) शरीर पर्याप्ति-जिस कर्म शक्ति से आहार ग्रहण पश्चात् जीव सात धातु के रूपमें शरीर बनाता है उसको शरीर पर्याप्त कहते हैं ।
(ग) इंद्रिय पर्याप्ति - जिस कर्मशक्ति से शरीर ग्रहण करने पश्चात् जीव इंद्रियों के रूप में शरीर को परिणामन करता है उसको इंद्रिय पर्याप्त कहते हैं ।
(घ) श्वासोश्वास पर्याप्ति-जिस कर्मशक्ति से जीव श्वासो श्वास के पुद्गल ग्रहण कर श्वासोश्वास रूप में परिणमन करता है उसको श्वासोश्वास पर्याप्त कहते हैं ।
(च) भाषा पर्याप्ति - जिस कर्मशक्ति से जीव भाषा द्रव्य के पुद्गलों को ग्रहण कर भाषा रूप में परिणमन करता है उसको भाषा पर्याप्त कहते हैं । -
(छ) मनो पर्याप्ति - जिस कर्मशक्ति से जीव मनद्रव्य के पुद्गल ग्रहण कर मन रूप में परिणमन करता है उसको मनो
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(६१) पर्याप्ति कहते हैं। ...... ": .... . ... इन छः पर्याप्ति का आरम्भ एकही समय में एकही साथ होता है प्रथम समय में आहार पर्याप्ति होती है पश्चात अंतमुहूर्त में शरीर पर्याप्ति होती है . . . . . . . ___ पश्चात् औदारिक शरीर वाला थोड़े २: अंतर. से शेष ४ पर्याप्ति पूर्ण करता है वैक्रिय और आहारक शरीर वाले समयर के अंतर में पूर्ण करते हैं इन में दो पर्याप्ति सूक्ष्म है जिससे उनके पूर्ण करने में काल अधिक होता है. जैसे सूत कातने वालों के जने को साथ प्रारम्भ कराया जाये तो मोटा कातने वाले प्रथम कूकड़ी पूरी करेंगे और सूक्ष्म ( बारीक ) कातने वाले अन्त में पूर्ण करेंगे. .. .. .. . . . . . . ६ अपयाप्त नाम कर्म-जिस कर्म के उदय से कितनीक पर्याति पूर्ण किये विना प्रथम ही जीव की मृत्यु होजावे उसको अपर्याप्त नाम कर्म कहते हैं ।
पत्तेत्राण पत्ते उदएणं अढिमाइ थिरं। नाभुः वरि सिराइ सुहं सुभगाओ सव्वजण इट्टा ॥ ५० ॥ ...७ प्रत्येक नाम: कर्म-जिस कर्म के उदय से जीव को भिन्न ( पृथक् ) औदारिक शरीर प्राप्त होता है. उसको प्रत्येक • नाम कर्म कहते हैं।
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(६२) - सूक्ष्म, तेजस और कार्मण शरीर प्रत्येक जीवों को भिन्न २ अर्थात् पृथक् २ होते हैं किन्तु औदारिक शरीर निगोद के जीवों का तो अनंत जीवों का एक २ ही औदारिक शरीर होता है निगोद के सिवाय अन्य जीवों का औदारिक शरीर भी पृथक् अर्थात् भिन्न ही होता है ।
साधारण नाम कर्म-जिस कर्म के उदय से निगोद का अभिन्न (अपृथक्) शरीर हो अर्थात् अनेक जीवों का एक ही शरीर हो उस शरीर में किसी जीव को शरीर प्राप्त हो उसको साधारण नाम कर्म कहते हैं।
वनस्पति काय के दो भेद होते हैं १ प्रत्येक वनस्पतिकाय और २ साधारण वनस्पतिकाय-प्रत्येक वनस्पति काय उन वनस्पतियों को कहते हैं जिनमें एक शरीर में एकही जीव होता हैं.
. . . साधारण वनस्पति काय कंद मूल आलू कांदे लहशुन आदि जमीकंद को कहते हैं जिनमें अनंत जीवों का एक शरीर होता है इन जमीकंद के जीवों को निगोद के जीव कहते हैं यह शरीर साधारण नाम कर्म के उदय से प्राप्त होता है। इन जमीकंद को खाने में एक वनस्पति को खाने में अनंत जीवों की हिंसा होती है और अन्य वनस्पतियां केला आम आदि में एक वनस्पति खाने में एकही जीव की हिंसा होती है
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( ६३ )
अतएव मनुष्य को बुद्धि पूर्वक इनके भक्षण में विचार रखना चाहिये ६ स्थिर नाम कर्म - जिस कर्म के उदय से शरीर में हड्डिय दांत आदि स्थिर रहते हैं उसको स्थिर नाम कर्म कहते हैं..
१० अस्थिर नाम कर्म - जिस कर्म के उदय से शरीर में कान जीभ आदि अस्थिर रहते हैं उसको अस्थिर नाम कर्म कहते हैं.
प्रकृति के अविरोधी व के उदय से ये दोनों साथ रहते हैं. ११ शुभ नाम कर्म - जिस कर्म के उदय से शरीर के नाभि से ऊपर के भागों का जैसे हस्तादि का दूसरे से स्पर्श होने पर उसको प्रीति उत्पन्न होती है किन्तु अभीति नहीं होती है उसको शुभ नाम कर्म कहते हैं.
१२ अशुभ नाम कर्म - जिस कर्म के उदय से नाभि के नीचे के भाग को जैसे पादादि का दूसरों से स्पर्श होने पर दूसरे उसको अपमान समझते हैं उसको अशुभ नाम कर्म कहते हैं. वे दोनों प्रकृति ध्रुवोदयी उदय अविरोधि की हैं.
१३ सौभाग्य नाम कर्म - जिस कर्म के उदय से जीव को दूसरों का उपकार न करने पर भी दूसरे उसको बहुमान देते हैं उससे भीति की इच्छा करते हैं सर्व को वो प्रिय होता है उसे कर्म को सौभाग्य नाम कर्म कहते हैं.
१४ दुर्भाग्य नाम कर्म - जिस कर्म के उदय से जीव को
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(४) दूसरों का उपकार करने पर भी दूसरे उससे द्वेष रखते हैं अपकार मानते हैं उसको दुर्भाग्य नाम कर्म कहते हैं. . .. . . सुसरा महुर सुहझुणी, प्राइज्मा सव्वलोत्र गिज्झवश्रो । जसो जस कित्तीअो, थावर दसगं विवज्मत्थं ॥ ५१॥
. .१५ सुस्वर नाम कर्म-जिस कर्म के उदय से जीव का कंठ प्रिय और मधुर होता है उसको सुस्वर नाम कर्म कहते हैं. जैसे कोयल का मैना का मयूर इत्यादि का कंठ.. ... . ... १६ दुस्वर नाम कर्म-जिस कर्म के उदय से जीव का कंठ प्रप्रिय होता है. उसको दुखर नाम कर्म कहते हैं जैसे काग का
उंट का लोमड़ी का....::. :: .. .. .. .. : ..... आदेय नाम कर्म-जिस कर्म के उदय से जीव का वचन शुभ हितकारी समझा जाता है उसको आदेय नाम कर्म कहते हैं,
१८ अनादेय नाम कर्म-जिस कर्म के उदय से जीव का वचन शुभ हितकारी होते. हुवे भी अशुभ हितकारी समझा जाता है उसको अनादेय नाम कर्म कहते हैं... " ....
१६ कीर्तियश नाम कर्म-जिस कर्म के उदय से जीव की कीर्तियश सर्वत्र फैलता है. उसको कीर्चियश नाम कर्म कहते हैं,
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(६५) ... २० अपयश नाम कर्म-जिस कर्म के उदय से जीव की निन्दा लोगों में होती है उसको अपयश नाम कर्म कहते हैं ।
कीर्ति उसको कहते हैं जो एक दिशा में प्रशंसा होती है और यश उसे कहते हैं जो सर्व दिशा में प्रशंसा होती है। '' त्रस दशक और स्थावर दशक में इतना भेद है कि उस दशक पुन्य से होते हैं और स्थावर दशक पाप से होते हैं दोनो परस्पर विरुद्ध हैं जैसे शुभ और अशुभ-ऊपर दोनों सदशक और स्थावर दशक का साथ ही वर्णन कर दिया है । .
नाम कर्म समाप्त हुवा। गोमं दुहुच्चनी, कुलाल इव सुघड मुंभलाईनं, विग्धं दाणे लाभे भोगुव भोगेसु वीरिएअः॥ ५० ॥
गोत्र कर्म के दो भेद । जिस कर्म के उदय से जीव शुभा शुभ जाति कुल में उत्पन्न होता है उसको गोत्र कर्म कहते हैं उसके दो भेद हैं। , .. " . .१. उच्च गोत्र कर्म-जिस कर्म के उदय से जीव उच्च लोकमान्य जाति कुल में जैसे क्षत्रिय काश्यपादिजाति और उग्रादिक कुलमें उत्पन्न होता है उसको उच्चैर्गोत्र:कर्म कहते हैं।
२.नीचर्गोत्र कर्म-जिस कसे के उदय से जीव भिक्षुक,
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(६६)
कलाल आदि नीच जाति में उत्पन्न होता है उसको नीचर्गोत्र कर्म कहते हैं जैसे पवित्र जलादि के उपयोग के लिये जो मट्टी के घड़े कुंभकार वनाता है उनको लेजाकर लोग कलशादि की स्थापना करते हैं और उनपर अक्षत पुष्पादि चढाते है किन्तु जो घड़े मदिरा आदि के लिये बनाये जाते हैं उनमें मदिरा नहीं होते हुवे भी उनकी कोई पूजा नहीं करते हैं इस ही प्रकार उच्चजाति कुलमें उत्पन्न हुवे जीवों को तो वैसे ही -सन्मान प्राप्त हो जाता है किन्तु नीच जाति कुल में उत्पन्न हुने जीवों में बुद्धि लक्ष्मी आदि होते हुवे भी जाति कुल की अपेक्षा से उनका कम सन्मान होता है।
अंतराय कर्म के ५ भेदः जिस कर्म के उदय से जीव के अपनी शक्तियों को उपयोग में लाने में अंतराय होती है उसको अन्तराय कर्म कहते . हैं इसके ५ भेद हैं.
१ दानांतराय-जिस कर्म के उदय से जीव के पास उचित . द्रव्य होते हुवे भी शुभ पात्र होते हुवे भी और देने की इच्छा होते हुवे भी दान नहीं कर सकता है उसको दानांतराय कर्म कहते हैं.
२ लाभांतराय कर्म-जिस कर्म के उदय से व्यापार कुशलता होते हुवे भी दाता का संयोग होते हवे भी इच्छित वस्त
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(६७) भी दाता के पास होते हुवे भी कुछ लाभ प्राप्त न हो उसको लाभांतराय कर्म कहते हैं. '
३ भोगांतराय कर्म-जिस कर्म के उदय से भोगकी वस्तुएं भागने का त्याग न होते हुवे भी न भोगी जासकें उसको भोगांतराय कर्म कहते है.
भोग की वस्तुएं उन्हें कहते हैं जो केवल एकवार भोगी जा सक्ती है जैसे आहार जल पुष्पादि .
४ उप भोगांतराय कर्म-जिस कर्म के उदय से उपभोग की वस्तुओं के भोगने का त्याग न होते हुवे भी भोग न सके उसको उपभोगांतराय कर्म कहते हैं.
. उपभोगकी वस्तुएं उन्हें कहते हैं जो अधिकवार भोगी जा सकें जैसे पलंग कपड़े आदि.
५ वीर्यांतराय कर्म-इनके तीन भेद हैं। . अ-बालवीयांतराय कर्म.
जिस कर्म के उदय से सांसारिक क्रिया में समर्थ होते हुवे भी इच्लित भोग न कर सके.उसको वालवीर्यातराय कर्म कहते हैं. ...व-पंडित वीर्यातराय कर्य.
जिस कर्म के उदय से सम्यग्दृष्टि साधु होते हुवे भी मोक्षार्थ क्रियाएं न कर सके उस कर्म को पंडित वीर्यातराम कर्म कहते हैं,
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(६८) क-बाल पंडित वीयांतराय कर्म जिस कर्म के उद्रय से देशविरति अर्थात् श्रावक धर्म पालन करने की इच्छा होते हुवे भी पालन न कर सके उसको वाल पंडित वायांतराय कर्म कहते हैं.
सिरि हरित्र समं एग्रं, जह पडिकूलेण तेण रायाई, नकुणइ दाणाई अं, एवं विग्घेण जी-' वोवि ॥ ५३॥
जैसे कोषाध्यक्ष (खजानची) के देने पर ही राजा द्रव्य को दान कर सक्ता है. लाभार्थ द्रव्य उपयोग में ला सक्ता हैं द्रव्य का भोग उपभोग कर सकता है शक्ति का भोग कर सका है किन्तु खजानची की अनुपस्थिती में इच्छा होने पर भी राजा कुछ नहीं कर सका इस ही प्रकार जीव अंतराय कर्म के कारण दान लाम भोग उपभोग और वीर्य को उपयोग में नहीं ला सका है. कों की ८ मूलप्रकृति की १५८ उत्तर प्रकृतियों की सूची.
८ कर्म की मूल प्रकृति। १ ज्ञानावरणीय कर्म २ दर्शनावरणीय कर्म ३ वेदनीय कर्म ४ मोहनीय कर्म ५ आयुकर्म
६'नाम कर्म ७ गोत्र कर्म
८ अंतराय कर्म .
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( ९६ ) ५ ज्ञानवरणीय कर्म की उ०प्र० १ मतिज्ञाना वरणीय २ श्रुतंज्ञाना वरणीय ३ अवधि ज्ञानावरणीय ४ मनापर्यत्र ज्ञानावरणीय ५ केवल ज्ञानावरणीय ' है दर्शनावरणीय कर्म की उ० प्र०।
१ चक्षु दर्शनावरणीय २ अचनु दर्शनावरणीय ३ अवधि दर्शना बरणीय · ४ कत्रल दर्शनावरणीय ५ निद्रा
६ निद्रा निद्रा ७ मचला
समचला प्रचला. हथीनद्धी
२ वेदनीय कर्म की उ०प्र० । १ शातावेदनीय
२ अशातावेदनीय २८ मोहनीय कर्म की उ० प्र०। १ सम्यक्त्व मोहनीय . . २ मिश्र मोहनीय '३ मिथ्यात्वः मोहनीय .. ४ अनंतानुवंधी क्रोध
५. अप्रत्याख्यान क्रोध . ६ प्रत्याख्यान क्रोध .७ संज्वलन क्रोध .. अनंतानुवंधीमान .. अमत्याख्यान मान : १० प्रत्याख्यान मान
११ संज्वलन मान . . . १२ अनंतानुबंधी माया
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(१००)
१ देवायु
१३ अप्रत्याख्यान माया १४ प्रत्याख्यान माया १५ संज्वलन माया १६ अनंतानुबंधी लाभ १७ अप्रत्याख्यान- लोभ १८ प्रत्याख्यान लो . १९ संज्वलन लाभ
२० हास्यनो कपाय २१ रतिनो कपाय
२२ अरतिनो कपाय २३ शोकनो कपाय
२४ भयनो कपाय २५ जुगुप्सानो कषाय २६ पुरुपवेदनो कपाय २७ स्त्रीवेदनो कपाय २८ नपुंसकवेदनो कपाय ४ श्रायु कर्म की ४ उ० प्र० ।
२ मनुष्यायु ३ तिर्यंचायु
४ नरकायु १०३ नाम कर्म की उ० प्र०। १ नरकगति नाम कर्म २ तिर्यंच गति नाम कर्म ३ मनुष्य गति नाम कर्म ४ देवगति नाम कर्म ५ एकेंद्रिय जाति नाम कर्म ६ वेंद्रिय जाति नाम कर्म 19 तेंद्रिय जाति नाम कर्म चतुरिद्रिय जाति नाम कर्म
पंचेंद्रिय जाति नाम कर्म १० औदारिक शरीर नाम कर्म ११ वैक्रिय शरीर नाम कर्म १२ अाहारक शरीर नाम कर्म १३ तेजस शरीर जाम कर्म १४ कार्मण शरीर नाम कर्म १५ औदारिक अंगोपांग १६ वैक्रिय अंगोपांग
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१७ आहारक अंगोपांग . . १८ औदारिक औदारिक वधन : १६ औदारिक. तेजस बंधन २० औदारिक कार्मणं बंधन २१ औदारिक तेजस कार्मण बंधन २२ बैंक्रिय वैक्रिय बंधन २३ वैक्रिय तेजस बंधन २४ वैक्रिय कार्मण वंधन: .. २५ वैक्रिय तेजस कार्मण वं०२६ आहारक आहारक बंधन २७ आहारक तेजस बंधन २८ आहारक कार्मण वंधन । २६ आ० ते० का बंधन ३० तेजस तेजस बंधन
३१ तेजस कार्मण वंधन ३२ कार्मण कार्मण वंधन · . • ३३ औदारिक संघातन ३४ वैक्रिय संघातन
३५ आहारक संघातन : ३६ तेजस संघातन . . ' ३७ कार्मण संघातन । ३८ वज्रऋषभ नाराच संघयण ३६ ऋषभ नाराचं संघयण ४० नाराच संघयण ४१ अर्द्ध नाराच संघयण' ४२ कीलिका संघयण. : ४३ छेवट्ट संहनन . . : .४४ सम चतुरस्त्र संस्थान ४५ न्यग्रोध संस्थान'.. .४६ सादि संस्थान ::. ४७ वामन संस्थान. ..४८ कूब्ज संस्थान.. ... , ४६ हुंड संस्थान ..... ५० कृष्णवर्ण नाम कर्म : ५१ नीलवर्ण नामः कर्म . .५२ लोहितवर्ण नाम कर्म : ५३ हारिद्र वर्ण.नाम कर्म ... ५४ श्वेतवर्ण नाम कर्म .. ५५ सुरभि गंध ५६ दुरभिगंध :
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५७ तिक्तरस ना० क० ५९ कषायल रस नाम कर्म
६१ मधुररस नाम कर्म
६३. मृदु स्पर्श नाम कर्म
६५ लघु स्पर्श ना० क०
६७ उर्णस्पर्श ना० क०
६९ रुक्ष स्पर्श ना० क ० . ७१ तिर्यचानुपूर्वी ७३ देवानुपूर्वी ७५ अशुभ विहाय गति
७७ उच्छ्रवास ना० क०
७६ उद्योत ना० क
८१ तीर्थकर ना० क०
८३ उपघात ना० क०
८५ वादर ना० क०८७ प्रत्येक ना० क०
( १०२)
८ शुभ ना० क० ६१ सुस्वर नाम कर्म ...६३ यशः कीर्ति नाम कर्म
.
६५ सूक्ष्म नाम कर्म
५८ कटुकरस नाम क० ६० आम्लरस नाम कर्म ६२ कर्कश स्पर्श नाम कर्म .६४ गुरुस्पर्श ना० क० ६६ शीतस्पर्श ना० क० "
⋅
:
६८ स्निग्धस्पर्श ना० क०
७० नरकानुपूर्वी ७२ मनुष्यानुपूर्वी ७४ शुभ विहाय गति
७६ पराघात नाम कर्म
:
७८ आतप ना० क०.
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८०. अगुरुलघु मा० क०
" ८२ निर्माणं ना० क०
1
८४ नस ना०. क.०
८६ पर्याप्त ना० क०
८८ स्थिर ना० क० ६० सौभाग्य ना० क०
६२ आदय नाम कर्म :
९४. स्थावर नाम कर्म ६६ अपर्याप्त नाम कर्म :
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(१०३) ९७ साधारण नामः कर्मः अस्थिर नाम कर्म ६६ अशुभ नाम कर्म १०० दुभाय॑नाम कर्म १०१ दुस्वर नामकर्म १०२ अनादेय नाम कर्म १०३ अयशः अकीर्ति नाम कर्म .. .
- २ गोत्र कर्म की उ० प्र०।। १ उच्चै!त्र कर्म २ नीचैर्गोत्र कर्म,
५ अंतराय कर्म की उ० प्र० १दानांतराय
२ लाभांतराय ३ भोगांतराय
४ उपभोगांसरायं. '५ वीर्यांतराय । इस प्रकार ८ कर्म की १५८ कर्म प्रकृति होती हैं:
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बंध उदय - उदीरणा और सत्ता की अपेक्षा से ८ कर्मों की कर्म प्रकृति की सूची.
कर्म नाम
बंध प्रकृति
उदय
उदीरणा
सत्ता
ज्ञा.
४
४
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ना. गो. श्रं.
६७
६७
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६३
४
४
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१
-
समग्र.
१२०
१२२
૧૨૨
११८
१४८
( १०४ )
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(१०५) आठ कर्म प्रकृतियों के बंधन के स्थूल कारण,
पडिणी अत्तण निन्हव, उवधाय पोस अंतराए) । अचासायण याए,आवरण ढुंगंजिश्रो जयई ।। ५४॥
कर्म बंधन के मुख्य कारण ४ होते है मिथ्यात्व, अविरति, कपाय और योग । __ इन का वर्णन चतुर्थ कर्मग्रन्थ में विस्तार से करेंगे किन्तु यहां पर भी मुख्य २ कारणों को संक्षेप से बतलाते हैं। ज्ञाना वरणीय और दर्शना वरणीय कर्म बंधन के मुख्य कारण ।
ज्ञानी साधु, श्रावक, धर्मोपदेशक लौकिक विद्यागुरू और ज्ञान उपकरण पुस्तक पट्टी आदिका अविनय करने से, विद्या गुरू का नाम बदलने से, ज्ञानी और ज्ञान उपकरण से द्वेष करने से अरुचि करने से विद्यार्थी ( पढ़ने वाले) को भोजन पान में, आवश्यकीय स्थानादि के प्रयत्न में बाधा पहुंचाने से, विद्यार्थी को अन्य कार्य में लगा पढने में विघ्न करने से, विद्यार्थियों को खेदोत्पादक वचन कहने से अकाल में स्वाध्याय करने से, योग उपधान अर्थात् सूत्रादि पढते समय यथोचित् तपस्या न करने से, वर्जित दिवस को स्वध्याय करने से, ज्ञान उपकरण सहित लघुशंका वा दीर्घ शंका वा काम चेष्टा करने से ज्ञान उपकरण को पैर का स्पर्श करने से वा थूक, श्लेष्य
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.
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.
.
१०६) आदि का स्पर्श करने से, ज्ञान द्रव्य भक्षण करने से का विनाश करने से अथवा भक्षण करने वाले और विनाश करने वालों की उपेक्षा करने से ज्ञाना वरणीय कर्मों का बंधन होता है। :: ____ उपरोक्त कारणों ही से दर्शनावरणीय कर्मों का बंधन होता है किन्तु विशेषता यह होती है कि ज्ञानियों और विद्यार्थियों की इद्रियों के सदुपयोग में विघ्न करने से वा विनाश का प्र. यत्न करने से, और तत्वज्ञान के ग्रन्थों पर द्वेषभाव करने से भी दर्शना वरणीय कर्मों का बंधन होता है ।... ......
गुरुभत्तिखंति करुणा, वयजोग कसाय विजय दाजुभो। दृढ धम्माई अंज्झइ, सायमसाय विवज्भया ।। ... ... ... ... .. .. ... ..... वेदनीय कर्म बंधन, के मुख्य कारण । ...... ..गुरु अर्थात् धर्माचार्य, विद्यागुरु, माता पिता वा बड़े भाई अपने से अधिक आयु, विद्या, और बुद्धि वालों की सेवा करने से चमा भाव रखने से दयामय स्वभाव रखने से, महाव्रत ( साधु व्रत) अणुव्रत (श्रावक व्रतः) पालन करने से, दश विधि साधु समाचारी:(.आचारादि.). पालन करने से, कषायों का जय करने से, यथाशक्ति दान करने से धर्म में स्थिरता रखने से और कोमल परिणाम से शाता वेदनीय कर्मों का बंधन होता है।
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(१०७) . उपरोक्त (शाता वेदनीय के ) गुणों से विरुद्ध वर्ताव करने से, कठोर प्रकृति रखने से, निर्दय स्वभाव रखने से, और अन्य प्राणियों को दुख देने आदि से अशाता वेदनीय कर्मों का बंधन होता है.. ____ व्यवहार में इनको पुण्य पाप कहते हैं पापों का फल दुःख मिलता है और पुण्य का फल सुख मिलता है.
उमग्ग देसणामग्ग, नासणा देव दव्व हरणेहिं दसण मोहं जिण मुणि, चेइअ संघाइ पडिणीत्रों ॥५६॥
. . मोहनीय कर्म बंधन के मुख्य कारण। .
अनजान से वा जानकर वा कदाग्रह से एकांत पत्त लेकर भोले जीवों को धर्म से भ्रष्ट करने से, कुधर्म रूपी कुमार्ग बतला जीवों को भ्रम में डालने से, सम्यग्दर्शी चारित्रधारी. ज्ञानी पुरुषों की निन्दा, करने से, देवद्रव्य भक्षण करने से देवद्रव्य में हानि पहुंचाने से वा दुरुपयोग करने से वा देव, गुरु, धर्म की निंदा करने आदि से मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का बंधन होता है.
साधु, साध्वी, श्रावक श्राविकादि से शत्रुता करने से इन से द्वेष करने से धर्म की निंदा, अपकीर्चि करने कराने से दर्शन मोहनीय कर्मों का बंधन होता है.
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. . ( १०८ )
का स्पर्श कचरण मोह, कसाय हासाई विसय विवस मेणा । बंध निरयाउ महारंभ परिग्गह रत्र रुदो ॥ ५७ ॥
"
*!!
कषायों से, हास्यादि से, और ५ इंद्रियों के विषयों में लीन होने से २ प्रकार के चारित्र मोहनीय कर्मों का बंधन होता है. अनंतानुबंधी कपायों से सोलह, अप्रत्याख्यानी कपायों से बारह, प्रत्याख्यानी कपायों से आठ, और संज्वलन कपा यों से चार, प्रकार के मोहनीय कर्मों का बंधन होता है.... हास्यादि कुचेष्टा से हास्य मोहनीय कर्मों का बंधन होता है. विचित्र क्रीडाऐं देखने से क्रीडा रस के वचन बोलने से दूसरों को वश में करने को कुमंत्र पढ़ने से कुकृत्यों से रति मोहनीय कर्म का बंधन होता है. परस्पर क्लेश कराक
"
3,
झगडा कराने से अरति मोहनीय
4
कर्म का बंधन होता है.
अन्य जीवों को भय दिखलाने से निर्दय परिणामों के कारण भयं परिणामी कर्मों का बंधन होता है.
असत्य कहकर जीवों को शोक चिंता में डालने से शोक मोहनीय कर्मों का बंधन होता है. :
धार्मिक पुरुषों की दुगंछा करने से वा निंदा करने से जुगुप्सा मोहनीय कर्मों का बंधन होता है.
:
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( १०६ )
शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श अनुकूल देखकर आसक्त होने से ईर्ष्या करने से कपट करने से असत्य कहने से पर स्त्री गमन करने से स्त्री वेद कर्मों का बंधन होता है..
सरल परिणाम से, स्वदारा संतोष से, ईपी त्याग से, मंद कपायों से, पुरुष वेद कर्मोंका बंधन होता है.
तीव्र कषायों से दूसरों का ब्रह्मचर्य खंडन कराने से, तीव्र विपय अभिलापाओं से, पशुओं के हनन से, चारित्र धारी पुरुषों को असत्य दोपादि देने से, असाधुओं को साधु कहने से नपुंसक वेद कर्मों का बंधन होता है.
आयु कर्मबंधन के मुख्य कारण ।
चक्रवर्ती राजा की ऋद्धि में लीन होकर अधर्म करने से अनेक जीवों को कष्ट पहुंचाने से, हत्या करने से, अविरति होने से दुष्परिणामी होने से मद्यमांसादि भक्षण आदि सप्तंव्यसन से, और कृतघ्न, विश्वास घातक, मित्रद्रोही आदि होने से और अधर्म प्रशंसक होने से नरक आयु कर्मों का बंधन होता है.
1.
तिरिया गूढहि मणुस्सा । पयई त मज्झिम गुणो ॥ ५८ ॥
गूढ हृदय की शठता से ऊपर से मधुर भीतर की भयंकरता
यो, सढो ससल्लो तहा कसात्रो, दाण रूई
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( ११० )
से, असत्य दोष आरोपित करने से आर्त्तध्यान करने से पापों का प्रायश्चित न करने से मनमें शल्य रखने से तीव्रमोह से तिर्यंच आयु कर्मों का बंधन होता है.
अल्प कषाय दानरुचि, क्षमा, सरलता, निर्लोभता, निष्कपट आदि उत्तम गुणों से और सद्गुरु से सद्बोध पाने से मनुष्य आयु कर्मों का बंधन होता है.:
धर्म प्रेमी होने से धर्म सहायक होने से बाल तपस्वी होने से देशविरति अर्थात् श्रावक धर्म पालन करने से और सराग संयमी चारित्र पालने से देव आयु का बंधन होता है.
अ- अकाम निर्जरा से अग्नि में जलते समय वा कुए तालाव में गिरकर मरते समय शुभ भावना रहने से व्यंतरादि देव आयु बंधन होता है.
"
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व-वाल तप में क्रोधादि परिणाम रखने से, मिथ्यात्वावस्था में तप करने से इंद्रियों को वश में रखते हुवे भी मनमें संसार वासना रहने से भुवनपति देव आयु बंधन होता है.
क-धर्म क्रियाएँ करते हुवे भी धर्माचार्य से द्वेप रखने से किलविशिक ( महतर ) देव आयु का बंधन होता है.
अत्युत्तम चारित्र ( सर्व विरति धर्म ) पालन करने से वैमानिक और ज्योतिषी देवायु का बंधन होता है.
युगलिक. अविरति होते हुवे भी उन में तीव्र कामोदय न
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होने के कारण और परदारा गमन आदि व्यसनों से अरक्त होने श्रादि अनेक कारणों से युगलिकों को देवायु ही बंधन होता है.
शुद्ध ब्रह्मचर्यादि पालन से मिथ्यात्वी को भी देवायु वंधन होता है. _ नाम कर्म के बंधन के मुख्य कारण.
निष्कपट, सत्य प्रियता (सचा माप और तोल रक्खा) ऋद्धि, रस, शाता इन ३ गौरवों से रहित, पापभीरू, परोपकारी लोक प्रिय और तमादि गुण युक्त होने से शुभ नाम कर्मों का वंधन होता है. __ अप्रमत्त चारित्र पालन करने से आहारकद्विक नाम कर्मों का बंधन होता है. __अरिहंतादि २० पदों को शास्त्रानुसार यथाविधि आराधन करने से तीर्थंकर नाम कर्म का बंधन होता है. :
उपरोक्त गुणों से विरुद्ध अवगुणों से ३४ अशुभ नाम कमाँ का बंधन होता है कुल ६७ प्रकृति का वंध बताया. - गुणपेही मय रहियो,अज्झयणज्झा। वणारुइ निचं ॥ पकुणइ जिणाइ भत्तो, उच्चनिनं ई श्ररहाभो ॥ ५६ ॥ .. . : .. .
__ . . गोत्र कर्म बंधन के मुख्य कारण ।।
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गुणप्रेक्षी होना ज्ञान, दर्शन और चारित्रादि गुण जितने अपने में होवे उतने ही प्रगट करना अथवा औरों को बतलाना किसी के अवगुण देखकर निंदा न करना, अपने जाति, कुल
बल, रूप, श्रुत, ऐश्वर्य, लाभ और तप इन आठ संपदाओं से
युक्त होते हुवे भी इनका मद नहीं करना, सूत्र पढना पढाना, अर्थ की रुचिकरंना कराना वाल जीवों को धर्म में प्रवृत्त करना तीर्थकर प्रवचन संघ आदि का बहुमान ( हार्दिक सत्कार ) करना आदि उत्तम गुणों से उच्चगोत्र कर्म का बंधन होता है. उपरोक्त गुणों से विपरीत अवगुणों से नीच गोत्र कर्म का बंधन होता है.
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जिपुत्रा विग्धकरो, हिंसाइ परायणे जयह विग्धं, इय कम्मविवागो, लिहित्रो देविंदसूरीहिं ॥ ६० ॥
श्रीजिनेंद्र भगवान की पूजा का निषेध करना, पूजा में जल कुसुमादि के उपयोग को हिंसामय बतलाना, पूंजा में किसी को विघ्न पहुंचाना, पूजा से किसी को रोकना, पूजा की निंदा करना आदि से अंतराय कर्म का बंधन होता है.
श्रीजिनेंद्र भगवान पर और उनके वचनों पर दृढ श्रद्धा करने के लिये वीतराग भगवान की पूजा की परम आवश्यक्ता है.
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________________ प्रत्येक गृहस्थी को अष्ट द्रव्यम नित्य प्रभु की पूजा करना चाहिये प्रभु पूजादि शुभ कार्यों में अष्ट द्रव्यादि के उपयोग से अशुभ कर्म बंधन नहीं होता है किंतु शुभ कोपार्जन होता है जैसे कि औपध कटु हो तो भी उपयोग का फल शुभ होता है. जिनने समय पर्यत गृहस्थ संबंधी कार्यों का त्याग कर प्रभु पूजा प्रभु गुण ग्राम आदि में समय का सदुपयोग किया जाता है उतना ही अंतराय कमां का नाश होता है और सभ्य. ज्ञान सम्यक् दर्शन और सम्यक चारित्र की प्राप्ति होती है। किंतु यदि कोई गृहस्थ सर्व द्रव्यों का त्याग कर साधु धर्म अंगीकार करले नो यद्यपि वो द्रव्यादि के त्यागी होने से प्रभु की द्रव्य पूजा का अधिकारी नहीं है तथापि उसके लिये भाव पूजा परम आवश्यकीय है. इस कर्म विषाक नाम प्रथम कर्म ग्रन्थ की श्रीमान् देवेंद्रस्वरि महाराज ने रचना की है. कर्म विपाक नाम प्रथम कर्म ग्रन्थ समाप्त / जीयावीरजिनेवरो गुणनिधिः कर्मस्वरूपो वद् / देवेंद्रो मुनिनायको, बरमतिर्गाथाप्रणेता तथा // मान्यो मोहन साधुरथ, कथनः पन्यास हो मुनि / . माणिक्य नयतात्सदैव सुपथानृणांहिते चिंतनात् / /