Book Title: Kalidas Paryay Kosh Part 02
Author(s): Tribhuvannath Shukl
Publisher: Pratibha Prakashan
Catalog link: https://jainqq.org/explore/020427/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir । कोबातीर्थमंडन श्री महावीरस्वामिने नमः ।। ।। अनंतलब्धिनिधान श्री गौतमस्वामिने नमः ।। ।। गणधर भगवंत श्री सुधर्मास्वामिने नमः ।। ।। योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।। । चारित्रचूडामणि आचार्य श्रीमद् कैलाससागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।। आचार्य श्री कैलाससागरसूरिज्ञानमंदिर पुनितप्रेरणा व आशीर्वाद राष्ट्रसंत श्रुतोद्धारक आचार्यदेव श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. जैन मुद्रित ग्रंथ स्केनिंग प्रकल्प ग्रंथांक :१ जैन आराधना न कन्द्र महावीर कोबा. ॥ अमर्त तु विद्या श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-३८२००७ (गुजरात) (079) 23276252, 23276204 फेक्स : 23276249 Websiet : www.kobatirth.org Email : Kendra@kobatirth.org आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर त्रण बंगला, टोलकनगर परिवार डाइनिंग हॉल की गली में पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७ (079)26582355 - - - For Private And Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कालिदास पर्याय कोश त्रिभुवन नाथ शुक्ल For Private And Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कालिदास पर्याय कोश द्वितीय भाग (कुमारसम्भवम्, मेघदूतम्, ऋतुसंहारम् ) सम्पादक डॉ० त्रिभुवननाथ शुक्ल आचार्य एवं अध्यक्ष हिन्दी एवं भाषाविज्ञान विभाग रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय जबलपुर (म०प्र०) - IRATIBHAR प्रतिभा प्रकाशन दिल्ली For Private And Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथम संस्करण : 2008 © सम्पादक ISBN : 978-81-7702-180-X(सेट) 978-81-7702-182-6 (द्वितीय भाग) मूल्य : 2000.00 (सेट) serving jinshasan gyanmandir@kobatirth.org प्रकाशक : 137317 डॉ० राधेश्याम शुक्ल एम.ए., पी-एच.डी. प्रतिभा प्रकाशन (प्राच्यविद्या-प्रकाशक एवं पुस्तक-विक्रेता) 7259/20, अजेन्द्र मार्केट, प्रेमनगर, शक्तिनगर, दिल्ली-110007 दूरभाष : (O) 47084852 (R) 23848485, 09350884227 e-mail : info@pratibhabooks.com Web : www.pratibhabooks.com टाईप सेटिंग : एस० के० ग्राफिक्स दिल्ली-84 मुद्रक : बालाजी ऑफसेट, दिल्ली For Private And Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir A COMPREHENSIVE DICTIONARY OF SYNONYMS OF KĀLIDĀSA VOLUME - II (Kumārasambhavam, Meghadūtam & Rtusamharam) By Prof. T. N. Shukla Head, Deptt. of Hindi & Linguistics R.D. University Jabalpur (M.P.) RATIBHA PRATIBHA PRAKASHAN DELHI For Private And Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir First Edition : 2008 © Editor ISBN : 978-81-7702-180-X (Set) 978-81-7702-182-6 (Vol. II) Rs. : 2000.00 (Set) Published by : Dr. Radhey Shyam Shukla M.A., Ph.D. PRATIBHA PRAKASHAN (Oriental Publishers & Booksellers) 7259/20, Ajendra Market, Prem Nagar, Shakti Nagar, Delhi-110007 (India) Ph.:(0) 47084852, (R) 23848485, 09350884227 e-mail : info@pratibhabooks.com Web: www.pratibhabooks.com Laser Type Setting : S.K. Graphics, Delhi Printed at : Balaji Offset, Delhi For Private And Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथम खण्डः कुमारसम्भवम् For Private And Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंक 1. अंक :- पुं० [अङ्क अच्] गोद। आरोपितं यगिरिशेन पश्चादनन्यनारीकमनीयमङ्कम्।। 1/37 स्वयं शिवजी ने उन नितम्बों को अपनी गोद में रखा, जहाँ तक पहुँचने की कोई और स्त्री साध भी नहीं कर सकती। उत्तानपाणिद्वय सन्निवेशात् प्रफुल्ल राजीव मिवांकमध्ये। 3/45 अपनी गोद में कमल के समान दोनों हथेलियों को ऊपर किए हुए, वे बिना हिले-डुले बैठे हैं। अंकमारोपयामास लज्जमानामरुन्धती। 6/91 अरुन्धतीजी ने उन्हें झट-उठाकर अपनी गोद में बैठा लिया। 2. उत्संग :-[उद्+सञ्जज+घञ्] गोद। वनेचराणां वनिता सखानां दरीगृहोत्संग निषक्तभासः। 1/10 यहाँ के किरात लोग जब अपनी-अपनी प्रियतमाओं के साथ उन गुफाओं में विहार करने आते हैं। ऋतुजां नयतः स्मरामि ते शरमुत्सङ्ग निषण्ण धन्वनः। 4/23 तुम्हारा वह गोद में धनुष रखकर बाण सीधा करना मुझे भूलता नहीं। अंग 1. अंग :-अव्यय [अङ्ग+अच्] अंग, शरीर। असंभृतं मण्डल मङ्गयष्टेरनासवाख्यं करणं मदस्या। 1/32 उनके शरीर में वह यौवन फूट पड़ा जो शरीर की लता का स्वाभाविक श्रृंगार है, जो मदिरा के बिना ही मन को मतवाला बना देता है। शेषाङ्ग निर्माण विधौ विधातुर्लावण्य उत्पाद्य इवास यत्नः। 1/35 इसलिए शेष अंगों को बनाने के लिए सुन्दरता की और सामग्री फिर जुटाने में ब्रह्माजी को बड़ा कष्ट उठाना पड़ा। ऐरावतस्फालन कर्कशेन हस्तेन पस्पर्श तदङ्गमिन्द्रः। 3/22 इन्द्र ने उसकी पीठ पर वह हाथ फेरकर उसे उत्साहित किया, जो ऐरावत को अंकुश लगाते-लगाते कड़ा पड़ गया था। For Private And Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 476 कालिदास पर्याय कोश वितृण्वती शैलसुतापि भावमंगैः स्फुरद्बाल कुदम्ब कल्पैः। 3/68 पार्वतीजी भी फले हुए नए कदम्ब के समान पुलकित अंगों से प्रेम जतलाती हुई। प्रतिपथगतिरासी द्वेगदीर्धी कृतांगः। 3/76 वेग से सीधा शरीर किये हुए जिधर से आए थे, उधर ही लौट गए। तदंग संसर्गमाप्य कल्पते धुवं चिताभस्म रजोविशुद्धये। 5/79 उनको देखते ही पार्वती जी के शरीर में कंपकंपी छूट गई, वे पसीने-पसीने हो गईं। अद्य प्रभृत्यवनतांगि तवास्मि दासः। 5/86 हे कोमल शरीर वाली ! आज से तुम मुझे अपना दास समझो। अपि व्याप्त दिगन्तानि नांगानि प्रभवन्ति मे। 6/59 दूर-दूर तक फैले हुए अपने इन बड़े अंगों में भी मैं फूलाए नहीं समा रहा हूँ। विनयस्त शुक्लागुरु चारंग गोरोचनापत्रविभक्तमस्याः। 7/11 किसी ने उजले अगर से बनाया हुआ अंग राग उनके शरीर पर मला और फिर अत्यंत लाल गोरोचन से उनका शरीर चीता। 2. काया :-[चीयतेऽस्मिन् अस्थ्यादिकमिति कायः, चि+घञ्, आदेः ककारः] शरीर, अंग। काठिन्यं स्थावरे काये भवता सर्वमर्पितम्।। 6/73 आपने अपनी सारी कठोरता अपने अचल शरीर में भर ली है। 3. तनू :-स्त्री० [तन्+ऊ] शरीर। उमातनौ गूढ तनोः स्मरस्य तच्छिंकनः पूर्वमिव प्ररोहम। 7/76 पार्वतीजी का वह लाल-लाल उँगलियों वाला हाथ ऐसा लगता था, मानो महादेवजी के डर से छिपे हुए कामदेव के अंकुर पहले-पहल निकल रहे हों। 4. देह :-[दिह+घञ्] शरीर। व्यादिश्यते भूधरतामवेक्ष्य कृष्णेन देहोद्वयनाय शेषः। 3/13 क्योंकि वे देख चुके थे कि शेषनाग जब पृथ्वी को धारण कर सकते हैं, तो मेरा बोझ भी सह लेंगे। इति देह विमुक्तये स्थितां रतिमाकाशभवा सरस्वती। 4/39 वैसे ही अचानक सुनाई पड़ने वाली आकाशवाणी ने भी, प्राण छोड़ने को उतारू रति पर, यह कृपा की वाणी बरसा दी। For Private And Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 5. वपु : नपुं० [ वप् + उसि ] शरीर, देह । बभूव तस्याश्चतुरस्रशोभि वपुर्विभक्तं नवयौवनेन । 1/32 वैसे ही पार्वती जी का शरीर भी नया यौवन पाकर बहुत ही खिल उठा । निर्वाणभूयिष्ठमथास्य वीर्यं संधुक्षयन्ति वपुर्गुणेन । 3 / 52 डर के मारे कामदेव की शक्ति तो नष्ट हो गई थी तब मानो उसकी खोई हुई शक्ति फिर जाग उठी । 477 शैलात्मजापि पितुरुच्छिरसोऽभिलाषं व्यर्थं समर्थ्य वपुरात्मनश्च । 3/75 मेरे ऊँचे सिर वाले पिताजी का मनोरथ और मेरी सुन्दरता दोनों अकारथ हो गईं। अवगम्य कथीकृतं वपुः प्रियबन्धोत्व निष्फलोदयः । 4/13 जब उसे यह पता चलेगा कि तुम्हारा शरीर केवल कहानी भर रह गया है, तब वह अकारथ उगा हुआ चन्द्रमा । प्रतिपद्य मनोहरं वपुः पुनरप्या दिश तावदुत्थिः । 4 / 16 हे काम ! तुम अपने इस राख के शरीर को छोड़कर, पहले जैसा सुन्दर शरीर धारण करके । For Private And Personal Use Only धियते कुसुम प्रसाधनं तव तच्चारू वपुर्न दृश्यते । 4 / 18 तुमने अपने हाथों से मेरा जो वासन्ती श्रृंगार किया था, वह तो अभी ज्यों का त्यों बना हुआ है, पर तुम्हारा सुन्दर शरीर अब कहीं देखने को नहीं मिल रहा । मनीषिताः सन्ति गृहेषु देवतास्तपः क्व वत्सेक्वच तावकं वपुः । 5/4 वत्से ! तुम्हारे ही घर में इतने बड़े-बडे देवता हैं, कि तुम जो चाहो उनसे माँग लो। बताओ कहाँ तपस्या और कहाँ तुम्हारा कोमल शरीर । ध्रुवं वपुः कांचन पद्म निर्मितं मृदु प्रकृत्याच ससारमेव च । 5/19 मानो उनका शरीर सोने के कमलों से बना था, जो कमल से बने होने के कारण स्वभाव से कोमल भी था, पर साथ ही साथ सोने का बना होने के कारण ऐसा पक्का भी था, कि तपस्या से कुंभला न सके। कुले प्रसूतिः प्रथमस्य वेधसस्त्रिलोक सौन्दर्य मिवोदितं वपुः । 5/41 मानो तीनों लोकों की सुन्दरता आप में ही लाकर भरी हो । यदर्थमम्भोजमिवोष्ण वारणं कृतं तपः साधनमेतया वपुः । 5/52 जैसे कोई धूप बचाने के लिए कमल का छाता लगा ले, वैसे ही इन्होंने भी अपना कोमल शरीर कठोर तपस्या में क्यों लगा दिया। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 478 कालिदास पर्याय कोश विभक्तानुग्रहं मन्ये द्विरूपमपि मे वपुः।। 6/58 मुझे ऐसा जान पड़ता है, कि आप लोगों ने मेरे चल और अचल दोनों शरीरों पर अलग-अलग कृपा की है। इदंतुने भक्ति ननं सतामराधनं वपुः। 6/73 आपका यह चल शरीर भक्ति से ऐसा झुका हुआ है, कि सज्जन लोग आकर इसकी पूजा किया करते हैं। भाव साध्वस परिग्रहादभूत्कामदोहदमनोहरं वपुः। 8/1 इनके इस प्रेम और झिझक से भरे सुन्दर शरीर को देख-देखकर महादेव जी इन पर लट्ट हुए जा रहे थे। संध्ययाप्यनुगतं रवेर्वपुर्वन्द्यमस्त शिखरे समर्पितम्। 8/44 देखो ! पूजनीय सूर्य अस्ताचल को चले, तो सन्ध्या भी उनके पीछे-पीछे चल दी। 6. शरीर :-[शू+ईरन्] काया, देह। येदेव पूर्व जनने शरीरं सा दक्षरोषात्सुदती ससर्ज। 1/53 जब से सती ने अपने पिता दक्ष के हाथों महादेवजी का अपमान होने पर क्रोध करके यज्ञ की अग्नि में अपना शरीर छोड़ा था। तस्याः करिष्यामि दृढ़ानुतापं प्रवाल शय्याशरणं शरीरम्। 3/8 मैं उसके मन में ऐसा पछतावा उत्पन्न करता हूँ कि वह अपने आप आकर आपके पत्तों के ठण्डे बिछौने पर लेट जायगी। आसीन मासन्न शरीरपातस्त्रियम्बकं संयमिन ददर्श। 3/44 पत्थर की पाटियों से बनी हुई चौकी पर महादेव जी समाधि लगाए बैठे हुए हैं। तदानपेक्ष्य स्वशरीरमार्दवं तपो महत्सा चरितुं प्रचक्रमे। 5/18 तब उन्होंने अपने शरीर की कोमलता का ध्यान छोड़कर बड़ी कठोर तपस्या प्रारंभ कर दी। तपः शरीरैः कठिनै रूपार्जितं तपस्वितां दूरमधश्चकार सा। 5/29 कोमल अंगों को तपस्या से रात दिन सुखाकर पार्वती ने कठोर शरीर वाले तपस्वियों को भी लजा दिया। विवेश कश्चिज्जटिलस्तपोवनं शरीरबद्धः प्रथमाश्रमोयथा। 5/30 गठीले शरीर वाला एक जटाधारी ब्रह्मचारी उस तपोवन में आया, वह ऐसा जान पड़ता था, मानो साक्षात् ब्रह्मचर्याश्रम ही उठ चला आ रहा हो। For Private And Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव अपि स्वशत्तया तपसि प्रवर्तसे शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् । 5/33 और अपने शरीर की शक्ति के अनुसार ही तप कर रही हैं न ! क्योंकि देखिए धर्म के जितने काम हैं, उनमें शरीर की रक्षा करना सबसे पहला काम है। तस्याः शरीरे प्रतिकर्म चक्रुर्बन्धुस्त्रियो याः पतिपुत्रवत्य: । 7/6 कुटुम्ब की सुहागिन और पुत्रवती स्त्रियाँ पार्वतीजी का सिंगार करने लगीं । तया तु तस्यार्थ शरीर भाजा पश्चातकृताः स्निग्ध जनाशिषोऽपि । 7 /28 पर पार्वतीजी ने भगवान् शंकर के आधे शरीर में बसकर अपनी सखियों के आशीर्वाद छोटे कर दिए हैं। 479 शरीरमात्रं विकृतिं प्रपेदे तथैव तस्थुः फणरत्न शोभाः । 7/34 वे भी उन-उन अंगों के आभूषण बन गए, पर उनके फणों पर जो मणि थे, वे ज्यों के त्यों चमकते रह गए। न नूनमारूढरुषा शरीरमनेन दग्धं कुसुमायुधस्य । 7/67 अब हमारी समझ में आ रहा है कि, इन्होंने कामदेव को क्रोध करके भस्म नहीं किया है। अंगना 1. अंगना :- [ प्रशस्तम् अङ्गम् अस्ति यस्याः अङ्ग+न+यप्] पत्नी, नारी। तया गृहीतं नु मृगाङ्ग नाभ्यस्ततो गृहीतं नु मृगाङ्ग नाभिः । 1/46 उसे देखकर यह पता ही नहीं चल पाता था कि यह कला उन्होंने हरिणियों से सीखी थी या हरिणियों ने उनसे सीखी थी । For Private And Personal Use Only 2. कामिनी : - वि० [कम्+ णिनि ] स्त्री, पत्नी, गृहिणी । कासि कामिन्सुरतापराधात्पादानतः कोपनयावधूतः । 3 / 8 कामी ! कौन सी ऐसी स्त्री है, जो आपका संभोग न पाने पर क्रोध करके आपसे इतनी रूठी बैठी है। वसतिं प्रिय कामिनां प्रियास्त्वदृते प्रापयितुं कः ईश्वरः 14/11 कामिनियों को उनके प्यारों के घर तुम्हारे बिना कौन पहुँचायेगा । 3. गृहिणी : - [ गृह + इनि + ङीष् ] पत्नी । प्रायेण गृहिणी नेत्राः कन्यार्थेषु कुटुम्बिनः । 6 / 85 जब कभी कन्या के सम्बन्ध की कोई बात होती है तो, गृहस्थ लोग अपनी स्त्रियों से ही सम्मति लिया करते हैं। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 480 कालिदास पर्याय कोश 4. जाया :-[जन्+यक्+टाप, आत्व] पत्नी। अर्थोपभुक्तेन बिसेन जायां संभावयामास रथाङ्ग नामा। 3/37 चकवा भी आधी कुतरी हुई कमल की नाल लेकर चकवी को भेंट करने लगा। 5. दायिता :-पत्नी, स्त्री। दायितास्वनवस्थितं नृणां न खलु प्रेम चलं सुहृज्जने। 4/28 पुरुष अपनी स्त्री से प्रेम करने में भले ही ढिलाई कर दे, पर अपने प्रेमी मित्रों में तो उसका प्रेम अटल ही होता है। 6. दारा :-[दृ+घञ्] पत्नी, स्त्री। एते वयममीदाराः कन्येयं कुलजी वितम्। 6/63 मैं आपके आगे खड़ा ही हूँ, ये मेरी स्त्रियाँ हैं और यह मेरे घर भर की कन्या है। 7. नारी :-[नृ-नखा जातौ ङीष् नि०] स्त्री, पत्नी। आरोपितं यगिरिशेन पश्चादनन्यनारी कमनीयमकम्। 1/37 शिवजी ने उन नितम्बों को अपनी गोद में रखा, जहाँ तक पहुंचने की कोई और स्त्री साध भी नहीं कर सकती। 8. पत्नी :-[ पति+ङीप, नुक्] स्त्री, गृहणी। अथावमानेन पितुः प्रयुक्ता दक्षस्य कन्याः भवपूर्वपत्नी। 1/21 महादेवजी की पहली पत्नी और उसकी कन्या परम साध्वी सती ने अपने पिता से अपमानित होकर। 9. प्रमदा :-[प्रमद्+अच्+टाप्] सुंदरी, नवयुवती, पत्नी। प्रमदाः पतिवम॑गा इति प्रतिपन्नं हिविचेतनैरपि। 4/33 पति के साथ जाना तो जड़ों में भी पाया जाता है, फिर मैं चेतन होकर पति के पास क्यों न जाऊँ। 10. भाविनि :- [भू+इनि, णिच्] सुंदर स्त्री, उत्तम या साध्वी महिला। अनेन धर्मः सविशेष मद्य मे त्रिवर्ग सारः प्रति भाति भाविनि। 5/38 हे देवि ! आपके इस आचरण से ही मैं समझ रहा हूँ कि धर्म अर्थ और काम इन तीनों में धर्म ही सब से बढ़कर है। 11. योषिता :-[यौति मिश्रीभवति - यु+स+टाप्, योषति पुमांसम्-युष+इति, योषित्+टाप्] स्त्री, लड़की, तरुणी, पत्नी। यक्षाः किं पुरुषाः पौरा योषितो वनदेवताः। 6/39 For Private And Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव वहाँ के नागरिक देखो तो बस या तो यक्ष थे या किन्नर और स्त्रियाँ तो सब वन देवियाँ ही थीं। 12. वधू :- स्त्री० [ उह्यते पितृगेहात् पतिगृहं वह +ऊधुक् ] पत्नी, धर्मपत्नी । असूत सा नागवधूपभोग्यं मैनाक मम्भोनिधि बद्धसख्यम् ।। 1/20 मेना के उस गर्भ से मैनाक नाम का वह प्रतापी पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसने नाग कन्या के साथ विवाह किया, समुद्र के साथ मित्रता की । 481 उमा वधूर्भवान्दाता याचितार इमे वयम् । 6 / 82 उमा हों बहू, आप हों कन्यादान करने वाले, हम हों विवाह के लिए कहने वाले । दुकूल वासाः स वधू समीपं निन्ये विनीतैर वरोध दक्षैः । 7/73 रेशमी वस्त्र पहने हुए महादेवजी को रनिवास के सेवक उसी प्रकार पार्वती जी के पास ले गए, जैसे चन्द्रमा की किरणें फेन वाले समुद्र को तट पर पहुँचा देती हैं। वधू मुखं क्लान्तयवावतंसमाचारधूमग्रहणाद्बभूव । 7 / 82 उस हवन के गरम धुएँ से वधू [पार्वती जी ] के मुँह पर पसीने की बूँदे छा गईं, कानों पर धरे हुए वे भी धुंधले पड़ गए। वधूं द्विजः प्राह तवैष वत्से वह्निर्विवाहं प्रति कर्मसाक्षी । 7/83 तब पुरोहितजी ने पार्वती से कहा कि हे वत्से ! यह अग्नि तुम्हारे विवाह का साक्षी है। क्लिष्टमन्मथमपि प्रियं प्रभोर्दुर्लभप्रतिकृतं वधूरतम् । 8/8 इस प्रकार बाधाओं के साथ और अधूरे रस के साथ भी शिवजी ने वधू के साथ जो संभोग किया, उसमें उन्हें आनन्द ही मिला । भतृर्वल्लभतया हि मानसीं मातुरस्यति शुचं वधूजन: । 8/1 जब माता यह देख लेती है कि मेरी कन्या का पति कन्या को प्यार करता है, तो उसका जी हल्का हो जाता है। For Private And Personal Use Only नन्दने चिर युग्म लोचनः संस्पृहं सुरव धूभिरीक्षितः । 8/27 नन्दनवन की अप्सराएँ महादेव की इस कला को बड़े चाव में निहारा करतीं । 13. वनिता : - [ वन्+त+टाप्] स्त्री, महिला, पत्नी । वने चराणां वनितासखानां दरीगृहोत्संगनिषक्त भासः । 1/10 यहाँ के किरात लोग जब अपनी-अपनी प्रियतमाओं के साथ, उन गुफाओं में विहार करने आते हैं। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 482 कालिदास पर्याय कोश 14. सह धर्मचारिणी :-पत्नी। दक्षिणेतरभुजव्यपाश्रयां व्याजहार सहधर्मचारिणीम्। 8/29 उसे देखकर अपनी बाईं भुजा के सहारे बैठी हुई, अपनी धर्म पत्नी से महादेव जी बोले। 15. स्त्री :- [स्त्यायेते शुक्रशोणिते यस्याम् स्तो+ड्रप्+ङीप्] नारी, औरत। बिभेतु मोधीकृत बाहुवीर्यः स्त्रीभ्योऽपि कोपिस्स्फुरिताऽधराभ्यः। 3/9 जो मेरे बाणों की मार से ऐसा शक्तिहीन हो जाना चाहता है कि क्रोध में काँपते हुए ओठों वाली नारी तक उसे डरा दे। तदिदं गतमीदृशीं दशां न विदीर्ये कठिनाः खलु स्त्रियः। 4/6 उसे इस दशा में देखकर भी मेरी छाती फट नहीं गई। सचमुच स्त्रियों का हृदय बड़ा कठोर होता है। अंशु 1. अंशु :-[अंश+कु] किरण, प्रकाश-किरण। उन्मीलितां तूलिकयेव चित्रं सूर्यांशुभिभिन्नमिवारविन्दम्। 1/32 जैसे कूँची से ठीक-ठीक रंग भरने पर चित्र खिल उठता है और सूर्य की किरणों का परस पाकर कमल का फूल हँस उठता है। अथ मौलिगतस्येन्दोर्विशदैर्दशनांशुभिः।। 6/25 अपनी मंद हँसी के कारण चमकते हुए दाँतों की दमक से। हारयिष्ट रचनामिवांशुभिः कर्तुमागत कुतूहल: शशी। 8/68 मानो चन्द्रमा अपनी किरणों से कल्पवृक्षों में चन्द्रहार बनाने आ पहुँचा हो। 2. किरण :-[कृ+क्यु] प्रकाश की किरण ; सूर्य, चंद्रमा की किरण। शशिन इव दिवातनस्य लेखा किरण परिक्षत धूसरा प्रदोषम्। 4/46 जैसे दिन में दिखाई देने वाले निस्तेज चन्द्रमा की किरण साँझ होने की बाट जोहती है। भानुमग्नि परिकीर्ण तेजसं संस्रुवन्ति किरणोष्मपायिनः। 8/41 किरणों की गर्मी पी जाने वाले ऋषि उस सूर्य की स्तुति कर रहे हैं, जिन्होंने इस समय अपना तेज अग्नि को सौंप दिया है। 3. ज्योति :-[द्योतते द्युत्यते वा-द्युत्+इसुन् दस्यजादेशः] प्रकाश, प्रभा चमक। For Private And Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव कपाल नेत्रान्तरलब्ध मार्गैर्ज्योतिः प्ररोहैरुदितै शिरस्तः । 3/49 उस समय उनके सिर और नेत्र से जो तेज निकल रहा था । 4. प्रभा : - [प्र+भा+अङ्+टाप्] प्रकाश, दीप्ति, काँति, प्रकाश की किरण । तथा दुहित्रा सुतरां सवित्री फुरत्प्रभा मण्डलया चकासे । 1/24 वैसे ही तेजोमण्डल से भरे मुख वाली उस कन्या को गोद में पाकर मेना भी खिल उठीं। विजित्य नेत्र प्रतिघातिनीं प्रभामन्य दृष्टिः सवितारमैक्षत। 5/20 चकाचौंध करने वाले सूर्य के प्रकाश को भी जीतकर, वे सूर्य की ओर एक-टक होकर देखती रहने लगीं । ते प्रभा मण्डलैव्यम द्योतयन्तस्तपोधनाः । 6/4 स्मरण करते ही अपने तेजोमण्डल से उजाला करते हुए वे सातों तपस्वी । अंशुक 483 1. अंशुक :- [ अंशु+क- अंशवः सूत्राणि विषया यस्य ] कपड़ा, पोशाक । यत्रांशुकाक्षेप विलज्जितानां यदृच्छया किंपुरुषाङ्गनानाम् । 1/11 यहाँ की गुफाओं में किन्नरियाँ अपने प्रियतमों के साथ काम-क्रीड़ा करती रहती हैं, उस समय जब वे शरीर पर से वस्त्र हट जाने के कारण लजाने लगती हैं। यत्र कल्पदुमैरेव बिलोल विटपांशुकैः । 6/41 कल्पवक्ष की चंचल शाखाएँ ही उस नगर की झंडिया थीं। संतान काकीर्णमहापथं तच्चीनांशुकैः कल्पितकेतु मालम् । 7/3 बड़ी-बड़ी सड़कों पर कल्पवृक्ष के फूल बिछे हुए थे, दोनों ओर रेशमी झंडियाँ पाँतों में टंगी हुई थीं और द्वार-द्वार पर सोने के बन्दनवार बँधे हुए थे। व्याहृता प्रतिवचो न संदधे गन्तुमैच्छदवलम्बितांशुका । 8/2 ये इतना लजाती थीं कि शिवजी कुछ पूछते भी थे ये बोलती न थीं, यदि वे इनका आँचल थाम लेते तो, ये उठकर भागने लगती थीं। For Private And Personal Use Only शूलिनः करतल द्वयेन सा संनिरुध्य नयने हृतांशुका । 8/7 जब कभी अकेले में शिवजी इनके कपड़े खींचकर इन्हें उघाड़ देते, ये अपनी दोनों हथेलियों से शिवजी के दोनों नेत्र बन्द कर लेतीं। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 484 कालिदास पर्याय कोश मारुते चलति चण्डिके बलाद् व्यज्यते विपरिवृत्तमंशुकम्। 8/71 पर वायु के चलने पर जब कपड़े हिलने लगते हैं, तब अपने आप पता चला जाता है कि यह कपड़ा ही है। 2. कौशेय :-[कोशय विकारः-ढब्] रेशमी वस्त्र। निर्नाभि कौशेय मुपात्तबाणमभ्यङ्ग नेपथ्यमलंचकार। 7/7 उन्हें नाभि तक ऊँची रेशमी साड़ी पहनाकर उसमें एक बाण खोंस दिया गया। 3. क्षौम :-[क्षु+मन्+अण्] रेशमी कपड़ा, ऊनी कपड़ा। नवं नवक्षौम निवासिनी सा भूयो बभौ दर्पणमादधना।7/26 नई साड़ी पहने हुए और हाथ में नये दर्पण लिए हुए वे ऐसे लगने लगीं। 4. दुकूल :-[दु+ऊलच्, कुक्] रेशमी वस्त्र। वधू दुकूलं कल हंस लक्षणं गजाजिनं शोणित बिन्दु वर्षि च। 5/67 कहाँ वो हंस छपी हुई चुंदरी ओढ़ी हुई आप और कहाँ रक्त की बूंदे टपकाती हुई महादेवजी के कन्धे पर पड़ी हुई हाथी की खाल। उपान्त भागेषु च रोचनांको गजाजिनस्यैव दुकूल भावः। 7/32 हाथी का चर्म ही ऐसा रेशमी वस्त्र बन गया, जिसके आँचलों पर गोरोचना से हंस के जोड़े छपे हुए थे। स तद्कूल दविदूरमौलिर्बभौ पतद्गङ्ग इवोत्तमाङ्गे। 7/41 उस समय शिवजी के सिर के पास छत्र से लटकता हुआ कपड़ा ऐसा जान पड़ता था, मानो गंगाजी की धारा ही गिर रही हो। तहुकूलमथ चा भवत्स्वयं दूरमुच्छ्वसितनीबिबन्धनम्। 8/4 पर न जाने कैसे इनकी साड़ी की गाँठ ढीली पड़कर अपने आप खुल जाती। 5. वस्त्र :-[वस्+ष्ट्रन्] परिधान, कपड़ा, कपड़े, वेशभूषा, पोशाक, पहनावा सा मंगल स्नान विशुद्ध गात्री गृहीत पत्युद्गमनीय वस्त्रा। 7/11 मंगल स्नान करने से पार्वती जी का शरीर अत्यंत निर्मल हो गया और उन्होंने विवाह के वस्त्र पहन लिए। वास :-[वास+घञ्] सुगंध, निवास, जगह, कपड़े, पोशाक। आवर्जिता किंचिदिव स्तनाभ्यां वासो वसाना तरुणार्करागम्। 3/54 स्तनों के बोझ से झुके हुए शरीर पर प्रात:काल के सूर्य के समान लाल-लाल कपड़े पहने हुए। For Private And Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 485 कुमारसंभव नाभि प्रविष्टाभरण प्रभेण हस्तेन तस्थाववलम्ब्य वासः। 7/60 बिना बँधे ही कपड़े को हाथ से पकड़े जो खड़ी हुई, तो उसके हाथ के कंगन के रत्न की चमक से उसकी नाभि चमकती हुई दिखाई देने लगी। अक्षि 1. अक्षि :-क्ली० [अश्नुते विषयान्-अश्+क्सि] आँख, नेत्र। प्रवातनीलोत्पलनिर्विशेषमधीर विप्रेक्षित मायाताक्ष्या। 1/46 उन बड़ी-बड़ी आँखों वाली की चितवन, आँधी से हिलते हुए नीले कमलों के समान चंचल थी। य उत्पलाक्षि प्रचलैर्विलोचनैस्तवासि सादृश्यमिव प्रयुञ्जते। 5/35 हे कमलनयनी, उनकी [हिरणों की] आँखें आपकी आँखों के समान ही चंचल तदीषदारुणगण्डलेखमुच्छ्वासि कालजनं रागमक्ष्णोः। 7/82 पार्वती जी के गाल कुछ लाल हो गए, मुँह पर पसीने की बूंदें छा गईं, आँखों का काला आँजन फैल गया। 2. चक्षु :-क्ली० [चष्टे पश्यत्यनेनेति । चक्ष+ चक्षेः शिच्च' इति उसि, शिलेनानार्थ धातुकत्वात् व्याजादेशाभावः] आँख, नेत्र । स द्विनेत्रं हरेश्चक्षुः सहस्रनयनाधिकम्। 2/30 जिनके दो नेत्रों में ही, इन्द्र के सहस्र नेत्रों से भी बढ़कर देखने की शक्ति थी। उमां स पश्यन्नृजुनैव चक्षुषा प्रचक्रमे वक्तुमनुज्झितक्रमः। 5/32 पार्वती जी की ओर एकटक देखते हुए बिना रुके बोलना प्रारम्भ कर दिया। करोति लक्ष्यं चिरमस्य चक्षुषो न वक्रमात्मीय मरालपक्ष्मणः। 5/49 आपकी कटीली भौंहो वाले सुन्दर नैनों का लक्ष्य बनाना चाहिए था। तस्याः कपोले परभागलाभाद्वबन्ध चक्षूषि यव प्ररोहः। 7/17 गोरे-गोरे गाल इतने सुन्दर लगने लगे, कि सबकी आँखें बरबस उनकी ओर खिंची जाती थीं। न चक्षुषोः कान्ति विशेष बुद्धया कालाजनं मंगलमित्युपात्तम। 7/20 नहीं कि, आँजन से उनकी आँखों की कुछ शोभा बढ़ेगी, वरन इसलिए कि वह भी मंगल सिंगार की एक चलन थी। For Private And Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 486 कालिदास पर्याय कोश तथाहि शेषेन्द्रिय वृत्तिरासां सर्वात्मना चक्षुरिव प्रविष्य। 7/64 मानो उनकी सब इन्द्रियाँ आकर आँखों में ही समा गई हों। तथा प्रवृद्धाननचन्द्रकान्त्या प्रफुल्य चक्षुः कुमुदः कुमार्या। 7/74 चन्द्रमा के समान मुख वाली पार्वती जी को देखकर, शंकर जी के नेत्र रूपी कुमुद खिल गए। चक्षुरुन्मिषति सस्मितं प्रिये विद्यताहतमिव न्यमीलयत। 8/3 इतने में ही शिवजी मुस्कराकर आँखें खोल देते और ये चट इस फुर्ती से अपनी आँखें मींच लेती, मानो बिजली की चकाचौंध से आँखें मिच गई हों। आननेन न तु तावदीश्वरः चक्षुषा चिरमुमा मुखं पपौ। 8/80 पार्वती जी के उस मुख को भगवान् शंकर ने अपने मुँह से चूमा नहीं, वरन बहुत देर तक अपनी आँख से ही उनकी सुन्दरता को पीते रहे। 3. नयन :- [नी+ल्युट] नेत्र, आँख। स द्विनेत्रं हरेश्चक्षुः सहस्र नयनाधिकम्। 2/30 जिनके दो नेत्रों मे ही इन्द्र के सहस्र नेत्रों से बढ़कर देखने की शक्ति थी। मधुना सह सस्मितां कथां नयनोपान्त विलोकितं च तत्। 4/23 वसन्त के साथ हँस-हँस कर बातें करना और बीच-बीच में मेरी ओर तिरक्षी चितवन से देखना। यथातदीयैर्न यनैः कुतूहलात्पुरः सखीनाममिमीत लोचने। 5/15 अपनी सखियाँ के आगे उन्हें लाकर वे उन हरिणों के नेत्रों से अपने नेत्र मापा करती थीं। तस्याः सुजातोत्पल पत्र कान्ते प्रसीधिकाभिनयने निरीक्ष्य। 7/20 सिंगार करने वाली स्त्री ने पार्वती जी की नीले कमल जैसी बड़ी-बड़ी काली-काली आँख में। तमेकदृश्यं नयनैः पिबन्त्यो नार्यों न जग्मुर्विषयान्तराणि 17/64 नगर की स्त्रियाँ सब सुध-बुध भूलकर इस प्रकार एक टक देखती हुईं, उन्हें अपने नेत्रों से पी रही थीं। चुम्बनादलकचूर्णदूषितं शंकरोऽपि नयनं ललाटजम्। 8/19 इसी प्रकार चुम्बन लेते समय, जब पार्वती जी के केशों का चूर्ण झड़कर शिवजी के तीसरे नेत्र में पड़ता, तो वह नेत्र दुखने लगता। For Private And Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 487 एतन्धतमसं निरंकुशं दिक्षु दीर्घनयने विजृम्भते। 8/55 हे बड़ी-बड़ी आँखों वाली! अब यह घोर अंधेरा मनमाने ढंग से चारों ओर फैलता जा रहा है। आर्द्रकेशर सुगन्धित ते मुखं मत्तरक्तनयनं स्वभावतः। 8/76 तुम्हारी मतवाली आँखें भी स्वभाव से ही लाल हैं व तुम्हारे मुख में गीले केशर की सुगन्ध है। पूर्णमाननयनं स्खलत्कथं स्वेदबिन्दु मद कारण स्मितम्। 8/80 पार्वती जी की आँखें चंचलता से नाच रही थीं। मद के कारण मुँह से सीधी बोली नहीं निकल रही थी, मुँह पर पसीने की बूंदें झलक रही थीं और बिना बात के ही वे हँस पड़ती थीं। नेत्र :-[नयति नीयते वा अनेन- वी+ष्ट्रन] आँख, नेत्र, नयन। गुरूं नेत्र सहस्त्रेण नोदयमास वासवः। 2/29 इन्द्र ने अपने सहस्र नेत्रों को इस प्रकार चलाकर बृहस्पति जी को संकेत किया। पुष्पवास घूर्णित नेत्र शोभि प्रियामुखं कि पुरुषश्चुचुम्ब। 3/38 किन्नर अपनी उन प्रियाओं के मुख चूमने लगे, जिनके नेत्र फूलों की मदिरा से मतवाले होने के कारण बड़े लुभावने लग रहे थे। कपाल नेत्रान्तरलब्ध मार्गर्योतिः पुरोहैरुदितैः शिरस्तः। 3/49 उस समय उनके सिर की ओर के नेत्र से जो तेज निकल रहा था। तावत्स वह्निर्भवनेत्रजन्मा भस्माव शेष मदनं चकार। 3/72 इतनी देर में तो महादेव जी की आँखों से निकलने वाली आग ने कामदेव को जलाकर राख ही तो कर डाला। विजित्यनेत्र प्रतिघातिनी प्रभामन्यदृष्टिः सवितारमैक्षत। 5/20 चकाचौंध करने वाले सूर्य के प्रकाश को भी जीतकर, वे सूर्य की ओर एक टक होकर देखती रहने लगीं। अथो वयस्यां परिपार्श्ववर्तिनीं विवर्तितानञ्जननेत्रमैक्षत। 5/51 इसलिए अपने बिना काजल लगे नेत्र पास बैठी हुई सखी की ओर घुमाकर, उन्होंने उसे बोलने के लिए संकेत किया। त्रिभाग शेषासु निशासु च क्षणं निमील्य नेत्रे सहसा व्यबुध्यात। 5/57 रात के पहले ही पहर में क्षण भर के लिए आँख लगी नहीं, कि बिना बात के ये चौंककर बरबराती हुई जाग उठती थीं। For Private And Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 488 कालिदास पर्याय कोश प्रायेण गृहिणी नेत्राः कन्यार्थेषु कुटुम्बिनः। 6/85 जब कन्या के सम्बन्ध में कोई बात होती है, तो गृहस्थ लोग अपनी स्त्रियों से ही सम्मत लिया करते हैं। भूतार्थ शोभाह्रियमाण नेत्राः प्रसाधने संनिहितेऽपि नार्यः। 7/13 सिंगार की सब वस्तुएँ पास होने पर भी वे सब पार्वती जी की स्वभाविक शोभा पर इतनी लट्ट हो गईं, कि कुछ देर तक तो वे सुध-बुध खोकर उनकी ओर एक-टक निहारती हुई बैठी रह गईं। 5. लोचन :-क्ली० [लोचतेऽनेनेति, लोच, ल्युट्] आँख, नेत्र । श्रृणु येन सकर्मणा गतः शलभत्वं हरलोचनार्चिषि। 4/40 यह महादेव जी की आँख की ज्वाला में पतंग बनकर कैसे जला, वह सुनो। आलोचनान्तं श्रवणे वितत्य पीतं गुरोस्तद्वचनं भवान्या।7/84 आँखों तक अपने कान फैलाकर पार्वती जी ने पुरोहित की बात, वैसे ही आदर से सुनी। तस्य पश्यति ललाट लोचने मोघयत्न विधुरा रहस्यभूत। 8/7 पर शिवजी ऐसे गुरु थे, कि झट अपना तीसरा नेत्र खोल लेते और ये हार मानकर बैठ जाती। कुड्मलीकृत सरोज लोचनं चुम्बतीव रजनी मुखं शशी। 8/63 मानो चन्द्रमा अपनी किरण रूपी उँगलियों से रात रूपी नायिका के मुंह पर फैले हुए अँधेरे रूपी बालों को हटाकर, उसका मुँह चूम रहा हो और रात भी उस चुम्बन का रस लेने के लिए अपने कमल रूपी नेत्र मूंदे बैठी हो। स प्रजागर कषाय लोचनं गाढदन्त परिताडिताधरम्। 8/88 रात भर जागने से पार्वती जी की आँखें लाल हो रही थीं, ओठों पर शिवजी के दाँतों के घाव भरे पड़े थे। 6. विलोचन :-क्ली० [वि०+लोच्+ल्युट्] आँख, नेत्र। साचीकृता चारूतरेण तस्थौ मुखेन पर्यस्तविलोचनेन। 3/68 लजीली आँखों से अपना अत्यन्त सुन्दर मुख कुछ तिर्छा करके खड़ी रह गईं। अवधान परे चकार सा प्रलयान्तोन्मिषिते विलोचने। 4/2 मूर्छा हटते ही वह चारों ओर आँखें फाड-फाड़कर देखने लगी। विकुंचित भूलतमाहिते तया विलोचने तिर्यगुपान्तलोहिते। 5/74 For Private And Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव उनकी आँखें लाल हो गईं और उन्होंने भौंहें तनाकर उस ब्रह्मचारी की ओर आँखें तरेरकर देखा । 489 शंखान्तरद्योति विलोचनं यदन्तर्निविष्टामलपिंगतारम् । 7/33 उनके माथे में पीली पुतली वाला जो चमकता हुआ नेत्र था । ऊरु मूल नखमार्गराजिभिस्तत्क्षणं हृत विलोचनो हरः । 18 / 87 नंगी जाँघों पर जो नखों के चिह्नों की पाँत दिखाई दे रही थी । उसे शिवजी एकटक होकर देख रहे थे । अग्नि 1. अग्नि :- [ अङ्गयन्ति अग्ग्रं जन्म प्रापयन्ति इति त्युत्पत्त्या हविः प्रक्षेपाधिकरणे गार्हपत्या वनीय दक्षिणाग्नि सभ्यावसथ्यौपासनाख्येषु षडग्निषु ] आग, आग का देवता, अग्नि । तत्राग्नि समित्स समिद्धं स्वमेव मूर्त्यन्तरमष्टमूर्तिः । 1 / 57 उसी चोटी पर शिवजी अपनी ही दूसरी मूर्ति अग्नि को समिधा से जगाकर । यद्द्ब्रह्म सम्यगाम्नातं यदग्नौ विधिना हुतम् । 7/17 भली प्रकार वेद पढ़ने का, विधिपूर्वक हवन करने का। आश्रमाः प्रविशदग्रधेनवो विभ्रति श्रियमुदीरिताग्नयः । 8 / 8 लौटकर आती हुई सुन्दर दुधारू गौओं से और हवन की जलती हुई अग्नि से, ये आश्रम कैसे सुहावने लग रहे हैं । भानुमग्नि परिकीर्ण तेजसं संस्तुवन्ति किरणोष्म पायिनः ।। 8 / 41 उस सूर्य की स्तुति कर रहे हैं, जिन्होंने इस समय अपना तेज अग्नि को सौंप दिया है। 2. अनल :- पुं० [ नास्ति अल: बहुदाह्य वस्तु दहनेऽपि तृप्तिर्यस्य सः । कृत्तिका नक्षत्र, वत्सरे, भगवति वासुदेवे] अग्नि, आग । वरेण शमितं लोकनलं दग्धुं हि तत्तपः ।। 2/56 उसकी तपस्या से सारा संसार जल उठता । For Private And Personal Use Only ददृशे पुरुषाकृति क्षितौ हरकोपानल भस्म केवलम् । 4 /3 महादेव जी के क्रोध से जली हुई पुरुष के आकार की एक राख की ढेर, सामने पृथ्वी पर पड़ी हुई है। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 490 www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कालिदास पर्याय कोश नवोटजाभ्यन्तर संभृतानलं तपोवनं तच्च बभूव पावनम् । 5/17 वहाँ नई पर्णकुटी में सदा हवन की अग्नि जलती रहती थी, इन सब बातों से तपोवन बड़ा पवित्र हो गया था। अवतेरुर्जटाभारैर्लिखितानलनिश्चलैः । 7/48 चित्र में बनी हुई आग की निश्चल लपटों के समान अपनी जटाएँ लिए दिए। 3. कृशानो :- पुं० [कृश्यति तनू करोति तृणकाष्ठादितस्तुजातमिति । ऋतन्यञ्जीति आनुक् प्रत्ययः] अग्निः । ऋते कृशानोर्न हि मन्त्रपूतमर्हन्ति तेजाँस्यपराणि हव्यम् । 1 / 51 जैसे मंत्र से दी हुई हवन की सामग्री, अग्नि को छोड़कर और कोई नहीं ले सकता । , 4. ज्वलन :- पुं० [ ज्वलतीति ज्वल् + ' जुचङ्क्रम्यन्द्रस्य सृगृधिज्वलशुचलषपतपद:' इति युच्] अग्नि । विधुरां ज्वलनाति सर्जनान्ननु मी प्रापय पत्युरन्तिकम् ।। 4/32 मेरा दाह करके मुझे मेरे पति के पास पहुँचा दो । तदनु ज्लवनं मदर्पितं त्वरयेर्दक्षिणवात बीजनैः ।। 4/36 फिर शीघ्रता से दक्षिण पवन का पंखा झलकर उसमें बड़ी लपटें भी उठा दो । अथा जिना षाढधरः प्रगल्भवाग्ज्वलन्निव ब्रह्मयेन तेजसा । 5/30 इसी बीच एक दिन ब्रह्मचर्य के तेज से चमकता हुआ सा, हिरण की छाल ओढ़े और पलाश का डंड हाथ में लिए हुए । न तु सुरतसुखेर्भ्याश्छिन्नतृण्णो बभूव ज्वलन इव समुद्रान्तर्गतस्तज्जलौघैः । For Private And Personal Use Only 8/91 शंकरजी का जी इतने संभोग से भी उसी प्रकार नहीं भरा, जैसे समुद्र के जल में रहने पर भी बड़वानल की प्यास नहीं बुझ पाती । 5. जातवेद :- पुं० [ विद्यते लभ्यते इति । विद्+लाभे + असुन् । जातं वेदो धनं यस्मात्] अग्निः । जातवेदो मुखान्मायी मिषतामाच्छिनत्तिनः । 2/46 अग्नि के मुँह से हमारा भाग छीन लेता है। कृताभिषेकां हुत जातवेदसं त्वगुत्तरा संगवतीमधीतिनीम् । 5/16 जब वे स्नान करके, हवन करके, वल्कल की ओढ़नी ओढ़ कर बैठी पाठ पूजा Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 491 कुमारसंभव किया करती थीं, उस समय उन्हें देखने के लिए दूर-दूर से ऋषि उनके पास आया करते थे। 6. वह्नि :-[वहति धरति हव्यं देवार्थमिति] व+ वहिश्रिश्रुरिवति' नि] अग्नि। कामस्तु बाणावसरं प्रतीक्ष्य पतङ्गवद्वह्नि मुखं विविक्षुः। 3/64 जैसे कोई पतंगा आग में कूदने को उतावला हो, वैसे ही कामदेव ने सोचा कि बस बाण छोड़ने का यही ठीक अवसर है। तावत्स वह्निर्भवनेत्र जन्मा भस्मावशेष मदनं चकार । 3/72 इतनी देर में तो शंकरजी की आँखों से निकलने वाली, उस आग ने कामदेव को जलाकर राख ही तो कर डाला। निकाम तप्ता विविधेन वह्निना न भरश्चरेणेन्धनसंभृते न सा। 5/23 इधर ईंधन की आग तथा सूर्य की गर्मी से तपे हुए पार्वती जी के शरीर से भाप निकल उठी। जयेति वाचा महिमानमस्य संवर्धयन्तौ हविषेव वह्निम्।। 7/43 जैसे आग में घी डालने से उसकी लपट बढ़ जाती है, वैसे ही उनकी जय-जय कार करके उनकी महिमा और भी बढ़ा दी। वधूं द्विजः प्राह तवैष वत्से वह्निर्विवाहं प्रति कर्म साक्षी।। 7/83 तब पुरोहित जी ने पार्वती से कहा कि हे वत्से! यह अग्नि तुम्हारे विवाह का साक्षी है। 7. हविर्भुज :-अग्नि। शुचौ चतुर्णां ज्वलतां हविर्भुजां शुचिस्मिता मध्यगता सुमध्यमा। 5/20 पतली कमर वाली हँसमुख पार्वती जी गरमी के दिनों में अपने चारों ओर आग जलाकर उसी के बीच खड़ी रहने लगीं। 8. हुताशन :-पुं० [हुतम् आहुतिद्रव्यम् अशनमस्य] अग्नि। समीरणो नोदयितो भवेति व्यादिश्यते केन हुताशनस्य । 3/21 भला पवन को कहीं यह थोड़े कहा जाता है, कि तुम जाकर आग की सहायता करो। अचल 1. अचल :-पुं० [न चलति यः। चल+पचाद्यच, नबसमासः] पर्वत। For Private And Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 492 कालिदास पर्याय कोश मार्गाचल व्यतिकरा कुलितेव सिन्धुः शैलाधिराजतनया न ययौ न तस्थौ। 5/85 जैसे धारा के बीच में पहाड़ा पड़ जाने से न तो नदी आगे बढ़ पाती है, न पीछे हट पाती है, वैसे ही हिमालय की कन्या भी न तो आगे ही बढ़ पाईं, न खड़ी ही रह पाईं। 2. गिरि :-पं० [गिरति धरयति पृथ्वी, गियते स्तूयते गुरुत्वाद्वा । कृगशपकटि भिदिछिदिभ्यश्च' इति इ किच्च] पर्वत। एक पिङ्गल गिरौ जगद्गुरुर्निर्विवेश विशदाः शशिप्रभाः। 8/24 कैलास पर्वत पर रहकर शंकरजी ने उजली चाँदनी का भरपूर आनन्द लूटा। चन्द्रपाद जनित प्रवृत्तिभिश्चन्द्र जल बिन्दुभिर्गिरिः।। 8/67 चन्द्रमा की किरण पड़ने के कारण इस पर्वत के चन्द्रकान्त मणि की चट्टानों से जल की बूंदें टपक रही हैं। उन्नता वनत भावत्तया चन्द्रिकासतिमिरा गिरेरियम्।। 8/69 पहाड़ के ऊँचा होने से कहीं तो चाँदनी पड़ रही है, कहीं अँधेरा है। 3. पर्वत :-पुं० [पार्वती पूरयतीति, पर्व पूरणे + 'भृमृदृशियजिपर्वीति' अतच्। यद्वा पर्वाणि भागाः सन्त्यत्र, पर्वमरुद्श्याम् इति, तप] पर्वत। आक्रीड पर्वतास्तेनकल्पिताः स्वेषु वेश्मसु। 2/43 उसने अपने घर में ले जाकर खेल के पहाड़ बना डाले हैं। 4. शिखर :-पुं० [शिखरोऽस्यास्तीति । शिखर+इति] पर्वत । यश्चाप्सरो विभ्रमण्डनानां संपादयिवी शिखरैर्विभर्ति।। 1/4 चोटियों को देखकर सन्ध्या होने के पहले ही वहाँ की अप्सराओं को यह भ्रम हो जाता है, कि संध्या हो गई है और इस हड़बड़ी में वे सायंकाल के नाच-गान के लिए अपने शृंगार करना प्रारंभ कर देती हैं। प्रजासु पश्चत्प्रथितं तदाख्याया जगाम गौरीशिखरं शिखण्डितमत्। 5/7 वे हिमालय की उस चाटी पर तप करने पहुंची, जहाँ पर बहुत से मोर रहा करते थे और पीछे जिसका नाम उन्हीं के नम पर गौरीशिखर पड़ गया। संध्यायाप्यनुगतं रवेर्वपुर्वन्द्य मस्तशिखरे समर्पितम्।। 8/44 देखो ! पूजनीय सूर्य अस्ताचल को चले, तो सन्ध्या भी उनके पीछे-पीछे चल दी। For Private And Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 493 पश्य धातु शिखरेषु भानुना संविभक्तमिव सांध्यमातपम्।। 8/46 रंगीन धातु वाली हिमालय की चोटियों को देखने से ऐसा जान पड़ रहा है, कि अस्त होते हुए सूर्य ने अपनी लाल धूप इन सबको बाँट दी हो। कल्पवृक्षशिखरेषु संप्रति प्रस्फुरद्भिरिव पश्य सुन्दरि। 8/68 हे सुन्दरि ! इस समय कल्पवृक्ष की फुनगियों पर चमकती हुई किरणों को देखकर ऐसा जान पड़ रहा है। 5. शृंग :-क्ली० [ हिंसायाम्+ शृणातेर्हस्वश्च' इति गत् धातोर्हस्वत्वं कित्वं नुट च प्रत्ययस्य] पर्वतोपरिभाग, पर्वत। उद्वेजिता वृष्टिभिराश्रयन्ते शृंगाणि यस्यात पवन्ति सिद्धाः। 1/5 जब अधिक वर्षा होने से घबरा उठते हैं, तब वे बादलों के ऊपर उठी हुई उन चट्टानों पर जाकर रहने लगते हैं, जहाँ उस समय धूप बनी रहती है। उत्पाट्य मेरु शृङ्गाणि क्षुण्णानि हरितां खुरैः। 2/43 सूर्य के घोड़ों से ढीली पड़ी हुई मेरु की चोटियों को उखाड़-उखाड़ कर। उच्चैर्हिरण्मयं शृंगं सुमेरोर्वितथी कृत्।। 6/72 सुमेरु पर्वत की सुनहरी और ऊँची चोटियों को भी नीचा दिखा दिया। विमान शृङ्गाण्यवगाहमानः शशंस सेवावसरं सुरेभ्यः। 7/44 उसकी ध्वनि ने देवताओं के विमानो की छतरियों में गूंजकर यह सूचना दी की, अब सबको अपने-अपने काम में जुट जाना चाहिए। शैल :- [शिलाः सन्त्यत्रेति । शिला + ज्योत्स्नादित्वादण्] पर्वत। मनः शिला विच्छुरिता निषेदः शैलेयनद्धेषु शिला तलेषु। 1/55 मैनसिल के रंग से अपने शरीर रंगे शंकर जी के गण लोग, शिलाजीत से पुती हुई चट्टानों पर बैठे पहरा देते रहते थे। अच्युत 1. अच्युतः-पुं० [न च्यवते स्वरूपतो न गच्छति यः, नित्य इति यावत् । च्यु कर्तरि क्त, नञ् समासः] विष्णु, प्रभु। तत्रा वतीर्याच्युत दत्त हस्तः शरद्धनाद्दीधितिमानि वोक्ष्णः।। 7/701 वहाँ पहुँचने पर विष्णु जी ने हाथ का सहारा देकर महादेव जी को इस प्रकार बैल से उतार लिया, मानो शरद के उजले बादलों से सूर्य को उतार लिया हो। For Private And Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 494 कालिदास पर्याय कोश 2. कृष्णः-पुं० [कर्ष [कर्षत्यरीन महाप्रभु शक्त्या। यद्वा कर्षति आत्मसात् करोति आनन्दत्वेन परिणमयति भक्तानां मनः इति यावत्। कृषेवणे, इति बाहुलकात् वर्ण विनापि नक् णत्वं च।] विष्णु, प्रभु। व्यादिश्यते भूधरतामवेक्ष्य कृष्णेन देहोद्वहनाय शेषः।। 3/13 प्रलय होने पर अपने सोने के लिए भगवान् ने शेष को ही अपनी शय्या क्यों बनाया था? क्योंकि वे देख चुके थे कि शेषनाग जब पृथ्वी को धारण कर सकते हैं, तो मेरा बोझ भी सह लेंगे। 3. पद्मनाभ:-पुं० [पद्मं नाभौ यस्य। अच् प्रत्यन्वपूर्वात् सामलोम्नः इत्यत्र 'अच्' इति योग विभागाद् अच। ब्रह्योत्पत्ति कारणीभूत पद्मस्य नाभिजातत्वादस्य तथात्वम्] विष्णु, प्रभु। पद्मनाभ चरणांकिताश्मसु प्राप्त वत्स्वभृत विप्र षो नवाः।। 8/23 विष्णु के चरणे की छाप और समुद्र मंथन के समय उड़े हुए अमृत की बूंदों के नये-नये छींटे पड़े हुए थे। 4. परमेष्ठिन:-पुं० [परमे व्योम्नि चिदाकाशे ब्रह्मपदे वा तिष्ठतीति। स्था गति निवृत्तौ परमे कित्, इति इनि स च कित्, 'हलदन्तात् सप्तभ्याः संज्ञायाम् इत्यलुक् स्थास्थिन् स्थूणाम् इति] विष्णु, प्रभु। यथैव श्लाघ्यते गंगा पादेन परमेष्ठिनः।। 6/70 जैसे गंगा जी, विष्णु के चरणों से निकलकर अपने को बहुत बड़ा मानती हैं। 5. पुरुषः-पुं० [पुरति अग्रे गच्छतीति, पुर+'पुरः कुषन्' इति कुषन्] विष्णु, प्रभु। तमभ्यगच्छत्प्रथमो विधाता श्री वत्सल क्षमा पुरुषश्च साक्षात्। 7/43 ब्रह्मा और विष्णु ने आकर उनकी जय जयकार करके उनकी महिमा और भी बढ़ाई। 6. विष्णुः-पुं० [वेवेष्टि व्याप्नोति विश्वं यः। विष्ल व्याप्तौ 'विषैः किच्च' इति नु वेषति सिञ्यति आप्यायते विश्वमिति वा। विष्णाति वियुनक्ति भक्तान् माया पसारेण संसारादिति वा] विष्णु। परिच्छिन्न प्रभावर्द्धिर्न मया न च विष्णुता।। 2/58 हम और विष्णु भी उनकी महिमा का ठिकाना अब तक नहीं लगा पाए हैं। 7. हरि:-पुं० [हरति पापानीति ह+हपिषिरुहीति' इन्] विष्णु, प्रभु, ईश्वर। हरिचक्रेण तेनास्य कण्ठे निष्कमिवार्पितम्।। 2/49 For Private And Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 495 विष्णु के चक्र से निकली हुई चिनगारियाँ ऐसी जान पड़ती हैं, मानो उस राक्षस के गले में माला पहना दी गई हो। तिर्यगूर्ध्वमधस्ताच्च व्यापको महिमा हरेः।।7/71 भगवान् विष्णु की महिमा संसार में तब फैली जब उन्होंने ऊपर, नीचे और तिरछे पैर रखकर, तीनों लोकों को माप डाला। विष्णोर्हरस्तस्य हरिः कदाचिद्वेधास्तयोस्तावपि धातुराद्यौ।। 7/44 कभी शिव जी विष्णु से बढ़ जाते हैं, कभी ब्रह्मा इन दोनों से बढ़ जाते हैं और कभी ये दोनों ब्रह्मा से बढ़ जाते हैं। कम्पेन मूर्ध्नः शतपत्र योनिं वाचा हरिं वृत्र हरणं स्मितेन। 7/45 शिव जी ने ब्रह्माजी की ओर सिर हिलाकर, विष्णुजी से कुशल मंगल पूछकर, इन्द्र की ओर मुस्कुरा कर आदर किया। अज 1. अजः-पुं० [न जायते नोत्पद्यते यः नञ्ज न+ अन्तेष्वपि दृश्यते' इति कर्तरिड, उपपदसमासः] विष्णु, शिव, ब्रह्मा। यदमोधमपा मन्तरूप्तं बीजमज त्वया। 2/5 हे ब्रह्मन् ! आपने सबसे पहले जल उत्पन्न करके उनमें ऐसा बीज बो दिया, जो कभी अकारथ नहीं जाता। 2. आत्मभुवः- पुं० [आत्मन्+भू+क्विप्] ब्रह्मा। याम नन्त्यात्मभुवोऽपि कारणं कथं स लक्ष्य प्रभवो भविष्यति। 5/91 जो ब्रह्म तक को उत्पन्न करने वाला बताया जाता है, उस ईश्वर के जन्म और कुल को कोई जान ही कैसे सकता है। सोऽनुमन्य हिमवन्त मात्मभूरात्मजाविरहदुःखखेदितम्। 8/2 तब उन्होंने हिमालय से जाने की आज्ञा माँगी। कन्या को अपने से अलग करने में हिमालय को दुःख तो बहुत हुआ, पर उसने विदा दे दी। वचस्य वसिते तस्मिन्सर्ज गिरामात्मभूः।। 2/53 उनके कह चुकने पर ब्रह्माजी ऐसी मधुर वाणी बोले। 3. कमलासन:- पुं० [कमलमासनमस्य, विष्णोर्नाभिपद्मजात त्वात् स्यात्वम्] ब्रह्मा। For Private And Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 496 कालिदास पर्याय कोश क्रान्तानि पूर्वं कमलासनेन कक्ष्यान्तराण्य द्रिपतेर्विवेश। 7/70 वहाँ से वे हिमालय के भवन की उस भीतर की कोठरी में पहुँचे जहाँ ब्रह्मा जी पहले से बैठे हुए थे। 4. चतुर्मुखः-पुं० [चत्वरि मुखाः अस्य] ब्रह्मा। पुराणस्य कवेस्तस्य चतुर्मुख समीरिता ।। 2/17 सबसे पुराने कवि ब्रह्माजी के चार मुँहों से निकली हुई वाणी। 5. जगद्योनि :-ब्रह्मा। जगद्योनिरयोनिस्त्वं जगदत्तो तिरन्तकः। 2/9 संसार को आपने उत्पन्न किया है, पर आपको किसी ने उत्पन्न नहीं किया। आप संसार का अन्त करते हैं, पर आपका कोई अंत नहीं कर सकता। 6. जगदीश :-ब्रह्मा, विष्णु। जगदादिरनादिस्त्वं जगदीशो निरीश्वरः।। 2/9 आपने संसार का प्रारम्भ किया है, पर आपका कभी प्रारभ नहीं हुआ। आप संसार के स्वामी हैं, पर आपका कोई स्वामी नहीं है। धातृ [ धातार]- पुं० [दधातीति, धा+तृच] ब्रह्मा। अथ सर्वस्य धातारं ते सर्वे सर्वतो मुखम्।। 2/3 ब्रह्मा जी को सामने देखते ही वे सब देवता, चार मुँह वाले और सारे जगत् को बनाने वाले ब्रह्मा जी। पुरातनाः पुराविद्भिर्धातार इति कीर्तिताः।। 619 जिन्हें इतिहास जानने वाले पुराने लोग विधाता कहा करते हैं। विष्णोर्हरस्तस्य हरिः कदा चिद्वेधास्त योस्तावपि धातुराद्यौः।। 7/44 कभी शिवजी विष्णु से बढ़ जाते हैं, कभी ब्रह्मा इन दोनों से बढ़ जाते हैं और कभी ये दोनों ब्रह्मा से बढ़ जाते हैं। 8. पितामहः-पुं० [पितुः पितेति। पितृव्यमातुलमातामहपितामहः।' इत्यत्र 'मातृपितृभ्यां पितृणां मरीच्यादीनां पितरि डामहच्' इति डामहच् ब्रह्मणि पितुः पिता जनकस्यापि जनकः पितृ गणानां पिता वा] ब्रह्मा। प्रणेम तुस्तौ पितरौ प्रजानां पद्मासनस्थाय पितामहाय।। 1/86 कमल के आसन पर बैठे हुए ब्रह्माजी को दोनों ने प्रणाम किया। 9. प्रजापतिः-पुं० [प्रजानां पति:] ब्रह्मा । For Private And Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 497 प्रजापतिः कल्पितयज्ञ भागं शैलाधि पत्यं स्वयमन्वतिष्ठत।। 1/17 हिमालय को स्वयं [प्रजापति] ब्रह्माजी ने उन पर्वतों का स्वामी बना दिया, जिन्हें यज्ञ में भाग पाने का अधिकार मिला हुआ है। अभिलाष मुदीरितेन्द्रियः स्वसुतायामकरोत्प्रजापतिः।। 4/41 ब्रह्माजी ने सृष्टि करते समय जब सरस्वती को उत्पन्न किया था, उस समय कामदेव ने उनके मन में ऐसा पाप भर दिया कि वे सरस्वती के रूप पर मोहित हो गए और उससे संभोग की इच्छा करने लगे। अस्मिन्द्वये रूपविधान यत्नः पत्युः प्रजानां विफलोऽभविष्यत्।। 7/66 ब्रह्माजी ने इन दोनों का रूप गढ़ने में जो परिश्रम किया, वह सब अकारण ही था। 10. प्रजेश्वर:-पुं० [प्रजानां ईश्वरः] ब्रह्मा। संक्षये जगदिव प्रजेश्वरः संहरत्य हर सावहर्पतिः। 8/30 जैसे प्रलय के समय ब्रह्माजी सारे संसार को समेट लेते हैं। 11. ब्रह्माः-पुं० [बृंहति वर्द्धतेः यः। बृहि वृद्धौ+ बृह!ऽच्च' इति मनिन नकारस्याकारश्च] ब्रह्मा। तेषामाविरभूद् ब्रह्मा परिम्लानमुखश्रियाम्।। 2/2 जब उदास मुंह वाले देवताओं के सामने, ब्रह्माजी उसी प्रकार प्रकट हो गए। स च त्वदेकेषु निपात साध्यो ब्रह्माङ्ग भूर्ब्रह्मणि योजितात्मा। 3/15 इसलिए मंत्र के बल से ब्रह्म में ध्यान लगाए हुए महादेव जी की समाधि, तुम्ही अपने एक बाण से तोड़ सकते हो। 12. वागीश :-ब्रह्मा। वागीशं वाग्भिराभिः प्रणिपत्योपत स्थिरे ।। 2/3 ब्रह्माजी को प्रणाम करके बड़े भेद भरे शब्दों में यह स्तुति करने लगे। 13. विधातृ-[विधाता]-ब्रह्मा। शेषाङ्ग निर्माण विधौ विधातुर्लावण्य उत्पाद्य इवास यत्नः। 1/3 शेष अंगों को बनाने के लिए सुंदरता की और सामग्रियाँ फिर जुटाने में ब्रह्माजी को बड़ा कष्ट उठाना पड़ा था। स्वयं विधाता तपसः फलानां केनापि कामेन तपश्चचार।। 1/57 सब तपस्याओं का फल देने वाले शिवजी ने न जाने किस फल की इच्छा से तप करना प्रारंभ कर दिया। For Private And Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 498 कालिदास पर्याय कोश परतेऽपि परश्चासि विधाता वेध सामपि ।। 2/14 अच्छों से भी अच्छे और सृष्टि करने वाले प्रजापतियों के भी सृष्टि करने वाले हैं। इत्यद्भुतैकप्रभवः प्रभावात्प्रसिद्धनेपथ्य विधेर्विधाता।। 7/36 अपनी शक्ति से संसार के सभी सिंगार को बनाने वाले और सदा अनोखा ही करने वाले महादेव जी। तमभ्यगच्छत्प्रथमो विधाता श्रीवत्सलक्ष्मा पुरुषश्च साक्षात्। 7/43 ब्रह्मा और विष्णु ने शिवजी [शंकर जी] के सामने आकर। 14. विश्वयोनि-ब्रह्मा। सर्ग शेष प्रणयनाद्विश्वयोनेरनन्तरम्।। 6/9 ब्रह्मा के सृष्टि कर चुकने पर, इन्हीं ऋषियों ने ही सृष्टि की थी। 15. विश्वसृज-ब्रह्मा। सा निर्मिता विश्वसृजा प्रयत्नादेकस्थ सौन्दर्यदिदृक्षयेव॥ 1/49 पार्वती जी को देखकर ऐसा जान पड़ता था, कि संसार को बनाने वाले ब्रह्माजी पृथ्वी पर की सारी सुन्दरता को उसमें देखना चाहते थे। प्रायेण सामग्य विधौ गुणानां पराङ्मुखी विश्वसृजः प्रवृत्तिः। 3/28 ब्रह्माजी की कुछ ऐसी बान ही पड़ गई है, कि वे किसी भी वस्तु में पूरे गुण भरते ही नहीं। 16. वेधस :-पुं० [विद्धातीति, विधान विधाओ वेध च' इति असि वेधादेशश्च सोपसर्ग धातोः] ब्रह्मा। प्रसादा भिमुखो वेधाः प्रत्युवाच दिवौकसः।। 2/16 दयालु ब्रह्माजी जिस समय देवताओं से बोलने लगे। कुले प्रसूतिः प्रथमस्य वेधसस्त्रिलोक सौंदर्यमि वोदितं वपुः। 5/4 ब्रह्मा के वंश में तो आपका जन्म, शरीर भी आपका ऐसा सुंदर, मानो तीनों लोकों की सुन्दरता आप में ही लाकर भरी हो। नून मात्मसदृशी प्रकल्पिता वेधसा हि गुणदोषयोर्गतिः।। 8/66 सचमुच ब्रह्मा ने गुण और दोष की कुछ चाल ही ऐसी बनाई है, कि गुण तो ऊँचे पर रहता और दोष नीचे की ओर चला जाता है। 17. शतपत्रयोनि :-ब्रह्मा। For Private And Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 499 कम्पेन मूर्ध्नः शतपत्रयोनिं वाचा हरिं वृत्रहणं स्मितेन 17/46 शिवजी ने ब्रह्मा जी की ओर सिर हिलाकर, विष्णुजी से कुशल मंगल पूछकर, इन्द्र की ओर मुस्करा कर आदर किया। 18. सर्वतोमुख-ब्रह्मा। अथ सर्वस्य धातारं ते सर्वे सर्वतोमुखम्। 2/3 ब्रह्मा जी को सामने देखते ही वे सब देवता चार मुंह वाले और सारे जगत् को बनाने वाले ब्रह्मा जी को प्रणाम करके। 19. स्वयम्भुव :-पुं० [स्वयम्भवतीति । स्वयम् भू+डु स्वयम् भू+क्विप्] ब्रह्मा तुरासाहे पुरोधाय धाम स्वायं भुवं ययुः। 2/1 वे सब इन्द्र को आगे करके ब्रह्माजी के पास पहुंचे। निर्मितेषु पितृषु स्वयंभुवा या तनुः सुतनुपपूर्वमुज्झिता। 8/52 देखो सुन्दरी, ब्रह्मा ने जब पितरों को रचा था, उस समय उन्होंने अपनी एक छोटी सी मूर्ति बना छोड़ी थी। अजिन 1. अजिन-क्ली०[अजति धूल्यादिम् आवृणोति यत् । अज+ अजरेज च' इति वीभावं बाधित्वा इनच्] चर्म, त्वचा, खाल। अथाजिनाषाढधरः प्रगल्भवाग्ज्वलन्निवं ब्रह्मयेन तेजसा। 5/30 इसी बीच एक दिन ब्रह्मचर्य के तेज से चमकता हुआ सा हिरण की छाल ओढ़े और पलाश का डंड हाथ में लिए हुए। उपान्त भागेषु च रोचनाको गजाजिन्स्यैव दुकूलभावः। 7/32 हाथी का चर्म ही ऐसा रेशमी वस्त्र बन गया जिसके आँचलों पर गोरोचना से हँस के जोड़े छने हुए थे। 2. चर्म-क्ली० [चर्म साधनतयास्त्यस्य। अच्] अजिनं, त्वक्, असृग्धरा, फलक; क्ली० [चर+ सर्व धातुभ्यो मनिन' इति मनिन्] त्वचा, खाल। स देवदारु दुम वेदिकायां शार्दूल चर्म व्यवधानवत्याम्। 3/44 देवदारु के पेड़ की जड़ में पत्थर की पाटियों से बनी हुई चौकी पर बाघम्बर बिछा हुआ है। 3. त्वचा-स्त्री [त्वचति संवृणोति मेदशोणितादिकमिति। त्वच् संवरणे+क्विप्। For Private And Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 500 कालिदास पर्याय कोश यद्वा तनोति विस्तारयति, तन्+तनोतरनश्च वः' इति चिक् अनश्च व] खाल, चर्म। न्यस्ताक्षरा धातुरसेन यत्र मूर्जत्वचः कुञ्जरबिन्दुशोणः। 1/7 इस पर्वत पर उत्पन्न होने वाले जिन भाजपत्रों पर लिखे हुए अक्षर हाथी की सूंड़ पर बनी हुई लाल बुंदकियों जैसे दिखाई पड़ते हैं। इदमूचुरनूचामाः प्रीति कण्टकित त्वचः। 6/15 प्रेम से पुलकित शरीर वाले सप्तऋषियों ने शंकरजी का पूजन करके उनसे कहा। अदूर 1. अदूर :-नजदीक, पास, निकट। स्मरस्तथा भूतमयुग्म नेत्रम् पश्यन्न दूरान्मनसाप्य पृष्यम्। 3/51 तीन नेत्र वाले शंकर का जो रूप बुद्धि और मन से भी परे था, उसी रूप को इतने पास से देखकर कामदेव के।। 2. अन्तिक :-वि० [अन्तः सामीप्यं विद्यतेऽस्य। अन्त+ठन् तस्य+इक्] पास, निकट। विधुरां ज्वलनाति सर्जनान्ननु मां प्रापयपत्युरन्तिकम्।4/32 मेरा दाह करके मुझे मेरे पति के पास पहुँचा दो। 3. अभ्याश :-त्रि० [अभिमुखे नाऽस्य व्याप्यते, असू व्याप्तो घञ्] नजदीक, पास, निकट। चूतयष्टिरिवाभ्याशे मधौपरभृतोन्मुखी। 6/2 कोयल की बोली में वसन्त के पास-अपना संदेश भेजती हुई आम की डाल शोभा देती है। 4. आसन्न :-[भू०क०कृ०] [आ+सह+क्त] निकट, पास। कदाचिदासन्न सखी मुखेन सा मनोरथमं पितरं मनस्विनी। 5/6 हिमालय तो पार्वती जी के मन की बात जानते ही थे, इसी बीच एक दिन पार्वती जी ने अपनी प्यारी सखी से कहला कर अपने पिता जी से पुछवाया। आसन्न पाणि ग्रहणेति पित्रोरुमाविशेषोच्छ्वसितं बभूव। 7/4 For Private And Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 501 हिमालय और मेना दोनों को पार्वती जी प्राण से बढ़कर प्यारी लग रही थीं, क्योंकि विवाह हो जाने पर वे अभी वहाँ से चली जाने वाली थीं। स्वबाण चिह्नादवतीर्य मार्गदासन्नभू पृष्ठ मियाय देवः। 7/5 महादेव जी उस आकाश से पृथ्वी पर उतरे, जिसमें उन्होंने त्रिपुरासुर को मारते समय बहुत से बाण चलाकर चिह्न बना दिए थे। 5. उप :-पास, नज़दीक, निकट। तस्योपकण्ठे घननीलकण्ठः कुतूहलादुन्मुख पौर दृष्टः। 8/7 उसी नगर के पास बादलों के समान नीले कण्ठ वाले महादेव जी को वहाँ के निवासी, बड़े चाव से ऊपर मुंह उठाए हुए देख रहे थे। 6. संनिकृष्ट :-पास, निकट। स वासवेना संनिकृष्टमितो निषीदेति विसृष्ट भूमिः। 3/2 इन्द्र ने कामदेव से कहा-आओ यहाँ बैठो। यह कहकर उसे अपने पास ही बैठा लिया। 7. समीप :-वि० [संगता आपो यत्र-अच्, आत, ईत्वम्] निकट। तां नारदः कामचरः कदाचित्कन्यां किल प्रेक्ष्य पितुः समीपे। 1/50 नारद जी एक दिन घूमते-घूमते हिमालय के यहाँ पहुँचे, तो क्या देखते हैं कि हिमालय के पास उनकी कन्या बैठी हुई हैं। दूकूल वासाः स वधू समीपं निन्ये विनीतैरवरोधदक्षैः। 7/73 रेशमीवस्त्र पहने हुए महादेव जी को रनिवास के सेवक उसी प्रकार पार्वतीजी के पास ले गए। शैलराजतनया समीप गामाललाप विजयामहेतुकम्। 8/49 पार्वती जी ने पास बैठी हुई, विजया से इधर-उधर की बेसिर-पैर की बातें छेड़ दी। अद्रि 1. अद्रि :-पुं० [अदिशदीति क्रिन्] पर्वत, वृक्ष। अयाचिता नहि देव देव मदिः सुतां ग्राहयितुं शशाक। 1/52 पर हिमालय ने सोचा कि जब तक स्वयं महादेव जी ही कन्या माँगने नहीं आते, तब तक अपने आप उन्हें कन्या देने जाना ठीक नहीं जंचता। For Private And Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 502 कालिदास पर्याय कोश दुहितरमनुकम्प्यामदिरादाय दोभ्या॑म्। 3/76 अपनी दुःखी कन्या को हिमालय ने गोद में उठा लिया। इच्छाविभूत्योरनुरूपमद्रिस्तस्याः कृती कृत्यमशेषयिता। 7/29 हिमालय ने भी बड़े उत्साह से जी खोलकर पार्वती के विवाह के सब प्रारम्भिक काम निपटा दिए। 2. अद्रिनाथ :- पर्वत, हिमालय पर्वत। अनर्घ्यमर्येण तमद्रिनाथः स्वर्गीकसामर्चितमर्चयित्वा। 1/58 जिन महादेव जी को स्वर्ग के देवता पूजते हैं, उनकी पूजा के लिए हिमालय अपनी पुत्री के साथ बहुमूल्य पूजा की सामग्री लेकर पहुंचे। 3. क्षितिधर :-पुं० [धरतीति धरः, धृ+अच्, क्षितेः धरः, षष्ठी समासः] पर्वत। मूर्धन मालि क्षितिधारणोच्चमुच्चस्तरं वक्ष्याति शैलराजः। 7/68 पृथ्वी धारण करने से उनका सिर वैसे ही ऊँचा था, उस पर अपने मन चाहे वर भगवान् शंकर जी से सम्बन्ध करके उनका सिर और भी ऊँचा हो जाएगा। 4. गिरि :-पुं० [गिरति धारयति पृथ्वी, ग्रियते स्तूयते गुरुत्वाद्वा] पर्वत, गिरि। तानानय॑मादाय दूरात्प्रत्युद्ययौ गिरिः। 6/50 उन्हें देखकर हाथ में अर्ध्य-पात्र लेकर दूर से उनकी पूजा के लिए हिमालय चला। 5. गिरिराज :- हिमालय पर्वत, पर्वतराज। यस्यार्थ युक्तं गिरिराज शब्दं कुर्वन्ति बालव्यजनैश्चमर्यः। 1/13 वे इस पर्वतराज पर पूँछ के चँवर डुलाकर, इसका गिरिराज नाम सच्चा कर रही हों। 6. नगाधिराज :- हिमालय पर्वत, पर्वतराज। अस्त्युत्तरस्याँ दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः। 1/1 भारत के उत्तर में देवता के समान पूजनीय हिमालय नाम का बड़ा सा पहाड़ है। 7. नगेन्द्र :- हिमालय पर्वत, पर्वतराज। स प्रापद प्राप्त पराभियोगं नगेन्द्र गुप्तं नगरं मुहर्तात।। 7/50 किसी से भी कभी न हारने वाला वह बैल, हिमालय के औषधि प्रस्थ नगर में क्षण भर में पहुँच गया। For Private And Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org 9. भूधरेश्वर: पर्वतराज । कुमारसंभव 8. भूधर - पर्वत ऋषयोनोदयामासुः प्रत्युवाच स भूधरम् ।। 7/69 तब अंगिरा ऋषि ने हिमालय से कहा । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इत्युवाचेश्वरान वाचं प्राञ्जलिर्भूधरेश्वरः ।। 7/53 फिर हाथ जोड़कर हिमालय ने उनसे कहा। 10. भूधराणाधिपेन :- हिमालय पर्वत, पर्वतराज । सा भूधराणामधिपेन तस्यां समाधिमत्या मुदपादिभव्या । 1/2 वैसे ही हिमालय ने पतिव्रता मैना से उस कल्याणी को जन्म दिया। 11. भूभृतांनाथ :- हिमालय पर्वत, पर्वतराज । 503 दाता मे भूभृतां नाथः प्रमाणी क्रियता मिति । 7/1 मेरा विवाह करने वाले या न करने वाले मेरे पिता हिमालय हैं, इसलिए यदि आप मुझसे विवाह करना चाहते हैं, तो पहले उन्हें जाकर मना लीजिए । 12. भूमिधर : - पर्वत, हिमालय पर्वत । ह्रीमान भूदं भूमिधरो हरेण त्रैलोक्यवन्द्येन कृत प्रणामः । 7/54 शंकर जी ने जब पहले हिमालय को प्रणाम किया, तो वह लाज से गड़ गया । 13. महीधर : - हिमालय पर्वत, पर्वतराज, बड़ा पर्वत । यथा त्वदीयैश्चरितैरनाविलैर्महीधरः पावित एष सान्वयः । 5/37 इन सबसे हिमालय उतना पवित्र नहीं हुआ, जितना आपके रहन-सहन से हुआ वर्गाषुभौ देवमहीधराणां द्वारे पुरस्योद्धरितापिधाने । 7/53 इन दोनों दलों का हल्ला दूर तक सुनाई पड़ रहा था, और वे जब हिमालय की राजधानी के खुले फाटकों वाले द्वार पर आकर मिले है। एतावदुक्त्वा तनयामृषीनाह महीधरः ।। 7/89 अपनी पुत्री से इतना कहकर हिमालय ऋषियों से बोले । 14. महीभृत :- पुं [ महीं बिभर्ति धरतीति । मही+भ+ क्विप्; ह्रस्वस्य पिति कृति तुक्' इति तुगागमश्च] पर्वत हिमालय पर्वत, पर्वतराज । For Private And Personal Use Only महीभृतः पुत्रवतोऽपि दृष्टि स्तस्मिन्नपत्येन जगाम तृप्तिम। 1 / 27 अनेक संतानों के होते हुए भी हिमवान की आँखें पार्वती पर ही अटकी रहती थीं । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 504 www. kobatirth.org कालिदास पर्याय कोश 15. शैल - पुं [ शिलाः सन्त्यत्रेति । शिला+ज्योत्स्नादित्वादण् ] पर्वत । प्रजापतिः कल्पित यज्ञ भागं शैलाधि पत्यं स्वयमन्वतिष्ठत । 1/17 हिमालय को स्वयं ब्रह्मा जी ने उन पर्वतों का स्वामी बना दिया, जिन्हें यज्ञ में भाग पाने का अधिकार प्राप्त है। · Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शैलः संपूर्णकामोऽपि मेनामुखमुदक्षत। 6 / 85 हिमालय इससे सहम गये, फिर उत्तर पाने के लिए मेना की ओर देखा । 16. शैलगुरु : - पर्वतराज हिमालय पर्वत । तस्याः करं शैल गुरुपनीतं जग्राह ताम्राङ्गुलिमष्टमूर्तिः । 7/76 हिमालय के पुरोहित ने पार्वती जी का हाथ आगे बढ़ाकर शंकर जी के हाथ पर रख दिया। 17. शैलाधिराज :- पर्वतराज हिमालय पर्वत । मूर्द्धानमालि क्षिति धारणोच्चमुच्चैस्तरं वक्ष्यति शैलराजः । 7/68 पृथ्वी धारण करने से उनका सिर वैसे ही ऊँचा था उस पर अपने मनचाहे वर शंकरजी से सम्बन्ध करके उनका सिर और भी ऊँचा हो जाएगा। 18. हिमवान हिमालय पर्वत । प्रकृत्यैव शिलोरस्कः सुव्यक्तो हिमवानिति । 6 / 51 स्वभाव से ही पत्थर की शिलाओं वाली और पक्की छाती वाला हिमालय ही है । समेत बन्धु हिमवान सुतायां विवाह दीक्षा विधि मन्वष्ठित | 7/1 हिमालय ने अपने भाई बन्धुओं को बुलाकर शंकर जी के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर दिया। 19. हिमवन्त : - हिमालय । सोऽनुमन्य हिमवन्तमात्मभूरात्मजाविरह दुःखखेदितम् । 8 / 21 हिमालय से जाने की आज्ञा मानी, कन्या को अपने से अलग करने में हिमालय को दुःख तो बहुत हुआ । अङ्गव्यय प्रार्थित कार्यसिद्धिः स्थाण्वाश्रमं हैमवतं जगाम् । 3/23 कामदेव इस निश्चय के साथ कि प्राण देकर भी देवताओं का काम करूँगा, उधर चला जिधर शिवजी तपस्या में बैठे थे । For Private And Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 505 अथते मुनयो दिव्याः प्रेक्ष्य हैमवत पुरम। 6/47 हिमालय की राजधानी को देखकर उन मुनियों ने सोचा। 20. हिमाद्रि :- हिमालय पर्वत। प्रस्थं हिमाद्रेर्मुगनाभिगन्धि किंचित्ववणात्किन्नरमध्युवास। 1/54 शंकरजी कस्तूरी की गंध में बसी हुई हिमालय की एक सुन्दर चोटी पर जाकर तप करने लगे। 21. हिमालय :- हिमालय पर्वत। अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नामनगाधिराजः। 1/1 भारत की उत्तर दिशा में देवता के समान पूजनीय हिमालय नाम का बड़ा भारी पहाड़ है। अध्वन् 1. अध्वन् :-पुं० [अन्ति गमनेन बलं नाशयति । अद्ः बाहुलकात् क्वनिप्, पृषोदरण्दि त्वाद्दकारस्य ध:] पथः, काल, मार्ग। येनेदं ध्रियते विश्वं धुर्योतमिवाध्वनि । 6/76 संसार को इस प्रकार से चलाने वाले हैं, जैसे घोड़े मार्ग में रथ को लीक में बाँधे रहते हैं। 2. पथ :-पुं० [पथति गच्छति अत्र] पथ्+गतौ+अधिकरणे क] पथः, मार्ग। भुवनालोकानप्रीतिः स्वर्गिभिनानुभूयते। खिलीभूते विमानानां तदापातभयात्पथि।। 2/45 पहले देवता लेग विमानों पर चढ़कर इस लोक से उस लोक में घूमते फिरते थे, पर अब उसके आक्रमण के डर से आकाश में निकलना भी दूभर हो गया है। 3. मार्ग :-पुं० [मार्यते संस्क्रियते पादेन, मृग्यते गमनायान्विष्यते इति वा] मार्ग वा मृग्+घञ्] पथ, रास्ता, मार्ग। उद्वे जयत्यङ्गलिपार्फाि भागान्मार्गे शिलीभूतहिमेऽपि यत्र। 1/11 वहाँ की किन्नरियाँ जब जमे हुए हिम के मार्गों पर चलती हैं, तब उनकी ऊँगलियाँ और एड़ियाँ ऐठ जाती हैं। विदन्ति मार्ग नखरन्धमुक्तैर्मुक्ताफलैः केसरिणां किराताः।। 1/6 उन सिंहों के नखों से गिरी हुई गजमुक्ताओं को देखकर ही, यहाँ के किरात पता चला लेते हैं कि सिंह किधर गए हैं। For Private And Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 506 कालिदास पर्याय कोश असंमतः कस्तव मुक्ति मार्ग पुनर्भव क्लेशभयात्प्रपन्नः।। 3/5 बताइए तो ऐसा कौन पुरुष है, जो आपका शत्रु बनकर संसार के कष्टों से घबराकर मोक्ष की ओर चल पड़ा है। कपालनेत्रान्तरलब्ध मार्गर्योतिः पुरोहैरुदितैः शिरस्तः।। 3/49 उस समय उनके सिर और नेत्र से जो तेज निकल रहा था। स्वबाणचिह्नादवतीर्य मार्गादासन्नभूपृष्ठमियाय देवः।। 7/51 उस आकाश से पृथ्वी पर उतरे, जिसमें उन्होंने त्रिपुरासुर को मारते समय बहुत से बाण चलाकर चिह्न बना दिए थे। अध्वर 1. अध्वर :-पुं० [अध्वानं सन्मार्ग रातिददाति ।अध्वन् + रा+क् । उपपदसमासः] यज्ञ। यज्वभिः संभृतं हव्यं वितेष्वध्वरेषु सः।। 2/46 वह ऐसा भारी छलिया है, कि जब यज्ञ में यजमान हम लोगों को आहुति देता है। विवाह यज्ञे विवतेऽत्र यूयमध्वर्यवः पूर्ववता मयेति। 7/47 इस बड़े भारी विवाह के काम में पुरोहित का काम मैंने पहले से ही आपके लिए रख छोड़ा है। 2. यज्ञ :-पुं० [इज्यते हविर्दीयतेऽत्र । इज्यन्ते देवता अत्र वा । यज् + यजयाचयतविच्छप्रच्छरक्षो नङ इति नङ्] याग, सव, यज्ञ। यज्ञां गयोनित्वमवेक्षय यस्य सारं धरित्रीधरणं क्षमं च।। 1/17 यज्ञ में काम आने वाली सामग्रियों को उत्पन्न करने के कारण और पृथ्वी को संभाले रखने की शक्ति होने के कारण। कर्म यज्ञः फलं स्वर्गस्तासां त्वं प्रभवो गिराम्। 2/12 जिसके मंत्रों से यज्ञ करके लोग स्वर्ग प्राप्त करते हैं। यज्ञ भाग भुजां मध्ये पदमातस्थुषा त्वया। 6/72 यज्ञ का भाग पाने वाले देवताओं में स्थान पाकर। अनंग 1. अनंग :-पुं० [नास्ति अङ्गं कायो यस्य सः] कामदेव। For Private And Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 507 कुमारसंभव तां वीक्ष्य लीला चतुरामनंगः स्वचाप सौन्दर्य मदं मुमोच। 1/47 वे भौहें इतनी सुन्दर थीं कि कामदेव भी अपने धनुष की सुन्दरता का जो घमण्ड लिए फिरते थे, वह इन भौंहों के आगे चूर-चूर हो गया। उपचारपदं न चेदिदं त्वमनंगः कथमक्षता रतिः। 4/9 यदि वह बात केवल मेरा मन रखने भर को न होती, तो तुम्हारे राख हो जाने पर तुम्हारी यह रति भला कैसे जीती बची रह जाती। मान्यभक्तिरथवा सखीजन: सेव्यतामिदमनंग दीपनम्। 8/77 सखियों का आग्रह टालना भी नहीं चाहिए, इसलिए लो, यह काम को उकसाने वाली मदिरा पी ही डालो। 2. कन्दर्प :-पुं० [कमित्यव्ययं कुत्यायां; कं कुत्सितो दर्पः यस्मात् । यद्वा, कं सुखं तेन तत्र वा दृप्यति । कम्+दृप्+अच्। कं ब्रह्माणं प्रतिदर्पितवान् वा] कामदेव। तत्र निश्चित्य कंदर्पमगमत्पाकशासनः। 2/63 इन्द्र ने स्वर्गलोक में पहुँचकर भली भाँति सोच-विचार कर अपने काम के लिए कामदेव को स्मरण किया। 3. काम :-पुं० [काम्यते असौ; कर्मणि घञ्] कामदेव। . कामस्य पुष्प व्यतिरिक्तमस्त्रं बाल्यात्परं साथ वयः प्रपेदे। 1/31 धीरे-धीरे उनका बचपन बीत गया और उनके शरीर में वह यौवन फूट पड़ा जो कामदेव का बिना फूलों वाला बाण है। संकल्पितार्थे विवृतात्मशक्तिमाखण्डल: काममिदं बभाषे। 3/11 जिस कामदेव ने उनके सोचे हुए काम में अपने आप इतना उत्साह दिखाया था, उससे बोले। कामस्तु बाणावसरं प्रतीक्ष्य पतंरावद्वन्हि मुखं विविक्षुः। 3/74 जैसे कोई पतंगा आग में कूदने को उतावला हो वैसे ही कामदेव ने सोचा कि बस बाण छोड़ने का यही ठीक अवसर है। व्रीडामुं देवमुदीक्ष्य मन्ये संन्यस्तदेहः स्वयमेव कामः। 7/67 कामदेव ही इनकी सुंदरता को देखकर टीस के मारे स्वयं जल मरा। 4. कुसुमायुध :-पुं० [कुसुमानि आयुधानि अस्त्राणि अस्थ] कामदेव। न नून मारुढरूषा शरीरमनेन दग्धं कुसुमायुधस्य।7/67 अब हमारी समझ में आ रहा है कि इन्होंने कामदेव को क्रोध करके भस्म नहीं किया। For Private And Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 508 कालिदास पर्याय कोश 5. पंचशर :-पुं० [पञ्च शराः यस्य सः] कामदेव। शापावसाने प्रतिपन्न मूर्ते या चिरे पञ्च शरस्य सेवाम्। 7/92 आपका दिया हुआ शाप भी समाप्त हो गया, इसलिए आज्ञा दें तो कामदेव फिर जी उठे और आपकी सेवा करें। पुष्पचाप :-पुं० [पुष्पाणि चापस्येति] कामदेव। जितेन्द्रिय शूलिनि पुष्प चापः स्वकार्य सिद्धिं पुनराशशंस। 3/5 तब कामदेव के मन में जितेन्द्रिय महादेव जी को वश में करने की आशा फिर हरी हो उठी। 7. पुष्पधन्वन :-पुं० [पुष्पाणि धनुरस्येति। धनुषश्च' इति अनङादेशः] कामदेव। शतमखमुपतस्थे प्राञ्जलिः पुष्प धन्वा । 2/74 कामदेव हाथ जोड़कर इन्द्र के आगे आ खड़ा हुआ। संमोहनं नाम च पुष्पधन्वा धनुष्यमोघं, समधत्त बाणम्। 3/77 कामदेव ने भी सम्मोहन नामक अचूक बाण अपने धनुष पर चढ़ा लिया। इमां यदि व्यायतपात मक्षिणो द्विशीर्णमूर्तेरपि पुष्पधन्वनः।। 5/54 उस जलकर राख बने हुए कामदेव का यह बाण, मेरी सखी के हृदय में लगकर बड़ा भारी घाव कर गया है। 8. मकरध्वज :-पुं० [मकरेण चिह्नितो ध्वजो यस्य । मकरः ध्वजे यस्येति वा] कामदेव। पराजितेनापि कृतौ हरस्य यौ कण्ठपाशौ मकरध्वजेन। 1/41 कामदेव ने शिवजी से हार जाने पर उनके गले में इन [पार्वती की] भुजाओं का फन्दा बनाकर डाल दिया था। १. मदन :-पुं० [मदयतीति, मद्+णिच्, ल्यु] कामदेव। तथेति शेषामिव भर्तृराज्ञामादाय मूर्ध्वा मदनः प्रतस्थे। 3/22 कामदेव बोला-जैसी आज्ञा ! और जैसे कोई उपहार में दी हुई माला लेकर सिर पर चढ़ा लेता है, वैसे ही कामदेव ने इन्द्र की आज्ञा सिर चढ़ा ली। तं देशमारोपित पुष्पचापे रतिद्वितीये मदने प्रपन्ने।। 3/35 फिर जब अपने फूल के धनुष पर बाण चढ़ाकर, रति को साथ लेकर कामदेव आया। तावत्स वह्निर्भव नेत्रजन्मा भस्मावशेष मदनं चकार। 3/72 For Private And Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 509 पर इतनी देर में तो महादेवजी की आँखों से निकलने वाली उस आग ने कामदेव को जलाकर राख ही तो कर डाला। मदनेन विनकृता रतिः क्षणमात्रं किल जीवितेति मे।। 4/21 कामदेव के न रहने पर रति थोड़ी देर तक जीती रह गई। अस्त्पहार्यं मदनस्य निग्रहात्पिनाक पाणिं पतिमाप्तुमिच्छति। 5/53 उन महादेव जी से विवाह करने पर तुली है, जो अब कामदेव के नष्ट हो जाने पर केवल रूप दिखाकर नहीं रिझाए जा सकते। 10. मनोभव :-पुं० [मनसः मनसि वा भवतीति । भू+ अच् । मनसः भवः उत्पत्ति यस्येति क] कन्दर्प, कामदेव। निवेशयामास मधु द्विरेफान्नामाक्षराणीव मनोभवस्य । 3/27 उन पर उसने जो भौरे बैठाए वे ऐसे लगते थे, मानो उन बाणों पर कामदेव के नाम के अक्षर लिखे हुए हों। तथा समक्षं दहता मनोभवं पिनाकिना भग्न मनोरथा सती । 5/1 महादेव जी ने देखते-देखते कामदेव को भस्म कर डाला, यह देखकर पार्वती जी की सब आशाएँ धूल में मिल गईं। वृत्तिस्तयोः पाणि समागमेव समं विभक्तव मनोभवस्य ।। 7/77 ऐसा जान पड़ा, मानो उन दोनों का हाथ मिलाकर कामदेव ने दोनों को एक साथ अपने वश में कर लिया हो। 11. मन्मथ :-पुं० [मनो मनाति विकरोतीति । मन्थ्+पचाद्य च् ! पृषोदरादित्वात् साधुः ] कामदेव। मधुश्च ते मन्मथ साहचर्यादसावनुक्तोऽपि सहाय एव । 3/21 हे कामदेव ! हमने तुम्हारी सहायता के लिए वसन्त का नाम इसलिये नहीं लिया कि वह तो तुम्हारा साथी है ही। ज्ञात मन्मथ रसा शनैः शनैः सा मुमोच रति दुःख शीलताम्। 8/13 जब पार्वती जी को भी संभोग का रस मिलने लगा, तब इनकी भी झिझक धीरे-धीरे जाती रही। एवमिन्द्रिय सुखस्य वर्त्मनः सेवनादनुगृहीत मन्मथः। 4/20 इस प्रकार जवानी का रस लेकर महादेव जी ने कामदेव पर बड़ी कृपा की। 12. रति पण्डित :-पुं० [रतेः पण्डितः] कामदेव। For Private And Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 510 कालिदास पर्याय कोश रचितं रतिपण्डित त्वया स्वयमङ्गेषु यमेद मार्तवम्। 4/18 हे कामक्रीड़ाओं में चतुर ! तुमने अपने हाथों से मेरा जो वासन्ती सिंगार किया था, वह तो अभी ज्यों का त्यों बना हुआ है। 13. स्मर :-पुं० [स्मारयति उत्कण्ठयतीति । स्मृ+णिच्+अच्] कामदेव। नमस्विनी मानविघात दक्षं तदेव जातं वचनं स्मरस्य । 3/32 तब उसे सुन-सुन कर रूठी हुई स्त्रियाँ अपना रूठना भी भूल जाती थीं। स्मरस्तथा भूतम युग्म नेत्रम पश्यन्न दूरान्मन साप्यधृष्यम्।। 3/51 तीन नेत्र वाले शंकर जी का जो रूप बुद्धि और मन से भी परे था, उसी रूप को इतने पास से देखकर कामदेव के हाथ ढीले पड़ गए। स्मरसि स्मर मेखला गुणैरुत गोत्रस्खलितेषु बन्धनम्।। 4/8 हे कामदेव ! पहले जब भूल से तुमने अपनी किसी दूसरी प्यारी का नाम ले डाला। उस पर मैंने जो तुम्हें अपनी तगड़ी से बाँध दिया था। अयि संप्रति देहि दर्शनं स्मर पर्युत्सुक एष माधवः। 4/28 हे कामदेव ! तुम्हारा मित्र वसन्त तुम्हें देखने के लिए बड़ा उतावला है, आकर इसे दर्शन तो दो। उपलब्ध सुख स्तदा स्मरं वपुष स्वेन नियोजयिष्यति।। 4/42 इति चाह स धर्मयाचितः स्मर शापाबधिदां सरस्वतीम्। 4/43 जब धर्म ने ब्रह्माजी से सष्टि की रक्षा के लिए कामदेव को जिलाने की प्रार्थना की, तब ब्रह्मा जी ने कहा.....कामदेव को अपना सहायक समझकर महादेव उसे पहले जैसा शरीर दे देंगे और तभी हमारा शाप भी दूर हो जायेगा। अनंग शासन 1. अनंगशासन .- शिव, महादेव, शंकर। अप्यवस्तुनिकथाप्रवृत्तये प्रश्नतत्परमनङ्गशासनम्। 8/6 जब कभी बात-बात में शिवजी उट-पटांग बातें छेड़कर इनसे उत्तर माँगते। 2. अयुग्मनेत्र :- शिव, महादेव, शंकर। स्मरस्तथाभूतमयुग्मनेत्रम् पश्यन्नदूरान्मनसाप्य धृष्यम्। 3/51 तीन नेत्र वाले शंकरजी का जो रूप बुद्धि और मन से भी परे था, उसी रूप को देखकर। For Private And Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 511 अथेन्द्रिय क्षोभमयुग्मनेत्रः पुनर्वशित्वाद्वलवन्निगृह्य। 3/69 पर महादेव जी तत्काल संभल गए, संयमी होने के कारण उन्होंने तत्काल इन्द्रियों की चंचलता को बलपूर्वक रोक लिया। 3. अष्टमूर्ति :- शिव, महादेव, ईश्वर। . तत्राग्निमाधाय समित्समिद्धं स्वमेव मूर्त्यन्तरमष्टमूर्तिः। 1/57 उसी चोटी पर शिवजी ने अपनी ही दूसरी मूर्ति अग्नि को समिधा से जगाकर। ननु मूर्ति भिरष्टाभिरित्थं भूतोऽस्मि सूचितः। 6/26 हमारी आठों मूर्तियाँ, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु आकाश, सूर्य, चन्द्र और होता, इस बात के साक्षी हैं। तस्याः करं शैल गुरुपनीतं जग्राह ताम्राङ्गुलिमष्टमूर्तिः। 7/76 तब हिमालय के पुरोहित ने पार्वती जी का हाथ आगे बढ़ाकर शंकर जी के हाथ पर रख दिया। वाचस्पति सन्नपि सोऽष्टमूर्तो त्वाशास्य चिन्तास्तिमितो बभूव । 7/87 वाणी के स्वामी होते हुए भी उनकी यह समझ में न आया, कि सब इच्छाओं से परे रहने वाले शंकर को हम क्या आशीर्वाद दें। 4. आत्मभू :-पुं० [आत्मन्+भू+क्विप्] विष्णु, कामदेव, ब्रह्मा, शिव। सोऽनुमन्य हिमवन्तमात्मभूरात्मजा विरहदुःखखेदितम्। 8/21 तब उन्होंने [शंकर जी ने] हिमालय से जाने की आज्ञा माँगी। कन्या को अपने से अलग करने में हिमालय को दुःख तो बहुत हुआ, पर उसने विदा दे दी। 5. इन्दुमौलि :-शिव। तावत्पताकाकुलमिन्दुमौलिरुत्तोरणं राजपथं प्रपेदे। 7/63 महादेवजी ने ध्वजाओं और पताकाओं से सजे हुए राजमार्ग में प्रवेश किया। अथ विबुधगणांस्तानिन्दुमौलिर्विसृज्य। 7/94 तब शंकरजी ने इन्द्र आदि सब देवताओं को विदा किया। 6. इन्दुशेखर :-शिव। कपालि वा स्यादथवेन्दु शेखरं न विश्वमूर्तेरवधार्यते वपुः।। 5/78 संसार में जितने रूप दिखाई देते हैं, सब उन्हीं के चाहे होते हैं। चाहे गले में खोपड़ियों की माला पहने हुए हों या माथे पर चन्द्रमा सजाये हुए हों, पर उस पर यह विचार नहीं किया जाता कि वह कैसा है, कैसा नहीं। For Private And Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 512 कालिदास पर्याय कोश 7. ईश्वर :-पुं० [ईष्टे इति, ईश+वरच् । यद्वा अहनुते व्याप्नोतीति । अश्धातोर्वरः उपाधायाईत्वं च] ईश्वर, शिव। न हीश्वर व्याहृतयः कदाचित्पुष्णन्ति लोके विपरीतमर्थम्। 3/63 ठीक ही था, ऐसे ऐश्वर्य शालियों की वाणी कभी झूठी थोड़े ही होती है। तामगौरवभेदेन मुनी श्चापस्यदीश्वरः। 6/12 शंकर जी ने अरुन्धतीजी को और ऋषियों को बिना स्त्री-पुरुष के भेद किए समान आदर से देखा। शब्दमीश्वर इत्युच्चैः सार्ध चन्द्रं बिभर्ति यः। 6/75 जिन्हें छोड़कर दूसरा कोई ईश्वर कहला नहीं सकता, जिसके माथे पर आधा चन्द्रमा बसा हुआ है। तद्गौरवान्मंगल मंडनश्रीः सा पस्पृशे केवलमीश्वरेण। 7/31 शंकरजी ने माताओं का आदर करने के लिए वे सब मंगल शृंगार की सामग्री छू भर दी, पहनी नहीं। तत्रेश्वरो विष्टर भाग्यथावत्स रत्नमयं मधुमच्च गव्यम्। 7/7 वहाँ आसन पर महादेव जी को बैठाकर हिमालय ने रत्न, अर्ध्य, मधु, दही दिए। ईश्वरोऽपि दिवसात्य योचितं मंत्र पूर्वमनुतस्थिवान्वधिम्। 8/50 मंत्रों के साथ अपनी संध्या पूरी करके महादेव जी। ईश :-त्रि० [ईष्टे इति, ईश+क] ईश्वर, शिव, महादेव। विवक्षता दोषमपि च्युतात्मना त्वयैक मीशं प्रतिसाधु भाषितम्। 5/81 आपने अपने दुष्ट स्वभाव से कहते-कहते कम से कम एक बात तो, उनके लिए ठीक कह दी। मातरं कल्पयन्त्वेनामीशो हि जगतः पिता। 6/80 महादेव जी संसार के पिता हैं, इसलिए पार्वती जी सबकी माता बन जायेंगी। 9. ईशान् :-पुं० [ईष्टे, ईश्+'ताच्छील्यवयोवंचन शक्तिषुचान शू] महादेव। तस्मिन्मुहूर्ते पुर सुन्दरीणामी शानसंदर्शन लालसा नाम्। 7/56 उसी समय महादेवजी के दर्शन के लिए चाव से भरी हुई नगर की सब सुंदरियाँ । 10. कपालि :-महादेव। कपालि वा स्यादथवेन्दुशेखरं न विश्वमूर्तेरवधार्यते वपुः। 5/78 संसार में जितने रूप दिखाई देते हैं, सब उन्हीं के होते हैं, चाहे गले में खोपड़ियों For Private And Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 513 की माला पहने हुए हों या माथे पर चन्द्रमा सजाये हुए हों, पर उस पर यह विचार नहीं किया जाता कि वह कैसा है, कैसा नहीं। 11. कृतिवासा :-पुं० [कृत्तिर्गजासुरस्य चर्म वासोऽस्य] शिव, शंकर, माहदेव। सकृतिवासास्तपसे यतात्मा गंगा प्रवाहोक्षित देवदारु। 1/54 हिमालय की एक ऐसी सुंदर चोटी पर जाकर तप करने लगे, जहाँ के देवदारु के वृक्षों को गंगाजी की धारा बराबर सींचती थीं। 12. गिरीश :-पुं० [गिरिश श्रयत्वेन वसतित्वेनास्त्यस्य इति]-शिव, शंकर, महादेव। आरोपितं यद्गिरिशेन पश्चादनन्यनारी कमनीयमंकम्। 1/37 स्वयं शिवजी ने उन नितम्बों को अपनी उस गोद में रखा, जहाँ तक पहुँचने की कोई और स्त्री साध भी नहीं कर सकती। प्रत्यर्थि भूतामपि तां समाधेः शुश्रूषमाणां गिरिशोऽनुमेने। 1/59 यद्यपि पार्वती जी के वहाँ रहने से शिवजी के तप में बाधा पड़ सकती थी, फिर भी उन्होंने पार्वजी जी की सेवा ली। गिरिशमुपचचार प्रत्यहं सा सुकेशी नियमित परिखेदा तच्छिरश्चन्दपादैः। ... 1/60 बिना थकावट माने उनकी सेवा किया करतीं, क्योंकि महादेवी जी के माथे पर बैठे चन्द्रमा की ठण्डी किरणें पार्वती जी की थकान सदा मिटाती रहती थीं। अथोपनिन्ये गिरिशाय गौरी तपस्विने ताम्ररुचा करेण। 3/65 उधर पार्वती जी ने प्रणाम करके समाधि से जगे हुए शंकरजी के गले में अपने लाल-लाल हाथों से। निशम्य चैनां तपसे कृतोद्यमां सुतां गिरीश प्रतिसक्तमानसाम्। 5/3 जब उनकी माँ मैना ने सुना कि हमारी पुत्री शिवजी पर रीझकर उनके लिए तप करने पर तुली हुई है। 13. चन्द्रमौलि :-महादेव, शिव, शंकर। अद्यप्रभृत्यवनतांगि तवास्मि दास क्रीतस्तपोभिरिति वादिनि चन्द्रमौलौ।। 5/86 शिवजी बोले-हे कोमल शरीर वाली ! आज से तुम मुझे तप से मोल लिया हुआ अपना दास समझो। 14. चन्द्रशेखर :-महादेव, शिव का विशेषण। For Private And Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 514 कालिदास पर्याय कोश इति स्वहस्तोलिखितश्च मुग्धया रहस्युपालभ्यत चन्द्रशेखरः। 5/58 इस प्रकार नींद में उठकर ये अपने हाथ से बनाए हुए शंकर जी के चित्र को ही सच्चे शंकर जी समझकर, उन्हें उलाहना देने लगती थीं। 15. जगद्गुरु :-महादेव। अथ ते मुनयः सर्वे मानयित्वा जगद्गुरुम्। 6/15 तब सप्त ऋषियों ने शंकरजी का पूजन करके। एक पिंगलगिरौ जगदगुरुर्निर्विवेश विशदाः शशिप्रभाः। 8/24 शंकर जी से उजली चाँदनी का भरपूर आनन्द लूटा। 16. जगदीश :- शिव, महादेव, विष्णु। जगदादिरनादिस्त्वं जगदीशो निरीश्वरः। 2/9 आपने संसार का प्रारंभ किया है पर आपका कभी प्रारम्भ नहीं हुआ। आप संसार के स्वामी हैं, पर आपका कोई स्वामी नहीं है। 17. जगत्पति :-महादेव, शिव, शंकर। यदा च तस्याभिगमे जगत्पतेरपश्य दन्यं नविधिविचिन्वती। 5/39 जब उन संसार के स्वामी शिवजी को पाने का इन्हें कोई दूसरा उपाय न सूझा । 18. जटामौलि :-महादेव, शिव, शंकर। आवर्जित जटामौलिविलम्बि शशि कोटयः। 2/26 हार के दुःख से झुकी हुई नकली जटाओं में लटकती हुई, चन्द्र कलाओं वाले। 19. जितेन्द्रिय :-महादेव। जितेन्द्रिय शूलिनि पुष्पचापः स्वकार्य सिद्धिं पुनराशशंस। 3/57 कामदेव के [उसके मन में जितेन्द्रिय महादेव जी को वश में करने की आशा फिर हरी हो उठी। 20. ताराधिपखण्डधारी :-महादेव, शिव। अध्वातमध्वान्त विकारलंघयस्ततार ताराधिप खण्डधारी। 7/48 सब विकारों से परे रहने वाले महादेवजी जब चलने लगे। 21. त्र्यम्बक :-महादेव, शिव, शंकर। आसीनमासन्न शरीरपातस्त्रियम्बकं संयमिनं ददर्श। 3/44 थोड़ी ही देर में मृत्यु के मुंह पर पहुंचने वाला कामदेव देखता क्या है, कि उस पर महादेव जी समाधि लगाए बैठे हुए हैं। For Private And Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 515 व्यकीर्यंत त्र्यम्बक पाद मूले पुष्पोच्चयः पल्लवभंगभिन्नः। 3/61 फिर अपने हाथ से चुने हुए पत्तों के टुकड़े मिले हुए वासन्ती फूलों का ढेर शंकरजी के पैरों पर चढ़ा दिया। 22. त्रिनेत्र :-महादेव, शिव, शंकर। अयुक्त रूपं किमतः परं वद त्रिनेत्रव सः सुलभं तवापि यत्। 5/69 यदि शिवजी आपको मिल भी जायें, तो इससे बढ़कर अच्छी और क्या बात होगी। 23. त्रिलोकनाथ :-महादेव, शिव, शंकर। अकिंचनः सम्प्रभवः स संपदा त्रिलोक नाथः पितृ सद्मगोचरः। 5/77 पास में कुछ न होते हुए भी सारी सम्पत्तियाँ उन्हीं से उत्पन्न होती हैं, श्मशान में रहते हुए भी, वे तीनों लोकों के स्वामी हैं। 24. त्रिलोचन :-महादेव। प्रति ग्रहीतुं प्रणयिप्रिय त्वात्रिलोचनस्तामुपचक्रमे च । 3/66 शिवजी ने भक्त पर प्रेम करने के नाते पार्वती जी की वह माला ली ही थी। वरेषु यद्वाल मृगाक्षि मृग्यते तदस्ति किं व्यस्तमपि त्रिलोचने। 5/72 हे मृग के छौने की आँख जैसी आँख वाली पार्वती जी ! वर में जो गुण खोजे जाते हैं, उनमें से एक भी तो महादेवजी में नहीं है। 25. दिगम्बर :-महादेव, शिव। वपुर्विरूपाक्षमलक्ष्य जन्मता दिगम्बर त्वेन निवेदितं वसु।। 5/72 और देखिए, जन्म का उनके कोई ठिकाना नहीं, और उनके सदा नंगे रहने से ही आप समझ सकती होंगी कि उनके घर में क्या होगा। 26. देवदेव :-महादेव, शिव। अयाचितारं नहि देवदेवमद्रिः सुतां ग्राहयितुं शशाक। 2/52 पर हिमालय ने सोचा कि जब तक स्वयं महादेवजी ही कन्या मांगने नहीं आते, तब तक अपने आप उन्हें कन्या देने जाना ठीक नहीं जंचता। 27. नीलकंठ :-पुं० [नील: नीलवर्णः कण्ठो यस्य] शिव। क्व नीलकंठ व्रजसीत्यलक्ष्य वागसत्यकंठार्पित बाहु बंधना। 5/547 हे नीलकण्ठ ! तुम कहाँ जा रहे हो और उसी सपने के धोखे में ये अपने हाथ ऐसे फैलाती थीं, मानो शिवजी के गले में हाथ डालकर उन्हें रोक रही हों। For Private And Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 516 कालिदास पर्याय कोश तस्योपकण्ठे घननीलकण्ठः कुतूहलादुन्मुखपौरदृष्टः। 7/51 उसी नगर के पास बादलों के समान नीले कण्ठ वाले महादेव जी, उस आकाश से पृथ्वी पर उतरे। 28. नीललोहित :-पुं० [नीलश्चासौ लोहित श्चेति। वर्णो वर्णन' इति समासः] शिव, महादेव। अंशादृते निषिक्तस्य नील लोहितरेतसः। 2/57 महादेवजी के वीर्य से उत्पन्न पुत्र के अतिरिक्त उसका नाश और कोई दूसरा नहीं कर सकता। 29. परमेश्वर :-पुं० [परमश्चासौ ईश्वश्चेति] शिव। उपचिन्वनप्रभां तन्वीं प्रत्याह परमेश्वरः। 6/25 सिर पर बैठे हुए बाल चन्द्रमा की मन्दी चमक को बढ़ाते हुए महादेवजी उनसे बोले। 30. पुंगवकेतु :- शिव, शंकर, महादेव। रोमोद्गमः प्रादुरभूदुमायाः स्विन्नांगुलिः पुंगव केतुरासीत्। 7/77 हाथ पकड़ते ही पार्वतीजी को भी रोमांच हो आया और महादेव जी की उँगलियों से भी पसीना छूटने लगा। 31. पुरारिम् :-महादेव, शिव, शंकर। असध्य हुँकार निवर्तितः पुरा पुरारिम प्राप्त मुखः शिलीमुखः। 5/54 उस समय कामदेव ने शिवजी के ऊपर जो बाण चलाया था, वह उस समय तो उनकी हुँकार सुनकर लौट गया। 32. प्रभु :-त्रि० [प्रभवतीति, प्र+भू+'विप्रसंभ्यो ऽ व संज्ञायाम् इति डु] महादेव, ईश्वर, शंकर। क्रोधं प्रभो संहरं संहरेति यावगिरः खे मरुतां चरन्ति। 3/72 यह देखते ही एक साथ सब देवता आकाश में चिल्ला उठे,-हैं, हैं, रोकिये रोकिये, अपने क्रोध को प्रभु। सारुन्धतीका सपदि प्रादुरासन्पुरः प्रभोः। 6/4 अरुन्धती को साथ लेकर तत्काल शंकर जी के आगे सातों तपस्वी आकर खडे हो गए। 33. पिनाक पाणि :-महादेव, शिव, शंकर। For Private And Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 517 कुमारसंभव कुर्यां हरस्यापि पिनाकपाणे धैर्यच्युतिं के मम धन्विनोऽन्ये । 3/10 पिनाकधारण करने वाले स्वयं महादेव जी के छक्के छुड़ा दूँ, फिर और दूसरे धनुषधारियों की गिनती ही क्या। 34. पिनाकिन :-पुं० [पिनाकोऽस्त्यस्येति । इति ] शिव, महादेव, शंकर। न खलूग्ररुषा पिनाकिना गमितः सोऽपि सुहृदगतां गतिम्। 4/24 कहीं वह भी महादेव जी के तीखे क्रोध की आग में अपने मित्र के साथ-साथ भस्म तो नहीं हो गया। तथा समक्षं दहता मनोभवं पिनाकिना भग्न मनोरथा सती। 5/1 महादेव ने देखते-देखते कामदेव को भस्म कर डाला, यह देखकर पार्वती जी की सब आशाएँ धूल में मिल गईं। उपात्तवर्णे चरिते पिनाकिनः सबाष्पकंठ स्खलितैः पदैरियम्। 5/56 जब ये महादेवजी के गीत गाने लगती थीं, तब इनके रूंधे हुए गले से निकले हुए शब्दों को सुन-सुनकर। द्वयं गतं संप्रति शोचनीयतां समागम प्रार्थनया पिनाकिनः। 5/71 मैं तो समझता हूँ कि शिवजी को पाने के फेर में दो के भाग फूट गए। स भीमरूपः शिव इत्युदीर्यते न सन्ति यथार्थ्य विदः पिनाकिनः। 5/77 डरावने दिखाई देने पर भी वे सबका कल्याण करने वाले कहे जाते हैं, इसलिए उनका सच्चा रूप संसार में कोई ठीक-ठीक समझ नहीं पाता है। 35. पशुपति :-पुं० [पशूनां स्थावर जङ्गमानां प्राणिमात्रस्य वा पतिः स्वामी प्रभुः] शिव। तदा प्रभृत्येव विमुक्त सङ्गः पतिः पशूनाम परिग्रहोऽभूत्। 1/53 तभी से महादेव जी ने सब भोग विलास छोड़ दिये थे और दूसरा विवाह नहीं किया था। 36. महेश्वर :-महादेव, शिव, शंकर। अथाह वर्णी विदितो महेश्वरस्तदर्थिनी त्वं पुनरेव वर्तसे। 5/65 ब्रह्मचारी बोला कि जिसने [शंकर ने] पहले ही आपके प्यार को ठुकरा दिया, उसको पाने के लिए क्या आपके मन में अभी तक साध बनी हुई है। 37. रुद्र :- पुं० [रोदयतीति, रुद्+णिच्+ रोदेर्णिलुक् च' इति रक्णेश्च लुक्] महादेव, शिव। For Private And Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 518 कालिदास पर्याय कोश रुद्राणामपि मूर्धानः क्षत हुँकार शंशिनः। 2/26 ग्यारह रुद्रों के माथे भी यह बता रहे हैं, कि उनकी हुंकार करने की शक्ति भी जाती रही है। सपदि मुकुलिताक्षी रुद्र संरम्भभीत्या दुहितर मनुकम्प्यामदिरादाय दीर्ध्याम्। 3/76 तत्काल हिमालय भी वहाँ आ पहुँचे और महादेव जी के क्रोध से डरकर आँख बन्द करके जाती हुई अपनी दुखी कन्या को हिमालय ने गोद में उठा लिया। 38. विभु :-महादेव, शिव, शंकर। स एवं वेषः परिणेतुरिष्टं भावान्तरं तस्य विभोः प्रपेदे। 7/3 उन्होंने अपनी शक्ति से अपने ही वेश को विवाह के योग्य बना लिया। 39. विरुपाक्ष :-पुं० [विरूपे अक्षिणी यस्य । 'सक्थ्यक्ष्णोः स्वाङ्गात् षच्' इति षच्] महादेव, शिव। वपु विरूपाक्षमलक्ष्य जन्मता दिगम्बर त्वेन निवेदितं वसु। 5/72 और देखिए, तीन तो उनके आँख, जन्म का कोई ठिकाना नहीं, और उनके सदा नंगे रहने से ही आप समझ सकती हैं कि उनके घर में क्या होगा। या नः प्रीतिर्विरूपाक्ष त्वदनुध्यानसंभवा।। 6/2 हे शिवजी ! आपने हमको जो स्मरण किया है, उससे हमारे मन में आपके लिए जो प्रेम उत्पन्न हुआ है। 40. विश्वगुरु :-महादेव, शिव। सुतासंबन्ध विधिना भव विश्वगुरोर्गुरुः। 6/83 उनसे अपनी पुत्री का विवाह करके आप उन महादेव के भी बड़े बन जाते। 41. विश्वात्मन :-महादेव, शिव। अथ विश्वात्मने गौरी संदिदेश मिथः सखीम्। 6/1 तब पार्वतीजी ने, घर-घर में रमने वाले शंकर जी को, अपनी सखी के मुँह से धीरे से कहलाया। 42. वृषध्वज :-महादेव, शिव। शैलराज भवने सहोमया मास मात्रम वसदृषध्वजः। 8/20 हिमालय के घर पर उमा के साथ रहते हुए महोदवजी ने एक महीना बिता दिया। 43. वृषभध्वज :-महादेव, शिव। For Private And Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 519 चकार कण च्युत पल्लवेन मूर्धा प्रणामं वृषभध्वजाय। 3/62 पार्वती ने भी शिवजी को प्रणाम करने के लिए ज्यों ही अपना सिर झुकाया, त्यों ही उनके काले-काले बालों में गुंथे हुए। 44. वृषराजकेतु :-महादेव, शिव। स्वरूपमास्थाय च तां सरसांगयष्टिर्निक्षेपणाय वृषराजकेतनः। 5/84 त्यों ही महादेवजी ने अपना सच्चा रूप धारण करते हुए, मुस्कुराते हुए उनका हाथ थाम लिया। 45. वृषांक :-महादेव, शिव। आशंसता बाणगतिं वृषांके कार्यं त्वया नः प्रतिपन्नकल्पम्। 3/14 अभी-अभी तुमने कहा कि हम अपने बाणों से शंकर जी को भी वश में कर सकते हैं, इसलिए एक प्रकार से तुमने हमारा काम करने का बीड़ा उठा लिया 46. शशिमौलि :-[शशी मौलिः शिरो भूषणं यस्य] शिवः] महादेव। न च प्ररोहाभिमुखोऽपि दृश्यते मनोरथोऽस्याः शशिमौलि संश्रयः। 5/60 महादेवजी को पाने की जो इनकी साध थी, उसमें अभी अंकुवे भी नहीं फूटे। 47. शर्व :-पुं० [शृणति सर्वाः प्रजाः संहरति प्रलये, संहारयति वा भक्तानां पापानि] महादेव, शिव। धर्मेणापि मदं शर्वे कारिते पार्वतीं प्रति । 6/14 शंकर जी के मन में पार्वती जी से विवाह करने की इच्छा देखकर। 48. शितिकण्ठ :-महादेव, शिव। प्रणम्य शितिकण्ठाय विबुधास्तदनन्तरम्। 6/81 देवता लोग महादेव जी को प्रणाम करके। 49. शिव :-पुं० [शी+ सर्वनिघृष्वेति' वन् प्रत्ययेन निपातनात् साधुः] महादेव, शंकर। स भीम रूपः शिव इत्युदीर्यते । 5/77 शंकर जी डरावने दिखाई देने पर भी सबका भला करने वाले कहे जाते हैं। प्रसन्नचेतः सलिलः शिवोऽभूत्संसृज्य मानः शरदेव लोकः। 7/74 जैसे शरद् के आने पर लोग प्रसन्न हो जाते हैं, वैसे ही शंकर जी के नेत्र रूपी कुमुद खिल गए और उनका मन जल के समान निर्मल हो गया। For Private And Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 520 कालिदास पर्याय कोश 50. शूलभृत :-महादेव, शंकर, शिव। ततो गणैः शूलभृतः पुरोगैरुदीरितो मंगल तूर्य घोषः। 7/40 महादेव जी के आगे-आगे चलने वाले गणों ने जो मंगल तुरही बजाई। 5. शूलिन् :-पुं० [शूलमस्यास्तीति । शूल +इनि] शिव, शंकर, महादेव। जितेन्द्रिये शूलिनि पुष्पचापः स्वकार्यसिद्धिं पुनराशशंस । 3/57 कामदेव के मन में जितेन्द्रिय महादेव को वश में करने की आशा फिर हरी हो उठी। ते हिमालयमामन्त्र्य पुनः प्राप्य च शूलिनम्। 6/94 हिमालय से विदा होकर उन्होंने महादेवजी से जाकर बताया। शूलिनः करतलद्वयेन सा संनिरुध्य नयने हृतांशुका। 8/7 जब कभी अकेले में शिवजी इनके कपड़े खींचकर इन्हें उघाड़ देते, तो ये अपनी दोनों हथेलियों से शिवजी के दोनों नेत्र बन्द कर लेतीं, जिससे वे देख न पावें। शीतलेन निरवापयत्क्षणं मौलिचन्द्रशकलेन शूलिनः। 8/18 फिर तत्काल महादेव जी के सिर पर बसे हुए चन्द्रमा पर ज्यों ही ओंठ रखतीं, त्यों ही उन्हें ऐसी ठण्डक मिलती कि उनकी सब पीड़ा जाती रहती। सा बभूव वशवर्तिनी द्वयोः शूलिनः सुवदना मदनस्य च। 8/79 मदिरा पीने से सुन्दर मुख वाली पार्वती जी ऐसी मद में चूर होकर शंकर जी की गोद में गिरी, कि उनकी लाज जाती रही। 52. शंकर :-पुं० [शं कल्याणं सुखं वा करोतीति । शम्+कृ+'शमिधातो: संज्ञायाम् इति अच] शिव, महादेव। नाभिदेश नाहितः सकम्पया शंकरस्य रुरुधे तया करः। 8/4 जब शंकर जी अपने हाथ उनकी नाभि की ओर बढ़ाते, तो पार्वती जी काँपते हुए उनका हाथ थारा लेती। एव मालि निगृहीत साध्वसं शंकरो रहसि सेव्यतामिति। 8/5 तुम डरना मत और जैसे-जैसे हम सिखाती हैं, वैसे ही वैसे अकेले में शंकर जी के पास रहना। शिष्यतां निधुवनोपदेशिनः शंकरस्य रहसि प्रपन्नया। 8/17 पार्वती ने शंकरजी से अकेले में जो कामकला की शिक्षा ली थी। For Private And Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 521 कुमारसंभव इत्यवौममनुभूय शंकरः पार्थिवं च दयिता सखः सुखम्। 8/28 इस प्रकार अपनी प्राण प्यारी के साथ सांसारिक और स्वर्गीय दोनों सुख भोगते हुए। इत्युदारमभिधाय शंकरस्तामपाययत पानमम्बिकाम्।। 8/77 यह लुभावनी बात कहकर शंकरजी ने बड़ी उदारता से वह मदिरा पार्वजी जी को पिला दी। 53. शंभु :- पुं० [शं मङ्गलं भवत्यस्मादिति, शं भवति भावतीत्यर्थः, इति वा] महादेव, शिव, शंकर। शंभीर्यतध्वमाक्रष्टुमयस्कान्तेन लोहवत्।। 2/59 अब आप लोग ऐसा जतन कीजिए, कि जैसे चुम्बक से लोहा खिंच आता है, वैसे समाधि लगाए हुए शंकर जी का। सा वा शंभोस्तदीयां वा मूर्तिर्जलमयी मम। 2/60 शिवजी के वीर्य को केवल पार्वती जी धारण कर सकती हैं और हमारे वीर्य को जल का रूप धारण करने वाली शिवजी की मूर्ति ही धारण कर सकती है। 54. स्थाणु :-पुं० [तिष्ठतीति । स्था + 'स्थोणुः' इति णु] शिव, शंभु, महादेव। तपस्विनः स्थाणुवनौ कसस्तामाकालिकी वीक्ष्य मधु प्रवृत्तिम्। 3/34 महादेवजी के साथ उस वन में रहने वाले तपस्वी लोगों ने असमय में वसन्त को आया देखकर। वासराणि कतिचित्कथंचन स्थाणुना रतमकारि चानया। 8/13 कुछ दिनों तक तो महोदव जी ज्यों-त्यों करके पार्वती जी से संभोग करते रहे। 55. स्मरशासन :-शिव, शंकर, महादेव। ऋषीज्योतिमयान्सप्त सस्मार स्मरशासनः।। 6/3 पार्वती के चले जाने पर महादेवजी ने तेज से जगमगाने वाले सप्त ऋषियों को झट से स्मरण किया। 56. हर :- पुं० [हरति पापानीति । ह+अच्] शिव, शंकर, महादेव। पराजितेनापि कृतौ हरस्य यौ कण्ठपाशौ मकरध्वजेन।। 2/41 कामदेव ने शिवजी से हार जाने पर उनके गले में इन भुजाओं का फन्दा बनाकर डाल दिया था। समादिदेशैकवर्धू भवित्री प्रेम्णा शरीरार्धहरां हरस्य। 2/50 For Private And Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 522 कालिदास पर्याय कोश उन्हें देखते ही नारदजी ने यह भविष्यवाणी कर दी कि वह कन्या अपने प्रेम से शिवजी के आधे शरीर की स्वामिनी और उनकी अकेली पत्नी बनकर रहेगी नादत्ते केवलां लेखां हर चूड़ा मणी कृताम्।। 2/34 केवल उस एक कला को छोड़ा देता है, जिसे शिवजी ने अपने मस्तक का मणि बना लिया है। कुर्यां हरस्यापि पिनाकपाणेधैर्यच्युतिं के मम धन्विनोऽन्ये। 3/10 पिनाक धारण करने वाले स्वयं महादेवजी के छक्के छुड़ा दूं, फिर और दूसरे धनुषधारियों की तो गिनती हो क्या। श्रुताप्सरोगीतिरपि क्षणेऽस्मिन् हरः प्रसंख्यान परो बभूव ।। 3/40 इस बीच अप्सराओं ने भी अपना नाच-गाना आरम्भ कर दिया पर महादेवजी टस से मस न हुए। उमासमक्षं हरबद्धलक्ष्यः शरासन ज्यां मुहराममर्श। 3/64 बस वह पार्वती जी के आगे बैठे हुए शिवजी पर ताक-ताक कर धनुष की डोरी खींचने ही तो लगा। ददृशे पुरुषाकृति क्षितौ हरकोपानल भस्म केवलम्। 4/3 देखती क्या हैं, कि महादेवजी के क्रोध से जली हुई पुरुष के आकार की एक राख की ढेर सामने पृथ्वी पर पड़ी हुई है। परिणेष्यति पार्वतीं यदा तपसा तत्प्रवणी कृतो हरः। 4/42 जब पार्वती जी की तपस्या से प्रसन्न होकर महादेव जी उनके साथ विवाह कर लेंगे। उवाच चैनं परमार्थतो हरं न वेत्सि नूनं यत एवमात्थ माम्। 5/75 और बोलीं-तब आप महादेवजी को भली प्रकार जानते ही नहीं, जो मुझसे इस प्रकार कह रहे हैं। हरोपयाने त्वरिता बभूव स्त्रीणां प्रियालोकफलो हि वेशः। 7/22 महादेव जी से मिलने के लिए मचल उठीं क्योंकि स्त्रियों का श्रृंगार तभी सफल होता है, जब पति उसे देखे। विष्णोर्हरस्तस्य हरिः कदाचिद्वेधास्त योस्तावपि धातु राद्यौ। 7/44 कभी शिवजी विष्णु से बढ़ जाते हैं, कभी ब्रह्मा इन दोनों से बढ़ जाते हैं और कभी ये दोनों ब्रह्मा से बढ़ जाते हैं। For Private And Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 523 कुमारसंभव पुरो विलग्नैर्हर दृष्टिः पातैः सुवर्णसूत्रैरिवकृष्यमाणः। 7/50 मानो आगे पड़ती हुई शिवजी की चितवन की सोने की डोरियाँ उसे खींचती ले गई हों। ह्रीमान भूद् भूमिधरो हरेण त्रैलोक्यवन्द्येन कृत प्रणामः।। 7/54 शंकर जी ने जब पहले हिमालय को प्रणाम किया, तो वह लाज से गड़ गया। उरु मूल नख मार्गराजिभिस्तत्क्षणं हृत विलोचनो हरः।। 8/87 वायु के झोंके से कपड़ा हट जाने से, पार्वती की नंगी जाँघों पर जो नखों के चिह्नों की पाँत दिखाई दे रही थी, उसे शिवजी एकटक होकर देख रहे थे। अनिल 1. अनिल :-पुं० [अनिति जीवत्यनेन । अन+इलच्] पवन, वायु। न वाति वायुस्तत्यार्वे तालवृन्तानिलाधिकम्। 2/35 पवन भी उसके पास पंखे के वायु से अधिक वेग से नहीं बहता। वीज्यते स हि संसुप्तः श्वास साधारणानिलैः।। 2/42 जब वह सोया करता है, उस समय वायु चँवर डुलाया करती हैं। मद्धोताः प्रत्यनिलाः विचेरुर्वन स्थलीमर्मरपत्रमोक्षाः।। 3/31 वे पवन से झड़े हुए सूखे पत्तों से मर्मर करती हुई वन की भूमि पर इधर-उधर दौड़ते फिर रहे थे। गत एव न ते निवर्तते स सखा दीप इवानिला हतः।। 4/30 हे वसन्त ! देखो तुम्हारा मित्र पवन के झोंके से बुझे हुए दीपक के समान जाकर अब लौटता ही नहीं है। निनाय सात्यन्त हिमोत्किरानिलाः सहस्य रात्रीरुद्वास तत्परा। 5/26 पूस की जिन रातों में वहाँ का सरसराता हुआ पवन चारों ओर हिम ही हिम बिखेरता चलता था। आच चाम सलवंग केसरश्चाटुकार इव दक्षिणानिलः।। 8/25 लौंग के फूलों की केसर उड़ाने वाला दक्षिण का वायु, संभोग से थकी हई पार्वती जी की थकावट उसी प्रकार दूर कर रहा था, जैसे कोई मीठी-मीठी बातें करके, किसी थके हुए का मन बहला रहा हो। 2. पवन :-पुं० [पुनातीति, पू + 'बहुलमन्यत्रपीति' यच्] वायु। For Private And Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 524 कालिदास पर्याय कोश तदिदं कणशो विकीर्ययते पवनैर्भस्म कपोत कर्बुरम्।। 4/27 कबूतर के पंख के समान उसकी भूरी राख को यह पवन इधर-उधर बिखेर रहा है। 3. मरुत :-पुं० [म्रियन्ते प्राणिनो यदभावादिति । मृ + 'मृग्रो-सतिः इति उत्] वायु। पर्याकुल त्वान्मरुतां वेगभंगोऽनुमीयते। 2/25 उनचासों पवन ऐसे क्यों दिखाई पड़ रहे हैं, जैसे वे घबराहट से मन्दे पड़ गए हों। अन्तश्चराणां मरुतां निरोधान्निवातनिष्कम्पमिव प्रदीपम्। 3/48 शरीर के भीतर चलने वाले सब पवनों को रोककर वे ऐसे अचल हुए बैठे हैं, जैसे पवन रहित स्थान में खड़ी लौ वाला दीपक हो। मेरुमेत्य मरुदाशु गोक्षकः पार्वती स्तन पुरस्कृतान्कृती । 8/22 पवन के समान वेग से चलने वाले उस बैल पर चढ़कर और आगे पार्वती को बैठाकर, उनके स्तन पकड़े हुए वे मेरु पर्वत पर जा पहुंचे। मारुते चलति चण्डिके बलाद्व्यज्यते बिपरिवृत्तमंशुकम्। 8/71 वायु के चलने पर जब कपड़े हिलने लगते हैं, तब अपने आप पता चल जाता है कि यह कपड़ा ही है। पद्मभेदापिशुनाः सिषेविरे गन्धमादनवनान्त मारुताः।। 8/86_ उस समय गन्धमादन वन के पवन के छू जाने से मानो कमल खिलते जा रहे थे। 4. वात :-पुं० [वातीति, वा+क्त भूतम्, गन्धवहः] वायु, पवमान । प्रवात नीलोत्पलनिर्विशेषमधीर विप्रेक्षित मायताक्ष्या। 1/46 उन बड़ी-बड़ी आँखों वाली की चितवन, आँधी से हिलते हुए नीले कमलों के समान चंचल थी। 5. वायु :-पुं० [वातीति वा, गतिगन्ध नयोः] वायु। यद्वायुरन्विष्ट मृगैः किरातैरा सेवव्यते भिन्नशिखण्डिबर्हः। 1/15 किरातों की कमर में बँधे हुए मोर पंखों को फहराने वाला यहाँ का शीतल मन्द सुगन्ध पवन उन किरातों की थकान मिटाता चलता है, जो मृगों की खोज में हिमालय पर इधर-उधर घूमते रहते हैं। न वाति वायुस्तत्पार्वे तालवृन्ता निलाधिकम्।। 2/35 पवन भी उसके पास पंखे के वायु से अधिक वेग से नहीं बहता। For Private And Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसभव 525 6. समीर :-पुं० [सम्यगीर्ते गच्छतीति । सम्+ईर् गतौ कम्पते च + क] वायु। यः पूरयन्कीचकरन्ध्रभागान्दरीमुखोत्पेन समीरणेन। 1/8 इस पहाड़ पर ऐसे छेद वाले बाँस बहुतायत से होते हैं, जो वायु भर जाने पर बजने लगते हैं। समीरणो नोदयिता भवेति व्यादिश्यते केन हुताशः। भला पवन को यह थोड़ी ही कहा जाता है, कि तुम जाकर आग की सहायता करो। अनुग्रह 1. अनुग्रह :- कृपा, दया। अनुग्रह संस्मरण प्रवृत मिच्छामि संवर्धितमाज्ञया ते।।3/3 मुझे स्मरण करके आपने जो कृपा की है, उसे मैं आपकी आज्ञा का पालन करके और भी बढ़ाना चाहता हूँ। 2. प्रसाद :-पुं० [प्र+सद्+घञ्] अनुग्रह। त्व प्रसादात्कुसुमायुधोऽपि सहायमेकं मधुमेवलब्ध्वा । 3/10 आपकी कृपा से तो मैं केवल वसन्त को अपने साथ लेकर अपने फूल के बाणों से ही। अपर्णा 1. अद्रिसुता :-पार्वती। पशुपतिरपि तान्यहानि कृच्छ्रादगमयदद्रिसुतासमागमोत्कः।। 6/95 पार्वतीजी से मिलने के लिए महादेवजी इतने उतावले हो गए, कि तीन दिन भी उन्होंने बड़ी कठिनाई से काटे। 2. अपर्णा :-स्त्री० [नास्ति पर्णं तपस्यायां पर्णभक्षणवृतिर्वा यस्याः सा। टाप्] पार्वती, दुर्गा। तदप्यपाकीर्ण प्रियंवदां वदन्त्यपर्णेति च तां पुराविदः। 5/28 इसलिए मधुर भाषिणी पार्वती जी को पण्डित लोग पीछे पत्ते न खाने वाली अपर्णा भी कहने लगे। स्थाने तपो दुश्चरमेतदर्थमपर्णया पेलवयापि तप्तम्।। 7/65 वे सोचने लगीं कि ऐसे वर के लिए सुकुमार पार्वती का तप करना ठीक ही था। For Private And Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 526 . कालिदास पर्याय कोश 3. अम्बिका :-स्त्री० [अम्बा+स्वार्थे कन्, स्त्रियां टाप्] दुर्गा, पार्वती, शिवा। आशीर्भिरेधयामासुः पुरः पाकाभिरम्बिकाम्।। 6/90 उन्होंने अम्बिका को ऐसे आशीर्वाद दिए, जो तत्काल फल देने वाले हों। इत्युदारमभिधाय शंकरस्तामपाययत् पानमम्बिकाम्। 8/77 यह लुभावनी बात कहकर शंकरजी ने बड़ी उदारता से वह मदिरा पार्वती जी को पिला दी। 4. उमा :-स्त्री० [उ, भो, मा तपस्यां कुर्विति] पार्वती, शिवा। उमेति मात्रा तपसो निषिद्धा पश्चादुमाख्यां सुमुखी जगाम्। 1/26 जब पार्वती को उनकी माता ने उमा [उ-हे वत्से, मा-तप मत करो] कहकर तपस्या करने से रोका था, तब से उनका नाम उमा पड़ गया था। उमापि नीलालकमध्य शोभि विस्रंसयन्ती नवकर्णिकारम्। 3/62 पार्वती जी के काले-काले बालों में गुंथे हुए कर्णिकार के फूल पृथ्वी पर बिखर गए। उमा समक्षं हरबद्धलक्ष्यः शरासन ज्यां मुहुराममर्श। 3/64 वह पार्वती जी के आगे बैठे हुए शिवजी पर ताक-ताक कर धनुष की डोरी खींचने ही तो लगा। उमां स पश्यन्नृजुनैव चक्षुषा प्रचक्रमे वक्तुमनुज्झित क्रमः। 5/3 पार्वती जी की ओर एकटक देखते हुए बिना रुके बोलना प्रारम्भ कर दिया। आसन्न पाणि ग्रहणेति पित्रोरुमा विशेषोच्छवसितं बभूव। 7/4 हिमालय और मेना दोनों को पार्वती जी ऐसी प्राण से बढ़कर प्यारी लग रही थीं, मानो बहुत दिनों पर मिली हों या अभी जी कर उठी हों, क्योंकि विवाह हो जाने पर वे अभी वहाँ से चली जाने वाली थीं। अखण्डितं प्रेम लभस्व पत्युरित्युच्यते वाभिरुमा स्म नम्रा। 7/28 लाज से सकुचाती हई पार्वती जी को सब सखियों ने यह आशीर्वाद दिया. कि तुम्हारे पति तुम्हें तन-मन से प्यार करें। उमातनौ गूढ़तनोः स्मरस्य तच्छिंकनः पूर्वमिव पुरोहम्। 7/76 पार्वती जी का वह लाल-लाल उँगलियों वाला हाथ ऐसा लगता था, मानो महादेव जी के डर से छिपे हुए कामदेव के अंकुर पहले-पहल निकल रहे हों। 5. गौरी :-स्त्री० [गौर+'षिद्गौरादिभ्य श्च' इति ङीष] पार्वती। For Private And Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 527 अथो पनिन्ये गिरिशाय गौरी तपस्विने ताम्ररुचाकरेण। 3/65 समाधि से जगे हुए शंकरजी के गले में पार्वती जी ने अपने लाल-लाल हाथों से......। प्रजासु पश्चात्प्रथितं तदाख्यया जगाम गौरी शिखरं शिखण्डिमित्। 5/7 अपने पूज्य पिता से आज्ञा पाकर वे हिमालय की उस चोटी पर तप करने पहुंची, जहाँ बहुत से मोर रहा करते थे और पीछे जिसका नाम उन्हीं के नाम पर गौरी शिखर पड़ गया। अथ विश्वात्मने गौरी संदिदेशमिथः सखीम्। 6/1 तब पार्वती जी ने घर-घर रमने वाले शंकर जी को अपनी सखी के मुँह से धीरे से कहलाया। कर्णार्पितो लोध्रकषायरुक्षे गोरोचनाक्षेपनितान्त गौरे। 7/17 उनके कानों पर लटकते हुए जौ के अंकुर और लोध से पुते तथा गोरोचन लगे हुए गोरे गाल। 6. त्रिलोचन वधू :-पार्वती, उमा, गौरी। इयं नमति वः सवास्त्रिलोचनवधूरिति। 6/89 यह महादेवजी की पत्नी आपको प्रणाम करती हैं। 7. दक्षकन्या :-पार्वती, सती। अथावमानेन पितुः प्रयुक्ता दक्षस्य कन्या भवपूर्वपत्नी । 1/21 मैनाक के जन्म के कुछ ही दिनों पीछे ऐसा हुआ कि महादेवजी की पहली पत्नी और दक्ष की कन्या परमसाध्वी सती। 8. नगेन्द्र कन्या :-पार्वती, सती। गुरोर्नियोगाच्च नगेन्द्र कन्या स्थाणुं तपस्यन्तमधित्यकायाम्। 3/17 पार्वती जी अपने पिता की आज्ञा से हिमालय पहाड़ पर तप करते हुए महादेव जी की सेवा कर रही हैं। पर्वतराज पुत्री :-पार्वती। लज्जा तिरश्चां यदि चेतसि स्यादसंशय पर्वतराजपुत्र्याः। 1/48 यदि पशु-पक्षियों में भी मनुष्यों के समान लज्जा हुआ करती, तो पार्वती जी को देखकर। For Private And Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 528 कालिदास पर्याय कोश 10. पार्वती :-स्त्री० [पर्वतो हिमाचलस्तस्य तदधिष्यतृ देवस्येति भावः, अपत्यमिति। अण्+ङीप्] दुर्गा, उमा, गौरी। तां पार्वती त्याभिजनेन नाम्ना बन्धुप्रियां बन्धुजनो जुहाव। 1/26 पर्वत से उत्पन्न होने के कारण पिता ने और कुटुम्बियों ने सबकी दुलारी उस कन्या को, पार्वती कहकर पुकारना आरम्भ कर दिया। परिणेष्यति पार्वतीं यदा तपसा तत्प्रवणीकृतो हरः।। 4/42 जब पार्वतीजी की तपस्या से प्रसन्न होकर महादेव जी उनके साथ विवाह कर लेंगे। निनिन्द रूपं हृदयेन पार्वती प्रियेषु सौभाग्य फला हि चारुता। 5/1 वे जी भरकर अपनी सुन्दरता को कोसने लगी, क्योंकि जो सुन्दरता अपने प्यारे को न रिझा सकी, उसका होना न होना दोनों बराबर है। तमातिथेयी बहुमानपूर्वया सपर्यया प्रत्युदियाय पार्वती। 5/31 अतिथि का सत्कार करने वाली पार्वती जी ने बड़े आदर से आगे बढ़कर उसकी पूजा की। यदुच्यते पार्वति पापवृत्तये न रूपमित्यव्यभिचारिततद्वचः। 5/36 हे पार्वती जी यह ठीक ही कहा जाता है, कि सुन्दरता पाप की ओर कभी नहीं झुकती। धर्मेणापि पदं शर्वेकारिते पार्वतीं प्रति । 6/14 शंकरजी के मन में पार्वती जी से विवाह करने की इच्छा देखकर। अत आहर्तुमिच्छामि पार्वतीमात्मजन्मने। 6/28 पुत्र उत्पन्न करने की इच्छा से मैं पार्वती जी को उसी प्रकार लाना चाहता हूँ। लीलाकमल पत्राणि गणयामास पार्वती। 6/84 पार्वती खिलौने के कमल के पत्ते, बैठी हुई गिन रही थीं। कैतवेन शयिते कुतूहलात्पार्वती प्रतिमुखं निपातितम्।। 8/3 जब कभी शिवजी सोने का बहाना करके आँख मूंद कर लेट जाते थे, तब पार्वतीजी उनकी ओर घूमकर। वीक्षितेन परिवीक्ष्य पार्वती मूर्धकम्पमयमुत्तरं ददौ। 8/6 पार्वतीजी अपनी आँखें ऊपर उठाकर और सिर घुमाकर यह जता देतीं कि मैं आपकी सब बातें मानती हूँ। For Private And Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 529 कुमारसंभव उच्छ्वसत्कमलगन्धये ददौ पार्वती वदनगन्धवाहिने। 8/19 तब खिले हुए कमल की गंधवाले पार्वती जी के मुँह की फूंक पाने के लिए वे अपना नेत्र उठाकर उनके मुँह तक पहुँचा देते। पार्वतीमवचनामसूयया प्रत्युपेत्य पुनराह सस्मितम्।। 8/50 उन पार्वती जी के पास पहुंचे, जो चुप्पी साधकर रूठी हुई बैठी थीं। महादेव जी उनसे मुस्कराते हुए कहने लगे। तस्य तच्छिदुरमेखलागुणं पार्वतीरतम भून्न तृप्तये।। 8/83 पार्वती जी की करधनी भी टूट गई, फिर भी पार्वतीजी के साथ संभोग करके शंकर जी का जी नहीं भरा। 11. शैलराजतनया :-पार्वती, उमा, गौरी। शैलराज तनया समीप गामाललाप विजयामहेतुकम्। 3/43 पार्वती जी ने पास बैठी विजया से इधर-उधर की बेसिर-पैर की बातें छेड़ दीं। 12. शैलराज दुहिता :-पार्वती, उमा, गौरी। पाणिपीडनविधेरनन्तरं शैलराजदुहितुर्हरं प्रति । 8/1 विवाह हो जाने पर पार्वती जी यह तो चाहती थीं कि शिवजी से। 13. शैलसुता :-पार्वती, उमा, गौरी। तस्मै शशंस प्रणिपत्य नन्दी शुश्रूषया शैल सुतामुपेताम्।। 3/60 उनकी समाधि खुली देखकर नन्दी ने जाकर उन्हें प्रणाम करके कहा, कि आपकी सेवा करने के लिए पार्वती जी आई हुई हैं। 14. शैलात्मजा :-पार्वती, उमा, गौरी। शैलात्मजापि पितुरुच्छिरसोऽभिलाषं व्यर्थं समर्थ्य ललितां वपुरात्मनश्च। 3/75 पार्वती जी ने भी सोचा कि मेरे ऊँचे सिर वाले पिता का मनोरथ और मेरी सुन्दरता दोनों अकारथ हो गईं। 15. हिमाद्रि तनुजा :-पार्वती, उमा, गौरी। तस्मै हिमाद्रेः प्रयतां तनूजां यतात्मने रोचयितुं यतस्व। 3/16 अब तुम ऐसा यत्न करो कि समाधि में बैठे हुए महादेव जी के मन में हिमालय की कन्या पार्वती के लिए प्रेम उत्पन्न हो जाय। For Private And Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 530 कालिदास पर्याय कोश अपाम 1. अंबु :-क्ली० [अबि शब्दे, उण्] जल। अयाचितोपस्थितमम्बु केवलं रसात्मक स्योडुपेतश्च रश्मयः। 5/22 फिर वर्षा के दिनों में वे एक तो बिना माँगे अपने आप बरसे हुए जल को पीकर और दूसरे अमृत से भरी चन्द्रमा की किरणों को पीकर रह जाती। हेमतामरसताडित प्रिया तत्कराम्बुविनिमीलते क्षणा। 8/26 वहाँ वे सोने के कमल तोड़-तोड़ कर उनसे महादेवजी को मारती और महादेव जी भी ऐसा पानी उछालते कि इनकी आँखें बन्द हो जाती। अद्रिराजतनये तपस्विनः पावनाम्बुविहिताञ्जलि क्रियाः। 8/47 हे पार्वती ! सब क्रिया जानने वाले ये तपस्वी, पवित्र जल से सूर्य को अर्घ्य देकर। 2. अंभ :-क्ली० [आप्यते, आप्+'उदके नुम्भौच' इत्यसुन ह्रस्व:] जल, नीर, वारि। अम्भ सामोघ संरोधः प्रतीप गमनादिव। 2/25 जैसे ऊँचे की ओर बहने वाले जल का बहाव धीमा पड़ जाता है। अपेक्षते प्रत्ययमुत्तमं त्वां बीजांकुरः प्रागुदयादिवाम्भः। 3/18 जैसे बीज को अंकुर बनने के लिए जल की आवश्यकता पड़ती है, वैसे ही यह काम भी तुम्हारी सहायता के भरोसे ही अटका हुआ था। मूर्ध्नि गंगा प्रपातेन धौत पादाम्भसा च वः। 6/57 एक तो सिर पर गंगाजी की धारा गिरने से, दूसरे आप लोगों के चरण की धोवन पा लेने से। 3. अपाम :-जल, नीर। यदमोघमपामन्तरुप्तं बीजमज त्वया। 2/5 हे ब्रह्मन् ! आपने सबसे पहले जल उत्पन्न करके उनमें ऐसा बीज बो दिया, जो कभी अकारथ नहीं जाता। 4. उदकम् :-क्ली० [उनतीति, उन्दी क्लेदने + क्विन् । 'उदकमिति' सूत्रेण साधु] जल, नीर, वारि। निनाय सात्यन्त हि मौत्किरानिलाः सहस्यरात्रीरुदवासतत्परा। 5/26 For Private And Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 531 पूस की जिन रातों में वहाँ का सरसराता हुआ पवन चारों ओर हिम ही हिम बिखेरता चलता था, उन दिनों वे रात-रात भर जल में बैठे बिता देती थीं। 5. जल :-क्ली० [जलति जीवयति लोकान्] जलति आच्छादयति भूम्यदीनीति वा। जल + पचाद्य च] जल, नीर, पय, वारि। सा वा शंभोस्तदीया वा मूर्तिजलमयी मम्।। 2/60 शिवजी के वीर्य को वही धारण कर सकती हैं और हमारे वीर्य को जल का रूप धारण करने वाली शिवजी की मूर्ति ही धारण कर सकती है। नलिनी क्षत सेतुबंधनो जल संघात इवासिविदुतः। 4/6 जैसे पानी का बहाव बाँध को तोड़कर जल में बहने वाली कमलिनी को वहीं छोड़कर झट से निकल जाता है। अपि क्रियार्थं सुलभं समित्कुशं जलान्यपि स्नानविधिक्षमाणिते। 5/33 इस तपोवन में हवन के लिए समिधा, कुशा और स्नान करने योग्य जल तो मिल जाता है न! निवृत्त पर्जन्य जलाभिषेका प्रफुल्लकाशा वसुधेवरेजे। 7/11 उस समय वे ऐसी लगने लगीं, मानो गरजते हुए बादलों के जल से धुली हुई कांस के फूल से भरी हुई धरती शोभा दे रही हो। खं हृतातपजलं विवस्वता भाति किंचिदिव शेषवत्सरः। 8/37 पश्चिम में कुछ उजाला रहने से ऐसा लग रहा है, कि उधर अभी थोड़ा-थोड़ा पानी बच रह गया है। न तु सुरत सुखेभ्यश्छिन्न तृष्णो बभूव ज्वलन इव समुद्रान्तर्गतस्तज्जलौधैः। 8/91 पर भगवान् शंकर जी का जी इतने संभोग से भी उसी प्रकार नहीं भरा, जैसे समुद्र के जल में रहने पर भी बड़वानल की प्यास नहीं बुझ पाती। 6. तोय :-क्ली० [तौति वर्द्धते वर्षासु। तव तेर्वृद्धिकर्मणः 'अघ्न्यादयश्च' इति यत्प्रय॑यो निपतिवतो द्रष्टव्यः] जल, वारि। तोयान्तभस्किरालीव रजे मुनिपरम्परा। 6/49 मुनि ऐसे शोभा देते थे, जैसे चलते हुए जल में पड़ी हुई सूर्य की बहुत सी परछाईयाँ हों। 7. पय :-क्ली० [पय्यते पीयते वा । पयु गतौ पी पाने वा + 'सर्वधातुभ्योऽसुन् इत्यसुन्] जल, वारि। For Private And Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 532 कालिदास पर्याय कोश मन्दाकिन्याः पयः शेषं दिग्वारण मदाविलम्। मन्दाकिनी में आज कल केवल दिग्गजों के मद से गंदला जल भर दिखाई दिया करता है। क ईप्सितार्थस्थिरनिश्चयं मनः पयश्च निम्नाभिमुखं प्रतीपयेत्। 5/5 अपनी बात के धनी लोगों का मन और नीचे गिरते हुए पानी का वेग, भला कौन टाल सकता है। समीयतुर्दूरविसर्पिघोषौ भिन्नैकसेतू पयसामिवोधौ। 7/53 दोनों ही दलों का हल्ला दूर तक सुनाई पड़ रहा था, मानो बाँध टूट जाने पर जल की दो धाराएँ आकर आपस में मिल गई हों। 8. वारि :-क्ली० [तारयतीति तृषामिति । वृ+णिच्+ 'वसिवपियजिराजिवजिस दिहनिवा शिवादिरभ्य इम् इति इब] जल, नीर। तपात्यये वारिभिरुक्षिता नवैभुर्वा सहोष्माणममुचदूर्ध्वगम्। 5/23 वर्षा होने पर उधर तो गर्मी से तपी हुई पृथ्वी से भाप निकल उठी। अपि त्वदावर्जितवारि संभृतं प्रवालमासा मनुबन्धि वीरुथाम्। 5/34 आपके हाथ से सींची हुई इन लताओं में कोमल लाल-लाल पंत्तियों वाली वे कोपलें तो फूट आई होंगी। आविभातचरणाय गृह्णति वारि वारिरुह बद्धषट्पदम्। 8/33 ये हाथी उस ताल की ओर बढ़े चले जा रहे हैं, जहाँ कमलों में भौरे बन्द पड़े हैं। 9. सलिल :-क्ली० [सलति गच्छतीति। सल्गतौ+सलिकल्पनीति' इलच्] जल, नीर। इति चापि विधाय दीयतां सलिलस्याञ्जलिरेक एव नौ। 4/37 जब मैं जल जाऊँ, तब तुम हम दोनों के लिए एक साथ जल से तर्पण करना, यों तो सप्तर्षियों के हाथ से चढ़ाए हुए पूजा के फूल और आकाश से उतरी हुई गंगा की धाराएँ हिमालय पर गिरती हैं। प्रसन्न चेतः सलिलः शिवोऽभूत्संसृज्य मानः शरदेव लोकः। 7/74 जैसे शरद के आने पर लोग प्रसन्न हो जाते हैं, वैसे ही शंकर जी के नेत्र रूपी कुमुद खिल गए और उनका मन जल के समान निर्मल हो गया है। अभिलाषा 1. अभिलाषा :-पुं० [अभि + लष् भाव+घञ्] लोभ, आकांक्षा, मनोरथ । For Private And Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 533 गुरुः प्रगल्भेऽपि व्यस्यतोऽस्यास्तस्थौ निवृत्तान्य वराभिलाषः। 1/51 यद्यपि पार्वतीजी सयानी होती चली जा रही थीं, पर नारद जी के वचन सुनकर हिमालय इतने निश्चित हो गए, कि उन्होंने दूसरा वर खोजने की चिन्ता ही छोड़ दी। अभिलाषमुदीरितेन्द्रियः स्वसुतायमकरोत्प्रजापतिः। 4/41 ब्रह्माजी ने सष्टि करते समय जब सरस्वती को उत्पन्न किया था, उस समय कामदेव ने उनके मन में ऐसा पाप भर दिया कि वे सरस्वती के रूप पर मोहित हो गए और उससे संभोग करने की इच्छा करने लगे। 2. आकांक्षा :-अभिलाषा, मनोरथ। केनाभ्य सूया पदकाक्षिणा ते नितान्त दीपँर्जनिता तपोभिः। 3/4 कहिए तो ऐसा कौन पुरुष उत्पन्न हो गया, जिसने बहुत बड़ी-बड़ी तपस्याएँ करके आपके मन में ईर्ष्या जगा दी है। यदाफलं पूर्वतपः समाधिना न तावता नभ्यममस्त कांक्षितम्। 5/18 पार्वती जी ने जब देखा, कि इन प्रारंभिक नियमों से काम नहीं सधता। तदर्ध भागेन लभस्व कांक्षितं वरं तमिच्छामि च साधु वेदितुम्। 5/50 उसका आधा भाग आप ले लीजिए और आपकी जो भी साधे हों, सब उनसे पूरा कर लीजिए; पर हाँ इतना तो कम से कम बता दीजिए कि वह है कौन? 3. ईष्ट :-वांक्षित, आकांक्षा, इच्छा। स एव वेषः परिणेतुरिष्टं भावान्तरं तस्य विभोः प्रपेदे। 7/31 उन्होंने अपनी शक्ति से, अपने ही वेश को विवाह के योग्य बना लिया। 4. काम :-पुं० [काम्यते असौ, कर्मणि घञ्] इच्छा, वासना। स्वयं विधाता तपसः फलानां केनापि कामेन तपश्चार। 11/57 सब तपस्याओं का स्वयं फल देने वाले शिवजी ने न जाने किस फल की इच्छा से तप करना प्रारंभ कर दिया। संपत्स्यते वः कामोऽयं कालः कश्चित्प्रतीक्ष्यताम्। 2/54 वे बोले-आप लोगों की इच्छा तो पूरी हो जाएगी, पर आप लोगों को थोड़े दिन और बाट जोहनी पड़ेगी। 5. मनोरथ :-पुं० [मनसः रथ इव, मन एव रथोऽत्रेति वा] इच्छा। तथा समक्षं दहता मनोभवं पिनाकिना भग्न मनोरथा सती।। 5/1 For Private And Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 534 कालिदास पर्याय कोश महादेव जी ने देखते-देखते कामदेव को भस्म कर डाला। यह देखकर पार्वती जी की सब आशाएँ धूल में मिल गईं। कदाचिदासन्न सखी मुखेन सा मनोरथज्ञं पितरं मनस्वनी। 5/6 हिमालय तो पार्वती जी के मन की बात जानते ही थे। इसी बीच एक दिन अपनी प्यारी सखी से कहलाकर, अपने पिताजी से पुछवाया। नच प्ररोहाभिमुखोऽपिदृश्यते मनोरथोऽस्याः शशि मौलि संश्रयः। 5/60 महादेवजी को पाने की इनकी जो साध थी, उसमें अभी अंकुवे भी नहीं फूट पाएँ। तपःकिलेदं तदवाप्ति साधनं मनोरथा नाम गतिर्न विद्यते। 5/64 यह तप मैं उन्हीं को पाने के लिए कर रही हूँ, क्योंकि साध कहाँ तक पहुँचती है, इसका कोई ठिकाना तो है ही नहीं। उमास्तनोद्भेदमनु प्रवृद्धो मनोरथो यः प्रथमं बभूव। 7/24 पार्वतीजी के मन में जो जवानी आने के समय से ही, शंकर जी को पाने की साध बराबर बढ़ रही थी, वह पूरी कर दी। अभ्यर्थना 1. अभ्यर्थना :-प्रार्थना। अभ्यर्थनाभङ्गभयेन साधुर्माध्यस्थ्यमिष्टेऽप्यवलम्बतेऽर्थे । 1/52 जहाँ सज्जन लोगों को निरादर का डर होता है, वहाँ वे अपने काम में किसी मध्यस्थ को साथ ले लेते हैं। 2. प्रार्थना :-अभ्यर्थना, निवेदन। द्वयं गतं संप्रति शोचनीयतां समागमप्रार्थनया पिनाकिनः।। 5/71 मैं तो समझता हूँ शिवजी को पाने के फेर में दो के भाग फूट गए। अम्बुधर 17. अम्बुधर :-बादल, मेघ, जलद, वारिध, घन। अशेनर मृतस्य चोभयोर्वशिनश्चाम्बु धराश्च योनयः। 4/32 जैसे बादल में बिजली और जल दोनों साथ-साथ रहते हैं, वैसे ही संयमी लोगों के मन में क्रोध और क्षमा दोनों इकट्ठे रहते हैं। For Private And Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 535 2. अम्बुवाहम :-घन, बादल, मेघ। अवृष्टि संरम्भमिवाम्ब्रवहम पामिवाधारमनुत्तरंगम्। 3/48 जैसे न बरसने वाला बादल हो, बिना लहर वाला निश्चल ताल हो। 3. घन :-पुं० [घनति दीप्यते इति। घन्+दीप्तौ+अच्] मेघ, बादल। रजनीतिमिरावगुण्ठिते पुरमार्गे घन शब्दविल्कवाः। 4/11 वर्षा के दिनों में रात की घनी अंधियारी से भरे डरावने नगर के मार्ग में बिजली की कड़-कड़ाहट से। तस्योप कण्ठे घन नीलकण्ठः कुतूहलादुन्मुखपौरदृष्टः। 7/51 उसी नगर के पास बादलों के समान नीले कंठ वाले महादेव जी को वहाँ के निवासी बड़े चाव से ऊपर मुँह उठाए हुए देख रहे थे। 4. जलद :-पुं० [जलं ददातीति, दा+क] बादल, मेघ । दरी गृहद्वारविलम्बिबिम्बास्तिरस्करिण्यो जलदा भवन्ति। 1/14 तब बादल उन गुफाओं के द्वारों पर आकर ओट करके अँधेरा कर देते हैं। 5. तोयद :-पुं० [तोयं ददातीति, दा+क] बादल, मेघ। तदीयास्तोयदेष्वद्य पुष्करावर्तकादिषु। 2/50 आज उसके हाथी पुष्करावर्त आदि बादलों से टक्कर ले-लेकर। 6. पयोद :-पुं० [पयं ददातीति, दा+क] बादल, मेघ। बलाकिनी नीलपयोदराजी दूरं पुरः क्षिप्तशतहदेव । 7/39 मानो बगुलों से भरी हुई और दूर तक चमकती हुई बिजली वाली नीले बादलों की घटा चली आ रही हो। 7. पर्जन्य :-पुं० [पर्षति सिञ्चति वृष्टिं ददातीति । पृषु सेवने+पर्जन्यः' इति निपातनात षकारस्य जकारत्वे साधुः] बादल, मेघ । निर्वृत्तपर्जन्यजलाभिषेका प्रपुफल्लकाशा वसुधेव रेजे। 7/11 गरजते हुए बादलों के जल से धुली हुई और कांस के फूलों से भरी हुई धरती शोभा दे रही है। 8. बलाहक :-पुं० [बलेन हीयते इति । बल+हा+क्वुन् । यद्वा वारीणां वाहक:] बादल, मेघ। बलाहकच्छेदविभक्तरागामकालसंध्यामिव धातुमत्ताम्। 1/4 For Private And Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 536 कालिदास पर्याय कोश इसलिए कभी-कभी उन चट्टानों के पास पहुंचे हुए बादलों के टुकड़े उनके रंग की छाया पड़ने से संध्या के बादलों जैसे रंग-बिरंगे दिखाई पड़ने लगते हैं। 9. मेघ :-पुं० [मेहतीति । मिह + अच्, 'न्य वादीनाञ्च'इति कुत्वम्। मेहति सिञ्चति यः] बादल, मेघ, घन। विदूर भूमिनवमेघ शद्वादुद्भिन्नया रत्लशलाकयेव। 1/24 जैसे नये मेघ के गरजने पर विदूर पर्वत के रत्नों में अंकुर फूट जाते हैं। शशिना सहयाति कौमुदी सहमेघेन तडित्प्रलीयते। 4/33 चाँदनी चन्द्रमा के साथ चली जाती है, बिजली बादल के साथ ही छिप जाती है। 10. माहेन्द्र :-बादल, मेघ। निदाधकालोल्वण तापयेव माहेन्द्रमम्भः प्रथमं पृथिव्या। 7/84 जैसे गर्मी से तपी हुई पृथ्वी वर्षा की पहली बूंदें ग्रहण करती हैं। 11. विद्युत्वत् :-बादल, मेघ। सोऽहं तृष्णातुरैवृष्टिं विद्युत्वानिव चातकैः। 6/27 — जैसे प्यासे चातक, बादलों से जल की बूंदे माँगते हैं। अम्बुनिधि 1. अम्बुनिधि :-सागर, समुद्र। असूत सा नागवधूपभोग्यं मैनाकमम्भोनिधि बद्धसख्यम्। 1/20 मेना के उस गर्भ से मैनाक नामक वह प्रतापी पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसने नाग कन्या के साथ विवाह किया, समुद्र के साथ मित्रता की। 2. अम्बुराशि :- सागर, समुद्र। हस्तु किंचित्परिलुप्त धैर्यश्चन्द्रीदयारम्भ इवाम्बु राशिः। 3/67 जैसे चन्द्रमा के निकलने पर समुद्र में ज्वार आ जाता है, वैसे ही पार्वती जी को देखकर महादेवजी के हृदय में हलचल होने लगी। 3. तोयनिधि :-पुं० [तोयानि निधीयन्तेऽत्रां, नि+धा+कि, तोयानां निधिर्वा] समुद्र, सागर। पूर्वापरौ तोयनिधि वगाह्य स्थितः पृथिव्या इव मानदण्डः। 1/1 वह पूर्व और पश्चिम के समुद्रों तक फैला हुआ ऐसा लगता है, मानो वह पृथ्वी को नापने-तौलने का मापदण्ड हो। For Private And Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 537 4. महौदधौ :-सागर, समुद्र। अस्तमेति युगभग्नकेसरैः संनिधाय दिवसं महोदधौ। 8/4 दिन को समुद्र में डुबोकर और अपने उन घोड़ों को लिए हुए सूर्य अस्ताचल की ओर चले जा रहे हैं, जिनके सिर नीचे की ओर उतरने के कारण झुके हुए हैं। 5. समुद्र :-पुं० [चन्द्रोदयाद् आपः सम्युगुन्दन्ति विलद्यन्ति अत्र। उन्दी क्लेदने+स्फायितञ्चीति रक्] समुद्र, सागर।। अच्छिन्नामल संतानाः समुद्रोर्म्य निवारिताः। 6/69 जैसे आपके यहाँ से निकलती हुई, निरंतर बहती हुई और समुद्र की लहरों से भी टक्कर लेने वाली। ज्वलन इव समुद्रान्तर्गस्तज्जलौघैः । 8/91 जैसे समुद्र के जल में रहने पर भी बड़वा नल की प्यास नहीं बुझ पाती। 6. सरिता पति :-पुं० [सरितां पतिः] समुद्र। तस्योपायन योग्यानि रत्नानि सरितां पतिः। 2/37 समुद्र भी उसके पास भेंट के योग्य रत्न भेजने के लिए। 7. सागर :-पुं० [सगरस्य राज्ञोऽयमिति। सगर+अण् यद्वान् गरः मृत्युः येन स अगरः अमृतं स्यमन्तमणिवा तेन सह वर्तमानः।] समुद्र, सागर। सागरादनपगा हि जाह्नवी सोऽपि तन्मुखरसैकवृत्तिभाक्।। 8/16 जैसे गांगा जी समुद्र के पास जाकर और मिलकर वहाँ से लौटने का नाम तक नहीं लेती और समुद्र भी उन्हीं के मुख का जल ले-लेकर बराबर उनसे प्रेम किया करता है। अम्भोज 1. अम्भोज :-कमल, पद्म। यदर्थम्भोजमिवोष्ण वारणं कृतं तपः साधनं मेतया वपुः। 5/52 जैसे कोई धूप बचाने के लिए कमल का छाता लगा ले, वैसे ही इन्होंने भी अपना कोमल शरीर कठोर तपस्या में क्यों लगा दिया। 2. अम्भोरुह :- कमल, पद्म। हेमाम्भोरुहसस्यानां तद्वाप्यो धाम सांप्रतम्। 2/44 मन्दाकिनी के सोन कमल उखाड़-उखाड़कर, उसने अपने घर की बावलियों में लगा लिए हैं। For Private And Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 538 कालिदास पर्याय कोश 3. अरविन्द :-क्ली० [अराकराणि हलानि तत्सादृश्यात् अराः, तान् विन्दति लभते इत्यथे विद्+श] कमल, जलज। उन्मीलितं तूलिकयेव चित्रं सूर्यांशुभिभिन्नमिवारविन्दम्। 1/32 जैसे फूंची से ठीक रंग भरने पर चित्र खिल उठता है और सूर्य की किरणों का परस पाकर कमल का फूल हँस उठता है। आज हतुस्च्चरणौ पृथिव्यां स्थालरविन्दश्रियमव्यवस्थाम्। 1/33 जब वे अपने इन चरणों को उठा-उठाकर रखती चलती थीं, तब तो ऐसा जान पड़ता था, मानो वे पग-पग पर स्थल कमल उगाती चल रही हो। उत्पल :-क्ली० [उत्पलतीति । पल् गतौ, पचाद्य च] कमल, जलज। च्युत केशरदूषिते क्षणान्यवतं सोत्पलताडनानि वा। 4/8 जब मैंने अपने कान में पहने हुए कमल से तुम्हें पीटा था, उस समय उसका पराग पड़ जाने से, जो तुम्हारी आँखें दुखने लगी थीं। कमल :-क्ली० [कमेः णिङभावे वृषादित्वात् क्लच । कम्+अल्+अच्] कमल, जलज। दीर्घिका कमलोन्मेषो यावन्मात्रेण साध्यते। 2/33 उसके नगर पर केवल उतनी ही किरणें फैलाता है, जिनसे ताल के कमल भर खिल उठे। तथातितप्तं सविमुर्गभस्तिभिर्मुखं तदीयं कमलश्रियं दधौ। 5/21 इस प्रकार तप करते रहने पर भी उनका मुख सूर्य की किरणों से तपकर कुम्हलाया नहीं, वरन् कमल के समान खिल उठा। लीला कमल पत्राणि गणयामास पार्वती। 6/84 उस समय पार्वतीजी अपने पिता के पास नीचा मुँह किए खिलौने के कमल के पत्ते बैठी गिन रही थीं। तयो रुपर्यायतनालदंडमाधत्त लक्ष्मीः कमलात पत्रम्। 7/89 जल के बूंदों से भरे हुए लम्बी डंठल वाले कमल का छत्र उनके ऊपर लगाकर खड़ी हो गईं। उच्छ्वसत्कमल गन्धये ददौ पार्वती वदन गन्ध वाहिने। 8/19 तब खिले हुए कमल की गंध वाले पार्वतीजी के मुंह की फूंक पाने के लिए वे अपना नेत्र उठाकर उनके मुँह तक पहुँचा देते। For Private And Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 539 6. कुशेशय :-क्ली० [कुशे जले शेते । कुश+शौ+अच्, अलुक्समासः] कमल। बद्धकोशमपि तिष्ठति क्षणं सावशेष विवरं कुशेशयम्। 8/39 देखो ! ये कमल इस समय मुंद चले, फिर भी पल भर के लिए अपना मुंह थोड़ा सा इसलिए खुला रखे हुए हैं कि। 7. तामरस :-क्ली० [तामरे जले अस्तीति। सस+ड। यद्वा काङक्षार्थान्तमेघञ्, रस आस्वादने ण्यन्तादेस्प, तामं च तद्रसम्] कमल, जलज। हेमतामरस ताडित प्रिया तत्कराम्बुविनिमीलते क्षणा। 8/27 वहाँ वे सोने के कमल तोड़-तोड़ कर उनसे महादेव जी को मारती और महादेवजी भी ऐसा पानी उछालते, कि इनकी आँखें बन्द हो जाती। 8. नीलोत्पल :-क्ली० [नीलं नीलवर्णमुत्पलमिति] कमल। प्रवात नीलोत्पल निर्विशेष मधीर विप्रेक्षित मायताक्ष्या। 1/46 उन बड़ी-बड़ी आँखों वाली की चितवन, आँधी से हिलते हुए नीले कमलों के समान चंचल थी। 9. पद्म :-क्ली०, पुं० [पद्यते इति, पद् गतौ+ अर्तिस्तुमुहस्रिति' मन्] कमल। चन्द्रं गता पद्मगुणान्न भुङक्ते पद्माश्रिता चान्द्रमसीमभिरव्याम्। 1/43 रात को जब वे चन्द्रमा में पहुँचती थीं, तब वे उन्हें कमल का आनन्द नहीं मिल पाता था और जब दिन में वे कमल में आ बसती थीं, तब रात के चन्द्रमा का आनन्द उन्हें नहीं मिल पाता था। ध्रुवं वपुः काञ्चनपद्मनिर्मितं मृदु प्रकृत्या च ससारमेव च। 5/19 मानो उनका शरीर सोने के कमलों से बना था, जो कमल से बने होने के कारण स्वभाव से कोमल भी था, पर साथ ही साथ सोने का बना होने से ऐसा पक्का भी था कि तपस्या से कुंभला न सके। मुखेन सा पद्यसुगन्धिना निशि प्रवेपमानाधरपत्र शोभिना। 5/27 उन जाड़े की रातों में जल के ऊपर पार्वती जी का मुँह भर दिखाई पड़ता था, जाड़े से उनके ओंठ कांपते थे और उनकी साँस से कमल की गन्ध के समान जो सुगन्ध निकल रही थी, उसकी गमक चारों ओर फैल जाती थी। लग्नद्विरेफं परिभूय पद्मं समेघ लेखं शशिनश्च बिम्बम्। 7/16 भौरों से घिरा हुआ कमल और बादल के टुकड़ों में लिपटा हुआ चन्द्रमा। प्रणेमतुस्तौ पितरौ प्रजानां पद्मासनस्थाय पितामहाय। 7/86 For Private And Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 540 कालिदास पर्याय कोश तब कमल के आसन पर बैठे हुए ब्रह्माणी को दोनों ने प्रणाम किया। पद्मकान्तिमरुणविभागयोः संक्रमय्य तव नेत्र योरिव । 8/30 देखो प्यारी ! इस समय सूर्य ऐसा दिखाई पड़ रहा है, मानो यह तुम्हारी तिहाई लाल आँखों के समान सुन्दर कमलों की शोभा को लजाकर। 10. पुष्कर :-क्ली० [पुष्णातीति, पुष पुष्टौ+'पुषः कित्' इति करन् स च कित्] कमल। विशोषितां भानुमतो मयूखैर्मन्दाकिनी पुष्करबीजमालाम्। 3/65 धूप में सुखाए हुए मन्दाकिनी के कमल के बीजों की माला। 11. राजीव :-क्ली० [राजी दल श्रेणिरस्यास्तीति । राजी + 'अन्येभ्योऽपि दृश्यते', इत्युक्त्वा वा] कमल। उत्तान पाणिद्वय सन्निवेशात्प्रफुल्लराजीव मिवाङ्कमध्ये। 3/45 अपने दोनों कन्धे झकाकर, अपनी गोद में कमल के समान दोनों हथेलियों को ऊपर किए, वे बिना हिले-डुले बैठे हैं। 12. वारिरुह :-कमल, जलज। आविभात चरणाय गृह्णते वारि वारिरुहबद्ध षट्पदम्। 8/33 उस ताल की ओर बढ़े चले जा रहे हैं, जहाँ कमलों में भौंरों बन्द पड़े हैं। 13. सरोज :-क्ली० [सरसि जातमिति। सरस + जन्+उ] कमल। तुषारवृष्टिक्षत पद्मसंपदा सरोजसंधानामिवाकसेदपाम्। 5/27 मानो पाले से मारे गए कमलों के जल जाने पर, उनके मुख के कमल ने ही उस ताल को कमल वाला बनाए रखा हो। 14. सहस्रपत्र :-क्ली० [सहस्रं पत्राणि यस्य] कमल। विलोल नेत्र भ्रमरैर्गवाक्षाः सहस्रपत्राभरणा इवासन्। 7/62 मानो खिड़कियों की जालियों में भौरों से भरे कमल टाँग दिए गए हों। अरण्य 1. अरण्य :-क्ली० [अर्यते मृगैः । ऋ गतौ, अर्जेनिच्चेति अन्य] वन, जंगल, कानन। अयाचतारण्य निवासमात्मनः फलोदयान्ताय तपः समाधये। 5/7 क्या मैं तब तक के लिए वन में जाकर तपस्या कर सकती हूँ, जब तक शिवजी मुझ पर प्रसन्न न हो जायें। For Private And Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 541 कुमारसंभव अरण्यबीजाञ्जलिदानलालितास्तथा च तस्यां हरिणा विशश्वसुः। 5/19 वहाँ के जिन हरिणों को उन्होंने अपने हाथ में तिन्नी के दाने खिला-खिला कर पाला पोसा था, वे इतने परच गए थे। 2. कानन :-क्ली० [कं जलम् अननं जीवनमस्य । यद्वा कानयति दीपयाति, कन् दीप्तौ+णिच्+ल्युट्] वनम्, वन, जंगल। तच्छासनात्काननमेव सर्वं चित्रार्पितारम्भमिवावतस्थे। 3/42 यहाँ तक कि सारा वन उस एक ही संकेत में ऐसा लगने लगा, मानो चित्र खिंचा हुआ हो। 3. वन :-क्ली०स्त्री० [वनतीति, वन+पचाद्यच्] अटवी, विपिन, गहन, अरण्य। तस्मिन्वने संयमिनां मुनीनो तपः समाधेः प्रतिकूलवर्ती। 3/24 उस वन में पहुँच कर मुनियों के तप की समाधि को डिगाने वाला। दंष्ट्रिणो वन वराहयूथपा दष्टभंगुरबिसाङ्करा इव । 8/35 बड़े-बड़े दाँत वाले लंबे-चौड़े जंगली सूअर निकले चले आ रहे हैं, इनके दाँत ऐसे दिखाई देते हैं, मानो इनके जबड़ों में खाए हुए कमलों की डंठलें अटकी हुई हों। त्वामियं स्थितिमतीमुपागता गन्धमादन वनाधि देवता। 8/75 गन्ध मादन की वनदेवी अपने आप तुम्हारी आवभगत करने आ पहुँची है। पद्मभेदापिशुनाः सिषेविरे गन्धमादनवनान्त मारुताः। 8/86 उस समय गन्ध मादन वन का जो पवन मन्द-मन्द बह रहा था और जिसे छू जाने से ही मानो कमल खिलते जा रहे थे। अरणि 1. अरणि :-पुं० स्त्री० [ऋ+अनि] ईंधन, जलावन। उत्पत्तये हविर्भोक्तुर्यजमान इवारणिम्। 6/28 अग्नि उत्पन्न करने के लिए यजमान अरणि लाता है। 2. ईंधन :- जलावन। निकाम तप्ता विविधेन वह्निना नभश्चरेणेन्धन संभृतेन सा। 5/23 उधर ईंधन की आग तथा सूर्य की गर्मी से तपे हुए पार्वतीजी के शरीर से भाप निकल उठी। For Private And Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 542 कालिदास पर्याय कोश अरुण 1. अर्क :-पुं० [अनु+कर्मणि घञ्, कुत्वम्] सूर्य। आवर्जिता किंचिदिव स्तनाभ्यां वासो वसाना तरुणार्करागम्। स्तनों के बोझ से झुके हुए शरीर पर, प्रात:काल के सूर्य के समान लाल कपड़े पहने हुए। सत्यमर्काच्च सोमाच्च परमध्यास्महे पदम्। 6/19 यद्यपि हम लोग सूर्य और चन्द्रमा दोनों से यों ही ऊपर रहते हैं। 2. अर्हपति :-सूर्य, रवि। संक्षये जगदिव प्रजेश्वरः संहरत्यहरसावर्हपतिः। 8/30 सूर्य उसी प्रकार दिन को समेट रहा है, जैसे प्रलय के समय ब्रह्मा जी सारे संसार को समेट लेते हैं। अरुण :-पुं० [ऋ+उनन्] सूर्य। रागेण बालारुणकोमलेन चूतप्रवालोष्ठमलंचकार। 3/30 प्रात:काल के सूर्य की कोमल लाली से चमकने वाले आम की कोंपलों से अपने ओंठ रंग लिए हों। वद प्रदोषे स्फुट चन्द्रतारका विभावरी यद्यरुणाय कल्पते। 5/44 बताइए भला बढ़ती हुई रात की सजावट, खिले हुए चन्द्रमा और तारों से होती है या सबेरे के सूर्य की लाली से। 4. आदित्य :-पुं० [अदितेरादित्यस्य वा अपत्यम्+ण्य] सूर्य। अमी च कथमादित्याः प्रतापक्षति शीतलाः। 2/24 ___यह बारह आदित्य भी अपना तेज गँवाकर ठण्डे पड़े हुए। 5. उष्णरश्मि :-सूर्य। कुबेरगुप्तां दिशमुष्णरश्मौ गन्तुं प्रवृत्ते समयं विलंधय। 3/25 वसन्त के छाते ही असमय में सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण चले आए। 6. दिवाकर :- सूर्य, रवि। दिवाकर द्रक्षति यो गुहासु लीनं दिवाभीत मिवान्धकारम्। हिमालय की लम्बी गुफाओं में दिन में भी अँधेरा छाया रहता है। ऐसा लगता है मानो अंधेरा भी दिन से डरने वाले उल्लू के समान, इसकी गहरी गुफाओं में जाकर दिन में छिप जाता है। For Private And Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra कुमारसंभव www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 543 मुनिव्रतैस्त्वामति मात्रकर्शितां दिवाकरप्लुष्ट विभूषणास्पदाम् । 5/48 तपस्या से अत्यंत सूखे हुए आपके इस शरीर को जिस पर आभूषण न पहनने से अंग सूर्य की किरणों से झुलस गए हैं। 7. दीधितिमान :- सूर्य, रवि । सरसां सुप्त पद्मानां प्रातर्दीधितिमानिव 12/2 जैसे ताल में सोए हुए कमलों के आगे प्रातः काल का सूर्य निकलता है । तत्रावतीर्याच्युत दत्तहस्तः शरद्धनाद्दीधिति मानिवोक्ष्णः | 7/70 वहाँ पहुँचने पर विष्णु जी ने हाथ का सहारा देकर महादेव जी को इस प्रकार बैल से उतार लिया, मानो शरद के उजले बादलों से सूर्य को उतार लिया हो । 8. भानु :- पुं० [ भाति चतुर्दशभुवनेषु स्वप्रभया दीप्यते इति । भा+' दामाभ्यां नुः इति नु] सूर्य, रवि । विशोषितां भानुमतो मयूखैर्मन्दाकिनी पुष्कर बीजमालाम् । 3/65 धूप में सुखाये हुए मन्दाकिनी के कमल के बीजों की माला । करेण भानोर्बहुलावसाने संधुक्ष्यमाणेव शशाङ्करेखा । 7 / 8 जैसे शुक्ल पक्ष में सूर्य की किरण पाकर चन्द्रमा चमकने लगता है। दूरमग्रपरिमेय रश्मिना वारुणी दिगरुणेन भानुना । 8 / 40 हे सुन्दरी ! बहुत दूर पर सूर्य की हल्की सी झलक दिखाई पड़ने से पश्चिम दिशा । भानुमग्नि परिकीर्ण तेजसं संस्तुवन्ति किरणोष्मपायिनः । 8 / 41 उस सूर्य की स्तुति कर रहे हैं, जिन्होंने इस समय अपना तेज अग्नि को सौंप दिया है। 9. रवि :- पुं० [ रूयते स्तूयते इति । रू+' अच इ:' इति इ] सूर्य, रवि, रविपीतजला तपात्यये पुनरोधेन हि युज्यते नदी । 4/44 भानु । जो नदियाँ गरमी में सूर्य की किरणों को अपना जल पिलाकर छिछली हो जाती हैं, उन्हीं नदियों में वर्षा आने पर बाढ़ जा आती है । For Private And Personal Use Only खं प्रसुप्तमिव संस्थितौ रवौ तेजसो महत ईदृशी गतिः । 8 / 43 सूर्य के छिपते ही सारा आकाश सोया हुआ सा जान पड़ रहा है। देखो तेजस्वियों की ऐसी ही बात होती है। संध्ययाप्यनुगतं रवेर्वपूर्वन्द्यमस्तशिखरे समर्पितम् । 8 /44 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 544 कालिदास पर्याय कोश देखो ! पूजनीय सूर्य अस्ताचल को चले, तो संध्या भी उनके पीछे-पीछे चल दी। 10. विवस्वत :-सूर्य, रवि। सप्तर्षि हस्ता व चिता व शेषाण्यधो विवस्वान्परिवर्तमानः। 1/16 सप्तर्षियों के चुनने से जो कमल बच रहते हैं, उन्हें नीचे उदय होने वाला सूर्य अपनी किरणें ऊँची करके खिलाया करता है। पश्य पश्चिम दिगन्तलम्बिना निर्मितं मितकथे विवस्वता। 8/34 हे मिठबोली ! देखो पश्चिम में लटके सूर्य ने। खं हृतातपजलं विवस्वता भाति किंचिदिव शेषवत्सरः। 8/37 देखो ! सूर्य ने आकाश से धूप का पानी खींच लिया है, पश्चिम में कुछ कुछ उजाला रहने से। 11. सविता :-पुं० [सूते लोकादीनिति । सू+तृच्] सूर्य, रवि। विजित्य नेत्र प्रति घातिनी प्रभामनन्य दृष्टिः सवितारमैक्षत। 5/20 चकाचौंध करने वाले सूर्य के प्रकाश को भी जीतकर, वे सूर्य की ओर एकटक होकर देखती रहने लगीं। तथातितप्तं सुवितु गर्भस्तिभिर्मुखं तदीयं कमलश्रियं दधौ। 5/21 इस प्रकार तप करते रहने पर भी उनका मुख सूर्य की किरणों से तपकर कुम्हलाया नहीं, वरन् कमल के समान खिल उठा। 12. सूर्य :-पुं० [सरति आकाशे, सुवति कर्मणि लोकं प्रेरयति वा । सृ गतौ, सू प्रेरणे वा] सूर्य, रवि। उन्मीलितं तूलिकयेव चित्रं सूर्यांशुभिन्नविवारविन्दम्। 1/37 जैसे कूँची से ठीक-ठीक रंग भरने पर चित्र खिल उठता है और सूर्य की किरणों का परस पाकर, कमल का फूल हँस उठता है। अरुण (ii) 1. अरुण :-पुं० [ऋ + उनन्] लाल रंग, ताम्र रंग। नयनान्यरुणानि घूर्णयन्वचनानि स्खलयन्यदे पदे। 4/12 अपने लाल-लाल नेत्र घुमाती हुई और एक-एक शब्द पर रुक-रुक कर बोलती हुई। For Private And Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 545 हरितारुण चारु बंधनः कलमुस्कोकिल शब्द सूचितः। 4/14 सुंदर, हरे और लाल रंग में बंधा हुआ और कोकिल की मीठी कूक से गूंजता हुआ। तदीषदादरुणगंड लेखमुच्छ् वासि कालांजन रागमक्ष्णोः। 7/82 पार्वती जी के गाल कुछ लाल हो गए, मुँह पर पीसने के बूंदे छा गईं, आँखों का काला आँजन फैल गया। दूरमग्र परिमेय रश्मिना वारुणी दिगरुणेन भानुना। 8/40 हे सुन्दरी! बहुत दूर पर सूर्य की हल्की सी झलक दिखाई पड़ने से लाल पश्चिम दिशा। 2. कषाय :-पुं० क्ली० [कषति कण्ठम्, कष+आय] लाल रंग। स प्रजागर कषाय लोचनं गाढदंत परिताडिता धरम्। 8/88 रात भर जागने से पार्वती जी की आंखें लाल हो रही थीं, ओठों पर शिवजी के दाँतों के घाव भरे पड़े थे। 3. ताम्र :-पुं० क्ली० [ताम्यते आकाङ्क्षयते इति। तमु का ङ्क्षायाम् अमितम्यो दीर्घश्च' इति रक् उपाधाया दीर्घश्च] लाल रंग। ततो ऽनुकुर्याद्विशदस्य तस्यास्ताम्रौष्ठपर्यस्तरुचः स्मितस्य। 1/44 उनके लाल-लाल ओठों पर फैली हुई उनकी मुस्कुराहट का उजलापन ऐसा सुन्दर लगता था। तस्याः करं शैलगुरूपनीतं जग्राह ताम्रांगुलिमष्टमूर्तिः। 7/76 तब हिमालय के पुरोहित ने पार्वती जी का हाथ आगे बढ़ाकर शंकर जी के हाथ पर रख दिया। पार्वती जी का वह लाल-लाल उँगलियों वाला हाथ। 4. रक्त :-पुं० वि० [रञ् करणे + क्त] लोहित, लाल रंग। रक्तपीत कपिशाः पयोमुचां कोटयः कुटिलकेशि भांत्यमः। 8/45 हे धुंघराले बालों वाली! ये सामने लाल-पीले और भूरे बादल के टुकड़े फैले हुए ऐसे लग रहे हैं। 5. राग :-पुं० [रञ्जनमिति, रज्यतेऽनेनेति वा । रञ् भावे घञ् नलोपकुत्वे] लाल रंग। अभ्युन्नतांगष्ठन ख प्रभाभिर्निक्षेपणाद्रागमिवोग्दिरन्तौ। 1/33 जब वे चलती थीं तब उनके स्वभाविक लाल और कोमल पैरों के उठे हुए अंगूठों के नखों से निकलने वाली चमक को देखकर, ऐसा जान पड़ता था। For Private And Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 546 कालिदास पर्याय कोश रागेण बालारुणकोमलेन चूत प्रवालोष्ठमलं चकार। 3/30 प्रातः काल के सूर्य की लाली से चमकने वाले आम की कोपलों से अपने ओठ रंग लिए हों। अकारि तत्पूर्व निबद्धया तया सरागमस्या रसनागुणास्पदम्। 5/10 पहले पहल तगड़ी पहनने से उनकी सारी कमर लाल पड़ गई थी। विसृष्टरागादधरान्निवर्तित स्तनांग रागारुणि ताच्च कन्दुकात्। 5/11 कहाँ तो वे अपने हाथों से ओठ रंगा करती थीं और स्तन के अंगराग से लाल रंगी हुई गेंद खेला करती थीं। लोहित :-क्ली० [रुह्यते इति। रुह+ रुहेस्श्चलो वा' इति इतन्, रस्य लत्वम्] लाल, लाल रंग का। विकुंचित भूलतमाहिते तया विलोचने तिर्यगुपान्त लोहिते। 5/74 उनकी आँखें लाल हो गई और उन्होंने भौंहे तानकर उस ब्राह्मण की ओर आँखें तरेरकर देखा। लोहिता यति कदाचिदातये गन्धमादन वनं व्यगाहत। 8/28 गन्धमादन पर्वत पर जा पहुँचे, उस समय सांझ हो चली थी और सूर्य लाल-लाल दिखाई पड़ रहे थे। लोहितार्कमणि भाजनार्पितं कल्पवृक्ष मधु बिभ्रति स्वयम्। 8/75 तुम्हें यहाँ बैठी हुईं देखकर लाल सूर्यकान्त मणि के प्याले में कल्पवृक्ष की मदिरा लिए हुए स्वयं। 7. शोण :-पुं० [शोण वर्णे+ अच्] लाल रंग। न्यस्तक्षरा धातुरसेन यत्र भूर्जत्व चः कुंजर बिंदु शोणाः। 1/7 जिन भोजपत्रों पर लिखे हुए अक्षर, हाथी की सूंड पर बनी हुई लाल बुंदकियों जैसे दिखाई पड़ते थे। अर्चि 1. अर्चि :-स्त्री०,क्ली० [अर्च+इसि] अग्निशिखा। स्फुरन्नुदर्चिः सहसा तृतीया दक्ष्णः कृशानुः किल निष्पपात। 3/71 झट उनका वह तीसरा नेत्र खुला और उसमें से सहसा जलती हुई आग की लपटें निकल पड़ीं। For Private And Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 547 प्रदक्षिण प्रक्रमणात्कृशानो सदर्चिषस्तन्मिथुनं चकासे। 7/71 ईंधन से जलती हुई अग्नि का फेरा देते समय पार्वती जी और शंकर इस प्रकार शोभित हुए। 2. शिखा :-स्त्री० [शी+'शीद्रो हस्वश्च'इति ख, ह्रस्वो गुणाभावश्च, स्त्रियाँ टाप्] अग्निज्वाला, ज्वाल, कील। प्रभामहत्या शिखयैव दीपस्त्रिमार्गयेव त्रिदिवस्य मार्गः। 1/28 जैसे अत्यन्त प्रकाशमान लौ को पाकर दीपक, मन्दाकिनी को पाकर स्वर्ग का मार्ग। ज्वलन्मणिं शिखाश्चैनं वासुकिप्रमुखा निशि। 2/38 चमकते हुए मणि के मनवाले वासुकि आदि बड़े-बड़े साँप रात को। अलक 1. अलक :-पुं० [अलति भूषयति मुखम् । अल् +क्युन्] बाल। तदाप्रभृत्यन्मदना पितुगृहे ललाटिका चन्दन धूसरालका। 5/55 तभी से ये बेचारी अपने पिता के घर, इतनी प्रेम की पीड़ा से व्याकुल हुई पड़ी रहती थीं, कि माथे पर पुते हुए चन्दन से बाल भर जाने पर भी। तदाननश्रीरलकैः प्रसिद्धैश्चिचच्छेद सादृश्यकथाप्रसंगम्। 7/16 काई भी ऐसा न दिखाई दिया, जो उनके गुंथी हुई चोटी वाले मुख की सुन्दरता के आगे ठहर सके। 2. कच :-पुं० [कच् +अच्] बाल। पत्रजर्जर शशि प्रभालवैरे भिरुत्कचयितुं तवालकान्। 8/72 तुम चाहो तो फूलों के समान दिखाई पड़ने वाले इन चाँदनी के फूलों से ही तुम्हारे केश गूंथ दिए जाएँ। आकुलालकमरंस्त शगवान्प्रेक्ष्य भिन्न तिलकं प्रियामुखम्। 8/88 संवारे हए केश इधर-उधर छितरा गए थे और उनका तिलक भी पुंछ गया था, अपनी प्रियतमा के ऐसे मुख को देखकर प्रेमी या भगवान् शंकर मगन हो उठे। 3. केश :-पुं० [के मस्तक शेते। शी+अच्। अलुक् समासः] बाल। महार्ह शय्या परिवर्तन च्युतैः स्वकेश पुष्पैरपि या स्मद्यते। 5/12 अपने पिता के घर पर ठाठ-बाट से सजे हुए पलँग पर करवटें लेते समय, अपने बालों से झड़े हुए फूलों के दबने से, जो पार्वती सी कर उठती थीं। For Private And Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 548 कालिदास पर्याय कोश अलक्तकाङ्कानि पदानि पादयो विकीर्ण केशांसु परेत भूमिषु। 5/68 अपने महावर से रँगे पैरों को उस श्मशान की भूमि में कैसे रक्खेंगी, जहाँ इधर-उधर भूत-प्रेतों के बाल बिखरे पड़े होंगे। बद्धं न संभावित एव तावत्करेण रुद्धोऽपि च केशपाशः। 7/57 वह उसे अपने हाथ से पकड़े हुए ही चल दी, उसे केश बाँधने की सुध न रही। अङ्गुलीभिरिव केशसंचयं संनिग्रहय तिमिरं मरीचिभिः। 8/63 मानो वह अपनी किरण रूपी उँगलियों से रात रूपी नायिका के मुंह पर फैले हुए अंधेरे रूपी बालों को हटाकर। मूर्धना-पुं० [मूर्छिन् जातः। जन्+ड ] केश, बाल। विललाप विकिर्ण मूर्धजा समदुःखामिव कुर्वती स्थलीम्। 4/4 बाल बिखेरकर ऐसी बिलख-बिलखकर रोने लगी, मानो समूची वन भूमि ही उसके साथ-साथ रो रही हो। 5. शिरोरुह-पुं० [शिरसि+रोहतीति। रुह+क] केश, बाल। यथा प्रसिद्धैर्मधुरं शिरोरुहेर्जटाभिरप्येवम भूत्तदाननम्। 5/9 जटा रख लेने पर भी उनका मुख वैसे ही प्यारा लगता था, जैसे पहले सजी हुई चोटियों से लगता था। अलक्त 1. अलक्त-पुं० [न रक्तोऽस्मात । रस्य लत्वम्। अलक्तः स्वार्थेकन्] लाल रंग की लाख, महावर। चिरोज्झितालक्तक पाटलेन ते तुलां यदारोहति दन्तवाससा। 5/34 आपके उन आठों से होड़ करती होंगी, जो बहुत दिनोंसे महावर से न रंगे जाने पर भी लाल हैं। 2. दवराग :-महावर। प्रसाधिकाऽऽलम्बितमग्रपादमाक्षिप्य काचिद्वरागमेव। 7/58 एक स्त्री अपने पैर में महावर लगवा रही थी, कि उसे अधूरा छोड़कर ही। 3. चरण राग :-महावर। निर्मलेऽपि शयनं निशात्यये नोज्भिक्तं चरणरागलाञ्छितम्। 8/89 उस चादर पर कहीं-कहीं पाँव के महावर की छाप भी जहाँ-तहां लगी हुई थी। दिन निकल आने पर भी उन्होंने पलंग छोड़ने का नाम न लिया। For Private And Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 549 अलि 1. अलि :-पुं० [अल्+इन्] भौंरा। अलि पंक्ति रने कुशस्त्वया गुणकृत्ये धनुषो नियोजिता। 4/15 जिन भौरों की पांतों की तुम अनेक बार अपने धनुष की डोरी बनाया करते थे। 2. द्विरेफ :-भौंरा। अनन्तपुष्पस्य मधोर्हि चूते द्विरेफमाला सविशेष सङ्गा। 1/27 जैसे भौरों की पाँतें वसन्त के ढेरों फूलों को छोड़कर, आम की मंजरियों पर ही झूमती रहती हैं। लग्न द्विरेफाञ्जन भक्ति चित्रं मुखे मधुश्रीस्तिलकं प्रकाश्य। 3/30 वहाँ उड़ते हुए भौरे, खिले हुए तिलक के फूल और प्रात:काल की सूर्य की लाली से चमकने वाली कोंपलें ऐसी लगती थीं। मधु द्विरेफः कुसुमैक पात्रे पपौ प्रियां स्वामनुवर्तमानः। 3/36 भौंरा अपनी प्यारी भौंरी के साथ एक ही फूल की कटोरी में मकरन्द पीने लगा। निष्कम्पवृक्षं निभृतद्विरेफ मूकाण्डज शान्तमृगप्रचारम्। 3/42 उसकी आज्ञा पाते ही वृक्षों ने हिलना बन्द कर दिया, भौरों ने गूंजना बन्द कर दिया, सब जीव-जन्तु चुप हो गये। सुगन्धि निश्वास विवृद्धतृष्णं बिम्बाधरासन्नचरं द्विरेफम्। 3/56 कामदेव ने देखा कि उनकी सुगन्धित साँस पर ललचे हुए भौरे, जब-जब उनके लाल-लाल ओठों के पास आते हैं। लग्न द्विरेफं परिभूय पद्मं समेघलेखं शशिनश्च बिम्बम्। 7/16 भौरों से घिरा हुआ कमल और बादल के टुकड़ों मे लिपटा हुआ चन्द्रमा। 3. भ्रमर :-पुं० [भ्रमति प्रति कुसुममिति। अर्तिक मित्यादीना' अर, भ्रम+करन] भौंरा। पदं सहेत भ्रमरस्य पेलवं शिरीष पुष्पं न पुनः पतित्रिणः। 5/4 शिरीष के फूल पर भौरे फूल पर भौरें भले ही आकर बैठ जायें, पर यदि कोई पक्षी उस पर आकर बैठने लगे, तब तो वह नन्हाँ सा फूल झड़ ही जायगा। विलोलनेत्रभ्रमरैर्गर्वाक्षाः सहस्रपत्रभरणा इवासन। 7/62 मानो खिड़कियों की जालियों में भौंरो से भरे कमल टाँग दिए गए हों। For Private And Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 550 www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कालिदास पर्याय कोश 4. षटपद :- भौंरा । न षट्पदश्रेणिभिरेव पंकजं सशैव लासंगमपि प्रकाशते । 5/9 क्योकि केवल भौंरों से ही कमल अच्छा नहीं लगता, वरन् सेवार से लिपटा होने पर भी वह वैसा ही सजीला लगता है। मन्दरस्य कटकेषु चावसत्पार्वती वदन पद्मषट्पदः । 8/23 पार्वती जी के मुख कमल का रस लेने वाले महादेव जी वहाँ से चलकर मन्दराचल की उस ढाल पर पहुँचे । आविभातचरणाय गृह्णते वारि वारिरुहबद्ध षट्पदम् । 8/33 ये हाथी उस ताल की ओर बढ़े चले जा रहे हैं, जहाँ कमलों में भौरे बन्द पड़े हैं। षट्पदाय वसतिं ग्रहीष्यते प्रीतिपूर्वमिव दातुमन्तरम् । 8/39 जो भरे बाहर रह गये हों, उन्हें हम प्रेम से भीतर बसा लें। मुक्त षट्पदविराव मंजसा भिद्यते कुमुदमा निबन्धनात् । 8/70 यह जो भौरों की गूँज से कुमुद खिला रहा है, वह ऐसा लगता है, कि इसका पेट फट गया हो । अवतंस 1. अवतंस [अब+तंस्+ घञ्] कर्णफूल । च्युत केशर दूषितेक्षणान्यवतंसोत्पलताडनानि वा । 4/8 जब मैंने अपने कान में पहने हुए कमल से तुम्हें पीटा था, उस समय उसका पराग पड़ जाने से जो तुम्हारी आँखें दुखने लगी थीं । तं मातरे देवमनुब्रजन्त्यः स्ववाहनक्षोभ चलावतंसाः । 7/36 अपने तेजोमण्डल की चमक से गोरे-गोरे मुख वाली सुन्दर माताएँ, जब अपने रथों पर बैठकर पीछे-पीछे चलीं, तो रथों के झटके से उनके कर्णफूल हिलने लगे । वधूमुखं क्लान्तयवावतंसमाचार धूम ग्रहणाद्बभूव । 7 / 82 वधू के मुँह पर पीसने की बूँदें छा गईं, आखों का काला आँजन फैला गया और कानों पर धरे हुए जवे भी धुँधले पड़ गए ।, For Private And Personal Use Only 2. कर्णपूर : - पुं० [कर्ण पूरयति अलकरोतीति । कर्ण+पूर+'करमण्यम्'+इति अण् ] अवतंस, कर्णफूल । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव शक्य मोषधिपतेर्नवोदयाः कर्णपूररचना कृते तव । 8 / 62 तुम चाहो तो अपने कर्णफूल बनाने के लिए, अपने नखों की नोक से उन्हें तोड़ लो । 3. कर्णोत्पल : - कर्णफूल । कपोल संसर्पिशिखः स तस्या मुहूर्त कर्णोत्पलतां प्रपेदे | 7/81 वह धुआँ उनके गालों के पास पहुँचकर, क्षण भर के लिए उनके कानों का कर्णफूल बन जाता था । 551 अवस्था 1. अवस्था :- [ अव + स्था + अङ् ] दशा, हाल, स्थिति । तिसृभिस्तवभ्तवस्थाभिर्मिहि मान मुदीरयन् । 2/6 आप ही शिव, विष्णु और हिरण्यगर्भ इन तीन रूपों में अभिहित हैं। 2. दशा :- [ दश् + अङ् नि० टाप्] हाल, स्थिति । तदिदं गत मीदृशी दशां न विदीर्ये कठिनाः खलु स्त्रियः 1 4/5 उसे इस दशा मे देखकर भी मेरी छाती फट नहीं गई। सचमुच स्त्रियों का हृदय बड़ा कठोर होता है। अशनि 1. अशनि :- पुं० स्त्री० [ अयनुते संहति - अश् + अनि] धनुष । अशनेर मृतस्य चोभयोर्वसिनश्चाम्बुधराश्च योनयः । 4/43 जैसे बादल में बिजली और जल दोनों साथ-साथ रहते हैं, वैसे ही संयमी लोगों के मन में क्रोध और क्षमा दोनों इकट्ठे रहते हैं । For Private And Personal Use Only 2. कार्मुक :- त्रि० [ कर्मन + उकञ् ] धनुष, धनु । यावद्भवत्याहित सायकस्य मत्कार्मुकस्यास्य निदेशवर्ती । 3/4 आप मुझे उसका नाम भर बतला दीजिए, फिर तो मैं अभी जाकर उसे अपने इस बाण चढ़े हुए धनुष से जीते लाता हूँ। क्व नु ते हृदयंगमः सखा कुसुमा योजित्कार्मुको मधुः । 4/24 अब कहाँ गया वह तुम्हारे लिए फूलों का धनुष बनाने वाला प्यारा मित्र वसन्त । 3. कुलिश : - [ कुलि+सी+ड, पक्षे पषोः दीर्घः ] धनुष, अस्त्र, वज्र । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 552 www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कालिदास पर्याय कोश कुद्धेऽपि पक्षच्छिदि वृत्रशत्राववेद नाज्ञं कुलिश क्षतानाम् । 1/20 जिसने पर्वतों के पंख काटने वाले इन्द्र के रुष्ट होने पर भी उनके वज्र की चोट अपने शरीर को नहीं लगने दी। वृत्रस्य हन्तु कुलिशं कुण्ठिता श्रीव लक्ष्यते । 2 / 20 मारने वाला वज्र भी चमक खोकर कुण्ठित सा क्यों दिखाई दे रहा है। सर्वं सखे त्वय्युपपन्न मे ददुभे ममास्त्रे कुलिशं भवांश्च । 3/12 हे मित्र ! तुम सब कुछ कर सकते हो, क्योंकि यों तुम और वज्र ये ही मेरे दो अस्त्र हैं । 4. धनुष :- त्रि० [ धन्+उसि] धनुष, धनु । संमोहनं नाम च पुष्पधन्वा धनुष्यमोघं समधत्त बाणम् । 3/66 कामदेव ने भी सम्मोहन नाम का अचूक बाण अपने धनुष पर चढ़ा लिया। अलि पंक्तिरने कक्षस्त्वया गुणकृत्ये धनुषो नियोजिता । 4/15 जिन भौंरो की पाँतो की तुम अनेक बार अपने धनुष की डोरी बनाया करते थे । बिसतन्तु गुणस्य कारितुं धनुषः पेलवपुष्पपत्त्रिणः 14 / 29 तुम्हारे कमल की तन्तु से बनी हुई डोरी वाले फूलों के बाण वाले धनुष का लोहा मानते थे । अश्रु 1. अश्रु :- क्ली [ अश्नुते व्याप्नोति नेत्रमदर्शनाय - अश् + क्रुन् ] आँसू । तन्मातरं चाश्रुमुखीं दुहितृस्नेहविक्लवाम् । 6 / 92 मेना अपनी पुत्री के स्नेह में इतनी अधीर हो गई, कि उनकी आँखें डबडबा आईं। 2. अस्त्र :- [अस्+ष्ट्रन्] आँसू, नेत्र - जल । न वेद्मिस प्राथिर्त दुर्लभः कदा सखी भिरस्त्रोत्तर मीक्षितामिमाम् 15/67 जिस दुर्लभ वर को पाने के लिए इतनी साँसत भोग रही हैं, वह देखें कब हमारी सखी पर कृपा बरसाता है । For Private And Personal Use Only बबन्ध चास्त्रा कुल दृष्टि रस्याः स्थानान्तरे कल्प्रित संनिवेशम् । 7/25 आनन्द के मारे मेना की आँखों में आँसू भर आए, व उन्होंने पार्वती जी के हाथ में जहाँ कंगना बाँधना था, वहाँ न बाँधकर कहीं और बाँध दिया। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 553 3. वाष्प :-पुं० [ओवै शोषणे, यद्वा बाधते इति] आँसू, नेत्र-जल। चामरेः सुर बन्दीनां वाष्प सीकर वर्षिभिः। 2/42 देवतओं की बन्दी स्त्रियाँ गरम-गरम साँसें लेती हुई और आँसू बहाती हुई, उस पर चँवर डुलाया करती हैं। अश्व 1. अश्व :-पुं० [अश्वेत मार्गं व्याप्नोति। अशू+व्याप्तौ, असू पुषिलटीति क्वन। अश+ कवन्] घोड़ा। न दुर्वह श्रोणि पयोधरार्ताभिन्दनित मन्दां गतिमश्वमुख्यः। 1/11 अपने भारी नितम्बों और स्तनों के बोझ के मारे वे बेचारी शीघ्रता से चल नहीं पाती और चाहते हुए भी वे अपने स्वभाविक घोड़े की गति को नहीं छोड़ पातीं। अधः प्रस्थापिता श्वेन समावर्जित केतुना। 6/7 जिनके तले से जाता हुआ सूर्य अपने घोड़े नीचे रोककर। जित सिंह भया नागा यत्राश्वा विलयोनयः। 6/39 वहाँ के हाथी ऐसे लगते थे, जैसे सिंह को पावें तो पछाड़ दें, और घोड़े तो सभी विल जाति के थे। 2. धुर्ये :-पुं० [धुर्+यत्] घोड़ा, अश्व। येनेदं धियते विश्वं धुर्यैर्यानमिवाध्वनि। 6/76 संसार को इस प्रकार ठीक से चलाने वाले हैं, जैसे घोड़े मार्ग में रथ को लीक में बाँधे रहते हैं। 3. हय :-पुं० [हयति गच्छतीति। हय्+अच्] घोड़ा, अश्व। उच्चै रुच्चैः श्रवास्तेन हयरत्न महारिचः। 2/47 उसने उच्चैः श्रवा नाम का वह सुन्दर घोड़ा भी छीन लिया। अस 1. अस :-होना, हुआ। कुले प्रसूतिः प्रथमस्य वेधसस्त्रिलोक सौन्दर्य मिवोदितं वपुः। 5/41 ब्रह्मा के वंश में तो आपका जन्म, शरीर भी आपका ऐसा सुन्दर मानो तीनों लोकों की सुन्दरता आप में लाकर भरी हो। For Private And Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 554 कालिदास पर्याय कोश कपालि वा स्यादथवेन्दु शेखरं न विश्व मूर्ते रवधार्यते वपुः। 5/78 गले में खोपड़ियों की माला पहने हुए हों या माथे पर चन्द्रमा सजाए हुए हों, संसार मे जितने रूप दिखाई देते हैं, वे सब उन्ही के होते हैं। 2. भू :-स्त्री० [भवत्यस्यामिति, भू+अधिकरणे क्विप्] होना। श्रुताप्सरोगी तिरपि क्षणेऽस्मिहरः प्रसंख्यानपरो बभूव। 3/40 इसी बीच अप्सराओं ने भी अपना नाच गाना आरम्भ कर दिया, पर महादेव जी टस के मस न हुए। अथ तेन निगृह्य विक्रियामभि शिप्तः फलमेतदन्वभूत्। 4/41 उन्होंने अपने मन को रोककर कामदेव को शाप दिया कि जाओ, तुम शिवजी के तीसरे नेत्र की अग्नि से जलकर राख बन जाओगे। उसी का यह सब फल है। सुता संबन्धविधिना भव विश्व गुरोर्गुरुः। 6/83 उनसे अपनी पुत्री का विवाह करके आप उन महादेव जी के भी बड़े बन जाइए। भवन्त्यव्यभिचारिण्यो भर्तुरिष्टे पतिव्रताः। 6/86 जो सती स्त्रियाँ हुआ करती हैं, वे किसी भी बात में पति से बाहर नहीं होती। आवर्जिताष्टापदकुंभतोयैः सतूर्यमेनां स्नपयां बभूवुः। 7/10 उस चौकी पर उन स्त्रियों ने उमा को बैठाया और गाते-बजाते हुए सोने के घड़ों के जल से पार्वती जी को नहला दिया। हरोपयाने त्वरिता बभूव स्त्रीणां प्रियालोक फलो हि वेशः। 7/22 महादेव जी से मिलने के लिए मचल उठीं, क्योंकि स्त्रियों का शृंगार तभी सफल होता है, जब पति उसे देखे। उमास्तनोद्भेदमनु प्रवृद्धो मनोरथो यः प्रथमं बभूव। 7/24 पार्वती जी के मन में जो जवानी आने के समय से ही शंकर जी को पाने की साध बराबर बढ़ रही थी, पूरी कर दी। प्रासाद मालासु भूवुरित्थं त्यक्तान्यकार्याणि विचेष्टितानि। 7/56 अपना-अपना सब कामकाज छोड़कर, अपने भवनों की छतों पर आ खड़ी हुईं। प्रसन्नचेतः सलिलः शिवोऽभूत्संसृज्य मानः शरदेवलोकः। 7/7 जैसे शरद के आने पर लोग प्रसन्न हो जाते हैं, वैसे ही पार्वती को देखकर शंकर जी का मन जल के समान निर्मल हो गया। वधूमुखं क्लान्त यवावतंसमाचार धूम ग्रहणाद्बभूव। 7/82 उस हवन के गरम धुंए से पार्वती जी के कानों पर धरे हुए जवे धुंधले पड़ गए। For Private And Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 555 कुमारसंभव वाचस्पतिः सन्नपि सोऽष्टमूर्ती त्वा शास्यचिन्ता स्तिमितो बभूव। 7/87 वाणी के स्वामी होते हुए भी उनकी यह समझ मे नहीं आया कि सब इच्छाओं से परे रहने वाले शंकर जी को हम क्या आशीर्वाद दें। तस्यपश्यति ललाट लोचने मोघयलविधुरा रहस्य भूत। 8/7 शिवजी भी ऐसे गुरु थे कि झट अपना तीसरा नेत्र खोल लेते और ये हार मान कर बैठ जाती। भाव सूचितमदृष्ट विप्रियं दाढर्य भाक्क्षणवियोगकातरम्। 8/15 जो कहीं क्षण भर के लिए भी एक-दूसरे से अलग हुए कि बस तड़पने लगते। अस्वम् 1. अस्वम् :-बाण। असंभृतं मण्डनमंगयष्टेरनासवास्वम् करणं मदस्य। 1/31 ऐसा बाण मारा जो मदिरा के बिना ही मन को मतवाला बना देता है। 2. इषु :-[पुं० स्त्री०] [इष्यति गच्छतीति । इष्+उ] बाण। सच त्वदेकंषुनिपात साध्यो बहमाङ्गभूबॉणि योजितात्मा। 3/15 इसलिए मंत्र के बल से ब्रह्म में ध्यान लगाए हुए महादेव जी की समाधि तुम्ही अपने एक बाण से तोड़ सकते हो। 3. वज्र :-पुं० क्ली० [वजतीति, वज् गतौ+'ऋन्द्रा ग्रवज्रविप्रेति' रन् प्रत्ययेन निपातितः] वज्र, बाण। प्रसीद विश्राम्यतु वीर वज्रं शरर्मदीयैः कतमः सुरारिः। 3/9 हे वीर! आप चिन्ता छोड़कर अपने वज्र को भी विश्राम कर लेने दें। आप मुझे बताइए कि वह कौन सा दैत्य है। वजं तपोवीर्य महत्सु कुष्ठं त्वं सर्वतो गामिच साधकं च। 3/12 शत्रुओं की तपस्या ने हमारे वज्र की धार उतार दी है। अब तुम्हीं ऐसे बच रहे हो, जो बेरोक-टोक सब ओर जा भी सकते हो और हमारा काम भी कर सकते हो। अहन् 1. अहन् :-क्ली० [न जहाति त्यजति सर्वथा परिवर्तनं न+हा+ कनिन् न०त०] दिन, दिवस। For Private And Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org 556 कालिदास पर्याय कोश पशुपतिरपि तान्यहानि कृच्छ्रादगमयद्रिसुतासमागमोत्कः । 6/95 पार्वती जी से मिलने के लिए इतने उतावले हो गए, कि तीन दिन भी उन्होंने बड़ी कठिनाई से काटे । स्थानमाह्निकमपास्य दन्तिनः सत्नकीविटपभंगवासितम्। 8/33 सई के वृक्षों से जहाँ गन्ध फैल गई है और जहाँ हाथी दिन में रहा करते थे । 2. दिवस : - [ दीव्यतेऽत्र दिव्+असच् क्विच] दिन, दिवस । कैश्चिदेव दिवसैस्तथा तयोः प्रेमगूढमितरेतराश्रयम् । 8/15 थोड़े ही दिनों में दोनों की चाल-ढाल से यह पता चलने लगा कि अब ये बहुत घुल-मिल गए हैं। अस्तमेति युगभग्न केसरैः संनिधाय दिवस महोदधौ । 8 / 42 दिन को समुद्र में डुबोकर और अपने उन घोड़ों को लिए हुए सूर्य अस्ताचल की ओर चले जा रहे हैं । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ईश्वरोऽपि दिवसात्ययोचितं मन्त्रपूर्व मनु तस्थिवान्विधिम् । 8 /50 मंत्रों के साथ अपनी संध्या पूरी करके महादेव जी उन पार्वती के पास पहुँचे । यामिनीदिवस संधि संभवे तेजसि व्यवहिते सुमेरुणा । 8/55 सूर्यास्त हो जाने से रात और दिन का मेल कराने वाली साँझ का सब प्रकाश सुमेरु पर्वत के बीच में आ जाने से जाता रहा। 3. दिवा : - [ अव्यय ] [ दिव्+का] दिन, दिवस । दिवाकराद्रक्षति यो गुहासु लोनं दिवाभीतमिवान्धकारम्। 1/12 हिमालय की लम्बी गुफाओं में दिन में भी अंधेरा छाया रहता है, ऐसा लगता है मानो अँधेरा भी दिन से डरने वाले उल्लू के समान इसकी गहरी गुफाओं में जाकर दिन में छिप जाता है । स्वकाल परिमाणेनं व्यवसतरात्रिंदिवस्य ते। 2/8 आपने समय की जो माप बन रखी है, उसके अनुसार जो दिन-रात होते हैं। दिवापि निष्ठ्यूत मरीचि भासा बाल्यादनाविष्कृत लाञ्छनेन । 7/35 जो चन्द्रमा दिन में भी अपनी किरणें चमकाता था और जिसके छोटे होने के कारण उसमें कलंक दिखाई नहीं देता था । स प्रिया मुखरसं दिवानिशं हर्ष वृद्धि जननं सिषेविषुः । 8/90 प्रियतमा के सुख बढ़ाने वाले ओठों का रस दिन रात-पीने की इच्छा करने वाले शिवजी की यह दशा हो गई। For Private And Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 557 प्रासादशृंगाणि दिवापि कुर्वज्योत्स्नाभिषेक द्विगुणद्युतीनि। 7/63 उन चूने से पुते हुए उजले भवनों व कंगूरों को अपने सिर के चन्द्रमा की चाँदनी से और भी अधिक चमकाते हुए। 4. वासर :-पुं०, क्ली० [सुखं वास यति जनान् वास्+ अर] दिन, दिवस। वासराणि कतिचित्कथंचन स्थाणुना रतमकारि चानया। 8/13 कुछ दिनों तक तो महादेव जी ज्यों-त्यों करके पार्वती जी से संभोग करते रहे। आकाश 1. अंतरिक्ष :-[अन्तः स्वर्गपृथिव्योर्मध्ये ईश्यते-इति-अन्तर+ईक्ष+घञ् पृषो, हस्वः वा] व्योम, आकाश। मुखैः प्रभामण्डल रेणु गौरेः पद्माकर चकुरिवान्तरीक्षम्। 7/38 उस समय उनके मुँह आकाश में ऐसे लग रहे थे, मानो किसी तालाब में बहुत से कमल खिल गए हों। 2. आकाश :-[आ+का+घञ्] आकाश, स्वर्ग, गगन। इति देहविमुक्तये स्थितां रतिमाकाश भवा सरस्वती । 4/39 अचानक सुनाई पड़ने वाली आकाशवाणी ने भी प्राण छोड़ने को उतारू रति पर यह कृपा की वाणी बरसा दी। ते चाकाश मसिश्याममुत्पत्य परमर्षयः। 6/36 वे ऋषि कृपाण के समान नीले आकाश में उड़ते हुए औषधिप्रस्थ नगर में पहुँच गए। 3. ख :-[खर्व+ड] आकाश, स्वर्ग, शून्य। क्रोधं प्रभो संहर संहरेति यावद् गिरः खेमरूतां चरन्ति। 3/72 यह देखते ही एक साथ सब देवता आकाश में चिल्ला उठे-हैं, हैं रोकिये, रोकिये अपने क्रोध को प्रभु। सिद्धं चास्मै निवेद्यार्थ तद्विसृष्टाः खमुद्ययुः। 6/94 सब ठीक हो गया है और फिर उनसे आज्ञा लेकर, वे आकाश में उड़ गए। खे खेलगामी तमुवाह बाहः सशब्द चामीकर किंकिणीकः। 7/49 बड़ी-मीठी चाल से चलने वाला और अपने गले में सोने की छोटी-छोटी घंटियों को टनटनाता हुआ, वह बैल। For Private And Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 558 कालिदास पर्याय कोश खं हृतातपजलं विवस्वता भाति किंचिदिव शेषवत्सरः। 8/37 देखो ! सूर्य ने आकाश से धूप का पानी खींच लिया है, पश्चिम में कुछ-कुछ उजाला रहने से ऐसा लग रहा है, कि उधर अभी थोड़ा-थोड़ा पानी बचा रह गया गगन :-गच्छनस्मिन-गम्+ल्युट्, ग आदेशः] आकाश, व्योम। गगनादवतीर्णा सा यथा वृद्ध पुरस्सरा। 6/49 आकाश से एक-एक करके उतरते हुए वे मुनि। 5. नभ :-[नभ्+अच्] आकाश। निकामतप्ता विविधेन वह्निना नभश्चरेणेन्धन संभृतेन सा। 5/23 ईधन की आग तथा सूर्य की गर्मी से तपे हुए पार्वती जी के शरीर से भाप निकल उठी। पश्य पार्वति नवेन्दुरश्मिभिर्भिन्न सान्द्र तिमिरं नभस्तलम्। 8/64 हे पार्वती! उठे हुए चन्द्रमा की किरणों से अँधेरा मिट जाने पर आकाश ऐसा जान पड़ रहा है। 6. व्योम :-क्ली० [व्ये+मनिन्, पृषो०] आकाश, अन्तरिक्ष। ते प्रभा मण्डलै फ्रेमद्योत यन्तस्तपोधनाः। 6/4 स्मरण करते ही अपने तेजोमण्डलों से उजाला करते हुए तपस्वी। व्योम गंगा प्रवाहेषु दिङ् नाग मद गन्धिषु। 6/5 जिन्होनें उस आकाश गंगा में स्नान कर रखा था, जिसके जल में दिग्गजों के मद की सुगन्ध आया करती थी। _ आज्ञा 1. अनुज्ञा :-[अनु+ज्ञा+अङ्, ल्युट, वा] आज्ञा, आदेश। अथानुरूपाभिनिवेशतोषिणा कृताभ्यनुज्ञा गुरुणा गरीयसा। 5/7 जब हिमालय ने समझ लिया कि पार्वती जी अपनी सच्ची टेक से डिगेंगी नहीं, तब उन्होंने उन्हें तप करने की आज्ञा दे दी। 2. आज्ञा :- [आ+ज्ञा+अ+टाप्] आदेश, हुकुम। आज्ञापाय ज्ञातविशेष पुंसां लोकेषु करणीयमस्ति। 3/3 सबके गुणों को पहचानने वाले हे स्वामी ! आप आज्ञा दीजिए, तीनों लोकों में ऐसा कौन सा काम है, जो आप मुझसे कराना चाहते हैं। For Private And Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra कुमारसंभव www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तथेतिशेषामिव भर्तुराज्ञामादाय मूर्ध्ना मदनः प्रतस्थे । 3/22 कामदेव बोला- जैसी आज्ञा । जैसे कोई उपहार में दी हुई माला लेकर सिर पर चढ़ा लेता है, वैसे ही कामदेव ने इन्द्र की आज्ञा सिर चढ़ा ली। आतप 559 3. नियोग : - [ नि+युज्+घञ् ] आज्ञा, आदेश । गुरोर्नियोगाच्च नगेन्द्रकन्या स्थाणुं तपस्यन्तमधिपत्यकायाम्। 3/17 पार्वती जी अपने पिता की आज्ञा से हिमालय पहाड़ पर तप करते हुए, शंकर जी की सेवा कर रही हैं । 1. आतप : - [ आ + तप्+घञ् ] गर्मी, धूप । हीयमानमहरत्यातपं पीवरोरु पिवतीव बर्हिणः । 8/36 यहाँ बैठा हुआ सांझ ही सब धूप पी रहा हो और उसी से दिन ढलता जा रहा हो। पश्य धातु शिखरेषु भानुना संविभक्त मिव सांधयमातपम्। 8/46 रंगीन धातु वाली हिमालय की चोटियों को देखने से ऐसा जान पड़ रहा है, कि अस्त होते सूर्य ने अपनी लाल धूप इन सबको बाँट दी है। 2. धूप : - [ धूप् + अच्] गर्मी । धूपोष्मणा त्याजितमार्द्र भावं केशान्त मन्तः कुसुमं तदीयम् । 7/14 किसी ने तो अगर-चन्दन के धुएँ से उनके बाल सुखाकर बालों मे फूल गूँथे । आत्मजा For Private And Personal Use Only 1. आत्मजाः - [ अत् मनिण्+जा ] पुत्री । सोऽनुमान्य हिमवन्तमात्मभूरात्मजा विरह दुःख खेदितम् । 8 / 21 तब उन्होंने हिमालय से जाने की आज्ञा माँगी। कन्या को अपने से अलग करने में हिमालय को दुःख तो बहुत हुआ, पर उसने बिदा दे दी। 2. कन्या : - [ कन्+ यक्+टाप ] पुत्री । स मानसीं मेरूसखः पितॄणां कन्यां कुलस्य स्थितये स्थितिज्ञः । 1/18 सुमेरू के मित्र और मर्यादा जानने वाले हिमालय ने अपना वंश चलाने के लिए मेना नाम की उस कन्या से शास्त्र के अनुसार विवाह किया। अथावमानेन पितुः प्रयुक्ता दक्षस्य कन्या भूतपूर्व पत्नी । 1/21 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 560 कालिदास पर्याय कोश महादेव जी की पहली पत्नी और दक्ष की कन्या परमसाध्वी सती ने अपमानित होने के कारण। तां नारदः कामचरः कदाचित्कन्यां किल प्रेक्ष्य पितुः समीपे। 1/50 नारद जी एक दिन घूमते घामते हिमालय के यहाँ पहुँचे, तो क्या देखते हैं कि हिमालय के पास उनकी कन्या भी बैठी हुई है। एते वयमी दाराः कन्येयं कुल जीवितम्। 6/63 ये मेरी स्त्रियाँ है और यह मेरे घर भर की प्यारी कन्या है। प्रायेण गृहिणी नेत्राः कन्यार्थेषुकुटम्बिनः। 6/85 जब कभी कन्या के सम्बन्ध की कोई बात होती है, तो गृहस्थ लोग अपनी स्त्रियों से ही सम्मति लिया करते हैं। भाति के सरवतेव मण्डिता बन्धुजीवतिलकेन कन्यका। 8/40 उस कन्या के समान लग रही है, जिसने अपने माथे पर केसर से भरे हुए बन्धु जीव के फूल का तिलक लगा रखा हो। साध्व सादुपगत प्रकम्पया कन्ययेव नवदीक्षया वरः। 8/73 जैसे नई-नई बहू पहली बार संभोग के डर से काँपती हुई अपने पति के पास जाती है। 3. तनया :-[तनोति विस्तारयति कुलम्+तन्+ कयन्] पुत्री, सुता। कथंचिददेस्तनया मिताक्षरं चिरव्यवस्थापित वागभाषत। 5/63 पार्वती जी बड़े नपे तुले अक्षरों में, किसी-किसी प्रकार बोलीं। एतावदुक्त्वा तनया मृषीनाह महीधरः। 6/89 अपनी पुत्री से इतना कहकर वे ऋषियों से बोले। 4. तनुजा :-[तन्+उ+जा] पुत्री। आराधनायास्य सखीसमेतां समादिदेश प्रयतां तनूजाम्। 1/58 फिर अपनी कन्या को आज्ञा दी कि, अपनी सखियों के साथ जाकर शिव जी की पूजा करो। 5. दुहिता :-स्त्री० [दोग्धि विवाहादिकाले धनादि कमाकृस्य गृहणातीति] पुत्री। तथा दुहित्रा सुतरां सावित्री पुरत्प्रभामण्डलया चकासे। 1/24 तेजोमण्डल से भरे मुख वाली उस कन्या को गोद में पाकर, मेना भी खिल उठीं। सते दुहितरं साक्षात्साक्षी विश्वस्य कर्मणाम्। 6/78 For Private And Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 561 संसार भर के कामों को देखने वाले शंकर जी ने स्वयं अपने लिए, आपकी पुत्री पार्वती मांगी है। तन्मातरं चाश्रुमुखीं दुहितृस्नेह बिक्लवाम्। 6/92 मेना अपनी पुत्री के स्नेह में इतनी अधीर हो गईं कि उनकी आँखें डबडबा आईं। तमेव मेना दुहितुः कथंचिद्विवाहदीक्षातिलक चकार। 7/24 किसी प्रकार उन्होंने [मेना ने] अपनी पुत्री के माथे पर विवाह का तिलक कर दिया। 6. वत्स :-[वद्+स:] पुत्री, वत्स, पुत्र।। मनीषिताः सन्ति गृहेषु देवतास्तपः क्व वत्से क्वच तावकं वपुः। 5/4 वत्से! तुम्हारे घर में ही इतने बड़े-बड़े देवता हैं कि तुम जो चाहो माँग लो। बताओ कहाँ तो तपस्या और कहाँ तुम्हारा कोमल शरीर। एहि विश्वात्मने वत्से भिक्षासि परिकल्पता। 6/88 यहाँ आओ वत्से ! देखो, घर-घर में रमने वाले शिव जी ने मुझसे तुम्हें माँगा है और वह भिक्षा लेने के लिए। वधू द्विजः प्राहह तवैष वत्से वह्निर्विवाहं प्रतिकर्म साक्षी। 7/8 तब पुरोहितजी ने पार्वती जी से कहा कि हे वत्स! यह अग्नि तुम्हारे विवाह का साक्षी है। आनन 1. आनन :-[आ+अन्+ल्यूट्] मुँह, मुख। यथा प्रसिद्धैर्मधुरं शिरोरुहर्जटाभिरष्येवम भूत्तदाननम्। 5/9 जटा रख लेने पर भी उनका मुख वैसा ही प्यारा लगता था, जैसा पहले सजी हुई चोटियों से लगता था। तदाननश्रीरलकैः प्रसिद्धैश्चिच्छेद सादृश्यकथा प्रसंगम्। 7/16 कोई भी ऐसा न दिखाई दिया जो उनके गुंथी हुई चोटियों वाले मुख की सुन्दरता के आगे ठहर सके। तया प्रवृद्धानन चन्द्रकान्त्या प्रफुल्लचक्षुः कुमुदः कुमार्या। 7/74 अत्यन्त चमकते हुए चन्द्रमा के समान मुखवाली पार्वती को देखकर शंकर जी के नेत्र रूपी कुमुद खिल गए। For Private And Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 562 कालिदास पर्याय कोश सा दृष्ट इत्याननमुन्नमय्य द्दीसन कण्ठी कथमप्युवाच। 7/85 तब पार्वती जी ने ऊपर मुँह उठाकर, बहुत लजाते हुए किसी-किसी प्रकार इतना कहा-हाँ, देख लिया। आननेन न तु तावदी श्वरश्चक्षुषा चिरमुमामुखं पपौ। 8/80 पार्वती जी के उस मुख को शंकर जी ने अपने मुंह से चूमा नहीं, वरन् बहुत देर तक अपनी आँख से ही उनकी सुन्दरता को पीते रहे। 2. मुख :-[खन्+अच्, डित् धातोः पूर्व मुट् च] मुँह, मुख यः पूरयन्की चक रन्ध्र भागान्दरी मुखोत्येन समीरणेन। 1/8 इस पहाड़ पर ऐसे छेद वाले बाँस बहतायत से होते हैं, जो वायु भर जाने पर बजने लगते हैं। तेषामा विस्मूद ब्रह्मा परिम्लान मुखश्रियाम्। 2/2 जब उदास मुँह वाले देवताओं के सामने ब्रह्मा जी उसी प्रकार प्रकट हुए। लग्नद्विरेफाञ्जन भक्ति चित्रं मुखे मधुश्री स्तिलकं प्रकाश्य। 3/30 भौरे रूपी आँजन से अपने मुँह चीतकर, अपने माथे पर तिलक के फूल का तिलक लगाकर। हिम व्यापाया द्विशदाधराणामापाण्डरीभूत मुखच्छवीनाम्। 3/33 जाडे के बीतने और गर्मी के आ जाने से कोमल ओठों और सुन्दर गोरे मुखों वाली। पुष्पासवाघूर्णितनेत्रशोभि प्रिया मुखं किं पुरुषरश्चुचुम्ब। 3/38 किन्नर लोग गीतों के बीच अपनी प्रियाओं के वे मुख चूमने लगे, जिनके नेत्र फूलों की मदिरा से मतवाले होने के कारण बड़े लुभावने लग रहे थे। कामस्तु बाणा वसरं प्रतीक्ष्य पतंगवद्वह्नि मुखं विविक्षः। 3/64 जैसे काई पतंगा आग में कूदने को उतावला हो, वैसे ही कामदेव ने भी सोचा कि बस बाण छोड़ने का यही ठीक अवसर है। उमामुखे बिम्बफलाधरोष्ठे व्यापारयामास विलोचनानि। 3/67 पार्वती जी के मुख के बिम्बा के समान लाल-लाल ओठों पर, अपनी ललचाई आँखें डालने लगे। तपः परामर्शविवृद्ध मन्योर्धभंग दुष्प्रेक्ष्य मुखस्य तस्य। 3/71 अपने तप में बाधा डालने वाले कामदेव पर महादेव जी को इतना क्रोध आया, कि उनकी चढ़ी भौंहों के बीच में नेत्र देखा नहीं जाता था। For Private And Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 563 कुमारसंभव तथातितप्तं सवितुर्गभस्तिभिर्मुखं तदीयं कमल श्रियं दधौ। 5/21 इस प्रकार तप करते रहने पर भी उनका मुर्ख सूर्य की किरणों से तपकर कुम्हलाया नहीं, वरन् कमल के समान खिल उठा। अपि शयन सखीभ्यो दत्तवाचं कथंचित् प्रमथमुख विकारैह्रासयामास गूढम्। 7/95 सखियों की चुटकियों का ज्यों-त्यों उत्तर देने वाली पार्वती जी के आगे आकर, जब प्रमथ आदि गण अनेक प्रकार के मुँह बनाने लगे, तो पार्वती जी भी मन ही मन हँस दी। आननेन न तु तावदीश्वरश्चक्षुषा चिरमुमा मुखं पपौ। 8/80 पार्वती जी के उस मुख को शंकर जी ने अपने मुँह से चूमा नहीं, वरन् बहुत देर तक अपनी आँख से ही उनकी सुन्दरता को पीते रहे। 3. वदन :-[वद्+ल्युट्] मुख। वदनम पहरन्तीं तत्कृताक्षेपमीशः। 7/95 हाथ से आँचल खींचे जाने पर अपना मुँह छिपाने वाली। उच्छ्वसत्कमलगन्धये ददौ पार्वती वदन गन्धवाहिने। 8/19 तब खिले हुए कमल की गंध वाले पार्वती जी के मुँह की फूंक पाने के लिए वे अपना नेत्र उठाकर उनके मुंह तक पहँचा देते। मन्दरस्य कटकेषु चावसत्पार्वती वदन पद्मषट्पदः। 8/23 पार्वती जीके मुखकमल का रस लेने वाले महादेव जी वहाँ से चलकर मन्दराचल की उस ढाल पर पहुंचे। सा बभूव वशवर्तिनी द्वयोः शूलिन: सुवदना मदस्य च। 8/79 मदिरा पीने से सुन्दर मुख वाली पार्वती जी ऐसी मद में चूर होकर शंकर जी के गोद में गिरी। आम्र 1. आम्र :-पुं० [अम्यते अम् गत्या दौ, अमितादीर्घश्चेतिरक् दीर्घश्च], आम। अप्रतयं विधियोग निर्मितामान तेव सहकारतां ययौ। 8/78 जैसे वसन्त में ब्रह्मा की कृपा से आम का पेड़ अधिक सुगन्धित होकर सहकार बन जाता है। For Private And Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 564 कालिदास पर्याय कोश 2. चूत :-पुं० [चूष्यते पीयते इति। चूष् कर्मणि क्त] आम। सद्यः प्रवालोद्गम चारुपत्रे नीते समाप्तिं नवचूत बाणे। 3/27 सुन्दर बसन्त ने नई कोपलों के पंख लगाकर, आम की मंजरियों के बाण तैयार कर दिए। चूत यष्टि रिवाभ्याशे मघौ परभृतोन्मुखी। 6/2 जैसे कोयल की बोली में वसन्त के पास अपना संदेश भेजती हुई आम की डाली शोभा देती है। 3. सहकार :-पु० [सह युगपत् कारयति विक्षेपयति सौगन्ध्यमिति] सह-कृ+ णिच्+अच्] आम। निवपे: सहकार मंजरी: प्रिय चूत प्रसवो हिते सखा। 4/38 पत्तों वाली आम की मंजरी अवश्य देना, क्योंकि तुम्हारे मित्र को आम की मंजरी बहुत प्यारी थी। अप्रतयं विधियोग निर्मितमाम्रतेव सहकारतां ययौ। 8/78 जैसे वसन्त में ब्रह्मा की कृपा से आम का पेड़ अधिक सुगंधित होकर सहकार बन जाता है। आयुध 1. आयुध :-पुं० [आयुध्यते अनेनेति।आ+युध्+क] बाण, वज्र, अस्त्र, धनुष। प्रशमादर्चिषा मेतदनुद्गीर्ण सुरायुधम्। 2/20 इन्द्रधनुष के समान चमकीला वज्र भी। 2. चाप :-पुं० क्ली० [चपस्य वंशविशेषस्य विकारः] धनु, धनुष । तां वीक्ष्य लीला चतुरामनङ्गः स्वचाप सौन्दर्य मदं मुमोच। 1/47 वे भौंहें इतनी सुन्दर थीं कि कामदेव भी अपने धनुष की सुन्दरता का जो घमण्ड लिए फिरते थे, वह इन भौंहों के आगे चूर-चूर हो गया। रतिवलय पदाङ्के चापमासज्य कण्ठे। 2/64 रति के कंगन की छाप पड़े हुए गले में सुन्दर धनुष कंधे पर लटकाकर। चापेन ते कर्मन चाति हिंस्त्र महो बतासि स्पृहणीय वीर्यः। 3/20 इस काम में तुम्हारा धनुष काम आवेगा सही, पर इससे किसी की हिंसा नहीं होगी। For Private And Personal Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 565 ददर्श चक्रीकृत चारुचापं प्रहर्तुमभ्युद्यत मात्मयोनिम्। 3/70 शंकर जी देखते क्या हैं कि अपने धनुष को खींचकर गोल किये हुए कामदेव मुझ पर बाण चलाने ही वाला है। 3. बाण :-पुं० [बणनं बाणः शब्दस्तदस्यास्तीति बाण+अच्] बाण, तीर, अस्त्र। संमोहनं नाम च पुष्पधन्वा धानुष्यमोघं समधत्त बाणम्। 3/66 कामदेव ने भी सम्मोहन नाम का अचूक बाण अपने धनुष पर चढ़ा लिया। 4. शिलीमुख :-पुं० [शिलीव मुखं यस्य] भ्रमर, मधुकर, बाण । असह्यहुंकार निवर्तितः पुरा पुरारिम प्राप्त मुखः शिलीमुखः। 5/54 उस समय कामदेव ने शिवजी के ऊपर जो बाण चलाया था, वह उस समय तो उनकी हुँकार सुनकर ही लौट गया। 5. सायक :-पुं० [स्यति छिनतीति। षो+ण्वुल्+युक्] सायक, बाण। यावद् भवत्या हित सायकस्य मत्कार्मुकस्यास्य निदेशवर्ती। 3/4 आप मुझे उसका नाम भर बता दीजिए फिर तो मैं अभी जाकर उसे अपने इस बाण चढ़े हुए धनुष से जीते लाता हूँ। तस्यानु मेने भगवान्वि मन्युापारमात्मन्यपि सायकानाम। 7/93 प्रसन्न मन वाले शंकर जी ने कहा-अच्छी बात है, अब कामदेव से कह दो कि वह जी भरकर हम पर बाण चलावे। आलय 1. आलय :-पुं० [आलीयते अस्मिन् । आ+ली+अधिकरणे अच] गृह, घर। अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः। 1/1 भारत के उत्तर में देवता के समान पूजनीय हिमालय नाम का बड़ा पहाड़ है। केयूर चूर्णी कृतलाजमुष्टिं हिमालयस्यालयमाससाद। 7/69 वहाँ से वे हिमालय के भवन की उस भीतर की कोठरी में पहुँचे, जहाँ ब्रह्मा जी पहले से बैठे हुए थे। गणाश्च गिर्यालयमभ्य गच्छन्प्रशस्तमारम्भमिवोत्तमार्थाः। 7/71 सभी गण हिमलाय के घर में उसी प्रकार पैठे, जैसे किसी काम के ठीक-ठीक आरम्भ हो जाने पर उसके पीछे और भी बहुत से बड़े-बड़े काम सध जाते हैं। 2. गृह :-[ग्रह+क] गृह, घर, मकान, निवास स्थान। For Private And Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 566 कालिदास पर्याय कोश मनीषिताः सन्ति गृहेषु देवतास्तपःक्व वत्से क्वच तावकं वपुः। 5/4 वत्से! तुम्हारे घर मे ही इतने बड़े-बड़े देवता हैं कि तुम जो चाहो उनसे माँग लो। बताओ कहाँ तो तपस्या और कहाँ तुम्हारा कोमल शरीर। गृह यन्त्र पताकाधीर पौरादरनिर्मिता। 6/41 मानो घरों पर डंडे खड़े करके उनमे झंडियाँ बाँध दी गई हों। वैवाहिकैः कौतुक संविधानै गुहे गृहे व्यग्रपुरंधिवर्गम्। 7/2 उस नगर के घर-घर में सब स्त्रियाँ बड़ी धूम-धाम के साथ विवाह का उत्सव मना रही थीं। 3. प्रासाद :-पुं० [प्रसीदन्त्यस्मिन्नित। प्रसिद्+हलश्च इत्यधिकरणे करणे घञ्] मकान, भवन, महल। प्रासादमालसु बभूवुरित्थं त्यक्तान्यकार्याणि विचेष्टितानि। 7/56 नगर की सब सुन्दरियाँ अपना-अपना सब काम काज छोड़कर अपने भवनों की छतों पर आ खड़ी हुईं। 4. हर्म्य :-क्ली० [हरति जनमनां सीति। ह+यत्+मुद् च] महल, भवन। यत्र स्फटिक हर्येषु नक्त मापान भूमिषु। 6/42 स्फटिक के भवनों में सजे हुए मदिरायल पर । आलि 1. आलि :-स्त्री० [आलि+ङीष्] सखी, वयस्या, सेतु। निवार्यतामालि किमाप्ययं बटुः पुनर्विवक्षुः स्फुरितोत्तराधरः। 5/83 यह देखकर वे अपनी सखी से बोलीं-देखो सखी! इन ब्रह्मचारी के ओठ फड़क रहे हैं। ये फिर कुछ कहना चाहते हैं। एवमालि निगृहीत साध्वसं शंकरो रहसि सेव्यतामिति। 8/5 पार्वती जी की सखियाँ इन्हें सिखाया करती थीं, कि देखो सखी तुम डरना मत जैसे-जैसे हम सिखाती हैं, वैसे ही वैसे अकेले में शंकर जी के पास रहना। 2. सखि :-स्त्री० [सख्यशिश्वीति भाषायाम्' इति ङीष] सखी। रेमे मुहुर्मध्यगता सखीनां क्रीडारसं निर्विशतीव बाल्ये। 1/29 पार्वती जी का अपनी सखियों के साथ खेलते-कूदते पूरा बचपन बीत गया। तस्याः सखीभ्यां प्रणिपातपूर्वं स्वहस्तलूनः शिशिरात्ययस्य। 3/61 For Private And Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 567 पहले पार्वती जी की दोनों सखियों ने शंकर जी को प्रणाम किया और अपने हाथ से चुने हुए। कदाचिदासन्नसखी मुखेन सा मनोरथज्ञं पितरं मनस्वनी। 5/6 हिमालय तो पार्वती जी के मन की बात जानते ही थे। इसी बीच एक दिन पार्वती जी ने अपनी प्यारी सखी से कहलाकर। यथा तदीयर्न यनैः कुतूहलात्पुरः सखीनाम मिमीत लोचने। 5/15 कभी-कभी मन बहलाव के लिए अपनी सखियों के आगे उन्हें लाकर, वे उन हरिणों के नेत्रों से अपने नेत्र मापा करती थीं। सखी तदीया समुवाच वर्णिनं निबोध साधो तवचेत्कुतूहलम्। 5/52 तब पार्वती जी की सखी उस ब्रह्मचरी से बोली-हे साधु, यदि आप सुनना ही चाहते हैं, तो मैं बताती हूँ। रात्रिवृत्तमनु योक्तुमुद्यतं सा प्रभात समये सखीजनम्। 8/10 जब इनकी सखियाँ इनसे रात की बातें पूछने लगीं। त्वं मया प्रियसखी समागता श्रोष्यतेव वचनानि पृष्ठतः। 8/59 मैं तुम्हारे पीछे आकर तुम लोगों की बात उस समय सुनता हूँ, जब तुम अपनी सखियों के साथ बैठकर बातें करती हो। आश्रम 1. आश्रम :- पुं०, क्ली० [आ+श्रम्+घञ्] आश्रम। विवेश कश्चिज्जटिलस्तपोवनं शरीर बद्धः प्रथमाश्रमो यथा। 5/3 गठीले शरीर वाला एक जटाधारी ब्रह्मचारी उस तपोवन में आया, वह ऐसा जान पड़ता था मानो साक्षात् ब्रह्मचर्याश्रम ही उठा चला आ रहा हो। आश्रमाः प्रविशदग्धेनवो बिभ्रति श्रियमुदीरिताग्नयः। 8/3 लौटकर आती हुई सुन्दर गौओं से और हवन की जलती हुई अग्नि से, ये आश्रम कैसे सुहावने लग रहे हैं। 2. तपोवन :-आश्रम। नवोट जाभ्यन्तरसंभृतानलं तपोवनं तच्च बभूव पावनम्। 5/17 वहाँ नई पर्णकुटी में सदा हवन की अग्नि जलती रहा करती थी। इन सब बातों से वह तपोवन बड़ा पवित्र हो गया था। For Private And Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achary 568 कालिदास पर्याय कोश विवेश कश्चिज्जटिलस्तपोवनंशरीर बद्धः प्रथमाश्रमो यथा । 5/30 गठीले शरीर वाला एक जटाधारी ब्रह्मचारी उस तपोवन में आया। वह ऐसा जान पड़ता था, मानो साक्षात् ब्रह्मचर्याश्रम ही उठा चला आ रहा हो। तदा सहास्माभिरनुज्ञया गुरोरियं प्रपन्ना तपसे तपोवनम्। 5/50 ये अपने पिता की आज्ञा लेकर, हम लोगों के साथ तप करने के लिए यहाँ तपोवन में चली आईं। आसन 1. आसन :-क्ली० [आस्यतेउपविश्यतेऽस्मिन् । आस्+अधि करणे+ल्युट्] आसन। स वासवेनासन संनिकृष्टमितो निषीदेति विसृष्टभूमिः। 3/2 इन्द्र ने कामदेव से कहा-आओ यहाँ बैठो। यह कहकर अपने पास ही बैठा लिया। तत्र वेत्रासनासीनान्कृतासन परिग्रहः।। 6/53 हिमालय ने इन ऋषियों को बेंत के आसनों पर बैठा दिया। क्लृप्तोपचारां चतुरस्रवेदी तावेत्य पश्चात्कनकासनस्थौ।। 7/88 वहाँ से महादेवजी और पार्वतीजी फूलों से सजे हुए चौक में लाए गए और सोने के आसन पर बैठा दिए गए। 2. विष्टर :- [वि+स्तृ+अप्, षत्वम्] आसन। तत्रेश्वरो विष्टर भाग्यथा वत्सरत्नमयं मधुमच्च गव्यम्।। 7/72 वहाँ आसन पर महादेवजी को बैठाकर हिमलय ने रत्न, अर्ध्य, मधु, दही और नए वस्त्र दिए। 1. इन्द्र :-[इन्द+रन्, इन्दतीति इन्द्रः, इदिऐश्वर्ये ] इन्द्र। अनुकूलयतीन्द्रोऽपि कल्पदुम विभूषणैः।। 2/39 इन्द्र भी अपने दूतों के हाथ कल्पवृक्ष के सुन्दर रत्न उसके पास भेजकर उसे प्रसन्न रखा करते हैं। देह बद्धमिवेन्द्रस्य चिरकालार्जितं यशः। 2/47 जो बहुत दिनों से इकट्ठा किए हुए इन्द्र के यश के समान ही महान् था। For Private And Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 569 ऐरावता स्फलानकर्कशेन हस्तेन पस्पर्श तदङ्गमिन्द्रः। 3/22 जब वह चलने लगा, तब इन्द्र ने उसकी पीठ पर अपना वह हाथ फेरकर उसे उत्साहित किया, जो ऐरावत को अंकुश लगाते-लगाते कड़ा पड़ गया था। तमन्वगिन्द्र प्रमुखाश्च देवाः सप्तर्षिपूर्वाः परमर्षयश्च। 7/71 उनके पीछे-पीछे इन्द्र आदि देवता, सप्तर्षियों के साथ सब महर्षि और। 2. गौत्रभित :-इन्द्र। गोप्तारं सुर सैन्यानां यं पुरस्कृत्य गोत्रभित्। 2/52 जिसे देवताओं की सेना का रक्षक बनाकर और उसे सेना के आगे करके भगवान् इन्द्र। 3. तुरासाह :-पुं० [तुरं वेगवन्तं साहयति अभिभवतीति । तुर+सह-णिच्+क्विप्] इन्द्रा तुरासाहपुरोधाय धाम स्वयंभुवं ययुः। 2/1 वे सब इन्द्र को आगे करके ब्रह्मा जी के पस पहुँचे। 4. दिवौकस :-इन्द्र, देवता। प्रासादाभिमुखो वेधाः प्रत्युवाच दिवौकसः। 2/16 दयालु ब्रह्माजी जिस समय देवताओं से बोलने लगे। पुरुहूत :-[पुरु प्रचुरं हूत मह्वानं यज्ञेषुयस्य] इन्द्र। तं लोकपालः पुरुहूत मुख्याः श्रीलक्ष्णोत्सर्गविनीत वेषाः। 7/4 वहाँ अपना राजषी ठाठ छोड़कर और विनीत वेश बनाकर इन्द्र आदि लोकपाल, जब उनके दर्शन करने को आए। 6. पाक शासन :-पुं० [शास्तीति शास्+ ल्यु, ततः पाकस्य तदाख्या, प्रसिद्धस्य असुरस्य शासनः शास्ता] इन्द्र। तत्र निश्चित्य कंदर्पगमत्पाकशासनः। 2/63 वहाँ इन्द्र ने भली-भाँति सोच-विचारकर कामदेव को स्मरण किया। 7. मघोन :-[मह्यते पूज्यते इति] इन्द्र। तस्मिन्मघोनस्त्रिदशान्विहाय सहस्रमक्ष्मणां युगपत्पपात। 3/2 कामदेव के आते ही इन्द्र की सहस्रों आँखें देवताओं पर से हटकर, एक साथ आदर के साथ कामदेव की ओर घूम गईं। 8. महेन्द्र :-इन्द्र। For Private And Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achary 570 कालिदास पर्याय कोश इयं महेन्द्रप्रभृतीनिधिश्रियश्चतुर्दिगीशनवमत्य मानिनी। 5/53 महेन्द्र आदि बड़े-बड़े चारों दिगपालों को छोड़कर ये मानिनी उन महादेव जी से। 9. वासव :-पुं० [वसुदेव । प्रज्ञा द्यण] इन्द्र। गुरुं नेत्र सहस्त्रेण नोदयमास वासवः। 2/29 इन्द्र ने अपने सहस्र नेत्रों को इस प्रकार चलकार वृहस्पतिजी को बोलने के लिए संकेत किया। स वासवेनासनसनिकृष्ट मितो निषीदेति विसृष्ट भूमिः। 3/2 इन्द्र ने कामदेव से कहा-आओ यहाँ बैठो। यह कहकर उसे अपने पास ही बैठा लिया। 10. वृत्र :-पुं० [वृत्+ स्फयितञ्चि व ञ्चीति' रक्] [वृत + रक्] इन्द्र। क्रुदेऽपि पक्षिच्छिदि वृत्रशत्राववेदनाज्ञां कुलिश क्षतानाम्।। 1/20 जिसने पर्वतों के पंख काटने वाले इन्द्र के रुष्ट होने पर भी, उनके वज्र की चोट अपने शरीर को नहीं लगने दी। वृतस्य हन्तुः कुलिशं कुष्ठिता श्रीव लक्ष्यते।। 2/20 वृत्र को मारने वाला वज्र भी आज चमक खोकर कुण्ठित क्यों दिखाई दे रहा है। 11. वृत्रहण :-इन्द्र। कम्पेन म ः शतपत्रयोनिं वाचा हरिं वृत्रहणं स्मितेन। 7/47 शिवजी ने ब्रह्माजी की ओर सिर हिलाकर, विष्णुजी से कुशल मंगल पूछकर, इन्द्र की ओर मुस्कराकर। 12. शतमख :-पुं० [शतं मखा: यज्ञाः यस्य] इन्द्र। शतमख मुपतस्थे प्राञ्जलिः पुष्पधन्वा। 2/64 कामदेव हाथ जोड़कर इन्द्र के आगे आ खड़ा हुआ। 13. हर :-पुं० [हरति पापानीति । ह+अच्] इन्द्र । स द्विनेत्रं हरेश्चक्षुः सहस्त्रनयनाधिकम्। 2/30 जिनके दो नेत्रों में ही इन्द्र के सहस्र नेत्रों से भी बढ़कर देखने की शक्ति थी। ईक्ष 1. ईक्ष :-[ईक्षते, ईक्षित] दिखना, दिखाई देना, देखना। For Private And Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 571 दिवृक्षवस्तामृषयोऽभ्युपागमन्न धर्मवृद्धेषुवयः समीक्ष्यते।5/16 . क्योंकि जो धर्म का जीवन बिताने में बढ़े-चढ़े होते हैं, उनके लिए फिर यह नहीं देखा जाता कि छोटे हैं या बड़े। विजिता नेत्र प्रतिघातिनी प्रभा मनन्य दृष्टि: सवितारमैक्षतः। 5/20 चकाचौंध करने वाले सूर्य के प्रकाश को भी जीतकर, वे सूर्य की ओर एकटक होकर देखती रहने लगीं। अथो वयस्यां परिपार्श्ववर्तिनी विवर्तितानञ्जननेत्रमैक्षत्। 5/51 इसलिए अपने बिना काजल लगे नेत्र पास बैठी हुई सखी की ओर घुमाकर, उन्होंने उसे बोलने के लिए संकेत किया। तेषां मध्यगता साध्वी पत्युः पादार्पितेक्षणा।। 6/11 जिनके बीच में अपने पति वशिष्ठ जी के चरणों की ओर निहारती हुई सती अत्रि। शैलः संपूर्णकामोऽपि मेनामुखमुदैक्षत। 6/85 हिमालय स्वयं तो इससे सहमत थे, पर फिर भी उन्होंने इसका उत्तर पाने के लिए मेना की ओर देखा। तस्याः सुजातोत्पलपत्रकान्ते प्रसाधिकाभिनयने निरीक्षयथ। 7/20 सिंगार करने वाली स्त्री ने पार्वती जी की नीले कमल जैसी बड़ी-बड़ी और काली-काली आँखों में। व्रीडादमुं देवमुदीक्ष्य मन्ये संन्यस्त देहःस्वयमेव कामः। 7/67 कामदेव ही उनकी सुन्दरता को देखकर टीस के मारे स्वयं जल मरा। वीसितेन परिवीक्ष्य पार्वती मूर्धकम्पमयमुत्तरं ददौ। 8/6 पार्वतीजी बस अपनी आँखें ऊपर और सिर घुमाकर यह जता देती, कि मैं आपकी सब बातें मानती हूँ। नन्दने चिरमयुग्मलोचनः संस्पृहं सुरवधूभिरीक्षितः।। 8/27 नन्दन वन में अप्सराएँ महादेव जी की इस कला को बड़े चाव से निहारा करतीं। आकुलालकमरंस्त रागवान्प्रेक्ष्य भिन्न तिलकं प्रियामुखम्। 8/88 संवारे हुए केश इधर-उधर छितरा गए थे और उनका तिलक भी पुछ गया था। अपनी प्रियतमा के ऐसे मुख को देखकर प्रेमी भगवान शंकर मग्न हो उठे। 2. दृश :- भवा० पर० [दृश्यते, दृश्यति] दिखाई देना, देखना, दिखना। For Private And Personal Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 572 कालिदास पर्याय कोश आसीनमासन्न शरीर पातस्त्रियम्बकं संयमिनं ददर्श। 3/44 कामदेव देखता क्या है, कि महादेव जी समाधि लगाए बैठे हुए हैं। ददृशे पुरुषाकृति क्षितौ हरकोपानल भस्म केवलम्। 4/3 वह देखती क्या है, कि महादेवजी के क्रोध से जली हुई पुरुष के आकार की एक राख की ढेर सामने पृथ्वी पर पड़ी हुई है। भवत्यनिष्टादपिनामदुःसहान्मनस्विनीनां प्रतिपतिरीदृशी। विचार मार्ग प्रहितेन चेतसान दृश्यते तच्च क्लेशादरित्वयि ।। 5/42 कभी-कभी ऐसा होता है कि अपने बैरी से बदला लेने के लिए भी मानिनी स्त्रियाँ कठोर तपस्या कर बैठती हैं, पर जहाँ तक मैं समझता हूँ, ऐसी भी कोई बात आपके साथ नहीं है। न च प्ररोहाभिमुखोऽपिदृश्यते मनोरथोऽस्याः शशिमौलिसंश्रयः। 5/60 महादेवजी को पाने की जो इनकी साध थी, उसमें कभी अंकुवे भी नहीं फूट पाये। एकैव सत्यामपि पुत्रपंक्तौ चिरस्य दृष्टेव मृतोत्थितेव। 7/4 यद्यपि हिमालय के बहुत से पुत्र थे, फिर भी उस समय हिमालय और मेना दोनों को पार्वती जी ऐसी प्राण से बढ़कर प्यारी लग रही थीं, मानो अभी जीकर उठी हों। 3. लक्ष:-भ्वा० आ० [लक्षते लक्षित] देखना, दिखना। इति द्विजातौ प्रतिकूलवादिनि प्रवेपमानाधर लक्ष्य कोपया। 5/74 उस ब्राह्मण की ऐसी उलटी-सीधी बातें सुनकर, उन्होंने भौंहे तान कर उस ब्रह्मचारी की ओर देखा। मन्दरान्तरित मूर्तिना निशा लक्ष्यते शशभृता सतारका। 8/59 उस समय मन्दराचल के पीछे छिपे हुए चन्द्रमा इस तारों वाली रात में ठीक ऐसे लगते हैं। लक्ष्यते द्विरद भोग दूषितं सप्रसादमिव मानसं सरः। 8/64 ऐसा दिख रहा है मानो हाथियों की जल क्रीड़ा से गैंदला मान सरोवर निर्मल हो चला हो। 4. लोक :-पुं० [लोक्यते इति लोक+घञ्] देखना। यमक्षरं क्षेत्रविदो विदुस्तमात्मानमात्मन्यवलोकयन्तम्। 3/50 For Private And Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव वहाँ समाधि में बैठे हुए शंकरजी अपनी उस अविनाशी आत्म ज्योति को अपने भीतर देख रहे थे, जिसे ज्ञानी लोग जान पाते हैं । 573 व्यलोकयन्नुन्मिषितैस्तडिन्मयैमहातपः साक्ष्य इव स्थिताः क्षपाः । 5/2 वे अँधेरी रातें अपनी बिजली की आँखें खोल-खोलकर इस प्रकार उन्हें देखा करती थीं, मानो वे उनके कठोर तप की साक्षी हों । उक्षन् 1. उक्षन् :- पुं० [ उक्ष्+कनिन् ] बैल या साँड़ । विलोक्य वृद्धो क्षमधिष्ठितं त्वया महाजनः स्मेरमुखो भविष्यति । 5/70 बैल पर आपको बैठे देखकर नगर के भले मानुस तालियाँ बजावेंगे। तत्रावतीर्याच्युत दत्त हस्तः शरदद्धनाद्दीधितिमानि वोक्ष्णः । 7/70 वहाँ पहुँचने पर विष्णु जी ने हाथ का सहारा देकर महादेवजी को इस प्रकर बैल से उतार लिया, मानो शरद के उजले बादलों से सूर्य को उतार लिया हो । 2. ककुद :- पुं० [ ककु + दा+क] बैल, साँड़ । तुषार संघात शिलाः खुराग्रैः समुल्लिखन्दर्पकलः ककुद्नान। 1/56 नन्दी बैल जब अपने खुरों से हिम की चट्टानों को खूंदता हुआ डकर उठता था, तब नील गाएँ घबराकर उसे देखती रह जाती थीं । तत्र तत्र विजहार संपतन्न प्रमेयगतिना ककुद्मता । 8/21 वहाँ से बेरोकटोक चलने वाले नन्दी पर चढ़कर, विहार करने लगे । वे जहाँ-तहाँ घूम-घूम कर 3. गोपतिं :- पुं० [गवां रश्मीनां पतिः] बैल । स गोपतिं नन्दिभुजावलम्बी शार्दूल चर्मान्तरितोरुपृष्ठम्। 7/37 फिर नन्दी के हाथ का सहारा लेकर वे अपने उस लम्बे-चौड़े डील-डौल वाले बैल की पीठ पर चढ़े, जिस पर सिंह की खाल बिछी हुई थी । 4. वृष :- पुं० [वर्षति सिञ्चति रेत इति । वृष सेचने+क । वर्षति कामान् इति वा] बैल | For Private And Personal Use Only असंपदेस्तस्य वृषेण गच्छतः प्रभिन्नदिग्वारणवाहनो वृषा । 5/80 जिन्हें आप दरिद्र बताते हैं, वे जब अपने बैल पर चढ़कर चलने लगते हैं, तब मतवाले ऐरावत पर चढ़ने वाला इन्द्र । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 574 कालिदास पर्याय कोश 5. वाह :-पुं० [उह्यतेऽनेनेति । वह+करणे घञ्] घोटक, बैल। खे खेलगामी तमुवाह बाहः सशद्वचामीकर किंकणीकः। 7/49 बड़ी मीठी चाल से चलने वाला और अपने गले में लटकी हुई सोने की छोटी-छोटी घंटियों को टनटनाता हुआ वह बैल। उच्च 1. उच्च:- त्रि० [उच्चिनोतीति । उत्+चिञ्+अन्येभ्योऽपि' इति ड] उन्नत, ऊँचा। निबोध यज्ञांशभुजामिदानी मुच्चैर्द्विषामीप्सितमेतदेव। 3/14 समझ लो कि बलवान शत्रु से सताए हुए और डरे हुए देवता तुमसे यही काम कराना चाहते हैं। यथा श्रुत वेद विदां वर त्वया जनोऽयमुच्चैः पदलंघनोत्सुकः। 5/61 हे वेद के परम पण्डित! आपने जैसा सुना है और मेरे मन में वैसा ही ऊँचा पद पाने की साध जाग उठी है। मूर्धान मालि क्षितिधारणोच्चमुच्चस्तरं वक्ष्यति शैलराजः। 7/68 एक तो पृथ्वी धारण करने से [हिमालय का] उनका सिर वैसे ही ऊँचा था। 2. उन्नत :-[उत्+नम्+क्त] उच्च, उदग्र, तुङ्ग । उन्नतेन स्थिति मता धुरमुद्वहता भुवः। 6/30 फिर ऐसी ऊँची प्रतिष्ठा वाले और पृथ्वी को धारण करने वाले। उतमांग 1. उतमांग :-क्ली० [उत्तमं पशस्तमङ्गम्] सिर, मस्तक। स तहुकूलादविदूरमौलिर्बभौ पतद्गंग इवोत्तमांङ्गो। 7/41 उस समय शिवजी के सर के पास छत्र से लटकता हुआ कपड़ा ऐसा जान पड़ता था, मानो गंगाजी की धारा ही गिर रही हो। 2. चूड़ा :-स्त्री० [चोलयति मस्तका धुपरि उन्नता भवतीति] शिखा, सिर, मस्तक। नादत्ते केवलां लेखां हरचूड़ामणीकृताम्।। 2/34 केवल उस एक कला को छोड़ देता है, जिसे शिवजी ने अपने मस्तक का मणि बना लिया है। चरणौ रञ्जयन्त्वस्याश्चूड़ामणि मरीचिभिः। 6/81 For Private And Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव अपने सिर पर धरे हुए मणियों की किरणों से पार्वतीजी के ही चरण रंगा करेंगे। चन्द्रेव नित्यं प्रतिभिन्नमौलेश्चूड़ामणेः किं ग्रहणं हरस्य । 7/35 वह चन्द्रमा ही उनका चूड़ामणि बन गया था, इसलिए वे दूसरा चूड़ामणि लेकर करते ही क्या। 575 3. मूर्ध्न :- पुं० [ मह्यत्यस्मिन्नाहते इति मूर्धा - मुह+कनि] मस्तक । भर्तुः प्रसादं प्रतिनिन्द्य मूर्ध्ना वक्तुं मिथः प्राक्रमतैवमेनम् । 3 / 2 उसने भी सिर झुकाकर इन्द्र की कृपा स्वीकार कर ली और उनसे गुपचुप बातचीत करने लगा । मूर्ध्नि गंगाप्रपातेन धौत पादाम्भसा च वः ।। 6/57 एक तो सिर पर गंगा जी की धारा गिरने से, दूसरे आप लोगों के चरण की धावन पा लेने से । कम्पेन मूर्ध्नः शतपत्र योनिं वाचा हरिं वृत्रहण स्मितेन । 7 / 46 शिवजी ने ब्रह्मा जी की ओर सिर हिलाकर, विष्णुजी से कुशल मंगल पूछकर, इन्द्र की ओर मुस्कराकर । मूर्धान मालि क्षिति धारणोच्चमुच्चैस्तरं वक्ष्यति शैलराजः । 7/68 हे सखी, पर्वतेश्वर हिमालय बड़े भाग्यवान हैं। एक तो पृथ्वी धारण करने से उनका सिर वैसे ही ऊँचा था । वीक्षितेन परिवीक्ष्य पार्वती मूर्ध कम्पमयमुत्तरं ददौ । 8/6 बस अपनी आँखें ऊपर उठाकर और सिर घुमाकर यह जता देतीं, कि मैं आपकी सब बातें मानती हूँ । 4. मौलि : - पुं० स्त्री० [ मूलस्यादूरे भवः । मूल + सुतङ्गमादित्वाद् इञ् ] सिर । तथाहि नृत्याभिनय क्रियाच्युतं विलिप्यते मौलिभिरम्बरौकसाम् । 5/79 इसलिए तो जब वे तांडव नृत्य करने लगते हैं, उस समय उनके शरीर से झड़ी हुई भस्म को देवता लोग बड़ी श्रद्धा से अपनी माथे पर चढ़ाते हैं । करोति पादावुपगम्य मौलिना विनिद्रमन्दरारजोरुणाङ्गुली। 5/8 इन्द्र भी उनके पैरों पर मस्तक नवाया करता है और फूले हुए कल्पवृक्ष के पराग से उनके पैरों की उँगलियाँ रंगा करता है। For Private And Personal Use Only शीतलेन निरवापयत्क्षणं मौलिचन्द्रशकलेन शूलिनः । 8/18 महादेव जी के सिर पर बसे हुए चन्द्रमा पर ज्यों ही औंठ रखतीं, त्यों ही उन्हें ऐसी ठंडक मिलती कि उनकी सब पीड़ा जाती रहती । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 576 कालिदास पर्याय कोश 5. शिर :-क्ली० [श्रि+श्रूयते स्वाङ्गे शिरः किच्च' इत्यसुन्, स च कित्, धातोः शिरादेशश्च] सिर, मस्तक। पत्युः शिरेश्चन्द्र कलामनेन:स्पृशेति सख्या परिहास पूर्वम्। 7/19 सखी ने ठिठोली करते हुए आशीर्वाद दिया कि भगवान् करे, तुम इन पैरों से अपने पति के सिर की चन्द्रकला को छुओ। पूर्वं महिम्ना स हि तस्य दूरमावर्जितं नात्मशिरो विवेद्। 7/5 पर उसे यह नहीं पता चला कि प्रणाम करने से पहले ही उनकी महिमा से ही, उसका सिर झुक चुका था। 6. शेखर :-पुं० [शिखि गतौ+बाहुलकाद् अर प्रत्ययेन साधुः] सिर। कपालि वा स्यसादथवेन्दु शेखरं न विश्वमूर्तेरवधार्यते वपुः। 5/78 संसार में जितने रूप दिखई देते हैं, वे सब उन्हीं के होते हैं, चाहे गले में खोपड़ियों की माला पहने हुए हों या माथे पर चन्द्रमा सजाये हुए हों। बभूव भस्मैव सिताङ्गरागः कपालमेवामल शेखरश्री:17/32 उनके शरीर पर पुती हुई चिता की भस्म उजला अंगराग बन गई, कपाल ही गले के सुन्दर आभूषण बन गए। उद्यान 1. उद्यान :-[उद्+या+ल्युट्] उद्यान, उपवन। उद्यान पाल सामान्य मृतवस्तमुपासते। 2/36 छहों ऋतुएँ अपने समय का विचार छोड़कर एक साथ फुलवारी की मालिनों के समान। 2. उपवन :- क्ली० [उपमितं वनेन] उद्यान। यस्य चोपवनं बाह्यं गन्धवद्गन्धमादनम्। 6/46 गन्धमादन नाम का सुगंधित पर्वत ही उस नगर का बाहर का उपवन था। उर्मि 1. उर्मि :-लहर, तरंग। अच्छिन्नामल संतानाः समुद्रोर्म्य निवारिताः। 6/69 जैसे आपके यहाँ से निकलती हुई, निरन्तर बढ़ती हुई और समुद्र की लहरों से भी टक्कर लेने वाली निर्मल नदियाँ। For Private And Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 577 2. वीची :-स्त्री० [वयति जलं तटे वर्द्धयतीति । वे + 'वे जो डिच्च' इति ईचि, स च डित] तरंग, लहर। आप्लुतास्तीर मन्दारकुसुमोत्किरवीचिषु। 6/5 जो अपने तीर पर गिरे हुए कल्पवृक्ष के फूलों को, अपनी लहरों पर उछालती चलती है। एकपिंगलगिरि 1. एकपिंगलगिरि :-कैलास। एक पिंगलगिरौ जगद्गुरुर्निर्विवेश विशदा: शशिप्रभाः। 8/24 कुबेर की राजधानी कैलास पर रहकर शंकर जी ने उजली चाँदनी का भरपूर आनंद लूटा। 2. कुबेर :-पुं० [कुत्सितं बे [वे] रं शरीरं यस्य सः] कैलास। तावद्भवस्यापि कुबेर शैले तत्पूर्वपाणिग्रहणानुरूपम्। 7/30 उसी समय कैलाश पर्वत पर भी वे सामग्रियाँ रख दी, जो उनके पहले विवाह में काम आई थीं। 3. कैलास :-पुं० [के जले लासो दीप्तिरस्य -केलास+अण] कैलास। तद्भक्तिसंक्षिप्तबृहत्प्रमाणमारुह्य कैलासमिव प्रतस्थे। 7/37 मानो शंकरजी में भक्ति के कारण कैलास ने ही अपने बड़े रूप को छोटा बना लिया हो। औषधिपति 1. इन्दु :-[उनति क्लेदयति चन्द्रिकया भुवनम्-इन्द्र+उ आदेरिच्च] चन्द्रमा। बालेन्दुवक्त्राण्य विकास भावाद्बभुः पलाशान्यतिलोहितानि। 3/29 वसन्त के आते ही दूज के चन्द्रमा के समान टेढ़े, अत्यंत लाल-लाल अधखिले हुए टेसू के फूल। अथ मौलिगतस्येन्दोर्विशदैर्दशनांशुभिः। 6/25 अपनी मन्द हँसी के कारण चमकते हुए दाँतों की दमक से, सिर पर बैठे हुए बाल चन्द्रमा की। पश्य पार्वति नवेन्दु रश्मिभिर्भिन्नसान्द्रतिमिरं नभस्तलम्। 8/64 For Private And Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 578 कालिदास पर्याय कोश हे पार्वती ! उठे हुए चन्द्रमा की किरणों से घना अँधेरा मिट जाने के पर आकाश ऐसा जान पड़ रहा है। 2. उडुपति :-[उड्+कु+पतिः] चन्द्रमा। अयचितोपस्थितमम्बु केवलं रसात्कस्योडुपतेश्च रश्मयः। 5/22 फिर वर्षा के दिनों में वे एक तो बिन माँगे अपने आप बरसे जल को पीकर और दूसरे अमृत से भरी चन्द्रमा की किरणों को पीकर ही रह जाती। 3. औषधिपति :-चन्द्रमा। शक्यमोषधिपतेर्नवोदयाः कर्णपूररचनाकृते तव। 8/62 चन्द्रमा की निखरती हुई नई किरणें, नये और कोमल जौ के अंकुर के समान कोमल हैं। 4. औषधिअधिप :-चन्द्रमा। अथौषधीनामधिपस्य वृद्धौतिथौ च जामित्रगुणान्वितायाम्। 7/1 तीन दिन पीछे हिमालय ने लग्न से सातवें घर में पड़ी हुई शुक्ल पक्ष की शुभतिथि को अपने भाई बन्धुओं को बुलाकर। 5. चन्द्र :- [चन्द्र+णिच् रक्] चन्द्रमा। चन्द्रं गता पद्मगुणान्न भुंक्ते पद्माश्रिता चान्द्रमसीमभिख्याम्। 1/43 राज तो जब वे चन्द्रमा में पहुँचती थीं, तब उन्हें कमल का आनन्द मिल जाता था और जब वे दिन में कमल में बसती थीं, तब रात के चन्द्रमा का आनन्द उन्हें नहीं मिल पाता था। गिरिशमुपचार प्रत्यहं सा सुकेशी नियमित परिखेदा तच्छिरश्चन्द्र पादैः।। 1/60 सुन्दर बालों वाली पार्वती बिना थकावट माने महादेवी की सेवा किया करती थी, क्योंकि महादेवजी के माथे पर बैठे हुए चन्द्रमा की ठण्डी किरणें पार्वती जी की थकान सदा मिटाती रहती थीं। हरस्तु किंचित्परिलुप्तधैर्यश्चन्द्रोदयारम्भ इवाम्बुराशिः। 3/67 जैसे चन्द्रमा के निकलने पर समुद्र में ज्वार आ जाता है, वैसे ही पार्वती जी को देखकर महादेव जी के हृदय में भी कुछ हलचल सी होने लगी। वद प्रदोष स्फुट चन्द्रतारका विभावरी यद्यरुणाय कल्पते। 5/44 बताइए भला बढ़ती हुई रात की सजावट खिले हुए चन्द्रमा और तारों से होती है या सबेरे के सूर्य की लाली से। For Private And Personal Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 579 क्षीरोदवेलेव सफेनपुजा पर्याप्त चन्द्रदेव शरस्त्रियामा। 7/26 वे शरद की उजली चाँदनी में क्षीर समुद्र की उतराते हुए फेनवाली लहर जैसे लगने लगीं। चन्द्रेव नित्यं प्रति भिन्न मौलेश्चूडामणेः किं ग्रहणं हरस्य। 7/35 उनके मुकुट पर सदा रहने वाला चन्द्रमा ही उनका चूड़ामणि बन गया था, इसलिये वे दूसरा चूड़ा मणि लेकर करते ही क्या। शीतलेन निरवापयत्क्षणं मौलिश्चन्द्रशकलेन शूलिनः। 8/18 महादेव जी के सिर पर बसे हुए चन्द्रमा पर ज्यों ही ओंठ रखतीं, त्यों ही उन्हें ऐसी ठंडक मिलती कि उनकी सब पीड़ा जाती रहती। रुद्धनिर्गमनमादिनक्षयात्पूर्व दृष्ट तनु चन्द्रिकास्मितम्। एतदुद्गिरति चन्द्रमण्डलं दिग्रहस्यामिव रात्रि नोदितम्।। 8/60 जो चन्द्रमा दिनभर दिखाई नहीं देता था, वह इस समय निकला हुआ ऐसा लगता है, मानो रात के कहने से यह चाँदनी के रूप में मुस्कराता हुआ पूर्व दिशा के सब भेद खोल रहा हो। 6. चन्द्रमा :- चन्द्रमा। रक्तभावमपहाय चन्द्रमा जात एष परिशुद्ध मण्डलः। 8/65 अब चन्द्रमा का मंडल ललाई छोड़कर धीरे-धीरे उजाला होने लगा है। 7. निशाकर :-चन्द्रमा। बहुलेऽपि गते निशाकरस्तनुतां दुःखमनङ्ग मोक्ष्यति। 4/13 तब वह अकारथ उगा हुआ चन्द्रमा शुक्ल पक्ष में भी बड़ी कठिनाई से अपना दुबलापन छोड़ पावेगा। 8. रोहिणीपति :-चन्द्रमा। अध्यथेति शयनं प्रियासखः शारदाभ्रमिव रोहिणीपतिः। 8/82 जैसे रोहिणी के पति चन्द्रमा उजाले में विश्राम करते से जान पड़ते हैं, वैसे ही उस शयनागार में भगवान् शंकर अपनी प्रियतमा के साथ लेट गए। १. शशि :-पुं० [शशोऽस्त्यस्य इनि] चन्द्रमा । शशिना सह याति कौमुदी सह मेघेन तडित्प्रलीयते। 4/33 देखो ! चाँदनी चन्द्रमा के साथ चली जाती है, बिजली बादल के साथ ही छिप जाती है। For Private And Personal Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 580 कालिदास पर्याय कोश शशिन इव दिवा तनस्य लेखा किरण परिक्षत धूसरा प्रदोषम। 4/42 जैसे दिन में दिखाई देने वाले, निस्तेज चन्द्रमा की किरण साँझ होने की बाट जोहती है। मैत्रे मूहूर्ते शशलाञ्छनेन योगं गतासूत्तरफल्गुनीषु। 7/6 सूर्य निकलने के तीन मुहूर्त पीछे उत्तरा फल्गुनी नक्षत्र में। लग्नद्विरेफं परिभूय पद्मं समेघलेखं शशिनश्च बिम्बम्। 7/15 भौरों से घिरा हुआ कमल और बादल के टुकड़ों में लिपटा हुआ चन्द्रमा। उन्नतेषु शशिनः प्रभास्थिता निम्नसंश्रय परं निशातमः। 8/66 पर्वत की चोटियों पर तो चाँदनी फैल गई हैं, पर घाटियों और खड्डों में अभी अँधेरा बना हुआ है। हारयष्टि रचना मिवांशुभिः कर्तुमागतकुतूहल: शशी। 8/68 मानो चन्द्रमा अपनी किरणों से कल्पवृक्षों में चन्द्रहार बनाने आ पहुँचा हो। 10. सोम :- [सू+मन्] चन्द्रमा। सत्यमर्काच्च सोमाच्च परमध्यास्महे पदम्। 6/19 यद्यपि हम लोग सूर्य और चन्द्रमा दोनों से यों ही ऊपर रहते हैं। 11. हिमांशु :-चन्द्रमा। विप्रकृष्ट विवरं हिमांशुना चक्रवाक मिथुनं विडम्ब्यते। 8/61 इस समय आकाश का चन्द्रमा और ताल के पानी में पड़ी हुई चन्द्रमा की परछाईं दोनों ऐसे लगते हैं, मानो रात होने से चकवी-चकवे का जोड़ा दूर-दूर जा पड़ा हो। कनक 1. कनक :-[कन्+कुन्] सोना। तासां च पश्चात्कनकप्रमाणां कालीकपालभरणा चकासे। 7/39 सोने के समान चमकने वाली उन माताओं के पीछे-पीछे उजले खप्परों से देह सजाए हुए भद्रकाली जी आ रहीं थीं। 2. काञ्चन :-[काञ्च+ल्युट्] सनुहरा, सोने का बना हुआ। ध्रुव वपुः काञ्चन पद्मनिर्मितं मृदु प्रकृत्या च ससारमेव। 5/19 मानो उनका शरीर सोने के कमलों से बना था, जो कमल से बना होने के कारण For Private And Personal Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 581 स्वभाव से कोमल भी था पर साथ ही साथ सोने का बना होने से ऐसा पक्का भी था कि तपस्या से कुंभला न सके। तत्र काञ्चन शिलातलाश्रयो नेत्रगम्यभवलोक्य भास्करम्। 8/29 वहाँ पहुँचकर वे सोने की एक चट्टान पर बैठ गए। उस समय सूर्य का तेज इतना कम हो गया था, कि उसकी ओर भली-भाँति देखा जा सकता था। 3. जाम्बूनद :-[जम्बूनद्+अण्] सोना। तां प्रणामा दरस्त्रस्तजाम्बूनदवतंसकाम्। 6/1 उन्हें प्रणाम करने के लिए पार्वतीजी ज्यों ही लजाती हुई झुकी, कि उनके कानों से सोने का कुण्डल खिसक गया। 4. सुवर्ण :-वि० [सुष्ठु वर्णोऽस्य] सोना, सोने का सिक्का, सुंदर रंग का। पुरो विलग्नर्हरदृष्टिपातैः सुवर्ण सूत्रैरिव कृष्यमाणः। 7/50 मानो आगे पड़ती हुई शिवजी की चितवन की सोने की डोरियाँ उसे खींचती ले गई हों। 5. हिरण्य :- [हिरणमेव स्वार्थे यत्] सोना। उच्चैर्हिरण्यमयं शङसुमेरोर्वितथीकृतम्। 6/72 सुमेरु पर्वत की सुनहरी और ऊंची चोटियों को भी नीचा दिखा दिया। 7. हेम :- [हि+मन्] सोना। हेमतामरसताडित प्रिया तत्कराम्बु विनिमीलितेक्षणा। 8/26 वहाँ से सोने के कमल तोड़-तोड़कर उनसे महादेवजी को मारती और महादेवजी भी ऐसा पानी उछालते कि इनकी आँखें बन्द हो जाती। 8. हैम :-[हिम्+अण] सोने से बना हुआ। मुक्ता यज्ञोपवीतानि बिभ्रतो हैमवल्कलाः। 6/6 जिनके कन्धों पर मोती के यज्ञोपवीत लटक रहे थे, पीठ पर सोने के वल्कल पड़े हुए थे। कपोल 1. कपोल :-[कपि+ओलच्] गाल। तस्याः कपोले परभागलाभाद्बबन्ध चढूंषि यव प्ररोहः। 7/17 जौ के अंकुर और उनके गाल इतने सुंदर लगने लगे, कि सबकी आँखें बरबस उनकी ओर खिंची जाती थीं। For Private And Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 582 कालिदास पर्याय कोश कपोल संसर्पि शिखः स तस्या मुहूर्त कर्णोत्पलतां प्रपेदे। 7/81 वह धुआँ उनके गालों के पास पहुँचकर कुछ क्षणों के लिए उनके कानों का कर्णफूल बन जाता था। 2. गण्ड :-[गण्ड्+अच्] गाल। तदीषदाारुणगण्डलेखमुच्छवासिकालाजनरागम्क्षणोः। 7/8 पार्वती जी के गाल कुछ लाल हो गए, मुँह पर पसीने की बूंदें छा गईं, आँखों का काला आँजन फैल गया। कर 1. कर :-[करोति, कीर्यते अनेन इति, कृ +अप्] हाथ, हाथी। कुचाङ्कुरादानपरिक्षताङ्गुलिः कृतोऽक्षसूत्रप्रणयी तयाकरः। 5/11 उन कोमल हाथों में उन्होंने रुद्राक्षों की माला ले ली और कुशा के अंकुवे उखाड़कर, अपने उन्हीं हाथों की उँगलियों में घाव कर लिए। अवस्तु निर्बन्ध परे कथं नुते करोऽयमामुक्त विवाह कौतुकः। करेण शंभोवलयीकृताहिना सहिष्यते तत्प्रथमावलम्बनम्।। 5/66 पार्वती जी! आप भी किस बेतुके से प्रेम करने चली हैं। बताइए तो, पाणि ग्रहण के समय विवाह के मंगल-सूत्र से सजा हुआ आपका यह हाथ, शंकरजी के साँप लिपटे हुए हाथ को कैसे छू पायेगा। तस्याः करं शैल गुरुपुनीतं जग्राह तामाङ्गुलिमष्टमूर्तिः। 7/76 तब हिमालय के पुरोहित ने पार्वती जी का हाथ आगे बढ़ाकर शंकर जी के हाथ पर रख दिया। क्षितिधर पति कन्या माददानः करेण। 7/94 शंकरजी पार्वतीजी का हाथ अपने हाथ में लेकर। नाभिदेशनिहितः सकम्पया शंकरस्य रुरुधे तयाकरः। 8/4 जब शंकरजी अपने हाथ उनकी नाभि की ओर बढ़ाते, तो पार्वती जी काँपते हुए उनका हाथ थाम लेती। शूलिनः करतलद्वयेन सा निरुध्य नयने हृतांशुका। 8/7 जब कभी अकेले में शिवजी इनके कपड़े खींचकर इन्हें उघाड़ देते, तो ये अपनी दोनों हथेलियों से शिवजी के दोनों नेत्र बन्द कर लेती। For Private And Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 583 कुमारसंभव 2. पाणि :-[पण्+इण्] हाथ। उत्तान पाणि द्वयसन्निवेशात्प्रफुल्लराजीवमिवाङ्कमध्ये। 3/45 अपने दोनों कन्धे झुकाकर अपनी गोद में कमल के समान, दोनों हथेलियों को ऊपर किए बिना हिले-डुले बैठे हैं। वृत्तिस्तयोः पाणि समागमेन समं विभक्तेव मनोभवस्य। 7/77 ऐसा जान पड़ा, मानो उन दोनों का हाथ मिलाकर कामदेव ने दोनों को एक साथ अपने वश में कर लिया हो। 3. भुज :- [भुज+क] भुजा। स गोपतिं नन्दि भुजावलम्बी शार्दूल चर्मान्तरितोरुपृष्ठम्। 7/37 फिर नन्दी के हाथ का सहारा लेकर वे अपने उस लम्बे-चौड़े डील-डौल वाले बैल की पीठ पर चढ़े, जिस पर सिंह की खाल बिछी हुई थी। 4. हस्त :-[हस्+तन्, न इट्] हाथ। ऐरावतास्फालनकर्कशेन हस्तेन पस्पर्श तदङ्ग मिन्द्रः। 3/22 इन्द्र ने उसकी पीठ पर अपना वह हाथ फेरकर उसे उत्साहित किया, जो ऐरावत को अंकुश लगाते-लगाते कड़ा पड़ गया था। नालक्षयत्साहवसन्नहस्तः स्त्रसतं शरंचापमपि स्वहस्तात्। 3/51 कामदेव के हाथ डर के मारे ऐसे ढीले पड़ गए, कि वह यह भी न जान सका कि मेरे हाथ से धनुष बाण छूटकर कब गिर गए। इति स्वहस्तोल्लिखितश्चमुग्धया रहस्युपालभ्यत चन्द्रशेखरः। 5/58 ये अपने हाथ से बनाए हुए शंकरजी के चित्र को ही सच्चे शंकर जी समझकर, उन्हें यह कह-कहकर उलाहना देने लगती थीं। धात्र्यङ्गुलीभिः प्रति सार्यमाणमूर्णामयं कौतुक हस्तसूत्रम्। 7/28 पार्वतीजी के हाथ में जहाँ कंगना बाँधना था वहाँ न बाँधकर कहीं और बाँध दिया, पर उनकी धाय ने अपनी उँगलियों से खिसकाकर उनके कंगन को ठीक स्थान पर पहुँचा दिया। तत्रावतीर्यच्युत दत्त हस्तः शरद्धनाद्दीधितिमानिवोक्ष्णः। 7/70 वहाँ पहुँचने पर विष्णुजी ने हाथ का सहारा लेकर महादेवजी को इस प्रकार बैल से उतार लिया, मानो शरद के उजले बादलों से सूर्य को उतार लिया हो। For Private And Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 584 कालिदास पर्याय कोश कर (ii) 1. कर :-[करोति, कीर्यते अनेन इति, कृ+अप्] किरण, रश्मि। करेण मानोर्बहुलावसाने संधुक्ष्यमाणेव शशाङ्करेखा। 7/8 जैसे शुक्ल पक्ष में सूर्य की किरण पाकर चन्द्रमा चमकने लगता है। 2. मयूख :- [मा+ऊख, मयादेशः] प्रकाश की किरण, रश्मि, अंशु। पद्मानि यस्याग्रसरोरुहाणि प्रबोधय मूर्ध्वमुखैर्मयुखैः। 1/16 उनके चुनने से जो कमल बच रहते हैं, उन्हें नीचे उदय होने वाला सूर्य अपनी किरणें ऊँची करके खिलाया करता है। नेत्रैरविस्पन्दितपक्ष्ममालैर्लक्ष्यीकृत घ्राणमधोमयूखैः। 3/47 भौंहें तानकर कुछ-कुछ प्रकाश देने वाली, निश्चल, उग्र तारों वाली और अपनी किरणें नीचे डाकने वाली आँखों से। विशोषितां भानुमतो मयूखैर्मन्दाकिनी पुष्करबीज मालाम्। 3/65 धूप में सुखाये हुए मन्दाकिनी के कमल के बीजों की माला। 3. रश्मि :-[अश्+मि-धातो रुट, रश+मि वा] किरण, प्रकाशकिरण, डोरी। पश्य पार्वतिनवेन्दुरश्मिभिर्भिन्नसान्द्रतिमिरं नभस्तलम्। 8/64 हे पार्वती ! उठे हुए चन्द्रमा की किरणों से घना अँधेरा मिट जाने पर आकाश ऐसा जान पड़ रहा है। करण 1. करण :-[कृ+ल्युट्] करना, कारण, कृत्य कार्य, दिन का एक भाग। उपमानमभूद्विलासिनां करणं यत्तव कान्तिमत्तया। 4/5 हे प्यारे ! आज तक विलासियों के शरीर की तुलना तुम्हारे जिस सुन्दर शरीर से की जाती थी। 2. हेतु :-[हि+तुन्] निमित्त, कारण, उद्देश्य, प्रयोजन। हेतुं स्वचेतोविकृतेर्दिदृक्षुर्दिशामुपान्तेषु ससर्ज दृष्टिम्। 3/69 यह देखने के लिए चारों ओर दृष्टि दौड़ाई कि मेरे मन में यह विकार लाया कौन। For Private And Personal Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 585 करिभिः 1. करिभि :- [कर+इति] हाथी कपोल कण्डूः करिभिर्विनेतुं विघट्टितानां सरल दुमाणाम्। 1/9 जब यहाँ के हाथी अपनी कनपटी खुजलाने के लिए देवदारु के पेड़ों से माथा रगड़ते हैं। 2. कुञ्जर :-[कुञ्जो हस्तिहनः सोऽस्यास्ति-कुञ्ज+र] हाथी। न्यास्ताक्षरा धातुरसेन यत्र भूर्जत्वचः कुञ्जर बिन्दुशोणः। 1/7 इस पर्वत पर उत्पन्न होने वाले जिन भोज-पत्रों पर लिखे हुए अक्षर हाथी की सैंड पर बनी हुई लाल बुंदकियों जैसे दिखाई पड़ते हैं। 3. गज :-[गज्+अच्] हाथी। अभ्यस्यन्ति तटाघातं निर्नितैरावता गजाः। 2/50 ऐरावत को भी हरा देने वाले उसके हाथी अपना टीले ढाहने का खिलवाड़ किया करते हैं। ददौ रसात्पङ्कजरेणुसुगन्धिं गजाय गण्डूषजलं करेणुः। 3/37 हथिनी बड़े प्रेम से कमल के पराग में बसा हुआ सुगन्धित जल अपनी सूंड से निकालकर अपने हाथी को पिलाने लगी। वधू दुकूलं कलहंसलक्षणं गजाणिनं शोणितं बिन्दुवर्षिच । 5/67 कहाँ तो हँस छपी हुईं चुंदरी ओढ़े हुए आप और कहाँ रक्त की बूंद टपकाती हुई महादेवी जी के कन्धे पर पड़ी हुई हाथी की खाल। उपान्त भागेषु च रोचनाको गजाजिनस्यैव दुकूलभावः। 7/32 हाथी का चर्म ही ऐसा रेशमी वस्त्र बन गया, जिसके आँचलों पर गोरोचन हंस के जोड़े छपे हुए थे। तमृद्धिमद्वन्धुजनाधिरूद्वैर्वृन्दैर्गजानां गिरिचक्रवर्ती। 7/52 महादेवजी के आने से पर्वतराज हिमालय बड़े प्रसन्न हुए और अपने उन धनी कुटुम्बियों को हाथी पर चढ़ा-चढ़ाकर। 4. दन्तिन :-पुं० [अतिशयितौ दन्तौ यस्य-दन्त+वलच्, दीर्घः, दन्त इनि] हाथी। भक्तिभिर्बहुविधाभिरर्पिता भाति भूतिररिव मत्त हस्तिनः। 8/69 इसलिए यह ऐसा दिखाई पड़ रहा है, मानो किसी मतवाले हाथी पर अनेक प्रकार की चित्रकारी कर दी गई हो। For Private And Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 586 कालिदास पर्याय कोश 5. दिग्नाग :-हाथी। व्योम गङ्गाप्रवाहेषु दिङ्नागमद गन्धिषु। 6/ उस आकाश गंगा के जल में दिग्गजों के मद की सुगन्ध आया करती है। 6. दिग्वारण :-हाथी। मन्दाकिन्याः पयः शेषं दिग्वारणमदविलम्। 2/44 मन्दाकिनी में आजकल केवल दिग्गजों के मद से गैंदला जल भर दिखाई देता 7. द्विपा :-हाथी। पदं तुषारसुति धौते रक्तं यस्मिन्नदृष्ट्वापिहतद्विपानाम्। 1/6 यहाँ के सिंह जब हाथियों को मारकर चले जाते हैं, तब रक्त से लाल उनके पंजों की पड़ी हुई छाप हिम की धारा से धुल जाती है। 8. द्विरद :-हाथी। लक्ष्यतेद्विरद भोग दूषितं सप्रसादमिव मानसं सरः। 8/64 मानो हाथियों की जल-क्रीड़ा से गंदला मानसरोवर निर्मल हो चला हो। 9. नागेन्द्र :-[नाग+अण+इन्द्रः] भव्य या श्रेष्ठ हाथी। नागेन्द्रहस्तास्त्वचि कर्कशत्वादेकान्तशैव्यात्कदली विशेषाः। 1/36 पार्वती जी की उन दोनों मोटी जांघों की उपमा दो ही वस्तुओं से दी जा सकती थी-एक तो हाथी की सूंड से और दूसरे केले के खंभे से, पर हाथी की सैंड कड़ी होती है, और केले का खम्भा बड़ा ठंडा होता है। 10. हस्तिन् :-[हस्तः शुडादण्डोऽस्त्यस्य इनि] सँडवाला हाथी। नागेन्द्रहस्तास्त्वचि कर्कशत्वादेकान्तशैव्यात्कदली विशेषाः। 1/36 पार्वती जी की उन दोनों मोटी जांघों की उपमा दो ही वस्तुओं से दी जा सकती थी-एक तो हाथी की सूंड से और दूसरे केले के खंभे पर हाथी की सैंड कड़ी होती है, और केले का खम्भा बड़ा ठंडा होता है। कर्ण 1. कर्ण :-[कर्ण्यते आकर्ण्यते अनेन-कर्ण+अप्] कान। चकार कर्णच्युत पल्लवेन मूर्धा प्रणामं वृषभध्वजाय। 3/62 शिवजी को प्रणाम करने के लिए ज्यों ही अपना सिर झुकाया, त्यों ही कान पर धरे हुए पत्ते पृथ्वी पर गिर पड़े। For Private And Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव कपोल संसर्पि शिखः स तस्या मुहूर्त कर्णोत्पलतां प्रपेदे । 7/81 वह धुआँ उनके गालों के पास पहुँचकर कुछ क्षणों के लिए उनके कानों का कर्णफूल बन जाता था । 587 2. शृण्व :- कान । इत्योषधिप्रस्थ विलासिनीनां शृण्वन्कथाः श्रोत्र सुखास्त्रिनेत्र: । 7/69 औषधिप्रस्थ की स्त्रियों की ऐसी मीठी-मीठी बातें सुनते हुए शंकर जी । कर्म 1. कर्म : - [ कृ + मनिन् ] कृत्य, कार्य, कर्म । अप्य प्रसिद्धं यशसे हि पुंसामनन्यासधारणमेव कर्म | 3 / 19 संसार में ऐसा असाधारण काम करने से ही यश मिलता है, जिसे कोई दूसरा न कर सके । 2. कार्य : - [ कृ + ण्यत् ] काम, मामला, बात, कर्तव्य । मनसा कार्य संसिद्धौ त्वरादिगुणरहसा । 2/63 अपने काम के लिए वेग से दौड़ने वाले मन में । अवैमि ते सारमतः खलु त्वां कार्ये गुरुण्यात्मसमनियोक्ष्ये । 3/13 मैं तुम्हारी शक्ति भली-भाँति जानता हूँ, इसीलिए मैं तुम्हें अपने जैसा मानकर इस बड़े काम में लगाना चाहता हूँ । जितेन्द्रिये शूलिनि पुष्पचापः स्वकार्य सिद्धिं पुनराशशंस | 3/57 तब उसके मन में जितेन्द्रिय महादेवजी को वश में करने की आशा फिर हरी हो उठी । ब्रूतये नात्र वः कार्य मनास्था बाह्य वस्तुषु । 6/63 इनमें से जिससे भी आपका काम बने उसे आज्ञा दीजिए, क्योंकि धन-सम्पत्ति आदि जितनी भी बाहरी वस्तुएँ हैं, वे तो आपकी सेवा के लिए तुच्छ हैं। मेने मेनापि तत्सर्वं पत्युः कार्यमभीप्सितम् ।। 6 / 86 मैना ने भी अपने पति की हाँ में हाँ मिलाकर सब बातें मान लीं । 3. क्रिया :- [ कृ+श, रिङ् आदेशः, इयङ् ] कार्य, कर्म । For Private And Personal Use Only काष्ठागत स्नेहरसानुबिद्धं द्वन्द्वानि भावं क्रियया विवब्रुः 1 3 / 39 तब चर और अचरों की अत्यंत बढ़ी हुई सम्भोग की इच्छा उनमें दिखाई देने लगी । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 588 कालिदास पर्याय कोश काञ्ची 1. काञ्ची :-[काञ्च+इन्=काचि+ ङीष्] मेखला, करधनी, नितम्ब। एतावतानन्चनुमेय शोभि काञ्चीगुणस्थानमनिन्दितायाः। 1/37 उन अत्यंत सुन्दर अंगों वाली के नितम्ब कितने सुन्दर रहे होंगे। यह तो इसी बात से आँका जा सकता है। स्रस्तां नितम्बादवलम्बमाना पुनः पुनः केसरदामकाञ्चीम्। 3/35 उनकी कमर में पड़ी हुई केसर के फूलों की तगड़ी जब-जब नितम्ब से नीचे खिसक आती थी, तब-तब वे उसे अपने हाथ से पकड़कर ऊपर सरका लेती थीं। 2. मेखला :-[मीयते, प्रक्षिप्यते कायमध्यभागे-मी खल+टाप, गुण:] तगड़ी, करधनी। स्मरसि स्मर मेखला गुणैरुत गोत्रस्खलितेषु बन्धनम्। 4/8 हे कामदेव ! पहले जब भूल से तुमने अपनी किसी दूसरी प्यारी का नाम ले डाला था, उस पर मैंने तुम्हें अपनी तगड़ी से बाँध दिया था, क्या वही स्मरण करके तो तुम मुझ से रूठे नहीं बैठे हो। सा व्यगाहत तरंगिणीमुमा मीनपंक्तिपुनरुक्तमेखला। 8/26 कभी पार्वतीजी उस आकाशगंगा में जल विहार करने लगतीं, जहाँ उनकी कमर के चारों ओर खेलने वाली मछलियाँ ऐसी लगती थीं, मानो उन्होंने दूसरी करधनी पहन ली हो। तस्य तच्छिदुरमेखला गुणं पार्वतीरतममून्नतृप्तये। 8/83 पार्वतीजी की करधनी भी टूट गई, फिर भी पार्वतीजी के साथ संभोग करके शंकरजी का जी नहीं भरा। तेन भिन्नविषमोत्तरच्छदं मध्यपिण्डित सूत्र मेखलम्। 8/89 जिस पलंग पर वे सोए थे, उसकी चादर में सलवटें पड़ गई थीं, बिना किसी डोरीवाली टूटी करधनी उस पर इकट्ठी हुई पड़ी थी। 3. रसना:-[रश्+युच्, रशादेशः] कटिबंध, कमरबंद, करधनी। अकारि तत्पूर्व निबद्धया तया सरागमस्या रसनागुणास्पदम्। 5/10 पहले-पहल तगड़ी पहनने से उनकी सारी कमर लाल पड़ गई थी। For Private And Personal Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 589 कस्याश्चिदाशीद्रशना तदानीमङ्गमूलार्पितसूत्रशेषा। 7/61 खिड़कियों तक पहुँचते-पहुँचते मणियों के दाने तो सब बिखर गए पर पैर के अँगूठे में बंधा हुआ डोरा ज्यों का त्यों फंसा रह गया। कान्ति 1. कान्ति :-[कम्+क्तिन्] मनोहरता, सौन्दर्य, चमक, प्रभा, दीप्ति। उपमानमभूद्विलासिनां करणं यत्तवकान्तिमत्तया। 4/5 हे प्यारे ! आज तक विलासियों के शरीर की तुलना तुम्हारे जिस सुन्दर शरीर से की जाती थी। सा चक्रवाकङ्कितसैकतायास्त्रिस्रोतसः कान्तिमतीत्य तस्थौ। 7/15 उस समय पार्वती जी इतनी सुन्दर लग रही थीं, कि उनके रूप के आगे उजली धारा वाली उन गंगाजी की शोभा भी फीकी पड़ गई थी, जिनके तीर पर की बालू में चकवे बैठे हों। 2. चारु :-[चरति चित्ते-चर+उण] सुखद, रमणीय, सुन्दर, कान्त, मनोहर। ददर्श चक्रीकृत चारुचापं प्रहर्तुमभ्युद्यतमात्मोनिम्। 3/70 शंकरजी देखते क्या हैं कि अपने सुन्दर धनुष को खींचकर गोल किए हुए, दाहिनी आँख की कोर तक चुटकी से डोरी खींचे हुए, मुझ पर बाण चलाने ही वाला है। निनिंद रूपं हृदयेन पार्वती प्रियेषु सौभाग्यफला हि चारुता। 5/1 वे भी भरकर अपनी सुन्दरता को कोसने लगीं, क्योंकि जो सुन्दरता अपने प्यारे को न रिझा सके, उसका होना न होना दोनों बराबर है। 3. मनोरम :-सुन्दर। मनोरमं यौवन मुद्वहन्त्या गर्भोऽभवद्भूधरराजपत्न्याः । 1/19 कुछ ही दिनों में हिमालय की वह सुन्दर और युवती पत्नी गर्भवती हो गई। 4. मनोहर :-सुन्दर, चारु। प्रतिपद्य मनोहरं वपुः पुनरप्यादिश तावदुत्थितः। 4/16 तुम अपने इस राख के शरीर को छोड़कर पहले जैसा सुन्दर शरीर धारण करके। बृहन्मणि शिला सालं गुप्तावपि मनोहरम्। 5/38 मणियों के ऊँचे-ऊँचे परकोटों में छिपे रहने पर भी वह नगर बड़ा सुन्दर लग रहा था। For Private And Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 590 कालिदास पर्याय कोश भाव साध्वसपरिग्रहाद्भूत्कामोदाहदमनोहरं वपुः। 8/1 इनके इस प्रेम और झिझक से भरे सुन्दर शरीर को ही देख-देखकर महादेव जी इन पर लट्ट हुए जा रहे थे। 5. रूप :-[रूप्+क, भावे अच् वा] सौन्दर्य, लावण्य, लालित्य। इयेष सा कर्तुमबन्ध्य रूपतां समाधिमास्थाय तपोभिरात्मनः। 5/2 बस उन्होंने ठान लिया कि जिसे मैं रूप से नहीं रिझा सकी, उसे अब सच्चे मन से तपस्या करके पाऊँगी। अस्मिन्द्वये रूपविधान यत्नः पत्युः प्रजानां विफलोऽभविष्यत्। 7/66 ब्रह्माजी ने इन दोनों का रूप गढ़ने में जो परिश्रम किया, वह सब अकारथ ही था। 6. ललित :-[लल्+क्त] प्रिय, सुन्दर, मनोहर, प्रांजल। शैलात्मज पितुरुच्छिरसोऽभिलाषं व्यर्थं समर्थ्य ललितं वपुरात्मनश्च।3/75 मेरे ऊँचे सिर वाले पिता का मनोरथ और मेरी सुन्दरता दोनों अकारथ हो गईं। 7. लावण्य :- [लवण+ष्यच्] सौन्दर्य, सलोनापन, मनोहरता। पुपोष लावण्य मयान्विशेषाज्योत्स्नान्तरणीव कलान्तराणि। 1/25 जैसे चाँदनी के बढ़ने के साथ-साथ चन्द्रमा की और सभी कलाएँ बढ़ने लगती है. वैसे ही ज्यों-ज्यों पार्वती जी बढ़ने लगीं, त्यों-त्यों उनके सुन्दर अंग भी सुडौल होकर बढ़ने लगे। कामप्यभिख्यां स्फुरितैरपुष्पदासन्नलावण्यफलोऽधरोष्ठः17/18 जिसकी सुन्दरता बस फलने ही वाली थी, वह ओंठ जब फड़कता था, उस समय की उसकी शोभा कहीं नहीं जा सकती। 9. शोभा :-[शुभ्+अ+टाप्] वैभव, सौन्दर्य, लालित्य, चारुता, लावण्य। भूतार्थ शोभाह्रिय माणनेत्रः पुसाधने संनिहितेऽपिनार्यः। 7/13 सिंगार की सब वस्तुएँ पास में होने पर भी वे सब पार्वती जी की स्वाभाविक शोभा पर इतनी लट्ट हो गईं। शरीर मात्रं विकृतिं प्रपेदे तथैव तस्थुः फणरत्नशोभाः। 7/34 उनके शरीर के बहुत से अंगों में जो साँप लिपटे हुए थे, उनके फणों पर जो मणि थे, वे ज्यों के त्यों चमकते रह गए। परस्परेण स्पृहणीय शोभं न चेदिरं द्वन्द्व मयोजयिष्यत्। 7/61 For Private And Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 591 कुमारसंभव सुन्दरता में एक दूसरे से बढ़े-चढ़े हुए इस जोड़े का यदि विवाह न होता, तो हम यही समझते। 9. श्री :-स्त्री० [श्रिन+क्विप्] सौन्दर्य, चारुता, लालित्य, कान्ति। तेषामाविरभूद् ब्रह्मा परिम्लान मुख श्रियाम्। 2/2 जब उदास मुँह वाले देवताओं के सामने ब्रह्मा जी उसी प्रकार आकर प्रकट हो गए। तथातितप्तं सवितुर्गभस्तिभिर्मुखं तदीयं कमलश्रियं दधौ। 5/21 इस प्रकार तप करते रहने पर भी उनका मुख सूर्य की किरणों से तपकर कुम्हलाया नहीं, वरन् कमल के समान खिल उठा। तदाननश्रीरलकैः प्रसिद्धैश्चिच्छेद सादृश्य कलाप्रसङ्गम्। 7/16 कोई भी ऐसा न दिखाई दिया, जो उनके गुंथी हुई चोटी वाले मुख की सुन्दरता के आगे ठहर सके। बभूव भस्मैव सिताङ्गरागः कपालमेवामल शेखर श्रीः। 7/32 उनके शरीर पर पुती हुई चिता की भस्म उजला अंग राग बन गई, कपाल ही गले के सुन्दर आभूषण बन गए। 10. सौन्दर्य :-[सुन्दर+ष्यञ्] सुन्दरता, मनोहरता, लावण्य। तां वीक्ष्य लीला चतुरामनङ्गः स्वचाप सौन्दर्यमदं मुमोच। 1/47 वे भौंहें इतनी सुन्दर थीं कि कामदेव भी अपने धनुष की सुन्दरता का जो घमण्ड लिए फिरते थे, वह इन भौंहों के आगे चूर-चूर हो गया। सा निर्मिता विश्व सृजा प्रयत्नादेकस्थसौन्दर्यदिदृक्षयेव। 1/49 इसलिए तो उन्होंने सुंदर अंगों की उपमा में आने वाली सारी वस्तुएँ बटोर कर, उन्हें सब अंगों पर यथा स्थान सजाकर सुन्दरता की मूर्ति पायी। कुले प्रसूतिः प्रथमस्य वेधसस्त्रिलोक सौन्दर्य मिवोदितं वपुः। 5/41 ब्रह्मा के वंश में तो आपका जन्म, शरीर भी आपका ऐसा सुन्दर मानो तीनों लोकों की सुन्दरता आप में ही लाकर भरी हो। कामवधू 1. कामवधू :-रति, कामदेव की पत्नी। अवा मोहपरायणा सती विवशा कामवधूर्विबोधिता। 4/1 For Private And Personal Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 592 कालिदास पर्याय कोश अकेली काठ के समान मूर्छित पड़ी हुई कामदेव की पत्नी रति को। 2. कुसुमायुधपत्नि :-रति, कामदेव की पत्नी। अथ मदनवधू रूप्लवान्तं व्यसनकृक्षा परिपालयां बभूव । 4/46 शोक से दुबली रति, कामदेव के शाप बीतने की अवधि की उसी प्रकार बाट जोहने लगी। 3. रति :-स्त्री० [रम्+क्तिन्] रति देवी, कामदेव की पत्नी। रतिवलय पदारु चापमासज्य कण्ठे 12/64 रति के कंगन की छाप पड़े हुए गले में, धनुष कंधे पर लटका कर। स माधवेनाभिमतेन सख्या रत्या च साशंकमनुप्रयातः। 3/23 वह वसन्त को साथ लेकर उधर चल दिया, इनके पीछे-पीछे बेचारी रति मन में डरती चली जा रही थी, कि आज न जाने क्या होने वाला है। तं देशमारोपित पुष्प चापे रति द्वितीये मदने प्रपन्ने। 3/35 फिर जब अपने फूल के धनुष पर बाण चढ़ाकर रति को साथ लेकर कामदेव आया। तां वीक्ष्य सर्वावयवानावद्यां रते रपि ह्रीपदमादधानाम्। 3/51 कामदेव ने जब रति को भी लजाने वाली, अधिक सुन्दर अंगों वाली पार्वती को देखा। अज्ञातभर्तृव्यसना मुहूर्तं कृतोपकारेव रतिर्बभूव । 3/73 अपने सिर पर आई हुए इस भारी विपत्ति को देखकर कामदेव की स्त्री तो मूर्छित होकर गिर पड़ी, उसकी इन्द्रियाँ स्तब्ध हो गईं। किम कारणमेव दर्शनं विलपन्त्यै रतये न दीयते। 4/7 फिर बिना बात के ही मुझ बिलखती हुई को तुम दर्शन क्यों नहीं दे रहे हो। उपचार पदं न चेदिदं त्वमनङ्ग कथम सता रतिः। 4/9 यदि वह बात केवल मेरा मन रखने भर को न होती, तो तुम्हारे राख हो जाने पर तुम्हारी यह रति भला कैसे जीती बची रह जाती। मदनेन विनाकृता रतिः क्षणमात्र किलजीवितेतिमे। 4/21 कामदेव के न रहने पर रति थोड़ी देर तक जीती रह गई। रति मभ्युपपत्तुमातुरां मधुरात्मानमदर्शयत्पुरः। 4/25 बिलखती हुई वियोगिनी रति को ढाढ़स बंधाने के लिए, वसन्त वहाँ आ खड़ा हुआ। For Private And Personal Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org कुमारसंभव इति देह विमुक्तये स्थिते रतिमाकाशभवा सरस्वती । 4/39 वैसे ही अचानक सुनाई पड़ने वाली आकाशवाणी ने भी प्राण छोड़ने को उतारू रति पर, यह कृपा की वाणी बरसा दी। काला Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1. काला :- [ काल+अच्+टाप्] काला, श्याम, कृष्ण । न चक्षुषोः कान्ति विशेष बुद्ध्या कालाञ्जनं मङ्गलमित्युपात्तम् । 7/20 काली काली आँखों में जो काजल लगाया, वह इसलिए नहीं कि आँजन से उनकी आँखों कुछ शोभा बढ़ेगी, वरन् इसलिए कि वह भी मंगल सिंगार की एक चलन थी । 593 तदीषदार्द्रारुण गण्ड लेखमुच्छ्वासि कालाञ्जन राग मक्ष्णोः । 7/82 पार्वती जी के गाल कुछ लाल हो गए, मुँह पर पसीने की बूँदें छा गईं, आँखों का काला अँजन फैल गया। 2. कृष्ण :- [ कृष+ नक्] काला, श्याम, गहरा नीला । कण्ठ प्रभा सङ्गविशेष नीलां कृष्णत्वचं ग्रंथिमतीं दधानम् । 3/46 गले की नीली चमक से और भी अधिक साँवली दिखाई पड़ने वाली मृगछाला, उनके शरीर पर गाँठ मारकर कसी हुई है । 3. नीला : - [ नील्+अच्] नीला, काला, कृष्ण, श्याम । कण्ठ प्रभासङ्ग विशेष नीलां कृष्णं त्वचं ग्रन्थिमतीं दधानम् । 3 / 46 गले की नीली चमक से और भी अधिक साँवली दिखाई पड़ने वाली मृगछाला, उनकी शरीर पर गाँठ मारकर कसी हुई हैं। उमापि नीलालक मध्य शोभि विस्त्रंसयन्ती नवकर्णिकारम् । 3/62 पार्वतीजी ने भी ज्यों ही सिर झुकाया, त्यों ही उनके काले-काले बालों में गुँथे हुए कर्णिकार के फूल गिर पड़े। कीर्ति 1. कीर्ति :- [स्त्री० ] [ कृत्+क्तिन् ] यश, प्रसिद्धि, कीर्ति । बलाकिनी नीलपयोद राजी दूरं पुरः क्षिप्तशत ह्रदेव 17/39 मानो बगुलों से भरी हुई और दूर तक चमकती हुई बिजली वाली नीले बादलों की घटा चली आ रही हो । For Private And Personal Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 594 कालिदास पर्याय कोश पुनन्ति लोकान्पुण्य त्वात्कीर्त यः सरितश्च ते। 6/69 निर्मल नदियाँ अपनी पवित्रता से सारे संसार को पवित्र करती हैं. वैसे ही आपकी कीर्ति भी सब लोकों को पवित्र करती है। यश:-प्रसिद्धि, कीर्ति। देह बद्धमिवेन्द्रस्य चिरकालर्जितं यशः। 2/47 जो बहुत दिनों से इकट्ठे किए हुए इन्द्र के यश के समान ही महान् था। अप्यप्रसिद्धं यशसे हि पुंसामनन्य साधारणमेव कर्म। 3/19 संसार में ऐसा असाधारण काम करने से ही यश मिलता है, जिसे कोई दूसरा न कर सके। कुसुम 1. कुसुम :- [कुष्+उम] फूल, पुष्प, सुमन। व्यवृत्तगति रुद्याने कुसुमस्तेय साध्व सात्। 2/35 वायु अधिक वेग से नहीं बहता क्योंकि उसे डर है, कि कहीं फुलवारी के फूल न झड़ जायें। तव प्रसादा कुसुमायुधोऽपि सहायमेकं मधुमेव लब्ध्वा। 3/10 आपकी कृपा हो तो, मैं केवल वसन्त को अपने साथ लेकर अपने फूल के बाणों से ही। मधु द्विरेफः कुसुमैक पात्रे पपौ प्रियां स्वामनुवर्तमानः। 3/36 भौंरा अपनी प्यारी भौंरी के साथ एक ही फूल की कटोरी में मकरन्द पीने लगा। ध्रियते कुसुम प्रसाधनं तब तच्चारु वपुर्न दृश्यते। 4/18 मेरा जो वासन्ती सिंगार किया था वह बना हुआ है, पर तुम्हारा सुन्दर शरीर अब कहीं देखने को नहीं मिल रहा है। क्व नु ते हयंगमः सखा कुसुमायोजित कार्मुको मधुः। 4/24 अब कहाँ गया, वह तुम्हारे लिए फूलों का धनुष बनाने वाला प्यारा मित्र वसन्त। कुसुमास्तरणे सहायतां बहुशः सौम्य गतस्त्वमावयोः। 4/35 हे वसन्त ! तुमने बहुत बार हम लोगों को फूल के बिछौने बनाने में सहायता दी तत्प्रत्याञ्च कुसुमायुध बन्धुरेनामाश्वासयत्वुचरितार्थ पदैवचोभिः। 4/45 For Private And Personal Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 595 विचार छोड़ दिया और उस आकाशवाणी पर विश्वास करके कामदेव के मित्र वसन्त ने भी बहुत कुछ समझा बुझा कर उसे ढाढस बंधाया। सा संभवद्भिः कुसुमैलतेव ज्योतिर्भिद्यद्भिखित्रियामा। 7/21 जैसे फूल आ जाने पर लताएँ स्वयं भी खिल उठती हैं या जैसे तारे निकलने पर रात जगमगाने लगती हैं। 2. पुष्प :-[पुष्प+अच्] फूल, कुसुम । प्रसन्न दिक्पांसु विविक्त वातं शंख स्वनानन्तरपुष्प वृष्टिः। 1/23 आकाश खुला हुआ था, पवन में धूल का नाम नहीं था, आकाश से शंख बजने के साथ-साथ फूल बरस रहे थे। अनन्तपुष्पस्य मधोर्हि चूते द्विरेफ माला सविशेष सङ्गा। 1/27 जैसे भौरों की पातें वसन्त के ढेरों फूलों को छोड़कर आम की मंजरियों पर ही झूमती रहती हैं। पर्याय सेवामुत्सृज्य पुष्पसंभारतत्पराः। 2/36 एक दूसरे ऋतु के फूलों को बिना छेड़े हुए, अपने-अपने ऋतु के फूल उपजा कर सेवा करती हैं। पर्याप्तपुष्पस्तवकस्तनाभ्यः स्फुरत्प्रवालौष्ठ मनोहराभ्यः। 3/39 जिनके बड़े-बड़े फूलों के गुच्छों के रूप में स्तन लटक रहे थे और पत्तों के रूप में सुन्दर ओंठ हिल रहे थे। मुक्ता कलापीमृतसिन्दुवारं वसन्त पुष्पाभरणं वहन्ती। 3/53 मोतियों की माला के समान उजले सिन्धुवार के वासन्ती फूलों के आभूषण सजे हुए थे। पदं सहेत भ्रमरस्य पेलवं शिरीषपुष्पं न पुनः पतत्रिणः। 5/4 शिरीष के फूल पर भौरे भले ही आकर बैठ जायें, पर यदि कोई पक्षी उस पर आकर बैठने लगे, तब तो वह नन्हाँ सा फूल झड़ ही जायेगा। महार्हशय्या परिवर्तनच्युतैः स्वकेशपुष्पैरपि या स्म दूयेत। 5/12 ठाठबाट से सजे हुए पलंग पर करवट लेते समय अपने बालों से झड़े हुए फूलों के दबाने से जो पार्वती सी-सी कर उठती थीं। चतुष्क पुष्पप्रकरावकीर्णयोः परोऽपि को नाम तवानुमन्यते। 5/66 आप अभी तक फूल बिछे हुए चौक में चलती आई हैं। यह बात तो आपका शत्रु भी आपके लिए नहीं चाहेगा। For Private And Personal Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 596 कालिदास पर्याय कोश शक्य मङ्गुलिभिरुत्थितैरथः शाखिनां पतितपुष्पपेशलैः। 8/72 पत्तों के बीच से छनकर धरती पर पड़ने वाली चाँदनी ऐसी सुन्दर और सुहावनी दिखाई दे रही हैं, जैसे पेड़ों से झड़े हुए फूल हों। केशर 1. केशर :-[के+सृ [१] +अच्, अलुक् स०] फूल का रेशा या तन्तु, पराग, रेणु। च्युत केशर दूषितेक्षणान्यवतंसोत्पलताडनानि वा। 4/8 जब मैंने अपने कान में पहने हुए कमल से तुम्हें पीटा था, उस समय उसका पराग पड़ जाने से जो तुम्हारी आँखें दुखने लगी थीं। 2. रेणु :-[पुं०, स्त्री०] [रीयतेः णुः नित्] धूल, पराग, पुष्परज, रेतकण। ददौ रसात्पंकजरेणुसुगन्धि गजाय गण्डूषजलं करेणुः। 3/37 हथिनी बड़े प्रेम से कमल के पराग में बसा हुआ सुगन्धित जल अपनी सूंड से निकालकर अपने हाथी को पिलाने लगी। 3. रजकण :-पराग, पुष्परज। मृगाः प्रियालदुममञ्जरीणां रजः कणैर्विजितदृष्टिपातः। 3/31 आँखों में प्रियाल के फूलों के पराग के उड़-उड़कर पड़ने से जो मतवाले हरिण भली-भाँति देख नहीं पा रहे थे। केसरिन् 1. केसरिन्:- [पुं०] [केसर+इनि] सिंह, श्रेष्ठ, सर्वोत्तम। विदन्ति मार्ग नखरन्ध्रमुक्तैर्मुक्ता फलैः केसरिणां किराताः। 116 उन सिंहों के नखों से गिरी हुई गज-मुक्ताओं को देखकर ही, यहाँ के किरात पता चला लेते हैं, कि सिंह किधर गए हैं। 2. सिंह :-सिंह, श्रेष्ठ, सर्वोत्तम। दृष्ट: कथंचिद् गवयैर्विविग्नैरसोढसिंह ध्वनिरुन्ननाद्। 1/56 तब नील गाएँ घबराकर उसे देखती रह जाती थीं, कि यह सिंह जैसा गरजने वाला दूसरा कौन आ पहुँचा। जित सिंह भया नागा यत्राश्वा बिलयोनयः। 6/39 For Private And Personal Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 597 वहाँ के हाथी ऐसे लगते थे कि सिंह को भी पावें, तो पछाड़े दें और घोड़े तो सभी बिल जाति के थे। सिंह केसर सटासु भूभृतां पल्लव प्रसविषु दुमेषु च। 8/46 सिंहों के लाल लाल केसरों को, नए-नए पत्तों से लदे हुए वृक्षों को। कोप 1. कोप :-[कुप्+घञ्] क्रोध, गुस्सा, रोष। कयासि कामिन्सुरतापराधत्पादानतः कोपनयावधूतः। 3/8 हे कामी ऐसी कौन सी स्त्री है, जो आपका संभोग न पाने पर क्रोध करके आपसे इतनी रूठी बैठी है कि पैरों पर गिरकर मनाने पर भी अभी तक नहीं मानी है। बिभेतु मोघीकृत बाहुवीर्यः स्त्रीभ्योऽपि कोप स्फुरिताऽधराभ्यः। 3/9 मेरे बाणों की मार से ऐसा शक्ति हीन हो जाना चाहता है, कि क्रोध से काँपते हुए ओठों वाली नारी तक उसे डरा दे। ददृशे पुरुषाकृति सितौ हरकोपानल भस्म केवलम्। 4/3 महादेवजी के कोप से जली हुई पुरुष के आकार की एक राख की ढेर सामने पृथ्वी पर पड़ी हुई है। यत्र कोपैः कृताः स्त्रीणामा प्रसादार्थिनः प्रियाः। 6/45 वहाँ की स्त्रियाँ अपने प्रेमियों को अवश्य डाँटती थी, जब तक वे प्रेमी आगे के लिए कान न पकड़ लें। 2. रोष :-[रुष्+घञ्] क्रोध, कोप, गुस्सा।। येदेव पूर्व जनमे शरीरं सा दक्षरोषत्सुदती ससर्ज। 1/53 जब से सती ने अपने पिता दक्ष के हाथों महादेवजी का अपमान होने पर क्रोध करके यज्ञ की अग्नि से अपना शरीर छोड़ा था। न खलूग्ररुषा पिनाकिना गमितः सोऽपि सुहृदगतां गतिम्। 4/24 कहीं वह भी महादेव जी के तीखे क्रोध की आग में अपने मित्र के साथ-साथ भस्म तो नहीं हो गया। न नूनमारूढरुषा शरीरमनेन दग्धं कुसुमायुधस्य। 7/67 अब हमारी समझ में आ रहा है कि इन्होंने कामदेव को क्रोध करके भस्म नहीं किया है। For Private And Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 598 कालिदास पर्याय कोश 3. संरम्भ :-[सम्+र+घञ्, मुम्] क्रोध, रोष, कोप, डल्लड़। सपदि मुकुलिताक्षीं रुद्रसंरम्भभीत्या। 3/76 महादेवजी के क्रोध से डरकर आँख बन्द करके जाती हुई। कौमुदी 1. कौमुदी :-[कौमुदी+ङीप्] चाँदनी। शशिना सहयाति कौमुदी सहमेघेन तडित्प्रलीयते। 4/33 चाँदनी चन्द्रमा के साथ चली जाती है, बिजली बादल के साथ ही छिप जाती है। कला च साकान्तिमती कलावतस्त्वमस्य लोकस्य चनेत्रकौमुदी। 5/71 एक तो चन्द्रमा की कला के, जो उनके माथे पर है और दूसरे आपके, जो संसार के नेत्रों को खिलाने वाली हैं। चन्द्रिका :-[चन्द्र+ठन्+टाप्] चाँदनी, ज्योत्स्ना। उन्नतावनत भाववत्तया चन्द्रिकासतिमिरा गिरेरियम्। 8/69 पहाड़ के ऊँचे नीचे होने से कहीं तो चाँदनी पड़ रही है और कहीं अँधेरा है। रोहितीव तव गण्डलेखयोरुल्लसत्प्रकृतिजप्रसादयोः। 8/74 अपनी स्वाभाविक प्रसन्नता से खिले हुए तुम्हारे गाल ऐसे लग रहे हैं, मानो उस पर चाँदनी चढ़ती आ रही हो। 3. ज्योत्स्ना :-[ज्योतिरस्ति अस्याम्-ज्योतिस्+न, उपघालोपः] चाँदनी। पुपोष लावण्यं मयान्विशेषाञ्जयोत्स्नान्तराणीव कलान्तराणि 1/25 जैसे चाँदनी बढ़ने के साथ-साथ चन्द्रमा की और सभी कलाएँ भी बढ़ने लगती हैं, वैसे ही ज्यो-ज्यों पार्वतीजी बढ़ने लगी त्यों-त्यों उनके अंग भी सुडौल होकर बढ़ने लगे। 4. शशिप्रभा :-चाँदनी, कौमुदी, ज्योत्स्ना। एक पिंगल गिरौ जगद्गुरुर्निर्विवेश विशदाः शशिप्रभाः। 8/24 महादेवजी ने कुबेर की राजधानी कैलास पर रहकर उजली चाँदनी का भरपूर आनन्द लूटा। पत्र जर्जर शशि प्रभालवैरेभिरुत्कचयितुं तवालकान्। 8/72 तुम चाहो तो फूलों के समान दिखाई पड़ने वाले इन चाँदनी के फूलों से ही तुम्हारे केश गूंथ दिए जायें। For Private And Personal Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 599 क्रन्द 1. क्रन्द :-क्रन्दन करना, रोना, विलाप करना। परस्परा क्रन्दिनि चक्रवाकयोः पुरो वियुक्ते मिथुने कृपावती। 5/26 चकवे और चकवी का जो जोड़ा एक दूसरे से बिछुड़ा हुआ चिल्लाया करता था, उन्हें वे ढाढ़स बंधाया करती थीं। दष्टतामरकेसरस्रजोः क्रन्दतोर्विपरिवृत्तकण्ठयोः। 8/32 फूले हुए कमलों की केसर चोंच में उठाकर ये चकवे-चकवी एक-दूसरे के कंठ से अलग होकर चिल्लाने लगे हैं। 2. रुद :- क्रंदन करना, रोना, विलाप करना। विरुतैः करुण स्वनैरियं गुरुशोकामनुरोदितीव माम्।।4/15 मानो वे भी मुझ दुःख में बिलखती हुई के साथ-साथ रो रही हों। तमवेश्य रुरोद सा भृशं स्तन संबांधमुरो जघान च। 4/16 वसन्त को देखकर वह और भी फूट-फूटकर और छाती पीट-पीट कर रोने लगी। क्षपा 1. क्षपा :-[क्षप्+अच्+टाप्] रात, हल्दी। व्यलोक यन्नुन्मिषितैस्तडिन्मयैर्महातपः साक्ष्य इव स्थिताः क्षपः। 5/25 वे अँधेरी रातें अपनी बिजली की आँखें खोल-खोल कर इस प्रकार उन्हें देखा करती थीं, मानो वे उनके कठोर तप की साक्षी हों। 2. त्रियामा :-रात्रि। सा संभवद्भिः कुसुमैलतेव ज्योतिर्भिरुद्यद्भिरिव त्रियामा। 7/21 जैसे फूल आ जाने पर लताएँ स्वयं खिल उठती हैं या जैसे तारे निकलने पर रात जगमगाने लगती है। क्षीरो दवेलेव सफेनपुञ्जा पर्याप्त चन्द्रव शरत्रियामा। 7/26 मानो वे शरद ऋतु की पर्यापत चाँदनी वाली रात में क्षीर समुद्र की उतराते हुए फेन वाली लहर हों। 3. नक्त :-रात, रात्रि। For Private And Personal Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 600 कालिदास पर्याय कोश तां हंस मालाः शरदीव गंगा महौषधिंनक्तमिवात्मभासः। 1/30 जैसे शरत ऋत के आ जाने पर गंगा जी में हंस आ जाते हैं या जैसे अपने आप चमकने वाली जड़ी बूटियों में रात को चमक आ जाती है। यत्र स्फटिक हर्येषु नक्त मापान भूमिषु। 6/42 स्फटिक के भवनों में सजे हुए मदिरालय पर रात को जब तारों की परछाई पड़ती थी। यत्रौषधि प्रकाशेन नक्तं दर्शितं संचराः। 6/43 रात को चमकने वाली जड़ी बूटियाँ ऐसा प्रकाश देती थीं। निशा :-रात्रि, रात। ज्वलन्मणि शिखाश्चैनं वासुकि प्रमुखा निशि। 2/38 चमकते हुए मणि के मन वाले वासुकि आदि रात को। मुखेन स पद्मसुगन्धिना निशि प्रवेपमानाधर पत्रशोभिना। 5/27 रातों में जल के ऊपर पार्वतीजी का मुँह भर दिखाई पड़ता था। जाड़े से उनके ओंठ काँपते थे और उनकी सांस से कमल की गंध के समान जो सुगन्ध निकल रही थी, उसकी गमक चारों ओर फैल जाती थी। त्रिभागशेषासु निशासु च क्षणं निमील्य नेत्रे सहसा व्यबुध्यत्। 5/57 रात के पहले ही पहर में क्षणभर के लिए आँख लगी नहीं कि बिना बात के ये चौंककर बरबराती हुई जाग उठती थीं। लोक एषतिमिरौधवेष्टितो गर्भवास इववर्तते निशि। 8/56 इस रात के समय सारा संसार इस प्रकार अँधेरे में घिर गया है, जैसे गर्भ की झिल्ली में लिपटा हुआ बालक पड़ा हो। मन्दरान्त मूर्तिना निशा लक्ष्यते शशभृता सतारका। 8/59 इसलिए इस समय मन्दराचल के पीछे छिपे हुए चन्द्रमा इस तारों वाली रात में ठीक ऐसे लगते हैं। उन्नतेषु शशिनः प्रभा स्थिता निम्नसंश्रयपरं निशातमः। 8/66 पार्वती की चोटियों पर तो चाँदनी फैल गई है, पर घाटियों और खड्डों में अभी अँधेरा बना हुआ है। 5. प्रदोष :-रात्रि, रात। शशिन इव दिवातनस्य लेखा किरणपरिक्षतधूसरा प्रदोषम्। 4/46 For Private And Personal Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 601 कुमारसंभव जैसे दिन में दिखाई देने वाले निस्तेज चन्द्रमा की किरण साँझ होने की बाट जोहती है। वद प्रदोषे स्फुटचन्द्रतारका विभावरी यद्यरुणाय कल्पते। 5/44 बताइए बढ़ती हुई रात की सजावट खिले हुए चन्द्रमा और तारों से होती है, या सबेरे के सूर्य की लाली से। 6. यामिनी :-[याम+इनि+ङीप] रात। यामिनी दिवससंधि संभवतेजसि व्यवहिते सुमेरुणा। 8/55 सूर्यास्त हो जाने से रात और दिन का मेल करने वाली साँझ का सब प्रकाश सुमेरु पर्वत के बीच में आ जाने से जाता रहा। 7. रजनी :-[रज्यतेऽत्र, रञ्ज+कनि वा ङीप] रात। भवन्ति यत्रौषधयो रजन्यामतैलपूराः सुरतप्रदीपाः। 1/10 रात को चमकने वाली जड़ी बूटियाँ उनकी काम-क्रीड़ा के समय बिना तेल के दीपक बन जाती हैं। रजनीतिमिरावगुण्ठिते पुरमार्गेघनशब्दविल्कवाः। 4/11 अब वर्षा के दिनों में रात की घनी अंधियारी से भरे डरावने नगर के मार्गों में बिजली की कड़कड़ाहट से डर उठने वाली। 8. रात्रि:-[राति सुखं भयं वा रा+त्रिप् वा ङीप्] रात। स्वकालपरिमाणेन व्यस्तरात्रि दिवस्यते। 2/8 आपने समय की जो माप बना रखी है, उसके अनुसार जो दिन और रात होते हैं। निनाय सात्यन्त हिमोत्किरानिलाः सहस्यरात्रीरुदवासतत्परा। 5/26 पूस की जिन रातों में वहाँ का सरसराता हुआ पवन चारों ओर हिम ही हिम बिखरेता चलता था। रात्रिवृत्तमनु योक्तुमुद्यतं सा प्रभात समये सखीजनम्। 8/10 जब इनकी सखियाँ इनसे रात की बातें पूछने लगती। एतदुद्गिरति चन्द्रमण्डलं दिग्रहस्यमिव रात्रिनोदितम्। 8/60 जो चन्द्रमा दिनभर दिखाई नहीं देता था, वह उस समय निकला हुआ ऐसा लगता है, मानो रात के कहने से। 9. विभावरी :-[वि+भावनिप् ङीप्, र आदेश:] रात। वद प्रदोषे स्फुट चन्द्रतारका विभावरी यद्यरुणाय कल्पते। 5/44 For Private And Personal Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org 602 कालिदास पर्याय कोश बतलाइए भला बढ़ती हुई रात की सजावट खिले हुए चन्द्रमा और तारों से होती है या सबेरे के सूर्य की लाली से । 10. शार्वर :- [ शर्वरी+अण्] रात्रिकालीन, रात । नून मुन्नमति यज्वनां पतिः शार्वरस्य तमसो निषिद्धये । 8 /58 इससे यह निश्चय जान पड़ रहा है कि रात का अँधेरा दूर करने के लिए चन्द्रमा निकले चले आ रहे हों । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्षिति 1. क्षिति : [ क्षि+ क्तिन् ] पृथ्वी, निवास, आवास । मूर्धान मालि क्षिति धारणोच्चमुच्चैस्तरं वक्ष्यति शैलराजः । 7/68 पृथ्वी धारण करने से उनका सिर वैसे ही ऊँचा था, उस पर शंकर जी से सम्बन्ध करके से उनका सिर वैसे ही ऊँचा हो जाएगा । क्षितिविरचितशय्यं कौतुकागारमागात्। 9/94 उस शयन घर में पहुँचे जहाँ सजी हुई सेज बिछी हुई थी । 2. पृथ्वी : - [ पृथ्+षिंवन्, संप्रसारणम् ] पृथ्वी, पृथिवी । पूर्वापरौ तोयनिधी वगाह्य स्थितः पृथिव्या इव मानदण्डः । 1/1 वह पूर्व और पश्चिम के समुद्रों तक फैला हुआ ऐसा लगता है, मानो वह पृथ्वी को नापने तौलने का माप दण्ड हो । आजहतुस्तच्चरणै पृथिव्यां स्थलारविन्द श्रियमव्यवस्थाम् । 1 / 33 जब वे अपने इन चरणों को उठा-उठाकर रखती चलती थीं, तब तो ऐसा जान पड़ता था, मानो वे पग-पग पर स्थल कमल उगाती चल रही हों। 3. धरित्री : - [ धृ + इ + ङीष् ] पृथ्वी, भूमि, मिट्टी | भास्वन्ति रत्नानि महौषधीश्च पृथूपदिष्टां दुदुहुर्धरित्रीम् । 1/2 राजा पृथु के कहने पर पृथ्वी रूपी गौ से सब चमकीले रत्न और जड़ी-बूटियाँ दूहकर निकाल लीं। यज्ञाङ्गयोनित्वमवेक्ष्य यस्य सारंधरित्रीधरणक्षमं च । 1/17 यज्ञ में काम आने वाली सामग्रियों को उत्पन्न करने के कारण और पृथ्वी को संभाले रखने की शक्ति होने के कारण । 4. भुव:- [ भवत्यत्र, भू-आधारादौ - क्युन् ] पृथ्वी, स्वर्ग । For Private And Personal Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 603 कुमारसंभव तपात्ययेवारिभिरुक्षिता नवैर्भुवा सहोष्माणम मुंच दूर्ध्वगम्। 5/23 वर्षा होने पर उधर तो गर्मी से तपी हुई पृथ्वी से भाप निकल उठी! आसक्तबाहुलतया सार्ध मुद्धृतया भुवा। 6/8 उबारी हुई पृथ्वी के साथ-साथ उनके जबड़ों मे विश्राम किया करते हैं। उन्नतेन स्थितिमिता धुरमुद्वहता भुवः। 6/30 फिर ऐसी ऊँची प्रतिष्ठा वाले और पृथ्वी को धारण करने वाले। 5. भूमि :-[भवन्त्यस्मिन् भूतानि-भू+मि किच्च वा ङीप्] पृथ्वी, मिट्टी,भूमि। विदूर भूमिर्नवमेघशब्दादुद्भिन्नया रत्न शलाक येव। 1/24 जैसे नये मेघ के गरजने पर विदूर पर्वत के रत्नों में अंकुर फूट आते हैं और उनके प्रकाश से विदूर पर्वत की भूमि चमक उठती है। स वासवेना सनसनिकृष्टमितो निषीदेति विसृष्ट भूमिः। 3/2 इन्द्र ने कामदेव से कहा-आओ यहाँ बैठो। यह कहकर उसे अपने पास ही बैठा लिया, उसने भी सिर झुकाकर। योषित्सु तद्वीर्य निषेक भूमिः सैव क्षमेत्यात्म भुवोपदिष्टम्। 3/16 ब्रह्माजी ने स्वयं यह बात बताई है कि स्त्रियों में वे ही एक ऐसी हैं, जो शिवजी का वीर्य धारण कर सकती हैं। भविष्यतः पत्युरुमाच शंभोः समाससाद प्रतिहारभूमिम्। 3/58 इसी बीच पार्वती भी अपने भावी पति शंकर जी के आश्रम के द्वार पर आ पहुँची। भूमेर्दिवमिवारूढं मन्ये भवदनुग्रहात्। 6/55 पृथ्वी पर रहते हुए भी स्वर्ग पर चढ़ गया हूँ। स्वबाणचिह्नादवतीर्य मार्गदासन्नभूपृष्ठामियाय देवः। 7/51 उस आकाश से पृथ्वी पर उतरे, जिसमें उन्होंने अपने बहुत से बाण चलाकर चिह्न बना दिए थे। 6. वसुधा :-[वसस्+उन्+धा] पृथ्वी, भूमि। अथ सा पुनरेव विह्वला वसुधालिंगन धूसरस्तनी। 4/4 रति बेहाल हो उठी और मिट्टी में लोट-लोटकर रोने लगी। निर्वृत्त पर्जन्य जलाभिषेका प्रफुल्लाकाशा वसुधेवे रेजे। 7/11 मानो गरजते हुए बादलों के जल से धुली हुई और कांस के फूलों से भरी हुई धरती शोभा दे रही हो। For Private And Personal Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 604 कालिदास पर्याय कोश 7. वसुन्धरा :-[वसूनि धारयति-वसु++णिच्+खच्+टाप्, मुम्] पृथ्वी, भूमि नमयन्सारगुरुभिः पादन्यासर्वसुंधराम्। 6/50 उसके पैरों की धमक से पृथ्वी भी पग-पग पर झुकती चली। खड्ग 1. खड्ग :-[खड्-गन्] तलवार। आत्मानमासन्नगणोपनीते खड्गे निषक्त प्रतिमंददर्श। 7/36 अपने पास बैठे हुए गण से खड्ग मँगाकर उसमें अपना मुँह देखा। 2. मण्डलाग्र :-तलवार, करवाल। सांपरायवसुधा स शोणितं मण्डलाग्रमिव तिर्यगुज्झितम्। 8/54 मानो युद्ध भूमि में टेढ़ी चलाई हुई लहू भरी करवाल हो। गंगा 1. गंगा :-[गम्+गन्+टाप्] गंगा नदी। तां हंसमाला: शरदीव गंगा महौषधिं नक्तमिवात्मभासः। 1/30 जैसे शरत् ऋतु के आने पर गंगाजी में हंस आ जाते हैं या जैसे अपने आप चमकने वाली जड़ी-बूटियों में रात को चमक आ जाती है। विकीर्ण सप्तर्षिबलिप्रहासिभिस्तथान गांगैः सलिलैविश्च्युतैः। 5/37 यों तो सप्त ऋषियों के हाथ से चढ़ाए हुए पूजा के फूल और आकाश से उतरी हुई गंगा की धाराएँ हिमालय पर गिरती हैं। गंगास्त्रोतः परिक्षिप्तं वप्रान्तर्ध्वलितौषधिः। 6/38 उस नगर के चारों ओर गंगाजी की धाराएँ बहती थीं, चमकने वाली जड़ी-बूटियाँ वहाँ प्रकाश करती थीं। यथैव श्लाघते गंगा पादेन परमेष्ठिनः। 6/70 जैसे गंगाजी, विष्णु के चरणों से निकलकर अपने को बहुत बड़ा मानती हैं। स तदुकूलाद विदूरमौलिर्वभौ पतद्गंग इवोत्तमाङ्गे। 7/41 उस समय शिवजी के सिर के पास छत्र से लटकता हुआ कपड़ा ऐसा जान पड़ता था, मानो गंगाजी की धारा ही गिर रही हो। मूर्ते च गंगायमुने तदीनां सचामरे देवमसेविषाताम्। 7/42 For Private And Personal Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 605 गंगा और यमुना भी अपना नदी का रूप छोड़कर महादेवजी पर चँवर डुलाने लगीं। 2. जाह्नवी :-[जहनु+अण्+ङीप्] गंगा नदी का विशेषण। सागरादनपगा हि जाह्नवी सोऽपि तन्मुखरसैकवृत्तिभाक्। 8/16 जैसे गंगा जी, समुद्र के पास जाकर और मिलकर वहाँ से लौटने का नाम तक नहीं लेती और समुद्र भी उन्हीं के मुख का जल ले लेकर उनसे प्रेम किया करता तत्र हंस धवलोतरच्छदं जाह्नवी पुलिन चारुदर्शनम्। 8/82 वहाँ हंस के समान उजली....और गंगाजी के समान मनोहर दिखाई देने वाले। 3. त्रिमार्ग :-गंगा। प्रभामहत्या शिखयेव दीपस्त्रिमार्गयेव त्रिदिवस्य मार्गः। 1/2 जैसे अत्यंत प्रकाशमान लौ को पाकर दीपक, मन्दाकिनी को पाकर स्वर्ग का मार्ग। 4. त्रिस्रोतस :-गंगा का विशेषण। सा चक्रवाकाङ्कितसैकतायास्त्रिस्रोतसः कान्तिमतीत्यतस्थौ। 7/1 उस समय पार्वती जी इतनी सुन्दर लग रही थीं कि उनके रूप के आगे उजली धारा वाली उन गंगाजी की शोभा फीकी पड़ गई, जिसके तीर पर की बालू में चकवे बैठे हों। 5. भागीरथी :-[भगीरथ+अण+ङीप्] गंगा नदी। भागीरथी निर्झर सीकराणां वोढा मुहः कम्पितदेवदारुः।। 1/15 गंगाजी के झरनों की फुहारों से लदा हुआ, बार-बार देवदारु के वृक्ष को कंपाने वाला। मन्दाकिनी :-[मन्दमकति-अक्+णिनि+ङीष्] गंगा नदी। मन्दाकिनी सैकतवेदिकाभिः सा कन्दुकैः कृत्रिम पुत्रैकश्च। 1/29 कभी तो गंगाजी के बलुए तट पर वेदियाँ बनाती थीं, कभी गेंद खेलती थीं और कभी गुड़ियाँ बना-बनाकर सजाती थीं। मन्दाकिन्याः पयः शेषं दिग्वारण मदाविलम्। 2/44 मन्दाकिनी में आज कल केवल दिग्गजों के मद से गंदला जल भर दिखाई दिया करता है। For Private And Personal Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 606 कालिदास पर्याय कोश विशोषितां भानुमतो मयूखैर्मन्दाकिनी पुष्कर बीज मालाम्।। 3/65 धूप में सुखाई हुए मन्दाकिनी के कमल के बीजों की माला। गम 1. गम् :-जाना, चलना-फिरना, विदा होना, चले जाना, दूर जाना। तत्र निश्चित्य कंदर्पमगमत्पाक शासनः। 2/63 इन्द्र ने भली-भाँति सोच-विचारकर कामदेव को स्मरण किया। गणाश्च गियलियमभ्यगच्छन्प्रशस्तमारम्भ मिवोत्तमार्थाः। 7/71 महादेवजी के सभी गण हिमालय के घर में उसी प्रकार बैठे जैसे किसी काम के ठीक-ठीक प्रारंभ हो जाने पर उसके पीछे और भी बहुत से बड़े-बड़े काम सध जाते हैं। 2. पद :-[प्रप] जाना, हिलना, डुलना, चलना-फिरना, पास जाना, पहुँचना। क्षुद्रेऽपि नूनं शरणं प्रपन्ने ममत्वमुच्चैः शिरसां सतीव। 1/12 वे अपनी शरण में आए हुए नीच लोगों से भी वैसा ही अपनापन बनाए रहते हैं, जैसा सज्जनों के साथ। कामस्य पुष्प व्यतिरिक्तमस्त्रं बाल्यात्परं साथ वयः प्रपेदे। 1/31 इस प्रकार धीरे-धीरे उनका बचपन बीत गया और उनके शरीर में वह यौवन फूट पड़ा, जो कामदेव का बिना फूलों वाला बाण है। तदा सहास्माभिरनुज्ञया गुरोरियं प्रपन्ना तपसे तपोवनम्। 5/59 ये अपनी माता की आज्ञा लेकर हम लोगों के साथ तप करने के लिए यहाँ तपोवन में चली आईं। प्रस्थ :-[प्र+स्था+क्] जाना, चलना। आसेदशेषधिप्रस्थं मनसा समरंहसः। 6/36 मन के समान वेग से चलने वाले ऋषि औषधिप्रस्थ नगर में पहुँच गए। इत्योषधिप्रस्थ विलासिनीनां शृण्वन्कथाः श्रोत्रसुखास्त्रिनेत्रः। 7/69 औषधिप्रस्थ की स्त्रियों की ऐसी मीठी-मीठी बातें सुनते हुए, महादेव जी। गिरा 1. गिरा :-[गि+क्विप्+टाप्] वाणी, बोलना, भाषा, आवाज। कर्मयज्ञः फलं स्वर्गस्तासां त्वं प्रभवो गिराम्। 2/12 For Private And Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 607 कुमारसंभव जिसके मंत्रों से यज्ञ करके लोग स्वर्ग प्राप्त कर लेते हैं। वचस्यवसिरो तस्मिन्ससर्ज गिरमात्मभूः। 2/53 उनके कह चुकने पर ब्रह्माजी ऐसी मधुर वाणी बोले। क्रोधं प्रभो सं हरेति यावगिरः खे मरुतां चरन्ति। 3/72 यह देखते ही एक साथ सब देवता आकाश में चिल्ला उठे, हैं, हैं रोकिये-रोकिये अपने क्रोध को प्रभु। ईप्सितार्थ क्रियोदारं ते ऽभिनन्द्य गिरेर्वचः। 6/90 अपना काम पूरा हुआ देखकर सप्तऋषियों ने हिमालय की प्रशंसा की। 2. भारती :-स्त्री०[ [भरत+अण+ई] वाणी, वाच्य, वचन। तमर्थमिव भारत्या सुतया योक्तुमर्हसि। 6/79 इसलिए आप शिवजी से अपनी पुत्री का वैसे ही अटूट सम्बन्ध कर दीजिए, जैसे वाणी का अर्थ से हो गया है। 3. वाच :-[स्त्री०] [वच्+क्विप् दीर्घोऽसंप्रसारणं च] वचन, शब्द, पदावली। यदुच्यते पार्वति पापवृत्तयेन रूपमित्यव्यभिचारितद्वचः। 5/36 हे पार्वती जी ! यह ठीक ही कहा जाता है, कि सुन्दरता पाप की ओर कभी नहीं झुकती। जयेति वाचा महिमानमस्य संवर्धयन्तौ हविषेव वह्निम्। 7/43 जैसे आग में घी डालने से उसकी लपट बढ़ जाती है, वैसे ही उनकी जय-जयकार करके उनकी महिमा और बढ़ा दी। अपि शयन सखीभ्यो दत्तवायं कथंचित्। 7/95 सखियों की चुटकियों का ज्यों-त्यों उत्तर देने वाली पार्वती जी भी। निर्विभुज्य दशनच्छदं ततो वाचि भतुरवधी रणापरा। 8/49 यह सुनकर महादेव जी की बात अनसुनी सी करके अपना ओठ बिचका लिया। पार्वतीमवचनाम सूयया प्रत्युपेत्य पुनराह सस्मितम्। 8/50 महादेवजी जी उन पार्वती के पास पहुँचे, जो चुप्पी साधकर रूठी हुई बैठी थी और उनसे मुस्कुराते हुए कहने लगे। त्वं मया प्रिय सख समागता श्रोष्यतेव वचनानि पृष्ठतः। 8/59 जैसे मैं तुम्हारे पीछे आकर तुम लोगों की बात उस समय सुनता हूँ, जब तुम अपनी सखियों के साथ बैठकर बातें करती होती हो। For Private And Personal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 608 कालिदास पर्याय कोश गुरु 1. गुरु:- [पु०] [गृ+कु ; उत्वम्] पिता। गुरुः प्रगल्भेऽपि वयस्यतोऽस्यास्तस्थौ निवृत्तान्यवराभिलाषः। 1/51 यद्यपि पार्वती जी सयानी होती चली जा रही थीं, पर नारद जी की बात से हिमालय इतने निश्चिन्त हो गए कि उन्होंने दूसरा वर खोजने की चिन्ता ही छोड़ दी। अथानुरूषाभिनिवेशतोषिणा कृताभ्यनुज्ञा गुरुणा गरीयसा। 5/7 जब हिमालय ने समझ लिया कि पार्वतीजी अपनी सच्ची टेक से डिगेंगी नहीं, तब उन्होंने पार्वतीजी को तप करने की आज्ञा दे दी। तदा सहस्माभिरनुज्ञया गुरोरियं प्रपन्ना तपसे तपोवनम्। 5/5 तो ये अपने पिता की आज्ञा लेकर हम लोगों के साथ तप करने के लिए यहाँ तपोवन में चली आई। 2.पिता/पितृ :-[पुं०] [पाति रक्षति-पा+तृच्] पिता। त्वं पितृणामपि पिता देवनामपि देवता। 2/14 आप पितरों के भी पिता, देवताओं के भी देवता। शैलात्मजापि पितुरुच्छिश्सोऽभिलाषं व्यर्थं समर्थ्य ललितं वपुरात्मश्च। 3/75 आज मेरे ऊँचे सिर वाले पिता का मनोरथ और मेरी सुन्दरता दोनों अकारथ हो गईं। कदाचिदसन्न सखी मुखेन सा मनोरथज्ञं पितरं मनस्विनी। 5/6 हिमालय तो पार्वती जी के मन की बात जानते ही थे, इसी बीच एक दिन पार्वती जी ने अपनी प्यारी सखी से कहलाकर, अपने पिताजी से पुछवाया। अलभ्य शोकाभिभवेयमाकृतिर्विमानना सुभृकुतः पितुर्गुहे। 5/ हे सुन्दर भौंहों वाली ! आपका रूप ही ऐसा है न तो आप पर कोई क्रोध ही कर सकता है, न आपका निरादर कर सकता, क्योंकि पिता के घर में आपका निरादर करने वाला कोई है नहीं। तदा प्रभृत्युन्मदना पितुर्गहे ललाटिका चन्दन धूसरालका। 5/55 तभी से ये बेचारी अपने पिता के घर इतनी प्रेम की पीड़ा से व्याकुल हुई पड़ी रहती थीं, कि माथे पर पुते हुए चन्दन से बाल भर जाने पर भी। For Private And Personal Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 609 अशोच्या हि पितुः कन्या सद्भर्तप्रतिपादिता। 6/79 अच्छे पति से कन्या का विवाह हो जाय, तो पिता की चिन्ता मिट जाती है। मातरं कल्पयन्त्वेना मीशां हि जगतः पिता। 6/80 महादेवजी संसार के पिता हैं, इसलिए पार्वती जी भी संसार के चर और अचर सब प्राणियों की माता बन जायेंगी। एवं वादिनि देवर्षों पार्वे पितुरधोमुखी। 6/84 देवर्षि लोग जिस समय यह कह रहे थे, उस समय पार्वती अपने पिता के पास मुँह नीचा किए। आसन्न पाणिग्रहणेति पित्रोरुमा विशेषोच्छ्वसितं बभूव। 7/4 हिमालय और मेना दोनों को पार्वती जी प्राण से बढ़कर प्यारी लग रही थीं, क्योंकि विवाह हो जाने पर वे अभी वहाँ से चली जाने वाली थीं। गुरु (ii) 1. गुरु :- [गृ+कु, उत्वम्] अध्यापक, शिक्षक, गुरु। गुरुं नेत्र सहस्रेण नोदया मास वासवः। 1/29 इन्द्र ने अपने सहस्त्र नेत्रों को इस प्रकार चलाकर वृहस्पति जी को बोलने के लिए संकेत किया। 2. वाचस्पति :-देवताओं के गुरु, वृहस्पतिजी, अध्यापक, शिक्षक, गुरु । वाचस्पति रुवाचेदं प्राञ्जलिर्जलजासनम्। 2/30 वे वृहस्पतिजी, हाथ जोड़कर ब्रह्माजी से कहने लगे। वाचस्पतिः सन्नपि सोऽष्टमूर्ती त्वा शास्यचिन्तास्तिमितो बभूव। 7/87 वाणी के स्वामी होते हुए भी उनकी यह समझ में नहीं आया, कि सब इच्छाओं से परे रहने वाले शंकरजी को हम क्या आशीर्वाद दें। गुह 1. गुह :- [गुह्क] कार्तिकेय का विशेषण। गुहोऽपि येषां प्रथमाप्तजन्मनां न पुत्र वात्सल्यमपाकरिष्यति। 5/14 उन्हें वे पुत्रों के समान इतना प्यार करती थीं कि पीछे जब स्वामी कार्तिकेय का जन्म हो गया, तब भी उनका वात्सल्य प्रेम इन पौधों पर कम नहीं हुआ। For Private And Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 610 कालिदास पर्याय कोश 2. शितिकण्ठआत्मा :-कार्तिकेय का विशेषण। तस्यात्मा शितिकण्ठस्य सैनापत्यमुपेत्य वः। 2/61 उन्हीं पार्वती जी से शंकर जी का जो पुत्र होगा, वही आप लोगों का सेनापति होगा। गुहा 1. गुहा :-[गुह्+टाप्] गुफा, कंदरा, छिपने का स्थान। दिवाकराद्रक्षति यो गुहास्तु लीनं दिवाभीतमिवान्धकारम्। 1/12 ऐसा लगता है, मानो अँधेरा भी दिन से डरने वाले उल्लू के समान गहरी गुफाओं में जाकर दिन में छिप जाता है। इत्यूचिवाँस्त मेवार्थं गुहामुखविसर्पिणा। 6/64 हिमालय के कह चुकने पर गुफाओं में से जो गूंज निकली। 2. दरी :-[स्त्री०] [पृ+इन्, दरि+ङीष्] गुफा, कंदरा, घाटी। वनेचराणां वनितासखानां दरीगृहोत्सङ्ग निषक्त भासः। 1/10 यहाँ के किरात लोग, जब अपनी-अपनी प्रियतामाओं के साथ उन गुफाओं में विहार करने आते हैं। गौर 1. गौर :-[वि.] [गु+र, नि०] श्वेत, पीला सा, पीत लाल रंग का। मुखैः प्रभा मण्डल गौरैः पद्माकरं चकुरिवान्तरीक्षम्। 7/38 अपने तेजो मण्डल की चमक से गोरे-गोरे मुख वाली सुन्दर माताओं के मुँह आकाश में ऐसे लग रहे थे, मानो किसी ताल में बहुत से कमल खिल गए हों। पाण्डु :-[वि.] [पण्ड्+कु ; ति० दीर्घ] पीत-धवल, सफेद सा, पीला। अन्योन्यमुत्पीडयदुत्पलाक्ष्याः स्तनद्वयं पाण्डु तथा प्रवृद्धम्। 1/40 उन कमल के समान आँखों वाली के गोरे-गोरे दोनों स्तन बढ़कर आपस में इतने सट गए थे कि। गौरव 2. 1. गौरव :-[गुरु+अण्] बोझ, भार, सम्मान, आदर, मर्यादा, श्रद्धा। प्रयोजनापेक्षितया प्रभूणां प्रायश्चलं गौरवमाश्रितेषु। 3/1 For Private And Personal Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org कुमारसंभव प्रायः ऐसा होता है कि स्वामी को अपने सेवकों से जब जैसा काम निकालना होता है, उसी के अनुसार वे उनका आदर भी किया करते हैं। भवन्ति साम्येऽपि निविष्टचेतसां वपुर्विशेषेश्वति गौरवाः क्रियाः । 5/3 क्योंकि जिन्होंने अपने मन को साध लिया है, वे यदि अपनी बराबर की अवस्था वाले तेजस्वी पुरुष से भी मिलते हैं, तो बड़े आदर से मिलते हैं। तद्गौरवान्मङ्गल मण्डनश्रीः सा पश्पृशे केवलमीश्वरेणः । 7/31 शंकरजी ने माताओं का आदर करने के लिए वे सब मंगल - शृंगार की सामग्रियाँ छू भर दीं। 2. प्रभाव :- [प्र+भू+घञ्] गरिमा, यश, महिमा, तेज । स्वागतं स्वानधीकारान्प्रभावैरवलम्ब्य वः । 2/18 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एक साथ मिलकर आए हुए, अपनी शक्ति से अपने-अपने अधिकारों की रक्षा करने वाले देवताओं ! आप लोगों का स्वागत करता हूँ। इत्युद्भुतैकप्रभवः प्रभावात्प्रसिद्ध नेपथ्य विधेर्विधाता । 7/36 अपनी शक्ति से संसार के सभी सिंगार को बनाने वाले और सदा ही अनोखा काम करने वाले महादेवजी । 611 3. महिमा : - [ पुं०] [ महत् + : इमनिन्य टिलोपः ] यश, गौरव, प्रतिष्ठा । तिसृभिस्त्वमवस्थाभिर्महिमानमुदीरयन्। 2/6 आप ही शिव, विष्णु और हिरण्यगर्भ इन तीन रूपों में प्रतिष्ठित हैं। तिर्यगूर्ध्वमधस्ताच्च व्यापको महिमा हरेः । 6/71 भगवान् विष्णु की महिमा संसार में तब फैली, जब उन्होंने ऊपर नीचे और तिरछे पैर रखकर तीनों लोकों को माप डाला । पूर्वं महिम्ना स हि तस्य दूरमावर्जितं नात्मशिरोविवेद | 7/54 पर उसे यह नहीं पता चला, कि प्रणाम करने के पहले ही उनकी महिमा से ही उसका सिर झुक चुका था। ग्रह 1. ग्रह :- • पकड़ना, लेना, ग्रहण करना । नवे दुकूले च नगोपनीतं प्रत्यग्रहीत्सर्वममन्त्रवर्जम् । 7 / 72 नए वस्त्र और जो कुछ लाकर दिए, वे सब उन्होंने मंत्र के साथ ले लिए। For Private And Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 612 www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कालिदास पर्याय कं.श 2. दद् : - देना, प्रदान करना । ददौ रसात्पंकजरेणुसुगन्धिम् गजाय गण्डूषजलं करेणुः 1 3 / 37 हथिनी बड़े प्रेम से कमल के पराग में बसा हुआ सुगन्धित जल अपनी सूँड से निकालकर अपने हाथी को पिलाने लगी । चन्द्रकला 1. चन्द्रकला :-[चन्द्रकणिच् + रक् + कला ] चन्द्रमा की रेखा । पत्युः शिरश्चन्द्रकलामनेन स्पृशेति सखा परिहासपूर्वम् । 7/19 तब सखी ने ठिठोली करते हुए आशीर्वाद दिया कि भगवान् करे तुम इन पैरों से अपने पति की सिर की चन्द्रकला को छुओ । 2. शशांक लेखा :- चन्द्रमा की रेखा, चन्द्रकला । शशांक लेखा मिव पश्यतो दिवा सचेतसः कस्य मनोनदूयते । 5/48 ऐसा कौन जीता-जागता पुरुष होगा जिसका जी, इस शरीर को देखकर रो न पड़े, जो दिन के चन्द्रमा की लेखा के समान उदास दिखाई पड़ रहा है । करेण भानोर्बहुलावसाने संधुक्ष्य माणेव शशांक रेखा। 7/8 जैसे शुक्ल पक्ष में सूर्य की किरण पाकर चन्द्रमा चमकने लगता है। चर 1. चर :- [वि०] [ चर्+अच्] हिलने-डुलने वाला, चलने वाला, जंगम, सजीव । चराचराणां भूतानां कुक्षिराधारतां गतः । 6/67 चर और अचर सब आपकी गोद से ही सहारा पाते हैं। यावन्त्येतानि भूतानि स्थावराणि चराणि च। 6 / 80 ये भी संसार के चर और अचर सब प्राणियों की । For Private And Personal Use Only 2. जंगम : - [ गम् + यङ् +अच्, धातोर्द्वित्वं यडनेलुक् च] चर, सजीव । शरीरिणां स्थावर जंगमानां सुखाय तज्जन्मदिनं बभूव । 1/23 उनके जन्म के दिन चर-अचर सभी उनके जन्म से प्रसन्न हो उठे थे। जंगमं प्रैष्यभावे वः स्थावरंचरणांकितम् । 6/58 क्योंकि मेरे चल शरीर को तो आपने अपना दास बना लिया है और मेरे अचल शरीर पर आपने अपने पवित्र चरण धरे हैं। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 613 चरण 1. चरण :-[च+ल्युट्] पैर, पद। जंगमं प्रैष्य भावे वः स्थावरंचरणांकितम्। 6/58 मेरे चल शरीर को तो आपने अपना दास बना लिया है और मेरे अचल शरीर पर आपने अपने पवित्र चरण धरे हैं। चरणौ रंजयन्त्रस्याश्चूडामणि मरीचिभिः। 6/81 अपने सिर पर धरे हुए मणियों की किरणों से पार्वती जी के ही चरण रंगा करेंगे। पद्मनाभ चरणांकिताश्मसु प्राप्त वत्स्वमृतविप्रषोनवाः। 8/23 जहाँ की चट्टानों पर विष्णु के चरणों की छाप और समुद्र मंथन के समय उड़े हुए अमृत की बूंदों के नये-नये छींटे पड़े हुए थे। आविभातचरणाय गृह्णते वारि वारिरुह बद्धषट् पदम्। 8/33 ये हाथी उस ताल की ओर बढ़े जा रहे हैं, जहाँ कमलों में भौरे बन्द पड़े हैं। 2. पद :-[पुं०] [पद्+क्विप] पैर, चरण । पदं तुषार स्तुति धौतरक्तं यस्मिन्नदृष्ट्वापि हतद्विपानाम्। 1/1 यहाँ के सिंह जब हाथियों को मारकर चले जाते हैं, तब रक्त से लाल उनके पंजों की पड़ी हुई छाप हिम की धारा से धुल जाती है। पदं सहेत भ्रमरस्य पेलवं शिरीषपुष्पम् न पुनः पतत्त्रिणः। 5/4 शिरीष के फूल पर भौरे भले ही आकर बैठ जायें, पर यदि कोई पक्षी उस पर आकर बैठने लगे, तब तो वह नन्हाँ सा फूल झड़ ही जायेगा। तं वीक्ष्य वेपथुमती सरसांगयष्टि-निक्षेपणाय पदमुद्धृतमुद्वहन्ती। 5/85 महादेवजी को देखते ही पार्वती जी के शरीर में कंपकंपी छुट गई। वे पसीने-पसीने हो गई और आगे चलने को उठाए हुए अपने पैर उन्होंने जहाँ का तहाँ रोक लिया। चीर 1. चीर :-[चिक्रन् दीर्घश्च] वल्कल, वस्त्र, पोशाक। ते त्र्यहादूर्ध्वमाख्याय चेरुश्चीर परिग्रहाः। 6/93 उन्होंने बताया तीन दिन पीछे विवाह करना ठीक होगा. यह कह करके सब वहाँ से विदा हो गए। For Private And Personal Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 614 कालिदास पर्याय कोश 2. त्वच् :- [स्त्री०] [त्वच्+क्विप्] छाल, वल्कल, खाल। न्यस्ताक्षरा धातुरसेन यत्र भूर्जत्वचः कुञ्जर बिन्दुशोणाः। 1/7 इस पर्वत पर उत्पन्न होने वाले भोज पत्रों पर लिखे हुए अक्षर, हाथी की सूंड पर बनी हुई लाल बुंदकियों जैसे दिखाई पड़ते हैं। कृताभिषेका हुतजातवेदसं त्वगुत्तरासङ्गवती मधीतिनीम्। 5/16 जब वे स्नान करके, हवन करके, वल्कल की ओढ़नी ओढ़कर बैठी पाठ-पूजा किया करती थीं, उस समय उन्हें देखने के लिए दूर-दूर से बड़े-बड़े ऋषि मुनि उनके पास आया करते थे। 3. वल्कलं :-[वल्+कलच्, कस्य नेत्वम्] वल्कल, छाल, सेवनी, पोशाक। बबन्ध बालारुण बभ्रु वल्कलं पयोधरोत्सेधविशीर्ण संहति। 5/8 जिसके सदा हिलते रहने से उनकी छाती पर का .. । उसके स्थान पर उन्होंने प्रात:काल के सूर्य के समान लाल-लाल वल्कल लपेट लिया। किमित्यपास्य भरणानि यौवने धृतं त्वया वार्धकशोभि वल्कलम्। 5/44 इस भरी जवानी में आपने सुन्दर गहने छोड़कर, ये बुढ़ियों वाले वल्कल क्यों पहन लिए हैं। इतो गमिष्याम्यथवेति वादिनिचचाल वालास्तनभिन्नवल्कला। 5/84 या तो मैं ही यहाँ से उठकर चली जाती हूँ। यह कहकर वे उठीं, इस हडड़बड़ी में उनके स्तन पर पड़ा हुआ वल्कल फट गया और ज्यों ही उन्होंने पैर बढ़ाया। मुक्ता यज्ञोपवीतानि बिभ्रतो हैम वल्कलाः। 6/6 जिनके कंधों पर मोती के यज्ञोपवीत लटक रहे थे, पीठ पर सोने के वल्कल पड़े हुए थे। जगत् 1. जगत् :-[गम्+क्विप् नि० द्वित्वं तुगागमः] हिलने-डुलने वाला, जंगम् संसार, वायु, हवा। जगद्योनिरयोनमस्त्वं जगदन्तो निरन्तकः। जगदादिरनादिस्त्वं जगदीशो निरीश्वरः।। 2/9 संसार को आपने उत्पन्न किया है, पर आपको किसी ने उत्पन्न नहीं किया। आप संसार का अंत करते हैं, पर आपका कोई अन्त नहीं कर सकता। आपने संसार For Private And Personal Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 615 कुमारसंभव का प्रारम्भ किया है, पर आपका कभी प्रारम्भ नहीं हुआ। आप संसार के स्वामी हैं, पर आपका कोई स्वामी नहीं है। अमुना ननु पार्श्ववर्तिना जगदाज्ञा ससुरासुरं तव। 4/29 तुम्हारे इस साथी वसन्त के ही कारण तो, ये सब देवता और राक्षस तुम्हारा लोहा मानते थे। मातरं कल्पयन्त्वेनामीशो हि जगतः पिता। 6/80 महादेव जी संसार के पिता हैं, इसलिए ये भी सबकी माता बन जायेंगी। 2. भुवन :-[भवत्यत्र, भू-आधारादौ-क्युन्] लोक, पृथ्वी। इत्थ माराध्यमानोऽपि क्लिश्नाति भुवनत्रयम्। 2/40 इतनी सेवा करने पर भी वह असुर तीनों भुवनों को पीड़ा देता जा रहा है। भुवनालोकन प्रीतिः स्वर्गिभिर्नानुभूयते। 2/45 पहले देवता लोग विमानों पर चढ़कर इस लोक से उस लोक में घूमते-फिरते थे। 3. लोक :-[लोक्यतेऽसौ, लोक+घञ्] दुनिया, संसार, भूलोक, पृथ्वी। मयि सृष्टिर्हिलोकानां रक्षा युष्मास्ववस्थिता। 2/28 हमारा काम तो केवल संसार की सृष्टि करना भर है, उसकी रक्षा करना तो आप ही लोगों के हाथ में है। उपप्लवाय लोकानां धूमकेतु रिवोत्थितः । 2/32 जैसे संसार का नाश करने के लिए पुछल्ला [धूमकेतु] तारा निकल आया हो। वरेण शमितं लोकानलं दग्धुं हि तत्तपः। 2/56 यदि मैं उसे न देता, तो उसकी तपस्या से सारा संसार जल उठता। आज्ञापय ज्ञात विशेष पुंसां लोकेषु यत्ते करणीयमस्ति। 3/3 आप आज्ञा दीजिए, तीनों लोकों में ऐसा कौन सा काम है, जो आप मुझसे कराना चाहते हैं। प्रसन्न चेतः सलिलः शिवोऽभूत्संसृज्यमानः शरदेव लोकः। 7/74 जैसे शरद के आने पर लोग प्रसन्न हो जाते हैं, वैसे ही शंकर जी का मन जल के समान निर्मल हो गया। लोक एष तिमिरौधवेष्टितो गर्भवास इव वर्तते निशि। 3/56 For Private And Personal Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 616 कालिदास पर्याय कोश इस रात के समय सारा संसार इस प्रकार अँधेरे में घिर गया है, जैसे गर्भ की झिल्ली में लिपटा हुआ बालक हो। 4. विश्व :-[विश्व] संपूर्ण, सृष्टि, समस्त संसार। अतश्चराचरं विश्वं प्रभवस्तस्य गीयसे। 2/5 इसीलिए आपको ही सब संसार का उत्पन्न करने वाला बताते हैं। इति व्याहृत्य विवुधान्विश्वयोनिस्तरोदधे। 2/62 संसार को उत्पन्न करने वाले ब्रह्माजी इतना कहकर आँखों से ओझल हो गए। येनेदं धियते विश्वं धुयनिमिवाध्वनि। 6/76 संसार को इस प्रकार ठीक से चलाने वाले हैं, जैसे घोड़े मार्ग में रथ की लीक में बंधे रहते हैं। सते दुहितरं साक्षात्साक्षी विश्वस्य कर्मणाम्। 6/78 उन्हीं संसार भर के कामों को देखने वाले और वर देने वाले शंकरजी ने अपने लिए आपकी पुत्री मांगी है। 5. सर्ग :-[सृज+घञ्] सृष्टि, प्रकृति, विश्व। प्रयस्थिति सर्गणामेकः कारणतां गतः। 2/6 आप ही संसार का नाश, पालन और उत्पादन करते हैं। प्रसूति भाजः सर्गस्य तावेव पितरौ स्मृतौ। 2/7 वे ही दोनों रूप सारे संसार के माता पिता कहे जाते हैं। 6. सृष्टि :-[स्त्री०] [सृज्+क्तिन्] रचना, संसार की रचना, प्रकृति। नमस्त्रिमूर्तये तुभ्यं प्राक्सृष्टे: केवलात्मने। 2/4 हे भगवान संसार को रचने के पहले एक ही रूप में रहने वाले व रचना के समय तीन रूप के बन जाने वाले आपको प्रणाम है। जननी 1. जननी :-[जन्+विच्+अनि+ङीप्] माता, दया, करुणा। नीलकण्ठ परिभुक्तयौवनं तां विलोक्य जननी समाश्वसत्। 8/12 माता मेना को यह देखकर बड़ा संतोष हुआ, कि महादेवजी हमारी कन्या के यौवन का उपभोग कर रहे हैं। 2. माता :-[मान् पूजायां तृच् न लोपः] माता, माँ। For Private And Personal Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 617 कुमारसंभव मातरं कल्पयन्त्वेनामीशो हि जगतः पिता। 6/80 महादेवजी संसार के पिता हैं, इसलिए पार्वती जी भी सब प्राणियों की माता बन जायेंगी। कर्णाव सक्तामलदन्त पत्रं माता तदीयं मुखमुन्नमय्य।7/23 इतने में पार्वती जी की माता मेना वहाँ आई और उन्होंने उमा का वह मुखड़ा ऊपर उठाया, जिसके दोनों ओर कानों में सुन्दर कर्ण फूल झूल रहे थे। 3. सावित्री :-[सवितृ+ङीप्] माता, गाय। तया दुहित्रा सुतरां सवित्री फुरत्प्रभामण्डलया चकासे। 1/24 वैसे ही तेजोमण्डल से भरे मुख वाली उस कन्या को गोद में पाकर मेना भी खिल उठी। ज्ञा 1. ज्ञा :-जानना, जानकार होना, परिचित होना। क्रुद्धेऽपि पक्षच्छिदि वृत्रशत्राववेदनाशं कुलिशक्षतानाम्। 1/20 पर्वतों के पंख काटने वाले इन्द्र के रुष्ट होने पर भी, उनके वज्र की चोट अपने शरीर पर नहीं लगने दी। प्रत्येकं विनियुक्तात्मा कथं न ज्ञास्यसि प्रभो। 2/31 आप तो सबके घट-घट में रमे हुए हैं, भला आपसे कोई बात छिपी थोड़े रहती है। अभिज्ञाश्छेदपातानां क्रियन्ते नन्दन दुमाः। 2/41 नन्दनवन के वृक्षों को बड़ी निर्दयता से काट-काट कर गिरा रहा है। 2. विद् :-[विद्+क्विप्] जानना, समझना, जानकार होना, जानने वाला, जानकार, विद्वान् पुरुष, मनुष्य। क्रुद्धेऽपि पक्षच्छिदि वृत्रशत्राववेदनाशं कुलिशक्षतानाम्। 1/20 पर्वतों के पंख काटने वाले इन्द्र के रुष्ट होने पर भी, उनके वज्र की चोट अपने शरीर पर नहीं लगने दी। तद्दर्शिनमुदासीनं त्वामेव पुरुषं विदुः। 2/13 आप ही उस प्रकृति का दर्शन करने वाले उदासीन पुरुष भी माने जाते हैं। न विवेद तयोरतृप्तयोः प्रिय मत्यन्त विलुप्त दर्शनम्। 4/2 For Private And Personal Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 618 कालिदास पर्याय कोश जिसे सदा अपने आगे देखते रहने पर भी आँखें अघाती नहीं थीं, वह प्यारा सदा के लिए आँखों से ओझल हो गया। ज्यां 1. ज्यां :-[ज्या+अ+टाप्] धनुष की डोरी। उमासमक्षं हरबद्धलक्ष्यः शरासनज्यां मुहुराममर्श । 3/64 बस वह पार्वती जी के आगे बैठे हुए शिवजी पर ताक-तक कर धनुष की डोरी खींचने ही लगा। 2. मौर्वी :-[मूर्वाया विकारः अण्+ङीप्] धनुष की डोरी। न्यासीकृतां स्थानविदा स्मरेण मौर्वी द्वितीया मिव कार्मुकस्य। 3/55 मानो कहाँ क्या पहनना चाहिए, इस बात को जानने वाले कामदेव ने अपने हाथ से उनकी कमर में अपने धनुष की दूसरी डोरी पहना दी हो। तट 1. तट :-[तट्+अच्] किनारा, कूल, उतार, ढाल। अभ्यस्यनित तटाघातं निर्जितैरावता गजाः। 2/50 आज ऐरावत को भी हरा देने वाले उसके हाथी अपना टीला ढाहने का खिलवाड़ किया करते हैं। 2. तीर :-[ती+अच्] तट, किनारा, नदीतीर, सागर-तीर। आप्लुतास्तीरमन्दारकुसुमोत्किरवीचिषु। 6/5 जो अपने तीर पर गिरे हुए कल्पवृक्ष के फूलों को अपनी लहरों पर उछालती चलती है। तडित् 1. तडित् :- [स्त्री०] [ताडयति अभ्रम्-तड्-इति] बिजली। शशिना सह याति कौमुदी सह मेघेन तडित्प्रलीयते। 4/33 चाँदनी चन्द्रमा के साथ चली जाती है, बिजली बादल के साथ ही छिप जाती है। 2. विद्युत :-[स्त्री॰] [विशेषेण द्योतते-विद्युत+क्विप्] बिजली। चक्षुरुन्मिषति सस्मितं प्रिये विद्युताहतमिवन्यमीलयत्। 8/3 For Private And Personal Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 619 इतने में ही शिवजी मुस्कुराकर आँखें खोल देते और ये चट फुर्ती से अपनी आँखें मींच लेतीं, मानो बिजली की चकाचौंध से आँखें मिच गई हों। 3. शतहद :-बिजली। बलाकिनी नीलोपयोदराजी दूरं पुरः क्षिप्तशतहदेव। 7/39 मानो बगुलों से भरी हुई और दूर तक चमकती हुई बिजली वाले नीले बादलों की घटा चली आ रही हो। तरु 1. तरु :-[तृ+उन्] वृक्ष । लता वधूभ्यस्तरवोऽप्यवापुर्विनम्र शाखा भुजबन्धनानि। 3/39 वृक्ष भी अपनी झुकी हुई डालियों को फैला फैलाकर उन लताओं से लिपटने लगे। 2. दुम :-[दुः शाखाऽस्त्यस्य - मः] वृक्ष, पारिजात वृक्ष। कपोल कण्डू: करिभिर्विनेतुं विघट्टितानां सरलदुमाणाम्। 1/9 जब यहाँ के हाथी अपनी कनपटी खुजलाने के लिए देवदारु के पेड़ों से माथा रगड़ते हैं। अपविद्धगदो बाहुर्भग्नशाख इव दुमः। 2/22 कुबेर का यह बाहु भी गदा के बिना ऐसा क्यों लग रहा है, जैसे कटी हुई शाखा वाला वृक्ष का दूँठ हो। अभिज्ञाश्छेदपातानां क्रियन्ते नन्दनदुमाः।। 2/41 नन्दनवन के जिन वृक्षों के कोमल पत्तों को, बड़ी कोमलता के साथ तोड़ा करती थीं। मृगाः प्रियाल द्रुममंजरीणां रजः कर्णेविजितदृष्टिपाताः। 3/31 आँखों में प्रियाल वृक्ष के फूलों के पराग के उड़-उड़ कर पड़ने से जो मत वाले हरिण भली-भाँति नहीं देख पा रहे थे। विरोधिसत्त्वोज्झितपूर्वमत्सरं दुमैभीष्टप्रसवार्चितातिथिः। 5/17 वहाँ रहने वाले सब पशु-पक्षियों ने अपना पिछला आपस का बैर छोड़ दिया था; वहाँ के वृक्ष इतने फल-फूल से लद गए थे, कि आए हुए अतिथि जो चाहते थे, वहीं उन्हें मिल जाता था। For Private And Personal Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achary 620 कालिदास पर्याय कोश 3. वनस्पति :-[वनस्य पतिः, नि० सुट्] वृक्ष, पेड़। तमाशु विघ्नं तपसस्तपस्वी वनस्पतिं वज्रइवावभज्य। 3/74 जैसे बिजली किसी पेड़ पर गिरकर उसे तोड़ डालती है, उसी प्रकार अपनी तपस्या में डालने वाले कामदेव को जलाकर।। 4. विटप :-[विटं विस्तारं वा पाति पिबति-पा+क] शाखा, झाड़ी, वृक्ष। पत्र कल्पदुमैरैव विलोलविटपांशकैः। 6/41 कल्पवृक्ष की चंचल शाखाएँ ही उस नगर की झंडियाँ थीं। स्थानमाह्निकमपास्य दन्तिन: सल्लकी विटपभंगवासितम्। 8/33 सलई के वृक्षों के टूटने से जहाँ गन्ध फैल गई है और जहाँ हाथी दिन में रहा करते थे, उन स्थानों को अगले दिन के लिए छोड़-छोड़कर। 5. वृक्ष :-[वश्च्+क्स्] पेड़। विषवृक्षोऽपि संवर्ध्य स्वयं छेतुमसांप्रतम्। 2/55 अपने हाथ से लगाए हुए विष के पेड़ को भी अपने ही हाथ से काटना ठीक नहीं होता। निष्कम्प वृक्षं निभृत द्विरेफं मूकाण्डजं शान्तमृगप्रचारम्। 3/42 वृक्षों ने हिलना बन्द कर दिया, भौरों ने गूंजना बन्द कर दिया, सब जीव-जन्तु चुप हो गए और पशु भी जहाँ के तहाँ खड़े रह गए। अतन्द्रिता सा स्वयमेव वृक्षकान्घटस्तन प्रस्त्रवणैर्व्यवर्धयत्। 5/14 आलस छोड़कर उन्होंने वहाँ के जिन छोटे-छोटे पौधों को अपने स्तनों के जैसे घड़ों के जल से सींच-सींचकर पाला था। बभूव तस्याः किल पारणाविधिर्न वृक्ष वृत्तिव्यतिरिक्त साधनः। 5/22 बस यह समझ लीजिए कि उन दिनों पार्वतीजी का खाना-पीना वही था, जो वृक्षों का होता है। एष वृक्ष शिखरे कृतास्पदो जातरूपरसगौरमण्डलमृ। 8/36 सामने पेड़ की शाखा पर बैठे हुए चन्द्रिकाओं को देखने से ऐसे लगता है। आविशद्भिटजांगण मृगैर्मूलसेकसरसैश्च वृक्षकैः। 8/38 पर्णकुटियों के आँगन में आते हुए हिरणों से, सींचे हुए जड़ वाले हरे-भरे पौधों से। For Private And Personal Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Acharya s कुमारसंभव 621 तारक 1. तारक :-[त+णिच्+ण्वुल्] तारक नाम का एक राक्षस। तस्मिन्विप्रकृताः काले तारकेण दिवौकसः। 2/1 उन्हीं दिनों तारक नाम के राक्षस ने देवताओं को इतना सता रखा था। भवल्लब्धवरोदीर्णस्तारकाख्यो महासुरः। 2/32 हे भगवन् ! आपका वरदान पाकर तारक नाम का राक्षस ठीक उसी प्रकार सिर उठाता चला जा रहा है। तुषार 1. तुषार :-[वि.] तुष्+आरक्] ठंडा, शीतल, तुषाराच्छन्न, ओस से युक्त। पदं तुषारस्रुति धौत रक्तं यस्मिन्नदृष्ट्वापि हतद्विपानाम्। 1/6 यहाँ के सिंह जब हाथियों को मारकर चले जाते हैं, तब रक्त से लाल उनके पञ्जों की पड़ी हुई छाप हिम की धारा से धुल जाती है। 2. हिम :-[वि॰] [हिम+मक्] ठंडा, शीतल, सर्द, तुषारयुक्त, ओसीला। अनन्तरत्न प्रभवस्य यस्य हिमं न सौभाग्य विलोपि जातम्। 1/3 इस अनगिनत रत्न उत्पन्न करने वाले हिमालय की शोभा हिम के कारण कुछ कम नहीं हुई। निनाय सात्यन्त हिमोत्किरानिलाः सहस्य रात्रीरुदवासतत्परा। 5/26 पूस की जिन रातों में वहाँ का सरसराता हुआ पवन चारों ओर हिम ही हिम बिखेरता चलता था, उन दिनों वे रात-रात भर जल में बैठी बिता देती थीं। त्रिदिव 1. त्रिदिव :-स्वर्ग। प्रभामहत्या शिखयेव दीपस्त्रिमार्गयेव त्रिदिवस्य मार्गः। 1/28 जैसे अत्यंत प्रकाशमान लौ को पाकर दीपक, मन्दाकिनी को पाकर स्वर्ग का मार्ग। 2. दिव :-[दीव्यन्यन्त्यत्र दिव्+वा आधारे डिवि-तारा०] स्वर्ग, आकाश, प्रकाश। मनस्याहितकर्तंच्यास्तेऽपि देवा दिवं ययुः। 2/62 देवता लोग भी आगे का काम सोच विचार कर स्वर्गलोक को चले गए। For Private And Personal Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 622 कालिदास पर्याय कोश विकीर्ण सप्तर्षिबलिप्रहासि भिस्तथान गांगैः सलिलैर्दिवश्च्युतैः। 5/37 सप्त ऋषियों के हाथ से चढ़ाए हुए पूजा के फूल और आकाश से उतरी हुई गंगा की धाराएँ हिमालय पर गिरती हैं। भूमेर्दिवामिवारूढं मन्ये भवनुग्रहात्। 6/55 पृथ्वी पर रहते हुए भी स्वर्ग में चढ़ गया हूँ। 3. स्वर्ग :-[स्वरितं गीयते-गै+क, सु+ऋज्+घञ्] बैकुण्ठ, स्वर्ग। कर्म यज्ञः फलं स्वर्गस्तासां त्वं प्रभवो गिराम्। 2/12 जिसके मंत्रों से यज्ञ करके लोग स्वर्ग प्राप्त कर लेते हैं। भुवनालोकनप्रीतिः स्वर्गिभिर्नानुभूयते। 2/45 पहले देवता लोग विमानों पर चढ़कर इस लोक से उस लोक में घूमते फिरते थे। स्वर्गाभिष्यन्दवमनं कृत्वेवोपनिवेशितम्। 6/37 मानो स्वर्ग का बढ़ा हुआ धन निकालकर इसमें ही ला भरा हो। स्वर्गाभिसंधि सुकृतं वञ्चनामिव मेनिरे। 6/47 स्वर्ग के लिए इतनी तपस्या करके हम लोग ठगे ही गए। दंष्ट्रा 1. दंष्ट्रा :-[दंश्+ष्ट्रन्+टाप्] बड़ा दाँत, हाथी का दाँत, विषैला दाँत । महावराहदंष्ट्रायां विश्रान्ताः प्रलयादि। 6/8 जो प्रलय के समय वराह भगवान् के जबड़ों से उबारी हुई पृथ्वी के साथ-साथ उनके जबड़ों में विश्राम किया करते हैं। 2. दशन् :- [दंश्+ल्युट् वि० नलोप:] दांत, काटना । अथ मौलिगतस्येन्दोर्विशदैर्दशनांशुभिः। 6/25 अपनी मन्द हँसी के कारण चमकते हुए दाँतों की दमक से। दण्ड 1. दण्ड :-[दण्ड्+अच्] यष्टिका, डंडा, छड़ी, गदा, मुद्गर, सोटा। यमोऽपि विलिखन्भूमिं दंडेनास्तमितित्विषा।। 2/23 अपने निस्तेज दण्ड से पृथ्वी को कुरेदते हुए यमराज ऐसे क्यों लग रहे हैं। 2. वेत्र :-[अज्+वल्, वी भावः] वेत, नरसल, लाठी, छड़ी। For Private And Personal Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 623 लता गृह द्वारगतोऽथ नन्दीवामप्रकोष्ठार्पित हेमवेत्रः। 3/41 उस समय नन्दी अपने बाएँ हाथ में सोने का डंडा लिए हुए लता मंडप के द्वार पर बैठा। तत्र वेत्रासनासीनान्कृतासन परिग्रहः। 6/53 हिमालय ने इन ऋषियों को बेंत के आसनों पर बैठा दिया। दक्षिणेतर 1. दक्षिणेतर :-[वि०] [दक्ष्+इनन्+इतर] बायाँ, उत्तरी, उत्तर दिशा। तमिमं कुरु दक्षिणेतरं चरणं निर्मित रागमेहि मे। 4/19 अभी थोड़ी देर पहले जब तुम मेरे पैरों में महावर लगाने बैठे थे और केवल बाएँ पाँव में ही लगा पाए थे। दक्षिणेतरभुजव्यपाश्रयां व्याजहार सहधर्मचारिणीम्। 8/29 उसे देखकर अपनी बाईं भुजा के सहारे बैठी हुई अपनी पत्नी से बोले। 2. वाम :-वि० [वम्+ण अथवा वा+मन्] बायाँ, बाईं ओर स्थित। लता गृह द्वार गतोऽथ नन्दी वामप्रकोष्ठार्पित हेमनेत्रः। 3/41 उस समय नंदी अपने बाएँ हाथ में सोने का डंडा लिए हुए लता मंडप के द्वार पर बैठा। दिश् 1. दिश् :-वाणी, आदेश। समादिदेशैकवर्धू भवित्री प्रेम्णा शरीरार्धहरां हरस्य। 1/50 यह भविष्यवाणी कर दी, कि यह कन्या अपने प्रेम से शिवजी के आधे शरीर के स्वामिनी और उनकी अकेली पत्नी बनकर रहेगी। 2. ब्रू [वच ]:-बोलना, वाणी, आदेश, कहना। उवाच मेना परिभ्य वक्षसा निवारयन्ती महतो मुनि व्रतात्। 5/3 तब पार्वतीजी को गले से लगाकर उन्हें इतनी कड़ी तपस्या करने से बरजती हुई, वे बोली। यदुच्यते पार्वती पापवृत्तये न रूपमित्य व्यभिचारि तद्वचः। 5/36 हे पार्वती जी ! यह ठीक ही कहा जाता है कि सुन्दरता पाप की ओर कभी नहीं झुकती। For Private And Personal Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 624 कालिदास पर्याय कोश सा दृष्ट इत्याननभुन्नमय्य ह्रीसन्नकण्ठीकथमप्युवाच। 7/85 तब पार्वतीजी ने ऊपर मुँह उठाते हुए बहुत लजाते हुए किसी प्रकार इतना कहा-हाँ देख लिया। 3. वद् :-कहना, बोलना, उच्चारण करना। कस्यार्थ धर्मों वदपीडयामि सिन्धोस्तटावोधइवप्रवृद्धाः। 3/6 जो उसका धर्म और अर्थ दोनों उसी प्रकार नाश कर देगा, जैसे बरसात में बढ़ी हुई नदी का बहाव दोनों तटों को बहा ले जाता है। वद प्रदोषे स्फुटचन्द्रतारका विभावरी यद्यरुणाय कल्पते। 5/4 आप यह तो बताइए भला बढ़ती हुई रात की सजावट खिले हुए चन्द्रमा और तारों से होती है या सबेरे के सूर्य की लाली से। 4. शंस :-कहना, बयान करना, घोषणा करना। जितेन्द्रिये शूलिनि पुष्पचापः स्वकार्य सिद्धिं पुनराशशंस। 3/57 तब उसके मन में जितेन्द्रिय महादेवजी को वश में करने की आशा फिर हरी हो उठी। तस्मै शशंस प्राणिपत्य नन्दी शुश्रूषयाशैल सुतामुपेताम्। 3/60 उनकी समाधि खुली देखकर नन्दी ने जाकर उन्हें प्रणाम करके कहा कि आपकी सेवा करने के लिए पार्वती जी आई हुई हैं। विमानभंगारण्यवगाहमानः शशंस सेवा वसरं सुरेभ्यः। 7/40 देवताओं के विमानो की छतरियों में गूंजकर यह सूचना दी कि अब सबको अपने-अपने काम में जुट जाना चाहिए। देव 1. देव :-[वि॰] [दिव+अच्] देव, देवता, वर्षा का देवता, राजा, दिव्यपुरुष। अमीहि वीर्य प्रभवं भवस्य जयाय सेनान्य मुशन्ति देवाः। 3/15 ये देवता लोग चाहते हैं कि शत्रु को जीतने के लिए शिवजी के वीर्य से हमारा सेनापति उत्पन्न हो। तद्गच्छ सिद्धयै कुरु देवकार्य मर्थोऽयमर्थान्तर भाव्य एव। 3/18 इसलिए तुम जाओ और देवताओं का यह काम कर डालो क्योंकि इस काम में बस एक कारण भर चाहिए था। For Private And Personal Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 625 कुमारसंभव अरिविप्रकृतैर्देवैः प्रसूतिं प्रति याचितः। 6/27 वैसे ही शत्रुओं से सताए हुए देवता लोग भी मुझसे पुत्र उत्पन्न कराना चाहते हैं। 2. देवता :-[देव+तल्+टाप्] देव, सुर, देव की प्रतिमा, मूर्ति । त्वं पितृणामपि पिता देवानामपि देवता। 2/14 आप पितरों के भी पिता, देवताओं के भी देवता हैं। मनीषिताः सन्ति गृहेषु देवतास्तपः क्व वत्से क्वच च तावकं वपुः। 5/4 तुम्हारे घर में ही इतने बड़े-बड़े देवता हैं कि तुम जो चाहो उनसे माँग लो। बताओ, कहाँ तो तपस्या और कहाँ तुम्हारा कोमल शरीर। 3. दिवौकस :- स्वर्ग का रहने वाला, देवता। तस्मिन्विप्रकृताः काले तारकेण दिवौकसः। 2/1 उन्हीं दिनों तारक नाम के राक्षस ने देवताओं को इतना सता रखा था कि। प्रसादा भिमुखो वेधाः प्रत्युवाच दिवौकसः। 2/16 दयालु ब्रह्मा जी जिस समय देवताओं से बोलने लगे। 4. विबुध :-[विशेषेण बुध्यते = बुध +क] सुर, देवता, विद्वान्, ऋषि । इति व्याहृत्य विबुधान्विश्वयोनिस्तिरोदधे। 2/62 संसार को उत्पन्न करने वाले ब्रह्मा जी इतना कहकर आँख से ओझल हो गए। प्रणम्य शितिकंठाय विबुधास्तदनन्तरम्। 6/81 देवता लोग महादेवजी को प्रणाम करके। 5. सुर :-[सुष्ठु राति ददात्यभीष्टम्-सु+रा+क] देव, देवता, सूर्य, ऋषि। चामरैः सुर बन्दीनां वाष्पसीकरवर्षिभिः। 2/42 देवताओं की बन्दी स्त्रियाँ गरम-गरम उसाँसें लेती हुई उस पर चंवर डुलाया करती हैं। गोप्तारं सुर सैन्यानां यं पुरस्कृत्य गोत्रभित्। 2/52 जिसे देवताओं की सेना का रक्षक बनाकर और उसे सेना के आगे करके भगवान् इन्द्र। अस्मिन्सुराणां विजयाभ्युपाये तवैव नामस्त्रिगतिः कृतीत्वम्। 3/ देवताओं की जीत तुम्हारे ही बाणों से हो सकती है, तुम सच बड़े भाग्यशाली हो। For Private And Personal Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 626 कालिदास पर्याय कोश सुराः समभ्यर्थयितार एते कार्यं त्रयाणामपि विष्टपानाम्। 3/25 एक तो सब देवता लोग तुमसे इस काम के लिए भीख माँग रहे हैं, दूसरे यह कार्य तीनों ही लोक वालों का है। द्युति 1. द्युति :-स्त्री० [द्युत्+इन्] दीप्ति, उजाला, कान्ति, सौन्दर्य । किमिंद द्युतिमात्मीयां न बिभ्रति यथा पुरा। 2/19 पर यह तो बताइये, कि आप लोगों के मुंह की पहले वाली कान्ति कहाँ चली गई। ते प्रभामण्डलैफ्रेम द्योतयन्तस्तपोधनाः। 6/4 स्मरण करते ही अपने तेजोमण्डल से उजाला करते हुए वे सातों तपस्वी आकर खड़े हो गए। 2. प्रकाश :-(वि०) [प्र+का+अच्] दीप्ति, कान्ति, आभा, उज्ज्वलता। यत्रौषधि प्रकाशेन नक्तं दर्शित संचराः। 6/43 बरसात के दिनों में रात को चमकने वाली जड़ी-बूटियाँ ऐसा प्रकाश देती थीं कि वहाँ। 3. प्रभा :-[प्र+भा+अङ्+टाप्] प्रकाश, दीप्ति, कान्ति, चमक। तया दुहित्रा सुतरां सवित्री फुरत्प्रभामण्डलया चकासे। 1/24 वैसे ही तेजामण्डल से भरे मुख वाली कन्या को गोद में पाकर मेना खिल उठीं। ते प्रभमण्डलैौम द्योतयन्तस्तपो धनाः। 6/4 स्मरण करते ही अपने तेजोमण्डल से उजाला करते हुए वे सातों तपस्वी आकर खड़े हो गए। 4. भास :-[स्त्री०] [भास्+क्विप्] प्रकाश, कान्ति, चमक। दिवापि निष्ठयूतमरीचिभासा बाल्यादनाविष्कृतलाञ्छनेना। 7/39 जो चन्द्रमा दिन में भी अपनी किरणें चमकाता था और जिसके छोटे होने के कारण उसका कलंक दिखाई नहीं देता था। 5. रुचा :-[स्त्री०] [रूच्+टाप्] प्रकाश, कांति, उज्ज्वलता। अथोपनिन्ये गिरिशाय गौरी तपस्विने ताम्ररुचा करेण। 3/60 उधर पार्वती जी ने प्रणाम करके समाधि से जगे हुए शंकरजी के गले में अपने लाल-लाल हाथों से। For Private And Personal Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra कुमारसंभव www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नदी 1. नदी : - [ नद + ङीप् ] दरिया, सरिता । रविपीतजला तपात्यये पुनरोधेन हि युज्यते नदी । 4/44 नदियाँ गरमी में सूर्य की किरणों को जल पिलाकर छिछली हो जाती हैं, उन्हीं नदियों में वर्षा आने पर बाढ़ जा जाती है। 627 2. सरित् : - [स्त्री० ] [ सृ+इति] नदी, धागा, डोरी । पुनन्ति लोकान्पुण्यत्वात्कीर्तयः सरितश्चते । 6/69 वे निर्मल नदियाँ अपनी पवित्रता से सारे संसार को पवित्र करती हैं, वैसे ही आपकी कीर्ति भी सब लोकों को पवित्र करती है। 3. समुद्रगा :- [ सह मुद्रया - ब०स०+गा] नदी । समुद्रगारूपविपर्ययेऽपि सहंसपाते इव लक्ष्यमाणे । 7/42 अपना नदी का रूप छोड़कर.... मानो हंस उड़ रहे हों । 4. सिन्धु : - [ स्यन्द् + उद् संप्रसारणं दस्य धः ] समुद्र, सागर, एक नदी का नाम । कस्यार्थ धर्मों वद पीडयामि सिन्धोस्तटाबोध इव प्रवृद्धः । 3/6 जो उसका धर्म और अर्थ दोनों उसी प्रकार नष्ट कर देगा, जैसे बरसात में बढ़ी हुई नदी का बहाव दोनों तटों को बहा ले जाता है। मार्गाचल व्यतिकराकुलितेव सिन्धुः । 5/85 जैसे धारा के बीच में पहाड़ पड़ जाने से न तो नदी आगे बढ़ पाती है, न पीछे हट पाती है। नित्य 1. नित्य :- [वि०] [नियमेन नियतं वा भवं - नित्यप्] शास्वत, चिरस्थायी । चन्द्रेव नित्यं प्रतिभिन्न मौलेश्चूडामणेः किं ग्रहणं हरस्य । 7/35 उनके मुकुट पर सदा रहने वाला चन्द्रमा ही उनका चूड़ामणि बन गया था, इसलिए वे दूसरा चूड़ामणि लेकर करते ही क्या । 2. शाश्वत : - [वि०] [ शश्वद् भवः अण् ] नित्य, सनातन, चिरस्थायी । त्वमेव हव्यं होता च भोज्यं भोक्ता च शाश्वतः । 2/15 For Private And Personal Use Only आप ही सदा हवन की सामग्री भी हैं और आप ही हवन करने वाले हैं। आप ही भोग की वस्तुएँ भी हैं और आप ही भोग करने वाले भी हैं। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 628 कालिदास पर्याय कोश सर्वाभिः सर्वदा चन्द्रस्तं कलाभिनिषेवते। 2/34 चन्द्रमा वहाँ पूरे महीने भर अपनी पूरी कला लेकर चमका करता है। पुंस 1. पुंस :-पुं० [पा+डुयसुन्] पुरुष, नर, इंसान, मानव। स्त्री पुंसावात्म भागौ ते भिन्न मूर्तेः सिसृक्षया। 2/7 आप ही जब स्त्री और पुरुष की सृष्टि करने चलते हैं, उस समय आपके ही स्त्री और पुरुष दो रूप बन जाते हैं। अप्य प्रसिद्धं यशसे हि पुंसा मनन्य साधारणमेव कर्म। 3/19 संसार में ऐसा असाधारण काम करने से ही यश मिलता है, जिसे कोई दूसरा न कर सके। 2. पुरुष :-[पुरि देहे शेते-शी+ड, पुट् कुषन्] नर, मनुष्य, मनुष्य जाति। ददृशे पुरुषाकृति क्षितौ हरकोपानल भस्मकेवलम्। 4/3 महादेव जी के क्रोध से जली हुई पुरुष के आकार की एक राख की ढेर सामने पृथ्वी पर पड़ी हुई है। अणिमादि गुणोपेतमस्पृष्ट पुरुषान्तरम्। 6/75 आप तो जानते ही होंगे कि अणिमा आदि आठों सिद्धियों के जो स्वामी हैं। पतंग 1. पतंग :-[पतन् उत्प्लवन्, गच्छति-गम्+ड, नि०] पक्षी, सूर्य, शलभ, टिड्डी, टिड्डा। कामस्तु बाणवसरं प्रतीक्ष्य पतंगवद्वह्नि मुखं विविक्षुः। 3/64 जैसे कोई पतंगा आग में कूदने को उतावला हो, वैसे ही कामदेव ने भी सोचा कि बस बाण छोड़ने का यही ठीक अवसर है। अहमेत्य पतंग वर्मना पुनरंकाश्रयणी भवामिते। 4/20 उससे पहले ही पतंगे के समान मैं आग में जलकर तुम्हारी गोद में जा पहुँचती 2. शलभ :-[शल्+अभच्] टिड्डा, टिड्डी, पतंगा। शृणुयेन स कर्मणा गतः शलभत्वं हरलोचनार्चिषि। 4/40 यह महादेवजी की आँख की ज्वाला में पतंग बनकर कैसे जला, वह सुनो। For Private And Personal Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 629 पतत्रिण 1. पतत्त्रिण :-पुं० [पतत्र+इनि] पक्षी, बाण, घोड़ा। पदं सहेत भ्रमरस्य पेलवं शिरीषपुष्पं न पुनः पतत्रिणः। 5/4 शिरीष के फूल पर भौरे भले ही आकर बैठ जायें, पर यदि कोई पक्षी उस पर आकर बैठने लगे, तब तो वह नन्हाँ सा फूल झड़ ही जायेगा। 2. विहंग :-[विहायसा गच्छति-गम्+खच्, मुम्, विहादेशः] पक्षी। सरिद्विहं गैरिव लीयमानैरामुच्यमानाभरणा चकासे। 7/21 जैसे रंग-बिरंगे पक्षियों के आ जाने से नदी सुहावनी लगने लगती है, वैसे ही मणियों, मोतियों और सोने के गहने पहना दिए जाने पर पार्वती जी की स्वभाविक सुन्दरता और निखर उठी। पति 1. पति :-[पाति रक्षति-पा+इति] स्वामी, मालिक, भर्ता । विधुरां ज्वलनाति सर्जमान्ननु मां प्रापय पत्युरन्तिकम्। 4/32 मेरा दाह करके मुझे मेरे पति के पास पहुँचा दो। प्रमदाः पतिवम॑गा इति प्रतिपन्नं हि विचेतनैरपि। 4/33 पति के साथ जाना तो जड़ों में भी पाया जाता है, फिर मैं चेतन होकर अपने पति के पास क्यों न जाऊँ। अरूपहार्यं मदनस्य निग्रहात्पिनाकपाणिं पतिमाप्तुमिच्छति। 5/53 उन महादेवजी से विवाह करने पर तुली हुई हैं, जो अब कामदेव के नष्ट हो जाने पर केवल रूप दिखाकर नहीं रिझाए जा सकते। तेषां मध्यगता साध्वी पत्युः पादार्पितेक्षणा। 6/11 जिनके बीच में, अपने पति के चरणों की ओर निहारती सती अरुन्धती। तस्याः शरीरे पतिकर्म चक्रुर्बन्धस्त्रियो याः पतिपुत्रवत्यः। 7/6 कुटुम्ब की सुहागिन और पुत्रवती स्त्रियाँ पार्वती जी का सिंगार करने लगीं। अखण्डितं प्रेम लभस्व प्रत्युरित्युच्यते ताभिरुमामनम्रा। 7/28 लाज से सकुचाती हुई पावती जी को सब सखियों ने यह आशीर्वाद दिया कि तुम्हारे पति तुम्हें तन-मन से प्यार करें। For Private And Personal Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 630 www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कालिदास पर्याय कोश नून मुन्न मति यज्वनां पतिः शार्वरस्य तमसो निषिद्धये । 8 /58 इससे यह निश्चय जान पड़ रहा है, कि रात का अँधेरा दूर करने के लिए चन्द्रमा निकले चले आ रहे हों । 2. प्रिय :- वि० [ प्री+क] प्रिय, प्यारा, प्रेमी, पति । तया व्याहृत संदेशा सा वभौ निभृता प्रिये । 6// प्रेम में पगी हुई पार्वती जी अपनी सखी के मुँह से महादेव जी को यह संदेश कहलाती हुई । हरो याने त्वरिता बभूव स्त्रीणां प्रियालोकफलो हिवेश: 17/22 महादेवजी से मिलने के लिए मचल उठीं, क्योंकि स्त्रियों का शृंगार तभी सफल होता है, जब पति उसे देखे । यद्रतं च सदयं प्रियस्य तत्पार्वती विषहते स्म नेतरत् । 8/9 और बहुत धीरे-धीरे संभोग करते थे, तो ये आना-कानी नहीं करती थीं, पर जहाँ वे इससे आगे बढ़े कि ये घबरा उठतीं । 3. भर्ता :- पुं० [ भृ+तृच् ] पति, प्रभु, स्वामी । अज्ञात भर्तृ व्यसना मुहूर्तं कृतोपकारेव रतिर्बभूव । 3 / 73 मानो भगवान ने कृपा करके उतनी देर के लिए पति की मृत्यु का ज्ञान हर कर उसे दुःख से बचाए रखा। भवन्त्यव्यभिचारिण्यो भर्तृरिष्टे पतिव्रताः । 6/86 जो सती स्त्रियाँ होती हैं, वे किसी भी बात में पति से बाहर नहीं होतीं। भर्तृवल्लभतया हि मानसीं मातुरस्यति शुचं वधूजन: । 8 / 12 जब माता यह देख लेती हैं कि मेरी कन्या का पति कन्या को प्यार करता है, तो उसका जी हल्का हो जाता है। For Private And Personal Use Only 4. वर :- वि० [ वृ+कर्मणि अप्] दूल्हा, पति । गुरुः प्रगल्भेऽपि वयस्यतोऽस्यास्तस्थौ निवृत्तान्यवराभिलाषः । 1/51 यद्यपि पार्वतीजी सयानी होती जा रही थीं, पर नारद जी की बात से हिमालय इतने निश्चिन्त हो गए, ,कि उन्होंने दूसरा वर खोजने की चिन्ता छोड़ दी । तदर्ध भागेन लभस्व कांक्षितं वरं तमिच्छामि च साधुवेदितुम् । 5/50 वह साधु बोला उसका आधा भाग आप ले लीजिए और आपकी जो भी साधें हों, सब उनसे पूरी कीजिए। पर हाँ, इतना तो कम से कम बता दीजिए कि वह है कौन? Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 631 संस्कार पूतेन वरं वरेण्यं वधूं सुख ग्राह्य निबन्धनेन। 7/90 संस्कृत में तो उन्होंने वर की और सरलता से समझ में आने वाली प्राकृत भाषा में उन्होंने वधू की प्रशंसा की। पत्र 1. पत्र :-[पत्+ष्ट्रन्] वृक्ष का पत्ता, फूल की पत्ती। मदोद्धाताः प्रत्यनिला: विचेरुर्वनस्थलीमर्मर पत्रमोक्षाः। 3/31 वे पवन से झड़े हुए सूखे पत्तों से मर्मर करती हुई, वन की भूमि पर इधर-उधर दौड़ते फिर रहे थे। स्वेदोद्गमः किं पुरुषांगनानांचक्रे पदं पत्रविशेषकेषु। 3/33 किन्नरियों के मुख पर चीती हुई चित्रकारी पर पसीना आने लगा। लीलाकमल पत्राणि गणयामास पार्वती। 6/84 पार्वती जी खिलौने के कमल के पत्ते गिन रहीं थीं। कर्णावसक्त मल दन्त पत्रं माता तदीयं मुखमुन्नमय। 7/23 वह मुखड़ा ऊपर उठाया, जिसके दोनों ओर कानों में सुन्दर कर्ण-फूल झूल रहे थे। 2. पल्लव :-[पल्+क्विप्=पल्, लू+अप्-लव, पल चासौ लवश्च कर्मधरयसास] पत्ता, पत्ती। असूत सद्यः कुसुमान्यशोकः स्कन्धात्प्रभृत्येव सपल्लवानि 3/26 अशोक का वृक्ष भी तत्काल नीचे से ऊपर तक फूल-पत्ते से लद गया। नव पल्लवसंस्तरे यथा रचयिष्यामि तनुं विभावसौ। 4/34 चिता की आग में उसी प्रकार लेट रहूँगी, जैसे कोई नई-नई कोपलों से सजी हुई सेज पर जा सोवे। हेम पल्लवविभंग संस्तरानन्वभूत्सुरतमर्दनक्षमान्। 8/22 वहाँ सुनहरे पत्तों से बिछी हुई शय्या पर उन्होंने एक रात संभोग किया। सिंहकेसर सयसु भूभृतां पल्लवप्रसविषु दुमेषु द्रुमेषु च। 8/46 हिमालय के सिंहों के लाल-लाल केसरों को, नये-नये पत्तों से लदे हुए वृक्षों को। 3. प्रवाल :-[प्र+व [ब] ल्+णिच्+अच्] कोंपल, अंकुर, किसलय। For Private And Personal Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 632 कालिदास पर्याय कोश पुष्पं प्रवालो पहितं यदि स्यान्मुक्ताफलं वा स्फुट विदुमस्थम्। 1/44 जैसे लाल कोपलों पर कोई उजला फूल रखा हुआ है, या स्वच्छ मूंगे के बीच में मोती जड़ा हुआ हो। तस्याः करिष्यामि दृढ़ानुतापं प्रवालशय्या शरणं शरीरम्। 3/8 मैं उसके मन में ऐसा पक्षतावा उत्पन्न करता हूँ, कि वह अपने आप आकर आपके पत्तों के ठण्डे बिछौने पर लेट जायेगी। अपित्वदावर्जितवारि संभृतं प्रवाल मासानुबन्धि वीरुथाम्। 5/34 आपके हाथों से सींची हुई इन लताओं में कोमल लाल-लाल पत्तियों वाली वे कोपलें तो फूट आई होंगी। पन्नग 1. पन्नग :-[पद्+क्त+गः] साँप, सर्प। पराभिमझे न त्वास्ति कः करं प्रसारेयेत्पन्नगरत्नसूचये। 5/43 यह भी नहीं हो सकता कि कोई शत्रु आपका अपमान करे, क्योंकि ऐसा कौन है, जो साँप की मणि लेने के लिए उस पर हाथ डालेगा। 2. भुजंग :-[भुजः सन गच्छति गम्+खच्; मुम् डिच्च] सांप, सर्प। स्थिर प्रदीप्ता मेत्य भुजंगाः पर्युपासते। 2/38 बड़े-बड़े साँप अपने मणियों के न बुझने वाले दीप ले-लेकर उसकी सेवा किया करते हैं। भजंग मोनन्दजटाकलापं कर्णावसक्त द्विगुणाक्षसूत्रम्। 3/46 साँपों से उनकी जटा बँधी हुई है, दाहिने कान पर दुहरी रुद्राक्ष की माला टंगी है। यथा प्रदेशं भुजगेश्वराणां करिष्यतामाभरणान्तरत्वम्। 7/34 उनके शरीर के बहुत से अंगों में जो साँप लिपटे हुए थे, वे भी उन-उन अंगों के आभूषण बन गए। पाण्डु 1. पाण्डु :-वि० [पण्ड्+कु नि० दीर्ध:] पीत्, धवल, सफेद सा, पीला। पर्याक्षिपत्काचिदुदारबन्धं दूर्वावता पाण्डुमधूकदाम्ना। 7/14 फिर दूब में पिरोई हुई पीले महुए के फूलों की माला उनके जूड़ों में लपेटी। For Private And Personal Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 633 कुमारसंभव 2. पीत :-वि० [पा+क्त] पीलारंग। रक्तपीत कपिशाः पयोमुचा कोटयः कुटिलकेशि भात्यमः। 8/45 हे धुंघराले बालों वाली ! ये सामने लाल-पीले और भूरे बादल के टुकड़े फैले हुए ऐसे लग रहे हैं। पाद 1. पाद :-[पद+घञ्] पैर तेषां मध्यगतासाध्वीं पत्युः पादार्पितेक्षणा। 6/11 जिनके बीच में, अपने पति के चरणों की ओर निहारती हुई सती अरुन्धती ऐसी लगती थीं। नमयन्सार गुरुभिः पादन्यासैर्वसुंधराम्। 6/50 जब हिमालय अपने ठोस बोझीले पैर बढ़ाता हुआ चला, तो उसके पैरों की धमक से पृथ्वी भी पग-पग पर झुकती चली। यथैव श्लाघ्यते गंगा पादेन परमेष्ठिनः। 6/70 जैसे गंगाजी, विष्णु के चरणों से निकलकर अपने को बहुत बड़ा मानती हैं। अकारत्यकारयितव्यदक्षा क्रमेण पादग्रहणं सतीनाम्। 7/27 विवाह के सब रीति-ढंग जानने वाली मेना ने फिर सब सखियों के पैर छुआए। पुलिन 1. पुलिन :-[पुल्+इनन् किच्च] रेतीला किनारा, रेतीला समुद्र तट, नदी तट, लघु द्वीप। तत्र हंसधवलोत्तरच्छदं जाह्नवी पुलिन चारुदर्शनम्। 8/82 हंस के समान उजली चादर और गंगा जी के समान मनोहर दिखाई देने वाले। 2. सैकत :-वि० [सिकताः सन्त्यत्र अण्] रेतीला, कंकरीला, रेतीली भूमि वाला। मन्दाकिनी सैकत वेदिकाभिः सा कन्दुकैः कृत्रिम पुत्रकैश्च। 1/29 कभी तो गंगाजी के बलुए तट पर वेदियों बनाती थीं, कभी गेंद खेलती थीं और कभी गुड़ियाँ बना-बनाकर सजाती थीं। सा चक्रवाकांकित सैकतायास्त्रिस्रोतसः कान्ति मतीत्यतस्थौ। 7/15 उनके रूप के आगे उजली धारा वाली उन गंगाजी की शोभा फीकी पड़ गई, जिनके तीर पर बालू में चकवे बैठे हों। For Private And Personal Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 634 कालिदास पर्याय कोश प्रीति 1. प्रीति :-स्त्री० [प्रो+क्तिन्] प्रसन्नता, आनन्द, खुशी, प्रेम, स्नेह, आदर । कुमारमुखं तु प्रतिपद्य लोला द्विसंश्रया प्रीतिमवापलक्ष्मीः। 1/43 जब से वे चन्द्रमा और कमल दोनों के गुण वाले पार्वती जी के मुख में आ बसीं, तब से उन्हें चन्द्रमा और कमल दोनों का आनन्द एक साथ मिलने लगा। भुवना लोकन प्रीतिः स्वर्गिभिर्नानुभूयते। 2/45 पहले देवता लोग इस लोक से उस लोक में आनन्द से घूमते-फिरते थे। या नः प्रीतिर्विरूपाक्ष त्वदनुध्यानसंभवा। 6/21 आपने हमको जो स्मरण किया है, उससे हमारे मन में आपके लिए जो प्रेम उत्पन्न हुआ है। स प्रीतियोगाद्विकसन्मुखीश्रीर्जामातुरग्रसरतामुपेत्य। 7/55 इस सुन्दर सम्बन्ध से हिमालय बड़े प्रसन्न थे। वे अपने जमाता को उस मार्ग से ले गए। 2. प्रसन्न :-[प्र+सद्+क्त] पवित्र, खुश, आनंदित, दयालु, अनुग्रहशील। अपि प्रसन्नं हरिणेषु ते मनः करस्थदर्भप्रणयापहारिषु। 5/35 आपके हाथ से प्रेम से कुशा छीनकर खाने वाले इन हरिणों में तो आपका मन बहला रहता है। प्रसन्नचेतः सलिलः शिवऽभूत्संसृज्य मानः शरदेव लोकः। 7/74 जैसे शरद के आने पर लोग प्रसन्न हो जाते हैं, वैसे ही शंकर जी का मन जल के समान निर्मल हो गया। 3. सुख :-वि० [सुख्+अच्] प्रसन्न, आनंदित, हर्षपूर्ण, खुश, मधुर। शरीरिणां स्थावरजंगमानां सुखाय तज्जन्म दिनं बभूव। 1/23 उनके जन्म के दिन चर-अचर सभी उनके जन्म से प्रसन्न हो उठे थे। उपलब्धसुखस्तदा स्मरं वपुषा स्वेन नियोजयिष्यति। 4/42 प्रसन्न होकर महादेवजी कामदेव को अपना सहायक समझकर उसे पहले जैसा शरीर दे देंगे। इत्योषधि प्रस्थविलासिनीनां शृण्वन्कथाः श्रोत्रसुखास्त्रिनेत्रः। 7/69 औषधिप्रस्थ की स्त्रियों की ऐसी मीठी-मीठी बातें सुनते हुए, महादेवजी। इत्यभौममनुभूय शंकरः पार्थिवं च दयितासखः सुखम्। 8/28 For Private And Personal Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 635 इस प्रकार अपनी प्राण प्यारी के साथ सांसारिक और स्वर्गीय दोनों सुख भोगते हुए। 4. हर्ष : - [ हृष्+घञ् ] आनन्द, खुशी, प्रसन्नता, संतोष, उल्लास। सप्रियामुखरसं दिवानिशं हर्षवृद्धिजननं सिषेविषुः 18 / 90 प्रियतमा के सुख बढ़ाने वाले ओठों का रस दिन-रात पीने की इच्छा करने वाले शंकर जी की यह दशा हो गई। बभौ 1. बभौ : - जगमगाना, सुन्दर प्रतीत होना, प्रतीत होना, लगना । तया व्याहृत संदेशा सा बभौ निभृता प्रिये । 6/2 प्रेम में पगी हुई पार्वती जी अपनी सखी के मुँह से महादवजी को यह संदेश कहलाती हुई, वैसी ही सुशोभित हुईं। बभौ च संपर्क मुपेत्य बाला नवेव दीक्षा विधिसायकेन । 7/8 इस नये विवाह का बाण कमर में खोंसकर पार्वती जी ऐसे चमकने लगीं। नवं नवक्षौम निवासिनी सा भूयो बभौ दर्पण मादधाना । 7 / 26 नई साड़ी पहने हुए और हाथ में नये दर्पण लिए हुए वे ऐसी लगने लगीं। सतहुकूलाद विदूर मौलिर्बभौ पतद्गंग इवोत्तमांगे। 7/41 शिवजी के सिर के पास छत्र से लटकता हुआ कपड़ा ऐसा जान पड़ता था, मानो गंगाजी की धारा ही गिर रही हो । 2. राज :- चमकना, सुन्दर प्रतीत होना, प्रतीत होना, जगमगाना । तस्याः प्रविष्टा नतनाभिरन्ध्रं रराजतन्वीनवलोमराजि: । 1/38 नाड़े के ऊपर गहरी नाभि तक पहुँची हुई और नये यौवन के आने के कारण बालों की जो नई उगी पतली रेखा बन गई थी, उसे देखकर ऐसा जान पड़ता था। निर्वत्तपर्जन्य जलाभिषेका प्रफुल्लकाशा वसुधेव रेजे। 7/11 मानो गरजते हुए बादलों के जल से धुली हुई और कांस के फूलों से भरी हुई धरती शोभा दे रही हो । बलि 1. बलि : - [ बल् + इन्] आहुति, भेंट चढ़ावा, पूजा, आराधना । For Private And Personal Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 636 कालिदास पर्याय कोश अवचितबलि पुष्पा वेदिसंमार्ग दक्षा। 1/60 प्रतिदिन पूजा के लिए फूल चुनकर बड़े अच्छे ढंग से वेदी को धो पोंछकर। विकीर्ण सप्तर्षि बलि प्रहासिभिस्तथा न गांगैः सलिलैर्दिवश्चतौ। 5/37 यों तो सप्तऋषियों के हाथ से चढ़ाए हुए पूजा के फूल और आकाश से उतरी हुई गंगा की धाराएँ हिमालय पर गिरती हैं। 2. सत्क्रिया :-सद्गुण, भलाई, आतिथ्य, शिष्टाचार, अभिवादन। विधिप्रयुक्तां परिगृह्य सत्क्रियां परिश्रमं नाम विनीय चक्षणम्। 5/32 उस ब्रह्मचारी ने भेंट पूजा लेकर और पल भर अपनी थकावट मिटाकर। 3. सपर्या :-[सप+यक्+अ+टाप्] पूजा, अर्चना, सम्मान, सेवा, परिचर्या । तमातिथेयी बहुमानपूर्वया सपर्यया प्रत्युदियाय पार्वती। 5/31 अतिथि का सब सत्कार करने वाली पार्वती ने बड़े आदर से आगे बढ़कर उसकी पूजा की। बाहू 1. बाहू :-[बाध+कु, धस्य हः] भुजा, कलाई, हाथ । अप विद्ध गदो बाहुर्भग्न शाख इव दुमः। 2/22 यह बाहु भी गदा के बिना ऐसा क्यों लग रहा है, जैसे कटी हुई शाखा वाला वृक्ष का ढूंठ हो। नितम्बिनीमिच्छसि मुक्तलज्जां कण्ठे स्वयंग्राहनिषक्त बाहुम्। 3/7 मैं अभी उस सुन्दरी पर ऐसा बाण चलाता हूँ, कि वह सब लाजशील छोड़कर आपके गले में बाँहें डाल देगी। अशेत सा बाहुलतोपधायिनी निषेदुषी स्थण्डिल एव केवले। 5/12 वे ही अपने हाथों का तकिया बनाकर बिना बिछी हुई भूमि पर बैठी-बैठी सो जाती थीं। 2. भुजा :-[भुज्+टाप्] बाहु, हाथ। लतावधूभ्यस्तरवोऽप्य वापुर्विनम्रशाखा भुजबन्धनानि । 3/39 वृक्ष भी अपनी झुकी हुई डालियों को फैला-फैलाकर उन लताओं से लिपटने लगे। For Private And Personal Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 637 बिसतन्तु 1. बिसतन्तु :-[बिस्+क+तन्तुः] कमल का रेशा। बिसतन्तु गुणस्य कारितं धनुष: पेलव पुष्प पत्रिणः। 4/29 तुम्हारे कमल की तन्तु से बनी हुई डोरी वाले, फूलों के बाण वाले धनुष का लोहा मानते थे। 2. मृणाल :-[मृण+कालन्] कमल की तन्तुमय जड़, कमल-तन्तु। मध्ये यथा श्याम मुखस्य तस्य मृणालसूत्रान्तरमप्यलभ्यम्। 1/40 साँवली घुडियों वाले स्तनों के बीच इतना भी स्थान नहीं रह गया कि कमल नाल का एक सूत भी समा सके। बुध 1. बुध :-वि० [बुध्+क] बुद्धिमान्, चतुर, विद्वान्। यदा बुधैः सर्वगतस्त्वमुच्यसेनवेत्सिभावस्थमिमं कथं जनम्। 5/58 आपके लिए पंडित लोग तो कहते हैं कि आप घर-घर की बातें जानते हैं, फिर आप मेरे जी की जलन क्यों नहीं जान पाते, जो आपको सच्चे मन से प्यार करती है। 2. मनीषी :-[मनीषा+इनि] बुद्धिमान्, विद्वान्, चतुर, समझदार। संस्कारत्येव गिरा मनीषी तया स पूतश्च विभूषितश्च। 1/28 व्याकरण से शुद्ध वाणी पाकर विद्वान् लोग पवित्र और सुन्दर लगने लगते हैं, वैसे ही पार्वती जी को पाकर हिमवान भी पवित्र और सुन्दर हो गए। यतः सतां संनतगात्रि संगतं मनीषिभिः साप्तपदीनमुच्यते। 5/39 हे सुन्दरी! यह कहा जाता है कि सज्जन लोगों की पहली ही भेंट में उनकी मित्रता पक्की हो जाती है। अनावृत्तिभयं यस्य पदमाहुर्मनीषिणाः। 6/77 जिनके लिए विद्वानों का कहना है, कि वे जन्म-मरण के बंधनों से बाहर ही हैं। भा 1. भा :-चमकना, उज्जवल होना, चमकीला होना, जगमगाना, दिखाई देना। भासोज्जवलत्काञ्चन तोरणानां स्थानांतरं स्वर्ग इवावभासे। 7/3 For Private And Personal Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achary 638 कालिदास पर्याय कोश इन सबकी चमक से जगमगाता हुआ वह नगर ऐसा जान पड़ता था, मानो स्वर्ग ही उतर कर वहाँ चला आया हो। 2. शोभ :-[शुभ ल्युट्] चमकना, उज्जवल होना, जगमगाना, खिलना। बभूव तस्याश्चतुरस्रशोभि वपुविर्भक्तं नवयौवनेन। 1/32 पार्वतीजी का शरीर भी नया यौवन पाकर बहुत ही खिल उठा। एतावता नन्वमुमेयशोभि काञ्चीगुणस्थानमनिन्दितायाः। 1/37 उन अत्यंत सुन्दर अगों वाली के नितम्ब कितने सुन्दर रहे होंगे। मापि नीलालाक मध्य शोभि विस्रंसयन्ती नवकर्णिकारम्। 3/62 पार्वती जी ने भी सिर झुकाया, तो उनके काले-काले बालों में गुंथे हुए कर्णिकार के फूल गिर पड़े। परस्परेण स्पृहणीय शोभं न चेदिदं द्वन्द्वमयोजियिष्यत्। 7/66 सुन्दरता में एक दूसरे से बढ़े हुए इस जोड़े का यदि विवाह न होता। 3. काश :-[कास] चमकना, उज्जवल या सुन्दर दिखाई देना, प्रकट होना, दिखाई देना। तया दुहित्रा सुतरां सवित्री फुरत्प्रभामण्डलया चकासे। 1/24 तेजोमण्डल से भरे मुख वाली उस कन्या को गोद में पाकर मेना भी खिल उठीं। सरिद् विहंगैरिव लीयमानैरामुच्य माना भरणाचकासे। 7/23 जैसे रंग बिरंगे पक्षियों के आ जाने से नदी सुहावनी लगने लगती है, वैसे ही मणियों, मोतियों और सोने के गहने पहना दिए जाने पर पार्वती जी की स्वाभाविक सुन्दरता भी निखर उठी। तासां च पश्चात् कनक प्रभाणां काली कपालाभरणा चकासे। 7/39 सोने के समान चमकने वाली उन माताओं के पीछे-पीछे उजले खप्परों से देह सजाए भद्रकाली जी आ रही थीं। भुजंगाधिपति 1. भुजंगाधिपति :-[भुजः सन् गच्छति गम्+खच्, मुम् डिच्च+अधिपति]शेषनाग। ततो भुजंगाधिपतेः फणाग्रैरधः कथं चिद्धृत भूमि भागः। 3/59 उनके बैठने की भूमि को शेष भगवान् बड़ी कठिनाई से अपने फणों पर संभाल पाए। 2. शेष :-[शिष्+अच्] एक विख्यात नाग का नाम, शेषनाग। For Private And Personal Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 639 कुमारसंभव व्यादिश्यते भूधरतामवेक्ष्य कृष्णेन देहोद्वहनाय शेषः। 3/13 वे देख चुके थे कि शेष नाग जब पृथ्वी को धारण कर सकते हैं, तो मेरा बोझ भी सह लेंगे। भूधरराजपत्नी 1. भूधरराजपत्ति :-हिमालय की पत्नी [मेना] मनोरमं यौवन मुदवहन्त्या गर्भोऽभवद्भूधरराज पल्याः । 1/19 कुछ ही दिनों में हिमालय की वह सुन्दर और युवती पत्नी मेना गर्भवती हो गई। 2. मेना :-[मान्+इनच्, नि० साधु:] हिमालय की पत्नी का नाम। मेनां मुनीनामपि माननीयामात्मानुरूपां विधिनोपयमे। 1/18 मेना का मुनिलोग भी आदर करते हैं। उस मेना से शास्त्रों के अनुसार विवाह किया। उवाच मेना परिभ्य वक्षसा निवारयन्ती महतो मुनिव्रतात्। 5/3 तब पार्वती जी को गले से लगाकर, उन्हें इतनी कड़ी तपस्या करने से बरजती हुई मेना बोलीं। इति ध्रुवेच्छामनुशासती सुतां शशाक मेना न नियन्तु मद्यमात्। 5/5 पर सब कुछ समझाने पर भी मेना अपनी पुत्री की टेक नहीं टाल पाईं। शैल: संपूर्णकामोऽपि मेलामुखमुदैक्षत। 6/85 यद्यपि हिमालय स्वयं तो इससे सहमत थे, पर फिर भी उन्होनें इसका उत्तर पाने के लिए मेना की ओर देखा। मेने मेनापि तत्सर्वं पत्यु:कार्यमभीप्सितम्। 6/86 मेना ने भी अपने पति की हाँ में हाँ मिलाकर सब बातें मान लीं। 3. शैलवधू :-[शिला+ अण्+वधू] मेना, हिमालय की पत्नी। सती सती योग विसृष्ट देहा तां जन्मते शैलवधूं प्रपेदे।11/21 सती ने योग बल से अपना शरीर छोड़ दिया और दूसरा जन्म लेने के लिए वे मेना की कोख मे आ बसीं। मणि 1. मणि :-[मण+इन्] रत्नजड़ित आभूषण, रत्न, आभूषण, उत्तम वस्तु। चन्द्रव नित्यं प्रतिभिन्न मौलेश्चूडामणे: किं ग्रहणं हरस्य। 7/35 For Private And Personal Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 640 कालिदास पर्याय कोश उनके मुकुट पर सदा रहने वाला चन्द्रमा ही उनका चूड़ा मणि बन गया, इसलिए वे दूसरा चूड़ामणि लेकर करते ही क्या। 2. रत्न :-[रमतेऽत्र, रम्+न, तन्तादेशः] मणि, आभूषण, हीरा। अथोपयन्तारमलं समाधिना न रत्नमन्विष्यति मृग्यते हितत्। 5/45 आप अपने लिए योग्य पति पाने के लिए तपस्या करती हों, तब भी तपस्या व्यर्थ है। क्योंकि मणि किसी को खोजने नहीं जाता, उल्टे मणि को ही लोग खोजते फिरते हैं। शरीर मात्रं विकृति प्रपेदे तथैव तस्थुः फणरत्लशोभाः। 7/34 उनका शरीर तो विकृत हुआ, पर उनके फणों पर जो मणि थे, वे ज्यों के त्यों चमकते रह गए। तत्रेश्वरो विष्टरभाग्यथावत्सरत्नमयं मधुमच्च गव्यम्। 7/42 वहाँ आसन पर महादेव जी को बैठाकर हिमालय ने रत्न, अर्ध्य, मधु, दही दिए। मधु 1. मधु :-[मन्यते इति मधु, न्+उ नस्य धः] मधुर, सुखद, शहद, वसन्त ऋतु। तव प्रसादात्कुममायुधोऽपि सहायमेकं मधुमेवलब्ध्वा । 3/10 आपकी कृपा हो तो मैं केवल वसन्त को अपने साथ लेकर अपने फूल के बाणों से ही। लग्न द्विरेफाञ्जन भक्ति चित्रं मुखे मधु श्री स्तिलकं प्रकाशय। 3/30 मानो वसन्त की शोभा रूपी स्त्री ने भौंरे रूपी आँजन से अपना मुँह चीतकर, अपने माथे पर तिलक के फूल का तिलक लगाकर। 2. माधव :-[मधु+अण, विष्णुपक्षे माया लक्ष्म्याः धवः, ष०त०] वसन्त। स माधवेनाभिमतेन सख्या रत्या च साशङ्कमनुप्रयातः। 3/23 फिर वह वसन्त को साथ लेकर उधर चल दिया, इनके पीछे-पीछे बेचारी रति मन में डरती चली जा रही थी, कि आज न जाने क्या होने वाला है। 3. वसन्त :-[वस्+झच्] वसंत ऋतु, वसंत। सद्यो वसन्तेन समागतानां नख क्षतानीव वनस्थलीनाम्। 3/29 मानो वसन्त ने वनस्थलियों के साथ विहार करके उन पर अपने नखों के नये चिह्न बना दिए हों। इति चैनमुवाच दुःखिता सुहृदः पथ्य वसन्त किं स्थितम्। 4/27 For Private And Personal Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 641 वह रोती हुई वसन्त से बोली, हे वसन्त ! बताओ तो, तुम्हारे मित्र की यह दशा कैसे हो गई। मन्द 1. मन्द :-[मन्द्+अच्] धीमा, अकर्मण्य, सुस्त, मंद, तटस्थ, उदासीन। अलोक सामान्यमचिन्त्य हेतुकं द्विषन्ति मन्दाश्चरितं महात्मनाम्। 5/75 जो खोटे लोग होते हैं, वे उन महात्माओं के अनोखे कामों को बुरा बताते ही हैं, • जिन्हें पहचानने की उनमें योग्यता नहीं होती। 2. मूढ़ :- [मुह्+क्त] मूर्ख, बुद्ध, नासमझ, जड़, अज्ञानी। मूढं बुद्धमिवात्मानं हैमीभूतमिवायसम्। 6/55 मैं अपने को आज ऐसा समझ रहा हूँ, मानो मुझ मूर्ख को ज्ञान मिल गया हो। मीन 1. मीन :-मछली। स व्यगाहत तरंगिणीमुमामीनपंक्तिपुनरुक्त मेखला। 8/26 कभी पार्वती जी उस आकाशगंगा में जल विहार करने लगतीं, जहाँ उनकी कमर के चारों ओर खेलने वाली मछलियाँ ऐसी लगती थीं, मानो उन्होंने दूसरी करधनी पहन ली हो। 2.शफरी :-[शफ राति-रा+क+ई] एक प्रकार की छोटी चमकीली मछली। शफरीं ह्रदशोष विक्लवाँ प्रथमा वृष्टिरिवान्वकम्पयत्। 4/39 जैसे अचानक बरसने वाली वर्षा की पहली बूंदें सूखते हुए तालाब की व्याकुल मछलियों को जिला देती है। मृग 1. मृग :-[मृग +क] चौपाया जानवर, हरिण, बारहसिंगा, कस्तूरी। तया गृहीतं नु मृगाङ्गनाभ्यस्ततो गृहीतं नु मृगाङ्गनाभिः। 1/46 यह कला उन्होंने हरिणियों से सीखी थी या हरिणियों ने ही उनसे सीखी थी। प्रस्थं हिमाद्रे मंगनाभिगंधि किंचित्कवणत्किंनरमध्युवास। 1/54 शंकर जी कस्तूरी की गंध में बसी हुई हिमालय की एक ऐसी सुन्दर चोटी पर जाकर तप करने लगे, जहाँ गन्धर्व दिन-रात गाते रहते थे। For Private And Personal Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 642 www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कालिदास पर्याय कोश वरेषु यद्वालमृगाक्षि मृग्यते तदास्ति किं व्यस्मपि त्रिलोचने । 5/72 मृग के छौने की आँख जैसी आँख वाली पार्वती ! वर में जो गुण खोजे जाते हैं, उनमें से एक भी तो महादेव जी में नही हैं। आविशद्भिरुटजाङ्गणं मृगैर्मूलसेकसरसैश्च वृक्षकैः 18 / 38 पर्ण कुटियों के आँगन में आते हए हिरणों से, खींचे हुए जड़ वाले हरे-भरे पौधों से । 2. हरिण : - [ हृ+इनन् ] मृग, बारहसिंगा, सफेद रंग, हंस । लतासु तन्वीषु विलास चेष्टितं विलोलदृष्टं हरिणाङ्गनासुच । 5/13 उन्होंने अपना हाव-भाव कोमल लताओं को, और अपनी चंचल चितवन हरिणियों को धरोहर बनाकर दे दी हो। अरण्यबीजाञ्जलिदानलालितास्था च तस्यां हरिणा विशश्वसुः । 5/15 वहाँ के जिन हरिणों को उन्होने अपने हाथ से तिन्नी के दाने खिला-खिला कर पाला-पोसा था, वे इतने परच गये थे। अति प्रसन्नं हरिणेषु ते मनः करस्थदर्भप्रण यापहारिषु । 5/35 आपके हाथ से प्रेम से कुशा छीनकर खाने वाले इन हरिणों में, तो आपका मन बहला रहता है । मेरु 1. मेरु : - [ मि+रु ] उपाख्यानों में वर्णिक एक पर्वत का नाम । यं सर्व शैलाः परिकल्प्य वत्सं मेरौ स्थिते दोग्धरिदोहदक्षे । 1/2 सब पर्वतों ने मिलकर इसे बछड़ा बनाया और दूहने में चतुर मेरु पर्वत को ग्वाला बनाकर । स मानसीं मेरुसखः पितॄणां कन्यां कुलस्य स्थितये स्थितिज्ञः । 1/18 सुमेरु के मित्र और मर्यादा जानने वाले हिमालय ने अपना वंश चलाने के लिए उस कन्या से, जो पितरों के मन से उत्पन्न हुई थी व जो हिमालय के समान ही ऊँचे कुल और शीलवाली थी । उत्पाट्य मेरुशृंगाणि क्षुण्णानि हरितां खुरैः । 2/43 सूर्य के घोड़ों से ढीली पड़ी हुई मेरु की चोटियों का उखाड - उखाड़कर । मेरोमेत्य मरुदाशुगोक्षकः पार्वतीस्तनपुरस्कृतान्कृती । 8/22 For Private And Personal Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 643 पवन के समान वेग से चलने वाले उस बैल पर चढ़कर और आगे पार्वती जी को बैठाकर उनके स्तन पकड़ हुए, वे मेरुपर्वत पर जा पहुँचे। 2. सुमेरु :-एक पर्वत का नाम। उच्चैर्हिरण्यमयं शृंगं सुमेरोर्वितथीकृतम्। 6/72 आपने सुमेरु पर्वत की सुनहरी और ऊंची चोटियों को भी नीचा दिखा दिया। यामिनी दिवस संधि 1. यामिनी दिवस संधि :-संध्या, शाम, साँझ। यामिनी दिवस संधि संभवे तेजसि व्यवहिते सुमेरुणा। 8/55 सूर्यास्त हो जाने से रात और दिन का मेल कराने वाली सांझ का सब प्रकाश सुमेरु पर्वत के बीच में आ जाने से जाता रहा। 2. संध्या :- [सन्धि+यत्+टाप्, सम्+ध्यै+अ+टाप् वा] सांयकाल। संध्ययाप्यनुगतं रवेर्वपुर्वन्द्यमस्तशिखरे समर्पितम्। 8/44 देखो ! पूजनीय सूर्य अस्ताचल को चले, तो संन्ध्या भी उनके पीछे-पीछे चल दी। द्रक्ष्यसि त्वमिति संध्ययानयावर्तिका भिरिव साधुमण्डिताः। 8/45 मानो संध्या ने उन्हें यह समझकर तूलिका से रंग दिया हो, कि तुम उन्हें देखोगी। ब्रह्म गूढमभिसंध्यमादृताः शुद्धये विधिविदो गृणन्त्यमी। 8/47 संध्या समय अर्घ्य देकर बड़ी श्रद्धा के साथ अपनी आत्मशुद्धि के लिए रहस्य भरे गायत्री मन्त्र का जप कर रहे हैं। मुञ्च कोपमनिमित्तकोपने संध्यया प्रणमितोऽस्मिनान्यया। 8/51 बिना बात के क्रोध करने वाली भामिनी ! देखो क्रोध न करो। मैं संध्या करने ही तो गया था। रक्त 1. रक्त :-[र करणे क्तः] रंगीन, लाल, गहरा लाल रंग, लोहित। पदं तुषार सुति द्यौतरक्तं यस्मिन्न दृष्ट्वापिहतद्विपानाम्। 1/16 यहाँ के सिंह जब हाथियों को मारकर चले जाते हैं, तब रक्त से लाल उनके पञ्जों की छाप हिम की धारा से धुल जाती है। 2. शोणित :-[शोण+इतच्] लाल, लोहित, रक्त वर्ण का। For Private And Personal Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 644 कालिदास पर्याय कोश वधू दुकूलं कल हंसलक्षणं गजाजिनं शोणित बिन्दुवर्षिच। 5/67 कहाँ तो हंस छपी हुई सुन्दर चुंदरी ओढ़े आप और कहाँ रक्त की बूंद टपकाती हुई महादेव जी के कन्धे पर पड़ी हुई हाथी की खाल। रवे तरंगिणी 1. रवे तरंगिणी :-आकाश गंगा। सा व्यगाहत तरंगिणीमुमा मीनपंक्तिपुनरुक्तमेखला। 8/26 उस आकाश गंगा में जल विहार करने लगतीं, जहाँ उन की कमर के चारों ओर खेलने वाली मछलियाँ ऐसा लगती थीं, मानो उन्होंने दूसरी करधनी पहन ली 2. व्योमगंगा :-[व्ये+मनिन्+गंगा] स्वर्गीय गंगा, आकाशगंगा। व्योमगंगा प्रवाहेषु दिङ्नाग मदगन्धिषु। 6/5 उस आकाशगंगा के प्रवाह में दिग्गजों के मद की सुगन्ध आया करती है। लक्ष्मी 1. लक्ष्मी :-[लक्ष्+ई, मुट्+च] सौभाग्य, समृद्धि, सौन्दर्य, लक्ष्मी। उमामुखं तु प्रतिपद्यलोला द्विसंश्रयां प्रीतिमवाप लक्ष्मीः। 1/43 जब से लक्ष्मी चन्द्रमा और कमल दोनों के गुण वाले पार्वती जी के मुख में आ बसी, तब से उन्हें चन्द्रमा और कमल दोनों का आनन्द एक साथ मिलने लगा। तयोरुपर्यायतनालदंडमाधत्त लक्ष्मीः कमलातपत्रम्। 7/89 उस समय स्वयं लक्ष्मीजी डंठल वाले कमल का छत्र उनके ऊपर लगाकर खड़ी हो गईं। लज्जा 1. लज्जा :-[लज्ज्+अ+टाप्] शर्म, शर्मीलापन, विनय। लज्जा तिरश्चां यदि चेतसि स्यादसंशयपर्वतराजपुत्र्याः। 1/48 यदि पशु पक्षियों में भी मनुष्य के समान लज्जा हुआ करती तो पार्वतीजी के। नितम्बिनीमिच्छसि मुक्तलज्जां कण्ठे स्वयंगहनिषक्तबाहुम्। 3/7 वह स्त्री सब लाज-शील छोड़कर आपके गले से आ लगे। अंक मारोपयामास लज्जमानामरुन्धती। 6/91 For Private And Personal Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारसंभव 645 लजाती हुई पार्वती जी को अरुन्धती जी ने झट उठाकर अपनी गोद में बैठा लिया। 2. व्रीडा :-शर्म, लज्जा। व्रीडा दमुं देवमुदीक्ष्य मन्ये संन्यस्त देहः स्वयमेव कामः। 7/67 वरन् कामदेव ही इनकी सुन्दरता को देखकर टीस के मारे स्वयं जल मरा। 3. ह्री:-लज्जा, शर्म। तां वीक्ष्य सर्वावयवानवद्यां रेतरपि ह्रीपदमादधानाम्। 3/57 कामदेव ने जब रति को भी लजाने वाली, अधिक सुघर अंगों वाली पार्वती जी को देखा। ह्रीमान भूभूमिधरो हरेण त्रैलोक्यवन्द्येन कृतप्रणामः। 7/57 शंकरजी ने जब पहले हिमालय को प्रणाम किया, तो वह लाज से गड़ गया। हीयन्त्रणां तत्क्षणम् मन्वभूवन्नन्योलोलानि विलोचनानि। 7/75 इस प्रकार एक दूसरे को चाह-भरी चितवन से देखकर उनके हृदय में फिर बड़ी लज्जा भी आ जाती थी। नाकरोदप कुतूहलह्रिया शंसितुं तु हृदयेन तत्वरे। 8/10 ये चाहते हुए भी लज्जा के मारे उनसे बता नहीं पाती थीं। तत्क्षणं विपरिवर्तित ह्रियोर्नेष्यतेः शयनमिद्धरागयोः। 8/79 उनकी लाज जाती रही, उनका काम बढ़ गया और उसी दशा में वे शयनागर में पहुँचाई गईं। लता 1. लता :-[लत्+अच्+टाप्] बेल, फैलने वाला पौधा। लतावधूभ्यस्तरवोऽप्यवापुर्विनम्रशाखा भुजबन्धनानि। 3/39 वृक्ष भी अपनी झुकी हुई डालियों को फैला-फैला कर उन लताओं से लिपटने लगे। पर्याप्त पुष्प स्तवकावनम्रा संचारिणी पल्लविनी लतेव। 3/54 फूलों के गुच्छों के भार से झुकी हुई नई लाल-लाल कोंपलों वाली चलती-फिरती लता हों। लतासु तन्वीषु विलासचेष्टितं विलोलदृष्टं हरिणांगनासु च। 5/13 For Private And Personal Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 646 www. kobatirth.org कालिदास पर्याय कोश अपना हाव-भाव कोमल लताओं को और अपनी चंचला चितवन हरिणियों को धरोहर बनाकर दे दी । सा संभवद्भिः कुसुमैर्लतेव ज्योतिर्भिरुद्यद्भिरिवत्रियामा। 7/21 जैसे फूल आ जाने पर लताएँ स्वयं भी खिल उठती हैं या जैसे तारे निकलने पर रात जगमगाने लगती हैं। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 2. वल्लरी : - स्त्री० [ वल्ल्+अरि वा ङीप् ] बेल, लता । अनपायिनि संश्रय दुमे गजभग्ने पतनाय वल्लरी । 4/31 भला हाथी की टक्कर से वृक्ष के टूट जाने पर उसके सहारे चढ़ी हुई लता क्या कभी बची रह पाती है। 3. वीरुत् : - बेल, लता । अपि त्वदावर्जित वारिसंभृतं प्रवालमासामनुबन्धिवीरुधाम् । 5/34 आपके हाथ से सींची हुई उन लताओं में कोमल लाल-लाल पत्तियों वाली, वे कोपलें तो फूट आई होंगी । ललाट 1. ललाट :- - [ लड्+अच् डस्य लः, ललमटति अट+अण् वा] ललाट, माथा, मस्तक । तस्य पश्यति ललाट लोचने मोघ यत्नविधुरारहस्यभूत् । 8/7 शिवजी भी ऐसे गुरु थे कि झट अपना ललाट का नेत्र खोल लेते और ये हार मानकर बैठ जातीं। 2. शङ्ख : [शम्+ ख] मस्तक की हड्डी, मस्तक, ललाट । शंखान्तरद्योति विलोचनं यदन्तर्निविष्टामलपिंगतारम् । 7/33 उनके माथे में पीली पुतली वाला, जो चमकता हुआ नेत्र था । विक्रम 1. विक्रम :- [ वि + क्रम्+घञ, अच् वा ] वीरता, शौर्य । युगपद्युगबाहुभ्यः प्राप्तेभ्यः प्राज्य विक्रमः । 2/18 एक साथ मिलकर आए हुए बड़ी-बड़ी बाँहों वाले शक्तिशाली देवताओं ने । 2. शक्ति :- [ शक् + क्तिन्] बल, योग्यता, ऊर्जा, पराक्रम, सामर्थ्य | संकल्पितार्थे वृितात्मशक्तिमाखण्डलः काममिदं बभाषे । 3/11 For Private And Personal Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 647 कुमारसंभव जिस कामदेव ने उनके सोचे हुए काम में अपना इतना उत्साह दिखाया था, उससे बोले। विवाह 2. विवाह :-[वि+व+घञ्] शादी, व्याह। अवस्तुनिर्बन्ध परे कथं नु ते करोऽयमामुक्त विवाह कौतुकः। 5/66 बताइए तो, पाणिग्रहण के समय विवाह के मंगल-सूत्र से सजा हुआ आपका यह हाथ। वैवाहिकी तिथिं पृष्टास्तत्क्षणं हरबन्धुना। 6/93 विवाह की तिथि पूछे जाने पर सप्त ऋषियों ने बताया। वैवाहिकैः कौतुक संविधानैहे गृहे व्यग्रपुरंधिवर्गम्। 7/2 उस नगर के घर-घर में सब स्त्रियाँ बड़ी धूम-धाम के साथ विवाह का उत्सव मना रही थीं। तमेव मेना दुहितुः कथं चिद् विवाह दीक्षातिलक चकार।7/24 मेना ने विवाह का तिलक लगाकर पावती जी के मन की वह साध पूरी कर दी। विवाह यज्ञे विततेऽत्र यूयमध्वर्यवः पूर्ववृता मयेति। 7/47. इस बड़े विवाह के काम में पुरोहित का काम मैंने पहले से ही आपके लिए रख छोड़ा है। वधूं द्विजः प्राहतवैष वत्सेवन्हिर्विवाहं प्रतिकर्मसाक्षी। 7/83 तब पुरोहित ने पार्वती जी से कहा कि वत्से ! यह अग्नि तुम्हारे विवाह का साक्षी 2. परिणय :-[परि+नम्+घञ्, पक्षे उपसर्गस्य दीर्घः] विवाह । परिणेष्यति पार्वतीं यदा तपसा तत्प्रवर्णीकृतो हरः। 4/42 जब पार्वतीजी की तपस्या से प्रसन्न होकर महादेव जी उनके साथ विवाह कर लेंगे। तस्मिन्संयमिना माये जाते परिणयायोन्मुखे। 6/34 संयमियों में श्रेष्ठ महादेवजी ही विवाह के लिए इतने उतावले हैं। नव परिणय लज्जा भूषणां तत्र गौरीं। 7/95 नया विवाह होने से लजीली पार्वती। For Private And Personal Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 648 www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शय्या 1. शय्या :- [शी आधारे क्यप्+टाप्] बिस्तरा, बिछौना । तस्याः करिष्यसामि दृढ़ानुतापं प्रवालशय्याशरणं शरीरम् | 3/8 उसके मन में ऐसा पछतावा उत्पन्न करता हूँ कि वह अपने आप आकर आपके पत्तों के ठण्डे बिछौने पर लेट जायगी । कालिदास पर्याय कोश या दास्य मध्थस्य लभेत नारी सा स्यात्कृतार्था किमुतांकशय्याम् । 7/65 जो स्त्री इनकी दासी भी हो जाय वह भी धन्य हो जाय, फिर जो इनकी गोद में जाकर लेटे, उसका तो कहना ही क्या है । कनककलशयुक्तं भक्तिशोभासनाथं क्षितिवरचितं शय्यं कौतुकागारमागात् । 7/94 पार्वतीजी का हाथ अपने हाथ में लेकर उस शयन- घर में पहुँचे। जहाँ सेज बिछी हुई थी, फूलों की मालाएँ सजी हुई थीं और सोने का कलश भरा धरा था । 2. संस्तर :- [ सम् + स्तृ+अप्] शय्या, पलंग, बिस्तर । -: नवं पल्लव संस्ततरे यथा रचयिष्यामि तनुं विभावसौ । 4/34 चिता की आग में चढ़कर उसी प्रकार लेट रहूँगी, जैसे कोई नई-नई लाल कोपलों से सजी हुई सेज पर जा सोवे । कुसुमास्तरणे सहायतां बहुशः सौम्य गतस्तत्वभावयोः । 4/35 हे वसन्त ! तुमने बहुत बार हम लोगों को फूल के बिछौने बनाने में सहायता दी है। स्वेद 1. स्वेद : - [ स्विद् भावे घञ् ] पसीना, श्रमबिन्दु, पसेड़ । 2. श्रमवारिलेश स्वेदोद्गमः किं पुरुषाङ्गनानां चक्रे पदं पत्र विशेषकेषु । 3 / 33 किन्नरियों के मुख पर चीती हुई चित्रकारी पर पसीना आने लगा। पसीना, श्रमबिन्दु | गीतान्तरेषु श्रमवारिलेशैः किंचित्समुच्छ्वासितपत्रलेखम् । 3 / 38 किन्नर लोग गीतों के बीच में ही अपनी प्रियाओं के वे मुख चूमने लगे, जिन पर थकावट के कारण पसीना छा गया था । For Private And Personal Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org द्वितीय खण्ड: मेघदूतम् For Private And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अद्रि 1. अचल -पहाड़, चट्टान्। छन्नोपान्तः परिणतफल द्योतिभिः काननादैस्त्वय्यारुढे शिखरमचलः स्निग्धवेणी सवर्णे। पूर्व मेघ० 18 पके हुए फलों से लदे आम के वृक्षों में घिरा हुआ आम्रकूट पर्वत पीला सा हो गया होगा। उसकी चोटी पर जब तुम कोमल बालों के जूड़े के समान सांवला रंग लेकर चढ़ोगे। आसीनानां सुरभित शिलं नाभिगन्धैर्मंगाणां तस्या एव प्रभवमचलं प्राप्य गौरं तुषारैः। पू० मे० 56 वहाँ से चलकर जब तुम हिमालय पर्वत की उस हिम से ढकी चोटी पर बैठकर थकावट मिटाओगे, जिसकी शिलाएं कस्तूरी हिरणों के सदा बैठने से महकती रहती हैं। 2. अद्रि- [अद् + क्रिन्] पहाड़, पत्थर। तस्मिन्नद्रौ कतिचिदबलाविप्रयुक्तः स कामी। नीत्वा मासान्कनकवलय भ्रंशरिक्त प्रकोष्ठः।। पू० मे० 2 वह यक्ष अपनी पत्नी से बिछुड़ने पर सूखकर काँट हो गया, उसके हाथ के सोने के कंगन भी ढीले होकर निकल गये और यों ही रोते कलपते उसने कुछ महीने तो उस पहाड़ी पर जैसे-तैसे काट दिए। अद्रेः शृङ्गं हरति पवनः किंस्विदित्युन्मुखीभिदृष्टोत्साहश्चकित चकितं मुग्धसिद्धाङ्गनाभिः।। पू० मे० 14 इस पहाड़ी से जब तुम ऊपर उड़ोगे, तब तुम्हारा उड़ना देखकर सिद्धों की भोली-भाली स्त्रियाँ आँखें फाड़-फाड़ कर तुम्हारी और देखती हुई सोचेंगी, कि कहीं पहाड़ी की चोटी को पवन तो नहीं उड़ाए लिए जा रहा है। For Private And Personal Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 652 कालिदास पर्याय कोश धौतापाङ्गं हरशशिरुचा पावकेस्तं मयूरं पश्चादद्रिग्रहणगुरुभिर्गर्जितैर्नर्तयेथा।। पू० मे० 48 तुम अपनी गरज से पर्वत की गुफाओं को गुंजा देना, उसे सुनकर स्वामी कार्तिकेय का वह मोर नाच उठेगा, जिसके नेत्रों के कोने, शिवजी के सिर पर धरे हुए चन्द्रमा की चमक से दमकते रहते हैं। प्रालेया।रुपतहमतिक्रम्य ताँस्तान्विशेषान्हंस द्वारं भृगुपति यशोवर्त्म यत्क्रौञ्चनन्ध्रम्।। पू० मे० 61 हिमालय पर्वत के आस-पास जितने सुहावने स्थान हैं, उन सबको देखकर तुम उस क्रौञ्चरंध्र में होते हुए उत्तर की ओर जाना, जिसमें से होकर हंस मानसरोवर की ओर जाते हैं और जिसे परशुरामजी, अपने बाण से छेदकर अपना नाम अमर कर गए हैं। शोभामरेः स्तिमित नयन प्रेक्षणीयां भवित्रीम्संन्यस्ते सति हल भृतो मेचके वाससीव। पू० मे० 63 जब तुम कैलास पर्वत के ऊपर पहुँचोगे, उस समय तुम मेरी समझ में बलराम के कंधों पर पड़े हुए चटकीले काले वस्त्र के समान ऐसे मनोहर लगोगे कि आँखें एकटक होकर तुम्हें ही देखती रह जाएँ। तस्मादद्रेनिगदितमथो शीघ्रमेत्यालकायां यक्षागारं विगलित निभं दृष्टिचिरैर्विदित्वा। उ० मे० 59 वह बादल रामगिरि पर्वत से चलकर अलका पहुँच गया और बताए हुए चिह्नों को देखकर उसने यक्ष का वह भवन पहचान लिया, जिसकी शोभा फीकी पड़ गई थी। 3. गिरि - [गृ + इ किच्च] पहाड़, पर्वत। नीचैराख्यं गिरिमधिवसेस्तत्र विश्रामहेतोस्त्वत्संपर्कात्पुलकितमिव प्रौढ़पुष्पैः कदम्बैः। पू० मे० 27 तुम 'नीच' नाम की पहाड़ी पर थकावट मिटने के लिए उतर जाना। वहाँ पर फूले हुए कदंब के वृक्षों को देखकर ऐसा जान पड़ेगा, मानो तुमसे भेंट करने के कारण उनके रोम-रोम फहरा उठे हों। नीचैर्वास्यत्युपजिगमिषोर्देवपूर्वं गिरिं ते शीतो वायुः परिणमयिता काननोदुम्बराणाम्। पू० मे० 46 For Private And Personal Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 653 मेघदूतम् जब तुम देवगिरि पहाड़ की ओर जाओगे, तब वहाँ धीरे-धीरे बहता हुआ वह शीतल पवन तुम्हारी सेवा करेगा, जिसके चलने से वन के गूलर पकने लग गए होंगे। पर्वत - [पर्व + अचच्] पहाड़, गिरि। उत्पश्यामि दुतमपि सखे मत्प्रियार्थं यियासोः कालक्षेपं ककुभसुरभौ पर्वते पर्वते ते। पू० मे० 24 तुम मेरे काम के लिए बिना रुके झटपट जाना चाहोगे, फिर भी मैं समझाता हूँ, कि कुटज के फूलों से लदे हुए उन सुगंधित पहाड़ों पर तुम्हें ठहरते हुए ही जाना होगा। 5. शैल - [शिला + अण्] पर्वत, पहाड़। आपृच्छस्व प्रियसखममुं तुङ्गमालिङ्गय शैलं वन्द्यैः पुसां रघुपतिपदैरङ्कितं मेखलासु। पू० मे 12 इसकी ढालों पर भगवान रामचन्द्र जी के उन पैरों की छाप जहाँ-तहाँ पड़ी है, जिन्हें सारा संसार पूजता है। अपने प्यारे मित्र पहाड़ की चोटी से जी भर गले मिलकर इससे बिदा ले लो। हित्वा तस्मिन्भुजगवलयं शंभुना दत्तहस्ता क्रीडाशैले यदि च विचरेत्पाद चारेण गौरी। पू० मे० 64 उस कैलास पर्वत पर, जब पार्वती जी उन महादेव जी के हाथ में हाथ डाले टहल रही हों, जिन्होंने पार्वती जी के डर से अपने साँपों के कड़े हाथ से उतार दिए होंगे। पत्रश्यामा दिनकरहयस्पर्धिनो यत्र वाहाः शैलोदग्रास्त्वमिव करिणो वृष्टिमन्तः प्रभेदात्। उ० मे० 13 पत्ते के समान साँवले वहाँ के घोड़े अपने रंग और अपनी चाल में सूर्य के घोड़ों को कुछ भी नहीं समझते। पहाड़ जैसे ऊँचे-ऊँचे डील-डौल वाले वहाँ के हाथी वैसे ही मद बरसाते हैं, जैसे तुम पानी बरसाते हो। तस्यास्तीरे रचित शिखरः पेशलैरिन्द्रनीलैः क्रीडाशैलः कनककदली वेष्टन प्रेक्षणीयः। उ० मे017 For Private And Personal Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 654 www. kobatirth.org कालिदास पर्याय कोश उस के तीर पर एक बनावटी पहाड़ है, जिसकी चोटी नीलमणि की बनी हुई है और जो चारों ओर से सोने के केलों से घिरा होने के कारण देखते ही बनाता है। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गत्वा सद्यः कलभतनुतां शीघ्रसंपात हेतोः क्रीडाशैले प्रथमकथिते रम्य सानौ निषण्णः । उ० मे० 21 चट से हाथी के बच्चे जैसे छोटे बनकर घर में खेल के लिए बनाई हुई पहाड़ी की सुहावनी चोटी पर जा बैठना । आश्वास्यैवं प्रथमविरहदग्रशोकां सखीं ते शैलादाशु त्रिनयनवृषोत्खात कूटान्निवृत्तः । 30 मे० 56 पहली बार के बिछोह से दुखी अपनी भाभी को इस प्रकार ढाढ़स बंधाकर, उस कैलास पर्वत से लौट आना, जिसकी चोटियाँ महादेव जी के साँड़ ने उखाड़ दी हैं । इत्याख्याते सुरपतिसखः शैल कुल्यापुरीषु स्थित्वा धनपतिपुरीं वासरैः कैश्चिदाप । उ0 मे० 62 यह सुनकर बादल वहाँ से चल दिया और कभी पहाड़ियों पर, कभी नदियों के पास और कभी नगर में ठहराता हुआ, थोड़े ही दिनों में कुबेर की राजधानी अलका पहुँच गया। 6. सानुमत् [ सानु + मतुप् ] पहाड़, गिरि, पर्वत । त्वामासारप्रशमित वनोपप्लवं साधु मूर्ध्ना वक्ष्यत्यध्वश्रमपरिगतं सानुमानाम्रकूटः । पू० मे० 17 जब तुम मूसलाधार पानी बरसाकर आम्रकूट पहाड़ के जंगलों की आग बुझाओगे तो वह तुम्हें थका समझकर अपनी चोटी पर आदर के साथ ठहरावेगा । अध्वक्लान्तं प्रतिमुखगतं सानुमानानकूट स्तुङ्गेन त्वां जलद शिरसा वक्ष्यति श्लाघ्यमानः । पू० मे० 19 हे मेघ ! जब तुम थककर आम्रकूट पर्वत पर पहुँचोगे, तब वह प्रशंसनीय पर्वत तुम्हें अपनी ऊँची चोटी पर ठहरावेगा । अर्घ 1. अर्घ - [ अर्घ + धञ् ] पूजा की सामग्री, देवताओं को सादर आहुति । For Private And Personal Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra मेघदूतम् www. kobatirth.org स प्रत्यग्रैः कुटजकुसुमैः कल्पितार्घाय तस्मै प्रीतः प्रीतिमुखवचनं स्वागतं व्याजहार । पू० मे0 4 उसने झट कुटज के खिले हुए फूल उतारकर पहले तो मेघ की पूजा की और फिर कुशल-मंगल पूछकर उसका स्वागत किया। 2. आराधना [ आ + राध् + ल्युट् ] सेवा, पूजन, उपासना, अर्चना । आराध्यैनं शरवणभवं देवमुल्लङिघताध्वा Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सिद्धद्वन्द्वैर्जलकणभया द्वीणिभिर्मुक्त मार्गः । पू० मे० 49 स्कन्द भगवान् की पूजा करके जब तुम आगे बढ़ोगे, तो हाथों में वीणा लिए हुए अपनी स्त्रियों के साथ वे सिद्ध लोग तुम्हें मिलेंगे, जो अपनी वीणा भीगकर बिगड़ जाने के डर से तुमसे दूर ही रहेंगे । 3. बलि - [ बल् + इनि] आहुति, भेंट चढ़ावा कुर्वन्संध्याबलिपटहतां शूलिनः श्लाघनीया मामन्द्राणां फलमविकलं लप्स्यसे गर्जितानाम् । पू० मे० 38 जब महादेवजी की सांझ की सुहावनी आरती होने लगे तब तुम भी अपने गर्जन का नगाड़ा बजाने लगना। तुम्हें अपने मंद गंभीर गर्जन का पूरा-पूरा फल मिल जाएगा। तत्र व्यक्तं दृषदि चरणन्यासमर्धेन्दुमौले शश्वत्सिद्धैरुपचित बलिं भक्तिनम्रः परीयाः । वहीं एक शिला पर तुम्हें शिवजी के पैर की छाप बनी हुई मिलेगी, जिस पर सिद्ध लोग बराबर पूजा चढ़ाते हैं । आलोके ते निपतति पुरा सा बलि व्याकुला वा मत्सादृश्यं विरहतनु वा भावगम्यं लिखन्ती । उ० मे० 25 1. अवस्था 655 - या तो वह तुम्हें वहाँ देवताओं को पूजा चढ़ाती मिलेगी या अपनी कल्पना से मेरे इस विरह से दुबले शरीर का चित्र बनाती मिलेगी। For Private And Personal Use Only अवस्था [ अव + स्था + अङ् ] काल, दशाक्रम, हालत, दशा, स्थिति । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 656 कालिदास पर्याय कोश सौभाग्यं ते सुभग विरहावस्थया व्यञ्जयन्ती काय येन त्यजति विधिना स त्वयैवोपपाद्यः। पू० मे० 31 हे बड़भागी मेघ! अपनी यह वियोग की दशा दिखाकर यह बता रही होगी कि मैं तुम्हारे वियोग में सूखी जा रही हूँ। तुम ऐसा उपाय करना कि उस बेचारी का दुबलापन दूर हो जाय। वय - [अज् + असुन्, वीभावः] आयु, जीवन का कोई काल या समय। नाप्यन्यस्मात्प्रणयकलहाद्विप्रयोगोपपत्तिवित्तेशानां न च खलु वयो यौवनादन्यदस्ति। उ० मे0 4 प्रेम में रूठने को छोड़कर और कभी किसी का किसी से बिछोह नहीं होता और जवानी की अवस्था को छोड़कर दूसरी अवस्था वहाँ नहीं पाई जाती। अस्त्र (आँसू) 1. अश्रु - [अश् + क्रुन्] आँसू। नीता रात्रिः क्षण इव मया सार्धमिच्छारतैर्या तामेवोष्णैर्विरहमहती मश्रुभिर्यापयन्तीम्। उ० मे० 31 जो प्यारी, मेरे साथ जी भरकर संभोग करके, पूरी रात क्षणभर के समान बिता देती थी, वही अपनी रातें गर्म आँसू बहा-बहाकर बिता रही होगी। पश्यन्तीनां न खलु बहुशो न स्थलीदेवतानां मुक्तास्थूलास्तरु किसलयेष्वभुलेशाः पतन्ति । उ० मे० 49 वन के देवता भी मेरी दशा पर तरस खाकर अपने मोती के समान बड़े-बड़े आँसू वृक्षों के कोमल पत्तों पर दुलकाया करते हैं। 2. अस्त्र - [अस् + रन्] आँसू, रुधिर। प्रालेयास्त्रं कमलवदनात्सोऽपि हर्तुं नलिन्याः प्रत्यावृत्तस्त्वयि कररुधि स्यादनल्पाभ्यसूयः। पू० मे0 43 वे भी उस समय अपनी प्यारी कमलिनी के मुख कमल पर पड़ी हुई ओस की बूंदे पोंछने के लिए आ गए होंगे। तुम उनके हाथ न रोक बैठना, नहीं तो वे बुरा मान जाएँगे। For Private And Personal Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra मेघदूतम् www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir त्वामप्यस्त्रं नवजलमयं मोचयिष्यत्यवश्यं प्रायः सर्वो भवति करुणावृत्तिरार्द्रान्तरात्मा । उ० मे० 35 तुम भी उसकी दशा पर अपने नये जल के आँसू बहाए बिना न रह सकोगे, क्योंकि दूसरों का दुख देखकर कौन ऐसा कोमल हृदय वाला है, जो पसीज न जाय । अस्त्रस्तावन्मुहुरुपचितैर्दृष्टिरालुप्यते यै क्रूरस्तस्मिन्नपि न सहते संगमं नौ कृतान्तः । उ० मे० 47 उस समय आँसू ऐसे उमड़ पड़ते हैं कि भर आँख देखने भी नहीं देते। निर्दयी काल को हमारा चित्र में मिलना भी नहीं सुहाता। 3. नयनसलिल [नी + ल्युट् + सलिलम् ] आँसू । तस्मिन्काले नयनसलिलं योषितां खण्डितानां 657 शान्तिं नेयंप्रणयिभिरतो वर्त्म भानोस्त्यजाशु । पू० मे० 43 उस समय बहुत से प्रेमी लोग अपनी उन प्यारियों के आँसू पोंछ रहे होंगे, जिन्हें रात को अकेली छोड़कर वे कहीं दूसरी ठौर पर रमे होंगे। इसीलिए उस समय तुम सूर्य को भी मत ढकना । तन्त्रीमार्गां नयनसलिलैः सारयित्वा कथंचिद् भूयो भूयः स्वयमपि कृतां मूर्च्छनां विस्मरन्ती । उ० मे० 26 वह अपनी आँखों के आँसुओं से भीगी हुई वीणा को तो जैसे-तैसे पोंछ लेगी, पर वह अपने साधे हुए स्वरों के उतार-चढ़ाव को भी बार-बार भूल रही होगी । मत्संभोगः कथमुपनयेत्स्वप्नजोऽपीति निद्राम् इन्द्रचाप 1. इन्द्रचाप - [ इन्द्र + चापम् ] इंद्रधनुष । आकाङ्क्षन्त नयन सलिलोत्पीडरुद्धावकाशाम् । उ० मे० 33 वह यह सोचकर अपनी आँखों में नींद बुला रही होगी कि किसी प्रकार स्वप्न में ही प्यारे से संभोग हो जाय, पर आँखों से लगातार बहते हुए आँसू, उसकी आँखें भी नहीं लगने देते होंगे। विद्युत्वन्तं ललितवनिताः सेन्द्रचापं सचित्रा: संगीताय प्रहतमुरजाः स्निग्ध गंभीरघोषम् । उ० मे० 1 For Private And Personal Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 658 www. kobatirth.org 1. 2. सुरपतिधनु [सुर् + पति + धनुस् ] इंद्रधनुष । तत्रागारं धनपति गृहानुत्तरेणास्मदीय कालिदास पर्याय कोश यदि तुम्हारे साथ बिजली है तो उन भवनों में भी चटकीली नारियाँ हैं, यदि तुम्हारे पास इन्द्रधनुष है तो उन भवनों में भी रंग-बिरंगे चित्र लटके हुए हैं। यदि तुम मृदु गंभीर गर्जन कर सकते हो तो वहाँ भी संगीत के साथ मृदंग बजते हैं। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दूराल्लक्ष्यं सुरपतिधनुश्चारुणा तोरणेन । उ० मे० 15 वहीं कुबेर के भवन से उत्तर की ओर इन्द्रधुनष के समान सुन्दर गोल फाटक वाला हमारा घर तुम्हें दूर से ही दिखाई पड़ेगा । उच्च उच्च - [उद् + चित् + ड] ऊँचा, लंबा, उन्नत, उत्कृष्ट । क्षुद्रोऽपि प्रथम सुकृतापेक्षया संश्रयाय प्राप्ते मित्रे भवति विमुखः किं पुनर्यस्तथोच्चैः । पू० मे० 17 जब दरिद्र लोग भी आए हुए मित्र के उपकार का ध्यान करके अच्छा सत्कार करने में नहीं चूकते, तब आम्रकूट जैसे ऊँचों का तो कहना ही क्या। पश्चादुच्चैर्भुजतरुवनं मण्डलेनाभिलीनः सान्ध्यं तेजः प्रतिनवजपापुष्परक्तं दधानः । पू० मे० 40 सांझ की पूजा हो चुकने पर तुम सांझ की ललाई लेकर उन वृक्षों पर छा जाना, जो उनके ऊँचे उठे हुए बाँह के समान खड़े होंगे । या वः काले बहति सलिलोद्गारमुच्चैर्विमाना मुक्ताजाल ग्रथितमलकं कामिनीवाभ्रवृन्दम् । पू० मे0 67 ऊँचे-ऊँचे भवनों वाली अलका पर वर्षा के दिनों में बरसते हुए बादल ऐसे छाए रहते हैं, जैसे कामिनियों के सिर पर मोती गुँथे हुए जूड़े। 2. तुंग- [तुञ्ज + घञ्, कुत्वम् ] ऊँचा, उन्नत, लंबा, उत्तुंग, प्रमुख । अध्वक्लान्तं प्रतिमुखगतं सानुमानाभ्रकूट स्तुङ्गेन त्वां जलद शिरसा वक्ष्यति श्लाघ्यमानः । पू० मे० 19 For Private And Personal Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra मेघदूतम् हे मेघ ! जब तुम थककर आम्रकूट पर्वत पर पहुँचोगे, तब वह प्रशंसनीय आम्रकूट पर्वत तुम्हें अपनी ऊँची चोटी पर ठहरावेगा । अन्तस्तोयं मणिमयभुवस्तुंगमभ्रंलिहाग्राः www. kobatirth.org प्रासादास्त्वां तुलयितुमलं यत्र तैस्तैर्विशेषैः । 30 मे० 1 यदि तुम्हारे भीतर नीलाजल है, तो उनकी धरती भी नीलम से जड़ी हुई है और यदि तुम ऊँचे हो तो उनकी अयरियाँ भी आकाश चूमती हैं। उज्जयिनी 1. अवन्ती - उज्जैन (एक नगर का नाम) । 2. उत्पल कुमुद । प्राप्यावन्तीनुदयन कथा कोविद ग्राम वृद्धान् - पूर्वोद्दिष्टामनुसर पुरीं श्री विशालाम् विशालाम् । पू० मे० 32 अवन्ति देश में पहुँचकर तुम धन धान्य से भरी हुई उस विशाला नगरी की ओर चले जाना, जिसकी चर्चा मैं पहले ही कर चुका हूँ और जहाँ गाँव के बड़े-बड़े लोग, महाराजा उदयन की कथा भली प्रकार जानते - बूझते हैं। 2. उज्जयिनी - उज्जैन (एक नगर का नाम) । वक्रः पन्था यदपि भवतः प्रस्थितस्योत्तराशां सौधोत्सङ्ग प्रणय विमुखो मा स्म भूरुज्जयिन्याः । पू० मे० 20 उत्तर की ओर जाने में यद्यपि उज्जयिनी वाला मार्ग कुछ टेढ़ा पड़ेगा, फिर भी तुम उस नगर के राज भवनों को देखना न भूलना । - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्पल 1. अम्भोज [ आप् (अम्भ्) + असुन् + जम्] कमल । हेमाम्भोज प्रसवि सलिलं मानसस्याददानः कुर्वन्कामं क्षणमुख पटप्रीतिमैरावतस्य । पू० मे० 66 तुम उस मानसरोवर का जल पीना जिसमें सुनहरे कमल खिला करते हैं, फिर सरोवर के मुहँ पर थोड़ी देर कपड़े-सा छाकर उसका मन बहला देना। [उत्क्रान्तः पलं मांसम् उद् + पल् + अच्] नीलकमल, कमल, - 659 - For Private And Personal Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 660 कालिदास पर्याय कोश गण्ड स्वेदापनयनरुजाक्लान्तकर्णोत्पलानां छायादानात्क्षणपरिचितः पुष्पलावीमुखानम्। पू० मे० 28 फूल उतारने वाली उन मालिनियों के मुंह पर छाया करके थोड़ी सी जान-पहचान बढ़ाते हुए आगे बढ़ जाना, जिनके कानों में लटके हुए कमल की पंखुड़ियों के कनफूल उनके गालों पर बहते हुए पसीने से लग-लगकर मैले हो गए होंगे। 3. कमल [कं जलमलति भूषयति - कम् + अल् + अच्] कमल, पंकज, जलज। दीर्घा कुर्वन्पटु मदकलं कूजितं सारसानां प्रत्यूषेषु स्फुटित कमलामोद मैत्री कषायः। पू० मे0 33 मतवाले सारसों की मीठी बोली को दूर-दूर तक फैलाता हुआ, तड़के खिले हुए कमलों की गंध में बसा हुआ वायु। प्रालेयास्त्रं कमलवदनात्सोऽपि हर्तुं नलिन्याः प्रत्यावृत्तस्त्वयि कररुधि स्यादनल्पाभ्यसूयः। पू० मे० 43 वे भी उस सयम अपनी प्यारी कमलिनी के मुख-कमल पर पड़ी हुई ओस की बूंदे पोंछने के लिए आ गए होंगे। तुम उनके हाथ न रोक बैठना, नहीं तो बुरा मान जाएंगे। राजान्यानां सितशरशतैर्यत्र गाण्डीवधन्वा धारापातैस्त्वमिव कमलान्यभ्य-वर्षन्मुखानि। पू० मे0 52 गाण्डीवधारी अर्जुन ने अपने शत्रु राजाओं के मुखों पर उसी प्रकार अनगिनत बाण बरसाए थे, जैसे कमलों पर तुम अपनी जलधारा बरसाते हो। हस्ते लीलाकमलमलके बालकुन्दानुविद्धं नीतालोध्रप्रसवरजसा पाण्डुतामानने श्रीः। उ० मे० 2 हाथों में कमल के आभूषण पहनती हैं, अपनी चोटियों में नये खिले हुए कुन्द के फूल गूंथती हैं, अपने मुँहों को लोध के फूलों का पराग मलकर गोरा करती हैं। गत्युत्कम्पादलकपतितैर्यत्र मन्दारपुष्पैः पत्रच्छेदैः कनककमलैः कर्णविभ्रंशिभिश्च। उ० मे० 11 For Private And Personal Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org मेघदूतम् 661 जब जल्दी-जल्दी पैर बढ़ाकर जाने लगती हैं, उस समय उनकी चोटियों में गुंथे हुए कल्पवृक्ष के फूल और पत्ते खिसककर निकल जाते हैं कानों पर धरे हुए सोने के कमल गिर जाते हैं। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लाक्षारागं चरणकमलन्यास योग्यं च यस्या मेकः सूते सकलमबलामण्डनं कल्पवृक्षः । उ० मे० 12 चरण कमलों में लगाने का महावर आदि स्त्रियों के सिंगार की जितनी वस्तुएँ हैं, सब अकेले कल्पवृक्ष से ही मिल जाती हैं। वापी चास्मिन्मरकतशिलाबद्धसोपान मार्गा हेमैश्छन्नाविकच कमलैः स्निग्धवैदूर्यनालैः । उ० मे० 16 एक बावड़ी मिलेगी, जिसकी सीढ़ियों पर नीलम जड़ा हुआ है और जिसमें चिकने वैदूर्य मणि की डंठल वाले बहुत से सुनहरे कमल खिले हुए होंगे। क्षामच्छायं भवनमधुना मद्वियोगेन नूनं सूर्यापाये न खलु कमलं पुष्यति स्वामभिख्याम् । उ० मे० 20 मेरे बिना वह भवन बड़ा सूना-सा और उदास सा दिखाई देता होगा, क्योंकि सूर्य के छिप जाने पर तो कमल उदास हो ही जाता है । मेघस्यास्मिन्नतिनिपुणता बुद्धिभावः कवीनां नत्वार्यायाश्चरणकमलं कालिदासश्चकार । उ० मे० 63 कवि कालिदास ने आर्यादेवी काली के चरण कमलों में प्रणाम कर यह रचा है। इसमें मेघ की अत्यन्त चतुराई का और कवियों की कल्पना का परिचय भी मिल जाएगा । - 4. कुवलयद [ को: पृथिव्याः वलयमिव- उप० स०] नीला, कुमुद, कुमुद, कमल, पृथ्वी । धूतोद्यानं कुवलयरजो गन्धिभिर्गन्धवत्या स्तोयक्रीडानिरत युवतिस्नानतिक्तैर्मरुद्भिः । पू० मे० 37 जल-विहार करने वाली युवतियों के स्नान करने से महकता हुआ और कमल के गंध में बसी हुई गंधवती नदी की ओर से आने वाला पवन, उपवन को बारबार झुला रहा होगा। For Private And Personal Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 662 कालिदास पर्याय कोश ज्योतिर्लेखावलयि गलितं यस्य बहँ भवानी पुत्रप्रेम्णा कुवलयदलप्रापि कर्णे करोति। पू० मे० 48 उस मोर के झड़े हुए उन पंखों से चमकीली किरणे निकल रही होंगी, जिन्हें पार्वतीजी, पुत्र पर प्रेम दिखलाने के लिए अपने उन कानों पर सजा लेती हैं, जिन पर वे कमल की पंखड़ी सजाया करती थीं। त्वय्यासन्ने नयनमुपरिस्पन्दि शङ्के मृगाक्ष्या मीनक्षोभाञ्चलकुवलयश्री तुलामेष्यतीति। उ० मे० 37 उसके पास पहुँचोगे तो उस मृगनयनी की बाईं आँख फड़क उठेगी। फड़कती हुई बाईं आँख उस नीले कमल जैसी सुन्दर दिखाई देगी, जो मछलियों के इधर-उधर आने-जाने से काँप उठा करता है। 5. पद्म- [पद् + मन्] कमल। यत्रोन्मत्तभ्रमरमुखराः पादपा नित्यपुष्पा हंसश्रेणीरचित रशना नित्यपद्मा नलिन्यः। उ० मे० 3 वहाँ सदा फूलने वाले ऐसे बहुत से वृक्ष मिलेंगे, जिन पर मतवाले भौरे गुनगुनाते होंगे। वहाँ बारहमासी कमल और कमलिनियों को हंसों की पांते घेरे रहती हैं। एभिः साधो! हृदय निहितैर्लक्षणैर्लक्षयेथा द्वारोपान्ते लिखितपुषौ शङ्खपद्मौ च दृष्ट्वा। उ० मे0 20 हे साधु! यदि तुम मेरे बताए हुए ये चिह्न भली-भांति स्मरण रखोगे और मेरे द्वार पर शंख और पद्म (कमल) के चित्र बने हुए देख लोगे। उदक 1. अपा - जल, पानी। कृत्वा तासामभिगममपां सौम्य सारस्वती नामन्तः शुद्धस्त्वमपि भविता वर्णमात्रेण कृष्णः। पू० मे० 53 जिस सरस्वती नदी का जल पीते थे, वही जल यदि तुम भी पी लोगे तो बाहर से काले होने पर भी तुम्हारा मन उजला हो जाएगा। 2. अम्भ - [आप् (अम्भ) + असुन्] जल, पानी। For Private And Personal Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 663 मेघदूतम् अम्भोबिन्दुग्रहण चतुराँश्चातकान्वीक्षमाणाः श्रेणीभूताः परिगणनया निर्दिशन्तो बलाकाः। पू० मे० 23 ऊपर ही ऊपर जल की बूंदें घूटते हुए चातकों को देखने वाले और पाँत बाँधकर उड़ती हुई बगलियों को एक-एक करके गिनने वाले। उदक - [उन्द् + ण्वुल् नि० नलोपः] पानी। यक्षश्चक्रे जनकतनयास्नानपुण्योदकेषु स्निग्धच्छाया तरुषु वसतिं रामगिर्याश्रमेषु। पू० मे० 1 यक्ष ने रामगिरि के उन आश्रमों में डेरा डाला जहाँ के कंडों, तालाबों और बावड़ियों का जल श्री जानकी जी के स्नान से पवित्र हो गया था और जहाँ घनी छाया बाले बहुत से वृक्ष जहाँ-तहाँ लहलहा रहे थे। 4. जल - [जल् + अक्] पानी। विश्रान्तः सन्व्रज वननदीतीर जातानि सिञ्चन्द्यानानां नवजलकणैर्वृथिका जालकानि। पू० मे० 28 वहाँ थकावट मिटाकर तुम जंगली नदियों के तीरों पर उपवनों में खिली हुई जूही की कलियों को जल की फुहारों से सींचते हुए। तत्र स्कन्दं नियतवसतिं पुष्पमेघीकृतात्मा पुष्पासारैः स्नपयतुभवान्व्योम- गङ्गाजलाः । पू० मे० 47 वहाँ स्कन्द भगवान भी सदा निवास करते हैं। इसलिये वहाँ पहुँचकर तुम फूल बरसाने वाले बादल बनकर उनपर आकाशगंगा के जल से भीगे हुए फूल बरसाकर उन्हें स्नान करा देना। आराध्यैनं शरवणभवं देवमुल्लङ्घिताध्या सिद्धद्वन्द्वैर्जलकण भयाद्वीणिभिर्मुक्त मार्गः। पू० मे० 49 स्कन्द भगवान की पूजा करके जब तुम आगे बढ़ोगे तो हाथों में वीणा लिए हुए अपनी स्त्रियों के साथ वे सिद्ध लोग तुम्हें मिलेंगे, जो अपनी वीणा वर्षा के जल से भीगकर बिगड़ जाने के डर से तुमसे दूर ही रहेंगे। त्वय्यादातुं जलमवनते शाङ्गिणो वर्णचौरे तस्याः सिन्धोः पृथुमपि तनुं दूरभावात्प्रवाहम्। पू० मे० 50 जब तुम विष्णु भगवान का साँवला रूप चुराकर चर्मण्वती का जल पीने के For Private And Personal Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 664 कालिदास पर्याय कोश लिए झुकोगे, उस समय दूर से पतली दिखाई देने वाली उस नदी की चौड़ी धारा। नेत्रा नीताः सततगतिना यद्विमानाग्रभूमिरालेख्यानां नवजलकणैर्दोषमुत्पाद्य सद्यः । उ० मे० 8 तुम्हारे जैसे बहुत से बादल, वायु के झोंके के साथ वहाँ के सतखंडे भवनों के ऊपरी खंडों में घुसकर भीत पर टंगे हुए चित्रों को अपने जल कणों से भिगोकर मिट देते हैं। त्वत्संरोधापगमविशदैश्चन्द्रपादैनिशीथे व्यालुम्पन्ति स्फुटजललवस्यन्दि- नश्चन्द्रकान्ताः। उ० में०१ आधी रात के समय, खुली चाँदनी में, झालरों में लटके हुए चन्द्रकान्त मणियों से टपकता हुआ जल। त्वामप्यत्रं नवजलमयं मोचयिष्यत्यवश्यं प्रायः सर्वो भवति करुणा वृत्तिरार्द्रान्तरात्मा। उ० मे0 35 तुम भी उसकी दशा पर अपने नये जल के आँसू बहाए बिना न रह सकोगे क्योंकि दूसरों का दुख देखकर कौन ऐसा कोमल हृदय वाला है, जो पसीज न जाय। तामुत्थाप्य स्वजलकणिका शीतलेनानिलेन प्रत्याश्वतां सामभिनवैर्जाल कैर्मालतीनाम्। उ० मे० 40 मालती के नये फूलों के समान कोमल मेरी प्यारी को, अपने जल की फुहारों से ठंडा किया हुआ वायु चलाकर जगा देना। निःशब्दोऽपि प्रदिशसि जलं याचितश्चातकेभ्यः प्रत्युक्तं हि प्रणयिषु सतामीप्सितार्थ क्रियैव। उ० मे० 57 तुम बिना उत्तर दिए ही चातक को जल दे देते हो। सज्जनों की रीति ही यह है कि जब कोई उनसे कुछ माँगे तो वे मुँह से कुछ न कहकर, काम पूरा करके ही उत्तर दे डालते हैं। 5. तोय - [तु+ विच्, तवे पूत्यें याति - या + क नि० साधुः] पानी। तस्यास्तिक्तैर्वनगजमदैर्वासितं वान्तवृष्टिजम्बूकुञ्ज प्रतिहतरयं तोयमादाय गच्छेः । पू० मे० 21 For Private And Personal Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मेघदूतम् 665 वहाँ जल बरसा चुको, तो जंगली हाथियों के सुगंधित मद में बसा हुआ और जामुन की कुंजों में बहता हुआ रेवा का जल पीकर आगे बढ़ना। दृष्ट्वा यस्यांविपणिरचितान्विदुमाणां च भङ्गान्संलक्ष्यन्ते सलिलनिधय स्तोयमात्रावशेषः। पू० मे० 34 हाटों में नई घास के समान नीले और चमकीले नीलम बिछे दिखाई देंगे। उन्हें देखकर यही जान पड़ेगा कि रत्न तो सब यहाँ निकालकर ला रखे गए हैं और समुद्र में केवल पानी ही पानी बचा छोड़ दिया गया है। धूतोद्यानं कुवलयरजोगन्धिभिर्गन्धवत्सात्योस्तोयक्रीडानिरत युवतिस्नानतिक्तैर्मरुद्भिः। पू० मे० 37 जल-विहार करने वाली युवतियों के स्नान करने से महकता हुआ और कमल के गंध में बसी हुई गंधवती नदी की ओर से आनेवाला पवन, मंदिर के उपवन को बार-बार झुला रहा होगा। सौदामन्याकनक निकष स्निग्धयादर्शयो:तोयोत्सर्गस्तनित मुखरो मास्मभूर्विक्लवास्ताः। पू० मे० 41 तुम कसौटी में सोने के समान दमकने वाली अपनी बिजली चमका कर उन्हें ठीक-ठीक मार्ग दिखा देना। पर देखो! तुम गरजना-बरसना मत! नहीं तो वे घबरा उठेगी। तत्रावश्यं वलय कुलिशोधट्टनोद्गीर्ण तोयं नेष्यन्ति त्वां सुरयुवतयो यन्त्रधारागृहत्वम्। पू० मे० 65 उस पर्वत पर बहुत सी अप्सराएँ अपने नग-जड़े कंगनों की नोंक तुम्हारे शरीर में चुभोकर तुम्हारे शरीर से जल धाराएँ निकाल लेंगी और तुम्हें फुहारे का घर बना डालेंगी। अन्तस्तोयं मणिमयभुवस्तुंगमभ्रंलिहानाः प्रासादास्त्वां तुलयि तुमुलं यत्र तैस्तैर्विशेषैः। उ० मे० 1 यदि तम्हारे भीतर नीला जल है तो उनकी धरती भी नीलम से जडी हुई है और यदि तुम ऊँचे पर रहते हो तो उनकी अटारियाँ भी आकाश चूमती हैं। यस्यास्तोये कृतवसतयो मानसं संनिकृष्टं नाध्यास्यान्ति व्यपगतशुचस्त्वामपि प्रेक्ष्य हंसाः। उ० मे० 16 For Private And Personal Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 666 कालिदास पर्याय कोश उसके जल में बसे हुए हंस इतने सुखी हैं कि मानसरोवर के इतने पास होते हुए भी तुम्हें देखकर वे वहाँ नहीं जाना चाहेंगे। 6. धारा - [धार + टाप्] पानी की धारा, जलधारा, बौछार, वर्षा की तेज घड़ी। राजन्यानां सितशर शतैर्यत्र गाण्डीवधन्वा धारापातैस्त्वमिव कमलान्यभ्यवर्षन्मुखानि। पू० मे० 52 गांडीवधारी अर्जुन ने अपने शत्रु राजाओं के मुखों पर उसी प्रकार अनगिनत बाण बरसाए थे, जैसे कमलों पर तुम अपनी जलधारा बरसाते हो। धारासिक्तस्थलसुरभिणस्त्वन्मुखस्यास्य बाले दूरीभूतं प्रतनुमपि मां पञ्चबाणः क्षिणोति। उ० मे० 48 तुम्हारे उस मुख से दूर रहने के कारण सूखा जा रहा हूँ, जिसमें से ऐसी सोंधी गंध आती थी, जैसे पानी पड़ने पर धरती से आती है, उस पर यह पाँच बाणों वाला कामदेव मुझे और भी सताए जा रहा है। 7. पय - [पय् + असुन्, पा + असुन्, इकारादेश्च ] पानी। खिन्नः खिन्नः शिखरिषु पदं न्यस्य गन्तासि यत्र क्षीणः क्षीणः परिलघुपयः स्रोतसां चोपभुज्य। पू० मे० 13 कभी थकने लगो, तो मार्ग में पड़ती हुई पर्वत की चोटियों पर ठहरते जाना, और जब तुम पानी की कमी से दुबले पड़ने लगो तब झरनों का हल्का-हल्का जल पीते हुए जाना। तीरोपान्तस्तनितसुभगं पास्यसि स्वादु यस्मात्सभ्रूभङ्गं मुखमिव पयो वेत्रवत्याश्चलोर्मि। पू० मे० 26 जब तुम वहाँ की सुहावनी, मनभावनी और नाचती हुई लहरों वाली वेत्रवती नदी के तीर पर गर्जन करके उसका मीठा जल पीओगे, तब तुम्हें ऐसा लगेगा मानो तुम किसी कटीली भौंहों वाली कामिनी के ओठों का रस पी रहे हो। गम्भीरायाः पयसि सरितश्चेतसीव प्रसन्ने छायात्माऽपि प्रकृति सुभगो लप्स्यते ते पुवेशम्। पू० मे० 44 तुम्हारे सहज-सलोने शरीर की परछाईं गंभीरा नदी के उस जल में अवश्य दिखाई देगी, जो चित्त जैसा निर्मल है। For Private And Personal Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मेघदूतम् 667 8. वारि - [वृ + इञ्] जल, पानी। मन्दाकिन्याः सलिल वारितोष्णाः। उ० मे० 6 मंदाकिनी के जल की फुहार से ठंडाए हुए पवन में, तट पर खड़े कल्पवृक्ष की छाया में अपनी तपन जल में मिटती हुई। १. सलिल - [सलति गच्छति निम्नम् - सल् + इलच्] पानी। धूमज्योतिः सलिल मरुतां संनिपातः क्व मेघः सन्देशार्थाः क्वः पटुकरणैः प्राणिभिः प्रापणीयाः। पू० मे० 5 कहाँ तो धुएँ, अग्नि, जल और वायु के मेल से बना हुआ बादल और कहाँ संदेसे की वे बातें, जिन्हें बड़े चतुर लोग ही पहुँचा सकते हैं। तस्याः किंचित्करधृतमिव प्राप्तवानीरशाखं हृत्वा नीलं सलिलवसनं मुक्तरोधोनितम्बम्। पू० मे० 45 अपने तट के नितम्बों पर से जल के वस्त्र खिसक जाने पर, लज्जा से अपनी बेंत की लताओं के सदृश हाथों से अपने जल का वस्त्र थामे हुए है। हेमाम्भोज प्रसवि सलिलं मानसस्याददानः कुर्वन्कामं क्षणमुख पट प्रीतिमैरावतस्य। पू० मे० 66 तुम उस मानसरोवर का जल पीना जिसमें सुनहरे कमल खिला करते हैं, फिर ऐरावत के मुंह पर थोड़ी देर कपड़े-सा छाकर उसका मन बहला देना। मन्दाकिन्याः सलिल शिशिरैः सेव्यमाना मरुद्भिर्मन्दाराणामनुतटरुहां छायया वारितोष्णः। उ० मे06 मंदाकिनी के जल की फुहार से ठंडाए हुए पवन में, तट पर खड़े हुए कल्पवृक्षों की छाया में अपनी तपन मिटती हुईं। उद्यान 1. उद्यान - [उद् + या + ल्युट्] बाग, बगीचा, प्रमोदवन। गन्तव्या ते वसतिरलका नाम यक्षेश्वराणां बाह्योद्यान स्थितहरशिरश्चन्द्रिका धौत हा। पू० मे० 7 तुम्हें कुबेर की अलका नाम की उस बस्ती को जाना होगा, जहाँ के भवनों में, For Private And Personal Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 668 www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कालिदास पर्याय कोश बस्ती के बाहर वाले उद्यान में बनी हुई शिवजी के मूर्ति के सिर पर जड़ी हुई चंद्रिका से सदा उजाला रहता है। विश्रान्तः सन्व्रज वननदीतीरजातानि सिञ्चन्नु द्यानानांनवजलकणैर्यूथिका जालकानि । पू० मे० 28 वहाँ थकावट मिटाकर, तुम जंगली नदियों के तीरों पर उपवनों में खिली हुई, जूही की कलियों को अपने जल की फुहारों से सींचते हुए। धूतोद्यानं कुवलयरजोगन्धिभिर्गन्धवत्या स्तोयक्रीडानिरतयुवतिस्नानतिक्तैर्मरुद्भिः । पू० मे० 37 जल-विहार करने वाली युवतियों के स्नान करने से महकता हुआ और कमल गंध में बसी हुई गंधवती नदी की ओर से आने वाला पवन, उपवन को बार-बार झुला रहा होगा । 2. उपवन [ बाग, बगीचा, लगाया हुआ जंगल ] । पाण्डुछायोपवनवृतयः केतकैः सूचिभिन्नै - र्नीडारम्भैर्गृह बलिभुजामाकुल ग्राम चैत्याः । पू० मे० 25 वहाँ के फूले हुए उपवनों के बाड़, फूले हुए केवड़ों के कारण उजले दिखाई देंगे, गाँव के मंदिर, कौओं आदि पक्षियों के घोंसलों से भरे मिलेंगे। वैभ्राजाख्यं विबुधवनितावारमुख्या सहाया बद्धालापाबहिरुपवनं कामिनो निर्विशन्ति । उ० मे० 10 कामी लोग अप्सराओं के साथ बातें करते हुए वैभ्राज नाम के बाहरी उपवन में रात-दिन विहार किया करते हैं। 3. कुञ्ज - [ कु + न् + ड, पृषो० साधुः ] लतावितान, उद्यान, उपवन, पर्णशाला । स्थित्वा तस्मिन्वनचरवधूभुक्तकुञ्जे मुहूर्तं तोयोत्सर्ग द्रुततरगतिस्तत्परं वर्त्म तीर्णः । पू० मे० 20 आम्रकूट के जिन कुंजों में जंगली स्त्रियाँ घूमा करती हैं, वहाँ थोड़ी देर ठहरना और फिर डग बढ़ाकर चल देना क्योंकि जल बरसा देने से तुम्हारी चाल बढ़ जाएगी। तस्यास्तिक्तैर्वनगजमदैर्वासितं वान्तवृष्टि र्जम्बूकुञ्जप्रतिहतरयं तोयमादाय गच्छेः । पू० मे० 21 For Private And Personal Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मेघदूतम् 669 वहाँ जल बरसा चुको, तो जंगली हाथियों के सुगंधित मद में बसा हुआ और जामुन की कुंजों में बहता हुआ रेवा का जल पीकर, आगे बढ़ना। उर्मि 1. उर्मि - लहर, तरंग। तीरोपान्तस्तनितसुभगं पास्यसि स्वादु यस्मात् सभ्रूभङ्गमुखमिव पयो वेत्रवत्याश्चलोर्मि। पू० मे० 26 जब तुम सुहावनी, मनभावनी, और नाचती हुई लहरों वाली वेत्रवती नदी के तीर पर गर्जन करके उसका मीठा जल पीओगे तब, तुम्हें ऐसा लगेगा मानो तुम किसी कटीली भौंहों वाली कामिनी के ओठे का रस पी रहे हो। गौरी वक्त्रभृकुटिरचनां या विहस्येवफेनैः शंभोः केशग्रहणमकरादिन्दु लग्नोर्मिहस्ता। पू० मे० 54 वे इस फेन की हँसी से खिल्ली उड़ाती हुई उन पार्वतीजी का निरादर कर रही हों, जो सौतिया डाह से गंगाजी पर भौंहे तरेरती हों, इतना ही नहीं, वे अपनी लहरों के हाथ चन्द्रमा पर टेककर शिवजी के केश पकड़कर। वीचि - [वे + ईचि, डिच्च] लहर। वीचिक्षोभस्तनितविहगश्रेणिकाञ्चीगुणायाः संसर्पन्त्या:स्खलितसुभगं दर्शितावर्तनाभेः। पू० मे० 30 जिसकी उछलती हुई लहरों पर पक्षियों की चहचहाती हुई पाँतें ही करघनी-सी दिखाई देंगी और जो इस सुन्दर ढंग से बह रही होगी कि उसमें पड़ी हुई भंवर तुम्हें उसकी नाभि जैसी दिखाई देगी। उत्पश्यामि प्रतनुषु नदीवीचिषु भ्रूविलासान् हतैकस्मिन्क्वचिदपि न ते चण्डि सादृश्यमस्ति। उ० मे० 46 नदी की छोटी-छोटी लहरियों में तुम्हारी कटीली भौंहे देखा करता हूँ। तो भी हे चंडी! मुझे दुःख है कि इनमें से कोई एक भी तुम्हारी बराबरी नहीं कर पाता। कनक 1. कनक- [कन् + वुन्] सोना। For Private And Personal Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 670 कालिदास पर्याय कोश तस्मिन्नद्रौ कतिचिदबलाविप्रयुक्तः स कामीनीत्वा मासन्कनकवलयभ्रंश रिक्तप्रकोष्ठः। पू० मे० 2 वह यक्ष अपनी पत्नी से बिछुड़ने पर सूखकर काँटा हो गया, उसके हाथ के सोने के कंगन ढीले होकर निकल गये और यों ही रोते-कलपते उसने कुछ महीने तो। सौदामन्याकनकनिकषस्निग्धयादर्शयोर्वी तोयोत्सर्ग स्तनितमुखरो मास्मभूर्विक्लवास्ताः। पू० मे० 41 तुम कसौटी में सोने के समान दमकने वाली बिजली चमकाकर उन्हें ठीकठीक मार्ग दिखा देना। तुम गरजना-बरसना मत! नहीं तो वे घबरा उठेगी। अन्वेष्टव्यैः कनकसिकता मुष्टिनिक्षेप गूढ़ेः संक्रीडन्तेमणिभिरमरप्रार्थिता यत्र कन्याः। उ० मे० 6 कन्याएँ अपनी मुट्ठियों में रत्न लेकर उनको सुनहरे बालू में डालकर छिपाने और ढूँढ़ने का खेल खेला करती हैं। गत्युत्कम्पादलकपतितैर्यत्र मन्दारपुष्पैः पत्रच्छेदैः कनककमलैः कर्णविभ्रंशिभिश्च। उ० मे011 जब कामिनी स्त्रियाँ जल्दी-जल्दी पैर बढ़ाकर जाने लगती हैं, तब उनकी चोटियों में गुंथे हुए कल्पवृक्ष के फूल और पत्ते खिसककर निकल जाते हैं, कानों पर धरे हुए सोने के कमल गिर जाते हैं। तस्यातीरे रचितशिखर: पेशलैरिन्द्रनीलैः क्रीडाशैलः कनककदली वेष्टन प्रेक्षणीयः। उ० मे० 17 उस के तीर पर एक बनावटी पहाड़ है, जिसकी चोटी नीलमणि की बनी हुई है और जो चारों ओर से सोने के केलों से घिरा होने के कारण देखते ही बनता है। मत्वागारं कनकरुचिरं लक्षणैः पूर्वमुक्तः तस्योत्संगे क्षितितलगतां तां च दीनां ददर्श। उ० मे० 62 अपने मित्र के बताए हुए चिह्नों से उसने वियोगी यक्ष का सोने के समान चमकता हुआ भवन पहचान लिया और उसने देखा कि यक्ष की स्त्री उस भवन में धरती पर पड़ी हुई है। 2. काञ्चन - [काञ्च + ल्युट्] सुनहरा, सोने का बना हुआ, सोना। For Private And Personal Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मेघदूतम् 671 तन्मध्ये च स्फटिकफलका काञ्चनी वासयष्टिद्ले बद्धा मणिभिरनति प्रौढ़वंशप्रकाशैः। उ० मे० 19 उनके बीच में चमकीले मणियों से बनी हुई एक चौकी है, जिस पर स्फटिक की एक चौकोर पटिया रखी हुई है। उस पटिया पर जड़ी हुई एक सोने की छड़ पर तुम्हारा मित्र मोर आकर बैठा करता है। 3. हेम- [हि + मन्] सोना प्रद्योतस्य प्रियदुहितरं वत्सराजोऽत्र जह्वे तालदुमवनमभूदन तस्यैव राज्ञः। पू० मे0 35 वत्स देश के राजा ने प्रद्योत की प्यारी कन्या को हरा था, यहीं उनका बनाया हुआ पेड़ों का सुनहरा उपवन था। हेमाम्भोजपुसवि सलिलं मानसस्याददानः कुर्वन्कामं क्षणमुखपटप्रीति मैरावतस्य। पू० मे० 66 तुम उस मानसरोवर का जल पीना जिसमें सुनहरे कमल खिला करते हैं, फिर ऐरावत के मुंह पर थोड़ी देर कपड़े-सा छाकर उसका मन बहला देना। वापी चास्मिन्मरकतशिलाबद्धसोपान मार्गा हेमैश्छन्ना विकचकमलैः स्निग्धवैदूर्य नालैः। उ० मे0 16 एक बावड़ी मिलेगी जिसकी सीढ़ियों पर नीलम जड़ा हुआ है और जिसमें चिकने वैदूर्य मणि की डंठल वाले बहुत से सुनहरे कमल खिल रहे हैं। कल्पदम . कल्पदुम [कृप् + अच्, घन वा + दुभः] स्वर्गीय वृक्षों में से एक या इन्द्र का स्वर्ग, इच्छानुरूप फल देने वाला वृक्ष। धुन्वन्कल्पदुम किसलयान्यंशुकानीव वातैर्नानाचेष्टैर्जलद ललितैर्निर्विशेस्तं नगेन्द्रम। पू० मे0 66 देखो मेघ! वहाँ जाकर कल्पदुम के कोमल पत्तों को महीन कपड़े की भाँति हिला देना। ऐसे बहुत से खेल करते हुए कैलास पर्वत पर जी भरकर घूमना। 2. कल्पवृक्ष - [कृप + अच्, घञ् वा + वृक्षः] स्वर्गीय वृक्षों में से एक या इन्द्र का स्वर्ग, इच्छानुरूप फल देने वाला वृक्ष। For Private And Personal Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 672 कालिदास पर्याय कोश आसेवन्ते मधु रतिफलं कल्पवृक्षप्रसूतं त्वद्गम्भीरध्वनिषु शनकैः पुष्करेष्वाहतेषु। उ० मे० 5 कामदेव को उभारने वाला वह मधु पी रहे होंगे, जो उन वाद्यों के मंद-मंद बजने पर कल्पवृक्ष से निकलता है और जो तुम्हारे गंभीर गर्जन के समान ही गूंजा करते हैं। लाक्षारागं चरणकमलन्यासयोग्यं च यस्यामेकः सूते सकलमबलामण्डनं कल्पवृक्षः। उ० मे० 12 पैरों में लगाने का महाबर आदि स्त्रियों के सिंगार की जितनी वस्तुएँ हैं, सब अकेले कल्पवृक्ष से ही मिल जाती हैं। 3. मन्दार - [मन्द् + आरक्] कल्पवृक्ष, मदार वृक्ष, इन्द्र के नंदन कानन स्थित पाँच वृक्षों में से एक। गत्युत्कम्पादलक पतितैर्यत्र मन्दारपुष्पैः पत्रच्छेदैः कनक कमलैः कर्णविभ्रंशिभिश्च। उ० मे011 जब कामिनी स्त्रियाँ जल्दी-जल्दी पैर बढ़ाकर जाने लगती हैं उस समय उनकी चोटियों में गुंथे हुए कल्पवृक्ष के फूल और पत्ते खिसककर निकल जाते हैं, कानों पर धरे सोने के कमल गिर जाते है। मन्दार वृक्ष- [मन्द् + आरक् + वृक्षः] कल्पवृक्ष, मदार वृक्ष, इन्द्र के नंदन कानन स्थित पाँच वृक्षों में से एक। यस्योपान्ते कृतक तनयः कान्तया वर्धितो मे हस्त प्राप्य स्तबकनमितो बालमन्दारवृक्षः। उ० मे0 15 उसी के पास एक छोटा सा कल्पवृक्ष है जिसे मेरी स्त्री ने पुत्र के समान पाल रखा है। वह फूलों के गुच्छों से इतना झुका हुआ होगा कि खड़े-खड़े ही वे गुच्छे हाथ से तोड़े जा सकते हैं। काञ्ची 1. काञ्ची - [काञ्च् + इनि = कांचि + ङीष्] मेखला, करधनी। वीचिक्षोभस्तनितविहगश्रेणिकाञ्चीगुणायाः। पू० मे० 30 जिसकी उछलती हुई लहरों पर पक्षियों की चहचहाती हुई पाँतें ही करधनी - सी दिखाई देंगी। For Private And Personal Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 673 मेघदूतम् 2. रशना - [ अश् + युच्, रशादेशः] कटिबंध, कमरबंद, करधनी, मेखला। पादन्यासैः क्वणितरशनास्तत्र लीलावधूतैः। पू० मे 39 पैरों पर थिरकती हुई वेश्याओं की करधनी के धुंघरू बड़े मीठे-मीठे बज रहे होंगे। हंसश्रेणीरचितरशना नित्यपद्मा नलिन्यः। पू० मे० 3 बारहमासी कमल और कमलिनियों को हँसों की पाँते करधनी की तरह घेरे रहती हैं। कान्ता 1. अंगना - [प्रशस्तम् अङ्गम् अस्ति यस्याः - अङ्ग + न + टाप्] स्त्री, सुंदर स्त्री। आशाबन्धः कुसुमसदृशं प्रायसो ह्यङ्गनानां । सद्यः पाति प्रणयि हृदयं विप्रयोगे रुणद्धिः। पू० मे०१ प्रेमियों का फूल जैसा कोमल हृदय, बस मिलने की आशा के बल पर ही अटका रहता है। इसलिए स्त्रियों के जो हृदय अपने प्रेमियों से बिछुड़ने पर एक क्षण नहीं टिके रह सकते, वे इसी आशा के भरोसे उन स्त्रियों को जिलाये रखते हैं। अद्रेः शृङ्गं हरति पवनः किंस्विदित्युन्मुखीभिदृष्टोत्साहश्चकितचकितं मुग्ध सिद्धाङ्गनाभिः। पू० मे० 14 सिद्धों की भोली-भाली स्त्रियाँ आँखें फाड़-फाड़कर तुम्हारी ओर देखती हुई सोचेंगी कि कहीं पहाड़ी की चोटी को पवन तो नहीं उड़ाए लिए चला जा रहा विद्युद्दामस्फुरितचकितैस्तत्र पौराङ्गनानां लोलापाङ्गैर्यदि न रमसे लोचनैवञ्चितोऽसि। पू० मे० 29 तुम्हारी बिजली की चमक से डरकर नगर की स्त्रियाँ जो चंचल चितवन चलावेंगी उन पर यदि तुम न रीझे तो। मत्सङ्गं वा हृदयनिहितारम्भमास्वादयन्ती प्रायेणैते रमणविहरेष्वङ्गनानां विनोदाः। उ० मे० 27 वह मेरे साथ किए हुए संभोग के आनंद का मन ही मन रस लेती हुई बैठी होगी, For Private And Personal Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 674 कालिदास पर्याय कोश क्योंकि अपने प्यारों के बिछोह में स्त्रियाँ प्रायः ऐसी ही बातों में अपने दिन काटती हैं। स्निग्धाः सख्यः कथमपि दिवा तां न मोक्ष्यन्ति तन्वीमेकप्रख्या भवति हि जगत्पङ्गनानां प्रवृत्तिः। उ० मे० 29 उसकी प्यारी सखियाँ, उस कोमल देहवाली को दिन में कभी अकेली नहीं छोड़ेंगी, क्योंकि संसार में सभी स्त्रियाँ अपनी सखियों के दुख में कभी उनका साथ नहीं छोड़तीं। अबला -स्त्री। तस्मिन्नद्रौ कतिचिदबलाविप्रयुक्तः स कामी नीत्वा मासान्कनकवलय भ्रंशरिक्तप्रकोष्ठः। पू० मे० 2 यक्ष अपनी पत्नी से बिछुड़ने पर सूखकर काँय हो गया। उसके हाथ के सोने के कंगन भी ढीले होकर निकल गये और यों ही रोते कलपते उसने कुछ महीने उस पहाड़ी पर जैसे-तैसे काट दिए। लाक्षारागं चरणकमलन्यासयोग्यं च यस्यामेकः सूते सकलमबलामण्डनं कल्पवृक्षः। उ० मे० 12 पैरों में लगाने का महाबर आदि स्त्रियों के सिंगार की जितनी वस्तुएँ हैं, सब अकेले कल्पवृक्ष से ही मिल जाती हैं। सा संन्यस्ताभरणमबला पेशलं धारयन्ती शय्योत्सङ्गे निहितमसकृदुःखदुःखेन गात्रम्। उ० मे० 35 वह बेचारी बार-बार दुःख में पछाड़ खा-खाकर पलंग के पास पड़ी हुई, किसी प्रकार अपने बिना आभूषण वाले कोमल शरीर को सँभाले हुए है। अव्यापन्नः कुशलमबले पृच्छति त्वां वियुक्तः पूर्वभाष्यं सुलभविपदां प्राणिनामेतदेव। उ० मे० 12 हे अबला! तुम्हारा बिछुड़ा हुआ साथी कुशल से है और तुम्हारी कुशल जानना चाहता है क्योंकि जिन पर अचानक विपत्ति आ गई हो, उनसे पहले-पहल यही पूछना ठीक होता है। 3. कान्ता -[कम् + क्त + टाप्] प्रेमिका या लावण्यमयी स्त्री, गृह स्वामिनी, पत्नी। For Private And Personal Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 675 मेघदूतम् कश्चित्कान्ताविरह गुरुणा स्वाधिकारात्प्रमत्तः शापेनास्तंगमितमहिमा वर्षभोग्येण भर्तुः। पू० मे० 1 कुबेर ने ललकार कर उसे यह कहकर देश निकाला दे दिया कि अब एक वर्ष तक तू अपनी पत्नी (स्त्री) से नहीं मिल पायेगा। यस्योपान्ते कृतकतनयः कान्तया वर्धितो मे हस्तप्राप्यस्तबकनमितो बालमन्दारवृक्षः। उ० मे0 15 उसी के पास एक छोटा सा कल्पवृक्ष है, जिसे मेरी स्त्री ने अपने पुत्र के समान पाल रखा है। वह फूलों के गुच्छों से इतना झुका हुआ होगा कि खड़े-खड़े ही वे गुच्छे हाथ से तोड़े जा सकते हैं। तालैः शिञ्जीवलयसुभगैर्नर्तितः कान्तया मे यामध्यास्ते दिवसविगमे नीलकण्ठः सुहृदयः। उ० मे० 19 तुम्हारा मित्र मोर नित्य साँझ को बैठा करता है, और मेरी स्त्री उसे अपने घुघरूदार कड़ेवाले हाथों से तालियाँ बजा-बजा कर नचाया करती है। स त्वं रात्रौ जलद शयनासन्नवातायनस्थः कान्तां सुप्ते सति परिजने वीतनिद्रामुपेयाः। उ० मे० 29 इसलिए तुम उसके पलँग के पास वाली खिड़की पर बैठकर थोड़ी देर परखना और जब वे सखियाँ सो जायँ, तब रात को मेरी जागती हुई प्यारी स्त्री के पास पहुँच जाना। कामिनी - [कम् + णिनि + ङीष्] प्रिय स्त्री, मनोहर और सुन्दर स्त्री। या वः काले वहति सलिलोद्गारमुच्चैर्विमाना मुक्ताजाल ग्रथितमलकं कामिनीवाभ्रवृन्दम्। पू० मे० 67 ऊँचे-ऊँचे भवनों वाली अलका पर वर्षा के दिनों में बरसते हुए बादल ऐसे छाए रहते हैं, जैसे कामिनियों (स्त्रियों) के सिरों पर मोती गुंथे हुए जूड़े। मुक्ताजालैः स्तनपरिसरच्छिन्नसूत्रैश्च हारैनैंशोमार्गः सवितुरुदये सूच्यते कामिनीनाम्। उ० मे० 11 हारों से टूटे हुए मोती भी इधर-उधर बिखर जाते हैं, जब दिन निकलता है तो इन वस्तुओं को मार्ग में बिखरा हुआ देखकर लोग समझ लेते हैं कि वे कामिनी स्त्रियाँ किधर-किधर से होकर अपने प्रेमियों के पास पहुंची थीं। For Private And Personal Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 676 कालिदास पर्याय कोश 5. बाला [बाल् + याप्] तरुणी, युवती। गाढोत्कण्ठां गुरुषु दिवसेष्वषु गच्छत्सु बाला जातां मन्ये शिशिरमथितां पद्मिनी वान्यरूपाम्। उ० मे० 23 विरह के कठोर दिन बड़ी उतावली से बिताते-बिताते उसका रूप भी बदल गया होगा और उसे देखकर तुम्हें यह भ्रम हो सकता है कि यह कोई बाला है या पाले से मारी हुई कोई कमलिनी है। धारासिक्तस्थलसुरभिणस्त्वन्मुपस्यास्य बाले दूरीभूतं प्रतनुमपि मां पञ्चबाणः क्षिणोति। उ० मे० 48 हे बाला ! एक तो मैं यों ही तुम्हारे उस मुख से दूर रहने के कारण सूखा जा रहा हूँ जिसमें से ऐसी सोंधी गंध आती है जैसे पानी पड़ने पर धरती में से आती है, उस पर यह पाँच बाणों वाला कामदेव मुझे और सताए जा रहा है। मानिनी - [मान् + णिनि + ङीष्] आत्माभिमानिनी स्त्री, दृढ़ संकल्प वाली स्त्री। विद्युद्गर्भः स्मित नयनां त्वत्सनाथे गवाक्षेः वक्तुं धीरः स्तनितवचनैर्मानिनी प्रक्रमेथाः। उ० मे० 40 आँखें खोलने पर जब वह झरोखे से तुम्हारी ओर एकटक होकर देखे तो तुम अपनी बिजली को छिपा लेना और अपनी धीमी गर्जन के शब्दों में उस मानिनी से बात-चीत चला देना। 7. युवती - [युवन् + ति, ङीप् वा] तरुणी स्त्री। धूतोद्यानं कुवलयरजोगन्धिभिर्गन्धवत्यास्तोय क्रीड़ानिरत युवति स्नानतिक्तैर्मरुद्भिः । पू० मे० 37 जल-विहार करने वाली युवतियों के स्नान करने से महकता हुआ और कमल के गंध में बसी हुई गंधवती नदी की ओर से आने वाला पवन, उपवन को बार-बार झुला रहा होगा। श्रोणीभारादलसगमना स्तोकनम्रा स्तनाभ्यां या तत्र स्यायुवतिविषये सृष्टिराद्येव विधातुः। उ० मे० 22 वहाँ जो नितम्बों के बोझ से धीरे-धीरे चलनेवाली और स्तनों के भार से कुछ आगे को झुकी हुई युवती दिखाई दे, वही मेरी पत्नी होगी। उसकी सुन्दरता देखकर यही जान पड़ेगा मानो ब्रह्मा की सबसे बढ़िया कारीगरी वही हो। For Private And Personal Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मेघदूतम् 8. योषिता [ योषित् + यप्] स्त्री, लड़की, तरुणी, जवान स्त्री । गच्छन्तीनां रमणवसतिं योषितां तत्र नक्तं 677 रुद्ध लोके नरपति पथे सूचिभेद्यैस्तमोभिः । पू० मे041 वहाँ पर जो स्त्रियाँ अपने प्यारों से मिलने के लिए घनी अंधेरी रात में निकली होंगी, उन्हें जब सड़कों पर अंधेरे के मारे कुछ भी न सूझता होगा, उन्हें मार्ग दिखा देना । तस्मिन्काले नयनसलिलं योषिता खण्डितानां शान्तिं नेयं प्रणयभिरतो वर्त्म भानोस्त्यजाशु । पू० मे० 43 उस समय बहुत से प्रेमी लोग अपनी उन स्त्रियों के आँसू पोंछ रहे होंगे, जिन्हें रात को अकेली छोड़कर वे कहीं दूसरी ठौर पर रमे होंगे। इसलिए उस समय सूर्य को भी मत ढकना । 9. वधू - [ उह्यते पितृगेहात् पतिगृहं वह + ऊधुक् ] दुलहिन, पत्नी, महिला, तरुणी, स्त्री । त्वय्यायत्तं कृषिफलमिति भ्रूविलासानभिज्ञैः प्रीतिस्निग्धैर्जनपदवधूलोचनैः पीयमानः । पू० मे0 16 खेती का होना न होना भी सब तुम्हारे ही भरोसे है, इसलिये किसानों की वे भोली-भाली स्त्रियाँ भी तुम्हें बड़े प्रेम और आदर से देखेंगीं, जिन्हें भौं चलाकर रिझाना नहीं आता । स्थित्वा तस्मिन्वनवधूभुक्तकुञ्जे मुहूर्तं तोयोत्सर्ग दुततरगतिस्तत्परं वर्त्म तीर्णः । पू० मे० 20 जिन कुञ्जों में जंगली स्त्रियाँ घूमा करती हैं, वहाँ थोड़ी देर ठहरना और फिर डग बढ़ाकर चल देना, क्योंकि जल बरसा देने पर तुम्हारी चाल भी बढ़ जाएगी। पादन्यासैः क्वणितरशनास्तत्र लीलावधूतै For Private And Personal Use Only रत्नच्छायाखचितबलिभिश्चामरैः क्लान्तहस्ताः । पू० मे० 39 पैरों पर थिरकती हुई जिन वेश्या स्त्रियों की करधनी के घुंघरू बड़े मीठे-मीठे बज रहे होंगे और जिनके हाथ, कंगन के नगों की चमक से दमकते हुए दंड वाले चँवर डुलाते-डुलाते थक गए होंगे। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 678 कालिदास पर्याय कोश कुन्दक्षेपानुगममधुकरश्रीमुषामात्मबिम्बं पात्रीकुर्वन्दशपुरवधू नेत्र कौतूहलानाम्। पू० मे० 51 दशपुर की उन रमणियों को रिझाना जिनकी कटीली काली-काली भौंहें ऐसी जान पड़ेंगी, मानों उन्होंने कुन्द के फूलों पर मँडराने वाली भौंरों की चमक चुरा ली हो। चूडापाशे नवकुरबकं चारु कर्णे शिरीष सीमन्ते च त्वदुपगमजं यत्र नीपं वधूनाम्। उ० मे० 2 वहाँ की वधुएँ अपने जूड़े में नये कुरबक के फूल खोंसती हैं, अपने कानो पर सिरस के फूल रखती हैं और वर्षा में फूल उठने वाले कदंब के फूलों से अपनी माँग सँवारा करती हैं। तं संदेशं जलधरवरो दिव्यवाचाचक्षे प्राणांस्तस्या जनहितरतो रक्षितुं यक्षवध्वाः। उ० मे०60 सबका भला करने वाले उस भले मेघ ने दैवी शब्दों में यक्ष की स्त्री के प्राण बचाने के लिए सब संदेश सुना डाला। 10. वनिता - [वन् + क्त + यप्] स्त्री, महिला, पत्नी। त्वामारूढं पवनपदवीमुद्गृहीतालकान्ताः प्रेक्षिष्यन्ते पथिकवनिताः प्रत्यपादाश्वसन्त्यः। पू० मे० 8 जब तुम वायु पर पैर रखकर ऊपर चढ़ोगे, तब परदेसियों की स्त्रियाँ अपने बाल ऊपर उठकर, बड़े भरोसे ढाढस पाकर। हर्येष्वस्याः कुसुमसुरभिष्वध्वश्वेदं नयेथा लक्ष्मी पथ्यल्ललितवनिता पादरागाङ्कितेषु। पू० मे० 36 फूलों के गंध से महकते हुए वहाँ के उन भवनों की सजावट देखकर अपनी थकावट दूर कर लेना, जिनमें सुन्दरियों के चरणों में लगी हुई महावर से लाल-पैरों की छाप बनी हुई होंगी। गत्वाचोर्ध्वं दशमुखभुजोच्छ्वासितप्रस्थसंधेः कैलासस्यत्रिदशवनिता दर्पणस्यातिथिः स्याः। पू० मे0 62 ऊपर उठकर तुम उस कैलास पर्वत पर पहुंच जाओगे जिसकी चोटियों के For Private And Personal Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मेघदूतम् जोड़-जोड़ रावण के बाहुओं ने हिला डाले थे, जिसमें देवताओं की स्त्रियाँ अपना मुँह देखा करती हैं। विद्युत्वन्तं ललितवनिताः सेन्द्रचापं सचित्रा: संगीताय प्रहतमुरजाः स्निग्धगम्भीरघोषम् । उ० मे० 1 यदि तुम्हारे साथ बिजली है तो उन भवनों में भी चटकीली नारियाँ हैं, यदि तुम्हारे पास इन्द्रधनुष है, तो उन भवनों में भी रंग-बिरंगे चित्र लटके हुए हैं। यदि तुम मृदुगंभीर गर्जन कर सकते हो तो वहाँ भी संगीत के साथ मृदंग बजते हैं। 679 वैभ्राजाख्यं विबुधवनितावारमुख्या सहाया बद्धालापा बहिरुपवनं कामिनो निर्विशन्ति । उ० मे० 10 कामी लोग देवस्त्रियों (अप्सराओं) के साथ बातें करते हुए वैभ्राज नाम के बाहरी उपवन में विहार किया करते हैं। सभ्रूभंगप्रहितनयनैः कामिलक्ष्येष्वमोघैः स्तस्यारम्भश्चतुरवनिताविभ्रमैरेव सिद्धः । उ० मे० 14 वहाँ की छबीली चतुर स्त्रियाँ जो अपने प्रेमियों की ओर बाँकी चितवन चलाती हैं, उसी से कामदेव अपना काम निकाल लेता है। 11. सीमन्तिनी - [ सीमन्त + इनि + ङीप् ] स्त्री, महिला । श्रोष्यत्यस्मात्परमवहिता सौम्य सीमन्तिनीनां कान्तोदन्तः सुहृदुपनतः संगमात्किंचिदूनः । उ० मे० 42 मित्र के मुँह से पति का संदेश पाकर स्त्रियों को अपने प्रिय के मिलन से कुछ कम सुख थोड़े ही मिलता है। For Private And Personal Use Only 12. स्त्री - [स्त्यायेते शुक्रशोणिते यस्याम् - स्त्यै + ड्रप् + ङीप् ] नारी, औरत, पत्नी । यः पण्यस्त्रीरति परिमलोद्गारिभिर्नागराणांउद्दामिनि प्रथयति शिलावेश्मभिर्यौवनानि । पू० मे० 27 पहाड़ की गुफाओं में से उन सुगंधित पदार्थों की गंध निकल रही होगी जो वहाँ के छैले वेश्याओं के साथ रति करने के समय काम में लाते हैं। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 680 कालिदास पर्याय कोश निर्विन्ध्यायाः पथि भव रसाभ्यन्तरः सन्निपत्य स्त्रीणामाद्यं प्रणयवचनं विभ्रमो हि प्रियेषु। पू० मे० 30 रास्ते में उस निर्विन्ध्या नदी का भी रस ले लेना....,क्योंकि स्त्रियाँ चटक-मटक दिखाकर ही अपने प्रेमियों को अपने प्रेम की बात कह देती हैं। यत्र स्त्रीणां हरति सुरतग्लानिमङ्गानुकूलः शिप्रावातः प्रियतम इव प्रार्थनाचाटुकारः। पू० मे० 33 जहाँ शिप्रा का वायु चतुर प्रेमी की तरह स्त्रियों की संभोग की थकावट को दूर कर रहा होगा। यस्यां यक्षाः सितमणिमयान्येत्य हर्म्यस्थलानि । ज्योतिश्छाया कुसुमरचितान्युत्तमस्त्रीसहायाः। उ० मे० 5 वहाँ के यक्ष अपनी अलबेली स्त्रियों को लेकर स्फटिक मणि से बने हुए अपने उन भवनों पर बैठते हैं, जिनकी गच पर चढ़ी हुई तारों की छाया ऐसी जान पड़ती है, मानो फूल टैंके हुए हैं। यत्र स्त्रीणां प्रियतम भुजालिङ्गनोच्छवासितानां अङ्गानि सुरतजनितां तन्तुजालवलम्बाः। उ० मे०१ झालरों में लटके हुए मणियों से टपकता हुआ जल उन स्त्रियों की थकावट दूर करता है, जिनके शरीर प्रियतम की भुजाओं में कसे रहने से ढीले पड़ जाते हैं। कान्ति 1. कान्ति - [कम् + क्तिन्] मनोहरता, सौंदर्य, चमक, प्रभा, दीप्ति । येन श्यामं वपुरतितरां कान्तिमापत्स्यते ते बढेणेव स्फुरितरुचिनागोपवेषस्य विष्णोः। पू० मे0 15 सजा हुआ तुम्हारा साँवला शरीर ऐसा सुन्दर लगने लगा है जैसे मोरमुकुट पहने हुए ग्वाले का वेष बनाए हुए श्रीकृष्णजी आकर खड़े हो गए हों। स्वल्पीभूतेसुचरितफलेस्वर्गिणांगागतानां शेषैःपुण्यैर्हतमिव दिवः कान्तिमत्खण्डमेकम्। पू० मे० 32 मानो स्वर्ग में अपने पुण्यों का फल भोगने वाले पुण्यात्मा लोग, पुण्य समाप्त For Private And Personal Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मेघदूतम् 681 होने से पहले ही, अपने बचे हुए पुण्य के बदले, स्वर्ग का एक चमकीला भाग लेकर उसे अपने साथ धरती पर उतार लाए हों। हस्तन्यस्तं मुखमसकलव्यक्ति लम्बालकत्वादिन्दोर्दैन्यं त्वदनुसरण क्लिष्टकान्तेबिभर्ति। उ० मे० 24 चिंता के कारण गालों पर हाथ धरने से और बालों के मुंह पर आ जाने से उसका अधूरा दिखाई देने वाला मुँह मेघ से ढके हुए चंद्रमा के समान धुंधला और उदास दिखाई दे रहा होगा। 2. तेज - [तिज् + असुन्] चमक, दीप्ति, प्रभा, कांति, सौंदर्य, शौर्य। रक्षा हेतोर्नवशशिभृता वासवीनां चमूनामत्यादित्यं हुतवह मुखे संभृतं तद्धि तेजः। पू० मे० 47 इंद्र की सेनाओं को बचाने के लिये शिवजी ने सूर्य से बढ़कर जलता हुआ अपना जो तेज अग्नि में डालकर इकट्ठा किया था, उसी तेज से स्कन्द का जन्म हुआ है। 3. द्युति - [द्युत् + इन] दीप्ति, उजाला, कांति, सौंदर्य। छन्नोपान्तः परिणतफलद्योतिभिः काननादैस्त्वय्यारूढे शिखरमचलः स्निग्धवेणीसवर्णे। पू० मे० 18 पके हुए फलों से लदे हुए आम के वृक्षों से घिरा हुआ पर्वत पीला सा हो गया होगा। उसकी चोटी पर जब तुम कोमल बालों के जूड़े के समान साँवला रंग लेकर चढ़ोगे। 4. प्रभा - [प्र + भा + अ + टाप्] प्रकाश, दीप्ति, कांति, चमक। तामुत्तीर्य व्रज परिचितभूलताविभ्रमाणां पक्ष्मोत्क्षेपादुपरिविलसत्कृष्णाशार प्रभाणाम्। पू० मे० 51 उसे पार करके अपना साँवला रूप दिखाकर वहाँ की उन रमणियों को रिझाना जिनकी, कटीली काली-काली भौंहें। 5. शोभा - [शुभ् + अ + यप्] कांति, चमक, सौंदर्य, लालित्य, चारुता, लावण्य, दीप्ति। वक्ष्यस्यध्वश्रमविनयनेतस्यशृङ्गे निषण्णः शोभा शुभ्रत्रिनयन वृषोत्खात पङ्कोपमेयाम्। पू० मे० 56 For Private And Personal Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 682 कालिदास पर्याय कोश उस चोटी पर बैठे हुए तुम वैसे ही दिखलाई दोगे, जैसे महादेव जी के उजले वृषभ के सीगों पर मिट्टी के टीलों पर टक्कर मारने से कीचड़ जम गया हो। तेनोदीची दिशमनुसरेस्तिर्यगायाः शोभि श्यामः पादो बलि नियमनाभ्युद्य तस्येव विष्णोः। पू० मे0 61 उत्तर की ओर उस सँकरे मार्ग में तुम वैसे ही लंबे और तिरछे होकर जाना, जैसे बलि को छलने के समय भगवान विष्णु का साँवला चरण लंबा और तिरछा हो गया था। श्री - [श्रि + क्विप, नि०] सौंदर्य, चारुता, लालित्य, कांति चमक, दीप्ति। कुन्दक्षेपानुगममधुकरश्रीमुषामात्मबिम्ब पात्रीकुर्वन्दशपुरवधूनेत्र कौतूहलानाम्। पू० मे0 51 दशपुर की उन रमणियों को रिझाना, जो ऐसी जान पड़ेगी, मानों उन्होंने कुन्द के फूलों पर उड़ने वाले भौरों की चमक चुरा ली हों। हस्ते लीलाकमलमलके बालकुन्दानुविद्धं नीतालोध्रप्रसवरजसा पाण्डुतामानने श्रीः। उ० मे० 2 हाथों में कमल के आभूषण पहनतीं हैं, अपनी चोटियों में नये खिले हुए कुन्द के फूल गूंथती हैं, अपने मुँहों को लोध के फूलों का पराग मलकर गोरा करती हैं। त्वय्यासन्ने नयनमुपरिस्पन्दि शङ्के मृगाक्ष्या मीन क्षोभाञ्चल कुवलयश्री तुलामिष्यतीति। उ० मे० 37 उस समय फड़कती हुई वह बाईं आँख उस नीले कमल जैसी सुन्दर दिखाई देगी, जो मछलियों के इधर-उधर आने-जाने से काँप उठा करता है। काम (इच्छा) 1. अभिलाष - [अभि + लष् + धञ्] इच्छा, कामना, उत्कंठ, अनुराग। एकः सख्यास्तव सह मया वामपादाभिलाषी काङ्क्षत्यन्यो वदन मदिरां दोहदच्छानास्याः। उ० मे० 18 जैसे मैं तुम्हारी सखी के पैर की ठोकर खाने के लिए तरस रहा हूँ, वैसे ही वह For Private And Personal Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मेघदूतम् 683 अशोक भी फूलने का बहाना लेकर मेरी पत्नी के बाएं पैर की ठोकर खाने के लिए तरस रहा होगा और दूसरा मौलसिरी का पेड़ भी उसके मुँह से निकली हुई मदिरा के छींटे पाना चाहता होगा। 2. इच्छा - [इष् + श + यप्] कामना, अभिलाषा, रुचि। नृत्तारम्भे हर पशुपतेराईनागाजिनेच्छां शान्तोद्वेगस्तिमित नयनं दृष्टभक्तिर्भ वान्या। पू० मे० 40 जब महाकाल तांडव नृत्य करने लगें, उस समय ----शिवजी के मन में जो हाथी की खाल ओढ़ने के इच्छा होगी वह भी पूरी हो जाएगी। पार्वती जी एकटक होकर शिवजी में तुम्हारी इतनी भक्ति देखती रह जाएँगी। 3. कांक्षा - [काञ्झ् + अ + यप्] कामना, इच्छा, अभिलाषा। एकःसख्यास्तव सह मया वामपादाभिलाषी काङ्क्षत्यन्यो वदन मदिरां दोहदच्छद्मनास्याः। उ० मे० 18 जैसे मैं तुम्हारी सखी के पैर की ठोकर खाने के लिए तरस रहा हूँ वैसे ही वह अशोक का पेड़ भी उसके बाएँ पैर की ठोकर खाने के लिए तरस रहा होगा और वह मौलसिरी का पेड़ भी उसके मुँह से निकली हुई मदिरा के छींटे पाना चाहता होगा। काम - [कम् + घञ्] कामना, इच्छा, स्नेह, अनुराग। तेनार्थित्वंत्वयि विधिवशाद्दूरबन्धुर्गतोऽहं याचा मोघा वरमधि गुणे नाधमे लब्धकामा। पू० मे० 6 अपनी प्यारी से इतनी दूर लाकर पटका हुआ मैं अभागा तुम्हारे ही आगे हाथ पसार रहा हूँ, क्योंकि गुणी के आगे हाथ फैला कर रीते हाथ लौट आना अच्छा है, पर नीच से मन चाहा फल पा जाना भी अच्छा नहीं है। 5. दोहद - [दोहमाकर्ष ददाति - दा+क] गर्भवती स्त्री की प्रबल रुचि। एकः सख्यास्त्व सह मया वामपादाभिलाषी काङ्क्षत्यन्यो वदनमदिरां दोहदच्छद्मनास्याः। उ० मे० 18 जैसे मैं तम्हारी सखी के पैर की ठोकर खाने के लिए तरह तरस रहा है, वैसे ही वह भी फूलने का बहाना लेकर मेरी पत्नी के बाएँ पैर की ठोकर खाने के लिए तरस रहा होगा और उसके मुंह से निकले हुए मदिरा के छींटे पाना चाहता होगा। For Private And Personal Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 684 कालिदास पर्याय कोश कार्य 1. कायॆ - [कृश् + ष्यञ्] पतलापन, दुर्बलता, पतला, दुबला। सौभाग्यं ते सुभग विरहावस्थया व्यञ्जयन्ती कार्यं येन त्यजति विधिना स त्वयैवोपपाद्यः। पू० मे० 31 अपनी यह वियोग की दशा दिखाकर यह बता रही होगी कि मैं तुम्हारे वियोग में सूखी जा रही हूँ। देखो! तुम ऐसा उपाय करना कि उस बेचारी का दुबलापन दूर हो जाय। 2. तनु - [तन् + उ] पतला, दुबला, कृश। स्निग्धाः सख्यः कथमपि दिवा तां न मोक्ष्यन्ती तन्वी मेकप्रख्या भवति हि जगत्यङ्गनानां प्रवृत्तिः। उ० मे० 29 उसकी प्यारी सखियाँ, उसकोमल (दबले) देहवाली को दिन में कभी अकेली नहीं छोड़ेंगी, क्योंकि संसार में सभी स्त्रियाँ अपनी सखियों के दुख में कभी उनका साथ नहीं छोड़ती। कीर्ति 1. कीर्ति - [कृत् + क्तिन्] यश, प्रसिद्धि, कीर्ति। स्रोतोमूर्त्या भुवि परिणतां रन्तिदेवस्य कीर्तिम्। पू० मे० 49 जो राजा रन्तिदेव की कीर्ति बनकर धरती पर नदी के रूप में बह रही है। 2. यश - [अश् स्तुतौ असुन् धातोः युट् च्] प्रसिद्धि, ख्याति, कीर्ति। प्रालेया।रुपतटमतिक्रम्य ताँस्तान्विशेषान्हंसद्वारं भृगुपति यशोवर्त्म यत्क्रौञ्चरन्ध्रम्। पू० मे० 61 हिमालय पर्वत के आस-पास के सुहावने स्थानों को देखकर तुम उस क्रौञ्चरंध्र में से होते हुए उत्तर की ओर जाना जिसमें से होकर हंस, मानसरोवर की ओर जाते हैं और जिसे परशुराम जी, अपने बाण से छेदकर अपना नाम अमर कर गये हैं। अक्षय्यान्तर्भवननिधयः प्रत्यहं रक्तकण्ठैः उद्गायद्भिर्धन पति यशः किंनरैर्यत्र सार्धम्। उ० मे० 10 For Private And Personal Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 685 मेघदूतम् अथाह संपति वाले कामी लोग, ऊँचे स्वर में मीठे गलों से कुबेर का यश गान करने वाले किन्नरों के साथ बैठे हुए। कुसुम 1. कुसुम - [कुष् + उम] फूल। स प्रत्यग्रैः कुटज कुसुमैः कल्पितार्घाय तस्मै प्रीतः प्रीतिमुख वचनं स्वागतं व्याजहार। पू० मे० 4 उसने झट कुटज के खिले हुए फूल उतारकर पहले तो मेघ की पूजा की और फिर कुशल-मंगल पूछकर उसका स्वागत किया। आशाबन्धः कुसुमसदृशं प्रायशो ह्यङ्गनानां सद्यः पाति प्रणयि हृदयं विप्रयोगे रुणद्धि। पू० मे० १ प्रेमियों का फूल जैसा कोमल हृदय, बस मिलने की आशा पर ही अटका रहा है। इसलिये स्त्रियों के जो हृदय अपने प्रेमियों से बिछुड़ने पर एक क्षण नहीं टिके रह सकते, वे इसी आशा के भरोसे उन स्त्रियों को जीवित रखते हैं। हर्येष्वस्याः कुसुमसुरभिष्वध्वश्वेदं नयेथा लक्ष्मी पश्यल्ललितवनिता पादरागाङ्कितेषु। पू० मे० 36 तुम फूलों के गंध से महकते हुए वहाँ के उन भवनों की सजावट देखकर अपनी थकावट दूर कर लेना , जिनमें सुन्दरियों के चरणों में लगी हुई महावर से लाल-पैरों की छाप बनी हुई होंगी। यस्यां यक्षाः सितमणिमयान्येत्य हर्म्यस्थलानि ज्योतिश्छाया कुसुमरचितान्युत्तमस्त्री सहायाः। उ० मे० 5 वहाँ के यक्ष अपनी अलबेली स्त्रियों को लेकर स्फटिक मणि से बने हुए अपने उन भवनों पर बैठते हैं, जिनकी गच पर पड़ी हुई तारों की छाया ऐसी जान पड़ती है मानो फूल टैंके हुए हों। 2. पुष्प - [पुष्प् + अच्] फूल, कुसुम। नीचैराख्यं गिरिमधिवसेस्तत्र विश्रामहेतोः त्वतसंपर्कात्पुलकितमिव प्रौढपुष्पैः कदम्बैः। पू० मे० 27 तुम नीच नाम की पहाड़ी पर थकावट मिटने के लिये उतर जाना। वहाँ पर For Private And Personal Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 686 कालिदास पर्याय कोश फूले हुए कदंब के वृक्षों को देखकर ऐसा जान पड़ेगा, मानो तुमसे भेंट करने के कारण उनके रोम-रोम फहरा उठे हों। तत्र स्कन्द नियतवसतिं पुष्पमेघीकृतात्मा पुष्पासारैः स्नपयतु भवान्व्योम गङ्गाजलार्दैः। पू० मे० 47 वहाँ स्कन्द भगवान भी सदा निवास करते हैं, इसलिये तुम वहाँ पहुँचकर फूल बरसाने वाले बादल बनकर उनपर आकाशगंगा के जल से भीगे हुए फूल बरसाकर उन्हें स्नान करा देना। यत्रोन्मत्तभ्रमरमुखराः पादपा नित्यपुष्पा। उ० मे० 3 वहाँ पर सदा फूलने वाले ऐसें बहुत से वृक्ष मिलेंगे, जिन पर मतवाले भौरे गुनगुनाते होंगे। गत्युत्कम्पादलक पतितैर्यत्र मन्दार पुष्पैः पत्रच्छेदैः। उ० मे० 11 जब कामिनी स्त्रियाँ, अपने प्रेमियों के पास जल्दी-जल्दी पैर बढ़ाकर जाने लगती हैं, तब उनकी चोटियों में गुंथे हुए कल्पवृक्ष के फूल और पत्ते खिसककर निकल जाते हैं। पुष्पोद्भेदं सह किसलयैर्भूषणान् विकल्पान्। उ० मे० 12 कोमल पत्ते और फूल तथा ढंग-ढंग के आभूषण । विन्यस्यन्ती भुवि गणनया देहली दत्त पुष्पैः। उ० मे० 27 वह देहली पर जो फूल नित्य रखती चलती हैं, उन्हें धरती पर फैलाकर गिन रही होंगी। कुसुमशर 1. कुसुमशर - [कुष् + उम + शरः] कामदेव। नान्यस्तापः कुसुमशरजादिष्टसंयोगसाध्यात। उ० मे० 4 प्यारे के मिलने से दूर हो जाने वाली (विरह की, कामदेव) जलन को छोड़कर और किसी प्रकार की जलन वहाँ नहीं होती। 2. पञ्चबाण - [पच् + कनिन् + बाणः] कामदेव के विशेषण, कामदेव। दूरीभूतं प्रतनुमपि मां पञ्चबाणः क्षिणोति। उ० मे० 48 एक तो दूर रहने के कारण सूखा जा रहा हूँ, उसपर यह पाँच बाणों वाला कामदेव मुझे और भी सताये जा रहा है। For Private And Personal Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 687 मेघदूतम् 3. मन्मथ - प्रायश्चापं न वहति भयान्मन्मथः षट्पदज्यम्। उ० मे० 14 डर के मारे कामदेव अपना भौंरों की डोरी वाला धुनष वहाँ नहीं चढ़ाता। केका 1. केका - [ के + कै + ड + टाप्, अलुक् स०] मोर, मोर की बोली। शुक्लापाङ्गैः सजलनयनैः स्वागतीकृत्य केकाः। पू० मे० 24 जहाँ के मोर नेत्रों में आनंद के आँसू भरकर अपनी कूक से तुम्हारा स्वागत करेंगे। केकोत्कण्ठा भवनशिखिनो नित्य भास्वत्कलापी। उ० मे० 3 । सदा चमकीले पंखों वाले मोर ऊँचा सिर किए हुए रात-दिन बोलते रहते हैं। 2. नीलकंठ - [नील् + अच् + कंठः] मोर। यामध्यास्ते दिवसविगमे नीलकण्ठः सुहृदः। उ० मे० 19 जिसके बीच में तुम्हारा मित्र मोर नित्य साँझ को आकर बैठ करता है। 3. मयूर - [मी + उरन्] मोर। धौतापाङ्गं हरशशिरुचा पावकेस्तं मयूरं । पू० मे० 48 वह मोर नाच उठेगा जिसके नेत्रों के कोने, शिवजी के सिर पर धरे हुए चंद्रमा की चमक से दमकते रहते थे। 4. शिखि - [शिखा अस्त्यस्य इनि] मोर। भवनशिखिभिर्दत्तनृत्योपहारः। पू० मे० 36 वहाँ के पालतू मोर भी नाच-नाचकर तुम्हारा स्वागत करेंगे। वक्त्रच्छायां शशिनि शिखिना बहभारेषु केशान्। उ० मे० 46 चंद्रमा में तुम्हारा मुख, मोरों के पंखों में तुम्हारे बाल देखा करता हूँ। केश 1. अलक - [अल् + क्तुन्] धुंघराले बाल, जुल्फें, बाल। या वः काले वहति सलिलोद्गारमुच्चैर्विमाना मुक्ताजालग्रथितमलकं कामिनीवाभ्रवृन्दम्। पू० मे० 67 For Private And Personal Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 688 कालिदास पर्याय कोश ऊँचे-ऊँचे भवनों वाली अलका पर वर्षा के दिनों में बरसते हुए बादल ऐसे छाए रहते हैं, जैसे कामिनियों के सिर पर मोती गुंथे हुए जूड़े। हस्ते लीलाकमलमलके बालकुन्दानुविद्धं। उ० मे० 2 हाथों में कमल के आभूषण पहनती हैं, अपनी चोटियों में नये खिले हुए कुन्द के फूल गूंथती हैं। गत्युत्कम्पादलकपतितैर्यत्र मन्दारपुष्पैः पत्रच्छेदैः । उ० मे० 11 जब जल्दी - जल्दी पैर बढ़ाकर जाने लगती हैं, उस समय उनकी चोटियों में गुंथे हुए कल्पवृक्ष के फूल और पत्ते खिसककर निकल जाते हैं। हस्तन्यस्तं मुखमसकलव्यक्ति लम्बालकत्वादिन्दोदैन्यं त्वदनुसरणक्लिष्टकान्ते बिभर्ति। उ० मे० 24 चिन्ता के कारण गालों पर हाथ धरने से और बालों के मुँह पर आ जाने से उसका अधूरा दिखाई देने वाला मुँह मेघ से ढके हुए चन्द्रमा के समान धुंधला और उदास दिखाई दे रहा होगा। शुद्धस्नानात्परुषमलकं नूनमागण्डलम्बम्। उ० मे० 33 कोरे जल से नहाती होगी, इसलिये उसके रूखे और बिना संवारे हुए बाल, उसके गालों पर लटककर। रुद्धापाङ्गप्रसरमलकैरञ्जनस्नेहशून्यं । उ० मे० 37 जिस पर बाल फैले हुए होंगे, जो आँजन न लगाने से रूखी हो गई होंगी। केश - [क्लिश्यते क्लिश्नाति वा - क्लिश् + अन्, लोलोपश्च] बाल, सिर के बाल। जालोद्गीणैरुपचित वपुः केशसंस्कारधूपैः। पू० मे० 36 स्त्रियों के बालों को सुगंधित करके, अगरू की धूप का जो धुआँ झरोखों से निकलता होगा उससे तुम्हारा शरीर बढ़ेगा। शंभोः केश ग्रहणमकरादिन्दोलग्नोर्मिहस्ता। पू० मे० 54 वे अपनी लहरों के हाथ चंद्रमा पर टेककर शिवजी के केश पकड़कर। वकाच्छायां शशिनि शिखिनां बर्हमारेषु केशान्। उ० मे० 46 चन्द्रमा में तुम्हारा मुख, मोरों के पंखों में तुम्हारे बाल देखा करता हूँ। For Private And Personal Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मेघदूतम् 689 3. चूड़ापाश - [चूल् + अङ्, लस्य डः, दीर्घ० निः + पाशः] बालों की चोटी, चुटिया, बालों का गुच्छा, केश समूह। चूड़ापाशे नवकुरबकं चारु कर्णे शिरीषं। उ० मे० 2 अपने जूड़े में नये कुरबक के फूल खोंसती हैं, अपने कानों पर सिरस के फूल रखती हैं। 4. वेणी -[वेण + इन्, ङीप् वा] गुंथे हुए बाल, बालों की चोटी। भूयोभूयः कठिन विषमां सादयन्ती कपोलाद्मोक्तव्यामयतिनखेनैकवेणीं करेण। उ० मे० 30 अपने बढ़े हुए नखों वाले हाथ से अपनी उस इकहरी चोटी के उन रूखे और उलझे हुए बालों को गालों पर से बार-बार हो रही होंगी। कैलास 1. कैलास - [के जले लासो दीप्तिरस्य -केलास् + अण्] पहाड़ का नाम, हिमालय की एक चोटी, कुबेर का निवास स्थान। गत्वाचोर्ध्वं दशमुखभुजोच्छ्वासितप्रस्थसंधेः कैलासस्य त्रिदशवनिता दर्पणस्यातिथिः स्याः। पू० मे० 62 ऊपर उठकर तुम उस कैलास पर्वत पर पहुंच जाओगे, जिसकी चोटियों के जोड़-जोड़ रावण के बाहुओं ने हिला डाले थे, जिसमें देवताओं की स्त्रियाँ अपना मुँह देखा करती हैं। 2. नगेन्द्र - [ न + गम् + इ + इन्द्रः] हिमालय पर्वत। धुन्वन्कल्पदुमकिसलयान्यंशुकानीव वातैर्नानाचेष्टैर्जलद ललिततैर्निर्विशेस्तं नगेन्द्रम्। पू० मे० 66 कल्पद्रुम के कोमल पत्तों को महीन कपड़े की भाँति हिला देना। ऐसे-ऐसे बहुत से खेल करते हुए तुम कैलास पर्वत पर जी भरकर घूमना। क्रोध 1. कोप - [कुप् + घञ्] क्रोध, गुस्सा, रोष। For Private And Personal Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 690 कालिदास पर्याय कोश शापस्यान्तं सदयहृदयः संविधायास्तकोपः। उ० मे० 61 उनका क्रोध उतर गया और उन्होंने अपना शाप लौटकर। 2. क्रोध - [क्रुध् + घञ्] कोप, गुस्सा। संतप्तानां त्वमसि शरणंतत्पयोद प्रियायाः सन्देशं मे हर धनपतिक्रोध विश्लेषितस्य। पू० मे०7 अकेले तुम्हीं तो संसार के तपे हुए प्राणियों को ठंडक देने वाले हो, इसलिये हे मेघ! कुबेर के क्रोध से निकाले हुए और अपनी प्यारी से दूर पटके हुए मुझ बिछोही का संदेश। 1. क्षुद्र - [क्षुद् + रक्] सूक्ष्म, अल्प, तुच्छ, हल्का, कमीना, नीच। क्षुद्रोऽपि प्रथमसुकृतापेक्षया संश्रयाय प्राप्ते मित्रे भवति विमुखः किं पुनर्यस्तथोच्चैः। पू० मे017 जब दरिद्र लोग भी आए हुए मित्र के उपकार का ध्यान करके उनका सत्कार करने में नहीं चूकते थे तब ऊँचों का तो कहना ही क्या। 2. लघु - [लो कुः नलोपश्च] हल्का, तुच्छ, अल्प, न्यून। रिक्तः सर्वो भवति हि लघुः पूर्णता गौरवाय। पू० मे० 21 जिसके हाथ रीते होते हैं उसी को सब दुरदुराते हैं, और जो भरा पूरा होता है, उसका सभी आदर करते हैं। 1. आकाश - [आ + काश + घञ्] आसमान, अंतरिक्ष । मामाकाशप्रणिहित भुजं निर्दयाश्लेष हेतोः। उ० मे0 49 जब कभी कसकर छाती से लगाने के लिये अपने हाथ ऊपर (आकाश में) फैलाता हूँ। 2. खं - [खर्व + ड] आकाश, स्वर्ग। गर्भाधानक्षणपरिचययान्नूनमाबद्धमालाः सेविष्यन्ते नयनसुभगं खे भवन्तं बलाकाः। पू० मे0 10 For Private And Personal Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मेघदूतम् 691 आँखों को सुहाने वाला रूप देखकर बगुलियाँ भी समझ लेंगी कि हमारे गर्भधारण करने का समय आ गया है और वे पाँत बाँध-बाँध कर अपने पंखों से तुम्हें पंखा झलने के लिये अवश्य ही आकाश में उड़कर आती होंगी। खं दिङ्नागानां पथि परिहरन्स्थूलहस्तावलेपान्। पू० मे० 14 आकाश में ठाठ से उड़ते हुए तुम दिग्गजों की मोटी सैंडों की फटकारों को ढकेलते हुए उत्तर की ओर घूम जाना। शृङ्गोच्छ्रायैः कुमुदविशदैर्यो वितत्य स्थितः खं राशीभूतः प्रतिदिनमिव त्र्यम्बकस्याट्टहासः। पू० मे० 62 जिसकी कुमुद जैसी उजली चोटियाँ आकाश में इस प्रकार फैली हुई हैं, मानो वह दिन-प्रतिदिन इकट्ठा किया हुआ शिवजी का अट्यहास हो। 3. गगन-[गच्छन्त्यस्मिन्-गम्+ल्युट्, ग आदेशः] आकाश, अंतरिक्ष, स्वर्ग। प्रेक्षिष्यन्ते गगनगतयो नूनमावर्त्यदृष्टीरेकं मुक्ता गुणमिव भुवः स्थूलमध्येन्द्रनीलम्। पू० मे० 50 आकाश में विचरण करने वाले सिद्ध, गंधर्व आदि को तुम ऐसे दिखाई दोगे मानो पृथ्वी के गले में पड़े हुए एक लड़े हार के बीच में एक बड़ी मोटी-सी इन्द्रनील मणि पोह दी गई हो। 4. नभ - [नभ् + अच्] आकाश, अंतरिक्ष। संपत्स्यन्ते नभसि भवतो राजहंसा: सहायाः। पू० मे० 10 राजहंस तुम्हारे साथ-साथ आकाश में उड़ते हुए जाएंगे। 5. व्योम - [व्ये + मनिन्, पृषो०] आकाश, अंतरिक्ष। तस्याः पातुं सुरगज इव व्योम्नि पश्चार्द्धलम्बी। पू० मे० 55 तुम दिग्गजों के समान आकाश में अपना पिछला भाग ऊपर उठाकर और आगे का भाग झुकाकर। गज 1. करिण - [ कर + इनि] हाथी। शैलोदग्रास्त्वमिव करिणो वृष्टिमन्तः प्रभेदात्। उ० मे० 13 For Private And Personal Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 692 कालिदास पर्याय कोश पहाड़ जैसे डील-डौल वाले वहाँ के हाथी वैसे ही मद बरसाते हैं, जैसे तुम पानी बरसाते हो। 2. कलभ - [कल् + अभच्] हाथी का बच्चा, हाथी। गत्वा सद्यः कलभतनुतां शीघ्रसंपात हेतोः। उ० मे0 21 यदि तुम्हें मेरे घर में झट से पैठना हो तो चट से हाथी के बच्चे जैसे छोटे बनकर। 3. गज - [मज् + अच्] हाथी। आषाढस्य प्रथम दिवसे मेघमाश्लिष्टसार्नु वप्रक्रीडा परिणत गज प्रेक्षणीयं ददर्श। पू० मे० 2 आषाढ़ के पहले ही दिन वह देखता क्या है कि सामने पहाड़ी की चोटी से लिपट बादल ऐसा लग रहा है, मानो कोई हाथी अपने माथे की टक्कर से मिट्टी के टीले को ढहाने का खेल कर रहा हो। रेवां द्रक्ष्यस्युपलविषमे विन्ध्यपादे विशीर्णा भक्तिच्छेदैरिव विरचितां भूतिमङ्गे गजस्य। पू० मे० 20 विंध्याचल के ऊबड़-खाबड़ पठार पर बहुत सी धाराओं में फैली हुई रेवा नदी ऐसी दिखाई देंगी, मानो किसी ने बड़े प्यार से हाथी का शरीर भभूत से चीत दिया हो। तस्यास्तिक्तैर्वनगजमदैर्वासितं वान्तवृष्टिजम्बूकुञ्जप्रतिहरयं तोयमादाय गच्छेः । पू० मे० 21 वहाँ जल बरसा चुको, तो जंगली हाथियों के सुगंधित मद में बसा हुआ और जामुन की कुओं में बहता हुआ जल पीकर आगे बढ़ना। 4. दन्तिन् - [ दन्त + इनि] हाथी। स्रोतोरन्ध्रध्वनित सुभगं दन्तिभिः पीयमानः। पू० मे० 46 जिसे चिंग्घाड़ते हुए हाथी अपनी सूंड़ों से पी रहे होंगे। 5. द्विरद - [द्वि + रदः] हाथी। सद्यः कत्तद्विरददशनच्छेदगौरस्य तस्य। पू० मे0 63 कैलास तुरंत काटे हुए हाथी के दाँत के समान गोरा है। For Private And Personal Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra मेघदूतम् 6. www. kobatirth.org 2. साँप । नाग - [ नाग + अण् ] हाथी, खं दिङ्नागानां पथि परिहरन्स्थूल हस्तावलेपान् । पू० मे० 14 आकाश में ठाठ से उड़ते हुए तुम दिग्गजों की मोटी सूँड़ों की फटकारों को ढकेलते हुए । नृत्तारम्भे हर पशुपतेरार्द्रनागाजिनेच्छां । पू० मे० 40 26. गण्ड 1. कपोल - [ कपि + ओलच् ] गाल । -- जब महाकाल तांडव नृत्य करने लगें तब । ऐसा करने से शिवजी के मन में जो हाथी की खाल ओढ़ने की इच्छा होगी, वह पूरी हो जाएगी। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भूयो भूयः कठिन विषमां सादयन्तीं कपोलाद् आमोक्तव्योमयतिनखेनैकवेणीं करेण । उ० मे० 30 693 अपने बढ़े हुए नखों वाले हाथ से अपनी उस इकहरी चोटी के उन रूखे और उलझे हुए बालों को अपने गालों पर से बार-बार हय रही होगी। गण्ड - [ गण्ड् + अच्] गाल, कनपटी | गुरु 1. गंभीर - गंभीर, बहुत अधिक, भारी । गण्डस्वेदापनयनरुजाक्लान्त कर्णोत्पलानां । पू० मे० 28 जिनके कानों पर लटके हुए कमल की पंखुड़ियों के कनफूल उनके गालों पर बहते हुए पसीने से लग लग कर मैले हो गए होंगे। शुद्धस्नानात्परुषमलकं नूनमागण्डलम्बम् । उ० मे० 33 कोरे जल से नहाती होगी इसलिये उसके रूखे और बिना सँवारे हुए बाल उसके गालों पर लटककर । गण्डाभोगात्कठिनविषमामेकवेणीं करेण । उ० मे० 34 उलझी और बिखरी हुई चोटी को अपने बढ़े हुए नखों वाले हाथों से अपने भरे हुए गालों पर से बार-बार हटा रही होंगी। For Private And Personal Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achary 694 कालिदास पर्याय कोश त्वद्गंभीरध्वनिषु शनकैः पुष्करेष्वा हतेषु। उ० मे० 5 तुम्हारे गंभीर गर्जन के समान गूंजने वाले बाजों के मंद-मंद बजने पर। 2. गुरु -[गृ + कु, उत्वम्] भारी, बोझल, बड़ा, लंबा। पश्चादद्रिग्रहण गुरुभिर्गर्जितैर्नर्तये थाः। पू० मे० 48 तुम अपनी गंभीर गरजन से पर्वत की गुफाओं को गुंजा देना जिससे मोर नाच उठेगा। गौर 1. गौर - [गु + र, नि०] श्वेत, उज्ज्वल, स्वच्छ, सुंदर। तस्या एव प्रभवमचलं प्राप्य गौरं तुषारैः। पू० मे० 56 जब तुम हिमालय की उस हिम से ढके उजली चोटी पर। सद्यः कृत्तद्विरददशनच्छेदगौरस्य तस्य। पू० मे0 63 और कैलास है, तुरंत कटे हुए हाथी दांत के समान गोरा। यास्यत्यूरुः सरसकदलीस्तम्भगौरश्चलत्वम्। उ० मे० 38 नये केले के खंभे के समान उसकी वह गोरी-गोरी जाँघ भी फड़क उठेगी। 2. शुभ्र - [शुभ + रक्] उज्ज्वल, श्वेत, चमकीला। शुभ्र त्रिनयनवृषोत्खात पङ्कोपमेयाम्। पू० मे० 56 जैसे महादेव जी के उजले साँड़ के सींगों पर मिट्टी के टीलों पर टक्कर मारने से कीचड़ जम गया हो। चण्डी 1. गौरी - [गौर ङीष्] पार्वती, कुमारी कन्या। गौरी वक्त्रभृकुटिरचनां या विहस्येव फेनैः। पू० मे० 54 मानो वे इस फेन की हँसी से खिल्ली उड़ाती हुई, भौंह तरेरनी वाली पार्वतीजी का निरादर कर रही हों। क्रीडाशैले यदि च विचरेत्पाद चारेण गौरी। पू० मे० 64 कैलास पर जब पार्वती महादेव जी के हाथ में हाथ डाले टहल रही हों, तब। For Private And Personal Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org मेघदूतम् 2. चण्डी - दुर्गा, पार्वती, पार्वती का विशेषण । 3. भवानी [भव + ङीष् आनुक] पार्वती का नाम, पुण्यं यायास्त्रिभुवनगुरोर्धामचण्डीश्वरस्य । पू० मे० 37 तीनों लोकों के स्वामी और चंडी के पति महाकाल के पवित्र मंदिर की ओर चले जाना। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जनकतनया . पार्वती । शान्तोद्वेगस्तिमितनयनं दृष्टभक्तिर्भवान्या । पू० मे० 40 पार्वतीजी एकटक होकर शिवजी में तुम्हारी इतनी भक्ति देखती रह जाएँगी । भवानी पुत्र प्रेम्णा कुवलयदल प्रापि कर्णे करोति । पू० मे० 48 पार्वतीजी, पुत्र पर प्रेम, दिखाने के लिए अपने उन कानों पर सजा लेती हैं, जिन पर वे कमल की पंखड़ी सजाया करती थीं । चन्द्रिका - 1. चन्द्रपाद [ चन्द् + णिच् + रक् + पादः] चंद्रकिरण, चाँदनी । त्वत्संरोधापगमविशदैश्चन्द्रपादैर्निशीथे । उ० मे० 9 वहाँ आधी रात के समय, खुली चाँदनी में। 2. चन्द्रिका - [ चन्द्र + ठन् + यप्] चाँदनी, ज्योत्स्ना । बाह्योद्यानस्थितहरशिरश्चन्द्रिका धौत हर्म्या । पू० मे० 7 भवनों में, बस्ती के बाहर वाले उद्यान में बनी हुई शिवजी की मूर्ति के सिर पर जड़ी हुई चन्द्रिका से सदा उजाला रहता है। निर्वेक्ष्यावः परिणतशरच्चन्द्रिकासु क्षपासु । उ0 मे० 53 मन की सब साधें सुहावनी चाँदनी रात में पूरी कर ही डालेंगे। 1. जनकतनया [ जनक + तनया] सीता । 695 3. ज्योत्सना - [ ज्योतिरस्ति ऽस्याम् - ज्योतिस् + न, उपधालोपः ] चंद्रमा का प्रकाश, चाँदनी । नित्य ज्योत्सना: प्रतिहततमोवृत्तिरम्याः प्रदोषाः । उ० मे० 3 वहाँ की रातें सदा चाँदनी रहने से बड़ी उजली और मन भावनी होती हैं। For Private And Personal Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 696 कालिदास पर्याय कोश यक्षश्चक्रे जनकतनयास्नानपुण्योदकेषु स्निग्धच्छायातरुषु वसतिं रामगिर्याश्रमेषु। पू० मे० 1 यक्ष ने रामगिरि के उन आश्रमों में जाकर डेरा डाला जहाँ के कुंडों, तालाबों और बावड़ियों का जल श्री जानकी जी के स्नान से पवित्र हो गया था और जहाँ घनी छाया वाले बहुत से वृक्ष लहलहा रहे थे। 2. मैथिली - सीता का नाम, सीता। इत्याख्याते पवनतनयं मैथिलीवोन्मुखी सा। उ० मे० 42 तुम्हारा सब संदेश उसी प्रकार सुनेंगी जैसे सीताजी ने हनुमान जी की बातें सुनी थीं। जहकन्या 1. गंगा - [गम् + गन् + याप्] गंगा नदी, गंगा। तस्योत्सङ्गे प्रणयिन इव त्रस्तगंगा दुकूला। पू० मे0 67 जैसे अपने प्यारे की गोद में कोई कामिनी बैठी हो और गंगाजी की धारा ऐसी लगती है, मानो उस कामिनी के शरीर पर से सरकी हुई साड़ी हो। 2. जहुकन्या - [जहु + कन्या] गंगा। तस्माद्गच्छेरनु कनखलं शैलराजावतीर्णा जह्रो:कन्यां सगरतनयस्वर्ग सोपान पङ्क्तिम्। पू० मे० 54 तुम कनखल पहुँच जाना, वहाँ तुम्हें हिमालय की घाटियों से उतरी हुई वे गंगाजी मिलेंगी, जिन्होंने सीढ़ी बनकर सगर के पुत्रों को स्वर्ग पहुंचा दिया था। जाल 1. गवाक्ष - रोशनदान, झरोखा, खिड़की। विद्युद्गर्भः स्तिमित नयनां त्वत्सनाथे गवाक्षे। उ० मे० 40 जब वह झरोखे से तुम्हारी ओर एकटक देखे, तो तुम अपनी बिजली को छिपा लेना। 2. जाल - [जल् + ण] गवाक्ष, खिड़की। For Private And Personal Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra मेघदूतम् 4. www. kobatirth.org जालोद्गीर्णैरुपचितवपुः केशसंस्कारधूपै बन्धुप्रीत्या भवनशिखि भिर्वृत्त नृत्योपहारः । पू० मे० 36 वहाँ कि स्त्रियों के बालों को सुगंधित करके, अगरू की धूप का जो धुआँ झरोखों से निकलता होगा, उससे तुम्हारा शरीर बढ़ेगा और तुम्हें अपना सगा समझकर, वहाँ के मोर भी नाच-नाचकर तुम्हारा सत्कार करेंगे। 3. जालमार्ग - [जाल + मार्गः] गवाक्ष, खिड़की । 2. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जालमार्गैर्धूमोद्गारानुकृतिनिपुणा जर्जरा निष्पतन्ति । उ० मे० 8 वे धुएँ का रूप बनाने में निपुण बादल, डर के मारे झट से झरोखों की जालियों से छितरा - छितरा कर निकल भागते हैं । - 697 पादादिन्दोरमृतशिशिराञ्जालमार्गं प्रविष्टान् । उ० मे० 32 जालियों में से छनकर जो चंद्रमा की किरणें आ रही होंगी उन्हें वह समझती होगी कि पहले सुख के दिनों में अमृत के समान ठंडी थीं । वातायन [वा + क् + अयनम् ] खिड़की, झरोखा | तामुन्निद्रामवनिशयनां सौधवातायनस्थः । उ० मे० 28 मेरे भवन में झरोखों पर बैठकर उसे देखना, क्योंकि उस समय वह तुम्हें धरती पर उनींदी सी पड़ी मिलेगी। स त्वं रात्रौ जलद शयनासन्न वातायनस्थः । उ० मे० 29 ज्योति 1. अग्नि - [ अंगति उर्ध्वं गच्छति - अङ्ग + नि नलोपश्च] आग। आसारेण त्वमपि शमयेस्तस्य नैदाघमग्निं । पू० मे० 19 हे मेघ ! इसलिये तुम रात में उसके पलंग के पास वाली खिड़की पर बैठकर थोड़ी देर परखना । For Private And Personal Use Only तुम भी जल बरसाकर उसके जंगलों में लगी हुई गर्मी की आग बुझा देना । बाधेतोल्काक्षपित चामरीबालभारो दवाग्निः । पू० मे० 57 जब जंगल में आग लग जाय और उसके उड़ते हुए अंगारे, सुरागाय के लंबे-लंबे रोएँ जलाने लगें । उपप्लव - [ उप् + प्लु + अप्] विपत्ति, दुःख, आग । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 698 कालिदास पर्याय कोश त्वमासारप्रशमितवनोपप्लवं साधु मू । पू० मे० 17 जब तुम मूसलाधार पानी बरसाकर जंगलों की आग बुझाओगे तो वह तुम्हारा उपकार मानकर अपनी चोटी पर आदर के साथ ठहरावेगा। 3. ज्योति - [द्योतते द्युत्यते - धुत् + इसुन् दस्य जा देशः] सूर्य, अग्नि। धूमज्योतिः सलिल मरुतां संनिपातः क्व मेघः। पू० मे० 5 कहाँ तो धुएँ, अग्नि, जल और वायु के मेल से बना हुआ बादल। 4. पावक - [पू + ण्वुल्] आग। धौतापाङ्गं हरशशिरुचा पावकेस्तं मयूरं। पू० मे0 48 वह मोर जिसके नेत्रों के कोने, शिवजी के सिर पर धरे हुए चंद्रमा की चमक से दमकते रहते हैं। 5. हुतवह - [हु + क्त + वहः] आग। रक्षाहेतोर्नवशशिभृता वासवीनां चमूनामत्यापादित्यं हुतवह मुखे संभृतं तद्धि तेजः। पू० मे० 47 इन्द्र की सेनाओं को बचाने के लिये शिवजी ने सूर्य से भी बढ़कर जलता हुआ अपना जो तेज अग्नि में डालकर इकट्ठा किया था, उसी तेज से। तरलगुटिका 1. तरल गुटिका - मोती हाराँस्ताराँस्तरलगुटिकान्कोटिशः शङ्खशुक्तीः। पू० मे० 34 कहीं तो करोड़ों मोतियों की ऐसी मालाएँ सजी हुई दिखाई देंगी, जिनके बीच-बीच में बड़े-बड़े रत्न गुंथे हुए होंगे, कहीं करोड़ों शंख और सीपियाँ रखी हुई मिलेंगी। 2. मुक्ता - [मुक्त + टाप्] मोती। प्रेक्षिष्यन्ते गगनगतयो नूनमावर्त्य दृष्टीरेकं मुक्तागुणमिव भुवः स्थूलमध्येन्द्रनीलम्। पू० मे० 50 तुम ऐसे दिखाई दोगे मानो पृथ्वी के गले में पड़े हुए एक लड़े मोती के हार के बीच में एक बड़ी मोटी सी इन्द्रनीलमणि पोह दी गई हो। For Private And Personal Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मेघदूतम् 699 या वः काले वहति सलिलोद्गारमुच्चैर्विमाना मुक्ताजाल ग्रथितमलकं कामिनीवाभ्रवृन्दम्। पू० मे० 67 ऊँचे-ऊँचे भवनों वाली अलका पर वर्षा के दिनों में बरसते हुए बादल ऐसे छाए रहते हैं, जैसे कामिनियों के सिर पर मोती गुंथे हुए जूड़े। मुक्ताजालैः स्तनपरिसरच्छिन्न सूत्रैः च हारैः। उ० मे० 11 स्तनों को घेरने वाले हीरों से टूटे हुए मोती भी इधर-उधर बिखर जाते हैं। मुक्ता जालं चिरपरिचितं त्याजितो दैवगत्या। उ० मे० 38 दुर्भाग्यवश उस पर वह मोतियों की करधनी भी नहीं पड़ी मिलेगी जिसे वह बहुत दिनों से पहनती चली आ रही थी। मुक्तास्थूलास्तरुकिसलयेष्वभुलेशाः पतन्ति। उ० मे० 49 अपने मोती के समान बड़े-बड़े आँसू वृक्षों के कोमल पत्तों पर ढुलकाया करते हैं तरु 1. तरु - [तृ + उन्] वृक्ष। स्निग्धच्छायातरुषु वसतिं रामगिर्याश्रमेषु। पू० मे० 1 रामगिरि के उन आश्रमों में डेरा डाला, जहाँ घनी छाया वाले बहुत से वृक्ष जहाँ-तहाँ लहलहा रहे थे। पाण्डुच्छाया तटरुहतरु भ्रंशिभिर्जीर्ण पर्णैः । पू० मे० 31 तीर के वृक्षों के पीले पत्ते झड़-झड़ कर गिरने से उसका रंग भी पीला पड़ गया होगा। पश्चादुच्चैर्भुज तरुवनं मण्डलेनाभिलीनः । पू० मे० 40 उस समय तुम साँझ की ललाई लेकर उन वृक्षों पर छा जाना जो उनके ऊँचे उठे हुए बाँह के समान खड़े होंगे। मुक्तस्थूलास्तरु किसलयेष्वभुलेशा: पतन्ति। उ० मे० 49 अपने मोती के समान बड़े-बड़े आँसू वृक्षों के कोमल पत्तों पर ढुलकाया करते For Private And Personal Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 700 कालिदास पर्याय कोश 2. दुम - [द्रुः शाखाऽस्त्यस्य - मः] वृक्ष । हैमं तालदुमवनमभूदन तस्यैव राज्ञः। पू० मे० 35 यहीं उस राजा का बनाया हुआ ताड़ के पेड़ों का सुनहरा उपवन था। धुन्वन्कल्पदुमकिसलयान्यंशुकानीव वातैः। पू० मे० 66 फिर जाकर कल्पदुम के कोमल पत्तों को महीन कपड़े की भाँति हिला देना। भित्त्वा सद्यः किसलयपुटान्देवदारु दुमाणां। उ० मे० 50 देवदार वृक्ष के कोमल पत्तों को अपने झोंको से तत्काल तोड़ कर। 3. पादप - [पद् + घञ् + पः] वृक्ष। यत्रोन्मत्तभ्रमर मुखराः पादपा नित्यपुष्पा। उ० मे० 3 सदा फूलने वाले ऐसे बहुत से वृक्ष मिलेंगे, जिन पर मतवाले भौरे गुनगुनाते रहते हैं। 4. रुह -[रुह् + क्विप्] उगा हुआ या उत्पन्न, वृक्ष। मन्दाराणामनुतटरुहां छायया वारितोष्णः। उ० मे० 6 तट पर खड़े हुए कल्पवृक्षों की छाया में अपनी तपन मिटती हुई। तीर (किनारा) 1. तट - [तट् + अच्] किनारा, कूल, उतार, ढाल। पाण्डुच्छाया तटरुहतरुभ्रंशिभिर्जीर्ण पर्णैः। पू० मे० 31 तीर के वृक्षों के पीले पत्ते झड़-झड़ कर गिरने से उसका रंग पीला पड़ गया होगा। मन्दाराणामनुतटरुहां छायया वारितोष्णः। उ० मे० 6 तट पर खड़े हुए कल्पवृक्षों की छाया में अपनी तपन मियती हुई। 2. तीर - [तीर् + अच्] तट, किनारा, नदी तीर। तीरोपान्तस्तनितसुभगं पास्यसि स्वादु । पू० मे० 26 उसके तीर पर गर्जन करके अच्छा मीठ जल पीओगे, तब। विश्रान्तः सन्व्रज वननदीतीर जातानि सिञ्चन्उद्यानानां नवजल कणैर्वृथिका जालकानि। पू० मे० 28 For Private And Personal Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org मेघदूतम् वहाँ थकावट मिटाकर, तुम नदियों के तीरों पर उपवनों में खिली हुई जूही की कलियों को अपनी फुहारों से सींचते हुए । तस्यास्तीरे रचितशिखरः पेशलैरिन्द्रनीलैः । उ० मे० 17 उसके तीर पर एक बनावटी पहाड़ है, जिसकी चोटी नीलमणि की बनी हुई है। 3. रोध - [ रुध् + असुन्] किनारा, ऊँचा तट । तस्याः किंचित्करधृतमिव प्राप्तवानीरशाखं हृत्वा नीलं सलिलवसनं मुक्त रोधो नितम्बम् । पू० मे० 45 मानों अपने तट के नितम्बों पर से अपने जल के वस्त्र खिसक जाने पर, लज्जा से बेंत की लताओं के हाथों से अपने जल का वस्त्र थामे हुए हो । दिवस Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1. अहन् – [ न जहाति व्यजति सर्वथा परिवर्तन, न + हा + कनिन्, न० त०] दिन, दिन का समय । - 701 सव्यापारामहनि न तथा पीडयेन्मद्वियोगः । उ० मे० 28 इन कामों में लगे रहने के कारण दिन में तो उसे मेरा बिछोह कुछ नहीं सताता होगा । साश्रेऽह्रीव स्थलकमलिनीं न प्रबुद्धां न सुप्ताम् । उ० मे० 32 जैसे बदली के दिन धरती पर खिलने वाली कोई आधी खिली कमलिनी हो । सर्वावस्थास्वहरपि कथं मन्दमन्दातपं स्यात् । उ० मे० 51 दिन की तपन भी किसी प्रकार सदा के लिए जाती रहे । 2. दिवस [ दीव्यतेऽत्र दिव + असच् क्विच्] दिन, दिवस । For Private And Personal Use Only आषाढस्य प्रथम दिवसे मेघमाश्लिष्टसानुं वप्रक्रीडापरिणत गजप्रेक्षणीयं ददर्श । पू० मे० 2 आषाढ़ के पहले ही दिन वह देखता क्या है कि सामने पहाड़ी की चोटी से लिपटा हुआ बादल ऐसा लग रहा है, मानो कोई हाथी अपने माथे की टक्कर से मट्टी के टीले को ढाहने का खेल कर रहा हो । तां चावश्यं दिवस गणनातत्परामेकपत्नीम् । पू० मे० 9 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 702 कालिदास पर्याय कोश तुम अपनी उस पतिव्रता भाभी को अवश्य ही पा जाओगे जो बैठी मेरे लौटने के दिन गिन रही होगी। या मध्यास्ते दिवसविगमे नीलकण्ठः सुहृदः। उ० मे० 19 तुम्हारा मित्र मोर नित्य दिन के अंत (सांझ को) में आकर बैठा करता है। गाढोत्कण्ठां गुरुषु दिवसेष्वेषु गच्छत्सु बालां। उ० मे० 23 विरह के कठोर दिन बड़ी उतावली से बिताते-बिताते उसका रूप भी बदल गया होगा। शेषान्मासान्विरहदिवस स्थापितस्यावधेर्वा । उ० मे० 27 मेरे विरह के दिन से ही ...............अब विरह के कितने महीने बच गए हैं, कितने महीने बच गए हैं। आद्ये बद्धा विरह दिवसे या शिखा दाम हित्वा। उ० मे० 34 बिछोह के दिन से ही उसने अपने जूड़े की माला खोलकर जो वह इकहरी चोटी बाँध ली थी। 3. दिवा - [दिव् + का] दिन में, दिन के समय। स्निग्धाः सख्यः कथमपि दिवा तां न मोक्ष्यन्ति। उ० मे० 29 उसकी प्यारी सखियाँ, उसे दिन में कभी अकेली नहीं छोड़ेंगी। वासर - [सुखं वासयति जनान् वास + अर्] दिन। धर्मान्तेऽस्मिन्विगणय कथं वासराणि व्रजेयु:असंसक्त प्रवितत घनव्यस्त- सूर्यातपानि। उ० मे० 48 गर्मी के बीतने पर जब चारों ओर उमड़ी हुई घने बादलों की घय सूर्य पर छा जायगी, उस समय मैं किसके सहारे अपने दिन काट पाऊँगा। इत्याख्याते सुरपतिसखः शैलकुल्यापुरीषु स्थित्वा स्थित्वा धनपतिपुरीं वासरै कैश्चिदाप। उ० मे0 62 यह सुनकर बादल वहाँ से चल दिया और कभी पहाड़ियों पर कभी नदियों के पास और कभी नगर में ठहरता हुआ थोड़े ही दिनों में कुबेर की राजधानी अलका पहुँच गया। For Private And Personal Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मेघदूतम् 703 दुहिता 1. कन्या - [कन् + यक् + यप्] पुत्री। संक्रीडन्ते मणिभिरमरप्रर्थिता यत्र कन्याः। उ० मे0 6 जहाँ की कन्याएँ (अपनी मुट्ठियों में) रत्न लेकर खेल खेला करती हैं। 2. तनया - [तन् + कयन् + यप्] पुत्री। व्यालम्बेथाः सुरभितनयालम्भजां मानयिष्यन्। पू० मे० 49 तब तुम कुछ दूर जाकर सुरभि पुत्री ----की पुत्री चर्मण्वती नदी का आदर करने के लिए। 3. दुहिता - [दुह् + तृच्] बेटी, पुत्री। प्रद्योतस्य प्रियदुहितरं वत्सराजोऽत्रजहे। पू० मे0 35 वत्स देश के राजा उदयन ने महाराज प्रद्योत की प्यारी कन्या वासवदत्ता को हरा था। धनपति 1. धनपति - [धन् + अच् + पतिः] कुबेर का विशेषण, कुबेर। संतप्तानां त्वमसि शरणं तत्पयोद प्रियायाः सन्देशं मे हर धनपति क्रोध विश्लेषितस्य। पू० मे07 अकेले तुम्हीं तो संसार के तपे हुए प्रणियों को ठंडक देने वाले हो, इसलिये हे मेघ! कुबेर के क्रोध से निकाले हुए अपनी प्यारी से दूर पटके हुए मुझ बिछोही का संदेशा भी। अक्षय्यान्तर्भवननिधयः प्रत्यहं रक्तकण्ठैः उद्गायद्भिर्धनपतियशः किंनरैर्यत्र सार्धम्। पू० मे० 10 अथाह संपत्ति वाले कामी लोग ऊँचे स्वरों में मीठे गलों से कुबेर का यश गान करने वाले किन्नरों के साथ बैठे हुए। मत्वा देवं धनपतिसखं यत्र साक्षाद्वसन्तं। उ० मे० 14 वहीं कुबेर के मित्र शिवजी भी रहा करते हैं, इसलिये वसन्त ऋतु में भी। For Private And Personal Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 704 कालिदास पर्याय कोश तत्रागारं धनपतिगृहानुत्तरेणास्मदीयं। उ० मे० 15 वहीं कुबेर के भवन से उत्तर की ओर मेरा। स्थित्वा स्थित्वा धनपतिपुरीं वासरैः कैश्चिदाप्। ठहरते-ठहरते थोड़े ही दिनों में कुबेर की राजधानी, अलका में पहुंच गया। 2. धनेश - [धन + अच् + ईशः] कुबेर का विशेषण, कुबेर। श्रुत्वा वार्ता जलदकथितां तां धनेशोऽपि सद्यः। उ० मे0 61 जब कुबेर ने यह बात सुनी कि बादल ने यक्ष की स्त्री को ऐसा संदेश दिया है। 3. यक्षेश्वर - [यक्ष्यते - यक्ष् + (कर्मणि) घञ्] कुबेर। गन्तव्या ते वसतिरलका नाम यक्षेश्वराणां, बाह्ययोद्यान स्थित हरशिरश्चन्द्रिका धौत हा। पू० मे० 7 तुम्हें कुबेर की अलका नाम की उस बस्ती को जाना होगा, जहाँ के भवनों में बस्ती के बाहर वाले उद्यान में बनी हुई शिवजी की मूर्ति के सिर पर जड़ी हुई चन्द्रिका से सदा उजाला रहता है। धनु 1. चाप - [चप् + अण्] धनुष। विद्युत्वन्तः ललितवनिताः सेन्द्रचापं सचित्राः। उ० मे० 1 यदि तुम्हारे साथ बिजली है तो उन भवनों में चटकीली नारियाँ हैं, यदि तुम्हारे पास इन्द्रधनुष है तो उन भवनों में भी रंग-बिरंगे चित्र लटके हुए हैं। प्रायश्चापं न वहति भयान्मन्मथः षट्पदज्यम्। उ० मे० 14 डर के मारे कामदेव अपना भौंरो की डोरी वाला धनुष वहाँ नहीं चढ़ाता। धनु - [धन् + ऊ] धनुष, कमान। रत्तच्छायाव्यतिकर इव प्रेक्ष्यमेतत्पुरस्ताद्वद्वाल्मीकाग्रात्प्रभवति धनुः खण्डमाखण्डलस्य। पू० मे० 15 यहाँ सामने बाँबी के ऊपर उठा हुआ इन्द्र धनुष का एक टुकड़ा ऐसा सुन्दर दिखाई पड़ रहा है, मानो बहुत से रत्नों की चमक, एक साथ यहाँ लाकर इकट्ठी कर दी गई हो। For Private And Personal Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 705 मेघदूतम् दूराल्लक्ष्यं सुरपति धनुश्चारुणा तोरणेन। उ० मे0 15 इन्द्र धनुष के समान सुन्दर गोल फाटक वाला हमारा दूर से ही दिखाई पड़ेगा। 3. मोघ - [मुह् + घ अच् वा, कुत्वम्] धनुष । सभ्रूभंगप्रतिहत नयनैः कामलक्ष्येष्वमोधैः। उ० मे० 14 जो अपने प्रेमियों की ओर बाँकी चितवन चलाती हैं, उसी से कामदेव अपने धनुष का काम निकाल लेता है। नक्त 1. क्षपा - [क्षप् + अच् + यप्] रात। निर्वेक्ष्यावः परिणतशरच्चन्द्रिकासु क्षपासु। उ० मे0 53 मन की सब साधे शरद की सुहावनी चाँदनी रात में पूरी कर ही डालेंगे। 2. नक्त - [नब् + क्त] रात। गच्छन्तीनां रमणवसतिं योषितां तत्र नक्तं। पू० मे० 41 वहाँ पर जो स्त्रियाँ अपने प्यारों से मिलने के लिए रात में निकली होंगी। 3. निशा - [नितरां श्यति तनूकरोति व्यापारान् - शो + क तारा०] रात। निशो मार्गः सवितुरुदये सूच्यते कामिनीनाम्। उ० मे० 11 जब दिन निकलता है तो लोग समझ जाते हैं कि वे कामिनी स्त्रियाँ रात में किस मार्ग से गई होंगी। निशीथ - [निशेरते जना अस्मिन् – निशी अधारे थक तारा०] आधी रात। त्वत्संरोधापगविशदैश्चन्द्रपादैनिशीथे। उ० मे०१ आधीरात के समय खुली चाँदनी में। मत्संदेशैः सुखयितुमुलं पश्य साध्वीं निशीथे। उ० मे० 28 मेरा संदेश सुनाकर उसे सुख देने के लिए तुम आधीरात को उसे देखना। 5. प्रदोष - [प्रकृष्ट दोषो यस्य - प्रा० ब०] रात, रात्रि। नित्य ज्योत्सनाः प्रतिहततमोवृत्तिरम्याः प्रदोषाः। उ० मे० 3 रातें सदा चाँदनी रहने से बड़ी उजली और मनभावनी होती हैं। For Private And Personal Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 706 कालिदास पर्याय कोश 6. यामा - [यम् + घञ् + यप्] रात। संक्षिप्येत क्षण इव कथं दीर्घयामाः त्रियामा। उ० मे० 51 किसी प्रकार रात के लंबे-लंबे तीन पहर क्षण-भर के समान छोटे हो जाएँ। 7. रात्रि -[राति सुखं भयं वा रा + त्रिप वा ङीप] रात। तां कस्यांचिद्भवनवलभौ सुप्तपारावतायां नीत्वा रात्रिं चिर बिलसनात्खिन्नविद्युत्कलनः। पू० मे० 42 बहुत देर तक चमकते-चमकते थकी हुई अपनी प्यारी बिजली को लेकर तुम किसी ऐसे मकान के छज्जे पर रात बिता देना। शङ्करात्रौ गुरुतरशुचं निर्विनोदां सखीं ते। उ० मे० 28 मुझे डर है कि रात के लिए कुछ काम न होने से तुम्हारी सखी की रात बड़े कष्ट से बीतती होगी। स त्वं रात्री जलद शयनासन्नवातायनस्थः। उ० मे० 29 हे मेघ! इसलिए तम उसके पलँग के पास वाली खिड़की पर बैठकर परखना और रात को मेरी प्यारी के पास। नीता रात्रिः क्षण इव मया सार्धमिच्छारतैः। उ० मे०31 मेरे साथ जी भरकर संभोग करके पूरी रात क्षण भर के समान बिता देती थी। नदी 1. कुल्या - [कुल् + यत् + याप्] छोटी नदी, नदी, सरिता। इत्याख्याते सुरपतिसखः शैल कुल्या पुरीषु स्थित्वा। उ० मे० 62 यह सुनकर बादल वहाँ से चल दिया और कभी पहाड़ियों पर कभी नदियों के पास और कभी नगर में ठहरता हुआ। 2. नदी - [नद् + ङीप्] दरिया, सरिता। विश्रान्तः सन्व्रज वननदीतीर जातानि सिञ्चन्उद्यानानां नवजलकणैर्वृथिकाजालकानि। पू० मे० 28 थकावट मिटकर, तुम जंगली नदियों के तीरों पर उपवनों में खिली हुई जूही की कलियों को अपने जल की फुहारों से सींचते हुए। For Private And Personal Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 707 मेघदूतम् उत्पश्यामि प्रतनुषु नदीवीचिषु भ्रूविलासान्। उ० मे० 46 नदी की छोटी-छोटी लहरियों में तुम्हारी कटीली भौहें देखा करता हूँ। 3. सरित् - [स + इति] नदी। गम्भीरायाः पयसि सरितश्चेतसीव प्रसन्ने। पू० मे० 44 गंभीरा नदी के उस जल में, जो चित्त जैसा निर्मल है। 4. सलिला - [सलति गच्छति निम्नम् - सल् + इलच् + यप्] नदी, सरिता। वेणीभूत प्रतनुसलिलाऽसावतीतस्य सिन्धुः। पू० मे0 31 हे मेघ! नदी की धारा तुम्हारे बिछोह में चोटी के समान पतलो हो गई होगी। 5. स्रोतम् - [स्नु + तन्] धारा, सरिता। स्रोतोमूर्त्या भुवि परिणतां रन्तिदेवस्य कीर्तिम्। पू० मे० 49 जो राजा रंतिदेव के गवालंभ यज्ञ करने की कीर्ति बनकर धरती में नदी के रूप में बह रही है। संसर्पन्त्यासपदिभवतः स्रोतसिच्छाययाऽसौ। पू० मे० 55 तब तुम्हारी चलती हुई छाया गंगा नदी की धारा में पड़कर ऐसी सुंदर लगेगी कि। नयन 1. अक्षि - [अश्नुते विषयान् - अश् + क्सि] आँख। त्वय्यासन्ने नयनमुपरिस्पन्दि शङ्के मृगाक्ष्या। उ० मे० 37 जब तुम उसके पास पहुँचोगे, तब उस मृग नयनी की वह बाईं आँख फड़क उठेगी। नयन - [नी + ल्युट्] आँख। सेविष्यन्ते नयनसुभगं खे भवन्तं बलाकाः। पू० मे० 10 आँखों को सुहाने वाला रूप देखकर बगुलियाँ भी आकाश में उड़कर आती होंगी। शुक्लोपाङ्गैः सजलनयनैः स्वगतीकृत्य केकाः। पू० मे० 24 जहाँ के मोर नेत्रों में आनंद के आँसू भरकर अपनी कूक से तुम्हारा स्वागत कर रहे होंगे। For Private And Personal Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 708 कालिदास पर्याय कोश अप्यन्यस्मिञ्जलधर महाकालमासाद्य काले स्थातव्यं ते नयनविषयं यादवदयेति भानुः। पू० मे० 38 हे मेघ! यदि तुम महाकाल के मंदिर में सांझ होने से पहले पहुँच जाओ, तो वहाँ तब तक ठहरना जब तक प्रकाश आँखों से ओझल न हो जाए। शान्तोद्वेगस्तिमितनयनं दृष्टभक्तिर्भवान्या। पू० मे० 40 पार्वती जी एकटक आँखों से शिवजी में तुम्हारी भक्ति देखती रह जाएंगी। तस्मिन्काले नयनसलिलं योषितां खण्डितानां शान्तिं। पू० मे0 43 उस समय बहुत से प्रेमी लोग अपनी उन प्यारियों के आँसू पोंछ रहे होंगे, जिन्हें रात को अकेली छोड़कर वे कहीं दूसरे और में रहे होंगे। शोभामद्रेः स्तिमित नयन प्रेक्षणीयां भवित्रीम्। पू० मे० 63 कैलास के ऊपर ऐसे मनोहर लगोगे कि आँखें एकटक तुम्हें ही देखती रह जाएँ। वासश्चित्रं मधु नयनयोर्विभ्रमादेश दक्षं। उ० मे० 12 वहाँ रंग-बिरंगे वस्त्र, नेत्रों में बाँकपन बढ़ाने वाली मदिरा। सभ्रूभंगप्रतिहतनयनैः कामिलक्ष्येष्व मोघैः। उ मे० 14 वहाँ की चतुर स्त्रियाँ, जो अपने प्रेमियों की ओर बाँकी चितवन चलाती हैं, उसी से धनुष का काम निकाल लेता है। त्वय्यासन्ने नयनमुपरिस्पन्दि शङ्के मृगाक्ष्या। उ० मे0 37 जब तुम उसके पास पहुँचोगे, तब उस मृगनयनी की वह बाई आँख फड़क उठेगी। इत्थं चेतश्चटुलनयने दुर्लभप्रार्थनं मे। उ० मे० 51 हे चंचल नैनों वाली, मेरी दुर्लभ प्रार्थना बेकार हो जाती है। मा कौलीनाच्चकितनयने मय्यविश्वासिनी भूः। उ० मे० 55 हे काली आँखों वाली! लोगों के कहने से तुम मेरे प्रेम में संदेह न कर बैठना, तुम समझ लेना कि मैं कुशल से हूँ। 3. नेत्र - [नयति नीयते वा अनेन - नी + ष्ट्रन्] आँख। पात्री कुर्वन्दशपुरवधूनेत्रकौतूहलानाम्। पू० मे० 51 For Private And Personal Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मेघदूतम् 709 दशपुर की उन रमणियों की आँखों को रिझाना, जिनकी कटीली काली-काली भौहें ऐसी जान पड़ेंगी, मानो.............। नूनं तस्याः प्रबलरुदितोच्छूननेत्रं प्रियाया। उ० मे० 24 मेरे बिछोह में रोते-रोते मेरी प्यारी की आँखें सूज गई होंगी। 4. प्रेक्षण - [प्र + ईक्ष् + ल्युट्] आँख। मध्ये क्षामा चकित हरिणीप्रेक्षणा निम्ननाभिः। उ० मे० 22 पतली कमर वाली, डरी हुई हरिणी के समान आँखों वाली, गहरी नाभि वाली। श्यामा स्वङ्गं चकित हरिणी प्रेक्षणे प्रेक्षणे दृष्टिपातं। उ० मे० 46 प्रियंगु की लता में तुम्हारा शरीर, डरी हुई हरिणी की आँखों में तुम्हारी चितवन देखा करता हूँ। 5. लोचन - [लोच् + ल्युट्] आँख। प्रीतिस्निग्धर्जनपदवधूलोचनैः पीयमानः। पू० मे० 16 वे भोली-भाली स्त्रियाँ भी तुम्हें बड़े प्रेम और आदर से अपनी आँखों से देखेंगी। लोलापाङ्गैर्यदि न रमसे लोचनैर्वञ्चितोऽसि। पू० मे० 29 वहाँ की स्त्रियाँ जो चंचल चितवन चलावेंगी, उनपर यदि तुम न रीझे। सोऽतिक्रांतः श्रवणविषयं लोचनाभ्यामदृष्टः। उ० मे० 45 तुम अपने उस प्यारे की न बातचीत ही सुन सकती हो और न उसे आँख भर देख सकती हो। नरपति 1. नरपति - [नृ + अच् + पतिः] राजा। गच्छन्तीनां रमणवसतिं योषितां तत्र नक्तं रुद्धालोकेनरपतिपथे सूचिभैद्यैस्तमोभिः । पू० मे0 41 वहाँ पर जो स्त्रियाँ अपने प्यारे राजाओं से मिलने के लिए ऐसी घनी अँधेरी रात में निकली होंगी, उन्हें जब सड़कों पर अँधेरे के मारे कुछ भी न सूझता होगा। For Private And Personal Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 710 कालिदास पर्याय कोश 2. राजा - [राज् + क्विप् + याप्] राजा, सरदार। राजान्यानां सितशरशतैर्यत्र गाण्डीवधन्वा धारापातैस्त्वमिव कमलान्यभ्यवर्षन्मुखानि। पू० मे0 52 जहाँ गांडीवधारी अर्जुन ने अपने शत्रु राजाओं के मुखों पर उसी प्रकार अनगिनत बाण बरसाए थे, जैसे कमलों पर तुम अपनी जलधारा बरसाते हो। 3. राज्ञ - राजा, सरदार। हैमं तालदुमवनमभूदत्र तस्यैव राज्ञः। पू० मे० 35 यहीं उन्हीं राजा का बनाया हुआ ताड़ के पेड़े का सुनहरा उपवन था। नलिनी 1. कमलिनी - [कमल + इनि + जीप] कमलिनी, कमल का पौधा, कमल का रेशेदार डंठल। साभ्रेऽह्नीव स्थलकमलिनी न प्रबुद्धां न सुप्ताम्। उ० मे० 32 मेरी प्यारी ऐसी दिखाई देगी, जैसे बादलों के दिन खिलने वाली कोई अधखिली कमलिनी हों। 2. नलिनी - [ नल + इनि + ङीप्] कमल का पौधा, नलिनी। प्रालेयास्त्रं कमलवदनात्सोऽपि हर्तुं नलिन्याः। पू० मे० 42 अपनी प्यारी कमलिनी के मुख कमल पर पड़ी हुई ओस की बूंदें पोंछने के लिए आ गए होंगे। हंसश्रेणी रचित रशना नित्यपद्मा नलिन्यः। उ० मे० 3 वहाँ बारहमासी कमल और कमलिनियों को हंसों की पतिं घेरे रहती हैं। 3. पद्मिनी [ पद्म+ इनि + ङीप्] नलिनी, कमल का पौधा, कमल का रेशेदार डंठल। जातां मन्ये शिशिरमथितां पद्मिनी वान्यरूपाम्। उ० मे० 23 यह भ्रम हो सकता है कि यह कोई बाला है या पाले से मारी हुई कोई कमलिनी है। For Private And Personal Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 711 मेषदूतम् नितम्ब 1. जघन - [हन् + अच् + द्वित्वम्] पुट्ठा, कूल्हा, चूतड़। विवृतजघनां को विहातुं समर्थः। पू० मे० 45 कौन ऐसा रंगीला होगा, जो कामिनी की खुली हुई जाँघों (नितंबों) को देखकर उसका रस लिए बिना ही वहाँ से चल दे। 2. नितम्ब [निभृतं तम्यते कामुकैः, तमु कांक्षायाम्] चूतड़, श्रोणिप्रदेश, कूल्हा। हृत्वा नीलं सलिल वसनं मुक्तरोधो नितम्बम्। पू० मे० 45 अपने तट के नितंबों पर से अपने जल के वस्त्र खिसक जाने पर। 3. श्रोणि - [श्रोण + इन् वा ङीप्] कूल्हा, नितंब, चूतड़। श्रोणी भारादलसगमना स्तोकनमा स्तनाभ्यां । उ० मे० 22 नितंबों के बोझ से धीरे-धीरे चलने वाली और स्तनों के भार से कुछ झुकी हुई। निदाघ 1. धर्म - [धरति अङ्गात् - घृ + मक्, नि० गुणः] ताप, गमी। ताभ्योमोक्षस्तव यदि सखे घर्मलब्धस्य न स्यात्। पू० मे0 65 हे मित्र! यदि वे अपने गर्म शरीरों को ठंडक मिलने के कारण तुम्हें न छोड़े तो। घर्मान्तेऽस्मिन्विगणय कथं वासराणि व्रजेयुः। उ० मे0 48 गर्मी के बीतने पर मैं किसके सहारे अपने दिन काट पाऊँगा। 2. निदाघ - [नितरां दह्यते अत्र - नि + दह + घङ्] ताप, गर्मी, ग्रीष्म ऋतु। आसारेण त्वमपि शमयेस्तस्य नैदाघमग्निं। पू० मे० 19 तुम भी उसके जंगलों में लगी हुई गर्मी की आग बुझा देना। नीप 1. कदम्ब -[कद् + अम्बच्] एक प्रकार का वृक्ष, कदंब वृक्ष। त्वत्संपर्कात्पुलकितमिव प्रौढ़पुष्पैः कदम्बैः। पू० मे० 27, फूले हुए कदंब के वृक्षों को देखकर ऐसा जान पड़ेगा, मानो तुमसे भेंट के कारण उनके रोम-रोम फहरा उठे हों। For Private And Personal Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 712 www. kobatirth.org 2. नीप [ नी + प बा० गुणा भावः] कदंब वृक्ष । - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कालिदास पर्याय कोश नीपं दृष्ट्वा हरित कपिशं केसरैरर्धरूढैराविः । पू० मे० 22 उस समय अधपके हरे-पीले कदंब के फूलों पर मँडराते हुए । सीमन्ते च त्वदुपगमजं यत्र नीपं वधूनाम् । उ० मे० 2 वहाँ की वधुएँ वर्षा में फूल उठने वाले कदंब के फूलों से अपनी माँग सँवारा करती हैं । पंक्ति 1. पंक्ति [ पंच् + क्तिन्] कतार, श्रेणी । जह्नोः कन्यां सगरतनयस्वर्ग सोपान पङ्कितम् । पू० मे० 54 वे गंगाजी मिलेंगी, जिन्होंने सीढ़ियों की पंक्ति बनकर सगर के पुत्रों को स्वर्ग पहुँचा दिया | 2. श्रेणी [श्रि + णि, वा ङीप् ] रेखा, श्रृंखला, पंक्ति । हंस श्रेणीरचितरसना नित्य पद्मा नलिन्यः । उ० मे० 3 वहाँ बारहमासीं कमल और कमलिनियों को हंसों की पाँतें घेरे रहती हैं। पथ 1. पथ [पथ + क (धञार्थे)] रास्ता, मार्ग, प्रसार । कैलासद्विस किसलयच्छेदपाथेयवन्तः संपत्स्यन्ते नभसि भवतो राजहंसाः सहायाः । पू० मे० 11 राजहंस अपनी चोंचों में कमल की अगली डंठल लिए हुए कैलास पर्वत तक मार्ग में तुम्हारे साथ -साथ आकाश में उड़ते हुए जाएँगे । 2. पंथ - मार्ग, रास्ता, पथ । वक्रः पन्था यदपि भवतः प्रस्थितस्योत्तराशां । पू० मे० 29 उत्तर की ओर जाने में यद्यपि मार्ग कुछ टेढ़ा पड़ेगा । 3. मार्ग [ मार्ग + घञ्] रास्ता, राह, प्रसार । For Private And Personal Use Only मार्गं तावच्छृणु कथयतस्त्वत्प्रयाणानुरूपं । पू० मे० 13 Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 713 मेघदूतम् मैं तुम्हें वह मार्ग समझा +, जिधर से जाने में तुम्हें कोई कष्ट नहीं होगा। सारङ्गास्ते जललवमुचः सूचयिष्यन्ति मार्गम्। पू० मे० 22 हे मेघ! वे हरिण और हाथी तुम्हें मार्ग बताते चलेंगे। सिद्धद्वन्द्वैर्जलकणभयाद्वीणिभिर्मुक्त मार्गः। पू० मे० 49 वे सिद्ध लोग अपनी वीणा भीगकर बिगड़ जाने के डर से तुम्हारे मार्ग से दूर ही रहेंगे। निशो मार्गः सवितुरुदये सूच्यते कामिनीनाम्। उ० मे० 11 जब दिन निकलता है तो उन वस्तुओं को मार्ग में बिखरा हुआ देखकर समझ लेते हैं कि वे कामिनी स्त्रियाँ रात में किधर से गई होंगी। वापी चास्मिन्मरकतशिलाबद्धसोपान मार्गा। उ० मे० 16 एक बावड़ी मिलेगी, जिसकी सीढ़ियों वाले मार्ग में नीलम जड़ा हुआ है। संकल्पैस्तैर्विशति विधिना वैरिणा रुद्धमार्गः। उ० मे० 44 दूर बैठे हुए साथी का मार्ग तो बैरी ब्रह्मा रोके बैठा है। पथिक 1. पथि - [पथ् + इलच्] यात्री, राहगीर, बटोही। यो वृन्दानि त्वरयति पथि श्राम्यतां प्रोषितानां। पू० मे० 41 उन थके हुए बटोहियों के मन में भी घर लौटने की हड़बड़ी मचा देता हूँ। 2. पथिक - [पथिन् + ष्कन्] यात्री, मुसाफिर । प्रेक्षिष्यन्ते पथिकवनिताः प्रत्ययादाश्वसन्त्यः। पू० मे० 8 तब परदेसियों की स्त्रियाँ बड़े भरोसे से ढाढ़स पाकर तुम्हारी ओर एकटक देखेंगी। पद 1. चरण - [चर् + ल्युट्] पैर। तत्र व्यक्तं दृषदि चरणन्यासमर्धेन्दुमौले। पू० मे० 59 वहाँ एक शिला पर शिवजी के पैर की छाप बनी हुई मिलेगी। For Private And Personal Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 714 कालिदास पर्याय कोश लाक्षारागं चरणकमलन्यासयोग्यं च यस्यामः। उ० मे0 12 पैरों में लगाने का महावर आदि सिंगार की जितनी वस्तुएँ हैं। मात्मानं ते चरणपतितं यावदिच्छामि कर्तुम्। उ० मे० 47 यह चित्र बनाना चाहता हूँ कि तुम्हें मनाने के लिए मैं तुम्हारे पैरों में पड़ा हूँ। न त्वार्यायाश्चरणकमलं कालिदासश्चकार। उ० मे० 63 कालिदास ने आर्यादेवी के चरण कमलों में प्रणाम करके। पद - [पद् + अच्] पैर। वन्द्यैः पुंसां रघुपतिपदैरङ्कित मेखलासु। पू० मे0 12 इसकी ढालों पर भगवान् रामचन्द्र जी के उन पैरों की छप जहाँ-तहाँ पड़ी हैं, जिन्हें सारा संसार पूजता है। खिन्नः खिन्न शिखरिषु पदं न्यस्य गन्तासि। पू० मे० 13 जब कभी थकने लगे, तो पर्वत की चोटियों पर अपने चरण रखते हुए ठहर जाना। 3. पाद - [पद् + घञ्] पैर, चरण। पादन्यासैः क्वणितरशनास्तत्र लीलावधूतैः। पू० मे0 39 पैरों पर थिरकती हुई जिन वेश्याओं की करधनी के धुंघरू बड़े मीठे-मीठे बज रहे होंगे। श्यामः पादो बलि नियमनाभ्युद्यतस्येव विष्णोः। पू० मे0 61 जैसे बलि को छलने के समय भगवान विष्णु का साँवला चरण। पर्ण 1. दल - [दल् + अच्] पत्ता, फूल की पंखड़ी, कोंपल। पुत्र प्रेम्णा कुवलदलप्रापि कर्णे करोति। पू० मे० 48 पुत्र पर प्रेम दिखलाने के लिए अपने उन कानों पर सजा लेती हैं, जिन पर कमल की पंखड़ी सजाया करती थीं। 2. पत्र - [पत् + ष्ट्रन] पत्ता, फूल की पत्ती। पत्रच्छेदैः कनककमलैः कर्णविभ्रंशिमिव। उ० मे० 11 For Private And Personal Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मेघदूतम् 715 पत्ते खिसककर निकल जाते हैं, कानों पर धरे हुए सोने के कमल गिर जाते हैं। पत्रश्यामा दिनकरहयस्पर्धिनो यत्र वाहाः। उ० मे0 13 पत्ते के समान साँवले वहाँ के घोड़े, सूर्य के घोड़ों को भी कुछ नहीं समझते। 3. पर्ण - [पर्ण + अच्] पंख, पत्ता, पान का पत्ता। पाण्डुच्छाया तटरुहतरुभ्रंशिभिर्जीर्ण पणैः । पू० मे0 31 तीर के वृक्षों के पीले पत्ते झड़-झड़ कर गिरने से उसका रंग पीला पड़ गया होगा। पाण्डु 1. कपिश - [कपि + श] भूरे रंग का, सुनहरा। नीपं दृष्ट्वा हरितकपिशं केसरैः। पू० मे० 22 अधपके हरे-पीले कदंब के फूलों पर। पाण्डु - [पण्ड् + कु, नि० दीर्घः] पीत-धवल, सफेद-सा, पीला, पीताभश्वेतरंग। मध्ये श्यामः स्तन इव भुवः शेषविस्तारपाण्डः। पू० मे० 18 मानो वह पृथ्वी का उठा हुआ स्तन हो, जिसके बीच में काला हो और चारों ओर पीला हो। पाण्डुच्छायोपवनवृतयः केतकैः सूचि भिन्नैः। पू० मे० 25 वहाँ के फूले हुए उपवनों के बाड़, फूले हुए केवड़ों के कारण उजले (पीले) दिखाई देंगे। पाण्डुच्छाया तटरुहतरुभ्रंशिभिर्जीर्णपणैः। पू० मे0 31 तीर के वृक्षों के पीले पत्ते झड़-झड़ कर गिरने से उसका रंग पीला पड़ गया होगा। नीतालोधप्रसवरजसा पाण्डुतामानने श्रीः। उ० मे० 2 अपने मुँहों को लोध के फूलों का पराग मलकर गोरा करती हैं। पुत्र 1. तनय - [तनोति विस्तारयति कुलम्- तन् + कयन्] पुत्र, संतान। For Private And Personal Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 716 कालिदास पर्याय कोश जह्नोः कन्यां सगरतनयस्वर्गसोपान पङ्कितम्। पू० मे० 54 वे गंगाजी मिलेंगी, जिन्होंने सीढ़ी बनकर सगर के पुत्रों को स्वर्ग पहुँचा दिया। यस्योपान्ते कृतकतनयः कान्तयावर्धितो मे। पू० मे0 15 उसी के पास कल्पवृक्ष है, जिसे मेरी स्त्री ने पुत्र के समान पाल रखा है। 2. पुत्र - [पुत् + त्रै + क] बेटा, वत्स। भवानी पुत्र प्रेम्णा कुवलयदलप्रापि कर्णे करोति। पू० मे० 48 पार्वतीजी पुत्र पर प्रेम दिखलाने के लिए अपने उन कानों में सजा लेती हैं, जिन पर वे कमल की पंखड़ी सजाया करती थीं। प्रणयिनी 1. कलत्र - [गड् + अत्रन्, गकारस्य ककारः, डलयोरभेदः] पत्नी। रात्रिं चिरबिलसनात्खिन्नविद्युत्कलनः। पू० मे0 42 बहुत देर तक चमकते-चमकते थकी हुई अपनी प्यारी बिजली को लेकर। 2. कल्याणी - [कल्याण + ङीष्] पत्नी। तत्कल्याणि त्वमपि नितरां मा गमः कातरत्वम्। उ० मे0 52 पर हे कल्याणी! इसलिए, तुम भी बहुत दुखी मत होना। 3. कान्ता - [कम् + क्त् + यप्] गृहस्वामिनी, पत्नी। यस्योपान्ते कृतकतनयः कान्तया वर्धितो मे। उ० मे0 15 उसी के पास एक वृक्ष है, जिसे मेरी स्त्री ने पुत्र के समान पाल रखा है। जाया - [जन् + यक् + टप्, आत्व] पत्नी। तां चावश्यं दिवसगणनातत्परामेकपत्नीम् अव्यापन्नाम विहतगतिम्रक्ष्यसि भ्रातृजायाम्। पू० मे० १ इसलिए तुम अपनी उस पतिव्रता भाई की पत्नी (भाभी) को अवश्य ही पहचान जाओगे, जो बैठी मेरे लौटने के दिन गिन रही होगी। कः संनद्धे विरहविधुरां त्वय्युपेक्षेत् जायां। पू० मे० 8 ऐसा कौन जो तुम्हें उमड़ा हुआ देखकर भी बिछोह में तड़पने वाली अपनी पत्नी से मिलने को उतावला न हो उठे। For Private And Personal Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 717 मेघदूतम् 5. दयिता - [दय् + क्त + टाप्] पत्नी, प्रेयसी। प्रत्यासन्ने नभसि दयिता जीवितालम्बनार्थी जीमूतेन। पू० मे० 4 . आकाश में बादल के देखते ही उसने सोचा कि अपनी प्यारी को ढाढ़स बंधाने के लिए और उसके प्राण बचाने के लिए, इन बादलों के हाथ ही। 6. पत्नी - [पति + ङीप, नुक्] सहधर्मिणी, भार्या। तां चावश्यं दिवसगणनातत्परामेक पत्नीम्। पू० मे०१ उस पतिव्रता पत्नी को अवश्य ही पा जाओगे जो बैठी मेरे लौटने के दिन गिन रही होगी। 7. प्रणयिनी - [प्रणय + इनि + ङीप्] गृहिणी, प्रियतमा, पत्नी। कण्ठाश्लेष प्रणयिजने किं पुनर्दूर संस्थे। पू० मे० 3 उस बिछोही को तो कहना ही क्या, जो दूर देश में पड़ा हुआ, अपनी प्यारी के गले लगने के लिए दिन-रात तड़प रहा हो। तस्योत्सङ्गे प्रणयिन इव स्रस्तगंगा दूकूलां न त्वं दृष्ट्वा पुनरलकां ज्ञास्यसे कामिचारिन्। पू० मे० 67 उसी की गोद में अलका वैसे ही बसी हुई है, जैसे अपने प्यारे की गोद में कोई कामिनी बैठी हो और वहीं से निकली हुई गंगाजी की धारा ऐसी लगती है, मानो उस कामिनी के शरीर पर से सरकी हुई उसकी साड़ी हो। माभूदस्याः प्रणयिनि मयि स्वजलब्धे कथं चित्सद्यः। उ० मे0 39 यदि मेरी प्यारी कहीं स्वप्न में मुझसे कसकर लिपटी हुई हो तो। 8. प्रिया - [प्री + क + यप्] पत्नी, स्वामिनी। संतप्तानां त्वमसि शरणं तत्पयोदः प्रियायाः सन्देशं मे। पू० मे07 अकेले तुम्हीं तो संसार के तपे हुए प्राणियों को ठंडक देने वाले हो, इसलिए मुझ बिछोही का संदेशा भी तुम्हीं मेरी प्यारी के पास पहुँचा आओ। नूनं तस्याः प्रबलरुदितोच्छूननेत्रं प्रियायाः। उ० मे० 24 मेरे बिछोह में रोते-रोते मेरी प्यारी की आँखें सूज गईं होंगी। 9. सहचरी - [सह + चरी] पत्नी, सखी। सोत्कम्पानि प्रिय सहचरी संभ्रमालिङ्गितानि। पू० मे० 23 For Private And Personal Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 718 कालिदास पर्याय कोश प्यारी स्त्रियाँ, जब तुम्हारा गर्जन सुनकर झट से घबराकर उनके गले लग जाएंगी। भर्ता 1. कान्त - [कन् (म्) + क्त] प्रिय, प्रेमी, पति। कान्तोदन्तः सुहृदुपनतःसंगमात्किंचिदूनः। उ० मे० 42 मित्र के मुंह से पति का संदेश पाकर स्त्रियों को अपने प्रिय के मिलन से कुछ कम सुख थोड़े ही मिलता है। 2. कामचारी - [कम् + घञ् + चारिन्] पति, प्रेमी। तस्योत्सङ्गे प्रणयिन इव स्रस्तगंगादुकूलां न त्वं दृष्ट्वा न पुनरलकां ज्ञास्यसे कामचारिन्। पू० मे० 67 उस की गोद में अलकापुरी वैसी ही बसी हुई है, जैसे अपने प्रियतम (पति) की गोद में कोई कामिनी बैठी हो और वहीं से निकली हुई गंगाजी की धारा ऐसी लगती है, मानो उस कामिनी के शरीर पर से सरकी हुई उसकी साड़ी हो। 3. प्रणयि - [प्रणय + इनि] पति, प्रेमी। अङ्गनानां सद्यः पाति प्रणयि हृदयं विप्रयोगे रुणद्धि। पू० मे०१ स्त्रियों के जो हृदय अपने प्रेमियों से बिछुड़ने पर एक क्षण नहीं टिके रह सकते। 4. प्रियतम - [प्रिय + तमप्] प्रेमी, पति। शिप्रावातः प्रियतम इव प्रार्थना चाटुकारः। पू० मे० 33 शिप्रा का वायु थकावट को उसी प्रकार दूर कर रहा होगा, जैसे चतुर प्रेमी मीठी-मीठी बातें बनाकर। यत्र स्त्रीणां प्रियतमभुजालिङ्गनोच्छ्वासितानाम्। उ० मे०१ उन स्त्रियों की थकावट दूर करता है, जिनके शरीर प्रियतम की भुजाओं में कसे रहने से ढीले पड़ जाते हैं। 5. भर्ता - [भृ + तृच्] पति, प्रभु, स्वामी। शापेनास्तंगमित महिमा वर्ष भोग्येण भर्तुः। पू० मे० 1 For Private And Personal Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मेघदूतम् 719 उस पति [यक्ष] को यह शाप दिया कि अब एक वर्ष तक तू अपनी पत्नी से नहीं मिल पाएगा, इस शाप से उसका सारा राग-रंग जाता रहा। भर्तुः कण्ठच्छविरिति गणैः सादरंवीक्ष्यमाणः। पू० मे० 37 शिवजी के गण, तुम्हें अपने स्वामी शिवजी के कंठ के समान ही नीला देखकर तुम्हें बड़े आदर से निहारेंगे। कच्चिद्भर्तुः स्मरसि रसिके त्वं हि तस्य प्रियेति। उ० मे0 25 तुम अपने जिस पति की प्यारी हो, उसे भी कभी स्मरण करती हो। भर्तुमित्रं प्रियमविधवे विद्धि मामम्बुवाह। उ० मे0 41 मैं तुम्हारे पति का प्रिय मित्र मेघ, तुम्हारे पास उनका संदेश लेकर आया हूँ। प्राप्योदन्तं प्रमुदितमना सापि तस्थौ स्वभर्तुः। उ० मे0 60 अपने पति (प्यारे) का संदेश पाकर वह भी फूली न समाई। भुवन 1. जगत - [गम् + क्विप् नि० द्वित्वं तुगागमः] संसार। एक प्रख्या भवति हि जगत्यङ्गनानां प्रवृत्तिः। उ० मे० 29 संसार में सभी स्त्रियाँ अपनी सखियों के दुःख में उनका साथ नहीं छोड़ती। भुवन - [भवत्यत्र, भू- आधारादौ + क्युन्] लोक, पृथ्वी, संसार। जातं वंशे भुवन विदिते पुष्करावर्तकानां। पू० मे० 6 संसार में पुष्कर और आवर्तक नाम के जो बादलों के दो ऊँचे कुल हैं, उन्हीं में तुमने जन्म लिया है। भूषण 1. आभरण - [आ + भृ + ल्युट्] आभूषण, सजावट। प्रत्यादिष्टाभरणरुचयश्चन्द्रहास व्रणाङ्कः। उ० मे० 13 उन घावों के चिह्नों को ही आभूषण समझ लिया है, जो उन्होंने चंद्रहास नाम की करवाल से खाये थे। 2. भूषण - [भूष् + ल्युट्] अलंकार, श्रृंगार, सजावट का सामान। For Private And Personal Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 720 कालिदास पर्याय कोश पुष्पोद्भेदं सह किसलयैर्भूषणानां विकल्पान्। उ० मे० 12 कोमल, पत्ते, और फूल, ढंग-ढंग के आभूषण। भ्राता 1. बंधु - [बन्ध + उ] रिस्तेदार, बंधु, भाई। जालोद्गीणैरुपचितवपुः केशसंस्कार धूपैर्बन्धुप्रीत्या। पू० मे० 36 वहाँ की स्त्रियों के बालों को सुगंधित करके, अगरू की धूप का जो धुआँ झरोखों से निकलता होगा, उससे तुम्हारा शरीर बढ़ेगा और तुम्हें अपना सगा समझकर। हित्वा हालामभिमतरसां रेवतीलोचनाङ्का बन्धुप्रीत्या समरविमुखो लाङ्गली याः सिषेवे। पू० मे० 53 दोनों को एक समान बंधु मानने वाले और समान प्रेम करने वाले बलराम जी, महाभारत के युद्ध में किसी की ओर से भी नहीं लड़े थे, वे अपनी प्यारी रेवती के नेत्रों की छाया पड़ी हुई प्यारी मदिरा को छोड़कर। भ्रातृ - [भ्राज + तृच् पृषो०] भाई, सहोदर, घनिष्ठ मित्र। व्यापन्नामविहतगतिर्द्रक्ष्यसि भ्रातृजायाम्। पू० मे०१ तुम अपनी उस (भाभी) भाई की पत्नी को अवश्य ही पा जाओगे। 1. भृकुटि - [ध्रुवः कुटि:] भौंह। गौरीवक्त्रभृकुटिरचनां या विहस्येव फेनैः। पू० मे० 54 वे इस फेन की हँसी से खिल्ली उड़ाती हुई उन पार्वती जी का निरादर कर रही हों जो उन पर भौहे तरेरती हैं। 2. भ्रू - [भ्रम् + डू] भौंह, आँख की भौंह। त्वय्यायत्तं कृषिफलमिति भ्रूविलासानभिज्ञैः प्रीतिस्निग्धैर्जनपदवधूलोचनैः पीयमानः। पू० मे० 16 खेती का होना न होना भी तुम्हारे ही भरोसे है, इसलिए किसानों की वे भोलीभाली स्त्रियाँः, जिन्हें भौं चलाकर रिझाना नहीं आता भी तुम्हें बड़े प्रेम व आदर से देंखेगी। For Private And Personal Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मेघदूतम् 721 सभ्रूभङ्गं मुखमिव पयो वेत्रवत्याश्चलोमि । पू० मे० 26 नाचती हुई लहरों वाली वेत्रवती नदी का मीठा जल पीओगे तो ऐसा लगेगा मानो कटीली भौंहों वाली स्त्री के ओठों का रस पी रहे हो। तामुत्तीर्य व्रज परिचित भूलता विभ्रमाणां। पू० मे० 51 उसे पार करके उन रमणियों को रिझाना जिनकी कटीली भौहे ऐसी जान पड़ेगी मानो। सभ्रूभंग प्रतिहतनयनैः कामिलक्ष्येष्वमोधैः । उ० मे० 14 वहाँ की स्त्रियाँ, जो अपने प्रेमियों की ओर बाँकी चितवन चलाती हैं, उसी से धनुष का काम निकाल लेता है। प्रत्यादेशादपि च मधुनो विस्मृतभूविलासम्। उ० मे० 37 बहुत दिनों से मदिरा न पीने के कारण भौंहे चलाना भी भूल गई होगी। उत्पश्यामि प्रतनुषु नदीवीचिषु भ्रूविलासान्। उ० मे० 46 नदी की छोटी-छोटी लहरियों में कटीली भौहे देखा करता हूँ। मघोन 1. इन्द्र - [इन्द् + रन्, इन्दतीति इन्द्रः, इदि ऐश्वर्ये] देवों का स्वामी, वर्षा का देवता। विद्युत्वन्तं ललितवनिताः सेन्द्रचापं सचित्राः। उ० मे० 1 तुम्हारे साथ बिजली है, तो उनमें चटकीली नारियाँ हैं, यदि तुम्हारे पास इन्द्र धनुष है, तो उनमें रंग-बिरंगे चित्र हैं। 2. मघोन - [मह पूजायां कनिन्, निः हस्य घः, बुगागमश्च] इंद्र का नाम, इंद्र। जानामि त्वां प्रकृति कामरूपं मघोनः। पू० मे० 6 मैं जानता हूँ कि तुम इंद्र के दूत हो और जैसा चाहो वैसा अपना रूप भी बना सकते हो। 3. वासव - [वसुरेव स्वार्थे अण्, वसूनि सन्त्यस्य अण् वा] इन्द्र का नाम। रक्षा हेतोर्नवशशिभृता वासवीनां चमूनाम्। पू० मे० 47 इन्द्र की सेनाओं को बचाने के लिए शिवजी ने। For Private And Personal Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 722 कालिदास पर्याय कोश 4. सुरपति - [सुष्ठुराति ददात्यभीष्टम् - सु + रा + क + पतिः] इंद्र का विशेषण। दूराल्लक्ष्यं सुरपतिधनुश्चारुणा तोरणेन। उ० मे0 15 इन्द्रधनुष के समान सुन्दर गोल फाटक वाला हमारा घर दूर से ही दिखाई देगा। मधु 1. मदिरा - [मदिर + यप्] खींची हुई शराब। काङ्क्षत्यन्यो वदनमदिरां दोहदच्छद्मनास्याः। उ० मे० 18 उसके मुंह से निकले हुए मदिरा के छींटे पाना चाहता होगा। 2. मधु - [ मन्यत इति मधु, मन + उ नस्य घः] मधुर, शहद, मीठ मादक पेय, शराब। आसेवन्ते मधु रतिफलं कल्पवृक्ष प्रसूत। उ० मे० 5 कामदेव को उभारने वाला वह मधु पी रहे होंगे, जो कल्पवृक्ष से निकलता है। वासश्चित्रं मधु नयनविभ्रमादेशदक्षं। उ० मे० 12 रंग-बिरंगे वस्त्र, नेत्रों में बाँकपन बढ़ाने वाली मदिरा। प्रत्यादेशादपि च मधुनो विस्मृतभूविलासम्। उ० मे० 37 बहुत दिनों से मदिरा न पीने के कारण भौंहे चलाना भूल गई होगी। मधुकर 1. भ्रमर - [ भ्रम + करन्] भौंरा। यत्रोन्मत्त भ्रमरमुखराः पादपा नित्यपुष्पा। उ० मे० 3 सदा फूलने वाले बहुत से वृक्ष मिलेंगे जिन पर मतवाले भौरे गुनगुनाते होंगे। 2. मधुकर - [ मधु + करः] भौरा, भ्रमर। त्वयि मधुकरश्रेणि दीर्घान्कटाक्षान्। पू० मे0 39 वे भौंरो की पाँतों के समान बड़ी-बड़ी चितवन तुम पर डालेंगी। कुन्दक्षेपानुगमधुकरश्रीमुषामात्मबिम्बं । पू० मे० 51 मानों उन्होंने कुन्द के फूलों पर मंडराने वाली भाँरों की चमक चुरा ली हो। For Private And Personal Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 723 मेघदूतम् 3. षट्पद - [सो + क्विप्, पृषो० + पदः] भौरा, भ्रमर। प्रायश्चापं न वहति भयान्मन्मथः षट्पदज्यम्। उ० मे० 14 डर के मारे कामदेव अपना भौंरो की डोरीवाला धनुष वहाँ नहीं चढ़ाता। मयूख 1. पाद - [ पद् + घञ्] प्रकाश की किरण। पादानिन्दोरमृतशिशिराञ्जालमार्गप्रविष्टान्। उ० मे० 32 जालियों में से छनकर जो चंद्रमा की किरणें आ रही होंगी, वे पहले अमृत के समान ठंडी थीं, वैसे ही। 2. मयूख - [ मा + ऊख, मयादेशः] प्रकाश की किरण, रश्मि, अंशु। शष्पश्यामानन्मरकतमणीनुन्मयूख प्ररोहान्। पू० मे० 34 नई घास के समान नीले और चमकीली किरणों वाले नीलम बिछे दिखाई देंगे। 3. लेखा - [ लिख् + अ + टाप्] रेखा, किरण। ज्योतिर्लेखावलयि गलितं यस्य बह। पू० मे0 48 उसके सड़े हुए पंखों से चमकीली किरणें निकल रही होंगी। मरुत 1. अनिल - [ अन + इलच्] वायु, वायु देवता। अन्तःसारं घन तुलयितुं नानिलः शक्ष्यति। पू० मे० 21 तुम भारी हो जाओगे तो वायु तुम्हें इधर-उधर झुला नहीं सकेगा। शब्दायन्ते मधुरमनिलैः कीचकाः पूर्यमाणः। पू० मे0 60 पोले बाँसों में जब वायु भरने लगता है तब उनमें से मीठे-मीठे स्वर निकलने लगते हैं। तमुत्थाप्य स्वजलकणिका शीतलेनानिलेन। उ० मे० 40 अपने जल की फुहारों से ठंड किया हुआ वायु चलाकर जगा देना। 2. पवन - [पू + ल्युट्] हवा, वायु। For Private And Personal Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 724 4. वात त्वामारुढ़ं पवनपदवीमुद्गृहीतालकान्ताः । पू० मे० 8 जब तुम वायु पर पैर रखकर ऊपर चढ़ोगे, तब अपने बाल ऊपर उठाकर । मन्दं मन्दं नुदति पवनश्चानुकूलो । पू० मे० 10 तुम्हारा साथी वायु धीरे-धीरे तुम्हें आगे बढ़ा रहा है। 1 पू० मे० 14 अद्रेः शृङ्गं हरति पवनः किं । कहीं पहाड़ की चोटी को पवन तो नहीं उड़ाए लिए चला जा रहा। [ मृ + उत्] वायु, हवा । 3. मरुत धूमज्योतिः सलिलमरुतां संनिपातः क्व मेघः । पू० मे0 5 कहाँ धुएँ, अग्नि, जल और वायु के मेल से बना हुआ बादल । तोयक्रीडा निरत युवतिस्नानतिक्तैर्मरुद्धिः । पू० मे० 37 जल विहार करने वाली युवतियों के स्नान करने से महकता हुआ पवन । मन्दाकिन्याः सलिलशिशिरैः सेव्यमाना मरुद्भिः । 30 मे० 6 मंदाकिनी के जल की फुहार से ठंडाए हुए पवन में। - www. kobatirth.org - [ वा + क्त] हवा, वायु । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कालिदास पर्याय कोश धुन्वनकल्पदुमकिसलयान्यंशुकानीव वातैर्नाचेष्टैर्जलद । पू० मे० 66 मेघ ! कल्पद्रुम के कोमल पत्तों को पवन की सहायता से महीन कपड़े की भाँति हिला देना । आलिङ्गयन्ते गुणवति मया ते तुषाराद्रिवाताः । उ० मे0 50 हिमालय के जो पवन दक्षिण की ओर चले आ रहे हैं, उन्हें मैं यही समझकर हृदय से लगा रहा हूँ। 5. वायु - [ वा उण् यक् च] हवा, पवन । नीचैर्वास्यत्युपजिगमिषोर्देव पूर्वं गिरिं ते शीतो वायुः । पू० मे० 46 वहाँ से चलकर जब तुम देवगिरी पहाड़ की ओर जाओगे, तब वहाँ वह शीतल पवन तुम्हारी सेवा करेगा। For Private And Personal Use Only तं चेद्वायौ सरति सरलस्कन्ध संघट्ट जन्मा । पू० मे० 57 अंधड़ चलने पर वृक्षों के आपस में रगड़ने से जब जंगल में आग लग जाए। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मेघदूतम् 725 6. सततगति - [ सम् + तन् + क्त, समः अन्त्यलोपः] वायु, हवा । नेत्रा नीताः सततगतिना यद्विमानाग्रभूमिः। उ० मे08 तुम्हारे जैसे बहुत से बादल, वायु के झोंकों के साथ वहाँ के भवनों के ऊपरी खंडों में घुसकर। ___ मही 1. अवनि - [ अव + अनि] पृथ्वी। तामुन्निद्रामवनिशयनां सौधवातायनस्थः । उ० मे० 28 भवन के झरोखों पर बैठकर उसे देखना, उस समय वह धरती पर उनींदी सी पड़ी मिलेगी। अन्वेष्टव्यामवनिशयने संनिकीणक पाश्वा । उ० मे० 30 जो वहीं कहीं धरती पर एक करवट पड़ी होगी। 2. क्षिति [ क्षि + क्तिन्] पृथ्वी। तस्योत्संगे क्षितितलगतां तां च दीनां ददर्श। उ० मे० 62 उसने देखा कि वह बेचारी उस भवन में धरती पर पड़ी हुई है। 3. भुव - पृथ्वी। मध्ये श्यामः स्तन इव भुवः शेषविस्तार पाण्डुः । पू० मे० 18 पृथ्वी का उठा हुआ ऐसा स्तन हो, जिसके बीच में काला हो और चारों ओर पीला हो। अन्तस्तोयं मणिमयभुवस्तुंगमभ्रंलिहाग्राः। उ० मे० 1 यदि तुम्हारे भीतर नीला जल है, तो उनकी धरती भी नीलम से जड़ी हुई है, और यदि तुम ऊँचे पर हो तो उनकी अटरियाँ भी आकाश चूमती हैं। भुवि - पृथ्वी। स्रोतोभूत्वा भुवि परिणतां रन्तिदेवस्य कीर्तिम्। पू० मे० 49 रन्तिदेव की कीर्ति बनकर नदी के रूप में धरती पर बह रही है। विन्यस्यन्ती भुवि गणना देहलीदत्तपुष्पैः। उ० मे० 27 For Private And Personal Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 726 www. kobatirth.org कालिदास पर्याय कोश वह देहली पर जो फूल नित्य रखती चलती है, उन्हें धरती पर फैलाकर गिन रही होगी । 5. भूमि भूमि । नेत्रा नीताः सतत गतिना यद्विमानाग्रभूमिः । उ० मे० 8 8. - [ भवन्त्यस्मिन् भूतानि भू + मि किच्च वा ङीप् ] पृथ्वी, मिट्टी, तुम्हारे जैसे बहुत से बादल वायु के झोंकों के साथ वहाँ के भवन के ऊपरी खंडों में घुसकर । 6. मही - [ मह् + अच् + ङीष् ] पृथ्वी । कर्तुं यच्च प्रभवति महीमुच्छिलीन्ध्रामवन्ध्यां । पू० मे० 11 तुम्हारे जिस गर्जन से कुकरमुत्ते निकल आते हैं और धरती उपजाऊ हो जाती है। 7. वसुधा [ वस् + उन् + धा] पृथ्वी । त्वन्निष्यन्दोच्छ्वसितवसुधागन्धसंपर्क रम्यः । पू० मे० 46 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिसमें तुम्हारे बरसाए हुए जल से आनंद की साँस लेती हुई धरती का गंध भरा होगा । स्थल - [ स्थल् + अच्] पृथ्वी, भूमि, जमीन । धारासिक्त स्थल सुरभिणस्त्वन्मुखास्य बाले । उ० मे० 48 हे बाला! तुम्हारे उस मुख से जिसमें से ऐसी सोंधी गंध आती है, जैसे पानी पड़ने पर धरती से आती है । 1. मित्र दोस्त, सखा, साथी, - - मित्र सहचर । न क्षुद्रोऽपि प्रथमसुकृतापेक्षया संश्रयाय पू० प्राप्ते मित्रे भवति विमुखः किं पुनर्यस्तथोच्चैः । मे० 17 जब दरिद्र लोग भी आए हुए मित्र के उपकार का ध्यान करके उसका सत्कार करने में नहीं चूकते, तब ऊँचों का कहना ही क्या । 2. सखा [ सह समानं ख्यायते ख्या + डिन्, नि०] मित्र, साथी, सहचर । उत्पश्यामि द्रुतमपि सखे मत्प्रियार्थं । पू० मे० 24 For Private And Personal Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मेघदूतम् 727 मित्र! यह तो मैं जानता हूँ कि तुम मेरे काम के लिए बिना रुके झटपट जाना चाहोगे। प्रस्थानं ते कथमपि सखे लम्बमानस्य भवति। पू० मे० 65 हे मित्र! यदि वे अपने गर्म शरीरों को ठंडक मिलने के कारण तुम्हें न छोड़ें तो। मद्गेहिन्याः प्रिय इति सखे चेतसा कातरेण। उ० मे० 17 देखो मित्र! जब मैं तुम्हें (बिजली के साथ) देखता हूँ, तब मेरा मन उदास हो जाता है। 3. सुहृद - [ सु + डु + हृद्] मित्र, सखा। न खलु सुहृदामभ्युपेतार्थकृत्याः । पू० मे० 42 जो अपने मित्रों का काम करने का बीड़ा उठता है, वह आलस नहीं किया करता। यामध्यास्ते दिवसविगमे नीलकण्ठः सुहृदः। उ० मे० 19 जिसके बीच में तुम्हारा मित्र मोर नित्य साँझ को आकर बैठा करता है। कान्तोदन्तः सुहृदुपनतः संगमात्किंचिदूनः। उ० मे० 42 मित्र के मुंह से पति का संदेश पाकर अपने प्रिय के मिलन से कुछ कम सुख थोड़े ही मिलता है। 4. सौम्य - [ सोमो देवतास्य तस्येदं वा अण्] प्रिय, सुखद, मित्र। कृत्वा तासामभिगमपां सौम्य सारस्वती नामन्तः। पू० मे० 53 प्यारी (मित्र) मदिरा को छोड़कर जिस सरस्वती नदी का जल पीते थे, वही जल तुम भी पी लोगे तो। कच्चित्सौम्य व्यवसितमिदं बन्धुकृत्यं त्वया मे। उ० मे० 57 क्यों मित्र! तुमने मेरा यह प्यारा काम करने की ठान ली है या नहीं। मिथुन 1. दंपती - [ जाया च पतिश्च द्व० स० जायाशब्दस्य दमादेशः द्विवचन] पति और पत्नी। संयोज्यैतौ विगलित शुचौ दंपती हृष्टचित्तौ। उ० मे० 61 उन्होंने एक दूसरे से अलग पति-पत्नी को फिर मिला दिया। For Private And Personal Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 728 कालिदास पर्याय कोश 2. मिथुन - जोड़ा, दंपती, यमज, मैथुन । नूनं यास्यत्यमरमिथुन प्रेक्षणीयामवस्थां। पू० मे0 18 वह पर्वत, देवताओं के दंपतियों को दूर से ऐसा दिखाई देगा, मानो। मुख 1. आनन - [ आ + अन् + ल्युट्] मुंह, चेहरा। नीतालोध्रप्रसवरजसा पाण्डुतामानने श्रीः। उ० मे० 2 अपने मुँहों को लोध के फूलों का पराग मलकर गोरा करती है। कर्णे लोलः कथयितुमभूदानन स्पर्श लोभात्। उ० मे० 45 तब वह तुम्हारा मुँह चूमने के लोभ से तुम्हारे कान में ही कहने को तुला रहता था। 2. मुख-[खन् + अच्, डित् धातोः पूर्व मुह्च] मुंह, चेहरा, मुखमंडल। यस्मात्सभ्रूभङ्ग मुखमिव पयो वेत्रवत्याश्चलोमिः। पू० मे० 26 नाचती हुई लहरों वाली वेत्रवती नदी का मीठा जल पीओगे, तब तुम्हें ऐसा लगेगा मानो तुम किसी कटीली भौंहो वाली कामिनी के ओठों का रस पी रहे हो। छायादानात्क्षण परिचितः पुष्पलावीमुखानाम्। पू० मे० 28 फूल उतारने वाली उन मालिनों के मुँह पर छाया करके थोड़ी सी जान-पहचान बढ़ाते हुए आगे बढ़ जाना। धारापातैस्त्वमिव कमलान्यभ्यवर्षनमुखानि। पू० मे० 52 शत्रुओं के मुखों पर उसी प्रकार बरसाए थे जैसे कमलों पर तुम अपनी जलधारा बरसाते हो। हस्तन्यस्तं मुखमसकलव्यक्ति लम्बालकत्वाद्। उ० मे० 24 चिंता के कारण गालों पर हाथ धरने से और बालों के मुंह पर आ जाने से उसका अधूरा दिखाई देने वाला मुँह। पूर्व प्रीत्या गतमभिमुखं संनिवृतं तथैव। उ० मे० 32 जैसे सुख के दिनों में थी, वैसी ही समझकर वह उन किरणों की ओर मुंह करेगी। For Private And Personal Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 729 मेघदूतम् त्वामुत्कण्ठाविरचित पदं मन्मुखेनेदमाह। उ० मे० 45 इसलिए उसने बड़े चाव से मेरे मुँह से यह कहला भेजा है। धारासिक्तस्थलसुरभिणस्त्वन्मुखस्यास्य बाले। उ० मे० 48 हे बाला! तुम्हारे उस मुख से जिसमें से ऐसी सोंधी गंध आती है, जैसे पानी पड़ने पर धरती से आती है। 3. वक्त्र - [ वक्ति अनेन वच् – करणे ष्ट्रन्] मुख, चेहरा। वक्त्रच्छायां शशनि शिखिनां बर्हभारेषु केशान्। उ० मे० 46 चंद्रमा में तुम्हारा मुख, मोरों के पंखों में तुम्हारे बाल। 4. वदन - [ वद् + ल्युट्] चेहरा, मुख। प्रलेयास्त्रं कमलवदनात्सोऽपि हर्तुं नलिन्याः। पू० मे0 43 अपनी प्यारी कमलिनी के मुख कमल पर पड़ी हुई ओस की बूंदे पोंछने के लिए। काङ्क्षत्यन्यो वदनमदिरां दोहदच्छद्मनास्याः। उ० मे० 18 उसके मुँह से निकले हुए मदिरा की छींटे पाना चाहता होगा। मेघ 1. अभ्र - [ अभ्र + अच्] बादल। मुक्ता जाल ग्रथितमलकं कामिनीवाभ्रवृन्दम्। पू० मे० 67 बादल ऐसे छाए रहते हैं, जैसे कमनियों के सिर पर मोती गुंथे हुए जूड़े। अन्तस्तोयं मणिमयभुवस्तुंगमभ्रंलिहाग्राः। उ० मे० 1 हे मेघ! यदि तुम्हारे भीतर नीला जल है, तो उनकी धरती भी नीलम से जड़ी हुई है, और यदि तुम ऊँचे पर हो तो उनकी अटरियाँ भी आकाश चूमती हैं। साभ्रेऽह्नीव स्थलकमलिनी न प्रबुद्धां न सुप्ताम्। उ० मे0 32 वह ऐसी दिखाई देगी, जैसे बदली के दिन धरती पर खिलने वाली कोई अधखिली कमलिनी हो। 2. अंबुवाह - [अम्ब् + उण् + वाहः] बादल। भर्तुमित्रं प्रियम विधवे विद्धि मामम्बुवाहं। उ० मे० 41 For Private And Personal Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 730 कालिदास पर्याय कोश हे सौभाग्यवती ! मैं तुम्हारे पति का प्रिय मित्र मेघ । 3. घन - [हन् मूर्तो अप् घनादेशश्च - तारा०] बादल। दिक्संसक्तप्रविततघनव्यस्तसूर्यातपानि। उ० मे० 48 जब चारों ओर उमड़ी हुई घने बादलों की घय सूर्य पर छा जाएगी। 4. जलद - [ जल् + अक् + दः] बादल। संदेशं मे तदनु जलद श्रोष्यसि श्रोत्रपेयम्। पू० मे० 13 हे मेघ! तब मैं अपना प्यारा संदेश भी सुना दूंगा। त्वां जलद शिरसा वक्ष्यति श्लाघ्यमानः। पू० मे० 19 हे मेघ! बहुत से खेल करते हुए तुम कैलास पर्वत पर जी भरकर घूमना। सत्वं रात्रौ जलद शयनासन्नवातायनस्थः। उ० मे० 29 है मेघ! तुम उसके पलंग के पास वाली खिड़की पर बैठकर परखना और रात में जब ----1 तस्मिन्काले जलद यदि सा लब्धनिद्रा सुखाः। उ० मे० 59 हे मेघ! तुम्हारे पहुँचने पर यदि उसे कुछ नींद आने लगे तो। श्रुत्वा वा जलदकथितां तां धनेशोऽपि सद्यः। उ० मे० 61 जब कुबेर ने यह सुना कि बादल ने उसे ऐसा संदेश दिया है, तब उसने। 5. जलधर - [जल् + अक + धरः] बादल। अप्यन्यस्मिञ्जलधर महाकालमासाद्य काले। पू० मे० 38 हे मेघ! यदि तुम उस महाकाल के मंदिर में साँझ होने से पहले पहुँच जाओ। तं संदेशं जलधरवरो दिव्यवाचा चचक्षे। उ० मे० 60 उस भले मेघ ने दैवी शब्दों में सब संदेश सुना डाला। 6. जलमुच - [ जल् + अक् + मुच्] बादल। शङ्कास्पृष्टा इव जलमुचस्त्वादृशा जालमार्गः। उ० मे08 तुम्हारे जैसे बहुत से बादल डर के मारे झरोखों की जालियों में। 7. जललवमुच - [ जल् + अक् + लवमुच्] बादल। For Private And Personal Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मेघदूतम् 731 सारङ्गास्ते जललवमुचः सूचयिष्यन्ति मार्गम्। पू० मे० 22 हे मेघ! वे हरिण तुम्हें मार्ग बताते चलेंगे। 8. जलौघ - बादल। जलौघः सोपान त्वं कुरु मणितटारोहणायाग्रयायी। पू० मे० 64 हे मेघ! आगे बढ़कर सीढ़ी के समान बन जाना जिससे उन्हें ऊपर चढ़ने में सुविधा हो। जीमूत - बादल जीमूतेन स्वकुशलमयीं हारयिष्यन्प्रवृत्तिम्। पू० मे० 4 इन बादलों के हाथ ही अपना कुशल समाचार भेज दूं। यह ध्यान आते ही वह मग्न हो उठा। 10. पयोद - [ पय् + असुन् + दः] बादल। संतप्तानां त्वमसि शरणं तत्पयोद प्रियायाः। पू० मे07 तुम्हीं तो तपे हुए प्राणियों को ठंडक देने वाले हो इसलिए हे मेघ! अपनी प्यारी से दूर पटके हुए। तद्गेहिन्याः सकलमवदत्कामरूपी पयोदः। उ० मे० 59 मनचाहा रूप धारण करने वाले उस बादल ने सब संदेश सुनाया। 11. मेघ - [ मेहति वर्षति जलम्, मिह + घञ्, कुत्वम] बादल। आषाढस्य प्रथमदिवसे मेघमाश्लिष्टसार्नु वप्रकीडापरिणतगज प्रेक्षणीयं ददर्श। पू० मे० 2 आषाढ़ के पहले ही दिन उसने सामने पहाड़ी की चोटी से लिपटे हुए बादल को देखा, जो ऐसा लग रहा था, मानो कोई हाथी अपने माथे की टक्कर से मिट्टी के टीले ढहाने का खेल कर रहा हो। मेघालोके भवति सुखिनोऽप्यन्थावृत्तिचेतः। पू० मे० 3 बादलों को देखकर जब सुखी लोगों का मन भी डोल जाता है। धम ज्योतिः सलिलमरुतां संनिपातः क्व मेघः। पू० मे० 5 कहाँ तो धुएँ, अग्नि, जल और वायु के मेल से बना हुआ बादल। 12. सिन्धु - [ स्यन्द् + उद् संप्रसारणं दस्य ध:] बादल, समुद्र, सागर। For Private And Personal Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 732 www. kobatirth.org 2. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कालिदास पर्याय कोश वेणीभूतप्रतनुसलिलाऽसावतीतस्य सिन्धुः । पू० मे० 31 देखो मेघ ! नदी की धारा तुम्हारे बिछोह में चोटी के समान पतली हो गई होगी। तस्याः सिन्धोः पृथुमपि तनुं दूरभावात्प्रवाहम् । पू० मे० 50 हे मेघ ! दूर से पतली दिखाई देने वाली उस नदी की चौड़ी धारा के बीच में तुम ऐसे दिखाई दोगे । 13. सुरपति सखा [सुरपति + सखा] बादल । इत्याख्याते सुरपतिसखः शैलकुल्यापुरीषु स्थित्वा स्थित्वा । उ० मे० 62 यह सुनकर बादल वहाँ से चल दिया और कभी पहाड़ियों पर, कभी नदियों के पास और कभी नगर में ठहरता हुआ । रत्न 1. मणि [मण् + इन्] आभूषण, रत्न, मूल्यवान जवाहर । शष्पश्यामान्मरकतमणीनुन्मयूखप्ररोहान् । पू० मे0 34 बड़े-बड़े रत्न गुँथे होंगे और कहीं पर नई घास के समान नीले और चमकीले नीलम बिछे दिखाई देंगे। सोपानत्वं कुरु मणितटारोहणायाग्रयायी । पू० मे0 64 आगे बढ़कर मणि-शिखरों पर चढ़ने वाली सीढ़ी के समान बन जाना। रत्न - [ रमतेऽत्र, रम् + न, तान्तादेशः ] मणि, आभूषण । रत्नच्छायाव्यतिकर इव प्रेक्ष्य पुरस्ताद् वाल्मीकाग्रात्प्रभवति धनुः खण्डमाखण्डलस्य । पू० मे० 15 यहाँ सामने बाँबी के ऊपर उठा हुआ इंद्रधनुष का एक टुकड़ा ऐसा सुन्दर दिखाई पड़ रहा है, मानो बहुत से रत्नों की चमक, एक साथ यहाँ लाकर इकट्ठी कर गई हो । For Private And Personal Use Only रत्नच्छायाखचितबलिभिश्चामरैः क्लान्तहस्ताः । पू० मे० 39 जिनके हाथ, कंगन के नगों की चमक से दमकते हुए दण्ड वाले चँवर डुलाते-डुलाते थक गए होंगे। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मेघदूतम् 733 वन 3. 1. कानन - [ कन् + णिच् + ल्युट्] जंगल, बाग। छन्नोपान्तः परिणतफलद्योतिभिः काननानैः । पू० मे० 18 पके हुए फलों से लदे आम के वृक्षों (जंगलों से) घिरा होने के कारण पीला सा हो गया होगा। शीतोवायुः परिणमयिता काननोदुम्बराणाम्। पू० मे० 46 शीतल वायु के चलने से वन के गूलर पकने लग गए होंगे। 2. कुञ्ज - [ कु + जन् + ड, पृषो० साधुः] लतामंडप, वन, जंगल। जम्बूकुञ्ज प्रतिहतरयं तोयमादाय गच्छेः । पू० मे0 21 जामुन की कुंजों में बहता हुआ जल पीकर आगे बढ़ना। स्थित्वा तस्मिन्वनचरवधू भुक्त कुळे मुहूर्त। पू० मे0 20 जिन कुंजों में जंगली स्त्रियाँ घूमा करती हैं, वहाँ थोड़ी ही देर ठहरना। वन - [ वन् + अच्] अरण्य, जंगल। त्वामासार प्रशमित वनोपप्लवं साधु मू । पू० मे0 17 जब तुम जंगलों की आग बुझाओगे तो वह तुम्हारा उपकार मानकर तुम्हें अपनी चोटी पर ठहरावेगा। स्थित्वा तस्मिन्वनचरवधू भुक्त कुञ्जे मूहूर्तं । पू० मे० 20 जिन कुंजों में जंगली स्त्रियाँ घूमा करती हैं, वहाँ थोड़ी ही देर ठहरना। तस्यास्तिक्तैर्वनगजमदैर्वासितं। पू० मे० 21 जंगली हाथियों के सुगंधित मद में बसा हुआ। त्वय्यासन्ने परिणतफलश्याम जम्बूवनान्ताः। पू० मे० 25 वहाँ के जंगल पकी हुई काली जामुनों से लदे मिलेंगे। विश्रान्तः सन्व्रज वननदीतीरजातानि। पू० मे० 28 वहाँ थकावट मियकर, तुम जंगली नदियों के तीरों पर। हैमं तालदुमवनमभूदत्र तस्यैव राज्ञः। पू० मे० 35 उन्हीं राजा का बनाया हुआ ताड़ के पेड़ों का सुनहरा (उपवन) जंगल था। For Private And Personal Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 734 कालिदास पर्याय कोश पश्चादुच्चैर्भुज तरुवनं मण्डलेनाभिलीनः। पू० मे० 40 उन वृक्षों पर छा जाना, जो उनके ऊँचे उठे हुए बाँह के समान खड़े होंगे। 4. स्थली - [ स्थल् + ङीष्] वनस्थल, वन। पश्यन्तीनां न खलु बहुशो न स्थली देवतानां। उ० मे० 49 उस समय वन के देवता भी मेरी दशा पर तरस खाकर। वपु 1. अंग - [अङ्ग + अच्] शरीर, अंग या शरीर का अवयव। ये संरम्भोत्पतनरभसाः स्वाङ्गभंगाय तस्मिन्मुक्ताध्वानं। पू० मे० 58 तुम पर बिगड़ कर उछलने के लिए मचलें और अपने अंग तुड़वाने के लिए तुम पर सींग चलाने के लिए झपटें। अङ्गेनाङ्गं प्रतनु तनुना गाढतप्तेन तप्तं। उ० मे० 44 वह अपने शरीर के दुबलेपन, तपन से यह समझ लेता है। 2. गात्र - [गै + वन्, गातुरिदं वा, अण्] शरीर। शय्योत्सङ्गे निहितमसकृदुःखदुःखेन गात्रम्। उ० मे0 35 बार-बार दुःख से पछाड़ खा-खाकर किसी प्रकार अपने शरीर को सँभाले हुए पलँग के पास पड़ी हुई है। 3. वपु - [ वप् + उसि] शरीर, देह। । श्यामं वपुरतितरां कान्तिमापत्स्यते ते। पू० मे० 15 इससे सजा हुआ, तुम्हारा साँवला शरीर ऐसा सुन्दर लगने लगा है, जैसे। जालोद्गीणैरुपचित वपुः केश संस्कार धूपैः। पू० मे० 36 बालों को सुगंधित करके, अगरू की धूप का जो धुआँ झरोखों से निकलता होगा, उससे तुम्हारा शरीर बढ़ेगा। नङ्गी भक्त्या विरचित वपुः स्तम्भितान्तः। पू० मे० 64 वसन 1. अंशुक - [ अंशु + क - अंशव० सूत्राणि विषया यस्य] कपड़ा, सामान्यतः पोशाक। For Private And Personal Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 735 मेघदूतम् धुन्वन्कल्पदुमकिसलयान्यंशुकानीव। पू० मे० 66 कल्पद्रुम के कोमल पत्तों को महीन कपड़े की भाँति हिला देना। 2. क्षौम- [ क्षु + मन् + अण्] रेशमी कपड़ा, कपड़ा। क्षौमं रागादनिभृकरेष्वाक्षिपत्सु प्रियेषु। उ० मे07 अपने चंचल हाथों से अपनी प्यारियों की ढीली साड़ियों को हटाने लगते हैं। 3. दुकूल - [ दु + ऊलच्, कुक्] रेशमी, वस्त्र, अत्यंत महीन वस्त्र। तस्योत्सङ्गे प्रणयिन इव स्रस्तगंगादुकूलां। पू० मे० 67 जैसे गोद में कोई कामिनी बैठी हो और गंगाजी की धारा ऐसी लगती है मानो उस कामिनी की सरकी हुई साड़ी हो। 4. पट - [पट् वेष्टने करणे घबर्थे कः] वस्त्र, पहनावा, कपड़ा। कुर्वन्कामं क्षणमुखपट प्रीतिमैरावतस्य। पू० मे० 66 ऐरावत के मुंह पर थोड़ी देर कपड़े, सा छाकर उसका मन बहला देना। 5. वसन - [ वस् + ल्युट्] वस्त्र, कपड़ा, परिधान। हृत्वा नीलं सलिलवसनं मुक्तरोधोनितम्बम्। पू० मे0 45 अपने तट के नितंबों पर से अपने जल के वस्त्र खिसक जाने पर। उत्सङ्गे वा मलिनवसने सौम्य निक्षिप्य वीणां। उ० मे० 26 वह मैले कपड़े पहने हुए गोद में वीणा लिए मिलेगी, जैसे-तैसे वीणा को तो पोंछ लेगी पर। 6. वास - [ वास + घञ्] कपड़े, पोशाक। वासश्चित्रं मधु नयनयोर्विभ्रमादेश दक्षं। पू० मे० 12 रंग-बिरंगे वस्त्र नेत्रों में बाँकपन बढ़ाने वाली मदिरा। 7. वासस - [ वस् आच्छादने असि णिच्च] वस्त्र, परिधान, कपड़े। संन्यस्ते सति हलभृतो मेचके वाससीव। पू० मे० 63 बलराम के कंधों पर पड़े हुए चटकीले काले वस्त्र के समान ऐसे मनोहर लगोगे। विद्युत 1. तड़ित - [ ताडयति अभ्रम् - तड् + इति] बिजली। For Private And Personal Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 736 कालिदास पर्याय कोश प्रेक्ष्योपान्त स्फुरिततडित त्वां तमेव स्मरामि। उ० मे० 17 जब मैं तुम्हें बिजली के साथ देखता हूँ, तब उसे ही याद करता हूँ। 2. विद्युत - [ विशेषेण द्योतते - वि + धुत + क्विप्] बिजली। विद्युद्दामस्फुरितचकितैस्तत्र पौराङ्गनानां। पू० मे० 29 तुम्हारी बिजली की चमक से डरकर वहाँ की स्त्रियाँ । नीत्वां रात्रिं चिरबिलसना खिन्न विद्युत्कलनः। पू० मे० 42 बहुत देर तक चमकते-चमकते थकी हुई अपनी प्यारी बिजली को रात में लेकर। विद्युत्वन्तं ललितवनिताः सेन्द्रचापं सचित्राः। उ० मे० 1 यदि तुम्हारे साथ बिजली है, तो उन में चटकीली नारियाँ हैं, और यदि तुम्हारे पास इंद्रधनुष है, तो उन में रंग-बिरंगे चित्र हैं। खद्योतालीविलसितनिभां विधुदुन्मेष दृष्टिम्। उ० मे० 21 अपनी बिजली की आँखें जुगनुओं के समान थोड़ी-थोड़ी चमका कर झांकना। मा भूदेवं क्षणमपि च ते विद्युता विप्रयोगः। उ० मे० 58 प्यारी बिजली से एक क्षण के लिए भी तुम्हारा वैसा वियोग न हो, जैसा मैं भोग रहा हूँ। 3. सौदामनी - [सुदामन् + अण् + ङीप् पक्षे पृषो० साधु:] बिजली। सौदामन्याकनकनिकषस्निग्धयादर्शयोीं। पू० मे० 41 कसौटी में सोने के समान दमकने वाली अपनी बिजली चमकाकर उन्हें ठीक-ठीक मार्ग दिखा देना। विरह 1. असावती - विरह, बिछोह, वियोग। वेणीभूतप्रतनुसलिलाऽसावतीतस्य सिन्धुः। पू० मे० 31 नदी की धारा तुम्हारे बिछोह में चोटी के समान पतली हो गई होगी। 2. विप्रयुक्त - [ वि + प्र + युज् + क्त] पृथक किया हुआ वंचित, विरहित। तस्मिन्नद्रौ कतिचिदबला विप्रयुक्तः स कामी। पू० मे० 2 For Private And Personal Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मेघदूतम् __737 वह प्रेमी (यक्ष) अपनी पत्नी से बिछुड़कर उस पहाड़ी पर जैसे-तैसे। काम क्रीडा विरहित विप्रयुक्त विनोदः। उ० मे० 63 वियोग के समय उन लोगों का भी मन बहलावेगी जिन्हें विलास मिला ही नहीं। विप्रयोग - [ वि + प्र + युज् + घञ्] वियोग, अलगाव। सद्यः पाति प्रणयि हृदयं विप्रयोगे रुणद्धि। पू० मे०१ स्त्रियों के जो हृदय अपने प्रेमियों से बिछुड़ने पर एक क्षण टिके नहीं रह सकते। नाप्यन्यस्मात्प्रणय कलहाद्विप्रयोगोपपत्तिः। उ० मे० 4 प्रेम में रूठने को छोड़कर और कभी किसी का किसी से बिछोह नहीं होता। मा भूदेवं क्षणमपि च ते विद्युता विप्रयोगः। उ० मे० 58 प्यारी बिजली से एक क्षण के लिए भी तुम्हारा वैसा वियोग न हो, जैसा मैं भोग रहा हूँ। 4. वियुक्त - [ वि + युज + क्त] जुदा किया हुआ, अलग किया हुआ। अव्यापन्नः कुशलमबले पृच्छति त्वां वियुक्तः। उ० मे० 43 हे अबला! तुम्हारा बिछुड़ा हुआ साथी तुम्हारी कुशल जानना चाहता है। 5. वियोग - [ वि + युज् + घञ्] जुदाई, विच्छेद, विरह। सव्यापारामहनि न तथा पीडयेन्मद्वियोगः। उ० मे० 28 काम में लगे रहने के कारण दिन में तो उसे मेरा बिछोह कुछ नहीं सताता होगा पर। गाढोष्माभिः कृतमशरणंत्वद्वियोग व्यथाभिः। उ० मे० 51 इस तिल-तिल जलाने वाली बिछोह की जलन से तो जी बैठ जा रहा है। विरह - [वि + रह् + अच्] बिछोह, वियोग। कश्चित्कान्ता विरह गुरुणा स्वाधिकारात्प्रमत्तः। पू० मे० 1 उसका ध्यान दिन-रात उससे दूर स्त्री में ही लगा रहता था। इसी बेसुधी में उसने अपने काम में कुछ ऐसी भूल कर दी। सौभाग्यं ते सुभग विरहावस्थया व्यञ्जयन्तीकायें। पू० मे0 31 For Private And Personal Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 738 कालिदास पर्याय कोश हे बड़भागी मेघ! अपनी यह वियोग की दशा दिखाकर वह यह बता रही होगी कि मैं तुम्हारे वियोग में सूखी जा रही हूँ। मत्सादृश्यं विरहतनु वा भावगम्यं लिखन्ती। उ० मे० 25 अपनी कल्पना से मेरे इस विरह से दुबले शरीर का चित्र बनाती मिलेगी। शेषान्मासान्विरह दिवस स्थापितस्यावधेर्वाः। उ० मे० 27 मेरे विरह के दिन से ही जिन्हें रखती चलती थी गिन रही होगी कि अब विरह के कितने महीने बच गए हैं। आधिक्षामां विरह शयने संनिषण्णैकपाा । उ० मे0 31 बिछोह की चिंता से सूखी हुई सूने पलंग पर एक करवट लेटी हुई। आधे बद्धा विरहदिवसे या शिखा दाम हित्वा। उ० मे० 34 बिछड़ने के दिन से ही उसने अपने जुड़े की माला खोलकर जो इकहरी चोटी बाँध ली थी। इत्यं भूता प्रथम विरह तामहं तर्कयामि। उ० मे० 36 इसीलिए मैं सोचता हूँ कि वह इस पहले-पहले बिछोह से दुबली हो गई होगी। पश्चादावां विरह गुणितं तं तमात्माभिलाषं। उ० मे० 53 फिर तो हम दोनों, बिछोह के दिनों में सोची हुई अपने मन की सब साधे । स्नेहानाहुः किमपि विरहे ध्वंसिनस्ते त्वभोगादि। उ० मे0 55 न जाने लोग यह क्यों कहा करते हैं कि विरह में प्रेम कम हो जाता है। सच तो यह है कि जब चाही हुई वस्तुएँ नहीं मिलती, तभी उन्हें पाने के लिए प्यास बढ़ जाती है। आश्वास्यैवं प्रथमविरहोदनशोकां सखीं ते। उ० मे0 56 पहली बार के बिछोह से दुखी अपनी भाभी को इस प्रकार दाढ़स बंधाकर। कामक्रीडाविरहित जने विप्रयुक्त विनोदः। उ० मे० 63 वियोग के समय उन लोगों का भी मन बहलावेगी, जिन्हें विलास मिला ही नहीं। विष्णु 1. विष्णु - [ विष् + नुक्] विष्णु। For Private And Personal Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 739 मेघदूतम् बढेणेव स्फुरितरुचिना गोपवेषस्य विष्णोः । पू० मे० 15 जैसे मोर मुकुट पहने हुए ग्वाले का वेश बनाए हुए श्रीकृष्ण जी (विष्णु) आकर खड़े हो गए हों। श्यामः पादो बलिनियमनाभ्युद्यतस्येव विष्णोः। 61 जैसे बलि को छलने के समय भगवान विष्णु का साँवला चरण लंबा और तिरछा हो गया था। 2. शार्ङ्गपाणि - [शृङ्ग + अण् + पाणिः] विष्णु का विशेषण, विष्णु। शापान्तो मे भुजग शयनादुत्थिते शाङ्गपाणौ। उ० मे० 53 जब विष्णु भगवान शेषनाग की शैया से उठेगे, उसी दिन मेरा शाप भी बीत जाएगा। 3. शाङ्गिण - [शार्ङ्ग + इनि] विष्णु का विशेषण, विष्णु। त्वय्यादातुं जलमवनते शाङ्गिणो वर्ण चौरे। पू० मे० 50 जब तुम विष्णु भगवान का साँवला रूप चुराकर जल पीने के लिए झुकोगे। वीणा 1. तंत्री - [तन्त्रि + ङीष्] वीणा, वीणा की डोरी। तन्त्रीमार्दा नयनसलिलैः सारयित्वा कथं चिद्। उ० मे० 26 वह अपनी आँखों के आँसुओं से भीगी हुई वीणा को तो जैसे-तैसे पोंछ लेगी। 2. वीणा - [वेति वृद्धिमात्रमपगच्छति - वी + न, नि० पत्वम्] सारंगी, वीण। सिद्धद्वन्द्वैर्जलकणभयाद्वीणिभिर्मुक्त मार्गः। पू० मे० 49 सिद्ध लोग अपनी वीणा भीगकर बिगड़ जाने के डर से तुम्हारे रास्ते से वे दूर ही रहेंगे। उत्सङ्गे वा मलिन वसने सौम्य निक्षिप्य वीणा। उ० मे० 26 हे मित्र! वह मैले कपड़े पहने हुए, गोद में वीणा लिए मिलेगी। वृष्टि 1. वर्षा - [ वृष् + अच् + टप्] बरसात, बारिश, वृष्टि। For Private And Personal Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 740 कालिदास पर्याय कोश वेश्यास्त्वत्तो नखपदसुखान्प्राप्य वर्षाग्रबिन्दुना। पू० मे० 39 उन वेश्याओं के नख-क्षतों पर जब तुम्हारी ठंडी-ठंडी वर्षा की बूंदे पड़ेंगी, तब उन्हें सुख प्राप्त होगा। धारापातैस्त्वमिव कमलानयभ्यवर्षन्मुखानि। पू० मे० 52 मुखों पर उसी प्रकार बरसाए थे, जैसे कमलों पर तुम अपनी जलधारा बरसाते हो। वृष्टि - [वृष् + क्तिन्] बारिश, बारिश की बौछार।। वान्तवृष्टिजम्बूकुञ्ज प्रतिहतरयं तोयमादाय गच्छेः। पू० मे० 21 जल बरसा चुको तो, जामुन की कुंजों में बहता हुआ जल पीकर आगे बढ़ना। तान्कुर्वीथास्तुमुलकरकावृष्टिपातावकीर्णान्। पू० मे० 58 तब तुम उनके ऊपर धुआँधार ओले बरसा कर उन्हें तितर-बितर कर देना। शैलोदग्रास्त्वमिव करिणो वृष्टिमन्तः प्रभेदात्। उ० मे० 13 पहाड़ जैसे ऊँचे डील-डौल वाले वहाँ के हाथी वैसे ही मद बरसाते हैं, जैसे तुम पानी बरसाते हो। वेश्म (गुफा) 1. कंदरा - [कम् + दृ + अच्] गुफा, घाटी। निर्वादस्ते मुरज इव चेत्कन्दरेषु ध्वनिः । पू० मे0 60 यदि तुम भी गरजकर पहाड़ की खोहों को गुंजाकर मृदंग के समान शब्द कर दोगे तो। 2. ग्रहण - [ग्रह + ल्युट्] गुफा। मयूरं पश्चाद्रिग्रहणगुरुभिर्गर्जितैर्नर्तयैथाः। पू० मे० 48 तुम अपनी गरज से पर्वत की गुफाओं को गुंजा देना, जिसे सुनकर वह मोर नाच उठेगा। 3. वेश्म - [विश् + मनिन्] गुफा, कंदरा। उद्दामानि प्रथयति शिलावेश्मभिर्यौवनानि। पू० मे० 27 पहाड़ी की गुफाओं को रति करने के समय वहाँ के छैले काम में लाते हैं। For Private And Personal Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra मेघदूतम् www. kobatirth.org वेश्या 1. लीलावधू - [ लीला + वधू] स्वेच्छाचारिणीस्त्री, वेश्या । पादन्यासैः क्वणितशनास्तत्र लीलावधूतैः । पू० मे० 39 पैरों पर थिरकती हुई जिन वेश्याओं की करधनी के घुँघरू मीठे-मीठे बज रहे होंगे। 1. मीन - मछली । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 2. वेश्या - [ वेशेन पण्योगेन जीवति वेश् + यत् + यप्] बाजारू स्त्री, रंडी, गणिका, रखैल । 741 वेश्यास्त्वत्तो नखपदसुखान्प्राप्य वर्षाग्रबिन्दुना । पू० मे० 39 उन वेश्याओं के नख-क्षतों पर जब तुम्हारी ठंडी-ठंडी वर्षा की बूँदे पड़ेंगी, तब उन्हें सुख प्राप्त होगा। शफरी मीनक्षोभाच्चलकुवलय श्रीतुलामेष्यतीति । ॐ मे0 37 उस नीले कमल जैसी सुन्दर दिखाई देगी जो मछलियों के इधर-उधर आने-जाने से काँप उठा करता है। 2. शफरी - [शफ राति रा + क + ङीष् ] छोटी मछली, मछली । न धैर्यान्मोघी कर्तुं चटुलशफरोद्वर्तन प्रेक्षितानि । पू० मे० 44 किलोलें करती हुई मछलियों को देखकर, तुम यही समझना कि वह तुम्हारी ओर अपनी प्रेम भरी चंचल चितवन चला रही है। For Private And Personal Use Only शर 1. वर्त्म [ वृत् + मनिन् ] मार्ग, धार, बाण | हंस द्वारं भृगुपतियशोवर्त्म यत्क्रौञ्चरन्धम् । पू० मे0 61 उस क्रौंच रंध्र से होते हुए उत्तर की ओर जाना जिसमें से होकर हंस मानसरोवर की ओर जाते हैं, और जिसे परशुरामजी अपने बाण से छेदकर अपना नाम अमर कर दिया है। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 742 2. कालिदास पर्याय कोश शर - [शृ + अच्] बाण, तीर। राजान्यानां सितशरशतैर्यत्र गाण्डीवधन्वा। पू० मे० 52 जहाँ गांडीवधारी अर्जुन ने अपने शत्रु राजाओं पर अनगिनत बाण बरसाए थे। शशि 1. इन्दु - [उनत्ति क्लेदयति चन्द्रिकया भुवनम् - उन्द् + उ आदेरिच्च] चंद्रमा। इन्दोर्दैन्यं त्वदनुसरण क्लिष्टकान्तेर्बिभर्ति। उ० मे० 24 मेघ से ढके हुए चंद्रमा के समान धुंधला और उदास दिखाई दे रहा होगा। पादानिन्दोरमृतशिशिराञ्जालमार्गप्रविष्टान्। पू० मे0 32 जालियों में से छनकर जो चंद्रमा की किरणें आ रही होंगी उन्हें पहले के समान ठंडा समझकर। शंभोः केशग्रहणमकरादिन्दु लग्नोर्मिहस्ता। पू० मे० 54 अपनी लहरों के हाथ चंद्रमा पर टेककर शिवजी के केश पकड़कर। 2. शशि - [शशोऽस्त्यस्य इनि] चाँद, चंद्रमा। धौतापाङ्गं हरशशिरुचा पावकेस्तं मयूरं। पू० मे0 48 उस मोर के (नेत्रों के कोने), शिवजी के सिर पर धरे हुए चंद्रमा की चमक से दमकते रहते हैं। वक्त्रच्छायां शशिनि शिखिना बहभारेषु केशान्। उ० मे० 46 चंद्रमा में तुम्हारा मुख, मोरों के पंखों में तुम्हारे बाल। 3. हिमांशु - [हि + मक् + अंशुः] चंद्रमा, चाँद। प्राचीमूले तनुमिव कलामात्रशेषां हिमाशोः। उ० मे0 31 पूरब के क्षितिज पर पहुँचे हुए एक कला भर बचे हुए चंद्रमा के समान दुबली होकर। 1. शिखर - [शिखा अस्त्यस्य - अरच् आलोपः] चोटी, पहाड़ का सिरा या शृंग। For Private And Personal Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 743 मेघदूतम् त्वय्यारूढे शिखरमचलः स्निग्धवेणीसवणे। पू० मे० 17 वह पहाड़ बड़े प्रेम से, आदर के साथ तुम्हें अपनी चोटी पर ठहरावेगा। शृङ्ग - [V + गन्, पृषो० मुम् ह्रस्वश्च] पहाड़ की चोटी। अद्रेःशृङ्गं हरति पवनः किस्विदित्युन्मुखीभिः। पू० मे० 14 तुम्हारी ओर ऊपर मुँह करके देखती हुई सोचेंगी कि कहीं पहाड़ की चोटी को पवन तो नहीं उड़ाए लिए चला जा रहा। वक्ष्यस्यध्वश्रमविनयनेतस्यशृङ्गे निषण्णः। पू० मे० 56 जब तुम हिम से ढकी हुई उसकी चोटी पर बैठकर थकावट मियओगे तब तुम ऐसे दिखोगे। शृङ्गोच्छ्रायैः कुमुदविशदैर्यो वितत्य स्थितः। पू० मे० 62 जिसकी कुमुद जैसी उजली चोटियाँ आकाश में इस प्रकार फैली हुई हैं। श्याम 1. कृष्ण - [कृष् + नक्] काला, श्याम, गहरा नीला। शुद्धस्त्वमपि भविता वर्णमात्रेण कृष्णः। पू० मे० 53 बाहर से काले होने पर भी तुम्हारा मन उजला हो जाएगा। 2. मलिन - [मल + इनन्] मैला, गंदा, काला, अंधकारमय। उत्सङ्गे वा मलिनवसने सौम्य निक्षिप्य वीणां। उ० मे० 26 हे मित्र! वह मैले कपड़े पहने हुए, गोद में वीणा लिए मिलेगी। 3. श्याम - [श्यै + मक्] काला, गहरा नीला, काले रंग का। श्यामं वपुरतितरां कान्तिमापत्स्यते। पू० मे० 15 इसकी चमक से तुम्हारा साँवला शरीर ऐसा सुन्दर लगने लगा है। मध्ये श्यामः स्तन इव भुवः शेषविस्तारपाण्डुः। पू० मे० 18 मानो वह पृथ्वी का उठा हुआ ऐसा स्तन हो, जिसके बीच में काला हो और चारों ओर पीला हो। त्वय्यासन्ने परिणतफलश्याम जम्बू वनान्ताः । पू० मे० 25 तुम्हें वहाँ के जंगल, पकी हुई काली जामुनों से लदे मिलेंगे। For Private And Personal Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 744 कालिदास पर्याय कोश श्यामः पादो बलिनियमनाभ्युद्यतस्येव विष्णोः। पू० मे0 61 जैसे बलि को छलने के समय भगवान विष्णु का सांवला चरण लंबा और तिरछा हो गया था। पत्रश्यामा दिनकरहयस्पर्धिनो यत्र वाहाः। उ० मे० 13 पत्ते के समान साँवले वहाँ के घोड़े, सूर्य के घोड़ों को भी कुछ नहीं समझते। श्रवण 1. कर्ण - [कर्ण्यते आकर्ण्यते अनेन - कर्ण + अप्] कान। गण्डस्वेदापनयनरुजावलान्त कर्णोत्पलानां। पू० मे० 28 जिनके कानों में लटके हुए कमल की पंखड़ियों के कनफूल उनके गालों पर बहते हुए पसीने से लग-लगकर मैले हो गए होंगे। भवानी पुत्र प्रेम्णा कुवलयदल प्राप्ति कर्णे करोति। पू० मे० 48 पार्वती जी, पुत्र पर प्रेम दिखलाने के लिए अपने उन कानों पर सजा लेती हैं, जिन पर वे कमल की पंखड़ी सजाया करती थीं। चूडापाशे नवकुरबकं चारु कर्णे शिरीषं। उ० मे० 2 अपने जूड़े में नये कुरबक के फूल खोंसती हैं, अपने कानों पर सिरस के फूल रखती हैं। पत्रच्छेदैः कनक कमलैः कर्णविभ्रंशिभिश्च। उ० मे० 11 पत्ते खिसककर निकल जाते हैं, कानों पर धरे हुए सोने के कमल गिर जाते हैं। कर्णे लोलः कथयितुमभूदाननस्पर्श लोभात्। उ० मे0 45 वह तुम्हारा मुँह चूमने के लोभ से तुम्हारे कान में ही कहने को तुला रहता था। 2. श्रवण - [श्रु + ल्युट्] कान। तच्छ्रुत्वा ते श्रवणसुभगं गर्जितं मानसोत्काः। पू० मे० 11 वही कानों को भला लगने वाला तुम्हारा गरजना सुनकर मानसरोवर जाने को उतावले (राजहंस)। क्रीडालोलाः श्रवण पुरुषैर्गतितर्भाययेस्ताः। पू० मे० 65 उन खिलाड़ी देवांगनाओं से छुटकारा पाने के लिए कान फाड़ने वाला अपना गर्जन सुनाकर उन्हें डरा देना। For Private And Personal Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra मेघदूतम् www. kobatirth.org सोऽतिक्रांतः श्रवणविषयं लोचनाभ्यां दृष्टः । उ० मे० 45 दूर होने से उस प्यारे की बातचीत कानों से न सुन सकती हो, और न उसे आँख भर देख सकती हो। संपद 1. निधि [नि + धा + ल्युट् ] धन, दौलत, घर, आशय । अक्षय्यान्तर्भवननिधयः प्रत्यहं रक्तकण्ठैः । उ० मे० 10 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - अथाह संपत्ति वाले कामी लोग ऊँचे स्वर में मीठे गलों से गान करने वाले किन्नरों के साथ बैठे हुए। 2. संपद 745 [सम् + पद् + क्विप्] धन, दौलत, समृद्धि । आपन्नातिर्प्रशमनफलाः संपदो ह्युत्तमानाम् । पू० मे० 57 भले लोगों के पास जो कुछ धन होता है, वह दीन-दुखियों का दुःख मिटाने के लिए ही तो होता है। - समर 1. संयुग [ सम् + युज् + क्विन्] लड़ाई, संग्राम, युद्ध । योधाग्रण्यः प्रतिदशमुखं संयुगे तस्थिवांसः । उ० मे० 13 जो उन्होंने रावण से लड़ते हुए अपने शरीर पर खाये थे । 2. समर [ सम् + ऋ + अप्] संग्राम, युद्ध, लड़ाई । बन्धुप्रीत्या समर विमुखो लाङ्गली याः सिषेवे । पू० मे० 53 कौरवों और पांडवों की लड़ाई (महाभारत युद्ध) में दोनों पर एक सा प्रेम करने वाले बलराम जी जिसका जल पीते थे । साधु For Private And Personal Use Only 1. सताम - गुणी, भद्र, सज्जन । प्रयुक्तं हि प्रणयिसतामीप्सितार्थ क्रियैव । उ० मे० 57 सज्जनों की रीति ही यह है कि वे काम पूरा करके ही उत्तर दे डालते हैं। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 746 कालिदास पर्याय कोश 2. साधु - [ साध् + उन्] गुणी, पुण्यात्मा, सज्जन। त्वामासार प्रशमित वनोपप्लवं साधु मूर्जा वक्ष्यति। पू० मे० 17 जब तुम जंगल की आग बुझाओगे तब वह सज्जन पर्वत तुम्हें थका समझकर चोटी पर ठहरावेंगे। एभिः साधो! हृदयनिहितैर्लक्षणैर्लक्षयेथा। उ० मे0 20 हे साधु! यदि तुम मेरे बताए हुए ये चिह्न भली-भाँति स्मरण रखोगे। सारंग 1. मृग - [मृग् + क] हरिण, चौपाया जानवर। आसीनानां सुरभितशिलं नाभिगन्धैर्मंगाणां। पू० मे० 56 जिसकी शिलाएँ कस्तूरी हरिणों के सदा बैठने से महकती रहती हैं। त्वय्यासन्ने नयनमुपरिस्पन्दि शङ्के मृगाक्ष्या। उ० मे० 37 जब तुम उसके पास पहुँचोगे तब उस मृगनयनी की वह बाईं आँख फड़क उठेगी। 2. सारंग - [स + अङ्गच् + अण्] हरिण । सारङ्गास्तेजललवमुचः सूचयिष्यन्ति मार्गम्। पू० मे० 22 हे मेघ! वे हरिण तुम्हें मार्ग बताते चलेंगे। सुभग 1. रम्य - [रम्यतेऽत्र यत्] सुहावना, सुखद, रुचिकर, सुंदर। त्वन्निष्यन्दोच्छ्वसितवसुधा गन्ध संपर्क रम्यः। पू० मे० 46 वह शीतल सुहावना पवन तुम्हारी सेवा करेगा, जिसमें तुम्हारे बरसाए हुए जल से आनंद की साँस लेती हुई धरती का गंध भरा होगा। नित्यज्योत्स्नाः प्रतिहततमोवृत्ति रम्याः प्रदोषाः। उ० मे० 3 वहाँ की रातें सदा चाँदनी रहने से बड़ी उजली और मनभावनी होती हैं। 2. ललित - [लल् + क्त] प्रिय, सुन्दर, मनोहर। विद्युत्वन्तं ललितवनिता: सेन्द्रचापं सचित्राः। उ० मे० 1 For Private And Personal Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 3. मेघदूतम् 747 यदि तुम्हारे साथ बिजली है, तो उन भवनों में भी चटकीली नारियाँ हैं, यदि तुम्हारे पास इंद्रधनुष है, तो वहाँ रंग-बिरंगे चित्र हैं। सुभग - [सु + भग] प्रिय, मनोहर, सुंदर, मनोरम। सेविष्यन्ते नयनसुभगं खे भवन्तं बलाकाः। पू० मे० 10 तुम्हारा यह आँखों को सुहाने वाला रूप देखकर आकाश में उड़ने वाली बगुलियाँ भी समझ लेंगी। तच्छ्रुत्वा ते श्रवणसुभगं गर्जितं मानसोत्काः। पू० मे० 11 वही कानों को भला लगने वाला तुम्हारा गरजना सुनकर मानसरोवर जाने को उतावले राजहंस। संसर्पन्त्याः स्खलितसुभगं दर्शितावर्तनाभेः। पू० मे० 30 जो इस सुंदर ढंग से रुक-रुककर बह रही होगी कि उसमें पड़ी हुई भंवर तुम्हें उसकी नाभि जैसी दिखाई देगी। सौभाग्यं ते सुभग विरहावस्थया व्यञ्जयन्ती कायं। पू० मे० 31 हे बड़भागी मेघ! अपनी यह वियोग की दशा दिखाकर यह बता रही होगी कि मैं तुम्हारे वियोग में सूखी जा रही हूँ। छायात्माऽपि प्रकृति सुभगो लप्स्यते ते प्रवेशम्। पू० मे० 44 तुम्हारे सहज-सलोने शरीर की परछाईं उसके जल में अवश्य दिखाई देगी। तालैः शिञ्जां वलय सुभगैर्नर्तितः कान्तया मे। उ० मे० 19 मेरी स्त्री उसे अपने घुघरूदार कड़े वाले हाथों से तालियाँ बजा-बजाकर सुन्दर ढंग से नचाया करती है। वाचालं मां न खलु सुभगम्मन्यभावः करोति। उ० मे० 36 यह न समझो कि ऐसी पतिव्रता स्त्री का पति होने के सौभाग्य से मैं इतना बढ़ा-चढ़ाकर बोल रहा हूँ। सुरगज 1. ऐरावत - [इरा आपः तद्वान् इरावान् समुद्रः, तस्यादुत्पन्नः अण] इंद्र का हाथी, श्रेठ हाथी। For Private And Personal Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 748 1. www. kobatirth.org 2. कुर्वन्कामं क्षणमुखपट प्रीतिमैरावतस्य । पू० ऐरावत के मुँह पर थोड़ी देर कपड़े सा छाकर उसका मन बहला देना । 2. सुरगज- [ सुर+ गजः] ऐरावत, देवों का हाथी । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कालिदास पर्याय कोश मे० 66 तस्याः पातुं सुरगज इव व्योम्नि पश्चार्द्धलम्बी । पू० मे० 55 वहाँ पर तुम दिग्गजों (ऐरावत) के समान अपना पिछला भाग ऊपर उठाकर और आगे का भाग झुकाकर । सुरत संभोग - [सम् + भुज् + घञ् ] रतिरस, मैथुन, सहवास । मत्संभोगः कथमुपनयेत्स्वप्नजोऽपीति निद्राम् । उ० मे० 33 यह सोचकर अपनी आँखों में नींद बुला रही होगी कि किसी प्रकार स्वप्न में ही प्रियतम से संभोग हो जाए। संभोगान्ते मम समुचितो हस्तसंवाहनानां । उ० मे० 38 जिसे मैं संभोग कर चुकने पर अपने हाथ से दबाया करता था । सुरत - [ सु + रत] संभोग, मैथुन, रतिक्रिया । यत्र स्त्रीणां हरति सुरतग्लानिमङ्गानुकूलः । पू० मे033 जहाँ स्त्रियों की संभोग की थकावट अंगों के अनुसार सेवा कर दूर कर रहा होगा । अङ्गग्लानिं सुरतजनितां तन्तुजालावलम्बाः । उ० मे० 9 झालरों में लटके हुए (मणियों से टपकता हुआ जल) उन स्त्रियों की संभोग की थकावट दूर करता है। For Private And Personal Use Only सूर्य 1. आदित्य - [ अदिति + ण्य] सूर्य, अदिति का पुत्र । अत्यादित्यं हुतवहमुखे संभृतं तद्धि तेजः । पू० मे0 47 सूर्य से भी बढ़कर जलता हुआ अपना जो तेज अग्नि में डाल कर इकट्ठा किया था, उसी तेज से स्कन्द का जन्म हुआ है। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 749 मेघदूतम् 2. दिनकर - [द्युति तमः, दो (दी) + नक्, ह्रस्वः + करः] सूरज, सूर्य। पत्रश्यामादिनकरहयस्पर्धिनो यत्र वाहाः। उ० मे० 13 पत्ते के समान साँवले वहाँ के घोड़े अपने रंग और अपनी चाल में सूर्य के घोड़ों को भी कुछ नहीं समझते। 3. भानु - [ भा + नु] सूर्य। स्थातव्यं ते नयनविषयं यादवत्येति भानुः। पू० मे० 38 तब तक ठहर जाना जब तक सूर्य सभी प्रकार से आँखों से ओझल न हो जाएँ। शान्तिं नेयं प्रणयभिरतो वर्त्म भानोस्त्यजाशु। पू० मे0 43 उस समय तुम सूर्य को मत ढकना क्योंकि वे भी उस समय अपनी प्यारी को सांत्वना दे रहे होंगे। सवितृ - [सृ + तृच्] सूर्य। नैशो मार्गः सवितुरुदये सूच्यते कामिनीनाम्। उ० मे० 11 सूर्य के उदय होने पर इन वस्तुओं को मार्ग में बिखरा हुआ देखकर लोग समझ लेते हैं कि कामिनी स्त्रियाँ रात में किधर से गईं होंगी। 5. सूर्य - [सरति आकाशे सूर्यः - सृ + क्यप्, नि०] सूरज। दृष्टे सूर्ये पुनरपि भवान्वाह्ये दध्वशेष मन्दायन्ते। पू० मे० 42 फिर दिन (सूर्य के) निकलते ही वहाँ से चल देना, क्योंकि जो काम करने का बीड़ा उठाता है, वह आलस्य नहीं किया करता। सूर्या पाये न खलु कमलं पुष्पति स्वामभिख्याम्। उ० मे० 20 सूर्य के छिप जाने पर तो कमल उदास हो ही जाता है। दिक्संसक्तप्रविततघनव्यस्त सूर्यातपानि। उ० मे० 48 जब चारों ओर उमड़ी हुई घने बादलों की घय सूर्य पर छा जाएगी। स्कन्द 1. शरवणभव - स्कन्द, कार्तिकेय, शिवपुत्र का नाम। आराध्यैनं शरवणभव देवमुल्लङ्घिताध्वा। पू० मे० 43 स्कन्द भगवान की पूजा करके जब तुम आगे बढ़ोगे तो। For Private And Personal Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 750 कालिदास पर्याय कोश 2. स्कन्द - [ स्कन्द् + अच्] कार्तिकेय, स्कन्द भगवान। तत्र स्कन्दं नियत वसतिं पुष्पमेघीकृतात्मा पुष्प सारैः। पू० मे० 47 वहाँ स्कन्द भगवान भी सदा निवास करते हैं, इसलिए तुम फूल बरसाने वाले बादल बनकर, फूल बरसाकर उन्हें स्नान करा देना। स्वर्ग 1. दिव - [दिव् + क] स्वर्ग, आकाश। शैषैः पुण्यैर्हतमिवदिवः कान्तिमत्खण्डमेकम्। पू० मे० 32 अपने बचे हुए पुण्य के बदले, स्वर्ग का एक चमकीला भाग लेकर उसे अपने साथ धरती पर उतार लाए हों। स्वर्ग - [ स्वरितं गीयते - गै + क, सु + ऋज् + घञ्] बैकुंठ, इंद्र का स्वर्ग। स्वल्पीभूतेसुचरितफले स्वर्गिणांगांगतानां। पू० मे० 32 मानो स्वर्ग में अपने पुण्यों का फल भोगने वाले पुण्यात्मा लोग पुण्य समाप्त होने से पहले ही। जह्रोः कन्यां सगरतनय स्वर्गसोपानपङ्क्तिम्। पू० मे० 54 वे गंगाजी मिलेंगी, जिन्होंने सीढ़ी बनकर सागर के पुत्रों को स्वर्ग पहुंचा दिया था। हय वाह - [वह् + घञ्] घोड़ा। पत्रश्यामा दिनकरहयस्पर्धिनो यत्र वाहाः। उ० मे० 13 पत्ते के समान साँवले वहाँ के घोड़े अपने रंग और अपनी चालों में सूर्य के घोड़ों को भी कुछ नहीं समझते। 2. हय - [ हय् (हि) + अच्] घोड़ा। पत्रश्यामा दिनकरहयस्पर्धिनो यत्र वाहाः। उ० मे० 13 पत्ते के समान साँवले वहाँ के घोड़े अपने रंग और अपनी चालों में सूर्य के घोड़ों को भी कुछ नहीं समझते। For Private And Personal Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मेघदूतम् 751 हर 1. इन्दुमौलि - [ इन्दुः + मौलिः] शिव। तत्रव्यक्तं दृषदि चरणन्यासमर्धेन्दुमौलै। पू० मे० 59 वहीं एक शिला पर तुम्हें शिवजी के पैर की छाप बनी हुई मिलेगी। 2. त्रिनयन - [ त्रि + नयन] शिव, शिव का विशेषण। शोभा शुभ्रत्रिनयनवृषोत्खातपङ्कोपमेयम्। पू० मे० 56 तुम वैसे ही दिखाई दोगे जैसे महादेवजी उजले साँड़ के सींगों पर मिट्टी के टीलों पर टक्कर मारने से कीचड़ जम गया हो। शैलादाशु त्रिनयनवृषोत्खातकूटान्निवृत्तः। उ० मे० 56 उस पर्वत से लौट आना जिसकी चोटियाँ महादेवजी के साँड़ ने उखाड़ दी हैं। 3. त्रिभुवन गुरु - शिव, शिव का विशेषण। पुण्यं यायास्त्रिभुवनगुरोर्धामचण्डीश्वरस्य। पू० मे० 37 तुम तीनों लोकों के स्वामी और चंडी के पति महाकाल के पवित्र मंदिर की ओर चले जाना। 4. त्र्यंबक - [त्रि + अंबकं] शिव, शिव का विशेषण। राशिभूतः प्रतिदिनमिव त्र्यम्बकस्याट्टहासः। पू० मे० 62 मानो वह दिन-दिन इकट्ठे किया हुआ शिवजी का अट्टाहास हो। 5. धनपतिसखा - [धन् + अच् + पति + सखा] शिव, शिव का विशेषण। मत्वा देवं धनपतिसखं यत्र साक्षाद्वसन्तं। उ० मे० 14 वहीं कुबेर के मित्र शिवजी भी रहा करते हैं, इसलिए डर के मारे वसंत ऋतु में भी। पशुपति - [पशु + पतिः] शिव का विशेषण, शिव। नृत्तारम्भे हर पशुपतेराईनागाजिनेच्छा शान्तः। पू० मे० 40 नृत्यारंभ के समय तुम्हारे ऐसा करने से शिवजी के मन में जो हाथी की खाल ओढ़ने की इच्छा होगी, वह भी पूरी हो जाएगी। 7. महाकाल - [ महा + काल:] शिव का एक रूप, शिव का विशेषण। For Private And Personal Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 752 कालिदास पर्याय कोश अप्यन्यस्मिञ्जलधर महाकालमासाद्य काले। पू० मे० 38 हे मेघ! यदि तुम महाकाल के मंदिर में साँझ होने से पहले पहुंच जाओ तो। 8. शंभु - [शम् +भू + डु] शिव। शंभोः केशग्रहणमकरादिन्दुलग्नोर्मिहस्ता। पू० मे० 54 अपनी लहरों के हाथ चंद्रमा पर टेककर शिवजी के केश पकड़कर। हित्वा तस्मिन्भुजगवलयं शंभुना दत्तहस्ता। पू० मे० 64 महादेव जी ने उनके (पार्वती जी) डर से अपने साँपों के कड़े हाथ से उतार दिए होंगे। 9. शशिभृत - [शशोऽस्त्यस्य इनि + भृत्] शिव का विशेषण, शिव। रक्षाहेतोर्नवशशिभृता वासवीनां चमूनाम्। पू० मे० 47 इन्द्र की सेनाओं को बचाने के लिए शिवजी ने। 10. शूलिन् - [शूलम्स्त्य स्य इनि] शिव। कुर्वन्संध्याबलिपटहतां शूलिनः श्लाघनीयाम्। पू० मे० 38 जब महादेवी जी की साँझ की सुहावनी आरती होने लगे। 11. हर - [ह + अच्] शिव। बाह्योद्यानस्थितहरशशिश्चन्द्रिकाधौतहh। पू० मे07 जहाँ के भवनों में, बस्ती के बाहर वाले उद्यान में बनी हुई शिवजी की मूर्ति के सिर पर जड़ी हुई चंद्रिका से सदा उजाला रहा करता है। धौतापाङ्गं हर शशिरुचा पावकेस्तं मयूरं। पू० मे0 48 उस मोर के नेत्रों के कोने, शिवजी के सिर पर धरे हुए चंद्रमा की चमक से दमकते रहते हैं। हर्म्य 1. आगार - [आगमृच्छति - ऋ+ अण्] घर, आवास । तत्रागारं धनपतिगृहानुत्तरेणास्मदीयं। उ० मे० 15 वहीं कुबेर के भवन से उत्तर की ओर हमारा घर तुम्हें। यक्षागारं विगलितनिभं दृष्टिचिरैर्विदित्वा। उ० मे० 59 For Private And Personal Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मेघदूतम् 753 बताए हुए चिह्नों को देखकर उसने यक्ष का वह भवन पहचान लिया। मत्वागारं कनकरुचिरं लक्षणैः पूर्वमुक्तः। उ० मे० 62 बताए हुए चिह्नों से उसने वियोगी यक्ष का सोने का चमकता हुआ भवन पहचान लिया। 2. गृह - [ग्रह + क] निवास, आवास, भवन। तत्रागारं धनपतिगृहानुत्तरेणास्मदीयं। उ० मे० 15 वहीं कुबेर के भवन से उत्तर की ओर हमारा घर तुम्हें। 3. प्रासाद - [प्रसीदन्तिं अस्मिन् - प्रसद् + घञ्, उपसर्गस्य, दीर्घः] महल, भवन, विशाल भवन। प्रसादास्त्वां तुलयितुमुलं यत्र तैस्तैर्विशेषैः। उ० मे0 1 वहाँ के ऊँचे-ऊँचे भवन सब बातों में तुम्हारे जैसे ही हैं। 4. भवन - [भू + ल्युट्] घर, भवन। बन्यु प्रीत्या भवनशिखिभिर्दत्तनृत्योपहारः। पू० मे0 36 अपना सगा समझकर भवनों में रहने वाले मोर भी नाच उठेंगे। तां कस्यांचिद्भवन वलभौसुप्तपारावतायां। पू० मे० 42 अपनी प्यारी बिजली को लेकर तुम किसी ऐसे मकान के छज्जे पर रात बिता देना, जिसमें कबूतर सोए हुए हों। क्षामच्छायं भवनमधुना मद्वियोगेन नूनं। उ० मे0 20 मेरे बिना वह भवन बड़ा सूना सा और उदास सा दिखाई देता होगा। अर्हस्यन्तर्भवनपतितां कर्तुमल्पाल्यभासं। उ० मे० 21 साँझ को थोड़ी-थोड़ी सी चमकाकर मेरे घर के भीतर झाँकना। 5. विमान - [वि + मन् + घञ्] महल, कमरा, भवन। या वः काले वहति सलिलोद्गारमुच्चैर्विमाना। पू० मे० 67 ऊंचे-ऊंचे भवनों वाली अलका पर बरसते हुए बादल वर्षा के दिनों में छाए. रहते हैं। नेत्रा नीताः सततगतिना यद्विमानानभूमिः। उ० मे० 8 तुम्हारे जैसे बहुत से बादल, वायु के झोंकों के साथ वहाँ के भवनों के ऊपरी खंडों में घुसकर। For Private And Personal Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 754 6. 7. 8. 1. www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साद्य महल, प्रासाद, भवन, मंदिर । अप्यन्यस्मिञ्जलधर महाकालमासाद्य काले स्थातव्यं । पू० मे० 38 हे मेघ ! यदि तुम महाकाल के मंदिर में साँझ होने के पहले पहुँच जाओ तो वहाँ तब तक ठहरना । सौध - विशाल भवन, महल, बड़ी हवेली । तामुन्निद्रामवनिशयनां सौधवातायनस्थः । उ० मे० 28 मेरे भवनों के झरोखों पर बैठकर उसे देखना, वह तुम्हें धरती पर उनींदी सी पड़ी मिलेगी। हस्त कालिदास पर्याय कोश हर्म्य - [ हृ + यत्, मुट् च] प्रासाद, महल, भवन । बाह्योद्यान स्थितहरशिरश्चन्द्रिकाधौत हर्म्या । पू० मे० 7 जहाँ के भवनों में, बस्ती के बाहर वाले उद्यान में बनी हुई शिवजी की मूर्ति के सिर पर जड़ी हुई चंद्रिका से सदा उजाला रहा करता है। हर्म्येष्वस्याः कुसुमसुरभिष्वध्वखेदं न येथा लक्ष्मीं पश्यं । पू० तब तुम फूलों के गंध से महकते हुए वहाँ के उन भवनों की सजावट देखकर अपनी थकावट दूर कर लेना । यस्यां यक्षाः सितमणिमयान्येत्य हर्म्यस्थलानि । उ० मे० 5 वहाँ के यक्ष स्फटिक मणि से बने हुए अपने उन भवनों पर बैठते हैं। For Private And Personal Use Only मे० 36 कर - [कृ (कृ) + अप्] हाथ । प्रत्यावत्तस्त्वयि कर रुधि स्यादनल्पाभ्यसूयः । पू० मे० 43 उनको मत ढकना, तुम उनके हाथ न रोक बैठना, नहीं तो वे बुरा मान जाएँगे । तस्या: किंचित्करधृतमिव प्राप्तवानीर शाखं । पू० मे० 45 अपनी बेंत की लताओं के सदृश हाथों से अपने वस्त्र थामे हुए है। दामोक्तव्यामयमितखेनैकवेणीं करेण । उ० मे० 30 वह अपने बढ़े हुए नखों वाले हाथ से अपनी उस इकहरी चोटी के रूखे और उलझे हुए बालों को हटा रही होगी । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मेघदूतम् 755 गण्डाभोगात्कठिनविषमामेकवेणी करेण। उ० मे० 34 उसी उलझी हुई रूखी चोटी को वह अपने हाथों से अपने भरे हुए गालों पर से बार-बार हटा रही होगी। वामश्चास्याः कररुहपदैर्मुच्यमानो मदीयैः। उ० मे० 38 उसकी बाईं जाँघ पर न तो तुम्हें मेरे हाथ के नखचिह्न ही बने मिलेंगे। भुज - [भुज् + क] भुजा, हाथ। पश्चादुच्चैर्भुजतरुवनं मण्डलेनाभिलीन: सान्ध्यं तेजः। पू० मे० 40 तुम सांझ की ललाई लेकर उन वृक्षों पर छा जाना जो उनके ऊँचे उठे हुए बाँह के समान खड़े होंगे। सद्यः कण्ठच्युतभुजलताग्रन्थि गाढोपगूढम। उ० मे0 39 मुझसे कसकर लिपटी हुई हो तो मेरे कंठ में पड़ी हुई उसकी भुजाएं छूट न जाएँ। 3. हस्त - [हस् + तन्, न इट्] हाथ। दिङ्नागानां पथि परिहरन्स्थूलहस्तावलेपान। पू० मे० 14. ठाठ से उड़ते हुए तुम दिग्गजों की मोटी सँड़ों की फटकारों को हाथ से ढकेलते हुए। रत्नच्छाया खचितबलिभिश्चामरैः क्लान्त हस्ताः। पू० मे० 39 जिनके हाथ कंगन के नगों की चमक से दमकते हुए दण्ड वाले चंवर डुलाते-डुलाते थक गए होंगे। शंभोः केशग्रहणमकरादिन्दु लग्नोर्मिहस्ता। पू० मे० 54 वे अपनी लहरों के हाथ चंद्रमा पर टेककर शिवजी के केश पकड़कर। हित्वा तस्मिन्भुजगवलयं शंभुना दत्तहस्ता। पू० मे० 64 महादेव जी उनके (पार्वती जी) के डर से अपने साँपों के कड़े हाथ से उतार दिए होंगे। हस्ते लीलकमलके बालकुन्दानुबिद्धं। उ० मे0 2 । वहाँ की कुलबधुएँ हाथ में कमल के आभूषण पहनती हैं अपनी चोटियों में नये खिले हुए कुन्द के फूल खोंसती हैं। हस्तप्राप्यस्तबकनमितो बालमन्दार वृक्षः। उ० मे0 15 For Private And Personal Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 756 कालिदास पर्याय कोश छोटे से कल्पवृक्ष के झुके हुए गुच्छे खड़े-खड़े ही हाथ से तोड़े जा सकते हैं। हस्तन्यस्तं मुखमसकलव्यक्ति लम्बालकत्वाद्। उ० मे० 24 गालों पर हाथ धरने से और बालों के मुंह पर आ जाने से। संभोगान्ते मम समुचितो हस्तसंवाहनानां। उ० मे0 38 जिसे संभोग कर चुकने पर अपने हाथ से दबाया करता था। हार 1. दाम - [दो + मनिन्] फूलों का गजरा, हार। आद्ये बद्धा विरहदिवसे या शिखा दाम हित्वा। उ० मे0 34 बिछुड़ने के दिन से ही उसने अपने जूड़े की माला खोलकर जो इकहरी चोटी बाँध ली थी। 2. हार - [ह + घञ्] मोतियों की माला, माला, हार। हास्तरलगुटकान्कोटिशः शङ्खशुक्तीः। पू० मे० 34 कहीं तो करोड़ों मोतियों की मालाएँ सजी हुई दिखाई देगी, कहीं करोड़ों शंख और सीपियाँ रखी हुई मिलेंगी। मुक्ताजालैः स्तनपरिसरच्छिन्नसूत्रैश्च हारैः। उ० मे० 11 स्तनों को घेरे हुए हारों से टूटे हुए मोती भी इधर-उधर बिखर जाते हैं। हृदय 1. चित्त - [चित् + क्त] मन, हृदय, बुद्धि। गम्भीरायाः पयसि सरितश्चेतसीव प्रसन्ने। पू० मे० 44 गंभीरा नदी के उस जल में, जो चित्त (हृदय) जैसा निर्मल है। 2. हृदय - [ह + कयन्, दुक् आगमः] दिल, आत्मा, मन, वक्षः स्थल। सद्यः पाति प्रणयि हृदयं विप्रयोगे रुणाद्धि। पू० मे०१ जो हृदय अपने प्रेमियों से बिछुड़ने पर एक क्षण नहीं टिके रह सकते। मत्सङ्ग वा हृदयनिहितारम्भास्वादयन्ती। उ० मे० 27 For Private And Personal Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मेघदूतम् मेरे साथ किए हुए संभोग के आनंद का मन ही मन रस लेती हुई बैठी होगी। तत्संदेशैर्हृदयनिहितैरागतं त्वत्समीपम् । उ० मे० 41 For Private And Personal Use Only 757 तुम्हारे पास उनका संदेश हृदय में लेकर आया हूँ । त्वामुत्कण्ठोच्छ्वसितहृदया वीक्ष्य संभाव्य चैवम् । उ० मे० 42 बड़े खिले हुए जी (हृदय) से और बड़े आदर से तुम्हारी ओर देखेगी । शापस्यान्तं सदयहृदयः संविधायास्तकोपः । उ० मे० 61 उनके मन में बड़ी दया आई, उनका क्रोध उतर गया और उन्होंने अपना शाप लौटकर | Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तृतीय खण्डः ऋतुसंहारम् For Private And Personal Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org For Private And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंशुक 1. अंशुक - [अंशु + क - अंशवः सूत्राणि विषया यस्य] कपड़ा, रेशमी कपड़ा, वस्त्र। स्तनेषु तन्वंशुकमुन्नतस्तना निवेशयन्ति प्रमदाः सयौवनाः। 1/7 ऊँचे-ऊंचे स्तनों वाली युवतियाँ अपने स्तनों पर पतले - पतले कपड़े पहनने लगती हैं। काशांशुका विकचपद्ममनोज्ञवक्त्रा सोन्मादहंसरवनूपुरनादरम्या। 3/1 फूले हुए काँस के कपड़े पहने, मस्तहंसों की बोली के सुहावने बिछुवे पहने, खिले हुए कमल के समान सुन्दर मुखवाली। नितम्बबिम्बेषु नवं दुकूलं तन्वंशुकं पीनपयोधरेषु। 4/3 न अपने गोल-गोल नितंबों पर नये रेशमी वस्त्र ही लपेटती हैं, और न अपने मोटे-मोटे स्तनों पर महीन कपड़े ही बाँधती हैं। तन्वंशुकैः कुङ्कुमरागगौरैरलंक्रियन्ते स्तनमण्डलानि। 6/5 स्तनों पर केशर में रँगी हुई महीन कपड़े की चोली पहनती हैं। रक्तांशुका नववधूरिव भाति भूमिः। 6/21 पृथ्वी ऐसी लग रही है, मानो लाल साड़ी पहने हुए कोई नई दुलहिन हो। 2. तूर्ण - वस्त्र, कपड़ा। गुरूणि वासांसि विहाय तूर्णं तनूनि लाक्षारसरञ्जितानि। 6/15 अपने मोटे वस्त्र उतारकर महावर से रंगे हुए महीन कपड़े पहनती हैं। 3. दूकूल - [ दु + ऊलच्, कुक्] रेशमी वस्त्र, अत्यंत महीन वस्त्र। नितम्बबिम्बैः सदुकूलमेखलैः स्तनैः सहाराभरणैः सचन्दनैः। 1/4 For Private And Personal Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 762 कालिदास पर्याय कोश गोल-गोल नितंबों पर रेशमी वस्त्र और करधनी तथा चंदन पुते हुए स्तनों पर हार और दूसरे गहने पड़े होते हैं। दधति वरकुचाग्रसन्नतैरियष्टिं प्रतनुसितदुकूलान्यायतैः श्रोणि बिम्बैः। 2/26 अपने बड़े-बड़े गोल-गोल उठे हुए स्तनों पर मोती की मालाएँ पहनती हैं, और अपने भारी-भारी नितंबों पर महीन उजली रेशमी साड़ी पहनती हैं। ज्योत्स्नादुकूलममलं रजनी दधाना वृद्धिं प्रयात्यनुदिनं प्रमदेव बाला। 3/7 आजकल की रात, चाँदनी की उजली साड़ी पहने हुए अलबेली किशोरी के समान दिन-दिन बढ़ती चली जा रही है। नितम्बबिम्बेषु नवं दुकूलं तन्वंशुकं पीनपयोधरेषु। 4/3 न अपने गोल-गोल नितंबों पर नये रेशमी वस्त्र ही लपेटती हैं, और न अपने मोटे-मोटे स्तनों पर महीन कपड़े ही बांधती हैं। कुसुम्भरागारुणितैर्दुकूलैनितम्बबिम्बानि विलासिनीम्। 6/5 कामिनियों ने अपने गोल-गोल नितंबों पर कुसुम के लाल फूलों से रंगी रेशमी साड़ी पहन ली है। वसन - [ वस् + ल्युट्] वस्त्र, कपड़ा, परिधान, कपड़े। विकचकमलवक्त्रा फुल्लनीलोत्पलाक्षी विकसितनवकाश श्वेतवासो वसाना। 3/28 खिले हुए उजले कमल के मुख वाली, फूले हुए नीले कमल की आँखों वाली, फूले हुए कॉस की सफेद साड़ी पहनने वाली। 5. वास - [ वास + घब] कपड़े, पोशाक। समुद्गतस्वेदशिताङ्गसंधयो विमुच्य वासांसि गुरूणि सांप्रतम्। 1/7 जिनके अंगों के जोड़-जोड़ से गर्मी के मारे पसीना छूट करता है, वे भी इस गर्मी में अपने मोटे वस्त्र उतारकर। विकच कमलवक्त्रा फुल्लनीलोत्पलाक्षीविकसितनवकाश श्वेतवासो वसाना। 3/28 For Private And Personal Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 763 ऋतुसंहार खिले हुए उजले कमल के मुख वाली, फूले हुए नीले कमल की आँखों वाली, फूले हुए काँस की सफेद साड़ी पहनने वाली। गुरूणि वासांस्यबलाः सयौवनाः प्रयान्ति कालेऽत्र जनस्य सेव्यताम्। 5/2 आजकल लोग मोटे-मोटे कपड़े पहनकर और युवती स्त्रियों से लिपटकर दिन बिताते हैं। गुरूणि वासांसि विहाय तूर्णं तनूनि लाक्षारसरञ्जितानि। 6/15 मोटे वस्त्र उतारकर महावर से रंगे हुए महीन कपड़े पहनती हैं। अद्रि 1. अदि - [ अद् + क्रिन्] पहाड़, पर्वत। तृषाकुलं निःसृतमद्रिगह्वरादवेक्षमाणं महिषीकुलंजलम्। 1/21 प्यास के मारे ऊपर मुँह उठाए भैंसे, पहाड़ की गुफा से निकल-निकल कर जल की ओर चली जा रही हैं। श्वसिति विहगवर्गः शीर्णपर्णदुमस्थः कपिकुलमुपयाति क्लान्तमदेनिकुञ्जम्। 1/23 जिन वृक्षों के पत्ते झड़ गए हैं, उन पर बैठी हुई सभी चिड़ियाँ हाँफ रही हैं, उदास बंदरों के झुंड पहाड़ की गुफाओं में घुसे जा रहे हैं। 2. पर्वत - [ पर्व + अचच्] पहाड़, गिरि। ज्वलति पवनवृद्धः पर्वतानां दरीषु स्फुटति पटुनिनादः शुष्कवंश स्थलीषु। 1/25 वायु से और भी भड़की हुई अग्नि की लपट, पहाड़ की घाटियों में फैलती हुई, सूखे बाँसों में चटपटा रही है। 3. भूधर - [भू + धरः] पहाड़, पर्वत। प्रवृत्तनृत्यैः शिखिभिः समाकुलाः समुत्सुकत्वं जनयन्ति भूधराः। 2/16 वे पहाड़ी चट्टान जिन पर मोर नाच रहे हैं, प्रेमियों के मन में हलचल मचा देते ima For Private And Personal Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 764 कालिदास पर्याय कोश 4. शैल - [ शिला + अण] पर्वत, पहाड़। शैलेयजालपरिणद्ध शिलातलान्तान्। 6/27 जिन पर्वतों पर चट्टानें फैली हुई हैं, उन्हें देखकर। अनल 1. अग्नि [अंगति उर्ध्व गच्छति - अङ्ग + नि नलोपश्च] आग, आग का देवता । हुताग्निकल्पैः सवितुर्गभस्तिभिः कलापिन: क्लान्तरशरीर चेतसः।1/16 हवन की अग्नि के समान जलते हुए सूर्य की किरणों से जिन मोरों के शरीर और मन दोनों सुस्त पड़ गए हैं। विषाग्निसूर्यातपतापितः फणी न हन्ति मण्डूककुलं तृषाकुलः। 1/20 धूप की लपटें और अपने विष की झार (अग्नि) से जलने के कारण साँप मेढकों को नहीं मार रहा है। प्रसरति तृणमध्ये लब्धवृद्धिः क्षणेन ग्लपयति मृगवर्ग प्रान्तलग्नो दवाग्निः। 1/25 वन के बाड़े से उठती हुई आग सभी पशुओं को जलाए डाल रही है और क्षण भर में आगे बढ़कर घास पकड़ ले रही है। परिणतदलशाखानुत्पतन् प्रांशुवृक्षान्भ्रमति पवनधूतः सर्वतोऽग्निर्वनान्ते। 1/26 पवन से भड़काई हुई आग उन ऊंचे वृक्षों पर उछलती हुई वन में चारों ओर घूम रही है, जिनकी डालियों के पत्ते बहुत गर्मी पड़ने से पक-पककर झड़ते जा रहे 2. अनल - [ नास्ति अल: पर्याप्तिर्यस्य - न० ब०] आग, अग्नि, अग्निदेवता। न शक्यते द्रष्टुमपि प्रवासिभिः प्रियावियोगादनलदग्ध मानसैः। 1/10 परदेश में गये हुए जिन प्रेमियों का हृदय अपनी प्रेमिकाओं के बिछोह की तपन से झुलस गया है, उनसे देखा नहीं जाता। 3. जात - [ जन + क्त] उद्भूत, उत्पन्न, आग, अग्नि। बहुतर इव जातः शाल्मलीनां वनेषु स्फुरति कनकगौरः कोटरेषुदुमाणाम्। 1/26 For Private And Personal Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 765 ऋतुसंहार सेमर के वृक्षों के कुंजों (वनों) में फैली हुई आग वृक्ष के खोखलों में सुनहला पीला प्रकाश चमकाती हुई। दाह - [ दह + घब] जलन, दावाग्नि, अग्नि, आग। पटुतर दवदाहोच्छुष्क प्ररोहाः परुष पवन वेगोत्क्षिप्त संशुष्कपर्णाः। 1/22 जंगल की आग की बड़ी-बड़ी लपटों से सब वृक्षों की टहनियाँ झुलस गई हैं, अंधड़ में पड़कर सूखे हुए पत्ते ऊपर उड़े जा रहे हैं। 5. पावक - [ पू + ण्वुल्] आग, अग्नि। तटविटपलताग्रालिङ्गनव्याकुलेन दिशि दिशि परिदग्धा भूमयः पावकेन। 1/24 तीर पर खड़े हुए वृक्षों और लताओं की फुनगियों को चूमती जानेवाली जंगल की आग से जहाँ-तहाँ धरती जल गई है। 6. वह्नि - [ वह + निः] अग्नि, आग। गजगवयमृगेन्द्रा वह्निसंतप्तदेहा सुहृदइव समेता द्वन्द्वभावं विहाय। 1/27 आग से घबराए हुए और झुलसे हाथी, बैल और सिंह, आज मित्र बनकर साथ-साथ इकट्ठे होकर। अतिशयपरुषाभिर्गीष्मवह्नः शिखाभिः समुपजनिततापं हादयन्तीव विन्ध्यम्। 2/28 गरमी की आग की लपटयें से झुलसे हुए विंध्याचल की तपन को यह समझकर बुझा रहे हैं। आदीप्तवह्निसदृशैर्मरुताऽवधूतैः सर्वत्र किंशुकवनैः कुसुमावननैः। 6/21 पवन के झोंकों से हिलती हुई, जिन पलास के वृक्षों की फूली हुई शाखाएँ जलती हुई आग की लपटों के समान दिखाई देती हैं, ऐसे पलास के जंगलों से। 7. हुतवह - [ हु + क्त + वहः] अग्नि, आग। हुतवहपरिखेदादाशु निर्गत्य कक्षाद्विपुल पुलिनदेशा निम्नगां संविशन्ति। 1/27 आग से घबराए हुए वे, घास के जंगल से झटपट निकल आए हैं और नदी के चौड़े और बलुए तीर पर आकर विश्राम कर रहे हैं। 8. हुताशन - [ हु + क्त + अशनः] अग्नि, आग। For Private And Personal Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 766 कालिदास पर्याय कोश निरुद्धवातायन मन्दिरोदरं हुताशनो भानुमतो गभस्तयः। 5/2 अपने घरों के भीतर खिड़कियाँ बंद कर के, आग तापकर, धूप खाकर दिन बिताते हैं। अनिल 1. अनिल - [ अन् + इलच्] वायु, वायुदेवता। सचन्दनाम्बुव्यजनोद्भवानिलैः सहारयष्टि स्तनमण्डलार्पणैः। 1/8 चंदन में बसे हुए ठंडे जल से भीगे हुए पंखों की शीतल वायु झलकर या मोतियों के हारों की लटकती हुई झालरों से सजे हुए अपने गोल-गोल स्तन प्रेमी की छाती पर रखकर। मन्दानिलाकुलित चारुतराग्रशाख:पुष्पोद्गमप्रचय कोमल पल्लवानः। 3/6 जिसकी शाखाओं की सुंदर फुनगियों को धीमा-धीमा पवन झुला रहा है, जिस पर बहुत से फूल खिले हुए हैं, जिसकी पत्तियाँ बड़ी कोमल हैं। मत्तद्विरेफ परिचुम्बितचारुपुष्पा मन्दानिलाकुलित नम्रमृदुप्रवालाः। 6/19 जिनके फूलों को मतवाले भौरे चूम रहे हैं, और जिसके नये कोमल पत्ते मंद-मंद पवन में झूल रहे हैं। मत्तेभो मलयानिलः परभृता यद्वन्दिनो लोकजित्सोऽयं वो वितरीतरीतु वितनुर्भद्रं वसन्तान्वितः। 6/38 जिसका मलयाचल से आया हुआ पवन ही मतवाला हाथी है, कोयल ही गायक है, और शरीर न रहते हुए भी जिसने संसार को जीत लिया है, वह कामदेव वसन्त के साथ आपका कल्याण करे। 2. नभस्वत् - [ नभस् + मतुप, मस्य वः] हवा, वायु। उत्फुल्लपङ्कजवनां नलिनी विधुन्वन्यूनां मनश्चलयति प्रसभं नभस्वान्। 3/10 खिले हुए कमलों से भरे तालों की कमलिनियों को हिलाता हुआ शीतल वायु, युवकों का मन झकझोरे डाल रहा है। 3. पवन - [ पू + ल्युट्] हवा, वायु। For Private And Personal Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 767 ऋतुसंहार पटुतरदवदाहोच्छुष्क सस्य प्ररोहाः परुषपवनवेगोत्क्षिप्त संशुष्क पर्णाः। 1/22 वहाँ जंगल की आग की बड़ी-बड़ी लपट से सब वृक्षों की टहनियाँ झुलस गई हैं, अंधड़ में पड़कर सूखे हुए पत्ते ऊपर उड़े जा रहे हैं। विकच नवकुसुम्भ स्वच्छसिन्दूरभासा प्रबलपवनवेगोद्भूत वेगेन तूर्णम्। 1/24 पूरे खिले हुए नये कुसुंभी के फूल के समान और स्वच्छ सिंदूर के समान लाल-लाल चमकने वाली, आँधी से और भी धधक उठने वाली। ज्वलति पवनवृद्धः पर्वतानां दरीषु स्फुटति पटुनिनादंशुष्क वंशस्थलीषु। 1/25 वायु से और भी भड़की हुई (अग्नि की लपट)पहाड की घाटियों में फैलती हुई, सूखे बाँसों में चटपट रही है। परिणदल शाखानुत्पतन् प्रांशुवृक्षान्भ्रमति पवनधूतः सर्वतोऽग्निर्वनान्ते। 1/26 पवन से भड़काई हुई आग उन ऊँचे वृक्षों पर उछलती हुई, वन में चारों ओर घूम रही है, जिनकी डालियों के पत्ते बहुत गर्मी पड़ने से पक-पककर झड़ते जा रहे हैं। कुवलयदलनीलैरुन्नतैस्तोयननैर्मदुपवनविधूतैर्मन्दमन्दंचलद्भिः । 2/23 कमल के पत्तों के समान साँवले, पानी के भार से झुक जाने के कारण बहुत थोड़ी ऊँचाई पर छाए और धीमे-धीमे पवन के सहारे चलने वाले। मुदितइव कदम्बैर्जातपुष्पैः समन्तात् पवनचलित शाखैः शाखिभिर्नृत्यतीव। 2/24 खिले हुए कदंब के फूल ऐसे लग रहे हैं, मानो जंगल मगन हो उठा हो। पवन से झूमती हुई शाखाओं को देखकर ऐसा लगता है, मानो पूरा जंगल नाच रहा हो। संलक्ष्यते पवनवेगचलैः पयोदैराजेव चामरशतैरुपवीज्यमानः। 3/4 पवन के सहारे इधर-उधर घूम रहे बादलों से भरा हुआ आकाश ऐसा लगने लगा है, मानो किसी राजा पर सैकड़ों चंवर डुलाए जा रहे हों। For Private And Personal Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 768 कालिदास पर्याय कोश मन्द प्रभातपवनोद्गतवीचिमालान्युत्कण्ठयन्ति सहसा हृदयं सरांसि।3/11 जिनमें प्रातः काल के धीमे-धीमे पवन से लहरे उठ रही हैं, वे ताल अचानक हृदय को मस्त बनाए डाल रहे हैं। धुन्वन्ति पक्षपवनैर्न नभो बलाकाः पश्यन्ति नोन्नतमुखा गगनं मयूराः। 3/12 न बगुले ही अपने पंख हिला-हिलाकर वायु से आकाश को पंखा कर रहे हैं और न मोरों के झुंड ही मुँह उठाकर आकाश को देख रहे हैं। उत्कण्ठ्यत्यतितरां पवनः प्रभाते पत्रान्तलग्नतुहिनाम्बु विधूयमानः। 3/15 प्रातः काल पत्तों पर पड़ी हुई ओस की बूंदें गिराता हुआ पवन किसे मस्त नहीं बना देता। दुमाः सपुष्पाः सलिलं सपद्म स्त्रियः सकामाः पवनः सुगन्धिः। 6/2 सब वृक्ष फूलों से लद गए हैं, जल में कमल खिल गए हैं, स्त्रियाँ मतवाली हो गई हैं, वायु में सुगंध आने लगी है। रुचिर कनककांतीन्मुञ्चतः पुष्पराशीन्मृदुपवनविधूतान्पुष्पिताँश्चूतवृक्षान्। 6/30 मंद-मंद पवन के झोंके से हिलते हुए और सुन्दर सुनहले बौर गिराने वाले, बौरे हुए आम के वृक्षों को। रम्यः प्रदोष समयः स्फुटचन्द्रभासः पुँस्कोकिलस्य विरुतं पवनः सुगन्धिः। 6/35 लुभावनी साँझें, छिटकी चाँदनी, कोयल की कूक, सुगंधित पवन। चूतामोद सुगन्धिमन्दपवनः शृङ्गारदीक्षागुरुः कल्पान्तं मदनप्रियो दिशतु वः पुष्पागमो मङ्गलम्। 6/36 आम के बौरों की सुगंध में बसे हुए मंद-मंद पवन से यह शृंगार की शिक्षा देने वाला और काम का मित्र वसंत आप लोगों को सदा प्रसन्न रखे। मलय पवन विद्धः कोकिलालापरम्यः सुरभिमधुनिषेकाल्लब्धगन्ध प्रबन्धः। 6/37 मलय के वायु वाला, कोयल की कूक से जी लुभाने वाला, सदा सुगंधित मधु बरसाने वाला। For Private And Personal Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऋतुसंहार 769 4. मरुत - [ मृ + उत्] वायु, वायुदेवता, देवता। पाकं व्रजन्ती हिमजातशीतैराधूयमाना सततं मरुद्भिः। 4/11 पाले से भरी हुई ठंडी वायु से हिलती हुई यह पकी हुई लता। आदीप्त वह्निसदृशैर्मरुताऽवधूतैः सर्वत्र किंशुकवनैः कुसुमावनगैः। 6/21 पवन के झोंके से हिलती हुई जिन पलास के वृक्षों की शाखाएँ जलती हुई आग की लपटों के समान दिखाई देती हैं। 5. मारुत - [ मरुत् + अण्] हवा, वायु, वायुदेवता। रविप्रभोभिन्नशिरोमणिप्रभो विलोलजिह्मद्वयलीढ मारुतः। 1/20 जिसकी मणि सूर्य की चमक से और भी चमक उठी है, वह अपनी लपलपाती हुई दोनों जीभों से पवन पीता जा रहा है। वात - [ वा + क्त] हवा, वायु, वायु देवता। असह्यवातोद्धतरेणुमण्डला प्रचण्डसूर्यातपतापिता मही। 1/10 जब आंधी के झोंकों से उठी हुई धूल के बवंडरों वाली और कड़ी धूप की लपटयें से तपी हुई धरती को देखते हैं। आकम्पितानि हृदयानि मनस्विनीनां वातैः प्रफुल्लसहकार कृताधिवासैः। 6/34 बौरे हुए आम के पेड़ों में बसे हुए पवन से मनस्विनी स्त्रियों के मन भी डिग जाते हैं। 7. वायु [ वा उण् युक् च] हवा, पवन, वायु। शरदि कुमुदसङ्गाद्वायवो वान्ति शीता विगतजलदवृन्दा दिग्विभागा मनोज्ञाः। 3/22 आजकल कमलों को छूता हुआ शीतल पवन बह रहा है, बादलों के उड़ जाने से चारों ओर सब सुहावना दिखाई देता है। न वायवः सान्द्र तुषारशीतला जनस्य चित्तं रमयन्ति सांप्रतम्। 5/3 इन दिनों न घनी ओस से ठंडा बना हुआ वायु ही लोगों के मन को भाता है। वायुर्विवाति हृदयानि हरन्नराणां नीहारपातविगमात्सुभगो वसन्ते। 6/24 For Private And Personal Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 770 कालिदास पर्याय कोश वसंत में पाला तो पड़ता नहीं, इसलिए चारों ओर फैलाने वाला सुंदर वसंती पवन लोगों का मन हरता हुआ बह रहा है। समीर [ सम् + ईर + अच्] हवा, वायु। ससीकराम्भोधरसङ्गशीतलः समीरणः कं न करोति सोत्सुकम्। 2/17 बादलों से ठंडा होकर बहने वाला वायु किसे मस्त नहीं कर देता। अम्भोधर 1. अभ्र - [ अभ्र + अच्] बादल। ससंभ्रमालिङ्गनचुम्बनाकुलं प्रवृत्तनृत्यं कुलमद्य बर्हिणाम्। 2/6 बादलों की शोभा को देखकर ये मोरों के झुंड अपनी प्यारी मोरनियों को गले लगाते हुए और चूमते हुए आज नाच उठे हैं। 2. अम्बुद - [ अम्ब् + उण् + दः] बादल।। सितोत्पलाभाम्बुदचुम्बितोपलाः समाचिताः प्रस्रवणैः समन्ततः। 2/16 धौले कमल के समान उजले बादल जिन चट्टानों को चूमते चलते हैं, उन पर से बहने वाले झरनों को देखकर। 3. अम्भोधर - [ आप् + (अम्भ) + असुन् + धरः] बादल। ससीकराम्भोधरमत्तकुञ्जरस्तडित्पताकोऽशनिशब्दमर्दलः। 2/1 जल की फुहारों से भरे हुए बादलों के मतवाले हाथी पर चढ़ा हुआ, चमकती हुई बिजलियों की झंडियों को फहराता हुआ और बादलों की गरज के नगाड़े बजाता हुआ। ससीकराम्भोधरसङ्गशीतलः समीरणः कं न करोति सोत्सुकम्। 2/17 बादलों से ठंडा होकर बहने वाला वायु किसे मस्त नहीं कर देता। घन - [ हन् मूर्ती अप् घनादेशश्च - तारा०] बादल। समागतो राजवदुद्धतातिर्घनागमः कामिजनप्रियः प्रिये। 2/1 देखो प्यारी बादलों, चमकती हुई बिजलियों के साथ गरजता हुआ कामियों का प्यारा पावस राजाओं का सा अट-बाट बनाकर आ पहुंचा है। क्वचित्सगर्भप्रमदास्तनप्रभैः समाचितं व्योम घनैः समन्ततः। 2/2 For Private And Personal Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org ऋतुसंहार कहीं गर्भिणी स्त्री के स्तनों के समान पीले बादल आकाश में इधर-उधर छाए हुए हैं। नद्यो घना मत्तगजा वनान्ताः प्रियाविहीनाः शिखिनः प्लवङ्गाः । 2/19 नदियाँ, बादल, मस्त हाथी, जंगल, अपने प्यारों से बिछुड़ी हुई स्त्रियाँ, मोर और बंदर | 6. जलमुच - [ जल + अक् + मुच्] बादल । श्रुत्वा ध्वनिं जलमुचांत्वरितं प्रदोषे Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 5. जलद - [ जल + अक् + दः] बादल । नष्टं धनुर्बलभिदो जलदोदरेषु सौदामिनी स्फुरति नाद्य वियत्पताका । 3/21 आजकल न तो बादलों में इन्द्रधनुष रह गए हैं, न ही बिजली चमककर झंडा फहराती है। शरदि कुमुदसङ्गावायवो वान्ति शीता विगतजलदवृन्दा दिग्विभागा मनोज्ञाः । 3/22 कमलों को छूता हुआ शीतल पवन बह रहा है, बादलों के उड़ जाने से चारों ओर सब सुहावना दिखाई दे रहा है। 771 शय्यागृहं गुरुगृहात्प्रविशन्ति नार्य: 12/22 वे स्त्रियाँ बादलों की गड़गड़ाहट सुनकर झट अपने घर के बड़े-बूढ़ों के पास से उठकर साँझ को ही अपने शयन घर में घुस जाती हैं। - 7. तोयद - [ तु + विच्, तवे पूर्त्यै याति या + क नि० साधुः + दः] बादल। अपहृतमिव चेतस्तोयदैः सेन्द्रचापैः पथिकजनवधूनां तद्वियोगाकुलानाम् । 2 / 23 जिन बादलों में इंद्रधनुष निकल आया है, उन्होंने परदेश में गए हुए लोगों की उन स्त्रियों की सब सुध-बुध हर ली है, जो उनके बिछोह में व्याकुल हुई बैठी हैं । For Private And Personal Use Only जलभरनमितानामाश्रयोऽस्माकमुच्चै रयमिति जलसेकैस्तोयदास्तोय नम्राः । 2 / 28 ये पानी के बोझ से झुके हुए बादल यह सोचकर कि जब हम पानी के बोझ से लदकर आते हैं तो यही हमें सहारा देता है, अपने ठंडे जल की फुहार से । Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 772 कालिदास पर्याय कोश 8. पयोद - [ पय् + असुन्, पा + असुन् + दः] बादल। संलक्ष्यते पवनवेगचलैः पयोदै राजेव चामरशतैरुपवीज्यमानः। 3/4 पवन के सहारे इधर-उधर घूम रहे बादलों से भरा हुआ आकाश ऐसा लगने लगा है, मानो किसी राजा पर सैकड़ों चँवर डुलाए जा रहे हैं। १. पयोधर - [ पय + असुन्, पा + असुन्, धरः] बादल। पयोधरैर्भीमगभीरनिस्वनैस्तडिभिरुद्वेजितचेतसो भृशम्। 2/11 बादलों की घोर कड़क सुनकर और बिजली की तड़पन से चौंकी हुई। तडिल्लताशक्रधनुर्विभूषिताः पयोधरास्तोयभरावलम्बिनः। 2/20 एक ओर तो इंद्रधनुष और बिजली के चमकते हुए पतले धागों से सजी हुई और पानी के भार से झुकी हुई घटाएँ। 10. पयोमुच - [ पय + असुन्, पा + असुन् + मुचः] बादल। अभीक्ष्णमुच्चैर्ध्वनता पयोमुचा घनान्धकारीकृतशर्वरीष्वपि। 2/10 गरजते हुए बादलों से घिरी हुई घनी अंधेरी रात में भी। प्रयान्ति मन्दं बहुधारवर्षिणो बलाहकाः श्रोत्रमनोहरस्वनाः। 2/3 धुआँधार पानी बरसाने वाले और कानों को भली लगने वाली गड़गड़ाहट करते हुए बादल धीरे-धीरे घिरते चले जा रहे हैं। बलाहकाश्चाशनिशब्दमर्दलाः सुरेन्द्रचापं दधतस्तडिद्गुणम्। 2/4 मृदंग के समान गड़गड़ाते हुए, बिजली की डोरी वाला इंद्रधनुष चढाए हुए ये बादल। 12. मेघ - [मेहति वर्षति जलम्, मिह + घञ्, कुत्वम्] बादल। तारागणप्रवरभूषणमुद्वहन्ती मेघावरोधपरिमुक्त शशाङ्कवक्त्रा। 3/7 बादल हटे हुए चंद्रमा के मुंह वाली आजकल की रात, तारों के सुहावने गहने पहने हुए चली जा रही है। श्रियमतिशयरूपां व्योम तोयाशयनां वहति विगतमेघ चन्द्रताराव- कीर्णम्। 3/21 बादलों के चले जाने से खिले हुए चंद्रमा और छिटके हुए तारों से भरा आकाश उन तालों के समान दिखाई पड़ रहा है। For Private And Personal Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऋतुसंहार 773 13. वारिद - [व + इ + दः] बादल। वनद्विपानां नव वारिदस्वनैर्मदान्वितानां ध्वनतां मुहुर्मुहुः। 2/15 नये-नये बादलों के गरजने से जब बनैले हाथी मस्त हो जाते हैं, और उनके माथे से बहते हुए मद पर। अवगाह 1. अवगाह - [ अव + गाह् + घञ्, ल्युट् वा] स्नान, डुबाना, डुबकी लगाना। प्रचण्डसूर्यः स्पृहणीयचन्द्रमाः सदावगाहक्षतवारिसंचयः। 1/1 धूप कड़ी हो गई है, चंद्रमा सुहावना लगता है, कोई चाहे तो आजकल दिन-रात गहरे जल में स्नान कर सकता है। 2. निषेक - [नि + सिच् + घञ्] छिड़कना, तर करना, स्नान। कमलवनचिताम्बुःपाटलामोदरम्यः सुखसलिलनिषेकः सेव्यचन्द्रांशुहारः। 1/28 कमलों से भरे हुए और खिले हुए पाटल की गंध में बसे हुए जल में स्नान करना और चंद्रमा की चाँदनी और मोती के हार बहुत सुख देते हैं। हसितमिव विधते सूचिभिः केतकीनां नव सलिलनिषेकच्छिन्नतापो वनान्तः। 3/24 मानो वर्षा के नये जल में स्नान करने से गर्मी दूर हो जाने पर जंगल मगन हो गया हो और केतकी की उजली कलियों को देखकर ऐसा लगता है मानो जंगल हँस रहा हो। मलयपवनविद्धः कोकिलालापरम्यः सुरभिमधुनिषेकाल्लब्धगन्धप्रबन्धः। 6/37 मलय के वायुवाला, कोकिल की कूक से जी लुभाने वाला, सदा सुगंधित मधु बरसाने वाला वसंत। आभरण 1. आभरण [आ + भृ + ल्युट्] आभूषण, सजावट। For Private And Personal Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 774 www. kobatirth.org कालिदास पर्याय कोश नितम्बबिम्बैः सदुकूलमेखलैः स्तनैः सहाराभरणैः सचन्दनैः । 1/4 उन गोल नितम्बों पर, जिन पर रेशमी वस्त्र और करधनी पड़ी होती है तथा अपने उन चंदन पुते हुए स्तनों से जिन पर हार और दूसरे गहने पड़े होते हैं। निरस्तमाल्याभरणानुलेपनाः स्थिता निराशाः प्रमदाः प्रवासिनाम् । 2/12 परदेश में गए हुए लोगों की स्त्रियाँ अपनी माला, आभूषण, तेल, उबटन आदि छोड़कर निराश बैठी हैं । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 2. भूषण [ भूष + ल्युट् ] अलंकरण, आभूषण, सजावट । अनङ्गसंदीपनमाशु कुर्वते यथा प्रदोषाः शशि चारुभूषणाः । चमकते हुए चंद्रमा वाली साँझ के समान जो सुंदरियाँ सुंदर आभूषणों से सजी हुई हैं, वे मन में कामदेव जगा देती हैं। तारागणप्रवभूषणमुद्वहन्ती मेघावरोध परिमुक्तशशाङ्कवक्त्रा । 3/7 बादल हटे हुए चंद्रमा के मुँहवाली रात, तारों के सुहावने गहने पहने हुए चली जा रही है। श्यामा लताः कुसुमभारनत प्रवालाः स्त्रीणां हरन्ति धृतभूषण बाहुकान्तिम् । 3 / 18 जिन हरी बेलों की टहनियाँ फूलों के बोझ से झुक गई हैं, उनकी सुंदरता ने स्त्रियों की गहनों से सजी हुई बाहों की सुंदरता छीन ली है। विपाण्डुतारागण चारुभूषणा जनस्य सेव्या न भवन्ति रात्रयः । 5/4 पीले-पीले तारों के गहनों से सुसज्जित रातों में लोग बाहर नहीं निकलते । कपि 1. कपि [ कम्प् + इ, न लोपः ] लंगूर, बंदर । श्वसिति विहगवर्गः शीर्णपर्णदुमस्थः कपिकुलमुपयाति क्लान्तमद्रेर्निकुञ्जम् । 1/23 जिन वृक्षों के पत्ते झड़ गए हैं, उन पर बैठी चिड़ियाँ हाफ रही हैं, उदास बंदरों झुंड पहाड़ी - गुफाओं में घुसे जा रहे हैं। 2. प्लवङ्ग - [ प्लव + गम् + खच् ] बंदर, लंगूर, हरिण । For Private And Personal Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org ऋतुसंहार नद्यो घना मत्तगजा वनान्ताः प्रियाविहीनाः शिखिनः प्लवङ्गाः । 2/19 नदियाँ, बादल, मस्तहाथी, जंगल, अपने प्यारों से बिछुड़ी हुई स्त्रियाँ, मोर तथा बंदर | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1. कपोल 1. कपोल - [ कपि + ओलच् ] गाल । कपोलदेशा विमलोत्पलप्रभाः सभृङ्गयूथैर्मदवारिभिश्चिताः । 2/15 जब बहते हुए मद पर भौरे आकर लिपट जाते हैं, तब उनके गाल (माथे) स्वच्छ नीले कमल जैसे दिखाई देने लगते हैं। 775 2. गण्ड - [ गण्ड + अच्] गाल । नेत्रेषु लोलो मदिरालसेषु गण्डेषु पाण्डुः कठिनः स्तनेषु । 6/12 मदमाती आँखों में चंचलता बनकर, गालों में पीलापन, बनकर, स्तनों में कठोरता बनकर | कनककमलकान्तैराननैः पाण्डुगण्डै रुपरिनिहित हारैश्चन्दनादैः स्तनान्तैः । 6/32 स्वर्णकमल के समान सुनहरे गालों वाले मुँह से, गीले चंदन से पुते और मोतियों के हार पड़े हुए स्तन से । For Private And Personal Use Only काल काल [ कु ईषत् कृष्णत्वं लाति ला + क, को: कादेश: ] समय, अवधि, दिन के घंटे या प्रहर । दिनान्तरम्योऽभ्युपशान्तमन्मथो निदाघकालोऽयमुपागतः प्रिये । 1/1 प्रिये ! गरमी के दिन (समय) आ गए हैं। इन दिनों साँझ बड़ी लुभावनी होती है और कामदेव तो एकदम ठंडा पड़ गया है। विनिपतिततुषारः क्रौञ्चनादोपगीतः प्रदिशतु हिमयुक्तस्त्वेष कालः सुखं वा । 4/19 यह हेमंत ऋतु आपको सुख दे, जिसमें पाला गिरता है और सारस बोलते हैं। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 776 कालिदास पर्याय कोश प्रकामकामं प्रमदाजनप्रियं वरोरु कालं शिशिराह्वयं शृणु। 5/1 हे सुंदर जाँघों वाली! सुनो, जिस ऋतु में काम भी बहुत बढ़ जाता है, वह स्त्रियों की प्यारी ऋतु आ पहुँची है। गुरूणि वासांस्यबलाः सयौवनाः प्रयान्ति कालेऽत्र जनस्य सेव्यताम्। 5/2 इस समय लोग मोटे-मोटे कपड़े पहनकर और युवती स्त्रियों से लिपटकर दिन बिताते हैं। अभिमतरतवेषं नन्दन्त्यस्यरुण्यः सवितुरुदयकाले भूषयन्याननानि। 5/15 अपने मनचाहे संभोग के वेश पर खिलखिलाती हुई स्त्रियाँ प्रातः काल अपना मुँह सजा रही हैं। कुर्वन्ति नार्योऽपि वसन्तकाले स्तनं सहारं कुसुमैर्मनोहरैः। 6/3 वसंत ऋतु में स्त्रियाँ भी अपने स्तनों पर मनोहर फूलों की मालाएँ पहनने लगी विविधमधुपयूथैर्वेष्ट्यमानः समन्ताद्भवतु तव वसन्तः श्रेष्ठकालः सुखाय। 6/37 चारों ओर भौंरो से घिरा हुआ वसन्त काल आपको सुखी और प्रसन्न रखे। 2. समय - [ सम + इ + अच्] काल, अवसर, मौका। सुरतसमयवेषं नैशमाशु प्रहाय दधति दिवस योग्य वेषमन्यास्तरुण्यः। 5/14 बहुत सी स्त्रियाँ रात के संभोग के समय वाले वस्त्र उतारकर दिन में पहनने वाले कपड़े पहन रही हैं। प्रियजनरहितानां चित्तसंतापहेतुः शिशिरसमय एष श्रेयसे वोऽस्तु नित्यम्। 5/16 जिस शिशिर ऋतु में प्यारों के बिना अकेले दिन काटने वाले लोग मन मसोस कर रह जाते हैं, वह आप लोगों का भला करे। सद्यो वसन्तसमयेन समाचितेयं रक्तांशुका नववधूरिव भाति भूमिः। 6/21 वसंत के समय पृथ्वी ऐसी लग रही है, मानो लाल साड़ी पहने हुए कोई नई दुलहिन हो। रम्य प्रदोषसमयः स्फुटचन्द्रभासः पुस्कोकिलस्य विरुतं पवनः सुगन्धिः। 6/35 For Private And Personal Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org — ऋतुसंहार लुभावनी साँझें, छिटकी हुई चाँदनी, कोयल की कूक, सुगंधित पवन । कुल 1. कुल [ कुल + क] वंश, परिवार, दल, झुंड, समूह, संग्रह | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तृषाकुलं निःसृतमद्रिगह्वरादवेक्षमाणं महिषीकुलं जलम् । 1 / 21 प्यास के मारे भैंसों का समूह पहाड़ की गुफा से निकल निकल कर जल की ओर चला जा रहा है। 777 - श्वसिति विहगवर्गः शीर्णपर्णदुमस्थः कपिकुलमुपयाति क्लान्तमद्रेर्निकुञ्जम्। 1/23 जिन वृक्षों के पत्ते झड़ गए हैं, उन पर बैठी हुई चिड़ियाँ हाँफ रही हैं। उदास बंदरों के झुंड पहाड़ की गुफाओं में घुसे जा रहे हैं। तृषाकुलैश्चातकपक्षिणां कुलैः प्रयाचितास्तीयभरावलम्बिनः । 2/3 प्यास से व्याकुल चातक पक्षियों के झुंड जिन बादलों से पानी माँग रहे हैं, वे पानी के भार से झुके हुए हैं। For Private And Personal Use Only ससंभ्रमालिङ्गनचुम्बनाकुलं प्रवृत्तनृत्यं कुलमद्य बर्हिणाम्। 2/6 ये मोरों के झुंड अपनी प्यारी मोरनियों को गले लगाते हुए और चूमते हुए आज नाच रहे हैं। ससाध्वसैर्भेककुलैर्निरीक्षितं प्रयाति निम्नाभिमुखं नवोदकम् । 2/13 से बहकर आते हुए मटमैले बरसाती पानी को देखकर मेंढकों के समूह डरे जा रहे हैं । शेफालिका कुसुमगन्धमनोहराणि स्वस्थस्थिताण्डजकुल प्रतिनादितानि । 3 / 14 जिनमें शेफालिका के फूलों की मनभावनी सुगंध फैली हुई है, उनमें निश्चिंत बैठी हुई चिड़ियों के झुंड की चहचहाहट चारों ओर गूँज रही है। हंसैः ससारस कुलैः प्रतिनादितानि सीमान्तराणि जनयन्ति नृणां प्रमोदम् । 3 / 16 जहाँ बहुत से सारसों और हंसों के जोड़े झुंडों में अपनी मीठी बोली बोल रहे हैं, ऐसे स्थान लोगों को बड़े अच्छे लगते हैं। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 778 कालिदास पर्याय कोश आम्री मञ्जुल मञ्जरी वरशरः सत्किंशुकं यद्धनु य॑यस्यालिकुलं कलङ्करहितं छत्रं सितांशुः सितम्। 6/38 जिसके आम के बौर ही बाण हैं, टेशू ही धनुष हैं, भौंरों की पाँत (झुंड) ही डोरी हैं, उजला चंद्रमा ही छत्र है। यूथ - [यु + थक्, पृषो० दीर्घः] भीड़, येली, झुंड। भ्रमति गवययूथः सर्वतस्तोयमिच्छंशरभकुलमजिह्यं प्रोद्धरत्यम्बु कूपात्। 1/23 पशुओं के झुंड चारों ओर पानी की खोज में घूम रहे हैं, और आठ पैरों वाले शरभों का झुंड एक कुएँ से गटागट पानी पी रहा है। कपोलदेशा विमलोत्पलप्रभाः सभृङ्गयूथैर्मदवारिभिश्चिताः। 2/15 जब उनके माथे से बहते हुए मद पर भौरों के झुंड आकर लिपट जाते हैं, उस समय उनके माथे स्वच्छ नीले कमल जैसे दिखाई देने लगते हैं। प्रभूतशालिप्रसवैश्चितानि मृगाङ्गनायूथ विभूषितानि। 4/8 जिन खेतों में भरपूर धान लहलहा रही है, हरिणियों के झुंड चौकड़ियाँ भर रहे मत्तालियूथविरुतं निशि सीधुपानं सर्वं रसायनमिदं कुसुमायुधस्य। 6/35 मतवाले भौंरों के झुंड की गुंजार और रात में आसव पीना ये सब कामदेव को जगाए रखने वाले रसायन ही हैं। विविधमधुप यूथैर्वेष्ट्यमानः समन्ताद्भवतु तव वसन्तः श्रेष्ठकालः सुखाय। 6/37 चारों ओर भौंरो के झुंड से घिरा हुआ वसंत आपको सुखी और प्रसन्न रखे। 3. वर्ग - [ वृज् + घञ्] श्रेणी, प्रभाग, समूह, दल, समाज, जाति, संग्रह। प्रसरति तृणमध्ये लब्धवृद्धिः क्षणेन ग्लपयति मृगवर्गं प्रान्तलग्नो दवाग्निः। 1/25 जंगल से उठती हुई आग सभी पशुओं के समूहों को जलाए डाल रही है और क्षण भर में बढ़कर घास पकड़ लेती है। For Private And Personal Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऋतुसंहार 779 कोकिल 1. कोकिल - [ कुक् + इलच्] कोयल। पुँस्कोकिलश्चूतरसासवेन मत्तः प्रियां चुम्बतिरागहष्टः। 6/16 यह नर कोयल आम की मंजरियों के रस में मदमस्त होकर अपनी प्यारी को बड़े प्रेम से प्रसन्न होकर चूम रहा है। यत्कोकिलः पुनरयं मधुरैर्वचोभियूंना मनः सुवदनानिहितं निहन्ति। 6/22 कोयल भी अपनी मीठी कूक सुना-सुना कर अपनी प्यारियों के मुखड़ों पर रीझे हुए प्रेमियों के हृदय को टूक-टूक कर रही है। पँस्कोकिलैः कलवचोभिरुपात्तहर्षेः कूजद्भिन्मदकलानि वचांसि भृङ्गैः। 6/23 मीठे स्वर में कूकने वाले नर कोयलों ने और मस्ती से गूंजते हुए भौंरों ने। समदमधुकराणां कोकिलानां नादैः कुसुमित सहकारैः कर्णिकारैश्च रम्यः। 6/29 कोयल और मदमाते भौरों के स्वरों से गूंजते हुए बोरै हुए आम के पेड़ों से भरा हुआ और मनोहर कनैर के फूलों वाले। रम्यः प्रदोषसमयः स्फुटचन्द्रभासः पुँस्कोकिलस्य विरुतं पवनः सुगन्धिः। 6/35 लुभावनी साँझें, छिटकी हुई चाँदनी, कोयल की कूक, सुगंधित पवन। मलय पवनविद्धः कोकिलालाप रम्यः सुरभिमधुनिषेकाल्लब्धगन्ध प्रबन्धः। 6/37 मलय के वायु वाला, कोकिल की कूक से जी लुभाने वाला, सदा सुगंधित मधु बरसाने वाला। 2. परभृत - [ पृ० + अप्, कर्तरि अच् वा + त:] कोयल। आकम्प्यन्कुसुमिताः सहकारशाखा विस्तारयन्परभृतस्य वचांसि दिक्षु। 6/24 आजकल मंजरियों से लदी आम की डालों को हिलाने वाला और कोयल के संदेशों को चारों ओर फैलाने वाला पवन। For Private And Personal Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 780 कालिदास पर्याय कोश परभृतकलगीतैीदिभिः सद्वचांसि स्मितदशनमयूखान्कुन्दपुष्प प्रभाभिः। 6/31 इस समय जी हुलसाने वाले कोकिल के गीत सुना-सुनाकर यह वसंत, अपने कुन्द के फूलों की चमक दिखाकर स्त्रियों की मुस्कान पर चमक उठने वाले दाँतों की दमक की हँसी उड़ा रहा है। उत्कूजितैः परभृतस्य मदाकुलस्यश्रोत्रप्रियैर्मधुकरस्य च गीतनादैः। 6/34 मदमस्त होने वाले कोयल की कूक से और भौंरों की मनभावनी गुंजार से। मत्तेभो मलयानिलः परभृतायद्बन्दिनोलोकजित्सोऽयं वो वितरीतरीतु वितनुर्भद्रं वसन्तान्वितः। 6/38 जिसका मलयाचल से आया हुआ पवन ही मतवाला हाथी है, कोयल ही गायक है और शरीर न रहते हुए जिसने संसार को जीत लिया है, वह कामदेव वसंत के साथ आपका कल्याण करे। गज 1. कुञ्जर - [ कुओ हस्तिहनुः सोऽस्यास्ति - कुञ्ज + र] हाथी। ससीकराम्भोधरमत्तकुञ्जरस्तडित्पताकोऽशनि शब्द मर्दलः। 2/1 जल की फुहारों से भरे हुए बादलों के मतवाले हाथी पर चढ़ा हुआ, चमकती बिजलियों के झंडियों को फहराता हुआ, और बादलों की गरज के नगाड़े बजाता हुआ। 2. गज - [ गज + अच्] हाथी। न हन्त्यदूरेऽपि गजान्मृगेश्वरोविलोलजिह्वश्चलिताग्रकेसरः। 1/14 हाथियों के पास होने पर भी यह सिंह उन्हें मार नहीं रहा है, बल्कि अपनी जीभ से अपने ओंठ चाटता जा रहा है और हाँफने से इसके कंधे के बाल हिलते जा रहे हैं। परस्परोत्पीडनं संहतैर्गजैः कृतं सरः सान्द्रविमर्दकर्दमम्। 1/19 हाथियों ने इकट्ठे होकर आपस में लड़-भिड़कर ताल को कीचड़ में बदल डाला है। For Private And Personal Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 781 ऋतुसंहार गजगवयमृगेन्द्रा वह्निसंतप्तदेहा सुहृद इव समेता द्वन्द्वभावं विहाय। 1/27 आग से घबराए हुए और झुलसे हुए हाथी, बैल और सिंह अपने शत्रु के भावों को छोड़कर आज मित्र बन कर एक साथ। नद्यो घना मत्तगजा वनान्ताः प्रिया विहीना: शिखिनः प्लवङ्गा। 2/19 नदियाँ, बादल, मस्त हाथी, जंगल, अपने प्यारों से बिछुड़ी हुई स्त्रियाँ, मोर और बंदर। 3. दन्तिन् - [ दन्त + इनि] हाथी। प्रवृद्धतृष्णोपहता जलार्थिनो न दन्तिन:केसरिणोऽपि विभ्यति। 1/15 जो हाथी धूप और प्यास से बेचैन होकर पानी की खोज में इधर-उधर घूम रहे हैं, वे इस समय सिंह से भी नहीं डर रहे हैं। 4. द्विप - [ द्वि + पः] हाथी। वनद्विपानां नववारिदस्वनैर्मदान्वितानां ध्वनतां मुहुर्मुहुः । 2/15 नये-नये बादलों के गरजने से जब बनैले हाथी मस्त हो जाते हैं और उनके बहते हुए मद पर। 5. मत्तेभ - [ मद् + क्त + इभः] मदवाला हाथी। मत्तेभो मलयानिलः परभृता यद्बन्दिनो लोकजित्सोऽयं वो वितरीतरीतु वितनुर्भद्रं वसन्तान्वितः। 6/38 जिसका मलयाचल से आया हुआ पवन ही मतवाला हाथी है, कोयल ही गायक है, और शरीर न रहते हुए भी जिसने संसार को जीत लिया है, वह कामदेव वसन्त के साथ आपका कल्याण करे। गह्वर 1. गह्वर - [ गह + वरच्] गुफा, कंदरा, जंगल। तृषाकुलं निः सृतमद्रिगह्वरादवेक्षमाणं महिषीकुलं जलम्। 1/21 प्यास के मारे भैंसों का समूह पहाड़ की गुफा से निकल-निकल कर जल की ओर चला जा रहा है। 2. निकुञ्ज-[ नि + कु + जन् + ड, पृषो०] लता मंडप, कुंज, जंगल, पर्णशाला। For Private And Personal Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 782 कालिदास पर्याय कोश श्वसिति विहगवर्गः शीर्णपर्णदुमस्थः कपिकुलमुपयाति क्लान्तमदेनिकुञ्जम्। 1/23 जिन वृक्षों के पत्ते झड़ गए हैं, उन पर बैठी हुई सभी चिड़ियाँ हाँफ रही हैं, उदास बंदरों के झुंड पहाड़ी गुफाओं में घुसे जा रहे हैं। 1. गुरु - [ गृ + कु, उत्वम्] भारी, बोझल, विस्तृत, लंबा। समुद्गत स्वेदशिताङ्गसंधयो विमुच्य वासांसि गुरूणि सांप्रतम्। 1/7 जिनके अंगों के जोड़-जोड़ से पसीना छूटा करता है, वे भी इस समय अपने मोटे वस्त्र उतार कर। गुरूणि वासांस्यबलाः सयौवनाः प्रयान्ति कालेऽत्र जनस्य सेव्यताम्। 5/2 आजकल लोग मोटे-मोटे कपड़े पहनकर और युवती स्त्रियों से लिपटकर दिन बिताते हैं। त्यजति गुरुनितम्बा निम्ननाभिः सुमध्या उषसि शयनमन्या कामिनी चारु शोभा। 5/12 भारी नितम्बों वाली, गहरी नाभि वाली, लचकदार कमरवाली, मनभावनी सुंदरता वाली स्त्री, प्रातः काल पलँग छोड़कर उठ रही है। गुरूणि वासांसि विहाय तूर्णं तनूनि लाक्षारस रञ्जितानि। 6/15 मोटे वस्त्र उतारकर महावर से रंगे हुए महीन कपड़े पहनती हैं। गुरुतर कुच युग्मं श्रोणिबिम्बं तथैव न भवति किमिदानीं योषितां मन्मथाय। 6/33 स्त्रियों के बड़े-बड़े गोल-गोल स्तन, वैसे ही उनके बड़े-बड़े गोल-गोल नितंब क्या लोगों के मन में कामदेव को नहीं जगा रहे हैं। 2. पीन - [ प्याय + क्त, संप्रसारणे दीर्घः] स्थूल, विशाल, मोटा, प्रभूत, अधिक। नितम्बबिम्बेषु नवं दुकूलं तन्वंशुकं पीनपयोधरेषु। 4/3 न अपने गोल-गोल नितंबों पर नये रेशमी वस्त्र ही लपेटती हैं और न अपने मोटे-मोटे स्तनों पर महीन कपड़े ही बाँधती हैं। For Private And Personal Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऋतुसंहार 783 पीन स्तनोरः स्थलभागशोभामासाद्य तत्पीडनजातखेदः। 4/7 मानो युवतियों के मोटे-मोटे स्तनों को उनकी छातियों पर देखकर सुख पाने वाला, उन स्तनों को मले जाते देखकर दुखी हो रहा हो। पीनोन्नतस्तन भरानतगात्र यष्ट्यः कुर्वन्ति केशरचनामपरास्तरुण्यः।4/16 जिन स्त्रियों के शरीर, मोटे और ऊंचे स्तनों के कारण झुक गए हैं, वे अपने बालों को फिर से सँवार रही हैं। मध्येषु निम्नो जघनेषु पीनः स्त्रीणामनङ्गो बहुधा स्थितोऽद्य। 6/12 इन दिनों कामदेव भी स्त्रियों की कमर में गहरापन बनकर और नितंबों में मोटापा बनकर आ बैठता है। 3. पृथु - [ प्रथ + कु, संप्रसारणम्] विस्तृत, बड़ा, चौड़ा। पृथुजघनभरार्ताः किंचिदानम्रमध्या स्तनभरपरिखेदोन्मन्दमन्द वजन्त्यः। 5/14 अपने मोटे नितंबों के बोझ से दुखी, अपने स्तनों के बोझ से झुकी हुई कमर वाली और थकने के कारण बहुत धीरे-धीरे चलने वाली बहुत सी स्त्रियाँ। 4. विपुल - [ विशेषेण पोलति - वि + पुल् + क] विशाल, चौड़ा, विस्तृत, बहुत। हारैः सचन्दनरसैः स्तनमण्डलानि श्रोणीतटं सुविपुलं रसनाकलापैः।3/20 अपने स्तनों पर मोतियों के हार पहनती और चंदन पोतती हैं, अपने भारी-भारी नितंबों पर करधनी बाँधती हैं। गौर 1. अमल - पवित्र, निष्कलंक, विमल, मलरहित। ज्योत्स्नादुकूलममलं रजनी दधाना वृद्धिं प्रयात्यनुदिनं प्रमदेव बाला। 3/7 आजकल की रात चाँदनी की उजली साड़ी पहने हुए अलबेली बाला के समान दिन-दिन बढ़ती चली जा रही है। 2. गौर - [ गु + र, नि०] श्वेत, पीला सा, पीत, सफेद रंग। पयोधराश्चन्दनपङ्कचर्चितास्तुषारगौरार्पितहारशेखराः। 1/6 For Private And Personal Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 784 www. kobatirth.org कालिदास पर्याय कोश हिम के समान उजले और अनूठे हार से सजे हुए चंदन पुते स्तन देखकर । व्योम क्वचिद्रजतशङ्खमृणाल गौरेस्त्यक्ताम्बुभिर्लघुतया शतशः प्रयातैः । 3/4 चाँदी, शंख और कमल के समान उजले सहस्रों बादल पानी बरसाने से हल्के होकर आकाश में इधर-उधर घूम रहे हैं । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मनोहरैश्चन्दनरागगौरेस्तुषारकुन्देन्दुनिभैश्च हारैः 1 4/2 हिम, कोईं, और चंद्रमा के समान उजले और कुंकुम के रँग में रँगे हुए मनोहर हार । तन्वंशुकैः कुङ्कुमरागगौरेरलं क्रियन्ते स्तनमण्डलानि । 6 / 5 स्तनों पर केशर में रँगी हुई उजली महीन कपड़े की चोली पहन ली हैं। प्रियङ्गुकालीयककुङ्कुमाक्तं स्तनेषु गौरेषु विलासिनीभिः । 6/14 रसीली स्त्रियाँ प्रियंगु, कालीयक और केसर के घोल में कस्तूरी मिलाकर अपने गोरे-गोरे स्तनों पर । 3. विमल - [ विगतो मलो यस्मात् प्रा० ब०] पवित्र, निर्मल, मल रहित, स्वच्छ, श्वेत, उज्ज्वल । - कपोलदेशा विमलोत्पलप्रभाः सभृङ्गयूथैर्मदवारिभिश्चिताः । 2/15 जब बहते हुए मद पर भौरें आकर लिपट जाते हैं, उस समय उनके माथे स्वच्छ नीले कमल जैसे दिखाई देने लगते हैं। 4. शुक्ल [ शुच् + लुक्, कुत्वम् ] सफेद, विशुद्ध, उज्ज्वल । विभाति शुक्लेतररत्नभूषिता वराङ्गनेवक्षितिरिन्द्रगोपकैः । 2/5 वीरबहूटियों से छाई हुई धरती उस नायिका जैसी दिखाई दे रही है, जो धौले रत्न को छोड़कर और सभी रंग के रत्नों वाले आभूषणों से सजी हुई हो । सप्तच्छ्दैः कुसुमभारनतैर्वनान्ताः शुक्लीकृतान्युपवनानि च मालतीभिः । 3/2 फूलों के बोझ से झुके हुए छतिवन के वृक्षों ने जंगल को और मालती के फूलों फुलवारियों को उजला बना डाला है। 5. सित [सो (सि) + क्त] सफेद, सफेद रंग । सितेषु हर्म्येषु निशासु योषितां सुखप्रसुप्तानि मुखानि चन्द्रमाः । 1/9 रात के समय उजले भवन में सुख से सोई हुई युवती का मुख निहारने को उतावला रहने वाला चंद्रमा । For Private And Personal Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऋतुसंहार 785 सितोत्पलाभाम्बुद चुम्बितोपलाः समाचिताः प्रस्रवणैः समन्ततः। 2/16 धौले कमल के समान उजले बादल जिन पहाड़ी चट्टानों को चूमते चलते हैं, उन पर बहने वाले सैकड़ों झरनों को देखकर। चञ्चन्मनोज्ञशफरीरसनाकलापाः पर्यन्तसंस्थित सिताण्डजपङ्क्तिहाराः। 3/3 उछलती हुई सुंदर मछलियाँ ही उन (नदियों) की करधनी हैं, तीर पर बैठी हुई उजली चिड़ियों की पातें ही उनकी मालाएँ हैं। स्तनेषु हाराः सितचन्दनाः भुजेषु सङ्ग वलयाङ्गदानि। 6/7 अपने स्तनों पर धौले चंदन से भीगे हुए मोती के हार पहन लिए हैं, हाथों में भुजबंध और कंगन डाल लिए हैं। आम्री मञ्जुलमञ्जरी वरशरः सत्किंशुकं यद्धनुर्ध्या यस्यालिकुलं कलङ्करहित छत्रं सितांशुः सितम्। 6/38 जिसके आम के बौर ही बाण हैं, टेसू ही धनुष हैं, भौंरों की पांत ही डोरी हैं, उजला चंद्रमा ही कलंक रहित छत्र है। चंद्रमा 1. इंदु - [उनत्ति क्लेदयति चन्द्रिकया भुवनम् - उन्द् + उ आदेरिच्च] चंद्रमा। मनोहरैश्चन्दनरागगौरैस्तुषारकुन्देन्दुनिभैश्च हारैः। 4/2 हिम, कोई और चंद्रमा के समान उजले और कुंकुम के रंग में रंगे हुए मनोहर हार। न चन्दनं चन्द्रमरीचिशीतलं न हर्म्यपृष्ठं शरदिन्दुनिर्मलम्। 5/3 न किसी को चंद्रमा की किरणों से ठंडाया हुआ चंदन ही अच्छा लगता है, न शरद् के चंद्रमा के समान निर्मल छतें ही सुहाती हैं। 2. चन्द्र - [ चन्द + णिच् + रक्] चंद्रमा। कमलवनचिताम्बुः पाटलामोदरम्यः सुखसलिलनिषेकः सेव्य चन्द्रांशु हारः। 1/28 जिसमें कमलों से भरे हुए और खिले हुए पाटल की गंध में बसे हुए जल में स्नान करना अच्छा लगता है और चंद्रमा की चाँदनी व मोती के हार सुख देते For Private And Personal Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 786 कालिदास पर्याय कोश पत्युर्वियोगविषदग्धशरक्षतानां चन्द्रो दहत्यतितरां तनुमङ्गनानाम्। 3/9 चंद्रमा उन स्त्रियों के अंग भूने डाल रहा है, जो अपने पतियों के बिछोह के विष-बुझे बाणों से घायल हुई घरों में पड़ी-पड़ी कलप रही हैं। हंसैर्जिता सुललिता गतिरङ्गनानामम्भोरुहैर्विकसितैर्मुखचन्द्रकान्तिः।3/17 हंसों ने सुंदरियों की मनभावनी चाल को, कमलिनियों ने उनके चंद्र मुख की चमक को। श्रियमतिशयरूपां व्योम तोयाशयनां वहति विगतमेघं चन्द्रतारावकीर्णम्। 3/21 खिले हुए चंद्रमा और छिटके हुए तारों से भरा हुआ आकाश उन तालों के समान दिख रहा है। विगतकलुषमम्भः श्यानपङ्का धरित्री विमलकिरणचन्द्रव्योम ताराविचित्रम्। 3/22 पानी का गंदलापन दूर हो गया है, धरती पर का सारा कीचड़ सूख गया है और आकाश में स्वच्छ किरणों वाला चंद्रमा और तारे निकल आए हैं। करकमलमनोज्ञाः कान्तसंसक्तहस्ता वदनविजितचन्द्राः कश्चिदन्यास्तरुण्यः। 3/23 चंद्रमा से भी अधिक सुंदर मुखवाली युवतियाँ अपने सुंदर कमल जैसे हाथ अपने प्रेमी के हाथों में डालकर चली जा रही हैं। कुमुदपि गतेऽस्तं लीयते चन्द्रबिम्बे हसितमिव वधूनां प्रोषितेषु प्रियेषु। 3/25 जैसे प्रिय के परदेश चले जाने पर स्त्रियों की मुस्कुराहट चली जाती है, वैसे ही चंद्रमा के छिप जाने पर कोई सकुचा जाती है। न चन्दनं चन्द्रमरीचिशीतलं न हर्म्यपृष्ठं शरदिन्दुिनिर्मलम्। 5/3 न किसी को चंद्रमा की किरणों से ठंडाया हुआ चंदन ही अच्छा लगता है, न शरद के चंद्रमा के समान निर्मल छतें सुहाती हैं। रम्यः प्रदोषसमयः स्फुटचन्द्रभासः पुँस्कोकिलस्य विरुतं पवनः सुगन्धिः। 6/35 For Private And Personal Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 787 ऋतुसंहार लुभावनी साँझें, छिटकी हुई चंद्रमा की किरणें, कोयल की कूक, सुगंधित पवन। 3. चन्द्रमा - [ चन्द्र + मि + असुन्, मादेशः] चाँद, चंद्रमा। प्रचण्ड सूर्यः स्पृहणीयचन्द्रमाः सदावगाह क्षत वारिसंचयः। 1/1 धूप बड़ी कड़ी हो गई है, और चंद्रमा बड़ा सुहावना लगता है। आजकल दिन-रात गहरे जल में कोई चाहे तो स्नान कर सकता है। सितेषु हर्येषु निशासु योषितां सुखप्रसुप्तानि मुखानि चन्द्रमाः। 119 रात के समय उजले भवन में सुख से सोई हुई युवती का मुख निहारने को उतावला रहने वाला चंद्रमा। शशाङ्क - [ शश् + अच् + अङ्कः] चाँद, चंद्रमा। निशाः शशाङ्कक्षतनीलराजयः क्वचिद्विचित्रं जलयन्त्र मन्दिरम्। 1/2 लोग यह चाहते हैं कि रात में खिले हुए चंद्रमा की चाँदनी छिटकी हुई हो, रंग-बिरंगे फव्वारों के तले हम लोग बैठे हुए हों। तारागणप्रवरभूषणमुद्वहन्ती मेघावरोधपरिमुक्तशशाङ्कवकना। 3/7 बादल हटे हुए चंद्रमा के मुंह वाली आजकल की रात, तारों के सुहावने गहने पहने चली जा रही है। स्त्रीणां विहाय वदनेषु शशाङ्कलक्ष्मी काम्यं च हंसवचनं मणिनूपुरेषु। 3/27 कहीं तो चंद्रमा की चमक को छोड़कर स्त्रियों के मुंह में पहुंच गई, कहीं हंसों की मीठी बोली छोड़कर उनके रतन-जड़े बिछुओं में चली गई है। तुषारसंघातनिपातशीतलाः शशाङ्कमाभिः शिशिरीकृताः पुनः। 5/4 घने पाले से कड़कड़ाते जाड़ों वाली रात, चंद्रमा की किरणों से और भी ठंडी बनी हुई है। वापीजलानां मणिमेखलानां शशाङ्कभासां प्रमदाजनानाम्। 6/4 बावड़ियों के जल, मणियों से जड़ी करधनियाँ, चद्रमा की किरणें (चाँदनी), स्त्रियाँ। 5. शशि - [ शशोऽस्त्यस्य] चंद्रमा, चाँद। अनङ्गसंदीपनमासु कुर्वते यथा प्रदोषाः शशिचारुभूषणा। 1/12 For Private And Personal Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 788 कालिदास पर्याय कोश चमकते हुए चंद्रमा वाली साँझ के समान जो सुंदरियाँ उजले चंद्रहार आदि आभूषणों से सजी हुई हैं, वे झट से कामदेव को जगा देती हैं। 6. सितांशु - [ सो (सि) + क्त + अंशुः] चंद्रमा, चाँद। आम्री मञ्जुलमञ्जरी वरशरः सत्किंशुकं यधनुर्ध्या यस्यालिकुलं कलङ्करहितं छत्रं सितांशुः सितम्। 6/38 जिसके आम के बौर ही बाण हैं, टेसू ही धनुष हैं, भौंरों की पाँत ही डोरी है, उजला चंद्रमा ही निष्कलंक छत्र है। सुधांशु - [ सुष्ठु धीयते, पीयते थे (धा) + क + टाप + अंशुः] चन्द्रमा, चाँद। छायां जनः समभिवाञ्छति पादपानां नक्तं तथेच्छति पुनः किरणं सुधांशोः। 6/11 लोग दिन में तो वृक्षों की शीतल छाया में रहना चाहते हैं और रात में चंद्रमा की किरणों का आनन्द लेना चाहते हैं। चरण 1. चरण - [ चर् + ल्युट्] पैर, सहारा, स्तंभ। नितान्तलाक्षारसरागरञ्जितैर्नितम्बिनीनां चरणैः सनूपुरैः। 1/5 स्त्रियों के उन महावर से रंगे पैरों को देखकर जी मचल उठता है, जिनमें बिछुए बजा करते हैं। पाद - [ पद् + घञ्] पैर, चरण। पादाम्बुजानिकलनूपुरशेखरैश्च नार्यः प्रहृष्टमनसोऽद्य विभूषयन्ति। 3/20 आजकल स्त्रियाँ बड़ी उमंग से अपने कमल जैसे कोमल सुंदर पैरों में छम-छम बजने वाले बिछुए पहनती हैं। न नूपुरैर्हसरुतं भजद्भिः पादाम्बुजान्यम्बुजकान्तिभाञ्जि। 4/4 न अपने कमल जैसे सुन्दर पैरों में हंस के समान ध्वनि करने वाले बिछुए ही डालती हैं। चाप 1. चाप - [ चप् + अण्] धनुष, इंद्रधनुष । For Private And Personal Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ऋतुसंहार www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बलाहकाश्चाशनिशब्दमर्दला : सुरेन्द्रचापं दधतंस्तडिद्गुणम् । 2/4 मृदंग के समान गड़गड़ाते हुए, बिजली की डोरी वाला इंद्र धनुष चढ़ाए हुए ये बादल । 789 अपहृतमिव चेतस्तोयदैः सेन्द्रचापैः पथिकजनवधूनां तद्द्द्वियोगाकुलानाम्। 2/23 हैं। बादलों में इंद्रधनुष निकल आया है, उन्होंने परदेश में गए हुए लोगों की उन स्त्रियों की सब सुध-बुध हर ली है, जो उनके बिछोह में व्याकुल 2. धनु [ धन् + उ ] धनुष । तडिल्लताशक्रधनुर्विभूषिताः पयोधरास्तोयभरावलम्बिनः । 2/20 - इंद्रधनुष और बिजली के चमकते हुए पतले धागों से सजी हुई और पानी के भार से झुकी हुई काली-काली घटाएँ । प्रफुल्लचूताङ्कुरतीक्ष्णसायको द्विरेफमालाविलसद्धनुर्गुणः । 6/1 फूले हुए आम की मंजरियों के पैने बाण लेकर और अपने धनुष पर भौंरों की पाँतों की डोरी चढ़ाकर । आम्री मञ्जुल मञ्जरी वरशरः सत्किंशुकं यद्धनुर्ज्या यस्यालिकुलं कलङ्करहितं छत्रं सितांशुः सितम् । 6 / 38 जिसके आम के बौर ही बाण हैं, टेसू ही धनुष हैं, और भौंरो की पाँतें ही डोरी हैं, उजला चंद्रमा ही निष्कलंक छत्र हैं। चित्त 1. चित्त [चित् + क्त] मन, हृदय, तर्क, बुद्धि । पदे पदे हंसरुतानुकारिभिर्जनस्य चित्तं क्रियते समन्मथम् । 1/5 कदम-कदम उठाने पर जो हंसों के समान रुनझुन करते बजा करते हैं, उन्हें देखकर लोगों का जी मचल उठता है । For Private And Personal Use Only सुतीक्ष्णधारापतनोग्रसायकैस्स्तुदन्ति चेतः प्रसभं प्रवासिनाम्। 2/4 अपनी तीखी धारों के पैने बाण बरसाकर परदेश में पहुँचे हुए लोगों का मन कसमसा रहे हैं। Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 790 www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कालिदास पर्याय कोश समाचिता सैकतिनी वनस्थली समुत्सुकत्वं प्रकरोति चेतसः । 2/9 रेतीला जंगल हृदय को बरबस खींचे लिए जा रहा है। पयोधरैर्भीमगभीरनिस्वनैस्तडिद्भिरुद्धेजितचेतसो भृशम्। 2/11 बादलों की घोर कड़क सुनकर और बिजली की तड़पन से हृदय काँप उठने से I स्त्रियश्च काञ्चीमणिकुण्डलोज्ज्वला हरन्ति चेतो युगपत्प्रवासिनाम्। 2/20 और दूसरी ओर करधनी तथा रत्न जड़े कुंडलों से सजी हुई स्त्रियाँ, ये दोनों ही परदेश में बैठे हुए लोगों का मन हर लेते हैं। बहुगुणरमणीयः कामिनीचित्तहारी तरुविटपलतानां बान्धवो निर्विकारः । 2/29 बहुत से सुंदर गुणों से सुहावनी लगने वाली, स्त्रियों का जी खिलाने वाली पेड़ों की टहनियों और बेलों की सच्ची सखी । मत्तद्विरेफपरिपीतमधुप्रसेकश्चित्तं विदारयति कस्य न कोविदारः । 3/6 जिसमें से बहते हुए मधु की धार को मस्त भरे धीरे-धीरे चूम रहे हैं, ऐसा कोविदार वृक्ष किसका हृदय टुकड़े-टुकड़े नहीं कर देता । अधररुचिरशोभां बन्धुजीवे प्रियाणां पथिकजन इदानीं रोदति भ्रान्तचित्तः । 3 /26 जब परदेश में गए हुए लोग बंधुजीव के फूलों में अपनी प्रियतमा के निचले ओठों की चमकती हुई सुंदरता की चमक पाते हैं, तब वे भ्रांतचित्त होकर (सुध-बुध भूलकर) रोने लगते हैं। कुमुदरुचिरकान्तिः कामिनीवोन्मदेयं प्रतिदिशतु शरद्वश्चेतसः प्रीतिमग्रयाम् । 3 / 28 सुंदर कोंई के शरीरवाली जो कामिनी के समान मस्त शरद् ऋतु आई है, वह आप लोगों के मन में नई-नई उमंगें भरे । मनोहर क्रौञ्चनिनादितानि सीमान्तराण्युत्सुकयन्ति चेतः । 4 / 8 जिन में सारस बोल रहे हैं, उन्हें देखकर मन हाथ से निकल जाता है । प्रसन्नतोयानि सुशीतलानि सरांसि चेतांसि हरन्ति पुंसाम् । 4 / 9 जिन तालों में ठंडा निर्मल जल भरा है, उन्हें देखकर लोगों का जी (मन) खिल उठता है । For Private And Personal Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 791 ऋतुसंहार बहुगुणरमणीयो योषितां चित्तहारी परिणतबहुशालिव्याकुल ग्रामसीमा। 4/19 जो अपने अनेक गुणों से मन को मुग्ध करने वाली, स्त्रियों के चित्त को लुभाने वाली है, जिसमें गाँव के आस-पास पके हुए धान के खेत लहलहाते हैं। न वायवः सान्द्रतुषारशीतला जनस्य चित्तं रमयन्ति सांप्रतम्। 5/3 इन दिनों घनी ओस से ठंडा बना हुआ वायु ही लोगों के मन को भाता है। कृतापराधान्बहुशोऽभितर्जितान्सवेपथून्साध्वसलुप्तचेतसः। 5/6 मदमाती स्त्रियों ने अपने जिन पतियों को अपराध करने पर डाँट-फटकारा था, वे जब कांपते हुए और घबराए मन से आते हैं। प्रियजनरहितानां चित्तसंताप हेतुः शिशिरसमय एष श्रेयसे वोऽस्तु नित्यम्। 5/16 जिस में प्यारों के बिना अकेले दिन काटने वाले लोग मन मसोसकर रह जाते हैं, वह शिशिर ऋतु आप लोगों का भला करे। दृष्ट्वा प्रिये सहृदयस्य भवेन्न कस्य कंदर्पबाणपतनव्यथितं हिचेतः। 6/20 (अनोखी शोभा) देखकर किस रसिक का मन कामदेव के बाण से घायल नहीं हो जाता। चित्तं मुनेरपि हरन्ति निवृत्तरागं प्रागेव रागमलिनानि मनांसि यूनाम्। 6/25 जब मोह-माया से दूर रहने वाले मुनियों तक का मन हर लेते हैं, फिर नवयुवकों के प्रेमी हृदय की तो बात ही क्या? कान्तावियोगपरिखेदितचित्तवृत्तिदृष्ट्वाऽध्वगः कुसुमितान्सहकारवृक्षान्। 6/28 अपनी स्त्रियों से दूर रहने के कारण जिसका जी (मन) बेचैन हो रहा है, वे यात्री जब मंजरियों से लदे हुए आम के पेड़ों को देखते हैं। 2. मन - [मन्यतेऽनेन मन् करणे असुन्] मन, हृदय, समझ, प्रज्ञा। नितम्बदेशाश्च सहेममेखलाः प्रकुर्वते कस्य मनो न सोत्सुकम्। 1/6 सुनहरी करधनी से बँधे हुए नितंब देखकर भला किसका मन नहीं ललच उठेगा। For Private And Personal Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 792 कालिदास पर्याय कोश सविभ्रमैः सस्मितजिह्मवीक्षितैर्विलासवत्यो मनसि प्रवासिनाम्। 1/12 वे स्त्रियाँ बड़ी चटक-मटक और मुस्कुराहट के साथ अपनी चितवन चलाकर परदेसियों के मन में। जनितरुचिरगन्धः केतकीनां रजोभिः परिहरति नभस्वान्प्रोषितानां मनांसि। 2/27 पवन, केतकी के फूलों का पराग लेकर चारों ओर मनभावनी सुगंध फैला रहा है और परदेस गए प्रेमियों के मन चुरा रहा है। वप्राश्च पक्वकलमावृतभूमिभागाः प्रोत्कण्ठयन्ति न मनो भुवि कस्य यूनः। 3/5 पके हुए धान से लदे हुए सुंदर खेत, इस संसार में किस युवक का मन डाँवाडोल नहीं कर देते। पर्यन्तसंस्थितमृगीनयनोत्पलानि प्रोत्कण्ठयन्त्युपवनानि मनांसि पुंसाम्। 3/14 जिनमें कमल जैसी आँखों वाली हरिणियाँ जहाँ-तहाँ बैठी पगुरा रही हैं, उन्हें देखकर लोगों के मन हाथ से निकल जाते हैं। मनांसि भेत्तुं सुरतप्रसङ्गिनां वसन्तयोद्धा समुपागतः प्रिये। 6/1 प्यारी! वीर वसंत संभोग करने वाले रसिकों का मन बेधने आ पहुंचा है। कुर्वन्ति कामिमनसां सहसोत्सुकत्वं बालातिमुक्तलतिकाः समवेक्ष्यमाणाः। 6/19 छोटी-छोटी अतिमुक्त लताओं के फूलों को देख-देखकर कामियों का मन अचानक डाँवाडोल हो उठता है। यत्कोकिलः पुनरयं मधुरैर्वचोभियूंना मनः सुवदनानिहितं निहन्ति। 6/22 अपनी प्यारियों के मुखड़ों पर रीझे हुए प्रेमियों के हृदय को कोयल भी अपनी मीठी कूक सुनाकर टूक-टूक कर रही है। चित्तं मुनेरपि हरन्ति निवृत्तरागं प्रागेव रागमलिनानि मनांसि यूनाम्। 6/25 जब मोह-माया से दूर रहने वाले मुनियों तक का मन हर लेते हैं, फिर नवयुवकों के प्रेमी हृदय की तो बात ही क्या। For Private And Personal Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 793 ऋतुसंहार 3. मानस - [मन एव, मानस इदं वा अण] मन, हृदय। न शक्यते द्रष्टुमपि प्रवासिभिः प्रियावियोगानलदग्धमानसैः। 1/10 - परदेस में गए जिन प्रेमियों का हृदय अपनी प्रेमिकाओं के बिछोह से झुलस गया है, उनसे यह देखा नहीं जाता। वनानि वैन्ध्यानि हरन्ति मानसं विभूषितान्युद्गतपल्लवैर्दुमैः। 2/8 नई कोपलों वाले वृक्षों से छाए हुए विंध्याचल के जंगल किसका मन नहीं लुभा लेते। प्रयान्त्यनङ्गातुरमानसानां नितम्बिनीनां जघनेषु काञ्चयः। 6/7 अपने प्रेमी के संभोग करने को उतावली मन वाली नारियों ने अपने नितंबों पर करधनी बाँध ली है। कुर्वन्ति कामं पवनावधूतः पर्युत्सुकं मानसमङ्गनानाम्। 6/17 जब पवन के झोंके में हिलने लगते हैं, तो उन्हें देख-देखकर स्त्रियों, के मन उछलने लगते हैं। इषुभिरिव सुतीक्ष्णैर्मानसं मानिनीनां तुदति कुसुममासो मन्मथोद्दीपनाय। 6/29 अपने पैने बाणों से यह वसंत मानिनी स्त्रियों के मन इसलिए बींध रहा है, कि उनमें प्रेम जग जाय। 4. हृदय - [ह + कयन्, दुक् आगमः] दिल, आत्मा, मन। नेत्रोत्सवो हृदयहारिमरीचिमालाः प्रह्लादकः शिशिरसीकरवारिवर्षी। 3/9 सबकी आँखों को भला लगने वाले जिस चंद्रमा की किरणें मन को बरबस अपनी ओर खींच लेती हैं, वही सुहावना और ठंडी फुहार बरसाने वाला चंद्रमा। मन्दप्रभातपवनोद्गतवीचिमालान्युत्कण्ठयन्ति सहसा हृदयं सरांसि।3/11 जिनमें प्रातः काल के धीमे-धीमे पवन से लहरें उठ रही हैं, वे ताल, अचानक हृदय को मस्त बनाए डाल रहे हैं। कुर्वन्त्यशोका हृदय सशोकं निरीक्ष्यमाणा नवयौवनानाम्। 6/18 उन अशोक के वृक्षों को देखते ही नवयुवतियों के हृदय में शोक होने लगता है। लज्जान्वितं सविनयं हृदयं क्षणेन पर्याकुलं कुलगृहेऽपि कृतं वधूनाम्। 6/23 For Private And Personal Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 794 1. www. kobatirth.org कालिदास पर्याय कोश सती स्त्रियों के लाज और मर्यादा भरे हृदय को भी थोड़ी देर के लिए अधीर कर दिया है। वायुर्विवाति हृदयानि हरन्नराणां नीहारपातविगमात्सुभगोवसन्ते । 6/24 वसंत में पाला तो पड़ता नहीं इसलिए सुंदर वसंती पवन लोगों का मन हरता हुआ बह रहा है। मध मधुर कोकिल भृङ्ग नादैर्नार्यो हरन्ति हृदयं प्रसभं नराणाम् । 6/26 चैत में जब कोयल कूकने लगती है, भौरे गूँजने लगते हैं, तब स्त्रियाँ बलपूर्वक लोगों का मन अपनी ओर खींच लेती हैं। आकम्पितानि हृदयानि मनस्विनीनां आम्र Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वातैः प्रफुल्लसहकारकृताधिवासैः । 6/34 बौरे हुए आम के पेड़ों में बसे हुए पवन से मनस्विनी स्त्रियों के मन भी डिग जाते हैं। - चूत [ अम् + रन्, दीर्घः] आम का वृक्ष, आम का फल । आम्रीमञ्जुलमञ्जरी वरशरः सत्किंशुकं यद्धनु यस्यालिकुलं कलङ्करहितं सितांशुः सितम् । 6 / 38 जिसके आमके बौर की बाण हैं, टेसू ही धनुष हैं, भौंरों की पाँतें ही डोरी हैं, उजला चंद्रमा ही निष्कलंक छत्र है । 2. चूत [ चूष् + क्त पृषो०] आम का पेड़ । प्रफुल्लचूताङ्कुरतीक्ष्णसायको द्विरेफमालाविलसद्धनुर्गुणः । 6 / 1 फूले हुए आम की मंजरियों के पैने बाण लेकर और अपने धनुष पर भौंरों की पाँतों की डोरी चढ़ाकर । चूतदुमाणां कुसुमान्वितानां ददाति सौभाग्यमयं वसन्तः । 6/4 वसंत के आने से मंजरी से लदी आम की डालें और भी सुहावनी लगने लगी हैं। पुंस्कोकिलश्चूतरसासवेन मत्तः प्रियां चुम्बति रागहृष्टः । 6/16 यह नर कोयल आम की मंजरियों के रस में मद-मस्त होकर अपनी प्यारी को बड़े प्रेम से प्रसन्न होकर चूम रहा है। For Private And Personal Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ऋतुसंहार www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ताम्रप्रवालस्तबकावनम्राश्चूतदुमाः पुष्पितचारुशाखाः । 6/17 लाल-लाल कोपलों के गुच्छों से झुके हुए और सुंदर मंजरियों से लदी हुई शाखाओं वाले आम के पेड़ । रुचिरकनककातीन्मुञ्चतः पुष्पराशीन् 3. सहकार- [ सह + कारः] आम का पेड़ । आकम्पयन्कुसुमितः सहकारशाखा 795 मृदुपवनविधूतान्पुष्पिताँश्चूतवृक्षान् । 6/30 पवन के झोंके से हिलते हुए और सुंदर सुनहले बौर गिराने वाले, बौरे हुए आम के वृक्षों को सामने देखता है। चूतामोदसुगन्धिमन्दपवनः शृङ्गारदीक्षागुरुः कल्पान्तं मदनप्रियो दिशतु वः पुष्पागमां मङ्गलम् । 6 / 36 आम के बौरों की सुगंध में बसे हुए मंद-मंद पवन से यह शृंगार की शिक्षा देने वाला और काम का मित्र वसंत आप लोगों को सदा प्रसन्न रखे। विस्तारयन्परभृतस्यवचांसि दिक्षु । 6/24 आजकल मंजरियों से लदी आम की डालों को हिलाने वाला और कोयल के संदेशों को चारों ओर फैलाने वाला । कान्तावियोगपरिखेदितचित्तवृत्ति र्दृष्ट्वाऽध्वगःकुसुमितान्सहकारवृक्षान्। 6/28 अपनी स्त्रियों से दूर रहने के कारण जिसका जी बेचैन हो रहा है, वे यात्री जब मंजरियों से लदे हुए आम के पेड़ देखते हैं । समदमधुकराणां कोकिलानां च नादैः कुसुमितसहकारैः कर्णिकारैश्च रम्यः । 6/29 कोयल और मदमाते भौंरों के स्वरों से गूँजते हुए बौरे हुए आम के वृक्षों से भरा हुआ और मनोहर कौर के फूलों वाले । आकम्पितानि हृदयानि मनस्विनीनां For Private And Personal Use Only वातैः प्रफुल्लसहकारकृताधिवासैः । 6/34 बरे हुए आम के पेड़ों में बसे हुए पवन से मनस्विनी स्त्रियों के मन भी डिग जाते हैं। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 796 - www. kobatirth.org - तंत्री 1. तंत्री [तन्त्रि + ङीष् ] वीणा, वीणा का तार । सुतन्त्रि गीतं मदनस्य दीपनं शुचौ निशीथेऽनुभवन्ति कामिनः । 1/3 प्रेमियों को भी मन बहलाने के लिए, ऐसी-ऐसी काम को उभारने वाली वस्तुएँ चाहिए जैसे रात्रि में सुंदर वीणा के साथ गाए हुए गीत । 2. वल्लकी [ वल्ल् + क्वुन् + ङीष् ] वीणा । स वल्लकी काकलिगीतनिस्वनैर्विबोध्यते सुप्त इवाद्य मन्मथः । 1/8 आजकल लोग कामदेव को उसी प्रकार जगाया करते हैं, जैसे कोई स्त्री अपने प्रेमी को वीणा के साथ अपने मीठे गले से गीत गा-गाकर जगाया करती है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कालिदास पर्याय कोश तडित 1. तडित - [ ताडयति अभ्रम् - तड् + इति] बिजली । ससीकराम्भोधरमत्तकुञ्जरस्तडित्पताको शनि शब्दमर्दलः । 2/1 जल की फुहारों से भरे हुए बादलों के मतवाले हाथी पर चढ़ा हुआ चमकती बिजलियों की झंडियों को फहराता हुआ और बादलों की गरज के नगाड़े बजाता हुआ । बलाहकाश्चाशनिशब्दमर्दला : सुरेन्द्रचापं दधतंस्तडिद्गुणम् । 2/4 मृदंग के समान गड़गड़ाते हुए, बिजली की डोरी वाले इंद्रधनुष चढ़ाए हुए ये बादल । तडित्प्रभादर्शितामार्ग भूमयः प्रयान्ति रागादभिसारिकाः स्त्रियः । 2/10 लुक-छिपकर अपने प्यारे के पास जाने वाली कामिनियाँ बिजली की चमक से आगे का मार्ग देखती चलती हैं। For Private And Personal Use Only पयोधरैर्भीमगभीरनिस्वनैस्तडिद्भिरुद्वेजितचेतसो भृशम् | 2/11 बादलों की घोर कड़क सुनकर और बिजली की तड़पन से चौंकी हुई स्त्रियाँ । तडिल्लताशक्रधनुर्विभूषिताः पयोधरास्तोयभरावलम्बिनः । 2/20 इंद्रधनुष और बिजली के चमकते हुए पतले धागों से सजी हुई और पानी के भार से झुकी हुई काली-काली घटाएँ । Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऋतुसंहार 797 2. सौदामिनी - [सुदामन् + अण् + ङीप्, पक्षे पृषो० साधुः] बिजली। नष्टं धनुर्बलभिदो सौदामिनी स्फुरति नाद्य वियत्पताका। 3/12 आजकल न तो बादलों में इंद्रधनुष रह गए हैं, न ही बिजली विजय पताका फहरा रही है। तनु 1. क्षाम - [१ + क्त] क्षीण, पतला, कृश, दुबला-पतला। अभिमुखमभिवीक्ष्यक्षामदेहोऽपि मार्गे मदनशरनिघातैर्मोहमेति प्रवासी। 6/30 परदेस में पड़ा हुआ यात्री एक तो यूँ ही बिछोह से दुबला-पतला रहता है, जब ये देखता है तो वह कामदेव के बाणों की चोट खाकर मूर्च्छित होकर गिर पड़ता 2. तनु - [ तन् + उ] पतला, दुबला, कृश, छोय, थोड़ा। स्तनेषु तन्वंशुकमुन्नतस्तना निवेशयन्तिप्रमदाः सयौवनाः। 1/7 ऊँचे-ऊँचे स्तनों वाली युवतियाँ स्तनों पर पतले-पतले कपड़े लपेटने लगी नितम्बबिम्बेषु नवं दुकूलं तन्वंशुकं पीनपयोधरेषु। 4/3 न अपने गोल-गोल नितंबों पर नये रेशमी वस्त्र ही लपेटती हैं, और न अपने मोटे-मोटे स्तनों पर महीन कपड़े ही बाँधती हैं। तन्वंशुकैः कुङ्कमरागगौरैरलं क्रियन्ते स्तनमण्डलानि। 6/5 स्तनों पर केशर में रँगी हुई महीन कपड़े की चोली पहन ली हैं। तनूनि पाण्डूनि मदालसानि मुहुर्मुहुर्जम्भणतत्पराणि। 6/10 उनके अंग दुबले और पीले पड़ जाते हैं, वे मद से अलसाई-सी हो जाती हैं और बार-बार जभाइयाँ लेती हैं। गुरूणि वासांसि विहाय तूर्णं तनूनि लाक्षारसरञ्जितानि। 6/15 मोटे वस्त्र उतारकर महावर से रँगे हुए महीन कपड़े पहनती हैं। तालु 1. जिह्व - [ ह्वे + ड द्वित्वादि] जीभ । For Private And Personal Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 798 कालिदास पर्याय कोश न हन्त्यदूरेऽपि गजान्मृगेश्वरो विलोलजिह्वश्चलितागकेसरः। 1/14 हाथियों के पास होने पर भी सिंह उन्हें मार नहीं रहा है, अपनी जीभ से अपने ओठ चाटता जा रहा है और हाँफने से इसके कंधे के बाल हिल रहे हैं। संफेनलालावृतवक्त्रसंपुटं विनिःसृतालोहित जिह्वमुन्मुखम्। 1/21 जगाली करने से जिनके मुंह से झाग निकल रही है और लार बह रही है, वे अपना मुँह खोलकर अपनी लाल-लाल जीभें बाहर निकाले हुए। जिह्वा - [ लिहन्ति अनया - लिह् + वन् नि०] जीभ । रविप्रभोद्भिन्नशिरोमणिप्रभो विलोलजिह्वाद्वयलीढमारुतः। 1/20 जिस प्यासे साँप की मणि सूर्य की चमक से और भी चमक उठी है, वह अपनी लपलपाती हुई दोनों जीभों से पवन पीता जा रहा है। 3. तालु - [तरन्त्यनेन वर्णाः - तृ + उण, रस्य लः] तालु, जीभ। मृगाः प्रचण्डातपतापिता भृशं तृषा महत्या परिशुष्कतालवः। 1/11 जलते हुए सूर्य की किरणों में झुलसे हुए जिन जंगली पशुओं की जीभ प्यास से बहुत सूख गई है। तुषार 1. तुषार - [तुष् + आरक्] ठंडा, शीतल, ओस से युक्त। पयोधराश्चन्दनपङ्क चर्चितास्तुषार गौरार्पितहारशेखराः। 1/6 स्त्रियों के हिम के समान उजले और अनूठे हार से सजे हुए चंदन पुते स्तन देखकर। विलीनपद्मः प्रपत्स्तुषारो हेमन्तकालः समुपागतऽयम्।4/1 यह पाला गिराती हुई हेमंत ऋतु आ गई है, जिसमें कमल दिखाई नहीं देते। मनोहरैश्चन्दनरागगौरैस्तुषारकुन्देन्दुनिभैश्च हारैः। 4/2 हिम कोई और चंद्रमा के समान उजले और कुंकुम के रंग में रंगे हुए मनोहर हार नहीं पहनती हैं। विनिपतिततुषारः क्रौञ्चनादोपगीत: प्रदिशतु हिमयुक्तस्त्वेष कालः सुखं वः। 4/19 For Private And Personal Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 799 ऋतुसंहार यह हेमंत ऋतु आपको सुख दे, जिसमें पाला गिरता है और सारस बोलते हैं। न वायवः सान्द्रतुषारशीतला जनस्य चित्तं रमयन्ति सांप्रतम्। 5/3 न घनी ओस से ठंडा बना वायु ही लोगों के मन को इन दिनों (अच्छा लगता है) भाता है। तुषारसंघातनिपातशीतलाः शशाङ्कमाभिः शिशिरीकृताः पुनः। 5/4 घने पाले से कड़कड़ाते जाड़ों वाली, चंद्रमा की किरणों से और भी ठंडी बनी हुई रातों में। ईषत्तुषारैः कृतशीतहर्म्यः सुवासितं चारु शिरश्च चम्पकैः। 6/3 घरों की छतों पर ठंडी ओस छा गई है, चंपे के फूलों से सबके जूड़े महकने लगे 2. नीहार - [ नि + हृ + घञ्, पूर्वदीर्घः] कुहरा, पाला, भारी ओस। वायुर्विवाति हृदयानि हरन्नराणां नीहारपातविगमात्सुभगो वसन्ते। 6/24 वसंत में पाला तो पड़ता नहीं, इसलिए सुंदर वसंती पवन लोगों का मन हरता हुआ बह रहा है। 3. हिम - [ हि + मक्] ठंडा, शीतल, सर्द, ओसीला। पाकं व्रजन्ती हिमजातशीतैराधूयमाना सततं मरुद्भिः । 4/11 पाले से भरी हुई ठंडी वायु से हिलती हुई यह लता। निवेशितान्तः कुसुमैः शिरोरुहैर्विभूषयन्तीव हिमागमं स्त्रियः। 5/8 बालों में फूल गुंथे हुए स्त्रियाँ ऐसी लग रही हैं मानो जाड़े के स्वागत का उत्सव मनाने के लिए सिंगार कर रही हों। तृषा 1. तृषा - [ तृष् + क्विप्] प्यास, लालसा, उत्सुकता। मृगाः प्रचण्डातपतापिता भृशं तृषा महत्या परिशुष्कतालवः। 1/11 जलते हुए सूर्य की किरणों से झुलसे हुए जिन जंगली पशुओं की जीभ प्यास से बहुत सूख गई है। तृषा महत्या हतविक्रमोद्यमः श्वसन्मुहुर्दूरविदारिताननः। 1/14 For Private And Personal Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 800 www. kobatirth.org 1. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कालिदास पर्याय कोश बहुत प्यास के मारे इसका सब साहस ठंडा पड़ गया है, अपना पूरा मुँह खोलकर यह बार-बार हाँफ रहा है। विषाग्निसूर्यातपतापितः फणी न हन्ति मण्डूककुलं तृषाकुलः। 1/20 धूप की लपटों और अपने विष की झार से जलने के कारण प्यासा साँप मेढकों को नहीं मार रहा है। तृषाकुलं निः सृतमद्रिगह्वरादवेक्षमाणं महिषीकुलं जलम् । 1/21 प्यास के मारे ऊपर मुँह उठाए हुए भैंसों का समूह पहाड़ की गुफा से निकल-निकल कर जल की ओर चला जा रहा है। 2. तृष्णा - [ तृष + न + टाप् किच्च ] प्यास, इच्छा, लालसा, लालच । प्रवृद्धतृष्णोपहता जलार्थिनो न दन्तिनः केसरिणोऽपि बिभ्यति। 1/15 धूप और प्यास से बेचैन होकर, पानी की खोज में इधर-उधर घूम रहे हाथी सिंह से भी नहीं डर रहे हैं । दग्ध दग्ध - [ दह् + क्त्] जला हुआ, आग में भस्म हुआ । न शक्यते द्रष्टुमपि प्रवासिभिः प्रियावियोगानलदग्धमानसैः । 1/10 परदेस में गये हुए जिन प्रेमियों का हृदय अपनी प्रेमिकाओं के बिछोह की जलन से झुलस गया है, उनसे यह देखा नहीं जाता। तटविटपलताग्रालिङ्गनव्याकुलेन दिशि दिशि परिदग्धा भूमयः पावकेन । 1/24 तीर पर खड़े हुए वृक्षों और लताओं की फुनगियों को चूमती जाने वाली आग से जहाँ-तहाँ धरती जल गई है। 2. दध् - पकड़ना, धारण करना, जलाना । दिनकर परितापक्षीणतोयाः समन्ताद् विदधति भयमुच्चैर्वीक्ष्यमाणा वनान्ताः । 1/22 आजकल वन तो और भी डरावने लगने लगे हैं क्योंकि सूर्य की गर्मी से चारों ओर का जल सूख गया है और टहनियाँ झुलस गई हैं। For Private And Personal Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ऋतुसंहार 1. www. kobatirth.org दिनान्त 1. दिनान्त - [ द्युति तमः, दो (दी) + नक्, ह्रस्वः + अन्तः] सायंकाल, सूर्यास्त का समय । 2. प्रा० ब०] संध्याकाल, रात्रि का आरंभ। 2. प्रदोष [ प्रकृष्टः दोषो यस्य अनङ्गसंदीपनमाशु कुर्वते यथा प्रदोषाः शशि चारुभूषणाः । 1/12 चमकते हुए चंद्रमा वाली साँझ के समान जो सुंदरियाँ चंद्रमा के समान उजले आभूषणों से सजी हैं, वे कामदेव, को जगा देती हैं। श्रुत्वा ध्वनिं जलमुचां त्वरितं प्रदोषे शय्यागृहं गुरुगृहात्प्रविशन्ति नार्यः । 2 / 22 स्त्रियाँ बादलों की गड़गड़ाहट सुनकर झट अपने घर के बड़े-बूढ़ों के पास से उठकर सही साँझ को ही अपने शयन घर में घुस जाती हैं। दिनान्तरम्योऽभ्युपशान्तमन्मथो निदाघकालोऽयमुपागतः प्रिये । 1/1 प्रिये! गरमी के दिन आ गए हैं। इन दिनों साँझ बड़ी लुभावनी होती है और कामदेव तो एक दम ठंडा पड़ गया है। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - 801 - सुखाः प्रदोषा दिवसाश्च रम्याः सर्वं प्रिये चारुतरं वसन्ते | 6/2 वसंत के आते ही साँझें सुहावनी हो चली हैं और दिन लुभावने हो गए हैं। सुंदर वसंत में सबकुछ सुहावना लगने लगता है। रम्यः प्रदोषसमयः स्फुटचन्द्रभासः नभ [ नभ + अच्] आकाश, पुंस्कोकिलस्यविरुतं पवनः सुगन्धिः 16/35 लुभावनी साँझें, छिटकी चाँदनी, कोयल की कूक और सुगंधित पवन । नभ गगन [ गच्छन्त्यस्मिन् - गम् + ल्युट् ग आदेशः ] आकाश, अंतरिक्ष । धुन्वन्ति पक्षपवनैर्न नभो बलाकाः पश्यन्ति नोन्नतमुखा गगनं मयूराः । 3/12 न बगुले ही अपने पंख हिला-हिलाकर आकाश को पंखा कर रहे हैं और न मोरों के झुंड ही मुँह उठाकर आकाश की ओर देख रहे हैं। अंतरिक्ष । For Private And Personal Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 802 कालिदास पर्याय कोश वनान्तरे तोयमिति प्रधाविता निरीक्ष्य भिन्नाञ्जनसंनिभं नभः। 1/11 वे धोखे में उन जंगलों की ओर दौड़े जा रहे हैं, जहाँ के आँजन के समान दिखने वाले आकाश को ही वे पानी समझ बैठे हैं। भिन्नाञ्जनप्रचयकान्ति नभो मनोजें बन्धूकपुष्परजसाऽरुणिता च भूमिः। 3/5 घुटे हुए आंजन की पिंडी जैसा नीला सुंदर आकाश, दुपहरिया के फूलों से लाल बनी हुई धरती और। धुन्वन्ति पक्षपवनैर्न नभो बलाकाः पश्यन्ति नोन्नतमुखा गगनं मयूराः। 3/12 न बगले ही अपने पंख हिला-हिलाकर आकाश को पंखा कर रहे हैं और न मोरों के झुंड ही मुँह उठाकर आकाश की ओर देख रहे हैं। 3. व्योम - [ व्ये + मनिन्, पृषो०] आकाश, अंतरिक्ष। क्वचित्सगर्भप्रमदास्तनप्रभैः समाचितं व्योम घनैः समन्ततः। 2/2 कहीं गर्भिणी स्त्री के समान पीले बादल आकाश में इधर-उधर छाए हुए हैं। व्योम क्वचिद्रजतशङ्खमृणालगौरैस्त्यक्ताम्बुभिर्लधुतया शतशः प्रयातैः। 3/4 चाँदी, शंख और कमल के समान उजले सहस्रों बादल पानी बरसने से हल्के होकर आकाश में घूम रहे हैं, उनसे आकाश कहीं-कहीं ऐसा लगने लगा है। श्रियमतिशयरूपां व्योम तोयाशयानां वहति विगतमेघं चन्द्रतारावकीर्णम्। 3/21 खिले हुए चंद्रमा और छिटके हुए तारों से भरा हुआ खुला आकाश उन तालों के समान दिखाई पड़ रहा है। विगतकलुषमम्भः श्यानपङ्का धरित्री विमलकिरण चन्द्र व्योम ताराविचित्रम्। 3/22 पानी का गंदलापन दूर हो गया है, धरती पर का सारा कीचड़ सूख गया है और आकाश में स्वच्छ किरणों वाला चंद्रमा और तारे निकल आए हैं। For Private And Personal Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ऋतुसंहार www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 803 नितंब 1. जघन - [ हन् + अच्, द्वित्वम् ] कूल्हा, चूतड़, पुट्ठा । पृथुजघनभरार्ताः किंचिदानम्रमध्याः स्तन परिखेदान्मन्दमन्द व्रजन्त्यः । 5/14 अपने मोटे नितंबों के बोझ से दुखी, अपने स्तनों के बोझ से झुकी हुई कमर वाली और थकने के कारण बहुत धीरे-धीरे चलने वाली । प्रयन्त्यनङ्गातुरमानसानां नितम्बिनीनां जघनेषु काञ्चयः । 6/7 अपने प्रेमी के संभोग करने को उतावली नारियों ने अपने नितंबों पर करधनी बाँध ली है। मध्येषु निम्नो जघनेषु पीनः स्त्रीणामनङ्गो बहुधा स्थितोऽद्य। 6/12 कामदेव भी स्त्रियों की कमर में गहरापन बनकर और नितंबों में मोटापा बनकर आ बैठता है। कूल्हा । 2. नितंब - [ निभृतं तभ्यते कामुकैः, तमु कांक्षायाम् ] चूतड़, श्रोणि प्रदेश, नितम्बबिम्बैः सदुकूलमेखलैः स्तनैः सहाराभरणैः सचन्दनैः । 1/4 रेशमी वस्त्र और करधनी पड़े हुए नितंबों पर तथा चंदन पुते और हार तथा दूसरे गहने पड़े हुए स्तनों से लिपटाती हैं। नितम्बदेशाश्च सहेममेखलाः प्रकुर्वते कस्य मनो न सोत्सुकम् । 1/6 सुनहरी करधनी से बँधे हुए नितंब देखकर भला किसका मन नहीं ललच उठेगा । For Private And Personal Use Only नद्यो विशालपुलिनान्तनितम्बबिम्बा मन्दं प्रयान्ति समदाः प्रमदा इवाद्य । 3/3 नदियाँ भी उसी प्रकार धीरे-धीरे बही जा रही हैं, जैसे बड़े-बड़े नितंबों वाली कमिनियाँ चली जा रही हों, ऊँचे-ऊँचे रेतीले टीले ही उनके गोल नितंब हैं । नितम्बबिम्बेषु नवं दुकूलं तन्वंशुकं पीनपयोधरेषु । 4 /3 न अपने गोल-गोल नितंबों पर नये रेशमी वस्त्र ही लपेटती हैं, और न अपने मोटे-मोटे स्तनों पर महीन कपड़े ही बाँधती हैं। काञ्चीगुणैः काञ्चनरत्नचित्रैनों भूषयन्ति प्रमदा नितम्बान्। 4/4 Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 804 कालिदास पर्याय कोश न स्त्रियाँ अपने नितंबों पर सोने और रत्नों से जड़ी हुई करधनी पहनती हैं। त्यजति गुरु नितम्बा निम्ननाभिः सुमध्या उषसि शयनमन्या कामिनी चारुशोभा। 65/12 एक दूसरी भारी नितंबों वाली, गहरी नाभि वाली, लचकदार कमर वाली, मनभावनी सुंदरता वाली स्त्री प्रातः काल पलँग छोड़कर उठ रही है। कुसुम्भरागारुणतैर्दुकूलैर्नितम्बबिम्बानि विलासिनीनाम्। 6/5 कामिनियों ने अपने गोल-गोल नितंबों पर कुसुम के लाल फूलों से रँगी रेशमी साड़ी पहन ली है। 3. श्रोणी - [श्रोण + इन् वा ङीप्] कूल्हा, नितंब, चूतड़। शिरोरुहैः श्रोणितटावलम्बिभिः कृतावतंसैः कुसुमैः सुगन्धिभिः। 2/18 अपने भारी-भारी नितंबों पर केश लटकाकर, कानों में सुगंधित फूलों के कनफूल पहन कर। दधति वरकुचाग्ररुन्तैरियष्टिं प्रतनुसितदुकूलान्यायतैः श्रोणि बिम्बैः। 2/26 स्त्रियाँ अपने गोल-गोल उठे हुए सुंदर स्तनों पर मोती की मालाएँ पहनती हैं, और अपने भारी-भारी नितंबों पर महीन उजली रेशमी साड़ी पहनती हैं। हारैःसचन्दनरसैः स्तनमण्डलानिश्रोणीतटं सुविपुलं रसना कलापैः। 3/20 अपने स्तनों पर मोतियों के हार पहनती हैं, और चंदन पोतती हैं, अपने भारी-भारी नितंबों पर करधनी बाँधती हैं। गुरुतरकुचयुग्मं श्रोणिबिम्बं तथैव न भवति किमिदानीं योषितां मन्मथाय। 6/33 स्त्रियों के बड़े-बड़े गोल-गोल स्तन, वैसे ही बड़े-बड़े गोल नितंब, क्या लोगों के मन में कामदेव को नहीं जगा रहे हैं। निदाघ 1. उष्मा - [उष् + मक्, कन् च] गर्मी, ताप, ग्रीष्म ऋतु। . पयोधरैः कुंकुमरागपिञ्जरैः सुखोपसेव्यैर्नवयौवनोष्मभिः। 5/9 For Private And Personal Use Only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऋतुसंहार 805 केसर से रँगे हुए लाल स्तनों वाली और सुख से लूटी जाने वाली जवानी की गर्मी से भरी। 2. ग्रीष्म - [ ग्रसते रसान् - ग्रस् । मनिन्] गरम, उष्ण, गर्मी का मौसम, गर्मी, उष्णता। अतिशयपरुषाभिर्गीष्मवह्नः शिखाभिः समुपजनिततापं ह्लादयन्तीव विन्ध्यम्। 2/28 गरमी की आग की लपटों में झुलसे हुए विंध्याचल की तपन। 3. निदाघ - [ नितरां दह्यते अत्र - नि + दह् + घङ्] ताप, ग्रीष्म ऋतु, गर्मी का मौसम। दिनान्तरम्योऽभ्युपशान्तमन्मथो निदाघकालोऽयमुपागतः प्रिये। 1/1 प्रिये! गरमी के दिन आ गए हैं। इन दिनों साँझ बड़ी लुभावनी होती है, और कामदेव तो एक दम ठंडा पड़ गया है। शिरोरुहै: स्नानकषायवासितैः स्त्रियो निदाघं शमयन्ति कामिनाम्। 1/4 प्रेमिकाएँ अपने गर्मी से सताए हुए प्रेमियों की तपन मिटाने के लिए अपने उन जूड़ों की गंध सुँघाती हैं, जो उन्होंने स्नान के समय सुगंधित फूलों में बसा लिए थे। व्रजतु तव निदाघः कामिनीभिः समेतो निशि सुललितगीते हर्म्यपृष्ठे सुखेन। 1/28 वह गर्मी की ऋतु आपकी ऐसी बीते कि रात को आप अपने घर की छत पर लेटे हों, सुंदरियाँ आपको घेरे बैठी हों और मनोहर संगीत छिड़ा हुआ हो। निम्नगा 1. तटिनी - [तटमस्त्यस्या इनि ङीप्] नदी। कुर्वन्ति हंसविरुतैः परितो जनस्य प्रीतिं सरोरुहरजोरुणितास्तटिन्यः। 3/8 जिन नदियों का जल कमल के पराग से लाल हो गया है, जिन पर हंस कूज रहे हैं, वे लोगों को बड़ी सुहावनी लगती हैं। 2. नदी - [ नद + ङीप्] दरिया, प्रवहणी, सरिता। For Private And Personal Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 806 कालिदास पर्याय कोश स्त्रियः सुदुष्टा इव जातविभ्रमाः प्रयान्ति नद्यस्त्वरितं पयोनिधिम्। 2/7 जैसे कुलटा स्त्रियाँ प्रेम में अंधी होकर बिना सोचे-विचारे अपने को खो बैठती हैं, वैसे ही ये नदियाँ, वेग से दौड़ती हुई समुद्र की ओर चली जा रही हैं। नद्यो घना मत्तगजा वनान्ताः प्रियाविहीनाः शिखिनः प्लवङ्गाः। 2/19 नदियाँ, बादल, मस्त हाथी, जंगल, अपने प्यारों से बिछुड़ी हुई स्त्रियाँ, मोर और बंदर। नद्योविशालपुलिनान्तनितम्बबिम्बा मन्दं प्रयान्ति समदाः प्रमदा इवाद्य। 3/3 इस ऋतु में नदियाँ, भी उसी प्रकार धीरे-धीरे बह रही हैं, जैसे बड़े-बड़े नितंबों वाली कमिनियाँ चली जा रही हों, ऊँचे ऊँचे रेतीले टीले ही उनके गोल नितंब 3. निम्नगा - [नि + म्ना + क + गा] नदी, पहाड़ी नदी। हुतवहपरिखेदादाशु निर्गत्य कक्षाद्विपुलपुलिनदेशा निम्नगां संविशन्ति। 1/27 आग से घबराए हुए और झुलसे हुए पशु घास के जंगल से झटपट निकल आए हैं और नदी के चौड़े और बलुए तीर पर आकर विश्राम कर रहे हैं। सरित - [ सृ + इति] नदी। काशैर्मही शिशिरदीधितिना रजन्यो हंसैर्जलानि सरितां कुमुदैः सरांसि। 3/2 काँस की झाड़ियों ने धरती को, चंद्रमा ने रातों को, हंसों ने नदियों के जल को, कमलों ने तालाबों को। निशा 1. क्षपा - [ क्षप् + अच् + टाप्] रात। भ्रमन्ति मन्दं श्रमखेदितोरवः क्षपावसाने नवयौवनाः स्त्रियः। 5/7 वे नवयुवती स्त्रियाँ, रात के परिश्रम से दुखती हुई जाँघों के कारण रात्रि के बीतने पर (प्रातः काल) धीरे-धीरे चल रही हैं। 2. नक्त - [ नब् + क्त] रात। छायां जनः समभिवाञ्छति पादपानां नक्तं तथेच्छति पुनः किरणं सुधाशोः। 6/11 For Private And Personal Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org ऋतुसंहार इन दिनों लोग दिन में तो वृक्षों की शीतल छाया में रहना चाहते हैं, और रात में चंद्रमा की किरणों का आनंद लेना चाहते हैं । - 3. निशा [नितरां श्यति तनूकरोति व्यापारान् शो + क तारा०] रात । निशा: शशाङ्कक्षतनीलराजयः क्वचिद्विचित्रं जलयन्त्र मन्दिरम् । 1/2 रात्रि में चारों ओर खिले हुए चंद्रमा की चाँदनी छिटकी हो, रंग बिरंगे फव्वारों के तले बैठे हों । - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्रजतु तव निदाघः कामिनीभिः समेतो निशि सुललित गीते हर्म्यपृष्ठे सुखेन । 1/28 807 विलोक्य नूनं भृशमुत्सुकश्चिरं निशाक्षये याति ह्रियेव पाण्डुताम् । 1/9 जब बहुत देर तक उनका मुँह देख चुकता है, तो लाज के मारे वह रात के पिछले पहर में उदास हो जाता है 1 वह गर्मी की ऋतु आपकी ऐसी बीते कि रात को आप अपने घर की छत पर लेटे हों, सुंदरियाँ आपको घेरे बैठी हों और मनोहर संगीत छिड़ा हुआ हो । प्रकामकामैर्युवभिः सुनिर्दयं निशासु दीर्घास्वभिरामिताश्चिरम् । 5/7 जिनने युवकों के साथ लंबी रातों में बहुत देर तक जी भरकर और कसकर संभोग का आनंद लूटा है। निशासु हृष्टा सह कामिभिः स्त्रियः पिबन्ति मद्यं मदनीयमुत्तमम् । 5 / 10 स्त्रियाँ बड़े हर्ष से अपने प्रेमियों के साथ रात को काम-वासना जगाने वाली वह मदिरा पीती हैं। सुरतसमयवेषं नैशमासु प्रहाय दधति दिवसयोग्यं वेषमन्यास्तरुण्यः । 5/14 स्त्रियाँ रात के संभोग वाले वस्त्र उतारकर दिन में पहनने वाले कपड़े पहन रही हैं। मत्तालियूथविरुतं निशि सीधुपानं सर्वं रसायनमिदं कुसुमायुधस्य । 6/35 मतवाले भौरों की गुँजार और रात में आसव पीना ये सब कामदेव को जगाए रखने वाले रसायन ही हैं। For Private And Personal Use Only 4. निशीथ - [ निशेरते जना अस्मिन् निशी अधारे थक - तारा०] आधीरात, सोने का समय, रात । Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 808 कालिदास पर्याय कोश सुतन्त्रिगीतं मदनस्य दीपनं शुचौ निशीथेऽनुभवन्ति कामिनः। 1/3 प्रेमियों को भी इन दिनों मन बहलाने के लिए ऐसी-ऐसी काम को उभारने वाली वस्तुएँ चाहिए जैसे रात्रि में सुंदर वीणा के साथ गाए हुए गीत। 5. रजनी - [रज्यतेऽत्र, रञ्ज + कनि वा ङीप्] रात। काशैर्मही शिशिरदीधितिना रजन्यो हंसैर्जलानि सरितां कुमुदैः सरांसि। 3/2 काँस की झाड़ियों ने धरती को, चंद्रमा ने रातों को, हंसों ने नदियों के जल को, कमलों ने तालाबों को। ज्योत्स्नादुकूलममलं रजनी दधाना वृद्धिं प्रयात्यनुदिनं प्रमदेव बाला। 3/7 आजकल की रात चाँदनी की उजली साड़ी पहने हुए अलबेली तरुणी के समान दिन-दिन बढ़ती चली जा रही है। रात्रि - [राति सुखं भयं वा रा + त्रिप् वा ङीप्] रात। अनुपममुखरागा रात्रिमध्ये विनोदं शरदि तरुणकान्ताः सूचयन्ति प्रमोदान्। 3/24 अनूठे प्रकार से मुँह रँगने वाली और शरद् में संभोग का रस लेने वाली युवतियाँ बता डालती हैं, कि रात में कैसे-कैसे आनंद लूट गया। अन्या प्रकामसुरतश्रमखिन्नदेहो रात्रिप्रजागरविपाटलनेत्रपद्मा। 4/15 अत्यंत संभोग से थक जाने के कारण एक दूसरी स्त्री की कमल जैसी आँखें रात भर जागने से लाल हो गई हैं। विपाण्डुतारागण चारुभूषणा जनस्य सेव्या न भवन्ति रात्रयः। 5/4 पीले-पीले तारों वाली रातों में कोई भी बाहर नहीं निकलता। 7. शर्वरी - [ शृ + वनिष्, ङीप, वनोर च] रात। अभीक्ष्णमुच्चैर्ध्वनता पयोमुचा घनान्धकारीकृत शर्वरीष्वपि। 2/10 गरजते हुए बादलों से घिरी हुई इस घनी अँधेरी रात में भी। नेत्र 1. अक्षि - [अश्नुते विषयान् - अश् + क्सि] आँख। विकच कमलवक्त्रा फुल्लनीलोत्पलाक्षी विकसितनवकाश श्वेतवासो वसाना। 3/28 For Private And Personal Use Only Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऋतुसंहार 809 उजले कमल के मुख वाली, फूले हुए नीले कमल की आँखों वाली, फूले हुए काँस की साड़ी पहनने वाली। अवेक्ष्यमाणा हरिणेक्षणक्ष्य प्रबोधयन्तीव मनोरथानि। 4/10 मृगनयनी स्त्रियाँ यह सोचती हैं कि तब हम यों मिलेंगी, यों बातें करेंगी और यों रूठेंगी। कूर्पासकं परिदधाति नखक्षताङ्गी व्यालम्बिनी ललिततालक कुञ्चिताक्षी। 4/17 नखों के घावों से भरे हुए अंगों वाली और लटकती हुई सुंदर अलकों से ढकी हुई आँखों वाली स्त्री अपनी चोली पहनने लगी हैं। 2. नयन - [ नी + ल्युट्] आँख। पर्यन्त संस्थितमृगीनयनोत्पलानि प्रोत्कण्ठयन्त्युपवनानि मनांसि पुंसाम्।3/14 जिन उपवनों में कमल जैसी आँखों वाली हरिणियाँ जहाँ-तहाँ बैठी पगुरा रही हैं, उन उपवनों को देखकर लोगों के मन निश्चय ही आकृष्ट हो जाता है। असित नयनलक्ष्मी लक्षयित्वोत्पलेषु क्वणित कनककाञ्ची मत्तहंस स्वनेषु। 3/26 नीले कमलों में काली आँखों की सुंदरता देखते हैं, मस्त हंसों की ध्वनि में सुनहली करधनी की रुनझुन सुनते हैं। 3. नेत्र - [ नयति नीयते वा अनेन - वी + ष्ट्रन्] आँख। विलोलनेत्रोत्पलशोभिताननैर्मृगैः समन्तादुपजातसाध्वसैः। 2/9 कमल के समान सुहावनी चंचल आँखों के कारण सुंदर मुख वाले डरे हुए हरिणों से भरा हुआ। नेत्रोत्सवो हृदयहारिमरीचिमालाः प्रह्लादकः शिशिरसीकरवारि वर्षी। 3/9 सबकी आँखों को भला लगने वाले जिस चंद्रमा की किरणें मन को बरबस अपनी ओर खींच लेती हैं, वही सुहावना और ठंडी फुहार बरसाने वाला चंद्रमा। अन्या प्रकामसुरतश्रमखिन्नदेहो रात्रिप्रजागरविपाटलनेत्रपद्मा। 4/15 अत्यंत संभोग से थक जाने के कारण एक दूसरी स्त्री की कमल जैसी आँखें रातभर जागने से लाल हो गई हैं। For Private And Personal Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 810 कालिदास पर्याय कोश कनककमलकान्तैश्चारुताम्राधरोष्ठैः श्रवणतटनिषक्तैः पाटलोपान्त नेत्रैः। 5/13 स्त्रियों के सुंदर लाल-लाल ओठों वाले, लाल कोरों से सजी हुई बड़ी-बड़ी आँखों वाले और सुनहरे कमल के समान चमकने वाले। नेत्रेषु लोलो मदिरालसेषु गण्डेषु पाण्डुः कठिनः स्तनेषुः। 6/12 मदमाती आँखों में चंचलता बनकर, गालों में पीलापन बनकर, स्तनों में कठोरता बनकर। नेत्रे निमीलयति रोदिति याति शोकं घ्राणं करेण विरुणद्धि विरौति चौच्चैः। 6/28 अपनी आँख बंद करके रोते हैं, पछताते हैं, अपनी नाक बंद कर लेते हैं और फूट-फूटकर रोने लगते हैं। 4. लोचन - [लोच् + ल्युट्] आँख। मधुसुरभि मुखाब्जं लोचने लोध्रताने नवकुरबकपूर्णः केशपाशो मनोज्ञः। 6/33 आसव से महकता हुआ कमल के समान मुख, लोध जैसी लाल-लाल आँखें, नए कुरबक के फूलों से सजे हुए सुंदर जूड़े लोगों के मन में। 5. विलोचन - [ वि + लोच् + ल्युट्] आँख। विलोचनेन्दीवरवारिबिन्दुभिर्निषिक्तबिम्बाधर चारुपल्लवाः। 2/12 अपने बिंबाफल जैसे लाल और नई कोपलों जैसे कोमल होठों पर अपनी कमल जैसी आँखों से आँसू बरसाती हुई। नीलोत्पलैर्मदकलानि विलोचनानि भ्रूविभ्रमाश्च रुचिरास्तनुभि- स्तरङ्गैः। 3/17 नीले कमलों ने उनकी मदभरी आँखों को और छोटी लहरियों ने उनकी भौंहों की सुंदर मटक हो हरा दिया है। पंक 1. कर्दम - [ क + अम] कीचड़, दलदल, पंक। For Private And Personal Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऋतुसंहार 811 सभद्रमुस्तं परिशुष्ककर्दमं सरः खनन्नायतपोत्रमण्डलैः। 1/17 नागरमोथे से भरे हुए बिना कीचड़ वाले गड्ढे को खोदता हुआ ऐसा लगता है। परस्परोत्पीडनसंहतैर्गजैः कृते सरः सान्द्रविमर्दकर्दमम्। 1/19 यहाँ पर हाथियों ने इकट्ठे होकर आपस में लड़-भिड़कर इस ताल को कीचड़ के रूप में बदल डाला है। पंक - [ पंच् विस्तारे कर्मणि करणे वा घञ्, कुत्वम्] दलदल, कीचड़, लसदार मिट्टी। पयोधराश्चन्दनपङ्कचर्चितास्तुषारगौराप्तिहार शेखरः। 1/6 हिम के समान उजले और अनूठे हार से सजे हुए चंदन के लेप से पुते स्तन देखकर। विवस्वता तीक्ष्णतरांशुमालिनां सपङ्कतोयात्सरसोऽभितापितः। 1/18 धूप से तपे हुए (मेंढक) कीचड़ युक्त (गॅदले) जल वाले पोखर से बाहर निकल-निकल कर। विगतकलुषम्भः श्यानपङ्का धरित्रीविमलकिरणचन्द्रं व्योम ताराविचित्रम्। 3/22 पानी का गैंदलापन दूर हो गया है, धरती पर का सारा कीचड़ सूख गया है और आकाश में स्वच्छ किरणों वाला चंद्रमा और तारे निकल आए हैं। पथ 1. पथ - [ पथ् + क (घबार्थे)] रास्ता, मार्ग। रवेर्मयूखैरभितापितो भृशंविदह्यमानः पथि तप्तपांसुभिः। 1/13 धूप से एकदम तपा हुआ और मार्ग की गर्म धूल से झुलसा हुआ। 2. मार्ग - [मार्ग + घञ्] रास्ता, सड़क, पथ। तडित्प्रभादर्शितामार्गभूमयः प्रयान्ति रागादभिसारिका स्त्रियः। 2/10 लुक-छिपकर अपने प्यारे के पास प्रेम से जाने वाली कामिनियाँ बिजली की चमक से आगे का मार्ग देखती हुई चली जा रही हैं। मार्ग समीक्ष्यतिनिरस्तनीरं प्रवासखिन्नं पतिमुद्वहन्त्यः। 4/10 For Private And Personal Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 812 कालिदास पर्याय कोश जिनके पति परदेस चले गए हैं, वे स्त्रियाँ जब सूखे हुए मार्ग को देखती हैं। अभिमुखमभिवीक्ष्य क्षामदेहोऽपि मार्गे मदनशरनिघातैर्मोहमेति प्रवासी। 6/30 परदेस में पड़ा हुआ यात्री एक तो यों ही बिछोह से दुबला-पतला रहता है, जब मार्ग में ये देखता है तो कामदेव के बाणों की चोट खाकर मूर्च्छित होकर गिर पड़ता है। पर्ण 1. किसलय - [ किञ्चित् शलति - किम् + शल् + क (कयन्) वा० पृषो० साधु०] पल्लव, कोमल अंकुर, कोंपल। कर किसलयकान्तिं पल्लवैर्विदुमाभैरुपहसति वसन्तः कामिनीनामिदानीम्। 6/31 इस समय यह वसंत मूंगे जैसी लाल-लाल कोमल पत्तों की ललाई दिखाकर उन कामिनियों की कोंपलों जैसी कोमल और लाल हथेलियों को जला रहा है। 2. दल - [ दल + अच्] छोटा अंकुर या कोंपल, फूल की पंखुड़ी, पत्ता। परिणतदलशाखानुत्पतन प्रांशुवृक्षान्भ्रमति पवनधूतः सर्वतोऽग्निर्वनान्ते। 1/26 पवन से भड़काई हुई जंगल की आग उन ऊँचे वृक्षों पर उछलती हुई वन में चारों ओर घूम रही है, जिनकी डालियों के पत्ते बहुत गर्मी पड़ने से पक-पककर झड़ते जा रहे हैं। प्रभिन्नवैदूर्यनिभैस्तृणाकुरैः समाचिता प्रोत्थितकन्दलीदलैः। 2/5 छितराई हुई वैदर्य मणि के समान दिखाई देने वाली घास के कोमल अंकुरों से भरी हुई, ऊपर निकले हुए कंदली के पत्तों से लदी हुई। कुवलयदलनीलैरुन्नतैस्तोयननैर्मृदुपवनविधूतैर्मन्दमन्दं चलद्भिः । 2/23 कमल के पत्तों के समान साँवले, पानी के भार से झुक जाने के कारण और धीमे-धीमे पवन के सहारे धीरे-धीरे चलने वाले। 3. पत्र - [ पत् + ष्ट्रन्] पत्ता, फूल का पत्ता। नितान्तनीलोत्पलपत्रकान्तिभिः क्वचित्प्रभिन्नाञ्जनराशिसंनिभैः। 2/2 For Private And Personal Use Only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऋतुसंहार कहीं तो अत्यंत नीले कमल की पंखड़ी जैसे नीले और कहीं घुटे हुए आँजन की ढेरी के समान काले-काले । 813 विपत्रपुष्पां नलिनीं समुत्सुका विहाय भृङ्गाः श्रुतिहारिनिस्वनाः । 2 / 14 कानों को सुहाने वाली मीठी तानें लेकर गूँजते हुए भौरे, उस कमल को छोड़-छोड़कर चले जा रहे हैं, जिनके पत्ते और फूल झड़ गए हैं। उत्कण्ठयत्यतितरां पवनः प्रभाते पत्रान्तलग्नतुहिनाम्बु विधूयमानः । 3 / 15 प्रात: काल पत्तों पर पड़ी हुई ओस की बूंदे गिराता हुआ, जो पवन धीमे-धीमे बह रहा है, वह किसे मस्त नहीं बना देता । गात्राणि कालीयकचर्चितानि सपत्रलेखानि मुखाम्बुजानि । 4/5 अपने शरीर पर चंदन मलती हैं, अपने कमल जैसे मुँह पर अनेक प्रकार के बेल-बूटे बनाती हैं। सपत्रलेखेषु विलासिनीनां वक्त्रेषु हेमाम्बुरुहोपमेषु । 6 / 8 सुनहरे कमल के समान सुहावने और बेल-बूटे चीते हुए स्त्रियों के मुखों पर । 4. पर्ण [ पर्ण + अच्] पत्ता । पटुतरदवदाहोच्छुष्कसस्य प्ररोहाः परुषपवनवेगोत्क्षिप्त संशुष्क पर्णाः । 1 / 22 जंगल की आग की बड़ी-बड़ी लपटों से सब वृक्षों की टहनियाँ झुलस गई हैं, में पड़कर सूखे हुए पत्ते ऊपर उड़े जा रहे हैं। श्वसिति विहगवर्गः शीर्णपर्णदुमस्थः कपिकुलमुपयाति क्लान्तमद्रेर्निकुञ्जम्। 1/23 जिन वृक्षों के पत्ते झड़ गए हैं, उन पर बैठी हुई सभी चिड़ियाँ हाँफ रही हैं, उदास बंदरों के झुंड पहाड़ की गुफाओं में घुसे जा रहे हैं । For Private And Personal Use Only 5. पल्लव - [ पल् + क्विप् पल् लू + अप्लव, पल् चासौ लवश्च कर्म० स०] अंकुर, कोंपल, टहनी । वनानि वैन्ध्यानि हरन्ति मानसं विभूषितान्यद्गतपल्लवैर्दुमैः । 2/8 नई कोंपलों वाले वृक्षों से छाए हुए विंध्याचल के जंगल किसका मन नहीं लुभा लेते। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 814 कालिदास पर्याय कोश विलोचनेन्दीवरवारिबिन्दुभिर्निषिक्तबिम्बाधरचारु पल्लवाः। 2/12 अपने बिंबाफल जैसे लाल और नई कोंपलों जैसे कोमल होठों पर अपनी कमल जैसी आँखों से आँसू बरसाती हुई। मन्दानिलाकुलित चारुतराग्रशाखः पुष्पोद्गमप्रचयकोमलपल्लवानः। 3/6 जिसकी शाखाओं की सुंदर फुनगियों को धीमा-धीमा पवन झुला रहा है, जिस पर बहुत से फूल खिले हुए हैं, जिसकी पत्तियाँ बड़ी कोमल हैं। आमूलतो विदुमरागतानं सपल्लवाः पुष्पचनं दधानाः। 6/18 जिन वृक्षों में कोंपले फूट निकली हैं, जिनमें मूंगे जैसे लाल-लाल फूल नीचे से ऊपर तक खिल आए हैं। करकिसलयकान्तिं पल्लवैर्विदुमाभैरुपहसति वसन्तः कामिनीनामिदानीम्। 6/31 इस समय यह वसंत मूंगे जैसी लाल-लाल कोमल पत्तों की ललाई दिखाकर उन कमिनियों की कोंपलों जैसी कोमल और लाल हथेलियों को जला रहा है। 6. प्रवाल - [ प्र + ब (व) + ल् + णिच् + अच्] कोंपल, अंकुर, किसलय। ताम्रप्रवालस्तबकावनम्राश्चूतदुमाः पुष्पितचारुशाखाः। 6/17 लाल-लाल कोंपलों के गुच्छों से झुके हुए और सुंदर मंजरियों से लदी हुई शाखाओं वाले आम के पेड़। पुष्प 1. कुसुम - [कुष् + उम्] फूल। कदम्बसर्जार्जुनकेतकीवनं विकम्पयँस्तत्कुसुमाधिवासितः। 2/17 कदंब, सर्ज, अर्जुन और केतकी से भरे हुए जंगलों को कपाता हुआ और उन वृक्षों के फूलों की गंध में बसा हुआ। नवजलकणसङ्गाच्छततामादधानः कुसुमभरनतानां लासकः पादपानाम्। 2/27 नये जल की फुहारों से ठंडा बना हुआ पवन, फूलों के बोझ से झुके हुए पेड़ों को नचा रहा है। सप्तच्छदैः कुसुमभारनतैर्वनान्ताः शुक्लीकृतान्युपवनानि च मालतीभिः। 3/2 For Private And Personal Use Only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऋतुसंहार 815 फूलों के बोझ से झुके हुए छतिवन के वृक्षों ने जंगल को और मालती के फूलों ने फुलवारियों को उजला बना डाला है। आकम्पयन्फलभरानतशालिजालान्यानर्तयँस्तरुवरान्कुसुमावनम्रान् । 3 / 10 अन्न भरी हुई बालियों से झुके धान के पौधों को कँपाता हुआ, फूलों से लदे हुए सुंदर वृक्षों को नचाता हुआ । मुक्त्वा कदम्बकुटजार्जुनसर्जनीपान् सप्तच्छदानुपगता कुसुमोद्गमश्रीः । 3 / 13 फूलों की सुंदरता भी कदंब, कुटज, अर्जुन, सर्ज और अशोक के वृक्षों को छोड़कर छतिवन के पेड़ों पर जा बसी है। श्यामालताः कुसुमभारनतप्रवाला: स्त्रीणां हरन्ति धृतभूषण बाहुकान्तिम् । 3 / 18 जिन हरी बेलों की टहनियाँ फूलों के बोझ से झुक गई हैं, उनने स्त्रियों की गहनों से सजी हुई बाहों की सुंदरता छीन ली है। रचितकुसुमगन्धि प्रायशो यान्ति वेश्म प्रबलमदनहेतोस्त्यक्तसंगीतरागाः । 3/23 अपना सब गाना-बजाना छोड़कर अत्यंत कामातुर होकर उन घरों में चली जा रही हैं, जिनमें सुगंधित फूलों की सेज बिछी है । निवेशितान्तः कुसुमैः शिरोरुहैर्विभूषयन्तीव हिमागमं स्त्रियः । 5/8 बालों में फूल गूँथे हुए स्त्रियाँ ऐसी लग रही हैं, मानो जाड़े के स्वागत का उत्सव मनाने के लिए सिंगार कर रही हों । अगुरुसुरभिधूपामोदितं केशपाशं गलितकुसुममालं कुञ्चिताग्रं वहन्ती । 5/12 अगरू के धुएँ में बसी हुई अपनी बिना फूलों की मालावाली घनी घुँघराली लटों को थामे । कुर्वन्ति नार्योऽपि वसन्तकाले स्तनं सहारं कुसुमैर्मनोहरैः । 6/3 वसंत ऋतु में स्त्रियाँ भी अपने स्तनों पर मनोहर फूलों की मालाएँ पहनने लगी हैं। For Private And Personal Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 816 कालिदास पर्याय कोश चूतदुमाणां कुसुमान्वितानां ददाति सौभाग्यमयं वसन्तः। 6/4 वसंत के आने से मंजरी से लदी हुई आमों की डालें और भी सुहावनी लगने लगी हैं। आदीप्त वह्निसदृशैर्मरुताऽवधूतैः सर्वत्र किंशुकवनैः कुसुमावनप्रैः। 6/21 पवन के झोंके से हिलती हुई सर्वत्र पलास के वृक्षों की फूल से फूली हुई शाखाएँ जलती हुई आग की लपटों के समान दिखाई देती हैं। किं किंशुकैः शुकमुखच्छविभिर्न भिन्न किं कर्णिकार कुसुमैर्न कृतं नु दग्धम्। 6/22 तोते की ठोर के समान लाल टेसू के फूलों ने ही कुछ कम टूक-टूक कर रखा था या कनैर के फूलों ने कुछ कम जला रखा था। नानामनोज्ञकुसुमदुमभूषितान्तान्हृष्टान्यपुष्टनिनदाकुल सानुदेशान्। 6/27 जिन पर्वतों की चोटियों के ओर-छोर पर सुंदर फूलों के पेड़ खड़े हैं, भौंरों की गूंज सुनाई दे रही है। 2. पुष्प - [पुष्प् + अच्] फूल, कुसुम। विपत्रपुष्पां नलिनी समुत्सुका विहाय भृङ्गाः श्रुतिहारिनिस्वनाः। 2/14 कानों को सुहाने वाली मीठी तानें लेकर गूंजते हुए भौरे, उस कमल को छोड़-छोड़कर चले जा रहे हैं, जिनके पत्ते और फूल झड़ गए हैं। कालागुरुप्रचुरचन्दनचर्चिताङ्गः पुष्पावतंससुरभीकृत केशपाशाः। 2/22 जिन स्त्रियों के अंगों पर अगरू मिला चंदन लगा हुआ है, जिनके बाल फूलों के गुच्छों से महक रहे हैं। मुदित इव कदम्बैर्जातपुष्पैः समन्तात्पवनचलितशाखैः शाखिभिनत्यतीव। 2/24 चारों ओर खिले हुए कदंब के फूल ऐसे लग रहे हैं मानो जंगल मगन हो उठा हो। पवन से झूमती हुई शाखाओं को देखकर ऐसा लगता है, मानो पूरा जंगल नाच रहा हो। शिरसि बकुलमालां मालतीभिः समेतां विकसितनवपुष्पैथिकाकुड्मलैश्च। 2/25 For Private And Personal Use Only Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 817 ऋतुसंहार जूही की नई-नई कलियों तथा मालती और मौलसिरी के फूलों की माला बालों में सजाने के लिए गूंथ रहा हो। भिन्नाञ्जनप्रचयकान्ति नभो मनोज्ञं बन्धूकपुष्परजसाऽरुणिता च भूमिः। 3/5 घुटे हुए आँजन की पिंडी जैसा नीला सुंदर आकाश, दुपहरिया के फूलों से लाल बनी हुई धरती। मन्दानिलाकुलितचारुतराग्रशाखः पुष्पोद्गमप्रचयकोमल पल्लवाग्रः। 3/6 जिसकी शाखाओं की सुंदर फुनगियों को धीमा-धीमा पवन झुला रहा है, जिस पर बहुत से फूल खिले हुए हैं, जिसकी पत्तियाँ बड़ी कोमल हैं। पुष्पासवामोदसुगन्धिवक्त्रो निःश्वासवातैः सुरभीकृताङ्गः। 4/12 फूलों के गंध की भीनी और मीठी सुगंधवाले मुँह से मुँह लगाकर और साँसों से सुगंधित अंग से अंग मिलाकर। गृहीतताम्बूलविलेपनत्रजः पुष्पासवामोदितवक्त्रपङ्कजा। 5/5 फूलों के आसव पीने से जिनका कमल जैसा मुंह सुगंधित हो गया है, वे स्त्रियाँ पान खाकर और फुलेल लगाकर।। पुष्पं च फुल्लं नवमल्लिकायाः प्रयान्ति कान्तिं प्रमदाजनानाम्। 6/6 स्त्रियों की लटों में अशोक के फूल और नवमल्लिका की खिली हुई कलियाँ बड़ी सुहावनी लगने लगी हैं। रुचिरकनक कान्तीन्मुञ्चतः पुष्पराशीन्मृदुपवनविधूतान्पुष्पिताँश्चूतवृक्षान्। 6/30 जब वह मंद-मंद बहने वाले पवन के झोंके से हिलते हुए और सुंदर सुनहले बौर गिराने वाले, बौरे हुए आम के वृक्षों को देखता है। परभृतकलगीतैह्रादिभिः सद्वचांसि स्मितदशनमयूखान्कुन्दपुष्पप्रभाभिः। 6/31 जी हुलसाने वाले कोकिल के गीत सुना-सुनाकर सुंदरियों की रस भरी बातों की खिल्ली उड़ा रहा है। अपने कुंद के फूलों की चमक दिखाकर स्त्रियों की मुस्कान पर चमक उठने वाले दाँतों की दमक की हँसी उड़ा रहा है। For Private And Personal Use Only Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 818 कालिदास पर्याय कोश 3. मञ्जरी - [ मञ्जु + ऋ + इन् शक० पररूपम् पक्षे ङीप् ] बौर, फूलों का गुच्छा,. फूल, कली, फूल का वृन्त । कर्णान्तरेषु ककुभदुममञ्जरीभिरिच्छानुकूलरचितानवतंसकाँश्च । 2/21 ककुभ के फूलों के मनचाहे ढंग से बनाए हुए कर्णफूल अपने कानों में पहनती हैं । 1. तीक्ष्ण सख्त | www. kobatirth.org 3. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - प्रचण्ड [तिज् + क्स्न, दीर्घः ] पैना, तीखा, गरम, कठोर, प्रबल, कड़ा, सुतीक्ष्णधारापतनोग्रसायकैस्तुदन्तिचेतः प्रसभंप्रवासिनाम्। 2/4 अपनी तीखों धारों के पैने बाण बरसाकर परदेस में पहुँचे हुए लोगों का मन कसमसा रहे हैं। 2. निपात [नि + पत् + घञ् ] मरण, मृत्यु, मारना, दागना, मारक, प्रपात, बहुत अधिक। तुषारसंघातनिपातशीतलाः शशाङ्कमाभिः शिशिरीकृताः पुनः । 5/4 घने पाले से कड़कड़ाते जाड़ों वाली, चंद्रमा की किरणों से और भी ठंडी हुई रातों में । प्रकाम - अत्यधिक, अत्यंत, मनभर कर, इच्छानुकूल । अन्या प्रकामसुरतश्रमखिन्नदेहो रात्रि प्रजागरविपाटलनेत्रपद्मा। 4/15 अत्यंत संभोग से थक जाने के कारण एक दूसरी स्त्री की कमल जैसी आँखें रातभर जागने से लाल हो गई हैं। प्रकामकामं प्रमदाजनप्रियं वरोरु कालं शिशिराह्वयं शृणु। 5/1 हे सुंदर जाँघों वाली ! सुनो, जिसमें काम भी बहुत बढ़ जाता है, वह स्त्रियों की प्यारी शिशिर ऋतु आ पहुँची है। प्रकामकामैर्युवभिः सुनिर्दयं निशासु दीर्घास्वभिरामिताश्चिरम्। 5/7 जिन नवयुवतियों ने युवकों के साथ आजकल की लंबी रातों में बहुत देर तक जी भरकर और कसकर संभोग का आनंद लूय है । For Private And Personal Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 819 ऋतुसंहार प्रचण्ड - [ प्रकर्षेण चण्डः - प्रा० श०] उत्कट, अत्यंत तीव्र, उग्र, भीषण, भयंकर, भयावह। प्रचण्डसूर्यः स्पृहणीयचन्द्रमाः सदावगाहक्षतवारिसंचयः। 1/1 धूप बड़ी-कड़ी हो गई है, और चंद्रमा बड़ा सुहावना लगता है, कोई चाहे तो दिन-रात गहरे जल में स्नान कर सकता है। मृगाः प्रचण्डातपतापिता भृशं तृषा महत्या परिशुष्क तालवः। 1/11 अत्यधिक जलते हुए सूर्य की किरणों से झुलसे हुए जिन जंगली पशुओं की जीभ प्यास से बहुत सूख गई है। 5. प्रचुर - [ प्र + चुर् + क] अति, बहुल, विशाल, विस्तृत, बहुत अधिक, भरपूर। प्रचुरगुडविकारः स्वादुशालीचरम्यः प्रबलसुरतकेलिर्जातकन्दर्पदर्पः। 5/16 मिठाइयाँ बहुतायत से मिलती हैं, स्वादिष्ट चावल और ईख चारों ओर सुहाते हैं, लोग बहुत संभोग करते हैं, कामदेव भी पूरे वेग से बढ़ जाता है। प्रबल - [प्रकृष्टं बलं यस्य - प्रा० ब०] प्रचंड, अत्यधिक, तीव्र। रचित कुसुमगन्धि प्रायशो यान्ति वेश्म प्रबल मदनहेतोस्त्यक्तसंगीत रागः। 3/23 सब गाना-बजाना छोड़कर अत्यंत कामातुर होकर उन घरों में चली जा रही हैं, जिनमें सुगंधित फूलों की सेज बिछी हुई है। प्रचुरगुडविकारः स्वादुशालीक्षुरम्य: प्रबलसुरतकेलिर्जातकन्दर्पदर्पः। 5/16 मिठाइयाँ बहुत मिलती हैं, स्वाद वाले चावल और ईख चारों ओर सुहाते हैं, लोग बहुत संभोग करते हैं, कामदेव भी पूरे वेग से बढ़ जाता है। प्रभा 1. आभा - [ आ + भा + अङ्] प्रकाश, चमक, कांति। कर किसलयकान्तिं पल्लवैविदुमाभैरुपहसति वसन्तः कामिनीनामिदानीम्। 6/31 मूंगे जैसी लाल-लाल कोमल पत्तों की ललाई (चमक) दिखाकर वसंत उन कामिनियों की कोंपलों जैसी कोमल और लाल हथेलियों को जला रहा है। For Private And Personal Use Only Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 820 कालिदास पर्याय कोश 2. कान्ति - [ कम् + क्तिन्] सौंदर्य, चमक, प्रभा, दीप्ति। नितान्तनीलोत्पलपत्रकान्तिभिः क्वचित्प्रभिन्नाञ्जनराशि संनिभैः। 2/2 कहीं तो अत्यंत नीले कमल की पंखड़ी जैसी नीली चमक वाले और कहीं घुटे हुए आँजन की ढेरी के समान काले-काले बादल। भिन्नाञ्जनप्रचयकान्ति नभो मनोज्ञं बन्धूकपुष्परजसाऽरुणिता च भूमिः। 3/5 घुटे हुए आँजन की पिंडी जैसे नीले चमक वाला सुंदर आकाश दुपहरिया के फूलों से लाल बनी हुई धरती। हंसैर्जिता सुललिता गतिरङ्गनानामम्भोरुहैर्विकसितैर्मुखचन्द्रकान्तिः। 3/17 हंसों ने सुंदरियों की मनभावनी चाल को, कमलिनियों ने उनके चंद्रमुख की चमक को हरा दिया है। दन्तावभास विशदस्मित चन्द्रकान्तं कङ्केलिपुष्परुचिरा नवमालती च। 3/18 कंकेलि तथा नई मालती के सुंदर फूलों ने दाँतों की चमक से खिल उठने वाली स्त्रियों की मुस्कराहट की चमक को लजा दिया है। बन्धूककान्तिमधरेषु मनोहरेषु क्वापि प्रयाति शरदागमश्रीः। 3/27 शरद की सुंदर शोभा कहीं बंधूक की फूलों की लाली (चमक) को छोड़कर उनके निचले होठों में जा चढ़ी है। कुमुदरुचिरकान्तिः कामिनीवोन्मदेयं प्रतिदिशतु शरदवश्चेतसः प्रीतिमग्रयाम्। 3/28 सुंदर कोंई के शरीर वाली जो कामिनी के समान मस्त शरद् ऋतु आई है, वह आप लोगों के मन में नई-नई उमंगें भरे। न नूपुरैर्हसरुतं भजद्भिः पादाम्बुजान्यम्बुकान्तिभाञ्जि। 4/4। न अपने कमल जैसे चमक वाले सुंदर पैरों में हंस के समान ध्वनि करने वाले बिछुए ही डालती हैं। कनककमलकान्तैश्चारुताम्राधरोष्ठैः श्रवणतटनिषक्तैःपाटलोपान्तनेत्रैः। 5/13 लाल कोरों से सजी हुई बड़ी-बड़ी आँखों वाले, लाल-लाल ओठों वाले और सुनहले कमल के समान चमकने वाले। For Private And Personal Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org ऋतुसंहार पुष्पं च फुल्लं नव मल्लिकायाः प्रयान्ति कान्तिं प्रमदाजनानाम् । 6 / 6 स्त्रियों की लटों में अशोक के फूल और नवमल्लिका की खिली हुई कलियाँ बड़ी सुहावनी लगने लगी हैं। 3. द्युति [द्युत + इन्] दीप्ति, कांति, सौंदर्य, उजाला । 5. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समागतो राजवदुद्धतद्युतिर्घनागमः कामिजनप्रियः प्रिये । 2/1 देखो प्यारी ! यह कामियों का प्यारा पावस राजाओं का सा ठाट-बाट बनाकर आ पहुँचा है। कान्तामुखद्युतिजिषामचिरोद्गतानां शोभां परां कुरबक दुममञ्जरीणाम् 16/20 अभी खिले हुए और स्त्रियों के मुख के समान सुंदर चमक वाले कुरबक के फूलों की अनोखी शोभा देखकर । 4. प्रभा - [ प्र + भा + अ + टाप्] प्रकाश, दीप्ति, कान्ति, चमक, जगमगाहट । रविप्रभोद्भिन्नशिरोमणिप्रभो विलोलजिह्वाद्वयलीढमारुतः । 1/20 जिसकी मणि सूर्य की चमक से और भी चमक उठी है, वह अपनी लपलपाती हुई दोनों जीभों से पवन पीता जा रहा है। क्वचित्सगर्भप्रमदास्तनप्रभैः समाचितं व्योम घनैः समन्ततः । 2 / 2 कहीं गभिर्णी स्त्री के स्तनों के समान चमक वाले पीले बादल आकाश में इधर-उधर छाए हुए हैं। - 821 तडित्प्रभादर्शितमार्ग भूमयः प्रयान्ति रागादभिसारिका स्त्रियः । 2/10 लुक-छिपकर अपने प्यारे के पास प्रेम से जाने वाली कामिनियाँ, बिजली की चमक से मार्ग देखती हुई चली जा रही हैं। परभृतकलंगीतैह्लादिभिः सद्वचांसि स्मितदशनमयूखान्कुन्दपुष्पप्रभाभिः । 6/31 जी हुलसाने वाले कोकिल के गीत सुना-सुना कर यह वसंत सुंदरियों की रसभरी बातों की खिल्ली उड़ा रहा है, अपने कुंद के फूलों की चमक दिखाकर यह वसंत स्त्रियों की मुस्कान पर चमक उठने वाले दाँतों की दमक की हँसी उड़ा रहा है। भास [ भास् + क्विप्] प्रकाश, कांति, चमक। For Private And Personal Use Only Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 822 कालिदास पर्याय कोश दन्तावभासविशदस्मितचन्द्रकान्तं कङ्केलिपुष्परुचिरा नवमालती च।3/18 कंकेलि तथा नई मालती के सुंदर फूलों ने दाँतों की चमक से खिल उठने वाली स्त्रियों की मुस्कुराहट की चमक को लजा दिया है। वापी जलानां मणिमेखलानां शशाङ्कभासां प्रमदाजनानाम्। 6/4 बावड़ियों के जल, मणियों से जड़ी करधनी चंद्रमा की चमक (चाँदनी) स्त्रियाँ। लक्ष्मी - [ लक्ष् + ई, मुट् + च] सौंदर्य, आभा, कांति। असितनयनलक्ष्मी लक्षयत्वोत्पलेषु क्वणितकनककाञ्ची मत्तहंस स्वनेषु। 3/26 नीले कमलों में अपनी प्रियतमा की काली आँखों की सुंदरता देखते हैं, मस्त हंसों की ध्वनि में उनकी सुनहरी करधनी की रुनझुन सुनते हैं। स्त्रीणां विहाय वदनेषु शशाङ्कलक्ष्मी काम्यं च हंसवचनं मणिनूपुरेषु। 3/27 कहीं तो चंद्रमा की चमक को छोड़कर स्त्रियों के मुंह में पहुंच गई है, कहीं हंसों की मीठी बोली छोड़कर उनके रतन जड़े बिछुओं में चली गई है। 7. शोभा - [ शुभ् + अ + यप्] प्रकाश, कांति, दीप्ति, चमक। अधररुचिरशोभा बन्धुजीवे प्रियाणां पथिकजन इदानीं रोदिती भ्रान्तचितः। 3/26 जब परदेश में गए हुए लोग बंधुजीव के फूलों में अपनी प्रियतमा के निचले होठों की चमकती हुई सुंदरता की चमक पाते हैं, तब वे सब सुध-बुध भूलकर रोने लगते हैं। पीनस्तनोरः स्थलभाग शोभामासाद्य तत्पीडनजात खेदः। 4/7 युवतियों के मोटे-मोटे स्तनों को उनकी सुंदर चमकदार छातियों पर देखकर सुख पाने वाला, उन्हें मले जाते देखकर दुखी होकर। अन्याप्रियेण परिभुक्तमवेक्ष्य गात्रं हर्षान्विता विरचिताधर चारुशोभा। एक दूसरी स्त्री अपने प्यारे से उपभोग किए हुए शरीर को देख-देखकर मगन होती हुई, अपने अधरों को पहले की तरह सुंदर बनाकर। त्यजति गुरुनितम्बा निम्नानाभिः सुमध्या उषसि शयनमन्या कामिनी चारुशोभा। 5/12 For Private And Personal Use Only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऋतुसंहार 823 भारी नितंबों वाली, गहरी नाभि वाली, लचकदार कमरवाली और मनभावनी सुंदरता वाली स्त्री प्रातः काल पलँग छोड़कर उठ रही है। कान्तामुखद्युतिजुषाम चिरोद्गतानां शोभा परां कुरबक दुम मञ्जरीणाम्। 6/20 अभी खिले हुए और स्त्रियों के मुख के समान सुंदर लगने वाले कुरबक के फूलों की अनोखी शोभा देखकर। 8. श्री - [श्रि + क्विप्, नि०] सौंदर्य, कांति, महिमा। मुक्त्वा कदम्बकुटजार्जुनसर्जनीपासप्तच्छदानुपगताकुसमोद्गमश्रीः। 3/13 फूलों की सुंदरता भी कदंब, कुटज, अर्जुन, सर्ज और अशोक के वृक्षों को छोड़कर छतिवन के पेड़ पर जा बसी है। बन्धूककान्तिमधरेषु मनोहरेषु क्वापि प्रयाति सुभगा शरदागमश्रीः। 3/27 शरद की सुंदर शोभा, कहीं बंधूक के फूलों की लाली छोड़कर उनके निचले होरों में जा चढ़ी है। प्ररोह 1. प्ररोह - [ प्र + रुह् + घञ्] टहनी, शाखा, कोंपल। पटुतरदवदाहोच्छुष्क सस्य प्ररोहाः परुषपवनवेगोत्क्षिप्त संशुष्कपर्णाः। 1/22 जंगल की आग की बड़ी-बड़ी लपट से वृक्षों की टहनियाँ झुलस गई हैं, अंधड़ में पड़कर सूखे हुए पत्ते ऊपर उड़े जा रहे हैं। 2. लता - [लत् + अच् + यप्] बेल, शाखा। श्यामालताः कुसुमभारनतप्रवालाः स्त्रीणां हरन्ति धृतभूषण बाहुकान्तिम्। 3/18 जिन हरी बेलों की टहनियाँ फूलों के बोझ से झुक गई हैं, उनकी सुन्दरता ने स्त्रियों की गहनों से सजी हुई बाहों की सुन्दरता छीन ली है। 3. शाखा - [ शाखति गगनं व्याप्नोति -शाख् + अच् + यप्] डाली, शाख। For Private And Personal Use Only Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 824 कालिदास पर्याय कोश परिणतदल शाखानुत्पतन् प्रांशवृक्षान्भ्रमति पवनधूतैः सर्वतोऽग्निर्वनान्ते। 1/26 पवन से भड़काई हुई आग उन ऊँचे वृक्षों पर उछलती हुई वन में चारों ओर घूम रही है, जिनकी डालियों के पत्ते बहुत गर्मी पड़ने से पक-पककर झड़ते जा रहे मुदित इव कदम्बैर्जातपुष्पैः समन्तात्पवन चलित शाखैः शाखिभिर्नृत्यतीव। 2/24 कदंब के फूल ऐसे लग रहे हैं, मानो पूरा जंगल मगन हो उठा हो। पवन से झूमती हुई शाखाओं को देखकर ऐसा लगता है मानो पूरा का पूरा जंगल नाच रहा हो। मन्दानिलाकुलितचारुतराग्रशाखः पुष्पोद्मप्रचय कोमल पल्लवानः। 3/6 जिसकी शाखाओं की सुंदर फुनगियों को धीमा-धीमा पवन झुला रहा है, जिस पर बहुत से फूल खिले हुए हैं, जिसकी पत्तियाँ बड़ी कोमल हैं। ताम्रप्रवालस्तबकावनम्राश्चूतमाः पुष्पितचारुशाखाः। 6/17 लाल-लाल कोपलों के गुच्छों से झुके हुए और सुंदर मंजरियों से लदी हुई शाखाओं वाले आम के पेड़। प्रवासी 1. अध्वग - [ अद् + क्वनिद् दकारस्य धकारः + गः] यात्री, बटोही, मार्गचलने वाला, पथिक। कान्तावियोगपरिखेदितचित्तवृत्तिर्दृष्ट्वाऽध्वगः कुसुमितान्सहकारवृक्षान्। 6/28 अपनी स्त्रियों से दूर रहने के कारण जिनका जी बेचैन हो रहा है, वे यात्री जब मंजरियों से लदे हुए आम के पेड़ों को देखते हैं, तो। 2. पथिक - [पथिन् + ष्कन्] यात्री, मुसाफिर, बटोही। अपहृतमिव चेतस्तोयदैः सेन्द्रचापैः पथिकजनवधूनां तद्वियोगाकुलानाम्। 2/23 For Private And Personal Use Only Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 3. ऋतुसंहार 825 जिन बादलों में इंद्रधनुष निकल आया है, उन्होंने परदेस में गए हुए लोगों की उन स्त्रियों की सब सुध-बुध हर ली है। अधररुचिरशोभा बन्धुजीवे प्रियाणां पथिकजन इदानीं रोदिति भ्रान्तचित्तः। 3/26 जब परदेस में गए हुए लोग बंधुजीव के फूलों में अपनी प्रियतमा के निचले होठों की चमकती हुई सुंदरता की चमक पाते हैं, तब वे सुध-बुध भूलकर रोने लगते हैं। प्रवासी- [प्र + वस् + णिनि] यात्री, बटोही, परदेशी। न शक्यते द्रष्टुमपि प्रवासिभिः प्रियावियोगानलदग्धमानसैः। 1/10 परदेश में गये हुए जिन प्रेमियों का हृदय अपनी प्रेमिकाओं के बिछोह की तपन से झुलस गया है, उनसे यह देखा नहीं जाता। सविभ्रमैः सस्मितजिह्मवीक्षितैर्विलासवत्यो मनसि प्रवासिनाम्। 1/12 वे सुंदरियाँ बड़ी चटक-मटक और मुस्कुराहट के साथ अपनी चितवन चलाकर परदेसियों के मन में। सुतीक्ष्णधारापतनोग्रसायकैस्स्तुदन्ति चेतः प्रसभं प्रवासिनाम्। 2/4 अपनी तीखी धारों के पैने बाण चलाकर परदेसियों का मन कसमसा रहे हैं। निरस्तमाल्याभरणानुलेपनाः स्थिता निराशाः प्रमदाः प्रवासिनाम्। 2/12 परदेसियों की स्त्रियाँ अपनी माला, आभूषण, तेल, उबटन, आदि सब कुछ छोड़कर गाल पर हाथ धरे बैठी हैं। स्त्रियश्च काञ्चीमणिकुण्डलोज्ज्वला हरन्ति चेतो युगपत्प्रवासिनाम्।2/20 करधनी तथा रत्न जड़े कुंडलों से सजी हुई स्त्रियाँ, ये दोनों परदेस में बैठे हुए लोगों का मन एक साथ हर लेती हैं। अभिमुखमभिवीक्ष्य क्षामदेहोऽपि मार्गे मदनशरनिघातैर्मोहमेति प्रवासी। 6/30 परदेसी एक तो यों ही बिछोह से दुबला-पतला रहता है, तिस पर अपने सामने मार्ग में इन्हें देखकर कामदेव के बाणों की चोट खाकर मूर्छित होकर गिर पड़ता है। For Private And Personal Use Only Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 826 कालिदास पर्याय कोश 4. प्रेषित - [ प्र + वस् + क्त] परदेश में गया हुआ, घर से दूर, अनुप्रस्थित, परदेश में रहने वाला। जनितरुचिरगन्धः केतकीनां रजोभिः परिहरति नभस्वान्प्रोषितानां मनांसि। 2/27 केतकी के फूलों का पराग लेकर चारों ओर मनभावनी सुगंध फैलाता हुआ पवन, परदेसियों का मन चुरा रहा है। कुमुदपि गतेऽस्तं लीयते चन्द्रबिम्बे हसितमिव वधूनां प्रोषितेषु प्रियेषु । 3/25 जैसे प्रिय के परदेस चले जाने पर स्त्रियों की मुस्कुराहट चली जाती है, वैसे ही चंद्रमा के छिप जाने पर कोई सकुचा जाती है। प्रिय 1. कामी - [कम् + णिनि] कामासक्त, प्रेमी, प्रिय, इच्छुक। सुतन्त्रिगीतं मदनस्य दीपनं शुचौ निशीथेऽनुभवन्ति कामिनः। 1/3 प्रेमियों को भी इन दिनों काम को उभारने वाली वस्तुएँ चाहिए, जैसे रात में सुंदर वीणा के साथ गाए हुए गीत। समागतो राजवदुद्धतातिर्घनागमः कामिजनप्रियः। 2/1 देखो प्यारी! यह कामियों का प्यारा पावस राजाओं का सा ठाट-बाट बनाकर आ पहुंचा है। स्तनैः सहारैर्वदनैः ससीधुभिः स्त्रियो रतिं संजनयन्ति कामिनाम्। 2/18 स्त्रियाँ छाती पर माला डालकर और मदिरा पीकर अपने प्रेमियों के मन में प्रेम उकसा रही हैं। विलासिनीभिः परिपीडितोरसः स्वपन्ति शीतं परिभूय कामिनः। 5/9 प्रेमी लोग कामिनियों को कसकर छाती से लिपाये हुए जाड़ा भगाकर सोते हैं। निशासु हृष्टा सह कामिभिः स्त्रियः पिबन्ति मद्यं मदनीयमुत्तमम्। 5/10 स्त्रियाँ बड़े हर्ष से अपने प्रेमियों के साथ रात को काम-वासना जगाने वाली मदिरा पीती हैं। For Private And Personal Use Only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 827 ऋतुसंहार 2. प्रिय - [ प्री + क] प्रिय, प्यारा, प्रेमी, पति। कृतापराधानपि योषितः प्रियान्परिष्वजन्ते शयने निरन्तरम्। 2/11 स्त्रियाँ सोते समय अपने दोषी प्रेमियों से भी लिपटी जाती हैं। कुमुदपि गतेऽस्तं लीयते चन्द्रबिम्बे हसितमिव वधूनां प्रोषितेषु प्रियेषु। 3/25 जैसे प्रिय के परदेस चले जाने पर स्त्रियों की मुस्कुराहट चली जाती है, वैसे ही चंद्रमा के छिप जाने पर कोई सकुचा जाती है। प्रिये प्रियङ्ग प्रियविप्रयुक्ता विपाण्डुतां याति विलासिनीव। 4/11 प्रियंगु की लता वैसी ही पीली पड़ जाती है जैसे अपने पति से अलग होने पर युवती पीली पड़ जाती है। अन्याप्रियेण परिभुक्तमवेक्ष्य गात्रं हर्षान्विता विरचिताधर चारुशोभा। 4/17 एक दूसरी स्त्री, अपने प्यारे से उपभोग किए हुए शरीर को देखकर बड़ी मगन होती हुई, अपने अधरों को पहले की तरह सुंदर बना रही है। समीपवीिष्वधुना प्रियेषु समुत्सुका एव भवन्ति नार्यः। 6/9 कामवासना से पीड़ित स्त्रियाँ अपने प्रेमियों के सामने अपनी अधीरता दिखा रही हैं। फणी 1. फणी - [फणा + इनि] साँप, सर्प, फणधारी सांप। अवाङ्मुखो जिह्मगतिः श्वसन्मुहुः फणी मयूरस्य तले निषीदति। 1/13 यह सर्प अपना मुँह नीचे छिपाकर बार-बार फुफकारता हुआ मोर की छाया में कुंडल मारे बैठा हुआ है। विषाग्निसूर्यातपतापितः फणी न हन्ति मण्डूक कुलं तृषाकुलः। 1/20 धूप की लपटों से और अपने विष की झार से जलने के कारण यह सर्प, प्यास से व्याकुल मेढकों को नहीं मार रहा है। 2. भुजंग - [भुजः सन् गच्छति गम् + खच्, मुम् डिच्च] साँप, सर्प। For Private And Personal Use Only Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 828 कालिदास पर्याय कोश विपाण्डुरं कीटरजस्तृणान्वितं भुजंगवद्वक्रगति प्रसर्पितम्। 2/13 छोटे-छोटे कीड़े, धूल और घास को बहाता हुआ मटमैला बरसाती पानी साँप के समान टेढ़ा-मेढ़ा घूमता हुआ। 3. भोगिन् - [भोग + इनि] फणदार, साँप। न भोगिनं जन्ति समीपवर्तिनं कलापचक्रेषु निवेशिताननम्। 1/16 वे अपने पास कुंडल मारकर बैठे हुए साँपों को भी नहीं मारते वरन् अपना गला उनकी पूँछ की कुंडल में डाले चुप-चाप बैठे हुए हैं। उत्प्लुत्य भेकस्तृषितस्य भोगिनः फणातपत्रस्य तले निषीदति। 1/8 मेंढक बाहर निकल-निकलकर प्यासे साँपों के फन की छतरी के नीचे आ-आकर बैठ रहे हैं। ग 1. अलि - [ अल् + इनि] भौंरा, बिच्छू। मत्तालियूथविरुतं निशि सीधुपानं सर्वं रसायनमिदं कुसुमायुधस्य। 5/35 मतवाले भौंरो की गुंजार और रात में आसव पीना ये सब कामदेव को जगाए रखने वाले रसायन ही हैं। आम्री मञ्जुलमञ्जरी वरशरः सत्किंशुकं यद्धना यस्यालिकुलं कलङ्करहितं छत्रं सितांशुः सितम्। 6/38 जिसके आम के बौर ही बाण हैं, टेसू ही धनुष हैं, भौंरों की पाँत ही डोरी हैं, उजला चंद्रमा ही निष्कलंक छत्र है। 2. द्विरेफ - [द्वि + रेफः] भौंरा। मत्तद्विरेफपरिपीतमधुप्रसेकश्चित्तं विदारयति कस्य न कोविदारः। 3/6 जिसमें से बहते हुए मधु की धार को मस्त भौरे धीरे-धीरे चूस रहे हैं, ऐसा कोविदार का वृक्ष किसका हृदय टुकड़े-टुकड़े नहीं कर देता। प्रफुल्लचूताङ्कुरतीक्ष्णसायको द्विरेफमालाविलसद्धनुर्गुणः। 6/1 फूले हुए आम की मंजरियों के पैने बाण लेकर और अपने धनुष पर भौंरो की पांतों की डोरी चढ़ाकर। For Private And Personal Use Only Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऋतुसंहार 829 कूजद्विरेफोऽप्ययमम्बुजस्थ प्रियं प्रियायाः प्रकरोति चाटु। 6/16 कमल पर बैठकर गुनगुनाता हुआ यह भौंरा भी अपनी प्यारी का मनचाहा काम कर रहा है। मत्तद्विरेफपरिचुम्बितचारुपुष्पा मन्दानिलाकुलितनम्रमृदुप्रवालाः। 6/19 फूलों को मतवाले भौरें चूम रहे हैं और नये कोमल पत्ते मंद-मंद पवन में झूल रहे हैं। रक्ताशोकविकल्पिताधरमधुर्मत्तद्विरेफस्वनः कुन्दापीडविशुद्ध दन्त निकरः प्रोत्फुल्ल पद्माननः। 6/36 अमृत भरे अधरों के समान लाल अशोक से मतवाले भौंरों की गूंज से, दाँतों की चमकती हुई पाँतों जैसे उजले कुंद के हारों से, भली भाँति खिले हुए कमल के समान मुखों से। 3. भुंग - [भृ + गन् कित्, नट् च] भौंरा। विपत्र पुष्पां नलिनी समुत्सुका विहाय भृङ्गाः श्रुतिहारि निस्वनाः। 2/14 कानों को सुहाने वाली मीठी तानें लेकर गूंजते हुए भौरे, उस कमल को छोड़-छोड़कर चले जा रहे हैं, जिसके पत्ते और फूल झड़ गए हैं। कपोलदेशा विमलोत्पलप्रभाः सभृङ्गयूथैर्मदवारिभिश्चितः। 2/15 जब उनके माथे से बहते हए मद पर भौरे आकर लिपट जाते हैं, उस समय उनके माथे स्वच्छ नीले कमल जैसे दिखाई देने लगते हैं। पुँस्कोकिलैः कलवचोभिरुपात्तहर्षेः कूजद्भिरुन्मदकलानि वचांसि भृङ्गैः। 6/23 मगन होकर मीठे स्वर में कूकने वाले नर कोयलों ने और मस्ती में गूंजते हुए भौंरों ने। मासे मधौ मधुरकोकिलभृङ्गनादैर्नार्यो हरन्ति हृदयं प्रसभं नराणाम्। 6/26 चैत में जब कोयल कूकने लगती है, भौरे गूंजने लगते हैं, उस समय स्त्रियाँ बलपूर्वक लोगों का मन अपनी ओर खींच लेती हैं। मधुकर - [मन्यत इति मधु, मन + उ नस्य ध:- करः] भौंरा। समदमधुकराणां कोकिलानां च नादैः कुसुमित सहकारैः कर्णिकारैश्च रम्यः। 6/29 For Private And Personal Use Only Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achary 830 कालिदास पर्याय कोश कोयल और मदमाते भौंरो के स्वरों से गूंजते हुए बौरे हुए आम के पेड़ों से भरा हुआ और मनोहर कनैर के फूलों वाले। उत्कूजितैः परभृतस्य मदाकुलस्य श्रोत्रप्रियैर्मधुकरस्य च गीतनादैः। 6/34 मदमस्त होने वाली कोकिल की कूक से और भौंरों की मनभावनी गुंजारों से। 5. मधुप - [ मधु + पः] भौंरा, मधुकर। विविधमधुपयूथैर्वेष्ट्यमानः समन्ताद् भवतु तव वसन्तः श्रेष्ठकालः सुखाय। 6/37 चारों ओर भौंरों से घिरा हुआ वसंत आपको सुखी और प्रसन्न रखे। मण्डूक 1. भेक - [भी + कन्] मेंढक, छोटा मेंढक, मेंढकी। ससाध्वसैर्भेककुलैर्निरीक्षितं प्रयाति निम्नाभिमुखं नवोदकम्। 2/13 बरसाती पानी ढाल से आ रहा है और बेचारे मेंढक उसे साँप समझकर देख देखकर डरे जा रहे हैं। 2. मण्डूक - [ मण्डयति वर्षा समयं - मण्ड् + ऊकण्] मेंढक। विषाग्निसूर्यातपतापितः फणी न हन्ति मण्डूककुलं तृषाकुलः। 1/20 धूप की लपटों और अपने विष की झाक से जलने के कारण यह साँप प्यासे मेंढकों को नहीं मार रहा है। मन्दिर 1. गृह - [ग्रह + क] घर, निवास, आवास, भवन। श्रुत्वा ध्वनि जलमुचां त्वरितं प्रदोषे शय्यागृहं गुरुगृहात्प्रविशन्ति नार्यः। 2/22 स्त्रियाँ बादलों की गड़गड़ाहट सुनकर झट अपने घर के बड़े-बूढ़ों के पास से उठकर सही साँझ को ही अपने शयनघर में घुस जाती हैं। उषसि वदनबिम्बैरंससक्तकेशैः श्रिय इव गृहमध्ये संस्थिता योषितोऽद्य। 5/13 For Private And Personal Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org ऋतुसंहार प्रात: काल के समय स्त्रियों के कंधों पर फैले हुए बालों वाले गोल-गोल मुखों को देखकर ऐसा लगता है, मानो घर-घर में लक्ष्मी आ बसी हो । 3. मंदिर [ मन्द्यतेऽत्र मन्द् + किरच्] रहने का स्थान, आवास, महल, भवन । - निशा: शशाङ्कक्षतनीलराजयः क्वचिद्विचित्रं जलयन्त्रमन्दिरम्। 1/2 रात में चारों ओर खिले हुए चंद्रमा की चाँदनी छिटकी हुई हो, रंग-बिरंगे फव्वारों वाले घरों में हम लोग बैठे हों। 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निरुद्धवातायनमन्दिरोदरं हुताशनो भानुमता गभस्तयः । 5/2 आजकल लोग अपने घरों के भीतर खिड़कियाँ बंद करके, आग ताप कर, धूप खाकर दिन बिताते हैं । 3. वास [ वास् + घञ्] सुगंध, निवास, आवास, घर । प्रियतमपरिभुक्तं वीक्षमाणा स्वदेहं व्रजति शयनवासाद्वासमन्यं हसन्ती । 5/11 अपने प्रियतम से उपभोग किए हुए अपने शरीर को देखती हुई अपने शयन घर से दूसरे घर में चली जा रही है। 4. वेश्म [ विश् + मनिन् ] घर, निवास स्थान, आवास, भवन, महल । रचितकुसुमगन्धि प्रायशो यान्ति वेश्म 831 प्रबल मदनहेतोस्त्यक्त संगीत रागाः । 3 / 23 सब गाना-बजाना छोड़कर अत्यंत कामातुर होकर उन घरों में चली जा रही हैं, जिनमें सुगंधित फूलों की सेज बिछी हुई है। 5. हर्म्य - [ हृ + यत्, मुट् च] प्रासाद, महल, भवन, बड़ी इमारत । सुवासितं हर्म्यतलं मनोहरं प्रियामुखोच्छ्वासविकम्पितं मधु । 1/3 सुंदर सुगंधित जल से धुला हुआ भवन का तल, प्यारी के मुँह की भाप से उफनाती हुई मदिरा । व्रजतु तव निदाघः कामिनीभिः समेतो निशि सुललितगीते हर्म्य पृष्ठे सुखेन । 1 / 28 सितेषु हर्म्येषु निशासु योषितां सुख प्रसुप्तानि मुखानि चन्द्रमाः । 1 / 9 रात के समय उजले भवन में सुख से सोई हुई युवती का मुँह निहारने को उतावला रहने वाला चंद्रमा । For Private And Personal Use Only Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 832 कालिदास पर्याय कोश वह गर्मी ऋतु आपकी ऐसी बीते कि रात को आप घर की छत पर लेटे हों, सुंदरियाँ आपको घेरे बैठी हों और मनोहर संगीत छिड़ा हो। न चन्दनं चन्द्रमरीचि शीतलं न हर्म्यपृष्ठं शरदिन्दुनिर्मलम्। 5/3 न किसी को चंद्रमा की किरणों से ठंडाया हुआ चंदन ही अच्छा लगता है, न शरद् के चंद्रमा के समान उजली छतें सुहाती हैं। ईषत्तुषारैः कृतशीतहर्म्यः सुवासितं चारु शिरश्च चम्पकैः। 6/3 घरों की छतों पर ठंडी ओस छा गई है, चंपे के फूलों से सबके सिर के जूड़े महकने लगे हैं। हवें प्रयाति शयितुं सुखशीतलं च कान्तां च गाढमुपगृहति शीतलत्वात्। 6/11 सोने के लिये ठंडी सुहावनी ठंडी कोठी में चले जाते हैं और थोड़ी-थोड़ी ठंड पड़ने के कारण अपनी प्यारियों को कसकर छाती से लिपटाए रहते हैं। मणि मणि - [ मण् + इन्] रत्नजड़ित आभूषण, रत्न, आभूषण। मणिप्रकाराः सरसं च चन्दनं शुचौ प्रिये यान्ति जनस्य सेव्यताम्। 1/2 आजकल लोग यह चाहते हैं कि इधर-उधर ढंग-ढंग के रत्न बिखरे पड़े हों और सुगंधित चंदन चारों ओर छिड़का हुआ हो। स्त्रियश्च काञ्चीमणिकुण्डलोज्ज्वला हरन्ति चेतो युगपत्प्रवासिनाम्।2/20 करधनी तथा रत्न जड़े कुंडलों से सजी हुई स्त्रियाँ ये दोनों ही परदेसियों का मन एक साथ हर लेते हैं। स्फुटकुमुदचितानां राजहंसाश्रितानां मरकतमणिभासा वारिणा भूषितानाम्। 3/21 उन तालों के समान दिखाई पड़ रहा है, जिनमें नीलम के समान चमकता हुआ, जल भरा हुआ हो, जिनमें एक-एक राजहंस बैठा हुआ हो और जिनमें यहाँ-वहाँ बहुत से कुमुद खिले हुए हों। स्त्रीणां विहाय वदनेषु शशाङ्कलक्ष्मी काम्यं च हंसवचनं मणिनूपुरेषु। 3/27 For Private And Personal Use Only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org - ऋतुसंहार 833 कहीं तो चंद्रमा की चमक को छोड़कर स्त्रियों के मुँह में पहुँच गई, कहीं हंसों की मीठी बोली छोड़कर उनके रत्न जड़े बिछुओं में चली गई । वापीजलानां मणिमेखलानां शशाङ्कभासां प्रमदाजनानाम् । 6/4 बावड़ियों के जल, मणियों से जड़ी करधनियाँ, चाँदनी और स्त्रियाँ | 2. रत्न [ रमतेऽत्र रम् + न, तान्तादेश: ] मणि, आभूषण, हीरा । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विभाति शुक्लेतरत्नविभूषिता वराङ्गनेव क्षितिरिन्द्रगोपकैः । 2/5 बीरबहूटियों से छाई हुई धरती उस नायिका जैसी दिखाई दे रही है, जो धौले रत्न को छोड़कर और सभी रँग के रत्नों वाले आभूषणों से सजी हुई हो। काञ्चीगुणैः काञ्चनरत्नचित्रैनों भूषयन्ति प्रमदा नितम्बान् । 4/4 न स्त्रियाँ अपने नितंबों पर सोने और रत्नों से जड़ी हुई करधनी पहनती हैं। रत्नान्तरे मौक्तिकसङ्गरम्यः स्वेदागमो विस्तरतामुपैति । 6/8 पसीने की बूँदें ऐसी दिखाई पड़ रही है, मानों अनेक प्रकार के रत्नों के बीच बहुत से मोती जड़ दिए गए हों । मधु 1. आसव [ आ + सु + अण् ] अर्क, काढ़ा, शराब । गृहीतताम्बूलविलेपनस्त्रजः पुष्पासवमोदितवक्त्र पङ्कजाः । 5/5 फूलों के आसव पीने से जिनका कमल जैसा मुँह सुगंधित हो गया है, वे स्त्रियाँ पान खाकर, फुलेल लगाकर और मालाएँ पहनकर । पुंस्कोकिलश्चूतरसासवेन मत्तः प्रियां चुम्बति रागहृष्टः । 6 / 16 यह नर कोयल आम की मंजरियों के रस में मदमस्त होकर अपनी प्यारी को बड़े प्रेम से प्रसन्न होकर चूम रहा है। 2. मदिरा - [ मंदिर + टाप्] खींची हुई शराब । नेत्रेषु लोलो मदिरालसेषु गण्डेषु पाण्डुः कठिनः स्तनेषु । 6/12 स्त्रियों की मदमाती आँखों में चंचलता बनकर, गालों में पीलापन बनकर, स्तनों में कठोरता बनकर । अङ्गानि निद्रालसविभ्रमाणि वाक्यानि किंचिन्मदिरालसानि । 6/13 For Private And Personal Use Only Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 834 कालिदास पर्याय कोश स्त्रियाँ अलसा जाती हैं, मद से उनका चलना-बोलना कठिन हो जाता है। 3. मद्य - [ माद्यत्यनेन करणे यत्] शराब, मदिरा, मादक पेय, मादक। निशासु हृष्टा सह कामिभिः स्त्रियः पिबन्ति मद्यं मदनीयमुत्तमम्। 5/10 स्त्रियाँ बड़े हर्ष से अपने प्रेमियों के साथ रात को कामवासना जगाने वाली वह मदिरा पीती हैं। 4. मधु - [ मन्यत इति मधु, मन + उ नस्य धः] शहद, फूलों का रस, शराब, मीठा मादक पेय। सुवासितं हऱ्यातलं मनोहरं प्रियामुखोच्छ्वासविकम्पितं मधु। 1/3 सुंदर सुगंधित जल से धुला हुआ भवन का तल, प्यारी के मुँह की भाप से उफनाती हुई मदिरा। मत्ताद्विरेफ परिपीतमधुप्रसेकश्चित्तं विदारयति कस्य न कोविदारः। 376 जिसमें से बहते हुए मधु की धार को मस्त भौरे धीरे-धीरे पी रहे हैं, ऐसा कोविदार का वृक्ष किसका हृदय टुकड़े-टुकड़े नहीं कर देता। मधुसुरभि मुखाब्जं लोचने लोधताने नवकुरबकपूर्णः केशपाशो मनोज्ञः। 6/33 आसव से महकता हुआ स्त्रियों का कमल के समान मुख, उनकी लोध जैसी लाल-लाल आँखें, कुरबक के फूलों से सजे हुए उनके सुंदर जूड़े। सीधु - [सिध् + उ, पृषो०] गुड़ से बनाई हुई शराब, ईख की मदिरा, शराब, मदिरा। स्तनैः सहारैर्वदनैः ससीधुभिः स्त्रियो रतिं संजनयन्ति कामिनाम्। 2/18 स्त्रियाँ छाती पर माला डालकर और मदिरा पीकर अपने प्रेमियों के मन में प्रेम उकसा रही हैं। मत्तालियूथविरुतं निशि सीधुपानं सर्वं रसायनमिदं कुसुमायुधस्य। 6/35 मतवाले भौंरों की गुंजार और रात में आसव पीना ये सब कामदेव को जगाए रखने वाले रसायन ही हैं। मन्मथ 1. अनंग - कामदेव, देहरहित, अशरीरी। For Private And Personal Use Only Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 835 ऋतुसंहार अनङ्गसंदीपनमाशु कुर्वते यथा प्रदोषाः शशिचारुभूषणाः। 1/12 चमकते हुए चंद्रमा के समान जो सुंदरियाँ उजले आभूषणों से सजी हुई बड़ी प्यारी लग रही हैं, वे मन में झट से कामदेव जगा देती हैं। प्रयान्त्यनङ्गातुरमानसानां नितम्बिनीनां जघनेषु काञ्चयः। 6/7 अपने प्रेमी के संभोग करने को उतावली नारियों ने अपने नितंबों पर करधनी बाँध ली है। अङ्गान्यनङ्ग प्रमदाजनस्य करोति लावण्यससंभ्रमाणि। 6/10 काम-वासना के कारण स्त्रियों के सारे शरीर में कुछ अनोखा ही रसीलापन आ जाता है। मध्येषु निम्नो जघनेषु पीनः स्त्रीणामनङ्गो बहुधा स्थितोऽद्य। 6/12 इन दिनों कामदेव भी स्त्रियों की कमर में गहरापन बनकर और नितंबों में मोटापा बनकर आ बैठता है। 2. कंदर्प - [ कं कुत्सितो दर्पो यस्मात् - ब० स०] कामदेव। प्रचुरगुडविकारः स्वादुशीलीक्षुरम्यः प्रबलसुरतकेलिर्जातकन्दर्पदर्पः। 5/16 मिठाइयाँ बहुतायत से मिलती हैं,स्वाद लगने वाले चावल और ईख चारों ओर सुहाते हैं, लोग बहुत संभोग करते हैं, कामदेव भी पूरे वेग से बढ़ जाता है। उच्छ्वासयन्त्यः श्लथबन्धनानि गात्राणि कंदर्पसमाकुलानि। 6/9 कामवासना से पीड़ित स्त्रियाँ अपने अंग उघाड़ती हुईं, उन्हें ललचा रही हैं। दृष्ट्वा प्रिये सहृदयस्य भवेन्न कस्य कंदर्पबाणपतनं व्यथितं हि चेतः। 6/20 अनोखी शोभा देखकर किस रसिक का मन कामदेव के बाण से घायल नहीं हो जाता। आलम्बिहेमरसनाः स्तनसक्तहारा: कंदर्पदर्पशिथिलीकृतगात्रयष्ट्यः । 6/26 कमर में सोने की करधनी बाँधे, स्तनों पर मोती के हार लटकाए और काम की उत्तेजना से ढीले शरीर वाली स्त्रियाँ । 3. काम - [ कम् + घञ्] कामदेव, वीर्य। प्रकामकामं प्रमदाजन प्रियं वरोरु कालं शिशिराह्वयं श्रुणु। 5/1 For Private And Personal Use Only Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 836 कालिदास पर्याय कोश हे सुंदर जाँघों वाली! सुनो, जिस ऋतु में काम भी बहुत बढ़ जाता है, वह स्त्रियों की प्यारी शिशिर ऋतु आ पहुंची है। सुगन्धिनिः श्वासविकम्पितोत्पलं मनोहरं कामरति प्रबोधकम्। 5/10 कामवासना जगाने वाली वह मदिरा पीती हैं, जिसमें पड़े हुए कमल उन की सुगंधित साँस से बराबर हिलते रहते हैं। भ्रूक्षेपजिह्मानि च वीक्षितानि चकारकामः प्रमदाजनानाम्। 6/13 काम से स्त्रियों की टेढ़ी भौंहों के कारण चितवन बड़ी कटीली हो जाती है। सुगन्धिकालागरुधूपितानि धत्तेः जनः काममदालसाङ्गः। 6/15 कामदेव के मद में अलसाई हुई स्त्रियाँ काला गुरु के धुएँ से सुगंधित किए हुए। कुर्वन्ति कामं पवनावधूताः पर्युत्सुकं मानसमङ्गनानाम्। 6/17 जब पवन के झोंके में हिलने लगते हैं तो उन्हें देख-देखकर स्त्रियों के मन में काम उभरने लगता है। कुसुमायुध - [कुष् + उम + आयुधः] कामदेव। मत्तालियूथविरुतं निशि सीधुपानं सर्वं रसायनमिदं कुसुमायुधस्य। 6/35 मतवाले भौंरो की गुंजार और रात में आसव, पीना, ये सब कामदेव को जगाए रखने वाले रसायन ही हैं। 5. मदन - [माद्यति अनेन - मद करणे ल्युट्] मादक, कामदेव। सतन्त्रिगीतं मदनस्य दीपनं शुचौ निशीथेऽनुभवन्ति कामिनः। 1/3 प्रेमियों को काम को उभारने वाली वस्तुएँ चाहिए, जैसे रात में सुंदर वीणा के साथ गाए हुए गीत। नृत्यप्रयोगरहिताशिखिनो विहाय हंसामुपैति मदनो मधुर प्रगीतान्। 3/13 जिन मोरों ने नाचना छोड़ दिया है, उन्हें छोड़कर अब कामदेव उन हंसों के पास पहुँच गया है, जो बड़ी-मीठी बोली में रुनझुन कर रहे हैं। रचितकुसुमगन्धि प्रायशो यान्ति वेश्म प्रबलमदनहेतोस्त्यक्तसंगीत रागाः। 3/23 सब गाना-बजाना छोड़कर अत्यंत कामातुर होकर उन घरों में चली जा रही हैं, जिनमें सुगंधित फूलों की शय्या बिछी हुई है। For Private And Personal Use Only Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 837 ऋतुसंहार अभिमुखमभिवीक्ष्य क्षामदेहोऽपि मार्गे मदनशरनिघातैर्मोहमेति प्रवासी। 6/30 परदेश में पड़ा हुआ यात्री एक तो यों ही दुबला-पतला हुआ रहता है, तिस पर जब अपने सामने यह देखता है तो वह कामदेव के बाणों की चोट खाकर मूर्च्छित हो जाता है। चूतामोदसुगन्धिमन्दपवनः शृङ्गारदीक्षागुरुः कल्पान्तं मदनप्रियो दिशतु वः पुष्पागमो मङ्गलम्। 6/36 आम के बौरों की सुगंध में बसे हुए मंद-मंद पवन से यह श्रृंगार की शिक्षा देने वाला और काम का मित्र वसंत आप लोगों को सदा प्रसन्न रखे। मन्मथ - [मन् + क्विप्, मथ् + अच्, ष० त०] कामदेव। दिनान्तरम्योऽभ्युपशान्तमन्मथो निदाघकालोऽयमुपागतः प्रिये। 1/1 प्रिये! गरमी के दिन आ गए हैं, इन दिनों साँझ बड़ी लुभावनी होती है, और कामदेव तो एक-दम ठंडा पड़ जाता है। पदे पदे हंसरुतानुकारिभिर्जनस्य चित्तं क्रियते समन्मथम्। 1/5 पैरों में हंसों के समान रुनझुन करने वाले बिछुओं को देखकर लोगों का जी काम से मचल उठता है। स वल्लकीकाकलिगीतनिस्वनैर्विबोध्यते सुप्त इवाद्य मन्मथः। 1/8 लोग कामदेव को उसी प्रकार जगाया करते हैं, जैसे कोई स्त्री अपने सोए हुए प्रेमी को वीणा के साथ अपने मीठे गले से गीत गा-गाकर जगाया करती है। इषुभिरिव सुतीक्ष्णैर्मानसं मानिनीनां तुदति कुसुममासो मन्मथोद्दीपनाय। 6/29 अपने पैने बाणों से यह वसंत मानिनी स्त्रियों के मन इसलिये बींध रहा है जिससे उनमें काम जग जाए। गुरुतरकुचयुग्मं श्रोणिबिम्बं तथैव न भवति किमिदानी योषितां मन्मथाय। 6/33 स्त्रियों के बड़े-बड़े गोल-गोल स्तन वैसे ही बड़े-बड़े गोल-गोल नितंब क्या लोगों के मन में कामदेव को नहीं जगा रहे हैं। For Private And Personal Use Only Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 838 7. वितनु - कामदेव । www. kobatirth.org 2. मयूख 1. अंशु - [ अंश् + कु] किरण, प्रकाश किरण । कमलवनचिताम्बुः पाटलामोदरम्यः Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मत्तेभो मलयानिलः परभृता यद्बन्दिनो लोकजित् सोऽयं वो वितरतरीतु वितनुर्भद्रं वसन्तान्वितः । 6/38 जिसका मलयाचल से आया हुआ पवन ही मतवाला हाथी है, कोयल ही गायक है और शरीर न रहते हुए भी जिसने संसार जीत लिया है वह कामदेव वसंत के साथ आपका कल्याण करे । कालिदास पर्याय कोश सुखसलिलनिषेकः सेव्यचन्द्रांशुहारः । 1 / 28 कमलों से भरे हुए और खिले हुए पाटल की गंध में बसे हुए जल में स्नान करना बहुत सुहाता है और जिन दिनों चंद्रमा की किरणें और मोती के हार बहुत सुख देते हैं। कर- [ करोति, कीर्यते अनेन इति, कृ + अप्] प्रकाश किरण, रश्मिमाला । दिवसकरमयूखैर्बोध्यमानं प्रभाते वर युवतिमुखाभंपङ्कजं जृम्भतेऽद्य। 3/25 प्रातः काल जब सूर्य अपनी किरणों से कमल को जगाता है, तब वह कमल सुंदरी युवती के समान खिल उठता है । स्त्रस्तांसदेशलुलिताकुलकेशपाशा निद्रां प्रयाति मृदुसूर्यकराभितप्ता । 4/15 उसके कंधे झूल गए हैं, बाल इधर-उधर बिखर गए हैं और वह प्रातः काल के सूर्य की कोमल किरणों में धूप खाती हुई सो गई है। 3. किरण [ कृ + क्यु] प्रकाश किरण, किरण । 1 छायां जनः समभिवाञ्छति पादपानां नक्तं तथेच्छति पुनः किरणं सुधांशोः 16/11 लोग दिन में तो वृक्षों की शीतल छाया में रहना चाहते हैं और रात में चंद्रमा की किरणों का आनंद लेना चाहते हैं । For Private And Personal Use Only 4. गभस्ति - [ गम्यते ज्ञायते गम् + ड= गः विषयः तं बिभस्ति भस् + क्तिच् ] प्रकाश किरण | Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऋतुसंहार 839 हुताग्निकल्पैः सवितुर्गभस्तिभिः कलापिन: क्लान्तशरीर चेतसः। 1/16 हवन की अग्नि के समान जलते हुए सूर्य की किरणों से जिन मोरों के शरीर और मन दोनों सुस्त पड़ गए हैं। 5. मयूख - [मा + ऊख, मयादेशः] प्रकाश किरण, रश्मि, अंशु, कांति, दीप्ति, किरण। रवेर्मयूखैरभितापितो भृशं विदह्यमानः पथि तप्त पांसुभिः। 1/13 सूर्य की किरणों (धूप) से एकदम तपा हुआ और पैड़ें की गर्म धूल से झुलसा हुआ यह साँप। रवेर्मयूखैरभितापितो भृशं वराहयूथो विशतीव भूतलम्। 1/17 सूर्य की किरणों (धूप) से एकदम झुलसा हुआ यह जंगली सुअरों का झुंड मानो धरती में घुसा जा रहा है। 6. मरीचि - [मृ + इचि] प्रकाश की किरण। नेत्रोत्सवो हृदयहारिमरीचिमालः प्रह्लादकः शिशिरसीकरवारिवर्षी। 3/9 आँखों को भला लगने वाले जिस चंद्रमा की किरणें मन को बरबस अपनी ओर खींच लेती हैं, वही सुहावना और ठंडी फुहार बरसाने वाला चंद्रमा। न चन्दनं चन्द्रमरीचिशीतलं न हर्म्यपृष्ठं शरदिन्दुनिर्मलम्। 5/3 न किसी को चंद्रमा की किरणों से ठंडाया हुआ चंदन ही अच्छा लगता है, न शरद के चंद्रमा के समान निर्मल छतें सुहाती हैं। माभि - किरण, प्रकाश किरण। तुषारसंघातनिपातशीतलाः शशाङ्कमाभिः शिशिरीकृताः पुनः। 5/4 घने पाले से कड़कड़ाते जाड़ों वाली, चंद्रमा की किरणों से और भी ठंडी बनी हुई रातों में। मयूर 1. कलापिन - [कलाप + इनि] मोर। हुताग्निकल्पैः सवितुर्गभस्तिभिः कलापिन: क्लान्त शरीर चेतसः। 1/16 हवन की अग्नि के समान जलते हुए सूर्य की किरणों से जिन मोरों के शरीर और मन दोनों सुस्त पड़ गए हैं। For Private And Personal Use Only Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 840 www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 2. बर्हिण [ बर्ह + इनच्] मोर । ससंभ्रमालिङ्गन चुम्बनाकुलं प्रवृत्तनृत्यं कुलमद्य बर्हिणाम् । 2/6 ये मोरों के झुंड, झटपट अपनी प्यारी मोरनियों को गले लगाते हुए और चूमते हुए आज नाच उठे हैं । कालिदास पर्याय कोश 3. मयूर [मी + ऊरन्] मोर । अवाङ्मुखो जिह्मगतिः श्वसन्मुहुः फणी मयूरस्य तले निषीदति । 1/13 अपना मुँह नीचे छिपाकर बार-बार फुफकारता हुआ साँप मोर की छाया में कुंडल मारे बैठा हुआ है। धुन्वन्ति पक्ष पवनैर्न नभो बलाकाः पश्यन्ति नोन्नतमुखा गगनं मयूराः । 3/12 न बगले ही अपने पँख हिला-हिलाकर आकाश को पंखा कर रहे हैं और न मोरों के झुंड ही मुँह ऊपर उठाकर आकाश की ओर देख रहे हैं। 4. शिखी - [ शिखा अस्त्यस्य इनि] मोर, मुर्गा । पतन्ति मूढाः शिखिनां प्रनृत्यतां कलाप चक्रेषु नवोत्पलाशया । 2 / 14 वे हड़बड़ी में भूल से, नाचते हुए मोरों के खुले पंखों को नए कमल समझकर उन्हीं पर टूट पड़ रहे हैं । प्रवृत्त नृत्यैः शिखिभिः समाकुलाः समुत्सुकत्वं जनयन्ति भूधराः । 2/16 जिन पहाड़ों पर मोर नाच रहे हैं, उन्हें देखकर प्रेमियों के मन में हलचल मच जाती है । 1. मीन - मछली । नद्यो घना मत्तगजा वनान्ताः प्रियाविहीनाः शिखिनः प्लवङ्गाः । 2/19 नदियाँ, बादल, मतवाले हाथी, जंगल, अपने प्यारों से बिछुड़ी हुई स्त्रियाँ, मोर और बंदर | नृत्यप्रयोगरहिताञ्शिखिनो विहाय हंसानुपैति मदनो मधुर प्रगीतान्। 3 / 13 जिन मोरों ने नाचना छोड़ दिया है, उन्हें छोड़कर अब कामदेव उन हंसों के पास पहुँच गया है, जो बड़ी मीठी बोली में रुनझुन रुनझुन कर रहे हैं। मीन For Private And Personal Use Only Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ऋतुसंहार www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 841 समुद्धृताशेषमृणालजालकं विपन्नमीनं दुतभीतसारसम् । 1/19 इस ताल के सब कमल उखाड़ डाले हैं, मछलियों को रौंद डाला और सब सारसों को डराकर भगा दिया है। 2. शफरी - [ शफ राति रा + क] एक प्रकार की छोटी चमकीली मछली । चञ्चन्मनोज्ञशफरीरसनाकलापाः पर्यन्तसंस्थितसिताण्डज पङ्कितहाराः । 3/3 उछलती हुई सुंदर मछलियाँ ही उनकी करधनी हैं, तीर पर बैठी हुई उजली चिड़ियों की पाँतें ही उनकी मालाएँ हैं । मुख 1. आनन [ आ + अन् + ल्युट् ] मुँह, चेहरा । तृषा महत्या हतविक्रमोद्यमः श्वसन्मुहुर्दूर विदारिताननः । 1/14 बहुत प्यास के मारे इसका सब साहस ठंडा पड़ गया है, अपना पूरा मुँह खोलकर यह बार-बार हाँफ रहा है। विलोलनेत्रोत्पल शोभिताननै मृगैः समन्तादुपाजातसाध्वसैः । 2/9 कमल के समान सुहावनी चंचल आँखों के कारण सुंदर मुख वाले डरे हुए हरिणों से भरा हुआ । काचिद्विभूषयति दर्पणसक्तहस्ता बालातपेषु वनिता वदनारविन्दम् । 4/14 एक स्त्री, हाथ में दर्पण लिए हुए प्रातः काल की धूप में बैठी अपने कमल जैसे मुँह का सिंगार कर रही है । अभिमतरतवेषं नन्दयन्त्यस्तरुण्यः सवितुरुदयकाले भूषयन्त्याननानि । 5/15 अपने मनचाहे संभोग के वेश पर खिलखिलाती हुई स्त्रियाँ प्रातः काल अपना मुँह सजा रही हैं। कनक कमलकान्तैराननैः पाण्डुगण्डैरुपनिहितहारैश्चन्दनाद्रैः स्तनान्तैः। 6/32 For Private And Personal Use Only अपने स्वर्ण कमल के समान सुनहरे गालों वाले मुँह से, गीले चंदन से पुते और मोतियों के हार पड़े हुए स्तनों से । Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 842 कालिदास पर्याय कोश रक्ताशोक विकल्पिताधर मधुर्मत्तद्विरेफस्वनः कुन्दापीडविशुद्ध दन्तनिकरः प्रोत्फुल्लपद्माननः। 6/36 अमृत भरे अधरों के समान लाल अशोक से, मतवाले भौंरों की गूंज से, दाँतों की चमकती हुई पाँतों जैसे उजले कुंद के हारों से, भलीभाँति खिले हुए कमल के समान मुखों से। 2. मुख - [ खन् + अच्, डित् धातोः पूर्व मुट् च] मुँह, चेहरा। सुवासितं हर्म्यतलं मनोहरं प्रियामुखोच्छ्वासविकम्पितं मधु। 1/3 सुंदर सुगंधित जल से धुला हुआ भवन का तल, प्यारी के मुँह की भाप से उफनाती हुई मदिरा। सितेषु हर्येषु निशासु योषितां सुखप्रसुप्तानि मुखानि चन्द्रमाः। 1/9 रात के समय उजले भवन में सुख से सोई हुई युवती का मुंह निहारने को उतावला रहने वाला चंद्रमा। तृणोत्करैरुद्गतकोमलाङ्कुरैश्चितानि नीलैर्हरिणीमुखक्षतैः। 2/8 हरिणियों के मुँह की कतरी हुई हरी-भरी घासों से छाए हुए। हंसैर्जिता सुललिता गतिरङ्गनानामम्भोरुहैर्विकसितै मुखचन्द्रकान्तिः। 3/17 हंसों ने सुंदरियों की मनभावनी चाल को, कमलिनियों ने उनके चंद्रमुख की चमक को हरा दिया है। अनुपममुखरागारात्रिमध्ये विनोदं शरदि तरुणकान्ताः सूचयन्ति प्रमोदान्। 3/24 शरद् में अनूठे प्रकार से मुँह रँगने वाली युवतियाँ सखियों से यह बता डालती हैं, कि रात में कैसे-कैसे आनंद लूट गया। दिवसकरमयूखैर्बोध्यमानं प्रभाते वरयुवतिमुखाभं पङ्कजंजृम्भतेऽद्य। 3/25 प्रातः काल जब सूर्य अपने करों से कमल को जगाता है तब वह कमल सुंदरी युवती के मुँह के समान खिल उठता है। गात्राणि कालीयकचर्चितानि सपत्रलेखानि मुखाम्बुजानि। 4/5 अपने शरीर पर चंदन मलती हैं, अपने कमल जैसे मुँह पर अनेक प्रकार के बेल-बूटे बनाती हैं। For Private And Personal Use Only Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ऋतुसंहार www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 843 कान्तामुखद्युतिजुषामचिरोद्गतानां शोभां परां कुरबकद्दुममञ्जरीणाम् । 6/20 अभी खिले हुए और स्त्रियों के मुख के समान सुंदर लगने वाले कुरबक के फूलों की अनोखी शोभा देखकर । किं किंशुकैः शुकमुखच्छविभिर्न भिन्नं किं कर्णिकारकुसुमैर्न कृतं नु दग्धम्। 6/33 सुग्गे की ठोर मुँह के समान लाल टेसू के फूलों ने कुछ कम टूक-टूक कर रखा था या कनैर के फूलों ने कुछ कम जला रखा था। मधुसुरभि मुखाब्जे लोचने लोध्रताम्रे नवकुरबकपूर्णः केशपाशो मनोज्ञः 1 6/33 आसव से महकता हुआ कमल के समान मुख, उनकी लोध जैसी लाल-लाल आँखें, नए कुरबक के फूलों से सजे हुए उनके सुंदर जूड़े। 3. वक्त्र [ वक्ति अनेन वच् - करणे ष्ट्रन् ] मुख, चेहरा । सफेनलालावृतवक्त्रसंपुट: विनिःसृतालोहितजिह्वमुन्मुखम् । 1 / 21 जिनके मुँह से झाग निकल रही है और लार बह रही है, वे अपना मुँह खोलकर अपनी लाल-लाल जी बाहर निकाले हुए। काशांशुका विकचपद्ममनोज्ञवक्त्रा सोन्मादहंसरवनूपुरनाद रम्या | 3/1 फूले हुए काँस के समान कपड़े पहने, मस्त हंसों की बोली के सुहावने बिछुए पहने और खिले हुए कमल के समान सुंदर मुख वाली । तारागणप्रवरभूषणमुद्वहन्ती मेघावरोधपरिमुक्त शशाङ्कवक्त्रा । 3/7 बादल हटे हुए चंद्रमा के मुँहवाली आजकल की रात तारों के सुहावने गहने पहने हुए बढ़ती चली जा रही है। विकचकमलवक्त्रा फुल्लनीलोत्पलाक्षी विकसितनवकाश श्वेतवासो वसाना। 3 / 28 For Private And Personal Use Only खिले हुए उजले कमल के मुखवाली, फूले हुए नीले कमल की आँखों वाली, फूले हुए काँस की साड़ी पहनने वाली । रात्रिश्रमक्षामविपाण्डुवक्त्राः संप्राप्तहर्षाभ्युदयस्तरुण्यः । 4/6 Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 844 कालिदास पर्याय कोश रात्रि के संभोग की थकान से पीले और मुरझाए हुए मुखों वाली युवतियाँ, हँसने की बात पर भी। पुष्पासवामोदसुगन्धिवक्त्रो निःश्वासवातैः सुरभीकृताङ्गः। 4/12 फूलों के गंध की भीनी और मीठी सुगंध वाले मुँह से मुँह लगा कर और साँसों से सुगंधित अंगों से अंग मिलाकर। गृहीतताम्बूलविलेपनस्रजः पुष्पासवामोदितवक्त्रपङ्कजाः। 5/5 फूलों के आसव पीने से जिनका कमल जैसा मुँह सुगंधित हो गया है, वे स्त्रियाँ पान खाकर, फुलेल लगाकर और मालाएँ पहनकर। सपत्रलेखेषु विलासिनीनां वक्त्रेषु हेमाम्बुरुहोपमेषु। 6/8 सुनहरे कमल के समान सुहावने और बेलबूटे चीते हुए स्त्रियों के मुखों पर। वदन - [ वद् + ल्युट] चेहरा, मुख। स्तनैः सहारैर्वदनैः ससीधुभिः स्त्रियो रतिं संजनयन्ति कामिनाम्। 2/8 स्त्रियाँ छाती पर माला डालकर और मदिरा से महकते हुए मुँह से अपने प्रेमियों के मन में प्रेम उकसा रही है। करकमल मनोज्ञाः कान्तसंसक्तहस्ता वदनविजितचन्द्राः काश्चिदन्यास्तरुण्यः। 3/23 चंद्रमा से भी अधिक सुंदर मुख वाली युवतियाँ अपने सुंदर कमल जैसे हाथ अपने प्रेमी के हाथों में डालकर। स्त्रीणां विहाय वदनेषु शशाङ्कलक्ष्मी काम्यं च हंसवचनं मणिनूपुरेषु। 3/27 कहीं तो चंद्रमा की चमक को छोड़कर स्त्रियों के मुंह में पहुँच गई, कहीं हंसों की मीठी बोली छोड़कर उनके रतन जड़े बिछुओं में चली गई है। उषसि वदनबिम्बैरंससंसक्तकेशैः श्रिय इव गृहमध्ये संस्थिता योषितोऽद्य। 5/13 इन दिनों प्रात:काल के समय स्त्रियों के सुंदर लाल-लाल होवें वाले गोल-गोल मुखों को देखकर ऐसा लगता है, मानो घर-घर में लक्ष्मी आ बसी है। यत्कोकिलः पुनरयं मधुरैर्वचोभियूँनां मनः सुवदनानिहितं निहन्ति।6/22 For Private And Personal Use Only Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऋतुसंहार 845 अपनी प्यारियों के मुखड़ों पर रीझे हुए प्रेमियों को यह कोयल भी अपनी मीठी कूक सुना-सुनाकर मारे डाल रही है। 1. मृग मृग - [मृग + क] चौपाया जानवर, हरिण, बारहसिंगा। मृगाः प्रचण्डातपतापिता भृशं तृषामहत्या परिशुष्क तालवः। 1/11 जलते हुए सूर्य की किरणों से झुलसे जिन हरिणों की जीभ प्यास से बहुत सूख गई है। प्रसरति तृणमध्ये लब्धवृद्धिः क्षणेन ग्लपयति मृगवर्गं प्रान्तलग्नो दवाग्निः। 1/25 अग्नि की लपट, पहाड़ की घाटियों में फैलती हुई सभी पशुओं व हरिणों को जलाए डाल रही है और क्षण भर में आगे बढ़कर घास पकड़ लेती है। विलोलनेत्रोत्पलशोभिताननैमृगैः समन्तादुपजातसाध्वसैः। 2/9 कमल के समान सुहावनी चंचल आँखों के कारण सुंदर मुखवाले डरे हुए हरिणों से भरा हुआ। प्रभूतशालिप्रसवैश्चितान मृगाङ्गना यूथ विभूषितानि। 4/8 जिन खेतों में भरपूर धान लहलहा रहा है, हरिणियों के झुंड के झुंड चौकड़ियाँ भर रहे हैं। हरिण - [ह + इनन्] मृग, बारह सिंगा। अवेक्ष्यमाणा हरिणेक्षणाक्ष्यः प्रबोधयन्तीव मनोरथानि। 4/10 वे मृगनयनी स्त्रियाँ जब मार्ग को देखती हैं तो यह सोचती हैं कि जब हमारे पति आवेंगें, तब यों मिलेंगी, यों बातें करेंगी। मृगेश्वर 1. केसरी - [ केसर + इनि] सिंह। प्रवृद्ध तृष्णोपहता जलार्थिनो न दन्तिन: केसरिणोऽपि बिभ्यति। 1/15 जो हाथी धूप और प्यास से बेचैन होकर पानी की खोज में इधर-उधर भटक रहे हैं, वे इस समय सिंह से भी नहीं डर रहे हैं। For Private And Personal Use Only Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 846 2. मृगेन्द्र [ मृग् + क + इन्द्र:] सिंह, शेर। - www. kobatirth.org 1. गजगवयमृगेन्द्रा वह्निसंतप्तदेहा सुहृद इव द्वन्द्वभावं विहाय । 1/27 आग से घबराए हुए और झुलसे हुए हाथी, बैल और सिंह आज मित्र बनकर साथ-साथ इकट्ठे होकर । 3. मृगेश्वर [ मृग् + क + ईश्वर : ] सिंह | न हन्त्यदूरेऽपि गजान्मृगेश्वरो विलोलजिह्वश्चलिताग्रकेसरः । 1/14 हाथियों के पास होने पर भी यह सिंह उन्हें मार नहीं रहा है, अपनी जीभ से अपने होठ चाटता जा रहा है और हाँफने से इसके कंधे के बाल हिलते जा रहे हैं। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 2. अंबुज [ अम्ब + उण् + जम्] कमल । - कालिदास पर्याय कोश मृणाल अब्ज [ अप्सु जायते - अप् + उ] जल में उत्पन्न, कमल । मधुसुरभि मुखाब्जं लोचने लोध्रताम्रे नवकुरबकपूर्णः केशपाशो मनोज्ञः । 6/33 आसव से महकता हुआ स्त्रियों का कमल के समान मुख उनकी लोध जैसी लाल-लाल आँखें, नए कुरबक के फूलों से सजे हुए उनके सुंदर जूड़े। पादाम्बुजानि कलनूपुरशेखरैश्च नार्यः प्रहृष्टमनसोऽद्य विभूषयन्ति । 3 / 20 आजकल स्त्रियाँ बड़ी उमंग के साथ अपने कमल जैसे सुंदर पैरों में छम-छम बजने वाले बिछुए पहनती हैं। न नूपुरैर्हसरुतं भजद्भिः पादाम्बुजान्यम्बुजकान्तिभाञ्जि । 4/4 न अपने कमल जैसे सुंदर पैरों में हंस के समान ध्वनि करने वाले बिछुए ही डालती हैं। For Private And Personal Use Only गात्राणि कालीयकचर्चितानि सपत्रलेखानि मुखाम्बुजानि । 4/5 अपने शरीर पर चंदन मलती हैं, अपने कमल जैसे मुँह पर अनेक प्रकार के बेल-बूटे बनाती हैं। कूजद् द्विरेफोऽप्ययमम्बुजस्थः प्रियं प्रियाया: प्रकरोति चाटु | 6/16 Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऋतुसंहार 847 कमल पर बैठकर गुनगुनाता यह भौंरा भी अपनी प्यारी का मनचाहा काम कर रहा है। 3. अंबुरुह - [ अम्ब + उण् + रुहः] कमल। सपत्रलेखेषु विलासिनीनां वक्त्रेषु हेमाम्बुरुहोपमेषु। 6/8 सुनहरे कमल के समान सुहावने और बेलबूटे चीते हुए स्त्रियों के मुखों पर। अंभोरुह - [आप् (अम्भ) + असुन् + रुहः] कमल। हंसैर्जिता सुललिता गतिरङ्गनानामभोरुहैर्विकसितैर्मुखचन्द्रकान्तिः। 3/17 हंसों ने सुंदरियों की मनभावनी चाल को, कमलिनियों ने उनके चंद्रमुख की चमक को हरा दिया है। 5. अरविन्द - [अरान् चक्रङ्गानीव पत्राणि विन्दते - अर + विन्द + श ] कमल। काचिद्विभूषयति दर्पणसक्तहस्ता बालातपेषु वनिता वदनारविन्दम्। 4/14 एक स्त्री, हाथ में दर्पण लिए हुए प्रातः काल की धूप में बैठी अपने कमल जैसे मुँह का सिंगार कर रही है। 6. इंदीवर - नीलकमल, कमल। विलोचनेन्दीवरवारिबिन्दुभिर्निषिक्तबिम्बाधरचारुपल्लवाः। 2/12 अपने बिंबाफल जैसे लाल और नई कोंपलों जैसे कोमल होों पर अपनी कमल जैसी आँखों से आँसू बरसाती हुई। 7. उत्पल - [ उद् + पल् + अच्] नीलकमल, कमल, कुमुद। नितान्तनीलोत्पलपत्रकान्तिभिः क्वचित्प्रभिन्नाञ्जनराशिसंनिभैः। 2/2 कहीं तो अत्यंत नीले कमल की पंखड़ी जैसे नीले और कहीं घुटे हुए आँजन की ढेरी के समान काले-काले बादल। विलोलनेत्रोत्पलशोभिताननैर्मृगैः समन्तादुपजातसाध्वसैः। 2/9 कमल के समान सुहावनी चंचल आँखों के कारण सुंदर मुखवाले डरे हुए हरिणों से भरा हुआ। पतन्ति मूढाः शिखिनां प्रनृत्यतां कलापचक्रेषु नवोत्पलाशया। 2/14 वे हड़बड़ी में भूल से, नाचते हुए मोरों के खुले पंखों को नये कमल समझकर उन्हीं पर टूटे हुए पड़ रहे हैं। For Private And Personal Use Only Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 848 कालिदास पर्याय कोश कपोलदेशा विमलोत्पलप्रभाः सभृङ्गयूथैर्मदवारिभिश्चिताः। 2/15 जब बहते हुए मद पर भौंरे आकर लिपट जाते हैं, उस समय उन हाथियों के माथे स्वच्छ नीले कमल जैसे दिखाई देने लगते हैं। सितोत्पलाभाम्बुदचुम्बितोत्पलाः समाचिताः प्रस्रवणैः समन्ततः। 2/16 धौले कमल के समान उजले बादल जिन पहाड़ी चट्टानों को चूमते हैं, उन से बहने वाले सैकड़ों झरनों को देखकर। सोन्मादहंसमिथुनैरुपशोभितानि स्वच्छ प्रफुल्लकमलोत्पल भूषितानि। 3/11 जिनमें मस्त हंसों के जोड़े घूम रहे हैं, जिनमें स्वच्छ खिले हुए उजले और नीले कमल शोभा दे रहे हैं। पर्यन्तसंस्थित मृगीनयनोत्पलानि प्रोत्कण्ठयन्त्युपवनानि मनांसि पुंसाम्। 3/14 जिन उपवनों में कमल जैसी आँखों वाली हरिणियाँ जहाँ-तहाँ बैठी पगुरा रही हैं, उन्हें देखकर लोगों के मन हाथ से निकल जाते हैं। नीलोत्पलैर्मदकलानि विलोचनानि भ्रूविभ्रमाश्च रुचिरास्तनुभिस्तरङ्गैः। 3/17 नीले कमलों ने उनकी मदभरी आँखों को और छोटी लहरियों ने उनकी भौंहों की सुंदरता को हरा दिया है। कर्णेषु च प्रवरकाञ्चनकुण्डलेषु नीलोत्पलानि विविधानि निवेशयन्ति। 3/19 अपने जिन कानों में वे सोने के बढिया कंडल पहना करती थीं, उनमें उन्होंने अनेक प्रकार के नीले कमल लटका दिए हैं। असित नयनलक्ष्मी लक्षयित्वोत्पलेषु क्वणितकनककाञ्ची मत्तहंस स्वनेषु। 3/26 नीले कमलों में अपनी प्रियतमा की काली आँखों की सुंदरता देखते हैं, मस्त हंसों की ध्वनि में उनकी सुनहली करधनी की रुनझुन सुनते हैं। विकचकमलवक्त्रा फुल्लनीलोत्पलाक्षी विकसितनवकाशश्वेतवासो वसाना। 3/28 For Private And Personal Use Only Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org 849 ऋतुसंहार खिले हुए उजले कमल के मुख वाली, फूले हुए नीले कमल की आँखों वाली, फूले हुए काँस की साड़ी पहनने वाली । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रफुल्लनीलोत्पलशोभितानि सोन्मादकादम्बविभूषितानि । 4/9 जिन में नीले कमल फैले हुए हैं, मस्त कलहंस इधर-उधर तैर रहे हैं। सुगन्धिनिः श्वासविकम्पितोत्पलं मनोहरं कामरतिप्रबोधकम् । 5/10 कामवासना जगाने वाली वह मदिरा पीती हैं, जिसमें पड़े हुए कमल उनकी सुगंधित साँस से बराबर हिलते रहते हैं । 8. कमल - [कं जलमलति भूषयति कम + अल् + अच्] कमल । कमलवनचिताम्बुः पाटलामोदरम्यः सुखसलिलनिषेकः सेव्य चन्द्रांशुहारः । 1/28 जिस ऋतु में कमलों से भरे हुए और खिले हुए पाटल की गंध में बसे हुए जल में स्नान करना बहुत सुहाता है और जिन दिनों चंद्रमा की चाँदनी और मोती के हार बहुत सुख देते हैं । सोन्माद हंसमिथुनैरुपशोभितानि स्वच्छ प्रफुल्ल कमलोत्पल भूषितानि । 3 / 11 जिनके तीर पर मस्त हंसों के जोड़े घूम रहे हैं, जिनमें स्वच्छ खिले हुए उजले और नीले कमल शोभा दे रहे हैं। करकमलमनोज्ञाः कान्तसंसक्तहस्ता वदनविजितचन्द्राः कश्चिदन्यास्तरुण्यः । 3/23 चंद्रमा से भी अधिक सुंदर मुख वाली युवतियाँ अपने सुंदर कमल जैसे हाथ अपने प्रेमी के हाथ में डालकर । विकचकमलवक्त्रा फुल्लनीलोत्पलाक्षी विकसितनवकाश श्वेत वासो वसाना। 3/28 खिले हुए उजले कमल के मुख वाली, फूले हुए नीले कमल की आँखों वाली, और फूले हुए काँस की साड़ी पहनने वाली । कनक कमलकान्तैश्चारुताम्राधरोष्ठैः श्रवणतटनिषक्तैः पाटलोपान्तनेत्रैः । 5/13 सुंदर लाल-लाल ओठों वाले, लाल कोरों से सजी हुई बड़ी-बड़ी आँखों वाले और सुनहले कमल के समान चमकने वाले गोल-गोल मुँहों को देखकर । For Private And Personal Use Only Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 850 कालिदास पर्याय कोश कनककमलकान्तैराननैः पाण्डुगण्डैरुपनिहितहारैश्चन्दनार्दैः स्तनान्तैः। 6/32 अपने स्वर्ण कमल के समान सुनहरे गालों वाले मुंह से, गीले चंदन पुते और मोतियों के हार पड़े हुए स्तन से। कुवलय - [कोः पृथिव्याः वलयमिव - उप० स०] नीला कुमुद, कमल, कुमुद। कुवलयदलनीलैरुन्नतैस्तोयनप्रैर्मृदुपवनविधूतैर्मन्दमन्दं चलद्भिः । 2/23 कमल के पत्तों के समान साँवले, पानी के भार से झुक जाने के कारण बहुत थोड़ी ऊँचाई पर ही छाए हुए और धीमे-धीमे पवन के सहारे धीरे-धीरे चलने वाले जिन बादलों में। 10. पंकज - [पंक् + जः] कमल। उत्फुल्लपङ्कजवनां नलिनीं विधुन्वायुनां मनश्चलयति प्रसभंनभस्वान्।3/10 कमलों से भरे तालों की कमलिनियों को हिलाता हुआ शीतल वायु, युवकों का मन झकझोरे डाल रहा है। दिवसकरमयूखैर्बोध्यमानं प्रभाते वरयुवतिमुखाभं पङ्कजंजृम्भतेऽद्य।3/25 प्रातः काल जब सूर्य अपने करों से कमल को जगाता है, तब वह कमल सुंदरी युवती के मुख के समान खिल उठता है। गृहीतताम्बूलविलेपनस्रजः पुष्पासवामोदितवक्त्र पङ्कजाः। 5/5 फूलों के आसव पीने से जिनका कमल जैसा मुँह सुगंधित हो गया है, वे पान खाकर, फुलेल लगाकर, और मालाएँ पहनकर। 11. पद्म - [पद् + मन्] कमल। काशांशुका विकचपद्ममनोज्ञवक्त्रा सोन्मादहंसरव नूपुरनाद रम्या। 3/1 फूले हुए काँस के कपड़े पहने, मस्त हंसों की बोली के सुहावने बिछुए पहने खिले हुए कमल के समान सुंदर मुख वाली। कलारपद्मकुमुदानि मुहुर्विधुन्व॑स्तत्संगमादधिक शीतलतामुपेतः। 3/15 कमल तथा कुमुद से छू-छूकर ठंडक लेता हुआ जो पवन धीमे-धीमे बह रहा विलीनपाः प्रपत तुषारो हेमन्तकालः समुपागतोऽयम्। 4/1 For Private And Personal Use Only Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 851 ऋतुसंहार यह पाला गिराती हुई हेमंत ऋतु आ गई है, जिसमें कमल दिखाई नहीं देते। अन्या प्रकामसुरतश्रमखिन्नदेहो रात्रि प्रजागर विपाटलनेत्र पद्मा। 4/15 अत्यंत संभोग से थक जाने के कारण एक दूसरी स्त्री की कमल जैसी आँखें रात भर जागने से लाल हो गई हैं। दुमाः सपुष्पाः सलिलंसपऱ्या स्त्रियःसकामाः पवनः सुगन्धिः। 6/2 सब वृक्ष फूलों से लद गए हैं, जल में कमल खिल गए हैं, स्रियाँ मतवाली हो गई हैं, वायु में सुगंध आने लगी हैं। रक्ताशोकविकल्पिताधर मधुर्मत्त द्विरेफ स्वनः कुन्दापीड विशुद्धदन्तनिकरः प्रोत्फुल्ल पद्माननः। 6/36 अमृत भरे अधरों के समान लाल अशोक से मतवाले भौंरों की गूंज से, दाँतों की चमकती हुई पाँतो जैसे उजले कुंद के हारों से, भली-भाँति खिले हुए कमल के समान मुखों से। 12. मृणाल - [मृण + कालन्] कमल - तंतु, कमल नाल, कमल। समुद्धृताशेष मृणालजालकं विपन्न मीनं दुतभीत सारसम्। 1/19 सब कमल उखाड़ डाले, मछलियों को रौंद डाला और सब सारसों को डराकर भगा दिया। व्योम क्वचिद्रजत शङ्खमृणालगौरैःस्त्यक्ताम्बुभिर्लघुतया शतशः प्रयातैः। 3/4 चाँदी, शंख और कमल के समान उजले जो सहस्रों बादल पानी बरसने से हलके होकर इधर-उधर घूम रहे हैं। 13. सरोरुह - [ स + असुन् + रुह] कमल। कुर्वन्ति हंसविरुतैः परितो जनस्य प्रीतिं सरोरुहरजोरुणितास्तटिन्यः। 3/8 जिन नदियों का जल कमल के पराग से लाल हो गया है, जिन पर हंस कूज रहे हैं, वे लोगों को बड़ी सुहावनी लगती हैं। मेखला 1. काञ्ची - [काञ्च + इन् = कांचि + ङीष्] मेखला, करधनी। For Private And Personal Use Only Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 852 कालिदास पर्याय कोश स्त्रियश्च काञ्चीमणिकुण्डलोज्ज्वला हरन्ति चेतो युगपत्प्रवासिनाम्।2/20 करधनी तथा रत्न जड़े कुंडलों से सजी हुई स्त्रियाँ, ये दोनों ही परदेसियों का मन एक साथ हर लेती हैं। असितनयनलक्ष्मी लक्षयित्वोत्पलेषु क्वणितकनककाञ्ची मत्तहंस स्वनेषु। 3/26 नीले कमलों में अपनी प्रियतमा की काली आँखों की सुंदरता देखते हैं, मस्त हंसों की ध्वनि में उनकी सुनहली करधनी की रुनझुन सुनते हैं। काञ्चीगुणैः काञ्चनरल चित्र! भूषयन्ति प्रमदा नितम्बान्। 4/4 न तो स्त्रियाँ अपने नितंबों पर सोने और रत्नों से जड़ी हुई करधनी पहनती हैं। प्रयान्त्यनङ्गातुरमानसानां नितम्बिनीनां जघनेषु काञ्चयः। 6/7 अपने प्रेमी के संभोग करने को उतावली नारियों ने अपने नितंबों पर करधनी बाँध ली है। 2. मेखला - [मीयते प्रक्षिप्यते कायमध्यभागे- मी + खल + टप् गुणः] करधनी, तगड़ी, कमरबंध, कटिबंध। नितम्बबिम्बैः सदुकूलमेखलैः स्तनैः सहाराभरणैः सचन्दनैः। 1/4 उन नितंबों पर लिटाती हैं जिन पर रेशमी वस्त्र और करधनी पड़ी होती हैं, तथा अपने उन चंदन पुते स्तनों से लिपटाती हैं जिन पर हार और दूसरे गहने पड़े होते हैं। नितम्बदेशाश्च सहेममेखलाः प्रकुर्वते कस्य मनो न सोत्सुकम्। 1/6 सुनहरी करधनी से बँधे हुए नितंबों को देखकर भला किसका मन नहीं ललचा उठेगा। वापीजलानां मणिमेखलानां शशाङ्कभासां प्रमदाजनानाम्। 6/4 बावड़ियों के जल, मणियों से जड़ी करधनियाँ, चाँदनी, स्त्रियाँ सुहावनी लगने लगी हैं। 3. रसना -[ अश् + युच्, रशादेशः] कटिबंध, कमरबंद, करधनी। चञ्चन्मनोज्ञशफरीरसनाकलापाः पर्यन्तसंस्थितसिताण्डजपङ्क्तिहाराः। 3/3 For Private And Personal Use Only Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org ऋतुसंहार 853 उछलती हुई सुंदर मछलियाँ ही उन नदियों की करधनी हैं, तीर पर बैठी हुई उजली चिड़ियों की पाँतें ही उनकी मालाएँ हैं । हारैः सचन्दनरसैः स्तनमण्डलानि Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रोणीतटं सविपुलं रसना कलापैः । 3/20 अपने स्तनों पर मोतियों के हार पहनती हैं, और चंदन पोतती हैं, अपने भारी - भारी नितंबों पर करधनी बाँधती हैं। आलम्बिहेमरसनाः स्तनसक्तहाराः कंदर्पदर्पशिथिलीकृत गात्रयष्ट्यः । 6/26 कमर में सोने की करधनी बाँधे, स्तनों पर मोतियों के हार लटकाए और काम की उत्तेजना से ढीले शरीर वाली । यष्टि 1. मौक्तिक [मुक्तैव स्वार्थे ठक् ] मोती । रत्नान्तरे मौक्तिकसङ्गरम्यः स्वेदागमो विस्तरतामुपैति । 6/8 पसीने की बूँदें ऐसी दिखाई पड़ती हैं, मानो अनेक प्रकार के रत्नों के बीच मोती जड़ दिए गए हैं। 1. 2. यष्टि - [ यज् + क्तिन, नि० न संप्रसारणम् ] मोती, डोरी, लकड़ी, नाजुक वस्तु । सचन्दनाम्बुव्यजनोद्भवानिलैः सहारयष्टिस्तनमण्डलार्पणैः । 1/8 चंदन में बसे हुए ठंडे जल से भीगे हुए पंखों की ठंडी बयार झलकर या मोतियों हारों की लटकती हुई झालरों से सजे हुए अपने गोल-गोल स्तन प्रेमी की छाती पर रखकर । 3. सक्त [संज् + क्त] चिपका हुआ, लगा हुआ, जमाया हुआ, मोती के अर्थ में । आलम्बिहेमरसनाः स्तनसक्तहाराः कंदर्पदर्पशिथिलीकृतगात्रयष्ट्य: 16/26 कमर में सोने की करधनी बाँधे, स्तनों पर मोती के हार लटकाए और काम की उत्तेजना से ढीले शरीरवाली स्त्रियाँ । रम्य चारु [ चरति चित्ते - चर् + उण्] रमणीय, सुंदर, कांत, मनोहर, प्रिय, रुचिकर | For Private And Personal Use Only Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 854 www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कालिदास पर्याय कोश अनङ्गसंदीपनमाशु कुर्वते यथा प्रदोषाः शशिचारुभूषणाः । 1/12 चमकते हुए चंद्रमा वाली साँझ के समान जो सुंदरियाँ चंद्रमा के समान सुंदर आभूषणों से सजी हुई बड़ी प्यारी लग रही हैं, वे झट मन में कामदेव जगा देती हैं। विलोचनेन्दीवरवारिबिन्दुभिर्निषिक्तबिम्बाधर चारुपल्लवाः । 2/12 बिंबा फल जैसे लाल और नई सुंदर कोंपलों जैसे कोमल होठों पर अपनी कमल जैसी आँखों से आँसू बरसाती हुई। अन्या प्रियेण परिभुक्तमवेक्ष्य गात्रं हर्षान्विता विरचिताधर चारु शोभा । 4/17 एक दूसरी स्त्री, अपने प्यारे से उपभोग किए हुए शरीर को देख-देखकर मगन होती हुई अपने अधरों को फिर पहले की भाँति सुंदर बना रही है। विपाण्डु तारागण चारुभूषणा जनस्य सेव्या न भवन्ति रात्रयः । 5/4 पीले-पीले तारों से सुंदर सजी हुई रातों में कोई बाहर नहीं निकलता । त्यजति गुरुनितम्बा निम्ननाभिः सुमध्या उषशि शयनमन्या कामिनी चारु शोभा । 5/12 भारी नितंबों वाली, गहरी नाभि वाली, लचकदार कमर वाली और मनभावनी सुंदरता वाली स्त्री प्रातः काल पलंग छोड़कर उठ रही है। कनककमलकान्तैश्चारुताम्राधरोष्ठैः श्रवणतटनिषक्तैः पाटलोपान्त नेत्रैः । 5/13 सुंदर लाल-लाल ओठों वाले, लाल कोरों से सजी हुई बड़ी-बड़ी आँखों वाले और सुन्दर कमल के समान चमकने वाले । सुखाः प्रदोषाः दिवसाश्च रम्याः सर्वं प्रिये चारुतरं वसन्ते । 6/2 साँझें सुहावनी हो चली हैं और दिन लुभावने हो गए हैं, सचमुच सुंदर वसंत में सब कुछ सुहावना लगने ही लगता है। ताम्रप्रवालस्तबकावनम्राश्चूतदुमाः पुष्पित चारु शाखाः । 6/17 लाल-लाल कोपलों के गुच्छों से झुके हुए और सुंदर मंजरियों से लदी हुई शाखाओं वाले आम के पेड़ । For Private And Personal Use Only Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ऋतुसंहार www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मत्तद्विरेफपरिचुम्बितचारुपुष्पा मन्दानिलाकुलितनम्रमृदु प्रवालाः । 6/19 सुंदर फूलों को मतवाले भौरे चूम रहे हैं, और जिनके नये कोमल पत्ते मंद-मंद पवन में झूल रहे हैं। 2. मनोज्ञ - [ मन: + ज्ञ] सुहावना, प्रिय, रुचिकर, सुंदर, लावण्य । 855 सदा मनोज्ञं स्वनदुत्सुवोत्सुकं विकीर्णविस्तीर्णकलापशोभितम् । 2/6 सदा मीठी बोली बोलने वाले, गरजते हुए बादलों की शोभा पर रीझकर मगन हो उठने वाले और अपने पंख खोलकर फैलाने से सुहावने लगने वाले । काशांशुका विकचपद्ममनोज्ञवक्त्रा सोन्मादहंसरव नूपुरनादरम्या । 3/1 फूले हुए काँस के कपड़े पहने, मस्त हंसों की बोली के सुहावने बिछुए पहने और खिले हुए कमल के समान सुंदर मुख वाली । चञ्चन्मनोज्ञ शफरीरसनाकलापाः पर्यन्त संस्थित सिताण्डज पङ्क्तिहारा: 1 3/3 उछलती हुई सुंदर मछलियाँ ही उनकी करधनी हैं, तीर पर बैठी हुई उजली चिड़ियों की पाँतें ही उनकी मालाएँ हैं। शरदि कुमुदसङ्गाद्वायवो वान्ति शीता विगत जलदवृन्दा दिग्विभागा मनोज्ञाः । 3/22 भिन्नाञ्जनप्रचयकान्ति नभो मनोज्ञं बन्धूकपुष्परजसाऽरुणिता च भूमिः । घुटे हुए आँजन की पिंडी जैसा नीला सुंदर आकाश और दुपहरिया के फूलों से लाल बनी हुई धरती । शरद् ऋतु में कमलों को छूता हुआ शीतल पवन बह रहा है, बादलों के उड़ जाने से सब ओर सुहावना लग रहा है। करकमलमनोज्ञाः कान्तसंसक्तहस्ता वदनविजितचन्द्राः काचिदन्यास्तरुण्यः । 3/23 चंद्रमा से भी अधिक सुंदर मुख वाली युवतियाँ अपने सुंदर कमल जैसे हाथ अपने प्रेमी के हाथों में डालकर । For Private And Personal Use Only निर्माल्यदाम परिभुक्तमनोज्ञगन्ध मघ्नऽपनीयघननील शिरोरुहान्ताः । 4/16 अपने सिर से वह मुरझाई हुई माला उतार रही हैं, जिसकी मधुर सुंगध का Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 856 कालिदास पर्याय कोश आंनद वे रात में ले चुकी हैं, और अपने लंबे घने केशों को। मनोज्ञ कूर्पासक पीडित स्तनाः सरागकौशेयकभूषितोरवः। 5/8 सुंदर चोलियों से अपने स्तन कसे हुए, जाँघों पर रेशमी कपड़े पहने हुए। नानामनोज्ञकुसुमदुमभूषितान्तान्हृष्टान्यपुष्टनिनदाकुलसानुदेशान्। 6/27 जिन पर्वतों की चोटियों के ओर-छोर पर सुंदर फूलों के पेड़ खड़े हैं, जिन पर भौंरों की गूंज सुनाई दे रही है। मधुसुरभि मुखाब्ज लोचने लोधताने नवकुरबकपूर्णः केशपाशो मनोज्ञः। 6/33 आसव से महकता हुआ कमल के समान मुख, उनकी लोध जैसी लाल-लाल आँखें, नए कुरबक के फूलों से सजे हुए उनके सुंदर जूड़े। 3. मनोहर - [मनः + हर] सुखद, लावण्यमय, आकर्षक, प्रिय, कमनीय, सुंदर। सुवासितं हऱ्यातलं मनोहरं प्रियामुखोच्छ्वासविकम्पितं मधु। 1/3 सुंदर सुगंधित जल से धुला हुआ भवन का तल, प्यारी के मुँह की भाव से उफनाती हुई मदिरा। प्रयान्ति मन्दं बहुधारवर्षिणो बलाहकाः श्रोत्रमनोहरस्वनाः। 2/3 धआँधार पानी बरसाने वाले और कानों को भली लगने वाली गड़गड़ाहट करते हुए बादल धीरे-धीरे घिरते चले जा रहे हैं। शेफालिकाकुसुमगन्ध मनोहराणि स्वस्थस्थिताण्डजकुलप्रतिनादितानि। 3/14 शेफालिका के फूलों की मनभावनी सुगंध फैली हुई है, जिनमें निश्चित बैठी हुई चिड़ियों की चहचहाहट चारों ओर गूंज रही है। बन्धूककान्तिमधरेषु मनोहरेषु क्वापि प्रयाति सुभगा शरदागमश्रीः। 3/27 शरद की सुंदर शोभा, कहीं बंधूक की लाली को छोड़कर उनके सुंदर निचले ओठों में जा चढ़ी है। मनोहरैश्चन्दनरागगौरैस्तुषारकुन्देन्दुनिभैश्च हारैः। 4/2 हिम, कोंई, और चंद्रमा के समान उजले और कुंकुम के रंग में रंगे हुए मनोहर हार नहीं पहनती हैं। For Private And Personal Use Only Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऋतुसंहार 857 मनोहर क्रौञ्चचनिनादितानि सीमान्ताराण्युत्सुकयन्ति चेतः। 4/8 रुचिकर कामवासना जगाने वाली वह मदिरा पीती हैं, जिसमें पड़े हुए कमल उनकी सुगंधित साँस से बराबर हिलते रहते हैं। कुर्वन्ति नार्योऽपि वसन्तकाले स्तनं सहारं कुसुमैर्मनोहरैः। 6/3 वसंत में स्त्रियाँ भी अपने स्तनों पर मनोहर फूलों की मालाएँ पहनने लगी हैं। कुन्दैः सविभ्रमवधूहसितावदातैरुद्योतितान्युपवनानि मनोहराणि। 6/25 कामिनियों की मस्तानी हँसी के समान उजले कुंद के फूलों से चमकते हुए मनोहर उपवन। रमणीय - [ रम्यतेऽत्र - रम् आधारे अनीयर] सुहावना, आनंदप्रद, प्रिय, मनोहर, सुंदर। बहुगुणरमणीयः कामिनीचित्तहारी तरुविटपलतानां बान्धवो निर्विकारः। 2/29 अपने बहुत से सुंदर गुणों से सुहावनी लगने वाली, स्त्रियों का जी खिलाने वाली, पेड़ों की टहनियों और बेलों की सच्ची सखी। बहुगुणरमणीयो योषितां चित्तहारी परिणतबहुशालिव्याकुलग्राम सीमा। 4/19 अपने अनेक गुणों से मन को मुग्ध करने वाली और स्त्रियों के चित्त को लुभाने वाली है, जिसमें गाँवों के आस-पास धानों के खेत लहलहाते हैं। 5. रम्य [रम्यतेऽत्र यत्] सुहावना, सुखद, आनंदप्रद, रुचिकर। दिनान्तरम्योऽभ्युपशान्तमन्मथो निदाघकालोऽयमुपागतः प्रिये। 1/1 प्रिये! गरमी के दिन आ गए हैं। इन दिनों सांझ बड़ी लुभावनी होती है और कामदेव तो एक-दम ठंड पड़ गया है। कमलवनचिताम्बुः पाटलामोदरम्यः सुखसलिलनिषेकः सेव्यचन्द्रांशुहारः। 1/28 कमलों से भरे हुए और खिले हुए पाटल की लुभावनी गंध में बसे हुए जल में स्नान करना बहुत सुहाता है और जिन दिनों चंद्रमा की चाँदनी और मोती के हार बहुत सुख देते हैं। काशांशुका विकचपद्मनोज्ञवक्त्रा सोन्मादहंसरव नूपुरनाद रम्या। 3/1 For Private And Personal Use Only Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 858 कालिदास पर्याय कोश फूले हुए कांस के कपड़े पहने, मस्त हंसों की बोली के सुहावने बिछुए पहने और खिले हुए कमल के समान सुंदर मुख वाली। नवप्रवालोद्गमसस्यरम्यःप्रफुल्ललोधः परिपक्वशालिः। 4/1 गेहूँ, जौ आदि के नये-नये अंकुर निकल जाने से चारों ओर सुहावना दिखलाई देने लगा है, लोध के पेड़ फूलों से लद गए हैं, धान पक चला है। न वायवः सान्द्रतुषारशीतला जनस्य चित्तं रमयन्ति सांप्रतम्। 5/3 न घनी ओस से ठंडा बना हुआ वायु ही लोगों के मन को भाता है। सुखाः प्रदोषा दिवसाश्च रम्याः सर्वं प्रिये चारुतरं वसन्ते। 6/2 साँझें सुहावनी हो चली हैं, और दिन लुभावने हो गए हैं, सचमुच सुंदर वसंत में सब कुछ सुहावना लगने लगता है। समदमधुकराणां कोकिलानां च नादैः कुसुमितसहकारैः कर्णिकारैश्च रम्यः। 6/29 कोयल और भौंरो के स्वरों से गूंजते हुए बौरे हुए आम के पेड़ों से भरा हुआ मनोहर कनैर के फूलों वाले। रम्यः प्रदोषसमयः स्फुटचन्द्रभासः पुँस्कोकिलस्य विरुतं पवनः सुगन्धिः। 6/35 लुभावनी साँझें, छिटकी चाँदनी, कोयल की कूक, सुगंधित पवन। मलयपवनविद्धः कोकिलालाप रम्यः सुरभिमधुनिषेकाल्लब्धगन्धप्रबन्धः। 6/37 मलय के वायु वाला, कोकिल की कूक से जी लुभाने वाला, सदा सुगंधित मधु बरसाने वाला। रुचिर - [रुचिं राति ददाति - रुच् + किरच्] स्वादिष्ट, मधुर, ललित, चमकदार, उज्ज्वल। जनितरुचिरगन्धः केतकीनां रजोभिः परिहरति नभस्वान्प्रोषितानां मनांसि। 2/27 केतकी के फूलों का पराग लेकर चारों ओर मनभावनी सुगंध फैलाने वाला पवन परदेसियों का मन चुरा रहा है। For Private And Personal Use Only Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ऋतुसंहार www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आपक्वशालिरुचिरानतगात्रयष्टिः प्राप्ता शरन्नवधूरिव रूपरम्या । 3 / 1 के हुए धान के मनोहर शरीर वाली शरद ऋतु नई व्याही हुई रूपवती बहू के समान आ पहुँची है। नीलोत्पलैर्मदकलानि विलोचनानि 859 भ्रूविभ्रमाश्च रुचिरास्तनुभिस्तरङ्गैः । 3/17 नीले कमलों ने उनकी मदभरी आँखों को और छोटी लहरियों ने उनकी भौंहों की सुंदर मटक को हरा दिया है। दन्तावभासविशदस्मितचन्द्रकान्तिं कङ्केलिपुष्परुचिरा नवमालती च ।3/18 कंकेलि तथा नई मालती के सुंदर फूलों ने दाँतों की चमक से खिल उठने वाली मुस्कराहट की चमक को लजा दिया है। अधररुचिरशोभां बन्धुजीवे प्रियाणां पथिकजन इदानीं रोदिति भ्रान्तचित्तः । 3/26 बंधुजीव के फूलों में उनके निचले ओठों की चमकती हुई सुंदरता की चमक पाते हैं, तब वे परदेसी सब सुध-बुध भूलकर रोने लग जाते हैं। कुमुदरुचिरकान्तिः कामिनीवोन्मदेयं प्रतिदिशतु शरद्वश्चेतसः प्रीतिमग्रयाम् । 3 / 28 खिले हुए उजले कमल के सुंदर मुख वाली जो कामिनी के समान मस्त शरद् ऋतु आई है, वह आप लोगों के मन में नई नई उमंगे भरे । रुचिरकनककान्तीन्मुञ्चतः पुष्पराशीन् - मृदुपवनविधूतान्पुष्पिताँश्चूतवृक्षान् । 6/30 मंद-मंद पवन के झोंके से हिलते हुए और सुंदर सुनहले बौर गिराने वाले, बौरे हुए आम के वृक्षों को । 7. ललित [लल् + क्त] प्रिय, सुंदर, मनोहर । व्रजतु तव निदाघः कामिनीभिः समेतो निशिसुललितगीते हर्म्यपृष्ठे सुखेन । 1/28 वह गर्मी की ऋतु आपकी ऐसी बीते कि रात को आप घर की छत पर लेटे हों, सुंदरियाँ आपको घेरे बैठी हों, और मनोहर संगीत छिड़ा हुआ हो । For Private And Personal Use Only Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 860 www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कालिदास पर्याय कोश नवजलकणसेकादुद्गतां रोमराजीं ललितवलिभिङ्गैर्मध्यदेशैश्च नार्यः । 2 / 26 स्त्रियों के पेट पर दिखाई पड़ने वाली सुंदर तिहरी सिकुड़नों पर जब वर्षा की नई फुहारें पड़ती हैं, तो वहाँ के नन्हें-नन्हें रोएँ खड़े हो जाते हैं। हंसैर्जिता सुललिता गतिरङ्गनानामम्भोरुहैर्विकसितैर्मुखचन्द्रकान्तिः । 3/17 हंसों ने सुंदरियों की मनभावनी चाल को, कमलिनियों ने उनके चंद्रमुख की चमक को हरा दिया है । कूर्पासकं परिदधाति नखक्षताङ्गी व्यालम्बिनीलललितालक कुञ्चिताक्षी । 4/17 नखों के घावों से भरे हुए अंगों वाली और लटकाती हुई सुंदर अलकों से ढकी हुई आँखों वाली स्त्री अपनी चोली पहनने लगी है। 8. सुभग [ सु + भग] प्रिय, सुंदर, मनोहर, मनोरम । चूतद्रुमाणां कुसुमान्वितानां ददाति सौभाग्यमयं वसन्तः । 6/4 वसंत के आने से मंजरी से लदी आमों की डालें और भी सुहावनी लगने लगी हैं। वायुर्विवाति हृदयानि हरन्नराणां नीहारपातविगमात्सुभगोवसन्ते। 6/24 वसंत में पाला तो पड़ता नहीं, इसलिए सुंदर वसंती पवन लोगों का मन हरता हुआ बह रहा है। For Private And Personal Use Only राज् 1. राज्- चमकना, जगमगाना, प्रतीत होना, दिखाई देना । निशा: शशाङ्कक्षतनीलराजयः क्वचिद्विचित्र जलयन्त्रमन्दिरम् । 1/2 चारों ओर खिले हुए चंद्रमा की चाँदनी छिटकी हुई हो, रंग-बिरंगे फव्वारों के तले लोग बैठे हुए हों । 2. विभा [ वि + भा] चमकना, दिखाई देना, प्रकट होना। विभाति शुक्लेतररत्नभूषिता वराङ्गनेव क्षितिरिन्द्रगोपकैः । 2/5 वीर बहूटी से छाई हुई धरती उस नायिका जैसी दिखाई दे रही है, जो धौले रत्न छोड़कर और सभी रंग के रत्नों वाले आभूषणों से सजी हई है। Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऋतुसंहार 861 3. शोभ् - चमकना, दिखाई देना, प्रकट होना। सदामनोज्ञं स्वनोदुत्सुकं विकीर्ण विस्तीर्णकलापशोभितम्। 2/6 सदा मीठी बोली बोलने वाले, गरजते हुए बादलों की शोभा पर रीझकर मगन हो उठने वाले और अपने पंख खोलकर फैलाने से सुहावने लगने वाले। रेणु 1. पांसु - [पंस् (श्) + कु, दीर्घः] धूल, गर्द, चूरा, धूलकण। रवेर्मयूखैरभितापितोभृशं विदह्यमानः पथितप्तपांसुभिः। 1/13 धूप से एकदम तपा हुआ और पैंड़े की गर्म धूल से झुलसा हुआ। 2. रज - [ रञ्ज + असुन्, न लोपः] धूल, रेणु, गर्द। विपाण्डुरं कीटरजस्तृणान्वितं भुजंगवद्वक्रगति प्रसर्पितम्। 2/13 छोटे-छोटे कीड़े, धूल और घास को बहाता हुआ मटमैला बरसाती पानी, साँप के समान टेढ़ा-मेढ़ा घूमता हुआ। 3. रेणु - [रीयते: णुः नित्] धूल, धूलकण, रेत। असह्यवातोद्धतरेणुमण्डला प्रचण्डसूर्यातपतापिता मही। 1/10 आँधी के झोंकों से उठी हुई धूल के बवंडरों वाली और कड़ी धूप की लपटों से तपी हुई धरती। लोहित 1. अरुण - [ऋ + उनन्] लाल, कुछ-कुछ लाल। भिन्नाञ्जनप्रचयकान्ति नभो मनोज्ञं बन्धूकपुष्परजसाऽरुणिता च भूमिः। 3/5 घुटे हुए आँजन की पिंडी जैसा नीला आकाश, दुपहरिया के फूलों से लाल बनी हुई धरती। कुर्वन्तिहंसविरुतैः परितोजनस्य प्रीतिं सरोरुहरजोरुणितास्तटिन्यः। 3/8 जिन नदियों का जल कमल के पराग से लाल हो गया है, जिन पर हंस कूज रहे हैं। For Private And Personal Use Only Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 862 कालिदास पर्याय कोश कुसुम्भरागारुणितैर्दुकूलैर्नितम्बबिम्बानि विलासिनीनाम्। 6/5 कामिनियों ने अपने गोल-गोल नितंबों पर कुसुम के लाल फूलों से रंगी रेशमी साड़ी पहन ली है। 2. ताम्र - [ तम् + रक्, दीर्घः] लाल। कनककमलकान्तैश्चारुताम्राधरोष्ठैः श्रवणतटनिषक्तैःपाटलोपान्तनेत्रैः। 5/13 सुंदर लाल-लाल ओठों वाले, लाल कोरों से सजी हुई बड़ी बड़ी आँखों वाले और सुनहरे कमल के समान चमकने वाले। ताम्रप्रवालस्तबकावनम्राश्चूतदुमाः पुष्पितचारुशाखाः। 6/17 लाल-लाल कोपलों के गुच्छों से झुके हुए और सुंदर मंजरियों से लदी हुई शाखाओं वाले आम के पेड़। आमूलतो विदुमरागतानं सपल्लवाः पुष्पचयं दधानाः। 6/18 जिन वृक्षों में कोंपले फूट निकली हैं, और जिनमें मूंगे जैसे लाल-लाल फूल नीचे से ऊपर तक खिल गए हैं। 3. पाटल - [पट् + णिच् + कलच्] पीतरक्त वर्ण, गुलाबी रंग, पाटल वृक्ष का फूल। कनककमलकान्तैश्चारुताम्राधरोष्ठैः श्रवणतटनिषक्तैः पाटलोपान्तनेत्रैः। 5/13 सुंदर लाल-लाल ओठों वाले, लाल कोरों से सजी हुई बड़ी-बड़ी आँखों वाले और सुनहले कमल के समान चमकने वाले। 4. रक्त - [ रञ्ज करणे क्तः] लाल, गहरा लाल रंग, लोहित वर्ण। सद्यो वसन्तसमयेन समाचितेयं रक्तांशुका नववधूरिव भाति भूमिः। 6/21 वसंत के दिनों में पृथ्वी ऐसी लग रही है, मानो लाल साड़ी पहने हुए कोई नई दुलहिन हो। 5. लोहित - [रुह् + इतन्, रस्य ल:] लाल, लाल रंग का। सफेनलालावृतवक्त्रसंपुटं विनिःसृतालोहितजिह्वमुन्मुखम्। 1/21 जिनके मुँह से झाग निकल रही है, और लार बह रही है वे अपना मुंह खोलकर अपनी लाल-लाल जीभें बाहर निकाले। For Private And Personal Use Only Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 863 ऋतुसंहार 6. विपाटल - [वि + पट् + णिच् + कलच्] लाल, लाल रंग। अन्याप्रकामसुरतश्रमखिन्नदेहो रात्रिप्रजागरविपाटलनेत्रपद्मा। 4/15 अत्यंत संभोग से थक जाने के कारण एक दूसरी स्त्री की कमल जैसी आँखें रात भर जागने से लाल हो गई हैं। वन 1. वन - [ वन् + अच्] अरण्य, जंगल। वनान्तरे तोयमिति प्रधाविता निरीक्ष्यभिन्नाञ्जन संनिभंनभः। 1/11 वे धोखे में उन जंगलों की ओर दौड़े जा रहे हैं, जहाँ के आँजन के समान नीले आकाश को ही वे पानी समझ बैठे हैं। वनानि वैन्ध्यानि हरन्ति मानसं विभूषितान्युनत पल्लवैर्दुमैः। 2/8 नई कोंपलों वाले वृक्षों से छाए हुए विंध्याचल के जंगल किसका मन नहीं लुभा लेते। वनद्विपानां नववारिदस्वनैर्मदान्वितानां ध्वनतां मुहुर्मुहुः। 2/15 नए-नए बादलों के गरजने से जब बनैले हाथी मस्त हो जाते हैं और उनके माथे से बहते हुए मद पर। कदम्बसर्जार्जुनकेतकीवनं विकम्पयंस्त्कुसुमाधिवासितः। 2/17 कदंब, सर्ज, अर्जुन, और केतकी से भरे हुए जंगल को कंपाता हुआ और उन वृक्षों के फूलों की सुगंध में बसा हुआ। आदीप्तवह्निसदृशैर्मरुताऽवधूतैः सर्वत्र किंशुकवनैः कुसुमावनगैः। 6/21 पवन के झोंके से हिलती हुई जिन पलास के वृक्षों की शाखाएँ जलती हुई आग की लपटें के समान दिखाई देती है। 3. वनस्थली - [ वन् + अच् + स्थली] जंगल, जंगल की भूमि। समाचिता सैकतिनी वनस्थली समुत्सुकत्वं प्रकरोति चेतसः। 2/9 भरा हुआ रेतीला जंगल हृदय को बरबस खींचे लिए जा रहा है। वनान्त - [वन् + अच् + अन्तः] वन्य प्रदेश, जंगल। दिनकरपरितापक्षीणतोयाः समन्ताद्विदधति भयमुच्चैर्वीक्ष्यमाणा वनान्ताः। 1/22 For Private And Personal Use Only Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 864 www. kobatirth.org कालिदास पर्याय कोश आजकल वन तो और भी डरावने लगने लगे हैं क्योंकि सूर्य की गरमी से चारों ओर का जल सूख गया है। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परिणतदलशाखानुत्पतन् प्रांशुवृक्षान् भ्रमति पवनधूतः सर्वतोऽग्निर्वनान्ते । 1 / 26 पवन से भड़काई हुई आग उन ऊँचे वृक्षों पर उछलती हुई वन में चारों ओर घूम रही है, जिनकी डालियों के पत्ते पक-पककर झड़ते जा रहे हैं। नद्यो घना मत्तगजा वनान्ताः प्रियाविहीनाः शिखिनः प्लवङ्गाः । 2/19 नदियाँ, बादल, मस्त हाथी, जंगल, अपने प्यारे से बिछुड़ी हुई स्त्रियाँ, मोर और बंदर | सितमिव विद्यते सूचिभिः केतकीनां नवसलिलनिषेकच्छिन्नतापो वनान्तः । 2/24 मानो वर्षा के नये जल से गर्मी दूर हो जाने पर जंगल मगन हो उठा हो । केतकी की उजली कलियों को देखकर ऐसा लगता है, मानों जंगल खिलखिलाकर हँस रहा हो । सप्तच्छदैः कुसुमभारनतैर्वनान्ताः शुक्लीकृतान्युपवनानि च मालतीभिः 13/2 फूलों के बोझ से झुके हुए छतिवन के वृक्षों ने जंगल को और मालती के फूलों ने फुलवारियों को उजला बना डाला है। 5. शाखि - [ शाखा + इनि] शाखाधारी, जंगल । मुदितइव कदम्बैर्जातपुष्पैः समन्तात्पवनचलितशाखैः शाखिभिर्नृत्यतीव । 2/24 वन में चारों ओर खिले हुए कदंब के फूल ऐसे लग रहे हैं, पवन से झूमती हुई शाखाओं को देखकर ऐसा लगता है, मानो पूरा का पूरा जंगल नाच उठता है। वारि 1. अंबु [ अम्ब + उण् ] जल । - सचन्दनाम्बुव्यजनोद्भवानिलैः सहारयष्टिस्तनमण्डलार्पणैः । 1/8 चंदन में बसे हुए ठंडे जल से भीगे हुए पंखों की ठंडी बयार झलकर या मोतियों For Private And Personal Use Only Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ऋतुसंहार www. kobatirth.org 4. 865 हारों की लटकती हुई झालरों से सजे हुए अपने गोल-गोल स्तन प्रेमी की छाती पर रखकर । भ्रमति गवययूथः सर्वतस्तोयमिच्छञ् शरभकुला जिह्यं प्रोद्धरत्यम्बु कूपात् । 1/23 पशुओं के झुंड चारों ओर पानी की खोज में घूम रहे हैं और शरभों का झुंड एक कुएँ से गटागट पानी पीता जा रहा है। व्योम क्वचिद्रजतशङ्ङ्खमृणालगौरैः Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir त्यक्ताम्बुभिर्लघुतया शतशः प्रयातैः । 3/4 चाँदी, शंख और कमल के समान उजले जो सहस्रों बादल पानी बरसाने से हलके होकर आकाश में इधर-उधर घूम रहे हैं । 2. अंभ - [ आप (अम्भ) + असुन् ] जल । विगतकलुषमम्भः श्यानपङ्का धरित्री विमलकिरणचन्द्रं व्योम ताराविचित्रम् | 3 / 22 उत्कण्ठयत्यतितरां पवनः प्रभाते पत्रान्तलग्नतुहिनाम्बुविधूयमानः । 3/15 प्रात: काल पत्तों पर पड़ी हुई ओस के जल की बूँदें गिराता हुआ बह रहा पवन किसे मस्त नहीं बना देता। पानी का गँदलापन दूर हो गया है, धरती पर का सारा कीचड़ सूख गया है और आकाश में स्वच्छ किरणों वाला चंद्रमा और तारे निकल गए हैं। 3. उदक - [ उन्द् + ण्वुल् नि० नलोपः] पानी, जल । ससाध्वसैर्भेककुलैर्निरीक्षितं प्रयाति निम्नाभिमुखं नवोदकम् । 2 / 13 बरसाती पानी ढाल से बहा जा रहा है और बेचारे मेंढक उसे देख-देखकर डरे जा रहे हैं । जल - [जल् + अक् ] पानी । प्रवृद्धतृष्णोपहताजलार्थिनो न दन्तिनः केसरिणोऽपि विभ्यति । 1/15 जो हाथी प्यास से बेचैन होकर पानी की खोज में इधर-उधर घूम रहे हैं, वे इस समय सिंह से भी नहीं डर रहे हैं। तृषाकुलं निःसृतमद्रिगह्वरादवेक्षमाणं महिषीकुलं जलम् । 1/21 For Private And Personal Use Only Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 866 कालिदास पर्याय कोश प्यास के मारे भैंसों का समूह पहाड़ की गुफा से निकल-निकलकर जल की ओर लपका चला जा रहा है। नवजलकणसेकादुद्गतां रोमराजी ललितवलिभिरङ्गैर्मध्यदेशैश्च नार्यः। 2/26 स्त्रियों के पेट पर दिखाई देने वाली सुंदर तिहरी सिकुड़नों पर जब वर्षा के जल की फुहार पड़ती है, तो वहाँ के नन्हें-नन्हें रोएँ खड़े हो जाते हैं। नवजलकणसङ्गाच्छीततामादधानः कुसुमभरनतानां लासकः पादपानाम्। 2/27 वर्षा के नये जल की फुहारों से ठंडा बना हुआ पवन, फूलों के बोझ से झुके हुए पेड़ों को नचा रहा है। जलभरनमितानामाश्रयोऽस्माकमुच्चैरयमिति जलसेकैस्तोयदास्तोयनम्राः। 2/28 ये पानी के बोझ से झुके हुए बादल, अपने ठंडे जल की फुहार से मानो यह समझकर बुझा रहे हैं, कि जब हम पानी के बोझ से लदकर आते हैं तो यही हमें सहारा देता है। काशैर्महीशिशिरदीधितिना रजन्यो हंसैर्जलानि सरितां कुमुदैः सरांसि। 3/2 काँस की झाड़ियों ने धरती को, चंद्रमा ने रातों को, हंसों ने नदियों के जल को, कमलों ने तालाबों को। वापीजलानां मणिमेखलानां शशाङ्कभासां प्रमदाजनानाम्। 6/4 बावड़ियों के जल, मणियों से जड़ी करधनियाँ, चाँदनी, स्त्रियाँ। तोय - [तु + विच् तवे पूत्यै याति - या + क नि० साधुः] पानी, जल। वनान्तरे तोयमिति प्रधाविता निरीक्ष्य भिन्नाञ्जन संनिभं नभः। 1/11 वे धोखे में उन जंगलों की ओर दौड़े जा रहे हैं, जहाँ के आँजन के समान नीले आकाश को ही वे पानी समझ बैठे हैं। विवस्वता तीक्ष्णतरांशुमालिनां सपङ्कतोयात्सरसोऽभितापितः। 1/18 धूप से तपे हुए (मेंढक), गदले जल वाले पोखरे से बाहर निकल-निकल कर। For Private And Personal Use Only Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 867 ऋतुसंहार दिनकरपरितापक्षीणतोयः समन्ताद्विदधति भयमुच्चैर्वीक्ष्यमाणा वनान्ताः। 1/22 आजकल वन तो और भी डरावने लगने लगे हैं क्योंकि सूर्य की गर्मी से चारों ओर का जल सूख गया है। भ्रमति गवययूथः सर्वतस्तोयमिच्छन्शरभकुलमजिह्मप्रोद्धरत्यम्बु कूपात्। 1/23 पशुओं के झुंड चारों ओर पानी की खोज में घूम रहे हैं, और शरभों का झुंड एक कुएँ से गयगट पानी पीता जा रहा है। तृषाकुलैश्चातकपक्षिणां कुलैः प्रयाचितास्तोयभरावलम्बिनः। 2/3 जिनसे पपीहे पिउ-पिउ करके पानी मांग रहे हैं, ऐसे पानी के भार से नीचे झुके हुए बादल। तडिल्लताशक्रधनुर्विभूषिताः पयोधरास्तोयभरावलम्बिनः। 2/20 इंद्रधनुष और बिजली के चमकते हुए पतले धागों से सजी हुई और पानी के भार से झुकी हुई काली-काली घाएँ। कुवलयदलनीलैरुन्नतैस्तोयनर्मूदुपवनविधूतैर्मन्दमन्दं चलद्भिः । 2/23 कमल के पत्तों के समान साँवले, पानी के भार से झुक जाने के कारण कम ऊंचाई पर छाए हुए और पवन के सहारे धीरे-धीरे चलने वाले। जलभरनमितानामाश्रयोऽस्माकमुच्चैरयमिति जलसेकैस्तोयदास्तोयनम्राः। 2/28 ये पानी के बोझ से झुके हुए बादल, अपने ठंडे जल की फुहार से मानो यह समझकर बुझा रहे हैं, कि जब हम पानी के बोझ से लदकर आते हैं, तो यही हमें सहारा देता है। प्रसन्नतोयानि सुशीतलानि सरासि चेतांसि हरन्ति पुंसाम्। 4/9 जिन तालों में ठंड निर्मल जल भरा हुआ है, उन्हें देखकर लोगों का जी खिल उठता है। 6. नीर - [नी + रक्] पानी, जल। मार्ग समीक्ष्यतिनिरस्तनीरं प्रवासखिन्नं पतिमुद्वहन्त्यः। 4/10 For Private And Personal Use Only Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 868 कालिदास पर्याय कोश जिनके पति परदेस चले गए हैं, वे स्त्रियाँ जब जल से रहित (सूखे हुए) मार्ग को देखती हैं तो पतियों के आने की बाट जोहती हुई सोचती हैं कि। 7. वारि - [वृ + इञ्] जल, पानी। प्रचण्डसूर्यः स्पृहणीयचन्द्रमाः सदावगाहक्षतवारिसंचयः। 1/1 धूप कड़ी हो गई है और चंद्रमा बड़ा सुहावना लगता है। कोई चाहे तो आजकल दिन-रात गहरे जल में स्नान कर सकता है। विलोचनेन्दीवरवारिबिन्दुभिर्निषिक्तबिम्बाधरचारु पल्लवाः। 2/12 अपने बिंबाफल जैसे लाल और नई कोंपलों जैसे कोमल होठों पर अपनी कमल जैसी आँखों से आँसू (जल) बरसाती हुई। नेत्रोत्सवो हृदयहारिमरीचिमाल: प्रह्लादकः शिशिर सीकरवारिवर्षी । 3/9 सबकी आँखों को भला लगने वाले जिस चंद्रमा की किरणें सबको बरबस अपनी ओर खींच लेती हैं, वही सुहावना और ठंडी फुहार बरसाने वाला चंद्रमा। स्फुटकुमुदचितानां राजहंसाश्रितानां मरकतमणिभासा वारिणा भूषितानाम्। 3/21 जिनमें नीलम के समान चमकता हुआ जल भरा हुआ हो, जिनमें एक-एक राजहंस बैठा हुआ हो और जिनमें यहाँ-वहाँ बहुत से कुमुद खिले हुए हों। सलिल-[सलति गच्छति निम्नम् - सल् + इलच्] पानी, जल। कमलवनचिताम्बुः पाटलामोदरम्यः सुखसलिलनिषेकः सेव्यचन्द्रांशुहारः। 1/28 कमलों से भरे हुए और खिले हुए पाटल की गंध में बसे हुए जल में स्नान करना बहुत सुहाता है और ऐसे समय में चंद्रमा की चांदनी और मोती के हार बहुत सुख देते हैं। निपातयन्त्यः परितस्तटदुमान्प्रवृद्धवेगैः सलिलैरनिर्मलैः। 2/7 अपने मटमैले पानी की बाढ़ से जहाँ-तहाँ अपने किनारे के वृक्षों को ढहाती हुई वेग से दौड़ी हुई। हसितमिव विधत्ते सूचिभिः केतकीनां नवसलिलनिषेकच्छिन्नतापो वनान्तः। 2/24 For Private And Personal Use Only Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऋतुसंहार 869 वर्षा के नये जल से गर्मी दूर हो जाने पर, केतकी की उजली कलियों को देखकर ऐसा लगता है, मानों पूरा जंगल खिलखिलाकर हँस रहा हो। दुमाः सपुष्पाः सलिलं सपा स्त्रियः सकामाः पवनः सुगन्धिः। 6/2 सब वृक्ष फूलों से लद गए हैं, जल में कमल खिल गए हैं, स्त्रियाँ मतवाली हो गई हैं, वायु में सुगंध आने लगी है। विहग 1. अंडज - [ अम् + ड + जः] पक्षी, पंखदार जंतु। चञ्चन्मनोज्ञशफरीरसनाकलापाः पर्यन्तसंस्थितसिताण्डज पङ्क्तिहाराः। 3/3 उछलती हुई सुंदर मछलियाँ ही उनकी करधनी हैं, तीर पर बैठी हुई उजली चिड़ियों की पाँतें ही उनकी मालाएँ हैं। शेफालिकाकुसुमगन्धमनोहराणि स्वस्थस्थिताण्डजकुल प्रतिनादितानि। 3/14 शेफालिका के फूलों की मनभावनी सुगंध फैली हुई है, जिनमें निश्चित बैठी हुई चिड़ियों की चहचहाहट चारों ओर गूंज रही है। 2. पक्षी - [पक्ष + इनि] पक्षी, पंख युक्त जंतु। तृषाकुलैश्चातकपक्षिणां कुलैः प्रयाचितास्तोयभरावलम्बिनः। 2/3 जिनसे प्यासे पपीहे पक्षी पिउ-पिउ करके पानी माँग रहे हैं, ऐसे पानी के भार से नीचे झुके हुए। 3. विहग - [विहायसा गच्छति, गम् + ड, नि०] पक्षी। श्वसिति विहगवर्गः शीर्णपर्णद्रुमस्थः कपिकुलमुपयाति क्लान्तमदेनिकुञ्जम्। 1/23 जिन वृक्षों के पत्ते झड़ गए हैं, उन पर बैठी हुई सभी चिड़ियाँ हाँफ रही हैं, उदास बंदरों के झुंड पहाड़ की गुफाओं में घुसे जा रहे हैं। शरीर 1. अङ्ग - [अङ्ग + अच्] शरीर, शरीर का अंग या अवयव। For Private And Personal Use Only Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achary 870 कालिदास पर्याय कोश कालागरुप्रचुरचन्दनचर्चिताङ्गः पुष्पावतंससुरभीकृतकेशपाशाः। 2/22 जिनके अंगों पर अगरू-मिला चंदन लगा हुआ है, जिनके बाल फूलों के गुच्छों से महक रहे हैं। पुष्पासवामोदसुगन्धिवक्त्रो निःश्वासवातैः सुरभीकृताङ्गः। 4/12 फूलों के गंध की भीनी और मीठी सुगंध वाले मुँह से मुँह लगाकर और साँसों से सुगंधित अंगों से अंग मिलाकर। अङ्गान्यनङ्गः प्रमदाजनस्य करोति लावण्यससंभ्रमाणिः। 6/10 कामवासना से पीड़ित स्त्रियों के सारे शरीर में कुछ अनोखा ही रसीलापन आ जाता है। अङ्गानि निद्रालसविभ्रमाणि वाक्यानि किंचिन्मदिरालसानि। 6/13 (काम से स्त्रियों का) शरीर अलसा जाता है, मद से उनका बोलना-चालना कठिन हो जाता है। सुगन्धिकालागरुधूपितानि धत्ते जनः काममदालसाङ्गः। 6/15 कामदेव के मद में अलसाए शरीर वाली (स्त्रियाँ) कालागरु के धुएँ से सुगंधित किए हुए। 2. गात्र - [गै + वन्, गातुरिदं वा, अण्] शरीर, शरीर का अंग या अवयव। आपक्वशालिरुचिरानतगात्रयष्टि: प्राप्ता शरन्नवधूरिवरूपररम्या। 3/1 पके हुए धान से मनोहर शरीर वाली शरद ऋतु नई व्याही हुई रूपवती बहू के समान आ चुकी है। गात्राणि कालीयकचर्चितानि सपत्रलेखानि मुखाम्बुजानि। 4/5 अपने शरीर पर चंदन मलती हैं, अपने कमल जैसे मुँह पर अनेक प्रकार के बेलबूटे बनाती हैं। पीनोन्नतस्तनभरानतगात्रयष्ट्यः कुर्वन्ति केशरचनामपरास्तरुण्यः। 4/16 जिन स्त्रियों के शरीर, मोटे और ऊँचे स्तनों के कारण झुक गए हैं, वे फिर से अपने बालों को सँवार रही हैं। अन्या प्रियेण परिभुक्तमवेक्ष्य गात्रं हर्षान्विता विरचिताधर चारुशोभा। 4/17 For Private And Personal Use Only Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऋतुसंहार 871 एक दूसरी स्त्री, अपने प्यारे से उपभोग किए हुए शरीर को देखकर बड़ी मगन होती हुई अपने अधरों को फिर पहले की तरह सुंदर बनाकर। अन्याश्चिरं सुरतकेलिपरिश्रमेण खेदं गताः प्रशिथिलीकृतगात्रयष्ट्यः। 4/18 बहुत देर तक संभोग करते-करते जो युवतियाँ थक गई हैं, जिनके कोमल और लचकीले शरीर ढीले पड़ गए हैं। उच्छ्वासयन्त्यः श्लथबन्धनानि गात्राणि कंदर्पसमाकुलानि। 6/9 कामवासना से पीड़ित स्त्रियाँ अपने अंग उघाड़ती हुई उन्हें ललचा रही हैं। आलम्बिहेमरसनाः स्तनसक्तहाराः कंदर्पदर्पशिथिलीकृतगात्रयष्ट्यः। 6/26 कमर में सोने की करधनी बाँधे, स्तनों पर मोती के हार लटकाए और काम की उत्तेजना से ढीले शरीर वाली। 3. तनु - [तन् + उसि] शरीर । पत्युर्वियोगविषदग्धशरक्षतानां चन्द्रो दहत्यतितरां तनुमङ्गनानाम्। 3/9 वही चंद्रमा, उन स्त्रियों के अंग बहुत भूने डाल रहा है, जो अपने पतियों के बिछोह के विष बुझे बाणों से घायल हुई घरों में पड़ी-पड़ी कलप रही हैं। 4. देह - [दिह + घञ्] शरीर। गजगवयमृगेन्द्रा वह्नि संतप्तदेहा सुहृद इव समेता द्वन्द्वभावं विहाय। 1/27 आग से घबराए और झुलसे हुए शरीर वाले हाथी, बैल और सिंह आज मित्र बनकर साथ-साथ इकट्ठे होकर। अन्या प्रकामसुरतश्रमखिन्नदेहा रात्रिप्रजागर विपाटलनेत्रपमा। 4/15 अत्यंत संभोग से थके शरीर के कारण एक दूसरी स्त्री की कमल जैसी आँखें रात भर जागने से लाल हो गई हैं। प्रियतमपरिभुक्तं वीक्षमाणां स्वदेहं व्रजति शयनवासाद्वासमन्यं हसन्ती। 5/11 अपने प्रियतम से उपभोग किए हुए अपने शरीर को देखती हुई अपने शयन घर से दूसरे घर में चली जा रही है। अभिमुखमभिवीक्ष्य क्षामदेहोऽपि मार्गे मदनशरनिघातैर्मोहमेति प्रवासी। 6/30 For Private And Personal Use Only Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 872 कालिदास पर्याय कोश परदेसी एक तो यों ही बिछोह से दुबले-पतले शरीर का हुआ रहता है तिस पर जब मार्ग में अपने सामने यह देखता है, तो कामदेव के बाणों की चोट खाकर मूर्च्छित होकर गिर पड़ता है। 5. शरीर - [शृ + ईरन्] काया, देह, दैहिक शक्ति। हुताग्निकल्पैः सवितुर्गभस्तिभिः कलापिन: क्लान्तशरीरचेतसः। 1/16 हवन की अग्नि के समान जलते हुए सूर्य की किरणों से जिन मोरों के शरीर और मन दोनों सुस्त पड़ गए हैं। शशांकक्षत 1. चन्द्रभास - [चन्द् + णिच् + रक् + भासः] चाँदनी। रम्यः प्रदोषसमयः स्फुटचन्द्रभासः पुँस्कोकिलस्य विरुतं पवनः सुगन्धिः। 6/35 लुभावनी साँझें, छिटकी चाँदनी कोयल की कूक, सुगंधित पवन। 2. ज्योत्स्ना - [ज्योतिरस्ति अस्याम् - ज्योतिस् + न, उपघालोपः] चाँदनी, चंद्रमा का प्रकाश। ज्योत्स्नादुकूलममलं रजनी दधाना वृद्धिं प्रयात्यनुदिनं प्रमदेव बाला। 3/7 चाँदनी की उजली साडी पहने अलबेली छोकरी के समान दिन-दिन बढ़ती चली जा रही है। 3. शशांकक्षत - [शश + अच् + अङ्कः + क्षतः] चाँदनी, ज्योत्स्ना। निशाः शशाङ्कक्षतनीलराजयः क्वचिद्विचित्रं जलयन्त्र मन्दिरम्। 1/2 रात्रि में चारों ओर खिले हुए चंद्रमा की चाँदनी छिटकी हुई हो, रंग-बिरंगे फव्वारों के तले लोग बैठे हों। शालि 1. कलम् - [कल + अम्] चावल, धान। वप्राश्च पक्वकलमावृतभूमिभागाः प्रोत्कण्ठयन्ति न मनो भुवि कस्य यूनः। 3/5 For Private And Personal Use Only Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 873 ऋतुसंहार पके हुए धान से लदे हुए सुंदर खेत, इस संसार में किस युवक का मन डाँवाडोल नहीं कर देते। 2. शालि - [शाल् + णिनि] चावल, धान। आपक्वशालिरुचिरानतगात्रयष्टिः प्राप्ता शरन्नवधूरिवरूपरम्या। 3/1 पके हुए धान से मनोहर शरीरवाली शरद ऋतु, नई ब्याही हुई रूपवती बहू के समान अब आ पहुँची है। आकम्पयन्फलभरानतशालिजालान्यानर्तयँस्तरुवरान्कुसुमावनम्रान्। 3/10 अन्न भरी हुई बालियों के बोझ से झुके धान के पौधों को कँपाता हुआ, फूलों से लदे हुए सुंदर वृक्षों को नचाता हुआ। संपन्नशालिनिचयावृतभूतलानि स्वस्थस्थितप्रचुरगोकुलशोभितानि।3/10 जहाँ के खेतों में भरपूर धान के पौधे लहलहा रहे हैं, जहाँ घास के मैदान में बहुत सी गौएँ चर रही हैं। नवप्रवालोद्गमसस्यरम्यः प्रफुल्ललोध्रः परिपक्वशालिः। 4/1 जिसमें गेहूँ, जौं आदि के नये-नये अंकुरों के निकल आने से चारों ओर सुहावना दिखलाई देने लगा है, लोध के पेड़ फूलों से लद गए हैं, धान पक चला है। प्रभूतशालिप्रसवैश्चितानि मृगाङ्गनायूथविभूषितानि। 4/8 जिन खेतों में भरपूर धान लहलहा रहा है, हरिणियों के झुंड के झुंड चौकड़ियाँ भर रहे हैं। बहुगुणरमणीयो योषितां चित्तहारी परिणतबहुशालिव्याकुलग्रामसीमा। 4/19 जो अपने अनेक गुणों से मन को मुग्ध करने वाली और स्त्रियों के चित्त को लुभाने वाली है, जिसमें गाँवों के आस-पास पके हुए धान के खेत लहलहाते हैं। प्रचुरगुडविकारः स्वादुशालीक्षुरम्यः प्रबलसुरतकेलिर्जातकन्दर्पदर्पः। 5/16 जिस ऋतु में मिठाइयाँ बहुत मिलती हैं, स्वाद लगने वाले चावल और ईख चारों ओर सुहाते हैं, लोग बहुत संभोग करते हैं, कामदेव भी पूरे वेग से बढ़ जाता है। For Private And Personal Use Only Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 874 कालिदास पर्याय कोश शिरोरुह 1. अलक - [अल् + क्वुन्], बाल, धुंघराले बाल। कूर्पासकं परिदधाति नखक्षताङ्गी व्यालम्बिनीलललितालककुञ्चिताक्षी। 4/17 नखों के घावों से भरे हुए अंगों वाली और लटकती हुई सुंदर अलकों से ढकी हुई आँखों वाली स्त्री अपनी चोली पहनने लगी है। कर्णेषु योग्यं नवकर्णिकारं चलेषु नीलेष्वलकेष्वशोकम्। 6/6 कानों में लटके हुए कनैर के फूल और उनकी चंचल, काली घुघराली लटों में अशोक के फूल सुहावने लग रहे हैं। 2. केश - [क्लिश्यते क्लिश्नाति वा - क्लिश् + अन्, लोलोपश्च] बाल, सिर के बाल। कालागरुप्रचुरचन्दन चर्चिताङ्गः पुष्पावतंससुरभीकृतकेशपाशाः। 2/22 जिन के अंगों पर अगरू मिला-चंदन लगा हुआ है, जिनके बाल फूलों के गुच्छों से महक रहे हैं। केशान्नितान्तघननीलविकुञ्चिताग्रानापूरयन्ति वनिता नवमालतीभिः। 3/19 स्त्रियाँ अपनी घनी धुंघराली काली लटों में नये मालती के फूल गूंथ रही हैं। स्त्रस्तांसदेशलुलिताकुलकेशपाशा निद्रां प्रयाति मृदुसूर्यकराभितप्ता। 4/15 उसके कंधे झूल गए हैं, उसके बाल इधर-उधर बिखर गए हैं, और वह सूर्य की कोमल किरणों में धूप खाती हुई सो गई है। पीनोन्नतस्तनभरानतगात्रयष्ट्यः कुर्वन्ति केशरचनामपरास्तरुण्यः।4/16 जिन स्त्रियों के शरीर, मोटे और ऊँचे स्तनों के कारण झुक गए हैं, वे फिर से अपने बालों को सँवार रही हैं। उपसि वदनबिम्बैरंससंसक्तकेशैः श्रिय इव गृहमध्येसंस्थिता योषितोऽद्य। 5/13 इन दिनों प्रातः काल के समय स्त्रियों के कंधों पर फैले हए बालों वाले गोल-गोल मुखों को देखकर ऐसा लगता है मानो घर-घर में लक्ष्मी आ बसी हों। For Private And Personal Use Only Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 875 ऋतुसंहार मधुसुरभि मुखाब्जं लोचने लोध्रताने नवकुरबक पूर्णः केशपाशो मनोज्ञः। 6/33 आसव से महकता हुआ स्त्रियों का कमल के समान मुख, उनकी लोध जैसी लाल-लाल आँखें, नए कुरबक के फूलों से सजे हुए उनके बालों के जूड़े। 3. शिरांस/शिरांसि - [शृ + असुन् + अंस] सिर के बाल। शिरांसि कालागरुधूपितानि कुर्वन्तिनार्यः सुरतोत्सवाय। 4/5 संभोग की तैयारी में युवतियाँ कालागरु का धूप देकर अपने केश सुगंधित करती हैं। शिरोरुह - [शृ + असुन् + रुहः] सिर के बाल। शिरोरुहैः स्नानकषायवासितैः स्त्रियो निदाघं शमयन्ति कामिनाम्। 1/4 गर्मी से सताए हुए प्रेमियों की तपन मिटने के लिए स्त्रियाँ अपने उन जूड़ों की गंध सुँघाती हैं, जो उन्होंने स्नान के समय सुगंधित फुलेलों में बसा लिए थे। शिरोरुहैः श्रोणितटावलम्बिभिः कृतावतंसैः कुसुमैः सुगन्धिभिः। 2/18 अपने भारी-भारी नितंबों पर केश लटकाकार, अपने कानों में सुगंधित फूलों के कनफूल पहन कर। निर्माल्यदाम परिभुक्तमनोज्ञगन्धं मूर्ध्नऽपनीय घननीलशिरोरुहान्ताः। 4/16 लंबे, घने और काले केशों वाली स्त्रियाँ अपने सिर से वह मुरझाई हुई माला उतार रही हैं, जिसकी मधुर सुगंध का आनंद वे रात में ले चुकी हैं। निवेशितान्तः कुसुमैः शिरोरुहैर्विभूषयन्तीव हिमागमं स्त्रियः। 5/8 बालों में फूल गूंथे हुए स्त्रियाँ ऐसी लग रही हैं, मानो जाड़े के स्वागत का उत्सव मनाने के लिए सिंगार कर रही हैं। श्रुति 1. कर्ण - [कर्ण्यते आकर्ण्यते अनेन - कर्ण + अप्] कान। कर्णान्तरेषु ककुभदुममञ्जरीभिरिच्छानुकूलरचितानवतंसकाँश्च। 2/21 ककुभ के फूलों के मनचाहे ढंग से बनाए हुए कर्णफूल अपने कानों में पहनती हैं। For Private And Personal Use Only Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 876 कालिदास पर्याय कोश कर्णेषु च प्रवरकाञ्चनकुण्डलेषु नीलोत्पलानि विविधानि निवेशयन्ति। 3/19 अपने जिन कानों में वे सोने के बढ़िया कुंडल पहना करती थीं, उनमें उन्होंने अनेक प्रकार के नीले कमल लटका लिए हैं। कर्णेषु योग्यं नवकर्णिकारं चलेषु नीलेष्वलकेष्वशोकम्। 6/6 कानों में लटके हुए सजीले कनैर के फूल और चंचल, काली, धुंघराली लटों में अशोक के फूल। 2. श्रवण - [श्रु + ल्युट्] कान। कनककमलकान्तैश्चारुताम्राधरोष्ठैः श्रवणतटनिषक्तैः पाटलोपान्त नेत्रैः। 5/13 सुंदर लाल-लाल ओठों वाले, लाल कोरों से सजी हुई कानों के तट तक फैली हुई बड़ी-बड़ी आँखों वाले सुनहले कमल के समान चमकने वाले। 3. श्रुति - [श्रु + क्तिन] कान। विपत्रपुष्पां नलिनी समुत्सुका विहाय भृङ्गाः श्रुतिहारिनिस्वनाः। 2/14 कानों को सुहाने वाली मीठी तानें लेकर गूंजते हुए भौरे उस कमल को छोड़-छोड़ कर चले जा रहे हैं, जिसके पत्ते और फूल झड़ गए हैं। 4. श्रोत्र - [श्रूयतेऽनेन - श्रु करणे + ष्ट्रन] कान। उत्कूजितैः परभृतस्य मदाकुलस्य श्रोत्रप्रियैर्मधुकरस्य च गीतनादैः। 6/34 मदमस्त कोकिल की कूक से और कानों में भाने वाली भौंरों की मनभावनी गुंजारों से। सर 1. तोयाशय - झील, सरोवर, ताल, तालाब। श्रियमतिशयरूपां व्योम तोयाशयानां वहति विगतमेघं चन्द्रतारावकीर्णम्। 3/21 खिले हुए चंद्रमा और छिटके हुए तारों से भरा हुआ आजकल का खुला आकाश उन तालों के सामन दिखाई पड़ रहा है। For Private And Personal Use Only Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऋतुसंहार 877 2. सर - [ सृ + अच्] झील, सरोवर। सभद्रमुस्तं परिशुष्ककर्दमं सरः खनन्नायतपोत्रमण्डलैः। 1/17 अपने लंबे-लंबे थूथनों से नगरमोथे से भरे हुए बिना कीचड़ वाले तालाब (गड्ढे)को खोदता हुआ। विवस्वता तीक्ष्णतरांशुमालिनां सपङ्कतोयात्सरसोऽभितापितः। 1/18 धूप से तपे हुए ( मेंढक), गँदले जल वाले पोखरे (तालाब) से बाहर निकलनिकलकर। परस्परोत्पीडनसंहतैर्गजैः कृतं सरः सान्द्रविमर्द कर्दमम्। 1/19 हाथियों ने इकट्ठे होकर आपस में लड़-लड़कर इस ताल को कीचड़ में बदल डाला है। काशैर्मही शिशिरदीधितिना रजन्यो हंसैर्जलानि सरितां कुमुदैः सरांसि। 3/2 काँस की झाड़ियों ने धरती को, चंद्रमा ने रातों को, हंसों ने नदियों के जल को, कमलों ने तालाबों को। मन्दप्रभातपवनोद्गतवीचिमालान्युत्कण्ठयन्ति सहसा हदयं सरांसि।3/11 जिनमें प्रातः काल के धीमे-धीमे पवन से लहरें उठ रही हैं, वे ताल अचानक हृदय को मस्त बनाए डाल रहे हैं। प्रसन्नतोयानि सुशीतलानि सरांसि चेतांसि हरन्ति पुंसाम्। 4/9 जिन तालों में ठंडा निर्मल जल भरा हुआ है, उन्हें देखकर लोगों का जी खिल उठता है। सस्य 1. तरु - [तृ + उन्] वृक्ष। बहुगुणरमणीयः कामिनीचित्तहारी तरुविटपलतानां बान्धवो निर्विकारः। 2/29 बहुत से गुणों से सुहावनी लगने वाली, स्त्रियों का जी खिलाने वाली, पेंड़ों की टहनियों और बेलों की सच्ची सखी। For Private And Personal Use Only Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 878 कालिदास पर्याय कोश 2. दुम - [P : शाखाऽस्त्यस्य - मः] वृक्ष। श्वसिति विहगवर्गः शीर्णपर्णदुमस्थः कपिकुलमुपयाति क्लान्त मद्रेनिकुञ्जम्। 1/23 जिन वृक्षों के पत्ते झड़ गए हैं, उन पर बैठी हुई सभी चिड़ियाँ हाँफ रही हैं, उदास बंदरों के झुंड पहाड़ की गुफाओं में घुसे जा रहे हैं। बहुतर इव जातः शाल्मलीनां वनेषु स्फुरति कनकगौरः कोटरेषु दुमाणाम्। 1/26 सेमर के वृक्षों के कुंजों में फैली हुई आग वृक्ष के खोखलों में अपना सुनहला प्रकाश चकमाती हुई। निपातयन्त्यः परितस्तटदुमान्प्रवृद्धवेगैः सलिलैरनिर्मलैः। 2/7 अपने मटमैले पानी की बाढ़ से जहाँ-तहाँ अपने किनारे के वृक्षों को ढहाती हुई। वनानि वैन्ध्यानि हरन्ति मानसं विभूषितान्युद्गतपल्लवैर्दुमैः। 279 नई कोपलों वाले वृक्षों से छाए हुए विंध्याचल के जंगल किसका मन नहीं लुभा लेते। कर्णान्तरेषु ककुभदुममञ्जरीभिरिच्छानुकूलरचितानवतंसकाँश्च। 2/21 ककुभ वृक्ष के फूलों के मनचाहे ढंग से बनाए हुए कर्णफूल अपने कानों में पहनती हैं। दुमाः सपुष्पाः सालिलं सपऱ्या स्त्रियः सकामाः पवनः सुगन्धिः। 6/12 सब वृक्ष फूलों से लद गए हैं, जल में कमल खिल गए हैं, स्त्रियाँ मतवाली हो चली हैं, वायु में सुगंध आने लगी हैं। चूतदुमाणां कुसुमान्वितानां ददाति सौभाग्यमयं वसन्तः। 6/4 वसंत के आने से मंजरी से लदे आम के वृक्ष और भी सुहावने लगने लगे हैं। ताम्रप्रवालस्तबकावनश्चूतदुमाः पुष्पित चारुशाखाः। 6/17 लाल-लाल कोंपलों के गुच्छों से झुके हुए और सुंदर मंजरियों से लदी हुई शाखाओं वाले आम के पेड़। कान्तामुखद्युतिजुषामचिरोद्गतानां शोभां परां कुरबकदुममञ्जरीणाम्। 6/20 For Private And Personal Use Only Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऋतुसंहार 879 अभी खिले हुए और स्त्रियों के मुख के समान सुंदर लगने वाले कुरबक के पेड़ की अनोखी शोभा देखकर। नानामनोज्ञकुसुमदुमभूषितान्ताहष्टान्यपुष्टनिनदाकुलसानुदेशान्। 6/27 जिन पर्वतों की चोटियों के ओर-छोर पर सुंदर फूलों के पेड़ खड़े हैं। 3. पादप - [पद् + घञ् + पः] वृक्ष। नवजलकणसङ्गाच्छीततामादधानः कुसुमभरतानां लासकः पादपानाम्। 2/27 वर्षा के नए जल की फुहारों से ठंडा बना हुआ पवन, फूलों के बोझ से झुके हुए पेड़ों को नचा रहा है। छायां जनः समभिवाञ्छति पादपानां नक्तं तथेच्छति पुनः किरणं सुधांशोः। 6/11 इन दिनों लोग दिन में तो वृक्षों की शीतल छाया में रहना चाहते हैं, और रात में चंद्रमा की किरणों का आनंद लेना चाहते हैं। 4. विटप - [विटं विस्तारं वा पाति पिबति – पा + क] शाखा, वृक्ष। तटविटपलताग्रालिङ्गनव्याकुलेन दिशि दिशि परिदग्धाभूमयः पावकेन। 1/24 तीर पर खड़े हुए वृक्षों और लताओं की फुनगियों को चूमती जाने वाली आग से जहाँ-तहाँ धरती जल गई है। 5. वृक्ष - [व्रश्च् + क्स्] पेड़। परिणतदलशाखानुत्पतन् प्रांशुवृक्षान्भ्रमति पवनधूतः सर्वतोऽग्निर्वनान्ते। 1/26 पवन से भड़काई आग उन ऊँचे वृक्षों पर उछलती हुई वन में चारों ओर घूम रही है, जिनकी डालियों के पत्ते पक-पककर झड़ते जा रहे हैं। कान्तावियोगपरिखेदितचित्तवृत्तिदृष्ट्वाऽध्वगः कुसुमितान्सहकार वृक्षान्। 6/28 अपनी स्त्रियों से दूर रहने के कारण जिसका जी बेचैन हो रहा है. वे यात्री मंजरियों से लदे आम के पेड़ों को देखते हैं। For Private And Personal Use Only Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 880 कालिदास पर्याय कोश रुचिरकनककांतीन्मुञ्चतः पुष्पराशीन्मृदुपवन विधूतान्पुष्पिताँश्चूतवृक्षान्। 6/30 जब मंद-मंद बहने वाले पवन के झोंके से हिलते हुए और सुंदर सुनहले बौर गिराने वाले बौरे हुए आम के वृक्षों को देखता है। 6. सस्य - [सस् + यत्] अन्न, धान्य, वृक्ष, वृक्ष की उपज। पटुतरदवदाहोच्छुष्कसस्यप्ररोहा: परुषपवनवेगोत्क्षिप्त संशुष्कपर्णाः। 1/22 जंगल की आग की बड़ी-बड़ी लपटों से सब वृक्षों की टहनियाँ झुलस गई हैं, अंधड़ में पड़कर सूखे हुए पत्ते ऊपर उड़े जा रहे हैं। सायक 1. इषु - [इष् + उ] बाण। इषुभिरिव सुतीक्ष्णैर्मानसं मानिनीनां तुदति कुसुममासो मन्मथोद्दीपनाय। 6/29 अपने पैने बाणों से यह वसंत मानिनी स्त्रियों के मन इसलिए बींध रहा है कि उनमें प्रेम जग जाय। 2. बाण - [बाण + घञ्] तीर, बाण, शर। दृष्ट्वा प्रिये सहृदयस्य भवेन्न कस्य कंदर्पबाणपतनव्यथितं हि चेतः। 6/20 यह देखकर किस रसिक का मन कामदेव के बाण से घायल नहीं हो जाता। 3. शर - [शृ + अच्] बाण, तीर। पत्युर्वियोगविषदग्धशरक्षतानां चन्द्रोदहत्यतितरां तनुमङ्गनानाम्। 3/9 उन स्त्रियों के अंग भूने डाल रहा है, जो अपने पतियों के बिछोह के विष-बुझे बाणों से घायल हुई घरों में पड़ी-पड़ी कलप रही हैं। अभिमुखमभिवीक्ष्य क्षामदेहोऽपि मार्गे मदनशरनिघातैर्मोहमेति प्रवासी। 6/30 बिछोह से दुबले-पतले शरीर वाला परदेसी जब अपने सामने मार्ग में इन्हें देखता है तो वह कामदेव के बाणों की चोट खाकर मूर्च्छित होकर गिर पड़ता है For Private And Personal Use Only Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 881 ऋतुसंहार आम्री मञ्जुलमञ्जरी वरशरःसत्किंशुकं यद्धनु या॑यस्यालिकुलं कलङ्करहितं छत्रं सितांशुः सितम्। 6/38 जिसके आम के बौर ही बाण हैं, टेसू ही धनुष हैं, भौंरो की पाँत ही डोरी है, उजला चंद्रमा ही निष्कलंक छत्र है। सायक - [ सो + ण्वुल्] बाण। सुतीक्ष्णधारापतनाग्रसायकैस्स्तुदन्ति चेतः प्रसभं प्रवासिनाम्। 2/4 अपनी तीखी धारों के पैने बाण बरसाकर परदेसियों का मन कसमसा रहे हैं। प्रफुल्लचूताङ्करतीक्ष्णसायको द्विरेफमालाविलसद्धनुर्गुणः। 6/1 फूले हुए आम की मंजरियों के पैने बाण लेकर और अपने धनुष पर भौंरों की पाँतों की डोरी-चढ़ाकर। सुरेन्द्र 1. इन्द्र - [इन्द् + रन्, इन्दतीति इन्द्रः, इदि ऐश्वर्ये - मलि०] देवों का स्वामी, वर्षा का देवता। अपहृतमिव चेतस्तोयदैः सेन्द्रचापैः पथिक जनवधूनां तद्वियोगाकुलानाम्। 2/23 जिन बादलों में इंद्र-धनुष निकल आया है, उन्होंने परेदसियों की उन स्त्रियों की सब सुध-बुध हर ली है। जो अपने प्यारों के बिछोह में व्याकुल हुई बैठी हैं। 2. बलभिद् - [बल + अच् + भिद्] इंद्र का विशेषण। नष्टं धनुर्बलभिदो जलदोदरेषु सौदामिनी स्फुरति नाद्यवियत्पताका।3/12 आजकल न तो बादलों में इन्द्रधनुष रह गए हैं, न ही विजय पताका के समान बिजली ही चमकती है। 3. शक्र - [शक् + रक्] इंद्र। तडिल्लताशक्रधनुर्विभूषिताः पयोधरास्तोयभरावलम्बिनः। 2/20 इंद्रधनुष और बिजली के चमकते हुए पतले धागों से सजी हुई और पानी के भार से झुकी हुई घटाएँ। 4. सुरेन्द्र - [सुष्ठुराति ददात्यभीष्टम् -सु + रा + क + इन्द्रः] इंद्र का नाम, इंद्र। बलाहकाश्चाशनिशब्दमर्दलाः सुरेन्द्रचापं दधतस्तडिदगुणम्। 2/4 For Private And Personal Use Only Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 882 कालिदास पर्याय कोश मृदंग के समान गड़गड़ाते हुए बिजली की डोरी वाला इंद्र धनुष चढ़ाए हुए ये बादल। __सुरेन्द्रचाप इन्द्रचाप - [इन्द्र + चापम्] इन्द्रधनुष, इंद्र की कमान। अपहृतमिव चेतस्तोयदैः सेन्द्रचापैः पथिकजनकवधूनां तद्वियोगा कुलानाम्। 2/23 जिन बादलों में इंद्रधनुष निकल आया है, उन्होंने परदेसियों की उन स्त्रियों की सब सुध-बुध हर ली है, जो उनके बिछोह में व्याकुल बैठी हैं। 2. बलभिद्धनु - [ बल् + अच् + भिद् + धनुः] इंद्रधनुष। नष्टं धनुर्बलभिदो जलदोदरेषु सौदामिनी स्फुरति नाद्य वियत्पताका। 3/12 आजकल न तो बादलों में इन्द्रधनुष रह गए हैं, न बिजलियाँ ही विजय पताका के रूप में चमक रही हैं। 3. शक्रधनु - [शक् + रक् + धनुस्] इंद्रधनुष । तडिल्लताशक्रधनुर्विभूषिताः पयोधरास्तोयभरावलम्बितः। 2/20 इंद्रधनुष और बिजली के चमकते हुए पतले धागों से सजी हुई और पानी के भार से झुकी हुई काली-काली घटाएँ हैं। 4. सुरेन्द्रचाप - [ सुरेन्द्र + चापम्] इंद्रधनुष। बलाहकाश्चाशनिशब्दमर्दलाः सुरेन्द्रचापं दधतंस्तडिद्गुणम्। 214 मृदंग के समान गड़गड़ाते हुए, बिजली की डोरी वाला इंद्रधनुष चढ़ाए हुए ये बादल। सुवास् 1. मोद् - सुगंधित करना, सुवासित करना, गंध देना। गृहीतताम्बूलविलेपनत्रजः पुष्पासवामोदितवक्त्रपङ्कजाः। 5/5 फलों से आसव पीने से जिनका कमल जैसा मुँह सुगंधित हो गया है, वे पान खाकर, फुलेल लगाकर और मालाएँ पहनकर। For Private And Personal Use Only Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 883 ऋतुसंहार अगरुसुरभिधूपामोदितं केशपाशं गलितकुसुममालं कुञ्चिताग्रं वहन्ती। 5/12 अगरू के धुएँ में बसी हुई सुगंध वाली, अपनी बिना माला वाली घनी घुघराली लटों को थामे। 2. वास् - सुगंधित करना, सुवासित करना, गंध देना। शिरोरुहैः स्नानकषायवासितैः स्त्रियो निदाघं शमयन्ति कामिनाम्। 1/4 स्त्रियाँ अपने प्रेमियों की तपन मिटने के लिए अपने उन जूड़ों की गंध सुँघाती हैं, जो उन्होंने स्नान के समय सुगंधित फुलेलों में बसा लिए थे। कदम्बसर्जार्जुनकेतकीवनं विकम्पयस्तत्कुसुमाधिवासितंः। 2/17 कदंब, सर्ज, अर्जुन और केतकी से भरे हुए जंगल को कपाता हुआ और उन वृक्षों के फूलों के सुगंध में बसा हुआ। प्रकामकालागरुधूपवासितं विशन्ति शय्यागृहमुत्सुकाःस्त्रियः। काम से पीड़ित स्त्रियाँ काले अगरू के धुएँ से महकने वाले अपने शयन घरों में बड़े चाव से चली जा रही हैं। 3. सुवास् - सुगंधित करना, गंध देना। सुवासितं हर्म्यतलं मनोहरं प्रियामुखोच्छ्वासविकम्पितं मधु। 1/3 सुगंधित जल से भरा हुआ भवन का तल, प्यारी के मुँह की भाप से उफनाती हुई मदिरा। ईषत्तुषारैः कृतशीतहर्म्यः सुवासितं चारु शिरश्च चम्पकैः। 6/3 घरों की छतों पर ठंडी ओस छा गई है, चंपे के फूलों से सबके जूड़े महकने लगे सूर्य 1. अंशुमालिन् - [अंशू +कु + मालिन्] सूर्य, सूरज। विवस्वता तीक्ष्णतरांशुमालिनां सपङ्कतोयात्सरसोऽभितापितः। 2/18 प्रचंड सूर्य की तेज धूप से तपे हुए मेंढक, गँदले जल वाले पोखरे से बाहर निकल-निकलकर। For Private And Personal Use Only Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 884 www. kobatirth.org कालिदास पर्याय कोश 2. दिनकर [ द्युति तम:, दो (दी) + नक्, ह्रस्वः + करः] सूरज, सूर्य । दिनकरपरितोपक्षीणतोयाः समन्ताद् Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विदधति भयमुच्चैर्वीक्ष्यमाणा वनान्ताः । 1/22 आजकल वन तो और भी डरावने लगने लगे हैं क्योंकि सूर्य की गर्मी से चारों ओर का जल सूख गया है। 3. दिवसकर [ दीव्यतेऽत्र दिव् + असच् किक्व् + करः ] सूर्य । दिवसकरमयूखैर्बोध्यमानं प्रभाते वरयुवतिमुखाभं पङ्कजं जृम्भतेऽद्य । 3/25 प्रातः काल जब सूर्य अपनी किरणों से कमल को जगाता है, तब वह कमल सुंदरी युवती के मुख के समान खिल उठता है। 4. भानु [भा + नु] सूर्य, प्रकाश, चमक, प्रकाश किरण । विशुष्ककण्ठोद्गतसीकराम्भसो गभस्तिभिः भानुमतोऽनुतापितः । 1/15 पते हुए सूर्य की किरणों से तपे हुए और प्यास के कारण सूखे कंठ वाले हाथी बादल की फुहारों की तलाश में । निरुद्धवातायनमन्दिरोदरं हुताशनो भानुमतो गभस्तयः । 5/2 अपने घरों के भीतर खिड़कियाँ बंद करके, आग तापकर, सूर्य की किरणों की धूप खाकर दिन बिताते हैं । 5. रवि [रु+ इ] सूर्य । रवेर्मयूखैरभितापितो भृशं विदह्यमानः पथितप्तपांसुभिः । 1 / 13 सूर्य की किरणों से एकदम तपा हुआ और पैंड़े की गर्म धूल से झुलसा हुआ । रवेर्मयूखैरभितापितो भृशं वराहयूथो विशतीव भूतलम् । 1/17 सूर्य की किरणों से एकदम झुलसा हुआ जंगली सुअरों का झुंड ऐसा लगता है मानो धरती में घुसा जा रहा हो। - रविप्रभोद्भिन्नशिरोमणिप्रभा विलोलजिह्वाद्वयलीढमारुतः । 1/20 जिसकी मणि सूर्य की चमक से और भी चमक उठी है, वह अपनी लपलपाती हुई दोनों जीभों से पवन पीता जा रहा है। 6. विवस्वत [ विशेषेण वस्ते आच्छादयति वि + वस् + क्विप् + मतुप् ] सूर्य । For Private And Personal Use Only Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऋतुसंहार विवस्वता तीक्ष्णतरांशुमालिनां सपङ्कतोयात्सरसोऽभितापितः । 1/18 सूर्य की किरणों से तपे हुए मेंढक, गँदले जल वाले पोखर से बाहर निकलकर । 7. सविता [सू + तृच् ] सूर्य, शिव, इंद्र। 885 ताग्निकल्पैः सवितुर्गभस्तिभिः कलापिनः क्लान्तशरीरचेतसः । 1/16 हवन की अग्नि के समान जलते हुए सूर्य की किरणों से जिन मोरों के शरीर और मन दोनों सुस्त पड़ गए हैं। अभिमतरतवेषं नन्दयन्त्यस्तरुण्यः सवितुरुदयकाले भूषयन्त्याननानि । 5/15 अपने मनचाहे संभोग के वेश पर खिलखिलाती हुई स्त्रियाँ सूर्योदय के समय अपने मुँह सजा रही हैं। 8. सूर्य - [ सरति आकाशे सूर्य:, यद्वा सुवति कर्मणि लोकं प्रेरयति सृ + क्यप्, नि०] सूरज, रवि । प्रचण्डसूर्यः स्पृहणीयचन्द्रमाः सदावगाहक्षतवारिसंचयः । 1/1 सूर्य की किरणें कड़ी हो गई हैं, और चंद्रमा बड़ा सुहावना लगता है, कोई चाहे तो दिन-रात गहरे जल में स्नान कर सकता है। असह्यवातोद्धतरेणुमण्डला प्रचण्डसूर्यातपतापिता मही । 1/10 आँधी के झोंकों से उठी हुई धूल के बवंडरों वाली और सूर्य की कड़ी धूप की लपटों से तपी हुई धरती । स्त्रस्तांसदेशलुलिताकुलकेशपाशा निद्रां प्रयाति मृदुसूर्यकराभितप्ता ।4/15 उसके कंधे झूल गए हैं, उसके बाल इधर-उधर बिखर गए हैं, और वह प्रात: काल के सूर्य की कोमल किरणों की धूप खाती हुई सो गई है। स्तन 1. कुच [ कुच् + क] स्तन, उरोज, चूची। - दधति वरकुचाग्ररुन्नतैर्हारयष्टिं For Private And Personal Use Only प्रतनुसितदुकूलान्यायतैः श्रोणिबिम्बै: 12/26 अपने बड़े-बड़े गोल-गोल उठे हुए सुंदर स्तनों पर मोती की मालाएँ पहनती हैं Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 886 कालिदास पर्याय कोश और अपने भारी भारी गोल-गोल नितंबों पर महीन उजली रेशमी साड़ी पहनती हैं। गुरुतरकुचयुग्मं श्रोणिबिम्बं तथैव न भवति किमिदानी योषितां मन्मथाय। 6/33 स्त्रियों के बड़े-बड़े गोल स्तन, वैसे ही बड़े-बड़े गोल नितंब क्या लोगों के मन में कामदेव नहीं जगा रहे हैं। 2. पयोधर - [पय् + असुन्, पा + असुन्, इकारादेश्च + धरः] स्तन, स्त्री की छाती, बादल। पयोधराश्चन्दनपङ्कचर्चितास्तुषारगौरार्पितहारशेखराः। 1/6 हिम के समान उजले और अनूठे हार से सजे हुए चंदन पुते स्तन देखकर। नितम्बबिम्बेषु नवं दुकूलं तन्वंशुकं पीनपयोधरेषु। 4/3 न अपने गोल-गोल नितंबों पर नये रेशमी वस्त्र ही लपेटती हैं और न अपने मोटे-मोटे स्तनों पर महीन कपड़े ही बाँधती हैं। संहष्यमाणपुलकोरुपयोधरान्ता अभ्यञ्जनं विदधति प्रमदाः सुशोभाः।4/18 जिनकी जाँघों और स्तनों पर रोमांच हो गया है, वे युवतियाँ बैठी अपने शरीर पर तेल मलवा रही हैं। पयोधरैः कुंकुमरागपिञ्जरैः सुखोपसेव्यैर्नवयौवनोष्मभिः। 5/9 केसर से रंगे हुए लाल स्तनों वाली और सुख से लूटी जाने वाली जवानी की गर्मी से भरी हुई। 3. स्तन - [ स्तन् + अच्] स्त्री की छाती, चूचुक। नितम्बबिम्बैः सदुकूलमेखलैः स्तनैः सहाराभरणैः सचन्दनैः। 1/4 रेशमी वस्त्र और करधनी पड़े हुए गोल-गोल नितंबों पर तथा चंदन पुते हुए उन स्तनों से जिन पर हार और दूसरे गहने पड़े होते हैं। स्तनेषु तन्वंशुकमुन्नतस्तना निवेशयन्ति प्रमदाः सयौवनाः। 1/7 ऊँचे-ऊँचे स्तनों वाली युवतियाँ अपने स्तनों पर पतले कपड़े लपेटती हैं। स्तनैः सहारैर्वदनैः ससीधुभिः स्त्रियो रतिं संजनयन्ति कामिनाम्। 2/18 आजकल स्त्रियाँ स्तनों पर माला डालकर और मदिरा पीकर अपने प्रेमियों के मन में प्रेम उकसा रही हैं। For Private And Personal Use Only Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 887 ऋतुसंहार हारैः सचन्दनरसैः स्तनमण्डलानि श्रोणितटं सविपुलं रसनाकलापैः। 3/20 अपने स्तनों पर मोतियों के हार पहनती हैं और चंदन पोतती हैं, अपने भारी-भारी नितंबों पर करधनी बाँधती हैं। विलासिनी स्तनशालिनीनां नालंक्रियन्ते स्तनमण्डलानि। 4/2 बड़े-बड़े स्तनों वाली अलबेली स्त्रियाँ अपने गोल-गोल स्तनों को नहीं सजातीं। पीनस्तनोरः स्थलभागशोभामासाद्य तत्पीडनजात खेदः। 4/7 मोटे-मोटे स्तनों को छातियों पर देखकर सुख पाने वाला हेमंत उन स्तनों को मले जाते देखकर दुखी हो रहा है। दन्तच्छदैः सव्रणदन्तचिह्नः स्तनैश्च पाण्यग्रकृताभिलेखैः। 4/13 ओों पर दाँत से घाव कर दिए हैं, और स्तनों पर अपने नखों से चिह्न बना दिए पीनोन्नतस्तनभरानतगात्रयष्ट्यः कुर्वन्ति केशरचनामपरास्तरुण्यः।4/16 जिन स्त्रियों के शरीर, मोटे और ऊंचे स्तनों के कारण झुक गए हैं, वे अपने बालों को संवार रही हैं। मनोजकूर्पासकपीडितस्तनाः सरागकौशेयकभूषितोरवः। 5/8 सुंदर चोलियों से अपने स्तन कसे हुए, जाँघों पर रेशमी कपड़े पहने हुए। पृथुजघनभरार्ताः किंचिदानम्रमध्या . स्तनभरपरिखेदान्मन्दमन्दं व्रजन्त्यः। 5/14 मोटे नितंबों के बोझ से दुखी, अपने स्तनों के बोझ से झुकी हुई कमरवाली और थकने के कारण बहुत धीरे-धीरे चलने वाली। नखपदचितभागान्वीक्षमाणाः स्तनान्अधरकिसलयाग्रं दन्तभिन्नं स्पृशन्त्यः। 5/15 नखों के घावों से भरे हुए स्तनों को देखती हुई प्यारे के दाँतों से कटे हुए अपने कोंपलों के समान कोमल अधरों को छूती हुई। कुर्वन्तिनार्योऽपि वसन्तकाले स्तनं सहारं कुसुमैर्मनोहरैः। 6/3 वसंत के समय स्त्रियाँ भी अपने स्तनों पर मनोहर फूलों की मालाएँ पहनने लगी हैं। For Private And Personal Use Only Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 888 कालिदास पर्याय कोश तन्वंशुकैः कुङ्कुमरागौरैरलक्रियन्ते स्तनमण्डलानि। 6/5 स्तनों पर केशर में रंगी हुई महीन कपड़े की चोली पहन ली है। स्तनेषु हाराः सितचन्दनार्दा भुजेषु सङ्गं वलयाङ्गदानि। 6/7 स्तनों पर धौले चंदन से भीगे हुए मोती के हार पहन लिए हैं, हाथों में भुजबंध और कंगन डाल लिए हैं। नेत्रेषु लोलो मदिरालसेषु गण्डेषु पाण्डुः कठिनः स्तनेषु। 6/12 मदमाती आँखों में चंचलता बनकर, गालों में पीलापन बनकर, स्तनों में कठोरता बनकर। प्रियङ्घकालीयककुमाक्तं स्तनेषु गौरेषु विलासिनीभिः। 6/14 स्त्रियाँ प्रियंगु, कालीयक, और केसर के घोल से अपने गोरे-गोरे स्तनों पर लेप कर रही हैं। आलम्बिहेमरसनाः स्तनसक्तहाराः कंदर्पदर्पशिथिलीकृतगात्र यष्ट्यः। 6/26 कमर में सोने की करधनी बाँधे, स्तनों पर मोती के हार लटकाए और काम की उत्तेजना से ढीले शरीर वाली। कनककमलकान्तैराननैः पाण्डुगण्डैरुपरिनिहितहारैश्चन्दनार्दैः स्तनान्तैः। मदजनितविलासैदृष्टिपातैर्मुनीन्द्रान्स्तनभरनतनार्यः कामयन्तिप्रशान्तान्।। 6/32 स्तनों के बोझ से झुकी हुई स्त्रियाँ अपने स्वर्ण कमल के समान सुनहरे गालों वाले मुँह से, गीले चंदन से पुते और मोतियों के हार पड़े हुए स्तन से और मतवाली चंचलता भरी चितवन से,शांत चित्तवाले तपस्वियों का मन भी डिगा देती है। स्त्री 1. अंगना - [प्रशस्तम् अङ्गम् अस्ति यस्याः - अङ्ग + न + यप्] स्त्री, सुंदर स्त्री। विभाति शुक्लेतररत्नभूषिता वराङ्गनेव क्षितिरिन्द्रगौपकैः। 2/5 वीरबहूटियों से छाई हुई धरती उस नायिका (स्त्री) जैसी दिखाई दे रही है, जो धौले रत्न छोड़कर और सभी रंगों के रत्नों वाले आभूषणों से सजी हुई हो। For Private And Personal Use Only Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऋतुसंहार 889 पत्युर्वियोगविषदिग्धशरक्षतानां चन्द्रो दहत्यतितरां तनुमङ्गनानाम्। 3/9 चंद्रमा, उन स्त्रियों के अंग, बहुत भूने डाल रहा है, जो अपने पतियों के बिछोह के विष बुझे बाणों से घायल घरों में पड़ी-पड़ी कलप रही हैं। हंसैर्जिता सुललिता गतिरङ्गनानामम्भोरुहैर्विकसितैर्मुखचन्द्रकान्तिः। 3/17 हंसों ने सुंदरियों की मनभावनी चाल को, कमलिनियों ने उनके चंद्रमुख की चमक को हरा दिया है। संसूच्यते निर्दयमङ्गनानां रतोपभोगो नवयौवनानाम्।4/13 इससे नवयुवतियों के प्रेमी उनका जी-जान से संभोग कर रहे हैं यह पता चल रहा है। कुर्वन्ति कामं पवनावधूतैः पर्युत्सुकं मानसमङ्गनानाम्। 6/17 जब पवन के झोंके में हिलने लगते हैं तो उन्हें देखकर स्त्रियों के मन उछलने लगते हैं। अबला - स्त्री। गुरूणि वासांस्यबला: सयौवनाः प्रयान्ति कालेऽत्र जनस्य सेव्यताम्। 5/2 आजकल लोग मोटे-मोटे कपड़े पहनकर और युवती स्त्रियों से लिपटकर दिन बिताते हैं। कांता - [कम् + क्त + टयप्] प्रेमिका, लावण्यमयी स्त्री, गृह स्वामिनी, पत्नी। अनुपममुखरागा रात्रिमध्ये विनोदं शरदि तरुणकान्ताः सूचयन्ति प्रमोदान्। 3/24 शरद में अनूठे प्रकार से मुँह रंगने वाली युवतियाँ यह बता डालती हैं कि रात में कैसे-कैसे आनंद लूट गया। हयं प्रयाति शयितुं सुखशीतलं च कान्तां च गाढमुपगृहति शीतलत्वात्। 6/11 सोने के लिए सुहावनी ठंडी कोठी में पहुँच जाते हैं और ठंड पड़ने के कारण अपनी स्त्रियों (प्यारियों) को कसकर छाती से लिपटाए रहते हैं। कान्तामुखद्युतिजुषामचिरोद्गतानां शोभां परां कुरबक दुममञ्जरीणाम्। 6/20 For Private And Personal Use Only Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 890 कालिदास पर्याय कोश अभी खिले हुए और स्त्रियों के मुख के समान सुंदर लगने वाले कुरबक के फूलों की अनोखी शोभा। कान्तावियोगपरिखेदितचित्तवृत्तिदृष्ट्वाऽध्वगः कुसुमितान्सहकारवृक्षान्। 6/28 अपनी स्त्रियों से दूर रहने के कारण जिनका जी बेचैन हो रहा है, वे यात्री जब मंजरियों से लदे हुए आम के पेड़ों को देखते हैं। 4. कामिनी - [कम् + णिनि] प्रिय स्त्री, मनोहर और सुंदर स्त्री, स्त्री। व्रजतु तव निदाघः कामिनीभिः समेतो निशि सुललित गीते हर्म्यपृष्ठे सुखेन। 1/28 वह गर्मी की ऋतु आपकी ऐसी बीते कि रात को आप अपने घर की छत पर लेटे हों, सुंदरियाँ आपको घेरे बैठी हों और मनोहर संगीत छिड़ा हुआ हो। बहुगुणरमणीयः कामिनीचित्तहारी तरुविटपलतानां बान्धवो निर्विकारः। बहुत से सुंदर गुणों से सुहावनी लगने वाली स्त्रियों का जी खिलाने वाली, पेड़ों की टहनियों और बेलों की सच्ची सखी। कुमुदरुचिरकान्तिः कामिनीवोन्मदेयं प्रतिदिशतु शरद्वश्चेतसः प्रीतिमग्रयाम्। 3/28 कोंई के शरीरवाली जो कामिनी के समान मस्त शरद ऋतु आई है, वह आप लोगों के मन में नई-नई उमंगे भरे। त्यजति गुरुनितम्बा निम्ननाभिः सुमध्या उषसि शयनमन्या कामिनी चारुशोभा। 5/12 एक दूसरी भारी नितंबों वाली, गहरी नाभि वाली, लचकदार कमरवाली और मनभावनी सुंदरतावाली स्त्री प्रातः काल पलँग छोड़कर उठ रही है। करकिसलयकान्तिं पल्लवैर्विदुमाभैरुपहसतिवसन्तः कामिनीनामिदानीम्। 6/31 वसंत मूंगे जैसी लाल-लाल कोमल पत्तों की ललाई दिखाकर उन कामिनियों की कोंपलों जैसी कोमल और लाल हथेलियों को जला रहा है। 5. तरुणी - [तृ + उनन् + ङीप्] युवती या जवान स्त्री। For Private And Personal Use Only Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ऋतुसंहार www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करकमलमनोज्ञाः कान्तसंसक्तहस्ता वदनविजितचन्द्राः काश्चिदन्यास्तरुण्यः । 3/23 चंद्रमा से भी अधिक सुन्दर मुखवाली स्त्रियाँ (युवतियाँ) अपने सुंदर कमल जैसे हाथ अपने प्रेमी के हाथ में डालकर । 891 रतिश्रमक्षामविपाण्डुवक्त्राः संप्राप्तहर्षाभ्युदयास्तरुण्यः । 4/6 संभोग की थकान से पीले और मुरझाए हुए मुखों वाली युवतियाँ हँसने की बात पर भी । पीनोन्नतस्तनभरानतगात्रयष्ट्यः कुर्वन्ति केशरचनामपरास्तरुण्यः 14/16 जिन स्त्रियों के शरीर, मोटे और ऊँचे स्तनों के कारण झुक गए हैं, वे फिर से अपने बालों को सँवार रही हैं। सुरतसमयवेषं नैशमाशु प्रहाय दधति दिवसयोग्यं वेषमन्यास्तरुण्यः 15/14 स्त्रियाँ रात के संभोग वाले वस्त्र उतारकर दिन में पहनने वाले कपड़े पहन रही हैं। 6. नारी [ नृ + नर वा जातौ ङीष् नि०] स्त्री । श्रुत्वा ध्वनिं जलमुचां त्वरितं प्रदोषे अभिमतरतवेषं नन्दयन्त्यस्तरुण्यः सवितुरुदयकाले भूषयन्त्याननानि । 5/15 अपने मनचाहे संभोग के वेश पर खिलखिलाती हुई स्त्रियाँ प्रातः काल अपने मुँह सजा रही हैं। शय्यागृहं गुरुगृहात्प्रविशन्ति नार्यः । 2 / 22 स्त्रियाँ बादलों की गड़गड़ाहट सुनकर झट अपने घर के बड़े-बूढ़ों के पास से उठकर सही साँझ को ही अपने शयनघर में घुस जाती हैं। नवजलकणसेकादुद्गतां रोमराजीं For Private And Personal Use Only ललितवलिविभङ्गैर्मध्यदेशैश्च नार्यः । 2/26 स्त्रियों के पेट पर दिखाई देने वाली सुंदर तिहरी सिकुड़नों पर जब वर्षा की नई फुहार पड़ती है, तो वहाँ के नन्हें- नन्हें रोएँ खड़े हो जाते हैं। पादाम्बुजानि कलनूपुरशेखरैश्च नार्यः प्रहृष्टमनसोऽद्यविभूषयन्ति । 3 / 20 Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 892 कालिदास पर्याय कोश आजकल स्त्रियाँ बड़ी उमंग से अपने कमल जैसे कोमल सुंदर पैरों पर छम-छम बजने वाले बिछुए पहनती हैं। शिरांसि कालागरुधूपितानि कुर्वन्ति नार्यः सुरतोत्सवाय। 4/5 संभोग की तैयारी में युवतियाँ कालागरु का धूप देकर अपने केश सुगंधित करती हैं। कुर्वन्ति नार्योऽपि वसन्तकाले स्तनं सहारं कुसुमैमनोहरैः। 6/3 वसंत में स्त्रियाँ भी अपने स्तनों पर मनोहर फूलों की मालाएं पहनने लगी हैं। समीपवर्तिष्वधुना प्रियेषु समुत्सुका एव भवन्ति नार्यः। 6/9 इस समय स्त्रियाँ अपने प्रेमियों को पास आने के लिए उकसा (ललचा) रही हैं। मासे मधौ मधुरकोकिल भृङ्गनादै र्यो हरन्ति हृदयं प्रसभं नराणाम्। 6/26 चैत में जब कोयल कूकने लगती हैं, भौरे गूंजने लगते हैं उस समय स्त्रियाँ बलपूर्वक लोगों का मन अपनी ओर खींच लेती हैं। मदजनितविलासैदृष्टिपातैर्मुनीन्द्रान्स्तनभरनतनार्यः कामयन्ति प्रशान्तान्। 6/32 स्तनों के बोझ से झकी हई स्त्रियाँ अपनी मतवाली चंचलता भरी चितवन से शांत चित्तवाले तपस्वियों का मन भी डिगा देती हैं। 7. नितंबिनी - [ नितंब + इनि + ङीष्] बड़े और सुंदर कूल्हों वाली स्त्री। नितान्तलाक्षारसरागरञ्जितैर्नितम्बिनीनां चरणैः सनूपुरैः। 1/5 स्त्रियों के उन महावर से रंगे पैरों को जिनमें बिछुए बजा करते हैं। प्रयान्त्यनङ्गातुरमानसानां नितम्बनीनां जघनेषु काञ्चयः। 6/7 अपने प्रेमी के संभोग करने को आतुर नारियों ने अपने नितंबों पर करधनी बाँध ली है। 8. प्रमदा - [ प्रमद् + अच् + यप्] सुंदरी नवयुवती, पत्नी या स्त्री। स्तनेषु तन्वंशुकमुन्नतस्तना निवेशयन्ति प्रमदाः सयौवनाः। 1/7 ऊँचे-ऊँचे स्तनों वाली युवतियों अपने स्तनों पर पतले कपड़े पहनने लगी हैं। For Private And Personal Use Only Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऋतुसंहार 893 क्वचित्सगर्भप्रमदास्तनप्रभैः समाचितं व्योम घनैः समन्ततः। 2/2 कहीं गर्भिणी स्त्री के स्तनों के समान पीले बादल आकाश में इधर-उधर छाए निरस्तमाल्याभरणानुलेपनाः स्थिता निराशाः प्रमदाः प्रवासिनाम्। 2/12 परदेसियों की स्त्रियाँ अपनी माला, आभूषण, तेल, फुलेल, उबटन आदि सब कुछ छोड़कर गाल पर हाथ धरे बैठी हैं। नद्यो विशालपुलिनान्तनितम्बबिम्बा मन्दं प्रयान्ति समदाः प्रमदा इवाद्य। 3/3 इस ऋतु में नदियाँ भी उसी प्रकार धीरे-धीरे बही जा रही हैं, जैसे बड़े-बड़े नितंबों वाली कामिनियाँ चली जा रही हों, ऊँचे-ऊँचे रेतीले टीले ही उनके गोल नितंब हैं। ज्योत्स्नादुकूलममलं रजनी वृद्धिं प्रयात्यनुदिनं प्रमदेव बाला। 3/7 आजकल की रात चाँदनी की उजली साड़ी पहने हुए अलबेली बाला के समान दिन-दिन बढ़ती चली जा रही है। काञ्चीगुणैः काञ्चनरलचित्रैर्नो भूषयन्ति प्रमदा नितम्बान्। 4/4 न तो स्त्रियाँ अपने नितंबों पर सोने और रत्नों से जड़ी हुई करधनी ही पहनती संहष्यमाणपुलकोरुपयोधरान्ता अभ्यञ्जनं विदधति प्रमदाः सुशोभाः। 4/18 जिनकी जाँघों और स्तनों पर रोमांच हो गया है, वे युवतियाँ बैठी अपने शरीर पर तेल मलवा रही हैं। प्रकामकामं प्रमदाजनप्रियं वरोरु कालं शिशिराह्वयं श्रुणुं। 5/1 हे सुंदर जाँघों वाली! सुनो जिस ऋतु में काम भी बहुत बढ़ जाता है, वह स्त्रियों की प्यारी शिशिर ऋतु आ पहुंची हैं। वापी जलानां मणिमेखलानां शशाङ्कभासां प्रमदाजनानाम्। 6/4 बावड़ियों के जल, मणियों से जड़ी करधनी, चाँदनी और स्त्रियाँ। पुष्पं च फुल्लं नवमल्लिकायाः प्रयान्ति कान्तिं प्रमदाजनानाम्। 6/6 For Private And Personal Use Only Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 894 कालिदास पर्याय कोश स्त्रियों की लटों में फूल और नवमल्लिका की खिली हुई कलियाँ बड़ी सुहावनी लगने लगी हैं। अङ्गान्यनङ्गः प्रमदाजनस्य करोति लावण्यससंभ्रमाणि। 6/10 स्त्रियों में इतनी कामवासना भर आती है कि उनके सारे शरीर में कुछ अनोखा ही रसीलापन आ जाता है। भ्रूक्षेपजिह्मानि च वीक्षितानि चकार कामः प्रमदाजनानाम्। 6/13 काम से भरी हुई स्त्रियों की टेढ़ी भौंहों से उनकी चितवन बड़ी कटीली लगती 9. मनस्विनी - [मनस् + विनि + ङीप्] उदार मन की या अभिमानिनी स्त्री, सती स्त्री। आकम्पितानि हृदयानि मनस्विनीनां वातैः प्रफुल्लसत्कार कृताधिवासैः। 6/34 बौरे हुए आम के पेड़ों में बसे हुए पवन से मनस्विनी स्त्रियों के मन भी डिग जाते हैं। 10. मानिनी - [मान् + णिनि + ङीष्] आत्माभिमानिनी स्त्री, कुपित स्त्री। इषुभिरिव सुतीक्ष्णैर्मानसं मानिनीनां तुदति कुसुममासो मन्मथोद्दीपनाय। 6/29 अपने पैने बाणों से वसंत मानिनी स्त्रियों के मन इसलिये बींध रहा है कि उनमें प्रेम जग जाए। 11. युवती - [युवन् + ति, ङीप वा] तरुणी स्त्री, तरुणी। दिवसकरमयूखैर्बोध्यमानं प्रभाते वरयुवतिमुखाभं पङ्कजंजृम्भतेऽद्य। 3/25 प्रातः काल जब सूर्य अपने करों से कमल को जगाता है, तब वह कमल सुंदरी युवती के मुख के समान खिल उठता है। 12. योषिता - [यौति मिश्रीभवति - यु + स + टाप्, योषित् + यप्] स्त्री, लड़की, तरुणी, जवान स्त्री। सितेषु हर्येषु निशासु योषितां सुखप्रसुप्तानि मुखानि चन्द्रमाः। 119 रात के समय उजले भवन में सुख के सोई हुई युवती का मुख निहारने को उतावला रहने वाला चंद्रमा। For Private And Personal Use Only Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 895 ऋतुसंहार कृतापराधानपि योषितः प्रियान्परिष्वजन्ते शयने निरन्तरम्। 2/11 चौंकी हुई स्त्रियाँ सोते समय अपने दोषी प्रेमियों से भी लिपटी जाती हैं। माला: कदम्बवनकेसरकेतकीभिरायोजिताः शिरसि बिभ्रति योषितोऽद्य। 2/21 इन दिनों नई केसर, केतकी, और कदंब के नए फूलों की मालाएँ गूंथकर स्त्रियाँ अपने जूड़ों में बाँधती हैं। बहुगुणरमणीयो योषितां चित्तहारी परिणतबहुशालिव्याकुलग्रामसीमा। 4/19 जो अपने अनेक गुणों से मन को मुग्ध करने वाली और स्त्रियों के चित्त को लुभाने वाली है, जिसमें गाँवों के आस-पास पके हुए धान के खेत लहलहाते अपगतमदरागा योषिदेका प्रभाते कृतनिविड कुचाग्रा पत्युरालिङ्गनेन। 5/11 एक स्त्री के मुख पर मद की लाली भी नहीं रह गई है और पति की छाती से लगे रहने के कारण उसके स्तनों की धुंडियाँ भी कड़ी हो गई हैं। उपसि वदनबिम्बैरंसक्तकेशैः श्रिय इव गृहमध्ये संस्थिता योषितोऽद्य।5/13 इन दिनों प्रातः काल के समय स्त्रियों के कंधों पर फैले हुए बालों वाले गोल-गोल मुखों को देखकर ऐसा लगता है, मानो घर-घर में लक्ष्मी आ बसी हों। गुरुतरकुचयुग्मं श्रोणिबिम्बं तथैव न भवति किमिदानीं योषितां मन्मथाय। 6/33 स्त्रियों के बड़े-बड़े गोल स्तन वैसे ही बड़े-बड़े गोल नितंब, क्या लोगों के मन में कामदेव को नहीं जगा रहे हैं। 13. यौवना - तरुणी, जवान स्त्री, युवती। संसूच्यते निर्दयमङ्गनानां रतोपभोगो नवयौवनानाम्। 4/13 इससे यह पता चल रहा है कि नवयुवतियों के प्रेमी उनका जी जान से संभोग कर रहे हैं। गुरूणि वासांस्यबलाः सयौवनाः प्रयान्ति कालेऽत्र जनस्य सेव्यताम्। 5/2 For Private And Personal Use Only Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 896 कालिदास पर्याय कोश आजकल लोग मोटे-मोटे कपड़े पहनकर और युवती स्त्रियों से लिपटकर दिन बिताते हैं। भ्रमन्ति मन्दं श्रमखेदितोरवः क्षपावसाने नवयौवनाः स्त्रियः। 5/7 वे युवती स्त्रियाँ, रात के परिश्रम से दुखती जाँघों के कारण प्रातः काल बड़े धीरे-धीरे चल रही हैं। कुर्वन्त्यशोका हृदयं सशोकं निरीक्ष्यमाणा नवयौवनानाम्। 6/18 उन अशोक के वृक्षों को देखते ही नवयुवतियों के हृदय में शोक होने लगता 14. वधू- [उह्यते पितृगेहात् पतिगृहं वह + उथक्] दुलहिन, पत्नी, भार्या, महिला, तरुणी, स्त्री। अपहृतमिव चेतस्तोयदैः सेन्द्रचापैः पथिकजनवधूनां तद् वियोगाकुलानाम्। 2/23 जिन बादलों में इंद्रधनुष निकल आया है, उन्होंने परदेसियों की उन स्त्रियों की सब सुध-बुध हर ली है, जो अपने प्यारों के बिछोह में व्याकुल हुई बैठी हैं। विकचनवकदम्बैः कर्णपूरं वूधनां रचयति जलदौघः कान्तवत्काल एषः। 2/25 जैसे कोई प्रेमी अपनी प्यारी के लिए ढंग-ढंग के आभूषण बनावे वैसे ही वर्षा काल भी ऐसा लगता है मानो वह अपनी प्रेमिका के लिए खिले हुए नए कदंब के फूलों के कर्णफूल बना रहा है। आपक्वशालिरुचिरानतगात्रयष्टिः प्राप्ता शरन्नवूधरिव रूप रम्या। 3/1 पके हुए धान से मनोहर शरीर वाली शरद ऋतु, नई ब्याही हुई रूपवती बहू के समान अब आ पहुंची हैं। कुमुदपि गतेऽस्तं लीयते चन्द्रबिम्बे हसितमिव वधूनां प्रोषितेषु प्रियेषु। 3/25 जैसे प्रिय के परदेस चले जाने पर स्त्रियों की मुस्कराहट चली जाती है, वैसे ही चंद्रमा के छिप जाने पर कोई सकुचा जाती है। सद्यो वसन्तसमयेन समाचितेयं रक्तांशुका नववधूरिव भाति भूमिः। 6/21 For Private And Personal Use Only Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऋतुसंहार 897 वसंत के दिनों में पृथ्वी ऐसी लग रही है, मानो लाल साड़ी पहने हुए कोई नई दुलहिन हो। लज्जान्वितं सविनयं हृदयं क्षणेन पर्याकुलं कुलगृहेऽपि कृतं वधूनाम्। 6/23 सती स्त्रियों के लाज और मर्यादा को भी थोड़ी देर के लिए अधीर कर दिया है। कुन्दैः सविभ्रमवधूहसितावदातैरुद्दयोतितान्युपवनानि मनोहराणि। 6/25 कामिनियों की मस्तानी हंसी के समान उजले कुंद के फूलों से चमकते हुए मनोहर उपवन। 15. वनिता - [वन् + क + टयप्] स्त्री, महिला। केशान्नितान्तघननीलविकुञ्चिताग्रान्आपूरयन्ति वनिता नवमालतीभिः। 3/19 स्त्रियाँ अपनी घनी धुंघराली काली लटों में नये मालती के फूल गूंथ रही है। काचिद्विभूषयन्ति दर्पणसक्तहस्ता बालातपेषु वनिता वदनारविन्दम्। 4/14 एक स्त्री हाथ में दर्पण लिए हुए प्रातः काल की धूप में बैठी अपने कमल जैसे मुँह का सिंगार कर रही है। 16. विलासिनी - [ विलासिन् + ङीप्] रमणी, हावभाव करने वाली स्त्री। विलासिनीनां स्तनशालिनीनां नालक्रियन्तेस्तनमण्डलानि। 4/2 इन दिनों अलबेली स्त्रियाँ अपने बड़े-बड़े गोल-गोल स्तनों को सजाती नहीं न बाहुयुग्मेषु विलासिनीनां प्रयान्ति सङ्गं बलयाङ्गदानि। 4/3 न तो ये कामिनियां अपनी दोनों भुजाओं पर कंगन और भुजबंध ही पहनती हैं। प्रिये प्रियङ्गः प्रियविप्रयुक्ता विपाण्डुतां याति विलासिनीव। 4/11 यह प्रियंगु की लता, वैसी ही पीली पड़ गई है, जैसे अपने पति से अलग होने पर युवती पीली पड़ जाती है। For Private And Personal Use Only Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 898 कालिदास पर्याय कोश विलासिनीभिः परिपीडितोरसः स्वपन्ति शीतं परिभूयकामिनः। 5/9 इन दिनों प्रेमी लोग कामिनियों को कसकर छाती से लिपटाये हुए जाड़ा भगाकर सोते हैं। कुसुम्भरागारुणितैर्दुकूलैर्नितम्बबिम्बानि विलासिनीनाम्। 6/5 कामिनियों ने अपने गोल-गोल नितंबों पर कुसुम के लाल फूलों से रंगी रेशमी साड़ी पहन ली है। सपत्रलेखेषु विलासिनीनां वक्त्रेषु हेमाम्बुरुहोपमेषु। 6/8 सुनहरे कमल के समान सुहावने और बेलबूटे चीते हुए स्त्रियों के मुखों पर। प्रियङ्गकालीयककुङ्कुमाक्तं स्तनेषु गौरेषु विलासिनीभिः। 6/14 स्त्रियाँ प्रियंगु, कालीयक और केसर घोल कर अपने गोरे-गोरे स्तनों पर लेप कर रही हैं। 17. सुवदना - सुंदर मुख वाली स्त्री, सुंदर स्त्री, स्त्री। यत्कोकिलः पुनरयं मधुरैर्वचोभियूनां मनः सुवदना निहितं निहन्ति। 6/22 अपनी प्यारियों (स्त्रियों) के मुखड़ों पर रीझे हुए प्रेमियों के हृदय को यह कोयल भी अपनी मीठी कूक सुना-सुना कर टूक-टूक कर रही है। 18. स्त्री - [स्त्यायेते शुक्रशोणिते यस्याम् - स्त्यै + ड्रप् + ङीप्] नारी, औरत, पत्नी। शिरोरुहैः स्नानकषायवासितैः स्त्रियो निदाघं शमयन्ति कामिनाम्। 1/4 इन दिनों स्त्रियाँ अपने प्रेमियों की तपन मिटाने के लिए अपने उन जूड़ों की गंध सुंघाती हैं, जो उन्होंने स्नान के समय सुगंधित फूलों में बसा लिए थे। स्त्रियः सुदुष्टा इव जातविभ्रमाः प्रयान्ति नद्यस्त्वरितं पयोनिधिम्। 2/7 जैसे कला स्त्रियाँ प्रेम में अंधी होकर बिना सोचे-विचारे अपने को खो बैठती हैं, वैसे ही ये नदियाँ वेग से दौड़ी हुई समुद्र की ओर चली जा रही हैं। तडित्प्रभादर्शितमार्गभूमयः प्रयान्ति रागादभिसारिकाः स्त्रियः। 2/10 लुक-छिप कर अपने प्यारे के पास प्रेम से जाने वाली कामिनियाँ बिजली की चमक से आगे का मार्ग देखती हुई चली जा रही हैं। स्तनैः सहारैर्वदनैः ससीधुभिः स्त्रियो रतिं संजनयन्ति कामिनाम्। 2/18 For Private And Personal Use Only Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऋतुसंहार 899 स्त्रियाँ अपने स्तनों पर माला डालकर और मदिरा पीकर अपने प्रेमियों के मन में प्रेम उकसा रही हैं। स्त्रियश्च काञ्चीमणिकुण्डलोज्ज्वला हरन्ति चेतो युगपत्प्रवासिनाम्।2/20 और करधनी तथा रत्न जड़े कुंडलों से सजी हुई स्त्रियाँ, ये दोनों ही परदेसियों का मन एक साथ हर लेते हैं। श्यामालताः कुसुमभारनतप्रवालाः स्त्रीणां हरन्ति धृतभूषणबाहुकान्तिम्। 3/18 जिन हरी बेलों की टहनियाँ फूलों के बोझ से झुक गई हैं, उनकी सुंदरता ने स्त्रियों की गहनों से सजी हुई बाहों की सुंदरता छीन ली है। स्त्रीणां विहाय वदनेषु शशाङ्कलक्ष्मी काम्यं च हंसवचनं मणिनूपुरेषु। 3/27 कहीं तो चंद्रमा की चमक को छोड़कर स्त्रियों के मुंह में पहुंच गई हैं, कहीं हंसों की मीठी बोली छेड़कर उनके रतन जड़े बिछुओं में चली गई है। प्रकामकालागरुधूपवासितं विशन्ति शय्यागृहमुत्सुकाः स्त्रियः। 5/5 स्त्रियाँ, काले अगरू के धूप से महकने वाले शयन घरों में बड़े चाव से चली जा रही हैं। निरीक्ष्य भर्तृन्सुरताभिलाषिणः स्त्रियोऽपराधान्समदाविसस्मरुः। 5/6 मदमाती स्त्रियों के पति जब उनके पास संभोग करने के लिए आते हैं, तो उनको देखते ही वे उनका सब अपराध भूलकर उनसे संभोग करने लगती हैं। भ्रमन्ति मन्दं श्रमखेदितोरवः क्षपावसाने नवयौवनाः स्त्रियः। 5/7 वे स्त्रियाँ, रात के परिश्रम से दुखती हुई जाँघों के कारण प्रातःकाल बड़े धीरे-धीरे चल रही हैं। निवेशितान्तः कुसुमैः शिरोरुहैर्विभूषयन्तीव हिमागमं स्त्रियः। 5/8 बालों में फूल गूंथे हुए स्त्रियाँ ऐसी लग रही हैं, मानो जाड़े के स्वागत का उत्सव मानने के लिए सिंगार कर रही हैं। निशासु हृष्टा सह कामिभिः स्त्रियः पिबन्ति मद्यं मदनीयमुत्तमम्। 5/10 स्त्रियाँ बड़े हर्ष से अपने प्रेमियों के साथ रात में मद बहाने वाली और कामवासना जगाने वाली वह मदिरा पीती हैं। For Private And Personal Use Only Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 900 कालिदास पर्याय कोश दुमाः सपुष्पाः सलिलं सपऱ्या स्त्रियः सकामाः पवनः सुगन्धिः। 6/2 वृक्ष फूलों से लद गए हैं, जल में कमल खिल गए हैं, स्त्रियाँ मतवाली हो गई हैं, वायु में सुगंध आने लगी है। मध्येषु निम्नोजघनेषु पीनः स्त्रीणामनङ्गो बहुधास्थितोऽद्य। 6/12 इन दिनों कामदेव भी स्त्रियों के कमर में गहरापन बनकर और नितंबों में मोटापा बनकर आ बैठता है। हरिणी 1. मृगी - [मृग + ङीष्] हरिणी, मृगी। पर्यन्तसंस्थितमृगीनयनोत्पलानि प्रोत्कण्ठयन्त्युपवनानि मनांसि पुंसाम्। 3/14 जिन उपवनों में कमल जैसी आँखों वाली हरणियाँ जहाँ-तहां बैठी पगुरा रही हैं, उन्हें देखकर लोगों के मन हाथ से निकल जाते हैं। 2. हरिणी - [हरिण + जी] मृगी, मादा हरिण। तृणोत्करैरुद्गतकोमलाङ्कुरैश्चितानि नीलहरिणीमुखक्षतैः। 2/8 हरिणियों के मुँह की कुतरी हुई हरी-हरी घासों से छाए हुए। हार 1. आपीड - [आ + पीड् + घर, अच् वा] कंठहार, माला। रक्ताशोकविकल्पिताधरमधुर्मत्तद्विरेफस्वनः कुन्दापीडविशुद्धदन्तनिकरः प्रफुल्ल पद्माननः। 6/36 अमृत भरे अधरों के समान लाल आशोक से मतवाले भौरों की गूंज से, दाँतों की चमकती हुई पाँतों जैसे उजले कुंद के हारों से। 2. दाम - [दो + मनिन्] गजरा, हार, डोरी। निर्माल्यदाम परिभुक्तमनोज्ञगन्धं मनऽपनीय घननील शिरोरुहान्ताः।4/16 लंबे घने केशों वाले सिर से वह मुरझाई हुई माला उतार रही हैं, जिसकी मधुर सुगंध का आनंद वे रात में ले चुकी हैं। For Private And Personal Use Only Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ऋतुसंहार www. kobatirth.org 4. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 3. माला- हार, खज, गजरा, पंक्ति । निरस्तमाल्याभरणानुलेपनाः स्थिता निराशाः प्रमदाः प्रवासिनाम्। 2/12 परदेसियों की स्त्रियाँ अपनी माला, आभूषण, तेल, फुलेल, उबटन आदि सब कुछ छोड़कर गाल पर हाथ धरे बैठी हैं। मालाः कदम्बनवकेसरकेतकीभि रायोजिताः शिरसि विभ्रति योषितोऽद्य। 2/21 इन दिनों नई केसर, केतकी और कदंब के नये फूलों की मालाएँ गूँथकर स्त्रियाँ अपने जूड़ों में बाँधती हैं। शिरसि बकुलमालां मालतीभिः समेतां विकसितनवपुष्पैर्यूथिका कुड्मलैश्च । 2/25 मानो जूही की नई-नई कलियों तथा मालती और मौलसिरी के फूलों की माला जूड़ों में लगाने के लिए गूँथ रहा हो । 901 कारण्डवाननविघट्टितवीचिमालाः कादम्बसारसकुलाकुलतीरदेशाः । 3/8 जिनकी लहरों की मालाएँ जल पक्षियों की चोंचों से टकराती जा रही हैं और जिनके तीर पर कंदब और सारस पक्षियों के झुंड घूम रहे हैं। अगरुसुरभिंधूपामोदित केशपाशं गलितकुसुममालं कुञ्चिताग्रं वहन्ती । 5/12 अगरू के धुएँ में बसी हुई अपनी बिना मालावाली घनी घुँघराली लटों को थामें उठ रही है। स्त्रज[सृज्यते सृज् + क्विन्, नि] गजरा, पुष्पमाला, माला हार । गृहीतताम्बूलविलेपनस्त्रजः पुष्पासवामोदित वक्त्रपङ्कजा । 5/5 फूलों का आसव पीने से जिनका कमल जैसा मुँह सुगंधित हो गया है, वे पान खाकर, फुलेल लगाकर और मालाएँ पहनकर । 5. हार - [ हृ + घञ् ] मोतियों की माला, हार, माला । नितम्बबिम्बैः सदुकूलमेखलैः स्तनैः सहाराभरणैः सचन्दनैः । 1/4 रेशमी वस्त्र और करधनी पड़े हुए नितंबों पर तथा हार और दूसरे गहने पड़े चंदन पुते स्तनों से। पयोधराश्चन्दनपङ्कचर्चितास्तुषार गौरार्पित हारशेखरः । 1/6 For Private And Personal Use Only Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 902 www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कालिदास पर्याय कोश हिम के समान उजले और अनूठे हार से सजे हुए चंदन पुते स्तन देखकर । सचन्दनाम्बुव्यजनोद्भवानिलैः सहारायष्टिस्तनमण्डलार्पणैः । 1/8 चंदन में बसे हुए ठंडे जल से भीगे हुए पंखों की ठंडी बयार झलकर या मोतियों के हारों की लटकती हुई झालरों से सजे अपने गोल-गोल स्तन छाती पर रखकर । कमलवनचिताम्बुः पाटलामोदरम्यः सुखसलिलनिषेकः सेव्य चन्द्रांशुहारः । 1 / 28 कमलों से भरे हुए और खिले हुए पाटल की गंध में बसे हुए जल में स्नान करना बहुत सुहाता है और चंद्रमा की चाँदनी और मोती के हार बहुत सुख देते हैं। स्तनैः सहारैर्वदनैः ससीधुभिः स्त्रियो रतिं संजनयन्तिकामिनाम् । 2 / 18 स्त्रियाँ छाती पर माला डालकर और मदिरा पीकर अपने प्रेमियों के मन में प्रेम उकसा रही हैं। दधति वरकुचाग्ररुन्नतैर्हारयष्टिं प्रतनुसितदुकूलान्यायतैः श्रोणिबिम्बैः 12/26 अपने बड़े-बड़े गोल-गोल उठे हुए सुंदर स्तनों पर मोती की मालाएँ पहनती हैं और गोल-गोल नितंबों पर महीन उजली रेशमी साड़ी पहनती हैं। चञ्चन्मनोज्ञशफरीरसनाकलापाः पर्यन्तसंस्थितसिताण्डजपङ्क्तिहाराः । 3/3 उछलती हुई सुंदर मछलियाँ ही उनकी करधनी हैं, तीर पर बैठी हुई उजली चिड़ियों की पाँतें ही उनकी मालाएँ हैं। हारैः सचन्दनरसैः स्तनमण्डलानि श्रोणितटं सविपुलं रसनाकलापैः 13/20 स्तनों पर मोतियों के हार पहनती हैं और चंदन पोतती हैं अपने भारी-भारी नितंबों पर करधनी बाँधती हैं। मनोहरैश्चन्दनरागगौरैस्तुषारकुन्देन्दुनिभैश्च हारैः 14/2 हिम, कोई और चंद्रमा के समान उजले और कुंकुम के रंग में रंगे हुए मनोहर हार नहीं पहनती हैं। स्तनेषु हाराः सितचन्दनार्द्रा भुजेषु सङ्गं वलयाङ्गदानि 16/7 For Private And Personal Use Only Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऋतुसंहार 903 अपने स्तनों पर धौले चंदन से भीगे हुए मोती के हार पहन लिए हैं, हाथों में भुजबंध और कंगन डाल लिए हैं। आलम्बिहेमरसनाः स्तनसक्तहाराः कंदर्पदर्प शिथिलीकृतगात्रयष्ट्यः। 6/26 कमर में सोने की करधनी बाँधे, स्तनों पर मोती के हार लटकाए और काम की उत्तेजना से ढीले शरीर वाली। कनककमलकान्तैराननैः पाण्डुगण्डैरुपरिनिहितहारैश्चन्दनार्दैः स्तनान्तैः। 6/32 अपने स्वर्ण कमल के समान सुनहरे गालों वाले मुंह से, गीले चंदन से पुते और मोतियों के हार पड़े हुए स्तन से। हेम 1. कनक - [कन् + वुन्] सोना, स्वर्ण। बहुतर इव जातः शाल्मलीनां वनेषु स्फुरति कनकगौराः कोटरेषु दुमाणाम्। 1/26 सेमर के वृक्षों के कुंजों में फैली हुई आग वृक्ष के खोखलों में अपना सुनहला प्रकाश चमकाती हुई। असितनयनलक्ष्मी लक्षयित्वोत्पलेषु क्वणितकनककाञ्ची मत्तहंसस्वनेषु। 3/26 नीले कमलों में काली आँखों की सुंदरता देखते हैं, मस्त हंसों की ध्वनि में उनकी सुनहली करधनी की रुनझुन सुनते हैं। कनककमलकान्तैश्चारुतानाधरोष्ठैः श्रवणतटनिषक्तः पाटलोपान्तनेत्रैः। 5/13 सुंदर लाल-लाल होंवें वाले, लाल कोरों से सजी हुई बड़ी-बड़ी आँखों वाले सुनहरे कमल के समान चमकने वाले। रुचिरकनककातीन्मुञ्चतः पुष्पराशीन्मृदुपवनविधूतान्युष्पिताँश्चूतवृक्षान्। 6/30 For Private And Personal Use Only Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 904 कालिदास पर्याय कोश मंद-मंद बहने वाले पवन के झोंके से हिलते हुए और सुंदर सुनहले बौर गिराने वाले, बौरे हुए आम के वृक्षों को। कनककमलकान्तैराननैः पाण्डुगण्डैरुपनिहितहारैश्चन्दनार्दैः स्तनान्तैः। 6/32 अपने स्वर्ण कमल के समान सुनहरे गालों वाले मुँह से, गीले चंदन से पुते और मोतियों के हार पड़े हुए स्तन से। 2. कांचन - [काञ्च् + ल्युट्] सोना, सुनहरा, सोने का बना हुआ। कर्णेषु च प्रवरकाञ्चनकुण्डलेषु नीलोत्पलानि विविधानि निवेशयन्ति। 3/19 जिन कानों में वे सोने के बढ़िया कुण्डल पहना करती थीं, उनमें उन्होंने नीले कमल लटका लिए हैं। काञ्चीगुणैः काञ्चनरलचित्र! भूषयन्ति प्रमदा नितम्बान्। 4/4 न स्त्रियाँ अपने नितंबों पर सोने और रत्नों से जड़ी हुई करधनी पहनती हैं। 3. हेम - [ हि + मन्] सोना। नितम्बदेशाश्च सहेममेखलाः प्रकुर्वते कस्य मनो न सोत्सुकम्। 1/6 सुनहरी करधनी से बंधे हुए नितंब देखकर भला किसका मन नहीं ललच उठेगा। सपत्रलेखेषु विलासिनीनां वक्त्रेषु हेमाम्बुरुहोपमेषु। 6/8 सुनहरे कमल के समान सुहावने और बेलबूटे चीते हुए स्त्रियों के मुखों पर। आलम्बिहेमरसनाः स्तनसक्तहाराः कंदर्पदर्पशिथिलीकृत गात्रयष्ट्यः। 6/26 कमर में सोने की करधनी बाँधे, स्तनों पर मोती के हार लटकाए और काम की उत्तेजना से ढीले शरीर वाली। For Private And Personal Use Only Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Serving Jin Shasan 137317 gyanmandirakobatirth.org ISBN 817702180-X RATIBHA 911788177021806 / / प्रतिभा प्रकाशन (प्राच्यविद्या प्रकाशक एवं पुस्तक विक्रेता) 7259/20 अजेन्द्र मार्केट, प्रेमनगर, शक्तिनगर, दिल्ली-110007 For Private And Personal Use Only