Book Title: Kaharayana Koso
Author(s): Devbhadracharya, Punyavijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SSSSSSSSSSSS Annar Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DEKANANASI 1 प्रकाशकः शेठ वलभदास त्रिभुवनदास गांधी सक्रेटरी श्री जैन आत्मानन्द सभा भावनगर नाकावनाका - मूल्यम्बहुमूल्यपत्रपतेः दश रूप्यकाः । अल्पमूल्यपत्रप्रतेः सार्धाष्टौ रूप्यकाः। P omema मुहक: शाह गुलाबचंद लल्लभाई श्री महोदय प्रिन्टींग प्रेस दाणापीठ-भावनगर ASAL HIPAGHUHUGASAPANATHIASAYA HAPA MASHARANASAN TAHUHUH PichkhtKIWARIKRRAHARAKHAREKKIE%***KARARRIER आ भा र प्रदर्शन प्रस्तुत ग्रन्थना मुद्रणकार्य माटे जे भाग्यवान् महानुभावोए सभाने द्रव्य अर्पण कयु छ तेमनां शुभ नामोनी नोंध लेवा साथे तेमनो अमे अंत:करणथी धन्यवाद आपवा पूर्वक आभार मानीए छीए रू. २०००) पाटणनिवासी धर्मात्मा शेठ नटवरलाल तथा भाई रमणलाले पोताना पिताश्री शेठ छोटालाल लहेरचन्दना कल्याणनिमिचे अर्पण कर्या छ । रू. ५००) राधनपुरवासी शेठ चन्दुलाल केशरीचन्दनी धर्मपत्नी अने पाटणनिवासी शेठ मोहनलाल मोतीचन्दनी सुपुत्री बहेन केशरबहेने पोताना जेठ शेठ जीवाभाई केशरीचन्दना कल्याणनिमित्चे कहेला द्रव्यमाथी आया छ । गांधी वल्लभवास त्रिभुवनदास सेक्रेटरी श्रीजैन आत्मानन्द सभा. भावनगर ( काठीआवाड ) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना। कथारत्नकोशनी ॥२ ॥ ॥ जयन्तु वीतरागाः ॥ कथारत्नकोशनी प्रस्तावना । KAHASRAHASRANA आजे आचार्य श्रीदेवभद्रसरिविरचित रत्नकोशना यथार्थ नामने शोभावतो एको कथारत्नकोश नामनो अतिदुर्लभ पन्थ | प्रकाशित करी जैनकथासाहित्यरसिक विद्वानोना करकमळमां उपहाररूपे अर्पण करवामां आवे छे; जेनी साद्यंत परिपूर्ण मात्र एक ज ताडपत्र उपर लखाएली प्राचीन प्रति, खंभातना 'श्रीशांतिनाथ जैन ज्ञानभंडार'ने नामे ओळखाता अतिप्राचीन गौरवशाली ताडपत्रीय मानभंडारमा जळवाएली छे. तेने अंगे नीचेना मुद्दाओ उपर विचार करवामां आवे छे:-१ भारतीय कथासाहित्यनी विपुलता. २ जैन प्रवचनमां धर्मकथानुयोगर्नु स्थान. ३ कथाना प्रकारो अने कथावस्तु. ४ कधारत्नकोशमंथनो परिचय. ५ तेना प्रणेता. ६ अन्य जैनकथाग्रंथादिमां कथारत्नकोशनुं अनुकरण अने अवतरण, ७ संशोधन माटे एकत्र करेली प्राचीन प्रतिओनो परिचय तथा संशोधन विशेनी माहिती. १ भारतीय कथासाहित्यनी विपुलता आजनी प्रत्यक्ष दुनिआमां जे मानवप्रजा बसे छे तेमा भणेलागणेला कुशाग्रमतिवाळा लोको वेत्रण टका जेटला ज छे, व्यारे बाकीनो ९७ टका जेटलो भाग अक्षरज्ञान विनानो छतां स्वयंस्फुरित संवेदनवाळो छे. आमां केवळ अक्षरपरिचय धरावनारा अने ॥ २ ॥ ARSsanchal SINE PORA श्रीमात्मानन्द-जैनप्रन्यरत्नमाला एकनवतितम रत्नम् ९१ . सिरिदेवभदायरियविरइओ-श्रीदेवभद्राचार्यविरचितः कहारयणकोसो-कथारत्नकोशः। विषमपदार्थद्योतिन्या टिप्पण्या विभूषितः । कथारत्नकोशकारमणीतप्रमाणप्रकाश-अनन्तनाथस्तोत्राविभिः संयुतश्च । सम्पादकः संशोधकचबृहत्तपोगच्छान्तर्गतसंविप्रशाखीय-आधाचार्य-श्री१००८श्रीविजयानन्दबरिप्रवर-प्रपरविनेयप्रवर्तकश्री कान्तिविजयान्तिपन्मुनिवरश्रीचतुरविजयचरणाब्जसेवको मुनिः पुण्यविजयः। मुद्रयित्वा प्राकाश्यं नीतश्चार्य प्रन्थः-भावनगरस्थया श्रीजैन-आत्मानन्दसभया । वीरसंवत् २४७० मात्मसंवत् ४८ विक्रमसंवत् २००० इस्वीसन् १९४४ TATEUCICON Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोशनी HASHASHANK सद्गुणोथी विभूषित महापुरुषो आमजनताने उपदेशद्वारा केळवी शके छे, साहित्यसर्जनद्वारा दोरी शके छे अने अनेक गूंचो उकेली तेनी साधनाना मार्गने सरल बनावी आपे छे. आ दृष्टिए पण कथासाहित्यर्नु मूल्य अनेकगणुं वधी जाय छे. २ जैनप्रवचनमां कथानुयोगनुं स्थान जेम महाभारत अने रामायणना प्रणेता वैदिक महर्पिओए आमजनताना प्रतिनिधि बनी ए पंथोनी रचना करी हती, एज प्रमाणे जैनपरंपराए पण आमजनतानी विशेष खेवना करवामां ज पोतानुं गौरव मान्युं छे. एक काळे ग्यारे वैदिक परंपरा आमजनतानी मटी राजाओनी आश्रित थई आमजनता- प्रतिनिधिपणुं गुमावी बेठी, एटलं ज नहि पण ए आमजनतानी स्वाभाविक भाषा तरफ पण सुगाळवी थई गई, बराबर एज वखते जैनपरंपरामा अनुक्रमे थएल महामान्य तीर्थंकर भगवान् श्रीपार्श्वनाथ अने श्रमण भगवान् श्रीवीरवर्धमानस्वामीप आमजनतानु प्रतिनिधिपणु कर्यु अने तेनी स्वाभाविक भाषाने अपनावी ते द्वारा ज पोतार्नु धर्मतीर्थ प्रवाव्यु अने आमजनता सुधी पहोंचे एवा साहित्यनिर्माणने पूरेपूरो टेको आप्यो. एटलुज नहि पण जैनप्रवचनना जे मुख्य चार विभागो बताव्या छ तेमा आमजनताना अतिपिय ए कथासाहित्यने खास स्थान पण आप्युठे. जैनप्रवचन चरणकरणानुयोग, धर्मकथानुयोग, गणितानुयोग अने द्रव्यानुयोग ए चार विभागमा बहेंचाएल छे. आमा आमजनतानु प्रतिनिधित्व धरावनार धर्मकथानुयोग विशिष्ट स्थान भोगवे छे. सदाचरणोना मूळ नियमो अने तेमने आचरणमा मूकवानी विविध प्रक्रियाओना साहित्यनु नाम चरणकरणानुयोग छे. ए सदाचरणो जेमणे जेमणे-स्त्री के पुरुषे-आचरी बताव्यां होय, एवो आचरणोथी जे लाभो मेळव्या होय अथवा ए आचरणो आचरतां आवी पडती मुशीबतोने वेठी तेमने जे रीते पार करी होय तेवा सदाचारपरायण ॥३ ॥ KARNAMASKARRAONKARACHARCHANAKACCHECKIRAM धीर वीर गंभीर स्त्रीपुरुषोनां तिहासिक के कथारूप जीवनोना सर्जननु नाम धर्मकथानुयोग छे. आ विषे शास्त्रकारो तो एम पण कहे छ के-आवा प्रकारना धर्मकथानुयोग विना चरणकरणानुयोगनी साधना कठण बनी जाय छे अने जनता ते तरफ वळती के आकर्याती पण नथी. आम जैन दृष्टिए 'एक अपेक्षाए चारे अनुयोगोमा धर्मकथानुयोग प्राधान्य धरावे छे' एम कहे लेशमात्र अनुचित नथी.जेमा खगोकभूगोळनां विविध गणितो आवे ते गणितानुयोग अने जेमा आत्मा, परमात्मा, जीवादितत्वो, कर्म, जगतनुं स्वरूप वगेरे केवळसूक्ष्मबुद्धिमाह्य विषयो वर्णववामां आव्या होय ते द्रव्यानुयोग. आ चार अनुयोग पैकी मात्र एक धर्मकथानुयोग ज एवो छ जे आमजनता सुधी पहोंची शके छे अने तेथी ज बीजा अनुयोगो करतां कोई अपेक्षाए तेनुं महत्त्व समजवान छ. जैनपरंपरा अने बैदिकपरंपरानी पेठे बौद्धपरंपराए पण कथानुयोगने स्थान आपेलुं छे, एटलुज नहि पण सरखामणीमां वैदिकपरंपरा करता बौद्धपरंपरा, जैनपरंपरानी पेठे आमजनतानी सविशेष प्रतिनिधि रहेली छे. जैनपरंपराना चरणकरणानुयोग माटे बौद्धपरंपरामा 'विनयपिटक' शब्द, धर्मकथानुयोगमाटे 'सुत्तपिटक' अने गणितानुयोग तथा द्रव्यानुयोग माटे 'अभिधम्मपिटक'शब्द योजायो छे'पिटक'शब्द जैनपरंपराना 'द्वादशांगीगणिपिटक'साथे जोडाएला 'पिटक' शब्दने मळतो पेटी' अर्थने बताबतो जशब्द छे. सुत्तपिटकमां अनेकानेक कथाओनो समावेश छे.दीघनिकाय मज्झिमनिकाय सुत्तनिपात वगेरे अनेकानेक ग्रंथोनो 'सुत्तपिटक'मा समावेश थाय छे. जैनपरंपरानो धर्मकथानुयोग, बौद्धपरंपरानो सुत्तपिटक अने वैदिकपरंपरानो इतिहास एत्रणे शब्दो लगभग एकार्थक शब्दो छे. धर्मकथानुयोग पथ्यभोजनपान जेवो छे.जेम पथ्य अन्नपान मानवशरीरने दृढ, निरोगी, पुरुषार्थी, दीर्घजीवी अने मानवतापरायण बनावे छे तेम धर्मकथानुयोग पण मानवना मनने प्रेरणा आपी बलिष्ठ, स्वस्थ, नियही, सदाचारी अने सदा SHARANASHANGABBARASHTRAKASKARNAKAN Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना। कथारत्नकोशनी ॥४ ॥ REAUCRACHCA चारप्रचारी बनावे के अने अजरामर परिस्थिति सुधी पहोंचाडे छे. बोलता चालता उपदेशक करता, धर्मकथानुयोग मानवना मन उपर एवी सारी असर उपजाये छ जे धीरे धीरे पण पाकी थएली अने जीवनमा उतरेली होय छे. संक्षेपा एम कहीं शकाय के धर्मकथानुयोग मानवने खरा अर्थमा मानवरूपे घडी शके छे अने आध्यात्मिकदृष्टिए पूर्ण स्वतंत्रता सुधी पण पहोंचाडे छे. ३ कथाना प्रकारो अने कथावस्तु आचार्य श्रीहरिभद्रसूरिवरे समराइचकहामां कथाओना विभाग करतां अर्थकथा, कामकथा, धर्मकथा अने संकीर्णकथा एम चार विभाग चताब्या छे. जे कथामा उपादानरूपे अर्थ होय, वणजवेपार, लडाईओ, खेती, लेख-लखत वगेरेनी पद्धतिओ, कळाओ, शिल्पो, सुवर्णसिद्धि वगेरे धातुवादो, तथा अर्थोपार्जनना निमित्तरूप साम, दाम, दंड आदि नीतिओनुं वर्णन होय तेनु नाम अर्थकथा. जेमां उपादानरूपे काम होय अने प्रसंगे प्रसंगे दूतीना अभिसारो, स्त्रीओना रमणो, अनंगलेखो, ललितकळाओ, अनुरागपुलकितो निरूपेला होय ते कामकथा. जेमा उपादानरूपे धर्म होय अने क्षमा, मार्दव, आर्जव, अलोभ, तप, संयम, सत्य, शौच वगेरेने लगतां मानवसमाजने धारणपोषण आपनारां अने तेनु सत्त्वसंरक्षण करनारा वर्णनो होय ते धर्मकथा. अने जेमा धर्म, अर्थ अने काम ए ऋणे वगोंर्नु यथास्थान निरूपण होय अने एत्रणे वर्गोने समजाववा तेमज परस्पर अबाधक रीते व्यवहारमा लावचा युक्तिओ, तर्को, हेतुओ अने उदाहरणो वगेरे आपेलां होय ते धर्मकथा. कथाओना आ चार प्रकार पैकी केवळ एक धर्मकथा ज धर्मकथानुयोगमां आवे छे. मूळ जैन आगमोमां पण शाताधर्मकथांग, उपासकदशांग, अंतकृदशांग, अनुत्तरौपपातिकदशांग, विपाक वगेरे अनेक आगमो पण धर्मकथाने प्रधानपणे वर्णवे छे. हाताधर्मकथागर्नु जे प्राचीन कथासंख्याप्रमाण कहेवामां आन्यु छे तेमां ते ॥४ ॥ R NAMASSA अक्षरपरिचय विनाना छतां पोतानी हैयाउकलतथी व्यवहार अने परमार्थनो तोड काढनारा लोकोनो समावेश छे. आ ९७ टका जेटली अत्यधिक संख्या धरावनारा लोको विज्ञान, तत्त्वज्ञान, गणित विद्या, भूगोळ के खगोळविद्यामां ऊंडा ऊतरवा जराय राजी नयी तेम तैयार पण नथी. तेमने तो घणी सरळ रीते समज पडे अने ए समजद्वारा जीवननो रस माणी शकाय अने व्यवहार तेमज परमार्थने समजी मानवजीवननी कृतकृत्यता अनुभवाय एवा साहित्यनी अपेक्षा छे. एटले ए वस्तुने आपणा पूर्व महबिओए विपुल प्रमाणमा कथा, उपकथा, आख्यानो, आख्यायिकाओ. ऐतिहासिक चरित्रोआदि सर्जीने पूरी रीते संतोषी पण छ. आ रीते जोतां कथासाहित्यनो संबंध मुख्यतया आमजनता साथे छे, अने आमजनता विपुल होबाथी तेनी साथे संबंध धरावतुं कथासाहित्य पण विपुल, विविध अने आमजनतानी खासियतोने लक्षमा राखी सुगम अने सुबोध भाषामां सरजाएलुं छे. आ प्रकारर्नु कथासाहित्य जेम जैनसंप्रदायमा विपुल छे एज रीते वैदिक अने बौद्धसंप्रदायमां पण अति विपुल प्रमाणमा छे; एटलं ज नहि पण भारतवर्षेनी जेम भारतवर्षनी बहार पण आ जातनु कथासाहित्य एटला ज प्रमाणमा उपलब्ध थाय छे. ज्ञाननी दृष्टिए विज्ञान, तत्त्वज्ञान, भूगोळ, खगोळ, गणित, आयुर्वेद, अध्यात्मशास्त्र, योगविद्या, प्रमाणशाख वगेरे विद्याओर्नु महत्त्व जराय ओछु नथी, परन्तु ते बधी गहन विद्याओने सर्वगम्य करवानुं साधन मात्र एक कथासाहित्य छे; माटे ज भारतवर्षेना तेमज भारतनी बहारना प्राचीन अर्वाचीन कुशाग्रमति विद्वानो पण कथासर्जननी प्रवृत्तिमा पड्या छे अने ए द्वारा एमणे आमजनताने त्याग, तप, वैराग्य, धीरज, क्षमा, निस्पृहता, प्राणिसेवा, सत्य, निर्लोभता, सरळता आदि गुणोनी सिद्धि माटे विविध प्रेरणाओ आपी छे. आमजनताने केळववानुं काम सहज साध्य नथी, तेम छतां त्याग, सदाचार, सरळता, समयज्ञता आदि Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना। कवारत्नकोचनी 4% कथाओनो समावेश करवामां आव्यो छे. धर्मकथाओना अन्थोमां शृंगार आदि रसोनी विपुलताने लीये धर्मकथानु धर्मकथापणुं गौण थवानो दोष जेम केटलीक धर्मकथाओनी रचनामां आवी जाय छे तेम आ ग्रंथमां ग्रंथकारे जरा पण थवा दी, नथी; एटलुं ज नहि पण प्रस्तुत धर्मकथामंथमा शृंगार आदि जेवा रसोनो लगभग अभाव छतां आ धर्मकथामंथ श्रृंगार रहित बनी न जाय अथवा एमांनी धर्मकथाना वाचन के श्रवणमा वक्ता के श्रोतानी रसवृत्ति लेश पण नीरस अथवा रूक्ष न बनी जाय ए विषेनी दरेक चोकसाई ग्रंथकारे राखी छे. प्रस्तुत ग्रंथमां ग्रंथकार जे जे गुण विषे कथा कहेवी शरू करे तेना प्रारंभमां, कथाना वर्णनमा अने एना उपसंहारमा ते ते गुणर्नु स्वरूप, तेनुं विवेचन अने तेने लगता गुण-दोषो लाभ-हानिनु निरूपण तेमणे अति सरस पद्धतिए कर्यु . उपर जणाववामां आव्यु तेम आ प्रथमा तेत्रीस सामान्यगुण अने सत्तर विशेषगुण मळी जे पचास गुणोनुं वर्णन करवामां आव्यु छे ते उपरांत प्रसंगोपात्त बीजा अनेक महत्त्वना विषयो वर्णववामां तेमज चर्चवामां आब्या . जेवा के-उपवनवर्णन, ऋतुवगैन, रात्रिवर्णन, युद्धवर्णन, श्मशानवर्णन आदि वर्णनो; राजकुलना परिचयथी थता लाभो, सत्पुरुषनो मार्ग, आपघातमा दोष, देशदर्शन, पुरुषना प्रकारो, नहिकरवालायक-करवालायक-छोडवालायक-धारणकरवालायक-विश्वासनहिकरवालायक आठ आठ बाबतो, अतिथिसत्कार आदि नैतिक विषयो, छींकनो विचार, राजलक्षणो, सामुद्रिक, मूत्युशानना चिहो, अकालदतोगमकल्प, रत्नपरीक्षा आदि लोकमानसने आकर्षनार स्थूल विषयो; देवगुरुधर्मतत्त्वर्नु स्वरूप, गुरुतत्त्वव्यस्थापनवावस्थल, अष्टप्राविहार्यन स्वरूप, वेदापौरुषेयत्ववादस्थल, धर्मतत्त्वपरामर्श, रत्नत्रयी, जिनप्रतिमाकारधारी मत्स्य अने कमळो, जिनपूजार्नु विस्तृत स्वरूप, ॥ ५ ॥ AACHARCHANAKKALKATARRERATNA%A5%A4%ी सामान्य धर्मोपदेश, मूर्तिपूजाविषयक चर्चास्थल, हस्तितापस तथा शौचवादमतनुं निरसन, अनंतकाय-कंदमूलना भक्षणर्नु सदोपपणुं आदि गंभीर धार्मिक विचारो; उपधानविधि, ध्वजारोपणविधि, मूर्तिप्रतिष्ठाविधि आदि विधानो अने ते उपरांत अनेक कथाओ, तथा सुभाषितादि विविध विषयो आलेखवामां आवेला छे. आ बधी वस्तु प्रस्तुत मंथनी विषयानुक्रमणिका जोवाथी ध्यानमा आवी शकशे. आ उपरथी प्रस्तुत ग्रंथकार केटला समर्थ अने बहुश्रुत आचार्य हता अने तेमनी कृति केटली पांडित्यपूर्ण अने अर्थगंभीर छे ए पण समजी शकाशे. प्रस्तुत कधारत्नकोशनी खास विशेषता ए छे के-बीजा कथाकोशप्रथोमा एकनी एक प्रचलित कथामो संग्रहाएली होय छे त्यारे आ कथासंग्रहमा एम नथी; पण कोई कोई आपवादिक कथाने बाद करीए तो ढगभग बधी ज कथाओ अपूर्व ज छे, जे बीजे स्थळे भाग्येज जोवामा आवे. आ बधी धर्मकथाओने नाना बाळकोनी वाळभाषामा उतारवामां आवे तो एक सारी जेवी बाळकथानी श्रेणि तैयार थई शके तेम छे. ग्रंथकारे वर्णनशैली एवी राखी छे के ए रीते कथाश्रेणी तैयार करवा इच्छनारने घणुं शोधवानुं नथी रहेतुं. ५ कथारत्नकोशना प्रणेता आचार्य श्रीदेवभद्रसूरि प्रस्तुत ग्रंथना प्रणेता आचार्य श्रीदेवभद्रसूरि छे. तेओश्री विक्रमनी बारमी शताब्दिना मान्य आचार्य छे. खरतरगच्छीय पट्टावलिमा तेमना विषे मात्र एटलो ज उल्लेख मळे छ के-" तेमणे वि. सं. ११६७ मा श्रीमान् जिनवल्लभगणिने अने वि. सं. ११६९मा वाचनाचार्य श्रीजयदेवसूरि शिष्य श्रीजिनदत्तने आचार्यपदारूढ कर्या हता" आधी विशेष एमना विषे बीजो कशो ज UCCESSION+SCACHCECE Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना। कथारत्नकोशनी उल्लेख ए पट्टावलीओमा देखातो नथी. एटले आचार्य श्रीदेवभद्रसूरि विषेनी खास हकीकत आपणे एमनी पोतानी कृतिओ आदि उपरथी ज तारववानी रहे छे. आचार्य श्रीदेवभद्रसूरिना विषयमा तेमनी जन्मभूमि, जन्मसंवत् , ज्ञाति, माता-पिता, दीक्षासंवत् , आचार्यपदसंवत् आदिने लगती कशीये नोंध हजु सुधी क्योय जोवामां आवी नथी. तेम छतां तेमणे पोते रचेला महावीरचरित्र (जे वि. सं. ११३९ मां आचार्यपदारूढ थवा पहेला गुणचंद्रनामावस्थामा रच्यु छे), कथारत्नकोश (जे वि. सं. ११५८ मां रचाएलो छे) अने पार्श्वनाथचरित्र(जे वि. सं. ११६८ मां रचेलु छे)नी प्रशस्तिओमांधी तेमना विषेनी केटलीक महत्त्वनी माहिती आपणने मळी रहे छे; एटले सौ पहेला आपणे उपरोक्त प्रणे य प्रन्थोनी प्रशस्तिओना उपयोगी अंशने जोई लईए " अइसयगुणरयणनिही मिच्नछत्ततमधलोयदिणनाहो । दुरुच्छारियवइरो बरसामी समुप्पनो ॥ ४७ ॥ साहार तस्स चंदे कुलम्मि निप्पडिमपसमकुलभवणं । आसि सिरिवद्धमाणो मुणिनादो संजमनिहि ब्व ॥ ४८ ॥ मुणिवइणो तस्स हरट्टऽहाससियजसपसाहियासस्स । आसि दुवे बरसीसा जयपयडा सूर-ससिणो व्च ॥ ५० ॥ भवजलहिवीइसंभंतभवियसंताणतारणसमत्थो । बोहित्थो ब्ब महत्थो सिरिसूरिजिणेसरो पढमो ।। ५१ ॥ __ अन्नो य पुनिमायंदसुंदरो बुद्धिसागरो सूरी । निम्मबियपवरवागरण-छंदसरथो पसस्थमई ।। ५३ ॥ पगंतवायविलसिरपरवाइकुरंगभंगसीहाणं । तेसिं सीसो जिणचंदसूरिनामो समुप्पन्नो ॥ ५४॥ संवेगरंगसाला न केवलं कवधिरयणा जेणं । भग्वजणविम्हयकरी बिदिया संजमपवित्ती वि ।। ५५ ॥ ॥ ६ ॥ AAKAASA-SAMACANARASEARSASSASARAKASACARA-CA KARNARASRAERAKAARAKAASASARA%A4% A आगममा साडात्रण करोड कथाओ अने तेटली ज उपकथाओ बगेरे होवार्नु कहेलुं छे. ए जोतां जैन परंपरामा धर्मकथानुं साहित्य केटलं विपुल हतुं ए सहजमा ज कल्पी शकाय तेम छे. धर्मकथाओमां पण युद्ध, खेती, वणज, कळाओ, शिल्पो, ललितकळाओ, धातुवादो वगेरेनुं वर्णन आवे छे; परंतु धर्म प्रधान स्थाने होय अने बाकी बधुं आनुषंगिक रीते धर्मर्नु पोषक होय. एज रीते अर्थकथा अने कामकथामां पण धर्मनु वर्णन न ज आये एम नहि, पण अर्थ अने काम एमां प्रधान होय; एज दृष्टिए ते ते कथाने तेवांतेवा नामो अपाएला छे. प्रस्तुत कथारत्नकोश, धर्मकथाओनो महान् पंथ छे. तेमां उपर कह्या प्रमाणे अर्थकथा अने कामकथानुं प्रासंगिक निरूपण होबा छतां, धर्म प्रधानस्थाने होई तेने धर्मकथानो ग्रंथ गणवामां कशोय बाध नथी, आवी कथाओमां कथाओगें वस्तु दिव्य होय छे, मानव्य होय छे अने दिव्यमानव्य पण होय छे. कथारत्नकोशनी धर्मकथाओगें वस्तु प्रधानपणे मानव्य छ अने क्वचित् दिव्यमानव्य पण छे. ४ कथारत्नकोशग्रंथनो परिचय प्रस्तुत ग्रंथ प्राकृत भाषामा गद्य-पद्यरूपे अतिप्रासादिक सालंकार रचनाथी रचाएलो अने अनुमान साडाअगीआर हजार श्लोकप्रमाण छे. बहु नानी नहि, बहु मोटी पण नहि, छतां संक्षिप्त कही शकाय तेवी मौलिक पचास कथाओना संग्रहरूप आकृति छे. प्रस्तुत ग्रंथ मुख्यत्वे प्राकृत भाषामां रचायलो होवा छतां तेमां प्रसंगोपात संस्कृत अने अपभ्रंश भाषानो उपयोग पण ग्रंथकारे करेलो छे; खास करी दरेक कथाना उपसंहारमा उपदेश तरीके जे चार श्लोको अने पुष्पिका आपवामां आव्यां छे ए तो संस्कृत भाषामा जछे. आ ग्रंथमा सम्यक्त्व आदि तेत्रीस सामान्य गुणो अने पांच अणुव्रत आदि सत्तर विशेष गुणोने लगती ASAKASE Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना वसुबाणरुह ११५८ संखे बच्चंते विकमाओ कालम्मि । लिहिओ पढमम्मि य पोत्थयम्मि गणि अमलचं देण ।।९।। देवभद्राचार्यांयकथाकोशप्रशस्तिः “तित्थम्मि वईते तस्स भयवओ तियसवंदणिज्जम्मि । चंदकुलम्मि पसिनो बिउलाए वारसाहाए । सिरिवद्धमाणसूरी अहेसि तव-नाण-चरणरयणनिही । जस्सऽज वि सुमरंतो लोगो रोमंचमुचहा ।। तस्साऽऽसि दोनि सीसा जयविक्वाया दिवायर-ससि ब्व । आयरियजिणेसर-बुद्धिसागरायरियनामाणो ॥ तेसिं च पुणो जाया सीसा दो महियलम्मि सुपसिद्धा । जिणचंद सूरिनामो बीओऽभयदेवमूरि ति ॥ सिद्धतवित्तिविरयण-पगरणउवयरियभव्वलोयाण । को ताण गुणलवं पि हुद्दोज्ज समत्थो पवित्थरिङ । तेसि विणेयस्स पसनचंदसूरिस्ल सव्वगुणनिहिणो । पयपउमसेवगेहि सुमइउवज्झायसिस्सेहि ॥ संवेगरंगसालाऽऽराहणसत्थं जयम्मि वित्थरियं । रइयं च धीरचरियं जेहिं कहारयणकोसो य ॥ सोवलिंडयमंडियमुणिसुव्वय १ बीरभवण २ रमणीए । भरयच्छे तेहि ठिएहिं मंदिरे आमदत्तस्स ॥ सिरिदेवभहसूरीहि विरइयं पासनाहचरियमिमं । लिहियं पढमिल्लुयपोत्थयम्मि गणिअमलचंदेण ॥ काले बसुरसरुद्दे १९६८ वचते विकमाओ सिद्धमिमं । अणुचियमिह सूरीहिं समियवं सोहियच्वं च ॥ ॥ इतिश्रीप्रसन्नचन्द्रसरिपादसेवकश्रीदेवभद्राचार्यविरचितं पार्श्वनाथचरितं समाप्तम् ॥" देवभद्रीयपार्श्वनाथचरितप्रशस्तिः ॥ NASANC%ACANCECARRC%88%AANWAR KAKACARSAKACANKARACHCHIKEKANGRASHIRSARAKASHAS आ उपरांत आचार्य श्रीजिनचंद्रसूरिविरचित संवेगरंगशाला ग्रंथनी पुष्पिका, जे आचार्यश्रीदेवभद्रसूरिना संबंधमां उपयोगी छे ते पण जोई लइए इति श्रीमजिनचन्द्रसूरिकृता तद्विनेयश्रीप्रसन्नचन्द्रसूरिसमभ्यर्थितेन गुणचन्द्रगणि[ना] प्रतिसंस्कृता जिनवल्लभगणिना संशोधिता संवेगरङ्गशालाऽऽराधना समाप्ता ।।" उपर जे चार मंथोनी प्रशस्ति अने पुष्पिकानो उल्लेख करवामां आव्यो छे ए उपरथी आचार्य श्रीदेवभद्रसूरिना संबंधमां नीचेनी हकीकत तरी आवे छे. आचार्य श्रीदेवभद्र, श्रीसुमतिवाचकना शिष्य हता. आचार्यपदारूढ थया पहेलो तेमर्नु नाम गुणचंद्रगणी हतुं; जे नामावस्थामा तेमणे वि. सं. ११२५ मां संवेगरंगशालानामना आराधनाशाखने संस्कारयुक्त कयु अने वि. सं. ११३९ मां महावीरचरित्रनु निर्माण कयु हतुं. संवेगरंगशालानी पुष्पिकामां " तद्विनेयश्रीप्रसन्नचन्द्रसूरिसमभ्यर्थितेन गुणचन्द्रगणिना" तथा महावीरचरित्रनी प्रशस्तिमा “सूरी पसनचंदो चंदो इव जणमणाणंदी ।। तबयणेण सिरिसुमइवायगाणं विणेयलेसेणं । गणिणा गुणचंदेणं" ए मुजबना आचार्य श्रीप्रसन्नचंद्र अने श्रीदेवभद्रसूरिना पारस्परिक संबंधना दूरभावने सूचवता 'समम्यर्थितेन' अने 'तव्वयणेणं' जेवा शब्दो जोवामां आवे छे ज्यारे कथारत्नकोश अने पार्श्वनाथचरित्रनी प्रशस्तिमा ए बन्नेयना पारस्परिक औचित्यभावभर्या गुणानुरागने वरसावता 'तस्सेवगेहि अने 'पयपउमसेवगेहिं जेवा शब्दो नजरे पडे छे. आनुं कारण एज कल्पी शकाय छे के-आचार्य Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कधारत्नकोशनी प्रस्तावना श्रीप्रसन्नचंद्रे गुणचंद्रगणिना गुणोथी आकर्षाई तेमने आचार्यपदारूढ कर्या हशे अने ए रीते ए बनेय आचार्यों एकबीजामा ओतप्रोत थया हशे. उपर जणाववामां आव्युं तेम गुणचंद्रगणी अने श्रीदेवभद्रसूरि ए बन्नेय एक ज व्यक्ति छे एमां लेश पण शंकाने स्थान नथी. कारण के जे श्रेष्ठिनी विज्ञप्तिने आधीन थई महावीरचरित्रनी रचना कर्यानो निर्देश कथारत्नकोश अने पार्श्वनाथचरित्रमा छे ए ज उल्लेख, गुरुनामनिर्देश, पट्टपरंपरा वगेरे बधुंय एक सरखं महावीरचरित्रमा मळी आवे छे. तेमज कथारनकोशकार अने पार्श्वनाथचरित्रकार पोताने संवेगरंगशाला ग्रंथना संस्कर्ता तरीके ओळखावे छे छतां ए नाम-देवभद्रसूरि नाम ए अंथनी पुष्पिकामां न मळतां गुणचंद्रगणी ए नामनो उल्लेख मळे छे, जे महावीरचरित्रना प्रणेतार्नु नाम छे. एटले कोई पण जातनी शंका विना आनो अर्थ एटलो ज थयो के-आचार्य देवभद्र अने गुणचंद्रगणी ए बन्नेय एक ज व्यक्ति छे. ___ उपर 'गुणचंद्रगणी अने श्रीदेवभद्रसूरि ए भिन्ननामधारी एक ज महापुरुष छे' ए साबित करवा माटे तेमनी जे त्रण कृतिओनो उल्लेख करवामां आव्यो छे ते उपरांत तेमणे अनेक स्तोत्रोनी तथा प्रमाणप्रकाश (?) जेवा समर्थ दार्शनिक ग्रंथनी पण रचना करी छे. तेमना स्तोत्रो पैकी त्रण स्तोत्रो तेमज प्रमाणप्रकाश (१) ग्रंथनो जेटलो अंश लभ्य थई शक्यां छे ए बधायने अहीं कथारत्नकोशने अंते प्रसिद्ध करेल छे. ए प्रसिद्ध करेल स्तोत्रो जोतां तेमज कथारत्नकोश आदिमा स्थळे स्थळे आवती दार्शनिक चर्चाओ जोतां श्रीदेवभद्राचार्यनो समर्थ दार्शनिक आचार्यनी कोटिमा समावेश करवो जरा पण अनुचित के असंगतिभा नहि ज लागे. प्रस्तुत प्रकाशनने अंते जे दार्शनिक प्रकरण अने स्तोत्रो प्रसिद्ध करवामां आष्या छ ए पाटण खेत्रवसी पाडाना ताडपत्रीय RECRYAKASA ॥ ८॥ ALSACREASOKHASHTAGRACIRCASSASSANASACRECASSES ससमय-परसमयन्नू विसुद्धसिखंतदेसणाकुसलो । सयलमहिषालयवित्तो अन्नोऽभयदेवसूरि ति ॥ ५६ ॥ जेणालंकारधरा सलक्खणा वरपया पसन्ना य । नब्बंगबित्तिरयणेण भारई कामिणि ब कया ॥ ५७ ॥ तेसिं अस्थि विणेओ समत्थसत्थत्थयोहकुसलमई । सूरी पसन्नचंदो चंदो इव जणमणाणदो ।। ५८ ॥ तब्धयणेण सिरिममइवायगाणं विणेयलेसेणं । गणिणा गुणचंदेणं रहय सिरिवीरचरियमिमं ॥ ५९ ।। जाओ तीसे सुंदरविचित्तलक्खणविराइयसरीरो । जेहो सिद्धो पुत्तो वीओ पुण वीरनामो त्ति ॥ ७५ ॥ तेहिं तित्थाहिवपरमभत्तिसब्वस्समुब्वइतेहिं । वीरजिणचरियमेयं कारवियं मुद्धयोहकरं ॥ ८० ॥ नंदसिहिरुद्द ११३९ संझे वोकंते विकमाओ कालम्मि । जेट्ठस्स सुद्धतइयातिहिम्मि सोमे समत्तमिमं ॥ ८३ ॥ गुणचन्द्रीय-देवभद्रीयमहावीरचरितप्रशस्तिः । "चंदकुले गुणगणवद्धमाणसिरिषद्धमाणसूरिस्स । सीसा जिणेसरो बुद्धिसागरो सूरिणो जाया ॥ १ ॥ ताण जिणचंदसूरी सीसो सिरिअभयदेवसुरी वि । रवि-ससहर व्व पयडा अहेसि सियगुणमऊहेहिं ॥३॥ तेसिं अस्थि विणेओ समत्थसस्थत्थपारपत्तमई । सूरी पसनचंदो न नामओ अस्थओ वि परं ॥ ४ ॥ तस्सेवगेहिं सिरिसुमावायगाणं विणेयलेसेहिं । सिरिदेवभद्दसूरीहिं एस रइओ कहाकोसो ॥ ५ ॥ संघधुरंधरसिरिसिद-बीरसेट्ठीण वयणओ जेहिं । चरियं चरिमजिणिदस्स विरदयं वीरनाहस्स ॥ ६ ॥ परिकम्मिऊण विहियं जेहिं सह भषलोगपाउम्गं । संवेगरंगसालाभिहाणमाराहणारयणं ॥ ७॥ AAORATEKARKAKAASARKARSA Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 प्रस्तावना। कोशनी ॥ ९ ॥ आ प्रमाणे अहीं ढूंकमा जणाववामां आव्यु छे ते उपरथी आपणने खात्री थाय छ के-पूज्य आचार्यश्री देवभद्रसूरि समर्थ कथाकार, स्तुतिकार तेमज दार्शनिक बहुश्रुत आचार्य हता. आचार्य देवभद्रसूरिना संबंधमां आटलुं निवेदन कर्या पछी 'तेओश्री कया गच्छना हता' ए प्रश्न रही जाय छे. आ विषे अहीं एटलुज कहे प्राप्त छ के-आजे एमना जेटला ग्रंथो विद्यमान छ ए पैकी कोईमां पण तेओश्रीए पोताना गच्छनो नामनिर्देश कों नथी; परंतु ए ग्रंथोनी विस्तृत प्रशस्तिओमा तेओ पोताने मात्र वनशाखीय अने चंद्रकुलीन तरीके ज ओळखावे छे. एटले आ विषे अमे पण तेओश्री पोते पोताने ओळखावे छे तेम तेमने 'वनशास्त्रीय अने चंद्रकुलीन आचार्य तरीके ज ओळखावीए छीए. जो के जेसलमेरनी ताडपत्रीय पार्श्वनाथचरित्रनी प्रतिनी प्रशस्तिमा 'विउलाए वइरसाहाए' पाठने भूसी नाखीने बदलामा 'खरयरो बहरसाहाए' पाठ, अने 'आयरियजिणेसरबुद्धिसागरायरियनामाणो' पाठने भूसी नाखीने तेना स्थानमा 'आयरियजिणेसरबुद्धिसागरा खरयरा जाया' पाठ लखी नाखेलो मळे छे; परंतु ए रीते भंसी-बगाडीने नवा बनावेला पाठोनो ऐतिहासिक प्रमाण तरीके क्यारे पण उपयोग करी शकाय नहि. एटले अमे एवा पाठोने अमारी प्रस्तुत प्रस्तावनामा प्रमाण तरीके स्वीकार्या नथी. उपर जणाववामां आव्यु तेम जेसलमेरमा एवी घणी प्राचीन प्रतिओ छे जेमांनी प्रशस्ति अने पुष्पिकाओना पाठोने गच्छव्यामोहने अधीन थई बगाडीने ते ते ठेकाणे 'खरतर' शब्द लखी नाखवामां आव्यो छे, जे घणुं ज अनुचित कार्य छे. ६ कथारत्नकोशनां अनुकरण अने अवतरण आचार्य श्रीदेवभद्रनो प्रस्तुत कथारत्नकोश रचायो त्यारथी तेनी विशिष्टताने लई एटली बधी ख्याति पामी चूक्यो हतो के बीजा ॥ ९ ॥ BARASAKACCOROSCARSHASRANARASEAN SAMANNAROOPERASHASRANASIRECORCCCCCCACCRACK बीजा जैन आचार्योए पोतपोताना ग्रंथोमां तेनां अनुकरण अने अवतरणो करीने पोतानी अने पोतानी कृतिओनी प्रतिष्ठा वधारी हती. आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिकृत देववंदनभाष्य उपर श्रीधर्मकीर्तिप रचेली 'संघाचारविधि' नामनी टीकामां कथारस्नकोशनीकथाने जेमनी तेम सहज फेरफार करीने उद्धरी छे. तेम ज सुविहित पूर्वाचार्यप्रणीत 'गुरुतत्त्वसिद्धि'मा कथारत्नकोशनुं एक आऱ्या प्रकरण ज अक्षरशः गोठवी दीधुं छे. अने आचार्य श्रीजिनप्रभसूरिए पोताना विधिप्रपा ग्रंथमां बजारोपणविधि, प्रतिष्ठोपकरणसंग्रह तथा प्रतिष्ठाविधि नामनां प्रकरणोमां कथारत्नकोशनां ते ते सळंग प्रकरणो अने तेमा आवता श्लोकोनां अवतरणो करेला छे. उक्त हकीकतनो स्पष्ट ख्याल आवे ते माटे आ नीचे थोडोक उतारो आपीए छीएकथारत्नकोश विजयकथानक ११ संघाचारविधि विजयकुमारकथा पृ. ४२८ तस्स य रजो मित्तो अहेसि दढगाढकढपडिबंधो। हदगाढप्रतिबन्धः श्रीगुप्ताख्यः कुवेरसमविभवः । आबालकालसहपंसुकीलिओ नाम सिरिगुत्तो ॥ १९ ॥ सहर्पसुकीलिओ तस्स आसि मित्तो महाकिविणो ||२|| सुहिसयणबंधवाणं थेवं पि हुनेव देह ओगासं । न ददाति स्वजनेभ्यः किश्चिन्न व्ययति किश्चिदपि धर्मे । धणमुच्छाए परिहरइ दूरओ साहुगोढेि पि ।। २१ ॥ धणमुच्छाए वज्जइ गमागमं सब्बठाणेसु ॥३॥ मवरं चिरपुरिसागय सावयधम्मक्खणं जहावसरं । नबरं चिरपुरुषागत-जिनबरधर्मक्षणं यथावसरम् । जिणपूयणाइपमुई जहापयई कुणइ कि पि ॥ २२ ॥ जिणपूयणाइपमुई जहापयह कुणइ किं पि ॥ ४ ॥ उपखणणनणणपरियत्तणाहिं गोवेइ तं च निययधणं । उत्खननखननपरिवर्तनादिभिः तदनं निजं नित्यम् । अवहारसंकियमणो पइक्वणं लंछणे नियर ।। २३ ।। अवहारसंकियमणो गोवंतो सो किलेसेड ॥ ५ ॥ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथारत्नकोशनी ॥ १० ॥ सिड्रं जणणीए अक्षया य तु पुत्त ! संतिओ ताओ । साहितो मह कहमयि परितोसगओ गिहादुरे ।। ५२ ॥ अट्ठावयस्त कोडीउ अट्ट चिट्ठेति भूमिनिद्दियाओ । ता वच्छ ! किं न ठाणाई ताई इहि खसि ? ति ॥५३॥ सदनान्तः किञ्चिद्धि द्रव्यमपश्यन्नसौ बहुलेशैः । भोयणमवि अजतो कथा वि जणणी इममुत्तो ||८|| वत्सेह स्थानेऽष्टौ कोट्यः कनकस्य सन्ति निक्षिप्ताः । इत्यादि ॥ तुइ पिउण ता गिण्हसु कयं किलेसेहिं सेसेहिं ॥२९॥ इत्यादि । प्रस्तुत विजय नामना श्रेष्ठिपुत्रनी कथा कथारत्नकोशकारे चैत्याधिकारमां आपेली छे त्यारे ए ज कथा संघाचारविधिना प्रणेताए स्तोत्रना अधिकारमां वर्णवेली छे. कथारत्नकोशमां ए कथा आखी प्राकृतमां छे त्यारे संघाचारविधिकारे ए कथाने वे भाषामा एटले के एक ज गाथामां पूर्वार्ध संस्कृत अने उत्तरार्ध प्राकृत एम वे भाषामां योजेली छे. संघाचारविधिटीकामांनी कथामां जे उत्तरार्ध प्राकृत छे ते आखी कथामां मोटे भागे कथारत्नकोशनां अक्षरे अक्षर उद्धरेल छे अने पूर्वार्ध पण कथारत्नकोशमांनी कथानां लगभग अनुवाद जेवां छे, जे उपर आपेली सामसामी गाथाओने सरखाववाथी स्पष्ट थई जाय एम छे. आचार्य महाराज श्रीविजयनीतिसूरि तरफथी प्रसिद्ध थपल गुरुतत्वसिद्धिमां पृ० ४७ उपर संवेगरंगशालाना नामे उद्धरेल “इत्थंतरम्मि सड्ढो आसधरो नाम भणइ दुनियड्डो" ए गाथाथी शरू थतुं ५९ गाथानुं जे प्रकरण हे ते आसुंय कथारत्नकोशना पृ. १० थी १२ मां गाथा १८५ थी २४३ सुधीमां छे. गुरुतत्त्वसिद्धिमां आ प्रकरण संवेगरंगशालाना उतारा तरीके जणावेल छे पण खरी रीते आ प्रकरण कथारत्नकोशमांनुं ज छे. आ उपरथी गुरुतत्वसिद्धिना रचनासमय उपर पण प्रकाश पडे छे अने कथारत्नकोशनी आदेयता पण पुरवार थाय छे. भंडारमांनी प्राचीनतम खंडित ताडपत्रीय प्रकरणपोथीमांथी मळी आव्यां छे, जेने आधारे तैयार करी प्रसिद्ध करवामां आवेल छे. ए स्तोत्रो जेवा मळ्या छे तेवा ज शक्य संशोधन साथै प्रसिद्ध कर्या छे, एटले एना संबंधमां खास कशुं ज कद्देवानुं नथी; परंतु "प्रमाणप्रकाश” नामनुं जे प्रकरण प्रसिद्ध कयुं छे ए प्रकरणना नामने अथवा एना प्रणेताने सूचवतो कशोय उल्लेख ए पोथीमांथी मी शक्यो नथी. ते छतां ए अपूर्ण अने निर्नामक प्रकरणनुं नाम में 'प्रमाणप्रकाश' आप्युं छे ते ए प्रकरणना श्रीजा लोकमां आवता " प्रमाणमेव यत् सद्भिस्तदेवातः प्रकाश्यते" ए आर्थिक अनुसंधानने लक्षमां राखीने ज आपवामां आव्युं छे. ए ज ते ग्रंथप्रणेता तरीके आचार्य देवभद्रना नामनो उल्लेख करवामां आव्यो छे पनुं कारण ए छे के आ प्रकरण, उपरोक्त ताडपत्रीय पोथीमां देवभद्रसूरिकृत स्तोत्रसंग्रह साथै संलग्न होई तेमज आचार्य देवभद्रनी स्तोत्ररचनामां तेमज बीजी दरेक कृतिमां तेमनी दार्शनिकतानो प्रभाव देखातो होई आ कृति तेमनी होवी जोईए एम मानीने में पोते प्रस्तुत प्रकरणने एमनी कृति तरीके निर्देशी छे. एटले संभव छे अने कदाच शक्य पण छे के— प्रस्तुत प्रकरणनुं नाम " प्रमाणप्रकाश" न होय अने एना प्रणेता आचार्य देवभद्र पण न होय. आम छतां ए प्रकरणमांनो आठमो लोक जोया पछी 'प्रस्तुत प्रकरण श्वेतांबराचार्यविरचित छे' ए विषे तो जरा पण शंका रहेती नथी. वादन्यायस्ततः सर्वविश्वे च भुक्तिसम्भवः । पुंस्त्रियोश्च समा मुक्तिरिति शास्त्रार्थसंग्रहः ॥ ८ ॥ आ लोकमां जणाव्या प्रमाणे "प्रस्तुत प्रकरणमां- केवलज्ञानीने आहारनो संभव छे अने पुरुष अने खीने एकसरखी रीते मोक्ष प्राप्त थई शके छे. आ वे विषयो चर्चवामां आवशे.” आथी प्रस्तुत प्रकरण श्वेतांबराचार्यप्रणीत ज छे, ए निर्विवाद रीते पुरवार थाय छे. प्रस्तावना । 11 20 11 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना। कबारत्नबोशनी WORKHERAPHARNAKASHIKAACAREERA मध्य-अंतमांनां घणां पानां गूम थएलां होई खंडित प्रति छे ज्यारे चूरुना भंडारनी प्रति कागळ उपर लखाएली ग्रंथना उत्तरखंडरूप छे. आत्रण प्रतो पैकी जे वे अति प्राचीन ताडपत्रीय प्रतिओनो में मारा प्रस्तुत संशोधनमा उपयोग कर्यो छे तेनो परिचय आ ठेकाणे कराववामां आवे छे ख० प्रति-आ प्रति खंभातना "श्रीशान्तिनाथ जैन ज्ञानभंडार"ने नामे ओळखाता प्राचीनतम अने गौरवशाली ताडपत्रीय जैन ज्ञानभंडारनी छे. प्रति अतिसुकोमळ सुंदरतम श्रीताडपत्र उपर सुंदर लिपिथी लखाएली छे. एनी पत्रसंख्या ३१७ छे. तेनी दरेक पुठीमा त्रण, चार के पांच लीटीओ लखेली छे. दरेक लीटीमा १२७ थी १४० लगभग अक्षरो छे. ए अक्षरो ठेक-ठेकाणे नाना-मोटा लखावा छतां लिपिर्नु सौंदर्य आदिथी अंत सुधी एकसरखं जळवाएलु छे. प्रतिनी लंबाई पहोळाई ३१४२॥ इंचनी छे. प्रति लांबी होई तेनां पानां सुव्यवस्थित रीते रही शके ए कारणसर दोरो परोववा माटे तेना वचमां बे काणां पाडी त्रण विभागमा लखाएली छे. प्रति विक्रम संवत् १२८६ मा लखाएली होवा छतां तेनी स्थिति हजु जेवी ने तेवी निराबाध छे. प्रति घणी ज अशुद्ध छे, एटलुज नहि पण एमां घणे ठेकाणे पंक्तिओनी पंक्तिओ जेटला पाठो पडी गया छे, तेमज लेखकनी लिपिविषयक अज्ञानताने लीधे स्थान-स्थान पर अक्षरोनी फेरबदली तथा अस्तव्यस्तता पण बहुज थएलां छे, प्रतिना अंतमां तेना लखावनार पुण्यवान् आचार्य अने श्रावकनी एकवीस श्लोक जेटली लांबी प्रशस्ति लखेली होवा छतां कोई भाग्यवाने ए प्रशस्तिने सदंतर भूसी नाखवानुं पुण्यकार्य उपार्जन कर्यु छ !!! ते छतां ए घसी-भूसी नाखेली प्रशस्तिने अति प्रयत्नने अंते अमे जे रीते अने जेटली वांची शक्या छीए तेटलो उतारो आ नीचे आपीए छीए ॥ ११ ॥ TRAIATERIKAARAKAKARRAHAKAKARANWARRENORRRRRC इति प्रवज्यार्थचिन्तायां श्रीप्रभप्रभाचन्द्रचरितमुक्तम् । तदुक्की च सम्यक्त्वादिपञ्चाशदर्थाधिकारसम्बद्धः कथारत्नकोशोऽपि समाप्तः ॥ छ ॥ छ । छ । मङ्गलं महाश्रीः ॥ शुभं भवतु ॥ शिवमस्तु सर्वजगतः परहितनिरता भवन्तु भूतगणाः । दोषाः प्रयान्तु नाशं सर्वत्र सुखी भवतु लोकः ॥ १॥ छ । ६०३ ॥ छ ॥ संबत् १२८६ वर्षे धावण शुदि ३ बुधेऽद्येह प्रहादनपुरे कथारत्नकोशपुस्तकंमलेखीति भद्रंमिति ॥ छ । ।। छ॥ छ । ॥ श्रीमद्वीरशः पान्तु सुधावृष्टेः सहोदराः । स्वर्भूर्भूगर्भशस्यानां फलसम्पत्तिहतुकम् ॥ १ ॥ श्रीमत्प्राग्वाटवंशो जगति विजयते............. .........जगुरुगणनाप्रौढमेधाभिरामः । उको शास्त्रासहस्रः परिकलितवपुः पात्रपूरान्वितोऽसौ, चित्रं छिदं न यस्मिन्नघजडकलितो नैव युक्तो न हीनः ॥ २ ॥ तस्मिन् माभूति...ययनोदया...नमलक्षणाभिदुरि ......... ...............सा.........स ॥ ३ ॥ ...............क्तो, मोढेरके वीरजिनस्य भक्तः। अगण्यपुण्योपचितोऽत्र शस्यो, देदास्यसाधुः स्वजनैकमान्यः ॥ ४ ॥ तस्यात्मजो देलहणनामधेय, औदार्यधैर्यादिगुणैरमेयः । कलत्रमेतस्य बभूव धन्या, दानक......रिरेव...... ॥ ५ ॥ .........प्रभूता ....................... ............ । ............तदानशीलोछीते मिमीतेत्फलयेतनूजे ॥६॥ आद्याऽऽदिमस्याजनि देण्दुकाण्या, कान्ताऽभवडाइणिका द्वितीया। पुत्रोऽपरस्याः किल राजदेवो, ज्येष्ठः कनिष्ठोऽजनि कामदेवः ॥७ राजदेवस्य तो........... ना...कामा विदिता प्रशाम्ता, पतिवता थेहडसाधुकान्ता । विख्यातबंशा पतिभक्तिरक्का, दोपैर्विमुक्ता कुलधर्मयुक्ता ॥ ९ ॥ ...शुभ सुम......समा... ... । तस्य प्रणाम......तकामरामदेव इति निर्मितन ॥ १० ॥ ......त्रुवर्तिकाः ॥ ११ ॥ ....................... . ............ CR Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना। कथारत्नकोशनी ॥१२॥ प्रथमा विजयिणि म, द्वितीया भोलिकाभिधा । शम्भूदेवो विनीतोऽस्ति, भोलीपुत्रः....... .................. ।। १२ ।। परनी का रामदेवस्य दक्षा प्रत्यक्षेयं दृश्यते शुद्धपक्षा । भर्तुर्भक्ता शुद्धशीला विनीता, जाता चेयं रामचन्द्रस्य सीता ॥१३॥ मालवमंडलमध्ये.................................भूपाल... | ...............णोपार्जितसंतत पाण्डित्यं रामदेवो यम् ॥ १४॥ जिनेन्द्रदेवालय पौषधे च, वापीसम्पनिपानकानि। नवीन-जीर्णोद्धरणेषु नित्यं सदोद्यतः पण्डितरामदेवः ॥ १५ ॥ षड्दर्शने पूजनबद्धकक्षः, दाने च दीनोद्धरणे च दक्षः । सन्न्यायमार्गे कृतशुद्धपक्षः.............................. ॥ १६ ॥ ...........................थी.........कुलगोत्र...... । प्रसादमासाद्य बद्रुरीत्या आचन्द्रसूर्य शतशाखमेतु ॥ १७ ॥ त......सुरयो मान्याः , श्रीश्रीपरमेश्वराः । तत्पादाम्बुजरवयः, श्रीजगश्चन्द्रसूरयः (१) ॥ १८॥ धादि....................................... | श्रीरवितिलका ........................... ॥ १९ ॥ श्रीसोमतिलकसूरि रिगुणश्चरितचारचारित्रः । तच्छिष्यः सोमयशास्तस्मादुपदेशमासाद्य ॥ २० ॥ विद्यादानं दानतो मुख्यमेतज्ज्ञात्वा सम्यक् श्रीकथारत्नकोशः । पित्रो..........पुण्यहेतोनं शास्त्रं.................. ॥२१॥ .................. ॥ २२ ॥ हिमकारगज.........दंतैश्च शैलेन्द्रस्य महे ..... गिरिगणेशज्योत्स्ना ......या । यावद्भांग जलौकसो...... ॥ २३ ॥ ॥ छ ।............... .............................................................................. ॥ छ । प्रस्तुत प्रतिनां पानां वचमां कोई कोई ठेकाणे घसाई गएला छे ए बाद करीए तो आ प्रति साद्यंत परिपूर्ण छ. प्रति खंभातना ज्ञानभंडारनी होई तेनी संज्ञा अमे खं० राखी छे. परंतु ज्यां प्र० प्रति खंडित होई फक्त आ एक ज प्रतिना आधारे संशोधन कर्यु AAWAHARANASRASRAEK ॥ १२॥ XKAKARAN6%AKASARKARKxNCARRIAGESAKARE विधिप्रपा पू०१०९ उपर प्रतिष्ठा प्रसंगने लगती केटलीक मुद्राओना वर्णन अंगेनी पांच गाथाओ आपेली छे ते अने त्यार पछी पृ० १११ उपर प्रतिष्ठा संबंधे जे ३९ गाथाओ छे ते बधी अक्षरशः प्रस्तुत कथारत्नकोशमां पृ० ८६ गाथा १७ थी ५५ सुधीमां उपलब्ध छे. तथा पृ० ११४ उपर वजारोपणविधि'ना नाम नीचे जे ४० थी ५० गाथाओ नोंघेली छे ते पण कथारत्नकोशमां आवता विजयकथानकमां पृ०७१ उपर आपेली ११४ थी १२४ गाथाओ छे. विधिप्रपाकारे त्यां कथारत्नकोशना नामनो उल्लेख पण कर्यों छे. आ प्रमाणे अहीं कथारत्नकोशर्नु अनुकरण अने अवतरण करनार सुविहित पुरुषोना बे प्रण ग्रंथोनी तुलना करी छ, परंतु बीजा आचार्योनी कृतिमा पण कथारत्नकोशनां अनुकरणो अने अवतरणो जरूर हशे; परंतु अहीं तो आटलेथी ज विरमुं छ. आ अनुकरणो अने अवतरणोए पण प्रस्तुत कथारत्नकोश ग्रंथना संशोधनमां वधारानी सहाय करी छे एटले ए दृष्टिए पण ते ते अनुकरण करनारा अने अवतरण करनारा आचार्यों विशेष स्मरणाई छे. ७ कथारत्नकोशना संशोधन माटेनी प्रतिओ आजे कथारत्नकोशनी एकंदर त्रण प्रतिओ विद्यमान छ एम जाणी शकायुं छे. जे पैकीनी एक प्रति खंभातना ताडपत्रीय भंडारमा छ, एक प्रवर्तकजी महाराज श्रीकांतिविजयजी महाराजना वडोदराना विशाळ ज्ञानभंडारमा छ अने एक चूरु (मारवाड)ना तेरापंथीय ज्ञानभंडारमा छे. आ रीते आजे जोवा-जाणवामां आवेली त्रण प्रतो पैकी मात्र खंभातना भंडारनी प्रति ज साद्यंत परिपूर्ण छे. ते सिवाय पूज्य प्रवर्तकजी महाराजश्रीना भंडारनी प्रति एककाळे साद्यंत परिपूर्ण होवा छतां अत्यारे एमांथी आदि RANASISRUSAGES Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना। कथारत्नकोशनी ॥ १३ ॥ % % % उपरथी लखाएला होय तेम लागे छे. प्रतिना पानानी दरेक पुठीमां पांच के छ लीटीओ लखेली छे. दरेक लीटीमा ११५ थी १३० अक्षरो छे. प्रतिनी लंबाई-पहोळाई ३०४२ इंचनी छे. आ प्रति पण उपर जणाच्या मुजब दोरो परोचवा माटे वचमा बे काणां पाडी प्रण विभागमा लखवामां आवी छे, प्रतिनी लिपि अने स्थिति जोतां ए ख० प्रति करतां वधारे प्राचीन छे अने एनी स्थिति जराजीर्ण थई गई छे. प्रस्तुत प्रति अत्यारे प्रवर्तकजी महाराजश्रीना शानभंडारमा होई एनी संज्ञा अमे प्र. राखी छे अने ज्या प्रतिमांना सुधारेला पाठभेदोने अमे पाठांतर मा आप्या छे त्या प्रसं० एम जणाब्युं छे. प्रतिओनी विशेषता अने शुद्ध्यशुख्यादि उपर जे ये प्रतिओनो परिचय आपवामां आव्यो छे ते पैकी प्र० प्रति भ्रान्तिरहित शुद्ध लिपिमा लखाएली छे. एमा लेखकना लिपिविषयक अज्ञानजनित अशुद्धिओ बहु ज ओछी छे तेमज ए प्रतिने कोई विद्वाने सुधारेली पण छे; एटले तेना विषे फक्त एटल ज कहेवार्नु रहे छे के प्रतिना शोधके कथासमाप्तिनी पुष्पिकामां केटलेक ठेकाणे “इति श्रीदेवभद्रसूरिविरचिते" ए प्रमाणे ग्रंथकारना नामनो निर्देश करती जे पंक्ति उमेरेली छे ए अमे स्वीकारी नथी. आ सिवाय आ प्रति विषे खास कशु ज कहेवार्नु नथी. परंतु खं० प्रतिमा टेखकना प्रमाद अने लिपिविषयक अज्ञानपणाने लईईई, ए प, गु तु, चव, हड, ठ व, ड द, ड र, ण ल, स्थ च्छ, न्त त्त, न्ति ति, न्नु तु, नु तु, पच, प य, वव, म स, ल भ, श प स इत्यादि अक्षरोनो परस्पर विपर्यास थवाने %% % 4% ॥ १३ ॥ लीचे घणी ज अशुद्धिओ वधी जवा पामी छे. तेम ज प्रतिना लेखके घणे ठेकाणे पडिमात्रा अने हस्व इकारनी वेलंदि--िमां कशो भेद राख्यो नथी. घणे ठेकाणे एकवडाने बदले वेबडा अने बेवडाने बदले एकवडा अक्षरो लखी नाख्या छे.आ जातना अशुद्ध पाठोने अमे लिपिभ्रान्तिना नियमो, शाखनो विषय, ग्रंथकारनी भाषा, छंदनु औचित्य आदि वस्तुने लक्षमा राखी सुधारवा प्रयत्न कर्यो छे. अने आ रीते सुधारेला पाठोने, वाचकगणने यांचवामा गरबड के भ्रान्ति न थाय ए माटे कोष्ठकमां न आपां मूळमां ज अमे आप्या छे अने अशुद्ध पाठोने यथायोग्य नीचे टिप्पणमा आप्या छे. परंतु ज्या ज्यां बीजी प्रति सहायक थती रही छे त्यां अमे एवा अशुद्ध पाठोने जता ज कर्या छे. प्रस्तुत संपादनमा घणे ठेकाणे कुन्त, होन्ति, कुण्डल इत्यादि जेवा परसवर्णयुक्त पाठो नजरे पडशे ए अमे नथी कर्या, पण प्रतिमा ज ए जातना परसवर्णवाळा पाठो छे. तेमज उचिय (सं उचित)ने बदले उचिय, सक्खं सक्खा (सं० साक्षात् ) ने बदले संखं संखा जेवा विविध प्रयोगो देखाशे अने दी तथा अनुस्वारथी पर बेवडाएला अक्षरवाळा बंच्छा, कैक्खा, अहाक्खाय जेवा पाठो पण जोवामां आवशे ए बधा पाठो आखा ग्रंथमा ठेक-ठेकाणे उपलब्ध थता होई एबधाने सुधारवा अनुचित समजी जेम ने तेम कायम राखवामां आव्या छे. प्रस्तुत मुद्रणमा ज्या ज्या प्रतिमा पाठो के अक्षरो पडी गएला लाग्या छे त्या त्या अर्थानुसंधान माटे जे नवी पाठपूर्ति करवामां आवी छे ए दरेक पाठोने [ ] आवा चोरस कोष्ठकमा आप्या छ, प्रस्तुत प्रकाशनमा पत्र १०१ना बीजा पृष्ठमा पहेला श्लोकना उत्तरार्धमा भान्तिथी 'जनितसम्मदि' पाठ छपायो छे तेने सुधारीने 'जनितसम्मुदि' ए प्रमाणे यांचयो. %AIRPENTSk%%%AE%E0%A4-%% + 5 0 %A5% % Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना। कथारत्न अंतमा प्रस्तुत प्रथना संशोधनमा अने तेनी विषमपदार्थद्योतक टिप्पणी करवामां अति सावधानता राखवा छतां मतिभ्रमथी कोशनी ADI थपली स्खलनाओ जणाय तेने सुधारीने बांचवा विद्वानोने अभ्यर्थना छे. इति शम् । ॥१४॥ पूज्यपाद प्रवर्तकजी महाराज श्री१००८ श्रीकान्तिविजयजीप्रशिष्य पूज्य श्रीचतुरविजयजीमहाराज शिष्य मुनिपुण्यविजय. ॥ १४ ॥ छे त्यां आ प्रतिना अशुद्ध पाठोने टिप्पणमा आपतां आ प्रतिने अमे प्रती ए संकेतथी ओळखावी छे. एटले के आधी अमे एम जणाववा इच्छीए छीए के ज्यां अमे पाठभेद साथे प्रतौ एम नोंभ्यु होय त्यां एम समजवू के ए ठेकाणे प्र० प्रति खंडित होई ते ते विभागने मात्र खं० प्रतिना आधारे ज सम्पादित करवामां आव्यो छे. प्र० प्रति-आ प्रति पूज्यपाद वयोवृद्ध शांतमूर्ति परमगुरुदेव प्रवर्तकजी महाराज श्री१००८ श्री कांतिविजयजीमहाराजना वडोदराना जैन ज्ञानभंडारनी छे. ए प्रति पाटण श्रीसंघना ज्ञानभंडारनां अस्तव्यस्त ताडपत्रीय पानांमाथी मेळवेली होई खरी रीते ए पाटण श्रीसंघना ज्ञानभंडारनी ज प्रति कही शकाय, आ प्रति सुंदरतम श्रीताडपत्र उपर अतिमनोहर एकधारी लिपिथी लखाएली छे. प्रतिना अंतनो भाग अधूरो होई तेना एकंदर केटला पानां हशे एकही शकाय तेम नथी. ते छता अत्यारे जे पानां विद्यमान छेते १३९ थी २९५ सुधी छे. तेमां पण वचमाथी १६७, १६८, २०१ थी २२७, २४६ अने २५९ आ प्रमाणे बां मळी एकंदर एकत्रीस पानां गूम थयां छे. एटले आ प्रतिनां विद्यमान पाना मात्र १२६ होई सामान्य रीते एम कही शकाय के आ प्रतिनां वे भागनां पानां गूम थयां छे ग्यारे मात्र त्रीजा भाग जेटला ज पानां विद्यमान छे. आम छतां आ खंडित प्रति शुद्धप्राय होई एणे प्रस्तुत ग्रंथना संशोधनमां खूब ज मदद करी छे. अनेक ठेकाणे पंक्तिओनी पंक्ति जेटला पाठो, जे खं० प्रतिमा पडी गएला हता ते पण आ खंडित प्रतिद्वारा पूरी शकाया छे. प्रस्तुत प्रतिने कोई विद्वाने वांचीने सांगोपांग सुधारवा प्रयत्न कयों छे अने कोई कोई ठेकाणे कठिन शब्द उपर टिप्पण पण करेल छे. प्रस्तुत प्रति ताडपत्रीय लखाणना जमानामां ज गमे ते कारणसर खंडित थएल होई तेमां घणे ठेकाणे पानां नवां लखावीने उमेरवामां आव्यां छे, जे खं० प्रतिने मळती कोई प्रति Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ و पत्रम् कयारत्नकोशस्य EASCAMOLES विषयानुक्रमणिका। م م २४-२९ ॥ १ ॥ م م १७-२० م विषयः शक्कायाः स्वरूपम् राजकुलपरिचये लाभ: हेमन्तवर्णनम् शकात्यागोपदेशः ३ कासातिचारप्रक्रमे नागदत्तकथानकम् ® काहायाः स्वरूपम् उपवनवर्णनम् काक्षात्यागोपदेशः ४ विचिकित्सातिचारप्रक्रमे गङ्ग-वसुमत्योः कथानकम् • विचिकित्सायाः स्वरूपम् सत्पुरुषपन्थाः नागवर्णनम् विषयः विचिकित्सात्यागोपदेशः ५ मूढदृष्टित्वातिचारप्रक्रमे शकथानकम् - मूढदृष्ठित्वस्य स्वरूपम् प्रावृड्वर्णनम् आत्महत्यायां दोषोपदर्शनम् * मूढदृष्टित्वं तद्विपाकश्च मूढदृष्टित्वत्यागोपदेशः ६ उपहातिचारप्रक्रमे रुद्राचार्यकथानकम् । * उपबृंहायाः स्वरूपम् • जीवादीनि सप्त तत्त्वानि तत्संख्याविषयक वादस्थल च • सहादेशपत्रम् छिकाविचार: م 000060655 09vorm ०४ ال २०-२४ لا لم له पत्रम् CAKASHAR AKASCHIMSASAKACIASACRECACACK विषयः गुणोपबृंहोपदेशः ७ स्थिरीकरणातिचारप्रक्रमे भवदेवराजर्षि कथानकम् * स्थिरीकरणस्य स्वरूपम् देशदर्शनम् * राजलक्षणानि युद्धवर्णनम् पुरुषप्रकाराः स्थिरीकरणोपदेशः ८ वात्सत्यगुणे धनसाधुकथानकम् * वात्सल्यस्य स्वरूपम् *. धर्मात्मनां भोजनसमये विचारणा 30 mm 10000 विषयः रत्नलक्षणानि वात्सल्यविधानोपदेशः ९ प्रभावनाचारे अचलकथानकम् • प्रभावनाया: स्वरूपम् + मृत्युज्ञानचिहानि श्मशानवर्णनम् * सामुद्रिकम् तपस्विमुनेरात्मकथा राजधर्मनिष्ठस्यैव राज्ञः प्रजाकृतधर्मषष्ठभागस्य प्राप्तिः ॐ अष्टप्रातिहार्यस्वरूपम् प्रभावनोपदेशः सम्यक्त्वमाहात्म्य च 3030037 Eurows ४०-४७ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथारत्नकोशस्य विषयानु४क्रमणिका। 9 3 ک अवशेषाश्चतुर्विंशतिः सामान्यगुणाः विषयः पत्रम् विषयः १० पश्चनमस्कारे श्रीदेवनृपकथानकम् ५५-६७ चैत्यविधापनाधिकारी तद्विधिश्च * पश्चनमस्कारस्य स्वरूपं तन्माहात्म्यं च * सूत्रधारस्य प्रतिपत्ति: युद्धवर्णनम् • ध्वजारोपणविधिः द्वन्द्वयुद्धम् स्वयम्भूदत्तकथानकम् अष्टाठौ अकर्तव्य-कर्तव्य-मोक्तव्य-धर्तव्य * मुनियोग्यानि जिनचैत्यविषयाणि नव त्रिकाणि अविश्वस्यानि + वेदापौरुषेयत्ववाद: हीनबलस्य राज्ञो राजनीति जिनचैत्यविधापनस्य गुणाः तद्विधापनोपदेशश्च राजलक्ष्म्याः चपलत्वम् १२ जिनबिम्बप्रतिष्ठाप्रक्रमे महाराजपमक* पञ्चनमस्काराराधनविधि:-उपधानविधि: थानकम् नमस्कारमाहात्म्ये हेमप्रभदेवसम्बन्ध: * जिनविम्बविधापनं तद्विधिश्च पश्चनमस्कारस्मरणस्य फलम् + प्रतिष्ठायाः त्रैविध्यम् ११ चैत्याधिकारे विजयकथानकम् ६७-७८ - धर्मतत्त्वपरामर्शः E9309 vvoron 6666666667 NY W W 9 ک ک ک ७८ ا ک OVVO لنا EONI+KASACARRIERREKASAKASAI+SASARASH+SAR SANSAR %ASARAMARCANARASISRONACHARAKAALORE कथारत्नकोशस्थानां कथानकादीनामनुक्रमणिका । धर्माधिकारिसामान्यगुणवर्णनाधिकार: विषयः पत्रम् विषयः सम्यक्त्वपटलम् - एकावलीहारस्य उत्पत्तिः १ सम्यक्रवाधिकारे नरवर्मनृपकथानकम् १-१४ • सम्यक्त्वस्य स्वरूपम् मङ्गलं ग्रन्थनाम अभिधेयं च देवतत्त्वं गुरुतत्त्वं च धर्माधिकारिणां सामान्यगुणा विशेषगुणाश्च गुरुतश्वव्यवस्थापनविषयकं वावस्थलम् सामान्यगुणानां माहात्म्यम् ॐ धर्मतत्त्वम् - सम्यक्त्वम् दुर्विदग्धस्य आसधरश्राद्धस्य पूर्वभवकथानकम् राजसंसदि धर्मसंवादः सुवेगदेवेन नरवर्मनृपस्य सम्यक्त्वदायस्य नरवर्मनृपपुत्रहरिदत्तस्य मदनदत्तवणिजश्च परीक्षणम् नृपं प्रति निर्जरस्याशीर्वचश्च १३ पूर्वभवकथानकम् ६ , २ शङ्कातिचारदोषे धनदेवकथानकम् १४-१७ m00000 M Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रमा पत्रम कचारत्नकोशस्य दाविषयानु क्रमणिका। AR+K ११८-२६ विषयः विषयः शाखश्रवणाधिकारे श्रीगुप्तकथानकम् १०९-१८ • उपष्ठम्भदानस्य स्वरूपम् जिनागमस्य श्रवणम् १०९ प्रवहणम् शुकस्य कथानकम् । अनन्तवीर्यमुनेः सिंहनादस्य च सम्बन्ध शाखश्रवणस्य फलं तदुपदेशश्च उपष्टम्भदानस्य माहात्म्यम् १६ ज्ञानदानावसरे धनदत्तकथानकम् १९ कुग्रहत्यागे विमलोपाख्यानकम् १४२-५० ज्ञानदानस्य स्वरूपम् कुभहस्य स्वरूपम् ज्ञानान्तरायकर्मनिवारणोपायः • जिनप्रतिमापूजादिविषयकं चार्षिकम् ज्ञानदानस्य फलं तदुपदेशश्च हरेः कथानकम् १७ अभयप्रदानप्रस्तावे जयराजर्षिकथानकम् १२६-३३ ॐ सामान्यधर्मोपदेशः अभयदानस्य स्वरूपम्। १२६ सूत्रोक्तचैत्यवन्दना-द्रव्यपूजाविविषयकं चार्चिकम् जीवितव्यप्रियस्वविषये चौराहरणम् १२९ कुमहत्यागोपदेशः १५० १८ यत्युपष्टम्भदानाधिकारे सुजयराजर्षिकथा २० माध्यस्थगुणचिन्तायां पुरोहितसुतनारायणनकम् १३३-४२ । कथानकम् १५०-५७ mm0 mur orrMN IMMMMY .00uru CCCCES ARKKKKR+:+%******* SARKARKASARANAWARA ** w w w w विषयः पत्रम् । माध्यस्थगुणस्य स्वरूपम् १५० रक्तत्वे शिवस्य कथानकम् १५१ द्विष्टत्वे शशिन आहरणम् मूढत्वे शङ्खस्याहरणम् अरक्त-द्विष्ट-मूढानां तत्त्वज्ञानाप्तिः हस्तितापसमतस्य निरसनम् शौचवादमतस्य प्रतिक्षेपणम् अनन्तकायादीनां सदोषत्वम् माध्यस्थगुणस्य माहात्म्यम् सामर्थ्यगुणचिन्तायां अमरदत्तकथानकम् १५७-६३ सामर्थ्यगुणस्य स्वरूपम् १५७ वसन्तस्य वसन्तकीडायाध वर्णनम् १५८ देवलकथानकम् MMrrrror 65SCNAMA w विषयः • शुश्रुषाया माहात्म्यम् ● धर्मोपास्तेः मुख्यत्वम् सामर्थ्य गुणस्य माहात्म्यम् २२ धर्मार्थिव्यतिरेकचिन्तायां सुन्दरकथानकम् १६३ • अधित्वगुणस्य स्वरूपम् प्रावृवर्णनम् संवरश्रेष्ठिपूर्वभवकथानकम् अतिथिसत्कारः रात्रिवर्णनम् • अनथिनः स्वरूपम् २३ आलोचकपुरुषव्यतिरेके धर्मदेवकथानकम् १६९-७५ • आलोचकस्य स्वरूपम् । अनालोचितकारित्वे दोषोपदर्शनम् ASADSC00000 ************** w w w w w १७५ **** Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथारत्नकोशस्य ॥ ४ ॥ विषयानुक्रमणिका। विषयः पत्रम् विषयः पत्रम् २४ उपायचिन्तायां विजयदेवकथानकम् १७६-८३ - दक्षत्वगुणस्य स्वरूपम् उपायचिन्तायाः स्वरूपम् दक्षत्वगुणस्य माहात्म्यम् उपायदर्शित्वस्य फलम् २७ दाक्षिण्यगुणचिन्तायां भवदेवकथानकम् १९६-२०१ २५ उपशान्तप्रक्रमे सुदत्तकथानकम् * दाक्षिण्यगुणस्य स्वरूपम् उपशान्तगुणस्य स्वरूपं कषायाणां दोषाश्च परोपकारी क जिनस्तवनम् १८५ दाक्षिण्यगुणस्य माहात्म्यम् कषायविपाके रोरस्य तत्पुत्राणां च पूर्वभव २८ धैर्यगुणचिन्तायां महेन्द्रनृपकथानकम् वृत्तगर्भित कथानकम् १८६ @ धीरत्वस्य स्वरूपम् * कषायाणां विपाक: धैर्यगुणस्य माहात्म्यम् * कषायविजयभावना १८९-९० २९ गाम्भीर्यगुणचिन्तायां विजयाचार्यकथानकम२०७-१२ उपशान्ता-ऽनुपशान्तयोः फलम् १९१ 6 गाम्भीर्यगुणस्य स्वरूपम् २६ दक्षत्वगुणचिन्तायां सुरशेखरराजपुत्रकथा गाम्भीर्यस्य माहात्म्यं तद्भावा-ऽभावयोः गुणनकम् १९१-९६ । दोषौ च 0 1000 VVV VVO Words * * * * * * ०००० ।.0000 * 16062600mm 1 | +9C%A4%ACCAKKARARIAAAACAKO. CONC पत्रम् पत्रम् विषयः विषयः * रत्नत्रयी निपुण्यानां मन्त्रायसिद्धिः तद्विषये सोमस्य * देवतत्त्वविचारः कथानकं च * जिनबिम्बप्रतिष्ठाविधि: , जिनपूजायाः विधि: • साधूनां प्रतिष्ठाविधिविधापनस्यादुष्टत्वम् - अष्टप्रकारी पूजा * कर्मणां बलिकत्वम् * अधिकार्यपेक्षया विविधैर्द्रव्यैर्जिनपूजनस्या- मत्स्य-पद्यानां वलयाकारवर्ज सर्वेऽप्याकाराः दूषितत्वम् • जिनप्रतिमाकारं महापद्मं दृष्ट्वा पानृपजीवमक जिनाचेनस्य फलम् | रस्य जातिस्मरणम् १४ देवद्रव्यचिन्ताधिकारे भ्रातृदयकथानकम् जिनविम्बविधापन-प्रतिष्ठापनयोः माहात्म्यम् • देवद्रव्यस्य स्वरूपं तद्धिश्व १३ जिनपूजाधिकारे प्रभकरकथानकम् ९१-१०२ साधारणद्रव्यम् जिनपूजायाः स्वरूपम् करुणविलाप: - सम्यक्त्वप्राप्तेः स्वरूपम् देवद्रव्यभक्षणविपाक: ® मनुष्यजन्मादिधर्मसामय्याः सफलीकरणोपदेश: ९३ । देवद्रव्यरक्षणोपदेशः 9 VVVVVOOR V०० 10000000 ००००००० on ca00 ERNATAKAR+C+NG Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथारत्नकोशस्य पत्रम् २५० २५२ २५४ विषयानुक्रमणिका। विषयः पत्रम् बन्धातिचारे मिहिरकथानकम् २४३ वधातिचारे वरुणकथानकम् २४४ छविच्छेदे लीलावतीकथानकम् अतिभारारोपणे मधुकथानकम् भोज्यव्यवच्छेदे घरकथानकम् व्रतस्य विशुद्धिः, अतिचार-भौ यतना च प्राणवधविरते: माहात्म्यम् २४७ ३५ द्वितीयाणुव्रतस्थूलमृषावादविरतिगुणचिन्तायां सागरकथानकम् २४७-५४ सत्यवचनस्य स्वरूपम् २४७ माण्डव्यर्षेश्वरितम् । स्थूलमृपावादविरते: स्वरूपं तदतिचाराः तद्भजातिचारयोः स्वरूपं च विषयः मृषावादातिचारविषये सुरथज्ञातम् . विरतिग्रहणे दोषापादनविषयकं चार्थिकम् असत्यवाग्विपाकदर्शनद्वारा तस्यागोपदेशः तृतीयाणुव्रतस्थूलादत्तादानविरतिगुणचिन्तायां फरुसरामकथानकम् अदत्तविरते: स्वरूपम् धर्मयशोमुनेश्चरितम् अदत्तविरते: स्वरूपं तदतिचाराश्च अदत्तादानस्य दोषाः तद्विरतेर्गुणाश्च ३७ चतुर्थाणुव्रतस्थूलमैथुनविरतिगुणचिन्तायां सुरप्रियकथानकम् मैथुनविरते: स्वरूपम् ॐ चतुर्थाणुव्रतस्य स्वरूपं तदतिचाराच २५४-६१ २५४ २५६ २५६ २६१ २४९ २६१-६९ KeXikchchhaKAKARANVERSARAKAKIRKARI xraKAKASGAORACKAKKERASACRORAE%AKAXX विषयः पत्रम् स्वदारसन्तोषिणः परदारवर्जिनश्चाश्रित्यातिचारविभागः पुण्यस्य पापस्य च दैविध्यम् २६७ पारदार्यदोषावेदनद्वारा तत्परिहारोपदेशः ३८ पञ्चमाणुव्रतस्थूलपरिग्रहविरतिगुणचिन्तायां धरणकथानकम् २६९-७६ स्थूलपरिमहविरते: स्वरूपम् तदतिचाराश्च २६९-२७४ परिग्रहपरिमाणविरतेः फलम् त्रीणि गुणव्रतानि २७७-९९ ३९ प्रथमदिग्विरतिगुणव्रतचिन्तायां शिवभूतिस्कन्दयोराख्यानकम् । २७७-८४ . दिग्विरतिगुणवतस्य स्वरूपम् २७७ मित्रम् विषयः खळ-सज्जनयोः स्नेहः * प्रश्न-प्रहेलिकादिका गोष्टी देवपालराजकुमारपूर्वभवकथानकम् . अकालदन्तोद्मकल्पः । दुर्बलचरणस्य पूर्वभवकथानकम् दिग्विरते: स्वरूपं तदतिचाराश्च दिग्विरतेरुपदेशः द्वितीयभोगोपभोगविरतिगुणवतचिन्तायां सकुटुम्बमेहश्रेष्ठिकथानकम् भोगोपभोगगुणवतस्य स्वरूपम् मखसूदनमुनेरात्मकथा भोगोपभोगत्रतस्य स्वरूपं तदतिचाराश्च पञ्चदश कर्मादानानि 99 VVVVVVVVV EVO OOO agw9 INor २७८ । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथारत्नकोशस्य पत्रम् |का | विषयानु क्रमणिका । ३०६ ४० विषयः पत्रम् भोगोपभोगविरतेरुपदेशः ४१ तृतीयअनर्थदण्डविरतिगुणवतचिन्तायां चित्रगुप्तकथानकम् २९१-९९ * अनर्थदण्डविरतिगुणवतस्य स्वरूपम् २९१ * दानविधानम् २९३ * अनर्थदण्डविरते: स्वरूपं तदतिचाराच अनर्थदण्डदोषोपदर्शनद्वारा तत्परिहारोपदेशः चत्वारि शिक्षाव्रतानि ४२ प्रथमसामायिकशिक्षाबतप्रक्रमे मेघरथकथानकम् २९९-३०६ सामायिकस्य स्वरूपम् सामायिकत्रतस्य स्वरूपं तदतिचाराश्च सामायिकत्रतस्य माहात्म्यम् विषयः ४३ द्वितीयदेशावका शिकशिक्षाव्रतविषये पव नञ्जयकथानकम् देशावकाशिकस्य स्वरूपम् . देशावकाशिकव्रतस्य स्वरूपं तदतिचाराश्व देशावका शिकस्य स्वरूपम् - ४४ तृतीयपौषधव्रतशिक्षाव्रतविचारणायां ब्रह्म देवकथानकम् . पौषधस्य स्वरूपम् • पौषत्रतस्य स्वरूपं तदतिचाराश्व क्षेमङ्करस्य कथानकम् तस्करचतुष्ककथानकम् पौषधव्रतस्य माहात्म्यम् ormurv003 ३ ABWWWINNI RAKAREKAREXAEKASH MASKAmmm . . ॥ ६ ॥ MRAKARANEMARAAARAKESAKARANASANCHAR विषयः पत्रम् विषयः पत्रम् ३० इन्द्रियपश्चकविजय-तव्यतिरेकवर्णनायां ३२ परोपकारद्वारचिन्तायां भरतनृपकथानकम् २२५-३२ सुजसश्रेष्ठि-तत्सुतकथानकम् २१२-१७ - परोपकारित्वस्य स्वरूपम् ३१ पैशुन्यगुण-दोपचिन्तायां धनपाल-बालचन्द्र पारासरस्य सम्बन्ध: कथानकम् २१७-२५ परोपकारकरणोपदेशः पैशुन्यस्य स्वरूपम् २१७ | ३३ विनयद्वारव्यावर्णनायां सुलसकथानकम् २३ रामदेवमुनेरात्मकथा २१८ * विनयस्य स्वरूपम् आदित्यब्राह्मणसम्बन्धः २२१ | मुनिदानस्य फलम् पैशुन्यत्यागोपदेशः २२४ विनयगुणस्य माहात्म्यम् द्वितीयो धर्माधिकारिविशेषगुणवर्णनाधिकारः श्रमणोपासकस्य द्वादश ब्रतानि पञ्च अणुव्रतानि २४०-७६ । प्राणवधबिरते: स्वरूपम् ३४ प्रथमाणुव्रतस्थूलप्राणातिपातविरतिगुणचि * स्थूलप्राणातिपातविरते: स्वरूपं तदति चाराश्च न्तायां यज्ञ देवकथानकम् २४०-४७ अतिचार-भङ्गयोः स्वरूपम् IN IN WWWDNAWAL 1006095 I KARACTERIKARAN N00 WW. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E कथारत्नकोशस्य पत्रम् ३४३ विषयानुक्रमणिका। ३४९ २-%*+KI+KASKActorsak विषयः * प्रत्याख्यानस्य स्वरूपम् प्रत्याख्यानफले दामनककथानकम् - प्रत्याख्यानस्य शुजवशुद्ध्यादि तन्माहात्म्यं च प्रव्रज्याथेचिन्तायां श्रीप्रभ-प्रभाचन्द्रकथानकम् * प्रत्रयायाः स्वरूपं समर्था-ऽसमर्थप्रत्रज्येच सनत्कुमारनाटकप्रबन्ध: युद्धवर्णनम् विषयः • प्रत्रजितं प्रति गुरोः अनुशिष्टि: • प्रत्रज्याप्रतिपत्तिनिषेधविषयकं चार्चिकम् आत्मानुशासनम् संलेखनायाः स्वरूपम् अतिचाराव • संस्तारकप्रव्रज्या प्रशस्तिः ग्रन्थोपसंहारः ३४९-६० ३४९ ३५० 9 Voo प्रमाणप्रकाशः अनन्तनाथस्तोत्रम् स्तम्भनकपार्श्वनाथस्तोत्रम् वीतरागस्तव: **********RANKRAKAKKRAKAKKK+%****%% कथारत्नकोशस्य शुद्धिपत्रम् अशुद्धिः सत्ययासत्य बहुओ संग मीसिं तहाहमछ cA%ARAKKAR***5648* शुद्धिः सत्यया-सत्य वहूओ संगो मेसिं तहाभच कुडु सुप्रयत्न युर्ष सा, शाखिना मृगेन्द्रवृन्द पत्रम् २-१ ३-१ १०-२ १०-२ ३९-१ ४१-१ ४८-१ ५१-१ ६१-१ ६४-२ पतिः | अशुद्धिः १३ य इह धणिणा ४ दधौधा एसो विश्वस्तः प्रतौ वाव[स] ८॥ निरनीकु | चउरगुणो शुद्धि य गिहि वणिणा दघौघां एसो, विश्वस्तः॥ प्रतौ । वाचा[स] ॥ ८ नीरनिकु चडइ गुणो पत्रम् ६७-१ ७०-१ १०२-१ ११२-१ ११२-२ ११५-१ १२२-१ १२२-१ १३५-१ १३८-२ सुप्रत्न युषं, सा शास्विनां मृगेन्द्र वृन्दं %% Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथारत्नकोशस्य शुद्धिपत्रम् शुद्धिः मायंग खं० आवयं अशुद्धिः शुद्धिः विह विहं सम्पादम सम्पादन लोचना लोचनौ स्तत्तत्र यत्नः एस्तत्र प्रयत्नः ग्र० खं० 'यं संप “पयं संपव विववञ्जय विवञ्जिय अनिरं वारि अनिवारि नयरम्मि नयरम्मि, स्कराः' करा' बैतो पत्रम् १४१-२ १५०-२ १५४-१ १८३-१ १८३-१ १८४-२ १९२-१ १९३-१ १९३-१ पक्तिः । अशुद्धिः ८ मायगं ख० आवयं वेतो व्यति कृतसवि पृथ्वीवलयम् कुवलयं MarART mm00rm [तद्व्य ति कृतसंवि पत्रम् २०२-२ २०२-२ २०७-१ २०७-१ २१७-१ २२६-१ २७९-१ २७९-१ २८८-२ MMMMMM Wermoom . HARKHATARNAKARKK कुवलयं(पृथ्वीवलयम्, पिवि १४ | पिवि H XXNAHARASCRACTERISHNOARMACAAKASAN पत्रम् पत्रम् विषयः ४५ चतुर्थअतिथिसंविभागशिक्षाव्रतविषये नरदेवदेवचन्द्रादिकथानकम् ३१९-२६ • अतिथिसंविभागस्य स्वरूपम् १९ युगादिजिनस्तुतिः ३२२ विषयः नरदेवादीनां पूर्वभवकथानकम् • अतिथिसंविभागवतस्य स्वरूप तदत्तिचाराश्च अतिथिसंविभागव्रतस्य माहात्म्यम् ३ २ ३२६ ३३६ ४६ द्वादशाव-वन्दनकफलवर्णनायां शिवचन्द्रचन्द्रदेवकथानकम् ३२६-३१ • द्वादशाववन्दनकस्य स्वरूपम् ३२६+२८ द्वादशाव-वन्दनकगुणे कृष्णस्य कथानकम् वन्दनकविधानोपदेशः ३३१ ४७ प्रतिक्रमणगुणचिन्तायां सोमदेवकथानकम् ३३२-३६ प्रतिक्रमणस्य स्वरूपम् ३३२ अध्वदृष्टान्तः ३३३ ३३७-४३ ३३७+३ प्रतिक्रमणस्य माहात्म्यम् कायोत्सर्गविधानचिन्तायां शशिराजकथानकम कायोत्सर्गस्य स्वरूपम् उदितोदयनरपतेः कथानकम् कायोत्सर्गस्य माहात्म्यम् ४९ प्रत्याख्यानव्यतिरेकचिन्तायां भानुदत्त कथानकम् :*%%*%%%************ 10+ WAND Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसरिविरइओ ॥ ॐ नमो जिनागमाय ॥ सम्मत्तपडलयं । सम्यक्त्वाधिकारे नर| वमेनृपकथानकम् ॥ कद्दारयणकोसो॥ सम्मत्तपडलयं । ॥१ ॥ मङ्गलम् पडिबिंबियपणयजणा निलीणभवभीरुभवलोय छ । उम्मुहमऊहनिवहा सिवभवणारोहसेणि च ॥१॥ भीमभवोयहिलंघणसजा सजाणवत्तपंति व । चरणनहमालिया सहइ जस्स सो जयह पढमजिणो ॥२ ॥ सुमणोऽभिरामरूवो चारुपओ सुरहिवयणसयवत्तो । जयइ सिवनयरिपत्थियमंगलकलसो व वीरजिणो ॥३॥ स जयइ पुणो वि दुजयकसायसरहोलिविहलिउच्छाहो । लंछणछलेण भीउब केसरी जं समल्लीणो ॥४ ॥ भवचारयबंधं बंधुणो व अॅवर्णितु वोऽवसेसी वि । जिणवाणो मोहमहंधयारहरणम्मि रविणो छ । ॥ ५॥ पासस्स फणामणिणो उम्मुहपसरंतकंतिणो दूरं । विहियावडियदीवूसव ब तिमिरं हरंतु मम । जयइ विलंसंतनिम्मलमऊहमंडलपसाहियसरीरो । पग्गहियपारिवेस व ससिकला भयवई वाणी १ प्रतिविम्बितप्रणतजना निलीनभवभीरुभब्यलोकेव । उन्मुखमयूखनिवहा शिवभवनारोहश्रेणिरिव ॥१॥ भीमभयोदधिलहनसजा सद्यानपात्रपतिरिख । चरणनखमालिका राजते यस्य स जयति प्रथमजिनः ।। २।। २ अस्यामार्यायां श्लिष्टविशेषणः वीरो भगवान् मङ्गलकलशेनोपनीयते, तथाहि-सुमनसाविदुषां सुराणा चाभिरामं रूपं यस्य एवंविधो भगवान् , कलशपक्षे सुष्ठु मनोऽभिरामं रूपं यस्य । 'चारुपदः' शोभनचरणो भगवान् , अन्यत्र चारु पयो-दुग्धं जलं वा यत्र सचारुपयाः। सुरभि-सुगन्धयुकं वदनमेव शतपत्रं यस्यैतादृशो भगवान् , अन्यत्र सुरभि वदने-कलशमुखे शतपत्रं यस्य ॥ ३ दुजेयकषायशरभावलिविफलितोत्साहः । शरभावलिः-अापदपंक्तिः ॥ ४ अपनयन्तु ।। ५ 'सेवा वि इति प्रसौ पाठः ॥ ६ विहिताबस्थितदीपोत्सया इव ॥ ७ विलसन्निर्मलमयूख SACROSAXACCASICASARASWATARNA ग्रन्थनाम अभिधेयं च SAMSTEROSCOACHCECACADCASEARCH संसिरीया सच्चाहिडिया य सच्चकनंदया सुगया । गुरुणो हरिणो व कुणंतु वंछियं निच्छिय मज्झ ॥८॥ इत्थं थोयत्वत्थुइसामत्थेणं जडो वि जंपेमि । सम्मत्ताइपयत्थप्पडिबद्ध कहारयणकोसं ॥९ ॥ एत्थ य जिणिंदैसमयम्मि सम्मया मुत्तिपहपवित्तीए । सुमुणी सुसावगो वि य जेहुत्तकिरियाकलावन्नू ॥ १० ॥ सुमुणित्तणं च पायं सुसावगत्तं विणा न संभवह । फोसियदेसचरित्तो हि सबविरई पि काउमलं ॥११॥ सामन्न-विसेसगुणभिओ य सुरसावगत्तणं लहइ । सो पुण सामन्त्रगुणी नेओ सम्माइदारेहिं ॥ १२ ॥ सम्मत्तजुओ१ तद्दोससंक २कंखा ३ विगिंछय ४ म्मुको । अविमूढदिहि ५ उववूहगो ६ थिरीकरणनिरओ७य।। वच्छल्ल ८ पभावण ९ पंचनमोकारपरमभत्तो १०य । चेइय ११ बिचपइट्ठा १२ पूया १३ कारावणुज्जुत्तो ॥१४॥ जिणदवरक्खगो १४ समयसुइपरो १५ नाण १६ अभयदाई १७ य । साहूवटुंभकरो१८ तह कुग्गहनिग्गहपहाणो १९ ॥ मज्झत्थो य २० समत्थो २१ अत्थी २२ आलोयगो २३ उवायण्णू २४ । उवसंतो २५ दक्खो २६ दक्षिणो य २७ धीरो य २८ गंभीरो २९ ॥ १६ ॥ मण्डलप्रसाधितशरीरा प्रगृहीतपरिवेषा इव । प्रसाधित-अलंकृत । परिवेषः-चन्द्रपरितोवर्ति वर्षांगमनसूचकं जलकुण्डकम् ॥ १ अत्र लिष्टविशेषणगुरबो हरिभिः-बासुदेवैः सहोपमीयन्ते । तथाहि-'सश्रीका: ज्ञानादिलक्ष्मीविभूषिताः गुरवः, अन्यत्र लक्ष्म्यभिधानपत्नीयुक्ताः । सत्यैन अधिष्ठिता गुरवः, अन्यत्र सत्ययासत्यभामापत्न्या युक्ताः । सचक्र-सता समूहः तदाडादकाः गुरवः, अन्यत्र सत् च तत् चक्र च-चकारख्यमायुध तन्नन्दकाः, पूर्वोको वा अर्थः । सु-शोभनं गतं-गमनं ज्ञानं देवादिका वा गतिथेषां से एवंविधा गुरवः, अन्यन्त्र गदारूयमायुधं येषां ते इति ।। २ "त्थुई प्रती ॥३लप्तविभत्यन्तं पदामिदम् ॥४जिनागमै ।। ५ यथोकियाकलापज्ञः ॥ ६ स्पृष्टदेशचारित्रः ॥ ७ सुसाच प्रतौ ॥ सामान्यगुणाः विशेषगुणाव SHARE Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभइसरिविरइओ कहारयणकोसो॥ सम्मत्तपडलयं । ६ सम्यक्त्वाधिकारे नरवर्मनृपकथानकम् ॥ इंदियजई ३० अपिसुणो ३१ परोवयारी ३२ तहा विणयजुत्तो३३ | इय तेत्तीसमिमेसु नरवम्माई य दिटुंता॥१७॥ सामन्त्रगुणाणुगओ विसेसगुणधरणधीरयमुवेह । ते य इह विसेसगुणा जीववहविरमणाईया ॥१८॥ जीववह १ अलिय २ परदव ३ जुबइवजण ४ परिग्गहपमाणं ५। दिसिमाण ६ भोगउवभोग ७ऽणत्थदंडव्वयं ८ चेव ।। सामाइय ९ देसंवगासियं च १० पोसहवयं ११ अतिहिदाणं १२ । वंदण १३ पडिकमणं १४ काउसंग्ग १५ संवरण १६ पवजा १७ ॥ २० ॥ एए हि विसेसगुणा दिटुंता एसु जन्नदेवाई। अय-बइरेगेहिं जाहासंखेण नायबा ॥ २१ ॥ जह सोहर भूसुद्धीए चित्तकम्मं थिरं च होइ चिरं । सामन्त्रगुणाणुगए तह पुरिसम्मि विसेसगुणा ।। २२ ॥ उवलक्खणं च एए ऐयरूवाऽवरे वि विन्भेया । सामन्त्र-विसेसगुणा संखेवेणेह वुत्ता वि ॥ २३ ॥ सम्मत्तगुणेण य पाउणन्ति जीवा न निरय-तिरिएसु । उत्पत्तिमणंतरमवि जह णो द्धाउया पुषिं ॥ २४ ॥ नेव य अवड्डपोग्गलपरियट्टाओ वि अहियभवभमणं । उकोसओ वि संभव एत्थ ईसिं पि पुट्ठम्मि ॥ २५ ॥ जो पुण सम्मत्तमिमं चिरकालं कलितविमलगुणपसरो। फासइ नरवम्मो इव सो पावह परममुह निवह ॥ २६ ॥ नरवम्मो य नरबई जह सम्मत्तं पुरा समणुपत्तो । जाओ य परमकल्लाणभायणं तह निसामेह ॥२७॥ १-धीरताम् ।। २ देसाव प्रती ॥३'उस्सग्ग" प्रतौ ॥ ४'वाई प्रती ॥ ५ अन्वयव्यतिरेकाभ्याम् ॥ ६ भूशुद्धौ ।। ७ एवंरूपाः ॥ | ८ सामन्नगुणाण य प्रती पाठः ॥ ९ बद्धायु कर्माणः ॥ १० अपापुद्गलपरावति ॥ ११ समत्त प्रती ॥ १२ "लिभवियलगण प्रती ॥ सामान्यगुणानां माहात्म्यम् सम्यक्त्वम् ॥ २ ॥ KAKKAXXX.C4%+KKARAKK+K+%% * ॥ २ RADHAKAWANSARKAKACAKACCHAKRAMACHAR ॥ ॥ णमो स्थु णं समणस भगवओ महावीरस्स ॥ सिरिदेवभद्दसूरिविरइओ कहारयणकोसो %KA+%E । पढमो धम्माहिगारिसामन्नगुणवण्णणाहिगारो। R Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरहओ कद्दारयणकोसो। सम्मत्तपडलयं । सम्यक्त्वाधिकारेनर वर्मनृपक★थानकम् ॥ देव-गुरुप्पडिपद्धो विवित्तनत्थित्तवायवामोहो । जो समरसोवओगो वि विजियनीसेसरिउचको । ॥ ३८ ॥ तस्सऽत्थि महुमहस्स व लच्छी नवनलिणपत्तपिहुलच्छी । भजा सीलाइगुणोहधाम रइसुंदरी नाम ॥ ३९ ।। रूवविणिम्मवणुक्कट्ठनिट्ठपरमेट्ठिणो व सा सिद्धी । दीसह सुब्बइ य न जं जयम्मि अन्ना तहा रमणी ॥४०॥ कर्यबुहतोसो नीईविसारओ सारओ व रयणियरो। कुवलयजणियाणंदो य से सुओ अस्थि हरिदत्तो॥ ४१ ।। कुम्मस्स व तस्सुवलब्भपरमअवटुंभगाढपरिसुद्धो।...सह............सेसो, व धरह गरुयं पि भूभार ॥ ४२ ॥ सुकुलुग्गया विणीया दक्खा सत्थत्थपारया धीरा । पहुभत्ता मइसागरपमुहा से मंतिणो जाया ॥ ४३ ।। आरोवियरञ्जभरो य तेसु बुहसलहियं उचियसमयं । विसयसुहं भुंजंतो कालं वोलेई स महप्पा ॥४४॥ अह अन्नया कयाई तस्स सभाए सुहासणत्थस्स । धम्मकहा परिवह............रं राया ॥ ४५ ॥ एगेण तत्थ भणियं लोगविरुद्धाण वञ्जणेण सया । दक्खिनेणं दुहियाणुकंपणेण य परो धम्मो ॥ ४६॥ अनेण पुणो भणियं को धम्मो? किं व तस्सरूवं? ति । को वा तप्फलभोई ? सच्चमिणं? कप्पणामेतं? ॥४७॥ १ विविक्तनास्तित्ववादच्यामोहः । विविक्त-त्यक्त ॥ २ लिष्टविशेषणेन विरोधोऽत्र-यः समरसे शमरसे वा उपयोगवान् कथमसी विजितनिःशेषरिषुचको भवति इति । समरे-युद्धे सोपयोगः-सावधान: राजधर्मस्वाद् अत एवासौ विजितनिःशेषरिपुसमूहो वर्त्तत इति विरोधपरिदारः ॥ ३ 'यवहुतो प्रती पाठः । चन्द्रपक्षे कृतः बुधस्व-प्रहविशेषस्य तोषो येन । पुत्रपक्षे तु बुधानां-पण्डिताना मिति ॥ ४ "यनिय प्रतौ ।। ५ चन्द्रपक्षे कुवलयानारात्रिविकासिकमलाना जनित आनन्दो येनेत्यर्थः, कुमारपक्षे पुनः कुवलयस्य-महीवलयवर्तिलोकस्योत्पादितानन्द इत्यर्थः ॥ ६कुंकुम प्रती ।। ७शस्त्रास्त्रपारगाः शास्त्रार्थपारगावेत्यर्थः ॥८ धम्लाषितम् ।। २. ध्पतिकामति ।। | रतिसुंदरी राज्ञी हरिदमातोयुवराजः मन्त्रिणः ॥ ३ ॥ CASSADHANAKAMANACA-CASCARSACROACAKACANCHKACHAR राजसंसदि धर्मचर्चा जंपियमवरेणमिमं मोनुं नियनियकुलकमाणुगयं । दिद्वगुणं........................... ॥ ४८॥ अनेण पुणो भणियं विहि-पंडिसेहप्पहाणसत्थुतं । सलहंति धम्मतत्तं न सबुद्धिविकप्पणामेत्तं ॥ ४९ ॥ अवरेण पुणो खुत्तं सत्थाणि बहूणि भूरिसंघारा । बहुरूवा मयभेया को सम्मं मुणइ धम्ममिह ? ॥५०॥ इय पउरधम्मगोयरवियारखरतरसमीरखिप्पंतो। संसय.................................. ॥५१॥ .....................परमपुरिसत्थो । आरोविओ य सो कहमिमेहि महसंसयतुलाए ? ॥ ५२ ।। संभवइ निरभिधेयो न सबहाऽऽगासकुसुममिव एसो । आबालगोव-विलयाविबुहाइपवित्तिदसणओ ॥५३ ।। .............विकहाविवित्त......... ....................... ॥५४ ॥ ............गयघडारूढपरिविह........................तुरयजोहं पप्प झुंजंति रजसिरिं ॥५५॥ अन्ने तप्पुरओ चिय परिस्समुल्लसियभूरिपस्सेया। किच्छकयपाणवित्ती जह..................... ॥५६॥ ............................भोयणं केइ ॥ ५७ ।। अन्ने य घेरा घरभमणलद्धपज्जुसियतुच्छमाहारं । एगागिणो दिणंते जति महादुहुबिग्गा ॥ ५८ ॥ १ पपडि प्रती। विधिप्रतिषेधप्रधानशास्त्रोक्तम् । विधिनिषेधी-उत्सर्गापवादौ ॥ २ 'भू -उत्सर्गापवादौ ॥२ 'भूरिसंहाराणि' भिनभिन्नत प्रती ॥ ४ परिश्रमोहसितभूरिप्रस्वेदाः 'कृच्छुकृतप्राणवृत्तयः' कटेन कृताजीविका: ।। ५ गृहादू गृहन्नमणलब्धपर्युषिततुच्छम् आहारम् ॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभरि विरइओ कहारयणकोसो ॥ सम्मत्तपडलयं । सम्यक्त्वाधिकारे नरवर्मनृपकथानकम्। निरुवमरूबोहामियमयरद्धयकित्तिणो जणा एगे। संइ दिति लोयलोयणकुमुयवणाणंदर्मिदु व ॥ ५९॥ अन्ने य सास-जर-कास-को-खयखुनखीणसवंगा । निवेयमपुवं दिति वैत्तसवणे सपिउणो वि ॥ ६० ॥ पीणपओहरहरिणच्छिपरिगया गीयमाणगुणनियरा । जम्मग्गिरदिन्नधणा एगे विलसंति जाजीवं ॥ ११ ॥ अवरे य -दुचिट्ठपंसुलीदिनकडयडाडोवा । ओवाइयमग्गियमच्चुणो य चिट्ठति झुसिरघरे ॥ ६२ ॥ इय तुल्लमणुयभावे वि मिनभिन्नोवलद्धसुह-दुक्खं । न घडइ जयवइचित्तं धम्मा-ऽधम्म विणा सम्म ॥ ६३ ॥ ......मणुट्ठाणमिमाण साहगं सुद्धबुद्धिणा नेयं । नजइ य तं च सत्थत्थकुसलह्यिसुगुरुवयणाओ ॥ ६४ ॥ सुगुरू वि गेरुयचिरभवसमुवञ्जियसुकयपगरिसवसेण । गवि सुगविट्ठो चिंतामणि ब कद्वेण दडवो एवं परिभावितस्स तस्स पाओसियं नरिंदस्स । पलयघणगजियं पिवं गंभीरं वञ्जियं तूरं ॥६६ ।। अह ईसिंचलियसुललियपंकयदलैदीहरच्छिणा रना । सव्वजणोऽणुनातो कयप्पणामो गओ सगिहं ॥६७ ॥ एत्थंतरम्मि सिररइयपाणिकोसो नमंसिउं राय । विनविउं पारद्धो पडिहारो देव ! निसुणेह ॥६८॥ १ निरुपमरूपाभिभूतमकरध्वजकीर्तयः ॥ २ सदा ॥ ३ कोट्ठक्खयक्खुन्न प्रती ॥ ४ वाधिवणे स्वपितुरपि ॥ ५ यन्मार्गणशीलदत्तधनाः ॥ ६ रुट्टदुचिट्ठ प्रतौ। कष्टदुधेटपांशुलीवत्तकडकडाटोपाः । उपयाचितेन मार्गितगृत्यक्ष तिष्ठन्ति शुधिरहे ॥ ७ जगवैचित्र्यम् ॥ ८ ज्ञायते च तब शास्त्रार्थकुशलहितसुगुरुवचनात् ॥ ९ गुरुकचिरभवसमुपार्जितसुकृतप्रकर्षवशेन ॥ १० 'गवि' पृश्न्याम् ॥ ११ पिव इति इवार्थकमव्ययम् ॥ १२ ईषचलितसुललितपकजदल दीक्षिण ॥ १३ दलंदी प्रती ॥ १४ जणाणु प्रती ।। ॥ ४ ॥ SAHASRAKASHAKAKAREERSTARAKASHAKA4%ARAKARAN C विजयवती राजधानी नरवर्मनृपः एत्थेव जंबुदीवे भारहवासम्मि वासवपुरि छ । रम्मा मागहविसयस्स तिलयभूया अदिट्ठभया ।। २८ ॥ अस्थि समत्थदिसामुहपत्तपसिद्धी समिद्धजणनिवहा । विजयवई नाम पुरी पउरागर-नगरपरिकिना ॥ २९ ॥ नक्खत्तपंतिनिवडणभएण उत्थंभणथमिव विहिओ। तुंगो पागारो सहइ जीए कविसीसयसणाहो ॥३०॥ हिमगिरिगुरुबहुसुरघरबहुईसरदसणोवलोभेण । परिहा तुंगतरंगा गंग व जहिं बर्हि भाइ ॥ ३१ ॥ जत्थाऽऽउहे चिय गया सुमणोबंधो य मालियघरेसु । आरूढगुणे य धणुम्मि परवहो न उण लोएसु ॥३२॥ तव-दाण-नाणवावारमैग्गदीसंतसंत-सुइलोया। संययमहा [जा ] सोहइ कैयकयजुगनिश्चवास छ ॥ ३३ ॥ पालेह तं च पणमंतमंति-सामंतलीढपयपीढो । नरवम्मनिवो जयसिरिकरेणुगाऽऽलाणथंभो व ॥ ३४ ॥ जो सयलकलाकोसल्ल-चाग-सत्थत्थबोहपमुहेहिं । सुगुणेहि सेसभूमीवईण निसर्ण पत्तो ॥ ३५ ॥ विणयनया तत्तो च्चिय विणिग्गया निच्छिय अहं मन्ने। पयईण पालणा वि य तत्तुल्ला जं न अन्नत्थ ॥.३६ ॥ वरवस्थमंडणाओ पयाओ जे तस्स तं किमिव चोजं? । मुत्ताहारसुयभूसियाओ जस्सऽरिवहुओ वि ॥३७ ।। १ प्रचुराकरनगरपरिकीर्णा ।। २ 'यत्र' यस्यां पुयों आयुधे एवं 'गदा' गदाख्यं शस्त्रं वर्तते, न तु लोकेषु 'गदाः' रोगा दृश्यन्ते । 'सुमनोबन्धः' पुष्पाणां बन्धो -विदुषां बन्धो दृश्यते । 'परवध:' शत्रुवधः 'आरूढगुणे' सप्रत्यचे धनुष्येचावलोक्यते, न पुनः आरुटगुणेषु-प्राप्तगुणेषु लोकेषु 'परवषः' अन्यप्राणिवधी विलोक्यत इति ।।३-मग्नश्यमानसत्शुचिलोका ॥ ४ 'सततमहा' निरन्तरोरसपवती 'सततमखा वा' निरन्तरयागमयी ।। ५ कृतकृतयुगनित्यवासा ।। ६ वाग:-दानम् ॥ ७ अहम्मन्ने प्रती ॥ ८जन्न प्रतौ ॥ ९आचर्यम् ॥ १० अत्र लिष्ट विशेषणेन विरोधः प्रतिपाद्यते, तथाहिकथं रिपुषवः मुक्ताहारैः अंशुकैथ भूषिता भवन्ति? इति विरोधः । तत्परिहारपक्षे तु-मुक्तानां हारतुल्यः-पष्टिसमैः अश्रुभिः भूषिता इति । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभरि चिरइओ कहारयणकोसो ॥ पडलयं । सम्मत 11 44 11 ॥ ८५ ॥ सो भणइ देव ! निसुणसु तुम्ह समीवाओ पुष्वकालम्मि । अत्थोवजण हेउं गओ म्हि [हं] पुवदेसम्म ॥ ८१ ॥ वचतो य कहं पि हु पडिओ हरि-हरिणविसयभीमाए । विडविवणसंकडाए अडवीए दुबइनामाए ।। ८२ ।। पुवाणियं च पाणियमसेसमवि निट्ठियं तहिं तत्तो । सङ्घत्तो वि पयट्टो पलोइउं सलिलमुवउत्तो ॥ ८३ ॥ जाव कहिं पिन किं पि हु, सुयं व दिई व तं तया भीओ । वणसंडमेगमुद्दिसिय पडिओ सिग्घवेगेण ॥ ८४ ॥ दिट्ठो य तत्थ मायंडमंडलुद्दामतेयपब्भारो । सयमेव पसमरासि व अहव सुस्समणधम्मो व बैहुसीससंगओ रामणो व बहुसावओ य विज्झो व । कैयजीववग्गरक्खो इंदो व गुणधरो खरी तस्स य पुरो समुञ्जलजलन्त मणिमउड भासुरसिरग्गो । पढमुंग्गमंत दिणनाहभूसिओ उदयसेलो व आमल [य]थूलमुत्तियमणहरहारावरुद्धकंठयलो । तारायणपरियरिओ मेरु व सयं विरायतो एगो देवो नवजोडणाए देवीए परिवुडो सम्मं । निसुणंतो जिणधम्मं दिट्ठो य मए सवेरगं विणो वयणेहिं सुरहारस्स य फुरंतकिरणेहिं । अमओवमेहिं तव्हा दुहा वि मह उवसमं पत्ता तो जायगरुयभत्ती तिपयाहिणपुचयं पणमिऊण | सूरिं सुरं च वंदिय आसीणो हं तयासन्ने ॥ ८६ ॥ ।। ८७ ।। ॥ ॥ ॥ ८८ ॥ ।। ८९ ।। १ मार्तण्डमण्डलोदामतेजः प्राग्भारः ।। २ रावणो बहुभिः शीर्षैः सङ्गतः, सूरिः पुनर्बहुभिः शिष्यैः सङ्गतः परिवृत इत्यर्थः ॥ ३ विन्ध्याचलः बहवः श्वापदा यत्र सूरिस्तु बहवः श्रावका:- उपासका यस्य ॥ ४ इन्द्रः कृता जीववगण-गुरुवर्गेण रक्षा यस्य, सूरिः पुनः कृता जीववर्गस्य पद्जीवनिकायरूपस्य रक्षा येन । ५ प्रथमोद्गच्छद्दिननाथभूषितः ॥ ६ आमलकस्थूलमौक्तिकमनोहरहाराय रुद्धकण्ठतः । तारागणपरिकरितः ॥ ७ बाह्या आभ्यन्तरा चेति ॥ १ मयि ममोपरीत्यर्थः । २ समानम् ॥ ३ अनलीकं सख्यम् ॥ ४ 'शिष्यते' कथ्यते ॥ ५ - मिश्रम् ॥ ६ रुध्यमान- ॥ ८ 'स्फुरद्गरुत्ववयाः' स्फुरद्गरुडपक्षिचिह्नः ॥ ९ साहू प्रतौ ॥ १० विरोचनः सूर्यः ॥ ॥ ९० ॥ ॥ ९१ ॥ ।। ९५ ।। ॥ ९६ ॥ ॥ ९७ ॥ अह तियसो मैइ वियसियकुवलयदलसँच्छहं खिविय चक्खुं । मुसिद्धि बंधवम्मि व परितुट्ठो पुच्छए सूरिं ॥ भयवं ! को एस नरो १ किं वा एयप्पलोयणे य ममं । जाओ मणपरितोसो १ [तो] सूरी भणिउमादत्तो ॥ ९३ ॥ भो तिस ! ओहिलो पणपलोयणाऽलियमृणियकअस्स । किंसीसह तुह ? तह वि हु सुमरणहेउं भणामि इमं ॥ ९४ ॥ एत्तो भवमि कोसंबीए पुरीए जयरनो । तुममेसो चिय पुत्ता जेड-कणिट्ठा समुत्पन्ना बालत्तणे वि जणणी दिवंगया पालिया [य] धावीए अहिगय कलाकलावा कमेण तरुणत्तमणुपत्ता जुवरायपयपयाणत्थमन्नया सायरं नरिंदेण । दिवंसुय-भूसणदाणओ य सम्माणिया सम्म नायं च इमं सर्व्वं सवत्तिजणणीए त्यणु कुद्धाए । नियपुत्तरञ्जविग्धं संकंतीए अणजाए कीलिउमुआणं उवगयाण तुम्हाण घोरविसमेस्सं । पञ्चइयपुरिसहत्थेण दावियं भोगणं किं पि अह तदुवभोगउ श्चिय तुब्भे रुन्यंतचेयणाssसीणा । पढभिल्लुय् पल्लवमणहरस्स कंकेल्लिणो मूले तत्थेव य विहिवसओ दिवायरो नाम तक्खणं साहू । गरुलोववाइयं सुत्तमुत्तमं गुणिउमाढत्तो तम्मिय गुणिजमाणे गरुला हिवई फुरंतगरुलवओ । मणिमउड भासुरसिरो समागओ बंदिउं साहु तस्स य माहप्पेणं विसं तमं पिव विरोणाहियं । न झड त्ति तुम्भे समुट्टिया सुत्तबुद्ध व ॥ ९८ ॥ ॥ ९९ ॥ ॥ १०० ॥ ॥ १०१ ॥ १०२ ॥ १०३ ॥ ७ प्राथमिक ॥ सम्यक्त्वा धिकारे नरवर्मनृपक थानकम् १। मदनदत्तस्य एकावलीहारप्राप्तिः ॥ ५ ॥ मदनदत्तहरिदत्तयोः पूर्वभवः Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभबरि-3 विरहओ कद्दारयणकोसो। सम्मचपडलयं। सम्यक्त्वाधिकारेनरवर्मनृपकथानकम् । परिचणपरिकित्तियविसवियारविनायजणणिवुत्तता । लक्खियमुणिमाहप्पा य निवडिया साहुचलणेसु ॥१०४॥ भणिया य गरुलवाणा भो! तुम्मे सुकयभायणं नूणं । जंएस अमयमुत्ती मुणिवसभो कह वि इह पत्तो ॥ १०५॥ इहरा संवचिजणणीदावियविसवेयणाअभिहयाणं । धम्म-ऽस्थविरहियाण मरणं तुम्भं लहुं हुंतं ॥१०६॥ अञ्ज वि किं पि न न8 जइ मह खुर्च करेह ता एयं । चिंतामणि व साहुं आराहेजह पयत्तेण इय तेऽणुसासिऊणं साहुं अभिवंदिउं च गकलवई । मेहम्मि व भूमीए तिरोहिओ विज्जुपुंजोब. तुम्मेहिं चिंतियं तो एतो जुत्तं न नियपरे पसिउं। दुबिलसियाई दीसंति जत्थ नियगाण वि य एवं ॥१०९॥ अहवा घरवासवसंगयाण बारिंगयाण व गयाण । ते केऽणत्था जे नाऽऽवडंति पंडविडविवित्थारा? ॥११०॥ धन्नो एस महप्पा साहू घरपंजराउ निक्खमिउं । जो धरियसुद्धपक्खो विहरइ वसुई विहंगो व ॥ १११ ॥ अम्हाण वि जुजह इन्हि एर्यप्पवहणं दद घेत्तुं । दुहवारि-मच्चुमयरं उत्तरिउं भवमहाजलर्हि ॥ ११२ ॥ एवं विभाविऊणं नमिऊण मुणिं च परमभत्तीए । उज्झिय कालक्खेवं दिक्खडमुवटिया दो वि ॥ ११३ ॥ जोग्गयमुवलब्म तवस्सिणा वि पवाविया चैरिय चरणं । मरिऊण तओ जाया देवा सोहम्मकप्पम्मि ॥११४॥ विज्जुप्पभनामो एस भो! तुमं विज्जुसुंदरो य इमो । नवरं एसो चविउं विजयवईऐ वरपुरीए ॥११५॥ १ सकय प्रतौ ॥ २ सपत्नीजननीदापितविषवेदनानिहतयोः ॥ ३ वारिगतानामिव गजानाम् ।। ४ विडविडवि प्रतौ ।। ५साधुः 'धृतशुद्धपक्षः' पूतवदचारित्रधर्मपक्षः, विनः भूतशवपतनः ॥६"यपव प्रती ॥७चरित्वा ॥८ 'युवा' मत्वा ॥ ९इ पव प्रती ॥ ॥ ६ ॥ मदनदत्तस्य राजसंसदि प्रवेशः तदास्मवृत्तंच तुम्हाण पियवयस्सो दूदिसागमणवडिउकट्ठो । चिट्ठइ दहूं देवं पडिरुद्धो चाहि किं किच्चं ? ॥६९ ॥ रना पयंपियं पेससु त्ति तो सो विसजिओ गेण । संपत्तो रायसहं सहरिसमवलोइओ रबा ॥ ७०॥ सो एस मयणदत्तो पियमिचो कह चिरागतो एत्थ ? | सायरकयप्पणामोऽवग्गहिओ तयणु ससिणेहं ॥७१ ।। आसणमासीणो पुच्छिओ य पियमित्त ! कत्थ कत्थ तुम। एत्तियकालं भमिओ? किं दिडमुवजियं किंवा ॥७२॥ तेणं पयंपियं देव ! लाड-मरहट्ठ-गोड-सोरड्डा । पारित्त-मलय-मालव-बेरागर-सिंधुसोवीरा ॥ कासी-कोसल-नेवाल-कीर-जालंधराइणो देसा । भमिया विचित्तनेर्वत्थधारिनरनियरपरिकिना ॥७४ ।। दिडा य तुंगसुरभवणसभो[......]सरिसराइणोऽणेगे। चोआणि य ताणि न जाणि साहिउंपिहु तरिअंति ॥७५ ॥ अत्थो य अजितो बहु कुबेरकोसाइरितवित्थारो । तह तिहुयणिकसारो एगो एगावलीहारो .. तस्स य लाभो पुहईए नाह ! नीसेसअच्छरियपवरो। नो कस्स कस्स चित्र पकुणइ विम्हयरसाउलियं ॥ ७७॥ __ अह मंजुगुंजिउद्दाममुरवरवरम्मपडहपडुपादं । नच्चिरवारविलासिणि[रण] रणमणिकिंकिणीजालं ॥७८ ॥ पेच्छणयमतुच्छसमुच्छलंतसुइसुहयगरुयगेयसरं । वारद रायाऽनिलचलियकमलसोमेण सकरेण ॥ ७९ ॥ भणइ य संपह पियमेत ! होर्ड सेसेहिं सोहियहिं । हारोवलममेगग्गचित्तओ मे निवेएसु ॥८. ॥ १ दिट्ठा प्रती ॥ २ वेषः ॥ ३ आश्चर्याणि ॥ ४ कथयितुमपि हि शक्यन्ते ॥ ५ अथ मजुगुलितोदाममुरजरवरम्पपटहपढपाठम् । नर्तनशीलवारविलासिनारणरणन्मणिकिहिणीजातम् ॥ ६"पार्ड प्रती ॥ ७ प्रेक्षणकमतुच्छसमुच्छलतू भुतिसुखवगुरुकगेयस्वरम् ॥ ८ अलमित्ययः ॥ ९ कथयितव्यः । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरि-3 विरहओ कहारयणकोसो ॥ सम्मत्तपडलयं । सम्यक्त्वालाधिकारेनर| वर्मनृपकथानकम् । अहह ! कहं सीसोवरि चिट्ठ चिट्ठो ममावि इह एसो। अहह्वा अदिट्टफुरिए को काउं किं न उञ्जमह? ॥ १२८ ।। ता अवणेमि सुदुविणयविडविणो फलमिमस्स 'मिन्हि पि । कालविलंबो नीईय वीरवित्तीण नहु जुत्तो ॥ १२९ ॥ इय गरुयरोससंरंभनिन्भरायविरच्छिछोहेहिं । कुंकुमरसलिचं पिवे कुणमाणो भवणभित्तिभरं ॥१३०॥ निक्खित्तकमलपयरं व महियलं सबओ य दंसिंतो । निर्वतितो गयणं झड त्ति कयअकालसंज्झं व ॥ १३१ ।। एगावलिहारविरायमाणवच्छत्थलोऽमलदुकूलं । परिहिय परिहारयणं पहरणमवि गरुयमादाय ॥ १३२ ।। सोहम्मतियसणाहं पडुच्च कयतिवसमरसंकप्पो । नीहरिओ सपुरीओ तणं व तिजयं च पेहंतो कुडिला काण गइ ति कह वि सकेण निञ्जियस्स ममं । को सरणं ? ति विभाविय ओहिमाणं पउंजेइ ।। तो सुंसुमारपुरपरिसरम्मि सरणिकसुंदरं वीरं । उस्सग्गगयं पेहइ गयसोगमसोगसाहितले ॥ १३५ ।। तो पवणविजइणीए गईए गंतूण पणमिउं वीरं । नाह ! तुह पायपउमप्पभावओ वंछियं होउ इय काऊणाऽऽसंसं कयजोयणसयसहस्सकसिणंगो। महया संरंभेणं वचंतो सुरपुरं पत्तो ॥ १३७।। पउमवरवेइयाए ऐयं अन्नं पयं हरिसभाए । ठविऊण मुक्कसंको सकं अक्कोसिउं लग्गो ॥१३८ । १ अरछपराकमे अरटे या भाग्ये स्फुरिते दत्यर्थः ॥ २ मकारोऽत्रालाक्षणिकः ॥ ३ नीस्या - वीरवृत्तीना' पराकमवताम् ॥ ४ गुरुकरोषसरम्भनिर्भराताम्राक्षिक्षोभः ॥ ५ पिव इवार्थ ॥ ६ 'निर्वर्तयन्' कुर्वाणः ॥ ७ परिचाय, परिषरत्नम् ॥ ८ कायोत्सर्गस्थित प्रेक्षते गतशोकम् अशोकशाखितले ॥ २, तलो प्रती ॥ १० कृतयोजनशतसहसकृत्स्ना ॥११ एकम् अन्य पादम् ।। ॥ ७ ॥ 9RRRRRRRREKASWASKE+%A4%AGALAHABHARAANARANASA SAXXCAKACHAROSARKARSASARANASAN रेरे चमराहम! कह कहेहि जाओ तुहाऽऽगमणविसओ। सलभस्स व दीवसिहाए मह सहाए ? त्ति जंपित्ता ।। सुरवणा रोसभरेण तरुणरविचिंचलक्खदुप्पेक्खं । पक्वित्तं कुलिसं तस्स हणणहेउ महावेग ॥ १४० ॥ अह तं इंतं दई सममभिमाणेण संकुडियकाओ । हेहमुहो उड्डकमो वीरं पद पट्ठिओ चमरो ॥ १४१ ॥ ता एवरूविणों बेचिरस्स कंठाओ से चुओ हारो । वीरियसारो छ जसो व अहव ऐरत्तवाउ व || १४२ ।। एसो य निवडमाणो हारो विज्जुप्पभेण सम्पत्तो। कीलत्थमुवगएणं एत्तो संखेजदीवम्मि ॥ १४३ ॥ एवं निसामिऊणं हारुप्पत्ति अहं महाराय ! । देसेसु चिरं भमिओ काऊणऽत्थजणं बलिओ ॥ १४४ ॥ पणुवीसवच्छरेहिं तुमएं मह देव !दसणं जाय । जाओ य सुरो स सुओ अन्नो बा तुज्झ ? नायवं रन्ना पयंपियं चक्खुगोयरे कोऽणुमाणवावारो? । कीरउ दंसणमन्नोममिन्हि हरिदत्त-हाराणं अह तुरियवेगधावियपुरिसेहिं राय-वणिनिउत्तेहिं । रायसुओ हारो वि य सहाए तबेलमुवणीओ ॥१४७॥ आसीणो रायसुओ पारद्धाऽणेगहा कहुल्लावा । दसदिसमुजोयतो य दैसिओ अवसरे हारो ॥ १४८॥ अह हारदसणाओ ईहा-ऽपोहाइपहपयदृस्स । जायं जाईसरणं झड ति हरिदत्तकुमरस्स ॥१४९ ॥ चिरपवजा तियसत्तणं च हारप्पयाणवुत्तो । विनाओ सबो वि य जहडिओ सुमिणदिट्ठो व ॥ १५०॥ १"चसहा प्रती ॥ २ "दुपेक्वं प्रती ॥ ३ पत्थ क' प्रती पाठः ॥ ४ अजितुः' गमनीलस्य ।। ५ शूरत्ववादः ॥ ६ सप्पत्तो प्रती। ७ अहम्महा" प्रती ॥ ८ "ए सह प्रतौ ।। ९ राजवणिनियुक्ताभ्याम् ।। NAS Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AC देवभद्दसूरिविरइओ कहारयणकोसो॥ सम्मत्तपडलयं । सम्यक्त्वाधिकारेनर| वर्मनृपकथानकम् ॥ सुरभवणवसिय-भासिय-विलसिय-इसिया-ऽऽसियाई सुमरंतो। नवरं तबेलं मुच्छिओ व जाओ नरिंदसुओ ॥१५१ ॥ __ भणिओ य राइणा एत्थ कीस जोगि व रुद्धवावारो। अंतो चिय चिंतंतो चिट्ठसि ? मह कहसु य निमित्तं ।। कुमरेण जंपियं ताय! केत्तियं तुम्ह प[य] साहेमि । अघडंतघडणपडओ चित्तो कम्माण बाबारो ॥१५३ ॥ जं कहिउं पि न तीरइ सकइ सको वि जैन सच्चबिउं । संसारनडो पयडइ तमिदयालष्फडाडोवं ॥१५४ ।। रना पयंपियं वच्छ ! तह वि साहेसु एत्थ परमत्थं । तो तेण मयणवत्तोवइट्ठसरिसं सयले मुत्तं जाया य हारदसणपच्चयपभवा नरिंदपुत्तस्स । देव-गुरु-तत्तविसया सुद्धा सम्मत्तपडिवत्ती ॥१५६ ॥ एत्थंतरम्मि रमा विभावियं अम्ह सब्भपुरिसेहिं । धम्मविही नीसेसो संसयमारोविओ आसि संपह पुण पुत्तुवइट्टपुबदिद्रुत्थविहुयमोहस्स । तत्तावलोयकुसला जाया पुनेहिं मह दिट्ठी ।। १५८ ॥ एसो य सुओ पुन्नेहिं नूण संपाडिओ ममं विहिणा। कहमन्त्रह हुँतो धम्मैनिच्छयच्छेयमइपसरो? ॥१५९ ।। एवंविहसंजोगो य जायए भाविभूरिमदाणं । कप्पतरुसंगमो इव महल्लकल्लाणकलियाण ॥ १६० ॥ ___इय जाव निवो पसरंतहरिसरोमंचकंचुइयकाओ। अच्छइ ता आगंतुं विनत्तो दारपालेण ॥१६१ ।। देव ! कुसुमावयंसाभिहाणउजाणपालगो तुम्ह । दसणखी चिट्ठा रायाऽऽह लहुं पवेसेहिं ॥१६२ ॥ अह भेमिरभमररोलाउलाउ दाऊण बउलमालाओ । उजाणपालगो भूमिवालमेवं पयंपेड़ ॥ १६३ ॥ १'चावारा प्रती।। २यदून सत्यापयितुम् ॥३"लफडा प्रती ॥४'लपुत्तं प्रती ॥५धर्मनिभयकमतिप्रसरः ॥६चमणशीलधमरशब्दाकुलाः॥ RAKARIHARAN ॥ ८ ॥ ॥ ८ ॥ CESEXKAKKASAKASIRSANKRAMREKARNERRORISINS जाओ वणियस्स सुओ गुणवंतो नाम मयणदत्तो ति । अत्थजणत्थमिहई पत्तो ता जाव तं दिट्ठो ॥ ११६ ।। पुषभवावञ्जियगुरुसिणेहओ एयदंसणे य तुम । हरिसं गओ सि एयं तं जं पुढे निमित्तं त्ति ॥ ११७॥ इय सो सोचा देवो विनायजहट्ठियत्थवित्थारो । देइ महं नेहेणं 'तं नियमेगावलीहारं ॥११८ ॥ पुच्छह य गुरुं भालयलठवियकरसंपुडो पयत्तेण । भयवं! निद्दा अरई सुरतरुकंपो य एमाई ॥ ११९॥ असिवाइ जीवियत्वं मह तुच्छं निच्छियं निवेयंति । ता कहसु कत्थ जम्मो होही ? कह बोहिलाभो य? ॥ १२० ॥ भणिओ गुरुणा चविउं एत्तो तं भारहम्मि मगहाए। विजयवईए पुरीए नरवम्मनराहिवस्स सुओ ॥ १२१ ॥ हरिदत्तो चि भविस्ससि बोहिं पुण मयणदत्तदिनस्स । हारस्स दंसणेणं लहिहसिइय मुणिय तबेल ॥ १२२ ।। देवो गओ सथामं मए वि विम्हइयमाणसेण गुरू। पुट्ठो पहु। साहिप्पउ इमस्स हारस्स उप्पत्ती ॥१२३ ।। जंपद गुरू सुणिजउ पुवं किर विज्झगिरिवरतलम्मि । पुरमत्थि सयदुवारं तत्थाऽऽसी पूरणो सेट्ठी ।। सो काऊण सुतिक्खं तावसदिक्खं पवजियाणसणो। मरिउ जाओ चमरो सुरेसरो चमरचंचाए ॥१२५ ॥ सो य कहिं पि पलोयइ जा उहूं ता पवड्डियामरिसो। पेच्छइ सकं सीहासणट्ठियं नियसिरस्सुवरि ॥१२६॥ पुरओ पयवृनई सोहम्मसभाए वट्टमाण च । सामाणिय-तायतिस-रक्ख-परिसापरिक्खित्वं ॥ १२७ ॥ १ तन्निय' प्रतौ ॥ २ अल्पम् ॥ ३ भणिउं प्रती ॥ ४ पत्तो प्रतौ ॥ ५ स्वस्थानम् ॥ ६ कथ्यताम् ॥ ७ सामानिक-त्रायविश-भात्मरक्षकपर्षपरिक्षिप्तम् । परिक्षितं-परिवृतम् ॥ एकावलीहारस्य उत्पत्तिः Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभदसरिविरइओ कहारयण कोसो ॥ सम्मतपडलयं । ॥९॥ देवो य कोह-मय- माय लोह - रइ-अरइ-हास-भयमुको। सोग-दुर्गुछा-चिंता-विसाय- अन्नाणपरिहीणो ।। १७५ ।। मिच्छत्त-पमाय-सिणेह-मयण-निंदा इदोसर हियंगो । तारेउमलं अप्पा परं च पोडे व भवसिंधुं करुणामयमयरहरं निरंजणं जिणवरं विमोत्तूण । नन्नत्थ देवबुद्धी जायइ सुमिणे वि सुमईण रागाइणो हि दोसा पसूण देवाणमचि य जइ संति । ता को पसु देवाणं भेओ तुझुम्मि दोसम्म ? इ[य] सुपरिक्खियनिरुवमसुविसुद्धगुणोहगेहभूयम्मि । देवम्मि देवबुद्धी उप्पजइ पुनवंताण ।। १७६ ।। ।। १७७ ॥ ।। १७८ ॥ ॥ १७९ ॥ ॥ १८१ ॥ देवो विनवरि नजर गुरूवइट्ठो गुरू य सुस्समणा । वयछक कायछकाइ चिहिजुया समिइ गुत्तिपरा ॥ १८० ॥ परउवयारपहाणा संतणुरूचं सयं पि जयमाणा । अणुयत्तिय सह-असहाइसे हवग्गा निरुविग्गा निग्महिय कुग्गहा परउवग्गहा मुंणियस परसत्थत्था । समयाणुरुवजुंजिय उस्सग्ग-ज्ववायवावारा पडिलेहणा- पमअणपमुहसमायारिबद्ध पडिबंधा । आवस्सयाइ किरियारया य विरया पमायाओ ।। १८२ ।। ।। १८३ ।। १ देवविषयका अष्टादश दोषा अन्यत्र रूपान्तरेणापि दृश्यन्ते – अन्ना १ कोह २ मय ३ माण ४ लोह ५ माया ६ र ७ अ अरई ८ अ । निदा ९ सोय १० अलियवयण ११ चोरिया १२ मच्छर १३ भया १४ य ॥ १ ॥ पाणिवह १५ पेम १६ कीलापसंग १७ हासा १८ य जस्स इस दोसा । अट्ठारस वि पणट्टा नमामि देवाहिदेवं तं ॥ २ ॥ २ "विहाय प्रतौ ॥ ३ पोत इव ॥ ४ 'करुणामृतमकरगृर्द' करुणामृतसमुद्रम् ॥ ५ स्वप्नेऽपि ॥ ६ गाहिणो प्रतौ ॥ ७ शतयनुरूपं सदाऽपि यतमानाः । 'अनुवर्त्तितसहाऽसहादिशेक्षवर्गाः पालितसमर्थाऽसमर्थादिशिष्यसमृद्धाः ॥ ८ प प्रती ॥ ९ ज्ञातस्वपरशास्त्रार्थाः ॥ जह चित्तं तह वाया जह वाया तह समग्गकिरिया वि । जेसिं ते इह साहू माया-मयवजियसरीरा ॥ १८४ ॥ १८५ ॥ १८६ ।। एत्थंतरम्मि सड्डो आसघरो नाम भणइ दुवियड्डो । भयवं ! जहुत्तसाहू न संति गुरुणो कहं नेया १ ।। पिंडविसुद्धिं न तहा कुणंति सकं पि नाऽऽयरंति विहिं । पासत्थाईहिं समं चयंति नाऽऽलवण- नमनाई ।। न परुर्वितिय सुद्धं न धरंति पमाणजुत्तमुवगरणं । थेवेसु वि रोगाइसु जह तह सेवंति अववायं इय अट्ठारससीलिंगस हैंसधरणं विणा कहं समणा । हुंतु गुरू ? तदभावे कह वा ते बंदणिआ य ? ॥ १८७ ॥ १८८ ।। ।। ॥ १८९ ॥ ।। १९० ॥ ।। १९१ ।। भणियं गुरुणा भद्दय ! मा साहूणं अभावमुत्रसु । तदभावे धम्मस्स वि नूणमभावो तए इट्ठो मिच्छत्तपउरयाए न नअई दाणि देवनामं पि । किं पुण कोलोचियसुमुणिविरहओ मग्गविन्नाणं ? 'पिंडविसुद्धिं न कुणंति' जं च वृत्तं तयं पि न हु जुत्तं । निय सत्ति-काल- खेत्ताणुसारओ तप्पवित्तीए "गिद्धि-सदभावविरहा सुद्धी तदभावओ वि जं भणियं । सुद्धं गवेसमाणो आहाकम्मे विसो सुद्धो कह अह अग्गिद्धी ? घर-घण-सयणाइसवचागाओ । जं तेसि नाऽऽसि पुढं ते कह ? नर्णे इच्छचागाओ ॥ सुकरो इच्छा चागो अभावओ चिय, तुमं न किं कुणसि ? । दीर्णोद्धरणाइखमा तुज्झ वि नो दीसए लच्छी ॥ ।। १९२ ।। १९३ ॥ १९४ ॥ १ दुर्विदग्धः ॥ २ नेय प्रतौ ॥ ३ शक्यमपि ॥ ४ त्यजन्ति ॥ ५णाई प्रतौ ॥ ६ सुद्धि प्रतौ शीलाङ्गसहस्रधारणम् ॥ ८ नज्जइ प्रतौ । शायते इत्यर्थः ॥ ९ कालोचिय प्रतौ ॥ १० विद्धि तौ एत्थ या प्रतौ । ननु इच्छात्यागात् ॥ ॥ ७हस्स प्रतौ । अष्टादश। गृद्धिशठभावविरहात् ॥ ११ णु सम्यक्त्वा धिकारे नरवर्मनृपक थानकम् १। देवतवम् गुरुतत्वम् ॥ ९ ॥ गुरुतत्त्वव्यवस्थाप नविषयक वादस्थलम् Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभदसूरिविरहओ कहारयण कोसो ॥ सम्मतपडलयं । 11 20 11 ।। १९६ ।। ॥ १९७ ।। 'नेवाssयरंति सकं पि' जं च भणियं तयं पि निस्सारं । आवस्सयाह किं ते न कुणंति ? जमेवमुल्लवसि ।। १९५ ।। अह विचागमणुखण मुस्सग्गं कप्पविहरणाई य । सकं पि नाssयरंती कह नजइ सक्कमेयमहो ! ? सामत्थ- कालदोसा सकं पि कयाइ जायद असकं । आय-वयतुलणाए तदकरणे वि हु न ता दोसो 'पासत्थाईसंगं नमणं च न संगयं' ति जं वयसि । तं पि हु मिच्छा सिद्धंतवणओ तप्पवित्तीए नणु सिद्धं तनिसिद्धं आलवणाई वि किं पुणो नमणं ? । 'ओसन्नो पासस्थो' इवाईभूरिभणणाओ सच्चमिमं ता सुते वायनमोकारमाइ किं वृत्तं १ । परियाय-परिस-पुरिसादविक्खओ अह तयं मूढ ! जर ते फुडं अजोगा ता तनमणाइ कीसऽणुनायं ? । कारणओ वि हु इहरा पासंडीण पि तं होउं अह ते नो जिणलिंगे का तदवेक्खा हु भावसारते १ । अणुयत्तणा य भणिया तेसिं पि हु जेण वृत्तमिमं अग्गीयादाइने खेत्ते अन्नत्थ ठिइअभावम्मि । भावाणुवधायऽणुचचणाए तेसिं तु वसिय इहरा स परुवधाओ उच्छोभाईहिं अत्तणो लहुया । तेसिं च कम्मबंधो दुगं पि एवं अणि फलं ता दवओ उ तेसिं अरच दुडेण कलमासज्ज । अणुवत्तणत्थमीसिं कायां किं पि न उ भावा 'न परूविंति य सुद्धं' एवं पि अदूसणं जहाजोगं । पन्नवणं चिय जुत्तं इहरा दोसो चि जं भणियं १ विकृतिया अनुक्षणं उत्सर्गे 'कल्पविहरणादि' नवकल्पविहारादि । २ विरहणा" प्रती ।। ३ इत आरभ्य तिनो गाथा ८४०-४१-४२ तम्यः । अगीतायाकीर्णे ॥ ४ उच्छोभः- आलप्रदानम् ॥ ५ उण भवे प्रतौ ॥ ।। १९८ ।। ।। १९९ ।। ॥ २०० ॥ ॥ २०१ ॥ ॥ २०२ ॥ ।। २०३ ।। ॥ २०४ ॥ ॥। २०५ ।। ॥ २०६ ॥ उपदेशपदग्रन्थे क्रमशः पुरे - नगर - खेड - कब्बड-मडंबपमुहेसु सन्भिवेसेसु । विहरंतोऽणुकमसो गुणंधरो सूरिरिह पत्तो त्यो य देव ! कुसुमावयंसउआणमज्झभागम्मि । तित्थस्स व तस्स य दंसणं च जुअह तुहं काउं राया वि तेक्खणक्खुडियनिबिडनिगडो व लहुयहुयदेहो । सिंहासणाओ सिग्धं समुडिओ हट्ठ-संतुट्ठो ॥ ।। १६४ ।। ।। १६५ ।। १६६ ॥ जंपइ य मयणदत्तो देव ! महप्पा स एस मुणिसीहो । जस्स पुरा तुह पुरओ सवित्रा पयडिया बत्ता ॥ सो एस कामधेणू स एस चिंतामणी महाभागो । सो एस अमयबुडी दडूबो ता लहुं चैव इय तवयणाssयन्त्रणपमोयभरनिम्भरा कुमरपमुद्दा । सहसा सहा गुरूणं नमसणुकंठिया जाया ।। १६८ ।। ।। १६९ ।। ॥ १७० ॥ ।। १७१ ।। ।। १७२ ।। अह तक्खणसजियजयकरेणुमारुहिय विहियसिंगारो । धरियधवलायवत्तो ढलंतससितेयवरचमरो अमरेसरो व राया करि-हरि रह जाएँगयजणाणुगओ । मद्दईए विभूईए विणिग्गओ बंदिउं सूरिं पत्तो उजाणमहिं उज्झियकरि-रायचिघसिंगारो । भत्तीए जहविहिं बंदिऊण धरणीए उबविडो मैणिओ गुरुणा नश्वर ! संसारे सारमेत्थ मणुयत्तं । तत्थ वि नमंतसामंत जणवयं भूमिनाहत्तं ॥ १७३ ॥ तं पुण धम्मस्स फलं धम्मस्स य मूलमेत्थ सम्मत्तं । देवं गुरु-तत्तंसुनिरुत्तनाणओ तं च होइ फुडं १ सुर" प्रतौ ॥ ।। १७४ ।। ६ भणि प्रतौ ॥ ३ तत्क्षणखण्डित निविडनिगडः || * 'णकय प्रती ॥ नमत्यामन्तजनपदं नमत्सामन्तजनप्रजे वा १ १० २ "स्स य तस्स व दं प्रती॥ विप्रतौ पाठ: 11 ८ तत्त LI [2 निरु प्रती पाठ ५ "बिसि प्रतौ ॥ देवगुरुतत्त्वमुनिश्चितज्ञानतः 11 111111 धिकारे नर थानकम् १। ॥ १० ॥ गुणन्धर आगमनम् स्वरूपम् Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसरिविरहओ सम्यक्त्वाधिकारेनर| वर्मनृपकथानकम्। कहारयणकोसो॥ सम्मत्तपडलयं। जइ जिणमयं पवजह ता मा ववहार-निच्छए मुयह । ववहारनउच्छेए तित्थुच्छेओ हवइ जम्हा ॥ २१९ ॥ तथा-धम्मअियं च ववहारं बुद्धेहाऽऽयरिय सया । तमायरंतो ववहार गरिहं नाभिगच्छई ॥ २२० ॥ तो दूसमाए दोसं विभाविउं जत्थ जं पलोएज्जा । नाणे व दंसणे वा चरणे वा तमुवहेजा ॥ २२१॥ किंच-न विणा तित्थं नियंठेहिं नातित्था य नियंठिया । छकायसंजमो जाव ताव अणुसञ्जणा दोण्हं ।। २२२ ॥ तहा-जा संजमया जीवेसु ताव मूला य उत्तरगुणा य । इत्तिरिय-छेय संजम निग्गंथ बउसा य पडिसेवी ॥ २२३ ।। धीरपुरिसपरिहाणि नाऊणं मंदधम्मिया केह । संविग्गजणं हीलंति ताण पयडो इमो दोसो ॥ २२४ ॥ संतगुणछायणा खलु परपरिवाओ य होइ अलियं च । धम्मे य अबहुमाणो साहुपओसे य संसारो ॥ २२५ ।। जइ संपुन एयं हविज सिद्धी वि ता न बुच्छेजा । एयं पि नो मुणिजइ अहो! महामोहमाहप्पं ॥ २२६ ।। देव-गुरु-धम्म-किरियं पुवं जत्तो वियाणियं ते वि । हीलिजंती जइणो ही ही ! अकय चुओ लोगो ॥२२७॥ इय नरवर ! केच्चिरमबुहजीवदुबिलसियं निसामिहसि ? । साहूहिंतो वि परो मोक्खोवाओ धुवं नत्थि । २२८ ॥ आगमतत्तं च नरिंद! सुणसु गयराग-दोस-मोहाण | एगंतपरहियाणं जिणाण वयणं हियं अमियं ।। २२९ ॥ १ गाथेयं पञ्चवस्तुके १७२ तमी ॥ २ गायेयमुत्तराध्ययने अ० १-४२ तमी॥ ३ ततः दुष्षमाया दोष विभाव्य ॥ ४ तमव प्रतौ ।। ५ गाधेयं न्यवहारदशमोद्देशकभाष्ये ३८९ तमी ।। ६ आगमतत्वं च नरेन्द्र ! शणु गतरागद्वेषमोहानाम् । एकान्तपरहितानां जिनानां वचनं हितं अमितम् ॥ दृष्टान्तयुक्तिहेतुगम्भीरमनेकभजनयनिपुणम् । आदिमध्यावसानेषु परित्यक्तव्यभिचारम् ।। EARSHAHARASHTRA ॥११॥ धर्मतत्त्वम् ४ा॥११॥ RAMBACKASSACREASSESASUREADARSASON दिद्वंत-जुत्ति-हेऊगंभीरमणेगभंग-नयनिउणं । आई-मज्झ-ऽवसाणेसुदूरपरिचत्तबंभिचार ॥ २३०॥ सिर्वपहरयणपईवं व कुमयपवणप्पणोल्लणाऽसज्झं । संज्झं व बहुविहाइसयतारतारानिवहजणणे ॥ २३१ ॥ इय देवम्मि गुरुम्मि य आगमविसए य जायबोहस्स । संकाइदोसरहिया पडिवत्ती होइ सम्मत्तं ॥ २३२ ॥ एयम्मि पावियम्मि नत्थि तयं जं न पावियं होइ । एयम्मूलाउ च्चिय मल्लकल्लाणवल्लीओ ॥ २३३ ॥ अह मयणदत्त-नरवइसुएहिं संजायपरमतोसेहिं । भणियं भयवं! साहुप्पसायओ पत्तरिद्धीणं ॥ २३४ ॥ अम्हाणं पि हु पुरओ को एसो साहुसणं कुणइ ? । अहवा होयत्वं एत्थ पुत्वदुच्चरियदोसेण || २३५ ॥ ता भयवं ! साहह को पुणेस पुवे भवम्मि हुँतो? ति । मुणिवयणा जंपियमेगमाणसा भो ! निसामेह ॥ २३६ ॥ एसो सावत्थीए नयरीए गिहवइस्स बंभस्स । पुत्तो नाम कुवेरो त्ति आसि पिउणो य सो रोसा ॥ २३७ ।। संभूयगणिसमीवे पवइओ "केचिराणि वि दिणाणि । विणय-नएहिं पट्टिय पच्छा परिवडियउच्छाहो ॥ २३८ ।। आवस्सयाइएK आलस्सं पइदिणं पि कुणमाणो । गुरुणा सासिजंतो साहूहि य कोवमुबहइ ॥ २३९ ॥ ईसि पि साहुखलियं पेक्खित्ता भणइ निययदुचरियं । रक्खंति न थेवं पिहु परस्स पुण दिति उवएसं ॥ २४०॥ 'चाल-गिलाणाईणं वेयावचं सया वि किचं' ति । गुरुणो वि परेसिं पनर्विति न सयं पुण करेंति ॥२४१ ।। १ वाभि प्रतौ पाठः ॥ २ शिवपथरत्नप्रदीपं इन कुमतपवनप्रनोदनाउसाध्यम् । सन्ध्या इव बहुविधातिशयतारतारानिबहजनने ॥ ३ सज्झं प्रतौ ।। ४ महाकल्याणवल्यः ॥ ५ 'हुपासा प्रतौ ॥ ६ मुनिपतिना ॥ ७ कियचिराणि ॥ ८ शिष्यमाणः ॥ ९ साहुँहि य प्रती ॥ AMACHARACCOCCAKACANCIESCREENA आसधरस्य पूर्वभवः Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसरिविरहओ कहारयणकोसो ॥ सम्मतपडलयं । का सम्यक्त्वाधिकारेनर वर्मनृपककथानकम् ॥ एमाइसणाई वागरमाणो किलिट्ठमण-वयणो । मरिउं असुरनिकाए किन्बिसियासुरसिरिं पत्तो ॥२४२॥ तत्तो चविउं इम्हि सावयभावं गओ वि एस इहं । पुराणुवेहउ चिय पड्डच्च मुणिणो इय भणेइ ॥२४३॥ ___ इय सोचा तं सट्टे पनविउं ठाविउं च सुहमग्गे। नरवइपमुहा सन्चे गिहिधम्मे उजया जाया ॥२४४ ॥ कारियजिणवरभवणा, सम्माणियपणइणो मुणियसमया। समणजणपज्जुवासणपराइणा लोगठिइँकुसला ॥ २४५ ॥ सविसेसजाणणम्मि समुजया विर्हयकुमयवामोहा । दक्खिन्न-दयाइगुणनिया य भववासनिविना ॥२४६ ॥ इय ते विनायजहत्थियत्थसिद्धन्तसारसबस्सा । जिणधम्मे रायाई निचलचित्ता ददं जाया || २४७॥ सूरी वि सुचिरमणुसासिऊण रायाइणो जहाभिमयं । विहरिउमारद्धो गाम-नयर-पुरमंडियं वसुहं ॥ २४८ ।। अह अनया कयाई सोहम्मेसहडिएण सुरवइणा। करकलियामलयं पि ओहीए मही नियंतेर्ण ॥२४९॥ सम्मत्तनिचलमणं मुणिउं तं भूवई सभापुरओ । भणिय भो भो तियसा ! नरबम्मनराहिवो एस ॥ २५० ॥ ससुराऽसुरतिजएण विन चालिङ तीरेए जिणमयाओ। ता एत्तो वि न धन्नो कयपुत्रो वा जैए अनो ॥ २५१ ॥ सोऊण य वयणमिमं सुवेगनामो सुरो विचिंतेइ । बालाणं व पहणं जहतह जन्ति उल्लावा ॥ २५२ ।। कहमन्त्रह नरमित्तो न चालिउं तीरइ ति हरिराह ? | अहबा सयमेव तहिं गंतुमहं तं परिक्खामि ॥ २५३ ॥ १ 'पूर्वानुवेधात्' पूर्वसम्बन्धाद् एव प्रतीत्य ॥२-परायणा:-तत्पराः ॥ ३ "ठिई प्रती ॥ ४ विदियकुमुय' प्रती । विहतकुमतव्यामोहाः॥ ५ विज्ञातयथास्थितार्थसिद्धान्तसारसर्वस्वा ॥ ६ सौधर्मसभास्थितेन ॥ पिव इवार्थकमध्ययम् ॥ ८ पश्यता॥ २ शक्यते ।। १० जगति ॥ ११राजन्ते। ॥१२॥ ॥१२॥ RANSARKAKAKAKKARKIRRsxxic+k+sts+sts+%%%* NextKWAR आमे घडे निहि जहा जलं तं घड विणासेइ । इय सिद्धंतरहस्सं अप्पाहारं विणासेइ ॥ २०७॥ जोग्गा-जोग्गमयुज्झिय धम्मरहस्सं कहेइ जो मूढो । संघस्स पवयणस्स य धम्मस्स य पच्चणीओ सो ॥२०८ ॥ 'न पमाणजुचमुवहिं धरिति' एयं पितुच्छमाभाइ । असढोवदंसियत्तेण तविहस्सुवहिनिवहस्स ॥ २०९॥ इहरा बाहुट्ठवियं पत्तं एगं तु पडलयच्छन्नं । पत्ताबंधकयं पुण बीयं मचं अगोअरओ ॥ २१० ॥ एगंगिय रयहरणं भवे न इन्हि विसिट्टमणिणो वि । ता एत्थ पयत्थम्मि पुवे मुणिणो चिय पमाणं ॥२११ ॥ 'सेवंति य अववाय' दूसणमेयं पि घडइ नो सम्मं । तबिहसंघयणाईविरहा सुत्नुत्तिओ य तहा ॥ २१२॥ सवत्थ संजमं संजमाउ अप्पाणमेव रक्खेजा । मुच्चइ अइवायाओ पुणो विसोही न याविरई ॥२१३ ।। किंचकाहं अछित्ति अदुवा अहीहं तवोवहाणम्मि य उअमिस्सं । गणं व नीईय व सारइस्सं सालंबसेबी समुवेइ मोक्खं । सीलंगाण वि भावो नेओ सव्वन्नुवयणओ चेव । कह भणियमबहेम ? बकुस-कुसीलेहिं जा तित्थं ॥ २१५॥ कालाणुसारकिरियारय त्ति चारित्तिणो पवुचंति । जह कप्परुक्खविरहे रुक्खा भन्नति लिंबा वि ॥ २१६ ॥ अह सम्मममुणियम्मी मुणिम्मि नमणा कीरइ कहं ? ति । वभिचारदसणाओ एयं पि न सुंदरं जम्हा ॥ २१७॥ छउमत्थसमयचा बवहारनयाणुसारिणी सदा । तं ववहारं कुछ सुज्झइ सबो वि समईए ॥ २१८॥ १ 'आमें अपक्के ॥ २ विसुव प्रती ॥ ३ अविवा' प्रतौ ॥ ४ गाथेयमोचनियुक्ती ४६ तमी॥ ५ गायेय व्यवहारपीठिकायाँ १८४ तमी ॥ ६ संगममु प्रती ॥ ७छयस्थसमयचर्या ॥ ८ कर्मन् । **************** Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसरिविरहओ सम्यक्त्वाधिकारेनर| वर्मनृपकस्थानकम् । कहारयणकोसो ॥ सम्मत्तपडलयं । ते धना सप्पुरिसा ताण जए निम्मला परं किती। जेहिं नियजीविएण वि जिणसासणमुबई नीय ॥२६६ ॥ किं लच्छीए ? किं वा विहलेणं तेण भूवइत्तेण । किं वा महं विवेगेण ? किं व सत्थत्थबोहेण? ॥२६७ ॥ जो ई सिरिजिणसासणलहुत्तसहकारिकारणं जाओ । एत्तो वि जीविएणं कलंकपंककिएणं किं? ॥२६८॥ ता होउ जंपिएणं पारद्धं कुणह साहुणो तुरिय । एय चिय पच्छित्तं इमस्स दुविलसियस्स ममं ॥२६९ ॥ इय जाव निवो सब्भावगम्भवयणाई उल्लविय सञ्जो । जाओ जीवियचागस्स ताव सहस त्ति तियसेण ॥२७०॥ सम्मत्तनिचलतं ओहीए लक्खिऊण सविसेसं । हरिसंसियाउ संहरियसयलडमरप्पवंचेण ॥ २७१ ॥ पयडियनियरूवेणं भालयलाऽऽरोविओभयकरेण । भणियं भो भो नरवर ! कयमित्तो चित्ततावेणं सम्मत्तथिरतं तुह सोहम्मिदेण सलहियं दूरं । तमसद्दहिऊण मए कयमेवंविहमहाडमरं विमटम ॥२७३॥ न तुमाहितो वि परो सम्मदिड्डी जयम्मि वि विसिट्ठो। कह न मही रयणवई जीसे नाहो तुम जाओ ॥ २७४ ।। रायाऽऽह भो महायस! किं संलहसि मे वराडयसमस्स?। सप्पुरिसरयणभरिए जिणिंदवरसासणसमुद्दे ।। २७५॥ अह नियसिराउ मउडं फुरतमणिकुंडलं पणामित्ता । कयसविणयप्पणामो तियसो जंपेउमाढतो ॥ २७६ ।। १ 'सहिकारि" प्रती ॥ २ 'हरिशंसिताम्' इनकथितात् संतसकलविप्लवप्रपजेन ॥ ३ कृत एवंविधमहाविद्यलवः ॥ ४ लाघसे मम कपर्दकतुल्यस्य ॥ ५ अर्पयित्वा ॥ ॥१३॥ ॥१३॥ KAKARRRRRRRRRRRRksts+KAHAKAKKARINAKARRANGER %#AXHIXHUXH94%*%*%**%*%49948435 436 43***************** नरवर्मनृपं प्रति स्तुतिपूर्वक सुबेगदेवस्या|ऽऽशीर्वचः ॥ नृवर ! कुमुदकन्दच्छेदशुभैर्यशोभिस्तव धवलितमेतत् सौधवद् विश्वविश्वम् । करतलकमलान्तभृङ्गिकेवाऽऽश्रिता श्रीरखिलमपि विलीनं प्राकृतं दुष्कृतं च तदिह भुवि न भद्रं भावि यम त्वयीतः, शिवसुखसखिभावं नीत आत्मा स्वयाऽसौ। तव गुणगणनायां सत्प्रवादग्रवृत्तिः, ध्रुवमपरनरेषु द्रागभून्मुद्रितेव ॥२ त्वमिह सुकृतभाजामग्रणीः श्रीजिनेन्द्रप्रवचनरसभिन्नास्तद्वयुानवापि (१)। कथमिव न विशुद्ध दूरनिघूतपई, भवति हि भवदहयोर्दर्शनं स्पर्शनं च ? इति सुचिरमुदात्त-स्फीत-सत्यार्थसारं, स्तवनमनुविधाय प्रेक्ष्यमाणो नृपेण । गवलजलदनील लक्खय[न् ] व्योममार्ग, झगिति सुरनिकेतं स्वं जगामाऽमर: स: ॥ इति श्रीकधारस्नकोशे सम्यक्त्वाधिकारे नरवर्मनपकथानकं समाप्तम् ॥ १॥ सम्मत्ते पत्ते वि हु तदसुद्धीए न को वि होइ गुणो। ता तविमुद्धिर्मणहं भणामि सेमयाणुसारेण ॥१ संकाईया दोसा चउरो वि हु अमुहभावसंजणगा । दूरेण वाणिज्जा सम्मत्तविलुपगा पावा ॥ २ उववूहणाइया पुण निदंसिया सुंदरा गुणा चउरो । एए इह करणिजा दोसा एए वि विवरीया ॥ ३ १धव' प्रती ॥ २ प्रेक्षमा प्रती ॥ ३ गुणे प्रती ॥ ४ अनघाम् ॥ ५ आगमानुसारेण ॥ ६ 'उपयुहणादिकाः' प्रशंसनादिकाः ।। vcoerca ॥ ॥ ॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरइओ कहारयणकोसो ॥ सम्मतपडलयं । ॥ १४ ॥ +5 +5 +5 कंखाईण सरूवं नियनियठाणेसु वन्नइस्सामि । ता संकापयमेव हि वन्निजंतं निसामेह संसकरणं संका सा दुविधा देस- सबभेषण । देसे जीवाईणं एकं संकेइ किं पि पयं सङ्घे पुण सर्व पि हु दुवालसंगं पि संकइ विमूढो । किं होज जिणुत्तमिमं ? अन्भेण व केणई विहियं ? संका कलंककलुसी भवंतभयवंत वृत्ततत्तस्स । कजे निच्छयसारा कह चिट्ठा घडइ सुविसिडा ? संदेहदीहदोलाधिरूढचित्तो न साहिउं सको । इहलोइयं पि किसिकम्ममाइ परलोइयं दूरे संकीविसविलसिरबहुवियप्पखिप्पंतचित्तविनासो । इहई चिय दुहभागी जायइ धणदेववणिओव ॥ ९॥ - - तथाहि — अस्थि इहेव जंबुद्दीवे दीवे' एखयखेत्ते कलिंगदेसकुलंगणावयणं व मैणोहरवाणियं, कम्मगंथपगरणं व बहुविपयइपिएसगहणं, धण-धन्नसमिद्धं जयत्थलं नाम खेडं । तत्थ य वत्थवो बिसाहदत्तो नाम सेट्ठी । सेणा नाम [ से ] भञ्जा | दुवे य ताण पुत्ता-संवरो धणदेवो य । दुवे वि य भायरो परोप्परं पिई बता दिणाई गर्मिति । अन्नया य पिउणा विचितियं- -को इमस्स घरस्स अब्भुद्धारकारी एएसिं होहि ? ति परिक्खं करेमि तओ तं परिक्खा१-भगवदुक्ततत्त्वस्य ॥ २ शङ्काविषविलसनशील बहुविकल्प क्षिप्यमाणचित्तविन्यासः । विन्यासः स्थैर्यम् ॥ ३ 'वे वरचय' प्रतौ ॥ ४ मणोरद्दया प्रतौ ॥ ५ मनोहरा वाणी यत्रैतागू मुखम् अन्यत्र मनोहरं वाणिज्यं यत्रेति ॥ ६ बहुविधः प्रकृतिस्थितिप्रदेश :- एतद्विषयक विचारैरित्यर्थः गहनमेवंविधं कर्मप्रन्थप्रकरणम्, अन्यत्र बहुविधाः याः प्रकृतयः प्रजास्तासां स्थितिः - निवासो यत्र एवंप्रकारैः प्रदेशः -स्थानेगइनमिति ॥ ७ धूलिप्राकारपरिक्षिप्तं स्थानं खेटमित्युच्यते ॥ ८ वट्टता प्रतौ ॥ ९ परीक्षा निष्पन्नम् ॥ " ॥ ४ ॥ ॥ ५ ॥ ॥ ६ ॥ 119 11 ॥ ८ ॥ किंच ॥ ।। २५४ ।। ॥ २५५ ॥ ॥२५६ ॥ ।। २५७ ।। ।। २५८ ।। अह कयमुणिarat केश्वयसुस्समणपरिवुडो होउं । रायंगणमणुपत्तो दिट्ठो नरवम्मनरवइणा अब्भुडिओ य सहसा संहरिसमह वंदिऊण पुट्ठो य । भयवं ! साहेह महं किं पि हु आगमणकर्ज ? ति सुरमुणिणा भणियं भूमिनाह ! किं संजयाणमिह कर्ज १ । जेसिं मोक्ख भवेसु वि तुल्ल च्चिय चित्तपडिवत्ती तह वि हु अणुग्गहकए मम किं पि कहेह भूवई भणइ । एत्थंतरम्मि निसियग्गखग्गहत्थेण केणावि केण वि कुंतकरणं केण वि निक्किवकिवाणिहत्थेणं । समणेणं पडिरुद्धो राया करिकेसरीवाssसु नट्टो सि अजरुद्धो सि अज अजं न होसि रे दुइ ! । इय जंपिरेहिं तेहिं राया सत्तु व परगहिओ अह ईसिंहसणविहडियउउडफुरंत दंतकंतीहिं । धवलितेण व भवणं नरवणा जंपियं एवं भयवं ! किमिदुमंडलसिहिकणव रिसणसरिच्छ मेयं । ति । ते आहु रे कुपत्थित्र ! न मुणसि दुविणय ! निद्धम्म ! ।। २६१ ॥ सीयंति महामुणिणो दायारो नेव संति देसे वि । भुंजसि य सयं रअं सावयवायं वहसि कूर्ड इय कवडभत्तिसरिसं तुज्झ पयं संपयं समप्पेमो । एवं वृत्ते तेहिं राया पडिभणिउमादत्तो सच्चमिमं मह दोसो एसो नवरं मयंकधवलस्स | जिणसासणस्स कीरइ कीस कलंको मुहा एवं १ एसो लोगो नाही सधे चिय एरिसा धुवं समणा । ता एगंते काउं किमहं पावो न निग्गहिओ ? ।। २५९ ।। ।। २६० ।। ।। २६२ ।। ।। २६३ ।। ।। २६४ ।। ॥ २६५ ॥ १ कतिपयमुश्रमणपरिवृतः भूत्वा । राजाङ्गणम् ॥ २ सहर्षम् अथ ॥ ३ रुट्ठो सि प्रतौ ॥ ४] ईषदसन विघटितौष्ठपुटस्फुरदन्तकान्तिभिः । धवलयता ॥ ५ इन्दुमण्डलशिखिकणवर्षणसदृशमेतद् इति ॥ शङ्काति चारे धनदेवकथा नकम् २ | शङ्कायाः स्वरूपम् ॥ १४ ॥ सुवेगदेवेन नरवर्मनृपस्य सम्यक्त्व दाढर्थपरीक्षणम् Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद सूरिविरहओ कहारयणकोसो ॥ सम्मत पडलयं । ॥ १५ ॥ भूरिलाभं थेवेण हारेसि ? त्ति । तेण भणियं को मुणइ तत्थ लाभो भविस्सइ न व १ चि, ता थोबलाभे वि दिट्ठे तंप्परिहारो अजुत्तो-ति विणिर्वट्टियं सवं । तदुबलद्वदद्वेण य अन्नं घेत्तृण पट्टिओ, कालंतरेण पत्तो गज्जणयं । पयट्टो य पचक्खपसिद्धं पि संसयारोवणीहिं परिहरिय दबजणोवायं तेसु तेसु असारवावारेसु । 'सच्छंदो' ति उवेहिओ परियणेणं । उबलद्धतदभिप्पाएण य उवयरिउमारो सो एगेण नयंरवुत्तेण । तच्छंदणाणुवित्तित्तणेण य पत्रत्तो से अभिन्नहिययत्तणं, आयडियं च तचवएसेण तत्तो घेणं । एवं च तुच्छवित्तो जाओ एसो । अनया य मैरुययरम्मदाण सुमणोहरतरुणी कुरुवल्लरीविलुलण- वलण चलण- डिंखोलणखणसंपत्तसोरमा सिसिरियस रियनीरभरदुवहतु द्दिणुकिरणदुस्सहा उत्तर दिसिसमुत्था सवत्थ वि गंधवहा वियंभिया । पोढिमणुपत्तो हेमंतो । वैड्डिया गेहिणीगाढालिंगशुकंठा | चिमण-दुम्मणीहूया पहियवंठा । ठाणट्टाणपट्टियधम्मग्गिडियापेरं तवीसमंतरोरनियरा जाया सन्निवेसपरिसरा । विपकतिलकल्लवियघण घुसिणंगराग रेहंतपुरजणाणुस रिअंतवलभीमज्झा संवृत्ता दिनावसाणसंज्ज्ञा । पैरिफ़ुकुंदसोरभभरबंधुरा विष्फुरिया काणणसमीरा । १ 'तत्परिहार:' लाभपरिहारः ॥ २ समापितमित्यर्थः ॥ ३ नगरपुत्रेण ॥ ४ तत्तद्व्यपदेशेन । ५ वर्ण प्रतौ । ६ मरुबकक्ष रम्यदानसुमनोहरतरुणीकुटिलकेश वह विलन - पलन-चलन- डिंखो नक्षणसम्प्राप्तसौरभाः शिशिरितसरिनीर भर दुर्व हतुहिनोत्किरणदुस्सहाः उत्तर दिक्समुत्थाः सर्वत्रापि 'गन्धवाहाः " वाताः विजृम्भिताः ॥ ७ "मुल्थस प्रतौ ॥ ८ वर्धिता गेहिनीगाढा लिनोत्कण्डा विमनोदुर्मनीभूताः पथिकवण्ठाः ॥ ९ स्थानस्थानप्रतिष्ठितधर्मामिष्टिकापर्यन्तविभ्राम्यदूरोरनिकराः जाताः सन्निवेशपरिसराः ॥ १० विपक- आतिष नघुसृणाङ्गरागराजमानपुरजना नुखियमाणवलभीमच्या संवृत्ता दिनावसानसंध्या ॥ ११ विकसितकुन्दसौरभभरबन्धुरा विस्फुरिताः काननसमीराः ॥ एवंविहे य पवते हेमंते सो धणदेवो कुवि[य]प्पारोवियदोसं निद्दोसं पि परियणं संकंतो गिद्वारं निबिडकवाडसंपुढं तालिऊण कुंचियाहत्थो रच्छानुहपइट्टियाए अग्गिट्टियाए सिसिरसमीरविदुरसरीरतावंणडा उचविट्ठो बिसिठ्ठजणगोडीए । एत्थंतरे उच्छलिओ बहलकोलाहलो । 'किमेयं ? किमेयं ?" ति भीया उडिया जणा पलोहउं पयत्ता दिसिवलयं । दिट्ठो य उ पवतो कवोयकंधराधूसरो सेमुच्छलियषणरिंछोलिसंकिय वकं गुग्गीवसच्चवितो मंसलो धूमनिवहो । 'कस्स घरमेयं डज्झइ ?' त्ति जाव संकासंकुनिभिमाणमाणसो उप्पित्थहियओ जणो चिट्ठइ ताव सिमेगेण नरेण – एयस्स घणदेवस्स इमं मंदिरं उज्झइ ति । तओ तुरियं पेसिओ वि जणेण मंदिराभिमुहं सो न वच्च संसपालिद्धबुद्धी, भणइ य-न संभाविजह मम मंदिरम्मि, किंतु तुहिण कणाणुविद्धगंधवाह[ बाहिय ]पहियपञ्जालिओ तणरासिजलणो भविस्सइ, कीस मुद्दा वाउला होह १ उवविसह संडाणेसु । खणंतरेण य इओ तओ पलोयंतो संपत्तो परियणो, भणिउं पवत्तो य-भो भो धणदेव ! किमेवमणाउलो चिट्ठसि ? न पेच्छसि आमूलविफुरियफारफुलिंगुग्गारदारुणो दारुदद्दणदीहरसिहाकरालो अनलो घरं दहंतो ? ति । इमं सोचा उडिओ सो गओ घरं माणतुलं । निदसवसारं दिट्ठमगारं । 'खीणविभवो' त्ति परिचत्तो परियणेणं । 'वाउँलो' ति धिकारिओ जणेणं । 1 १ 'तालयित्वा तालकं दरवेत्यर्थः ॥ २णुट्टा ओव प्रती ॥ ३ सउच्छ प्रती समुच्छतिघन पतिकाओ द्वीवदृश्यमानः ॥ ४°भिवमा प्रतौ। निर्भिद्यमान ॥ ५ त्रस्तहृदयः ॥ ६ सिहं मे प्रतौ ॥ ७ संशयष्टिबुद्धिः ॥ ८ तुहिनकणानु विद्गन्धवाद [बाधित] पथिकप्रन्यालितस्तृणराशिवलनः ॥ ९ 'थुरा प्रती ॥ १० संठाणे प्रतौ ॥ ११ आमूलविस्फुरितस्फारस्फुलिङ्गारदारुणः दारुदहन दीपशिखाकरालः । १२ श्मशानतुल्यम् ।। १३ बालः ॥ शङ्कावि चारे धनदेवकथानकम् २ | हेमन्तवर्णनम् ॥ १५ ॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरइओ शङ्कातिचारे धनदेवकथानकम् २। कहारयणकोसो॥ सम्मतपडलयं । अनिवहतो य पट्टिओ पिउघराभिमुहं । छुहाकिलंतो य पविट्ठो एगत्थ सभिवेसे भिक्खं परिभमिउं । 'सुंदरागारो' त्ति अणुकंपाए उववेसिऊण सायरं दिनं से एगाए घरसामिणीए भोयणं । उवसंतखुहावेयणो य नीहरिओ तत्तो। नवरं जाया से संका-अच्चायरदाणेण मुणेमि कम्मणाइदोसदुहूं भोयणमेयं ति । अच्चस्थसंकावसेण य उप्पन्ना उदरपीडा । महाकडेण पत्तो एगम्मि नयरे । आपुच्छिऊण पविडो वेञ्जघरे । सिट्ठो वेजस्स दोससंभवो । दिन्नं उदरसोहणमोसहं से वेजेण । गंगासोउ ब पयट्टो से अईसारो । अणुकंपाए तहावि ओसहृदाणेण पडियग्गिओ किं पि वेजेण । ईसिववगयसंकावियारो य पट्टिओ मग्गे । कालंतरेण पत्तो पिइमंदिरं । तप्पुब्बसमागयपरियणमुहनिसामियसमग्गवुत्तंतेण य पिउणा कया तदुचियपडिवत्ती । अवरवासरे य बद्धाविओ बीयसुयागमणेण सेट्ठी । पट्टिओ य तयभिमुई । कोसंतरमुवगएण निसामिओ बसहकंठघंटारवो। खणंतरेण य पत्तो पउरकरह-गोण-वेगसर-जाण-जंपाणपमुहपहाणसामग्गीए भडनियरपडियरिओ सुओ । पडिओ पिउणो चलणेसु । सामग्गिए चिय मुणिओ से भूरिदबोवअणोवक्कमो । पविट्ठो नयर, जायं वद्धावणयं । सोहणतिहिमुहुत्ते य को सो घरसामी । इयरो कम्मयरकोसु नियुत्तो, निचं पि दुखाभागी य संवुत्तो संकादोसेणं ति । जइ दबओ वि संका संकेयपयं धुवं असिद्धीणं । ता कह जिणुत्ततते सा कल्लाणाई निहणेजा? ॥१॥ अहवा संदेहमहातमोहवामोहिया इहं जीवा । चिंतामणि पि पत्तं चयति ले₹ ति मनन्ता ॥२ ॥ १ सुधाकान्तश्च ॥ २ गङ्गात्रोत इव ॥ ३ 'इगारो प्रती ॥ ४ ओ पत्तो सु प्रती ॥ ५ निसन्यात् ॥ MARRIALSAXXHIBIAS AWARENESKAKAACAKAXXt%CARSA निवडियं कुटुंबाहिवच्चे पइट्ठिऊण अप्पणा सुहेण निचिंतो निवसामि त्ति । पारद्धा परिक्खा, वाहरिया दो वि पुत्ता-अरे ! सुवासहस्सपंचयं घेत्तूण बचह तुम्मे दो वि विभिन्नदेसेसु, दंसेह अप्पणोऽप्पणो दबोवजण[विमाण]-न्ति । पडिवनं तेहिं । पग्गहियपभूयभंडा पट्ठिया देसंतरं । तत्थ जेट्ठो गओ दक्षिणावहं, इयरो य उत्तरावहं। जेडेण कंचीपुरं पत्तेण पारद्धा अणेगदवजणोवाया, कया नरिंदेण समं मेत्ती, उवयरिउमारद्धो य पवरवस्थाईहिं । भणिओ य सहाइलोगेण-अहो! किमेवं निरस्थओ अथवओ कीरइ ? किं केण भुयंगम-महीनाह-हुयासणा उवयारेण गहिया दिट्ठा ? जेणेवं चट्टसि । संवरेण भणियं-अरे मूढा ! तुम्मे न जाणह परमत्थं । जेण गंतवं रायउले राया तबल्लभा य भइयवा । जह वि न वि डंति विहवा नूर्णऽणत्थप्पडीयारो जह पुण धणवयभया न भइनइ भूवई सेइनेण । ता ओहावणठाणं नीयाण वि होइ किं चोअं? ॥२ ॥ इति विणिच्छिय सबुद्धिवियप्पेण अविगणिऊण मुद्धजणुल्लावं तह कह वि पारद्धो ववहारो जह सुखेत्तनिहित्तबीयनिवहो व भूरिफलपब्भारो जाओ । पाविया पसिद्धी । रायमडप्फरेण य उस्सिखला वि गहिय निययलभ इन्भो य भूओ अचिरेणं । ___इओ य धणदेवो गजणयं पडुच्च वचंतो आवासिओ एगत्थ सन्निवेसे । आगया य तन्निवासिणो । मग्गिओ य सो तेहिं भंडं । 'अस्थि केत्तिओ वि लाभो' ति दाउमारद्धो पडिसिद्धो परियणेणं-किमेवं अट्ठाणदाणेणं करट्ठियं पि १ 'प्पणद" प्रतौ ॥ २ 'उपचरितुम' सेवितुम् ।। ३ उपचारेण ॥ ४ 'यारा प्रती ॥ ५ सरत्तेण प्रती । 'सकर्णेन' निपुणेन ॥ ६ 'अपभाजनास्थानम्' निन्दाया: स्थानम् ॥ ७ भावयम् ॥ ८ गनगर्वण च उचाइहालादपि गृहीत्वा निजकलण्यम् ॥ ९ जणयं प्रती ॥ राजकुलपरिचये लाभ: Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरइओ कहारयणकोसो ॥ सम्मत पडलयं । 1120 11 दुविकप्पा चि न कप्पइ काउमिमा दंसणं पवन्नस्स । कृपहपरिच्चागेण हि सुपद्दपवित्ती जणे दिट्ठा न हि भूरिमग्गलग्गो पंहिओ पाउणइ बंछियं ठाणं । न विसे वि अमयचिंता तकअप साहणं कुणइ न य जुत्ता-जुत्तवियारसारवावारविरहिया पुरिसा । अहि[य] चागेण हियत्थसाहणे उज्जया हुति तासचन्नुपणीए किचे चिय समुचिया परं कखा । अभभकुतित्थियवग्गमग्गचागेण अचंतं ॥ ४ ॥ ॥ ५ ॥ ॥ ६ ॥ || 9 || ॥ ८ ॥ भवियकिय विसया विपेक्ख कंखा असंखदुक्खकरी । तविवसमाणसो इह दितो नागदत्तगिही तथाहि —– अस्थि इहेव भारहे वासे वियडजणवड्डियाणंदा वासुपुज्जजिण जम्मण जणियाणेग कलाणा चंपा नाम नयरी । तत्थ य वत्थवो सयंभू नाम वणिओ । पउमाभिहाणा से भजा | ओवाइयस्यसंपत्तजम्मणो नागदत्तो नाम ताण पुत्तो । पाढिओ संजोग्गयाणुरूवं कलाकलावं । जोवणोवगओ य काराविओ समजाइ रुवाइँगुणाए कुलबालियाए सलक्खणनामधेयाए पाणिग्गहणं । कालकमेण य जाओ कुटुंबप भारुवद्दणसमत्थो । अन्या य पिया पारद्धो जराए, असारीकओ रोगेहिं, परिचत्तो बुद्धि-बल-परकमेहिं । तविहो य सो अप्पाणमर्धरमवधारिऊण पुत्तं भणिउं पवतो-वच्छ ! पेच्छसु वुच्छेयपत्तं व मह सरीरगं, अअं कल्लं वा निच्छियं विवजिही, ता एत्थ इमं बत्तवं तुमं हि सप्पुरिसमग्गे अप्पाणं ठचिऊण तहा बडिजासि न जहा कुटुंब मम्हारिसाण मणुसरइ, न वा दुखणाणं हीलापर्यं १ पथिकः प्रगुणयति वान्छितं स्थानम् न विषेऽपि अमृतचिन्ता ।। २ अहितार्थत्यागेन हितार्थसाधने ॥ ३ इय भ° प्रती ॥ ४ "क्ख संखा प्रतौ ॥ ५ उपयाचित- ।। ६ संजो प्रती ॥ ७ इंगणा प्रती ॥ ८ 'अरे' असमर्थम् ॥ वच्चर, किंच बच्छ ! न जाणिजइ कम्मपरिणईए का वि दसा पलट्टर, अओ जह कह विन निच्छारिडं पारेसि कुटुंब ता अम्ह कुलदेवया कालिंजरगिरिपुव सिहर देवउलपइडिया चिट्ठइ तीसे आराहणं करेजासि, अम्ह पुचपुरिसेहिं पि दुत्थावत्थाचडिएहिं आराहिया खु सा बंछियफलया जाय ति । सिरविरइयंजलिणा य 'तह' ति पडिस्सुयं नागदत्तेण । पवन्नभत्तपाणपरिचागो य विवन्नो एसो कयाई तप्पारलोइयकिच्चाई नागदत्तेण । विगयसोगीहए य एसो कालकमेणं पयट्टो पुढपुरिसडिईए अत्थोवजणाइवावारेसु । जाया य दुद्दाभिहाणेण सेडिसुएण सह मेत्ती । समसुह- दुक्खाण य वञ्चति वासरा सरंते य काले तहाविद्दअसुहकम्मोदयवसेण विलोठ्ठा वबसाया, विहडिओ पुरिसयारो, तकरेहिं विद्वत्ता देसंतरगयवणिपुत्ता, दड्ढा धनसंचया, पलीणाई वढिपत्ताई वित्ताई, थोत्रदिणेहिं सो वि अण्णो व परिणओ परियणो । ताण दोन्हं पि जाओ य परोप्परं एगते आलोचो – अहो ! नूणमवरभवे समगं चिय कयं किं पिकम्ममणुचियं, जप्पभावेण तुज्झ ममं पि एककालमावडियमिमं निवाहसंकर्ड । दुद्देण भणियं - ता को एतो उवाओ ? कत्तो वा परित्ताणं ? किं वा कथं सुकयं वइ ? बाटं मूढं मह मणं न किं पि दडुं पार, किं बहुणा ? संपइ अप्पाणं पि दुहावहमह[म] वगच्छामि; अहवा ता किं चोलं भन्नइ जं मन्नइ निद्वणत्तणं च जणो १ अप्पा वि हु अप्पाणं कप्पइ पहपंसुपडितुलं ॥ १ ॥ पूरणमेत्तपवन बुहाण हासप्पयं पवचन्तो । सहो व अत्थरहिओ अवगिजह किं पुण मणूसो ? ॥ २ ॥ १ निस्वारयितुम् ॥ २ चायगो प्रतौ ॥ ३ व्यस्ता व्यवसायाः ४ चत्तो प्रतौ । ५ शब्द निरर्थकः अन्यत्र धनरहितः ॥ काङ्क्षातिचारे नागदत्तकथा नकम् ३ । ।। १७ ।। निर्धनत्वम् Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभरिविरइओ काहातिचारे नागदत्तकथानकम् ३॥ कहारयणकोसो ॥ सम्मत्तपडलयं । सा बुद्धी सुविसुद्धा तमिंदियाणं बलं अविकलं च । बयणं पितं चिय फुडं जणप्पसिद्धं तमभिहाणं ॥३ ॥ सो चिय पुरिसो दीसंतकंत-सुविभत्त-सुंदरावएयो । अन्नो खणेण जायद धणहीणो ही! महच्छरियं ॥ ४ ॥ इय गंरुयविसायविसप्पमाणमाणाइरित्तवयणपहं । दुई पलोइउं नागदत्तवणिओ इर्म भणइ भो मित्त ! परिचय चित्तसंतावं, अस्थि पुवकालदियो पिउवएसो, जहा-जया न नित्थारिउं सकसि सकुटुंब तया कालिंजरगिरिट्ठियं कुलदेवयमाराहेजासि, सा हि दिद्वपञ्चया पुचपुरिसाण विदिमवंछियत्था आसि, ता होउ वियप्पकल्लोलजालेण, तं चेव भगवई ओहामियकप्पतरुलयं गंतूण आराहेमो ति । भणियं दुहेर्ण-एवं कीरउ, ममावि अस्थि तत्थ कुवेरो नाम जैक्खो कुलदेवो, अहं पि तमाराहिस्सामि त्ति । कयनिच्छया पडिग्गहियपाहेजा य निग्गया दो वि घराओ । पइदिणगमणेण य पत्ता कालिंजरपवयं । दिईच अणेगतरुजाइजायसोहं हंस-सारस-सुयसउतसंकुलं भमिरभमरनियरज्झंकॉरकारमणहरं एगमुववणं । दुदेण भणियं-अहो! रमणीयया, अहो! परियोगपिसंगफलभरोणमियसाहया, अहो । संबोउयकुसुमसोरभनिन्भरया काणणस्सा अवि य रंभाभिराममुम्भडचित्तसिहंडिं सिणिद्धसर्ससंकं । सग्गं व उववणमिमं पेच्छह सुमणोहरमणिजं १ गुरुकविषादविसर्पन्मानातिरिकवचनपथम् ।। २अभिभूतकल्पतरलताम् ॥३जक्वक प्रती ॥४संकारक्रियामनोहरम् ॥ ५परिपाकपिशनकलभरावनतशालता ॥ ६ सर्वतुक- ॥ ७ अत्र गतानि लिष्टपदानि स्वर्गपझे उपवनपक्षे च कमेण योग्यानि-एकत्र रम्भया-रम्भाभिधयाऽसरखाऽभिरामम्, भन्यत्र रम्भाभि:-कदलीभिरभिरामम् । उदाः चित्रशिसण्डिनः-सप्तर्षयो यत्र तम्, अन्यत्र उद्भटाः चित्राक्ष शिक्षण्डिन:-मयूरा यत्र तत् । एकत्र CAKKAKKAKAXCAKA ॥१८॥ उपवनवर्णनम् ॥१८॥ SKARARINAKARMARRIASISEXAMRIKNIRRORRENA शकात्यागो पदेशः परमगुरुमुखाजाधिगते तच्चजाते, य इह कलुपबुद्धिमुखति स्वल्पसच्चः । विमलसलिलपूणों मह मुक्त्वा तडार्गी, स सरति मृगतृष्णाया। सरस्तुदपराद्धः ॥ १॥ मृषावदनकारणं भवति राग-मोहोदयः, स च त्रिभुवनप्रभावपगतः क्षयं सर्वथा । तदेवमपि शकते य इह कोऽपि तुच्छाशयः, स वाञ्छति हुताशनादमृतवारिशल्यक्रियाम् ॥ २ ॥ वैद्यमाप्तमवबुद्ध्य रोगवान् , तद्वचोऽपि यदि जातु शकते। मेषजं विदधदप्यनारतं, किं तदा ब्रजति कोऽप्यरोगताम् ? ॥ इति त्यक्ताशङ्कः सकलमपि सर्वज्ञवचन, तथा चिचे दध्यात् स्पृशति न यथा संशयरजः। यतः सूर्योऽपाच्यामुदयमुपयायादपि शिव, विजधुर्वा सिद्धा न च भवति मिथ्या जिनवचः ॥ इति श्रीकथारत्नकोशे सम्यक्त्वातिचारचिन्तायां शङ्कादोषे धनदेवकथानकं समाप्तम् ॥ २ ॥ निस्संकिए वि सम्मे कंखा तब्भावघाइणी नेया । अमनदसणगहो सरूव एवं इमीए जओ ॥१ ॥ देसे सोय दुहा एसा देसम्मि दसणं किं पि । एग कंखेह कविलाइसंतियं भवमेयं ति ॥ २ ॥ सो सबमयाई कंखर पुण संसिया इहं भावा । दाण-उज्झयणाईया एएस वि ते समा चेव ॥ ३ ।। १ त्रिभुवनप्रभौ अपगत इति सन्धिच्छेदः ॥ २ यदि यातु सङ्केते प्रतौ ॥ ३ सम्म प्रती । सम्यक्त्वे ॥ ४ सम्यक्त्वभावघातिनी ॥ ५ 'कालते' समीहते ॥६'शंसिताः' कथिताः ॥७'णाड्या प्रती ॥ R+KA+KACANCCACACAR काशायाः स्वरूपम् Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमद्दसारित विरइओ Art काहातिचारे नागदत्तकथानकम् । कद्दारयणकोसो॥ सम्मत्तपडलयं । मंतरमंदिरं, कयं पांडिचरणं, जायाई दस लंघणाई, न लद्धं पडिवयणं, 'इयाणिं किं करेमि ?' ति पडिवण्णो वाउलत्तणं । एत्यंतरे निच्छयवससमासाहयसमीहियदेवयावरो उवडियभद्दो संपत्तो दुद्दो । साहिओ गेण नागदत्तस्स नियवुत्तो । सविसायमियरेण वि अप्पणो ति । दुद्देण भणियं-अलमइकंतउकित्तणेण, एहि, संखा उवलक्खियपचयं भयवंतं कुबेरजक्वमणुसरामो । 'तह' ति उवडिओ नागदत्तो । गया कुवेराययणं । पारद्धो लंघिउं एसो । नवरं अविच्छिन्नमतपरिचायसोसियसरीरत्तणेण सासाबसेसो जाउ-त्ति आर्दैनो, किंकायबयावाउलो य भणिओ सो इयरजणेण-अहो! किमेवं खयमुवेतमुवेक्खसि ? न देसि किं पि भोयणं ? किं न सुयं तुमए 'जीवंतो नरो भद्राणि पश्यति' इति ? । पडिवनेणं दुद्देणं काराविओ मुग्गजूसो । अणिच्छतो वि भुंजाविओ नागदत्तो । कइवय[दिण]भोयणजायसरीराबटुंभो य भुजो लंधिउमुच्छेहंतो वुत्तो लोएण-भो! मुंच ताव इममभिप्पाय, अणुसरसु ताव नियमंदिरं, कइवयदिणावसाणे पुणो वि विसिट्ठसउणचलोवलंमे इममत्थमणुढेआसि । तओ नियत्तो नागदत्तो दुद्देण समं सगिहाभिमुहं, पत्तो य कालकमेणं, परितुट्ठो कुटुंबजणो, कओ से मजणाइउवयारो, उवखडिया महाभक्खभेयमणहरा रसबई । 'चिरकालोवलद्ध' ति परिभुचा कंक्वाइ| रेगेण, रयणीए पडिओ विसूदगादोसेण, वमण-विरेयणाइमहाविमद्देण पउणीकओ बंधुवग्गेण । एवमेसो कंक्खाविखिप्पमाणमाणसो देवयावरविरहेण दुक्खिओ जाओ । इयरो य न तह त्ति । पुचभवावजियगरुयपावपम्भारविणियप्पाणे । [...] वे सिटे जोगस्स ठंति...............रेण ॥१॥ १ 'प्रतिवरण' सेवा ॥२ अलमतिकान्तोत्कीर्तनेन ॥ ३ साक्षात् ॥ ४ चिन्तातुरः ॥ ५ उत्सहमानः ॥ कुटुंब प्रती ॥ ७ सपस्कृता ।। ॥ १९ ॥ stetten ॥ १९॥ CORRECORKINGENGAGAKKAKKAKASONG कासात्यागोपदेशः अपि च-चापल्यशल्यविहतो हितमप्यपास्य, पश्यत्यवस्त्वपि हि वस्तुधिया विमूढः । हत्पूरचूर्णपरिभोगवशेन यद्वत्, क्लिष्टोऽविशिष्टमुपलाद्यपि हेममत्या ॥१ ॥ कल्पद्कल्पमवधूय जिनेन्द्रधर्म, धर्मान्तराण्यपि जिघृक्षति यः सुखाय । निर्मूलपारमुपेन स वारिराशिं, मन्ये तितीर्षति विमुच्य मनीष्टनावम् ।। २ ॥ लोकेऽपि कार्यमसमाप्य किलैकमन्यदारिप्सुरन्यतमदप्युपलीयमानः । विज्ञोपहासपदविं च मुधा श्रमं च, कार्यक्षितिं च परमुप्यति (2) फल्गुचेष्टः ॥३॥ इत्याप्तदृष्टसुविशिष्टविचारभारनिर्वाहिमागेहूँढनिश्चयलीनचित्तः। चिन्ताब्यतीतशुभसम्पदमप्यवाप्य, संसारपारमचिरात् समुपैति सश्य: ॥४ ॥ ॥ इति श्रीकथारत्नकोशे सम्यक्त्वचिन्तायां द्वितीयातिचारप्रक्रमे नागदत्तकथानकं समाप्तम् ॥ ३॥ संका-कंखाहि अखंडिएं हि सम्मम्मि सवहा बजे । विसंवच्छच्छायं पिव विचिकिच्छ किच्छसंजणणी ॥१॥ देसे सबे य इमा देसेऽणुढाणमेगमासंके । सफलमफलं व होञ्ज ति सबओ सबमासंके ॥ २ ॥ १ तप्रेण, लच्या नावा वा ॥ २ मभीए प्रती । पृषोदरादित्वात् मनीषामनीषितादिशब्दप्रयोगवद् मनीष्टप्रयोगसिद्धिः । मनोऽभिमसनावमित्यर्थः ॥ ३ आरम्भुमिच्छुः ॥ ४ 'रनि प्रती ॥ ५ 'एहिं स प्रती ॥ ६ विषवृक्षच्छायामिव । AKHANH विचिकित्साया: स्वरूपम् Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 देवभद्दसस्ट्रि विरहओ कहारयणकोसो॥ सम्मत्तपडलयं। ॥२०॥ विचिकि*त्सातिचारे गवसुम६ त्योः कथा नकम् ४॥ % सवन्नुवयणसमणुब्भवंतनिम्मलविवेगजुत्ताण । संत्ताणमणुचिया सा दुविहा वि दुहावहा जेण जिणवुत्तमणुट्ठाणं विसिट्ठफलयं ति कीरइ अवस्सं । तत्थ वि संसयभावो न भाविभदाण संभव ॥४ ॥ इयरे वि अणुट्ठाणे किं पि फलं दिट्ठमेव पञ्चक्खं । ता जिणभणिए वि तहिं संदेहो ही ! महामोहो ॥ ५ ॥ किंचजे किर किसीवलाई फलसंसइणो किसिं विलंबंति । अविकलकारणभावे वि सेस्सभागी न ते इंति ॥६॥ एवमणुट्ठाणमिणं फलसंसयगम्भिणं पकुवंता । दुकरयं पि हु तप्फलविर्वजिया ते विसीयंति अहवा विउँणो मुणिणो तदंगमलिणाइसंमविदुगुच्छा। विउगुंछ त्ति इमा वि हुपडिवक्खो कुसलपक्खस्स ॥८॥ उभयसरूवं पि इमं जे नो वजंति वञ्जपडिहच्छा । गंगो व वसुमई विव इयं चिय ते दुही हुँति ॥९॥ तथाहि-अस्थि भारहवासविसेसयतुल्ला महामुल्लविचित्तपणियसाला कुणाला नाम नयरी । तहिं च लोयववहाराणुसारिसारधम्मत्थाणुकूलवावाराणुरत्तचित्तो बंभदत्तो नाम सेट्टी। सीमंतिणीजणसमुचियगुणमाणिकावट्टियमंडणा चंदणा नाम भारिया । गंगाभिहाणो य ताण पुत्तो, वसुमई य धूया। गाहियाणि समुचियकलाकलावं, जोवणमणुपत्ताणि य वीवाहियाणि दोनि वि समुचियकुलेसु । अभया य रइहरपसुत्तस्स गंगस्स परिणी डंका समुकडविसेणं विसहरेणं । मीलिया मंतवाइणो, पारद्धा विसोवसामणो १-श्रवणोद्भवत्- ॥ २ सत्वानामनुचिता ।। ३ जिनोक्तमनुष्ठानम् ॥ ४ कृषीवलादयः फलसंशयिनः कृषी विलम्बन्ते ॥ ५ सस्य-धान्यम् ॥ ६ °वजया प्रतौ ।। ७ विद्वांसः ॥ ८ 'गुच्छति " प्रती। विद्वज्जुगुप्सा इति ॥ ९ वयं-पापं तेन परिपूर्णाः ॥ १० विव इनार्थ ॥ ११-तिलक-॥ १२ वटा ॥ ARAKARISHNUARCH बहुँरिट्ठमरिढाउलमपलासं गुरुपलासपडहच्छं । दीसंतसत्त्पन्न पि भूरिपन्नं च सहइ वर्ण ॥ २ ॥ एवंविहं तमुजाणमवलोयमाणा गया एगं सरोवरं, कयं मजणायकिच्च, गहियाई कमलाई । गओ कुबेरजक्खाययणं दुद्दो, इयरो य नियकुलदेवयाहरं । पूँहया भगवई, अटुंगपणिवायपुरस्सरं च संथुया सायरं भणिया-देवि ! अम्ह पुत्वपुरिसेहि पि तुममाराहिया तेसिं वरदा जाया, ता ममासि तुममेव सरणं दोगचंचकर्कतस्स, न य तुह पसायमंतरेण भुंजामि-त्ति कयनिच्छओ कुससस्थरमारुहिऊण पंजलिउडो पज्जुवासिउमारद्धो। जायाणि पंच लंधणाणि, न किंचि दिनमुत्तरं देवयाए। पारद्धे य छटे लंधणे आगओ एगो पुरिसो, पुच्छिओ य नागदत्तो तेण-भो! किमेयमारद्धं ? ति । सिट्ठो अणेण संवुत्तो। तेण भणिय-हा मूढ ! कीस अप्पाणं किलामेसि ? मुंच एवं कट्ठदेवयं, लग्गाए मम पट्ठीए दंसेमि जणविदिनवंछियत्थं सिद्धत्थामिहार्ण देवं एत्तो अदूरट्ठियं ति । अथिरतणेण पडिवअमिमं नागदत्तेण, गओ तेण [सदि] सिद्धत्थवाणस्निग्धेन शशाढेन-चन्द्रेण सहितम् , अन्यत्र स्निग्धाः शशा:-शशकाः स्वाधे-मध्ये यत्र तत् । एकत्र समनसा-देवानाम् ओघेन-समहेन रमणीयम् , अन्यत्र सुमनसा-पुष्पाणामोघेन रमणीयमिति ॥ ८ ससंखं प्रती ॥ १ अत्र यद् बहुरिष्टं भवति तत् कथम् 'अरिशकुलं' न रियाकुलं भवति? इति विरोधः, परिहारस्त्यत्र-बहयो रिपक्षा यत्र, अरिष्ट:-काकैवाकुलम् । तथा यद् 'अपलाशे' पलाशरहितं तत् कथं गुरुपलामीः पडदच्छ-प्रतिपूर्ण भवतीति विरोधः, तत्परिहारः पुनः-'भपरासं' कोलाहलवर्जितं नीरवं शान्तियुक्तमिति यावत्, गुरुभिष पलाशवृक्षरुपेतम् । तथा य रश्यमानसप्तपणे कथं तद् भूरिपर्ण भवति इति विरोधः, परिहारस्तु-दृश्यमानाः सप्तपर्णाख्या वृक्षा पत्र, पुनव भूरिपत्राख्यं पासं यत्र तत् । एतादर्श बर्न राजते इति सष्टकः ॥ २ मजनादिकस्यम् ॥ ३ पूर्वया प्रती ॥ ४ दौर्गत्यचक्राकान्तस्य ॥ ५ सखुचं प्रती । स्ववृत्तान्तः ॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसरिविरइओ कहारयणकोसो॥ सम्मत्तपडलयं । ॥ २१ ॥ विचिकित्सातिचारे | गङ्गवसुमत्यो कथानकम् ।। किमसकिरण कीरह जो तिणभंगे वि दूरमसमत्थो ?। संको वि परुवयार अंबहीरइ ही! कहिं जामो? ॥२॥ अवगनियसविणासा फलप्पयाणं पराण कुवंता । ही ! कत्थ पेच्छियचा रंभार्थभ व सप्पुरिसा? ॥३॥ अच्चतमणुचियमिमं महप्पभावो वि जइ तुम कुणसि । सच्छंदं कलिकालो ता वियरउ दूरमविरामं ॥४॥ इमं सोचा मंतवाणा भणियं-भो भो! बाढं लजिउ म्हि किलिट्ठचेट्टिएणं, ता विरम सप्पुरिसमग्गाणुकित्तणाओ, कत्थ जलही ? कत्थ गोपय ?, कत्थ सुराचलो ? कत्थ परमाणू ?, कहिं सप्पुरिससमायारो ? कहिं वा अम्हारिसो कीडकीडाविडंबणामेत्तो ?, अओ भद्द ! एसा तुह गिहिणी भइणि व निचं मह घरे द्वाही ताव जाव तुमं किं पि कत्तो वि मंतसिद्धिं मम उवाणिस्ससि, पच्छा इमं घेतूण सघरं बच्चेञ्जासि, जया वि य किं पि मंतसिद्धिं लहसि तदा आपुच्छिऊण पाडलिपुत्तनयरे देवधरमतवाइणो घरं एजासि, मा काहिसि संदेहं-ति संबोहिऊण तब्भजासमेओ सिग्घवेगेण गंतुमारद्धो मंतसिद्धो । सविलक्खो य पडिनियत्तो इयरो । सिट्ठो अणेण एस वइयरो' अम्मा-पिईपमुहलोगस्स । तेहिं भणियं-पुत्त! मा संतप्प, अचं कन्नगं गमिस्सामो ति । तेण भणियं-अस्थि एवं, तह वि अणुरत्तजणोवेहणं दूरमणुचियं । तुसिणि पवनो य सयणवग्गो । गंगो वि किं पि पाहेजमादाय अजाणिजंतो केणइ रयणीमज्झसमए नीहरिओ घराओ, अखंडियपयाणगेहिं देसंतराइं भमिउमारद्धो । पज्जुवासिया १ किम् अशकेन कियते ॥ २ शक्तः ॥३अवधीरयति ॥ ४ कदलीवृक्षो हि फलजननानन्तरमवश्यं विनश्यतीत्येवमुक्तिः । ५ निच मह प्रतौ ॥ ६ यरं अ प्रतौ ॥ ७ निःसूतः ।। ॥ २१॥ XICARREARSA KAKKAKAMAKICKASAKARAAKASARAMATKARS 36 य के वि कईि पि मंतवाइणो, समासाइया य तेहिंतो के वि उवएसा, परं न चित्तक्खेवकारिणो जाया । तओ सो गओ उडियाययणविसयं । ठिओ तत्थ एगम्मि सबिवेसे एगाए कुटुंबिणीए घरेगदेसे । तीसे य कुडंबिणीए चत्तारि डिंभाणि अचंतचवलाणि खेत्ते कम्मकरणत्थं गच्छंतीए विधायं कुणंति । ततो सा सिद्धमंतसामत्थेणं विसहरं बाहरिऊण ताणि डसावेइ, विसमुच्छानिचेट्ठाणि य घरभंतरे खिविऊण गिहदुवारं दढं संजमिऊण खेत्तं बच्चइ । कम्म काऊण य पडिनियत्ता जलच्छडाखेबमेत्तेण डिंभाणि सभावस्थाणि करेइ । तं च पहदिणमेवंकुणती दट्टण विम्हिओ गंगो चिंतेइअहो ! न एसा सामन्नमहिला, ता एस चिय सवायरेण ओलग्गिउं जुत्त-त्ति लग्गो एसो तीए सबप्पयारेण आराहणं काउं । कइवयदिणेहिं य अच्चंतविणयकम्मसमाराहियहियया सा भणिउमाढत्ता-पुत्त ! किमेवमगुणा[ए] वि तुम मएवं वसि ? सबहा दूरमांगरिसियं मम चित्तं, ता साहेसु किं पि पओयणं ति । गंगेण भणियं-अम्मो! किं साहेमि ? बाद उच्चारित्रं पि न पौरियइ । तीए जंपियं-वच्छ ! निरुबिग्गो साहेसु जहट्ठियं । तओ तेण सबो वि सिट्ठो नियवइयरो । तीए य इमं सोचा जंपियं-बच्छ! मा ऊसुगो होसु, तहा काहं जहा पुनवंछियत्थो घरं वचसि त्ति । गंगेण भणियं-न दुल्लहमिमं तुह पायपउमपसाएण | अह सोहणतिहिमुहले अट्ठन्हं पि नागकुलाण काऊण पूर्य दिना नागोहवण-विसविणासणपरमविजा । कहिओ साहणविही, जहा-किण्हचउद्दसीए मसाणे एगागिणा अट्ठोत्तररत्तकुसुमजावसहस्सेण एसा साहियबा, सरिजंतीए य इमीए १परन परचित्त प्रती पाठः ।। २ स्वभावस्थानि ॥ ३ महिप्पा, ता प्रती ॥ ४ मया एवम् ॥ ५ आकर्षितम् ॥ ६ पिं प्रती ॥ ७ पार्यते॥ ८ "हणाति" प्रती।। २. नागाहानविषविनाशनपरमविद्या ।। १०-आपसहरण ।। ११ स्वियमाणायाम् ॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरहओ कहारयणकोसो।। सम्मत्तपडलयं। विचिकिदोत्सातिचारे गङ्गवसुमत्योः कथानकम् ४। नागवर्णनम् विजाए भुयंगवग्गा सरीरं बाढमभिद्दविस्संति, न य 'थेवं पि भाइयत्वं । ततो सो सम्ममाराहणविहिं विजं च अवैधारिऊण कयतप्पायवडणो नीहरिओ, गओ पाडलिपुत्तं। पउणीकया विजासाहणविही, गओ मसाणं, जहोवइट्टट्टिईए विजं सुमरिउं पवत्तो । एत्थंतरे सिंदूरारुणलोयणफुरंतपहपडलपाडलियगयणा । मुहकुहरुग्गिरियफुलिंगफारजलणच्छडाडोवा ॥१ ॥ उभंडभिडंतफणफलगफडफडारावमुहरियदियंता। पइखणविमुक्कफुक्कारपवणकंपावियवर्णता ॥२॥ मेहर्मसिणगुरु[यर] देहदंडडामर-डसंतजियलोया। दिसिविदिसिमुहेहिंतो भुयगा नीहरिउमारद्धा ॥ ३ ॥ अहँ पलयखुभियकालोयजलहिकल्लोललोलगुरुदेहे । ते दवन्ते दह भीओ गंगो विचिंतेइ ॥ ४ ॥ सबहा न जुत्तं मंतसाहणमिमं काउं, को जाणइ कयंतचक्खुविक्खेव व दारुणा इमे भीम भुयंगमा समीवमुवागया कि पि कुवंति? फलं च संसइय, एए पुणनिच्छेियं डसिउंविणासमुवणिति, अणत्थं संसओय निवित्तीए अंगमुवइसंति विउणो, ता अलं संदिद्धंफलसिद्धिणा सुहपसुत्तकालकेसरिपबोहकप्पेण वेजासाहणेणं ति । संहरिओ तदाराहणोवकमो। वेगेण पलाणो सघराभिमुहं । १ थेवं भि भा प्रतौ ।। २ अकधा प्रती ॥ ३ सिन्दूरारुणलोचनस्फुरत्प्रभापटलपाटलितगगनाः । मुखकुहरोद्गीर्णस्फुलिनस्फारज्वलनच्छन्टाटोपाः॥ ४ उद्भटददफणाफलकस्पाढत्स्फटारावमुखरितदिगन्ताः । प्रतिक्षणविमुक्तफुत्कारपवनकम्पितवनान्ताः ॥ ५ इक्वण" प्रती ॥ ६ मेघमसणगुरुतरदेहदण्डभयङ्करदराजीवलोकाः । विविदिग्मुखेभ्यो भुजगाः निस्सर्तमारब्धाः ॥ ७ अथ प्रलयक्षुब्धकालोदजलधिकलोललोलगुरुदेहान् । नान् 'द्रवतः' उपद्रव कुर्वाणान् दृष्टा भीतः गाः विचिन्तयति ॥ ८ "वत्तो द" प्रतौ ।। ९ 'च्छिउँ ड प्रतौ ॥ १० विट्ठफ प्रतौ ।। ॥२२॥ HARASHANAANANASANASHEKHAWACANCREAKINAAtta HिARKHACKGROCCORECASEKACACANCIECACACACAKRA वाया । वियाणियदुद्रुकालदह्रविसविगारवइयरेहिं य पच्चक्खाया तेहिं । 'विवन्न' तिनीया मसाणं, विरहया [चिया ] | तहिं च जावे सबमारोविजइ ताव कत्तो वि अवत्तलिंगी सरीरच्छायावसमुणिजंतमाहप्पविसेसो पत्तो तमुद्देसं एगो पुरिसो । तेण भणियं-अहो ! महापावं जमेवं जीवंती वि चियाए आरोविजइ त्ति । तं च सोचा विम्हइयमाणसेण आबद्धकरसंपुडं भणियं जणेण-भो महायस! कुणसु पसाय, देसु पाणभिक्खं जइ अस्थि किं पि परिमाणं । तेण जंपियं-अस्थि परिमाणं, केवलं जमहं मग्गामि न तं तुब्मेहिं दाउं सकिस्सह । जणेण भणियं-अलं बियप्पेण, जं मे रोयइ तं दुल्लहं पि मग्गसु जेण देमो ति । तेण भणियं-जह एवं ता इमं चेव इत्थियं देह जेण पैगुणं करोमि ति । 'जहा तहा जीवउ बराईणि' त्ति अकामेण वि पडिवनं जणेण । ततो सलीलमुक्कहुंकारमेत्तेण पणडनीसेसविसविगारा अंगभंग कुणंती सुत्तपबुद्ध व उट्ठिया एसा । अहिट्ठिया य मंतवाइणा । सविम्हयमवलोयमाणस्स वि जणस्स तं घेतूण गओ जहाभिमयं । सविलक्खो य सदुक्खो य गओ जणो सगिहेसु । बाद अमरिसिओ गंगो, तह वि 'उवगारि' ति सपणय मंतवाइणं जंपिउमाढत्तो-भो महापुरिस ! न कुप्पियवं, भणामि किं पि नियजीवियवएण वि परकजे उजयाण धीराण । थोब चिय बज्झपयेत्थसत्थसंपाडणपवित्ती ॥१॥ १ विज्ञातदुष्टकृष्णसपैदष्टविषविकारयतिकरः ।। २ व जवमा प्रती ॥ ३ शरीरक न्तिवशज्ञायमानमाहात्म्यविशेषः ॥ ४ स्सह प्रती । शक्यते ॥ ५ पमुणं प्रतौ ॥ ६ "इणि ति प्रती ।। ७ सुद्धपबु प्रती ॥ ८ अमर्षितः ॥ ९ यच्छस प्रती। बाह्यपदार्थसार्थसम्पादनप्रवृत्तिः ।। सत्पुरुष मार्गः Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभइसरिविरहओ कहारयणकोसो। सम्मचपडलयं । ॥२३॥ विचिकित्सातिचारे गङ्गवसुमत्योः कथानकम् ४॥ देवधरस्स । तस्सामत्थेण य जाओ एसो तिकालजाणगो । 'विसिट्ठसत्थलाभहेउ' ति वत्थाइदाणपुवगं च समप्पिया णेण गंगस्स भञ्जा । विसजिओ एसो गओ सट्ठाणं, सलहिओ पुरजणेणं, परितुट्ठा अम्मा-पिउणो । एगम्मि य दिणे रुयमाणी समागया ससुरघराओ धूया वसुमई। पुट्ठा य अम्मा-पिऊहिं-पुत्ति ! केणइ तुह किं कयं ? । तीए जंपियं-अम्म-ताय ! ससुरजणो निसग्गवेरि व ममं बाहइ, निच्चमुचियकिच्चकारिणिं पि वेरिणि व पेच्छइ, संपयं च न याणामि केणइ कारणेण निद्धाडिय म्हि सगिहाउ ति । अम्मा-पिऊंहिं भणिय-पुत्ति ! वीसत्था होसु, पुवकयदुकयजणियदुग्गदोहग्गदुविलसियमिम, ता सगिहे वियं धम्मपरा परिवालेसु कड़वयदिणाई, जाव किं पि नेमित्तियमापुच्छिय तदुचिओवकममणुचिंतेमो ति । अत्रया य सो देवधरो चूडामणिनाणमुणियनट्ठ-मुंह-चिंताइपयत्थो कोऊहलियाणेगनरिंद-सेट्ठि-सेणावइपमुहपहाणलोयाणुसरिजमाणो समागओ तं पुरं । सुंदरफल-फुल्लाइदाणपुरस्सरं पुच्छिओ। एगग्गचित्तेण सम्मं परिभाविऊण सिहूं, जहाएसा तुह भइणी पुत्वभवे साहूणं निप्पडिकम्मसरीराणं मलाविलसरीरत्तणेण विसप्पंतासुहगंधाणं 'धी! धी! इमे ति दुगुंछ काऊण निकाइयदोहग्गदोसा एवं वट्टइ, उवसमोवाओ य जम्मंतरे परं भावि ति, ता वच्च सगिह, मा भूय-पिसायाइदोससंभावणं काहिसि त्ति । गओ गंगो। सिटुं तदुवइहूं । निदिउमारद्धा अप्पाणं भइणी । गंगो वि तहाविहविजालाभफलचुक्को परं सोगमुवगओ ति। १ "पिऊणि भणि प्रती ॥ २ बिय इति वार्थकमव्ययम् ॥ ३ "मुट्टिचिं' प्रती ॥ ४ भावि ति ति प्रती ॥ KARNERBASNAWARANANARASIRRORStech WARNIRNAR+S+RKKRAKANHAKAKKARAN 1॥२३॥ इह कुसलपक्खविक्खेवदक्खसम्मोहनिम्महियमइणो। निद्धाडिंति उविंति लच्छिं हणिऊण डंडेण ॥१॥ चिरकालं वसिय भवकारागारसनिरुद्धेहिं । मन्ने हं दुनयनिविडनिगडनडिएहिं जीवहिं ॥२॥ किश्च सस्वर्ण-रत्नपरिपूर्णमपि प्रधान, रिक्तं तदेतदिति वर्जयते निधानम् । निधेतनाक्षफलमित्यवबुध्यमानः, कल्पद्रुमं च स समीहत एव हातुम् तिर्यग् विवेकविकला तदियं कथं स्यात्, कामप्रदेति स निरस्यति कामधेनुम् । चिन्तामणिं च स तिरस्कुरुते किमेष, भाषानुरूपवपुषा वितरिष्यतीति। ॥२॥ यो भूत-भावि-भवदर्थविवोधबन्धुकैवल्यवञ्जिनविनिश्चितमुक्तिमार्गम् । वैफल्य सङ्कथवशेन विदां जुगुप्सासम्पादनेन यदि वा विगुणं मिमीते ॥३॥ इति गतविचिकित्सः स्वः-शिवश्रीगृहेषु, व्रत-नियम-तपस्या-दान-दीक्षादिकेषु । प्रतिदिवसविधेयेष्वन्वहं योजितात्मा, भवति भवसमुद्राद् द्राग् बहिर्नात्र चित्रम् ॥४ ॥ ॥ इति श्रीकथारत्नकोशे सम्यक्त्वचिन्तायां तृतीयातिचारप्रक्रमे गङ्ग-वसुमत्योः कथानकं समाप्तम् ॥४॥ बिचिकित्सात्यागोपदेशः २ लच्छि प्रती ॥ ३ 'मीडित प्रती ॥ 'यसकथनवसेन प्रती ॥ १ काळपक्षविपक्षयम्मोहनिर्मथितमतयः ॥ ५ "विवियेस्बन्ध प्रतौ ॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभरिविरहओ कहारयणकोसो। सम्मतपडलयं । म्हरष्टित्वातिचारे शङ्ककथानकस् ५। पुम्बुत्तदोसरहिओ वि सम्मभावम्मि बद्धलक्खो वि । असदज्झवसायकरं उजिाजा मूढदिद्वित्तं ॥१॥ दिट्ठी य दसणं इह सा मूढा जस्स मूढदिट्ठी सो । तीए पुण मूढत्तं कुतिरिथरिद्धीण दंसणओ ॥२ ॥ रिद्धी य अणेगविहा विउवणा-वोमंगमणमाईया । मंताइसिद्धरूवा व लोय-निवपूयणाईया ताओ दई विट्ठी भुज्झह जस्सेह मूढदिट्ठी सो। गुण-गुर्णिअमेयभावा अइयारचेण विचओ ॥४ ॥ पेच्छह कुतित्थियाणं असंजयाणं पि रिद्धि-सकारा । ईसि पि न तह अम्हाण सुमुणिमग्गं गयाणं पि किं मन्ने जिणसासणमंहुणातणर्मणतिसाइसिटुं वा । इय कुँवियप्पुप्पीलुप्पेल्लियहियया हि मुझंति न मुणति हुंडेसप्पिणि-सम-भासग्गहाइदोसामओ । गयड्सणं पि सबन्नुसासणं न तह जणपुज ॥ ७ ॥ जह कह वि अबुहबहुलोयजोयओ पूहयं कुतित्थिमयं । जिणसासणं तु न तहा, किमेतिएण वि तमवगीय? ॥८॥ जई गुणगयाण माणो, बहुओ जाओ नरो न रयणस्थी । ता किं तमेत्तिएण वि पत्तैमवत्धुत्तणं किं पि? ॥९॥ इहलोइयत्थलवमेत्तपेहणुप्पनदिहिवामोहा । संखो इव सम्म चयंति तो हुँति दुहभागी ॥१०॥ १ समभा' प्रती ॥ २ विकुणाव्योमगमनाविका ।। वाम प्रतौ ॥ ४ "णियमें प्रती ॥ ५ अधुनातनम्' अर्वाचीनम् । 'अनतिशायिशिर्ट' सामान्यजनोपदिष्टम् ।। ६ "मणिति प्रतौ ॥ ७ विकल्पोत्पीडोत्प्रेरितहदयाः ॥ ८ "लुपेलि प्रतौ ॥ ९ हुण्डावसर्पिणीदुष्यमाभस्मग्रहादिदोधात् । साम्प्रतीनोऽवसर्पिणीकालः सार्वदिकावसर्पिणीकालापेक्षया निकृष्टतम इत्यसो हुण्डावसाणीत्वेनोपलक्यते ॥ १० किमेतावताऽपि तद् 'अवगीत' नि । १० किमतावताऽपि तद् 'अवगीत' निन्वितम् ।। ११ यदि गुणगजेषु 'रदनाची दस्तिदन्तार्थी नरा 'बरका मानः' बहुमानयुको न जातः तत् किं तदेताचताऽपि [गजाना] प्राप्तमवस्तुत्वं किमपि अपि तु न इत्याशयः ॥ १२ एत्तमवधुत्त प्रतौ ॥ १३ दलौकिकार्थलबमात्रप्रेक्षणोत्पनरष्टिव्यामोहाः ॥ १४ 'वामोदो प्रती ।। मूढदृष्टित्वस्वरूपम् ॥२४॥ |॥२४॥ KIRATRAKARINEERINKIRATRAINIKRA अवरवासरे य लोयापुच्छणेण जाणिऊण पुन्बुत्तदेवधरमंतवाइणो मंदिरमुवगओ एसो । पचभिचाओ य मंतवाइणा।। कया समुचियपडिवत्ती । जाओ परोप्परं समुल्लावो । भणिओ य गंगेण मंतवाई, जहा-गिण्हसु भो ! भुयगायड्ढणि सुमरणमेचणं चिय तबिसविधाइणिं च परमविज, समप्पेसु य मम भर्ज-न्ति । 'तह ति पडिसुर्य मंतवाइणा, सुदिणे गहियो विजा, जहुत्तविहिणा निब्भयचित्चेण निरभिकंखेण य साहिया एसा । विनासिया य कोचुचिणीडिंमनाएण चूडामणिसत्थपरमत्थजाणगे जयदेवनेमित्तिगम्मि। आइहृदुहृदुंबन्नपनगविसा. इरेगेण कट्ठीहूओ एसो, पञ्चक्खाओ विसँचिगिच्छगेहिं । औदयो राया। उग्घोसावियं नयरे-जो एयं पउणीकरेइ तस्स अभिरुइयं राया देह ति । निवारिओ पडहगो देवघरेण, मणिओ य राया-देव! जइ एस चूडामणिसस्थपरमत्थं निच्छिय देह ता जीवावेमि एयं । रमा मणियं-अवस्सं दाही, अदितं च अहं दवावेमि । देवधरेण भणियं-देव! एत्थे यऽत्थे कस्स धम्महत्थो । रबा जंपियं-मम चेव । तओ सविसेसजायसामत्येण पगुणीकओ एसो, परं न पडिवो चूडामणिसत्थदाणं। तो रचा जंपियं-तुह विसनिचेस्स मए समीहियप्पणविसए धम्महत्थो दिनो, ता ममाणुवित्तीए अन्नहान काय, दायई सबहा सत्थमेयमिमस्स त्ति । ततो शयगाढाणुविचीए तेण सिटुं चूडामणितन्तं तेरसममत्तापञ्जवसाणं १ भुजगाकर्षणी स्मरणमात्रेणैव ॥ २ ज त्ति प्रती ॥ ३ "हियवि प्रतौ ॥ ४ आविष्ट-॥ ५-कृष्ण-॥ ६ 'काष्ठीभूतः' काष्टवद् निवेतनो जातः ॥ ७ 'विषचिकित्सकैः' विषवेधः ॥ ८ चिन्तातुरः ॥ ९त्थ एत्थे प्रती ॥ १० परन्न पडि प्रती ।। ११ यप्पाण प्रती ॥ १२ अन्ननहा का प्रती।। १३ राया गा प्रतौ ॥ १४ "तत्तं प्रती। तन्त्र-शास्त्रम् ॥ EिKHAKAASARKAKKA Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरहओ मृदृष्टित्वातिचारे शङ्खकथानकम् ५। कहारयणकोसो॥ सम्मत्तपडलयं। जोगाणंदनाभधेयो नेमित्तिओ दुवारे देवदंसणूसुओ चिट्ठह, को आएसो ? । राइणा भणिय-सिग्धं पवेसेहि । 'जं देवो आणवेई' ति पवेसिओ नेमित्तिओ, दिनासीसोय निविट्ठो समुचियट्ठाणे । कुसुम-तंबोलप्पयाणपुरस्सरं संभासिओ भूवइणाकत्तो आगमणं ? कहिं वा गमणं ? ति । तेण भ[णि]यं-महाराय ! विजारयणरयणायराउ वसंतपुराओ आगओ म्हि, गमणं पुण कंचीपुरं पडुच समीहामि । रमा जंपियं-भवदु ताव, तिकालावलोयणविसए केत्तिओ विनाणपगरिसो' । नेमित्तिएण कहियं-महाराय ! गुरुपायप्पसायाओ अस्थि लवमित्तो । रन्ना जंपियं-जह एवं ता साहेसु थोवदिवसाण मझे च्चिय किमिह सुहमसुहं वा भविस्सइ । नेमिचिएण भणियं-महाराय ! निसामेसु, आगमिस्सअदुमीए दिणे सूरस्स सब्बग्गासि गहणं भविस्सह । इमं च सोचा विम्हिओ रायलोगो विकंपियसिरो परोप्पर मुहमवलोइउंपवत्तो । अयंडायन्नियसूरग्गहणसंखुद्धेण य भणियं भूवइणा-भो नेमित्तिग! कहं अपवे चिय एवं संभवइ ? । नेमित्तिएण भणियंमहाराय ! अवि चलइ ससागरं धरणिवहूं, न उण ईसिं पि केवलिदिटुं, परं निउणमइणा सम्म परिभावियन-न्ति । 'अजुत्तो कन्जतत्तुल्लावो जह तह' ति परिभाविऊण रमा विसजिओ सभालोगो, कयं विजणं, पुच्छिओ सायर नेमित्तिओ-साहेसु भो! पयडक्खरं, को एस सूरो ? किं वा अपेवे चिय तग्गहणं ? ति । नेमित्तिएण कहियं-महाराय ! सम्म पुच्छियं, जो सूरो सो तुम, जं च सव्वग्गासि ग्गहणं तं च तुह मरणं ति । तओ भीओ राया सवंगीणाभरणदाणपुत्वयं भणिउं पवत्तो-भो नेमित्तिग! अत्थि कोइ एयस्स उवकमणे उवाओ?। नेमित्तिएण जंपियं-बाढमथि, न केवलं तुम सकिहसि काउं । रन्ना भणिय१"तप्पलेपया प्रती॥२ णाउरा प्रती।। ३भणिस्स प्रतौ॥४'डानिय प्रती ॥५°पचं चि प्रती॥ ६ कामेण उ प्रती॥ ७ ले न तुम प्रती। CRACAACHCty ॥ २५ ॥ ॥२५॥ जीवियकओ किमकायचं ? ति । नेमित्तिएण कहिय-जइ एवं ता महाराय ! तुममप्पणो समरूव-जोवण-लक्खणगुणं कं' पि पुरिसविसेसं रायपए अभिसिंचिऊण सयं निद्देसवत्ती पंजलिउडो पुरओ से चिट्ठसु अट्ठमीदिणं जाव, जेण तबिघाएण तुद्द कल्लाणं हवा नि । पडिवचं रना । कयसकारो विसजिओ नेमित्तिओ ति। वाहरिओ पहाणपरियणो, पुच्छिओ य-को ममं अच्चंत सरिसरूवाइगुणो? ति । सम्मं सुनिच्छिऊण य तेण भणियंदेव ! संखस्स पुरोहियस्स पुचो पभाकरो चेव तुल्लरूवो, नावरो ति अम्ह पडिहासो । ततो रना एयस्स चेव परिक्खाकरण नियवत्था-ऽलंकारपरिग्गहं काराविऊण सो पभाकरो नियचेड-चाडुकर-किंकराणुगओ पेसिओ अंतेउरं । अचंतसरिससरीरागारनिच्छियनरिंदागमणाहिं अब्भुडिओ अंतेउरीहि, नरिंदस्स व सगउरवमुवणीयमासणाइ । सो य तमणिच्छंतो खणमच्छिय पडिनियत्तो । समप्पियपुचवेसो य गओ सो सगिहं । खणंतरेण य गओ राया सयमंतेउरं । पुच्चट्ठिई[ए] चिय कओवयारो पुच्छिओ अंतेउरीहिं-देव ! पढममुवागएहिं तुम्मेहिं किं कारणं न कि पि जंपियं? न कि पि आइटुं ? ति । कयागारसंवरेण नरवरेण वजेरिय-मणोविक्खेवाउ त्ति । एवं च अप्पणो निविसेसरूवत्तणं निच्छिऊण पभाकरस्स, अंतेउरीहिं समं मिहोकहाहिं मुहुत्तमित्तं निगमिऊण पडिगओ स[भा]गिह। वाहराविओ संखो पुरोहिओ, सुहासर्णत्थो सायरं संलत्तो य, जहा-अज रयणीए सुमिणम्मि तुह सुयस्स पभाकरस्सऽतिर्सवहसाविय रजं दिनं, अओ तमप्पणो सुमिणजंपियं तैह रञ्जदाणेण सचं काउमिच्छामि । संखेण १ किंपिप्रतौ ॥ २ सम्म प्रतौ॥ ३ क्षणम् आसिवा॥ ४ कथितम् मनोविक्षेपात् ।। ५°णत्थं सा प्रतौ ।। ६ अतिशपथशापयित्वा ।। ७ तुह प्रतौ। CRICKERASACREKAA% ACASE Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमद्दसरिविरहओ कहारयणकोसो॥ सम्मत्तपडलयं। ॥ २६॥ भणियं-देव ! कहासु वि एवंविहवइयरो न सुबह, ता कहमेवं । रमा जंपियं-किमजुत्तं ? गुरुसु सवस्ससमप्पणा उचिया ॥४ा मूढदृष्टिचेव । तओ विम्हियमणसेण संखेण भणियं-जं देवो आणवेद त्ति । त्वातिचारे अह अकयकालक्खेवं पहाण-मंति-सामंत-सेट्ठि-सेणावइपभिइपञ्चक्खं पभाकरो रायाभिसेएण अहिसिंचिऊण पइडिओ शसकथानियपए नरिंदेण, समप्पिया पियाविरहिया सबहा वि रायसिरी पणमिओ य । ठिओ य पागयनरनिविसेसो समुचियभूमि- नकम् ५। गाए । 'हा! किमेयं ? ति अमुणियपरमत्थो वाउलीहूओ सबो जणो । इयरेण वि पडिव रअं, दवाविया सव्वत्थ वि अप्पणो आणा निस्संकं, रजकजाई पि चिंति उमारद्धाई ति । अह संपत्ते अट्ठमवासरे, सट्टाणम्मि निवेढेसु पहाणलोगेसु, पागयपाए एगदेसनिलुके पुत्बपत्थिवे, आसणासीणस्स पभाकरस्स रनो ढलतेसु उभयपासचामरेसु, पयट्टे य पुरओ नट्टे अकंडे च्चिय तडयडाडोयडमरियजियलोया तड त्ति सिरोवरि रुद्वजमदिढि व निहुरा निवडिया विज्जू । तक्खणमेव भासरासिचणं पत्तो पभंकरराया । 'हा हा ! किमेय ?' ति दिसोदिसिं पलाणो रायलोओ। जायं पुरे असमंजसं । एत्थंतरे तम्मरणोवकमियनियमच्चुभओ गुंडाडोयउब्भडं जयकुंजरमारुहिऊण विसिडनर-तुरय-रह-जोहहपरिगओ निग्गओ उ बहिया चंदनरिंदो, आसासिओ लोगो, पुर्व व रजकजमणुचिंतिउं पवत्तो । मुणियरजदाणपरमत्थो य संखो अचंतदुस्सहसुयसोगवजावडणदारुणदुक्खो पलविउ पवत्तो१ जुत्त प्रती ॥ २-तुल्यः ॥ ३ तडतडाटोपउपद्रुतजीवलोका ॥ ४ गुडा-इस्तिकवचनम् ॥ ५ बूढप प्रसौ । -व्यूह-॥ ॥२६॥ NANARASITERASHAINEERAKXCAKACASCIENCEC% SAKACCIRCLECAUSESSMADHAN प्रावृवर्णनम् तथाहि-एरवयद्धवसुंधराभोगभूसणं संणंतमणिकिंकिणीकरालधयवडाऽऽडोयसुंदरसुरागार गारवाइदोसविरहियलोयनिवहोवसोहियं अस्थि जयपुरं नाम नयरं । नयरक्षणविजियसहस्सक्खो संक्खं धम्मराओ व चिरायमाणो माणविंदो चंदो नाम भूवई । नियरूबाइगुणोहामियकमला कमलावई नाम से भज्जा । नीसेसकलाजुत्तो पुरंदरो नाम पुत्तो। पत्ती य से सबकायववियक्खणा सलक्वणा नाम । सवाणि वि इमाणि नियनियकम्मसंपउत्ताणि चिट्ठति । अन्नया य गहिरगजिरवाऊरियभंडभंडोयरा फुरंतफारविजुच्छडाडोवभासुरा अखंडाखंडलचंडगंडीवमंडणा आरोहपयट्टमहप्पमाणमाणंसिणीमाणखंडणा वियंभिया मेसियपहियजूहा पढममेहसमूहा । तयणु गहिरकंठा नचिया नीलकंठा, विगलियपरितोसा रायहंसा य नट्ठा। नवकिसलयसोहा साहिसंघा हि जाया, अखिलमवि पलीणं पोइणीणं वणं च ॥ १॥ महिसउलमसेसं जिंभियं भूरितोस, विरहिजुवइवग्गों सोगिओ गाढदुक्खो। इय विसरिसकीडानाडियासुत्तहारो, वियरिउमुवउत्तो पाउसारंभकालो ॥२॥ अवरवासरे य पायवर्डणपुत्वयं पडिहारेण अत्थाणमंडवे सुहासणासीणो विन्त्रत्तो राया-देव ! तिकालगयभाववियाणगो १ रणत" प्रती । स्वनत्-शब्दायमान- ॥ २ नयरक्षण-नीतिपालन- ॥ ३ रखूण प्रती ॥ ४ सक्ख धम्म प्रती ॥ ५ साण प्रती ॥ ६ परिपूर्णचण्डेन्द्रधनुर्भूषिता इत्यर्थः ॥ ७ "रोहप" प्रती । आरोहप्रवृत्तमहाप्रमाणमनस्विनीमानखण्डनाः विजृम्भिता भेषितपथिकथाः प्रथममेघसमूहाः ॥ ८ मयूराः ॥ ९ 'शालिसद्धाः' वृक्षसमूहाः ॥ १० विसहश कीटानाटिकासूत्रधारः ॥ ११ "डणुपु प्रती ॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभदसूरिविरइओ कहारयण कोसो ॥ सम्मतपडलयं । ॥। २७ ॥ विमलोहिलोयणाऽवलोइयजियलोयविचित्तवावारो सुहम्मो नाम सूरी पउरलोयमज्झेंगओ धम्ममुवहसंतो त्ति । अरइविणोयनिमित्तं च गओ तस्स समीवं, कयनमोकारो य आसीणो भूमिवडे । धम्मं कहंतस् य सूरिणो एगो पुरिसो बहुविहरोगवस [ग]ओ, अकालपरिसुकालाबुसमसीसो, भग्गोड-नट्ठनासा-किलिडदिठ्ठिदेसो, ठाणड्डाणभग्गयसिंठाणो, मडहवच्छ कप्परोप्पन्न दुट्टगंडडाणो, निम्मंस-सोणिय की लाणुगारजंघोरुजुयलो, अचंतमबलो उबागओ तं पएसं । तक्कालसंग यकरुणापूरपूरिजमाणमाणसेण य जणेण पुच्छिओ सूरी- भयवं ! कस्स कम्मणो एसो षिसमो दसावागो ? ति । सूरिणा भणियं निसामेह - एसो हि पुवजम्मे माहणो अइकोहणो आसि । सो य पव्वयजत्ताए पारद्वाए, कीरंतेसु लोएण चच्चरी-पगीयपमुहकीलाविसेसेसु, सच्छंद पाण-भोयणदाणे परोप्परं पयड्डे किंपि अपावमाणो, तक्कालुच्छलियको वानलाउललोयणो, अविमंसिण जुत्ता-ऽजुत्तं गिरिसिहराउ निवडिऊण मैओ। एवं च अप्पणो तद्देसवत्तिपिपीलियापमुहसत्ताणं च विणासेण संजणिया सुहकम्मो बहुप्पयारहनिवहं तिरियाइजोणीसु अणुभविऊण संपइ तकम्मसेसयाए एवंविहासुहरूवं नरत्तणं पत्तो एवं वट्टइ । तथाहिपरिकुवियगरुयमारुय सुसियसरीरऽद्विबंधसंघाणो । उढविसुको रुक्खो व रुक्खदेह्च्छवी य दर्द ॥ १ ॥ १ "ज्झमभो प्रती ॥ २ स्थानस्थानभग्नभुजास्थिसंस्थानः कुब्जवक्षः कर्परोत्पन्न दुष्टगण्डोत्थानः ॥ ३ 'संगिय प्रतौ ॥ ४ अविमृश्य || ५ जुत्त गि' प्रतौ ॥ ६ सओ प्रतौ ॥ ७ परिकुपितगुरुकमारुतशोषित शरीरास्थिबन्धसन्धानः । ऊर्ध्वविशुः वृक्ष इव रुक्षच्छविव रम् ॥ ८ विमुको प्रती ॥ ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ || 8 || अविभवियदिनकम पक्खुलण ढलंतजाणु-कंडिभागो । घी ! मज्झ जीविएणं ति जंपिरो दुक्खमणुहवइ ता जह अन्नजियाणं धम्मो रक्खाए अक्खिओ परमो । तह अप्पणो वि तो उभयरक्खणं जुजए काउं जो पुण वियोगदुक्खेण कोह- लोहा इदूसियमणो वा । वबसइ मरणं सरणं सुचिरं से दीहसंसारो एवं सूरिणा कहिए मैणागमुवसंतसोगविगारो पुरोहिओ पच्चक्खावलोइय अप्यघायणकडुयफलविवागो णिवडिओ सूरिचरणेसु । सिड्डो निययाभिप्पाओ । अणुसासिओ गुरूहिं-भद्द ! असकपडियारे एवंविदुक्खे न धम्मकरणमंतरेण अनमो सहमत्थि, ता परिचय इमं दुरज्झवसायं मा सुक्यऽञ्जणच्छलेण समजिणसु उभय लोगविरुद्धमधम्मपब्भारं ति । तओ पडिबुद्धो एसो, पडिवो रिसमी सामन्नं । काउमारद्धो य दुकरतव चरणविसेसं वीसामणाइयं साहूसु विणयकम्मं च । अन्नया य 'सुपढियसुत्तत्थो' ति गुरुणा एगैल्लविहाराणुनाओ स महत्या गामा-ऽऽगराईसु विहरंतो कलिंगदेसं गओ । तत्थ य तंकालं कालसेणो नाम परिवायगो साहियलिंगलक्खाभिहाणजक्खो सिद्धतिलोयपिसाइयाविज्जो सुरविरहयगयणकणयस्यवत्तासणनिलीणो कन्नपिसाइयानिवेद्द अंतभूय- भाविपयत्थो 'जं कमलासणो चउहिं मुद्देहिं साहइ तमहं एकेण वि आणणेण साहेमि' ति सगइमुलवंतो निरंतरोविंत जंतनर-नरिंद संदोह से विजमाणचरणो सर्व मुद्धवियं पवतो । 'अहो ! इमस्स सत्ती, अहो ! पभावो, अहो ! रूवसंपत्ती, अहो ! तिकालविश्राणपगरियो' ति पमोयमुहंतो दूराओ वि आगम्म जणो गुरु १ अविभावितदत्तकम प्रस्थल अ वनमजानुकटिभागः ॥ २ कडि प्रती ॥ ३ मणोग प्रती ॥ ४] एकाकि विदागनुज्ञातः ॥ ५ 'मुव्ववि प्रती मुग्धयितुम् ॥ मूढदृष्टित्वातिचारे शङ्खकथा नकम् ५। आत्मघाते दोषः ॥। २७ ॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभदसूरिविरहओ कहारयण कोसो ॥ सम्मत पडलयं । ॥ २८ ॥ मित्र देवयमिव वा आराहइति । तं च तहाविहाइसय-पूय सकार समिद्धिपत्तं पदिणमवलोयमाणो संखसाहू सुभावियमई वि तहाविहसम्मदंसणमोहणीय कम्मोदयओ परिहीयमाणसम्मतपोग्गलो चिंतिउमारद्धो ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ चउतीसातिसयधरा कहासु सीसंति सवतित्थयरा । गिअर गणहरचरियं अणप्पमाहष्यविष्फुरियं सुबह विवि-मणपजवाईया बनणा बहुपयारा । चउदसपुत्रीणं पि हु सत्ती अच्छरियसिरिसारा दीसह य थेवमेतं पि संपयं नेव किं पि अइसहयं । तित्थंतरेसु अझ वि दीसह ता किं व एयं ? ति इय विमूढदित्तिणविणिहम्ममाणमणो किं पि कालं जीविऊण मओ समाणो उववन्नो किडिसियवंतरसुरेसु । सुकयकमाणुसारमुवभोत्तूण विसयसुहं चुओ संतो जाओ पंतकुले पुत्तत्तणेणं ति । ॥ ३ ॥ अह दुग्गमहादुग्गहसमुत्थदुत्थत्तणं अणुभवतो । सुचिरं मिच्छत्तातुच्छपं सुपच्छाइयविवेगो लढुं अलद्धपूर्व पि तन्विहं सुमुणिचित्र सामनं । चिंतारयणं व विमूढदिट्ठिदोसेण हारविजं संखो असंखदुक्खाण खाणिमप्पाणमुवणमेऊण । दीहर्द्धमद्धगो विवँ संसारं सरिउमारद्धो इय दिट्ठिदोसमवधारिऊण सम्मग्गवारणं परमं । परतित्थिइडिदंसणवसे वि बजिअ वामोहं किं वा कीरह हड्डीहिं ताहिं संसारसायरेऽणंते । अझ वि विअंतम्मिं परमत्थियवत्युवज्झाहिं ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ ॥३॥ ॥ ४ ॥ ।। ५ ।। किश्व १ 'हाईस प्रतौ तथाविधातिशयपूजासत्कार समृद्धिपात्रम् ॥ २ वा वन" प्रतौ ॥ ३ विमूढदृष्टित्वविनिहन्यमानमनाः । ४ चित्तसा' प्रतौ ॥ ५] द्वारयित्वा ॥ ६ "मुख प्रतौ ॥ ७ विव इति श्वार्थकमव्ययम् ॥ ८ वावणं प्रतौ ॥ ९ 'सज्झा" प्रतौ ॥ 112 11 २ ॥ ३ ॥ ॥ ४ ॥ ॥ ॥ 1| 14 || हा पाव ! देहय ! निदय ! निकारणवहियवेर ! निम्मेर ! । एवंविहसुपुरिसरयणभंगमिय ववसिओ सि कहं ? तुमए विपयावइ ! कीस एस नो रक्खिओ गुणाण निही। कह घडियसि सप्पुरिसे तहिपडिछंदपण विणा १ हा वच्छ ! तुज्झ विरहे वि जीवियं भुवि विडंबणामेतं । नरवइपडिवत्ती वि हु वज्झविभूस व अरइकरी किं वा वि मेत्तदोहो तुह चंदनरिंद ! कुवलयानंद ! । उचिओ ? अहवा चंदे मित्तविरोहो जयपसिद्धो एमाइ बहुपयारं बिलवंतो सिरमुरं च ताडतो । मुच्छानिमीलियऽच्छो निवडतो भूमिबट्टे य भणिओ नरवइलोएण भद्द ! तं कीस वहसि संतावं ? । धन्नो सो तुज्झ सुओ जो पहुकले चिय विवो ॥ ६ ॥ को ते वि हु सलहद्द पहुपसायमुवभुंजिऊण जे सुचिरं । जरसा जजरदेहा सिकंडवडिया विवअंति ? केत्तियमेतं वित्तं पुत्त-कलतं च सामिकजम्मि ? | अज वि जीयं देहं च झति उज्झति तैणयं व इंच्चाइयणेहिं पनवितो वि मणागं पि अपरिचत्तसोगावेगो संखो भेरवंपडणं पडच एगागि चिय नीहरिओ" सनयराओ । निरंतरगमणेण य पत्तो कुसुंभउरे नयरे । वुत्थो बहिया एगत्थ उज्जाणे, दिट्ठो य तत्थ समत्थपरमत्थवियक्खणो ॥ ७ ॥ ॥ ८ ॥ [१] देव निर्दय निष्कारणोडवैर निर्मर्याद १ ॥ २ "छेद" प्रतौ ॥ ३ चन्द्रपते कुवलयाना रजनी विकासि कमलानामानन्दकः, नरेन्द्रपक्षे कुवलयंपृथ्वीवलयं तद्वजिनानामानन्दकः तदामन्त्रणम् । चन्द्रपक्षे 'मित्रविरोधः' सूर्यविरोधः, अन्यत्र 'मित्रविरोधः सुहृद्विरोध इत्यर्थः । यथा चन्द्रः कुवलयान न्दकोऽपि मित्रविरोष्यपि तथा भवानपीति भावः ॥ ४ जगत्प्रसिद्धः ॥ ५ मचापतिता इत्यर्थः ॥ ६ झति प्रतौ ॥ ७ तृणमिव ।। ८ इच्चाई प्रतौ ॥ ९ भृगुपातं प्रतीत्य ।। १० ओ य न प्रतौ ॥ मूढदृष्टि त्वातिचारे शङ्खकथा नकम् ५। मूढदृष्टित्वम् तद्विपाकश्च ॥ २८ ॥ शङ्खस्य करुण विलापः Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमद्दसूरिविरहओ उपबृंहातिचारे रुद्रसरिकथानकम् ६। कहारयणकोसो॥ सम्मत्तपडलयं। जह जीवाइयतते अरुई सम्मतसिगा भणिया। तह संतगुणाणुववूहणा वि दिट्ठाइयारकरी सुगुणं सम्मद्दिवी सभावउ चिय पसंसिउं सरह । दरफुडियमालईमउलमलिकुलं रणझणतं व ॥ ७ ॥ लहुपरगुणे वि सुगुणअणुजओ जायए पसंसाए । मीरू वि संरइ सूरं सुसामिसम्माणिओ समरे ॥ ८ ॥ संता वि जया न गुणा सलाहणं पाउणंति उचियं पि । दुक्खजणाण हि तया करेञ्ज को आयरं ताण? ॥९॥ ता नाणाईविसए गुणलेसं जत्थ जत्तिय पासे । उववूहेजा तत्थ उ तयं ति सम्मंगमवगम्म ॥१०॥ जो पुण पमायओ दप्पओ व उववूहणे न बढेजा । नासेञ्ज अप्पयं मुणिजणं च सो रुद्दसूरि छ ॥११॥ तथाहि-इह हि पुवकालं कलिकालकलिलपक्खालणेकपच्चला, विमलजलासय व पीणियसबपाणिगणा, गणणाइकंतगुणा गुणसेणा नाम सूरिणो बहुसिस्सगणपरिवारा अणिययविहारचारिणो ससमय-परसमयवेइणो अहेसि । ते य गयंदवयपत्रए देवबंदणं काऊण, एलगच्छनयरपरिसरे कुसुमावयंसए उजाणे तसपाण-धीयरहिए पएसे अहासभिहियजणं अणुजाणाविऊण समोसढ त्ति। तकित्तिपडहडिरवसवणसमुब्भवंतकोऊहलसमाउलमाणसा समागया नरवइपुरस्सरा पुरजणा । १ विद्यमानगुणाऽप्रशंसना इत्यर्थः ॥ २ दरस्फुटित-ईषद्विकसित-॥ ३ गुणुजणु प्रतौ ॥ ४ 'सरति' प्राप्नोति शर' शौर्यम् ॥ ५ दुःखेन अर्जनं येषां तेषाम् दुःखानां वा अर्जनं येभ्यस्तेषाम् ॥ ६ "जणणेहिं त प्रती ॥ ७'तेषां' गुणानाम् ॥ ८नयंति संसंग प्रती । 'तकत्' तदुइति ।। ९ सम्यत्तवाङ्गम् अवगम्य ॥ १० नावायेत् ।। ११-प्रत्यला:-समर्थाः ॥ १२ पीणय प्रसौ।। १३ अभूवन्ते च गजेन्द्रपदपर्वते ।। १४ समवसताः ।। १५ तत्कीसिंपरहप्रतिरवधवणसमुदयस्कुतूहलसमाकुलमानसाः ॥ १६ "परिरच प्रती।। ॥ २९॥ ॥२९॥ जीवादीनि सप्त तत्वानि तयवस्थापनं च मुणियतओगयाणुसारेण पारद्धा पहुणा धम्मदेसणा । जहा संसारम्मि असारे सारं जम्मो कुले सुविमलम्मि । तत्थ वि य पुरिसभावो तम्मि य सद्धम्मपडिवत्ती ॥१॥ सो पुण न पाणिपीडापरिहारपरंम्मुहो बुहाहिमओ। तप्पीडापरिहारो य नआई नाणसम्भावे ॥ २ ॥ तस्संभावो य इहं सद्दहणे तं च संत्ततत्तगयं । तत्ताणि य जिणभणियाणि जीवमाईणि नेयाणि जीवा य तत्थ उवओगलक्खणा अक्खिया जिणवरेहिं । ताणं विलक्खणा पुण धम्माईया अजीवा उ ॥ ४ ॥ सुह-अमुहकम्मपयईपोग्गलसंगिलणमासवो वुत्तो । तश्विवरीओ पुण संवरो त्ति दिट्ठो सुदिट्ठीहि तवकिरियाए कम्माण झोसणा निजरा समक्खाया। कम्माण संतई पुण बंधो मोक्खो य तीए खओ ॥६ ॥ एवं च तत्तविनोणसुंदरं सायरं पयस॒तो । धम्मे तं कल्लाणं न विजई जं न पाउणई। ॥ ७॥ न य एत्तो वि हु अनं वनंती मोक्खसाहणोवायं । न य एयविउत्ताणं ताणं सत्ताण किं पि परं जो इह परम्मुहमणो मणुओ नूणं मणागमेत्तं पि । संसारियदुक्खाणं खाणी अप्पा को तेणं इय एवमाइ गुरुणा सिट्टे सुसिलिट्ठधम्मपरमत्थे । रुद्दो नामेण दुंओ समच्छरं भणिउमाढत्तो ॥१०॥ जुत्तमिह जीवतत्तं सेसाणं पुण अजीवभावाओ । वीयं अजीवतत्तं तदनपरिकप्पणा विहला १ परमुद्दो प्रतौ ॥ २ तसम्भा" ॥ ३ सप्ततत्वविषयम् ॥ ४ 'तेषां' जीवानाम् ॥ ५ वित्ताण प्रती ॥ ६ प्रगुणयति ।। ७ य पत्तो प्रतौ ।। ८ प्राणम् ॥ ९ तत्त्वविज्ञाने ।। १० द्विजः ॥ तत्त्वसंख्याविषयकं चार्षिकम् * Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरइओ कहारयणकोसो ॥ सम्मत्तपडलयं । ॥३०॥ उपबृंहातिचारे रुद्रसरिकथानकम् ६॥ गुरुणा भणियं भद्दय ! जुत्तमियं जंपियं तए किंतु । सविसेसवत्थुविसय पडुच इय तत्तपरिसंखा ॥१२॥ तथाहि मिच्छताइदुवारानिरोहओ कम्मसंगमो जो उ । जीवस्स आसवो सो तस्सऽनो संवरो नेओ ॥ १३ ॥ निजरमाई वि हु कम्मणो परं जीवविरियसावेक्खा । इय आसवाइतचाणि जीव-कम्माण विसयाणि ॥१४ ॥ कह धम्माईणमजीवभावमेतेण इंतु तुल्लाणि । तेणेसिऽणुप्पवेसो जजह नाजीवतत्तम्मि ॥१५॥ किनकेहि पि अविञ्जाई केम्मासवणम्मि हेउणो भणिया । बंधो वि य पयईए तीए विओगो य मोक्खो त्ति ॥१६॥ विज्झायदीवकप्पत्तणं च मोक्खस्स केहिं वि य सि । तेसि मयवारणत्थं इत्थं तत्ताई सत्तेव । ॥ १७॥ __ इय साभिप्पायपरूवणाए निच्छिन्नमच्छरुच्छाहो । रुद्दो रंजियचित्तो भववासाओ विरत्तो य ॥१८॥ गुरुणो पामूलम्मि सम्म पडिवजिउं समणधम्मं । सुत्त-उत्थाहिगमपरो गुरुणा सह विहरए बसुहं ॥१९॥ कालकमेण य सेससाहूहिंतो पढियाई भूरिसत्थाई । बुद्धो तदेत्थो। परेसि पि वक्खाणाइकरणाइणा बाढमुवओगी जाओ त्ति । अन्नया य सूरीहिं पभायप्पायाए रयणीए सुमिणो दिहो । तओ विभावियतयत्था निच्छइयथोवजीवियवा य पभाए साहूणमेगत्थ मिलियाणं तब्बुद्धिविमरिसणत्थं साहिउं पवत्ता, जहा-भो साहुणो! अज पभायप्पायाए रयणीए सुमिणम्मि १ मिथ्यात्वादिद्वारानिरोधात् ।। २ "गो जो प्रती ।। ३ 'तस्य' आश्रवस्य ।। ४ "म्माणुवि' प्रती ॥ ५ कर्माधवे ॥ ६ नितरछिममत्सरोत्साहः ॥ ७ 'लम्मि प्रती । पादमूले ॥ ८ "धम्म प्रती ॥ ९ "दथो प्रतौ ॥ १० "वखाणा" प्रतौ ॥ ११ "यपय प्रतौ ॥ १२-विमर्शनार्थ-परीक्षार्थम् ॥ ॥३०॥ मूढदृष्टित्व&ात्यागोपदेशः यथेन्द्रजालव्यवलोकनेन चित्रीयते मुग्धजनस्तथैव । मिथ्याशामृद्धिनिरीक्षणेन न मुगति कापि विशिष्टदृष्टिा१॥किश्न न काञ्चनसमाश्रितः श्रियमियर्ति काचोऽधिका, न वाऽपरुचितां बजत्यपमलो मणिः केवलः । कुदृष्टिरुदितचिरप्यधिपतिर्न मुक्तिश्रियामनृद्धिरपि सम्पदा पदमुपैति सद्दर्शनः ॥ २ ॥ सबोधवन्ध्यकतभूरितपःप्रसूता, भूत्वा सुखाय पहुदुःखकरी समृद्धिः। चैत्रप्रतिष्ठितषापचितेः समाना, कौतीर्थिकी कथमिवास्तु विमोहहेतु:? इति पणयोषिन्नेपथ्यतुल्यपरतीर्थिकर्द्धितशेतः । विनिवर्त्य निश्चलात्मा यतेत जिनदृष्टचेष्टासु ॥४॥ ॥ इति श्रीकधारत्नकोशे सम्यक्त्वचिन्तायां चतुर्थातिचारप्रक्रमे शडकथानकं समाप्तम् ॥५॥ __ संकाईण चउण्हं करणे अइयारमक्खिउं सम्मे । उववृहाइचउण्डं इहि तं किं पि कित्तेमि उवणमुवचूहा पसंसणा सा गुणाण ते य इहं । नाणाई घेतवा नेवाणपसाणा परमा ॥ २ ॥ नाणं जहट्टियत्थावधारणं दसणं च तत्तरुई । कम्मचय-रित्तकरणं चारितं तावगं च तयो ॥३ ॥ जियविफुरियं ति' विरियं विणइजइ कम्म जेण सो विणओ । लोयाववायभीरुत्तणं तु लज्ज ति एमाई ॥४॥ एएसु बट्टमाणस्स साहुणो जहुचियं च सङ्घस्स । उववूहणाअकरणे सम्मत्तइयारमाइंसु ॥ ५ ॥ १'घते क्वा' प्रतौ ॥ २ °यवाद प्रतौ ॥ ३ ति तिरि प्रती ॥ ANWARRIEWEREKARNA उपबृंहणामायाः स्वरूपम् Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दरिरिओ कहारयण कोसो ॥ सम्मत्तपडलयं । ॥ ३१ ॥ चसत्थपरमत्थवेई', चउत्थो पुण सामज्जो नाम जोगविहाणपमुहकिरियाकलावखेर्यन्नु ति । तेसिं च गुणपगरिसवसरंजियमणमाणवकीरमाणं पूया सकारं मणागमसहमाणो सूरी मणमज्झे अहिं करे । अन्नदिवसे य पाडलिपुत्तनयराउ समागओ एगो साहुसंघाडगो, अब्भुडिओ साहूहिं, कयपायपमजणाइप डिवत्तिविसेसो य पडिओ सूरिचरणेसु लेहसमप्पणपुरस्सरं च विभवि पवत्तो—भयवं ! एस पाडलिपुत्त नगरसंघसमवाएण तुम्ह पेसिओ, आओ इमं परिभाविऊण सिग्यमणुट्टिज्जउ तयत्थो त्ति । तओ सायरं पणामपुत्रं लेहमादाय खरी सयं वाइउमारद्धोश्रीमदन गुणर्द्धिवर्धमानं वर्धमानजिन मानस्य धर्मिष्ठजनसन्निवासपवित्रात् श्रीपाटलिपुत्रात् प्रतिहताघसङ्घः श्री चातुर्वर्णसङ्घः समस्तनगरराजराजगृहविहारिणं सदा सङ्घकार्यकारिणं कन्दर्पदर्पमथनभद्रं सादरं समादिशति । यथा -क्षेममिह, केवलमेतदेव मनाग् यत् - प्रज्ञावज्ञातवाचस्पतिर्विरचितविचित्रकाव्योपन्यासपद्धतिः सर्व ग्रन्थार्थग्रन्थिभिदुरो नाम्ना विदुरो व्यक्तलिङ्गी षड्दर्शनोपप्लवं कुर्वाणो व्यहार्षीत् । तथाहिकाणादानमदान् प्रनष्टधिषणाधिक्यानवाक्यान् बहून, शक्यांस्तर्कवचो विचारविमुखान् साङ्ख्यानसाङ्ख्यानपि । कौलान् भ्रष्टबलान् निरस्तयशसो मीमांसकान् व्यंसकान् कुर्वन् वारणवद् विशङ्कमचरत् सर्वत्र गर्वोद्धुरः ॥ १ ॥ स च सम्प्रति जैनैः सार्धं स्पर्धां चिकीर्षते । ततश्च दर्शनकृत्यं कर्तुं स्वत एवोद्यतस्य भवतः ऋक्षवृक्षकक्षं १ प्रत २ वेद-कुशलः ॥ ३ 'पुतो नग प्रती ॥ ४ मानस्य धम्मिष्ठ" प्रतौ ॥ ५ वैशेषिकान् ॥ ६ बौद्धान् ॥ ७ "स्तकंच प्रतौ ॥ ८ शाक्तिकान् ॥ दिधक्षोरिवाऽशुशुक्षणेर्यद्यप्यनुचितः प्रेरणाप्रक्रमः, तथापि 'विषमो वादविधि:' इति शीघ्रं स्वयमागन्तव्यम्, व्यपाये च प्रस्तुतार्थाव्यभिचरितगुणः शिष्यो वा प्रेषणीय इति ॥ छ ॥ एवं च विभाविऊण लेहत्थं मत्थयारोवियसंघसासणी सूरी तक्खणं पडिओ पाटलिपुत्तनयरामिमुदं । नवरं जाया निडालं ताडयंती अभिमुद्दा छिका । तओ वामा खेमा लाभम्मि दाहिणा पच्छिमा नियत्तेह । निल्लाडया य छिका कयं पि कर्ज विणासेह ॥ १ ॥ इति विभावितो उबरओ सयं गमणाओ सूरी । पेसिओ पुष्युतो बंभदत्तसाह । दिना य से सूरिणा सवकम्मकरी विजा । पढियसिद्धं तमवधारिऊण अक्खंडपयाणएहिं गतो एसो पाटलिपुत्तं । दिवो राया, अहिडिओ वाओ, 'जो जेण जिप्पइ सो तस्सेव सिस्सो' त्ति जाया पन्ना । दिनोऽणुकंपाए विदुरस्सेव yaपक्खो साहुणा । वागरिओ य गरुयवयणोर्वनासेण निश्च्चवाओ अणेण । तैयक्खरेऽणुभासिऊणऽणेगंतवायवा यैबलेण य पलालपूल व पक्खित्तो खणद्वेण एसो मुणिणा । संत्तभंगीभावणाच आस णिनिद्दयनिद्द लियस्स व पलीणा सुई मई वाया य एयस्स । तओ निम्मत्थिओ सो रन्ना — किमेवं चिह्नसि १ कुणसु किंपि उत्तरं ति । एवमुते जिएण वि तेण पारद्वा साहुणो थोभणाइया खुद्दोबदवा । पडिणिया य मुणिणा पुढपढियविज्ञानलेणं । तओ 'सबहा पडिहयसामत्थो' ति पडिवनो प्रतौ ॥ ३ सोसत तौ ॥ ४णोविन्ना प्रतौ ॥ ५ तयक्तुरे प्रतौ तदक्षराज्यप्रतौ ॥ ७ सप्तभङ्गीभावनावखाशनि निर्दय निर्दलितस्य व प्रलीना श्रुतिः ॥ ८ स्तम्भनादिकाः ॥ १क्षणे यद्य प्रती ॥ २ "विधेरि" नुभाष्य अनेकान्तवादवातबलेन ॥ ६ *यपले उपबृंहाति चारे रुद्रसूरिकथा नकम् ६ । सङ्घादेशपत्रम् ॥ ३१ ॥ क्षुद्विचार: Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसरिविरहओ कहारयणकोसो ।। सम्मत्तपडलयं । मुणिसमीचे सामनं । दिचं रमा विजयपत्तं । उन्भावियं सवत्थ सवनुसासणं । पूहर्जतो पुरजणेणं, सलहितो संघेणं, अंगु ६ उपहातिलीहिं दंसिअंतो पागयलोगेण, विदुरसिस्ससमेओ गओ रुद्दसूरिणो समीवं बंधुदत्तो । हिययसमुबहतमच्छरेण य न चारे रुद्रमणाग पि उववूहिओ संरिणा । तओ सूरिकथासंभावणाइरित्ते कब्जे संपाडिए वि लअंतो । आणदिएण धनो उववूहिजइ ददं गुरुणा नकम् ६॥ इइ भाविअंतो परं सोगमुवगओ बंधुदत्तो सँग्गुणजणाय मंदायरो जाओ ति । चाउम्मासियसाहू वि कालं चाउम्मासियतवं पवनो । सो वि अणवस्यर्मित-जंतमहीवइपमुहपहाण[जण ]कीरंतसकारो पंतकुले अमुणिजंतो उंछवित्तीए अँजिओ । सो वि सूरिणा न वयणमित्तेण संभासिओ। एवं वचंते काले गुणोववूहणविमुहे णायगे तदअणपडिभग्गे साहुवग्गे सुत्तऽत्थपढण-चिंतणाइवावारा पइदिणं तेणुयत्तणं पत्त त्ति । रुद्दसूरी वि तदझवसाओ चेव कालं काऊण किधिसियवंतरसुरेसु उववञ्जिऊण दुग्गयकुलेसु केसु पि जाओ माहणपुत्तत्तणेणं ति । कालकमेणं अइकंतबालभावो पत्तो तरुणतणं । गुणोणुववूहणजणियदुकम्मऽवसेसयाए पडिहया से जीहा । मूओ व भासाए पयंपिउं पवत्तो, वेरग्गिओ य तद्दोसेणं, 'ही! मए किं पुत्वभवे कयं?' ति जाया जिंबासा, पज्जुवासइ सो वि तिथिए । १ 'उद्भावितं' प्रभावितम् ॥ २ सरिणो प्रतौ ॥ ३ कज्जेणं सं प्रतौ ।। ४ सगुणुज' प्रतौ ॥ ५ 'तनुकत्व' हीनत्वम् ॥ ६ *णाणव' प्रती । गुणानुपहणजनितदुष्कर्मावशेषतया ॥ ७ जिज्ञासा ॥ ८ वि तत्थि प्रतौ । 'तीथिकान्' मतान्तरीयान् ॥ ॥३२॥ ॥३२॥ CARRIERRERAKHARKAHANI ANK+%*&+KA+KAR+%AKREAK%*******%%84%DIAS वयं किर गुरूहि दिवंगएहिं वाहरिया-सिग्घमागच्छह अम्ह पासम्मि ति; अम्हेहिं भणियं-एए तुम्हाणुमग्गओ चेव आगय म्मि, ता साहेह किमिह तत्तं ? ति । तत्थ नियनियमइबियप्पणाणुसारेण केणावि किं [ पि] जंपियं, परं न सूरीण मणोरंजणं जायं । एत्थंतरे रुहसाहुणा भणियं-भय ! न सुह विसिट्ठसुमिणमेयं अंतीतवाहरणाओ, ता जुत्तमेत्थ विसेसुञ्जमणं ति । 'अहो ! सुद्धबुद्धि]पगरिसागरो' त्ति पसंसिओ सरिणा, 'सेससाहुविसेसगुणो' त्ति सुमुहुत्ते य निवेसिओ सूरिपए, दिनमणुसासणं । भावियसविसेससंमत्तभावणा य कयचउबिहाहारपञ्चक्खाणा खामियसंघा इंगिणिविहाणं पवजिऊण दिवं गया । रुहसूरी वि सूरो व बोहिंतो भवकमलाईरे, पणासिंतो दोसायेरुल्लासं, पयडंतो मुत्तिमग्गं, विहणतो मिच्छै त्ततिमिरं, गामा-ऽऽगराइसु विहरंतो संपत्तो तुहिणकरनियरनिम्मलपासायपरंप[रा] राइए रायगिहनयरे, ठिओ एगस्थ उजाणे । तस्स य सूरिणो समुदाए चत्तारि महातवस्सिणो विजा-चरणगुणोववेया पसिद्धिपत्ता य संति-पढमो य ताण मज्झे बंधुदत्तो नाम बायलद्धिसंपन्नो, बीओ पभाकरो नाम विगिट्ठचाउम्मासियतवविसेससामस्थजुत्तो, तईओ य सोमिलो नाम निमि- | १ 'अतीतम्याहरणात अतीतकवनात् ॥ २-समत्वभावनाः ॥ ३ यथा सूर्यः कमलाकरान् बोधयति-विकासयति तथा सूरिः भव्यजीवरूपान् कमलाकरान् बोधयति ।। ४ लाईरे प्रती ॥ ५ यथा सूर्यः दोषाकरस्य-चन्द्रस्थ उल्लासं-प्रकाशं नाशयति तथा सूरिस जीवाना दोषाकरस्य-दुर्गुणसमूहस्य उलासंपृद्धि प्रणाशयति ।। ६ यथा सूर्यो लोकाना तिमिरानुपलक्ष्यमाणं मार्ग प्रकटयति तथा सरिः जीवानां अज्ञानतिमिरानुपलक्ष्यमाणं मुक्तिमार्ग प्रकरयति ।। ७ यथा सूर्यस्तिमिरं विहन्ति तथा सरिरपि जीवाना मिथ्यात्वतिमिरं विद्दन्ति विधातयतीति यावत् ॥ MORE Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमद्दसरिविरइओ कहारयणकोसो॥ सम्मत्तपडलयं । स्थिरीकरणातिचारे | भवदेवकथानकम् गुणोपहोपदेश: यद् विद्यमानगुणसम्पदि बुध्यमाने, पुंसि प्रशंसनविधौ विरमन्ति वाचः । स व्यक्तमन्तरुदितोद्भुतदसर्पदंष्ट्राविषोपजनितः सकलो विकार: ॥१॥ मिथ्यारशोऽपि यदि नाम गुणाधिकानां, निर्मत्सरा विदधते स्तवनं प्रहृष्टाः । सीदन्ति तत्र किमिति स्फुटजैनवाक्यसम्यग्विचारचतुरा अपि बुद्धिमन्तः ? शङ्कादिदोषगहनं समतीत्य दुर्गमेतावतैव किमु मुह्यति विज्ञवर्गः। सद्यो विलङ्घय मकराकरमस्तपारं, किं कोऽपि गोष्पदजलेऽपि निमजतीति ? ॥३ ॥ इति स्वबुद्ध्याऽऽगमतोऽनुमानाद्, विचार्य सम्यग् हृदि चावधार्य। गुणोपहा बृहदादरेण, सद्दर्शनस्याङ्गमसौ विधेया॥४॥ ।। इति श्रीकथारत्नकोशे सम्यक्त्वचिन्तायां पश्चमातिचारप्रक्रमे रुद्राचार्यकथानकं समाप्तम् ॥ ६॥ सम्मत्ते पत्ते वि हु विहुणिजह कम्मदोसओ जीवो । सुहभावाओ जम्हा ता भगह तस्थिरीकरणं ॥१॥ राग-द्दोसपरद्धा कहिं पि वेरग्गमग्गमवहाय । भुजो मूलट्ठाणं ही ही! कहूं पवजंति ॥ २ ॥ गुणठाणे गरुयम्मि वि ठेविया अभाणपवणखिप्पंता । दोल्लंति धयवडा इव कयनिष्फलबहुफडाडोवा ॥३॥ ता ताण नाण-दसण-चरणेसु ददं विसीयमाणाणं । कारुनपवनमणो तेसु चिय थिरतमुवर्णितो १ निर्मच्छरा प्रती ॥ २ "णट्ठाणे प्रतौ ॥ ३ दृषि प्रती ॥ ४ विषीदताम् ।। ॥३३॥ स्थिरीकरण स्वरूपम ॥३३॥ EWARARIAAWA4%ARGARHIROHASIRIRAMANAKAMANAKARANE BOARNAKASHIKARANAKHARKHERAKAREKARENAKER सम्मत्तं संपत्तं पि उत्तम उत्तमुत्तमं कुणह। सुद्धं मणिं व सोहणगुणेण अइसुंदरतरागं ॥ ५ ॥ धम्मस्स परममंग ता कायच्वं दर्द थिरीकरणं । परहियरएण सद्धम्मसीयमाणाण सत्ताण अप्पंभरित्तभावा जो पुण सामत्थसंगओ वि परं । न थिरीकरेइ धम्मे राग-दोसेहिं वामूढो तो तदुवेहांसंजणियदोसबढ्तकलुसपरिणामो । पन्भट्ठपोहिलाभो भवदेवो इव भवे भमइ ॥८ ॥ तथाहि-अस्थि पउँरपुरपत्तपरमभुदयरेहं, रेहंतकंतपसरंतजणजणियभूरिसोहं, सोहेम्मसुरपयं व दीसंतबहुविबुंहवरगं, वैग्गंताणेगनड-नाडइज-लखंगपेच्छणपरम्मं रम्मपुरं नाम नयरं। विणिजियासेसवइरिमल्लो हत्थिमल्लो नाम राया। अभिबहिययभूओ गंगाधरो से बालमित्तो । ताणं च सहसयण-पाण-भोयणा-ऽवत्थाणपमुहकिचेसु सिणेहसारं बर्दृताणं एगया एगंतगाण जाओ परोप्परमेवंविहसमुल्लायो । किं नाम सो वि पुरिसो पोरिसमुबहइ सलहियं जैयह । धरह य कुलाभिमाणं दंसह य कलासु कोसलं ॥१॥ नीहरि सघरातो जो न पलोयह वसुंधराभोगं । गामा-ऽऽगर-नगरा-ऽऽसम-पुरपरिकिन्नं अनिचिन्नो? ॥२॥ ता रजभरं मंतीसु सबहा रोविऊण निचिंता | कइवयवरिसाई वयं पेच्छामो मेइणीपट्ठ ॥३ ॥ १शोधनगुणेन ।। २ सदुपेक्षासंजनितदोषवर्धमानकलषपरिणामः ॥ ३ प्रचुरपुरप्राप्तपरमाभ्युदयरेखम् ॥ ४ राजमानकान्तप्रसरजनजनितभूरिशोभम् ॥ ५ 'सौधर्मसुरपदमिव' सौधर्मदेवलोकमिवेति भावः ॥ ६ "हुविहबुह' प्रती ॥ ७ देवलोकपक्षे विभा:-देवाः, अन्यत्र विबुधा:-विद्वांसः ॥ ८ वल्पत्खेलत-।। ९लका-बरनाखेलकाः ॥ १० अभिन्न प्रतौ ॥ ११ याणु जा' प्रतो ।। १२ अगति ।। ४ देशदर्शनम् Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थिरीकरणातिचारेभवदेवक देवमहरिविरइओ कहारयणकोसो॥ सम्मत्तपडलयं । 64A 'अभिरुइयं दोण्हं एय' ति अभिन्नरहस्समंतिसंकामियरजचिंताय केणइ अमुणिजंता कयतकालोचियवेसपरिग्गहा निग्गया दो वि निययभवणाओ, पट्ठिया उत्तरावह, संतुरियपयक्खेवं गया कइवयजोयणाणि, आवासिया एगस्स थेरदियवरस्स मंदिरे । अकयपरिस्समत्तणेण य नित्थामीहृयाणि अंगाणि, पेंमिलाणा द्रं सरीरसिरी । संभासिया थेरविप्पेणं-पुत्ता। कत्तो आगमण ? कहिं वा गंतवं? अकयपहपरिस्समा पढमघरनीहरिय लक्खिजह त्ति । रमा जंपियं-विप्पवर ! रम्मपुराओ कूवदहुर व सवत्थ अपरिहत्था देसदसणकोऊहलेण उत्तरावहं पट्ठिय त्ति । माहणेण भणियं-वच्छ! ईइसीए आगिईए न तुम सामनरूवो होसि । तहाहि पडाय-कमलं-कुसप्पमुहलंछणालंकियं, सहावमुह-कोमलं पय-कराण रत्तत्तणं । कवाडवियर्ड फुडं उबचियं च वच्छेत्थलं, निडालमवि अट्ठमीसरयचंदवियोवर्म ॥१॥ घणनियरसुंदरो विजियपंचयनो सरो, सरोरुहदलुजलं सवणपत्तमच्छीजुयं । जुयाय[य]भुयादुर्ग जह तुहं पलोएजए, जैए तह सुनिच्छियं तुममहो! महीनायगो ॥२॥ एवं सोचा ईसि हसिऊण भणियं रचा-भो माहण ! पच्चक्खीभूयभूवहसिरिणो किं तुज्झ साहेमि'। माहणेण १ 'ण्इं ति एयं अभि" प्रती ॥ २ सत्वरितपदक्षेपम् ॥ ३ निःस्थामीभूतानि' निर्बलीभूतानि ॥ ४ प्रमलाना ॥ ५ व्व खलिज" प्रती । ६ अनिपुणा इत्यर्थः ॥ ७ईईसी प्रती । श्या आकृत्वा ॥ ८ रत्तनलं प्रती ॥ ९ "च्छच्छल प्रतौ ॥ १० घणनिय" प्रती । घणनिकरसुन्दरः ।। ११ बुगायत-युगप्रमाण । युग-रथधुरम् ॥ १२ जगति ॥ ॥३४॥ राजलक्षणानि ॥३४॥ + *HARANARTHAKORRHOIRALAIGARNER + स्वगुणोत्कपरगुणे + याया विपाक: अभया य समोसढा चउनाणोवगया सुहम्माभिहाणा सूरिणो । गतो सो ताण समीव, वंदिऊण निविट्ठो सन्निहियभूमिवढे । सूरीहिं वि तक्खणं एगो साहू नियेगुणगविरो परमच्छरी अणुसासिउमारद्धो। जहा-भद्द ! थेवेण चि गवेणं गुणसमुदाओ विकीरइ असारो । रससंमियं पि भोयणबिहाणमुबहण गरललवो ॥ १ ॥ निम्मलगुणेसु रत्तो जणो वि अमत्थ ते अपिच्छंतो । मणिही एसो च्चिय एरिसो ति गल्वेण किं गुणिणो? ॥ २ ॥ परगुणपसंसणाए अगुणो वि गुणतणं धुवं लहइ । साहुकिरियाए निरओ साहुतं गिहनिवासिब ॥३ ।। सगुणेसु गवभावो मच्छरभावो य उत्तमगुणेसु । मंदरगरुयं पि नरं लहुयं कृति संयरा ॥ ४ ॥ सगुणाण निण्हवे परगुणाण दूरं पयासेणेऽभिरुई । किं बहुणा भणिएणं ? नाऽणभिजायाण संभवह ॥५॥ ता बच्छ ! केत्तियं तुह कहिजह? पचक्खं चिय पेच्छसु एयाण विवाग । सिस्सेण भणिय-भय ! कत्थ पेच्छामि । तओ दंसिओ सो रोरमाहणपुत्तो पणट्ठजीहावाबारो त्ति । सिस्सेण जंपियं-भय ! किं पुत्वभवे इमिणा कयं ? ति । गुरुणा भणियं-जं तुमं काउमुवडिओ सि त्ति । सिट्ठो सद्यो तप्पुवकालियवुत्तो । पडिबुद्धो रोरमाहणो पवनो सामनं । सिस्सो वि तं निसामिऊण चत्तमच्छराइदोसो गुणिजणोवव्हणाइसु उजओ जाओ ति। उबवूहणाविरहओ तदवनाए गुणाण परिहाणी । सद्धाभंगो मुंगुणञ्जणे य उभयं पि हु अजुत्तं ॥१॥किश्च१ निजगुणगर्ववान् ॥ २ 'रससम्भूतं' रसपूर्णम् ॥३"च्छते प्रतौ ॥ ४ शीघ्रम् ॥ ५ सणाभि" प्रती ॥ ६ न 'अनभिजातानां' नीचकुलोस्वभानाम् ॥ ७ गुह प्रती ॥ ८ कच्छ पे' प्रती ॥ ९ तन्निसा प्रतौ ॥ १० सुणेज्ज" प्रती ॥ + + + + Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरि- विरहओ स्थिरीकरणातिचारे भवदेवकथानकम्। कहारयणकोसो॥ सम्मत्तपडलयं । सूरमंडले पभवंतम्मि पउरस्स वि तिमिरपम्भारस्स अवगासो ? ति । गओ एसो। सिट्ठो अज्जुणनरिंदस्स तन्वुत्तो । तं ४ा सोचा विम्हिओ राया परिभाविउं पयत्तो-अहो ! अञ्ज वि एवंविहअसमसाहसवणाणि पुरिसरयणाणि सुवंति ता किं न संभवह? । तथाहि तेरुगोष्पंदवत् पयोधिममरक्रीडाचलं लेढुवत् , सद्यश्चिक्षिपुरम्बरं स्वगृहवच क्रुः क्रमाक्रान्तिमत् । पाताल विविशुर्दरीवदभयाः किं वाऽस्तु तेद् दुष्करं, यन्नास्मिन् विदधुर्नृणां सकलँतामालम्ब्य सत्वाधिकाः॥१॥ ता होउ वियप्पकल्लोलमालाउलत्तेण, गंतुं सयमेव तमवलोएमि त्ति कइवयपहाणपुरिसपरियरिओ रायवाडीववएसेण इओ तओ परिभमिऊण गओ तं पएसं जत्थ हथिमल्लमहीनाहो बट्टा त्ति | तओ दूरी पमुकरायचिंधो कयतकालोचियपडिवत्तिविसेसो तस्स समीवे उबविट्ठो, सिणेहसारं च परोप्परकहाहि डाऊण भणिओ अज्जुणरना हत्थिमलोएह, आवासदसणेण अम्हे अणुगिहँह त्ति । उवरोहसीलयाए गओ एसो तस्साऽऽवासं । कया णेण भोयणाइपडिवत्ती। खणंतरावसाणे य अणवरयकसाघायपवईतवेगजचतुरयसमारूढा समागया चारपुरिसा । विनत्तं च तेहिं—देव! भवदेवनरिंदपुरस्सरा पचंतनराहिवसेणावहणो विहियसन्नाहवूहविरयणा अणुमग्गतो चेव अम्हाणमागया, ता कुणह जमित्थ पत्थावे समुचिय-न्ति । तओ आउलीहूओ अज्जुणनरिंदो, भणिओ य वहरिहिययसल्लेण हत्थिमलेण-भो महाराय ! १ भूयन्ते ॥ २ गोपदवत् पयोधेम' प्रतौ ।। ३लेहुवप्रतौ ॥ ४ चक्रः क्र" प्रतौ ॥ ५ तदुकरं प्रतौ ॥ ६ऋषु इत्यर्थः ॥ ७ "लनामालम्प्य स" प्रती ।। ८ "रा य मु" प्रतौ ॥ ९ 'लोच्चिय" प्रती ॥ १० "ण्डा त्ति प्रती । ॥ ३५॥ |॥३५॥ युद्धवर्णनम् SHASRAELIERRASSES अलमलमाउलत्तणेण, पउणीकारवेसु पउरपहरणपंडहच्छं जयकुंजरमेगं मह जोग्गं, अवरं च गंगाधरजोग्गं ति । 'तह' त्ति संपाडियं सेवं अज्जुणेणं । तओ अणुरूवठ्ठाणनिवेसियासेससामंतचक्को चकवूहविरयणं काऊण हिओ परवलाभिमुहो हैत्थिमल्लो । लग्गमाओहणंवैजंताउजसमच्छलतपडिसद्दभरियनहविवरं । नहविवरट्ठियसुर-खयर-किन्नरारद्धजयकार ॥ १ ॥ जर्यकारसवणसंतुट्ठवंठखिप्पंतनिसियसरनियरं । सरनियरवरिसपडिरुद्धचंडमायंडकरपसरं ॥ २ ॥ पसरंतजोहसंघायघायघुम्मतमत्तकरडिपडं । करडिघडविहडणाउलचउदिसिनासंतभीरुनरं ॥ ३ ॥ नरनाहनिहणनिवडतछत्त-धयनिवहरुद्धसमरपहं । समरपहवूढरुहिरप्पवाहबुडूंतनर-तुरयं ॥४ ॥ नर-तुरयमुंडदोहंडाँडकवलणमिलंतवेयाल । वेयाल-पूयणाकुलकीडाकयतुमुलहयबोलं हयंबोलसवणपडिवलियसुहडकीरंतवीरवाहरणं । बाहरणुग्गयरणरसमुच्छियभडदिनहुंकार ॥ ६ ॥ १-पडइच्छं-युक्तम् ॥ २ सञ्चं प्रती ॥ ३ अच्छिम" प्रती ।। ४ 'आयोधन' युद्धम् ॥ ५ पाद्यमानातोपसमुच्छलस्पतिवादारानभोषिवरम् । नभोविवरस्थितसुरखचरकिनरारब्धजयकारम् ॥ ६ "मुज्जलं प्रती ॥ ७ "रखंज' प्रती ॥ ८ जयकारभवणसन्तुष्टयण्ठक्षिप्यमाणनिशितशरनिकरम् । शरनिकरवर्षाप्रतिरुद्धचण्डमार्तण्डकरप्रसरम् ॥ ९ प्रसरयोधसयातघातपूर्णमानमत्तकरटिपटम् । करटिपटाविघटनाकुलचतुर्दिगनश्यभीरुनरम् ॥ १० नरनाथनिधननिपतच्छत्रध्वजानिवहरुसमरपथम् । समरपथव्यूढरु धिरप्रवाहबुद्नरतुरगम् ॥ ११ मरतुरगमुण्डद्विखण्यरुण्डकवलनमिलद्धतालम् । बेतालपूतनाकुलकीडाकृततुमुलहयचोलम् ॥ १२ इयबोलश्रवणप्रतिवलितसुभटक्रियमाणवीरच्यादरणम् । च्याहरणोद्तरणरसमूछित्तभटदत्तहुकारम् ॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभदसूरिविरइओ कहारयणकोसो ॥ सम्मतपडलयं । ॥ ३६ ॥ 5646464 हुंकारसंकओसकगिद्धपम्मुकचंचुवावारं । वारंवारं सवत्थ वित्थरंतोरु- भीमरवं ॥ ७ ॥ ईय घोरसमरसम्मधनिधउद्दामवडिउकरिसो । नरनाहहत्थिमल्लो हयमहिये कुणइ रिउचकं 11 2 11 एवंविहे य महासमरसंरंभे अजयावहमाहवसरूवमवधारिऊण पहाण पुरिसेर्हि अणिच्छंतो विछिन्नच्छत्त धणुवयावलोयणमिलियमानो (१) [भव ] देवराया नीसारिओ समराजिराओ । 'हयं सेनमनायगं' ति मैं जतो तं तत्तो लुंटियं अज्जुणरायलोएण परबलं : सोहिया संगामभूमी, निरूविया पहारपरवससरीरा सामंताइणो । दिट्ठो य गंगाधरो कुंतषायगयजीवो निवडिओ भूमिवट्टे, परं सोगावेगमइगतो हस्थिमल्लो, कारियं च सकाराइयं से परलोईयं । हत्थिमल्लोवरोहेण पडिवन्नमविसन्नमाणसेण अज्जुणेण पुत्ररजं । धूयादाणपुरस्सरं सकारिओ अणेण 'परमोवयारि' त्ति हत्थिमल्लो | ठिओ सो तत्थेव कइवयवासराई । नवरं नसलं व से खुडतं न खणमवि विरमह मित्तमरणविओगदुक्खं, न नट्टविहिवियक्खणे वि सुरूवरामाजणे निवडइ चक्खू, परमपहरिसड्डाणे विन आनंदिअइ मणागमवि मणो, न गय-तुरयवाहियालीसु वि क्षेत्रमवि अहिरमई मई । एवं च स महप्पा तओिगं निग्गहिउमपारयंतो देसदंसणाओ दूरनियत्तियचितुच्छाहो कहिं पि रई अपावमाणो जाव ॥ ३ इति घोरसमरसम्मर्दनिर्देयोदामव १ डुकारष्वष्कदवष्वष्क दूधप्रमुक्तचन्चुव्यापारम् । वारंवारं सर्वत्र विस्तरदुरुभीमरवम् ।। २ "सकिओ चितोरकर्षः । नरनाथदस्तिमतः इतमथितं करोति रिपुचकम् ॥ ४ जं तत्तो तं प्रतौ ॥ ५ अजुण" प्रती ॥ ६ नटुस° प्रती ॥ ७ ओगनिग्गहिओमपारयंतो दिसिदंसणाओ दूरं प्रतौ ॥ भणियं - महाभाग ! सामुद्दसत्थपरमत्यो एस तुह सिट्ठो, तदणुरूवा य फलनिष्पत्ती होइ न होइ ति कम्माण अहिगारो, तह वि अवितहवयणा भयवंतो सत्थयारा, अवस्सं भवियवं तुह रिद्धिसमुदएणं, अओ न जह तह अप्पा किलेसियो ति । रन्ना जंपियं—तुम्मे जाणह ति । एवं च दिणमेगं वीसमिऊण नीहरिया तओ ठाणाओ, पयट्टा पुट्टिईए गंतुं । जाव य कइवयजोयणाई गया ताव कुरुदेस विसमभूभागडियं तेहिं दिडुं चउदिस विमुकंहेरियं इओ तओ भमंत-रुभंततुरयारूढ जोहं विसन्ननायगजणं सिबिरसन्निवेसं ति । तं च तहाविहं पेच्छिऊण पुच्छिओ एगो पहाणपुरिसो-भो ! किमेवमेयं भउन्तं व दीसह १ ति । तेण भणियं - भो महायस ! सुणेहिं – एसो हि कुरुदेसाहिवई अज्जुणो नाम राया पंचंतनरिंदसंदोहेण रयणी अवैक्खंददाणाइणा पराजिओ, निहयपहाणजोह निवहो य संपइ त भएण एवं ससंको हत्थि मल्लेण भणियं कह एत्तियचाउरंगबलसामग्गीए व एस महप्पा एवं विसीय १ ति । तेण भणियं - किं कीरइ सामग्गीए तहावि सावभधीरपुरिससानिज्झविरहियाए ? । इयमायनिऊण उच्छलिया रनो करुणा, पयट्टो महापुरिसत्तणसहसंभूओ परोवयारकरणाहिलासो, बिस्सुमरियं पारद्धं नियपओयणं । भणिओ पेण सो पहाणपुरिसो- अरे ! गंतूण नियनश्वइणो साहेसु—जह तहाविहपुरिस साणिज्झाभावाड विसीयसि ता पउणो होहि, केत्तियमित्तमिमं परवलं १ को १ हेरिकाः चराः ।। २ प्रत्यन्तनरेन्द्रः - समीपदेशस्यो राजा ।। ३ "बखंद" प्रतौ ॥ ४ "हमय" प्रतौ । तथाविधसावष्टम्भभीरपुरुषसानिध्यविरहितया ।। ५ इदमाकर्ण्य ॥ ६ महापुरुषत्वसहसम्भूतः ॥ ७ "करुणा" प्रतौ ॥ ८ विस्मृतम् ॥ स्थिरीकरणातिचारे भवदेवकस्थानकम् ७ | ॥ ३६ ॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरइओ कहारयणकोसो ॥ सम्मत्तपडलयं । ॥ ३७ ॥ पुत्तो महीचंदो केणइ दुन्निमित्तेण न याणामो पिसायपारद्धो असमंजसं जंपतो महाकट्टेण निरुद्धो, तुम्हे य गूढपुरिसपेसणेण य तदुवकमकरण वाहराविया तुरियतुरियं ति । तओ 'हा ! किमेयं ?" ति आदनो राया गतो तदंतियं । अन्भुडिओ पहिद्वेण रायसुरण | कयपायवडणाइप डिवत्तिविसेसो संभासिओ रन्ना-वच्छ ! किमेयं ? ति । रायसुएण भणियं - ताय ! कत्थ किं ? ति । तओ 'सुन्नवयणो' त्ति धरिओ रन्ना मुद्धाए । सभय चमकारं च जंपियमणेण देव ! किमेवं नियमित्तं पि पीडेसि १ । रत्ना भणियं को तुमं १ । तेण जंपियं—– गंगाधरो हं । रन्ना वुतं — कहमेवंविद्मवत्थं पत्तो ? । तेण जंपियंमहाराय ! तइया महासमरसंरंभवावडे तुमए अहं निबिडगुंडाडोयभासुरं करेणुरायमारुहिऊण ठिओ अभिमुो दुम्मुहामिहाणस्स परबलसामिणो, पयङ्कं महंतमाओहणं, निट्ठिया सर-नाराय - खुरुप्प - वायल भल्लि सेल्लाइणो पहरणविसेसा, ततो मए चोयाविऊण सहत्थी पडिकरिदंत निहसदेसं पडुच कओ खग्गेण रिउणो घाओ, तेणावि अच्चंतनिसिय कुंतघायविर्णितंतजीलो पाडिओ हं सौरिखट्ठाओ, गयजीओ य उववन्नो पिसायदेवेसु, तुह दंसणुकंठिओ य संकंतो कुमारम्मि । - इमं सोचा सविम्हयं सविसायं ससोगगग्गिरं च संलत्तं रन्ना - अहो ! सच्छेदं देवदुद्दिलसियं, [ अहो ! ] अविभावजिरुवा कम्मपरिणई, अहो ! भागधेयविवज्जओ, जमेवंविहसहाइरयणाणि वि एवंविहदेवकिञ्चिसजोणिमावअंति, किमिह कीरह १ अविसओ पुरिसयारस्स, अगोयैरं मंत-तंताईणं ति । मंतीहिं भणियं - देव ! अलमलं संतप्पिएण, कुणह जमेत्थ १ व्याकुलितः । २ मुद्दाए प्रतौ । मूर्ध्ना ॥ ३- व्यापृते त्वयि ॥ ४ गुडा हस्तिकवचम् ॥ ५ 'सेसो प्रती ॥ ६ 'जाले पा प्रतौ ॥ ७ हस्तिकवचष्टष्ठात् ॥ ८ सशोकगद्रदम् ।। ९ 'यरमं प्रतौ ॥ करणिअं । रन्ना भणियं – भो परममित्त ! साहेसु केण पुण विहिणा तुह करण सुगइलाभो भवेजा ? सवहा दुकरं पि उवायं - निवेदेसु । पिसाएण भणियं - महाराय ! अइकंतो कालो करणिअस्स, सकम्माणुरूवो सहणिजो इयाणि दसाविवागोति देवाण नारयाण य नरिंद ! चिरविहियकम्मपडिरूवो । उवैभोगो चिय सुकयजणं च पुण कम्मभूमीए ॥ १ ॥ पिंडेप्पयाण- हुणणाइणा य जे वि य वयंति किर सुगई। विगइगयस्स वि दूरं अन्नाणवियंभियं तं पि ॥ २ ॥ एवं पि सुगइभावे कुगई कस्स वि न होज संसारे । कीरइ य कीस जह तह सुगईभावे वि तवकिरिया १ ।। ३ ।। ता जह विशेयणोसह लंघण किरियाए रोगिणो सम्मं । सयमेव कीरमाणीए होइ रोर्गक्खतो नियमा ॥ ४ ॥ तह नरवर ! तब-संजम नाण-ज्झाणाइणा सुचरिएण । असुहस्स खओ तत्तो य निम्मलो सुगइलाभो ति ॥ ५ ॥ एवं बुत्ते 'तह' त्ति पडिवन्नं रन्ना । कयसिणेहसारसंलावो य जहागयं पडिगओ पिसाओ । साभावियरूवं पवन कुमारो । एवंविहतवइयरनिसामणेण य धम्मकरणाभिलासी जाओ राया । इओ य सो भवदेवनरिंदो समरपराजय [जाय ] वेरग्गो 'कहमहं मुँहमवजसर्पमुमलिणं सयणाईण दंसिस्सामि ?' त्तिच्छिन्नघरदंसणाभिलासो अद्धपहे च्चिय महसागरसूरिसमीवे पच पडिवन्नो, सुत्तत्थाई अहिअंतो तवोविसेसपरो विहरंतो य गुरुणा समं समागतो रम्मपुरनयरे । सूरिसमागमसमुब्भवंतपमोयाइसया य समागया चंदणत्थं पत्थिवाइणो । निसामिय सवन्नुवयण १ सावागो विति प्रती ॥ २ भोगे चि प्रतौ ॥ ३ पिण्डप्रदानह वनादिना ॥ ४ " गइभा प्रतौ ॥ ५ विरेचनौषधलङ्घनक्रियया ॥ ६ गखतो प्रतौ । रोगक्षयः ॥ ७ सुह" प्रतौ ॥ स्थिरीकरणातिचारे भवदेवकथानकम् ७॥ ॥ ३७ ॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ PRO देवभद्दसति विरइओ कहारयणकोसो । सम्मत्तपडलयं । स्थिरीकरणातिचारे भवदेवकथानकम् ७ परमत्था य मत्थयारोवियपाणिणो पाणिवहपमुहपावट्ठाणनिविचि जहसत्तीए पवना पुरजणा । पुहइबई वि पुर्व चिय भववासविरत्तचित्तो तकालविसेससमुल्लसंतविरइपरिणामो पामिऊण महीचंदस्स रायसिरिं सिरीससुकुमारसरीरो वि निस्सामनं सामनपजायं घेत्तुं गुरुकुलं समल्लीणो । विजियमयणमल्लो हत्थिमल्लो वि विहरि पर्वत्तो । पचभिन्नाओ य भवदेवसाहुणा, जहा-सो एस पवजापडिवत्तिहेउत्तणेण मह उवयारी पराजयकरणेण य अवयारी य, अहह ! कहं समराजिरमुवगओ तहाविहमहं महंत लहुत्तमुवणीउ ?-त्ति मणागं समुबहइ अणुसयं । इयरो न पचभिजाणइ इमं ति बच्चइ कालो। अभया य 'गीयत्थो' ति गुरुणा पुरओ काउं भवदेवसाहू हथिमल्लाइकइवयसुतवस्सिणो सहाइणो दाउं पेसिओ विहारजत्ताए । सो य सिरोवरिसमारोवियसासणो अणिययविहारचरियाए गामाणुगाम विहरिउं पवत्तो । एगया य अचिन्तसामत्थत्तणओ मोहमहारायस्स, पडिकूलकीलाकारितणतो य भवियत्वयाए स महप्पा हथिमल्लरायरिसी परिवडियमुद्दभावो परिभाविउं पवत्तो पडिलेहणा-पमजणपमुहविहाणं विणा वि देवगई । लब्भइ जीवहिं नियइभावओ निच्छियं एवं कहमनहा महाहवनिउत्तमुनिरुत्तचित्तर्विरिओ वि । सुरजोणिम्मऽणुपत्तो मिचो गंगाधरो मज्झ? ॥२॥ सुवंति य समए वि हु तहमवेत्तुब्भवंतसामत्था । अकयकिरिया वि मरुदेविमाइणो सिवपय पत्ता ॥३॥ १ अर्पयित्वा ॥ २ "सिरि सरीरमुक प्रती । शिरीषकुमारशरीरः ॥२ "वनो प्रती ॥४ नियतिभावात् ॥ ५ महाहवनियुक्तसुनिश्चितचित्तवीर्योऽपि ॥ ६ 'विहरि प्रतौ ॥ ७ मुरयोगी अनुप्राप्तः ॥ ८ तथाभव्यत्वोद्भवत्सामाः ॥ ९ "व्वन्नुभ" प्रती ॥ ॥ ३८॥ ॥३८॥ GRAMRAKASHANATOKOREASSASSENTIRSARIES अच्छइ ताव पुवरजाओ समागओ एगो गूढचरो, पडिहारनिवेइओ पविट्ठो, पायवडणपुवयं च खेतो अणेण लेहो । वाइओ सयं रमा, 'सिग्य नियत्तियई' ति अवगओ तयत्थो । कहिओ य अज्जुणनरिंदस्स एस बुतो । तओ करि-तुस्य-स्यणसंभारनिव्भरं रायलच्छिविच्छई। सायरकयप्पणामो समागओ अज्जुणनरिंदो ॥१॥ भालयलारोवियपाणिसंपुडो जंपिउं समाढत्तो । देव ! तुह पायपउमप्पसायलबविलसियं एयं ॥२॥ ता गिण्हसु संबमिमं तुह उवयारस्स केत्तियं एयं ? | तुह दंसणे वि नरवर ! मन्ने कयकिच्चमप्पाणं नियजीवियवएंण वि परउवयरणेकलालसे तुमए । को सद्दहइ न बलि-सिविपमुहे परकजकरणरए ? ॥ ४ ॥ अह सगुणकित्तणायनणेण लजाए संकुडियकाओ । तं भणइ हथिमल्लो भो नरवर ! किमिममुल्लवसि ? ॥५॥ का मे सत्ती ? को नाणपगरिसो ? किं कलासु कोसल्लं? । को वा परोक्यारो तह वि हु गुणकित्तणमउर्व ।। ६ ।। थेवं पि गुणं गिरिगरुयवित्थर सर्चविंति अवरस्स । गरुयं पि अप्पणो निण्हविति पयई सुपुरिसाण ॥७॥ ता अलं भूरिभणणेण, भद! अणुभंजसु इमं रायसिरिं, अहं पुण वच्चामि राभिमुहं ।-ति संठविऊण कइवयपुरिससमेओ नियत्तियासेसलोओ केणइ अमुणिअंतो गओ सनयरं । पविट्ठो रायभवर्ण, आसीणो अत्थाणमंडवे, समागया मंति-सामंताइणो, चिंतियाई रञ्जकजाई । विसजियासेसलोगो य मंतीहिं समं ठिओ एगते । पुच्छिया मंतिणो-भो! किमहं वाहरिउ ? ति । मंतीहिं भणियं-देव ! निसामेमु-तुम्ह १-विस्तारम् ॥ २ संखुडो प्रती ॥ ३ समारब्धः ॥ ४ सजमिप्रतौ ।। ५ एणं वि प्रती। -न्ययेन ॥ ६ पश्यन्ति ।। ESSAGACASANASAXAYA सत्पुरुषत्वम् Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसरिविरहओ कहारयणकोसो।। सम्मत्तपडलयं । ॥३९॥ इय जइ ते विहु निच्छिन्नपायसंसारसायरा वि जिणा। अब्भुजमंति ता सेसयाण को एत्थ वामोहो? ॥ २॥ स्थिरीकरएवं वुत्तो वि पुणरवि पचुत्तरमणुसंधंतो ईसिपुवाणुसयवसओ उवेहिओ भवदेवसाहुणा । ततो बाद धम्मकिच्चेसु अथि- 18 जाणातिचारे रीकयमाणसो लोयलजाए कुणमाणो वि बैज्झाणुट्ठाणं विराहियसामन्नत्तणेण मरिऊण असुरेसु उववभो । भवदेवो वितथि भवदेवकरीकरणोवेहणसंजणियसम्मईसणकलंको वि कयदुकरतवविसेससामत्येण कालं काऊण लंतए कप्पे मज्झिमाऊ देवो जाओ त्ति । थानकम्। तहिं च नाणाविहकीलाहिं वच्चंति से वासरा । घडिया य ददं ईसाणनामधेएण सुरेण सद्धि मेची। वच्चइ य तेण समं विदेहाइखित्तेसु तित्थयरवंदणत्थं । अह छम्मासससाउपत्ते पुच्छिओ अणेण तित्थयरो-भयवं ! किमहं सुलहबोही भविस्सामि ? न व ? ति । भयवया भणियं-महाभाग ! दुल्लहबोहिलाभो तुमं, न कइवयमवभमणमंतरेण समीहियत्थभागी भविस्ससि ति । इमं सोचा सोगभरनिभराऊरिजमाणमाणसो वंदिऊण [गओ] जहागयं । तत्थ वि य सकम्मकुलिसताडिओ व दुकयहुयासणसंतप्पंतो दिडो सो ईसाणेण । पुच्छि ओ अणेण-भो वरमित्त ! किंनिमित्तमित्थं तुझ अणुताचो ? । तओ सिंहूँ एएण संतावकारणं । ईसाणेण भणियं-महाभाग ! जइ एत्तिएण [संतप्पसि ] ता मा संतप्पेन्जासि, अहं तुह भवंतरगयस्स तहा काहामि जहा बोहिलाभो हवा ति। पडिवनमिममियरेण । १'णा को प्रती ॥ २ बाल्यानुष्ठानं विराधितश्रामण्यत्वेन ॥ ३ तरिस्थरीकरणोपेक्षणसंजनितसम्यग्दर्शनकलवोऽपि कृतदुष्करतपोविशेषसामयेन ॥ ४ "म्मंदस प्रती ।। ५ सम्म प्रती ॥ ६ लद्धयो' प्रती ॥ ७ नं प्रती ॥८ सिट्ठ प्रती ॥ 31॥३९॥ RSIRSAROKAR कालकमेण मओ उववश्नो कोसंबीए वणियसुओ, जोवणमणुपत्तो य पडिबोहिउमारद्धो सामोवक्कमेणं देवेणं न कहि पि पडिबुज्झइ। तयणंतरं च हरि-हरिण-मिल्ल-भल्लुकिनिवहभीमाए । अडवीए पक्खिचो, सुरेण सो भेसिओ य बहुं ॥१॥ लल्लकचक-निसियग्गखग्ग-दिप्पंतकुंतपमुहेहिं । भणिओ य तियसमायाए पहरणेहिं रउदेहिं । मीणउलाउल-परिभमिरमयर-भीमयरलोलकल्लोले । जलहिम्मि य पक्खित्तो निस्सर्ट्स लोहपिंडोब ॥३॥ छुढो य कढिणदाढाकरालभुयमिंदरुंदमुहकुहरे । उबवेसिओ य पञ्जलिरजलणजालाकलावम्मि ॥४॥ न य तह वि कह वि ईसि पि तस्स संभवह धम्मपडिवत्ती । अचंततिक्खदुक्खोह[खोह]खिप्पंतमणसो वि ॥ ५ ॥ तो पडिभग्गो तियसो जहागयं पडिगओ अजोगो त्ति । इयरो वि चिरं भवभाविभीमभयभायणं भूओ ॥६॥ इय सचिसंभवे जाणिऊण धम्मम्मि अस्थिरं सत्तं । कुजा सवपयत्तेण तं थिरं दसणंगमिम ॥ ७॥ किश्चन हि विचलति चेतः कस्य मोहव्यपोहात् १, व्युपरमति [मतिर्वा कस्य नो कष्टकत्यात् । तदपि बहुतिथोक्तिन्यायदृष्टान्तकल्पं, तमपि जिनमताध्यन्यादरात् सन्दधीत ॥१ ॥ न्यायवर्त्मनि नियुक्तमानसं संस्करोतिकतमो न देहिनम् । तद्विकम्पितमपि स्थिरं पुनर्यः करोति स परं विचक्षणः॥२॥ १ भल्लुकी-शिवा ॥ २ भयकरचक्रनिशितामसजदीप्यरकुन्तप्रमुखः ॥ ३ मीनकुलाकुलपरिभ्रमणशीलमकरभीमतरलोलकानोले ॥ ४ निराधारम् ।। ५ क्षिप्तश्च कठिनदंष्ट्राकरालभुजगेन्द्रविस्तृतमुखकुहरे । उपवेशितब प्रज्वलनशीलम्वलनज्वालाकलापे ॥ ६ "हाव्य" प्रती ॥ स्थिरीकरणोपदेशः Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभदसूरिविरइओ कहारयणकोसो ॥ सम्मतपडलयं । ॥ ४० ॥ आबालगोपालजनेऽपि सिद्धः स्वार्थप्रवृत्तावधिकः प्रयत्नः । कल्याणसिन्धोरि कस्यचित्तु परार्थमित्थं भवति प्रयासः ॥ यद्यपि निर्मल केवललब्ध्यादिनिष्ठितार्थोऽपि । धर्मे स्थिरयति सभ्यान् तदेह सुधियां किमालस्यम् १ ॥ ४ ॥ ॥ इति श्रीकथारत्नकोशे सम्यक्त्वचिन्तायां षष्ठातिचारप्रक्रमे भवदेवराजर्षिकथानकं समाप्तम् ॥ ७ ॥ CX409000000 १ ॥ ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ 'विहिए वि थिरीकरणे न जं विणा निवहंति धम्मगुणा । पाएणं दंसणिणो तमिन्हिं कित्तेमि वच्छलं ॥ संघयण-काल-बल - बिरियपय रिसाभावओ सुगीयाणं । जो सजोगीण वि विलिअई संजमुजगो किं पुण तकालपबनदिक्ख - ओएस - बाल-रोगीण । हीएज न सो सुविसुद्धबुद्धिसामत्थविरहाउ ता ताण पाण-भोयण मेसह वत्थाइदाणओ कुआ । वच्छछं सविसेसं 'विगिट्ठतव बालयाईसु वच्छभावओ चिय अथिरा धम्मे थिरचणमुर्वेति । पुवं चेव थिरा पुण थिरतरगा उज्जमंति द लोए वि साहुवाओ नअंति विभिन्नदेस जाई वि । जिणसासणष्पवन्ना एगकुटुंबव जइ वइरसामिपमुहा साहम्मियवच्छलत्त करिंसु । सुस्समणा वि य होउं ता सेसा किमिह सीयंति ? तेणेव ऊसवाइस सरणं दिट्ठाण पुवमालवणं । परिभूयाणं ताणं दुत्थावत्थाण पडियरणं || 8 || ॥५॥ ॥ ६॥ ॥ ७ ॥ ॥ ८ ॥ १ विहीर प्रतौ ॥ २ सिंह केते" प्रतौ ॥ ३ सयः ॥ ४ आदेशाः - अतिथयः ॥ ५ दीयेत ॥ ६ चतुःप्रभृत्यभक्कार्थकारी विष्टतप उच्यते ॥ न अं प्रतौ ॥ ८ अकार्षुः ॥ ९ 'सरणं' समवसरणम्, जिनकल्याणकादिप्रसन्नेषु सङ्घमेलापक इत्यर्थः ॥ ता तहभवत्तं चिय कलाणकलावकारणं परमं । तदभावे पुण विहलो सो कायदवावारो ॥ ४ ॥ संजम तवाइएहिं उवेह सो पागमेयमवि तुच्छं । मरुदेवीपमुहाणं तबविरहे किंकओ पागो ? ॥ ५ ॥ ॥ ६॥ - ईय सुहकिरियावारगवइरिविरुज्झतसुद्ध परिणामो से महष्पा तब-किरियासु ईसि मंदायरो जाओ उवलद्धतप्पमायदुद्द्बिलसिएण भणिओ भवदेवसाहुणा – भो रायरिसिप्पवर ! अनिविनपवनसामन्नगुणस्स जइ वि नत्थि तुह किं पि अणुसासियां तहावि किं पि भन्नइ - इह हि पुरिसा तिविहा हवंति - जहना मज्झिमा उत्तमा य, तत्थ जहन्ना नारभन्ति पढमं चिय विग्घभयाओ धम्मत्थं, मज्झिमा पुण विग्वविद्यया पारद्धं पि परिहरंति, उत्तमा य पच्चूहवूहसंभवे वि बहुतरमन्भुजमन्ति ता तुममवि उत्तमो भविऊण कीस धम्मकिचाओ पच्चोसकतो व लक्खिअसि ? ता किं जुत्तमेयं । ततो हत्थिमल्लरायरिसिणा सिट्टो सबो निययाभिप्पाओ । भवदेवेण भणियं भद ! जइ वि मरुदेवी पुत्रमकयतव नियमविसेसा वि तम्मे च्चिय सहभावाइरेगवससमासाइयनी से सकम्मक्खया मोक्खमुवगया तहावि न तदुदाहरणमच्छेरियभूयं पमाणीकायां सवत्थ, ववहारविगमभावाओ, जं च 'वहांहभवत्तभावाउ चैव सिद्धिलाभो, कट्ठाणुडाण करणमणुचिंय' ति वृत्तं तं पि न सुंदरं जओ तित्यरो चउनाणी सुरमहिओ सिज्झियवयधुयम्मि । अणिगूहियबल - विरिओ सवत्थामेण उज[म]इ ॥ १ ॥ १ " रहो किं प्रतौ ॥ २ इति शुभक्रियावारकवै रिविरुभ्यमानशुद्धपरिणामः । ३ सा म प्रती ॥ ४ अनिर्विण्णवश्रामण्यगुणस्य ।। ५ "दुत्तर" प्रतौ । ६ प्रत्यववष्कमाणः' प्रतिनिवर्तमानः ॥ ७ जमे प्रतौ ॥ ८ शुभभावातिरेकवासमासादितनिःशेषकर्मक्षया ।। ९ आर्यभूतम् ॥ १० 'हाविहभ' प्रतौ ॥ ११ यं पितौ ॥ १२ गाथेयमावश्यकनिर्युतौ ॥ वात्सल्य गुणे धनसाधुकथा नकम् ८ । वात्सल्यस्य स्वरूपम् ॥ ४० ॥ पुरुषभेदाः Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमद्दसूरिविरइओ कहारयण कोसो ॥ सम्मत्तपडलयं । ॥ ४१ ॥ पडिओ वंडरागरं । गओ कइवयजोयणाणि, आवासिओ पञ्चंतगामे, जाओ भोयणसमओ, समारद्धो भोयणोवकमो, 'भोयणपत्थावो' त्ति सुमरिया देव गुरुणो, वेरग्गोवगओ चिंतिउं पवतो न यत्र जिनमन्दिरं न च जिनेश्वरस्यार्चना, न दुष्करतपः क्रियाकृतधियोऽधिकं साधवः । न चापि गुणवत्तराः शुचिधियश्च साधर्मिकाः, न चाऽऽगमवचः क्वचिच्छ्रुतिपर्थं समागच्छति विवेकविकलं मनो मम कथं विरुद्धस्पृह, विहर्तुमभिवाञ्छति च्युतगुणं च तत्राप्यदः १ । य ईदृशविपर्ययव्यतिकरेण वित्तागमः, पदं स विपदामहं महदिति स्फुटं तर्कये ॥ २ ॥ अहो ! महामोहविजृम्भितानां विरुद्धसन्धानविधौ प्रयत्नः । विदनपीदं यदयुक्तमित्थं तथापि न त्यक्तुमहं समीहे ॥ ३ ॥ इति विसदृशसामग्री मन्येऽहं दर्शनेऽपि सन्देहम् । आधास्यतीव पापा हा धिग् ! विषमो दशापाकः ॥ ४ ॥ एवं च सकायचेण परं संतायमुवहंतो सहाइजणोवरोहेण भोत्तूण वुत्थो तत्थैव । मज्झरतसमए य निम्भरपसुत्तस्स सव[स्स]मादाय पलाणा सहाइणो । पंच्चूससिसिरमारुयकयका उकंपो य पबुद्धो जाव पासदेसमालोएड ताव न किंपि पासइ । 'कहं मुसिऊणं ममं पणट्टा दुबेट्ठा सहाइणो ? अहो ! विवरम्मुँहो विही, अहो ! पडिकूला कम्मपरिणई, फलियं च कहमकालपरिहीणमेव वैवसायपावपायवेण ? न सव्वहा दहवबलवियलेण वि पुरिसयारेण किं पि सिज्झइ, केवलं काय 11 2 11 १ बज्राकरो देशविशेषः ॥ २ दुःकर प्रतौ ॥ ३ रा सुविधि प्रती ॥ ४ प्रत्यूषशिशिरमारुतकृतकायोत्कम्पश्च ॥ ५ विशेषेण पराङ्मुखः ॥ ६ व्यवसायपापपादपेन || किलेसफलो चैव जायह सब्वो उवक्रमो, ता किं नियत्तामि घराभिमुहं ? एत्थेव वा चिट्ठामि कइवयदिणाणि १ अहवा न जुत्तमेयं, अक्खंडियपुरिसयारा चेव पुरिसाण पवित्ती, होउ किं पि, पारद्धकरणमेवोचियं' ति निच्छिऊण अच्छिन्नपयाणएहिं गतो बहरागरं । समारद्धो इयरलोएण व तेणा वि वइरागरक्खणणेण विही । पाउणइ य तेत्तियं जेत्तिएण भोयणमेतं संपजइ । एवं पिवेद्वारई । वञ्चति वासरा । जाया य खन्नैविजावियक्खणेण दिवायराभिहाणेण जोगिणा समं से गोडी । दाण-सम्माण-वयणविन्नासाइणा य दूरमागरिसियं जोगिणा तस्स हिययं । अवश्वासरे य सायरं भणियमणेण - भो विसाहदत्त ! गरुओ एस कायकिलेसो, जमेवं पइदिणं किलिडुकटुकप्पणाए पाणवित्ती, सबहा चयसु एयं, अस्थि मह सुगुरुपाउयापूयणपसाएण धरणीकप्पपरिन्नाणं, तवसेण य मुणियं मए - एत्तो डाणातो पुवदिसिभाए तिकोसमेत्तं चंडियाययणपुरओ पंचकोडिदीणारपहाणं महानिहाणं, तं च तुम्हारिसे जइ उवजुअह ता जुत्तं हवइ सि । विसाहदत्तेण भणियं किं पुण एत्तियकाल एयस्स अग्गहणं । दिवायरेण जंपियं— मुहू पुच्छियं, सुणमु एत्थ कारणं अहं हि गंगासरिपरिसरे सरवणसन्निवेसे जलणवं भणसुतो आसि । संपत्त जोर्वेणो य तहाविहवसणवसेणाऽऽवासा नीयम्मि पिउणो घरसारे सनिकारं नीसारिओ हं कुद्धेण पिउणा । जहिच्छचारेण परियडंतो य पत्तो सिरिपव्वयं । दिट्ठो य तत्थ गुविलगुहाविवरमैज्झमज्झासीणो ज्झाणकोट्ठोवगतो निष्फंदलोयणो निरुद्धसङ्घवावारो एगो महामुनी । पणतो मए १ वर्धयति ॥ २ वन्यविद्याविचक्षणेन ॥ ३ गङ्गासरित्परिसरे ॥ ४ दवणे व प्रतौ ॥ ५ मध्ये अध्यासीन ॥ वात्सल्य गुणे धनसाधुकथानकम् ८ । धर्मात्मनां भोजनसमये चिन्तनम् ॥ ४१ ॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरइओ वात्सल्यगुणे धनसाधुकथानकम् ८ कहारयण कोसो॥ सम्मत्तपडलयं। सबायरेण । तम्मुहकमलाबलोयणविणि उत्तलोयणो ठिओ तदंतिए । खणंतरे य ईसिविष्फारियचक्खुणा संभासिओ हं तेणवच्छ ! कत्तो आगओ सि ? ति । सविणयं सिट्ठो य मए निययवुर्ततो । तमायनिय भणियमणेण उस्सिखलखलणं पिब एक पि हु इंदियं हवइ जस्स । सो गंजणं जणाओ पावइ पुणु पावयसमो वि ॥१॥ किं पुण सवाणि वि सबहेव संसविसयसंगसजाणि । न करेज ताण सो लल्लक आवयाचकं ? ॥२ ॥ विकंता विउणो वि य पसिद्धिपत्ता वि गरुयसत्ता बि । दुईतिंदियनिहया निहणमणता गया सत्ता ॥३॥ कुप्पंति परम्मि परं पडिकूलकरम्मि न उण थेवं पि । पइसमयभूरिदुबिलसियागमे इंदियग्गामे ॥ ४ ॥ ता परमत्थेण न को वि कस्सई वइरिओ सुही वा वि । अप्पा असंवुडो संवुडो य सत्तू य मित्तो य ॥५॥ इय पैसमसार-मिय-महुरजंपिरे तम्मि मुणिवरे मज्झ । भववासाओ विमुद्दा दूरं जाया मई ज्झत्ति ॥६॥ तओ पवन्नो हं तस्स समीवे सीसत्तणं, गयाणि कइक्यवरिसाणि, दूरमावञ्जियं विणयकम्मणा से हिययं, जाओ य मे पसायाभिमुहबुद्धी । अन्नदिणे य दिनो अणेण खन्नविज्जाउवएसो, नवरं भणितो हं-सयं इमं न भोत्तवं, परस्स वि अहम्मस्स न उवणुजणिजं, अन्नहा अधनविजा [विव] विवजिहि त्ति । 'तह' त्ति पडिस्सुयमेयं । कालकमेण मओ एसो। अहं पि तप्पायसुमरणं कुणंतो डिओ एत्तियकालं । संपयं च तुह असरिसगुणपब्भारतरलिएण उवयाराणुरूवट्ठाणबद्धाणुसएण इमं निहाणस १ इवार्थकमव्ययम् ॥ २ स्वस्यविषयसहसवानि ॥ ३ भीमम् ॥ ४ मुहद् वाऽपि । आस्मा असंवतः संवृतब ॥ ५ प्रशमसार-मित-मधुर-जल्पनशीले । | ६ अवन्न प्रतौ ॥ ७ 'विपत्स्यते' विनश्यति ॥ ८ भसरसगुणप्राम्भारतरलितेन उपकारानुरूपस्थानबद्धानुशयेन ॥ KARKIRCRASADHAN ARRASAIRNSARS ॥४२॥ ॥४२॥ सीयंताणं च सुवित्तिजुजणं चोयणं पमाईणं । साहम्मियाण धन्ना कुणति वच्छल्लचुद्धीए ॥९ ॥ सुहि-सयणमाइयाणं उवयरणं भवपबंधवुड्डिकरं । जिणधम्मपवनाणं तं चिय भवभंगमुवणेइ ॥१०॥ आसंसाविरहाओ संसारियभावविगमओ चेव । वच्छल्लममोल्लं कित्तयति साहम्मिलोयम्मि इय जो सभूमिगाए समुचियमायरह सुद्धबुद्धीए । सो पत्तबोहिलाभो धणो व निब्बुहसुहं लहद ॥१२ ।। तथाहि अत्थि कुबेरपुराइरेगरिद्धिवित्थारविरायंतमंदिरमालालंकिया, सच-सोय-दया-दक्खिनपमुहपहाणगुणाणुगयपवरपुरिससमद्धासिया, सीयामुत्ति व अचुयसाहापरिगया, गेयाणणगंडमंडलिव अणवरयपयट्टदाणवरिसा, वरिससयवएण वि अणिट्ठियभूरिकोसा कोसंबी नाम नयरी । तत्थ य वत्थबो विसाहदत्तो नाम सेड्डी विसिट्ठजणसम्मएण बवहारेणं वटुंतो कालं वोलेह । कालंतरेण य तहाविहचिरभवावजियमुकयविवजयवसेण सणियसणियं ज्झीणो रिद्धिसमुदओ। जाया से चिंताकिमियाणिं जुत् ? सबहा दबविवञ्जियस्स हि गिहिणो न देव-गुरुपूयणं, न बंधुजणसम्माणणं, न गुणजणं, न अन्नो को वि पुरिसत्थो संभवइ, ता तदजणं काउं जुजह ।-ति कत्तो वि किं पि समजिऊण कुंडुंबसुत्थयं काऊण किं पि भंडं घेत्तूण १ "त्तिजंज प्रती । 'सुवृत्तियोजन' सद्ब्यापार योजनम् ॥ २ सुद्धत्स्वजनादीनाम् ॥ ३ "यंतिम प्रतौ ॥ ४ समध्यासिता-युक्का ॥ ५ यथा सीतामूर्तिः अच्युतस्य-रामस्य शाखामिः-स्तुतिभिः परिगता-युक्ता तत्परायणा इति भावः, एवं नगर्यपि अच्युताभिः-निरन्तराभिः शाखाभिः-आहुतिभिः ज्याप्ता ॥ ६ गजाननगण्डमाली अनवरतं प्रवृत्ता दानवर्षा-मदजलवर्षा यत्रैवम्भूता, नगरी तु दान-त्यागः तदर्षा ॥ ७ "लि ज अ प्रती ।। ८ "णिहिय” प्रती । अनिधितभूरिकोशा ॥ ९ माम प्रती ॥ १० क्षीणः ॥ ११ कुडंपसु प्रती ॥ : Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमद्दसूरिविरहओ कहारयण कोसो ॥ सम्मत्त पडलयं । ॥ ४३ ॥ विन जिण - साहुणो मोत्तूण अन्नं पूएमि वंदामि वा । किश्च - ॥ १ ॥ ॥२॥ ॥ ३ ॥ ॥ ४ ॥ खरतरसमीरताडियताडी दललग्गसलिलबिंदुचलं । जीवियमैथिरप्पहरेहविब्भमं देहसोहं पि संस्यब्भविब्भमं जोवणं पि दुग्गयपईवपडितुल्लं । पियजणसंजोगं संपयं पि तरुणीकडक्खचलं सेस पि थोयवासरधिरं ति मुणिऊण चिरपरिग्गहियं । हियमप्पणो पहनं कयमेयमहं विलोएमि सकुलकमो विमुंचा धम्मविरुद्धं पि कीरइ अवस्सं । जइ होअ जीवियद्वाइयं थिरं सङ्घकालं पि एवं च सवं पयंतो निसामिओ तद्देसपसुतेण अइगरुयासायणावसोवलद्ध लिंगपारंचियपायच्छित्तेण एत्तो थिय अवत्तवेस- लिंगधारिणा अतुच्छं पच्छायावमुवहंतेण पच्छाकडेणं धणाभिहाणेणं । चिंतियं च तेण - अहो ! कस्सइ महाणुभावस्स सम्मत्तनिच्चलत्तणं, अहो ! गाढावइनिवडियस्स वि दढधम्मया, अहो ! अभिन्नसरो वयणविन्नासो, किमिह भन्नए ? वर्यमिह चिरचरिचरणा वि होऊण सगुणडाणाउ एवं नाम निवडिया, एस पुण महाणुभावो गिहत्थो वि अच्चत्थं दुत्थावत्थावडिओ वि एवं पपइति । एत्थंतरे कोवारुणीकयनयणेण कर्यंतजीहादीहं खग्गवेणुमायड्डिऊण भणियं जोगिणारे रे दुरायार ! असारजंपिर ! परमत्थमुत्त ! निविलो व जीवियवस्स समुल्लवसि, जइ रे ! तुममेवंविधम्मनिच्चलो ता कीस बहलतमपडलसामले अणेग१ "मविर प्रती । अस्थिरपथरेखाविभ्रमं देहसौख्यम्, त्रिभमां देहशोभां वा ॥ २ शरदभ्रविभ्रमम् ॥ ३ सम्पदम् ॥ ४ क्खं च प्रती ॥ [५] प्रतिज्ञाम् ॥ ६" यमद्दिचि" प्रतौ ॥ ७ जीययच प्रती ॥। ८ रे ! दुममेवं प्रतौ ।। O पञ्चवायाउले विभावरीमज्झे मुहा परिस्समभायणं कथा अम्हे ?, तमिमं सुहपसुत्तकेस रिकिसोरतलप्पहारप्पयाणमिव मरणपत्रवसाणं तुज्झाणुट्ठियं, अओ सुमरसु इट्ठदेवयं, सुदिट्ठे च कुणसु जीवलोयं, सो एस कीणासवयणष्पवेससमओ ति । इमं च अयंडपडियजमदंडड्डामरमायनिऊण मणियं बिसाहदत्तेण ॥ १ ॥ २ ॥ तथा॥३॥ ॥ ४ ॥ अइलालियं पि अइपालियं पि कयविविहभूरिरक्खं पि । तियसेहिं पि न तीरइ पुन्नावहि जीवियं जंतं अप्पडिपुन्नावहि नासिउं च नो तीरई तैयं कह वि । एवं ठिए य किं भूरि भद्द ! विहलं समुल्लवसि १ ॥ अक्खंडियसपइन्नं अविगंजियनियकुलकमायारं । मरणं पि हु पैरमब्भुदयनिविसेसं अहं मन्ने सरियां पि हु चिरमेव सुमरियं वीयरायपयपमं । ऐत्तियमेत्ते य मणोविनिच्छए होउ जं किं पि ॥ ५ ॥ इय जाव सो पर्यपह ता चिरैदिनोवजाइयनिमित्तं । कचायणीए पुरओ तं हंतुमुवडिओ जोगी एत्थंतरम्मि गरुयकरुणापूरपूरिजमाण माणसेण परमविआबलदुद्धरिसेण साहम्मियवच्छल संतविरिएण सिग्घमुवसप्पिऊण भणिओ सो धणेण - रे जोगियाहम ! को एस अणअ[क]करणुकरिसपरमो पोरिसारंभो ? किं एवं पि न मुणसि ? - माणसमल्लीणे परमेसरे सरणेकसुंदरे जिणवरे न कयाह एवंविहखुदोवदेवा ईसि पि विविउँ पारिंति, ता रे असच्चसंघ ! कवडेण इमं महाणुभावं निहणमुवर्णितो अप्पाणं सुरक्खियं करेासि । -चि उग्गीरियासिपुतिओ चैव थंभिओ से धुओ, विचलीकथं १ अकाण्डपतितयमदण्डभयङ्करमाकर्ण्य ॥ २ पूर्णावधि जीवितं 'यात्' गच्छत् ॥ ३ 'तत्' जीवितम् ॥ ४ 'परमाभ्युदयनिर्विशेष' महाभ्युदयसमानम् ॥ ५ एतावन्मात्रे मनोविनिश्रये ॥ ६ चिरदत्तोपयाचितनिमित्तम् ॥ ७ दववा प्रतौ ॥ वात्सल्य गुणे धनसाधुकथानकम् ८ | ॥ ४३ ॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभसरिस विरइओ वात्सल्यगुणे धनसाधुकथानकम्८ कहारयणकोसो ॥ सम्मत्तपडलयं । सरीरं विजावलेणं । संभासिओ विसाहदत्तो, पुच्छिओ य-भद्द ! किमेवंविहदुरायारसंसग्गेण मरणपञ्जवसाणेण ? । विसाहदत्तेण भणिय-भो परमबंधव ! वित्तिवुच्छेयपभवो लोभो एत्थावरज्झह ।-त्ति सिट्ठो अणेण निहाणवुत्तो। तदसच्चयापच्चयकरणत्थं भणिओ धणेण दिवायरो-भो ! किं तए इमं आरंभियमासि ? त्ति । जोगिणा वि तम्माहप्पमणप्पमवगच्छिऊण भणियं-सुणसु भयवं!, मए चिरदिन्ननरोवजाइयसंपाडणत्थं कच्चायणीए पुरओ णिहाणकवडेणेह आणिओ एस मुवणिओ हणिउमारद्धो य, सेसं तुज्झं पि पच्चक्खं, खमहमिहि अवराह, अहं पि तुम्हाण अणुकंपणिजो, पसीयह सबहा, विसञ्जह सट्ठाणगमणत्थं ति | 'मा भुञ्जी एवं जीववह करेजासि' त्ति विसञ्जितो गतो "सं ठाणं ।। पुट्ठो धणेण विसाहदत्तो-भो! कत्तो आगमणं ? कहिं वा गंतवं ? कत्तो वा जिणधम्मसंपत्ती ? । विसाहदत्तेण भणियं-धम्मसंपत्ती सायरचंदसूरिसयासाओ, आगमणं च कोसंबीपुरीओ, गंतवं तु संपइ न कहिं पि, इहेव निवाहनिमित्तं कइवयवहररयणऽञ्जणकए वाससंभवाओ। धणेण भणिय-भद्द ! जाणासि किं पि बरिरयणगुण-दोसं जेण तग्गहणमभिलससि ? ति । विसाहदत्तेण भणियं-पसायं काऊण साहेह तस्सरूवं ति । धणेण जंपियं-निरुश्विग्गो निसामेसु सुस्वच्छं लघु वर्णतश्च गुणवत् पार्थेषु सम्यक समं, रेखा-बिन्दु-कलक-कोकपदक-त्रासादिभिर्वर्जितम् । लोकेऽस्मिन् परमाणुमात्रमपि यद् वजं क्वचिजायते, तस्मिन् देवसमाश्रयो बवितथस्तीक्ष्णानधारं यदि ॥१॥ १ मं भीसिओ प्रती ॥ २ अन्न अपराश्यति ॥ ३ "ट्ठाणं गमणच्छं ति प्रतौ ॥ ४ स्वं स्थानम् ॥ ५ यरंचव प्रतौ ॥ ६-७°इयररय प्रती ॥ ८ वनंत प्रतौ ॥ ९ "काकुप प्रती ॥ १० ताम् प्रती ॥ ११ "धार य' प्रती ॥ KANPATRIKANER ॥४४ ॥ रत्नलक्ष णानि * 0॥४४॥ RAKESARSWA *** *** लोभस्वरूपम् रूबं निवेइयं ति । ता भद्द ! कारण[मत्तमिमं जं तुमए पुर्व पुढे ति । तओ दूरविगयविगप्पजालेण भणियं विसाहदत्तेण-भय ! जुत्तमिमं, कुणसु इयाणि ममाणुग्गह-न्ति । ततो निहाणपूयापमुहकायश्ववित्थरो सिट्ठो जोगिणा । तेणावि अविमंसियतचित्तवित्तिणा पगुणीकओ, न विभावियं थेवं पि लोभदुविल| सपगिमं, जहा ताव च्चिय किच्चा-किचचिंतणा माणसम्मि संभवइ । कञ्जपरिच्छेयखमा ताव चिय विप्फुरद बुद्धी ॥१॥ जावऽज वि बञ्जनिवायदारुणो दूरदरिसियदुरंतो । उत्थरइ नेव लोहो विहुणियसोहो महाजोहो ॥२॥ एवं च विसाहदत्तो समु[व] ट्ठियावयावडणो निहाणुक्खणणसमग्गपूयाविहाणसमेओ पहिओ समुवइट्ठनिसिसमए समं जोगिणा । पत्तो चंडियाययणसमीवे । भणिओ य समीवपत्तमणोवंछियसिद्धिणा जोगिणा-भद्द ! कचायणीपसायणमुहा सैवसंपत्तीतो, ता वच तुमं, पूएसु भगवई, जाव अहं एयदुवारदेसे च्चिय मंडलगपूयणाइणा अणंतरकिच्चकरणाय सो भवामि त्ति । 'अणुचियमिमं सबन्नुधम्मपवनाणं' ति विभाविय भणियं विसाहदत्तेणं-भो जोगसस्थपियक्खण! अट्ठारसदोसवञ्जियं भयवंतं निरंजणं जिणं मोत्तूण सुमिणे वि न अनउत्थियाणं देवयाणं वंदण-पूयणाइ कप्पड़ काउं ममं, ता जइ कच्चायणीपूयाकिच्चसज्झो एयलाभो ता पडउ बजासणी लाभस्स, अलं आयासेणं, वचामो सट्ठाणं, किमिह बहुभणिएण, जीवियचागे | १ अविमष्टतचित्तत्तिना ॥ २ विधुनित शोभः विधुनितसौख्यो वेत्यर्थः ॥ ३ समुपस्थितापदापतनः ॥ ४ "गुख प्रतौ ॥ ५ सर्वसम्पत्तयः ॥ ६ णुशिय प्रती। ****** RAHASRANA%A5%255453 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमद्दसूरिविरहओ कहारयण कोसो ॥ सम्मत्तपडलयं । ।। ४५ ।। लंकमावअंति, को वा पडिमल्लो कम्मविलसियाणं १ । इह चिंतावसाणे य भणियमणेणं - मह जोग्गयाणुरूवं देह किं पि आएसं ति । धणेण जंपियं— भद्द ! उवयाराणुरूवे धम्मट्ठाणे सुड्डु वट्टेजसि ति । 'तह' ति पडिवजिऊण गओ विसाहदत्तो जहागयं, पारद्धो पुट्टिईए खणिउं वइरागरं । धणो विचिन्नपायच्छित्ततवोविसेसो पुणो पवन्नो गुरुसमीवे सामनं । विसाहदत्तो वि तहाविहसमुखसियला मंतरायकम्मखओवसमवससमासाइयपुब्बु त गुणजुत्तवजरथणदुगो गओ सनयरं । तविकएण पावियं भूरि दवजायं । पयट्टो य अपुवजिणभवण-बिंब पट्टा - विसिद्धतित्थ- तित्थयरपूयाइएस तं निजुंजिउं । अन्नया य सो घणसाह बहुमुणिजणपरिबुडो विहरंतो संपतो तं पुरं । वंदणत्थमागओ पुरजणो । कथा साहुणा धम्मदेसणा । पडिबुद्धो बहू जणो । विसाहदत्तो वि मुणिं पञ्चभिजाणिऊण जायपरमहरिसुंकरिसो सायरकयपयपणामो विनविडं पवत्तो भयवं । किं नुं वियाणह ? सो एस जणो कयं तव [य]णातो । तुब्भेहि रक्खिओ जो कारुनपवन्नचितेहिं ॥ १ ॥ जिंणधम्मवणि ति जणे तह वच्छलं तर कुणंतेणं । अप्पा न किंतु अहमवि भवकुवाओ समुद्धरिओ II R 11 कह व न दिव्य पयडं पेडिहयपरतित्थिह स्थिविकमणं । सासणमेयं जम्मिं तुह सरिसा हुंति मुणिसीहा ? ॥ ३ ॥ जह कह वि तम्मि काले न तुमं हुंतो सि जीवरक्खकरो। ता अदृज्झाणमओ कं कुगई नेव बचंतो ? ॥ ४ ॥ १ 'समंवससमसा प्रतौ ॥ २ "रिसमुक्क प्रती ॥ ३ न प्रती ॥ ४ जिनधर्मवनि ॥ ५ प्रतिहतपरतीर्थिहस्तिविक्रमणम् ॥ मन्त्रे समज सुदिणं सो चिय समओ इमो सुहाण करो । जम्मि जियकप्परुक्खं तुह पैयपंकयपयं दि काऊण मह पसायं संपइ आदिससु जं करेमि अहं । मैह पुनपगरिसेणं तुम्हाऽऽगमणं धुवं जायं मुणिणा भणियं भद्दय ! किमन्नमिह तुह कहेमि ? भववासे । जिणधम्माओं ण परं मणवंछियकारणं परमं ता तम्मि उत्तरोत्तरमुह किच्चा राहणेण पइदियहं । नियं चैव पयत्तो जुत्तो सुविवित्तचित्ताणं पडिवच्छलं पिहू एवमेव तुमए महं कयं होइ। जइ सङ्घसंगचागेण निब्भरं भयसि जिणधम्मं 'इच्छामो अणुसडि' ति भालवडूम्मि ठवियकरकमलो । पडिवन्नसाहुवयणो, विसाहदत्तो गओ सगिहं ॥ १० ॥ ॥ ८ ॥ 118 11 ॥ ५ ॥ ॥ ६ ॥ ॥ ७ ॥ ततो वाहरिऊण सकुंबं सिट्टो चिरकालिओ सयलवुत्ततो, मुणिदिना एसपाउब्भूओ संजमाभिलासो य । तओ भाविविओगदुक्ख भरुब्भवंतवाहपक्खालियाणणं कुटुंबं भणिउं पवत्तं - भो देवाणुप्पिय ! बाढं विप्पियमिमं सोउं पि किमंग ! अणुमंतुं १ को वा तुमाहिंतो वि ताणं चक्खू वा अम्हाणं ? ति । विसाहदत्तेण भणियं - किमेवं निविवेयाणुरूवमुछवह ? किं न मुणह मह संपइ पच्चासनं सम्मं मच्चुं १ सबसरीरलद्वावगासा जरा, नियनियविसयगहणपडिभग्गो इंदियग्गामो; एवंठिए य भूरिवइरिपलायमाणस्स व निरंभणं, जलण1 मम पुण्यप्रकर्षण महापुण्य७ णुमंतं तौ ॥ ८ समं म १ पयपय पंकयं पयं प्रतौ । पदपङ्कजपदम् ॥ २ कृत्वा मथि प्रसादम् कृत्वाऽतिप्रसादमिति वा ॥ ३ अह प्रकर्षेणेति वा ॥ ४ ओ विप प्रती ॥ ५ कुटुंबे प्रतौ ॥ ६ भाविवियोगदुःखभरोद्भवद्वापप्रक्षालिताननम् ॥ प्रतौ ॥ ९ 'विसाय प्रतौ ॥ वात्सल्य गुणे धन साधुकथानकम् ८ । ॥ ४५ ॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमदपरि विरहओ कहारयणकोसो ॥ सम्मतपडलयं । ॥ ४६ ॥ जालावलीपरिगयभवणविणिक्खमंतस्त्र व अंतो' चिय निजंतणं, सबहा अजुत्तं पारद्धर्वत्थुपयट्टस्स मह पडिक्खलेणं; न य एवंकए वि तुम्ह किं पि निस्सेयसं ठाणमवगच्छामि, धम्मविग्धसंपाडणेण केवलं अहम्मकम्ममेव; ता पडिवजह मह त्रयणं, विणयह अप्पाणं, पच्छा वि भावी एस विओगदुक्खपन्भारों, जह अवस्सं ते भीरुणो भवंतो ता वह सममेव पैं । किमि [म]णा मुँहमेत्तरसिएण पतदिन दारुणदुहनिवहेण गिवासेणं ? ति । इमं सोच्चा पहिडं कुटुंबं एवं करेमो, सम्ममाइङ्कं ति उबवूहिऊण तद्वयणं समं विसाहदत्तेण साहुणो समीवे सबविरहं घेतूण सुगइभायणं जाय-न्ति ।। वच्छलाओ एवं विसाहदत्तो परं गुणं पत्तो । तत्तो य तक्कुटुंबं वच्छलं केण पंइतुलं ? ॥ १ ॥ साहू वि धणो संजमधणस्स कित्तिस्स सुगइलाभस्स । खाइयसम्मत्तस्स वि परमं पयत्रिं समारूढो ॥२॥ अपि च क्लेशांशमात्र विद्यतोऽपि शैरीरिवर्गो, मार्ग समुत्सृजति विक्लवमभ्युपैति । तस्माच्चिराचरितदान- तपोविधान-ध्यानाऽऽगमस्मृतिफलेन विमुच्यतेऽसौ ॥ १ ॥ १ तो जिय प्रती ॥ २ 'बन्नुप' प्रतौ ॥ ३ "लनं प्रतौ ॥ ४ रो | तह अवस्सं तभीरु प्रतौ ॥ ५ 'तद्भीरवः' वियोगदुःखभीरवः ॥ ६ पज्ज प्रतौ ॥ ७ पचजं प्रतौ ॥ ८ मुद्दमे प्रतौ ॥ ९ चयं केण इय तुलं प्रतौ ॥ १० 'प्रतितुल्यं' समानम् ।। ११ शरीरव" प्रतौ ॥ १२ "मुच्कृ" प्रती ॥ ॥ २ ॥ ॥ ४ ॥ || 9 || एकमपि य[] शृङ्गं विचटितमवलोक्यते विशीर्ण वा । गुणवदपि तन्न धार्य वज्रं श्रेयोऽर्थिभिर्भवने यच्चैकदेशे [s]क्षतजातभासं यद्वा भवेल्लोहितबिन्दुचित्रम् । न तन्न कुर्याद् ध्रियमाणमाशु स्वच्छन्दमृत्योरपि जीवितान्तम् ॥३॥ पट्कोटिशुद्धममलं स्फुटंतीक्ष्णधार, वर्णान्वितं [च] लघुपार्श्वमपेतदोषम् । इन्द्रायुधांशुविसृतिच्छुरितान्तरिक्षं, एवंविधं भुवि भवेत् सुलभं न वज्रम् व्याल-वह्नि-विष-व्याधि- तस्करा ऽम्बुभयानि च । दूरात् तस्य निवर्तन्ते स्फुटकर्माण्यर्थदानि (१) च यदि वज्रमपेत सर्वदोषं विभृयाद् विंशतितन्दुला गुरुत्वम् । मणिशास्त्रविदो वदन्ति तस्य द्विगुणं रूपकलक्षमग्र मूल्यम् || ६ || एवं च वइररयणसरुवमवधारिऊण उइए सूरमंडले दिंद्रुतविसरिसायारेण पायवडिएण विसाहदत्तेण भणियं - अहो महाणुभाव ! सहा न कुष्पियचं, 'परमोवयारि' त्ति पुच्छिउं किं पि अहिलसह मम मणो । धणेण भणियं - वीसत्थो पुच्छसिति । विसाहदत्तेण भणियं - पसायं काऊण ता साहेसु, कहं सुसमणाणुरूवं सरीरसंठाणं ? कहं वा स्यहरणपमुद्दोवहिविरहिओ वेसो ? ति । धणेण जंपियं— सुडु, अहं हि धणो नाम साहू अणुचियवयणव सावज्जियजिणसासणासापणादोसो गुरुविइनएवंविधपायच्छित्तो एवं वामिति । एवं सोच्चा विडिओ विसाहदत्तो चिंतेइ - अहो ! कहं रयणा[य]रस्स वि वेलालंघणं १ सरयरविणो वि तमोवियारपरामरिसो ? जमेवंविधसुसाडुरयणाणि वि होऊण एवंरूववयणिञ्जक १ 'टस्तीक्ष्ण" प्रतौ ॥ २ वर्णान्वि प्रतौ ॥ ३ व्याघेत" प्रतौ ॥ ४ "मन्यिर्थ" प्रती ॥ ५ रूम प्रतौ ॥ ६ दृष्टद्विसदृशाचारेण ॥ ७ 'ओ विसो प्रती ॥ ८ अहं कई प्रती ॥ वात्सल्य गुणे धन साधुकथानकम् ८ । वात्सल्यविधानोपदेशः ॥ ४६ ॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमहरिविरहओ कहारयणकोसो।। सम्मत्तपडलयं । प्रभावनाचारे अचलकथानकम् ९ । REASONSORROAS अईसेसि इड्डि धम्मकहि वाइ आयरिय ख़मग नेमित्ती । विजा राया-गणसम्मया य तित्थं पभावेंति अन्ने वि विगिट्ठतवोविसेससुइसील-निम्मलायारा । बिति सुभद्दापमुहा तित्थस्स पभावंगा पहुणो सावज-ऽणवअविभागमावणं पि हु इह न जपंति । सचरित्त-उंचरित्तीणं जमिमं सवेसिं किचं ति तेणेव सिंगणाइयक चुनेज चकवट्टि पि । साहू लद्धिबलेणं तदकरणेऽणंतसंसारी ॥ ७॥ किं बहुणासाहूण चेइयाण य पंडिणीय तह अवनवाई च । जिणपवयणस्स अँहियं सवत्थामेण वारेजा ॥८ ॥ निसुणिजइ विण्हुकुमारसाहुणा साहुसंघपेडिणीओ । नमुई खित्तो चलचलणकोडिणा लवणजलहितडे ॥९॥ भूरिगुणसिद्धिहेउं लहुदोससमुभवो विष्णुनाओ । अहिदईगुलिछेओ जह कीरइ जीवियवकए ॥१०॥ ता राग-दोसरहिओ जो जिणसासणपभावणं कुणइ । तित्थयरनामगोयं सो बंधइ नूण अयलो व ॥११ ।। तथाहि-अस्थि आगरी व पुरिसरयणाण, भूमि च सयलविओठाणाणं, निलउ व लच्छी, उप्पत्तिभूमि व अच्छरयाण, १ गाथेय निशीषभाष्ये ३३तमी। अतिशेषी ऋद्धिमान् धर्मकथी वादी आचार्यः क्षपक: नैमित्तिकः । विद्यासिद्धः राजगणसम्मताश्च तीर्थ प्रभावयन्ति । २अन्येऽपि विकृष्टतपोविशेषशुचिशीलनिर्मलाचाराः । उच्यन्ते सुभद्राप्रमुखाः प्रभोस्तीर्थस्य प्रभावकाः ॥ ३ "वणा प* प्रतौ ॥ ४'णाव प्रती ॥ ५ "वेसु कि प्रती ॥ ६ सिंगणणायकजि चु प्रती । 'नादिते कार्ये' वादनपूर्वकं कर्तव्ये सहादिकानां महति कार्ये उत्पन इति भावः ।।७पयडीणं तह प्रती ॥ ८अहितं 'सर्वस्थाम्ना' सर्वशक्त्या ।। ९ पडणी" प्रती । प्रत्यनीका-विरोधी ।। १० 'गणिलो प्रती ॥ ११ 'ज्जासंट्राण प्रतौ ॥ १२ °ए, पत्ति प्रती ॥ BAEKASEXASEASE ॥४७॥ रामचंदनरिंदभुयपरिहपडिहयपडिभयं निब्वयपुरं नाम नयरं । तहिं च रायप्पसायट्ठाणं अयलो नाम सहस्सजोही सपरकमावगनियसेसलोगो दुल्ललियवित्तीए वह । एगम्मि य दिणे अत्थाणनिसनस्स रामचंदराइणो विन्मत्तं महायणेणं-देव! न वि दीसह चोरपयं न मुणिजह तग्गमाऽऽगमो कह वि । खत्तं पि पडह न कहिं पि नेव नजइ य संचल्लो ॥१॥ हेल्लोहलयं सयलं पि नवरि मुटुं ति वागरइ नयरं । सुपयत्तखेत्तधणमवि हीरइ ही ! सयमिव निहितं ॥२॥ अञ्ज वि दंसिजह सयनिहित्तवत्थुम्मि नूण घरसामी । दंसिजइ सुज्झइ थेवमवि य नो तकरो राया (१) ॥३॥ आगिट्टिपगिट्ठो होज किं नु सो ? अब सिद्धपुरिसो वा ?। अंजणसिद्धो वा होज ? विम्हओ चट्टए गरुओ ॥ ४ ॥ इय तबिसेसनामं पि दुल्लहं निच्छियं वयं मुणिमो । अहिस्समाणरूवस्स किं ति पुण तस्स करगहणं ? ॥५॥ इमं च सोचा कोवैभरायविरच्छिविच्छोहेहिं पक्खित्तकणवीरकुसुमुकरं पिव भवणभाग कुणमाणो रामचंदनरिंदो जपिउं पवत्तो-अहो ! एवंविमसमंजसमवि कीस एचिरदिणेहिं मह साहियं ? किं मए पडिक्लियं कयाइ तुम्ह वयणं? न सुट्ट वा वद्वियं पयापओयणेसु अवगनिओ वा दुनयकारी जणो? जमेवं उवेहा कय त्ति । महायणेण भणियं-देव! कीस एवमासंकह ? न सुविणे वि देवो एवंविहवत्त्वयाभायणं, केवलं अमुणिजमाणे तकरसरूवे कहं पहणं चित्तसंताचो उप्पाइजइ ? संपयं 'चादं सोढुमसकं' ति सिटुं देवस्स । 'को पुण एयनिग्गहसमत्थो त्ति भाविऊण राइणा पलोइया सभानिसन्ना सुहडाइणो। १-परिषप्रतिहतप्रतिभयम् ॥ २ अकस्मात् ।। ३ सुप्रस्नक्षिप्तधनमपि ॥ ४ जानीमः ॥ ५ किं पि पु प्रती ॥ ६ कोपभराताम्राक्षिविक्षेपैः ॥ |७ "सुमक" प्रती ॥८मसम्मंज" प्रती ॥ NOKRC4%ARAKHANA Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरइओ कहारयणकोसो ॥ सम्मतपडलयं । ॥ ४८ ॥ ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ || 2 || सामंत दंडनायग सेणावइ- अंगरक्ख-सुहडेसु । जा को वि किं पि न भणइ विभत्तो ताव अयलेण देव ! पसीयह वियेरह आएसं मज्झ कित्तियं एयं । पुत्रेण कह वि लब्भइ पत्थावी एरिसो नूण तो नरवइणा तंबोलदाणपुत्रं पर्यपिओ एवं तह कुणसु भद ! सिग्धं जह लब्भ[६] एस चोरो ति जइ पक्खते चोरं न लभामि अहं विसामि तो जलणं । इइ निच्छिऊण अयलो नीहरिओ रायभवणाओ ॥ ४ ॥ पयट्टो य तिय- चउक-चच्चर-सभा ऽऽसम देवभवणाइसु चोरनिरूवणं काउं । ठविया य सवत्थ पयडा पच्छन्ना य तदुबलक्खणत्थं पचइयपुरिसा । गयं दुवालसरतं, न लद्धा थेवमेता वि चोरसुद्धी । विसन्नो एसो चिंतिउमारो य-अहो ! अपरिभावियवयणाणं एवंविहो दुरंतो विवागो, जमपणा अप्पणो च्चिय मच्च् पच्चासनीकओ, निच्छिय मे यवइयरच्छलेण मरणमुवडिमियाणि, ता किं समीववत्तिमरण लिंगाणि घडंति न व १-त्ति अवलोइयमणेण नासग्गं, निरूविओ कनघोसो, पच्चक्खीकओ भमुहाभागो, दिट्ठा गयणगंगा तओ 'अज वि न किंपि पचासन्नमच्चु लिंगं' ति पछिट्टो हियएणं । 'न य संसयतुलमणारोवियजीवियधेहिं कअं साहियं तीरह' ति णिविडनिबद्ध नियंसणो सणियसर्णियं तमालदलसामलं खग्गधेणुमादाय एगागी पढमजाममेत्ताए रयणीए नीहरिओ घरातो एसो । गओ य नयर पच्छिमविभागवत्तिणि कुडुंगाभिहाणे महामसाणे । तं च केरिस १ १ 'वितरत' दत्त ॥ २ चौरशोधनम् ॥ ३°मेत्तो वि प्रतौ स्तोकमात्राऽपि ॥ ४ प्यणो अ° प्रती । ५ साधयितुं शक्यते ॥ ६ °णियन्तमा प्रतौ ।। ७ गवित्ति" प्रतौ ॥ मुक्तश्च तेन बहुशो जनना-ऽऽधि-मृत्यु-रङ्गत्तरङ्गभववारिधिमध्यवर्ती । विस्रस्तपोत इव तिष्ठति भूरिकालं, मिध्याविकल्पजलजन्तुवितुद्यमानः स्तं विपत्तिपतितं च कृपापरीतः साधैर्म्यवत्सलधियैव परं प्रशास्ति । तस्मात् समस्तु कतमः परमोपकारी १ त्राताऽथवा १ समभिवाञ्छतिदायको वा १ सद्धर्मवारि वात्सल्यमेवमुपलभ्य सत्फलनिदानम् । को नाऽऽद्रियेत कल्याण कोश कामो महासवः ॥ इति श्रीकथारत्नकोशे सम्यत्तवचिन्तायां सप्तमातिचारे धनकथानकं समाप्तम् पुव्युत्तगुणं पि हु दंसणं इमं मोक्खसोक्खमुवणे । सम्मं पभावणाए ता तीए सरूवमेक्खेमि कॉले किलिस्समाणे उस्सिखलखलखलीकर मग्गे । हीएज धम्मवंछा तित्थस्स पभावणाए विणा करणक्खमा य तीसे देवा ते पुण पमायणो पायें । अनेसि संत्तिविरहा इअ अइसइपभिइणो नेया ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ १ ॥। ४ ॥ ॥ ८ ॥ ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ १ यस्त्वं वि प्रती ॥ २ कृपावान् ।। ३ 'धर्म्येव प्रतौ ॥ ४ 'आख्यामि' कथयामि ॥ ५ काले लिश्यमाने उच्छुत लखलखलीकृते मार्गे ॥ ६ माणा उ° प्रतौ ॥ ७ णत्रमा प्रतौ ॥ ८ 'तस्याः' प्रभावनायाः । ९ प्रमादिनः ।। १० सन्निविरहाइअसइसइप प्रतौ । शक्तिविरहादिति । प्रभावकाथ अतिशयिप्रभृतयोऽनन्तरमेव वक्ष्यमाणाः ज्ञेयाः ॥ प्रभावना चारे अच लकथा नकम् ९ । मृत्युचिह्नानि ॥ ४८ ॥ प्रभावनाया: स्वरूपम् Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभरिविरहओ कहारयण कोसो ॥ सम्मत पडलयं । ॥ ४९ ॥ अहं ते अभिरुई, नवरं तुमं पि मम अभिरुदयं पूरेजासि-त्ति आयडिऊणं असिघेणं छिन्नं नियसरीरमंसखंड, दिनं च एयस्स । 'अहो ! अत्तपुवमेरिस' ति पारद्धो पिसाओ तं भक्खिउं । ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ उकैचिऊण जह नह अपलो से देह मंसखंडाई । तह तह दिवोसह विंहिय व बुद्धिं छुहा जाई नीसेसमंसवियलं जा जायं से सरीरंगं दूरं । ता जीवियनिरवेक्खो सीसं सो छेत्तुमारो धरिओ य पिसाएणं दाहिणहत्थेण सत्ततुट्टेण । भो भो ! कयं महायस । एवंविहसाह से र्णितो वरसु वरं ति पबुचो अयलो पडिभणह देव ! पसीय ममं । पडिवअसु सीसमिमं कत्तो पुण तुह समो अतिही १ ॥ ४ ॥ एयस्स सयं पि विर्णस्तिरस्स सारं सरीरगस्सेयं । जं जुअह परको ता विग्धं कुणसु मा एत्थ एवं पिनविओ भगइ पिसाओ वरं वैरसु भद्द ! । मा पुरिसरयणवियलं होउ अंयंडे वि धरणियल ये पुणरुतुल्लाविरपिसायवयणावगास मवगम्म । सो भणइ देव ! तुज्झ वि किं सीसइ मुणियकअस्स ! || 9 || पिसाएण जंपियं— एवमेयं, पभाए तहा करेमि जहा तुमं अहिगयतकरसरूवो रायाणं पणमसि, ता वच्च निविग्गो निययभवणं, पसुकनी से सचिंतापव्भारो कुणसु निदं, अहं पि "सं ठाणं गंतूण चिंतेमि किं पि किचसेसं ति । 'एवं होउ' चि ॥ ५॥ || & || ॥ १ आकृष्य । २ "मंसं खेडं प्रतौ ॥ ३ उत्कृत्य || ४ 'तस्य' तस्मै । चतुर्थ्यर्थे षष्ठीविभक्तिः ॥ ५ हवींहि प्रती दिव्यौषवृंहितेव ॥ ६-विकलम् ॥ ७ पर्याप्तम् ॥ ८ सेणितो प्रतौ ॥ ९ विनशनशीलस्य ॥ १० प्रशापितः ॥ ११ वृणीष्व ॥ १२ अकाण्डे । १३ इति पुनरुको पनशीलपिशाचवचनावकाशमवगम्य । १४ शातकार्यस्य । १५ अधिगततस्कर स्वरूपः । १६ निरुद्विमः ॥ १७ प्रमुक्तनिःशेषचिन्ताप्राग्भारः ॥ १८ एवं स्थानम् ।। पडिवनं अयलेणं । अहंसणीहूओ पिसाओ । अलो विपओि सभवणामिमुहं । पेच्छिउं च सो निययसरीरं संविसेस [म] समलायन्न वन्नपगरिसपत्तं विसमचित्तो चिंतिउं पवतो - हा हा ! कथं अक्ख्यमिमं दीसइ सरीरं न किं पि उनओगं गयं तस्स महाणुभावस्स, अहो ! मे अपुन्नया, अहो ! परोवयारित्तविरहियत्तणं-ति संतप्पंतो गओ घरं, पसुतो सुहसेआए, 'समासिद्धकओ' चि निव्भरं निदा[ओ] । पभायसमए य मंदीभूयनिद्दावेगो संभासिओ पिसाएण - भो अयल ! पर्येलायसि १ जग्गसि वा १ । अयलेण भणियं - जग्गामि, आइस करणिअं । पिसाएण जंपियं—जं मए तुह पडिवनं तमायनसु संपयं एयस्स हि नयरस्स पुइओ पव्वयओ नाम भगवो आसमे परिवसह । तस्स य कविलक्खो नाम चेडओ सिद्धो । तं च पेसिऊण जं किं पि नयरे सारं वत्थं वा स्यणं वा आभरणं वा तमायैइ ति । निसियसमए य सो जहिच्छा[ए] चोरेऊणं निस्संको विर्यलेह, दिवा य भगवरुवेण संजमियसरीरो बगवित्तीए वट्टह । अवइरियदवसारं च उडवगब्भंतरगुविलबिलपवेसमित्तभूमीहरनिहित्तं धरई । एत्थ मा विगप्पं काहिसि-त्ति सपच्चयं संसिऊण जहागयं पडिगओ पिसाओ । सहस्सजोही वि ज्झति पबुद्धो, विष्फारियच्छो समीवे किं पि अपेच्छंतो, जाणियपिसायनिवेश्ययुत्ततो, काऊण पाभाइयकिचं, कश्वयभिचपरियरिओ गओ पिसायसिडे आसमपए । दिट्ठो जहासिट्ठो भगवो नियधम्मसत्थपरूवणं कुण १ अदर्शनीभूतः ॥ २ सविशेषम् असमलावण्यवर्णप्रकर्षप्राप्तम् ॥ ३ अपुण्यता ॥ ४ 'प्रचलायचे' निवासि जागर्षि वा ॥ ५ जं किमयरे प्रती ॥ ६. आकर्षति ।। ७ रात्रिसमये ।। ८ विचरति । ९ उटजाभ्यन्तरगुपिलविलप्रवेशमात्र भूमिगृहनिहितम् ॥ प्रभावना चारे अच लकथा नकम् ९ । ॥ ४९ ॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसरिविरहओ प्रभावनाचारे अचलकथानकम् ९। कहारयणकोसो ॥ सम्मत्तपडलयं । माणो, अचंतोवसंतागारो, अगारं धम्मसारस्स, सरस्सइपवाहो व अच्छिन्नवयणपरंपरापरूवियनायगो ति । तं च दद्ण चिंतियमयलेण-अहो! कहमेवंविहा आगिई ? कहं वा तारिसो अकञ्जकरणप्पवंचो ?, कहिं एवंबिहा किच्चा-किच्चपयत्थपञ्चायणपवणा वाणी कई वा तविहं संयं दुम्मेबदुबिलसियं', सम्वहा अविभावणिजा कम्मपरिणई न वियारभारगोयरमरिहइ-त्ति चिंतंतो संभासिओ भगवेण-भो महाणुभाव ! इममासणमलंकरेसु त्ति । तओ ईसिकयप्पणामो आसीणो अयलो । भणिओ य भगवेण-भद्द! किमुश्विग्गो व लक्खीयसि ? । सहस्सजोहिणा जंपियं-भय । अमुहलक्खणनिम्मायमुत्तिणो अम्हारिसा पए पए उचिग्गा चेव, केत्तिय साहिजइ ? । तओ आपायसीसं तदंगमाभोगिऊण भणियं भगवेण-भो महाभाग ! मा मा एणं मुल्लवसु, जओ सामुद्दसवलक्षणमुद्दासंवादिणी तुज्झ मुत्ती, तस्सत्थं गिजइ नाभिः स्वरः सत्वमिति प्रशस्त, गम्भीरमेतत् त्रितयं शुमाय । उरो ललाटं बदनं च पुंसां, विस्तीर्णमेतत् त्रितयं विशिष्टम् ॥१॥ वक्षोऽथ कक्षा नख-नाशिका-ऽऽस्य-कृकाटिकाथेति षडुब्रतानि । हूस्वानि चत्वारि तु लिङ्ग-पृष्ठी,ग्रीवा च जङ्ग्रे च सुखप्रदानि।।२] नेत्रान्त-पाद-कर-ताल्व-ऽधरोष्ठ-जिह्वा, रक्ता नखाश्च खलु सप्त सुखावहानि । इत्यादिलक्षणवचांसि भवच्छरीरे, निर्दषणानि सकलान्यपि संवदन्ति ॥३ ॥ अचलेनोक्तम्-भवतु शेषम् , भगवन् ! आयुर्दीघ मम? न वा ? इति । ततस्तत्करतलमालोक्य भणितं भागवतेनभो महात्मन् ! सुचिरायुरसि, यतः १ स्वकं दुर्मेधादुर्विलासितम् ॥ २ सदङ्गम् 'आभोग्य' निरीक्ष्य ॥ ३ मकारोऽत्रालाक्षणिकः ॥ ४ तच्छास्नम् ॥ ५ का चेति प्रती ॥ | सामुद्रिकम् ॥५०॥ AKAKKAKKARRERASKARXXKAKKARNAK श्मशानवर्णनम् अणवस्यकटुयकक्खडरडंतंभेरवकुटुंबदुप्पेच्छ । घुग्घुर[व]घोरघूयडकयभीममहातुमुलरावं भल्लुकमोकफेकारडामरं भमिरभूरिवेयालं । चीयद्धदद्धमयमंसभक्खणंऽक्खणियसिवचकं ॥ २ ॥ एंगत्थ कत्तिउकित्तपेसिमयजुसियजोइणीवंद्रं । अन्नत्थ मुक्कफुट्टऽट्टहासपरिभमिरभूयकुलं ॥ ३ ॥ एंगत्थ कलुणसरविहियरोयणारावडाइणीबिंध । अन्नत्थे तालतरुदीहजंघघुम्मंतरक्खउलं' ॥ ४ ॥ तम्मि एवंविहे" मसाणे अयलो अयलो व ईसिं पि अखुम्भन्तो जाव केत्तियं पि भूभागं गओ ताव एगो महापिसाओ उद्धबद्धकविलकेसपासो, फुरंततारपिंगललोयणो, कंधराकुट्ठकहरपसुत्तमहाविसविस[ह] रफारफुकारुग्गीरियगरुयसिहिसिहाजालो, दाहिणकरेण कवालं इयरेण जैमभमुहाकोणकुडिल कत्तियमुबहतो, 'महामंसं कत्थइ लब्भइ ?' ति पुणरुतं वाहरंतो पडिओ से चक्खुगोयरं । तओ परमसाहसावूरियहियएण भणिओ से अयलेण-भद्द! कि मग्गसि ? । पिसाएण जंपियं-अच्चतं छुहाकिलंतो महामंसं मग्गेमि, न से[से]सु मंसेसु अभिरुइ त्ति । अयलेण भणियं-मा विसीयसु, पूरेमि १अनवरतकटुककर्कशरटरवाटुम्बदुरप्रेक्षम् । पुग्पुरवघोरघुककृतभीममहानुमुलरावम् ।। २ "तभैरवककडकुई" प्रती।। ३ भल्टामुक्तफेत्कारभयङ्करं भ्रमणशीलभूरिवेतालम् । चिताऽर्धदग्धमृतकमांसभक्षणाक्षणिकशिवाचकम् ॥४ कमेक' प्रतौ ।। ५ णखणि" प्रत पेशिमृतकजुषितयोगिनीयन्दम् । अन्यत्र मुक्तस्फुटाहासपरिभ्रमणशीलभूतकुलम् ॥ ७ सियमयज्जुसि" प्रती ॥ ८ एकत्र करुणस्वरविहितरोदमारावडाकिनीबिम्बम् । अन्यत्र तालतकदीर्घजवपूर्णरक्ष:कुलम् ।। ९ "स्थ डाल प्रतौ ।। १० रखउ प्रती ॥११ हे समाणे प्रती ॥ १२ 'अचल इव' गिरिवत् ।। १३ भनो जाप्रती ॥ १४ कन्धराकोटकहरप्रसुप्तमहाविषविषधरस्फारफुत्कारोगीरितगुरुकशिविशिखाजालः ॥ १५ यमचकुटिकोणकुटिलो कर्तिकामुदइन् । १६ डिलकत्तियं मु प्रतौ ।। १७ वारंवारम् ।। १८ वूहिय" प्रतौ । -आपूरित- ।। १९ 'महामार्स' मनुष्यमांसम् ॥ SACXRAKASHA Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसरि* विरइओ | कहारयणकोसो॥ सम्मत्तपडलयं । ॥५१॥ प्रभावनाचारे अचलकथानकम् ९॥ परमत्थेण कारणभूओ, कहमन्महा एयवहयरं कोइ मुणंतो? सबहा महाणस्थकारी अहं, तथाहि एग लिंगी एसो अन्नं तह लक्खणोवएसी मे । वीसासमुवगओ वि य तह दंसियपणयभावो य ॥१॥ कहमवगणिय समग्गं एयमहं दूरचत्तनयमग्गो । एवंविहं अकिच्चं ही ही! नणु वैवसिओ काउं? ॥२॥ बहुसाहियम्मि कन्जे तुण्डिको होज पयडमवि लोए । अइपावपरिगएणं इमं पि वयणं न संभरिय ॥ ३ ॥ इहलोइयतुच्छपओयणस्थमित्थं अकिञ्चलक्खं पि । काउं कंक्खह जीवो नावेक्ख तकयं दुक्खं ॥ ४ ॥ इय अविभावियकिच्चस्स होउ एयस्स मज्झ पच्छितं । जीवियचागो सिहिमक्खणेण जलपचिसणेणं बा ॥५॥ एवं कयनिच्छओ सहस्सजोही अंगाइक्खिऊण कस्सइ वत्तं मज्झरते नीहरिओ घराओ, गओ एगंतपच्चंतसन्निवेसं, पारद्धो कट्ठाणि मीलिउं । दिट्ठो य अणेण एगो एगंतवासी एंगपायनिहियसबसरीरभारो मायंडमंडलुम्मुहानिमेसनिवेसियनयणो काउस्सग्गगओ तवस्सि त्ति । 'होउ ताब, सोयत्तं मरणं, पुच्छामि ताव इमं-किमेवं एस किलिस्सइ ?' ति । गओ अयलो तस्स समीब, निवडिओ चलणेसु, उडिओ वि पज्जुबासिउमादत्तो । खणंतरे य पारियकाउस्सग्गो पुच्छिओ णेण साहू-भयवं! किनिमित्तमेवं अप्पा संताविअइ? । मुणिणा भणियं नहि गरुयरोगविरहे विरोयणोसह-विसोसणप्पमुह । अभिनंदइ किरिय कोइ कीरमाणिं सुमुद्धो वि ॥१॥ १ एगो प्रती ॥ २ कथमवगणरय समप्रम् ॥ ३'म्यवसित्तः' लम्मः ॥ ४तस्कृतम् ॥ ५ अविचारितकार्यस्येत्यर्थः ।।६ समाणणं प्रती॥७अनारूयाय कस्यापि वार्ताम् ॥ ८ एकपादनिहितसर्वशारीरभार। मार्तण्डमण्डलोन्मुखानिमेषनिवेशितनयन: ।। ९ स्वायत्तम् ॥ १० विरेचनीषधविशोषणप्रमुखाम् ।। EASACHCALCACAKACHACKASAKAR KAARRIAAAAORAKAKARKARARY ॥५१॥ तपस्विमुने| रात्मकथा न य भूरिपाचपन्भारभारियं अप्पयं अपेहित्ता । कट्ठाणुट्ठाणमहो! एवंविहमारभइ को वि ॥२॥ ता मुद्धमुह ! एयनिमित्तं । अयलेण भणियं-भयब ! जहावित्तं तुम्ह वित्तं फुडक्खरं सोउमिच्छामि । मुणिणा भणियं-जइ एवं ता सुणसु अहं हि कायंदीए पुरीए वणसीहो नाम पारद्धिओ आसि । नियठकुरेण समं आहेडयं काउं अडवि गओ । तहिं च मैयकुलमुद्दिसिय ठकुरवयणेण पारद्धो पंचमुग्गारसरो गेयरवो । तैदाय[ण्ण]णुप्पन्नसवणसुहसंदोहसम्मीलियलोयणं निहायमाणं व समीवमुवसप्पिउमारद्धं मयकुलं । खित्तो य आयनमायड्डिऊण ठकुरेण तरुमूलनिलीणेण तयभिमुहो सिलीमुहो । विद्धा य तेण वेलामासवत्तिगुरुगब्भभरमंदगामिणी हरिणी । पीडापब्भारविदिनोदरा दूरपडियफुरफुरायमाणगम्भा य विरसमारसंती धस त्ति धरणीयले पडिया । तं च तहाविहविसमदसावडियमवलोयमाणस्स मद्द जाया महती दया । 'अहो ! अहमिमस्स अकजस्स निमित्तं' ति कुविओ अप्पणो उवरि । ससरं सरासणं मोडिऊण वेगेण धाविओ गिरिसिरावडणं काउं । खलिउमपारयंतो य बलिओ विलक्खो ठकुरो । अहं च गिरिसिराओ पडंतो पटिसिद्धो तद्देसकयकाउस्सग्गेण चारणसमणेण, पनविओ य । जहा १ अप्रेक्ष्य ।। २ 'आखेटकम्' मृगया ॥ ३ मृगकुलम् ॥ ४ तदाकर्णनोत्पन्नश्रवणसुखसन्दोहसम्मीलितलोचनम् ॥ ५ खिन्नो य प्रती ॥ ६ आकर्णमाकृष्य ।। ७बाणः ।। ८वेलामासतिगुरुगर्भभरमन्दगामिनी ॥ ९ पीडाप्राग्भारविदीर्णोदरा दूरपतितस्फुरत्स्फुरायमाणगर्भा॥१० "णस म प्रती ॥ ११ 'शरासनं' धनुः ।। 4R5RAM Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभदबरिविरइओ 984494 प्रभावनाचारे अचलकथानकम् । कहारयणकोसो॥ सम्मत्तपडलयं । जइ निवियप्पमप्पा एवं परिकप्पिओ तए इंतुं । ता हणसु तह कहं पि हु जहा हओ होइ सुंहओ सो॥१॥ सुहतो य होइ सो पुण पयंडतवकम्मनिम्महितो । गिम्हुम्हायावणतरणितेयताविजमाणो य ॥२॥ सिसिरसतुसारमारुयसीयफरिसा......हम्ममाणो य । जावजीवं सज्झाणकोयट्ठावणेणेव ॥३ ॥ इय भद्द ! जइ सच्चं चिय किं पि वेरग्गं ता उग्गमायरसु धम्म-ति अणुसासिओ पवनो हं सामन्नं । एवं च दुरणुचरेण कट्ठकलावेण अप्पाणं झोसंतो विहरामि त्ति ॥ छ । इमं च सम्ममवधारिऊण 'समाणरोगत्तणेण एयमेव ओसह ति मत्रमाणेण अयलेणावि गहिया तैदिक्खा । दुकरतवचरण-करणपरो य गाम-नगरा-ऽऽगराभिरामं वसुंधराभोग विहरिउमारद्धो । अवि य सो नत्थि तवविसेसो सुदुकरो वि हुन तेण जो तविओ । सुतं पि नत्थि तं जन तेणं फुडमहिगयं सम्म ॥१॥ फुट्टहासवेयालविहियडकारडाइणीभीमं । तं नस्थि सुसाणं भूयभवणमवि सो न जत्थ ठिओ ॥२ ॥ एवं च अणुत्तरतव-सच्च-सोय-विरिउल्लासवसेण तस्स जाया बहवो लद्धिविसेसा । तम्माहप्पेण भुयगो व फणारयणेण, कुरंगराउ व्व केसरसोकडप्पेण, करिवरो व कैलहोयधवलदसणमुसलजुयलेण लोयाणं पमोयं भयं च उपायतो महाणुभावो परं पसिद्धिं गओ। १ तप हुँतं प्रती ॥ २ 'मुदतः' सन्मरणं प्रापितः ॥ ३ प्रचण्डतपःकर्मनिर्मथ्यमानः । प्रीष्मोष्मातापनातरणितेजस्ताप्यमानब ।। ४ "रणते" प्रतौ ॥ ५ सम्ममव प्रती ॥ ६ तदिक्खा प्रतौ । तीक्षा ॥ ७ विरहिउ' प्रती ॥ ८ ते य फु" प्रती ॥ ९ स्फुटाहासवेतालविहितडकार ॥ १० डाकडकडप्पे प्रती । केसरसटासमूहेन ।। ११ कलधांतघयलदशनमुशलयुगलेन ॥ ॥५२॥ ॥५२॥ AIRKARWACCORRENA ARRRRRRRRRRECCLASAHAKALINSARKAROIRALAKARANAS कनिष्ठिकामूलभवा गता या, प्रदेशिनी-मध्यमिकान्तरालम् । करोति रेषा परमायुषं, सा प्रमाणहीना तु तदनमायुः ॥१॥ एवं च खणमेकं विगमिऊण पिसायनिवेइयत्थजायपच्चओ अइलो गओ सट्ठाणं। बाहराविओ रना । कयपणामो य पुच्छिओ सायरं-कहसु चोरवुत्ततं ति । ततो एगते सिहो जहडिओ तब्बुत्तो अयलेणं । रन्ना जंपियं-को एत्थ पचओ? । अयलेण भणियं-देव !तस्सयणहेट्टओ भूमीहरे मोसजायमसेसमच्छति । तओ सीसवेयणाकइयवं काऊण विसञ्जियसभालोगो पसुत्तो राया सेजाए। पारंभिया तदु[व]समोवयारा । 'न जाओ विसेसो' त्ति बाहराविया मंतवाइणो । अकयपडियारा ते वि गया जहागयं । ताहे रन्ना सो वि भगवो वाहराविओ । सायरदिनासणो संभासि उमारद्धो । पुरिसे य पेसिऊण खणाविओ तदासमो। नीहरियं मोसं, आणीयं रायभवणे । आ«ओ तवेलं महायणो, दसियं तं मोसजायं । पञ्चभिनायमसेसं महायणेणं । विलक्खीभूओ भागवओ, पुच्छिओ य रन्ना-भो पासंडियाहम ! को एस बुत्तो ? ति । अचंतदुविलसियमप्पणो पायडीभूयमवगच्छिऊण लजायमाणो मोणमवलंबिऊण ट्ठिओ हेट्ठामुहो । विहडिया से पुनपरिवाडी, तैहो ज्झाणपयरिसो। सिद्धको दुजणो व दूरीहूओ डओ मुको जीवियवासाए । तओ उग्गसासणत्तणेण राइणा जायपबलकोवावेगेण नयरतिय-चउक-चचरेसु रासभसमारोवणपुरस्सरं भमाडिऊण, आघोसणापुवं निवेइऊण वुत्तंतं, महया दुक्खमारेण माराविओ एसो । निसामिओ तविणासवइयरो सहस्सजोहिणा । जाओ से महंतो पच्छायावो-अहो ! अहमेवंविहमहापावस्स १ तम्भपण प्रतौ । तच्छयनाथस्तात् ॥२ मत्थर प्रती ॥ ३ 'कश्वयं का प्रती । शीर्षवेदनाकैतवम् ।। ४ हए त प्रती ।। ५ अधोमुखः ॥ त्रुटितो ध्यानप्रकर्षः। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभावनाचारे अचलकथानकम्९। देवमद्दसूरि-भा सामन्त्रेण वि एवं गुणपयरिसपेहणेण उवउत्तो । तं किं वे जं न पुनं पुहइवई नृणमजिणइ ? ॥४॥ किं च-13 विरइओ सगुण-विगुणाणुरूवं लिंगिसु भिचेसु वा पउंजंतो। पडिवत्तिं राया जणइ तग्गुणावजणे जुत्तं सुगुणा य कह णु नरवर । तत्थ दढं संभवंतु जत्थ दया।नेवऽस्थि स्थिनिग्गहसारं च तयो वि दुरणुचरं ॥ ६ ॥ कहारयणकोसो॥ दस-अट्टदोसरहिओ महिओ ससुरा-ऽसुरेण विजएण । देवो वि नेव निम्मलकेवलबलकलियत इलोको? ॥७॥ एवं गंभीरपपस्थनिन्भर भारई निसामित्ता । दरलजामउलियनयणपंकओ पस्थिवो भणह सम्मत्त भय ! तुम जमाइससि तमियाणिमवस्सं काउं अभिलसइ मम मणो, केवलं केणइ निमित्तेणाकालकुवियकयंतकवलिपडलयं । अंतरजसारसिंधुरावलोयणवाउलत्तणेण न भवणे न वणे न सयणे न आसणे न छुहत्तस्स न भुत्तस्स न सुन्ने न रन्ने न दिणे ॥५३॥ न रयणीए मणागं पि संपइ संपञ्जइ मे रइ ति काऊणाणुग्गहं भयवं! साहेसु तं दुनिमित्तं तदुवसमं च, जेण लंघियविस मावयावडणो निरूविग्गो तुम्ह पायपंकयमाराहेमि चि । साहुणा भणिय-महाराय! चिरकालियं पि दुक्यं अञ्ज वि नसल्लं व खुडुकंतं न विरमद, अओ कहमवरं काउं जुञ्जह ? कए वि को वा गुणो होही । राइणा भणियं-मा मेवं जंपह, तुम्ह पायपायवमल्लीणो खु एसो जणो 'नोवेक्खिउं जुत्तो । किंच १ गुणप्रकर्षक्षणेन ॥२न प्रती ॥ ३ अर्जयति ॥ ४ विगणा प्रतौ ॥ ५ 'यस्तिनिपहसारे' महाचर्यप्रधानम् ॥ ६ अगता ।। ७ निशम्य । ईषलवामुकुलितनयनपङ्कजः ।। ८ तविया प्रती ॥ ९ अकालनुपितकृतान्तकवलीयमानराग्यसारसिन्धुरावलोकनन्याकुलस्पेन ॥ १०लक्षितविषमापदापतनः निरुद्विग्नः।। ११ नट्टस' प्रतौ ॥ १२ नोचलक्खि ' प्रती ।। ॥५३॥ हरि-हर-दिवायर-बुद्ध-चंडि-गयमुहपमोक्खदेवेहिं । आराहिएहि वि चिरं धुणिएहिं पूइएहिं पि ॥१॥ जं नो सिद्धं कजं तं पि हु सिज्झइ य जइ तुमाहितो । ता तुम्ह सासणमहं जावजीवं पवजामि ॥२ ॥ इहलोइयं हि कसं तुच्छं तं पि हुन सिज्झई जचो । दुस्सद्धेयं तत्तो गुरुपरलोयत्थनिवहणं एवं ठिए वियप्पं मोत्तुं भयवं! करेसु मह वुत्तं । इय सिढे तमिच्छयमुबलब्भ तवस्सिणा भणियं ॥ ४ ॥ जह एवं ता नरवर ! सुसाहुपयपउमखालणजलेण | अब्भोक्खिऊण रक्खसु गयजूहं रोगरेक्खसओ ॥ ५॥ न तुमाहिंतो वि परो एल्थ सुसाहु त्ति जंपिरो राया। तेप्पायसोहणजलं घेत्तुं सर्व तयं कुणाइ ॥६ ॥ विसमिव पीऊसहयं तमं व दिवसयरकिरणपडिरुद्धं । वेगेण रोगजायं निबर्द्ध कुंजरकुलाओ ॥ ७॥ तो परितुट्ठो राया जोडियकरसंपुडो भणइ साहुं । भयवं! वारणवाही केण निमित्तेण जाओ ? ति ॥ ८ ॥ मुणिणा भणियं नरवर ! भागवयमुणी हणाविओ तुमए । जो पुष्विं सो मरिउ रक्खसदेवचणं पत्तो ॥ ९ ॥ सरिऊण पुचवेरं तुज्झ सरीरम्मि अपभवमाणो सो । एवं पि होउ दुक्खं ति हस्थिणो हणिउमादत्तो ॥ १० ॥ जाणियजहट्ठियत्थो राया नयरीए सबठाणेसु । पडहपडिहणणपुर्व आघोसणमिय करावेद ॥११॥ जिणसासणं चिय परं परम मंगलमुदारमाहप्पं । परमोसहं चह-अन्नमवियवाहीण विविहाण ॥ १२ ॥ इह थेवं पि अवचं अपक्खवायं च अबहुमाणं च । जो काही सो दंडं नियमा लहिही उभयभवियं ॥१३॥ १ गजमुखः-गणपतिः ॥ २ चिरं मुणि" प्रती ॥ ३ सुसाधुपदपक्षालनजलेन । 'अभ्युक्ष्य' सिकला ॥ ४-राक्षसात् ॥ ५ तस्यादनशोधनजलं गृहीत्वा । SAR Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमद्दसरिविरइओ कहारयणकोसो ॥ सम्मत्तपडलयं। ARRANASIA RA% A प्रभावनाचारे अचलकथानकम् ९ इय पनविउं लोयं स महप्पा भूवई जिणमयम्मि । तह कह वि वडिओ सेणिउ वजह कित्तिमणुपत्तो ॥१४॥ अयलो विमुणी काउं पभावणं एरिसं हि तित्थस्स । तित्थयरनामगोयं कर्म सम्म समअिणिउँ ॥ १५ ॥ सोहम्मे उववो ततो वि भूओ महाविदेहम्मि । उप्पजंतनिरंतरजिण-हलि-हरि-चक्कपट्टिम्मि वच्छाविजए सिरिजयपुरीए रनो पुरंदरजसस्स । देवीसुदंसणाए चउदससुस्सुमिणकयसूओ ॥ १७॥ गम्मे पाउन्भूओ समुचियसमए य जम्ममणुपत्तो । अहिसित्तो य सुरा-ऽसुरवग्गेण मेरुसिहरम्मि ॥ १८ सुमुहुत्ते जयमित्तो ति नामधेयं पेयट्ठियमिमस्स । एवं च सो महप्पा कमेण पत्तो वि तारुचं पाणिग्गहणमकाउं रायसिरिं मणहरं अपरिभोत्तुं । संवच्छरियं दाणं दवाविउं दुत्थियजणाण ॥ २० ॥ लोगंतियतियसहिओवएससविसेसवडिउच्छाहो । बत्तीससुरेसरकीरमाणनिक्खमणवरमहिमो ॥ २१॥ तिजयं एगजयं पिव एगत्थुम्मिलियमणुय-सुर-असुरं । कुणमाणो पडिवनो निस्सामन्नं च सामन्नं ॥ २२ ॥ तो सुकज्झाणानलनिमूलनिद्दड्डपाइकम्मदुमो । उप्पन्नकेवलालोयलोइयासेसतइलोको ॥ २३ ॥ सिंहासणोवविट्ठो उपरिधरिजंतसेयछत्ततिगो । देहदुवालसगुणियामरतरुणा सोहमाणो य ॥२४॥ १ सेनिउ प्रती ॥ २ समर्थ ॥ ३ तत्तो प्रती ॥ ४-कृतसूचः ॥ ५ 'प्रतिष्टितं कृतम् ।। ६ तारनं प्रती ॥ ७ लोकान्तिकत्रिदशहितोपदेशसविशेषवर्षितोत्साहः । द्वात्रिंशस्सुरेश्वरक्रियमाणनिष्क्रमणवरमहिमः ॥ ८तिगयं प्रतौ । त्रिजगद् एकजगद् इव एकत्रोन्मीलितमनुजसुरासुरम् । कुर्वाणः प्रतिपन्नः निःसामान्यं च श्रामण्यम् ॥ २२ ॥ ततः शुक्लध्यानानलनिर्मूलनिर्दग्धपातिकर्ममः । उत्पनकेवलालोकलोकिताबोषत्रैलोक्यः ॥ २३ ॥ सिंहासनोपवित्रः उपरिनियमाणवेतच्छत्रत्रिकः । देहद्वादशगुणितामरतरुणा शोभमानच ॥ २४ ॥ ॥५४॥ 5 अष्टौप्राति| हार्याणि ॥ ५४॥ % RAMASTERNERASHRERAKRA अन्नया य निन्भरपुरीओ समागया तं पएसं तवस्सिणो । बंदिओ सो तेहिं । पुच्छिया य अणेण विहारसुत्थय । सिटुं च तेहिं, जहा-तत्थ य राया रामचंदो सासणपच्चणीयपरतित्थियजणजणियवेसमणस्सो न सुट्ट समणसंघम्मि वट्टइ ति । ततो अयलसाह सासणावमाणं सोढुमचयंतो ति गओ निन्भयपुरीए । वुत्थो वुप्फावयंसाभिहाणे उजाणे । तम्मि पुण समए तस्स राइणो गयवराणं जाओ महावाही । कीरमाणेसु वि अणेगेसु मेसहपओगेसु, अच्चिञ्जमाणेसु देवयाविसेसेसु, कीरंतेमु लक्खहोमेसु, तपिजंतेसु वि नवग्गहेसु, संतिकम्मवावडेसु वि पुरोहिएसु नोवसंतो मणार्ग पि । दो चत्तारि पंच य पइदिणं मरिउमारद्धा हस्थिणो । अचंतमादनी राया। सिटूच से एगेण नरेण अयलसाहुणो आगमणं । तं च सोचा तुट्ठो राया। 'जहा पुत्वं तकरो परिबाओ तहा करिमरणनिदाणं पि मुणिही इमो' ति विभाषितो गओ अयलसमीवं । बंदिऊण सिणेहसारं आसीणो मेइणीवढे महीवई । मुणिणा वि सुपसन्नरयणविमासेण सुनिउणजुति गरुई पारद्धा धम्मकहा । जहा- जं साहिउँ न तीरइ पोरिसवित्तीए मइवलेणं वा । भुवणे वि जं दुलंभ सिज्झइ धम्मेण तं पि फुडं ।।१।। सो पुण नरवर ! तुम्हारिसाण उचियप्पवित्तिकरणेण | चउरासमेसु वि सया समदिद्वित्तेण होइ जओ ॥२॥ नोएणं पालितो सबेसु बि आसमे सरिसदिट्ठी । पाउणइ पुहइपालो सेकयसुकयस्स छब्भाग ॥ ३ ॥ १ शासनप्रत्यनीकपरतीथिकजनजनितद्वेषमनस्का ।। २ सुम' प्रता ।। ३ पुष्पावतंसाभिधाने ॥ ४ अत्यन्तमाकुलित इत्यर्थः ॥ ५ 'शिष्ट' कथित | च तस्य ।। ६ पुब्बत' प्रती ॥ ७ सुमिणा प्रती ।। ८ समष्टित्वेन ॥ ९न्यायेन ॥ १० 'तत्कृतसुकृतस्य' चतुराश्रमकतसुकृतस्य षष्ठ भागम् ॥ ES+CRIRRORS राजधर्मनिष्ठस्य राज्ञः प्रजाकृतधर्मषष्ठभागस्य प्राप्तिः Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभइसरिविरइओ पश्चनमस्कारे श्रीदेवनृपकथानकम्। कहारयणकोसो॥ सामन्नगुपाहिगारो ॥ अहम् ॥ ABORRORISecorr कयसम्मत्तथिरत्तो जइ वि नरो तह वि वंछियं वत्थु । पंचनमोकारे चिय भत्तिपरो पावए परमं ॥१॥ अरहंता सिद्धा सूरिणो य उज्झाय-साहुणो चेव । परमिट्ठिणो हु एते एयन्त्रमणं नमोकारो ॥ २ ॥ एत्तो चिय एयाणं कीरंतो सायरं नमोकारो । एसो समग्गकल्लाणकारणं जायह जियाण एकेक्कमक्खरं पि हु पंचनमोकारसन्तियं जीवो । बहु-बहुतर-बहुतमपावखयबसा लहइ भावेण ॥४ ॥ सूरो इव तिमिरभरं पणइ चिंतामणि ब दोगचं । चिंतियमित्तो य इमो भयवग्गं नासइ समग्गं ॥५ ।। तहाहिनाभिद्दवई दवो तं दूमइ न मयाहियो सुकुद्धो वि । सप्पो वि नाभिसप्पइ न वि चंपइ मतपीलू वि ॥६॥ सत्तू वि तं न चाहइ न विराहइ भूय-साइणिगणो बि । चोरेइ तकरो न वि न कमइ तं वारिपूरो वि ॥७॥ अहवा किमित्तिएणं? इह-परलोए सर्वछियं लहइ । जस्स मणे नवकारो सिरिदेवो एत्थुदाहरणं ॥८॥ तहाहि नीसेसदेससविसेसपायडे जणवयम्मि पंचाले । कंपिल्लमस्थि नयरं [नियरं]मयरंजियजणोहं ॥९॥ गेहाई बहुधणाई धणं पि सुवियड्डवड्डियाणंदं । सुचियड्ढा वि हु जिणहरकयजत्ता-ण्हवण-पूयमहा ॥ १० ॥ १ 'नवकार' इति नाम्ना प्रसिद्ध पचनमस्कारसूत्रे ॥ २ उपाध्याय- ॥ ३ वक्खय प्रती ॥ ४ इववो प्रती । दावानलः ॥ ५ मत्तहस्ती ॥ ६ स्ववान्छितम् ॥ ७ तस्स प्रती ॥ ८ प्रकटे-प्रसिद्ध ॥ ९ निजरम्यतारजितजनौघम् ।। १० यजिणो' प्रती ।। ११ सुविदग्धवर्षितानन्दम् ॥ ॥५५॥ पञ्जनमस्कारस्वरूप तन्माहात्म्य SARKARRCAKACA CLAREECCESSAGAR ॥५५॥ AKAASARARIAXARKARREAKERARAMRIKAR जिणगेहाणि वि मुणिजणकीरंतमहत्थसत्थकहणाई । सत्थाणि वि पसमरसुंब्भडाइं जम्मि विरायति ॥११॥ हारेसु नोयगाणं तरलत्तं कुडिलया य केसाण | कसिणमुहत्तं सिहिगाण न उण लोयाण जत्थ पुरे ॥ १२ ॥ ___ तत्थ रिउँचकविक्कमणचिहणिउकडतिविकमुक्करिसो। सिरिहरिसोआसि निवो धणवरिसो तॉयजणाण।।१३।। सयलंतेउरतिलओवमाए देवीए कमलसेणाए । जाओ पुत्तो सुस्सुमिणपिसुणिओ तस्स नरवइणो ॥१४॥ दिञ्जमाणधणतुद्वमग्गणं, नचमाणपुरजामिणीगणं । मुकचारगनिबद्धमाण, पूरया]मर-मुगुंद-दाणवं।। १५ ॥ संतिकम्मवाउलपुरोहियं, कीरमाणबहुरक्खसोहियं । गिदुवारभुवि दिन्नसस्थियं, रायलोयपडिपुनपत्थियं ॥ १६ ॥ चारुवेसभड-वंठवट्ठियं, नाइ निव्वुइनिहाणमुट्ठियं । सबलच्छिकलियं व सुंदरं, गेय-तूररवपूरियंवरं ॥१७॥ __ इय तजम्मणपडिबंधबंधुरं पउरहरिसवद्धणय । [वद्धावणयं ] सवायरेण कारावियं रबा ॥१८॥ ठवियमुचियम्मि समए सिरिदेवो नाम तस्स तत्तो सो । सयलं कलाकलावं गहाविओऽकालपरिहीणं ॥ १९ ॥ ठविउं जुवरायपयम्मि तं च राया महाविमद्देण । चउरंगवलसणाहो निक्खंतो विजयजत्ताए ॥ २०॥ सोवीर-कोसल-कुसह-कासि-बंगालपमुहनरनाहे । आणानिद्देसम्मि ठाबिंतो भग्गदुग्गपहो ॥ २१ ॥ पत्तो स कमेणं कामरूयदेसस्स सीमसंधीए । तम्महिनाहो य तए भणाविओ यवयणेण ॥ २२ ॥ १ सुभडाई जम्मि प्रती ॥ २ हारमध्यस्थितमणीनाम् ॥ ३ 'मुडुत्तं प्रती ॥ ४ स्तनानाम् ॥ ५ रिपुचक्रविक्रमणविहतोत्कटत्रिविक्रमोस्कर्षः ॥ ६ आस प्रती ॥ ७ स्वजनजनानाम् ॥ ८ "सुणओ प्रती। पिशुनिल:-भूचितः ।। ९ मुगुं प्रतौ ॥ १० धुरप प्रती ॥ ११ वर्धापनकम् ॥ 495 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरहओ कहारयण कोसो ॥ सामन्नगुणाहिगारो । ॥ ५६ ॥ %%%%%% पंडिवज सेवं मे जसु दे व जुज्झसजो वा । संपजसु इय सोउं सो राया जायगुरुकोवो हरसिरमंडणदाणेण दूयसम्माणणं लहुं काउं । सयलबलेण समेओ जुज्झट्टमुवडिओ ज्झत्ति ॥ २३ ॥ ॥ २४ ॥ अह बद्धपरोप्पर मच्छराई, उच्छ लियको व भरनिब्भराई । जुज्झेण लग्ग दोण्णि वि बलाई, वित्थरिय नॉय सायरजलाई । मुंहवडिय गुडिय गयघड घडन्त, नजंति नाइ डुंगर भिड़ंत । पक्ख रियतरलतरतुरयथट्ट, कीणासकक्खडिय नं पयट्ट ॥ रेहंतिं वेरिकयघोरघाय, बंदियणुग्घुट्ठजसप्पवाय । णाणाउह सुहड महापयंड, नवंत नाइ जमबाहुदंड || गुलुगुलियमहागयपायरक्ख, नर करउकंपियखग्ग दक्ख । रविकरि कराल छअंति केम १, गजियनवजलहरि विज जेम ।। ओरुड- दुहरिउवंठक, सर भल्लि सेल्ल नं पडहिं उक । कयसामिकअ फुड सबसंध, हरिसेण नाइ नश्चिय कबंध ॥ असिछिन्नसेनकरिरुहिरपूरि, समरोयहि बेलजलि व पूरि । पवहंति उठियदंड छत्त, नं क्रूवखंभजुय जाणवत्त ॥ १ प्रतिपयस्व ॥ २ वर्जय ॥ ३ झगिति ॥ ४ लग्ने ॥ ५ इवार्थकमव्ययम् ॥। ६ 'मुखपतिते' अग्रस्थिते कवचिते गजघटे घटन्स्यौ ज्ञायेते इव पर्वतौ युध्यमानौ । कवचिततरळतरतुरगसमूहों कीनाशकर्कशौ इव प्रवृत्ती ॥ ७ राजन्ते वैरिकृतघोरपाता बन्दिजनोद्धु एयशः प्रवादाः । नानायुधाः सुभटा महाप्रचण्डाः स्यन्त इव यमवाहुदण्डाः । ८ गुलगुलायितमहागजपतिरक्षकाः नराः करोत्कम्पितखड्गाः दक्षाः । रविकरैः कराला: राजन्ते कीदृशः १ गर्जितनवजलधरेषु विद्युतो यथा "" ९ आरुष्टदुष्ट रिपुवण्ठमुक्ताः शराः भाइयः 'शैलाः' प्रस्तराः इव पतन्ति उत्काः । कृतस्वामिकार्याः स्फुटं सत्यसन्धाः हर्षेण इव भर्तिताः कबन्धाः ॥ १० सिच्छिन्न प्रतौ । असिच्छिम सैन्यकरिरुधिरपूरेण समरोदधौ वेलाजलेनेव पूरिते । प्रवहन्ति ऊर्ध्वस्थितदण्डानि छत्राणि खलु कूपस्तम्भयुक्तानि यानपात्राणि ॥। ११ 'डि' प्रतौ ॥ ।। २५ ।। ॥ २६ ॥ चलियसियचारुचमरो पुरओ पक्खितकुसुमपयरो य। दिसिपसरियरविनिम्मलभा मंडलखंडियत मोहो सुरपयदुं दुहीरवपयडियदुओयपरमरिउ विजओ । सहसभासाणुगदिववाणिनिम्म हियसम्मोहो पायडियसुगमग्गो पडिबोहियभूरिभववग्गो य । चिरकालं विहरिता सिवसोक्खं मोक्खमणुपत्तो इय कष्पपायवब्भद्दियमहिय गुरुफलपयाण दुछलियं । काउं पभावणं सासणस्स तिन्नो पैरं तरह स्वार्थाय सर्वं कुरुते प्रयत्नमुत्कृष्यतेऽमुत्र गुणः क एव ? | उत्कर्षणीयो हि परोपकारः स चान्यदानादतितुच्छ एव ॥ १ ॥ प्रोक्तो गरीयान् पुन [र] र्हदुक्तसद्धर्म [ मर्म] प्रतिपादनेन । स चाङ्गभाजां हृदि सन्निधातुं प्रभावनां नैव विना हि शक्यः ॥ २ ॥ प्रभावनाकर्तुरतो न कश्चित् परोपकारीत्यपरः पृथिव्याम् । चारित्रभाजोऽपि मुनीश्वरस्य तेनेह सम्यक् कथितः प्रयत्नः ॥३॥ सर्वोपधाविरहित सुहितं जगत्यां सम्यक्त्वरत्न मिदमुक्त [म]नर्घमित्थम् । ॥ २७ ॥ ।। २८ ।। अपि च 7 यस्याचलं हृदि संदैतदकल्मषं च, दारिद्र्यविद्वेतिभयं कुत एव तस्य १ ॥ ४ ॥ ॥ इति श्रीकधारत्नकोशे अष्टमाचारे अचलकथोक्त्या सम्यक्त्वपटलं समाप्तम् ॥ ९ ॥ १ चलित सितचारुचमरः पुरतः प्रक्षिप्तकुसुमप्रकरथ । दिक्प्रखतरविनिर्मल भामण्डखण्डिततमओषः ।। २५ ।। सुरप्रतदुन्दुभिर वप्रकटितदुजैयपरमरिपुविजयः । सर्वस्वभाषानुगदिव्यवाणीनिर्मथितसम्मोहः ॥ २६ ॥ प्रकटितगतिमार्गः प्रतिबोधितभूरिभध्यवर्गव । चिरकालं विहृत्य शिवसौख्यं मोक्षमनुप्राप्तः ॥ २७ ॥ २ सोक्ख प्रतौ ॥ ३ इति कल्पपादपाभ्यधिकमहितगुरुफलप्रदान दुर्ललिताम् । कृत्वा प्रभावनां शासनस्य तीर्णः परं तारयति ॥ २८ ॥ ४ परं न तर प्रतौ ॥ ५ प्रोक्तौ प्रतौ ॥ ६ म्यक्त्वथितप्रयत्नः प्रतौ ॥ तनिर्घ प्रतौ ॥ ८ सदेत प्रतौ ॥ ९ चिह्नति प्रतौ ॥ पश्चनमस्कारे श्रीदेवनृपकथानकम् । युद्धवर्णनम् ॥ ५६ ॥ प्रभावनोपदेश: सम्यक्त्वमाहात्म्यम् Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमयरविरइओ कहारयणकोसो ॥ सामन्नगुमाहिगारो । ॥ ५७ ॥ सेनि उणो व तम - ससहर व हरि - रामण व जुज्झता । भयतरलच्छं ससुरा ऽसुराए परिसाए सच्चचिया असि चक्क - कुंत - सङ्घले खुरुप्पपमुहाउहेहिं जुज्झता । तंडवियबाहुदंडा मल्लो व परोप्परं लग्गा उत पडतेहिं विलुलिया केसापडंतकुसुमेहिं । सा समरमही महिलें व सहइ दोहिं पि दैरमलिया अंच्छरियभूयभूवइरणपेहणनिन्निमेसचक्खूण । आसि विसेसो सुर-माणवाण नह-भूमि [ठाण] कओ अह जैमदंड्ड्डामरचय दंडनोन्नघायघुम्मंता । वणवारण व पंचाणण व वा बड्डिउकरिसा मुँडिप्पहारपरिवविहडियबंभंड भंग कय संका । निस्संकमुक्ककम भरथरहरियस काणणधरंता ॥ बेलावडर्णुप्पडण-घडण विहडणपवत्तणाकुसला । समसमरजया जाया ते दोन वि हरि-विरंचि व किं सिरिहरिसो कामरुयनरवरो अहव समरपरिस्थो | दुल्लक्खमिणं तेंक्खणमहेसि सुमहेसिणो वि तुल्लगुणत्ते एकस्स वज्जणं लज्जणं इयरगहणं । इय ते दोन वि वरिय व तक्खणं विजयलच्छीए ॥ ३२ ॥ ॥ ३३ ॥ ॥ ३४ ॥ ॥ ३५ ॥ ॥ ३६ ॥ ॥ ३७ ॥ ३८ ॥ किंच परं ।। ३९ ।। 11 80 11 "ल च एत्थंतरम्मि तप्परमपोरिसुक्करिसहरिसिया तियसा । मुंचति कुसुमवरिसं ताणुवरिं चारु जुज्झं ति ॥ ४१ ॥ १ शनिकेतू इव तमः शशधरी इव ॥ २ ल-खुरु प्रतौ शकुन्तभेदः ॥ ३ तडबियडवा प्रती ताण्डवित नर्तित ॥ ४ स प्रतौ ॥ ५ ईषन्मृदिता ॥ ६ आश्चर्यभूतभूपतिरणप्रेक्षणनिर्निमेषचक्षुषाम् । आसीद् विशेषः सुरमानवानां नभोभूभिस्थानकृतः । सुरा: नभसि स्थिताः मानवाश्च भूमौ स्थिता इति भावः ७ यमदण्डमहरभुजादण्डान्बो न्यपात घूर्णमानौ ॥ ८ दंडु तौ ॥ २९ मुष्टिप्रहारप्रतिरवविधटितब्रह्माण्डभञ्जकृतशी 1 निःशङ्कमुताकम भार कम्पितसकानन धरान्ती ॥ १० भंडक प्रती 11 ११ तलापतनोत्पतनघटनविघटनप्रवर्त्तनाकुशली । समसमरजयौ जातौ ॥। १२ 'पिड' प्रतौ ।। १३ परिहस्तः- निपुणः ॥ १४ तख प्रती ॥ १५ तत्परमपौरुषोत्कर्षहृष्टाः त्रिदशाः ॥ दूरं उस्सारिता य बिंति भो राइणो ! मुह रोसं । वच्चह जहागयं नत्थि नूण तुम्हाण पडिमल्लो विजयसिरी तुम्हाणं मज्झत्थ च्चिय समुहहउ रागं । अत्थंतुदयंताणं ससि-दिवसयराण संज्ज्ञ व इय ते भूमीबद्दणो सुरवयणुवरोहसंहरियंसमरा । असंमत्तवंछियत्था सं ठाणं पडिगया नवरं सिरिहरिसो रिउणो अकयनिग्गहं विग्गहं किलेसफलं । अप्पाणं अप्पानं व चिंतमाणो दर्द विमणो रणरणयमुवती लजाए जणं पि दडुमचयंतो । सिरिदेवं नियरजे ठविडं सासेउमादत्तो ॥ ४२ ॥ ॥ ४३ ॥ ॥ ४४ ॥ 1184 11 ।। ४६ ।। ।। ४८ ।। ॥ ४९ ॥ वच्छ ! सिरी हरिणो वि हुन थिरा रअं च बहुविधावायं । अजसो य नरयहेऊ ता तुद्द साहित्यए किंपि ॥ ४७ ॥ अट्ट न कीरंनि सया अड्ड य कीरंति अड्डे मुर्चिति । अड्ड धरिअंति मणे न वीससेयवमन्दं खलसंगो कुकलत्तं कोहो वसणं मओ य कुधणं च । कुग्गाहो मुक्खत्तं अट्ठ न कीरंति एयाई कित्ती सुगुणन्मासो कलासु कुसलत्तणं सुमित्तो य । दक्खिन्नं करुणा उज्जमो दमो अड्ड कीरन्ति निल्लेजिमा अविणतो कुसीलया निहुरत्तणं माया । अनओ अजसमसचं अट्ठ विमुचंति सच्चं ति उवयारो पडिवन्नं, सुभासियं मेंम्म सुद्धविजा य । देवो य गुरू धम्मो अट्ट धरिजंति हिययम्मि ॥ ५० ॥ ॥ ५१ ॥ ॥ ५२ ॥ १ मुद्दय रोसं प्रतौ ॥ २ उत्थो चिय प्रती ॥ ३ यसयसमरा प्रती ॥ ७ 'रणरणकं' उद्वेगम् ॥ ८ अशक्नुवन् ॥ ९ देवन्निय प्रती ॥ १० कथ्यते ॥ ११ १४ मम सुटुवि ॥ ४ असमाप्त ॥ ५ स्वम् । ६ आत्मानं 'अप्राणं' निर्बलम् ॥ इयमु प्रती ॥ १२ "रति प्रतौ ॥ १३ निलजि प्रतौ ॥ पञ्चनम स्कारे श्रीदेवनृपकथानकम् । ॥ ५७ ॥ अष्टाष्टी अकर्त्तव्य कर्त्त व्यमोक्तव्य धर्त्तव्याविश्वश्यानि Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसरिविरहओ कहारयणकोसो ॥ सामनगुणाहिगारो। ॥ ५८॥ पश्चनम&ा स्कारे * श्रीदेवनृप कथानकम्। कामुय-भुयंग-जल-जलण-जुबइ-रिउ-रोग-भूमिनाहाणं । अढण्हं मा पुत्तय ! सुमिणम्मि वि वीससेञ्जासि ॥ ५३ ॥ इय वच्छ ! तुझ साहेमि केत्तिय ? तह कहं पि रजभरं । धारेजसु जह न खलाण हासपयंवि पबजेसि ।। ५४ ॥ एवं सुयसिक्खवणं काउं गहिउं च तावसाण वयं । देवीर्य समं राया गओ महासेलवणवासं सिरिदेवो पुण रजं अणुरत्तासेसमंति-सामंतं । पालियपयईवगं सासंह नीतीए पंथो व अह सुमरियपियवइरो कामरुयनिवो समग्गबलकलिओ। यनिवेइयवत्तो समागओ देससंधीए ।। ५७ ॥ नाऊण तदागमणं निभयचित्ती निवो वि सिरिदेवो । एगते ठाऊणं मंतीणमिमं निवेदेह ॥ ५८॥ कुडिला कजाण गई मई वि तुच्छा रिऊ [य] सामरिसो। एवं ठियम्मि कजे किं कीरउ? कहह परमत्थं ।। ५९ ।। मंतीहिं जंपियं देव ! जुत्तमेयं सुनिच्छिउँ कञ्ज । कीरते देववसा नावजसो बिहडिए वि भवे ॥६० ॥ सत्तू इमो समत्थो तुम्मे य अदिद्वसमरवावारा । दइवबलं दुग्नेयं सहाइसत्ती वि संदिद्धा ॥६१॥ ता साम-मेय-दाणाई मोतु अन्नं न देव ! रिउविजए । नीई पेच्छामो कुणहमेत्थ जत्तं लहुं तम्हा ॥६२ ।। सामेण हवइ मित्तो परो वि भेएण भिजइ सुही वि । दाणेण सेलघडिया देवा वि वसं पवअंति ॥६३॥ १ यडिंप प्रती ॥२देव्या ॥ ३ सय नी प्रती । शास्ति नीत्याः पन्था इव ॥ ४ भूतपितृवैरः ॥ ५ मुनिधिय कार्य क्रियमाणे देववशाद् नापयशः विघटितेऽपि भवेत् ।। ६ "विट्ठा प्रती ॥ ७ मोत्तुं अन्नोन्न देव प्रती ॥ ८ "मेत्त जत्तं प्रतौ ॥ ९ मुद्दी प्रती ॥ काहीनबलस्य राज्ञः नीतिः ॥५८॥ KAMAKAXXXSAXACAKRAKAKA+KACHAN SHRIA%ENARIANRAKARINAKARANASAMACHAR अंसिलुणियदंड धवलायवत्तु, लुयमुहडमुंडमुहकुहरपत्तु | नजइ विडप्पकवलिजमाणु, गयतेउ नाइ सयमेव भाणु ॥ हरि-करि-नरमुंडई, रयनिन्बुहुई, लोहियसित्तई सहहिं किह । बंछियजयसिट्ठिण, पुणु परमेट्ठिण, महियलि बाविय बीय जिह. ॥२५॥ इय एवंविहबहुबिहजणनिवहवहं वियाणिउंराया। सिरिहरिसो गयहरिसो [य कामरूवं भणावेद ॥ २६ ॥ तुममहयं च परोप्परजयसिरिसंबंधबद्धपरिबंधा । ता एहि सयं जुज्झामु हो[उ सेनक्खएणऽमुणा ॥ २७ ॥ पडिवजमिमं कामरुयराइणा तयणु विहियत॑णुताणा । नाणाउहहत्था दो वि पत्थिवा जुज्झिउं लग्गा ॥ २८ ॥ सुजुज्झमवलोइउं गयणमंडलं रोहिउं, ठिया असुर-किन्नरा ॐवणवासि-विजाहरा । तहा विहियमंडणो सुरविलासिणीणं गणो, सविम्हय-भयाउलो पकयकेलिकोलाहलो ॥ २९ ॥ स अज फुड वंचिओ सुकयकम्मुणा लुचिओ, पलोयइ इमं न जो इय पयंपिरो नचिरो। लुलंतजडजूडओ समरकेलिणो कूडओ, पुरीहवविसारओ तह नियंभिओ तोरओ ॥ ३०॥ एत्वंतरम्मि पसरंतहरिसतुटूंततंतुसन्नाहा । ते भूनाहा नीसेसपहरणक्खेवकयकरणा ॥ ३१ ॥ १ असिलूनदण्डं धवलातपत्रं लूनसुभटमुण्टमुखकुदरमाप्तम् । ज्ञायते राहुकबलीयमानः गततेना इस स्वयमेव भानुः ॥ २ हरिकरिनरमुण्डानि रजोनिर्बुदितानि लोहितंसिक्तानि राजन्ते कथम् ।। वान्छितजगत्महिना पुनः ‘परमेष्टिना' ब्रह्मणा महितले उतानि बीजानि यथा ॥ ३ गतबर्षः ।। ४ तनुत्राणकवचम् ॥ ५ भुव प्रती ॥ ६ "चिउं सुकाय प्रती ॥ ७ "चियं, 4 प्रती ॥ ८ पूर्वयुद्धविस्मारकः ॥ ९ नार' प्रतौ । 'तारः' प्रधानः ।। द्वन्द्वयुद्धवर्णनम् Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमदर विरहओ कहारयण कोसो ॥ सामन्नगुजाहिगारो । 1148 11 पुपवाहेणं चिय जुज्झामो एहि किं जणवणं ? । तेणं पयंपियं जह जुज्झेयवं सयं चे ता किं सेन्नस्स परिग्गहेण ? इय होउ पुवरूढीए । सेनक्खए यं जाए जं उचियं तं करिस्सामि पडिवन्नमिमं तेणं लग्गं जुज्झं बलाण दोण्डं पि । वजिररणतूराणं उच्छलिओ बहलतुमुलरयो ॥ ७६ ॥ ॥ ७७ ॥ 11 02 11 ॥ ८० ॥ अह पत्तम्मि खणद्वे लद्धोगासेहिं परबल मडेहिं । सिरिदेवबलं पहयं तमं व दिणनाह किरणेहिं ॥ ७९ ॥ सिरिदेवनरिंदपुरो जाया बत्ता जहा महीवइणो । तुब्भं जय- -विक्कम-भीममाइणो निवडिया समरे खुभिओ मंतीवग्गो उब्बिग्गो जंपिउं समाढत्तो । होही पुणो वि समओ पत्तं इण्डि समरेण विकमवलेण पुणरवि अजिज चिरगया वि रायसिरी । जीयं पुण देव ! गयं न लब्भए तेण जम्मेण औवयराहुमुहाओ नीहरिउमखंडमंडलो सूरो । अवहरिडं रायसिरिं पुणो वि खंडेइ परतेयं विन्नत्तमिमं पुर्वि पि देवपायाण जुंजिउं नीई । साम-प्पयाणपमुहं अझॅवसिञ्जउ ततो जुज्झ सच्छंदसीलयाए विवरीयमिमं कयं च देवेण । दुन्नयतरू स एसो य संपयं फुल्लिओ फलिओ ॥ ८१ ॥ ।। ८२ ।। ॥ ८३ ॥ 11 28 11 ।। ८५ ।। १ नखरण जाए प्रतौ ॥ २ उद्विमः जल्पितुं समारब्धः ।। ३ यथा अखण्डमण्डल: 'सूर' सूर्यः राहुमुखाद् निःसृत्य 'राजश्रियं' चन्द्रतेजः अपहृत्य पुनरपि 'परतेज:' तमः प्रभावं खण्डयति एवं अखण्डदेशः शरः आपद्राहुमुखाद् निःसृत्यं राजधियं अपहृत्य पुनरपि परतेजः' शत्रुप्रभावं खण्डयति' इत्याशयः ॥ ४ अध्यवसीयताम् ॥ सुविणिच्छियमंत- सरीररक्खरहियं दहं विचित्तं च । छलइ नरिंदं लच्छी इच्छं नरवर ! रंगि व किमडकंताणं सोयणेण १ जइ अम्ह जंपियं कुणसु । ता बाउवेगतुरगं आरुहिऊणं अवक्कमसु पुपि सुबह इमं मुणिऊणं अत्तणो असामत्थं । बंभो चक्की नहो महुराओ जायवपट्ट वि इय दढमणिच्छमाणो वि सो निवो मंतिपमुहलोएण | निस्सारिओ महाहवभूमीओ जच्चतुरगेण वचतोय कहं पि हु तमाल-तल- कयलिकलियत्रणसंडं । दिसिवामूढो रा[या] पत्तो अडविं महाभीमं परियणजणो वि कत्थ वियको चि सज्झसवसेण पब्भट्टो । तुरगो वि गुरुपरिस्समकिलामिओ मच्चुमणुपत्तो ॥ ९१ ॥ सिरिदेवो वि नरिंदो इओ तओ केच्चिरं पि भूभागं । मिउं पिवासिओ सिसिरसाहिछायाए आसीणो ।। ९२ । ॥ ९० ॥ ।। ८६ ।। ॥ ८७ ॥ ॥ ८८ ॥ ॥। ८९ ।। एत्थंतरम्मि एगो पुलिंदगो गहियकंदमूल फलो । तं देसमणुप्पत्तो बुत्तो रन्ना य सप्पणयं ॥ ९३ ॥ भो भो महायस! लहुं लहसु जलं जैलइ मह पिवासग्गी । तह कह वि जह समप्पर संपइ पुण जीवियद्वासा ॥ ९४ ॥ इय जंपिरं सरूवं सैलोणलोयण-मुहं महासत्तं । तं पेहिउं स तुरियं कत्तो वि जलं पणामेइ ॥ ९५ ॥ तं कंदमूल फलभोयणं च उवभुंजिउं महीनाहो । औसत्थसरीरो किसलसत्थरम्मि खणं सुत्तो ॥ ९६ ॥ राजानमपि राजलक्ष्मीः १ यथा भुजङ्ग सुविनिश्वितमन्त्रशरीररक्षारहितं 'नरेन्द्र' मान्त्रिक शीघ्रं छलति तथा सुनिधितमन्त्रणाविरहितं 'नरेन्द्र' छलति इति भावः ॥ २ किंमह प्रतौ ॥ ३ दिग्व्यामूढः ॥ ४ भणिडं प्रती ॥ ५ जण प्रतौ ॥ ६ समाप्यते ॥ ७ सलवणलोचनमुखम् ॥ ८ अर्पयति । ९ आश्वस्त । १० लयसम्म प्रतौ ॥ +452 पश्चनमस्कारे श्रीदेवनृपकथानकम् । ।। ५९ ।। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसरिविरइओ कहारयणकोसो॥ सामनगुणाहिगारो। ॥६०॥ पश्चनमस्कारे श्रीदेवनृपकथानकम्। खणमित्तम्मि पबुद्धं पुलिंदओ भणइ भो महाभाग!। सुकुमार-सस्सिरीओ वि अडसि अडवीए किं एवं ?।। ९७॥ राया वि नियकहाकहणलजिरो कहइ किं पि से वित्तं । सेविगच्छणं हि गरुयाण सेसदुक्खाण दुक्खयरं ॥ ९८ ॥ भणितो य भूमिव इणा पुलिंदओ भद्द! किं पि दंसेसु । चित्तक्खेवुष्पायगमडगपदेसं ममं ताव ॥ ९९ ॥ तेणं पयंपियं एहि जेण दंसेमि तो महीनाहो । तेण सम पयडी गंतुं कोऊहलाउलिओ ॥ १०० ॥ जा केचिरं पि बच्चइ अच्चतुचं सिलुच्चओद्देसं । ता एगाए गुहाए देहपहापहयतिमिरमर सरं व राहुखंडणभएण दिवोसहीसमूहं व । वाइयभीयं लीण उस्सग्गगयं मुणिं नियइ ॥१०२॥ सोयरपणमंत-थुणंत-इंत-वचंतखयर-सुरनियरं । तं च निएऊण निवो हरिसियवयणो विचितेइ । ॥१०३ ॥ चोज महंतमञ्ज वि बजियवाई जोगसजाई। दीसंति संतरूवाई साहुरयणाई इहई पि केयजुगजणनिम्माणुचियचारुगुणगणगिह इमं मन्ने । गिरिगुविलगुहानिहियं निहिं व रक्खड विही संखा ॥ १०५ ।। अहवा इमस्स सेलस्स एयमिह होज सारसवस्सं । अचंतनिच्चलाई कहमबह एयअंगाई? ॥१०६ ।। इय तहसणविम्हयवियसियलोयणमुहं महीवालं । वावारंतरविरयं पुलोइउं जंप पुलिंदो ॥ १०७॥ १ भागो प्रती ॥ २ स्पविकत्थनम् ॥३ "पवेसं समं प्रती। अटकप्रदेशम् माम् ।।४ असन्तोचम् ॥ ५ सादरप्रणमतस्तुवतभायजत्नचरसुरनिकरम् ।। ६ष्ट्र। ॥ ७ आश्चर्यम् ॥ ८ वर्जितवानि ॥ ९ कृतयुगजननिर्माणोचितचारुगुणगणगृहम् ।। १० साक्षात् ।। ॥६०॥ SARANA+NAKACHEIKHASEXERESEAXSEKASIRSANSAR HERNAMANAXARANA%SECASEACK4333XSAR एए जहजोग्ग जंजिऊण दंडे वि जइ समुज्जमसि । मसिकुच्चयं रिऊणं मुहेसु ता देसि निभंतं ॥६४॥ एवंविहे पयत्ता पत्ता लच्छि निवा सुतुच्छा वि । इय विवरीयरया पुण गरुया वि गया लहुँ निणं ॥६५॥ ता देव ! सत्तु-सामंत-मंति-मिचाण जाणिउं चित्तं । पच्चइयनरेहिं तओ तदुचियसामाइ जुंजिता ॥६६॥ आयरसु विजयजचं लहसु जयं ज्झत्ति पाउणसु किर्ति । भंजसु म.प्फरं वेरियाण कयनीतिसन्नाहो ॥६७॥ अह परिभाविय तव्वयणमीसि हसिऊण जंपियं रना । वणियाणं विप्पाण य होइ मई एरिसी चेव ॥ ६८॥ कहमन्त्रहमप्पडिमल्लरायसिरिहरिसदेवपुत्तस्स । मज्झ वि पुरओ एरिसमहम्मरणकम्ममुवइसह? ॥ ६९ ॥ अविमंसिऊण सम्म तेणेव तिणं व मंतिणो लहुया । जहतह पयंपमाणा वच्चंति पराभवट्ठाणं ॥ ७० ॥ ता होउ मंतिएणं रे रे पडिहार ! पलयघणघोसं । उकंपियरिउचकं लहुं दवावेसु जयढकं ॥ ७१ ॥ तत्तो काउं मजणमुजलपरिहियविसुद्धवरवत्थो । कयमंगलोवयारो जयकुंजरमारुहिय राया ॥ ७२ ॥ मंडलिय-दंडनायग-सेणावइ-सुहडलोयपरियरिओ। भूरिसियछत्तछायासंछाइयरविकराभोगो ॥ ७३ ।। चउरंगसेनसम्मईऽमंदनिदलियमेइणीवट्टो । नीहरिओ नयराओ जवेण गंतुं पयट्टो य ।। ७४ ।। अखलियपयाणएहिं पत्तो नियदेससीमसंधीए । यवयणेण तत्तो भणाविओ कामरुयराया ॥ ७५ ॥ १ "गगं सजु प्रती ॥ २ "विहिप प्रती ॥ ३ "इफरं प्रती । गर्वम् ॥ ४ तन्नय प्रती ॥ ५ ईदृशम् अधर्मरणकर्म उपदिशथ ॥ CI६ अविमुश्य ॥ ७ यच्छत्तच्छाया प्रतौ ॥ ८ असंहनि' प्रती ।। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसरि विरहओ KAKKAR ला पश्चनम स्कारे | श्रीदेवनृपकथानकम्। कहारयणकोसो । सामनगुणाहिगारो राज मणिकुट्टिमसयताडियकंयउप्फिडण-पडणपडितुल्लं । भैवभमिरजंतुविलसियमवगच्छसि किं न नीसेसं ? ॥ १२० ।। किं वा कोटरपजलिरजलणडज्झतपायवप्पडिमं । करिचरणचंपिउप्पलमालं पिव बाहसी देहं ? ॥१२१ ।। जाहे थिर-थरगिरि-भवण-वण-नइ-सिंधुणो न ते वि थिरा। किं पुण रायसिरी सर्रयसेलसरिय व पयइचला ॥ १२२ ।। अहवा चटुलतुरं[गम]खरखुर-पुच्छच्छडाविहुरिय छ । सुँप्पाणुरूवकरिकन्नतालतालिजमाण व ॥१२३ ।। दप्पुब्भडसुहडकरावरुद्धपहरणसमूहभीय छ । रयंचलिरचामरानिलगुरुलहरीहीरमाण व ॥ १२४ ॥ कलिकालकलियकलुसिजमाणभूनाहदढविरत्त व । गुरुसिक्खासवणुप्पम[कमसलाइरेग व ॥ १२५ ॥ कह कुणउ अवस्थाणं पत्थिव! लोयम्मि निच्चकालं पि। रायसिरी पुरिसविसेसविसयविनाणविमुहबई? ॥ १२६ ॥ इय नरवरिंद! बाद "निरुभिउं रायलच्छिवामोहं । तं निचलत्तकारणमवरं वावारमणुसरसु ॥१२७॥ जह ताव चित्तसंतावमेत्तओ चिंतियाई सिझंति । ता ज्झाण-दाण-तवमाइएहिं किं खिञ्जए लोए ॥१२८॥ रना भणियं भय अवितहमेय ति किंतु कलुसमई। अम्हारिसो ज॑णोऽयं जहतह सुहसिद्धिमभिलसइ ।। १२९॥ १ मणिकुहिमशयताडितकन्दुकोस्फिटनपतनप्रतितुल्यम्॥२ कंद्धिय प्रती ॥ ३ भमभमि प्रतौ ॥ ४ किं वा कोटरप्रज्वलनशीलश्वलनदह्यमानपादपप्रतिमम् । करिचरणाकान्तोत्पलमालामिव ॥ ५ यदा स्थिरस्थूलगिरिभवनवननदीसिन्धवः ॥ ६ कारछैलसरिदिन ॥ ७ सूर्पानुरूपकरिकर्णतालताश्रमानेव ।। ८ वेगचलनशील- ॥ ९-हियमाणा ॥ १० कलिकालकलिकाकलुष्यमाणभूनाथरडविरफेच । गुरुशिक्षाश्रवणोरपजकर्णशूलातिरेकेव ॥ ११ विमुखवतीविमुखेत्यर्थः ॥ १२ निरुध्य राजलक्ष्मीव्यामोहम् ।। १३ विद्यते लोकः ॥ १४ जणोई जद्द प्रती ॥ चपलत्वम् ॥६१॥ न मुणइ कारणरहियं कजं कह जायइ ? ति तारूवं । संखेवसारभूयं किं पि वएसं महं देहि ॥ १३० ॥ तो तज्जुग्गयमुवलब्भ साहुणा चंदणं व मलयाओ । नंदणवणाउ कप्पदुमं व जलहीउ अमयं व ॥ १३१ ॥ पारगयपणीयाओ पावयणाओ पहाणओ परमो । पंचपरमेट्ठिमंतो उवइट्ठो इट्टसिद्धिकरो। ॥ १३२ ॥ सम्मत्तनिचलत्तं परमं नरनाह! नवरि काय । उच्छुलय बन किरिया एयविउचा फलं देह ॥ १३३ ॥ अन्नं च पंचमंगलसुयवंधो एस गिजए समए । पढमुच्चारो सत्थाण दिवमंताण पेणवो व ॥ १३४ ॥ एसो य उद्दिसिजइ जिणभवणे नंदिविरयणापुवं । तो कीरंतुववासा पढमं चिय पंच एगसरा ॥ १३५ ॥ तो अट्ठ अंपिलाई दिजह नवकारवायणा तत्तो । तिहिं उववासेहिं ततोऽणुनवणा कीरइ इमस्स ॥ १३६॥तहाइह साहुपए नव अक्खराइं पंचेव हुँति सिद्धपए । अरिहंताइपएK पत्तेयं सत्त सेसेसु ॥ १३७॥ अरिहंताई पंच बि पयाई बीयाई परममंताणं । एयाणुवरि चूला "एसो पंच" ति एमाई ॥१३८ ॥ तेत्तीसऽक्खरमाणा इमा य तेचीसपयडणपहाणा । एवं [एस समप्पइ फुडमक्खरअडसडीए ॥ १३९ ।। एवं पढिओ एसो विहीए लक्खेण सेय-सुरहीणं । कुसुमाणं पुण जविओ भवेण तदेगचित्तेणं ॥१४०॥ वियरइ भुवणऽभहियं तित्थंकर-चकि-गणहरपयं पि । जहतह सुलभाणं पुण का वत्ता सेसवत्थूण? ॥१४१ ॥ १ किमप्युपदेशम् ॥ २ पारंगता:-तीर्थकराः ॥ ३ सम्यक्त्वविरहिता किया इक्षुलतावत् फलवन्ध्या ॥ ४ यवेउ प्रतौ ॥ ५ 'प्रणवः ॐकारः ॥ .६ कियन्ते उपवासाः ॥ ७ मस्सं प्रती। 98454%ACEBSREKASAMICROSONAKACHAOS पवनम स्काराराधनविधि: Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरइओ कहारयण कोसो ॥ सामन्नगुणाहिगारो। ॥ ६२ ॥ 696+96+96+9 ॥ १४२ ॥ किंच अंतोरिहंतं विनास दाहिणावत्त सिद्धमाईणं । ज्झाणं च एत्थ किचं निचं परमेहिमुद्दाए करआवत्ते जो पंचमंगलं साहुपडिमसंखाए । नववारा आवत्तइ छलंति नो तं पिसायाई एयप्पभावमहवा सवं सवन्नुणो चिय मुणंति । तल्लेसुद्देसं पुण पत्थिव ! तुह किं पि उवइड ॥ १४३ ॥ ॥ १४४ ॥ ॥ १४५ ॥ ।। १४६ ।। ॥ १४७ ॥ ॥ १४८ ॥ ।। १४९ ।। तो तक्खणदक्खिणविष्फुरंतलोयणविभावियन्मुदओ । नमिऊण मुणिं राया जंपेडमिमं समादत्तो भयवं ! कुणसु पसायं जहाविहीए ममं इमं देह । मा जियचितारयणं विफलं तुह दंसणं होउ तो जोगो ति विभाविय मुणिणा सो संतिनाहजिण भवणे । तीए गुहाए अदूरे नीओ चंदाविओ देवे गुरु-देव-तत्तपयडणपुत्रं सम्मत्तमुत्तमं दाउं । पंचपरमेट्ठिमंतो उबहाणपुरस्सरं दिनो उवहिओ य गुरुणा देवाणुप्पिय ! तुमाउ नो अन्नो । धन्नो जए वि विजह कहमन्नह एयसंपत्ती ? अवि लब्भइ चकितं सुराहिवत्तं सुरूव-सोहग्गं । न पुण परमेट्ठिमंतो एसो नीसेसकुसलकरो ॥ जं कहिउं पि न तीरेंइ न य जं विसए वि पडइ बुद्धीए । जं गोयरे य न मणोरहाण न मणे वि जं द्वाइ ।। १५१ ।। तंपि हु अर्चितमाहप्पपंच परमेहिमंत सामत्था । सज्जो कर्ज पुरिसो साहइ लीलाए नितं ।। १५२ ।। पेच्छसि इमं च जं भूमिनाह ! जिणसंतिमंदिरमुदारं । तं पि हु थेवाराहियपंचनमोकारविष्फुरियं ॥१५३॥ ताहि१ अर्हद्विन्यास: दक्षिणावर्त्तम् । लुप्तविभक्तिके पदे ॥ २ साधूनां प्रतिमाः द्वादश इति द्वादशसंख्ययेत्यर्थः ॥ ३ "णा भो दे प्रतौ ॥ ४ शक्यते ॥ ५ 'निर्धान्तं' निःशङ्कम् ६ ॥ "विफुरि प्रतौ ॥ १५० ॥ ........ नरवर ! इमस्स मुणिणो किं रूवं मुणउ मारिसो मंदो ? । नवरं दिवोसेहिसाहिसाहियं पिव इमं मने ॥ १०८ ॥ कमन्नहा विरायइ सवणपुडं नागदमणिसारिच्छं । हिरिबेर मूलसुहुमा सुगंधिणो वा सिरोकेसा तंबोडपुडड.. - कसिणसिणिद्धा य सहह रोमाली । एयस्स कालिया तालिय व सोवन्नवन्नकए छायातरुं व पेच्छसु अच्छिन्नच्छायमंगमेयस्स । नवपल्लव व कंकेल्लिणो करा तह विरायंति थलकमलनिविसेसं उम्मुहपसरंतनहमणिमऊहं । चलणजुयं समहियवीयरविकर (१) व गिरिमिव सहइ इय भूमिपाल ! साहेमि केत्तियं एयसैन्तियं तुज्झ १ । पयइपसुनिविसेसो साहीण सया वि सहवासी उल्लव तं नरिंदो को एवं भासिउं परं सको ? | अत्तवहुमाणविमुहाई अहव हिययाई गरुयाण ता होउ दाणि भणिएण एहि एयस्स पायपडणेण । इय अप्पाणं कुणिमो पूँयमप्पडि मधम्मस्स इय ते भूमंडलसम्मिलंत भालयललुलियसिरकेसा । नमिउं मुणिं निविट्ठा उचियाणे पहिङमणा साहू वि जैहोच्चियकिर्चसेसमक्सेसिऊण आसीणो । जंपइ कत्तो ? के वा तुब्भे १ किं चेह करूं ? ति रन्ना पर्यंपियं कजमेत्थ तुम्हाण ताव पयनमणं । सेसं तु चित्तसंतावयं ति नो साहिउ जुत्तं तो दिवाणबलकलियसयलतबइयरेण मुणिवणा । भणियं नरिंद ! सविसायमेरिसं किं समुवसि ? १] दिव्यौषधिशाखिसाधिकमिव ॥ २ "सत्तियं प्रतौ । एतत्सत्कं तव । प्रकृतिपशुनिर्विशेषः शाखिनां सदाऽपि सहवासी ॥ ४डणस प्रतौ ॥ ५ यथोचित कृत्यशेषम् 'अवशेष्य' समाप्य ॥ ६ किञ्चिसे प्रतौ ॥ ७- तद्व्यतिकरेण ॥ ।। ।। ११६ ।। ॥ ११७ ॥ ॥ ११८ ॥ ॥ ११९ ॥ ३ 'पूतम्' पावनम् ॥ ११ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ।। १०९ ॥ ११० ॥ १११ ॥ ११२ ॥ ११३ ॥ ११४ ।। ११५ ।। 5565 पश्चनम स्कारे श्रीदेवनृप कथानकम् । ॥ ६२ ॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दरिविरइओ 4%AC पश्चनम स्कारे श्रीदेवनृपकथानकम्। कहारयणकोसो॥ सामनगुणाहिगारो। एयस्स अदूरम्मि पंचनमोक्कारअक्खरसिलं पि । उत्तरदिसाए अञ्ज वि पेच्छसु जह कोउगं अस्थि ॥१६६ ।। उवसंतदिट्टियं अणसणट्टियं ईसिविहडिउट्ठउड । सिरि विरइयकरकोसं तह घडियं वानरं तं पि एवं निसामिऊणं राया अच्चंतविम्हयाउलिओ। तम्मि ठाणम्मि गतो दिह्र च जहट्टियं सर्व ॥ १६८॥ अह जायपचओ सो पञ्चागंतूण पणमइ तवस्सि । आबद्धकरयलंजलि पयंपए वयणमेयं च ॥ १६९ ॥ जह सिहूं पहु। तुमए तहे[व] तं सव्वमेवमविगप्पं । अवि चलइ तियससेलो न तुम्ह वयणं पुण कहिं पि ॥ १७० ॥ पुवं पि निच्चलमणं विसेसतो तक्खणं महीवालं । अणुसासिय आपुच्छिय जहागयं पडिगओ साहू ॥१७१ ॥ राया वि संतिजिणपायपउमपुरओ पयत्तकर्यझाणो । पंचनमोकारुच्चारपुवयं नाणमुद्दाए ॥ १७२ ॥ सिय-सुरहि-चारु कुसुमं ता मुंचइ जा समप्पए लक्खो । थेवेण नेव कत्तो वि ताव कयबहलहलबोलो ॥१७३ ॥ सद्देत्तं व जए पइट्टियं गरुयदेहदंडेण । आयासं व मिणंतो भीमाण वि जणियभूरिभओ ॥ १७४ ॥ निदुरपयभरफुहंतमेहणीवगृहलहलियसेलो । तद्देसखेत्तवालो समागओ करकयकवालो। ॥ १७५ ॥ भणियं च तेण रे रे नराहमा! विरम मंतसरणाओ । को एस मूढ ! मंतो? को वा एयस्स दाया वि? || १७६ ।। सवं आलप्पालं किं खिजसि ? किं न जासि नियभवणं ?। जलकप्पणा न मायण्हियासु तण्डं पसामेइ ।। १७७ ॥ १ अच्छि प्रतौ ॥ २ ईषद्विघटितौष्टपुटं शिरसि ॥३°उभिओ प्रतौ ॥ ४ यज्झा" प्रती ॥ ५ "वत्तम्ब जए प्रती ॥ ६ आकाशम् ॥ ७ निष्ठुरपदभरस्फुटन्मेदिनीपट्टकम्पितशैलः ॥ ८ मृगतृष्णिकासु तृष्णां प्रशमयति ॥ ॥६३॥ सिरिसंतिनाहपयदसणे वि न य अस्थि जोग्गया तुज्झ । ता अप्पाणं अमुणिय कीस मुहा कुणसि ववसायं ॥ १७८ ॥ किं चहुणा भणिएणं? जिणभवणावग्ग लहुं चयसु । अह को वि भडमओ ते ता सजो होसु जुज्झत्थं ॥ १७९ ॥ इय जाव सो पयंपइ सरोसविष्फारियच्छिविच्छोहो । कीणासभमुह]कुडिलं च केत्तियं किं पि कंपइ या ।। १८०॥ ता [रु]-मन्तावनानिसामणुप्पन्नगाढपरिकोवो । राया ज्झाणं मोतुं जंपिउमेवं समाढत्तो ॥ १८१॥ रे कडपूयण ! किं पित्तविहुरदेहो व पलवसि जहिच्छं । जं पंचनमोकारं निंदसि तद्देसगं च गुरुं ॥ १८२ ।। एयं पि मूढ ! न मणसि ! ऐयाणऽग्यो न तिहुयणेणावि । पारिञ्जइ काउं सुंदरं च एत्तो वि नत्थि परं ॥ १८३ ॥ ही! मोहविलसियाई जवसगा पाणिणो न याति । धेत्तूरयरसिया इव सुहमसुहं गज्झमियरं वा ॥१८४॥ अहवा छुहा-पिवासाकिलामणा-ऽयाणचायलद्धेण । देवत्तेणं इय हवइ निच्छियं वयणविन्नाणं ॥१८५॥ तुच्छाणं तुच्छाई वयणाई मणोरहा य सीलं च । खंती विणतो य नतो य किमिह ता तुज्झ वयणिजं? ॥१८६ ।। तो जायगरुयकोवो खेत्ताहिबई निवं समुलवइ । पावियदप्पफलो वि हुन मूढ! दप्पं परिचयसि ? ॥१८७॥ रायाऽऽह रे दुरासय ! को सि तुम जेण तुज्झ भीओह । उज्झामि खत्तकुलजम्मंसहयरं दप्पमप्पधणं? ॥ १८८ ॥ १ अज्ञात्वा ॥२ सरोषविस्फारिताक्षिविक्षेपः ।। ३-धुकुटि- ॥ ४ गुरुमन्त्राचज्ञानिशमनोरपत्रगाढपरिकोपः ॥ ५२ ध्यन्तर ! ॥ चिन्तयसि ।। ७ 'एतयोः पञ्चनमस्कारस्य सदुपदेशकगुरोध ॥ ८ यशगाः ॥ २ पत्तूरकरसिता इव शुभमशुभं पायमित्तरद्वा ।। १०-अज्ञानत्याग- ॥ ११ विनयब नयश्च ॥ १२ -सहचरं दर्पमात्मधनम् ।। %ERANASCHACKERAKASHAMAKACACACANCELECACAC4% Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभरि विरइओ कहारयण कोसो ॥ सामन्नगुनाहिगारो ॥ ६४ ॥ 946 एसा वि कैतिया तु न कन्नकंयणे वि मे सत्ता । विहलो इमो विबालाण खयकरो नणु फडाडोवो ॥ खेत्ताहिवो पर्यपइ जइ एवं एहि जिणहराओ बहिं । रणमणुचियं हि पुरओ कंयजयसंतिस्स संतिस्स ॥ अह वयणाणंतरमवि ढबद्धनियंसंणो निवो ज्झत्ति । नीहरिडं जुज्झेणं लग्गो सह खेत्तवालेणं एत्थंतरम्भि नैरवइवामोहुष्पायणडुमडुदिसं । खित्ताहिवेण ठविया बिभीसियाओ ततो राया एगत्थ कैडकडारवरउद्ददतग्गदारुणायारं । डमडमियडमरुडामरमवलोयइ डाइणीवंद्र अन्नत्थ वयणपञ्जलिय जलणजाला कलावदुप्पेच्छं । पेच्छइ वेयालकुलं करतालुत्तालतुमुलखं एगत्थ सजियकमविडंचिउग्गाढदाढमुह कुहरं । पेच्छइ जलंतनयणं मैइंदबिंदं जंणरउद्दं अन्नत्थ फौरफणफलगभीसणं दीहजी हजुयलिलं । पम्मुकपुकनिकसियसिहिकणं नियइ फणिचकं एगत्थ चंडतंडवियसुंडे मुडमरदं तदढदंडं | अंजणगिरिं व गरुयं अवलोयइ मत्तकरडिवर्ड अन्नत्थ खँयसमीरुच्छालियचुड लीविलुत्तनक्खत्तं । पेक्खइ खयसमयम्मि व पसरतं वणदवं रुदं १८९ ॥ १९० ॥ ।। १९१ ।। ॥। १९२ ॥ ॥ १९३ ॥ ॥ १९४ ॥ ॥ १९५ ॥ ।। १९६ ।। ॥ १९७ ॥ ।। १९८ ।। १ कर्त्तिका ॥ २ कृतजगच्छान्तेः ॥ ३- निवसनः ॥ ४ नरपतिव्यामोहोत्पादनार्थम् अष्टदिक्षु ॥ ५ कटकटारवरौद्रदन्ताप्रदारुणाकारम् । डमडमायितउमरुभयङ्करम् अवलोकते डाकिनीवृन्दम् ॥ ६ सज्जय° प्रतौ सजितक्रमविडम्बितोद्गादंट्रामुखकुहरम् ॥ ७ मृगेन्द्र नृन्दं जनभयङ्करम् ॥ ८ जलर" प्रतौ ॥ ९ स्फारफणा फलक भीषणं दीर्घजिह्वायुगलवन्तम् । प्रमुकपूत्कृतनिष्काशितशिखिकणं पश्यति फणिचक्रम् ॥ १० पंचमु" प्रतौ ॥ ११ चण्डताण्डवितण्डं महाभयङ्करदन्तदण्डम् ॥ १२ मुंडमुंडडमुडमर" प्रतौ ॥ १३ क्षयसमीरोच्छा लितोल्मुकवि उपनक्षत्रम् ॥ १ "इज्झाणे" प्रतौ ॥ २ बोहिंडे" प्रतौ ॥ ३ भाग्यवशेन ॥ ४ 'विभावयन्' चिन्तयन् सः ॥ ५ कारो, स° प्रतौ ॥ ७ स्फटिकमणिमसृणभूमिकम् अमित स्तम्भावलीविराजमानम् ॥ सोहम्मदेवलोए हेमपभो नाम आसि वरतियसो । छम्माससेसमाउयमवगच्छिय अप्पणो सो य ।। १५४ ॥ पुच्छेद केवलिं वंदिऊण एत्तो चुयस्स मे भंते ! । कत्थुप्पत्ती होही ? कहं व बोहीए लाभो य १ तो केवलिणा भणियं पअंते भद्द ! अझाणेणं । मरिऊण वानरो तं होहिसि एयाए अडवीए ।। १५५ ।। ।। १५६ ।। ॥ १५७ ॥ ।। १५८ ।। ।। १५९ ।। ॥ १६० ॥ तत्थ य किलेससज्झो होहीय कहं पि बोहिलाभो य । इय सोउं सो तियसो इममडविं आगतो तुरियं उकिन्नो सेलसिलाए बोहिहेउं च एस नवकारो । समए कालं काउं उववन्नो वानरत्तेण कह कह विडिवसेणं तेण भमंतेण सेलसिहरेसु । दिड्डा सा उकिन्ना पंचनमोकारपयपंती तं च विभावितो से जाईसरणेण मुणियपुवभवो । वेरग्गावडियमई घेत्तृणं अणसणं सम्म तं चैत्र नमोकारं सरमाणो पाविऊण पंचत्तं । देवो पुणो वि जा[ओ] सोहम्मे हेमप्रभनामो किं दिनं १ किं तवियं ? किं जहं वा मए चिरभवम्मि १ । इय जाव सो विभावर ता जायं जाइसरणं ति ॥ तो विनायजहड्डियभावो मोत्तूण देवकिचाई । आगच्छइ इह ठाणे पेच्छइ विजाहरे य तर्हि ।। विजाहराण हे संतिजिणिदालयं पकाउमणे । तो ताण अपणो वि य अणुग्गहड्डा ससत्तीए ॥ फैलिहमणिमसिणभूमियममियत्थंभावलीचिरायतं । नियगरिमविजियगिरिवरमाययणं संतिणो कुणइ ।। ।। १६१ ।। १६२ ॥ १६३ ।। १६४ ॥ १६५ ॥ ६ ‘इष्टम्' पूजितम् ॥ पश्ञ्चनम स्कारे श्रीदेवनृप कथानकम् । ॥ ६४ ॥ नमस्कार माहात्म्ये हेमप्रभदेव सम्बन्धः Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चनम स्कारे श्रीदेवनृपकथानकम्। देवमसरिविरहओ कहारयणकोसो॥ सामन्नगुणाहिगारो। ॥६५॥ रायाऽऽह भो महायस! किं संतप्पसि तुम इह पयत्थे । एयस्स को णु दोसो ? मह पुनविवजओएस ॥ २०९ ।। कहमनहा [तहा] विहनिरुद्धमण-वयण-कायपसरस्स । थेवेणापुनमणोरहस्स चित्तं चलिज मम ॥२१० ॥ किमहं न एत्तियं पि हु मुणेमि ? जं वंछियत्थसिद्धीओ। पंचूहबूहविहुणियपसराओ हवंति पाएण ॥२११।। देवेण जंपियं भो नरिंद ! सच्चं इमं जओ भावी । विजाहरचकि चिय एवं जविउं लहइ लक्खं ॥ २१२॥ तुह पुण थेवेणापुमपंचनवकारलक्खजावस्स । कित्तेमि भृवइत्तं सुनिरुत्तं करतलनिलीणं ॥ २१३ ॥ ता एहि सैयलतयलोयपणयचरणं जिणं थुणामो ति । ता दो वि ते पयहा भत्तीए वंदिउं संति ॥ २१४ ॥ यस्य स्तुतौ त्रिजगती युगपत् प्रवृत्ताऽप्यन्तं न गन्तुमलमुजवलसद्गुणानाम् । वृन्दारकाधिपतिवन्यपेदारविन्दो, जीयात् स शान्तिरुपकल्पितविश्वशान्तिः ॥ २१५॥ ब्रह्मा वरीयान् धृतिवृद्धिसिद्धः, ध्रुवः शुभः शोभनहर्षणव । सत्प्रीतिसौभाग्यसुकर्मसिद्धि [.............................. ॥ २१६ ॥ ... ............] रित्थं सुयोगमय एव मुदेऽस्तु शान्तिः ॥ २१७ ॥ १प्रत्यूहव्यूहविधुनितप्रसराः॥ २ सुनिश्चित करतलनिलीनम् ॥ ३ सकलत्रैलोक्यप्रणतचरणम् ॥ ४ "न्दारिका' प्रती ॥ ५ 'पादा' प्रतौ ॥ ॥६५॥ PARRRRRRRRRRxxxAKKAKERRRRRRRRRRRRRRRRRRR++ AKAKAKAKAKKAKKAKAKKARKAR+++KAKKARXX एवं थुणिउँ संर्ति हेमपही जिणहराउ नीहरिओ। वसुहाहिवेण य समं आरूढो परविमाणम्मि ॥२१८॥ मणविजयिणा जवेणं ससेल-वण-काणणं धराभोगं । पेहंता सुमहल्लं कंपिल्लपुरं लहुं पत्ता ॥ २१९ ॥ हेमप्पमेण तत्तो निवेसिउं पुषपुडहपालपए । सो सिरिदेवनरिंदो दुईतजण हणेऊण ॥ २२०॥ सो वि य कामरुयनिवो हेच्छं आणावडिच्छओ विहिओ। अन्ने वि बंग-कालिंगराइणो गाहिया सेवं ।। २२१ ॥ इय पुवरायसमहियरायसिरिं लंभिऊण तं देवो । जंपइ परं पि साहेहि भो! पियं किं पणामेमि ? ॥२२२ ॥ अह हेरिसविसप्पंद्धरोमंचराईसमहियरुइरंगो पत्थिवो हत्थकोसं । कमलमउलसोई भालवडे ठवित्ता, दरांवणमियसीसो सायरं वागरे। ॥ २२३ ॥ दिडो दुल्लहदसणो मुणिवरो पत्ता य बोही तओ, संपत्तो परमेट्टिपंचयमहामन्तो य संती धुओ। जायं तुज्झऽणुभावओ य सयलं कजं च मे वंछियं, किं एत्तो वि पियं परं इह जए जं देव ! जाइब्जए? ॥ २२४ ॥ तह वि हु बिहुणियदारिदविद्दवं बंछियत्थदाणखमं । चिंतारयणं व पुणो वि दसणं तुह महं होजा ॥ २२५ ।। इयजंपिरे नरिंदे देवो सहसा अदसणीहूओ । राया वि रजकलाई चिंतिउं संपयट्टो ति ॥ २२६ ।। अह सुचिरं रायसिरि उवभोत्तुं मूणियमरणपत्थाचो । पुत्तं ठविऊण पए स महप्पा जायवेरग्गो ॥ २२७॥ १ "ता सम प्रती । प्रेक्षमाणाः सुमहान्तम् ॥ २ शीघ्रम् आशाप्रतीच्छकः ॥ ३ हर्षविसर्पवरोमाश्चराजिसमधिकरुचिरागः ॥ ४ "तुच्चरो" प्रती ॥ ५ णो व दं" प्रती ।। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभरि - विरइओ कहारयणकोसो ॥ सामन्नगुणाहिगारो । ॥ ६६ ॥ पंचपरमेट्ठिमंतं अश्चंतं माणसम्मि सरमाणो । पंचत्तमणुप्पत्तो चित्तसमाहीए परमाए ।। २२८ ।। तो कंपिल्लनिवासी लोगो रायस्स तहिं मरणं । दहुं कत्थुववन्नो इमो १ ति संजायजिनासो ।। २२९ ॥ जा चिट्ठ वामूढो ता दढघोसो त्ति केवली पत्तो । सविनयकयप्पणामेण पुच्छिओ सो तओ तेण ॥ २३० ॥ अह केवलिणा सिट्टो सिरिदेवनराहिवस्स माहिंदे । सुरसिरिलाभो सुंजवियपंचनमोकार माहप्पा ॥ २३१ ॥ तत्तो सुकुलुप्पत्ती कश्वयभवभमणओ य सिवलाभो । इय पंचनमोकारो सारो नीसेसधम्मस्स ।। २३२ || किश्वएकैकोऽप्यभिवाञ्छितानि वितरेद् ध्यातोऽईदादिर्मुदा संज्ञेष्ट्या परमेष्ठिनः किमु परं पश्चापि चानुस्मृताः ? | तत् कः स्वस्य रिपुः १ स्वरिच्छति न कः ? काङ्क्षत मोक्षं न कः ?, योऽस्मिन् श्रीपरमेष्ठिपञ्चकन मस्कारे न बद्धादरः || १ || किं दानैः १ किमु भूरिशास्त्रपठनैः १ किं देवपादार्चनैः १, किं ध्यानैस्तपसा च किं १ किमथवा कूटैर्विवेकैरपि १ । चेत् संसारसरित्पतौ तरिसमा नैवास्ति कल्याणभूर्भक्तिः श्रीपरमेष्ठिपश्चकन मस्कारे नृणां निश्चला वह्नदीतगृहादनर्घमणिवर्जन्येष्वमोघा स्त्रवत्, सिन्धौ मजदनल्पनौफलकवत् पातेऽथवाऽऽलम्बवत् । गृह्णन् पञ्चनमस्कृतिं सकलमप्यन्यद् विहायाssदराद्, जीवो जीवितविप्लवेऽपि न भवत्येवाऽऽपदामास्पदम् ॥ ३ ॥ १ "सुविजय" प्रती ॥ २ "कारेमा प्रतौ ॥ ३ जेष्ठया परमेष्ठिनः किमपरं पञ्चापि नानुस्मृताः ? प्रती ॥ ४° न मोक्षं च कः, यस्मिन् प्रतौ ॥ ५ कुर्वि प्रतौ ॥ ६ युद्धेषु ॥ ॥ २ ॥ एत्थ चाव- कुंता ऽसि रोव नाराय चकलेल्लकं । आलोकददुकंतं दुबारं वेरिवारबलं ॥ १९९ ॥ ॥ २०० ॥ अन्नत्थ मच्छु-कच्छ भपुच्छुच्छा लिय महल्लकल्लोलं । खयसिंधुणो व वेलं देह पवलं जलुप्पीलं इय पेच्छिरो वि राया न पंचपरमेहिमंत माहप्पा । खुब्भइ भमई विरमइ गुप्पइ तम्मइ किलम्मइ य ॥ २०१ ।। किश्व क्षणं कृतकचग्रहाकुलितकन्धराकन्दलं निमेषविमुखस्फुरन्नयनतारतारं क्षणम् । क्षणं गुरुपरिश्रमश्रवदजस्रधर्मोदक प्लुतावनितलं क्षणं दशनदष्टदन्तच्छदम् क्षणं करसरोरुहप्रहतमेदुरोरेंस्थलं, क्षणं च परिवर्तनश्लथगलत्कटीशाटकम् | क्षणं करण कल्पनाप्रकटपाटवाडम्बरं, तयो रतमिवाभवत् स[म]रकर्म चित्रक्रियम् एत्थंतरम्मि चेइयचिंता विणिउत्ततिय सवयणाओ । मुणिउं तथ्युत्ततं हेमप भो तत्थ ओहनो निद्वाडिऊण खित्ताहिवं लहुं सायरं निवं भणइ । उवविस विमुंच रणमिन्हि भो महाभाग ! सुणसु गिरं एसो खु पुंडरीय त्ति खेतवालो मए इह निउत्तो । वेश्य- साहम्मियकिच्चकरण हेउं दुरायारो साहम्मियकिचं पुण कयमेवंविहमणेण मूढेण । केली किलाणमहवा गुण-दोसवियारण कत्तो ? ता दुबिलसियमेयस्स खमह मह सबैहोवरोहेण । भिश्वावराहदूसणमवणेयं सामिणा चेव ॥ २०२ ॥ ॥ २०३ ॥ ॥ २०४ ॥ ।। २०५ ।। ॥ २०६ ॥ ॥। २०७ ।। ॥ २०८ ॥ १ चापकुन्तादयोऽस्त्रशस्त्र मेदविशेषाः ॥ २- भयङ्करम् । आलोकरढोकान्तम् ॥ ३ पश्यति ॥ ४ दर्शनशीलः ॥ ५ रच्छल प्रतौ ॥ ६ "भ्रमत् प्रतौ ॥ ७ सादरम् ॥ ८ चैत्यसाधर्मिकनृत्य ॥ ९ व्हाव" प्रतौ ॥ पश्चनमस्कारे श्रीदेवनृपकथानकम् । पञ्चनम स्कारस्मरणस्य फलम् ।। ६६ ।। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमहयरिविरइओ कहारयण-13 कोसी॥ KAKARAHAMAKAKAR चैत्याधिकारे विजयकथानकम् ११॥ सामनगुणाहिगारो। जलगलण-भूमिपेहणपमुहा जयणा य सबजोगेसु । कायवा इत्थ जओ जयणा धम्मस्स सारो ति ॥९ ॥ कम्मयराण वि इत्थं थेवं पिन वंचणं विहेयवं । अचि सविसेसं देयं तेसिं सुहभावबुडिकए ॥१०॥ इय पढमकीरमाणे जिणभवणे वनिओ विही एस । जिन्नुद्धारम्मि पुणो एसो च्चिय पायसो नवरं ॥ ११॥ जिनं विहडियसंधि निबट्ठधयं च चेइयं दहुँ । तमुवेक्खिऊण अन्नं कुसलेण न जुञ्जए काउं ॥ १२ ॥ इहरा मग्गुच्छो न माणविजओ जिणे य न य भत्ती । तम्हा सय सामत्थे तमुद्धरंतो वरं कुजा इय भणियविहाणेण जिणभवणं मणहरं करावितो । विजउ व गिही निग्गहइ दुग्गदुग्गइदुहाई लडें ॥ १४ ॥ तहाहि गिरि-सर-सरिया-ऽऽराम-प्पवा-सभा-वावि-कूवरमणिजा । मालवविसयपहाणा चकपुरी अस्थि वरनयरी ॥१५॥ रयणेसु वईरसदं देहि थिय विरंगहं वयंति जहिं । चकचलणं च दीसह कुंभारघरे च्चिय न लोए ॥१६॥ तीय पुरीऐ राया भुयपरिहनिरुद्धवइरिवीरवलो । बलभद्दो त्ति पसिद्धो रजसिरिं भुजह महप्पा ॥१७॥ लच्छी तक्कुयमंदिरेसु निहिया खिचो दिसासुजसो, सत्तूर्ण भयमुब्भडं वियरियं बुड़िचनीया गुणा । छिना दुनयसंकहा वि विउणो माइपमारोविया, जस्सेवं भुवणभुयं हि चरियं किं तस्स वनिजए? ॥१८॥ तस्स य रो मित्तो अहेसि दढगाढरूढपडिबंधो । आवालकालसहपंसुकीलिओ नाम सिरिगुत्तो ॥१९॥ १ "चयं च वेद प्रती ॥ २ मानविजयः ॥ ३ सति ॥ ४ तो परं प्रती ।। ५ वनं वैरं च ॥ ६ शरीरं युद्धं च ॥ ७ चकचलनं परचकागमनं च ॥ ८ तस्याम् ॥ ९ °५ जाया प्रत्तौ ॥ १० स्वजनमन्दिरेषु ।। ११ भयमुद्भर्ट 'वितीर्ण' दत्तम् ॥ १२ विद्वांसः ॥ ॥६७॥ ॥६७॥ RANACAKACAXACACAKACACANCE HEARCHASEARWACASSAGAVACANCAREKACACHAN+KAN तेणं समुदसेवा-किसि-वाणिआयवहुविहविहीहिं । निजियवेसमणधणोहवित्थरी अजिओ अत्थो ॥ २० ॥ सुहि-सयण-बंधवाणं थेवं पि हु नेव देइ ओगासं । धणमुच्छाए परिहरइ दूरओ साहुगोट्टि पि ॥ २१ ॥ नवरं चिरपुरिसागयसावयधम्मक्खणं जहावसरं । जिणपूयणा[इपमुई जहापयट्टे कुणइ किं पि ॥ २२ ॥ उक्खणण-खणण-परियंत्तणाहिं गोवेइ तं च निययधणं । अवहारसंकियमणो पइक्खणं लंर्छणे नियइ ॥२३ ।। कालकमेण जाओ पुत्तो विजओ तिं ठावियं नाम । सिक्खियकलाकलायो य जोवणं सो समणुपत्तो ॥ २४ ॥ कावयवयस्ससहियं जहिच्छचरिय च तं सुनेवच्छ । तंबोलपाडलोटुं कुसुमोत्थयमत्थयं दई ॥ २५ ॥ चिंतेइ पिया सुचिरञ्जियस्स अत्थस्स संपर्य नूणं । इमिणा सुरण कीरइ अकालहीणं हि निग्गमणं ।। २६ ॥ कहमबह [एयारिस]विलासवित्तीए वट्टए पुत्तो' । सुपायत्तबिहियरक्खस्स किं व काही इमो अहवा? ॥ २७॥ सासेमि किं पि तत्तो भणइ सुयं रे! किमत्थमत्थवयं । कुणसि? न मुणेसि "किमिमं? कढण विप्पए लच्छी॥ २८ ॥ किंवा न वच्छ पेच्छसि लच्छी जद्द रक्खिया पयत्तेण । जलनिहिणा जल-तिमि-मगरदुग्गदेसम्मि खिविऊण || २९ ।। कह वा हरिणा वि कवाडवियडवच्छत्थलम्मि ठविऊण। पुरपरिहदीहभुयगहणगोविया सोविय व इमा? ॥ ३०॥ १-वाणिज्यादि-॥ २-परिवर्सनाभिः ॥ ३ "क्खणे ल प्रती ॥ ४ मुद्राः पश्यति ॥ ५ ति बाचियं प्रती ॥ ६ कतिपयवयस्यसहितम् ॥ ७ कुसुमावस्तृतमस्तकम् ॥ ८ शिक्षयामीत्यर्थः ।। ९ किमर्थमर्थव्ययम् ॥ १० किममं प्रतौ ।। ११ अर्यते ॥ १२ पुरपरिषदीर्घभुजागहनगोपिता स्वापिता ॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभरि विरइओ कहारयण कोसो ॥ सामन्नगुजाहिगारो। ॥ ६८ ॥ 164964564964 समणेण व वेसमणेण जह व भोगं अणीहमाणेण । एसा रेसायलोरगफारफणावेढवणीया ? ॥ ३१ ॥ ॥ ३२ ॥ इय कित्तिया कहिअंतु तुज्झ ? जे उज्झियं सजीयं पि । रैक्खिसु चिरं सुहि-सयण- देहदोहं पि काऊण ॥ ३८ ॥ विजएण जंपियं ताय ! जइ इमं ता सिरीए किं व फलं ? । न हि चाग-भोगओ वि हुँ कजमिमीए परं विंति ॥ ३३ ॥ दिता निद्दिट्ठा जे वि तए ताय ! जलनिहिप्पमुहा । ते वि मुहा बलि- हरिचंदमाइपडिवक्खजुत्तिया ॥ ३४ ॥ बढद वहंतत्रयजलं व वित्तं सया वि भुजंतं । खिअइ तदियश्कृवयनीरं व अभोगओ ताय ! ।। ३५ ।। तेऽणता जे लच्छि सवपयारेण वडिऊण मया । उवभुंजिऊण [दाऊण] जे पुणो ते जए विरला ३६ ॥ न य रक्खिया विचिट्ठइ सुदुट्ठमहिल व पुनरहियस्स । लच्छी नंदस्स व भूवइस्स ता मुंच "तं मोहं ॥ ३७ ॥ आ पाव ! ममावि हु सिक्खणाए बद्धक्खणो सिंहो होउं । बहुजंपिएण बालाणमहव सुलहो महुरभावो ॥ किं बहुणा जइ रे ! जीयमिच्छसे ठाहि ता निहुँयचेट्टो । जइ पुण विलासकाभी ता मह भवणाउ नीहरसु ॥ इय परुवयणभल्लीहिं सल्लिओ तह कहिं पि तेण सुओ। ऊसासो वि हु नीसरइ तस्स जह कटुचेट्टाए ॥ जइ विहु पिउणा सो तह “तिरिक्खिओ तह वि नो गओ विगई । सुकुलुग्गयाण पुरिसाणमहव एसेव होइ गई ।। पिउणावि अत्थसारो तद्वयणुप्पन्नतिवकोवेण । तेंह कह वि गोविओ ठाविओ य जह नजर दिवाणीहिं ॥ १ रसातलोरगस्फारफणावेष्टम् ।। २ उज्झित्वा ॥ ३ अरक्षन् ॥ ४हु सज्ज" प्रतौ ॥ ५ त्वं मोहम् || ६ 'शैक्ष:' शिशुरित्यर्थः ॥ ७ जीवितम् ॥ ८ निसृतवेष्टः ॥ ९ स कह प्रतौ । उच्छ्वासोऽपि हि निस्सरति तस्य यथा कष्टवेष्टया ॥। १० तिरस्कृतः ।। ११ विकृतिम् ॥ १२ उत्तरार्द्धेऽत्र मात्राधिक्यम् ॥ ३९ ॥ ४० ॥ ४१ ॥ ४२ ॥ स्थिति-गति-सुख-दुःख- स्वम-निद्रान्त-हर्म्या-टवि-निशि-दिनपातोत्पातवेलासु येषाम् । व्रजति न परमेष्ठिश्रेष्ठमन्त्रो मनस्तस्त इह भवसमुद्राद् द्राग् बहिष्टाद् भवन्ति ॥ इति कथारत्नकोशे पश्ञ्चनमस्कारे श्रीदेवनृपकथानकं समाप्तम् ॥ १० ॥ पंचनमोकारे विहु अरहंतपयं पयंपियं पढमं । भत्ती य तम्मि बिहिया संसारुच्छेयणं कुणइ सा पुण नज्जइ कजेण तं च जिणभवणकारणेण फुडं । अहिगारिणा तयं पुण कारेयवं विहीए परं अहारी ये इह चिय निम्मलकुलसंभवो विभवभागी । गुरुमत्तो सुहचित्तो अच्चतं धम्मपडिबद्धो बहुसुँहि सयणो सुस्सप मुहगुणसंगओ विसुद्धमई । आणापहाणचिट्ठो दट्ठवो जिणहरविहाणे एत्थ विही पुण सुद्धा दवे सल्लाइवज्जिया भूमी । भावे य पैरापत्तियरहिया पढमं निरूवेजा वेसा- धीवर - ज्यारमा इदुग्गुच्छणिअजणरहिए । गिहि-साहूणं सद्धम्मबुद्धिजणगे पएसम्मि दलमवि य सर्वसिद्धं विसिकट्टिट्टगोवलप्पमुहं । उस्सग्गेणं सम्मं सुंसउणबुडीए घेत्तवं तयभावे बहुगुणसंभवे य अतहग्गहो विष्णुन्नाओ । ईहरा मग्गुच्छेओ सद्धाभंगो य सुगिहीण ० १ 'तत्' जिनभवनम् ॥ २य विहिय चिय प्रतौ ॥ ३ सुहस प्रती बहुमुत्स्वजनः ॥ ४ पराप्रीतिरहिता ॥ ६ दलमपि च स्वयंसिद्धं विशिष्टकाष्ठेष्टको पलप्रमुखम् । दल' चैत्यविधापनसाधनानि ॥ ७ मुख्यवृत्त्या ॥ ८ इतरथा । १२ ॥ ४ ॥ ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ || 8 || ॥ ५॥ ॥ ६॥ ७॥ ॥ ८ ॥ ५-यूतकारादिजुगुप्सनीय || चैत्याधिकारे वि जयकथा नकम् ११। ॥ ६८ ॥ चैत्यविधापमाधिकारी तद्विधिश्च Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्याधिकारे विजयकथानकम् ११॥ ॥ ५५॥ देवमहसरिविरइओ कहारयणकोसो।। सामनगुपाहिगारो। ॥६९॥ अट्ठावयस्स कोडीउ अट्ठ चिट्ठति भूमिनिहियाओ । ता वच्छ ! किं न ठाणाई ताई इन्हि खणेसि ति? ॥ ५३ ॥ किं वा विजंतम्मि धणम्मि एवं किलिस्ससे वच्छ ! ? | अणुचियकम्मायरणेण केवलं खिजए देहं ॥ ५४॥ तो जणणीवयणेणं बलिखेवपुरस्सरं सुहमुहुत्ते । करगहियखणित्तो सो खणणट्ठमुवडिओ जाव ताव अयंडविहंडियभंडड्डमरमवणिफुडणवं । जायंतउवलवरिसं से पेच्छए तं पएसं ति ॥ ५६ ॥ अहह ! किमेयं ? ति विभाविऊण संज्झसवसूससियरोमो । संहरियखन्नवाओ वेगेणं पडिगओ सगिहं ॥५७ ॥ मह भागधेयदुबिलसिएण कह विजमाणमवि दत्वं । समहिडियं व देवेहिं ? अन्नहा कह भवे विग्घो? ॥ ५८ ॥ ता गंतणं हरिसेणकेवलिं वंदिऊण पुच्छामि । को एसो वुत्तो ? ति तो गओ केवलिसमी ॥५९ ।। तम्मि य समए बलभदराइणो चेइयस्स कारवणे । साहेइ केवली फलमुदारसिवसोक्खपजंत ॥६० ।। तो विजओ परिचिंतइ जइ कह वि धणं लभामऽहं पिउणो । ता जिणभवणं तुंगं मणोहरं कारवेमि त्ति ॥ ६१ ।। अह पत्थावे जाए नमिऊण केवलि पयत्तेण । जंपइ भयवं ! को पुण निहाणलामस्स विग्घकरो? ॥ २॥ वेअरियं केवलिणा तुह पिउणा भद्द ! तिवमुच्छेण । पावियवंतरभावेण एस समहिडिओ अत्थो ॥६३॥ १ सुवर्णस्य ।। २ किं व ठा° प्रतौ ॥ ३ अकाण्डविखण्डितब्रह्माण्डमहाभयकरम् अवनिस्फुटनरवम् । जायमानोपलवर्षम् ॥ ४ बंभइडम' प्रतौ ।। ५ रिसं मपे प्रतौ ।।६ साध्वसवशोसितरोमा । संहृतखन्यवादः । सायसं-भयः ।। ७ यचदे प्रती ॥ ८ पच्छा प्रतौ ॥ ९ कथितम् ।। ।।।६९॥ HRIRALDAINIONACHANXXRAKESHRASARAHARASHARAHARASHARAT RSHAHARASHARASHTRAKAROSARASWA4%25ARASWARA तो विजओ केवलिणं नमिउं गेहं च संठवेऊणं । उत्तरदेसम्मि गओ ठिओ जयंतीपुरीए बहिं ॥६४ ।। भूयलनामो य तहिं खेयंबू खन्नवायविजाए । विप्पो अस्थि पसिद्धो जाया से तेण सह मेत्ती ॥६५॥ कइवयदिणावसाणे तत्थेव निवासिणा महिंदण । धणिणा चाहरिऊणं सिट्टमिमं भूहलस्स जहा ॥६६॥ पुचपुरिसऽअियं मे घेत्तुं दवं न विन्तरा देन्ति । अद्धं तुह अद्धं मह ता तल्लामे कुणसु जत्तं ।। ६७॥ तो भूहलेण काऊण मंडलं देवयाउ पूहत्ता । पारद्धं सम्मं मंतसुमरण गुरुपयत्तेण ॥ ६८॥ अह जाव खणं चिट्ठह झोणत्थो ताव मंडलगमज्झे । संकंता ते भूया "जेहिं तमहिट्ठिय दई ॥ ६९ ॥ तो ते थंभेऊणं सुनिचलं तेण सा निहाणमही । विजयस्स समक्ख चिय खणाविउं ज्झत्ति पारद्धा ॥७०।। खणमित्तकालविगमे विबंधविरहेण पाविया निहिणो । अद्धं घेत्तूण गओ य भूवलो निययगेहम्मि ॥७१ ।। विम्हइयमणो विजओ चिन्तइ एवं ममावि निहिलाभो । भावी एत्तो ता खन्नवायमंते अहिजामि ॥ ७२ ।। तो गरुयभत्तिराएण भूहलो तह पसाइओ तेण । सयमिव जहा विहन् स खन्नविजाए तेण कओ ॥ ७३ ।। तो विजओ भूइलपायपंकयं पणमिउं कहिय वत्तं । नियनयरस्साभिमुह तुरिय गंतुं समारद्धो ॥ ७४ ।। अक्खेवेण य पत्तो सगिहे गंतूण तो निहाणमही । तेणाभिमंतिया सोहरंतु मा वन्तरा निहिणो ॥७५ ॥ १तूय प्रतौ ।। २ खेदज्ञः कुशलः सन्यवादविद्यायाम् ॥ ३तूद प्रती ॥ ४ वित्तरा देत्ति प्रती॥ ५ सूह प्रती ॥ ६ ज्झाण प्रती ॥ ७ जेहित्तम प्रती॥ ८विसय प्रतौ ।। ९ खन्यवादमन्त्राणि ॥ १० 'विधज्ञः' निपुणः ॥ ११ कथयित्वा वामि।। १२ संहरन्तु ॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभइसरि-६ विरइओ कहारयणकोसो॥ सामन्नगुणाहिगारो। ॥७ ॥ साचैत्याधि कारे विजयकथानकम् ११। अह तनिहाणना[से]सवंतरो तस्स मंतमाहप्पा । निहिधरणीसम्मुहमवलोइङ बाढर्मचइन्तो ॥७६ ॥ उविग्गो अञ्चत्थं विभंगवलमुणिय कञ्जपरमत्थो । ताणकए एंगन्ते बलभद्दनिवं समल्लियइ ॥ ७७॥ साहेइ य राय ! तुहं मित्तो सिरिगुत्तनामओ सोहं । जाओ म्हि बंतरो नियनिहाणधरणीए चिट्ठामि ॥ ७८ ॥ सा पुण संपइ मज्झं सुएण अभिमंतिऊण तह विहिया । निहिगहणत्थं मने जह तीरई नेव दटुं पि ॥ ७९ ॥ ता राय ! पुवपणय जइ वहसि संरेसि कि पि उवयरियं । ता निहिगणपयट्ट विजयं जत्तेण वारेसु ॥८ ॥ इय भणिऊणं भूओ तिरोहिओ राइणा वि विजयस्स । सिट्ठी इय वुत्तंतो तेणावि पयंपियं देव! ॥८१ ।। धणंमुच्छाए मरिउंजणगो वंतरसुरत्तणं पत्तो । धणगहणं पि हुन मए समीहियं अप्पभरणट्ठा ॥८२ ।। किंतु नरेसर ! सिरिवीयरायभवणस्स निम्मवणहेउं । मा अकयत्थो अत्थो भूभीसोस्थो मुहा होउ ॥८३ ॥ न य तारण अदिबस्स देव ! दवस जुञ्जए भोगो । सैकमागया व सभुयजिया व भोत्तुं सिरी जुत्ता ॥ ८४ ॥ न य दुक्खलक्खसमुवजियस्स एयस्स तायवित्तस्स । जिणभवणाओ अनं पुनं विणिओगठाण-न्ति ॥८५ ।। इय निच्छिऊण नरनाह ! नूणमारंभियं मए एयं । जइ य न जुत्तं आइसउ [मं] पहू! जेण विरमेमि ॥८६ ।। १ तनिधानन्यासेशन्यन्तरः ॥ २ "मवइत्तो प्रती । अशक्नुवन् ॥ ३ त्राणार्थम् ॥ ४ एगत्ते, बलवइमिवं प्रती ॥ ५ यगिहा प्रतौ ।। ६ चेट्ठा" प्रती ॥ ७ शक्यते ॥ ८ पूर्वप्रणयम् ।। ९ स्मरसि किमपि उपकृतम् ॥ १० घणुमु प्रती ॥ ११ भूमिसुस्था ॥ १२ स्वफमागता था स्वभुजार्जिता वा ॥ १३ "भुवज्जि प्रतौ ॥ १४-समुपार्जितस्य ॥ HASHARANA+NANASHAKA5%ASIRSA ला॥ ७०॥ अह अन्नया कयाई हेरिचावचलत्तणेण जीयस्स । सिरिगुत्तो धणरत्तो जरेण पंचत्तमणुपत्तो ॥४३ ॥ विजएण वि सोगसमुच्छरंतनयणंसुधोयवयणेण | मयकिच्चाई पिउणो कयाई 'हा'रावगरुयाई ॥४४॥ जिणवैयणायमणो गुरुयणअणुसासणाउ अणुदियहं । जाओ य विगयसोगो कहवयदियएहि स महप्पा ॥ ४५ ॥ पुवपवाहेणं चिय गिहकिच्चाई विचिन्तिउं लग्गो । नवरं न किंचि पेच्छह गेहम्मि चउबिहे वि धणे ॥४६ ॥ न य संपुडाइलिहियं लब्भं भृगोवियं पि पेहेइ । न य धनसंचयं समुचियं पि नो कुप्प-रुप्पाई ॥४७॥ जाओ वाउंलचित्तो कहं वहेयवओ गिहिरो ? ति । न हु दवविरहिएहिं काउं तीरंति कजाई ॥४८॥ सुतवस्सि चिय सोहँइ निस्संगो दबवजिओ य सया । सीयइ जणे विगिज स्थविहीणो पुण गिहत्थो ॥ ४९ ॥ अहवा किमेरिसेणं विगप्पिएणं? न भाविणो नासो । नाभाविणो य भावो ता चिंताए कयमियाणि ॥ ५० ॥ इय संतभावणारोवणाइ थिरधरियचित्तवावारो। पयदिण पयइसमुच्चियकिच्चाई सकाउमारद्धो ॥५१॥ सिहूँ" जणणीए अन्नया य तुह पुत्त । संतिओ ताओ । साहिंतो मह कहमचि परितोसगओ गिहाऽदूरे ॥ ५२ ॥ १ 'हरिचा' इन्द्रधनुः ॥ २'जरसा' वाक्येन ॥ ३ शोकसमुत्सरनयनाश्रुधौतवदनेन मृतकृत्यानि पितुः कृतानि 'हा'रावगुरुकाणि ॥ ४ "बनणा प्रतौ ॥ ५ व्याकुलचित्तः कथं वोटव्यः गृहिभारः ॥ ६ शक्यन्ते ॥ ७ शोभते ॥ ८ विगीयते ॥ ९ अजावि प्रतौ ॥ १० 'कृतं' पर्याप्तम् ॥ ११ सत्वभावनारोपणया स्थिरघृतचित्तव्यापारः । प्रतिदिनं प्रकृतिसमुचितकृत्या नि । प्रकृतयः-प्राकृतलोकाः ॥ १२ "मुचिय' प्रतौ ।। १३ "शिष्टं' कथितम् ॥ १४ सत्कः ।। १५ अकथयत् ॥ NA%%4%ARASKAR XX Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभसरिबिरहओ कदारयणकोसो।। सामन्नगुपाहिगारो। ॥ ७१ ॥ चैत्याधि| कारे वि| जयकथानकम् ११। सूत्रधारस्य प्रतिपत्तिः अह तत्थेष पुरीए पुवाए दिसाए चंपगुज्जाणे। सिरिसंतिनाहभवणं विहडियसंधि पडियसिहरं ।। ९९ ।। पल्हत्थपढ़साल पहीणचिंतायगं च पेहेत्ता । विजएण चिंतियमिमं जुञ्जह मह उद्धरावे ॥ १०० ॥ एय खीणप्पाय उवेक्खिउं नूणमन्त्रकारवणे । परमत्थेणं न जिणेसरम्मि भत्ती कया होइ ॥ १०१ ॥ कैमपत्तवत्थुविजावियक्खणो हत्थलाहवपहाणो । विजएण सुत्तहारो देवगुरू नाम वाहरिओ ॥ १०२ ॥ तंबोल-वस्थ-भूसणपयाणपरितोसियं च तं काउं । आवद्धकरयलंजलि विजएण पयपियं एय ॥ १०३॥ तुममम्ह मीमभवकूवनिर्वडिराणं सहत्थदाणेण । हे सुत्तधार ! सद्धम्मसचिव ! कुण दूरमुद्धरणं ॥ १०४ ॥ उद्धरिऊणं एयं जिणालयं दलियसेलसिहरसमं । पाउणसु य ससहर-सूरकालियं निम्मलं कित्ति तेणं पयंपियं विजय ! कीस बहु बाहरेसि ? तह कोई । जहऽकालविप्पहीणं जिणभवणं सिज्झए एयं ॥ १०६ ॥ तुह अम्हाणं च इमं संसारसमुद्दतारणतरण्डं । ता इह बहुपनवणा न सव्वहा जुञ्जए काउं ॥ १०७॥ तो सुपसत्थे दियहे पारद्धं तेण जिणहरे कम्मं । सम्भावसारहियया पइडिया तत्थ कम्मयरा ॥१०८ ॥ अह पैइदिणसबिसेसुच्छलतउच्छाहवतियारंभं । कयभूमिसुद्धिसुनिबद्धपीढदढरइयथरनियरं १ पर्यस्तपहवाल प्रहीणचिन्तकम् । पङ्कशाला-जिनचैत्यसमीपपर्सि जैनधमणनिवासस्थानम् ।। २ क्रमप्राप्तवास्तुविधाविचक्षणः हस्तलाधवप्रधानः ।। ३ एणं 4 प्रती ॥४-निपतनशीलानाम् ॥ ५ करिष्यामि ॥ ६ सद्भावसारहवयाः ॥ ७ प्रतिदिनसचिशेषोच्छलबुत्साहवर्धितारम्भम् । कृतभूभीशुद्धियुनिबद्धपीठरढरचितस्तरनिकरम् ॥ IONACHANAKAASAKASEACACHECA HIGHORASHANISASHANKARACHCECECACACHCARROR ।। ७१॥ ध्वजारोपणविधिः सुनिविट्ठदेवयापीढमुबरिरायंतभूरितैरसिहरं । सुविसालाऽऽमलसारयसिरि विरइयहेममयकलसं ॥ ११०॥ वित्थिनथोरथिरथंभदारमंडबनिरुद्धदिसिपसरं । मणिसालभंजियाभासमाणमाणोववमतियं ॥ १११ ।। चिररयणाओ सविसेससुंदर मंदरं व उत्तुंगं । निफाइयमक्खेवेण मणहरं संतिजिणभवणं ॥११२॥ ___अह सुपसत्थे लग्गे सुगुरुवएसेण बुज्झिउं सम्मं । विजएण समारद्धं महद्भयारोयणविहाणं ॥११३ ।। आघोसिया अमारी दीणा-ऽणाहाण दावियं दाणं । पगुणीकओ य वंसो धयजोग्गो सरल-सुसिणिद्धो ॥ ११४ ॥ वर्दृन्तचारुपचो अपुच्चडो कीडएहिं अक्खद्धो । अद्दड्डो वनड्डो अणुवसुको पमाणजुओ ॥ ११५॥ काऊण मूलपडिमान्हाण चाउद्दिसिं च भूसुद्धिं । दिसिदेवयआहवणं बंसस्स विलेवणं तह य ॥११६ ॥ अहिवासियकुसुमारोवणं च अहिवासणं च वंसस्स । मयणकल-रिद्धि-विद्धी-सिद्धस्थारोवणं चेव ॥११७॥ धूवुक्खेवं मुद्दानासं चउसुंदरीहि उम्मिणणं । अहिवासणं च सम्म महद्यस्सिदुधवलस्स। ॥ ११८॥ चाउद्दिसिं जवारय-फलोहलीढोयणं च वंसपुरो। आरत्तियावयारणमह विहिणा देववंदणयं ॥ ११९ ॥ १ मुनिविष्टदेवतापीठम् उपरिराजद्भरितरशिखरम् । सुविशालामलसारकशिरसि विरचितहेममयकलशम् ॥ २ "रिउर' प्रती ॥ ३ विस्तीर्णस्थूलस्थिरस्तभवारमण्डपनिरुद्ध दिवप्रसरम् । मणिशालभत्रिकाभासमानमानोपपन्नत्रिकम् ॥ ४ "थिरिथंभदारिम' प्रती ॥ ५ निष्पादितम् ॥ ६ महाध्वजारोपणविधानम् ।। ७ वर्तमानचारुपर्वा 'अपुचः' हटः घन इत्यर्थः कीरभक्षितः । अदग्धः वर्णायः अनूशुष्कः ॥ KCXAMREKASAR Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभरि विरहओ कहारयणकोसो ॥ सामन्नगुणाहिगारो ॥ ७२ ॥ অ ।। १२१ ॥ ॥ १२२ ॥ ॥ १२३ ॥ ॥ १२४ ॥ बलि-सत्तंधन - फल-वास - कुसुम-सकसायवत्थुनिवहेणं । अहिवासणं च तत्तो सिहरे तिपयैक्खिणीकरणं ॥ १२० ॥ कुसुमंजलिपाडणपुरस्सरं च न्हवणं च मूलकलसस्स । खित्तेदसद्धामलयणधयहरे इट्ठसमयम्मि सुपट्ठपट्ठामंतखेत्तवासस्स तयणु वंसस्स । ठवणं खिवणं च तओ फलोहली - भूरिभक्खाणं तत्तो उज्जुगईए धयस्स परिमोयणं सजयसई । पडिमाए दाहिणकरे महद्वयस्सावि बंधणयं विसमदिणे ओम्रयणं जहसत्तीए य संघदाणं च । इय संत्थुत्तविहीए तेण धयारोवणं विहियं तिहुयण सिरिलाभाओ वि भवणस्सज्झसिद्धिओ वि परं । जाओ तोसो विजयस्स विहियजिणभवणकिच्चस्स ॥१२५॥ एवं च जा पहिट्ठो 'चिट्ठइ सो चेहयं पलोहन्तो । जिणवरभवणस्स पुरो ता पेक्खइ मुकजीयासं ।। १२६ ॥ निच्छिकन्न खरपट्टिसंट्ठियं मसिविलित्तसवंगं । रत्तकणवीरसेहर गलखित्तसरावमालं च पुरओ ताडियउद्दंडडिंडिमुम्मिलियपिच्छग जणोहं । रायपुरिसेहिं चोरं निजतं वज्झभूमीए तं पेच्छिऊण विजओ चिंतह जिणसंतिदिट्टिवडिओ वि । जइ एस इ[ह] विर्वज धिरत्थु ता जीविएणं मे ॥ १२९ ॥ ।। १२७ ।। ॥ १२८ ॥ १ धान्य सप्तकं सणबीज लाज-कुलश्थ-यव-क-माप-सर्पपरूपं सण- कुलस्थ मसूर वह चणक व्रीहि चपलकरूपं धान्य-मुद्र-माप-चणक-यव-गोधूम-तिलह वा ज्ञेयम् ॥ २ क्खणी प्रतौ ॥ ३ क्षिप्तदशार्धामलरत्नध्वजगृहे । दशार्ध-पच ॥ ४ सुप्रकृष्टप्रतिष्ठामन्त्रक्षिप्तवासस्य ॥ ५ सच्छुत्त प्रतौ ॥ ६ दुसज्झ प्रती ॥ ७ बेड प्रतौ ॥ ८ मुक्तजीविताशम् ।। ९ निच्छिनकर्ण खरष्टष्टिसंस्थितं मषीविलिप्तसर्वाङ्गम् । रक्तकणवीरशेखरं गलक्षितशरावमानं च ॥ पुरतः ताडितोदण्डडिण्डिमोन्मीलितप्रेक्षकजनौघम् ।। १० नीयमानम् । ११ विपयते' मरणं प्राप्नोति धिगस्तु ॥ || 64 || धम्मत्थविग्धकरणं पावं ति विभावि भणइ राया । धन्नो सि विजय! जो चेहयत्थमिय उज्जमं कुणसि ॥ ८७ ॥ अम्हारिसा उ पावा दुग्गइजणगम्मि रजकजम्मि । अचंतीवडा भोषणं पि कार्ड न पारिंति ता विजय ! छियत्थो सिज्झउ तुह होउ नूण निविग्धं । इय रन्नाऽणुन्नाओ सुपैहिडो पडिओ स हिं ॥ ८९ ॥ राया विसंज्झकिचं काऊणं जा ठिओ सुहं सयणे । वा सो वंतरतियसो सविसायं भणिउमादत्तो ॥ ९० ॥ एयं खु महापात्रं जं पत्थिजइ परो महाराय ! । एत्तो वि य तं अहियं जं कीरह तं पुणो विहलं ॥ ९१ ॥ अह संविलक्खो राया तं जंपइ भद्द ! मा भणसु एवं । कह जाणियजिणवयणो करेमि से धम्मविग्धमहं ? ॥ ९२ ॥ किं वा विलाए तुह धणमुच्छाए ? विमुंच वामोहं । मूसगववहाराओ न परं सज्यं धणेणं ते ॥ ९३ ॥ अह तं विणा विसीयसि ता गेण्डसु मज्झ संतिए निहिणो । सत्तामेत्तकरणं धणेण जइ तं वहसि पणयं ॥ ९४ ॥ हसिऊण भणइ भूओ तुह निहिणो पिच्छिउं पि न लभामि । तुह वंतरपासाओं किं वा तुमए सुयं न इमं ॥ ९५ ॥ यादृशि तादृशि भूमिभुजि पश्ञ्च पिशाचशतानि । महति तु यानि भवन्ति बत ! [न च] तानि परिकलितानि ॥ ९६ ॥ रन्ना भणियं एत्तो चि किं परं तीरए मए काउं ? । न हु नजइ स उवाओ जो लोग दुगे वि अविरुद्धो ॥ ९७ ॥ इय सोउं सविसाओ अंतरदेवो लहुं अवतो । विजएण वि मंतबलेण उक्खया ज्झत्ति नियंनिहिणो ॥ ९८ ॥ ६ सान्ध्यकृत्यम् ॥ ५ विलक्षः ॥ १ पावि ति प्रतौ "" २ अलन्तब्यावृताः 11 ३ सुप्रहृष्टः 11 ४ ८ यगिद्दि प्रतौ ॥ तस्य || ७ त्वम् " 1 चैत्याधिकारे वि जयकथा नकम् ११ । ॥ ७२ ॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरहओ | चैत्याधिकारे विजयकथानकम् ११। कहारयणकोसो॥ सामन्नगुजाहिगारो। स्वयम्भूदत्तकथा पडिवामिमं रन्ना नीओ विजएण सो घरे नियए । न्हाण-विलेवण-वरवत्थ-भोयणाईहिं उवयरिओ ॥१४३ ॥ पैत्थावम्मि य पुट्ठो भद्द ! कहं तुज्य एरिसा मुत्ती । नीसेसलक्खणजुया ? विरुद्धकिरिया य कहमेसा ? ॥ १४४ ।। ता जइ दूरं नो गोवणोचियं सबहा कहसु एयं । आमृलाओ बि तुम अच्चंतं कोउगं मज्झ ॥१४५॥ तेणं पयपियं किं तवावि नियजीवनिविसेसस्स । विजइह गोवणिजं? ता उजुत्तो निसामेहि ॥१४६ ॥ कोसंबीए पुरीए पुरोहिओ अस्थि चंडदत्तोत्ति । तस्साई चिय पुचो सयंभुदत्तो ति नामेणं ॥ १४७॥ बहुविहअणत्थसस्थाहियोवर्म जुवणं च संपत्तो । अचंतभोगलोलत्तणेण नीयं धणं निहणं नीसारिओ गिहाओ पिउणा देसंतरेसु य भमंतो । पत्तो कामरुयम्मि दिट्ठो य तहिं बलो नाम ॥१४९ ॥ आगिट्टि-दिट्ठिमोहण-वसियरणुचाडणाइसु पगिट्ठो। जो जोगसत्थकुसलो सीसत्तं से पवनो हं ॥ १५० ॥ भैमिओ य भीमरक्खस-पिसाय-साइणिसहस्सदुग्गेसु । गिरि-गहण-सुसाणा-ऽऽसम-विवराईसुं समं तेण ।। १५१॥ सो अन्नया महष्पा पुचजियकम्मदोसओ बाई । जाओ रोगाउलिओ सुचिरं च मए वि उपयरिओ ।। १५२ ॥ जाओ पगुणसरीरो परितुट्ठो मज्झ विणयकम्मेण | भणिओ य सायरमहं वच्छ! पयच्छामि भण किं ते ॥ १५३॥ तो भोगलोलुएणं सपमोर्य जंपियं मए एयं । अहिस्संजणसिद्धि, जइ एवं ता पयच्छाहि ॥ १५४ ॥ १वच्छभो प्रती ।। २ पच्छाव प्रती ॥ ३-सार्थाधिपोपमम् ॥ ४ आकृष्टि-दृष्टिमोहन-वशीकरणोच्चाटनादिषु प्रकृष्टः ॥ ५ सत्तकु प्रतौ ॥ ६बान्तब भीमराक्षसपिशाचशाकिनीसह दुगषु । गिरिगहनश्मशानाश्रमविवरादिषु सभतेन ॥ ॥ ७३ ।। ॥७३ ।। SKRISHNAKKARXXSANKA KARKAR 14949494%*%*%*%**%*%*%4% HAHAHAAAAAA14%*%%**%* तो तेणंजणसिद्धी सिट्ठा सुजहट्ठिया मए य लहुँ । संजोइऊण विन्नासिया य जाया तह व ॥ १५५ ॥ नवरं तेण इमं मे सिट्ठ मा वच्छ ! कस्स वि कहिस्सं । इहरा सिद्धी तुझं विवजिही पिसुणमेति च ॥१५६ ॥ अह कइवयदिवसाई तप्पयपउमप्पसायणं काउं । एगागी वणहत्थि व सच्चहिं भमिउमारद्धो ॥१५७॥ तं नस्थि विसिडकुलं पणतरुणीमंदिरं पि तं नत्थि । अंतेउरं पि तं नत्थि जत्थ वुत्थो न भमिओ है ॥ १५८ ।। तो जा एत्तियकालं संप पुण पावपरियणजणेण । विनाओ उवणीओ य एरिसिं दारुणमवत्थं ॥ १५९ ॥ नवरं केणइ सचरियकम्मुणा विजियअमयबुट्ठीए । तुह दिट्ठीए पेडिओ म्हि गोयरं जीविओ तेण ॥१६०॥ छ॥ विजएण जंपियं भद्द! के वयं ? मुणसि नेह परमत्थं । अन्नो स तिलोकपहू जद्दिडिगओ धरसि जीयं ॥१६॥ तेणं भणियं जइ एयमेत्थ ता तं अर्णप्पमाहप्पं । दंसेसु मम तईसणेण जा होमि कयकिचो ॥१६२॥ अह हसियहिमगिरीसरसिंगारे चेइयम्मि नेऊण । विजएण दंसियं तस्स संतिजयसामिणो रूवं ॥१६३ ।। तो अणिमिसदिट्ठीए जिणं च भवणं च पेच्छमाणस्स । जायं जाईसरणं ईहा-ऽपोहं करेंतस्स ॥१६४॥ मुच्छानिमीलियच्छो छिनो बच्छो छ महियले पडिओ। हा हा! किमेयमेयं [ति] शत्ति विजएण उक्खित्तो॥ १६५ ॥ सिसिरोवयार-संवाहणाहिं उवलद्धचेयणो सन्तो । आपुट्टो य किमेवं ? ति तेण युतं निसामेहि ॥१६६ ॥ एतो तइयभवम्मि एस्थेव पुरीए रामदत्तस्स । इब्भसुओ रामो ति [य] नाममहं आसि जिणभत्तो ॥१६७॥ १ पयडि प्रती ॥ २ 'णस्थमा" प्रती । अनल्पमाहात्म्यम् ॥ ३ सत्तो प्रती ॥ ४ मह आ' प्रती। नाम अहं आसं जिनभकः ॥ G Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभदसूरिविरहओ कहारयण कोसो ॥ सामन्नगुणाहिगारो । ॥ ७४ ॥ ॥ सिरिचारुदत्तमुणिवरपासम्मि संजमं पवतो । पडिसिद्धो पिउणा वच्छ ! तरुणगो तं सिता इहि काराविडं जिणहरं साहुजणे पूइउं सुए जणिउं । सम्माणिऊण साहम्मिए य सैमणो हविज्जासि पडिवन्नमिमं च मए जिन्नुद्धारो य एत्थ संतिहरे । पारद्धो महया सुत्तधार-कम्मयरजोगेण जाए य अद्धसिद्धे जिणालए निडियं ममं दवं । कह सिज्झिहि ? ति चिंतामहनवे हं निमग्गो य न छुहा नेव पिवासा न सुहं न दुहं निसा न नेव दिणं । उन्हें न नेव सीयं तचिंताए मए नायं एगम्म य पत्थावम्मि वंदिउं चारुदत्तमुणिवस । भूवट्टम्मि निविट्ठो पुट्ठो गुरुणा य एवमहं अवि वह धम्मकिञ्चं निचं निष्पचवायमश्चंतं १ । अवि वट्टइ य सरीरं सज्झाय-ज्झाणचेडासु ? अह रमइ उवसमम्मि इंदियवग्गो दढं समग्गो वि १ । अवि तरलाय न सुभे अत्थम्मि मणो मणागं पि १ ।। १७५ ।। वृत्तं च मए भयवं ! किं भणसि जिणालऍ वहइ कम्मं १ । नणु नो कुणंति कम्मं कम्मयश दवविरहेण ।। १७६ ॥ . एत्थंतरम्मि हसियं तदसंबद्धं निसामिउं वकं । चक्कधरधाउसिद्धेण साहुपासोवविट्टेण ।। १७७ ।। उवउत्तो मुणिसीहो विन्नायं कारणं तओ भणियं । चक्कधर ! हससु मा तुममिमं ति एसो अहसणिजो ॥। १७८ ॥ संतिजिण भवणनिम्मवणमीहमाणो धणस्स विरहेण । तदसिद्धीए निनट्टमाणसो एवमुवइ ॥ १७९ ॥ १ सुतान् ॥ २ श्रमणः ॥ ३ वेहिं नि प्रतौ ॥ ४ निध्प्रत्यपायम् ॥ ५५ विह प्रतौ ॥ ६ निनि प्रतौ । निर्नष्टमानसः ॥ ।। १६८ ।। ॥ १६९ ॥ ॥ १७० ॥ ॥ १७१ ॥ १७२ ।। ।। ॥ १७३ ॥ ॥ १७४ ॥ तो तं रक्खावेउं खणमेकं राइणो समीवम्मि । विजओ गंतुं आबद्धकरयलो जंपए एवं देव ! कयभुवण [संति]स्स संतिणो वि हु पुरो बहडाए । निजइ चोरो अचंतमणुचियं वट्टए एवं ता कुह मे पसायं मोयावह तं वरागमइकरुणं । घेतॄण दबजायं अहवा मह जीवियवं पि ॥ १३२ ॥ इय तेण जंपिए नरवरेण वियसंतकुवलयविलासा । दिट्ठी फुरंततारा ज्झड त्ति खेत्ता अमचम्मि ।। १३३ ॥ भालयलारोवियपाणिणा य भणियं तओ अमचेण । सो एस देव ! पावो जो तुह अंतेउरस्संतो अद्दिस्सअंजणेणं संइरं वियरन्तओ तुहाऽऽणाए । जोगंधरसिद्धेणं पडिजोगबलेण विनाओ उवणीओ तुम्हाणं सिद्धं तुम्हेहिं अंजणपओगं । जइ साहइ ता निविसयकरणओ णं विसओहिं इहरा खरम्मि आरोविऊण सयले भ्रमाडिउं नयरे । बहुदा विडंविऊण य मारेजह दुक्खमारेणं ता देव ! तुम्ह वयणेण सो तहा दंडेवासियनरेहिं । पारद्धो संपइ पुण तुम्हाऽऽएसो पमाणं ति ।। १३४ ॥ ।। १३५ ।। ।। १३६ ।। ॥ १३७ ॥ ।। १३८ ।। रत्ना पयंपियं विजय ! सो नरो सवहा वहस्सुचिओ । वाढं विरुद्धकारि त्ति केवलं गरुयकरुणाए ।। १३९ ॥ अंजणविहिकहणपणेण चिओ तं पि जा न मन्नेइ । ता हंतुं चिय उचिओ अह अञ्ज त्रि तं कहावेसि ॥ १४० ॥ ता मुचइति ननो मोक्खोवाओऽत्थि निच्छओ एत्थ । अम्हारिसाण वि गिरो चलंति जइ ता गयं सच्चं ।। १४१ ॥ विजण जंपियं देव ! जइ इमं देसु ता तिरत्तं मे । जेणुवलद्धतदिच्छो जहोचियं विनवेमि तुमं ॥ १४२ ॥ १ नियन्तओ प्रतौ ॥ २ सहरं चित्र रतओ प्रती स्वैरं विचरन् ॥ ३ दाण्डपाशिकनरैः ॥ ४ मुज्झिओ प्रतौ । मुक्तः ॥ १३ ॥ १३० ॥ ॥ १३१ ॥ चैत्याधि कारे वि जयकथा नकम् ११ । स्वयम्भूदत्तस्य पूर्वभवः || 86 || ॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमद्दसूरिविरहओ कहारयण कोसो ॥ सामन्नगुनाहिगारो । ।। ७५ ।। अह भूरिभत्तिपन्भारनिस्सरंतुच्च वहलरोमंचा। रायप्पमुहा गंतुं मुणिसीहं तं नमसंति खामिति यदुविहियं मुणी वि पीऊँसबुद्धिपडितु ं । तेसु खिवंतो चक्तुं धम्मक कहिउमारद्धो अप्पा अण पकुवियष्पकष्पणुप्पन्न पावपरिणामो । हरि-करि-रंग-बिस-सत्तणो विदूरं विसेसेह हरि-करिपमुहा विमुद्दा वि कह वि कीरंति मंतमाईहिं । अप्पा पुण पावपरो तीरह न पुरंदरेणावि अहवा सीहप्पमुद्दा दिति विणासं भवे इद्द सुद्धा । अप्पा पुण पडिणीओ पाडेइ अनंतदुहगणे परमत्थचिंतणाए अप्प श्चिय कूडसामली घोरा । अप्प थिय वेयरणी अप्प चिय भैरवं जंत अप्प च्चिय तत्तकैलंबुवालुया असिवणं पि अप्पेव । अप्प चिय पैलयवियंभमाणव अग्गिजालोली इय कुप्पहप्पवन्नस्स अप्पणी सवदुक्खमूलस्स । पडिपंथी परमत्थेण नत्थि मोतुं वरविवेगं सो य विवेगो जलणो व अरणिणा वीयरायवयणेण । कीरद्द सद्धानिलसंजुओ य निद्दहइ कम्मवणं तत्तो स एव अप्पा दाहुत्तिनं महासुवनं व कस्स न कस्स व जायइ सुहस्स संपीयणपगिड्डो ? नजर जह तद्द न फुडं नरिंद ! सिरिवीयरायवयणं पि । ता तन्नाणनिमित्तं जुत्ता नियं सुगुरुसेवा ॥ १९२ ॥ ।। १९३ ।। जहा॥ १९४ ॥ ।। १९५ ।। ॥ १९६ ॥ ॥ १९७ ॥ ॥ १९८ ॥ ।। १९९ ।। ॥ २०० ॥ ॥ २०१ ॥ ॥ २०२ ॥ १ भूरिभक्तिप्राग्भारनिस्सर दुश्च बहलरोमाञ्चाः || २ पीयूषष्टिप्रतितुल्यम् ॥ ३ आत्मा अनल्पविकल्प कल्पनोत्पन्न पापपरिणामः । हरिकरिभुजङ्गविषशत्रूनपि दूरं विशेषयति ॥ ४ कूटशाल्मलिः ॥ ५ 'वैतरणी' नरकनदी ॥ ६ कलम्बवालुका- नरकनदी । ७ प्रलयविजृम्भमाणवाग्निज्वालावलिः ॥ ८ डियंथी प्रतौ ॥ ९ हुतिनं प्रती ॥ १० संपयाण प्रती सम्पादनकृष्टः ॥ परिहारो य पमायस्स इंदियत् परं च वेरग्गं । दुनिग्गहकुग्गहवजणं च सत्थत्थसवणं च एमाइधम्मक हसवणजाय सद्धम्म कम्म पडिबंधा । नियनियसंत्तणुरूवं पत्रन्नकिरिया जणा जाया राया वि देसविरई पडिवजइ ते दसग्गहारा य । सासणलिहिए जिणसंतिपूयणत्थं पैणामे काऊण जिणायर्येणं सुत्थं नियए तहा कुटुंबम्मि । विजओ वि विभूईए पडिवन्नो संजमुञ्जोयं इय कयजणोवयारो सयंभुदत्तो महामुणी तैत्तो । आपुच्छिउं नरिंदं वहिं विहारेण निक्खंतो पडिवोहिऊण भवे चिरकालं कालमापरित्ताणं । सम्मेयसेलसिहरे सिवमयलमणुत्तरं पत्तो ॥ २०३ ॥ ॥ २०४ ॥ ॥ २०५ ॥ ।। २०६ ।। ।। २०७ ।। ॥ २०८ ॥ विजओ विपढियबहुसत्थचित्थरो मुणियवत्थुपरमत्थो । कयभूरिसिस्सवग्गो पडिबोहियभवलोगो य ॥ २०९ ॥ अनिययविहारवित्तीए विहरमाणो पुरा-ऽऽगराईसु । चर्कपुरीए पत्तो ठिओ य एगम्मि उज्जाणे ॥ २१० ॥ काऊण सुत्तपोरिसिमह चेइयवंदणट्टया तत्तो । सिस्सगणेण समेओ सिरिसंतिजिनालयम्मि गओ ॥ २११ ॥ " तिनिसीहियप्पहाणं तिक्खुत्तपयाहिणं च तिपणामं । तिपमयिपयभूमिं अवत्थतियचितणासारं तिदिसिनिरिक्खण विश्यं तिमुद्दजुत्तं च तिविहपणिहाणं । वनाइतियविभावणपरमं चिइवंदणं च कयं ।। २१२ ।। ।। २१३ ॥ १ शक्यनुरूपं सत्त्वानुरूपं वा ॥ २ अर्पयति ॥ ३ यणे, सुप्रतौ ॥ ५ 'सुस्थे' सुरक्षितं निजे ॥ ५ सत्तो प्रतौ ॥ ६ "कसुरी" प्रतौ ॥ ७ त्रिषेधिकप्रधानं त्रिप्रदक्षिणं च त्रिप्रणामम् । त्रिः प्रमार्जितपद भूमिं अवस्थात्रिकचिन्तनासारम् ॥ त्रिदिग्निरीक्षणविरतं त्रिमुद्रायुक्तं च त्रिविधप्रणिधानम् । वर्णादित्रिकविभावनपरमं चैत्यवन्दनं च कृतम् ॥ चैत्याधिकारे वि जयकथानकम् ११ । ।। ७५ ।। मुनियोग्या नि नव त्रिकाणि Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभइसरिविरइओ कहारयणकोसो ॥ सामनगुणाहिगारो। ॥ ७६॥ तो समुचियम्मि देसे आसीणो पत्थुया य धम्मकहा । मालइगंधक्खित्त व महुयरा आगया परिसा ॥२१४॥ अह दिहिवायसारे विचित्तजुत्तीवियारगरुयम्मि | साहिजंते भट्टो पभाकरो भणिउमादत्तो ॥ २१५ ॥ भंते ! किमिमं जंपसि ? पुरिसपणीयत्तणेण अपमाणं । सबन्नुणा पणीयं ति सो वि कह तीरए नाउं? ॥२१६॥ न हु पञ्चक्खाईणं गज्झो सो न य सरागवयणं पि । होइ पमाणं बंभिचारसंभवा धुत्तवयणं व ॥ २१७ ॥ ता वेयवयणमेव हि अपोरिसेयं ति जुञ्जए घेत्तुं । तकहियाणि य जायाइयाणि धम्मो त्ति किच्चाणि ॥ २१८ ॥ विजएण जंपियं सवमणुचियं भाससे तुमं भद्द! । जम्हा विरुद्धमेयं वयणं च अपोरिसेयं च ॥ २१९ ।। जइ सचं चिय एयं अपोरिसेयं ति कीस निच्चं पि । न सुणिजह ? जं संखा समवेक्खइ पुरिसवावारं? ॥ २२० ॥ जं जदवेक्खं तं पुण तब्भवमवसेयमेय धूमो व्व। 'सिहिसावेक्खो न य नगुणो य गयणोवलंभाओ ॥ २२१ ।। जं जं खे उचलब्भइ तं तं जइ तग्गुणो ति वत्तवं । कुंभाइणो वि एवं च तग्गुणा हुँतु निच्चा य ॥ २२२ ॥ ता किं पि जमिह वयणं तं पुरिसपणीयमेव घेत्तछ । सबन्नुणा पणीय नवरं दिडेट्ठफलयं तं ॥ २२३ ॥ १ 'धमित्त प्रती । मालतीगन्धाक्षिप्ताः ॥ २ पुरुषप्रणीतश्वन ।। ३ शक्यते ॥ ४ प्रायः ।। ५ व्यभिचारसम्भवात् ॥६तद् वेदवचनमेव हि पौरुषेयमिति युज्यते प्रहीतुम् । तत्कथितानि च यागादीनि धर्मः ॥ ७ सेण च प्रती ॥ ८ न मुणि प्रतौ । न श्रूयते ? यत् साक्षात् समपेक्षते पुरुषव्यापारम् ? ॥ ९ 'शिखिसापेक्षः' अभिसापेक्षः, न च नभोगुणश्च गगने उपलम्भात् ।। १० 'वलंम्भ' प्रती ॥ ११ "गुणो हुँ' प्रतौ । तद्गुणाः ॥ १२ न्नुणो प प्रतौ ॥ १३ दृष्टफलदम् ।। चैत्याधिकारे विजयकथानकम् ११॥ वेदापौरुषेयत्वबादनिरासः ॥ ७६॥ RAKRECCASANAGARWAKARAXACIRECASIACACAKACHA तो चकधरो में खामिऊण जिणभवणनिम्मवणहेउं । कोडीवेह सूयं सविहाणं सिद्धमजेड ॥ १८० ॥ रैसवेहविहियवहुजायरूवदाणेण रंजियमणेहिं । विनाणिएहिं तो संतिचेइयं ज्झत्ति निम्मवियं ॥ १८१ ॥ वाहरिओ नरनाहो रिद्धीएं धयाधिरोहणं च कयं । दिन्ना दसग्गहारा ससासणा चेहए रन्ना ॥ १८२ ॥ चिट्ठति सासणाणि य अञ्ज वि जिणभवणनिम्मवण हेउं । सासणसुराए हेट्ठा खित्ताणि तिहत्थमित्तेण ॥ १८३ ॥ इय दंसणकिच्चाई काऊणमहं महापबंधेण । पडिवनो सामन्नं सुचिरं च कयं तवचरणं ॥ १८४ ॥ नवरं पजंम्मि कुटुंतवट्टमाणमिहुणगिरं । सोउं सरागचित्तो मरिउं भूएसु उववन्नो ॥ १८५ ॥ तत्तो चुओ य जाओ एसो पुत्तो पुरोहियस्साहं । अवसाणरागभावणपरूढदढगाढविसममई ॥१८६ ॥ हा हा ! अहं अँधन्नो नूणमकल्लाणभायणं पावो । जो तहसामग्गीय वि बहीकओ चरणलाभाओ ॥१८७ ॥ कह तेत्तिय पि पढियं तवो वि तवियं तहा मए घोरं । एकपए चिय विहलं गयमखिलं कासकुसुमं व? ॥ १८८॥ इय सुहभावाओ सो चिरपढियसुयं सरितु किरियं च । देवइविइनलिंगो जाओ समणो समियमोहो ॥१८९ ।। छ। सिटुं च इमं रनो विम्हियहियओ इमं तओ राया। जंप विचित्तचरिया पुरिसा को पच्चओ एत्थ? ॥१९॥ तो सासणवुत्तो वुत्तो रमा खणाविउं च लहुं । तं ठाणं पत्ताई च सासणाई जहुत्ताई। १ 'सूतं' पारदम् ॥ २ रसवेधविहितबहुभातरूपदानेन ॥ ३ ए क्या प्रतौ ॥ ४ हच्छमि प्रती ॥ ५ "तम्मि कु प्रतौ ॥ ६ वडमा प्रतौ ॥ ७ अवन्नो प्रती ॥ ८ देवतावितीर्णलिङ्गः ॥ ARKARRIA%*******+A8+%%*****%% Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमद्दसरिविरहओ कहारयणकोसो ॥ सामन्नगुणाहिगारो ॥७७॥ चैत्याधिकारे वि. जयकथानकम् ११ HORORREARCREAM सको व सोभमाणो चिरपडिबंधेण ताव संपत्तो । देवं मुणिं च बंदिय उवविट्ठो भूमिवट्ठम्मि ॥ २३५॥ अणिमिसनयणनिवेसा चित्तालिहिय व लेवघडिय छ । दट्टण तं च परिसा तदेगचित्ता लडं जाया ॥२३६ ॥ साह विमुत्तविणिउत्तचित्तविनायतियसथिरचित्तो । पुत्वभवगरुयगुरुपक्खवा यओ भणिउमादत्तो ॥ २३७॥ सो एस महप्पा जेण मंदिरं संतिणो जिर्णिदस्स । उद्धरिउमिमं अप्पा भवा वि भवाउ उद्धरिया ॥ २३८ ॥ कहमन्त्रह चेहयविरहओ ईई साहुणो फुडं एज्जा ? | अम्हारिसाण य कहं तदभावे होज पडिबोहो? ॥ २३९ ।। तदभावाओ जिणसासणस्स कह वा मयंकधवलस्स। जियमोहतिमिरपसरो हविज सबस्थ विस्थारो ॥२४०|| किंबहुना? धन्यस्त्वं विजय ! त्वमेव विजयी संसारवारांनिस्ती! गोष्पदवत् त्वयैव विशदा कीर्तिश्च संवर्द्धिता । जातस्त्वं च निदर्शनं सुकृतिनां निष्कृत्रिमोन्मीयते, भक्तिस्तीर्थकरे तवैव यदिदं चैत्यं त्वया कारितम् ॥१॥ कृत्वा पापमनेकधाऽधिकरणान्युत्पाद्य चानन्तशो, जीवा मृत्युपथं गता न च गुणस्तैः कश्चिदावर्जितः । धन्यस्त्वं विजयैक एव हि परं स्वार्थ पराथं च योऽकार्षीः श्रीजिनवेश्म विस्मयकरं निर्माप्य शैलोपमम् ॥२॥ मिथ्यात्वप्रचुरो जनः सुयतयो विच्छेदिनोऽतीन्द्रियं, ज्ञानं विप्लुतमेतदेव हि जडा ब्युन जैनं मतम् । १ अनिमेषनयननिवेशा चित्रालिखिता इव लेपघटिता इव । रष्ट्वा ॥ २ "गचिंत्ता प्रती ॥ ३ सूत्रविनियुक्तचित्तविज्ञातत्रिदशस्थिरचित्तः । पूर्वभनगुरुकगुरुपक्षपातात् ।। ४ 'भवात् संसारात् ।। ५ इयं सा प्रती ॥ ६ गौम्पदवस्त्वये प्रती ॥ ७ "तिवानिक प्रती ॥ ८ निर्माप्य सैलो प्रती ।। जिनचैत्यविधापनगुणाः ॥७७॥ न म्युश्चेजिनमन्दिराणि सुचिरस्थायीनि तुङ्गानि वा, तद्धन्यो जिनशासनोन्नतिकृतेऽमुख्मिन् भवेदुद्यतः ॥३॥ इति कथयति साधौ विस्मयोत्फुल्लनेत्ररहमहमिकयैवाऽऽलोक्यमानः स लोकैः । प्रणतयतिपदाब्जः शिश्रिये स्वर्गमार्ग, पुरमभिहतमोहः पूर्जनोऽपि प्रतस्थे ॥ ४॥ ॥ इति श्रीकथारत्नकोशे चैत्याधिकारे विजयकथानकं समाप्तम् ।। ११ ॥ जिणहरकार[व]णे वि हु नो जिणविंचं विणा हैवइ सम्मं । धम्ममई भवाणं वोच्छ ता तबिहाणमहं मुपसत्थवासरम्मि पूहत्ता सुत्तहारमपेजा । नियविभवोचिय मुलं निहोसो जह स होज परं ॥ २ ॥ अतहाविहे य तम्मि तकालुचियं विणिच्छिउं सम्मं । नियमेज बिचमोल्लं जहतह दवप्पणे दोसो ॥ ३॥ बिंबअसिद्धी जिणदबभक्खणाओ अणंतसंसारो । कारस्सियरस्स य तनिमित्तभावेण दोसो त्ति ॥ ४ ॥ अप्पत्तियं पि एवं परिचत्तं होइ उभयपक्खाणं । जाजीवं संबंधो जायह एत्तो य अइपरमो न य एत्तो उवयारी अन्नो भुवणे वि विजए परमो । इय कुसलबुद्धिजोगा बहुमाणो तम्मि जुत्तो य जायति जेत्तिया खलु तदुब्भवा के चित्तपरितोसा । तबिबकारणाई पि तेत्तिओ नेत्तियाई से (१) ॥७॥ १ 'वेटिनम प्रती ।। २ "नि तावड' प्रती ॥ ३ इवेद प्रती ॥ ४ वक्ष्ये ॥ ५ "कालोचि प्रती ॥ ६ "प्पणो दो प्रती ॥ ७ कारकस्य 'इतरस्य' कारयितुः ॥ ८ अनीतिकम् ।। ९ जोगो, व" प्रती ॥ १० णाई पि प्रती ॥ जिनबिम्बविधापनं तद्विधिश्च Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरइओ कद्दारयणकोसो ॥ सामन्नगुणाहिगांरो। ॥ ७८॥ 4%A6*&% निष्फन्नस्स य बिंबस्स दिवसदसगस्स मज्झयारम्मि | काय वा उ पइट्ठा सा पुण तिबिहा विणिहिट्ठा ॥८॥ वक्खा खलु एक्का खेक्खा अक्खिया पुणो अन्ना । अवरा य महक्खा इह ताण सरूवं इमं नेयं ।। ९॥ जो तित्थवई जइया तइया तबिंबठावणा पढमा । उसभाईणं सवेसि जाण चीया पइट्ठ ति ॥१०॥ तइया सेत्तरिसमहियजिणिंदसयमस्स पुण पइट्ठ ति । जा जस्स जहा भावं जणेइ सा तस्स तह जुत्ता ॥११॥ आसायणदोसो वि हु बिबहुत्ते न मजणाइकओ । संकेयवो जं तीए संभवो भावदोसाओ ॥ १२ ॥ आवस्सयाइचुन्निसु वुत्तो पि हु बिंबठावणाइ विही । चरियाउकित्तणाओ ने सेसपडिसेहगो सो वि ॥१३॥ इय जहसत्तीए गुरुं लहुं व सेलुब्भवं मणिमयं वा । जिणबिंबं कारिंतो पउमो व गिही सिर्व लहइ ।। १४ ॥ तथाहि अस्थि पसत्थातित्थमाहप्पपडियडिंब-डमरा, मराल-कविंजल-सुय-सारियाऽभिरामाऽऽराममणहरा, हरऽट्टहाससेयकित्तिपुरिससोहिया, लच्छिवच्छत्थलि व अणंतोवभोगसुंदरा, सरासणलट्ठि व भूरिभवपाणुगया, सयलमहिवलयमुपसिद्धा, जहस्थाभिहाणा सुहंकरा नाम नयरी । तत्थ य नियमहिमविजियपागसासणो, सासैंणायन्त्रणमेत्तसंभंतनमंतवइरिविसरो, सरोय १ व्यक्त्याख्या ॥ २ क्षेत्राख्या ॥ ३ महारुया ।। ४ 'बट्ठाब प्रतौ ॥ ५ सप्ततिसमधिकजिनशतकस्य ।। ६ बिम्बस्थापनायाः विधिः । चरितायुत्कीर्तनात् ॥ ७ न सोस' प्रती ॥ ८ प्रशस्तातिथ्यमाहारम्यप्रतिहतभयविश्वा ॥ ९ "च्छच्छलि प्रती ॥ १० लक्ष्मीवक्षस्थली अनन्तस्य-कृष्णस्योपभोगेन मुग्दरा, नगरी पुनः अनन्तै:-अपरिमितेः उपभोगे: सुन्दरा ॥ ११ शरासन यष्टिः भूरिभिः भव्यैव पर्वभिः-प्रन्थिनिरनुगता, नगरी तु पर्वभिःउत्सवैः ।। १२ पचाणु प्रती ॥ १३ इन्द्रः ॥ १४ 'सणय प्रती । शासनाकर्णनमात्रसम्भ्रान्तनमद्वैरिविसरः ।। जिनपिंचविधाने पमश्रेष्ठिकथानकम् १२॥ त्रिविधा प्रतिष्ठा 4% 82 ॥ ७८॥ %%ARAKHABAR***************** चंदुवरागाइअइंदियत्थसत्थोवएसणाओ य । अणुमाणेण स नजर तदगहणं ता महामोहो ॥ २२४ ॥ वेयापमाणउ चिय न जागमाईणि धम्मकिच्चाणि । हुँति सिवकारणाई बहुजीवविणासगण ॥ २२५ ।। किंचहिंसेजा न य भूए छ च्छागसए हणेञ्ज मझन्हे । एवं विरुद्धवको ही! वेओ तह वि हु पमाणं ॥ २२६ ॥ एमाइसमयजुत्तीनिवेयणुप्पन्नसम्मपरिणामो । उज्झियमिच्छाभावो पभाकरो गिण्हए दिक्खं ॥२२७॥ अह पढियसयलसत्थो उस्सग्ग-ऽबवायविहिविहञ् य । स महप्पा चिरकाल विहरइ बसुहं समं गुरुणा ॥ २२८ ।। संलेहणं च काउं विजयमुणी मुणियमरणपत्थावो । काऊण भत्तचाय तिकडगिरिथंडिले सुद्धे ॥ २२९ ॥ मरिऊणं उपवनो सोहम्मे हेमनिम्मलसरीरो । तियसो दुसागराऊ, चंदाभम्मि विमाणम्मि ॥२३०॥ सो पुण पभाकरमुणी अप्पडिबद्धं धराए विहरतो। चकपुरीए कालकमेण नयरीए संपत्तो ॥२३१ ॥ उचियपएसे वुत्थो पत्थावम्मि य तवस्सिजणसहिओ । पुबोवइडजिणसंतिचेइयम्मि गओ तत्तो ॥ २३२ ॥ देवमभिवंदिऊँणं आसीणो समुचियम्मि देसम्मि । पारद्धा धम्मकहा समागओ नयरिलोगो वि ॥ २३३ ॥ अह जाव संजलजलहरमणहरसद्देण कहइ सो धम्मं । सोहम्माओ विजओ उओईतो दिसाचकं ॥ २३४ ॥ १ चन्द्रोपरागाद्यतीन्द्रियार्थसार्थोपदेशनात् च। अनुमानेन स ज्ञायते ॥ २ वेदाप्रमाणत एव न यागादीनि धर्मकृखानि । भवन्ति शिवकारणानि बहुजीवविनाशकत्वेन ॥ ३ भूतानि पद छागशतानि ॥ ४ ज्झने प्रती ॥५-वाक्यः॥ ६ एचमादिसमययुक्तिनिवेदनोत्पन्नसम्बक्त्वपरिणामः । उन्नितमियाभावः ।। ७ उत्सर्गाऽपवादविधिविधज्ञः ॥ ८ स्थण्डिल-निर्जावभूमिः ॥ ९वं वसुंधरा प्रतौ ॥ १० ऊण आ प्रतौ ॥ ११ सजलजलधरमनोहरशम्देन । NRNAMICROSCA%AA%% Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमद्दसूरिचिरइओ | जिनबिंबविधाने पद्म नृपकथानकम् १२॥ कहारयणकोसो।। सामनगुबाहिगारो। निग्गहियमणपसरा भयवंतो धम्मासिंहामिहाणा भूरिणो, निवेइया नरिंदस्स, वाहराविया य गउरवेण । कइवयसिस्सपरिबुडा य आगया सरिणो राउलं, निसन्ना समुचियासणे । परमभत्तीए बंदिया रायमहिला[ए] । सिट्ठो य तीए पासंडियपरूवितो धम्मवियारो । परिभाविओ सूरीहि, भणिया य देवी__ महाणुभावे ! मुद्धजणजणियचित्तक्खेवो एस धम्मवियारो न जुत्तिभारं सोढुं पारइ । तहाहि-जइ छागवहेण धम्मो ता सुकयकम्माणो छड्डिया । अह मंतपाहनेण नत्थि दोसो ता कीस निग्गहिजंति साइणीओ। जो य कारुनेण धम्मपरूवणापवंचो सो वि वयणमेत्तं पननिवडियमंसभक्खणाओ बुद्धसिस्साणं ति । 'दिक्खामित्ताओ वि धम्मसिद्धि' ति एयं पि अजुत्तं, जहुत्तकिरिया-नाणविरहेण केवलस्स तस्स फलासाहणाउ त्ति । ता सवे वि एएं धम्मवियारा मुद्धबुद्धीण जोग्गा । कुसलाणं पुण रयणत्तयगहणमेव जुत्तं । रायमहिलाए भणियं-किंतु किमेयं रयणत्तयं ? । सूरिणा जपियं-निसामेहिधम्मो करुणारम्मो असेससचाण रक्षणासारो । इंदिय-कसायनिग्गहपडिबद्धो बाढमविरुद्धो देवो अट्ठारसदोसवजिओ विमलकेवलालोओ। बुद्धो तिजयपसिद्धो अचंतनिरंजणो य जिणो ॥ २ ॥ कारावगो य कत्ता धम्मस्स विरागवं च संविग्गो । निग्गहियऽक्खो कयसबसत्तरक्खो य धम्मगुरू ॥ ३ ॥ रयणत्तयमेयं कित्यति निद्वणियरुंददारिदै । पुनरहियाण एयं च नेव सुमिणे वि संपडा ॥ ४ ॥ १ राजकुलम् ॥ २-प्रपण। ।। २ " व " प्रतौ ॥ ४ डिबुद्धो प्रती ॥५ कीर्तयन्ति निधूनितप्रपुरदारियम् ।। ६ स्वऽपि सम्पद्यते ।। रत्नत्रयी ॥७९॥ CAREERRORISSAGACAKAC+SACAKACOM REASRASHASIRRIERRENESIRECASIRERABAXAAAAAAAS नियसुद्धबुद्धिकसवढयम्मि हेमं व ता परिक्खित्ता । एयं गिण्हसु भद्दे ! महल्लकल्लाणकोसकरं एवं सूरीहिं बुत्ते देवी निउणबुद्धिपरिभावियजहावट्ठियवस्थुसरूवा, विणिच्छियदेव-धम्म-गुरुतत्ता, पीऊसवरिससित्तं पिर्व अप्पाणं मनंती जिणधम्मपरिग्गहेण, पडिपुनदोहला, मिच्छत्तपरिहारेण जहोचियं वट्टिउं पवत्ता । सरिणो गया जहागयं । अन्नया य पडिपुत्रदोह[ला] सुपत्थकरण-नक्खत्त-जोगे पस्या देवी दारयं । पंचधावीपरिलालिजमाणो, पउमो त्ति विहियनामधेजो, कमेण पवढतो, कलाकलावं च गुरुजणातो अहिज्जतो, जोवणमणुपत्तो । अवरवासरे य सो पउमकुमारो 'जोग्गो' तिकलिऊण पइदिओ जुवरायपए पिउणा । पारद्धो य तेणं जहावसर वेरिनरिंदेहिं समं समरवावारो। विणाससंकिएण य वैवरोविओ रन्ना एसो जुवरायपयातो । जाओ य से अवमाणो, परिभावियं पवत्तो य ठाणभट्ठा सिहिण व निव्वुई दितु कह णु सप्पुरिसा?। वीसामहत्थाममहवा (?) मुत्ताण वि कह पवजंतु ॥ १ ॥ तथापुरिसोत्तिमो ति गिजइ कह सो जो पंचयनभावे वि । नो भद्दसद्दसम्मद्दगब्भिणं भुवणमवि कुणइ? ॥ २॥ किंचपरमाहप्पुप्पन्नो [पण्णो] विन वनणं जणो लहइ । अन्नत्थ अविनाओ ताई तोलेमि अप्पाणं इति निच्छिऊण कयवेसपरिवत्तो निग्गओ गिहाओ रायपुत्तो, विविहदेसंतरेसु भमंतो य पत्तो एगस्थ आसमपए । दिट्टो य तत्थ भीमो नाम तावसो। वुच्छो कइवयवासराई तेण समं । गाढसिणेहेण य पडिवो 'पुत्तो' ति कुमारी अणेण । १वायें ॥ २ क्षीरपात्री मनधात्री मण्डनधात्री कीबाधात्री अधात्री चेति पञ्चधायः ॥ ३ 'भ्यपरोपितः' दूरीकृतः ॥ ४ परिभावयितुम् ।। ५ कदली इन ॥ ६ प्राज्ञः ॥ ७ तोलमि प्रतौ ॥ ८ बुत्तो क" प्रती । उषितः । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभइसरिविरइओ जिनबिंब* विधाने पञ्चका नृपकथानकम् १२। कहारयणकोसो ॥ सामनगुणाहिगारो। ॥८०॥ अवरवासरे य पायवडणपुरस्सरं कुमारो गमणत्थं तावसमणुनविउं पवतो । विरहकायरत्तणेण य बाहप्पवाहपवालियाणणेण भणिओ सो ण-वच्छ ! बौढमणुचियमेय मुणीण पेमकरणं, केवलं अप्पर वट्टामि अप्पाणं पि पडिखलिउं, न य सिणेहे किं पि उवैयरियं तुम्हारिसे तीरइ मारिसेणं, तहावि इमं विस्समुहाभिहाणजक्खमंतं पुचपुरिसागयं वच्छ ! गिण्हसु त्ति, एसो हि जेण तुह देसंतरेसु वचमाणस्स सहाई हवह आवयापडिखलणं च करेइ त्ति । पडिव कुमारेण । सुहमहुत्ते पुबसेवाइविहिसाहणपुवयं दिनो तावसेणं । पारद्धो य कुमारो तमाराहिउं सुसाणे कसिणचउद्दसीए । अह जाव जीवमुदापुरस्सरं मंतसाहणं कुमरो । निग्गहियमणप्पसरो पारद्धो काउमचंतं ॥ १ ॥ ताव कयघोररूवो दसणमेचे वि दिनभूरिभओ । मच्चु च भासमाणो माणाइकंतगुरुदेहो । ॥ २ ॥ एगो झत्ति पिसाओ पत्तो कुमरंतियं ददं कुविओ । पारद्धमसंबद्धं किमेवमेयं ? ति जंपतो कुमरेण जंपियं किं निरत्थयं भो! परिस्सम कुणसि । एसो न स होइ जणो जो तीरइ मेसिउं तुमए ॥४॥ नियंजणगरजपमुहं परिचयंतो वि जो न भीओ ई। सो दुक्खविइनउरो तुम तणायाविन गणेमि ॥५॥ अह दिसिपेसरियदीहरकविलाविलभूरिकेसपब्भारं । तणुभारभरियगयणं भयविक्खेवाउलियलोय ॥६॥ १ अनुज्ञापयितुम् ।। २ वाष्पप्रवाहप्रासाविताननेन ।। ३वादमनुचितमेव ॥४ उपकर्तुं युष्माहशे शक्यते मारशेन ॥ ५ मुहुमु प्रतौ ।। ६ बापमुद्रा-।। ७ निजजनकराग्यप्रमुखम् ॥ ८ "रिचयं प्रतौ ॥ ९ दिक्प्रसतवीर्षकपिलाविल भूरिकेशप्राम्भारम् । तनुभारभूतगगनं भयविक्षेपाकुलितलोकम् ॥ क्षय+U कालाशुभानिलविलगुरुगिरिसरशम् ॥ ८. ॥ रदेसो व बहुपत्तकमलालंकिओ, महातरु व संउणनिवहसेवणिजओ, संयलदिसामुहवित्थरियकित्तिकुमुइणीमालियभुयणसरपरिसरो सरप्पभो नाम राया। सयलतेउरपहाणा रायलच्छि व पञ्चक्खा लीलावई नाम से भारिया । तीए य समं समयणाणुरूवं विसयसुहमणुसेवमाणस्स तस्स वञ्चति वासरा । ___अभया लीलावई देवी निसि सुइसेन्जाए पसुत्ता अमंदमयरंदबिंदुसंदोहमत्तमइयराराचमणहरं पउमं सुमिणे वयणम्मि पविसमाणमवलोइऊण पडिबुद्धा । रायवयणेण सबुद्धिविभवेण य पहाणपुत्तजम्मं विणिच्छिऊण सुहेण अच्छिउँ पवत्ता । कइवयमासावसाणे य सुगम्भाणुभावतो धम्ममीमंसाविसओ डोहलो समुप्पो । विनातो नरवडणा, वाहराविया पासंडिणो, पारद्धा तेहिं धम्मवियारा । तहाहि यागच्छागवधेन वैदिकजनैः कारुण्यतः सौगतैः, दीक्षातः शिववर्त्मवर्तियतिभिः स्नानादिभिः लातकैः । तत्वज्ञानत एव कापिलमतैरावेदितोऽनेकधा, खस्वग्रन्थयथायथानुसरणाद् धर्मस्तदेवंविधः ॥१॥ तह वि अरंजियत्तणेण न तीसे थेवं पि पडिपुत्रो दोहलो। तदसंपत्तीए य बादं किसीभूया देवी । उचिम्गो राया । निरूविया य पहाणपुरिसेहिं तदपरे पासंडिणो । सुनिउणं पलोयंतेहिं य दिट्ठा नंदणवणविजणपएसमल्लीणा सज्झाय-ज्झाण १ सरोमध्यभागः बहुपत्रैः कमलैः अलङ्कतः, राजा तु बहुभिः पात्रः-सत्पुरुषः कमलया च-लक्षम्याऽलतः ॥ २ महातरुः शकुनाना-पक्षिणां निवहेन-देन सेवनीयः, राजा पुनः सगुणपुरुषगणेन सेवनीयः ॥ ३ सकलविन्मुखविस्तृतकीर्तिमुदिनीमालितभुवनसर परिसरः ॥ ४ 'तः सोग' प्रतौ ॥ ५ स्तोकम् ॥ ६ निऊणं प्रती ॥ धर्मतत्त्वपरामर्शः Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमद्दसूरिविरहओ कहारयणकोसो ॥ सामन्नगुपाहिगारो । ॥ ८१ ॥ ॥ १॥ रुक्खमाल- कुंडिय-सावित्तिर्गवत्ति-हंसपरियरिओ । चडवयणचवियवेओ, स एस बंभो त्ति जयकत्ता राजा - रुद्राक्षमालापरावर्तनादज्ञानी, कुण्डिका-वेदगुणनाभ्यां यतिमात्रः, रुयादिपरिग्रहाद् रागी, जगत्कर्तेति च प्रत्यक्षविरोधः स्त्री-पुंसयोगेनोत्पत्तिदर्शनादिति मृषा पूज्यस्वरूपमाभाति । एत्यंतरे वागरियं केसवभत्तेहिं - महाराय ! उच्चूढमहीवीढो" सुर-कंसप्पमुहदणुयदलदलणो । जलहिजलचिहियनिहो लच्छिपिओ एस सो कण्हो 11 2 11 राजा - धृतभूपीठ इति वर्णनामात्रं स्वस्वभावावस्थितत्वात् क्षितेः, कंसादिवधाच्च विजिगीषुराजन्यरूपः, समुद्रनिद्राकरणाच्च तरणविद्याविशिष्टः, लक्ष्मीप्रिय इति च कामुकः, तदेतदपि न पारमार्थिकदेवतारूपमवभासते । एत्यंतरे भणियं कारुणियविणेयगणेण - महाराय ! ॥ १ ॥ कारुन पुनहियओ नियतित्थनिकीरमसहमाणो जो परमपयाओ वि भवं उवे सो एस बुद्धो ति राजा - 'कथं कारुणिकः १ अथ च पात्रगत मांस भोजनमप्यनुजानीते ? तीर्थपराभवे भूयो भवमुपैति अथ च परमपदस्थः' इति वाढं परस्परव्याहतमेतदपि देवतश्वम् । एत्थंतरे भणियं अरहंत भत्तलोपण - महाराय ! जियकोहाद्दचउको हयमयणो सत्तु-मित्तसमचित्तो । अकलत्तो अममतो देवो सो एस अरहंतो ॥ १ ॥ १ "गवित्ति प्रती सावित्रीपत्नी । २ 'डवि प्रतौ । चतुर्वदनकथितवेदः ॥ ३ 'गुणिना प्रती ॥ ४ 'रोधे खी' प्रतौ ॥ सुर प्रतौ ॥ ६ वर्षना प्रतौ ॥ ७ संकादिवध्वाच्च प्रती ॥ ८ मुद्रानि प्रती ॥ ९. कारुणिका:- बौद्धाः ।। १० निकारः- तीर्थपराभवः ॥ ११ वदत्व प्रतौ ॥ ५ ढो राजा - सत्यमेतत् कथमन्यथा प्रशान्ता दृष्टिः १ सोमं वपुः १ प्रहरणपरिहारः १ न [स] स्वीकता ? छत्रत्रयादिपूजाप्रतिपत्तिश्च परदेवविलक्षणाऽस्य, युज्यते तदेष एव परमात्मा सतां सेव्यः संसारोतारहेतुरिति निश्चिनोमि, केवलं यद्यन्यतोsपि मध्यस्थादेतनिश्चयः स्यात् तदाऽन्यदेवतात्यागेनात्रैव तावत् स्थेयं करोमीति । अंह नरवतविवयणसवणसंजाय मच्छरुच्छेया । कयसमवाया सबै वि तित्थिया भणिउमाढता राय ! किमेवमजुत्तं जंपह १ सलहेह किं व अरहंतं ? । एसो खु तेईबज्झो न पूजितो पुर्वजेहिं प न य कुलमग्गपवन्नो देवो य गुरू य उज्झिउं जुत्तो । उद्दिट्ठे अणुरागो न य सप्पुरिसाण उचिओ य उप्पहपवन्नचित्तं न तुमं च उवेहिमो वयं कह वि । पुंवठियं उज्यंते नियजीयं पि हु परिच्चइमो ॥ १ ॥ ॥२॥ ॥ ३ ॥ 118 11 ॥ ५ ॥ रेन्ना पयंपियं दूरचत्तमा मेरिसं वोत्तुं । तुम्भाण भो ! न जुज्जह जाणि बहुसमय-सत्थाण जह [ तह ] देवो धम्मो गुरु य कणगं च रयणमाई वि । अपरिक्खिऊ [ण कु] सला गिण्हंता हुंति इस णि ।। ६ ।। पुपुरिसकमो वि हु कजे जुत्तिक्खमेऽणुसरणिंओो । अन्नहरूवे वि य तम्मि अभिरई नणु महामोहो || 19 || ॥ १ "मेव त प्रतौ ॥ २ नात्रेव तात्पर्य क प्रती ॥ ३ अथ नरपतितद्विधवचन श्रवणसञ्जातमत्सरोत्सेकाः । कृतसमवायाः ॥ ४ घ । [५] 'त्रयीवाद्यः' वेदत्रयीवहिष्कृतः यद्वा ब्रह्मा विष्णुः महेश बेति देवत्रयीबाह्यः ॥ ६ पूर्वजैः ॥ ७ उत्पथप्रपन्नचित्तं न त्वां च उपेक्षामहे ॥ ८ षट्टियं प्रतौ । पूर्वस्थिति उज्झति [वि] निजजीवितमपि परित्यजामः || ९ राशा जलते दूरव्यक्तमर्यादं दशं वक्तुम् । युष्माकं भो ! न युज्यते शातबहु समयशास्त्राणाम् ॥ १० यने मेरि प्रतौ ॥ ११ यपहु" प्रतौ ॥ १२ गुरु य प्रतौ ॥ १३ " णिजे प्रतौ ॥ जिनबिंबविधाने पद्मनृपकथानकम् १२ । ॥ ८१ ॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभइसरिविरहओ कहारयणकोसो॥ सामनगुणाहिगारो। ॥ ८२॥ RRENERARY | जिनपिंच४ विधाने पच नृपकथानकम् १२। जह संभवंतबहुदवलाभमुवलहद कोइ वरभंडं । ता किं तं गिण्हतो गुरूहिं सो वारिउ जुत्तो ? पासंडिएहिं तं नाणी देवो व इय खमो' बोत्तुं । सविगप्पकप्पियाई विस्समुहाई ति न पमाण ॥९॥ रमा भणियं-सच्चमेयं । तओ वाहरिया नियपुरिसा भणिया-अरे! सवत्थ नयरे पंडहयपडिहणणपुरस्सरमिमं घोसेह, जहा-जइ को वि कत्थइ नाणवंतं सिद्धदेवयाविसेसं वा पुरिसं जाणइ ता सो त राहणो सिग्धं निवेयउ, महंतं पओयणं ति। 'तह' त्ति उग्घोसियं रायपुरिसेहिं। सुया य एसा आघोसणा पउमरायपुत्तेण । परमकोऊहलाउलिएण य पुच्छिया कुमारेणकिं भो ! पओयणं ? ति । तेहिं भणियं-भो महाभाग ! अम्ह नरिंदो देव-धम्माइविणिछयं काउकामो पुरिसविसेसं मग्गइ जन्वयणाओ तविणिच्छओ हवइ, तदुवलंभनिमित्तं च एस उवैकमो तिं । तओ कोऊहलेण रायपुत्तो गओ तं पएसं । पञ्चभिन्नाओ य एगेण मागहपुत्तेणं । पढिउमारदो सो तग्गुणगणं । जाणिओ रना, उववेसिओ समीवासणे, पुच्छिओ कुसलोदतं । पत्थावे य भणिय कुमारेण-महाराय ! किमेस सबतिस्थियमीलगो ? ति । तओ रन्ना सिट्ठो सन्बो पुबुद्दिदृधम्मवियारखुत्तो, दंसियाओ य पसुवइपमुहदेवयापडिमाओ । भिन्न भिन्नमवलोइयाओ निउणदिट्ठीए रायपुत्तेणं । पुच्छिओ य रत्रा-कुमार ! कहसु को देवो अभिरुहओ?। कुमारेण वुत्तं-किमिह चुच्चइ ? | राइणा वुत्तं-तहावि संखेवेण जहाभिरुइयं १ज्ञानी देवो वा इति क्षमो वक्तुम् ।। २ "मो वैतं प्रती ॥ ३ सहमु प्रती । विश्वम्मुखानि ॥ ४ पडिह" प्रती । पटहकप्रतिहमन-पदहकवादन-॥ ५ यओ मंह' प्रती ॥ ६ णिच्छियं प्रतौ ॥ ७ यवचनात् तद्विनिषयः ॥ ८ आरम्भ इत्यर्थः ॥ ९ "त्ति गओ को प्रतौ ।। १० पच्छावे प्रतौ ॥ ॥ ८२ ॥ AWARANANA%ANAKHABHIRONM5RANSI खयकालकलंकलियानिलविलुलिअंतगरुयगिरिसरिसं । अञ्चतं नचंतं दढणं ईसि कयहासो ॥ ७ ॥ कुमरो पयंपइ कहं अज वि विरमान रायलच्छिलवो ? । पेच्छणयच्छणमेवं कहमत्रह संभवेजे इई ॥८॥ इय सपरिहासपेसलमक्खुद्धमणो भणेइ जा कुमरो । ता पयडियनियरूवो सविलक्खो वागरइ जक्खो ॥९॥ होउँ बहुकीलिएणं आएसं देसु तुझ भिच्चो हं। आजम्मं निरुवमसत्तवित्तसमुवजितो दूरं ॥१०॥ 'एवं' ति पडिवजिऊण तबयणं रायपुत्तो [व]संहरियमंतोवयारो तावसाणुबातो पयट्टो उत्तराभिमुहं । सयासमिहियजक्खपूरिजंतमणवंछियभोयणाइवावारो अणवस्यपयाणगेहिं वच्चंतो संपत्तो तिजयलच्छीनिवासमंदिरं सीहपुरनयरं । तत्थ य पयइसवधम्माणुरत्तो पयइसुसीलो पयइकरुणायरो पयइपरोवयाररओ वहरसिंघो नाम राया । सो य तद्दिवसं सवधम्माणुरागित्तणेण हर-पियामह-महुमह-जिण बुद्धपडिमाउतुंगसिंगमंदिरेसु पइट्ठाविऊण सयलतित्थेहिं समं भिन्नभिन्नं देवयासरूवं परिभाविउं पवत्तो । तत्थ य सिवसिस्सेहिं जंपियं-महाराय ! देहधरियदइओ निदढमयणो विमुकसंगो य । सूल-धेणुवावडकरो सो एस तिलोयणो देवो ॥१ ॥ राजा-'देहार्धन्यस्तभार्यः अथ च दग्धस्मरः, त्यक्तसङ्गः अथ च शूलादिशत्रधारी' इति परस्परविरुद्धमाराध्यलक्षणमाभाति । एत्थंतरे जंपियं पियामहसिस्सेहिं १ प्रेक्षणकक्षणमेवम् ॥ २ "ज अहं प्रती ॥ ३ मखुद्ध प्रती ॥ ४ उ पडु प्रती । भवतु बहुक्रीडितेन ॥ ५ निरुपमसरचवित्तसमुपार्जितः ॥ ६ पयत्तो प्रतौ ॥ ७ पितामहः-ब्रह्मा ॥ ८ "महं जि प्रतौ । मधुमथ:-कृष्णः ॥ ९ "घणवा प्रती ॥ १० महादेवः शिव इत्यर्थः ।। HABAR RECESSARI+SARKARINER देवतत्त्वविचार: Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमहसूरिविरइओ कहारयण कोसो ॥ सामन्नगुबाहिगारो। ॥ ८३ ॥ बालो वि मुणइ एयं न राग-दोसेहिं परिगया देवा । अह ते वि पूयणिजा अपूयणिओ न ता कोइ अस्थाहजलपवाहे अप्पाणं जो न तारिउं तरह । सो वि हु तारेइ परं ति जुत्ति-दिडेहिं य विरुद्धं ता राग-दोसरहियं अरहंतं सरह मुयह कुग्गाहं । सेंवंगिवग्गसुहयं मुंचह संसारिए देवे संसारुत्तरणमणा जइ ता एवं विणिच्छयं कुणह । इय संसिऊण जक्खो सहसा असणं पत्तो ॥ ४ ॥ ॥ ५॥ ॥६॥ ॥ ७ ॥ पहिट्टो पुहइपालो सह कुमारेण अकुग्गाहिलोगेण य। विलक्खीभूया गया सं द्वाणं कुतित्थियाइणो । राया विसकुमारो सुचिरं जिणं पूइऊण थुणिऊण य गओ निययघरं । कुमारेण समं कयं भोयणं । 'देवया विसेस विर्णिच्छय करणेण परमोवयारि' त्ति परं हरिसपगरिसमुद्वहंतेण य रन्ना दिन्ना कुमारस्स सुरसुंदरी नाम नियधूया । विसिडलग्गे य परिणीया अणेणं । वत्तो वीवाहो महया बित्थरेणं । ठविओ य रन्ना एसो महामंडलेसरपयम्मि, सभवणे व सुहेण अच्छिउं पवत्तो य । अन्नया य एते पउमकुमारेण सह चिट्ठमाणस्स राइणो सहस चिय गयणंगणे तं पएसमुवसप्पमाणो दिवनाणनयणो खेमंकरो नाम चारणसमणो कइवयविञ्जाहरकुमाराणुगम्ममाणो चक्खुगोयरमुवगओ । तं च अच्छरियभूयरूयं मुणिवरमवलोइऊण विहियमाणसो ज्झड त्ति आसणा उडिऊण राया निडालतडारोवियपाणिपउम कोसो विन्नविउँ पर्वत्तो—भयवं ! पसीयह, नियपायदरिसणेणाणुगिण्हह, करेह सफलं अम्ह जीवियं-ति जंपिरे नराहिवे कारुनपुन्नहियओ पणयपत्थणाभंगभी१ अस्ताप ॥ २ शक्नोति ॥ ३ स्मरत 11 ४ सर्वाङ्गिवर्गसुखदम् ॥ ५ णिच्छियं प्रतौ ॥ ६ " णिच्छिय प्रती " ७ पन्नो प्रतौ ॥ रुत्तणओ ओयरिओ रायभवणे साहू, दिन्नसमुचियासणो निसन्नो य । एत्यंतरे रायकुमारेण समं राया निडालतडताडियधरणिमंडलो पंचगपणिवायपुरस्सरं सङ्घायरेण पणमिऊण चरणजुयलं चारणसमणं भणिउमादत्तोअञ्ज कयत्था सुत्था य अज अजेव पत्तपअंता । संसारमहोय हिणो जं जायं दंसणं तुम्ह रजं रिद्धीसुंदेरमुत्तमं मंतसिद्धिविन्नाणं । मन्ने लब्भइ दुलहं पि न उण तुम्हाण पयसेवा चामोहतमंतरिए भयंत ! अम्हे कुतित्थिर्यग्धत्थे । सम्मग्गम्मि निजुंजसु काउं कारुन्नमचंतं अह साहू तजग्गयमुत्रलम्भ जिणं जिर्णिदधम्मं च । साहइ सवित्थरत्थं महत्थदिद्वंत- जुत्तिजयं ओहिन्नाणवलेण य मुणिउं पुब्बुत्तधम्मवृत्तंतं । भणइ य मुणी नरेसर ! किं वन्निजड़ तुह मईए ? जो य तहाविंहसमयत्थसवण-मुणिसेचणाइविरहे चि । निच्छियदेवसरूवो विक्खिवसि तुमं कुतिस्थिजणं तुमए वि देवयाबलविद लियनी से सलोय मोहेण । रायसुय ! पउम ! विहियं तं जं जयविम्हयं जणइ एतो च्चिय [गब्भ] गए तुमए दंरिसणवियारपडिबद्धं । तत्तविर्णिच्छयसारं दोहलयमकासि तुह जणणी ता सिवलच्छीए पेच्छियाण पुरिसाण निच्छियं घडइ । मिच्छत्तच्छने वि हु लोए एवंविहा बुद्धी " — १ ललाटताति । २ जानुद्विकं करद्विकं उत्तमानं चेत्यङ्गपञ्चकम् ॥ ३ आरब्धः ॥ ४ स्वस्थाः ॥ ५ व्यामोहतमोऽन्तरितान् ॥ ६ यत्थे प्रतौ। कुतीर्थिकस्तान 'विद्दिस तौ ॥ ८ जगद्विस्मयम् ॥ ९ दर्शनविचारप्रतिबद्धम् । तत्वविनिश्चयसारम् दोहदमकात् ॥ २० णिच्छिय प्रती ॥ の 11 2 11 || R || ॥ ३ ॥ ॥ ४ ॥ ॥ ५ ॥ ॥ ६ ॥ 119 11 || 6 || 11 8 11 जिनबिंबविधाने पद्मनृपकथानकम् १२ । ॥ ८३ ॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभइसरिविरहओ कहारयणकोसो। सामनगुणाहिगारो। ॥८४ ॥ WRITERS |जिनषिविधाने पच नृपकथानकम् १२॥ एत्तो अरिहंत चिय देवं सुतवस्सिणो य गुरुणो त्ति । जिणपन्नत्तं तत्तं च भावसारं पवह ॥ १० ॥ वजह धम्मविरुद्धेहिं संग मुयह विसयवामोहं । अप्पुवापुष्वगुणजणम्मि अज्जुञ्जम कुणह ॥ ११ ॥ इय एवमाइपनवणवयणनिवहेण निचला धम्मे । ते काउमणुभाओ मेणी गओ वंछियं द्वाणं ॥ १२ ॥ नरवइ-कुमारा य पुत्वविणिच्छियधम्मा वि सविसेसं साहुवयणेण मुणियपरमत्था धम्मकजाई चिंतिउं पवत्ता । अन्नया य पिउणो संतिया कुमाराणयणत्थं समागया पहाणपुरिसा । पडिहारनिवेइया गया कुमारसमीवं । 'पिउपहाण' ति दूराओ अन्भुट्टिया कुमारेण, अवगृहणाइपडिवत्तिपुवयं च उववेसिया समीवासणेसु, पुट्ठा पिउणो कुसलवत्तं देससुत्थयं च । सिहूं च तेहि जहोचियं । एत्थंतरे पत्ता भोयणवेला, उडिओ कुमारी तेहि सम, कया देवयाइपूया, निवत्तियं भोयणं । अह पत्थावमुवलेब्भ तेहिं पिउपुरिसेहिं विनत्तो कुमारो-महाभाग ! महाराएण अणिवत्तगरोगजञ्जरियसरीरेण परलोगहियमियाणिं काउकामेण रञ्जमहाभरं च तुमए आरोविउमिच्छुणा अम्हे तुम्हाणयणत्थं विसञ्जिया, 'न य मए अदिम्मि बीयभोयणं काय' ति देवस्स आणा, ता अलं सेसकिञ्चेहिं, सजीहोह गमणत्थं ति। एयं च सोचा कुमारो औउरपिउसोगपूरपूरिजमाणमाणसो खणं किंकायबवाउलत्तणमणुभविऊण सयमेवाणुसरियधीरभावो कह कह वि नरिंदं मोयाविऊण पणइणीसमेओ अणवरयपयाणगेहिं गच्छंतो पत्तो सुहंकराभिहाणाए नियनयरीए । १ सर्ग प्रती ॥ २ अपुब्वा प्रती ॥ ३ मुणिं प्रतौ ॥ 'लभ ते प्रतौ ॥ ५ अनिवर्तकरोगजर्जरितशरीरेण ॥ ६ आतुरपितृशोकपूरपूर्यमाणमानसः क्षणं किंकर्तव्यब्याकुलत्वमनुभूय ॥ RAKAREKAR मा॥८४॥ सुदेवलक्षणम् साहेसु। कुमारेण कहियं-निसामेसु नानाशस्त्रजुषः कथं गतरुषः ? स्त्रीसन्निधानात् कथं नीरागाः ? पशुनाशियागकथनात् कारुण्यवन्तः कथम् । छत्रायष्टमहाविभूतिविरहाद् देवाधिदेवाः कथं ?, तस्मात् सर्वगुणर्द्धिमान् विजयतामर्हनिहैकः प्रभुः ॥१॥ राहणा भणियं-एवमेयं, अम्हं पि एस पडिहासो, परं जइ देवयाइमुहाओ एयनिच्छओ होइ ता तित्थियलोगो वि बुज्झेजा । तओ कुमारेण राइणो कन्नमूलि हाऊण सिट्ठो चिरसाहिओ जक्खवुत्तो। राइणा वुत्तं-कुमार ! सबहा ममागुग्गहं कुणमाणो तं जक्खं तहा पनवेसु जहा एस संसओ पणस्सह त्ति । 'एवं करेमि' चि संसिऊण सुमरिओ जक्खो कुमारेण । आगओ य एसो 'भो जक्ख ! पञ्चक्खो होऊण देवयाविसयं लोयस्स निच्छयं कुणसु' त्ति आइट्ठो कुमारेण । फुरंतमणिकुंडलो तयणु नॉह आखंडलो, समारुहिय पायैडो सुरपहम्मि जक्खो हिओ । विमाणमवचूलंयाउललुलंतमुत्ताहलं, रणंतमणिकिंकिणीपडलबद्धकोलाहलं । विसिडहरिसुद्धरा निवपुरस्सरा तिथिणो, स एस परमेसरो सरियमेत्तओ पत्तओ । कहेउ जमिहोचियं इय पयंपिरा सायरं, खिवंति तमवेक्खिउं तयणु सिग्घमग्जलिं ॥२ ॥ एत्थंतरम्मि जक्खेण जंपियं कीस संसयं कुणह ? । भो भो महाणुभावा! निम्मलमइणो वि होऊण ॥३॥ १ नेसा' प्रतौ ।। २ "यानिस प्रती ।। ३ "निच्छियं प्रतौ ।। ४ इवार्थकमव्ययम् ॥ ५ प्रकटः ॥ ६ "पई पि ज" प्रती।। ७ सुद्दुरा प्रती । विशिष्ट हर्षोमुराः ॥ ८ परंपि' प्रती । प्रजल्पनशीलाः ।। RSSIBHABHISHEHAR Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमद्दसरिविरहओ जिनबिंबविधाने पद्म नृपकथानकम् १२। कहारयणकोसो॥ सामनगुजाहिगारो। गिरि-रब-सरिय सायरलंघणपमिईहिं अजिओ अत्थो । धन्नाण धम्मकले वचह इयराण इयरम्मि निप्पुनमप्पयमहं मन्ने विनिवायभायणं पि धणं । जस्स मम नोवओगं वञ्च एवंविहट्ठाणे ॥३ ॥ रखं रज्जु पिच बंधणत्थमुवकप्पियं अहं मन्ने । उवजुञ्जइ थेवं पि हुजं नो सद्धम्मकअम्मि ॥ ४ ॥ भावत्थयासमत्थो काहं त्वत्थए न जइ जत्तं ? । ता अप्पण चिय परं अप्पा भवकूवए खित्तो होउ बहुजंपिएणं इहेव चेईहरम्मि जिणबिंब । काराविऊण संपइ अप्पाणं निवेमि त्ति सिट्ठो य एस भावो पुरतो सेट्ठिस्स वीरभद्दस्स | तेणावि अणुनाओ सो पहरिसमुबहतेण ॥ ७॥ अह सुमुहते रचा जच्चज्जुणकंचणेण जिणपडिमा । काराविउमारद्धा विहिणा पुचोवण ॥ ८ ॥ सिद्धा य कमेणेसा सेसहरलंछणविराइया पवरा । लद्धं च पइट्ठाए जोग्गं लग्ग महबलोग्गं ॥ ९ ॥ पत्तो ये तम्मि समए स महप्पा चारणो मुणिवरिट्ठो । गुरुदिनगणाणुनो सूरी वेमंकरो भयवं ॥ १०॥ विनायतदागमणो हरिसभरुभिजमाणरोमंचो । पउमो राया गंतुं तं वंदइ परमभत्तीए ॥ ११ ॥ गुरुणा दिनासीसो उवविट्ठो केवले महीवडे । पुट्ठो य धम्मबिसयं निवाहं सो मुर्णिदेण ॥ १२ ॥ १ गिरिभरण्यसरितसागरलानप्रतिभिः ॥ २ भावस्तवासमर्थः करिष्यामि यस्तवे न यदि यत्नम् ॥ ३ 'निस्वयामि' शाश्वतीकरोमि ॥ ४ जच्चुज्जण' प्रती ॥ ५शक्षधरलाग्छन:-चन्द्रप्रभजिनः ।। ६ य सम्मि प्रती ॥ ७ चारिणो प्रती ॥ ८नगुणा" प्रती । गुरुदत्तगणानुज्ञः ॥ ९ "बली म प्रतौ ॥ १० निर्वाहम् ॥ ॥८५॥ HEARNA%ARASHARAMESHRIKARANAGARICHA%AMANAGES NAGAVACANCIESAKACHCCCk सिहो य तओ तेणं पडिमाकारवणवइयरो सबो । पत्थावम्मि य बुत्तो एयपइ8 कुणह भंते! ॥ १३ ॥ गुरुणा भणियं नरवर ! मंता-ऽऽहवणाइ इह असावजो। अम्हाण विही उचिओ ण्हवणाई पुण गिहस्थाण ॥१४॥ तो वीरभद्दमुहा गीयत्था भत्तिसंगया दक्खा । कयकरणा य गिहत्था अस्थिकगुणनिया निउणा ॥१५॥ भत्ति-बहुमाणसार देवपइहाविहिं निरुबिग्गा । पुच्छंति गुरू वि तओ जहासुर्य कहिउमादत्ती ॥१६॥ घोसाविज अमारिं रनो संघस्स तह य बाहरणं । विनाणियसम्माणं कुजा खेत्तस्स सुद्धिं च ॥१७॥ तह य दिसिपालठवणं तकिरियगाण सनिहाणं च । दुविहसुई पोसहिओ बेईए ठवेञ्ज जिणर्षिचं ॥ १८॥ नवरं सुमुहुत्तम्मि पुव्वुत्तरदिसिमुहं सेउणपुवं । वजंतेसु चउबिहमंगलतूरेसु पउरेसु ॥ १९ ॥ तो सबसंघसहिओ ठवणायरियं ठवित्तु पडिमपुरो । देवे वंदइ सूरी परियिनिरुवहय-सुइवत्थो ॥ २० ॥ संति-मुयदेवयाणं करेइ उस्सग्ग थुइपयाणं च । सहिरन्नदाहिणकरो सयलीकरणं ततो कुजा ॥ २१ ॥ तो सुद्धोभयपक्खा दक्खा खेयन्नुया विहियरक्खा । ण्हवणंगरा तो खिवंती दिसामु सबासु सिबलिं ॥ २२ ॥ तयणंतरं च मुद्दियकलसचउकेण ते ण्हवंति जिणे । पंचरयणोदगेणं कसायसलिलेण तत्तो य ॥ २३ ॥ १ 'काराव प्रती । प्रतिमाकारणब्यतिकरः ॥ २ "पहुणा, गी प्रतौ ॥ ३ आस्तिक्यगुणान्विताः ॥ ४ 'द्विविधाचिः' बायाभ्यन्तरपवित्रः 'पौषधिकः कृतोपवासः ॥ ५ चइए प्रती। वेद्याम् ॥ ६ानपूर्वकम् वाद्यमानेषु ।। ७ णगिरा प्रती ॥ ८ सिद्धिव प्रती ॥ ९ जिणो प्रती ।। १० माणिक्य मौक्तिक प्रवाल सुवर्ण ताम्म इत्येतानि प्रवाल मौक्तिक सुवर्ण रजत ताम इत्येतानि वा पञ्च रत्नानि, तद्भावितनोदकेन ॥ ११ प्लक्ष-अश्वत्थ जिनबिम्बप्रतिष्ठाविधिः Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभरि विरइओ कहारयणकोसो ॥ सामन्नगुणाहिगारो । ॥ ८६ ॥ मट्टियजलेण तो अट्ठवग्ग-सवोसहीजलेहिं च । गंधजलेणं तह पवरवाससलिलेण य ण्हवंति चंदणजलेण कुंकुमजलकुंभेहिं च तित्थसलिलेण । सुद्धकलसेहिं पच्छा गुरुणा अभिमंतिएहिं तहा व्हाणाणं सवाण वि जलधारा - पुष्फ-गंध-धूवाई । दायवमंतराले जावंतिमकलसपत्थावो एवं हविए बिंबे नाणकलानासमाचरेज गुरू । तो सरससुयंघेणं लिंपेजा चंदणदवेणं कुसुमाई सुगंधाई आरोवेत्ता ठवेज त्रिपुरो । नंदावत्तयपठ्ठे पूइजर चारुदतेहिं चंदणंछडुम्मडेणं वत्थेणं छायए य तं पद्मं । अह पडिर्संरमारोवे जिणबिंबे रिद्धि-विद्धिजयं तो सरस सुगंधाई फलाई पुरओ ठवेज बिंबस्स । जंबीर- बीजपूराइयाई तो देख गंधाई मुद्दामंतनासं बिंबे हत्थम्मि कंकणनिवेसं । मंतेण धारणविहिं करेज बिंबस्स तो पुरओ बहुविहपकनाणं ठवणा वरवेहगंधपुडियाणं । वरवंजणाण य तहा जाइफलाणं च सविसेसं शिरीष - उदुम्बर-वटादीनां मध्यच्छया भावित्तमुदकं कषायसलिलमुच्यते ॥ १ पर्वत- पद्मद्रह- नदीसम नदीतटद्वय गोप्रोत्खात वल्मीकप्रभृतिस्थानानां मृत्तिकाभिः भावितेन जलेन ॥ २ कुष्ट प्रियंगु वचा रोध उशीर देवदारु दूर्वा मधुयष्टिकेति प्रथमाष्टवर्गद्रव्याणि । मैद महामेद कंकोल क्षीरकंकोल जीवक ऋषभक नली महानवी इति द्वितीयाष्टवर्गव्याणि । हरिद्रा बचा शोफ बालक मोथ प्रथिपर्णक प्रियंगु मुरवास कर्पूरक कुष्ठ एला तज तमालपत्र नागकैसर लवंग इत्यादीनि सर्वोषधिद्रव्याणि । एतैर्द्रव्यैर्वासितं जलं क्रमशः अष्टवर्गजलं सर्वोषधिजलं चोच्यते ॥ ३ सरिस प्रतौ । सरसमुगन्धेन ॥ सुगन्धानि ॥ ५ णत्थदुष्भवेणं प्रतौ चन्दनच्छटोन ॥ ६ दस्तसूत्रं कङ्कणं वा ॥ ॥ २४ ॥ ॥ २५ ॥ ॥ २६ ॥ ॥ २७ ॥ ।। २८ ।। ॥ २९ ॥ ॥ ३० ॥ ॥ ३१ ॥ ॥ ३२ ॥ कया नयरिसोहा, पविडो रायभवणं कुमारो, पंचंगपणिवाय पुढयं पडिओ पीईचलणेसु । उवगूहिओ पिउणा, आरोविओ उच्छंगे, पुच्छिओ पुवाणुभूयदेसभमणवुत्ततं । जणगर्दुत्थावत्थावलोयण पाउन् भवं तबाहप्पवाहाउललोयणेणं मन्नुब्भरखलंतक्खराए वाणीए जहावित्तं सिद्धं कुमारेण । तहाससोगं च तं दण भणियं रन्ना–वच्छ ! किमेवं कायरो होसि ? सिद्धे मोण से साणं सुप्पसिद्धमेयं एत्तो चिय पुवपुरिसा समग्गसंगचागेण पवना संजमुजोगं, किं वा वच्छ ! अम्हाणं सोयणि १ जेहिं तिवग्गसारं किं नो उवभ्रुत्तं संसारसुहं ? कस्स वा सिरसेहरत्तणं नोवणीया आणा ? अहवा किमणेण अप्यविकत्थत्तणेण ? अनंतसंसारसंसरणओ किं नो दिई ? किं नाशुभूयं १ किंवा नो कयं ? ता पुत्त ! परिचय सोगं, कुणसु धम्मसाहेजं ति । ततो रायलोएण येवं पि अपडिवर्जितो रजं महाकद्वेण काराविओ तेंदभ्रुवगमं । पसत्थमुहुत्ते य अहिसित्तो रायपए । जहोचियं सिक्खं दाऊण य रन्ना पडिवनमणसणं । समाहीए मरिऊण सोहम्मदेवलोए देवो जाओ ति । पउमराया वि तप्पारलोइय किचाई काऊण भावियभवसरूवो कालकमेण विगयसोगो जाओ, रजकजाणि य चिंतिउं पवत्तो । अन्नया य रायवाडिया नियत्तमाणेण दिडुं वीरभदसेड्डिणा काराविजमाणं तुंगसिंगरुद्धदिसावगासं हरहास - हिमधवलं जिणभवणं । कोऊहलेण गओ तत्थ । अब्भुडिओ वीरभद्दाईहिं । दंसिओ पासायकम्मविसेसो । पसंसिओ नरिंदेण सेट्ठी, जहाधन्नो तुमं महायस ! नियभ्रुयदंडञ्जिएण वित्तेण । जेण तए जिणभवणं गिरिगरुयमिमं विनिम्मवियं ॥ १ ॥ १ "यभुव" प्रतौ ॥ २ "दुच्छाव' प्रतौ । जनकदुस्थावस्थावलोकनप्रादुर्भवद्वाष्पप्रवाह कुललोचनेन मन्युभरस्खलदक्षरया ॥ ३ समग्रत्यागेन ॥ ४ तदुभव प्रतौ तदभ्युपगमम् ॥ ५ तुश्टङ्गरुदिगवकाशम् || १५ जिनबिंबविधाने पद्म नृपकथा नकम् १२ । ॥ ८६ ॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64546 देवमहखरिविरहओ कहारयण-5 कोसो ॥ सामनगुमाहिगारो। ॥८७॥ जिनबिंबविधाने पद्म नृपकथानकम् १२। पुष्फ-ऽक्खयंजलीहि तो गुरुणा घोसणा ससंघेण । थेअत्थं कायदा मंगलसदेहिं विस्स ॥४४ ॥ जह सिद्धि-मेरु-कुलपव्वयाण पंचस्थिकाय-कालाण । इह सासया पइट्टा सुपइट्ठा होउ तह एमा ॥ ४५ ॥ जह दीव सिंधु-ससहर-दिणयर-सुरवास-वासखेत्ताणं । इह सासया पइड्ढा सुपइट्ठा होउ तह एसा ॥ ४६॥ एत्थं सहभावकए अक्खयखेवे कयम्मि बिंबस्स । सविसेसं पुण पूया किच्चा चिइवंदणा य तहा ॥४७॥ मुहउग्घाडणसमणंतरं च पूया य समणसंघस्स । फासुयघय-गुड-गोरस-णतंगमाईहिं कायदा ॥४८॥ सोहणदिणे य सोहम्गमतविनासपुवयमवस्सं । मयण हलकंकणं करयलाओ बिंबस्स अवणिजा ॥ ४९ ॥ जिणचिस्स य विसए नियनियठाणेसु सबमुद्दाओ । गुरुणा उपउत्तेणं पउंजियवाउ ता य इमा ॥ ५० ॥ जिणमुद्द१ कलस २ परमेट्टि ३ अंग ४ अंजलि ५ तहाऽऽसणा ६ चका ७। सुरभी ८ पवयण ९ गरुडा १० सोहग्ग ११ कयंजली १२ चेव ॥५१॥ जिणमुदाए चउकलसठावणं तह करेह थिरकरणं । अहिवासमंतनसणं आसणमहाए अने उ ।। ५२ ।। कलसाए कलसण्हवणं परमेट्ठीओ उ आहवणमन्तं । अंगाए समालभणं अंजलिणा पुष्करुणाई ॥ ५३॥ आसणयाए पदृस्स पूयणं अंगफुसण चक्काए । सुरभीए अमयमुत्ती पपयणमुदाए पडिबोहो ॥ ५४ ॥ गरुडाए दुहरक्खा सोहग्गाए य मंतसोहग्गं । तह अंजलीए देसण मुदाए कुणह कमाई ॥ ५५ ॥ १ "फखयं प्रतौ ॥ २देज प्रती । स्पैर्थिम् ॥ ३ "कालका प्रती ॥ ४ -खादिभिः ॥ ५ "ओ य बिं प्रती ॥ ॥८७॥ चोएड एत्थ कोई जह किर सामाइयम्मि किं गुरुणो । जुत्तो ठियस्स एसो सावो विहिसमारंभो? ॥ ५६॥ कायवहकरणभंगा तम्मि जओ तस्स नियमओ हुति । जायइ य अविस्सासो गुरूवएसेसु सिस्साणं ॥५७॥ गुरुणा भणियं हे मूढ ! कह वि जइ होइ कोइ कायवहो। तह वि हु गुरुवयणाओ आयरणाओ य न हु दुट्टो ॥ ५८ ।। विहिवयणं च पमाणं सुत्नुत्तं जेणं ठावणा गुरुणा । कजा जिणबिंबाणं तं च सविसयं हवइ करणे ॥ ५९॥ अन्नह निविसयतं पावइ तस्स त्ति तेण सो जुत्तो । तइया तह गुरुठवणा चिंचस्स य गउरवाइगुणा ॥६०॥ अनं च सुत्तविहिणा संभबिजयणाए बिंबठवणाए । नो कायवहाईया दोसा जिणभवणकरणे व ॥ ६१ ।। जिणभवण-बिंच-पूयाइयं च न विणा गुरू गिही मुणह । न य तत्थ न कायवहो गुरुणो दोसो य न य वुत्तो ॥ ६२॥ अलमेत्थ पसंगणं ठविए एवं जिणस्स बिंबम्मि । अट्ठोत्तरकलससएण मजिए पुण जहाविहवं ॥६३ ॥ पूयाइएसु जत्तो परमो पइदियहमेव कायद्यो । भो वीरभद्दपमुहा! एस पइट्टाए बिहिलेसो ॥ ६४ ।। [तओ] अक्खित्तचित्ता भालयलारोवियपाणिणो य वीरभद्दाइणो 'भयवं! अणुग्गहिया अम्हे' इति पुणो पुणो उववूहता गुरुं वंदिऊण पउमराइणो सवं परिकर्हिति । सो वि तवयणा[यण्णणा]णंतरमेव तूरमाणमाणवपयट्टियपुरसोई १ "स्सामो गुरुव प्रती ॥ २ "ण डाव" प्रती। येन स्थापना गुरुणा कार्या जिनविम्बानाम् ॥ ३ कट्टव प्रती ॥ ४ 'चियजणाए बिंबट्ठव प्रती ॥ ५ कहणे प्रती ॥ ६ गुरु प्रतौ ।। ७ दोसे प्रती ।। ८ यस्मः ।। ९ 'पखित्त प्रती । अव्याक्षिाचित्ताः ॥ १० अव प्रती ।। ११ तरचना[कर्णनानन्तरमेव परमाणमानवप्रवर्तितपुरशोभं प्रमुक्तचारकावरुद्धजनौपं उपाहतसमस्ततीर्थजलासमसौषधिसुकुमारमृत्तिकाप्रमुखप्रतिष्ठोप साधूना प्रतिष्ठाविधिविधापनस्यादुष्टत्वम् 4 56SEARANCHARAKASHARABARACT Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरि-3 विरहओ कहारयणकोसो ॥ सामनगुजाहिगारो। ॥८८॥ जिनबिंचविधाने पद्य नृपकथाकनकम् १२। पमुकचारगावरुद्धजणोहं उवाहरियसमत्थतित्थजल-कुसुम-सबोसही-सुकुमारमट्टियापमुहपइट्ठोवगरणं सन्निहिनिहित्तनिहगोवओगिवत्थुवग्गं दूरदेसवाहरियकुसलसाहम्मियगणं अच्चंतपयत्तपडिसिद्धविहारोवट्ठियमुट्टियसाहुजणं पइट्ठामहूसवमारंभिऊण खेमकरसूरिं भणिउं पत्तो-भयवं! अम्हाणुग्गहं काऊण जिणचिंचपहूं करेह त्ति। ततो सूरी केयचउत्थतवोविसेसो समाहियप्पा तकालोचियविहियनेवच्छो पुश्वग्गाहियसिक्ख-दक्ख-दवभावसुद्धिसंपन्नसमालमियाँलंकिय-निम्मलोभयपक्खकइवयण्हवणगरसहिओ पढमनिदंसियविहिणा सूरिमंतणाधिवासणाइविहाणेण ईटुंसवेला[ए] अविलंबियखित्तविसुरहिवासो समयाविरुद्धकमेण पइटुं करेइ । राया वि पुनपगरिसागरभूयमप्पाणं मनंतो ताणि ताणि तैकालोचियचिइवंदणा-ऽऽरत्तियाइकिच्चाणि संघ-साहम्मियदाणाणि सयणबग्ग-पयइलोयसम्माणणाणि य सय करेइ । अह अवसेसिए पडाकिये गुरू रायाइसभाए धम्म कहिउमादत्तो । जहाजिणभवण-बिंबठावण-पूया-जत्ताइकयपयत्तेहि । धन्नेहिं गोपयं पिव लंपिजा भवसमुद्दोऽयं ॥१ ॥ करणं सन्निधिनिहित्तनियतोपयोगिवस्तुवर्ग दूरदेशब्याहारितकुशलसाधर्मिकगणं अत्यन्तप्रयत्नप्रतिषिद्धविहारोपस्थितसुस्थितसाधुजनं प्रतिष्ठामहोत्सवमारभ्य ।। २"चारुगा" प्रतौ ॥ ३कृतचतुर्थतपोविशेषः समाहितारमा तत्कालोचितविदितनेपथ्यः पूर्वमाहितशिक्ष-दक्ष-गव्यभावशुद्धिसम्पन्न-समालब्धालत निर्मलोभयपक्षकतिपयस्नपनकरसहितः प्रथमनिदर्शितविधिना ॥ ४ 'याणकयनि प्रती ॥ ५ णाविया प्रती ॥६दष्टांशवेलायाम् ॥ ७ पुण्यप्रकर्षाकरभूतम् ॥ ८ तत्कालोचित चित्यवन्दनाsरात्रिकादिकृत्यानि सवसाधर्मिकदानानि स्वजनवर्गप्रकृतिलोकसम्माननानि च ॥ ९ समापिते इत्यर्थः ॥ १० गोष्पदमिव । KA Cl॥८८॥ SHIKHARNAKALAS सागिक्खू-वरसोलय-खंडाईणं बरोसहीणं च । संपुन्नबलीय तहा ठवणं पुरओ जिणिंदस्स ॥ ३३ ॥ घयगुडदीवो सुकुमारियाजुओ चउजुवारया दिसिसु । बिचपुरओ ठवेजा भूयाण बैलिं तओ देजा ॥३४॥ औरत्तिय मंगलईवयं च उत्तारिऊण जिणनाहं । वंदिजहिवासण देवयाए उस्सग्ग थुइदाणं ॥ ३५ ॥ अह जिणपंचंगेसुंठ्ठावेद गुरू थिरीकरणमंतं । वाराओ तिन्नि पंच व सत्त व अर्चतमपमत्तो ॥ ३६ ।। मयणहलं आरोवइ अहिवासणमंतनासमवि कुणइ । झायइ य तय किंवं सजियं व जहा फुड होइ ॥ ३७॥ एवमभिवासियं तं विंचं छाएज सदसवत्थेण । चंदणछडुब्भडेणं तदुपरि पुप्फाई वि खिवेजा ॥ ३८॥ न्हावेज सत्तधनेण तयणु जीवंतउभयपक्वाहिं । नारीहिं चउहिं समलंकियाहिं विजंतनाहाहिं ॥ ३९॥ पडिपुनचत्तुसुत्तेण वेढणं चउगुणं च काऊण । ओमिणणं कारेजा तुढाहिं हिरभदाणजुर्य ॥४०॥ तो वंदेजा देवे पट्टदेवीए काउ उस्सग्गं । देज थुई तीए चिय ठवेज पुरओ य घयपत्तं ॥४१॥ सोवनवट्टियाए कुजा महु-सकराहिं भरियाए । कणगसलागाए बिंबनयणउम्मीलणं लग्गे ॥४२॥ सम्म पइट्ठमंतेण अंगसंधीसु अक्खरमासं । कुणमाणो एगमणो सूरी वासे खिवेज तहा ॥ ४३ ॥ १ 'डाईणम्बरो" प्रती ॥ २ घयकुडदीवसु' प्रती ॥ ३ बलि त्तभो प्रती ॥ ४ आरात्रिकं मलदीपकम् ॥ ५ गुरु प्रती ॥ ६° उदुम्भ' प्रती ॥ ७ "विद्यमाननाधाभिः' सधवाभिः ॥ ८ प्रतिपूर्णतःसूत्रेण ॥ ९ 'सुवर्णवाटिकायां' सुवर्णकचोलिकायाम् ॥ १० शुभलमे ॥ SARAKASSESAKAC%ARA C+ + S Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमद्दसरिविरहओ कहारयणकोसो ॥ सामनगुपाहिगारो। ॥८९॥ जिनबिंबविधाने पबनृपकथानकम् १२। अंगुट्ठलचिट्ठा वि हु जेहिं पइट्ठाविया न जिणपडिमा। ते निव्वुईए पुरिसा कहमप्पाणं पइटुंतु ? ॥१३॥ एवं सुचिरं ते उववूहिऊण अन्नत्थ विहरिया सरिणो । राया विरजकलाई धम्मकजाणि य चिंतिउं पवत्तो। अन्नया य रजसिरिसुहमणुहवंतस्स तस्स पुच्वनिकायकम्मदोसाओ राइणो महंतो दाइजरो संयुत्तो । काराविया य मंत-तन्तोवयारा, वाउलीहूओ सबो जणो, अणवरयविमुकंसुयजालं परुन्नमतेउरं । अञ्चतमणिवत्तगदाहजराभिभूयस्स य रनो परिगलिओ सम्मत्तभावो । तहानिषद्भाउयत्तर्णण स महप्पा अहज्झाणदोसेण मरिउँ सयंभुरमणमहासमुदे गम्भवकम्मियमच्छत्तणेणं उपवनो ति। तविहजिणप्पइट्ठाकारवणजियविसिट्टपुनो वि । अणवस्य समयसंसिय[स] किरियाकरणरसिओ वि ॥१॥ आबालकालउ चिय निप्पडिमविवेयपगरिसगुरू वि । तेत्तियजाण पुरओ कयतित्थपभावणो वि दद्धं ॥२॥ उबसम-विवेय-अस्थिक्कपमुहगुणभूसितो वि स महप्पा । तह दुग्गई पवनो ही ही! कम्माण माहप्पं ॥३॥ अहवा जइ मल्लिजिणो इत्थितं बीयगब्भवासं च । वीरो वि कारविजइ ता को कम्माण पडिमल्लो? ॥४॥ इय सो मच्छो होउं इतो ततो जलनिहिम्मि हिंडंतो । जिणबिंबतुल्लरूवं पेच्छा एगं महापउमं बलयागारं मोत्तुं मच्छा पउमा य किर तहिं हुंति । आगारेहिं सबेहि संबविउणि-त्ति निद्दिट्ट १ अनवरतविमुक्काथुजालं प्ररुदितमन्तःपुरम् ॥ २ तद्विधजिनप्रतिष्ठाकारणार्जितविशिष्टपुष्योऽपि । अनवरतं समयशंसितसत्कियाकरणरसिकोऽपि ॥ ३ निष्प्रतिमविवेकप्रकर्षगुरुरपि । तायजनानां पुरतः ततीर्थप्रभावनः ॥ ४ 'णाणुपु प्रतौ ॥ ५ द्वितीयगर्भवासम् ॥ ६ 'सर्वविदा' सर्वज्ञेन इति ॥ कर्मणां पलिकत्वम् मत्स्या नामाकाराः ॥८९॥ KAKKK+stKaKARKARKAR+RAKAKKARRIAKKARAN अह तहाविहरूवपलोयणपाउन्भर्वतमहंतपरितोसस्स ईहा-ऽपोह-मग्गणं कुणमाणस्स तस्स जायं जाईसरणं । दिद्रिवहपइडियं व दि8 पुचकारावियं जैयगुरुर्विवं, अणुसुमरितो य करुणामयमयरहरो सूरी खेमंकरो, टंकुकीरिय व पयडीहूया हिययसिलावट्टम्मि तदुवएसा । संवेगमग्गाणुलग्गमाणसो य चिंतिउं पवत्तो-अहो ! मम मंदभग्गया, अहो! संकिलिट्टकम्मया, अहो ! नियइनिरुवैकमत्तणं, जे तहाविहसद्धम्मसामग्गिसंभवे वि सिंधुतडपत्तं जाणवतं व विहडियं तड ति मह अंतसमए सम्मत्तं, ता किमित्तो करेमि ? कं पवजामि ? कत्थ बच्चामि ? किं वा कयं सुकयं हवइ ?-त्ति सुचिरं संतप्पिऊण अञ्चतसुविसुद्धर्मणपसरो 'सो चेव सरय[चंदो] चंदप्पहो जयगुरू सरणं' ति कयविणिच्छ ओ निरागारमणसणं पवञ्जिऊण परमसमाहीए पंचपरमेट्ठिमहामंतमेकमेवाणवरयमणुसरंतो कालं काऊण सहस्सारे कप्पे उक्कोसाऊ देवो उववन्नो चि। परिसम्मत्तपञ्जत्तिभावो य कयतहाविहतकालोचियकिच्चो 'कस्स कम्मणो फलमेयं ?' ति जाव ओहिं पउंजइ ताव पेच्छइ मच्छभवुत्तरं नरिंदभवं पुवाणुभूयं ति । तं च ददृण ज्झड ति गादुकंठापरिगओ गओ अलंकरियसमुचियअलंकरणो य विमाणमारुहिऊण कइवयपहाणसुरपरियरिओ पुवकारियम्मि तम्मि चंदप्पहजिणमंदिरम्मि । वंदिओ परमभत्तिपयरिसमुबहतेण जयगुरू । १ तथाविधरूपप्रलोकनप्रादुर्भवन्महापरितोषस्य ईहाऽपोहमार्गणां कुर्वाणस्य ॥ २ दृष्टिपथप्रतिष्ठितमिव ॥ ३ जाय प्रतौ ॥ ४ करुणामृतमकरगृहः । मकरराइः-समुद्रः ॥ ५ मन्दभाग्यता ॥ ६ नियतिनिरूपकमत्वम् ॥ ७ वकम प्रती ॥ ८ कथ प्रतौ ॥ ९ "मणपणपस प्रतौ ॥ १० एकमेव अनवरतं अनुस्मरन् ॥ ११ मत्स्यभवोत्तरम् ॥ १२ 'लंकारि प्रती । अलतसमुचितालहरणः ॥ १३-प्रकर्षमुबहता ॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभइसरिविरहओ कहारयणकोसो ॥ सामनगुणाहिगारो। ॥ ९०॥ जिनबिंबविधानेपब नृपकथानकम् १२॥ ************MAXX |नीहरंतेण य जिणाययणाओ तकालमेव विहारेणाऽऽगया दिट्ठा धम्मकहं कुणमाणा खेमकराभिहाणा सूरिणो। परमपेमुकरि समुबहतेण य पणिवहया अणेणं । दिबासीसो य आसीणो समीववसुमइतलम्मि । दिवनाणोवलद्धभावेण भगवया सायरं संमासिओ य, जहा-भो सुरवर ! पुनर्वतो सि तुम, तथाहि शशधरकमनीयं जैनबिम्ब महीयस्तदिदमुदितभासोद्भासयद्विश्वविश्वम् । जिनभवनभुवीह स्थापयन् पुण्यभाजां, भवसि न कथमीशो ? मादृशां चा न शस्यः? ॥१॥ सुचरितचरणेऽपि प्राकृतैर्दुष्कृतैस्ते, किमपि सुमतिरोधी कण्टकोद्वेधकल्पः। समजनि य[द]कस्मादन्तकालुष्यविघ्नस्तदिह हृदि विषादं सर्वथा मा कृथास्त्वम् कतसुकतशतोऽपि प्राणिवर्गः कुकर्मव्यतिकरनिहतात्मा प्राप्नुयात् किं न दौस्थ्यम् । तदपि शिवमुपेष्यस्यन्यमानुष्यजन्मन्यनुपमजिनबिम्बस्थापनायाः प्रभावात् इति गुरुगिरं श्रुत्वा हृष्टः कृतप्रणतिः सुरः, सुरपदमगाद् यानाक्षेपस्फुरन्मणिकुण्डलः । -मुनिपतिरपि प्रीत्या भव्यैः सदा समुपासितः, सह यतिजनेनोवीं गुर्वी विहर्तुमशिश्रियत् ॥४॥ ॥ इति श्रीकथारत्नकोशे जिनविम्बप्रतिष्ठाप्रक्रमे महाराजपनकथानकं समाप्तम् ॥ १२ ॥ जिनबिम्बस्थापनमाहात्म्यम् ॥९०॥ X RECEREKARHAYARREARSHARABHAKARAN *********** एएसिं एक पि [९] नणं सद्धम्मकारणं गरुयं । किं पुण जिर्णप्पइट्टालट्ठा सके वि ददुवा ? ॥ २ ॥ किं भन्नइ इह बहुयं ? जिणप्पइट्ठाविहिम्मि कीरते । तं किं व न कल्लाणं जं नो सूइजइ ? तहाहि ॥ ३ ॥ जमिह पइट्ठाए जिणं ण्हवंति विविहेहिं सलिलकलसेहिं । तं अत्तणो कुणती तिलोयरजाभिसेयं व ॥४ ॥ जं च बहुमेयफल-पाग-सागबलिमुवणमंति जिणपुरओ । तं मोक्खसोक्खसेवहिमक्खेवेर्युक्खणंति व ॥ ५ ॥ घणसुसिणिद्ध-सुदीहो सोहेई नवजवंकुरप्पूरो । तत्कालुग्गयसुहकप्पसाहिपारोहनिवहं व ॥६ ॥ किं वेईविरयणाए जिणस्स ? नवरं कुणंति मन्ने है। तद्दारेणं निवुइवहूए हत्थग्गहं भवा सुहपुनचत्तुतंतूहिं सामिणो जं कुणंति ओमिणणं । 'तंतुच्छलेण लच्छि व अप्पणो संजंमिति दढं ॥८ ॥ उम्मीलिजइ भुवणेकचक्खुणो जं च लोयणजुयं पि । तं तइलोयपलोयणपउणं पकुणंति नियचऱ्या ॥९ ॥ छलिया छत्तीपत्तं व पावियत्वं बुहेहिं काउमिमं । इय संसिउं व सव्वत्थ निम्मरं भमइ तूररवो इइ [ज] जयगुरुणो कीरइ भवेहिं मंगलकएण । परिणमइ तयणुरूवत्तणेण तं तं सुहाए सिं ता अँकयकम्मणो चिय तुम्मे जेसि जिर्णिदविसयम्मि । एवंविहा पवित्ती सवपयत्तेण संभवह ॥ १२ ॥ १ नूण प्रतौ ।। २ "णपई प्रतौ । जिनप्रतिष्ठाश्रेष्ठानि सर्वाण्यपि द्रष्टव्यानि ॥ ३ मोक्षसौख्यसेवधिम् अक्षेपण उत्खनन्ति इव ॥ ४ 'णुखणं' प्रतौ ॥ ५ वेदीविरचन या ॥ ६ नितिवध्वाः 'हस्तप्रई' पाणिग्रहणम् ॥ ७ शुभपुण्यतर्कतन्तुभिः ॥ ८ तंतच्छ प्रतौ ॥ ९ संयच्छन्ति ।। १० पओय' | प्रती । त्रिलोक्यमलोकनप्रगुणम् ॥ ११ छागी सप्तपर्णमिव ॥ १२ सुखाय वाम् ॥१३सुकतकर्माणः ।। HAANHA Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनपूजाधिकारे प्र भकरकथाहानकम् १३॥ देवमहरिविरहओ कहारयणकोसो॥ सामनगुबाहिगारो। ॥९१॥ कामियसिद्धीणमिमं दारं सारं गिहत्थधम्मस्स । जिणपूयणं जणाणं निप्पुभाणं न संभवह ॥ ११ ॥ सोक्वं सबो चंछइ तं मोक्खे सो य होइ धम्माओ । सो पुण सम्मत्ताओ तं पुण जिणपायपूयणओ ॥१२॥ इय बुज्मिऊण इत्येव सबजत्तेण उजओ मणुओ। हवइ भवपारगामी पभंकरो एस्थ दिढतो ॥ १३ ॥ तहाहि अस्थि कयजुगकयेणिचावयारं व अणवरयपयङ्गमहंतमहूस, सवणगोयरोवगमे वि दिनपहियपरितोसं वसंतउरं नाम नयरं । जहिं च कुलसेल व सुरभवणविसेसा, देवलोयविमाणमाल व मणहरा पासायपरंपरा, देवगुरुमिहुणग व नर-नारीगणा, कमल-कल्हार-कुमुयपरागवासियसच्छसलिलपडहच्छा उवहसियमाणसा सरोयरपंती । तत्थ य उदंड यदंडमंडवावासियरायलच्छिसाणुरायच्छिविच्छोहविच्छुरियव[य]णो, सहस्सनयणो व नियपरभूधरसत्तुपक्खो, जहत्थक्खो सुदंसणो नाम राया। सयलसीमंतिणीसीमभूयरूवा पभावई नाम से भजा। परिभूयदेवगुरुमइविभवो भवदत्तो अमच्चो, पसायट्ठाणं नरवइस्स, दढमणुरत्तो य सबन्नुधम्मम्मि । जहानिउत्तरजकजाणि य सो चिंतंतो कालं वोलेह । १इच्छितसिद्धीनाम् ॥ २ जिणाणं निष्पुनाणं मसप्रती ॥ ३ उद्यतः ॥४ कृतयुगातनिश्यावतारमिव अनवरतमन्नत्तमहामहोत्सवम्, श्रवणगोचरोपगमेऽपि दत्तपधिकपरितोषम् ॥ ५ "यकिच्चा" प्रती ॥ ६ देवगुरुः-नृहस्पतिः ॥ ७ "णमच्चनर प्रती ॥ ८ कमलकढ़ारकुमुदपरागवासितस्वच्छसलिलप्रतिपूर्णा उपहसितमानससरोवरा सरोवरपंक्तिः ॥ ९ "च्छाओ उव प्रती ॥ १० उद्दण्डभुजदण्टमण्डपावासितराजलक्ष्मीसानुरामाक्षिविक्षेपाइतवदनः ॥ ११ इन्द्राक्षे निहता:-छिन्नाः परा:-महान्तः भूधरा:-मिरय एव शत्रयः तेषां पक्षाः-पतत्रा येन सः, राजपक्षे पुनः निहतः-विनाशितः परभूधरा:-प्रकटवरूगर्विता राजान एवं शत्रुपक्षो येन ॥ १२ परिभूतगृहस्पतिमतिविभवः ॥ +CX ॥९१॥ HIKA%%A8+%EXSARKARKALINGA.CARKARSEX अन्नया य राया अमच्चो [य] पट्टिया रायवाडीए । उवणीया तकालदेसंतरागयवणियजचतुरगा बंदुरावालेणं । कोऊहलेण य एगम्मि राया आरूढो, बीयम्मि अमच्चो । वाहिया जहासत्तीए । विवरीयसिक्खत्तणेण पवणाइरेगवेगत्तणेण य 'एस नरिंदो, एस नरिंदों' त्ति विष्फारियलोयणं बाहरंतस्स वि रायलोयस ते तुरगा दीहमद्धार्ण लंघिऊण निमेसमेतेण वि चक्खुगोयरमहगय त्ति । नरिंदं अमचं च तहाहरियं अवधारिऊण रायपरियणो सकरि-तुरग-वाहणो लग्गो तदणुमग्गेण । अमच्च-रायाणो य तुरगेहि दुट्टकम्मेहिं व पाडिया भीमाडवीए । अचंतपरिस्समविहुरा य जैमातिहित्तमावना तुरया। गाहसुढियतणुप्पमतण्हाइरेया य राया-ऽमच्चा निर्वत्रा बहलपत्तलतरुवरच्छायाए, सिसिरमारुयवसेण य मणागमुवलद्धपडियारा परोप्परं भाविउं पवत्ता कजाण गई कुडिला अचिंतणिजं च आवयावडणं । संपत्तीओ वि कहं ज्झड ति ही ! दिद्वनट्ठाओ ? ॥१॥ दुट्ठमहिल व पावा रायसिरी पेच्छ कट्टसंतप्पा । दइवम्मि विसंवइए अमयं पि विसत्तणमुवेइ । ॥ २ ॥ किल रजंगाई तुरंगमाइणो विसैमनित्थरणहेउं । जुजंति नवरि ते वि हु विहुरभरं इय पणामिति इय जा[व] सोगसंगिलणसामलीभूयसंकुइयवयणा । चिट्ठति सगोडीए सुणंति ता दुंदुहिनिनायं ॥४॥ तथा १ तत्कालदेशान्तरागतचणिगजास्यतुरगी मन्दुरापालेन ॥ २ नरिंद अमञ्चं त तहा प्रती ॥ ३ 'यमातिधित्वमापनौ' मृतौ तुरगी । गाढान्ततनूस्पनतृष्णातिरेको॥ ४ उपविष्टौ ॥ ५आपदामापतनम् सम्पत्तयोऽपि कथं झटिति ॥ ६ कष्ट सन्तर्पणीया देवे 'विसंबबिते' प्रतिकूले जाते अमृतमपि विषत्वमुपैति । ७ कटनिस्तरणहतोः ॥ ८ जुज्जंत प्रती ॥ ९ विधुरभरं' व्याकुलत्वम् एवं अर्पयन्ति ।। १० शोकसनिलनश्यामलीभूतसङ्कचितवदनौ तिष्ठतः सगोष्टिकौ ॥ KAKKAKKAKKARAVARKARIRS Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमद्दसरिविरइओ कहारयण-I कोसो॥ सामनगुणाहिगारो। ॥९२॥ जिनपूजाधिकारे प्रभकरकथानिकम् १३॥ संवायरहरिमुकरिसजायरोमंचकंचुइयकाया । गयणयले सुरनिवहा विज्जुजोयं पिच कुणता ॥ ५ ॥ उप्पयण-निवयणुम्मिलण-खलण-लुलणाइभूरिसंरंभा । गंधुदय-कुसुमवरिसं चेलुक्खेवं च कुणमाणा एगे नचंति थुणंति चावरे तदवरे य गायति । अञ्चतभत्तिपब्भारतरलिया किं व न कुणंति ? हरि-हरिण-ससग-सूयर-तरच्छ-भल्लुकपमुहपसुनिवहा । अन्नोनमुकवहरा तदभिमुहा पट्ठिया दिट्ठा ॥८ ॥ सम्ममुवसंतचित्ता वल्लीबद्धोद्धकेसजूडा य । अडइयणा य पयट्टा तदभिमुहं 'पेहिया रमा ॥ ९ ॥ एगो य थेरसबरो पुट्ठोऽमच्चेण तेण वि य सिटुं। एत्थ पएसम्मि मुणी संपत्तो केवलालोयं ॥ १० ॥ तस्सेस पायपूयणकएण सनरा-ऽमरो तिरि[य]वग्गो । परिहरियसेसको सञ्जो निञ्जाउमारद्धो ॥११॥ एवं सोऊण कोऊहलेण सामचो राया गतो तम्मग्गेण । दिट्ठो देवकयकणयकमलनिसमो रवि व पभासंतो मुणिवरो । कयतप्पायपउमपणामा य उबविट्ठा धरणिवढे । मुणियतिह[य]णवइयरेण संभासिया केवलिणा । पारद्धा य सबसाहारणा देसणा । जहा-भो भो भव्वा! विभावेह सम्म भवस्सभावं अच्चंतविरसं दुञ्जणसरूवं व मुहमेत्तरमणीयं च, माइंदजालविलसियं व पॉयडियविविहसरूवं दूखुकंतपरमत्थं च, काउरिसचेट्टियं व मुद्धसम्मोहकारय' बाढमुचियणिजं च । एएण वामोहिया पुरिसा १ सर्वादरहर्षोत्कर्षजातरोमासकमकिसकायाः ॥२ उत्पत्तन-निपसन-उन्मीलन-स्खलन-तुलनाविभूरिसरम्भाः । गन्धोदककुसुमवर्षा चेलोस्क्षेपं च ॥ ३ तरक्ष:व्याघ्रविशेषः ॥ ४ शृगालः ॥ ५ अटवीजनाः ॥ ६ प्रेक्षिताः ॥ ७ तस्य एष पावपूजनकृते सनरामरः तिर्यग्वर्गः । परितशेषकार्यः सद्यः निर्यातुमारब्धः ॥ ८ भवस्वभावम् ॥९ प्रकटितनिविधस्वरूप रम्यत्कान्तपरमार्थ च, कापुरुषचेष्टितमिव मुग्धसम्मोहकारकबादमदजनीयेच॥ १०'यं पाढ' प्रती ॥ U॥९२॥ ARAKAASARAKATARAKAIRRORRRRI+KARANANARAKHNAKOSH KRISARASWER RRCHR KARNI+NARMADHEHARANG जिनपूजास्वरूपम् सम्मं पइट्टिए वि हु जिणिदबिंबे न पूयणेण विणा । होजा निञ्जरलाभो ता तप्पूयाविहिं वोच्छं काले सुइनेवच्छो वरेहिं पूफाइएहिं विहिसारं । सारस्थवर्णपहाणं जिणेदपूर्व रएज गिही । कालो य तत्थ संज्झातियं ति अहवा सैवित्तिअणुरूवो । सुइणा य दबतो मजिएण सुहवित्तिणा भावो नेवच्छमवि य एत्थं सुपसत्थमणुब्भडं अहसणिजं । सेय-ऽव्वाहय-निहोसदसरूवं मुणेयवं ॥ ४॥ पुष्क-क्खय-धूव-पईव-वास-बलि-वारि-पत्त-सुफलेहिं । घुसिण-वर्णसार-चंदण-मयेणाहिविलेवणेहिं च ॥५॥ कंचण-मणिनिम्मियमउड-कडय-कडिसुत्त-तिलयपमुहेहिं । पवरेहिं भूसणेहिं वत्थेहिं तहा महत्थेहिं ॥६ ॥ सेसेहिं वि सिद्धत्थाइएहिं वत्थूहिं सुप्पसत्थेहिं । जुत्ता पूया एत्तो नऽनो धन्नो हि उवओगो पूयाकरणे य विही वयणं नासं च संजमित्तु ददं । बत्थेण जिणं पूएज इहरहाऽऽसायणा गरुई ॥ ८ ॥ सिटुं च इमं जे भूवइस्स बटुंति जत्तओ किचे । पावंति फलं ते तदवरे य नवरं किलिस्संति ॥ ९ ॥ 'गंभीरपयत्थमहत्थसंथवुइंडदंडउद्दामं । कित्तेज गुणग्गामं परमा एसा खु जिणपूया ॥ १०॥ १ निरजला प्रतौ । निर्जरालाभः ॥ २ "णप्पडा प्रतौ । सारस्तवनप्रधानाम् ॥ ३ स्वरत्तेः-स्वाजीविका या अनुरूपः ॥ ४ भावतः ॥ ५ श्वेतान्याहतनिर्दोषदूष्यरूपम् ॥ ६ फखयधूवपइव प्रती ॥ ७ धुसूणं-केशरम् ॥ ८ धनसारः कर्पूरम् ॥ ९ भूगनाभिः-कस्तूरिका ॥ १० 'महाः' महामूल्यैः ॥ ११ सिद्धार्थादिभिः ॥ १२ वदनं नासिकां च संयम्य बढम् ॥ १३ गम्भीरपदार्थमहार्थसंस्तवोहण्डदण्डकोदामम् । कीर्तपेद् गुणग्रामम् ।। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरइओ कहारयण कोसो ॥ सामन्नगुबाहिगारो । ॥ ९३ ॥ कह कह वि अनंत दारुणं दीहकालं, दुहनिवहमपुत्रापुव जोणीसएसु । दुसहमवि सहिता सङ्घहा भूरिपावक्खउवसमवसेणं माणुसतं लहंते तमवि य लहिऊणं हीणजाइत्तणेणं, मलिणकुलवसेणं नेजदेसत्तओ य । अकयकयकम्मा ददारिद्द-रोगप्पमुहविहुरदुत्था ही ! मुद्दा हारविंति कह वि कुसलजोगा ऽऽरोग्ग- जाई - कुलाणं, फुडमविकलभावे गाढरूढप्पमाया | निहयसुहविवेगा धम्म-देवाइ तत्तं कहियमवि गुरूहिं णेगसो नो मुणंति मुनियमवि कहंची संजमाचाहिगाढाऽऽवरणखलियचेट्ठा नऽज्झवस्संति सम्मं । इय गरुयसुमेहिं धम्मसामग्गिजोगो, फलइ सिवसिरीए पेच्छियाणं जाणं न य सैलहियमत्रं वन्नयंतेहिं एत्तो, न य इह उबलद्धे किंचि अत्थी अलद्धं । परिणय महणो वा पत्थयंते न अनं, न य सिवसुहलाभो होइ एयं विणा वि तदलमिह बहूहिं जंपिएहिं पियं वो, जइ य सुगइसोक्खं दुत्तितिक्खं च दुक्खं । परिहरियपमाया ता जिणुत्तम्मि तत्ते, कुणइ सइ पइतं मिच्छच्छिदिऊणं ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ ॥ ३॥ 11 8 11 ॥ ५ ॥ ।। ६ ।। १ अनार्यदेशत्वतः ॥ २ विस्तीर्णदारिद्र्यरोगप्रमुखक्लेशदुस्थाः ॥ ३ कथञ्चित् संयमाऽऽवाचिगादावरणस्खलितचेष्टा नाभ्यवस्यन्ति ॥ ४ श्राधितमन्यद् वर्णयद्भिः इतः । ५ सदा प्रयत्नम् ॥ भयह गुणिसु तुर्हि दुत्रिणीए उवेहं, दयमवि दुहिए सेससत्तेसु मेति । परिहरह विवायं मायमुम्मायजुत्तं, कुणह पसमसारं धम्मवावारभारं परिकलह समग्गं तारतारुन्न लच्छी-बिससयण-घणा-ऽऽऊ-भोग-संजोगमाई । खरपवणपर्णेन्नुत्तालकल्लोललोलं, सुमिणमिव खणद्वेणावि ही ! दिन पुणरवि दुलहा भो ! धम्मसामग्गि एसा, कुणद्द जमिह जुत्तं मोतुमालस्समाई । नहि रयणनिहाणं पाविऊणं पहाणं, कुणइ फुडमुवेहं सवहाँ बालिसो वि इमं च केवलिणो धम्मदेसणं निसामिऊण पडिबुद्धा अणेगे जंतुणो । अपतपुढपावियबोहिलामा य कयसायरपायपणामा गया जहागयं । नंवरं तिकालगयवत्थु वित्थरणपवण[जिण] वयणविभावणजायविसेसजिनासा अमच-रायाणो काऊण [ पणामं केवलिणं पुच्छंति-भयवं ! अणुग्गहं काऊण ] साहह इमं किं मे पधजगहणकारणं ? ति । भगवया भणियंमहती कहा, अवहिया होऊण निसामेह 118 11 पंचाल सालंकारकप्पे कमलसंडाभिहाणे नगरे सोमप्यभो सेट्ठी, सुभदा से भजा | ताणं च परोप्परं परमपणण वडूंताणं अहमेको पालगो चि नाम पुत्तो जाओ, कमेण पत्तो तारुनं, पयट्टो दबोवजणाइवावारे। असंपततहा ॥ ७ ॥ ॥ ८ ॥ १ गुण प्रतौ ॥ २ डीविलय° प्रतौ ॥ ३- मृगालशयन ॥ ४ मुस्ताल" प्रती ॥ ५ "हा पालितौ ॥ ६ म तरं ति' प्रतौ नवरं त्रिकालगत वस्तुविस्तरणप्रवणजिनवचनविभावन जातविशेषजिज्ञासौ ॥ जिनपूजाधिकारे प्र भङ्करकथा निकम् १३ । मनुष्यजन्मादिधर्मसाम ज्याः सफलीकरणोपदेशः ॥ ९३ ॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A देवभद्दसरिविरइओ कहारयणकोसो॥ सामनगुणाहिगारो। A % % विहविह[व]लाभो य चिंतिउं पवत्तो-अहो ! किमणेण तुच्छलामेण बहुकिलेसारंभेण ? सबहा मंदभग्गो है, कहमनहा जिनपूजाएत्तियवावारलेसेण वि अने सुकयकम्माणो वंछियाइरित्तमत्थलाभमजिणंति ? अहं पुण भोयणं पि कढण पाउणेमि, ता धिकारे प्रसव्वहा कम्मदुबिलसियमेयं, एयं च अनिग्घाइऊण न वंछियत्थभागी सुचिरपोरिसावलंबणेणावि भविस्सामि, ता तेकम्मनि- भङ्करकथाग्घायणट्ठमुवकमो मे जुत्तो-त्ति विभाविऊण गतो पुरिसपरंपरागयस्स वाममग्गनिउणस्स गुरुणो जोगंधर[स्स] समीवे । नकम् १३॥ | पाएसु पडिऊण निविट्ठो भूमिवढे । पुट्ठो य अणेण-बच्छ! कीस विच्छायमुहो दीससि ? किंनिमित्तं वा एत्तियं भूमिमुवागओ सि ? । मए भणिय-भयचं ! विच्छायचे दारिदं विमोत्तुं को अवरो हेऊ साहिञ्जउ ? अन्ने वि बाहुल्लेण एत्तो चेव | दोसा पाउम्भवंति । तहाहिपरिगलइ मई मइलिजई जसो नाऽऽदरंति सयणा वि । आलस्सं च पयट्ट विप्फुरद मेणम्मि रणरणओ ॥१॥ दारिध्ये उच्छरद अणुच्छाहो पसरइ सवंगिओ महादाहो । किं किं व न होइ दुहं अत्थविहीणस्स पुरिसस्स ? दोषाः ॥२॥ जोगंधरेण भणिय-वच्छ ! सचमेयं । मए भणियं-भयवं! एयप्पडियारनिमित्तं च तुम्हपयपायवच्छायं अल्लीणो म्हि। जोगंधरेण जंपियं-वच्छ ! गुरुप्पसाएण जाणिजइ एत्थ अत्थे उवाओ, केवलं महासत्पुरिससज्झो । मए भणियंकुणह तह पसायं जह तुम्ह पायपूयणे समस्थो भवामि । जोगंधरेण बागरियं-पुत्त ! अम्ह गुरूहि मडयसाहणमंतो १ 'लेससा प्रती ॥ २ "उणोमि प्रती ॥ ३ तत्कर्मनिर्यातनार्थमुपकमः ॥ ४ पाडि प्रती ॥ ५ अन्नो वि प्रती ॥ ६ मणं पि र प्रती ॥ उद्वेगः ॥ ८ दाढो प्रती ॥ ९ च्छाचं अ° प्रती। युष्मत्पदपावपच्छायाम् ॥ है॥९४ ॥ ॥ ९४॥ %% % KHAN+AXC+%%AKESONAKASRANAHANARASWANANEWALIOR % | अपोरिसे एव पयइंति वावारे, न निरूबंति आगामिकालं, नावेक्खंति अप्पणो हियाहियं, नायरंति गुरूवएसं, [न] सुस्सूसंति समसत्थं, नामिलसंति विसिट्ठगो९ि । केवलं मत्त व मुच्छिय व दुन्तिदियग्गामपरायत्तचित्ता सद्द-रूय-रस-गंध-फरिसलुद्धा अच्चतमुद्धा सारंग-पयंग-मीण-भुयंग-मायंग व तैक्खणऽक्खेवेणेवासंखतिक्खदुक्खभायणं भवन्ति, अणंतकालं च तासु [तासु] निंदियजोणीसु भुजो भुजो उववअंति विवअंति य । सेलसिरसरंतसरियडोलोवलववृत्तनाएण य एगूणस[स]रिं मोहणीयस्स, एगूणतीसं च नाणावरण-दसणावरण-वेयणीयंतरायाणं, एगूणवीसं च नाम-गोताणं पतेय पत्तेयं सागरोपमकोडाकोडीओ अहापवित्तकरणेण खविऊण, एगेगभिन्नसागरोवमकोडाकोडिसेसाए य आउयवञ्जकम्मट्ठिईए, राग-दोसरूवं बजसारं निडुरं गंठिदेसं पाउणति । तं च पाउणिऊण के गरुयगिरिसिलाभग्मदंतदोघट्ट व पच्छाहुत्तं ओईति, उकोसटिइंच सबपयडीण पुणो उवचिणंति । अने पुणापुरकरणवलेण तं गठिं मेत्तुमारभंते, अनियट्टिकरणसामत्थेण य तन्भेयणावसाणे कप्पतरुकप्पं उवसामियं सम्मत्तं लभंते । तदुत्तरं च केइ खाओवसमिगसम्मत्तलामे उत्तरोत्तरपवड्डमाणपरिणामा मरुदेवि ब तकालमेव कयकिचा भवंति। अन्ने य अणताणुवंधिकसायउदयदिप्पमाणासुहभावा भमिऊण चउग्गई देसूणद्धपोग्गलपरियट्टप्पमाणमुकोसतो संसारकंतारमणुपरियईति । तओ य १ समयस' प्रती। शमशानम् ॥ २ 'दत्तिईदि" प्रती । दुर्वान्वेन्द्रियप्रामपरायत्तचित्ताः ।। ३तत्क्षणाक्षेत्रणेवासयतीक्ष्णदु:खभाजनम् ॥ ४ भूयोभूय उपपद्यन्ते विपद्यन्ते च । शलशिरसरत्सरािहोलोपलवृत्तत्वज्ञातेन ॥ ५ गुरुकगिरिशिलाभप्रदन्तहस्ती इस पक्षान्मुखमवघढन्ते ॥६य तमणं प्रतौ ॥ सम्यक्त्वप्राप्तः स्वरूपम् Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनपूजाधिकारे प्रभकरकथानकम् १३॥ सोमस्य उदाहरणम् देवभद्दरि पुनमुवादाणमिहं निमित्त-सहकारिकारणत्तेण । मैताईणि य जुजंति सबकाण सिद्धीसु विरहओ 13 किं वा मूढा तुब्भे सोमोदाहरणमवि न जाणेह । पुनवियलत्तणेणं लाभो बि अलाभसारिच्छो ॥४॥ कहारयण जोगंधरेण भणिय देव! पसीयसु कहेसु को सोमो लाभो वि अलाभसमो कह वा तस्स ? ति चोअमिणं ॥ ५॥ कोसो।। मडएण भणियं-निसामेसु, अस्थि णियतुंगिमाभरियगयणंतरालो महल्लसल्लहपल्लवकवलणुद्दाममयगलाउलपरिसरो विज्झो नाम गिरिवरो । तस्स सामन्नगु- य पायतलभूमीए अणेगकोडीसरियलोयविहियविलासविस्सुमरावियसुरपुरिविन्भमा अरिहपुरी नाम नयरी । तत्थ य सोमो पाहिगारो। नाम बंभणो आजम्मदालिदुवदुओ पइदिणपुरीपरिम्भमणज्जियकणवित्तिमेत्तजीवणो पइवरिसेकेकधूयासंभवंतगरुयकुडुंबभारो ॥९५॥ कह कह वि कालं वोले। अन्नया य सो जहिच्छं विलसंतं नयरिलोगमवलोइऊण परमविसायमुवगओ चिंतिउं पवत्तो-आजम्माओ वि दोगच्च| चकचमढणसुदिओ हं हुयासणं पवजामि? किं वा गिरिसिरातो अप्पाणं मुयामि ? तरुसाहुलंबणेण वा पवणपहवत्ती भवामि?त्ति जाब सुन-निष्फंदचक्खुक्खेवो चिट्टा ताव संभासितो सो संकराभिहाणेण मित्तेणं-भो भो ! किमेवं चिंताउरो व दीससि? साहेसु परमत्थं । सोमेण भणियं-भद! किं साहिए[ण] ? अप्पडिविहाणो खु एस ववहारो, साहिजेतो चित्तसंताव १नमिवा प्रती। पुण्यमुपादानकारणमिह ॥ २ पुण्यविकलरवेन ॥ ३ निजतुनिममतगगनान्तरालः महासातकीपाडवकवलनोदाममदकलाकुलपरिसरः ॥ ४ यवत प्रती ॥ ५ अनेककोटीश्वरिकलोकविहितविलासविस्मारितमुरपुरीचित्रमा ॥ ६ दौर्गव्यचकाक्रमणश्रान्तः ॥ आ॥९५॥ SHRA%ARRRRRRRRRRR+KAKRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRE मेव तुम्हारिसाण जणइ, ता अलं इमीए संकहाए । संकरेण भणियं-मा मित्त ! एवं संकसु, हिययम्भंतरपसरंततिवचिंताहुयासपरितत्ता । सुहिसंकामियदुक्खा सीईभूय व हुंति खणं फुरइ य मईविसेसो चालस्स वि कहिय[वत्थु]सवणेण । ता हियए चिय धरिउं न जुजए सबहा दुक्खं ॥ २॥ सोमेण भणियं-जइ एवं ता निसामेहि, अहं हि संपयं पयंगो छ हुयासणाइसु निवडिऊण दोगचचकर्फतस्स अत्तणो विस्सामं काउमिच्छामि, एसो चिंतापरमस्थो ति । संकरेण जंपियं-दूरमजुत्तो एस चिंतासंरंभो, अस्थि एत्थ अत्थे उवकमो सुपच्चइयपुरिससिट्ठो, तमणुचिट्ठसु तुम, जेण निविगप्पं वंछियं सिज्झइ ति । सोमेण भणियं-कह चिय? । संकरेण जंपियं-विज्झगिरिवरातो पुबदिसीए बडविडविकोडरनिबद्धनिवासरई वडवासिणी नाम भगवई तबोकम्मपमुहविणओवयारपरितोसिया कामघेणु च कामियफलं संपाडेइ-त्ति सवत्थ गिजइ, सा य तुज्झ उवसपिउं जुत्त त्ति । पडिवनं सोमेणकर्य संचलं । गहियतकालोचियउबगरणो य लग्गो तम्मम्गेण । अविलंचियगमणेण य पत्तो भगवईभवणं, पूडया पज्जुवासिया। य। दिणावसाणे य सविसेसं पूइऊण विनचा-देवि ! एत्तो उड्ढे तुमए पसनाए परं भोत्तवं ति । कयाई वीसलपणाई। अवजसभीयाए संभासिओ भगवईए-भद्द ! पयट्टम सकञ्जकरणाय, वाद निप्पुनओ तुम, न पत्थुयलाभाओ अम्भहियं तुह पुरंदरेण वि दाउं पारियइ । जोडियकरसंपुडं च भणियं सोमेण-देवि! एत्तो चिय तुम्ह पायपउमाराहणा कीरई, इहरहा सुकयकम्माओ चेव कामियफलसिद्धी होजा, नहि सुकयकम्माणो नरिंदाइणो तुहाराहणाओ समिद्धिसुहमणुहवंति । १ सुप्रत्ययिकपुरुषशिष्टः ॥ २ अवलं प्रती ।। ३ निप्पन्न प्रती । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *HER+RAHA जिनपूजाधिकारे प्रभङ्करकथानकम् १३॥ देवभद्दपनि देवयाए भणियं-भणजाइ ति बहुं पलबिउ जाणसि-त्ति तिरोहया देवी। विरइओ सोमो वि निरसणो तहेव जाविउं पयट्टो । जायं पत्तीसइमं लंघणं, पणट्ठा वाणी, विसंठुलीहूया दिट्ठी, पलीणा परिकहारयण फंदाइणो कायवावारा, पसरिया दीहदीहा समीरुग्गारा । 'उवडिया बंभणहच' ति भीया भगवई अणग्घरयणपंचगमादाय कोसो।। आगया माइणसमीवं, भणिउं पवत्ता य-भो बंभण! सो एस तुह बलाभिओगो, जइ एत्तो वि किं पि होइ ता होउ, गिण्हसु सामनगु ता इमाणि कोडिसुवचमोल्लाणि पंच रयणाणि, मुंचसु मे प९ि ति । रयणाई से समप्पिऊण गया भगवई जहागयं । सोमो णाहिगारो। वि तेदुवलंभदिवोसहीमाहप्पसविसेसँपुणनवी[भूयदेहो सणियसणियं समुट्ठिऊण पुवाणीय पेच्छयण उवभुंजइ । उवलद्धसरीरा PI वट्ठभो य वडवासिणिं चिरं नर्मसिऊण पडिओ संनयरहुत्तं । अंतरा य वचतो पत्तो तकरहिं । निसटुं ताडिऊण जट्ठि-मुट्ठीहि ॥९६ ॥ कंठचलणदाणपुवयमुदालियाणि अमंदमकंदंतस्स रयणाणि । गया य तकरा अभिमयं पयं । इयरो वि चोरविस्सुमरियमेक मसिपुत्तियं गहाय गाढकोवो तेहिं चेव पए[हिं] नियत्तिऊण गतो वडवासिणीए पुरओ। रेत्तच्छिविच्छोयभीमाणणो य भयबई भणिउमादत्तो__ आ कडपूयणि! पावे! मंडयट्टि पइंड्डियच्छिदुप्पेच्छे । वीसत्थभत्तघाइणि ! डाइणि! इण्हिं कहिं जासि ॥१॥ १ यापयितुम् ॥ २ "चममा प्रती ॥ ३ तदुपलम्भदिव्यौषधिमाहात्म्यसविशेषपुनर्नवीभूतदेहः ॥ 'सपणुन प्रती ॥ ५ पथ्यदनम् ॥ ६ स्वनगराभिमुखम् ।। ७ अत्यन्तम् ॥ ८ चौरविस्मृतामेकामसिपुत्रिकाम् ॥ ९ रक्ताक्षिविक्षेपभीमाननः ॥ १० मतकार्थिनि ! प्रकृष्टाक्षिदुष्प्रेक्षे । विश्वस्तभक्षातिनि !॥ ११ 'इट्रिय प्रतौ । RAS******************* RAKARI+I+KAKKAR+% **%%82%8434 दिनो अस्थि, जइ ददं तुह चित्तावटुंभो ता आगमिस्सकसिणचउद्दसीए पउणो हवेासि । मए वुत्-भयवं ! एवं काहामि । पइक्खणदिणगणणेण य कह कह वि मणोरहसएहिं समं समागया कसिणचउद्दसी । पुट्ठो गुरू-किमिह किच्चं ? ति । सिद्वं गुरुणा । तदुवइट्ठोवकमसणाहो य गुरुणा समं पत्तो मसाणं । आलिहियं गुरुणा मंडलं । उवणीयं च मए पुवदिट्ठमविणदुसरीरं तरुवरसाहावलंबियं मडयं । हवियं चंदणविलित्तं च तं करयलारोवियनिसियकरवालं सोवियं मंडले । आइटो अहं गुरुणा-बच्छ ! इमस्स पायतलहर्द्वि पयट्टेसु ति । 'तह' त्ति काउमारद्धो य अहं । गुरू वि बद्धपउमासणो नासग्गासंगिनिचलनयणो कयसरीररक्खो रइऊण समीरं मंतं सुमरिउ पवत्तो । अह जाव महापयत्तसमुच्चारियमंतक्खरो किं पि कालं ज्झाणेण चिट्टइ ताव गाडजरापरिगयसरीरगमिव पकंपिऊण तं मडयं उट्ठिऊण अट्टहासं पहसिउमारद्धं । अर्चत विम्हिओ जोगंधरो अहं च । पैम्मुक्कज्झाणाभिनिवेसेण य जोगंधरेण पुच्छिय मडय-हहो! को एस पहासविडंबणाडंबरविसेसो ? असंपाडियसमीहियकजस्स हासो हि परं परिभवहाणं, ता अच्छउ ताव अन्न, हासस्सेव निवेदेउ देवो कारण-ति भणिए वागरियं मडएण जह मंत-तंतविहिणा हवेज निप्पुभयाण वि य अत्थो । मिउँपिंडर्मतरेण वि घडो वि सेज्झेज ता नूर्ण ॥१॥ नोवादाणेण विणा निमित्त-सहकारिकारणुक्करिसो । सामरिसो वि हु कजं पसाहिउं थेवमवि सको ॥२ ॥ १ पादसेचनम् । तलद्दतिः-सेचनम् ॥ २ प्रमुकच्यानाभिनिवेशन ॥ ३ मृपिण्डमन्तरेणापि ॥ ४ न उपादानकारणेन विना ॥ ५ "सो व हु प्रती। सामर्षोऽपि' सविचारोऽपि । ***********४२) निष्पुण्यानां मन्त्राचसिद्धि Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमद्दसरिबिरइओ जिनपूजाकाधिकारे प्र भकरकथानकम् १३॥ कहारयणकोसो॥ सामनगुजाहिगारो। ति साहिऊण गयावेसं निवडिय भूमीए मडयं । निराणंदा य ते गया सं ढाणं । नवरं मडयवयणमणुसरंतो पालगो लग्गो नयरदुवारदेसवत्तिणं सुंदराभिहाणं भूयं पइदिणपूयाकरणेण आराहिउं । कइवयदिणावसाणे य भत्तिसारपूयापुरकाररंजिओ [भूओ] सुमिणे पालगस्स कहेइ-भो महाणुभाव ! सिचो वि चिरं निंबो किं दाउं तरह अंचयफलाई ? | आराहिओ य भिच्चो कि वियरह सामिसम्माणं? ॥१॥ किं वा रोहणरयणाण गामगडासु संभवो होजा?| अप्पंडिओ हु देजा किं वा अम्हारिसो खुद्दो ? ॥ २ ॥ ता भद्द ! बच्चसु तुम एयादूरट्ठियम्मि जिणभवणे । अच्चेसु य जत्तेणं तिहुयणनाहं जिणं संति ॥ ३ ॥ एयस्स देसणेण वि विलयं गच्छंति पुवपावाई । पूयाकरणेण पुण वंछियलामो ति किं चोअं? देवाण एस देवो पुजो समुरा-मुरस्स वि जयस्स । एत्तो य वंदणिजो न पूपणिजो य अन्नो वि ॥५॥ एवं च सुमिणं दट्टण पवुद्धो पालगो 'किर्मिदजालं? उय विप्पयारणप्पयारो ? बुद्धिविन्भमो वा ? इच्चाइ संसंयंतो वारिओ गयणगिराए । जायसुमिणनिच्छओ य गतो संतिजिणिंदमंदिरं । दाओ चिय सायरकयप्पणामो 'एसो सो देवाहिदेवो' त्ति हैरिसभरनिब्भरुभिजमाणरोमंचो अमा[णाणंदसंदोहसंदिरनयणो सविसेसं जयगुरुपायपूपणं पइदिणं काउमारद्धो। अह एक्कम्मि वासरे देवाणंदो नाम साहू गुरुवयणेण एगागी विहरतो आगओ चेइयवंदणत्थं । जयनाहं वंदिऊण १ आम्रफलानि ॥ २ 'वितरति' ददाति ॥ ३ 'गट्ठासु प्रती। ग्रामगर्तेषु ॥ ४ "प्पट्टिओ प्रती ।। ५ शुमः ॥ ६ आवर्यम् ॥ ७ जगतः ।। ८ विप्रतारणप्रकारः ॥ ९ संशयाना ॥ १० वर्षभरनिर्भरोद्भिश्चमानरोमाञ्चः अमानानन्दसन्दोहस्यन्दनशीलनयनः ॥ ११ जगनाथम् ॥ ॥९७॥ RAXARAKASARAccxxx ॥९७॥ RRRRRRRRA पूजाविधिः उवविट्ठो समुचियट्ठाणे । दिडो य अणेण पालगो अहाभद्दयत्तणेण देवपूयाई कुणमाणो । 'भद्दगो एसो' त्ति मुणिओ मुणिणा। पूयाविहाणावसाणे य संभासिओ सो, जहा भद्द ! सहलं तुह जम्म-जीवियं, अविकला कल्लाणसंपत्ती, पत्तीभूओ अप्पा परमपयसुहस्स, सहस्सहा फलियं सुकयकप्पसाहिणा, साहिणीहया सुरेसरसिरी जमेवंविहा परमगुरुचरणे रई । केवलं वच्छ ! सवा वि किरिया विहिणा कीरंती फलसाहिगा, विवजए दोससंभवाओ, तेण तुममिममणुसासिञ्जसि-कयहत्थ-पायपक्खालणेण, दबओ सुइणा, भावओ य उवसंतकसाएण, धोय-सेया-गंजियवीयवस्थेण उत्तरियसंजमियवयणेण राय व कासवएण अचंतोवउत्तेण आसायणाजणियसंसारदंडभीरुणा देवाहिदेवस्स पूया कायदा । सा य पुष्फ-धूव-गंध-ऽक्खय-पईव-बलि-फल-जलपत्चप्पयाण मेएण अट्टहा। अतहाविहसामस्थसंभवे य एत्तो एकेकपूयंगसंपाडणमवि परमब्भुदयहेउं वनंति गुरुणो । तहाहि कंदोई-मय-केयइ-जाई-वेइल्ल-बउलसरियाहिं । पूर्यता जयनाई हुंति सुपुजा किमिह चोजं? ॥१॥ घणसारा-गरुधूवो डझंतो पैसरिउद्धधूमधओ । कप्पडुमंकुरो इव जिणपुरओ सहइ चढतो ॥२॥ पसरंतपरिमलेहि वासेहिं अचिओ तिलोकगुरू । वोसमवस्सं भवाण जणइ सग्गा-उपवग्गेसु ॥३॥ १ यथाभादकत्वेन ॥ २ सकतकल्पशामिना, स्वाधिनीभूता मुरेश्वरधीः ॥ ३ पौतश्वेताउगजितद्वितीय श्रेण उत्तरीयसंयतवदनेन राजा इव 'काश्यपेन' नापितेन ॥ ४ पुष्क-गंध-धूव-ऽक्खय-धूव-बलि' प्रती ॥ ५ जलपात्रं-जलकुम्भः ॥ ६ नीलकमलकुमुदकेतकीजातिविचकिलबकुलमालाभिः ॥ ७ प्रसतो धमध्यजः ॥ ८ राजते ॥ ९ 'पास' निवासम्॥ AGROCESSORIEWS अष्टप्रकारी पूजा + Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमद्दसूरिविरहओ कहारयण कोसो ॥ सामन्नगु माहिगारो| ॥ ९८ ॥ ॥ ५ ॥ ॥ ६ ॥ ॥७॥ तिजयपहुपायंपुरतो अक्खंड-ऽप्फुडियअक्खयक्खेवो । अक्खेवेणं अक्खयसिवसोक्खसिरिं जणे कुणइ ॥ ४ ॥ जिणरुवपयडणपरं पईव मच्च्छलंत सिहिजालं । बोहंतो अपईवं पइत्तमजिणइ भुवणम्मि अक्खंडखंड खजयपमुहबली दिजए जिनिंदस्स । तेत्ती भवाणं पुण अहो ! मैंहं नाहमाहप्पं पॅरिपागपिंग पसरंत परिमलुप्पीलफलकयच्चस्स | जिणतरुणो उयह अपुप्फविविहफलदाणसामत्थं जलपुन्नपुन्नकुंभो पुरओ वि हु भुवणभाणुणो ठविओ । विशवइ भवभयरिंग उग्गं पि महच्छरियमेयं संसत्तदुडनिडुरकम्मट्ठयगंठिनिडवणनिडो । अट्ठप्पयार [पू]अं जं [अ]रिहइ ? तेण अरहंतो अहवा किमित्तिएणं ? अनं पि जमत्थि वत्थु सुपसत्थं । दीसंतसुंदरं तं पि देख पूयाकए पहुणो पुप्फाई दे॑वत्थयमकुणतो कह गिही हवइ जोगो । भावत्थयस्स ? ता पढमभूमिगाए जइज इहं अन्नो विसावयविही सुविहियमुणिणा निवेइओ तस्स । तेणावि अब्भुवगतो सम्मं धम्मेकचित्तेण ॥ इय भवकयाणंदो देवाणंदो मुणीसरो तत्तो । पारद्धकिच्चकरणाय विहरिओ विरैहिओ तमसा ॥ ॥ ८ ॥ ॥ ९ ॥ ॥ १० ॥ किंच॥ ११ ॥ १२ ॥ १३ ॥ । १ पर प्रतौ ॥ २ 'बोधयन्' दीपयन् 'अप्रतीपं' प्रतिपक्षवर्जितं पतित्वमर्जयति ॥ ३ तृप्तिः ॥ ४ महदू नाथमादात्म्यम् ॥ ५ परिपाकपिङ्गप्रसरत्परिमलसमूदफलकृतार्थस्य जिनतरो: पश्यत अपुष्पविविधफलदान सामर्थ्यम् ॥ ७ जलपूर्णपुण्यकुम्भः ॥ ८ विध्यापयति भवभयाग्निम् ॥ ९. संपत प्रतौ। संसदुष्टनिष्ठुरकर्माष्टकग्रन्थिनिष्ठ । पननिष्ठः । अर्हति तेन अर्हन् ॥ १० द्रव्यस्तवम् ॥ ११ भावस्तवस्य ॥ १२ श्रावकविधिः ॥ १३ विहरिओ प्रतौ। विरहितः 'तमसा' अज्ञानेन पापेन वा ॥ ६ "लुपील' प्रतौ ॥ अष्टप्रकार पूज यद् एसो हं तुह कंठे खिवामिं नियंअंतमालमविलंबं । रत्तकणैईरदामं वज्झस्स व मा कुण विगप्पं रयणप्पयाणकाले वि भिउडिभीमाणणाए तुह नायें । लाभो इमाण न चिरं हढेण जाओ थिरो होही इय जा जमजीहं पिव भीमं छुरियं करेणें घेत्तृण । अचंतमेगचित्तो न विदारह निययमुदरं सो ॥ ४ ॥ ता मुंणियतन्निच्छयाए जायघिणाए देवयाए खग्गधेणुजुत्तं करं खलिऊण दिन्नाणि अमुखाणि दस रयणाणि भट्टस्स । अदंसणीहूया देवया । पहिडो भट्टो पट्टिओ सनयरं । नवरं गिरिनईमज्झमवयरियस्स तस्स भूरिवारिपूरहीरमाणस्स खलियगयणो भवियवयावसेण सुगोविया वि रथणगंठी पब्भड्डा 'देवयादुबिलसियं एयं' ति पुणो वि समुप्पन्नगाढतरकोवो वडवासिणीए 'सहस थिय चियाज लियजलणमज्झे पविसामि' ति कयनिच्छओ धाविओ पच्छओमुहं । वियाणियतदन्वगमा य तं वर्ड उज्झिऊण वडंतरमलीणा भगवई । इयरो वि गओ तं वर्ड । अदिट्ठभयवईरूवो मुणियपरमत्थो विलक्खो 'सच्चं निष्पुन्नतो' त्ति जायबोहो गओ जहागय-न्ति । ता जोगंधर ! सोमो व कीस निप्पुनओ वि होऊण । मंताइसाहणेणं मुद्दा कयत्थेसि अप्पाणं ? ।। १ ॥ छ ॥ पडिबुद्धो जोगंधरो, उवसंहरियं मंतसाहणं, खामियं मडयं । एत्थंतरे बिहलियपरिस्समो पालगो पाएस मडयस्स पडिऊण विन्नविडं पवत्तोसामि ! पसीयसु पसीयसु, को एत्तो उवाउ ? त्ति । तओ 'देवयापूयणं परं सहसंपयाणं मूलं' ॥ २ ॥ || 2 11 १ मि निययं निय प्रतौ ।। २ निजाम्श्रम लाम् || ३ "णइरनामं दामं प्रतौ ॥ रेणु तौ ॥ ५ ज्ञाततन्निश्वयया 'जातघृणया ' जातयया ॥ ६ स्वलितगतेः ॥ ७ तदुग्भव' प्रतौ ॥ १७ जिनपूजाधिकारे प्र भङ्करकथा नकम् १३ । ॥ ९८ ॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिचिरइओ कहारयण कोसो ॥ सामन्नगुजाहिगारो । ॥ ९९ ॥ 99656 +36 +36 +364% सारेण पइदिणं जिणिंदचलणे । एवं वच्चंति वासरा । अन्नया य एस तुह अमच्चजीवो अज्जुणतो नाम सावओ, अणेग कुग्गहग्घत्थमाणसो, एंगपक्ख निक्खेवखीणमइबलो, अणेगकुब्भावणार्हि अप्पाणं च परं च बुग्गार्हितो, सग्गामाओ विसिट्ठलोगेण निवासिओ, गाम-नगराइ परिब्भमंतो आगतो कोसंबीए । भवियद्वयावसेण य जाओ तुमए सह तस्स मीलगो । सङ्घायरेण भणिओ तुमं तेण - भो सत्थवाह ! जहा वगो बहुसो सुपरिक्खिऊण पणियं च सम्मं पेहिऊण धिप्पइ एवं धम्मकिञ्चं पि सुविणिच्छियं काउं जुतं तुमं च धम्मत्थी वि मुद्धो व लक्खञ्जसि, न विचारेसि वत्थुतत्तं सवत्थ वि गडरियापवाहेण बट्टसि । तुमए भणियं - वंदामि सावय !, सासु केरिसो वत्युवियारो १ ति । अज्जुणेण भणियं – निसामेहि, एसो हि जिणधम्मो छञ्जीवनिकायरक्खणपहाणो, अओ सचित्तपुप्काइपरिहारेण वासाइणा देवपूया उचिया । अक्खय-वत्थ- बलिया वि बाढमजुत्ता, तदुवभोगिणो निर्द्धम्मसत्तस्त्रीणंतसंसारवडणहे उभावाओ । चेहयवंदणपयट्टस्स य पूयंगहत्थस्स साहुदंसणे वि नमोकारकरणमजुत्तं, पूयंगस्स निम्मेल्लदो सभवणप्पसंगाओ ति । दुद्ध-दहिमाइएहिं जिर्णण्हवणकरणं पि तिरिक्खिसरीरसंभवत्तेण दूरमासायणाकरमेव, ता गंधोदयमेव ण्हवणकजे निद्दोसं जुअइ चि । एत्तियपयत्थे सम्ममव १ एकपक्षस्थापनक्षीणमतिबल: अनेककुभावनाभिः ॥ २रूप्यक: बहुशः सुपरीक्ष्य पण्यं च सम्यक् प्रेक्ष्य गृह्यते एवं धर्मकृत्यमपि सुविनिचितं कर्तुं युक्तम् ॥ ३ निर्धर्मसत्त्वस्यानन्त संसारपतनहेतुभावात् ॥ ४ 'स्सामंत प्रती ॥ ५ निर्माल्यदोषभवनप्रसङ्गात् । ६ 'णभवण प्रतौ ॥ ७ रिक्वस प्रतौ । तिरखीशरीरसम्भवत्वेन ॥ गच्छसु, पच्छा अन्नं पि कहिस्सामि तुमए । सत्थवाहेण जंपियं— नाहं एवंविहविचारविवेयमवगच्छामि, ता एहि साहूण समीवे, ततो जं तुमं ते य विणिच्छिऊण साहिस्सह तं करिस्सामि । गाधिट्टिमाभिणिविठ्ठचित्तेण पडिवन्नमज्जुणएण । गया दो वि साहूण समीवे । निवेश्या नियपरूवणा । भणिओ य साहूहिं अज्जुणतो धम्मप्परूवणाए केण निउत्तो सि मूढ ! किं न सुयं ? | धम्मो जिणपन्नत्तो पकप्पजणा कहेयहो ? हे उनहं नयनयणं चउरणुजोगकमं समयसीहं । अद्दिट्टसरूवं कोल्हुगो व कह कहसि जणपुरओ १ उस्सग्ग-ऽववायाणं सरूवलेसं पि नेव जाणासि । धम्मस्स को व कस्स व अहिगारी ? एयमवि मूढ ! सेवारंभरयाणं छजीववहाउ अविश्यमणाणं । दवत्थउ श्चिय परं भवागडावडणआलंबो 11 2 11 ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ || 8 || ॥ ५॥ ॥ ६ ॥ ॥ ७ ॥ किंच भवण- बिठावण जत्ता- पुप्फाइपूयणारूवो । दवत्थओ त्ति सिट्टो गिहीण इयरासमत्थाण पुप्फाई विनिसिद्धं जइ थेवोवकमं पि मूढ ! तए । ता चेइयाइकरणं बहुआरंभं सुपडिसिद्धं जिणभवणाणमकरणे बिंबाणमठावणे य तुज्झ मए । तित्थुच्छेयाईया हुंती दोसा बहुपयारा देह-गिहाइयको आरंभं नो निरंभसि अणञ्ज ! । कायवहो त्ति निसेहसि जिणपूयं अहह ! तुद्द मोहो ॥ ८ ॥ १ "वाह जं प्रतौ ॥ २ गावष्टिमाभिनिविष्टचित्तेन ॥ ३ हेतुनखं नयनयनं 'चतुरनुयोगक्रम' चत्वारोऽनुयोगाः शास्त्रव्याख्यानभेदा एव क्रमाःयस्यैतादृशं समयसिंहम् ॥ ४ श्टगालः || ५ सर्वारम्भरतानां षड्जीववधाद् अविरतमनसाम् द्रव्यस्तव एवं परं भवावापतनालम्बः । अवट:- कूपः ॥ चरणानि जिनपूजाधिकारे प्रभङ्करकथानकम् १३ । ॥ ९९ ॥ अधिकायें पेक्षया विविधै द्रव्यैर्जिन पूजनस्यादूषितत्वम् Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दरिविरइओ कहारयणकोसो॥ सामनगुणाहिगारो। ॥१०॥ जिनपूजाधिकारे प्रभकरकथानकम् १३॥ चेइयपूयाईणं करणे तित्थप्पभावणाईया । दीसंति बोहिजणगा वावारा णेगसुहजणगा ॥ ९ ॥ जइ पुण पोसहनिरया सचित्तविवजया जइसरिच्छा । उत्तरपडिमासु ठिया पुप्फाई ता विवजंतु ॥ १०॥ पूर्यगवेग्गहत्थो न नमइ साई पि जं पि वुत्तमिणं । तं पि हु पलावमेत्तं सबुद्धिपरिकप्पणाजणियं ॥११॥ विणओ हि धम्ममूलं जहोचियं सो हु साहुमाईसु । वायनमोकाराई अप्पडिसिद्धो य सिद्धते ॥ १२ ॥ न य एत्तियमेत्तेण वि दूसणमावडइ करयलगयस्स । पूयंगस्स अभत्ती य जिणवरे जणविरुद्धं वा ॥ १३ ॥ जं पि य दुदाईहिं न्हवणनिसेहं करेसि जयगुरुणो । आसायण त्ति तं पि हुन जुत्तिजुत्तं ति पडिहाइ ॥१४ ।। सिद्धते न निसेहो मुंम्मइ एयस्स न य विरुद्धमिणं । गोरोयण-मयमय-कुंकुमाण देवे विझुंजणतो ॥ १५॥ अतहाविहुब्भवं पि हु पवित्तभावेण जं पसिद्धमिणं । तं नेव विरुद्धं लोग-सत्थपडिसेहविरहाओ न य दुट्ठा वि हु देवा दुद्धाईहिं न्हविजमाणंगा । रूसंती थेवं पि हु अवि वरदाणुम्मुहा हुंति ॥१७॥ बत्तणुवत्तपबत्ता दीसह चिरकालिया य एस विही । गीयस्थाणुनाया चिरेकइबद्धाऽणुवत्ता य ॥१८ ॥ आसायणदोसो वि हु विसिट्ठ-अविणदृदुद्धमाईहिं । ण्वणम्मि कीरमाणे होइ जढो भाववुड्डी य ॥ १९ ॥ जइ पुण न तहा भावो कस्स[४] दुद्धाइणा उ संभवइ । गंधोदयं पि जुञ्जइजह भावो होइ तह किचं ॥ २० ॥ १ यतिसरशाः ।। २ पूजोपकरणच्याहस्तः ॥ ३ प्रलापमात्रं स्वबुद्धिपरिकल्पनाजनितम् ॥ ४ भूयते ॥ ५ गमदा-करतरिका, कुकर्म-केशरम् ॥ वम् ॥ ७ वरदानसम्मुखाः ॥ ८ व्यक्त्यनुव्यतिप्रवृत्ता ॥ ९ चिरकविबद्धाऽनुवर्तिता च ॥ | ॥१०॥ KACANCHARAKNEWS54-34%AARAKASHAN 4% A4%AHARGESस तत्तो अहं 'तह' ति गुरुगिरमवधारिऊण भावसारं सबन्नुपूयापमुहकिच्चेसु सविसेसं बद्धजमो जाओ । पइदिणजिणञ्चैणजणियसुकयपगरिसेण खतोवसमगयतहाविहलाभतरायकम्मो कालक्कमेण विउलधणलाभभागी सबजणपूयणिजो परमं सव्वत्थ पसि[द्धि]मुवागओ । कालकमेण मरिऊण सोहम्मे देवत्तणं पत्तो । तत्तो य चुओ बेयगिरिपरिसरमंडणे देवाण वि दुल्लहे गयणवल्लहे नयरे अवंतिविजयस्स रबो पुत्तत्तणेणं उववन्नो, पइट्टियं च पभंकरो ति नामं । सो य एस अहं आवालकॉलओ चिय साहुपज्जुवासणपरो, पुत्वब्भासेण जिणपूषणे बाद बद्धलक्खो, संसारियकानिरवेक्खो कालं वोलेमि । अन्नया य केवलिणो समीवे सुया धम्मकहा, जायं जाईसरणं, पाउब्भृया सविसेसं धम्मवासणा । परूविओ थ भगवया अक्खेवेण संसारसमुद्दपारनयणसमत्थो बोहित्थो व भावत्थओ । अभिरुइओ य मज्झं । तओ इहेव अडवीए एगसिंगगिरिम्मि काराविऊण आइदेवाययणं, पयट्टाविऊण जत्तामहसवं, कयसवसंगपरिचागो पवनो समणधम्म मि । ता महाराय! जं तुमए पुच्छिय पबजाकारणं तमिमं भावस्थयजणणसभावं दवत्थयरूवं ति, नावरं इट्ठवियोगाइ संकणिजे ति ॥ छ । तुट्ठो राया सम[ममोण, कयप्पणामो पुच्छियं पवत्तो य-भयवं! पसाय काऊण साहेह, को इमस्स सगिहनिवाससुहपच्चूहस्स हेऊ कम्मविसेसो जेणेवं रोर व वट्टामो? । केवलिणा भणियं-निसामेह अस्थि कोसंबी नाम नयरी । तत्थ तुमं महाराय ! धम्मो नाम सत्थवाहो वस्थबो अहेसि । पूएसि य नियविहवाणु १ "गिरिम" प्रती ॥ २ प्रतिदिनजिनार्चनजनितमुकतप्रकर्वेण क्षयोपशमगततथाविधलाभान्तरायकर्मा ॥ ३ "च्चनज" प्रती ॥ ४ °कारी | प्रती ॥ ५ अस्मि ॥ ६ प्रम् ॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |जिनपूजाधिकारे प्रभङ्करकथानकम् १३॥ देवमद्दसूरि एवं निसामिऊण सुमरियपुत्वभववुत्ता भयभीया निवडिया केवलिचरणेसु अमञ्च-रायाणो, बिनविउं पवत्ता यविरइओ | भय ! अवितहमेयं, ता देह अणुग्गहं काऊण अम्ह एयस्स दोसस्स पायच्छित्तं ति । केवलिणा भणियं-जिणपूयापयत्तो चेव इह पायच्छित्तं, न तुम्ह बयाइसु जोग्गया अञ्ज वि अस्थि त्ति । अब्भुवगयमेयं अमच्च-नरिंदेहि । कहारयणकोसो॥ केवलिकयपणामा य गया पुन्चुत्ते एगसिंगगिरिवरम्मि । पारद्धा य तद्देसवत्तिसयंपरूढकमल-केयइ-केसर-सरसवेहल्ल सामन्नगु मालईमालाहिं नाभिनरिंदनंदणं आइदेवं तिसंज्झमवि पूइउं । चिरकालेण य खवियं तं दुरञ्जिय कम्मसेस । जाहिगारो। समागयं च इओ तो परिभमंतं तेसि चातुरंगं चलं । दिट्ठो य गाढपरितुद्वेहिं वलाहिव[पमि] ईहिं राया, महियलविलु लंतमउलिमंडलेहिं पण मिऊण विनत्तो य–देव ! कुणह नियदंसणजलेण सगामा-ऽऽगरस्स नियजणवयस्स विरहहुयवहमहा॥१०॥ दाहोवसमं, आरुहह करेणुगं ति । ततो राया चिरविप्पओगसंभरियसुहि-सयणुकंट्ठाहिट्ठियहिययो वि पहाणचीणंसुयाइपूयंगेहिं भावसारं आइतित्थयरं पूइऊण थुणिऊण य सुचिरं, विन्नचिउमादत्तो देवाधिदेव! यदि तावकपादपद्मसङ्कीर्तनस्य फलमस्ति तदाऽस्तु शश्वत् । स्वत्पूजने जनितसम्मदि मे प्रवृत्तिरासंसृति क्षतपुरातदुष्कृतौघा ॥ १ ॥ १ तद्देशवर्तिस्वयंप्ररूद्धकमलकेतकीकसरसरसविचकिलमालतीमालाभिः ॥ २ चिरविप्रयोगसंस्मृतसुहृत्स्वजनोत्कण्ठाधिष्ठितहृदयः ।। ३ तत्पू' प्रतौ ॥ ८४ सम्मुदि प्रतौ ॥ ॥१०॥ KANAKANKARACHAARAXASHIKARARKARKARRRRERAKA 845464RAHASAKSAKSEWAKARSAARAARAKAR जिनार्चन दौर्गत्य-रोग-रिपु-दौस्थ्य-विपन्निपात-बन्धूपघातजनिताभिरपि व्यथाभिः। वात्याभिरद्रिपतिवन्न स पीडयेतेऽस्मिन्, यो नित्यमादृतमतिर्जिनपूजनायाम् मूढाः स्तुवन्तु परिचिन्तितदानशक्तियुक्तानि कल्पविटपिप्रभृतीन्यहं तु । चिन्ताव्यतीतफलदानसहं भवाब्धेरुत्तारकं च जिनपूजनमेकमीहे इति नरपतिरर्हत्पूजना-ऽऽशंसनायां, क्षणमुपहितचित्तः पर्युपास्याऽऽदिदेवम् । निजनगरमयासीत् केवली च व्यतीताखिलभवकृदधौघा मोक्षलक्ष्मीमवाप ॥४॥ ॥ इति श्रीकथारत्नकोशे पूजाधिकारे प्रभङ्करकथानकं समाप्तम् ॥ १३ ॥ चेहयबिंचाईणं न कालदुत्थाइए विणा दई । काउं तीरइ चिंता ता वद्धण-रक्खणं भणिमो ॥ १ ॥ निपाइयम्मि य गिही जिणभवणाइम्मि सत्तिअणुरूर्व । चेइयदवं सवायरेण चिंतेज बढ़ेज ।। २ ॥ गाम-पुर-खेत्त-सुकाइएसु कारेज रायवयणेण । देवदायं तकारणेण जिणदवबुष्टि ति बुद्धि णीयस्स ददं चेइयदबस्स रक्खणुज्जुत्तं । किं पि हु जणं निरूवेजऽवजभीरुं अलुद्धं च ॥ ४ ॥ जह तह परिवओ वि हु कुसलेण इमस्स नेव कायो । देसाइदुत्थिमाए अवि अनत्तो अभावम्मि १ "डयतस्मि' प्रती ॥ २ निपादिते ।। ३ बज्ज प्रती। वर्धयेत् ॥ ४ शुल्कादिकेषु ।। ५ 'देवदाय' देवभागम् ॥ ६ रिचओ प्रती । परिव्ययः ।। देवद्रव्यम् तद्वृद्धिश्व Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरइओ | कहारयण-15 कोसो॥ सामनगुणाहिगारो। ॥१०२॥ RAKARNAKACAN एयस्स रक्खणम्मि सक्वं चिय रक्खिओ भवे धम्मो । न य एत्तो वि हु परमं अन्नं वनंति गुणठाणं ॥६॥ जिणपवयणबुट्टिकर पभावगं नाण-दसण-गुणाणं । जिणदवं रक्खंतो परित्तसंसारिओ होइ ॥ ७॥ जिणपवयणवुतिकरं पभावगं नाण-दसण-गुणाणं । जिणदत्वं पंड्डतो तित्थयरत्तं लहइ जीवो चोएइ चेइयाणं इचाइगिराए जइ जईणं पि । वुत्तं रक्खणमेयस्स ता गिहत्थाण किं वच्चं? ॥९॥ तथाहि चोएइ चेइयाणं गाम-सुवाई गाव-रुप्पाई। लग्गंतस्स हु मुणिणो तिकरणसुद्धी कहं नु भवे? ॥ १० ॥ भनइ एत्थ विभासा जो एयाई सयं विमग्गेजा । न हु तस्स हो सुद्धी अह कोई हरेज एयाई ॥ ११ ॥ सर्वत्थामेण तहिं संघेणं होइ लग्गियई तु । सचरित्त-ऽचरित्तीणं एवं संवेसि कर्ज तु ॥ १२ ॥ एयं चिय साहारणदवं पि करेज तदवरं नवरं । चेइय-चिंबच्चण-संघपोग्गयाईणि (?) से विसओ ॥ १३ ॥ किर चेइयस्स दवं कले उवजुआई जिणस्सेव । साहारणदवं पुण उवजुअइ सवठाणेसु ॥ १४ ॥ ता इममवि काय पड्डेयवं च रक्खियत्वं च । अन्नत्तो सह लामे बयणीयं एयमवि नेव भंगे देसाईणं कुतिस्थिएहिं समं च कलहम्मि । दसणकजे य परेऽणुनाओ एयदववओ ॥१६॥ किं बहुणा ?चेइयदई साहारणं च जो दुहइ मोहियमईओ। सो जिणमयं पि न मुणइ अहवा बद्धाउओ पुट्विं ॥१७॥ इय सबपयारेहिं अरक्खणे रक्खणे य एयरस । जे दोस-गुणा तेसु दिढतो भायरो दोन्नि ॥१८॥ तहाहि१ वट्टतो प्रती ।। २ वाच्यम् ॥ ३"ज सिद्धी प्रती ।। ४ सर्वस्थाम्ना ॥ ५" चिक" प्रती ॥'बहेय" प्रती ॥ ७व्ययनीयम् ॥ ८ बुह्यति ॥ देवद्रब्याधिकारे भ्रातद्वयकथान(कम् १४॥ 64544CACCk साधारण द्रव्यम् C HAKREWASAKARTAR%2464-%ASAXERCE जिणचिंचपूयणाईसु जस्स भावो जहिं जहिं रमइ । सो तस्स मोक्खहेऊ ता न खमो एगपक्खगहो ॥ २१ ॥ अक्खय-वत्थाईणि य परउवओगि त्ति नेव जुत्ताई। णन्तमवहेउभावा एयं पि विगप्पणामेत्तं ॥ २२ ॥ जइ भावदोसबिरहा पूयाकारिस्स एस दढदंडो। ता साहुभूरिदाणे अजिन्न मरणे य रिसिपाओ ॥ २३ ॥ जिणभवणाईणं पि हु कारवणे जं भगाण (?) हेउत्ते । भूरिभवदोसभावा तदकारवणं परं इ8 ॥ २४ ॥ मा सबहा वि कुग्गहसिप्पिविकप्पणविमोहिया भद्दा ! । अचंतबहुस्सुयसंसिए वि भावे विसंकेह ॥ २५ ॥ न हि पुत्वमुणीसरदिङमग्गमवहाय सैमइघडिओ वि । अन्नो विजइ पंथो सिद्धिपयट्टाण सचाण ॥ २६ ॥ एवं सिक्खविओ विहु अज्जुणतो अज्जुणो व जडपयई । अवमनियमुणिवयणो न पत्रोतह वि नियदोसं ॥ २७॥ तुमए वि तस्स पंथो सत्थाह ! समत्थिओ हि सुकरो ति । सच्छंदपयाराओ सुहे ण विलसंति बुद्धीओ ॥ २८ ॥ एवं च दुवे वि तुब्मे जिणेपूयाविसयकुग्गहनिग्गहियविसुद्धपरिणामा, परेसिं पि समुप्पाइयमइविब्भमा, जईगुरुपूयाविच्छेयावञ्जियसुकयंतरायदोसेण घत्था य मरिऊण, असुभट्ठाणेसु उप्पत्ति-मरणदुक्खाई अणुभविऊण चिरकालं, तहाविहपुवजम्मसुकयवसेण संपह अमच्च-रायत्तणेण उपवना। तस्स पुबदुकयसेसस्स अजिनस्स एसो अडइनिवडणाइरूवो दुबिलासयविससा । ता भो महाणुभाव ! पुबदुश्चरियं सरमाणा तह कह पि सुचरिएसु पयह न जहा एवंविहविडंबणाभायणं हवह त्ति ॥ छ । । १ नमम प्रती ॥ २ स्वमतिघटितः ।। ३ भर्जुन इव ॥ ४ स्वच्छन्दप्रचाराः शुमे न विलसन्ति बुद्धयः ॥ ५ जिनपूजाविषयकमहविनिगृहीतविशुद्धपरिणामी ॥ ६ जगनुरुपूजाविच्छेदावर्जितसुकतान्तरायदोषेण प्रस्ती ।। ७ अटवीनिपतनाविरूपः ।। ASSAGARALSACCOCCAKRAM. Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमद्दसूरिविरइओ डादेवद्रव्या धिकारे भ्रातृद्वयकथानकम् १४॥ कहारयणकोसो॥ सामग्मगुणाहिगारो। ॥१०॥ एगया य सो मज्झरत्तसमए कहं पि भवियबयाबसेण ववगयनिदावेगो सेजं विमोत्तूण समुडिओ संतो जाव पुत्वदिसिहुतं पलोएइ ताव पेच्छह उपयंत-निवयंतभासुरसुरविसरसरीरपहापडलपल्लवियं व गयणंगणं । तं च पेच्छिऊण चिंतिउं पवत्तोजा मज्झं ताव इमं निसाए समओ नो कोइ भाविजए, नूणं सारहिणो रविस्स न घणो विज्जुच्छडाडंबरो। अच्छिन्नप्पैसरतणेण न फुड उकाफुलिंगुग्गमो, ता किं होञ्ज विभीसिय ? ति अहवा गंतूण दंसामि नं ॥१॥ तो निविडदुकूलनिबद्धपरियरो, पेरियराओ खग्ग अप्पाणं च भिन्न काऊणं, केणइ अमुणिजंतो, सणियसणियं नीहरिओ रायभवणातो । लग्गो तम्मग्गेण । पुरओ बच्चमाणस्स रायसुयस्स विजियवउल-मालइपरिमलुग्गारो वियंभिओ दिसि दिसि ज्झंकारमहरमहुयरविलुपमाणो सरसपारियायतरुमंजरीजालपरागपब्भारो । सवणगोयरमुवगतो य निचलकरंगवग्गेनिसामिओ मणहरवेणु-वीणाविणिग्गयसरसरसीकयकलयंठकंठगायणपयट्टिओ गीयनिीतो । पयडीहूओ य साणंदविंदारयविंदविहिञ्जमाणो चेलुक्खेव-कुसुमंजलीपयाणप्पमुहो पूयासकारो । विणिच्छियं च कुमारेण-नूर्ण एसो सो देवागमो ति, किं पुण कारणं एत्थाऽऽगमणस्स -त्ति विभाविउं पट्टिओ पुरओ। १ 'तमिवयं प्रती॥ २-प्रसरत्वेन ॥ ३ उल्कास्फुलिशोदमः ॥ ४ "मिमं प्रती। पश्यामि तम् ॥ ५ खापक्षे परिकरः-कोशः, भात्मपक्ष परिकर:परिवारः॥६पुरतो नजतः गजमुतस्य विजितबकुलमालतीपरिमलोहारः विजम्भितः । गप्रारभारः ॥ ७ "मालाईप प्रतौ ॥ ८ श्रवणमोचरमुपगतव निबलकुरवर्गनियामितः मनोहरवेणुवीणाविनिर्गतस्वरसरसीकृतकलकण्ठकण्ठगायनप्रवर्तितः गीत निनादः ॥ ९ 'गत्तिसा प्रतौ ।। १० 'निन्नातो प्रती ॥ ११ सानन्दवृन्दारकपून्दविधीयमानः चेलोरक्षेपकुसुमाञ्जलिप्रदानप्रमुख: पूजासत्कारः॥ ॥१० ॥ ERERAKESARKARISRHANNEWS. WWERAREKARAVAKRRIERREKKAKKAKKAKKAKKEN दिट्ठो य तहिं एगो साहू अंतगयजीवियबो सायरं सुरा-ऽसुरेहिं धुंबंतो सकारिजंतो य । 'किं पुण एवं ?' ति पुच्छितो णेण एको सुरो-भो भो! किंनिमिचं महाणुभावो अभूमिसंचरणो वि भविय भयवं सुरगणो एवं वट्ट ? ति। सुरेण भणियंभो रायसुया! एत्थ एसो तवस्सी निसिपडिम पडिवनो सुक्कझाण[ऽग्गि]निदढघाइकम्मो समं चिय आउपमुहकम्मेहि सरीरच्चायं काऊण निवाणमुवगओ, तम्महिमाकरणाय एसो सुरा-ऽसुरवग्गो एवं [व]वस्थितो ति ।। 'हिमेवंविहवइयरो मए दिट्ठो सुओ?' ति ईहा-ऽपोह-मग्गण-गवेसणं कुणतस्स य रायसुयस्स जायं जाईसरणं ति । अणुसुमरिया पुवाणुजम्मसेविया पच्चजाइकिरिया । पुवाहीयं पि संपहपढियं व कंठे पहडियं पुत्वाइसुत्, पच्चक्खीहूओ चकवालसमायारो, उज्झियसवसंगो य जाओ एस सयंबुद्धसाहू, विसुज्झमाणलेसत्तणेण य उप्पन्नं से ओहिनाणं । एवं च सो जुगंधरसमणो दिखनाणनयणो एगत्थ निजीवप्पएसे कयसिलासणपरिग्गहो सुत्तं परावचिउं पवत्तो। अह पैच्चूसवियंभियसिसिरसमीरुब्भवंतसीयत्ता । गयनिदा सेजाए न सेजवाला पलोयंति रायसुयं सविसाया सभया ता सबओ निरूवित्ता । साहंति मंति-अंतेउरीण राईसराणं च ॥२ ॥ अह तद्देसजणेणं साहुपउत्ती निवेइया तेर्सि । तो ते विम्हियहियया विच्छायमुहा निराणंदा ॥३ ॥ अंतेउरं पि गुरुविरहवेयणााउलीकयसरीरं । उज्झियसिंगारं द्रमुकनीसेसवावारं । १ स्तूयमानः संस्क्रियमाण ॥ २ शुक्लध्यानाग्निनिर्वग्धपातिकर्मा ।। ३ "कार' प्रती ॥ ४ कद्दमें प्रतौ ॥ ५ प्रत्यूषविजृम्भितशिशिरसमीरोबच्छीताः ॥ ६-व्याकुलीनत-॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमद्दसूरिन विरइओ देवद्रव्या| धिकारे भ्रातृदयकथानकम् १४॥ कहारयणकोसो॥ सामनगुजाहिगारो। ॥१०४॥ PRAKAKKA AA%A4 अर्णवरयसोगभरनीहरंतवाहप्पवायधोयमुहं । हा हा हयास ! हयविहि! किमेवमेयं १ ति जपतं ॥ ५ ॥ तं देसमणुप्पत्तं जरथ महप्पा स चिट्ठइ निविट्ठो। दिट्ठो य तदणुरूवो पस्थिवमाईहिं सो कुमरो तो गाढचित्तसंताववससमुढुिंतसोगआवेगा । सन्चे वि रोविऊणं पलावमिय काउमारद्धा। हा वच्छ ! केसगुच्छो तांविच्छसमच्छवी घणसमिद्धो। कह लुचिऊण खित्तो तणं व तुमए महीवडे॥८॥ एवंविहदेहेंसिरी सिरीसकुसुमाइरेगसुकुमारा । किं बच्छ! काउमुचिया कट्टाणुहाणठाणमहो? ॥९॥ एयं च बच्छ । वच्छेथलहारिहारावलीविरायतं । कह सोहिही वहृयणमित्थं तुमए पउत्थम्मि ? ॥१०॥ तुहविप्पओगपजलिरजलणजालावलीकवलियाण । पुत्त ! न निवाइ तणू सागर-सरियाजलेहिं पि ॥११॥ तं लायन्नं [] तुज्झ विलसियं तं च निरुवमं रूवं । मइपगरिसो य सो वच्छ । इण्हि कम्मि पलोएमो ? ॥ १२ ॥ इय अवरोह-बहूजण-मंति-पहाणेहि परिवुडो राया । तं दई अचईतो सुदुंहत्तो पडिगतो सगिह ॥ १३ ॥ जुगंधररायरिसी वि 'असमउ' ति ताणमकयपत्रवणो सयण-पैरयणेसु तुल्लचित्तो गामा-गराईसु विहरिउ पवत्तो । पडिबोहिया य बहवे महाराय-मंति-सामंत-सेट्टि-सेणावइसुया गाहिया सबविरई । तेहि य अहिगयसुत्तत्थेहिं परियरितो भद्द १ अनवरतशोकमरनिःसरद्वाप्पप्रपातधौतमुखम् ॥ २ तमालवृक्षसमच्छविः धनसमृद्धः ॥ ३ 'देवसि प्रती ॥ ४ च्छयल प्रती । वक्षस्थलहारिहारावलीविराजत् ॥ ५ त्वद्विप्रयोगप्रज्वलनशीलज्वालावलीकवलितानाम् । पुत्र ! न निर्वाति तनुः सागरपरिजलरपि ॥ ६ "दुहुत्तो प्रती । सुदुःखार्तः ॥ ७ तेषाम् 'भक्तप्रज्ञापनः' अकृतप्रतिबोधः स्वजनपरजनेषु ॥ ८ "परिय" प्रती ।। 64%ACHCHISARKAR करुणविलापः ॥१४॥ % ASANA% A 2%%%E3% अस्थि भुवणललामभूया, परपक्खभय-डमरदूरपरिहरिया, हरितणु व सेस्सिरीया, विरिंचिमुत्ति व सवतोमुही, विसाला वि अलंघ-गुरुपायारपरिगया, विक्खाया [वि] वलयालंकिया, बंगविसयतिलयतुल्ला विस्सपुरी नाम नयरी। तं च अखंडभुय. दंडारोवियभूभारो रक्खइ खेमंकरो नाम नरवई। जेण य सेमरंगणवेइमंदिरे अचुकमुकसरधोरणीविरइयमंडवे चाउद्दि[सि]पयट्टमत्तदोघट्टवियडकुंभयडकलसपरंपरापरिगए सुहडकवयावडतखग्गनिहसुट्ठियपजलतजलणविजयलच्छी बहु व पढ़तेसु भदृथद्देसु परिणीया । स महप्पा जयसुंदरीपमुहावरोहपरिगतो सिवदत्ताईमंतिजणारोवियरअचिंतो सुहेण कालं बोलेई । अन्नया य जातो से सुस्सिमिणयइओ पुत्तो, कय बद्धावणयं, पयट्टियं च से जुगंधरो ति नाम । एवं च सो कुमारी सम नरवहमणोरहेहि वडिओ देहोवचएणं कलाकोसल्लेण य, परिणाविओ य कइवयरायधूयातो । दिमा य से भुत्ती, तर्हि च परमसुहेण रायसिरिं अणुर्भुजइ ति । १ परपक्षभय विष्लवपरिहता ॥ २ बथा हरितनुः 'सधीका' लक्ष्म्याख्यपत्नीयुता एवं पुर्यपि 'सभीका' शोभायुका ॥ ३ यथा विरचिमूर्सिः चतुर्मुखत्यात् सर्वतोमुखी एवं पुर्वपि द्वारमहाबारोपेतत्वात् सर्वतोमुखी ॥ ४ या 'विशाला' विगतप्राकारा असौ कथं अलगुरुपाकारपरिमता भवति इति विरोधः, तत्परिहारस्तु 'विशाला' विस्तीर्णा इति ॥ ५ या 'विताता' विगतखातिका असौ कथं वलयालमृता भवति इति विरोधः, तत्परिहारस्तु 'विख्याता' प्रसिद्धा इत्यर्थविधानात् ॥ ६ समरामणवेदीमन्दिरे अश्मुक्तवार(मुक्कासरिक)धोरणीविरचितमण्डपे चतुर्दिक्प्रवृत्तमत्तहस्तिविकटकुम्भत्तटकलशपरम्परापरिगते सुभटकवचापतत्वज्ञनियोंस्थितप्रजलाचलने विजयलक्ष्मीः वधूरिख पठत्यु भइसमूहेषु परिणीता ।। ७'इमंतज' प्रती ॥ ८ बोहेश प्रनी ॥ ९ सुस्वमसूचितः ॥ १० 'यट्टियं प्रती । प्रतिष्ठितं च ॥ S ARKAROKAREKACKSEX Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरइओ कहारयण कोसो ॥ सामन्नगु हिगारो ॥१०५॥ 196*6*6*6 तप्पुभव जाइपुच्छणत्थं च जाव जोडिय पाणिसंपुढं पवतो, ताव वैणमुहविणिस्सरंतपूय गंधाणुगमच्छियाजाला उलो, अच्चंतकुडवाहिविणडुसइंगो, निहाणं व सयलरोगाणं, आगरो व गरुयपावरासीणं, आधारो व तिक्खदुक्खाणं, खाणि व दोगश्वस्स, निवासो व संबैलजणाव माणणाणं, 'अइसयनाणि' त्ति जणाओ निसामिऊण तं पएसमागओ एगो रोरथेरपुरिसो ति । तओ तिर्पयाहिणिऊणं तं समणं कयसंथवणो उद्धडिओ चैव पज्जुवासिउं पवत्तो । निवडिया य तम्मि सयलस्स सभावत्तिणो जणस्स निव्भरकरुणाभरमंधरा दिडी । 'अहह ! किं पुण पुरा कयमणेणं ?" ति जिन्नांसा जाया । अह जावऽञ्ज वि न सो रोगिपुरिसो किंपि जंपइ ताब भणियं राहणा- भयवं ! बहुं किं पि पुच्छिद्यमत्थि परं अच्छउ ताव अनं, किमणेण महाणुभावेण दुत्थियसत्थसीमापतेण रोगिणा पुढं कथं ? ति साह, महंतं कोऊहलं ति । साहुणा कहियं— महाराय ! जं पुत्रं तुमए पुच्छिउमिच्छियं तस्स वि एयमेव निद्वेयणं ति एगचित्तो निसामेसु — कुसुमे व पंहियमणमहुयरमणोहरे कुसुमपुरे नयरे सहन्नुपायपूयण [परो] परोवयाराइगुणसंगतो सागरो नाम सेड्डी अहेसि, सुदंसणा से भञ्ज । ताणं दुवे पुत्ता-जेडो अहं नंदो नाम, कणिट्ठो य एसो रोगिपुरिसजीवो नागदेवनामो ति । दोह वि अम्हाणं परोप्परगाहसिणेहसारं सवत्थ वद्रुमाणाण गयाई कइय वि बच्छराई । सुरिंदचावचावलत्तणेण य संसारि १ वनमुखविनिस्सरत्पूतिगन्धानुगमक्षिका जालाकुलः अत्यन्त कुष्ठव्याधिविनष्ट सर्वाशः ॥ २णुगंधम प्रती ॥ ३ "गाणमाग प्रतौ ॥ ४ सीणमाधा प्रतौ ॥ ५ "यणज' प्रतौ ॥ ६ त्रिः प्रदक्षिणां त्वेत्यर्थः ॥ ७ जिज्ञासा ॥ ८ : स्थितसार्थसीमाप्राप्तेन ॥ ९ उत्तरमित्यर्थः ॥ १० कुसुमपक्षे प्रहृतमनोभिः- आकृष्टचित्तैः मधुकरैः मनोहरे, नगरपक्षे पथिकमनोमधुकरमनोहरे ।। ११ सुरेन्द्रचापचपललेन ॥ यभावाणमतकियमेव तहाविहसरीरकारणं पाविऊण पंचत्तमुवगया अम्मा-पियरो । कयाई तप्पारलोय कायद्याई । कालकमेण जाया अप्पसोगा, चिंतिउं पवत्ता य घरकआई । अन्नया य अतहाविहं ववहारसुद्धिं पलोइऊण नागदेवस्स भणियमेगंते मए - - हे भाइ ! किं व सीसउ तुह जुत्ता ऽजुत्तजाणनिउणस्स ? । तह वि हु सिणेहेचावलडवलेवओ किं पि साहेमि ॥ १ ॥ कट्टेण संविजइ अप्पा सुगुणे गिरिम्मि उबलो छ । पाडिजह पुण तत्तो उवैकमेणं सुलहुणा वि ॥ २ ॥ न य ऐकसिं पि अवजसपंकियसीलस्स पुण मणूसस्स । सुकयसहस्सजलेहि वि तीरह पक्खालणं काउं ॥ ३॥ ता ववहारविसुद्धिं वैयणपङ्कं च लोभनिग्गहणं । दक्खिन्न दयासारतणं च सीलं च धरसु दहं ॥ ४ ॥ किं बहुणा ?लहुओ वि बुडचेट्ठियमणुचिसु तह कई पि हे भाइ ! जह होसि तुमं जेडो विसिट्ठमज्झम्मि पुजो य ॥ ५ ॥ गउरवमुर्विति हि गुणा न दूरमावजिया वि लच्छीओ । सिंर्बलिकुसुमं पाडलदलं पि कमलं व नो सहइ ।। ६ ।। पुपुरिसजि पि हु माहष्पं जहतहावबहरतो । हारिहिसि लोयमज्झे ता एतो कुणसु जं जुत्तं नागदेवेण बुत्तं - सबहा खमह मह एगमवराहं, नाहमे तो पुवपुरिसकमविरुद्धं किं पि करिस्सं, सम्मं कयं तुम्भेहिं जेमहमेयातो दुट्ठचेट्टियाउ नियत्तिओ । एवं च पुढपवाहेण ववहरिउमारद्धा अम्हे । थोयकालेण वि पत्ता लोयमज्झे पसिद्धी, || 9 || १ युक्तायुक्तज्ञाननिपुणस्य ॥ २ स्नेहचापल्यावलेपतः ॥ ३ संस्थाप्यते ॥ ४ प्रयत्नेनेत्यर्थः ॥ ५ एकशोऽपि अपयशः पतिशीलस्य ॥ ६ वचनप्रतिष्ठाम् ॥ ७ वृद्धचेष्टितमनुष्ठीयताम् ॥ ८ शाहमलिकुसुमं पाटलदलमपि कमलमिव न राजते ॥ ९ यद् अहम् एतस्मात् ॥ ** देवद्रव्या धिकारे भ्रातृद्वयकथानकम् १४ । युगन्धरमुने रोरस्य च पूर्वभवाः ॥१०५॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभखारिविरइओ कहारयणकोसो ॥ सामन्नगुणाहिगारो ॥१०६॥ देवद्रव्याधिकारे भ्रातृदयकथानकम् १४॥ पूयाय पयं गया य रायाईणं । नवरं 'दुपरिचया पयई ति नागदेवो न मुयइ दुदृसहावं । ततो विभजिऊण घरसारं दिनं मए एयस्स । अणिच्छतो विठ्ठाविओ विभिन्नमंदिरे । मित्रं ववहरिउमारद्धो य एसो। अनया य तनयरसामिणा बलभद्दाभिहाणराइणा संभूयमुणिसमीवे पवनसावगधम्मेण परमं जिणपक्खवायमुबहतेण कारावियं चेईहरं, दिनाई सासणनिबद्धाई गामाई, उवकप्पिया अने वि अदायविसेसा। 'सुइसमायार' ति परिभाविऊण | देवदविणरक्खण-वड्डणनिमित्तं अम्हे दो वि भायरो हाविया गोट्ठियपए । समपितो दवभंडारो समं कुंचिगाहिं । गाढरायवयणोवरोहेण य पडिवो अम्हेहिं । सैमयसत्थनिदंसियनाएण तब्बड्डण-रक्खण-उचियट्ठाणविणिओगाईहिं पयट्टा चिंतिउं । सरते य काले किं पि किलिट्ठकम्मवसओ तुच्छधुणीहूओ नागदेवो । 'सीयंता य पाणिणो पाएण निद्धम्मा हवंति' त्ति पारद्धो य एसो किं पि किं पि देवदत्वं पि उवभोत्तुं । वियाणिओ मए पनविओ य, जहा-भद्द ! एगत्थ सबपावं अनस्थ य देवदवपरिभोगो । तेणेस परिहरिजइ दूर कल्लाणकामेहि ॥ १ ॥ वरमुग्गविसं भुत्तं न देवदवं सुथेवमेतं पि । एगभवे हणइ विसं चेइयदछ पि भूरिभवे ॥ २ ॥ सेसाणं पावाणं विजइ कत्तो वि किं पि परिताणं । देवऽत्थभोगपावं अपरिचाणं परिवंयंति पंइजम्मरुद्ददारिहुवहुया दीहरे भवारने । देवत्थभोगनिरया [निरया]इगईसु वचंति ॥ ४ ॥ १ वि आदाय प्रतौ ॥ २ गाढराजवचनोपरोधेन ॥ ३ समयशास्त्रनिदर्शितन्यायेन तद्वर्धनरक्षणचितस्थानविनियोगादिभिः ॥ ४ "धणूह प्रतौ ॥ चयं प्रती । परिवदन्ति ॥ ६ प्रतिजन्मरौददारियोपता दी भवारज्ये। देबद्रव्यभोगनिरता निरयादिगति प्रजन्ति । भक्षणविपाकः | ५ रिचय प्रती । परिषद ॥१०६॥ RAKAKARNATAKAKKARINAKRAVARNAKARKAR+KAKARRIOR RRRRAKAR जाइगयनिवहाणुगओ एरावणो ब विरायमाणो सव्वत्थ विहरिऊण जणणि-जणगाइसयणबग्गपडिचोहणत्थमुवागओ विस्सपुरीए नयरीए, डिओ एग[म्मि] विजणे उजाणे । जाणियतदागमणो य पहरिस-सोगसंभाराऊरिजमाणहियओ सममंतेउरीपमुहपहाणपरियणेण खेमकरनरिंदो उजाणे गओ। बंदिओ सव्वायरं जुगंधरमुणिवरो । दिनो य भगवया वियसियसयवत्तविब्भमं चक्खू खिषतेण धम्मलाभो । आसीणो य समुचियट्ठाणे सपरियणो रायो पउरलोगो य। भगवया वि कुंमुय-मयंकाणुगारिदसणमऊहनिबहेजलपक्खालियाए व धवलाए भारईए पयपिउमाढत्-भो महाराय ! तइया अम्हअतक्कियसवविरइदसणसमुप्पन्नतिवसोगसंभारा अमुणियकारणविसेसा चेव जहागयं पडिगया तुम्मे, अहं पि 'असमतो' त्ति समुवेक्खिय तुब्भे अन्नत्थ विहरिओ, संपयं च महाराय ! 'एस सो पत्थावो' चि निसामेह तक्कालतहागहियदिक्खानिमित्तं ति । हरिसविसप्पंतवयणवियासेण य भणिय राहणा-भयवं! एयमेयं, साहेह परमत्थं ति । ततो जुगंधरमणिणा सिट्ठो सबो रयणिमज्झसमुप्पनदेवागम-मुणिसकारदसणजायजाईसरणाई बुत्तो । तं च निसामिऊण सपउर-परियणो परमं पमोयपब्भारमुवगओ नराहिवो। १ प्रहर्षशोकसम्भारापूर्वमाणहदयः ॥ २ विकसितशतपत्रविनमम् ॥ ३ या पउरपउरलोगो प्रती ॥ ४ कुमुवनमानुकारिवशनमयूखनिवहजलप्रक्षालितया ॥ ५ हमऊहजल° प्रती ॥ ६ अस्मदतकितसर्यविरतिदर्शनसमुत्पन्नतीत्रशोकसम्भारा:: अशातकारणविशेषाः ॥ ७ 'असमयः' अनवसरः। ८ रजनिमध्यसमुत्पन्नदेवागममुनिसंस्कारदर्शनजातजातिस्मरणाविषत्तान्तः ॥ SKCONSCION Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवद्रव्याधिकारे भ्रातृदयकथानकम् १४॥ + देवमद्दसूरि- देवत्तणेण पंचमकप्पम्मि । अहाउयखएण य चुओ समाणो कुंडिणपुरे इन्भस्स संखसेट्टिणो पुत्तत्तणेण समुप्पन्नो । कयं विरहओ धवलो ति नाम । पत्तो कालक्कमेण [जोवणं] । जाया सुसाहूहि सम संगई, अभिरुइओ जिणधम्मो, तदेगचित्तत्तणेण कालं वोलेमि । पच्छिमकाले य पवना पवजा । सबसावजवज]णुञ्जमेण य सम्मं पालिऊण पञ्जन्तकयाणसणो विहिपरिचत्तपाणो कहारयण- पाणयकप्पे कप्पाहिवत्तसुहं सुचिरमणुभविऊण चुओ समाणो सुमाणुसत्तं समणत्तणं च लभ्रूण पुणो अच्चुए देवत्तं [पत्तो] । कोसो॥ एवमणेण कमेण सत्तसु भवेसु चारित्तमाराहिऊण जहुतं, जयंतविमाणे देवसुहं च भोत्तूण, भो महाराय ! तुह सुओ सामनगु- जाओ म्हि । रैयणिमज्झसमयदिट्ठदेवागमाणुसारगमण-मुणिवइयरसवणजायजाईसरणपञ्चक्खीभूयसुय-संजमो य समणो संवुत्तो जाहिगारो। आम्हि । ता महाराय ! एयमम्ह पवञ्जानिमित्तं ॥ छ । ___सो पुण नागदेवो तब्भव एव गहिओ महावाहिणा विसनो चित्तेणं । देवदहोवओगदुचरिएण य बाद दुगुंछमावन्नो, ॥१०७॥ चिंतिउं पवत्तो य-अहो ! महाणुभावेण तइया जेट्ठभाउणा निसिद्धेण वि मए पावकारिणा खणमेत्तसुद्दलालसेण य अपरिभावियाँणंतदुक्खावडणेण अच्चंतमणुचियं देवदवभक्खणमणुट्टियं, तस्सेव मने एस महावाहिविहरनिवायरूवो कुसुमुग्गमो, फलमञ्ज वि अन्नं भविस्सह, ता एत्तो न जुजइ अत्तणो उहणं-ति सम्मं परिभाविऊण उवभुत्तदेवत्थपूरणत्थं दिनो धणकणगाइओ अत्थो । थोवरिद्धित्तणेण य न सबविसुद्धी जाया । मरणसमए य भणिया पुत्ताइणो-अरे ! एत्तियमेत्तं दवं १ यथायुष्कक्षयेण ॥ २ च्चु ओ दे" प्रती ॥ ३ रजनिमध्यसमयरष्टदेवागमानुसारगमनमुनिव्यतिकरथवणजातजातिस्मरणप्रत्यक्षीभूतश्रुतसंयमः ॥ ४ "यानंत प्रतौ ।। ५ महापाधिदुःखनिपातरूपः ।। ६ उपेक्षणम् ॥ ७ उपभुक्तदेवार्थपूरणार्थम् ।। 4%A5% ॥१०७॥ KAR+C+++++KRKAKKAREKKERAKAARAKAR ASSACRACKACAXC45454 | घराउ दाऊण देवेस्सविसुद्धिं करेजह-ति निरूविऊण मओ एसो उववो नेगासु हीणजाईसु चिरकालं । जहिं जहिं एस महाणुभावो, कुलम्मि उप्पजह पावकम्मो । तहिं तहिं पुखधणं बहुं पि, एयप्पभावेण खयं उवेइ ॥१॥ अणत्थसत्था बहवो पडंति, रोगा य जायति बहुप्पयारा । अयंडचंडो कलहप्पबंधो, बंधूहिं सद्धिं च पवई य ॥ २॥ अवनवाओ भमई दिसासु, उपजई नेव रई खणं पि । दवजणत्थं च कया उवाया, न कासपुष्पं व फलंति किं पि ॥ ३ ॥ तहोवयारम्मि कए वि कोवो, परेसि संपजइ चंडचंडो । मिते वि सत्तुत्तणमेव जाइ, न कि पि कत्तो वि सुहं हवेइ ॥४॥ एवं च सव्वत्थ छुहाभिभूओ, रोगाउरो भूरिभयप्परुद्धो । उज्झिञ्जमाणो जणगाइएहिं, अणिट्टदोगचकरो ति दूरं ॥ ५ ॥ महाकिलेसेणऽइवाहइत्ता, एसो पभूयं किल कालमेयं । देवत्थभोगेण विणहबोही, कहं पि जाओ पुण माणुसत्ते ॥ ६ ॥ तहि पि एवंविहभीमरुवो, असेसरोगाण दुहाण खाणी । पए पए सोगभरं धरंतो, सदुक्खसई करुणं रसंतो ॥ ७॥ किमागओ अच्छसि कीस एत्थ, हे कुट्ठनट्ठोट्ठ! विणट्ठदेह ! १। अचंतमुद्देगकरो सि जाहि, हीलिजमाणो स जणेण एवं ॥८॥ उल्लंबणेणं अहवाऽनलेण, जलेण वा सेलनिवायओ वा । मरामि किं? एव विचिंतयंतो, अम्हं समीवे इय बट्टा त्ति ॥ ९॥छ। एवं च पुच्चभववित्थरे जुगंधरमणिवरेण साहिए सो नागदेवो सा य परिसा [3]वधारियनीसेसदेवदहोवभोगमीसणासुहसरूवा परमं भयपगरिसं उवगया। रोगी वि सुमरियसबहडियपुत्वभवपरंपरावुत्तो भयवओ पाएसु पडिऊण पुवभवभाइ १ देयस्स वि प्रतौ । देवस्वविशुचिं करिष्यथ ॥ २ "निरूप्य' कथयित्वा ॥ ३ महाकेशेनातिवाह्य ॥ ४ उद्वेगकरः ॥ ५ अवधारितनिःशेषदेवदव्योपभोगभीषणाशुभस्वरूपा ॥ ६ "जहिट्टि प्रती ॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमद्दरिविरइओ कहारयणकोसो ॥ सामन्नगुणाहिगारो। ॥१०८॥ सुमरणेण अचंतदुक्खियत्तणेण य अब्भाहओ समाणो अंच्छिन्नवहंतबाहप्पवाहपक्खालियवयणो भणिउं पवत्तो- -भयवं ! अवितहमेयं, सवं सरीरेण अणुभूयं मए महापावेण, किमियाणिं करेमि ? साहेह दुकरं पि, निडिनो हं संपइ पुखपावदुविलसियाओ, देह आएसं, पडामि जल-जलणाईसु, नत्थि त्वं पि पओयणं जीविएणं, केत्तियं वा अझ वि तं असुहकम्ममजिणं ? ति । भयवया भणियं - महाणुभाव ! जुत्तमेयं पुदुच्चरियनिंदण - गरहणाईयं, केवलमणलाइपओगेण पाणञ्चातो अजुत्तो, तव-नियमा-ऽणसणेहिं चैव अप्पणो परिचातो पसत्थो सत्थेसु गिअर, निञ्जरियप्पायं च तं असुहं कम्मं ति । एवं च निसामिऊण परं संसारभय मुहंतो, पवढमाणसंवेग-निवेयाइगुणगणो, पवन्नसम्मदंसणो, गुरुणी समीवे निरागारं पच्चक्खिऊण चउविहाहारं, एकम्मि सिलायले सुसाहु व निच्चलचित्तो, पुणो पुणो गरिहंतो पुवदुक्कियाई, संलीगंगो डिउ ति । मासियसंलेहणं च काऊण मओ उ[व] वन्नो अच्चुए देवलोए देवो महिडिओ ति । तओ चुओ कइय वि भवेसु जहुतचारित्तफरिसणेण मपुणागमं पयं पाविहिति । अवरवासरे पुणो वि पुहइपालपुरस्सरा सा सभा जुगंधरसाहुं सायरं पणमिऊण पुच्छिउं पवत्ता - भयवं ! अचं तपमचाणमम्हारिसाणं संसारसायरतरंड कप्पं किं पि उवइसह तत्तं ति । भयवया भणियं – नणु पुवं वित्थरेण कहियमेव, बिसेसओ पुण इममवधारह १ अम्मद्दिओ प्रती ॥ २ अच्छिन्नवद्दद्वाष्पप्रवाहप्रक्षालितवदनः ॥ ३ गीयते ॥ ४ "रुणा स प्रतौ ॥ ५ 'अपुनरागमं पदं' मोक्षम् ॥ ६ लस्स पु" प्रतौ ॥ ७ भाग जु° प्रतौ ॥ ८ अणु पुत्तवित्थ प्रतौ ॥ किं बहुणा भणिएणं १ जं जमणिङ्कं जणाण इह पडई । तं तं देवस्सुवभोगपावदुब्विलसियं जाण ॥ ५ ॥ - - एयं च निसामिऊण अप्पणो साहुत्तणं दंसिंतेण असाहुणा वि किंचिसमुप्पन्न कोवेण भणियं नागदेवेण हे भाइ ! सच्चो कओ तए लोयप्पत्राओ 'जो तिणस्स चोरो सो तणसयस्स वि' त्ति, जह कह वि पुत्रकाले बालभावओ मए अवरद्धं ता किमियाणिं पि मं तहाविहत्थकारिणं समत्थेसि १ किमहं देवदवभक्खणलक्खणं पात्रमायरिस्सामि ? एत्तियमेत्तं पि न जाणामि जं एवं ममाभिमुहमुल्वसि १ । 'अजोगो' त्ति कलिऊण ठिओ हं तुण्डिको । चिंतियं च मए – किमियाणि कीरइ ? जर राहणो एयवइयरो साहिजड़ ता महादंडोवणिवाओ, अह न साहिजइ ता देवअत्थविणासोवेक्खण जणिय महापावागमो, तमेयं एगत दोतडी अन्नत्तो सद्द्लो, अहवा किमेस एगजम्मसयणो काही १ अनंतजम्मवासणविवागं देवदव्वभक्खणोवेक्खणं, ता होउ किं पि, पभाए गंतून राहणो देवदवभंडारसमप्पणं करेमि-ति संपहारिऊण पसुत्तो रयणीए । भवियवयावसेण य समुप्पनं मूलं, कया के मंत-तंताइणो उवाया, न जाओ को वि पडियारो, अवि य बुद्धिं सविसेसं गयं । तदहिगत्तणेण य निच्छिओ मए अप्पणोऽवसाणसमओ । तओ सुमरितो भावसारं संसारसारंगकेसरिकिसोरो वीयरागो गुरुणो य, कया सबसत्तखामणा, विहियं सागारमणसणं, पंचनमोक्कारं परावत्तयंतो मरिऊण उबबन्नो १ णियं जं प्रतौ ॥ २ देवस्वोपभोगपापडुर्विलसितं जानीहि ॥ ३ तृणस्य ॥ ४ तथाविधार्थकारिणं समर्थयसि ॥ ५ मौनमित्यर्थः ॥ ६ एतव्यतिकरः कथ्यते ॥ ७ देवार्थविनाशोपेक्षणजनित महापापागमः । तदेतदेकत्र दुस्तढी अन्यतः शार्दूलः ॥ ८ "बेखण प्रतौ ॥ ९. अनन्तजन्मवासनविपाकं देवद्रव्यभक्षणोपेक्षणम् ॥ देवद्रव्याधिकारे भ्रातृद्वय कथान कम् १४ । ॥१०८॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ K देवमद्दसूरिविरइओ कहारयणकोसो। सामन्नगु शास्त्रश्रवणाधिकारे श्रीगुप्तकथानकम् १५॥ जाहिगारो। सत्थत्थभावगा पुण कह पि चुका विसिट्ठमग्गातो । नाणंकुसवसत्ता गय व मग्गम्मि लग्गति ॥ ५ ॥ न वि तं करेइ देहो न य सयणो नेय वित्तसंघाओ। जिणवयणसवणजणिया जं संवेगाइया लोए ॥ ६ ॥ किंच कंखइ लोगो सोक्खं तं पुण धम्माओ सो विवेयाओ । सो सत्थस्सवणाओ ता तस्सवणुञ्जमो जुत्तो ।। ७॥ अच्चंतजीववहनिरयमाणसा विगयसव्वकरुणा वि । निचं पि य [...] अवुल्लाविणो वि विणया[उ] हीणा वि ॥८॥ सत्थसवणाणुरागेण ओर्यपत्ता इहं महब्भुदयं । पावियसमीहियत्थो सिरिगुत्तो [इह ] उदाहरणं ॥९॥ तहाहि-अस्थि मगहाविसयालंकारकप्पा, कप्पवासिसमाणरूवैसुंदेराइगुणमणुयलोयाहिट्ठिया, जुहिट्ठिलसेण व संयाण&ा उलविलसियाभिरामा, मरुभूमि व विहुँम-रिद्वनीलुप्पीलुपसोहिया विजयपुरी नामं नयरी । रक्खइ य तं च विक्कमेकधणो अप्पडिमपयाव-रूव-चाग-सोहिग्गाइगुणावगणियासेसमहीवालो वइरिवरूहिणीमहाखयकालो नलो नाम राया । सवतेउरवरिट्ठा य पउमावई से भजा । असेसदेसंतरचरणोवञ्जियभूरिदवपन्भारो महीधरो नाम सत्थवाहो । सिरी य से भजा। १ शाखार्थचिन्तका इत्यर्थः ।। २ श्रष्टाः ।। ३ शानाकुशवशप्राता गजा इव ॥ ४ "पन्ना ग" प्रती ॥ ५ सोगं, तं प्रती ॥ ६"स्सधणु प्रती । ७ हीणो वि प्रतौ ॥ ८ 'ओजःप्राप्ताः' नीरागद्वेषाः ॥९-रूपसौन्दर्यादि-॥ १० युधिष्ठिरसेना सदा नकुलविलसितैरभिरामा, नगरी पुनः सदानकुलानांदानधर्मपरायणानां कुलानां विलसितैः-विलासः अभिरामा-मनोहरा ॥ ११ मरुभूमिः विद्रुमाः-अरण्डकरीरादिक्षुदक्षाः रिष्टाच-काकाः नीलाक्षेत्येतेषां समूहरुपशोभिता, नगरी पुनः विद्वमरिष्टनीलाख्यरत्नसमूहरुपशोभिता ॥ १२ य तच्च वि प्रतौ ॥ १३ अप्रतिमप्रतापरूपरयागसौभाग्यादिगुणावगणिताशेषमहीपाल: वैरिवरुथिनीमहाक्षयकालः ॥ ॥१०९॥ 94 .4 ॥१०९॥ ORAORATARAKHARASHANAMANASHAKAAROHAGRAT पुत्तो य असेसवसणकारित्तणेणं बहुसो विगुत्तो सिरिगुत्तो नाम । सो य सत्थवाहो पयई[ए] चिय दाण-दक्खिन-दया-सञ्च-सोहिचसीलो लोगाविरुद्धणं कम्मेण वदतो वि पुत्ताणत्थसत्थ- | उप्पित्थमाणसो आगामिदे[अ]निरंभणत्थं नरिंदमंदिरं गओ । पडिहारनिवेइओ पविट्ठो रायसभं । कयपंचंगपणिवाओ दवावियासणो निसन्नो समुचियट्ठाणे । संभासिओ सिणेहभरमंथरचक्खुक्खेवपुरस्सरं राइणा-सत्थवाह ! किमेवं ववगयपक्खचाओ च लक्खिजसि जमेवं चिरकालाओ आगच्छसि ? ममाणुचियपवित्तिवसओ वा संभावियाबहुमाणत्तउ ति न सम्ममवगच्छामो अणागमणनिमित्तं ति । सिरविरइयकरकमलकोसं च भणियं सत्थवाहेण-देव ! मा एवमसम्भूयं विकष्पह, सुमिणे वि अदंसियएवंविहवइयराणं देवपायाणं को हि अणुचियं संभावेजा ? केवलमर्वरावरगिहवावारविरयणाउलमाणसाणमम्हारिसाण पइदिणं देवपायारविंददरिसणे सायराण पि पुवकयदुकयनिचओ चेवावरज्झइ, न उण कारणंतरं ति | राइणा भणियंहोउ ताव, साहेसु आगम[ण]कारणं । सत्थवाहेण भणियं-देव ! बाढमिमं न कहिउँ न सोढुं नावि गोविउं पारियह, अन्नत्तो उप्पन्नं दुक्खं अक्खिजई सुहेणेव । अप्पसमुट्ठाणं पुण सीसइ कडेण गरुएण तह वि हु सामिम्मि निवेइऊण दुक्खं सुंतिक्खमवि होमि । सयमवगयदुक्खो हं, को व समत्थो तुमाहिंतो? ॥ २ ॥ १ 'विगुप्तः' निन्दितः ॥ २ सौहित्य-हित विस्वम् ॥ ३ पुत्रानर्थसार्थव्याकुलमानसः आगामिदेयनिरोधार्थम् ॥ ४ णचउ प्रतौ ॥ ५ अदर्शितवविधव्यतिकराणाम् ॥ ६ अपरापरगृहण्यापारविरचनाकुलमानसानामस्मादृशान् ॥ ७ "रजइ प्रतौ ॥ ८ "ज सु प्रती । आख्यायते ॥ ९ आत्मसमुत्थानं पुनः शिष्यते ॥ १० सति प्रतौ ॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दबारिविरहओ शाखश्रवणाधिकारे श्रीगुप्तकथानकम् १५॥ कहारयणकोसो॥ सामन्नगुणाहिगारो। ॥११॥ CARSA तओ मुणियाभिप्पाएण राइणा कारावियं विजणं । भणिओ सत्थवाहो-भद्द ! वीसत्थो साहेसु दुक्खं । सस्थवाहेण जंपियं-निसामेउ देवो अस्थि कोमुइमयंकषवलस्स अम्ह कुलस्स कलंको अणत्येकचित्तो सिरिगुत्तो नाम पुत्तो । सो य 'एगो' त्ति अणिवारिजंतो दुल्ललियगोट्टिचेट्ठिएमु निरंतरमेक्खित्तचित्तो रमइ जूयं, निवसइ पणंगणागिहेसु, पोसइ नड-चेड-चाडुयरपमुहमनिबद्धं बहुंजणं । एवं च सत्तपुरिसपरंपरागओ वि अत्थो निहणमुवागओ । वाहरिऊण य एगते अणुसासिओ सो मएअरे ! मा अकाले चिय निहणमुवणेसु धणं, परिहर कुसंगं, वट्टसु विसिद्समायारेण-इन्चाइ बहुविहं भणिजंतो वायामेत्तेण | पडिवजिऊण सविसेसं जहिच्छं वियंभिउं पवत्तो । मए वि तत्ववहरणं तहाविहं नाऊण संगोषियं सम्मं सवं घरसार, सत्वत्थ ठविया रक्खगा, भोयणमेत्तं मोत्तुं सेसं तणं पि घेत्तुं न पारइ एसो, तह वि वसणाभिभूयत्तणेण न विरमइ जूहिप्पसंगाओ । हारियं च बहुयं धणं । पादं निरुद्धो दवत्थं संहिएण । ततो कहि पि अप्पाणं विमोइऊण रयणीए अम्ह गिहसमीववत्तिसोमसेहिणो भवणे पाडियं खत्तं, आयड्डियं गेहसारं, निजुंजियं च अभिरुइयट्ठाणेसु । वियाणितो य मए एस वइयरो तदभिर्मयविलासिणिदासचेडियवयणाओ। रायविरुद्धसमायरणाओ य भीओ दूरमहं । सहस्सचक्खुणो य खोणीबाणो भवंति । 'जावऽज वि देवो वइयरमिमं न निसामेह ताव सयं नियदुचरियं साहेमि' त्ति तुम्ह समीवे १ दुर्ललितगोष्टीचेष्टितेषु ॥ २ "मसित्त" प्रती ॥ ३ "विम्भितुम्' विलसितुम् ॥ ४ "याउप्प प्रती ॥ ५ 'समिकेन' प्तकारमुक्येन । ६ "भिगय प्रती । सदभिमतविलासिनीदासचेटिकावदनात्-पचनावर ॥ ७ कथयामि ॥ ॥११॥ SCIRCRAKARSHEKHARKHAN+%A6%EKACK+%EKAX** देवव्यरक्षणोपदेशः यदि पथि सतां गन्तुं बुद्धिर्यदि प्रवरं पदं, नृप-दिविषदां प्राप्तुं काला श्रियोऽप्यविनश्वरीः। यदि करेंगता लीला: कर्तुं सदेव हि वासना, यदि च विपदुच्छेदच्छेका मनोरथसन्तति: यदि भवमहासिन्धोरन्तं प्रयातुमहो! मतिर्यदि च सुकुलप्रत्यायातिप्रमुख्यशुभस्पृहा ।। यदि च कुमुदश्वेतोदात्तत्विषा यशसा दिशः, सितयितुमलं वाञ्छा काचित् समस्ति तदा सदा ॥ २ ॥ जनयंत जनाः ! जैनद्रव्याभिवृद्धिम विना, क्षययुजि जिनागारादौ यत् तथाविधदौस्थ्यतः । क्व यतिविहृतिः सम्पयेत ? क्व वा जनवोधनं १, कथमिव तथा वृद्धिं गच्छेत् क्षितौ जिनशासनम् ? ॥३॥ इति क्षमाधीशपुरःसराया, युगन्धरः साधुवरः सभायाः। निगद्य तवं नृपवन्धमानो, विर्तुमन्यत्र चकार चेतः।। ४ ।। ॥ इति श्रीकथारत्नकोशे देवद्रव्यचिन्ताधिकारे भ्रातृदयकथानकं समाप्तम् ॥ १४॥ जिनागमश्रवणम् जिणभवणाइविहावणमणहं न विणा उ र्समयसवणेण । ता सिद्धंतस्सवणे करेज जत्तं ति वोच्छामि ॥१॥ सुस्सा पढम चिय लिंग जंपति धम्मवंछाए । तदभावे चिय सत्थत्थसावणं कंठसोसकर ॥ २ ॥ सत्थत्थसवणरहिया पसु छ पुरिसा न कि पि जाणंति । हियमहियमजाणंता अहियं पि कह पि कुवंति ॥३॥ तकरणातो भवसायरम्मि रंगतदुहमहावत्ते। उम्मञ्जण-निम्मअणसयाई कुम्मो व कुवंति ॥४ ॥ १ "रतला ली प्रती ॥ २ "यति ज" प्रती ॥ ३ अनपम् ॥ ४ जिनागमश्रवणेनेत्यर्थः ॥ ५चिवम् ॥ ६ शास्त्रार्थश्रावणम् ॥ ७ उम्मोज प्रतौ ॥ १९ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव मद्दसूरिविरहओ कहारयणकोसो ॥ सामन्नगुहिगारो । ॥ १११ ॥ साहु तुह वयणविनासो जो तुमं वणियजणं चेव चोरं काउमिच्छसि किं वाऽमुणा कवोलवाएण ? महायणो साहेउ 'केत्तियमित्तो अत्थो गओ ?' चि । सम्ममालोचिऊण जंपियं महायणेण देव ! पणवीसं सुवनमहस्स ति । तओ भंडागाराओ दवाविऊण तेत्तियमेतं सुवनं, तंबोलाइदाणेण सम्माणिऊण विसज्जितो महायणो । ----- राहणा विवाहरिओ सिरिगुत्तो, बुत्तो य-अरे ! जह कह वि सत्थवाहलञ्जाएं तुह अजुतं न भासेमि करेमि वा ता किं तुह एवं बेट्टिउं खमं १ अतो अज वि जमिमं महाणुभावस्स सोमसेहिणो दबमैवहढं तं समप्पेसु मा अप्पाणं विरुद्धकारितणेण अपत्तकालं चिय कालातिहित्तणं उषणेसु । सिरिगुत्तेनं भणियं देव ! को एवंविहम घडतं खरसिंगं व बाहर ? किमम्ह कुले केण वि एवंविहमकजमणुट्टियं ? सच्चं 'नत्थि बुजणाणं किं पि अवत्तव्यं' ति, अहवा किमणेण वायावित्थरेण ? एतो पाणियं पि पाहामि सुद्धो हं । ततो रभा वाहराविओ जूयवालो पुच्छिओ-अणेण सत्थवाहपुत्रेण केत्तियं दविणजायं हारियमासि ? । तेणं संलतं देव ! दस सहस्सा कणयस्स, परं संपयं दिना । रना भणियं - अरे सिरिगुत्त! ते सुवन्नसहस्सा दस घरे किंपि अपावमाणेण कत्तो तुमए दिन्ना ? । ते[ण] जंपियं—तुम्ह पसायातो अजवि पिउणोवि अत्थि तेत्तियं जेतियमहमुवभुंजामि । रन्ना भणियं निरुद्ध घरजहिच्छाचारस्स तुह दूरमसद्दहणिअमेयं । तेण भणियं - जइ दूरमपचओ मज्झ वयणे ता अणुगिण्हड देवो ममं दिवदाणेण । तओ पंचक्खावला [वा]ओ जायतिकोवेण १५ गुह प्रतौ ॥ २ बडि प्रती ॥ ३ अपहृतम् ॥ ४ "अप्पणो विप्रतौ ॥ ५ अघटमानं खरशृङ्गमिव 'व्याहरति वक्ति ॥ ६ अप्राप्नुवता ॥ ७ निरुद्धगृहय बेच्छवारस्य तब दूरमश्रद्धानीयमेतत् ॥ ८ प्रत्यक्षात् ॥ नरवणा निरूविया धम्माहिगरणिया - इमं दुई देवयापुरओ फालगाहणेण विसोहिऊण मम समप्पह ति । 'जं देवो आणवेद' ति चालिओ एसो धम्माहिगरणिएहिं । तओ विभत्तं सिरिगुत्तेण-देव ! को पुण एत्थ सिरए डाहि १ ति । आबद्धकोब्भड भिउडिणा य भणियं नराहिवेण - अहं सिरए होहामि ति । जत्थ राया सयमेव सिरोवडावणं कुणइ तत्थ दूरं पंस्था नयववस्थ' ति हैत्थं वाहरंतो नीओ कारणिएहिं देवयामंदिरं । काराविओ सचेलं पहाणं । जैलणविंदुड्डामरं बाढं धमावियं फालें । तं च सिरिगुत्तेण उम्मुक केसेण सर्वजण समक्खं संचसावणं काऊण पुढकालपढियसिद्ध दिव्वधं भणमन्तसुमरणपुरस्सरं सायरं करयले तहापेच्छं तस्स धम्माहिगरैणियलोयस्स हिमसिलासगलं व दुत्रियमक्खेवेण । अर्चितमाहप्पत्तणओ मणिमंताणं न लोममेतं पि ज्झामियमेयस्स । तहट्टियं चेत्र दिई करयलं कारणिएहिं । पडिया ताला । 'सुद्धो सुद्धो' त्ति घोसिय बंभणेहिं । पक्खित्ता से सेयसुरहिकुसुममाला कंठदेसे कारणिएहिं । निवेइओ एस वृत्तंतो नर्रिदस्स । चमकिओ य एसो अविभावियसिरयगह पहनापगरणेण परिभाषिरं पवत्तो य दिवगणेण सुद्धम्मि तकरे सिरिपरिग्गहपवनो । डंडिअर पयडं तकरो व मिकरं रन्ना ( १ ) सयमेव सिरयपक्खं लोयसमक्खं पवजिऊणाहं । जइ अप्पाणं चोरं व अर्पणा नो निगिण्हामि ता सन्चवाणो राइणो ति नूणं इमीए वाणीए । दिजउ जलंजली जाब जयमिणं भमउ य अकित्ती ।। १ ।। ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ १ कोवभड' प्रतौ ॥ २ प्रोषिता ॥ ३ शीघ्रं व्याहरन् ॥ ४वलन वृन्द भयङ्करम् ॥ ५ सत्यापनं कृत्वा पूर्वकालपठितसिद्ध दिव्य स्तम्भनमन्त्रस्मरणपुरस्सरम् ॥ ६ 'रणलो प्रती ॥ ७ अविभावितशिरोग्रहप्रतिज्ञाप्रकरणेन ॥ ८ प्यणो नो नगि प्रतौ ॥ ९ लंघली प्रतौ ॥ १० जगद् इदम् ॥ शाखश्रवणाधिकारे श्रीगुप्त कथान कम् १५ । ॥ १११ ॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाखश्रवणाधिकारे श्रीगुप्त देवभदखरि-3 विरहओ कहारयणकोसो॥ सामनगुजाहिगारो। ॥११२॥ कथानकम् १५॥ परियत्तउ नयवत्ता कलुसउ कलिकालकलिलमखिलजणं । उत्तम-जहन्न-मज्झिममग्गो वि समत्तणं लहउ ॥४॥ इय किं व जीविएणं देहीणं नयविहीविहीणेण ? | वरमिण्हि नवरि मरणं पच्छा वि अवस्समरियवे ॥५॥ एवं च विणिच्छइयमरणकायवेण सविसेसं सुमरिया देव-गुरुणो, बाहराविया मंतिणी, साहिओ तेसि निययाभिपातो। विसना मंतिणो, भणिउं पवचा य-देव! न जुत्तमेयं तुम्हाणं सयलमहीमहाभारसमुद्धरणधीराणं, पयागरुयपुनपब्भारवसउ चिय तुम्हारिसाणमुप्पत्ती, न जहत[ह] संमविणी, ता देव ! अप्पदोसमंगीकाऊण बहुगुणं कर्ज काउं जुञ्जइ । एवं च जाव | पयंपंता ते चिटुंति ताव सणियसणियं पसरिया गरुयमंदिरेसु वत्ता, जहा-देवो अपरिभावियसिस्यंगीकारपडिण्णावसओ अप्पणो चोरदंडं काउमुवडिओ ति । मुया य एसा वचा सत्थवाहेण । ततो अचंतमाउलचितो तुरियतुरियमागतो एसो रायमंदिरं, पडिहारनिवेइओ पविट्ठो सभामंडवं, कयरायप्पणामो निसन्नो समुचियट्ठाणे । लद्धावसरेण य विन्नत्तमणेणदेव ! अद्धभुत्तेण मए निसामिया असोयचा का वि वत्ता, आचंदकालियं विज[य]उ देवो, सयं काउं समीहिए अत्थे य देउ ममाएसं, अहमेव एयस्स अत्थस्स परमत्थओ हेउ ति । राइणा भणियं-साहु साहु सस्थाह! किं भनइ तुह पहुभत्तीए । महामंतिणा भणियं-सत्थाह ! जं तुमए देवस्स पुत्तसंतियं दुविलसियं साहियं तं किं उद्देसमेत्तओ ? पञ्चक्खदसणाओ ? पंच्चइयमाणुसकहणाउ व ? ति साहेसु अवितई । सत्थवाहेण भणियं-किं देवपायाणं सर्वभिचारं कयाइ कहिजइ ? १ परिसक्यताम् ।। २ अपि समल, विषमत्वं बा ॥ ३ प्रजागुरुकपुण्यप्राम्भारवशतः ॥ ४ अपरिभावितशिरोऽतीकारप्रतिज्ञावशतः ॥ ५ 'पडिपबेसओ प्रती ॥ ६ प्रत्ययिकमानुषकथनात । प्रत्यधिक:-विश्वस्तः ७ सभ्यभिचारम् ॥ ॥११२॥ AAAAAAA-%ARREARRAREKKAKKAKARAN समागओ म्हि । ता देव ! पुषमणागमणस्स संपइ समागमणस्स य एयं निमित्तं । इहि च देवो पसायं काऊण घरसारसवस्सं एवंविहार्वराहकारिणो मे गेहउ ति । राइणा भणियं-सत्थवाह ! कहं तुमं अवराहकारी । सत्यवाहेण भणियं-अवराहकारिणं जणं पोसंतो कहमिव नावराहकारी १, यतः __ चौरबौरापको मन्त्री मर्मज्ञः काणकक्रयी । अन्नदः स्थानदथैव चौर: सप्तविधः स्मृतः ॥१॥ अओ किमवरं देवपायाणं सीसह ? । राइणा जंपियं-वीसत्थो भव, सायत्तं चेव तुह धणमम्हाणं, निरुबिग्गो वच्चसु सगिर्क । ततो दावियतंबोलो पडिगओ सस्थवाहो सगिहं । एत्थंतरे यदंडारोवियसाहुलो 'अनाओ अनाउ' त्ति पोकरंतो पविट्ठो पउरवणियलोगो। 'किमेयं ?' ति ससंभमं पुच्छियं रमा । निवेइयं च पडिहारेण दूरावणयमउलिणा, जहा–देव ! चोरमुसियसबसारं सोमसिट्ठिमणुबत्तयतो पहाणजणो देवदंसणूसुओ चिट्ठा ति । राइणा भणिय-तुरियं पवेसेहि । 'जं देवो आणवेई' ति पवेसिओ लोगो, उवणीयमहरिहपाहुडो पायपडणपुरस्सरं विनविउं पवत्तो य-देव ! बाढमसमंजसमेयं, जमेवं विजयते वि देवे परिभमणसीले वि दंडवासियजणे घरसारो मुसिजद । राइणा भणियं-अरे दंडवासिय ! को एस तंतो? । तेण वागरियं-देव ! जइ अन्नत्तो कत्तो वि तकरागमो हवइ त्ति ता अम्हे मोसरित्थं नित्थरामो । रना भणियं-जह एवं ता पुरीवत्थत्वा चेव चोरा? साहु १ "बहारका प्रती ॥ २ स्वायत्तम् ॥ ३ भुजदण्डारोपितशाखः 'अन्यायः अन्यायः' इति पत्कुर्वन् ॥ उपनीतमहाईप्रामतः ॥ ५ 'मोपरिषध' चौयद्रव्य निस्तरामः ॥ RXXXKAKKARKAREPORRRRRRRRRRRR Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमद्दसूरिबिरइओ कहारयणकोसो ॥ सामन्नगुणाहिगारो । ॥ ११३ ॥ कत्थ कत्थ तुह परिस्समो १ । तेण भणियं किं तुम्ह एएण ? [जं] कर्ज तं साहह ति । ततो सिट्टो तेहिं तहाविहसत्थाहसुयगहियफालबुत्त॑तो | सम्मं परिभाविय भणियमणेणं - मह समक्खं गेण्हावेह तं सत्थाहसुयं फालं जेण युणद्द जहट्टियं ति । 'तह' ति पडिवन्नं सवेहिं । गया य बीयदिणे पुढोवइड दिवदेवयाभवणं । उवेविट्ठा समुचियद्वाणेसु नरिंदाइणो । आसीणो एगत्थ कुसलसिद्धी । पगुणीकओ उग्गीरियफारफुलिंगजालो फालो । वाहरिओ सत्थाहपुत्तो, बुत्तो य - अरे ! जइ सच्चं सुद्धसमायारो ता गिण्हसु इमं । पुवट्टिईए पयट्टो एसो तग्गहणत्थं । एत्थंतरे कुसलसिद्विणा परविजाछेयकारिणा मंतेणाभिमंतिऊण अक्खया पक्खिता चाउद्दिसिं । तप्पभावेण न जायं दिवथंभणं । दड्ढा फालग्गिणा सिरिगुत्तस्स पाणिणो । उच्छलिओ नरवइस्स जयजयारवो । 'जहत्थनामो' चि पूइओ कुसलसिद्धी पंचगप्पसायप्पयाणेण । इयरो निरुद्धो रायपुरिसेहिं । जायं पुरीए परमपमोयभरनिव्भरनच्चंत रामायणं महया रिद्धिसमुदएण वद्धावणं । कयभोयणाइकिच्चो य पमुइयमाणसो आसीणो अत्थाणीमंडवे राया । कयं च मंगेलीयमुत्तममुत्ताकलावाइस मप्पणेण सत्थवाहपमुद्दपहाणजणेण रायसन्निहियलोएण य । - एत्थंतरे विन्नत्तं रायपुरिसेहिं – देव ! तुम्ह संसय तुलारोवियजीवियस्स को दंडो कीरउ ? त्ति । राइणा भणियं - अक्खयसरीरं चैव तं वरागमेत्थाऽऽणेह ति । ततो सो तेहिं उबणीओ रायसभाए विगयजीविउ व निरुच्छाहो । संभासिओ राइणाअरे सत्थवाहस्य ! को एस वइयरो ? ति । तेण वृत्तं - देवो जाणइ । राइणा भणियं - तहावि असंखुद्धमणो साहि १ "विट्ठो स प्रतौ ॥ २स्थमेत्थं" प्रती ॥ ३ 'पाणी' दस्तौ ॥ ४ परमप्रमोदभरनिर्भर नृत्यद्रामाजनम् ॥ ५ माङ्गलिकम् उत्तममुक्ता ॥ परमत्थं । 'जं देवो आणवेह' त्ति पयट्टो सो कहिउँ, जहा— पुढकाले कालसीहो नामं कउलायरिओ समागओ आसि, समाण सीलत्तणेण य तेण समं मम जाया परममेत्ती, बाढं परिओसिओ य सो मए अणवर यमरापाणपणा मणाइणा, अन्नया तेण देसंतरं वश्चंतेण 'परमोवगारि' ति मे दिना दिवथंभणाइणो मंता, तम्माहप्पेण य एत्थं मए अप्पा विनडिउ चि । मंतिणा भणियं - अरे महापाव ! न केवलमप्पा बिनडिओ तुमए, देवो वि संसयतुलमारोविओ । सत्थवाहसुरण भणियं - एवमेयं, ता देह आएसं जेण अंत्ताणं सत्थघाय-तरुचणाइणा वावाएमिति । राणा जंपियं—दुकम्मणा वि हणिजसि लँग्गो । किंच एवं विदूरमकजमध्पणा काउमुजमंतस्स । जुज्जइ तुज्झ विणासो केवलमाजम्ममेत्तस्स ॥ १ ॥ लजिअ सत्थाहस्स होउ ता दाणि दंसणेणं ते । जइ सुचिरजीवियत्थी ता उज्झसु झत्ति मज्झ महिं ॥ २ ॥ एवं च रन्ना बुत्ते किंकरनरेहिं निद्धाडिओ सो रायमंडवाओ, धिकारिअंतो य नीहरिओ नयरीओ, पयट्टो गंतुमुत्तरावहं । अइकंतपुवपुहइपालदेसो य वीसंतो कवयदिणाई एगत्थ सन्निवेसे, चिंतिउमादत्तो य - अहो ! तेण पावकारिणा कुसल - सिद्धिना मंतवाणा कहमहमकारणवैरिणा एवंविहं दुत्थावत्थं उवणीओ १ चुँको नियसुहि-सयण-घणाणं दूरदेसातिहित्तणमणुपत्तो, ता होही तं किं पि दिणं जत्थ सो सहत्थेण मए तो चि । एवं च सो सामरिसो गामा-ऽऽगरेसु परिभमतो गओ १ म कुला' प्रतौ । नाम कौलाचार्यः ॥ २ ओयसि प्रतौ ॥ ३ मदिरापानार्पणादिना ॥ ४ स्थम्म प्रतौ ॥ ५ अत्तणं प्रतौ । आत्मानम् ॥ ६ स्वदुष्कर्मणाऽपि ॥ ७ निर्भाग्यः ॥ ८ अतिक्रान्तपूर्वपृथ्वीपालदेशश्च ॥ ९ भ्रष्टः ॥ शास्त्रश्रवणाधिकारे श्रीगुप्त कथान कम् १५ । ॥११३॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभइसरिविरइओ 3 कहारयण-15 कोसो॥ सामन्नगु-1 णाहिगारो। साशास्त्रश्रवजाणाधिकारे श्रीगुप्तकथानकम् १५॥ गयपुरे । दिहो य तत्थ भवियत्वयावसेण वीहीए उवविट्ठो समीवागयाकुसलो कुसलसिद्धी। ततो अविमरिसियजुत्ताऽजुत्तेण अंतोवियंभंतकोवानलेण अन्नस्स तिक्खग्गखग्गधेणुणा निदयं निहओ एसो, गओ य पंचत्तं । सिरिगुत्तो य पलायमाणो पाविओ आरक्खियपुरिसेहि, बद्धो समप्पिो कारणियाणं । पुच्छिओ सो विणासकारणं । जहावट्टियं सिट्ठमणेणं । कारणिएहिं भणियं-जह एवं तहावि विजंतम्मि नरिंदे नेयमग्गवियारणाए हुंतीए । सहसाकरणमजुत्तं सेसं पि हु किं पुण विणासो ? दोसाण संभवे वि हु अमोन्नविणासणं जणेऽणुचियं । सच्छंद चिय इहरा अमाणुसं जायइ जेयं पि ॥ २ ॥ जइ रे ! वेरी तुह एस होइ ता कीस अम्ह न कहेसि ? । सयमेव कुणसि दंडं एवं सइ दोसवंतो सि ॥३॥ आरोवियम्मि दोसे कारणियनरेहिं सो तओ वज्झो । अहिगारिणा निउत्तो तरुम्मि उलंबणविहीए ॥४॥ अह भयभरपकंपंतकाओ चालिओ आरक्खिगेहि, नीओ वज्झट्ठाणं, निबद्धा कंठदेसे निहुरा रज्जू । भणिओ य तेहिंआँसु रे ! सुदिहूं कुणसु जीवलोयं, सुमरसु इट्ठदेवयं, निद्दोसा इह अम्हे, तुह दुबिलसियाई चेव ऍत्थमवरज्झंति त्ति । तओ तं भयथरहरंतदेह किंकायचयवाउल उलंबिऊण साहिसाहाए गया सं ठाणं निउत्तपुरिसा । सो य कविणकंठपासयसंरुद्धसमीरप्पयारो गलनाडीनिविडावेदविहडियचक्खुवावारो १"पुरि । दि प्रती ॥ २ वीभ्याम् ॥ २ ततोऽविमृष्टयुकायुफेन अन्तर्विजम्भमाणकोपानलेन ।। ४ नयमार्गविचारणार्या भवन्त्याम् ॥ ५ जगद् ॥ ६ असु प्रती ॥ ७ एवम प्रती ॥ ८ भयकम्पमानदेई किंकर्तव्यताव्याकुलम् ॥ ॥११४॥ GAXHA**********#***#XNXHA ॥११४॥ ***06*XHAHAHAHAHAH अवि चला चलंतत्तुंगसिङ्गग्गलग्गामरमिहुणयकीलारामरम्मो सुमेरू । अवि मुयह मयंको हैववाहप्पवाह, किरह तिमिरपूरं नूण सूरो वि दूरं ॥१॥ अवि सुसइ समुद्दो लोर्लकल्लोलरोलाउलियमयर-मीणऽकतपेरंतभागी। न उण वयणमम्हं ता वियप्पं विमोत्तुं, कुणह जमिह जु किं खमं वोत्तुमनं? ॥२ ॥ इमं च तनिच्छयं सुणिऊण, सुकुमबुद्धीए वीमंसिऊण परोप्पर, जंपियं मंतीहिं-देव ! अवितहवयणो सत्थवाहो ता होयत्वमेत्थ मताइसामत्थेणं, न अन्नहा एस वइयरो एवं संभवइ, सुवंति य मंताइविहिणा दिवत्थंभणविहीओ असाहूर्ण पि, तद्देवथाउ वि कयाइ निरहिट्ठाणा भवंति ति, अत एवोच्यते-"दिव्यस्य दिव्या गति"रिति, ता एत्थ विसिट्ठमंतवाइणो समक्खं दिवगहणं जुञ्जइ ति ।। एत्यंतरे पायपणामपुवं विन पडिहारेण-देव! दुवारे कुसलसिद्धी नाम सिद्धमंतो असेसदेसपसिद्धो सिद्धसम्मपुरोहिएण तुम्ह दसणत्थं उवणीओ वह त्ति । रन्ना जंपियं-सिग्धं पवेसेसु । 'तह' ति पवेसिओ पडिहारेण एसो, दिनासीवाओ य चेडेंदिअनियडासणे आसीणो य, सायरं संभासितो रना । लैद्धावसरेहि य पुच्छिओ मंतीहिं-भो सिद्धमंत ! १गल प्रती । चलहुत्तुसशाप्रलानामरमिथुनककोडारामरम्पः ॥ २ 'मिद्गण प्रतौ ॥ ३ हव्यवाहः अग्निः ॥ ४ लोलकालोलरोलाकुलितमकरमीनाकान्तपर्यन्तभागः ॥ ५ यणमीणंकत प्रतौ ॥ ६ तं निच्छय सु प्रती ।। ७ श्रूयन्ते ॥ ८ "लबुद्धी प्रतौ ॥ ९ "हियण तुम्ह तुम्ह प्रतौ ॥ १० चेटदत्तनिकटासने ॥ ११ रचा प्रतौ ॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमद्दसरिविरइओ कहारयणकोसो ॥ सामन्नगुपाहिगारो। शास्त्रश्रवणाधिकारे श्रीगुप्तकथानकम् १५। बंछंति भासिउं मिच्छा तुच्छा मेच्छ व बालिसा । दीहं दुहमपेच्छंता जणाओ गंजणं तहा ॥ ३ ॥ रिका चोरिककजेण सजो सजंति विकर्म । न मुणंति ण से भावि चंधणुल्लंबणाइयं ॥ ४ ॥ गिसंती य पुरंधीसुरूव-लायबमोहिया । विवजंति पयंग व पईवरंगसिहासु य खेत्त-धन-हिराइममत्तदढतंतुणा । बंध[ति] बाढमप्पाणं कोसियार ब कीडया हुँचारवेरिसंकासचित्तवावारवाउला । किमिकिन्नंगसाण व निचंति न कहिं पि हु ॥७ ॥ एवं विरुद्धचेट्ठाहिं अप्पाणं अप्पणा जणा । हणंति ही! महामोहजोहमाहप्पमेरिसं ॥८ ॥ एयं च पढिञ्जमाणं निसामिऊण वीमंसिऊण य चिंतियमणेण-अहो! सुपढियं जहावत्थियस्थपडिबद्धं, ता किं एयस्स समीवे गंतूण पडिवालेमि मुहुत्तमेत्तं ? पुच्छामि य करणिञ्जजाय ? धम्मिओ को पि एस संभाविजह एवंविहसुपढणाओ, अहवा सवत्थ वि अविस्सासो जुत्तो, विसेसओ अम्हारिसाण पडिकूलविहीण, ता सिग्घमवकमामि एत्तो-त्ति पढिओ मंदमंदमुक्कचरणो एगदिसिविभागणं | जाव य बणनिउंजमज्झेणं कित्तियं पि भूभाग गओ ताव अत्थमिओ मायंडो। पांसंडिदंडखंडेहिं व संजझम्भरायरेहानिवहेहिं मंडिओ गयणमंडवो, उदंडतमकंडसंपिंडियं व मउलियं कमलसंडं, सनीडं पडुच्च १ म्लेच्छाः ॥ २ जनेभ्यः तिरस्कारम् ॥ ३ 'रिक्ताः' स्वच्छन्दाः चौर्यकार्येण ॥ ४ ण न सो भा' प्रतौ न जानन्ति खछ तस्य भाचि । अत्र 'ण' इति खल्बर्षे ।। ५ गृध्यन्ति ॥ ६ "ग्गसुद्दा प्रती ॥७दुचार' प्रतौ ॥ ८ सवाशः-समानः ॥ ९ कृमिकीर्णाश्वाना इव स्थिरीभवन्ति न कुत्रापि दि ॥ १० पसं° प्रतौ ॥ ११ सन्ध्यामरागरेखानिवहः ॥ १२ उदण्डतमःकाण्डसम्पिण्डितमिव मुकलितम् ।। ॥११५॥ ॥११५॥ SAX********KAKKAKK++8+%%*&+K****** SEXMMACHARGESAKASHASAWARACHANAKARAN उड्डियं कारंडव-भारुडपमुहपक्खिकुडंबं, परिपिकदाडिमीफलविसरो व किं पि अरुणो पंसरि[ओ रयणियरो, सुमरियनियनियनिवासाई नियत्ताई दिसिमुहेर्हितो मय-महिस-गय-गवयजूहाई । ततो चिंतियमणेण-न जुत्तमित्तो गमणं, सपचवाओ खु एस प्पएसो । ततो गंभीरसाह-प्पसाहाउलस्स वडविडविणो आरुहिऊण पसुत्तो साहाए । जाव य साहुपढियं परिभावितो अच्छह ताव जाममेत्ताए गयाए रयणीए समागओ तत्थ बडकोडरे मणुयभामुल्लावकुसलो एगो सुगो । अन्भुडिओ सुगीए, पुट्ठो य–किं एत्तियवेलाविक्खेवकारणं? । तेण भणियं-अच्छरियभूयं भवदुबिलसियं साहिउं पिन तीरइ । तीए जंपियंसबहा साहहि ताव । सुगेण भणियं-सुणसु, अहं हि अञ्ज सरस्सइतरंगिणीतीरे केयारफारपरिमलुग्गारकलमकणकवलणमाकंठमणुट्ठिऊण पडिनियत्तंतो एत्तो अदूरतरतरुसण्डमंडणभूयमसोगतरुवरं पत्तो, वीसंतो य तस्स साहाए । दिट्ठो तीए हेडडिओ विजियकलयंट्ठाए भारईए धम्ममाइक्खमाणो एगो समणो एगस्स विजाहरजुवाणस्स । संबुद्धो यसो तस्स धम्मकहाए । पाएसु य भत्तिसारं निवडिऊण पुच्छिओ णेण सो नियपुचजम्मो त्ति । जहावडिओ य सिठ्ठो सो तेण भगवया । पहिडो विजाहरजुवाणो । ततो मज्झ वि जायं परमकोऊहलं । ओयरिऊण तरुसाहाओ पडिओ हं साहुचरणेसु । रत्तासोयपल्लवपडिच्छाएंण य पाणिणा परामुट्ठो है पट्ठीए साहुणा, पुच्छिओ य-वच्छ ! किं कीरउ ? ति । मए भणियं-भय ! पसीयसु, साहेसु किं मए पुत्वभवे कयं १ परिपक-॥ २ 'प्रसूतः' उदितः 'रजनिकरः' चन्द्रः ॥ ३ "साइनिय प्रती ॥ ४ केदारस प्रतिनिवर्तमानः इतोऽरतरतरुपण्डमण्डनभूतम् ॥ ५ 'एन य प्रती। प्रतिच्छायेन-तुल्येन । शुकस्य कथा Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमद्दसूरिविरहओ कहारयणकोसो ॥ सामन्नगुणाहिगारो । ॥ ११६ ॥ जेणेवं तिरियत्तणमणुपत्तो म्हि ? । साहुणा वृत्तं - आयन्नसु सावत्थवत्थवो भयो तं भवभएण निक्खतो । घरवासाओ घेत्तुं पद्मजं सुगुरुमूलम्मि छडू -sमाइनिडुरतवोविसेसं संमायमायरिउं । पअंते वि हु तंदकयपडियारो बंतरो जाओ ततो य चुओ मद्दय ! मायादोसेण तेण तिरियत्तं । अणुभवसि संप तुमं ता एत्तो कुणसु जं जुत्तं तो बजाइसुमरणरणरणयसमुच्छलंतमुच्छो हं । ठाऊण विवन इव खणमेकं जायपडिबोहो परिभाविंतो सुतं पुत्रं पढियं पि इण्हि पढियं व संजायभवविरागो तओ मुणिं भणिउमादत्तो भयवं ! किमिन्हि कीरह १ कीरो हं तुम्ह पायसेवाए । दूरमजोग्गो जोग्गो य नेव तह सहविरईए न य तिरियजीवियचे मायमई मज्झ थोयमेतं पि । न य तीरइ अकलंको जिणधम्मो काउमिमिणा मि ता भयवं ! कहसु ममं किं तित्थं सुप्पसत्थमञ्चत्थं १ । उज्झामि जत्थ जीयं सत्थुद्दिद्वेण विहिणा हं मुणिणा सिद्धं तित्थं न विसिद्धं पुंडरीयसेलाओ । सिद्धाओ जहिं पुंडरियपमुहसाहूण कोडीओ जइ एवं ता भयवं ! तित्थे तत्थेव अणसणं काहं । मुणिणा भणियं सिज्झउ निधिग्धं वंधियं तुज्झ ता तुज्झ पिए ! इह-पारभवियमिच्छुकडं अहं देमि । खमियवं सवं सुयणु ! मज्झ थोवं पि अवर एवं च वइयरं से तदेगचित्तो सु[णित्तु सि]रिगुत्तो । तं चिय मुणिउं साहुं सुगमेवं भणिउमाढत्तो १ समायं आचर्य ॥ २ तदकृतप्रतीकारः ॥ ३ पूर्वजन्मस्मरणोद्वेगसमुच्छलन्मूर्च्छः अहम् । स्त्रिला विपद्म इव ॥ ४ मय प्रतौ गयणमिव महीए भूमिव व वोमे, दिसिंगणमिव चके द्वावियं कप्पयंतो । अगणियससिजुण्हा-वहि-मायंडतेयपसर तिमिरफुरंतं ( १ ) मनमाणो व लोयं कहकह वि महं मुकं.... पसंपाय पीडाविहुरमभिरदेहक्खेव संतुट्टपासो (१) । खरपवणपणुनो तालरुक्खो व सक्खा, तयणु निवडिओ सो भूमिवट्टे विचिट्ठो ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ ॥ ४ ॥ ॥ ५ ॥ इंदिउँदा मदोषट्टसंघसंघट्टणट्टिया । पयङ्कंति अकिचेसु अँणुपित्थमणा जणा कुणंति जीवसंपायपायमाय सुहेसिणो । असंखतिक्खदुक्खोहखोहं ततोऽणवेक्खिउं ॥ ६॥ || 9 || ॥ ॥ ८ ॥ 11 8 11 ॥ १० ॥ ॥ ११ ॥ ।। १२ ।। मायामतिः । ५ मया ॥ 11 2 11 ॥ २ ॥ अह सिसिरसमीरणवसओ मणागमुवसंतदेहदाहो खणंतरेणोवलद्धचेयणो पच्चुजीवियं व अप्पाणं गुणतो सणियसणियं मसाणपएसाओ पलाणो । 'जइ पुण कोइ अणुमग्गेण लग्गिज' चि पयट्टो पविट्ठो एगत्थ वणनिगुंजे । तहिं च वेणुवीणाविजइनिनायं कत्तो वि समुचरतं निसामिऊण भयतरलच्छं तरुखंधंतरिओ सङ्घतो दिसं पेच्छिउं पवत्तो । दिट्ठो य अणेण एगो सज्ज्ञायं कुर्णतो महातवस्सी । तं च दडूण चिंतियं भयसंभंतेण अणेण - मन्ने एस कोइ अमुणा केंयवेणं इय गहणे वट्टन्तो अम्हारिसाण पलोयणं कुणइ, ता रुक्खंतरिओ चेवं सुणामि । 'किं एस पढइ ?"-ति तस्सवणत्थं निउत्तो सवणो । एत्यंतरे पढियं साहुणा, जहा ॥ १॥ ॥२॥ १ भूमिपृष्ठम् ॥ २ "सिमण प्रतौ ।। ३ 'विचेष्ट' मूर्च्छितः ॥ ४ कैतवेन ॥ ५ "व मुणा प्रती ॥ ६ इन्द्रियोद्दा महस्तिसङ्घसङ्घट्टनस्थिताः ॥ अत्रस्तमनसः ॥ ८ आत्मसुखैषिणः ।। ९ 'सोनवे प्रती ॥ २० शाखश्रव णाधिकारे श्रीगुप्तकथानकम् १५ । शुकस्य पूर्वभवः ॥ ११६ ॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभइसरि विरइओ कहारयणकोसो॥ सामनगुपाहिगारो। ॥११७॥ शाखश्रवणाधिकारे श्रीगुप्तकथानकम् सि, इम्हि पि तह कहंचि वसु जह परममुबइमुवेइ पुबपुरिसकमो, पसरइ सरयससहरुजला कित्ती, सामलीभवंति खलयणाण वयणाई, हवसि पढमो सप्पुरिसाणं ति । सिरिगुत्तेण जंपियं-किं बहुणा भणिएण ? अणुमुंचामि समग्गं दुभयमग्गं पड्डियवियारं । जं सिक्खाए लग्गइ अणग्गलं पि हु मणो मग्गे ॥१॥ तम्हा न कायवो ताय ! मह अविस्सासो ति । ततो जहतह पुवाणीयपणियविकयं काऊण सनयरीहुतं नियत्तो सत्थाहो । महरिहपाहुडपुवयं दिट्ठो राया, [कहिया य] सिरिगुत्तवत्ता । पवेसितो य सो राइणा महाविभूईए । अह सिरिगुत्तो जिणधम्मकम्मकरणेकबद्धपडिबंधो । पुरिसत्थेसु पयट्टो तह जह कित्तिं परं पत्तो ॥१॥ अप्पुवापुत्वं समयसत्थमणवरयमेव य सुणतो । बेरंग्गावडियमई परिभावितो तयत्थं च ॥ २ ॥ सत्तीए अणुरूवं बारस वि वयाई फासमाणो य । सुगमेव संमरंतो कालं बोलेई स महप्पा ॥ ३ ॥ अवरवासरे य रयणीए पढमपओसे कयचिईवंदणस्स सामाइयट्टियस्स सिरिगुत्तस्स समुओइयदिसिमंडलो नियरूयविणिजियाखंडलो समागओ एगो देवो। कयसायरपणामो य पुच्छिउँ पत्तो-भो सिरिगुत्त! अवि निव्वहइ बाहाविरहियं हियाणुट्ठाणं'। सिरिगुत्तेण भणियं-चाई निबहा देव-गुरुपसाएण, सविसेसं च सुगाणुभावाओ । देवेण जंपियंको पुण सो सुगो ? । ततो सिरिगुत्तेण सिट्ठी तदुवयारवुत्तो। 'अविस्सुमरिओवयारो महाणुभावो' ति परितुट्ठो तियसो १ अनुसञ्चामि समयं दुर्नयमार्ग प्रदर्षितविकारम् । यत शिक्षया लगति अनर्गलं अपि हि मनो मार्गे ॥ २ पूर्वानीतपण्यविक कृत्वा स्वनगर्यभिमुखं नित्तः सार्थवाहः ॥ ३ अपुश्वा" प्रती ॥ ४ वैराग्यापतितमतिः ॥ ५ अतियाइयतीत्यर्थः ॥ ६ अविस्मृतोपकारः ॥ ७ मभाणु प्रती ॥ ॥११७॥ (ERA KARN+KA+KASAKARAREEKESARKAR+KAKARACKAKARAN भणह–सिरिगुत्त! परियाणसि तं सुगं?। सिरिगुत्तेण भणियं-कहासेसभूयस्स कत्तो तस्स परियाणणं । तओ सिटुं देवेण, जहा-सो अहं सुगो पुंडरियगिरिकयाणसणी सणंकुमारे कप्पे देवत्तणेण उववो, संपयं च तुह समीवे धम्मथिरीकरणत्थं पओयणंतरकहणत्थं च आगओ म्हि । सिरिगुत्तेण भणियं-सम्मं कयं, पसायं काऊण साहेसु पओयणंतरं । देवेण भणियं-इओ दिणाओ सत्तमे दिवसे तुह जीवियंतो होही, ता सम्मं धम्ममाराहेजसु-त्ति संसिऊण तेण बाढमभिनंदिनमाणो सट्ठाणं गओ तियसो । सिरिगुत्तो वि तस्स वयणाणंतरमेव [कय]जिणाययणपूयामहिमो पूजियसंघो खामियसवसत्तो दिवणाणिणो विजयसूरिणो समीवे संथारयदिक्खं पवञ्जिय कयाणसणो पंचनमोकारपरो मरिऊण दिवं ग[उ] ति । पत्थावे य नयरीजणेण पुच्छिओ सूरी-भय ! अञ्चतनिळ्धससमायारो वि भविय सिरिगुत्तो कहमेवंविहविसुद्धविवेयजुत्तो संवुत्तो ? । सूरिणा मणिय-सत्थसवणं एवंगुणजणगं ति, तुम्हाण वि एत्थ उजमो जुत्तो ति । किंच सदसदिति विवेका[व] त्यक्तशङ्काकलकोऽशुभकरमिह वस्तु प्रक्रमेत प्रहर्तुम् । स च भवति विवेकः शास्त्रशुश्रूषयैव, श्रमविरहितचित्तस्तेन तस्यां यतेत ॥१ ॥ स्वयमपगतबोध: प्राणिवर्गः समग्रः, कलिकलिलवशाद्वाऽतीन्द्रियज्ञो न कश्चित् । यदि जिनमतमेतत् सूर्यवनाभविष्यत्, किमिव हि न तदानीं दौस्थ्यमाप्स्यजनोऽयम् ? १ प्रयोजनान्तरम् ॥ २ समं प्रतौ ॥ ३ "लकः, शुभ प्रती ॥ + शाखश्रवणफलं तदुपदेशश्च" + Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दरि'विरइओ कद्दारयणकोसो॥ सामन्नगुणाहिगारो। ॥११८॥ ज्ञानदानाधिकारे धनदत्तकथानकम् १६॥ शिवपथरथकल्पं ध्वस्तकद्वादिजल्पं, निरुपहति च नेत्रं धीमहोद्यानचैत्रम् । स्मररिपुजयशवं श्रीजिनोद्दिष्टशास्त्रं, भवभयमपहन्तुं नाप्नुयात् कोऽधिगन्तुम् ? इतीहमानैर्मनुजैः समृद्धि, गुणावलीनां च सदाऽभिवृद्धिम् । जिनेन्द्र शास्त्रश्रवणाभियोगः, कार्यो निरस्ताखिलदुःखयोगः ॥ इति श्रीकथारत्नकोशे शास्त्रश्रवणाधिकारे श्रीगुप्तकथानकं समाप्तम् ॥ १५ ॥ सिंद्धतसस्थसवणुब्भवंतनिम्मलविवेयपैडिहत्था । अन्भुच्छहति दाणे ता तविहिमिहि वोच्छामि ॥१ ॥ पढममिह नाणदाणं बीयं अभयप्पयाणमक्खायं । धम्मोवग्गहहेउं तइयमुवटुंभदाणं ति। ॥ २ ॥ नाणं चिय स-परसरूवपयडणे नूण पायडपभावं । ता तद्दाणे चिय पढममुजमो जुजए काउं दिओणमुणा जीवो विनाया होइ बंध-मोक्खाणं । पुनाणं पावाण य तहुँचियकिचाणुरागी य ॥४ ॥ पावपरिहारपरमो पुलोवअणसमुजओ य भवे । इह-परलोए य सुही नाणपयाणपसाएण ॥ ५॥ दाणाणं सेसाणं कत्तो वि कहिंचि दीसह विणासो । दिजंतस्स वि निचं बुडि चिय नाणदाणस्स १ कुत्सिता वादिनः कदादिनः-दुर्वादिन इत्यर्थः ॥ २ श्रीजनो' प्रतौ ॥ ३ 'न्तुं प्राप्नुयात् क्रोधेग प्रती ॥ ४ सिद्धान्तशालश्रवणोद्भवनिर्मलविवेकपूर्णाः । अभ्युत्साहन्वे ।। ५ 'पडद प्रती ॥ ६ विशाता ॥ ७'दुचिय' प्रती ।। ज्ञानदानम् RRIERRANKRAINING KAMKARAN ॥११८॥ SHRISHNAKOSESEXAAGANORAMAYAWASANER 'तिरितो वि तुमं धन्नो कयपुग्नो जेण सो महासाहू । सक्खाऽभिवंदिओ पुच्छिओ य संदेहसंदोहं ॥ १३ ॥ परमेगोऽहमधन्नो दिट्ठो वि स दुद्रुवुद्धिणा जेण । नो वंदिओ न पुट्ठो तहसज्झायं कुणतो वि ॥१४॥ हा पावजीव ! अञ्ज वि जवियवो अइचिरं तए अप्पा । चिंतामणि ब स मुणी जमवनानिब्भरं दिट्ठो ॥१५॥ वोकंतवत्थुपरिसोयणेण किं वाऽमुणा ? मुणिज तुमं । संयमुणियकजतत्तो ता कह जं मज्झ करणिशं? ॥ १६ ॥ देव-गुरु-धम्मतत्ताइ तयणु सर्व सुगेण से कहियं । सत्थसवणे य जेत्तो उवइट्ठो इट्टसिद्धिकरो ॥१७॥ कयखामणो य तेसिं सुगो गओ वंछियत्थकरणाय । सिरिगुत्तो वि दुहट्टो तओ पयट्टो पहे गंतुं ॥१८॥ सो य महीधरसत्थवाहो सनिकीरनगरनिवासियसुयसंतावेण सगिहे हाउमपारयंतो अत्थोवञ्जणकईयवेण नीहरिओ उत्तरदिसाभिमुह । अन्नया गाम-नगराइसु सिरिगुत्तसुद्धिं कुर्णतो कम्म-धम्मसंजोएण गयउरमइक्वम्म केत्तियभूभागे दिनावासो जाब चिट्ठइ ताव सिरिगुत्तो ततो तरुगहणाओ अइंतो संपत्तो तं पएसं । पचमिन्नाओ सस्थाहेण, उवगूहिओ सिणेहसारं, सायरमापुच्छिओ परिभमणवुत्तंतं । सिट्ठो य जहडिओ नयरीनिग्गमाओ कीरदसणावसाणोऽणेण नियवइयरो । तं च सोचा असुयपूरपूरिजंतलोयणेण सदुक्खावेगगग्गरसरं भणिय सस्थाहेण-पुत्त! को इमो कालो अम्ह अत्थोवाणस्स? केवलं तुह पवासाणंतरमेव समुपनदेहदाहो तुम चेव पलोइउं गिहाओ निग्गओ म्हि, ता पुत्त ! सुंदरं जायं जं तुम दिट्ठो १तियंगपि ॥ २ यद् अवशानिर्भर दरः ॥ ३ "रिमोय प्रती । ब्युस्कान्तवस्तुपरिशोचनेन ॥ ४ सयज्ञातकार्यतत्त्वः ॥ ५ बस्नः ॥ ६ सनिकारनगरनिर्वासितमुतसन्तापेन । निकार:-तिरस्कारः ॥ ७ "इवयवे प्रतौ । -कैतवेन ॥ ८ अश्रुपूरपूर्यमाणलोचनेन सदुःखावेगगद्दस्वरम् ॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्द सूरिविरहओ कहारयणकोसो ॥ सामन्नगुबाहिगारो । ॥११९ ॥ सिग्धं पवेसेह । पवेसिया ते अणेणं, आंपडिया रनो चलणेसु खित्तो लेहो । सयमेव वाइओ नरिंदेश, जहा स्वस्ति । मागधवसुधासुधाधामानं श्रीजयचन्द्रं महानरेन्द्रं सुरतरङ्गिणी परिसर वसुन्धराधिपत्यनियुक्तः सदाऽऽदेशकारी कुरूदेवः पश्चाङ्ग प्रणिपातपुरःसरं प्रणम्य विज्ञपयति । यथा— कुशलं देवपादानुस्मरणात् । केवलं 'शैवलनामा सीमालमेदिनीपालः प्रतिहतसमीपग्रामो देवदेशमुपद्रवति' इति श्रुत्वा देव एव प्रमाणमिति ॥ - ॥ १ ॥ एवं च बाइऊणं राया पसरंतकोवपन्भारो । अरुणनयणप्पहाहिं अकालसंज्झ व दार्वितो रे रे ! पेच्छह पेच्छह पमुत्त केसरिसिरग्गकंडुयणं । सेवालो बालो इव कह काउमुवडिओ दुट्ठो ? पेउरकरि-तुरय-रहवर- वीरुब्भडमिलियस यलमहिवालं । बैहिया द्वावह सेन्नं इइ भासतो ससंरंभ विनतो कुमरेहिं देव ! किमेवं समुतहह कोवं ? । जलसंगमदुछलिए को सेवाले वि संरंभो ? देहाssसं अहं जह तद्दप्पं अणप्पमवि दलिमो को सेवगे वि संते पहुस्स सयमेव बावारो १ एवं कुमरगिरं निसामिऊण राइणा पक्खित्ता मंतीसु दिट्ठी । इंगियागार कुसलेहिं तेहिं वृत्तं - देव ! साहु विन्नत्तं रायपुतेहिं, को अनो एवं पत्थावाणुरूवं बोत्तुं जाणइ ? ति । तओ राहणा दिन्नो आएसो जेटुस्स विजयचंदरायपुत्तस्स ति । तओ कुत्रिओ बंदसेणो दंसियनिडाल भिउडिभंगो रायसभाहिंतो नीहरिउमारद्धो । जाओ सभाखोहो । नियत्ताविओ य ॥२॥ ॥३॥ ॥ ४ ॥ ॥ ५ ॥ १ अप प्रतौ ॥ २ प्रचुरकरि तुरग-रथवर वीरोद्भटमी लितसकलमहीपालम् ॥ ३ पहिया द्वावण सेन्नं प्रतौ ॥ ४ सेवालपक्षे जलस्य - पानीयस्य सङ्गमेन दुर्लखिते, राजपक्षे तु जहानां - जडबुद्धीनां सङ्गमेनेति ॥ रना कह कह वि, भणिओ य—वच्छ ! किमेवं कुप्पसि १ किं न याणासि तुमं लोगट्टिई १ 118 11 जेडुम्मि गुणविसिट्टे न कणिडुडावणं हवइ जुत्तं । एगोयरे वि भाइम्मि वच्छ ! मच्छरियमच्छरियं केत्तियमेतं एवं ? रजं पि न दिजमाणमिच्छति । पिउनिधि से सबुद्धीए जेट्टमायम्मि विजते वोकंर्तकमसम्माणणं पि अवमाणमेव मन्नति । सप्पुरिसा इयरे पुण जहतह तं चैव वछंति नयमग्गतुलारूढा वि नायमुज्झति कह वि जह पुरिसा । ता दूरमवर्कता पुत्तय ! खेत्तस्स बत्ता वि एवं पन्नविओ चि नोवसंतो रायपुत्तो । तओ रायवयणेण भणिओ मंतीहिं- रायपुत्त ! कीस देववयणं पडिक्लेसि ? कीस वा सङ्घस्थ वित्थैरंतं 'अविणीउ' ति अवजसपसुं न पसमेसि ? 'निम्मलजसप्पहाणं हि जीवियं सलहंति' चि किं न याणइ रायपुत्तो ? ति । इचाइभूवियणपीनिवहाणुसासिअमाणो नायमग्गं पवन चंदसेणो । इयरो वि चउरंगबलसणाहो सेवलनरिंदं पहुच गंतुं पयट्टो, कमेण य पत्तो सदेससीमा संधिं । समाहूया य तद्देसवत्तिणो सामंताइणो । भणाविओ दूयवयणेण सेवलराया, जहा अजहाबलमारंभो हि दूसणं भूसणं अओ पणई । ता अप्पाणं परिभाविऊण भो ! कुणसु जं जुत्तं 11 2 11 ।। २ ।। किंच— ॥ ३ ॥ ॥ १ ॥ १ पितृनिर्विशेषबुद्धा ज्येष्ठभ्रातरि विद्यमाने ॥ २ "तकम्मस" प्रती । व्युत्क्कान्तकमसम्माननम् ॥ ३ न्यायम् ॥ ४ क्षात्रस्य वार्त्ताऽपि ॥ ५ "स्थरंतमवणीउ प्रती ॥ ६ हामिव प्रतौ । प्रधानिवद्दानुशिष्यमाणः न्यायमार्गम् ॥ ७ प्रणतिः ॥ ज्ञानदानाधिकारे धनदच कथान कम् १६ । ॥ ११९ ॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभइसरिविरहओ ज्ञानदानाधिकारे धनदत्तकथानकम् १६॥ कहारयणकोसो॥ सामनगुणाहिगारो। तेणं पयंपियं जुज्झभीरुणो उग्गिरंति नयमग्गं । दोघघडभिडणे हरिणो को नीइपहदंसी ? ॥२ ॥ ता होम समरसञ्जो दंसेसु नियं च विकमुकरिसं । अजहाबलित्तमियरं व साहिही समरमेव धुचं ॥३॥ एवं भणिए निग्गओ दूओ । निवेइओ य एस वृत्तंतो तेण रायपुत्तस्स । ततो दवावियं पयाणयं । परोप्परथेवन्तरमणुपत्ताई दो वि बलाई। तो अंगीकयखत्तसमायाराणि पहुकजबहुमभियपहरणपहाराणि समुच्छलियतुमुलतूररवपणस्संतकायराणि कुंतग्गघायघुम्मंतकुंजराणि निहरमोग्गरपहारजजरिजंतरहवराणि निवडंतछत्त-धय-चिंधरउद्दाणि उभयपक्खपहीयमाणसूराणि सुचिरं ताई जुज्झिउं पवत्ताई ति । अह भवियच्चयावसेण पराजियं विजयचंदसेन, पलाणं च जं जहा तं तह त्ति। विजयचंदो वि मंतीहिं कह कह वि अणिच्छतो नियत्तिओ समरंगणाओ। सुओ य एस वइयरो राइणा, आणाविओ विजयचंदो, पारद्धं सयमेव गमणं । एत्थंतरे उडिओ चंदसेणो-रायं ! पुवं पि अहं तुम्भेहिं वारिओ ता इहि न किं पि वत्तवं, देह ममाएसं ति । मंतीहिं जंपियं-देव ! रा[य]पुत्तो पुछि महाकटेण पडिसिद्धो ता संपयं अजुत्तो रायपुत्तपणयमंगो, सविसेसकरि-तुरय-रह-जोहसमप्पणेण पगुणीकाऊण विसजह इमं ति । पडिवनं रना, दिनो चंदसेणस्स आएसो । भाउणो अब्भाहियं करि-तुरगाईअं गिहिऊण नीहरिओ एसो । अक्खलियप १ रुणा उ प्रतौ ॥ २ हस्तिघटासम्मुखगमने ॥ ३ नेइप प्रती । नीतिमार्गदर्शी ॥ ४ अङ्गीकृतक्षात्रसमाचारे प्रभुकार्यबहुमानितग्रहरणप्रहारे समुच्छलिततुमुलतूरवप्रणश्यत्कातरे कुन्ताप्रपातपूर्ण्यमानकुमरे निष्ठुरमुद्रप्रहारजर्जर्थमाणरथवरे निपतच्छत्रश्वजचिह्नरौद्रे उभयपक्षप्रहीयमाणशरे ॥ | ५ "तयरधा प्रतौ ॥ ६ ° अगि प्रतौ ।। ॥१२॥ ॥१२०॥ KACCASIONSISRA%A5% %%%% A दितेण नाणदाणं नूणमदिनं न कि पि जियलोए । एत्तो य नोवयारो पवरो विजह जए अनो ॥ ७ ॥ तं पुण पढणत्थमुवट्ठियाण अणुकूलकरणओ नेयं । पंढियमहत्थ[य]पोत्थयवायण-वक्खाणमाईहिं ॥८॥ किंचनाणमदितो वि सर्य मेसह-वत्थ-ऽन्नपमुहमुवर्णितो । पढाणाण परेसिं परमत्थेणेस तद्दाया ॥ ९ ॥ किं जंपिएण बहुणा ? नाणपयाणेण केवलालोयं । लहिऊण पावइ सिवं धणदत्तो एत्थुदाहरणं ॥१०॥ तहाहि-अस्थि मगहाजणवयावयंसनिविसेस, सेसाहिफारफणारयणजालं व पेरेसिमलंघणिजं, सुरपुरपरिसरं पिव दीसं| तगुरुबुहजणं, जणियसयललोयाणुरायं रायगिहं नाम नयरं । तत्थ य हइँहयकुलनहयलमयंको निहयवयरिवहू] विहियायंको । भुवण[जण]जणियाणंदो जयचंदो नाम राया । निरुवचरियसिणेहभूमी कमल व कण्हस्स कमलावई नाम से भारिया । ताणं कलाकलावपत्तट्ठा सोडीरयाइगुणविसिट्ठा दुवे पुत्ता-विजयचंदो चंदसेणो य । ते य एगोदरसंभूया वि केणइ कम्मदोसेण अवरोप्परं सामरिसा असहणा य आहोपुरिसत्तणेण वन्ता दिणाई वोलेंति । अवरवासरे य राईणो अत्थाणीनिसनस्स रायपुत्त-मंति-सामंताइपहाणलोयस्स य समुचियट्ठाणनिविट्ठस्स विन्न पडिहारेण-देव ! अणवच्छिनदीहद्धलंघणपरिस्संता लेहहत्था दुवे पुरिसा तुरियं देवदंसणमभिलसंति ति । राइणा भणियं विद्यते जगति ॥ २ पतिमार्थपुस्तकवाचनव्याख्यानादिभिः ॥ ३°णमिदंती प्रती ॥४"माताण प्रती ।। ५ 'परेषा' अन्येषां शत्रणां च ॥ ६ रुबहुज' प्रतौ ॥ ७ देदयकुलनभस्तलगाकः निइतवैरिविधु] विहितातङ्कः ॥ ८ 'आहोपुरुषत्वेन' अभिमानितयेत्यर्थः ॥ ९ "इत्ता दिणाइ प्रतौ ॥ १० णा अ" प्रती ॥ ११ सम्मस्स प्रती ।। १२ णनिवट्ठ प्रती ।। SE Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमद्दररि चिरइओ RACC ज्ञानदानाधिकारे धनदचकथानकम् १६॥ कहारयणकोसो॥ सामनगुबाहिगारो। ॥१२॥ सत्यमुच्यते "शत्रोरपि गुणा ग्राद्याः" इति वचः, ता बाद द्यवयणेण अजुत्तमत्तणो उक्करिसपयडण कर्य मए, अप्पपसंसा हि परमं लज्जणं सुकुलुग्गयाण, जओ जंपंति थोयथोय कर्ज च कुणति भूरिवित्थारं । विचुहजणविम्हयकरो गरुयाणं को वि वावारो अम्हारिसा उ मुद्धा अतहाविहकजकरणदच्छा वि । अप्पाणमप्पण चिय विहलमणा कह विकस्थिति ॥२॥ ता सत्तू वि सेवलराया मे गुणवं पडिहाइ, अओ न जहतह जोहणिओ ति, अविभाविय कयं हि विसं पि विसेसेइ कजज ति । ठिओ एगते रायपुत्तो, वाहराविया मंतिणो, सिट्ठो सबो वि तेसिं निययाभिप्पाओ। वीमंसिओ मंतीहिं, भणियं च तेहिं रायपुत्त ! जहा तुम भणसि तहा सच्चमेयं, ता पेसिजंतु अचंतपच्चइया पच्छनचरपुरिसा, मुर्णतु ते तस्स राइणो करि-तुरगाइसामग्गि, लक्खंतु तयणुरत्त-विरत्तसामंतवग्गं, जाणंतु जाणा-ऽऽसणाणमवसरं, तकहणाणुसारेण य वावारिजंतु साम-भेयाइणो जहाणुरूवं नयमग्गा, मग्गिजंतु य नीसार-पवेसपाउग्गा जल-दुग्गाईमंतो पहविसेस ति । पडिवनं रायपुत्तेण । पेसिया य गूढचारपुरिसा कयविविइपासंडिनेवच्छा तेव्हयरोवलंभणत्थं ति । ताण य एगो सामवेयपादित्तणेण पवनो रायपुरोहियं, अवरो मंतवाहरूवेण अणुपविट्ठो संधिविग्गहियं, इयरो वि नेमित्तिगत्तणेण लीणो महामंतिणो, अन्नो वि जोतिसियभावेण अम्भुवगओ राइणो मूलं । एवं ते चउरो वि गूढचरा नियनियविजासु पत्तट्ठा कयकरणा समयाणुरूवमासिणो आगारिंगियाइवेइणो निउणेणापि अमुणिजमाणमज्झा तह कह वि निय[निय]वावारेसु पयवा जद्द कमागय व थोवदिणेहि १ स्तोकस्तोकम् ।। २ तपचरविरक-॥ ३" इज्जतो प्रती ॥ ५ सपतिफरोपलम्भार्थम् ।। ॥१२॥ पि अभंतरीभूया रायाईणं ति । संचारिति य गूढचरेहिं पइदिणवित्तं जहावित्तं रायसुयचंदसेणस्स । एवं वचंति वासरा । भणितो य मंतीहिं रायमुओ-अप्पणो परस्स य बलतुलयं काऊण विसेसवाव[रारंभो जुजइ, ता जावऽज वि सैविसेसुञ्जमसमओ न जायह ताव सेवलराइणो बहियादेसुवद्दवो कीरइ, एवं हि उवद्दविजंतदेसभोइणो सामंताइणो तुम्ह सेवं पवजंति, एवं पि सत्तुणो वयरियं हवइ । ततो रायसुएण सिग्घवेगतुरंगवग्गपेसणेण तग्गाम-नगराइणो लूंडिउं पारद्धा । नियदेसोबद्दवं सोचा कुद्धो सेवलराया, पउणीकयं चाउरंग बलं, वाहराविया जोइसिया, गणावियं विजयजत्ताजोगं लग्गं, खित्ता आगंतुगजोइसियम्मि दिट्ठी । तेण भणियं-देव! पत्तियजणदिने लग्गे कहं 'सदोसं' ति भन्न | राइणा भणियंकहसु जहट्ठियं । तेण जंपियं-जह देव ! म पुच्छह ता न जुत्ता विजयजचा, लग्गवलेण इहट्ठियाणं चेव तुभ विजय पेच्छामि । सेसजोइसिएहिं भणियं-देसे लूँडिजंते कहं विजओ'। इयरेण भणियं-पडिवालह पंच दिणाई जइ न पच्चओ । 'एवं' ति पडिवनं रना। चारजोइसिएण वि तक्खणं चिय गुत्तपुरिसमुहेण कहावियं चंदसेणस्स, जहा-कवडकलह काऊण मुंणावियकञ्जपरमत्था कइयवि वईरसीहपमुहसामंता सेवलरायं पडू घडावेयबा, सैनिकारं च खंधावाराओ निवासणिज्जा य चि । तहेव अणुट्टियं रायसुएण । तेहिं वि वहरसीहपमुहसामंतेहिं सामिभर्ति परममुबहतेहिं 'तह' ति कन्नमवयुज्झिय पहाणपुरिसपे १मूढ प्रती । गूढचरेः प्रतिविनरत्तं यथावृत्तम् ॥ २ सविशेषोयमसमयः ॥ ३ उपायमाणदेशभोगिनः॥ ४ अपकृतम् ॥ ५ उण्ठितुम् ।। एत्तिय प्रतौ । प्रत्ययितजनदत्ते ॥७व्यमाने ८॥ज्ञापितकार्यपरमार्याः कतिचिदपि ।। ९इरिसी प्रती ॥१० सापमानं च ॥११ भत्तपर प्रती॥ NASARAN Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमहरि विरइओ कहारयण कोसो ॥ सामअगुणाहिगारो । ॥१२२॥ सणेण भणावितो सेवलनरिंदो — अम्हे तुह पायसेवं काउमिच्छामो अणेण डिंभराहणा संताविय चि । ततो राहणा वाहरावितो संधिविग्गहिओ, भणिओ य- अरे ! केरिसा इमे पडिवक्खसामंता ? कहिओ य तुह चारपुरिसेहिं कोई तवावारो १ । तेण भणियं – देव ! आगमिस्सा अअ अम्द चाराहिगारनिउत्तपुरिसा, तत्तो तेहिं विणिच्छिऊण साहिस्सं । विसजिओ सो गओ संद्वाणं । सो य किर संधिविग्गहिओ तेण वेरिचरेण ठंगिओ मंतसामत्थेण दिडं सुयं च सर्व्वं तस्स साइ त्ति । आगयमित्तेण कहिओ से रायवृत्तंतो । तेण वि जाणियक अमज्ज्ञेण भणियं संधिविग्गहिय ! जह ते बहरसीहायणो सामंता रनो सेवगतं पवजिस्संति ताव चंदसेणो वि सेवं पवन त्ति बत्तवं तविरहेण तहाविहसेवगाभावाओ । एत्यंतरे आगया चारपुरिसा, निवेइओ य तेहिं परबलबुतो । दंसिया ते रभो । तेहिं सिद्धं—देव ! वहरसीहाइणो सामंता अचंतं निरवयणेण तजिया चंदसेणेणं 'न मह सेने अच्छियां' ति, 'निद्वाडिया य' इति पडहेहिं उग्घोसि अइ । राइणा भणियं- -ता संधिविग्गहिय ! किमिह जुत्तं १ । तेण बुतं—देव ! दढं सम्माणजोग्गा ते तुम्हाणं, तेदारोवलद्वपरपक्खसरूवणायसुलहो परविजओ ति । ततो आणाविया ते सामंता, सम्माणिया य पसायदाणेणं । तेण य चरनेमितिएण अन्चतं चिंता-मुट्ठि-नट्ठाइकहणेणं रंजिओ अमचो । तेणावि एगंते दंसितो सो राइणो । तेणावि पुच्छिओ – कहसु नेमित्तिय ! केरिसं अम्ह बलाबल-न्ति । तेण भणियं — देव ! थिरं लग्गं इहट्ठियाण चेव कञ्ज सिद्धिं साहेइ । ततो 'जोहसियवयणसंवाइ' ति पूइओ सो रभा । सिंट्ठा य मंतिणो - सपच्चओ जोइसिओ एसो ति । तेण वि पुरोहिएण ज्याहियसे - १ वचितः । २ हासणो प्रती वैरसिंहादयः ॥ ३ तद्दारोपलब्धपरपक्षस्वरूपज्ञातयुलभः ॥ ४ सिट्ठो य प्रतौ ॥ ५ जपाहृतसैन्यव्याधिविशेषेण ॥ याणगेहिं पत्तो सेवलराइणो सीमभूमिं । भणियद्यविसेस सिक्खविऊण पेसिओ दूओ सेवलराइणो । भणिओ से तेण, जहाजह कह वि दिवदुविलसिएण सारंगसंगरे वि हरी । भग्गकमो निर्लुको किमित्तिएण बि स तजेओ ? ॥ १ ॥ जह कह वि जैरढपन्नगफणाकड प्युप्फिडंटचंचुपुडो । पडिभग्गो गरुडो एत्तिए वि किं विजेंदणो नागा १ ॥२॥ जर जेट्टमाउगो मह पेमायचं कह वि निजिओ तुमए । ता विजइणमप्पाणं णिउं मा होसु वीसत्थो ॥ ३॥ जलहंतवस्स वि हुयवहस्स गोतुब्भवेण कुलवहरं । दड्डोयहिसलिलेणं वुब्भह वडवग्गिणा पेच्छ ॥ ४ ॥ ता उज्झिउं पमायं संपइ तं होसु समरपरिहच्छो । छलणाए निजिओ हं ति मा वंएजासि जणपुरओ ॥५॥ अह सेवलेण भणियं भो दूय ! निरग्गला तु पहुणो । जहतह जंपंति किमित्थ जुञ्जए भासिउं मज्झ १ ॥६॥ एए निद्दोस चिय सदोसवं केवलं महीनाहो । एयाण पिया जो एरिसे वि समरम्मि पेसेइ || 9 || दुस्सिक्खिय [त्ति ] बहुजपिरति अचंतदुब्विणीयति । पेसणमिसेण मन्ने इय सिक्खविडं स पेसेह ॥ ८ ॥ ता जाहि दूय ! पडिभणसु नियपहुं सिसुजओ हि मह हीला । तुह पुण पिउणा सद्धिं जुज्झं पि हु जुञ्जए काउं ॥ ९ ॥ एवं निसामिऊण निग्गज दूओ, पत्तो राय [सुय]समीवं । निवेइओ सम्रो तदुल्लावबुत्तो। तं चाऽऽयनिऊण चंदसेणो विभाविडं पयतो - अहो ! अजुतो एसो अपरिभाविय समुल्लावो, पेच्छ, सत्तुणा वि होऊण सुपसन्नं समुचियं जंपियमणेण, १ निलीनः ॥ २ जरठपन्नग फणा समूहोत्स्फिटपुटः ॥ ३ प्युफिडं प्रतौ ॥ ४ विजयिनः ॥ ५ प्रमादवान् ॥ ६ जलहन्तन्यस्यापि हुतवहस्य गोत्रोद्भवेन कुलवैरम् । दग्धोदधिसलिलेन उह्यते वडवाशिना पश्य ॥ ७ समरनिपुणः ॥ ८ वदिष्यसि ॥ २१ ज्ञानदानाधिकारे धनदत्त कथानकम् १६ । ॥१२२॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमहरि विरइओ कहारयणकोसो॥ सामनगुजाहिगारो। ज्ञानदानाधिकारे धनदत्तकथानकम् १६। पुवट्टिई, विसजिओ [य] सं द्वाणं ति । चंदसेणो वि 'बुद्धि-परकमेहिं गुणजेट्ठो' त्ति दृविओ जुवरायपए, दिना महई भुत्ती । 'अचंतं परिभूओ' ति एगागी रयणीए णीहरिओ विजयचंदो, [पयट्टो] य देसंतरे गंतुं । कइवयपयाणगेहि य समइकंता पिउणो भूमी। वुत्थो य एगत्थ क्खुद्दसत्रिवेसे । तत्थ य जिन्नुजाणे तरुच्छायालीणो उजाणविभाग पलोइऊण चिंतिउं पवत्तो एत्तो जिन्नतरू विसनविडवो वावी इओ निजला, एत्तो भट्ठधयं विकिनसिहरं कच्चाइणीमंदिरं ।। नच्छन्नकुलो य भग्गभवणो गामो य एसो इओ, उप्पाएइ सुहं महंतयमिमो जोगो समाणे हि मे ॥१॥ एवं च पयट्टो तत्तो पएसाओ गओ उडियायणजणवयं । दिट्ठो य तहिं कित्तिधरो नाम तवस्सी । निसामिओ य तम्मूले साहुधम्मो । जहा संसारोयहिनिवडंतजंतुनित्थारणेकबोहित्थं । सिवपंथसस्थवाहं अबाबाहेकसुहहेउ। मुणिधम्माओ वि न धम्ममनमभुदयसाहगं मने । ता धनाणमिह चिय जुत्तो जत्तोऽअचागेण ॥२॥ पाविजइ रज लच्छिवित्थरो वंछियं च सोक्खं पि । निद्दलियअसुहकम्मो कयसिवसम्मो ण मुणिधम्मो ॥३॥ रजाइणो पयत्था जइ विहुमुहमहुरयाए रमणिजा। तह वि न सलाहणिजा परिणइकयविविहदुहनिवहा ॥४॥ १ पहाण" प्रतौ ॥२ उषितः ॥ ३ हवयं प्रती ॥४ सुखं महत् अयं योगः स-माने हि मयि ।। ५ °हिम्मे प्रतौ ॥ ६ संसारोदधिनिपतजन्तुनिस्तारणेकमोहित्यम् । शिवपथसार्थवाहं अव्याचाधैकसुखहेतुम् ।। ७धर्मम् अन्यम् अभ्युदयसाधकम् ॥ ८ जत्तम प्रती । यत्नोऽन्यत्यागेन ॥ ९"म्मो यम प्रती॥ ॥१२३॥ ॥१२॥ KKARARAKHARKAKARARKARTARAKHARA निंबोसह व जइ विहु जईण धम्मो मुहम्मि कडयरसो । परिणइपत्तो तह वि हु अच्चंतसुहावहो होइ ॥ ५ ॥ को नाम किर सकत्रो मुहमहुरं परिणईए विरसं पि । जाणतो वि न हिचा इयरं सब्वायर लेजा ? एयं सोचा संजायगेहवासंगचागपरिणामो । पडिवजह [मुणिपासे ] पहज विजयचंदो सो ॥ ७ ॥ विहरइ गुरुणा सद्धिं सद्धम्मज्झयणबद्धपडिबंधो । कालकमेण गुरुणा जोगो ति पइडिओ सपए ॥८ ॥ मणिओ य वच्छ ! निवाणलच्छिविच्छडदाणदुल्ललियं । गोयमपमुहमहापहुनिसेवियं चिंति पयमेयं ता उज्झियप्पमाओ सिस्साणं सारणाइ कुणमाणो । सिद्धंतवायणाईसु सबहा उजओ होजा ॥१०॥ सुहसीलयाए थेवं पि मा वहेजसि परिस्सम कह वि । एयं चिय रिणमोक्खो सासणवुड्डी य एवं च ॥११॥ इय सिक्खविऊण बहुं सम्मेयमहागिरिस्स सिहरम्मि । मासं पाओवगओ निन्वुइसुहसंपयं पत्तो ॥१२॥ विजयचंदसूरी वि गामा-ऽऽगराइसु विहरिउं पबचो। पयट्टिओ य कइयवि दिणाई सिस्साण पडणाइवावारो। पराभग्गो य पच्छा निच्छह भासिउं पि, घेरेहिं चोइअंतो य भणइ-किमणेण कंठसोसेण ? तवे आयरं कुणह, “यः क्रियावान् स पण्डितः" इति वचनात् । 'किं वा पढियं मासतुसाईहिं' [ति] दिढतोवनासं च कुणतो उवेहिओ थेरेहिं । कालकमेणं अपडिकंतो ततो द्वाणाउ मरिऊण सोहम्मे देवत्तणेण उववन्नो । अहाउयं तहिं पालिऊण चुओ पउमसंडपुरे घणंजयस्स १ 'सकर्णः' विद्वान् ॥ २ हित्वा इतरत् सर्वादर लाति ॥ ३ सनातगेहव्यासरख्यागपरिणामः ॥ ४ निर्वाणलक्ष्मीविच्छददानदुर्ललितम् ॥ ५ 'य पिति प्रतौ ॥ ६ ऋणमोक्षः ॥ ७'तोविना' प्रती । दृष्टान्तोपन्यासम् । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमद्दसूरिविरइओ कहारयणकोसो ॥ सामन्नगुणाहिगारो ॥१२४॥ सेट्टिणो सिवाए भजाए धणसम्मो नाम पुत्तो जाओ त्ति । वोकंतअट्टवरिसो य आढतो पाढिउं । पुवभवनिबिड जियनाणंतरायदोसेण य नावडर गाढधुम्मं [तं] पि एकं पि अक्खरं । परिस्संतो उवज्झाओ, 'पत्थरो' त्ति परिचत्तो य । जहा एकेण इमिणा, एवं पंचहिं वि उवज्झायसएहिं ति । विसन्नो से पिया, पारद्वा ओसहाइणो उबयारा, न जाओ को विविसेसो । पुच्छइ मंताइजाणगे । कहिओ य से एगेण पुरिसेण, जहा - अनुगत्थ परसे विसिट्ठो जाणगो तबस्सी बसइ ति । ततो सेट्ठी सत्तो गओ तस्स साहुंणो समीवं, बंदिऊण निसन्नो, मत्तिसारं भणिउं पवतो य-भयवं ! किमणेण मम सुएण कथं जेणेवंविहो जडो १ ति । ततो भगवया निवेदिओ से णाणहीलणापमुहो पुववइयरो । तं च सोचा जायं धणसम्मस्स जाईसरणं, निवडिओ साहुचलणेसु, भणिउं पवत्तो य- - भयवं । एवमेयं, संपयं च मीओ हूं 'कहमिमाउ नाणंतरायपारावाराओ पारं परं वचिस्सामि ?' चि, सबहा साहेसु उवायं । भयवया भणियं - सोम ! सुण जमेत्थ कायवं दोसेण जेण केणइ भावस्स सुहस्स होइ विद्धंसो । तैप्पडिवक्खपविति परमं किर्त्तिति पच्छित्तं ॥ १ ॥ ता नाणदाणविच्छेय-हीलणोवजियस्स कम्मस्स । नाणप्पयाणभावेण होइ तन्भिजराभावो ॥ २ ॥ तं च तुह नाणदाणं सक्खा नो घडह निविडजडिमचा । नाणस्स य नाणीण य ता वाढं कुणसु बहुमाणं ॥३॥ १ पूर्वभवनिवार्जितज्ञानान्तरायदोषेण च नापतति 'गाढर्पूणन्तमपि' उचैः घोषन्तमपि ॥ २ हुणा स प्रतौ ॥ ३ तत्प्रतिपक्षप्रवृतिम् ॥ ४ ज्ञानदानविच्छे वहीलनोपार्जितस्य कर्मणः । ज्ञानप्रदानभावेन ।। अवाहिविसेसेण सो सामवेयपाठी पउत्तो संतिहोमट्ठाणे । तेण य आहिचारिगमंतेहिं पारद्धो होमविही । तबसेण य जाया करि तुरग लोगाईणं अणेगे रोगविसेसा । एवं च निप्पच्चूहेण चंदसेणेण उबसाहिओ तदेसो, वसीकया य केई सामंता । - अवरम्मि य वासरे तेहिं गूढचरेहिं कहावियं चंदसेणस्स, जहा— अवसरो समरस्सति । ततो चाउरंगिणीए सेणाए तेणाssगंतूण पडिरुद्धो सेवलराया । पयट्टाई परोप्परं दोन्नि वि बलाई पहरिडं ति । उच्छा [हि]ओ य सेवलराया वहरसीहाइसामंतेहिं देवं ! पच्छा होह तुम्मे, केचियमेत्तो एस डिंभो ? -त्ति जंपिऊण पारद्धं परेहिं सह पहरिडं ताब जाव चंदसेणो समीवमुवागओ । एत्थंतरे बहरसीहाइबलेण चंदसेणबलेण य दोहिं वि अभितरे घेचूण सेवलनरिंदो अणवरयमुकसेल-मलि-नाराय-खुरुप्पपमुहपहरणेहिं सवतो पच्छाइओति । तं च छिनच्छत्त-दंडं निर्कित्तविचित्तधयवर्ड निवाडियंग रक्खं समिक्खिऊण तग्गुणगणरंजिएण भणियं चंद सेणेण भो भो सेणाहिवा ! सो महारायसासणं अइकमइ मह सरीरं च द्रुहद्द जो सेवलरनो घायं करेह ति । घोसियं च महया सद्देण तं च सोचा फरगाईहिं चंपिऊण गहिओ सेवलराया, समप्पितो य समं सत्तंगाए लच्छीए रायसुयस्स । सो य तमादाय अक्खंडपयाणगेहिं गतो नियनयरिं । बद्धाविओ जयचंदराया । परमविभूईए पविट्ठो रायभवणं । कयतकालोच्चियपडिर्वेत्तिणा य समप्पिओ सेवलभूवई, विन्नत्तो य-देव ! एसो सत्तू वि भविय अचंतगुणगुरुत्तणेण गुरु व अम्हाणं, ता देवेण महापसाएण दट्ठवो हवइ ति । ततो रन्ना जायतग्गुणनिवेहबहुमाणेण सम्मं सम्माणिऊण दिना स च्चिय १ तेणे य प्रतौ ॥ २ व पेच्छ हो° प्रतौ ॥ ३ निकृत्तविचित्रष्वजपटं निपातितारक्षं समीक्ष्य । ४ वचणा प्रतौ ॥ ५ 'वयव प्रतौ ॥ -- ज्ञानदानाधिकारे धनदचकथान कम् १६ । ज्ञानान्त रायकर्मनिवारणोपायः ॥ १२४॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसरिविरहओ कहारयणकोसो॥ सामनगुजाहिगारो। ॥१२५॥ ज्ञानदानाधिकारे धनदत्तकथानकम् १६। तदाणं पुण बक्खाण-बायणाईसु उमंतस्स । नाणोवग्गहहेउ उवणितस्सोवगरणं पि तपाढपडीभग्गं थिरीकुणतस्स सबलोयं पि । नाणगुणुञ्जयमच्चतमणुखणं संथुर्णतस्स किं भन्नह इह भवा! नाणपयाणा-ऽपयाणफलमेयं । मह पचक्खमुवगर्य तं नाउं कुणह जं जुत्तं ॥१८॥ लोगेण जंपियं भणसु ताव भय ! तमप्पणो चरिथ । तो मुणिवरेण सिटुं जह दिटुं जह व अणुभूयं ॥१९॥ ता पचक्खपसिद्धं सिद्धंतपइट्ठियं कुसलदिटुं । कुणह सइ नाणदाणं नियाणमिह सञ्चसिद्धीणं ॥ २०॥ किश्व आत्मानमन्यदपि वस्तु समस्तमस्तजाब्यप्रपञ्चमुपदर्शयितुं समर्थम् । ज्ञानं श्रुताश्रयमजसकृतश्रियं च, तहानमेव हि ततः परमं प्रशस्यम् केवल्यवलिपिहितोऽपि हितोऽपि दूरं, प्राप्तोऽपि नार्हति जैनं जिनकल्पवृक्षः। कर्तुं विष्णमुपदेशकां विहाय, तज्ज्ञानदानमिह केन समं समस्तु ? वेरूष्यवानपि विवागपि निष्प्रभोऽपि, तुच्छाशयोपि सरुजोऽप्यपलक्षणोऽपि । यत्रम्यते गुरुधिया प्रणतेन मूर्धा, तज्ज्ञानदानलवजृम्भितमाहुरीशाः १ उद्यच्छतः ।। २ उपनयत उपकरणम् ॥ ३ "रणिं पि प्रती ॥ ४ तत्पाठप्रतिभग्नम् ॥ ५ "णुष्वयमुच्यंत प्रती । ज्ञानगुणोद्यतम् अत्यन्तम् अनुक्षणम् ॥ ६ सिद्धान्तप्रतिष्ठितं कुशल:-तीर्थकरगणधरैः दिष्टम्-उपदिष्टम् ॥ ७ सदा ॥ ८ ति जिनं प्रतौ ॥ ९ "वृष्टमु प्रती ॥ RRCHASASAKAR शानदानस्य सदुपदेशश्च ॥१२५॥ KKARX***%%*&+KAVAKKAXXX*******%%AKAR अभयदानम् इति किमपि निगद्य स्वं पुराजन्मवृत्त, प्रकटमपि च दवा ज्ञानदानोपदेशम् । पुरमपरमुपेत्याऽऽरब्धनिर्याणयात्रो, व्यरमदमर-मयरर्चितोऽसौ मुनीन्द्रः । ॥४ ॥ ॥ इति श्रीकथारत्नकोशे ज्ञानदानावसरे धनवत्तकथानकं समाप्तम् ॥ १६ ॥ पुर्व चिय उक्खितं दाणावसरम्मि अभयदाणं पि । ता तं सरूव-फलदसणेण लेसेण वमि ॥१ ॥ पुढवाइणो उ पंच उ बेईदियमाइणो उ चत्तारि । इय नवविहजीवाणं जं रक्षणमभयदाणं ते सन्चे सुहेसिणो चिय सो वि जियस्थिणो सयाकालं । सन्वेसि बेयण चिय सो वि य मरणभयविहुरा ॥ ३ ॥ नवरं नियनियकम्माणुरूवबल-देह-वन-संठाणा । नाणाजोणीजम्मणपविभतविवित्तचेयना ॥४ ॥ ताण [अभयप्पयाणं कोउमणेणं मणागमे पि । संघट्टणाइरूवो उबद्दवो वाणिजो त्ति ॥ ५ ॥ एगच्छत्तं पि महिं मरणे समुवट्टियम्मि दिंतस्स । न तहा से परितोसो जह अभए दिअाणम्मि अवगणियकुलायारा किं किं न कुणति मरणभयविहुरा ? । दासत्तं पि पवअंति ठंति मायंगगेहे वि दीणं चैवंति दीणं धुणंति निवडंति जति वेगेण । मरणभयाउरहियया जीवा किं किं व न कुणति ? ॥८॥ १ रमपे प्रती ॥२ उरिक्षतम् ॥३सुवैषिणः ॥ ४ 'यच्छिणो प्रती । जीवितार्थिनः ॥५निअनिजकर्माचरूपबलदेहवर्णसंस्थानाः। नानायोनिजन्मप्रविभक्तपिवितातम्याः ॥ ६ 'त्तविचित्त प्रती ॥ ७ कर्तुमनया ॥ ८ 'माण पि प्रतौ ॥ ९ जल्पन्ति ॥ REARCHAE%% Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दरिविरइओ कहारयणकोसो ॥ सामन्नगुणाहिगारो । ॥१२६॥ एतो चि ताणं रक्खणेण अक्खंति भिक्खुणो धम्मं । बहुचागचागसुपसत्थतित्थदाणाइतो वि बहुं 11 3 11 जो देह अभयदाणं जीवाणं विविधदुक्खतत्रियाणं । अंजिणइ जयसिरिं सो जड व निवाणमवि नियमा ॥ १० ॥ तहाहि - अस्थि जंबुद्दीवतिलयतुल्ल भारहखेत्तचूडामणिविब्भमं भंमंतपुरिसोत्तम विराइयं, विजयधयवर्ड व जीवलोयपासायस्स, उप्पत्तिट्ठाणं व धम्ममग्गस्स विजयवद्धणं नाम नगरं । तत्थ य कुमुयको मलुम्मिलंतदेहप्पहापहसियसीय किरणो रणरंगपहयपडपडह-मुइंग झल्लरीपमुह तूरखायन्त्रणभीयवइरिचत्तवावारो वारविलासिणी सलीलचालिय[चाम] रुप्पीलपयडियगरुयरिद्धिवित्थरो जयसुंदरो नाम राया । सयलजुवइलक्खणाणुगयसरीश विजयवई से भजा । जुवरायसिरितिलयभूओ भुषणचंदो नाम पुत्तो । मित्ता य तस्स सेट्ठिसुओ संखो नाम, पुरोहियपुत्तो अज्जुणो नाम, सेणावइसुओ सोमो नाम । एवं च तिहिं बालमेत्ते[हिं] परिगओ गॅओ व निरंकुसो सो रायपुत्तो इओ तओ सच्छंदं विलसमाणो कालं वोलेइ । अन्नया य नयरबाहिरुजाण की लागएण मित्ताणुगएण तेण नाणादेसभमणमुणिय [विविध]भासा-नेवच्छो विचित्तमंत-तंतविश्राणनिउणो नाणकरंडो नाम कावालियमुणी दिट्ठो, पणिवइओ सङ्घायरेण, 'पायाल कन्नगानाहो होसु' ति दिन्नासीसो निविडो से समीवे । भणियं च सविम्हएण— भयवं ! कह पायाल कनगाणं संभवो १ कहं वा तासिं लाभो ? ति । कावा १ अर्जयति ॥ २ किल द्वारिका पुरी एकेन पुरुषोत्तमेन-कृष्णेन विराजिताऽऽसीत् इदं पुनः पुरं अमद्धिः प्रभूतैः पुरुषोत्तमैः विराजितम् अत्र पक्षे पुरुषोत्तमैः- उत्तमपुरुषैरित्यर्थः ॥ ३ 'लुमित प्रतौ । कुमुदकोमलोन्मील देहप्रभा प्रहसितशीतकिरणः रणरङ्गप्रहृतपडुपट मृदङ्गशहरी प्रमुखतूरला कर्णनभीतवैरित्यक्तव्यापारः वारविलासिनी सलीलचालितचामरसमूहप्रकटितगुरुकार्दविस्तरः ॥ ४ गज इव ॥ आयरसु पढताणं महत्थपोत्थयसुपोत्थियाईहिं । मेसअप्पमुहेहि य उवग्गहं नाणवुड्डिकरं इय सोचा स महप्पा पच्छायाचं परं परिवहंतो । णाणोवग्गहविसए सङ्घपयत्तेण वट्टंतो मणुयाउयमनसेसिय सोहम्मे देवसोक्खमणुभोत्तुं । तत्तो चुओ य जातो मुकुले धणदत्तनामो ि तत्थ विय सावसेसत्तणेण सन्नाणवरणकम्मस्स । सम्ममहिअंतस्स वि अक्खरमेते वि अचडते वेरग्गावडियस्स य ईहा ऽपोहप्पहं पवन्नस्स । जायं जाईसरणं वियाणियं पूर्ववृत्तं च तो पुढं पित्र पढणाइएसु सह उज्जमंतसत्तेसु । पोत्थयमाईहिं चिरं उबग्गहं काउमारद्धो संवेगोवगमेणं दुक्कडगरिहाए सुहपवित्तीए । तेणावि गरहणीयं नाणावरणीयमवणीयं पडिवन्ना पद्यआ संगोवंगं च सुत्तमवि पढियं । तो सेंरियपुत्रभावो सङ्घायरमवरभवाणं नाणप्पयाणनिरओ विरओ थेवं पि हु प्पमायातो । निहयघणघाइकम्मो संपत्तो केवलालीयं विहिया केवलमहिमा तद्देसैनिवासिदेवनिवहेण । पकयं पंकयमेकं च कंचणुद्दामदलकलियं तत्थ निसन्नो तत्तो धणदत्तो केवली महासत्तो । सत्ताण निव्वुइकए उवएस दाउमाढतो सुहमणर्हमिहं जइणो तत्तद्विवरीयवत्थुचागाओ । तथागो गाणाओ नाणं पुण नाणदाणाओ || 8 || ॥ ५॥ ॥ ६ ॥ || 9 || ॥ ८ ॥ ॥ ९ ॥ ॥ १० ॥ ११ ॥ ॥ ॥ १२ ॥ ॥ १३ ॥ ।। १४ ।। जहा॥ १५ ॥ १ सावशेषत्वेन खज्ज्ञानावरणकर्मणः । सम्यगधीयानस्यापि ॥ २ व्वपुत्तं प्रतौ ॥ ३ सदा उयच्छत्सवेषु ॥ ४ स्मृतपूर्वभावः ॥ ५ "देवनि" प्रतौ ॥ ६ दमीह ज प्रतौ ॥ ७ तत्तद्विपरीतवस्तुत्यागात् ॥ अभयदानप्रस्तावे जयराजर्षि कथानकम् १७ । ॥ १२६ ॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरहओ कहारयणकोसो ॥ सामअगुमाहिगारो । ॥१२७॥ +9 पेच्छह सयं पि दिहं संदेहपए हवंति दुवियड्डा । नियबुद्धिसिप्पिकप्पियदुवियप्पुष्पाइयगिराहिं ॥ २ ॥ एवं च पर्यतं पलोइऊण मुणियषरमत्थो मोणमल्लीणो मित्तत्रग्गो । एगया य रायसुतो गतो कौवालियसमीवं । जाया जय परोप्परं गोडी । पत्थावे य पुट्ठो सो कुमारेण - भयवं ! 'कहं पुण विवरप्पवेसो १ कहं वा पायालवालियाणं लाभो ?' त्ति कोऊहलाउलियं मह मणो न एत्थावत्थाणेण रई संपयं पाउणइ, ता किमियाणि जुत्तं ? ति । कावालिएण भणियं - रायसुय ! किं बहुवायावित्थरेण १ जइ थोवदिणमज्झे बंछियत्थपूरणेणं विगयकोऊहलं भवंतं न करेमि ता अत्तणो नामं पि न वहामि, केवलं 'बहुविग्घाई सेयाई' ति [सिग्धं] पउणो गमणाय होसु ति । एवं करेमु' त्ति मॅणियं गओ रायसुतो सगिहं । वाहराविया मित्ता सम्माणपुवगमेगंते, सायरं बागरिया य-भो भो वयस्सा ! कीस तुम्भे अंविस्सासं कुणह ? वियप्पजालं वा विरयह ? होह सबहा मह सहाइणो, पयट्टामि पायालजत्तानिमित्तं ति । उवरोहसीलयाए पडिवन्नं मित्तेहिं । रायाईणमनिवेइऊण वैत्तं कयवेसपरियत्ता कावालिएण समं रयणीए नीहरिया । पुरओ वच्चंताण य जाया अ[व] सउणा । तहाहि दुरालोयं जायं दिवसयरबिंबं रयबसा, पयट्टं दोघंडाणुगिई गयणे मेहपडलं । कंउद्देया बाया दिसिसु पडिकूला य सउणा, मेणुच्छाहच्छेओ खलियविलया चैव य गई 112 11 १ दुर्विदग्धाः । निजबुद्धिशिल्पिकल्पित दुर्विकल्पोत्पादितगिराभिः ॥ २ कामालि प्रतौ ॥३ साम्प्रतं प्रगुणयति ॥ ४ भणिवा ॥ ५ अविश्वास कुरुथ ! विकल्पजाले वा विरचयथ ॥ ६ वार्ता कृतवेषपरियः ॥ ७ घटाणु" प्रतौ। 'हस्त्यनुकृति' हस्याकारम् ॥ ८ कृतोद्वेगाः ॥ ९. मनउत्साहच्छेदः ॥ ततो भणितो रायसुतो वयस्सेहिं-न जुत्तं गमणमियाणि, पडिनियत्तह ताव, भुज पत्थावंतरे [पत्थाणं ] काय ति । कावालिएण भणियं — भो भो ! किमेवं वाउलीभूया १ न जाणद्द तुम्भे परमत्थं, पायालजत्ताए एरिस च्चिय सउणा फलसाहग ति कप्पपरमत्थो, अह संका तुब्भं ता मम निवडंतु एए अवसउणा, एह तुम्भे निस्संक ति । रायसुयाणुवित्तीए य पट्टिया वैयंसा | पत्ता य कालकमेण विज्झगिरिपेरिसरं— सैरंतरुरु- सेरिभं भमिरभूरिकंठीरवं, विसप्पिरमहोरगं घुरुडुरंतकोलाडलं । रसंतकरि-दीवियप्पमुहदुट्ठसत्तुन्भर्ड, गिरिं गुरुदुरं [तयं] तयणु विज्झमज्झासिया ॥ १ ॥ कमेण यदि पुचोवइङ्कं जक्खभवणं । कैंयचलणसोहणा य पचिट्ठा भवणब्भंतरे, पूइओ जक्खो पंकयाईहिं, सायरं पणमिओ य । जाए य वियालसमए कावालिएण पच्चासन्नगोउलाओ आणीया चत्तारि छगलगा, पउणीकतो य अन्नो वि साहणविही, काराविया य रा[य]याइणो चत्तारि वि समं छगलगेहिं ण्हाणं, चचिकया जहोचियं चंदणछडाहिं, भणिया य-: -भो ! तुम्मे जहकमं एकेकं छगलगं मम पणामह जेण तविणासणेण देवपूयं काऊण विवरदुवारर्मु भिदिजह ति । ततो अवियाणिऊण तच्चित्तवित्ति, अविभाविऊण तद्दारेण अत्तणो विणासं, अंविमंसिऊण सच्छंददेवविलसियं जह्नुद्दिट्ठमणुट्ठियं रायसुयाईहिं । नवरं १ स्थायवंतरे प्रतौ । भूयः प्रस्तावान्तरे प्रस्थानम् ॥ २ वयस्याः ॥ ३ परिसं प्रतौ ॥ सरद्रुरुसैरिभं भ्रमणशीलभूरिकण्ठीरवं विसर्पणशीलमहोरगं घुर्षुरायमाणकोलाकुलम् । रसकरिद्वीपिकप्रमुखदुष्टस्योटं गिरिं गुरुदुरन्तकं तदनु विन्ध्यमध्यासिताः ॥ सैरिभा:-महिषाः । कोला:- शूकराः ॥ ५ रुरं प्रतौ ॥ ६ जहभ" प्रतौ ॥ ७ कृतपादप्रक्षालना इत्यर्थः ॥ ८ 'उद्भिद्यते' उद्भाव्यते ॥ ९ अविमृश्य स्वच्छन्ददैवविलसितम् ॥ अभयदानप्रस्तावे जयराजर्षि कथान कम् १७ । ॥१२७॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमद्दसूरिन विरहओ अभयदानप्रस्तावे जयराजर्षिकथानकम् १७॥ कहारयण-1 कोसो॥ सामनगुणाहिगारो। ॥१२८॥ RES सेट्ठिसुएण तकालजायजीवदयाभावेण न पडिवचमेयं । पत्रविओ य सबप्पयारेहिं एसो कावालिएण । 'अच्चायरो संकाकारि' त्ति सुट्टयरं न पडिवनो एसो। [तओ कावालिएण] नियमंतसिद्धिनिमित्तं थोभिऊण छगलगा वौवाइया कुमाराइणो एग छगलगं सेडिसुयं च विमोत्तूण । एवं च तदुत्तमंगकमलेहिं निवत्तिए पूयाविहाणे कावालिएण बढेण वि तुमारद्धो सेट्ठिसुतो । एत्थंतरे भणियं जक्खेण-अरे कावालियचिलाय ! अपडिवन्नछगलगविणासछल जइ इमं वराग हणिस्ससि ता निच्छयं न भविस्ससि । चत्तो कावालिएणं 'हा हा पावपातंडिडिंडिय ! एवंविहपुरिसरयणं हणिऊण केचिरं जीविस्ससि ? हा रायसुयपरमबंधव ! हा सयलगुणरयणनिहाण ! कहं मूहा निहणमुवगओ सि ?' इच्चाइ पलावं कुणंतो पलाणो ततो हाणातो पुणजायमिव अप्पाणं मनंतो सेट्ठिसुओ, अइकंतो विज्झविसयं, ठिओ एगस्थ गामे, रायसुयाइ सुमरंतो य गहिओ महासोगेण । कयं तप्पारलोइयकायई । वीसंतो कायवि दिणाई । 'कहं पडिनियत्तिऊण रायाईणं मुहं दंसिस्सं ? किं वा कहिस्सं ? ति पयट्टो पुबदिसाभिमुहं । मिलिओ य मग्गे पवजं पवजिउकामो सुमेहो नाम सावगो गुरुसमी वचंतो एयस्स । जाया परोप्परं संकहा, पइदिणालावेण य पणयभावो य । एगया य पुच्छिओ सो सुमेहेण-भद्द ! कीस तुम विमणो व लक्खिञ्जसि ? जइ न बाढमकहणिजं ता कहेहि । तओ अंसुजलाविललोयणेण सिट्ठो से रायसुयाइविणासवुत्तो । सावगेण भणियं-इहलोगि चिय फलिओ छगलग[२]क्खण चिय सुकयकप्पपायवो, इहरहा रायसुयाइणो व तवेलं चिय निहणं उर्वितो ति, पच्चक्खदिट्ठफले १ प्रज्ञापितः ॥ २ "यर सं० प्रती ॥ ३ 'व्यापादिताः' मारिताः ॥ ४ तदेलमेव ॥ ***** ५॥१२८॥ AKARSAWA4%%BRANASPACK ** ******** लिएण जंपियं-रायसुय ! निसामेहि, अस्थि विज्झगिरिपायमूले विजयकुंडं नाम उजाणं । तम्मज्झभागे भगवतो सुवेलाभिहाणस्स जक्खस्स दक्षिणभवणभित्तिभागे पउमागारसिलमवणेऊण पविसिजइ केऊरनामम्मि विवरे । तत्थ य कोसमेतं अइकंते अञ्चंतकंतसहावयवसुंदरंगीओ नयणलायन्नावगनियकुरंगीओ नियरूव-सोहग्गभग्गरइ-रंभापवायाओ जक्खकनगाओ सक्खा दीसंति । ततो य तुम्हारिसाणमसमसाहसावजियविजयलच्छीणं निरुवकमविक्कमकंतभूचकाणं चकवट्टिलक्खणं कियदेहाणं पुहइपालाणं अंणभपुनपगरिसायड्ढियहियया गिहिणीभावमावअंति ति। इमं च सोच्चा अच्चंतं विम्हिओ रायपुत्तो समं मित्तवग्गेण । जातो य बाई तल्लाभसमूसुयमणो । मणागं निरुभिऊण विया. रभावं च कहतरवक्खेवेण खणंतरं विगमिऊण गतो सगिहं । तहिं गतो वि रायसुओ तमेव पायालकनगावुत्तंतं तदेगचिचो | चिंतयंतो सुत्तो छ परवसो व बट्टन्तो भणिओ मित्तबग्गेण-रायपुत्त! किमेवमन्नचित्तोब लक्खिजसि ? खिजसि य देहेणं ? किं नु सरसि कावालियसिट्ठरसायलसीमंतिणीवुत्तं 'बालजणविमोहणिजा खलु एवंविहसमुल्लाबा तुम्हाण वि चित्तं विक्खिबंति ति चोजेमेयं । रायमुरण भणियं-किं तस्स महाणुभावस्स वितहसमुल्लावेणं संज्झं। लिच्छाइएहिं मिच्छाविभासणं संभवेञ्ज संगिस्स । एवंविहभणणे मुंह-हडतहस्स किं कसं? १'चंतंकनस प्रती ॥ २ अनन्यपुण्यपकर्षाकृष्टदया: ॥ ३ विकारभावम् ॥ ४ लक्ष्यसे ? खिद्यसे ।। ५ बर्यमेतत् ॥ ६ साथ्यम् ॥ ७ लिप्सादिकः मिथ्याविभाषण सम्भवेत् सन्निनः ॥ ८ भूत्यस्थितुटल्य ॥ ******* ***** २२ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरइओ कहारयण-1 कोसो॥ सामन्नगुमाहिगारो। ॥१२९॥ अभयदान प्रस्तावे जयराजर्षिकथानकम् १७॥ एत्थंतरे अंबरोप्परमंतेउरीणं जाया समुल्लावा-एवमेवमम्हाहिं उत्तरोत्तरं पवईतो वित्तवओ कओ, एयाए पुण न किं | पि कयं ति । थेरीए रायगिहिणीए भणियं-किमेतेण संगिहमंगलुग्गाणेण ? एयमेव तकर पुच्छह जं जीए अब्भहियं कयं ति । ततो पुट्टो तकरी ताहिं-अरे! 'काए तुहऽभहियं कय? ति सचं साहेसु । तकरेण भणिय-देवीए भउब्भंतहियएण पुच्छिएण वि पुर्वि न किं पि नायं, संपयं पुण मह इमीए जणणीए दावियम्मि अभए जं पि तं पि भोयणाइयं अमयं व परिणय, वसिओ मि जीवलोगो, पुन व सबमणोरहा, ता 'इमीए जं कयं तं न कोइ कुणई' त्ति ममाभिप्पाओ। पडिवनं सबाहिं ति च्छिन्नो विसंवाओ ॥ छ । ता भो महाणुभाव ! 'नाभयप्पयाणाओ अनं किं पि लेट्टयर' ति तदाणे सवहा उजम करेन्जासि । सेट्टिएण भणियंएवं काहामि । अन्नवासरे य 'भद्दगो ति सिक्खविओ सो सावगेण पंचपरमेट्टिमंतं, सिटुं से तम्माहप्पं, जहा-एस परमभत्तीए तिसंज्झं जविजंतो थंभेइ भूय-साइणि-सहल-वेयाल-जलणाइप्पभवं उबद्दवजायं ति । 'तह' त्ति पडिवनमणेण । साचगो विगतो जहाभिमयं । इयरो वि जहुत्तविहिपुर्व पंचनमोकारमेकचित्तो परियतंतो पढिओ जालंधरविसयं । मिलिया य मग्गे कइवय वि सत्थिया । तेहिं समं वच्चंतस्स एगत्थ अयंडे चिय कुंडं लियचंडकोडंडुड्डीणकंडखंडिजंतपहियमुंडमंडियमहिमंडला मंडलवाव १ परस्परमन्तःपुरीणाम् ।। २ स्वगृहमलोगानेन ॥ ३ ण व पु प्रती॥ ४ 'ओ सि जी प्रती ।। ५ श्रेष्ठतरम् ॥ ६ उपद्रवसमूहमित्यर्थः ॥ ७ सार्थिकाः॥ ८ कुण्डलितचण्डकोदण्डोडीनकाण्डखण्डयमानपथिकमुण्डमण्डितमहीमण्डला मण्डलण्यापूताग्रहस्तात्रस्तसमुत्सरत्युभटसार्था । | ॥१२९॥ RRRRRRRRRROR ANNASWASANARAARAK HA KAHAAKAASAIRSSRAENERALASAHASACRACAAAAAAAA डग्गहत्थाणुप्पित्थसमुत्थरंतसुहडसत्था निवडिया चिलायधाडी। तओ तं ससत्थियं बंदिग्गाहेण घेत्तूण गया पल्लीए । समप्पियं बंदं पल्लिवइणो मेहनायनामस्स । तेण भणियं-अरे ! केतिया एए चिट्ठति | भिल्लेहिं भणियं-दस जण त्ति । मेहनाएण भणियं-सुरक्खिया करेह जाव एक्कारसमो लब्भइ, जेण भूयाभिभूयस्स जेट्टपुत्तस्स जायपगुणसरीरस्स चंडिगाए बलिविहाणसंपायणेण उवैजाइयं दिजइ त्ति । 'जं सामी आणवेई' त्ति तेहिं दढं निरुद्धा सेट्ठिसुयाइणो । अवरवासरे य आणिओ कत्तो वि भिल्लेहिं एकारसमपुरिसो। ततो ते सत्वे काराविया पहाणं, परिहाविया सेयवत्थजुयलं, नीया चंडियापुरओ, पूइयं मंडलग्गं, गहियं पल्लीवाणा, भणाविया य एए-अरे! सुदि8 कुणह जियलोयं, सुमरह इट्ठदेवयं । एत्थंतरे धाहावियं पुरिसेण-हा ! धाव धाव, एस तुब्भं पुत्तो भूएण बाढमभिभविजद त्ति । तओ ते विमोत्तूण पल्लीवई धाविओ पुत्ताभिमुह, आउलीहूओ गेहजणो । पुट्ठो य सेट्ठिसुएण एगो पुरिसो-किमेय ? ति । सिट्ठी तेण भूयवृत्ती । तो पंचनमोक्कारमाहप्पमणुचितंतेण भणिओ सो सेट्ठिसुएण-दंसेसु भो! तं पल्लीवहसुयं, जेण तद्दोसोवकमाय किं पि अप्पणो । वित्राणमुचदंसेमि ति । कहिओ एस वुत्तंतो पुरिसेण पल्लिनाहस्स । तेणापि आणाविऊण भणिओ सो-भो भो महायस! जह किं पि विनाणमस्थि ता तं पउंजिऊण पगुणेसु मे सुयं, साहेसु य तदुवक्कमोवायं जेण तं संपाडेमु त्ति । सेट्ठिसुएण भणियंपल्लिनाह ! अलमलं पसंभमेण, न बज्झोवगरणमवेक्खइ एस दोसु त्ति । पारद्धो पंचनमोकारं जविउं । कह चिय? १ "डियचि प्रती ॥ २ "ण मोनू प्रती ॥ ३ कियन्तः ॥ ४ उपयाचितम् ॥ ५ परिचापिताः ॥ ६ "कारपरं ज” प्रती ॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 देवभद्दसूरिविरहओ ॐ अभयदान प्रस्तावे जयराजर्षि कथान| कम् १७॥ कहारयणकोसो । सामभगुणाहिगारो। निष्पंदतारलोयणनासग्गोलग्गथिमियपम्हउडं | उदरविचरतनिब्भरकुंभयपवमाणवावारं नियनियविसयऽच्चासंगविरयसमरसियइंदियग्गामं । पंचपरमेट्ठिसुमरणसमकालुच्छलियगुरुनायं ॥ २ ॥ एकेकऽक्खरससहरझरतपीऊसपवहपन्भारं । निश्वविउमुट्ठियं पिव तिहुयणदुहनिवहहबवई ॥३ ॥ पेसरंतसरलक्खाइरेगपप्फुरियफारपहचकं । दूरोसारियजणपक्षणीयंभूयाइदुहगर्ण ॥ ४ ॥ इय जाव जवह जोगि व निचलो निभओ निरासंको । पंचपरमेट्ठिमंतं स महप्पाऽणप्पमाहप्पं ॥५॥ ताव अयंडबिहंडियभंडऽप्फुडणरवसमहरेगं । रसियं काउं भूओ दूरीहूओ मुयाहिंतो ॥६॥ जातो पगुणो पल्लिवइसुओ । सम्माणिओ पल्लिवइणा संखो । जोडिय पाणिसंपुडं च भणियं-अहो महासत्त! तुमए मम सुयपरमोवयारकरणेण बाढमागैरिसियं मह हिययं, ता साहेसु किं पिजं पैणामिजउ ति । संखण भणियं-पल्लिनाह ! जइ एवं ता अभयं दाऊण विसजेसुमऽहागयं एए वरागा दस वि चईदेसिय ति | 'जं तुमं आणवेसि' ति जंपिरेण पल्लि१ निष्पन्दतारलोचननासाधावनमस्तिमितपक्षमपुटम् । सवरविचरनिर्भरकुम्भकपवमानण्यापारम् ॥ पवमान:-वायुः ॥ २ निजनिजविषयात्यासा गुरुनादम् ॥ ३ एकाक्षरशशधरक्षरत्पीयूषप्रवाहप्रारभारम् । निर्वापयितुमुत्थितमिव त्रिभुवनदु:खनिवष्यवाहम् ॥ ४ रज्हार' प्रती ।। ५ प्रसरत्सूरलक्षातिरेकप्रस्फुरितस्फारप्रभाचकम् । रापसारितजनप्रख्यनीकभूतादिदुष्टगणम् ॥ ६"सारीय" प्रती ॥ ८ यावद् जपति ॥ ९ अकाण्डविखण्डितब्रह्माण्डास्फुटनरवसमतिरेकम् । रसितं कृत्वा भूतः दूरीभूत: मुतात् ॥ १०"डफुड" प्रतौ ॥ ११ 'सिर्ड का प्रती ॥ १२ आकृष्टम् ॥ १३ अर्ग्यताम् ॥ १४ विसर्णय यथागतम् ॥ १५ वैदेशिकाः ॥ ॥१३०॥ ॥१३०॥ %AC%ARANASIKASSASSISER वि किमवरं सीसह? किंच-जीवियचे संते सत्वं सुहं पडिहाइन इहरहा । तहाहि दिवविलेवण-भूसण-सयणा-ऽऽसण-वसण-भोयणपयारा । तंबोल-पुष्फ-सुहफाससेज-वरभवण-गेयरवा ॥१॥ अचंतकंतरेहतरूयरामाकडक्खविक्खेवा । पञ्जतपत्तजीयस्स तोसमीसिं पि नो दिति ॥ २ ॥ एत्तो चिय चोराहरणमेत्थ वचंति मुणियसम[य]त्था । सेट्ठिसुएणं भणियं किं पुण साहेसु तं मज्झ ॥३॥ सुमेहेण जंपियं-निसामेसु, वसंतपुरे जियसत्तू राया अग्गमाहिसीए समं ओलोयणगतो चिट्ठा । तम्मि य समए खेतदुवारे चिय उवलद्धी नवजुवाणो एगो तकरो तलवरेण, दंसिओ रनो, वज्झो समाणत्तो। ततो अचंतं विदाणवयणं वज्झभूमि निजमाणं तमवलोइऊण संजायदयाभावाए 'अदिद्दजियलोयसुहो मा विर्वजउ' त्ति एगदिणं जाव मोयाविऊण देवीए नीओ नियभवणे, कारावितो परमविभूईए ण्हाण-विलेवणा-ऽलंकाराइपरिग्गई, जातो सन्बग्गेण पंचसयदम्मवओ। बीयदिणे बीयरायमहिलाए वि, नवरं साहस्सिओ बओ। एवं उत्तरोत्तरवठ्ठमाणदविणवएण लालिओ सो एकेकदिणं सेसाहिं वि रायमहिलाहिं । नवरं पज्जंतदिणे थेराए रायगिहिणीए रायाणं गाढोवरोहेण विविऊण दवावियं अभयं तस्स तकरस्स, वासियभत्ताइणा जेमाविऊण जहाभिमयं विसञ्जितो य एसो। १ अत्यन्तकान्तराजमानरूपरामाकटाक्षविक्षपाः । पर्यन्तप्राप्तजीवितस्य तोषमीषदपि न ददति ॥२शातसममार्थाः । समयः-सिद्धान्त ॥ ३ अबलोकनंगवाक्षः ॥४ 'विद्राणवदन' म्लानमुखम् ॥ ५ 'विपद्यताम्' ब्रियताम् ।। ६-द्रम्मध्ययः ॥ ७-प्रवर्धमानविणव्ययेन ॥ ८ विज्ञप्य दापितम् ॥ जीवितव्यप्रियत्वविषये चौराहरणम् Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमद्दसरिविरहओ कहारयणकोसो।। सामन्नगुजाहिगारो। ॥१३॥ अभयदान प्रस्तावे जयराजर्षिकथानकम् १७॥ इयरो वि पविट्ठो नियघरं । आणं दिया जणणि-जणगाइणो । पुच्छितो पुत्ववुत्तं । कहितो तेण मूलातो आरम्भ । निसामिओ एस वइयरो रायाईहिं पि । जातो य तेसिमचंतसंतावो । एवं ते सोयणिञ्जदसं पत्ता । इयरो पुण गेहसामी जाओ, तिवग्गसारं जीवियफलं सुचिरमुव जिऊणं मओ समाणो भवणवईणं मज्झे पलियाऊ देवो उववन्नो । तत्थ जाई सरिया। 'अभयप्पयाणकप्पपायवफलमेय' ति अवगयं चित्तेण । पजतसमए पुच्छिओ केवली-भय ! कहिं अहं एत्तो उववनिस्सामि?। भगवया भणियं-विजयपुरे नयरे विजयसिंहस्स रनो विजयवईए देवीए कुञ्छिसि पुत्तत्तणेणं ति ।। एवं सोचा सो महप्पा अप्पणो पुणो पडिबोहनिमित्तं विजयसिंहस्स रन्नो सुमिणे साहइ, जहा-सभाभवणभित्तीसु इमं बुत्तं निउणचित्तगरेहिं आलिहावेसु, जहा-रायसुयाइणो तिन्नि वि जणा विज्झगिरिकडयकुडंगदुग्गजक्खाययणट्टियविवरदवारपूयाकवडेण काबालिएणं छगलोवहारच्छलेण विणिहया, एगो य तविणासविहाणमणिच्छतो न विणट्टो इच्चाइ ताब जाव सगिहं महेण सो पत्तो ति । इमं च सुमिणभुयं सो दहण विउद्धो विभाविउं पवत्तो-किमेयं अदिट्ट-सुयं अणणुभूयमपयइवियारं मए सुमिणं दिढे ति मजे? अञ्चतदीहरत्तणेण आलप्पालमिमं ? ति । बीयरयणीए पुणो वि इममेव से दरिसियं । 'कारणेण होयवं' ति रञा लिहावियं तं सर्व सहोवद्रभवणभित्तीस । अवरवासरे सो देवो चविऊण तस्सेव राइणो महिलाए गब्मे पुत्तत्तणेण उववन्नो, पसूओ य समुचियसमए, कयं १ शोचनीयदशाम् ॥ २ 'अवगतं' ज्ञातम् ॥ ३ विन्ध्यगिरिकटक कुडदुर्गयक्षायतनस्थितविवरद्वारपूजाकपटेन ॥ ४ 'मिणुग्भु प्रती ॥ ५ 'वियुवाः' जागृतः ॥ ६ सभोपदिष्ट- ॥ %ARAN ॥१३॥ KHARMACAKACARANAXARAKATARAKA वद्धावणयं, पइडियं च जओ ति नामधेयं, मंदरगिरिकंदरगओ व पायवो वडिउमारद्धो, अहिगयकलाकलावो य पत्तो तरुणतणं । अन्नया य पिउणा कुसुमिणाणुमाणेण मुंणियपञ्चासत्रमरणसमएण सो ठविओ नियपए, सयं च गतो वणवासं । इयरो य रायसिरिमुवभुजिउं पवत्तो । एगम्मि य समए अस्थाणनिसनस्स तस्स जाओ सहसा कोलाहलो । तओ वाउँलीभूयं इओ तओ धावमाणं जणमवलोइऊण पुच्छिय रना-किमेयं ? ति | जणेण भणियं-देव! एते तुम्हपायपउमोवजीविणो सहपंसुकीलिया तिनि वि धणवाल-वेलंधर-धरणिधरनामाणो चित्तभित्तिमवलोयमाणा केणइ कारणेण मुच्छानिमीलियच्छा 'धस' त्ति धरणीयले निवडिया। ततो जायबिम्हओ गतो राया तयंतियं । कोऊहलेण पारद्धा सा चित्तभित्ती मूलाओ पलोइउं । दि8 च रायसुयाइपडिवनं विज्झगिरिपल्लिपज्जवसाणं निर्ययवित्तगालिहणं । तं च दकूण ईहा-ऽपोहाइ कुणमाणस्स जायं जाईसरणं । मुर्छौसमुच्छाइयचेयनो निवडिओ महीबढे । अचंताउलिएण य सेवगजणेण कतो सिसिरोवयारो । खणद्वेण य राया इयरे वि उम्मिलियलोयणा सुत्तपबुद्ध [व] उट्टिया । 'देव ! किमेयं ? ति पुच्छिओ राया पहाणलोगेण । सिट्ठो य सबो वि अभयप्पयाणपयडणपहाणो पुत्वभववइयरो । इयरे [वि] यं पुट्ठा मुच्छागमकारण । तेहि वि इणमेव सिहूँ। ततो राइणा पुत्वभवसिणेहसमुभवंताणंदमुप्पवाहपक्खालियाणणेण सायरमवगूहिया तिनि वि जणा । जोडियपाणि १ शातप्रयासनमरणसमयेन ॥२ व्याकुलीभूतम् ॥ ३ निजकवृत्तकालेखनम् ॥ ४ "च्छासिमु प्रती । मूवमुच्छादित चैतन्यः ॥ ५ अभयप्रदानप्रकटनप्रधानः ॥ ६य बुद्धा मु प्रती ॥ ७ पूर्वभवस्नेहसमुद्भवदानन्दाथुप्रवाहप्रक्षालिताननेन सादरमवगूढा ॥ KACHAARAAREYANARAR Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 457 देवभद्दसरिविरइओ कहारयणकोसो ।। सामगुणाहिगारो। ॥१३२॥ अभयदान प्रस्तावे जयराजर्षिकथानकम् १७॥ संपुडेहिं विनर्स तेहिं-देव! तुले वि पुषभवभमणाइवइयरे कई एरिसी रायसिरी तुन्भेहिं आवजिया । नरवडणा वि 'अभयदाणकामधेणुविलसियमिममसेसं' ति निवेइयं तेसिमियरेसिं च । वित्थरियं च इमं सवत्थ जणवए । जाओ य जहासत्तीए अभयप्पयाणपडिबद्धचित्तो जणो । अणुसुमरियपंचनमोकारेण य रमा पडिवमो सुगुरुपायमूले जिणधम्मो, कारावियाई जिणभवणाई, पयट्टाविया सुचिरं ॐा दीणाईण दाणसाला, पभावियं जिणसासणं । घोसावियं नियभुत्तीए, जहा-जो उवेचाए जीवघायं काही तस्स सव्वस्सदंडो कायबो ति । एवं बुंहसलहणिजं सरयससहरधवलकित्तिपावणिजं रजं उवमुंजिऊण एगम्मि पत्थावे अत्थाणगओ वेरंग्गवग्गुवग्गुरानिरुद्धचित्तचित्तो राया सभावत्तिलोयं भणिउं पवत्तो-अहो ! पेच्छह तुच्छमाउयं, विरसावसाणो विसँयवासंगो, विविवाहिविहुरं सरीरं, खैणदिट्ट-नटुं विभववियंभियं, अच्चंतपञ्चासत्रो मचू , पचूहवूहो अभिलसियकजसमारोहो, सकजाणुवित्तिसारो सयणवग्गो, अवस्समणुभवियई सकम्मदुविलसियं, तहावि पमायमयपत्तो जणो थोयंमुहलवनिमित्तमणवेक्खियासंखदुक्खसंपाओ दिखेट्ठविरुद्धं पि जीवधायमायरइ, एयं पि न परिभावइ-जमप्पणो बि अणभिप्पेयं तं कह परस्स कीरइ ? अणंतभवकारणं रणमिवंगिर्दुक्खावणं, वणं व कयविप्पियं पियविओगसंपायणं । न जीववहणं करे सुहसमुचए सी बुहो, विसं असइ को बि किं मुचिरजीवियस्थी जणो ? ॥१॥ १ 'उपेत्य' हठात् ॥ २ बुधलाघनीयं शरच्छशभरभवलकोसिप्रापणीयम् ॥ ३ वैराग्यवल्गुवागुरानिरुद्धचित्तचित्रीयमाणः ॥ ४ विषयल्यासाः ॥५-व्याधि-॥ ६क्षणष्टनष्टं विभवविजृम्भितम् ॥ ७स्तोकमुखलवनिमित्तम् अनपेक्षितासंख्यदुःखसम्पात: टेरविरम् ॥अभियु:खापणम् वणमिव ॥ ९असि ॥१० अनाति।। ॥१३२॥ KESAKAKIRCRACROSADRISORRENAKARIRANISA वइणा संचलगदाणपुत्वगं विसजिया सवे वि । बंधु व सहोयरो व महईए पडिवत्तीए धरिऊण कइवयदिणाई हिरनदाणाइणा पूइऊण य भणितो संखो-आइससु किमियाणि कीरइ ? ति । संखेण जंपियं-पल्लिनाह! किं तुममहं भणामि ? बहुकट्ठकप्पणाहिं पाणी पाउणइ देहपारोहं । हम्मद य थेवकले वि सो य ही ही! महापावं ॥१॥ कंटेगवेहे वि दुई उप्पजह अप्पणो सुदुविसहं । निसियासिहणिजंतस्स जं च तं को मुणइ वोत्तुं ? ॥२॥ जं दिजह तं लभइ जंवा पइना न सालिणो हुँति । जीववहेणं मृदा कह दीहरमाउमीहंति ? ॥३॥ जइ सुहमणहं दीहं च आउयं अइथिरं च पियजोगं । बंछह तुम्मे ता मुयह निच्छियं जीवधायमई ॥४॥ एवं भणिए 'तह' चि पडिवनमभयप्पयाणं पल्लिनाहेण । कड़वयदिणाणतरं च संखो नियजणगसमुकंठिओ पट्टिओ नियनयरामिमुहं । ततो पल्लिवई वत्थाइणा सकारिऊण एवं दूरं अणुगच्छिऊण य नियत्तो सगिहामिमुहं । इयरो वि गंतुमारो। अह कइवयपंथियसहातो एगम्मि पचंतसभिवेसे भोयणकरणथमुवडिओ पडिरुद्धो विबिहुग्गीरियपहरणेहिं 'हण हण' चि भणिरेहिं [तकरहिं]। असंभंतेण य भणियं संखेण-अरे! घायमकुणंता जमस्थि तं घेतूण मुंचह ति । एवं बुत्ते पारद्धो सो इयरे य चोरेहिं लुटिउं । एत्थंतरे जायपञ्चभिन्नाणेहिं तकरमज्झाओ कइवयनरेहिं वारिया अवरे-सोएस महप्पा अम्ह जीवियदाया बंदग्गाहमोयगो ति, ता अम्हे पेच्छिउँण [ण] एयस्स अणुचियमायरियत्वं ति । ओसका तकरा । तेहिं नीओ संखो नियघरे, काराविओ पहाण-भोयणाइकिचं, पूइतो जहोचियपडिवत्तीए, सुह सुहेण पराणिओ विजयवद्धणपुरं । खामिऊण पडिनियचा। १ कण्टकयेथे ॥ २ यवाः प्रकीर्णाः ॥३ विविधोद्रीर्णप्रहरणः ॥ ४ जातप्रत्यभिज्ञानै ॥ ५ प्रेक्ष्य न एतस्य ॥ ६ 'अवध्वष्किताः' पवादलिताः ।। RRRRRRExt CHAKAA%CRORE Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरि-ट विरइओ कहारयणकोसो॥ सामनगुबाहिगारो ॥१३३॥ यत्युपष्टम्भदानाधिकारे सुजयराजर्षिकथान कम् १८। ताणमुवटुंभो पुण उवग्गहो सो य वत्थ-पत्ताणं । ओसह-सेना-सयण-उन-पाणमाईण दाणेण ॥ ३ ॥ ज तेहि उवग्गहिया मयं हि पागाइपावविरयमणा । साहिति सुहेणं चिय सज्झाय-ज्झाण-तव-विणए ॥ ४ ॥ देहो साहणरहिओ न खमइ मोक्खाणुकूलमायरिउं । तस्माहणाई मनंति तेण वत्थाइदाणाई धम्मरयाण मुणीणं उग्गहकिचेसु संपयतो । तद्धम्मदीवणेणं गिही वि तन्निजराभागी चोरोवग्गहकारी जह चोरो गिण्डई अचोरो वि | साहबग्गहकारी गिही वि तह होइ साहु व ता सच्चहा गिहीणं सया वि सावजजोगनिरयाणं । दाणं चिय भवभयजलहितरणबोहित्थमचत्थं ॥८ ॥ तव-सील-भावणाओ बल बिरई चित्तरोह सज्झाओ। दाणं च सुदेयमओ तम्मि र्पयत्तो सया जुत्तो तं पुण दायगसुद्धं गाहगसुद्धं च कालसुद्धं च । भावविसुद्धं च तहा दिअंतं बहुफलं हो। ।। १०॥ रोमैंचियदेहो मयरहिओ कम्मनिजराहेउं । जो देह कप्पणिजं दायगसुद्धं तु तं नेय जो साहू नियकिरियापवण्णचित्तो य उज्झियममत्तो । अकसाओ अतिही जत्थ तं भवे गाहगविसुद्धं ॥१२ ।। जं जम्मि उ उर्वउजह काले वत्थानमाइ साहूण । तं तत्थ दाणमाहीँ निच्छियं कालसुद्धं तु ॥१३॥ देयं पत्तं च वरं संपत्तं जेण तस्स मे सफलो । गिहवासो चि मई जत्थ भावसुद्धं तय बिति ॥१४॥ १ पाकाविपापविरतमनसः ॥ २ उपग्रहकृत्येषु सम्प्रवर्तमानः ॥ ३ अत्यर्थम् ॥ ४ प्रयत्नः ॥ ५ रोमाश्चाचितदेहो मदरहितः कर्मनिर्जराहेतोः । यः ववाति 'कल्पनीय' योग्यम् ॥ ६ ववज्ज प्रतौ । उपयुज्यते ॥ ७ माहुः ॥ उपप्रहदानस्य चातुर्विभ्यम् ॥१३॥ AKACIRCLGAONKAKASHABANARASWASAKASAKARAM उग्गम-उप्पायणदोसवजियं संजमेकवुढिकरं । दोण्हं पि य पियजणय देयं देयं च कुसलेहिं ॥१५॥ किंबहुणाकय-निट्ठियमत्तटुं सम्ममणुढाणिणो मुणिजणस्स । सुजउ व पावइ सुहं दितो असणाइ भत्तीए ॥१६॥ तथाहि-अस्थि कोसलदेसावयंसतुल्ला महल्लपासायसहस्सोवसोहिया इक्खागुवंससंभूयभूवहविजयरायभुयपरिहपयत्तपडिदयपडिवक्खभया धण-धन-सुवनपडिपुन्नपयइलोयाणुगया अउज्मा नाम नयरी। किं वनिइ तीए जीए जइबंधवो जुगाइजिणो । रजं पवजं तह जियवजं पवञ्जित्था ? ॥१॥ तस्थेव निचवासी सभावउ थिय विवेयसंगओ संगमओ नाम नावावणिओ सकुलकमाविरुद्धाए वित्तीए कालं गमेह । अन्नया य हीयमाणे चिरोवञ्जियदश्वसंचए परिभावियमणेण-दव्वं हि जीवियं जणस्स, एयविउत्तो हि जणो जीवंतो वि मओ ब्व अवगणिज्जह सब्वत्थ, न मन्त्रिजइ पिउणा वि, नावेक्खेजह कलत्तेण वि, न संभासिज्जइ सुहिणा वि, न बहुमन्निजइ पुत्तेण वि, ता पुबपुरिसकमागयं पारंमेमि जाणवत्तववसायं, अजिणामि दबसंचयं ति । ततो पगुणावियं बोहित्थं, भरियं च विविहभंडाणं, सजीहूओ निजामगजणो । सुमुहुत्ते य कयमाणो विहियदेव-गुरुपायपूओ संपाडियतकालोचियकायचवित्थरो संगमओ समारूढो घोहित्थं । १'देय दातम्य वस्तु ॥ २ कृतनिष्ठितमात्मार्थ सम्यगनुष्ठानिनः ॥ ३ तस्या यस्यां जगद्वान्धवः यतिबान्धवो पा ॥४ वनिवर्य वर्जितपय वा राज्यं वर्जितवों प्रजम्यां च प्रापद्यत ॥ ५ 'वृत्त्या व्यापारेण ॥ ६ एतद्वियुकः ॥ ७ "यमूले संपा" प्रती ॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभसरिविरइओ SAGAR कहारयणकोसो । सामनगुणाहिगारो ॥१३॥ उन्धवियकूवखंभारोवियवित्थरियसियवडाडोवं । पदहियवाउवेगं पहसंतं विययपक्खिं व सुमहल्लाऽवल्लयवहणवेगवोलंतगस्यकल्लोलं । परतीरगमुकरिसा कक्कमकमशुप्पयन्तं व ॥ २ ॥ संसायालयछसंबरडिसद्दरिफोररवं । निम्महषासंकियसलिलदेवयावड्डियायंक। ॥ ३ ॥ इय अणुक्कलखरामिलधुपंतमहंतसिथबहुम्यायं । पक्यााबरेनषेमं संपर्व तीरभामम्मि ॥ ४ ॥ सती मुका नंगरा, पाडिओ सियवडो, समुत्तिनो नावाजयो । विवर्णिमग्ममोयारियाणि मंडावि, समागमा सबैतिषणो, जाओ ववहारो, पिणिपट्टियाई अंडाई, गहियाई पडिभंडाई, समासाइओ पबदलाभो । ततो 'कयसबलकिचो' चि आणणसं पगुणीकाऊण पडिओ संगमओ सदेसाभिमुहं । समुद्दयज्झमणुप्पत्तस्स य तस्स विस्म्पदीया कम्भवस्मिाई । संयणयलमोगाहिउं पचतं च पवहणपुरओ गरूयगिरिसिहराणुगारं सलिलपडलं । एत्थंतरे वसंभोपरिभागगरण विसिटुंजणनिम्मललोयणाचलोइयजलगयमयराइदुदृसत्तवग्गेण समय-चमकारं वाहरियं निजामएण-अरे रे ! वीएह पलयपक्खुहिय १ कवतिकूपस्तम्भारोपितविस्तृतसितपटाटोपम् । प्रत्यथितवायुवेगं प्रहसमा क्लितपक्षिणमिव ॥ २ सुमहाऽबालकवहननेगव्युत्कामहरुकलोलम् । परतीरगमनोत्कर्षात् कृतममनमणोत्पतदिव ॥ ३ साकयकयकमकमणुप्पयत्तयत्तं व प्रतौ ॥ ४ वाद्यमानातोबसमुच्छलत्पतिशब्दभूरिधोररवम् । निर्मथनाशक्तिसलिलदेवतावर्धितातकम् ॥ ५ इति अनुकूलखरानिलधुनन्महासितपटोद्धातम् । पवनातिरेकवेगं सम्प्राप्तं तीरभागे ।। ६ "णिवग्ग प्रतौ ॥ ७ तदर्धिनः ॥ ८ विपराक्मुग्लीभूता ॥ ९ गमनतलमक्यादितुम् ॥ १० कुपस्तम्भोपरिभागगतेन विशिष्टासननिर्मललोचनावलोकितजलगतमकरादिदुष्टसत्वबर्गेण सभयचमत्कारंब्याइत नियमिण ॥ ११ ज भभयवचम प्रती ॥ १२ सादयत प्रलयप्रक्षुब्धपुष्करावर्तगजिंगम्भीराणि ॥ यत्युपष्टम्मदानाधिकारे सुजयराजर्षिकथानकम् १८॥ प्रवहणम् ॥१३४॥ 26+%8FEREKARWARAX किनापरेण ? वयमपघृणचिताः सवसहातपाताशुममपि गृहवासं बुध्यमानाः सुबुब्बा । विपदमनुपदं च प्रेक्षमाणा अपीता, तदपि न विसृजामो ही ! महामोहराजः ॥१॥ परमिह सनयस्ते वन्द्यपादारविन्दाः, वचन-तनु-मनोभिर्येऽभयं प्राणवथः।। वदति न च मनागप्यर्दिताः क्रूरसवैर्विदधति रुषमन्तर्जीवितव्यध्ययेऽपि ॥२॥ अयि हतक! किमेतखीव ! जीवोपघातोपहितसुखलवं स्वं शाश्वतं मन्यसे त्वम् । स्मरसि किम न पूर्व निन्दनीयेन्द्रियार्थाचस्पजनितदुःखं ? यत् त्वयाऽनन्तमाप्तम् ।।३।। इति समदितवकध्यानवहिप्रबन्धज्वलितनिखिलसम्यग्घातिकमन्धनौषः। स धृतसुयतिवेषश्रारुचारित्रिमूख्यो, भरत इव विजहे केवलश्रीसनाथः ॥४॥ ॥ इति श्रीकधारत्वकोशे अभयप्रदानप्रस्तावे जयराजर्षिकथानकं समाप्तम् ॥ १७॥ पुर्वि पि पिमुंणियमिमं दाणवम्गहकर ति कित्तेमि । धम्मिट्ठाणं तं पुण इसबढुंभकरणेण धम्मिट्ठा पुण एत्थं समत्थसावजजोमपडिविरया। परमस्थेण मुणि चिय मोक्रवत्थं विडियवावारा ॥२॥ १ "सम्पयाति प्रती ॥ २ 'पियनितं' सूचित्तम् ॥ ३ समस्तसामवयोगप्रतिविरसा: । ANASANASTASSA SAXARSA ALKUKKUS NXXAX उमटम्भवानस बरूपम् Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमदसूरिविरइओ कहारयणकोसो ॥ सामन्नगुबाहिगारो । ॥१३५॥ पेच्छह एला- लवंग- नालियर- कयली- पणसपमुहफल मेरोणमंत साहं साहिनिवहं । ततो जायजीवियद्यपच्चासो पचासन्न सरोयरे करचरण-मुहविसुद्धिं काऊण तरुवरफलाई आहरिउं पवतो । उवाहरियसमीहियफलो य कयदेव - गुरुपायसुमरणो य भोयण - मुवडिओ चिंते जइ वि हरि-हरिण - सद्दल- पीलु - मैक मिलदु विगमं । रन्नमिमं माणुसचारविरहियं तह वि मा कोह अहमिव विकूलहयविहिविहियाणिट्ठो कहं पि इह एजा । ता तद्दाणं काउं मह संपइ कप्पई भोक्तुं तं शुत्तं जं अतिहीण दिनसेसं स एव विभवो य । जो सामन्नो मन्ने सबस्स वि निययलोयस्स संसारम्मि अनंते किं नो पत्तं १ न किं व परिभुत्तं १ । मोत्तुं परोवयारं किं वा न कयं च १ संके हं ता हियय ! छुहकिँलंतं पि दीणयं मा खणं पवजिहसि । एवंविहपत्थावे अतिहिपयाणं सुहनिहाणं इय जाव सो महत्पा तकालुच्छलियवीरिउल्लासो । दिसिवलयं पेहंतो अच्छइ अच्छिन्नदाणिच्छो ताव कुरंगो एको तं पगुणियभोयणं पलोहत्ता । मण-पवण विजइवेगेण पडिगतो पुवदिसिद्दत्तं अविभीसणो वि य अहं [...] अणाउस्सविय किं पलाणोऽयं ? | अहवा भयाउर च्चिय सभावओ च्चिय तिरियजाई इयर्तितस् य तस्स तक्खणं धरियविमलसियछत्तो । एगो महातवस्सी खंदकुमारो व पच्चक्खो ॥ १ ॥ ॥२॥ ॥ ३ ॥ ॥ ४ ॥ अंग्गट्ठियविज्जाहरबंदिसमुग्घु विजयवरचरिओ । हरिणुवदंसियमग्गो बलदेवसिरि व संपत्तो तो मुणियसुमुणिमाहप्पबुद्ध सारंगगमणपरमत्थो । अप्यत्तपुष्वपहरिस विर्णितरोमंच चिंचइओ सागयमिह जंपतो सत्त ऽपयाई सम्मुहं गंतुं । कयपायपउमनमणो कयलीफलमाइणा तेण पडिलाइ अत्तई कडेण तह निडिएण अत्तङ्कं । तो वंदिर्येमणुगच्छिय सत्त ऽकृपयाई परितुट्ठो नीरनिहिनिहणपावियपवहणदुच्छं पि परममब्भुदयं । मनतो मुणिवरविर्यंरणेण अह जिमिउमारो ॥ ५ ॥ ॥ ६ ॥ || 9 || ॥ ८ ॥ 11 8 11 १ - भरावनमच्छाखम् ॥ २ आधारि° प्रतौ ॥ ३ पीलु-हस्ती ॥ भलंग मितौ ॥ ५ विकूलद्दतनिधिविहितानिष्टः । विकूल:- प्रतिकूलः ॥ ६ कहिं च प्रतौ ॥ ७° किलंतंमि दी प्रतौ । धाकान्तमपि दीनतां मा क्षणं प्रपत्स्यसे ॥ ॥ १० ॥ ॥ ११ ॥ ॥ १२ ॥ ॥ १३ ॥ १४ ॥ ॥ कयभोयणो य पुनायतरुतले वीसमंतो परिभावे – अहो ! कई एस महाम्रणी अचंतनीरागो ? कहं वा रिसधरिजंतसियायवत्तो ?, कहं परिभाविअंतनिजियमयाइवियारो ? कहं वा पुरतो मागहगीयमाणमाणवाइरित्तकित्तिवृत्तो ?, कह अच्चंत किसियकाओ ? कहं वा सूराभिभवकारिकंतिपन्भारो ? त्ति, अहो ! महापुरिसाणं निस्सीमाओ विभूईओ अम्हारिसाण तुच्छमईणं न वियारगोयरे वि वियरंति । एत्यंतरे सो मागहो पत्तो तमुद्देसं, भणिउं पवत्तो य-भो भो महायस ! सुकयकम्माणं पढमकित्तणिजनामो समुवल १ अप्रस्थितविद्याधर बन्दि समुद्धृष्ट विजय वरचरितः । हरिणोपदर्शितमार्गः बलदेवधीरिव सम्प्राप्तः ॥ २ ततः ज्ञातमुनिमाहात्म्य युद्धसार गमनपरमार्थः । अप्राप्तपूर्व प्रहर्षविनिर्यद्रोमाचमण्डितः ॥ ३ मिई जं प्रतौ ॥ ४ वन्दित्वा अनुगत्य ॥ ५ नीरनिधिनिधनप्राप्त प्रवहणदौः स्थ्यमपि ॥ ६-वितरणेन दानेन ॥ ७ पुरुषप्रियमाणसितातपत्रः ? कथं परिभाव्यमाननिर्जितमदादिविकारः ? कथं वा पुरतो मागधगीयमानमानवातिरिक्तकीर्तिवृत्तान्तः १ ॥ ८ईए अ प्रतौ ॥ यत्युपष्टम्भदाना धिकारे सुजयराजर्षि कथान कम् १८ । ॥१३५॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसरिविरइओ कहारयण-४ कोसो॥ सामन्नगुणाहिगारो। ॥१३६॥ यत्युपष्टम्भदानाधिकारे सुजयराजर्षिकथानकम् १८। द्धजम्म-जीवियफलो असेसमणुयमत्थयचूडामणी तुम निच्छियं होसि, कहमन्त्रहा बिजोहरनरिंदसंदोहमणिमउडटिविडिकियर्कमस्स तणं व परिचत्तविलाहररायलच्छिणो तिहुयणसरसीसमुग्गयकित्तिकुमुपवणस्स एयस्स खयररायरिसिणो संपइ संपत्तचउमासतवपारणयपत्थावस्स नीसेसदोसविरहियऽन्न-पाणणामणेण करयलकमलोवणीयतिलोयलच्छिविच्छड्डो होसि ? नहि अभाविभद्दा दोहोमियकामघेणु-चिंतामणि-कप्पपायवं एवंविहं मुणिं दहूं पि लभते किमंग पाराविउं ? किं वा न सुओ तुमए एस सबजयपयडो वि महाणुभावो ? । संगमएण भणियं-जइ उलुएण अंसुमाली न पलोइओ किमित्तिएण वि न सो सयलतिहुयणपच्चक्खो ? ता सबहा सँवणपीऊसवरिसकप्पं साहेसु एयसरूवं । मागहेण भणिय-एवं करेमि । एसो हि पभूयरयणडवेयपचयपइट्ठियदाहिणसेढिपरिविडो निप्पुन्नयनरदुल्छहगयणवल्लहपुरपह अणंतविरिओ नाम विजाहरचकवट्टी बिसेट्टकंदोट्टदलदीहरच्छीहिं रूयाइसयविजियामररामाहिं अंतेउरीहिं परिगओ सको व देवलोए विलसंतो कालं वोलेइ । तस्स दुवे पुत्ता सयलकलाकलावकुसला सिद्धसबवेजा महाबला-एगो मेहनाओ अवरो सिंहनाओ त्ति । पढमो ठविओ जुवरायपए, इयरो य कुमारभुत्तीए । सरंतेसु य वासरेसु कणिट्टपुत्तस्स पुचकयकम्मदोसेण कुट्टवाहिणा विणटुं सरीरं, पउचा विविहदबोसहप्पओगा, न जातो थेवमित्तो वि उपयारो । विसनो एसो, परिचत्ता जीवियासा। दुहट्टिएण १ विद्याधरनरेन्द्रसन्दोहमणिमुकुटमण्डितकमस्य ॥ २ कम्मस्स प्रती॥ ३ णसिर प्रती ॥ ४-अर्पणेन ॥ ५ विच्छदः-विस्तारः ६ ओहामियअभिभूत ॥ ७ श्रवणपीयूषवकल्पं कथय ॥ ८ प्रभूतरस्नायवैताज्यपर्वतप्रतिष्टितदक्षिणश्रेणिपरिवतः निष्पुष्पकनर- । परिवृद्धः-स्वामी ॥ ९ विकसितनीलकमलबलदीक्षिभिः रूपातिप्शयविजितामररामाभिः ॥ १० दुश्खासैन । अनन्तवीर्यमुनेः सिंहनादस्य च सम्बन्धः ॥१३६॥ RAWANNA%AA-MAHARASURGAONKARAC+%AKAARAKA पोक्खलाक्तगजिगमीराई [तूराई, पक्खिवह हुयवहजालाकलावाउलाई अग्गितेल्लाई, 'एस दूरमुल्लासियनीरनिउरंवो ससूर-तारमंबरं भरिउं पिव उड्डे उच्छलइ तिमिगिलो नाम दुट्ठजलयरो मन्ने न खेमंकरो' त्ति कुणह कायवाई, सरह सरियवाई-ति जाष भणिउं न विरमद ताव पवणपिढओ एवं चिय उद्विओ बीयदृसत्तो। तओ भूरिभयपब्भारभरिखंतहियओ परिचत्तजीवियासो भणिउं शुओ पवत्तो हो नावाजणा! मुयह जीवियसंक, सुमरह इट्टदेवयं, दोण्हं कयंताणमंतरे निवडिया[f] नस्थि मे मोक्खो-चि वाहरन्तरसेव तस्स एगेण तिमिगिलेण डंगविगमतिजयकवलणमणकीणासमुहकुहररउद्दाणणेण तं जाणवतं गहियं पुवओ, इयरेण पिढदेसउ ति । एवं च आयड-वियढि कुणमाणाण ताण निमेससहेण वि बिलवंतवाणिउत्चं विसंठुलविचेढुंतवंठलोयं भयभरवेचंतकायरं सपखंडयं पत्तं जाणवतं । सत्तुयमुट्टि व पणट्ठो सपतो नावाजणो । संगमतो वि कह चिय भवियच्यावसेण पत्तफलगखंडो महल्लकल्लोलपरंपरावुब्भमाणो कइवयदिणेहिं पत्तो पारावारपारभागम्मि सुवेलाचलपरिसरं । अचंतपरिस्समकिलामियकाओ वि धरियधीरिमावढुंभो छुहापिवासोवसम[ण]स्थमिओ ततो गिरिनिगुंजेसु परिभमंतो १ 'पोग्गला' प्रती ॥ २ दरम् सासितनिरनीकुरुम्बः ससूरतारम् अम्बरं भरितुभिव ।। ३ स्मरत स्मर्सम्यानि ॥ ४ो सूरि प्रती । भूरिभवप्राग्भारश्रियमाणहृदयः परियफजीवितासः ॥ ५-सस्थान, स्मरत ॥ ६ कृतान्तयोः अन्तरे ॥ ७ रत्तस्स वि त प्रती ॥ ८ युगविगमत्रिजगत्कवलनमनःकीमाशमुखकुहररोजाननेन ॥ ९ पयं च प्रती । एवं च आकृष्टविकृष्टिम् ॥ १० विलपदणिवपुत्रं विसंस्थुळविचेष्टमानवण्ठलोकं भयभरवेपमानकारारं शतखण्डता प्राप्तं यानपानम् ॥ ११ महाकालपरम्परोह्यमानः ॥ १२ मकाउकिलामियकाउ बिचरिव' प्रती । अत्यन्तपरिश्रमकाम्सकायोऽपि धृतधीरिमावष्टम्भः शुधापिपासोपचामनार्थम् इतस्ततः ।। AKAKIRWAINA Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरहओ कहारयणकोसो ॥ सामन्नगुजाहिगारो । ॥१३७॥ 11 2 11 संतावं, पडिवञ्जसु धीरतणं, अणुचिंतेसु दुट्ठचेडियाणं कडुयविवागं ति । इमं च सोचा चिंतियं विज्जाहरनरिंदेणअवि पलयलुलंतो लोलकल्लोलमालाउलजलहिजेलोहो रुम्भए वित्थरंतो । कह वि हुमखोमक्खंडमुत्तोलिमज्झे, पडुपवणपवाहो कीरए निश्चलो य अवि य सुचिरकालं लिंस्सई य प्पयंडं-जलिरजलणजालाजालमैतोऽनलस्स । सुरगिरिपणगेणं पाणिपंचंगुलीसुं, घडियनिहठिएणं नूण कीलिञ्जई य न उण विंगुणजी जोगसंजोग जम्माऽसुहटिइ रसकम्मुप्पीडपीडं असोढुं । अवि असुर-सुरेहिं सेरेंसंचारसारं, समयमवि य ठाउं निच्छियं लब्भईह ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ ता सङ्घहा सॅकडमिममावडियं, न संकेमि कुसलमिमस्स-त्ति गओ पुत्तसमीवं । साहिओ देवयानिवेइयपुर्वजन्मवृत्तो । जायजाईसरणेण सम्मं पडिवनो य कुमारेण । ततो जायगरुयवेरग्गेण अचंतविलीणकिमि कुलाउलकलेवरावलोयणविणिच्छि यद्दुयासणपवेसेण भालयलघडियपाणिसंपुढं विन्नत्तमणेण - ताय ! विसमो दसाविवागो, पडिकूला कम्मपरिणई, न य पे १ 'लुलंत लो प्रती ॥ २- जलौघो रुध्यते ॥ ३ सूक्ष्मक्षीमखण्डमुक्तावलीमध्ये ॥ ४ प्यते च प्रचण्डज्वलनशीलज्वलनज्वालाजालमताऽनलेन ॥ ५ "तो जल" प्रती ॥ ६ सुरगिरिपचकेन पाणिपञ्चाङ्गुलीषु घटिकानिभस्थितेन नूनं कीव्यते च 11 ७ "यविह' प्रतौ ॥ ८ विगुणजीवोद्योगसंयोगजन्माशुभस्थितिर कर्मोत्पीडपीडामसोदुम् । अपि अनुरसुरैः स्वेरससारसारं समयमपि य स्थातुं निश्वितं लभ्यते इह ॥ ९ "विय सु प्रतौ ॥ १० रसधार" प्रतौ ॥ ११ "छिडेल" प्रतौ ॥ च्छामि किं पि आरोगत्तणे उवायं, ता मग्गेमि किं पि जइ तुम्मे देह त्ति । विजाहरचकवट्टिणा भणियं-वच्छ सिंहनाय ! किमेवं जंपसि ? तुज्झ वि किं पि अदेयं १ निस्संको भणसु जेण तं पयच्छामिति । सिंहनाएण भणियं --- ता [य !] जह एवं ता तुमेहिं न कायवो थेवो वि हुयासण पवेसेण अंष्पविधायं कुणंतस्स मह विग्धो त्ति । ततो अविभावियवयणच्छल समुच्छलतातुच्छपच्छायाचो खयरचकवड्डीसरी महंतं चित्तसंतावमुवगतो । इयरो वि वारिअंतो वि नियगलोगेण पयंगो व पडिओ हुयासणे । जाओ य नयरे महंतो हाहारवो तम्मग्गमणुसरंतो कट्टेण पडिसिद्धो तदंतेउरीजणो । 'हा ! कीस मए देवयासिपुवजम्मवइयरो एयस्स कहिओ ? कीस वा एडन्मत्थणा [अ] ब्वाय ' ति बाढं संतपंतो, कत्थइ रई अलभंतो य, अच्चतं निवारिजमाणो य रायलोएण, मेहनायं रजे ठविऊण महाबाहुपडुसमीवे इममेव वेगकारणमुहंतो विजाहरीसरो समणो जातो, पढमपद्यजादिणाओ वि पक्खक्खमणाइतवं करेइ । अणवरयं अवरावरविजाहराहिवकीरमाणीं वंदण-पूयापडिवर्त्ति पि 'धम्मज्झाणविग्धं' ति मन्त्रमाणो 'मुणियधम्मसारो' ति गुरुजणाणुभातो इमं सुवेलाचलविजणवणविहारमल्लीणो । अणिच्छंतस्स वि य एयस्स महामुणिणो एस छत्तधारगो अहं च मागहो मेहनायनरिंदेण पिउणो परमभत्तीए सबहुमाणं धारिया समीवे। जद्दिवसं एयसरीरवत्तं नो लहइ तद्दिवसं भोयणं पि परिहरइ नरिंदो । एत्तो य उबरोबरं एयपउत्तिजाणणत्थं इंति जंति य विजाहरा संपयं च इमिणा मुणीसरेण कथं चाउम्मासखमणं । पतमु गए तम्मि 'अञ्जदिणे कहमेसो पारिहि ?" ति बाउलीहूया अम्हे । एसो य महप्पा पहरदुगसमए पगुणीक पडिगो १ तणं प्रतौ ॥ २ आत्मविधातम् ॥ ३ अविभावितवचनच्छलसमुच्छलद तुच्छपञ्चात्तापः ॥ ४ 'यतुम्भ प्रतौ ॥ यत्युपष्टम्भदाना|धिकारे सुजयराजर्षि कथान कम् १८ । ॥१३७॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभदसूरिविरहओ कहारयणकोसो ॥ सामन्नगुनाहिगारो । ॥ १३८ ॥ जाव चिह्न यात्र एवं संसम्मसमुग्गय विवेयवससमा साइयजाईसरणेण हरिषेण सचोपलोयणम्नुणियतुहसरूवेण आगंतूण दरिसिया कल्पो निकटखा तहाविहा चेहा । मुणियवदिगियामारो य एस अणगारो हरिणोवदंसिखमाणमग्मी [समा]गतो तुहंतिमं चिता भो महाणुभाव ! न तुमं सामचपुन्नो सि ॥ छ। इमं व सोचा चत्रमयसवपुत्तवियप्पो परमं पमोयपम्भारमुद्वहंतो पसुत्तो रयणीए संगमतो । बहुलंघणाणुचियकंदमूल-फलाइवसती समुप्पनं उदरमूलं, जाया बाढं अरई, तहाविद्दपडियाराभावओ य मरिऊण तीए चेव अवज्झाए नगरीए नरिंदयिजयराममहिसीए सीयानामाए देवीए गन्भम्मि संभ्रूओ पुत्तत्तणेणं ति । जम्मणसम [ए य] एयस्स महादुग्गट्टि - यपचंतपुहइपालविजएण बद्धाविओ जणगो । कैयं च से समहिगहरिमुल्लासपुचयं जम्मणवद्भावणयं, बारसाहे थ पयेडियं सुजओ ति नामं । समइकंतबालभावो य पढमं पडिवनो बाहत्तरीए कलाहिं, पच्छा बत्तीसराय कन्नगाहिं । अवि यचउरगुणो यदंईनामियकोदंडको डिभागम्मि । चोजमिणं चउदिसि नमइ भीयअरिराय सिरिविसरो घोरघणश्रणिय विब्भमपयंड कोदंडगुणझणकारो । कुणइ अकाले चिय राय हंसवग्गं भउविग्गं ॥ १ ॥ एगो वि से पयावो सक्खा दीसह दुहा परिणमंतो । हिमसिसिरो पणयाणं इयराण य पलयजलणसमो ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ १ एतत्संसर्गसमुङ्गतबिबेकलश समासादितजातिस्मरणेन हरिणेन सर्वतः प्रलोकन ज्ञातत्वत्स्वरूपेण ॥ २ व्यपगत सर्वपूर्वोक्तकुविकल्पः ।। ३ 'धम्म' प्रतौ ॥ ४ कयश्च से प्रतौ ॥ ५ प्रतिष्ठितम् ॥ ६ "दंडनमिय" प्रतौ ॥ ७ पोरषमस्तनितविभ्रमप्रचण्डको दण्ड गुणक्षणत्कारः ॥ ८ राजहंसाः राजान ॥ य विजाहरचकवट्टिना पट्टिया मंत-तंता, तेहिं वि समहिगतरं वड्डिओ वाही । सोगसंभारपूरिअंतगलरंधो य रोयंतो सो वारिओ पक्षसिमहाविजदेवयाए, जहा भो खयराहिव ! किमेवं गरुयविञ्जाहरवंसजम्म सहसंभूयं पि धीरिममवहाय पागयनरो व 'निवेयमुवहसि । पुचकयदुकयाणं पि किं देवो दाणवो वा सयमेव तित्थयरो भयवो वा गोयरमगतो दिडो निसामिओ वा ? जमेवं संतप्पसि । एएण हि महाणुभावेण पुचजम्मे कंष्वीपुरेसरसिरिवम्मनरिंदपुरोहियभवे वट्टमाणेण अचंतराय सम्माणजायजण पूयाइरेगपरिषद्विषविहमयहाणेण सहिभीयणकरणपयट्टेण तक्खणमासखमणपारणयागयगयउररायरिसिणो सणकुमारस्स हीलाए उचिट्ठा साबसेसा दवाविया भिक्खा । मुणिणा वि मुणियतका [लो ]च्चियदवाइसुद्धिणा गहिया आगमसुतविहिणा, परिभोत्तमारद्वा थ । नवरं देवयानिवारिएण परिहरिया अोण, तहा वि देवयाए जायगरुयामरिसाए पुरोहियसरीरे निवत्तिया समकालं सोलसमहारोगायंका । तेहिं अच्चंतनाहिनमाणो मीणो व थोवजलखित्तो तरवेद्धिं कुतो मतो, उववओो य निंदियजाईसु, तत्थ वि रोगनिवहविहुरिओ विवभो । एवं कवच भवगहणाई अणुभविय तिक्खदुखाई दुकम्मसावसेसयाए कयतहाविहमुकयविसेसो संपयमेसो तुह पुत्तत्तणं पत्तो, पुम्बुतदोसलेसओ य इमं दुरथावत्थमुवगओ ति । ता विभावियभवभावसरूवो महाराय ! मुं २ शोकसम्भारपूर्यमाणगलरन्ध्रः ।। २ निवेय प्रतौ ॥ ३ "समाणजाणजण प्रतौ । अत्यन्त राजसम्मानजातजनपूजातिरेकपरिवर्धिताष्टविधमदस्थानेन स्वगृहभोजनकरणमतेन तत्क्षणमा सक्षपणपारणकागतगजपुर राजर्षेः सनत्कुमारस्य हीलया उच्छिष्टा ॥ ४ ज्ञाततत्कालोचितद्रव्यादिशुदिना ॥ ५ तीनव्याकुळी भावम् । ६ च समायं प्रती ॥ यत्युपष्ट म्भदाना धिकारे सुजयराजर्षि कथान कम् १८ । ॥१३८॥ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमदरिबिरइओ कहारयणकोसी ॥ सामन्नगुणाहिगारो ॥१३९॥ **%%%%% दक्षेभ्यो दक्षिणात्यीयगाथ केभ्यश्चतुर्दश । हाटकस्य स्फुटं कोटीरदिशद् गीततोषितः संवराय कृतोदामचित्रमायेन्द्रजालिने । अत्यन्तविस्मयस्मेरो हेमकोटीरदा नव तथा कोटीर्हिरण्यस्य पश्च पञ्चमगानतः । तुष्टः प्रदत्तवान् देवः पथिकाय प्रवासिने विचित्र नाट्यविज्ञानतुष्टः कोटयेककाश्चितम् । सर्वाङ्गीणमलङ्कारं केरलीसादचीकरत् उदीर्णाजीर्णसम्भूतज्वरातङ्कविघातिनम् । देवोऽष्टहेमकोटीभिः सद्यो वैद्यमपू पुजत् प्रकीर्णदानतो जग्मुः स्वर्णकोटथोऽष्टविंशतिः । पञ्चाशीतिश्च कोटीनां तदेवं सर्वसङ्ख्चया इत्थं निवेद्य निःशेषं व्ययस्थूलसमुच्चयम् । भूपतेर्वर्षसम्बद्धं विश्राम स बुद्धिमान् ॥ ८ ॥ 118 11 11 20 11 इमं च सोच्चा जायचित्तसंतावो राया भणिउं पवत्तो के वयं दायारो ? केतियं वा दिनं ? जमेत्तिएण वि निट्टिया कोस कोड्डागारा, अज वि सुबह — केहिं वि सप्पुरिसेहिं नीसेसा वि सागरावसाणा मेइणी 'निरिणीकयत्ति, अहं पु[ण] कैश्वयजण तुच्छयरवियरणे वि कहं सुस्समणो व निग्गंथो जाओ म्हि ? अहो ! निष्पुनया, अहो ! अदिन्नदाणया, अहो ! विलालीयसंभावण ति । इच्चाइ अप्पाणं ज्झरंतो विसजियसेवागयजणो उवसंहरियपेक्खणयाइवावारो कयपाओसियदेवयापूयाकायचो ठिओ सुहसेजाए । कट्ठेण समागया निद्दा । विउद्धो य पहायसमए य मंगलतूररवेणं । ततो संपाडियपभायकिच्चो निसन्नो अत्थाणमंडवे । एत्यंतरे विन्मत्तं कोसागाराइनिउत्तेहिं, जहा—देव ! बद्धाविज्जह तुम्भे, केणह हेउणा न याणामो १ निरणी प्रतौ । अनुणीकृतेत्यर्थः ॥ २ कतिपयजनतुच्छतरबितरणेऽपि । वितरणं दानम् ॥ ३ 'निर्मन्थ' निष्परिग्रहः ॥ ॥ ४ ॥ ॥ ५॥ ॥ ६॥ ॥ ७ ॥ कणगाइणा भंडारा सबै पडिपुना गयणग्गसिहा जायति । ततो राया 'ईसिविहडियओट्टउडाणुमेयपमोयाइसओ पुणो वि जहिच्छाए अच्छिन्नपसरो दाउमारद्धो । नवरं पणडको साइनिसामणेण विउँधिया पचंतपत्थिवा, पारद्वा य देसोवदवं काउं । सुयं च एवं सुजयराइणा, पयट्टो महया संरंभेण तदुवरि विक्खेवेणं, कइवयपयाणएहिं पत्तो सदेससीमं । जातो य पचंतराईणं महासंखोभाइरे [गे]ण अभयाभक्खणेण व अचंतमइसारो । आलोचियं विजेहिं व मंतीहिं रोगुडाणं निच्छियं च तदणुष्पवेसलक्खणं से ओसहं । ततो ते पचंतराइणो लंबंतमुक केसकलावा कंठारोवियकुठारा सेवं पवन्ना सुजयरन्नो, दिनाभयप्पयाणा य गया जहागयं । शिया वि कोउगेण इओ तओ काणणंतरेसु वियरंतो पविट्टो बद्दलतलतमालसामलमेगं वणनिगुंजं । पेच्छद्द य तत्थआयावणभूमिगयं उवरिधरिअंतसेय [ध]य-छत्तं । पुरतो पढतमागहमइस य सुंदरागारमेगमणगारं ॥ १ ॥ ततो दूराउ चिय पम्मुकरारिहेचिंधो पडिओ साहुणो चलणेसु । 'कहिं मए एवं विहं रूवं दिडं ?" ति ईहा-पोहाइयद्वेण य सरिओ पुवभवो, जाणितो परमत्थो । विन्नत्तो य मुणी-भयवं ! परियाणह तुम्भे ममं १ ति । साहुणा भणिय - भो देवाणुप्पिया ! न सम्मं परियाणामो । राइणा भणियं - सुबेलसेलपरिसंठिएहिं कुरंगदंसिजमाणमग्गेहिं तुम्भेहिं चाउम्मासियपारणगे तहाविहकंदफलाइग्गहणेण जोऽणुग्गहिओ सो हं तद्दिणरयणीए अणुचियाहारवसुंप्पन्नपोट्टसूलो १ ईषद्विपटितौष्ठपुटानुमेयप्रमोदातिशयः ॥ २ गर्विता इत्यर्थः ॥ ३ 'विक्षेपेण' सैन्येन ॥ ४ 'अभया भक्षणेन' हरीतकीभक्षणेन इव अत्यन्तम् 'अतिचारः " विरेचनम् । आलोचितं च वैयैरिव ॥ ५ "रिसिचि प्रतौ । प्रमुक्तराजाईचिह्नः ॥ ६-वशोत्पन्नोदरशूलः ॥ यत्युपष्टम्भदानाधिकारे सुजयराजर्षि कथा नकम् १८ । ॥१३९॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमद्दसरिविरहओ कहारयणकोसो ॥ सामनगुणाहिगारो। तइया मरिऊण तुम्ह पसाएण कोसलदेसाहिवत्तणं पत्तो, धनो य अहं जेण विजियकप्पपायवं संसारारण्णवत्तीण जंतूणं परमदुल्लहं तुह दंसणं लद्धं ति । एत्थंतरे 'भोयणपत्थावो' त्ति विनतो सूबगारेणं राया । ततो हेरिसुल्लसंतरोमंचकंचु[इ]यकाएण वंदिऊण रन्ना 'कुणसु भय ! पसायं जहासिद्धअसणाइगहणेणं' ति निमंतितो साहू । 'पक्खदिणपारणगं' ति जुगमेत्तखेतदिद्विपसरो रायाणुमग्गेण गतो रायावासं । लूहिया केसपा[सेण] से चलणा रन्ना, निजीवपएसे दिनमासणं, निसनो साहू । 'तमिममुत्तमं पत्नं, सा य एसा विसिड्ढदेयसामग्गी, सो य एसो एगंतविसिट्ठो दाणपरिणामो, सव्वहा सहलीहूओ अज घरवासो' त्ति हरिसंपगरिसमुबहतेण नरिंदेण असण-पाण-खाइम-साइम-वत्थ-कंबल-मेसहाईणि पणामियाणि तस्स । साहुणा नि उग्गमुप्पायणेसणाविसुद्धिं परिभाविऊण जहोवयारं अरत्त-दुद्वेण गोणीवच्छर्गचत्तगहणनाएण गहियं किं पि । वंदितो य सपरियरेणं रना । गतो सो जहागयं । परिचत्तसयलवावारंतरेण य पुहईवणा पज्जुवासिओ कइवयदिवसाणि । जाणिओ मणिमहातो जिणिदधम्मपरमत्थो। १ हर्षोल्लसदोमाञ्चकन्चुकितकायेन ॥ २ सलहीह प्रती। सफलीभूतः ॥ ३ हर्षप्रकर्षमुबहमानेन ॥ ४ "कंवणभे" प्रती ॥ ५ 'गौवत्सकत्यक्तप्रहणन्यायेन' यथा गोः वत्सः मनुष्यैः त्यक्त-शेषतया रक्षितं स्वमातुः दुग्धं गृहाति-पिवति तद्द मुनिरपि लोकः शेषतया रक्षितं यस्किमपि आहारादि भिक्षायां गृह्णाति इत्यसौ गोवत्सकत्यक्तग्रहणन्याय उच्यते यदा यथा गोवत्सा-वत्सतरः चारी चरन् शेषरक्षणेन चारी गृहाति-चरति, न तु । समूलोखातं चरति, एवं मुनिरपि शेषरक्षणेन भिक्षाचर्या चरति इत्ययमपि गोवत्सकत्यक्तग्रहणन्याय उच्यत इति; एवमुभावप्यर्थाचत्र मुनिगोचरचर्यायो साताविति ।। ६ गवत प्रतौ ।। यत्युपष्टम्भदाना|धिकारे सुजयराजर्षि कथानकम् १८॥ 25% MCQAQAK ॥१४०॥ * ॥१४॥ SARASWATAKA4%94%EACHERARMACACACA%ACACARRC ताव कहा इयराण चांगे जाणे नए य विणए य । दक्खत्ते दक्खिने य जाव नो थुवई एस ॥४॥ एवंगुणो य सो पिउणा पइडिओ नियपए । सयं च पडिवमा समणदिक्खा । गुरुणा समं गामा-ऽऽगर-[नगर]सुंदरं वसुंधरं विहरिउमारद्धो। सुजयमहानरिंदो वि मिउंकरकयकुवलयाणंदो चंदो छ पइदिणपवड्डमाणंगो रायसिरिमुवझुंजतो [वि]लसइ । अन्नया य अचंतचागेण तुच्छकरग्गहणेण [य] निडिया कोस-कोट्ठागौरा । निवेहयमिणं रन्नो तभिउत्ताहिगारेहिं । विसनो य एसो-अहो ! किमेयं जूयपमुहवसणविरहियस्स वि, गरुयदाणजोग्गे वि तुच्छ चिय पयच्छंतस्स वि, लोएहितो सवं चिय करं गिण्हतस्स वि एगपए च्चिय कोस-कोट्ठागाराणं रित्तत्तणं? ति, मन्ने ममाणुचियदाणाइणा एवं भविस्सइ-त्ति वाहराविओ भाणुदत्ताभिहाणो सिरिहरपारिग्गहिओ। पुच्छिओ य एसो-अरे! अच्छउ ताव सेसं, एत्थ संवच्छरे किं मए कस्स दवावियं ? ति । तेण भणियं-देव ! निसामेसुकोटीर्दश सुवर्णस्य चेदीशदयिने ददौ । लक्षवीराय वीराय देवः सौडीर्यरञ्जितः ॥ १ ॥ दुर्लक्षलक्षवेधेन राधावेधविधायिने । नेपालसूनवे तुष्टो निष्ककोट्यावदापयत् ॥ २॥ म्लेच्छराजजयावाप्तौ वन्दिवृन्दारकैः स्तुतः । देवस्तेभ्यः प्रहृष्टोऽष्टौ स्वर्णकोटीरकल्पयत् ॥३ ॥ १'त्यागे' दाने ज्ञाने नये ॥ २ चन्द्रपक्षे-मृदुभिः करै:-किरणः कृतः कुवलयाना-रात्रिविकासिकमलानामानन्दो येन, राजपक्षे-मृदुभिः-अत्यल्पः करैःराजग्राह्यभागैः कृतः कुवलयस्य-महीवलयस्य आनन्दो येन सः । पुनश्चन्द्रः प्रतिदिनं वर्धमानानि अझानि-कलारूपाणि यस्य, राजपक्षे तु अनिदेहावयवानि । 'राजश्रियं चन्द्रलक्ष्मी राजलक्ष्मी च ॥ ३ गार नि प्रती ।। ४ 'श्रीगृहपरिषदिकः' भाण्डागारिकः ॥ २४ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमद्दसूरिविरइओ कहारयणकोसो॥ सामनगुणाहिगारो। ॥१४॥ यत्युपष्टम्भदानाधिकारे सुजयराजर्षि कथानकम् १८। जह सुकुमारमहीए तणुं पि बीय जलेण संसित्तं । जेणइ महंत विडेविं गुरुविडवाडोवरमणिजं ॥१ ॥ तह थेवं पिसुपत्ते सैद्धाजलसित्तमोप्पियं दाणं । जणइ जणाणमवस्सं महल्लकल्लाणवल्लिधणं ॥ २ ॥ वत्थ-ऽण्ण-पाण-भेसह-कंबल-सेजा-ऽऽसणाणमेकेकं । उवउत्तं साहूसुं किं व सुहं तं न जं कुणइ ? ॥३ ॥ इयरम्मि वि उवयरियं पचक्खं दिट्टमिट्टफलजणगं । किं पुण महग्यगुणरयणरोहणेसु सुसमणेसु ॥ ४ ॥ मुणिवसहो नित्थामो दुबहसंजमभरं न वोटुमलं । ता तबहणुवगरणं इ8 अन्नाइदाणमिणं ___ आहे कहं संजमवजियस्स लिंगावसेसमेसस्स । एवं सइ दाणविही विसिट्ठफलया हवइ गिहिणो ? ॥ ६ ॥ तहाणोवग्ग हिओ अणिट्ठचेट्ठासु वदृइ विसंकं । तकारवणेण गिही अचंतं दोसवं नेओ सञ्चमिणं जइ दाया करेञ्ज एवंविह नणु विकप्पं । देमि अहं जेण इमो वह अविसिट्टचेट्ठासु ॥ ८ ॥ अह दरिसणाणुरागण धम्मखिसानिवारणट्ठाए । लिंगि त्ति उचियदाणे कह गिहिणो वुचई दोसो? ॥९॥ देहरा [स]णियराया सुरमुणिमीणग्गहं निवारिंतो । सामुल्लावपुरस्सरमसारसम्मत्तवं हवउ ॥ १० ॥ १ जान म" प्रती ॥२ 'विटपिन' वृक्ष गुरुविळपाठोपरमणीयम् । विटप:-शाखा पलवविस्तारथ ॥३धवाजलसिक्तमर्पितम् ॥ ४महाकल्याणवनिधनम् ॥ ५६ अहं प्रती ॥ ६ नि:शकम् ॥ ७दोषवान ज्ञेयः ॥ ८ दर्शनानुरागण धर्मबिन्दानिवारणार्थाय ॥ ९ इतरथा श्रेणिकराजा सुरमुनिमीन पई निवारयन् । सामोळापपरस्परम् असारसम्यक्त्ववान, भवतु ॥ अत्रार्थ इदं शाखोपनिषद्विदां पारम्पर्यम्-एकदा किल मगधराजश्रीश्रेणिकस्म पर्मदाकर्वपरीक्षार्थ कश्चित् सुरः सदमनमार्गान्त: साधरूपेण जलमथ्या मत्स्यान् गृह्णाति । नजता च सेन पर्मना मगधरान मौनग्रहणप्रत्तः स कृतकमुनिः साम्ना निषिद्धः सन् प्रोवाच, उपष्टम्भदानस्थ माहात्म्यम् GREHABHA ॥१४॥ ASARASWARASHARAXAMACACANA न य धम्मखिंसवअणमुवइ8 एयमवि न वत्तई । परमं अबोहिबीयं एयं तिवाइभणणाओ ॥११॥ इमिणा अवनवाओ वि बजणीयत्तणेणमवसेओ । जइ दोज गुणलवी वि हु ता तग्गहणं चिय बिहेयं ॥ १२ ॥ परपरिवाए परदोसदसणे परविहंडणे य रया । हारिति ही! सकलं मूढ ति कयं पसंगण नियभूमिगाणुरूवं जहोचियं दाणधम्ममकुणतो । उद्धरिही अप्पाणं भवकूवाओ कहं व गिही ? ॥१४॥किश्च शास्त्रार्थचिन्तन-परप्रतिबोधना-ऽर्थव्याख्या-तपो-विनय-संयम-सच्चरक्षाः। क्षुत्पीडितो यतिरलं न विधातुमस्माद् , धीरैरगद्यते उपग्रहदानधर्मः ॥ १ ॥ यूता-उनल-क्षितिप-तस्कर-वारि-वेश्या-दायाद-तकुक-सुहृत्सुतभोगभङ्गिः । वित्तं विमूढहृदयो हि विदन्नपीद, साधूपयोगि न करोति तदाऽन्तरायः ॥ २॥ तत्पाणिपङ्कजपुटीमटतीव लक्ष्मीः , स्वप्नेऽपि वाञ्छति न तं विपदुद्धताऽपि । यस्यानिशं सुमुनिदानविधौ रमन्ते, वाकाय-चित्तकरणानि शरीरभाजः यत्-राजन् ! त्वं न जानासि परमार्थम्, किच सर्वेऽपि साधको मारशा एव । तथाऽप्यनुपशममप्राप्नुवता मगशेन पुनरप्पसौ मीनग्रहणप्रवृत्तः सुरमुनिः साम्नव प्रतिबोधितः सन् स्वं रूपं प्रकटीचकार । स्तुत्वा च मगधापुरेशधर्माचलत्वं स नाकी नाकलोकमलचके ॥ १ अत्र सन्धिर्न विहित इत्यसन्धित्वदोषः ।। CHI+EXCE%A4%AACARA Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसरिविरइओ कहारयणकोसो।। सामन्नगुणाहिगारो। कुग्रहत्यागे विमलोपाख्यानकम् १९। कुरहस्य स्वरूपम् इति नियतमनिष्टाद्रीन्द्रवजोपमानं, शुभनिवहनिधानं यत्युपष्टम्भदानम् । खचरनृपमहर्षिः कीर्तयित्वा सभायाः, कृतविहरणबुद्धिः शिश्रिये स्थानमन्यत् ।। ४ ।। ॥ इति श्रीकथारत्नकोशे यत्युपष्टम्भदानाधिकारे सुजयराजर्षिकथानकं समाप्तम् ॥ १८॥ --000OOcerसम्मत्ताइगुणेसु पुवुत्तसुं पयट्टमाणो वि । कुग्गाहवं विसीयइ ता तच्चागे जएज दर्द ॥ १ ॥ तुच्छी बुद्धी थोवं पयस्थविसयं च नूण विनाणं । भावा अइंदिया केवलीण विसया परं इंति ॥२॥ जो तेसु वि समईगारवेण सुंदर-असुंदरविवेओ । विहि-पडिसेहपहाणं परूवणं वा तयं मोहो ॥३॥ कुरंगहिणो वि सरूवं जत्थ मई तत्थ नेइ जुत्तीओ । इयरो य अन्नहा तेण निंदियं कुग्गहग्गहणं ॥४॥ नियमइपमाणयाए पयट्टमाणे समत्थकिच्चेसु । अइसइनाणीण गिरं गरुयं पि असारय निति ॥५॥ तह भावम्मि अतीए अइदुकरकारिणो वि सीयंति । विजयविवजियाए किरियाए रोगविहुर व ॥६॥ जैह मंत-[तंत-]जोइस-चिगिच्छसस्थाइ अइसइपणीयं । कञ्जकर तह समईवियप्पियं न उण थेवं पि ॥ ७॥ १ यतेत ॥ २ कछा ही थो' प्रती ॥ ३ कुचाहिणोऽपि स्वरूप बत्र मतिः तत्र नयति थुप्फीः । 'इतरथ' सहाही च 'अन्यथा' यत्र युक्तिः । तत्र मतिं नयति तेन निन्दित कुग्रहग्रहणम् ॥४ निजमतिप्रमाणतया प्रवर्त्तमानाः समस्तकत्येषु । 'अतिशयिज्ञानिना' तीर्थक्रत नयन्ति ॥ ५ वैद्यकविवर्जितायां कियायाम् ॥ ६ जद मं प्रतौ ।। ॥१४२॥ | ॥१४२॥ KAM%%***%***%AR+KI+SKARNAK+%A4%***%%* CAKACIRCLOACHAOCCAREERACASCAAAAAACHARY पत्थावे य समुप्पचवेरग्गेण विनत्तो मुणी-भयवं! सबहा कुणसु कोसलपुरीए बिहार, जेणाहं पुत्तारोवियरजभरो तुम्ह समीवे पबजे अणुचरामि । मुणिणा भणिय-महाराय ! जुत्तमेयं तुम्हारिसाणं, वयमवि बट्टमाणजोगेण एवं काहामो त्ति । ततो बंदिऊण विजाहररायरिसिं गओ राया सनयरिं। निवेइतो निययाभिप्पाओ मंति-सामंताईणं । अणुमभियं तेहिं । निरूवाविय अभिसेयजोग्गं लग्गं पइडिओ पुत्तो रजे, काराविओ बंदिमोक्खो, उग्घोसाविया अमारी, पारंभिया जिणभवणेसु महूसवा, दवावियं तिय-चउक-चच्चरेसु दीणा-णाहाईणं दाणं । संपत्तो य समुचियसमए भयवं विजाहररायरिसी । मया रिद्भिवित्थरेणं रायसुयसयसमेएण य पवना रना तदंतिए दिक्खा, संवेगसारं च पवत्तो संजममणुट्ठिउं । विहरतो य गुरुणा समं गतो य पोयणपुरं नयरं । तर्हि च सो पालियजहुत्तसामनो मरिडं अच्चुए कप्पे देवत्तणेण उववो ति । 'सम्ममाराहियं' ति अहासनिहियदेवेहिं [कया] से निसीहियामहिमा। गाढकोऊहलाउलिजमाणेण य पुच्छिओ गुरू लोगेणं-भयवं! को एस महप्पा महप्पभावो समणसीहो जस्स सुरेहिं पि एवं पट्टिइ। ततो विजाहररायरिसिणा सिट्ठी सबो मूलातो आरम्भ तब्वृत्तन्तो । तं च जहट्ठियमवगम्म विम्हियमणेण भणियं जणेण-भय ! थोवंतहाविहदाणाओ वि कहमेवंविहपरमफलवित्थरुत्थंभियमुकयकप्पपायवुप्पाओ संभवइ । गुरुणा भणियं-सुणसु, १ "नियन्तेहिं प्रती ॥ २ स्तोकतथाविषदानादपि कथमेवंविधपरमफलविस्तरोत्तम्भित सुकृतकल्पपादपोत्पादः ॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमद्दसरि विरइओ कहारयणकोसो॥ सामन्नगुणाहिगारो। ॥१४३॥ ॐग्रहत्यागे विमलोपाख्यानकम् १९ । समकालजम्मणाणुभावेण य बढमाणपीइणो समगं कीलंति, समगं भमंति, समगं झुंजंति, न परोप्परविरहिया मणागं पि चिर्द्वति । अदुवारिसिया य खेता लेहसालाए । पढियसमुचियकलाकलावा य कीलंता ते अमचभवणं गया, दिट्टा भत्त-पाणनिमित्तमागएण मुणिसंघाडएणं । तम्मज्झाओ जेद्वेण अइसइनाणिणा 'विजणं' ति सिमियरस्स, जहा-एयाणं कुमाराणं एगो कुडिलबुद्धी कुगइगामी य, इयरो य पयइपसन्नमइविभवो पयइभद्दो सुगइगामी य । इमं च केडगंतरिएणं निसामियममञ्चेण । जायविम्हयभरेण य चिंतियमणेण-अहो ! किंनिमित्तं [एवं] जंपियमणेण साहुणा ? न ताव राग-दोसाइवियारो संभाविजइ एयरस पतोयणविरहातो, न य वितभासणे निमित्तं किं पि संभाविञ्जइ धम्मकिच्चेसु सञ्जमाणातो, ता निच्छियं अवितहमेयं वयणं, केवलं 'को पुण एयाण कुमाराण मज्झातो एवंविहसरूवो?' ति न मुणिजइ निच्छ[य]ओ, ता तजाणणत्थं करेमि किं पि उवायं-ति विभाविऊण भूमीए आलिहिया देवयापडिमा । भणिया य कुमारा-पुत्ता ! एयं उल्लंघिऊण आगच्छह जेण तुम्ह आरोग्गया कल्लाणपरंपरा य संभवइ त्ति । ततो रायसुतो चिंतिउं पवत्तो-'न जुत्तमेयं, समग्गकुसलर्पचूहो क्खु एसो पूयणिजपूयाविइक्कमो' त्ति विभाविय तेण भणियं-नाहमिमं लंघयिस्सामि । बीओ भणितो । तेण पुण वयणाणंतरमेव अइकंता एसा । ततो ज्झत्ति चमकिओ अमच्चो अंतोपसरंतगरुयसंतानो वि आकारसंबरं काऊण रायसुर्य पुच्छह-वच्छ ! कीस तुमए पंडिमा न लंघिय ? ति । रायसुएण भणियं १ कथितम् ॥ २ कटकः-यवनिका ॥ ३ प्रयोजनविरहात् ॥ ४ "सु सुज प्रतौ ॥ ५ 'सजमानात्' तत्परात् ॥ ६ "पञ्चहो प्रतौ ॥ का ७ विचार्येत्यर्थः ॥ ८ परित्ता न लंघयति । राय प्रती ।। ★ा॥१४॥ SACREASOASARARIACAKACACANARASINECHAKRACANCE मूर्ति विषयक चार्चिकम् जो भूमीयलविलुलंतसीसकेसुच्चएहिं निचं पि । पणमिज्जइ पूइज्जद बंदिजइ संथुणिजइय ॥ १ ॥ सो कह भूमीयलविलिहिओ बि कैयठावणो वि अक्खादो । अइलंघिउं हि जुत्तो अभत्तिभावा अजुत्तमिणं ॥२॥ जप्पयपसायणाओ वंछिञ्जद कामियत्थसंपत्ती । सो मणसा वि न जुत्तो अइलंघेउं किमुय वैयसा? ॥३॥ जो पूइओ पसीयह रूसह आसाइओ स नियमेण । ता पूणिजपूयावइकमो सवहाऽणुचिओ ॥४॥ तओ पुच्छिओ मंतिणा नियपुत्तो-वच्छ ! जइ एवं ता कीस तुमए देवयारूवमइलंघियं ? ति । तेण भणियं-ताय ! जहतहरेहाविलिहणमेत्तसंपत्तदेवयारूवे वि को अइलंघणदोसो ?-त्ति लंधिया मए एसा, परमत्थो य एसो, अनहा रेहामेत्तसंभविभुयंगसंगमाओ वि दंससंभवी, चित्तविलिहियकरवालाइनिसियसत्थफरिसणाओ वि सरीरछेयाइदोसप्पसंगो, ता न जहतहदेवयागाराइलंघणाइणा अकल्लाणसंका काउमुचिय ति । ततो मंतिणा पलोइयं रायसुयवयणं । ततो भणिओ सो रायसुएण-भद्द ! अणुचियमुल्लवसि, सोयाराऽणायारा नामस्स वि ठावणा वि पुजाणं । तब्बुद्धिभावजणगत्तणेण पूयारिहा चेव ॥ १ ॥ तप्पूयणा-ऽवमाणणजणिया दीसंति अत्थ-ऽणत्था य । ता कह निविसया होज आगिई देवयाईण? ॥२॥ जं च तए भणियमिणं न हु रेहासंभवो डसइ भुयगो । न हु चित्तविलिहियं पि हु पहरणमंगम्मि पकमइ ॥ ३ ॥ १ कृतस्थापनोऽपि अक्षादौ । 'अक्षादी' इति सिद्धसंस्कृतरूपात् 'अक्लादो' इति प्रयोगसिद्धिः ॥ २ यसदप्रसादनात् ॥ ३ बएसा प्रती। वचसा, उपलक्षणात कायेनापीति भावः ॥ ४ इउं रा प्रती ॥ ५ साकारानाकारा ॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरइओ 648SASEASES KALAKAKAAS कुग्रहत्यागे विमलोपाख्यानकम् कहारयणकोसो ॥ सामन्नगुणाहिगारो अणुचियमिमं पि हु जओ तबिहझाणुब्भवंतमाहप्पा । एवंविहभावो सिं' दीसई सीसइ य कुसलेहिं ॥४॥ विमलेण ततो भणियं कंटगवेहे वि भुयगसंकाए । जइ होइ विसविगारो अन्नत्थ बि सो तहा नेओ ॥५॥ ता संक चिय दोसाण नूणमेवंविहाण जणिगेयं । तच्चागे चत्तो चिय दूरे एवंविहो दोसो रायसुएणं भणियं जइ एवं ता सि णेह न उ देह (?) । खाउ विसं निस्संको होऊणं कीस सो भाइ ? ॥७॥ तो ते निविसए चिय संका दोसाण साहिगा जत्तो । नत्थियवाओ इय मो' सलाहणिजो न कुसलाण ॥८॥ एवंविहो य भावो न भाविभद्दस्स संभवइ पायं । न य तज्जम्मे वि न दुक्खकारओ नूण हरिणो व ॥९ ॥ अमचेण भणियं-रायसुय! को एस हरी । कुमारेण जंपियं-निसामेसु, कुल्लागपुरे नयरे एगो उच्छन्नवंसकुलपुत्तओ [हरी नाम] दोगच्चदंतो तण-कट्ठोवाहरणेण जीवइ । अनया य जायमवरिसणं, निट्ठियमासबतण-कट्ठाइयं । ततो पेच्छयणसमेओ सो दूरयरदेसाउ उवाहरियतण-कट्ठाइणा जीविउं पवत्तो । एगम्मि य दिणे तण कच्चयं कृणतेण रय-कयवरपच्छाइयसरीरा पायडसीसमेचा दिवा अणेण जक्खपडिमा । पहिट्ठो एसो, 'जइ पुण एत्तो वि दारिदावगमो हवई' ति आढचो पुप्फाईहिं पूइउं । गयाणि केधिराणि वि दिणाणि, न मणागं पि पसंतो जक्खो । 'मुक्खो लो[ओ] देवयापूयणाइणा अप्पणो कल्लाणं मग्गई' त्ति विपडिवो एसो पारद्धो सिला-गल-लिंड-डहणाहणा १ सिं, न दी प्रतौ ॥ २ ता तो नि" प्रती ।। ३ जुत्ता प्रती ॥ ४ नास्तिकवादः ॥ ५ 'मो' इति पादपूरणार्थकमव्ययम् ॥ ६ कला प्रती ॥ ७ तृणकाटोपाहरणेन ॥ ८ 'अवर्षणम्' अवृष्टिः ॥ ९ पथ्यदन-शम्बलम् ॥ ॥१४४॥ हरेः कथानकम् ॥१४४॥ KENARAYACHIKARANAYAKASAX इहलोइयं पिकजं कुणंति जे कुग्गहं अणिग्गहिउं । ते पाउणति निंदं न य कजं किं पि साहिति ॥८॥ [किं पुण सम्बन्नुपयासियम्मि अत्थम्मि कुग्गहो जोउ। हो]जन सोऽनत्थकरो? विमलस्स व मंतिपुत्तस्स ।।९॥ तहा हि-अस्थि वच्छावच्छत्थलीभूयं, भुयणत्तयपडिविंचं व असुर-सुर-नरसुंदरमंदिरपरिगयत्तणेण, तिणीकयतिणयणावासमहिमं हेमपुरं नयरं । तहिं च उवज्झाओ नयसत्थत्थपत्थावणेण, [कुलगुरू सप्पुरिसमग्गगामित्तणेण,] ........... ...............................[कप्प] रुक्खो चिंतियफलपयाणेण, गणणा[]कंतगुणरयणमयरहरो हरितेओ नाम राया । नयरक्खियगोमंडललद्धं दुद्धं व जस्स जसमसमं । बंभंडभंडयाओ पयावकढियं व लुठइ बहिं ॥१॥ तस्स य रनो रत्ता विव रविणो रोहिणि व्व ससिणो विजया नाम देवी । [विसुद्धबुद्धिपगरिसागरो सागरो से अमच्चो।]........ .................[एवं च रजसुहाणि अणुभुजमाणा सवे दिणाई गर्मिति । अवरवासरे रनो अमच्चस्स य समकालं जाया पुत्ता, कयं वद्धावणयं, पइट्टियं रायसुयस्स सूरतेउ त्ति नाम मंतिसुयस्स य विमलो ति । दो वि १ अनिगृह्य ते प्रगुणयन्ति ॥ २ साधयन्ति ॥ ३ अत्र हस्तलिखिततालपत्रीयप्रतिसत्कं पत्रम् एकपार्वतः प्रान्तभागे पृष्ट फुसिताक्षरं वर्तते, अतोऽत्र यान्यवराणि सर्वथा न दृश्यन्ते तत्स्थाने सूक्ष्मबिन्दवः स्थापिताः, यानि च अक्षराणि कथचन वाध्यन्ते शङ्कितानि च तानि चतुरखकोष्ठकान्तः स्थापितानि सन्तीति ॥ ४ तृणीकृतत्रिनयनावासमहिमम् । त्रिनयनावास:-कैलासः-हिमालयः ॥ ५ अन अष्टादशाक्षराणि न चाच्यन्ते ॥ ६नयेन-विधिना न्यायेन च रक्षितात्-पालिताद् गोमण्डलात्-गवां समूहा महीमण्डलात् च लब्धं यस्य असर्म यशः दुग्धमिव ब्रह्माण्डभाण्डात् 'प्रतापक्कथितमिव' प्रतापेन-अग्न्युष्मणा राजतेजसा च कथितमिव लठति बहिः ॥ ७ दुई च जस्स जसमजसं प्रती ॥ ८ अत्र द्वादशाक्षराणि न दृश्यन्ते ॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमद्दरि विरइओ कुग्रहत्या विमलोपा ख्यानकर | १९॥ कहारयणकोसो॥ सामनगुणाहिगारो। ॥१४५॥ गण, ता अवस्सं जहट्ठियं साहेसु । 'अहो ! देवस्स आगारिंगियाइकुसलत्तणं' ति विभाबितेण मंतिणा सिट्ठो एगंतट्ठियस्स राइणो सबो पुवयुत्तो। वियाणियदोमणस्सनिमित्तेण य भणियं रमा-भो अमच्चवर ! मुंच संतावं, कुणसु सुयवि[ण]यणे पयत्तं । अमचेण भणियं-देव ! जा जस्स पयई सा तस्स विणयणसएण वि न अन्नहा काउं पारियह । रचा जंपियंअस्थि एवं, केवलं साइसयपुरिसपरिग्गहेण असुहसहायो वि सुहसहावत्तणं पवजह, तहा हि-अप्पडिमर्मतमाहप्पपुरिसपरिजवियं विसं पि रसायणभावं पवञ्जइ, अइदुस्सहो वि हुयवहो हिमसिसिरसिरिमवलंबेद, वियडफडाडोबदुप्पेच्छो वि भुयंगो रज्जुकरणिमणुसरइ, ता केत्तियाई तुह कहिजंति एवंविहसंविहाणगाई ? सबहा मुककुरियप्पो जेण मुणिणा तुह सुयसरूवं वियाणियं तं चेव कहिं पि उवलंभिऊण एयस्स विणयणत्थं निर्जुजाहि, जेण नॉइमग्गे इमो लग्गइ ति । 'जं देवो आणवेई' [ति] नीहरिओ रायभवणाओ मंती । पुरिसपेयालपेसणेण सव्वत्थ पलोयाविओ सो तवस्सी, दिट्ठो य कुसुमसेहराभिहाणे उजाणे । ततो मद्दया रिद्धिवित्थरेणं दोहिं वि कुमारेहिं समं समणसमीवे गतो, परमायरपुरस्सरं च तचरणसरोरुहं पणमिऊण निविद्रो अमचो, सिरोवरि रइयपाणिसंपूडो य विनवित्रं पवत्तोभयवं! कुणसु पसाय दुमयमयरायरे निवडिराणं । अम्हारिसाणमुवएसजाणवत्तप्पयाणेण ॥ १ ॥ सविसेसं पुण एयाण अम्ह कुमराण बालपयईण । इस्सरियाइमहामयपच्छाइयसुद्धबुद्धीण ॥२ ॥ १ विज्ञातवीर्मनस्यनिमित्तेन ॥ २ 'रज्जुकरणि' रज्जुसारश्यम् ॥ ३ संविधानकानि-कथानकानि ॥४ज्ञप्तिमार्गे ॥ ५ प्रधानपुरुषप्रेषणेन ॥ ६ दुर्नयमकराकरे निपतनशीलानाम् अस्मारशाम् उपदेशयानपात्रप्रदानेन ॥ ७ ऐश्वर्यादिमहामदप्रच्छादित बयोः ॥ ॥१४५॥ PRAKAARAKHA%ASKKHI+K%ER+RASKA%A%A99 सामान्यधर्मः तो मुणिणा करुणाभरमंथरपंम्हउडनयणनलिणेण । साहारणधम्मुवएससारमिय भणिउमाढत्तं ॥३ ॥ अचंतं गुरुपणाई देवेसु य पूयणापराऽभिरुई । सत्थत्थसवणचिंता जहसत्तीए य तकरण मंनाण माणणं चिय उचियपवित्तीए चट्टणं सम्मं । परपरिवायचाओ असदग्गहवजणे जत्तो ॥५॥ सपणयपुब्बुल्लावो अजुत्तकरणम्मि दढयरं लज्जा । नयभंगभीरुभावो भवविगुणविभावणा वुड्डी लोगविरुद्धविवअणमणुदिणदीणप्पयाणपरिणामो । वय-नाणवुड-सुवियसेवणं गुणिसु उवयरणं ॥७॥ दुत्थियजणाणुकंपा अपक्खवाएण नायवागरणं । परपीडापरिहारो सुदीहदरिसित्तनिउणतं ॥८॥ एमाइ तह कहं पिछ जइणा कायबवित्थरो सिट्ठो। जह तेसि भद्दगाण वि जाया जिणसासणेऽभिरुई ॥९॥ नवरं वेलुयकवलो बनीरसं तं न रोयह कहं पि । विमलस्स सुंदर पि हु खीरं पिच पित्तविहुरस्स ॥१०॥ एवं च खीरासबलद्धित्तणेण मुणिणो पइदिणजिणसासणपणीयपयत्थपरूवर्ण निसामिता मंतिपमुहा जीवा-ऽजीवाइवियारकुसला जहड्डियावधारियपुन-पावा-ऽऽसव-संवर-बंध-निजरा-मोक्खसरूवा जाय त्ति । नवरं मुग्गसेलो व कुग्गहपरिचार्य पडच अणवरयमुणिवरोवएसवारिधारासिचमाणो विन मणाग पि भिन्मो मंतिपुत्तो । अहह ! मंदपुन्नया, जं तहाविहस्स बि गुरुणो अणुसासितस्स ते चिय धम्मोवएसा एगेसि कुग्गहनिग्गहे ण परिणय त्ति । कइवयदिणावसाणे य अन्नत्थ विहरिओ मुणिवरो । रायसुय-मंतिपमुहा य परमसम्मदिट्टिणो, अखोभणिञ्जा देव-दाणवाणं पि, 'जिणसास १-पक्ष्मपुट-॥ २ माम्यानाम् ॥ ३ वर्तनम् ।। ४ नयभाभीरुभावः । नयः-नीतिः ॥ ५ अभक्ख प्रती । अपक्षपातेन न्यायप्रकटीकरणम् ।। RSAROSARSHASIRESORAKAKAAX Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव मदवरि विरहओ कहारयणकोसो ॥ सामन्नगुमाहिगारो । ॥१४६॥ णमेव अट्ठो, सेसो अट्ठो' त्ति मनमाणा कालं वोलेंति । अन्या य सुमिणरमणीय तणेण संसारियभावाण दिवंगतो हरितेयभूवई । पइडिओ य तप्पयम्मि सूरतेयरायसुओ, पणिवइओ मंति- सामंताईहिं, धम्म- लोगाविरुद्धवित्तीए य रायसिरिनुवभुंजिउं पवत्तो। सागरो वि अमचो मच्चुमवलोहऊण रायणो 'अप्पणो वि एस थिय ग' चि चिंतंतो राइणो निवेदऊण पवन पव सूरतेयराइणा वि पहडिओ पिउणो पए विमलो | चिंते सो रकआई । [एवं ] वयंति वासरा । अह समहियत्तस्स व अजिन्दुग्गारा कयसविसभोयणस्स व विवियारा [स] विमलामचो] वियंभिउं पवतो - जं सुते निद्दि तं चिय कुसलाण जुञ्जए काउं । लोयपवाहेणं पुण कुणमाणाणं च मिच्छत्तं ता दिवस तिहिं चैव थुईहिं वंदना जुत्ता । वेयोवचगरा चिय अविरयभावा न थुइजोम्गा सिद्धत्थए वितिसिलोगमेचयं सेसयं न पढणिअं । पच्छा सबुद्धिपरिकप्पणाए रइयं ति हेय सुत्ते अत्थेण य जइ सुद्धं जुञ्जए तथा काउं । चिइवंदणं पि इहरा अविहिकयाओ [य] वरमकर्य जिणपडिमा वि हु विहिणा कया परं होइ वंदेणाइपयं । अविहिअणुमोयणाओ इरा पुण पावहेउ ति जिणपूयणाइ वि परं कम्मक्खयगोयरं चिय विसिद्धं धण पुत्ताइनिमित्तं तं पि हु मिच्छत्तमवसेयं ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ || 8 || || 14 || ॥ ६ ॥ १ राशः ॥ २रा:' जनप्रवचनसेवा प्रभावनादिकारका देवाः ॥ ३ सिद्धस्तवः "सिद्धाणं बुद्धा" इति सूत्रम् ॥ ४ 'हात' वर्जनीयम् ॥ ५ वन्दनपूजनादियाग्येत्यर्थः ॥ ६ 'इतर' अविधिता ॥ २५ उवसग्गउं । पइदिणतहाविहगंधविधुरियसरीरो जक्खो विचिते - अहो ! कीणासवयणं पविसिउकामस्सं मोक्लोयस्स दुबिलसिए पयत्तो जं एवं अम्हारिसेसु विच्छडिअर, ता दंसेमि सर्वकसविणासकरणेण दुविणयफल-न्ति विभाषिय पचक्खीहूओ एसो जंपिउं पबत्तोमो कुलपुचय ! तुह जैसरिसभत्तिपगरिसेण दूरमागरिसियं मह हिययं ता इमं गंवडियं वेत्तूण बच्चसु सगिहं, दुवारनिरोहं काउं सपरिवारो गेहन्मंतरे दहिऊण गंध गेहेजसि जेण कयकिथो होसि ति । 'अउ थिय कजकारि' त्ति पट्ठिो सायरगद्दियगंधेगुलिगो गतो सगिहं । 'तह' त्ति निवत्तियं समं गतो य तग्गंधदोसेण निहणं ति ॥ छ ॥ ता मंच कुम्हं मंतिपुच, वचसु पसिद्धमग्गेण, कुविगप्पणाए इहरा पाणेण वि काहिसि विणासं । एमाइभूरिभणितो वि कुम्महाओ न थेवं पि विरओ विमलो, केवलं मोणमवलंबिऊण ठिओ । ततो मंतिणा परिभावियं अहो ! जो साहुणा सिट्ठो कुडिलबुद्धी दुग्गरगामी य सो एस निच्छियं मह पुतो, इयरो य रा[य]सुओ ति, ता किमियाणि काउमुचियं ? दुपुत्तपज्जवसाणाणि कुलाणि, सहा वाढमणिमुवट्टियमिमं ति चिंताप भारसमुट्ठितवियप्पकल्लोला उलस्स तस्स समागतो रायपुरिसो । भणियं च तेण देवो बाहर चि । ततो कैयायारसंवरो गतो रायसमीवं अमचो । कुमारा वि पारद्धकिचेसु वट्टिउं पवत्ता | सुहासणासीणो य संभासिओ अमची राहणा-भो ! किमेवं कालविलंबो तुह ? कसिणवयणया व १ ति । मंतिणा भणियं—देव ! न किंपि ताव निमितं, एवमेव जइ परं । राइणा जंपियं― होय निच्छियं केत्तिएण विकार १ स सोक्ख प्रती ॥ २ मूर्खलोकस्य ॥ ३ असतभक्तिप्रकर्षेण दूरमाम् ॥ सन्धवटिकाम् ॥ ५ 'धलुलि' प्रतौ ॥ ६ चिन्ताप्राग्भारसमुत्थितविकल्पकोलाकुलस्य ॥ ७ कृताकारसंवरः ॥ ८ कृष्णवदता ॥ कुग्रहत्यागे बिमलोपा रूयानकम् १९ । सूत्रोकचैत्य बन्दना द्रव्यपूजादि विषयक आक्षेप तत्परिहारध ॥१४६॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसरिविरहओ कहारयणकोसो॥ कुग्रहत्यागे विमलोपाख्यानकम् १९। SANASALAKARSAN सामनगुणाहिगारो ॥१४७॥ तुमए सिटुं "जं सुत्ने निदिट्ठ" इचाइ एय हि सुयकेवलिणो चेव जुञ्जए बुत्त, न तुम्हारिसस्स सुयलवमेतधारिणो । जं च "लोयपवाहेणं" इचाइ उच्चरियं तं पि विचारणिजं, लोगो वि दुविहो-सामइओ असामइओ य, तस्थ सामइयलोगस्स गीयत्थस्स पवाहो अणुसरणिो चेव, असामइयलोगस्स वि विरुद्धवत्थुचागेण कई पि पवाहो अभिमओ ति । चिहवंदणविसए वि 'धुइतिगेणेवे चिईवंदणं' ति अवधारणमजुत्तं, जइ मुत्ते देवावग्गहमहिगिच मलमलिणसरीरस्स मुणिणो "तिमि वा कड्डई। जाव, थुईओ तिसिलोइया ।" इचाइ बुत्तं, किमेत्तिएणं कयसरीरसिंगाराणं नवधोय-धवलवसणाणं सुइभूयाणं जिणजम्मणाईसु वि महई वेलं बढुंताणं धुइतिगमेत्तमेव चिइवंदणं पि वोत्तुं जुञ्जइ ? पंचसक्कथयचिहवंदणस्स कत्थाइ दसणाओ। किंच निचं भावत्थयसेवणेण चिइवंदणं तिथुइयं पि । जुञ्जइ मुणीण गिहिणो य सबसावजनिरयस्स अंन्भहियदेववंदणविहिणा भावत्थएण अप्पाणं । निप्पा खणमेकं कुणमाणस्स वि य कह दोसो ? ॥२ ॥ वेयावचगरथुई वि भद्द ! एगंतसो न पडिसिद्धा । आवस्सयनिज्जुत्तीए जेण जइणो विऽणुमाया ॥ ३॥ चाउम्मासियवरिसे उस्सग्गो खेतदेवयाए उ । पक्खिय सेअसुराए करेंति चउमासिए वेगे ॥ ४॥ तकालियसाहूण वि जइ बुत्तमिमं तदेयराणं पि । संपइपमायमुणिणो तकरण ता कहमजुत्तं ? ॥ ५ ॥ एत्तो चिय चिहवंदणपज्जवसाणे वि तत्थुईदाणं । संजमविग्धविधायणहेउं निदोसमाईसु १ "गेण व प्रती ॥ २ अभ्यर्हितदेववन्दनविधिना ॥ ३ ‘शय्यासुर्याः' भवनदेवतायाः || ४ अप्येके ॥ ५ वर्तमानकालीनप्रमादिमुनेरिल्यर्थः ॥ ६ यात्रयकरथेवतायाः स्तुतिकरणमित्यर्थः ॥ SHA-RAKAKACA+SAKASHARA ॥१४७॥ SAROKARINAKERASACSRHAR जइ जइणो विहु एवं ता किं गिहिणो न दिति ताण थुई ? । नहु होइ कह वि एवं तिक्खो खग्माउ पडियारो ॥ ७॥ अच्चंतबहुस्सुयपरंपरापसिद्धत्तणेण चेव सिद्धत्थयस्स तिसिलोगब्भहियस्स वि सत्रणाओ तिसिलोगमेचमणणं पि अजुत्तं, जीयकप्पपहाणतणेण तदन्भहियभणणेण वि दोसाभावाओ ति । जं पि 'मुत्तत्थसुद्धं चिइवंदणं चेव काउं जुतं "अविहिकया वरमकय" ति वयणाओ' तं पि अविहिकया वरमकर्य अवयवयणं भणंति समयन्नू । जम्हा अकए अन्नं कए य अनं तु पच्छित्तं ॥१॥ ता मग्गपवित्तिकारणलेण मुंत-ऽट्ठाविसुद्धं पि चिइवंदणमपुणबंधगाणं ईयरेसिं पि बीयरूवगतुल्लत्तणेण अदुट्ठमेव । जो वि अविहिकयबिंबे चंदणाइपडिसेहो तदणुमोयणादोसभावाओ सो वि अजुत्तो, "निस्सकडमनिस्सकडे, वा वि चेइए सबर्हि थुई तिनि ।" इति सुसा[हण वि बंदणाकारवणाउ ति । जं पि 'इहलोयत्येण तित्थयरवंदणाइयं असम्भूयभावारोवणाओ मिच्छत्तं' ति तं पि अजुत्र्त, को हिन याणइ जहा जिणा निव्वुई गया न कस्स वि किं पि दिति अवणिति वा ? केवलं तब्बहुमाण-भत्तिवसओ साभिस्संगतणेण य “आरोग-बोहिलाभ, समाहिवरमुत्तमं दितु ।" इइवयणं व तहाविहवत्थुपत्थणं पि न दुई, विसिट्टगुणढाणपगरिसहेउत्तणेण वागुरसेढिपमुहाणं व एयस्स विसयम्भासाओ । चंडिगाईणं पुण पत्थणे दूर १ तीक्ष्णः समात् प्रत्याकारः॥ २ परिया प्रती ॥ ३ सूत्राऽर्थाविशुद्धमपि ॥ ४ ये जीवा ज्ञानावरणादीनां सप्तानां कर्मणा अन्तःसागरोषमकोटाकोव्यभ्यधिको स्थिति न कदाचनाऽपि बनन्ति भन्स्यन्ति च ते अपुनर्बन्धकाः प्रोच्यन्ते ॥ ५ इतरे-मार्गानिमुख-मार्गपतितादयः ॥ ६ गायेयं बृहत्कल्पभाष्ये १८०४ तमी, तत्र च निस्सकडमनिस्से या इति पाठो वर्तते ॥ ७ गायोत्तरार्धमिदं चतुर्विंशतिस्तवे गाथा ६ सत्कम् ॥ +NABARRAHARASWARA Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसरिविरइओ ग्रहत्यागे विमलोपादख्यानकम् कहारयणकोसो ॥ सामनगुजाहिगारो। **&+%%%*&%%*&+KAN हओ चेव उत्तरो गुणलाभो त्ति, ता कह इच्छा-परिग्गहारोवणसणं जिणेसरे संमवइ ? । जं च 'सुस्समणा चेव वंदणिज' ति भणियं तं च अम्हाणमणुमयमेव, केवलं पासस्थाईण वि धम्मखिंसाइकजकारणभावेण वायानमोकाराइवंदणं सुसाहूण वि अणुमय, सत्थयारवयणपमाणभावातो व तप्पमायाणुमोयमदूसणं पि दूरपरिचत्तमेव । एवं च जइ सुजईण वि लोयववहारावेक्खा ता का वत्ता मायंगेसु वि सिरोनमणाइपयट्टाणं गिहत्थाणं ? ति । किं च न समणगुणठाणाओ अम्भहियं चिंति गिहिगुणट्ठाणं । जणचित्तग्गहणत्थं ता कह ते तभ कुवंति? ॥१॥ तम्हा अमचवर ! परं मोणं, न पुण अवियाणियागमरहस्सस्स धम्मविसेसकहणं, ता पडिवजसु पच्छित्तं, मुयसु भुञ्जो कुग्गहपरिग्गहं ति । इमं च सोचा अमचो 'अंतोवियंभंतकोवो 'अहो! सिद्धंतसवस्सचोरो पासत्थाईसुं संपत्तो एसो साहू, ता अवंदणिजो' त्ति कोलाहलं काऊण गतो जहागयं । वाहराविओ सपक्खमग्गलग्गो कुग्गहियलोगो, पनविओ य जहा-एस साहू पूया-गारवाइपडिबद्धो पासत्थसंगइपरो य, अओ मिच्छद्दिडिनिविसेसस्स एयस्स मिक्खादाणं बंदणं च तित्थंतरीयस्स व मा करेजह, इहरा तदणुमोयणोवढुंभभावेण तुम्मे वि मिच्छद्दिहिणो भविस्सह त्ति । 'रायपुजो' ति 'तह' त्ति पडिवो जणो । जाणिओ य एस सबो वि वइयरो सूरतेयनरवइणा । कुविओ एसो, वोत्तुमारद्धो य रेऽमच्च ! मलीमसचेडिओ वि नामेण वहसि विमल । कालाणुसारिसुंदरकिरियानिरय पि जं साई ॥१॥ १ अविज्ञाताममरहस्यस्य ॥ २ भन्तर्विजम्भमाणकोपः ।। ॥१४८॥ RAMMERCISHRA ॥१४८॥ +8*%*&+5+%%%*%KARAN न हु दिति जिणा कस्सह न हरति य नेव किं पि कुर्वति । कह तबिहा न चिंता निविसया जणइ मिच्छत्तं ॥७॥ इच्छा-परिग्गहाई लोड्यदेवाण चेव सिंगारो । कम्मक्खयसिद्धाणं घडेज कह तं जिर्णिदाण ? समणा वि वंदणिजा विदियाहाणिणो परं चेव । लोगाणुवित्तिओ वि हुइयरे पुण सबदा नेव तेसिं पि वंदणाओ पमायदुबिलसियं बहुवियप । अणुमनियमबाण वि कुमग्गघडणा बहू दोसा ॥१०॥ इय एंगपक्खनिक्खेवसारमविमंसिऊण सोयारं । बालाइरूवमणुदिणमारद्धो जंपिउं पयओ ॥ ११ ॥ तो सबसत्तसुहओ वि समयसारो असारपत्तम्मि । पत्तो पैयं व भुयगे विसविरसो ही ! लहुं जाओ ॥ १२ ॥ कयं पसंगेण । सो विमलामचो गाढपरिग्गहिय[स]सामिप्पाओ एवंविहपरूवणाहिं मग्गाणुलग्गं पि भवजणं असुयतहाविहसुयनिहसं अपज्जुवासियहेउ-नयकुसलमुणिजणं अदिद्वगीयत्थसामायारिविसेसं अविमंसियाणेगंतवायवियारं वामोहितो भणिओ तकालागयगीयस्थदिवापरमणिवरेण भो अमच ! मुद्धबुद्धी पाएण लोगो, थोवा पारमत्थियवत्थुवियारवेइणो, न तहाविहा पारिणामिया मई, सुंदरमग्गपडिबत्तिपडिकूलो कालो, दुप्परिणमं पाएण जिणवयणं, ता जहा तुमं किंचविसेसपरूवणं कुणसि तहा बाढमजुत्तं । तदाहि-ज १ अनुमतम् अन्येषाम् ॥ २ 'एकपक्षनिक्षेपसारम्' एकपक्षस्थापनप्रधानम् अविमृश्य श्रोतारम् ॥३पयंग भुप्रती। 'पय इव' दुग्धवत् 'भुजगे' सर्प ॥ ४ अवततथाविधधुतनिकषम् अपर्युपासितहेतुनबालमुनिजनम् अष्टगीतार्थसामाचारीविशेषम् अविमुष्ठानेकान्तवादविचारं व्यामोहयन् ॥ ५ स्तोकाः ॥ पारमार्थिकवस्तुविचारनेदिनः ॥ ६ "रिणाम प्रती ॥ ७ कृत्यविशेषप्ररूपणाम् ॥ MARACKERRECT Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रहत्यागे विमलोपाख्यानकम् देवभद्दसरि-3 विरइओ कहारयणकोसो ॥ सामनगुणाहिगारो ॥१४९॥ ततो राया जोडियकरसंपुडो साहुं भणइ-भय ! तुन्मेहि तस्स दुरायारस्स कूडमहणो थेवं [पि] न वयणं मणसि धरणीय, अकल्लाणभागी खलु सो वरागो, नीरागेसु वि तुम्हारिसेसु जो एवं पओसमु[व] हइ ति । मुणिणा भणिय-महाराय ! केत्तियमिमं? अकोस-हणण-तजण-धम्मभंसाण बालसुलभाण । लाभं मन्नइ धीरो जहुत्तराणं अभावम्मि ॥१ ॥ धन्नाणं खु कसाया सुरंगधूलि ब उक्खया वि खरं । अंतो चिय जति लयं जलचुन्चुयग व वा सलिले ॥२॥ एवं सोचा राया भत्तिसारं साहुं बंदित्ता गओ सठाणं । विमलो वि रायपुरिसावहरियसबस्सो रोरोज एगागी देसंतराई परिभमिउमारद्धो, जाओ य पहपरिस्सम-छुह-पिवासापमुहदुहनिवहस्स भायणं । परिभमंतो य गओ गयपुरं। तहिं च पैयडतवविसेसवससमुप्पनासीविसाइलद्धिदुद्धरिसो धम्मरुई नाम तवस्सी संविग्गसावगवग्गस्स धम्ममाइक्खमाणो दिट्ठो अणेण । ततो जायमच्छरो पुवडिईए दुषिणयपुरस्सरं विभावितो मुणिणा कुविएण कयवायावहारो मूओ व अञ्चतं बुडबुडितो निच्छूढो लोगेणं । विविहदुब्भावणाहिं अप्पाणं परं च बुग्गाहिंतो र्दुहट्टो मरिऊण कुजोणीजणियदुक्खाण भागी अणंतकालं जाओ ति । इय कुंग्गहनिग्गहविरहिएण गुरुणा वि धम्मकिच्चेण । कीरइ न परित्ताणं भवकूवगयस्स थेवं पि ॥ १ ॥ ता तश्चागो चिय चिंतियत्थसंपाडणेककप्पतरू । मग्गाणुसारिसुहभाववारिणा सिंचिउं जुत्तो ॥ २ ॥ १ बुद्बुदा इव ॥ २ पथपरिश्रमक्षुभापिपासाप्रमुखदुःखनिवहस्य ॥ ३ प्रचण्डतपोविशेषवशसमुत्पन्नाशीविषादिलब्धिदुर्धर्षः ॥ ४ दुःखातः ॥ ५ प्रहनिमहविरहितेन ॥ ६ परित्राणम् ॥ ७ चिन्तितार्यसम्पादनककल्पतरुः । मार्गानुसारिशुभभाववारिणा ॥ ॥१४९॥ HESARICANAMAS+964%ASKARENASANCHERSANSACRORSC MARRIAGERARRANASIKA%AXARAMAYANAMAHARASNA कुपहत्यागोपदेशः अपि च-गुरुमपि तृणराशिं जातवेदाकणोऽपि, प्रचुरसुकृतमेकं हन्ति दुष्कर्म यत् । उपचितमपि पुण्यं कुग्रहस्तदेकोऽप्युपनयति नितान्तं स्फीतमप्यन्तमाशु यदि जिनवचःप्रामाण्येनाऽऽश्रिता श्रमणक्रिया, गृहिसमुचितो यद्वाऽऽरब्धः स्फुटो विरतिग्रहः । तदयमधमः कस्मादन्तर्भवन् ननु कुग्रहः, स्व-परमनसां क्लेशाधायी न जातु निवार्यते ? ॥ २ ॥ यद्यप्यङ्गमनङ्गभङ्गजनकज्यायस्तपःकल्पनास्वल्पीभूतपला-ऽसृगुल्वणनसान्यासास्थिवन्धक्रमम् । व्यावृत्तेन्द्रियवर्त्मनोऽपि हि मुनेः कस्यापि पापोदयाद्धा! धिक् कष्टमयं तथाप्युदयते दुनिग्रहः कुग्रहः ॥३॥ गोठा-श्वमित्रीयक-तिष्यगुप्त-यमालिमालिन्यमितो निशम्य । सम्यक प्रवर्तेत चिरन्तनर्षिदृष्टेन मार्गेण सुधीर्विशङ्क: ॥ ४ ॥ ॥ इति श्रीकधारत्नकोशे कुग्रहत्यागे विमलोपाख्यानकं समाप्तम् ॥ १९॥ निग्गहियकुग्गहो वि हु मज्झत्थो चेव उचियमियरं च । नाउं काउं च खमो त्ति तं निदंसेमि लेसेण ॥१॥ तत्थ य मज्झत्थो राग-दोस-मोहेहिं कुगइहेऊहिं । बुद्धिविवञ्जयजणगेहिं जो न पुट्टो स विनेयो ॥ २॥ विगुणं पि कुणइ रागी सुगुणं दुट्ठो गुणड्डमवि विगुणं । मूढो न कजमझं बुज्झइ बहुहा वि पन्नविओ ॥३॥ १ जातवेदाः-अग्निः ॥ २ कोष्ठा-ऽस्वमि" खं० ॥ ३ गुणरहितमित्यर्थः ॥ माध्यस्थम् मध्यस्थः मूढः Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभरि - विरहओ कहारयण कोसो ॥ सामन्नगुनाहिगारो ॥ १५०॥ इय ते सुद्धं सद्धम्मकम्ममाराहिउँ न पारेंति । गुण-दोसवियारखमो मज्झत्थो चेव तजोगो लोगे वि नायवाई मज्झत्थो चेव कीरह पमाणं । अत्थं जसं च धम्मं च सो परं लहइ अवियष्पं रागो दोसो मोहो एए कालुस्सकारिणो गरुया । तीणमणुदिनपाए य निम्मला जायए बुद्धी तीए सैमिक्ख थेवं पि धम्मकिचं परं पकुवाणो । नारायणो व निवाणभावणं जायइ कमेण तहाहि-अस्थि नियचंगिमावगन्नियावरपुरसोहासमुदयपत्तपहाणनरनियनिवारिय कलिजहिच्छाविहार, हारभूयं व मेइणीरमणीए, मणीहियत्थसंपाडणपसिद्धं सिद्धस्थपुरं नाम नगरं । तर्हि च बुद्धो व करुणापरो लोगो, अच्छरीयणो व अक्खंडियरूष लायनो सुंदरीजणो, पिंणायपाणि व निग्गहियवम्महो लिंगिवग्गो । तहिं च पर्यडभुयदंडारोवियपुहहभारस्स सिरिविस्ससेणरत्रो छकम्मनिश्यचित्तो चउद्दसविआठाणपारगो जन्नदत्तो नाम पुरोहिओ, हिओ नरवइस्स, वइस्ससुद्द खत्तियापयरिसपत्तो नियकम्मनिरओ कालमहकमह । पुत्तो य तस्स सहविआवियक्खणो नारायणो नाम पयईइ थिय लोभाइदोसविरहिओ परलोयभीरू य अहेसि । सो य पुरोहिओ पारद्विपमुहपउरपावपब्भारसुद्धिनिमित्तं राइणा वाहराविऊण निउत्तो जन्नकजे । उवाहरिया जागनि१ 'तेषां' रागादीनाम् अनुदीर्णतायाम् ॥ २ 'तया' निर्मलबुद्धयः ॥ ३ समीक्ष्य ॥ ४ निजचनिमावगणितापर पुरशोभासमुदयप्राप्त प्रधानन रनिकर निवारितकलियथेच्छाविहारं द्वारभूतमिव मेदिनीरमण्याः मनईदितार्थसम्पादनप्रसिद्धम् ॥ ५ 'पुरिसो' सं० ॥ ६ राइणो सं० । अप्सरोजन इव अप्सरोगण इव वा ॥ ७ 'पिनाकपाणिः महादेव इव 'निगृहीतमन्मथः वशीकृतकामः ॥ ८-पूजाप्रकर्षप्राप्तः ॥ ९ पापः मृगया ॥ ॥ ४ ॥ ॥५॥ ॥ ६॥ ॥७॥ ॥ २ ॥ अवमनसि मनसि अप्पयं पि विनायसवनायवं । थोवे वि उत्तुणत्तं न सबहा सचरियचिषं नाणपईवा सिवपंथसत्थवाहा य चत्तपरवाहा । हीलिअंती जइणो न भिल्लपल्लीसु वि य एवं को वा तुह इह दोसो १ दोसो मम चैव एस नीसेसो । जो एवंविहदुबिलसियं पि न तुमं निगिण्हामि एवंवितुदुच्चेट्टिएण नीहार-हारधवलं पि । मज्झ जसो चिरकालज्जियं पि मालिनमुवणीयं जेहिंतो जिणवयणं किथा ऽकिचं पि जाणियमसेसं । ते वि हु गुरुणो हीलंत ! पाव ! पत्तो न पायाल कह तेसु वि तुह वाणी अगुणुग्गिरंणम्मि एत्थमुत्थरिया १ । जाण न गुणलेसं पि हु सकइ वोत्तुं सुरगुरू वि ॥ ७ ॥ इय गरुयको व भरभिउडिभीमभालेण तेण भूवइणा । निवासिओ सदेसाओ साडुदुडो लहुं विमलो ॥ ३ ॥ 118 11 ॥ ५ ॥ ॥ ६॥ ॥ ८ ॥ पुरे वि उग्घोसावियं - जो एवंविहकुग्गहवग्गवग्गुरापडिओ सो अनो वि लहुं नीहरउ, इहरा सङ्घस्सावहारेणं दंडिस्सामि ति । पत्थावे य राया गओ दिवायरसाडुबंदणत्थं । संव्वायरकयपायवडणो य आसीणो समीवे, भणिउं पवत्तो यभयचं ! एवंविहकुग्गह निग्गद्दियमयिणो असमंजसपलाविणो मणुयस्स केरिसो गद्दविसेसो १ । साहुणा भणियं - किमिह भन्नइ १ विगह विवायरुइणो कुल-गण-संघेण बाहिरकयस्स । नत्थि किर देवलोए वि देवसमिसु ओगासो अपि च — कुप्पहपरूवगाणं समइपवित्तीए गुरुविभासीण । केत्तियमेत्तं एयं १ दंडो दीहं भवन्ममणं १ सगर्वत्वमित्यर्थः ॥ २ "रणं पि ए प्रतौ । अगुणोद्वीरणे इत्थं निःसृता ? येषाम् || ३ 'णसेसं प्रतौ ॥ कुमहवर्गवागुरापतितः ॥ ६ सर्वादरकृतपादपतनः । पतनम् नमनम् ॥ ७ विग्रहविवादरुचेः ॥ ८ 'अवकाश' स्थानम् ॥ ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ ४ साधुद्विष्टः ॥ ५ एवंविध माध्यस्थ गुणे नारा यणकथा नकम् २०१ ॥ १५०॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दरिविरइओ कहारयणकोसो।। सामनगुजाहिगारो। माध्यस्थगुणे नारायणकथानकम् २०॥ रत्ता दुट्ठा मूढा सिव-ससि-संख व जइ अरे ! तुम्मे । बुज्झाविउ न सका ता सक्खा सक्कगुरुणा वि ॥१॥ एवंविहभावठियाण तुम्ह वैइवित्थरो सुगरुओ वि । कजंतरं पसाहइ न कंठसोसाउ अन्भहियं । ॥२॥ निर्यउज्जुबुद्धिविहबाउ किं पि गुरुवयणतो य "किंचेव । विसयविभागे ठवियं हवइ सुसुत्तं लहुं सुत्तं ॥३॥ ता कीसँ अंगुलीभंगमावणेणुब्भवंतकुवियप्पा । पुवरिसिदिट्ठमविणद्वमित्थमत्थं विणासेह? ॥४ ॥ सीसेहिं भणियं-उवज्झाय! अच्छउ ताव सुत्तपजणुजोगपच्चवत्थाणं, महंत कोऊहलं, के इमे सिवाइणो रत्ताइसु अस्थेसु दिटुंता सिट्ठ? ति साहेह । उवज्झाएण जंपियं-आयबह अवंतीजणवए जयखेडं नाम गामो । तहिं वत्थबो सिवो नाम कुलपुत्तगो । तस्स दुवे भायरो-जेट्ठो कणिट्ठो य । तत्थ जो कणिट्ठो सो अचंतं सिवस्स इट्ठो, तदुत्तमजुत्तं पि जुत्तं पडिवजह । इयरो य अणिट्ठो, सुंदरं पि जंपंतो 'असंबद्धपलावि त्ति खिसिजह । एवं जंति दिवसा। __ अन्नदियहे य ते तिनि वि भायरो गया पओयणवसेण 'पोलिगापच्छयणं घेत्तूण अडवीए । तहिं च समारद्धा ते तिन्नि वि तरुवरे छिदिउं । गाढपरिस्समकिलामिया य जाया तण्हाउरा, पेहिउमारद्धा य सलिलं। दिट्ठा य थोयसलिला एगा तडा १रका द्विष्टाः ॥२ बोधयितुं न वाक्यौ तता साक्षात् ।। ३ बचोविस्तरः ॥ ४ निजबुबुद्धिविभवात् ॥ ५ किबिदेव ॥ ६ सुसूत्रं लघु सूकम् ॥ ७ कस्माकू अलीभाभावनेन उस्कृविकल्पी पूर्वषिष्टम् अविनतम् इत्थम् अर्थ विनाशयथः १॥ ८ 'सूत्रपर्यनुयोगप्रस्यवस्थानम्' सूत्राशेषस्य उत्तरम् ॥ ९"पियमाय खं० प्र०॥१० पोलिकाशम्बलमिव्यर्थः ।। ॥१५॥ रक्तरवे शिवोदाहरणम् ॥१५॥ SHOKARISESSIONSIBILIT%ANERABHASIRSAX AARAKSHARANACANCACKERAYARISION गिगा, मायण्डियासरोवरं च गरुयं । तं च ददृण भणियं सिवेण-किमिमाए थोय-पूइसलिलाए तडागिगाए ? एहि भूरिभंगुररंगततरंगपरंपराविराइयं इमं सरोयरं वच्चामो ति । जेद्वेण भणियं-मायण्डियासरमपारमत्थियं, इमीए वि सरसीए कुणह कायवं ति । कणिद्वेण वु-नं एसो न कि पि जाणइ, करवत्तयं घेत्तूण सिव! वैचाहि तुममिह ति । ततो तवयणगाढाणुरागेण सविसेससमुल्लासियमई जेट्टेण निरुक्भमाणो वि वेगेण पट्टिओ सिवो तदभिमुहं । तओ जह जह वह एसो तह तह तं अँग्गए व पकमइ । निप्पुनगुरुमणोरहपारद्धा धाउसिद्धिव निमिसद्ध-निमेस-मुहुत्तमेत्तमित्तो वि लग्गइन नूण । तुरियं पि धाविरो तं महोसहि पिव नियह दूरे ॥२॥ ततो सुचिरं किलिस्सिऊण अकयको चेव नियत्ती एसो । पुन्चुत्ततडागिगाए चेव कयं जलपाणाइ, वुत्था तत्थेव । बीयदिवसे वि तरुच्छेयणं काऊण ममंदिणसमए भोयणं काउमारद्धा । दिटुं च अदूरे सवच्छं चरंतं गवयमंडलं । ततो सिवेण भणियं-सुक्काउ पोलिगाओ न तीरंति गोरसं विणा भक्खिउं, अओ जइ एत्तो गोमंडलाओ दुद्धं आणिजह ता लट्ठ हवइ ति । जेद्वेण भणियं-गवलमंडलमेयं माणुसोवधायगं, न गोमंडलं ति । कणिद्वेण जंपियं-भी सिव! बच्चसु तुम, एत्तो दुद्धं घेतुं लहुमागच्छसु ति । तवयणपेरिओ भायणहत्थो पढिओ एसो, जेद्वेण वारिओ वि न ठिओ । ततो दूरनिल्ला १ मृगतृष्णिकासरोवरम् ॥ २ "पूयस" खं० । स्तोकपूतिसलिलया । पूति-दुर्गन्धि ॥ ३ "स्थियमिमी' सं० प्र. ॥ ४ वुत्तं-पसो प्र. ॥ ५ करपात्रक करवर्तकमिति वा, कलशामित्यर्थः ॥ ६ जज ॥ ७ अग्रत एवं प्रक्राम्यति ॥ ८ 'त्तमेत्तो प्र० ॥ ९ गवयमं प्र०॥ १० तदचनप्रेरितः ॥ ११ वरनि लितभ्यामकपरुषवीर्घजिहाककचेन ।। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ W देवमइसरि विरइओ कद्दारयण-द कोसो॥ सामनगुजाहिगारो। ॥१५२॥ लिय-ज्झामय-फरुस-दीहजीहाकरमरण पारद्धो सो गवएहिं पंरामरिसिउं । कंठगयपाणो य महया कडेण मोयाविओ इयरेहिं। जस्थ दर्द अणुरागो तबयणेणेव संपेयदृह जो । न सयं न परेणुत्तो बुज्झइ रत्तो स एसो चि ॥१॥ ॥छ॥ दुट्टविहृतं निसामेह-सोरट्ठाविसए परुक्खो नाम सचिवेसो। तत्थ य ससी नाम आभीरो परघरेसु कम्मकरणेण जीवइ । सो य अन्नया एमेण वणिएण अप्पणो बीओ चालिओ। गामंतरे गच्छंताण य ताण जाया गोट्ठी । कहंतरे | य पसंसिया आमीरेण नियगा जाई । वणिएण भणियं-तुम्हाण पसूण य विवेयवियलत्तणेण तुल्ला चेव जाई । रुडो आमीरो, ठिओ तुहिको । संरुक्खचक्खुक्खेवेण लक्खिओ वणिएण, दाण-सम्माणाइणा अणुवत्तिओ वि न पसनो । साहियकजा य पडिनियत्ता गहिया तकरहिं । लूडियं सबस्सं । 'मम किचं तक्करहिं वि कयं' ति तुट्ठो आभीरो । निस्सहूं बद्धा दो वि, कुट्टिउमारद्धा य । वणिएण भणियं-कीस एवं हणह एवं बरायं ? कम्मयरो खु एसो। समुहूंतगुरुकोवेणं भणियं आभीरेणंवरागो एयस्स पिया, कम्मयरो वि एसो चेच मम, तामुयह इमं ति । ततो तकरहिं पलोइयं वणियवयणं । वणिएण मणियंजमेस जंपह तं अवितहं ति । मुको वणिओ पेलाणो वेगेणं । इयरो वि धणनिमित्तमारद्धी ताडणाइपगारेण बाहिउं ति । एवंविहो दुट्ठो त्ति ॥ छ । इयाणि मूढो भन्नइ-कुणालाविसए कोसंबो नाम गामो । तर्हि संखो नाम कुलपुत्तगो । वत्तो नाम से बाल१ परामर्षितुम् ॥ २ सम्प्रवर्तते ॥ ३ विवेकविकलत्वेन ॥ ४ सस्क्षचनक्षेपेण ॥ ५ लण्टितम् ॥ ६ 'निःसन' अतिशयेन ॥ ७ कस्माद् एवम् ॥ ८ वणिग्वदनम् ॥ ९ पलायितः ॥ माध्यस्थगुणे नारायणकथानकम् २०॥ द्विष्टत्वे शशिन आहरणम् ॥१५२॥ RKAR+KKKRAKAstsARKARI8t8AR%*%%ANSARS ASNACANCHANNECRACKESARKACHRXX मित्तं पसुपमुहा उचगरणविसेसा, उन्भवितो यत्थंभो, निबत्तितो जागमंडवो, पारंभिओ महया पर्वघेण पसुमेहो । तं च भीम जीवधायं दण नारायणो सुहुममइवियारियकिच्चा-ऽकियो पियरं भणइ-ताय! तुम्मे जन्नकले पमुविणासणं कुणह, अथ च "आत्मवत् सवर्भूतानि, यः पश्यति स पश्यति ।" इति वदत, किमत्र तात्पर्यम् । पुरोहिएण भणियं-बच्छ ! “उक्तानि प्रतिषिद्धानि, पुनः सम्भावितानि च ।" इत्यनेकधा वेदवाक्यानि, को बोद्धमीशस्तात्पर्यम् । नारायणेण भणियं-ताय ! जह एवं ता अंबुज्झता तप्परमत्थं कहं कुणह एयं ? जोइसं चिकिच्छियं पायच्छित्तं धम्मकिचं च अवियाणियं कीरंतं विवज्जासफलमेव । पुरोहिएण भणियं-वच्छ ! पुरिसपरंपरागयजनाइविहाणपमाणीकरणेण पविची अविसेसेण जाया, सा य न अनहा काउं तीरइ । नारायणेण भणियं-ताय! अणुभवेण ताव जीवधायणं अचंतं पलोइअंतमवि लोमुद्धोसकर, एवं पि जइ तं सग्गाइकारणं ता 'तालउडभक्खणं पि जीवियहेउ' ति 'किं न भनाइ । पुरोहिएण भणियं-वच्छ ! अम्ह गुरू नरसिंहो नाम अज्झावगो वेयंतरहस्सवेदी इहेव चिट्ठइ, ता ऐहिं, तं गंतूण दुवे मिलिय चिय एयमत्थं पुच्छामो ति । पडिवचं नारायणेण । गया दो वि नरसिंहअज्झावगसमीवं । कयसायरपायवडणा य लद्धासीसा सीसजणोचिए निविट्ठा भूमिवढे। तक्खणं च वेयरहस्सवक्खाणपयविप्पडिवना बहुविहहेउ-दिटुंत-जुत्तिकहणे वि कजमज्झमबुज्झमाणा सिस्सा भणिया अज्झावगेण १ऊकतः यूपस्तम्भः, निर्वतितो यागमण्डपः ॥ २ अब्भुजंता सं० ॥ ३ रोमोद्धर्षकरम् ॥ ४ किन्न प्र• ॥ ५ वेदान्तरहस्यवेदी । ६पहि प्र. ॥७वेदरहस्यव्याख्यानपदविप्रतिपनौ ॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमहरिविरहओ माध्यस्थगुणे नारायणकथानकम् २०॥ कहारयणकोसो॥ सामनगुजाहिगारो। ॥१५३॥ तलवरेहिं, नोवलद्धा कत्थ वि सुद्धी । आउलीहूओ संखो कह कह विरुयंतो निसिद्धो सयणेहिं । दिनं च तेणोवजाइयं गामदेवयाए-जह भयवह! दत्तो एही ता तुज्झ जागरं दाहामि त्ति । अत्थगंठिं संठविऊण अवरवासरे आगओ दत्तो। तुट्ठो संखो, कयं वद्धावणयं, पारद्धो जागरूसवो गामदेवयाए । सन्निहियपाडिहेरत्तणेण एगाए जुवईए आगयं पंतं, तेण भणियं-संख! तुह कुमित्तदुचेट्टियमेयं अत्थहरणं, ता अमुगट्ठाणे तं खित्तं तुर्म गंतुं गिण्हसु चि । तं सोच्चा रुट्ठो संखो-आ पावे! कुग्गामवासिणि! कडपूयणि! असच्चसंभावणादूसियं कुणसि मह मित्तं ?-ति आयं पत्तं तेण करचवेडाए। कयरंगभंगो य कने पच्छाइऊण गओ सगिई । एवंविहो हि मूढो कजा-ऽकर्ज कहिञ्जमाणं पि । अच्छउ दूरे सेसं सोउं पि हुनेव पारियइ ॥१॥ ॥ छ ॥ इय रच-दुट्ट-मूढाण संतिए संसिऊण दिटुंते । अज्झावगो महप्पा पुणरवि सिस्से इमं भणइ पुवुत्तदोसवजण-सुगुणजणजणियपक्खवाएहि । पुवावरअविरुद्धथपेहणुप्पेहडमईहि ॥ २ ॥ इह-परलोयविरुद्धत्थकारिपरिहारठवियचित्तेहिं । निचं अलुद्ध-सुविसुद्धबुद्धिजणसेवणपरेहिं ॥३ ॥ परमपयपउणपयवीअणुगुणकिरियाकलावकुसलेहिं । नियनियविसयविसंठुलकरणरणालिसुगुतेहिं (१) ॥४ ॥ पुरिसेहिं परं परमं समयरहस्सं हि तीरए नाउं । संसारपारवारस्स पारमवि पावित्रं नियमा ॥५ ॥ १ 'पानं' रूपम् ॥ २ "हो उ मू" प्र. ॥ ३ पूर्वोकदोषवर्जनसुगुणार्जनजनितपक्षपातैः । पूर्वापराविरुद्धार्थप्रेक्षणोद्भटमतिभिः ॥ ४ इयं गाथा प्र० नास्ति । परमपदप्रगुणपदव्यनुगुणक्रियाकलापकुशलैः । निजनिजविषयविसंस्थुलकरणरणाचलिसुगुप्तः ॥ ५ चणिसु' प्रती। अरक्तद्विष्टमूढानां तत्वज्ञानाप्तिः ॥१५३॥ ECAKARARIACARRIAGRAACARANASAHAKAXARAKASON RANGACANCINNAMANAKANEINCRECACEBCACACAKAChe इय गेरुयभावगम्भ सिक्खविउं जा न विरमए एसो । ता गरुयसूलवियणाए झत्ति पंचंत्तमणुपत्तो ॥६॥ पायडियासेसपयत्थं च सुरगुरुं व अत्थमियं तमवलोइऊण 'हा! किमेयं ति भणंता धाविया सीसा । उक्खित्तो सो Pा महियलाओ। दिडो य विष्फारियाणिमेसनयणो ईसिवियासियवयणो निष्फदसरीरो । ततो कया से सिसिरोवयारा, संवाहि यमंग, वाहरिया जाणगा, सिट्ठो बुत्तंतो, पलोइऊण 'गयजीओ' त्ति परिचतो तेहिं । जाओ य अचंतसोगभरनिभरो अकंदियरवो, कयं पारलोइयकिञ्च । अणुवलद्धजागविसयसंसयपरिच्छेया 'सबहा अकल्लाणमाइणो वयं ति जता गैरुयसोगभरुब्भवंतबाहप्पवाहाउललोयणा पुरोहिय-नारायणा गया सगिह । __ अन्नसमए य नारायणेण भणिओ पुरोहिओ-ताय ! परमत्थओ उवइ8 चेव महाणुभावेण अज्झावगेण सवं सामनेण कलतत्तं, केवलं तं चिय सुनिरुतं जाणिय, तं च महप्पभावपुरिसविसेसविरहेण न संभवइ, अओ जइ तुममणुजाणसि ता अहं कइवयदिणाई तेदनेसणं काऊण आगच्छामि, न जुत्तमालस्सोवहएहिं एवं चिय हाउं, जओ तडितरलमाउयं, समीववत्ती समवत्ती, अच्चंतदुन्निवारातो आवयाउ त्ति । पुरोहिएण भणियं-वच्छ ! एवं कुणसु ति। तओ सोहणतिहि-मुहुत्त-जोगे किं पि संबलमादाय निग्गतो नारायणो । पवटुंतसउणचित्तुच्छाहो य सुनिउणं पुरिसविसेसं निरूवितो गओ एग गिरिनिगुंजं । दिडो य तहिं अणेगकट्टकप्पणाहिं अप्पाणं तुलंतो अट्ठमपारणगे चिरविणिवाइय १ गुरुकभावगर्भ :शिक्षयित्वा ॥ २ 'पञ्चत्वं' मरणम् ॥ ३ गुरुकशोकभरोद्भवद्वाप्पप्रवाहाकुललोचना ॥ ४ निशेषेणेत्यर्थः ॥ ५ तदन्वेषणम् ।। ६ 'समवत्ती' यमराजः ॥ ७ चिरविनिपातितवनवारणपिशितकल्पितप्राणवृत्तिः । विनिपातितः-मारितः ।। हस्तितापसमतनिरसनम् Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध्यस्थगुणे नारायणकथान देवमहरिविरहओ कहारयणकोसो ॥ सामनगुणाहिगारो। ॥१५॥ कम् २०॥ वणवारणपिसियकप्पियपाणवित्ती एगो हत्थितावसो। तं च तहाविहधम्मपरं पेहिऊण नारायणो कयनमोकारो भणिउं पवत्तो-भय ! को एस धम्मपरमत्थो जं हस्थिपिसिएण भिल्ल जणजोग्गेण पारणय कीरह, किल "अवधूतां च पूतां च प्रशस्तामृषिसेविताम् । चरेन्माधुकरी वृत्तिमपि म्लेच्छकुलादपि इत्यविगानेन मुनिजनक्षुण्णः पन्था इति । तावसेण भणियं-भद्द! अम्ह धम्मे जीवदया सारो, सा पुण पइघरभिक्खाभमणाणेगजीवसंघायणेण न संभवइ, पइकणमेकेकजीवसंभवाओ तब्बहुमीलणेणाऽऽहारपागे वि बहुजीवधाओ, अओ अणेगसत्तसंताणरक्खणत्थं एगमहासत्तवावायणमणुमयं पाणवित्तिहेउं ति । नारायणेण भणियं-भयवं! संदिद्धचेयणालक्खणजीवगुणं कणनियरं रक्खंताण परिकुँडजीवणं पिवणकरिणं घायंताण का जीवदया ? कई वा न तजाइयजीवुप्पत्ती तप्पिसियपेसीसु विरसभावोवगयासु संभव ? रक्खसभक्खं च इम, तथा"स्वमांसं परमांसेन यो वर्द्धयितुमिच्छति । उद्विगं लभते वासं यत्र यत्रोपजायते ॥ १ ॥ मां स भक्षयिताऽमुत्र यस्य मांसमिहाब्यहम् । एतन्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः ॥ २ ॥" इत्यादिवाक्यैः स्मृत्यादानपि निषिद्धमेतत् । तावसेण भणिय-भद्द! अलं अलं विसंवादेण, एस ताव अम्हं धम्ममग्गो न पियारगोयरसहो ति । नीहरिओ नारायणो, पट्टिओ देसंतरं । दिहो य एगत्थ सभिवेसे मुद्धजणसेविञ्जमाणो एगो भागवयमुणी तिकालसिणाणेण वढूतो त्ति । गओ य तस्स१ "शुषः खं० प्र० ॥ २ 'फुजी सं० ॥ ३ विस्रभावोपगतागु । विसं-दुर्गन्धि ॥ ॥१५४॥ AKEKOSRANAGANGACASSONASHAALCHAKRADHARSAAT मूढत्वे शवस्याहरणम् मित्तो अच्चंतं बल्लहो सबकसु आपुच्छणिजो [य], परं मायावी । इयरो उज्जुपयई । दोण्ह वि तहासरूवेण जंति दिणाई। अजिओ य केणइ सुकयवसेण संस्खेण केत्तिओ वि अत्थसारो । पुच्छिओ अणेण दत्तो-कहमेसो अत्थसारो रक्खियो ? पञ्चवायबहुलो गामो त्ति । दत्तेण भणिय-वरमित्त ! एवमेयं पगुणीकरेहि दबसंचयं, जेण गंतूण अडवीए जक्खाययणे भूमिनिहितं करेमो । पडिवमं संखेण । दुहाभिसंधिणा य वत्तेण किंपि दाऊण संकेड्या अद्धपहे दुवे पुरिसा-एवमेवं अम्हे पहे इंता तुम्मेहिं मेसिया ति । अह जाए मारते कोडंड-कंडवावडकरेण दत्तेण वाहरिओ संखो-एहि, समीहियकञ्जकरणाय बच्चामो ति । ततो पैच्छयणहत्थो अस्थसारगंठिं घेत्तूण केणइ अमुणिजंतो दत्तेण समं पढिओ एसो । गामबाहिणीहरिओ य मणिओ दत्तेण-दुलक्खो देवपरिणामो, अविभावणिजागमाओ आवईओ, अतो तुममिमं अत्थगंठिं मेमं समप्पेसु, पच्छयणं च सयं गिहाहि, कह बि तकराइभयं उवट्ठाइ ता मा काहिसि दवपडिबंध, लहुं एगदिसं अंगीकाऊण पलाएजासि, भुजो जीविए विजंते न दुल्लहा वित्तसंपत्ती । उज्जुपयइत्तणेण 'तह' त्ति पडिवनं संग्वेण । तुरिचतुरियं पयट्टा गंतुं । अद्धपहमेत्तं च जाव पत्ता ताव पुत्वदिनसंगारा आयड्डियनिसियासिणो 'हण हण' ति बाहरंता उट्ठिया दुवे पुरिसा । तिमिरनियराऊरियत्तणेण रयणीए खाणुं पि 'तकर' ति मन्नतो पलाणो संखो गीमहुत्तं । दत्तो वि दिसंतरमादाय गंठिहत्थो नट्ठो वेगेण । संखेण चि उज्जुसीलयाए गंतूण साहियं तलवरस्स-अत्थो तुज्झ, मित्तं मज्झ अक्खयसरीरमुवणेहि त्ति । पेहिउमारद्धो १ एवमेवम् ॥ २ कोदंड" प्र० ॥ ३ पथ्यवनं-शम्बलम् ॥ ४ "हिनीह" प्र० ॥ ५ मज्झ स' प्र. ॥ ६ "रियं तु खं० ॥ ७ आकृष्टनिशितासी ॥ ८ प्रामाभिमुखम् ।। KEKARBACHARERAKAR Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरइओ कहारयण कोसो ॥ सामन्नगुणाहिगारो । ॥१५५॥ * छ मडुमाइणो हि चउरो अणेगतवन्न-गंध-रसजीवा । पञ्चक्खभूरिजीवाई जाण पंचुंबरिफलाई एकस्स तुच्छनियजीवियस्स कजेण णेगजीवाणं । कह कीरउ विणिवाओ मुणिउं सवन्नुवयणं पि ? नारायणेण भणियं गजरमाईसु णंतजीवत्तं । कई तीरह विन्नाउं संक्खा अहिस्समाणत्ता १ जिणदत्तेण भणियं जिणवयणपमाणओ हि विन्नेयं । न हु नाण-दाणे तवसंभवं पि दीसह फलं सक्खा रागाईणमभावा वयणं तेसिं न संभवइ मिच्छा । न य सैमइकप्पणाए अईदियत्थाण संसिद्धी 'अहो ! गिहत्थो वि सुहुमपयत्थवियारकुसलो एस, एयगुरुणो पुण सुड्डु विसिद्धतमा होर्हिति' [त्ति] विभर्वितेण भणियं नारायणेण — भद्द ! कस्स समीवाओ तुज्झ एवंविहविवेयसारो धम्मवावारो १ ति । जिणदत्तेण भणियं -संति एत्थेव पसे भयवंतो सुगहियनामधेया भवनिवडंतजंतु दिनहत्थावलंबा करुणामयमयरहरा हर व निद्दङ्कमणोभवा भवंतकारिणो जयसिंहसूरिणो । जेसिं खमाए न खमा वि भागणं तुंगिमाए नडू सेलो । गंभीरिमाए पडिहाइ गोपर्यं पिर्व समुद्दो वि सूरो वि दिवसपरिणइपरिमियतेयत्तणेण तेणुसोहो । ओ खओयजुई धरइ व अइगुरुपयावस्स ॥ ३ ॥ ॥ ४ ॥ ॥ ५॥ ॥ ६ ॥ ॥७॥ 112 11 ॥ २ ॥ १ह कीर" सं० प्र० कथं शक्यते विज्ञातुं साक्षाद् अदृश्यमानत्वात् १ ॥ २ संखा असं० ॥ ३ 'णसंतसंभ' खं० ॥ ४ स्वमतिकल्पनया अतीन्द्रियार्थानाम् संसिद्धिः ॥ ५ 'भावंते' प्र० । 'विभावयता' विचारयता । ६ भवकूपनिपतजन्तुदत्तहस्तावलम्बाः करुणामृतमकरगृहाः । मकरगृहः समुद्रः ॥ ७ 'क्षमायाः' क्षान्त्याः 'क्षमा' पृथ्वी ॥ ८ पिय सं० ॥ ९ 'तनुशोभः' अल्पशोभावान् ॥ १० सद्यः खद्योतद्युतिम् ॥ चंदोवि सोमयाए वा गिजई दिजई य उवमाणं । हरिणारी विहु सोडीरिमाए ता मा इमो हियए जाasa वि सुजवियबारसंग सुय मुणियतिजयवावारा ते सुकयपावर्णिजा ने चक्खुप पवअंति तेर्हितो बहुनय भंग हे उगंभीरसमयसिंधूभवो । अइथोयसुकयकम्मत्तणेण पत्तो विवेयलवो इमं सोचा तुट्टो नारायणो भणिउं पवत्तो—न रोहणाओ अन्नत्थ निरुवमरयणसंभवो, न वा अणेरिसगुरुर्हितो एवंविहसुडुमधम्मपरिन्नाणं, ता भो जिणदत्त ! सवहा कयं तए सहमम्द कायचं, दंसेहि ताण नियगुरूण चरणं बुरुहं, जइ पुण कहं पि तहिं मम मणमहुयरोऽभिरई पावइ ति । जिणदत्तेण भणियं एवं करेमि ति । ॥३॥ ॥ ४ ॥ 114 11 ततो पंचजोयणंतरिए सेयपुरे नयरे दो वि गया । दिट्ठा सूरिणो तकालागयनरवइपमुहपहाणजण कीरमाणपूया महिमा धम्मक कर्हिति-ति । ततो सँमुतिरोमंच इतबहुमाणा जिणदत्त नारायणा निवडिया गुरुणो चलणेसु । चक्खुक्खेवपुरस्सरं च दिन्नासीसा सीसारोवियकर कमला निलीणा समुचियधरामंडले । एत्यंतरे गुणावजियहियएण राहणा कूडीकयाओ पंच सुवण्णकोडीओ चीर्णसुयपमुहवत्थरासीओ य गुरुपुरओ, भणियं च - भयवं ! अणुग्गहूं काऊण गिण्हसु इमं ति । सूरिणा भणियं - महाराय ! १६ गिज' प्र० । २ मुजपितद्वादशाङ्गश्रुतज्ञातत्रिजगापराः ॥ ३ तो सुसं प्र० । ते सुकृतप्रापणीयाः ॥ ४ जा, नो च सं० प्र० । 'ने' अस्माकम् ॥ ५ अनीशगुरोः ६ कर्दिपि खं० प्र० ॥ ७ समुत्तिष्टोमायसूच्यमानबहुमानौ ॥ ८ 'कूटीकृताः' राशीकृताः ॥ माध्यस्थ गुणे नारा यणकथान कम् २० ॥ ॥१५५॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभदसूरिविरइओ कहारयण कोसो ॥ सामन्नगुनाहिगारो ॥१५६॥ अस्थो अणस्थहेऊ अस्थो संसारकारणं गरुयं । अत्थो संजमवणसंडचंड गुरुदाववव हो अत्थो उम्मायकरो सयंवरो दुम्मईमहिलियाए । तेणेस बजिओ मुणिवरेहिं दूराउ दूरेण जं पुण अमहद्धणसेयवत्थ-कंबलपमोक्खमुवगरणं । संजमहेउं तं किं पि किं पि गिण्हंति परिसुद्ध ता संपइ पञ्जतं सणं भूमिनाह ! एएणं । पत्तं चिय दाणफलं तुमए इय कयपयत्तेण इच्छेज न इच्छेज व तह वि हु पयओ निमंतए साहू । परिणामविसुद्धीए य निअरा होअगहिए वि इय पद्मविओ विनिवो अणणुग्गहिओ गुरूहिं अप्पाणं । निष्पुत्रं मन्त्रंतो जहागयं पडिगओ नमिउं नारायणो य चिंतह अहो ! महप्पा ददं विजियलोहो । एत्तियमेतं पि धणं तणं व जो चयइ दिजंतं जायं विजणं । तओ जिणवत्तेण दंसिओ परमपरितोसोवगतो नारायणो, गुरूण सिट्ठो य, जहा -एस महच्या तुम्हपायपरमाणुरागेण एत्तियभ्रुवमागओ, ता नियसेवाणुरूवफलभायणं कुणह एयं ति । ततो गुरुणा उवहट्ठो साहुधम्मो गिम्मिो य सवित्थरो एयस्स । तं च सोचा लहुकम्मयाए अचंतमज्झत्थयाए य सुहुममइविभावियभावत्थो परिबुद्धो एसो, चिरकालं पज्जुवासिऊण समुबलद्धसद्धम्मसारो कयगुरुखामणो गओ नियनयरं । दिट्ठो पिया । कहिओ धम्मसारोवलंभवुत्तंतो । पसंसिओ पिउणा । परिचत्तो य जनकजाइसावज्जवावारो । एवं च ते दोन्नि वि सम्ममणुव्वय-गुणन्चय- सिक्खावयपरिवालणेण सुमुणिपज्जुवासणेण सिद्धंतरहस्ससवणेण य पइदिणं सविसेसधम्मु१ हव्यवाहः अग्निः ॥ २ अमहाधन श्वेतवस्त्रकम्बलप्रमुखमुपकरणम् ॥ ३ भवत्यगृहीतेऽपि ॥ ॥ ॥ पेडपुन केवलालोय कलियत इलोकगयपयत्थेहिं । पडिसिद्धो भोगो गजराइकंदाण नाणीहिं एहि पंतजीवंगवग्गनिवत्तिय त्ति नो मुञ्ज । महु-मञ्ज-मंस-मक्खण-पचुंबरिफल विसेसा वि १ ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ ॥ ४ ॥ ॥ ५॥ ॥ ६॥ ॥ 119 11 मीवं । कयपायवडणो उवडिओ समीवे, पत्थावे भणिउं पवत्तो य-भयवं ! सवगयचेण विण्डुणो तदहिट्ठियजलपूरेण पहाणं, एवं कुणंताणं कहूं न हरिणो विराहणा हवइ ? अप्पहाणं च इमं सामन्नजणेण वि सेवणाओ, परमत्थियं तु एवं गिजइआत्मा नदी संयमतोयपूर्णा, सत्याम्बुजा शील-दयातटोर्मिः । तत्राभिषेकं कुरु पाण्डुपुत्र !, न वारिणा शुद्धयति चान्तरात्मा 11 2 11 काविलेण भणियं - झाणहुयासणेण तदुक्कयकयवरनिद्दहणाओ नत्थि एत्थ दोसो । नारायणेण जंपियं - झाणेण पावकस्स सुद्धी, पैउरपयपूरसरीरपक्खालणेण पुणरवि तस्संभवो ति एयं तं गयवरण्हाणं ति । काविलेण भणियं - होउ किं किंपि । 'एसो वि पेंढमेल्लुयतुल्लो' ति पुरओ पयट्टो नारायणो । मिलिओ मग्गे वच्चमाणस्स जिणदत्तो नाम सावगो । 'सत्थिओ' चि जाया अणेण समं गोडी । 'वियडो' ति सम्मुप्पन तं पद पक्खवाओ । लद्वा य कत्तो वि गञ्जराइणो कंदविसेसा नारायणेण । 'सत्थिउ' त्ति दिना कवय वि जिणवत्तस्स । न गहिया जिणदत्तेणं । 'कीस न गिण्हह ?' ति [पुच्छिएण] जिणदत्तेण भणियं 112 11 ॥ २ ॥ १ सर्वगतत्वेन विष्णोः ॥ २ तद्दुष्कृतकचचरनिर्दइनात् ॥ ३ प्रचुरपयः पुरशरीरप्रक्षालनेन ॥ ४ प्राथमिकतुल्यः ॥ ५ प्रतिपूर्णकेवलज्ञानालोककलित त्रैलोक्यगतपदायें ॥ ६ एहिं तन्न जी" सं० । एते हि अनन्तजीवावर्गनिर्वर्तिता इति नो भोज्याः ॥ माध्यस्थ गुणे नारायणकथान कम् २० । ।। १५६ ।। शौचवादप्रतिक्षेपः अनन्त कायादीनां सदोषत्वम् Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमहरिविरइओ कहारयणकोसो॥ सामनगुणाहिगारो। ॥१५७॥ सामर्थ्य|गुणे अमरदत्तकथानकम् २१ । सामर्थ्यस्य स्वरूपम् मज्झत्थबुद्धिजुत्तो वि जं विणाऽणुट्ठिउ न धम्ममलं । किं पि समत्थसरूवं तमहं संपइ पवक्खामि भन्नइ इह स समत्थो धम्म 'चीहेइ न कुणमाणो जो । माइ-पिइ-भाइ-सयणाइयाण धम्माणभिन्नाण ॥ २ ॥ अहवा पुवचियदेवयाण तकालपूयणाविरहे । पडिकूलकम्मकारीण जो न बीइ समत्थो सो संभवइ य उभयं पि हु विग्धकरं धम्ममारभंतस्स । न य लगभइ रयणनिही घेत्तुं पच्चूहविरहेण ॥ ४ ॥ हुंतीह के पुरिसा सरभसमुक्वेिविय गरुयधम्मभरं । पच्छा विग्धोवहया हेय व उज्झंति दुइंता ता दव-भावसामत्थसंजुया जिणवरिंदधम्मविहिं । काउं तरंति विचलंति नेव विग्घोहँविहया वि सो धम्मे पडिबद्धो विग्योवहओ वि जो समुज्जमह । तयभावे सबो वि हु धम्महिगारी भवे इहरा धम्मत्थनिहियचित्तो सामत्थं मुबह जो न विग्घे वि । सो होइ भूरिसुभनिवहभायणं अमरदत्तो व ॥८॥ तथाहि-अस्थि वित्थिंत्रसालवलयतुंगकविसीसयसमारोवियविजयद्धयपहसियसेसपुरसिंगारं गारवगुणग्पवियपवरपुरिससमूहसंकुलं कुलहरं व परमब्भुदयदइयाए रयणपुरं नयरं । तं च नियपुनपयावपडिहयपडिवक्खो सबसस्थपरमत्थवियारदक्खो रक्खेड विजयधम्मो नाम नराहियो । १ बिभेति ॥ २ धर्मानभिशेभ्यः ॥ ३ पूर्वाचितदेवतेभ्यः ॥४पीहेर सं० प्र० ॥ ५ उत्क्षिप्य ॥६ अश्वा वेत्यर्थः ॥ ७ विौषविहताः ॥ ८" निय' सं० प्र० ॥ ९ विस्तीर्णशालयलयतुझकपिशीर्षकसमारोपितविजयध्वजप्रहसितशेषपुर मार गौरवगुणातिप्रवरपुरुषसमूहस कुलम् ।। १० "पुरन्नय वं. . ॥ NACHAARAACAKA ॥१५७॥ CASKARSHANKARMERICANARAMERIERRRRRRR एका वि खग्गलेहा समरहरे धरइ जस्स दो रूवे । सुहडाण कुट्टणी दारिया य बहरीभकुंभाण ॥१॥ तस्स रनो परमपसायट्ठाणं समकालसकलकलागहणसविसेससमुप्पनविस्सासो जयघोसो नाम सेट्ठी, सुजसाभिहाणा य से भारिया । मुगयपायपूयणपरो य सेट्ठी दिवसे गमेह । सा य तब्भजा 'बंज्झ' त्ति अणवरयं अमराभिहाणाए कुलदेवयाए पूयापडिवत्तिपरा वट्टा । कालक्कमेण य तदणुभावेण पाउब्भूओ गब्भो । पडिपुत्रसमए य पसूया एसा, जाओ य दारगो, कयं वद्धावणयं । बाहराविओ संवच्छरिओ, कया से पूया-पडिवत्ती । पुच्छिओ सायर सेट्ठिणा-भो नेमित्तिग! एवंविहसुमुहुत्तसंपत्तजम्मणो केरिसगुणो एस सुओ होहि त्ति । संवच्छरिएण वि नियसत्थाभिप्पाएण निच्छिऊण भणियंएसो हि तुज्झ पुत्तो सवगुणसंपुनो होही, केवलं पुत्वपुरिसपरंपरागयधम्ममुज्झिहि त्ति । इमं सोचा झमकिओ ज्झड त्ति सेट्ठी चिंतिउं पवत्तो पुत्तुप्पत्ती जणयइ पीई पिउणो हि एत्तिएणेव । जं पुवपुरिसकमपत्तधम्मकम्माई बवर सो अह तं पि निययदुस्सीलयाए सिदिलेइ कलुसपरिणामो । ता किं व तेण जाएण ? सायरं पड्डिएणं वा ? ॥२॥ इमं च निज्झायंतं विच्छायमुहं पेच्छिऊण सेट्टिं संवच्छरिएण भणियं-भो महाभाग ! कीस एत्तिएण संतप्पसि ? जं वा तं वा गुणविसेसं पवनो पुत्तो पिउणो कित्तिकारणं चेव । 'एवं होउ' ति तुट्ठो सेट्ठी । पइट्ठियं सुमुहुने 'अम १ खालेखा समरहे ॥ २ 'कुटनी' पुंथली विनाशिनी च । ३ 'दारिका' विदारणी पुत्री च ॥ ४ पुत्रुप्प सं० प्र० ॥ ५ वइ प्र०॥ ६ शिथिलयति ॥ ७ विज्झाय" प्र० ॥ KRICKEKASHAKRAKACAKACASSAIX Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरि-5 विरहओ कहारयणकोसो।। सामनगुजाहिगारो। ॥१५८॥ रदेवयाविइन्नो' त्ति 'अमरदत्तो' ति पुत्तस्स नामं । पंचधावीपरिग्गद्दिओ य समहकतो बालभावं, पाढिओ सयलकला- 13 सामर्थ्यकलावं, जोवणमणुपत्तो य परिणाविओ इब्भकत्रयं । धम्मंतरपरिहारनिमित्तं च पिउणा सविसेसं पइदिणं निजइ सो सुगय- गुणे अमरपायपूयणत्थं, पाडिजइ य भिक्खूण पाएसु, सुणाविजइ य सुगयसत्थाई, उज्झाविजइ सेसलिंगिजणेण सह संगं ति । एवं दत्तकथावचंति वासरा । 'बुद्धधम्मपरमत्थवियक्खणो सुपडिलग्गो य एसो' ति बाढं रंजिओ य सेट्ठी । ठविओ य सवेसु अभंतरिय नकम् २१॥ नियकिच्चेसु अमरदत्तो । एवं च से तिवग्गसंपाडणपरस्स आगओ वसंतसमओ । सम्मओ जो पक्खीण वि, दंसियवियारो तरुवराणं पि, उकंपियपियविउत्तकामिणीजणो, जणियपुहइपमो[ओ] य । अवि यवियसंतकुमुयनयणेहिं कमलवयणेहिं बड्डिउकरिसा । वणलच्छीओ सोरम्भनिन्भरं जं नियंति व वसन्तजम्मि य पहिया सहयारमंजरीरेणुपुंजपिंजरिया । अंतो नियंतदइयाणुरायरत्त व रेहति ॥ २॥ वर्णनम् गादुकंठाकंठग्गलग्गजीया वि जावयंति जहिं । कंकेल्लिपल्लवोत्थयहिययाओ पउस्थवहयाओ ॥३ ॥ जयडिंडिमो व पडिहाइ मणहरो पेरहुयारवो जत्थ । सो महुसमओ भण कस्स सम्मओ होजन जियस्स? ॥४॥ एवंविहगुणाभिरामे य तम्मि अमरदत्तो भणिओ य वयस्सेहिं-भो पियमित्त ! दहबदसणफलाणि भण्णंति लोयणाणि, १ नीयते ॥ २ 'य' वसन्तं पश्यन्तीव ॥ ३ अन्तः नितान्तदयितानुरागरक्ता इव राजन्ते ॥ ४ गाढो कण्ठाकण्ठाप्रलग्नजीविता अपि यापयन्ति यत्र । ककेलिपळवावस्तृतहदया: प्रोषितपतिकाः ॥ ५ 'परभतारवः' कोकिलाशब्दः ॥ ॥१५८॥ है माध्यस्थस्य माहात्म्यम् SACACAKACAKACESS अया जाया । कमेण य फासियदेसविरइणो सत्वविरइजोग्गयमुवगम्म सम्ममाराहियसंजमा निवाणमुवगय ति । एवंबिहकल्लाणावलीकारणं मज्झत्थं ति । किंच विमलम्मि दप्पणे जह पडिविंबइ पासवत्तिवत्थुगणो । मज्झत्थे तह मणुए संकमइ समग्गधम्मगुणो मज्झत्था दोसं उज्झिऊण गिण्हंति वत्थु घेत्तवं । नियनिउणयाए हंस व नीरचागेण खीरेलवं ॥ २ ॥ अपि च-अशाखजं संस्करणं हि बुद्धेरलोचनं वस्तुविलोकनं च ।। आचायशिक्षाव्यतिरिक्तमेव, माध्यस्थमाहुः परमं पटुत्वम् माध्यस्थ्यतः स्यादगुणोऽपि पुंसामाराध्यपादः सुहृदांवरश्च । माध्यस्थमेकं प्रतिपय जीवाः, प्राप्ता जवात् संसृतिसिन्धुपारम् ॥२ ॥ उदीणे दुष्कर्मसमूहयोगे, माध्यस्थमासादयते न जीवः । न सनिपातोपहतः कदाचिच्छुभा-ऽशुभं वस्तु षिवेक्तुमीशः ॥ ३ ॥ इति सर्वाग्रहत्यागाद् माध्यस्थशरण: सुधीः । क्षीराब्धिरिव सिन्धूनां संम्पत्तीनां पदं भवेत ॥ ४ ॥ ॥ इति श्रीकथारत्नकोशे माध्यस्थगुणचिन्तायां पुरोहितसुतनारायणकथानकं समाप्तम् ॥ २० ॥ NAGACAENTRAKASACANCICRORA १ सकम खं० प्र० ॥ २ "रवलं सं० प्र०॥ ३°ध्यस्थेश प्र० ॥ ४ सपत्नीनां प्र० ॥ ५ 'न्ताया उ पु सं० प्र० ॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरइओ कहारयणकोसो।। सामन्नगुणाहिगारो। PERHHAHAHARANA- सामर्थ्यगुणे अमरदत्तकथानकम् २१। कुणइ कुसुमुच्चयं सरह सरसीतडं, विसइ सलिलम्मि तैडदिन्नझंपुम्भडं । दोलकीलाए बट्टा खणं रंजिओ, रमइ अक्खेहि जोगि व अविगंजिओ ॥ ४ ॥ इय एवंविहबहुविहविलासलीलाहिं वण निगुंजेसु । वणवारणो बसो भमइ निब्भर मित्तवग्गजुओ ॥ ५॥ एवं च भमंतो स महप्पा असोगतरुपट्टए निसन्नं समणं एकं अञ्चंतकरुणपलावस्स एगस्स वइदेसियनरस्स भूरिमंडल[मज्झ]गयस्स वाहिवेयणाविहुरस्स किं पि उवइसंतं पेच्छइ । ततो भणिया अणेण नियवयस्सा-अरे ! आगच्छह, एम साहू आइक्खइ किं पि तं निसामेमो त्ति । वयस्सेहिं जंपियं-पियमित्त ! तुमं पिउणा सुचिरं वारिओ, जहा-विधम्माणो मिलंति तथा तस्संगमो य धम्मविणासगो त्ति सो मोत्तबो, ता न जुत्तमेत्थावस्थाणं । अमरदत्तण भणियं-एतेण वि को दोसो ? न हि जलण-तालउड-खग्गाईणं दंसणं सवर्ण वा अणि टुं जणिउमलं, ता अलं संभमेण, एह खणमेत्तं निसामेह-किमेस बहदेसिओ जंपइ ? किं वा एस मुणी समुल्लवह? | तुहिका ठिया वयस्सा । गओ अमरदत्तो मुणिणो समीवं । एत्थंतरे रुयंतो सो वइदेसिओ पुच्छिओ जणेण-भद्द ! किं रुयसि ? ति । तेण भणियंकडुई केन्माण मे संकहा तहा वि निसामेह अहं हि कंपिल्लपुरे संकरस्स घरवइस्स घरिणीए दुट्ठलक्खणो सुओ जम्मणदिवसे चिय निङ्गोवणीयधणो जाओ म्हि । जीव य छम्मासिओ संवुत्तो ताव माया-पियरो परलोगमुवगया । तप्पभिई पालिओ हं जेहिं सयणेहि "ते वि महाणुभावा १ सरति ॥ २ तटदत्तझम्पोद्भट यथा स्यात् तथा ॥ ३ एत्तेण प्रती ॥ ४ णिच्छं ज” प्रती ॥ ५ कर्णयोः ॥ ६ जाय व छ प्रती। ७ तेहिं म प्रती ॥ ॥१५९॥ देवलकथा ॥१५९॥ KARMACEURXNXCAXCAXCOMMARA EENAKARANA%AAAAAAXNCXXCACANCHMARCRARECE महदकम्मजम्मोवहया दिवं गया । वरिसमेतो य इओ तओ कंदुकप्पणाकप्पियपाणवित्ती विसरुक्खो व सवसंतावकारी वडिओ सरीरेण दुक्खेण [य] एत्तियं कालं । संपयं च गंडोवरि पिडिंमुब्भेयविब्भमेण दुस्सहमहावाहिनिवहेण वेरिविसरणेव पइक्वणुप्पाइयतिक्खतरदुक्खलक्खेण पडिवो म्हि । एत्तिएण य न ट्ठियं, अंतरंतरा अदिट्ठो कोई भूओ पिसाओ वा तं वेयणमुव[ज]णइ जा जीहासएण वि वोत्तुं न पारियइ । एवंविहमहादुहोवहओ य इहि जीवियत्वभग्गो नग्गोहसाहाए उल्लंपिऊण अप्पाणं मरणद्वमुवडिओ । तत्थ वि पडिकूलदेवत्रसओ असंपुनमणोरहो तुट्टपासो निवडिओ धरणिबढे। गरुयवेरग्गोवगओ य "किं मए पुरा कयं ?' ति साहुमिममापुच्छिउमेस्थ आगओ म्हि ।। ततो विम्हिओ जणो 'किं कहिस्सइ साहु ?' ति जाओ एगचित्तो । एत्थंतरे भणियं साहुणा-भो महाणुभाव ! निसामेहि तुमं हि एत्तो तइयभवे पचंतगामे देवलओ नाम कुलपुत्तओ अहेसि । पओयणबसेण य मेत्तसमेओ गाम वच्चंतो मिलिओ एगस्स पहियस्स । जाओ संकहावसेण तेण सह पणओ । उवलद्धो य तुमए सो पहिओ, जहा-निच्छिय धणडो एसो त्ति । ततो नियमितेण सह मंतिऊण रयणीए निब्भरपसुत्तो सो पोतेण वयणं गाढं पच्छाइऊण गलदेसोमोडणेण मारिओ तुम्मे हिं, गहियं तद्दछ । पट्टिया दो वि । दवलोभेण य जाओ अवरोप्परं बहपरिणामो। अह भोयणस्स समए तुमए इयरस्स मारणकएण । खिचिऊण महुम्मि विसं दिनं तेणावि तुज्झं पि ॥१॥ १ महकमजन्मोपद्दताः ॥ २ टकल्पनाकल्पितप्राण गृत्तिः ॥ ३ सत्तसं प्रती ॥ ४ पिडिमोफ़ेदविभ्रमेण ॥ ५ तदवं प्रती ॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसरिविरहओ कहारयण कोसो॥ सामन्त्रगुणाहिगारो। ॥१६॥ पुत्वसुसंभियविसमिस्सपक्खिमंसं पणामियं तइया । दो वि विणासं पत्ता ही ही! अत्थो महाणत्थो ॥२॥ | सामर्थ्य ता भो देवल ! संकिलिङगरुयकम्मपन्भारनिहयसुकयकम्मो तुम मरिऊण उववनो नरए । चिरकालं च केलणाइकंतं |3|गुणे अमरदुक्खं सहिऊण संपर्य एवंविहदुहाभागी जाओ सि । सो हि पहिओ तहा वहिओ उववन्नो भत्रणवासिदेवेसु, सैरियचिरभव- दत्तकथावइयरो य एवंविहजायणाहिं तुम बाहइ । जो वि उल्लंबणपासो तुट्टो सो वि 'चिरकालं किलिस्सउ एसो' ति तकओ चेव । [ नकम् २१। ता भद! एयं तुह पुखदुकयं ति । अन्माण मोहवामोहिया मुहा अजिऊण पावरयं । किचमकिञ्चमनाउं अंधपडंति भवकूवे शुश्रूषाया इविओगा-ऽणिट्टप्पओगसंतावतत्तसवंगा । चिट्ठति चिरं च तहिं तण्हा-छुहवेयणाइहया माहात्म्यम् उम्माहिऑति चिरोवभोतसोक्खाण गुत्तिखित्त च । बहुसो वि य विलवंता लहंति थेवं पि न विमुत्ति ॥ ३ ॥ ता भो देवाणुपिया ! पच्चक्खं पेक्खिउं दुहविवागं । नियंदुकयाणमभिरमह सबहा कुसलकम्मेसु ॥ ४ ॥ अवि हालाहलगिलणं पि गलतले जुजणं पि खग्गस्स । सुहसुत्तसिंहकंडूयणं पि पत्नं कह वि होजा ॥५॥ न उण निरंकुसमयसत्तमत्तकरिदुट्टचेट्ठियं कह वि । खेमाय होञ्ज कस्स वि अवि सुरवातुल्लसिरिणो वि ॥६॥ १ पुर्व सु प्रती। पूर्वमुसम्मृतविधमिधपक्षिमासं अर्पितं तदा ॥ २ 'कलनातिकान्त' कल्पनातिकान्तम् ॥ ३ स्मृतचिरभवम्यतिकरथ एवंविवयातनाभिः ॥ ४ तत्कृतः ॥ ५ अर्जयित्वा पापरजः । कृत्यमकृत्यम् अज्ञात्वा ॥ ६ उन्माध्यन्ते चिरोपभुक्तमुखेभ्यः ॥ ७ निजदुष्कृतानाम् ॥ ८ निरामदसक्तमत्तकरिदुष्टचेष्टितम् ॥ ४८॥१६॥ CANCE LAKSCRICKX AL RESEARCenXSIROHI ता कुणसु सिंगारं, पिच्छसु वसंतूसवं ति । ततो जायवसंतावलोयणकोहलो अमरदत्तो पियरं विनविउं पवत्तो–ताय! जइ तुम्मे आइसह ता वसंतसिरि अदिट्टपुर्व अवलोएमि ति । सेट्टिणा भणियं-वच्छ ! किमजुत्तं ? केवलं तचिलोयणगयाण अणेगविभिन्नधम्माणो कुबुद्धिदायारो य संभवंति, ता जह न तेहिं तरलिजइ मणो [न] हवइ धम्मविणासो दबक्खओ य तहा अमिरमसु, कहं तुह कीलाभिलासपडिकूलं बट्टामि ? ति । एवं च पिउणाऽणुनाओ कहवयवयस्सपरिखुडो सुंदरनेवच्छो गओ पुष्फावतंसयम्मि उजाणे, पविट्ठो तयभंतरे, जहिच्छमारद्धो य कीलिउं । कह चिय - कत्थई नियह रणझणिरमणि-कंचणं, हिट्ठवयणं पणचंतमबलाजणं । फुल्लनलिणं रणतालिमालागणं, खरसमीराहयं नाइ नलिणीवर्ण ॥१॥ कत्थई पंचमुग्गारवनिम्भरं, गेयमायन्नई वेणु-वीणारवं ।। पहियपमयाण कयगाढमुभागम, थोभणं मंतपढणं व भूरिन्भर्म ॥ २ ॥ पेच्छई कहिं वि फुलंतवेहल्लयं, कोरइजंतकंकेल्लि साहोल्लयं । पेहई भेत्तुणा चाइसयचड्डियं, अणुणइअंतियं पणइणि खंडियं १ कुत्रचित् पश्यति रणझणनशीलमणिकाचन हटवदनं प्रनत्यदवला जनम् । पुष्पित्तनलिने रणदलिमालागणं खरसमीराहतमिव नलिनीवनम् ॥ २ यरइ रणज्झणि प्रती ॥ ३ कुत्रचित् पश्चमोद्गाररवनिर्भरं गेयमाकर्णयति वेणुवीणारवम् । पथिकप्रमदानां कृतगादविधादागमं स्तम्भन मन्त्रपठनमिव भूरिश्रमम् ॥ ४ प्रेक्षते कुत्रापि पुष्यद्विकिल कोरकरकनिशाखम् । प्रेक्षते भी चाटुशतमूदितां अनुनीयमानी प्रणयिनी खण्डिताम् ॥ ५ भणुणा प्रती॥ WARNIOSCARRAC%A4%AKATARAKICRY वसन्तक्रीडा Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरि-४ विरइओ कहारयण-1 कोसो॥ सामनगुणाहिगारो। ॥१६॥ सामर्थ्यगुणे अमरदत्तकथानकम् २१॥ विरहियस्स । तइयदिणे य वयस्समुहेण भणाविओ सेट्ठी, जहा-मुद्दारयणं अंगुलीकिसलयाओ गलियमुजाणदेसे, ता जइ तुम्भे अणुजाणह ता तमहं गंतूण पलोएमि त्ति । पिउणा भणियं-एवं करेहि, परं कालक्वेवं विवजेजासि । तओ गओ अमरदत्तो उजाणं, भावसारं वंदिओ साहू, आसीणो समीवे, सुओ सबन्नुधम्मपरमत्थो अचंतमभिरुहओ य । तओ सवायरं भणितो तवस्सी-भयवं! गिहिधम्मप्पयाणेण अणुगिण्हह ममं ति । साहुणा भणियं-भो महायस! नाउँ जिणिदधम्म सम्म मेय-प्पमेयओ पच्छा । वईतसुद्धभावो विहिवं तं पवजेज जीवा-जीवाइपयत्थगोयरं न हु अबुज्झिउं तरइ । हिंसाईण निविर्ति काउं धम्मेकचित्तो वि ॥ २ ॥ न य जह तह पारद्धा विसुद्धधम्मत्थसाहणी किरिया । होउमलं ता भद्दय ! वीसत्थो सुणसु सस्थत्थं ॥३॥ अमरदत्तेण भणियं-भयवं! एयमेवं, केवलं अम्ह पिया देसवलमग्गाणुगामी धम्मतरं सोउं पिनेच्छइ, न य अम्हारिसं पि सुणतमणुजाण, तभएण अहमेत्थ संखेवओ धम्म घेत्तुमिच्छामि त्ति । मुणिणा भणियं-भद्द! उत्तमर्वत्थुगहणपयद्देहिं न भाइयब्वं जणगाइर्जणाओ, न लज्जियव्वं सामन्नलोगाओ, न खुभियव्वं पच्चूहबूहातो, अयं हि जिणधम्मो महानिहिं व गरुयपुनपब्भारलब्भो परमभुदयहेऊ य, अओ संभवइ एस्थ विग्धकारी, ता होसु एगचित्तो, चयसु पियराइपडिभयं, अणंते हि इह संसारे सरंतजंतुणो अणंता माया-पियराइणो जाया, परं न तेहिंतो वो वि उवलद्धो दुक्खपडियारो, न य एत्तो सेरियावारिपूरहीरमाणेण व तडविडविपालंबो अहवा जलहिगएण व पोओ पत्तो जिणधम्मो तुमए १ विवर्जयिष्यसि ॥२ बौद्धमार्गानुयायी इत्यर्थः ।। ३ 'बत्थग प्रती ॥ ४ जणओ प्रती ॥ ५ सरिद्वारिपूरहियमाणेन इव ॥ ॥१६॥ | उवेहिउँ जुत्तो ति । एवमाइजुत्तिसारवयणपरंपराजियकुवियप्पो अमरदत्तो नीसेससंखोभवग्गमवहाय जहुत्तविहीए जिणसासणं पवनो, नियसामत्थाणुरूवा य पाणवहविरइपमुहा पडिग्गहिया अभिग्गहविसेसा । भणिओ य तओ मुणिणा देवाणुप्पिय ! पवनजिणधम्मो । संकाइदोसजालं एत्तो दूरं चंएजाहि संकाइदोसदुट्ठो लद्धं पि जिणिंदधम्ममाणिकं । उज्झइ ततो य दारिहरुंददुहभायणं होइ ॥ २ ॥ जिणधम्मसंगओ दुग्गओ वि परमत्थओ महाइब्भो । एयविउत्तो पुण ईसरो वि दारिद्दियम्भहिओ अत्थो जणणी जणगो बंधू सयणा य भिच्चसंघाओ। काउं तं न समत्था जं जिणधम्मो ददं चिनो ॥४॥ चिरमुबइरिया वि इमे इहलोइयमेव किं पि कुवंति । जिणधम्मो पुण तं नत्थि जं न मणवंछिय कुणइ ॥५॥ किं बहुणा भणिएणं ? एत्तो भई न अन्नमिह किं पि । ता उज्झियसबभओ भेएज धम्म इमं सम्म ॥६॥ 'एवं काह'-न्ति भालयलपरामुट्ठमुणिपायवट्ठो 'नित्थारगपारगो होजाहि' ति गुरुणा दिनासीसो जिणधम्मरयणं मुद्दारयणं च घेत्तूण गओ नियघरं । तिकालचेहय-साहुपूयारओ य जहापारद्धपओयणेसु वहिउमारद्धो । उवलद्धसवतव्वुत्तंतो य पिया परं कोवमुबहतो भणिउं पवत्तो-अरे दुसुय! पुवपुरिसपरंपरागयं सुगयधम्ममुज्झिय धम्मतरं कुणतो द8 पि न जुञ्जसि किं पुण संभासिउं ? केवलं दुपुत्तपडिबंधो एवं विडंबेइ ति । अमरदत्तेण भणिय-ताय ! कणगमिव धम्मो सुपरि १ एबमादियुक्तिसारवचनपरम्पराजितकुविकल्पः अमरदत्तः निश्शेषसंक्षोभवर्गम् अपहाय ॥ २ स्यश्यसि । ३ 'महेभ्यः' महर्द्धिकः ॥ ४ चिरमुपचरिताः ॥ ५ भजे ॥ ६ 'करिष्यामि' इति भालतलपरागृष्टमुनिपादपृष्ठः ।। ७"तबुब्वंतो यं पि प्रती । उपलब्धसर्वतद्वृत्तान्तश्च । धर्मोपास्तेः प्राधान्यम् -%ARANARASAKALACHKAKKARMA Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरहओ कहारयणकोसो ॥ सामनगुणाहिगारो। सामर्थ्यगुणे अमरदत्तकथानकम् २१० क्खिऊण घेत्तयो, न उण पुचपुरिसकमपाहणं । किंचपाणिवहा-ऽलिय-चोरिकविरह-परजुवइवजणपहाणो । पञ्चक्खदिवसारो धम्मो एसो कहमजुत्तो? ॥ १ ॥ पञ्चक्खेण वि दीसइ एवंविधम्मविहिविहीणाणं । जीवाण जायणाओ विविहाओ दुक्खणिगाओ ॥ २ ॥ किं वा इमिणा ? तुम्भं वेसाईवसणवजणे जैतो । काउं जुत्तो धम्मुजमे य मे किं व वयणिजं? उचमपणियं लिंतो जहा न निंदापय हवइ वणिओ । उत्तमधम्मपवनो न हीलणिजो तहा हं पि ॥ ४ ॥ पिउणा भणियं-अरे दुरायार ! अतिमुहरो सि, कुणसु जं ते रोयइ, न एत्तो वत्तवो सि त्ति । वित्थरियमेयं च नयरमज्झे-जहेस चत्तनियमग्गो धम्मतरं पवनो ति । सुयमिमं ससुरेण । भणाविओ तेण एसो-जइ मह धूयाए कजं ता संजो बजेसु मग्गमिमं ति । तह वि न संखुद्धो एसो । विसजिया पियहरं भजा । अवरवासरे य संलत्तो एसो जणणीएबच्छ ! किं पि कुणसु धर्म, केवलं अमराभिहाणं कुलदेवयं पूएसु सवायरेणं, एयप्पसायपभवो हि तुज्झ जम्मो त्ति । अमरदत्तेण भणियं-अम्मो ! सबन्नुमेकं चिय अचयंतस्स जं होइ तं होउ, अलाहि देवंतरपूयणेणं । तओ कुविया कुलदेवया । मेसिओ सुहपसुत्तो रयणीए भीमभुयंग-मायंग-वेयालपमुहोबसग्गेण । भणिओ य-अरे दुस्सिक्खिय ! दुक्खियं काहामि त्ति । तह विन भीओ एसो, परं परुदेवयाजणियगरुयरोगवग्गविहुरो वि थिरयरीभूओ जिणिंदधम्मम्मि, चिंतिउं पवत्तो य १ यातनाः ॥ २ "जणगा' प्र०॥ ३ जुत्तो खं. प्र. ॥ ४ धम्मुज्जुत्तो प्र. ॥ ५ उत्तमपण्यं 'लान' आददानः ॥ ६ बत्तो न • ॥ ७ सयः ॥ ८ पितृगृहम् ॥ ॥१६२॥ ॥१६२।। KKAKKARNAKAMANANAXAX*4%ARASHRIKHARNAKSt सुगुरुवएसंकुसविरहओ य न सुमग्गलग्गणं पायं । ता सुस्स्साए मणो पढम पि निझुंजणीयमिम तग्गाढारूढमणो पईवपडिमं सुहं सुयं लहइ । ततो य विरइभावं तओ लहुं आसवनिरोई ॥८ ॥ तैष्फलमसमतवोबलमह तत्तो निजराफलं विउलं । किरियाविगमं तत्तो ततो य परमं अजोगिन ॥९ ॥ तत्तो भवसंतइखंडणं च मोक्खं च तप्फलमुयारं । इय सबकुसलमूल वयंति सत्थत्थसुस्सूसं ॥ १० ॥ एवं मुणिणा सिंटे सबकन्जपरमत्थे परमं पमोयमुवगओ पेच्छगो लोगो । सो वि वइदेसिओ सरियपुत्वभवसबवुत्ततो अंतोर्वियंभंतगरुयसोगावेगो 'भय ! अवितहमेय, अणुभूयं निरवसेसं ससरीरेणं' ति वागरतो अणसणं पवनो ।। छ । अमरदत्तो वि तदायत्रणपवतसुहभावो, भवियच्चयावसेण लद्धदसणावरणविवरो, 'वरं मरणमेवंविहधम्मविरहियाणं' ति चित्तनिहितविवेगमुद्दो, मुद्दारयणं तत्थेव गोविऊण, मुणिणो नाणाइसयं पुणो पुणो सरंतो वेयस्साणुवित्तीए गतो सगिह । संभासिओ पिउणा-वच्छ ! किमच्छरयभूयं किं पि तहिं दिट्ठ ? ति । संखुद्धमणो य अमरदत्तो जाव न किं पि जंपइ ताव सिट्ठी वयस्सेहिं साहु-बइदेसियवुत्तो। तं च सोचा चिंतियं सेट्टिणा-एस पढमुग्गमो संवच्छरिओवइट्ठधम्मविधायपायवस्स त्ति । जायगरुयरोसेण य भणिओ एसो-वच्छ ! पंजत्तमित्तो वसंतलच्छीपेच्छणच्छलेण, अच्छसु गिहे च्चिय पेच्छणयाइपलोयणपरो त्ति । एवं च पिउबयणरज्जुसंदोणियस्स महाकडेणं वोलीणं दिणमेगममरदत्तस्स साहु १भूषायाम् ॥ २ धुतम् ॥ ३ तरफलम् असमतपोबलम् अथ ॥ ४ शास्त्राभूषाम् ॥ ५ शि' कथिते ॥ ६ अन्तर्विजम्भमाणगुरुकशोकावेगः ।। ७ व्यागृणन् । ८ तदाकर्णनप्रवर्धमानशुभभावः ॥ ९ बयस्यानुवृत्त्या ॥ १० पर्याप्तम् इतः ॥ ११ सम्दानित:-बद्धः ।। メインメイド) Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसति विरइओ अर्थित्वव्यतिरेके सुन्दरकथानकम् २२। कहारयणकोसो॥ सामनगुणाहिगारो। ॥१६॥ तद्वजिनेन्द्रगदितामलधर्मकर्मनिर्मापणावसरविघ्नगणं विहत्य । आसादयन्ति शिवमद्भुतचित्तदाात् , सीदन्ति केवलमनीशचेतसब ॥ २ ॥ अपि चतावद् दुर्विषहा हिमाचलमरुद्-वैश्वानरा-ऽर्कद्युतः, तावद् मीमभुजङ्गसङ्गविषमाः पाताल-भूकुक्षयः । तावद् दुःखगमाश्च सिंह-शरभैः शैलस्थलीभूमयः, यावञ्चित्तहढस्वरूपविलसत्सामर्थ्यभाजो नहि ॥३॥ इति सामयं सर्वार्थसाधनं धनमिवानिधनमाप्य । दौर्गत्य-दुःखविषयं न यान्ति सन्तः किमाश्चर्यम् ? ॥४॥ ॥ इति श्रीकथारत्नकोशे सामर्थ्यगुणचिन्तायां अमरदत्तकथानकं समाप्तम् ।। २१ ॥ सामस्थे संते चि हु न ज विणा संभवेज धम्ममई । तं अत्थितं संपइ लेसुद्देसेण दंसेमि ॥१ ॥ जह भोयणम्मि इच्छा भेजा-वइयाण जह व अणुरागो । तह अस्थिसं सारं परलोयपहाणचेढासु ॥ २ ॥ अत्थी एत्थं सो पुण जो संसारियभयं परिवहतो । एसो च्चिय परमत्थो सेसोऽणत्थो त्ति मनतो ॥ ३ ॥ पुच्छह गुरुणो तन्मेय-विसय ववहार-निच्छयाइगयं । तस्स सरूवं अणुदिणमभहियं कयसमुट्ठाणो धम्मियजणेऽणुसञ्जह सजइ य ससत्तिओ अणुट्ठाणे । वञ्जइ य तेंविरुद्धप्पवित्तिपवणं जणं रे ॥ ५॥ तकहनिसामणेण विहेरिसिजद खिजई असुहकिथे । धम्माणस्थीणमिमे दूरविरुद्धा समायारा १ अखण्डमित्यर्थः ॥ २ भज्जोव ख० प्र०। भार्यापत्योः ॥ ३ धार्मिकजनान् ॥ ४ तद्विरुद्धप्रवृत्तिप्रवणम् ॥ ५ हप्यति विद्यते ॥ ६ धर्मानचिनाम् इमे ॥ अर्थित्वस्वरूपम् ॥१६३॥ *KAKKARXAKAKAR+KARHAREKKKARRAKAKKAKAKAKARAN XRKAARAKKARANXRAKANKASAKARANASI इयलक्षणो 'विणेओ अत्थी जोग्गो विसेसधम्मस्स | एयविलक्खणरूवो य जाणियो अजोगो चि ॥७॥ एवंविहस्स वि धुवं धम्मारोवणमरनरुन्नसमं । केवलकिलेसमेतं विनेय सुंदरस्सेव ॥८॥ तहाहि-अस्थि सुरसरिलोलकल्लोलभुयपरिहालिंगियतुंगपायारविराड्या अणवरयपयट्टारहट्टजलुप्पीलसद्दलजंयु-जंबीरकयंबंबपमुहतरुसंडमंडियपरिसरा मेहरहमहानरिंदपुभपयावपडिहयपडिवक्खभया जयंती नाम नयरी । तहिं च पुच्चभवावजियगरुयसुकयसंभारोवलद्धविभववित्थरो दया-दक्खिन-गंभीरिमाइनिम्मलगुणगणागरो संवरो सेट्ठी, सयंपभा से भजा। उभयलोगाविरुद्धणं आयारेणं गर्मति दियहाई। कालकमेण य जातो ताण पुत्तो, सुंदरो ति पइट्टियं से नाम। पढियकइवयकलाविसेसो य कारावियदारसंगहो सो पयट्टो गिहकिच्चेसु । 'एसो चिय घरकजचिंतं कादि' त्ति चिंतियं संवरसेट्ठिणाजइ वि पिउ-पियामहा[]पुरिसपरंपरासमञ्जिओ विजइ पउरो दब्बसंभारो तहावि परिभावेमि अप्पणो लाभविसेस, परिक्खेमि कम्माणुकूलयं, अवलोएमि ससरीरसामत्थं, सेसामत्थाणुरूवं च अणुकंपेमि दीण-दुत्थियजणं देसंतरजत्ताकरणेण-ति सविसेसं पुत्तं घरे निरूविऊण पडिगाहियभूरिभंडो पढिओ पुर्वदेसाभिमुह । धणसस्थवाहनाएण घोसावियं नयरीए-जो को वि १ विज्ञेयः ॥ २ पयविहस्स अ धुर्व प्र० । 'एवंविक्षस्थापि' अयोग्यस्य अनर्थिनो वेत्यर्थः धुर्व धर्मारोपणम् अरण्यरुदितसमम् । केवललेशमात्रम् ॥ ३ सुरसरािकोलकातोलभुजपरिपालिजितनुनप्राकारविराजिता अनवरतप्रवृत्तारपट्टजलसमूहशालजम्यूजम्बीरकदम्बाऽऽप्रमुखतरुषण्डमण्डितपरिसरा मेघरथमहानरेन्द्रपुण्यप्रतापप्रतिइतप्रतिपक्षभया ॥ ४ 'णो भालवि सं० । 'भालविशेष' भाग्यमित्यर्थः ॥ ५ सासम सं० प्र० ॥ ६ बदिसा प्र० ॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभरि विरइओ कहारयणकोसो ॥ सामन्नगुणाहिगारो । ॥१६४॥ पुवदेसमागच्छिही तस्स संवरो सेट्ठी ** उदतं वहिहि ति । पगुणीहूओ तडिय कप्पडियपमुहो अणेगो जणो । सुमुहुत्ते दिनं पयाणयं । दिअंतनिवारियपउरभत्तपरितुट्ठपहियगिअंतो अप्पुबापुषपुराऽऽगराइठाणे पलोयंतो धम्म-त्थ- काम किच्चाणुकूलचेट्ठाए वच्चमाणो य । सुरभिपुरं संपत्तो स महप्पा संवरो सेट्ठी _एत्थंतरम्म फुलंतनीवपसरंतपरिमलुग्गारो | तंडवियसिहंडिकुलो वियंभिओ पाउसारंभो "दिसिविलयाविगलियहारविमलमुत्ताहलाण पंति व घणसिप्पिउडविमुका जलधाराधोरणी सहह दोमुडाणं घणसंपया वि संपाडइ ति कलिउं व चंदुओएण समं हंसउलं लहु अवतं अँच्चंतक सिणघणमंडलीसु विज्जुच्छडं पहियलोगो । कीणासकडक्खं पिर्य पेक्खतो सगिहमणुसरिओ एवंवि य विलसते वासारते संवरेण तहाविद्दजणभाडय मंदिराणि घेतूण द्वाणे करावियं भंड, जहिच्छाचारेण चरि विसज्जिया वसह वेसराइणो, निउत्ता य तक्कालोच्चियकिश्चेसु कम्मयरा । सयं च अट्ठावयाइकीलाहिं कीलिउं पवत्तो । 112 11 ॥ २ ॥* १* एतचिहमध्यवर्ती पाठ: सं० प्रतौ पतितः "1 २ दीयमानानिवारितप्रचुर भक्तपरितुष्टपचिकगीयमानः ॥ ३ सुंदरो प्र० ॥ ४ पुष्यन्नीपप्रसरत्परिमलोद्वारः । ताण्डवितशिखण्डिकुलः विजृम्भितः प्रावृडारम्भः ॥ ५ दिग्वनिताविगलितहारनिमलमुक्ताफलानां पङ्गिरिव घनशुतिविमुक्ता जलधाराधरणिः राजते ॥ ६ 'घनसम्पत्' प्रभूतसम्पत्तिः मेषसम्पच 'दोषोत्थानं' दोषाणां दूषणानां दोषायाः- रात्रेवोत्थानं सम्पादयति इति 'कलयित्वा इव' ज्ञात्वा इव ॥ ७ अत्यन्त कृष्णचनमण्डलीषु विद्युच्छां पथिकल्लोकः । कीनाशकटाक्षमिव प्रेक्षमाणः स्वगृहमनुसृतः ॥ ८ पिच पे प्र०॥ इत्थं सामत्थगुणं सं- परुवयारप्पहाणमवगम्म ! पडिभयचक्कविमुको तत्थेव ठवेज अप्पाणं पाएण विग्घवग्गग्गलाई गिअंति धम्मकिश्चाई । कीरंति न खलिउं ताई उभयसामत्थविरहेण ॥ ३॥ ॥ ४ ॥ ॥ ५ ॥ ॥ ६ ॥ पडिकूला हवउ सुरा माया-पियरो परम्मुहा होंतु । पीडंतु सरीरं वाहिणो वि खिंसंतु सयणा वि निवडंतु आवयाओ गच्छउ लच्छी वि केवलं एका । मा जीउ जिंणे भत्ती तदुत्ततत्तेसु तेत्ती य इय निच्छयप्पहाणो दुत्थावत्थं पि परममब्भुदयं । मनतो स महत्पा एगग्गो कुणड़ जिणधम्मं एवं च दव भावसामत्थाणुगयस्स तस्स महाणुभावस्स वश्चंतेसु वासरेसु, परिहीयमाणेसु धम्मविग्वकारिसु असुह कम्मपोग्गलेसु, धम्मनिच्छय पेच्छिऊण पराभग्गा कुलदेवया, उवसंहरिया रोगा, सपायपणामं कयखामणा गया उवसमं । अम्मा-पियरो वि तेववहारसुद्धिरंजियजणगिअंतगुणगणसवणुब्भवंतपरमपमोया पुद्दमिव सिणेहसारं परिचत्तधम्मविग्धा विडं पवत्ता । अणुकूलीहूओ सयणवग्गो, विलक्खीहूओ ससुरो, खामणापुवगं च अणेण पेसिया पहरं धृया । अणुदिणमिउपन्नवणाए य जिणधम्माभिमुहीकओ माया-पियाइलोगो अमरदत्तेणं । चोराकुलं मकर- मीन- तिमिङ्गिलादिरौद्रं समुद्रमरिदुर्विषहं रणं च । सामर्थ्यतः समतिलङ्घन्य शेमाप्नुवन्ति, सीदन्ति तद्विरहिताश्च यथा मनुष्याः ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ किंच 11 2 11 १ यातु ॥ २णे सत्थी त° सं० ॥। ३ 'तप्तिः' चिन्ता ॥ ४यं काऊण प्र० । ५ तद्व्यवहारशुद्धि रक्षितजनगीयमान गुणगणश्रवणोद्भवत्परमप्रमोदौ । ६ परिव्यक्तधर्मविनी । ७ अनुदिनमृदुप्रज्ञापनया ।। ८ स्वपरोपकारप्रधानमवगत्य ॥ ९ 'शं सुखम् ॥ २८ अर्थित्वव्यतिरेके सुन्दरकथानकम् २२ । प्रावृडू वर्णनम् ॥१६४॥ सामर्थ्यस्य माहात्म्यम् Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव मद्दसूरिचिरइओ कहारयण कोसो ॥ सामन्नगुणाहिगारो । ॥१६५॥ विणस्सह' ति विभाविऊण गओ तुह समीवं, एगंते य निवेइयं भो मित्तवर ! अहं पओयणवसेण सगामं गओ । तुह घरे य केवलं चंदलेहा तकालं केणह विडेण सद्धिं अणुचियकम्ममायरंती मए दिडा । ततो दुबारातो पड़िनियसंतो दिट्ठो हं तीए । गेरुपसज्झसावे सवसविसेस विसंकुल विगलंतमंसुर्य एगेण पाणिणा संठवन्ती अवरेण उत्तरीयं सिहिणेत्थलीए वित्थरंती ज्झड चि उडिया, भणिउं पवत्ता -भो पियमित्त ! कहिं गच्छसि ? त्ति । अहं पि लञ्जायमाणो 'कहं मुहमिमीए दंसिस्सामि ?' ति वेगेण पलाणो । सा वि हिर्ययब्भंतरसमुब्भवंतकुकम्मायरण संखोभाइरेगविभिन्नहियया पंचत्तमणुपत्ता । ता भद्द ! एवंविहो चेव जुवद्दजणो होइ चि न सोइयां तुमए । ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ तुममवि सोऊण इमं संविलियसोगुब्भवंतगुरुदुक्खो । चितिउमिमं पर्वतो दुद्वित्रेयं अहो ! दइवं कहमनहा तहाविहसास्यस्यणियर विमलसीला वि । उभयकुलकलंककरं करिज सा एरिसमकर्ज १ जे वि हु मिणंति गयणं तुलन्ति बुद्धीए तियससेलं पि । अइदूरभूमिनिहियं निहिं पि लीलाए जाणंति ते वि य दूँरोहामियमविहवा जुबइहिययपरिकलणे । वामुज्झति विसीयंति आउलिजंति खिति जड़ सा वि कुणइ एवंविहाई कम्माई धम्मविमुहाई । ता जुवईणं दिनो सीलस्स जलंजली लोए एवंविहाए तीए अलमेचो मज्झ चिंतियाए वि । दुग्गइनिबंधणेणं गिहवासेणावि पतं ॥ ३ ॥ ॥ ४ ॥ ॥५॥ ॥ ६॥ १ गुरुकसाध्वसावेश्वशविशेषवि संस्थलविगलद् अंशुकम् ॥ २ संस्थापयन्ती ॥ ३ स्तनस्थयां विस्तारयन्ती ॥ ४ हृदयाभ्यन्तरसमुद्भव कुकर्माचरणसंक्षोभातिरेकविभिन्नहृदया ॥ ५ संधी शोकोद्भवगुरुदुःखः । ६ वनो दु सं० ॥ ७] दूराभिभूनमतिविभवाः ॥ ८ व्यामुयन्ति ॥ ततो रयणिमज्झम्मि केस्सइ वत्तमणाइक्खिऊण एगागी नीहरितो तित्थाई पेच्छिउं वच्चंतो य पडिओ महाडवी, तुझं संबलं, छुहापरिगओ इओ तओ कंदमूलाई अन्नेसिंतो दिट्ठो तुमं एगेण वणयरेणं । गौढकरुणारसाउरेण य तेण नीओ सि नियगिरिगुहाए । भणिया य घरिणी — पिए ! अस्थि किं पि जमिमस्स महाणुभावस्स दीर्घेपहपरिभमणुच्छलियछुहाइरेगस्स पणामिह त्ति । तीए भणियं - अस्थि नीवारनतंदुलंजलिमेतं तं च सयं वा भुंज अतिहिस्स वा देहित्ति । वणयरेण भणियं - ।। चिरकालं तेण वि जा तित्ती नेव दैडुजरटस्स । जाया सा किमियाणिं होही ? ता मुकपरिसंका 'तं देहि लहुं सवं इमस्स गेहंगणं उवगयस्स । निम्माणुसाडवीए पुरोऽवयरणं पुणो कत्तो ? १ । ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ 118 11 किं नाम जीवियमिमं सलहिलइ निजई य परिबुद्धिं । भुजइ न जत्थ दाउं नियगासाओ वि गासर्द्ध ? इय तेण तह कहं पि हु पन्नविया सा जहा लहुं तीए । सङ्घायरेण भुंजाबिओ तुमं सोविओ य सुहं वियालसमए य पुणो वि दिनं किं पि वेयालियं, विगलिया तुज्झ छुद्दा । एवं च समागओ स्यणिसमओ । घेणघुसिणरसाइरेगेणांरागेण समुम्मिलंतनवपल्लवुल्छेहं व तरुगणं कुणंती पसरिया संज्झा, मित्तैमंडलमत्थमंतमवलोइऊण सजणेहिं व दीर्घपथपरिभ्रमणोच्छलित क्षुधातिरेकाय अप्येते ॥ १ कस्यापि वार्त्तामनाख्याय ॥ २ प न सं सं० ॥ ३ गाढकरुणारसातुरेण ॥ ४ ५ दग्धजरठस्य ॥ ६ त्वम् ॥ ७ निजप्रासादपि मासार्द्धम् ॥ ८ 'वैकालिकं' सायकालीन भोजनम् ॥ ९ पनघुसृणरसातिरेकेणानुरागेण समुन्मीलनपो देखमिव ॥ १० "गारेण समुमित खं० प्र० । ११ 'मित्रमण्डलं' सूर्यमण्डले सुहद्वर्गे च ॥ अर्थित्वव्यतिरेके सुन्दरकथानकम् २२ । ॥१६५॥ अतिथिसत्कारः रात्रिवर्णनम् Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थित्वव्यतिरेके सुन्दरकथानकम् २२। देवभद्दसूरि-3 सदुक्खेहि दमकंदियं चकवायचकेहि, दिडदोसागमेणं खलयणेण व किलिकिलियं हरिसभरनिम्भरेण कोसियकुलेण, साहुविरइओ जणो व नियनियकुलायनिलयं निलीणो पक्खिगणो। कहारयण-दा एत्थंतरम्मि मउलंतकमलउडीणभमरपालि क्व । सवेसु दिसिमुहेसु वियंभिया तिमिररिंछोली कोसो॥ वित्थरिओ गयणतमालसाहिणो दिसिविसालसालस्स । कुसुमुक्करो व दहिपिंडपंडुरो तारयानियरो ॥२॥ उच्छलिओ धबलियगयणमंडलो इंदुणो पहापसरो । खयसमयसमीरुक्खयखीरोयहिवारिपूरो व ॥३ सामनगु ॥ णाहिगारो। एवंविहे य पयट्टे रयणीसमए वणयरेण भणिओ तुमं, जहा-गुहामज्झट्टिओ रयणि तुममइवाहेसु, अहं पुण गुहादुवा रट्टिओ अग्गिट्ठियापासपसुत्तो केसरिणं पडिक्खलिस्सामि ति । तुमए जंपियं-अजुत्तमिमं, तुम गुहामज्झे भव, अहं बाहिं ॥१६६॥ वसिस्सामि । वणयरेण भणियं-न जाणासि तुमं, बहुपञ्चवाओ खु एस पएसो ति । अणिच्छतो कि तुमं पक्खित्तो गुहन्भ तरे, वणयरो ठिओ चाहिं । अह निमित्मेत्तप्पेहणुप्पेहडकीणासागरिसिओ व मज्झरत्तसमए दिप्ते वि हुयासणे सणियसणियमागंतूण निद्दायमाणो विणासिओ सो केसरिणा । पत्ते य पभायसमए, समुग्गए मायंडमंडले, उड्डीणसउणिउलकोलाहलाउलिए दिसिचकवाले, गुहन्मंतरं पविट्ठासु मंजिट्ठारुणासु रविपहासु, पणट्ठनिद्दावियारो समुट्ठिओ तुमं वणयरगिहिणी य । 'कीस दुवारे न किं पि को वि जंप ? तिनीहरिऊण तुम्मेहिं सो पलोइओ ताव दिट्ठो करंकावसेसो। तओ 'हा १ दोषा-रात्रिः दूषणानि च ॥ २ मुकुलयत्कमलोहोनभ्रमरपङ्किरिव ॥ ३ तिमिरणिः ॥ ४ अग्निष्ठिका-अग्निशकटिका ॥ ५ निमित्तमात्रोरप्रे. | क्षणतत्परकीनाशाकृष्ट इव ॥ ड्रा॥१६६॥ KOKANAKAMARIKARANAHANERARKAR SANSARI+KANKARRAOORSANAWARENCERNATIONAER अवरवासरे य एगेण पुरनिवासिणा सिट्ठमेयस्स, जहा-इह नयरे सुमेहो नाम बंभणो तीया-ऽणागयजाणगो परिवसइ ति । जायपरमकोऊहलेण य वाहराविओ संवरेण एसो, दिमासणो सविणयपणामपुवयं संभासिओ य-भद्द ! कुसलं ? ति । नेमित्तिएण जंपियं-आमं । सेट्ठिणा मणियं-निरवग्गहो निसामिजह तुम्ह नाणपयरिसो, सो य किं नढ-मुट्टिचिंताइसु चेव ? अहव भवंतरपरिमाणे वि ? | नेमित्तिएण भणियं-महाभाग ! भगवंत-गुरुजणपायप्पसायातो सब्वत्थ वि अत्थि थेवथेवो अब्भासलेसो ति । सेट्ठिणा भणियं-नढ-मुट्ठि-चिंताइणो जम्मि तम्मि वि पुरिसविसेसे उबलम्भंति, भवंतरपरित्राणं पुण न कर्हि पि दिह्र सुर्य वा, ता सवहा साहेसु-किमदं भवंतरे हुंतो ? ति । तओ पोहचलपरिभावियभूयभवं. तरवित्तं निरवसेसं निच्छिऊण भणियं नेमित्तिएण-भो वणियवर ! एगग्गमणो निसामेसु तुमं हि पंचालदेसे कणयउराभिहाणे सन्निवेसे वइसदत्तो नाम कोडुबिओ अहेसि । चंदलेहा य भञ्जा । परोप्पर अञ्चंतसिणेहो, विसेसओ तुमं पडुच चंदलेहाए । [एवं ] बच्चंति वासरा । एगया य गाम गओ पओयणवसेण तुमं । एगण अणत्थसीलेण मित्तेण पडिनियत्तिऊण सिणेहपरिक्खानिमित्तं कवडविरइयसोगावस्थेण संगग्गिरगिरं भणिया चंदलेहातुह पई विसहरेण डैको मओ य । तओ वंजवडणं व दारुणं तबयणं निसामिऊण भणियं तीए-पियमित! किं सच्चमेयं ?। तेण वुतं-कहमेवंविहमसब्भूयं भन्न? | तिक्खुत्तमिममेव य उच्चरंती झड त्ति विदिबहियया पंचतमुवगया एसा । 'अहो! महाणत्थो' ति चमकिओ मित्तो, 'निच्छियं सो वि विवञ्जइ एयमरणं निसामिऊण, ता तहा करेमि जहा सो न १ ज्ञानप्रकर्षः ॥ २ सगद्दगिरम् ॥ ३ दशः ॥ ४ वजपतनमिव ॥ ५ विभिन्न प्र० । विदीर्णदया ॥ संवरष्ठिपूर्वभवः Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थित्वव्यतिरेके देवमयरिविरहओ कहारयणकोसो।। सामन्मगुपाहिगारो। ॥१६७॥ कथानकम् २२। ते धना कयपुमा पुग्नं चिय चिंतियं जए ताण । कुल-इट्ठ-देसनासो जेहिं जियंतेहिं नो दिहो ॥३॥ हाऽणज ! बजघडियं, व हियय! सो विलासि न कीस । पलयसमदुक्खहुयवहतविञ्जमाणं पि अणवरयं ॥४॥ इय बहुविहप्पयारं परिदेविय तित्थनिच्छइयमरणो । तुममैक्खलियगईए पयागपडणं लहुं पत्तो ॥५॥ तहिं च कयसरीरसुद्धी परिहियविसुद्धवत्थजुयलो तकालाणुरूवपुष्फाइसामग्गिपुरस्सर पूइऊण देवयाजणं, गमिऊण धम्मकिच्चकरणेण कंचि कालं, निविडनिवनियंसणो संजमियकेसपासो जाव पंडणे निवडिउमुवडिओ तुम ताव धरिओ एगेण साइसरण कारुणियनरेण, पुच्छिओ य-भद्द! केण वेरग्गकारणेण एवं जीवियत्वं परिचयसि ? ति। तुमए भणियं-जइ एग होइ ता साहेमि, अओ अकहिअंतमेव रमणीयमिम, मुंचसु महाणुभाव ! ममं पारद्धवत्थुकर[णे]णं ति । तेण जंपियंहोउ किं पि, सबदा निवेदेसु इमं ति । तदणुरोहेण य सिट्ठो तुमए जहडितो सबो पुवबुचतो । तं च सोचा भणियं तेणभद्द ! जइ वणयरसोगेण मरिउमिच्छसि ता सबहा अणुचियमिमं, तुमं हि जइ तम्मि सिणेहमुबहसि ता कारवेसु तन्नामपडिबद्धं सुरागाराइ कित्तणविसेसं किं पि, दवावेसु दीणाणाहाण दाणं च । तुमए जंपियं-अहो महाभाग! दवेण विणा कहमेवंविहकित्तणाई काउं पारीयंति ? । तेण भणियं-भद्द ! जह एवं ता गिण्ह इमं फरुसाहाणखंडमेगं, एयफरुसजायतेयसंसग्गजायजायरूंवभावं लोहं पि काही मणिच्छियं संपत्तिं ति । ततो तुम तदणुरोहेण तं घेत्तूण पयत्तेण १ पुण्यं सन चिन्तित जगति तेषाम् । कुल-इष्ट-देशनायाः यः जीवद्भिः न रथः ॥ २ मसलि' सं. प्र. ॥ ३ निविडनिवडनिवसनः ॥ ४ प्रयागपत्तने इत्यर्थः ॥ ५ 'पाहण' प्र० । स्पर्शपाषाणः-पारसमणिः ॥ ६ 'रूपं लो सं० ।। ॥१६७॥ पडिनियत्तो सग्गामं । तदुचविहिणा ये पाडियं भूरि कणयं, कारावियं वणयरनामेण तुमए एग सुरभवणं, पयट्टावियं च दीणा-ऽणाहाईणमणिवारियं सत्तं, अब्भुद्धरिओ सुहि-सयणवग्गो, कया अन्ने वि लोगमग्गाणुलग्गा धम्मविसेसा । मरणसमए य तस्स देवभवणस्स अभितरेककोणे निक्खित्तो सो फरिसपाहाणो । आराहियपरलोयकिच्चो मरिऊण एस संबर ! तुम जातो सि त्ति । एसो ताव पुत्वभवो ।। छ । इमं च अवक्खित्तचित्तो निसार्मितो संवरसेट्ठी ईहा-ऽपोहाइपयारपञ्चक्खीभूयसबपुवाणुभूयभावो वत्थ-तंबोलप्पयाणाइणा सक्कारिऊण विसञ्जियनेमित्तिगो चितिउं पवत्तो-किमणेण कयवरप्पायपणियविकएण होही? ता जहतह इमं विणिवट्टिऊण बच्चामि कणयउरसभिवेसं, आयड्डेमि पुत्वनिहितं फरिसपाहाणं, पुवट्टिईए अट्ठावयकरणेण अप्पाणं च परं च उवटुंभिऊण सफलीकरेमि जयंजम्म-जीवियं ति । एवं च कयसंकप्पो अकालक्खेवेण कयसबसबाहो वरिसायाले वि अविलंबियपयाणगेहिं गतो पंचालतिलयभूयं कणयउरसन्निवेसं, पुव्वुत्तदेवउलसमीवे बद्धो आवासो, पइदिणं च देवच्चणं सबपयत्तेण काउमारद्धो य । एवं च समइकंतप्पाए पाउसे देवउलकोणनिहितं घेतूण फरिसपाहणं गतो सनयरं । आणदिओ नयरलोगो। फैरिसवसुहावियाणिट्टियकणयकोसप्पयाणेण य चिरकालं पीणिऊण पणइणो तॉयजणं च, पडिपुनर्वछं नियसुयं च १य पडि सं. प्र.॥ २ 'सत्रं' दानशाला, अभ्युक्तः मुहत्स्वजनवर्गः ॥ ३ "पाहणो प्र. ॥ ५ भाकर्षामि ॥ ५ पाहणं प्र० ॥ ६ अष्टापदं-सुवर्णम् ॥ ७ 'मि निय” प्र. ॥ ८ जगज्जन्मजीवितम् ॥ ९ संचाहः-सज्जीभावः ॥ १० स्पर्शमणिवशोत्यापितानिष्ठितकनककोशप्रदानेन ॥ ११ प्रीणयित्वा प्रणयिनः स्वजनजनं च ॥ HRIKANGRAHANIKARA%AKASARAKAR Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरइओ कहारयणकोसो ॥ सामन्नगुणाहिगारो । ॥ १६८॥ +++ काऊ मरणमणुपत्तो संवरो । कयमच्चंत सोगापूर पूरियहियएण सुंदरेण पुरलोगेण य से पारलोइयकिश्चं । तविप्पओगदुक्खसंततो य सुंदरो न घरे न दुबारे न दिणे न रयणीए न जणे न वणे न सयणे न आसणे कत्थइ रहं लहंतो भणिओ सयणवग्गेण - भो सेट्ठिय ! किमेवमप्पा सोगावेगेण पीडिअर ? न चिंतिज्अंति गिहकिचाई ? न पडणिअंति पणियाई १ न पेसिअंति वणियसुया देसंतरेसु ? ति । तत्तो सो तदणुरोहेण निरुच्छाहो वि लग्गो गिवावारं निरूविउं । अवश्वासरे य भणिओ सो जणणीए बच्छ ! तुज्झ पिया धम्मसत्थं वायाविंतो धम्मे य अचंतमुजओ हुंतो, तुमं पुण उभयत्थ वि उदासीणो, न जुत्तमेयं, तिवग्गसंपाडणपरं हि सलहंति जीवियं, न य धम्मसत्थसवणं विणा मुणिउं तीरइ इमं ता वाहराविजइ सत्थपाढगो, काराविजउ पोत्थावाइयं ति । अकामेण य भणियं सुंदरेण - अम्मो ! एवं करावेसु चि । ततो वाहशवितो तीए सत्थपाढगो । पारद्धा अणेण पोत्थावाहया, उच्चारिओ नमोकारो। एत्थंतरे गेहदुवारदिनदिड्डिणा भिक्खड्डा पनि कप्पडियं पलोइऊण आवद्धभिउडिणा भणियं सुंदरेण - अरे अरे ! को दुवारे चिट्ठइ १ । सिग्घमुवसप्पिऊण जंपियं दुवारपालेण – आइससु सेडि ! किं कीरह १ ति । सुंदरेण भणियं रे दुरायार ! न पेच्छसि विलुप्तमेवं घरं भिक्खाय रेहिं १ ति । तओ कंठग्गहपुरस्सरं दुवारपालेण निच्छूढो भिक्खाचरो, दिनं भुयग्गलासहियं कवाडसंपुढं । अह चितियगिहकिथं च सावहाणं तं विभाविऊण पुरओ वाइउमारद्धो सत्थपाढगो । एत्यंतरे परोप्परक यजुद्वाई रोविडं पवत्ताई डिभाई । ततो संभंतो धाविओ सुंदरो, निवारियाई डिंभाई, खणं इओ तओ रमाविऊण डिओ सहाणे । पुणो पार धम्मक्खाणं सत्थपाढगेण । एत्यंतरे पाणनाह ! कहमेवंविहमवत्थमुवगतो सि ? त्ति निबिंडकरतलतालिज माणवच्छत्थल गलिय गुंजाइलच्छलेण सोगभरभिन्नहिययनीहरंतरुहिर बिंदु परंपरं व विक्खिवंती मुच्छानिमीलियच्छी निवडिया धरणिवडे वणयश्वहू । 'हा निग्धिणकयंत ! को एस सर्वकसविणासकीलापबंधो ?' त्ति गैरुयमुकपोकं तुमं पि रोविडं पवत्तो । वणयश्वहू वि सिसिरसमीरोबलमुच्छावच्छेया संभासिया तुमए-अम्मो ! मुयसु भूरिसोगसंरंभ, एरिसो च्चिय एस हयविधी न सहइ सुहियं जणं दहुं, सबसाहारणो य एस मग्गो सुरासुराणं पि ता धरसु धीरिमं परिभावेसु संसारसमुत्थसमत्थापयत्थाणमेवंविभावसुलमसीलयं ति । वणयरीए भणियं - अलमियाणिमवरुल्लावेण विरएस संपद चियं, पक्खिवसु नियभायरं ममं च अणुजाणेसु तमेवाणुसँरंती, पियविरहियाए मह किममाणुसाडवीपरिभ्रमणेणं १ वि । ततो तबयणायन्त्रण विभावियपरमत्थेण 'तह' ति संपाडियं तुमए सवं । एत्थंतरे अलिरजलणजालावली कवँचियाए [चियाए] पक्खिते वणयरकलेवरे वणयरी वि परंगिव निवडिया वेगेणं, मुहुत्तमेत्तकालेण य कंवोतकंधराधूसरं भ्रूहभावं दो वि पत्ताई ति । तो पढमं तुमए भूरिसोगनीयंतनयणसलिलेण । दिनो जलंजली ताण तयणु सरियाए नीरेण परिभावियं च तुमए किमियाणि जीविएण काय ? । एवंविहोत्तरोत्तरदुहाणि दीसंति जत्थ दर्द ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ १ निबिडकरतलताव्यमानवक्षस्थलगलितगुफलच्छलेन शोकभरभिन्नहृदयनिःसर दुधिरविन्दु परम्परामिन ॥ २ बिंदुवरंपरं व सं० प्र० ॥ ३ गुरुकमुक्तपूत्कारम् ॥ ४ अलमिदानीमपरोहापेन ॥ ५ सरंति, पि' सं० प्र० । अनुसरन्तीम् ॥ ६ प्रज्वलनशीलज्वलनज्वालावली कव चितायाम् ॥ ७ बलियाए प [सं० प्र० ॥ ८ 'बोलकं सं० प्र० ॥ अर्थित्वव्यतिरेके सुन्दरकथानकम् २२ । ॥१६८॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोचकव्यतिरेके धर्मदेवकथानकम् देवभद्दसूरिविरहओ कहारयणकोसो॥ सामन्नगुणाहिगारो। ॥१६९॥ २३॥ कारुण्यवानपि परोपकृतौ रतोऽपि, रात्रिन्दिवं च निगदमपि धर्मतत्त्वम् । साक्षात् बृहस्पतिसमोऽपि गुरुने नूनं, धर्मस्पृहाविरहितं प्रविनेतुमीशः ॥२ ॥ अपि च-योऽशेषदोषमुषि सौख्यपुषि प्रसिद्धसिद्धान्ततत्वकथनेऽपि भवेदनर्थी । अर्थी स भूरिविपदा स्वगृहोद्गतां च, श्रीकल्पवृक्षलतिकामधमश्छिनत्ति मा भूद् भवो निखिलधार्मिकमोक्षयानाच्छून्योऽयमित्यभिलषभिव पायोनिः । धर्मार्थिताविमुखमप्यसृजजनौघमित्थं सुनिश्चितमहं परिभावयामि ॥ ४ ॥ ॥ इति श्रीकथारत्नकोशे धर्मार्थिव्यतिरेकचिन्तायां सुन्दरकथानकं समाप्तम् ॥ २२ ॥ अत्थित्तमुबहतो वि धम्मविसयं हि साहिलं तरह । आलोचगो चिय नरो लेसेणेमं निरूवेमि काउं किमिमं उचियं ? इयरं वा? किं च मे सरीरबलं । को वेस देस-कालो ? का वा वि सहायसंपत्ती? ॥२॥ किं वा एत्तो य फलं ? कीरते वा भवे किमिह खलियं । जो एवं परिभावह तमाहु आलोयगं पुरिसं ॥३॥ एसो च्चिय धम्मविहिं विहियाणुट्ठाणगोयरं नियमा । पारं पावावेउं होह समत्थो न उण इयरो ॥ ४ ॥ उत्तमजिणप्पणीओ उत्तमजणसेविओ महाफलदो । निवाहिउं न तीरह तुच्छमईहिं इमो धम्मो ॥ ५ ॥ १ ब्रह्मा ॥ २ पत्तो चिखं० ॥ ३ प्रापयितुम् ॥ आलोचकस्वरूपम ॥१६९॥ SHNASACAKAC%+C+SCACA%ACHCRACROWAISAKRECHAKRES KARNAGARAACARBONGARHILASARAMANASIKARAN संपयपलोयणामेत्तजायअचंतचित्तउच्छाहा । धम्मम्मि के न लग्गा ? भग्गा य न के सुणिजंति? ॥६॥ जह इहलोइयकिच्चं सम्ममणालोचिऊण कीरंतं । सिज्झइन किं पितह जाण निच्छियं धम्मकम्म पि ॥७॥ सम्ममणालोच्चिय धम्मकारिणो विग्यविहणिउच्छाहा । सीयंति धम्मदेवो व सवहा उभयलोगे वि ॥८ ॥ तथाहि-अस्थि सुपसत्थवणहत्थिकुंभत्थलि च अंतोदिप्पंतकंतमुत्ताहलनिउरंबसोहिया, खीरमहासमुहमज्झमागभूमि व विईमप्पमुहमहग्धमहारयणसंचयसमुच्छरंतपंचवन्नमऊहनहनिम्मवियसुरिंदाउहा, सबदरिसणसभामंडलिव नायविसेसदबपञ्जायनिउणकारुणियजणालंकिया वइदेसा नाम नयरी । राया य तहिं तिहुयणातिहीकयमयंकनिम्मलुम्मिलंतगुणपन्भारो भूरिकित्तिकुमुइणीमुणालजालजडिलीकयदिसाचक्को चक्कपट्टि व निम्मलुप्पन्नपयाव-कित्तिधरो कित्तिधरो नाम । निर्चामरत्तपत्ता पवालसेजा सुरिद्धिविद्धिजुया । चिलयाउला सुरिउणो परमसुहं जस्स माणिति ॥१॥ तस्स य रनो चंदलेह च सेयललोयलोयणाणंददाइणी चंदलेहा अग्गमहिसी । {विलविविहचारोवलद्धरायंतरवावारो वारिसेणो नाम सेणावई, अचंतपिया पियसेणा नाम [से भजा, ताण पुत्तो धम्मदेवो नाम । सबाणि वि ताणि पुब १ सम्परप्रलोकनामात्रजातात्यन्तचित्तोत्साहाः ।। २ "लोचिऊ प्र० ॥ ३ य कम्म प्रसं० ॥ ४ विद्यमप्रमुखमहामहारत्नसचयसमुत्सरत्पश्चवर्णमयूखनभोनिर्मापितसुरेन्द्रायुधा ।। ५ "मुच्चर' खं० प्र० ॥६ नाम प्र० ॥ ७°लमिलंतवं० प्र० ।। ८ निस्यामरत्वप्राप्ता निश्वामरत्वप्रासाब, प्रवालशम्याः नवपत्रशय्याथ, मुद्विवियुताः गुरविडियुताष, वनिताकुलाः विलयाकुला:-विनाशाकुलाथ, सुरिपवः, परमसुखं परम् असुखं च, यस्य मानयन्ति ॥ ९ सच्चलो प्र० ॥ १० गुपिलविविधचारोपलम्धराजान्तरण्यापार: ॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमद्दसरिविरहओ आलोचकव्यतिरेके धर्मदेवकथानकम् २३। कहारयण-* कोसो॥ सामनगुणाहिगारो। भवकपसुकयसमणुरूवमुव जमाणाणि संसारियसुहं कालं गर्मिति । अह एगम्मि अवसरे अत्थाणमंडवोवगयस्स नरवइस्स, सबिहियनिसर्बसेणावइस्स, नियनियट्ठाणट्ठिएसु य मंति-सामताइएसु, पणचिउं पर्यट्टे पुरओ पवरवारविलासिणीजणे, परमपमोयभरनिब्भरे य पेच्छगलोगे समीवमागम्म पडिहारो विनविउं पवत्तो-देव ! दूरदेसंतरा[ग]ओ असेसजोइससत्थपरमत्थपारदरिसी सिवभूई नाम जोइसिओ कइवयसिस्सपरिवुडो दुवारनिरुद्धो देवदरिसणं अभिलसह त्ति । राइणा भणियं-असमओ एस जोइसियस्स । सेणावाणा जंपियं-देव ! दूरदेसा. गयत्तेण साइसओ संभाविजइ ता नै जुत्तो विसजिउं । राहणा भणियं-जह एवं ता लहुं पवेसेहि । 'जं देवो आणवेइ' त्ति भणिऊण पवेसिओ अणेण जोइसिओ, आसीवायं च दाउं पवत्तो । यथा आदित्यः श्रियमादधातु शशभृत् सौम्यं शिवं मङ्गलः, सद्बोधं च बुधो धियं सुरगुरुः सौभाग्यवृद्धि कविः। सौरिः केतु-तमोन्वितश्च विपदं विद्वेषिणां स्थेयसीमित्थं पार्थिवचन्द्र ! सन्तु सततं सानुग्रहास्ते ग्रहाः ॥१॥ एवं दिनासीसो विणयणि उत्तनरदिन्नसुहासणासीणो य एसो सायरथेवविणमियमउलिमंडलेण य नरवणा संभासिओ-भद्द! कुसल ? ति । जोइसिएण जंपियं-देव! तुम्हपायप्पसाएण जइ परं कुसलं, सेसं न किं पि कुसलकारणमवलोएमि । समय-चमकारं च संलत्तं राहणा-मो संवच्छरिय! किंसमुट्ठाणं पुण अकुसल संभावेसि? । जोइसिएण भणियं १ "नस्स से सं० प्र. ॥ २ 'यदृसु पु सं० प्र० ॥३न जत्तो सं० प्र० ॥४ देषणां प्र. ॥ ५ 'यनिउ प्र० ॥ ॥१७०॥ ॥१७॥ अनर्थिनः स्वरूपम् PRERAKAKIRANKAKAKARKARKS or mor निद्दयकरताडियपंडह-मुरव-ढक्कापमोक्खतूररवो । उच्छलिओ पलयरसंतमेहसंदोहदुविसहो ॥१ ॥ सबदिसिपेसियच्छो किं किं एयं ? ति गरुयसंरंभो । सो गंतुं रायाणं निग्गच्छंत पलोएड चक्खुपहाउ अइगए पुहईपाले गए सठाणम्मि । तो सत्थपाढगेणं सविलक्खेणं इमं बुत्तो सस्थत्थसवणकाले परचिंताईणि नेव जुचाणि । वासंगसंगिचित्ताण होइनो तत्तविभाणं तेणं पयंपियं तत्तनाणभावे वि किं पि नत्थि फलं । जं तत्तनाणी वि हु परगेहे भमसि तं भिक्खं । ॥५ ॥ इयरेणं पडिभणियं मा एवं उल्लवेसु नाणातो । सक्खं चिय दिहातो रिद्धीओ तह य सिद्धीओ तो सुंदरेण वुत्तं जेहिं वि लद्धातो रिद्धि-सिद्धीओ । ते वि हु कीणासाणणमणुपत्ता को उण विसेसो ? ॥७॥ इय जंपिरम्मि तम्मि नीहरिओ सत्थपाढगो तुरिय । काही तुह वक्खाणं तुझेव पिय त्ति जंपंतो ॥८ ॥ एवंविहो अणत्थी निदंसितो समयसत्थकुसलेहिं । अणुसासणं पि एवंविहस्स दूरं चिय निसिद्ध न य विजो वि हु विजंतगरुयरोगं पिरोगिणं दई । अणमिमयचिकिच्छ पि हु चिकिच्छिउं बंछई कह वि ॥ १० ॥ किश्च-सन्धुक्ष्यमाण इव भस्मनि बहिशून्ये, सम्भाष्यमाण इव वा बधिरे मनुष्ये । अर्थित्ववर्जितहदि प्रविधीयमानः, सम्पद्यते हि विफल: सकल प्रयास: ॥१॥ १ "पयडमु' बं० ।। २ व्यासासङ्गिचित्तानाम् ॥ ३ त्वम् ।। ४ जेहिं ल प्र० ॥ ५ वैद्यः । SH+RAK+KA+6+8+KRAKAR Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरहओ कहारयणकोसो॥ सामन्नगुणाहिगारो। ॥१७१॥ आलोचकव्यतिरेके धर्मदेवकथानकम् २३ । इय जंपिरे जणोहे जाब निवो सोगसामलियवयणो । नयरीहुत्तं पेच्छह 'विरेल्लिया ताव जल रेल्ली ॥६ ॥ पच्छाइयपायार-ऽढालय-टलटलियगेह-देवउला । उल्लसिरगुरुतरंगा संपत्ता रायपयपीढं। 'तमेव जोइसियसूइयं अकुसलं' ति चिंतंतो ज्झड त्ति उडिओ राया सिंहासणाओ । 'कहमियाणिं होयचं? ति खित्ता दिट्ठी सेणावइम्मि । एत्थंतरम्मि कड़वयमहल्लावल्लयपेल्लियजलकल्लोलंतरमग्गसंचरणा विसिङकट्ठफारफलगनिम्मविया थेवंतरेण नरवइणो समुवणीया निजामएण नावा। कयप्पणामेण य विनत्तमणेण-देव ! पसीयह, आरुहह नावमिमं ति । ततो ईसि समससियहियओ व पुहइवई सेणावईखंधरारोवियहत्थो उद्धमुप्पाडियदाहिणचलणो न जाव आरुहइ नावं ताव न नावा, न नावावाहगो, न जलं, न जलहरो, सई सुत्थावत्थं पिव पलोइऊण लजिरो सिंहासणे निसन्नो 'अहो ! महच्छरिय' ति जपिरो संवच्छरियं भणिउं पवत्तो-भो! किमयं ? ति । जोइसिएण भणियं-देव! माइंदयालमेयं मए तुम्हचित्तक्खेवनिमित्तमेत्थमुवदंसियं, अहं हि माइंदजालिओ वि भविय तुम्ह भवणे पवेसमलभमाणो संवच्छरियच्छलेण पविट्ठो। विम्हिओ रायलोगो । सबंगीणाभरणदाणेण तदवरभूरिदविणवियरणेण य सम्माणिऊण विसञ्जिओ माइंदजालिओ रना। सेणावई वि तहाविहमाईदजालावलोयणवससमुम्मिलंतगरुयवेरग्गावेगो 'सबो संसारसमुत्थवत्थुवित्थरो एवं विहसरूवो' त्ति परिभावितो 'अलमित्तो संसारवासेणं' ति कयनिच्छओ भालयलारोवियपाणिसंपुडो रायाणं विनविउं पवत्तो-देव ! १ विस्तृतस्ताव जलप्रवाहः ॥ २ कतिपयमहाऽवालकोरित जलकहोलान्तरमार्गसवरणा ।। ३ "मुमिलंतगरुयगरुयर" सं.प्र. ॥ ४ भावेतो 'अलमेत्तो प्र०॥ ॥१७॥ RAKESHAARAKSHARA MAHARAHARASWARAACHAARAANARALA तुम्हपायप्पसाएण तं नस्थि सुहं जं नोवभुत्तं, सुदुक्कर पि तं नत्थि जं न कयं, केवलं विरत्वं संपयं भववासाओ मह मणं, पञ्चक्खदिट्ठमाइंदजालतुल्ल व सयल पडिबंधट्ठाणं, न पारमस्थिय, ता अणुजाणउ देवो मर्म तावसदिक्खापडिवत्तिनिमित्तमरनगमणाय । महिवइणा जंपियं-सेणावि ! किमेवमाउलो होसि? अज वि न को वि पत्थावो एवंविहकिच्चविसेसस्स, पच्छिमकाले चिय एयमायरेजासि, न य तुह विप्पओगे खणं पि रहमहमुवलभामि, [न वा] को वि तुमाहितो वि मह पडिबंधभायणं ति । सेणावाणा जंपियं-देव! पत्थावाऽपत्थावो किं को वि अवडिओ जए अस्थि ? । जैत्थुग्गडंडचंडो भमह कयंतो समीवगओ ॥१ ॥ कस्स वि पडिहाइ इमं सुदुक्करं देव ! घोरतव-चरणं । माइंदजालसरिसा किंतु भवत्था ठिई सयला ॥ २ ॥ किं वा न मुणामि तुम नरिंद ! अञ्चंतपणयपडिबद्धं ? । केवलमणिचभावा होयत्वमवस्सविरहेण ॥ ३ ॥ ता जावञ्ज वि तुह चलणकमलममिलाणलन्छिलायन्नं । नो अन्नहा पलोएमि देव ! जा देहबलममलं ॥४॥ जाव न अन्नं पि हुदुक्खकारणं किं पि संघडइ विसम । ताव तएऽणुनाओ वणवासमहं पवजामि ॥५ ॥ नरनाह ! संपयमिमं सुमिणम्मि विमा करेञ्ज जह कोई । निच्चावट्टियरूवो अहवा अजरो व अमरो वा ॥ ६ ॥ चिरपुरिसा सयमेव हि मुणिऊण विणस्सरं भवसरूवं । परिचत्तसयलसंगा मुणिमग्गमदुग्गमं लग्गा ॥७॥ अम्हे पुण गुरुयणकीरमाणअणुसासणा वि पइदियहं । कह कह वि कीवहियया धम्ममुवट्टिया इण्डिं ॥८॥ १पच्छावा" सं. ॥ २ यत्र उपदण्डचण्डः ॥ ३ मि एवं न खं० ॥ ४ 'णा इप" प्र. || ५जीवदयाः ॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरइओ कहारयण-5 कोसो॥ सामनगुणाहिगारो। ॥१७२॥ ACCASSROCESCHECCCCCESS इमं च सोचा भाविविप्पओगदुक्खगग्गिरगिरो नरवई विभावियतमिच्छओ भणिउं पवचो-भो सेणाहिव ! साहेसु माआलोचककिमेवंविहकजसजीकयचित्तस्स तुह संपइ पियं पणामिजउ ? । सेणाहिवेण भणियं—देव ! तुम्हाणुभावाओ अणुभूयपभूय- व्यतिरेके पियपबंधस्स मह किमवरमणणुभूयपुर पियं ठियं जमियाणि मग्गिजइ ? केवलं देव! इममेव पियप्पयाणं-एस मह सुओ | धर्मदेवजहा नियपायकप्पपायवच्छायाणुवित्ती हवइ निचं तहा किच्चं ति । 'एवं कोई' ति पडिस्सुयं भूवइणा । सुमहुने निवेसिओ | कथानकम् धम्मदेबो सेणावइपए । सेणावई विगतो वणवासं । धम्मदेवो वि पुवट्टिईए रजकआई चिंतिउं पबचो। २३। एवं वचंतम्मि काले विप्पडिवो सिंहल देसाहिवो पारद्धो गाम-नगर-पुरपउरं वसुंधरमुबद्दविउं । निवेइयं च इमं चाराहिगारनिउत्तनरेहिं सेणाहिवस्स । तेणावि सिट्ठ पुहइवइणो। तं च सोचा अचंतनिष्फंदलोयणपिसुणियचिंतापम्भारं नरिंदमवलोइऊण भणियं धम्मदेवेण-देव! अलं चिंताकरणेण, देह एयकालोचियं ममाऽऽएसं ति । 'अहो! पत्थावोचियकारि' त्ति परितोसमुबहतेण नरवाणा पउरकरि-तुरगाइसामग्गीसणाहो सिंहलेसरं पडुच पेसिओ एसो । तओ चउरंगवलभरसम्मद्दनिद्दयनिद्दलियमेइणीवट्ठो अकालविलंबं पत्तो सिंहलेसरदेससीमं । संधिं च काउकामेण मुणियतदागमणेण सिंहलरमा पेसिया पहाणपुरिसा । कयपायपडणा य विनविउं पवत्ता-सेणाहिब ! वयं परमेसरसिंहलाहिवेण तुम्ह समीवे नियदोसनिग्घायणनिमित्तं जाजीवविरोहपरिहारत्थं च कइवयकरि-तुरय-पहाणवत्थुदाणेण संधि घडिउं पेसिया ता परिचयसु कोवकंडूं, १ निजपादकल्पपादपच्छायानुवत्ती ॥ २ काहिं ति सं०प्र० ॥ ३ चतुरङ्गबलभरसम्म निर्दयनिर्दलितमेदिनीपृधः ॥ ४ लेसदेससीमसंधि ख०। "लेसरं देससीससंधि प्र०॥ ॥१७॥ 5485+SARICA A GARMAHARWANANARAICH देव ! सट्ठाणचलियंगारयाइगहप्पभवमहामेहमुकनीरपूरस मुट्ठाणं ति । रमा खुत्तं-केत्तियकालेण पुण इमं ? केत्तिय वा तं जलं ? ति । संवच्छरिएण सिटुं-देव ! स[धरा]धरधरावोलणपबलं मुहुत्तमेत्तकालाओ उवरि ति । ततो भूरिभयतरलतारयं नरवइपुरस्सरसभालोगो गयणंगणे अब्भपडलं पलोइडं पवत्तो । निरुत्तचक्खुक्खेववसतो य महाकट्ठकप्पणाए दिहूं हलहरसिचयसामं हत्थप्पमाणमेगमभखंडं। 'किमियमप्पवित्थारं काहि ?' चि परोप्परदिनहत्थतालं हसिऊण जावऽञ्ज वि सट्ठाणे न निसीयद ताव तं दसहत्थप्पमाणं मसीपुंजसच्छायं च जायं ति । अह सविम्हयविष्फारियलोयणाणमेव लोयाणमवलोयंताण तमन्भखंडं अयंडतंडवियसिहंडिमंडलं फुरियसोयामिणीमालं गहिरगजिरवारियगयणर्चक उकंपियपंथियसत्थं वित्थरियं सयलदिसिवलयम्मि, पयर्दु च मुसलमेत्तधाराहिं परिसिउं । अवि य फालिहदंड व परूढविसैपरोह व कयलिथंभ छ । उभयंतरुद्धनह-धरणितलविभागा सलिलधारा नीरंधरुद्धचक्खुप्पहा लई भरियभुवणसम-विसमा । आसुत्तियपलयाबवेल व वियंभिया दूरं ॥ २ ॥ अह खणमेत्तं जा नेव जाहता पबलसलिलपूरेण । पूरिजंते नयरे समुडिओ लोयतुमुलरवो हा नयरदेवयाओ ! किमुवेहह निग्घिण घणं एवं ? । हा हा जुगक्खय! कहं तुम अयंडे वि पत्तो सि? ॥ ४ ॥ हा पुहइपाल ! पलयगय व सा तुम्ह पुनलच्छी चि?। कहमन्त्रहमेवंविह खुट्ठी समुवटिया दुट्ठा ? ॥ ५ ॥ १ स्वस्थानचलिताकारकादिप्रहप्रभवमहामेषमुक्तनीरपूरसमुत्थानमिति ॥ २'चकमुकंवं. प्र. ॥ सहरो सं० ॥ ४ 'यभव० सं० प्र० ॥ ५ आसूत्रितप्रलयार्णववेला इच ॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसू४ि बिरइओ कहारयणकोसो॥ सामनगुणाहिगारो। ॥१७॥ विसहति य धीमंतो अंतोपसरंतवइरपथभारा । गूढायारा किं पि हु निमित्तमवलंबिउं गरुया ॥ ५ ॥ ता अपरिभाविऊणं सामुल्लावे वि यमग्गम्मि । तविहवयणं फरुसं दूरमजुत्तऽम्ह पडिहाइ ॥६॥ किंचजइ विमलयाए सलिलस्स तलगए दसए मणी उदही । तह वि स जाणुपमाणो ति मा मणे संठवेजासि ॥७॥ भूरिकरि-तुरय-रह-जोह-कोससंभारसारसामत्थो । सामुल्लावे वि य सिंहलेसरो तुज्झ नो सज्झो ॥८॥ आयबलं च परवलं भूमिपलं नित्तुलं सहाइबलं । बलवइणा परिभाविय भवियवं जुज्झसजेण। ॥९ ॥ एवमाइमंतिवग्गगिरं निसामिऊण दिडिसोणिमाजाणावियगरुयकोवावेगो सेणाबई भणिउं पवतो-मंतिणो वि भविय पागय व असमिक्खियभासिणो सयममुणता वि कजपरमत्थं समयसमुचियवत्तारं पि अम्हारिसं निरसंता कुणह जं मे रोयइत्ति आसणाओ उद्विऊण वचंतो बला धरिओ मंतीहिं । 'ईदाणुवित्तिगिज्झो मुक्खो' ति लक्खंतेहिं य सायरं संलत्तो एसो-सव्वहा खमसु पढममवराह, न भुजो अकजमेवंविहमायरिस्सामो चि । ततो सेणावइणा परितोसवसपवसंतवयणसामिगाइकोववियारेण ज्झड ति दवावियं पयाणयं । तवयणाणतरमेव चलियं चाउरंग बलं । बियाणियतम्मज्ञण सिंहलेसरेणावि सचिवेहिं सह सुंविवेचियकिचविसेसेण पगुणीकयसेससामंतसेवगलोगेण विसजिओ गरुयारंभो नाम सेणाहियो परबलाभिमुह, सिक्खविओ य जहा-रिउसेबस्स दसणं दाऊण पच्छाहु नियत्तेजासि जाव १ "मविल" . . ॥२ निरुपमम् ॥ ३ राष्टिशोणिमाज्ञापितगुरुककोपागः ॥ ४ परितोषपक्षप्रवसनवनश्यामिकाविकोपरिकारेण ॥ ५ गुविचेचितकस्यविशेषेण ॥ ६ पचान्मुखम् ॥ ७ "यत्तिजा प्र० ॥ आलोचकव्यतिरेके धर्मदेवकथानकम् २३॥ ACAKACKGROX ॥१७३॥ HERNOONAKAIRANASASARREARSHANAGARCANACHERS RSS गोदावरीगुहागंभीरपएसं ति । 'जं देवो आणवेई' ति भणिऊण जचतुरंगवाहिणीपरिखुडो गरुयारंभो सेणाहिवो नाणाविहविजयचिंधचिंचइयगयणवट्ठो मुहडभुयदंडकुंडलियपयंडकोडंडड्डीणकंडसंडडुमरियपरबलपुरोवत्तिकहवयसुहडो जहुत्तं गोदावरीकंदरोदरं पढ़च झड त्ति पडिनियत्तो । धम्मदेवसेणावई वि गाढकोवभरदहोडक्खलियक्खराए गिराए संरंभनिन्भरं सन्नहह गुडह पक्खरह जाह पहरह पडिक्खलह तुरियं । इय सेणिएं तुरंतो सेणाए समं लहुं चलिओ ॥१॥ पडिवलमणुवर्णतो संपत्तो गहिरकंदरीविसमं । गोदावरीपरिसरं बहुविहतरुनिवहविगम ॥ २ ॥ एत्थंतरम्मि विसमावणीगयं तं वियाणिउं राया । सिंहलनाहो वि ठिओ सबत्तो घडियरिउवेढो ॥३ ॥ अणवरयमुकसरविसर-सेल्ल-बावल्लि-भल्लि-नाराया। सिंहलसुहडा लग्गा य पहरिउ पडिरिऊहिं समं ॥४ ॥ भूमिबलं देहवलं सामिवलं अविकलं धरतेहिं । तेहिं कलीहिं व लहु धम्मदेचसेणा कया दीणा दक्खा वियक्खणा सुकुलसंभवा विस्सुया वि विसमगया। किं नाम कुणतु भडा खीणधणा परमपुरिस ब? ॥६॥ एवं च निमेसमित्तेण वि हयमुहडे निवडियमहंतसामंते दोहंडियवेयंडे खंडियतुरगतुंडे मुसुमूरियचारुरहवरे दिसोदिसिं पक्खित्ते सिंहलेसरेण रिउबले धम्मएवसेणाबई से सावसेसवलसमेओ कद्द कद्द वि पलाणो समराजिराओ। 'किमणेण वरागवइदेसियमारणेणं ? ति पडिनियत्तो सिंहलेसरो। धम्मदेवो वि अचंतविलक्खोवगओ तुरियतुरियं दूरं पच्चोसकिऊण १नानाविधविजयचिहन्याप्तगमनधः शुभटभुजदण्डकुण्डलितप्रचण्डकोदण्डोडीनकाण्डपण्डभापितपरबलपुरोवर्तिकतिपयसुभदः ॥२ सकपचा भवत ॥ | ३हस्तिनः कवचयत ॥४अश्वान् कवचपत ॥ ५सेनिकान् ॥६द्विखण्डितहस्तिनि ॥ ७ भग्नचाररथवरे ॥८समरानणात् ॥९अखन्सलक्ष्योपगतः। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमद्दसूरिविरहओ कहारयणकोसो ॥ सामनगुणाहिगारो। ॥१७४॥ SARKARI आलोचकव्यतिरेके धर्मदेवकथानकम् २३ । कयखंधावारनिवेसो ठिओ पच्छिमभूमीए । कमेण य इओ ततो मिलिएसु कइवयसामंताइसु पडिओ सदेसाभिमुहं । जाणियपराजयवचेण य अंतरा केरलदेसाहिवइणा नियडीसीलयाए सायरमुवनिमंतिऊण सम्माणिओ भोयण-पवरवत्थाऽलंकाराइदाणेण । भणिओ य एगंते, जहा-सेणावरिद्व! एत्तो सनिकिट्ठदेसवत्ती महाबलो सामंतो पउर[कोस-]कोडागारो संपयं अप्पचलो बट्टा, ता जह तुम सहाई हवसि ता तं मिलिया चेव गिहामो, अद्धद्धेण य तदुवलद्धरिद्धिवित्थरं संविभजामो य । इमं सोचा अविभावियकजमझेण अणालोचिय नियमंतिजणेण पडिवयं सेणाहिवेण । ततो दोहि वि दिन पयाणयं । अद्धपहे संकेइयनियमहडेण केरलवाइणा सबतो निरंभिऊण लूडिओ धम्मदेवसेणाहिवई । उद्दालियकरि-तुरगाइपरिग्गहो य सुसाहु व सरीरमित्तो पलाणो एगाए दिसाए । पचो य कह कह वि गुरुकिलेसा-ऽऽयासविसोसियसरीरो एग तावसासमं । कंद-फलाइदाणेण पीणिओ तावसेहिं । वुत्थो य तत्थेव कइवयदिणाणि, चिंतिउं पवत्तो य-अहो ! मे मंदभग्गया, अहो! असमिक्खियकारिया, जमेवं भुञ्जो पराजिओ परेहि, अवहरियं सबस्सं, संचारिओ सबदिसासु अजसो, जाजीवं पराभवपयमुवणीओ अप्पा, दरबत्ती जाओ रायपायसेवाए, ता अलं एत्तो सगिहगमणेण, एत्थेव आसमपए | पवजामि पुबपुरिससेवियं धम्ममग्ग-न्ति पडिवो कुलवइसमीवे तावसदिक्खं । पारद्धा य असमिक्खियनियबलेण निवारिअमाणेण वि सेसताबसेहिं विविहा दुकरतवोबिसेसा । इओ य सुओ एस वइयरो कित्तिधरनराहिवेण मंतिपमुहलोयातो, जहा-इत्थमित्थं च अणालोचियवत्थुसमत्थणेण निभासियं सेनं धम्मदेवेणं, एगागी य संयुत्तो कत्थइ तावसासमे तावसदिक्खं पवमो त्ति । 'हा हा ! कहं तारिसमहापुरिस ॥१७४॥ KAARYAKARAOKARNARAKASHARABHAKAASHAKRAKAR अंगीकरेसु दक्खिन, पडिवजसु पणयवच्छल्लेण सप्पुरिसमग्गं, हवउ आचंदकालियं परोप्परपाहुडपेसणेण सिणेहववहारो ति । अह अणालोचियसमुचियकिचविसेसेण कोवभररहयभालवट्टभिउडिणा भणिय सेणाहिवेण-अरे रे दुरायारा! अम्ह पहुणो देसमसेसं लूडिऊणमियाणि संधिकवडेण ममं विप्पलंभिउमुवट्ठिया, किमह डिभो जमेवं मुहमहुरवयणमित्तेण वि विप्पयारिजामि ? ता रे ! साहह तस्स रबो नीसेसकरि-तुरय-कोस-कोट्ठागारसमप्पणेण आजीवं निम्भिच्चभिचभावदसणेण य सेवाविर्ति पडिवजसु, विसिटुं द्वाणंतरं वा अप्पणो पलोएसुत्ति, एस सेणावइणो संधिबंधमुद्दाविनासो त्ति । तेहि भणियंसेणाहिव ! कइवयनिस्सारखेडयलूडणेण बि एवंविहपयंडडडडामरमजुत्तं ?-ति परिभाविऊण आएसमुचियं वियरसु ति । सेणाहिवेण भणियं-अस्थि कोइ एत्थ जो कंठे धरिऊण निच्छुभइ इमे अलियजंपिरे याहमे ? ति । ततो निद्धाडिया ते सेवगेर्हि । गएसु य तेसु अवक्खंददाणाय दवाविया सन्नाह मेरी, पउणीकरावियं चाउरंग बलं । 'अहह ! सहसाकारि' त्ति जायचित्तसंतावेण भणियं से मंतिजणेण-भो सेणाहिव ! सम्ममणालोचियकीरमाणकजाण पमुहमहुराण । परिणइदुहाण जाणसु किपागफलेहिं तुल्लत्तं ॥१॥ जह कह वि कल-कारणवसेण केणावि सिंहलनिवेण । संधि पडच पणई पयासिया दंसिओ सामो ॥२ ॥ ता किं तेमेचिएण वि उत्तुणओ भविय कयफडाडोवो । संभावियरिउविजओ रणस्थमित्थं पयट्टो सि? ॥३॥ किं मुणसि तुम न इमं दूरं ओसरह पहरिउ मेसो । संकुइय केसरी कोवओ य पुण उप्पइउकामो? ॥४॥ १लष्टयित्वा ॥ २ निर्मव्ययभावदर्शनेन ॥३ दिन प सं. प्र. ॥४ "तिणा ज' सं. प्र. ॥ ५ त्वमेतावताऽपि गर्वितो भूत्वा ॥ ASSOCISCESCANCCASSAMAN Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरइओ कहारयणकोसो॥ सामनगुणाहिगारो। इहलोय-पारलोइयसुहाणऽणालोचियं करितेण । सत्वं च किच्चमबुहेण उयह सलिलंजली दिनो ॥ १ ॥ सहा वि कजसिद्धी असमिक्खापवलपवणपडिहणिया । दीवयसिहि व विज्झाइ विहियबहुविहपयत्ता वि ॥२॥ असमिक्खिउं पयट्टा सुहे वि काम्मि नंदिसेणाई । सुवंति पडिनियत्ता करिणो गिरिभग्गदसण व ॥३॥ किश्च-यद् वारिबन्धविधुराः करिणो यदग्निदीप्यत्प्रदीपकलिकाकुलिताः पतङ्गाः । गानावधानविपदो हरिणाश्च यच्चानालोचनाविलसितं तदशेषमाहुकार्यप्रसाधनविधावधिकान्तरङ्गरगडला गतमला मतिरेव मुख्या। पूर्वा-ऽपरव्यतिकरव्यवलोकनेन, सा कामधेनुरिव किं न शुभं विधत्ते ? ॥ २॥ धमेक्रियासु विशदास्वपि सम्प्रवृत्तः, नानापदां पदमभूदयशस्ततेर्वा । को नाम नेह रभसादविचिन्त्य कृत्या-ऽकृत्यस्वरूपमनिरूपितभाविभावः ? तदेवमालोच्य विशुद्धबुद्ध्या, स्वयं परेणापि बहुश्रुतेन । प्रवतेमानः सकलक्रियासु, स्याद् भाजनं निर्मलधर्मसिद्धे ॥ इति श्रीकथारत्नकोशे आलोचकपुरुषव्यतिरेके धर्मदेवकथानकं समाप्तम् ॥ २३ ॥ आलोचकव्यतिरेके हा धर्मदेवकथानकम् २३ । अनालोचितकारित्वे दोषः ॥१७५॥ १ पश्यत ॥ २ प्रदीपानिः ॥ ३ हस्तिमहणार्थ बन्धनार्थ वा कता कचवरादिपूर्णा महती गा 'वारि' इत्युच्यते ॥ ४ व्यतिकरे धर्म प्र०॥ ॥१७५॥ CARROTHRASESASARAKASHASANKARINAKACC उपायचिन्तायाः स्वरूपम् आलोयगो य पुरिसो उवायदरिसी इविञ्ज जइ सम्म । आराहिजा ता धम्ममग्गमिति संपर्य वोच्छ ॥ १ ॥ पारद्धम्मि उवेए वत्थुम्मि विग्घसंभवे कह वि । तबिग्घघायणखमो वावारो भन्नइ उवाओ सो पुण कस्सइ सुविसुद्धबुद्धिणो तक्खणं पडिप्फलइ । कुसला वि विसमकजे बहवो मुज्झति पाएण ॥३ ॥ सिझंति अत्थ-कामा धम्मो य उवायओ परं धम्मे । सम्मं उवायचिंता काम-उत्थाणं हवउ किं पि ॥४ ॥ धम्माउ चिय जम्हा अत्थो कामो य दीसए हुँतो । तेहिंतो पुण धम्मो सक्खा लक्खिजए नेव ॥ ५ ॥ इय धम्मविहाणम्मि उवायपरिमग्गणं गुणोहकरं । सेसपयत्थेहिंतो सबपयत्तेण काय ॥६ ॥ संभवइ सो वि देसो कालो वा जत्थ विकमुकरिसो । होइ विहलो हि केवलमुवायओ कजनिप्फत्ती ॥ ७ ॥ समुचियविसयनिजुंजियउवायवावारनिरसियावाया। साहिति पंछियत्थं नीसेसं विजयदेवो व ॥८ ॥ तहाहि-अस्थि दाहिणदिसाविलासिणीभालतिलयभूया, आइवराहमुचि व सुरवरविसरविराइया, कणयसेलमेहल व पुन्नागसंताणयसमलकिया, पोक्खरणि ब बहुविहनीरयविराइया वि अवणीरयविरहिया, जार्यवकुलनयलमयंकमहासाम १ इवेज प्र० ॥ २"राहेजा प्र० ॥ ३ 'उपेये' साध्ये ॥ ४ इलेहिं के सं० प्र० ॥ ५ समुचितविषयनियुफोपायल्यापारनिरस्तापायाः । साधयन्ति ॥ ६ 'कनकशैलमेखला' मेरुमेखला- पुनागवृक्षैः सन्तानककल्पपादपैध समलता, नगरी पुनः पुनागसन्तानकेन-उत्तमपुरुषसमूहेन समलता ॥ ७ पुष्करणीपक्षे-बहुविधैः नीरजै:-कमलैः विराजिता अपि 'अपनीरजविरहिता' कमलसहिता इत्यत्र किमाश्चर्यम् ? आश्चर्यसूचनं त्विहैवम्-अपनीरजै:दुष्टकमलैः विरहिता, यद्वा अवनीरजसा कर्दमेन विरहिता । नगरीपक्षे तु-बहुविषैः नीरजोभिः-निष्पापैः श्रमणादिभिः जनैः विराजिता, 'अपि पुनः अपनीरजोभिः-दुष्टश्रमणादिभिः बीध्यादीनां स्वच्छत्वेन बा अवनीरजसा विरहिता । नगरीपक्षे विरोधाऽऽश्वर्यादिकं स्वयमभ्यूयम् ॥ ८यादवकुलनभस्तलमृ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ C+ देवभद्दसरिविरहओ कहारयणकोसो ॥ K सामनगुणाहिगारो। ॥१७६॥ KAITRIKARANASHA ताणंतदेवभुयदंडचंडिमापडिरुद्धडिंब-डमरा महुरा नाम नयरी । तहिं च वत्थवो, तिवग्गसंपाडणपयडपुरिसयारो, सायरो उपाय समग्गगुणरयणावासो सिरिदेवो नाम सेट्ठी । रूवाइगुणमाणिकमंडिया भवणदेवय व विरायमाणा वसुमई से भजा। दचिन्तायां ताण य वेयं च सबलोगाहिमया, महुमहणभुयपरिह ब दरमुल्लासियलच्छिणो चउरो पुत्ता-पढमो जओ नाम, बीओ विजयदेवविजओ, तइओ देवो, चउत्थो विजयदेवो ति । सो वि कलाकुसला जहासामत्थमत्थोवजणाइसु वावारेसु अणवरयं कथानकम् पयÉता दियहाई विहकमाविति, नियनियदविणोवअणा[णुरूवं च दाण-भोगाइसु अभिरमंति । २४ अवरवासरे विजयदेवेण पुखदेसागयगायणुग्गाइयगीयाइपरितोसिएण दवावियं दम्मसोलसयं पारितोसियं, वित्थरियं च सबनयरीए एयं । निसामियं च जेट्ठभाउणा जएण, कुविओ एसो, साहियमिमं सेसभाउयाणं पिउणो य । ते य कोवभरायविरच्छिविच्छोहा विच्छायमुहा एगत्थ मिलिया विजयदेवं भणिउं पवत्ता रे दुद्द ! घिट्ट ! निढविउमेवमन्भुञ्जतो सि कीस धणं । किं इमिणा णे भुञ्जो कर्ज थेवं पि न हु होही ? ॥१॥ किं वा पिया-पियामहपमुहमहापुरिसमज्झयारातो । केणावि सुयं तुमए दिन्नं एवंविहं दाणं? ॥२ ॥ किं वा न मुणसि पइदिणघय-तंदुल-वत्थ-गोरसाइगयं । दवन्वयमइगरुयं हुंतं मणसा वि दुबिसहं ? ॥३ ॥ गालमहासामन्तानन्तदेवभुजदण्डचण्टिमप्रतिरक्षभयविनवा । अनन्तदेवा-शेषशायी कृष्णः ॥ १ सागरपक्षे समप्रगुणानि यानि रत्नानि तदावासः, श्रेष्ठी पुनः समयगुणा एव रत्नानि तदाबास: ।। २ वेदाः इव सर्वलोकाभिमताः, मधुमथनमुजपरिष इव दूरम् उलासितलक्ष्मीकाः ।। ३ पूर्वदेशागतगायनोदीतगीतादिपरितोषिवेन ॥ ४ अस्माकम् ।। ५ सयं खं० ॥ ॥१७६॥ HAN++%%***** ** पुत्तो वि होऊण एवं मुद्धबुद्धी एस जाओ?' ति सपरिसो राया सोइउं पवत्तो । धम्मदेवो वि विगिढतवोविसेसकिसीकयसरीरो उहिउँ पि सयमपारितो कुलवणा निवारिजमाणो वि पाओवगमणविहिं पवनो । सबाहारपरिहारवसेण य अच्चंतकिलंतो छुहाए कहं पि रइमलहंतो य भणिओ वुड्डतावसेण-भो मुणिवर ! बाढमजुत्तो इत्थं हढेण जीयचागो, पुराणेसु वि एवंविहमरणे कुगइकित्तणाओ, तहाहि असुयाँ नाम ये लोका अन्धेन तमसाऽऽवृताः। तां गतिं ते गमिष्यन्ति ये के चाऽऽमहनो जनाः ॥१॥ इति । उज्झसु अणसणविहिं, करेसु ताव तावसजणसमुचियं पि कंद-कयलाइभोयणं, पच्छा झाणपयरिसारोहणेण अप्पाणं झोसिञ्जासि त्ति । समिक्खारहियत्तणेण य तह' ति पडिस्सुयं धम्मदेवेण, भुत्तं च जहिच्छं चिरछुहावाएण कंद-कहलाइयं । केसियकायत्तणेण य समुप्पन्नोदिनविसूइयावियारो विरसमारसंतो रासभो व पंचत्तमुवगओ एसो त्ति । १ जीवितत्यागः ॥२ असूर्या सं० प्र० ॥ ३ "असुर्याः परमात्मभावमद्वयमपेक्ष्य देवादयोऽप्य सुराः, तेषां च स्वभूता लोका असुर्या नाम ।" इति देशावास्योपनिषडाध्ये ॥ ४ "म ते लो' देशावास्योपनिषदि ।। ५ “अन्धन अदर्शनात्मकेन अशानास्मफेन तमसा" इति ई० वा. भाष्ये ।। ६ तारस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ईशावास्ये ॥ ७ ये नात्मइनो...ज" खं० । ये आत्मइनोत्...ज' प्र० ॥ ८ "आत्मानं नन्तीत्यात्मनः, विद्यमानस्यात्मनो यत् कार्य फलं अजरामरत्वादिसंवेदनलक्षणं तद् हतस्पेव तिरोभूतं भवतीति प्राकृता अविद्वांसो जना आत्महन उच्यन्ते । तेन यात्महननदोषेण संसरन्ति ते।" इति है. बा. भाष्ये ।। ९ मन्त्रोऽयम् ईशावास्योपनिषदि तृतीयः ॥ १० जुषिष्यसे ॥ ११ कयलाइयं । किसि प्र० ॥ १२ समुत्पमोदीर्णविसूचिकाविकारः ॥ १३ "सभुब्ब प्र० ॥ **************** Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभइसरिविरहओ कहारयणकोसो ॥ सामन्नगुणाहिगारो उपायचिन्तायां विजयदेवकथानकम् २४॥ 8% A सरीरावटुंभो 'तमिमं गुरुवयणावयन्त्रणदुकयकिंपागकुसुमुट्ठाणं' ति भुजो भुजो परिभावितो अच्छिउँ पपत्तो। सत्थलोगो वि नियगसयणजणेण तहाविहदाणपुत्वयं मोयाविओ गओ नियनियट्ठाणं । ततो चिंतियं विजयदेवेण-कहमहमियाणिं नरयभीसणे एगागी निवसिस्सामि' करेमि किं पि उवाय जेणोवलद्धमोक्खो मुणि व निव्वुत्तो हवामि त्ति । 'को पुण मोक्खोवातो ?' ति सम्म पलोइंतेण गुत्तिवालसुओ उप्फेरमहावाहिनिहुरो दिट्ठो। अह तकालसमुवलद्धोवाएण भणिओ अणेण गोत्तिपालो-अहो भद्द! कीस एवमायासिअंतं विसीदंतं च उवेहसि चालयं ? न करेसि किं पि उवायं ? ति । गुत्तिवालेण भणियं-महाभाग! कयाणि काणि वि ओसहाणि परं न जातो को वि उवयारो । विजयदेवेण भणियं-अस्थि बहुसो उवलद्धपच्चयं पचंतवासिणा सवरमुणिणा सिर्ल्ड एग महोसहं । तेण जंपियं-जइ एवं ता साहेसु कयरं तं ? ति । विजयदेवेण भणियं-निसामेहि छायातरु-सिरिफल-फलिणिकंद-कंदोडकाढओ पीओ। उप्फेरं फारं पि हु फेडइ असर्ण व अहिफोडो ॥१॥ गुत्तिवालेण भणियं-अस्थि एसो जोगो, केवलं ओसंहाणमिन्नेण न मए मीलिउं तीरइ । विजयदेवेणं भणियंकिमिह अनं भण्णइ ? जइ एत्थ पत्थावे न इमं जोगं कुणइ एस बालो ता निच्छियं कालाइकंतकरणे वि न गुणंतरं किं पिं समासाइस्सइ त्ति । 'अवितहमेयं' ति भीओ गुत्तिवालो, आउलसरीरो य पुच्छिओ गेहिणीए, सिट्ठो अणेण सबो वइयरो। कर्णनदुष्कृतकिम्पाककुमुमोत्थानम्' इति भूयो भूयः ॥ १ भीषधान निशेन ॥२ पिन समासाया ति 2. प्र. । किमपि न समासादयिष्यति ॥ ॥१७७॥ ॥१७७॥ 4%84555E5KACHARAN+KACHCA%* 8%AAAAESSACROC430 का तीए जंपियं-किमणेण कालविलंबेण ' गुत्तिगिहातो कड्डिऊण दिणमेगं मुचइ एस पुरिसो, ओसहमीलणे कए पुणरवि घेतो, | नको वि किं पि मुणिहि ति। तहेव विहियं गुत्तिवालेण। संबलहत्थसहाइणा य समं विसंजिओ एसो ओसहमीलणत्थं, गतोय विविहोसहीसहस्ससंकुलं गिरिनिगुंजवणं, इओ तओ ताव तदभंतरे भमिओ जाव आगया रयणी, पसुत्तो तत्थेव । ततो निम्भरनिद्दामंदीकयचेयन्ने पसुत्ते सहायम्मि पलाणो विजयदेवो । पभायसमए पडियुद्धो विलक्खो गओ सगिहमियरो। विजयदेवो वि वचमाणो पत्तो दसपुरं, उचविट्ठो एगस्स वणियस्स औवणे । पुडिगाइबंधणेण कयमणेण वणियस्स साहेशं । भोयणसमए य नीतो वणिएण सगिह, समपडिवत्तीए कारावितो भोयणं, 'सुइसील-समायारो' ति धरिओ अप्पणो समीवे । मासावसाणे य कया पंचदीणारपैयाणमेत्ता एयस्स वित्ती । ठिओ विजयदेवो सायर, ववहरि पवतो य । कइवयमासेहिं लद्धा पन्नासं दीणारा । 'जायं पच्छयणं' ति वणियमापुच्छिऊण गतो गयपुरं । तहिं च इतो ततो परिभममाणस्स मिलिओ एगो रयणवणिओ। तेण य दंसियमेगते महामोल्लं माणिकं । सबरयणगुणोववेयं महाइसयं च तमवलोइऊण विजयदेवेण चिंतियंअचंतसिणिद्धं विष्फुरतकिरणावलीदलियतिमिरं । पुनेहिं लब्भइ परं एवंविहमुत्तमं रयणं ॥१॥ भूय-पिसाया साइणि-रक्खा जक्खा य ताव पीडंति । जाव न अञ्ज वि नूर्ण पाविज्जइ एरिसं रयणं ॥२॥ १ गोत्ति" प्र. ॥ २ विज्झविओ सं० ॥ ३ आसणे सं० ॥ ४ पयमे खं० ॥ ACCESS Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभरि बिरइओ कहारयणकोसो ॥ सामन्नगुणाहिगारो । ॥१७८॥ 444 445 4 ॥ ३॥ दोगचचकमकमइ निक्किवं विकर्मति रिउणो वि । ताव नरं नो घिप्पड़ जावऽञ्ज वि एरिसं रयणं इय एवंविहविलसंतभूरिस्कप्पवाउलिय हियओ । तल्लाभोवायमपेच्छिरो य विच्छायमुहसोहो सुनो व मुच्छिओ इव चित्तालिहिओ व कयसमाहि व । व♚तो सो भणिओ सविम्हयं रयणवणिएण || 8 || ॥ ५ ॥ भो भो वणियसुय ! किमेवं सामलमुद्दो ज्झायसि १ ति । विजयदेवेण जंपियं—न किंपि । रयणवणिएण भणियं - तह वि कहेसु किंपि रयणमयं गुण-दोसं जमवलोहऊण तुममेवं विमणदुम्मणो संवृत्तो सि । विजयदेवेण जंपियं—पत्थावे साहइस्सामि | तओ लग्गो इयरो गाढग्गहेण पुच्छिउं । एत्यंतरे रायपट्टहत्थी उम्मूलियालाणखंभो निवाडियभवणभित्तिभागो संखोभियपुरजणो तं पएसमणुपत्तो । पलाणो तद्देसवत्ती लोगो । विजयदेवो वि इमिण च्चिय कइयवेण अवकंतो ततो पएसाओ । अवरदि पैइरिके कहिं पि दाणामिनंदियं काऊण पुच्छिया रयणवणियदासी- भद्दे ! तुह सामिणा माणिकमिमं कहमुत्रलद्धं ? ति । तीए जंपियं— भिल्ल पल्लिमुबगएण मह सामिणा पहविणासिय सत्थवाहोवलद्धरिद्धिवित्राओ भिल्लसयासातो कहवयदीणारोवलद्धं ति । एवं च विद्याणियमाणिकुडाणपारियावणियाविसेसो विजयदेवो चित्तव्यंतरुब्भिन्नोवायविभागो गतो एगया रयणवणियसमीवे । दिन्नासणो य भणितो तेण - भो विजयदेव ! सबहा साहेसु संपयं पुवपृटुं ति । विजयदेवेण भणियं112 11 अचंतपयत्तुवलद्धवत्थूविसयम्मि दोस-गुणकहणं । जुत्तं न होइ कुसलाण हियर्यकालुस्सजणयं ति १ एवंविधविलसद्भूरिसङ्कल्पव्याकुलितहृदयः ॥ २ गाढाग्रहेण ॥ ३ एकान्ते इत्यर्थः ॥ 22 विज्ञातमाणिक्योत्थान परियापनिका विशेषः " ५] अत्यन्त प्रयत्नोपलब्धवस्तुविषये ॥ ६ 'यस्सलु (सल्ल) स्स ज प्र० ॥ सोहसि दितो वि तुमं अच्चत्थं स्थिरासिमजिणिउं । पुवपुरिसञ्जिए पुण किं गिजइ चागसामत्थं १ 11 8 11 इमं च निसामिऊण मन्नुभरसगग्गिरसरेण भणियं विजयदेवेणं - सबहा खमह मह एकमवराहं न भुजो एरिसं काहामि, तहा अणुगिण्हह देसंतरेसु दविणोवजण निमित्तमणुनादाणेणं ति । एत्यंतरे केणिडावच्च महापेमाणुबंध कायरीकयहियओ ईसिनयणनलिणनीसरंतंसुजलो जणगो भणिउमारो - रे पुत्ता ! सबहा एगवयणेण वि निसिद्धा तुम्मे अच्छह, मा मह जीवंते देसंतरगमणं कहूं पि करेजह, पच्छा जहावंडियमणुट्टेजह त्ति । एवमायन्निऊण सभय-सलञ्जेहिं जपियं जयप्पमुहिं-ताय ! एवं काहामो चि । ततो निम्मविया चचारि हड्डा, उबविट्ठा य तेसुं पिहो पिहो चउरो वि भायरो, पारद्धा व हरिडं । मासावसाणे य आय वयविसुद्धिं विभाविंति दवोवणं ति । अन्नया य विजयदेवो य तहाविहविहवोवजणारहियं हडवावारमसारमवधारिऊण सैरियपुवाणुसतो संबलगमेत्तमादाय पट्टिओ उत्तरावहं । सत्थेण सह वच्चंतो य पडिओ महाडवीए । तम्मज्झमणुपत्तस्त य अयंडे चिय पॅयंडकंडवरिसदुद्धरिसा कीणासदासनिविसेसा चिलायघाडी आवडिया, निवाडियसत्थसुदडा बंदिग्गाहपग्गहियजणा गया जहागयं ति । विजयदेवो विसिम देवदसावागवागुराकूडनिरुद्धो मुद्धहरिणो व दिवसावसाणोवलद्धपज्जुसिय विरसावसेसा सणमुट्ठि[क]य १ 'रिक्थराशि' धनराशि ॥ २ कनिष्ठापत्य महाप्रेमानुबन्धकातरीकृतहृदयः ईषन्नयननलिननिः सरधुजलः ॥ ३ तेहिं दे" सं० ॥ ४ आयव्ययविशुद्धिम् ॥ ५ 'यो अ तद्दा' सं० ॥ ६ स्मृतपूर्वानुशयः ॥ ७ प्रचण्डकाण्डदुर्धर्षा कोनाशदासनिर्विशेषा ॥ ८ निगतितार्थ सुभटा बन्दिप्रादप्रगृही|| ९. द्विषमदेवदशापाकवागुराकूटनिरुद्धः मुग्धणि इव दिवसावसानोपलब्धपर्युषितविरखावशेषाशनमुष्टिकृतशरीरावष्टम्भः 'तदिदं गुरुवचनाप तजना उपायचिन्तायां विजयदेवकथानकम् २४ । ॥१७८॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभरि विरइओ कहारयणकोसो || सामन्नगुमाहिगारो । ॥ १७९ ॥ केणइ पुढकयसुकयाणुभावेण म्रुको सत्थवाहो अहं पि ता भद्द ! अणुसरियपुण्य संसग्गसमुवलद्धाणत्थो साममुहच्छायत्त मुगओ त्ति । इमं च सोचा रयणवणिएण भणियं - अस्थि एवं जहा तुमं भणसि, पल्लीए वाणिजोवगएण भिल्लसयासातो मए इममुवलद्धं, अहो ! ते पन्नातिसओ जं ईसिदंसणे वि इमं एवं नाम पचभिजाणसि ? एवं च किमणेण घरे धरिएण १ ता सहा भो विजयदेव ! तुममेव केणइ अमुणितो जह तह विकिणसु इमं, बहुजणदंसिजमाणं हि मा कोइ पच्चभिजाणिहिति । विजयदेवेण भणियं— करेमि अहं एयं केवलं विक्कीयमाणं किमिमं लहिहि १ त्ति, थोत्रलाभे चित्तसंतावो तुज्झ होही, ता सयं चैव विकिणसु । रयणवणिएण भणियं - लहउ किं पि, कुणसु मह कज्जमिमं ति । अणिच्छंतस्स वि तस्स समप्पियं तं माणिकं । अंतोपसरंतपमोयपन्भारो तमादाय इओ तओ वीहिमज्ये भमिऊण पुढविद्वत्ते पन्नासं दीणारे घेत्तृण समागओ रयणवणिय मंदिरं । समपिया से दीणारपोत्तिया 'एयं तविकतोवलद्धं धणं' ति । तुट्ठो रयणवणिओ, पडिगाहिया दीणारपोतिया, 'साहु ! पडिवन्नवच्छल ! साहु !" ति अभिनंदिओ विजयदेवो । तंबोलाइदाणकय सम्माणो य गतो सं ठाणं । ॥ १ ॥ जाए य स्यणिसमए रयणुवलंभुग्भवंतपरितोसो । चिंते सो न जुत्तं एतो अत्थं अवस्थाणं मा इह कहं पि कत्तो वि को विमृणिऊण वइयरमिमस्स । चयसेअऽणअकअं सजो काउं तयत्थी मे अहवा एयदाया वि दइवदुओगतो मुणियसारो । संजायपच्छयावो पुण घेत्तुमिमं समीहिजा न य एत्थावत्थाणे पेहेमि पओयणं पि किं पि परं । सिद्धे य एयलाभे सिद्धं मज्यं पि नीसेसं १ अनुस्मृतपूर्वं तत्संसर्गसमुपलब्धानर्थः ॥ २ 'ओ लि।" सं० प्र० ॥ ३ सट्टा प्र० | ४ एसो अ" प्र० ।। ५ अत्र ॥ ॥२॥ ॥३॥ ॥ ४ ॥ एवं परिभाविऊण पडिवन्नतिदंडिवेसो कन्नवद्विनिबिड सीवियरयणं कोपीणयपङ्कं संवट्टियं दंडग्गे गाढं बंधिऊण मज्झरत्तसमयम्मि नीहरितो गयउराओ । पच्चवायसंकिओ य पैंगुणपहपरिहारेण गओ पालिपुरं । दूरातो चिय पासायगव - क्खगयाए कयमणहरसिंगारसारने वच्छाए मघणमंजूसाभिहाणाए सलीलं शयमग्गमवलोयंतीए दिडो एसो विलासिणीए । ॥ १ ॥ अह फैलिहकुंभअंतो जलतदीवयपह व सवंगं । बहिया उज्जयन्ती छाया रयणाणुभावभवा दिट्ठा से कुसलाए तीए तो चिंतियं हिययमज्झे । दिवमणि-मंतजुत्तेण नूण होयमिमिण ति इस संमियजोयणसंभवे वि दीसह न एरिसी जोन्हा । सवंगसंगिणी रिद्धि विस्थरुत्थेभियस्सावि कासायवत्थधारी जइ वि हु सकारवज्जियसरीरो । तह वि हु कोइ महप्पा दीसंत महष्पभावोऽयं || 8 11 एवं परिभाविऊण जाव सा गवक्खाओ ओइना गया भवणंगणं ताव पत्तो तमुद्दे विजयदेवो । ततो सविलासपेसियकुवलयदलदीहरच्छीए अंजलीबंधपुरस्सरं भणितो तीए —भो देवाणुपिय ! पसीयसु इह वीसामकरणेणं ति । ततो सुसंगोविर्यत्तणेण दूरपमुक्कमाणिकपणासासको 'सायरं तीए उबनिमंतितो' त्ति पविट्ठो भवणं । दवावियं तीए आसणं, पक्खालाविया चलणा । खणंतरे परमायरेण काराविओ मजणं, गोसीसचंदणविलित्तगत्तो य सुसंभियभूरिरसोवेयं भुंजावितो भोयणं, अक्खजूयाइणा कीलाविसेसेण दिणावसाणं जाव रमाविओ य । ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ १ "यरंयणं के। पणय सं० ॥ २ बंधेऊ" २० ॥ ३ 'प्रगुणपथपरिहारेण' मुख्य मार्गल्यांगेन ॥ ४ स्फटिककुम्भान्तः ॥ ५ चममिण सं० प्र० ॥ ६ रससम्भूतलोचनसम्भवेऽपि । 'जोयण' शब्द लोचनार्थको देशीनाममालायाम् ॥ ७ रचच्चिय सं० ॥ ८ "यभत्त" सं० प्र० । सुखशोपितत्वेन ॥ उपायचिन्तायां विजयदेवकथानकम् २४ । ॥ १७९ ॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमद्दसरिविरहओ ला उपायचिन्तायां विजयदेवकथानकम् २४ । कहारयणकोसो॥ सामनगुणाहिगारो। ॥१८॥ जाए य रयणीसमए सुकुमालहंसतूलीनिविसेसमिउफासाए उभयंतठविओवहाणमणहराए सोयाविओ सेजाए । निरूविया य नियधूया सरीरसंवाहणाइसुस्मुसाकरणस्थमेयस्स । भणिया य सा रहसि-वच्छे मयणसुंदरि ! मंतसिद्धिवसतो रयणाईसआणुभावतो वा सस्सिरीतो एस कोइ महप्पा तुहपुनपगरिसागरिसितो व इहई बट्टा ता सम्ममणुचरेजासि त्ति । 'तह' ति पडिसुणिय पारद्धा सा तहेव वट्टिउं । अह सुहभोयण-सयण-सरीरसंवाहणाइपीणियसरीरो निप्पचूहगेहोवगतो निम्भर पसुत्तो एसो। पम्मुकघोरघुरुद्वकनिन्भरं सोविरं च तं नाउं । अचंतविमलबुद्धी परिर्चतइ मयणमंजूसा ॥१ ॥ सैसिरीयसरीरो कोइ एस वइदेसिओऽम्ह पडिहाइ । न य दीसह पचक्खेण किं पि तकारणं ताव ॥ २ ॥ जइ मंत-तंतसिद्धीए एस एवं विरायमाणंगो । ता विणयवित्ति-सम्माणदाण-सेवाइणा गिज्झो ।। ३ ।। अह बज्झं पि हु संभवह किं पि पेहेमि डंडबद्धं ता । कोवीणमिमं मा होज एत्थ रयणाइ संजमियं ॥ ४ ॥ इय सुकुमबुद्धिनिच्छइयकजमज्झाए डंडगयवत्थं । तं पेहिरीए निउर्ण सहसा माणिकमुवलद्धं पुणरवि डंडग्गे चंधिऊण पुबट्टिईए तं वत्थं । उवलद्धवंछियत्था बीसत्था निम्भरं सुत्ता जाए य पभायसमए, समुग्गयम्मि मायंडमंडले, विगलंतीसु दिसिर्वहूगंडस्थलीमियमयपत्तवल्लीसु व तिमिरमंजरीसु, आणंदनिब्भरं रसिएसु चकवायकुलेसु, पडिदेवभवणं ताडिएसु संज्झाबलिपडपडह-मुयंगपमुहजयतूरेसु पबुद्धो विजयदेवो । १ "निवेसविसेसमि' प्र. ॥ २ सुआणुभावनोबा खं० । इसुअणुभावतो वा प्र० । रत्नातिशयानुभावतः ॥ ३ ससरीरसरी° ॥ ४ "मिया प्र. ॥ ५ यट्टा वी* प्र० ॥६ दिग्वधूगण्डस्थलीमृगमदपत्रवाड़ीषु ॥ ७ सन्ध्यावलिः-प्रभातसन्ध्यापूजा ॥ ॥१८०॥ HEAAWA4%ANSARKARKESARKARAN HAIRMAHARAKASAXAYASK NAGA+KACANCERSISTERANAM भवियवं जं जह जम्मि देस-कालम्मि जत्थ वा देसे । तं तम्मि तहा तत्थेव होइ किं भूरिभणणेण ? ॥२ ॥ इय कइयवेण गंभीरवयणनिवहं निसामिउं तस्स । अविमुणियरयणगुण-दोसवित्थरो संकिओ वणिओ ॥३॥ सायरविलइयभालयलपाणिकमलो पयंपए एवं । भो विजयदेव ! सवायरेण मह पुच्छिरस्सावि ॥४ ॥ कीस न फुडक्खरं कहसि ? किं पि नो सुंदरेण वि इमेण । गिहधरिएणं कर्ज जइ दुई तुज्झ पडिहाइ ॥५॥ अञ्चतमणहरेण वि दुद्वेण गिहट्टिएण को व गुणो ? । ता निस्संको माणिकदोस-गुणविसयमुवइससु . ॥६॥ एवं निसामिऊण बुज्झियतम्मज्झेण अलक्खावियतदस्थित्तेण भणियं विजयदेवेण-भो महायस ! को हं ? को वा मे सत्थपरमत्थपरिमाणपरिस्समो ? किं वा मए दिटुं जेण भुजो भुञ्जो पुच्छसि ममं? न हि विन्माणलवमित्तेण जह तह जंपिउँ जुत्तं । रयणवणिएण भणियं-अलं बहुवायावित्थरेण, परिकहसु सव्वहा, कीस तुममिमं पलोयंतो साममुहच्छवी संवृत्ती सि।। विजयदेवेण जंपियं-जं जस्स अणिद्रं तं तस्स जह वि संसिउमजुत्तं तहावि तुह गरुयवयणोवरोहओ सीसह, केवलं न रूसिय तुमए, इमस्स हि माणिकस्स पसाएण अहमिममवत्थं पत्तो । रयणवणिएण भणियं-कहं चिय? । इयरेण वुत्तनिसामेसु, जस्स सत्थवाहस्स हत्थे इमं माणिकमासि तस्स सत्थे मिलिओ अहं पि संबलगसणाहो इंतो, जायमेत्तीभावेण सत्थवाहेण पलोयाविओ इमं रयणं, एयकिरणुञ्जलयाइगुणेण अहं सत्थवई य परं पहरिसमुवगया, अह अडविमज्झनिवडिया गहिया भिल्लेहिं बंदिगाहेण । नीया [अम्हे] पल्लिं सहाविया विविहदुक्खाई ॥१॥ १ 'विरइ प्र. ॥ २ "ज्मण अप्र० ॥३ लण व प्र.॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरहओ कहारयणकोसो।। सामनगु. णाहिगारो। ॥१८॥ उपाय|चिन्तायां विजयदेवकथानकम् २४ । धीमंतो पुण अन्तो पहरिसमतिउद्धरं पि धारिता । रयणायर व कलिउं कुसलेण वि नो तैरिजंति ॥३ ॥ ता वैट्टिासु तह कह वि पुत्ति ! सुनिउत्तचित्तवावारा । जह हरिस-विसायाण वेरीण व देसि नोगास ॥४॥ 'अम्मो! तुम आणवेसि तं काहामो' ति भणंतीओ नियनियकिच्चाई चिंतिउं गयातो चेडीओ मयणसुंदरी य । अह जाममेत्तम्मि संपत्ते दिवसे, समीवमुवगए देवपूयावसरे मयणमंजूसाए भणिया मयणसुंदरी-बच्छे ! जावऽञ्ज वि भोयणवेला न संपञ्जइ ताव इमं नियनायगं सुरसरितीरसंपाडियण्हाण-पिंडप्पयाण-देवपूयणाइवावारं दवावियजहिच्छियातिहि- दाणं धम्मसहाइणी होऊण समीवोवगया लहुं करेसु ति । 'अम्मो! जं तुमं आइससि' ति भणिऊण गया सा नियवासभवणं । पचोहिओ कवडपसुत्तो विजयदेवो, भणिओ य-भो देवाणुप्पिय ! अइकालो वट्टइ ता पयट्टसु सुरसरियाण्हाण-पिंडपयाणाऽतिहिदाणादिकिच्चकरणत्थं ति । ततो दरिसियंगभंगो जिंभायमाणो उडिओ विजयदेवो, अदंसियमुहसामाइवियारो पट्टिओ सुरसरियतीरं । मयणसुंदरी वि कइवयदासचेडीपरिवुडा पुप्फ-बलि-अक्खयाइपडलगसमेया पयट्टा तयणुमग्गओ। गयाई मंदाइणीतीरं, कयं विजयदेवेण पहाणं, परिहियं वत्थजुयलं, पूइया देवया, कय मंतसुमरणं, दिनो अग्धंजली अंसुमालिणो । एत्थंतरे भणितो सो मयणसुंदरीए-पिययम ! मा दबसंकिन्नयं करेजाहि, पिंडप्पयाणाति अणुचिट्ठसु । विजयदेवेण भणियं-एवं करेमि, वाहावेसु वेयवियक्खणे बंभणे जेण कयपिंडपाओ ताणं दाणं देमि । 'तह' त्ति वाहराविया १ शक्यन्ते ॥ २ बट्टेज प्र. ॥ ३ न अवकाशम् ।। ॥१८॥ CAMANERIENCSARAHABAKARA-%A4%%ARU तीए कुसला चउरो बंभणा । कयं तेहिं पिंडविहाणाइ किचं । तदवसाणे य जोडियपाणिसंपुडं भणियं विजयदेवेण-भो बंभणा ! निसुणह मह बयणं-मज्झं दइवदुञ्जोगवसेण रयणमेग संपडियं, तेण य दुट्ठलक्खणेण लक्खसंखं धणं नीसेसं कुल च खयमुवणीयं तह वि कूडपडिबंधाओ न मए तमुज्झियं, संपयं च केणइ पुनवसेण तं अवकंतं, एत्तो य जस्स घरे तं वीसंत तस्स चेव अणत्थो होउ मा अम्हं ति, एत्थ अत्थे मंतुच्चारं तालं च पाडेह जेणाई वगयणत्थो सुहं वबहरामि ति । इमं च अयंडवञ्जासणिडंडनिवडणदारुणं रयणवुत्तंतं निसामिऊण मयणसुंदरी भणिउं पवत्ता--भो बंभणा ! पडिवालेह ताव खणमेकं जाव चेडीओ मायरं दद्दूण पडिनियत्तंति । बंभणेहिं भणियं-एवं होउ । तओ तीए तब्बुर्ततकहणत्थं रयणा[णय]णत्थ च पेसियाओ तुरियं चेडीओ । गंतूण सिटुं जहट्टियं मयणमंजूसाए ताहिं नीसेसं । तं च सोचा विच्छाईहया ज्झड ति एसा, 'जइ पाणच्चायं करेमि तह वि माणिकमिमं न उज्झामि' ति निच्छयं ववसिया य । उवलद्धतनिच्छयातो य पडिनियत्ताओ चेडीओ । सिट्ठो मयणसुंदरीए वुत्तंतो । कोव-संतावभरकिलामियवयणकमला य सयं पट्ठिया मयणसुंदरी। संलत्ता य विजयदेवेण-पिए ! कीस पत्थुयत्थविग्धं करेसि ? जीविओ म्हि चिरकालाओ जमेरिसं कल्लाणमुवट्ठियमिच्चाइ । जह जह सो भणइ तह तह इत्थीसहावसुलभनिविवेययाए अहिययरमुत्तम्ममाणमाणसा [सा] सिग्घं गया मयणमंजूसासमीवम्मि, वोत्तुमारद्धा य-अम्मो! चेडीमुहेण निसामियमाणिकवइयरा वि तदप्पणपरम्मुही तुम कीस ठिया?।। किमिर्म जुत्तं पडिहाइ तुज्झ सज्झसकरे विजं कजे । पक्खिप्पइ अप्पा एबमावयावडणदुविसहे? ॥१ ॥ १व्यपगतानर्थः ॥ २ णवित्तं प्र० ॥ ३ मदनमञ्जूषाय ॥ ४ मदनसुन्दय ॥ ५ उत्ताम्यम्मानसा ॥ ACAKACKAGARMACY Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभइसूरिविरइओ कहारयणकोसो॥ सामन्त्रगुणाहिगारो। उपायचिन्तायां विजयदेवकथानकम् २४ । लच्छी भवर्ण भिचाइपरियरो वत्थमंडणपयारो । कीरति सरीरकए तं पि विवजह जइ इमाओ ॥ २ ॥ ता किं इमिणा माणिककइयवुवाहिणा कयंतेण । गेहधरिएण अम्मो!? ता मुंचसु एयकुग्गाह ॥ ३ ॥ सबगुणसुंदरेण वि अलाहि जीवियविणासिणा तेण । केणगमइया किवाणी किं जुञ्जह वाहिउं देहे ? ॥ ४ ॥ एयस्स ववगमे सो न नियसि वियसंतवयणसयवत्तो । उवलद्धजीवियं पिव अभिनंदइ दूरमप्पाणं ? एगवराडयनासे वि किन्न तम्मतमिक्खसि जणोहं ? । वाहिविगमो व एसो य परमपरितोसमावन्नो ॥ ६ ॥ किं भूरिजपिएणं ? पिएण जह जीविएण मह कजं । ता उज्झसु झत्ति इमं तुह प्पसाएण किमपुनं? ॥ ७ ॥ इय तीए तह कह पि हु पनविया सा जहा लहुँ तिस्सा । माणिकमप्पियं तीए गरुयदुक्ख वहंतीए ॥८॥ ततो मयणसुंदरी तं गहाय गया तुरियतुरियं अमरतरंगिणीतीरं, समप्पियं अणिच्छंतस्स वि विजयदेवस्स, गहियं च तेण परमतदुवरोहेण । अणुवलद्धदक्खिणा य विलक्खीहूया गया वंभणा । 'अहो ! पडिकूलया देवस्स, जमिमं मे रयणं पणटुं पि भुओ कत्तो वि आगयं, ता मंदाइणीमहदहे कत्थइ अणत्थपत्थारीपडितुल्लं खिवामि एय' ति कइयवेण ततो ट्ठाणाओ अवकंतो विजयदेवो । सुसंगोवियरयणो य अणवरयपयाणगेहिं पत्तो नियनयरिं, परितुट्टो पिया, आणंदिया बंधुणो । पत्थावे सिट्ठो रयणलाभवइयरो, संसितो य सबकुडुबेण | माणिकपभावेण य पाउब्भूया पभूया सिरी । तीए य सुहट्ठाणविणिओगेण उभयभवियसुहसंदोहभायणं जाओ त्ति । १ 'विपद्यते' विनश्यत्ति यदि 'अस्माद्' माणिक्यात् ।। २ कनकमयी कृपाणी ।। ३ पश्यसि ॥ ४ ताम्यन्तम् ॥ ५ तस्यै ॥ PRI+KAMAKAKAKA CACAXARA ॥१८२॥ ॥१८२॥ परामुट्ठा कोवीणबद्धा रयणगंठी, 'अंतो सुन' ति ज्झमकितो ज्झड त्ति हिययम्मि । 'हुँ, निच्छियं छलिओ इमीए कैयंतदाढाकडप्पकुडिलाए विलासिणीए, किमियाणि लोगोवहासकारगेण परहत्थीभूए रयणे कोलाहलेणं ? उवायातो चेव विहडियकजसंघडण' त्ति आयारसंवरं काऊण पुवं पिव कइयवेण पुणो निम्भरं पसुत्तो एसो। मयणमंजूसा वि चेडीकरयलसंवाहणावगयनिदा समुट्ठिया सयणिजातो । परमपमोर्यपदभारवियसियवयणसयवत्ताए य पुच्छिया मयणसुंदरी-बच्छे ! सो वइदेसिओ सुबइ गतो व ? ति । तीए भणियं-अम्मो ! अञ्ज वि केणइ कारणेण निम्भरं निहायइ ति । मयणमंजूसाए जंपियं-वच्छे ! एत्तो वरागातो कोवीणंणूमियं जं माणिकमेकं मए उवलद्धं तं पुरंदर-कुबेरपमुहाणं पि असंभावणिज, ता देहि आसत्तवेणियं जलंजली दोगच्चस्स, अवहत्थेहिं भूय-पिसाय-साइणीपडिभयं ति । ततो विम्हिया मयणसुंदरी, भणिउं पवत्ता य-अम्मो ! महंतं मम कोउयं, दंसेसु तयं ति । ततो मायंडखंडं पिच भूरिसमुच्छलंतकिरणजालविणिम्मियहरिचावचकं माणिकं दसियमिमीए । 'अहो ! महालाभो' त्ति सह चेडीहिं हरिसिया मयणसुंदरी । अह ताण हरिसुकरिसनिरंभणत्थं पढियं मयणमंजूसाए अइहासो अइतोसो अईवरोसो असम्मए वासो। अच्चुन्भडो य वेसो पंच वि गरुयं पि लहुयंति अइगरुयहरिसदसियइंगियसवियारदिट्ट-संलावा । करजलरुहट्टियं पि हु लच्छि हारिति ही! मूढा ॥२ ॥ १ परमुद्धा को सं० प्र० । परामष्टा ॥२ कृतान्तदंष्ट्रासमूहकुटिलया ॥ ३-व्यपगतनिद्रा ॥ ४ 'यविय” प्र० ॥ ५ कौपीनगोपितमित्यर्थः ॥ ६ अपदस्तय ॥ ७ मह प्र० ॥ ८ मार्तण्डखण्ड मिव भूरिसमुच्छलरिकरणजालविनिर्मितइरिचापचकम् ॥ ९ अतिगुरुकर्षदर्शितेजितसविकाररष्टसंलापाः ॥ ३१ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55+CAS देवभद्दसरिविरहओ कहारयणकोसो॥ सामनगुणाहिगारो। ॥१८॥ उपशान्तप्रक्रमे सुदतकथानकम् २५॥ एएसु उदिसुं विफलो चिय धम्मकम्मसंरंभो । न य एत्तो वि हु अन्नं वनंति भवत्थदुत्थकर ॥४ ॥ कोहो सयणविरोहो हेयसोहो दिनदारुणदुहोहो । माणो य हयसुनाणो कयावमाणो गुरुजणे वि माया कुडिलियवाया पए पए दिनपच्चवाया य । लोभो य सयणदोहो कयसम्मोहो मुगइरोहो एकेकसो वि ककस-किलेस-कालुस्सकारिणो एए । मिलिया य अणुवसंता य कह णु कुसलावहा होंति ? ॥७॥ ता एयाण उपसममसेसकल्लाणमूलमक्खंति । कंखंति भिक्खुणो तेण तक्खयं मोक्खसोक्खकए ॥८ ॥ जं भावि पुरा भूयं हवह य दुक्खं सुतिक्खमिह लोए । तं जाण कसायाणं कलुसं दुविलसियमसेस ॥९॥ जं मुजझा बाहुबली गिज्झइ भरहो तहित्थियातित्थं । कुगई जाइ सुभूमो तं जाण कसायविष्फरियं ।। १०॥ ते धना सप्पुरिसा तेहिं परं पाविया जयपडाया । जेहिं सोढो पोढो कसायफणिणो फडाडोबो ॥ ११ ॥ उवसमसेडिंबा आरूढं पि हुलहुं निवाडिति । तूलं व कसाया पैलयकालवाय व विसहा ॥ १२ ॥ इय ताण दारुण परवागरणातो नियमईए वा । णाउं जो उवसंतो सो होइ सुही सुदत्तो व ॥ १३ ॥ तहाहि-अस्थि समत्थावरविदेहदेहसोहाकारिणी, कारुणियमुत्ति छ परोवयारसारोयारलोयाभिरामा, रामएवसरीरजट्टि व सीयासयपसाहिया, साहियासेसविपक्खमहानरिंदजियसत्तुपयंडभुयदंडमंडवजणियच्छाया सावत्थी नाम नयरी । जहिं १भवुत्थ ख० प्र० । भवस्थदौस्थ्यकरम् । भवस्था:-संसारिणः ॥ २ हतशोभः ॥ ३ मुत्यति ।। ४ गृध्यति ॥ ५ याति ॥६'यपलिणोब० ॥ ७ वाडेति प्र०॥८प्रलयकालचाता इव ॥१नाउं प्र.॥१० लोकाभिरामा-प्रकाशेन लीवाभिरामा ॥ ११ सीताशय(धय)प्रसाधिका सीताशतप्रसाधिता च ॥ ॥१८३॥ S COLORCASRAKASEASEARC5 च वरुडगेहेसु बसविदलणं, वेजहद्देसु नागरचुनर्ण, जूयसालासु दंडुक्खेवो, तरूम साहापरिग्गहो न कयाइ लोएसु । तहिं च निच्चनिबद्धनिवासो वासवदत्तो नाम सेट्टी, ललिया नाम भजा। पयई[] चिय सच्छसहायो सुदत्तो नाम ताण पुत्तो । नियकुलकमाविरुद्धवित्तीए सवाई कालं बोलेंति । एगया य सुदत्तो सहर्पसुकीलियस्स मेत्तस्स खेमाभिहाणस्स कज्जवसेण मंदिरं गओ, दिनमासणं खेमेण, आसीणो एसो । पारद्धा य दो वि सारखेडेण कीलिउं । परमपयरिसमणुपत्ते य सारिकीलाविसेसे सहस ति समुट्टितो भवर्णतो कोलाहलो । 'किमेयं ?' ति आउलो धाविओ गिह हुँत्तं खेमो। महाकट्ठकप्पणाए परोप्परं कयकलहं मुसलधायजज्जरियसिरनिस्सरंतरुहिरोशलियसरीरं निवारियं कुडुंबं । मिलितो कोऊहलेण लोगो । बिम्हय-सज्झसपरवसेण य पुच्छिओ सुदत्तण खेमो-भो मित्त ! को एस अयंडे चिय विडंबणाडंबरप्पवंचो। खेमेण भणियं-बीडावसेण कहिउं पि न तीरइ । सुदत्तेण भणियं-तिहावि तहाविहासमंजसजणणे होया गरुयनिमित्तेण, ता साहेसु लेसमेत । खेमेण भणियं-निसामेसुमह घरिणीए कुंभो भग्गो सलिलं उवाहरंतीए । सा जणणीए कुवियाए ताडिया करचवेडाए ॥१ ॥ मह धूयाए नियजणणिताडणुप्पनगरुयकोवाए । मह जणणीए कंठातो तोडिओ नवसरो हारो ॥ २ ॥ अह मह भइणीए नियंगमायपरिहवभवंतदुक्खाए । मुसलेण सिरे पहया सा धूया नियमणाए ॥ ३ ॥ १ वरुडेति अन्त्यजजातिविशेषः ॥२ वंशा:-वेणवः कुलानि च ॥ ३ नागरस्व-शुष्याः नगरबासिनां च चूर्णनम् ॥ ४ दण्डः-दण्दनम् ॥ ५ शाखा | पक्षथ ॥६पाशककीचया ॥ ७ गुहामिमुखम् ॥८ओरालियं-खरण्टितम् ॥ २ निजकमातूपरिभरभरासया ॥ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशान्तप्रक्रमे सुदत्तकथानकम् २५॥ देवभद्दसूरिनियधूयं भिन्नसिरुच्छलंतसोणियभर नियंतीए । मह भजाए वि हया मुसलेण सिरे नियनणंदा ॥ ४ ॥ विरइओ इय अवरोप्परकयघोरघायघुम्मतमित्थमचत्थं । दुत्थावत्थं पत्तं, पावकुडुंब नियम मज्झ ॥५ ॥ निकारणं रणं पइदिणं पि अमोन्नमवि अणुल्लवणं । कह साँहिजइ लजाए तुज्झ वत्ता कुटुंबस्स ? कहारयणकोसो ॥ सुदत्तण भणिय-अहो ! विसमो दसावागो, अहो ! पडिकूलकारिणी कम्मपरिणई, जं परमपेम्मट्ठाणे वि एवंविहगरुय. सामनगु ॐा बहरभावो, भवियत्वं ता एत्थ भवणभूभागसल्लदोसेण पूयाविवजयवसकुवियदेवयाकयवियारेण वा विसमट्ठाणगयकुग्गहदुबिल सिएण व ति | खेमेण भणियं-निच्छियं संभव एवं, कहमनहा अतहाविहकले वि सजो लजाविववजयं वैयणिजकरणजाहिगारो। मित्थं घरयणो ववसेजा ? किं कीरइ ? नस्थि कोइ दिवनाणालोयपच्चक्खीकयजीवलोयवावारो महप्पा जो सक्खा गंतूण ॥१८४॥ 131 पुच्छिाइ 'किं कारणमेयं ?' ति । सुदत्तण भणिय-एवमेय, परं सावहाणो एत्थ अत्थे होजासि, मा कोइ कयाइ एवंविहो वि होज ति । एवं च खणमेकं विगमिऊण गओ सुदत्तो नियगिई। अवरम्मि य अवसरे सो सुदत्तो खेमेण समं रायमग्गमोगाढो अन्नमनं जणं जपंतं निसामेइ, जहा–कोइ अप्पडिमरूय१ पश्यन्त्या ॥ २ पूर्णमानम् ॥ ३ पश्य ॥ ४ कथ्यते ।। ५ अहो ! अप प्रती ॥ ६ वचनीयकरणमिस्र्थ गृहजनो व्यवस्पेत् ॥ ७ दिग्पज्ञानालोकप्रत्यक्षीकृतजीवलोकव्यापारः ॥ ८ "सि, कामोइ क प्रतौ ॥ ९ अप्रतिमरूपलावण्याबमतकन्दपः अनस्पमाहात्म्यप्रतिहताशिवादिसझोभः त्रिजगडुजेंयमन्मथमथनाभिभूतहरिहरहिरण्यगर्भपौरुषारम्भः रम्भाप्रमुखाप्सरप्रारम्पप्रेक्षणकप्रपत्रपत्रितपूजातिरेकः रामत्तारतरतरजविराजमानमहाप्रमाणविजयजयन्तीपाताकुलविमलमणिकलधीतरजतविशालशालवलयाभिरामसिंहासनासीनः || RERAKArc**RRRRRRRRRRRRRRRRRExts+8+%%*&+8 ॥१८४॥ NCECACINCAKACXYKAHAKAKKARCHAE% उपायदर्शिस्वस्य फलम् एवं उवायदरिसी जह इहलोइयमसेसमवि कों। तह पारलोइयं पि हु साहइ सिग्धं सुहेणेव धम्महिगारी सविसेसमेस तेणोवदंसिओ समए । न हु दुम्मईहिं धम्मो घेत्तुं तीरइ वरनिहि छ ॥२॥ अपि च धनलवमपि कधिभिबितोपायवन्ध्यो, यदि भवति न लन्धुं सर्वथाऽलं तदानीम् । कथमिव निरुपायः प्राज्यकल्याणकी, निखिलसुखविधात्रीं प्राप्नुयाद् धर्मसिद्धिम् ? उपयुपरि पापीयान् न्युपायान् पापकर्मणि । प्रेक्षते धर्मकृत्ये च जन्मान्ध इब न क्वचित् । तुच्छं भूरितरख्यपायकलिकाकोशाकुलं सर्वतः, सर्व संसृतिकार्यमित्यपफलस्तत्राप्युपायक्रमः। पापक्षेप्तरि शर्मधातरि यशःसन्दोहरत्नोदधौ, सम्यग्धर्मविधौ पुनः स फलदस्तत् तत्र यत्नः सताम् ॥३॥ इति विमर्शितकत्यपथः सुधीरधिकधर्मनिवेशितमानसः। भवति कामिकसर्वसमीहितोत्तमसमृद्धिसमूहपदं जनः॥ ४ ॥ ॥ इति श्रीकधारस्नकोशे उपायचिन्तायां विजयदेवकथानकं समाप्तम् ॥ २४ ॥ उपसतो बिय पुन्खुत्तगुणगणालंकिओ पर धम्म । निवाहिउं समस्थो ति संयं तं पपक्खामि ॥ १ ॥ कोहो माणो माया लोहो चत्तारि हुँति हुकसाया । दिनविविहाववाया कलुसियसद्धम्मववसाया ॥ २ ॥ ते उदयनिरोहाओ उदए वा विफलभावजणणेण । जस्सोवसमंति फुडं सो भनाइ एत्थ उवसंतो ॥३ ॥ १ "स्तत्तत्र यत्नः प्र० ॥ २ 'हत्याप सं. प्र० ॥ ३ "यं संप सं. प्र. ॥ ४ यस्योपशाम्यन्ति स्फुटम् ।। उपशान्तस्य स्वरूपम् कषायाणां दोषाश्च %%% Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥६॥ देवभद्दसरिविरइओ कहारयणकोसो॥ सामनगुणाहिगारो। ॥१८५॥ उपशान्तप्रक्रमे सुद त्तकथानकम् २५॥ ॥ २॥ राया वि भत्तिपयरिसपसरताणंदसंदिरच्छिजलो। तित्थयरं पणमिय भत्तिसारमिय थुणिउमादत्तो संसारपङ्कजतुषार ! निरस्तमार 1, सज्ज्ञानसार ! निहतान्तरवैरिवार ।। विश्वप्रभो! प्रभव ! धर्म[विधे]र्विधेहि, मामीश ! मोहमकराकरतो बहिष्टात् कोऽयं भ्रमो जडधियोऽस्य जनस्य नाथ !, [यनाथ] तेऽभवभयच्छिदमन्यदेवम् ? । ईष्टे किमिष्टतमरत्ननिधि प्रदातुमाजन्मदुर्गतनरो बहुयाचितोऽपि ? एकस्त्वमीश! बहुशोर्तिजुपो मनुष्यान्, तुल्यक्षणं प्रतिविभिन्नफलार्थिनोऽपि । दूरस्थितोऽपि कुरुपे परिपूर्णवाञ्छान् , चिन्तामणेरिति विजेत विजृम्भितं ते स्वस्वक्रमागतनमस्करणीयवर्ग, तीर्थ्यां विहाय यदधीश ! भवन्तमीयुः । स्वामेकमेव भुवि देवतया वदन्तो, लोकोत्तरः स भवतो भुवि सिंहनाद: प्रत्यक्षमेव वितरन् निखिलाथेसाथै, विश्वप्रभो! तनुभृतां मनसाऽप्यसाध्यम् । किं नानुमापयसि दृग्विषयव्यतीतस्वर्गा-ऽपवर्गसुखसंहतिदानशक्तिम् । यैरत्र देव ! भवदीयपदप्रसादादासादितानि न मनोऽभिमतानि पम्भिः । तेषां सुरा हरि-विरश्चि-विरोचनाद्या, दातुं मनागपि मनोऽभिमतं किमीशाः? १ भक्तिप्रकर्षणसरदानन्दस्यन्दनशीलाक्षिजलः ॥ २ याचते एत्ययः ।। ॥३॥ ॥४॥ ॥ ५॥ ॥१८५॥ SAMAKACHAKROA5%AKALA5%% ARANANEWS *xxx+KARKAKK+ctsAKARANX*6+%ARAkRAKAR++58482 तीवस्मरानलिनि रोगभुजङ्गभीमे, कीनाश-राक्षसवतीह भवस्मशाने ? । यावद् वसामि तव तावदधीश नाममन्त्राक्षराणि मम चेतसि विस्फुरन्तु ॥ ७ ॥ इति नरपतिरहन्फुल्लवकारविन्दप्रहितगतनिमेषस्फारनेत्रद्विरेफः । स्तवनमनुविधाय क्षोणिपीठे निषण्णोऽलिकफलकनिविष्टस्पष्टहस्तान्जकोशः ॥ १ ॥ अह ससुरा-ऽसुर-नर-तिरियसत्तसाहारणाए वाणीए । पारद्धा धम्मकहा धमाइगरेण जयगुरुणा ॥ २ ॥ इह निचममिरभवजंतजंतुगोनाणमोयणसमत्थो (१) । धम्मो चिय किचो तदुचियत्थसंपाडणेण सया उचियं च किचमिह देववंदणं पूयणं च पइदियह । भवकूवनिवडिराणं हत्थालंबोऽयमेव जओ ॥ ४ ॥ सेवेयबा सिद्धंतवेइणो पाखणं च वरमुणिणो । तश्वियलो विहलो चिय सयलोचियधम्मवावारो ॥ ५ ॥ चैइयत्रो य पमाओ न [हु] कायदा कुसीलसंसग्गी । सयमवि अलसो निद्धम्मजोगओ होइ अहिययरो ॥६॥ अणिदाणं दाणं पि हु सद्धा-सकार-कमजुयं देयं । तब-सील-भावणाअक्खमाण एवं चिय पहाणं ॥७॥ विरई य विहेयवा अणुसरियव्वा य पइखणं सम्म । जं नत्थि न वि य होही तं पि मणो मर्णइ अनिरुद्धं ॥८॥ समयथचिंतणं पि हु कायवं एगचित्तयाए परं । न हि राग-दोस-कलुसस्स सोहणं विजए अवरं । ॥९ ॥ १-अनलिनि-अनलवति ॥ २ "श! मानम प्रती ॥ ३-तिर्यक्सत्त्वसाधारण्या ॥ ४ "बरेगेण प्रती ॥ ५ वक्तव्यः ॥ ६ अक्षमाणाम्असमर्थानाम् ॥ ७ विधातच्या अनुसरव्या च ॥ ८ 'मनुते' विचारयति ॥ १, सिद्धान्तार्थचिन्तनम् ।। १० 'शोधन' शुद्धिकरम् ॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरइओ कहारयण कोसो ॥ सामनागुनाहिगारो ॥ १८६॥ इय मोहमहानलडज्झमाणदेहाण भवसत्ताणं । निस्सट्टा मयबुद्धि व देखणा मणहरा पहुणा ॥ १० ॥ एत्यंतरे निदरिसणं दुक्खियाणं, सीमा विविवाहिविहुराणं, आदरिसो कुदरिसणाणं, निवासो दालिद्दोवद्दवस्स, अचंतविरूवो, चउहिँ अवच्चेहिं पिसाएहिं व परियरिओ पविट्टो एगो थेरपुरिसो। सायरकयपायपडणो य विश्नविडं पवत्तोभयवं ! विजियकामधेणु - चिंतामणि- कप्पपायवं तुम्हदरिसणं निसामिऊण नियतिक्खदुक्खनित्थरणत्थमहं किं पि पुच्छिउमिच्छामि । भगवया वाहरियं - भो देवाशुप्पिय ! वीसत्थो सवित्थरं साहेसु । घेरेण भणियं - भयवं ! एत्थेव पुरीए अँहमाजम्मरोरो नीसेससुकयपुन्नलोयाणं चक्खुपरिहरणत्थं व विहिणा निम्मिओ महाकिलेस कप्पणाए दिणगमणियं करेमि जायाणि य चंड- पयंड- चुडली- वोमनामाई चत्तारि पुत्तभंडाई, तेहि य कलिकालजणद्दणबाहुदंडेहिं व इओ तओ विष्फुरंतेहिं तं नत्थि जं न मे दुक्खमुवणीयं, कम्मि वा आवयावत्ते न पाडिओऽहमिमेहिं ? । तहा पढमो कलहेकरुई उंब्बियणिजो समत्थलोयस्स । परपरिभवी थ बीओ अंतुक्कासी य दुब्विणओ ध्या य दुट्ठसीला अच्चग्गलजंपिरी कुडिलचित्ता । तइया सुतो चउत्थो य एस नीसेसदोसघरं एवंविहिं संपइ सुएहिं संतावियस्स मे कहसु । किं पुचकयं पावं दारुणमवरज्झर जमेवं ? भगवया वागरियं - भो देवाणुप्पिय ! निसामेसु, ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ १ निःसृष्टा अमृतवृष्टिरिव ॥ २ "निष्भर [सं० प्र० । निस्तरणार्थम् अहम् ॥ ३ अहम् आजन्मरोरः । रोरः-दरिद्रः ॥ ४ उद्वेजनीयः समस्तलोकस्य ॥ ५ आत्मोत्कर्षी ॥ लायन्नावमन्नियकंदप्पो अणप्पमाहप्पपडियासिवाइसखोभो तिजयदुजेयवम्महमहणो हामि यहरि-हर-हिरन्नगन्भपोरिसारं भो रंभापमुहच्छरापारद्धपेच्छणयपर्वच पर्वचियपूयाइरेगो रंगततारतरतरंग विरायमाण महप्प माणविजय वेजयंतीस याउलविमलमणिकलहोय - रययविसालसालबलयाभिरामसिंहासनासीणो 'सबन्नु' ति गिअंतो महापुरिसो पुरिपरिसरे धम्मं साहइ, ता तदंसणेण पूयपावमप्पाणं काउं उज्झियसेसकायचा पगुणीहवउ जेण वच्चामो ति । इमं च असुयपुत्रं सोचा जाव विम्यविफारियच्छो 'किमेयं ?” ति अंतोविफुंरंतवियको सो अच्छइ ताव गयणमंडलं मंडयंती वियसंतपुंडरीयसंडाणुगारिणी सुरयणविमाणमालापरंपरा चउदिसावगासमणुरुंधती सबतो पसरिया । 'अरे ! सुनिच्छियमेस महाणुभावो नियप्पभावविहणियविग्धो सुरसंघो तस्स भगवओ पायदंसणत्थमित्थं पत्थितो संभाविज, ता अहं पि नियनयणनिम्माणं तदंसणेण सहलीकरेमि ति विभाविय मित्तेण समं पट्टिओ भगवओऽभिमुहं । अह जाव नयरिगोउरसमीत्रदेस कहं पि संपत्ती । ताव सियधरियछत्तो जयकश्विरकंधरारूढो रह- तुरय- जाण - पाण-सिबियगयरायलोयपरियरितो । राया विरुद्धमग्गो चलिओ तच्चलणनमणत्थं अन् य सेट्ठि-सत्थाह इब्भ- कोडुंबियाइणो लोया । नियनियविहवणुरूवं जिणनाहं चंदिउँ चलिया पँउरयरपउरजणगमणसंकडीहूयगरुयराय पहं । अहमहमिगाए लोगो कह कह वि जिणंतियं पत्तो अह दूराओ चिय मुकजाण - जंपाणपमुहविच्छड्डो । सो सो वि निसीयइ जहविहिकयजिणपयपणामो १ धूतपापम् ॥ २ अन्तर्विस्फुरद्वितर्कः ॥ ३ प्रचुरतरपौरजनगमनसङ्कटीभूतगुरुकराजपथम् ॥ ॥ १ ॥ ॥२॥ ॥ ३ ॥ ॥ ४ ॥ ॥ ५ ॥ %%%% उपशान्त प्रक्रमे सुदतकथानकम् २५ । कषाय विपाके रोरस्य तत्पुत्राणां च पूर्वभववृत्तगर्भिता कथा 1126411 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभरिविरहओ कहारयण-I कोसो॥ सामन्नगुणाहिगारो। ॥१८७॥ उपशान्तप्रक्रमे सुदचकथानकम् २५। विहत विजापउंजणाइणा जीवइ । सो य तुह बीयसुएण कयतिपुंडगाइमंडणेण दंसियफडाडोवेण भणिओ-अरे दुट्ठ! धिट्ट ! महरालुद्ध मुद्ध! को तुम? किं वा ज्झाणं ? किं धेयं का वा ओली? कइ वा पुप्फाणि? | इचाइ पुच्छितो भीतो संखुद्धो सो पडिओ से पाएसु, दवावियं भोयणं, ऐयते य सुवन्नदाणपुत्वयं भणिओ से जोगायरिएण-अहं एत्थ जीवामि मंताइवित्तीए, ता न तुबमेहिं किं पि वत्तवं ति । एवं च तदुवलद्धधणो सो इममेव अत्तुकरिसाइरूवं अत्थपयं निस्सीकाऊण सवत्थ परिब्भमिओ, उपजियं च किंचि दछ । [आ]गतो तुह समीवं, सिट्ठ माणप्पहाणं नियवित्त, पसंसिओ सायरं तुमए, जाओ य एत्थेव से पयरिसो ति। तइओ वि तुह सुओ तहाविहं अत्थोवञ्जणोवायं किं पि अपेच्छमाणो कवडविरइयधाउवाइयरूवो धाउवाइयविज सिक्खिऊण विप्पयारियमुद्धलोगोवलद्धकइवयकणयगदियाणगो इओ ततो भमंतो पत्तो कंपिल्लपुरं, उबविट्ठो एगस्थ हटे। दिट्टो तैत्थ वणिओ धणकणयसमिद्धो । पुच्छिओ सो सपणय-किं तुम्ह नामं? ति । तेण भणियं-धणदेवो त्ति । इयरेण वि कवडसीलयाए जंपियं-मम पि एयमेव नामं, ता तुमं सबहा मह भाउगो सि, पसीयति य मह लोयणाणि तुह दसणेण वि, ता काउमिच्छामि कि पि तुज्झोवयार, अतो समप्पेसु सुवन्नर्धारणमेगं गदियाणगं वा जेण धाउबायसिद्धीए दुगुणीकाऊण समप्पेमि ति । 'तह' ति गदियाणगमेगंमुवणीय वणिएणं । दुगुणीकाऊण तमप्पियं तेण । ततो वणिएण काराविओ १ "तविजा सं० प्र० ॥ २ परिपाटी ॥ ३ पगन्ते प्र० ॥ ४ आत्मोत्कर्षादिरूपम् ॥ ५ विप्रतारितमुग्धलोकोपलब्धकतिपयकनकगद्याणकः ॥ ६तध्वणि" ग. प्र. ॥ ७ माषचतुष्कमित एको धरणः ॥ ८ "मेवमु" सं. प्र.॥ ॥१८७॥ CASSESASAKASEARCACACANCE सायरं सो भोयणं, समप्पियाणि पुणो वि दस गदियाणगाई । ताणि वि पुवाणीयनियकणगपक्खेवेण भुञ्जो दुगुणियाणि तुह सुरण । ततो लोमेण अंधीकतो वणिओ, वीससिओ य बादं । सपुरकारं समप्पियाई तेण पंच सयाई भुञ्जो से सुवनस्स । तुह सुएण भणियं-भाउग! अच्छंतु तुह घरे चिय जाव ओसहसामग्गि करेमि । इयरेण भणियं-तुह पासट्टियाणं को एयाण दोसो ? । 'एवं होउ' त्ति पडिवञ्जिय तुह सुओ रयणीए घेत्तूण आगओ तुह समीवं । सविसेसं पसंसिओ तुमए, थिरीकतो य एवंविहपरप्पयारणपावट्ठाणे । चउत्थो वि तुह पुत्तो पउत्तदबोवजणविविहोवाओ महालोभाभिभूयत्तणेण जलहिलंघण-नरिंदसेवाइणा पगारेण किं पि अजिऊण एगस्स लिंगिणो पउररिद्धिणो पवनो सिस्सभावं । विणयवित्तीए य आवञ्जिय से हिययं, जातो य अहिय वीसासहाणं । कइवयदिणावसाणे य तस्स सबस्सं गिहिऊण मज्झरत्तसमए तुरियतुरियं पलाणो समागओ तुह समीवं । निवेदियं च दबजायं नियकिच्चं च । सो वि य उववूहिओ तुमए, पयडो य जहिच्छाए ववहरिउं । इय कोह-माण-माया-लोभञ्जियरित्थरंजियमणेण । भो थेर ! ते सुया तह कहं पि ठविया तएऽणत्थे ॥१॥ जह ताण न सुमिणे वि हु उप्पजइ तबिवजणेऽभिरुई । अवि तेसु बहुपयारं अचंतं उजया जाया ॥२॥ किंपागतरुफलं पिव मुहमहुरं तेण संभविय पुर्वि । अइकडुयविवागत्तेण ताण ते परिणया पच्छा ॥ ३ ॥ जइ कह बि कम्मवसओ अकिचकरणे वि अत्थसंपत्ती । विसदिद्धभोयणं पिव तहा वि सा मरणहेउ ति ॥४॥ १ याणि अन्नाणि वि तुह खं० प्र० ॥ २ याणि भु प्र० ॥ SWAMEREKA4%%%%ANAACAKACHC2549 कषायाणां विपाकः Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशान्तप्रक्रमे सुदत्तकथानकम् देवभइसरिविरइओ कहारयणकोसो॥ सामन्नगुणाहिगारोट ॥१८८॥ जइ कह वि चिले हत्थप्पवेसणे रयणमालियालाभो । तह वि हु तहकरखेवे कयाइ भुयगातो मरियवं ॥ ५ ॥ एवं च ते वरागा कोहाइसु गाढवद्धपडिबंधा । रिद्धिं पत्ता कम्माणुभावओ कइयवि दिणाणि ॥ ६ ॥ पच्छा मुणियसरूवा पुरमयहर-तलवराइलोगेण । निल्लुणियकत्र-नासा-कर-चरणा भूरिदुक्खत्ता ॥ ७ ॥ अइकलुण-दीणवयणा बहुसो धिकार-तञ्जणाभिहया । सयणकयनिंदणा अह कह पि मरणं समणुपत्ता ॥ ८ ॥ तेम्मरणदुक्खअतिक्खभल्लिभिजंतहिययसवस्सो । भो थेर ! तुम पि मतो निदिअंतो पुरजणेण ॥ ९ ॥ निंदियनर-निरय-तिरिक्खदुक्खलक्खाई अणुभविय बहुसो । भो थेर ! एत्थ जम्मे एस तुम इह पुरे जातो ॥१०॥ ते विय चत्तारि वि तुज्झगरुयपडिपंधरज्जुबद्धव । उप्पना एवंविहअवचभावेण मीमेण ॥ ११ ॥ पंडिजम्मकभत्थकसायओ य इहि पितह पयति । पाविति जह विडंबणमणुचियदुकम्मनिम्मायं ॥ १२ ॥ एत्तो चिय पढमसुतो कुरो आयविरच्छिविच्छोहो । विधिणो चंचलचित्तो पाणिवहम्मि पवत्तो य ।। १३ ।। "बीतो वि सेलथंभो च नम्मयावजिओ परुसभासी । परविक्खेवासत्तो अप्पपसंसी विणयहीणो ॥१४॥ तइया वि हु मायाजणियदोसओ इत्थिभावमणुपत्ता । देहेण सहावेण य कुडिला दिट्ठा य भुयगि व ॥ १५ ॥ एस चउत्थी विसुओ संतोस विवञ्जितो किससरीरो। न कहं पिछलद्धरई इतो ततो भमणसीलो य ॥१६॥ १ "मइह प्र. ॥ २ तन्मरणदुःखातितीक्ष्णभल्लिभिद्यमानहदयसर्वस्वः ॥ ३ज्जुबंध व्व सं० प्र० ॥ ४ प्रतिजन्माभ्यस्तकषायतः ॥ ५ आतामाक्षिविक्षेपः ॥ ६ 'विघृणः' दयावर्जितः ॥ ७ द्वितीयोऽपि ॥ ८ नम्रतावर्जितः ॥ ९, विक्षेप:--निन्दा ॥ ॥१८८॥ SHARAHARAKARKOREASONAKABRAHARASHARRAHARIES ANTARSWASAKSARABANSHADSADOASNAXXNAHARASHTRA तुम हि एत्तो भवातो सत्तमभवे कुम्मापुरे नयरे चरणाणं मज्झे दुग्गो नाम भणो अहेसि । ए[ए] य तुज्झ संपयं व तञ्जम्मे वि चत्तारि वि पुत्तत्तणेण उववण्णा, कुसलीकया य समुचियकलासु । सरते य काले तुच्छत्तणतो अत्थोवजणस्स, अणुप्पायातो खेत्तसस्ससंपयाए, सीयमाणे कुटुंबे तुमए चत्तारि वि पुत्ता वाहरिऊण भणिया-अरे ! कहमियाणिं होयवं? सवओ पणट्ठो जीवणोवातो ति । सुएहिं भणिय-ताय ! वीसत्थो होसु, तहा काहामो जहा अकिलेसेण निवाहो संपञ्जइ त्ति । तए भणियं-जुत्तमेयं तुब्भाणं ति ।। ततो पढमपुत्तो गओ अवरगामवासिणो पिउभाउणो पाहुणगो। दिन्नं तेण भोयणं, पुच्छिओ य-किमागमणकारण ?न्ति । सुएण जंपियं-पिउणा भागावसेसमग्गणत्थं पेसिओ म्हि । ततो परुट्टो इयरो, फरुसं जंपिउं पवत्तो य । उप्पनो य तुह सुयस्स कोवानलो, पयट्टी असमंजसमुल्लविउं, जातो कोलाहलो, उवडिया जुज्झेणं, कह वि फुट्ट सिरं तुह सुयस्स । घायरुहिरप्पवाह किलिनकाओ बंभणहचमुच्चरंतो य पट्टितो सो राउलं । भीओ इयरो, महाकट्ठण नियत्तिओ तुह सुओ। दिनाणि पंच दम्मसयाणि, खामिऊण विसजिती गओ रंजियमणो एसो सघरं । सिट्ठी तुह बुतंतो । रेजितो बाद तुर्म, 'वच्छ ! साहु साहु विहियं' ति पसंसितो। तहपसंसणे य सुट्टयरमारूढो एस कोहपारोहे, असमंजसुल्लाव-उदरविदारणुग्गिरणाइणा य मेसियजणेहिंतो अत्थोवञ्जणं काउमाढत्तो।। बीओ य सुओ सहाइसामग्गि काऊण गतो कुसत्थलपुरं। दिट्ठो य तहिं भूइलो नाम जोगायरिओ लोयपुञ्जो तहा१ "रणं ? ति प्र० ॥२ घातरुधिरप्रवाह किन्नकायः ब्राह्मणहल्यामुभरन् ॥ ३ 'वातोहकि प्र० । -प्रपातीपक्लिन- ॥ ४ राजकुलम् ॥ ३२ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभइसरिविरइओ कहारयणकोसो ॥ सामनगुजाहिगारो। ॥१८९॥ कोहे पाउन्भूए चिंतेजा ही! इमो महापावो । सवंगजणियदाहो वहरपबंधाण बंधू य ॥१ ॥ सं-पराणुद्देगकरो सुगइपुरीगोउरग्गलादंडो । ते धन्ना कयपुमा जेहिं इमो वजिओ दर ॥ २ ॥ माणे वि इमं भावेज पेच्छ एयस्स दारुणं रूवं । जं एतेणोवहया नमंति पूइंति न गुरुं पि ॥ ३ ॥ सुय-सीलविलयहेऊ तिवग्गसंपत्तिनिम्महणकेऊ । दुम्मइ-कलहालाणो ही ही! माणो दुहामाणो ॥ ४ ॥ उदयगयाए मायाए भावियचं इमं हि ही! पावा । विस्सासविणासयरी लोयम्मि लहुत्तजणणी य विबुहजणनिंदणिजा अणुसरणिजा य नीयलोयाणं । ते धन्ना जेहिं इमा समुझिया सुगइनिम्महणी लोहे वि विभावेजा तबसगाणं पए पएऽणत्थं । लामे वि असंतोसं चोरिकाईपसंगं च। ॥ ७ ॥ दविणञ्जण-रक्खण-वडणाहिं बाढं सरीरसंता । परिभोगे वि य दुक्खं तबिरयाणं च परमसुहं ॥८ ॥ एवं कसायपडिवक्खभावणाभावणे[ग] पडिसमय । तह किच्चं जह तेसिं न कयाइ वि होज अवगासो ॥९॥ एवं निसामिऊणं खेमो खेमं परं समीहंतो । दिक्ख जिर्णपामूले पडिवनो तिवसद्धाए सुदत्तो वि पडिवजिऊण जिणधम्म कसायपडिवक्खभावणं च गतो नियघरं, पयट्टिउमारद्धो य समुचियकरणेसु । अन्नया य पिउणा तजितो एसो-अरे सुदत्त ! साहु व अदंसियकोववियारो कम्मयराणं पि हीलापयं भविस्ससि, घरजणेण वि अवमणिजिहसि, किं वा न सुयं तुमए ? १ स्वपरयोगद्वेगकरः मुगतिपुरीगोपुरामलावण्यः ।। २ जिनपादमूले ॥ उपशान्तप्रक्रमे सुदत्तकथानकम् २५। कषायविजय भावना ॥१८९॥ जे भद्दजाइणो हुँति इस्थिणो सुप्पसंतवावारा । ते' अबियाणेहिं फुड पाहिजंतीह जवसाई ॥१ ॥ जे पुण दुट्ठा करिणो हणंति भंजंति जंति य जहिच्छं । ते गिजंति पहाणा कीरइ पूया य तेसिं च ॥२ ॥ ता वच्छ! एस कालो न पसंताणं न साहुचेट्ठाणं । जलनिहिणो वि हु उवरिं ठंति तरंगा तले मणिणो ॥३॥ सुदत्तेण जंपियं-ताय ! होउ किं पि, कडुयविवागो खु कसायपरिणामो, कहं मुणियतचिवागो असमंजसायरणेण तुच्छजीवियकए पउरपारभवियकिलेसायासभायणमप्पाणं करेमि ? ति । पिउणा भणियं-जं रोयइ तं कुणसु चि । एगया य जाय अबरिसणं, पीडिओ लोगो, दुत्थावत्थमणुपत्ता पागयनरा पयट्टा चोरकिच्चेसु, सचमकारो अप्परक्खणत्थं सावहाण पवनो इडिपत्तो लोगो । एवं च कत्थइ ओगासमलभमाणा जहिच्छासोविरजामरक्खगं, इतो ततो विप्पइनगिहवक्खरं, असंघडियनिविडकवाडसंपुडं पविट्ठा तकरा सुदत्तमंदिरं । लूडियं सबस्स, सिरोवरिद्ववियपोट्टला य निग्गया घराओ. कम्मजोगेण नीहरंता पचा आरक्खिगेहिं, ससंरभ संभासिया--अरे! के तुब्मे? किंवा पोट्ठलएम इमं सोचा संखुद्धा तकरा, पमुकपोट्टलया य पलाइउमारद्धा । उच्छलिओ तो कोलाहलो, उडिओ सुदत्तो । पंचभिजाणियं च तेण तं सर्व नीयं नियघरे । चोरा वि के वि तवेलमेव विणासिया, के वि बंधिऊण खेत्ता तलबरेहिं गोत्तीए । 'न घणहाणी जाय' ति सेलहितो मुदत्तो लोगेणं । 'अहो ! खंतिमूलस्स जिणधम्मस्स माहप्प' ति सविसेसं उज्जुत्तो जातो धम्मकिच्चेसु । १तेऽविखं० । ते उ वि प्र० । ते अविशायकैः ॥ २ यथेच्छास्वपनशीलयामरक्षकम् इतस्ततो विप्रकीर्ण गृहोपस्करम् ॥ ३ प्रत्यभिज्ञाय ॥ ४ कारागारे इत्यर्थः ॥ ५ महाधितः ।। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरइओ कहारयणकोसो। सामनगुणाहिगारो। अन्नया य कुटुंबकिच्चेसु ठविऊण कणिट्ठभायरं पबहतो एसो । अहिगयसुत्तत्थो य विहरंतो गामाणुगामं गओ कलंबुयाभिहाणं सन्निवेसं । तहिं च गामबहिया काउस्सग्गडिओ दिट्टो य तेहिं पुन्बुत्ततकरमयसेसेहिं, पञ्चभिजाणितो य । तओ 'एयकओ पुत्वकालिओऽणत्थो' त्ति संकंतेहिं अणेगप्पयारं पारद्धो सो उवसम्गिउं । सम्ममहियासमाणो य चिंतिउं पवत्तो जिणवयणरहस्सं पसमसारमुवलक्खिऊण मा जीव ! | काहिसि पओसमेएसु बालिसेसुं हर्णतेसु ॥ १ ॥ केत्तियमेत्तं एवं अञ्ज वि ? सिरिअज्जखंदगमुणीहिं । जंततणुपीलणं पि हु दुबिसहं सम्ममहिसहियं ॥२॥ सव्वाणुभूहपमुहेहिं समणसीहेहिं जियकसाएहिं । गोसालगऽग्गिजेलिएहिं तिक्खियं तिक्खदुक्खं पि ॥ ३ ॥ जह पुत्वभवजियदुकडाण सोढुं विवागमरिहंति । अरहंता वि हु विहुरत्तणं तुम भयसि ता कीस ? ॥४ ॥ इय निम्मललेसाजलपक्खालियसयलकलिलकालुस्सो । मरिऊण सो महप्पा सव्वढे सुरवरो जाओ इय उवसंताण सुहं इह-परभवसंभवं पि भावितो । को निकसाययाए सम्मं न ठवेज अप्पाणं? ॥६॥ ताव गुणा ताव मई ताव जए भमइ निम्मला कित्ती । ताव य गुरु व देवो व नूण पूजइ जणेण ॥७॥ जाव न कसायकालुस्सदूसणं कह वि पाउणह पाणी । अह तं पि कह चि पत्तो होइलहू ता तणाती वि ॥८॥ किं बहुणा भणिएणं ? उवसमविहलाण निष्फलो धम्मो । ता सवपयारेणं कसायविजयाय जइयत्वं ।। ९॥ अपि च१ पूर्वोक्ततस्करमतशेषैः ॥ २ गोशालकाग्निज्वलितः ॥ ३ जणिए सं० प्र० ॥ ४ अरिहं प्र.॥ उपशान्तप्रक्रमे सुदत्तकथानकम् २५ । कषायविजयभावना ॥१९॥ ॥१९॥ MARATHI+KAHAKARKAR+KR6%25AKAKIRAN इय कोह-माण-माया-लोभा सक्खं व पयडियसरूवा । ते तुज्झमप्पणो वि य दुहावहा सेसगाणं पि ॥१७॥ संसग्गिसंभवे वि हु एएसिं ज्झत्ति विमलसीलो वि । उज्झियनिययववत्थो किं तमकिच्चं न जं कुणइ ॥ १८ ॥ ता थेरपुरिस ! तप्पच्चयं इमं अणुमईभवं तह य । दुकम्मविलसियं सहसु कीस संतप्पसे बादं? ॥१९॥ एवं तिहुयणदिवायरेण भगवया जिणेण भणिए सो थेरो जाईसरणपचक्खीभूयपुवाणुभूयभावो भाविऊण भवविरुवयं बयपडिबत्तिकाउमसमत्थो सम्मइंसणपडिवत्तिसारमगारधम्म पडिवन्नो । तप्पुत्ता पुण अईतोदिनकसायकालुस्सपणढविवेया पुत्वमग्गमेव ओइन ति ।। छ॥ एत्यंतरे निसामियथेरकुटुंबविताणुसारविमरिसियमित्तमाणुसदोसविसेसेण जंपियं सुदत्तेण-भो मित्त ! परिभावियं तुमए एत्थ किं पि?। खेमेण भणिय-सामनेण किं पि परिभावियं, न विसेसओ । ततो सुदत्तेण सिट्ठो भावत्थो, जहा-भद्द ! तुमए थेरेण व कसायाणुमइभावेण एवंविहकम्ममन्जियं संभाविजइ । खेमेण भणिय-एवमेयं, परं 'कहमियाणि इमातो घोरघरजणजणियदोसपासाओ मोक्खो होहि ?' ति एस तेलोकचक्खू सक्खा आपुच्छिउँ जुत्तो, जेण तेदाइट्ठाणुट्ठाणनिट्ठा पवट्टामो ति । 'एवं होउ' ति दोहिं वि पणमिऊण सामी भणिओ-भयवं! कहमियाणिं एवंविहपावकसायदुबिलसियातो मोक्खो ? ति | भगवया जंपियं-तविरुद्धाणुढाणाओ, नऽनहा, तं च एवं १ उन्सितनिजकव्यवस्थः ॥ २ अतीवोदीर्णकषायकानुष्यप्रणष्टविवेकाः ॥ ३ अवतीर्णाः ॥ ४ निशमितस्थविरकुटुम्बवृत्तान्तानुसार विमृष्टमित्रमानुषदोषविशेषेण ॥ ५ "स तिलो" प्र. ॥ ६तदादिष्टानुष्ठाननिमः ।। ANSORRYKANAACASEANIRECCASARAKARANG Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभइसरि विरहओ कहारयणकोसो॥ सामनगुणाहिगारो। दक्षत्वे सुरशेखरराजपुत्रकथानकम् २६। बहुसत्थपाढगा वि हु नीसेसकलाकलावनिउणा वि । दक्खा न हुंति जइ ता हीलापयविं पवअंति ॥ ४ ॥ संस्थत्थअपरिहत्थो वि तुच्छजाणो विहीणपयई वि । दक्खत्तगुणग्घविओ पूइजइ निवसमासुं पि एतो चिय जाइ-कुलाइगुणजुयाणं पि वारिय समए । पवजाए दाणं अचंतं करणजड्डाणं । ॥६ ॥ पडिलेहणाइकि मुणमाणा वि हुण जेण ते काउं। सम्मं तरंति धम्मस्थिणो वि थूरयरकिरियत्ता ॥ ७॥ इय सक्खं चिय दक्खा पुरिसा परमं सिरिं पवजंति । इह लोए चिय सुरसेहरो व परदेसवत्ती चि ॥८ ॥ तहाहि-अस्थि एत्थेव भारहे वासे कुसहाविसए निच्चपयट्टनट्टविहिविहियपहियपरितोसं असेसदेससविसेससमिद्धिसमुदयपत्तपवित्तपुरिसप्परविराइयं रायपुरं नाम नयरं । तं च पुन-पयावाइगुणेहिं पालेड पणमंतसीमालभूवालमउलिमणिकिरणालीजलपडलपक्खालियपायवीढो असमसाहसावञ्जियर्वजहरो हरिसेणो नाम राया । असेसंतेउरीतिलयभृया विजयवई नाम महादेवी । उत्तरोत्तरकलाकोसल्लसमलंकिया य जयदेव-देवधर-धरणिधर-सुरसेहराइणो पुत्ता । मंतिणो य सुमइ-वामदेवप्पमुहा । तेसु य निहित्तरञ्जकजचिंताभरो सो राया तिवग्गसंपाडणपरमं सुहमुव जह। [अन्नया] जाया य पच्छिमरयणीए सुहपसुत्तस्स तस्स राइणो चिंता-एचिरं हि कालमविकलं लीलाए च्चिय करकिसलयट्ठियं वलयं व धरियं धरणिवलयं, पइडियं चउद्दिसिनिउंजेसु नीहार-हारधवलं जसपडलं, कुसुममालिय च नरवइसिरेसु संकामिया १शाखा निपुणोऽपि तुच्छज्ञानोऽपि हीनप्रकृतिरपि । दक्षत्वगुणपूर्णः पूज्यते नुपसभास्वपि ॥ २ नित्यप्रवृत्तनाव्यविधिविहितपथिकपरितोषम् अशेषदेशसविशेषसमृद्धिसमुदयप्राप्तपवित्रपुरुषप्रवरविरागराजितम् ॥ ३ 'वरविरायराइयं राय° सं० ।। ४ बजधरः इन्द्रः ॥ ५ वजयधरणि सं०॥ ॥१९॥ AASANSARKACASSACRACA A ॥१९॥ निविसंकं आणा, पणामियं च नियविभवाणुरूवमणिवारियप्पसरं [सरं]तदीणाईणं धणं, रेहामित्तं पि नाइकंता चिरपुरिसमजाया, नेव समइरेगदंड-करभराइणा थेवं पि उवद्दवितो जणो । एत्तो उत्तरं च जराजञ्जरिए मह सरीरे मंदीभूए य आणा-इस्सरियाइसारे रजवाबारे किमिमे करिस्संति कुमारा? कहं वा पुवपुरिसडिईमणुयत्तिस्संति? को बा एएहिंतो परमपयरिसपत्तकलाकोसलाइभावो ? ति । जइ सम्म मूले चिय सुविवेचियं इमं होइ ता सविसेसोवलद्धपुरिसारोवियरजभरस्स मह उभयलोगसफलजीवियसंपाडणेण समीहियं किं न सिज्झइ ? ति । ता पचूसे मंतिजणेण सह विमरिसिऊण, सयलकुमारपरिक्खं च काऊण तदचियमायरामि-त्ति विभाविरस्स ताडियं पडपडह-ज्झल्लरीज्झंकारुम्मिस्सपउरमेरीभकारभासुरं पाभाइयं मंगलतरं । कमेण य पभाया रयणी, समुग्गतो दिवायरो । कयपाभाइयकिचो य निसन्नो अस्थाणमंडवे मेइणीवई । निविद्रं समुचियहाणे मंति-सामंतमंडलं । खणमेकं चिंतियरजको य विसञ्जियसेवगवग्गो कइवयपहाणमंतिपरिवुडो एगते रयणिपरिभावियं निययाभिष्पार्य मंतीण कहिउं पवत्तो। तेहिं वि विमलमइकोसल्लावगयकायबविभागेहिं समुल्लवियं-देव ! जुत्तमेयं, एवं कीरउ ति । ततो वाहराविया कुमारा, वागरिया य-अरे वच्छा ! दंसेह एचिरकालपरिकलियकलापंरिहस्थयं ति । 'ज ताओ आणवेह' ति भणिऊण जयदेवपमोक्खकुमारेहिं पारद्धा दंसिउँ चित्त-पत्तच्छेय-निजुद्धाइणो कलाविसेसा । समकालं पढियाण वि एंगझावगविहनविजाण । जाणियसत्थस्थाण वि पुणरुत्तकयस्समाणं पि ॥१॥ १ अनिरं वारितप्रसरं सरदीनादीनाम् ॥ २ पूर्वपुरुषस्थिति अनुवर्तयिष्यन्ति ? को था 'एतेभ्यः' एतेषु परमप्रकर्षप्राप्तकलाकौशलादिभावः ॥ ३परिहत्वयंनिपुणताम् ॥ ४ एकाध्यापकवितीर्ण विद्यानाम् । ज्ञातशास्त्रार्थानामपि (शातशखाखाणामपि) पुनरुककृतश्रमाणामपि । C % Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरइओ 64644560 दक्षत्वे सुरशेखरराजपुत्रकथानकम् २६। कहारयणकोसो ॥ सामनगुणाहिगारो। रायसुयाण ससत्तीए दंसिराणं पि पत्तछेजाई। सुरसेहरस्स दक्खत्तपयरिसो असरिसो कोइ ॥ २ ॥ जेत्तियमेत्तं सवे चित्तालिहणाइयं किर कुमारा । कुवंति तेत्तियं एक्कगो वि सुरसेहरो कुणइ ॥३ ॥ अह उवलक्खियदक्खत्तणक्खित्तसबिसेससिणिद्धचक्खुणा पलोइतो मतीहिं सुरसेहरो । राइणा वि चित्तब्भतरुच्छलियपरमपमोएण वि कयागारसंवरेण ईसि अन्नववएसेण एसो । सवायरं पसंसिया य जयदेवाइणो कुमारा, न किंचि संलत्तो सुरसेहरो। [ ततो ] विलक्खीहूओ सो मणम्मि, मणागममरिसितो य । दावियतंबोला य कुमारा गया जहागयं । मंतीहिं भणियं-देव ! अति हि नाम दक्खत्तणगुणेण सेसकुमारेहिंतो अइसइजइ सुरसेहरो । राइणा जंपियं-एवमेयं, केवलं अञ्ज वि धणुवेयविसए परिक्खियवो एसो। पडिस्सुयमिमं मंतीहिं । अवरवासरे य पुणो वाहराविया सवे कुमारा भणिया-अरे ! पयडेह नियनियकोदंडदंडवेयवियड्डिम ति । 'तह त्ति पडिवचनरिंदाएसा रायसुया पयट्टा धणुदंडारोवणाईसु । नवरं तडडंतअडणिकोडिं निबिडकरुकरिसितो गुणो चडइ । सैजियसरासणाणं जा नऽज वि सेसकुमराण ॥१॥ ता वलइय-संधिय-कड्डिउग्गकोदंडजंतनिप्फिडितो । लक्खं पडुच्च पत्तो कुमारसुरसेहरस्स सरो एकेकं जाव सरं खिवंति कुमरा सरासणेहिंतो । ताव सुरसेहरो हरिसितो व सरधोरणिं मुयइ ॥ ३ ॥ एकेक सरलक्खं जा न वि विधंति सेसरायसुया । ता सुरसेहरकुमरो विंधइ सत्तऽट्ठ लक्खाई ॥ ४ ॥ दक्खत्तणं धणुम्मि व सेसेसु वि पहरणेसु पेच्छंतो । सुरसेहरस्स राया पर मणे वहइ परितोसं १ उपलक्षितदक्षलाक्षिप्तसविशेषस्निग्धचक्षुषा ॥ २ अतिशीयते ॥ ३ सजिलय' सं० ॥ ॥१९२॥ RECRACASSAXASAKAR ॥१९२॥ MARREGARCANBCNASALSAXAAAACARNERMERCIANS उपशान्तानुपशान्तयोः फलम ॥२॥ यदच्छमीदलपुटै रसकूपिकाया:, कोटीप्रवेधकरसं कणशो विगृह्य । निर्व्यग्रधीः प्रचुरकालमखिनकाया, पात्रं सुदुर्भरमपि प्रपिपर्ति कश्चित् पश्चात् कथश्चन भवत्कुविकल्पयोगात्, तं स्वर्गपत्रपुटकैझटिति प्रजह्यात् । वर्षायुतार्जितमपि क्षणमात्रकेण, तद्वत् कषायकलुषः सुकृतं विहन्ति यद्वत् कपायवति वाससि रङ्गयोगः, तैलोपलेपिनि वपुष्यपि पशुपूरः । नैर्मल्यभाजि मुकुरे प्रतिविम्बभावस्तद्वत कषायिणि शरीरिणि पापलेप: सवेंकपोल्वणकषायकृशानुतीव्रसन्तापसम्पदुपशान्तिसुनिवृतात्मा । संसारवेश्मनि वसन्नपि मुक्तिसौख्यसख्यश्रियं समधिगच्छति नात्र चित्रम् ॥ इति श्रीकथारत्नकोशे उपशान्तप्रक्रमे सुदत्तकथानकं समाप्तम् ॥ २५ ॥ ॥३॥ ॥ ४॥ सिक्खाण गुणाण य हुँति भायणं पाउणंति मोक्खं पि । दक्ख च्चिय पुरिसा तो भणामि दक्खस्सरूवमहं ॥ १ ॥ जो कम्म-सिप्प-वणियाइएसु समतोचियपवित्तिसु य । अक्खेवेण पयट्टर साहइ किचं च सी दक्खो ॥२॥ कयकरणो वा दक्खो आगारिंगियपमुक्खहेऊहिं । जो वा परचित्तविऊ तं पि हु अक्खंति दक्खमिह ॥३॥ १ यः कर्मशिल्पवाणिज्यादिकेषु समयोचितप्रवृत्तिषु च ॥ २ पविणया' खे० प्र० ॥ ३ परिचत्त ख. प्र० । परचित्तवित् ॥ NEXSAKASEAR दक्षत्वस्य स्वरूपम् Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरि-3 विरइओ SHREKAR दक्षत्वे सुरशेखरराजपुत्रकथानकम् कहारयणकोसो॥ सामनगुणाहिगारो संसयतुलाए नियजीवियवमारोवियं पयर्द्वता । हच्छं लम्छि करकमलकोडरं निति सप्पुरिसा ॥ २॥ करिणो केसरिणो वि य भयावहा ताव नूण भासंति । जाव न विफुरद अन्ननविकिम वीरियं हियए ॥३॥ इय गुरुहिययावढुंभनिन्भरं तं पैयंपिरं दर्दु । लामिलंतनयणा झमकिया ज्झत्ति रायसुया ॥ ४ ॥ 'किं वा निबिडवीडाविच्छायचणमुवणीएहिं इमेहिं बरागेहिं ? ति विभाविय गाढनिबद्धकॅडिल्लदुकूलंचलो, सुसंजमियकेसपासो, कुंडलीकयावरिलं करपल्लवेण धरितो सुरसेहरो पधावितो करिं पडुच वेगेणं । दिट्ठो यसो कयहकापोकारो सरोर्सऽच्छिविच्छोहेण ताविच्छपुष्फगुच्छाणुरूवमयगंधिणा हत्थिणा । ततो उल्लालियपयंड-चडुलसुंडादंडो सो वेगेण जमो व धावितो कुमराभिमुहं । अवि य कालोयहिणा खरपलयपवणउच्छालि व कल्लोलो । उन्भवियअग्गहस्थो तमोत्थरंतो सहइ हत्थी अइगरुयकोवसंरंभनिन्भरं धाविरो वि मत्तकरी । अमुणियकमसंचारो वियरइ दुकम्मनिचउ छ ॥२ ॥ बहुवेगममणसंते य तम्मि कुमरेण अप्पणो वत्थं । कुंडलियं तयभिमुहं पक्खित्तमखुद्धचित्तेण ॥ ३ ॥ हत्थी वि यतकोवं निजविउं जाव तत्थ वत्थम्मि । उन्नामियग्गकातो बाद परिणमिउमारद्धो ॥ ४ ॥ १ आरोप्य प्रवर्त्तमानाः शीघ्रं लक्ष्मीम् ॥ २ अन्यान्यविक्रमम् ॥ ३ प्रजापनशीलम् ॥ ४-कटिवनदुकूलाचलः ॥ ५ कुण्डलीकृतोपरितनवस्नम् ॥ ६ सच्छवि खं०। सरोषाक्षिविक्षेपेण तापिच्छपुष्पगुच्छानुरूपमद्गन्धिना। तापिच्छ:-तमालवृक्षः ॥ ७ उल्ललि खं० प्र०॥ ८ "लिय चक' प्र० ॥ ९ ऊोकृताग्रहस्तः तम् आक्रममाणो राजते इस्ती ॥ १० बहुवेगभ्रमणश्रान्ते ॥ ११ कुण्डलयित्वा ॥ १२ उन्नामितानकायः ।। ॥१९३॥ ॥१९३॥ REKKAKKARKIEWERSARKAR***%%%**** ताव अइदक्खयाए कुमरो खंधम्मि से समारूढो । गाइउमारद्धो वेणुविजइणा सुंदरसरेण ॥ ५ ॥ गारुडमंतुचारोच कनविवरं अहिस्स व गयस्स । गेयसरो पविसंतो दप्पविसं से पणासेह ॥ ६ ॥ अह समुवलद्धसाभावियसरूवे सयमेवाऽऽलाणसालासमीवमणुपचे जयकरिम्मि निबिडखंधनिबद्धासणं रायसुयमवलोइऊण पुच्छिय राहणा-को एस कुमारो ? ति । सेवगजणेण भणियं-देव ! तुम्हपायपउमोवजीवीण चीण-हूण-कलिंग-बंगरायसुयाईण मज्झातो न ताव एसो, अतो देसंतरिओ व संभाविञ्जइ, दक्खत्तणाइगुणेण य विसिडकुलुब्भवो व लक्खिजइ ति । तओ वाहराविओ सुरसेहरो राइणा, दवावियं किं पि आसणं । 'गउरवविरहियं ति न उवविट्ठो रायसुतो। 'गरुयरायकुलसंभवों' ति निच्छिऊण य रना सायरं उववेसितो समीवसिंहासणे, आपुच्छिओ य-वच्छ ! कत्तो आगओ सि ? के वा अम्मा-पियरो ? किं वा कुलं ? कत्तो वा कलासु दक्खत्तणं ? ति । सुरसेहरेण जंपियं-महाराय ! वइदेसियसरूवे पच्चक्खमुवलक्खिञ्जमाणे सेससविकत्थणावित्थरो विडंबणामित्तो चेव पडिहाइ । राइणा जंपियं-वच्छ! मा एवं उल्लवसु, दिस्समाणमणहरमाहप्पेसु वि रयणाइसु आगराइपुच्छा छेयजणस्स वि सुप्पसिद्धा चेव, ता किं तुममित्थमत्थाणे चिय किलिस्ससि । सुरसेहरेण जंपियं सुयस्स सीलस्स कुलस्स अप्पणो, सयं सरूवं पकहेइ जो नरो । न सोहए तस्स तमिदुसुंदरं, सचामरं छचमिवऽप्पणो ट्ठियं (१) ॥१॥ १ शेषस्वविकत्थनविस्तरः ॥ २ दिपमा ख. ॥ RRERAREERSNSAACACIRCREACRORA Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभइसरिविरहओ दक्षत्वे सुरशेखरराजपुत्रकथानकम् कहारयणकोसो॥ सामनगुजाहिगारो। वरं हि मूयत्तणमेव सबहा, अमाणुसाए अडवीए वा ठिई । न जस्थ थेवं पि हु अप्पणो कहापवंचर्चिताए मणो पयदि ॥२॥ अह निच्छियतयभिष्पारण पुहईवणा भणिया निययसेवगा-अरे! सम्म पेहेह, इमिणा सह कोई सहाई आगतो न व? ति । समीवोवगएण जंपियं भीमेण-देव! एसो हं एयस्स रायसुयस्स नाममित्तेण सहाई, परमत्थतो पुण पुषजम्मसमुवजियसुकयसंभारो व एयस्स महाणुभावस्स सहाइ ति । राइणा भणियं-एवमेयं, तहावि ममोवरोहेण कहेसु-अलंकियकयरगोत्तो किमभिहाणभूवइसुओ एसो ? ति । ततो भीमेण सिट्ठो सबो से वुत्तो। परितुट्ठो राया । सवायरमालिंगिऊण सुरसेहरो आरोविओ उच्छंगे, भणितो य-वच्छ! किमेवं सरूवमेचकहणे वि अप्पपसंसादोसमुप्पाएसि ? ति । परोप्परपणयप्पहाणुल्लावेण खणमेकं विगमिऊण उडिया भोयणकरणत्थं । भोयणावसाणे य वाहराविऊण संवच्छरियं कतो पाणिग्गहणलग्गविणिच्छओ । पउणीकयं विवाहोवगरणं राइणा, समुचियसमए य सप्पणय अमच्चमुहेण भणाविओ सुरसेहरो, जहाललियसुंदरी नाम रन्नो धूया नेमित्तिएण आइट्ठा-'जो पट्टहस्थि अवहत्थियालाणखंभं अवगनियारोहगवग्गं निरग्गलं वियरतं दक्खत्तणेण आरुहिऊण आलाणट्ठाणे आणेही सो इमीए पाणिग्गाहो भविस्सई' ति, एयप्पओयणप्पसाहणत्थं च पढमयरमेवाणेगे उवाहरिया रायसुया, न य तेहिंतो केणइ किं पि पत्थुयत्थे सिद्धं, तुमए य भो रायमुय! करिवरं विणयंतेण सयमेव उवजिया एसा रायसुया, ता संपयं पउमे पउँम व तुमम्मि निसीयउ, अणुरूवपइसंपत्तीए सहलीकरेउ य निय १'तो निव सं० ॥२ "उमो व सं० प्र० । पझे 'पद्मा इव लक्ष्मीरिव ॥ ३ निजनिर्माणम् इयमिति ॥ ॥१९४॥ REKANASAASHAKAKARANANASIKERRRRRRRAHARAS ॥१९४॥ PARCHANAKAASHARABACASSAGA महापुरुषत्वम् ॥ तह वि हु अवायभीतो ताण पुरो नेव तं पसंसेइ । हरिसेणमहीनाहो अहो! अलक्खा महापुरिसा ॥६॥ हरिसट्ठाणे रुट्ठा कोवट्ठाणे य दरिसियप्पणया । नअंति कहं गरुया रुट्ठा तुट्ठा व इयरेहिं ? ॥७॥ अह अदिनसाहुकारो सुरसेहरो सेसरायसुया य कयसकारा गया जहागयं । पत्थावे य दिना नरिंदेण पत्तेयं कुमाराणुभुत्ती। सुरसेहरो वि अणुवलद्भुतहाविहगामाइपसायत्तणेण अप्पाणं परिभूयं मन्नतो रयणीए नीहरिओ नयराओ भीमाभिहाणेण एगेण सहाइणा समं । कमेण य वच्चंतो संपत्तो लैच्छीविलासविच्छडुरिल्ले कमलसंडे व कमलसंडपुरे नयरम्मि पविट्ठो नयरमज्झम्मि । एत्थंतरम्मि तन्नयरसामिणो कत्तविरियराइणो गंधहत्थी करप्पहारजरियालाणखंभो जहिच्छाविहारमुंसुरियपेक्खगजणो अकालकुवियकयंतविन्भमो निरंकुसं सवत्थ वियरिङ पवत्तो । 'तं च जो किर अंकुसपहारम'कुर्णतो आलाणथंभदेसमाऽऽणेही तस्स राया दुहियरं दाहि' त्ति पंणविसेसनिसामणुप्पन्नामरिसा बहवो खत्तियकुमारा गंधबाइकलाविसेसविभाणगब्बुद्धरा करिवरखलणस्थमुवटिया । अह तं रायधूयापयाणपणपहाणं तहाविहवुर्ततं जणमुहातो सुरसेहररायसुओ निसामिऊण गओ कुंजराभिमुहं । दिट्ठा य पुरतो पिट्ठतो पासओ य रवि व तिमिरुकेरा, केसरिं व कुरंगवग्गा, दूरगया गयवरमुवसप्पमाणा गरायसुया । ततो ईसिपहसिरेण भणिया ते सुरसेहरकुमारण किं दूरगया अच्छह ? आरुहद्द न जं गयस्स खंधम्मि । जीवियनिरविक्खाणं कजाणं होह निष्फत्ती ॥१॥ १ अलक्ष्याः ॥ २ ज्ञायन्ते ॥ ३ कमलपण्डपले लक्ष्मीदेव्या बिलासैयप्ति, नगरपक्षे पुनः ऋद्धिज निर्विलासरित्यर्थः ॥ ४ कर:-शुण्टादग्दः । मुसुमूरिम-भजित ॥ ६ प्रतिज्ञाविशेषश्रवणजाताभिलाषा इत्यर्थः ।।७'तिमिरोत्करा:'-अन्धकारसमूहाः ॥८ ईषत्प्रहसनशीलेन । HTRA Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरइओ कहारयणकोसो ॥ सामन्नगुणाहिगारो । ॥१९५॥ 36++ आणत्तो अवराजिओ, माराविया य घायगा, 'जीवियदायगी' ति सहायरं पूहतो सुरसेहरो, पणामियं च नियरजं । तं च अणिच्छंतो पाए पडिऊण रायसुओ विन्नविडं पवत्तो—देव ! ममोवरि पसायं कुणमाणा खमह अवराजियस्स अवराहमिममेकं, अजाणो क्खु एसो, कहमन्त्रहा देवाण वि दुलहाणं देवपायाणमणिडुं काउं ववसेज ? एयाणं पि घायगाणं देउ देवो अभयदानं नियदुकयहयाण कीडप्पायाणं, किमिमिणा मेयमारणेण ? । 'तह' त्ति पडिवनं रना, नियत्तिओ अवराइयरायपुत्तो | 'अहो ! महापुरिसया, अहो ! निरीहत्तणं, अहो ! परोवयारि' त्ति बित्थरिओ सवत्थ सुरसेहरस्स साहुवाओ । अवश्वासरे य राया वेरग्गोवगतो चिंतिउं पवत्तो हाथी ! निरत्थयं मुद्धबुद्धिणो पुचसंतइनिमित्तं । सुहि-सयण मेत्तहेउं च कह कयस्थिति अप्पा १ न सुति सकजणुरागिणं इमं सवमेव थेवे वि । कञ्जविसंवायम्मि विसंवयंत संपन्न व एकपए चिय एत्थं पैल्हत्थियसवपुबउवयरियं । वट्टंते वि कुटुंबे डंवि व विटंबणा मोहो धण-सयण - जाय-जोवण-विसयवासंग दूसियमणस्स । हा हा ! निरत्थओ कह मह कालो वोलिओ दूरं १ अझ वि एत्थेव चिरं अणुरतोऽहमुज्झियविवेगो । धम्मसहाई हुंतो जइ एस सुओ न एवं मे ता दोसो वि गुणत्तेण परिणओ पुत्तसंतिओ इहि । उज्झियरओ सैओ वणवासं चिय पवज्जामि ॥ १ ॥ ॥२॥ ॥ ३ ॥ || 8 || ॥५॥ ॥ ६ ॥ १ मृतमारणेन ॥ २ 'सपत्नमित्र' शत्रुमिव ॥ ३ पर्यस्तित सर्वपूर्वोपकृतम् ॥ ४ 'जीय प्र० धनस्वज नजायायौवन विषयव्यासङ्गदूषितमनसः || ५ सयः ॥ एवं विभाविऊणं ठविडं सुरसेहरं अणिच्छंतं । कह कह वि नियपयम्मि पडिवो तावसाण वयं ॥ ७ ॥ एवं च सुरसेहरो ससुरसमपियरओ रज्जुनद्धो व पुवपुरिसप्पवाहेण जाव वसुंधरं पालेइ ताव पिउणो पहाणपुरिसा समागया, पत्थावे सिद्धं च तेहिं, जहा— देवस्स हरिसेणस्स वणवासोवगयकत्तविरियमहारायरिसिणो विचतं निसामिऊण तुट्टा मववासवासणा, वुच्छिन्ना विसयर्वच्छा, विहडियं पेमनिगड, उल्लसियं जीवविरियं; तुह समप्पियरजभरो य संपयमेव समीहइ सङ्घविरई, ता कुणह संवाहं, दवावेह पत्थाणढकं, सजावेह वाहणगणं ति । ततो 'तह' ति पडिणिऊण तद्वयण, नियरायपए पट्टिऊण अवराजियं अक्खंडियपयाणएहिं गतो नियनयरं, पवेसिओ महया विभूईए । कयपाय पंचंगपणिवाओ य निवेसितो राहणा उच्छंगे, पुच्छिओ सर्व पुवबुत्तंतं, सुमुहुत्ते निवेसिओ रायपए । सयं च राहणा गुणसेणसूरिणो समी पडिवना सङ्घविरई, विहरिओ अप्पडिबद्ध विहारेण, आराहिऊण य संजमं पत्तो देवलोयसिरिं ति । सुरसेहरो वि राया नियदक्खत्तणेण सुचिरमाणासारं रायसिरिमुवभुंजिऊण एगया परिभाविउं पवत्तो भवणे भवणे बहुसुकयसालिणो संति नरवईण सुया । नीसेसकलाकुसला य सङ्घसत्थत्थविउणो य तेसिं मज्झे य मए विजयपडाया अणेगहा पत्ता । दक्खत्तगुणेण परं उबजिया रायलच्छी वि केवलमेयं दक्खत्तणं परं कारणं भवदुद्दाणं । ता तं दक्खतं अणुसरामि न पडेमि जेण भवे इय भाविउ स घीमं रजे आरोविडं नियगपुत्तं । पवअं पडिवन्नो दिवं पत्तो य देवसिरिं एवं संसारियकअसाहगं जह वयंति दक्खत्तं । तह धम्मकजविसयं पितं धुवं परमपयजणगं ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ 118 11 ॥ ५ ॥ अपि च +6446 दक्षत्वे सुरशेखरराजपुत्रकथानकम् २६ । ॥१९५॥ वृक्षत्वस्य फलमू Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमद्दसरिन विरइओ कहारयणकोसो ॥ सामनगुणाहिगारो। दाक्षिण्यगुणे भव देवकथाॐनकम् २७। ॥३॥ शखेऽपि शाखेऽपि कृतश्रमोऽस्तु, भवत्वशेषासु कलासु विज्ञः । विज्ञानमेदांश्च विदाकरोतु, काव्यप्रबन्धं च परं तनोतु ॥१॥ चेत् कार्यकाले समुपस्थितानां, प्रावादुकानां कृतमत्सराणाम् । गर्व न खर्व क्षमते विधातुं, तदा स विज्ञोऽपि जडत्वमेति स्वल्पेऽपि विज्ञानवले बलीयान्, दक्षः पुनन्येत्कृतदुष्टपक्षः । पूजाप्रकर्षे च परां च कीर्ति, श्रियं च मोक्षं च लमेत सचः । इति निखिलगुणानां चण्डजाच्चान्धकारावरणपिहितभासा दीपव व्याकोऽयम् । कथमिव न विशिष्टो दक्षभावः ? कथं वा परमसुखसमृद्धे व हेतुर्भवेच? ॥ ४ ॥ ॥ इति श्रीकथारत्नकोशे दक्षत्वगुणचिन्तायां सुरशेखरराजपुत्रकथानकं समाप्तम् ॥ २६ ॥ ecooooooदक्खो वि नरो दक्खिन्नवजिओ भुवि लभेज वयणिज । ता दक्खिण्णसरूवं किं पि निरूविजए एत्तो ॥१॥ जो हि सुहासयगम्भो जोगो मच्छरियदोसनिम्महणो । परकिच्चेसु पयवृह तं वनंतीह दक्खिन तग्गुणपहाणयाए पुरिसो वि हुदक्खिणो ति निद्दिट्ठो। जह दंडजोगउ चिय नरो वि दंडो ति किर्तिति ॥३॥ १ डंड' प्र.॥ २डंडो प्र०॥ ॥१९६॥ ASRANASIKAKARSASRANASIRSINHA%A5 दाक्षिण्य गुणस्य स्वरूपम् ॥१९६॥ निम्माणमिम त्ति । सुरसेहरेण जंपियं-किमिह अम्हारिसा [जाणति १] गुरवो चिय उचिया-ऽणुचियं मुणंति ति । अह जाणियतयभिप्पाएण पुहइवइणाऽणुकूलगहवलोवेए विवाहजोग्गे लग्गे सुरसेहरस्स सायर दिना ललियसुंदरी, कर्य पाणिग्गहणं, वित्तो महया रिद्धिसमुदएण विवाहो । पिईभवणाओ वि सविसेसं रायसुओ सुहेण तत्थ दिणाई गमेइ ति ।। अनया य राया तेण समं कइवयपहाणपुरिसपरिवुडो पमयवणे वणलच्छि पेच्छिउं पविट्ठो, सुरसेहरखंधारोवियकरतलो य इओ तो तरुवरमवलोईतो विवित्तविभागावट्ठिए पविट्ठो कयलीहरे । एत्थंतरे 'हण हण' ति जता दुवे मीसणायारा महामल्ला निकिंवकिवाणीपाणिणो राइणो घायकरणत्थमुवट्ठिया वेगेण । अह झड ति दक्खयाए अखुद्धेणं सुरसेहरेणं खोणीवई पिटुओ पक्खिविय दोहिं वि हत्थेहिं गहाय सपहरणा चेव मल्ला निजुद्धकुसलयाए पण्हिपहारेहिं चूरिऊण निवाडिया धरणिवढे । पत्ता य तक्खणं राइणो अंगरक्खा, पडिरुद्धा सबओ तेहिं, पुच्छिआ य-अरे ! केण तुम्मे एवंविहकन्जकरणाय निउत्त ? त्ति । सबपयत्तसमुल्लाविया वि जाव न किं पि जंपति ताव निवेइयं राइणो । ततो वाहराविऊण पुट्ठो उजाणपालगो-अरे ! को इह पुर्व पविट्ठो ? ति । तेण जंपियं-देव ! तुम्हाण पुत्तो अपराजिओ विमोत्तूण न अन्नो को वि इहाऽऽगयपुबो । ततो राइणा कसप्पहारेहिं ते ताडाविया सुनिहरं । अह पोरघायवाउलीहृयजीवियवाणं पायडीहूओ सम्भावो, विस्सुमरिओ वयणबंधो । ततो भणियं तेहिं—देव ! तुम्ह मुरण अवराजिएण रजाभिलासिणा दीणारलक्खप्पयाणेण उवलोभिऊण तुह चावायणस्थमित्थं वावारिया अम्हे । इमं च सोचा गरुयकोवावेगरत्तनयणेण राइणा निविसओ | १ "वयणा' सं० ॥ २ निकृषकृपाणीपाणी ॥ ३ व्यापादनार्थमित्थं व्यापारिती आवाम् ॥ RBOARANASI Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव मद्दसूरिविरहओ कहारयण कोसो ॥ सामन्नगुणाहिगारो ॥१९७॥ -ন6 कोववियारेसु न धम्मववहारेसु, अलियजंपणं भालयलकित्तणेसु न नीइनिवत्तणेसु, सउलविणासो धीवरेसु नाहिगारिमंदिरेसु । ती य पुरीए वत्थवो भूरिवोवजण जाणावियववसायवित्थरो मंथरो नाम सेट्ठी, कमलदलविसालच्छी लच्छी नाम से भज्जा । सबगुणजुत्ता सावदेव भवदेवनामाणो दुवे पुत्ता, अणुरुवकुलुब्भवबालियाकयपाणिग्गहणा य उचिगठिईए कालं बोलेंति । एगम् य अवसरे गेहपुरतो मंडवकरणत्थं वेलिं निहणंतस्स सेट्टिणो जेट्ठसुयस्स सव्वदेवस्सं खडकितो निहाणकंठओ । 'किमेयं ?" ति सवित्थरं खणितस्स पथडीहूओ तंबकलसो । विहाडिऊण मुहमुदं तम्मज्झमवलोयंतस्स पुढभवनिहित्ताभरणदंसणे जायं जाईसरणं, मुच्छानिमीलियच्छो य पडिओ धरणिवट्टे । 'हा हा ! किमेयं ?' ति वीजिओ सो वत्थंचलेण । खणंतरेण य उवलद्धचेयणो पुच्छिओ-वच्छ ! किमेयं १ ति । सावदेवेण भणियं- -ताय ! पुद्दभत्रसरण निमित्तमेयं ति । पिउणा भणिय — कहमेवं संभवइ १ । तेण वागरियं— सम्मं निसामेसु — - एत्तो पंचमे भवे अहं वसू नाम वणियसुओ उज्जेणीपुरीओ पहाणपणियनिवहमादाय एत्थ पुरीए आगतो । विणिवद्वियं भंड, समासाइओ भूरिदवलाभो । जाया य पइदिणदंसणेण सपणयालावेण य एयभवणसामिणा संभुणा सद्धि मेत्ती । एगम्मि य पत्थावे संकुँतो परचकसंखोभो । ततो मए एगते सिद्धं संभुणो, जहा - किमियाणिं काय ? एसो अस्था-ssभरणसंभारो न तीरह जह तह गोविउं । तेण जंपियं—वीसंस्थो होसु, एत्थ तंत्रमयकलसे खिबिऊण सबसारं एत्थ भवणंगणे निहणसु ति । 'तह' त्ति जायपरमविस्सासेण सवं निवत्तियं मए । सुद्धबुद्धित्तणेण य इओ तओ पेसियनियपरियणो तीए चैव १ "स्स घड' सं० ॥ २ पूर्वभवस्मरणनिमित्तमेतत् ॥ ३ 'संवृत्तः' सञ्जातः ॥ ४ विश्वस्तो भव, अत्र ताम्रमयकलशे || रयणीए एगागी सुत्तो तत्थेव । उप्पन्नगाढलोभेण य संभुणा निबिडकंठावीडणविहिणा विणासिओ हं उववनो तत्थेव परे मूसगतणेण । उवलद्धसरीरवलो य पुइजियधणड्डाणे ओहसन्नाए देरिं काऊण ट्ठाउँ पत्तो । सविसेसवडिउच्छाहो तं चैव हेडओ खेणं वतो खइतो विसहरेणं मतो भुज तम्मि य घरे उपबन्त्र भुयगत्तणेण । पुत्रपडिबंधेण य तहिं चैव निहाणपएसे पुणो पुणो संचरंतो तस परिसपिणा मारिओ हं नउलेण । गयजीवितो थ पुणो एत्थेव घरे घरवणो जाओ पुत्तभावेण, बालत्तणमइकंतो पढाविओ किं पि समुचियकलं, पत्तो कमेण तारुन्नं । ताव रई ताव मई तात्र च्चिय दिसिविभागविनाणं । ताब य कुसलं चित्तं ताव य परमुजमो कजे जावऽज वि नो गेहे तत्थ अहं आवसामि निब्र्भतं । गेहागयस्स सवं ज्झड ति तं वच्चए नासं अह पिउणा पडियारा मेगे मंताइणो समारद्वा । तह वि न मे उवयारो थेवो वि हु सक्किओ काउं एगम्मि य पत्थावे निम्मलनाणोवलद्धभवभावो । पत्तो तहिं महत्या संवरनामो मुणिवरिट्ठो दिट्ठो स कहं पि मए पुट्ठो य तमप्पणो सरूवं च । तेणं भणियं भद्दय ! आघायड्डाणमेयं ति कहमेवं ? तो मुणिणा पयंपियं इयभवाउ तुरियभवे । एयघरसामिएणं हओ तुमं दद्दलोमेण घरसामी विहु रमा हणाविओ तुह विणासरुट्टेण । तत्थेव निहाणोवरि मरिउँ सप्पो समुत्पन्नो तं च निहाणस्सोवरि वट्टंतो तेण भद्द । निहओ सि । भुजो य अही हुंतो तेणं नउलेण निम्महिओ १ 'दरिं' बिलम् ॥ २ खनन् ॥ 11 2 11 ॥ २ ॥ ॥३॥ ॥ ४ ॥ ॥ ५ ॥ ॥ ६ ॥ ॥ ७ ॥ || 2 || दाक्षिण्य गुणे भवदेवकथानकम् २७॥ सर्वदेवस्य पूर्वभव वृत्तम् ॥१९७॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसरिविरहओ कहारयणकोसो ॥ सामनगुणाहिगारो। दाक्षिण्यगुणे भवदेवकथानकम् २७॥ संपइ एत्थेव परे एस सुयत्तेण तं समुप्पो । लहसि न एत्थं च रई हउ ति काऊण तिक्खुत्तो ॥९ ॥ जत्थ पएसे मरणं उवधाएणं हवेज जंतूण । दिसिवामोहाईया हुँति तर्हि चित्तवापाया ॥१०॥ एवं सिटे मुणिणा अणुसुमरियसबपुषवुत्तो । अच्चंतं भीओ ई गेहं कलिउं मसाणं व ॥११॥ पिउणो अकहिय वत्तं तित्थाई पलोइउं लहु पलाणो । सेरिवारिपूरविहओ तत्थ वि पंचचमणुपत्तो ॥१२॥ एसो पुणो वि एत्थेव मंदिरे ताय ! तुह सुतो जातो । जमवयणं पिव भीमं दिटुं च निहाणमवि एवं ॥१३ ।। ता जह एवं दिह्र तह दिट्ठो च्चिय धुवं कयंतो वि । एवं ठिए य संपह गेहनिवासो धुर्व मच्चू ॥ १४ ॥ अह जाव किं पि तचित्तधीरिमुप्पायणं कुणइ जणगो। ता नीहरिओ गेहाउ झत्ति पत्तो स आरामं ॥ १५॥ दिट्ठो य तेण सो पुवकालिओ संवरो मुणिवरिट्ठो । भणिओ य बंदिऊणं भय ! सरणं तुमं एत्तो ॥१६॥ कुणसु परित्ताणं मे मुणिणा भणियं चयाहि भद ! भयं । गिण्हसु जिणिंददिक्खं दुक्खाण जलंजली देसु ॥ १७ ॥ तो गिहिऊण दिक्खं स महप्पा तेण मुणिवरेण समं । विहरइ वसुहं एगग्गमाणसो धम्मकम्मम्मि ॥१८॥ सुया य तप्पचआगहणवत्ता पिउणा, जाओ चित्तसंतावो। पनविओ य भवदेवेण-ताय ! “गतं मृतं प्रवजितं शोचन्ते न विचक्षणाः।" अओ कीस कुणसि सोगं ? ति । पिउणा भणियं-वच्छ ! तुम्मे दोन्नि वि चक्खुपडितुल्ला मज्झ, तदेगविगमे य कह न सोयामि । भवदेवेण जंपियं-अत्थि एवं, तहावि विश्कतपयरथे निरत्थर्य सोयकरणं । 'एवमेय' ति १ अकवयित्वा वार्ताम् ॥ २ सरिद्वारिपूरविदतः ॥ ३ बज ॥ ४ "देयवि' सं. ॥ ॥१९८॥ ॥१९८॥ ERSRKARRESHWARKESAXFRIANORAKHTARIYAKHERA BHARRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRECEREAKERAKARMER समए वि दु दक्खिन लिंग वुत्तं सुधम्मसिद्धीए । एयविउत्तो लोए वि तूललहुयत्तणमुवेइ ॥४ ॥ दक्खिनसुनहियतो पुत्तो वि हु वेरिउ व पडिहाइ । दक्खिन्नाणुगओ पुण दीसह बंधु व अवरो वि दक्खिन्नमलंकारो दक्खिनमखनवायधणलामो । दक्खिनमुनापर्य दक्खिनं परमवसियरणं दक्खिनमुत्तरोत्तरगुणभवणारोहणेकनिस्सेणी । दक्खिन्नमखिन्ना जे धरंति ते हुंति जयपुजा दक्खिनभावउ चिय सुपुरिसमग्गम्मि जायबहुमायो । पत्तो परमपय पि हु भवदेवो नाम बणियसुओ ॥८॥ तथाहि-अस्थि सुहडावलि व वेणलच्छिविराइया, पंडियमंडलि व सुहासियासयपसोहिया, वसिमभूमि व गयमयरायसावया बंगजणवयावयंसपडितुल्ला विस्सपुरी नाम नयरी । जेहिं च विरोयणकुलकुवलयचंदो रायलच्छिनलिणीकंदो निवारियवेरिरायपयावपसरो समुचियसमयदिबसवावसरो गुणरयणसायरो दिवायरो नाम राया। जीए य खणभंगुरतणं १ 'समयेऽपि' सिद्धान्तेऽपि ॥ २-हृदयः ॥ ३ 'मखिन्न खं० प्र० । अखन्यवावधनलाभः ॥ ४ जगत्पूज्याः ॥ ५ गुमटावली पणलक्ष्म्याप्रतिज्ञालक्ष्म्या विराजिता, नगरी पुनः बनलक्ष्म्या विराजिता ॥ ६ पण्ठितमण्डली मुभाषितशतप्रशोभिता, नगरी पुनः मुखासिकाशतप्रशोभिता ॥ ७ यणप' सं० ॥ ८ वसिमभूमिः गतभूगराजश्वापदा, नगरी पुनः गतमदरागशापा ॥ ९ यस्यां च नगर्याम् ॥ १० यस्यां च नगर्याम् कोपविकारेवेव 'क्षणभरत्वं' क्षणनासित्वम्, न धर्मव्यवहारेषु । भालतलवर्णनप्रसने एव अलिकशब्दोचारणम्, अलिकशब्दस्य भालसमानार्थकत्वात्, न पुनः राजनीतिनिर्वर्तनप्रसने 'अलीकजल्पनम् असत्यभाषणम्। 'शकुलविनाशः' मत्स्यविनाशनं 'धीवरेष' मात्स्यिकेन्वेष. न पुनः अधिकारिमन्दिरेषु सकुलानाम्-उत्तमवंशजाना स्वकुलानां वा विनाशः ॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दाक्षिण्यगुणे भवदेवकथा देवभद्दसूरिविरहओ कहारयणकोसो॥ सामन्नगुजाहिगारो नकम् २७। केवलं किं पि सरीरमपडुयं ति । भवदेवेणे भणियं-जइ एवं ता कहं तुममेवंविहावयावडियमुज्झिऊण वच्चामि ? सबहा कहेसु 'किं ते बाहइ ?' ति । ततो तदुवरोहेण सिट्ठो से भूवइणा मूलवइयरो । मुणियविमूहयावइयरेण य भवदेवेण सरीरसंबाण-ओसहपाणाइणा उवयारेण पगुणीकओ राया। पयट्टा गंतु,पत्ता पुरीपरिसरे। भवदेवेण निमंतितो राया-एहि मह भवणे, भुंजसु त्ति। रना जंपियं-अस्थि मे एत्थ सयणो तग्गिहे चिय भुंजिस्सामि, अओ अणुजाणाहि ममं गमणाय ति। 'एवं कुणसु' त्ति य तेणाणुनाओ कइवयपयाई गंतूण नियत्तो राया, भणिउमाढत्तो य-भो भो महाभाग! कत्थ भुजो तुमं दहत्वो सि? ति। भवदेवेण जंपियं-देवो जाणइ । रत्ना जंपियं-मा एवमुल्लवसु, सबहा साहेसु-कत्थ तुम वससि ? कस्स सुओ ? किं नामधेयो सित्ति । ततो तदणुरोहेण सिटुं भवदेवेण, जहा-खंदमंदिरसमीवे मंथरसेट्ठिसुओ भवदेवाभिहाणो हं वसामि त्ति । इमं च सम्ममवधारिऊण वेगेण पहिओ राया । भवदेवो वि 'अकयतप्पडिपुच्छो' ति सोगं कुणतो गओ सगिह। राया वि पच्छन्नवित्तीए चेव दिट्टि बंचाविऊण चेडाईणं पविट्ठो रायभवर्ण । दिट्ठो य एगपए चिय उम्मग्गो व धरणियलाओ रायलोएणं । ततो कय बद्धावणयं । अह समइकतेसु केच्चिरेसु वासरेसु चिंतियं रचा चिरमुवयरियं परिभाविऊण अहवा भविस्समुवयारं । दंसंति पणयभावं परस्स पयडो इमो मग्गो ॥१॥ तस्स पहियस्स पुण एयविसरिसो कोइ पणयवावारो । पहपेहणे वि तहभोयणाइणा जमहमुवयरिओ ॥२॥ धरह धरं भुयगवई भणइ जणो अहमिमं नु तकेमि । पच्चुवयारपरम्मुहपुरिसेहिं धरिजए धरणी ॥ ३॥ अहवा१ण जंपियं प्र० ॥ २ देखो प्र. ॥ ३ 'उन्मग्न इव' बहिनिर्गत इव ॥ ४ राया लोखं० प्र० ॥ ॥१९९॥ कापरोपकारी ॥१९९॥ पञ्चुवयारं जे नहिलसंति जे वि य सरंति उवयारं । दोहिं पि धरिजह तेहिं वसुमई इय मई मज्झ ॥४ ॥ सो च्चिय परं महप्पा पहिओ जेणोवयारिणा वि अहं । एयं पि न पुट्ठो कत्थ वससि? किं तेऽभिहाणं वा ॥५॥ ता किं होही सो कोइ वासरो जत्थ सो सहत्थेण । ठविऊणं निययपए सयं गमिस्सामि वणवासं? ॥६॥ इय जाव तदुक्यारेकचित्तो पुहइवई अच्छद ताव विनत्तो पडिहारेण-देव ! दुवारे चिरदसणूसुयं महायणं चिट्ठा त्ति । रन्ना जंपियं-लहुं पवेसेसु । 'तह' ति पवेसियं तं पडिहारेण । समप्पियपाहुडं कयसायरप्पणामं च सुहासीणं पुच्छियं नरिंदेण-अवि कुसलं महायणस्स ? न अभिभवंति तकरा ? न खलीकरेंति उस्सिखला खला? न य परिताविति लंचोवजीविणो ?। महायणेण भणियं-देव ! तुम्ह पायपंकए पभवंतम्मि दुकरमेयं, केवलं तकरेहिं उबद्दविउमारद्धा किं पि किं पिपुरी। सामरिसं व जंपियं रन्ना-कस्स संपयमेव मंदिरं लुटियं? ति। महायणेण भणिय-देव! मंथरसेद्विणो। नामसवणुब्भवंतपरितोसेण य भणियं रना-जो भवदेवस्स जणगो खंदमंदिरादूरनिवासी य। महायणेण भणियंदेव ! एवमेयं । तओ वाहरिऊण मंधरसेट्ठी राइणा अणिच्छतो वि ठविओ अमच्चपए, दिनी पंचंगपसाओ, निरूविओ रजकजचिंताए । गयाई कइयवि दिणाई। विमत्तं मंथरेण-देव! जराजजरसरीरोऽहमसमत्थो रजचिंताए, ता रजमहाभरुत्तारणेण अणुगिण्हसु मम-न्ति । रन्ना जंपियं-जइ एवं ता नियपुत्तसंकामियरञ्जभरो निश्चिंतो अच्छसु ति । 'महापसातो' त्ति भणंतेण मंथरेण ठविओ नियपए भवदेवो, दंसिओ रेनो । एवं च सो रजकलमणुदिणमणुपालितो विम्हइयमाणसो १ 'रिभावि खं. प्र. ॥ २ य मंथरसेट्टी?। महा प्रसं०।। ३ हराविऊण खं० ॥ ४ महाप्रसादः ॥ ५ रना सं० प्र०॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभइसरिविरइओ कहारयणकोसो ॥ सामग्मगुमाहिगारो। ॥२०॥ दाक्षिण्यगुणे भवदेवकथानकम् २७। FACSIRAAGAON शिनि अइपवररयणभूसणसणाहसोहंतकंतसवंगं । अमुणतो तं भृवं पहदिट्ठ पि हु विचितेइ पुबपुरिसप्परूबीए अहव गुणपगरिसेण केणावि । सेवावित्तीए वा उवयरणेणं व अइगुरुणा ॥ २ ॥ आवजिया नरिंदा दिति पसायं ठति अहिगारे । कारिंति अप्पतुल्लं पि सेवर्ग किमिह किर चोजं? ॥३॥ जं पुण एवंविहभावविरहिए मारिसे वि सम्माणं । दंसह एवं एसो नराहिवो तं महाचोजं ॥ ४ ॥ ईय पइदियहपुणनववियप्पकल्लोलमालियाउलिओ । अविमुणियकजमझो किच्छेण दिणाई बोलेइ सो वि य दिवायरनिवो जं जं वेलं उवेइ भवदेवो । पञ्चभिजाणणभीओ तं तं छाएइ नियवयण थेवं पि उवयरता नीयो अंगे वि नेव मायति । पयडमुवयारकरणे गरुया लजाए झिझंति अवरम्मि अवसरे पहाणत्थमुज्झियसयलालंकारी पगुणीभूतो राया। तबेलं च समागओ कञ्जवसेण भववयो। ततो अणावरियसरीरत्तणेणं पञ्चभिन्नातोऽणेण नरवई । 'निच्छिय सो एस महप्पा पहसहाइ त्ति, अहो ! महापुरिसया, अहो ! पच्चुवयारकरणलालसत्तणं, अहो ! अलद्धमज्झत्तणं' ति विभाबिंतो परमं परितोसमुवागओ एसो। मुणिओ इंगियागारकुसलयाए रबा । 'नूणं पचभिमाओ अहमणेणं' ति लजावलियकंधरो य डिओ अहोमुहो। अवरसमए य विजणम्मि पुच्छिओ भववेवेण राया-देव ! कहं तारिसं बसणं तम्मि काले निवडियं ? ति । ततो कहिओ से दुतुरयावहाराडवीपड १आश्चर्यम् ॥ २ मारो ॥ ३ महाचर्यम् ॥ ४ इति प्रतिदिवसपुनर्नवविकल्पकालोलमालिकाकुलितः । अविज्ञातकार्यमध्यः कृष्ण दिनानि व्यतिकामति ॥ ५ नौचाः ॥ ६क्षीयन्ते ।। ७ वयर्ण खं० ॥ ॥७li ॥२०॥ SANAWARASHRRASSESAKESAX पडिवचं पिउणा । पइदिणतईसणाभावे य पणट्ठो कालकमेण से सोगो। भवदेवो वि अप्पणो परेसिं च कजाणि चिंतिउं पवत्तो,दक्खिन्नसीलयाए य पत्तो परमं जणवल्लहत्तं कित्तिपन्भारं च । अन्नया य कजवसेण भवदेवो पियरमापुच्छिऊण संबलगहत्थो एगागी चेव गतो गामंतरं । नियत्तियपओयणस्स नियत्तस्स तद्देसाहिवई राया दिवायरो कहिं पि पडिकूलयाए विहिणो तुरगवाहियालीनिग्गओ अवहरिओ दुतुरगेण, निवाडिओ अडवीए । सवत्थ वि पलोइओ वि परियणेण अमुणिजंतो पलीणम्मि तुरगे पयप्पचारेण धरियगामीणवेसो सनयराभिमुहं उतो मिलितो भवदेवस्स । पुच्छिी य सो राइणा-भद्द ! कहिं गंतवं ? ति । भवदेवेण जंपियंविस्सपुरीए । रमा भणियं-जइ एवं ता आगच्छ समगं चिय जेण बच्चामो त्ति । पयट्टा दो चि सणियसणियं गंतुं । पत्ते य मज्झंदिणे पत्ते भोयणकाले संचलगं घेर्नु भोयणट्टमुवट्ठिएण परिभावियं भवदेवेण-एसो हि वइदेसितो को वि महाणुभावो अविजमाणपाहेजो छुहाकिलंतो य अच्छा, अओ कई सयं भोतुं र्जुजह?। ततो अद्धद्धीकाऊण संबलं भुत्ता दो वि । खणमेगं वीसमिऊण सममेव पुरतो पट्ठिया । अह चिरदिणोवलद्धसिणिद्धभोयणवसेण रयणीए जायं रायस्स उदरसूलं । अचंतधीरयाए सहिऊण गोवियवेयणावियारो य सुत्तोऽवडिओ राया । पभायसमए य गमणत्थं पगुणीभूओ भणिओ रमा भवदेवो-भद्द ! वचसु तुमं, अहं पुण इहेव अज पडिवालिस्सामि त्ति । ततो दक्खिन्नसीलयाए भणियं भवदेवेण-भद्द ! 'विस्सपुरि पहुच गंतच्छ' ति भणिय किं संपयमेत्थाऽऽवसिउमिच्छसि ? ति । रन्ना जंपियं-अस्थि एवं, १ "त्तियपम्भा ख. प्र.॥२ उचितो प्र० ॥ ३ अवेज खं० । अविद्यमानपाथेयः ॥ ४ जुंजइ प्र० ।। SAXERIKANERARKAHAARAARAKES Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दरिविरइओ कहारयण कोसो ॥ सामागुमाहिगारो । ॥२०१॥ ন। এ% दाक्षिण्यमप्रतिघ एव गुणो महत्सु, चेन्नाभविष्यदतुलोज्ज्वलशीलशाली । वीरस्तदा कुलपतेरवगूहनार्थमभ्युद्यतस्य किमिति स्वभुजं न्यधास्यत् ? यद्वाऽतिदूरतर देशपदप्रचारखिन्नात्मने कृतवते चिरसंस्तुताय । अभ्यर्थनां द्विजसुताय स एव देवो, देवांशुकार्द्धमखिलं च किमित्यदास्यत् ? निर्दाक्षिण्यो मुच्यते बन्धु-भृत्यैस्तन्मुक्तस्य क्षीयतेऽस्य त्रिवर्गः । क्षीणे चास्मिन् मेदिनीभारकारी, कारीषाभो जीवति व्यर्थमेषः इति दाक्षिण्यगुणद्धिं वर्धितसुखसम्पदं पदं सुगतेः । अवबुद्ध्य शुद्धबुद्धिः कः स्यादस्यामनवधानः ? ॥ इति श्रीकथारत्नकोशे दाक्षिण्य[गुण ]चिन्तायां भवदेवकथानकं समाप्तम् ॥ २७ ॥ दक्खिनपवनो विहु न जं विणा पाविडं तरह पारं पारद्धधम्मविसए तमिण्डि दंसेमि धीरतं गैरुयावयानिवाए वि दवनासे वि पणइविरहे वि । जम्माहत्या न मणो खुप्पइ तं बिंति धीरतं जोगाउ नरो वि हु भन्नह धीरो स एव वोदुमलं । उक्खित्तं धम्मभरं इयरो तं चयइ किच्छम्मि जाव भवो ता देहो जा देहो ताव आवयावडणं । तप्पडणे वि न धीरा मुयंति मज्जायमुयहि व १ शक्नोति । २ गुरुकापक्षपातेऽपि द्रव्यनाशेऽपि प्रणयिविरदेऽपि । यन्माहात्म्याद् न मनो मज्जति ॥ ३ तयोगात् ॥ ॥ १ ॥ ।। २ ।। किश्व— ॥३॥ ॥ ४ ॥ ॥ १ ॥ ॥२॥ ३ ॥ ॥ ॥ ४ ॥ धीराण कायराण य अंविसेसेणाssवयाउ निवडति । नवरं सहति धीरा इयरे य दढं किलम्मंति पुंवकडकडाणं फलमेयमुवट्ठियं कडुय णिङ्कं । सहियवमवस्स मए ति चिंतिउं पभवई धीरो एवंविभावे च्चिय कम्मविणिञ्जरणमुत्तमं चिंति । इहरा पसू वि अइदुक्खिओ विनाऽऽरसइ नो रुयइ इय सुहविवेयसुंदरधीरिमसन्नाहनू मिय सरीरो । न दुहेहिं अभिभविजन किंच्छे वि निवो महिंदो व तहाहि — अस्थि कुवलय-कमल- कल्हार सय वत्तपवित्तनीरपूरपूरियस रोवर विराइयपरिसरा सुय-सारिया-कवि-कर्विजल-जलवायस - जीवं जीवयाभिरामाऽऽरामरमणीया अवराजिया नामं नयरी । जीए तरुणो वि नीलकंठ विराइया, पक्खिणो वि सरामलक्खणा, अणीसरघराणि वि गोरीमणोहराणि कुमारविणायगाणुगयाणि य । तर्हि च नीचउकचरणो फुरंततारचारनयणो निसिय करवालदाढो उग्गाढसोडीरिमालद्धखंधबंधो असमसाहसघोरघोणाघुकारभीसणो असेसविबुद्दाहिट्टियसरीरो अतु - ॥ ५॥ ॥ ६॥ || 9 || ॥ ८ ॥ १ अवसे बं० प्र० २ पूर्वकृतदुष्कृतानाम् ॥ 11 ३ शुभविवेक सुन्दरी रिमसन्नाहच्छादितशरीरः ॥ ४] किये वि सं० ॥ ५ नाम प्र० ॥ ६ आवपक्षे नीलकण्ठ:- महादेवः तरुपक्ष तु नीलकण्ठा:- मयूराः ॥ ७ आथर्यपक्षे रामलक्ष्मणाभ्यां सहिताः पक्षिपक्षे पुनः सरस्यु अमल: क्षण:-- उत्सवो येषाम् ॥ ८ ईश्वरगृहाणि शिवमन्दिराणि गौर्या पार्वत्या मनोहराणि कुमार:- कार्तिकेयः विनायकक्ष - गणेशः ताभ्याम् अनुगतानि युक्तानि च भवन्त्येवेति न किमप्याश्रर्यम् किन्त्वस्यां नगर्याम् अनीश्वर गृहाण्यपि गौरीमनोहराणि कुमारविनायकानुगतानि वेश्याश्वर्यम् । अत्र पक्षे अनीश्वरा:अधनाढ्याः, गौर्य:- खियः कुत्सितो यो मारः कामः तद्विनायकानुगतानि तदपनयनानुगतानि च इति भावः ॥ ९ साम दाम दण्ड भेदेति नीतिचतुष्कम् ॥ १० चारा-गुप्तपुरुषाः ॥ धैर्यगुणे महेन्द्रनृपकथानकम् २८ । दाक्षिण्यगुणस्य माहात्म्यम् धीरत्वस्य स्वरूपम् ॥२०१॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभहसरिविरहओ कहारयणकोसो। सामनगुणाहिगारो। धैर्यगुणे महेन्द्रनृपकथानकम् २८। च्छन्द्रययापुच्छच्छडो सयमिव महावराहो महिमब्भुद्धरिउमुवडिओ महिंदो नाम राया । मायगंवाहणो मेहणीवई कुप्पहूहिं कयसेवो । तह वि स धम्माभिरई मग्गणगणपूरियासो य ॥१॥ तस्स य रनो परमपणयभायणं पभावई भजा । तदंगजाया य जयंत-जयसेणाभिहाणा दुवे पुत्ता । मंतिजणारोवियरअवित्थरचिंताभरो य [राया ] सुहेण कालमइवाहेह । अह पुखजम्मसरियवहरभावेण स महप्पा रयणीए सुहपसुत्तो कालनामधेएण जक्खेण उप्पाडिऊण पक्खितो पुवमहो यहितडे, पभावई वि देवी पच्छिमदेसे महाडवीए, पुत्तो वि जेट्ठो दाहिणदिसीए, इयरो वि उत्तराए पक्खित्तो ति । ततो 'कर्यचिरवइरनिजवणो' त्ति परितुट्ठो गओ जहागयं जक्खो। राया वि पारावारपुलिणे खणमेत्तनिहायमाणो वि खरतरसमीरसमुल्लासियमहल्लकल्लोलपरोप्परपेल्लपुच्छलियमहानिनायपडिबुद्धो 'किमेयं ?' ति जाव उम्मीलियनयणनलिणो दिसिवलयमवलोएइ ताव एगचो पेच्छइ तुंगरंगततरंगपरंपरापरिगयं सायरं, अन्नत्तो पुण तमाल-साल-हिंतालपमुहमहदुमालीपच्छाइयदिसावगासं सिंधुवेलावणावलिं ति । 'किं पुण एवं ? केहिं चित्तसालियाविसालसुहसेज्जाए सयणं? कहिं वा मच्छ-कच्छभुन्छालियकल्लोलरोलाउले जलहिपरिसरे एत्थ इत्थमवत्थाणं ? ता किं सुमिणमिणमो मइमोहो व ? ति सविसेसविष्फारियच्छो वि समहियं किं पि अपेच्छतो 'हूं, निच्छियं होयबमेस्थ केणइ पुषकय दुकम्मदुखिलसियसमुल्लासियखुद्ददेवयाइसंपाडिएण अणत्थविसेसेणमेवंविहेणं, कहमन्त्रहा १मातजाः-चाण्डाला हस्तिनथ ॥ २ 'कुप्रभुभा' कुत्सितस्वामिभिः पृथ्वीपतिभिव ॥ ३ करवयचिरवदर" सं० । सचिर पर निर्यापनः ॥ ४ खरतरसमीरसमुणासितमहाकालोलपरस्परप्रेरणोच्छलितमहानिनादप्रतियुद्धः ।। ५-६ कहं ख० प्र०॥ ७ "विफालियछो सं० ॥ ॥२०२॥ ॥२०२॥ णवुत्तो राहणा। 'अहो ! कह एवंविहपुरिसरयणेसु वि आवयावडणं ति विसनो भववेचो, खणंतरे य गओ नियभवणं । एत्थंतरे बद्धाविओ सो जेट्ठभाउणो पवनपञ्चजस्स आगमेणं एगेण पुरिसेण । ततो भवदेवो गओ तवंदणत्थं, निसामिया धम्मकहा, पज्जुवासिओ कइ वि दिणाणि । कैप्पावसाणे य वुत्तो भवदेवो साहुणा-भद्द! विहरिउमिच्छामि संपयं ता अणुगच्छसु ममं ति । 'तह' त्ति पडिवजिय राइणो निवेदय वुत्तं, पुत्तं च निसृजिऊण रञ्जकजेसु, पट्टिओ भवदेवो साहुं अणुगंतुं । अह दक्खिनसीलयं से कलिऊण साहुणा तदुवयारत्थं जोयणेमेत्तमणुगच्छिय नियत्तिउकामो भणिओ एसोभो महाणुभाव ! एचिरकालोवभुत्तभवसोक्खस्स वि न जायो तित्ती, सा किमियाणि पेरंतपत्तस्स होही ता संपयं परिहर भववासपडिबंध, समुञ्जमसु धम्मकजेसु, तुच्छं जीवियं, वियाँरबहुला विसयवामोहा, पञ्चासन्नो य मच्चू महापच्चूहो मणोरहाणं ति। ततो दक्खिनसीलयाए अकामेण वि भणियं भवदेवेणं-भयवं! देहाऽऽएसं, किं करेमिति । मुणिणा जंपियंकुणसु पनजं ति । तओ पवनो एसो साहुदिक्खं । आगमोवलं मे य परमुल्लसंतसंवेगो भावओ आराहिऊण सामन्नं पअंतसमए य आराहिउत्तिमट्ठो सवढविमाणे सुरो जाओ त्ति । एवं जं स महप्पा जए पसिद्धिं नरिंदपुञ्ज । सुगई च परं पत्तो तं दक्खिन्नस्स विष्फुरियं ॥१॥ अपि च १ मासकल्पावसाने इत्यर्थः ॥ २ निवेध पत्तम् ॥ ३ वुत्तंतं, पु प्रसं.॥४ णमित्त प्र० ॥ ५ 'या तेत्ती प्र० ॥ ६ "याणि थेरत्तपत्त | प्र० किमिदानी पर्यन्तप्राप्तस्य ॥ ७विकारबहुला: ॥ AACHAKRAKAR Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धैर्यगुणे महेन्द्रनृपकथानकम् २८। देवमद्दसूरि एत्थावसरे 'चिलायघाडी आवडई' ति उढिओ हलबोलो, संखुद्धो सत्थो, इओ तओ वियरिओ अबला-बालगजणो । विरइओ तवेलं च ढोइयं कवयं पहरणाणि य नरवइस्स । ततो सो कवयावरियसरीरो नाणाविहपहरणहत्थो सस्थाहसुहडसमूहपरि यरिओ नीहरंतो पेच्छद चेडयमज्झवत्तिणं जयसेणाभिहाणं नियसुयं ति । तओ 'कह मह सुओ? ति संकेतो भुजो कहारयण भुजो बलियकंधरो तमणिमेसाए अच्छीए पेच्छतो ताव गओ जाव दंसणपहमोगादं भिल्लवलं ति । कोसो॥ तो बाहपरिहकुंडलियचंडकोदंडडंडयाहिंतो । अमुणियसंधाणो च्चिय दीसइ निंतो सरसमूहो सामनगुसरधोरणीहिं मेहो व वारिधाराहि पत्तपसराहिं । छायतो भिल्लबलं रणंगणे सोहइ नरिंदो ॥ २ ॥ णाहिगारो। एगो वि भयभराउलचक्खूण स भूवई चिलायाण । जाओ अणेगरूवो वे मुकलल्लकसरचको ॥३ ॥ जाव खणद्धं न पहारदाणदीणाणणीकयचिलाओ । चिट्ठद रणम्मि राया ता भिल्लबलं लहु पलाणं ॥ ४ ॥२०॥ ॥ तओ सलहिअंतो लोगेण गतो नरिंदो आवास । कयमजण-मोयणोवयारो य सीसारोवियपाणिकोसेणं भणिओ सत्थवाहेणं-भो महाभाग ! तुज्झ आयत्तो एसो जणो विभवसारो य, ता आइससु जत्थ उवजुअइ, तुह उवयारस्स सर्व थोवमिम, ★ परं किमन्नं कीरउ ? ति । राइणा भणियं-भो! एवमेव, तुह सप्पुरिसवित्तीए किमदेयं ? किं वा अकरणिशं ?। एत्थंतरे तं पएसं आमओ सो बालगो। 'एस सो मम सुओ' त्ति निच्छिऊण भणियं रना-भो सत्थवाह ! कस्स एस डिभो ? ति । सत्थाहेण जंपियं-भो महायस! मम उत्तरदिसिविभागवत्तिभीमाडवीमजसे आवासियस्स सेवगेहिं १च मोक खं० । इव मुफभयङ्करशरचकः ॥ एस्थर *HA %CASHASRANAMAHARAS ॥२०३॥ इंधणाइयमाहरंतेहिं रुक्खगहणे रुयंतो एस बालगो निसामिऊण विभीसियासंकिएहिं रुक्खंतरिएहिं होऊण पलोयतेहिं थेवेणीसंपत्तजरकोल्हुगमुहकुहरो समय-चमकारं पलवंतो सैणियसणियं पच्चोसकतो य दिट्ठो, ततो करुणाए घेनण मह उवणीओ, मए वि एचिरं कालं पुत्तो व उवलालिओ त्ति । रत्ना जंपियं-एसो हि मम पुत्तो दइवदुजोगेण इत्थं दुत्थावत्थं अणुपत्तो । ततो विम्हिओ सत्थाहो चिंतिउं पवत्तो-अहो! सच्छंदचारित्तणं हयविहिणो, जं केसरिकिसोरगो वि एवं विसीयइ, कप्पतरुपोयगो वि एरंडोब अवगणिजइ ति । ततो सो डिंभो समप्पिओ नरवइस्स । सो वि तं गाढमालिंगिऊण निवेसिउंच उच्छंगे कि पि किं पि ईसिबाहाविललोयणमंतो निज्झाइउं पवत्तो। पाएसु पडिऊण सत्थाहेण सहायरं पुट्ठो-को एत्थ परमत्थो ? ति। [ततो ] नियकहालजिरेण वि रन्ना उवरोहेण सिट्ठी से एगंते नियवइयरो । तं च सोचा परं सोगावेगमुवगतो सत्यवाहो । आलविओ य रचा-भो कीस संतप्पसि ? एवंविहो चेव एस संसारवइयरो सोक्खं दुक्खाणुगयं जोगो वि विओगनिचपडिबद्धो । संपत्ती वि विपत्तीए परिगया किमिह होउ सुभं? ॥१॥ एवंठिए य सस्थाह ! कीस संतावमेवमुबहसि । सुलभमिमं जीवाणं किं चोजं भवनिवासीण ? ॥२॥ सत्थाहेण जंपियं-महाराय ! जाव तुमं कयकजो नियरले न मुको न ताव अहमप्पणो कजं करिस्सामि, अतो न एत्थ पंचत्थिणा होयचं ति । राइणा भणियं-मा एवं जंपसु, अहं हि गज्जणगपुरे केचिराणि वि दिणाणि हाउकामो, अओ तुम मम वयणोवरोहेण सकजाई चिंतेसु, पडिनियत्तो य जं तुम भणिस्ससि तं काहामि त्ति । ततो तनिच्छयमुवलम्म १ विभीषिकाशद्धितः ।। २ तोकेनासम्प्राप्तजरच्छगालमुखकुहरः ॥ ३ शनैः शनैः प्रसववकमाणः ॥४ 'प्रत्यबिना' विप्रकरण । MACHAR HTRA Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभदसूरिबिरइओ कहारयण कोसो ॥ सामन्नगुनाहिगारो । ॥२०४॥ पच्चदयपुरिससहाओ सपुत्तो राया पोढपत्थयणदाणपुत्रगं गज्जणगपुरे निवेसिऊण दिनं सत्थाहेण तओ परसाओ पयाणगं । राया विकणिसुयस्साडविनिवडणसंभावियजेसुयविप्पओगो अप्पणो किलिङकम्मयमणुचिंततो जाव अच्छइ ताव नियविभूइसमुदयपरिभूयसुरलोय सोहाविसेसो चउचिहदेवसमूहसेविखमाणचरणो समोसरिओ भयवं मुणिसृव्वयजिणवरी । समागतो वंदणत्थं पुरलोगो । राया वि अप्पणो तहाविहावयावडणनिमित्तं पुच्छिउं पत्तो भयवओ अंतियं । तिपयाहिणादापुवयं पणमिऊण सबो सम्मुचियभूमिभागे आसीणो जणो । आयभिया धम्मकहा, जाओ भवविरागो, उल्लसियं वीरियं पवनो य सामनं बहु जणो । पत्थावे य महिंदभूवहणा पुट्ठो जयगुरू - भयवं ! मम कणिट्ठसुयस्स किमेवंविहं बसणमावडियं ? ति । भगवया जंपियं— महाराय ! न केवलं तुज्झ [कणि] सुयस्स, किंतु जेसुयसमेयाए तुह भजाए वि इमं चैव वसणं ति । विहिओ राया 'भयवं ! को पुण एवंविद्वाणत्थकारि ?' त्ति [पुच्छर ] | भगवया वि दंसिओ तकालमेव बंदणत्थमुवागओ कालो नाम जक्खो सक्खं चिय वट्टमाणो ति । 'किं पुण इमिणा सह विरोहपयं ?' ति पुट्टेण भगवया जंपियं— निसामेहिं, एतो सत्तमे भवे विजयपुरे नयरे विजयस्स गिहवहस्स पंच पुत्ता जाया । जेट्ठो तुमं महाराय !, कणिडो पुण एस जक्खजीवो, देवी दुबे [य] तुह सुया मज्झिमगा । एवं तुम्भे पंच वि भायरो गिहकजेसु वह । नवरं कणिद्वेण समं नस्थि च पि सिणेहो । पए पर कलहो, ठाणे डाणे विसंवाओ, खणे खणे केसाकेसि जुज्झं । अण्णया य भग्गो कणिइभाया बेरग्गोवगओ चिंतिउं पवतो १ प्रौढपध्यदन दानपूर्वकम् ॥ २ श्रामण्यम् ॥ पुदिणेस दुस्सुमिण दुनिमिचाईणं अणिट्टसूयगाणं तहासंभवो होजा १ एयाणुमाणेण य देवीए वि पभावईए न कुसल तक्केमि, पुत्ताण वि संसइओ सुहेण घरनिवासो' त्ति विभावितो सयं चिय धरियधीरिमाभावो समुग्गयम्मि मायंडमंडले दीहरतरुगहणरुद्धरविकरपसरत्तणेण अनुणंतो वि दिसाविभागं पयट्टो एगेण मग्गेणं । देव- गुरुसुमरणपुवगं च कया कंदमूलाइणा पाणवित्ती । मज्झदिणमंइवाहिऊण य उत्तरदिसिहुतं पट्टिओ राया, पत्तो यं मलयाभिहाणं पुश्वरं । तत्थ य वीसमिऊण कहवयदिवसाई चलिओ गज्जणयपुराभिमुई। अंतराय मिलिओ सेवम्मूहो ईतो कुबेरो व पउररिद्धिविच्छड़ो कुबेरो नाम सत्थवाहो । आवासिओ य सो तं वेलं । एत्यंतरे य जायं चिलायपडिभयं, भीओ सत्थवाहो, पारद्वा सुहडमग्गणा, दिट्ठो य तक्खणं तरुतले बीसमंतो नराहिवो । सयमेव सत्थवाहेण निच्छेियं- -न सामन्नरूवो एसो-त्ति विभावितेण सगउरखं नीओ राया निययावासं, काराविओ व्हाणभोयणाईयं । सुहासणत्थो य विन्नत्तो—भो महाभाग ! जइ वि आजम्माओ पढमं तुम्मेहिं सह दरिसणं तहा वि आगारविसेसोवलक्खिमाणविसिडकुल-कला-कोसलाइगुणा तुम्भे, अओ इमं भणिजह — एसो हि संपइ उबडियचिलायपडिभओ सत्थो इत्थी बाल- बुड्डुजणाइनो, ता नित्थारह हमातो आवयामहनवाउ ति । राइणा भणियं - भो सत्थवाह ! के वयमेवंविहकजनिवाहे ? केवलं जीवंताण न संभाविजइ एयं ति । ततो मुणियदढचित्तावभेण भणियं सत्थाहिवेण - महाणुभाव ! एवमेयं, को सूरमंडले पभवन्तम्मि तिमिरनियरस्सावगासो ? ति । १ "मयवा" प्र० ।। २ य कल प्र० ॥ ३ अभिमुखम् आयन् ॥ ४च्छियनस्सामन्न सं० प्र० ॥ धैर्यगुणे महेन्द्रनृपकथानकम् २८ । महेन्द्रनृपादीनां पूर्वभवचरितम् ॥२०४॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरइओ कहारयणकोसो ॥ सामनागुणाहिगारो । ॥२०५॥ ॥ १५ ॥ ।। १६ ।। 11 20 11 ॥ १८ ॥ ता सरियपुववेरेण तेण विणिवाइया तर्हि तुम्मे । चउरो वि भायरो घोरंजलिरविज्जुच्छडाए लहुं ॥ १४ ॥ तो कावेरीपुरीए मज्झिमगुणभावओ समुप्पन्ना । चउरो चि वणियपुत्ता परोप्परं बद्धदढपणया तत्थ चि दाऊण विसं विणासिया णेण चेत्र जक्खेण । कोसंबीए चउरो वि पुण हया खग्गघाएहिं कार्यदीए पुरीए पुणरवि चउरो वि लद्धमाणुस्सा । इंमिण चिय कुविएणं कियीडियामोडणेण हया रायगिम्मिं पुणरवि चउरो विकहिंचि पॅत्तमणुयत्ता । खित्ता ईमिण श्चिय लवणजलहिमज्झे विर्वन्ना य पुणरवि उज्जेणीए विप्पसुया संभवित्तु चउरो वि । कयचालतवा इमिणा विणासिया वाहिकरणेण इयँ सत्तमे य जम्मे तुमं च देवी य दुन्नि पुत्ता य । नरवर ! कुटुंबभावेण उवगया ते य चउरो वि तो ईमिण चिय जक्खेण ईसिउवसंततिवकोवेण । अडवीए पक्खित्ता सरंतु सुचिरं दुहाई ति इय नरवर 1 चिरभवदुकयकम्म दुबिलसियं निरवसेसं । अंबरज्झह सवत्थ वि निमित्तमित्तं परो नवरं इय सोचा पचक्खीभूयपृवाणुभूय सद्यभवो भूवई अतुच्छपच्छायावसारं जोडियकरसंप्रुडो तं जक्खं भणिउं पवतो– अहं तुज्झ पायवडिओ पुवदुञ्चरियं खामेमि, नत्थि थेवो विं ते अवराहो, अहमेव पावकारी अवरज्झामि, पसीयसु एत्तो, सद्दद्दा न भुओ एवं करिस्सामि, जुत्तं च कथं तुमए पुत्रकालेसु जमेवंविहदुबिणयस्स मह सिक्खाऽणुडिया, इव्हि पि समुचियदंडनिवाडणेण ।। १९ ।। 11 20 11 ।। २१ ।। ॥ २२ ॥ छ ॥ १ घोरज्वलितृविद्युच्छटया || २ इमण सं० प्र० ॥ ३ कृकाटिकामोटनेन ॥ ४ प्राप्तमनुजत्वा ॥ ५ इमण सं० प्र० । ६ 'विपन्नाः मृताः ॥ ७ इह स प्र० । ८ इमण प्र० ॥ ९ अपराध्यति ।। १० वि मे अ" सं० ॥ अणुगिन्सु ममं, जहतह परिचइयद्या इमे पावकारिणो पाणा जइ तुह समीहियसंपाडणेण चइति ता सुड्डु लडं भवइ ति । एवमायन्निय जक्खो अचंतविलक्खो नियदुच्चरियविभावणुब्भवन्तगरुयसंवेगावेगो करुणापूरपूरिजमाणमाणसो चिंतिउं पवत्तो॥ १ ॥ अचिरदुक्करतव चरणखीणकायत्तणेण संजणियं । चिरकालसुगुरुसेवा-दंसण-नाणोवजणियं पि पुनमगरुप गिरिसच्छहं पि पअंतदारुणफलेण । नीयं नियाणबंधेण धी ! मए कहमसारतं ? सो एस कागिणिकओ अणग्धरयणाण कोडिदाणेण । तमिमं इंगालकए हरिचंदणदारुनिद्दहणं चिंतामणिप्पयाणेण लेडुकिणणं व तं इमं नूणं । जं सुकयरासिणा तारिसेण जीवोहवहजणणं दुप्पैट्ठियस्स पावस्स अप्पणो किं व संप करेमि ? | अहवा विहसुहनिवहविहलणेणं कथं किश्चं को एत्तो वि हु दंडो होउ पयंडो इमस्स पावस्स ? | सुकयविमलो वि जं गुरुकसायकलुसत्तणं पत्तो इय संवेगोवगओ जेट्ठसुयं तह पभावई देविं । रनो समप्पिऊणं सविणयपणओ इमं भणइ भो धीरिमागुणागर ! नरवर 1 सुचिरं मए तुहवरद्धं । खमसु ममं सकुटुंबो डुंबस्स व सङ्घदुधरियं एवं खमाविऊणं रायाणं नियपुरे य मोत्तूण । उबसंतपुचबहरो जहागयं पडिगतो जक्खो राया विरजसिरि-पुत्त पणइणीलाभसंभवे वि परं । मुणिसुन्वयपयविच्छोहिओ ति सोगाउरो जाओ एत्थंतरे भणिओ पभावईए – देव ! किमेवमुविग्गो व लक्खीयसि १ किमेगागिणो वि रई जाया जमेवं मणोरहदु१ अतिगुरुकगिरिसमानम् ॥ २ काकिणीक्रयः ॥ ३ दुष्प्रस्थितस्य ॥ ४ तद्विषशुभनिवहविफलनेन ॥ ५ सुकृतविमलः ॥ ६ लक्खिय सं० ॥ || R || ॥ ३ ॥ ॥ ४ ॥ ॥५॥ ॥ ६ ॥ ॥ ७ ॥ || 2 11 ॥ ९ ॥ ॥ १० ॥ धैर्यगुणणे महेन्द्रनृपकथानकम् २८ । ॥२०५॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभइसरि- विरइओ धैर्यगुणे महेन्द्रनृपकथानकम् २८। कहारयणकोसो॥ सामनगुणाहिगारो। ल्लमे वि पियजोगे जोगि व उदासीणो वट्टसि ? ति । अह कयागारसंवरेण रना भणियं-देवि! मा मेवमुल्लवसु, एचिरदिणाई कहिं गया ? कहं वा वुत्थ ? ति । देवीए भणिय-महाराय ! निसामेहि अहं हि पच्छिमदिसाडवीए निवडिया वि एगाए दिसीए वच्चंती पडिया सीहस्स चक्खुगोयरं । ततो भयवेविरंगी इतो ततो पलोयंती पत्ता पारद्धिएणं । सपणयाला संभासिऊण नीया हं तेण नियभवणं । उवयरिउमारद्धा तंबोल-भोयणाइदाणेणं । अहं च [तुह ] गरुयविरहहुयासणसंतावनिस्सहंगी अवगन्नियतदुवयारा परिचत्तपाण-भोयण-सरीरसकारा सीलभंगभएण मणसा पवना अणसणं । अट्ठमोववासावसाणे य करुणाए 'मह कणिट्ठभगिणि' ति पडिवञ्जिय तेण पारद्धिएण काराविया किच्छेण भोयणं । ठिया पिउघरे व निवाबाहमेचिराई दिणाई ति । देव ! तुम्मे वि साहह निययवित्तं ति । ततो राइणा वि पुजलहिपेरन्तपडणपमुहो सत्थवाहसमप्पियसुयपञ्जवसाणो निवेइओ नियवुत्तो । अह रन्ना संभासिओ जेट्ठसुओ-वच्छ ! कहिं एचिरं कालं वुत्थो ? ति । तेण जंपियं-ताय ! दाहिणदिसीभीमाडवीनिवडिओ वि जहिच्छपरिभमणसमासाइयतावसासमो कंदमूलवित्तीए सुहेणाहं तावससमीवे निवसिओ म्हि । इय अवरोप्परसुह-दुक्खसंकहावड्डमाणपरितोसो । चिंतिउमाढत्तो सो महीवई रजकजाई ॥ १ ॥ एगम्मि य पत्थावे विरत्तचित्तो भवुभवसुहाण । रञ्जे ठविउं पुत्तं पोसहसालाए पोसहिओ ॥ २ ॥ पारद्धृतव-चरणो सज्झाय-ज्झाणविहियपडिबंधो । स महप्पा संविग्गो सम्मं दिणगमणिय कुणइ १ मा मा एवम् ॥ २ भवण सं. प्र. ॥ ३ भवोद्भवमुखेम्यः ।। ॥२०६॥ ॥२०६॥ ***66*6*%A6ARCHASSESEARTISTICKASSSSSS धमा चिरैभवसुविढत्तसुकयसंभारजायसुंदेरा । जं किं पि कुणता वि हुसलहिजंतीह लोएण ॥ १ ॥ अणुचियमवि जपता अब्भहियभवंतभूरितोसेहिं । सुसिलिट्ठ-लढवयण ति माणवेहिं थुणिअंति। ॥ २ ॥ रोसवसायंविरलोयणा वि दिन्ता वि कडुकरचवेडं । को एत्तो वि पसंतो ? ति सायरं चेव गिजन्ति ॥३॥ अहयं तु निरुत्तकरो वि उचियभासी वि पसमजुत्तो वि । ही ही! नियभाऊण वि उबियणिञ्जो ददं पावो ॥ ४ ॥ एवंविहस्स य ममं घरवासो नणु विडंबणामित्तं । चिरकालजीवियं पि हु तिवग्गविमुहं विहलमेव । इय वेरग्गोवगओ विणिग्गओ सो गिहाओ रयणीए । पडिवनो पवजं खेमकरमुणिवरसमीचे अह अहिगयसुत्तत्थो अभिग्गहं गिण्हई गुरुसमीवे । मासं मासेण मए तवो विहेयं ति जाजीवं ॥ ७॥ एवंविहेण तवसा खीणगो जीविए निरभिलासो । घेत्तूणमणसणं सो सावत्थीए पुरीए ठिओ ॥८ ॥ दिट्टी य कह वि कजागएहिं तुम्भेहिं चउहिं भाऊहिं । हसिओ य एस सो गेहकम्मभग्गोऽस्थ पञ्चइओ ॥९॥ इचाइजपिराणं तुम्भाण निसामिऊण सो वयणं । उपनगरुयकोवो विभाविउं एवमादत्तो ॥ १० ॥ एते ते कहमञ्ज विमुयंति पावा न भाउणो प९ि१ । उज्झियगिहस्स वि ममं निकारणवेरिणो दूरं ॥११॥ ता जइ तव-नियमाणं वयाण किं पिदु फलं इहं अस्थि । एयाण तो धुवमहं पहजम्मं घायगो होज ॥१२ ।। इय कयनियाणबंधो वारिजंतो वि गुरुजणेण बहुं । एसो स कालनामो मरि जक्खो समुप्पम्रो ॥१३॥ १ चिरभनसुअर्जितमुकृतसम्भारजातसौन्दर्याः ।। २ मुश्लिष्ट्रवचनाः ॥ ३ मुणि सं०॥ ४ रोषयशाताबरलोचनाः ॥ ५ 'निरुक्तकरः' कवितकारी ॥ SHARMACOCCE+SACRESS Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरइओ कहारयण कोसो ॥ सामन्नगुमाहिगारो। ॥२०७॥ भय-सोग- हरिस- कोवाइणो हि भाषा न जम्मि नअंति । अचंतन्निउणेण वि तं गंभीरतमाहंसु गंभीरिमापरिगया पुरिसा हीणे कुले वि संभूया । उत्तमकुलप्पसूय व पूयणिजा दहं हुंति सत्तू वि होइ मित्तो परो वि सयणो खलो वि गुणगाही । गंभीराण नराणं सुरा त्रि सेवं पत्रअंति ॥ सबन्नुणा पणीया उस्सग्ग- ऽववायरूपिणो भावा । परिणामिडं न तीरंति नूण गंभीरयाए विणा अनोमबाहाए अमय-विसाई व सिंधुमज्झम्मि । गंभीरे' ठंति नरे सामन्न-विसेससुताई इयरे विसेस सुयल मिचेण वि उत्तुणा न मायंति । वयमेव परं विउणोति सेसमुणिणो उवहसंति न वि ते गुरू ण पुजा सुयसागरपारगा य नो हुंति । भहणीदंसियनियरिद्धिवित्थरो धूल भदो व इय गंभीरा पुरिसा सकअ पर कज्जसाहणसमत्था । सुहसंपयमुत्तममुवचिणंति सिरिविजयसूरि व आसि सढकमढकयगरुपजलहरा सारपिहियदेहो वि । सिरिपासजिणो सविसेस जलिरझाणानलुप्पीलो किर विहरंतो पुर-नगर- खेड- कब्बड - मडंब - गामेसु । सो य महप्पा पत्तो महुरानयरीए वाहिम्मि सुरविरइयसालत्तयपरिगयसिंहासणे य आसीणो । ससुरासुरपरिसाए धम्मक कैहिउमाढत्तो अह तिय- चउक-चश्चर-सभा - पवाईसु विविहठाणेसु । धम्मं साहेइ जिणो चि पसरिया सबओ वत्ता ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ ४ ॥ किञ्श्व॥ ५ ॥ ॥ ६ ॥ ॥ ७ ॥ ॥ ८ ॥ ।। ९ ।। तथाहि ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ 11 8 11 १ रे संति [सं० प्र० ॥ २ गर्विताः ॥ ३ आसीत् शटकमठकृत गुरुक जलधरासारपिहितदेहोऽपि । श्रीपार्श्वजिनः सविशेषज्वलितृध्यानानलसमूहः ॥ ४ सुरविरचितशालत्रयपरिगतसिंहासने शालत्रयं वप्रत्रयम् ।। ५ कथयितुमारब्धः ॥ ॥ ५ ॥ तो राईसर- तलवर सेणावइ - सेट्ठि मंति-सामंता । भत्तिभरनिब्भरंगा जिणवइणो वंदनाय गया कयसविणयप्पणामा धम्मकहासवण वियरयविहुरा । परितोसवियसियच्छा य पडिगया नियनियं द्वाणं ॥ ६ ॥ अह भयवओ जसघोसो नाम तबस्सी छटु-डुमाइनिडुरमहातवसुसियसरीरो पारणगदिणे पडिग्गहमादाय अतुरियमचवलं जुगमेत्तमहीनिहित्तचक्खुपसरो य तीए चेत्र पुरीए उच्च-नीएस मंदिरेसु भिक्खं भमतो पत्तो कणयदत्तपुरोहियधरे । तस्स य पुरोहियस्स तं कालं देवयाइआराहणाइणा पसूओ बिजओ नाम पुत्तो । 'सो य छेम्मासवओ वि गहिओ विविहरोगेहिं, न उवायसहस्सेण वि तीरिओ पगुणीकाउं' ति सोगसंरंभनिन्भरो संतावमुवहंतो पुरोहिओ पेच्छइ भवणंगणोवगयं थिमियैलोयणं तं तवोहणं । ततो 'अहो ! स एस पच्चक्खसुकयरासि' त्ति परं पमोयमुद्दहन्तो सायरं पाएसु पडिऊण सविणयं विनवितं पवतो - मयवं ! तुम्ह दंसणं पि साहेइ निरुवमं कारुणियत्तणं चक्खुक्खेवो वि पडिहणइ दुरियशसिं, पायसू वि पसमेइ पाववियारं, अतो पसायं काऊण पलोयह कहमेस रातो मम सुओ नीरोगो होहि ? त्ति । साहुणा भणियंमहाभाग ! अम्हे य सज्झाय ज्झाणाइसु चैव पहुणा निउत्ता, एवंविह किचेसु वाढं निसिद्धति । पुरोहिएण जंपियं— को पुण तुम्ह पहू १ । साहुणा जंपियं - जपायपणई पणासह भयं भूय- प्पिसाउन्भवं, जन्नामग्गहणं हणेह गहणं रोगाइवलीण बि । जस्संकित्तणमेत्तओ वि न भवे भुओ भवे संभवो, सो पासो तिजयप्पयासचरिओ अम्हाण नूणं पहू ॥ १ ॥ १ पण्मासवयाः ॥ २ स्तिमितलोचनम् ॥ ३ पापविकारं पापविचार वा ॥ ४ वराकः ॥ गाम्भीर्यगुणे विजयाचार्यकथानकम् २९ । ॥२०७॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसरिचिरइओ गाम्भीर्यगुणे विजयाचार्यकथानकम् २९। कहारयणकोसो॥ सामनगुणाहिगारो। ॥२०८॥ पुरोहिएण वुत्तं-जो धरणिंदफणाफलगनिम्मवियमंडवो खंडियपयंडकोषकमढमडफरो फारफुरंतचरणनहमणिमऊहमंडियदिसिमंडलो सेवापवननीसेसाखंडलो? । साहुणा भणिय-एवमेयं । ततो सहत्थेण मुणिं पडिलाभिऊण सवायरेण वंदिऊण य निवत्तियघरकायवो तं सुयमादाय गतो सो भगवओ समीवे । भयवं पि तवेलं गयणयलविलसंतसियायवत्त-समणिपायवीढसीहासणो उभयपासढलंतसेयचामरो पयट्टधम्मचकाणुमग्गकयचं कमणो परिवाडिनिवडंतकणयकमलनिवेसियचलणो पट्टिओ विहारजतं । तओ भगवंतं अणेगविंदारयविंदाणुगम्ममाणमग्गं पेच्छिऊण वच्चंतं पुरोहिओ 'हा हा ! कहमभग्गो?' ति सोईतो भणिओ एगेण सावगेण-किं भो! संतप्पसि। पुरोहिएण वि कहिओ सरोगसुयडियारनिमित्तमागमणवुत्तो । सावगेण भणियं-मुद्धा! किं न पेच्छसि भगवओ चलणकमलावलीविनासपबित्तं महीरेणुपडलमुत्तिमंगे निक्खिप्पमाणं सरीरे यसबायरेणं इमिणा रोगिणा जणेण ? ता वच, तुमं पि इमं डिभरूयं इमिण चिय रेणुणा संबंगियं उद्धृलेसु भगवतो पाएसु पाडेसु य त्ति । तओ पहिडेण पुरोहिएण 'तह' त्ति भत्तिसारं सर्च निवत्तियं । उवसंतपरुट्ठदुवंतरीकयरोगो य अमयकुंडसित्तगतो व पसंतीहओ पुत्तो । गतो य सघरं पुरोहिओ। तदिणाओ चेव आरब्भ पवनो मुसाबगत्तणं । पुत्तो य नीरोगो पवढेतो जातो तरुणो । अह सम्मेयसेलम्मि निवाणमुवगए तिलोगबंधचे पासजिणवरे, हेल्लोहलाउलिए विसेसतव-चरणपरायणे समणसंघे, १ सडाफरो-मानः ॥ २ अनेकवृन्दारकवन्दानुगम्यमानमार्गम् ॥ ३ शोचमानः ॥ 'पडीयाप्र. ॥ ५ सव्वंग उ सं. ॥ ६ खराकुलिते ॥ |॥२०८॥ KARAKASHAKAKKARAARAKHARKAR धैर्यगुणस्य माहात्म्यम् पुषभवकम्मदोसेण सास-कासाइणो महारोगा । जाया तह वि य सो धीरमाणसो तेऽहियासेइ ॥ ४ ॥ एत्थं पर्जतविहिं सम्मं आराहिऊण कालगओ । सोहम्मे उववन्नो पलियाऊ भासुरो तियसो जो संपेयं व मन्द आवयं बाढमविचलियचित्तो । सो धीरो तं च समोयरंति सवाउ रिद्धीओ ॥६॥ किश्च कृच्छे कनीयस्यपि धैर्यहीनो, नरो विमुह्यत्युपयाति शोकम् । मूढश्च शोकाभिहतच पश्चात् स निश्चितं धर्मविधेरपति धर्मव्यपेतच विवर्षमानाः, कल्याणवल्लीरखिलाछिनत्ति । तच्छेदनाच्छिन्नपतत्रपालिः, पक्षीव कत्तुं क्षमते न किश्चित् ॥ २ ॥ तथाविधवेष भवाम्बुराशी, निमजनोन्मअनखिनकायः ।। कदाचिदप्राप्तविमुक्तिमार्ग:, कस्या विपत्तेर्भविता न धाम ? ॥ ३ ॥ इति धैर्या-ऽधैर्यवेतोर्गुणांच दोपांच सम्यगवधार्य । गुणवत्पदं दक्षः कक्षीकुर्यादविक्षेपात् ॥ ४ ॥ ॥ इति श्रीकथारस्नकोशे धैर्यगुणचिन्तायां महेन्द्रनपकथानकं समाप्तम् ॥ २८ ॥ दीसंति गुणा के वि हु कहिं पि गंभीरिमा न सवत्थ । इय तीए पॅरिगयाणं सकअसिद्धि त्ति दंसेमि ॥१॥ १ इत्थं प्र• २ सम्पदमिव मन्यते आपदम् ॥ ३ "बतो, गु सं० प्र० ॥ ४ 'परिगताना' युक्तानाम् ।। गाम्भीर्यस्व स्वरूपम् Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * देवभइसरिविरहओ कहारयणकोसो॥ सामन्नगुणाहिगारो। |गाम्भीर्यगुणे विजयाचार्यकथानकम् २९। कयनिच्छया हि परिसा विसंति किं नो जलंतजलणम्मि ? | निवडंति किं न वा अयगमीसणे भार पडणे? ।।४।। किंवा कलत्तसंगह-कुलबुडीहि पि ताय ! काय? । जेहिंतो साहारो थेवो दिन भवभयहाण तो जावऽज वि वजासणीसमो न वि जमो समुत्थरइ । ताव तएऽणुत्रातो सामण्णमई चरामि ति ॥६॥ अह तअणणी एवंविहमल्लावं आयभिऊण ताण तणं व अप्पाणं मनंती सोगभरुच्छाइयचेयणा मुच्छानिमीलियच्छा निवडिया महीए । अह सायरपधाविरपरियणकयसिसिरोवयारलद्धचेयणा भुजो रुयंती भणिया विजएण-अम्मो ! किमेवमन्त्राणज॑णोचियमाचरिजह ? जइ तुज्झ सुओ उत्तमसेवियं पयमारोहइ [एत्तो] किं तुज्झ य कल्लाणं ? ति | जणणीए जंपियं-तुज्झ अस्थि एवं, परं तुद विओगं खणं पि न तरामि सोढुं । विजएण जंपियं-अम्मो ! मुयसु महामोहविलसियं, जहतह अवस्समरणसंभवे किमसोढं नाम ? विओगदुक्खे वि नेय अजरामरो विजह जए कोइ । पुरोहिएण जंपियंभो बंभणि ! सुकवणगहणपयड्डो हुयवहो कयनिच्छतो य पुरिसो न निलंभिउं पारीयइ । माहणीए भणिय-जइ एवं ता । अम्हे वि पुत्ताणुचरियमेव मग्गं अणुसरामो, किं निरवच्चाण घरनिवासेणं ? ति । पडिवअमिमं पुरोहिएण । ततो तिनि वि | ताई सव्वाणुभूहगणहरसमीवे पवनाई समणत्तर्ण । पिउणा जणणीए य अहिगयाई कालकमेण एकारस वि अंगाई। विजएण पढियाई ससुत्ताई सअस्थाई चउद्दस वि पुवाई। १ भवभयानाम् ॥ २ ता त" सं. ॥ ३ ण तणं व ख• ॥ ४ जणोच्चिय खं० ॥ ५ नाम विओ विओगदुक्खे य नेय सं०॥ ६ पारिय" खं• ॥ ॥२०९॥ ॥२०९॥ ****%%%%%%%%**+++8+%A8+%E0%A4%AE%*** MAHARASHTRAKASHASHIKARANARRERASHTRAEKANANAAKASAKES अन्नया य सव्वाणुभूहगणहरो विजयं सूरिपए पइडिऊण कयाणसणो निवाणमुवगओ । विजयसूरि वि गंभीरिमापमु. हगुणरयणायरो भवसत्तसंताणताणकरणत्थं पयट्टियाविच्छिन्नधम्मकहापबंधो संजमुजोगसजीकयसाहुवग्गो निरुवसग्गं वसुहाए अणिययवित्तीए गामा-ऽऽगराईसु विहरइ । अन्नं च पंचसयसाहुगन्छे को वि य कोवाउरो जइ वि बाद । जइ वि य विणयविहणो य को वि अहवा वि माइल्लो ॥१॥ जइ वि य मौणग्घत्थो य को बि लोभाउरो य जइ को वि। जइ वि य कोइ पमाया समिई-गुत्तीसु अनिरुत्तो ॥२॥ तह वि मुणिणो स सूरी सिंधु व सुदुट्ठजलयरकुलं व। गंभीरिमाइरेगेण अविगिओ सहरिसं धरइ ॥ ३ ॥ न य स महप्पा केणइ सुरगुरुमइणा वि जाणिउं सको । अभओ सभओ व सुही दुही व दुडो य रुट्ठो वा ॥ ४ ॥ एवं च तस्स सूरिणो गणं सबाल-बुड्ढाउल सुत्तवुत्तविहिणाऽणुपालेंतस्स सारण-वारणाईहिं जहावसरमणुसासिंतस्स य वचंति वासरा । अभया य पवाविया णेण चत्तारि रायसुया, तंजहा-पढमो कुरुनरिंदनंदणो वरुणो नाम, चीओ य पंचालभूवइसुओ सयंभुदत्तो, तइओ य सिंधुसोवीरदेसाहिवतणओ ईसाणचंदो, चउत्थो सावत्थीपत्थिवंगरुहो अरिहतेउ ति । ते य चउरो वि नय-विणय-सच्च-सोय-खमा-दम-संजमाइगुणगणाणुगया, गहणा-ऽऽसेवणासिक्खावियक्खणा, अणुक्खणं वीरासणाइकट्ठकिरियामु पयहूंता, अभिक्खणं उग्गकाउस्सग्गचेट्ठासु उअममाणा, अप्पणो सामत्थं ताहिं ताहिं १ भव्यसत्वसन्तानत्राणकरणार्थम् ॥ २ मायावी ॥ ३ मानप्रस्तः ।। ४ वि लाभा" म०प्र० ॥ ५ स्खलित इत्यर्थः ॥ ६ अविकृतः प्रदर्षम् ॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का देवभद्दसरि- विरइओ कहारयणकोसो । सामनगुणाहिगारो। ॥२१॥ गाम्भीर्यगुणे विजयाचार्यकथानकम् २९ । दुकराहिं पि किरियाहिं तुलिऊण गया सूरिणो समीचं, भत्तिसारं बंदिय विनविउ पयत्ता-भयवं ! तुब्मेहिं अभणुमाया वयं किं पि सविसेसं कट्ठाषुट्टाणमणुट्टिउमिच्छामो ति । गुरुणा जंपियं-निविग्घं देवाणुप्पिया ! जहावंछियं हेच्छमाचरेह त्ति । तत्तो 'तह' ति सिरविरइयंजलिणा सविणयं पणमिऊण वरुणरायरिसी बेयालवसहिं गंतूण ढिओ काउस्सग्गेण, सयंभुदत्तो वि कुमारसमणो बडवासिणीखेत्तदेवयाए पुरो, ईसाणचंदो भूयगुहाए, अरिहतेतो वि रायरिसी सुसाणम्मि ति । एवं ते चउरो वि समणसीहा कुलसेल व थिरप[य] इणो महासत्ता महाबला महामइणो महातेयसिणो परमसंविग्गा परमभवभीरुणो सुप्पणिहियमण-बयण-काया जाव नियनियट्ठाणेसु काउस्सग्गगया चिटुंति ताव पढमस्स मुणिणो खोभणत्थमुवट्ठियं वेयालवंद्रं । कह चिय? रुंद-रउद्ददीहमुहकंदरदढदाढाकैडप्पयं, कालकरालकायगरुयत्तणनिम्भरभरियगयणयं । निसियकिवाणकप्पगुरुकत्तियउकत्तियनरंगयं, पइखणमुकहक्क-पोकारवकिलिकिलि-कलिलसद्दयं ॥ १ ॥ एवंविहं पि वेयालवग्गमविभग्गमाणसो दर्दृ । ईसिं पि न झाणातो चलितो वरुणो मुणिवरिट्ठो ॥ १ ॥ बीयस्स वि साहुणो वडवासिणीदेवयाए खोमणत्थं पारद्धो उवकमो । जहाजालाकरालहुयवहहुणणपयस्स संरियमंतस्स । विजासाहणअन्भुजयस्स किर मंतवाइस्स १ शीघ्रम् ॥ २ 'चरह त्ति । ततो प्र० ॥ ३ अईतेजाः ॥ ४ विस्तीर्णरौद्रदीर्घमुसकन्दराहदर्दष्ट्रासमहं कालकरालकायगुरुकरवनिर्भरमृतगगनम् । निशितकृपाणकल्पगुरुकर्तिकोस्कर्सितनरामक प्रतिक्षणमुक्तद्दकपोकारवकिलिकिलिकलिलशब्दम् ॥ ५ कणप्प" सं० ॥ ६ स्मृतमन्त्रस्य । ACAKAR ॥२१॥ +SINCREAKIRAN+SAMRAKARRC- SCORCHASKAR सविसेसजिणपूयापरे सावगवग्गे, चेइयवंदणत्थं गएण उवरोहिएण निसामिऊण वत्ता कतो तद्दिणमुववासो। परिचत्तगिहवावारो पिईजणे व परोक्खीहूए महंतं चित्तसंतावमुबहतो गिहिक्ककोणनिविट्ठो दिट्ठो विजएण, पुट्ठो य–ताय ! किमेवं कसिणाणणो वट्टसि ? किं मए किं पि अवरद्धं परियण[मज्झा]तो केणइ आणाखंडणं वा कयं? ति । पुरोहिएण जंपियं--वच्छ ! नत्थि कस्स वि किं पि अवराहपयं, केवलं केवलालोयावलोइयलोया-ऽलोयसरूवो रूवविजियकंदप्पो दप्पसप्पनागदमणी मणीहियत्थसंपाडणकप्पपायवो पायवोवगमणविहाणेण सो पासजिणो निव्वुई पत्तो, जस्स भगवतो पायपंसुफरिसणेण पुत्त! तुममारोग्गयमुबगतो, जम्मग्गलग्गो अम्हारिसो य जणो न भायइ ईसि पि भववेरिवाराओ, जदत्थमणे य नीरंधतिमिरपूरपूरियं व नजइ तिहुयणं ति, तप्पायपंकयविरहदुहनिवहो चेव मम एवंविहावत्थाकारणं ति । एवं च आयभिऊण विजतो जायवेरग्गो जंपिउं पवत्तो-ताय ! जइ एवं तस्स भगवओ पायप्पसाएण अहं नीरोगसरीरो संवुत्तो, जो य एवंविहनीसामन्नगुणो, तस्स निव्वुइगयस्स विरहे किं संसारवासवासंगेण १ ता मुयह मम जेण तदणुचिन्नं सामन्त्रमणुसरामि त्ति । पिउणा जंपियं-वच्छ ! किमजुत्तं ? केवलं अञ्ज वि कोमलकाओ काउमसको य कक्खडं किरियं । निवससु सगिहे चिये किचिरं पि कालं कुमार! तुमं ॥१॥ कुणसु य कलत्तसंगहमणुगिण्डसुदीण-सयणलोगं च । वड्डियसंताणो सबविरइकिरियं करेजासि ॥ २ ॥ विजएण जंपियं ताय ! केरिसं कोमलत्तणं मज्झ । किं वा वि दुकरं धम्ममग्गनिच्छइयचित्तस्स ॥ ३॥ १ पुरोहितनेत्यर्थः ॥ २ कृष्णाननः ॥३ 'यणातीके" ख. प्र०॥४ संसारवासव्यास न ॥ ५ “य केचि' प्र. ॥ ६ यललो सं० ॥ ACASARASWAKRECCC Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरइओ गाम्भीर्यगुणे विजयाचार्यकथानकम् कहारयण-I कोसो ॥ सामनगुजाहिगारो। ॥२१॥ तो अइसयसुयनाणावलोयविनायतस्सरूवेण । अप्पयडियदोसेणं तेण वि तह कह वि उल्लविया ॥४ ॥ जह झाणथिरमणाणं सविसेसथिरत्तणं समुल्लसह । इयराण वि अविलियमाणसाण दढमुञ्जमो हवइ ॥ ५ ।। जइ पुण अचलियझाणा दो चिय सलहेज साहुणो सूरी । पंचारिज य इयरे फुडक्खरं पउरजणपुरओ ।। ६ ॥ ता दोण्हं उकरिसो दोहं पुण लजणेण संतावो । उभयं पि अणुचियमिमं विवेगिणो साहुवग्गस्स एवंविहं च वोतुं न तरह गंभीरिमं विणा नूर्ण । वत्तबविसेसं न वि मुंणंति हरिसाइणाऽऽउलिया ॥८॥ एवमवरे वि मुणिणो गरुयं गंभीरिमं धरितेण । विलियं पेच्छंतेण वि तेणमपेच्छंतएणं व निKणंतेण वि अणुचियममुणतेणं व कस्सह कहिं पि । अनववएसओ मिउगिराए सिक्खं च दितेण ॥१०॥ अखलियलजापसरा अक्खंडियविणय-संजमायारा । अविमुकभया अविलुत्तसुत्तपाढा अणालस्सा ॥ ११ ॥ तहविहंसाहुगुणे[सुं] सुठाविया जह पहीणकम्ममला । ते वि महप्पा सूरी वि सिवपयं परममणुत्ता ॥ १२ ॥ इय अप्पणो परस्स य परमुन्नइनिवहभाइणो होति । गंभीरिमापरिगया पुरिसा सह सलिलनिहिणो छ ॥१३॥ अपि च१ अतिशयश्रुतज्ञानाचलोकविज्ञाततत्स्वरूपेण । अप्रकटितदोषेण ॥ २ अब्रीडितमानसानाम् ॥ ३ °लहिज्ज प्र० ॥ ४ उपालभेत ॥ ५ प्रचुर- ॥ ६ जानन्ति हर्षादिनाऽऽकुलिताः ॥ ७ एवमपरेऽपि मुनयः गुर्वी गम्भीरतां धरता । प्रीडितं प्रेक्षमाणेनापि तेनाप्रेक्षमाणेन इव ॥ ८ निशृण्वताऽपि अनुचितमण्वता इव कस्यचित् कुत्रापि । अन्यव्यपदेशतः मूदुगिरा शिक्षा च ददता ॥ ९ "वि हु सावं. प्र. ॥ १० "पत्तो सं० प्र० ॥ ११ सदा ॥ गाम्भीर्यस्य माहात्म्यम् ॥२१॥ SARHARATAKA4%AHARARRERAKASKARNAKKAKAR AGRESSENAHARRORRCACASCARSACREACCCCCCAKACANCE गाम्भीर्यभावाऽभावयोः गुणदोषौ गम्भीरताविरहितः पुरुषः परेषां, रोषाधुपाधिविधुरीकृतचित्तवृत्तिः । मर्माण्यपि प्रकटयत्युचितेतरच, वक्तुं विवेक्तुमपि न क्षमते कथश्चित् ॥ १ ॥ एवंविधश्च लघुतां महतीमुपैति, प्राप्नोति चाऽऽपदमसातवाक्क्षतेभ्यः । चाकण्टका हि विकटाः श्रुतिरन्ध्रममा, नोद्धर्तुमुद्यतधिया हरिणाऽपि शक्या: ॥ २ ॥ तत्प्रत्ययः प्रतिभवं च महान् व्यपायः, वैरानुबन्धमधिकं परिवर्धते च । तत् सर्वथोचितवचःप्रविवेचनाया:, गम्भीरतैव जनिकेति न किश्चिदन्यत् ॥३ ॥ इति तस्यां मतिमनि, सद्भिर्भववैरिविजयमिच्छद्भिः । परिहृतपरपरिवादैनियोजनीयं मनो नित्यम् ॥४॥ ॥ इति श्रीकथारत्नकोशे गाम्भीर्यगुणचिन्तायां विजयाचार्यकथानकं समाप्तम् ॥ २९ ॥ सबे वि गुणविसेसा इंदियविजयं विणा विसीयति । ता तजइणा होयमेव मित्तो पवक्खामि ॥१ ॥ इंदो जीवो तस्स उ इमाई तो इंदियाणि भन्नति । सोय-च्छि-घाण-रसणा-फरिसणरूयाई पंचेव ॥ २ ॥ सोयं हि वेणु-वीणा-गेयनिनायाइपावियपमोयं । अच्छी वि पवररूवावलोयणेणऽञ्जियसुहत्थी ॥३ ॥ घाणं च परमपरिमलमालगंधाइवड्डियप्पाणं । रसणा वि सरसभोयण-पाणाइसु गहणवद्धखणा ॥ ४ ॥ १ "रहतः ख० ॥ २ 'तज्जयिना' इन्द्रियजयिना ॥ ३ बमेत्तो प्र. ॥ REOOOOOOadean इन्द्रियविजयस्य स्वरूपम् Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसरिविरहओ कहारयणकोसो॥ सामन्मगुणाहिगारो। ॥२१२॥ इन्द्रियविजयाविजययोः सुजसश्रे|ष्ठि-तत्सुतकथानकम् ३०॥ फरिसणमविरयमउयासणाइपरिभोगविहियस बसणं । अवगच्छ मिनविसयं इय सयलं इंदियाण गर्ण ॥ ५ ॥ एकेकं पि हु एयाण जाण जीवाण मचुजणणखमं । सीसइ समए वि इमं दीसह पयर्ड चिय तहा हि ॥६॥ गेयरव-दीवयसिहा-कुसुमा-ऽऽमिस-वारुयासु आसत्ता । हरिण-पयंग-भुयंगम-मीणेभा ही! विणस्संति ॥७॥ एकेकविसयसंगे वि एवमेते विणासमणुपत्ता । एको वि पंचसु रओ झड ति कह जाइ नो निर्ण? ॥८॥ इंदियवाउलियमणा मणागमे पि सुहमविदंता । रण-सिंधुतरण-विवरप्पबेसवसणेसु निवडंति ॥९ ॥ पेच्छंति बहुविहाई दुहाई वचंति दुग्गईसु चिरं । इंदियविसयपरद्धा किं वाऽणत्थं न पेच्छंति ? ॥१०॥ जं नेव जंति सग्गं जं च विडंबणमुर्विति इह घोरं । दुईतिंदियदारुणदुबिलसियमेव तं जाण ॥ ११ ॥ पढियं पि सुयमुयारं तवं पितवियं तहा बहुपयारं । जइ नत्थि इंदियजओ ता तं विहलं मुणसु सयलं ॥ १२ ॥ तरिओ च्चिय भवजलही जेहिं जिओ एस इंदियगईदो । वामेण य चलणेणं आवड्चकं पि अकंतं ॥१३॥ एयजए अजए वि य सुह-दुक्खाहं तु जणग-पुत्ताणं । दिटुंतनिबद्धाणं सुजसाईण निसामेह ॥१४॥ तथा हि-अस्थि जंबुद्दीवबिसेसयतुल्लदाहिणद्धभारहविसयवसुंधरापसिद्धा समिद्ध-सद्धम्मवंतलोयाहिट्टिया माहेसरी नाम नयरी । जा य दिवकुंडेलजुयलालंकियजुवइपरिगया एगकुंडलालंकरणगबियमुवहसइ अलयापुरिं, खलयर्णविवञ्जिया य १ स्पर्शनं अविरतमूदुकासनादिपरिभोगविहितसव्यसनम् ॥ २ शिष्यते समयेऽपि ॥ ३ बास्या-दस्तिनी ॥ ४ मापचक्रम् ॥ ५ 'डलालंकिय" प्र० । दिव्यकुण्डतयुगलाल कृतयुक्तीपरिगता सती एककुण्डलालहरणेन गर्वितां हसति अलकापुरीम् । मलकापक्षे एककुण्डल:-कुबेरः ॥ ६ "णसुष * २१२॥ SEKASGER ISBIKASHATRIKAKAKASXX साहणविहिम्मि चुकस्स कह वि लल्लंकमुकफेकारा । बडवासिणी सिर से रुट्ठा समुवट्ठिया छेत्तुं ॥२॥ अह निभंरकरुणामरविस्सुमरियनियविहिस्स साहुस्स झाणाओ ज्झत्ति मणं चलिय हा ह ! ति मणिरस्स ॥३॥ अह तइयसाहुणो वि हु भूएण पारंभिओ खुद्दोवद्दवो । कहं चिय?कुवलयदलदीहरलोयणाए जुबईए परिगतो सहसा । नवजुव्वणो जुवाणो निमेरेसुंदेर-सारंगो बहुहाव-भाव-विम्भममणोहरं रंयमुह अणुभवन्तो । तह कीलिङ पयट्टो जह चलई मणो मुणीणं पि ॥२॥ साहू वि तं तहाविहरहवइयरमणवलोयमाणो ब । सविसेसझाणपयरिसमारूढो अविचलियचित्तो ॥ ३ ॥ चउत्थस्स वि साहुणो सुसाण चिन्नकाउस्सग्गस्स एमेव कह वि गुंजापुंजरत्तलोयणो वणकरिकरकरणिकायदंडो यंडफणाकडप्पदुप्पेच्छो महाभुयंगमो पाएहिंतो सीसदेसमारूढो, तत्तो वि य कक्खे-खंधसिहरेसु वियरिओ। तहदेहविहियभमणस्स भीमरूवस्स पनगवइस्स । नवनलिणिनालसीयलसरीरफरिसेण संभूओ ॥१॥ रोमुद्धोसो मुणिणो झाणातो कंपियं च किं पि मणो। भुयगो वि अकयडंसो सणिय सणिय अवकंतो ॥२॥ इय ते मुणिणो चउरो वि उग्गए मंडलम्मि दिणवइणो । पारियकाउस्सग्गा गया सयासम्मि सरिस्स ॥३॥ १ भयङ्करमुक्तफेत्कारशब्दा ॥ २ निर्भरकरुणाभरविस्मतनिजविधेः ॥ ३-दीर्घलोचनया ॥ ४ बजोख प्र. ॥ ५ निर्मर्यादसुन्दरसारामः ॥ ६ रतसुखम् ।। ७'चलो मुसं. प्र. ॥८ "णदिन सं०प्र०। श्मशानचीर्णकायोत्सर्गस्य ।। ९ वनकरिणः करेण-शुण्डादण्डेन करणिः-तुल्या कायदण्डो यस्य ॥ १० प्रचण्डफणासमूहदुप्प्रेक्ष: महाभुजङ्गमः पादेभ्यः ॥ ११ "क्खडखं सं. ॥ १२ "लिणना प्र. ॥ १३ रोमोद्धर्षः ॥ ३६ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45 देवभद्दसूरिविरहओ कहारयणकोसो ॥ सामनगुणाहिगारो इन्द्रियविजयाविजययोः सुजसश्रेष्ठि-तत्सुतकथानकम् विद्दविस्संति, निवारिया य चित्तसंतावं उच्चहिस्संति, तह वि निवारणा चेव जुत्ता, उवेहिया हि अंगुब्भवा रोगा सुया| य न सुहावहा होंति त्ति । ततो पारद्धा पंच वि सिक्खवि सेट्ठिणा रे रे मूढा ! को एस उवणो भोगभयणवाचारो। किं नेव बुज्झह धणं सगिहे ? किं वा न कोसल्लं? ॥१॥ किं वा न सबाहुबलं अवगच्छह ? किन्न पेच्छह जणं च । परिमियपरिभोगुवभोगविजियसबिंदियपयारं? ॥२॥ किं वा नो परिभावह अंसाहुवातो जए पवित्थरिही । एवमनिहुयमसंकं सच्छंदं विलसमाणाण? ॥३॥ किं सो वि इह गणिजइ जो मैलिणइ नियकुलं च सील च । खिविऊणं अप्पाणं नूणमसंभावणापंके? ॥४॥ किंबहुणा जइ बंछह मज्झ घरे निवसिउं सिरिं भोत्तुं । ता उज्झियअइरेगा निहुया होऊण ठाह चिरं ॥५॥ इय दंसियगुरुतरकोवनिब्भरं पेच्छिऊण नियपुत्ते । सासिजंते पिउणा रुट्ठा सुलसा इमं भणइ ॥६॥ मेइ जीयंतीय वि पेच्छ कह सुया निडर भणिजति १। सुहसीला-ऽऽयारा वि हु अकयविणासा विणीया वि ॥७॥ ता सरियमियाणि मज्झ गेहवाचारविरयणाए मुहा । जत्थित्तिए वि पुत्ताण एरिसी कीरइ अवना ॥८॥ ततो सा जायगरुयाभिमाणा परिचत्तपाण-भोयणा एगंतदेसे परिमिलाणवयणकमला सोविऊण ठिया। भोयणसमए दुवाराओ आगतो सेट्ठी । सयं पि पायपक्खालण-देवयादसणाइ काऊण भोयणमंडवमुवगतो य पुच्छइ-कत्थ गया सुलस? त्ति । परियणेण भणियं-कजमज्झमचुज्झमाणेहिं किं कहिञ्जह? परं कोवाउर ब सेहिणी उज्झियगिहकिच्चा १ उल्वणो भोगभजनब्यापारः ॥ २ असाधुवादः जगति प्रबिस्तरिष्यति ॥ ३ मलिनयति ॥ ४ शिष्यमाणान् ॥ ५ मयि जीवन्स्यामपि ॥ ६ सूतम् ॥ ॥२१३॥ ॥२१३॥ HALCCASIKASHNERSARASADAR CHASAHASRASHASKARNAMAHAKAKASARAKACAAAAAAKAASHAN अमुगस्थ पसुत्ता अच्छा त्ति । इमं च सोचा संभंतो गतो सेट्ठी तीए समीवं, संभासिया य-भद्दे ! किमेवं कुवियन दीससि ? किं कारणं न चिंतेसि गिहकिच्चाइ-न्ति । सा य इममसुणमाणि च वत्थपच्छाइयवयणा ठिया परम्मुही। विलक्खीहूओ सेट्ठी गतो ततो पएसाओ । ततो पेसिया तीए समीवे नियजेट्ठभइणी सेट्टिणा । तीए वि सामवयणविनासपुरस्सरं तहा कह पि पनविया जहा ईसिपसंतकोवावेगा सम्मुहीहोऊण भणिउं पवत्ता-तुह भाउणा इत्थमित्थं च सुया निदोसा वि अणुचियवयणेहिं तजिया, तहुक्खेण य मए भोयणाइ सई परिचचं ति । नणंदाए भणिया-सबहा खमाहि एकवार, न भुजो सेट्ठी किं पि जंपिही । एवं भुजो भुजो सा पैनविजमाणी उज्झियकोवा भुत्ता समं सेट्ठिणा । तदिणातो आरम्भ चत्ता पुत्ततत्ती सेट्टिणा । दधविणासे वि न सिक्खवह किं पि, कजविणासे वि चिट्ठइ तुसिणीए । एवं च उवेहिजंतं पलीणप्पायसारं जायं घरं । गरुयवेरग्गोवगयचित्तो य परिभाविऊण माइंदजालविलसियं च अपारमत्थियं पियपणइणी-पुत्ताइयं, निरिक्खिऊण खणजोग-विओगं पेमप्पवंचं दमघोसमरिणो समीवे पवइओ सुजसो । विसिट्ठोवहाणपुरस्सरं च सवं सामायारिमणुपालिंतो गामा-ऽऽगराईसु गुरुणा समं विहरि पवतो। अह सुचिरकालमकलंकसीलपरिपालणपरो सम्ममहिगयसुत्तत्थो 'मा कुडूंचमज्झातो को वि पडिबुज्झिहि' त्ति गुरुणा चेव समं समागतो सो माहेसरीपुरीए । आगओ य वंदणवडियाए जणो, धम्ममायभिऊण य गतो जहागयं । पढमजामावसेसे य दिवसे सरिसमीवोवविट्ठस्स सुजससाहुणो 'विजणं' ति काऊण पुखदुचरियचिंतणुप्पज्जमाणलजा१ 'प्रज्ञापिता' अनुनीता ॥ २ 'प्रज्ञाप्यमाणा' अनुनीयमाना ॥ ३ शिक्षयति ॥ ४ मायेन्द्रजालविलसितमिव ॥ ५ पूर्वदुःखरितचिन्तनोत्पद्यमान Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसरिविरइओ है कहारयणकोसो॥ सामनगु-13 णाहिगारो। भरोणयवयणा सदुक्खं रुयंती समागया सा सुलसा सेट्टिणी । बंदिओ सूरी सुजससाहू य । आसीणा समुचियट्ठाणे । इंगियाईहिं मुणियसंबंधेण य संभासिया सूरिणा-भद्दे ! अवि निबहइ धम्मकिचं ? धम्मसहाई य पुत्ताइपरियणो? ति । ततो घट्टियहिययसल्ल व संगग्गरं सा रोविउं पवत्ता । भणिया य गुरूहिं-महाणुभावे! कीस रोयसि । तीए जंपियं-भयवं! एवंविहाणस्थपत्थारीकारणं अप्पाणं चिय रुवामि, जीए मए सम्ममणुसासिंतो वि निद्धाडिओ घरसामी, अणुचियं वटुंता वि 'सुसमायार' त्ति उबवूहिया सुया, पत्ता य मंदभागिणी नियदुनयपायवमूलं पावफलं । गुरुणा भणियं-कहं चिय? । तीए जंपियं-घरसामिणो पवजागहणेण एगं तुम पञ्चक्खमेव, बीयं पुण विलुत्तवित्तपुत्तनुत्तं च निसामेह ___ इमम्मि घरनाहे पाओवगए मए ठविया पुत्ता गिहकब्जेसु । ते य पढमं सललं पट्टिय पच्छा में अवैगनिऊण सच्छंदा निरंकुसा करिणो । वियरिउं पवत्ता । तत्थ जेट्ठो धरो पुत्तो ममं । सो य अचंतगीयाभिरई पोसेद गायणवग्गं, गेयं विणा य न सका ठाउं । अवि चयइ भोयणं पि हु उज्झइ तंबोल-वत्थ-ऽलंकारं । परिहरइ बंधुवग्गं पि न उण गेयं मणाग पि ॥१॥ थेवं पि हु तयभावे मयं व मुसियं व मुणह अप्पाणं । सेसविसओवलंभे वि लहइ ईसिं पि नेव रई ॥२॥ लजं मोत्तूण मए वि जंपिओ पुत्त ! अणुचियं बादं । जेहो वि तुम होउं जं वियरसि एवमनिबद्धं लज्जाभरावनत्तवदना ॥ १ज्ञातसम्बन्धन ॥ २ सगद्यम् ॥ ३ विलप्तवित्तपुत्रवृत्तान्तम् ॥ ४ °वगनि सं. ॥ ५ विचरसि ॥ इन्द्रियविजयाविजययोः सुजसष्ठि-तत्सुतकथानकम् ३०॥ ॥२१४॥ sacts+ocksucks+S ॥२१॥ MAHARISHCAKERACAN +%% %%%%%%%% दुजीहकुलकलंकियमवमबह नागरायनयरिं । तीए पुरीए निरवग्गहपरोवग्गहसंपाडणपंडिट्ठो नीसेसलोयइडो सुजसो नाम सेड्डी, सुलसा से भजा । ताणं च पुरभवजियसुकयाणुरूवं सुहमुव जंताण कालकमेण पंच पुत्ता जाया-पढमो धरो, बीओ धरणो, तइओ जसो, चउत्थो जसचंदो, पंचमो चंदो ति। पढमे गम्भोवगए जणणीए डोहलो समुप्पन्नो । गेयसवणम्मि बीए रूवाण पलोयणे बाद ॥१ ॥ तइए य सुरभिकुसुमाइएसु तुरिए य सरसभोजेसु । पंचमगे वि य मिउ-मउयतूलिसेजा-ऽऽसणाईसु ॥ २ ॥ तदोहलाणुसारेण तविही व पुत्तपरिणामो। नियबुद्धिकुसलयाए विणिच्छिओ सेट्ठिणा तत्तो ॥३ ॥ एवं च पंच वि सुया परिवड्डमाणा कमेण वाणिज्जाइकलाहिगमवंतो पत्ता तरुणतण, काराबिया य जहोचियं पाणिग्ग| हर्ण, निउत्ता य गिहकिच्चेसु । अह पुचकम्मनिम्माणवसेण ते धराइणो पंच वि कइयवि दिणाणि पिउणो उवरोहेण वट्टिऊण गिहकायवेसु, आवजिऊण किं पि दविणजायं, लद्धावगासा अणवरयगीय-पेच्छणय-मणहरविलेवणाइ-सुईसेजा-ऽऽसणोवेभोगभंगिवड्डमाणुकरिसा जहिच्छं वियरिउ पवत्ता । तओ एकेकविसयसंगिणो ते पेच्छिऊण पिउणा चिंतियं-अहो ! एस दोहलगापुरूचो एयाणं वरागाण पवत्तिओ पयरिसो, एवं ठिए य किं काउमुचियं ? अणिवारिजमाणा हि एए गिहसारं कमेण सं० । खलजनविवर्जिता सती द्विजिलकुलेन कलकिता नागराजनगरीमवमन्यते । नागराजनगरीपक्षे द्विजिहा:-नागार, म तु सलाः ॥ १ निरवग्रहपरोपमहसम्पादनपटिष्टः ॥ २ "पविट्ठो सं०॥ ३ "धकयकम्म प्रसं० ॥ ४ इसिज्जा प्र०॥ ५ उपभोग:-भोजनम् ॥ ६ पवित्तियं प सं. प्र. ॥ CY Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभदरि विरहओ कहारयण कोसो || सामन्नगुणाहिगारो । ॥२१५॥ तइओ य जसो नाम सुआ अचंतं सुरभिकुसुमाइपरिमललं पडो एगया काणणं गओ । तत्थ य तंकालविय संतमालईमउलमंसल परिमलं दिसिमुहेसु पसरंतमग्घाइऊण परमपरितोस मुहंतो, कीणासचोइउ व निवारिजमाणो वि मालाकारेहिं, पविट्ठो तय-भंतरं । अह तैबेलुल्ल संत सोरभभरमा साईतेण मालईगहणादस्समाणसरीराभोगेण डको सो महाभ्रयंगमेण । अचुकडयाए विसवियारस्स, अणुचिंतेसु वि गारुडिएसु, पगुणीकरसु वि तंतोबयारेसु, अभिभूओ महानिद्दावेगेण, निमिसद्वेण य जमरायरायहाणि गतो ति ॥ चउत्थो वि जसचंदनामधेयो सुअ अच्चंतसरसभोयणलंपडो घरे तहाविहवित्तविरहेण तविहभोयणमपाउणतो वाणिजववएसेण सयणाइसंतियं भंडोल्लमादाय गओ देतरं । पारद्वा य ववसायविसेसा, आवशियं किं पि दविणजायं, जाया य एगेण खुप्पायपुरिसेण समं से मेत्ती । जाणिओ य तेण सरस भोयणाभिलासलालसो सभावो जसचंदस्स । ततो तेण पुरिसेण तदवोवरि जायमुच्छेण हणणोवायंतरमपेच्छमाणेण उग्गविससंजोजिओ निष्फाइतो मोयगो । अह कयविसिद्धभोयणस्स वि पैणामिओ तेण जसचंदस्स । समीवपत्तकयंतपेरिएण व तेण रसलंपडयाए भोत्तुमारद्धो य । अंतमोयगरसो जह जह उदरंतरं उवगओ से । तह तह अमायमाणि व वेयणा अइगया दूरं लोयणनिमेर्स मित्ते काले कालेण कवलिओ सो य । अहह ! दुरंता रसणा असणि व विणासमुवणेह 112 11 ॥ २ ॥ १ तत्कालविकसन्मालतीमुकुलमांसल परिमलम् ॥ २ तो हसत्सौरभ भरमास्यादयता मालतीगहनादृश्यमानशरीराभोगेन दष्टः ॥ ३ भाण्डसमूहमित्यर्थः ॥ ४ उपविषसंयोजितः ॥ ५ अर्पितः ॥ ६ समेते प्र० ॥ एवं सो जसचंदो दुअणजणहिययवड्डियाणंदो | पंचतं अणुपत्तो जाओ अस्थो य विडसोत्थो ॥ ३ ॥ पंचमगो वि चंदाभिहाणो सुओ अहिअं सुहफरिस वेसासंभोगप्पसत्तो भणितो मए-अरे पाव ! निणगयप्पायं कुटुंबं, ता तुममेव एको संपइ जइ वट्टसि बिसिङचेडासु, उज्झसि दुडगोडिं, अणुडेसि सुंदरमत्थोवजणं, ता अणुगिण्हसि अप्पाणं कुटुंबं च, अणुचियपवित्तिवसेण य वच्छ ! किं न दिहं तए नियभाउगाणं अकाले वि तहाविहं विणासपजवसाणं विडंबणाडंबरं १ ति । तेण जंपियं— जत्थ तुज्झ सारिच्छा जणणी दुडमुडी न तत्थ दुल्लभमेवंविहमसमंजसं, ता कालस्यणि व सर्व कुटुंब निविय फुडं तुमं मोणेण ट्ठाइस्ससि । इमं च सोचा अयंडजमदंडताडिय व 'जणणी वि कालरयणी, अहो ! पावस्स भत्तिपयरिसो' त्ति अहं सोगसंरंभनिन्भरं रोविडं पवत्ता, 'एत्तो य होउ किं पि न किंपि मए वत्त' ति मोणमल्लीणा । सोय दुसुतो इतो ततो वैसा गिहेसु वसंतो संकंतो वसंतसेणाघरं आसत्तो य ददं तदंगफरिसम्मि | नवरं दविणत्रियलत्तणेण निवारितो घरप्पवेसो तंवाइगाए । अन्नववएसेण दंसिजइ सेऽवमाणं तत्तप्पओयणेण य निवासिअह मंदिरातो, 'अणवसरु' त्ति रुब्भह दुबारे वि, तह वि निल्लत्तणेण य न मुयइ तदभिगमं उवपुष्फ-फलाइणा । एवं च सो कहं पि अणवबुज्झमाणो भणितो वाइगाए-रे वणियसुय ! एवं अध्पणा न किं पि वियॅरसि, बीयं अन्नेसिं पि इंताण पच्चूहो तुमं, ता मा एत्तो अम्ह घरे एजासि चि । एवं पि पावबुद्धी भणिओ फरुसक्खरेहिं सो तीए । तह वि परिओसम्बद्द ही ! महं मयणमाहष्पं १ विस्थः ॥ २ तन्मात्रा अक्रया इत्यर्थः ॥ ३ अक्षया ॥ ४ 'वितरसि ददासि ॥ ॥ १ ॥ इन्द्रियविजया विजययोः सुजसष्ठि-तत्सुतकथानकम् ३० । ॥२१५॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमदसरि विरइओ M कहारयण-Ril कोसो ॥ सामनगुपाहिगारो। हीला लील ति परुट्ठजंपियं नूण पणयकोवो त्ति । कम्मे निझुंजणं पि हु सकुडुंबसमाणगणणं त्ति ॥२॥ आरुढपयपहारप्पयाणमबि अइमहापसाउ ति । पडिहाइ कामुयाणं अहो ! कहं मइविवजासो' ॥३॥ एवं च 'बहुहा निवारणं पि पवत्तणं' ति मबंतो वसंतसेणाभवणं खणं पि अचईतो अवरबासरे बाइगाए संकेइऊणावरं पुरिसं माराविओ एसो, लोए य पयडियं-अन्नपुरिसक्खणयपविट्ठो एस इत्थं हओ चि ॥ छ । एवं पंच वि पुत्ता भयवं! मह मंदभाइणीए मया । एसो वि गेहसामी मह दोसा चेव निक्खंतो । ॥१ ॥ हा हा ! अहं हयासा जीसे न पई न यावि अंगरुहा । नियतुच्छबुद्धिदुबिलसिएण विसमं दसं पत्ता एवंविहविसमदसं गयाए भयवं! न जुञ्जइ उवेहा । संरियचिरप्पणयाणं भवारिसाणं सुपुरिसाणं इय करुणामरनिब्भरपयंपिरं बीहपवयोयमुहिं । तं पेच्छिऊण सुजसो साहू तत्तो अवकतो परिभाविउमारद्धो य पेच्छ अजिइंदियाण जीवाण । कहमावयाउ निवडंति जीवियवंतजणणीओ? धन्ना कयपुमा तह मुणिणो चिय हय जयम्मि भयवंतो । जेहिं सुहहरिणता निहओ दुढिदियमइंदो इममेव सो महप्पा वेरग्गपयं पधारिउं चित्ते । सविसेसतवचरणेण झोसिउं बाढमप्पाणं ॥ ७ ॥ कयपजंताणसणो सर्णकुमारम्मि देवलोयम्मि । देवत्तेणुववनो उकोसाऊ महिड्डीओ ॥८ ॥ १ ण-न्ति प्र० ॥ २ भारुष्टपदप्रहारमदानमपि अतिमहाप्रसाद इति ॥ ३ अत्यजन् ॥ ४ अकया ॥ ५ स्मृतचिरप्रणयानां भवादशानाम् ॥ ६ बाष्पप्रवाहधौतमुखीम् ॥ इन्द्रियविजयाविजययोः सुजसश्रे|ष्ठि-तत्सुतकथानकम् ३०। इन्द्रियविजयभावना ॥२१६॥ ॥२१॥ HUSAMPCASSACROSAGRUBINANCIENTIONARSACROS आ रंडे! चामुंडि व दुह्रतुंडे ! न ठासि तुसिणीया । इय जंपिरो य भुजो न मए थेवं पि आलविओ ॥४॥ ततो सविसेसं सच्छंदं गीयसुणणासत्तो पाणगायणकुटुंबं उवचरिउ पबत्तो। अमुणियपत्थावा-ऽपत्थावो अवमभियावजसो अगणियलोयलो गेयसवणत्थं वचह पाणगायणघरे । मउ बनिसामेइ एगचिचो तग्गीयरवं ति । एवं च एगकुटुंबवित्तीए पाणेहि समं अच्छंतो निवेइओ राउले, जहा-एसो सुकुलपस्तो वि एवमेवं पाणेसु अभिरमा त्ति । ततो 'वन्नसंकरकारिणो विणासो चेव दंडो' त्ति विभाबितेण डंडिगेण महायणसमक्खं माराविओ एसो ति ॥ बीओ वि सुतो धरणाभिहाणो निरंतरं सुरूवरामायणावलोयणाभिरई एगया नडपेच्छणए गओ मंडिय-विभूसियं नडदुहियरं पेच्छिऊण बाढमझोववो अवहत्थियकुलाभिमाणो गेहसारं दाऊण नई भणइ-नियधूयं मह देहि चि । नडेण भणिय-एसा हि अम्ह जीवियभूया, ता जह तुम एईए अत्थी ता एहि देसंतरेसु अम्हेहिं समं, अहिजसु नडविजं ति । ततो रुदंति घरणिं ममं च मोत्तूण गतो नडेण समं । नडधूयावयणावलोयणाणंदिओ पयट्टो नडविजं सिक्खिउं । छयत्तणतो य अहीया थेवकालेणं । पारद्धो य कालसेणाभिल्लपल्लीए वंसं महंतमारोविऊणे नचिउं । अह डधूयाए तीए चेव रूपक्खित्तेण पल्लीवइणा सयं उचोदुमिच्छंतेण छिंदावियाउ वंसनाडीओ, निराधारो डोल्लिओ वंसो, खग्ग-फरगहत्थो निवडिओ तत्तो धरणो । पत्ता य पंचत्तोवगएण तेण परिणि ति ।। १ चाण्डालगायनगृहे इत्यर्थः ॥ २ अभिभूतकुलाभिमानः ॥ ३ 'डेहि भ प्र. ॥ ४ एतस्या अधों ॥ ५ "ण पारखं न खं० प्र० ॥ ६ नटपुष्याः तस्या एव ॥ ७ घरणि प्र. ॥ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभइसरिविरइओ कद्दारयणकोसो॥ सामन्नगुजाहिगारो। ॥२१७॥ पैशुन्यविपये धनपालबाल चन्द्रयोः कथानकम् ३१॥ SHAKAKAKIRANA संता-संते दोसे परस्स पउणेइ जो सपिउणो वि । तकम्म पेसुन्न किलिट्ठमण-बयणवावारी ॥ २ ॥ नयससिगहकालोलो विसिट्टयाहंसपाउसारंभो । कारुनहरिणसिंहो सद्धम्ममहीकसणसीरो ॥३ ॥ दक्खिनमयणहीरो सलकमकमलिणीहिमासारो । नयवेईणाऽवमओ दूरं पेसुन्नसंबंधो ॥ ४ ॥ पेसेनावन्नमणा दिवा-निसं चिय परेसि दोसगणं । पेहंता नियकर्ज पि बालिसा तो परिहरंति सामिम्मि परिचिए वि य उजलवेसे य आमिसदए य । उज्झियभसणं विणियं पिसुणाओ सुणं सगुणमाङ ॥६॥ हीलाए पयं अकोसभायणं वइरठाणमच्चतं । तेणऽप्पा उवणीओ पेसुनं जेण आरद्धं पेसुन्नयस्स चागे अचागे वि य गुणा य दोसा य । पयर्ड चियँ दिढतो धणवालो बालचंदो य ॥८॥ तथाहि-अस्थि देवकुरुभूमि व अणिंदजणाहिट्ठिया, सुररायरायहाणि च सुलेहरामारमणीया कायंदी नाम नयरी । तहिं च हेहयकुलनलिणीवणवियासणेकसूरो नरवीरो नाम राया। १ "स्स पिउणे जो सपिउणो त्ति प्रतौ ।। २ नयशशिप्रहकालोलः (अहकालोल:-राहुः) विशिष्टताइंसप्रान्टारम्भः । कारुण्यहरिणसिंहः सद्धर्ममहीकषणसीरः ।। ३कसिण' प्रती ॥ ४ दाक्षिण्यमदनहरः स्वकुलकमकमलिनीदिमासारः । नयवेदिनाऽवमतः ।। ५ पैन्यापनमनसः ॥ ६ स्वामिनि परिचितेऽपि च उज्ज्वलयेथे च आमिषदये च । उज्झितभवर्ण विनीत पिशुनात् शुनकं सगुणमाहुः ॥ ७ 'य चिट्ठ प्रती ॥ ८ देवकुरुभूमिः अनिन्द्रजनैः-स्वतन्त्रविहारिजनैः अधिष्ठिता, भमरी पुनः अनिन्यजनाधिषिता । इन्दराजधानी सुष्ट लेखरामाभिः-अप्सरोभिः अभिरामा, नगरी तु मुलेखाभिःसदाम्याभिः रामाभिः-मणीनिः रमणीया ।। HIKHARHARASTRAGRAKSHARASH ॥२१७॥ SIRAHARASWAROORKERS चउरंगवलमहोयहिमऽरीण महिऊण खग्गसुरगिरिणा । जेणाऽऽणीया सगिह जयलच्छी लच्छिवइण व ॥१॥ तस्स राइणो वीसासभवणं भवणचंदो नाम सेट्ठी, बंधुमई भजा । ताण धणपालो नाम पुत्तो परमपयरिसपत्तो सपरिसचेद्रिएहि कलासु कुसलो य उभयलोगाविरुद्धवित्तीए व९तो कालं बोलेह । जाया य संकरसेट्टिएण बालचंदाभिहाणेण समं मेत्ती । नवरं उज्जुसीलो धणपालो, इयरो य दुट्ठपयई, तह वि अविभावियदो[स]संपाडियपेमसबस्सं खणं पि न तं विणा रई लहइ धणवालो । भमइ य तेणेव समं कीलावण-भवण-देवगेहेसु । दविणञ्जणाइकिचं चिंतह तेणेव सह निचं अह एगम्मि दिणम्मि उजाणगएहिं गयवरो व मुणी । दीसंतसस्सिरीओ सुहदंतो बंदिओ तेहिं ॥२ ॥ अचंतसोम-मुहलक्ख[णे]हिं उवलक्खिउं असामन्नं । तं पुच्छिउं पवत्ता पवइतो किं निमित्तं ? ति मुणिणा भणियं भद्दा! अणंतवित्तंतगहणभीमम्मि । सीसंति केत्तियाई भवम्मि दिक्खानिमित्ताई? ॥४॥ तह वि हु जइ कोऊहलमायनह ता भवित्तु एगमणा । लेसुदेसेणाहं तुम्हं साहेमि सनिमित्तं अहं हि अवंतिजणवए बहुलसन्निवेसे पुरंदरस्स सस्थाहस्स पुत्तो रामो नाम, सहोयरी य रामाभिहाणा भइणि ति । अनो य बहू भाइ-भइणिपमुहसयणो सुहेण वसइ । अन्नया य निवडिओ दुकालो, खीणो धनसंचयो, पलीणो कय-विकयववहारो, खीणो पागयलोगो, सुन्नीहूयाई १ चतुरमबलमहोदधिम् अरीणां मथयित्वा खङ्गसुरगिरिणा । येनाऽऽनीता स्वगृई जयलक्ष्मीः 'लक्ष्मीपतिना' कृष्णेन इव ॥ रामदेवमुनेरात्मकथा Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभइसरिविरहओ कहारयणकोसो॥ सामनगुणाहिगारो। जायाणेगजणविणासाई मंदिराई । अहं हि परलोयगएसु जणणि-जणएसु, [स]सावसेसकुटुंबे विजंते, से सावसेसमसणं विमो- पैशुन्यवितूण गतो देसंतरं । जीवणनिमित्तमारद्धा बहवे उवाया। दइव-ववसायवसओ य उवञ्जिय चिरकालाओ सुमरियं घरयणस्स पये धनकई गया बंधुणो? कहवा या सा बराहणी कणिद्रमणि ति। पालबालततो कयसबसंवाहो गभंडभरियकरह-वसहनिवहो गतो नियगाम । दिनो गामसमीवे आवासो, पुच्छितो गामलोगो चन्द्रयोः नियबंधु-सयणवत्तं । चिरकालपलीणत्तणेण न किं पि केणइ साहिय, तह वि जम्मभूमिपक्खवायमुबहतो पविडो हंगाम- कथानकम् मज्झे । दिट्ट मुगुंदमंदिरं, आसीणो तत्थ । पयर्ल्ड च तवेलं ललियलीलावईनेउरारावरमणीयचरणचंकमणमणोहरं पेच्छणयं । दिडा य विलासिणीण मज्झगया, सद्दविज [व] विजाणं, कप्पतरुलय व लयाणं, कामधेणु व घेणूणं, सविसेससस्सिरीया, सुंदरागारा, सिंगारसारनेवच्छविराइया एगा पणंगणा । तं च दगुण जायाणुरागेण रयणीसमए मए तंबोल-कुसुम-विलेवणाई उचयारो किंकरहत्थेण पेसितो तग्गिहे । पडिच्छितो य सायरं तीए, सञ्जितो य पल्लंको, पचोहिओ मंगलपईवो । कयसविसेससिंगारा य जाव सा दप्पणमवलोयमाणी चिट्ठइ ताव नियत्तियसेवगवग्गो पविट्ठो हं भवणभंतरं, अब्भ[२]हिओ ससं. भ[मं] तीए, आसीणो हं सुहसेजाए। ___ एत्थंतरे मचरणसोहणत्थमुदगमुवाहरंतीए छीयं अणाए, जंपियं च-जीवउ चिरं रामदेवो ति । तं च निययनामा| मिलावसरिसमायनिऊण ईसिसमुप्पचकणिट्ठभहणीसंकेण जंपियं मए-भद्दे ! अच्छउ ताव चलणपक्खालणोवकमो, इमं ६ १ स्वसवशेषकटुम्बे ॥ २ "सेससमणं प्रतौ । तस्यै सावशेषमषानं विमुच्य ॥ J॥२१८॥ ॥२१८॥ इय गुण-दोसा पच्चक्खमेव जिय-अजियइंदियाण ददं । दीसंति संतु तबिजयबद्धलक्खा अओ धीरा! ॥९॥ करकमलगोयरगयं ताण परं मुत्तिसोक्खभमरउलं । जेहिं निरुद्धा जंगजगडणुमडा इंदियगइंदा ॥१०॥ किश्च यद् विभिन्नहृदयेऽधिपतिः कुटुम्बे, स्वच्छन्दचारिणि नृपो यदि वा स्वसैन्ये । कायं मनागपि न किश्चन कर्तुमीशः, सौडीर्य-वीर्य-मति-नीतिगुणान्वितोऽपि ॥ १॥ तद् विभिन्नविषयामिषलब्धिलुब्धे, जीवोऽपि नेन्द्रियगणे भवभीरुकोऽपि । संवेगवानपि सुरष्टिरपीष्टसिद्धि, सम्प्राप्तुमुद्यतमना अपि जातु शक्तः ॥ २ ॥ निर्मानुषाटविनिवास-जपोपवास-स्नेहोपचारपरिहारसुदुष्कराणि । कुर्वन्त्यमूनि मुनयो हतकेन्द्रियातिनिर्मूलखण्डनकृते न निमित्तमन्यत् ॥३॥ इति वाञ्छितार्थसाधनधनमिन्द्रियदमनमेव विमलमतिः । कुर्वीत मुक्तिवनिताहृदयाकर्षणपरममन्त्रम् ॥ ४ ॥ ॥ इति श्रीकधारत्नकोशे इन्द्रियपश्चकविजय-व्यतिरेकवर्णनायां सुजसप्रेष्ठि-[तत् ]सुतकथानकं समाप्तम् ।। ३०॥ पेसुमसुमाहियओ इंदियविजयाइयं हि काउमलं । ता पेसुन्नविणिग्गहहेउमहं किं पि जंपेमि १ जगत्वदर्थनोटाः ।। २ 'धीर्य प्रतौ ॥ ३ 'वर्तना' प्रती ॥ ERS+8+%*&+KAMAKAKKAKKore पैशुन्यस्य स्वरूपम् Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैशुन्यविषये धनपालबालचन्द्रयोः कथानकम् ३१ । देवभद्दसूरि- तुज्य अन्नस्स वा एत्थावराहो । विरइओ ववसाय-साहसधणो वि नीइकुसलो वि किं कुणइ पुरिसो । पुवेभवञ्जियदुकयकम्ममहानडनडिजंतो? किं भइणि ! तुज्झ संभवइ एरिसी सुकुलदूसियावत्था ? । चिंताइकंतो नवरि विसरिसो देववावारो ॥२ ॥ कहारयण-31 एयावत्थोवगयाए कह व तुह दंसणं महं जाय ? । विहिविलसियाई अघडन्तघडणपट्टयाई को मुणउ ? ॥३॥ कोसो । मन्ने एवंविहदूसियत्थकरण[स्थ] मेस्थमम्हाण । आणयणं जणणं जीवणं च विहिणा विणिम्मवियं ॥४ ॥ सामनगु इय सो परिदेवन्तो अप्पाणं भूरिभणितिभंगीहिं । जाणियवुत्तंतेहि उल्लविओ गामवुड्डेहि जाहिगारो भो सत्थवाहसुय ! कीस असरिसं कुणसि चित्तसंतावं? । को एत्थ तुज्झ दोसो ? दिवनाणी किमिह कोइ ? ॥ ६ ॥ सबियारदसणुब्भवमिहोकहासंभवस्स पावस्स । पच्छित्तं पडिवञ्जसु वासु एत्तो महासोगं ॥२१९॥ अन्नाणतिमिरपडिहणियचक्खुणो गे[हिणो] किमु कुर्णतु ? | उल्लसइ जेसि ईसि पि नेव नाणंजणुजोओ ॥८॥ ता एहि घरं परिहरसु सव्वहा गत्त-चित्तसंतावं । नहि [प्पंति सुपुरिसा गरुए वि हु क[जगहणम्मि ॥९॥ एमाइबहुवयणनिवहेण पनविऊण नीओ हं गामबुड्डलोएणाऽऽवासं । भइणी पुण महंतं सोगसंरंभमुखहंती, अच्छिन्ननिबडतबाहप्पवाहाउललोयणा लआए चेडीर्ण पि मुहं दंसिउमपारयंती, सरीरचिंताछलेण नीहरिऊण मरणकयनिच्छया निवडिया पुरोहडावडम्मि । धाहावियं दूरट्ठियाहिं दासीहिं । धावितो गामलोगो । जाव इओ तओ तयायड्वणोवकमा काउमा १ पूर्वभवार्जितदुष्कृतकर्ममहानटनाव्यमानः ॥ २ एतदयस्थोपगतायाः ॥ ३ गात्रचित्तसन्तापम् ॥ ४ व्याकुलीभवन्ति इत्यर्थः ॥ ******************** ४॥२१९॥ रद्धा ताव मैया एसा, तहाविहा य आयड्डिया कूवाओ । मुणियतबइयरो संबिसेससोगाइरेगमुबहतो संपत्तो य अहं । ततो मए वि कयमरणनिच्छएण रयाविया चिया, दिनं च दीणा-ऽणाहाणमनिवारियप्पसरं सहत्थेण महावित्थरेण दाणं । एवं च जायनिच्छओ जाव जलणजालावलीनिचियं चियं आरुहिउमुवडिओ हं ताव चलणेसु निवडिऊण धरितो गामवुड्डेहिं, भणितो य-सत्थवाहसुय ! निदोसो वि जइ तुमं हुयासणं पवजिहसि ता वयमवि तुह मग्गमणुसरिस्सामो ति । एवं चावधारियतनिच्छओ मंदीहूतो हं मैरणवइयरातो। नीतो य थोवंतरिसोगतरुणो तले । तत्थ य धम्मसीहो नाम चारणसमणो तबेलं चेव पारावियकाउस्सग्गो निसन्नो समुचियासणे । ततो वंदितो सो मए । दिवनाणोवओगओ विमरिसियसन्चपुत्ववुत्तंतेण संभासिओ हं तेण भो सत्थवाह ! वहसीह किमंग ! सोगं !, एसेव पुवकयदुकयभायणाणं । जीवाण होइ हु गई तदलं इमेण, तच्छेयणस्थमहुणा तुममुजमेसु जइ सचमेव अवगच्छसि दुक्खरूवं, दुक्खष्फलं च भवमुशिउमिच्छसी य । ता सबहा समणधम्ममसम्मदारुदावानलं कुणसु वजसु सवसंगं ॥ २ ॥ एवंविहाण विविहाण दुहाण तेण, दिनो जलंजलिरलं दलिओ य कामो । कोहाइणो वि रिउणो निहणं हि नीया, जेणुञ्जएण जइयं इह व सम्म १मृता ॥२ सविवेगसो प्रतौ ॥ ३ मरणस्पतिकरात् ॥ ४ 'रिओ असो प्रती ॥ ५ अशर्मदारुदावानलम् ॥ ६"हणं निद्दीया, प्रती ॥ ****** CHASACS *** Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरहओ कहारयण कोसो ॥ सामन्नगुणाहिगारो ॥२२०॥ आइञ्चकंतिकलिय व मधयारं, धूमद्धयेद्धेचुडलि व तरुप्पबंधं । आमूलओ चिय इयं चिय (१) साहुदिक्खा, दक्खा निर्हतुमवरा पुण नेव चेट्ठा एत्थं रया न मुणिणो सलहंति सग्गं, मन्नंति सुत्थियरतं नै गिरीसरं पि । कपिति तुलमरि-मित्त सुवन्न लेडुं, मुत्ताहलोवलदलाणमवि स्सरूवं अग्गीए डज्झइ सरीरगमेव बज्झं, अभंतरं तु तह चिट्ठइ कम्मदेहं । ॥ ४ ॥ ॥ ५ ॥ ॥ ६ ॥ तस्सऽस्थि दाइजणणे जर तुज्झ वंछा, दिक्खाहुयासणचियाए चयाहि तातं इय तेण समणसीहेण सुहनिरीहेण सरलदीहेण । अणुसासिओऽहमित्थं जातो समणो करणदमणो ॥ ७ ॥ ॥ छ ॥ इमं च पचखापॅडिवत्तिवित्तंतं अयंतचित्तुद्दे गाइरेगुप्पायगमायनिऊण धणपालो संवेगावन्नमणो मुणिणो पाएस पडिऊण पडिवनकइवयवयविसेसो समं बालचंदेण 'दिणावसाणं' ति कलिऊण गओ सगिहं । कय संज्यासमयसमुचियचिईवंदणाइकिचो य सगोट्ठीनिविट्ठो बालचंद मणइ – भो वयस्स ! पेच्छ तस्स साहुणो असरिसं सप्पुरिसत्तणं, अतुच्छा अकञ्जविचिमिच्छा, गयसंरंभो तवारंभो, पगिट्ठा सच्चेडा, कयामयावनं वयणलायनं ति । अइकिलिङयावसेण अरोयमाणेण वि साहुकिरिया - कलावं तयणुवित्तीए भणियं बालचंदेण - एवमेयं, पयरिसभूमि क्खु सो महाणुभावो सद्धम्मकम्मनिम्माणस्स त्ति । - १ आदित्यकान्तिकलिका इव । २ ये चु प्रतौ । धूमध्वजेोल्का इव ॥ ३ 'सुतित्थित सुस्थितरतं न 'गिरीश्वरं महादेवमपि ॥ ४ न गरी प्रतौ ॥ ५ पचित्तिवित्तंतमचं प्रतौ । प्रवज्याप्रतिपत्तिवृत्तान्तं अत्यन्तचित्तोद्वेगातिरेकोत्पादकम् ॥ ६ कृतामृतावर्णम् ॥ - साहेसु — को एस तए छीयंते रामदेवो समुक्कित्ति ? ति । तीए भणियं - भो देवाणुप्पिय ! को विसो होउ, किं तवामेण १ । मए भणियं - भद्दे ! सबहा गरुयसवहसाविया सि, कहेसु जहाइङ्कं ति । एवं च भुञ्जो भुजो भणिजमाणीए संभरियनियकुलचंगिमाए तकालविरुद्धनियववहारावधारणेण हियेयं तोप सरंतमनुब्भरनिस्सरं तं सुजालाविललोयणाए सगगिरगिरं भणियमणाए -भो अजपुत ! महई एसा कहा कहिअंती वि महंतं दुक्खमुप्पाएइ, परं तुहाभिओगेण भन्नइ अहं हि एत्थेव गामे निञ्चलनिवासिणो पुरंदरसत्थाहस्स विमलकुलकलंकभूया धूया सजणमणाणभिरामा रामा नाम । अच्चंतदुक्कालकवलिए कुले मम मंदभाइणीए एगो चैव जेडुभाउगो रामदेवो संतरगओ । अहं च बालिया विउच्छन्नकुल चि पडिगाहिया एगाए इह बुडविलासिणीए, परिपालिया य सङ्घपयत्तेण, सिक्खाचिया वेसाजणजोग्गं गीयनट्टप्पमुहं कलाकोसलं, बट्टामि य संपइ एवंविहवित्तीए । सरामि य अज वि से नियकुलकेउणो भाउणोति । इमं च सवं मूलातो कहियमायन्निय अहं बाढं विसन्नमाणसो जायतष्पच्चभिन्नाणो 'भइणीभोगाभिलासा कअमज्झवसियं' ति संतप्तो संभरिय सहकुटुंबनिहणो मोकॅपोकं वत्थेण मत्थयमवगुंडिय रोविडं पवत्तो । 'हा हा ! किमेयं ?' ति दूरं विसन्ना इयरी निब्बंधं काऊण पुच्छिउमारद्धा । मए वि अच्चायरेण पुच्छंतीए तीए साहितो सो नियत्रइयरे । सावि तक्कालाणुचियसंलावदुक्खेण चिरकुलखयसंभारणेण य विलवंती मुच्छानिमी [ लि] यच्छी परसुच्छिन्न व कयलीलया निवडिया महीवडे । सायरचेडीकयसिसिरोवयारोवलद्भवेयणा संभासिया मए भहणी - धीरा भव, [मुंच] सोगावेगं, को १ यथादिष्टम् ॥ २ हृदयान्तः प्रसरन्मन्युभर निःखरबुजाला बिललोचनया सगङ्गदगिरम् ॥ ३ व्युच्छन्नकुला ॥ ४ मुक्तपूत्कारम् ॥ पैशुन्यविषये धन पालबाल चन्द्रयोः कथानकम् ३१ । ॥१२०॥ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैशुन्यविपये धनपालबालचन्द्रयोः कथानकम् देवभद्दसूरि- बलि-दीवयाइपूयापब्भारेण संभाविऊण 'देवि! तुह पायप्पसायातो उवलद्धवरो चेव भुंजिस्सामि' ति निच्छयं काऊण विरइओद्र पडितो तीए पुरओ पाडिचरणेण । मेसितो य रयणीए अहं दसमोववासा[चसा]णे । कहं चिय?एगत्तो करयलतालतालणुचालकालवेयालं । अन्नत्तो डकारुकडामरं डाइणीडमरं ॥१ ॥ कहारयण एगत्तो कयकिलिकिलिरवभीसणभूय-पूयणाचकं । अवरत्तो दिट्ठीविसभुयंगगुरुभोगभंगभयं कोसो।। ॥ २॥ अन्नत्तो चटुलजलंतचुडलियाफारपसरियफुलिंगं । अवरत्तो य विडंबियमुहधावियगरुयपंचमुह सामनगु इय एवंविहमवलोइउं पि भीमं विभीसियानिवहं । ईसिं पि जा न भीओ ता तुट्ठा देवया सहसा ॥४॥ जाहिगारो। नीहारखीरधवलं एगावलिहारजुगलममैलपहं । मज्झं समप्पिऊणं सप्पणय भणिउमादत्ता । ॥२२॥ पुत्त! किलिट्ठो कालो पडिपुन्ना नेव पुन्नसामग्गी । अवहारकारिणो वंतरा य ता जाहि तुममेतो ॥ ६ ॥ कायंदीए पुरीए कस्सइ लहु सुकयसालिणो वणिणो । देसु इमं हारदुगं रक्खिस्समहं अवायं ते इय तीए भणिएणं दिनो एगो इहेव बीओ य । एसो तुह उवणीओ जं जोग्गं तं लहं देस ॥८ ॥ तो धणपालेणं नियमईए नियमित्तु मोल्लमेयस्स । एगते चिय दिना दस उ सहस्सा सुवनस्स ॥ ९ ॥ विप्पो गओ सठाणं धणपालेण वि य हरिसियमणेण । खित्तो रयणकरंडे रुइरो एगावलीहारो ॥ १० ॥ दूट्टिएण दिट्ठा कहं पि कंतिच्छडा य हारस्स । छिड्डालोयणरुदणा मित्तणं बालचंदेण । ॥ ११ ॥ १ कारोस्कमयारम डाकिनीकलहम् ॥ २ चटुलवलदुल्कास्फारप्रसृतस्फुलितम् ।। ३ अमलप्रभम् मयं समय ।। ॥२२॥ HAKAASARASHARASISARKARISHNAKOSHWARENT हुँ नायं धुवमेसो चोराहरिउ ति होहिही हारो । काणकरण गहिओ तेणेच घरेककोणम्मि ॥ १२ ॥ इहरा अम्ह समक्खं पिकिं न गहिओ? ति कलुसिओ बाद । हिययंतो सो मित्तो दूरे धरिओ ति सविसेस ॥ १३ ॥ धणपालो वि विसजियविप्पो खणंतरेणाऽऽगंतूण आसीणो पुवासणे । 'मा दूरीकतो कुवितो होहि' ति सायरमुल्लविओ बालचंदो-भो वयस्स ! किं पि कहियवं परं अपत्थावो त्ति खणंतरेण साहिस्सामि ति । 'काणकओ चेव साहिस्सई' ति चिंतंतेण भणियं बालचंदेण-एवं होउ त्ति । अह सकन्जकरणत्थं गए तम्मि धणपालो वि पारद्धो गिहकिच्चाई काउं । नवरं 'वीसरितो' त्ति न सिट्ठो से हारविर्ततो धणपालेण । इओ य पुत्बकाले राइणो अग्गमहिसीए अंतेउरपमयवणसरसीए तडे पम्मुकामरणाए मजणं कुणंतीए तारावलीविभमो एगावलीहारो सेयभुयगविम्भमेण चंचुप्पुडेणुप्पाडिओ सउणियाए । गया एसा नियतरुवरकुलायं ति । रायग्गमहिसी वि खणमेकं जलकीलं काऊण चेडीचडयरपरिगया पुक्खरणिं उत्तिन्ना जाव पलोयइ आभरणसंभारं न ताव पेच्छइ एगावलिहारं । ततो अचंतदुक्खिया इओ तओ सत्वत्थ पलोइउं पवत्ता । कहिया वत्ता पमयवणनिउत्तपुरिसाणं । तेहिं पि सुनिउणं पलोइऊण उजाणभूमि भणियं-देवि ! जइ परं गयणगामिणा न महीचारिणा एस हारो हरिओ, न हि देवीए पमयवणसरसीमुवगयाए कस्सइ रायसुयाइणो पैवेसो अस्थि, किं पुण सामन्नस्स ? ति । ततो सोगाइरेगाओ उज्झियपाण-भोयणा रायग्गमहिसी संयणिजनिजाणनिहित्तसरीरा पमिलाणवयणा पमुक्कसहीयण१ "लालयं प्रतौ ॥ २ पलोइय आ प्रतौ ।। ३ पवेसेमो अ प्रती ॥ ४ शयनीये निर्याण-परावृत्तिरहितं निहितं शरीरं यथा ।। 4%ACKROACHAKAALCHAKRECRACACAKADCASNA Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभइसरिविरइओ कहारयणकोसो ॥ सामनगुगाहिगारो। ॥२२२॥ पैशुन्यविषये धनपालबाल चन्द्रयो | कथानकम् ३१। संभासणावावारा सुन्न च निचला होऊणं ठिया । जाणिया चेडीमुहातो एसा राइणा बत्ता । भणाविया पहाणपुरिसवयणेण देवी-कीस एवं उच्वेय मुवहसि ? तहा काहं जहा अकालविलंचमंबियापइणो वि सयासातो हारो लब्भइ ति । एवं च पारद्वा अणेगे तदुवलंभत्थं उवकमा । देवावितो सबस्थ नयरीए पैडहतो, जहा-जह कोइ हारावहारपउत्तिमेत्तं पि साहइ तस्स राया सोलं सुबन्नसहस्सं निवियप्पं प्रणामइ त्ति । आयभितो एस आघोसणावइयरो बालचंदेण । चिंतियं च णेण-निच्छियं सो एस रायमहिलासंतितो हारो चोरिऊण केणइ पयारेण तेण देसंतरियनरेण धणपालस्स पच्छन्नं समप्पितो संभाविजह, कहमनहा तया अहं पि तेण दूरीकतो ? त्ति, ता साहेमि राइणो इमं वइयर, गिण्हामि सोलं सहस्सं सुवनस्स ति । ततो केयवेसपरियतेण पच्छन्नवेलाए गंतूण राइणो समीवम्मि कहिओ सबो वि धणपालगहियहारवित्तो । ततो दवावियं जहुत्तं सुवन्नमेयस्स । विसजिओ य गतो जहागयं । राया वि परिभावेइ-कहमेयं संभवइ ? जं भवणचंदसेट्टिणो साहुसमायारस्स सुओ होऊण धणपालो बालजणोचिय कम्ममेवंविहं काहि ? ति, अहवा गंभीरो लोहमहोयही, किं न संभवइ? तथा हि लोभाभिभूया न गणंति सीलं, कुलक्कम नेव वियारयति । धर्म न लक्खंति नयं न विति, लजंति नो धम्म-गुरूयणाओ १ सुबत्तनि प्रती । शन्या इव ॥ २ उद्गमुद्वहसि ॥ ३ अम्बिकापतिः-यमराजः ॥ ४ दापितः ॥ ५ पटहकः ॥ ६ हारोवहारपउत्तम |प्रती ।। ७ अर्पयति ॥ ८ राजमहिलासत्कः ॥ ९ कृतवेषपरावर्तेन ।। |॥२२२॥ BERRORISARRESS एवं च तकहापसंसाए वचंतेसु निसि-दिवसेसु, एगया एगो देसंतरियथेरपुरिसो एगावलिहारं इंदुमंडलायमाणमुत्ताह- | लपहापम्भारं सुसंगोवियं काऊण, एगतदेससुहासणासीणस्स धणपालस्स समीवमागतो, भणिउं पवत्तो य-भो सेविसुय! जइ विजणं कुणसि ता किं पि पओयणं तुह साहिजइति । ततो यालचंदाईणमधिइपरिहरणत्थं तं हाणं विमोतूण धणपालो देसंतरिएण समं ठिओ एगते । देसंतरियनरेण तओ दंसिओ से हारो। सविम्हयमबलोइओ सो धणपालेण । सायरं भणिओ देसंतरिओ-भद्द! कत्तो एवं विहहारस्स लाभो? त्ति । तेण भणियं-कहेमि, अहं हि सीहलदीववत्थबो आइच्चो नाम बंभणो बंभणवाहप्पमुहदेसेसु कय-विक्कयकरणोवजियवित्तेण जीवामि । अनया य पयट्टो पबद्दणेण कडाहदीवाइसु दवजणनिमित्तं । नवरं पडिवेलं [पत्तं] विउलनाणाविहपयत्थपडहच्छं जाणवतं, खयमुवगयं सवं गेहसारं । 'निस्सारों' त्ति पत्तो परं पुरजणमझे पराभवं, पडिओ महाचिंतासमुद्दे-किं करेमि ? किं सरामि ? किं वा मरामि त्ति । इय चिंतादुक्खभरकम्ममाणो गतो मुच्छ, विचेयणो य कहूं व पडिओ भूवड्ढे, पेच्छामि सुमिणे जणणि ससिणेहं सदयं जपमाणिं, जहा-वच्छ ! कीस इत्थं निग्गंथो ति संतावमुबहसि ? नियकुलदेवयं सायरं उज्झियभत्तपाणो पाणच्चायविणिच्छियं काऊण आराहेसु, जेण सा भगवई तहा करेइ जहा न तुमं विसीयसि ति, न य एत्तो अन्नओ तुह थेवं पि परित्ताणं संपजिहि-त्ति वोलूण सा अईसणीहूया । अहं पि परियणकयसरीरसंवाहणाइउवक्कमसमुवलद्धचेयणो सुमरंतो जणणीदिनोवएसं तद्दिणावसाणे एव कुलदेवयं पुष्फ१ विदल' प्रतौ । विपुलनानाविधपदार्थप्रतिपूर्णम् ॥ आदित्यब्राह्मणसम्बन्धः %4%4561804545445 २-% Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ देवमहसरिविरहओ कदारयणकोसो॥ सामनगुजाहिगारो। पैशुन्यविपये धनपालबालचन्द्रयोः कथानकम् ३१ । विलक्खवयणो य गतो सगिह । वसुंधरावणा वि देवीए उवणीओ हारो । 'सो चेव निच्छियमिमो' ति परितुद्वाए दुविओ नियकंठदेसे । अह पच्छिमरयणीए सुहसेञ्जाए सुत्तपबुद्धो निउणयुद्धीए परिभाविउं पवत्तो राया-अहो! अम्ह आबालकालाओ पसायचिन्तगो भवणचंदसेट्ठी, तप्पुचो वि धणपालो नीइकुसलो धम्मन्नू चोरोवणीयं मणसा वि न इच्छइ-ति संभावेभिसो वि देसंतरितो जद पुण एयसरिसागारं बीयहारं दाऊण गतो होजा, ता सुट्ठ परिभावणीयमिमं, असमिक्खियजंपियं हि तिक्वक्वग्गघायातो वि गरुयदुक्स्चकारणं-ति कयनिच्छओ उग्गयम्मि सूरे सरियदेवयाचरणो आसीणो अत्थाणमंडवे । अह समइकते जाममेत्ते वासरे एगो आरक्खियपुरिसो पडिहारनिवेइओ पविसिऊण रायसह कयपंचंगपणामो राइणो पायवीढे पोढामलयथूलमुत्ताहललंभियसोभापब्भारं हारं मुयइ । राया वि विम्हइयपफुल्ललोयणो करयले तं कलिय जंपिउं पवत्तो-अरे ! को एस वइयरो ? । तेण भणियं-देव ! सिंबंलिरुक्खे सउलियाकुलाए गिद्धो समारुहिय आमिसाइबुद्धीए इमं घेतूण उप्पयंतो अमेहिं चउदिसं पडिरुद्धो तैदभिगिद्धेहिं गिद्धेहि, तेहि य सद्धिं चंचुप्पहारेहिं जुज्झंतस्स तस्स उजोवियदिसामंडलो पडिओ एस हारो धरणीयले, तत्तो उक्खिविय तुम्ह उवणीउ त्ति । ततो जाणियपरमत्थेण पत्थिवेण वाहराविओ धणपालो, दंसिया य दो वि हारा, भणिओ य-भद्द ! एएहिंतो १ क्खसक्ख प्रती ॥ २ शाल्मलिवृक्ष शकुनिकाकुलाये गृधः समारुह्य ॥ ३ सदभि ः भैः ॥ ॥२२३॥ CAMERCECA4%ABHECK ॥२२३॥ गिण्हसु अप्पणो हारं ति । धणपालेण भणियं-देव ! किमेयं ? ति । ततो राइणा सिट्ठो तल्लाभवित्तो। धणपालेण भणिय-देव! तया तेण देसंतरिएण सिट्टमिमं-दोनि वि हारा इमे मह देवयाए दिना, एगो इहेय विक्कीओ, बीयं तुम गिण्हसु त्ति । राइणा भणियं-भद्दा कयं वित्थरेण, गिण्हसु हारं, खमाहि य मह अपरिभाविया-ऽजुत्तपुवुत्तवयणं ति । घणपालेण भणियं-देव! कहं तुम्ह एयं संभवइ १ केवलं अम्ह चेव पुत्वभवञ्जियदुफम्मविलसियमिम ।। अह तंवोलदाणाइणा कयसकारे गयम्मि तम्मि अलियदोसारोवणकुविएण राइणा वाहरावितो बालचंदो, सामरिसं भणितो य-रे रे निंबील ! नियकुलकील ! असच्चसंध! दावियबंधुगुत्तिबंध ! सच्चरियसुन! पायडियपेसुन्न ! सव्वहा अघडंतमेवंविहदोस निदोसस्स वि महाणुभावस्स धणपालस्स अम्ह पुरओ वि संभावेसि, तं निच्छयमहुणा न भवसि ति । आणतो एसो वज्झो । ततो छिन्नकनगद्दहपट्ठीए आरोविओ धाउरसविलित्तगत्तो गलावलंबियसरावमालो कणवीरकुसुमरहयसेहरो बालचंदो तिय-चउक्क-चच्चरेसु 'सो एस मित्तपेसुन्नकारी महापावो' त्ति पए पए कित्तिजंतो पुरीए भामिउमारद्धो । दिट्ठो य धणपालेण नियगेहगवक्खोवगएण । 'अहह ! किमयमसमंजसं ?' ति पुच्छिओ एगो रायपुरिसो । तेण वि सिट्ठो मूलातो आरम्भ तवायरो । 'कहमेस एवं काहि ?' ति तमेव हारं घेत्तूण गतो धणपालो उलं । पायपडितो हार समप्पिऊण विभविउं पयत्तो—देव ! पसीयह, मुयह वरागमेयं, पुर्वदुकियाई एत्थमवरज्झंति, किमेसो एवमजुत्तं कयाइ १ निर्माड ! ॥ २ दापितबन्धुगुप्तिबन्ध ! ॥ ३ राजकुलम् ॥ ४ पूर्वदुष्कृतानि ।। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11 देवभद्दबारिविरहओ कहारयणकोसो॥ सामनगुणाहिगारो। ॥२२४॥ पैशुन्यविषये धनपालबालचन्द्रयो कथानकम् करेह ? । राइणा भणियं-दुरायारो क्खु एसो एवंविहडंडस्सेव जोग्गो । ततो गाढयरधणपालोवरोहओ मोयावितो सो राहणा, हारो य भुजो समप्पिओ धणपालस्स, सुचिरं सलहिओ विसजिओ य । अह सवत्थ वि नयरे वित्थरियं मोइओ महापिसुणो । धणपालेणं हारप्पयाणतो बालचंदो ति ॥१॥ धन्ना धरा धुवमिमा जीए दीसंति पुरिसरयणाई। पिसुणे वि हु उवगिइकारयाई धणपालसरिसाई ॥ २ ॥ इय सो महाणुभावो कित्तिं सुगई च परममणुपत्तो । इयरो वि निंदणं हीलणं च कुगई च अइभीमं ॥३॥ जो मुणइ कि पि तत्तं अह्वा बंछइ सुनिच्छियं धम्मं । सो पेसुमं वजह बञ्जासणिपायमिव दूरं ॥४॥ अपि च आख्याति मुक्क्यतरिकामखिलक्रियाणां, तोविशुद्धिमिह धर्मविधेर्विधात्रीम् । सा चाऽऽदितोऽप्यपरमूर्धनि दोषचक्रमाधातुमुद्यतमतेः प्रलयं प्रपन्ना वैरीयतेऽखिलनृणां स्वकुलं यशश्च, व्याहन्ति बन्ध-वधमाशु लभेत भूपात् । पैशुन्यपण्यपरिकल्पितवृत्तिरित्थमस्वास्थ्यदौस्थ्यमुपगच्छति तुच्छबुद्धिः ॥ २॥ तथातावत् सुहृत्स्वजन-बान्धव-पूज्यबुद्ध्या, पश्यन्ति गुप्तविषये च नियोजयन्ति । यावद् विदन्ति ने नरं पिशुनं कथश्चित् , जानन्ति तं तदनु सर्पमिव त्यजन्ति ॥३॥ १ उपकृतिकारकाणि ॥ २ नवरं प्रतौ ॥ त्यागोपदेशः ॥२२४॥ **%+SAKAS+xxx+++ MANOCEN ARCRASHANANCERESORRCRACASS बुज्झति नो कुंद-मयंकगोरं, चिरञ्जिय कित्तिधयं 'तिजंतं । न लोयमग्गं पि हु पालयति, सकामेकं अणुचिंतयंति ॥ २ ॥ ता एवं संभवइ, केवलं कहं पुण सहसा धणपालो तजणगो वा एवं वत्तद्यो? जहा-तुब्भेहिं एत्थमित्थं चोरहत्थाओ काणकएण हारो गहिओ त्ति, बाद दक्खिन्नसुनमेवंविहवयणं, ता उवायकप्पणा इह जुत्त-त्ति संपहारिऊण आहूओ नयरपहाणलोगो । अंजलिपग्गहपुरस्सरं च भणिओ राहणा, जहा–एगावलीहारो देवीए सयासातो केणइ कहिं पि अवहरिओ, तस्स य अनेसणत्थं अहं घरेसु नियपुरिसपेसणेण सुद्धिं काराविउमिच्छामि, अओ न थेवं पि तुम्भेहिं रूसियई ति । पुरजणेण भणियं-देव ! किमजुत्तं ? एवं कारावेसु ति । ततो विसब्जियं नियपंचउलं, भवण[चंद]सेट्टिमंदिरादूरघराइं च सोहिउं पवत्तं, कमेण आगयं भवणचंदसेडिणो घरे । अह निउणं तबिसुद्धिं कुणतेण आभरणकरंडमज्झसंपिंडिओ डिंडीरपिंडो व दिट्ठो एगावलीहारो, उवणीओ राइणो । 'तत्तुल्लो' त्ति पञ्चभिन्नाओ य रना । एत्यंतरे विन्नत्तं धणपालेण–देव ! देसंतरियसयासाओ एस मए अमुगदिणे गहिओ त्ति । रन्ना भणियं-कहिं सो देसंतरितो ?। धणपालेण भणियं-सो संपइ सिंहलदीवं गतो। राइणा भणियंजो [......] वरिसदेसीओ अमररिंछोलिछायछवी अफुडवको य । धणपालेण जंपियं-देव! [एव] मेयं । रन्ना वुत्तंमए वि तस्स सयासातो चेव हारो गहिओ, निय[य] सो य एसो ति । धणपालेण जंपियं-देवो जाणइ ति । १ अतियान्तम् ॥ २ भ्रमरपशिच्छायच्छविः ॥ ३ वो भाण प्रती । +KAHAN Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसरिविरहओ कहारयण-४ कोसो॥ सामनगुजाहिगारो। 4%ANARASHTRAN परोपकारे भरतनृपकथानकम् ३२। तथाहि-अस्थि नीसेसवसुंधरापुरपुरधिरमणरमणीयरूवं, वेयबिहिविहेअधणट्टजट्ठलट्ठभूवठ्ठपहट्ठियभूइट्ठजूर्व, बहुविहरक्खसंगयं न लंकालयाणुगयं, पायडियवहुवाडियाडोवं पि दीसंतपोढपमयापरमभोगोवभोग भोगपुरं नाम नयरं । तहिं च निर्यपयाव-भ-माहप्पप्पमुहगुणगणविजियविकतभूवइचको नियसोडीरिमा[ग]नियसको समरपरिहत्थुच्छलंतवेरिमयगलमलणसरहो महाराया सिरिभरहो भारहद्धकइवयमंडलाहिवइमोलिलालियचलणं दुइंतदुट्ठदलणं रञ्जमणुपालेइ। पारद्धि-गेय-नट्टोवयार-वरजुवइ-जूबवसणेहिं । न परोवयाररसिय ईसिं पि मणं दई जस्स पररिउविजए वि हु विहलमेव मनइ सजीवियं जो य । अविहियपरोवयारं भुजो भुजो दिणद्धे वि ॥२॥ तस्स य रनो सवंतेउरप्पहाणा सुलोयणा णाम पणइणी, अप्पडिमरूवाइगुणो य महीचंदो नाम पुत्तो । बुद्धिपगरि १ इतुधणटुज प्रती। वेदविधिविधज्ञधनावइष्टप्रधानभूपृष्ठप्रतिष्ठितभूयिष्टथूपम् ॥ २ बहुविधेः रक्षोभिः-राक्षस: सनतमपि-व्याहमपि न लकालयःलावासिभी राक्षसैरनुगतम् इति: भन चेदिदं पुरं रक्षोभिः परिपूर्ण तर्हि कथं न लावासिभी राक्षसैः सम्बद्धं भवति । इति विरोधः । विरोधपरिहारपले तु-इदं नगरं बहुविधैः रक्षः-रक्षाकारिभिर्नरः समत-युकम् पुनव न लकालयः-लेषादिषु रलयोईलयोः सायकॊद् रालयः-दीनरहे: अनुगतमिति ।। ३ प्रकरितः वधूवाटिकाना-वधूटिकानाम् आटोप: यनतारशं पुरं दृश्यमानत्रौढप्रमदापरमभोगोपभोगमेव भवति इति किमाश्चर्यम् । यदा प्राकृतभाषानुरोधात् सामासिकपदपरनिपाते "प्रकटितवारितवश्वाटो' पूर्व प्रकटितः सन् पक्षाद् वारितः वधूटिकानाम् आटोपो यत्र एताम् नगरं कर्थ रश्यमानप्रौढप्रमदापरमभोगोपभोगं भवति । इति विरोधः । भन्यत्र-प्रकटित: बहुवाटिकाना-प्रभूतारामाणामाटोपो येन पुनब रश्यमानेस्यादि योग्य गुणगणविजितविकान्तभूपतिचकः निजशौण्डीर्वावगणितशक्रः समरनिपुणोच्छल रिमदकलमर्यनारभः ॥ ५ पुत्तमा प्रती ॥ ६ "विदकं प्रती ॥ ७ 'वत्तिय प्रतौ ॥ ८ मरायसिरि प्रतौ ॥ ९ पापर्दिगेयनाम्योपचारवरयुवतीचूतव्यसनेषु । अत्र प्राकृतनियमवशात् सप्तम्बर्षे तृतीया ॥ ॥२२५॥ S ॥२२५॥ KRONASHAKAMANAKARACHNICARCH KA5%ACCASIA4%ACANKAR सागरभूया य भूइलप्पमुहा मंतिणो । ते' य राइणा सप्पणयं पुत्वमेव एगतोवगएण भणिया, जहा-भो मंनिणो! महीमहाभारसमुद्धरणधीरो हि एस सुओ महीचंदो अहं व तुब्मेहिं सबकजेसु आपुच्छणिजो पमाणीकायचो य, अहं पुण कञ्जवसेण | एत्थ वा अनत्थ वा पयडो वा पच्छन्नो वा चिट्ठामि वा बच्चामि वा, अतो रजकञ्जचिंतासमुञ्जएहिं होयत्वं ति । अह 'तह' ति पडियनसासणेसु मंतिम सुए य समारोवियरजभरी स भरहराया परोवयारकरणे चिय निचनिउत्तमाणसो, असकतबिहपडियारं पइदिणं पंचत्तमुक्तिं विविहवाहीहिं बाहिअंतं च जणवयं पलोइऊण, पंडिपक्खं तमक्खंडिजमाणमंडलं मयंकचिंचं च निरिक्खिऊण, हिमवंतपमुहमहामहीहरमहाभारॉकयसंविभायं भूमि चाऽऽभोइऊण सदुक्खं परिभाविउं पवतो केणावि कुसलकम्मोदएण जाया वयं धरावइणो । गिजइ य चरियमम्हाण किं पि कयतिहुयणच्छरियं ॥१॥ विष्फुरिय पुण थेवं पि नस्थि दुक्खत्तसत्तताणकए । तह वि हु परोवयारि त्ति ही ! मुहा मागहा बिंति ॥२॥ धी धी! जीवियमफलं धीधी विफलो य अयबलालेबो। धी धी! पगब्भमइविन्भमो य धी धी! य निवइत्तं ॥३॥ एवं च समुज्झियायबहुमाणो, सईगियमालिंगितो व रणरणएणं, सबहा वजिउ व उजमेणं, तिणमेत्ताओ वि अप्पय. मसारं मधतो राया पासायसत्तमभूमिभवणसेआए सयणस्थमारूढो । एत्थंतरे अणंगकेऊ णाम गुडिगासिद्धो दूरगयणपहविलंघणकिलामियकलेवरो बीसामनिमित्तं 'विजणं' ति सुहसे क्षण रा० प्रती ॥२ अहमिय ॥ ३ प्रतिपक्ष तमखमयमानमण्डलं मृगाकविम्बम् । तमः-राहुः ॥ ४-अकृतसविभागाम् ॥ ५ भजयलायलपः ॥ ६रसमुन्जितात्मबहुमानः, सर्वाधिकमालिनित इव निःश्वासेन, सर्वथा वर्जित इव उद्यमेन, तृणमात्रादपि । Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरइओ कहारयण कोसो ॥ सामन्नगुणाहिगारो । ॥२२६॥ 1৩ 6+% जए नियनिस्सह विमुकसबंगो निविसको निसन्नो खणं । सुहफरिसबसओ सेजाए, रमणीयत्तणतो तप्पएसस्स, अइसिसिरत्तणओ य समीरस्स, नहनिवन्नस्स य तस्स समागया निब्भरं निदा । तवसओ य घोरमुकघुरुडुकविष्फारियवयणातो जच्चकंचणसच्छइच्छायाविसेसा विगलिया बाहिम्मि गुलिया । पेच्छइ य नराहिवो तं तहप्पसूत्तं तं च गुलियं मुहाउ गलियं ति । ततो ईसिजायकोवावेगो भूवई 'अरे ! को एस दुरायारो एवंविहेगंतसे आए देवाण वि दुईभाए निद्दाभरनिन्भरं सुबइ ?' ति खणं परिभाविय 'हुं गुलियासिद्धो कोइ निच्छियमिमो' त्ति नियचलणंगुट्ठगहियगुलियारयणो किंचि दूरे होऊण भणिउं पवत्तो—रे रे ! को तुमं अम्ह सेआए सुवसि १ चि । ततो संभंतो ज्झत्ति उज्झियनिहाम्रो अविभाविय मुह भट्टगुलियावत्तो आकासमुप्पहउं विमुकहुंकारो सो गुलियासिद्धो उड्डुं उच्छलिओ । गुलियाअभावे निवडिओ विलक्खीहूओ भणिउं पचत्तो भो महाभाग ! अहं हि अणंगकेऊ नाम गुलियासिद्धो सिरिपव्वयं पडुच्च वचतो पहपरिस्समा [व]णयणत्थमित्थमित्थेव खणमेगंतसेज चि वीसंतो निदमुवगतो य, अवगया य मुहाउ गुलिगा, तदभावे य भूगोयर व गयणलंघणं न सकेमि काउं, ता कुणसु जं मे रोयह त्ति । अह संकरुणतत्रयणोवसंत कोचवियारेण रन्ना खित्ता तदभिमुँहं गुडिया । सायरं गहिया य तेण भणितो य राया-सबहा भो महाभाग ! पडिवजसु तुममिमं ति । राइणा जंपियं-॥ १ ॥ चकमणसत्तिरहितो पणट्ठदिट्ठीबलो ॲपुरिसो वा । किमहं तुमए नाओ जंमेव अणुकंपसि ममं पि ? पत्तं तुह गुडियाय मज्झ नवरं कहेसु कहमेसा । तुमए लद्ध १ त्ति अणंगकेउणा तयणु वृत्तमिमं ॥ २ ॥ १ निसंतो खणं प्रतौ ॥ २ सकरुणतद्वचनोपशान्तकोपविकारेण ॥ ३ 'मुद्दा गु प्रतौ ॥ ४ 'अपुरुषः' पुरुषार्थविरहितः ॥ ५ यदेवमित्यर्थः ॥ इत्यैहिका - ssमुष्मिकदोषदुष्टं प्रत्यक्षतः शास्त्रगिरा च बुद्धा । सर्वापदां दूरविहारकामः, पैशुन्यदोषं विजहीत शश्वत् ॥ ४ ॥ ॥ इति श्रीकथारत्नकोशे पैशुन्यगुण-दोषचिन्तायां धणपाल - बालचन्द्रकथानकं समाप्तम् ॥ ३१ ॥ अप्पाणं पि परजणं उबगिण्हंतो केयत्थयं नेइ । नूणं परोवयारी ता एत्तो सीसइ स एव उवयरणं उवयारो सो य दुहा दव-भावतो नेओ । दवे असणाईणं दाणेण परेसि उवयरणं भावे य जाण दंसण चरित्तसंपाडणेण सत्ताणं । दुक्खत्ताणं परमोवयारकरणेण विभेयं तत्थ पढमं पि सामनबुद्धिणा तुच्छपयइणा गिहिणा । अणुवट्टियकलाणेण नूणं नो तीरई काउं किंतु सुकुलप्पसूया थिर-गंभीरा भविस्सभद्दा य । परमुत्रयरिडं पारिंति उत्तमा परमसत्ता य बीयं तु तित्थनाहा आयरिया गणहरा महिड्डीया । उज्झाया मुणिणो वि य काउमलं निम्मलालोआ अने वि भूमिगोच्चियमवसेया सावयाइणो मुणिणो । एवंविहऽत्थकरणेऽहिगारिणो धम्मविहिकुसला भावोवयारकारीण निब्बुइ च्चिय फलं पसिद्धमिणं । देवोत्रयारिणो वि हु फलमतुलं भरहरन्नो व १ कृतार्थताम् ॥ २णतो ती प्रतौ ॥ ३ 'लोभो प्रती ॥ ४ भूमिको चितमवसेयाः श्रावकादयः मुनयश्च । एवंविधार्थकरणे ॥ ५ देवोव प्रतौ ॥ ॥ १ ॥ ॥२॥ ॥ ३ ॥ ॥ ४ ॥ ॥ ५॥ ॥६॥ || 9 || || 6 || परोपकारे भरतनृपकथानकम् ३२ । ॥२२६॥ परोपकारि श्वस्य स्वरूपम् Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमयरि-६ विरहओ परोपकारे भरतनृप| कथानकम् ३२ । कहारयणकोसो॥ सामनगुपाहिगारो। ॥२२७॥ HORTHANAKANKER%A4 अणेगे गुलिगानिमित्वं तं ण्हाणजलं छिके-पडिच्छिकं काऊण दाहभएण ओसरता सरंता य साहगा । ततो पुच्छिया ते रचाअरे ! केत्तिया तुम्मे अच्छह ? ति । तेहिं जंपियं-अट्ठोत्तरसयं ति । ततो 'इत्थं न कजसिद्धि' ति भणंतो राया रत्तासोयपाडलेण पाणिसंपुडेण तं मजणजलं [जलजलतं असंभंतचित्तो घेत्तुं समुपट्टितो । अह कढियतंबयसरिच्छे मजणजलं अच्छिन्नधारं [गेतस्स ] ईसि पि अविचलियकरयलंगुलिग[स्स तस्स नरवइस्स णिद्दद्धच्छवीसु अंगुलीसु महासत्तत्तणतुडेण पणामियं देवेण जहुद्दिट्ट गुलियारयणं । अह 'कहमहं इमेसु वरागेसु अपुनमणोरहेसु सयमिमं गिण्हामि ?' ति परिभाविऊण दिनं एगस्स तदस्थिणो । पुणो य पयट्टो अप्पणो निमित्तं । पुवडिईए य भुजो दिना बीया गुडिया देवेण । सा वि बीयस्स तयस्थिणो पणामिया भूवइणा। अह पुणरवि तमुहं ण्हाणजलं घरेंतस्स असेसतदस्थिजणमणोरहपूरणत्थं पस्थिवस्स दाहाइरेगवसओ समंस-सोणियासु तुट्टिऊण निवडतीसु वि अंगुलीसु ईसि पि अविकंपिरस्स सत्तेण महापुरिसत्तणेण य पयडीहूओ देवो, जोडियपाणिसंपुडं भणिउं पवत्तो य-भो नरवर । छम्मासकयसेवस्स वि साहगस्स कस्सइ परं अहं गुलियं दितो, तुमए पुण खणद्धेण वि दोनि गुडियातो पणामियातो अमेसि, ता अहो! तुह उदारत्तणं, अहो! परोवयारित्तणं, अहो ! महाधीरत्तणं, ता तुट्ठो म्हि, साहेसु जं कीरह ति । राइणा भणियं-के वयं ? तुम्ह चलणरेणुणो वि न तुल्ला भवामो, केवलं 'वरागा इमे तुच्छासया सया वि दुत्थिया, ता थेवं पि एएसिमुवयरिउं जुत्तं' ति किं पि दिन्नं, संपयं पुण ममाणुवित्तीए पडिपुनवंछियत्थे काऊण १ स्पृश्प्रतिस्पृष्टम् ।। २ यलंकलिंगतस्स प्रती ।। ॥२२७॥ | विसओसु इमे ति । अट्टोत्तरसय पि पूरियमणोरहं काऊण विसञ्जियं देवेण । राइणो वि समप्पिया गयणलंघणमाहप्पप्पहाणा गुडिया। गहिया सायरं राइणा। ततो 'किं पि परोवयारि' त्ति परमपमोयमुबहतो रामसेहरसुरं पणमिऊण भत्तीए उप्पइतो नलिणीदलसामलं गयणयलं । निमेसद्धेण य मरहट्ठविसयवरिढुं रिट्ठपुरं नयरं संपत्तो । __तहिं च रमणीययागुणरंजियहियतो जाव चउहट्टयं पडुच्च दिढेि ठवेइ ताव दीसंतसुंदरायारं सनिकारं पुरिसं एग डिभवंद्र परियरियं पुरतो ताडियवज्झडिंडिमुडमरारावायन्त्रणसभयतरलच्छ जणपलोइजमाणं रायपुरिसेहिं वज्झभूमीए निर्जतं पेच्छइ । 'अहह कहमेवंविहमणहरायारो महाणुभावो एस एवं हंतुमारद्धो ?' ति जायगरुयकरुणापूरो राया पलोयंताण वि रायपुरिसाणं तं करयलेणुक्खिविय वेगेण पट्टिओ, पत्तो य नियनयरं, समुत्तिन्नो य सत्तभूमिनियपासायउबरिभूमिगाए, वीसंतो सुहसेजाए खणमेगं । मुणियागमणेण य परियरिओ चेडे-चाडुगरचडगरेण । पसरिया य पुरे रायागमणवत्ता । पयट्टो पुरमहूसवो । कयण्हाण-भोयणाइकिचो य भरहनरवई कयालंकारपरिग्गहो आसीणो अत्थाणमंडवे । समागओ य चिरागयरायदंसणकुऊहलेण मंति-सामंत-पुरप्पहाणपरियरितो महीचंदो जुवराया । पंचंगपणिवइयपिउपायपउमो य आसीणो समीवम्मि | नरवइणा वि सिणिद्ध-धक्ल-पसंत-सवियासलोयणा[व]लोयणेणाणुगिव्हिय सई जहोचियं भणिउमारद्धा-अवि कुसलमसेसरायलोयस्स ? अवि पीणिजंति पैयइणो ? अवि निप्पचूह सिझंति रजकजाई ? ति । जुवराएण जंपियं-देव ! तुम्ह पायप्पसाएण सवं एवमेयं । १ डिम्भन्दपरिवृत पुरतः साबितवध्यडिण्डिमभयदरारावाकणेनसभयतरलाक्षजनप्रलोक्यमानम् ॥ २ चाटुकरसमूहेन ।। ३ 'प्रकृतयः' प्रजा: ।। ORGANEKASARASTROSCRIKAACHAARWARRC %AEXANEWS Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | परोपकारे भरतनृपकथानकम् ३२। श देवभद्दसरिविरइओ कहारयण- कोसो ॥ सामनगुणाहिगारो ॥२२८॥ अह समइकंते खणमित्ते, विसञ्जिएसु सामंतासु, जाए विवित्तजणे विनत्तं मंतीहिं—देव ! पसायं काऊण साहेह, एच्चिरदिणाई कयरी दिसा अलंकिया? किं वा कामज्झवसियं साहियं व? ति । 'हा हा ! कहं अत्तगुणविकत्थणापावमायरियवं?' ति जाव राया लजावससम्मीलंतनयणनलिणो किंकायवयवामूढो इओ तओ पलोएइ ताव विमत्तं पडिहारेणदेव ! लेहहत्थो पुरिसो तुम्ह दसणं समीहइ त्ति । राइणा जंपियं-सिग्धं पवेसेहि । 'तह' त्ति पवेसिओ समप्पियलेहो य पडितो पाएसु । बाइओ य लेहो जुवराएण | जहा स्वस्ति । श्रीभोगपुरपरमेश्वरं वैरित्रिपुरशङ्करं उदात्तचरितविस्मारितनल-नघुषादिपूर्वभूभुजं श्रीभरतराजाधिराज कालिञ्जरमहानशेषान्तग्रामा (१) ग्रामाधिवासिनः प्रकृतिमहत्तराः सविनयमवनितलविलुलितमौलिमण्डलं प्रणम्य विज्ञपयन्ति । यथा-यद् बचपञ्जरानुकारिभवद्दोर्दण्डमण्डपाश्रितानप्यस्मानभिभवति पल्लीदुर्गबलगर्वितो भीमाभिधानो म्लेच्छराजा, तन्नूनं राजसधानीमभिलपयतीति (?) निविनुमः । स च सम्प्रत्येव यथाभिलषितभाजनं स्यात् तथा विधेयमिति ॥ इय लेहत्थं रायाऽवधारिउं जायगरुयपरिकोवो । आबद्धभिउडिभीमो भीमं पह भणिउमाढत्तो पेच्छह मिलेच्छमुच्छेयमइगयं अविमुर्णितमप्पाणं । नूणमकाले चिय कालवयणकहरं विसिउकामं ॥२॥ मंतीहिं जंपियं देव! मुयह को तम्मि कोवसंरंभो। कुविओ वि न पहरइ कोलेहुयम्मि कइया वि पंचमुहो ॥ ३॥ जइ कह वि दुग्गबलमेत्तओ वि सो मुणइ अप्पयं सूरं । किं देव ! एत्तिएण वि दुजेओ सो जए जाओ? ॥४॥ १ किंकर्तव्यताब्यामूढः ।। २ 'उत्सेकी' गर्ने अतिगतम् अविजानन्तमात्मानम् ॥ ३गाले ॥४ सिंह इत्यर्थः ॥ ५ दुर्गवलमात्रतः ॥ ॥२२८॥ अस्थि मलयमहिहरसिरसेहरं हरवसहधवलं वलयागारमहिवीढपरूढभुयगभी[म]मलयदुमारामाभिरामं रामसेहरदेवस्स | भयवओ भवणं । तत्थ य जो छम्मासं देवस्स मञ्जणजलं जलंतजलणनिविसेसं हिट्टओ निवडंत थेवथेवेण करयलेण फरिसइ सो एवंविहं गुलियं लहइ । नवरं तं जलं तह फरिसियवं जह करयलदाहो न हवइ त्ति । ततो सबमिममवधारिऊण रत्ना विसञ्जिओ अणंगकेऊ गओ जहावंछियं । राया वि तत्थ चेव सयणिज्जे ताव ठिओ जाव जायं मज्झरतं । अह कयवेसपरियतो नियपरियणेण वि अमुणिजंतो खग्गमेचसहाओ नीहरितो रायभवणातो । अक्खंडियपयाणगेहिं तहा तुरियतुरियं गंतुं पवत्तो जहा पत्तो अकालविलंबमेव मलयाचलं ति। पेच्छह अतुच्छताविच्छगुच्छसच्छहसमुच्छलियरुइणो । कुंडलियकायवेढियचंदणतरुणो महाफणिणो अणुहवइ य वणकरिकरपहारजअरियचंदणवणातो। पाउन्भूयं पसरतपरिमलेणाऽऽउल अनिलं ॥ २ ॥ आयना किन्नरमिहुणमणहरुग्गीयपंचमुग्गारं । गिरिकुहरपंडिसुयारवनिचलियकुरंगमसमूह इय एत्थ तत्थ सम्बत्थ पत्थिवो गुरुकुऊहलाउलिओ। अवलोएंतो पत्तो गिरिसिहरे तम्मि सुरभवणे ॥४॥ ततो पुक्खरिणितडे पक्खालियसरीरो कयवयणविसुद्धी गहियकइवयकमलो पविट्ठो सुरभवणं । पूडओ देवो । दिट्ठा य १'रओतस्स प्रती ॥ २ जे जाव प्रती ॥ ३ अतुच्छतापिच्छ( तमालवृक्ष )गुच्छसशसमुच्छलितरुचयः कुण्डलितकायवेष्टितचन्दनतरवः ।। ४ प्रतिवदारकः-प्रतिध्वनिशब्दः ॥ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभदसरि-3 विरइओ | कहारयणकोसो॥ सामन्त्रगुमाहिगारो। परोपकारे भरतनृपकथानकम् ३२। पेक्खइ सुतिक्खखग्गुच्छलंतपहपडलसामलच्छायं । सक्खा जमाणुजायं व अग्गतो मेइणीनाई अहह ! कहं कत्तो वा दुवारवालाइणा वि अक्खलितो । परपुरिसदुष्पवेसं पत्तोऽयं मझें भवणभुवं ? ॥ २ ॥ इय परिभावितो झैत्ति चत्तसेजो य सम्मुहं गंतुं । भूमियललुलियसीसं पडितो पाएसु सो भणइ ॥३ ॥ देव ! पसीयह पणएसु सरणपडिवनमाणसेसु दढं। दुविणएसु वि अम्हारिसेसु इच्चाई जंपतो ॥४ ॥ उक्खित्तो नरवडणा करम्मि घेतूण नूणमभयं ते । इय जंपिरेण नीतो य तक्खणं निययभवणम्मि अह कयसिंगारेणं आसीणेणं सभाए भूवइणा । सो एस पल्लिनाहो ति दंसिओ मंतिमाईण तो विम्हिएहि तेहिं विणिच्छियं तीए विजयजचाए । नहगमण-सत्तुनिग्गहलद्धी देवस्स जाय त्ति भणियं च तेहिं उंचरतरु व नरनाह ! तुज्झ वावारो । अकयकुसुमुग्गमो पायडइ महंतं फलुब्मेयं राया वि चित्तेपसरंतगरुयलजामिलाणमुहकमलो । सहाणे पल्लिवई पवनसेवं विसजेह ॥९ ॥ पल्लिवइवइयरेण य सेसाण वि भूवईण हिययम्मि । दुविणयकरणविमुहा जाया तं पइ परा भत्ती ॥१०॥ अह विसजियसयलसेवोवगयलोगो राया देवयापूयापुरस्सरं निबत्तियभोयणाइकिच्चो सुहसेञानिसन्नो तं वज्झपुरिसं मरहट्टदेसातो पुवाणीयं पुच्छइ-भद्द ! अवरावरकजपरंपरावक्खित्तचित्चेण पुच्छिउकामेण विन किं पि वोत्तुं पारिओ, १ सुतीक्ष्णखगोच्छलत्प्रभापटलश्यामलच्छायम् । साक्षाद् ‘यमानुजातं' यमलधुबान्धवम् ॥ २ झ भुव प्रतौ ॥ ३ झटिति त्यतशय्यः ॥ तो अम्हए" प्रती ॥ ५ चित्तप्रसरगुरुकलज्जाम्लानमुखकमलः ॥ २२९॥ ॥२२९॥ पारासरकथा सम्बन्धः ता साहेसु तुमं—केण कारणेण तुमं दीसमाणमणोहरागारो वि एगागारिओ व विणासनिमित्तं तहा उवणीतो सि ? ति । तेण भणियं-देव ! निसामेह, अहं हि पारासरो नाम भारह-रामायणाइजाणगो कहगवित्तीए निबहामि, मंत-तंताइणा य लोगोवयारे वट्टामि, देवयादिसिट्ठिवसेण य जं किं पि आइक्खामि अक्खाणयं तं पि चरियमेव हवइ ति । एवं वर्चतेसु वासरेसु एगया मए रायमहिलासुयस्स छम्मास जायरस रोगविहुरस्स पारी मंत-तंतोवयारो, न जाओ से पडियारो विवनो य । तम्मरणे य बाढं दुक्खिओ राया। सिटुं च से ममोवरि बद्धमच्छरेहिं, जहा-देव ! एसो तुम्ह सुतो अणेण पारासरेण खुद्ददेवयपूयानिमित्तं मंतेहिं विणिहउ त्ति, करेइ य एसो पुरिसवेहाईणि जणसमक्खं पि, जइ न पच्चतो ता वाहरिऊण निहुयं पुच्छह ति। अवियारसारबुद्धिणा य तह' त्ति पडिवनं रमा, वोहराविओ अहं, पुच्छितो य-किं भद्द! पुरिसवेहाइ जाणसि ? ति । अमुणियपरमत्थेण य मए वु-देव ! जाणामि चि । ततो राइणो आएसेण दंसितो मए पुरिसवेहो । 'जह पुरिसवेहं तह पुत्तविणासं पि एस कुणई' ति कुविएण रमा वज्झो आणत्तो ह । तदुचरं च देव ! तुम्हें पि पञ्चक्खं सवं किं सीसइ १ त्ति । तुहिको डिओ पारासरो ॥ छ । रमा वुतं-होउ ताव, साहेसु किं पि नवं कहाणयं । तेण वुर्त-निसामेहिं, गंधारविसए गंधपुरे नयरे विरोयणो नाम कुलपुत्तओ, संपा नाम से भञ्जा । अवरोप्परपणएण कालं वोलिंति, १ लोगावयारे बज्झमि प्रतौ ॥ २ सेट्टि प्रती । देवतादत्तशिष्टिवशेन च ॥ ३ 'थ्याहारितः' आकारितः ॥ भरतनृपपूर्वभवः Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परोपकारे भरतनृपकथानकम् ३२। देवभद्दसरि-४ रायसेवाए य वितिं कर्षिति । अन्नया रायाएसेण सो भंडारारक्खित्तं कुणतो रयणीए चोरेहिं हतो संतो मरिऊण पयागविरहओ तित्थस्स समीचे नंदिग्गामे समुप्पो बंभणपुत्तत्तणेणं, कयं दामोयरो ति नाम, कमेण य पत्तो अट्ठवारिसियत्तर्ण । सुमुहुत्ते य पारद्धं से मुंजीबंध-जन्नसुत्तप्पयाणपत्वं । निमंतितो सयणबग्गो गामपहाणलोगो य, समुचियसमए भुंजिउं पवत्तो य । कहारयण इओ य सा संपा तहाविणट्ठस्स [नियपिउणो] सोगभरनिभरंगी काऊण सरीरसकारं दद्धावसेसाणि अट्ठियाणि कोसो॥ &ा घेत्तूण गंगाए गया, पवाहियाणि तदडियाणि । कइवयदिणाणि तित्थस्स पज्जुवासणं काऊण पुक्खराइतिस्थेसु कर्मकमेण सामन्नगु- ण्हाण-पिंडप्पयाण-देवयापूपणाइ निबत्तिऊण पयागतित्थाओ समागया नंदिगाम । खीणसंबलचणेण अनिवहंती पविट्ठा पाहिगारो। भिक्खत्थं गाममज्झे, दिववसेण य पत्ता तम्मि चेव संखडिघरे । दिट्ठो सो दामोयरबडओ चंचकितो चंदणच्छडाहिं ॥२३॥ बंभणदिक्खं पवनो। ततो पुखभवगरुयपडिबंधनिबंधणचणेण जातो तीए परमपरितोसो, आणंदियाई लोयणाई, ऊससियं हियएण, विस्सुमरितो अप्पा, चित्तालिहिय व तं व अणिमिसाए दिट्ठीए पलोयंती ठिया । सो वि बडतो तं संभमभरियच्छिविच्छोहं सायरं पेच्छिय ईहा-ऽपोहाइपयट्टो चिरजाई सरंतो मुच्छाविच्छिनचेयन्नो पडिओ महीवढे । 'हा हा ! किमेयं ति धाविओ लोगो, कओ सिसिरोवयारो, पगुणीहूओ मणागमेतं । पुच्छिओ य जणेण-किमेयं ? ति । सिट्ठो अणेण पुवभववुत्तो। संभासिया य सायरमेसा-पिए ! कत्तो तुममिहाssगया सि? ति । तीए वि चिरविरहदुक्खविर्णितबाहप्पवाहाउललोयणाए कह कह वि १ चर्चितः ॥ AKAR ॥२३॥ kx45+%AHARASHTRAREHEKHAR+%%%ARRAO हय मुंसिलिट्ठ-मणोहरमंतिगिरुपनकोववीसामो । सुपसनवयणकमलो तो जुवराएण विनत्तो ॥५॥ मंतियणपत्थणा ताय! निष्फला जुजए न पुबकया । तुम्हाणं ता साहह किं सिद्धं विजयजत्ताए ? तो ईसिहासवियसियमुहकुमुयफुरतेकंतदंतदलो । नियवित्तकहणविवरम्मुद्दो निचो तं भणइ एवं वच्छ ! जइ पावरूवं भीमं पल्लीवई उवणिणिस्सं । तुभ कल्ले जाणिहह ता सयं विजयजत्तफलं ॥८ ॥ अह विम्हइया सेसा ते कहमेयं १ ति दूरतरवत्ती। पल्लिवई कल्ले चिय आणेयवो ति संभव ? ॥९ ॥ एवं विभाविरेसु कयप्पणामेसु य जहागयं पडिगएसु जुवरायपमुहेसु, राया कयतुरग-करिवराइचिंतो तेहिं तेहिं विणोएहिं गमिऊण रयणिं, पभायसमए समुच्छलंतेसु गुंजापुंजपिंजरेसु रविकरेसु. इओ तओ पयट्टेसु पक्खिनिवहेसु, पवाइएसु मंगलतूरेसु, सरियपइनाविसेसो गुडियं मुहे काऊण उप्पइओ नीलँनीलं वोममंडलं; निमेसमित्तेण य पत्तो पल्लीवईभवणं । दिट्ठो य तकालमंदीहयनिदावेगो जिंभायमाणमुहो भीमो, भणिओ य-रे रे ! सरेसु सरणिजं, तमिर्म दुकयकयलीफलं अदिट्टकुसुमुम्मेयं समुट्ठियं अणिहूं ति । इमं च असुयपुवं आयनिय काकडुपवयणं संभंतो भीमो 'किमेयं ?' ति जाव विष्फारियनयणो पुरतो पलोयई ताव १ सलिटमनोहरमन्त्रिगिरोत्पन्नकोपविभामः ॥२ 'णोरदम प्रती॥ ३ ततः इषदास्यविकसिममुखकुमुदस्फुरत्कान्तदन्तदलः । निजवृत्तकमनविपरामुखः ॥ 'तहंत प्रती ॥ ५ "णिमिस्सं प्रतौ ॥ ६ 'चिंतंतो प्रतौ ॥ ७ नीलरत्ननीलं व्योममण्डलम् ॥ ३९ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CAS देवभद्दसूरिविरइओ परोपकारे भरतनृपकथानकम् ३२। कहारयण-15 कोसो ।। सामनगुगाहिगारो। ॥२३१॥ पवजिय अणसणं पवन ति, तुज्झ वि संपर्य एयमेव जुत्तं ति । 'तह' ति पडिवञ्जिय ठिओ अणसणेणं दिन्नो, उवसग्गिउमारद्धो य सयणवग्गेणं । ततो 'सबिग्घो एस पएसो' ति गतो भइरवपडणे, सरियदेवया-गुरुचरणो य सिलायलयलं व अप्पाणं तहिं निवाडिऊण मतो चि ॥ छ । इमं च अवक्खित्तचित्तो भरहभूवई आमूलाओ आरम्भ सुणंतो मुच्छितो, समासासिओ य तकालोच्चियकिरियाए । उबलद्धचेयणो य विम्हियमणेण पुच्छिओ पारासरेण-देव! किमेय? ति । राइणा भणियं-भद्द! कहं तुमए मह असेसं पुत्वभववित्तं जाणिय ? । पारासरेण भणियं-देव ! पुत्वसिहदेवयाणुग्गहातो, 'नवं किं पि कहाणय कहेसु' त्ति तुम्हाएसेण सिट्ठमिमं मए, न पुण इमं 'तुम्ह पुबवित्तं' ति जाणमाणेणं, देवयाए तुट्ठाए एस वरो मे दिनो-जेण पुच्छिओ जं कह कहिस्ससि सा तप्पुवभवाणुभूयगम्भा कहा 'तह' त्ति ते गोयरीभविस्सइ ति । रमा जंपियंचिरभववितनिबंधबंधुरं मह कह कहतेण । पारासर ! पच्चुवयारिणा तए तह कह वि जायं ॥१ ॥ जह पैडिवच्चुवयारो न रञ्जदाणे वि संवयह सरिसो । तह वि मह हिययपरितोसलेसहेउं इमं गिण्ह ॥ २ ॥ तो सचमलंकारं तं चिय गुडियं पणामिउं तस्स । संजायभवविरागो देवीए साहिउं सर्च ॥३ ॥ पुरी ठविउं रजे तकालागयजुगंधर मुणिस्स । पासे पवइऊणं चिरकालं चरियसामण्णो ॥ ४ ॥ जह पुर्वि तह तत्थ वि साहणुवयारकरणतल्लिच्छो । मरिऊण अच्चुएऽणंतरं च मुक्खे सुहं पत्तो १शिलातलतलमिव ॥ २ प्रतिप्रत्युपकारः ॥ ॥२३१॥ इय इहलोयम्मि परोवयारिणो सवतोमुही कित्ती । संग्गा-ऽपवग्गसंसग्गजा य लच्छी परभवम्मि ॥६॥ उवयरणिजा उवयारया य जइ संभवंति नो केइ । ता तक्यसंबंधो रासहसिंगं व कह घडउ ? ॥७॥ पढियं तवियं भुत्तं जटुं सच्छंदविलसियं च चिरं । सई खड्यं दिह्र परोवय रियं तु अक्खइयं ॥८॥ अपि च प्रजल्पतु जनः किमप्युपदिशन्तु सन्तो मतं, फलं भवतु वाऽमुतः किमपि वाऽस्तु मा सर्वथा। न पुण्यमपरं परोपकृतितोऽपि विश्वत्रये, विशङ्कमिदमुद्यताङ्गुलिकरं [परं] घूमहे ॥१॥ न चेदिदमकल्मषाः किमिति सिद्धसाध्यक्रियाः, कराम्बुरुहकोटरीकृतशिवश्रियः श्रीजिनाः। सदेव-मनुजा-ऽसुरामैपि सभां शशंसुः स्वयं, विमुक्तिपथमादृता भवभिदे गिरां विस्तरैः ? ॥२॥ किमर्थमथवाऽयमन्निशि जिनो द्विषयोजनां, व्यतीत्य चरमप्रभुर्वसुमतीमपापां पुरीम् । तदाऽऽगतगुणचिमद्विमलकीर्तिमद्गीतमप्रमुख्यतनुमत्ततेरुपकृतौ न चेदादरा? ॥ ३॥ इति परोपकतिं प्रति सर्वथा, निजमतिं वितथा ननु मा कृथाः। यदि यशोऽभिलषस्यमलं सदा, स्पृहयसे च सुखं शिवसम्भवम् ॥४॥ ।। इति श्रीकथारत्नकोशे परोपकारद्वारचिन्तायां भरतनृपकथानकं समाप्तम् ॥ ३२॥ १स्वर्गाऽपवर्गसंसर्गजा च ॥ २ राखभशमिव ॥ ३ सर्व क्षयिक' क्षयधर्म दृष्टं परोपकृतं तु अक्षयिकम् ॥ ४ मभिसभा सशं प्रती। ५ था, जिनमति प्रती ॥ SANAMAHARKHESASAKARANASANCHAR परोपकारकरणोपदेशः Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसरिविरइओ कहारयणकोसो॥ सामनगुजाहिगारो। विनयगुणे सुलसकथानकम् ३३॥ विनयस्य स्वरूपम् सव्वगुणाणुगतो वि हु विणयं न विणा भवनवं तरिउं । होइ समत्थो ता तं पडुच्च बुच्चइ इतो किं पि ॥१॥ जेण विणिजइ कम्म सो विणतो दव-भावओ य दुहा । दवे दवनिमित्तं कीरइ राईसराईणं ... ॥ २ ॥ भावे य नाण-दसण-चरित्तवंताण पुरिससीहाण । कम्मविणिजरणकए जो कीरइ सो मुणेयहो । ॥ ३ ॥ विणयातो जसं लच्छि वंछियसिद्धिं च गोरवमपुत्वं । पूर्य बहुमाणं पाउणंति पुरिसा न संदेहो ॥४ ॥ गयरूवो वि जडो वि य लायन्नविवजिओ वि नीओ वि । विणएण ठविञ्जइ उपरि रूव-महमंतमाईणं ॥५॥ जह वा तरुस्स मूलाई मूल[....] खमंति उत्तरगुणाणं । तह धम्मस्स वि मूलं विणयं चिय विति समयविऊ ॥ ६॥ विणएण वसं देवा वि जन्ति सतू वि होइ मित्तसमो । विणयावञ्जियहियया गुरुणो वि हु देंति सुयश्यणं ॥७॥ विणयविहीणं सुयमवि चयंति गिण्डंति विडमवि विणीयं । दिद्रुतो हेमपहो सुलसो वि य एत्थ अथम्मि ॥ ८ ॥ तहाहि-उड्डियायणविसए सैंनेवच्छमहिच्छलोयनिवहसमद्धासिया सारनिचयसंचयपहाणपणियपरिपुनविवणालंकिया दूरतरदेसंतरागयवणियपारद्धपइदिणभूरिकय-विकया विजयपुरी नामं नयरी | जीए तुलाकोडिमणोहरातो भवणपरंपरातो सुंदरीचरणपालितो य विरायंति, कोयंबकयंवयसुंदरातो सरोयरपंतीओ धणुद्धरधणुमंडलीओ य दीसंति, सारमेयसमिद्धातो १ रूपमतिमदादीनाम् ॥ २ स्यजन्ति ॥ ३ सुनेपथ्यमहेच्छलोकनिवहसमध्यासिता खारनिचयसवयप्रधानपण्यपरिपूर्णविपण्यलता दूरतरदेशान्तरागतवणिक्प्रारब्धप्रतिदिनभूरिक्रमविकया ॥ ४ सरोवरपतयः कादम्बकदम्बकेन-हंससमूहेन मुन्दराः, धनुर्धरधनुर्मण्डल्यः पुनः बाणसमूहेन मनोहराः ॥ ५ "तीउद्धरणुद्ध प्रती ॥ ६ पनवता-भनिना भाण्डशालाः सारैः मेयैः-मेयपदार्थैः समृद्धाः, पापर्सिलधभवनभूम्यस्तु सारमेये:-वानः समृद्धाः ॥ ॥२३२॥ ॥२३२॥ RERNANCHANGESGRRAIMERASANSAR साहिया तिस्थपलोषणाइवत्ता। 'अहो! कहं मह निमित्तण वराईए निरुवचरिओ पणतो?" ति जातो तदेगचित्तो सो लक्खिओ अम्मा-पिऊहिं । 'बंभणकुलकलंकहेऊ सुद्दीसंगो' ति निद्धाडिया सौ करुणं रुयंती तेहिं । इयरो वि तचिरहदुक्खाभिभूओ खिजिऊण मतो कहवयदियहेहिं उववनो हरिणो सुरसरितीरम्मि । सा वि तद्देसमणुसरंती दिट्ठा तेण । पुखभवसिणेहेण य पुरतो पिट्ठओ य तं चेव पलोयतो गतो गामसमीवे । तीए वि पलोइतो साणंदचक्खुक्खेवेण । नवरं तीए निवारंतीए वि हओ सो गामलोगेण । भुजो जातो वणे वाणरत्तेण । तत्थ वि सा नियगामं पडुच वचंती पलोइया तेण । चिरपणयबसेण तीए फलाईणि पणामितो ताव गतो जाव सभिवेससमी । तहिं च मेसितो लोगेण वलिओ, अचंतसोगाभिहतो य गओ पंचत्तं । उववन्नो वाणारसीए पुरीए परिसरग्गामे माहणकुले पुत्तत्तणेण । कयं दिनो ति नाम, पढितो य वेयसत्थं, गतो वाणारसीए दक्षिणानिमित्तं । दिट्ठा सा तहिं जराजञ्जरसरीरा मंदीभूयदिडिवावारा सुरसरितीरे अणसणं पवन्ना पुत्वभवभजा, पुच्छिया य तेण पुत्वभवसिणेहेण-भद्दे ! का तुमं ? किं वा इह एवं निरसण व चिट्ठसि ? ति । सिट्ठो य तीए पुत्वभवकालातो नियवइयरो । तं च सुणतो जायजाईसरणो मुच्छिओ दिन्नो, सुरसरितुसारसमीरसमासासियसरीरो पबुद्धो एसो भणिउं पवत्तो-भो भो सुयणु ! सो अहं मंदभग्गो विरोयणो वडुओ हरिणो मकडो य, ता आइससु किमियाणि कायचं ? । तीए वि परूढपुचपणयाए जंपियं-पाणनाह ! मए ताव कयं चिय जमिह कायचं, 'भवंतरे वि तुमं गई' त्ति १ 'प्रणयः' स्नेहः ।। २ सा सक' प्रती ॥ ३ गजातीरे इत्यर्थः ।। MACHARSAAMANAKAXAA* Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयगुणे सुलसकथानकम् ३३॥ देवभद्दसरिविरहओ कहारयणकोसो॥ सामन्नगुमाहिगारो। ॥२३३॥ पलयसमए व विलंसंतवियडविजुच्छडुम्भडाडोवा । अंजणपुंजच्छाया जाया गयणे घणुग्घाया ॥१ ॥ दिसिमुहकुहरेसु पसरितो [य] बंभंड[खंड]भूओ छ । गञ्जिरवो उच्छालियमहल्लजलरासिकल्लोलो ॥ २ ॥ दीसइ गयणयललुलतबहलकल्लोललोलणाऽऽउलियं । मच्छुच्छालियजलबिंदुसच्छह तारयाचक ॥ ३ ॥ चकं व कुलालनिसिहजट्ठिपेरिजमाणमइवेगा । गरुयावत्तावडियं बोहित्थं भमिउमारद्धं ॥ ४ ॥ *दिसिविदिसिदेसभागावलोयणे बाउलो विमूढो य । पम्मुकजीवियासो जंपइ निआमगो ततो . भो भो ! सरेह सरियवमिण्हि परिमुयह जीवियवासं । चाउद्दिसं पयट्टो घणो य पवणो य दुविसहो इय जाव जंपिऊणं नो विरमह सो तया लहुं ताव । दुंग्गयमणोरहालि व खंडसो विहडिया नावा ॥७॥ अह जलहिमणुसरंतेसु सारभंडेसु, इओ तओ उब्बुड-निम्बुडणं कुर्णतेसु जणेसु सबाहुतरणबद्धचित्तावट्ठमेसु, खंडाखंडिं विणडे जाणवते, केणइ अदिद्ववसेण हेमप्पहेण पुत्त-कम्मयरसहिएणेव पावियं भग्गकूवखंभखंडं ।तं च सुमितं व पडिव सन्वायरेण । लोलकल्लोलुप्पीलुप्पेलिजमाणो य सत्तमदिणावसाणे पत्तो पारावारपारतडं । मुकक्खंभक्खंडो य पट्टिओ य सपरियणो तीरतरुवणं पड्डुच्च वेगेणं । खीणवलत्तणेणं परिणयवयत्तणेण य खुत्तो पंकमज्झे हेमप्पभो । इयरे य सरीरबलेण १ विलसद्विकटविद्युच्छटोटाटोपाः ॥ २ घनोद्धाताः ॥ ३ मत्स्योच्छालितजलबिन्दुसमानम् ॥ ४ कुलालनिसष्ट यष्टिप्रेर्यमाणम् अतिवेगात् । गुरुकापत्तपितितम् ॥ ५ दिग्विदिग्देशभागावलोकने ब्याकुलः ॥ ६ स्मरत स्मतव्यमिदानी परिमुखत जीवितव्याशाम् ॥ ७दुर्गतमनोरथालिः इव । ८'डं ति च प्रती ।। ९ लुपेलि प्रती ॥ ॥२३३॥ iss+SAR%ARAKAKARSARKARI+KAKAR+KC+S+KARANAS जोवणसामत्थेण य तं विलंघिऊण गया पारभार्ग। ततो वाहरियं महया सद्देण हेमप्पहेण-भो भो बच्छ तिनयण ! हेच्छमागच्छ, उद्धरेसु म खुत्तमिमातो पंकदुग्गमातो ति । ततो भणियं तिनयणेण-अहं अप्पणा वि न सकेमि पयाओ पयं पि गंतुं ता सणियसणियं अप्पाणं संठविऊणं आगच्छसु ति । 'अहो! पुत्तपडिबंधो' ति परं निवेयमुवगतो हेमप्पहो। 'पुचो वि जत्थ एवंविहो तत्थ कम्मयरे का आस?' तिन किं पि संलनो सुलसो अणेण । तह वि सो असरिसं सामिभत्तिमुबहतो सेडिसुयं भणिउं पत्तो-भद्द ! वाहरिजंतो वि कीस न वचसि ? त्ति । सकोवभीमभालयलं च भणियमणेण-रे रे मुहरमुह ! जइ सुगम ता तुममेव कीस न वचसि ? । एयं च समीवत्तणेण निसार्मितो. ताण परोप्परुल्लावं परं निवेयं पवन्नो हेमप्पभो विभावेइ सुय-भाउ-भइणि-धूया-कलत्त-मुहि-सयणनेहजालेण । ही ! अपरमथिएणं बज्झह मीणो व कह लोगो ? ॥१॥ जो इहलोए वि हु विहुरनिवडियं तैरइ नेव उद्धरिउं । सो कह परलोयहिओ हविज' ही ही! महामोहो ॥ २॥ वह वि अविगणियमरणाइतिक्खदुक्खागमेहिं मूढेहिं । अम्हारिसेहिं खिप्पइ अप्पा एवंविहे वसणे ॥३॥ इय जाब सो विभावइ सुलसो अविगणिय अप्पणो दुक्खं । ताव नियसामिसंरक्खणट्ठया पंकमोगाढो ॥४॥ धीरो होजाहि तहा करेमि जद्द बाहि ठासि पंकाओ । इय जपिरेण तेण य उक्खित्तो सो ससत्तीए ॥५ ॥ खीणवलेण वि तकालवीरिउल्लासतो स तेण बहिं । सणियं सणियं नीओ सब्भावस्सऽस्थि किमसझं? ॥६॥ १ व्याइतम् ॥ २ शीघ्रम् ॥ ३ निमग्नम् ॥ ४ शक्नोति ।। ५ क्षिप्यते ।। ६ सद्भावस्यास्ति किमसाध्यम् ॥ KARKAKKAKERAKSARKARINA Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमदमरिविरहओ विनयगुणे सुलसकथानकम् ३३॥ कहारयणकोसो॥ सामनगुमाहिगारो। ACAKACK SASAR+S+KKARAGARIKS तओ तडवणपत्र्तस्स पक्खालिया चलणा, समप्पिया य कंदमूल-फलाइणो, संवादियं अंगं, विरइतो रत्तासोयपल्लवेहि सत्थरो, पसुत्तो तस्थ । तिणपणेण पुणवत्ता विन से पुट्ठा, न समीवे वि उवगतो, न कतो को वि उवयारबिसेसो । ततो चिंतियं हेमप्पहेण सेट्ठिणा-अहो ! विस-ऽमयाणं व पाव-पुन्नाणं व गरुयमंतरं पुत्त-कम्मगराणं जमेवं पचक्खमेव दीसह त्ति, होउ वा किं पि, न कल्लाणभायणमिमो बरागो मह सुओ। एत्थंतरे ईसासल्लनिभिजमाणहियएण सरोसं संलतं तिणयणेण-रे रे कम्मयराहम सुलस! ममावि विणओवयारो किं पि किं पि जुत्तो तुह काउं, मुद्ध ! किमहमन्त्रो कोइ ? | सुलसेण भणिय-अस्थि एवं, केवलं सरीरासामत्थमेवावरज्झइ । ततो चिंतियं सेट्ठिणा-अहो! दुरायारत्तणं पुत्ताहमस्स, जं इमिणा वि कीरमाणं विणयोवयारं न सोढुं पारइ त्ति । अह अत्थमितो दिणयरो, डिवक्खविगमवडिउच्छाह व उच्छलिया तिमिरनियरा, पंहपलयगमे विव दंसियनिभराणुरागा विहगकुलकोलाहलच्छलेण पेरुनच संज्झा, लद्धावयासा खलयण ब भमिङ उपट्ठिया दहसत्ता । तयणंतर च सेट्टिणा भणियं-अरे! बहपचवाया श्यणी, ता समुच्चतरतरुवरखंधसाहासु आरुहिऊण वोल्लाविजउ इम ति। 'तह त्ति पडिवञ्जिय आरूढा रुक्खं सजे वि । विछिन्नसाहावडे य ठविओ सुलसेण सेट्टिणो सत्थरो । तहिं च वारिजंतो वि आसीणो तिणयणो, कुविओ सुलसो, पारद्धो तं पद किं पि जंपिउं । 'असमतो' ति पडिसिद्धो सो सेट्ठिणा । तुहिको ठिओ १ तासप प्रतौ ॥ २ विसयाम' प्रतौ । विषाऽभूतयोरिव ॥ ३ प्रतिपक्षविगमवर्धितोत्साहा इव ॥ ४ पतिप्रलयगमे व ॥ ५ प्ररुदिता इव ॥ ६ 'बहुप्रत्यपाया' बहुविना ।। ७ व्यतिकाम्यताम् ॥ ८ विस्तीर्णशास्त्रापृष्ठे ॥ ९ 'असमयः' अनवसरः ॥ ॥२३४॥ ॥२३४॥ ASASARA धणवंतभंडसालाओ पारद्धि-लुद्धभवणभूमीओ य भासंति । जा य कोरब्ववंसविजयद्धयाणुरूववीरविजयमहानरिंदभुयपरिहरक्खिया सुमिणे वि न लक्खमुवगया पडिवक्खसकडक्खपेक्खियाणं, सयाणुकूलदेवयामाहप्पवसेण य अभूमी दुब्भिक्खदुक्खस्स । तीए य पुरीए वत्थचो पुबपुरिसपजायागयजाणवत्तववसायपरो परोवयाराइगुणसंगओ हेमप्पभो नाम वणिओ, सुलक्रवणाभिहाणा य गेहिणी, पुत्तो य ताण तिनयणो नाम । असेसगहियकअचिंतासु निचं अनलसो सुलसो य नाम कम्मयरो । सवाणि य [ताणि] नियनियकम्मसंपउत्ताणि दिणाई गर्मिति । अवरखासरे य हेमप्पभो भणिओ भजाए, जहा-अञ्जउत्त ! पइदिणजहिच्छाभोगोवभोगकजसंवि[भ]ञ्जमाणं न मुणसि हीयमाणं दविणं, न लक्खेसि य खीणप्पायं अणप्पमाणमवि धनकोट्ठागारं, न वा विभावेसि बड्डिपउत्तं पि तर्ण व विलुप्पमाणमिओ तओ दुट्ठलोएणं ति । इमं च सोचा चिंतियं हेमप्पहेण-अहो ! महिलाभावे वि केरिसो इमीए परिणइपेहणप्पहाणो बुद्धिपयरिसो ? तारुने वि परिणयवयपडिरूवा गेहचिंता, ता सुट्ट ठाणे चोयणा, न जुत्तमित्तो आलस्स-ति विभाविय गिहकजे भजं चिय निरूविऊण अणुरूव[पणिय]पडहच्छजाणवत्तमारुहिऊण पुत्तेण कम्मयरेण समेतो गतो चोडविसयं । विणिवट्टियं भंडं, अजिओ य पंउरदबसंभारो । पडिग्गहियपउरभंडो य पवहणाधिरूढो अर्णकलानिलपणोलिजमाणसियवडाडोववडियावेगवसओ अकालक्खेवेण पत्तो महाजलहिमज्झं । एत्थंतरे १ लक्षमुपगता प्रतिपक्षसकटाक्षप्रेक्षितानाम् ॥ २ पूर्वपुरुषपर्यायागतयानपात्रव्यवसायपरः ॥ ३ अनरुपमानमपि ॥ ४ समयोचिता प्रेरणेत्यर्थः ॥ ५ अनुरूपपणितप्रतिपूर्णयानपात्रमारुता ॥ ६ पवर" प्रती ॥ ७ अनुकूलानिलप्रनुद्यमानसितपटाटोपवर्षितावेगवशतः ॥ ८ "त्तो जहा जल' प्रतौ ॥ KAKASARAMETARACHARYANARRORE SA%4% A Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमसरिविरइओ विनयगुणे सुलसकथानकम् ३३। कहारयणकोसो॥ सामनगुपाहिगारो। तीए भणिय पिययम! एवंविहगुणालतो एसो । तो पारितोसियं किं पि समुचियं दिजउ इमस्स ॥४ ॥ तो नियंयवंछिओचियमुल्लवियं तीए लक्खिउं सेट्ठी । पडिभणइ पिए ! गेहाहिवं इमं काउमिच्छामि अह तीए निर्यपुत्तप्पईवरूवं पयं पिइपवुत्तं । थुत्थुकारियमेयं अमंगलं तुझ वयणं ति कह वा न लजसि तुम अणुचियमेवंविहं पयंपंतो? । भिचस्स कोऽहिगारो विजंते तिणयणे पुत्ते? ॥७॥ जं न वि सुम्मइ सत्थे न वि दीसइ कहिं वि लोयववहारे । तं पि हु समुल्लवंतो नेअसि भूयाभिभूओ व ॥८॥ इय तीए कोवमंजिट्ठदिहिपहपाडलीकओट्ठीए । वकं वंक अइककसं च सोउं भणइ सेट्ठी ॥९ ॥ आ पावे! पडिकूडेसि मज्झ वयणं पि मुणसि नेव सुयं । वेरिं व दुरायारं दुविणयं दुहवयणं च ॥१०॥ घरमत्थसारमन्त्रं पि अअियं धुवमिमं मए चेव । देमि य रोयइ जो तस्स को तुम एत्थ वावारो? ॥११॥ जं पि य तुमए नियजणगसंतियं किं पि आणियं अस्थि । तं घेर्नु ठादि बर्हि देसु य निययस्स पुत्तस्स ॥१२॥ तीए भणियं नो मयि जीवंतीए सुयातो इह अवरो । घरसामित्तं उब्बहइ निच्छियं एस परमत्थो ॥१३ ।। इमं च तबिच्छयं बुज्झिऊण वाहरिया हेमप्पहेण सयणा, सिट्ठो ताण पुरतो सबो पुत्तपुत्वदुविणयवुत्तो, जीवियदाइणो कम्मयरस्स सबस्सदाणाभिलासो य ति । नियनियपक्खकक्खीकारेण य केणइ किं पि जंपियं, न निच्छिनी विसं १ एवंविधगुणालयः ॥ २ निजकवाञ्छितोचितम् ॥ ३ निजपुत्रप्रतीपरूपं पदं प्रियप्रोक्तम् ॥ ४ धूयते ॥ ५ शायसे ॥ ६ कोपमानिष्ठदष्टिप्रभापाटलीकृतोष्टचाः । याक्यं बकम् ॥ ७ प्रतिकूलयसि इत्यर्थः ॥ ८ ददामि च रोचते यः तस्मै ॥ ९ निजनिजपक्षकक्षीकारेण ॥ ॥२३५॥ ॥२३५॥ ESSANGRAHANIHIROEAC%%*HARA वातो । ततो सिट्ठा पुरपहाणाण वत्ता । तेहिं वि उभयपक्खाणुवित्तिसमुल्लाववसतो न सकितो को चि अभिप्पाओ पइटिउं । ततो निवेइया जहडिया सेट्टिणा पुहईवइस्स वत्ता । तेणावि धम्माहिगारिणो वाहराविऊण भणिया, जहा-अपक्खवडियं नायसत्थाविरुद्धं धम्माबाहगं मज्झत्थयाए नायं दद्दूण विसंवार्य छिंदह ति । ते य 'तह' ति अणुमन्त्रिय मेइणीवइवयणा एगते होऊण सम्ममालोच्चिऊण य समागया रनो समीवे, विनविउं पवत्ता य-देव ! इह विसंवाए इमं निच्छियं-जह दुविणीओ अणत्यकारी अत्थविणासगो अणुवजगो य तह वि सुओ घरभागी चेव, ता देव! एसो वणितो सुयघरद्धं मोत्तूण नियगमद्धं कम्मयरस्स अन्नस्स वा देउ ति । 'तह' ति अब्भुवगयं राइणा । तदणुवित्तीए य पडिस्सुयं हेम्मप्पहेण, विरि घरसारं, दिन्नं नियगमद्धं सुलसस्स । 'अहो ! कैयओ' त्ति सलहितो सयललोएण, बहुमनिओ नरवइणा हेमप्पहो । नवरं धुत्तलोयसिक्खवियाए भजाए पारद्धो एसो, जहा-मह जीवणचिंताए निचं वट्टसु त्ति । न मुयइ सा पहस्स परुहृदुद्दपिसाइय व पहूिँ । भुजो गतो सेट्ठी राउलं, सिट्ठो तव्वुत्तंतो । राइणा जंपियं-भो महायस! लँब्भं चिय एत्तियमिमीए वरागीए । हेमप्पहेण भणियं-देव! एवमेयं जह अहं घरवासाभिलासी भवामि, केवलं पुवं चिय संकप्पियवणवासाभिलासो कम्मयरस्स पच्चुधयारकएणं चिय गेहमुवागतो, संपयं तु सिद्धसमीहियत्थो पत्थुयपओयणत्थं उज्जमिस्सं। ततो राइणा खित्ता दिट्ठी अंगिरस-वसिट्ठाइसु पोराणियतवस्सीसु । इंगियागारकुसलेह य तेहिं भणियं-महाराय ! पुराणेसु इमं गिजइ १ नायं स प्रती । न्यायशाखालिरुद्धम् ॥ २ न्यायम् ॥ ३ मेदिनीपतिवचनात् ॥ ४ वणिम् ।। ५ विरिकम् ॥ ६ कृतज्ञः ॥ ७ सभ्यमेव एतावत् ॥ SHRIRAL Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ St देवभद्दसूरिविरइओ विनयगुणे सुलसकथानकम् ३३। कहारयणकोसो ॥ सामनगुणाहिगारो। ॥२३६॥ मृतः प्रवसितो दीक्षा जिघृक्षुः पतितोऽपि वा । चिरोढामुत्सृजन् भर्ता न तत्पोपादि कार्यते ॥१॥ 'एवमेयं ति पडिवचं रमा । निवारिया य रखा गया नियसुयसमीवं । हेमप्पभो वि पवनो तावसदिक्खं । सुलसो वि उर्वलद्धगेहसारद्धो अणुरूवकयकलत्तसंगहो कंय-विक्कयकरणेण चवहरिउं पवत्तो, अचंतविणयगुणेण य परं पसिद्धिमुवगतो। अन्मदिवसे य सो कैय-पडिकयकञ्जण गामंतरं पट्टिओ, अद्भपहे य आवासितो जलासयसमीवे, उवखडियं भोयणं, उवडिओ भोयणकरणत्थं । एत्थंतरे तद्देसवणनिगुंजवासी गुणायरो नाम तवस्सी, उँग्गतवविसेसविसोसियचिरकम्मदुकम्मपंकुप्पीलो, पीलिजमाणो वि दुट्ठसत्तेहिं सत्तभावणातो मणागं पि अकंपियकाओ, काउस्सग्गाइदुकरकिरियारतो, कैयगच्छचातो, चाउम्मासियपारणए भिक्खानिमित्तं पत्तो तं पएसं । 'अहो ! एवंविहविजणे वि कहमे रिसमहातवस्सिणो अतिहिमावं पवजंति ? अहो ! अणब्भा अमयबुट्ठी, अखन्नवातो निहाणुग्गमो, अचीयपक्खेबो कप्परुक्खपरोहो' त्ति पमोयमुबहतेण पडिलाभिओ तेण संनिमित्तसिद्धनिरवजभोयणेणं । तहतविणयदाणप्पवित्तिपरितुट्ठाए देवयाए भणितो एसोवच्छ ! वरं वरसु ति । तेण जंपियं-देवि! तुह संपणयलोयणातो वि किमभहियं किं पि जं परिजह? । ततो देवयाए विस-भूय-साइणीपमुहदोससंघायघायणसमत्थमाहप्पमोप्पियं से मुद्दारयणं, अइंसणं च उवगया । बाई परितुट्ठी सुलसी १ उपलब्धगहमारार्थः ॥ २ मयविमायकरणेन व्यवहतम् ।। ३ क्रयप्रतिक्रयकार्यण ॥ ४ उपतपोवियोषविशोषितचिर कर्म-दुष्कर्मपासमूदः, पीब्धमानोऽपि दुष्टसस्पैः सस्वभावनातः ॥ ५ कृतगच्छत्यागः ॥ ६ अखन्यवादः ॥ ७ स्वनिमित्तसिद्धनिरवधभोजनेन ॥ ८ सप्रणयदर्शनादित्यर्थः ।। ९ विषभूतशाकिनीप्रमुखदोषसहातघातनसमर्थमाहात्म्यम् अर्पितं तस्मै ।। ॥२३६॥ ACAMAKARSWAKAKAASARASWASIRENASASARSWAS RANASIACANARACROSECREENASANCHAHARASHASANSAR सुलसो, कह कह वि समइकता विभावरी, जायं सुहालोयं वसुमईवई, पट्ठिया हेमपभाइणो एगं दिसं पडच । मग्गे य कंद-फल-मूलमाइ जं किंचि मणहरच्छायं । पावइ सुलसो सुस्साउ देह तं सेट्टिणो यओ ॥१॥ सेट्ठी वि गाढतविणयरंजितो वहइ विम्हयं हियए । कम्मयरो वि य होउं अहो ! कहं बट्टए विणए ? ॥२॥ नो वित्ती उवयारो वि नेव न गुणो विसेसितो कोइ । तह वि हु उवयरई ममं अहो ! महप्पा धुवं सुलसो ॥ ३ ॥ जइ कह वि दिवजोएण जामि गेहम्मि अक्खयसरीरो । ता सुलसमिम काऊण गिवयं होमि समणो हं ॥ ४ ॥ इय सो परिचितंतो वहरिं वर्तणुब्भवं अ[वि] गणितो। कालकमेण पत्तो गेहं अविणट्ट-लटुंगो ॥५॥ जायं बद्धावणयं समागतो मंदिरं सयणवग्गो । पुच्छियचिरखुतो जहागयं पडिनियत्तो य ॥ ६ ॥ अह समुचियसमए हेमप्पहेण विजणप्पदेसोवगएण भणिया गेहिणी-पिए! निसामेहि पुत्त-कम्मयराणमंतरं-पढमो बादं वेसीनरो व दाहकारी, बीओ पीऊसवरिसो व निव्वुइजणगो; पढमो दुविणयभायणं, बीतो य अणुवचरियसञ्चरियभूमिभूओ। अप्पा वि पहखणं अप्पणो वि काउंपियं न पारेह । अणवच्छिन्नपियकरो कम्मयरो वि हु इमो मज्झ ॥१॥ जइ एस विसमदेसढियस्स मह चिंतगो हि नो हुँतो। तो निहणमहमुर्वितो तकाले चिय न संदेहो ॥ २॥ सुयण ! पुणरेव तुद्द संगमस्स हेऊ इमो चिय वरागो । इहरा पंकनिमग्गो गतो व तस्थ वि विवजंतो ॥३॥ १ सुस्वादु ॥ २ प्रयतः ॥ ३ वृत्तिः उपकारः ॥ ४ मिमं प्रती ॥ ५ गृहपतिम् ॥ ६ 'तनद्भव' पुत्रम् ।। ७ अविनष्टश्रेष्ठाजः ॥ ८ 'वैश्वानर इव' अमिरिव ॥ २, द्वितीयः।। १० 'लो चि' प्रतौ ॥११ गज इव ।। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमहसूरिविरइओ कहारयण कोसो ॥ सामन्नगुमाहिगारो । ॥२३७॥ अने वि खंति- मद्दव अजब-संतोस विणय-करणजया । तत्र चाग दक्ख दक्खिन्नमाइणो निम्मला हि गुणा ॥ ९ ॥ अप्पाणयम्मि पणइत्तणेण तह कह वि निच ठवियद्या । जह दुक्किराण वि दर्द दोसाण न होइ अवगासो ॥ १० ॥ इमाणि य धम्मवयणाणिं सम्ममादाय, जिणं च देवबुद्धीए सुसाहुणो य गुरुत्त्रेण पडिवजिय, बंदियसाहुपाय पंकतो कयकिश्चमप्पाणं मन्त्रंतो गओ मुलसो जहाभिप्पेयगामं । चिंतिया [ई] रित्तसाहियकओ य पडिनियत्तो तेणेव पहेणं, पुट्ठा चिय कयमुष्याणं । सिद्धे य भोयणजाए गतो पुवदिट्ठमुणिवरिसमीवं । जहाविहि वंदिऊण निमंतिओ असणाईहिं । मुणिणा वि पवनमासखवणेण उत्रबूहिओ एसो । जहा अप्पट्टा कय-निट्ठियभोयणमाईहिं सुद्धसद्भागा । पडिलाभिता गिहिणो णिजणमर्जिति पुनचयं कयन्न चंदणज्ज व निजरं पाउणति तत्तो य । पुन्नाणुबंधिपुर्न्नप्फलेण वचंति सिद्धिं पि जमिह मयमत्ततरुणीमयंगणे [...] वग्गुर व सिरी । सोहग्गं पि हु पडिभग्गउग्गकंदप्पगुरुदप्पं लायन्नमवि य विम्ययणं संपया वि जियधणया । आणिस्सरियमपुवं तं पि हु दाणष्फलमसे सं इय यिनीसेसत्थसत्थ वियरण पसिद्धमाहप्पे । कप्पतरुनिविसेसे दाणे धन्नो कुणइ अत्तं अह 'तह' त्ति भत्तिसारपवन्नहिओवएसो विहारेण तं निमंतिऊण सुलसो पयट्टो गंतुं । कमेण य १ आत्मनि प्रणवित्वेन ॥ २ °णि वि स प्रतौ ॥ ३ प्रगुणयन्ति ॥ ४ नफले प्रती ॥ ५ विस्मापित बुधजनम् ॥ ७ वाञ्छित निःशेषार्थसार्थ वितरणप्रसिद्ध माहात्म्ये ॥ ८ जुत्तं प्रतौ यत्नम् ॥ ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ किंच॥ ३॥ || 2 || ॥ ५ ॥ नियनयरिपरिसरं ६णफल प्रतौ ॥ पत्तो पेच्छइ विसमत्तूर व बहिरियदियंतरं, अणेगपुरपहाणजणाणुगम्ममाणं, पुरओ पयट्टस दुक्खपुहइपालं, पिटुओ भूरिसोगभरनिब्भररुयंत-विलवंत अंतेउरीजणं, जंपाणाधिरोवियम [ड] गमेगमागच्छमाणं ति । अह पुच्छिओ णेण एगो पुरिसो-भद ! किमेयं । ति । तेण जंपियं-- एसो हि रायपढमपुत्तो जुवरायपए निवेसितुंकामेण पिउणा अअ रयणीए बाहरिओ अप्पणो समीक्षं, भणिओ य-पुत ! जुवरायपयविं पवअसु, कुणसु रजर्चितं श्रेवथैवेणाहं पि तुम्हारिसेसु संकामियपुहद्दपन्भारो ओहरियभरो व भारवाही विस्सामं भयामिति । 'जं देवो आणवेह' त्ति पडिवन्नवयणो विसज्जितो गओ सङ्काणं । केणइ पमायदुबिलसिएण पत्तो थिय विसविगारनिरुद्ध कायवावारो पढमं चिय किंचि मंदमंद मुल्लविऊण, जामिणीपच्छिमजामे उबयरितो वि मंत-तंतवाइजणेण निचेट्टीहूओ, उज्झिओ य पभायसमए 'अचिगिच्छो' ति अयं हुयवहे पक्खिवि मसाणमुवणीओ चि । सुलसेण चिंतियं—अहो ! दूरमसुंदरमेयं जमेस महाणुभावो रायसुओ एवं विवजह, ता गंतूण देवयादिन्नमुदारयणमाहप्पेण पगुणीकरेमि एयं, समासासेमि य एत्तियमेतं रायपमुहं पहाणजणं ति । गतो एसो रन्नो समीवं, जंपिउमारद्धो य, जहा- - देव ! दंसेह मे रायसुयं जेणाहं पि किं पि पउंजेमि नियविन्नाणं । रन्ना जंपियं— अलमियाणि विन्नाणेणं । मंतियणेण भणियं - देव ! किमजुत्तं ? दंसिजउ एयस्स मा कइयाइ एत्तो वि कजनिष्पत्ती होजा, "महतोऽपि यन्न साध्यं, कश्चिलघुरेव तत् प्रसाधयति ।" इति प्रकट एव प्रवादः । राइणा वागरिथं एवं करेह । ततो दंसिओ एसो सुलसस्स । तेणावि १ सितोका' प्रतौ ॥ २ उपचर्यमाणोऽपि ॥ विनयगुणे सुलसकथा नकम् ३३ । मुनिदानस्य फलम् ॥२३७॥ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरइओ कहारयणकोसो ॥ सामन्नगुमाहिगारो । ॥२३८॥ मुद्दारयणजलेण अहिसित्तो । सुत्तेसु य तं जलं पक्खित्तं । खणंतरे अणष्पमाहप्पयाए देवयामुद्दारयणस्स, सावसेसयाए जीवियवस्स, सुत्तपबुद्धी व उडिओ रायपुत्तो । परितुट्टो राया समं पउर-पहाणजणेण, बेहतमंडणं पि अइहवालंकारत्तणमुवगयं वहूजणस्स उच्छलितो साडुवातो सुलसस्स महाविभूईए पविडो राया नयरिं, जायं महावद्भावणयं । पूइतो रना महया आयरेण पवरालंकारसारचीणंसुयाइदाणेण सुलसो, पुच्छितो य—वच्छ ! को तुमं ? कत्थ वा वससि १ ति । सुलसेण भणियं -देव ! सो अहं जो तुम्ह पायपुरओ कम्मयरो वि पुत्तो व हेमप्यभसेड्डिणा तावसदिक्खं पवअंतेण गेहसारद्धस्स सामिचेण ठवितो, इहेव वसामि त्ति । तो नरवइणा सरिऊणं विणयवृत्तंतमइयमेयस्स । संजायपक्खवाएण जंपियं भद्द ! तेणेव एवंविपरमाइसयरयणरयणायरो तुमं भवसि । नहि अविणीया सुमिणे वि भायणं कुसलसिद्धीण तावच्छ ! निविसको सँक्काओ वि हु भयं अकुणमाणो । वट्टसु समीहियत्थेसु तुज्झ मह संतियं सवं इय नरवइणा पेमाणुबंधबंधुरगिराहिं जणपुरतो । उबवूहिओ समाणो सो नियगेहूं उबगतो ति तहिं च सवन्नुपायप्यापरो परमसावगवित्तीए पइदिणं जइजणं सुखसंतो कालमइलंघेइ । अनया तेण महाणुभावेण १ * * एतचिमभ्यवर्त्ती पाठोऽसम्बद्ध आभाति । प्रतौ वर्त्तत इत्यत्र उपक्षिप्तः ॥ २ वैधव्यमण्डनमपि अविधवालङ्कारत्वमुपगतम् ॥ ३ साधुवादः ॥ ४ खात ॥ ५ण यचिणवु प्रतौ ॥ ६ एवंविधपरमातिशयरत्नरत्नाकरः ॥ ७ शकादपि ॥ 11 8 11 ॥ १ ॥ ॥२॥ ॥ ३॥ काऊण भोयणं गतो साहुसमीवं, पडिओ तच्चरणेसु दिन्नासीसो आसीणो भूमिगलम्मि । 'भवपयह' ति पुच्छिओ साहुणा - भद्द ! कत्तो आगमणं १ ति । तेण जंपियं—भयवं ! बिजयपुरीहिंतो केयविकयत्थं गामं पत्थिओ म्हि, अजं च 'तित्थभूयं तुम्ह पायपउमदंसणं जायें' ति पत्तजीवियफलो संबुत्तो, 'दुलहं जो तुम्ह दंसणं' ति पत्थुयत्थं पि उज्झिय तुम्ह वयणं सोउं समीवमुवागतो य । 'अॅत्थितगुणसंगतो' त्ति साहुणा वि पारद्धो धम्मो उवहसिउं, जहा आरियदेसो पुरिसत्तणं च सुंदरकुलं सुजाई य | आरोग्गमणहदेहत्तणं च चिरजीवियवं च गुणगुरु गुरुसंजोगो सद्धा सद्धम्म कम्मविसया य। विरई य पाववावारगोयरा मोहमहणं च अइभीमभूरिभवभमणभायणाणं न नूण मणुयाणं । गुरुकम्माणं संभवइ एरिसी धम्मसामग्गी ता तुज्झ महायस ! सयलकुसल कहाणभायणत्तेण । इय सामग्गीजोगे काउं धम्मुजमो जुत्तो धम्मो य होइ सम्मं पावद्वाणाण निचचागेण । जीववहा ऽलिय- पररित्थ-इत्थिसंगाण चैव जैतो पंच वि इमाणि दुग्गहपयाणपत्थाणचि जयत्राणि । सुगहगमपउणपयवी निरोह निवित्ररपरिहाणि सुहसाहिनिवहयवहसमाणि सुदुरंतदुरियदाईणि । वज्जेज वजघातोवमाणि भवभीरुओ दूरं एयाण वजम्मिं विवजितो चिय भेवुब्भवो भुज । निब्बुसिरी वि करकमलकुहरमलिणिव उवणीया १ भव्यप्रकृतिः ।। २ कयविक्रयार्थम् ॥ ३ भूयः ॥ ४ अर्थिश्वगुणसङ्गतः । ५ पापव्यापारगोचरा ॥ ६ णभोयणेणं प्रतौ ॥ ७ यतः । प्रयाणप्रस्थानविजय तूराणि सुगतिगमप्रगुणपदवी निरोधनिर्विवर परिपाणि ॥ ९ भवोद्भवः भूयः । निर्वृतिश्रीरपि करकमलकुद्दरम् अलिनी इव ॥ ८ दुर्गति 11 2 11 ॥ २ ॥ ॥३॥ ॥ ४ ॥ ॥ ५ ॥ ॥ ६ ॥ 11 99 || ॥ ८ ॥ *% *%* र विनयगुणे सुलसकथानकम् ३३ । ॥ २३८॥ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवगदसरिविदओ विनयगुणे सुलसकथानकम् ३३॥ कहारयणकोसो ॥ सामगुपाहिगारो। जिनपतिरपि साक्षात् य च तीर्थ नमस्यन् , भजति जगदधीशाभ्यर्च्यपादाम्बुजोऽपि । स शिवसुखसमृद्धौ बद्धपद्धेरवश्य, कथमिव विनयो बन्यस्य न स्यात् विधेया ? ॥२॥ इतः पूज्योपास्तिस्तदनु विशदज्ञानममुतो, निवृत्तिः पापेभ्यस्तदनु च तपस्या मलहरी । क्रियाध्वंसोऽमुष्यास्तदनु भवभाच्छिवपदं, पदं कल्याणानां तदिह विनयः प्राच्यमुदितः इत्युभयभवभविष्यद्विभूतिसम्भारभाजनजनस्य । विनयविधित्सा सम्पयते परं न पुनरन्यस्य ॥४॥ ॥ इति श्रीकथारत्नकोशे विनयद्वारव्यावर्णनायां सुलसकथानकं समाप्तम् ॥ ३३ ॥ छ ।। ।। तत्समाप्तौ च धर्माधिकारिसामान्यगुणकथनाऽपि त्रयस्त्रिंशद्वारप्रमाणा समाप्तेति ॥ छ । ॥२३९॥ १ "नु च तपश्या म प्रती ॥ २ 'चिसात् सम्प' प्रती ॥ ३ 'पर्सन' प्रती ॥ ॥२३९॥ ***+KARAMEREKAR+8+%ARK*6*5*%%%***%%%*&+S ॥ जयत्यनेकान्तकण्ठीरवः ।। कहारयणकोसो। - - - बिइओ धम्माहिगारिविसेसगुणवण्णणाहिगारो। तत्थ समणोवासगस्स दुवालस वयाणि । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंच अणुव्वयाणि । देवभद्दयरिविरइओ कहारयणकोसो॥ प्रथमाणु व्रते यज्ञदेवकथानकम् ३४॥ विसेस गुणाहिगारो। ॥२४०॥ पुर्व चिय उदिहा अणुवयाई इहं विसेसगुणा । पाणवहविरइ पढमो ताणमतो तं पवक्खामि ॥ १ ॥ पाणा ऊसासाई ते जेसिं होति पाणिणो ते य । तेसिं चहो विणासो तबिरई पुण परिचागो ॥ २ ॥ सवे सुहाभिलासी सो चिरजीवियस्थिणो जीवा । अप्पोधम्मेण अओ रक्खा जुत्ता सया ताण ॥ ३ ॥ पंचग्गितावणाई कीरंतु सुदुक्करा तवबिसेसा । जइ नत्थि जीवरक्खा ता सयला ते गया विहला ॥ ४ ॥ गिजइ तिजैए वि इमं जीवियदाणाउ नावरं दाणं । ता तम्मि सइ पयत्तो जुत्तो चिरजीवियत्थीणं ॥ ५॥ रूवं निजियमयणं धणं पि निद्धणियवेसमणमाणं । सोहग्ग पि अभग्गं आणिस्सरियं कयच्छरियं भोगा य निरुत्वेगा अविहियसोगो य पणइजणजोगो । पाणिवहनिवित्तीए एमाइफलाइं साहिति अकलंकपाणिवहविरइपालणाओ इहं परभवे य । सुहिणो भवंति जीवा सुनिच्छियं जन्नदेवो व ॥८ ॥ तथाहि-अस्थि इत्थेव जंबुद्दीवे [दीवे] भारहे खेत्ते कलिंगविसयप्पहाणा पउरगामा-ऽऽगर-निगमा-ऽऽसम-निवे* समणहरा सुवेला नाम नयरी । १ तेषाम् अतः ।। २ आत्मधर्मेण ॥ ३ त्रिजगति ॥ ४ सदा ॥ प्राणवधविरते: स्वरूपम् ROYALIBAKAMARC+OLARSHASEXHEREKARANAHARANAGAR LINKERSIRRORSARASWARORAEBACCARENAKAKARI नयरीए बाहिं गएण एगत्थ तरुतले गुणदत्तो नाम साहू गरुयगेलनपडिओ दिट्ठो। ततो जायपरमपक्खवाएण अचंत| विणयवित्तीए मेसहाइसंपाडणेण य उवयरिउमारद्धो । अह सो तवस्सी वेयणीयकम्मक्खतोवसमभावाओ मेसहाइसामत्थेण य जातो पगुणसरीरो । अनम्मि य वासरे विणयवित्तिरंजियमणेण तेण भणितो एगते सुलसो-भो महाणुभाव ! "नक्खत्तं सुमिण जोगं निमित्तं मंत-भेसहं । गिहिणो तं न आइक्खे भूयाहिगरणं पर्य ति जइ वि गिहत्थं पडुच्च सवं निसिद्धं तहावि 'परमोवयारि' ति किं पि भणिजइ-तुमं अञ्जदिणातो छटे मासे सूरोदयवेलाए खूलोवकामियाऊ पंचचं वैचिहसि ता परलोयकिच्चेसु उजतो हविजासि त्ति । 'तह' ति आयनिय सायरं सुलसो तओ दिणातो वि सविसेसकयधम्माणुट्ठाणो उज्झिऊण गिहवासं संपत्तो समणदिक्खं । कयमासियसलेहणो य कालं काऊण माहिंदे कप्पे देवत्तणेण उववन्नो ति । इय कम्मयरो वि अजाइओ वि विणयातो तणयअब्भहिओ। जातो एसो गुणपयरिसं च वैड्डितमणु पत्तो ॥१॥ चारित्तं नाणं दंसणं च विणयं विणा विसीयंति । इय सव्वगुणसहाओ एको चिय जाइ विणयगुणो ।। २ ॥ अपि च निरुपधिरपराधध्वान्तविध्वंसभानुः, सकलकुशलसिद्धौ सिद्धविद्याप्रयोगः । परहृदयकुरङ्गाकर्षणे गौरिगानं, विनयविधिरपूर्व सर्वसम्पन्निधानम् ॥१॥ १ वेदनीयकर्मक्षयोपशमभावात् मेषजादिसामर्थेन ॥ २ गाथेयं दशवकालिके अ०८ गा. ५०॥ ३ प्रजिष्यसि ॥ ४ वर्धमानमनुप्राप्तः ॥ विनयस्य माहात्म्यम् Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का प्रथमाणु व्रते यज्ञदेवकथानकम् ३४। NCS देवमद्दसूरि एवं च अचंतसिणेहमायणं जातो जन्नदेवो रनो, इयरो पुण [वज्झ]वित्तीए चेव । इओ य तीए चेव पुरीए महीधरनिरइओ सेणावहणो धूया मयणसुंदरी नाम । सा य पत्तजोवणा वि 'अविञ्जमाणाणुरूववर' त्ति कन्नारूवेण बढुंती ओलोयणगया | दिट्ठा रायभणमितेण सिवदेवेण, साणुरागमवलोइऊण पुच्छितो नियपुरिसो-अरे ! का एसा ? । तेण जंपियं-सेणाकहारयण बइणो धूया । सिवदेवेण भणियं-परिणीया ? कन्नगा वा ? । तेण बुतं-कनगा, परं बरावलोयणा संपइ काउमायरेण कोसो ॥ पारद्धा, संपयं चेव केणइ परिणिजिहि ति । विसेसगु ततो सिवदेवेण तदुपरिगयाणुरायावहरियहियएण परिचत्तं भोयणं, मुको सिंगारो, एगते य सयणं काऊण ठिओ। माहिगारो। भोयणसमए य अमचेण भणियं-सिवदेवो किं न आगच्छइ ? त्ति । केणइ परियणमझातो निवेइयं, जहा-न नजइ १२४ाला किं पि निमित्रं, एगते पसुत्तो अच्छइ ति । ततो गतो अमच्चो तस्स समीवे, महुरगिराए भणिउं पवत्तो य-बच्छ! किमेवं सोयाउरो व अवहरियहियओ व दीससि ? साहेसु कारणं । लजाए न कि पि साहेइ एसो । ततो तम्मित्तमुहेण पुच्छितो । सिट्ठो य अणेण वुत्तो । जाणितो अमच्चेण, वुत्तो य एसो-वच्छ ! जइ एत्तियमित्तो एस संतायो ता वीसत्थो होसु, अकालपरिहीणं संपाडेमि एयं, कुणसु ताव भोयण, चयसु कायरत्तं ति । पडिवनं सिवदेवेण, कया पाणवित्ती। __ अमच्चेण वि भोयणावसाणे पेसिया सेणावइणो समीवे धूयाजायणटुं पहाणपुरिसा । वियाणियागमणकारणेण य भणिया ते १ वर्णमितेण प्रती ।। २ सदुपरिगतानुरागापाहताहृदयेन ॥ ३ शोकातुर इव ॥ ४ दुहितयाचनार्थम् ॥ ५ °सा । ठियानियाग प्रती ॥ ६ तेण से प्रतौ ॥ ॥२४॥ +KONKAARAARAKANCHAHARASHARE सेणावणा-इयं हि दुहिया मए पुवमेव पडिवमा संधिवालसुयस्स नंदिघोसनामस्स, अओ जइ सो उज्झिही ता । मंतिसुयस्स चेव दायब ति । 'न नजह किं पि होहि' ति आउलीहूओ सिवदेवो अणुसासितो पिउणा, जहा-वच्छ! अत्थ-सामत्थाईहिं तहा उजमिस्सं जहा तुह एसा भज्जा संपन्जइ ति । संधिवालसुएण वि सुतो मंतिमग्गिजमाणमयणसुंदरीवइयरो । तयणतरं च पुवमुदासीणो वि हु तीए कए बाढमुजओ जाओ । अन्नन्नगाहगे अब होइ पैणयं पिउ महग्धं उवरुवरि पुरिससंपेसणेण सेणावई वि इय वुत्तो । जाणिजसु नियधूयं परिणीय पिव भए नवरं ॥ २ ॥ लोयववहारघडणट्ठयाए परिणयणजोग्गलग्गम्मि । तह पगुणो होसु तुमं जह वीवाहो लहुँ होइ ॥ ३॥ इमं च जणपरंपराए सुयं सिवदेवेण । तओ पैसरंतामरिसपयरिसायविरच्छिविच्छोहेण नियवयस्सपुरतो पयंपियमणेणअहो ! पेच्छह दुरायारस्स संधिवालमुयस्स नंदिघोसस्स दुदृत्तण, जं पुत्वं तमवगनिय मई अत्थित्तोवगए तं चिय सवायरं संपयं चेव उद्योदुमुवडिओ त्ति । वयस्सेहिं भणियं-कुणउ किं पि सो, को पुण तुह एत्थ अमरिसो? अञ्ज वि अणि ट्ठिया भयवओ परमिट्ठिणो सिट्ठी, अवरा तग्गुणाइरित्ता धूया कस्सइ लम्भिही, मुंचसु सहा तबिसयमणुसयं । अह अंतोविप्फुरंतकोवावेगेण भणियं सिवदेवेण १ मन्त्रिमार्यमाणमदनसुन्दरीव्यतिकरः ॥२ अन्यान्यप्राहके ॥ ३ पण्यमित्यर्थः ॥४ प्रसरदमर्षप्रकपर्वातामाक्षिविक्षेपेण ।। ५ मयि अर्थित्वोपगते ॥ ६ अनिष्ठिता भगवतः परमेष्टिनः सृष्टिः ।। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभदसूरिविरइओ कहारयण कोसो ॥ दिनबाहिगारो ॥२४२॥ *%%%** ॥ १ ॥ जुत्तिजुयं पि हु पेलवमुत्रियम निबंडंतकअस्स । हीरई पैवायवारण केवलं लहु पलालं व ता किमिह बहुबिहाहिं विहलाहिं वयणविरयणाहिं अहो ! जइ सो तं परिणेही जमातिही ता धुवं होही ॥ २ ॥ किमवमिमं ? केसरिकिसोरकवलीकयं पि सारंगं । अमिलसिउमुञ्जओ जंबुओं कह पाउणइ कुसलं ? किं वा न कुणइ पीऊसममरपेयं उवडिओ पाउं । [......... ........... 1] कमवत्थमर्णुष्पत्ती गेहकल्लोलो अमयलोलो १ एमाइगरुप संरंभनिन्भरुल्लाविरं अमवसुयं । दडूण वयंसा सामवयणमिई भणिउमादत्ता भो भो ! न जुअह इमं वोत्तुं अचंतमणुचियं वकं । सबिसमहिं पि गसंतो महुरं चिय लबइ वणमोरो सो च्चिय साहेउमलं केंअं सजो सुदुक्करं पि नरो । जस्स वयणं न नयणं दंसह थेवं पि हु बियारं जं हियए तं तत्थेव बज्झवित्तीए महुरमुलवसु । दंसइ किंपागफलं पि बीहिमइमणहरच्छाय एवमणुसासितो वि हु न जाव विरमइ स कलुसभावाओ । ताऽमन्च जन्नदेवाण साहिओ तस्स वृत्तंतो तं च आयन्त्रिऊण अमचो अच्चंतमादभो एगंते जन्नदेवेण समं आलोचिउं पवत्तो— किमियाणि ...... ***** ॥३॥ ॥ ४ ॥ ॥ ५ ॥ ॥ ६ ॥ ॥ ७ ॥ ॥ ८ ॥ ॥९॥ ॥ १० ॥ जुत्तं ? अयं हि १ अनिष्पद्यमान कार्यस्य ॥ २ प्रवातवातेन ॥ ३ अत्रान्तरे लेखकप्रमादवशात् पाठटित आभाति ॥ ४णुपातो प्रतौ ॥ ५'महकहोल' राहुः 'अमृतलोलः' अमृतधः ॥ ६ 'मिउ भ' प्रतौ ॥ ७ सविषम् 'अ' नागं 'प्रसन्' गिलमानः मधुरमेव उपति वनमयूरः । ८ सो जिय प्रतौ ॥ ९ कज्जो संज सु प्रतौ ॥ १० बहिः अतिमनोहरच्छायाम् ॥ एगाण सरीरसमुट्ठितो व अन्नाण बज्झधरितो व । तुल्लो वि गुणगणो कह जाणिजह दंसणेणावि १ गोडिट्टिएहिं तं कहमेवं देव ! १ जंपियं रन्ना । पञ्चक्खमिमं पेच्छह अमचपुत्ताण दोन्हं पि साभाविय व गुणसंपया दढं भाइ जन्नदेवस्स । दुग्गयसिंगारसिरि व विसरिसी पुण कणिट्ठस्स एगंजणगाइसामग्गिसंभवे वि हु विलक्खणायारा । अहवा हुंति चिय केह कह वि बयरीए कंट व तुंगाभोगं सालं सीलं व अखंडियं घरंतीए । जीए पैराण पवेसो निरुंभिओ कुलबहुए व || 2 11 तीए पुरीए नीसेसवसुंधराहिव किरीडको डिटिविडिकिय कमकमलो कमलावलि व विजियालिरायवग्गो सुमित्तो नाम राया । सवंते उपवरा सुग्गीवस्स व तारा नाम से भज्जा । परमपसायट्ठाणं बंधुदेवो य से अमन्चो । भजा य से महिम व पचक्खा महिमा नाम । पुत्तो य जश्नदेवाभिहाणो ताणं विणयाइगुणेहिं अणुगतो । तमणुजाओ य सिवदेवो नाम, परं निडुरो पयईए । सबै वि कालमकमाविंति । अहिगयसमुचियकलाको सल्लो सिवदेवो । पत्ता जोडणं, परिणाविया गयकुलधूयाउ, विभिन्नाहिगीरे निउत्ता य रायाणं ओलग्गंति । जीण विभाण-विणय-नय-समयाणुरूववत्तव- परिभुत्त-बोहाइको सल्ले दोन्ह वि तुले विगाढतरमावजियं भूवइणो हिययं जन्नदेवेण । जंपियं च नियगोट्ठिनिविद्वेग रन्ना - भो भो ! पेच्छह ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ ॥३॥ 11 8 11 १ : आभोगः- विस्तारो यस्य एतादृशं शालम् तुङ्गः अभोग:- भोगलालसाऽभावो यत्र एतादृक् शीलम् ॥ २ 'परेषा' शत्रूणां परपुरुषाणां च ॥ ३ निःशेषव न्धराधिपकिरीटकोटिमण्डितमकमलः ॥ ४ कमलावलिपक्षे विजितः अलिराजवर्ग:- अमरराजसमूहः यया, राजा तु विजितः अरिराजानां शत्रुनृपाणां वर्गः येन सः ॥ ५ सुनिमित्तो प्रतौ ॥ ६ "गारि नि" प्रतौ ॥ ७ ज्ञानविज्ञान ॥ ८ तुले चि प्रतौ ॥ ९ दुर्गतशृङ्गारश्रीरिव ।। १० एकजनका दिसामग्री सम्भवे ॥ ४१ 市古市古本 प्रथमाणु व्रते यज्ञदेवकथानकम् ३४ । ॥२४२॥ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमहमूरिविरइओ कहारयणकोसो।। प्रथमाणु बते यज्ञदेवकथानकम् ३४ । क्सेिसगु बाहिगारो तिनो भवोयही तेण दिन्नमुदयं समग्गकुगईण । पत्तं चिय धम्मफलं वहविणिवित्ती कया जेण ॥ ७॥ केवलमिह पडिवने कसायओ चयइ पंच अइयारे । बंध वह छविछेयं अइभारं भोजविच्छेयं ॥ ८ ॥ बंधो निगडाईहिं वहो य लगुडाइणा छवी अंग । कमाइ तस्स छेदो अइभारो गुरुभरारोवो भोजाणं वोच्छेओ भत्ताईणं तु दाणपडिसेहो । गो-मणुयाइम्मि कया एते दूसंति वहबिरई ॥ १० ॥ नणु पाणाइवाओ चिय पडिवनवएण पचक्खाओ, न बंधाइणो, ता कहं तकरणे दोसो ? विरईए अखंडत्तणओ ति । सच्चं । पाणाइबायपच्चक्खाणे ते वि पच्चक्खाय व दट्ठव्वा, तेब्भावे तेसि पि भावाओ न य बंधाइकरणे चि वयभंगो किंतु अइयारो चेव । कहं ? जओ दुविहं वयं-अंतरवित्तीए धज्झवित्तीए य । तत्थ मारेमि ति वियप्पभावेण जया कोवाइभावेण परस्स मच्चुमगणितो बंधाईसु पयट्टइ न य जीवधातो होह तया दयाविवञ्जियत्तणेण वयनिरवेक्खयाए अंतरवित्तीए बयभंगो, जीववहाभावाओ य बज्झवित्तीए बयपालणं । एवं च देसस्स भंगातो देसस्स य पालणातो अइयारसदो पयट्टा । एवं सेसवएसु वि अइयार-भंगभावणा अवगंतवा । कयं पसंगेण ।। छ ।। बंधे मिहिरो वरुणो वहम्मि लीलावई छविच्छेए । अइमारे दिढतो मह धरो भुजबुच्छेए जन्नदेवेण भणियं-भयवं ! के पुण एते वहविरइअइयारकारिणो ? । सरिणा भणिय-निसामेहि । वंसविसए कुडिनाभिहाणगामे मिहिरो नाम सावगो जीववहनिवित्तिं घेतूण गुरुपुरतो, गिहकजाई काययकम्मयर१ "याईसि क° प्रती ॥ २ 'तडावे' प्राणातिपातभावे 'तेषामपि बन्धादीनामपि भावात् ॥ २ 'वचाधा प्रती ॥ ॥२४३॥ अतिचारभनयोः स्वरूपम् बन्धातिचारे मिहिरकथा ॥२४३॥ SARKAAWARAXAXARA वावारणेण चिंतेइ । अन्नया तेण एगो कम्मयरो अच्चंतमालस्साभिभूओ असचो सढो अविणीओ निदालुओ य निरूवितो य रयणीए गेहरक्खणनिमित्तं । सो य खणमेकं जग्गिऊण निस्संचारासु जायासु रच्छासु इओ तओ पलोइऊण पसुत्तो । जाए मज्झरते 'अविजमाणपाहरियं' ति लक्खिऊण भवियब्बयानिओगेण पविट्ठा चोरा । पाडियं खतं । कम्मवसेण पडिबुद्धो मिहिरो 'किमेसो सिसिरमारुयफरिसो ? ति जाव सणियसणियं पलोयह भवणभित्तीओ ताव पेच्छह भित्तिच्छिई निहुयपयचारं चोरनियरं च मंदिरैलूडणपयर्से ति । तओ मरणभयविहुरो मिहिरो भवणोवरि आरुहिऊण हलबोलं काउमारद्धो । पलाणा तकरा, मिलिओ लोगो, तह वि न विरमइ निद्दा पाहरियस्स । लोगेण भणियं-को एस निब्भरं सुयइ । मिहिरेण जंपियं-कम्मयरो पाहरिओ ति । 'धनो सि तुम जस्सेरिसो जामरक्खगो' ति हसिओ य लोगेण । कुविएण य बद्धो सो मिहिरेण मोरबंधेणं । बयणुग्गीरियरुहिरो य थेवेण अमतो मोक्खं पाविओ कह वि लोगेण । एस बंधविसए अइयारो । बंधे ति गयं १ ॥ छ । वहे य कुणालाविसए संवरगामे वरुणो नाम बंभणो दिवायरसाहुसमीवे पडिबुद्धो, पवजं पडिवजंतो कोवणो' ति पडिसिद्धो समाणो पंचाणुवइयं सावयधम्म परिपालितो चिट्ठए । सो य एगया पियरको निमंतितो धाइलवणिएण । जाए य भोयणसमए अन्नेहिं बंभणेहिं समं गओ भोयणत्थं तग्गिहे, आसीणो समुचियट्ठाणे । 'विधम्मो' त्ति न दिति से १ "यापुर' प्रती ॥ २ "माणं पा प्रती ॥३मन्दिरलष्टनप्रवृत्तम् ॥ ४ हलबोलो प्रती । कोलाहल मिव्यर्थः ॥ ५ "क्खो पा प्रती ॥ ६ समणो प्रतौ ।। ७ पितृकार्य ॥ वधाविचारे वरुणकथा Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्द रिविरइओ कहारयण कोसो ॥ विसेस गु माहिगारो । ॥२४४ ॥ 345 456 4 बंभणा नियतीए उवविसिउं । 'केण दोसेणाहं पंतिबज्झो ?" ति जंपियं वरुणेण । तेहिं वृत्तं - सावगो त्ति । वरुणेण भणियं - तुब्भं सयासाओ' गुणिणो हि सावगा । "" जे जीवे न हणंति नेव अलियं भासंति अन्नेसि नो, देवं नेव य इत्थियं किंतु वरं वंछंति चित्तेण वि । घोरारंभ - परिग्गहाउ बिरई निश्वं पवना य जे, ते हीलापयविं वयंति र्जेइ भो ! के धम्मबंतो तया ? ॥ १ ॥ किश्च रे दुष्टा: ! " वायव्यायां दिशि गामालभेत" तथा " महोक्षो वा महाजो वा, श्रोत्रियाय विशस्यते । इत्यादिवेदविकल्पितवाक्यैर्गामपि घातयन्तो न श्वपचेभ्योऽतिरिच्यन्ते भवन्तः, तद् यदि मातङ्गभूतेभ्योऽहं बहिर्भूतः किमकल्याणं जातम् १ इति । एवं च फैरुसं पर्यपिरस्स ते विलग्गा किंपि पलविउँ । अह कुविओ वरुणो, उडिओ य लउडमादाय, निरवेक्खचित्तेण य पारद्वो एगो मुँहरो विप्पो पहणिउं । कंठावसेसजीविओ य मोयाविओ लोएणं । एवंविहे य वहे अश्यारो ति । [ बहे त्ति गयं] २ ॥ छ ॥ छविच्छेए य वाणारसीए सागरो नाम कुलपुत्तओ । तस्स दुवे भञ्जाओ–कमला लीलावई य । पदमा निद्धम्मा, बीया पुण सावयधम्मपन्ना पाणिवहविरया वल्लभा य बाढं भत्तुणो । इयरा य ईसाभरवित्थरंतकलुसासया छिड्डाई से पलोइउं पवत्ता । लीलावई वि पवदिणे सविसेसकयतवोकम्मा पारणयदिणे य साहूणं दाऊणं भुंजइ । वहह य पतोसमियरा । अन्नया य १ ओ मुणिणो हिंसा" प्रतौ ॥ २ दव्वं ते व प्रतौ ॥ ३ किमव प्रतौ कि पराम् ॥ ४ जयद भो ! प्रतौ ॥ ५ °तो भया प्रतौ ॥ ६ परुषं प्रजल्पितुः ॥ ७ मधुरो प्रतौ ॥ ८ प्रद्वेषम् इतरा ॥ उवेहिमाणो अकअं पि काउं ववसेजा, न हि कामंधा मुद्धा जुत्ता-ऽजुत्तं वियारिडं तरंति, न गणंति गुरुयणं, न लज्जति सयणाणं, न बुज्झंति नियमज्जायं, जं च अणुसासणजोग्गं तं पि वयंसेहिं सिद्धमेयस्स, अवगन्नियतवयणो य अम्हेहिं भन्नमाणो बाढं निल्लेजिममज्झवसिय जं कलं कुणतो तमजेव काही ता एत्तो बोतुं न जुजइ, किंतु निजइ भयवतो वइरसेणसूरिणो समीवे, सुणाविअर तेहिं धम्मवयणं, जाणाविञ्जइ य जीवधायकम्मदुद्विलसियं ति मह अभिप्पातो । जन्न देवेण भणियं - ताय ! सम्ममालोचियं, एयं चिय जुत्त[मेत्थ ] पत्थावे । तओ अमचो जन्नदेवेण [सिवदेवेण य] परिगओ गओ सूरिणो समीयं । सब्वायरपणमियपायपउमो य आसीणो समिहियधरावडे । गुरुणा वि पारद्वा धम्मकहा । उचियसमए जंपियम मच्चेण - भयवं ! सङ्घस्स वि धम्मकम्मैगुणनिव्वाहस्स किं मूलं १ ति । सूरिणा जंपिओ – निसामेह - नीसेस धम्म कम्मस्स मूलमक्खंति जीववहविरहं । सुहुमेयराण जीवाण रक्खणेणं च सा सम्म नवरमिमा साहूणं सुनिच्छिया घडइ गेहिणो उ इमा । संकप्पिऊण धम्माइहेउ बेइंदियाईणं धूलाणं जीवाणं निरावराहाण घायचागम्मि । संभवइ जेण ते गेहगरुयवाचारपडिबद्धा पुढवाईणं सुहुमाण रक्खणे नो खमा खणद्धं पि । आरंभगोयराणं अवराहीणं पि एमेव दुविहतिविहाइमेएण सबहा गिव्हिऊण वहविरहं । एत्तियमेत्तेणं चिय होइ गिही देसचारिती तेणेव मुणिवयाओ अणु सुहुमं वयमिमं जहक्खत्थं । अणुवयमक्खति अओ सेसाणि वि एव जाणिजा १ निर्लज्जमानमध्यवस्य ॥ २ अभिप्राय: ॥ ३ "म्ममुणिनियाद प्रतौ ॥ ४ नो क्सम क्ख प्रती ॥ ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ ॥ ४ ॥ ॥ ५ ॥ ॥ ६ ॥ प्रथमाणुव्रते यज्ञदेवकथानकम् ३४ । छविच्छेदे लीलावती कथा ॥२४४॥ स्थूलप्राणातिपातविरतेः स्वरूपम् तदति चाराध Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ देवमहरिविरइओ कहारयणकोसो।। विसेसगुबाहिगारो। अ२४५॥ महुवणिएणं । तओ सो कइवयसहाइसमेओ दस करमे धनाइभरिए काऊण पट्टिओ खंधावारं । मग्गे य वच्चंतस्स चरणहूँ प्रथमाणुमुका विणासिया तिनि करभा केसरिणा । 'किमित्तो कायई ?' ति आदनो मह । भणिओ य सहाइजणेण-किमेवं भो! व्रते पाउलो चिट्ठसि ? मयकरभभारं अवरेसु खिविऊण किं न पयाणयं देसि ? त्ति, न हि एत्तियमितेण किं पि किलामिजंति ?। यज्ञदेवततो लोभाभिभूयत्तणेण अविभावियवयाइयारो तदुवदंसियठिईए समहियभारारोवणं काऊण करभेसु गओ समीहियट्ठाण, कथानकम् विणिवट्टियं भंड, सिद्धको य नियत्तो सं ठाणं । नवरं अइभारपच्चइयहिय यतोडपीडापरिगया कालकमेण पत्ता पंचत्तं ३४ । करभा । एस इह भवे य अणत्थो ति । अइमारे त्ति गयं ४ ॥ छ । भोञ्जवोच्छेए पुण गंधारविसए पंडयाभिहाणगामे अणुवयधरो धरो नाम वणिओ हट्टवाणिजेण निबहइ । खेमिलाभिहाणो य से भोज्यव्यवकम्मयरो हट्टोवविट्ठस्स पाणियाइसमप्पणेण उवढुमे वइ, तहाविहगिहकजे य पेसिओ बच्चइ । अनया य जायं दुब्मिक्खं, च्छेदे खीणा लोयाणं धण-धनसंचया, महग्धीभूयं धनं, सीयंति अञ्चतं पच्चंतवासिणो जणा साँग-पत्ताईहिं य पाणवित्ति कप्पंति । धरकथा अन्नया एगो गामनिवासी पुरिसो दम्मतिगं गहाय आगतो घरसमीचं भणिउं पवत्तो-दम्मतिगस्स धनं देहित्ति । ततो दम्मे घेतण धरेण भणितो खेमिलतो-अरे! इमस्स दम्मतिगस्स लब्भं धनं देहि ति। तेण वि वैक्खित्तचित्तत्तणेण चउदम्मदेयं धनं दाऊण विसजिओ गामीणो । जाए य वियालसमए जाव धरो दिणाऽऽय-वयलेक्खयं करेइ कम्मयरेण समं ता न पुजा १ चारोचरणार्थमित्यर्थः ॥ २ अविभावितत्रतातिचारः ॥ ३ अतिभारप्रत्ययिकहदयत्रोटपीडापरिगताः ॥४ सग्गप प्रती। व्याशिमिरा ६ पूर्यते ॥ CH २४५ ॥ 442 4545454SAKAAREER एगो दम्मो, कणा य थोवा दीसंति त्ति पुच्छिओ कम्मयरो-केत्तियं तए तस्स धनं दिनं १ ति। तेण जंपियंचउण्हं दम्माणं ति । 'आ पाव ! सुट्ठ मुट्ठो है' ति परुद्वेण धरेण निसिद्धं से भोयणं । अइछुहालुयत्तणेण कहासेसीईओ खेमिलतो । भुजवुच्छेय-न्ति गय ५॥ छ । इय भो महायस ! इमे पंचऽइयारे वि जाणिउं सम्मं । वजेजा निरवज वयगहणविहिं समीहंतो ॥१॥ वयसावेक्खत्ते च्चिय अइयारत्तं इमाण विनेयं । तन्निरवेक्खत्ते पुण भंगो चिय निच्छिय नेओ ॥ २॥ अइयारभीरुएण य कम्मयराई तमेव धरियर्छ । जे आणाए वट्टइ निश्चं कियेसु सभयं च ॥ ३ ॥ सिसुमाइसिक्खणत्थं कहिंचि बंधाइ कीरमाणं च । तह कायर्व जह सो पलीवणाइसु पलाएजा ॥४॥ कोहाईणमभावे एवं गोपुच्छमाइछेदे वि । रोगपडियारहेउं कीरते नस्थि अइयारो काइणा वहे वि हु मम्मट्ठाणातो अनहिं अदोसो । सिक्खाहेउं खणमित्तमेव भोयणअदाणे वि ॥६ ।। एवमइयारकालुस्सविरहियं हियमसेससत्ताण । पढम अणुबयमिमं चरिउं जुत्तं सुहेसीणं एवं गुरुणा सिट्टे वेरग्गावनमाणसेण जहुदिहूँ पडिवन इमं जावजीवं पि जन्नदेवणं । चित्तभंतरवियरंतपुव्वुत्ताणुसएण पिउ-भाईहिं भणिजमाणेण वि न सिवदेवेणं । वंदिऊण य ते मुणिं गया जहागयं । ___ अह पुव्वुद्दिट्ठा सा सेणावइसुया जंकिं पि लग्गविसेसमाइऊण परिणीया संधिवालसुएण, नीया य नियघरं । निसामिय१ "हाविसे प्रती । मृत इत्यर्थः ॥ २-३ वेक्खेत्ते प्रतौ ॥ ४ कम्बिकादिना ॥ ५ लपविशेषम् आदाय ।। KAYAKAAHARASHAKAKARMA व्रतस्य विशुद्धिः अतिचार भनौ यतना च ॥ ७ ॥ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरइओ कहारयण कोसो ॥ विसेस गु नाहिगारो । ॥२४६॥ मिमं च सिवदेवेण । तओ समुप्पन्नगरुयकोवसंरंभो सो संधिवालतणयविणासणकरण छिड्डाई गूढचरनियर निरूवणेण पलोइउं पवत्तो । 'संधिवालसुए अहए न सेजाए सोयचं, न वियाले भोत्तवं न मल्ला ऽलंकारपरिग्गहो य कायो' ति निच्छयं पवनो य | वियाणियएवंविहनिच्छएण य पिउणा जेहभाउणा य एगते सिक्खविओ बहुं एसो न थेवं पि चलितो दुरज्झवसायातो । इममेव वेरग्गमुहंतो अमचो पुव्वुत्तसूरिसमीचे पवअं घेत्तृण विहरिओ । जन्नदेवेण वि महंत संतावमुवहंतेण सिट्टो मूलाओ एस वहयरो राइणो । तेणावि 'साहुसमायारो' त्ति पहडिओ पिउणो पए जन्नदेवो । इयरो महुरवयणेहिं 'मा एवं करेजासि' ति अणुसासिओ वि अणुवित्तीए 'जं देवो आणवेह' त्ति भणिय अवकंतो । अन्नयाय समागओ महुसमओ । पयट्टो पुरीए मयणतेरसी महूसको । कयालंकारपरिग्गहो तिय- चउक्क-चच्चरेसु चंचरीगेयविहलो विभिओ नयरनारीजणो । इओ य उबलक्खियकजमज्झेहिं चरेहिं आगम्म सिद्धं सिवदेवस्स, जहासंधिवालसुतो भज्जासमेतो मयणं पूहउं वियालसमए थेवपुरिसपरियरिओ पुरिवहियारामे बच्चिदित्ति । इमं सोचा परितुट्ठो सिवदेवो सबसामरिंग काऊण नाणाविहपहरणहत्थो धाविओ तयभिमुखं । उर्वितो य जाणिओ संधिवालसुण । ततो उग्गीरियाउहो ठिओ से सैवडम्मुहो। जायं जुद्धं । 'असन्नद्धो' ति विणासितो [संधि] बालसुतो । इयरो वि जायकव्यपहारो वि पलायमाणो मग्गतो पधाविऊण संधिवालेण घाएहिं पाडिऊण आणिओ पुरिं । निवेश्या स्नो बत्ता । 'दुद्दिणीतो' ति उवेहिओ रना । ततो कसिणवसंणेहि कड्डाविऊण महया निकारेण नयरीमज्येणं बाबाइओ एसो ति । जन्नदेवो पुण तबहन॥ २ चच्चरे प्रतौ ॥ ३ अभिमुखः ॥ ४ "बयपयपदा' प्रतौ ॥ ५ सहेहिं प्रतौ कृष्णवसनैः कर्षयित्वा महता न्यकारेण ॥ १ चर्चरी तीए छिङ्कं किं पि अपेच्छंतीए विकालचिइवंदणपरायणं तमवलोइऊण कहियं पइणोतुह एसा वसियरणत्थमित्थं खुदमंत परिजवइति । तक्कहणाणंतरं च दइवदुजोगयवसओ तकालं चिथ गेलनीहूओ एसो, लद्धावगासाए सविसेसं तीए पनविओ, मुद्धयाए 'तह' ति पडिवनो य । पुच्छिया लीलावई परणा- किमेयं तुमं तिसंज्झं सुमरसि १ ति । तीए बुतं देवं सरामि । इयरेण वृत्तं को पचओ ? । संकिये सवत्तिविप्पयारणावइयराए य वागरियमिमीए – जो तुमं भणसि ? ति । तेण भणियं-जह तुमं धम्मत्थिणि चिय इमं कुणसि तो भित्ति लिहिय दे वयावयणेण मम कुविगप्पं अवणेहि ति । एवं करेमि त्ति डिया काउस्सग्गेणं सासणदेवयाए । मज्झरते य पत्ते संकंता सा चित्तभित्तिविलिहियदेवयं, वोत्तुमारद्धा य-रे रे दुरायार ! इमीए धम्मेदुडाए वयणेण धम्मसीलं लीलावई अहिक्खिर्वसि ता एस न भवसि ति । भीओ कुलपुत्तओ पायवडिओ खामेइ- -न भुओ इमं काहामि ति । गया जहागयं देवया । लीलावई वि जायकोवा पट्टिया पियहरं पैसाइया पडणा भणइ - इमं छिनकन्नं निवासिसि ता अहं ट्ठामि ति । 'वह' त्ति लुणियकन्ना नीसारिया तेण । एवमेसो अध्यारो । छविच्छेए त्ति गयं ३ ॥ छ ॥ अइभारारोवणे मरुविसए मह नाम वणिओ पडिवन्नाणुवओ वाणिजनिमित्तं करभवाहणेण बढ्छ । उवडिओ तम्मि कॉले सीमालेण समं तद्देसराइणो विग्गहो । ठियं सदेससीमाए चाउरंगं बलं । अप्पवेसाओ य धन्नाईण महग्घीभूयं सवं । जाणियं च इमं १ शङ्कितसपत्नीविप्रतारणाव्यतिकरया ।। २ "त्थिनि चि प्रतौ ॥ ३धर्मद्विष्टायाः ॥ ४ पति ता प्रतौ ॥ ५ कहा प्रती ॥ ६ पिला प्रतौ । प्रसादिता ॥ ७ लेण सी' प्रतौ ॥ प्रथमाणुव्रते यज्ञदेवकथानकम् ३४ । ॥२४६ ॥ अतिभारारोपणे मधुकथा Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमहरिविरहओ इति वधविरतेर्विशिष्टमिष्ट, फलमतुलं प्रविलोक्य शुद्धबुद्धिः । क्षणमपि न पराखो भवेदमुष्याः, स्वसुत-सुहृत्स्वजना-ऽऽत्मविप्लवेऽपि ॥ इति श्रीकथारत्नकोशे प्रथमाणुव्रतचिन्तायां यज्ञदेवकथानकं समाप्तम् ।। ३४ ।। ॥४॥ स्थूलमृषाविरतौ सागरकथानकम् ३५॥ - सहारयणकोसो॥ क्सेिसगुमाहिगारो। सत्यवचनस्वरूपम् ॥२४७॥ वहविणिवित्ती वि कया निरवजा जं विणा न संभवइ । तमियाणि अलियवयणचाय लेसेण साहेमि अलियमसचं चाहतं पुण भूयस्थनिण्हवसरूवं । अहव अभ्यारोवणरूवं दविहं पि दुहमिमं ॥ २ ॥ अलियं समुल्लवंतो बंधह पावं सुदारुणं पुरिसो । परमप्पाणं च महावयमेवे खिवह निम्भत ॥ ३ ॥ जीहा-कन्नच्छेयातो अप्पयं पाडई महाणत्थे । साई पि तकरोऽयं ति जंपिरो पुण परं पि जणं ॥ ४ ॥ अन्नं च सवं पि पइन्नापुत्वमेव वनंति धम्मणुहाणं । सा पुण वयणसरूवा वयणं पुण होइ जइ अलियं ॥५॥ ता सर्वेमप्पइ8 जम-नियम-तवाद धम्मकायचं । इय सच्चे थिय वके पहडियं चिंति धम्मविहि सर्च परमं सोय थंभइ सच्चे जलं च जलणं च । सच्चगिरापडिहणिओ न डसइ भीमो विहु भुयंगो ॥ ७ ॥ सचेण वसं देवा वि इंति सबे वि९ति मित्ताई । इय सबगुणाहाणं सच वयणं चिय पहाणं ॥८ ॥ १ अस्मिधरणे लेखकप्रमावादक्षराण्यधिकानि प्रविष्टानीति छन्दोभः ॥ २ जश" प्र० ॥ ३°णि य अ खं० ॥ ४ परम् आत्मानं च ॥५'वि क्खि सं० । महापदणवे ॥ ६ "ति तंममणु ख० प्र० ॥ ७ सर्वमप्रतिष्ठम् ॥ ८ परमः शौचः ॥ ॥२४७॥ KARA%A5%***********KAKKAKKARXXX****** सच्चेण सिरिं कित्तिं च निम्मलं सायरो समणुपत्तो । तचिवरीओ पुण तस्स चेव भाया दुही जाओ ॥९॥ तथाहि-अस्थि जंबुद्दीवावयंसभारहद्धधरणीतिलयकप्पं कप्पवासीहिं वि सलहणिजरम्मयगुणं कंचणपुरं नाम नयरं । जहिं च रंभाभिरामाउ बाहिं आरामभूमीओ अंतो विलासिणीओ, सकरुणसरलपुत्रागोवसोहिया चहिया तरुसंडा अंतो नायरवग्गा य । तहिं च निन्जियदुञ्जयाणेगसमरो समरसिंहो नाम राया मुद्धाभिसित्तो पवरअंतेउर-जुवराय-मंति31 सेट्टि-सेणावइपमुहपहाण[जण]परियरिओ रायसिरिमणुहवइ । तहा तत्थेव पुरे वत्थव्हा बंभणकुलसंभूया सत्थमग्गेसु कुसला | दुवे अज्झावगा सायरो अग्गिसिहो य सहोयरा भिन्नगिहेसु निवसंता वेयरहस्सपाढणिय कुणंति । ते य खीरकयंवस्स उवज्झायस्स पासे पढिया एगया जणपरंपराए वुत्ततं निसामिति, जहा__ खीरकयंबो परोक्खीहूओ । तस्सीसाणं पि मज्झाओ वसू रायपयविं पत्तो । बीओ य धम्मसिस्सो नारओ, सो य | विभिन्नोवस्सयट्टिओ वेयरहस्सं वक्खाणेइ । तइओ उवज्झायसुओ पव्वयओ, सो य पिउपयविं पवनो अज्झावगवित्ति कुणइ । सो य "अजेहिं जद्वं" ति वेयवेके "अजेहिं-छागेहिं जागो कायद्यो" ति वक्खाणंतो चिरसिणेहेण दसणत्थमुवाद्र गएण निसिद्धो नारएण-अणुचियमिम, यतः-"न जायन्त इति अजा:-त्रिवार्षिका बीहयस्तैर्यष्टव्यम्" इति उपाध्या। येन व्याख्यातं किं न स्मरति देवानाम्प्रियः इति । नियवक्खाणबहुमाणेण य न पडिवनमिर्म पब्वयगेण । 'जो हारिही १ इनिज सं. ॥ २ रम्भाभिः-कदलीभिः अभिरामा:-मनोहरा आरामभूम्यः, विलासिन्यः पुनः रम्भाप्सरोवदभिरामाः ॥ ३ करुण-सरल-पुजागाख्यवक्षः उपशोभिताः तरुषण्डाः, नागरवर्गाः पुनः सदयः सरलैखोत्तमपुरुषैः उपशोभिताः ।। ४ यानेग सं०॥ ५ वर्षि अखं० ॥ ६ हारयिष्यति ॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थूलमृषाविरतौ सागरकथानकम् देवभरि -ट्र तस्स जीहाछेओ कायवो' ति कया होहो । 'एत्थ य पमाण सहपहिओ वसू चेव रोयं ति कओ निच्छओ। उचियसमए विरहओ य उ[व]ट्ठिया दो वि रायाणं । निवेइओ य दोहिं वि तप्पुरओ निययाभिप्पाओ। राया वि जहट्ठियं तैयत्थमणुसरंतो वि पुत्वमेव उज्झाइणीगाहियपव्वयगपक्खो "अजेहिं-छागेहिं चेव जट्ठवं" ति अजहट्टियमुल्लवंतो असच्चभासणकुवियकहारयणकोसो॥ कुलदेवयादिनकरचवेडापहारो पवनो पंचत्तं, पव्वयगो वि जीहाछेयमणुपत्तो ति । विसेसगु इमं च वइयरं सोचा सभावउ चिय पावभीरुणा सेच्छसहावेण भणियं सायरेण-अहो! बाढमजुत्तं वैक्खायं पव्वयमाहिगारो। गेण, अजुत्ततरं च तमेव बहुमभियं वसुभूवहणा, अहो ! गरुयाण वि महमोहो, अहो! आचंदकालियमवजसर्पसुपूरपवि स्थरण, अहो ! सद्धम्मनिरवेक्खत्तणं च । इमं च सोचा कुविओ अग्गिसिहो जेट्ठभापरं पडच जंपिउं पवत्ती-भो भो। ॥२४८॥ किमेवं पूयणि सु समत्थविजावियक्खणेसु वि अणुचियं उल्लवसि ? को दोसो भयवओ पब्वयगस्स अक्खरोवरि वक्खा णितस्स "अजेहिं-छागेहिं ?" ति, जे पुण "न जायंति जे ते अजी:-बीहिणो" त्ति वक्खाणं तं कहं वीहिणो त्ति निच्छियं ? पत्थरा वि किं न अजा भन्नति ? तेसि पि जणणाभावातो ति । सायरेण भणियं-जह एवं ता कीस वसू विधायमावनो? पव्ययगो वि जीहाछेदेण विणट्ठो ? ति । अग्गिसिहेण जंपियं-सुद्धसमायाराणं किं न निवडंति पुवकयकम्मदोसेण अणत्थसस्था ? किं न सुयं पुराणेसु मंडव्वरिसिणो चरियं तुमए ?-- १ पणमित्यर्थः ॥ २ राय त्ति प्र. ॥ ३ तदर्थमनुस्मरन्नपि ॥ ४ उवज्झा प्र. ॥ ५ स्वच्छस्वभावैन ॥ ६ व्याख्यातम् ॥ ७ वसूभू "सं० प्र० ॥ ८°जा:-वीहि सं० ॥ ९ जणनाभा ख ॥ १० किं पिन खं० ।। ॥२४८॥ KARSARKARXX AMROKHARANASONAKAC% ABHAKARMISSION इयरावलोयणे वि अविचलियवहविरहपरिणामो बहरनिजायणस्थमुच्छाहिजंतो वि पावलोएण, 'न किं पि इमिणा सिज्झई' ति हसिजंतो वि मित्तेहि उपसंतो भणइबंधु-सुय-भाउएहिं अलाहि सद्धम्मविमुहहियएहिं । परमत्थवेरिएहिं व दूरं अवसायजणगेहि ॥ १ ॥ कम्मि य कीरउ वइरं ? दीसइ सयणेयरो य को तत्थ ।। जयमवि जत्थ कुडुंब भैमिराण भवे अणंतम्मि ॥२॥ एवं पयंपमाणो रना नयरीजणेण बि स धीमं । इहलोए चिय महिओ सुगई च गतो परभवम्मि ॥ ३ ॥ संको वि न सका गुणपवित्थर सब्वमेव परिकहिउं। वहविणिवित्तीए ता जएज सवायरेण इहं ॥४॥ अपि च न तद् यागैरिष्टैन च सकलतीर्थस्नपनतो, वितीर्णैर्वा स्वर्णेन च गिरिशिरःशृङ्गामितिभिः । सुरागारैस्तारैर्न च विरचितैस्तुङ्गशिखरैर्भवेत् तादृक पुण्यं वधविरतितो यादृशमहो! ॥१॥ यत् दीर्घजीवितभृतस्तरुणीकटाक्षविक्षेपलक्षवपुषः पुरुषा भवन्ति । सल्लोकलोचनमहोत्सवकारिरूपाः, प्राणिप्रहाणविरतिद्वमसत्फलं तत् ॥ २॥ जिनान देवोऽस्त्यपस पृथिव्यां गुरोः परो नो परमोपकारी । न जीवितव्यव्यपरोपणाच्च, पापं परं नो विरतेश्च पुण्यम् १ वैरनिपिनार्थमुत्सायमानोऽपि ॥ २ अवसादः-खेदः ॥ ३ जगदपि ॥ ४ भ्रमणशीलानाम् ॥ ५ धीमान् ॥ ६ एसत्थो विन खं० ॥ |७ विचरित खं०॥ ८ नोपरते' खं० ॥ ४२ प्राणवधविरते माहात्म्यम् Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमसूरिविरइओ 496464 कहारयणकोसो । विसेसगुजाहिगारो। स्थूलमृषाविरतौ सागरकथानकम् ३५। किमहं करेमि फेडेमि देमि घाएमि बा जियावेमि ? । चिरकयकम्मणुरूवो सन्बो चिय मज्झ वावारो ॥ १४ ॥ तो चिंता झाणगओ किं पुण पुर्व मए कयमकिचं ? । मलाविद्धं जूयं अह पेच्छइ वैच्छवालभवे ॥१५॥ संहरियकोवपसरो तयणु महप्पा मुणी स मंडव्वो । सकयं सोढचं चिय भावतो पसममल्लीणो __ इय भद्द ! मुंच चौमोहवूहमवरे भवम्मि विहियाण । सुकयाण दुकयाण य नो छुट्टइ देवराओ वि ।। १७ ।। ता सबहा जहट्टियं वक्खाणितस्स वेयेवकं न दोसलेसो वि महाणुभावस्स पब्वयगस्स, न य तकयपद्माणस्स वसुराइणो त्ति । इमं च सोचा मुहुममइविमरिसियकसमझेण जंपियं सागरेण-रे मुद्ध! अलमलं तुह विचारेण, जत्थ जीववहो अलाहि तेण वक्खाणेण, किंच जइ ते असच्चभासादोसवंतो न हवंति ता किं तकाले चिय अणत्थं पत्ता ? जे वि चोरिकाए कारिणो तकाले वावाइजंति ताण वि पुष्वकालियं को वि नै कम्ममुकित्ता किंतु तक्खणकयं चोरिकमेव संसह ति । इमं च गुरुकम्मयाए न मणागम[वि पडिवन्नं अग्गिसिहेणं । 'किं इमिणा सुकवाएण?' ति पयंपमाणो बाढममरिसियमाणसो ज्झड त्ति अवकतो सो तस्स समीवाओ। ___सागरो पुण समुप्पन्ननिम्मलपन्नाइरेगो पवड्वन्तसद्धम्मकम्माभिरई लोयमुहातो निसामिऊण [वइरसेण]सूरीणमागमणं गतो तयंतियं, पडिओ पाएम, विनविउं पवत्तो य-भयवं! पुर्व मए सुवेलाए पुरीए अमच्चस्स सपुत्तस्स तुम्मे धम्म १यूकाम् ॥ २ वत्सपालभवे ॥ ३ भावयन प्रशममालीनः ॥ ४ व्यामोहव्यूहम् ।। ५ वैदवाक्य ॥ ६ सश्ममतिविमुष्ट कार्यमध्येन ॥ ७ च्यापायन्ते ।। | ८न कम्म प्र० ॥ ९ शुष्कवादेन ॥ १० दृश्यतां पत्रम् २४२ पृष्टम् २ ॥ ॥२४९॥ CASANSKRISRUST HASHANAMANCHAORASAALKRICONICACACAXCIAS ॥२४९॥ 4G उवदिसंता बंदिया पज्जुवासिया य, तहा पवनो य जीववहनियमो, संपयं च अलियवयणनिवत्ति काउमिच्छामि, अतो तस्सरुवं साहेहि ति । सूरिणा भणियं-निसामेसु, धूलमुसावायस्स य विरई वीयं अणुव्वयं तस्स । विसओ कन्ना-गो-भू-नासाहर-कूडसक्खेज कन्ना दुपयं गो चउप्पयं च अपयं वम् य भूमी य । दो सगैए चिय भेया इह बजइ पंच अड्यारे ॥ २ ॥ सहसा अब्भक्खाणं रहसा य सदारमतमेय च । मोसोवएसमवरं वजह तह कूडलेहं च ॥ ३ ॥ सहसा अविभाबित्ता अब्भक्खाणं असंतदोसाणं । आरोवणं हि जारो चोरो व तुमं हि इच्चाइ ॥ ४ ॥ रह एगंतो भन्नइ मंतन्ते तत्थ पेच्छिउं कोइ । अभक्खाइ जहेते रायविरुद्धाई जंपति नियभजाए एगंतभासियाई कहेइ अन्नेसिं । एवंरूवो हि सैंदारमतभेतो विणिहिट्ठो मोसं अलियं भन्नइ तं अन्नं सिक्खवेइ के पि नरं । इममेयं च वएजसु एसो मोसोवएसु ति ॥ ७ ॥ कूडेहिं असम्भूओ लेहो वन्नावली लिहणरूवो । तस्स करणं विहाणं अइयारो पंचमो एस नणु अब्भक्खाणं अविजमाणदोसाभिहाणतेण पचक्खायं चेव ता कह न भंगो ? जमेचं अइयारो कित्तिजह ? । सचं । जया परोवधायगं अणाभोगाइणा भासह तया तहाविहसंकिलेसाभावेण वैयसावेक्खयाए न भंगो, परोवधायहेउत्तणतो य १ निवित्ति प्र० ॥२ "मीए खं० प्र० ॥ ३ गय चि प्र दी स्वगती ॥ ४ स्वदारमन्त्रभेदः ॥ ५ बदमैच च वः ॥ ६ एसो त्ति प्र० ।। ७ व्रतसापेक्षतया ।। स्थूलमृषाविरते. स्वरूपं तदतिचारास्तन्द्रकातिचारयोः स्वरूपं च ASSWER Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थूलमृषाविरतौ सागरकथानकम् ३५। देवमद्दसूरि-3 | भंगो इति भंगा-ऽभंगरूवो अइयारो एसो, इहरहा भंगो चैव १।२। सदारमतभेदो पुण जइ वि सब्बो अइयारत्तं न पवजइ विरइओ तह चि तदुत्तपयडणुप्पनलजाइवसा मरणाइसंभवेण दाराईणं परमत्थओ य सच्चसम्भावातो तस्स कहं पि भंगरूवत्तेण अइयारो चेव ३ तहा मोसोवएसो जह वि'मुसं न वएमि अनं च न वयावेमि' त्ति वयगहणे भंगो चेब, तह वि सहसाकारेण अणाकहारयणकोसो॥ भोगेण वा अइकमाईहिं वा मुसावाए परं पयट्टितस्स अइयारो चेव । अहवा वयसंरक्खणबुद्धीए पैरं वुत्तकहणदारेण मुसोवएसं विसेसगु दिन्तस्स बयसावेक्खत्तणेण भंगा-ऽभंगभावणा दट्टवा ४। कूडलेहकरण पि जइ वि 'काएण मुसावायं न करेमि न कारवेमि' त्ति पवनवयस्स भंगो चेव, तहावि पुखुत्तसहसाकाराइहेउभावातो अइयारत्तं ददृवं । अहवा 'मुसाबातो ति मुसाभणणं मए पाहिगारो। पञ्चक्खायं, एयं पुण लेहलिहणं' ति भावणाए मुद्धबुद्धिणो वयसावेक्खत्तणेण अइयारो त्ति ५। अलं पसंगेण ॥ छ । ॥२५॥ एवमिमे अइयारा न हुंति सिवगामिणो मणूसस्स । वयगहणे वि उविंतीयरस्स सुरहो इहं नाय ॥१॥ सागरेण भणियं-भय ! को एस सुरहो? । मूरिणा भणियं-आयनसु ति । सोरट्टविसए मंगलपुरं नाम नयर । निसढो नाम तहिं राया। सुरहो य रायकारणियपुरिसो गुनिलरञ्जकजाई चिंतह । थावच्चापुत्तमूरिसमीवे य पवन्नो तेण सावयधम्मो, अणुव्वयाइं च गहियाई, पालेइ य निरइयाराई। अनया य सिंहलदीवराहणो पहाणपुरिसा रायकोण तहिं समागया। 'पुबरूदि' त्ति निमंतिया नियघरे सुरहेण, जेमाविया कइवयदिणाणि । साहियका ते गया जहागयं । तद्दिणे य तम्मंदिरे पडियं खत्तं, गयं गेहसार, निवेड्या राहणो | १ तदुक्तप्रकटनोत्पन्नलज्जादिवशात् ॥ २ "विन ' प्र०॥ ३ परवु खं० ॥ ४ दिनस्स सं० प्र० ॥ ५ "जा वि गया खं० प्र० ।। मृषावादातिचारविपये मुरथज्ञातम् ॥२५॥ RRAOCAHASARKARANASIRSSISTARAKHARACKER माण्डव्यर्षे SHRI ASANSARKARAMHARIYAR चरितम् किर मंडब्वमहरिसी झाणेगमगं परं समारूढो। विजणम्मि पएसे थिमियलोयणो रुद्धपवणगमो ॥१॥ दिट्ठो चोरेणऽणुमग्गलग्गतलवरभडोहमीएण । तो तप्पुरओ मोसं मोतूणं ज्झत्ति सो नट्ठो ॥ २ ॥ तलवरनरा वि तप्पिट्टओ य पत्ता मुणिस्स तं पुरओ । पेच्छंति मोसमह कलुसबुद्धिणो ते विचिंतंति ॥ ३॥ काऊण चोरियं मोसहत्थओ नासिउं अंचाईतो। मुणिडंभेणं चोरो कहेस झाणं पवनो ब? ॥४॥ अह सो मोससमेतो बंधित्ता भूवइस्स उवणीतो । एवंविहरूबोऽयं चोरो मुसह त्ति सिहो य तो कुविएण रन्ना वज्झो विमंसिऊण आणत्तो । किंकरनरेहिं आरोवितो य तिक्खग्गसूलाए नो किं पि तेण नायं ता जा सा सूलिया उरो भेनुं । नीसरिया पीडा वि हु जाया अर्थतदुविसहा अह जायगरुयपीडो स महप्पा मुकझाणवक्खेवो । सूलाए भिजंतं नियदेह पेहइ मसाणे ॥ ८ ॥ तो जायतिबकोवो चिंतह घाएमि किंइमे प्ररिसे? अहवा मुढा एए कम्मयरा नावरजझंति ॥ ९ ॥ अबराहपयं भृमीवई पर जो न याण अणजो। साहुमसाहुं व फुडं ता तं घाएमि अवियारं ॥ १० ॥ अहवा तस्स वि दोसो न कामबामोहियस्स मूढस्स । अवरज्झइ पेहवंतो स धम्मरातो इह पाबो ॥ ११ ॥ ता तं चिय नियतवहुयवहेण सलमं व निद्दहामि ददं । इय जाव ससंरंभो बंधह लक्खं तमुहिस्स ॥ १२ ॥ ता चित्तगुत्तजुत्तो स धम्मरातो तयंतियं पत्तो । जंपइ मुणीसर ! महं किं संरंभ मुहा वहसि ? ॥ १३॥ १ अबक्नुवन् ।। २ "णिभंडणं ख. ॥ ३ अविमृश्य आशप्तः ।। ४ अत्यन्तव्यामूदस्येत्यर्थः ॥ ५ प्रभवन स धर्मराजः ।। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवगदसरिनिरइओ कहारयणकोसो॥ K%%***** स्थलमृषाविरतौ सागरकथानकम् ३५। CASTHAN विसेसगु माहिगारो। ॥२५॥ ति । अह असद्दहतीए य इमं तीए नियंसणावणयणेण पञ्चक्खीकाऊण विसञ्जितो एसो । निप्पच्चासा य पसुत्ता इमा सयणिअम्मि । सुरहो वि कन्जमझ बुज्झिय गतो निययावासं, सुहसेजाए निसनो चिंतिउं पवनो सुकुलुग्गया वि धम्मन्नुया वि ववसइइमा वि जइ एवं । ता पुहईए महिलाण सीलसलिलंजली दिनो ॥१॥ को मुणइ भूरिभंगं जिणवयणं पिव मणो मयच्छीण । पायडियबहुबियारं दुल्लक्खगमं च कुसलो वि ॥२॥ वीसंभनिन्भरं नियमणं पि बाद कहिं च विस्समउ ? । पाणप्पिए वि दीसइ जत्थ जणे एरिसमकिच्चं ॥३॥ एवं च सो समुप्पनविचिकिच्छो पसुत्तो खणमेकं । पभायसमए य पुरिसपेसणेण जाणावियनिययागमणो पविट्ठो नियभवणे । रहस्समिमं च हिययंतो धरिउमपारयतेण निवेइयं मित्तस्स । तेण वि तब्भजाए, जहा-तुह रयणिदुश्विलसियमसेस सुरहेण एगागिणा पच्छन्नट्टिएण पचक्खीकर्य ति । इमं च सोचा बादं विलिया 'कहं पइणो नियवनं दंसिस्सामि ?' ति विसभक्खणेण विवन्ना एसा । एवं चाणत्थफलो जातो सुरहस्स तइओ अइयारो ३। अह सुपइएण निययाहिगारववरोवणातो वियाणियसुरहवइयरेण जायगरुयकोवेण समइसमुप्पाइयदूसणनिवेयणेण १ निवसनापनयनेन ॥ २ निष्प्रत्याशा ।। ३ धर्मशाऽपि व्यवस्यति ॥ ४ जिनवचनं 'भूरिभा' प्रभूतभाजालबुतम् , मृगाक्षीणो मनः पुनः क्षणे क्षणे भजनशीलमिति भूरिभजाम् । पुनथ जिनवचनं प्रकटिता बहवो विचारा यत्र, तथा दुर्लक्षा:-अगम्याः गमाः-सरक्षपाठरूपा आलापका यत्र तादशम् : मृगाक्षीमन: पुन: प्रकटिता बहवो विकारा अन, दुर्लक्ष:-अगम्यः गमः-गतियस्य तादशामिति ॥ ५ शापितनिजकागमनः ॥ ६ 'निजवर्णम्' आत्मरूपमिस्पः ॥७निजकाधिकारख्यपरोपणात् ॥ ॥२५॥ -+CKASSAKACCESSASAR चडाविओ सुरहोवरि राया । जाणिओ य एस वइयरो सुरहेण । ततो उपभचित्तसंखोमेण वाहारिऊण नियमित्तो भणितो, जहा-ममोवरि राया कुवितो वट्टइ, अतो एवमेयं अलिय तुमए वोनूण उत्तारणिजो, अहं हि अलियवयणकयपच्चक्खाणो कह सयं भासिस्सामि ?-त्ति सिक्खं देंतस्स तस्स जातो चउत्थो अइयारो ४ ।। उचियपत्थावे बाहराविओ सो राइणा । ततो सुपइट्ठयं पडुच्च कूडलेहे लिहिऊण 'अलियस्स भासणे दोसो, न लिहणे' ति विभार्विती पंचमाइयारपवनो गओ राउल ५। पायवडिओ आसणासीणो संभासिओ नरनाहेण-तत्थ किं सिद्धं ? ति । सुरहेण भणियं-देव ! मए आदप्पितो सो सीमालभूवालो, पारद्धा य तेण संधिघडणा, परं देव! जत्थ देवघरभेदो तत्थ का कजसिद्धी ?। रमा जंपियं-कहमेयं ?। सरहेण भणियं -एगते कहिस्सं । ततो ठिया एगते । सुरहेण दंसिया कूडलेहा । वाइया नरिंदेण, अवगतो छेय-मेयप्पहाणो सुपइयलेहपेसणसंबंधो । ततो विम्हिएण रमा उट्टियम्मि सुरहे वाहरावितो सुपइट्ठो। दसिया लेहा । सुपइहेण भणियं-देव ! जइ एवंविहरायविरुद्धकारी ता सोहेमि जलणप्पवेसाइणा वि अप्पाणं-ति ठितो सो निच्छएणं । कयं च दुहृदेवयापुरो दिवग्गहणं, विसुद्धो एसो । सबस्सावहरणेण दंडिओ सुरहो, 'असचवाई' ति लोए अजसं पत्तो, 'कारणितो' तिन मारावितो रना । एवमेते साइयारवयपडिवत्तीए दोसा इहलोए वि ति ॥ छ । एवमइयाररहियं असचविरई निसेविउं धीरा । सयलजणसलहणिआ कालाणपरंपरमविति १ 'भारोपितः' कोपित इत्यर्थः ॥ २ "ण निय प्र. ॥ ३ 'व्याहार्य आहूय ॥ ४ एवमेवमित्यर्थः ॥ ५ दित प्र० ॥ ६ सर्वस्वापहरणेन । A N Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमद्दसरिविरइओ | स्थूलमृषाविरतौ सागर| कथानकम् कहारयणकोसो ॥ विसेसगुणाहिगारो। तो सागरेण भणियं भय ! मे अलियवयणविणिवित्तिं । जावजीवं धूलं दुविहं तिविहेण देह त्ति गुरुणा वि भवपयई वियाणिउं गाढधम्मसद्धं च । दिना असञ्चजंपणविणिवित्ती तस्स जाजीवं ॥३॥ अह तद्देसगएणं अग्गिसिहणं निसामिउं एयं । धम्मविहिविरुद्धणं सासूयं जंपियं एवं ॥४ ॥ भयवं ! को एत्थ गुणो वयगहणे ? पुत्वकम्मवसगाणं । एइ बला सचेयरउल्लावो भावविरहे वि ॥ ५ ॥ ता तकम्मखते चिय तबिरई जुजए इहं काउं । इहरा तम्भंगवसा तकरणं निष्फलं चेव । गुरुणा भणियं मा वयसु एरिसं विरइवारगं कम्भ । एवं चिय जाइ खंयं तस्स खए किं च विरईए ? ॥ ७॥ जह ओसैहप्पतोगे कमेण रोगो गुरू वि जाइ खयं । एवं चिरईकरणे तंवारगमवि असुहकम्म ॥ ८ ॥ तुज्झ मएणं भद्दय ! रोगखए ओसहप्पतोगो वि । काउं जुञ्जइ नवरं तस्स खए ओसहेणं किं ? ॥९॥ इय गुरुणा संलत्तो दाउं पच्चुत्तरं असक्तो । गाढुव्बूढामरिसो जहागयं सो गतो ज्झत्ति सागरो वि पसरंतचित्तपरमपरितोसो सूरिं चंदिऊण भावसारं अहिणंदिऊण पडिगतो नियघरं । पुच्छितो य घरिणीएभह! कहिमेत्तियवेलं ठितो ? ति । सागरेण वि सिट्ठो नियमवइयरो | अह जायकम्मलाघवाए तीए भणियं-अहं पि एवंविहनिविर्ति करेमि ति । तेण भणियं-एवं करेसु ति । ततो नीया सा गुरुणो समीवे, गाहिया सम्मत्तगुणसणाहं १ खतो शिवं० प्र० ॥ २ खर्म सं० प्र० ॥ ३ औषधप्रयोगे ॥ ४ तद्वारकमपि ॥ ५ औषधप्रयोगोऽपि ॥ ६ गाढोधूढामर्षः ॥ ७ घरणी प्र०॥ ॥२५२॥ विरतिग्रहणे दोषापादनं तत्परिहारश्च NAAMSANGACANORAKORERARAKSHARA | ॥२५२॥ वत्ता, दिनो पडहगो-जो मोससुद्धिं कहइ तस्स अट्ठसयं सुवास्स देमि ति । किं पि केणइ न सिटुं। अह तलवरेण सो पुट्ठो-को तुह घरे पुश्वमागतो आसि ? त्ति । सुरहेण भणियं-हुँ सुमरिय, सिंहलाहिवपहाणपुरिसदुबिलसियमिमं, ते हि मह घरे ठिया कइ वि दिणाणि, घरमजझं बुज्झिय एवं ववसिय त्ति । इमं च सहसा जंपिरेण अइयरियं चीयवयं १ । अवरम्मि य समए राइणो सीमालराइणा समं जातो विग्गहो । सुरहेण वावारिया गूढचरा 'पुरमज्झे को किं जंपइ' त्ति । अप्पणा वि वेसपरावतं काऊण निग्गतो पुरतो चाहिं कइवयनरसहिओ चारोवलंभनिमित्तं । तवेलं च राइणो पहाणदूओ सुपइट्ठो नाम किं पि घरकिच्चं कइवयविसिहपुरिसेहिं सममेगते मंतितो दिट्ठो सुरहेण । जंपियं च अणेणं-नूर्ण सीमालभूवइकतोवयारो कि पि रायविरुद्धं मंतह, निच्छिय न हवइ सुद्धसमायारो त्ति । एवं च जातो से बीओ अड्यारो २। तं च तजंपियं कहिं पि आयनिय रना। ततो जायतविचिगिच्छेण राइणा सुरहो वाहरिऊण तस्स चेव सीमालभूवइस्स पासे पेसितो यकजेणं । नियवयणकोसल्लेण घडियसंधिकञ्जो य वलितो नियपुराभिमुहं । अह नियपुरपञ्चासत्रमणुपत्तो नियपरिवारं मोत्तूण घरपरिवारसरूवमुवलक्खिउं पच्छन्नवेसेण एगागी चेव पसुत्तेसु लोएसु मज्झरत्तसमए गतो नियघरं । पविट्ठो अवद्दारेण वासभवणं जालगवक्खच्छिड्डेण पलोइउं पवत्तो । तहिं चावसरे विवित्तं काऊण भजाए वाहरिऊण खुञ्जचेडो वावारितो विसयसेवानिमित्तं । तेण भणियं-कहमेवं ? अहं हि हीणरूवो अचंतं विलीणेकातो य, तुमं पुण सुरसुंदरि | व मणोहरावयवा, तत्थ वि अहं एवंविहाकिच्चकरणपसायातो तावसीसंभोगातो हरो छ छिन्नलिंगो वट्टामि, ता मुयसु मर्म १ जाततद्विचिकित्सेन ॥२ ग्रहपरिवारस्वरूपमुपलक्षयितुम् ॥ ३ जालगवाक्षमिछमेण ।। ४ विलीनकायथ ।। Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमसूरि निरहओ| कद्दारयणकोसो॥ विसेसगुमाहिगारो। स्थूलमृषाविरतौ सागरकथानकम् ३५। जुत्तं छागेहिं जागो कायद्यो? वीहीहिं वा । अज्झावगेहिं भणियं-देव ! कनपरंपराए सुयमिमं नारय-पब्वयगाणं विसंवायपयं, तविणिच्छियाणुसारेण वीहिहोमो चेव काउमुचितो ति । इमं च सोचा राइणा पलोइयं अग्गिसिहाणणं । अह अतुच्छमिच्छत्तच्छन्नपनाविसेसेण विसप्पंताणप्पदप्पप्पहाणं पयंपियमग्गिसिहेण-देव ! कुम्भमुब्भामियमइणो मिग व कञ्जमज्झमबुज्झमाणा परपचयं चिय पमाणीकाऊण किच्चेसु पयट्टति न उण सुद्धबुद्धिणो, ता सम्भूयमग्गमवहाय किमेस कप्पणाववहारो अंगीकीरद ? । सेसेहिं भणियं-महाराय । किं पि भणउ एसो, अम्हे पुण दिडाणत्थं पंथं न समत्थेमो । ततो राइणा पुच्छिओ सागरो-किमियाणिमुचियं ? ति । तेण भणियं-महाराय ! एए उवज्झाया जं भणति, किं सेसेहिं ? ति । अह तत्वयणेण बाढमुद्दीवियकोवहुयासणो अग्गिसिहो भणिउं पबत्तो भूनाह ! नस्थि इह को वि जाणगो कीस संसयं वहह ? | आपुच्छह कीस इमं पि भायरं मज्झ वामूढं ? ॥ १ ॥ जो वेयमग्गवझ सेयंबरदसणं किर पवनो । बज्झपवित्तीए च्चिय बंभणसई समुबहद ॥ २ ॥ एए य पियरसद्धाइवारिणो जाग-होमविहिनिमुहा । अज्झावगनामधरा किंवा साहिंतु परमत्थं? ॥३ ॥ ता जइ अजा न छागा हवंति तो है गहाय दिवं पि । सच्चीकरेमि एयं किं नरवर ! वहसि संदेहं ? ॥४॥ पडिवअमिमं रचा फालो पगुणीको सिहिसरिच्छो । कयकालोचियकियो उवडिओ तयणु अग्गिसिहो ॥५॥ १ विसर्पदनल्पदर्पप्रधानम् ॥ २ कुभ्रमोशामितमतयः ॥ ३ हुनित्थं खं० ॥ ४ पितृश्राद्धादिनिवारका इत्यर्थः ॥ ५ "इकारि' खं० प्र० ॥ ६ "लोचिय' सं. ॥ ||२५३॥ ॥२५३॥ ASSOH WHABARHARWARRESTERNATAASARAN सत्यम् जइ मह पक्खो वितहो ता देव हुयास ! करयलं दहसु । इति जंपिरेण तेणं गहितो फालो निदड्डो य ॥६॥ खुद्दो खुद्दो ति पयवृतालरवनिम्भरं पुरजणेणं । आघोसियं निवेण वि असञ्चवाइ ति सो पावो निच्छूढो नयरातो इयरो पुण पूहतो पयत्तेणं । सुगई च समणुपत्तो दुक्खमणंतं च अग्गिसिहो ॥८॥ इय एत्थेव भवम्मि वि असच्च-सच्चाण दोसमियरं च । पेच्छंता वि हु मुढा हियपक्खं नावखंति ॥ ९॥ किश्च सर्च पि हु तमसच्चं जीवाण वहो जहिं भवे वयणे । तमसचं पि हु सच्चं तेसि पि हु रक्खणं जत्थ ॥१०॥ एत्तो च्चिय भासेजा बुद्धीए विभाविऊण तं वयणं । जं अप्पणो परस्स य न सबहा जणइ संतावं ॥११॥ इह-परभवे य दुक्खं अस्सच्चपयपिराण पुरिसाण | ता कीस एत्थ अत्थे सुहत्थिणो नो विरजंति ? ॥१२॥ किश्च इह हि यदुपजिह्वाव्याजविक्षिप्तशक्तिर्यदपि दशनदौस्थ्यादस्तवाक्पाटवश्च । यदपि च मुखनिर्यत्पूतिगन्धश्च कश्चित् , तदनृतवचनानां स्फूर्जितं प्राहुरीशाः गगनगमन-दूरालोकनेच्छाविहारा-ऽञ्जनविधि-रसवादाद्यौपधीसिद्धयोऽपि । अनृतमभिदधानं मानवं वित्तहीन, विटमिव पणनार्यों दूरतः सन्त्यजन्ति ॥ २ ॥ नरकपथसहायो वर्यकार्याब्जरोशिप्रलयतुहिनवर्यः प्रत्ययाद्रीन्द्रवजः। सुचिर[....]शतसस्यस्फीतदुर्वातपात:, कथय कथमलीकालाप एप श्रियेऽस्तु ! ॥३ ॥ . १ प्रवृत्ततालरवनिर्भरम् ।। २ निक्षिप्तः ।। ३ 'इतरं' गुणम् ॥ ४ असत्यप्रजल्पनशीलानाम् ॥ ५ राशीम सं० प्र० ॥ असत्यवारविपाकद्वारा तत्यागोप ARANERIES देशः Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ C इति निरवधिदोषासारसन्तापभीतापसतमुगुणराजीराजहंसीसमूहः । वितथवचनयोगः कोऽपि सदुद्धिरोगस्तदपि हृदयहारी ही ! कथं चालिशानाम् ? ॥इति श्रीकधारत्नकोशे द्वितीयाणुव्रतचिन्तायां सागरकथानकं समाप्तम् ॥ ३५॥ ॥४॥ देवभरि विरइओ कदारयणकोसो॥ विसेसगुगाहिगारो। ॥२५॥ स्थूलादत्त विरतौ फरुसरामकथानकम् ३६। अदत्तविरते स्वरूपम् अणलियवयणो वि गिही परदवं चोरिउं समीहंतो। न हु जाइ सुहाभागी ता तचिरई अओ वोच्छ दवं धण-कणगाई सचित्ता-ऽचित्त-मीसयं जाण । पैरसंतियं हि हेयं रेणं विसतरुवणं व तग्गहणवासणा विहु विसिडचेट्टाविघायणं कुणइ । किं पुण सक्खा तम्गहणगोयरो कायवावारो ॥ ३॥ सोक्खलवमेत्तमुद्धा लुद्धा अविभाविउं महाणथं । पररित्थं गिण्हंता लहंति गुरुदुक्खदंदोलिं ॥ ४ ॥ रुक्खुल्लंचण सूलाधिरोवर्ण तिक्खखग्गघायं च । केन्न-ऽच्छि-नासनिबासमासु पार्वति परवसगा कुंभीपागं कर-चरणलुंपणं बंधणं च गुत्तीसु । गामा-ऽऽगराइनिवासणं च चोरिकफलमाहु इह जम्मे चिय जइ वि हुन कोड पाउणइ चोरियाए फलं। परजम्मम्मि तहा वि य सविसेसं तफलमवस्सं ॥ ७॥ जे पुण तबिरयमणा मणागमे पि लिंति नादत्तं । ते तविडंबणाए न भायणं फरुसरामो छ। ॥८ ॥ १ सत्यवचनः ।। २ परसस्कम् ॥ ३ 'पररिवर्थ' परद्रव्यम् ॥ ४ गुरुदुःखद्वन्द्वावलिम् ॥ ५ कर्णाक्षिनासिकानिनशिम् आश ॥ ॥२५४॥ +C+CAKANIANRAIHONOCEN+SASARA%A5%% AA%EC%ANASIRAHASASARAMEANAKAN REMEDIES जीववह-असच्चवयणाणं नियम जावजीवं ति । एवं च दो वि ताई जिणपूयापरायणाणि पडिवनाभिग्गहरक्खणपराणि कालं वोलंति । सविसेसं च पेतोसमावभो अग्गिसिहो उल्लवइ जहिच्छं-एयाणि बंभणकुलविरुद्धकारीणि सुदाण वि पाएसु पडन्ति, वेयविहियं च मग्गं नाभिनंदति ति । ___इतो य तनयरराइणा पारद्धो जागोवकमो, पउणीकया पसुपमुहा सामग्गी, 'जनकजकुसलो' ति निउत्तो जागकरणथं अग्गिसिहो, ठावितो अणिच्छतो वि तस्स समीवे सागरो ति । अह रत्तचंदणचचिकियकाएसु गलावलंबियकुसुममालेसु होमकरणथं सञ्जिएसु अजेसु तदणुकंपातरलियहियएण विन्नत्तो राया सागरेण-देव ! किं न सुयमिमं तुम्भेहिं जं 'अजसद्देण तिवारिसिगा वीहिणो भन्नंति न उण छागा' ? एत्थ य अत्थे नारय-पव्वयगाणं विसंवातो संयुत्तो, पब्वयगो य छागवह पडिजाणतो तमणुमचंतो य वसू वसुमईनाहो निहणं गतो ति, ता देव ! सम्ममालोचिउं अहिं वि वेयवियक्खणेहिं समं इमं काउमुचियं, सुनिच्छिया हि धम्मविहिणो वंछियफलसाहगा सुवेजविहियचिगिच्छ ब्व हवंति त्ति । राइणा भणियं-एवमेयं, सम्ममुवइ8, अम्हेहिं वि पुर्व सुयमिममासि, जहा-महाराओ वसू असचवयणातो आसणातो पीडितो परलोयं गतो, तप्पयवीवत्तिणो अन्ने वि अट्ठ भूवइणो परुडकुलदेवयानिहया मय त्ति, परं इमं न नायं जं छागवहाणुनामूलगमेयं ति । सागरेण भणियं-महाराय ! निस्संसय ऐयपुवगमेयमवगच्छसु त्ति । ततो जायचित्तचमकारेण राइणा आहओ अग्गिसिहो अन्ने य अज्झावगा, सुहासणत्था य पुच्छिया सवे-किमहो! १ व्यतिकाम्यन्ति ॥ २ प्रदेषमापनः ॥ ३ सुपैयविहितचिकित्सेव ॥ ४ पडि प्र. ॥ ५ एतत्पूर्वकमेतदवगच्छ । % Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभइसरिकिरहओ कहारयणकोसो । विसेसगुमाहिगारो। ॥२५५॥ KARAN स्थूलादचविरतौ फरुसरामकथानकम् ३६॥ एवं च सो पिउणाऽणुसासितो वि पुलपय; मग्गमचयंतो सल्लं व मंतिणो दुक्खकारणं जाओ। तह वि गंभीरयाए गरुयावच्चसिणेहवसओ य मंती न किं पि जंपित्था। अनया नरवइसंतियं वच्छत्थलाभरणमणेगमणिखंडमंडियं महामुलं महप्पभावं च घेत्तूण उवागतो रायपुरिसो । ततो तं आभरणं सक्खा करयले ठविऊण मंतिणो तेण भणियं-'इमं भंडागारे सुनिहियं कराविऊण सिग्घमागच्छसु' त्ति देवस्स आएसो । अह तप्पएसवत्तिणो कि पि नायसस्थत्थं विमरिसंतस्स फरसुरामस्स तं समप्पिऊण 'वच्छ ! सिग्घमिमं हाणे करेञ्जसु' त्ति भणिऊण य गतो राउलं मंती। परसुरामो वि तदेगचित्तयाए सबिंदियपसरं पडिकैमिऊण अत्थपयमबुज्झंतो जाव सम्मं विभाविउमारद्धो ताव 'निप्पच्चूह' ति कलिय कालियासुतो नाम दासो तं गहाय अवकंतो वेगेण । इयरो वि तदत्थमवयुज्झिय आभरणमपेच्छंतो सवत्थ पलोइउं पवत्तो । विद्यालसमए समागतो मंती, जाणिया तबिप्पणासवत्ता, सोगं च कोवं च परमुवागतो सो परसुराम साहिक्खेवं फैरुसक्खरेहिं भणिउमाढत्तो-रे रे दुरायार ! पुत्तच्छलेण अम्हकुलकवलीकरणाय कोणासो निच्छिय तुममवइन्नो सि, कहमनहा गहा वारितो वि वेरिभूयांतो नोबरमसि सत्थपढणातो ? इयाणि च रे दुह! कहं राया दट्टयो ? को वा एत्तो नरिंदपारद्धाणं सरणमग्गियो ? अहो ! अतकियमावडणं आवयाणं ति । एवं च सोगसंरंभनिभरं जपतो भणिओ पहाणजणण-भो मंतिवर ! किमेवं गंभीरिममवहाय कायरीहवसि? किंवा न नयसस्थपरमत्थं विभावेसि ? जहा १ अजल्पत् ॥ २ न्यायशास्त्रार्थ विमृशतः ॥ ३ कलयित्वा ।। ४ परुषाक्षरः ॥ ५ यातो नाव" खं० प्र० ॥ ॥२५५॥ अर्थनाशं मनस्तापं गृहे दुचरितानि च । वचनं चापमानं च मतिमान् न प्रकाशयेत् ॥१॥ तथा जइ नर्से वररयणं ता किं बोलेण लोयमज्झम्मि । हैल्लोहलेण केवलमवणिजइ अप्पणो गरिमा ॥१॥ 'एवमेयं ति मोणमल्लीणो अमचो । फासरामो वि अप्पणो पमाएण बाद संतप्पंतो 'अलं जणणी-जणगाइसंतावकारिणा इह निवासेणं' ति विणिच्छिऊण मज्झरत्तसमए निग्गओ गिहातो, पट्ठिओ उत्तरावहं । अविलंबियं च वच्चंतो पत्तो उत्तरावहतिलयभूय इंदपत्थाभिहाणं पुरवरं । वुत्थो बहिया उजाणे । रयणीए य सुतो तद्देससमीववत्तिककेल्लिसाहिणो हेट्टडियस्स धम्मजसनामधेयसाहुणो विजियवीणा-वेणुरवो सज्झायज्झुणी । तं च अवक्खित्तचित्तो परिभावितो परमवेरग्गोवगओ कह कहवि रयणिं अइवाहिऊण पभायसमए गतो मुणिसमीवे, वंदिऊण सव्वायरेण आसीणो तयंतिए । अच्चंतकिसियकायत्तणेण संभात्रियदुकरतवोबिसेसं, वणदवझामियतरुसरिच्छसरीरच्छवित्तणेण य उप्पेक्खियायावणं च तं भणिउमाढत्तो-भयवं! को एयस्स महादुक्करस्स तवोविसेस[स्स] करणे हेऊ ? जेण तुम्भे एवंविहं कहावड़कंतकट्ठाणुट्ठाणट्ठाणं घोरासम पवन ति । साहुणा भणियं-जह कोऊहलं ता कहेमि___ अहं हि तगरानगरीए पुरदत्तसेट्टिणो सुओ संवडिओ दोगॅच्चसमुचियदुक्कयनिवहेण सरीरेण य, तरुणभावमणुपत्तो य परिणाविओ य एग कुलवालियं, निउत्तो दबोवजणाईसु । मह दुकम्मोवकमियाउगो गतो पिया पंचतं । तमणुगंतुं पयर्ट्स सर्व धणाइ पलाइउं । तहा हि १ भाकुलतया ।। २ अधःस्थितस्य ॥ ३ अत्यन्तकृशितकायलेन ॥ ४ उत्प्रेक्षितातापनम् ॥ ५ दौर्गत्यसमुचितदुष्कृतनिवहेन । KASISEMESSAKCER+KAMANARRIOR धर्मयशोमुनेश्वरितम् Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + AAR देवभद्दसूरिविरइओ कहारयणकोसो॥ चिसेसगुणाहिगारो स्थूिलादत्त विरतौ फरुसरामकथानकम् ३६ । दबोवअणकजे जे बणियसुया हि पेसिया पुत्वं । देसंतरेसु तत्थेव ते ठिया दवमादाय ॥ १ ॥ धण-धनसंचया पुण सुडाणट्ठाविया वि तिव्वेण । खेमग्गिणा (१) निदड्डा निमेसमितेण नीसेसा ॥ २ ॥ परतीरपेसियं पि हु रित्थं बोहित्थभंगओ भटुं । चोरदुवारेण गयं घरसारं गोउलाई वि ॥ ३ ॥ नो एत्तिएण वि ठियं भोयणसमए ममं निविदुस्स । खंडोखंडिं भायणभंडाई गयाइं इंताई ॥ ४ ॥ तो अचंतविसनो अकयाहारोऽहमुडिओ तत्तो । हा हा ! कि[मेय मेयं ? ति बाउलो नयरबाहि गओ तत्थ य साइसयमुणि बंदिय विणएण पुच्छिउं लग्गो । भयवं! निब्भग्गेणं मए कयं किमवरभवम्मि १ ॥६॥ जं एवंविहदोगचभायणं संपयं अहं जातो? । णेगेहिं पगारेहिं पुवञ्जियमवि धणं नहूँ ॥ ७ ॥ तेण भणियं-बच्छ ! पुत्वजम्माणुट्ठियादत्तादाणदुबिलसियमिमं सम्ममवधारेसु । तुमं हि कोसंबीए संबाभिहाणो वणियपुत्ती पवनपाणिवहा-ऽलियवेरमणो अदत्तादाणविणिवितिं काउमणो गुरुणा भणिओ-भो महाणुभाव! सम्ममिमं सविसयं जाणिऊण पचक्वाहि जेण सुपच्चक्खायं हवइ । तुमए भणियं-भयवं! जहा सुपचक्खाय होह तहा आइक्खसु-त्ति वुत्ते गुरू वि कहिउं पवत्तोपरदबस्सादिनस्स गहणविरई अणुव्वयं तइयं । थूलं सच्चित्ताई दवं विसतो य एईए ॥ १ ॥ दुविहतिविहेण तइए अणुबए इह गिही पवनम्मि । जाणिजा अइयारे पंच न सेवेज य कयाइ ॥२ ॥ तहाहि१"ट्ठाणुट्ठा' ख. प्र. ॥ २ जाणेज्जा प्र० ॥ धर्मयशो ॥२५६॥ मुनेः पूर्वभवः अदत्तविरतेः स्वरूपम् ॥२५६॥ तथाहि-अत्थि पंचालभालवडविसिविसेसयाणुगारं तुंगागारपरंपरापडिदिसावगासं कंपिल्लं नाम पुरवरं । वसीकयासेससामंतचको चकेसरो नाम राया, सवरामागुणाभिरामा वसुंधरा से भजा । रजकजचिंतासजो अज्जुणाभिहाणो य मंती, देवई य तस्स गेहिणी, विणयाइगुणगणाणुगतो य फरसुरामो ताण पुत्तो । सन्चे चि गयाबाहं कालं बोलेंति । सो य फरुसरामो अणक्खित्तचित्तो विलासिणीसु, असम्मूढो जूएसु, अणभिलासो गेय-नट्ठाईसु, केवलं सुकाबिरइयकवपबंधवियारे वागरण-मईद-समयसत्थगूढपयत्थपरित्राणे य गाढाभिरइसंगतो नाभिनंदर सिंगारं पि, न बहुमनइ सुहि-सयणगोढेि पि, न चिंतइ गेहकअं पि, जं किं पि भोयणमेतं काऊण दिवा-निसं बुहयणमज्झगतो चिट्ठा त्ति । तं च तहा गिहकजपरम्मुहमवलोइऊण पिया भणिउं पवत्तो-- वच्छ ! न कवं भवं पि छुहवियारं न तारिउं तरइ । वागरणं पि न सरणं दहसंतत्ताण सत्ताण छंदा-ऽलंकारा पुण कारा इव बंधणाय न धणाय । कयकंठसोसदोसा नीसेसं समयमग्गा चि ॥ २ ॥ ता पयडमेव दिद्वत्थसाहगे नणु तिवग्गफलजणगे । सुप्पडिविहिओ होउं बट्टसु गिहकञ्जकप्पदुमे ॥ ३ ॥ इय सम्भावुभडवयणपिर पेहिउं पि सो पियरं । परिहासकर ति विभाविऊण ईसिं पि नो खमिओ ॥ ४ ॥ पुवुत्तसत्थसवणातो नेव गिहचिंतगो वि संवुत्तो । जो जत्थत्थी न स तस्समुत्थमहवा मुणइ दोसं ॥ ५ ॥ आगारिंगियवसओ जे मज्झत्था मुणंति ते कजं । इयरे पुण पुणरुत्तं पि सासिया तं न बुझंति १ पाशालभालपृष्ठविशिष्टविशेषकानुकारम् ॥ २ सुहृत्स्वजनगोष्ठीमपि ॥ ३ सद्भावोगरवचनजस्पितार प्रेक्ष्य ॥ ४ तत्समुत्थम् ।। CASEARABINDAGANICAAR Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थूलादच विरतौ फरुसरामकथानकम् ३६ । देवमदसरि-ॐ डारिहत्तणेण य चोरिकभावाओ भंगो चेव, तहावि 'मए वाणिजमेव कयं न चोरिक' ति बुद्धीए बयसावेक्खत्तणेण लोए य विरहओ 'चोरोऽयं ति ववएसाभावाओ अइयारो एसो त्ति ३। तहा कूडतुलाइववहारो तप्पडिरूवयाववहारो य परवंचणेण परधण- | गहणातो मंगो वेव, केवलं 'खत्तक्खणणाइरूवं चेव चोरिक, कूडतुलाइ तप्पडिरूवं च वाणिजमेवेयं ति बुद्धीए वयरक्खणुञ्जकहारयण यत्तणेण अइयारो चेव त्ति ४ । ५ । अहवा तेनाहडगहणाइणो पंच वि फुड चोरिकरूवा चेव, केवलं अइक्कम-वइकमाईहिं वा कोसो॥ पगारेहिं कीरमाणा अइयारत्तेण भवंति । विसेसगु इय पंच वि अइयारा परिहरियव्वा वयं पवनेण । फेलिहुजलो वि हु पडो कलंकिओ सोहए न तहा ॥१॥छ । माहिगारो। इमं च सम्मं गुरुमुहाओ तुमए निसामिऊण भावसारं जावजीवं दुविहं तिविहेण पडिवन्ना अदत्तादाणनिवित्ती, अणुसासिओ य गुरुणा, गतो तुमं नियगेहं, जहोवइट्ठाणुढाणपरो य कालमइलंघेसि । जायाओ य अट्ठ धूयाओ, विसनो चित्तेणं, कालकमेण जहारिहं परिणावियाती समाती । नवरं तदुत्तरोतराणवरयकिचकरणेण चेव गयं गेहसारं । एवं च निद्धणीहूओ तुमं । ततो विसीयमाणगिहजणावलोयणेण मंदीहूया धम्मवासणा । 'कह दवमजियेच ?'-न्ति जातो सि तदेगचित्तो। अग्नया हट्टनिविट्ठस्स तुह तन्निवासिणों तकरा अनत्थ खत्तक्खणणाइणा कंस-दूसाइ घेत्तूर्ण उ[व]ट्ठिया काणकएण ॐा दाउं । 'भृरिलाभसंभवो' ति गहियं तुमए । 'चोरिक्कमकुणंतस्स को एत्थ दोसो ? त्ति जाओ पढमाइयारो १। अह तैविकय[स]मुवलद्धभूरिलामेण तुमए लोभाभिभूयत्तणेणाविभावियविरहमालिन्नेण भणिया ते तकरा-अरे! १ स्फटिकोजावलोऽपि हि पटः ।। २ यवं ? ति प्र. ।। ३ तहिकयसमुपलम्धभूरिलाभेन ॥ ॥२५॥ किमेवमच्छह ? न गच्छह चोरियं काउं ? जइ मे कुटुंबाइ सीयइ ता अहमुद्धारगाइणा भलिस्सामि, आगयं च तुम्ह मोसं अवसं विकिणिस्सामि त्ति । एवं च जंपिरस्स उवडिओ बीतो अइयारो २। इओ य तनयरीनिवासिणो राइणो जाओ सीमालरन्ना समं विक्खेवो । कयचाउरंगवलसंवाहा य दो वि ठिया पंचजोयणंतरियाए महीए । धन्नाईणमपवेसा महग्घीभूयं सर्व सीमालराइणो खंधावारे । अस्थि य इयररनो सिविरे पउरधणकणाइप्पवेसो । केवलं राइणो निसेहो-न केणइ अप्पणो कुसलकामिणा सीमालसेने धनाइ नेयत्वं ति । इमं च सोऊण वि तुम अविगणिय उभयभवियावाओ पट्टिओ धन्नाइसमेओ रयणीए । वच्चंतो य पावितो अंतरे निउत्तेहिं रायपुरिसेहि, उवणीओ रनो, सबस्समादाय मुको सरीरमितेण । एवं च तइओ अइयारो अवाओ य संपनी एयस्स ३ । अह अवहरियसव्वस्सो लजाए सेनमज्झे अच्छिउमसकंतो संकंतो एगं कुग्गामं । तत्थ वि ववहारविसुद्धीए अनिवतो चेव चउत्थमइयारभारमणवेक्खिय कूडतुल-कूडमाणेहिं ववहरिउ पयट्टो सि ४ ।। तत्थ वि अविसिटुं पि धन-घयाइ विसिट्ठधनाइमीलणेण तप्पडिरूवं काऊण ववहरतेण अंगीकओ पंचमो वि अइयारो ५। एवं अजियमाणो वि अत्थोऽवस्सं वरिसावसाणे चोर-जला-ऽनल-नरिंदाइउवद्दवेण 'अनायावञ्जिओ' चि वच्चइ खयं, तह वि तुम केचिरं पि कालं वट्टिय पजंते तस्सऽइयारनियरस्स आलोयण-निंदणाइ अकाऊण मओ उववन्नो किचिसियसुरेसु । तत्तो चुओ संपर्य एस ऍवभवकयसाइयारादिभादाणविरइदोसेण अञ्जियंतरायवसओ पणट्ठसवदवाइसंचओ बद्दसि ति ॥ छ । १ बीओ अप्र० । द्वितीयः ॥ २ अन्यायावर्जितः ।। ३ पूर्वभवकृतसातिचारादत्तादानविरतिदोषेण अर्जिताग्तरायवशतः ॥ *MACHAMASRAECSEARC554CCASIA KORERAKARSACES Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभहसरिविरइओ कहारयण कोसो ॥ विसेसगुपाहिगारो। ॥२५८॥ विरतौ फरुसरामकथानकम् ३६। ************** इमं च सोचाऽणुसरियपुत्वभवो हं तदुक्कयक्खवणत्थं पक्वजं पवनो, विविहतवोविसेसेहिं य अप्पाणं झोसिंतो एवं विहरामि त्ति | तहातइयत्वयमुद्धिकए अणणुनाय तरूण छायं पि । बजेमि नो तणाइ वि गिहामि परेण अविदित्रं ॥१॥ अणुजाणाविय खेत्ताहिवं च सुन्नं गिहं सुसाणं च । सेवेमि सबकालं चिरदुकडमणुसरंतो हं ॥२॥ छ ।। इय सोउं संविग्गो मंतिसुओ नमिय साहुणो चलणे । भत्तिभरनिभरंगो थोउं एवं समाढतो ॥१॥ तुममिह परमिको पूणिजाण पुजो, सयलगुणनिहाणं वट्टसे तं च एको। तुह जसनिवहोऽयं हार-नीहारगोरो, दससु दिसिमुहेसुं वित्थरंतो न माइ अहमवि नणु धन्नो दुक्खसिंधुं च तिन्नो, तुह पयपउमाणं जो समीवम्मि पत्तो । हरि-मिहिर-विरिंचीणं पि अप्पं अणप्पं, सुकयसमुदएणं नूण मन्नामि दूरं एवं सुचिरं धुणिय साहुचलणकमलुच्छंगारोवियसिरोमंडलो फरसुरामो पयंपद-भयवं! ममं पि अदिमादाणस्स देहि जावजीवियं निवित्ति, तुह वित्तंतसवणातो नियत्तं घरवासाओ वि मम मणं, किं पुण अदिनादाणाउ ? ति । मुणिणा भणिय कसरेहिं व उक्खिप्पंति रहसभरतरलिएहिं गरुयभरा । अद्धपहे चिय मुचंति नवरि खिनेहि केहिं पि ॥१॥ १ र एको प्र०॥ २ आत्मानं 'अनल्पम्' अन्यूनम् , समानमिति यावत् ॥ ३ स्तुत्वा साधुचरणकमलोत्सझारोपितशिरोमण्डलः ॥ ४ "कल्होडेहिं" इति प्र० टिप्पणी । अधमवलीवरित्यर्थः, उरिक्षप्यन्ते ॥ ASHASASAKACANCERARANCE% ॥२५८॥ अदत्तविरतेरतिचाराः तत्स्वरूपं च ****%%%ARKARI वजह इह तेनाहड तकरजोगं विरुद्धरजं च । कूडतुल कूडमाणं तप्पडिरूवं च ववहारं ॥ १ ॥ तेनाहडं ति चोरेहिं आणियं चोरिऊण परदवं । काणक्कएण लिंतो लोमेणं अइयरह विरई। ॥ २ ॥ वावारेई चोरे किं चिट्ठह ? नेव चोरियं कुणह ? । उद्धारदाणतो वा तकरजोगो त्ति अड्यारो ॥ ३॥ नियराहणो विरुद्धो जो राया तं वएज लोमेण । नियपहुपडिसिद्धो विहु अइयारे व तइए ।। ४ ।। ऊणमहियं व कूडं माणं व तुला व होञ्ज तो तेहिं । दितो गिण्हंतो वा अइयार सेवइ चउत्थं ॥ ५ ॥ तेण घय-वीहिणा वा सरिसागारं बसा-पलंजाइ । जम्मि चवहारम्मितं तप्पडिरूवववहार ॥ ६ ॥ अहवातप्पडिरूवं नव-जुनधनपमुहाण मीलणेण फुडं। पवरं ति ववहरंतो पंचममइयारमणुसरइ ॥ ७ ॥ इय तेसु अइयारेसु एवं भावणा-तेनाहडं काणकएण पच्छन्नं गिण्हंतो चोरिक्कातो वयभंगे वइ, 'वाणिजमेयं मए कीरइ न चोरिक' ति वयसावेक्खत्तणेणं पुण नो भंगो, एवं च से भंगा-ऽभंगरूवो अइयारो त्ति १ । तकरजोगो वि जह वि दुविहतिविहपडिवनचोरिकविरहणो पयडो च्चिय भंगो, तहा वि 'कीस निव्वावारा अच्छह ? जे नस्थि तमहं देमि, आणीयं विकिणेमि य' इच्चाइ चोरे वावारिंतो वि नियबुद्धीए तबावारणं परिहरइ ति वयसावेक्खत्तणेण अईयारो त्ति २ । विरुद्धरजाइक्कमो वि जइ वि "सामी-जीवाद, तित्थयरेणं तहेव य गुरूहि ।" इच्चाइयणातो अदिनादाणलक्खणजोगेण रायदं १ लान्' आददानः ॥ २ "हिणो बा . प्र. ॥ ३ द्विविधत्रिविधप्रतिपन्न चौर्यविरतेः ॥ ४ जन्मस्थि सं० ॥ ५ इयर ति सं० ॥ ६ वहणा" खं० ॥ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरइओ कहारयण कोसो ॥ विषयमाहिगारो । ॥२५९॥ *% *% *% * ---- अवरवासरे पंढरपडकयावगुंठणस्स परसुरामस्त सेट्ठिसमीवे उवविस्स सो कालियासुओ दासो तं अण राइणो आभरणं चेतुमागओ तं पएसं । 'पुरपहाणो' त्ति दंसियं सेट्ठिस्स । 'महामोल्लं नरिंदा चेव घेत्तु पारिंति एवं ' ति पसंसियं सेट्ठिणा । अह ससंभ्रमं विष्करियच्छिणा पेच्छंतेणं फरुसरामेणं तं च दासो य पञ्चभिजाणिऊण सवणमूले सिट्ठी तेव्वृत्तंतो सबो सेट्ठिस्स । संभासिओ य एसो – रे कालियासुय ! कत्तो आगतो सि १ चि । 'अहह ! कहं एसो अमच्चसुतो ?' ति मुणंतेण वि आगारसंवरं काऊण अपञ्चभिजाणमाणेणं व जंपियमणेण भद्द ! को तुमं ? कैत्तोच्चयं वा मए सह पञ्चभिजाणं ? ति । परसुरामेण भणियं -रे मुद्ध ! थोर्वेदिणावगमे वि विस्सुमरियं ? किमम्ह पिउणो कंपिल्लपुर परमेसरामच्चस्स दासो न हवसि तुमं ? । तेण भणियं सरिसाकारदंसणेण विप्पलद्बो सि, अनो कोइ सो, अहं हि तं पुरं सुमिणे त्रि न पेच्छतो त्ति कत्तोच्चयं दासत्तं ? । सेट्टिणा भणियं - होउ ताव, तुमं भद्द ! सासु- - कत्थ वत्थवो ? कस्स वा एस अलंकारो ? कहं वा लब्भइ ? ति । तेणावि घिट्टिमामेण भणियं - अहं हि रोहणाहिवइणो सेबगो गंगो नाम, सामिणो आएसेण तदलंकारं विकिणिउवागतो, सुवनलक्खेण एस विकिणियो त्ति । सेट्टिणा भणियं-रे रे मुद्धमुह ! मिच्छे पि भासिउं न बुज्झसि । तुच्छं पि रयणमेयस्स लहइ कणयस्स लक्खमेकेकं । किं पुण तस्समुदातो के लहेज ? को इय बियाणेजा ? ।। १ ।। ६ * * एतचि १ विस्फारिताक्षेण ॥ २ तद्वृत्तान्तः ॥ ३ कुतस्त्यं वा मया सह प्रत्यभिज्ञानम् ॥ ४ स्तोकदिनापगमे ॥ ५ घार्यावष्टम्भेन ॥ हमध्यवती पाठः सं० प्रतौ पतितः ॥ ॥ २ ॥ || 2 || ॥ ४ ॥ ॥ ५ ॥ ॥ ६ ॥ अह अणुवलद्वाभरणो सहुलिमादाय 'अन्नाओ अन्नाओ' त्ति सो वाहूरंतो गतो राउलं । पुच्छिओ रन्ना — किमेयं १ ति । सिडो तेण आभरणावहारवृतो । ततो आणाविओ सेट्ठी फरुसरामो य, पुच्छिया य तैवइयरं । आमूलाओ चिय सिट्टो परसरामेण तवइयरो । खित्ता राहणा कालियासुयम्मि दिट्ठी । तेण भणियं - देव ! सर्व असच्चमेयमुलवह परघणगहणाभिलासेण एसो, एत्थत्थे दुट्ठदेवयाए वि पुरतो अप्पाणमहं विसोहेमि त्ति । ततो कोऊहल्लेण आणाविऊण पलोइओ सो अलंकारी राहणा । जाओ से तग्गहणाभिलासो । भणिओ य कालियासुओ - अरे ! जइ सच्चं मुँह संतिओ एसो निद्दोसो य [तुमं] ता इमं चंडियादेवयं एत्तो दुट्ठमच्छ कच्छभ मगरागरभूयाओ पुक्खरणीओ अंगाह- सच्छसलिलपडिहच्छातो कमल- कल्हार-सयवत्ताई आहरिऊण एसु ति । इमं च सोचा दुट्ठो वि घिट्टिमाए सच्चसावणं काऊण कालावलोइय व राइणो रयणाणमागरो रोहणी ति एक इमं भणियमुचियं । जं पुण तम्मुलवणं तं नजइ सहा मिच्छा अहवा कस्सर चिरसुकयसालिणो वंचणापगारेण । पंत्तमिमं मुंहविडं कहमेसो जाणउ वरागो १ सोऊण इमं रुट्टो सो भणइ किमेवमणुचियं वयसि १ । सो हं जो परसंतियमाभरणं देमि हरिऊण १ ता होउ सेंमप्पह मज्झ संतियं एयमन्नहिं जामि । तुम्हारिसजणजोगे जीयस्स वि होइ परिहाणी सेट्ठी तमप्पमाणो पडिसिद्धो तयणु फरुसरामेण । सो चेव अम्ह दासो चोरो त्ति पर्यापमाणेण १ ‘तन्मूल्ययनम्' तम्मूल्यकरणमित्यर्थः ॥ २ प्राप्तमिमं मूल्ययितुम् ॥ ३ मोल्ल प्र• ॥ ४ समर्पयत मम सरकम् ॥ ५ शाखामादाय 'अन्यायः अन्यायः ॥ ६ तयतिकरम् ॥ ७ तव सत्कः । ८ अगाधस्वच्छ सलिलपूर्णात् ॥ ९ पूपसित्ति खं० ॥ स्थूलादत्तविरतौ फरुसरामकथानकम् ३६ । ॥२५९॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमहरि-3 विरहओ कहारयणकोसो॥ मिसेसगुपाहिगारो। ॥२६॥ नगरजणस्स य पेच्छंत्तस्स पविट्ठो पोक्खरणीए । पवेससमणंतरमेव खंडाखंडि काऊण खद्धो छुहाकिलंतेहिं मच्छाइदुहृसत्तेहिं । 'एगो पडिपंथी जमपुरपंथं पवन्नो' त्ति परितुद्वेण रन्ना भणिओ परसरामो-भद्द ! तुम पि एवंविहविहाणेण अप्पणीकाऊण गिण्हसु एयं ति । 'जं देवो आणवेई' त्ति भणिऊण ण्हातो सेयपरिहियवत्थो अक्खुद्धचित्तो पंचपरमेट्टिमंतमणुसरंतो पुक्खरणी पविसिउमाढतो।। अह सोवाणतलाओ जा चरणं सो ठवेह सलिलंतो। ता चलणडओ ठवियपट्ठिमभुट्टितो मगरो ॥१ ॥ तो तदुवरि मुक्ककमो सलिलेणं थोवमवि अंछिप्पंतो। भमिओ पोक्खरणिं कमल-कुवलयाई य घेतूण ॥२॥ अहह ! महच्छरियमिमं ति जंपिरेणं च नयरलोएण । दंसिजंतो अंगुलिसएहिं तत्तो विणिक्खंतो ॥ ३ ॥ अह अक्खयदेहं मंगरपट्टिमुज्झिय समागयं द₹ । तं खोणिवई अप्पत्तवंछिओ चिंतए एवं ॥ ४ ॥ एत्तो हढेण गिण्हामि जइ इमं निच्छियं अलंकारं । ता रुभिउ न तीरइ अवजसपंसू पसरमाणो. ॥ ५ ॥ इय होउ ताव पेसेमि नियगिहे इममिमं च पुरलोयं । पच्छा किं पिउवाय काउं एयं गहिस्सामि ॥ ६ ॥ एत्थंतरे सेट्टिणा विनतो राया-देव ! न होइ एस महाणुभावो परसुरामो सामन्नो, किंतु कंपिल्लंभूवईअमच्चपुत्तो, अलंकारावहरणनिमित्तेणेव एत्तियं देसमणुपत्तो, ता पसायं काऊण समप्पेह अलंकारं, जहोचियं सम्माणिऊण विसञ्ज संहाण-न्ति । राइणा जंपियं-एवं कीरइ, केवलं भुजो विनवेन्जासि । 'जं देवो आणवेई' त्ति गया सबे जहागयं । राइणा १ आत्मीकृत्य ॥२ अस्पृश्यमानः ।। ३ मकरपृष्ठिमुग्शित्वा ॥ ४ रोद्धम् ॥ ५ ल्लनरवई प्र० ॥६"ह सट्ठाणे ति प्र. ॥ ७ स्व स्थानम् ॥ वास्थूलादत्त विरतौ फरुसरामकथानकम् ३६। SASARE+ H॥२६॥ KAKK+KARANASAKARANISEARRINARRRRAKASARO तविहविरईगहणे वि नो गुणो थेवतो वि संभवइ । अवि सकलंकायरणम्मि पञ्चवाओ ममं व भवे ॥२॥ फरसरामेण भणियं-भयवं! एवमेयं, केवलं तुम्ह दंसणाणुभावेण सिज्झिही अक्खंडियमिमं । ततो साहुणा दिना अदिनादाणस्स विरई । ततो सो कैयकिच्चमप्पाणं मनंतो वंदिऊण साहुं पविट्ठो नयरमज्झे ! वणियपहाणेण जयदेवसेट्टिणा समं च कओ परिचतो । जाओ य पइदिणदसणेण 'सुगुणो' त्ति तम्मि पैक्खवातो सेट्टिस्स। ___अमम्मि य दियहे तेण समं सेट्ठी गओ पोक्खरणिं । कयमुहविसुद्धि-करचरणपक्खालणो य तप्पएसे च्चिय अंगुलीगलियमहामोल्लमुद्दारयणो पट्टिओ सगिहं । तं च परसुरामो घेत्तूण लग्गो तदणुमग्गेण । अह जाव गेहं न पावइ सेट्ठी ताव मुद्दारयणवियलमंगुलिं पलोइऊण जायगरुयदेहदाहो इओ तओ पलोइंतो वलिओ तेहिं चेव पएहिं पच्छाहुतं । मुणियाभिप्पारण य पुच्छिओ परसरामेण सेट्ठी-किमेवं बाउल व पच्छाहुत्तं ओसकसि ? ति । सेट्ठिणा भणियं-बच्छ! मुद्दारयणं कहिं पि पब्भहूँ न नजइ । 'वीसस्थो होसु' ति भणिरेण य तैमोप्पियं परसुरामेण । तैकालविढत्तं व तं मनंतो परितुट्ठो सेट्ठी पुच्छह-वच्छ ! कहिं लद्धमिमं ? ति । तेण भणियं-पोक्खरणीतडे ति । 'अहो ! अज वि अणवगासो कलिकालस्स, अविच्छेओ सुपुरिसचरियस्स, जत्थ एवंविहा महाणुभावा रेणुं व अवगणियपरधणा सक्खा दीसंति' ति विभाषितो सेट्ठी पविट्ठो नियभवणं । इयरो वि गओ सठाणम्मि । .१ स्तोकोऽपि ॥ २ कृतकृत्यम् आत्मानम् ॥ ३ परिचयः ॥ ४ पक्षपातः ॥ ५ मुबारत्मविकलामगुलिं प्रलोक्य ।। ६ व्याकुल इव पक्षान्मुख अवष्वाकसे ॥ ७ तमपि प्र० । तदर्पितम् ॥ ८ तत्कालार्जितमिव ॥ RS+ACTONCE%ACARANARASWER Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इति स्वतुल्य द्रविणापहारे, दुःखं परेषामपि लक्षयित्वा । स्वमेऽपि नैवान्यधनापहारबुद्धिं विदध्याद् विबुधः कदाचित् ॥ ४ ॥ इति श्रीकथारत्नकोशे तृतीयाणुव्रतगुणचिन्तायां फरसरामकथानकं समाप्तम् ।। ३६ ।। ॥ देवमहरिविरहओ कहारयणकोसो।। विसेसगुमाहिगारो। स्थूलमैथुनविरतौ सुरप्रिय| कथानकम् ३७। मैथुनविरतेः स्वरूपम् ॥२६ ॥ पाणिवहाँइनिवित्ती सोहं पाउणइ जं विणा नेव । मेहुणनिवित्तिविसयं तं तुरियमणुवयं वोच्छ मिहुणस्स कम्म मेहुणमहम्मकम्माण मूलपारंभो । थंभो य दुग्गदुग्गइबहुभूमियगरुयगेहस्स ॥ २ ॥ मेहुणसनाभिरओ नवलक्ख बहेइ सुदुमजीवाणं । तैत्तायकणयनलियापवेसनाएण पयडमिणं ॥ ३ ॥ जो एत्तो विरयमणो तं देवा वि हुनमंति भत्तीए । सिज्झंति मंत-विजा य तस्स दूरं दुसज्झा वि ॥४ ॥ पाणिवप्पमुहाणं उस्सग्ग-ऽववायतो अणेगंतो । दिट्ठो न मेहुणे पुण रागाईणं हि सम्भावा ॥ ५॥ कुणउ तवं पढउ सुयं भुंजउ तरुपडियपंडुपत्ताई । जइ महई मेहुणं तो सो न मुणी केवलं वसणी जे के जयम्मि गया परं पसिद्धिं च परममभुदयं । पञ्जन्तं वा परमं तं मेहुणचागमाहप्पं । ॥ ७ ॥ पासम्मि नेव सप्पइ सप्पो दूरं सरंति य पिसाया । डकारडामराओ वि डाइणीओ न बाहिति ॥८ ॥ १ 'हाउ नि सं० प्र० ।। २ अधर्मकर्मणाम् ॥ ३ ततायःकनकनलिकाप्रवेशज्ञातेन ॥ ४ कासति ॥ ५ जतं वा सं० प्र० ॥ |६ बाधयन्ति । ॥२६॥ XACCRHAARAKASCAMERASNORNSARKAXAXACAN SACARRANA%A4%AKSARASACRONACHARACHAR दुट्ठा चि हु अणुकूला हवंति पसमंति दुनिमित्ताई। मेहुणविरंयमणाणं नरसीहाणं किमिह चीजं? ॥९॥ पडिपुनभनिरया लहंति मणवंछियं किमच्छरियं । परदारवजिणो वि हु अअंति सुहं सुरपिउ ॥१०॥ तहाहि-अस्थि मगहाविसयप्पहाणं रायगिहं नाम नयरं । जं च अणवरयजयगुरुवीरजिणविहरणपसंतमारि-दुन्भिक्खाइदुक्खनिवह, निस्सीमसम्मत्तगुण विम्हइयसुरवइस लहियमहारायसेणियसच्चरियकुसलथेरनरं, निदरिसणं व सेसनयराणं, ठाणं व अच्छरियाणं, उप्पत्तिपयं व धम्मस्स । तत्थ य वत्थत्वो तिवैग्गसंपाडणपहाणवावाराणुगओ महुसूयणो व निग्गहियनरयावाओ सुदरिसणसमलंकिओ य जनप्पिओ नाम बंभणो अहेसि । जेण य पहासगणहरस्स पबजोवगयस्स समीवे 'बंधवो' त्ति संसारियपडिबंधमुव्वहंतेण भावसारं पडियन्त्रो महावीरजिणो देवबुद्धीए, सुतवस्सिणो य गुरुत्तणेण, सहायरमणुव्वयाइधम्मपडिवालणपरो य अच्छई। तस्स य वासिङ्कसगोत्ता जन्नजसा नाम भजा । पुत्तो य पुचजम्मबाल-गिलाणाइपडियरणावञ्जियसुकयसंभारो सुरप्पिओ ताणं । कलाकोसल्लेण देहोवचएण उदग्गसोहग्गगुणेण य वड्डिमणुपत्तो, परिणाविओ य अणुरूवकुलप्पसूर्य दुहियरं एसो। अवरवासरे य देववंदणस्थमागच्छंतो धम्मगई नाम सुतवस्सी ओहिन्नौणमुणियभूय-भविस्स-बट्टमाणो भगवया पहा १'रइम' सं० ॥ २ अनवरतजगद्गुरुचीरजिनविहरणप्रशान्तमारिदुर्भिक्षादिदुःखनिचई निस्सीमसम्यक्त्वगुणविस्मितसुरपतिलापितमहाराजश्रेणिकसनरितकुशलस्थविरनरम् ॥ ३ त्रिवर्गसम्पादनप्रधानण्यापारानुगतः ॥ ४ मधुसूदनपक्षे निगृहीतनरकासुरापाय: सुदर्शनाख्यचकालतच, अन्यत्र निगृहीतनरकगत्यपायः सम्यग्दर्शनाल तथ ॥ ५ अवधिज्ञानज्ञातभूतभविष्यमान: ॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभइसरिविरहओ कहारयण-1 कोसो ॥ विसेसगुबाहिगारो। ॥२६२॥ स्थूलमैधुनविरतौ सुरप्रियकथानकम् ३७। सगणहरेण वुत्तो-जया रायगिहं गच्छसि तया पढमपडिवसम्मत्तगुणं जनप्पियं बंभणं अणुसासिज्जासि त्ति । इमं च | 'तह' त्ति पडिसुणिय अणिययविहारवित्तीए आगतो सो तत्थ । पत्थावे य तेण पएसेण उवागतो समाणो पविट्ठो जन्नप्पिय मंदिरे । दाउ च्चिय अम्भुट्टिओ तक्खणविमुक्कासणेण 'सागयं सागयं' ति पयंपतेण हरिसुल्लसिररोमंचेण सपरियणेण जनप्पिएण । निस्सिङसमुचियविहरे य उवविट्ठो एसो सकुडुबेण बंदिओ अणेण । धम्मलाहिओ य साहुणा, भणितो यवंदाविअसि देविंदविंदवंदिजमाणपयपउमं । बीरं सुरगिरिधीरं मोहमहाजलहरसमीरं ॥१ ॥ पुर-नगर-खेड-कम्बड-मडंब-संबाह-निगमनिलयाई । अरहंतचेइयाणि वि निम्मलगुणसंघमवि संघ ॥ २ ॥ भयवं च जयपयासो सिरिप्पहासो गणाहियो तुज्झ । दुहायामयबुढेि दवावए एयमणुसहूिँ ॥ ३ ॥ एसा हि अणहजाई-कुल-रूया-ऽऽरोग्गमाइसामग्गी । दुलहा पुणो वि ता धम्मकम्मविसए जेएआहि ।। ४ ।। विसहर-हरिणारि-सुकूरवेरवेयाल-डाइणीहिंतो । अच्चंतदारुणो नि ग्घिणो य एसो पमाओ वि। तह कह वि वट्टियवं जहाऽवगासं पि एस नो लहइ । एएण विणिहयाणं पहजम्मं दुक्खदंदोली विसहरमाईणं पुण कीरइ मताइणा वि निग्गहणं । एयरस निग्गहो पुण काउं तीरइ न हरिणा वि ॥७॥ अविणिग्गहिया वि हु विसहराइणो इहभवि चिय हणंति । हणइ पुण णतखुत्तो पइजम्मं ही! पमाओऽयं ॥८॥ तथा१ 'यं वरुणं असं. ॥ २ अनुशासिष्यसि ॥ ३ पयंपेण खं० प्र० ॥ ४ 'दादाम प्रसं• । दुःखदाबामृतवृष्टिं दापयति एतामनुशिष्टिम् ।। ५ यतिष्यसे ॥६ निर्पणः ॥ दुःखदन्द्रावलिः ॥८अनन्तकृत्वः । ॥२६२॥ FROHRARHIRSANARASW AROOPSISASit वि जेण पएसेण परुसरामो चाहिं सरीरैचिंतं काउं बच्चह तम्मि पर्चइयनियपुरिसेहिं हाणे हाणे खिवाविया मुद्दियाइणो पयत्या । तरुअंतरियसरीरेहिं नरेहिं पलोयाविओ 'एसो गिण्डइ ? न व ?' ति । फरुसरामो वि तं ठाणे हाणे विप्पइ सुवभमुद्दिगाइ पेच्छंतो वि ईसि पि अणभिभविजंतो लोमेण साहु व अइकमिय गतो समीहियप्पएसं, तहेब पडिनियत्तो य । सिट्ठो य * ऐस वइयरो पुरिसेहिं रायस्स । ततो परिचत्तासुंदरज्झवसाएण तेण सकारपुरस्सरं अलंकारं समप्पिऊण विसजिओ पकसरामो । अह सेट्टिपमुहपहाणलोयनिवेइयवत्तो सुमुहुत्तम्मि विसिट्ठसस्थसमेओ गओ कंपिल्लपुरं, पविट्ठो नियघरं, परितुट्ठो पिया, समप्पिओ अलंकारो, सिट्ठो य* कालियासुयवुत्तो । मुणियवइयरेण पूइओ राइणा, पसंसिओ पुरजणेणं । इय एस महप्पा इहभवे वि पूयं जसं च किति च । अत्थं च समणुपत्तो पैरधणविणि वित्तिमुकएणं ।। १॥ अपि च दुद्धिधाम परचित्त-शरीरतापतीवानल: कलिलसम्भवमूल कर्म । दौर्गत्यदुःखवनवर्द्धनवारिसेको, हेयः सतां परधनग्रहणाभिलाष: चौर-क्षितीश्वर-कृशानु-जलप्लवायैरुयाति नैव निधनं च धनं तदीयम् । यैर्नान्यजन्मनि कथश्चिदिवास्यवित्तमोषाभिलापलवमात्रमपि व्यधायि । ॥ २ ॥ एकाक्यपि द्रविणराशिविवर्जितोऽपि, यत्र क्वचिद् ब्रजति नूनमदत्तवर्जी । क्षीणान्तराय इति तत्र सुवर्णकोटीरावर्जयेदमिमतब भवेत् परेषाम् १ 'रकाउ चिंतइ तम्मि सं० ।। २ विश्वस्तनिजपुरुषः ॥ ३ ++ एतचिलमध्यवती पाठः सं० प्रती पतितः ।। ४ परधनविनिवृत्तिसुकृतेन ॥ अदत्तादानस्य दोषाः, तद्विरते. गणाध Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमहसूरिविरहओ कहारयण कोसो ॥ विसेस माहिगारो - ॥२६२॥ कुसलमजायं नाइकमइ तहावि ॥ १ ॥ ॥२॥ कह तीरद्द पडिखलिउं उइए तारुननिमाचंदे । सबतो पसरतो वियारमयशयरो भीमो १ वायंबु सुकसेवालभोइणो साहुणो वि जेण जिया । मयणस्स तस्स एवंविहेसु मुद्धेसु का गणणा १ गणहर पहाससीसस्स मज्झ होउं सुओ इमो कह वि । जइ चरई धम्मवज्यं ता गरुओ चिय कुलकलंको ॥ ३ ॥ पिउणो ति नूण गुरुणो ति साहुणो ति य कहिजए तुम्छ । एवंविहमिहरा ऐरिसत्थकहणं लहुत्तकरं अह गरुयचित्तसंतावतरलियं तं पलोइडं साहू । ओहिबलकलिय अविचलियभाविभावो भगह एवं मा काहिसि संतानं एसो पुत्राणुबंधिपुन्नेहिं । पुवभवसंचिएहिं न होहिही निंदियायारो ॥ ४ ॥ ॥ ५ ॥ ॥ ६॥ इमं च सोचा परितुट्ठो चरणकमलारोवियसीसो जन्नप्पिओ भणइ भयवं ! किं पुण अन्नभवे इमिणा कयं १ ति । मुणिणा जंपियं— निसामेहि अयं हि तुह सुओ एतो तइयपुवभवे वाणारसीए नयरीए अरिमद्दणनर्रिदस्स सुओ रूय-लायनसाली जयमाली नाममहेसि । सो य एगया आरामे वसंततिलयाभिहाणे कीलानिमित्तं कवयवयस्सपरिवुडो जाव अच्छइ ताव एगस्स पढमुम्मिल्लपल्लबललामस्स कंकिल्लिणो तले गयणंगणाउ अवयरंतं परमाइसयसमुदयमिव मुत्तिमतं चारणसमणं पेच्छइ । १ विकारमकर करः ॥ २ वाताऽम्बुष्कसेवालभोजिनः ॥ ३ ३ मज्झ व खं० ॥ ४ देशार्थकथनम् ॥ ५ 'संधिए' सं० ॥ ६ रुवला प्र० ॥ ७ नाम अभवत् ॥ 'अहो ! पुण को एस महष्या नियमाहध्येणं तिहुयणं पि परिभवंतो व एवं वढ्छ ? होउ ताव सेसक अहिं, इममेव संरामो, किमेस जंपर १ किं वा कुणइ ?' सि विम्यमुवहंता गया तस्स समीवे । एत्थंतरे अगंगकेऊ नाम विजाहरो भडचडयरपरिक्खित्तो एगाए सुरसुंदरीविग्भमाए जुवईए समेओ अंबराओ ओयरिऊण परमत्रिणएण पडिओ मुणिस्स चरणेसु, आसीणो य सन्निहियमहीवडे । पुच्छिओ य सो साहुणा-भद्द ! का एसा अम्ह अदि व पडिहासह १ । अणंग केउणा भणियं - भयचं ! एसा हि ताराचंद विजाहरसुया नियपणो मायंगधूयासत्तस्स असुंदरायारं सहिउमसकंती भजाभावेण मेह संकंता । मुणिणा भणियं—भो महायस ! अजुत्तमेवंविदं कम्मं भवारिसाणं, पररामापरिग्गहो हि उप्पत्ती बेरपरंपराए, कलंकीकरणं नियनिम्मलकुलैकमस्स, आघोसणाडिंडिमो अवजसपसरस्स, जलंजलीदाणं नयमग्गस्स, एवंविहाजुत्तकारिणो हि दसाणणप्पमुद्दा निहणमणुपत्ता । एवमणुसासितस्सेव तस्स मुणिणो आयड्डियतिक्खमंडलग्गा, सन्नाहनू मियसरीरा दूराउ थिय मंडलिय गंडीवमुकनिसियसर- खुरुप्प - तीरी - वावल- भल्लि - नारायनिवहा, 'हण हण' त्ति भणमाणा चक्खुपदमुवागया विजाहरा, सरोसमुल्लविउं पवत्ता -रे रे दुरायार ! परदारपरिभोगभग्गकुलमग्ग ! सरसु इट्ठदेवयं, बजपंजरंतरमुनगओ विन संपयं जीवसि त्ति । 'को रे ! एस निम्मजाय मुलवद्द ?" त्ति बलियकंधरेण दिट्ठा ते अणंगकेउणा, पञ्चभिजाणिऊण भणिया य-रे रे मायंगीदय ! दहवेणेव विणिहयस्स तुह हणणमणुचियं, केवलं अच्चग्गलपर्यंपणसीलो ति निमिज्झसि संपयं-ति जपमाणो तं च य - १ 'खरामः' अनुगच्छामः ॥ २ मयि ॥ ३ लकलंकस्स सं० ॥ ४ आकृष्टतीक्ष्णमण्डलामा बनाइच्छन्नशरीराः ॥ ५ निगृह्यसे ॥ स्थूलमै - थुनविरतौ सुरप्रियकथानकम् ३७ । सुरप्रियपूर्व भवकथा ॥२६३॥ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थूलमैथुनविरतौ सुरप्रिय. देवमद्दमरि-हा जुबई मुणिणो चिय समीवे मोजूण कुवियकयन्तजीहाकरालं करवालमुग्गीरिऊण य धावितो सपरियणो तदभिमुहो। विरहओ लग्गमुदम्गमाओहणं पम्मुक्केचकनिकिवनिकित्चनरमुंडरुहिरसित्तधरं । कुंतग्गघायघुम्मिररोसुब्भड चलियपडिसुद्दडं कहारयण ॥ २ तिक्खंग्गखग्गताडियकंकडनिहमुच्छलतजलणकणं । दट्ठोडवंठनिस्सिट्टसेल्लमेल्न्तभूरिभर्ड ॥ कोसो ॥ समकालमुकनारायराहरायंतदिसिपहाभोग । खयसमयसमुग्गयभूरिके उसंजणियसोहं व ॥ ३ विसेसगु ॥ काऊणमेवमचंतभीममुद्दामसमरवावारं । अमोनदिनघाया ते दो वि जमाणण पत्ता ॥ ४ ॥ पाहिगारो। 'अहह ! कई मह पुरीए वि एवंविहमसमंजसं भवइ?' ति जायकोवावेगो य खग्गमुग्गीरिऊण धावमाणो तयभिमुहं ॥२६४॥ रायसुओ कह कह वि निसिद्धो परियणेण । एत्थंतरे अणंगकेउं गयजीवियमवणीपीढे निवडियं दद्ण मुकपोकारुकंपियपहियवग्गं निम्भर रुयमाणी सा जुबई चियं रयाविऊण अणंगकेउसरीरगं घेत्तृण निवारिञ्जमाणी विजयमालिणा पविट्ठा हुयवहं। विसनो रायसुओ, गतो मुणिसमीवं, भणिउं पवत्तो य-भयवं! को एस वइयरो ? । अह ईसिपेमवसगग्गरगिरं संलत्तं तवस्सिणा-मो महायस! १ प्रमुकचकनिष्पनिकत्तनरमुण्डरुधिरसिक्तधरम् । कुन्ताप्रघातपूर्णबितरोषोदरचलितप्रतिसुभटम् ॥ २ तीक्ष्णापखाताडितकतनिधर्षाच्छल ज्वलनकणम् । दष्टीचवण्ठनिःसारकोलमुच्यमानभूरिभटम् ॥३"लतभू".॥४ समकालमुक्तनाराचराजिराजमानदिक्पथाभोगम् । क्षयसमयसमुद्रतभूरिकतुसजनितशाभमिव ।। ५"समुग्गसम .प्र. ॥६कृत्वा एचमत्यन्तभीम उहामसमरण्यापारम् ।। ७ कऊस'वं०प्र० ॥८"माणा विप्र० ।। कथानकम् WERSIROHTARN ******** ॥२६४॥ ORRHORRORRORERNORSH सम्मत्ते अणुरागो सया विरागो य इंदियत्थेसु । सुतवस्सीसु य भत्ती विणिवित्ती पावकिच्चेसु ॥९ ॥ पइदिणसुगुणब्भासो कयंतविसए य सइ अविस्सासो । भवसंभवभावविभावणं च सुत्त-ऽत्थसवणं च ॥१०॥ एमाइ तह कई पिहुकायबमणनमाणसेण तए । जह संसारभयाण भुजो न हि भायणं होसि ॥११॥ इच्छामो अणुसद्धि वि जंपिरो हरिसवियसियच्छिपुडो । तं वंदिउं निसीया स महप्पा भूमिवट्ठम्मि ॥ १२ ॥ अह धम्मकहतवस्सिणा भणितो एसो-महाणुभाव ! धनो तुम, जस्स भयवं अप्पंहासो सिरिपहासो सयमेवमणुसासह, न हि अकयसुकया गुरूवदेसभापणं हवंति मणुया । जन्मप्पिएण भणियं-भयवं! एवमेये, सुकया सालिणो चिय एवंविहधम्मोवएसदाणमरिहंति, सम्मं च कयं तुम्भेहिं जं नियचरणकमलमुद्दाविनासेण पवित्तीकयमिमं मह गेहं, चक्खुक्खेवेण य अणुग्गिहीयमिमं मह कुटुंम्ब, एत्तियमेत्तेण वि पावपंकपडहत्थाओ निच्छिन्नं व मन्नामि भवनवातो अप्पाणं ति । गुरुणा भणियं-भद्द! नियति निप्पचूहाई गुरूवाट्टाई धम्मकिच्चाई । जनप्पिएण जंपियं-भयवं! तुम्ह प्पसाएण नि ढाई एत्तियकालं, संपयं पुण संदेहदोलाधिरूढाई व नजंति । भगवया भणियं-कहमेयं ? ति । ततो जन्नप्पिएण मुणिणो पाएसु पाडिओ सुरप्पिओ, सिट्ठो य, जहा-भय! एस अम्ह पुत्तो असेसगुणसंगतो, विसेसओ उर्दग्गसोहग्गेण सुमित्तेणं व पडिवो, तबसेण य पुरसुंदरीहिं इतो तओ सैकडक्खविक्खेवं खोभिजमाणो जइ वि संपयं १ 'भल्पहासः' हास्यविरहित: 'भारमभासः' भात्मज्ञः इति वा ।। २ दुवं खं०॥ ३ पापपपूर्णा निस्तीमिव मन्ये भवार्णयात् ॥ ४ नियूंढानि ॥ ५ "यए का सं० ॥६"दयलो" सं० प्र० ॥ ७ सकटाक्षविक्षेपं क्षुभ्यमाणः ॥ ८ "णो वि जद संप खं० प्र० ॥ AKAMACEAERRENATAKAA%%ANSAR Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमदसूरिविरइओ कहारयण कोसो ॥ बिसेसगु णाहिगारो । ॥२६५॥ परवीवाह विहाणं निर्ययावच्चेसु नेव पडिसिद्धं । कैन्नाहलहेउं पुण तकरणं होइ अहयारो चिरभ गयजोवणमिति बुद्धीए परं पुणो जुवई । वीवाहइ अप्पाणं इय परवीवाह करणं वा कयकामसेवणस्स वि तं दीवंतस्स ओसहाईहिं । इच्छानियत्तिविरहा अइयारो पंचमो नेओ पढमाइयारदुगमिह सदारसंतोसिणो परं जाण । सेसतिगं दुन्हं पि हु साहारणमेव अवसेयं ॥७॥ ।। ८ ।। ॥ ९ ॥ ॥ १० ॥ एत्थ य एवं भावणा-सदार संतोसिणो हि वेसं दाणेण धोयकाल अप्पणीकाऊण 'मम भज श्चिय इम' त्ति सेवंतस्स वयसावेक्खत्तणेण न भंगो, थोयकालपरिग्गहाओ य परमत्थओ न नियभज त्ति भंगो [त्ति ] भंगा-भंगरूवो अइयारो चि १ । अपरिग्गहियागमणं पुण अणाभोगाइणा अडकमाइणा वा अइयारो ति २ । परदारवजिणो पुण एयमइयारदुर्गं न संभव, थोयदिपरिग्गहिया ऽपरिग्गहियाणं पणगणत्तणेण कुलंगणाए वि अणाहत्तणेणेव परदारताभावाउ ति ।। अन्ने भांतिपरदारवजिणो पंच हुंति तिनि उ सदारसंतुडे । इत्थीए तिन्नि पंच व भंगवियप्पेहिं नाय ।। १ ।। एत्थ वि एसा भावणा- - परेणेव थोवकालं जा परिग्गहिया वेसा तग्गमणमध्यारो, परदारवजगस्स कहंचि तीए परदारत्ताउति १ । अणाहाए कुलंगणाए जं गमणं तं पि तस्सेव अइयारो, लोए परदारचेण तीए पसिद्धीओ । तस्स य कष्पणा इमा - भत्तुणो अभावाओ न एसा परदार ति २ । सेसा पुण दोन्हं पि, तहाहि —सदार संतोसिणो सकलते इयँरस्स १ निजकायेषु ॥ २ कन्याफलहेतोः ॥ ३ दोहं प्र० ॥ ४ अवक प्र० ॥ ५ पणाशनात्वेन ॥। ६ परेण थो° खं० ॥ ७ 'इतरस्य' परदारवर्जिनः ॥ - सकलते वेसायणे य अगंगकीडा अइयारो, एवंकरणे हि ईच्छानियत्तिविरहाओ तविरईए असारतं ति १ । एवं परवीवाहकामतिवाभिलासा हि दडवा । नवरं 'परं अहं वीवाहेमि, न मेहुणं सेवावेमि' त्ति वयसावेक्खयाए अइयारो । न य परवीवाहकरणं कन्नाफलाइबुद्धीए न संभवइ मुद्धबुद्धिणोऽहाभहगस्स वा मग्गावयरणत्थं दिनवयस्स त्ति २ । ३ । इत्थीए पुण सपुरिससंतोस - परपुरिसवजणाणं न भेओ अस्थि । अणंगकीडाइणो य सदारसंतोसिणो व सपुरिसविसए संभवति । पदमो पुण जया नियपई चिय सवित्तिवारयदिणपवनं कामेइ तथा अइयारो, बीओ पुण अइकमाईहिं चैव अइयारो ति । कथं पसंगेण ॥ छ ॥ एवमइयारपरिहारसुंदरं वयमिमं पवन्नस्स । गिहिणो वि न दुल्लभा महल्लकल्लाणसंपत्ती ॥ १ ॥ इमं च सवं सम्ममेगग्गमाणसो अवधारिऊण गुरुपुरओ जयमाली रायसुओ पडिवन्नो परदारनिवित्तिवयं, गओ य जहागयं । साहू वि उप्पइओ मरगयभायणसामलं गयणयलं । भुजो भुजो अणंग केउविजहरदुव्विलसियं विभावितस्स बाल- गिलाण - तवस्सीणं च ओसहाइसमध्पणेण वेयावच्चं कुणंतस्स वच्चंति से वासरा । जह जह स निवियारं पि नेय चक्खुं पि खिवह सुमृणिव । पुरसुंदरीउ तह तह दढयरवतरागाओ मैयणसरजजरंगी इति तं सेविउं निसासमए । बहलतमसामले लजिरीउ उच्छन्नवसाओ कइवयदिणगहियपरिग्गदं पि अपरिग्गहं व अप्पाणं । मनंतीओ अन्नातो तं ददं उवयरिंति बहु १ इच्छानिवृत्तिविरहात् ॥ २ "तिब्वयं प्र० । ३ मदनशरजर्जराजयः ॥ ४ इन्ति प्र० ॥ ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ स्यूतमैथुनविरतौ सुरप्रिय. कथानकम् ३७ । स्वदारसन्तोषिणः परदारवर्जि नश्चाश्रित्यातिचारविभागः ॥२६५॥ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S देवभद्दसरि-५ विरइओ कहारयणकोसो॥ विसेसगुमाहिगारो। ॥२६६॥ काओ वि पबड्डियगरुयपेम्मरागाउ पायडिय सिहिणं । खोभिंति सकामकरप्पहारमाईहिं तं बाढं ॥४ ॥ अवराओ अपाणं विवाहकोण से पेणामिति । तुममेव गई सरणं नाहो ति पयंपमाणीओ ॥५॥ नवपरिमलमालहमउल-मल्लियामाइदामदाणेण । तह सवियारगिराहि मयणं दीविति अवरातो खोभिजतो वि स ताहिं एवमनिलावलीहिं सिंधु छ । लंघाविउं न तरिओ कयाइ नियनियममजायं ॥७॥ एवं च निरइयारं चउत्थमणुवयमणुपाठिंतस्स तस्स एगया कइवयपहाणपुरिसपरिवुडस्स जाइगुण-दोसर्चिताविसया जाया परोप्परमुल्लावा । तत्थ एगेण संल-बंभणा बन्नाणं पहाणा, वेयरहस्सपढणातो । अनेण जंपियं-अणुचियमिम, बंभणाणं जम्माणतरमेव मिक्खाभमणाइणा निवाहसंभवातो कहं पाहन्नं । अवरेण भणियं-वइस्सा चेव सोहणा, नीसेसलोगकञ्जकरणेण सया वि उवयारिभावाओ । अन्नेण वञ्जरियं-किमेसिं कम्मयरप्पायाणं वरागाणं संलहणिजं ? सबहा सुद्दाण सुंदेरेमुदा अउबा का वि, जेण बंभणाइणो वि तदुवजीवणातो निव्वहंति, सवाऽऽसमाणं च उपटुंभकारिणो हवंति । अवरेण बागरियं-अलाहि सबेसि पि एयाण संकहाए, वनाणं खतिओ चिय वाणिजो, जप्पभावेण सुहेण नियमंदिरगयाओ पयाओ धम्म-उत्थ-कामेसु वर्दति ति । सलहियमिमं सवेहिं । जातो य जयमालिणो थेवमित्तो जाइमओ, न य सरिओ विसेसकिचकाले वि। पंचपरमेट्ठिमंतुचारणं च कुणतो पंचत्तमुवगतो एसो उववनो सोहम्मे देवत्तणेणं । तत्तो य चुतो भो जनप्पिय | संपर्य एस सुरपिओ नाम तुह सुओ बट्टइ । जं च एसो माहणकुले संभूओ तं पुवकयजाइमयदोसेण । जं १ प्रकटप्प स्तनम् ॥ २ अर्पयन्ति ॥ ३ 'रसमु खं० ॥ ४ श्लाघनीयम् ॥ ५ सुंदरेण मु ख० । सौन्दर्यमुद्रा ॥ ६ सर्वाश्रमाणाम् ।। स्थूलमैथुनविरतौ सुरप्रियकथानकम् ३७। ONMARCRACTICk [॥२६६॥ CEO SAXHIKARANASAC545 महावेरविरोयणुद्दीरणारणिनिविसेसपररामारमणसंभवो भवोहदुहकारी अणस्थसत्थो एसो एवं वियंभइ । जयमालिणा भणियं-रागिणो हि पुरिसा एवंविहावयाणं गोयरगया चेव, तुम्मे पुण तबइयरदूरवत्तिणो वि कीस ससोग व लक्खिजह । मुणिणा भणियं-एवमेयं, केवलं 'मझ सहोयरो वि भविय एस जैसरियपंचनमोकारो विवजई' ति मणागमित्थं संतावो अवरज्झइ । 'अहो! बलेवं नालसंबंधो, जमेवं संगचागिणो वि बिहुरिजंति' ति चिंतंतो अचंतं परदारपरिहाराभिमुहमई जयमाली मुर्णि नमिऊण भणइ-भयवं! सदारसंतोसो च्चिय काउमुचिओ, परं 'विसमा कजगह' ति ता देह परदारनिवित्तिं ममं ति । साहुणा भणियं-जुत्तमेयं, को दिडदोसं कजं सैयन्नो काउमुच्छहेजा ? केवल एयविरइसरूवं ताव बुज्झसुओरालिय वेउबियमेया दुविहं हि जाण परदारं । वेठब्वियममरिच्छि ओरालियमवि य दुविगप्पं ॥१ ॥ तिरिय-नरइस्थिभेया तत्थ परिस्थि विवजमाणस्स । नियदारतोसिणो वि हु अइयारा हुँतिमे पंच ॥ २ ॥तहाहिवजह इत्तिरिय-ऽपरिग्गहियागमणं अणंगकीडं च। परवीवाहकरणं कामे तिवामिलासं च अयणस्सीला इह इत्तिरी उ भाडीपयाणसंगहिया । वेसा तं थोयदिणे सेवंतो कुणइ अइयार ॥४ ॥ अपरिग्गहिया वेसेव अवरपुरिसस्स पैग्गहियभाडी । कुलनारी वाऽणाहा ताणं गमणे वि अइयारो आलिंगणाइचेहूँ नह-दंतनिवायमवि य सवियारं । परदारविसयमाहू अणंगकीड ति अइयारं ॥ ६ ॥ १ वैयग्निः इति प्र. टिपणी । महारविरोचनोदीरणारणिनिर्विशेषपर रामारमणसम्भवः ॥ २ रणनि' सं. प्र. ॥ ३ भस्मृतपश्चनमस्कारः ॥ ४ लचनाल' . ॥ ५ कर्णः' विद्वान् ॥ ६ कियं अमरश्रियम् ।। ७ परिज्ग' सं. ॥ CARALA5% चतुर्थाणुव्रतस्य स्वरूपं तदतिचाराश्व E0% Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमद्दमरिविरइओ महारयणकोसो॥ विसेसगुपाहिगारो। C554 स्थूलमैथुन विरतौ सुरप्रियकथानकम् ३७। सुचिरं तमणुसासिऊण विहरिओ अनत्थ धम्मरुई मुणिवरो । सुरपिओ वि जहापडिवन्नधम्मगुणेसुं पइदियहपवढमाणसुहभावो भावओ वि चारित्तमणुफासिंतो 'अंजं हिजो वा घरवासमुज्झामि ति संचिंतंतो दिणाई गमेह । अन्नया य सो महप्पा कजवसेण आराममुवगतो समाणो जाव कयलीलयाहरे अच्छद ताव तस्स चेव आरामस्स देवया वाणमंतरी तदीयभारियारूवं विउविय संय-लायन्नावहरियहियया पविट्ठा लयाहरं, मयणुम्मायमहिञ्जमाणी य सवियारं जंपिउं पवत्ता हे धुत्त ! गिहं मोनुं परदारं कामिउं किमिह पत्तो ? । जइ सच्चममलसीलो ता किं एगंतवासेण ? ॥१॥ सगिर चिय गुरुपुरतो सदारसंतोसमुल्लविय पुईि । इहि अणुचियचिट्ठो कह वयभंग न पाविहसि ? ॥२॥ एवं च पयंपिरं तमवलोइऊण चिंतियं सुरप्पिएण-अहो! एवंविहविलजवयणविनासेण निच्छियं न संभाविजइ मह इमा भञ्जा, कहं तविहसुकुलजाया ईर्सि पि अदिट्ठविलियाए एवमुल्लवेजा ? कहं वा एगागिणी इह आगच्छेजा ? ता अन्ना काइ तीए सरिसागारा एसा नजह । एत्थंतरे भणियं तीए-भो अञ्जपुत्त ! किमेवं चिंताउरो वसि ? न देसि पडिवयणं? न वा साइणिजणो व सम्मुहं बंधसि लक्खुलक्खं ति । अह निनिमेसचक्खुपेक्खणाइलिंगेहिं 'अमाणुसीय' ति विणिच्छिय सहासं भणियं सुरपिएण-भो महाणुभावे ! अमाणुसीए वि तुज्झ विलीणकलेवरेहिं माणुसेहिं सद्धिं को १भय यो वा ॥२ कवळा" प्र.॥३'यचेट्ठो प्र०॥ ४ अष्टमीयतया ॥ ५ अमानुषी ग्यम् ॥ ॥२६७॥ C ॥२६७॥ ERICANAHARAS एवंविहसवियारवयणवावारस्सावसरो जमेवमप्पा [स]मायासिञ्जइ ? । देवयाए जंपियं-अण पि अन्नं नियमकं कुणतो किं छुट्टसि तुम ?-ति पारद्धो तीए उवसम्गिउं । ___ अह सबहा निवियारचित्तेण तेण निच्छुढा सा लयाहरातो जायकोवसंरंभा 'रे रे दुरायार ! तहा काहं जहा अकाले चिय कालातिही हवसि' ति संलवंती असणमुवगया, साहिउं पवत्ता य वियालसमए नियभत्तुणो, जहा-अहमित्थमित्थं च सुद्धसील-समायारा वि इमिणा भणसुएण अणिच्छंती निभच्छिया असमंजसवयणेहिं ति । इमं च सोचा गरुयकोवावेगवटुंतामरिसो तम्भत्ता वाणमंतरो निसामज्झसमए सुहसिञ्जोवगयस्स भारियाए कीरमाणसरीरसंवाहणस्स सुरप्पियस्स समीवं गओ। एत्यंतरे सुरप्पिएण पुच्छिया नियमञ्जा-भद्दे ! तुम मह आरामट्टियस्स कीस आगय ? ति । तीए भणियंअञ्जपुत्त ! किमेवमणुचियं समुल्लविजइ ? किमहं कयाइ पुत्वं पि जिण-मुणिभवणातो अनहिं भमंती दिट्ठा तुमए जेणेवमघडतं भन्नइ ? । ततो आगारसंवरं काऊण मोर्णमल्लीणो सुरप्पितो। ततो बिम्हयमुबहती सा निबंध काऊण ताव ट्ठिया जाव सबो साहिओ मूलाओ तबइयरो । तं च सोचा वाणमंतरो पसंतकोवो 'अहो! कुडंगीकुडिलहिययाणं इत्थियाणं दुट्टचे?' ति विभाविंतो जोडियकरसंपुडो भणिउं पवत्तो-भो सुरप्पिय ! जहत्वामिहाण ! न केवलं नियकुलं, वसुमई वि पवित्तिया तुमए निकलंकसीलपालणेण, ता तुट्ठो हं तुह सच्चरिएण, वरं वरेसु ति । अह सुरप्पिएण विम्हइयमाणसेण भणियं-भो महाणुभाव ! को तुम १ किंवा ते परितोसकारणं ? ति । तओ वाणमंतरेण सिट्ठो चिरवइयरो। मुणियकजमज्झेणं च वर १निर्भसिता ।। २ मौनमालीनः ॥३बंशजालिकुटिलहूदयानाम् ॥ ४ 'चेट्ट' ति प्रती ॥ CRICKASSWORKINAARKACHARACROR Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरइओ कहारयणकोसो ॥ विसेसगुमाहिगारो। ॥२६८॥ स्थूलमैथुनविरतौ सुरप्रियकथानकम् वरणं पडुच भणियं सुरप्पिएण-देव-गुरुपसाएण नत्थि पत्थणिजं किं पि, ता किं वरेमि ?। वाणमंतरेण वुतं-तहा वि ममाणुग्गहकए किं पि साहेसु । ततो तप्परिओसकए 'केचिरं मह आउयं १' ति पुट्ठो सो अणेण । ततो 'मासावसाणं' ति साहिऊण वमुहारं च खिविऊण गतो जहागयं वाणमंतरो । सुरपिओ वि तकालाणुरूवसविसेससंथारगदिक्खाइगहणेण उत्तिमट्ठ साहिऊण मओ संतो अच्चुयसुरसिरिं पत्तो। इय नियदितं निमुणिऊण तं किं पि किरियमावची । जेण मुराण वि पुजओ जातो इहई पि स महप्पा ॥१॥ जे पुण एवंविहपावठाणपडिबद्धमाणसा बाद । ताणमणिवारियाओ निवडंति महावयाउ सया ॥२ ।। अपि च प्रेशत्फणामणिमयूखशिखाभिरामा, रामा निषेवितुमभीच्छति सोऽहिभर्तुः। यद्वा युगान्तसमयोचितहव्यवाहज्वालावलीर्वपुषि वाञ्छति सभिधातुम् श्रीकण्ठकण्ठकलुषां विषवल्लरी स, निद्रातुमाश्रयति वा विरचय्य शय्याम् । यशेतसाऽप्यभिलपत्यपबुद्धिरन्यभार्यामनार्यचरितः परिभोक्तुमुस्का ॥२॥ किनयल्लिङ्गमात्रवपुरर्धमृगाकमौलिर्यदेवराडपि सहस्रभगाड़ितोऽभूत् । तत् पारदार्यमनिवार्यविपत्रिपातं, बुद्धा निमित्तमजडः कथमादधीत ? ॥३॥ १ वि भुजो प्रती ॥ २ तुयुक्तः प्रती ॥ ३ "लि यं देवराडपि सहनरगा प्रती ॥ SAKACECAKACECACKET पारदार्यदोषावेदन द्वारा तत्परिहारोपदेशः ॥२६८॥ पुण्यस्य पापस्य च द्वैविध्यम् च उदग्गसोहग्गसंगतो तं च गिलाणाइवेयावच्चकरणेण । जंपि य अकिचकरणविमुहबुद्धी तं पि समयसंसियविहिणा सुचरियपुत्राणुबंधिपुनमाहप्पेणं ति ।। छ । जन्नप्पिएण भणियं-भय ! किमबहारूवं पि पुग्नं संभवइ जमेवं चाह? । मुणिणा भणिय-भो देवाणुप्पिय ! पुत्रं हि दुहा बुच्चइ-एगं पुनं पुनाणुबंधि जायइ, जं रायलच्छिविच्छडभोगोवभोगसुहं संपाडितं पि तह परिणमइ जह भुजो वि पुनकिरियासरूवमणुबंधइ, जहा भरहचकवइणो; अवरं पुग्नं पावाणुबंधि, पुवमन्भुदयहेउत्तणेण संभविय पच्छा अंतुच्छदुक्खाणुबंधिपावपंकमणुसजइ, जहा बंभवत्तचकिणो सुकयसंपाडियरजसुहस्स पजते सत्तमनरयवत्तिणो त्ति, पावं पि दुहा-एगं पावाणुबंधि, जहा कालसूयरीयस्स, जीवणे मरणे य अविच्छिनपावाणुसजणाओ; अन्नं पावं पि पुत्राणुबंधि, जहा चिलाइपुत्तस्स इत्थीवहाइपावकरणे वि तदुत्तरं संभवतोदग्गवेरग्गमग्गोवगयस्स पुनपभारसंजणणं ति । - एत्थंतरे सुरप्पिओ आयन्नियपुवाणुभूयभावो जोईसरणवससविसेसपच्चक्खीकयसुकय-दुकियाणुरूवफलविवागो पञ्चजं घितुमुवडिओ। ततो भणिओ पिउणा-वच्छ ! कहवयवरिसाई सावयवयपरिवालणेण वि पडिबालेहि ताव, पच्छा दो वि कणिट्ठसुयसमारोवियकुडुंबभारा भगवतो पहासगणहरस्स समीवे पवइस्सामो । 'एवं होउ' त्ति सुरप्पिएण 'सदारसंतोसिणा होयचं' ति अब्भुगच्छिय गहियाई साहुणो समीवे बारस वि बयाई। 'सम्ममेयपालणे अम्भुञ्जओ होआसि' त्ति १ तं च सम प्र० ।। २ सुचरितपुण्यानुवन्धिपुण्यमाहात्म्येन ॥ ३ अपुखद खं. ॥ ४ सम्भव हुदगंबरराज्यमार्गोपगतस्य ॥ ५ जातिस्मरणपक्ष। सविशेषप्रत्यक्षीकतमुकृतदुष्कृतानुरूपफलविपाकः ॥ ६ अभ्युरम्य ॥ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । स्थूलपरिग्रहविरतौ घरणकथानकम् ३८। देवमहरित विरहओ कहारयणकोसो ॥ विसेसगुजाहिगारो। ॥२६९॥ SANRAKSHANAMAHARASTERNATIONA% ॐा जे पुण इच्छाविनिवित्तिविरहिया बहुपरिग्गहारंभा । ते भूरिकिलेसा-ऽऽयासभायणं हुंति धरणो व ॥९॥ तहाहि-अस्थि गरिढमरहट्ठवरिष्टुं अरिहपुरं नाम नयरं । तं च पयंडभुयदंडावगुंडियरायलच्छिसमद्धासियवच्छहै थलो तिलोयणो [नाम] पुद्द[]वई पालेइ । जो निच्चनुमानिलतो धम्मकरो तह विणायगाइनओ। महिहरसिरदिपओ सच्चं उच्चदइ नियनामं ॥१॥ तस्स य रमो औसमसयणो पपईए चिय विसुद्धबुद्धिपगरिसागरभूतो भूओवरोहरहियहियतो खेमायचो नाम पहाणपुरिसो परिवसइ, वसुंधरामिहाणा य से भञ्जा, धरणो य ताण पुत्तो । तं च उच्छंगगयं एगया खेमाइचो जाव घरगणोवगतो कीलावतो अच्छह ताव भीमसेणं मुर्णि अवरेण साहुणा समेयं गोयरचरियाए परियडतं पेच्छइ । 'अहह ! किं मइविम्भमो ? सरि[सागारविप्पलंभो वा ? सच्चं वा ? जमेस पंडुसुओ असेसवीरवरिट्ठो इत्थमारीद्धकट्ठाणुट्ठाणो व दीसई' त्ति चिंतंतो सुयं मोत्तूण धाविओ तदणुमग्गेणं, सायरं पडितो भीमसेणपाएसु, भणिउं पबत्तो य-भय ! किमहं सम्मूढमई ? उयाहु स एव पंडसुतो भीमसेणो तुम ? ति । भीमसेणेण भणिय-भदन सम्मूढमई तुम, अम्हे पंच १ भूशिक्षायामभाजनम् ॥२ "समिजा" प्रती ॥ ३ यथा त्रिलोचन:-महादेवः नित्यम् उमाया:-पार्वत्याः निलया-आश्रयः, 'धर्मकर:' धर्मस्य कारका. विनायकादिभिः नतः, महीधरशिरसि-पर्वतशिरसि पत्तपदव तथा अयमपि त्रिलोचनो राजा नित्यम् उमाया:-कीराः माधयः, धर्माः करो यस्य, विशिका पतिभिः नतः, महीधरशिरसि-शत्रुभूपालशिरसि दत्तपदधेति यथार्थाभिरूयोऽयं त्रिलोचनो राजा ॥ ४ °नपुरो प्रती ॥ ५ 'भासभस्वजनः' निकटसम्बन्धी ॥ ६ 'रखो क प्रती ॥ ॥२६९॥ CHERSAGACAS वि भाउया पवनसामना इहई आगया बट्टामो । विम्हइयहियएण य बेजरियं खेमाइचेण-भय ! को एस वइयरो ? केहिं पंडमहुरापुरीविसयाहिवच्चं ? कहिं वा एसो मणसा वि दुकरो संजमवावारो। साहुणा भणियं-मग्गट्ठियाणं एगवयणं वा दुवयणं वा कप्पए योगें, ता कुसुमावयंसाभिहाणोववणनिवासिणो पत्थावे अम्ह गुरुणो पुच्छेञ्जासि त्ति । __अह वियप्पकप्पणावाउलो सगिहमुवगतो खेमाइचो । मुणिणो वि संमत्थियपत्थुयपओयणा पडिगया जहागय । खेमाइचो वि पुन्बुत्तचिंताइरेगेण खणं पि रई अपावमाणो वियालसमए गओ कुसुमावतंसमुजाणं । दिट्ठा बहवे साहुणो, वंदिया जहारिहं, आसीणो पुवपरिचियस्स जुहिहिलमुणिस्स समीवे । विलुत्तसिणिद्धसुद्धरूयपन्भारं तं च अज्जुणाइणो वि दट्टण सोगसंगलन्तंसुजालाविलच्छो सो भणितो तक्खणुप्प[भ]पच्चभिन्नाणेण जुहिडिलेण-भो खेमाइच। किमेवं संतप्पसि ? एवंविहपजवसाणा सब च्चिय भवडिई । खेमाइचेण भणियं-तहा चि किमेवंविहदुरणुचरचरणारंभस्स विसेसनिमित्तं ? । जुहिडिलेण भणियं-संवणवञ्जासणिनिविसेसमिमं तहा वि लेसतो साहिप्पंतं सम्ममवधारेसु महरापाणपरतसजायबसुपजणियदेहसंतावो । दीवायणो नियाणं काउं चारवइदहणट्ठा मरिउ अग्गिकुमारो देवो होऊण सेंरियचिरवेरो । कणयमयभवण-गोउर-पायारं वारवइनयरिं १ कथितम् ॥ २ कई पं" प्रती ॥ ३ विषयाधिपत्यम् ॥ ४ कई वा प्रतौ ॥ ५ विकल्पकल्पनाव्याकुलः स्वग्रहम् ॥ ६ समर्थिराप्रस्तुतप्रबोजनौ ॥ ७ युधिष्ठिरमुनेः ॥ ८ विलुप्तस्निग्धशुखरूपप्राम्भारम् ॥ ९ शोकसालदधुजालाविलाक्षः॥ १० श्रवणव आशनिनिविशेषमिदम् ॥ ११ कथ्यमानम् ॥ १२ स्मृतचिरवरः ॥ ASMS SANSARKAGES Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसरिविरइओ कहारयणकोसो॥ विसेसगुणाहिगारो। स्थूलपरिप्रहविरतौ धरणकथानकम् ३८। जायवकुलकोडीपरिवुडं पि पंक्खिविय तिबहत्ववहं । कासी स भासरासिं मोनुं हरि-हलहरे दोनि ॥३॥ अम्हे पडच ते पुण इंता कोसंबवणमणुप्पत्ता । तत्थ य हरी विवन्नो जराकुमारेण सरपहओ ॥ ४ ॥ बलभद्दो पुण तबिरहहुयवहुम्महियमाणसो बाढं । पवजं पडिवञ्जिय मोगिल्लमहागिरिम्मि ठिओ अम्हे वि मुणिय एवं जराकुमारातो जायवेरग्गा । तं चिय रजे ठविउं पडिवना संजमुजोगं ॥ ६ ॥ संपद य नेमिनाई जायवकुल[कुम]इणीनिसाबंधु । बंदिउममरिंदनयं सोरई पट्ठिया गंतुं इय भावणाविहर्कतकजनिञ्जावणानिउणमहणो । विहिणो किं बभिजउ दंसियखणभूरिभंगस्स ? जीए पहू चकहरो परिहा जलही सुवनपागारो । सा वि पुरी जाइ खयं ही ! संसारो दढमसारो ता भो देवाणुप्पिय ! संसारियकिच्चपवंचभग्गा पंच वि अम्हे एवं धम्ममग्गमेगंतसुहाबहमायनियं पवना, तुमं पि भद्द ! एवंविहखणविणस्सरसरूवयं सवभावाणमवगम्म, दुक्खाणुबंधितणं च दुविलसियाणं विचिंतिय, महारंभ-महापरिग्गहसंभवं च आयास-सोगसंदम्भमाभोगिय, अप्पणो हियत्थमम्भुच्छहेजासि ति । अह 'भूरिहरि-करि-रह-जोहाइसामग्गिमग्गिदादाइसु हरिणो वि परमत्थेण अकिंचिकरिं, केवलं कोसियारकीडगस्सेव विसेसबंधणनिबंधणं' ति विभाविऊण खेमाइचो जायसंसारियकिञ्चविरागो राग-दोसविरहियं देवं सबलु तप्पणीय पवयर्ण परिमि १ प्रक्षिप्य तीनहल्यवाहम् । अकार्षीत् स भस्मराशिम् ॥ २ तद्विरद्दहतवहोन्मचितमानसः ॥ ३ भावनाम्यतिक्रान्तकायनियर्यापनानिपुणमतः ॥ | ४ आकर्ण्य ॥ ५ "णं च चिं प्रतौ ॥ ॥२७०॥ (H ॥२७॥ KARNAMEANARASIRAHASRA-KAR स्थूलपरि इति स्वतः सद्गुरुवाक्यतो वा, न योऽन्यनारीविरतिं विधत्ते । स पापतापोपहतो विरौति, विशुष्यमाणे सरसीव मत्सः ॥ इति श्रीकथारत्नकोशे चतुर्थाणुव्रतचिन्तायां सुरप्रियकथानकं समाप्तम् ॥ ३७॥ पायं अणत्थसत्थो परिग्गहानिग्गहम्मि संभवद । ता तप्परिमाणकए जइज इति संपयं भणिमो परिगिझइ सीकिजइ परिग्गहो सो दुहा मुणेयचो । दवे धण-धन्नाई भावे रागाह णेगविहो दवपरिग्गहेणं इह पगयं तस्स जं परीमाणं । काउं सकं इयरस्स एयविणिवित्तितो व पझपरिग्गहपरिमिह विणा वि कुवंति एयविणिविति । भरहाइणो । केई नवरं ते एत्थ अइथोवा, ॥४॥ पाइलेणं पुण बज्झवत्थुपरिमाणकरणदारेण । भावपरिग्गर्हमेरं काउं नियमेण सकंति दुक्खाणं आयषणं धम्मज्झाणस्स पढमपडिवक्खो । होज कई सुहकारी परिग्गहो दुग्गहो फुड ? मूढा परिग्गहकए हर्णति जीवे वयंति य असचं । गिण्हंति य परदचं परमहिलं सीकुणंती य ॥७ ॥ इय सबपावठाणा[ण] कारणं वारणं सुहमईए । 'संकोडिंति य सहना तं इच्छानिग्गई काउं ॥८ ॥ १ परिएलाते स्वीक्रियते ॥ २ 'इत्तरस्य' भावपरिणदस्य एतद्विनिवृत्तितः ॥ ३ भावपरिप्रहमर्यादाम् ॥ ४ "हरं प्रती ॥ ५ स्वीकुर्वन्ति ॥ ६ सहाचयन्ति च सकाः 'तं' परिग्रहम् इच्छानिमाला ॥ प्रहविरते. स्वरूपम् KACREACANAGAR Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थूलपरि ग्रहविरतौ धरणकथानकम् ३८। देवभद्दसूरि-&ा निबिडं सहाईकाऊण इत्थमुल्लवसि ? पुंरिसयारावज्जियलच्छिविच्छङ्कुरिल्लं हि सलहिंति सप्पुरिसा जीवियं । विरइओ संकोडियंगुवंगा जणणीगम्भे वि चिरयरं वुत्था । जणणस्स सारमेयं जं कीरइ रिद्धिवित्थारो ॥१॥ दीव व गया विलय नेहं वर्द्धिं च जे दहेऊण । को ताण तिणीकयजीवियाण नाम पि इह मुणह? ॥२॥ कहारयण धण-भवण-सयण-परियण-सेजा ऽऽसण-कोस-कोट्ठबित्थारो । ता तह कीरउ तईसणेण जह सलहए लोगे ॥३ ॥ कोसो॥ एवं ओदइयभावनिम्भरसंरंभवयणुल्लाविरं तमुवएसदाणाणुचियं विचिंतिऊण मोण मल्लीणो खेमाहच्चो । इयरो वि जीवबिसेसगु णोवतोगिदवसंभवे वि पइदिणपवड्डमाणधण-धन्नाइपरिग्गहपरिणामो राँयाणमायरेणमोलग्गिउं पबत्तो । णाहिगारो। एगम्मि य अवसरे जामावसेसे वासरे राया विनत्तो पुरजणेण-देव! अमुगप्पएसे केसरिकिसोरो मम्गमवई काऊण ॥२७॥ पंचजोयणियं भूभागमवलंबिऊण कयंतो व सत्तसंघायघायणं कुणतो अच्छइ, न य सो देवस्स आदेसं विणा विणासिउं सकेण वि सकिजइति । ततो राइणा असेसम्मि सेवगवग्गे दिट्ठी पेसिया । अहोमुहा होऊण ठिया सवे वि । विसनो राया, लक्खितो धरणेण । अह भालयलारोवियकरसंपुडेण विनतो अणेण-देव ! अणुगिण्हसु में आएसदाणेणं । 'को एसो?' ति संभमपरियत्तियच्छिणा पुच्छिओ रमा । 'खेमाइचपुत्तो' ति कहिओ परियणेण । राइणा जंपियं-जह एवं ता अम्ह कुलस १ पुरुषकारावर्जितलक्ष्मीसमूहवत् ।। २ सडोचितामोपाशाः ॥ ३ अवसाम ॥ ४ एकत्र तेलं वसि च, अन्यत्र प्रेम प्रति च ॥ ५ औदयिकभाषनिर्भरसरम्भवचनोपनशीलम् ॥ ६ जीवनोपयोगिरव्यसम्भवेऽपि ।। ७ राजानम् आदरेण अवलगितुं' सेचितुम् ॥ ८ 'अवई' जनगमनागमनरहितम् ॥ ९ सत्वसहातपातनम् ॥ १० सम्भ्रमपरावर्तिताक्षेण ॥ 4A ॥२७॥ Arkestxaxsxs+S+8+xxARKARXKAHAKAKARRRRR मुम्भवो चेव एसो । ततो संहत्थतंबोलबीडगदाणपुरस्सरं दिनो से आएसो। गतो य सो कइवयसहाइपरिखुडो पुलोववनियं वणं, दिट्ठो दूरट्टिओ केसरी, धणुवेयकुसलत्तणेण य आहतो अच्छिपएसे नाराएण । मम्मप्पएसपायजायनयणावहारो य हरी कोवाइरेगेण सुन्नलक्खं सञ्जियकमो इंतो अणवरयनिसियसरधोरणीविद्धवयणकंदरो दूराओ चिय पेसितो कीणासाणणं । जातो य 'जय जय' ति सदो । पोरुसुकरिसं च उवहंतो पडिनियत्तो एसो । वियाणियसीहवहवइयरेण य राइणा परितुद्वेण य कतो तप्पिउणो सम्माणो, दिनाई कइवयगामाई, बद्धारिओ जीवलोओ। खेमाइचे[ण] वि पुवपडिवनपरिगहपमाणाइरित्तं पडिसेहिऊण उचियं किं पि गहियं जीवणं । नरवइविसजिओ य गतो सगिहं । सिट्ठी य धरणस्स एस बइयरो । रुट्ठो य एस-कीस तुमए दिञ्जमाणं सर्व पि न पडिग्गहियं ? ति । पिउणा भणियं-वच्छ ! परिग्गहवुड्डीए पच्चक्खाणभंगो हवइ त्ति । धरणेण वुत्तं-तुह कूडधम्मसद्धाए निद्धणीकतो है, जमे जमनिधिसेसपंचाणणविणासावजियातो नरवइणो तुच्छमि जीवणमुवादाय आगतो सि त्ति । खेमाइवेण जंपियंवच्छ ! भणसु किं पि, जाव अहं जीवामि ताव इत्थं वढिस्सामि । अह हिययभंतरपवढमाणकोवो कइवयदिणाणंतरमेव किं पि घेत्तूण डिओ एसो विमिमगेहे, ओलग्गेह य पइदियहं भूवई, 'वीरो' चि लहइ सविसेसं पसायं । ___अन्नया य चोडविसयमहिवालजोग्गमहामुल्लपाहुडपडिपुत्रपवहणनायगो काऊण विसजितो एसो राइणा चोडविसयं । 'तह' ति पैडिवञ्जियं पयट्टो य संतो अवचर्सिणेहं महंतमुबहतेण भणितो पिउणा-वच्छ ! बाढमजुत्तमेवं संसयतुलारीविय १ स्वहस्तसम्बोलबीटकदानपुरस्सरम् ।। २ पौरुषोत्कर्ष चोदहन ॥ ३ प्रतिपय ॥ ४ "सिनेई प्रती ॥ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमहसरिविरहओ कहारयणकोसो॥ विसेसगुणाहिगारो। ॥२७२॥ स्थूलपरिग्रहविरतौ घरणकथानकम् ३८। जीवियबस्स धणजणस्स हेउं चिडिउं, न हि एवं पि कीरमाणे अणियत्तलोभस्स जीवस्स इच्छाविणिवित्ती संभवइ । अवि सुरसरिपमुहमहानईण पसरंतवारिपूरेहिं । पूरिजइ कहावि गहिर-गरुयकुच्छी समुद्दो वि अवि अणवरयमहिंधणखेवेणं तिप्पई हुयवहो वि । कह वि भरिजइ गयणंतरं पि केणइ उवाएण नो पुण काउं तीरइ इच्छाविणियत्तणं हयजियस्स । कुलगिरिगरुयऽज्जुण-रुप्पकोडिकोडीण लामे वि ॥३॥ किं बहुणा?तिहुयणमवि जइ दिजइ कस्सइ एगस्स तह वि से 'तेत्ती। जणिय नो पारिजइ अहो! दुरंता इमा इच्छा ॥४॥ एयपडिवक्खभूओ संतोसो चिय इहं विहेयबो । विहिए य तम्मि तम्मति नेव थेवं पि सप्पुरिसा ता वच्छ ! एयविसए उवायपरिकप्पणा खमा काउं । इह-परभवे य दुक्खाण जेण नो भायणं भवसि ॥६॥ 'अहो ! कई तहापडिकलकारी थेरो निम्मेरमुल्लवंतो मणागं पि न विरमइ ?' ति अमरिसमुबहतो तमवगनिय आरूढो जाणवत्तं । आरोविओ सियवडो, वअियं मंगलतूरं । अणुकूलानिलवड्डियवेगं च तं गंतुं पवतं जलहिम्मि । 'अहो! पलावमेत्तं अभिनिविडेसु उवएसदाणं' ति विलक्खो सगिहमुवगतो खेमाइयो । इयरो वि गच्छंतो पत्तो चोडविसयं, दिट्ठो चोडनरिंदो, समप्पियं पाहुडं । तबिहियसम्माणो य मणिच्छियमुवजि१ सुरसरित्-गङ्गा नदी ॥ २ गभीरगुरुककुक्षिः ॥ ३ तप्प प्रती । तृप्यति ॥ ४ कुलगिरिगुरुकार्जुनरौप्यकोटिकोटीनाम् ॥ ५ "स्स कह प्रतौ ।। ६ सृप्तिः जनयित नो पार्यते ॥ ७ ताम्यन्ति ॥ ८ निर्मादम् उत्पन् । ॥२७२॥ E%AAKASCUSSISROCALK यपरिग्गहारंभपरिमाणं च पडिवजिय गतो नियभवणं । जुहिडिलादिमुणिणो वि पत्थुयत्थसाहणत्थं पत्थिया नेमिजिणं तियं । सो वि तप्पुत्तो धरणो अवगयकइवयकलाविसेसो दारपरिग्गहाणंतरं पयट्टो दबजणोवाएसु रायसेवाइसु णेगहा दुक्करेसु । मणितो य पिउणा-रे पुत्त थेवतरायासेण वि निवाहसंभवे किमणवरयमैच्चग्गलं किलिस्ससि ? किं न पेच्छसि अपरिमियपरिग्गहस्स निष्फलतणं ?। तहाहि कणयस्सऽडकोडिसमजणे वि भोगो तिपसइमेत्तस्स । बहुवत्थसंभवे विहु अंगवतोंगे दुवस्थस्स विस्थिन-चित्तमणहर हरिणकुजल-बिसालभवणे वि । देहप्पमाणपल्लंकमेत्तमुवओगि गरुओ वि ॥ २ ॥ दाणोवभोगजोग्गो अत्थो च्चिय परिमिओ वि य विसिट्ठो। उक्खणण-रक्खणायासकारओ सेसओऽणत्थो ॥३॥ जइ दुरिट्ठ-चाणूर-कंसमुसुमूरणो वि महुमहणो । रेने हम्मइ एगो ता सेवगसंगहो वि मुंहा ॥४॥ इय कइवयवासरमेचजीविए बच्छ ! खिञ्जसे कीस । थेवायासेण वि भाविरीए नणु जीविगाए कए ? ॥५॥ एवं च निरुत्तजुत्तिजुत्तं पि पन्नविओ पिउणा सो भणिउं पवतो-ताय!जह वि ऐयमेयं, तहा वि 'अवस्समरिया' ति न तीरइ मुंसाणे "संठिउं, न यावि वेरिहत्थेण मरियचे वि अप्पा अप्पणा वि वेरिणो पणामिउं पारियइ, ता कीस सद्धाजडत्तं १थेवंत प्रतौ ॥ २ अल्वर्गलम् ॥ "यमूड प्रती ॥ ४ त्रिप्रतिमात्रस्य ।। ५ 'अजयतः' देवधारिणः ॥ ६ "च्छित्तचि प्रती। विस्तीर्णचित्रमनोहरहरिणा कोक्ज्वल विशालभवनेऽपि । देहप्रमाणपल्यकमात्रभुपयोगि ॥ ७'णपक्ख" प्रतौ ॥ ८ "रणे वि प्रती । मुसुमूरणो-मनकः ॥ ९ रनो ह° प्रती ॥ १० मुहो प्रती ॥ ११ एतदेवम् ॥ १२ श्मशाने ॥ १३ संठविडं प्रती । XXSAKSRISHRS ४६ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 644% A देवमयरिविरहओ कहारयणकोसो॥ विसेसगुजाहिगारो। Krcs+ स्थूलपरि| ग्रहविरतौ धरणकथानकम् ३८॥ 4 रसिंदो, हुयबहधम्मिञ्जमाणेसु य धाउपाहणेसु खेत्तो एसो, जायं जच्चकंचणं । पहिट्ठा दो वि, न ठिया तेतिएण । अंदभलोभामिभृया य भुजओ पयट्टा सुवनं पाडिउं । अह गरुयकोववसवित्थरंतभालयलमिउडिभीममुहो । ते भणइ खेतवालो पञ्चक्खो तक्खणं होऊ रे रे कीडप्पाया ! जइ करुणाए मए पढमवेलं । सोढं सुवनपाडणमेत्तियमेचेण वि य भुओ ॥२ ॥ लग्गा एत्थ वि तुम्मे रक्खिाइ तुम्ह कारणे किमिमं ?। नियपुत्रपरिणई पि हुन विभावह वह जमे ॥३॥ इय पढमपाडियं पि हु होडयमुदालिऊण तह खेत्ता । जह अन्ननविउत्ता ते पडिया दूरयरखेते ॥४ ॥ तहाविहं च अप्पाणं पेहिऊँण धरणो परं विसायमुवगतो चिंतेइ-अहो ! कत्तो निप्पुन्नयाणं कजसिद्धी ? पुरिसयारो वि न केवलो किलेसाओ परं फलं दाउमलं, किमित्तो कीरउ ? कत्थ वा गम्मउ ?-त्ति गाढसोगाउलियस्स तस्स पुषसंगइओ एगो सुरो पुरो ठाउं जंपिउं पवत्तो किं भो भाउय ! न सरसि मिहिलाए पुरीए पुत्वजम्मम्मि । तुममहयं पि हु जाया पुत्ता एगस्स वणियस्स? ॥ १ ॥ अनोनगाढपणया अन्नोनमभित्रकअपरमत्था । अन्नोन्नसोक्ख-दुक्खाणुवतिणो वुट्टिमणुपत्ता ॥२ ॥ दबोवजण हेर्ड किसि-वाणिजाइविविहकम्मेसु । लग्गा तदेगचित्ता दर्व पि हु अअियं किं पि १ तेत्तेण प्रतौ । तावता ॥ २ भवन:-अत्यन्तः ॥ ३ गुरुककोपवश विस्तरदालतल कुटिभीममुखः ॥ ४ 'दाटक' सुवर्णम् ॥ ५ प्रेक्ष्य ॥ ६ 'पूर्वसातिकः' पूर्वजन्मपरिचितः ॥ ॥२७३॥ % * धरणस्य पूर्वजन्म ॥२७॥ 4%A8+%ARARIKAKKARANKRANIK नवरं तेत्तियमितेण वेवमित्तं पि तेत्तिमलभता । परतीरगमण नरवइसेवणमभुट्टिया काउं ॥४ ॥ तत्थ वि असिद्धका वे[]रागरखणण-खन्नवाए । बाढं पयमाणा चिरजियत्थस्स वि य चुका ॥५॥ अच्चंतचित्तपीडाविहुरसरीरा य विहुँणि उच्छाहा । किं करिमो? पोकरिमो य कस्स ? एयं विभाबिंता ॥६॥ कत्थइ रहमलभंता वेरग्गावडियमाणसा सगिह । चइउं हिर्मयडपडणट्टयाए (?) अह पट्ठिया सिग्धं दिट्ठो य दिदैववित्थरो नायसबनायचो । संभूयनामधेयो मुणिवसहो अद्धमग्गम्मि ॥८ ॥ नाणि त्ति सो य बंदिय पुट्ठो अम्हेहिं अप्पणो वत्तं । भयवं ! किमत्थ कीरउ विवरीयत्तम्मि हयविहिणो? ॥९॥ तो मुणिणा संलतं देवाणुपिया! परिचयह लोभं । एसो हि नूणमेवंविहाणऽणत्थाण पदमपयं ॥१०॥ एयद्दोसेणं चिये कत्थ पयति न दुकरे वि जणो? । अज्झवसइ किमकजं पि नेव? वचइ न वा कत्थ? ॥११॥ तो अम्हेहिं पुट्ठो भयवं! को तस्स निग्गहे हेऊ ? । तेणं भणियं इच्छाविनिग्गहेणं हि संतोसो ॥१२॥ संभवइ जेत्तियं जेत्तिएण निबहइ नियकुटुंबं पि । तेत्तियमेत्ताउ परं नियमेजा निग्गहिय इच्छं पुणरवि समए पुट्ठो किविसया ? कह व सा बिहेयवा ?। संभवइ मिहत्थाणं किह वा गिहकअनिरयाणं? ॥१४॥ अह जीववहा-लिय-परधणित्थिपरिहारमक्खिउं मुणिणा । सबपरिग्गहविसयं परिमाणं सीसए एवं ॥१५॥ १ तृप्तिम् ॥ २ वाकरखनननन्यवादयोः ॥ ३ भ्रष्टौ ॥ ४ विधुनितोत्साहौ । किं कुर्वः पूरकुर्वब कस्य ? एवम् ॥ ५ त्यक्त्वा ॥६"मपडपड प्रती। हिमतटपतनार्थाय (१) ॥ ७ "दखट्ठवि प्रती ॥ ८ वार्ताम् ॥ ९ "य तत्थ पयहति प्रती ॥ १० अज्जय' प्रती ॥ ११ "णिणो प्रती ॥ SHARISHAIRWACHACKINAR Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरइओ स्थूलपरिअहविरतौ धरणकथानकम् ३८॥ कहारयणकोसो।* विसेसगुणाहिगारो। ||२७४॥ धण-धन-खेत्त-वत्थू रुप्प-सुवनं चउप्पयं दुपयं । कृषियं च इत्थ विनियत्तिविसयमिय नवविहं जाण ॥ १६ ॥ तत्थ धणं चउमेयं गणिमं पूगीफलाइ धरिमं च । मंजिट्ठाई मेयं घयाइ वत्थाइ परिछेज्ज ॥ १७॥ धनं मुगाइ खेतं च सेउ-केऊभयेहिं तिविगप्पं । सेयं भूजलसज्झ केर्ड आगासजलसझं ॥ १८ ॥ उभयजलसज्झसस्सं सेऊकेउं च तइयमक्खंति । वत्धुं च गिहाइ तिहा खाऊसियमुभयजायं च खायं भूमीहरयं तवइरित्तं च असियं वीयं । तदुभयनिप्पन्नं पुण खाऊसियमाहु तइयघरं ॥ २० ॥ रुप्प-मुखभाई पायडाई तुरगाइ चउपयं चिंति । दुपयं दासाईयं कवियं बहुहा घरट्टाइ ॥ २१ ॥ थूलं परिग्गहमिणं मुणिउं नेगप्पयारमुव[उ]चा । उवओगि वत्थु मोत्तुं सेसस्स करिति विणिवति ॥ २२ ॥ ता भो देवाणुपिया! तुमे विह विहणिऊण मिच्छत्तं । जइ इच्छह कल्लाणं ता इच्छामाणमायरह ॥ २३ ।। कीस किलिस्सह बहुहा मिच्छत्ता-विरइवेरिविहुरमणा । विजेते वि जिणुत्ते सबत्तो वि य परित्ताणे? ॥ २४ ॥ एवं तेणं मुणिणा निदंसिए किचवत्थुपरमत्थे । तुमए मए य गहियं सम्म इच्छापमाणमिणं ॥ २५ ।। दाऊण य अणुसद्धि मुणिणा भणियं अहो ! इह पवने । अइयारा पंच ददं मुणिऊणं उज्झणिज ति ॥ २६ ।। जहाखेत्ताइ-सुवनाई-धणाइ-दुपयाइ-कुप्पमाणकमे । जोयण-पयाण-बंधण-कारण-भावे हि नो कुणह ॥ २७ ॥ खेत्तम्मि आइसदा भूमिघरं [तह] धणे य धन्नं तु । रुप्पं च सुवनम्मि दुपयम्मि चउप्पयं चेव १ कुप्यं चात्र विनिवृत्तिविषयम् इति ॥ २ उभयजलं-भूजलं आकाशजलं च ॥ ३ खातम् उच्छ्रितम् उभयजातम् ।। ४ "सहो सूरिघरं प्रती ॥ स्थूलपरिप्रहविरते: स्वरूपं तदतिचाराश्च AHAKAKIRATRAIHAKAKRISRORNRAI ॥२७४॥ ऊण धणं पडिग्गहियपडिपाहुणो पवहणमारुहिय वलिओ नियनयरहुत्तं । जलहिमज्झमणुपत्तो य संवडम्मुहावडंततकरपवहणेहिं समं आढत्तो जुज्झिउं । अह पयट्टासु परोप्परं पत्थरवुट्ठीसु, खिप्पंतेसु दिप्पंतअग्गितेल्लेसु, मुच्चंतीसु कैयंतकडक्खतिक्खासु सर-जझसर-नाराय-भल्लीसु, खंडिजंतेसु सियवडेसु, तिखक्खुरुप्पकप्परिजंतेसु विजयचिंधेसु, विसत्थीहूएसु निजामएसु, कहं पि दिवजोएण उच्छलतातुच्छकच्छ भनिहरपडिहट्टाणं पाविय कयकडयडारावा सयखंडत्तर्ण पवना धरणस्स नावा। निमग्गो अत्थसारो ।। आसाइयफलहगखंडो य महाकट्ठकप्पणाए ओतिनो महनवं धरणो । कंठग्गलग्गजीविओ य कह कह बि सेमुद्दतडगिरिकडयपरियडणेणोवलद्धकंदमूलाइविहियपाणवित्ती नित्थामो तरुतले वीसमिउं पवत्तो । पेच्छइ य एग धाउवाइयं मेसर्सिगग्गेण विविहातो ओसहीओ खणेऊण गिण्हतं इओ तओ परियडंतं च । ततो 'सकारणमेसो एवं भमई' ति वितक्किय गतो धरणो तदंतियं । जातो य परोप्परमुल्लावो सहसंवासेण पैणयप्पभावो य । अन्नदिणे धाउवाइएण य भणितो धरणो--जइ सहाई भवसि ता पाडेमि सुवन, देमि जलंजलिं दोगच्चस्स । 'जं तुम आणवेसि तं करेमि' ति पडिवन धरणेण । अह उवाहारिया धाउपाहणा, पउणीकतो महल्लखल्ले ओसहीरसकल्लवितो १ सम्मुखापतत्तस्करप्रवहणैः । तस्करा अत्र समुद्रमभ्ये उण्टनप्रवणा ज्ञेयाः । 'चांचीया' इति भाषायाम् ॥२ सुखिप्पं प्रती ॥ ३ कृतान्तकटाक्षतीक्ष्णासु ॥ ४तीक्ष्णक्षुरप्रकल्प्यमानेषु ॥ ५ विशस्त्रीभूतेषु ॥ ६ उछलदतुच्छनिष्ठुरकच्छपसम्मुखस्थानं प्राप्य कृतकडकडारावा ॥ ७ पट्ठा प्रती ॥ ८ अवतीर्णः ॥ ९ समुद्रतट गिरिफटकपर्यटनेन ॥ १० प्रणयास्मभावच ॥ ११ महाखले औषधीरसतीमित: 'रसेन्द्रः' पारदः, हुतवहधम्यमानेषु च धातुपाषाणेषु क्षिप्तः ॥ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमदर विरइओ कहारयणकोसो ॥ बिसेसगु बाहिगारो । ॥२७५॥ *5% सबै तह ति पडिवजिऊण गुरुणोऽणुसट्टिमादाय । तो उज्झियकुविगप्पा विरईधम्मुञ्जया जाया सुविसुद्धविरहपालणवसेण लच्छी वि अजिया काइ । नवरं बच्चंतेसुं दिणेसु लोभाभिभूषण भो धरण ! पुणो वि तए पारद्धा णेगहा महारंभा । सरिया य न अइयारा घणाइवुड कुतेण अइयारविरहियं पालिऊण धम्मं अहं तु मरिऊण । सोहम्मे उवबन्नो देवो दिविडि-रूवधरो तुममवि विराहिऊणं सावयवयवित्थरं मरणसमए । अनुज्झाणोत्रगओ तिरियत्तेणं समुप्पनो तत्तो य एस धरणो ति खत्तिओ अंतरायदोसेण । विरइविराहणजणिएण पइखणं खिजमाणो वि अजसि न दबजायं ता विरइविराहणं कविवागं । सरिउं एत्तो भदय ! जं जुत्तं तं समायरसु पुसिणेहेणाहं तुह दूरं तिक्खदुक्खतत्तस्स । कहिउमिममागओ म्हि इहरा किमिहाऽऽगमेणं मे १ इय बुत्ते वित्तंते जाई सरिऊण तक्खणं धरणो । पुव्युत्तकमेण पुणो गिण्हड विरहूं भविग्गो सर्व्वं सिद्धं सर्व्वं च पावियं होउ इण्हि तण्हाए । इय तम्मि पमोयगए देवो अहंसणं पत्तो ॥ ८ ॥ ॥ ९ ॥ ॥ १० ॥ एवं च सैरियजह्रुद्दिविसिड जिणधम्माणुरागरतो धरणो ततो पएसातो सणियसणियं गच्छंतो पत्तो अरिपुरं । सुमरियं चिरसुकरण, सम्माणितो राइणा, पुवट्ठिईए दिट्ठो पिउणा, अभिनंदितो सयणवग्गेण उवबूहिओ साहम्मियलोगेण, तिवैग्गसंपाडणपट्टिट्टिईए कालमइवाहेर | १ प्राप्तम् ॥ २ स्मृतयथोद्दिष्टविशिष्टजिनधर्मानुरागरः ॥ ३ त्रिवर्गसम्पादन प्रकृष्टस्थित्या ॥ ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ 118 11 ॥ ५ ॥ ॥ ६ ॥ || 6 || ॥ सो य एगया दिडविसिदृधम्माणुड्डाण निट्टेण पुच्छिओ य पिउणावच्छ ! कहिं एसा सविसेसधम्मसंपत्ती जाय ? ति । ततो सिडो अणेण देवदंसणपमुहो सो पुववृत्तंतो । परितुट्टो पिया, भणिउं पवत्तो य—वच्छ ! परतीरोबगएण तमुवजियं तुमए जं न केण वि उबजिउं तीरइ, न य वच्छ ! एत्तो वि अनं सुंदरं असेसदुक्खोव समणसमत्थं च ता एत्थ बाढमुजओ निचं हवेजसि । एवं काहामि' त्ति पडिवनं धरणेण । अह सविसेसजायपुत्तपक्खवातो खेमाइचो समपिऊण सङ्घसंपयमेयस्स पवनो पचअं, सिद्धो य पुंडरीयपव्वए । धरणो वि “जहा लाभो तहा लोभो” ति वतइच्छाइरेगो विस्सुमरिऊण पुभव विरह भंग संभव मणत्थसत्थं मोकलविर्मुकखित्तो वि किंचि विरइसावेक्खयाए पिउणो अप्पणो य खित्ताण अंतरवाडी विहाडणेण एगखेत्तयं कुणतो पवनो पदम मइयारं १ | सुवनसयाइरित्तकयपचक्खाणो वि पिउपणयमुवहंतेण रन्ना विइन्नमुवन्नसयसंकलगं घेत्तृण 'मयाइ आइरिस्सामि' त्ति भइणीए समप्यंतो गओ बीयाइयारगोयरं २ । उभयघरसंपिंडणेण य धन्नाह अहरितं बुज्झिऊण परगिहेसु धन्नाई धराविन्तो 'संघरोवगयं चिय ममेयं' ति बुद्धीए आवनो तइयमइयारं ३ । चउप्पयाइवुडीए वयभंग भाविरं संक्रमाणो य नियमावहिसमए चिय गन्भसंभवत्थं गवाईणं संडाई बावारिंतो अल्लीणो चउत्थमइयारं ४ | पडिवन्नसंखासमइरेगसंकाए य बट्टग-तद्दाइयं वट्टाविऊण जह्रुत्तसंखं धूल विसालयाइभावं कराविंतो समस्थितो पंचममइयारं ५ | तहाविहसं किलिङपरिणामो य तब्भवि चिय भुजो खीणगेहसवस्सो य विविहरोगा ऽऽयंक किलामियकातो मरिऊण कुजोणिं गतो चाउरंताणंतसंसारारन्नसेवगो य जातो त्ति । १ प्रवर्धमानेच्छातिरेकः विस्मृत्य ॥ २ 'मुको खि प्रती ॥। ३ विघटनेन विनाशनेन ॥ ४ मृतपतिकायै भगिन्यै इत्यर्थः ।। ५ स्वगृदोपगतम् ॥ स्थूलपरिग्रहविरतौ धरणकथा नकम् ३८ । ॥२७५॥ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभदसूरिविरहओ कहारयण कोसो ॥ विधेस णाहिगारो । ॥२७६॥ नियमियपरिग्गहाणं तपिउणो इत्र गुणो धुवो दिट्ठो । तबइरित्ताणं पुण इय धरणस्स व महाणत्थो सीसंतु केत्तिया वा अणत्थसत्था छिन्नवंछस्स । पइसमयमुत्तरोत्तरवताणिटुचेट्ठस्स ? यन्नास्ति नैव भविता न च पूर्वमासी जीवस्तदप्यभिलषन्नखिलत्रिलोक्यम् । इच्छानिवृत्तिविरहेण न कैश्विदेव, देवा-सुरैरपि निरोद्धुमयं [हि] शक्यः इच्छानिवृत्तिरपि सर्वपरिग्रहस्य, सम्यक् प्रमाणकरणेन सुनिश्चिता स्यात् । तत्सीमसम्भविसु दृष्टसुखश्च पश्चात् सर्वं त्यजेदपि परिग्रहमात्मनैव स्वास्थ्यं न तत् प्रवरभोजन-वस्त्र- माल्य - रत्नाद्यलङ्करणतोऽपि भवेदवश्यम् । यत् सर्ववस्तुविषय प्रथमानवाञ्छा विच्छेदतः कृतधियः परिकीर्तयन्ति इति किमिह बहुतस्तन्न भूमीश्वराणां न च भवनपतीनां नैव वैमानिकानाम् | सुखमनुपममाहुः यद् वितृष्णस्य पुंसस्तदपगतविकल्पैरत्र यत्नो विधेयः " ॥ ४ ॥ ॥ इति श्रीकथारत्नकोशे पैञ्चमाणुव्रतविचारणायां धरणकैथोक्त्याऽणुव्रतपञ्चकं समाप्तम् ॥ ३८ ॥ १ 'तव्यतिरिकानां' अनियमित परिग्रहाणामित्यर्थः ॥ २ अच्छिनतृष्णस्येत्यर्थः ॥ ३ पञ्चाणु प्रती ॥ ४ 'कथानकं समाप्तम् प्रतौ ॥ ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ अपि च ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ || 2 11 कुष्पं तु अणेगविहं अइयारा एसि जोयणाईहिं । अइयारभावणा पुण पयडत्था भन्नए एत्थं ॥ २९ ॥ एकेकखेत्त घराइरित्तकयपच्चक्खाणस्स तयहिगामिलासे वयभंगभरण दोन्हं खेत्ताणं घराणं वा अवतरवाडीए कुडस्स वा अवणयणेण एत्थ जोडितस्स वयसावेक्खत्तणतो कहिंचि विरहबाहासंभवातो अइयारो ति १ । तहा सुवन्नस्स वा गहियवयाइरित्तस्स कत्तो वि लाभे अन्नस्स प्पयाणेण अइयारो । तस्स हिंए एस संकष्पो – चाउम्मासियावहिपरेण इमाहिंतो घिच्छामि, संपयं पुण वयभंगो होइ-त्ति वयसावेक्खयाए अइयारो त्ति २ । तहा धण-धन्नाणं पमाणाइकमो बंधणेणं होइ । जहा किर धण-धन्नपरिमाणवयप [व] अस्स अइरित्तं धणं धनं वा कोइ देइ, तं च वयभंग भयाओ 'चउमासाती परेण घरगयधणाइविकए कए घेच्छामि' ति भावणाए बंधणेणं-नियन्त्रणेन सत्यङ्कारादिना परघरे हार्वितम्स अइयारो ति ३ । तदा दुपथाणं दासीपहाणं चउप्पयाणं गवाईणं जं परिमाणं तस्स 'कारणेण' गन्भाहाणविहावणरूवेण अइयारो होइ । जहा किर केणइ संवछराइ अवहिणादुपय-चउप्पयाणं परिमाणं गहियं, तेसिं च संवच्छरंतो चिय पसूइसंभवे 'अहिगदुपयाइउप्पत्तीए वयभंगो' त्ति भएण केच्चिरे वि काले वोलीणे तस्स गन्भगहणं कार्रितस्स गन्भगयदुपयाइभावेण य कहूं पि वयभंगातो अइयारो ति ४ । तहा कुप्पे वट्टाइरूवस्स जं माणं तस्स अइकमो 'भावेण' तप्पजायंतररूवेण होइ । जहा किर केणइ दस करोडयाणि पमाणं कथं, तेर्सि च दुर्गुणते जाए वयभंगभया दो दो आवट्टिऊण एकेकं गुरुतरं कारितस्स तस्स पज्जायंतरकरणेण संखापूरणाओ य अहयारो त्ति ५ । अलं पसंगेण ॥ छ | पत्थु भन्नइ १ लाभो प्रतौ ॥ २ हृदये ॥ ३ "तो मिच्छा प्रतौ ॥ ४ प्रहीष्यामि ॥ ५ गुणसणत्ते प्रतौ ॥ स्थूलपरिग्रहविरतौ धरणकथा नकम् ३८ । परिग्रहबिरतेः फलम् ॥२७६॥ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरइओ कहारयणकोसो ॥ विसेस गुहिगारो । ॥२७७॥ वायमंडल व भतविविपत्तविराइया बहुकरेणुसंगमा य मायंदी नाम नयरी । तहिं च महामुणि व उच्वूढखमाप भारो, अन्भपिसातो व पडिपुनमंडलरायमाणखंडणपयंडो, आखंडलो व अणवश्यविर्युहविहियसेवो सिवपालो नाम नराहिवो । भाणुम नाम महादेवी । देवपालाभिहाणो ताण पुतो । मित्ता य तस्स तन्निवासिणो जिणधम्मपडिबद्धबुद्धिणो विण्हुसेट्टिणो सुया सिव भूह खंदनामाणो मुणिय हेउवादेया दक्खिन्नाइगुणसङ्गया समीवचारिणो चिठ्ठन्ति । अचंतपणएण तबिरहे ईसि पि रायसुतो न अच्छइ । चित्त-पत्तच्छेज-कह-कहा- पहेलिया - पण्होत्तर-बिंदुच्चुयाइएस य बद्धलक्खो न भोयणकरणं पि अभिनंदइ, न य मणहरगीय नट्टाइयं पि बहुमन, न य अलंकाराइपरिग्गदं पि अभिकखइ । एवं च तहाज हिच्छाचारेण इओ तओ गकीलासंपन्नं सद्धम्मकम्मविमुहमई च तमवगच्छिय एगया समुचियसमए भणियं सिव भूइणा - रायसुय ! किं पि विभविउमिच्छामि भवंतं परं न रूसियां तुमए । मुहमहुरजपिरा पडिघरं पि मित्ता हि हुति नंवरिभिमे । अप्पाणं पि परं पि हु पार्डिति भवडे वियडे ॥ १ ॥ १ वातमण्डलि धमद्भिः विविधैः पत्रैः वृक्षपत्रैविराजिता, नगरी पुनः पात्रैः सत्पुरुषः । पुनर्वातमण्डलि बहुकस्य प्रभूतस्य रेणोः सङ्गमःसमागमो यत्र एवंविधा, नगरी तु बहूनां करेणूनां हस्तिनीनां सङ्गमो यत्र ॥ २ उद्व्यूढक्षमाप्राग्भारः । महामुनिपक्षे क्षमा क्षान्तिः, राजपक्षे पुनः क्षमा- पृथ्वी ॥ ३ 'अपिशाचः' राहुः, असौ हि प्रतिपूर्णमण्डलस्य राज्ञः चन्द्रस्य मानखण्डने -कलाखण्डने प्रचण्ड राजा पुनः प्रतिपूर्णदेशस्य मानखण्डने गर्वापहारे प्रचण्डः ॥ ४ इन्द्रपक्षे विबुधा: - देवाः नृपपक्षे तु पण्डिताः ॥ ५ णो नाम ता प्रतौ ॥ ६ 'णो विद्धुसे' प्रतौ ॥ ७ ज्ञातयोपादेयौ ॥ ८ विज्ञप्तुम् ॥ ९ नवरम् इमे ॥ १० 'वाडवे वि प्रतौ ॥ राज्ञः अजसं पि वह कई पि हु तिहुयणसंचारिणं समति । जह जुगंपरियते वि हु विहुणिज्जइ तं न केणावि ॥ २ ॥ तम्मि य संह माणुस जम्म जीविएहिं पि नेव को वि गुणो । धम्म- इत्थ- कित्तिसारं तं सलहंतीह सप्पुरिसा ।। ३ ।। जो पावातो नियत्तह मित्तं पितमेव बिंति गुणवंतं । सयमवि पावो पावप्यवट्टणं क इव मित्तगुणो १ 11 8 11 जाणामि अहं भूवइघरेसु नैऽग्घत्ति फुर्डेयपब्भारो । मुंहरेइ तह वि किमहो ! करेमि चिरकालिओ पैणतो ॥ ५ ॥ एवं च तमुत्रमाणं रायसुतो पडिभणइ — भद्द! किमेवमासंकसि १ जंपेहि जं हियए बढइ । सिवभूहणा भणियं -- कुमार ! असेससत्थपरमत्थवेश्णो तुज्झ वि किं पि भणणजोग्गं १ केवलं धम्मोवदेसगगुरूवदेस विमुद्दो सच्छंद वेसानेवच्छसच्छ हेसु किच्चे तो पारमत्थिय किरियाविरहितो एवमेव दिणाई गर्मितो ममं अहिगं चित्तसंतावमुप्पाए सित्ति । रायसुरण भणियंभो वयस्स ! अत्थि एवं, किंतु जं इमे गुरुणो तवस्तिभावं पवना केइ जडामउडवतो, अवरे सिरोरुहावनयणेण सिंहलीमेतधारिणो, अन्ने य मुंड- तुंडलुंचणपयट्टा, अवरे य विकालजलपक्खालणेण अब्भुवगयसरीरकिलेसा विविहप्पयारेहिं अप्पाणं अंतुच्छ किच्छेसु छुब्भंति, तं सवं कामिणीपरिचाय कुवियकाममहाराय वियंमियमवगच्छामि, किंच पञ्चक्खदिहं विसयसुहमवहाय अदिसग्गा-पवग्गाइसुहकए क एवं संयन्नो पर्यंडपाखंडमंडलीपरोप्परविरुद्ध परूवणादुक्खदंदोलिमवलंबेजा ? ता भो वयस्सवर ! सहा एगवयणेण चैव निसिद्धो सि तुमं, मा भुजो धम्मसदुच्चारणं पि करेजासि ति । १ सति ।। २ मित्तम्मि त प्रतौ । ३ नाति स्फुटताप्राग्भारः ॥ ४ 'डपवभा प्रतौ ।। ५ मुखरयति । ६ प्रणयः ।। ७ वेश्यानेपथ्यसमानेषु ।। ८ शिखामात्र ।। ९ तिलकाजल' प्रतौ ।। १० महाकष्टेष्वित्यर्थः । ११ सकर्ण: प्रचण्डपाषण्डमण्डली परस्परविरुद्ध प्ररूपणा दुःखद्वन्द्वावलिम् ॥ दिग्विरतौ शिवभूतिस्कन्दयोः कथानकम् ३९ । ॥२७७॥ मित्रम् - Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिग्विरती शिवभूतिस्कन्दयो कथानकम् ३९। देवभद्दसरि धम्मो धणुदंडो चिय दंसणमपि जुवासंतियं अम्ह । रहपइणो चिय दिक्खा सिद्धती रहविलासमई ॥१॥ विरइओ सामग्गीए इमीए जा का वि हु निन्छईह संभव । तीए चिय ने कजं किमनकिरियाकलावेण? ॥२॥ कहारयण एवं च पंडिकलवत्तिसबयणविरयणमायनिऊण विलक्ख-रुक्खवयणेण चिंतियं सिवाणा-अहो। सो एसो उदिकोसो॥ तरजरविरुद्धस्स ओसहप्पओगो, अतुच्छच्छुहाकिलामियकलेवरस्स भोयणनिरोहो सब्वहा जैमणत्षिणो विसेसगु तत्तोवएसो, ता अलमित्तो रायपुत्वाणुसासणेणं ति । पयट्टो सो सगिहकिच्चेसु । रायसुतो वि तं विणा खणं पि रहमपावितो णाहिगारो पुरिसपेसणाइणा वाहराविऊण सप्पणयं भणिउं पवत्तो-भो वयस्सवर ! किमेकपए चिय निदक्खि[ण]त्तर्ण पचनो सि? जं पुरा लोयणसंकोयणमेत्तकाला[ण]वलोयणे वि विरह वेयणं सोदुमचईतो समं मए भोयणा-ऽऽसणाईसु चहिय संपयं दुल्लहदसणी॥२७८॥ हूतो सि त्ति । 'अहो ! निकवडसिणेहाणुबंधो' त्ति पुणरागयपणएण भणियं सिबभूहणा-कुमार ! मा अमहा संभाषेसु, किं पि घरपओयणपरंपरापरायत्तत्तणमेस्थावरज्झइ, न उण सिणेहक्खतो ति । कुमारेण वृत्तं-जह एवं ता न तुह दोसो। दियहाई पंच सत्त व कन्जवसा खलयणस्स दैढपणतो । होऊण तहा विहडइ जह न घडइ जुगसए वि गए ॥१॥ गरुयार्ण पुण ससहरसिंधू-नवमेहसिहिकुलाणं व । सो वड्डइ पइदियहं महादुमो अमयसित्तो छ ॥२ ॥ कह वा न अप्पणो विहु लअिज चिरपरूढमवि पणयं । उज्झंतेहिं सयं चिय पडिवजिय लोयमज्झम्मि ? ॥३॥ .१ प्रतिकूलवर्तितवचनविरचनामाकण्य विलक्षरुक्षयनेन ॥ २ उदित्वरम्वरविरुद्धस्य ॥ ३ यद् 'अनथिनः' अनिच्छोः तत्त्वोपदेशः ॥ ४ सासेणं है. प्रतौ ॥ ५ अशक्नुवन् ॥ ६ वर्तित्वा ॥ ७ रढप्रणयः ॥ KASHASANKRAKASAXECASS खल-सबनयोः स्नेहा ॥२७८॥ तिपिण गुणवयाणि । दिग्विरतिगुणव्रतस्य स्वरूपम् NEWSARASWA5% पंचाणुबयपडिवत्तिसुद्धसद्धम्मबुद्धिजुत्तो वि । होज गुणवयधारि ति संपर्य एयमक्खामि गुणकारीणि वयाई गुणवयाई ति जाण तिबेव । ताण दिसापरिमाणं परमं तस्स य सरूवमिमं ॥ २ ॥ अचंततिबहुयवहतत्तायसगोलगो व वियरंतो । अह्वा वि भीमतयविसमहाभुयंगाहिराजो विद्दवइ किं न जीवोणिसिद्धमण-[वयण-]कायवावारी । तं च निगिण्हेज इमं दिसिगमपरिमाणकरणेण ॥४॥ अहिदहस्स सरीरे कंडगबंधम्मि कमइ जहन विसं । तह दिसिपरिमाणम्मि विरमइ जीवस्स गमणमई ॥५ ॥ जह जह पसरनिरोहो बाई वणवारणस्स ब जियस्स । तह तह अभयपयाणं तद्देसोवगयजीवाणं मणवंछियत्थसिद्धी कम्मायत्ता न दूरगमसज्झा । ता दूरदेसपरिममणविम्भमो पाणिघायफलो । ॥ ७॥ दिसिपरिमाणग्गहणे दि8 सिवभूइणो व फलमतुलं । तविवरीयं तम्भाउणो व खंदस्स तदगहणे तहाहि-अस्थि समत्थदीवोदहिमज्झवत्तिजंबुद्दीचदाहिण दिसालंकारकप्पे भारहद्धवसुंधरापीढविढत्तसुंदेरपमुहगुणपभारभूरिसुपुरिसाहिट्ठिए कलिंगविसए चमररायहाणि छ चामीयर-रयणभवणकिरणपडियसन्तमसा अदिहसरसंतावा य, १ अत्यन्ततीमहुतवहतप्लायसगोलक इव विचरन् । अथवाऽपि भीमत्वग्विषमहाभुजङ्गाधिराज इव ॥ २ 'यो मणि' प्रती ॥ ३ 'काण्डकबन्धे' यन्त्रबन्धे ॥ ४ भरतार्धवसुन्धरापीठार्जितसौन्दर्यप्रमुखगुणप्रारभारभूरिसुपुरुषाधिष्ठिते ॥ ५ अष्टसूर्यसन्तापत्यर्थः ॥ ६ "सूरिसं प्रतौ ॥ CONCERBACHOOSINORIES ४७ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभइसरिविरइओ | कहारयणकोसो॥ विसेसगुमाहिगारो। ॥२७९॥ के मणहरं पि पुरिसं लहुईति ! विणासई य को जीवं ? । उल्लसियपहाजालो को वा नंदेह घूयकुलं? ॥१॥ दिग्विरतौ रायपुत्तेण विचिंतिऊण वागरियं-दोसागरो । अह विइकंता महई रयणी, वजियं सेओतूरं । विसजिया सवे सेवगाशिवभूतिगया संठाणं । कुमारो वि पसुत्तो सुहसेजाए। स्कन्दयो चीयदिणे य सिवभूई 'पण्होत्तराइसु अकुसलो' ति किं पि सिक्खणत्थं गतो गुरुणो अइसयनाणिणो सिद्धदेव कथानकम् सूरिणो समीवे । कयसपणय[पायपउमपणामो य सिद्धंतदेसणावसाणे रयणिवइयरं निवेइऊण पुच्छिउं पवत्तो-भयवं! ३९। साहेह किं पि पण्होत्तरं ति । तओ दिवनाणोवलद्धजहडियभावेण तेण तग्गुणजणणपञ्चलाई सिट्ठाई दुन्नि पण्होत्तराई । सम्मं पढियाई ताई सिवभूहणा । रयणीसमए य गतो रायसुयसमीवे । पुणो पयट्टा पोहोचरसंकहा । रायमुएण जंपियं-भो सिवभूह! सबो वि कोइ पढइ किं पि? तुमं पुण न कयाइ, ता किमियमवना ? अपडिहासो वा ? । सिवभूइणा भणियंकुमार ! मा एवमासंकेसु, विजियमुरगुरुमइणो तुह किं अम्हारिसो सहावजडो पढेउ ? । अह पसायचिन्तगेण चंदचूडनामघेएण भणियं-कुमार ! मुयसु ताव इम, मह पण्होत्तरं निसामेसु वीतस्मरः पृच्छति ? कुत्र चापलं खभावजं ? कः सुरते श्रितः खिया । सदोन्मुदो विन्ध्यवसुन्धरासु क्रीडन्ति काः कोमलकन्दलासु? १ दोषाः, गरः-विषम्, दोषाकर:-चतः इति उत्तरत्रयम् ॥ २ शयनकालसूचकं तमित्यर्थः ।। ३ 'मेव प्रती ॥ ४ श्रियः श्रियः प्रती ॥ ॥२७९॥ CAXMARANAGERARASWOR+%A __कुमारेणोक्तम्-कथं व्यस्त-समस्तजातिः ? भवतु, ज्ञातम् , अनेकपावलयः। अत्रान्तरे अन्यान् पठतो निषेध्य | नियुक्तोऽमुना शिवभूतिः प्राह भवति चतुर्वर्गस्य प्रसाधने क इह पटुतरः परमः । पृच्छत्यङ्गावयकः ? को देवः प्राक्तनो जगतः? ॥१॥ विमृश्याभिहितं राजसुतेन-वधेमानजातिरेषा, नाभेय इति सम्भावयामि । भूयः पठितं तेनैवकिंसंखा पंदुसुया ? नमणे सहो य को ? कहं बंभो । संचोहिजइ ? को भृसुओ य ? को पवयणपहाणो? ॥१॥ महईवेलं विभाविऊण चुत्तं रायसुएण-पंचेंनमोकारो त्ति । अह अण पत्ताइसयरंजियमणेण सिवभूणा भणियं-कुमार ! अपोरिसेए वि मइपगरिसे किमिह तुह पच्छिमपण्होत्तरजुयले ईसि कालविलंबो जाओ ? त्ति । कुमारेण भणिय-भो वयस्स ! कञ्जमबुज्झमाणेण अक्खराणुगुन्चेण मए विमरिसियमिमं, अतो परमत्थं तुम मह साहेसु, को एस नाभेयो ? को वा पंचनमोकारो ? ति । ततो सिवभूइणा पारद्धे आइजिणस्स उसभस्स गुणकित्तणे, पंचनमोकारस्स य "नमो अरिहंताण"मिच्चाइरूवस्स सवित्थरस्सरूवकहणे ईहाऽपो १ अने ! कपौ, अलयः, अनेकपावलय इति उत्तर चतुष्टयम् । इ:-कामः, न : अनिः तत्सम्बुद्धौ दे अने! । 'कपौ' वानरे । न लयः अलयःचापल्यभावः। अनेकपाना-हस्तिनाम् आवलयः-श्रेणयः इति ।। २ पुराणः। ३ ना नाभे । नामेय इति उत्तरत्रयम्। 'ना' पुरुषः । 'नामे' मध्यावयव ! । नाभेरपत्य नाभेयः-ऋषभजिनः ॥ ४ अत्र पंच नमो का आरो पंचनमोकारो इत्युत्तरपाकम् । 'पंच' संख्या। नमो अव्ययम् । 'हे क' हे ब्रह्मन् !। 'आरो' महलपहः । 'पश्चनमोकारो' महामन्त्रः ॥ MACAKAASANA Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरइओ कहारयणकोसो।। विसेसगुणाहिगारो। दिग्विरतौ शिवभूतिस्कन्दयो कथानकम् ३९ । ह-मग्गणाइ कुणंतस्स रायसुयस्स जायं पुत्वभवसरणं, अणुसरियपुवपढियसुत्त-उत्थो य संबुद्धो। तकालविलसंतसविरहवासणो, कयपंचमुट्ठियलोयकम्मो, देवयासमप्पियसाहुलिंगी, 'अहह ! किमेयं ? ति समय-चमकारं सयलपरिसाए पलोइजंतो, गिहमुज्झिय पुरीबहिया महापुंडरियाभिहाणे आरामे गंतूण ठितो काउस्सग्गेणं । हेल्लोहलितो पुरजणो, विम्हितो राया, अच्छिन्नमुकनयणंसुधारं परुनमंतेउरं । गया य रायाइणो तदंतियं, बंदिऊण खणं पज्जुवासिऊण य अदिहमोग्गराभिघायघुम्मिय व किं पि वोत्तुमपारयंता गया जहागयं । उचियसमए 'एगतो ति कलिय पायवडिएण पुच्छितो सो मुणिकुमारो सिवभूहणा-भय ! को एस अच्छरियभूओ तुह बइयरो ? किं कारणं वा इत्थं पञ्चजागहणं ? ति । मुणिणा भणियं-भद ! जं तए जगगुरुणो जुगादिजिणस्स पंचपरमेद्विमहामंतस्स य सरूवनिरूवणं कयं तेण मए जाई सरिया, पुवाणुचित्रसामनाणुरागेण य भुजो पवर्ज पर्वण्णो म्हि । सिवभूइणा भणियं-भयवं! को पुण तुमं पुत्वभवे आसि ? ति । मुणिणा बागरियं-आयन्नसु अहमित्तो तइयपुरभवे कोल्लइरपुरे सिंधुदत्तसेट्ठिणो सुयत्तेण उववन्नो । जम्माणंतरं च तिमासियस्स ममं उग्गया वयणे वेल्लमउलपढमुग्गम सिणिद्धा दसणावली । भीती पिया । बाहरितो अटुंगमहानिमित्तपाढगो जोगीसरो नाम [नमित्तिओ], विसिट्ठोवयारसारपडिवत्तिपुत्वगं च पुच्छितो-किमेव अगाले डिंभदंतुग्गमो ? ति । नेमित्तिएण भणियं १ पूर्वभवस्मरणम्, अनुस्मृतपूर्वपठितसूत्रार्थध ॥ २ क्षुब्धः ॥ ३ अदृष्टमुराभिघातपूर्णिता इव ॥ ४ चण्हो म्हि प्रतौ ॥ ५ विचकिलमुकुलप्रथमोम इन ॥ KARA+KA&+I+ K ॥२८॥ देवपालराजकुमारपूर्वभवकथानकम् ॥२८॥ I UPONGAkhterNASBIRATNANAGARIKSH इमं च सोचा हिययंतो समुम्मिलतलजाभरो सिवभूई विभावेइ-जह वि दुल्ललियत्तणेण तारुनमएण वा धम्मोवएसं मम न पडिवनो तह वि परूढपेम्माणुबंधो त्ति न मोत्तुं जुजइ एसो, मा कयाइ इमं च पडिवजेजा। एत्थंतरे जाया भोयणवेला, दवावियाई कुमारेण आसणाई। कयतकालोच्चियकिचा य भुत्ता सममेव सवे वि । ठिया य दिणावसाणं जाव ताहिं ताहिं संकहाहिं । अह रयणीपढमजामसमए पारद्धा रायसुएण पण्होत्तरपाढगोट्ठी । तत्थ य पढियं पढममेव कुमारामच्चेण । जहा पापं पृच्छति ? विरतौ को धातुः कीदृशः कृतकपंक्षी ? । उत्कण्ठयन्ति के वा विलसन्तो विरहिणीहदयम्। ॥१॥तै त त त तुतः ॥ कुमारेण विमृश्योक्तम्-मलयमरुतः। अथ भणितं बालवयस्येन शिवेन । यथा विकचयति किमिह शशभृत् ? किं वा शेषोऽपि कलयति शिरोभिः ? किं वा विशोभमवधार्य नायिका नाऽऽदधाति करे ? राजपुत्रेण विभाव्योक्तम्-कथमे[का]लापकम् ? हुं ज्ञातम् , कुवलयम् । एत्थंतरे पयंपियं मंगलपाढयसूणुणा सयाणंदेण१ "म्मिलंत प्रती ॥ २ "पक्खी प्रती ॥ ३ अस्याः प्रहेलिकाया उत्तरे एतदन्तर्गतस्वरोपलक्षणम् --अ-अ-अ-उ-मः । तथैव चोत्तीर्णम्म्+अल+अ +अ म+भर+3 + मलयमरुता ॥ 'मल!" पाप.. यम् उपरमे, 'अस्ता ' अशब्दः, मलयमरुतः ॥ ५ अन कुवलयम्' इत्यनेन कमलम् , पृथ्वीवलयम्, कु:-पृथ्वीरेव वलयं कुवलयं-कुत्सितं वलयम् इति उत्तरत्रिकम् ।। प्रभोत्तरगोष्ठी +KAR******** Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभइसरि-3 विरइओ कहारयणकोसो॥ विसेसगु-12 जाहिगारो ॥२८१॥ दिग्विरतौ शिवभूतिस्कन्दयोग कथानकम् पि विइतबालभावो परघरभिक्खाभमणोवलद्धपिंडभोयणेण अप्पाणमहं पोसंतो पत्तो तरुणतणं । जम्मणाणतरविवाजणगबइयरायनणेण पररिद्धिविस्थरपलोयणेण य जायगरुयवेरग्गावेगो 'अलं घरवासविडंचणाडंबरेणं' ति निच्छिय चउद्दसविणो सुहम्मसूरिणो समीवे पवनो मुणिधर्म, खंति-मद्दवाइगुणाणुगयमाणसो य गामाइसु गुरुणा समं विहरिउं पवत्तो य । अहिञ्जियाणि एकारस वि अंगाई पुत्वगयं च किंचि । जिणधम्माणुरागरंजियहियओ य पर्जते मासियमणसणं पवञ्जिय मओ सोहम्मे देवसुहमणुभुजिऊण संपइ एसो हं उप्पनो रायसुतो। तुमाहिंतो नाभेयजिण-पंचनमोकारपयपरूवणायन्त्रणसमुप्पन्नपुराणुचिनसामभसरणो संयुद्धो, दिक्खं च तक्खणमेव पवनो ति ॥ छ । इमं च सोचा चिंतियं सिवभूइणा-अहो ! विचित्ता कम्मपरिणई, अहो ! अविभावणिजो तहाभवत्तविवागो, जमच्चंतधम्मविरुद्धवित्तिणो वि थेवं पि निमित्तेमेत्तमासाइऊण एवं बुज्झति । कुमारमुणिसीहो वि बीयदिणे विहरितो अन्नत्थ । अह कइयवि वरिसाई र्छ?-ऽट्ठमाइनिट्ठरतवविसेसविसोसियासुहसंचयत्तणेण समुप्पनदियोहिनाणो पुणो वि आगतो तमेव नयरिं । चंदणत्थं च पत्थिवपुरस्सरो समागतो सबो पुरीजणो सिवभूइ-खंदनामाणो मिचा य । बंदिऊण सायरं उबविट्ठा समुचियट्ठाणेसु । कया कुमारमुणिणा धम्मदेसणा । तदवसाणे य सणियसणियमेगो पुरिसो भग्गचरणो 'किं मए पुरा कयं?' ति पुच्छिउं पत्तो तं पएसं, सबायरेण पणयकुमार१परगृहभिक्षाधमणोपलम्पपिण्टभोजनन ॥ २ जन्मानन्तरविपन्नजनकल्यतिकराकर्णनेन ॥ ३-पश्चनमस्कारपदप्रपणाकर्णनसमुत्पन्नपूर्वानुचीर्णधामण्यस्मरणः ॥ ४ 'भवन्नवि' प्रती । ५ निमित्तमात्रमासाय ॥ ६ षष्ठाटमादिनिष्टरसपोविशेषविशोषिताधुभसचयस्पेन ॥ है ॥२८॥ दुर्बलचरणस्य पूर्वभवकथानकम् मुणिकमकमलो य भणिउं पवत्तो-भय । किं मए दुकयं कय जेण केचिराणि वि दिणाणि चारुचंकमणो वि होऊण संपयं एकपए च्चिय एवंविहचलणबलवियलो संवुत्तो?। भगवया वुत्तं-अस्थि पुचजम्मजणियदुकम्मदुविलसियमेत्य, तं च निसामेसु भद्द ! तुम हि पुत्वभवे कालिंदीजलकालकालिंजरगिरिगरुयमज्झमंडलनिवासी वइसदेवो नाम गोरक्खगो अहेसि । अन्नया गोवग्गं चारितेण तुमए गिरिनिगुंजे निलीणो वञ्जरिसभसंघयणो महाबलो नाम तवस्सी काउस्सग्गगतो दिट्ठो । 'किमेसा विभीसिय?' ति तरुयंतरिओ खणंतरमवलोइऊण अवकतो तुमं । नवरं दिणे दिणे तहट्ठियं दट्टण विगयविभीसियासको समीवे उवगम्म 'मुणि' ति जायविणिच्छओ पडिओ से पाएसु । मुणिणा वि 'जोगो' त्ति विभाविय धम्मलाभिओ तुम । पमोयभरमुबहतेण य पइदिणदंसणलद्धपसरेण तत्तो जाणियधम्मनिच्छएण एगया पुच्छिओ तुमए साहू-भयवं! किं कारणमेवं पइदिणं पि संकुइयकाएहिं ईसिं पि चंकमणमकुणमाणेहिं उद्धृट्ठाण ट्ठिएहिं 'पेट्ठिजह ? ति । अह तेण तुमं भणितो अहो महाभाग ! भागधेएहिं । गरुएहिं एस लब्भइ जिणिंदकहिओ समणधम्मो ॥१॥ एयस्स य मूलमिमं जं कीरद सबहा वि जियरक्खा । सा पुण जहिच्छसंकमण-सयण-परियत्तणाईसु ॥२॥ संभवइ नो जहत्था तेणुवउत्ता ससत्तिसम्भावे । खाणु व निचला ठंति साहुणो काउसग्गेणं अंजणचुभयपुमो समग्गतो व सया वि पंडिहच्छो । सुहुमेहिं बायरेहि य जीवहिं जीवलोगोऽयं ॥४॥ १ कालिन्दी-यमुना २ ॥ अभवः, आसीः इत्यर्थः ॥ ३ स्थीयते ॥ ४ इन्नो, ते प्रती ॥ ५ स्थाणुरिव ॥ ६ प्रतिपूर्णः ॥ KAMASEA++ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरहओ कहारयण कोसो ॥ विसेसगुमाहिगारो ॥२८२ ॥ ॥ ५॥ ॥ ६॥ ताणं च रक्खणत्थं इत्थं तित्थंकरेहिं निदिट्ठो । काउस्सग्गोवातो बिसेसतो वैरिसयालम्मि तेणेव भद्द ! इहई न उज्जतो कीरई विहारो वि । वीसुत्तरदिवससयं जायुस्सग्गेण इयरो उ असिवे ओमोयरिए रायट्ठे भए य गेलने । नाणाइतिगस्सऽट्ठा विस्सुंमँणमेसणे विहरे फॅलहाइलाभविरहा पन्नास दिणाई विहरितो वि मुणी । पुरतो सत्तरिदियहे वसिज अवि रुक्खमूले वि अवि सुट्टितो सुनाणी जिंइंदितो जियपरीसहाणीतो । वासासु विहरमाणो दुविहं पि विराहणं लहइ ॥ ७ ॥ ॥ ८ ॥ ॥ ९ ॥ ता भो महाणुभाव ! 'जीवाउलो एस कालो' ति एवमहमिहाssवसामि त्ति । अह मेरुगिरिसंसग्गेण तिणग्गस्स व सुवन्नपरिणामो मुणिजोग्गेण वियंभितो तुद्द विमलो विवेओ । समुप्पन्ना य एवंविदा सेमुंही - अहो ! महापावकारिणोऽम्हे जे एवमणंतजीवाउले भूमीयले जहिच्छं विचरामो, न थेवं पि संकेमुहामो, ता कहं नित्थरिस्सामो एवंविपावपारावाराओ ? एसो थिय परं तवस्सी सुकयनिही नित्थरियभवसमुद्दो य जो नाम एवं कुम्मो व संलीणसबंगोवंगो झाणकोडोबगतो व चिट्ठ । एवं च तुमं अप्पाणं झुरिऊण सपणयं मुणिं भणिउं पवतोभयवं ! को उवाओ ? को वा पडियारो ? अणवश्यापरिमियमेइणी भमणसीला कहमम्हारिसा होहिन्ति ? | साहुणा भणियं मद्द ! अस्थि उवातो दिसापरिमाणकरणेण, परिमियभूभमणेण सत्तसंताणताणभावाउ ति । तुमए भणियं - भयवं ! कहं पुण तप्परिमाणं चिप्पइ ? किंसरूवं च तयं ? ति - ५ फलकादि ॥ १ कायोत्सर्गोपायः ॥ २ वर्षाकाले ॥ ३ दुग्गे भ' प्रतौ ॥ ४ 'भणपेस' प्रतौ। 'विश्वग्भव' मरणे 'एषणे' एषणार्थम् ॥ ६ अरु प्रती ॥ ७ जितेन्द्रियः जितपरीषदानीकः ॥ ८ 'शेष' बुद्धिः ॥ ९ शङ्कामुद्रामः ॥ १० अनेक सत्यसन्तानत्राणभावात् ॥ मूलातो चिय निसुणेसु दसणुग्गमसुदा ऽमुहस्यगं सर्व्वं । जहा -- 11 2 11 ॥ २ ॥ जैसि अयाले दन्ता वयणे दीसंति कह विं डिंभाण ताण गुण-दोसमासत्तमासियं किं पि साहेमि दंतेहिं समं जातो कुलनासं कुणइ निच्छियं बालो । दंतेहिं बीयमासे पियरं मारेइ अप्पं वा वयणम्मि जस्स दंता तइए मासम्मि कह वि दीसंति । पियरस्स कुणइ नासं अदुवा य पियामहं हाइ जस्स चउत्थे मासे दसणा दीसंति वयणकुहरम्मि । सो हणइ भाउणो वजम्मणा नूणमचिरेण अह पंचमम्मि मासे दसणा दीसंति जस्स वयणम्मि । वरकरि-तुरंग करमे सो आणइ नत्थि संदेहो जाए य छट्ठमासे दसणा जस्सुग्गर्मति वयणम्मि । सो कुण दवनासं उच्चेयं कलह-संताव सत्तमगम्मि य मासे दसणा जस्साऽऽणणे वियंभंति । धण-धन- दासि दासं पसुमित्तं सो विणासेह इय एस पुबमुणिवरनिदंसितो कोइ सत्थपरमत्थो । सुँम्मइ एत्तो ता तयणुरूवमायरह निम्मंतं ॥ ३ ॥ ॥ ४ ॥ ॥५॥ ॥ ६ ॥ ७॥ || 6 || इमं च सोचा अचंतजायचित्तसंतावो नेमित्तियं विसज्जिऊण मह पिया सयणजणं वाहराविऊण 'किमित्थ वहयरे कीरह ?" ति आलोचिउं पवत्तो । अह सयणवग्गेण विनिच्छिऊण अहं ठविओ विभिन्नमंदिरे, तह वि मह दुकम्म दोसेण रयणीए पत्तो तकरेहिं हतो पिया पवन पंचतं । ततो परिचत्ता मे बत्ता वि घरजणेण । कई पि महाकडकपणाए य किं १ विदिताण प्रतौ ॥ २ आत्मानम् ॥ ३ 'पूर्वजन्मनः' पूर्व जातान् अप्रजान् इत्यर्थः ॥ ४ श्रूयते ॥ ५ निर्भ्रान्तिम् ॥ ६ महाकष्ट कल्पनया ॥ . दिग्विरतौ शिवभूतिस्कन्दयोः कथानकम् ३९ । ॥२८२ ॥ अकाल दन्तोद्गम कल्पः Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभरि -3 विरहओ दिग्विरतौ शिवभूतिस्कन्दयोः कथानकम् ३९ । कहारयणकोसो॥ विसेसगुणाहिगारो। ॥२८॥ च न करेइ । किर केणइ पुवाए अपराए वा जोयणसयपरिमाणं परिमाणं कयं आसि, गमणकाले य तं पम्हुटुं कि सय? | पत्रासा व ?' ति तस्स य पन्नासमइकमंतस्स भंगो ति ५। एयाण बञ्जणाओ दिसिञ्चयं पालियं हवइ सम्मं । तप्पालणाए दिन्नं अभयं तद्देसजीवाण ॥१॥ छ । एवं मुणिणा वुत्ते तुमए सम्मत्तपुत्वयं विहिणा | संभवियदिसिपमाणं पडिवनं दुविहतिविहेण ॥२॥ बासारत्तपजते य विहरिओ मुणी अन्नत्थ । तुमं पि जिणधम्माणुरत्तचित्तो पुवपडिवन्नाभिग्गहपरिपालणपरो जीविगानिमित्तं मित्तगवाइरक्खणबद्धलक्खो चिट्ठसि त्ति । अन्नया य 'बहुपच्चूहबूहविरुद्धो कल्लाणकम्मसमारंभो' ति गिरिकडगे गवाइणो चारितस्स तुह उवरिल्लवत्थं कह वि चावलपयइत्तणेण घेतूण उड्डे पलाणो साहामिमो, तुम पि तम्मग्गेण धाविओ वेगेण, गतो य उड्डदिसिमेरं जाव, सैरिओ अभिग्गहो, नवरं 'सयं न बच्चिस्सामि' ति अन्नं गोवालसुयं पेसयंतो तदानयणत्थं पत्तो पढमाइयारगोयरं १। अनम्मि दिणे तद्देसि चिय वसंतो धाउवाइएहिं उबलोभिऊण पवेसितो लक्खरसवेहिनिमित्तं विवरम्मि, 'किं करेमि परायत्तो हं? ति आलंचणं पवञ्जिय अवहिविसयातो परेण वचतो गओ बीयाइयारविसयं २ । अनम्मि य पत्थावे गोवग्गमादाय 'तिणाइ निट्ठियं' ति दूरयरदिसीए गतो, तवेलं च उल्लालियलंगूलो गिलंतो व तद्देसवत्तिसत्तसंताणं गुंजायमाणो समुडिओ केसरी, नई गोउलं, तुम पि गोपुच्छाणुलग्गो जाणतो वि तिरियदिसिविइकमं 'नाहं सयंवसो वच्चामि' त्ति कयावहुंभो १ वानरः ॥ २ 'सि मेरं जाव, सरिसओ प्रती ॥ ३ स्मृतः ।। ४ वरेमि प्रतौ ॥ ५ अविहि प्रती ।। ॥२८३॥ HAIRCRAH KARAMHANNERARENYASAGAR MOXICCHOROSS8+ACAKACAXSAXXINS पवनो तइयमइयारं ३ । अवसरंतरे य गामं गच्छंतो पुर्व पि अवहिं लंघिय अवरदिसासंतियजोयणपंचयपक्खेवेण जिगमिसियदिसिवुदि काऊण पट्टिओ चउत्थाइयारमणुपत्तो ४ । भुजो य कयाइ अन्नयरिं दिसि पयट्टो 'किमिह वीसं तीसं वा जोयणाई मेर?' ति संकिय तमणुसरंतो संकेतो पंचममइयारं ५। एवं चे दिसिविरई कलंकिऊण अणालोइयदुच्चरितो खीणोतो मरिऊण कुदेवत्तेणमुववन्नो । तत्तो वि चविऊण सुकुलसमुप्पनो वि पुवकयदुकयदोसेण भो महाणुभाव ! चंकमणबलवियलो जाओ सि । ता एयं कारणं ति ॥ छ॥ इमं च सोचा सो पुरिसो परमवेरग्गोवगओ भुजो पडिवञ्जिय तविरई गओ सं ठाणं । सिवभूइ-वंदया वि एयवइयरसवणाउ चेव पवनजहावट्ठियदिसिपरिमाणबया गया नियघरं । कुमारमुणिसीहो वि विहरितो अन्नत्थ । एगया य विसिववहारविरहियत्तणेण पदीयमाणम्मि दवसंचए सिवभूह-खंदया दो वि भायरो ठिया विभिन्नघरेसु, अनिबहमाणा य दवजणनिमित्तं पगया दविडदेससीमासंधिम्मि, तत्थ य पडिपुग्नं दिसिपरिमाणं । पुरतो पट्टिए वि सत्थे 'वयाइकमो' ति ठिओ सिवभूई । लोभामिभूओ य वयमसरिऊण गतो खंदओ, अकालवियकयंतभडभीमभिल्लसेणालूडियसवसारो य सरीरावसेसो वलिओ य सदेसाभिमुहं । सिवभूई वि निर्यनियमनिचलचित्तो जाव तत्थेव आवासितो अच्छइ ताव धणदेसंतरायवणियसत्थाभिघायपावियमहग्धमोल्लपणियपडिपुग्नवसहनिवहमादाय पत्ता भिल्ला तं पएसं । जातो १ "सासंनिय प्रती।। २ जिगमिषितदिग्वृद्धिम् ।। ३ य तीम प्रती ॥ ४ च देसबि" प्रती ॥ ५ क्षीणायुः।। ६ निज नियमनिश्चलचित्तः ।। ७ धनाकादेशान्तरागतवणिक्सार्थाभिधातप्राप्तमहार्घमूल्यपणितप्रतिपूर्णऋषभनिव हमादाय ।। Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभइसरि-15 विरहओ कहारयणकोसो।। विसेसगुणाहिगारो। दिग्विरतौ शिवभूतिस्कन्दयोः कथानकम् सिवभूइणो तेहिं सह ववहारो । उवलद्धा रयणाइणो पयस्था । कयदालिद्दजलंजलिप्पयाणो य गतो सगिहं । मुणि[य]वइयरेण य सलहिओ लोगेणं । इय परभवेसु [वि सो] कल्लाणभागी जातो । इयरो अकित्तिं लोगदुगविधायं च पत्तो ति । एवं भट्ठपहना दुक्खं दुग्गं च दुग्गइसर्विति । इह-परभवे य इयरे महल्लकल्लाणमचिरेण ॥१॥ अपि च अन्यान्यधान्य-जलपान-विरुद्धवातसम्पातजातविविधाऽऽमयमध्यमानः मानातिरिक्तन....क्तं(?) दिनमार्गखेद-शीता-ऽऽतप-कमकृतार्तिरपुण्यजन्तु: दात् सुदरतरदेशमपि प्रपन्ना, काणं कपर्दकमपि प्रलमेत नैव । पुण्यान्वितध निवसन्नपि वेश्मनि स्वेऽजस्रं धनाधिप इव श्रियमनुवीत ॥२॥ श्रयति दूरदिगन्तरमादृतः, किल भवेयमहं धनवानिति । अथ च तत्र पुरस्थमिवाशुभं, सकलमस्य निरस्यति वाञ्छितम् इति बहुविधक्लेशा-ऽऽयासप्रपञ्चपटीयसी, मितसमुदितक्षेत्रादिच्छा परेण निवर्तयन् अभयमपरक्षेत्रस्थानामशेषशरीरिणां, वि[त]रति रति लक्ष्मी शोभामुपर्ययते ततः ॥४ ॥ ॥ इति श्रीकथारत्नकोशे प्रथमगुणवतचिन्तायां शिवभूति-स्कन्दयोराख्यानकं समाप्तम् ।। ३९ ।। दिग्विरतेः उपदेशः ॥२८४॥ ॥२८४॥ लादिग्विरतेः स्वरूपं तदतिचाराश्च साहेसु । तत्तो साहू साहिउमाढत्तो। जहाउड्डा-ऽहो-तिरियदिसिं चाउम्मासाइकालमाणेण । गमणपरिमाणकरणं पढम हि गुणवयं चिंति ॥१ ॥ उड्डे गिरिसिहराइसु अहो वि विवराइएसु तिरियं च । पुवाईसु दिसासुं विसओ पंचेह अइयारा उड्डाइतिदिसिपरिमाणलंघणे तिथि हुंति अहयारा । नियमियदिसिवुडीए सइभंसम्मि य दुवे व ॥ ३ ॥ एए य अणाभोगा अइकमाईहिं वा समवसेया । इहरा पयट्टमाणस्स गेहिणी भंग एव परं । एत्थ भावणा-उडदिसिपमाणं जं पडिवनं तस्सोवरिं पञ्चयसिहरे तरुवरे वा पक्खी पंवंगमो वा वत्थं आभरणं वा नेा तदत्थं तत्थ तस्स न कप्पड़ गंतुं, आणयण-पेसणोभ[या]णि य काउंन कप्पंति । जया [त]तो तं सयं पडइ अनेण वाऽऽणीय होइ तया घेत्तुं कप्पा ति १ । एवं अहोदिसिपमाणाइकमस्स वि विवराईसु विभासा २ । तहा तिरियदिसिपमाणाइकमो तिविहेण विन कायद्यो ३। खेत्तवुडी य एवं संभवइ-किर पुबदिसीए भंडं घेत्तुं गओ जाव तप्परिमाणं, तओ परओ य तं अग्धं लहइ त्ति जाई पच्छिमादिसिजोयणाणि ताणि केच्चिराणि वि पुत्वदिसिपरिमाणे पक्खिवइ ति, एसा वि वजणिजा । जइ अणाभोगेण परिमाणमइकतो होञ्ज ता तत्तो वि नियत्तइ, तदेणाभोगयाउ वणियत्ताओ य लाभो घेत्तुं न जुञ्जइ त्ति ४ । तहा कहं पि वक्खेवाइणा 'सईए' सुमरणस्स जोयणसयाइरूवदिसिपरिमाणविसयस्स 'अंतद्धा[f] विणासो तं १ सहसंभम्मि प्रती । स्मृतिशे ।। २ ज्ञातव्या इत्यर्थः ॥ ३ 'सबनमः' वानरः ॥ ४ नयेत् ॥ ५ दणाणाग प्रतौ । तदनाभोगजाद् बाणिज्याच ॥ ६ विणोसो प्रती ।। WORKHARAAR re Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म रा भोगोपमोगव्रते मेघश्रेष्ठिकथानकम् ४०। देवभइसरि- ओहरमणोहरो महिलावग्गो, बुद्धो व परमकरुणासारो साहुजणो। तहिं च वत्थबो पयईए चिय निम्मलमेहो मेहो नाम सेट्ठी, विरइओ|| देवई से भजा, सुप्पभो य नाम पुत्तो। सबन्नुपायपूयणपमुहधम्मकिच्चनिच्चनिचलमाणसाण य ताण दिणाणि पोलिंति । अन्नया य देवई सेज्झयमंदिरे धूयं अणेगप्पयारेहिं जणणीए उवलालिञ्जमाणमवलोइऊण चिंतिउं पवत्ता-धना एसा कहारयण-5 कोसो ॥ महाणुभावा जा एवं दुहियर कीलावेद, अहं तु मंदभग्गा एत्तियं पि न मणवंछियस्थसिद्धिमणुपत्ता, एवं च किं करेमि ? कमाराहेमि ?-इन्चाइचिंतापभारभारोणामियं च वयणं वामकरयलेणुव्वहंती सा दिट्ठा सेट्टिणा, पुच्छिया य-भद्दे ! किमेवं | विसेसगु | सोगाउँरव दीससि? किंकारणमिममवत्थं गय?त्ति । तीए भणियं-पाणनाह ! नियकडुयकम्ममेव [कारणं], न कारणंतरं ति।। णाहिगारो। सेडिणा भणियं-तहा वि होयत्वं केणइ निमित्तेणं, ता सबहा साहेसु तेयं-ति निबंधे सिट्ठमिमीए । 'अहो! सच्चमिणं॥२८५॥ धूयासु पडिबंधो महिलायणस्स' ति चिंतियतेण सेट्ठिणा भणिया-भद्दे ! मुंचसु संतावं, अस्थि कुसुमसंडे उजाणे विजियदुइंतचका चक्केसरी देवया जिणधम्मपवनपाणिमणोवंच्छियकामधेणू, तं च आराहिऊण तहा काहं जहा तुद्द मणवंछियत्थसिद्धी जायइ । पडिसुयमिमीए । मेहो वि तद्दिणातो आरम्भ पयट्टो देवयाराहणाए । तदणुभावेण य आवनसत्ता जाया देवई। कालक्कमेण पसूया धूया, कयं वद्धावणयं, पइडियमुचियसमए नाम । पारद्धा भयवईए उजाणजत्ता। [स] सयण-परियणो य गतो तहिं १ निर्मलमेधाः' विशुद्धबुद्धिः ॥२ प्रतिवेदिमकमन्दिरे दुहितरम् ॥ ३ "भारोभारणामियं ख. प्र० । इत्यादिचिन्ताप्रारभारभारावनामित. मिव ॥४°उरो ब्व खं० प्र० ॥ ५ 'तकत्' तदित्यर्थः ॥ ६ सेट्ठ खं० ॥ ७'णोचपच्छि सं०॥ ८ करिष्यामि ॥ ९ सस्वजनपरिजनः ॥ ॥२८५॥ CHANACHIKAKARAMITABHARASHARRERANCERANGARH सेट्ठी। कयपूया-सकारो य देवयाए दीणा-ऽणाहाण दाणपुत्वगं भोत्तूण कुसुमावचयं कुणतो तमालतरुयरतलट्टियं वेसमणेण पज्जुवासिञ्जमाणं समणं पासइ । 'अहो ! सुराण वि पुजो भयवं' ति विम्हयमुबहतो पडिओ सो सकुडुबो चेव तच्चलणेसु । जक्खाहिवो वि गओ जहागयं । अह कुट्ठाइवाहिविणहूँ मुणितणुं पलोयंतो मेहो भणिउं पत्तोतुम्ह पयपंसुणा वि हु विहुणिजंतीह रोगसंघाया। दंसगमेत्तेणं चिय अवणिजइ भूय-पेयभयं ॥१ ॥ ता भयवं ! कहमेवंविहाण रोगाण भायणीभूया । तुम्भे वि ? हुँयासो वि हु सच्चं सीएण पग्गहिओ ॥२॥ मुणिणा भणियं भद्दय ! निद्दयकयपुवदुकयदोसोऽयं । न मुयइ पट्टि परमेट्ठिणो वि फुडमणुभवेण विणा ॥३॥ किं पुण तुमए पुवं कयं ? ति पुट्ठो मुणी तयं आह । एगग्गमणो सावय ! सीसंतमिमं निसामेसु ॥४॥ अहं हि मगहाविसए रायगिहे नयरे कुलचंदसेट्टिणो सुतो महसूयणो नाम आसि । तहिं च मह दबोवञ्जणाइणा दिणगमणियं कुणंतस्स एगो अलक्खिञ्जमाणवयविसेसो पुरिसो भिक्खानिमित्तं घरमुवागतो। तद्दिवसं च कोह ऊसवविसेसो त्ति अम्ह घरयणेण विरूढयाण भायणं भरिऊण से पणामियं । तं च पडिसेहिऊण पट्टिओ एसो, पुट्ठो य मए-भद्द ! कयरं वयं पडिवनो तुमं? कीस वा इमं ण गिण्हसि ? ति । तेण भणियं-महई कहा, न एवं थेववेलाए साहिउं पारिया। १तुम्हे विप्र० ॥२ अग्निरित्यर्थः ॥ ३ 'शिष्यमाण' कथ्यमानम् ॥ ४ 'विरूदानाम्' अङ्कुरितानाम् । अलार्दिता मुद्रादयः अङ्करिताः सन्तः | विरुवा उच्यन्ते ॥ मखसूदनमुनेरात्म कथा Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमसरिविरहओ ता कहारयणकोसो॥ विसेसगुणाहिगारो। ॥२८६॥ a तओ विसर्जिओ सो । कजसमत्तीए य गतो है तस्स समीवे । पुबुदिट्ट च पारद्धं तेण कहिउं-अहं हि मंद-12 मोगोपभग्गो जिणसासणे पवजं पबजिय सुत्त-उत्थेहिं च अप्पाणं परिकम्मिय परीसहपराजितो संतो उपवइओ पडि- भोगवते वनदुवालससावयवयविसेसो 'सिद्धपुत्तो' ति सामइयभासाए वुच्चामि, ता गिहत्थो चेव अहं, जं च विरूढयमिक्खा निसिद्धा | मेघवेष्ठितत्थ य भोगोवभोगबए सचित्ताहाराइ परिहरंतेण मए अर्णतकार्य पच्चक्खायं ति कहं तं गिण्हामि । मए भणियं-किंस कथानकम् रूवं भोगोवभोगवयं ? ति । सिद्धपुत्चेण भणियं-भद्द ! समुई पिव दुविगाहं जिणसासणं, न थेवकालेण तीरइ निवेदिउं ४०। जाणिउं वा, तो आमूलातो अणूसुगो होउं सुणाहि । 'तह' चि पडिस्सुयं मए । अह मम जोग्गयमुवगम्म तेण महाणुभावेण | ताव सिर्द्ध सम्मत्तातो आरम्भ जा दिसापमाणं, भोगोवमोगसरूवं च भणिउमाढतं । जहामोगोवभोगविसए वयं दुद्दा भोयणे य कम्मे य । भोयणओ दो मेया भोगे य तहा य परिभोगे भोगोपभोआहाराई भोगे घर-सेजाई य हुँति उवभोगे । भोगम्मि तत्थ वजह जाजीवं मंस-मजाई ॥ २ ॥ गवतस्य मज-महु-मंस-मक्खणमनायफलं वटुंबर-पिलुंखु । पिप्पल-काउंवरिफलमणंतकाए य कंदाई ॥३ ॥ स्वरूपम् सबा य कंदजाई सूरणकंदो य बजकंदो य । अल्लहलिद्दा य तहा अश्वं तह अल्लकच्चूरो सचावरी विराली गलोइ तह थोहरी कुमारी य । ल्हसणं वंसकरिल्ला गजर तह लोणओ लोढा गिरिकभि किसलपत्ता कसेरुया बेग अल्लमोत्था य । तह लूणरुक्खछाली खल्लूडो अमयवल्ली य ॥६ ॥ १ स्वतचारित्र इत्यर्थः ।। २ 'क्खा न सि सं० प्र० ॥ ३ अज्ञातफलम् ॥ ४ "करेला प्र. ॥ ॥२८६॥ भोगोपभोगगुणन्नतस्य स्वरूपम् दिसिपरिमाणे विकए भोगुवमोगाण विरइविरहम्मि । न तहा धम्मपसिद्धि ति तस्सरूवं परूवेमि ॥१॥ सह भुञ्जइ ति भोगो सो पुण आहार-पुष्फमाईओ । उवभोगो उ पुणो पुण उवभुजइ सो य विलयाई ॥२॥ भोगोवभोगभावे विणतसो सबवत्थुम जियस्स । इच्छाविच्छेयविवञ्जियस्स तित्ती न संपमा किं परिहियं ? न भुत्तं नमाणियं ? जिंघियंन ? पुढे नो? तह वि अपूर्व पिर्व सबमेव अमिलसह ही! जीवो ॥ ४ ॥ संपत्तीए वि हु उत्तरोत्तरासाहि खिजमाणस्स । इच्छानिवित्तिविरहे थे पि हु कह हवद सोक्खं ? इच्छानिवित्तिवियला झुंजता भोयणाइ पुणरुतं । अघोरऽसहीरजरोयराइदुक्खेहि धिप्पंति लद्धं पि तिवग्गकरं मणुयत्वं पवररयणमिव दुलहं । भोगोवभोगलुद्धा मुद्धा ही ही! मुहा निति ॥७॥ अनियत्त-नियत्ताणं अप्परिमाणोवभोगभोगातो । दीसंती दोस-गुणा जह सकुडुवस्स मेहस्स ॥८॥ तहाहि-अस्थि इहेब भारहे वासे संति-कुंथु-अराभिहाणधम्मवरचकवट्टिनिवासोबदसियसेसपुरसुंदेरं कुरुदेसावयंसविम्भमं हथिणारं नाम नयरं । जहिं च सुकविकबबंध व पसन्न-महुरत्ताइगुणोववेया लोया, सुवेलसेलसिहरोदेर्स व सुपे १ 'सकृत्' एकवारम् ॥ २ वनितादि ॥ ३ इस ॥ ४ सम्प्राप्तावपि उत्तरोत्तराशाभिः विद्यमानस्य ॥ ५ अतिघोरासयज्वरोदरादिकुःखैः जलोदराविदुःखः वा गृपन्ते ॥ ६'रायदु ॥ ७ यथा सुकविकाव्यप्रबन्धाः प्रसाद-माधुर्यादिगुणयुक्ता भवन्ति तथा अत्रत्या लोका अपि प्रधनतामधुरभाषित्वादिगुणोताः ॥ ८ "सो च प्र.॥ , शिखरोदेशपक्षे सुपयोधरा:-शोभना जलपर्षिणो मेधा, महिलावर्गपके सुपयोधरी-शौभनी स्तनी ॥ XKAMUARRRRRRRRRRRRR CARSHA Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमसरिविरइओ भोगोपभोगवते मेषश्रेष्ठिकथानकम् ४०। कहारयणकोसो॥ विसेसगुणाहिगारो। ॥२८७॥ तुच्छमसारं मुगफलिपमुहमणाभोग-ऽइकमाईहिं । भुजंतो अवितित्तो उबेद पंचमगमइयार ॥ २० ॥ तुल्ले वि सचित्तते आइदुगे कंदफलविवक्खाए । धनविसयत्तणेण य इयरतिगे मेयमाहंसु ॥ २१ ॥ एवमणाभोगाइहिं निसिभोयण मजमाइएK पि । अइयारे भावेजा आउडीए पुणो मंगो ॥ २२ ॥ ___ इंगालाईणं पि हु कम्माणमणेगजीववहणातो । दूरमकरणं जुत्तं जाणियजिणवयण सारस्स ॥ २३ ॥ तैत्थिगाले काउं विकिणई १ जीवई वणं छत्तुं २ । सागडियभावओ तह अणेगजीवोवघाएणं ३ ॥ २४ ॥ भाडीकम्मं पुण भाडएण भंडं परस्स घेत्तूण | नेइ गवाईहिं परेसि अहव गोणाइ अप्पेइ ४ ॥ २५ ॥ फोडीकम्म उड्डत्तणं तु भूफोडणं हलेणं वा । वञ्जइ असंखजीवोवधायहेउ ति काऊण ५ ॥ २६॥ दाऊण पुलिंदाणं दंतनिमित्तं अणागयं मोल्लं । जं कुणइ जीवणं तं पि हथिहणणातो अइदुहूं १ ॥ २७ ॥ लक्खावाणिजं पि हु अणेगकिमिसंकुलं ति पडिसिद्धं २ । रसवाणिजं पि सुराइविकतो सो वि बहुदोसो ३ ॥ २८ ।। केसवणिज दासाइविक्कतो सो वि परवसित्तेण । दुट्ठो जियघायातो ४ विसवाणिज्जं पि एमेव ५ ॥ २९ ॥ जंतप्पीलणकम्मं उच्छु-तिलाईण पीलणं जाण १। निलंछणकम्मं पुण तुरगाईद्धियगकरणं २ ॥३०॥ तरुणतिणुप्पत्तिकए खेत्ताइपलीवणं हि दवदाणं ३। सर-दह-तलायसोसं वजह बहुजीवघातो ४ ति ॥ ३१ ॥ दासीओ पोसित्ता तब्भाडीए य जीवणं जमिह । अचंतनिदणिजं असईपोस तमासु ५ ॥ ३२ ॥ १ अवितृप्तः ॥ २ 'आकुव्या' हठात् ॥ ३ तित्थं मूले सं० ॥ ४ मोक्ख सं• ॥ ५ सुरादिविक्रयः ॥ ६ वर्षितककरण-पण्डीकरणम् ॥ पञ्चदश कर्मादानानि ॥२८७॥ CREACOCCACHCARRAKASAHERACCAL-CACANCIAASA उवलक्खणमेताई सेसाण वि एरिसाण कम्माण । न उण परिगणणनियमो ति पुत्वगुरुणो इमं विति ॥३३॥ इय भद्दय ! जं तुमए पुट्ठो हं 'कीस तुम विरूढयाई न गिण्हसि ? ति किंसव भोगोवभोगवयं ? ति तमिमं सप्पसंगं दुर्ग पि निवेइयं ।। इमं च सम्म परिभाविऊण जमेत्तो निधाहिलं तरसि नियमविसेसं तमंगीकरेसु । मा कइवयदिणजीवियत्वनिमित्तेण अप्पाणं जहिच्छाचारिणं रोगिणं व अपत्थभोइणमनिलंभिऊण असंखदुक्खदंदोलीए निवाडेसु ति। ततो मए जायसंसारपरमधेरग्गेण सम्मइंसणपडिवत्तिपुरस्सरं सरहसं गहियाई भोगोवभोगपरिमाणकरणपञ्जवसाणाणि वयाणि । तबयणायन्नणविणिच्छियसमयसत्थपरमत्थो य धम्माविरुद्धवित्तीए वडिउं पवत्तो । सिद्धपुत्तो वि गतो जहामिमयं । एगया य कञ्जवसेण गामंतरं गच्छंतो अहं पत्तो पारसउलदेसवासितकरहिं । अवहरियसारसवस्सो य बंदिग्गाहेण घेत्तृण नीओ ई तेहिं नियभूमि । 'हा हा ! कहं मंदभग्गो निसग्गनिरवग्गहचिलायविलीणवावारगोयरमुवगतो सद्धम्ममणुपालिस्सामि ? ति सोगं कुणंतो ईसिजायकारुन्नेहिं संलत्तो हं चिलाएहिं-कीस रे ! एवं खिञ्जसि ? न को वि तुह मणसा वि विप्पियं काही, निरुविग्गो सगिहगतो व चिट्ठसु ति । मए भणियं-जइ एवं ता मह महापसायं काऊण अभक्खभक्खा १ "मेवाई ख० प्र० ॥ २वं ति भो" खं० प्र० ॥ ३ °णं वा अ° खं. प्र. ॥ ४ अपथ्यभोजिनम् अनिरुध्य असंख्यदुःखद्वन्द्वावल्यां निपातय ॥ ५ सरभसम् ॥ ६ "माणपज" खं० ॥ ७ वारस" प्र. ॥ ८ रेहिं य अव" . प्र. ॥ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभसारिविरहओ मोगोपभोगवते मेषश्रेष्ठिकथानकम् ४०। कहारयणकोसो॥ विसेसगुजाहिगारो। SANKRRECCI वणविसए न तुम्मे हि किं पि वत्तवं । चिलाएहिं भणियं-रे मूढ ! किममक्खं ? । मए भणियं-महु-मञ्ज-मसाइयं ति । एवं च तदुत्थधम्मदुत्थयाविमुको वि अणवरयमकजसजाणञ्जजणसंसग्गवससमुप्पञ्जतासुहासयविसेसो हं बाढमपोढधम्मसड्डो पहदिणपवळंतालस्सो पमाइउमाढत्तो । अंतोफुरंतसवन्नुवयणरहस्सो य कयाइ गेहवावारावसाणे विभावेमि एवं वरमुन्भडपवणपणुभपवलजालाउलम्मि जलणम्मि । अप्पा पक्खिचो तिक्खखग्मधाराए धरिओ वा वरमुद्धरदुद्धरवेरिवारवीराण गोयरं गमिओ । फारफणामणिभासुरसुयंगभोगेसु सइओ वा ॥ २ ॥ न पुण पुणरुत्तभवभीमभमणदुहहेउणो पमायस्स । वसमुवणीतोऽर्णत्थंगिसत्थसस्थाहभूयस्स एवं पि विभावितो पहक्खणं णजखेत्तदोसेण । साहम्मियविरहेण य गुरुयणसंकाविगमओ य ॥ ४ ॥ इंदियलंपडयाए पवडणसीलत्तणेण विरईए । पडिसिद्धसु वि भावेसु वट्टिउं संपयट्टो ई ॥५॥ एगया य अणामोगाइभावातो पञ्चक्खायतहाविहसचिचविसेसेण वि सचिचकंदाइयं मुंजतेण १ सचित्तपडिबद्धं च खज्जाइयं 'अट्ठियचागेण को दोसो ?' ति आसायंतेण २ अपकं पिवि सालिपमुहमोसहीवग्गं तहा दुपकं पिवि 'सुपकं' ति पिहुगाइ आहारतेण ३-४ तुच्छं च अतित्तिकारगणंतेण [वि मुगफलीपमुक्खं भक्खंतेण ५ इंगालाइविरुद्धकम्माणि य | कुणतेण भूरिभंगपंकंकियं कयं मए बीयगुणवयं । 'खलियचारित्तो य पायं अप्पाणं कुष्पहपवन्नं न निउणो वि कयकजा - । 'कयसज्जा प्र.। अकार्यसज्जानार्यजनसंसर्गवशसमुत्पद्यमानाचभाशयविशेषः ॥ २ वरमुदपवनप्रणुभप्रबलमवालाकुले ज्वलने ॥ ३ 'रधीरा सं० ॥ ४ अनर्थानिसार्थसार्थवाहभूतस्य ॥ ५ "पिवि' अपि इत्यर्थः ॥ ॥२८८॥ ॥२८८॥ BREAKKAKER मूला तह भूमिरसा विरुहाई टकवत्थुलो पढमो । सूयरवल्लो य तहा पल्लंको कोमलंबिलिया आलुय तह पिंडालुय एमाइअणंतमेयमिनाई । वळेजणंतकायाई राईभत्तं च जत्तेण ॥८ ॥ ___ असणाईसु य चउसु वि जेचियमुवतोगि होइ देहस्स । तेत्तियमेत्तं मोनुं अवसेसं परिहरेज बुहो ॥९॥ जह असणे कणमाणगमिच्चाई पाणगे य जलघडगो । एत्तियदक्खाई खाइमे य पूगाइ साइमओ ॥१०॥ उवभोगे पुण आभरण-बत्थ-विलयाइयं परिमिणेजा । एयं भोयणविसयं लेसुदेसेण वुत्तमिर्म कम्मयओ पुण इत्थं गुत्तीवालाइयं चए कम्मं । बहुदोसमप्पलाभ बहुलाम वा महादोसं ॥ १२ ॥ होह दुहा वि हुएवं गुणवयं तेणिमं भवे बीयं । अइयारा पुण एत्थं सचित्ताई इमे पंच ___ सचित्तं १ पडिबद्धं २ अपउल ३ दुप्पउल ४ तुच्छभक्खणयं ५। वजइ कम्मयओ विहु इत्थं इंगालकम्माई ॥१४॥ इंगाले-वण-साडी-माडी-फोडीसु बजए कम्मं । वाणिजं चेव [य] दन्त-लक्ख-रस-केस-विसविसयं ॥१५॥ एवं खु जंतपीलणकम्मं निलंछणं च दवदाणं । सर-दह-तलायसोसं असईपोसं च व जा ॥ १६ ।। होउमसचित्तमोईऽणामोगा-ऽइकमाइणा मुंजे । जो सचित्तं कंदाइ तस्स पढमो अईयारो अद्वियमवणेऊणं खजराई फलं असंतस्स । वयसावेक्लत्तणओ अइयारो तस्स वि य पीओ ॥१८॥ धन्नमपकं दुप्पकमहवऽणामोग-ऽइकमाइवसा । अंजतो पाउणई तइयं तुरियं च अइयारं १ यावर उपयोगि ॥२ 'अस्थिक' कठिनबीजमपनीय | 'लिओ' इति भाषायाम् ॥ ३ 'मनुषत:' भुभानस्य ।। भोगोपभोगवतस्याविचाराः Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरइओ कहारयण कोसो ॥ विसेसगुणाहिगारो। ॥२८९॥ भोगोपभोगव्रते मेघश्रेष्ठिकथानकम् ४०। भो भो ! किमेव मंदायराणि तुम्भे सयं पि हु पवन्ने । सबन्नुणा पणीए भिग्गहवग्गे समग्गे वि? मने न पारभविए सुहम्मि तुम्हाण विजए वंछा । कहमन्त्रह विमुहा हुञ्ज से मुही धम्मकिच्चेसु ? किं मूढाई तुब्भे न मुणह धम्मस्थमेव हि पहाणं । इहभविय-पारभवियम्भुदयसिरीणं पि हु निहाणं? ॥३॥तहाहि जं न परकमसज्झं जं दूरे जत्थ नत्थि मणपसरो। महवावारो वि जहिं न कमइ महमंतकविणो वि ॥ ४ ॥ जं च न लद्धं तीरइ न साहिउँ तिहुयणेण वि य कजं । धम्माओ तं पि पाणी पाउणइ करेइ य न चोजं ॥५॥ ता कीस थेवकालियसकलिलगिहकिचनिच्चपडिबद्धा । चिंतामणिं व एयं अवहीरिय विहरह जहिच्छं? ॥६॥ इय पनवियाणि वि पण यसार-सुइसह-सुजुत्तिवयणेहिं । जा जंपंति न ताई ता मेहो मोणमल्लीणो ॥७॥ अह आगारिंगियाइकुसलत्तणेण ऊसरखित्तनिहितं बीय व तविसयमणुसासणमफलं निच्छिऊण चित्तभंतरुप्पजमाणसोगे सविसेसं धम्मकजसमजए जायम्मि मेहे देवई सुप्पभो य खैरयरपमायरिउचकऽकमणनिमुकमेराणि जहिच्छं विमग्गेण लग्गाणि । अन्नया य तित्थजत्ताववएसेण ताण दुनयमसहमाणो मेहसेट्ठी किं पि संचलगमादाय नीहरिओ घरातो । तित्थदंसणं | च सुगुणमुणिजणपज्जुवासणं च समयाणुरूवदविणजणं च काउमाढत्तो। १ हा होज्ज प्र० ॥ २ 'शेमुषी' बुद्धिः ॥ ३ मतिमत्कवेः॥ ४ आश्चर्यम् ॥ ५ अवधीमे ॥ ६ प्रणयसारक्षुतिसुमसुयुक्तिवचनैः ।। ७ मुप्पज' खं० प्र० ॥ ८ खरतरप्रमादरिपुचकाकमणनिर्मुकमर्यादौ ॥ | ॥२८९॥ AKASHASRANSKCACANCIESANSAR इतो य कन्नधारविरहिय छ नावा, नायगविवजिय व कुलंगणा, सेणावइविउत्त व वाहिणी विणसिउमादत्ता पुषमुक्कघरसिरी । अचंतपमचंतं लक्खिऊण सुप्पभं तकरहिं निसिसमए गिर्हदासोवदंसियच्छेयमझेहिं पाडियं खत्तं, अवहरियं गेहसारं, अमरिसिओ बाद सुप्पभो गतो रायसमीवे, निवेइओ गेहमोसवुत्तो । ततो सकोवविष्फारियलोयणेण भणितो रना तलवरो-अरे! किमेवं सुगुत्तं पि वित्तं तकरहिं हीरइ ? । तलवरेण भणियं-देव ! तकरसंभवो वि नत्थि, आलप्पालमेयं । रना भणियं-ता किं एयपिउणा मुट्ठमिमं । तलवरेण वुत्-देव ! एवमेयं । रन्ना वुत्तं-कहमेवं । तेण वुत्-देव! एयस्स जणगो परुट्ठो देसंतरं गतो, तद्दारेण य एस अत्थनासो संभाविजइ । 'सच्चं तुम्ह बयणं, कहमनहा सयं विमुकं व गिण्डंति चोरा दविणजाय ? ति समत्थियमिमं सेसेण वि सभालोगेण । उवसंतो राया। [ततो] कोवसंरंभनिन्भरं च उल्लवंतो सुप्पभो भणितो तलवरेण-अरे ! कीस मुहा भाससि ? जइ नाभिरुइओ य न य सम्म रक्खामि पुरं ता देवं पसाइऊण पडिवञ्जसु सयं आरक्खियत्तणं ति । सुप्पमेण भणियं-जह अहं पि कोइ ता एवं काहामि त्ति । पयट्टो य महरिहपाहुडपयाणपुरस्सरं रायाणमोलग्गिउं । एगया य तुडो राया, भणितो य-कजं साहेसु त्ति । जोडियपाणिसंपुडेण य मग्गियं पुरारक्खियपयं सुप्पमेण पणामियं च सप्पणयं से भूवइणा । एवं च लद्धाहिगारो अणवेक्खियखरकम्माइविरुद्धववहारो पुरारक्खिग काउमाढत्तो। अह अचंससंभवी । राया, आजम्मदालिद्दोचहुतो व पावियमहाधणवित्थरो, जहिच्छं भमंतो पुरीपएसेसु 'किमेस काही १ कर्णधारविरहिता व ॥ २ सेना ॥ ३ अत्यन्तप्रमाद्यन्तम् ॥ ४ ग्रहदासोपदवित्तक्लेकमध्यः ॥ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 देवमहरिपिरइओ कहारयणकोसो ॥ विसेसगुणाहिगारो। ॥२९॥ भोगोपभोगवते मेषश्रेष्ठिकथानकम् ४०। वणियसुतो?' ति विभावितेहिं तकरहिं निहतो रयणीए पसुत्तो पत्तो पंचतं । तजणणी वि सुयसोगसंभारजजरियसरीरा सविसेसमुज्झियधम्मवावारा 'एवंविहावयावडणं पि अरक्खंतेण किं धम्मेण किच्चं ? ति जंपिरी रयणीए भोयणं कुणंती उवरिसंचरंतविसहरगरललवसंवलियं पि कवलमाहारिंती सबसरीरसंचरियविसवियारा जमरायरायहाणिमुवगया । __ अह सयणेहिं जाणावितो देसंतरोवगयस्स मेहस्स एसो असेसो वि वइयरो । इमं च सोचा अच्चंतं विसनो एसो, परिभाविउँ पयत्तो य वयभंगसंभवाई पावाई इहं पि पेच्छह फलंति । अकयकुसुमुग्गमाणि वि उंबररुक्ख व चोअमिणं अहवा कालविलंब अइबहुपन्भारमारियाई व । न खमंति पडंति परं तालफलाई व पकाई ॥ २ ॥ दुबयपसत्तसत्ताण सुलहमेवंविहावयाचकं । ता पावकुडुंबकए तम्मसि किं पाव जीव ! तुमं ? ॥३ ॥ एवं विवेयंकुसेण सच्छंदपयट्टे दोघट्ट व माणसं सम्मग्गे मुंजिऊण गतो साहुसमीवे । तवंदणं काऊणं आसीणो य तयंतियं । विच्छायवयणसिरिसरूवपेहणवियाणियवेमणस्सेण य पुच्छिओ एसो गुरुणा-भद्द ! किमेवं संपयं सचिचसंतावो छ दीससि ? ति । तत्तो सिट्ठो सबो सकुटुंबवित्तंतो । ततो गरुयवेरग्गोवगतो पवनो उभयलोगसुहावहं साहुधम्म । जणपुढेण य सिट्ठो तबड्यरो गुरुणा । अह विम्हिओ परिसालोगो, भणिउमाढत्तो य-भय ! सयमेव पडिवञ्जिय नियमविसेसमाजम्मजिणधम्मनिम्मलसामग्गिसंभवे वि किमेवमेतेर्सि पमायपवित्ति । त्ति । गुरुणा भणियं १ दुर्नयप्रसासरवानां सुलभमेवंविधापथकम् ॥ २ हस्तिनम् ॥ ३ विच्छायवदन श्रीस्वरूपप्रेक्षणविज्ञातवैमनस्येन ॥ ४ ततो प्र. ॥ HORASWERABHAKARE ॥२९॥ AARAKACKISANSARSONAWAR RANAWA5 नियत्तिउं पारह' ति पारद्धो हं पमाएण । अइगरुयरसगिद्धिदोसेण य ताम्मे चिय उप्पन्नातुच्छकच्छुवियारो आउक्खए मरिऊण विराहियविरइत्तणेण उववमो किब्बिसियवंतरेसु । तत्तो य नुतो अवंतीजणवए वहदेसाए पुरीए पुरिसदत्तसेद्विसुयत्तेणाहमुववनो । पुचजम्मनिकाहयरसगिद्धिपच्चइयासुहकम्मदोसेण य विसिडकुल-जाइसंभवे वि संभूओ पसइदोसो, तबसेण य विणटुं सरीरं, 'कुट्ठि' ति परिभूओ हं गिहजणेण । जायचित्तपरितावो य एगदिसं पडुच नीहरितो घरातो, तहाविहसुकयवसेण य मिलिओ धम्मसाहणसहाईण साहणं । पवना य तयंतिए भावसारं पवजा, परमसंवेगसाराहिगयसुत्तत्थो य इत्थं विहरामि । ता भद्द ! केवलिमुहाओ आयभिऊण इममप्पणो पुचवित्तं तुह निवेइयं । इमं च सोचा कुणसु जहसत्तीए विरहगोयरं उञ्जमं ति ॥ छ ।। _अह 'तह' ति पडिवञ्जिय पडितो सकुडुबो मेहसेट्ठी मुणिणो चलणेसु । पडिपुन्नं अणाचाहाए पडिवनं भोगोवभोगवयं ति । सुएण वि सुप्पहेण अन्भुवगया खरकम्मनिवित्ती। तजणणीए य देवईए अंगीकया भोगोवभोगविसया केच्चिरा वि अभिग्गहविसेसा । भवोयहिनिच्छिन्नपायं पिव अप्पाणं परिभाविंताणि गयाणि सवाणि वि नियघरं । साहू वि विहरितो अन्नत्थ । बोलते य काले किलिट्ठमणओ चित्तवित्तीए, भुजो अणागमणातो सुसाहूणं, अणायनणातो समयसत्थाणं, निनसंवासातो य कुतित्थियाणं पारद्धविरइविसए मंदादरा जाया देवई सुप्पभो य । भणियाणि य पइदियहपबहूताभिग्गहपरिणामेण मेहेण १ तथाविधसुकृतवशेन ॥ २ °साओ य प्र० ॥ AWARRICKASHAINEERICKS Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमद्दसूरिविरइओ कहारयण-18 कोसो॥ विसेसगुणाहिगारो। ॥२९॥ जाया वि हु विरहरई अणत्थदंडेण खंडणमुवेइ । ता तप्परिहरणत्थं परमस्थं किं पि जंपेमि ॥ १ ॥ अत्थो सगेह-सयणाइकजसंपाडणं तयत्थं च । दंडो जीववहाईदारेणं अप्पगुणहाणी ॥ २ ॥ एसो हि अत्थदंडो एयातो परो अणत्थदंडो ति । असइअइदुनिष्फलवयण-मणो-कायवावारो ॥३ ॥ एसो हि पावपंथो दारमुदारं च नरयनयरीए । संवइकुमुयवणसंडचंडखयसमयमायंडो ॥ ४ ॥ आवयनिवह करंडो सुहबोहगईदरोहसुवरंडो । हेओ अणत्थदंडो जमदंडो इव सुहेसीहि ।। ५ ।। किश्चअत्थेण तं न बंध जमणत्थेणं तु बंधई जीवो । अत्थे कालाईया नियामगा नो अणडाए कुवंता जंपंता चिटुंता चिय अणत्थयं पुरिसा | निंदं हीलं च लहंति जति लहुयत्तणं च जणे ॥ ७ ॥ इहलोए चिय एवं परलोए पुण अणत्थरिंछोली । जायइ अणत्थदंडाउ चित्तगुत्तस्स व अवस्सं ॥८ ॥ तविरया पुण मणुया मणागमवि नो तदुत्थदुत्थेण । छिप्पंति लहंति य कुप्पमेव सुगई स एव जहा ॥९॥ तथाहि-अस्थि सयलकलाकलावकुसलकोसलबिसयवासिजणजणियाणंद, सुमहजिणजम्मणावसरसायरमिलंतसुरसुंदरीनट्टोवयारविराइयरायमग्गं, सग्गं पि निसेग्गचंगिमाए निजिणंतं कोसलपुरं नाम नयरं । तहिं च तिहुयणविक्खायकित्तिपन्भारो इक्खागुकुलनहयलनिम्मलमयंको जयसेहरो राया, मणोरमा से गेहिणी । पुत्ता य ताण नीसेसकलाकला १ असकृत्- ॥ २ सर्वव्रतकुमुदवनषण्डचण्डक्षयसमयमार्तण्डः ।। ३ आपत्रिवहकरण्डः शुभबोधगजेन्द्ररोधसुवरण्डः ॥ ४ मुखैषिभिः ॥५ अनर्थश्रेणिः ।। ६ स्पृश्यन्ते ॥ ७ सुमतिजिनजन्मावसरसादरमिलत्सुरसुन्दरीनाव्योपचार विराजितराजमार्गम् ॥ ८ सग्गम्मि नि सं० प्र० ॥ ९ स्वाभाविकसौन्दयणत्यर्थः ।। अनर्थदण्डव्रते चित्रगुप्तकथानकम् ४१॥ अनर्थदण्डगुणव्रतस्य स्वरूपम् RECOROSHOCTORSCRIKMERASASHAN REACCALCASSACRACCECASIAS ॥२९ ॥ वकुसला सलाहणिञ्जचरिया पुरिसदत्तो पुरिससीहो य । सबदरिसणाभिप्पायपरूवणपवणो वसू नाम पुरोहिओ। सुओ य से पयईए चिय कलहकोऊहलिओ, अलियसमुप्पाइयपरोप्परप्पणयविच्छेओ, [छेओ] परपरिहासपयारेसु, अच्चंतमणिहो पुरलोयस्स चित्तगुत्तो नाम । सो य रायसुएहिं समं जहिच्छ कीलइ । एवं च वचंति वासरा । अन्नया य अत्थाणीनिसनो चेव नरिंदो उदरभंतरकुवियसमीरसमुच्छालियरलायंकवुकामियजीवियो दीवो व ज्झड त्ति विज्झातो ति । अह अस्थगिरिसिराओ व सिंहासणाओ पल्हत्थं अरविंदिणीदइयबिंचं व वसुमईपई पलोइऊण 'हा ! किमेयं ? ति बाहरंतो तुरियतुरियं समीवमुवगम्म बाढमुश्विग्गो सेवगवग्गो विणिच्छियरायमरणो अचंतसोगावेगवसविणिस्सरंतबाहप्पवाहाउलनयणो रोविउं पवत्तो । 'हा! किमेय? ति अबुज्झियकजमज्झा सज्झसबसविवसीभूयपयपक्खेवा अंतेउरीजणेण सममेवै समागया रायपुत्ता, दिट्टविचिट्ठभूवइवरिट्ठसरीरा निद्दयमकंदिउमारद्धा य-- अहह ! कह तिहुयणं पि हु नरवर ! विरहम्मि तुज्झ सुन्न व । नञ्जइ घुम्मइ य मणो कुलालचकाधिरूढं व ॥१॥ सप्पुरिसत्तकहा तुह अणेगहा जा पुरा सुणिजन्ती । सा इण्हि निराधारा कह होही ? कत्थ वा ठाही? ॥२॥ एमाइ तह कह पि हु सोगं ते काउमुजया जाया । जह होहारवफुन्न नजइ गयणं पि रुयमाणं ॥ ३ ॥ अह कह कह बिते सोगसंरंभनिन्भरे निरुमिऊण रायलोएण कयम्मि रायसरीरसकाराहकायबम्मि अणिच्छंतो वि १ उदराभ्यन्तरकुपितसमीरसमुच्छालितलाताव्युत्कामितजीवितव्यः ॥ २ 'अरचिन्दिनीदयितविम्बमिव' चन्द्रविम्बमिव 'बगुमतीपति' राजानम् ॥ ३ "वमुवागया प्र० ॥ ४ दृष्टविचेष्टभूपतिवरिष्ठशरीरौ ॥ ॥ ५ हाहारवस्पृष्टम् ॥ ६ राज शरीरसंस्कारादिकर्तव्ये ॥ H ANCHARACHAR KARACHAR Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभरि -5 विरइओ अनर्थदण्डव्रते चित्र गुप्तकथानिकम् ४१ कहारयण कोसो॥ विसेसगुणाहिगारो। ॥२९२॥ पुरिसदत्तो निवेसिओ रायपए, पयट्टाविओ रञ्जकजचिंताए । तह बि 'सद्धम्मकिचविरहितो ताओ मउ' त्ति पुणरुत्तमुल्लवंतो | अंसुपूरपूरिजमाणनयणपुडो पडिवेलं सतिक्खदुक्खं रुवंतो समं भाउणा भोयणं पि बलाभियोगेण कराविजेतो स महप्पा संलत्तो पुरोहिएण-देव ! 'नीसेसपुहइवाचारावलोयणनिउत्ताणं तुम्हाणं बाढमणुचियमेयं सोगकरणं । रबा जंपियं-भो पुरोहिय ! किमहं न याणामि एवं ? केवलं 'अम्हारिसेसु सुएसु विजमाणेसु, साहीणामु य सत्वसंपत्तीसु देवो अकयतकालोचियदाणाइधम्मो दिवं गतो' त्ति नद्धनिदरहिययसल्लं व विद्दवइ इमं ममं ति । पुरोहिएण भणियं-देव ! को एत्थावराहो ? राहावेहो ब्व दुल्लक्खो एस हयासकीणासववहारो, ता संपर्य पि दिजंतु देवस्स पुननिमित्तं सबदरिसणसमणाणं दाणाई, एवं पि उवयरियं हवउ ति । 'सम्ममाइर्दु' ति परितुद्वेहिं पुरिसदत्त-पुरिससीहेहिं सवायरेण तैदिणाओ आरम्भ आरद्धाई महया वित्थरेण पिउणो पुनोवचयनिमित्तं लोह-सुवन्न-कप्पास-गो-भूमि-भोयणाईणि सबलिंगीणं दाणाई । पडिपुत्रवंछिएसु य संठाणं गएसु पुरिससीहेण पुच्छिओ पुरोहिओ-किमेत्तियमेत्ता चेव लिंगिणो ? ति । पुरोहिएण जंपियंरायसुय ! संति अवरे वि सेयंबरधारिणो अरहन्तमग्गमोइना लिंगिणो त्ति । ततो ते वि पहाणपुरिसपेसणेण बाहराविया रना। आगतो सीमंधरो नाम तवस्सी, अम्भुडिओ रमा, दिनमुचियमासणं, पणामाइपडिवत्तिपुरस्सरं च पणामियाई पुन्बुत्ताई लोहाईणि ।। १वेलसंति सं० प्र. ॥ २ नि:शेषपृथ्वीव्यापारावलोकन नियुकानाम् ॥ ३ तट्टिप्पणा ख० ॥ ४ सट्टाणं प्र० । स्वस्थानम् ॥ ॥२९२॥ ***%%ASARAKAARKARixtKARARRRRRRRRRROR दुईतिदियसहविसविसहरहरियचेयणा जीवा । किमकिचं पि न काउं ववसंति ? ने भोत्तुमीहन्ति ? ॥१॥ जिणधम्मपहपवना धना सवत्थ निबुहमुर्विति । तबैइरिचा रित्ता संता इहई पि सीयंति। ॥ २ ॥ खणमेत्तसोक्खभोगोवभोगभावे वि ही! दढं मूढा । मीण व बडिसलुद्धा पेच्छंति न भौविरमवायं ॥३॥ अपि च यम तृष्यति महोदधिरम्बुपूरैनैवेन्धनैरनिधनैरपि पावकोऽपि । जीवोऽपि तृप्यति न तद्दनन्तकालभोगोपभोग-भवनैरपि भूरिमेदैः अप्राप्तताप्तिरभिवान्छति यच वस्तु, तल्लाभतोऽपि परिवर्धत एव वाञ्छा । तत्तद्विशेषविषया तदमुत्र पथ्यमिच्छानिवर्तनमृतेऽस्ति न नूनमन्यत् ॥ २ ॥ तेनैव निर्षतिपुरीपरमेश्वराणां, निष्कर्मणां सुखलवोऽप्यतिशीयते न । सांसारिकैरमर-दैत्य-नृसौख्यवर्गः, संवर्गितैरपि सहुस्तदनन्तवारम् इति विमृश्य विपत्पदवीपथादमितभोग्यपदार्थसमूहतः । निजमनो विनिवर्त्य विचक्षणः, प्रविदधीत रतिं विरतौ सदा ॥४॥ ॥ इति श्रीकधारत्नकोशे भोगोपभोगव्रतचिन्तायां सकुटुम्बमेहश्रेष्ठिकथानकं समाप्तम् ।। ४०॥ AssosistrokmxxxARKAKAKKARTex ॥१॥ &ाभोगोपभोगविरतेहपदेशः तदुपायश्च १ दुदिंतिय दुससं. प्र. ॥२न बोतु सं० ॥३'तसतिरिक्ताः' जिनधर्मभ्रष्टा रिकाः सन्त बहापि 'सीदन्ति' दुस्खीभवन्ति ॥ ४ भवितारमपायम् ।। Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दमरिविरहओ कहारयणकोसो॥ विसेसगुजाहिगारो। ॥२९॥ ॐ अनर्थदण्ड बते चित्रगुप्तकथानकम् ४१॥ हत्थतलमेत्तयं पि हु भूमियलं कसइ जो सुसाहू वि । पाउणइ पैसुत्तं तयणु णेगसोबागजम्माई ॥ १३ ॥ झाण-उज्झयणाईणं हाणी हीलापयं च संगातो । तीए दाणं गहणं च तेण साहूण पडिसिद्धं ॥ १४ ॥ तंबोल-तूल-पल्लंक-पणइणी-चित्तचेलगहणं पि । दरनिसिद्धं रागाइदोससंभूहभावातो जं पुण पतं वत्थं कंबल रयहरणमन्त्र पाणं च । संथारयाइ तं कप्पई य धम्मोवतोगि त्ति ॥ १६ ॥ तहाहिकट्ठा-ऽलाबुसमुत्थं कारणतो मिउँमय पि पत्तमिह । घेत्तुं जेतुं जहणो गिहिमायणभोयणनिसेहा ॥१७॥ तहाहिकंसेसु फैसपाएमु कुंडमोएसु वा पुणो । भुंजंतो असण-पाणाई आयारा परिभस्सह ॥१८॥ सीओदकसमारंमे मत्तधोयणछडणे । जाई छति भूयाई दिट्ठो तत्थ असंजमो ॥ १९ ॥ पच्छाकम्म पुरेकम्मं सिया तत्थ न कप्पई । एयमहूँ न भुजंति निम्गंथा हिमायणे ॥ २० ॥ सीयाइणा परद्धो सिहिजालण-तणपरिग्गहाईहिं । जीवे वहे जई जे जुत्तो वत्थग्गही तेण ॥ २१॥ सचित्तसलिल-महिगा-रयं-संपाइमपमोक्खजीवाण । रक्खट्ठा उवर्ल्ड कंवलगहणं सुसाहणं ॥ २२ ॥ कंबलमहुरत्तगुणेण नो दगाई जिया विवअंति । अइखार-मलिणयाए य अंगसंगम्मि जंति खयं ॥ २३ ॥ १कर्षति ॥ २ पचव तदनु भनेकश्वपाकजम्मानि ।। ३ धर्मोपयोगीति ॥ ४ मृण्मयम् ॥ ५त आरभ्य लोकत्रिदशकालिकसत्रे अ. श्लोक ५०-५२ ॥ ६ कुण्डमोदः हस्तिपादाकारः मृण्मयभाजनमेदः ॥ ७ गिहि प्र० ॥ ८ पीडितः ॥ ९ जीवान् हन्ति ॥ १० रइसं सं०। -महिकारजःसम्पातिमप्रमुखजीवानाम् ।। ॥२९३॥ %A4%A4%AASHARANACHIKASite स्यहरणं पि हु एगंगियाइगुणसंगयं सया गिझं । लिंगट्ठा रक्खट्ठा य दिस्स-अदिस्साण जीवाण ॥ २४ ॥ पाणा ऽसणदाणं पि हु पयदिणमुवओगि कप्पणिजं जं । बालीसदोससुद्धं धिप्पइ छहिं कारणेहिं परं ॥२५॥ वेयण वेयावच्चे इरियट्ठाए य संजमट्ठाए । तह पाणवत्तियाए छटुं पुण धम्मचिंताए ॥२६ ।। संथारगाइ सेसं पि संजमस्सेव चुड्डिजणगं ति । जुजइ जइणो घेर्नु उझियसंगस्स वि य दूरं ॥२७॥ एवं दाणविहाणे सवित्थरे साहियम्मि भूमिवई । सविणयमाह महायस! जं उवजुञ्जइ तयं गिण्ह ।। २८ ।। साहूवओगि तो किं पि मुणिवरो तस्स भाववुड्किए । घेनुं नरवइपणओ दिनासीसो गओ सपयं ॥ २९ ॥ अह निल्लोभयाइतग्गुणगणरंजियमणेण पुरिससीहेण भणितो राया-देव! एवंविहसुहमपयत्थसत्थदंसी चेव निच्छियं पूयापयरिसारिहो अरिहंतो चेव देवो, तदुत्तकिरियाकलावाणुरूवपारद्धविसुद्धसद्धम्मकिचा एवंविहा चेव मुणिणो गुरुणो घेत्तुमुचिया, न हि अप्पणो समाणदोस-समायारा भूरिपरिग्गहा-ऽऽरं भनिभरपसत्तमाणसा तहाविहजडाजूड-सिहंड-डंड-मुंडमुंडणपहाणपमुहबज्झोवयारसारदिक्खामेत्तबद्धलक्खा सयं पि अगाइभवोहवुब्भमाणा भवनवावडियमम्हारिसं जणमुद्धरिउ खमा, ततो नियमेण एस समणसीहो अम्हाण पुनपगरिसपेरितो व इहागतो, अतो पइदिणं पज्जुवासणा समुचिय त्ति | राइणा भणियं-सुट्ट उवइहूं, अन्यैरपि भणितमेतत् १ पइदि प्र. ॥ २ द्वाचत्वारिंशदोषशुद्धम् ।। ३ एवंविधसूक्ष्मपदार्थसार्थदी ।। ४ पूजाप्रकर्षादः ॥ ५ तथाविधजटाजूटशिखण्डदण्डमुण्डमुण्डनस्नानप्रमुखबायोपचारसारदीक्षामात्रबद्धलक्षाः स्वयमपि अगाधभयौषोधमाना: भवार्णवापतितमस्मारशम् ।। ६ खमंतोतानि सं० प्र. Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसरिविरइओ कहारयणकोमो॥ विसेसगुणाहिगारो। ॥२९४॥ उत्तमैः सह साजत्यं पण्डितैः सह सङ्कथा । अलुब्धैः सह मित्रत्वं कुर्वाणो नावसीदति अनर्थदण्डता एत्तो पइदिणं पि कायवमेयं । पयट्टा दो वितं मुर्णि पज्जुवासिउँ । अहिगयजिणुद्दिदुसस्थपरमस्था य जाया दो 18 व्रते चित्रवि । नवरं अयंडजमदंडखंडियजणगजीवियवाणुमाणेण विर्णिच्छियासेससत्तसंताणावस्सविणासो 'अलाहिं संसारियकिचचिं गुप्तकथातणेणं' ति विणिच्छिऊण पुरिससीहो सपणयं मायरं भायरं च मणिउं पवत्तो नकम् ४१ अम्मो ! रम्ममिमं घरं पियजणो लच्छी य सोक्खाबहा, चिक्खेवविहायगं च तरुणीदिद्विच्छडावरं । से भूरिगइंद-जोह-तुरयं नो कस्स सम्मोहगं ?, किंतुद्दामकयतकेसरिभयं सबोवरि बट्टई। जाणे ई मह विष्पओगवसती तुम्हाण दुक्खं पहुं, होही संगविवजणेण महई पाहा वहणं पि हु।। चित्तं केवलमुलसंतसहसामच्चुप्पयाराउलं, गुत्तीखित्तमिवेह चिट्ठदि महाकट्ठण गेहे मम ता संसारसमुद्दपारगमणे दुक्खग्गिविज्झावणे, सन्नाणाइगुणोवलंभजणणे किच्चा सहेजं मम । पुग्नं अजह वजहावरमई माइंदजालोवर्म, सवं बुज्झह मा य मुज्झह महारायं ! तमाभोगिउं इमं च सोचा अचंतसभय-चमक्कारं जंपियं जणणीए-वच्छ ! किमेवं अवुत्तपुर वुच्चइ ? कहं वाऽपुवपत्थियपयत्थसहा१ मडंड प्रतौ ॥ २ विनिधिताशेषसत्वसन्तानावश्यविनाशः ।। ३ णासा 'अ' खे० प्र० ॥ ४ चित्ताक्षेपविधायकं ॥ ५ सैन्यम् ॥ ६ किन्तुहामकृतान्तकेशरिभयः ॥ ७ मम विप्रयोगवशतः ॥ ८ उल्लसत्सहसामूत्युप्रचाराकुलम् ॥ ९ कृत्वा ॥ १०वम् 'आभोम्य' शास्वा ॥ ॥२९४॥ ACAXAMIRRORIANRAKA दानविधानम् तो खेत्त काल पुरिसं परिसं मइपयरिसं च अप्पगयं । परिमाबिऊण मुणिणा सायरमिति भणिउमाढत्तं ॥१॥ नरवर ! सएसु सूरो विऊ सहस्सेसु होइ य वयस्सी । लक्खेसु कोइ एको दाया पुण तेसु भयणिो ॥ २ ॥ ता दाणमई वि हु सुकयकम्मणो कस्सई परं होई । किं पुण सक्खा णेगप्पयारवत्थूणमिय दाणं ? ॥३॥ तत्थ वि विर्वमपिउपुनपगरिसावञ्जणत्थमित्थमिमा । पडिवत्ती दुकरमिमं दसणसारम्मि पेम्मम्मि ॥४ ॥ पाएणं एस्थ जणो जीवंताणं पयासए पणयं । सग्गोवगयाणं पुण न पियाण वि पुच्छए वत्तं ॥ ५ ॥ ता नरवर ! दाणरुई अन्नत्थ कहिं पि दीसइ न एवं । नवरं कप्पंति न अम्ह कह वि लोहाइयपयस्था । पपयस्था ॥६ ॥ लोहं हि नरिंद! कुसी-कुहाड-घण-दंतिगाइकजेसु । उवजुजह जीववहो य तत्थ तो तं न घेत्तवं ॥७॥ कणगं पि लोह-सम्मोह-मेहुणाईण कारयं परमं । संजमविभयहेउं गिण्हंतु कहं विगयसंगा ? ॥ ८ ॥ कप्पासो वि सचित्तो पलिमंथो चिय सततचिंताए । लञ्जच्छायणमित्तोवहीण साहूण किं कुणउ ? ॥९॥ गावीओ वि हु दिन्नातो राय ! सीयंति चारिविरहेण । तबिहियपयत्ता पुण मुणिणो धम्माउ भस्संति ॥१०॥ जं सयमदुक्खियं न य परेसि दुक्खाण कारणं होइ । केवलमुपैग्गहकरं तदाणं सोगइनिहाणं ॥११॥ हैल-कुलियाईहि मही महिन्जमाणा सगन्भमहिल छ। दुहमणुहवइ मरन्ति य णता तनिस्सिथा जीवा ॥ १२ ॥ १ पर्षदं मतिप्रकर्ष र भात्मगतम् ॥ २ विपनपितृपुण्यप्रकर्षावर्जनार्थम् ॥ ३ लोभ- ॥ ४ णमेत्तो' प्र. ॥ ५ तद्विहितप्रयत्नाः ॥ ६ उपप्रहकरम् ॥ ७इलिकु° ख० प्र० ॥८ मध्यमाना । Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनर्थदण्डव्रते चित्र गुप्तकथाहै नकम् ४१। देवमसूरि- तित्थयर-चकि-हलहरपमुहेहिं पुरा महाणुभावेहिं । सरितो किमेस न पहो जं इय दुहनिम्भर रुयसि ? ॥३॥ विरइओ एमाह तह कहं पि हु सा सुहहेऊहिं तेण बुज्झविया । जह तकन्जे सजो सविसेससहाइणी जाया ॥४॥ अह सोहणे मुहुत्ते पुरिससीहो सीहत्ताए भयवओ सीमंधर[स्स] सयासे रायसुयसयसमेतो निक्वमिऊण सीहत्ताए बहारयण चेव विहरितो गामाणुगाम । कोसो॥ कालकमेण य मुणियसमयसत्थपरमत्थो तवोविसेसोवलद्धोहिनाणाइलद्धिविभागो गुरुणा अब्मणुन्नातो 'जइ पुण माइ-भाउपससा गाईणं कोइ बुज्झई' त्ति केइवयवयवुड्डवियड्ढसाहुसमेतो समागतो कोसलपुरं, वुत्थो सुमुणिजोग्गे पएसे। निसामियतदागमणो णाहिगारो। य समं जणणीए अंतेउरीहि य आगतो राया, परमभत्तिनिब्भरं कयपायवडणो य आसीणो उचियासणे। कया य रायकुमार॥२९५॥ मुणिणा तकालोचिया थम्मकहा । 'गुणसुटिओ' त्ति पडिबुद्धो पउरो पुरजणो, जहजोग्गपडियनधम्मगुणो य जहागयं गतो । __ नवरं एगो दोगचविहुरो जायभवविरागो पवनो पवजं । दिट्ठो य तवेलमुवागरण पुन्चुत्तपुरोहियसुएण केलिप्पिएण चित्तगुत्तेण । पायवडिएण य सहासं भणितो कुमारमुणी-भयचं ! सम्मं कयमणेण अहिणवपवइयगेण, दियो जलंजली छहाए, पक्वित्तं कंकणं रयणायरे, अगोयरीहओ रायाइदेयस्स । अन्नो वि खेत-गिहभूरिकन-निवसेवणा-वणिजाओ । निविन्नो किं न [य] एवमेत्थमुजमइ धम्मम्मि ? ॥१॥ १थितः ।। २शुभदेवभिः ।।३शातसमयसार्थपरमार्थः ॥ ४ माउभा प्र० ॥ ५ कतिपयषयो प्रशविदयसाधुसमेतः ॥ ६ क्षेत्रगृहभरिकार्यनृपसेवनाबाणिज्यात् ।। HARYANARASACROSAR ॥२९५॥ अचंतहीलणा भायणं पि जणपूयणिजयं पत्तो। पेच्छह पयंडपासंडणप्पमाहप्पमप्पडिम एवं च कयपरिहासं कुमारमुणी ओहिंबलाकलियतदीयपुत्वभववित्तो ईसिहासवसविहडिउट्ठउडो चित्तगुत्तं भणइ-भद्द ! सुचिराणुभूयऽणत्थदंडविडंचणाडंबरो वि न तप्परिहारत्थमज वि उजमसि । ससंभमेण य भणियं चित्तगुत्तेण-भयवं ! को एत्थ अणत्थदंडो? किं वा तदुत्थविडंबणाणुभवणं ? पसायं काऊण साहेसु त्ति । कुमारमुणिणा संल-आयनसु त्ति एत्थं अणत्थदंडं चउहा जाणाहि तत्थऽवज्झाणे १ । पमयायरिए २ हिंसप्पयाण ३ पावोवऍसेहिं ४ ॥१॥ तत्थाऽवज्झाणं निप्पओयणं चिंतणं असुहरूयं । सो जिणइ हारई वा जइ ता लट्ठ ति इचाई ॥ २ ॥ बीओ वि विसय-निद्दा-विकहा-मजाइगोचरो नेओ । अहव जहुचियघय तेल्लभायणच्छायणालस्सं तइओ य हिंसदाणं हिंसाणि य जीवधायहेऊणि । खग्गपमुहाणि तेसिं दाणं तु पंरेसिमप्पिणणं ॥ ४॥ तुरिओ पावुवएसो असुहं पावं हि तस्स हेऊणि । किसिमाइयाणि ताणं उवएसो जुंजणं बहुहा ॥ ५ ॥ एवमिमो चउभेओ दुम्मेओ वजकवयमिव दूरं । एयनिविर्ति गुरुणो तइयं तु गुणवयं चिंति ॥ ६ ॥ कंदप्पं १ कुक्कुइयं २ मोहरियं ३ संजुयाहिगरणं च ४ । उवमोग-परीभोगाइरेगयं ५ चेत्थ अइयारा ॥ ७॥ १ प्रचण्डपाषण्डानल्पमाहात्म्यम् ॥ २ अवधिज्ञानबलाकलिततदीयपूर्वभवपत्तः ईषद्धासवश विघटितोष्टपुटः ।। ३ "एसे ४ य प्र. ॥ ४ जयति ॥ ५ हुन्जिय वं. प्र. । यथोचितपततैलभाजनाच्छावनालस्यम् ॥ ६ हिंस्रदानम् ॥ ७ "रेनिसिप्पणयं सं० । "रिसिनिप्पण' प्र० ॥ ८ दुर्भेदः ॥ अनर्थदण्डविरते: स्वरूपं तदतिचाराश्च PYAAREKAC%AR KARAACARAKASONGS Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनर्थदण्डबते चित्रगुप्तकथानकम् ४१॥ देवभइसरिविरइओ कहारयणकोसो ॥ विसेसगुणाहिगारो। ॥२९॥ CARIKAA परिहासो मयणुद्दीवगेहिं वयणेहिं जो स कंदप्पो १ । कोकुइयं घयणाण व विगियागिइहासजणणाइ २ ॥८॥ एए पमायचेडाविरईए दो वि इंति अइयारा । न पमायविरहिएं जं संपजइ एरिसी किरिया ॥९ ॥ संबद्धा-संबद्धाण भासणं भूरिसो हि मोहरियं ३ । पावोवएसविरईविसए एसो वि अइयारो ॥ १० ॥ अहिकिच्चइ नरगाइसु अप्पा जेणेह तं हि अहिगरणं । संजुत्तं पुण तं चिय अक्खेवेणेव काखमं ॥११॥ तहाहिजंर्तिय-जोत्तिय-नद्धियसगडाई गेहबाहि ठार्वितो । हिंसप्पयाणविरईअइयारं न कहमायरइ ? ४ ॥ १२ ॥ उवभोग-परीभोगा पुवुत्तऽत्था हि ताणमइरेगो । पंचमगो अइयारो अवसेओ सो पुणो एवं बहुतेल्ला-ऽऽमलगाई घेतूण नईए जाइ ण्हाणत्थं । अन्ने वि तदणुसंगेण हंति तेणेवै जीववहो तंबोल-पुप्फ-सयणा-ऽऽसणाइ सेसं पि अहिगमवसेयं । एवंविहदोसं चिय ता तवजणकए विहिणा ॥ १५॥ गेहि चिय व्हायवं सुगलिय-परिमियजलेण एगते । पुप्फाइ वि घेत्तवं अलियाइविवजियं उचियं ५ ॥१६॥ एवमिमे अइयाराऽणाभोगाई हिं होति नियमेण । आउट्टिकरणतो पुण भंगा एए चिय हवंति ॥१७॥छ।। ता भद चित्तगुत्त ! निरुत्तमित्थमणत्थदंडसरूवं किं पि उवइई । अणत्थदंडसमुत्थविडंबणाणुभवणं पुण तुह जहा जायं तहा साहेमि १ भाण्डानामिव विक्रताकृतिहासजननादि । पयजा-भाण्डाः, भाव-भवैया-बहुसंपया ' इति भाषायाम् ॥ २ 'हिओ जं सं.प्र.॥ ३ अधिक्रियते ॥ ४ यन्त्रितयौक्त्रिकनदशकदादि ॥ ५ हिंखप्रदानविरत्यतिचारम् ॥ ६ पूर्वोकार्थों ॥ ७ 'गजी' सं. प्र. ॥ ८ अमरादिरहितमित्यर्थः ॥ ANKAKIRBAKKARAKARARY PRARTHAKER ॥२९६॥ WARKAKR45%EWER इणो भवामो? ति । पुरिससीहेण भणियं-अम्मो! पहजं पवञ्जिउकामस्स मह विग्यविणिग्घायणेणं ति । अह भूरिसोगावेगविगलंतंसुजालाविललोयणाए भणियमणाए-पुच ! अपत्तकालकालकवलियमहारायदुक्खे तहट्टिए वि तुद्द विओगसोगो गंडोवरि दुद्रुपिडिगुट्ठाणतुल्लो अंतोविसंतमहंतसल्लं व बादं विद्दवइ मणो । पुरिसदत्तेण भणियं-बच्छ ! सचमुल्लवइ जणणी, रजसिरिमुव जिऊण पवजं करेजासि । पुरिससीहेण भणियं-एवमेयं, केवलं समीववत्ती सेमवत्ती, सपच्चूहनिउसंबा कालविलंबा, उच्छाहसाहिदाबग्गी गिहकिचसामग्गी, दुल्लु भागमो गुरुसंगमो, ता कीस बंछियत्थविलंबगेण ममागाइभवोहबुज्झमाणस्स उत्तरणपयत्चपरस्स विक्खेवं कुणह ? ति । अह मुणियतभिच्छएण भणियं पुरिसदत्तेणअम्मो ! सुक्ककाणणनिहहणपयट्टो हुयवहो [विव] समीहियत्थकरणुजतो सप्पुरिसो वि न विणिवत्तिउं तियसवइणा वि तीरइ, ता कीस कुसलपक्खपडिक्खेवुप्पायणेण महाणुभावस्स एयस्स असंतो[समुप्पाएसि ! धनो क्खु एसो जस्स एवं सुकयावजणुजमो, तुम पि अम्मो ! एवंविहसुयज[ण]णेण नीसेससीमंतिणीतिलयभूया बढुसि, एयमुकयसमावणाणुजाणणपुत्रभागभागिणी य भविस्ससि । जओ कत्ता कारवगो वि य तस्सऽणुमंता य सुद्धभावेण । धम्मं पडुच्च तिमि वि तुल्लफला चेव बुच्चंति ॥१॥ जइ कुणइ अजुत्तं किं पि अम्म ! ता तनिवारणं जुर्त । सम्मग्गं लग्गे वि हु निवारणं पुण महामोहो ॥२॥ १ भूरिशोकावेगविगलदभुजालाविललोचनया ।। २ दुष्पपिटिकोत्थानतुल्यः । पिटिका-गण्डिका ॥ ३ "डिगिट्ठा सं. प्र. ॥ ४ अन्तर्विशन्महाशल्यमिव ।। ५'समवत्ती' मृत्युः ।। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमद्दरि - विरइओ कहारयण कोसो ॥ विसेसमाहिगारो । ॥२९७॥ 15% % % ট सङ्घस्सो कंदष्प-मुहरयाईहिं रायसुयचित्तक्खेवणमुप्पाईतो कालं बोलेसि । अन्नया य सो रायपुत्तो तुमए अनेहि य सविसेसमुच्छाहिओ कीस बुद्धं नरिंदं हंतूण रायलच्छि न गिण्हसि ? ति । ततो कश्वयपहाण पुरिसभेयणेण पिउणो हणणत्थं उवडिओ संतो सो वियाणितो मंतीहिं । ततो तद्दारेण मुणियवित्तंतेण रत्ना सुर्य कट्ठेहेरे निस्सङ्कं निगडिऊण 'अणत्थोवएसदाइ' ति पढमं तुमं विणासिओ, पच्छा अबरे ति । तुह कुडुंब पि दुक्खमारेण विणिहयं ति । एवमप्यणो परेसिं पि अंपियसंपायणं काऊण तत्तो मओ समाणो पढमनश्रयपुढवीए नेरहओ तुमं संबुत्तो, तत्तो उबट्टो तिरिएसु, तत्तो वि धैयणकुले पुरिसेत्तणं, तत्थ वि कंदप्पाइभावणाभावियचित्तो किंपि सुकयं आवजिऊण मतो वंतरेसु होऊण, [ततो] चुतो पुरोहियसुतो जातो ति । पुवभवन्भत्थाणत्थदंडत्तणेण य संपयं पि कंदप्पाईसमुप्पायणेणमप्पाणं दुहनिहाणभाषणं कुणसि ति ॥ छ ॥ एवं मुणिणा बुत्तो स पुसंभरिय भूरिदुक्ख भरो । वेरग्गाबडियमई चिंतिउमेवं समादत्तो हा हा ! अणञ्जको सैंजो सज्जो समुजमइ जीवो । बुग्गाहिओ परेणं थेवं पि हु चयइ धम्ममई जइ दुग्गइगमणसहाइणीए जणणीए पावसंसग्गे । खित्तो हयास ! तत्थेव कीस ता बाढमणुरत्तो ? धम्मत्थे सुचिरं पि हु पन्नविओ ठाविओ वि सुगुरूहिं । पारयरसो व तंत्रम्मि पाव ! न चिरं थिरो जाओ १ का गृहे हडिमध्ये । २ अप्रियसम्पादनम् ॥ ३ भाण्डकुले ॥ ४ सयः सयः सज्जी वा समुयच्छति ॥ ५ पारदरस इव ॥ ॥ १ ॥ ॥२॥ ॥ ३ ॥ ॥ ४ ॥ ॥५॥ ॥ ६ ॥ || 19 || || 2 11 ऐमाइपुवदुद्दिहियहुयवहुप्पनतिवतणुंतावो । चिरचिन्नमेव धम्मं तह कह वि पुणो वि पडिवन्नो स महप्पा जह न तिहुयणे वि संखोभिउं पयट्टम्मि | सेलु व चलइ पारद्धसुद्धसद्धम्मकिञ्चाओ को मुणइ जीवविरियं स रिसपसरंतभूरिविष्फुरियं । एवंविहा वि पावा लग्गंति जहिं सुमग्गम्मि एतो चिय एगंतेण के पि न धुणंति नेय निंदति । अणवट्टियभावातो दुलक्खो जीवपरिणामो कयं पसंगेण । सो महाणुभावो भावतो पडिवन्नसहसा वजबजणो जणोवरोहरहिए एगंतदेसे डाऊण अप्पाणं चिय दुकम्मकारिणं भुज भुजो निंदंतो जाव अच्छा, ताव पुढकालियाणत्थदंडोवहयनायरएहिं अणवरयछिड्डावलोयणपरायणेहिं 'दिडियो रहसहितो चिट्ठ' त्ति पट्ठेिहिं 'मा पुणो किं पि अणत्थदंडमुप्पाइहि' त्ति निस्सङ्कं जट्टि-मुट्ठि-लेडूहिं निहओ निययाभिप्पाएण 'मतो' त्ति परिचत्तो । निरुवकमत्तणेण आउयकम्मणो मणागं सिसिरमारुओवलद्धचेयणो विचितिउं पवत्तो—रे जीव ! मा ईसि पि कस्सइ पतोसमुदहेजसि, ते पुंसकयदुकयदुद्दिलसियमेवासे समिमं । जइ कालंतरावस्साणुभवणिजमिम मियाणिं चिय उबट्टियं ता किमकाणं तुह ? । किं न सरसि विजयसरसि समुल्लसंत कित्तिकुमुइणीवेणो सुकयपवद्धमाणो सिरिवद्धमाणो जयगुरू गरुया १ एवमादिपूर्व दुर्निहित हुतवहोत्पन्नतीव्रतनुतापः ॥ २ णुभावो सं० प्र० ॥ ३ असदृशप्रसरद्भूरिविस्फुरितम् ॥ ४ किंपि प्र० । ५ 'दिष्टष' इति आनन्दद्योतकमव्ययम् 'रहः स्थितः' एकान्ते स्थितः ॥ ६ प्रहृष्टैः ॥ ७ निश्वक्रमत्वेन आयुष्कर्मणः मनाक् ॥ ८ प्रद्वेषम् ॥ ९ पूर्वकृतदुष्कृत दुर्विलसितमेादशेषमिदम्। यदि कालान्तरावश्यानुभवनीयमिदमिदानीम् ॥ १० स्मरसि त्रिजगत्सरसि समुहसरकी सिंकुमुदिनीवनः ॥ ११ 'वणे सुसं० प्र० ॥ अनर्थदण्ड व्रते चित्रगुप्तकथानकम् ४१ । ॥ २९७॥ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनर्थदण्डॐाव्रते चित्र गुप्तकथानकम् ४१ विसेसगु देवभद्दसूरि- सुहकम्मनिअरणस्थमणस्थबहुलमिलेच्छभूमिमइगतो। सणंकुमाररायरिसी वि पुत्वभवनिकाइयपयंडकंडूपमुहमहावाहिविहुरो विरइओ वि 'पच्छा वि मंए चिय सोढवमेयं ति कयनिच्छओ निन्छउमतत्तिमिच्छोवडियसुरवेजभणिजमाणो वि मोणमल्लीणो ति । एवमाइ सुहभावणं भावंतो निहरपायघुम्मिरसरीरो वि सणियं सणियं गतो सगिहं । सामरिसमापुच्छितो वि कहारयण-5 सर्यणेहिं तदणत्थभीतो मोणं चिय पवनी । 'अहो ! धनो कयपुन्नो य एसो, जैमेहिं खुद्देहिं उबहुओ वि पसैमपयरिसप्पहाकोसो॥ ॐाणमेवं वट्टई' ति जाया से निम्मला कित्ती धम्मसिद्धी य । कालकमेण सुगइगामी संवुत्तो ति । एवं अणत्थविरओ स महप्पा परममुबई पत्तो । अनियत्तो य अणत्थं ता दूरं एस चइयवो पाहिगारो। अवि लब्भइ जलहिजलस्स माणमवणीए कोसँसंखा वि । न उण जमदंडदारुणअणत्थदंडोस्थदोसाण ॥२॥ अपि च॥२९८॥ कीनाशपाशमपि हारधिया जिघृक्षेद् , हालाहलं त्वमृतमित्यथवा पिपासेत् । ब्यालावलीमपि स बालमृणालनालशय्यां विभाव्य शयितुं नियतं श्रयेच योऽनर्थदण्डमतिचण्डमशेषदोषदौस्थित्यभाण्डमपि सौख्यकर व्यवस्येत् । बाम्छेत् ततोऽपि परमां जगति प्रतिष्ठा, निष्ठां च पूर्वकृतदुष्कृतसंहतीनाम् ॥ २॥ किश्च१ "मिमहमहग' सं० प्र० ॥ २ मर प्रि . ॥ ३ निमछातचिकित्सोपस्थितपुरवैधभप्यमानोऽपि ॥ ४ "यणे वित' सं० प्र० ॥ | ५ यर् एभिः ।। ६ प्रशमप्रकषेप्रधानम् ॥ ७ कोशसङ्ख्याऽपि ॥ ८ "मडंड" प्र० ॥ अनर्थदण्ड| दोषोपदर्शनद्वारा तत्परिहारोपदेशः RECE-KARTCLASS ॥२९८॥ GRAHADHIKARINAKACCHARANARNA पुरोहितपुर| चित्रगुप्तस्व पूर्वभवः तुम हि एत्तो पंचमे भवे भदिलपुरनयरे सेणो नाम जिणरक्खियसेविणो जिणधम्मकम्मनिचलनिलीणचित्तस्स पुत्तो अहेसि । अणवरयसुतवस्सिसंसग्गवससमुच्छलंतातुच्छचेरग्गो य अणुव्वय-गुणवयपहाणं गिहिधम्मं पवञ्जिऊण सबविरई पि घेत्तुमभिलसंतो एत्तो चिय दारपरिग्गहमणिच्छंतो भणिओ जणणीए-पुत्त ! किमेवमम्हाण तुममेगो वि सुओ होऊण सुमुणि व संसारसमुत्थवावारविरंयचिंतो दीससि । तुमए भणियं-अम्मो! 'किमणेण असारगिहत्थवावारविरैयणेण दुग्गदुग्गइदोसनिबंधणेणं ?' ति विभावितोऽहमियाणि सव्संगचागेण उजमिउमिच्छामि । अह कोवैभरुम्भवंतारुणनयणाए भणियमणाए-पुत्त ! पडिहयममंगलं, तुह सत्तुणो चेव संगचागं काहिंति, तुम पुण आचंद-सूरियं भोगोवभोगसुहमणुहर्वसु त्ति, मा वच्छ! लुचियसिराणं अप्पसरिसं जयं पि काउमुवट्टियाणं इमाण समणाण समीवे बच्चेजासि त्ति । पक्खित्तो दुल्ललियगोट्ठीए । 'न कारणुच्छेयमंतरेण कजविच्छेओ' त्ति केणावि उवाएण मुणिणो वि बिहराविया अन्नत्थ । तुम पि पइदियहं पावसंसग्गिवसगतो आयरिसोच पडिबिंबियतविलसियविसेसो पमाय-कालुस्समईलिजंतो थोवकालेण वि अमो व संवुत्तो सि । सविसेसं च अणत्थदंडपंडिच्चं पडिवञ्जिय अनिबद्धमत्थत्वयं काउमलभंतो 'जरढढोरढङ्करसरो वि पिया कीस अञ्ज वि न मरइ?' ति असुहज्झवसाणेण १ मजाइपमायसंगेण २ खग्गाईहिंसगसमप्पणेण ३ पावीवएसपत्थावणेण य ४ वट्टतो एगया य रायविरुद्धकारिणा रायसुएण सम मेति पवनो। तब्बलेण आयड्डियजणगगेह १ रहिय खं० ॥ २ "बिरेय प्र. ॥ ३ कोपभरोग्रवदरुणनयनया ॥ ४ "बसि ति प्र० ॥ ५ मलिन्यमानः ॥ ६ "महलयं प्र० । अनिबद्धमहाव्ययम् ॥ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमदर विरइओ कहारयण कोसो ॥ बिसेसगुमाहिगारो ॥२९९॥ * জনএ चत्तारि सिक्खावयाणि । इति गुणवयजुत्तो वि हु सीयइ सिक्खावएहिं परिहीणो । ता इन्हि तस्सरूवं लेसुद्देसेण कित्तेमि सिक्खा इह अन्मासो तेण पहाणाई जाणि उ वयाई । सिक्खावयाई ताई ताण य सामाइयं पढमं रागाईविरहातो समस्स आतो य णाणमाईणं । लाभो इहं समातो सो कअं जस्स किश्चस्स तं सामाइयमुचइ सद्दत्थो एस तस्सरूवं च । सावञ्जजोगवजण मणैवजासेवणं सम्म इह निउत्तचित्तो गिही वि समणो व नूण पडिहाइ। अचंतमुत्तरोत्तर विमुद्धनाणाइलामातो पावस्स उभूयं चित्तं चिय तं च रुब्भइ भर्मतं । सवत्थ समीरं पिव तेणेह मेंहं कुसललाभो ता पुर्वजन्मजणियं पावं विष्फुरई वित्थरइ अरई । सद्धम्मकम्मविसया विसएसु य गिज्झई ताव तरलायह ताव तुरंगचंचलो दूरमिंदियग्गामो सामाइयं पवजइ जावऽञ्ज वि नेव निवियप्पं सामाइयं पवनो गिद्दी वि तियसाणमवि हवइ पुञ्ज । परमं च पसायपयं मेहरहो एत्युदाहरणं तहाहि — अत्थि कलिंगदेस लच्छि विच्छड्डाखंड भंडारागारभूयं, भूय-भविस्सपरिमाणनिउणनाणाविहनाणिजणोववेयं, वेर्य७ वि वहद्द सं० प्र० ॥ १ आयः ॥ २ समायः ॥ ३ अनवद्यासेवनम् ॥ ४ महान् ॥ ५ अत्थ' सं० ॥ ६ गृध्यति ८ लक्ष्मीविच्छार्द ॥ ९ वेदविधिविचारविशारद शारद रजनिकर सौम्या कार गुरुकर्द्धसमुद्धरप्रचुरनरम् ॥ || ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ ॥ ४ ॥ ॥५॥ ॥ ६ ॥ || 9 || ॥ ८ ॥ ॥९॥ विहिवियारविसारय- सारयरयणियर सोमागार-गरुयरिद्धिसमुद्धरपउरनरं नरउरं नाम नगरं । जं च सुविभत्ततिय- चउक-चचराssवसह साहिसोहण त्तणेण पढमपडिच्छंद व कुबेरपुरीए । जत्थ य तुंग- सेयपासायसिरोवरिवत्तिणीणं चंदग्गहणावलोयणकोऊहलिणीणं सीमंतिणीणं पसंतकंत मुहसुंदेरविसंकितो समीवोवगयं पि न मयंकं गसिउमभिलसह गैहकल्लोलो । रक्खइ य तं च जिणपाय पडमपूयापय रिसावजियसुकयवारिधाराधोय कलिलो कलिलोवसमसारधम्मवावाराणुरत्तमाणसो मौण-सोयाइदोसवजिओ जयरहो नाम राया । सयलसीमंतिणीगुणोववेया विजया नाम [से] भजा । विणय-नय-सच्च- चीगाइगुणगणालंकितो मेहरहो पुत्ती । सुमंतो नाम [अ] मचो । उभयलोगाविरुद्धवत्थुसंपाडणपरा सबै काल बोलेंति । एगया य राया कयमञ्जणोवयारो पेरिहिययं गनिम्मोयनिम्मलदुकूलजुबलो परिमियपहाणचेड चालुकरपरिबुडो समग्गपूयावग्ग [ वग्ग ] हत्थ पुरिसाणुगम्ममाणो नियभवणेगदेसनिवेसियहिमगिरिसिंगसिंगारहारि जिणहरं गतो । परमपयत्तनिवत्तियजिणपूया बंदणो य जयगुरुनिवेसियानिमेसनयणो आसीणो समुचियासणे । पयङ्कं च अनलियजिणगुणगणपहाणं पेच्छणयं । एत्यंतरे विभत्तो राया परिहारेण - देव ! तुम्हगिहचेइयवंदणत्थं समत्थतित्थ पेहणपूयपावो भावदेवो नाम सेट्ठी दुवारपडिरुद्धो चिट्ठइ ति । राइणा भणियं — तुरियं पवेसेसु । 'तह' त्ति पवेसिओ एसो । कयजहाविद्दिजिणपूयाइकिच्चो य विणयावणयकाओ भालयलँडवियकरसंप्रुडो भूवई भणिउं पवत्तो - महाराय ! १ मुखसौन्दर्य ॥ २ राहुः ।। ३ मानशोकादि ॥ ४ त्याग:-- दानम् ॥ ५ परिहितभुजङ्गनिर्मोक निर्मलदुकूलयुगलः । निर्मोकः सर्पकञ्चुकः ॥ ६ समप्रपूजावर्गव्यग्रहस्तपुरुषानुगम्यमानः ॥ ७ लवट्टिय सं० ॥ सामायिकव्रते मेषरथकथा निकम् ४२ । सामायिकव्रतस्य स्वरूपम् ॥२९९ ॥ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक| व्रते मेघरथकथानकम् ४२। देवभइसरिविरइओ कहारयणकोसो। विसेसगुणाहिगारो। ॥३०॥ सावस्थि-हस्थिणाउर-चंपा-कंपिल्ल-उज्झनयरीसुं । कोसंबी-वाणारसि-महिलापमुहासु य पुरीसु ॥१॥ सम्मेयसेल-सत्तुंजयाइतित्थेसु अनहिं पि तुमं । वंदाविजसु देवे उसभाई वीरपजते ॥२ ॥ तो भूमिवट्ठठविउत्तमंगमंगे अमंतहरिसभरो । राया वंदइ देवे संमुद्धरोमंचकंचुइतो ॥ ३ ॥ अह देववंदणाओ विरई रायाणमुल्लवइ स पुणो । कुवंति धम्मलाभं मुणिणो तो वंदइ स ते वि ॥४ ॥ सावगवग्गो वि करेइ वंदणं इति पुणो वि संलते । पडिवंदर ते विनमंतमत्थओ पस्थिवों सम्म ॥ ५॥ उचियासणमासीणं अह तं ससिणेहमुवैराहिवई । जंपइ तुह निखूढा निविग्धा तित्थजत्त ? त्ति दिवसाणि केचिराणि य विमुक्कगेहस्स इह पयदृस्स ? । सो भणइ देव ! बारस जायाई इण्हि वरिसाई ॥७ ॥ वागरइ तं च राया धन्नो कयलक्खणो तुम चेव । जो चत्तगेहमोहो करेसि महिम जिणंदाणं ॥ ८॥ अम्हे पुण एक पि हु कहं पि तित्थं पलोइउमसका । सोढवा ही ! सुचिरं भवभमणविडंवणा भीमा ॥९॥ इय भूरिसोगभरगग्गरक्खरं भूवई भणइ सेट्ठी । तुम्भेहिं देव ! दिढ दद्ववमिहट्ठिपहिं पि ॥ १० ॥ जेसुं जिणेसु भची तग्गयचित्तत्तणं च अचंतं । नहु अच्छीहिंदीसंति जिणवरा मोक्खसंपत्ता ॥११॥ अह सो रबा बुत्तो इमेसि तित्थाण किं पुण महत्थं । तित्थं ? ति तेण खुत्तं नरवर ! किमिमं तए न सुयं १ ॥ १२ ॥ १ भूमीपृष्ठस्थापितोत्तमान बजे अमावर्षभरः ॥ २ समूईरोमान्चकन्चुकितः ॥ ३ चिरतम् ॥ ४ वो य समं प्र० ॥ ५ 'उर्वराधिपतिः' राजा ॥ ६ 'इह' तीर्थयात्रायां प्रवृत्तस्य ॥ ७ व्याकरोति ॥८"ए कि पि खं० प्र० ॥ K का॥३०॥ KASAKARXXXRXAENADEOBINDAARAKAKARRAREIR इतो लघुत्वं गिरिवद् गरीयः, पदं विपत्तेरमुतश्च सद्यः । अधर्मकर्माण्यपि नूनमस्माद्, विधिसति प्राणिगणः समग्र: इति सततमनर्थदण्डदोषाद्, विषमपथादिव सन्निवर्त्य चेतः । तुरगमिव चलन् विशिष्टमार्गे, विदधदुपैति समीहितप्रदेशम् ॥४।। ।। इति श्रीकथारत्नकोशेऽनर्थदण्डविरतिचिन्तायां चित्रगुप्तकथोत्या गुणवतत्रयं समाप्तम् ।। ४१ ॥ K AKKARRRRRRRRRAKASH ->>ree - - १ "रिवं ग खं० प्र० ॥२ विधातुमिच्छति ।। Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिकव्रते मेघरथकथानकम् ४२। देवमद्दसूरिविरइओ कहारयणकोसो। विसेसगुणाहिगारो। ॥३०॥ सकारितो समणसंघ, सम्माणंतो साहम्मियसमुदयं, उद्धरावितो जिन्न-विसनजिणभवणाई, निवारितो मग्गाणुलग्गं मय-मीणाइविणासंणुञ्जयं घायगलोगं, अणुकंपितो छुहाकिलंतं पहियनिवहं, थुर्वतो मागहेहिं, गिजंतो गायणगणेहिं सणियसणिय वच्छतो पत्तो सम्मेयसेलपरिसरं । अह सेलचेइयदेवचगोवदंसिञ्जमाणमग्गो महीवई मंदमंदमहीमुकचलणो कहिं पि उद्धट्ठियमेव निव्वुयं, कहिं पि वीरासणसंठियं तैयं । कहिं पि सुत्तं गयमन्त्रमाणसो, परं करेंतं तह धम्मदेसणं॥१॥ विनाणिएहिं कुसलेह सम्म, उकिन्नदेहं गिरिणो सिलासु । तवस्सिलोगं कयपायपूओ, वंदेह सो भूठविउत्तमंगो॥ २॥ सिद्धिं गयाण गणनायगाण, ठाणेसु देवेहिं विणिम्मियातो। लैड्न तुट्ठो मणिथूभियाओ, पूएइ सव्वायरदिनदिट्ठी॥३॥ सिद्धा इहं भूवइणो अणेगे, गयाउ मुर्ति इह साहुणीओ। विजाहरिंदा इह निब्बुय त्ति, पलोइरो सेलसिरम्मि पत्तो॥४॥ एत्थंतरे निसामिओ रचा कोइलकुलकलरवाओ वि अभहियसुइसुहकारी वेणु-वीणाणुगयसुरगेयरवो, अग्याइओ घुसिणघण-घणसारसारचुनपरिमलो, दिडं च उप्पयंत-निवयंतं पारियायमंजरीपुंजपहाणअग्धंजलिपयाणपरं विदारयविंद, आइनिओ धुइ-थोत्त-चच्चरीगेयहलबोलो । अह कोऊहलाउलियमाणसेण भूवइणा पुच्छिओ देवच्चगो-अरे! किमेयं ? । देवचगेण भणियं-देव! निसामेहि कयमासोवासतवा पाओवगया जिणेसरा वीसं । अजियाइणो सिवम्मि जेसु ठिया उवगया पुर्वि ॥१॥ १ मइमी सं० ॥ २ समुज्ज खं० ॥ ३ तह सं० ॥ ४ करितं प्र० ॥ ५ उक्खित्तदेहं खं० । उत्कीर्णदेहम् ॥ ६ लद्धान ख• । लट्ठान प्र.। लध्या ॥ ७ 'वृन्दारकवृन्दः' देवसमूहः, आकर्णितः ॥ ॥३० ॥ ॐARACEKACHAKRACACHMARAKASONSIONS SARAKATARAHASRANA%CEREAKERACIAASARAKAR ताई सिलायलाई फालिहमणिमणहराई एयाई । पूएसु नमसु संथुणसु णेगहा पज्जुवासेसु ॥ २ ॥ एवं निसामिऊणं राया रोमंचेकंचुइयकातो । कयअट्ठमोववासो अट्ठपयाराए पूयाए ॥३ ॥ पूएद ताई सहायरेण धूमे य तित्थनाहाण । संथुणह तयणु थुइ-थोत्त-चंडएहि विचित्तेहिं ॥४ ॥ एवं च कयसव्वायरतप्पूयावावारो नरवई अट्ठमावसाणे पारिऊण वि तस्थेव वसिउकामो भणितो देवच्चएणं-महाराय ! महंतं तित्थमिमं सबओ वि समद्भासियं सिवगएहि महापुरिसेहिं, अतो एत्तोवरि नेव अच्छिउं जुञ्जह ति। ततो सैयलसेलसिलाविहनपुप्फपयरो, वसुंधरायलढवियसीसो, सविणयं तित्थदेवयाकयखामणो, 'भवे भवे तुह दंसणं होउ' त्ति पुणरुत्तं वाहरंतो, उत्तिनो राया सरीरेण, न उण मणसा । जाजीवं धणवियरणेण य निव्वुई काऊण य देवञ्चयपरियरं पढिओ सनयरहु । अंतरे य इंतो पडिरुद्धो चिलायवाणा महाबलनामेणं । अह विसमगिरिकडयनिस्सं घेत्तूण कयखंधावारनिवेसो भूवई ठिओ जुज्झसओ । तनिच्छयं पेच्छिऊण मग्गनिरोहं काऊण पच्चोसक्कियं परबलं । इमो य वइयरो जणवयवयणाओ आयनिओ मेहरहरायसुएण । ततो महंतममरिसमुबहतो असेससेमाणुगतो अविलंबियपयाणएहिं गतो पिउणोऽभिमुई। अह उभयपासपडिरुद्धं विबलं पलाण चिलायवलं, मिलिओ रायसुतो पिउणो, अमिनंदिओ तेण, पट्ठिया दो वि समग चिय गंतुं । इतो य जयवालाभिहाणेण सदेससीमवत्तिणा रमा 'असामियं' ति काऊण कइवयसमीवगाम-नगराइयं दूडियं निसा१-स्फटिक- ॥ २ रोमानकम्युक्तिकायः ॥ ३ सकलधौलशिलाविकीर्णपुष्पप्रकरः ॥ ४ 'प्रत्यवष्यष्कितम्' पधाभिवृत्तम् ॥ ५ निलमित्यर्थः ॥ ६ सीमाव" खं० ॥ ७ लुण्ठितम् ॥ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभइसरिविरइओ कहारयणकोसो ॥ विसेसगुमाहिगारो। ॥३०२॥ MKRECCAKACCHI+K मिऊण बादं परुट्ठो मेहरहो पियरं पुरे पवेसिऊण महया विक्खेवेण गतो तद्देसे, पारद्धो उवद्दविउं । जयवालो वि राया | सामायिकअपरिभावियनियसामत्थो कोवाउरत्तणेण तिणं व नियजीवियमवगणितो रायसुएण सम लग्गो जुज्झिउं । खणंतरेण विजितो व्रते मेषमेहरहेण बंधिऊण पक्खित्तो पिउणो पायपंक्रयपुरतो । तवेलं च राया 'तित्थागतो' ति जायं महया पर्वघेण बद्धावणयं, रथकथामुक्को चारगाइरुद्धो लोगो। तओ रमा जयपालो वि मोयाविओ, पवनसेवो सकारिऊण विसजिओ य । डूनकम् ४२॥ अह कैयचेइयमहसवविसेसो जहोचियविहियसंघपूयापयरिसो राया रायसुयसमेओ तकालागयजुगप्पहाणविजयसूरिवंदणत्थं महया वित्थरेण गतो कुमुयसंडाभिहाणमुजाणं । जहाविहिं वंदिऊण मूरिणो निसनो धरावड्डे । गुरुणा बि तकालोच्चिया समारद्धा धम्मकहा । कहं चिय - धम्मस्स परममंगं दंसणमक्खंति भिक्खुणो राय !। तस्स य भावणतो आयारो अट्टहा वुत्तो ॥१॥ सा पूण पभावणा भवणवत्तिणा मुह तीरइ न काउं । अणवस्यगेहवावारविरयणाचावडमणेणं ॥ २ ॥ ता तेचागेणं जम्म-दिक्ख-नेवाण-नाणभूमीसु । धन्नो पभावणस्थ बंदह तित्थयरबिंबाई उत्तममग्गपयासो पभावणा सासणस्स परमा य । सुहभावअयोच्छित्ती गुणा इमे तित्थजत्ताए ॥ ४ ॥ तं तहपयट्टमाणं पडिगामजिणचणाकरणनिरयं । ददृण को न लग्गइ तम्मग्गे जायसुहभावो? १ कोपातुरत्वेन ॥ २कहचे ख. प्र. ॥ ३ "चियसमा सं० प्र० ॥ ४ "निस्संकिय निकंखिय निश्चितिगिच्छा अमूडविट्ठी य । उपचूद थिरीकरणे वच्छामा पभावणे अह ॥"इतिरूपः नि:शङ्कितादिकः प्रभावनान्तोऽरप्रकार: आचारः ॥५-व्यापृतमनसा ॥ ६ तत्यागेन ॥ ७-अव्यवच्छित्तिः ॥ ॥३०॥ FASTAKE%A4%AC%SECASTONAN+KARA O +A4%A4%AA% अट्ठावयम्मि उसमो सिद्धिगओ वासुपुज्य चंपाए। पावाए वद्धमाणो अरिहनेमी उ उजिते ॥१३॥ अवसेसा य जिणवरा जाइ-जरा-मरणबंधणविमुका । सम्मेयसेलसिहरे वीसं परिनिन्चुया वंदे ॥१४॥ इय वयणाओ हरिसाइरेगओ वि य इमं अहं मन्ने । न वि अस्थि न वि य होही सम्मेयसमं महातित्थं ॥ १५ ॥ अह 'किं पि तं सुदिणं होही जम्मि तमहं वंदिस्सामि' ति कयनिच्छओ, 'साहम्मिउ' ति सविसेसदरिसियगउरवाइरेगो तं सावगं सपरियणं काराविऊण भोयणं पूइऊण वत्थाइदाणेण सबहुमाण विसओह । सयं पि कयभोयणाइकिच्चो रजकजाई चिंतिउं पवत्तो । एगया य वसुंधराचिंताए मेहरहं मंतिवग्गं च निसृजिऊण महरिहपाहुडपयाणपुवयं द्यवयणेण सम्मेयसेलसमीववत्तिणो भूवाले भणावेइ-जह तुम्मे किं पि रजावहाराइकुविगप्पं न कुणह ता वयं सम्मेयसेलाचलावलोयणजलेण अप्पाणं पक्वालियपावमलं करेमो ति । पडिपाहुडपेसणपुवयं च 'तह' ति पडियनं सर्व तेहिं । ततो रबा पंडहपडिहणणपुरस्सरं घोसावियमिमं सवस्थ नयरे-जो कोइ सम्मेयसेलमवलोइउमभिलसह सो सिग्घं भोयणाइसंखो[भ]मकुणतो पउणीहवउ ति । इमं च सोचा कयतकालोचियकिच्चा पगुणीहूया सावगवग्गा । राया वि सुमुहुत्ते कयमाणोक्यारो नियंसियसियवत्थो पुरोहियकयमंगलोवयारो पणयदेव-गुरुचरणो पउरकरि-तुरयकोस-कोट्ठागारपरिगती नीहरिओ पुरातो । तित्थदसणसमुट्ठियविसिट्ठधम्मिट्ठलोयाणुगतो य पडिसभिवेसं पूइंतो चेइयाई, १ पटहवादनपूर्वमित्यर्थः ।। N C4% G Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभरि विरइओ कहारयण कोसो ॥ विसेसमाहिगारो । ॥ ३०३ ॥ 66 জ पुत्रकाले कलिंगविसए तुम्भे दो वि रायसुया समुप्पज्जित्था । एस पढमो पयईए चिय करुणापरो । बीओ य तुमं पचईए थिय अणवश्यथी - बाल - बुड्ड-गाम- पुर-सत्थलूडण- डहणनिद्दवचित्तो भारुंड सिहंडि-कोय-कविंजल-जलजीव- वराहपमुहपाणिनिवहवहनिरतो तम्मंसभोई य कालं बोलेसि । इयरो य पयईए चिय दयासीलत्तणेण भवंतं निम्मेरं जीवघायाईसु बतं वारेकीस एसो जीववहो निरत्थओ कीरह ? किं वा समंसं परमंसेण पोसिजर ? किं सासयं जीयं १ धुवा सरीरसिरी ? अक्खयं रूवाइय १ - न्ति । तुमं पडिभणसि – अप्पणो ति करेहि ति । एवं च निकाइऊणाणेगं पाचपन्भारं मओ तुमं उबवच नरयतिरिएसु, सहियाई महादारुणाई दुक्खजालाई । बीओ पुण अणुकंपौहगुणावजियसम्मत्तो मरिऊण सोहम्मे सुरो जातो । तत्तो य चुओ कुसलजम्मा विकलारोग्ग-उदग्गरुवाइ सुहसंपथ मणुभवतो कश्वयभवेसु उत्तरोत्तरं सुरालएसु उववजिय संपयं पि सुंदर रूप ssरोग्गाइगुणसंगओ तुह जेट्टभाउतेण उपवनो । तुमं पुण कुच्छियमिलेच्छ मच्छ- कच्छभ अच्छभल- भरतुंकषमुहाणि जोणी गहा दहण भेयण-च्छेयण- कप्पणप मुहम हा दुक्खोवकामियजी वियहो, अकामनिजरावसनिजिन पायपुवकयपाप भारो, केणावि कलुसकुसलोदएण सुकुले उववजिउं पि पुचदुक्कयावसेसवसेण एवंविधमहावाहिविहुरत्तणमणुपत्तो सि । ता भद्द ! इमं कारणं ति ॥ छ ॥ इमं सोचा नीसेस मेहर हरायसुओ सीमालदे सदहणाइक याणेगसत्तसंघाय घायणुप्पन्न वेरग्गो सूरिं भणिउं पवत्तो—भयवं ! एवं सह कहं अम्हारिसाणं निरंतरं पाणवहा इनिश्याणं पावमोक्खो होहि ? ति । सूरिणा जंपियं— रायतुय ! १ निर्मर्यादम् ॥ २ 'त' चिन्ताम् ॥ ३ "पाए मु" ० प्र० ॥ ४ वाइरो सं० प्र० । सौन्दर्यरूपाऽऽरोग्यादि ॥ तेणेव सहसावजकजपरिवजणेण पचजा । कीरह मुणीहिं नीसेससत्तसंताणताणाय जर गिहवासी वि हवेअ सबसाव अव अणपहाणो । कट्टाणुट्टाणमिमं ता को णु करेअ बालो वि १ रायसुरणं भणिवं भयवं ! तं काउमक्खमाण कहं । अम्हारिसाण सुद्धी अणवश्यं पावनिरयाणं ? कह वा पुनरिंदा गिहड्डिया वि हु पणट्टपात्र मला। चंडावडिंसयाई सबै सुवंति सुगंइगया गुरुणा भणियं नरवर ! सामाइयमाइधम्मकिञ्चेसु । तह कह वि वट्टियं तेहिं जह परं सिवपयं पत्ता रायसुरणं भणियं जइ एवं ता ममं पि उवहसह । सामाइयमेगं ताव सेसमवरम्मि पुर्ण समय ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ ॥ ३॥ 11 8 11 ॥ ५ ॥ ॥ ६ ॥ अह असुहनिवित्ति-सुध्यवित्तिसारं परं गुणड्डाणं । सिक्खावयाण पढमं सामाइयमाह तस्स गुरू नाणाईणं लाभो एत्तो परमं च कम्मनिम्महणं । संभवइ नारिसं तारिसं हि नो सेसकिच्चाओ चेइय-पोसहसाला- साहुगिहाइसु अपञ्चवाए। आरभ तमुत्रउत्तो विमुकमउडाइसिंगारो निजीवम्मि पसे “करेमि भंते !" ति मूलओ सुतं । उच्चारितो सवं चिट्ठह य विवेक्खियं कालं एत्थ य ठिओ निसामह सत्थत्थं वायई पढइ वा वि। परियत्तह वा सुत्तं कहे अन्नस्स वा धम्मं जिणण्हवण- पूणाई धम्मसरूवं पि कुणइ न मुणिव भावत्थए पवत्तस्स किं व दवत्थएणं से ? १ चण्डावतंसकादयः चन्द्रावतंसकादय इति वा ।। २ गय प्र० । ३ साधवः-शाहुकार इति भाषायाम् तेषां गृहाणि ॥ ४ विवक्षितम् ॥ ॥ ७ ॥ ॥ ८ ॥ ॥ ९ ॥ ॥ १० ॥ ॥ ११ ॥ ॥ १२ ॥ सामायिकव्रते मेघ रथकथानकम् ४२ । पुरुषद्विकपूर्वजन्मकथानकम् ॥ ३०३ ॥ सामायिकव्रतस्य स्व रूपं तदति चाराश्य Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमद्दसरिविरइओ सामायिक व्रते मेषरथकथानकम् ४२। कहारयणकोसो।। विसेसगुजाहिगारो। ॥३०४॥ सब च्चिय धम्मठिई अहिगारिवसेण सोहणा हवइ । कयसामइओ न गिही वि तेण दबत्थयं सैरह ॥ १३ ॥ जह सो य इडिपत्तो ता सबविभूई-वाहणाई हिं । जिणभवणे गंतूर्ण कयजिणपूओ कुणा एवं ॥ १४ ॥ तह तकरणे सासणपभावणा आयरों सुसासु । सुपूरिसपरिग्गहाओ अणत्थविगमाइया य गुणा नवरं इमं पयंपइ सुत्ते 'जा साहु पज्जुवासामि' । जइपुरेतो सामइयं "लिंतो अन्नत्थ 'जा नियम' ॥ १६ ॥ ऍत्थ य पंचइयारा मणदुप्पणिहाणमाइणो तिनि । विस्सुमरणमणवट्ठियकरणं च सरूवमेसिमिमं सामाइयं तु काउं घरचितं जो उ चिंतए सड्डो । अट्टवसट्टोवगओ निरस्थयं तस्स सामइयं ॥१८॥ कडसामइओ पुर्वि बुद्धीए पेहिऊँण भासेखा । सह निरवजं वयणं अबह सामाइयं न भवे ॥ १९ ॥ अनिरिक्खिया-उपमजियथंडिल्ल-ट्ठाणमाइ सेवंतो । हिंसाभावे वि न सो कडसामइओ पमायाओ ॥ २०॥ न सरइ पमायजुत्तो जो सामइयं कयाइ कायम् । कयमकय वा तस्स हु कयं पि विहलं तयं नेयं ॥ २१ ॥ काऊण तक्खणं चिय पारेइ करेइ वा जहिच्छाए । अणवडियसामइयं अणायराओ न तं सुद्धं ॥ २२ ॥ नणु विहलत्ते सामाइयस्स इत्थं कहं व अध्यारो। मालिनमेत्तरूवो भंगो चिय किं न होइ फुडो? ॥ २३ ।। सचमणाभोगाईभावाओ चैव इत्थमइयारा । जुगवं मणमाईणं दुप्पणिहाणेऽहवा भंगो ॥ २४ ॥ १ 'गारविसिट्ठा सोह' सं० ॥ २ स्मरति ॥ ३'भावणा सं० ॥ ४ 'रो य साह प्र. । यतेरपत इत्यर्थः ॥ ५ 'रओ सा' प्र० ॥ ६ 'लान्' आददानः ॥ ७ इत्थ प्र० ॥ ८ 'प्रेक्ष्य' विचार्य ॥ ९ सदा ॥ १० मणवाईणं प्र० ॥ +CRICHAMAR R ॥३०४॥ KAROKHASRHANPURANORAKHAND धन्नो कयपुमो वि य एसो जस्सेरिसा जिणे भत्ती । इय बहमाणा पाउणइ बोहिनीयाइ अवरो वि ॥ ६ ॥ दहँण य सविसेसं चकं थूभं चिईपएसं च । चिरकालियं जिणाणं जायइ धम्मम्मि एगमणो साइसयसाहुदंसणवसेण चिरकुग्गहाइणो दोसा । पसमंति दव-खेत्ताणुभावतो वा सुगुरुया वि ॥८ ॥ ता नरवर ! किं पि कयं तं तुमए जन सुबइ कहिं पि । न हु थेवं पिचइञ्जइ गिहीहिं गिहेवासवासंगो ॥९॥ जं जं वेलं अणुहवाह तिस्थदसणसमुन्भवं हरिसं । सुहभावबुड्विजणियं तं तं अजिणइ पुर्ण च इत्थं च तित्थजत्ताकरणजियपुभपगरिसवसेण । लगभइ तित्थयरत्तं पि सेसवत्थूसु का गणणा ? ॥ ११ ॥ एवं भणिए गुरुणा परितोसं परमसुवगतो राया। हिययंतो अप्पाणं सुजओ भुजोऽणुमोएइ । एत्थंतरे तप्पएसमुवागया दुवे पुरिसा-एगो देवकुमाराणुरूवो बीओ अचंतकुदंसणो, पढमो निरामयदेहो बीओ जर-सासकासाइसोलसरोगविहुरो, पढमो पुननिचतो व पचक्खो बीओ य असेसपावरासिनिम्मविओ ब, पढमो सरयससहरो ब लोयलोयणाणंदजणओ बीओ ईसिदसणे वि दुक्खुप्पायणपणो त्ति । एवं बिहसरूवा य ते दो वि पडिया सरिणो पाएसु । विन्नत्तो य सोगंगग्गिरगिरेण रोगिणा गुरू-भयवं! एसो अहं च दुवे वि भायरो, एगजणणीए जाया अम्हे, नवरमबरोप्परमेवंविहविसरिसत्तणे किं कारणं ? ति । भगवया भणियं-सुकय-दुकयकम्मवियारो एत्थ कारणं । 'किं पुण अम्हेहि कर्य?' ति पुट्ठो सूरी भणइ-निसामेह १ बसे य चि" सं. प्र. ॥ २ स्यज्यते ॥ ३ गृहवासण्यासरः ॥ ४ "णचिय' सं० प्र० ॥ ५ पुष्यनिचय इव ॥ ६ शोकगद्दगिरा ॥ ECCAME% +KAMA%84%C24 Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिकव्रते मेघरथकथानकम् ४२। देवमदसरिविरइओ कहारयणकोसो ॥ विसेसगुजाहिगारो। ॥३०५॥ सामायिकप्रतस्य विसेसं निराउहो पडिवञ्जिय एगते ज्झाणेण चिट्ठइ ति । ततो कवडकयसुसावगनेवच्छा गुविलगोवियकिवाणिणो पविढा उजाणं । 'सुसावग' ति न खलिया दुवाररक्खिगेहिं । अह साहुकयपायवडणा वेगेण धाविया ते मेहरहाभिमुहं । एत्थंतरे सामाइयनिचलत्तणतुट्ठाए उववणदेवयाए तेर्सि विम्भमुप्पायणत्थं निम्मवियाई मेहरहस्स अणेगाई पडिरूवगाई। अह जत्थ जत्थ चक् खिवंति ते दुट्ठबुद्धिणो पावा । पेक्खंति कुमारं तत्थ तत्थ साइसयरूवधरं एवं पि अणेगविसिडरूवमवलोइऊण ते भीया । कस्स पहारं कुणिमो ? ति गरुयसंखोभरुम्भंता ॥ २ ॥ दुत्थावत्थं तं किं पि ते गया जेण थंभिय व दढं । अन्नोनपलोयणमेत्तमुणियजीवंतवावारा ॥३ ॥ कुमरो वि ददं एगग्गमाणसो पारिऊण सामइयं । ते तयवत्थे दट्टण विम्हिओ पुच्छए सूरिं ॥४ ॥ भयवं! कयरा एए ? तो सूरी कहइ ताण वुत्तंतं । नाणोवतोगजाणियपरमत्थो अह नरिंदसुओ ॥ ५॥ तेसिमभयप्पयाणं दाउं सविसेसवडिउच्छाहो । सामाइयम्मि सम्म एगग्गमणो सया जातो कालकमेण पवरं स रायलच्छि पि पाविउं धीरो । पारद्धगुणट्ठाणम्मि पयरिसं परममणुपत्तो ॥ ७ ॥ इय देवाणं पुञ्जा असेसकल्लाणभायणं च नरा । जायति किमिह चोजं सम्म सामाइउज्जुत्ता ? ॥८॥ अपि च विश्वत्रयीवपुपि चित्तविषं विसर्पि, निर्वीर्यमल्पविषयं च निवयं कुर्यात् । का सिद्धगारुडपदाप्रतिषप्रभावसामायिकप्रवरमन्त्रविधानवन्ध्यः ? १ भन्योऽन्यप्रलोकनमात्रशासजीवण्यापाराः ॥ २ ज्ञानोपयोगशातपरमार्थः ॥ माहात्स्यम RAKACE%ACHARAKASHAN ॥३०५॥ पूर्वार्जिताशुभशिलोचयशृङ्गवज्र, सम्यक्रियाकमलिनीवनभानुबिम्बम् । सामायिकाख्यगुणमेकमवाप्य धीराः, नैके शिवालयजुषो नियतं बभूवुः सम्यकसुखासुख-सुहरिपु-रत्नलेष्ठुतुल्यत्वबुद्धिरधिकं हदि सभिधत्ते । सम्पचते निरभिलाषतया प्रवृत्तिरौचित्यकृत्यपरमाऽप्यनुतः सदैव इति शिवसुखलक्ष्मीमूलसम्प्राप्तिहेतुं, निहतनिखिलचेतोदौस्थ्यदोषप्रपश्चाम् ।। प्रचुरमुकतयोगात् कोऽपि सामायिकाख्यव्रतकरणविशुद्धां बुद्धिमाप्नोति सच्चा ॥४ ॥ ॥ इति श्रीकथारत्नकोशे शिक्षाव्रतविचारणायां सामायिकमक्रमे मेघरधकथानकं समाप्तम् ॥ ४२ ॥ पढम सिक्खावयमक्खिऊण बीय इयाणि सोहेमि । देसावगासियं नाम किं पि समयाणुवित्तीए पुचपडिवनदीहरदिसिपरिमाणस्स पइदिणं चेव । संखित्ततरं दिसिपरिमाणकरण मेयरूवमिह जं पुबगहियदिसिवयदेसे भागे इमस्स अवगासो । ठाणं ति तेण देसावगासियं भन्नए एवं ॥ ३॥ जीवो पमायचारी पमायपरिवजणे य इह धम्मो। संखित्तो वि य भुओ संखिप्प तप्पयारो ता ॥४ ॥ सच्छंदपयाराई जहा विणासं लहंति डिभाई । अॅनिजतियवावारा जीवा वि तहा विणस्संति १ आख्याय ॥ २ कथयामि ॥ ३ "मेयं सक" सं० प्र० ॥ ४ सक्षिप्तोऽपि च भूयः सक्षिप्यते तस्मचार: सावत् ॥ ५ अनियन्त्रितच्यापाराः ।। देशावकाशिकस्य स्वरूपम् Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की देवभद्दसूरिविरहओ कहारयणकोसो ॥ विसेसगुणाहिगारो। ॥३०६॥ देशावकाशिकवते पवनञ्जयकथानकम् ४३। जह वा दुस्संठवितो जलणकणो वि हुपुरा-ऽऽसमे डहइ । अनिरुद्धो तह जीवो किमकजं नाऽऽयरइ संजो? ॥ ६ ॥ तेणेहे-पारभवियावयारगुरुगरलरुंभणडाए । रैक्खाकंडगकप्पं दिहूं सिक्खावयं एवं ॥ ७ ॥ अणुवित्तीए वि इमं ओसहमिव निच्छियं कुणंतस्स । किं नेव कुणइ सोक्खं बणिणो पवणंजयस्सेव? ॥८॥ तथाहि-अस्थि वियडवइराइविसयविस्सुयं सुयाणेगकब-कह-भारहपमुहसस्थपउरजणजणियाणदं नंदिपुरं नाम नयरं । जत्थ य चेउरंगोवलद्धविजओ विजयधम्मो राया छेयजूहयरनियरो य, वेसमणायारा धणिणो धम्मिया य, नालीयलिंगिया सरुच्छंगा उवंतभूमिगा य, तिलोत्तमाभिरामो रामायणो छेत्तधनसंचतो य। एवंविहगुणे य तत्थ पुरे वत्थवो अपरिसंखधन-धणड्डो सावयधम्मनिचलनिवेसियहियओ जीवा-उजीवाइपयस्थवित्थरवियारकुसलो धणंजओ नाम सेट्ठी, निरुवचरियधम्मकजसजा सज्जणी नाम से गेहिणी, पुत्तो य पवणंजओ । तस्स य घरदासीजाओ तुल्लसरीरसंठाण-वनस्वाइगुणो सेहरओ नाम मित्तो, सो य सहाई भिच्चो य, किं बहुणा ? विसिट्ठमंतो छ सबकञ्जकरो । सवे वि उचियकाकरणेण दिणगमणियं कुणंति । १ सयः ॥ २ तेन इद्द पारभविकापकारगुरुगरलरोधनार्थम् ॥ ३'रक्षाकाण्डककल्प' रक्षामन्त्रतुल्यम् ॥ ४ वराड खं०॥ ५ राजपक्षे चतुरजसैन्येन लम्धविजयः सामादिचतुरक्षिकनीच्या प्राप्तविजय इति वा, यूतकारसमूहपक्षे तु शारिलबधविजयः ॥ ६ धनिकपक्षे 'वैश्रमणाकारा' वैधमणस्पधारिणः, धार्मिका: पुनः 'वैधमणाचाराः' वैधमणव दानिनः ॥ ७ 'सरउस्सा सरोमध्यभागाः नालीकै:-कमले: लिङ्गिता:-युक्ताः, 'उपान्तभूमीगा:' चाण्डालप्रमृतयोऽन्त्यजाः न अलीकेन-असत्येन लिखिताः युक्ताः ॥ ॥३०६॥ -COLORCAMBORANSERVANAKANORAMAN+ नणु मणदुप्पणिहाणं दुष्परिहारं चलत्तणेणं से । सामाइयकरणाओ तदकरण चिय अतो जुत्तं ॥२५॥ अणुचियमय मिच्छुकडस्स भणणे विसुद्धभावातो । सबविरईए सामाइए वि एवं परूवणओ ॥२६।। किंचसुद्धमसुद्धाओ वि हु अब्भासवसेण होइऽणुड्डाणं । ता तप्पवित्तिवारणमसम्मय समयवेईणं ॥ २७ ॥ कयमेत्थ पसंगणं नरिंदसुय ! जइ भयं समुवहसि । पुषकयदुकयगयं सामइयं ता समायरसु ॥ २८ ॥ जइ वि हु जहमओ चिय मुहुमित्तो इहं हवइ कालो । सुद्धाणुट्ठाणवसा तह वि हु कॅम्मक्खतो विउलो ॥ २९ ॥ ता पावतिमिरपूरो दुबारो हरइ निम्मलालोयं । सामाइयमायंडो जा न पयंडो समुग्गमह ॥३०॥ एवं गुरुणा सवित्थरं साहिए मेहरहरायसुतो अंतोवियंभंतपरमपरितोसो सामाइयव्वयं सुत्तऽत्थेहिं पडिवाइ, जहावसरं च समणुढेइ ति । ताणं च दोण्हं पुरिसाणं जो रूवाइगुणजुओ सो लहुकम्मत्तणेण पबझं पवन्नो । इयरो पुणे सुणिऊण वि पुषवित्तं किलिट्ठकम्मयाए 'को मुणइ किं पि परमत्थं " ति भणमाणो गओ जहागयं । इतो य सो जयपालपुहइवई पुवाणुसयमुबहंतो अणवरयं नियपहाणपुरिसे भणइ-अरे ! अस्थि कोइ तुम्ह मझे पोरिसाइगुणझुंओ सामिभचो वा जो मह वेरिणं मेहरहं वावाएइ ? ति । पइदिणवयणोवरोहेण य पडिवअमिमं हूँ सुमंगलाईहिं अट्ठहिं सुहडेहिं, गया य तं पुरं । जाणिओ य चरमुहातो तेहिं, जहा-मेहरहो साहुसयासे किं पि नियम १ अओ प्र० ॥ २ भागमहानामित्यर्थः ॥ ३ 'त्तमेत्तो प्र० ॥ ४ कर्मक्षयः ॥ ५ "ण मुणि' ० ॥ ६ जापा' खं० ॥ ७ जुत्तो टासा प्र. ॥ ८ 'णिऊण चर' प्र. ॥ KAKKKRRRRRRRRRH HAKAASHAKRABIRHERARANA S* Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरि-8 विरहओ कहारयणकोसो ॥ विसेसगुणाहिगारो ॥३०७॥ संवडम्मुहावडंतदप्पुन्भडदिन्नसेट्ठिसुयसागरदिन्नसंदणकूबरपरिघट्टिओ परिखलिओ रहो । 'अरे ! को एस रहमग्गं निरुभिऊण टिओ? न य नियरहं परियत्तिय वचइ ?' ति ससंरंभं पयंपियं पवणंजएणं । इमं च जोवण-धणाइमयमत्तचित्तो निसामिऊण सागरो भणिउं पवत्तो-अरे ! कीस अहं नियरहं परियत्तिस्सामि ? तुम किं न परियत्तेसि ? किमप्पाणं केणइ चौगाइणा गुणेण सविसेसुकरिसमवगच्छसि जमेवमुल्लवसि ? ति । एवं च दोण्हं पि परोप्पर कोवसंरंभनिन्भरमुल्लवंताण ताण मिलिओ लोगो । बुज्झियकञ्जमज्झो य किं पि नयमग्गमुल्लविऊण ढिओ तुहिको । दो वि हु पगिट्ठदप्पा दो वि हु गुरुविभववड्डियामरिसा । दो वि हु कलासु कुमला दो वि हु जोवणगुणग्धविया ॥१॥ दो वि हु नरवइपुजा दो वि हु बहुमित्त-सयण-संबंधा । दो वि हु पुरप्पहाणा दो वि हु सवत्थ पयडजसा ॥२॥ को भणउ किं व ते अणुचियं पि काउं उबट्ठिए बादं ? । दक्खिनपए पायं नैयवाया विहलयमुवेति ॥३॥ अह दोहि रहेहिं तहट्ठिएहिं रुद्धम्मि रायमग्गम्मि । मुणियसरूवा पियरो ताण तहिं ज्झत्ति संपत्ता ॥ ४ ॥ भणिया य तेहिं एवं निरत्थयं कीस पणयपरिहाणि । रे रे ! करेह तुम्मे पग्गहिउं कुग्गहं बाढं ? एगट्ठाणावठिईपराण अवरोप्परं च सयणाण । उवगारीण य कहमवि न विरोहो जुञ्जए काउं किं धणहाणी ? किं वा बया-ऽऽगमो? किं व नियकुलकलंको? । परियत्तिऊण न रहं जं गम्मइ निययगेहेसु ॥ ७॥ १ सम्मुखापत्तर्णोद्भटदत्तवेष्टिमुतसागरदत्तस्पन्दनकूपरपरिघट्टितः । कूवरः-रथावयव विशेषः, युगन्धर इत्यर्थः ।। २ 'त्यागादिना' दानादिना ॥३'नयवाचः नयनादावा' नीतिवाचः नीतिवादा वा विफलताम् ।। ४ 'न्ययाऽऽगमः' हानिलाभौ ॥ देशावकाशिकवते पवनञ्जयकथानकम् ४३. KOIRASAKANNA ॥३०७॥ KARARISTIATRA एवंविहोऽभिमाणो खत्तियपुत्ताण चेव निबहइ । दीहरविभाविरीए थेवं पि न वणियजाईए ॥८ ॥ एमाइ णेगहा सासिया वि जा ते न दिति पडिवयणं । दुविणय त्ति समुज्झिय ता तपिउणो गया सगिहं ॥ ९॥ अह मुंणियतबइयरेण राइणा पेसिया कारणियपुरिसा तविसंवायनित्रयकरणत्थं । मुणियगाढकुग्गहा य एगते डाऊणं करणिजविसेसं विनिच्छिऊण सेट्ठिसुयाण दोण्ह वि पुरतो पयंपिउं पवत्ता-रे बच्छा! पिय-पियामहपमुहपुरिसावञ्जियरिद्धिवित्थरुत्थंभिरहियत्तणेण किमेवं बालजणोचियमसग्गहं परिगहिऊण असमंजसं वगृह ? जमवमन्त्रह गुरुवयणाई, परिभवह मज्झत्थलोय, अवहीरह नीइमग्गं, ता किमियाणि बहुवायावित्थरेण? अम्ह वयणेण नियनियरहपरियत्तणेण सकजाई चिंतह, अह्वा एत्तो चेव बाहुसहायमेत्ता देसंतरेसु गंतूण अत्थोवञ्जणं कुणह, ततो जो तुम्ह मज्झयाराओ अबारियसत्तप्पयाणपुरस्सरं अत्थियसत्थं पूरियमणोरहं काही सो परं अप्पडिखलियरहो वञ्चिही, इयरो पुण रहं परियत्तिऊण मगंतरे द्वाविही, परं वैरिसावसाणे अवस्सं पडिनियत्तिया ति । अह 'तह त्ति ते दो वि पडिवजिऊण तब्बयणं तत्तो चिय हाणातो विभिनविभिनदेसंतरं पडुच पट्टिया वेगेणमेगागिणो ति । 'जेसि न संपजइ भोयणं पि तेसि पि जोवणुम्माया । मायति न हियए किं पुणेसि आगन्ममिन्माण ? ॥१॥' इति जपिरो य गओ जहागयं कारणियवग्गो । 'वग्गो चेव पमाणं' ति अवलंबिय अंतो ससोगो वि गोवियत्रज्झवियारो १ "भावरी 1. प्र. । दीविभावशीलायाः ॥२ शाततात्यतिकरेण ॥ ३ पितृपितामहप्रमुखपुरुषावजितऋद्धिविस्तरोत्तम्भितृहरवेन ॥ ४ मध्यादित्यर्थः ॥ ५अचयारिय" . । अपारितसत्रप्रतानपुरस्सरम् ॥ ६ 'पावसाने' संवत्सरान्ते ।। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसरिविरइओ कहारयणकोसो॥ विसेसगुगाहिगारो ॥३०८॥ BECACANAX देशावकाशिकवते पवनञ्जयकथानकम् ४३। मोणमल्लीणो तजणगाइलोगो त्ति । पवणंजतो वि तद्दारेण गिहपरिचाय पि 'अपुखदयोवजणु महेउ' ति परमपमोयपक्खे पक्खिवंतो अविलंबियगईए गंतुमारद्धो दक्षिणावहं । । इओ य कंचीपुरवत्थयो अट्ठदसकणयकोडिनाहो लच्छीहरो नाम सत्थवाहो पसिद्धो अणेगलोगचक्खुभूओ तम्मि समए दूरदेसागयं बंभाभिहाण नेमित्तियं एगन्तदेसडिओ सबायरेण जहोच्चियदाणाइणा अभिनंदिऊण पुच्छइ–भो महाभाग! सुनिच्छिऊण साहेसु, मे केत्तियमियाणिमाउयं ? इमीए य मह धूयाए मणोरमानामाए को पाणिग्गाहो भविस्सइ ? पुत्तसंतइविरहियस्स य ममावसाणे एसा घरलच्छी कं अणुसरिस्सइ ? ति । सम्मं परिभाविऊणं च तेण भणियं-सत्यवाह ! तुज्झ आउयं ताव छम्मासावसेसं, सीसवेयणा य सत्तहिं दिणेहिं अणागया भविस्सइ, एसा य धूया समं घरलच्छीए वइदेसियं सुकयरासिमवस्सं पुरिसं अणुसरिस्सइ ति । सत्यवाहेण भणियं-कहं सो वइदेसियपुरिसो जाणियबो ? ति । नेमितिएण भणियं-निसामेहि-अस्थि एत्तो पंचजोयणंतरिय पुंडरीयं नाम तित्थं, पुंडरीयक्वो य तत्थ देवो, तत्थ जत्ताकरणस्थमुवागयस्स तुह देवउलाओ उत्तरंतस्स चलणपक्खलणेण य निवडमाणस्स अइदक्खत्तणेण अन्भुद्धारं जो काही दीसंतसुंदरागारो पणवीसवरिसदेसीओ पवणंजयनामधेयो पुरिसो सो धूयापाणिग्गाहो ति लक्खियहो । एवं च सुपरिफुडं निसामिऊण चिसञ्जियनेमित्तिगो सत्थाहो चिंतिउं पवत्तो-न जुत्तमेत्थावत्थाणं, थेबाउयत्तणेण तणयविरहियं घरसारं रमा | हरिही, ता एत्तो सर्व धणवित्थरं घेत्तूण बच्चामि नेमितियनिद्दिट्ठम्मि तित्थे, तात्तासमओ वि समीववेत्ती वट्टा, धूयावरो १ पवन नयः ॥ २ 'धेओ पु प्र. ॥ ३ स्तोकायुष्कत्येन ॥ ४ हरिष्यते ॥ ५ वत्थी न वह सं० । "वत्ती न वह प्र० ॥ F ॥३०८॥ MARCHSLOGANSARKA4%ACKASKAR ASCIENA एगया य विजयधम्मरम्रो अस्थाणीमंडवासीणस्स विन्मत्तं नाणगब्भाभिहाणनेमित्तिएण-देव ! जायाई केच्चिराणि वि दुनिमित्ताणि, संभाविजह य तबसेण जर-सास-कासाइरोगेहिं लोगाण पीड ति । राइणा भणियं-केत्तियदिवसाणि पुण एवंविहाणिट्ठघडण ? त्ति । नेमित्तिएण भणियं-देव ! आगमिस्समयणतेरसिं जाव त्ति । 'किं पुण कायवमियाणि ? विसमो देवपरिणामो, दूरवत्तिणी मयणतेरसी, होयश्वमणेगखयंतिएणं' ति बाढं विसनो भूवई । पवड्डमाणरणरणयवियारो य विसजियासेसअत्थाणलोगो जणोवयारनिमित्तमुवायमवलोइउं पवत्तो । विमूढमहत्तणेण य सयमुवायमपेच्छमाणेण रमा वाहराविओ जयसुंदरो मंती, सिट्ठो से पत्थुयत्थो । तेण वि परिणामियमइकुसलयाए निच्छिऊण जंपियंदेव ! एयपक्खस्स चेव तेरसीए 'सा एसा मयणतेरसि' ति उग्घोसाविऊण नयरे अकाले चिय ऊसवो पयट्टाविजउ, जेण दुनिमित्तसीमसंपाडणेण जणाण कल्लाणं हवइति । 'जुतिजुत्तमुत्तमेयं ति उबवूहिओ एसो राइणा । कहाविओ य अकाले चिय मयणतेरसीमहसवो नयरलोयस्स । पारद्धा मयरद्धयमंदिरे जत्ता, पयट्टा नयरसोभा, उन्मविया विजयद्धया, वियंभियाई चच्चरीगणतालाउलाई पुरविलासिणीकुलाई, अयालंदोलयकेलीकोऊहलवडिउच्छाहा उवट्ठिया पुरजुवाणा, नियनियविभवाणुरूवकरि-तुरग-जाण-जंपाणपमुहवाहणारूढा कयालंकारपरिग्गहा नीहरिया पुरपहाणपुरिसा। एत्थंतरे सेट्ठिसुओ वि पवणंजओ अकालपयट्टियमयणमहूसवालोयणत्थमुत्तम्ममाणमणो पिउणा विसजितो संतो रहवरमारुहिऊण निसियकरवाल[कर]किंकरनियरपरियरिओ पट्टिओ उजाणजत्ताए । जाव य नयरगोउरादूरदेसमणुपत्तो ताव १ रणरणक:-योदः ॥ २ प्रस्तुतार्थः ॥ ३ युक्तियुक्तम् उक्तम् एतत् ॥ ४ अध्यकताः ॥ ५२ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरइओ कहारयणकोसो।। विसेसगुणाहिगारो ॥३०९॥ देशावकाशिकवते पवनञ्जयकथानकम् ४३। दीसंतकंतसत्वंगचंगलायननयण-मुहसोहो । संपर मह धृयाए गेहसिरीए य होउ पई ॥ ११ ॥ एवं च निच्छिऊण बाहराविओ जोइसिओ, निरूवावियं पाणिग्गहणजोग्गं लग्गं, अकालपरिहीणं पत्तं तयं । ततो समागए समए महाविभूइसमुदएण महुमहेण व लच्छी परिणीया मणोरमा पत्रणंजएण । 'कयकिच्चो त्ति परं परितोसमुवागतो सत्थवाहो । अह समइकतेसु केचिरेसु वि दिणेसु कीणासओ व उवट्टिओ संस्थाहस्स तिबो सिरोवेयणावियारो । जाया सवंगिया अरई । ततो विणिच्छियासबागयमरणो मत्थाहो सर्व धण-कणगाइपरिग्गरं समप्पिऊण पवणंजयस्स सप्पणय पयंपिउ पवत्तो वच्छ ! तुह मुणियसमयाणुरूवकिच्चस्स किच्चपरिकणं । सिसिरीकरणं पिब ससहरस्स दूरं जद वि विहलं ॥१॥ तह वि गरुयाणुराएण किं पि जंपेमि अवहिओ सुणसु । धूया लच्छी य इमा समप्पिओ परियणो य तुहं ॥ २ ॥ तह कह वि हु बडेजसु इमेसु जह संभरति नो मज्झ । वइदेसियस पासे किमनमिइ हसइ न जणो वि ॥३॥ अम्हे वि वच्छ ! संपइ तिन्नि व चउरो व वासराई परं । इत्थ थिरा जमदुई उवट्टिया सीसवियणा जं ॥४॥ पवणंजएण भणिय ताय ! क्रिमेवं तेमाउलो होसि ? | तह काहमोसहाईहिं जह लहुं होसि नीरोगो ॥५ ॥ सत्थाहिवेण भणियं धम्मो चिय वच्छ ! ओसहमियाणि । सको वि न सकह दाउमाउयं तुजीयस्स ॥ ६ ॥ १ 'गचंगभंगला सं० । 'गभंगला प्र० ॥ २ 'णसुहबोहो प्र० ॥ ३ कृष्णनेत्यर्थः ॥ ४ सत्ताह सं० ॥ ५ पत्थ स्थित जमहई प्र० ॥ ६ त्वम् आकुलः ॥ ७ करिष्यामि औषधादिभिः ॥ ८ अटितजीवितस्य ।। ॥३०९॥ %AMACHAKARARIAHARACANCHEKANKAR +SONARIEDOMARALA%ARARIANS RSONSOONAGARIKAARONLt इय नियकुलकमागयपजंतविहाणमायरिय सम्मं । पुत्वनिदंसियसमए जाए सो मरणमणुपत्तो अह बजवडणाइरेगदुक्खमिञ्जमाणमाणसेण पवर्णजएण से कयं पारलोइयकायवं, कह कह वि निवारिया य रुयंती पिईसोगनिम्भरा मणोरमा, नियनियकिच्चेसु निउत्तो सेवगवग्गो, विगमियाई तत्थेव कइयवि दिवसाई, गहियाणि य नियदेमपाउग्गाणि महरिहपणियाणि । आइक्खिऊण मणोरमाए पुरओ पुत्ववइयरं दवावियं पयाणयं । अनन्ननयरेसु य विणिवतो पुत्वभंडं गिम्हंतो य अपुर्व गओ सो नियनयरसमीवं । 'आय-वयविसुद्धाओ अजियाओ दोनि सुवनकोडीओ' त्ति संतोसमुबहतो जाणावियनियागमणवृत्तंतो पविट्ठो महया रिद्धिसमुदएण नयरम्मि । परितुट्ठो सयणवग्गो। दवावियं महया पचंधेण अट्ठ दिणाई जाव अणिवारियं दीणा-ऽणाहमहादाणं । सलहिओ रायपुरस्सरेण पुरजणेणं । सो विबीओ सिद्विसुओ गओ उत्तरावह। पारद्धा दवजणोवाया। अत्थाभावे अत्था निउणेण वि अजिउं न तीरंति । कुसलो वि कुलालो किं व कुणउ मिउंपिंडविरहेण ? ॥१॥ तह वि हु महाविमद्देण अजिया पंच दीणारसहस्सा । 'समीववत्तिणी मयणतेरसि' ति तद्देसवत्तिणो सहाइणो घेतण पडिनियत्तो नियनयराभिमुहं । नयरसमीवागयस्स य रयणीए सुहपसुत्तस्स सबस्सं सबमादाय पलाणा सहाहणो । पच्छिमपहरविउद्धो य परमं निग्गंथरूवयमवलोइऊण 'हा ! मुट्ठो सहाइजणेणं' ति विसनो चिनेणं 'पच्छाहुत्त नियत्तामि ? सघरं । १ पजपतनातिरेकदुःखद्यमानमानसेन ॥ २ आख्याय ॥ ३ "रतो पु* प्र० ॥ ४ वट्टियं पुत्रं ॥ ५ गतो सो प्र०॥ ६ सेट्टि प्र.॥ ७ गृस्पिष्टविरहेण ॥ ८ महापरिश्रमेण ॥ १. पद्यान्मुखम् ॥ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देशावकाशिकवते पवनञ्जयकथानकम् ४३। देवभहसरि-मावा वचामि ?' ति संसयावन्नो वि 'जइ पुण पवणंजओ वि एवं विहवसणग्घत्थो भविस्सई' त्ति धरियचित्तावट्ठभो पविट्ठो रयविरइओ णीए नियघरं । दिह्रो जणगाइजणो । पच्छचनिसिपवेस-मुहच्छायाइणा मुणियतम्मज्झेण वि पिउणा पुच्छिओ परिभमणवत्तं । खलियक्खराए पसरंतमन्नुभरनिब्भराए वाणीए । तह तेणुत्ता बत्ता जहा पिआ सोगिओ भणइ कहारयणवच्छ ! अविभावियाणं कजाणं नूण कीरमाणाणं । एस च्चिय होइ गई संतप्पेजासि मा एत्तो ॥ २ ॥ कोसो।। तेणेव बुद्धिमता मंतं पिव चित्तवित्तिमवि दु । गोचिंति न बिंति न जंति विकिय माणमलणे वि ।।३।। विसेसगु अइरहसवसारंभियविहडियकजस्स माणिणो गरुयं । हिययंतो सल्लं पिव न समइ दुक्खं खुडुकंतं ॥ ४ ॥ माहिगारो। वच्छ ! बरं मरणं चिय पढमं चिय अहव जम्मणाभावो । भावे वा इत्थितं मा माणविहंडणा एवं ॥ ५ ॥ ॥३१॥ तेणं पयंपियं ताय ! किं पृण एत्तो वि जुञ्जए काउं? । जइ दूरमणुचियमिमं ता पुण बच्चामि अन्नत्थ ॥६॥ पिउणा वुत्तं हो! होउ इण्हि निहुयत्तमायरसु मुंच । कुबियप्पजालमफलं चुज्झसु नियकम्मपरिणामं ॥७॥ एवं खुत्तेण य तेण 'दिवमत्थए सिविऊणावमाणपयं, महामुणिणे व सवंसहत्तं पडिवजिय, सो रहो रयणिवलेणेव गोउरपञ्चासनपएसपुवमुक्को परियत्तिऊण नीओ नियघरे । बीयदिणे वित्थरियतकरावहरियधणाइवचानिसामणेणं सो हसिओ १णत्थो सं० । एवंविधव्यसनग्रस्तः ॥ २ णवुत्तं प्र० ॥ ३ पिओ सो सं० ॥ ४ 'द्धिमन्ता मन्तं पिव प्र० ॥ ५ विक्रियां मानमर्दनेऽपि ॥ ६ न शाम्यति दुःसं सटरकुर्वत् ॥ ७दा हो सं०। भो ! भवतु इदानीं निशतवमाचर ॥ ८ देख प्र. ॥ ९ "णिणो व्य प्र० ॥ १० परावृत्य ॥ ११ "रिया तकरावहरियषणाइवत्ता । तन्निसाम प्र० ॥ *SARILAR ॥३१॥ XMARAHAR वि तत्थेव संभविहि ति । सवसंवाहं काऊण तित्थजत्ताववएसेण गतो सो तत्थ । पत्थावे य पयवा जत्ता । सो वि पवणंजओ तं कालं हेच्छमागच्छतो न मुणइ मग्गामग्गं बुज्झइ य न भौविरं महालाभं । जइ वि न पचभिजाणइ तइसनिवासिलोगं च ॥१॥ तह वि चिरञ्जियसुहकम्मभिच्चदंसिञ्जमाणमग्गो छ । सुस्सउणहरिसियमणो कमेण तं तित्थमणुपत्तो ॥ २ ॥ जइ वि न चक्खु पि हु खिवइ अनदेवेसु मोत्तु जिणमेकं । कोऊहलेण तह वि हु तेब्भवणं पेहए जाव ॥३॥ ताव महप्पा बहुलोयवयणपेहणवसेण वक्खित्तो । सो सस्थाहो अविभाविऊण भुवि मुक्ककमकमलो ॥ ४ ॥ पंक्खुलिऊण पडतो धरिओ पवणंजएण सकरेण । अइदक्खयाए करुणाभरनिभरभरियहियएण ॥ ५ ॥ हूं एसो सो त्ति विभाविरेण हरिमुल्लसंतवयणेण | सत्थाहिवेण नीतो निययावासम्मि सो तत्तो ॥ ६॥ गोरेवसारं भुंजाविऊण पुट्ठो य वच्छ ! कत्तो तं ? । किं वा तुज्झं नाम ? आगमणं किंनिमित्तं च ॥७॥ तेणं पयंपियं कोउगेण देसावलोयणणिमित्तं । आओ म्हि कलिंगाओ नाम पवणंजओ य ममं ॥८॥ तो नेमित्तियनिद्दिट्टवयणसंवाइणी गिरं सोचा । निरुवमरूयसिरिं पिहु पलोइउं जायपरितोसो सो एस कप्परुक्खो स एस पउमो महानिही सक्खा । सो एस गेहचिंतागरुयभरुद्धरणधोरेओ ॥ १० ॥ १शीघ्रम् ॥ २ भवितारम् ॥ ३ तद्वचनं प्रेक्षत ॥४पक्वि ' खं० प्र० । व्याक्षिप्तः ॥ ५ पृथ्व्याम् ॥ ६ प्रस्खल्य ॥ ७ स्वकरण ।। ८ विभावयित्रा ॥ ९ गौरवसारम् ॥ १० आयातोऽस्मि ॥ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव मद्दरि - विरइओ कहारयण कोसो || बिसेसगुमाहिगारो । ॥३११॥ অর तेणेव पइदिणं पि हु पञ्चक्खाणं पवजमाणेण । भोगोवभोगपमुहं उच्चारिजइ गुरुसमक्खं नवरं इह पडिवन्ने दुविहं तिविहेण परमसद्धाए । तविरइसुद्धिहेउं अइयारे बजई पंच ॥ ३ ॥ ॥ ४ ॥ ताहि॥५॥ ॥ ६ ॥ वजह इह आणयणप्पओग-पेसप्पओगयं चेव । सहाणुरूववायं तह बहिया पोग्गलक्खेवं नियमियखेत्ताउ बर्हि वत्थाईवत्थूणो हि आणवणे । तदेसजाईणो पेसपेसणेणावि अइयारो अहव विवक्खियंखेत्तस्स बाहि पुरिसस्स जौणवणहेउं । सदं हि कासियाई पयडंतस्स वि य नियरूवं लेडुगमाईपोग्गलमहवा तस्सम्बुद्धं खिवंतस्स । वयसावेक्खत्तणओ अइयारो वयपवन्नस्स तस्स हि अयं वियप्पो नाहं नियमियदिसबहिं जामि। न य वाहरामि एयं च कह महं संभव दोसो ? पढमं अइयारदुगं विमूढबुद्धित्तणेण अवसेयं । सहसा ऽणाभोगाईभावाओ वा विविय उत्तरमइयारतिगं तु नियँडिवाविद्धबुद्धिदोसेणं । बोधनमन्नहा पुण भंगो थिय गहियनियमस्स दिसिवयसंखेवम्मि य आणयणाई उ होंति अइयारा । बंधाईया र्पुण वहनिवित्तिपमुहाण संखेवे 11 8 11 11 20 11 ॥ ११ ॥ १२ ॥ ॥ १३ ॥ १४ ॥ देसावगासियम् इत्थं परमत्थमाहु मृणिवसभा । तावच्छ ! घराउ बहिं परिभ्रमणं अज वजाहि ॥ जइ वि हु मुणिणो इहई न संति तह बिहु जिविंदपुरओ तं । गिण्हसु पञ्चक्खाणं न गिहाउ बहिं मिस्सं ति ॥ १ इणा पे खं० तद्देशयायिनः ॥ २ 'यत्ति प्र० ॥ ३ ज्ञापनार्थमित्यर्थः ॥ ४ सावहं जा" सं० ॥ ५ निकृतिव्याविद्धबुद्धिदोषेण । निकृति:-माया ॥ ६ पुण पुचिया य संखेवकरणम्मि प्र० ॥ ७ श्रमिष्यामि इति ॥ || 61 || ॥ ८ ॥ जोवणविन्भमवसओ जइ वि हु तवासणा न से सम्मं । तह वि हु तह चि विहियं तेणं पिउणोऽणुवित्तीय ॥ १५ ॥ एवं चिय पवणंजओ भवणवहियाविहारपरिहारपरायणो पिउणो चैव सज्झायं कुणंतस्स समीवडिओ संलीणो जाव चिट्ठह ताव उबागओ पुत्रपर्वचियसरूवो गिहदासीसुओ, भणिउं पवत्तो य-भो पवणंजय ! अज य इंदजालियविजावियक्खणो सहस्सक्खो नाम उवज्झाओ उवागओ, तेण य नीसेसपुरपहाणजण पत्थिएण इंदजालं दंसिउमारद्धं तदवलोयणस्थं च तुज्झ वाहरगो पुरिसो दुवारे चिट्ठा त्ति । अह पवणंजरण पडिवन्नदेसावगासिएण अदिन्नपच्चुत्तरो भणिओ सेट्टिणीए वच्छ सेहरग ! तुममेव पवणंजय नेवच्छे काऊण कहवयपुरिससहिओ वचसु ति, तुलसरूवत्तणेण न कोइ मम पुत्तस्स अणागमणं संकिहि ति । 'तह' त्ति पडिवजिय सविसेसमणहरसिंगारियसरीरो पुरिसपेयालपरिक्खित्तो पवणंजओ व सक्खा विरायमाणो गओ इंदयालियसमीवं, आसीणो य महायणमज्झे । संज्झासमओ य तकालं वट्ट ति वित्थरिया रयणीरयणायरवेल व तिमिरावली, चटुलकल्लोलख व वित्थरिया सउणी कुलकोलाहल निनाया, परमपयरिसमणुपत्तो य पेच्छणय महसवो । एत्यंतरे पुवाणुसय मुहंतेण य गंरुयकोवसंरंभनिन्नट्टदि डिविसिवावारेण 'सो एस पवणंजओ' त्ति मन्त्रमाणेण सागरेण निकिवे किवाणीघारण विणिवाइओ सेहरओ गओ तबेलं चिय पंचतं । 'हा हा हओ पवणंजओ' त्ति कओ कोलाहलो । संखुद्धो ईयरो न सकिओ पलाइउं । एतो तलवरपुरिसेहिं उवणीओ राइणो । 'पभाए सुनिच्छिऊण जहोचियं काय' ति रनो वयणेण निरुद्धो चारगागारम्मि । वाहावियं च एयं केणइ सेट्टिणो वर्णजयस्स आवस्सयाइधम्मकअट्ठियस्स । १ गुरुककोपसंरम्भनिष्टदृष्टिविशिष्ट व्यापारेण ॥ २ निष्कृपकृपाणीघातेन ॥ ३ 'इतर' सागर इत्यर्थः ॥ ४ पूत्कृतम् । देशावका शिकवते पवनञ्जय: कथानकम् ४३ । ॥३१९॥ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दरिविरइओ कहारयणकोसो ।। विसेसगुणाहिगारो देशावकाशिकवते पवनञ्जयकथानकम् ४३। SHRIRAXNXNash 'मह समीवडिओ वि कहं [कयभवणबाहिरविहारपरिहारो सुओ हो? ति विम्हिओ सेट्ठी । 'हूं नायं, सो बरागो सेहरओ संभाविजइ, सारिस्सविप्पलद्धो य मुद्धो एसो एवमुल्लवई' ति । एवं च जाव सो परिमावेइ ताव आगओ एगो पुरिसो । सिटुं च तेण जहट्ठियं सच्चमवि जहावित्तं । मुणियबहरकारणो विसनो सेट्ठी-ही! कहं कसायपिसाययारद्धा अकञ्जमज्झवसंति जंतुणो ? होउ किं पि, जो मओ सो मओ चेव, संपइ कहमेसो दिन्नसिट्टिसुओ अवस्समुवडियमचू मोइयो ? ति । पवणंजएण भणियंताय ! सबस्सदाणेण वि मोयावइस्सामि, उज्झसु संतावं ति । अह जायम्मि पभाए, कयम्मि सेहरयपारलोइयकायचम्मि, तरुलंबणस्थं चालिए सागरे, महरिहपाहुडहत्थी पवणंजओ गओ रनो समीवं । दावियपाहुडो य पायवडिओ विनविउं पंवत्तो-देव ! मह जीवियसबस्सगहणेण वि एसो मोत्तयो, भाइतुल्लो खु एस, किन्न पभवइ ऐयतिमित्तस्स । तग्गाढोबरोहेण मुको रना, तरुलंचणभूमीओ नियत्ताविऊण ★ा पेसिओ नियपरं सागरो । तओ सलहिअंतो पुरजणेण, अग्घविजंतो तम्माइ-पिहपमुहलोगेण गओ पवणंजओ नियघरं । 'किं रे ! विहियं '' ति संभासिओ पिउणा । तेण साहिओ वुत्तो। तुट्ठो पिया, भणिउं पवत्तो य निहए अबयारिम्मि सच्चा बि हु सक्कहा गया निहणं । उवयारमारिए पुण सुचिरं साऽवट्ठिया चेव ॥१॥ ता बच्छ ! सुंदरमिमं तुमए कयमप्पणो कुलस्सुचियं । एवं चिय धम्मस्स वि परमं लिंगं वयंति विऊ ॥२॥ पवणंजएण भणियं तुह पायपसायविलसियं एयं । इहरा सेहरओ विव अञ्जेवाहं निहणमिन्तो ॥३॥ १ सेट्टि प्र० ॥ २ मोचयिष्यामि ॥ ३ महारि' प्र. ॥ ४ पयत्तो प्र० ॥ ५ एतावन्मात्रस्य ॥ ६ यारम्मि ख. प्र. ॥ ॥३१२॥ ॥३१२॥ XPRERAKARSHAN+8 दुञ्जणेहिं, 'ही ! अजुत्तं जायं जमेवंविहकिलेसभायण भूओ इमो' ति सोइओ साहू हिं, 'वच्छ ! मा भुओ एवं काहिसि' ति सिक्खविओ कुलबुड्ढहिं, 'गरुयाण चडण-पडणं' ति थिरीकओ गुरूहिं । इयरो वि सव्वत्थ वित्थरियकित्तिपन्भारो पत्ते मयणतेरसीमहसवे अखलियपसरं रहमारुहिऊणं भमिओ जहिच्छाए । [एवं ] वर्चति वासरा। नवरं जह जह पवर्णजयस्स चाग-भोगाइगुणगणं सागरो गिजमाणं निसामेइ तह तह चित्तभंतरुरुभवंततिव्बामरिसो चिंतेइ-किं तं दिणं होही जत्थ सहत्थेण मए एस ईतब्बो ? । इमिण चिय अज्झवसाणेण परिचत्ता अणेण वत्था-ऽलंकारपरिग्गह-नेवच्छवंछा, उझिओ वयस्सेहिं समं पणयालावो । अणवस्यं 'कहिं गओ कहि ठिओ कहिं आसीणो पवणंजउ ?' त्ति परिभावितो अच्छह ति । अनम्मि य समए जायं चाउम्मासियदिणं । तहिं च धणंजयसेट्ठिणा कया विसेसओ देवपूया, पडिवमो तवोविसेसो, पच्चक्खाओ सावअगेहवावारो। पवणंजओ वि भणिओ-बच्छ ! विसेसधम्मकिच्चदिवसं अज, ता देववंदणाइणा सविसेसदेसावगासियपहाणपचक्खाणकरणेण य उअमिउं जुञ्जह। पवणंजएण भणियं-ताय ! किंसरूवमिमं देसावगासियं भन्न? । सेट्टिणा भणियं-निसामेहिदेसावगासियवयं चिर-दीहदिसापमाणसंखेवो । उवलक्खणं च एवं पाणवहाईवयाणं पि ॥१ ॥ पुर्व एगविहाईभंगेहि वयाई जाई गहियाई । संखिवइ दुविहतिविहाइमेयओ ताई पुण एत्थं ॥ २ ॥ १ पाणिव प्र०॥ २ ताणि प्र० ॥ देशावकाशिकव्रतस्थ स्वरूपं तदतिचाराम Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमदसारिविरइओ पौषधवते ब्रह्मदेवकथानकम् ४४। कदारयणकोसो॥ विसेसगुबाहिगारो। ॥३१३॥ पौषधस्य स्वरूपम् कम्ममहावाहिविणासणोसह पोसह विणा विरई। हवह न संपुमा तेण तवयं इण्डि किमि ॥ १ ॥ आहाराईचांगा पोसेह समग्गकुसलजोगं जं । तं पोसई जहत्थं जपंति परं गुणहाणं ॥ २ ॥ समणत्तणभवणारोहणम्मि पढम इमं च सोवाणं । अइचंडमणहुयासणपसमणघणपाउसारंभो ॥ ३ ॥ आलाणत्थंभो तह जहिच्छसंचरणकायवणकरिणो । दुद्दन्तिदियकेसरिसरहससरमाणगुरुसरहो वेरडो य कुगईकूवयनिवडियसत्ताण नूणमुद्धरणे । वरणे य सिववहूए नवगहबलमणहरं लग्गं ॥५ ॥ दुबाराविरइमहाभुयंगमुप्पीलगिलणगरुडोऽयं । पोसहवयविसेसो सेसो इव गुणधराधरणे पंचाणुबइयं को वि कह बि गिण्हइ वयं न उण एयं । पडिपुग्नं काउमलं मलक्खयस्संतरेण दद एयम्मि निचलमणो जीवो दुहनिवहभायणं न भवे । इह-परभवे य इत्थं दिटुंतो बंभदेवो ति ॥८ ॥ तथाहि-अस्थि समत्थकासीविसयविसेसेयभूया, तिहुयणसुप्पयासपासजम्ममहसवपावियमाहप्पाइसया, सयाए परमसहीए समद्भासिया सिद्धसरियाए, कणयरहमहारायभुयपरिहरक्खिया वाणारसी नाम नयरी । १ तद्वतम् ॥ २ 'चागो पो : पं० प्र० । आहारादित्यागात् ॥ ३ श्रमणत्वभवनारोहणे प्रथम मिदं च सोपानम् । अतिचण्डमनोहुताशनप्रशममधनप्राडारम्भः ॥ ४ आलानस्तम्भस्तथा यथेच्छसबरणकायवनकरिणः । दुदन्तेिन्द्रियकेशरिसरभवसरहरुशरभः ॥ ५ बरहो य सं० प्र० । वरना च, परेड दोरई इति भाषायाम् ॥ ६ "गयकू सं० ॥ ७ दुर्वाराविरतिमहाभुजङ्गमसमूहगिलन गरुडोऽयम् ॥ ८ 'मलक्षयस्य अन्तरेण' पौपचमतावारकस्य कर्मणः क्षयं चिनेत्यर्थः ॥ ९ विशेषक-तिलकम् ॥ १० 'याइ प प्र. ॥ ११ "सिद्धसरिता' गानद्या 'समध्यासिता' शोभिता । ॥३१३॥ SANSPIRINAKARANORAKHANDRAKAREKASIRSARKARSA जिणपायपवित्ताए जीए गो-विप्पघायपावस्स । मन्ने सुद्धिनिमित्तं दाओ विहु जणो एड ॥१ ॥ तीए नयरीए वत्थवो लोगट्टिईकुसलो दया-दक्खिाइगुणाणुगओ बंभदेवो नाम पणिओ, सुजसा से भञ्जा । तिवग्गाणुकूलवित्तीए बढुंतो य सो एगया नयरीए परिसरं गओ पेच्छह एग कमलदलच्छ सुतवर्सिस समीवोवगयकइवयनराण धम्ममाइक्खमाणं । जहा जावऽज वि न पवजह सेलेर्सि एस निच्छियं जीवो । ता उज्झइ नाऽऽहारं परिहरइ न ताव किरियं पि ॥१॥ तम्मूलमणेगाई कम्माइमणेगहा समारभइ । तेप्पचयं च बंधइ अट्ठ वि कम्माण पयडीओ ॥२ ॥ हस्सडिईउ दीहडिईउ मंदाणुभावजुत्ताओ । तिवणुभावाउ करेइ जण परम पएसग्गं ॥३ ॥ इय निबिडकम्मपयडीपेडयपहुघडियकम्मगसरीरो । ओदारियाइदेहंतराई अणुसरइ अविराम ॥४॥ ताण पुण पीणणथं जीववहाईणि पावठाणाणि । अविगेणियमाविरभओ पइक्खणं चिय समारभइ पइदियहण्हाण-मण्डण-विलेवणा-ऽऽहरणवद्धपडिबंधो । मचो वि जए नऽनो धन्नो रूवि त्ति चिंतेइ अभिलसइ य अणवरयं मयंकबिंबाणगाउ तरुणीओ। अइदुकरेसु वि दढं वावारेसुं पया य आहारमूलमेवं सरीरसकारपमुहकाया । सबं विभाविऊणं धना एत्तो विरजति ॥८ ॥ अइपवरपाण-भोयणसंपत्तीए वि पुनकम्माणो । पिइधणियबद्धकच्छा आहार नामिनंदंति ॥ ९ ॥ १ "मायर प्र० ॥ २ 'सरप्रस्थ तबेतुकम् ॥ ३ "सातो प्र०॥ ४ करे जणेइ प्र.॥ ५ अविगणितमपितृभयः ॥ ६ प्रतिवद्धकच्छाः ॥ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R देवभइसरि-४ विरो कहारवणकोसो॥ विसेसगुपाहिगारो। ॥३१४॥ पौषधवते ब्रह्मदेवकथानकम् ४४। तविरेया देहं पि हु कम्मयरं पिव सहाइकोण । पालिंति धम्मकम्मं न विणा एवं ति मनंता ॥ १० ॥ विसयवासंगभवामिणदिगिहकअचिंतणं रे । लोगपहाइकतो अहो ! सिवत्थीण वावारो ॥११॥ एवं गंभीरपयत्थगोयराए गिराए सासितं । साहुं विम्हियहियओ स भदेवो इमं भणइ ॥ १२ ॥ भय । असकणुट्ठाणमेयमाइट्ठमिह गिहत्थाणं । आहाराईपभवा जेसिं सब चिय पवित्ती ॥ १३ ॥ साहुणा भणियं-महायस! कीस एवमुल्लव सि ? संति ते के वि गुणुत्तरा गिहिणो जेसिं संभवइ धम्मदिणेसु एवंविहा विणिवित्ती । बभदेवेण भणियं-कहमेवं ? । साहुणा बुचं-निसामेसु, अस्थि गिहत्थधम्मं पडुच्च तइयं पोसहं ति सिक्खावयं, तं च चउहा आहारचागविसय १ सरीरसकारचागरूवं च २ । तह बंभचेरगोयर ३ मवरं वावारविरहगयं ४ देसे सो य दुहा एकेकमिमं गुरू परूवेति । नवरं चरमेऽवस्सं सामइयं किच्चमासु ॥ २ ॥ पढमम्मि पोसहे देसओ उ परिहरइ किं पि आहारं । एगयरं सच्चे पुण सर्व पि हु उज्झइ तयं तु ॥३ ॥ व्हाणुबट्टणमाईणमेगमुज्झइ य देसओ बीए । सच्चे पुण सवं पि हु परिहरद सरीरसत्कार तहए वि देसओ निसि दिवा व परिहरइ मेहुणपवित्तिं । सवम्मि सवओ पुण तं वजह जा अहोरतं तुरिए वि देसओ एगमेव बजेह किं पि वावारं । किसिकम्माईणं सर्वओ वि सर्व परिचयइ १ रहा दे ख० ॥२ ब्वतो वि प्र० ॥ पौषधप्रतस्य स्वरूपं तदतिचाराश्च ॥३१४॥ RRRERAKAKKAROKARINAKARA%A6ARRRRRRESS SHAHARARIANRAKHANAKARRAKS देशावकाशिकस्व माहात्म्यम् पिउणा वुत्तं पुत्तय ! एस पसाओ जिर्णिदधम्मस्स । उवरोहकओ वि इमो जमेरिसिं सुहसिरिं जणइ ॥४॥ न य वच्छ! एस अप्पा अणप्पकुवियप्पपवणखिप्पतो। तीरइ पडिखलिउमलं अजंतिओ वयवरत्ताए ॥५॥ अपि च आलानवन्धविकलबटुलः करीव, दुष्टश्च मर्कट इव च्युतकण्ठरज्जुः । उच्छलः खल इवाऽऽप्तवचोऽवकाशो, बाजीव वा विगलितोभयपादबन्धः ॥१ ॥ किं नो निरस्यति ? न हन्ति ? न वा दुनोति ?, भुते ? भनक्ति न च किं ? न च कुत्र याति ? | देशावकाशविषयव्रतवन्ध्यचित्तो, दुष्कर्म किं न यदि वा विदधाति सच्चः? ॥२॥ युग्मम् कुयुः करिप्रभृतयः प्रचुरप्रचाराः, सन्तोऽप्यमुत्र भव एव कमप्यनर्थम् । नियन्त्रणः पुनरनन्तभवबन्धसंवर्द्धिकामशुभपद्धतिमाचिनोति इति दृष्टगुणेऽप्यस्मिन् प्रमादबुद्धिर्न युज्यते सुधियः। न हि दृष्टेवीर्यमौषधमुज्झन् रोगी भवत्यरुजः ॥४॥ ॥ इति श्रीकथारत्नकोशे शिक्षाव्रतविचारणायां देशावकाशिकविषये पवनञ्जयकथानकं समाप्तम् ।। ४३॥ १ अयन्त्रितः प्रतवरत्रया ॥ २ च किश्च न कु* सं०॥ ३ 'चुराः प्र प्र. ॥ ४'प्रपञ्चसं प्र०॥ ५ 'धैर्य सं० ॥ ५. Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमहरिविरइओ | कहारयण-3 कोसो॥ बिसेसगुमाहिगारो। ॥३१॥ पौषधव्रते ब्रह्मदेवकथानकम् ४४ । पोसहेण'-न्ति जपतो तुरियपयपक्खेवं सगिहं पडुच बचतो धरिओ बंभदेवेण, भगिओ य-भो महायस ! को एस धम्मस्थिणो वि तुज्झ वयणविभासो ? किं वा अजुत्तत्तणं पोसहविहाणस्स ! त्ति । 'किं तुह भूरिवियारेणं १' ति पञ्चुत्तरं दितो चला चेव गओ सो सगिह । 'अहो किमेयं पेऊसवरिससारं पि धम्मकम्मोवएसं अवगन्निऊण पलाणो एसो ?' ति बंभदेवेण पुच्छिओ मुणी । तेणावि सुयनाणोवओगबलवियाणियकञ्जमज्झेण भणियं-निसामेसु कारणं अयं खेमंकरो एत्तो तझ्यभवे कोसंबीए पुरीए वत्थबो आसि । एगया य तनयरनिवासिणो जिणदेवसावयस्स कणिद्रभाउसंकामियकदंबचिन्तस्स परिहरियसबसावजजोगस्स गिहसमीवनिवेसियपोसहसालासमारद्धविसद्धतवस्स अणिचाहुभावणाचिंतणसविसेसविसुज्झमाणस्स तकालकयपोसहस्स कहं पि कम्मलाघवयाए आणंदसावयस्सेव समुप्प ओहिनाणं । तम्माइप्पेण करयलकलिय मोलाहलं व रयणप्पहपुढवीपज्जवसाणं लोगखंडमवलोयंतस्स पच्चूसे चिय पायरहणं काउनुवागओ कणिट्ठभाया । कयपायवडणो य करुणाए भणिओ अणेणं-बच्छ! एत्तो दिणाओ दसमदिवसे सम्मुग्गमते दिवसयरबिम्बे तुम पाणञ्चायं करिस्ससि, ता भद्द ! तह कह चि उजओ हवेजासि जह न विष्फलत्तणमुवेइ मणुयजम्मो, न निस्सारतणसुवगच्छह चिरकालपालिओ जीवदयाइधम्मो, न दूरमोसरह भुजो बोहिलाभो त्ति । 'अहो! महाइसयनाणि' ति निवियप्पो 'तह ति पडिवजिऊण स महप्पा तवयणं पुत्तं गिहकुटुंबचिन्ताए ठवेड, चेइयपूयाइधम्मकिचं च निवत्तेइ । अह आलोयणखामणाइपजंताराहणविहिपवनो दावियासेसनयरनिवासिजणच्छरिओ चउबिहाहारपरिहारं काऊण दुरूढो तणसंथारए । १ 'त्वरितपदप्रक्षेपं' शीघ्रगत्या ॥ २ "रितो व प्र. ॥ ३ "च्छितो मु प्र. ४ "गतो क° प्र. ५ "णातो द' प्र. ॥ क्षेमकरस्थ पूर्वेभवकथानकम् RAKAKARAN ॥३१५॥ ASIC+SARKARYANA+KA+%* तहाविहं तबइयरं च ददृण लोगो को वि किं पि जंपिउं पवत्तो । जणमझगएण इमिणा खेमदेवेण तमऽसद्दहतेण भणियं जह वि हु सुट्ठ विगिटुं सुदुक्करं तवविसेसमायरइ । तह वि गिही न परेसिं जीविय-मरणे मुणिउमीसो ॥१॥ मुणिणो चिय एवंचिहविसुद्धनाणोवलम्भसामत्थं । दीसइ सुवइ य अओ कीस इमो ववसिओ एयं? ॥२॥ जइ से पोसहियगिहिस्स वयणमेयं हि अवितह होही । ता पोसहपडिबद्धं अहं पि अब्भुञ्जमं काहं ॥३॥ एवं कयसंकप्पम्मि तम्मि सहसा समुच्छलिओ गयणयले कंसाल-ताल-तिलिम-दुंदुही-भेरीभकारभासुरो सुरतूरनिनाओ । 'किमेयं ? ति समय-चमकारं उडिओ लोगो 'किं किमेयं ?' ति परोप्परं जंपिउं पबत्तो य । एत्थंतरे तद्देसागएण साहियमेगेण पुरिसण, जहा-एसो सो महप्पा जिणदेवनिवेइयमरणसमओ कणिट्ठभाया कयाणसणो सयमेव पंचनमोकारमुच्चरंतो समीयोवगयसुतवस्सिजणजणिजमाणभावपयरिसो कालगओ, तम्मरणविहाणाणंदिओ य सुरसंघाओ एत्थं महिमं कुणहति । 'अहो! दिवनाणाभोगहेउभूयं पोसह' ति जायनिच्छओ खेमदेवो सुगुरुसमीवे सम्ममवधारिऊण तबिहाणं आसाढचउम्मासए पडिवनपडिपुनपोसहो पोसहसालाए सुहभावणापरायणो ठाउं पवत्तो । नवरं परिणममाणम्मि वासरम्मि सुकुमारयाए सरीरस्स, दुस्सहत्तणेण छुहाइपरीसहाण, उदयओ य विरइआवारगकम्माण समुप्पना से छुहा, धम्माइरेगओ य पयट्टा पस्सेयजलाविलसरीरत्तणेण विचिगिच्छा, तकालोषगयगेहिणीसवियारवयणायन्त्रणवसेण य पाउम्भूया मयणवासणा, 'कीस गेहं नाविक्खसि ? ति गहिणीवावारणण य जाया गिहर्चिता। १ "दितो य प्र. ॥ २ "धातो प प्र० ॥ ३ धर्मातिरेकतः ॥ ४ 'चिकित्सा त खे० ॥ ५ "नावेक्ख प्र. ॥ SECREENAWAACASEARC4%A* Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरइओ कहारयण कोसो ॥ विसेसगुनाहिगारो । ॥३१६॥ অ*% *% एवं च पारद्धधम्मविरुद्ध किरिया विखुद्धचित्तेण तेण न सरियं थंडिलाईण पडिलेहणाइ किचं । केवलं 'कइया उग्गमिही मिहिरो ? कया य इत्थमित्थं च भोयणाइ का ?" ति चिंतंतो, लोयलज्जाए य बज्झवित्तीए पच्चक्खाण मखंडितो, निसाबसाणसमय समुप्पन्नातुच्छच्छुहा वियणोव कामियजीविओ मरिऊण वंतरेसु उववन्नो । तत्तो चुओ य एस खेमदेवो त्ति वणियपुत्तो संवृत्तो । पुवभवपोसह पश्चश्य मच्चुभावाओ य तन्नामुकित्तणुप्पन्नजाईसरणो भो बंभदेव ! तुमए सायरं धरिजमाणो वि पलाणोति । नियपावकम्मदुविलसियाणमविभाविऊणैमवराहं । रूसंति धम्मकिचाण ही ! महामोहविष्फुरिय ॥ ४ ॥ छ ॥ जं जम्मि देस-काले सुहं व असुहं व पाणिणा बद्धं । तं तम्मि चेव उदयं उदेह को कस्स इह दोसो ? विश्वसयसंभवे वि हु मूढा पावेसु उज्ज्ञ्जया बाढं । थेवे वि विग्वलेसे परम्मुहा धम्मकिचेसु धम्मत्थपयट्टाणं विग्धो विग्धयमेह निब्भतं । किंतु निकोइयकम्मुब्भवोऽयमेयं न बुज्झति यंभदेवेण भणियं भयवं ! को एयस्स दोसो १ अकलाणभायणत्तणमेवावरज्झइ, ता काऊण पसायं देह मे पवदिणे पडच पडिपुत्रपोसहवयं ति । तओ मुणिणा विभाविय जोग्गयं आरोत्रियं से पोसहवयं । निच्छिन्नभवन्नवं व अप्पाणं मन्नतो परमपरिओसपरिगओ गुरुणो अणुसासणं सिरसा पडिच्छिऊण गओ नियेगेहं । पइदिणपत्रतविमुज्झमाण सुहज्झवसाओ कालं बोलेइ । १ भानुः ॥ २ चुतो य प्र० ॥ ॥ ३ "ण अव प्र० ४ 'ग्घाइमे खं० ॥ ५ निकाचितकर्मोद्भवः ॥ ६ यहिं प्र० ॥ जो देसओ य वावारचागमायरइ सो न नियमेणं । सामाइयं पवज्जइ इयरे य करेह तं नियमा पडिपुन पोसहं साहुवसहि-चेइयघरेसु गिण्हेर । पोसहसालाए वा वि मुकमणि-कंचणाभरणो वाएइ पोत्थयं सो पढेइ वा झायई सुहज्झाणं । जह साहुगुणासत्तो करेमि किं मंदभग्गो हं १ एवं पवन पडिपुन पोसही पहवासरेसु गिट्टी । तन्निम्मलत्तहेउं अइयारे बजई पंच ॥ अप्प डि- दुप्पडिलेहिय- अपमञ्जिय- दुप्पमज्जियं च पिहो । सेज संथारं वा पासवणुच्चारभूमिं वा सेवं तस्सऽइयाश एए चउरो वि पोसहे चरिमे । एगो आहाराइसु सम्मं अणुपालणा विरहे सेज बसही भन्नइ संवारो पीट- फलगमाईओ । पयडत्थाओ जाणसु पासवणुच्चारभूमीओ तेसु न चक्खुक्खेवो जो तमऽपडिलेद्दियं बुद्धा बिन्ति । सम्मं न चक्खुखेवो जो दुप्पडिले हियं तं तु वत्थंचलाइणा पुण सेखाई पमञ्जणाविरहो । सम्ममपमज्जियं पुण तं चिय दुपमञ्जियं जाण ।। १ ।। ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ || 9 || || 2 || ॥ ९॥ १० ॥ तहाहि ॥ ११ ॥ ॥ १२ ॥ ॥ १३ ॥ ॥ १४ ॥ ।। १५ ।। ।। १६ ।। ॥ १७ ॥ ।। १८ ।। सम्मं जहागमं अणणुपालणं एवमाहु समयविऊ । किर पढमपोसहम्मि अस्थिरचित्तत्तणेण मिही अभिलसह किं पि आहारजाइयं अहब पारणादिवसे । तं सविसेसं कारेइ ही ! छुहाए किलन्तो ति बीए य पोसहम्मी सिंचह उबट्टई अहव देहं । तइयम्मि पोसहे पुण पत्थर कामे व भोगे वा तुरियम्मि पोसहम्मि वावारह किं पि गेहवावारे । एवमणाभोगाई भावाओ हुंति अइयारा एवं मुणिणा सप्पवचे पणीए पोसहविहाणे खेमंकरो नाम सावओ ईहा ऽपोहाइवससमासाइयजाईसरणो 'होउ, पतं ॥ १९ ॥ % % % पौषधयते ब्रह्मदेवकथानकम् ४४ । ॥३१६॥ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौषधव्रते ब्रह्मदेवकथानकम् देवमहसूरिस विरइओ कहारयणकोसो॥ विसेसगुमाहिगारो। ॥३१७॥ ता मा इहाणुरागं मणागमवि नूणमुबहेजासि । ईते जंते य बुहाण होज को एत्थ वामोहो? एयविवरीयरूवेसु चेव नाणाइएसु जत्तेण । कुण पडिचंधं जई मोक्खसोक्खयं सम्ममभिलससि ॥ ३॥ किं वा लोहिंति इमे मज्झ बरागा धणम्मि कयरागा । देहत्थे तदवत्थे परमत्थियधम्मरित्थम्मि ? ॥४॥ एवं च से विमुज्झमाणभावस्स अविचलसरूवयमवलोइऊण चिंतियं चोरेहिं-अहो ! पेच्छह एयस्स महाणुभावस्स धम्मनिचलत्तणं जमेवंविहसवस्सावहारे वि कीरंते अपुत्व च्चिय धम्मचिंता, अननसरिस चिय सुहभावणा, अप्पडिमो विवेगो, अननसरिसो लोभविजओ, अप्पडितुल्लो कुसलकम्माणुबंधो; अवरे अम्हारिसा महापावकारिणो वीसत्थघाइणो. परधणाईसु चेव अवहरणस्थमणवरयबद्धबुद्धिणो इत्थं वटुंति अणस्थेसु, न गणेति परलोय, न विभाविति इहलोए चिय अवाय, न पेहंति कुलकम ति । एवं परिभाषिताण य ताण जायं जाईसरणं । सरियचिरभवचरियचरण-सुयनाणा य पंचमुट्टियं लोयं काऊण देवयासमप्पियपत्तेयबुद्धाणुरूवोवगरणा संजमुञ्जोगमल्लीणा । एत्थंतरे य समुग्गयं तरणिमंडलं, पचक्खीभूयं दिसावलयं । अह अतकियमुणिवेसधारिणो ते पलोइऊण ज्झत्ति उज्झियासणो विम्यमपुवमुबईतो भदेवो ताण पाएसु पडिऊण जोडियपाणिसंपुडो सायरं भणिउं पवत्ती-भयवं! विसरिसमिम, कहं पढम परधणगहणपवित्तिपारंभो? कहमियाणिं सुमुणिजणाणुरूवपडिवत्ति? ति । तओ सिट्ठो तेहिं जहडिओ जाई १ "इ सोक्खमक्खयं प्र० ॥ २ लास्यन्ति' ग्रहीप्यन्ति ॥ ३ पारमार्थिकधर्मधने इत्यर्थः ॥ ४ देवतासमर्षितप्रत्येकबुद्धानुरूपोपकरणा: संयमोद्योगम् आलीना: ॥ ५ 'क्लीहूयं प्र० ॥ HOS NCR55A4% ASHAKAKARSANA ॥३१७॥ तस्करचतुकपूर्वभवसम्बन्धः सरणवुत्तो । विम्हइयमाणसेण पुच्छिया ते बंभदेवेण-भयवं ! किं पुण कारणं हीणकुलेसु तुम्ह उप्पत्ती १ धम्मसामग्गीविरहो य? । तेहिं भणियं-सावय ! निसामेसु वयं हि चउरो वि तुकमिणीए नयरीए केसवनामधेयस्स बंभणस्स सुया पुचकाले समुप्पत्रा । परोप्परगरुयसिणेहाणुबंधबंधुरबुद्धिणो खणं पि विओगमसहमाणा गिहे निवसामो त्ति । वच्चंते य काले परोक्खीभूएसु अम्मा-पिऊसु विओगसोगदुक्खमियदेहा कह पि रइमलभन्ता पट्टिया तिस्थजताए । मग्गे य वच्चंतेहिं छुहा-तण्हाइरेगकिलामियसरीरो दिडो कंठगयजीवो निचिट्ठो भूवढे पडिओ सुभद्दो नाम साहू। जायकरुणेहिं संवाहिओ जहोचियं असणाइणा उवयरिओ य सो अम्हेहिं । पैगुणीहूयसरीरेण तेण निवेदिओ असेसदुक्खरुक्खनिम्मूलणखमो अम्हाणं सव्वन्नुधम्मो । तदायत्रणे य पडिबुद्धा वयं, पडिवनं तयंतिए सामन्नं, निकलंकं च तं पालिउं पवत्ता । चिरकालं पज्जुवासियं गुरुकुलं, अहिगया केचिरा वि दुवालसंगी, अणुट्टिया दुरणुचरा तवोविसेसा । नवरं जाईमयवसओ उवज्जियं नीयगोयकम्मं । अकयतप्पडियारा य कालं काऊण चउरो वि अम्हे उववन्ना सोहम्मे । तत्तो चुया य पुखदुकम्मवसेण जिणधम्मविहीणा हीणकुलेसु एत्थमुववना । तुह असरिसगुणगणावलोयणुप्पन्नवेरग्गा [अ]णुसरियपुत्वजम्मा भुजओ संजमरजमुवगया । 'ता भद्द ! धनो तुम, कइवयभवभमणावसेसीकओ तुमए एत्तो संसारो' त्ति सुचिरमभिनंदिऊण बंभदेवं विहरिया जहाभिमयं साहुणो ति ॥ छ । इय पडिपुत्रं पोसहविहाणमाराहिउं ददं धीरा । कल्लाणकारिणो हुँति अप्पणो सेइ परेसिं च ॥१॥ १ निच्चेटो प्र० ॥ २ चियमसणा' ख० प्र० ॥ ३ "रितो य प्र० ॥ ४ पउणी प्र. ॥ ५ 'पेइओ प्र० ॥ ६ सदा । ACASSACXICK Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दयरिविरइओ कहारयणकोसो॥ विसेसगुणाहिगारो। । सुतवस्सिणो थिय परं चरति बाढं निरुभिउं चित्तं । गिहिणो वि एवमुवओगसालिणो गरुयमच्छरियं ॥ २॥ अपि च- एकैकपौषधविधानमपि प्रधान, सद्धर्मसाधनविधौ किमु तत्समूहः । यह निश्चलनिबद्धमतिर्न सच्चो, निष्ठामुपेष्यति कथं स भवाम्बुराशेः ? ॥१॥ गुप्तित्रयं त्रिजगदेकगुरुर्जगाद, यत् कर्मदारुदहने ज्वलनोपमानम् । तह सम्भवति निर्मलबोधयोधसाचिब्यतो व्यपगतान्तरवैरिदौस्थ्ये एकोऽपि पौषधविधिर्विरजीकरोति, सामायिकव्रतविवृद्धबलो विशेषात् । सिंहो विजेतुमुपयाति न केवलोऽपि ?, सम्यक पुनः किमु तनुत्रसुगुप्तगात्रः? इति नियतमशेषाहारवाच्छाविरामव्यपगततनुभूपाकामकेलिप्रपश्चः ।। परिहतगृहकार्यारम्भदोषो विधत्ते, परमिह भुवि कश्चित् पौषधं पुण्यसत्व: ॥४ ॥ ॥ इति श्रीकथारत्नकोशे तृतीयशिक्षाव्रतविचारणायां ब्रह्मदेवकथानकं समाप्तम् ।। ४४ ॥ पौषधवते ब्रह्मदेवकथानकम् ४४ । पौषधव्रतस्य माहात्म्यम् ॥३१८॥ ॥३१८॥ xxxxnxxxxAKKARAWASARAKAKK+Its:- NAGAR अन्नया य तनयरराइणो रयणीए सुहपसुत्तस्स अवसाणोवगयत्तणेण आउयकम्मणो मणागमेत्ते वि उवकमे जायं मरणं । तहाविहरजभरसमुद्धरणधीरपुरिसविरहेण य जहिन्छाचारो विचरिओ चरडपक्खो, निरवेक्खा य लुटिङ पवत्ता तकराइणो, जो जत्तो सो तत्तो पलाणो पहाणपुरलोगो संकेतो य रजंतरेसु । 'अहो ! कहं महाविग्धो धम्मविहिस्स समुडिओ' त्ति ससोगो बंभदेवो वि नियकुटुंबमादाय सावसेसघणो गओ मगहाविसए, ठिओ गोबरग्गामे । 'न साहम्मिय-जिणभवण-साहुसामग्गि' त्ति विसनो चित्तेणं । नायरनेवच्छाइपलोयणाणुमिणियभूरिधणसंभारेहि य हेरिउमारद्धो अणवरयं तकरेहिं । बाढमुवउत्तत्तणेण य ओगासमलभमाणेहिं य तेहिं छेय-मेयाइजाणणत्थं पारद्धा बंभदेवेण सद्धिं मेत्ती । पइदिणागमणाइणा य मुर्णिओ पञ्चदिणपोसहविहाणवइयरो । एगम्मि य पत्थाचे पडिपुत्रपोसहं पवनस्स बंभदेवस्स एगंतसो वि धम्मज्झाणोवगयस्स रयणीए जहुत्तविहिणा संथारयनिवन्नस्स समागया निदा । परियणो' वि पसुचो जहाठाणेसु । एत्थंतरे 'अवसरो' ति कलिऊण पविट्ठा ते तकरा, पैयट्टा जहिच्छाचारेण घरमोसमाहरिउं । तक्खणं च भवियच्चयावसेण पबुद्धो बंभदेवो हरियावहियं पडिक्कमिऊण मुहणतयपडिलेहणपुरस्सरं संदिसावियसामाइओ मुणमाणो वि तकरनियरहीरमाणदविणं भवर्ण मणागं पि अखुमियचित्तो सुप्पडिलेहिय-सुपमन्जियविसिडकट्ठासणयनिविट्ठो अप्पाणमणुसासिउं पवत्तो रे जीव ! गेह-धण-सयणसंगमो अस्थिरो य बज्झो य । सुलहो य दुग्गईहेउगो य बहुहाऽणुपत्तो य ॥१॥ १ "णितो प प्र. ॥ २ संस्तारमुप्तस्येत्यर्थः ॥ ३ "णो पिप प्र० ॥४ प्रवृत्ताः ॥ ५ जानानोऽपि तस्करनिकरहियमाणद्रविणम् ।। Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरहओ कहारयण कोसो || विसेस गुमाहिगारो ॥३१९॥ तथाहि-- -अस्थि वियडवइराडविमओवलद्धविसुद्ध पसिद्धी, सिद्धभूमि व वैवगयडिंब डमरा, घण-धन्नसमिद्धजणवया खेमपुरी नाम नयरी । तीए य समुस्सियसत्तंगसंगतो गयवरो व ताराचंदो नाम अहिवई । एक्केकं पि हु न गुणं सक्कड़ से बन्निउं सुरगुरू वि । सङ्घाण ताण पुण वन्नणम्मिं तो कस्स वावारो ? 11 2 11 सो नत्थि जस्स न पिओ स महप्पा निम्मलेहिं सगुणेहिं । चक्खुं पि हु अखिवंतो केवलमपिओ परवहूण ॥ २ ॥ तस्स य रन्नो पैउमनाहस्सेव पउमा पउमावई नाम भजा | ताणं च नरदेव-देवचंदामिहाणा दोन्नि पुता । जेडो पगिट्ठो सबकलासु, पत्तट्ठो य भोगोवभोग-व्याईसु । इयरो पुण अच्चंत दी संतसुंदरावयवो वि मणवंछियसङ्घसंपत्ति संभवे वि परिमिय- पैच्छभोयणेणावि अभिभविज्जइ अरोयगेण, बहुप्पयारं मग्गितो वि न वराडगमेतं पि दातुमभिलसइ पिउणो वि, पुसरीरोविन तोडिउं तरह तंतुमेचं पि, मामत्थाणुरूपोरियारंभे विन संजुजइ कञ्जसिद्धीए । एवंविहं च तमवलोयतो खिजइ नराहियो, विचितेइ य खत्तियकुलम्मि विमले भुषणपसिद्धे दहं समिद्धे य । उप्पन्नो वि वरागो एसो न वि विलसिउं लहर परिपक्ककणिस कूडय मेढीपंतीए गाढबद्धस्स । वमहस्स व एयस्स वि विहिणा विडिओ वयणबंधो १ 'व्यपगत डिम्बडमरा' दूरीभूतभयराष्ट्रविश्वा ॥ २ मि को क [सं० प्र० ॥ ३ कृष्णस्येवेत्यर्थः, 'पद्मा' लक्ष्मीः ॥ ४ व्ययादिषु ॥ ५ पथ्यभो जनेन ॥ ६ अरोचकाख्येन व्याधिना ॥ ७ शक्नोति ॥ ८ परिपककणिशकूटकमेथिती गाहबद्धस्य । 'कवि' त्ति कणिशा: लोकभाषायां 'कणसां' 'इंड' इति वा उच्यन्ते । कूटकः- इलावयविशेषः धान्यमनार्थकखान्तर्गत काष्ट मेटिरित्युच्यते यत्र वद्धेन वृषमेण धान्यमर्दनं कार्यते ॥ 11 2 11 ॥ २ ॥ मने न पुछदुकयकिंपागफलं विणा हवइ भीमो । एवंविहो विवागो अचंतं विरसपरिणामो ॥ ३ ॥ अम्हारिसेहिं न किं पेक्खिजड़ ये चम्मचक्खूहिं ? । जइ कोइ एइ नाणी ता तं पृच्छामि अत्थमिमं ॥। ४ ॥ एवं च तचिंताउरस्स नरनाहस्य वच्चंतेसु बासरेसु, जहिच्छाचारेण विलसते अणिवारणे वणवारणे व रायसुयनरदेवे, पदियहपत्रढमाणवित्तएण रिसीहुने दबकोसे, सिरिहरियसिरिदत्तेणाऽऽगंतॄण विणयावणयसीस विणिवेसियपाणिसंपुडेण विन्नत्तं, जहा-देव ! अच्चंत परिमियकरगहणज्जियधणपडि प्रमाण कोस कोडागाराणं अपरिमियवएण नाममित्तावसेसयं निसा मिय देवो पमाणं । सविम्हयं च भणियं राहणा-भो सिरिदत्त ! कई अपरिमियडओ जाओ ? त्ति । सिरिदत्तेण भणियंदेव ! तुम्हं वयणेण जहिच्छं विलसंतस्य दितस्स य रायसुयनरदेवस्स अणवरयं धण-धन्न-वत्थ-हिरन्नाईणं समप्पणेणं ति । इमं च आयनिऊण गरुयकोव संरंभनिन्भरं भणियं भूवणा जइ तस्स विलासत्थं रित्थं दाउं मए अणुनायें । ता किं मूलाउ च्चिय तं तेण विणासिउं जुत्तं १ चोरिकै ज्यजायाण चैव सच्छंदविलसणं उचियं । नायजियाण न पुणो अत्थाणत्थाण विणिओगो एवंविहं च एयस्सरूचमवलोइऊण सलहेमि । भोगोपभोगपमुहत्थविमुहमणहं सुयं वीयं निदोसयं चिय गुणं तेणं चिय चिन्तितूणमगुणस्स । गुणिणो वि गरुपदोसेहि कलुसिया इंति लहुयत्तं 112 11 ॥ २ ॥ 11 2 11 11 8 11 १ य धम्म सं० प्र० | २ रिक्ती भवति ॥ ३ श्रीगृहिकः- भाण्डागारिकः ॥ ४ 'रिक्थं' धनम् ॥ ५. चौर्यद्यूतजातानाम् एव स्वच्छन्द विलसनम् उचितम् । न्यायार्जितानां न पुनः अर्थानाम् अस्थानविनियोगः ॥ अतिथिसंविभागवते नरदेवकथानकम् ४५ । ॥ ३१९ ॥ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमद्दसूरि-४ विरहओ कहारयण-| कोसो॥ विसेसगुणाहिगारो। अतिथिसंविभागवते नरदेवकथानकम् ४५। नाणाविहाई रयणाई धरइ अमयं च जइ वि हु समुद्दो । गिञ्जइ य खारनीरत्तणेण लवणोयही तह वि ॥५॥ इमं च राइणो बयणं कह कह चि निसामियं नरदेवेणं । ततो चित्तभंतरसमुप्पनगरुयामरिसो 'किं दिनं? किं भुतं ? तह वि ताओ कोवमुबहई' त्ति बाद संतप्तो य मज्झरत्ते एगागि चिय निग्गओ नयराओ पयट्टो देसंतरं । मिलिओ य मग्गे एगो अव्वत्तलिंगधारी । जातो तेण समं उल्लायो पइदिणदंसणेण पणओ य । एगया य एगते 'सव्वविसिट्ठलक्खणंकिउ' त्ति रायमुयस्स तेण संसिओ वीससुवनकोडिंमित्तो जहावट्ठियपच्चयाणुगतो निहाणवइयरो, तैयविसंवाइणी दंसिया अक्खरपंती । वाइया सयमेव कुमारेण, उवलद्धो य तल्लिहियगामनाम-पएसकप्पो । पुच्छितो य अवत्तलिंगी-भद्द ! कत्तो एस निहाणकप्पलाभो ? ति । तेण भणियं-निसामेसु पुबकाले सिंधुसेणो नाम पुहईवई अहेसि । संकरधम्मो से अमचो सवरजकअचिंतगो हिययनिविसेसो य । तेण य रन्ना नंदेणेव अणेगकरनिवाडणाइपगारेहिं अहिरनीकया पुहई, वड्डिओ कोसो, वीससुवन्नकोडिनिहाणं च संकरधम्मममचं पचासनीकाऊण निहयं धरणीए । एत्थंतरे सो राया तहाविहायंकवुकामियाउओ पंचत्तं गओ । पुत्तसंतइविरहेण य पलयमुवागयं रक्षं । तदुक्खेण य संकरधम्मामच्चेण अम्हगुरु-पडिगुरुणो समीचे पडिवना तावसदिक्खा । पत्थावे य दंसिओ निहाणकप्पो । पडिगुरुणा भणियं-वच्छ ! कंदमूलाइपरिभोईण ताबसाण किं दवेण ? केवलं दुल्लक्खाई विहिविल १ "डिमेत्तो प्र. ॥ २ तइयवि० ख० प्र० । तदविसंवादिनी ॥ ३ अस्महरुप्रतिगुरोः समीपे ॥ ४ 'निधानकल्पः' भूम्यादिनिहितनिधानादिविषयकस्थानादिसूचक पत्रकम् । निधानकल्प: निधिकल्पस्यकाओं दादी ॥ ॥३२॥ निधानं निधिकल्पश्च ॥३२॥ अतिथि*संविभागस्व स्वरूपम् पडिपुनपोसहवयं विहियं पि न जं विणा हवइ अणहं । तं अतिहिसंविभागो ति तुरियसिक्खावयं वोच्छे ॥ १ ॥ ट्रेण गिर्हत्थुचिया चत्ता पम्वसवाइणो जेण । सो अतिही साहु चिय निचं धम्मत्थपडिबद्धो ॥ २ ॥ तस्स नियकाकयपाण-भोयणाईण वियरणं जं तु । पोसहतवपारणए वुत्तोऽतिहिसंविभागो सो ॥ ३ ॥ पुन्बुद्दिट्टोवर्दुभदाणसरिसत्थमवि पुढो एयं । पोसहतवाउ उत्तरमवस्सकिचं ति वत्वं । ॥ ४ ॥ एवं कुणमाणेणं गिहिणा साहण संजमुजोगो । नीओ परमुल्लासं सबिसेसं तवबिसेसो वि ॥ ५ ॥ संपाडिओ य अप्पा परमप्पयसोक्खभायणत्तेण । नीओ परं पसिद्धिं लोए सबन्नुधम्मो य ॥६॥ किंचलामेण जोजयंतो जहणो लाभन्तराइयं हणइ । कुणमाणो य समाहिं सबसमाहिं लहइ नियमा ॥७॥ दाणंतरायविवरुल्लसन्ततक्खण विसुद्धपरिणामो । भत्तिभरनिब्भरंगोऽतिहीण धनो धुर्व देइ ॥८ ॥ भोयणकालोवडियअतिहिपयाणेण सालिभदाई । भदाई संपत्ता सुर्वति य समयसत्थेसु ॥९ ॥ उपभोत्तुं भोनुं वा दाउं लळू व भुवि य विप्फुरिउं । न तरंति जहिच्छं अतिहिसंविभागं विणा पुरिसा ॥ १० ॥ अस्थम्मि एत्व दिट्ठी दिटुंतो नूण निट्ठियद्वेहिं । अन्नय-वइयरेगेहिं नरदेवो देवचंदो य ॥ ११ ॥ १ 'अन' निर्योषम् ॥ २ गृहस्थोचिताः खकाः पत्सिवादयः ॥ ३ स्वार्थकृतपानभोजनादीनां दानमित्यर्थः ॥ ४ पूर्वोद्दिष्टोपष्टम्भदानसरक्षार्थमपि ॥ ५ नीतो प प्र. ॥ ६ सम्पादितच आश्मा परमपर्व-मोक्षः तत्सौख्यभाजनत्वेन ॥ ७ लाभेन योजयन्, यतीन् काभान्तररायं हन्ति ॥ ८ दानान्तराय| विवरोजसत्तरक्षणविश्वपरिणामः ॥ ९ 'अर्थ अत्र' एतद्विषये ॥१० 'निष्ठितार्थ:' तीर्थकरगणधर दिभिः अन्वयव्यतिरेकाभ्याम् ॥ KHATARREARRAXARAGA ५४ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभइसरिविरहओ CA49 अतिथिसंविभागवते नरदेवकथानकम् ४५। कद्दारयण-1 कोसो।। विसेसगुणाहिगारो। ॥३२१॥ भुजो चाहरिओ वि जाव न देख सो पडिवयणं ताव कुमारो गओ तयंतियं । पेच्छड य तं निमीलियच्छं गयजीयं भूवढे निवडियं ति । 'हा हा किमेयं ? ति । जस्स कए कयमेयं सो वि महप्पा परं भवं पत्तो। न वियारगोयरं जाइ ही! कहं विलसिय विहिणो? ॥१॥ कीरउ कत्थाऽऽसंसा? बज्झउ य कहिं अवडिओ नेहो ? | अमुणियसंचरणो भमइ जत्थ अणिसं चिय कयतो ॥ २ ॥ अनं चिय चिंतिजइ हवाइ य अनं अचिंतियं चेव । केवलनाणीण परं पचक्खो देवपरिणामो ॥३॥ इय अवितकियनिकिवदुकयकयकुडिलकटुयकजम्मि । सत्वत्थ वि भवभावे का भावविभावणा हवउ ? ॥ ४ ॥ एवं परिदेवंतो अप्पण चिय सोगावेगं निरंभिऊण चिंतिउं पवनो-एसो हि अत्थो लिंगिणो गुरुत्थाणीयस्स संतिओ, तयभावे सयं भोत्तुमणुचिओ, तो गुरुणो पिउणो चिय पणामिउं जुत्तो, निहूँ नीया य मए तस्स महाणुभावस्स अपरिमियव्वयाइणा कोस-कोट्ठागार त्ति । एवं च निच्छिऊण तद्देससमीववत्तिमंडलाहिवइणो अवंतिसेणस्स नियमाउलगस्स गतो समीवे कुमारो। सायरमब्भुद्वितो तेण, उचियसमए विम्हियमाणसेण पुच्छिओ य-वच्छ ! को एस वइयरो जमेवमेनागी दीससि ? । ततो कुमारेण कहितो संखेवेण नियबुतंतो । अवंतिसेणेण भणियं-वच्छ ! गिण्हसु मह संतियं रजं, वुड्ढोऽहमियाणि पैवजामि वणवासं १ अवितर्कितनिस्कृपदुष्कृतकृतकुटिलकटुक काय ॥ २ सन् गुरवे पित्र एव अर्पयितुं युक्तः, निष्ठां नीताथ ॥ ३ 'प्रपथे' अङ्गीकरोमि ॥ ॥३२॥ LAXMAHAKAR ALANCE% A5%%%AMIRCLASALAMESSI ति । कुमारेण जंपियं-तुह रजं ममायत्तं चेव, केवलं संपयं पियंमिमं ताव संपाडेसु, एत्तो अरे किं पि निहाणमुबलद्धं मए, तं च तहा कुणसु जहा राइणो अक्खयं चेव सक्खा करयलगोयरीहवइ ति । अह 'तह' त्ति पडिवञ्जिय कुमारोवइट्ठविहिणा बीसं पि कणयकोडीओ पंवेसियाओ तेण नरवाइस्म । रायसुओ वि केणइ अमुणिजंतो नीहरितो माउलगमंदिराओ एगागि च्चिय गतो गंधिलावइविसए । तहिं च निसामियं जणमुहाओ सक्षावयारामिहाणं जुगाइजिणमंदिरं । तं च कोऊहलाउलियहियो रायसुतो दहूं पट्टिओ वेगेणं, पत्तो य तयासने। अह जच्चविमलकलहोयकलससोहंततुंगसिंगम्मं । गरुयसरयम्भकूडं सीसट्टियविज्जुपुंज व ॥ १ ॥ उदयगिरिं पिच उदयंतसूरबियं महीवइस्स सुतो । दट्टण जिणहरं हैरिणलंछणच्छायमइतुट्ठी ॥ २ ॥ दूराओ चिय भूवट्टठवियसिरमंडलो पण मिऊणं । भत्तिभरनिभरंगो जिण मित्थं थोउमाढत्तो जय जिण ! जुगपढमनि उत्तधम्म-कम्मववत्थवित्थार:। अइविमल केवलालोयलोयणालोइयतिलोय!॥४॥ जइ नाह ! तुम न धराए अवयरंतो भवागडावडियं । उद्धरिउ तिजयं ता किमुक्तिं दुत्थय नेव ? ॥५॥ अहिनंदणो वि तं नाहिनंदणो निम्ममो वि कणयरुई। करवत्तं पि धरंतो कट्ठ विहरसि तह वि नेव ॥६॥ १ प्रियमिदं तावत् सम्पादय ॥ २ प्रषिताः सेन नरपतये ॥ ३ चन्द्रो चलमित्यर्थः ॥ ४ भूरस्थापितशिरोमण्डलः ॥ ५ जय जिन! युगप्रथमनियुक्तधर्म-कर्मध्यवस्थाविस्तार ! । अतिचिमफेयललोकलोचनालोकितत्रिलोक !॥ ६ हैं भगवन् ! त्वम् 'अभिनन्दनोऽपि' आनन्ददाताऽपि सन् 'न RECRUITMECHARRIENDRA Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसरिविरइओ कहारयणकोसो।। विसेसगुणाहिगारो। ॥३२२।। 50MAY-२) अतिथिसंविभागवते नरदेवकथानकम् ४५। छत्तत्तयाइरिद्धि अननसरिसिं पलोइउं तुज्झ । देवाहिदेवबुद्धी उप्पजउ कह णु अण्णत्थ ? अच्छंतु वयणसोहग्ग-रूव-णाणाइणो गुणा दुरे । पडिमा वि तुज्झ ससिणो ब जणइ परमं जणाणंदं ॥८ ॥ ता मीमो मोह भवो ताव य तावेइ आवयाचकं । जाव तुह नाममंतो हिययंतो पसरइ न नाह ! ॥९॥ जइ मग्गिय पि लब्भह ता पइजम्मं पि तुज्झ पयपउमे । वीसमउ रमउ निच्चं भमरो व मणो जिणिंदै ! ममं ॥ १० ॥ ___ इय पुणतं थोत्तं परियत्तइ जा जुगाइजिणपुरतो । ता भाणुचिंबमबरतलाउ अत्थंयरिमणुपत्तं ॥ ११ ।। तह वि स महप्पा परमपरितोसवससमुच्छलतरोमंचकंचुइयकाओ उत्तरोत्तरपवईतसुहपरिणामो तदेगचित्तत्तणेण मुहुत्तमेत्तं व विभावरिं अइवाहिऊण, समुरगयम्मि मायंडमंडले सयलकल्लाणावलीविलाससंगैयं व पत्तपरमभुदयं व सिद्धसमीहियत्थपत्थणं व अप्पाणं मबंतो भुजो पंचंगपणिवायपुरस्सरं सायरं जुगादिजिणं पणमिऊण नीहरितो जिणभवणाओ। एत्थंतरे पणमिओ सुनेवच्छेहिं रायपुरिसेहिं, बिन्नत्तो य-भो महायस! वयं हि तुज्झ आणयणत्थं गंधिलावहवसुंअभिनन्दनः' नानन्दायीति विरोधः, तत्परिहारस्तु त्वं 'न भिनन्दनः'नाभिराजसूनुः । पुनर्भवान् निर्ममोऽपि सन् 'कनकरुचिः सुवर्णाभिलाषी इति विरोधः, परिहारस्तु 'कनकरुचिः' फनकाभकायकान्तिभयान । तथा यद्यपि करपत्रमपि धारयस्त्वमसि तथापि नैव त्वं काएं 'विहरसि' दारयसि इत्यावर्यम्। तस्परिहारपक्षे तु-करे पात्रं धारयन् त्वमसि, अपरिग्रह इत्यर्थः, तथापि नैव 'कष्टं' दुःखं यथा स्यात् तथा 'विदरसि' विदारं कुरुष इति वास्तनोऽर्थः ॥ १ भाति ॥ २ भापत्समूह इत्यर्थः ॥ ३ "द ! खमं खं० प्र० ॥ ४ "रुत्तं बोतुं, प सं० । 'पुनरुतं' वारंवारं स्तोत्रम् ॥ ५ अस्तगिरिम् अनुप्राप्तम् ॥ ६ रात्रिम् ।। ७ "गयं पबत्त' सं० ॥ ॥३२२॥ SASARAMESH सियाई, अविभावणिजा कजगई, इमिणा वि पओयणं हवइ ति सुरक्खियं निहाणकप्पमिमं करेसु ति । 'तह' त्ति पडिसुयमणेणं । बच्चंते य काले तम्मि पुबगुरुसु य कहासेसीभूएसु पुरिसपरंपराए मह हत्थमुवगतो एस निहिकप्पो त्ति | जाव संपइ धम्मट्ठाणेसु तविणितोगपओयणं ति पारद्धं मए बलिपक्खेवपुरस्सरं तमुक्खणिउं । उवडिओ विग्यो । 'हा किमेयं ?' ति बाई विसनो ह । भणिओ य एगेण नेमित्तिएण, जहा-सवलक्षणोवगयपहाणपुरिससाहिजसावेक्खो हि एयलाभो, न तुमए केवलेण लद्धं पारीयइति । अह केणइ सुकयकम्मवसेणं संपह तुमं दिट्टो । न य तुमाहिंतो वि पुन्नपुरिसो विसिट्ठलक्खणकिओ य अमो संभाविजह । ता भो महायम! कुणसु जमित्तो तुज्झ रोयइ ति ॥ छ ।। एवं निसामिऊण परकजरसियत्तणेण पडिवनमिमं रायसुएण । गया निहाणप्पएसे। बलिविहाणपक्खेवपुत्वयं सुहमुहुत्ते य समारद्धा उक्खणिउं । एत्थंतरे गरुयको वभरारुणनयणकिरणच्छडाडोवदाचियाकालसंज्झो सैज्झसभरपकंपिरतद्देसवत्तिसत्तसचमकारपलोइज्जमाणो माणाइरित्तनिहारियवयणत्तणेण कयंतो व जीवलोयं कवलिउमुवडिओ रे रे पासंडियाहम! कीस एस रायसुओ तए आणीओ ?' त्ति जंपतो संपत्तो खेत्तवालो । नरिंदसुयपुन्नपयावपडिहओ निबिडकरचवेडापहारावहरियजीवियमबत्तलिंगिणं काऊण अवकंतो देगेणं । रायसुओ वि जाव कावयखणित्तयघाएहिं न विदारइ वसुंधरावीद ताव भूरिपुनसंभारागरिसियं व पयडीहूयं निहिपडलं । 'अवितहवाई महाणुभावो' त्ति ससंभमं वाहरिओ तेण अवत्तलिंगी । भुजो तद्विनियोगप्रयोजनमिति ॥ २ साइज' प्र० । -साहाय्यसापेक्षः ॥३ जमेत्तो प्र०॥४ "शा ओस्त्रणि' ० ॥ सावसभरप्रकम्पितृतदेशतिमत्वसचमत्कारप्रलोक्यमानः ।।६ कतिपयखनित्रकपातः । सनि-कुदालकः ।। Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमहसूरिविरइओ अतिथिसंविभागबते नरदेवकथानकम् ४५। कहारयण कोसो॥ विसेसगुजाहिगारो। ॥३२३॥ कुमारेण-महाराय ! देवयाए चिय विणिच्छिए कजे किमहं जंपिउं पारेमि ? ति । ततो तक्खणविणिच्छियसुहग्गहाभोगे परिणयणजोग्गे लग्गे पारद्धी विवाहमहसवो। अह ताहि चउहिं वि रायधूयाहिं समेया कनलावई महारिद्धिसमुदएणं परिणीया कुमारेण । घरनाहो व सो तत्व अच्छिउ पवत्तो । गएम य थोयदिणेसु समागया पिउणो पहाणपुरिसा, विनविउमारद्धा य-कुमार ! तुह देसंतरगमणं मुणिऊणं मेइणीवई दूरं । विरहमहादुहदीहरनिताविच्छिन्नऊसासो नो कुणइ भोयणं पि हु बहुमना न य सरीरसकारं । अभिलसइ रजचिंतं पि नेव नटुं पि नो नियह ॥२ । युग्मम्।। जद्दिवसाओ य तए सुवन्नकोडीउ पेसिया वीसं । तत्तो पुण सविसेसं समुन्वहित्था महासोग तो तुझाऽऽणयणस्थं इत्थं वेगेण पेसिया अम्हे । एत्तो कुमार ! दिजउ पयाणमविलंपियं चेव इमं चाऽऽयभिऊण पंच वि ससुरभूवइणो संबोहिऊण, तद्दिन्नभूरिहरि-करि-रह-जोहजूहसणाहो, पंचहि पणइणीहिं परिखुडो, अकालक्खेवेण गतो कुमारो पिउणो समीवं । 'कहं सरीरमेत्तो पसिऊण एत्तियसामग्गिसंगतो पचागओ' त्ति परितुट्ठो राया। अभिणंदिओ य सपणयालावेण । एत्थंतरे पदियं मागहेण एके क्षीरमहाम्बुधौ तदपरे बैकुण्ठवक्षस्थले, खड्नेऽन्ये कमले परे निवसति श्रीरेवमाहुर्जनाः । मन्ये ततू वितथं तवाऽऽस्मजमिमं सर्वाङ्गमालिङ्गय सा, तस्थौ चेदिदमन्यथा कथमियं प्राज्यदिरेवंविधा ? ॥१॥ १ विरहमहादसदनियंदविरिछनोच्दासः ॥ २ ताअविछिन्न ख० प्र० ॥ ३ समुदयाहत ॥ ४ वैकुण्ठा-कृष्णः ॥ ॥३२३॥ LAKAXAXX इमं च अवितह कुमारगुणवत्रणमायनिऊण दिन से रमा सबंगियमाभरणं । एवं च गरुयसिणेहाणुबंधबंधुरेसु गएसु 'केचिरेसु वि दिणेसु गामाणुगामं विहरमाणा तिनाणोवगया समागया जयदेवसूरिणी, ठिया पुरीए बाहिरुजाणे । जाणियतदागमणो राया दोण्हं पि नियसुयाण विसरिस भावपुच्छणत्थं सब्बसामग्गीए गतो तयंतियं । सायरकयपायपणामो य आसीणो उचियपएसे । सूरिणा वि पारद्धा धम्मकहा । पडिबुद्धा बहवो जणा । उवलद्धावसरेण य सविणयं पुच्छियं साइदत्तसेट्ठिणा-भयवं! एस एको चिय मह सुओ संतीए वि अननसरिसीए संपयाए जह परिहाइ वरवत्थं, ता मोडिजइ समग्गमंगं से । अह झुंजइ बरभोयणमाहम्मद ता मुहमिमस्स ॥ १ ॥ चंधह कुसुमाई सिरे जह ता सिरवेयणा हवइ बाई । विहिए विलेवणे पुण जायद सबंगिओ दाहो ॥ २ ॥ इय इंदियस्थमणहं काउं धम्मत्थमवि नमो लहइ । मज्झ सुतो भयवं ! कहसु एस किंपओ दोसो' ॥ ३ ॥ अह ओहिनाणनयणावलोइयसभावत्तिसबसत्तचिंतावाबारो नरवइम्मि नरदेव-देवचंदेसु सिट्ठिसुए य दिटुिं खिवंतो सूरी भणिउं पवनो-भो भो देवाणुप्पिया ! जप्पचओ एस दोसो तं निसामेह वच्छाविसए तिन्नि मित्ता अंबरोप्परपणयबंतो अहेसि । तेहि य एगया गयपुररायपुत्तो महायलो नाम गहियपञ्चजो गीयत्थो दिट्ठो । 'अहो ! महप्पा एस ९च्चयचाई' ति परमपमोयमुबहंतेहिं वंदितो तेहिं । मुणिणा वि भवे ति कया २ किच्चि प्र. ॥ २ यरं क° खं० ॥ ३ परिदधाति ॥ ४ किंप्रत्ययः' किंनिमित्तः ॥ ५ अवधिज्ञाननवनावलोकितसभावसिनर्वसन्चचिन्ताच्यापारः ॥ ६ यत्प्रत्यया ॥ ७ परस्परप्रणयवन्तः ॥ ८ दुस्ख जत्यागी ॥ ९ भत्तवकया सं. । भवत्तकया प्र. । भच्या इति कृता । नरदेवादीनां पूर्वभवकथानकम् Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभव्यरिविरइओ द अतिथिसंविभागवते नरदेवकथानकम् कहारयण-| कोसो॥ विसेसगुणाहिगारो। JaithCHERA धम्मदेसणा । जायभववेरग्गेहिं य तेहिं पडिवमो जिणधम्मो । पइदिणदंसणसविसेसवढुंतधम्मबुद्धीण य ताण पंचाणुव्वयाई । तिथि गुणवयाई तिन्निय सिक्खावयाई पुन्बुत्तविहिणा वक्वाणिऊण मुणिणा चउत्थसिक्खावयसरूवं भणिउमाढतं । जहाअन्नाईणं सुद्धाण कप्पणिजाण देस-कालजुयं । दाणं जं किर जइणो तुरियं सिक्खार्वयं तमिह ॥ १ ॥ जह वि हु पइदियहं चिय गिही न भुंजइ जईणमविदिन्ने । पोसहपारणगदिणे तह वि विसेसो त्ति नियमोऽयं ॥ २ ॥ ___एत्थ य सामायारी भोयणकालम्मि जाइ जैइमूले । वंदिय निमंतइ गिही भिक्खागहणं करेह ति ॥ ३ ॥ मुणिणो वि अंतराइयभएण उग्गाहिऊण लहु जति । तस्स गिहे सो वि य ताणमासणाई पैणामेइ ॥४ ॥ आसीणाणं उद्धट्ठियाण वा भत्तिपुवयं देइ । सयमेव गिही अनेण वा वि असणाइ जहविभवं ॥ ५ ॥ पच्छाकम्मविवञ्जणहेउं गिण्हंति सावसेसं तं । मुणिणो तो वंदित्ता अणुगच्छित्ता य पार इसो अह तस्समए मुणिणो न हुँति तो सायरं दिसालोयं । कुणमाणो चिंतइ मज्झ जीवियं ही ! दर्द विहलं ॥ ७ ॥ किं भोयणाइविभवेण ? जो न साहूण जाइ उवओगं | इय सुद्धबुद्धिजोगा दिनफलं होअदिन्ने वि ॥८ ॥ नवरं चिरकयदुक्कयदोसेणं कह वि आवडन्ता वि । जत्तेण वाणिजा अइयारा पंच एत्थ वए ॥ ९॥ तहाहि सचित्तनिक्खिवणयं १ वाइ सच्चित्तपिहणयं २ चेव । कालाइक्कम ३ परववएसं ४ मच्छरिययं चेव ५ ॥ १० ॥ सचिनम्मि पुढवाइयम्मि देयस्स ठावणं पढमो । बीओ सञ्चित्तेणं फलाइणा देयपिहणम्मि १ वयं तुमिहा प्र० ॥ २ यतिभ्योऽविदत्त ॥ ३ यतिपाव इत्यर्थः ॥ ४ अर्पयति ।। 545454564%AC ॥३२४॥ अतिथिसंविभागवतस्य स्वरूपं तदतिचाराश्व % E ॥३२४॥ धराहिवेण सिंधुसेणेण पेसिय चि पसायं काऊण आरुहह रहवरमिमं ति । अह तयणुवित्तीए 'किं कारण ?' ति विम्हयमुवहतो वि आरूढो रहं कुमारो, गतो रायभवणं । दूराउ च्चिय अम्भुडिओ राइणा, संभमभरियच्छिविच्छोहपुवयं पलोइऊण सवंगं कुमार चिंतियं च-अहो ! फलियं देवयापसाएण, न दीसंति जेण एवंविहाई पाएणं पुरिसरयणाई, ता होउ अणुसरिसपइलामेण कयस्था मह धूय त्ति । मुहासणासीणो य ससिणेहं संभासिओ, जहा-वच्छ नरदेव ! बाढमणुग्गहियं तुमए मह भवणं आगमणेणं, ता सागयं देवाणुप्पियस्स, वत्तवं च किं पि अस्थि तमायनउ कुमारो। नरदेवेण भणियं-साहेसु त्ति । राइणा जंपियं-वच्छ ! अस्थि कमलावई नाम मह धूया सबकलाकुसला पुरिसविदेसिणी य, सुरूवेसु वि रायसुएसु चक् पि अक्खिवंती कालमइवाहेइ, तीसे य वरनिमित्तं महासंतावमुबहतेण मए भूमिसयण-बंभचेराइविहाणेणमाराहिया कुलदेवया, तीए य अञ्जव रयणीए पच्छिमजामसमए समाइ8, जहा–'सक्कावयारचेहए जिणं थुणतो नरदेवो नाम रायसुतो महप्पा इमीए पाणिं इयाणिं चेव गाहियद्यो' त्ति, इमं च तयाइ8 निसामिऊण विउद्धेण मए तक्खण-17 मुज्झियवियप्पेण तुज्झ आणयण निमित्तं पुरिसा पेसिया, ता पूरेसु तीए मणोरहे अम्हं च; किंच रायसुय ! मह धूयाए समं वहदेहसुया जयसुंदरी बंगाहिवतणया लीलावई कलिंगरायंगरुहा वसंतसेणा कुरुरायदुहिया य अणंगलेहा निच्छयपवना-'सहि! जो तुह पाणनाहो सो अम्हाणं पि, इहरहा हुयासो वणवासो वा सरण' ति, ता परिचत्तविगप्पो पडिवजसु इमीण वि आहिवत्तणं, पत्थणाभंगो हि बाढमणुचिओ सप्पुरिसाणं ति । विम्हियमणेण य भणियं १ सम्भ्रमभृताक्षिविक्षेपपूर्वक प्रलोक्य सर्वाङ्गम् ॥ २ 'हिउं तु खं० प्र० ॥ ३ 'विबुद्धेन' जागृतेन ।। ४ पाणिना" . ॥ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमहसूरिविरइओ कहारयणकोसो ॥ विसेसगुमाहिगारो | ॥३२५॥ 36 4 6 4 पक्खित्ता वसुहारा । तन्भवे चिय पडिपुनमणोरहो नियत्तो एसो, धम्म- इत्थ- कामभागी जातो य । कणिट्ठमित्तेण वि तहिं चैव पोसहपारणगे किलिस्समाणज्झवसायाओ भिक्खुभिक्खाकालाओ पढममेव काराविऊण रसवई वाहरिया तवसिणो । गिलाणाइनिमित्तेण य आगया तत्थ । ततो अदाउकामेण पुढवाईसु निवेसिओ ओयणो, घयाईभायसु य पिहाणबुद्धीए ठवियं सचित्तफलाइ, पकन्नपमुहं से 'परसंतियमेयं' ति जंपमाणेण अकारयं किं पि उवणीयं साहूण | कवडेण य 'किमहं मंदभग्गो देमि तुम्हाणं ?' ति भणमाणेण वंदिया साहुणो गया जहागयं । भुत्तो एसो जहिच्छाए । सिट्ठो य एस वरो मज्झिममित्तस्स । 'अहो ! बुद्धिपयरिसो, सम्मं च कयं, जमेवं नियधणं रक्खियन्ति सायरम णुमोइओ तेण । कालेण ते तिनि वि मया देवत्तेण उववन्ना । तत्थ जो जिंट्ठो मित्तो सो महाराय ! एसो नरदेवो तुह पुत्तो नियनिम्मलकम्माणुरूवलाभाइगुणाभागी जातो । मज्झिमो य अणुचियत्थाणुमोयणेण विवरीयरूवो देवचंदोतिसंत्तो । कणिट्ठो य एसो सेट्ठिपुत्तो 'दुट्टाभिसंधि' त्ति न केवलं भोगाइयं काउं न लहर, विरुद्धवंतरेहिं बाद संताविज्जइ य । ता भो महाणुभावा रायप्पमुहा ! नियकम्ममेकं मोचूण मा अनं सुह-दु[हु]प्पायगं संकेअह ति ॥ छ ॥ एवं सोचा सबै जहोचियं धम्मपरा जाया । सूरिणो वि विहरिया अन्नत्थ । अक्खेवेण मोक्खभागी संवृत्तो नरदेवो त्ति । एवमिमं सुविसुद्धं अतिहिपयाणवयं अणुचरंतो । इह-परभवे य कल्लाणभायणं हवइ अवियप्पं ।। १ ।। अपि च१ "भाइणे" सं० ॥ २ 'परसश्कम्' परसम्बन्धि एतत् ॥ ३ जेडो प्र० ॥ ४ 'स्थाणमो' सं० प्र० । अनुचितार्थानुमोदनेन ॥ यत् सार्वभौमपदवीं क्षितिपालमौलिमाला मरीचिनिचयाश्चितपादपीठाम् । आप्नोति कोऽपि सुर दैत्यमहाश्रियं च चिन्ताव्यतीतविलस द्विपुलानुभावाम् सौभाग्य- भाग्यकलिताममलाङ्गलक्ष्मी, दानोपभोगपरमामिह सम्पदं वा । तद् भावशुद्धिविहितातिथिसंविभागसम्भूतपुण्यबलजृम्भितमाहुरीशाः स्वार्थोपस्कृतमन्न पानमभितो भोक्तुं पुरः कल्पितं, दित्सातच निरीक्षितो यतिरथ प्राप्तः स चाssकस्मिकः । हर्षोत्कर्षवशात् ततोऽपि च किमप्यस्मै ददत् सादरं, धन्यः कोऽपि शुभावलीमुपचिनोत्येवं विशुद्धाशयः ॥ ३ ॥ इत्यतिथिसंविभागवत निश्चल निहितमानसः सभ्वः । सत्वरमतिथिर्बहुतिथसम्पत्तीनां भवति नियमात् ॥ ४ ॥ ॥ इति श्रीकथारत्नकोशे अतिथिसंविभागव्रतविषये नरदेव [देवचन्द्रादि] कथानकोक्त्या प्रोक्तानि चत्वारि शिक्षाव्रतानि ॥ ४५ ॥ [ ॥ तदुक्तौ चोक्तानि द्वादशापि व्रतानीति ॥ ] १ "तिथिस खं० प्र० ॥ २ नकमुक्तम् । तदुक्तौ च प्रोक्तानि शिक्षावतानीति सं० प्र० ॥ ॥ १ ॥ ।। २ ।। किश्व - अतिथिसंविभागवते नरदेवकथानकम् ४५ । ॥ ३२५॥ अतिथिसंविभाग व्रतस्य माहात्म्यम् Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमद्दरि-४ विरहओ कहारयणकोसो॥ द्वादशाक् वन्दनके शिवचन्द्रचन्द्रदेवकथानकम् ४६. विसेसगु णाहिगारो। ॥३२६॥ बारसावत्तवंदणयं । पुब्बुत्तो धम्मविही नञ्जइ सबो गुरूवएसाओ । ता गुरुपडिवत्तिकए बंदणविहिमिहि साहेमि ॥१ ॥ बंदिजई अणेणं ति वंदणं तं च बारसावत् । अवणामपमुहपणुवीसठाणपडिचद्धमासु . ॥ २ ॥ अवणामा दो अहाजायं आवत्ता बारसेव य । सीसा चत्तारि गुत्तीओ तिभि दो य पवेसणा ॥ ३ ॥ एगनिक्खमणं चेच पणुवीसं वियाहिया । एयविसुद्धमेयं हि पूयाकम्म परं मयं एत्थ य संभविणोऽाढियाइणो वजए चुहो दोसे । थेवं पि अणुढाणं असणं भूसणं परमं अवणामाइसु जचं जहा जहा आयरेण य करेह । तह तह पाउणह पुराकयाण पावाण निअरणं ॥ ६ ॥ तहा विणओवयार माणस्स भंजणा पूयणा गुरुयणस्स । तित्थयराण य आणा सुयधम्माराहणाऽकिरिया ।। ७ ॥ इत्थं निउत्तविहिणा धनो गुरुवंदणं सइ कुणंतो । सिवचंदो इव भई पावह नत्थेत्थ संदेहो ॥८ ॥ एयविवरीयचारी कह वि संपत्तनिम्मलकुलो वि । कुलकालुस्सं हेच्छं उवगच्छद चंददेवो व ॥९ ॥ एयाण य वुत्तं जहट्ठियत्थं सुथोयवित्थारं । दोण्हं पि हु सीसंतं एगग्गमणा निसामेह ॥ १०॥ तहाहि-अस्थि अतुच्छवच्छाविसयसुपसिद्धा, धण-धन्नसमिद्ध-सद्धम्मकम्मनिम्माणनिउणजणाणुगया, मैयाहरमुत्ति छ १ द्वादशावतम् ॥ २ 'त्तीए, ति सं. प्र. ॥ ३ व्याख्याता ॥ ४ अनादृतादीन् ॥ ५ शीघ्रम् ॥ ६ गदाधरः-कृष्णः ॥ द्वादशावर्चवन्दनकस्व ॥३२६॥ *HRSONAKHARKARISHABHAKAKARNERASENSESEX ARRINTENANCENA+KACARNA-NCREKARACANA पुत्वं वा पच्छा वा भोयणकरणेण जं अइकमणं । मुणिमिक्खाचेलाए सो कालाइक्कमो तइओ ॥१२॥ अप्पणय पि हु देयं परस्स एयं ति जंपमाणेण | परववएमो त्ति अदिच्छुयस्स तुरितो अईयारो ॥ १३ ॥ रंकेण तेण दिन्नं किमहं हीणो ततो वि नो दाहं ? । इय दितो मच्छरिययमइयारं पंचम भयइ ॥ १४ ॥ एए दाणिच्छाविरहियस्स दाणंतरायदोसेणं । अइयारा इंति बला न उणो तविरहियमणस्स ॥१५॥ अइयारभावणा पुण अइकमाईहिं नूणमवसेया । णाभोगभावतो वा वयस्स मंगोऽनहा पयडो ॥ १६ ॥ एवं मुणिणा कहिए वयविहाणे अइरहसबसेण जेट्टेण कणिद्वेण य मित्तेण पडिवन्नाई बारस वि वयाई । मज्झिमगो वि मित्तो पडिवो सम्मइंसणं । साहू वि ते अणुंसासिऊण विहरितो अन्नत्थ । ते पुण तिन्नि वि मित्ता जिणधम्मपालणपरा गमंति कालं । एगया य जेट्ठमित्तो अत्थोवजणनिमित्तं सोरट्ठदेसं गतो, आवासिओ य रेवयसेलमूले । पत्तं च तद्दिणं चाउम्मासपर्व । तहिं च पडिवनमणेण पडिपुग्नं पोसहवयं । तं च सम्मं परिपालिऊण पारणगदिणे सुचिरमतिहिसंविभागनिमित्तमवलोइयदिसावलओ 'हा हा ! कहं अकयसाहुसंविभागो मुंजिस्सामि ? ति पसरंतचित्तसंतावो आसीणो मोयणकरणत्थं । एत्यंतरे चाउमासियपारणगं काउकामो तदासनगिरिनिगुंजाओ दमिडरायरिसी उवागओ तं पएसं । 'साहू एई' त्ति सिहूं परियणेणं । 'सेयं अणम्भा अमयबुट्टि' ति पहिडेण य पडिलामिओ सपरिवेसियमोयणाइणा । 'अहो! महादाणं' ति सुरेहिं १ 'भवित्योः तुर्थः' दातुमनिच्छोः चतुर्थः ॥ २ 'गुणासि सं० ॥ ३ सा इयं बना अमृतधिः ॥ ४ स्वपरिवेषितभोजनादिना ॥ ५५ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दमरिविरहओ कहारयणकोसो॥ द्वादशाव वन्दनके शिवचन्द्रचन्द्रदेवकथानकम् विसेसगु CROCAR-%40 णाहिगारो। ॥३२७॥ भयवं ! दमणजो निल्लो पावकम्मसञ्जो य । संजोयसालिणं पि हु जो तं पिच्छामवनाए ॥ १ ॥ उवसग्गवग्गमुग्गं विणिम्मवेर्मि य भवारिसाजोग्गं । सेले व सुप्पइहूं अमुणिय तुह चित्तवर्दुभं ॥ २ ॥ पाविठ्ठस्स वि मज्झं केणइ सुसिलिट्ठकम्मजोगेण । जायं तुह पहु!दसणमत्रहस्थियकप्पतरुसोह ॥३ ॥ ता भो महरिसि! मरिसेसु मज्झ दुबिणयमणयसीलस्म । भुजो भयवं! काहं कयाइ नेविहमजुत् ॥४॥ इय पुणरुत्तं सिररइयपाणिपउमो पैसाइयं साहुं । सीसो व समीवगओ गयाणणो सेवए सम्म वचंतेमु य दिणेसु ते उवरोहियसुया सिवभइ-सिरियाभिहाणा देसंतरागयवसुमित्तामिहाणोवज्झायदिनमहामंतोवयारकरणत्थं पूओवगरणहत्था 'विजणं' ति मनमाणा तमेव अंब-जंबू-कयब-जंबीरपमुहतरुवरविराइयं हेरंवमंदिरमल्लीणा । मंतसाहणपयट्रेहिं य तेहिं दिट्ठो तग्गिहेगदेसे एगपायकयकाउस्सग्गो निप्पंदनिम्मियनयणपुडो अवावुडो केक्नडतवसंकोडियनसाजालजडिलो सो तवस्सी । ततो सहासं भणियमणेहि-भो भो मुणिवर ! को एस विडंबणाडंबरपवंचो जमेवं जमनिविसेसरूवयमवलंबिऊण वट्टिजह ? बाढमजुत्तं च इत्थं धम्मस्थमप्पणो पीडणं । जओधम्माओ धणलाभो तत्तो कामो ततो य संसारो । धम्मस्स अजणं ता मूलाउ चिय दढमजुत्तं ॥१ ॥ १ सयोगशालिनमपि हि यः त्या पक्ष्याम्यमवज्ञया ॥ २ पेच्छा प्र० ॥ ३ उपसर्गवर्गमु विनिर्मिमे च भवारयायोग्यम् । शैलमिव सुप्रतिष्ठे अज्ञात्या तव चित्तावष्टम्भम् ॥ ४ बेवि य सं० प्र० ॥ ५ लेसं व सुयाइ, सं० ॥ ६ दर्शनम् अपहस्तितकल्पतरुशोभम् ॥ ७ 'अनयशीलस्य' दुर्विनीतस्य ॥ ८ प्रसाद ॥ ९ पुरोहितसुती ॥ १० सुमन्तामि प्र० ॥ ११ अप्रावृतः कशतपःसकुचितनसाजालजटिलः ॥ १२ कक्कड' खे- ॥ ॥३२७॥ SARKARTAIAMARANA NCREKAMANACHCHANAKAMAKASOCIRCRACHAN एवं च अवनापुरस्सरं ते पयंते विभाविऊण गरुयकोवावेगारुणनयणो 'अहो ! महापावा पहं पि पराभवंति' नि जायामरिसो सिग्घं बिग्घवई तमिग्घायणत्थं जमदंडचंडसुडादंडमुप्पाडिऊण जाव भयथरहरंतसरीरे ते न मुसुमूरेइ ताव करुणाभरमंथरगिरं पारियकाउस्सग्गेण 'भो भो गणाहिव! अलं जीववहेणं' ति वाहरतेण साहुणा पडिसिद्धो एसो ति । ततो अच्चन्तभयनिम्भरावूरियहिययत्तणेण तणं व कंपिरकाया जत्तो तोणत्थमप्पणो खिवंति चक्टुं तत्थ तत्थ उग्गीरियफरुसहत्थं हत्थिमुहमेव पलोयति । ततो सवायरेण 'भयव! तुममेव सरण' ति जंपिरा लग्गा साहुचलणेसु । 'मा भायह' त्ति कप्पतरुकिसलयाणुगारं करमुदीरतेण अणुमासिया साहुणा । भूरिकोवसंरंभनिभरो अंबरयले परसुमुल्लासितो सारंभमुल्लाविउमारद्धो हेरंबो-भगवं ! अणुजाणाहि णाहियवाईण विणिवायणमिमाणं, असिक्वणं हि परमसिंगारो खलयणस्स । साहुणा भणियं-भो महाभाग ! खमसु वारमिकमिममवराहमेयाण । 'जं तुम्मे आणवेह' ति उवसन्तो हेरंबो। मुणियमुणिमाहप्पा य पायवडणपुरस्सरं खमाविऊण गया ते नियघरं । साहियघरकजा य भुञ्जो आगया साहुसमीवे । 'उचिय' त्ति मुणिणा सिट्ठो एसिं जिणधम्मो । पइदिवसपज्जुवासणवसेण य परिणतो बाद, जाया सम्मईसणिणो, पयट्टा जिणपूयणाइकिच्चेसु । मुणी वि विहरितो अन्नत्थ । कालकमेण य कइवयसाहुसमेओ देसंतरेसु विहरिऊण भुञ्जो समागतो तत्थेव । जाणियागमणा य समागया पुरिजणा उवरोहियसुया य । भत्तिसारं मुणिचलणजुयलं नमिऊण य आसीणा उचि १ 'ग्छ सिग्य प्र. ॥ २ 'विघ्नपतिः' गणेशः ॥ ३ "डाडंड प्र. ॥ ४ मुसुंबरेह प्र० । चूरयति इत्यर्थः ॥ ५ त्राणार्थम् ॥ ६ ऊद्धीकृतपरुषशुण्डादण्डम् इत्यर्थः ॥७ नास्तिकवादिनीः 'विनिपातन' मारणम् अनयोः ॥ ८ एसो जि' प्रती ॥ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशाव वन्दनके शिवचन्द्रचन्द्रदेवकथानकम् ४६। देवभइसरि- यहाणे । जहोचियं संभासिया साहुणा । विरहओ एत्थंतरे 'जातो अणुओगसमओ' ति उवट्टिया वायणादिनिमित्तं अवरे साहुणो । तेहिं य कयमंडलिविसुद्धिपमुह कि चेहि दिन दुवालसावतसुंदरं बंदणयं, संदिसावितो अणुओगो, पंजलिउडा य जहोचियमासीणा सट्ठाणेसु । जहाकाल मवकहारयणकोसो॥ लंबियवाणीए पयट्टिओ गुरुणाऽणुओगो । तयते विदिन्नवंदणगा कैयाणुतोगनिक्खेवावणियकाउस्सग्गा उडिया । तत्तो अदूरे विसेसगु हाऊण अहिगयमुत्तं पैरियत्तिउं प[व]त्ता । जाहिगारो। एत्यंतरे पत्थावमुवलब्भ पुच्छियं सिवभद्देण-भय ! निर्यमालवट्ठ-गुरुचरणग्गपुणरुत्तघडिय-विहडियकरयलावत्त वित्तंतबंधुरो को एस वावारो? कत्थ वा कीरइ ? को वा एयकरणे गुणो? ति । गुरुणा भणियं-निसामेहि॥३२८॥ एसो हि दुवालसावत्तवंदणगविही सिस्सस्स गुरुं पहुच पूयाकरणत्थं चुच्चाह । जं च बुत्तं 'कस्थ कीरह" ति तत्थ यपडिकमणे सज्झाए काउस्सग्गाऽवराहखामणए । आलोयण संवरणे [य] उत्तमद्वे य वंदणयं ॥१॥ मुणिणो पहुच जइ बि हु वंदणगविही इमो समक्खाओ। तह वि गिहिणो वि जुत्तो पच्चक्खाणाइकिरियासु ॥ २ ॥ मुंणिणो गिहिणो य जओ गुरुविण यविहिम्मि तुल्लयं चिंति । जिणपन्नत्तो धम्मो सबो वि य विणयमूलो जं ॥ ३ ॥ १ 'अनुयोगः' सूत्रार्थव्याख्यानं पाठनं वाचनं वा ॥ २ कृतानुयोगनिक्षेपणीयकायोत्सर्गाः ॥ ३ परावर्तितुम् ॥ ४ “यलाभवट्ट प्रती ॥ ५५ मुनेः गृहिणश्च ॥ ॥३२८॥ वैणमालालंकिया, पवरकरिकवोलंपालि व अणवस्यपयट्टदाणवरिसा, दूरुग्गयपयावताराचंदनरिंदभुयपरिहरक्खिया कोसंबी नाम नयरी । तत्थ य दुवे पुरोहियसुया लोयविस्सुया सिवभद्दो सिरिओ य परिवसंति । ते कोऊहलिणो खन्नवाय-धाउवायाईसु परमरसिया देवयावयाराइमंतविहाणेसु जं जं परिविनाणवतं पुरिसविसेसमवलोयति तं तं उवयरंति, पुच्छति य जो जविसए रसितो सो तं पुच्छह करेइ य अवस्सं । तैचिमुहं पुण न नरं पयट्टिउं तरह तरणी वि ॥१॥ देवमविभाविऊणं मन्ने कज्जुञ्जमो जमो व सँयं । जणइ निहणं जणाणं ही! आसा कं न विनडेइ ? ॥२॥ तीए य पुरीए पुरस्थिमदिसिविभागे सयासचिहियपाडिहेरं हेरंवैभवणमत्थि । तम्मि य मगहामहारायसुतो साहू सुदंसणो नाम पडिवन्नसविसेसतवोकम्मो, अप्पणो परिकम्मणनिमित्रं गुरुणाऽणुनाओ मुंसाण-सुनहराईसु निवसंतो, अनिययवित्तीए य विहरंतो हिओ काउस्सग्गेणं । 'केरिसचित्तावद्वंभो ? त्ति परिक्खानिमित्तं तकालुप्पाइयतइवियसुंडादंडडामरोवधाएहिं थेवं पि अखुद्धचित्तं पलोइऊण समुच्छलियातुच्छपमोयपन्भारो हेरंबो तं मुणिं वंदिऊण विनविउं पयत्तो १ कृष्णपक्षे बनमाला-आजानुलम्बीहास, नगरीपक्षे वनमाला-उद्यानानां श्रेणिः ॥ २ कपोळपालि-हस्थलम् ॥ ३ करिगण्डस्थलपक्ष नवर्षा-मदवारिनिझरणम्, नगरीपक्षे पुन: दानवर्षा-श्रमणमाहनादीनुपलक्ष्य दानप्रवृत्तिरूपा ॥ ४ रसिकः ॥ ५ तद्विमुखं पुननं नर प्रवत्तयितुम् ॥ ७ सदा ॥ ८ पूर्वदिग्विभागे सदासभिहितप्रातिहार्यम् ॥ १ 'हेरम्बभवन' गणपतिमन्दिरम् ॥ १० परिकमेणा-अभ्यासः ॥ ११ श्मशानशन्यगृहादिषु ॥ १२ तत्कालोत्पादित विस्तारितशुण्डादण्डभीषणोपधातः ॥ NARASWESAXASSAGARRCALCSCER Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरइओ कहारयण कोसो ॥ विशेषगु णाहिगारो । ॥३२९॥ सत्तमरियप्पुढवी पाउग्गो अजिओ वि पावभरो । दुकरकिकम्मविहीए सो य हणतो तहा तुमए जह तइयनश्यसीमं संपत्ती संपयं महाराया ! इय दुजयजयजातो परिस्समो बाहई तुरंगं ।। १४ ।। ।। १५ ।। ।। १६ ।। ॥ १७ ॥ ॥ १८ ॥ छ ॥ एयं निसामिऊणं पयंपियं महुमहेण जइ एवं ता भुओ जयबंधत्र ! करेमि साहूण बंदणयं भणइ जिणो कावेक्खयाए अणहत्तणं तु भावस्स । ता दबओ चिय परं वंदणगमकिंचिकरमेव ता सिवभद्दष्पमुहा ! वंदणयविहाणमेरिसपभावं । निम्मलगुणागराणं गुरूण निचं समायरह एवं भणिए साहुणा जहट्टियत्थायन्नणसमुध्यन्नपनाइरेगा वंदणयसुत्त पढणाईसु पयट्टा सिव भद्दाहणो । अहिगयमुत्तइत्था य पारद्वाऽणुडिउं । नवरं किंपि जाइमयमत्तो सिरिओ भाउणो अणुवित्तीए तमायरइ । एवं वच्यंति वासरा । अणुमोएइ य अणवरयं धम्मपडिवत्तिकारण तेण हेरंबसिक्खावयं, अभिनंदेइ य पुणो सुदंसणमुणिणो दंसणं, सरह य अभिक्खणं तद्दिन्नधम्मोवएसनिवहं सिवभद्दो इयरो य । नवरं न सम्ममवयरह हिययम्मि वंदणयविही एयस्स । कालकमेण दो वि मरिऊण उवबन्ना सोहम्मदेवलोए देवत्तेणं । तत्तो चविऊण वेयमहागिरिवरावयंससच्छहे अतुच्छकणयपायारपेरंतपरिचुंबियंबरे अणेगविजाहराणवरय कीरं तच्छेरयनियरे गयणवलहनयरे कणयकेडणो विजाहररायस्स गिहिणीए देवइ [ना]माए कुच्छिसि उबवमा पुत्तत्तणेणं ति । जाया उचियसमए । पइडियाई जेट्ठस्स सिवचंदो इयरस्स १६ र प्रतौ ॥ २ 'मधुमथेन' कृष्णेन ॥ ३ "तणं न भा प्रती 1 'अनल' निर्दोषत्यं प्राधान्यमिति यावत् तु भावस्य ॥ ४ हेरम्बशिक्षापदम् ॥ ५ वैताव्यमहागिरिवरावतंससमाने अतुच्छकनकप्राकारपर्यन्तपरिचुम्बिताम्बरे अनेकविद्याधरानयर तक्रियमाणा धर्यनिकरे ॥ चंददेवो ति [नामाई] । अहिगयकलाकोसल्ला य पत्ता जोवणं, सिक्खविया य पिउणा नहगमणाइविज्जानिवहं । पट्टा य मायंगी विजासाहणनिमित्तं मई चंददेवस्स । तत्थ य किर 'केचिराणि वि दिणाणि मायंगधूया परिणिऊण तग्गिहगएण विजासाहणं करेयां' ति कप्पो । अह निवारिजमाणेण वि पिडणा, पडिखलिज़माणेण वि भाजणा, पुवभवजाइमयावन्निय गुरुविषयकम्मावज्जियनी यगोयकम्माणुभावतो चंद देवेण कुणालाविसए मायंगधूया दाण-सम्माणाईहिं आव जिऊण तजणगं परिणीया । वेत्थो य विजासाहणपरायणो तीए समं घरवासेण । तहाविहकम्मदोसओ य जाओ अवरोप्परं परमपेमपयरिसो । 'किं इमिणा निरत्थएणं किलेसा ऽऽयासकारिणा विजासाहणेणं ?" ति पडिभग्गो एसो तदाराहणविहाणाओ । विस्सुमरियमयं कनिम्मलविजाहरकुलाणुरूव कायद्दविसेसो य इयरमायंगो व वडिउं पवत्तो हीणचेडासु । कालंतरेण य जायाणि से डिंभाणि । निबिडं निबद्धो तन्नेह तंतुजाले हिं । पिइ भाउएहिं वि 'अच्चंत विलीणसमाचारो' ति चत्ता दूरेण तस्संकहा । परिणीया य विजाहररायसुया वसंतसिरी नाम सिवचंदेण। तीए य समेतो सम्मेयसेलाई जहिच्छं कीलंतो दिणाई गमेइ । अन्नया य जच्चवरतुरय- सिंधुर-बंधुररह निर्वैह- सुहडपरियरितो । नहयलमावूरिंतो विमाणमालाहिं सबत्तो विविहाउहकरखे यर परिकिन्नो धरियसेयवरछत्तो । पासट्टियाहिं विजाहरीहिं उद्भूयसियचमरो अग्गडिय चारणकीरमाणगुणसंथवो पयत्तेण । कलयंटकंठगायण गिअंतुद्दामवर चरितो १ पूर्वभव जातिमदावगणित गुरु विनय कर्मावर्जित नीचत्रकर्मानुभावतः ॥ २ उषितः ॥ ३णुकलायव्य प्रती ॥ ४ चडसुतौ ॥ ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ द्वादशाव वन्दन के शिवचन्द्र चन्द्रदेवकथानकम् ४६ । ॥ ३२९॥ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E देवमद्दसूरिविरहओ कहारयणकोसो॥ विसेसगुजाहिगारो। ॥३३॥ द्वादशाव वन्दनके शिवचन्द्र चन्द्रदेवकथानकम् ४६॥ विजाहररायसुतो स महप्पा जंबुदीवजगईए । पउमवरवेदिगाए कीलित्ता सगिहमणुचलितो ॥४ ॥ कह वि कुणालाविसयस्स मज्झमागेण वच्चमाणो य । तं कोउगेण ओयरिय भाउगं भासए एवं किं भो महायस ! तए इहेव अच्चंतनिंदियम्मि कुले । किमिएण व मयगकलेवरम्मि बद्धा रई दूरं ? किं एत्थ पत्थणिों ? किं न निरिक्खेसि रक्खसघरे छ । ठाणडाणाणद्धं पिसियं चम्मच तिरियाणं? ॥७॥ किं वा न विस्सगंधप्पबंध[...]इजमाणनासउडं । रेणं वचंतं लोयं एत्तो पलोएसि ? ॥८ ॥ एगत्थ हडखंडावगिनमनत्थ घोरसाणगणं । अवरत्थ गिद्ध-वायसमन्नत्तो कोलतुमुलरवं ॥९ ॥ जइ ता मसाणतुलं पि गिहकुडीर अहोऽभिनंदेसि । विचिगिच्छं केण समुबहसि ता? नेव जाणामो ॥१०॥ एवं जेट्ठभाउणा सो संलत्तो समाणो चिलायविलीणं नियकलेवरविरूवयमवलोइय, देवकुमाराणुरूवं च तस्सरीरसिरिमवधारिय, अयंडनिवडियविज्जुदंडज्झामिउ व विच्छायवयणो लज्जावसनिमिलंतनयणो सदुक्खं भणिउं पबत्तो-भो भाउग ! को न याणइ एयनरयागारविडंबणाभीमं महादुर्गुच्छापयं मायंगत्तणं ? केवलं केणावि पुखदुकम्मदोसेण परिचत्तपवरविजाहररायलच्छिविच्छड्डो विमुकतुम्हारिसबंधुपडिबंधपबंधो एरिसे विजाइवावारपारावारे पाडिओ म्हि, एत्तो वि सबहा विलिओ म्हि नियदुबिलसिएण असरिसावजसपंसुफंसणेण य, ता सबहा विभावेसु-किं मए पुचजम्मे दुकयं कर्य ? १ कृमिणा इव ॥ २ रद्धगि प्रतौ । अपरत्र ॥ ३ कोला:-शुकराः ॥ ४ 'चिलातविलीनं' किरातविरूपम् ॥ ५ अकाण्डनिपतितवियुद्दण्डभ्यामित इव । भ्यामित:-दग्धः ॥ ॥३३॥ CACAXAXIRAASARASWARRERAKA +KACHERSANARAYARANASAMACAMARNATAKACARROR वन्दनकगुणे कृष्णस्य कथानकम् एयकरणे गुणो पुण सबगुरूहिं निवेदिओ सक्खा । “विणतोवयार माणस्स भंजणा"पमुहवयेणेहिं ॥४॥ दवे भावे य दुहा बंदणगमिमं हि नवरमबसेयं । कोहाईहिं दवे भावे पुण निजराहे ॥५॥ अन्नं चनिहणइ नीयागोयं नियत्तई दुग्गईउ अप्पाणं । वंदर्णय[म्मि] पयत्तो वसुदेवसुतो इहं नायं । किर बारवइपुरीए जायवकुलनहयलामलमयंको। वसुदेवसुतो कण्हो ति भारहद्धाहिवो पुत्विं ।। ७॥ रेवयसुसेलसंठियनेमिजिणिवस्स भूरिपरिवारो । वंदणवडियाए गतो कयतन्त्रमणो य भत्तीए ॥८ ॥ तेकालुच्छलियविसिट्ठजीवविरिउल्लसंतसुहभावो । वंदइ दुवालसावत्तवंदणेणं मुणी सके। ॥९ ॥ अंह गाढपरिस्समनिस्सरंतपस्सेयसलिलसित्तंगो । गाढकिलामियकायऽट्ठिसंधिबंधो भणइ नेमिं ॥ १० ॥ नाह! जरासंधवसुंधराहिवाईण घोरसमरेसु । पडिभडभिडणुभडवियडकरिडाडोवभीमेसु ॥ ११ ॥ अणवस्यमुकसर-शसरविसररुद्धंतरावगासेसु । निप्पिटुंदुहृदट्ठोट्ठवंठअवठद्धभूमीसु ॥ १२ ॥ एवं न परिस्संतो किं कारणमेत्थ ? तो भणइ नेमी । दुजेयं विजियं नूणमिण्हि तुमए महाभाग! ॥ १३ ॥ तहाहि१ विनयोपचारः ॥ २ "विणओवयार १ माणस्स भंजणा १ पूयणा गुरुजणस्स ३ । तित्थयराण य आणा ४ सुयधम्माराहणा ५ किरिया ६॥" आवश्यकनियुक्तिः गाथा १२१५ ॥ ३ दुर्गतेः ॥ ४ वन्दनके प्रवृत्तः ॥ ५ वन्दनेन मुनीन सान् ॥ ६ अथ गाढपरिश्रमनि:सरस्मस्वेचसकिलसिकाजः । गाढलान्तकायास्थिसम्धिवन्धः भणति नेमिम् ॥ ७ प्रतिभढाळपाटविकटकरिघटाटोपभीमेषु ॥ ८ "रिकडा प्रती ॥ ९ निष्पिष्टदुष्टयष्टोष्ठवण्ठायएम्धभूमीपु ॥ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभइसरिविरइओ कहारयण-| कोसो॥ विसेसगुणाहिगारो। ॥३३॥ लजापए अलजा अलजणिजे य लजिरा बाद । ही! दुवियपुरिसा अप्पहियं पि हुन पेहंति ।।३॥ किंबहुना - संसाराब्धिगमीरकुक्षिकुहरे दुष्कर्मजम्बालिनि, व्यामग्नः कथमुद्धृतोऽयममुना कारुण्यपुण्यात्मना ? | किं कृत्वाऽस्य कृतार्थतां तदधुना यास्यामि ? दत्वाऽनृण:, सम्पत्स्ये च किमङ्ग? कैश्च वचसां स्तोमैः स्तुवे तद्गुणान् ? इत्थं भक्तिभरादिवाऽऽनतवपुः व्याक्षेपमुक्ताशयः, पाणिभ्यां मुखवखिकां दधदलं सत्रं समुच्चारयन् । धन्यः कोऽपि गुरुक्रमाम्बुजतटीलुंठ्यल्ललाटः पुरो, दत्ते वन्दनकं प्रकल्पितकरावर्तक्रियाबन्धुरम् ॥ २ ॥ करोति मूर्योऽपि गुरोः सपर्या, वित्तव्ययापादितपूजनेन । भावप्रधानेन तु वन्दनेन, विज्ञः परं कोऽपि विधातुमिच्छेत् इति किं भूरिभिरुक्तैरुच्चैर्गोत्रस्पृहा यदि समस्ति । मोहव्यपोवाञ्छा, भवेत् तदेहाऽऽदृता भवत ॥४ ॥ ॥ इति श्रीकथारत्नकोशे द्वादशावर्त्तवन्दनकफलवर्णनायां शिवचन्द्र-चन्द्रदेव कथानकं समाप्तम् ॥ ४६॥ द्वादशाव वन्दनके शिवचन्द्र चन्द्रदेवकथानकम् ४६। वन्दनकविधानो पदेशः १ टीभुजल प्रती ॥ २ किरोति मुक्खो पि प्रतौ ॥ ३ वित्यव्य प्रतौ ॥ ४ "रिभक्तै प्रतौ ॥ ५ वाच्छा, च चेत् त प्रतौ ॥ ॥३३१॥ पडिक्कमणं। commaवंदणगविहीसलो पडिकमणस्स वि य जोग्गयमुवेइ । ता पडिकमणसरूवं एत्तो लेसेण दंसेमि पडिपहहुत्तं कमणं नियत्तणं पावकम्मजोगाओ । सुद्धज्झवसायवसा तं पडिकमणं ति किर्तिति ॥२ ॥ ते पुण मिच्छत्त-कसाय-अविरईमाइणो मुणेयवा । इह पावकम्मजोगा पडिकमणं जविसयमाहु रागेण व दोसेण व मोहेण व "पेल्लिओ कह वि जीवो । संम्मग्गं परिहरि सच्छंदं कयपरिभमणो ॥ ४ ॥ पुणरवि विवेयरज्जूए [.........] करिसिउं च पुणरुतं । दुकडगरिहाए दर्द भुजो आणिअइ सठाणे । ॥५॥ जह निउणेणं आरोहगेण आरोहिऊण गिरिटंके । ओयारिजह हत्थी सणियं सणियं सठाणम्मि ॥ ६ ॥ तह दढपमत्तयाए विक्खित्तो सबओ इमो जीवो । सनाणेण ठविञ्जइ भुञ्जो वि हु सं[ज] मुजोगें ॥ ७॥ अपडिकमणे दोसा मिच्छत्ताईहिं हम्ममाणस्स । ते संभवंति जेसिं पंअंतोजाइनोवोत्तं ॥८ ॥ तविवरीयत्ते पुण नाणाइपसाहगा गुणा दिट्ठा । उभयत्थ वि दिद्रुतो निदिडो सोमदेवो ति ॥९ ॥ तथाहि-अस्थि कोसलदेससविसेसोवलद्धपसिद्धिसमिद्धिविसेसं वावी-कूव-देवउला-ऽऽसमसमलंकियं नियनियकम्माणु १ पडिपडिहुतं कमिणं प्रती । प्रतिपथाभिमुखं कमर्ण निवर्तनं पापकर्मयोगात् । शुद्धाध्यवसायवशात् तत् प्रतिक्रमणमिति कीर्तयन्ति ॥२°दस्स%ावप्रती ॥ ३ प्रेरितः ॥ ४ सन्मार्ग परिहत्य ॥ ५ अवतार्यते ॥ ६ "जोगो प्रती ॥ ७ "जंते जा प्रती ॥ प्रतिक्रम णस्य स्वरूपम् Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिबिरइओ कहारयणकोसो ॥ विशेषग माहिगारो ॥३३२॥ सेवण पवनचउवन्नविभागं कुंडउरं नाम नगरं । जत्थ सया सिंहंडिउडडसयवत्तवणो सिरिसेणो नरिंदो परिसरपएसो य, अगहकीलालालसो बुहजणो बालवहूवग्गो य । तत्थ य पुरे सया वि वत्थवो सोमदेवो नाम वणिओ, सुजसा नाम गेहिणी । जहावट्टियजिणधम्मपरिपालणपरायणाण य ताण परोप्परपणयसाराई वच्चन्ति वासराई | एगया य सो रयणीए सुत्तविउद्धो विचितिउं पवत्तो— अद्भुविहकम्मपोग्गल गाढावेढियपएसनिवहस्स । सच्छंदयाए कत्थई पर्यट्टिउं अलभमाणस्स कइया वि पर्यडसमुल्लसंत वेम्मह महावियारस्स । कइया विभूरिभ्रण-भवण-सयणचिन्ताउलमणस्स कहया वितिकोवग्गिवग्मिरुद्दामदाहनिवहस्स । जीवस्स निरंतरमित्थमसुद्वावारनिरयस्स संसारसायरे निर्वडिरस्स कहमिव भवे परित्ताणं १ । संभाविज्जर कह वा कम्मट्टयगंठिनिडवणं १ इय एवंविहचिंतासंतइसंतप्पमाणगत्तस्स । तस्स वणियस्स सूरो समुग्गओ उदयसेलम्मि ताविहो यसो भणिओ गिहिणीए – अञ्जपुत ! किमेवं विसन्नचित्तो व कत्थइ अबद्धचक्खुलक्खो अंतो चिय ज्झायसि ? 11 2 11 ॥२॥ ॥३॥ ॥ ४ ॥ ॥५॥ १ श्रीषेणराजपक्षे शिखण्डिनां बाणानाम् उद्दण्डाः प्रचण्डाः शतपत्राकारधारिणो व्रणा यस्य, रणदक्ष इत्यर्थः । पुरपरिसरप्रदेशाः पुनः शिखण्डिभिः - मयूरैः उद्दण्डानि - सुशोभीनि शतपत्राणां कमलविशेषाणां वनानि यत्र एवंविधाः ॥ २ बुधजनः अनपासु विशुद्धासु कीटासु लालस:- सोत्कण्ठः । बालवधूवर्गथ अनखामुनखच्छेदादिवर्जितासु कीडासु रतिक्रीडादिषु लालसः ।। ३ प्रदेशा:-आत्मप्रदेशाः ॥ ४ लसमा प्रतौ ॥ ५ मन्मथः कामदेवः ॥ ६ तीव्रकोपानिवल्गितृ उद्दामदाइनिवहस्य ।। ७ निवद्दस्स प्रतौ ॥ ८ निपतितुः ॥ को य तदोसनिग्धायणसमत्थो संपयं अणुड्डाणविसेसो १ अहो ! एगजणणीतुगम्भसंभवे वि तव कल्लाणाशुकूला मई, मम एवं तद्विवरीय ति । अह परमविम्य मुद्दतेण रायसुयसिवचंदेण सुमरिया भगवई रोहिणी देवया, पूयापयरिसपुरस्सरं पुच्छिया यभयवई ! किं कारणं तुल्ले वि जणणी-जणगसंबंधे एयस्स अम्ह भाउणो एवंविहा हीणकुलनिवासलालसा बुद्धी जाय ? ति । ततो भयवईए ओहिनाणो वओगमुणियजह डियवइयराए सिद्धो से पुवभवनिबद्धो जाइमयावलेवमओ सुगुरुविणयकम्मविमुहोऽशुड्डाणविसेसो । तं च सोचा जायं दण्डं पि जाईसरणं ति । अह जहडिओवलद्धवत्थुपरमत्थेण सिवचंदेण परमसंवेगमुवहंतेण भणितो चंददेवो–भाउग ! किमित्तो वि तुज्झ साहिजइ ? साहियं चिय जहट्टियं सर्व्वं भयवईए, कुणसु जमियाणि करणिजं ति । गतो सिवचंदो जहागयं, सविसेस गुरुवंदणाइकिच्चेसु निच्चुञ्जतो जातो, कल्लाणपरंपरामायणं च संबुत्तो । इयरो य अच्चंत चित्तसंतावताविजमाणसवंगो 'हा हा ! महापावो हं सुगुरुपयपउमफरिस [सु] कयदूरीकतो किमियाणि करेमि ? कत्थ वा वच्चामि ?' ति संसयसयवाउलहियओ टुक्कुटुंबम्बद्धो, ईसि पि अप्पाणं पंकखुत्तो व करिवरो उद्धरिउमपारिंतो, गुत्तिखित्तो व दोगचचककंतो अकयअष्पहितो पहिउ व मच्चुमुहमोगाढो ति । हसलहिए वि सह सुहकरे वि केसि पि सुगुरुचिसए वि । वंदणगविहीए मई लजाइवसा न संभवद्द गणहरविरइयमुत्तं हरि-चकदरेहिऽणुट्टियं च तयं । चंदणगं दिंता तह वि बालिसा गुरुसु लज्जेंति १ दुष्कुटुम्बे उपबद्धः ॥ २ तुह प्रती । तथाश्चाषितेऽपि सदा सुखकरेऽपि ॥ ३ च लयं प्रतौ ॥ ५६ ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ प्रतिक्रमणे सोमदेव कथानक ४७ । ॥३३२॥ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरिविरइओ कहारयणकोसो। प्रतिक्रमणे सोमदेवकथानकम ४७। विसेसगु जाहिगारो। ॥३३३॥ तत्थ एगो गामिल्लगो हणणस्थं उवट्टिए ददृण उत्तरोत्तरं पलायमाणो मारिओ तेहिं । इयरो पुण 'भो भो! कीस मारेह ? पसीयह, साहह जमिह कीरइ' त्ति भणमाणो उ[]डिओ चेव पडिवालिंतो वुत्तो रायपुरिसेहि-जह रे! जेहिं पएहिं इह पविट्ठो तेहिं चेव नियत्तसि ता न हम्मसि त्ति । मरणमहाभयविहुरो य जहुत्तविहीए पडिनिक्खंतो एसो। एत्थ य एस उवणओ-जो सुत्तावेदिओ पएसो सो 'पमायपडिसेवाठाणं रक्खियत्व'-न्ति । आणा रायद्वाणीयतित्थयरस्स । जे य दुवे गावेल्लया ते अवराहकारिणो । तत्थ जो उत्तरोत्तरं आणालंघणेण पयट्टो सो राग-दोसडाणीएहिं रक्खगेहि हणिजइ दीइसंसारदंडेण । जो तप्पएहिं पडिनियत्तो संवे[ग-वे रग्गाइभावणाए सो न तबिधायमावन्नो ॥ छ । ता भो सोमदेव सावय ! कस्स व न होज खलियं ? पमायचकेण को न अकंतो? । को ब न दुई तिंदियमंदीकयधम्मवाचारो? ॥१॥ किंतु विणियत्तइ सयं ज्झड त्ति जो निदियत्थकिच्चाओ। "हा ! दुइ चेट्ठियं चिंतिय च" इचाइवयणेहिं ॥ २ ॥ झरतो अप्पाणं पच्छायावेण डज्झमाणो य । अंतोनिहित्तहुयवहकणी इसिरो वणतरुव सो सुज्झइ न य लिप्पा भवसरसीए चिरं वसंतो वि । उप्पनो वि य तहियं पंकयमिव पावकेण ॥४ ॥ एत्तो चिय झाणगो दुबयणायनणेण कयकोचो । विस्सुमरियसाममो पसन्नचंदो नरिंदरिसी ॥५॥ रुद्दज्झाणो संगलियसत्तमनिरयाणुकूलकम्मो वि । तं लहु पडिकमंतो संपत्तो केवलालोर्य १ प्रामेयकौ ॥ २ सो जुज्झ प्रती । स शुध्यति न च लिप्यते ॥ ३ विस्मृतश्रामण्यः ॥ ४ सकलितसप्तमनरकानुकुलकर्माऽपि ॥ ॥३३३॥ RASCORRECORAKARTAC%ECACA अवरे वि जमुणनिवरिसि-चिलाइपुत्ताइणो महाभागा । दुचरियपडिकमणं कुणमाणा पंछियं पत्ता ॥७॥ इय मो महायस ! सया पडिकमणे उजओ हवेासि । अक्खेवेणं कम्मक्खयं तुम जइ समीहेसि ॥८॥तहा आवस्सएण एएण सावओ जइ वि बहुरओ होइ । दुक्खाणमंतकिरियं काही अचिरेण कालेण ॥९॥ जहा विसं कोढगर्य मंत-मूलविसारया । विजा हणंति मंतेहिं तो तं हवइ निविसं एवं अट्ठविहं कम्मं राग-दोससमञ्जियं । आलोयंतो य निंदतो खिप्प हणइ सुसावओ ॥ ११ ॥ इमं च समबक्खि[त्तचित्तोऽवधारिऊण, ससुतं सअत्थं पडिकमण विहाणं च जाणिऊण, परमपरितोसमुबहतो भववारिरासिसमुत्तिनं [व] अप्पाणं विभावितो पडिगओ सोमदेवो सगिहं । निवेहयमिमं गेहिणीए । सा वि समुल्लसंतविसुज्झमाणज्झव[साया] सायरं पवना तं मग्गं । उभयसंज्झपडिकमणनिरयाण य ताण वचंति वासरा । अह केणइ पुत्वभवजणियासुहकम्मोदयवसेण झीणो से लच्छिविच्छट्टो, पहीणा जणपूयणिजया, विगलिय माणिस्सरियं, धम्मवासणा वि सणियसणियमोसकिउमारद्धा । भणिओ य सो गिहिणीए-अञ्जउत्त ! जइ कह वि देवदुओगेण बज्झो अणिच्चो सव्वाणत्थहेऊ दुक्खसंरक्खणिजओ धम्मविग्घोहकारी, एत्तो चिय सप्पुरिसेहिं परिहरिओ अत्थो तुच्छीहूओ, ता कीस एयविवरीए, एत्तो चिय सबसमीहियफलदाणदुल्ललिए धम्मत्थे वि तुमं मंदायरो हवसि ? तुच्छधणो वि धम्मधणेण धणवं चेव पुरिसो इह-परभवे य अवस्समसेसकल्लाणभागी य ति । तओ कुविओ सोमदेवो पयंपिउं पवत्तो-आ १ दुखरितप्रतिक्रमणम् ॥ २ "तो छ धा' प्रती ॥ ३ क्षीणः ॥ ४ मानश्वर्यम् ॥ ५ काही ए प्रतौ ॥ ६ लियध प्रतौ ॥ SAKAM Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दरिविरइओ का प्रतिक्रम सोमदेवकथानकम् ४७। कहारयणकोसो ।। विसेसगुणाहिगारो। ॥३३४॥ पावे ! ममावि पुरओ पंडिचंमुबहसि १ हिओवएसदाणाय मुहरत्तणं दंसेसि य ? ति । तओ 'धम्मोवएसबाहिरीहओ' ति उवेहिओ सो गिहिणीए, पयडो य सच्छंदयाए पावट्ठाणेसु । तह वि 'पारद्धं' ति सप्पुरिसामिमाणेण न चयह दवओ पडिकमणपडिवत्तिं । बच्चंति वासराई। नवरं पडिकमणाइकिच्चपडिकूलकम्मकारिणं दहणं तं हसिउमारद्धा लोगा, भणिउं पवत्ता य-भो! किमेवं विसरिसं तुह चेट्टियं ? ति । सो भणइ-न समण व सबसावञ्जजोगविरया वयं, जं अणुढेमो तप्फलभागिणो भवामो ति । कुसलसावएहिं जंपियं-भद्द! न जुबह तुह एवमुल्लविउ, नियभूमिगाविसरिसवित्तीए हि जायह धम्मखिंसा, तत्तो य संकिलेसो, तओ य परमं अबोहिबीय, तत्तो य दीहसंसारदंडो, किंच-सबा बि धम्मकिरिया रोगितिगिच्छापडितुल्ला विवजएण कीरमाणी अणत्थफला, विसेसओ मुद्धबुद्धीणमालवणजणगत्तणेणं ति । एवं फुडक्खरं सो वुचो वि 'न कामवित्ती वयणिज्जं पेहद' ति मोणमवलंबिऊण पारद्धकिचेसु वद्विउं पवतो।। __ अन्नया य तेण पुवपुरिसविलिहियवहिगाइ पलोयतेण दिटुं सुगोवियं भुंजखंडं । तं च वाइयं फलतेणं । अवगयं च तल्लिहियाणुसारेण सगिहपिट्ठओ चिरकालठवियं पंचसुवालक्खपमाणं निहाणं । परितुट्ठो एसो । सुहमहुने य बलिपक्खे- । वपुरस्सरं पयट्टो खणिउं । 'वंतराहिट्टियं' ति पाउन्भूया उपाया। भीओ एसो नियत्तो निहाणप्पएसखणणाओ । उच्छलि| यपवलचउत्थकसायनडिजंतो य अबहीरिऊण दंसणविरुद्धयादोसं, अंगीकाऊण कुलविलक्खणायार, अगणिऊण साहम्मियलो १ पाण्डित्यमुदसि ॥ २ मुखरत्वं दर्शयसि ॥ ३ धर्मनिन्दा इत्यर्थः ॥ ५ भूर्जपत्रमण्डः ॥ ५ चतुर्थकषायो लोभः । ॥३३४॥ HENNAHARASNA.C4%%* CAC%%ACHARSASACARRANA- NCCI G त्ति । सोमदेवेण वि 'सद्धम्मचारिणि' ति सिट्ठो सबो वि निययामिप्पाओ । सम्मं परिभाविऊण भणियमणाए-अजउत्त ! गुरूवएसविरहेण निउणेण वि न मुणिजह एवंवि[व]त्थुवियारपरमस्थो, ता वच्चाहि भगवओ सिवभद्दपरिणो समीवे, सविणयकयप्पणामो य पुच्छसु जहट्टियथमिमं ति । 'तह' ति पडिसुणिय गओ सोमदेवो सरिसयासे, जहाविहि [वंदिय] सिडो य निययाभिप्पाओ। सरिणा भणियं-भो देवाणुप्पिय ! एवंविहसुहुमपयस्थपरित्राणाभिमुही न संभवइ भवामिनंदिणो सबहा सेमही, ता सीसंतमिममवहिओ होऊण आयनसु-राग-द्दोसाईहिं परैज्झमाणस्स हि जीवस्स अवस्सं पावट्ठाणेसु पयह मई, सा य जह पयट्टा तहेब नियत्तावितस्स पडिकमणं किर्तिति, तं पुण अद्धाणदिट्ठन्तेण एवमवसेयं किरि केणइ नरवडणा अपुवपासायनिवेसनिमिर्च भूमिलक्खणवियक्खणे नरे पेसिऊण पलोयाविर्य सल्लक्षणोचवेयं खोणिमंडलं । तं च सुनिच्छिऊण तचउद्दिसिविभागनिक्वित्तसुत्तविनासा तल्लक्खणविहिन्नुणो रायाणं भणिउं पवत्ता-देव ! अणुडिओ अम्हेहिं तुम्ह आएसो परं तद्देसनिहित्तसुत्तं अच्चतमप्पमत्तेहिं तहा कायत्वं जहा न केणइ लंपिजइ, 'जेण य केणइ लंघिजह तं सो हतबो, तेहिं चेव पएहिं पुणरवि नियतंतो रक्खणिजो' ति ए[स्थ] कप्पो । इमं च आयनिऊण राइणा तेप्पउत्तविहाणवेइणो निरूविया तत्थ पुरिसा, उक्खयतिक्खखग्गग्गा य द्विया चाउदिसं। मुको य दूरेण सो पएसो नयरनिवासिजणेण | नवरं कत्तो वि गामेल्लया दुवे पुरिसा अमुणियतहाविहवइयरा कहिं पि वक्खित्तचिचाणं रायपुरिसार्ण ज्झड चि जहुत्तमुत्तमइलंघिय पविट्ठा तयभंतरे । ते य पलोइऊण 'हण हण' ति भणमाणा उग्मीरियनिसियासिणो धाविया रायपुरिसा। १ 'प्रतिश्रुथ' अन्नीकृत्य ॥ २ संसारबहुमानिन इत्यर्थः ।। ३'शेमुषी' बुद्धिः ॥ ४ "रस्समा प्रती । पराधीनस्यत्यर्थः ॥ ५ तत्प्रयुकविधानवेदिनः ॥ हटान्तर RAHAKAKARAM Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमणे सोमदेवकथानकम् देवभइसरिविरहओ कहारयणकोसो॥ विसेसगुजाहिगारो ॥३३५॥ तं च सोचा करुणापूरपूरिजमाणहियएण बजरियं तावसेण-पुत्त ! गिण्हसु जलणं, केवलं तुह विणिवायणस्थमेसो सबो पावजोगिणो उवकमो, जओ सवओ पजालिंय थोहरं तं खिविऊण तस्संजोगजाय[जाय रूवेण ते सरीरेण सकजं साहिस्सइ, अने वि एवं विणस्समाणा दिट्टा अणेगे अम्हेहि, ता कीस अकयकुसलकम्मो निरस्थय निहर्ण वच्चसि ? ति, वच्चसु एत्तो वि नियगिह, इहरहा तवयणवागुराविसमपडिओ य मेयसिलिंबो व विवञ्जिहसि, किं न वच्छ ! पेच्छसि ममावि एवंविट्ठजणजोगाओ भग्गमिममुत्तमंगं दाहिणबाहू य ? । सोमदेवेण भणियं-भय ! कहं पुण एयं जायं ? ति साहेसु । तावसेण भणिय-जहा बच्छ ! तुम तहा अहं पि एगेण धाउवाइणा पावेण विप्पयारिऊणं आणीओ एत्तो अरे, रसकूवियावसेण जञ्जरियसीसो भग्गवाहुदंडो निरसणो तड्यदिवसे गाढोभयकरधरियरसपाणगायगोहापुच्छपेरंतो नीहरिओ कूवियाकुहराओ, छुहाकिलंतकाओ य तप्पएसोवागयकंदमूलत्थितावसेहिं करुणाए सणियं सणियं आणीओ इहाऽऽसमे, बंधु व परिवालिओ कुलवहणा, पगुणीहूयसरीरो य अणुसासिओ है । जहा मणवंछियस्थसाहणपचलमेकं वयंति इह धम्म । तेण परिग्गहियाण गिहीण सर्व पि संपडा ॥१॥तहाहिएत्तो चिय हय-गय-जोहजूह-रहनिवहमणहरं रजं । एत्तो चिय पणयपबंधबंधुरो सुंदरीवग्गो एत्तो चिय धवलुत्तुंगचंगबहुभूमभवणवित्थारो । एत्तो चिय दीणा-ऽणाहदाणजोग्गो धणाभोगो ॥३ ॥ १ कधितम् ॥ २ मारणार्थमित्यर्थः ॥ ३ लिए थोवं तं खि प्रतौ ॥ ४ त्वाम् ॥ ५ 'मृगशिलिम्बः' इरिणशिशुः ॥ ६ विप्रतार्थ ॥ ७ गादोभयकरतरसपानकायातगोधापुच्छपर्यन्तः ॥ ॥३३५॥ **&+%A8%AKRAKAR एत्तो च्चिय कायकिलेसविरहिओ वि हु समीहियं कुणइ । एत्तो चिय सरयमयंकनिम्मलं पाउणइ कित्तिं ॥४॥ एत्तो च्चिय देवत्तं भुजो सुगईगमं पि एत्तो वि । सोहग्गं स्वा-ऽऽरोग्गय पि एत्तो च्चिय लहेइ इय सबकजसाहणपदमपर्य धम्ममेव मुणिऊण । तस्साऽऽबञ्जणहेउं वच्छ ! पयत्तं सया कुणसु जे वि य इस्सर-नरवइ-सत्थाहप्पभिइणो महाभागा । दीसंति जए धण-धन-पणइणी-पुत्तमुहजुत्ता ॥ ७ ॥ ते वि न हु धाउवायप्पमुहोवाएहि तारिसा हुंति । किंतु सुविढत्तधम्मप्पभावओ होउ ता सेसं ॥८ ॥ एवं च कुलवइणा भणिओ हं तावसदिक्खं पवजिऊण इहेव गुरुपायपजुबासणं कुणतो चिट्ठामि, ता भद्द ! मम दिहाणिडपडणाणुमाणेण मुणियतहाविहावयापडणो लई पलायसु ति।। तओ भयसंभंतो 'तह' ति पडिसुणिय पणमियतावसचलणो गओ सोमदेवो नियपुरं । दिणावसाणे य पडिकमणपयदृस्स तहाविहसुहज्झवसायवसओ समुप्पमपुत्वदुचरियनिंदाविसेसस्स तस्स जाया तत्तालोयाभिमुहा सेमुही, पलीणा दुवासणा, पणटो दुट्ठचेट्ठियपक्खवाओ, बवगओ दवाभिलासो ति । एवं च दवावस्सयकिरिया वि भावपडिकमणकारणमुवगया एयस्स । 'अहो ! मिच्छद्दिविणो वि कुलवइस्स तस्स जारिसो धम्मत्थपरियाणणपरिणामो, सम्मबिडिणो वि अम्हारिसस्स न तारिसो' त्ति परं निवेयमुबहतो सुगुरुसयासे सम्म पवञ्जिऊण पच्छित्तं स महप्पा तप्पभिइ परिचत्तनिंदियासेसकिच्चो अचंतं धम्मुजओ जाओ । तओ पसरिया से कित्ती । जाया विसिट्ठधम्मिट्ठजणेसु परिसंखा ।। एवं वचंतेसु वासरेम तस्साऽऽवस्सयविहिं विसुद्धं पेहमाणो निहाणवंतरो सुत्तविबुद्धस्स आगंतूण भणि पबत्तो-भी Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमणे सोमदेवकथानकम् ४७ । देवभद्दसूरिविरइओ कहारयणकोसो॥ विसेसगुणाहिगारो ॥३३६॥ सोमदेव! तुह निम्मलाणुट्ठाणनिहारजिओ म्हि संपयं, ता अणुगिण्हसु पुबजिपिच्छिय निहाणं ति, अनं पिजं भो ! रोयह तं वरं वरेसु ति । सोमदेवेण जंपियं-भो महाभाग! एचो पवनधम्मगुणाण निविग्घपअंतकिच्चमेव पत्थणिजं, ता अलं निहाणाइसंकहाए त्ति । 'अहो! निल्लोमया, अहो! परलोगप्पसाहणधम्मगुणेगचित्तय' त्ति परमपक्खवायमुबहतो वंतरमुरो तम्गिहेगकोणे निसिरिऊण निहाणकणयं गओ जहागयं । सोमदेवो बि अत्थं जसं च परमं धम्म च पवड्डमाणसुद्दभावं । संवेगं निवेयं च उत्तम नाणमणहं च तं गुणपयरिसमसरिसमणुपत्तो थोयवासरेहिं पि । जेणं गुणवंताणं सो चिय निसणीहूओ ॥२॥ किं बहुणा ? न यत् कनककोटिभिः प्रतिदिनं वितीर्णाभिरप्यनल्पजपकल्पनाव्यतिकरैरनेकैरपि । तपोभिरथवा कृतैरसकृदङ्गदाहक्षमैरशेषनयवर्त्मवत्समयशास्त्रपाठैरपि क्षयं बजति पातकं चिरभवप्रवन्धार्जितं, पुरस्कृतमनन्तशोऽप्यविरति-प्रमादादिभिः । प्रतिक्रमणकर्मणा तदपि याति सद्यः क्षय, क्षपाकरकराहतं तम इवोद्गतं सर्वतः कारुण्यतो जिनवरैः कथितोऽप्युपायः, संसारपारगमनार्थमयं महीयान् । पापीयसां कथमनध्यवसाय-हीला-ऽऽलस्यादिमिनिविशते हृदि नो तथापि ? इति पापपङ्कपटलप्रक्षालनविमलसलिलकल्पेऽस्मिन् । कः कुर्वीताऽऽवश्यकविधौ सुधीनूनमालस्यम् ? ॥४॥ ॥ इति श्रीकथारत्नकोशे प्रतिक्रमणगुणचिन्तायां सोमदेवकथानकं समाप्तम् ।। ४७॥ ॥३३६॥ HEATRA%ACASSANSAR+SANAACARARA SARKARANASANAMANARKHA%%ARINAKAMARRAHA यलजं, निहाणलाभोवायजाणणस्थं ओलग्गिउमारद्धो य परतित्थिए, उवयरिउ पयट्टो जक्ख-रक्खसाइवंतरि ति । एवं च निस्सारीकयासेसगुणो, जोगिक परिचत्तावरकायबो, तदत्थदिवेकचित्तो जमायतो एगया संभासिओ देसंतरागएण कविलाभिहाणजोगिएण-भो सेट्ठिसुय ! किमेवमादैनो व पइदिणं दीससि ? ति । 'जइ पुण एतो वि परित्ताणं होई' त्ति संभावितेण य सोमदेवेण साहिओ निहाणलाभवुत्तो । जोगिणा भणिय-भद्द ! अस्थि मह किं पि पओयणं, तस्साहणे जह तुम मह सहाई होसि ता अहं तुह एयमट्ठमकालविलंब करयलगोयरीकरेमि त्ति । लोभामिभूएण य पडिबचमिमं सोमदेवेण । पत्थावे य पुच्छिओ कविलो-किं पुण पयोयणं ? ति । तेण भणियं-अस्थि सोरहाविसए कयंचगिरी नाम सेलो, तहिं च रुहिरच्छीरथोहरपओगेण सुवासिद्धी जायह त्ति तत्थ गंतवं, तप्पडिनियत्तो य तुह कसो साहिस्सामि त्ति । गहियसंबला य गया दो वि कयंबगिरि । दिट्ठो जहुद्दिडो थोहरो । संपाडियं तबिहाणं । हुयवहाणयणत्थं च पेसिओ सोमदेवो। तं च कहिं पि अपेच्छमाणो गओ तावसासमं । अग्गि गिण्हंतो य पुच्छिओ एगेण थेरतावसेण-वच्छ ! किमिमिणा कायचं ? ति । तेण भणियं-अस्थि किं पि कर्ज । तावसेण जंपियं-पुत्त! एसो हि धम्महुयासणो मंसपागाइसावञ्जकजे न दाउं जुञ्जइ, ता नियधम्मगुरुसबहसाविओ तुम जहत्थं संसिऊण गिण्हसु इमं ति । तओ एगते जहडिओ कहिओ से सोमदेवेण सबो खुर्सतो। १ निनिहाण प्रती ॥२"खसेक्खाइवंतेरि प्रती ॥ ३ दुःखित श्वेत्यर्थः ॥ ४ एतम् अर्थम् अकालविलम्बम् ।। ५ रुधिरक्षीरस्नुहिप्रयोगेण ॥ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमद्दरिद तेउरप्पहाणा वासवदत्ता अग्गमहिसी । ससि छ जणमण-नयणाणंदो ससी नाम ताण पुत्तो । पुषमवावजियसुकयाणुरूवं विरइओ च सुहमणुहवंताण ताण वच्चइ कालो। अन्नया य सो रायपुत्तो केहवयासवारपरियरिओ जच्चतुरयारूढो वणवराहेण विद्दविजमाण निसामिऊण नियारामनिवाकहारयण सिरुरु-कुरंगपमुहतिरियगणं महया संरंमेण गओ तप्पारद्धीवुद्धीए । सो य वणवराहो घोरघोणानिलुल्लालियसम्मुद्दोविंततिरियकोसो॥ वग्गो उग्मदाढाकडप्पकप्परियतुरगचरणभागो इओ तो हयमहियं महीवालमुयपरियणं कुणतो धाविओ [अडवी]हुत्वं । विसेसगु रायसुओ वि ऑयचंतायड्डियकोडंडडडड्डीणचंडकंडपरंपराहिं पि अछिप्पमाणम्मि तम्मि बाढमुत्तम्ममाणमाणसो अणवरयकणाहिगारो। सापायतोरवियतुरंगो लग्गो तम्मग्गेण । वणवराहो वि॥३३७॥ कहिं पि गिरिविन्भमो कहिं वि तुच्छेहीणंगओ, कहिं पि पवणुब्भडुच्छलियवग्गुवेगो ददं । कहिं पिछ पछत्तओ सणियमुकएककमो, कहिं पि महिमंडलुल्लिहण रेणुमीमाणणो ॥१ ॥ किमेस वणवारणो कयसरीरसंकोयणो १, किमंग! जैमसेरिभो सियमुहग्गसिंगुम्भडो' । स एस अहवा हरी] पुण किमुट्ठियो मेहणि, समुद्धरिउमेरिसिं तणुसिरिं समालंबिउं ॥ २॥ इय संसइयमणो विहुतमेगमवि णेगहा पलोइंतो। रायसुओ दीहपहं पि लंपियं फुटमयाणतो ॥ ३॥ १ सुहसुहम" प्रती ॥ २ कतिपयाश्ववारपरिकरितः ॥ ३ उगाडदा प्रती । उपदंष्ट्रासमूहविदारिततुरगचरणभागः ॥ ४ भाकर्णान्ताकाटकोदण्डदण्टोडीनचण्डकाण्डपरम्पराभिरपि अस्पृश्यमाने ॥ ५ "च्छदीणं प्रती ॥ ६ प्रभुत्वात् ॥ ७ 'यमसेरिभः' यममहिषः । | कायोत्सर्गे शशिराजकथानकम् ४८। 454545454 ॥३३७॥ PostsxxxkRRRRRREN+Ko+CHIKARAN जा गहिरवण निगुंज पविसइ ता नियह मुणिवरं एगं । काउस्सग्गोवगयं न पुणो तं वणवराई ति ॥४॥ 'किमिम इंदजालं ? विभीसिया व?" ति विम्हइयमाणसो 'अहो ! अमाणुसे इह पएसे कोई एस साहू धम्ममाणपवनोद बट्टा, ता होउ कोइ एस वराहो, एयं ताव महामुणिं बंदामि' ति विभार्वितो तुरगाओ ओयरिऊण पराए भचीए पडिओ मुणिणो चलणेसु । उचियसमयसमुस्सारियकाउस्सग्गेण य साहुणा दिबासीसो सीसो व विणयपणओ आसीणो रायसुओ तयंतिए । सिट्ठो य 'विणीओ' ति साहुणा से सबन्नुधम्मो । सद्दहण-नाणसारं सरहस्सं पडिवो य तेण । अह पथावे जाए 'एवंविहदुकरकारयाणमेवंविहमहामुणीण न किं पि अविनायमस्थि' त्ति विभाबितेण रायसुएण पुच्छिओ साहू-भय ! किं कारण तहाविहविचित्तरूवो सो बराहो अप्पाणं दंसिऊण एत्थ पएसे उवगयस्स मज्झ सहसा असणमुवगओ ? ति | साहुणा भणियं-वच्छ ! भवंतरवेरिओ खुद्दवंतरसुरो एसो वणवराहरूवेण तुम छलिउमिच्छंतो ताव आगओ जाव एत्तियभूभाग, अखुभियचित्तं च भवंतं वियाणिऊण अदसणीहओ ति।। ___ अह मुणिर्दसणपाउन्भवंतपरितोसो तबिप्पलंमणं पि गुणावहमवधारिंतो रायसुओ भणिउं पवत्तो-भय ! को एस अहोमुहोलंबियायपरिहपहाणो अच्चंतनिच्चलीकय उड्डजाणुसंठाणो किचवि[से]सो [ज] तुम्भे सम्म पबजिऊण इत्थं दिया ? किं वा इमस्स कालमाणं ? किं व फलं ? ति । मुणिणा भणियं-वच्छ ! निसामेसु, एसो हि एवंविहसरीरसंठाणविसेसो काउस्सग्गो नाम तवोविसेसो । १ मुनिदर्शनप्रादुर्भवत्परितोषः तद्विप्रलम्भनमपि ॥ २ अधोमुखावलम्बितभुजपरिषप्रधानोऽत्यन्त निबलीरुतोर्मजोरीस्थानः ॥ HIKSEXSI HASANNAGNETWORK कायोत्सर्गस्य स्वरूपम् Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | कायोत्सगे शशिराज कथानकम् ४८। विसेसगु देवभइसरिअढविहकम्मसत्तुस्स भूरिसंसारसाहिबीयस्स । निम्महणत्थं इत्थं कीरह सुप्पणिहियतणूहिं ॥१ ॥ चिरहओ विजणपएसे य इमो कीरंतो सहाद सिगरणविसुद्धिं । उवलद्धसुद्धिओ पुण कम्माण विणिञ्जरं कुणइ नवरं सो दुविगप्पो चेट्टाए अभिभवे य नायवो । चेट्टाए णेगविहो कालपमाणे च से बहुहा ॥३॥ तहाहिकहारयण देसिय राइय पक्खिय चाउम्मासे तहेव वरिसे य। एएसु हुंति नियया उस्सग्गा [अ]नियया सेसा ॥४॥ कोसो ॥ साय सयं गोसद्धं तिमेव सया हवंति पक्खम्मि । पंच सया चउमासे अट्ठसहस्सं च बारिसिए अणिययउस्सग्गेसु य केसु वि अद्वैव हुँति ऊसासा । पणुवीसा वि य केसु वि सत्तावीसं च केसुं पि बाहिगारो। पढवणाइसु अट्ठ उ पणुवीसं चेइयाइगमणादौ । उस्सासा सत्तावीस हुंति उद्देसमाईसु ।"३३८॥ दुकम्मं अभिभविउं कुद्धेण सुराइणा व अभिभविओ। जं कुणइ काउसग्गं सो अभिभवकाउसग्गो ति ॥८॥ कालपमाणं च इहं उकोसं वरिसमवहिमाहंसु । अंतोमुहुचमे जहन्नओ पुण तयं नियमा ॥९ ॥ घोडग-लयाइणो इह दोसा उस्सग्गगोयरा द्रं । संभविणो वजेजा आगारा वि य विभाविजा ॥१०॥ नवरं अभिभवउस्सग्गवत्तिणो अगणि-सप्पमाईहिं । खोभे वि अकयकलस्स जुञ्जए नेव परिचलिउं ऊससिय-कासियाईआगारुचारणं तु दोसु पि । तुलं चिय विनेयं काउस्सग्गेसु नियमेणं ॥१२ ।। किं बहुणा ? १ सायं शर्त [ उच्यासा: ], प्रातः 'अर्थ' पञ्चाशत् , त्रीणि शतानि पाक्षिक । पञ्च शतानि चातुर्मासिके, अष्टाधिकसहसं च वार्षिके ॥ २ खुष्कर्म |J अभिभवितुं कुद्धेन मुरादिना था अभि U॥३३८॥ काउस्सग्गो। SCALCA5+ कायोत्स स्वरूपम् % जह कम्मभंगजणणं पडुच बुचइ पडिकमणमुग्गं । काउस्सग्गो वि तहेव तो तयं संपर्य वोच्छे ॥१ ॥ काओ देहो अस्संजमुजओ तस्स चेव उस्सग्गो । अच्चंतं चाओ जो हि भावओ काउसग्गो सो ॥ २ ॥ जइ वि हु मणमाईण वि असुहाणं अस्थि तत्थ वावारो । कायप्पधाणयाए तह वि हु कायस्स अमिहार्ण ॥ ३ ॥ तस्स पुण ठाण-मोण-ज्झाणेहिं निरोहकरणमणहं जं । जो उस्सग्गो स दुहा दग्खुसिओ भावउसिओ य ॥४ उद्धट्ठियकाओ जो ओलंबियसरलउभयभुयपरिहो । झाएइ अट्ट-रुद्दे दव्युसिओ काउसग्गेसो धम्मं सुकं च दुवे ठिओ निसनो निवनगो वा जो । झायइ काउस्सग्गो तस्स उ भावुस्सिओ नेओ ॥६॥ उभउस्सिओ विसिट्टो भावपहाणतणेणमियरो वि । दन्चुसिओ पुण विहलो कुक[]णकजस्स वि य दूरं ॥७ ॥ परचकपीडियाणं जह गिरिदुग्गं पुरं ससालं वा । पडियारकर तह कम्मपीडियाणं पि उस्सग्गो ॥८॥ एत्थ य निच्चलकाया मेरु व अखुब्भमाण[मण]पसरा । इह-परभवे य सुहिया हवंति ससिरायपुत्तो च ॥९॥ तथाहि-अस्थि अवहत्थियहस्थिणाउराइपुरपरभागं भागधेयसारसुदेररूवा-ऽऽरोग्गयाइगुणपहाणजणनिवहपरिकिन्नं किन्नराणुरूवगायणगीयज्झंकारमणहरहरिणच्छीनट्टोवयाररम्मसुरभवणं बंगविसयपसिद्धं सिद्धपुरं नाम नयरं । तत्थ य अपरिमियगय-तुरय-रह-जोहसामग्गीसणाहो सेसनरनाहन्भहियपुन-प्पयावपरिवट्टियकित्तिपन्भारो सूरप्पभो नाम राया। सवं KEWARA Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभदसूरिविरहओ कहारयणकोसो ॥ विसेसगुबाहिगारो । ॥३३९॥ लेसुद्देसेण मए तुम्ह दंसणत्थमिमं लिहाविऊण उवणीयं, विसेसओ पुण पयावरणा वि न तीरइ बिलिहिउमिमं ति । एवं च सोचा वावारंतरविरयमाणसो नियनामधेयस्स वि अलअंतो दूरुज्झियचिरपुहइपालपालियमजाओ तकालसमुच्छलियपबलकामानलो जंपिउं पवत्तो वैश्चंतु नाम सुरवरयसुंदरीओ मणोहरंगीओ । केवलमिमीए पुरओ ताओ तणलवसरिच्छाओ ॥ १ ॥ ॥ ३ ॥ मने इमीए मुह नयणनिजियाणं मिथंक-हरिणाण । समदुक्खाण व समगं समागमो निम्मिओ विहिणा ॥ २ ॥ एईए कंठसोहाजिएण संखेण कमविरहे वि । लद्धं सिंधुम्मि गएण पंचयत्रो त्ति अभिहाणं अच्चन्भूयभूयं अवयवाण एईए किं पि सुंदरं । जाण पुरो उवमाणाण माणलच्छी गया दूरं किं वा एत्तो बहुजपिएण १ रे विजयय ! तुममेत्तो। तं कुवलयदीहच्छि हैच्छं गंतूण आणेहि उदिओदयं च भूयं मह वयणेणं इमं भणिजासि । सवेसिं रयणाणं अहमेव पई किमिह तुझं ? एयं समपिऊणं आजीवं दूरमुकमयसंको। सकं पि अवगणितो भुंजसु रअं चिरं कालं || 19 || इमं च से आणत्तियं विणरण पडिणिऊण गओ उदिओदयरायसमीवं विजयओ । निवेश्यं राइणो आगमणपओयणं । 'अहो ! कामंधाणं मुद्धाणं बुद्धिविवज्जासो' ति विभावितेण य भणियं राइणा - भो दूय ! पराभिओगेणाणुचियमुलवंतस्स को एत्थ तुज्झ अवराहो ? केवलं सो तुज्झ पहू इह वत्तवो जो एवंविहं बाढमणुचियमुलवंतो न भीओ अवजसस्स, न १] उच्यन्तां नाम सुरवरसुन्दर्यः मनोहराः ॥ २ रयवयरसुंद प्रतौ ॥ ३ शीघ्रम् ॥ ४ भूपम् ।। ५ आज्ञप्तिकाम् । || 8 || || | || ॥ ६ ॥ संकिओ नियकुलकलंकस्स, न लजिओ चिरपयठ्ठनयमग्गस्स, होउ वा कोइ सो, किं तविकत्थणाए ? अवसर तुमं एत्तो मह चक्खुपहाओ, केच्चिराण मयणपिसाय परवसाणं पच्चुत्तराई दायवाई १-ति मोणमल्लीणो राया । दूओ वि कंठे घेत्तृण रायपुरिसेहिं निच्छूढो अवधारेणं । जायतिकोवसंरंभो य गंतूण सो सविसेसं सवं साहे धम्मरुहरभो । सो य तक्खणादेव अंतोषसरंतरोसारुणनयणो 'रे रे ! देह सन्नाहमेरीं, बाहरह सवसीमालसामंतचकं, सखेहं संदण गणं, बाहिं पयट्टेह तुरयथट्टाई, आयड्डह दिवाउहाई, गुडाडोयडंबरिलं मयजलोल्लगंडस्थलं पगुणीकरेह हत्थिमंडलिं' ति वाहरंतो तबेलकयमजणा-ऽलंकारपरिग्गहो ऊसियसियायवत्तो जयकुंज [रमा] रुहिऊण डिओ पत्थाणम्मि । सहसंवाहसंभवे य महया संरंभेण गओ पुरिमतालपुरं । पुरावरोहं च काऊण आवासिओ तहिं । उदिओदओ य चिंतह अहो ! विमूढाण यह दुब्बुद्धिं । अचंतनिंदिए वि हु कने जं उज्जमो एवं सैसिद्धिपुरंधिजणं पि छडि केह साहुणो जाया । अने तविवरीयं कृणंति एसो वही ! मोहो कुप्पहपवन्नचित्ता न चिंतियं पाउणंति कइया वि । एवं पि मुणइ न इमो धम्मरुई नामओ मन्ने जइ वि हु तेण कयमिमं अणुचियमवंतधम्मवज्झेण । तक्कयसरिसं तह वि हु कह वि न मह कप्पए काउं अइभूरिसत्तसंघाय घायणावजियाण कजाण । फलमबि तप्पडिरूवं भावि धुवं ता कैयं तेहिं ॥ ५ ॥ 11 2 11 || R || 112 11 ॥ ४ ॥ १ 'ह दंसण प्रतौ ॥ २ तुरगसमूहान् ॥ ३ गुटाटोपाडम्बरवन्तम् । गुडा हस्तिकवचम् ॥ ४ 'व्याहरन्' वदन् ।। ५ पश्यत ।। ६ सिसिणि प्रतौ । सस्निग्धपुरन्ध्रिजनम् । सस्निग्धाः सस्नेहाः ।। ७ 'कृतं' पर्याप्तम् ॥ कायोत्सर्गे शशिराज कथानकम् ४८ । ॥ ३३९॥ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमद्दसूरि-ॐ विरहओ कहारयण-14 कोसो॥ विसेसगुमाहिगारो। कायोत्समें शशिराजकथानकम् ४८। खणनस्सरभवसंभवसुहलवहेउं पि पावपडिबंधो । परलोयभीरुयाणं सुमिणे वि न जुजए काउं सो अत्थो तं जीयं ते विसया सो य विसयसंजोगो । सा कित्ती सोहग्गं पि तं च सा जलच्छी वि ॥ ७॥ जत्थ न धम्मत्थविरुद्धवत्थुकरणं मणागमवि हवइ । तविवरीयत्ते पुण तल्लाभो वि हु अलाभसमी ॥ ८ ॥ इति निच्छिऊण परिणामियाए सम्मं मईए स महप्पा । तड्डमराभिभवत्थं काउस्सग्गं पवञ्जित्था अह कैणयसेलनिचलसरीरो जाव काउस्सग्गोवगओ ठिओ किं पि कालं ताव [त]निम्मलधम्मकम्मपकंपियहियओ ज्झड त्ति संपत्तो जक्खाहिवो वेसमणो, जोडियपाणिसंपुडं अभिवंदिय जंपिउं पवत्तो [य]-भो महाराय ! पारेसु काउसग्गं, देसु ममाऽऽएसं 'किं कीरउ ?' त्ति । अह सरियजिणनमोकारो महीवई पारियकाउस्सग्गो भणइ-हंहो जक्खराय! पेच्छसु अकजाचरणे वि बद्धपडिबंधस्स इमस्स पाविपत्थिवस्स दुविलसियं, अम्ह धम्मगिहिणि घेत्तुमणो तदलामे सपुर-जणवयं रजं हंतुमित्थमुवडिओ त्ति । बेसमणेण भणियं-जह कुरंगमो मैयरायं अभिजुंजिउं पयट्टो किमेत्तिएण वि तबिजओ जाओ? ता एहि देहि आएसं, जइ भणसि ता पेसेमि सकरि-हरि-बाहणं पि एयं कीणासाणणं, अवणेमि दुबयणाभिलासं, अहवा गयणनिवडतविसालसिलावुट्टिनिट्टियंकायं खिवामि रसायले । अह कारुन्नावुनहियएण भणियं नराहिवेण-भो जक्खाहिव ! एकस्स कए नियजीवियस्स बहुयाउ जीवकोडीओ। दुक्खे ठवंति जे के ताण किं सासयं जीयं ? ॥१॥ १ तदुसरा प्रती । तमराभिभवार्थम् । उमरः-राष्ट्रविप्लवः ।। २ कनकरील:-मेरुः ॥ ३ 'मृगराजम्' सिंहम् अभियोक्तुम् ।। ४ "टिप्पका प्रतौ ॥ ५ कारुण्यापूर्णहृदयेन ॥ MARROR ( AAMANAS ॥३४॥ AKASARASWARENTIRHAIRxC0AMRIKHANIXXXGAR CA उदितोदय नरपतेः कथानम् वासी-चंदणकप्पो जो मरणे जीषिए य समदरिसी। देहे व अपडिबद्धो काउस्सग्गो भवह तस्स ॥ १३ ॥ तिविहाणुवसग्गाणं दिवाण माणुसाण तिरियाणं । सम्ममहियासणाए काउस्सग्गो हवइ सुद्धो ॥ १४ ॥ एयस्स फलं उदिओदयस्स भूमीवइस्स पञ्चक्खं । इहई चिय निद्दि8 सीसंतं तं च निसुणेसु इह हि किर जंबुद्दीवे दीवे दाहिणभरहद्धे पुरिमतालपुरे सबन्नुनिवनियधम्मकम्माणुट्ठाणनिसेबणचद्धलक्खो उदिओदओ नाम राया। रूव-सील-सुंदेराइगुणसंगया य सिरिकंता नाम से भञ्जा । सो य राया चज्झट्टिईए रञ्जकजाई अणुचिंतेइ, अभंतरवित्तीए पुण अपुणब्भवसुहजिगीसाए संजमं चिय अभिलसंतो छबिहावस्सयाणुपालणपरो चिट्ठा । एगया सहस चिय अंतेउरमज्झट्टियाए सिरिकंताए रायमहिलाए दासचेडीहिं समं जायमाणेसु विविहुल्लावेसु एगा परिवाइगा आगंतूण मुहरयाए नियदरिसणाभिप्पायपरूवणं काउं पवत्ता । जिणवयणनिंउणाए सिरिकताए तहा कया जहा न पच्चुत्तरं दाउं पारद । तओ चेडीहिं मुहमकडियाडोवेण विडंचिजमाणी निच्छ्ढा सा अंतेउराओ। अच्चंतपसरंतकोवावेगा य पंचवयारं किं पिकाउमसकंती साइसयं सिरिकतारूवं चित्तवट्टियाए आलिहाविऊण वाणा| रसीनायगं चंडपज्जोयपस्थिवं पिव इत्थीलोलुयं धम्मरुइनामाणं महाबलं महानरिंदमुवट्ठिया । दंसियचित्तपट्टियारूवा य अणिमिसच्छीहिं तं चिय पेच्छमाणं मेइणीवई भणिउं पवत्ता-महाराय ! उदिओदयरायदइयाए सिरिकताए रूवमेयं, १ अणुभ प्रती। अपुनर्मनसुखजिगीषया । अपुनर्भवः-मोक्षः ॥ २ उणयाए प्रती ॥ ३ मुखमर्कटिका-ईयादिभिः मुखवकीकरणम् ॥ ४ पच्चुव प्रती । प्रत्यपकारम् ॥ ५ चित्रपट्टिकायाम् ॥ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -4 देवमइसरिविरहओ | कायोत्सर्ग शशिराजकथानकम् कहारयणकोसो॥ विसेसगुगाहिगारो। सव्वत्तो पयट्टमसमंजसं । तहाविहं च दट्टण ठिया एगते रजचिंतगा मंति-सामंताइणो । जाओ परोप्परं मंतविणिच्छओ, जहा-सुहपसुत्तो सेजागओ चिय रयणीए उक्खिविऊण अडवीए उजिझाइ राया, पच्छा एयस्स सुओ ससिकुमारो रजे निवेसिजइ, कीस रजं खयमुर्वितमुवेहिजइ ? । 'तह' त्ति पडिवत्रं सजेहिं । निबत्तियं च जहुद्दिटुं अकालक्खेवेण । नवरं 'धम्मकिच्चनिच्चपच्चूहो' ति रजाभिसेयमपडिवजंतो रायसुओ भणिओ जणणीए-वच्छ ! किमेवं पडिक्लेसि पिइनिविसेसाणमेयाण सामंताईयाण वयणं ? न हि तुमए विजमाणे अन्नस्स दाउं जुत्तमिम, न ये सकुलकमपवत्तणाओ अचं पुत्तेहिं पओयणं जणस्स, न य काम-कोहाइविणिग्गहपहाणयाए जहुत्तनीइमग्गाणुसरणेण य पयट्टाणं 'रजं पावकारण' ति | वोत्तुमचियं, ता वच्छ ! मोतूण विचिकिच्छं पवञ्जसु सबहा रज्जं ति । अह जणणीए उवरोहेण पडिवअमिमं रायसुएण । तओ निवेसिओ सो रायपए पहाणपुरिसेहिं ति। मग्गाविरुद्धवित्तीए पालेह रज्जं । सो य सूरप्पभो राया अडवीए परिचत्तो संतो रयणीए विरामसमयम्मि सिसिरसमीरुकंपियकाओ कडुयं रडतेसु घूयपमुहपक्खिसु, विमुक्कपोकारं विरसमारसंतीसु सिवासु, इओ तओ सच्छंदं संचरतेसु दुट्ठसत्तेसु, ईसिजायनिहाविगमो परिणयप्पायमजमजाओ य जाव लोयणजुयलमुम्मीलेइ ताव पेच्छइ तं तहाविई र ति। 'हा! किमेय?' ति जंपतो य उडिओ ज्मड त्ति सयणिजाओ, विभाविउं पवत्तो [य]-मने मंतिजणदुबिलसियमिमं, अहो ! पावाण नियपहुम्मि वि एवंविहभत्ति १ "स्स काउं प्रती ॥ २ य सुकुलुक्क प्रती । स्वकुलकमप्रवर्तनात् ॥ ३ मुश्चियं प्रती ॥ ॥३४१॥ ॥३४॥ ASRANARASINCREASIRSARKARI HRISHISHESARKAKAMASIKCCCCCATARNAKAC+C पयरिसो, अहो! अंगरक्खाणं पि निरवेक्खत्तणं, अहो! निच्चसम्माणदाणवसीकयाणं सेवगाण वि पडिकूलकारितणं, अहवा को एयाण दोसो? असेसदोससमवायावायभूयं वम्महमऽहणंतस्स मम चेव दोसो इमो, कामवामोहिओ तह कह पि पयट्टो ईजह न धम्मो न रायलच्छी न साहुक्कारो न पुबपुरिसमग्गाणुचत्तणं ति, एवं ठिए न को वि किं पि अप्पाणमेव मोतूण थेवं पि अवरज्झइ, ता सिक्खवेमि संयमप्पयमुम्मग्गगामिणं-ति विभाविऊण कैय[मर]णसंकप्पो इओ तओ परिभमंतो गओ तावसासमं । 'दीसंतकंतसरीरो' त्ति अन्भुडिओ ताबसेहिं । अणिच्छंतो वि महाकडेण काराविओ भोयणं । तदुत्तरं च पुट्ठो वेरग्गकारणं । 'गुरुणो' ति सिट्ठ लेसेण । तेहिं भणियं-महाराय ! जइ सच्चं चिय अप्पपरिचायं पडुच्च वासणा ता पुबपुहइपालाणुचिन्नतावसदिक्खापडिवत्ती चेव जुत्ता । पडिवनं रना । उचियसमए पवनं तावसवयं । पइक्खणं रजावहारपराभवसंभवं वेरग्गमुखहंतो उज्झियभत्त-पाणी कइवयदिवसावसाणे जीवियमुज्झिऊण उववन्नो बंतरेसु । तहिं च जायमित्वेण सरिया जाई। दिट्ठो य नियपयाणुवित्ती महासमिद्धिसमुद्धरं रायलच्छिमुव जंतो नियसुओ ससिनराहियो। अह जायपवलकोवानलो य सो चिंतिउं समाढत्तो । पेच्छह मह विरहे हयसुयस्स भोगाइरेगत्तं मने इमिण चिय पावकम्मुणा रञ्जमभिलसंतेण । अडवीनिवाडणं मह करावियं चत्तकरुणेण ॥ २ ॥ जइ वि हु सपहुविहीणे रजे रायंतरा पइट्ठति । रजाभिलासिणो तह वि मंतिणो हुंति न वरागा ॥ ३ ॥ ता नत्थि ताण दोसो [दोसो] एयस्स चेव कुसुयस्स । इममेव अओ पावं सञोऽणजं निगिण्हामि ॥ ४॥ १ मन्मथम् अघ्रतः ॥ २ साम्प्रतम् आत्मानम् उन्मार्गगामिनम् ॥ ३ करण सं प्रती ॥ ४ आत्मपरित्यागं प्रतीत्य ।। ५ "स्स सोगा प्रती ॥ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभदसूरिविरइओ कहारयण कोसो ॥ विसेसनाहिगारो । ॥३४२ ॥ 6 य এএ एवं विभाविऊणं अंतोपसरं तदुद्दहा मरिसो । सो वाणमंतरो ससिनिवस्स पासे लहुं पत्तो ॥ ५ ॥ सिनरिंदो वि तक्खणं अवसेसियरञ्जकओ संपाडियपरमगुरुपूयाविसेसो विजण प्पएसोबगओ ठिओ काउस्सग्गेणं । अह निष्पकंपकय काउस्सग्गमाहप्पपडियबलो गिरिकण्डयनिकड तडविहडियविसाणो करडि व ज्झड त्ति पडिनियत्तो वाणमंतरी । तल्लोममेतं पि तुमचईतो य विलक्खो गओ जहागयं । भुजो वि असोढपोढा मरिसो तं विहंतुं पत्तो तं पएसं । नवरं स महप्पा कम्मधम्मजोएण पुणरवि तवेलं पवन्नो काउस्सम्गं । एवं तयवेलाए वि तं तहा पेच्छिऊण चिंतियं वाणमंतरेण— एसो हि महाणुभावो निबिडरज्जरज्जुबंधणे वि एवं धम्मकजसजमाणसो जं जं वेलमहमुवेमि तं तं [वेलं] इत्थमोलंबिय परिहो झाणेण चिट्ठइ, ता कहमेवं १-ति पउत्तविभंगेण मुणिओ अणेण तयहिप्पाओ । तओ अलियकुचियपुष्पाइयासंतदोस समुप्पचंतातुच्छपच्छायावो वाणमंतरो अप्पाणं सुचिरं झूरिऊण पारियका उस्सग्गं ससिरायाणं भणिउं पवत्तो—वच्छ ! सो हं सूरप्पभो तुह पिया कयतावसवओ मरिऊण वाणमंतरो उबवनो, संभावियालियोसो य तुमं पडुच दोघं पि तचं पि अणत्थं काउमुवडिओ वि काउस्सग्गनिग्गहियसामत्थो विभंगवला कलियकजपरमत्थो संपयं नियतचित्तो चिंतापहा[इ] कंत कंतगुणं भवंतं खामेमि त्ति । ससिराया वि बुज्झियकअमज्झो 'हा ताय ! किमेवं कुदेवत्तमणुपत्तो सि ?' त्ति सोइउं पवत्तो । जो जित्तियत्थजोग्गो सो तेत्तियमेव पाउण अत्थं । को बच्छ ! कस्स दोसो ? किं कुणउ य पुरिसयारो वि ।। १ ।। अहवा किमिह पणई तुह सारिच्छो महं सुओ जस्स ? | धम्म-नय-विनय-दय-खंतिपमुद्दगुणनिवहरयणनिही ॥ २ ॥ ॥ २ ॥ जे वि सुभूमप्पमुहा तिसन्तखुत्तो करिंसु वैश्विहं । तेसि पि दुग्गदुग्गडपडणाउ परं न किं पि फलं ता जह अम्हं निरवजयाए घम्मत्थसाहणं हवइ । परचकं पि अपावियपीडं नियडीड (?) मणुसरह तह कुणसु भो महायस ! पत्तं सेसभासियधेहिं । लहिहिंति सयं पि सकम्मसरिसमवसा फलं पावा अह 'तह' त्ति सविणयपणयं पडिवजिऊण तवयणं जं जत्तो उवागयं तं तहिं चिय ज्झड त्ति दिवसत्तीए विमोत्तूण परचकं गओ जहागयं जक्खाहिवो । राया वि निवाहियनिविग्धधम्मकिच्चो कालेण य कयकिच्चत्तणं पत्तो ॥ ॥ ३ ॥ 11 8 11 ता भो रायसुय ! एवंविहगुणो एस काउस्सग्गो । अओ एत्थ सुबुद्धिणा घेणियं पयट्टि जुत्तं ति ॥ छ ॥ इमं च सोच्चा तद्विसयैसं[जा] यगाढपडि बंधो जिणधम्मनिश्चलनिलीणमाणसो सयलकुसलमायणं अप्पाणं मनतो मुणिं पणिवइऊण गओ जहागयं रायसुओ । तद्दिणाओ वि आरम्भ अब्भाससारमावस्सयाइ किच्चेसु सम्मं वर्द्धतो कालं वोलेइ । सोय तो राया उम्मग्गलग्गत्तणेण इंदियवग्गस्स, उवडाणसंभवाओ दढमणिस्स आसत्तो कुमुइणीनामाए वारविलासिणीए । तस्संगेण पयट्टो महु-मेरेंयाईसु, मुक्का रजचिंता, उज्झिओ नयमग्गो, परिचत्तो विसिहमतिसंसग्गो । केवलमणवरयतविसयविसयवक्खित्तचित्तो पइरिकगओ सायंदिणमभिरमइ । मुणियतविहवइयरा य सीमालमहीवहणो पारद्धा चाउद्दिसं सं लेडियं । अंतेउरगयस्स य रनो 'अणषसरो' ति न लहंति दुत्थवत्तानिवेयगा पुरिसा पविसि । एवं च १ 'त्रिसप्तकृत्वः' एकविंशतिवारान् ॥ २ धरिडं पय प्रतौ ॥ ३ यर्मया प्रतौ ॥ ४ मेरक:- मद्यविशेषः ॥ ५ उष्टितुम् ॥ ६ दौःस्थ्यवार्तानिवेदकाः पुरुषाः ॥ ० कायोत्सर्गे शशिराजकथानकम् ४८ । ॥ ३४२ ॥ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चक्खाणं । 194% देवभद्दसरिविरइओ कहारयणकोसो। विसेसगुजाहिगारो। ॥३४॥ प्रत्याख्याने भानुदत्तकथानकम् ४९। ARE प्रत्याख्यान स्य स्वरूपम् सबो धम्मो नाणे पच्चक्खाणे य वनिओ सम्म । नाणप्पहाणमहुणा ता पच्चक्खाणमक्खेमि पावाणं जोगाणं तिविहं तिविहाइमेयओ चागो । भन्नइ पच्चक्खाणं संवरणं तस्स एगहूं ॥ २ ॥ तं मूलुत्तरगुणगोयरतणेणं दुहा समक्खाय । मूलगुणा पाणिवहाइचागरूवा उ निदिट्ठा ॥ ३ ॥ उत्तरगुणा उ आहारचायपमुहा इमेसु पगयमिमं । पञ्चक्खाणं तं पुण दसहा सुत्चे जो भणियं अणागय १ मइकंतं २ कोडीसहियं ३ नियट्टियं ४ चेव सागार५ मणागारंपरिमाणकडं ७निरवसेसं ८॥५।। संकेय ९ चेव अद्धाए १० पच्चखाणं तु दसविहं [एय]। एयाणऽत्थविभागं सीसंतं सुणह लेसेण पोसवणाइतवं गिलाण-संघाइकजसब्भावे । पोसवणाईणं पुर्व पच्छा व जो कुणइ ॥ ७॥ तकाले अचयंतो पच्चक्खाणं हि तस्स कितिति । पढम अणागयं नाम बीयगं पुण अइकंत ॥ ८॥ पट्ठवणओ य दिवसो पच्चक्खाणस्स निढवणओ य । जम्मि समिति दोनि वि तं जाणसु कोडिसहियं तु ॥९॥ अमुगो अमुगम्मि दिणे तवोविसेसो अवस्स कायद्यो । जाजीवं संवरणं एयं तु नियट्टियं नाम नवरं चउदसपुची जिणकप्पी पढमसंघयणिणो वा । थेरा वि कुणंति इमं सेसाणं नेह अहिगारो ॥११॥ १-२ याग:-विरतिः ॥३ नियन्त्रितम् ॥ ४ एतेषामर्थविभाग शिष्यमाणम् ॥ ५ अशक्नुवन् ॥ CANC ॥३४॥ 3 4 KARNAKARKARKK+KAKKAR+%*%ARAMARRRRREKX महयरयाई जम्मि आगारा तं तु होइ सागारं । इयरं तु अणागारं पचक्खाणं पयंपंति ॥ १२ ॥ दत्तीहिं व कवलेहिं व घरेहिं भिक्खाई अहव दवेहिं । जो भत्तपरिचायं करेइ परिमाणकडमेयं ॥ १३ ॥ सर्व असणं सर्वच पाणियं सबखज-पेञ्ज विहिं । वोसिरह सवभावेण भणियमेयं निरवसेसं ॥ १४ ॥ अंगुढ-मुट्ठि-गट्ठी-घर-से-उस्सास-थिवुग-जोइक्खे । पच्चक्खाणं संकेयमेयमुकित्तियं बहुहा अद्धापच्चक्खाणं मुहुत्त-पहराइकालनिष्फनं । सामन्नेणं तु इमं दसहा नवकारमाइ जहा नवकार १पोरिसीए २पुरिमड्ढे ३ गासणे ४ गठाणे५य । आयंबिल ६ऽभत्त₹७चरिमे८य अभिग्गहे ९विगई १०॥१७॥ आगारा य इमेसु जाहासंखेण दोन्नि छ चेव । सत्तऽदु सत्त अट्ठ य पंच य चत्तारि चरमे य ॥१८॥ चत्तारि पंच वाऽभिग्गहे य नव अट्ठ वा वि निविगए । अप्पाउरणे पंच उ हवंति सेसेसु चत्तारि ॥१९॥ नवणीओगाहिमए अद्दवदहि-पिसिय-घय-गुले चेव । नव गारा [ए]तेसिं सेसदवाणं च अद्वेव ॥२०॥ सयपालणियं च इमं कयसंवरणी चि देइ अन्नेर्सि । किंतु न तिपिहं तिविहेण वजए जीवधाय व ॥२१ ।। इह छविहा य सुद्धी नेया सद्दहण जाणणा विणए । अणुभासणाऽणुपालण भावविसोही य जत्तेण ॥ २२ ॥ जं जत्थ जया काले पच्चक्खाणं जिणेहिं निद्दिढें । तं तत्थ सद्दईतस्स होइ सद्दहणसुद्धं ति ॥ २३ ॥ मूलुत्तरगुणगोय[रप]रं तु जं जत्थ जुञ्जए कप्पे । तं तत्थ जाणमाणस्स निच्छियं जाणणासुद्धं ॥२४॥ १ अनुप-मुष्टि-प्रन्धि-गृह-स्वेद-उच्वास-स्तिबुक-ज्योत्याख्यम् ॥ २ "बनीओ प्रती ॥ ३ स्वयंपाकनीयम् ।। +%A5%AXISRAEESAR Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमइसरित विरइओ कहारयणकोसो॥ विसेसगुपाहिगारो। ॥३४४॥ है प्रत्याख्याने भानुदच४ कथानकम् ४९। किइकम्मविहिपउंजणपुर्व सम्मं तिगुत्तिगुत्तस्स । पच्चक्खाणं जं किर विणयविसुद्धं तयं जाण ॥ २५ ॥ अणुभासह गुरुवयणं अक्खर-पय-वंजणेहिं परिसुद्धं । पंजलिउडो अभिमुहो तं जाणसु भासणासुद्धं ॥ २६॥ कंतारे दुब्भिक्खे आयके वा महइ समुप्पो । जं पालियं न भग्गं ते जाणसु पालणासुद्ध ॥ २७॥ रागेण व दोसेण व परिणामेण व न दृसियं जं तु । तं खलु पचक्खाणं भावविसुद्धं मुणेयवं ॥ २८॥ इय छबिसुद्धिसारं पचक्खाणं पवञ्जमाणस्स । अचिरेण कम्मनिजरणमुत्तमं जायइ जियस्स ॥ २९॥ जो पुण इह आलस्सं कुणइ अवस्सं स अप्पणो सत्तू । इह अन्नत्थ व जम्मे लहइ दुहं भाणुदत्तोब ॥३०॥ [तथाहि-अस्थि कासीजणवए वयणिजविरहियजणनिवहपरिगओ गो-महिसि-पम-सस्ससंपत्तिसमिद्धो धनप्पूरो नाम गामो । तत्थ सबकालवत्थचो भाणुदत्तो नाम पणिओ । देवई भजा । सो य सकुलकमागयट्टिईए कुडूंचं निधाहेइ, धम्मकओसु न तहा अभिरमइ । एगया य तस्स परमसबन्नुधम्मविहिबिहन्नुणा तम्गामनिवासिण चिय सिबसेणसेट्ठिणा समं पणयमावो जाओ। परोप्परपरमपरितोसेण य वच्चंतेसु वासरेसु सेट्टिणा भणिओ भाणुदत्तो-भद्द! धम्मक सु तुम बाढमणुञ्जओ दीससि, न जुत्तमेयं कुसलबुद्धिणो, धम्मत्थपरम्मुहो हि पुरिसो पसु व्व असाहगो' ससमीहियत्याण, अंघो व्व न पलोयणापचलो जुत्ता-जुत्तकज्जाणं, केवलमणवरयसमुप्पज्जमाणमाणसकुविपप्पविक्विपमाणो तं किं पि १ "हया स' प्रती । महति ॥ २ सुद्धिं मु प्रती ॥ ३ 'गो असमी प्रती ॥ ॥३४॥ SAWANTWASAKAREKARWACHAR इय अणुसासिय ससिभूवई सुरो नियपयं समणुपत्तो । राया वि तयणु सविसेसकाउसग्गाइधम्मपरो ॥३॥ इह-परभवे य परमं अभुदयं जसमतुच्छमणुपत्तो । इय काउसग्गकिचं कामियसिद्धीण परमपर्य ॥ ४ ॥ एत्तो चिय साहूण वि अभिक्खणं काउसम्ममुवइ8 । अभंतरतवरूवत्तणेण कम्माण निजरणं ॥५॥ अपि च यद् वलद् बजदपि क्रकचं सिताग्रं, काष्ठं सुनिष्ठुरमपि प्रसभं भिनत्ति । तद्वत् त्रिगुप्तिपरमश्चिरकमें कायोत्सर्गो निसर्गनिरवग्रहशक्तिरेषा यथा यथाऽस्मिश्च विनिश्चलानामङ्गान्युपाङ्गानि च यान्ति भङ्गम् । तथा तथैतत्प्रतिबद्धश्रद्धा, भञ्जन्ति कर्माष्टविधं हि सन्तः ॥ २॥ किनकायोत्सर्गों यदि हि निखिलक्लिष्टदुष्टाष्टमेदस्फूर्जकर्मप्रचयदलनप्रत्यलो नाभविष्यत् । तत् किं साक्षाद् भुवनगुरवः केवलालोकलाभात, पूर्व सर्वेऽप्यवहितधियो नूनमेनं व्यधास्यन् ? ॥३॥ इत्युज्झितानिष्टविचेष्टितेऽस्मिन् , स्पृष्टे च दृष्टेऽपि च तत्वविद्भिः । न मोक्षमार्गप्रतिकूलबुद्धि, विहाय शेषः कुरुते प्रमादं ॥४॥ ॥ इति श्रीकथारस्नकोशे कायोत्सर्गविधानचिन्तायां शशिराजकथानकं समाप्तम् ॥ ४८॥ : कायोत्स गैस्य माहात्म्यम् RRRRRRRRRENSION १ मोक्षमार्गात प्रतिकूला बुद्धिर्यस्य स तम् विहाय 'शेषः' इतरः प्रमादं न कुरुते इत्यर्थः ॥ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमहसूरिबिरइओ कहारयणकोसो ॥ विसेसगुणाहिगारो । ॥ ३४५॥ तेण पगुणीकओ सो सेट्टिणा पुढं व पयट्टो भासिउं । एत्तो धम्मुखमं भद्द ! करेजासि' त्ति भणिय गओ सेट्ठी जहागयं । इयरो वि तद्दिणाओ आरम्भ 'परमोक्यारि' त्ति परमं सिणेहमुहंतो देवं व गुरुं व सेडिं आराहिउं पवतो । कयनियघरकओ य सेट्टिणा समं वच्चइ जिणमंदिरेसु, पज्जुवासई मुणिजणं, दवावेई दीणाईणं दाणं, उवचरह साहम्मियवग्गं, नवरं थेवं पि न गिण्हइ पश्चक्खाणं । अवश्वासरे य भणिओ सेट्टिणा - भो महायस ! थेवं पि पञ्चक्खाणं घेत्तुमुचियं महाफलं हि गिजद इमं समय सत्थे, किं न सुयं तए ईसिविराहियपच्चक्खाणस्स वि दामन्नगस्स सुहपजवसाणं फलं ति । भाणुदेवेण भणियं न सुयं पुवं, ता सासु चि । सेट्टिणा जंपियं-निसामेसु - रायपुरे नगरे एगस्स कुलपुत्तगस्स जिणधम्मवियङ्केण जिणदास सावरण समं मेत्ती जाया । उचियसमए य 'धम्मसीलो' त्ति दिनं से जिणदासेण जावजीवियं मंसपच्चक्खाणं । पडिवन्नं च भावसारमणेण । अन्नया जायं दुब्भिक्खं, पलीणा धनसंचया, मंसभक्खणाईसु पयड्डो लोगो । सीयंते कुटुंबे सो वि कुलपुत्तगो सयणेहिं निम्भच्छिऊण पेसिओ मच्छग्गहणत्थं । गओ य तयणुवित्तीए, पक्खित्तं जालं महद्दहे । कुटुंबभयं संसारभयं च उबतेण य [ते] तिभि वारा ओगहिया मुक्का य मीणा । नवरं कह वि विराहिओ एगस्स मीणस्स एगो देहावयवो 'वरं पाणचाओ, न नियमभंगो' ति कयनिच्छओ छुहाभिहओ मओ एसो, उबवनो य रायगिहे नयरे मणियारसेट्ठिणो पुत्तत्तणेणं । पह१ पूर्वमिव ॥ २ ईषद्विराधित प्रत्याख्यानस्य ॥ ३ 'अवगृहीताः संगृहीताः ॥ द्वियं च दामन्नगो त्ति से नामं । अडवारिसियस्स य तस्स केणावि दुकम्मविलसिएणं खयमुवगयं तं कुलं । दामन्नगो व 'निस्सयणो' ति भिक्खाभमणाइणा पाणवित्तिं कुणमाणो तत्थेव नगरे सागरपुत्ताभिहाणस्स इम्मस्स एगया दुवारे भिक्खाभमणेणं कॅणचूणणेण य वट्टंतो साहुसंघाडएण गोयरचरियापविद्वेण दिडो । अइसयणाणिणा य तदेगेण बीयरस मुणिणो 'पैइरिकं' ति सिहं, जहा—एस रंको इमस्स घरस्स धण-कणगसमिद्धस्स सामी भविस्सइ ति । इमं च भवियवयावसेण कडगंतरिएण निसामियं सागरपुत्तसेट्टिणा । 'एवंविहम हाम्रणीण मसचजंपणे न किं पि फलं संभावेमि, ता मारावेमि एवं रंकं' ति कयनिच्छएण सागरपुत्तेण अत्यं दाऊण चंडालपुरिसाणं पच्छलं विणासकए समपिओ एसो । नीओ य रयणीए मज्झसमए सैज्झसवसवेवंतसरी तेहिं सो सुसाणप्पपसे । 'अरे! सुदिडं कुणसु जीवलोयं, एस संपइ विणस्ससि' त्ति जंपिरेहि य आयडियं निसियधाराकरालं करवालं । भीओ पकंपंतकाओ मुहपक्खित्तदसंगुलीबलओ सो जंपिउं पवत्तो-भाउया ! कीस निद्दोसं पि ममं विणासह १ किं किं पि मए भरगं ? तुम्हाभिमुदं व जंपियमजुतं १ । हरियं हरावियं वा अन्नस्स व कस्सई किं पि १ ॥ १ ॥ पेंडिचरपरिभमणुवलद्धविरस तुच्छन्नविद्दियवित्तिस्स । दिवेणं चिरा निहयस्स सयलकुलकवलणेण दर्द ॥ २ ॥ कीस मह जीवि देह नेव १ सद्धिं मए किमिव वेरं १ को वा वि अत्थलाभो होही मह मारणे तुम्ह ? ॥ ३ ॥ 1 १ अष्टवार्षिकस्य ॥ २ कणगवेषण नेत्यर्थः ॥ ३ एकान्तम् ॥ ४] साध्वसवशवेपमानशरीरस्तेः स इमशानप्रदेशे ॥ ५ प्रतिगृहपरिभ्रमणोपलब्धविरसतुच्छात्रविहितवृत्तेः ॥ प्रत्या ख्याने भानुदत्तकथानकम् ४९ । दामन्नकस्य कथानकम् ॥ ३४५॥ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमहरिविरहओ कहारयणकोसो। विसेसगुजाहिगारो। न गिहं न धणं सयणो वि नेव न य को वि जीवणोवाओ। तह विहुविहीन रूसह ही! एत्तो किं करेमि अहं ॥ ४ ॥ इचाइकरुणवयणेहिं जंपिरं कंपिरं च विमणं च । तं पेच्छिऊण चिंता दया य तेर्सि इमा जाया ॥५॥ ईसिं पिनावराहो संभाविजह इमस्स रोरस्स । दुनयसासणजोग्गो कह खग्गो ता इहं वहउ ? ॥६॥ जइ सो कहमवि वणिओ एयं माराविउं मेहद विघिणो । ता किं जुजइ काउं अणुचियमेवंविहं अम्ह ? ॥७॥ ता तेहिं जंपियमिमं सायरपुत्तेण सायरं अम्हे । इंतु तुम निउत्ता न याणिमो कन्जपरमत्थं । तह वि हु बच्चसु तुरियं तत्थ तुम जत्थ दीससि न भुजो । तुमए हयम्मि होही [तं] जंतेणाचि पअत्तं ॥ ९ ॥ एवं पि वणियचित्ताणुवत्तणकए तबामकणिढुंगुलिं छेतूण घेतूण गया घायगा । सिट्ठा य तेहिं छिचंगुलीदसणपुवयं तविणासवत्ता सेट्ठिणो । तुट्ठो एसो । दामन्नगो वि कालोवलद्धजम्माणं पिव अप्पाणं मन्नतो पलाणो ततो वेगेण । खीणसरीरत्तेण य कह कह वि भवियबयावसेण वर्चतो पत्तो तस्सेव सागरपुत्तवणियस्स गोउलं । तेविणि उत्तगोउलाहियेण य गोसंखियाभिहाणेण कह वि सो दिडो भिक्खड़े पविट्ठो । पुट्ठो य सुरूवो त्ति-वच्छ ! कस्स तुम ? ति। दामनगेण वुत्तं-उच्छन्नकुलो न कैस्सइ संतिओ हं ति । तओ तेण अपुत्तेण 'पुत्तो' त्ति काउं पंणामिओ सो नियभञ्जाए । पइदियहन्हाण-भोयण-वत्थ-सयणा-ऽऽसणाइसुहसंव १ जल्यितारं कम्पितारम् ।। २ काइते 'विष्णः' निर्दयः ॥ ३ गच्छताऽपोखर्षः ॥ ४ तत्कालोपलब्धजन्मानमिव ॥ ५ तद्विनियुक्तगोकुलाधिपेन ॥ ६ कस्यापि सत्कः ॥७ अपितः ॥ प्रत्याख्याने भानुदचकथानकम् ४९। CHAAKASARLIAMERI ॥३४६॥ ॥३४६॥ SHRDHAKICH राग-दोसाभिभूओ भूयपरिग्गहिओ व कुणा भासह मुंजइ परिगिण्हह जेण संतप्पमाणो इह परभवे य दुहभागी जायइ, न य किं पि इह दुकरं बनिजइ जिणसासणे । जओ अभयप्पयाणपरमा पडिबत्ती गुरुसु निचला भत्ती । दाण तवे जहसत्तीए निचसो चेव अणुरत्ती दुट्ठजणबजणं कुनयलजणं सुगुणसजणं च मया । किञ्चमिणं मणुयाणं किं भन्नउ दुकर एत्थ ? अनमए धम्मकए उज्झिजइ जीयमग्गिदाहेण । अहवा गभीरभेरवकुहरे नियदेहखेवेण परचकमुकसर-सेल्ल-भल्लिधाराहि वा नियसरीरं । कैप्पाविजइ तिलसो धारातिस्थं ति काऊण ॥ ४ ॥ सुरसरिसरीरचागेण अहब फुडमणसणप्पवत्तीए । ही! तह वि तत्थ लोगो अणुरञ्जइ न उण जिणधम्मे ॥५॥ इमं च सोच्चा लेजामिलायंतवयणकमलो 'सुट्ट सट्ठाणेसु सासिओ म्हि' ति पुणरुत्तमुच्चरंतो भावं विणा वि धम्ममग्गं पवनो । एवं एगया य सो साइणीदोससमुप्पत्रगाढसरीरपीडो निच्चेट्ठो निस्सट्टे निवडिओ धरणिवढे । 'हा ! हा! किमेयं ?' ति गिहजणेण वाहरिओ सिवसेणसेट्ठी । दिट्ठो सो णेण अच्चंतकिलंतकाओ ऊसासमेत्ताणुमीयमाणजीयधम्मो त्ति । तओ तबियारावलोयणविणिच्छहयसाइणीदोसेण जोहणीमुद्दाविनासपुरस्सराणुसरियपंचपरमेहिमहामंतेण कइवय अक्खयखेवमि १ 'नित्यशः' निरन्तरम् ॥ २ अन्यमले धर्मकृत उच्यते जीवितम् ॥ ३ 'कायते' यते ॥ ५ सुरसरिति-शानद्यां शरीरत्यागेन अथवा स्फुटम् अनशनप्रवत्या ॥ ५ लज्जाम्लायमानबदन कमलः ॥ ६ वारंवार मित्यर्थः ॥ ७ उच्ङ्कासमात्रानुमीयमान जीवितधर्म इति । ततः तद्विकारावलोकनविनिश्चितशाकिनीदोषेण योगिनीमुद्राविन्यासपुरस्मरानुस्मृतपश्चपरमेधिमहामन्त्रेण कनिषयाक्षतक्षेपमात्रेण ॥ C ANARANAHARRARRIAGE HANRNA Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमहसूरिविरहओ कहारयण कोसो ॥ विसेसगुनाहिगारो ॥३४७॥ लेहत्थो, पुच्छिओ जोइसिओ । तेण वि नवग्गहबलोवेयं सिद्धं तबेलं चिय हत्थग्गहजोग्गं लग्गं । तओ अकयवियप्पेण तेण दिना दामन्नगस्स नियभरणी विसा । वित्तो विवाहो, जायं बद्धावणयं । सागरपुत्तो वि अणुबलद्धलेहपडिवयणो संकियमणो पडिनियत्तो पेच्छइ उग्भियवंदणमालं पयट्टनट्टोवयारं उच्छलियतारतूर निनायें नियधरं । 'किमेयं १' ति संकिओ पविट्ठो अब्भंतरे । अब्बुडिओ पुतेण । 'वच्छ ! किमेयं ?" ति पुडे सिड्डो पेण सो वृतो । तं च सोचा सुमरियसाहुवयणो वि सेट्ठी अश्चंत किलियाए तदणि संपहारंतो पुरओ घायगे निरूविऊण दामन्नगं भणिउं पवत्तो—वच्छ ! अम्ह कुले एस वबहारो 'एगागिणा नवपरिणीएण गंतूण माइघरे देवयाण पूया कायदा' जता जाहि तुमं ति । अह 'तह' त्ति पडिवजिय परिहियको संभवत्थो कुसुमाइपडलियं घेत्तृण तहिं गच्छंतो दिट्ठो सो विवैणोवगएण सेडिसुरण, पुच्छिओ य- -कहिं पडिओ सि ? ति । सिडो पेण वृत्तंतो। 'अच्छसु इहेव तुमं, अहं तप्पूयं काहं' ति पुप्फपडलयहत्थो गओ सेडिओ माइहरं । पविसंतो य पुचपउत्तेहिं मारिओ घायगेहिं | वित्थरिया पुरे तविणासवत्ता, तह वि 'जामाइओ' त्ति तुट्ठो सेट्ठी । पच्छा तदंसणेण निच्छियसुयविणासो तं कं पि हिययसंघट्टमावन्नो जेण तक्खणविभिन्नहियओ पत्तो पंचतं । मुणियजह डियसागरपुत्तवृत्तंतो य तुन्हिको डिओ दामन्नगो, जाओ घरसामी, पुवसेडिट्टिईए बडिउं पवत्तो । एगया य तस्स पुरओ गीया गायणेहिं इमा गाहा । जहा अणुपुंखमावडता वि अणस्था तस्स बहुफला हुंति । सुह-दुक्खकच्छपुडओ जस्स कयंतो वह पक्खं १ कवकृतमन्दनमा पवृत्तनायोपचारम् ॥ २ विपण्युपगतेन ॥ ३ वता प्रती ॥ ॥ १ ॥ सागरपुत्तपउत्तविचित्ताणत्थपत्था रिमणुसरंतेण य तेण तिभि वाराओ भणाविऊण इमं गाहं दाविया तिनि दद्दलक्खा गायणाणं । सुयं च राहणा, जहा - - कोइ अदेसगो इब्भघरसामी जाओ, सो य इत्थमित्थं च लच्छि वियरह ति । तओ वाहराविऊण रत्ना पुट्ठो दामन्नगो-भद्द ! को तुमं ? कत्तो वा आगओ १ किं वा वणलक्खतिगं दिनं ? ति । सिहं च तेण जहट्ठियं मूलाओ नियवित्तं । परितुट्ठो राया 'अञ्जप्पभिई मए तुह एसा संपया दिन' त्ति सकारिऊण विसजिओ सुहाभागी जाओ । कालंतरे य साहुदंसणं, पुढभवावगमो, अंगुली छेयनिमित्तनाणं, बोहिलाभो, सुगहसंपत्ती यति ॥ छ ॥ ता भो भाणुदत्त ! थोवं पि पञ्चक्खाणं एवं सफलं जाणिऊण कुणसु जं ते रोयइ ति । 'परहियत्थमित्थमुवंताणं तुम्हें का ममारुई नाम ? एतो प्यभिई सबहा काहं पञ्चक्खाणं' ति पडिवन्नं भाणुदत्तेण । 'तह' त्ति पइदिणं पयट्टो पच्चक्खिउं । गहियं च जावजीवं निसिभोयणाईण पच्चक्खाणं । तुट्टो सिवसेणो, भणिउमादत्तो य उवयारो जो वि मए तुज्झ कओ कोइ अइहट्टस्स । सो वि तेइ धम्मनिरए जाओ मह निजराहेऊ तेणेव पावनिश्याण अक्खिया सुबह चिय उवेक्खा । हुयवहपिंडा इव कुसलकारिणो कस्सह न ते जं एतो चिय सुगुणं बहुमाणो पूयणा य कायद्या । गुणपयरिसपडिवत्तीए थिरयरा जेण ते हुंति इहरा किलेसेसज्झेसु तेसु काही न उअमं कोइ । अगुणायरेण य तओ ठाही नामं पि न गुणाण एवं तोरैविओ सो लजाए किंपि किं पि अवरोहा । भावविरहे वि बाढं तदेगचित्तो व संजाओ १ अतिदुःखार्त्तस्य ॥ २ त्वयि ॥ ३ आयाता ॥ ४ पापनिरता इत्यर्थः ॥ ५ केशसाध्येषु ॥ ६ उत्तेजितः ॥ ७ उपरोधात् ॥ 112 11 ॥२॥ ॥ ३ ॥ ॥ ४ ॥ ॥ ५ ॥ प्रत्याख्याने भानुदचकथानकम् ४९ । ॥३४७॥ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . देवभद्दसूरिविरइओ कहारयणकोसो॥ विसेसगुणाहिगारो। प्रत्याख्याने भानुदचकथानकम् ४९। KARWACSCR45453 अन्नया य तहाविहं किं पि उवकमकारणं पाविऊण परलोयमुवगओ महप्पा सिवसेणो । भाणुदत्तो वि कयतप्पारलोइयकायको कालेण अप्पसोगो सिढिलियपचक्खाणाइधम्मकजो य जहिच्छाए पावकिच्चेसु वहिउमारद्धो । पुतपयन्पचक्खाणाइकिचे विमुहचित्तं च तं पेहिऊण जणो उवहसंतो भणइ धम्मुजओ वि जैहसेवगो वि कहमेस संपइ विलो। निम्मजायं चिट्ठा ? किं अवरं कवडसीलाण? अइतत्तं पि जह जलं पुणो वि सिंसिरस्सभावमणुसरह । धम्मे ठविओ तह पावपयइओ पावमणुसरह ॥२॥ केयभट्ठगुणाओ बरं अचंतं गुणविवजिओ पुरिसो । न वि जंडिय-खुडियरयणालंकारो सोहमुबहइ उच्चे आरुहिउं जो निवडइ सो अंगभंगमंजिणइ । पडणाइभयं संभवउ कह णु भूमीयलठियस्स ? एवं पि इसिजंतो अगणियपत्थावा-ऽपत्थावो अणुवलक्खियभक्खा-भक्खो अमुणियगम्मा-ऽगम्मो समाणसीलयाए पावमितसंगाणुरूवपवित्तिविसेसो आजीवियपञ्चक्खाणाइ भंजिऊण पयट्टो भुंजिउं निसाए । एगया य तस्स मुंजमाणस्स कहं पि भवियत्वयावसेण विज्झाए पईवे निसाए उवरिट्ठियअदिद्वघरकोइलिगपम्मुकपुरीससम्मिस्साहारदोसेण जायं जलोयरं । पीडिओ अच्चतं विमणदुम्मणो य पलवंतो भणिओ भजाए-अञ्जउत्त ! गहियभग्गाणं अभिग्गहाणं कुसुमुग्गमो एसो, फलमञ्ज वि अनं किं पि अपुवं भविस्सइ, ता अञ्ज वि पडिवजिजउ पुवपवनो धम्मुञ्जमो, १ यतिसेवकः ॥ २ शिशिरसभापम् ॥ ३ 'ओ वि त प्रतौ ॥ ४ पापप्रकृतिकः ॥ ५ कृतभ्रष्टगुणान् ॥ ६ अटितस्त्राण्डितरत्नालङ्कारः । ७ अजेयति ।। ८ त्तसंताणु प्रती ॥ ९ उपरिस्थितादृष्टगृहकोकिलाप्रमुचपुरीषसम्मिश्राहारदोषण ।। ॥३४८॥ ॥३४८॥ RE वियसरीरो य सविसेससमुल्लसियलायन-वन-जोवणगुणो विराइउं पवतो। ___एगया य सो सागरपुत्तो समागओ तं नियगोउलं, वुत्थो गोसंखियघरे, कया गोउलचिंता । दिडो य कह वि दामनगो, पच्चभिन्नाओ य सविसेसं छिन्नंगुलीदसणेण । ' हा हा ! कहं अंगुलीमेत्तं छेत्तूण मुक्को महगिहकयंतो एसो पावेहिं ? ति परं चित्तसंतावं पवनो वि आगारसंवरं काऊण भणिउमादत्तो-भो गोसंखिय! को एस चेडगो ? ति । तेण जंपियं-मह सुओ । सेट्टिणा भणियं-सच्चं साहेसु । तओ सिट्ठो णेण जहडिओ पुबवुत्तो । 'हुं अवितहं व नजइ साहुवयणं, तह वि न मोत्तवा बुद्धि-पुरिसा य' त्ति विभाषितेण सेट्ठिणा 'अपक्खालियचलणस्स इमस्स विसं दायई' तिगब्भत्थलेहहत्थो अणिच्छंतस्स वि गोसंखियस्स पेसिओ दामनगो अप्पणो पुत्तसमीवे । अमुणिय[क]ञ्जमज्झो य गओ एसो रायगिहे । हपरिस्समकिलामियकाओ य पसुत्तो वणवासिणिदेवयाघरे । उवागया निद्दा, कह वि गलिओ लेहो, दिट्ठो य तद्देवयापूयणत्थमुवागयाए तस्सेव सेट्टिणो धूयाए विसाभिहाणाए । 'कहं मह पिउनामकिओ ति वाइओ उभिदिऊण कोउगेणं । विभाविओ लेहगम्भत्थो, जहा-अपक्खालियचलणस्स इमस्स दारगस्स विसं दायचं ति । 'दिवागिहणो इमस्स न इमं संभाविजह, किंतु एवं' ति तओ नहग्गेण नयणंजणं घेतूण 'विसा दायब' त्ति समारियाणि अक्षराणि । तहेव मुदिऊण लेहं मोत्तण य गया सगिई। दामनगो वि निहाविरामे जणमापुच्छतो गओ सागरपुत्तसेद्विणो घरं । खेत्तो लेहो, वाइओ तप्पुत्तेणं, अवधारिओ १ मद्गृहकृतान्तः ॥ २ बुद्धिपौरुधौ ॥ ३ इतिगर्भार्थलेखहस्तः ॥ ४ पथपरिश्रमक्लान्तकायः ॥ ५ वारवासि* प्रतौ ।। Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ देवभद्दसरिविरइओ कहारयणकोसो॥ विसेसगुणाहिगारो। ॥३४९॥ तदेवमैकान्तिकवाञ्छितार्थसार्थप्रदानादिनिदानमेतत् । नानुष्ठितं यः परमेष्ठिवाक्यात, ते दुर्गतिं श्रेणिकवत् प्रयान्ति ॥ ३ इति स्तम्भ-कोधप्रभृतिकलुषाश्लेषरहितं, हितं तथ्यं पथ्यं ध्रुवमविरतिव्याधिविधुरे । जने प्रत्याख्यानं परममवगम्योत्तमधिया, किमित्यत्राऽऽलस्यं विदधति सुखैकान्ततृषिताः॥४॥ ॥ इति श्रीकथारत्नकोशे प्रत्याख्यानव्यतिरेकचिन्तायां भानुदत्तकथानकं समाप्तम् ॥ ४९॥ RRARKARI प्रवज्यायां श्रीप्रमप्रभाचन्द्रकथानकम् SANSAMACHAR ५०। पवज्जा । पुच्चुत्तगुणाणुट्ठाणविहियपरिकम्मणो य मणुयस्स । पञ्चजापडिवत्ती जुत्त त्ति तमिण्डि वोच्छामि पव्वयणं पञ्चजा असेससावञ्जवजिया दिक्खा । सा पुण समत्थ-असमत्थगाहगावेक्खया दुविहा तत्थ समत्थो जो देसविरइपरिपालपणेण तुलिऊणं । अप्पाणं पडिवाइ दीहरकालं हि पबअं असमत्थो पुण सुचरियसावयवयवित्थरो वि इत्तिरियं । रोगाइविहुरदेहो नाऊणमुवागयं मच्चुं १ तामिदानीम् ॥ २ अल्पकालिकोमित्यर्थः ।। ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ ॥ ३॥ ॥४ ॥ प्रव्रज्याया: स्वरूप समाँसमर्थप्रव्रज्येच ॥३४९॥ ******%%%%% AR संथारगविक्खं चिय पडिवजह होउ एत्तिएणावि । सबविरईए संफासण ति सद्धाए परमाए ॥ ५ ॥ इय थोयकालिया वि हुन थेवपुन्नेहिं लम्भए एसा । किं पुण दीहरपजायपालणेणं सुपरिसुद्धा ? ॥६ ॥ संसारसिंधुनावा नेवाण[पहप्पयाणगंती य । दुग्गइदारुणदीहरदुहदुमदवहववाहजला इंदियमयवग्मग्गहणवग्गुरा मोहसेलदंभोली। सुयपवेसपओली पबजा जयह निरवजा ॥८ ॥ एकदिवसं पि एसा असेससावञ्जवञ्जणपहाणा । जेहिं कया ते वि सिवं विमाणवासं अह पवना न य एयाए विरहे ववहारमयाणुवित्तिओ मोक्खो । चरिए वि चिरं दुकरतवम्मि पदिए वि भूरिसुए ॥१०॥ दुविहा वि इयमुवट्टियकल्लाणाणं नराण संभवइ । दिढतो इह दोन्नि उ सिरिचंदमहानरिंदसुया ॥११॥ तहाहि-अस्थि अवसेसियासेसदेससोहाविसेसो पउरपुर-गाम-गोउलाउलो अवंती नाम जणवओ । तहिं च नियचंगिमावगभियसेसनयरीसमिद्धिविस्थरा सिर्विसंपदुप्पीडपडहच्छसच्छसलिलाउलसिप्पाभिहाणतरंगिणीविराइया उज्जेणी नाम नयरी । तीए य आयरो विवेयस्स, निलेओ निम्मलगुणकलावस्स, आधारो धम्मस्स, निवासो नीईणं, पणमंतसामंतमोलिमंडलीमसिणियपायपीढो, सबन्नुधम्मनिचलनिवेसियमाणसो सिरिचंदो नाम नरिंदो । निरुवचरियपणथमायणं भुवणमई से पणइणी । तीसे य दुवे पुत्ता–सिरिप्पभो पभाचंदो य । जहासमयं काराविया दो पि कलागहणं उत्तमरायकुलकन १दुर्गतिवारुणदीर्घदुःखदुमदवदन्यवाहजला ॥ २ इन्द्रियमृगवर्गग्रहणयागुरा ॥ ३ सुकृतप्रवेशप्रतोली ॥ ४ सिप्रासम्पत्यमूहव्याप्तस्वच्छसलिलाकुलसिप्राभिधानतरनिणीविराजिता ॥ ५ निउलनि" प्रती ॥ ६ प्रणमसामन्तमौलिमण्डलीममृणितपादपीठः ॥ ७ निरुपचरितप्रणयभाजनम् ॥८"हणमुत्त प्रती ॥ K60 Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभहससि विरइओ कहारयणकोसो॥ विसेसगुपाहिगारो। प्रव्रज्यायां श्रीप्रमप्रभाचन्द्रकथानकम् ५०। ॥३५॥ गापाणिग्गहणं च । पुवकयसुकयाणुसरिससुहेण सवे गर्मिति कालं । एगम्मि य अवसरे सभामंडवासीणस्स नरवइणो जहोचियं च निसभेसु सिरिप्पिभ-]प्पभाचंदकुमारपमुहरायलोएमु आगंतूण भूमियलचुंबिणा मत्थएण पणमिऊण विन्नत्तं पडिहारेण देव ! कहवयकुसलसेलूसपरिखुडो भरेहरहस्सविहन्नू रंगमल्लो नाम सुत्तहारो संखेवनिबद्धसणंकुमारनाडयनिबंधो तुम्ह पायारविंदं दहमिच्छति । 'सिग्धं पवेसेसु त्ति अभणुनाओ रना । 'तह' ति संपाडिओ णेण रायाएसो । पविट्ठो सुत्तहारो । अथ त्रिपताकं करं कृत्वा उवाच षट्खण्डामवनि निधीन् नव चतुःषष्टिं सहस्राणि च, स्त्रीणां क्षोणिभुजां तदर्धमपरं द्विः सप्त रत्नानि च । यस्त्यक्त्वा तुणवद् भवातिविधुरी जैनं व्रतं शिश्रिये, राजर्षिः स सनत्कुमार इह ते भूपाल! भूयात् श्रिये ॥ १ ॥ अह नाडयावलोयणकोऊहलियरायसुयावरोहेण नरवडणा तदभिणयणहेउं सविलासा पेसिया दिट्ठी सुत्तहारम्मि । तओ नियकुसलयाए जाणिऊण तदभिप्पायं 'भो भो सभावत्तिणो सिरिचंदनरिंदपुरस्सरा! निसामह महाणुभावस्स सणंकुमारस्स वित्तं' ति जपतो सुत्तहारो संखेवओ च्चिय पयट्टो तैमभिनविउं । जहा हत्थिणउरपुरपहुणो सणंकुमारस्स रायसीहस्स । छक्खंडभरहवइणो रजसुहं भुजमाणस्स अप्पडिमरूवलच्छीविच्छडपलोयणेण परितुह्रो । सोहम्माए सभाए सको देवाण साहेइ ॥ २ ॥ भो भो सुरा ! पलोयह सणकुमाररस चक्कवट्टिस्स । पुञ्जियसुहनिम्माणकम्मनिम्मायमुत्तिस्स ॥ ३॥ १ नाव्यशावरहस्यनिपुणः ॥ २ 'भभावाणुना प्रती ॥ ३ तद् अभिनेतुम् ॥ ४ पूर्जिलशुभनिर्माणन:मकर्मनिर्मितमूतः ॥ सनत्कुमारनाटकप्रवन्धः ॥३५॥ MAHETRASWA5%AKSHARASIARRHERECRCHESCREENSAR उज्झिज्जंतु कुसीलसंगा, सेविजंतु भुजो सुतवस्सिणो ति । तेण भणियं-आ पाविढे! दुट्टमुहे ! केण सिटुं तुह एयं ? किं न पेच्छसि अणवरयपावपसत्ता वि मंच्छियाइणो आरोग्गविग्गहे जहिच्छ वियरंते ? जं मम पुरो भुजो भुजो धम्म पोकरसि त्ति । एवं च तेण तजिया लजिया सा मोणमल्लीणा | तहा वि वित्थरिओ सवत्थ वि अवनवाओ, जहा-पवनधम्मगुणभंगसंभवो सबो एस दोसो त्ति । एवं सो अविमंसियनियदोसो अजायपच्छायावो दुक्खनिवहं अजसं च उवजिऊण मओ चाउरंतसंसारकंतारपहदीहपहिओ जाओ त्ति । इय उभयभवियकल्लाणपेहियाणं जणाण निम्भंतं । उप्पाद निरवजा पञ्चक्खाणे मई सम्म किं च उवेक्खा अविही अप्परिणामो य वीरियाभावो । पच्चक्खाणे दोसा सोग्गइगामीण नो हुंति एवं फासिय पालिय सोहियमह तीरियं च किट्टिययं । आराहियं च एवं सुविसुद्धं चिंति समयन्नू ॥ ३ ॥ सीयालभंगसयभावणा य गुणकारिणी ददं एत्थ । मेयप्पमेयविनाणविरहओ न हि हिएं रमह ॥४॥ अपि च प्रत्याख्यानादाश्रवद्वाररोधस्तस्मात् तृष्णा मूलतश्च व्यपैति । तध्वंसाचोत्पद्यते सत्प्रशान्तिस्तस्याः प्रत्याख्यानचेष्टाविशुद्धिः ॥१॥ तस्याः शुन्या चारुचारित्रभावस्तस्मात् सद्यः कर्मणां स्याद् विवेकः । तत्पार्थक्यात् कर्मघातस्ततोऽपि, ज्ञानावाप्तिर्मोक्षलक्ष्मीस्ततोऽपि ॥२॥ १ मात्स्यिकावयः 'आरोग्यविमदाः' नीरोगदेहाः ।। २ अविराष्ट्रनिजदोषः ॥ ३-पथदीपथिकः ॥ ४ -प्रेक्षितानाम् ॥ ५ हदि ॥ RANAMICRACKESAKX प्रत्याख्यानस्य दोषादि तन्माहात्म्यं च ५९ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45 देवभइसरिविरइओ कहारयणकोसो ॥ विसेसगुपाहिगारो। ॥३५॥ प्रवज्यायो श्रीप्रमप्रभाचन्द्रकथानकम् ५०। इय अवरोप्परपेहण-परिभावणवड्डमाणपरितोसो। ते दहूँ चकहरो भणइ अहो ! ठाह खणमेकं ॥८ ॥ जाव अहं कयण्हाणो गिण्हामि विसिढवत्थ-ऽलंकारं । तो पेच्छेजह पुणरवि तह ति पडिवजिउं तियसा ॥९॥ विगमिय मुद्दुत्तमेकं जाव पलोयंति तं महीनाहं । ता मैउलियमुहसोहा विच्छाया ज्झत्ति ते जाया ॥१०॥ 'अहह ! किमेतत् ?' इति सर्वे सभ्याः साकृतं परस्परमुदीक्षामासुः । पुचमणलंकियम्मि वि मइ दिटे सुट्ट हरिसिया तुब्भे । इन्हि न्हाए वि अलंकिए वि दीसह संसोगब किं कारणं ? ति पुट्ठा य चक्किणा ते भणति महिनाह ! । संपइ तुज्झ सरीरे संकंता वाहिणो सत्त ॥२॥ तेवसपणस्समाणंगरूव-लायन-वन-कंतिगुणो । वसि तुम ति अम्हे पडिवना सोगसंभारं ॥ ३॥ रमा भणियं कह नञ्जए इमं ज्झत्ति रोगसंभृई ? । ता सिट्ठजहट्ठियसवपुञ्चसुररायवुत्ता पायडियनियसरूवा गिबाणा पडिगया जहाभिमयं । बेरग्गोवगयमई चकहरो अह विचिंतेइ भवण-धण-जुवइ-चउरंग[संगहो जस्स कीरइ निमित्तं । जातं पि सरीरं पउरवाहिनिहुरं असारं च ॥६ ॥ ता किं इमिणा निकजएण अज वि य पोसिएणं मे ? । गिण्हामि फलं एत्तो विर्णस्सिराओ सरीराओ ॥७॥ एवं विभाविऊणं एस महप्पा समगमवि संगं । उज्झइ गिण्हइ य लहुं पवजं उयह निरवलं ॥ ८ ॥ १ ठाण ख प्रतौ ॥ २ व्यतिकम्येयर्थः ॥ ३ 'मुकुलितमुखशोभी' क्षीणमुखकान्ती ॥ ४ सशोकौ ॥ ५ तशप्रणश्यमानास्पलावण्यवर्णकान्तिगुणः ॥ ६ शिष्यवास्थितमर्वपूर्वमुरराजवृत्तान्तौ ॥ ७ कज्जुए प्रती ॥ ८ विनश्वरात् ॥ २. पश्यत ॥ ॥३५१॥ NIRNARRORAKARNAKHRISSARKARNAGAREKREKAXA%%ar परिमलमिलंतभमरालिमणहरो एस केसपन्भारो । निवडइ सिराओ सिर्यकुसुमरेहिरो करयलविलुत्तो ॥९ ॥ उयह मणिमउड-हार-[ऽद्धहार]-कडयाइभूसणसमूहो । इमिणा महीए चत्तो निम्मल्लं पिव अवमाए ॥१०॥ ओ! पेच्छह विलवह कह विमुकपोकारनिम्भरनिनाय । नायगरहियं दुहियं रुयंतमंतेउरं पुरओ? ॥११॥ हा सामि ! सामि ! किमजुत्तमेरिसं असरिसं समारद्धं । तुमए कर्ज ? ति पयंपिरो य रोयइ दहं लोओ ॥ १२॥ छ । इह तह कहं पि निक्खमणवइयरो तेण तस्स संचविओ। जह सिरिचंदनरिंदो तवेलं जायवेरग्गो ॥१॥ तं किं पि सुहज्झाणं पडिवनो जेण तक्खणं चेव । संजायजाइसरणो सुमरियचिरपढियसुत्तत्थो ॥२॥ सयमेव पंचमुट्ठियमणुडिउं लोयकम्ममह समणो । होऊण चत्तसंगो नीहरिओ रायभवणाओ ॥३॥ एत्यंतरे पायवडिय सायरं 'देव ! किमेयमारलु तुम्भेहिं ? नडविलसियमेयं, कहिं सणंकुमारे १ कत्थ वा तनिक्खमणं' ति पयंपिरं पि रायलोयमवगनिऊण विहरिओ जहामिमयं पेयरिसी। अह अचतपिउविओगसोगगग्गिरगिरं सिरिप्पभरायसुयं अणिच्छतं रायपए पभाचंदं पि जुवरायपए निवेसिऊण रायलोएण भणियं मा कुणह जणगसोगं असोयणिजो खु सो महाभागो । खलमहिल व विमुक्का जेण समग्गा वि रायसिरी ॥१॥ १सितकुसुमराजमानः करतलविलप्तः ॥ २ विमुक्तापूरकारनिर्भरनिनादम् ॥ ३ प्रजल्पिता ॥ ४ दवितः ॥ ५ सातजातिस्मरणः स्मृतचिरपठितसूत्रार्थः ।। |६ पञ्चमुष्टिकमनुष्टाय लोचकर्म ॥ ७ 'मणं पि ५० प्रती ॥ ८ राजर्षिः । अथ अत्यन्तपितृवियोगशोकगद्गदस्वरम् ॥ RRRRRARTHAKAKKAR*****690+%+२%ARAKAKAsts* Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ARCH देवभद्दसूरि-5 विरहओ कद्दारयणकोसो ॥ विसेसगुणाहिगारो। ॥३५२॥ 1464 प्रव्रज्या श्रीप्रमप्रभाचन्द्रकथानकम् को नाम कुणइ दुकरमेवंविहधम्मकम्मपारंभं ? । पायं वेरग्गमई मइमंताण वि खणं एक ॥ २ ॥ ते गंत च्चिय जे कालधम्मयं उवगया अकयधम्मा । उअमियमेवमिह जेहिं ते परं के वि जंह विरला ॥३॥ को न निसामह समयं १ को नेक्खइ खणविणस्सरं सवं? । को वा न विभावह भाविरं च मरणं सरीरीण ? ॥ ४ ॥ को वा सुगुरुवइ8 धम्मुवएसं धरेइ नो हियए ? । कस्स व न बल्लहं मोक्खसोक्खमक्खंडमक्खइयं ? ॥५॥ किंतु चलचित्चयाए तदणुट्ठाणक्खणम्मि खीणंगा । भग्गुच्छाहा हच्छे पच्चोसकंति गरुया वि देवेणं पुण तं किं पि साहसं ववसिय बसिवरेण । जं असमसाहसाण वि सहसा चित्तं चमकेह एसो वि देव ! परमोवयारभावेण नाडयविहाया। धम्मगुरू विव तुम्ह सविसेसं पूहउँ जुत्तो ॥ ८ ॥ एवं च निसामिऊण मणागमुवसंतसोगावेगो 'तह' ति सम्म पडिवजिय सिरिप्पभनरिंदो तं रंगमल्लं महामोल्लदोगुल्ल-मंडणाईहिं पूएइ, रजकजाणि य चिंतेइ ति । एवं वचंति वासरा । एगया य सो सिरिप्पभपुहईवई पभाचंदेण समं समणसीहसीहाभिहाणमुणिपुंगवसमीवे सम्ममुवगम्म पाणिवहविणिवित्तिपमुहबारसविहसावयवयधम्म पवजेइ, तदेगचित्तो परिपालेड य । तप्पालणपरस्स य वच्चंतेसु दिणेसु तैद्धम्मपवित्तिवित्तंतसवणसंभावियाविजिगीसुसरूवेण अरिदमणमेइणीवहणा पारद्धो उबद्दविउं अवंतीविसयसीमागामनिवहो । मुओ य १जगति ॥२ णोति आगममित्यर्थः ॥ ३ मोक्षसौख्यम् अखण्डम् अक्षयिकम् ॥ ४ भमोत्साहाः शीघ्रं प्रत्यवयस्कन्ते ॥ ५ नाटकविधाता ॥ ६ महामूल्यनुकूलमण्डनादिभिः ॥ ७ तद्धर्मप्रवृत्तिवृत्तान्तश्रवणसम्भाविताविजिगीषुस्वरूपेण ॥ ||३५२॥ ABKESHWARROAD -REARRIA8% AA-%A4%AAAAA S सा का वि य रूवसिरी जा देवाणं पि नेव संमवइ । अविवनं लायनं उग्गा सोहग्गलच्छी वि अहह ! कहं धाउभर्व पि देहमेवं हरी पसंसेइ ? | अइभूरिवयणवित्थरमवहत्थिय देव-दणुवरणो ता तं गंतूण सयं पेहेमो इति विभाविउं दोनि । कयवुड्डविप्परूवा देवा तं नयरमोहन्ना अत्रान्तरे विस्मिता राजपुत्रादयः 'किमतो भविष्यति ?' इति सावधानाः शुश्रुवुःदूरयराओ देसाओ राहणो रूवपेहणढाए । आय म्ह भो पडीहार ! कहसु सिरिचकवडिस्स एवं भणिउं चिट्ठति जाव ता ज्झत्ति लद्धपडिवयणो । सविणयजोडियपाणी ते पडिहारो पवेसेह ॥ २ ॥ राया वि तक्खणं किर न्हाणट्टमुवडिओ समग्गाई। आभरणाई विमोत्तुं केवलकयकडियडकडिल्लो ॥३॥ देरिसायं देमि सुद्देसपहसमकिलंतकायाण । महरूवमेत्तपेहणनिमित्तमिहई उवगयाण ॥ ४ ॥ एयाण तवस्सीणं ति चिंतिउं चत्तपत्थुयपयस्थो । अभिमुहमभिवÉतो पलोइओ थेरविष्पेहिं अह हैरिसवियसियच्छा अहोऽइमेरं इमस्स सुंदेरं । अन्ना य रूवलच्छी किं पि अघुवं च लायनं सचं महागुभावेण बंजिणा जंपियं च तं तइया । अञ्ज पि तदुत्तसविसेसदेहसोह व भाइ इमो । १ भविवर्णम् ॥ २ अपहस्तपित्वा देवदनुजपतीन् ॥ ३ बुद्धिवि प्रतौ ।। ४ केवल कुतकटितटकटिवत्रः ॥ ५ दर्शनं ददामि मुदूरदशपथश्रमलाग्सकायेभ्यः ॥ ६ मम रूपमात्रप्रेक्षणनिमित्तम् इहोपगतेभ्यः ॥ ७ वक्तप्रस्तुतपदार्थः ।। ८ हर्षविकसिताक्षौ अहो ! अतिमर्यादमस्य सौन्दर्यम् ।। ९ 'वं वेध ला' प्रती ॥ १० इन्द्रेण ॥. AHARANASIASRAS Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M देवभदबरिविरइओ| कहारयणकोसो ॥ विसेसगुमाहिगारो। ॥३५॥ 645KAK प्रव्रज्यायां श्रीप्रमप्रभाचन्द्रकथानकम् स्सामि' ति कयनिच्छओ जुवराय पभाचं रजकले निजुजिऊण नीहरिओ नयराओ, पत्तो नियदेससीमासंधि । परोप्परं समीचमुवागयाई दोनि वि बलाई । पयट्टो समरवावारो । कई चिय: अइगरुयकोवभडमिउडिभीम, सोडीरिमपाविपविजयसीम । भूनाहिं भूवर जुज्झि लग्ग, अणवस्यमुकसरझसरवग्ग ॥ असवारवीर समवग्गिएहिं, खग्गाउह उद्विय खग्गिएहिं । करिघळई मिडिय पडिकरडिपति, कयदसणघाय मसि-मेहकति ॥ असिदंडलुणिय निवडत छत्त, नं जयसिरि उज्झिय अग्धपत्त । पवणुद्धय घय उद्धृपयंत, नं केउ सहहिं नहि उग्गमंत ॥ सुहडंगि लग्ग नाराय तिक्ख, कीणासमुक नं नियकडक्ख । महि रुंडमुंडमंडिय असेस, नजद खयसमयह निविसेस ॥ १ अतिगुरुककोपभर अकुटिभीमः, शौण्टीरिमप्राप्तविजयसीमः । भूनाभैः न भूपतिः बुद्धे नमः, अनवरतमुक्तारमसरवर्गः ॥२ अश्ववारवीराः 'समवर्गिकैः' अश्ववारैः, समायुधा उस्थिताः खनिकैः । करिषटाभिः सङ्गता प्रतिकरटिपतिः, कृतदशनधाता मधीमेषकान्तिः ॥ ३ असिदण्डलूनानि निपतन्ति च्छत्राणि, इब जयश्रिया उम्लिानि अर्धपात्राणि । पवनोखता यजा उर्द्धमुत्पतन्तः, केतवः इव राजन्ते नभसि उगच्छन्तः ॥ ४ "लुनिय प्रती ॥ ५ सुभटाले लमा नाराचास्तीवणा कीनाशेन मुका व निजकळाक्षाः । मदी रुष्टमुण्टमण्टिता अयोधा, जायते क्षयसमयेन निविशेषा॥ K AR+%%**** ॥३५३॥ ORERAKKAKKARKI****KRAHASRAN+ ** *************** पम्मुकहकहुंकारमीस, अद्धिंदुलुणिय सुहडाहं सीस । उद्धच्छलत रेहंति केव १, हरिखंडिय रावणमुंड जेव ॥ रणनूररवाऊरिय दियंत, दुक्खेण नाइ नाइ रसंत । रुहिरारुण रेहहिं भुवि वियंड, सतडिच्छड नं नवमेहखंड ॥ सरपहरकिलामिय तुरयथट्ट, निम्भग्गमणोरह जिह पयट्ट । पडिसत्तुसेन्नु अइनिरु चिसन्नु, भयभीयई गिरिकुहरई पवन्नु । कइवयनरजुत्तउ, जगि विगुत्तउ, तयणु पलाणउ अरिदवणु । अंगीकयखत्तह, धम्मासत्तह, खंडण सकइ चलु कवणु ? ॥१॥ एवं च विहेलियनामस्थे पउत्थे तम्मि पत्थिवे उवलद्धविजओ सिरिप्पभो गया अमेसि पि नरिंदाणं दिन्नचित्तचमकारो समामओ नियनयरं । जायं वद्धावणयं । परितुट्ठो पभाचंदो। तिवग्गसंपाडणपरं च रञ्जसिरिमणुभुजंताण ताण १ प्रमुक्तहकाधारभीषणानि, भन्तुखनानि सुभटानां शीर्षाणि । ऊर्दोच्छलन्ति राजन्ते कथमिव !, 'इरिसण्डितानि' वासुदेवखण्डितानि राबणमुण्डानि यथा ॥ २ रणतूररवापूरिताः दिगन्ताः, खुःसेन इव ज्ञायन्ते रसन्तः । रुधिरारुणाः राजन्ते भुवि.........सतटिच्छटा इव नवमेघवण्डाः ॥ ३ शरत्रहारकान्तः तुरगसमूहः, निर्भाग्यमनोरथा इव प्रवृत्तः । प्रतिशत्रुसैन्य अत्यन्त विषण्णं, भयभीतं गिरिकहराणि प्रपन्नम् ॥ ४ कतिपयनरयुक्तः जगति विगुप्तः तदनु पलायितोऽरिदमनः । ममीकतक्षात्रस्य धर्मासक्तस्य खण्डने शक्नोति बल कतरत् । ॥ ५ निकलनामार्य इत्यर्थः ॥ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमद्दमरिविरइओ कहारयणकोसो॥ विसेसगुणाहिगारो। प्रव्रज्यायां श्रीप्रभप्रभाचन्द्रकथानकम् ५०। वचंति वासरा । अन्नया य अणिययविहारेण विहरंता तं पुरं पत्ता पभासनामधेया सूरिणो, वुत्था य असोगसंडम्मि उजाणे । जाणियतदागमणो य समागओ सपरियणो सिरिप्पभपुहइवई । जहाविहिवंदियगुरुचरणो य निसनो महीवढे । सूरिणा वि पारद्धा धम्मकहा । जहा नरवर! जिप्पंति कहं पि पैउरपक्खुम्खडा वि पडिवक्खा । वसिर्जति य काउं ववसाया दढमसज्झा वि ॥ १ ॥ साहिजंति य कजाई दिनेचोजाई सयललोयस्स । गम्मति अगम्माणि वि फुरंतगुरुवीरियवसेण ॥ २ ॥ केवलमेको अप्पा अणप्पकुवियप्पपवणखिप्पंतो । आरोविउंपि तीरइ संजमसिहरम्मिन कहं पि ॥ ३ ॥ किं पुण तहिं चिय चिरं थिरीकरेउं तदुत्तरुत्तरओ । गुणपयरिसम्मि सम्मं ठविउं वा निगुणिय विग्धं ॥ ४ ॥ काणि वि कहिं पि संजमठाणाई फासियाई जीवेण । किंतु अणुबंधविरहा ताई वि जायाई विहलाई एसा वि देसविरई सेविजइ सबविरहकोण । पायमिमीए परिकम्मियाणमियरा थिरा होइ ॥ ६ ॥ ता नरवर ! चिरकालं अकलंकियकयगिहत्थधम्मस्स । तुह जुत्तो संपइ सत्संगचागो परं काउं ॥ ७॥ जह बज्झवेरिविजंयत्थमुजओ तं पुरा ददं जाओ । तह अंतररिउविजयं पि इण्हि सम्म समायरसु ॥८ ॥ परमत्थिओ जओ एस चेव एयत्थमेव य जयंति । जइणो महाणुभावा दूरुज्झियसबसावजा १ उपिताब ॥ २ जीयन्ते ॥ ३ प्रचुरपक्षोत्कटाः ॥ ४ व्यवसीयन्ते ॥ ५ दत्ताबर्याणि ॥ ६ अनल्पविकल्पपचनक्षिप्यमाणः ॥ ७ कहिं पि ४ा प्रती ॥ ८ 'इत्तरा' सर्वविरतिरित्यर्थः । ९ लम् ॥ ॥३५४॥ ACANCESAKA-4 ॥३५४॥ SANCHARRACHNIRAKASHMISHRAVARKARRAHAWARKExt एस वइयरो चारनरनियराओ रायसिरिप्पभेण । भणाविओ य सो पहाणपुरिसपेसणेण, जहा-किमेवं पुबपुरिसपरंपरापरागय पि पणयपन्भारमसारीकाऊण कइवयसीमासमीवगामकुडीलूडणेण विप्पियमायरसि ? किं न सुयमिमं तुमए महाभाग! पुत्वपुरिसवयणं - ते धना सप्पुरिसा जाण सिणेहो अमिनमुहरागो । पइदियहं वर्ल्डतो रिणं व पुत्तेसु संकमह ॥१॥ ता एत्तो वि विनियत्तसु इमाओ, खमिओ य एसोऽवराहो तुह संपह मए, नहि थेवावराहे वि पुब्बढिहभंगभीरुणो विरोहमारभंति संतो ति । इमं च सोच्चा पहसंतेण भणावियं अरिदमणेण । जहा तुह पत्थिव ! धम्मत्थं सवित्थरा रिद्धि कुसलकिच्चस्स । पुहइपरिपत्थणाए अलमित्तोऽणत्थबहुलाए अह अभिलससि इमं पि हु ता दूरं मुंच धम्मवावारं । संभवइ कह णु एगत्थ खल्लि-सीमंतसंघडण । ॥ २ ॥ अह लोयरंजणामेत्तमेयमारंभियं सुकयकिचं । ता निचितो चिट्ठसु एत्तो न हणामि तुह देसं ॥३ ॥ पुषपणयाविरोहो हि भूवईणं परं जिगीसीण । दूसणमेव महंत अहवा वि य दढमसामत्थं ॥ ४ ॥ इमं च तम्मुहाओ आयनिऊण 'अहो ! दुस्सिक्खियाणमुल्लावो' ति जंपिरो सिरिष्पभभूवई तेकालताडावियसबाहढकारवायमणपुरचरणुकंठियवंठाहिट्ठियविसिट्टकरि-तुरगाइसामग्गीसणाहो 'नाहमित्तो तं दुरायारमसाहिऊण च्छत्तं पि धरावइ .१-प्रामकुटीलष्टनेन ॥ २खल्वाटसीमन्तसकटनम् । सामन्त:-केशपाशः ॥ ३ 'यावराहो प्रतौ ॥ ४ शत्रुमित्यर्थः ॥ ५ तत्कालतादितसन्नाहकारवाकर्णनपुरचरणोत्कण्ठितवण्ठाधिष्ठितविशिष्टकरितुरगादिसामनीसनाथः ॥ ६"णतुरबरणु प्रती ॥ .. .. SACANKARNAKA Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभरिविरइओ कहारयणकोसो ॥ विसेसणाहिगारो । ॥ ३५५॥ *40*90 सम्माणिऊण संघ पसत्थदियहम्मि विहियसिंगारो । आरुहिउं नीहरिओ सहस्सनरवाहिणि सिवियं पत्तो य सूरिपासे तो उज्झियसङ्घवस्थ ऽलंकारो । पडिवो पद विहिणा सिद्धतबुत्तेणं तो देइ अमयबुद्धिं व सबसत्ताण जणियपरितुहिं । अणुसद्धिं तस्स गुरू महुरगिराए इमं पयओ इह हि भवसमुद्दे णंतसो संसरंता, कहमवि य लभते जंतुणो माणुसत्तं । तमवि कहवि लद्धुं सुद्धसद्धम्मक मक्ख मतणुबलमाउं दीहकाला लहंते तमवि हु लहिऊणार्तुच्छ मिच्छत्तलुत्ताखिलमइनयणत्ता णंतसत्ता दुहत्ता । तह कह वि जयंते पावकिथेसु नियं, जह पुणरवि णंतं णंत कौए वसंति इय बहुतम वेलुब्बुह निब्बुडणेहिं भवजलहिनिमग्गा जाणवत्तं व दिक्खं । वणपणीं सवाऽलद्धपुढं, कहमवि य लहंते पुढपुनेहिं केई पडिपुत्रमिमं तुमए य पावियं कह वि दिवजोएण । ता बाढमध्यमाओ कायवो सङ्घद्दा एत्तो जयमेव आसियां संचरियवं सचक्खुवावारं । उवओगपुव मिउ-महुर-मणहरं भासियां च जयणाए संहयवं भोत्तवं चत्तराग-दोसं च । पंडिले हियप्पमजियभूमीए ठाइयां च ॥ २२ ॥ ॥ २३ ॥ ॥ २४ ॥ ॥ २५ ॥ ॥ २६ ॥ ॥ २७ ॥ ।। २८ ।। ताहि ॥ २९ ॥ ॥ ३० ॥ १ शुद्धसद्धर्मकर्मक्षमतनुबलम् ॥ २ अनुच्छ मिध्यास्य प्ताखिलमतिनयनत्वात् ॥ ३ 'अनन्तकाये' निगोदमध्ये इत्यर्थः ॥ ४ बहुतमनेोनिनः ॥ ५ तीर्थकर प्रणीतमित्यर्थः ।। ६ त्वया ।। ७ शयितव्यम् ॥ ८ प्रतिलिखित प्रमार्जितभूमौ स्थातव्यम् ॥ *****. अममत्तमिंदियजओ अकसाइतं च पिंडसुद्धी । जयसमयं आवस्सयविहीसु सह वट्टियां च विणओ य सया किचो बाल-गिलाणाइयाण जहसतिं । अकलंकसीलपालण मणुट्टियां च जाजीवं एयविवरीयचारी हिंसाकारी अहिंसगो वि भवे । न पमायाओ वि परं हिंसाए पयं जिणा चिंति धनो तुमं महायस ! सीलभर [.. ...] समुद्धरणधीर ! | माणुस्सजम्म जीवियफलं च तुमए परं पतं एयस्स पभावेणं पालिअंतस्स सइ पयतेण । जीवेहिं अणंतेहिं दुक्खाण जलंजली दिनो चिंतामणी अउवो एयमपुढो य कप्परुक्खो ति । एयं परमो मंतो एयं पैरमामयं चैव एयस्स कए धीरा रअं रडं पुरं पुरंघीओ । पडिबंधबंधुरं बंधुलोयमवहाय निक्खता तिलोयसुयसासणा अतुलरूवनिन्भासणा, अतुलबल-विकमा पयडियपहाणकमा । जिदिउस भाइणो विजियघोररागाइणो, चैइंसु भवसंभवं सुहमवेक्खिउं संजमं छखंडभरहाहिया नवमहानिहीसुंदरं, पहयरयणुब्भर्ड हरि-करिंद-जोहाउलं । तणं व पडसंगयं लहु समुज्झिउं चकिणो, नरिंदसिरिमुत्तमं भरहमाइणो निग्गया ।। ३९ ।। १ जगत्समत्वम् ॥ २ सदा ॥ ३ परमामृतम् ॥ ४ त्रिलोकविख्यातशासनाः इत्यर्थः ॥ ५ तत्यजुः ॥ ६ प्रभूतरत्नोम् ॥ ७ तृणमिव ॥ ॥ ३१ ॥ ॥ ३२ ॥ ॥ ३३ ॥ ॥ ३४ ॥ ।। ३५ ।। ॥ ३६ ॥ ॥ ३७ ॥ ।। ३८ ।। অএক प्रव्रज्यायां श्रीप्रभ प्रभाचन्द्रकथानकम् ५० । प्रब्रजितं प्रति गुरोः अनुशिष्टि: ॥ ३५५॥ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभइसरिविरइओ कहारयणकोसो ॥ विसेसगुजाहिगारो। प्रव्रज्या श्रीप्रमप्रभाचन्द्रकथानकम् ५० परेहिं अनिरिक्खिया मुंहसिरीगुणालंकिया, अणभवलसालिणो हलहराइणो राइणो । भुयंगमविभीसणं घरनिवासमासंकिउं, पवनदढसंजमा वणविहारवासं गया ॥ ४० ॥ ईसर-सेणावइ-सत्थवाह-सामंत-मंतिपमुहाणं । सामन्त्रपवनाणं सेसाणं मुणउ को संखं ? ॥४१॥ न य एत्तो वि हु अचं वनंती मोक्खसाहणोवायं । तेण तव-चरणाइसु कीरद जत्तो ददं इहरा ॥ ४२ ॥ दुपरिचयं नियघरं मुचंतु कहं व बंधुपडिबंधा ? । कह वा पइदिणपरघरभिक्खाभमणं च कीरेजा ? ॥४३॥ सिरलोओ वा अचंतदुस्सहो गुरुपरीसहस्सहणं । अण्हाण-भूमिसयणाइ कह व कई अणुड्डेजा ? ॥४४॥ एवं भवसुहविमुहा जयंति एगे तवे महासत्ता । अन्ने उ पावकम्मा पहुच ते एवमासु ॥४५॥ किं घिप्पैइ पडिवजा? न जहुत्ता जेण तीरए काउं। पजायाणं दोण्ह [वि] वितहकरणे परिचाओ ॥४६॥ न तहा य पिंडसुद्धी न खमा संघयणमदद न घिई । साहिस्संगं च तवो गिहिधम्मो ता परं जेंचो ॥४७ ।। एवं हि दुवियता पयंपिरा तह कह पि कुचंति । जह सासणवुच्छित्ती जायह न इमं च भाविति ॥ ४८ ।। कालोचियकिरियरया जहसत्ति अमच्छरा अमाइल्ला । जयमाणा मुणिणो चिय समयस्थपरूवगा सम्मं ॥ ४९ ॥ उस्सग्ग-ऽववायविऊ आवस्सयविहिसु बद्धपडिबंधा। तकालावेक्खाए सुसाहुणो चिय पवुचंति ॥५०॥ किंच खय उवसम मिस्सं पि य जिणकाले वि तिविहं भवे चरणं । मिस्साउ चिय पावइ खयं उवसमं पि नऽन्नत्तो ॥ ५१ ।। १ शुभश्रीगुष्यालकृताः ॥ २ क्रियेत ॥ ३ गृह्यते परिवज्या ॥ ५ ‘सामिष्वन' आसक्तिसहितम् ॥ ५ जुत्तं प्रतौ ॥ ६ 'क्लायाए प्रतौ ॥ ॥३५६॥ प्रत्रज्याप्रतिपत्तिनिषेधविषयक चार्चिकम् है। tech4402-02-%*&+%%*&+xxx++KAAREERRRRIOR तुह पिउणा वि हु तह कह वि संजमे सम्ममेव उजमिउं । जह तअसोहभरियं अञ्ज वि हसई व दिसिवलयं ॥१०॥ एवंविहसामग्गी कत्तो पुणरेव संभवइ परमा ? । ता सवसंगचागत्थमुजम कुणसु नरनाह ! ॥११॥ बालयधूलीघरकीलणं व परमत्थविरहियं अहियं । संसारियं पि किच्चं कुसलाणं अक्खिवइ हिययं ॥१२॥ एवं बुत्तम्मि गुरूहि राइणा हरिसवियसियच्छेण । भणियं भयवं ! एवं अन्नं को जंपिउं मुणइ ? ॥१३॥ कस्स व करुणासारो परोवयारो वि हवउ अवरस्स १ । सग्गा-ऽपवग्गमज्झे सत्थाहो को तुमाहिं परो? ॥ १४ ॥ ता जाव रखकले ठवेमि भाउं इमं पभाचंदं । ताव तुह पायमूले पराजमहं पवजामि गुरुणा भणियं भद्दय ! संपञ्जउ वंछियं तुहं हच्छं । निग्घाइजउ विग्धं धम्मस्थपवनचित्तस्स ॥१६॥ तो राया नियभवणे गंतूणं रायलोयपच्चक्खं । ठावेह पभाचंदं रायपए देह सिक्खं च धम्मस्स य रअस्स य कमाईजहा न वच्छ! सीयंति । तह वेटेजसु अरिचकमकमेजासि य सया वि ॥१८॥ ओजासु कुसंग निस्संगे साहुणो मैंएजासु । अणुवतिञ्जसु सकुलकर्म च मुंचेजसु पमायं ॥१९॥ रायसिरी विसया वि य जइ वि हु सम्मोहकारया बाई। तह वि य तेहिं अवहियमाणसो होजसु तुमं ति ।। २० ।। एवं तं अणुसासिय जिणभवणेसु य विसेसपूयाई । काराविऊण दीणाइयाण दाणं च दाऊण ॥ २१ ॥ १ तयशओघभूतम् ॥ २ बालकधूलीगृह कीडनमिव परमार्थविरहितम् अद्दितम् ॥ ३ भ्रातरम् ॥ ४ त्वरितम् निहन्यताम् ॥ ५ वर्सथाः ॥ ६ वर्जयेः ॥ ७ भजे: अनुवर्तथाः ॥ ८ अव्यथितमानसः ।। LOKSCHOCALCHAKRAM . Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमद्दसूरिविरइओ कहारयणकोसो ॥ विसेसगुणाहिगारो । ॥३५७॥ এঅ हियं पवज्जामि-त्ति जाव परिभावेइ ताव समुच्छलिओ कणिट्ठसुयमंदिरे अमंदरुयमाणीणमंतेउरीणं हाहारवो । 'हा हा ! किमेयं १' ति विहिओ राया । एत्यंतरे पविडा वेगागमणवस विगलियउत्तरीया दीहं नीससंती अच्छिन्नर्णितबाहष्पवाहपंवाणियाणणा 'देव ! परित्तायह परित्तायह अणजेण हीरमाणं कयंतेण रायसुयं पउमनाभं' ति पर्यपमाणी संतिमई नाम कुमारधावी । 'अरे रे ! को एस कयंतो मह जीवंते चि मह सुयं हरइ ? त्ति करवालमायेंडिऊण कोवभरविरइयभालभिउडिभीमाणणो धाविओ वेगेण राया । पायवडिएहिं विन्नत्तो अंगरक्खेहिं-देव ! कयं संरंभेण, अंगीकरेह धीरिमं, न विसओ एस पोरिसस्स । एवं च मणागमुवसंतकोवावेगो गओ सुयसमीवं । सो वि तबेलं चिय च्छिन्नाउयकम्मो पवनो पंचतं । 'हा वच्छ ! कहिं गओ सि १ देहि पडिवयणं' ति रुयंतो मुच्छानिमीलियच्छो पडिओ महीए महीवई । कह कह वि अणुसासिओ परियणेणं । कथं च उडदेहियं कुमारस्स । गएसु य के चिरेसु वि दिणेसु सरीर गेलभेण य सुगविओगदुक्खेण य संतप्यमाणो कहं पि जिर्णवयणविमरिसुप्पन्नविसुद्धभावो भूवई अप्पाणमणुसासिउं पवत्तो मेरे जीव ! कीस विलवसि ? खिञ्जसि १ रुयसी य ? वेवसि य बाढं ? । पियजणविओग-रोगाइतिक्ख दुक्खो खो हे वि ॥ १ ॥ किं न विचितेसि ? जयम्मि तं कुलं नत्थि जत्थ नो बुत्थो । पिइ-माह-पुत्त बंधव पडिबंधो वा न संपनो ॥ २ ॥ १ अच्छिन्ननिर्यद्वाष्पप्रवाह प्रम्ला नितानना ॥ २ आकृष्य कोपभरविरचितभालभृकुटिभी माननः ।। ३ 'और्ध्वदेहिकम्' मृतकार्यम् । ४ कहिं पि प्रतौ ॥ ५ जिनवचनविमर्शोत्पन्नविशुद्धभावः ।। ६ जगति ॥ ॥ ५ ॥ न य तविओगवसओ परिदेवण-रुयण-ताडणाइ बहुं । कुणमाणो वि हु बहुसो तुममणुपत्तो सुहलवं पि न य गरुयरोगजोगे वि पीडियंगस्स विलवणाईहिं । जाया सुहासिया किंतु दढयरं पावपरिवुड्डी पृक्कय दुकयाणं दुच्चिन्नाणं इहं उइन्नाणं । सयमणुभवणं' मोत्तुं नो मोक्खो मुणसि न इमं पि १ पियजणविओगदुक्खं तितिक्खियं किं न सगरपमुहेहिं १ । बारवइनयरिदाहे किं वा नो हलहर-हरीहिं ॥ ६॥ किं व न सरीरवियणा वीरजिणाईहिं धीरपुरिसेहिं । संगमयपमुहविहिया सहिया सपरकमेहिं पि ? तेहिंतो वि हु किं गुरुपरकमो ? तविणासकुसलो वा ? । जं सहसि न तं सम्मं अवहंतो चित्तसंतावं माइंदजालसरिसं अहवा गंधवनगरपडितुल्लं । किं पाव ! न बुज्झसि तँ सयण-सरीराइ सहमिमं ? होऊण सासयं जइ असासयं होइ होउ ता सोगो । सो विहलो पढमं चिय सवत्थ विणस्सरसरूवे एवं च परमविसुज्झमाणसुभावो 'अलमित्तो जीवियद्वेणं' ति निच्छिऊण, रजे नियपुत्तं निवेसिऊण य गओ कुमारनंदिमुणिंदसमीवे । परमभत्तिब्भरपुरस्सरकय सिरोनमणो जंपिउं पवत्तो—भयवं ! नियंसामत्थाणुरूवपालियदुवालसवयस्स समणोवासयस्स पब काउमसमत्थस्य समीवोवट्टियमरणस्स किं काउं जुञ्जइ ? ति । ॥ १० ॥ गुरुणा भणियं - महाराय ! संलेहणा । सा पुण दुविहा- दबओ भावओ य । तस्थ दवओ धण भवण-सयण परियण१ णं वोतुं प्रतौ ॥ २ तेभ्यः ॥ ३ मायेन्द्रजालसदृशम् ॥ ४ त्वम् ॥ ५ निजसामर्थ्यानुरूप पालितद्वादशत्रतस्य ॥ ॥ ३॥ 11 8 11 || 6 || ७ ॥ ॥ ८ ॥ ॥ ९ ॥ प्रवज्यायां श्रीप्रभ प्रभाचन्द्रकथानकम् ५० । आत्मानुशासनम् ॥३५७॥ संलेखनायाः स्वरूपमतिचाराय Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्दसूरि विरइओ प्रव्रज्यायां श्रीप्रभप्रभाचन्द्रकथानकम् ५० । कहारयणकोसो ॥ बिसेसगुजाहिगारो। ॥३५८॥ पमुहबज्झपरियरचागण, भावओ पुण कोहाईणमच्चंतपरिहारेण परिकम्मियसरीरस्स मतपरिमापडिवत्ती संभवइ । तीए य पवनाए कह वि संकिलिट्ठकम्मोदयवसेण कस्सई पंच अइयारा भवंति । तं जहा-इहलोगासंसा १ परलोगासंसा २ जीवियासंसा ३ मरणासंसा ४ कामभोगासंस ५ ति । तत्थ मणुयस्स हि मणुयजणो इहलोगो तेसु अप्पणो जम्मं । आसंसह मम एसो हवेञ्ज पुत्ती व भत्ता वा तस्सेव य परलोगो तियेसाई तेसु सुंदरं किं पि । दट्टणं आसंसइ अहं पि एवंविहो होला ॥ २ ॥ दङ्णमिड्डि-पूयं जणेण कीरतियं अणसणम्मि । जह ताव जिएंमि चिरं ति पत्थणा जीवियासंसा ॥३॥ मरणासंसा पुण सास-कास-कोढाइविहुरदेहस्स । तदुक्खविरामकए लहु मरणं मग्गमाणस्स ॥ ४ ॥ सही रूवं कामा भोगा पुण होति गंध-रस-फासा । तबिसया आसंसा पंचममइयारमासु एवमइयारपरिहारसारसंलेहणापवनस्स । आराहणापडागा करगोयरमेइ गिहिणो वि ॥ ६ ॥ धन्ना गिहत्थधम्म सुनिम्मलं पालिऊण पअंते । संलेहणाविहाणं सोक्खनिहाणं पवअंति ॥ ७ ॥ एवं गुरुकहियतकालोच्चियनीसेसकियो आबालकालियमालोइऊण मूलुत्तरगुणावराहनिवहं, पुणरवि सविसेसमुच्चरावेऊण दुवालस वि वयाई, खामिऊण सबसत्तसंपाय पभाचंदो पवनो गुरुणो समीवे अणसणं, सोउमादत्तो य आराहणापमुहसत्थाई ति । अइकते य सत्तरत्ते भवियच्चयावसेण पहीणचारित्तावरणीयकम्मो स महप्पा गुरुं विन्नविडं पवत्तो-भयवं! पुर्व मए १ भक्तपरिज्ञा-अनशनप्रकार विशेषः ॥ २ देवादिः इत्यर्थः ॥ ३ क्रियमाणाम् ।। ४ जीवामि ।। ERRORESAKALYANA ॥३५८॥ -KA-NCRACARPRAKA4%******%%8284*454643 CSCALEKAR ता संपयमवि मिस्सं चरण सरणं ति निच्छयपवमा । कीस न हुति [] समणा? पावाणमहो! महामोहो ॥ ५२ ।। किं बहुणाइत्तिरिसामाइय-छेयसंजया तह दुवे नियंठा य । बउस-पडिसेवगा वा अणुसअंते य जा तित्थं इय भो देवाणुप्पिय ! तबिहकुवियप्पिएहिं अक्खुद्धो । तह धम्मधुरं दुद्धरमुद्धरसु जहा सिवं लहसि ॥५४॥ एवं गुरुणोऽणुसासणं एगग्गमाणसो स महप्पा सिरिप्पभरायरिसी सविणयमादाय संजमकजेसु उञ्जमंतो वाहिओ इव वेज खणं पि गुरुकुलममुचतो बिहरह गामा-ऽऽगराईसु । पैरियत्तई य सुतं, अवधारेह तयत्थं, वइ बाल-गिलाणाइकजेसु, कुणइ य वेयायचं, अवचं व रक्खइ पाणिगणं, सुस्सूसइ मुणिजणं, जणइ जईण समाहिं, अणुयत्तह अट्ठ पवयणमायाउ त्ति । पभाचंदो वि राया रजसिरिमणु जंतो कालं वोलेह । __ अन्नया य जाया तस्स दोनि पुत्ता-हरिसेणो पउमनाभो य । पाढिया परिणाविया जहोचियं रजकलेसु निउत्ता य । अनया य राइणो समुप्पत्रो अँरोयगवाही । तबसेण य मणहरेसु वि भक्ख-भोयणपगारेसु न जायहवंछा, तो किसीहूयं | सरीरं । आहुया य वेजा, कया य काइ तेहिं तिगिच्छा, न य जाओ को वि विसेसो । तओ परिभावियमणेणं-किमित्तो वि दबोसहेहिं ? भावोसहमेव संपयमुचियं, किमेत्तो वि कायबमवरं ? ता जेट्ठसुयं रज्जे इयरं च जुवरायपए निवेसिऊण परलोय १ इत्वरं-मर्यादितकालम् ॥ २ व्याधितः इव वैद्यम् ॥ ३ परावर्तयति ॥ ४ "वश्चमव प्रती ॥ ५ अपत्यमिव ॥ ६ अनुवर्तते ॥ ७ आरो" ताप्रती । अरोचकव्याधिः ॥ ८ 'क्वाभो प्रतौ ॥ WAARAKSHA Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S प्रवज्यायां श्रीप्रमप्रभाचन्द्रकथानकम् देवमइसरिविरहओ कहारयणकोसो॥ विसेसगुमाहिगारो। ॥३५९॥ जा धम्मज्झाणपरो चिट्ठा ता चारकहियवुत्तो । अरिदमणो आगंतुं वंदइ तं परमभत्तीए ॥ ११ ॥ भणइ य भयवं ! तुमए भुत्ता चत्ता य जह नरिंदसिरी । अत्रेण तह न केण ता तुज्झ नमामि कमकमलं ॥ १२॥ अम्हारिसा उ पावा रजलवेणं पि गछिया दूरं । अविभावियभाविभया न धम्मकजे पसअंति ॥ १३॥ एवमुवहिओ वि हु रना थेवं पि अकयउक्करिसो। तं किं पि झाणपगरिसमारूढो सो महासत्तो ॥१४॥ जेण लवसत्तमेसु सव्वट्ठविमाणवासितियसेसु । मरिऊणं उववन्नो देवेहिं कया य से महिमा ॥१५॥ नियनियठाणाउ चुया कालेणं भायरो य ते दो वि । अवरविदेहे देहं मोत्तुं मोक्खं लहिस्संति ॥१६॥ इय निरइयारपवनपालण सिवफलं मुणेऊण । सोहग्गोवरि मंजरितुल्लं को नाऽऽयरेज बुहो? ॥१७॥ छ । किंचधबाण निवेइजइ धना वचंति पारमेईए । गंतु इमीए पारं पारं पाविति दुक्खाणं ॥१८॥ पनासस्थनिबद्धो एस समप्पह कहारयणकोसो । जेत्तो समुट्टिओ पुण एसो तं इण्डि निसुणेह ॥ १९ ॥ छ । ॥ अथ प्रशस्तिः ॥ चंदकुले गुणगणवद्धमाण सिरिषद्धमाणमूरिस्स । सीसा जिणेसरो बुद्धिसागरो बरिणो जाया ॥१॥ १ प्रसजन्ति ॥ २ उपयूँहितः ॥ ३ भन्येभ्यः निवेद्यते धन्या नजन्ति पारम् 'एतस्याः' प्रत्रयायाः ॥ ४ 'पञ्चाशदर्थनिबद्धः' पन्नाशदर्थाधिकारगर्मितः एष समाप्यते कथारत्नकोशः ॥ ५ जुत्तो प्रती ॥ ARASWESCCASSA प्रशस्तिः ॥३५९॥ N SKCONC% तद्द कह वि संजमभरो उबूढो जेहिं धीरधवलेहिं । अज्झवसिउं पि तीरइ जह अज वि नेव केहिं पि ॥ २ ॥ ताण जिणचंदबरी सीसो सिरिअभयदेवसूरी वि । रवि-ससहर व पयडा अहेसि सियगुणमऊहेहिं ॥ ३॥ तेसिं अस्थि विणेओ सैमत्थसत्थत्थपारपत्चमई । सूरी पसन्नचंदो न नामओ अस्थओ वि परं ॥ ४ ॥ तस्सेवगेहिं सिरिसुमइवायगाणं विणेयलेसेहिं । सिरिदेवभहसूरीहिं एस रइओ कहाकोसो संघधुरंधरसिरिसिद्धवीरसेट्ठीण वयणओ जेहिं । चरियं चरिमजिणिंदस्स विरइयं वीरनाहस्स ॥६॥ परिकम्मिऊण विहियं जेहिं सेइ भचलोगपाउग्गं । संवेगरंगसालाभिहाणमाराहणारयणं ॥७ ॥ कंचणकलसविहसियमुणिसुब्वयंभवणमंडियम्मि पुरे । भरुयच्छे तेहिं ठिएहिं एस नीओ परिसमचि ॥८॥ वसु८ बाण ५ रुद११ संखे वचंते विकमाओ कालम्मि। लिहिओ पढमम्मि य पोत्थयम्मि गणिअमलचंदेण॥ ९॥ अलं बहुभणिएण ॥ यदिह जगदे किश्चिन्मोहान्मया समयाद् बहिर्यदपि सुकविक्षुण्णान्मार्गाद् वचोऽभिदधेऽन्यथा । तदुदितकृपैः सद्रिस्त्यक्त्वा तथैष विशोध्यतां, भवति कथिकाकोशः पन्था यथा शिवसद्मनः १ धीरत्वेन भवलतुल्यैः, धीरपषभरित्यर्थः ॥ २ अभूताम् ॥ ३ समस्त शाखार्थपारप्राप्तमतिः ॥ ४ मंस्कृत्य संशोभ्य वा इत्यर्थः ॥ ५ सदा ॥ ६ "यभुव प्रती ॥ ७ "मझानां वामतो गतिः" इति न्यायात् ११५८ बर्षे इत्यर्थः ॥ ८ जिनागमात् ॥ प्रन्थोपसंहारः Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमद्दबरिविरहओ कहारयणकोसो।। प्रव्रज्यायां श्रीप्रभप्रभाचन्द्रकथानकम् ५० । EXCHAR विसेसगु माहिगारो ॥३६०॥ यत् कत्वेदं त्रिकरणजयात् पुण्यमस्माभिराप्तं, तेनैवैतच्छ्रवण-पठना-ऽऽख्यान-चिन्तैकचित्ताः। सन्तः सन्तु प्रतिसभमितश्चाऽऽप्तमोहव्यपोहा, भूयो भूयो जिनपतिमते बोधिसिद्धिं लभन्ताम् जीयासुः शशि-नील-काश्चन-जपा-मेघोपमाङ्गत्विषः, श्रीमन्नाभिंतनूद्रवप्रभृतयः सर्वेऽपि तीर्थेश्वराः । गीरम्बा च सुदर्शना च विदिता देख्योऽपि काल्यादयो, भूयासुर्जिनशासनस्य सततं प्रोत्सर्पणाहेतवे ॥३॥ इति बहुविधवाक्यानेकमाणिक्यपूर्णाऽऽगमजलनिधिलब्धैरर्थलेशनिबद्धः । तदपि निहत रिप्राणिदौर्गत्यदुःखो, जयतु सततमेव श्रीकथारत्नकोशः ॥४ ॥ ॥ इति प्रव्रज्यार्थचिन्तायां श्रीप्रभमभाचन्द्रचरितमुक्तम् ।। ५०॥ तदुक्तौ च सम्यक्त्वादिपञ्चाशदर्थाधिकारसम्बद्धः कथारत्नकोशोऽपि समाप्तः ॥ छ । ॥ मंगलं महाश्रीः ॥ शुभं भवतु ॥ शिवमस्तु सर्वजगतः परहितनिरता [भवन्तु] भूतगणाः । दोषाः प्रयान्तु नाशं सर्वत्र सुखी भवतु लोकः ॥१॥छ। ANSARKAR १ श्रेत-नील-पीत-रक-श्यामासवर्ण। इत्यर्थः ॥ २ ऋषभादय इत्यर्थः ॥ ३ प्रभावनाकृते इत्यर्थः ॥ ४ "भूतिप्रा प्रतौ ॥ ॥३६॥ CH संस्तारकप्रवच्या निप्पुत्रएण न पवनं सामनं, इयाणि पि जइ तं पडिवजिञ्जइ ता किं जुत्तमजुत्तं ? ति । गुरुणा भणिय-मद ! किमेवमुल्लबसि ? किं न सुयमिमं तुमए ? एगदिवसं पि जीवो पबजमुवागओ अणनमणो । जइ वि न पावह मोक्ख अवस्स वेमाणिओ होइ ता इण्हि पि हु नरवर ! संथारगदिक्खनावमवछिई। घेत्तूण भीमभववारिरासिमुत्तरसु लीलाए ॥ २ ॥ अह गरुयहरिसवसनिस्सरंतरोमंचकंचुइयकाओ । संथारगपवजं पडिवाइ भूवई सम्म ॥ ३ ॥ साहूहिं भणितं पीऊसं पिव असेसदोसहरं । पंचपरमेट्ठिमंतं अवधारह तयणु संविग्गो ॥ ४ ॥ एवं पक्खियसंलेहणाए संथारयं पवनो सो । मरिऊण वेजयंते जाओ देवो महिडीओ ॥५ ॥ __ अह कह वि पुरा-ऽऽगर-गाम-नगर-निगमेसु अणिययविहारं । गुरुणा सह विहरतो अरिदमणनरिंददेसम्मि ।।६।। तम्मरणं सोऊणं रायरिसिसिरिप्पभो विचिंतेइ । जुञ्जह ममावि संपइ काउं एवंविहं कजं ॥ ७ ॥ अन्भुजय विहारं पवलियं एचिरं मैए कालं । अब्भुजयमरणं चिय एतो जत्चेण संरणिझं ॥८॥ तो गुरुणाऽणुभाओ अणुसरिऊणं सिलायलं विउलं । उभओ च्चिय संलिहियं अप्पाणं सुज्झमाणमणो ॥९॥ निरवेक्खो पञ्चक्खिय चउबिहाहारममरगिरिधीरो । सममेव चित्तवित्ति इद्वेऽणिद्वे वि य ठवेंतो १ निष्पुण्यकेन न प्रपनं श्रामण्यम् ।। २ अनन्न प्रती ॥ ३ संस्तारकदीक्षानावम् अपच्छिद्राम् ॥ ४ अभ्युपतम् ॥ ५ मर्म का प्रतौ ॥ ६ अनुसरणीयम् ॥ ७ संलिख्य ॥ SACANACASSARKA Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्रसरिविरचित प्रमाणप्रकाशः॥ प्रत्यक्षमथ परोक्षं द्विधैव [तत् तत्र चादिमं द्वेधा । नैश्चयिकमथ व्यवहारकारि पूर्व पुनस्रोधा ॥ ५ ॥ अवधि-मनःपर्यय-केवलानि षोढा द्वितीयमन्यत् तु । प्रत्यक्षादिनिमित्तं परोक्षमेतच्च पञ्चविधम् स्मरण प्रत्यभिज्ञानं तर्को लैङ्गिकमागमः । विषयः फलमाभासाः स्याद्वादो नय-दुर्नयौ । वादन्यायस्ततः सर्वविच्वे [च] भुक्तिसम्भवः । पुं-स्त्रियोश्च समा मुक्तिरिति शास्त्रार्थसत्रहः प्रमाणं ज्ञानं प्रामाण्यस्यान्यथानुपपत्तितः । नाज्ञान सनिकांदिन साधकतम यतः ॥९॥ अर्थस्य प्रमितौ न साधकतम: स्यात् सन्निकर्षों यतः, स्वस्थासौ प्रमितौ न साधकतमः कुम्भादिवत् कर्हिचित् ।। अर्थश्चाप्रमितः कथं मतिधनैस्त्यज्येत गृह्येत वा ?, सम्यग्ज्ञानमतः प्रमाणमपरं नो सन्निकर्षादिकम् ॥ १० ॥ प्रदीप-नयनादिभिर्न च भवत्यनैकान्तिको, न साधकतमा यतस्त इह मुख्यवृत्या मितौ । परम्परितकारणे करणता यदि त्विष्यते, तदा करणलक्षणे बत! जलाञ्जलिर्दीयताम् ये सनिकर्षमचदन् निपुणाः प्रमाणमध्यक्षता किमु न तैर्नभसः प्रपन्ना। यद् भौतिकेन नयनेन वि[हायसस्तः, शास(शक्यते स्खलयितुं नहि सभिकर्षः ।। १२॥ भूषा(रूपा)भावानभसि न यदि स्यादणौ तत्र [...]स्यानुभूतत्वे नयनजमले स्यात् समुद्भूतरूपे । तस्मात् स्वार्थग्रहणनियता ज्ञानरूपैव शक्तिर्ज्ञातुः कर्मापचयजनिता मुख्यवृत्या प्रमाणम् ॥१३॥ प्रमाणाभावतो सच्चे संयोग-समवाययोः । सनिकषोमिदाख्यानं वान्ध्येयगुणवर्णनम् ॥१४॥ BACAAAA%A5%TERASHASA%AARAASEX ECREASEASANASANATABASA4%A3%A5A5815433 दण्डीति मतिस्त्वन्मतसंयोगविमुक्तवस्तुभेदकृता । संयुक्ताकारत्वाद् युक्ता प्रासादबुद्धिरिव ॥१५॥ संयोगनिराकरणम् । यद्यमानो मित्रं समवायस्तत्र तस्य नैव यथा । स्वात्मनि पटनवतन्तु[.........]विशेषेभ्यः पटो मिनः ॥ १६ ॥ यद् वृश्य (दृश्य) सद् यस्माद् व्यतिरेकेणोपलभ्यते न ततः। तदभिन्नं स च तेभ्यस्तथाऽन्यथोच्छिद्यते भेदः ॥१७॥ ज्ञानस्य स्वप्रकाशत्वं केवलव्यतिरेकिणा । अर्थप्रकाशकत्वेन सिद्धसङ्केतका सुधीः ॥१८॥ यच्चोच्यते ज्ञानमिहापरेण, ज्ञानेन वेद्यं खलु मेयभावात् । घटादिवत् तत्र महेशबुया, नैकान्तिकत्वे स्फुटमेच हेतोः पृथग्जनज्ञानमपेक्ष्य साधने, न च स्थिति, व्यभिचार एव वा । सुवेदनेऽध्यक्षवलाच सुस्थिते, हेतोरकिश्चित्करता निवार्या ॥ २० ॥ अन्तर्मुखो यः प्रतिभासमेदः, स साधयेद् ज्ञानगतं प्रकाशम् । बहिर्मुखस्त्वर्थगतं तदेवं, ज्ञानं प्रसिद्ध्येत् स्व-परप्रकाशम् ॥ २१॥ न च द्वयेऽपि प्रतिभासमाने, शक्योऽपलापोऽन्यतरस्य कर्तुम् । प्रत्यक्षता संविदि चात्र मुख्या, ज्ञेये पुनः स्यादुपचारवृश्या ॥ २२ ॥ यत् यस्मिन्नुपलब्धिलक्षणगताकारेण नाऽऽभासते, वाच्य तम तदात्मकं किल यथा कुम्भ: पटाद्याकृतिः Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्रसरिविरचितः ॥ २ ॥ KARNAKSHREE प्रमाणप्रकाशः। SWASTER45A4%ARSWARREC% भासन्ते च घटादयो न हि जडा भावाः कचित् संविदाकारेणेति विभिन्नमूर्तय इमे मान्या मनीषाधनैः ॥ २३ ॥ तेन यदुच्यते योगाचारेण[................. ............]ते ज्ञानमेव यदिहावभासते । तद्यथा सुखप्रमुखमवभासते च कुम्भादिस्तत् कुतस्त्याऽर्थसिद्धि: (१) ॥२४॥ यत् येन सहोपलभ्यते, नियमात् तत्र ततो विभिद्यते । चन्द्राचन्द्रो यथा परः, सर्व वस्तु तथा च संविदा ॥ २५॥ वेद्यते यदिह तम भिद्यते, ज्ञानतः खलु तदीयरूपवत् । वेद्यते च सकलं घटादिक, बाद्यवस्तु सदिति भ्रमस्ततः॥२६॥ संवेद्यमानत्वमिदं स्वतश्चेदसिद्धमर्थस्य तथा प्रतीतेः । अथापरस्माद् बहिरप्यसिद्धेविरुद्धमन्या च गतिर्न काचित् ज्ञानस्य स्व-परप्रकाशपरतापक्षेऽपि सम्भाव्यते, नैयत्येन सहोपलम्भ इति सन्देहादनैकान्तिकः । प्रत्यक्षादनुमानतश्च विदिते बाये च कालात्ययक्षिप्तोऽप्येष सहार्थचिन्तनविधिर्मेंदाद् विरुद्धोऽपि च ॥ २८॥ नियतः सहोपलम्भो भिन्नास्वपि कृत्तिकासु यद् दृष्टः । तेन व्यभिचारित्वं स्फुटं विपक्षेऽपि वृत्तित्वात् ॥ २९ ॥ वेद्यत्वमत्र यदि वेदनकर्म तात् (भावात्), क्रोडीकृतं ननु मिदैव ततो विरुद्धम् । चिदूपता यदि पुनस्तदसिद्धमेव, कुम्भादयः खलु जडा यदमी प्रसिद्धाः ॥ ३०॥ ज्ञानं विवादपतितं व्यवसायरूपं, बाधाप्रबन्धपरिवर्जितवेदनत्वात् । ॥ २ ॥ RAHESHANKOKANARENARSE ॥ अहम् ॥ आचार्यप्रवरश्रीदेवभद्रसूरिसूत्रितः प्रमाणप्रकाशः । AA%%ASSASSIES सच्यायनगरारम्भमूलसूत्रसनाभयः । श्रीनाभेयस्य नन्द्यासुदेशनावचनक्रमा: ज्ञान-शेयस्वरूपं यत् कलयत्येकहेलया । त्रैलोक्यमखिलं ज्योतिस्तदातमहं स्तुवे ॥ २ ॥ उपादेयमुपादातुं हेयं हातुमुपास्यते । प्रमाणमेव यत् सद्भिस्तदेवातः प्रकाश्यते ज्ञानं स्वार्थविनिश्चयरूपमबाधं प्रमाणमेतच । ज्ञातुः पृथक् कथश्चित् प्रामाण्यं च स्वतः परतः ॥४॥ १ प्रन्थस्यास्य समाप्तेरनुपलभ्यमानत्वाद् एतद्वन्थस्य तत्कर्तुत्र नाम नोपलभ्यते, तथापि प्रकरणस्यास्य तृतीय श्लोके “प्रमाणमेव यत् सनिस्तदेवात: प्रकाश्यते" इत्युखदर्शनाद् प्रन्यस्यास्य "प्रमाणप्रकाशः" इत्यभिधानमस्माभिरुपकल्पितम् । तथा कर्तृनामोल्लेखाप्राप्तावपि च यत् प्रन्यकतः देषभद्र इति नामपरिकल्पनं तदपि तत्कृतस्तोत्रादिपन्थान्तररचनासमकक्षकरवविलोकनेन पत्तनीयक्षेत्रवसद्दिपाटकसत्कभाण्डागारस्थैतन्यपुस्तिकासहवत्येतद्वन्धरस्तोत्रादिसहभावेन चेति । अतः सम्भाव्यते प्रन्यस्यास्य तस्कर्तुश्च नामान्तरमपि कदाचित् स्यादिति । प्रयतितण्यमेतत्सम्पूर्णप्रन्यावाप्तौ विद्वद्भिरिति ॥ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** * देवभद्रससि विरचितः प्रमाणप्रकाशः। * अनेकधा विप्रतिपत्तिरत्र, प्रवादिनां दृष्टिवशात् तथाहि ॥ ३८ ॥ प्राभाकराः प्राहुरिहेन्द्रियोत्थमध्यक्षमेकं विषये पुरस्थे । संस्कारजन्या स्मृतिरन्यदस्याः, पूर्वानुभूतं विपयस्वरूपम् ॥ ३९ ॥ हेतुप्रमेदाद् विषयप्रमेदाच्चेदं किल ज्ञानयुगं प्रमातुः। स्मृतिप्रमोपाच भवेद् विवेकाख्यातिने तु ज्ञानमखण्डमेतत् ॥ ४०॥ अत्रोच्यते कारणभेदमात्रात्, कार्यस्य भेदो यदि साधनार्थः । तदा हमाचैर्बहुभिः कृतं सत्, प्राप्त घटज्ञानमपि बनेकम् ॥४१॥ सामन्यमेदादथ नास्ति सोऽस्मिन् , सामग्रिककैव यतोऽत्र तावत् । कार्यस्य भेदात् यदि चात्र हेतुव्रजान्यताऽन्योन्यसमाश्रयस्तत् ॥ ४२ ॥ संस्कारेन्द्रिययोर्विलोकितमथान्यत्र प्रभुत्वं स्मृतिप्रत्यक्षप्रभवे इहापि सुश्चस्तत् कार्यभेदस्ततः । दत्तस्तर्हि जलाअलिस्तिश्र(?)सनाथः प्रत्यभिज्ञाविदोऽप्येकत्वे यदिहापि सैव सकला तत्कार्यता लोक्यते ॥ ४३॥ हगादयो दोषवशाच रूप्यरूपेण शुक्ति खलु दर्शयन्ति । तस्मादसिद्धो विषयप्रभेदः, सिद्धं ततो ज्ञानमखण्डमेतत् ॥ ४४॥ ज्ञानस्य सर्वस्य सगोचरत्वे, भनथा कयाचिद् विहितप्रतिष्ठे | बाह्यार्थनिह्वेतमनोरथनून् , विपर्ययख्यातिर(रु)न्मूलयिष्यति ॥४५॥ विवेकाख्यातिः। *%%%%C * O ********* ******** आहुर्मध्यमका इदं रजतमित्यख्यातिरेषा यतो, रूप्यख्यातिमदत्र नो सजति न भ्रान्तित्वमस्यान्यथा । नो शुक्तिः कलधौतमित्यधिगतेः स्यात् वस्तु वस्त्वन्तराकारेण प्रतिभाति तर्हि न भवेद वस्तुव्यवस्था कचित् ।। ४६॥ अत्रोच्यते यदि न किञ्चिदिहावभाति, तत् स्याद् विशेषभणितेर्विरहप्रसङ्गः । अरूयातिरत्र च मतः किमभाव एव, ख्यातेरथाल्पतमता प्रथमे विकल्पे न स्यात् भिदा भ्रम-सुपुप्तदशासु हेतुनों वा मना(ता)ऽपि परमार्थसती न यस्मात् । पक्षे परे वितथरूपतयाऽर्थभाने, ख्यातिविपर्ययवती स्फुटमेव सिद्धा ॥४८ विपर्यये भाति यदत्र किश्चित् , तज्ज्ञानधर्मो यदि वाऽर्थधर्मः । ना....नहङ्कारसमाश्रयत्वं, बहिर्मुखत्वप्रतिभासनाच ॥ ४९॥ न चार्थधर्मोऽर्थविधेयसाध्यवैधुर्यतो बाधकबोधभावे । तद(द्वा)मतायाश्च विवाधितत्वा[न त सादसत्ख्यातिरियं प्रपद्या ॥५०॥ वि(वै)भाषिकैरुक्तमिदं न युक्तं, न सच मातीति च वाग्विरोधात् । ज्ञानार्थयोर्मेदकयोरभावे, भान्तेरवैचित्र्यविधे[:] प्रसङ्गात् अर्थक्रियायां पुनरर्थमात्रनिवन्धनेच्छादिरिहापि सोऽस्ति ।। विशिष्टरूपा तु शिव(विशिष्टवस्तुसाध्या यदि स्यान्न विपर्यय: स्यात् ॥ ५२ ॥ इत्यसत्ख्यातिः। RRERABASAHASRA+ACA4%ARANA * *** Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४% देवभद्रसरिविरचितः प्रमाणप्रकाशः। प्रतीत्या यत् सिद्धं तदिह विषयो वस्तु न पुनः, प्रतीतौ तामन्यां मृगयति बुधो निष्ठितभयात् । अथैतद् यद्देशं कलयति न तद्देशगमने, तथा पश्येवं कलयति यदाऽस्त्येव हि तदा ॥ ५३ ॥ न चेदेवं विद्युद्विषयमपि विज्ञानमसति, प्रवृत्तं यत् पश्चान खलु तडितः सत्वकलता । प्रसिद्धार्थख्याति जगदुरिति वाचस्पतिसुताः, शुभोदकं तक प्रतिविहितवैरव्यतिकराः ॥ ५४॥ भ्रान्ता-ऽभ्रान्तज्ञानवर्तायतानात, माऽस्मिन् पक्षे मेदकाभावतः स्यात् । यदेशः ख्यास्येष तं तस्य चिहं पश्येत् पश्चात् प्रागसौ तत्र पेत् स्यात् शुक्ताविचत्वारमिति (?) प्रतीतौ, बाह्यार्थरूपं न विभाति रूप्यम् । तद्भाधकप्रत्ययवाधितत्वादनायविद्यावशविप्लवात् तु ॥ ५६ ॥ संवेदनाकार इहावभाति, तस्माद् बहीरूपतयेव नान्यः । बौद्धास्तृतीया इति युक्तिमात्मख्याती बदन्तः प्रतिषेधनीयाः ॥ ५७॥ प्रमाणतो बाद्यपदार्थसिद्धे, खाकारमात्रग्रहणाग्रसिद्धः। मिथ्येतरज्ञानकथाप्रणाशादेस(श)स्वतस्त्वा(स्ता)चिकवासनाया: ॥ ५८॥ नीलादिकृतः सारूप्यलक्षणो ज्ञानगत इहाकारः । प्रत्यक्षो नीलादिः स्वतः परोक्षाबहीरूपः ॥ ५९॥ ज्ञानाकारख्यातेरात्मख्यातिरिहि वर्णिता निपुणैः । सौत्रान्तिकैरियं पुनरतिकलुषा ख्यातिरिव तेषाम् ॥ ६॥ ॥ ४॥ यत् तुक्तसाध्यविकलं तदुपाचहेतुशून्यं यथा किल विपर्यय-संशयादि विपर्यया-ऽनध्यवसाय-संशयस्वरूपकारोपविरोधि तावत् । विनिश्चयात्मत्वमृते न युज्यते, ज्ञाने विसंवादकता विशेषणम् ॥ ३२ ॥ निर्विकल्पमपि निवयं विना, न प्रमाणपदवीं समश्नुते । भाषमाण इति तत्प्रमाणता, मा क्षिपश्च सुगतो न सौगतः ॥ ३३ ॥ किश्चाविकल्पकमनध्यवसायरूपं, युञ्जद् विनिधितिकृताववलम्बिकल्पम् । पुंसः स्वयं सुतकृतावबलस्य शवदत्तात्मजप्रजननाधिकृतेः समं स्यात् ॥ ३४ ॥ ज्ञान व्यवस्यति न व्यवहारकारि गच्छत्तणालगन........... ............................] वेदवत्त(त्ता)धागतरनुगतं खलु निर्विकल्पम् किश्चाविकल्प-[स]विकल्पकयोरभीष्टौ, यत् ताचिकेतरतनू विषयौ तथा च । मिथ्याधिरोपितमहोत्स(१)विकल्पकस्याप्रामाण्यमात्तविषयग्रहणेन बौद्धैः ॥ ३६ ।। यस्मिन् बाधा भवति विपरीतार्थनिर्णायकेन, ज्ञानं न स्यात् तदिह विलसद्धाधकं न प्रमाणम् । आत्मा व्यापी प्रकृतिजनितं विश्वमीशप्रक्लप्त, सर्वं नित्यं क्षणिकमथवेत्यादिसंवेदनं वा ॥ ३७॥ शुक्ताविदं रूप्यमिति प्रतीति, विपर्ययख्यातिमुशन्ति सन्तः । ARARIANRA%%ARPRAKAKAR4E6484%AKKAKE Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्रसरिविरचितः प्रमाणप्रकाशः। कलुपिनयनवृत्तेवाकचिक्यावलोकोल्लसितकलिततारानुस्मृतेः शुक्तिकायाम् । रजतमिव(द)मितीदं ज्ञानमत्र प्रमातु[:], कथयति विपरीतख्यातिमाराध्यवर्गः ॥६६॥ विपरीतख्यातिः। तीवाभ्यासदशा भवेद् यदि ततः प्रामाण्यमस्य स्वतः, सा चेन्नास्ति ततः परादधिगतप्रामाण्यभावात् स्वतः। उत्पत्तौ परतोऽथवाऽर्थविषयच्छिचौ स्वकार्ये च तत् ,स्वभ्यासे...क्वचित्म(त् स?)तः क्वचिदिदं स्यादन्यतो पाटवे॥६७॥ कर्तभोकृपरिणामिदेहितो, भिन्नभिन्नमविनाशि नाशि यः ।। आत्मवस्तु न हि मन्यते प्रमासिद्धिमस्य विधि)गहो! विवेकिता ॥ ६८ ॥ निःसन्देहमबाधितं सुखमहं संवेदयामीति यद्, ज्ञानं तन शरीरगोचरमहङ्कारास्पदं तत्र तत् । स्थूरोऽस्मीति यदौपचारिकमिदं भृत्येऽपि राजेतिवत् , स्वात्मान्तःकरणेन बाबकरणाभावे [...]तत् गृह्यते ॥ ६९॥ रूपादिविज्ञानमिहाश्रितं वचिद् , गुणत्वतो रूप-रसादिवत् तथा । ज्ञानाद्युपादानविशेषपूर्वकं, कार्यत्वहेतोः कलसा(शा)दिकं यथा ॥ ७०॥ आत्मद्रव्यमनन्तपर्ययममी चास्मात् कथश्चित् पृथक, ते यस्मादुदयन्ति केचिदपरे नश्यन्ति चानुक्षणम् । द्रव्यं तु ध्रुवमेतदप्यतितरां तेभ्यो न वे(चेद् ) भिद्यते, यन्त्र क्वापि विलोक्यते जगति तत् पर्यायपिण्डं विना ॥ ७१ ॥ K+%+6+KKAKAKKAKAKKAKKAKAAREER+KARNER KAKKAKKAKKAKKARAKASKAR+C+K+KAKAR-%%%%*&+ आस्माविज्ञानयोर्मेदामेदेऽनुभवस्विस्थिते(१)। कर्तृत्वे करणत्वादिलक्ष्मीमपहरेत का? ॥७२॥ द्वेधा वस्तु विनिश्चयेन भवति प्रत्यक्षमत्यक्षमित्यन्तर्भावविधेश्च निर्न(ण)यकृतां शेषप्रमाणामिह । ये त्वेकादिषडन्तमभ्युपगताचार्वाकमुख्याः परे, मानं तान्न विमुञ्चतीह बलवान व्याप्तिदोषग्रहः॥ ७३ ॥ प्रत्यक्षं विशद ज्ञान प्रत्यक्षत्वेन हेतुना । यत्रोक्तसाध्यं तमोक्तसाधनं लिङ्गिकादिवत् ॥ ७४ ॥ ज्ञानान्तराव्यवहित[...]मथो विशेष[......]त्वमस्य विशदत्वमुशन्ति सन्तः । सर्वात्मना कचिदिदं कचिदंशतः स्याद्, द्रव्यादिकारणकलापवशात् प्रमातु: आत्मानमक्षमवदत् प्रति तं गतत्वादध्यक्षमक्षवचनाचनपेक्षमेव । खावारकत्रुटिकतां पटुतां दधानं, स्वे गोचरेऽवधिमतो गमकैवलाख्यम् रूपि द्रव्यमवैति सर्वमवधिज्ञानी मनापर्ययज्ञानी मानुषलोकसंज्ञिमनसा जानाति तान् पर्ययान् ।। द्रव्यं क्षेत्रमतीत-भावि-भवि(ब)तः कालान् गुणान् पर्ययान् , सर्वान् केवलिनः क्षतावृतितया जानन्ति पश्यन्ति च ॥७॥ यचेन्द्रियैः स्वविषयेषु मनःसहायरक्षानपेक्षमनसा च किल क्रियेत । कर्मक्षयोपशमचित्रतया विचित्रं, तद्वयावहारिकमिहाहुरवग्रहादि ॥ ७८॥ अक्षार्थयोगो(गः) किल निर्विशेषसच्चाश्रयालोचनदर्शनोत्थम् । संस्थान-वर्णादिविशिष्टवस्तुज्ञानं यद(दा)यं तदवग्रहः स्यात् Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 देवभद्रसूरिविरचितः प्रमाणप्रकाशः। ॥८ ॥ तदन्वितानन्वितधर्मचिन्तनादवग्रहानार्थविशेषकाङ्गणम् । ईहा ततः काशितवस्तुगोचरं, विनिश्चितज्ञानमता(वा)यमचिरे अवायनिधी )तपदार्थगोचर, कालान्तरेऽपि स्मृतिकारि धारणाम् । वदन्ति विज्ञानमियं त्वनेकधा, बह्वादिमेदप्रविकल्पनावशात् ॥इति प्रत्यक्षप्रकाशः प्रथमः॥ ॥ ८१॥ AKARANASWERAC4%ASEA ज्ञानं परोक्षमविशदरूपमिति बमहे परोक्षत्वात् । यन्नाविशदं तन्त्र परोक्षमतीन्द्रियमिवाध्यक्षम् पूर्वानुभूति]विषया संस्कारोबोधहेतुका । संवादतः प्रमाणं स्यात् तदित्युल्लेखिनी स्मृतिः ॥ ८२ ।। ॥८३॥ प... ....... [॥तालपत्रीयप्रतावेतदन्तमेवैतत् प्रकरणमुपलब्धमित्येतावत्पर्यन्तमेवास्माभिः प्रकाशितमिदमिति ॥] Nawaamaaovw02000maanaaraawr 1ARAANTERASARAMMARCHASCACCORN सारूप्यं द्वयदर्शने सति विनिश्चेतुं ध्रुवं शक्यते, नीलादिस्तु परोक्ष एव भवतामर्थः सदा सम्मतः। सारूप्याधिगमादनन्तरमथो जानाति नीलादिकं, व्यक्तोऽन्योन्यसमाश्रयस्तदिति न ख्यातिता सिब्यति ॥ ६१ ।। आत्मख्यातिक्षेपः। ज्ञाने यत् प्रतिभासते तदसदित्यक्षोऽपि किं भाषते ?, बाधा यस्य च सम्भवे तदपि सद् ब्रूयात् कथं शिक्षितः । वक्तुं नो सदसद्विरोधभयतो वाञ्छत्यतुच्छाशयाः(य)स्तेनाख्यातिरवाच्यवस्तुविषये वेदान्तिकैराक्षि(हि)ता ॥६२॥ सत् सत्त्वेन ग्रहीतुं गदितुमपि तथा सर्वथात्वेन वक्तुं, ज्ञातुं वा शक्यमेव प्रकटमपरथोच्छिद्यते शिष्टमार्गः । किश्वेदं रूप्यमेवं वचनपरिगतीपूर्वदृष्टं सदेव, स्मृत्वा रूप्यं प्रवृत्ते किल सदृशतया तत् कथं ख्यातिरिष्टा?॥ ६३ ॥ अनिर्वचनीयार्थख्यातिः क्षिप्ता । ख्यात्यन्तराणामतिदुस्थितत्वादन्तर्बहिर्वाऽप्यति(निरूपितस्य । अलौकिकार्थस्य बदन्ति केचिल्लोकायताः ख्यातिमहातिरूढाः ॥ ६४॥ अर्थस्यालौकिकत्वं यदि विशदमतिं लोकमाश्रित्य मिथ्याज्ञानेऽप्यन्तर्बहिर्वा विषयमतितरां ख्यापयत्येष तर्हि । ख्यातिपादथैवं वदसि वद परं युक्तियुक्ताऽऽहतैर्या,ख्यातिः प्रोक्ताऽत्र तां चेद् विघटयसि तदा ज्ञास्यते चाऽऽदिता ते ॥६५॥ अलौकिकार्थस्मृतिः । R CRACKERACKASGARHWAR Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीदेवमद्रोपर्श अनन्तनाथस्तोत्रम् । सावणमासासियसत्तमीए सिरिसीहरायदइयाए । सुजसाए कुच्छिकमलम्मि रायसो तुम जयसु ॥११॥ वइसाहकिन्हतेरसितिहीए जम्मूसवो कओ जेहिं । तुह ते सुरा-ऽसुर-नरा कयत्थमत्थयमणी जाया ॥१२॥ वइसाहे किन्हचउद्दसीए तुह वयसिरीए सहियस्स । आसि कयचमकारो अन्नो च्चिय कोइ सिंगारो ॥ १३ ॥ सा वइसाहे कसिणा चउद्दसी भन्नए कहं ? जीए । केवलपया[व] कवलि(चि)यतेओ तुम उम्गओ चंदो ॥१४ ।। चित्तं चित्ते सियपंचमीए तुह तिहुयणप्पईवस्स । निवाणगयस्स वि जलइ जोइकलिया पयासमई ॥ १५ ॥ जय सिद्ध ! बुद्ध ! नीरय ! जय सासयमोक्खसोक्खसंपत्त ।। जय जय अणंतसामिय! जय कामियदाणदल्ललिय! ॥ १६ ॥ गयराओ पणयाण [गुणे] पणामेसि रोसरहिओ य । दोसे हणेसि सामिय ! तुज्झ अउबा इमा महिमा ॥१७॥ वलियम्गीवं लच्छी कडक्खए ते सया सम्माहा । जेसिं चित्ते निवससि तुमं सयाऽणंतजिणनाह! ॥१८॥ सो पायालो जक्खो सासय(ण)देवी वियंभिणी सा य । तुह सासणे रयाणं कुर्णतु कल्लाणकोडीओ ॥ १९ ।। सिरिदेवभद्दसूरी पुणो पुणो विष्णवेइ इणमेव । तुह चेव गुणा हियए वसंतु मे आभवमणंत! ॥ इति श्रीअनन्तनाथस्तोत्रम् ।। 9ER+SWA4%ARAKAKAR+KARISARKARANAKASHIKARAN S+++%%%*&+KAKARANAKYA%AAKAKKAKKAMAKAM आचार्यश्रीदेवभद्रोपर्श श्रीस्तम्भनकपार्श्वनाथस्तोत्रम् । ॥ २ ॥ ॥३॥ ॥४॥ लच्छीलीलाभवणं थंभणयपइडियस्स पासस्स । पहुणो पयकमलं रायहंससयसेवियं जयई रागाइरिउनिसुंभणसुत्थीकयसयलधम्मरअंगो । विजयउ पासस्स चिरं परकमो पोढयं पत्तो उदियम्मि जम्मि न तमो नेव पयासन्तरं न अस्थमणं । तं पासजोगिरायोइं जोगिप्पियं भरिमो तुह नाह ! फणिफणारयणकिरणसीमतिया सलायन्ना । देहप्पहा विडंबई विदुमवल्लीजुयं जलर्हि मन्ने फणिफणमणिदीवएहिं अवलोइऊण पणइजणं । दुरियाहिंतो रक्खिय धरणो मणवंछियं देइ सामि ! तुम विम्हयवसवियसियनेचप्पलाहिं दीसंतो । विजाहरीहि रेहसि कप्पूरच्छुरियदेहो छ तुह पहु। पायप्पणय सप्पणयं जणमिणं उबयरंतो । वक्खिचमणो धरणो सासूयं दीसइ पियाहिं पणएसु अमयवरिसो सरिसो वजासणिस्स मच्छरिसु । एसो नवो पयावो तुह पहु! जियरायदोसस्स दुवायदुहियदेदा पित्तुत्तावियसमत्तगत्तंगा। अइदुसहसिंभर्मिमलमण-तणुणो सुनचेयना सवाऽऽहि-वाहियस्था सबहिदुपारदुरियबिहुरतणू । तुह नाह ! सुमरणेण वि वंछियसुहभायण हुंति एस चिय निरवा विजा मताणिमो महामंतो । एत्तो नऽनो चुनो तिहुयणलच्छीवसीयरणे ॥६॥ ॥९ ॥ ॥१०॥ ॥११॥ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीदेवभद्रोपझं ******** स्तम्भनकपार्श्वनाथस्तोत्रम् । सिरिपासस्स भयवओ अट्ठमहाभयपणासणपरस्स । नामक्खराइं हियए सययं चिय जं जविजंति ॥१२॥ पासे पहुम्मि पत्तो (त्ते) मा ज्झूरसु हियय! निव्वुयं होसु । किं सीयइ कोइ कयाइ कप्परुक्खम्मि साहीणे?॥ १३ ॥ नाह ! तुह पायपायवबहलच्छायासु वीसमंतस्स । भवकतारुत्तारो सुहेण होआ लहुं मझ ॥ १४ ॥ किं वा तुह पहु ! बहु विनवेमि विनायसन्बनायव !? | तुममेविको सरणं ताणं च भवे भवे मज्झ ॥१५॥ सिरिदेवभद्ददायग! नायग! ससुरासुरस्स भुवणस्स । कुणसु पसायं सामी होज तुमं मज्झ पहजम्मं ॥ १६ ॥ ॥ इति श्रीस्तम्भनकपार्श्वनाथस्य स्तोत्रं समाप्तम् ।। ******* ॥ ८ ॥ ** KAKAC+CCERNATASACRICCARRIAGECACACANASI ***************४++% ॥ अहम् ॥ आचार्यश्रीदेवभद्रोपझं श्रीअनन्तनाथस्तोत्रम् । a wr-- सम्मत्तनाण-दसण-वीरियसोक्खाई जस्सऽणताई । तमणंतमणंतसुहाण कारण संथुणामि जिणं ॥१॥ तुह गुणगहणे वाणी वाणि च्चिय सबमिच्छतासंघो (?)। एकं पुणो मम मणो सया वि पगुणं न संदेहो ॥ २ ॥ देहो वि हु सियरुहिरो अरहो सुरहो सुयंधनीसासो । लोउत्तरा गुणा पुण लोउत्तरिया किमच्छरियं? ॥३॥ गरुओ गुणाणुराओ तत्तो गरुया गुणा तओ गरुओ। थोयवो इह एको थोयारमई परं लहुया । न य सामिणो वि हु गुणे मुणेमि किं नाह! मिय पगब्भामि । तेसि सरूवविमरिसे बहिम्मुहो तयणु झिजामि ॥ ५ ॥ जे केवलिणो जाणंति तुद्द गुणे ते थुई न कुवंति । अम्हे उ अयाणंता थुइमीहामो महच्छरिय! अबो ! साहसमेयं जं सामिगुणे अयाणुया अम्हे । लग्गा थोउं अहवा हेवाओ होइ दुच्छड्डो ॥ ७॥ सिद्धावत्थाए वि हु अत्थित् नत्थि तारिसं मज्झ । जत्थऽत्थर्मिति तुह तित्थनाह ! गुणसंथुइपबन्धा ॥८॥ चिन्तामणि व विज [व] कप्पपायवलय व पणइयणं । कुणइ पयत्थं तुह पयसेवा अमुणियगुणग्गा वि ॥९ ॥ देव ! तुममेव सामी सरणं तुममेव [देव !] न हु अभो । एवं पहू वियाणइ अहव ससंवेयणं मज्झ ॥१०॥ ६२ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्रसूरिविरचितः 11 8 || * অ6 ॥ १२ ॥ ।। १३ ।। ॥ १४ ॥ १५ ॥ १६ ॥ सिद्धे रसेन्द्रे स्याद्वादे कल्याणं सिद्धमेव मे । नातः परमपेक्षाऽस्ति स्वामिन्नपरदर्शमे अहो ! मोहस्य दौरात्म्यं यदनन्तां भवाटवीम् । विश्वास्य भ्रमितः शश्वद् धिग् ! निष्कारणवैरिता निष्क्रपः काममृगयुर्मृगीमिव मृगीदृशः । दर्शयन् मां मृगं हन्ति त[त् ] त्रायस्व कृपां कुरु दुःखदावानलज्वालालक्षैर्दो दयानिधे ! । दृशा पीयूषवर्षिण्या सिश्च मां मास्म विस्मरः अयोग्यः सन्नहं योग्यो जातः स्वामिप्रसादतः । प्रमाणं तत्र भगवान् स्वसंवेदनमेव वा प्रभो ! भालमिदं भूया [त्] स्वत्प्रणाम किणाङ्कितम् । वीतरागस्य दासोऽयमिति व्यक्तार्थसूचकम् भवेद् भवार्णवे भक्तिस्त्वयि नाथ ! तरीर्यदि । लीलयोत्तीर्ण एवायं तर्हि गोष्पदवन्मया भवाङ्कखलके व [ग]न् मोहो योद्धा मया प्रभो ! । त्वद्भक्तिक्षुरिकाक्षेपैः पातितो जितकाशिना त्वदर्शनान्मनोभूमावानन्दाकुर उद्गतः । हेतुर्भूयात् परीणामी महानन्दत रूच्छ्रये त्रिलोकबन्धो ! क्रोधादिवैरिभिर्भवता जितैः । तावकः परिभूयेऽहं यत् स कस्य पराभवः ? न वाऽहमत्र जन्मनि नाथ ! जन्मान्तरेषु वा । त्वां विनाऽन्यस्य कस्यापि सेवकः किङ्करोऽपि वा तव प्रसादतो मा भूनाथ ! जन्मैव मे क्वचित् । अथ जन्म तदा तत्र यत्राईभेत्र देवता सिद्धान्तामृतकल्लोलक्षालिते योगिनां गुरो ! । मच्चित्तमन्दिरे योगं स्थिरत्वेन नियोगतः जानतश्च विधित्सोश्च त्वदाशां मे प्रमादिनः । इच्छायोगवतो नाथ ! निर्वृति श्रीदेवीयसी ॥ ॥ ॥ १७ ॥ ॥ १८ ॥ ॥ १९ ॥ ॥ २० ॥ । ... मिध्यादृशां तेषां विनिपाताः पदे पदे अस्वसंवेदनं ज्ञानं प्रत्यपद्यन्त ये प्रभो ! । तैरान्ध्यमोषधासाध्यं स्वयमेव विसाधितम् यैरिष्टकल्पनामात्रं सन्तानोऽपारमार्थिकः । स्वयं स्वशिष्यसन्तान (ने) ख्यापिता तैरवस्तुता एकान्त नित्योऽनित्यो वा थैरात्मं (१) ततः प्रभो ! बन्ध-मोक्षौ घयं (१) नेयौ वैश्चिन्त्याऽर्थक्रियाऽपि च ।। २१ ।। अपौरुषेयं वचनं विरुद्धेति पदद्वयी । येषां वक्त्रे सदा तेषां कः प्रत्येत्यप्रियानृतः १ ज्ञानं ज्ञेयप्रतिक्षेपात् शून्यं ये प्रत्यपीपदन् । वराकाः किं कथं केन ते वदिष्यन्ति यद्वदाः १ सर्वापलापी पापीयान, नास्तिकोऽपि हि दर्शनी । कीर्त्यते यैः स्फुटं नाथ ! शोचनीयास्ततोऽपि ते स्वय्यपि त्रातरि स्वामिन् ! शरैरेतैरयं जनः । परैर्विलुप्त चैतन्य सर्वस्वः क्रियते कथम् ? ॥ २२ ॥ २३ ॥ ॥ ॥ २४ ॥ ।। २५ ।। ॥ २६ ॥ ॥ २७ ॥ ॥ २८ ॥ ।। २९ ।। ॥ ३० ॥ ॥ ३१ ॥ ॥ ३२ ॥ ॥ ३३ ॥ ॥ ३४ ॥ ।। ३५ ।। ।। ३६ ।। ॥ ३७ ॥ 11 22 11 ॥ ३९ ॥ **%***%***+++% वीतरागस्तवः । ॥९॥ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभद्रसरि-६ विरचित वीतरागस्तवः / // 10 // 4-% कर्मसंहारकाराभ्यामतो वीर्यातिरेकतः / शास्त्र-सामर्थ्ययोगाभ्यां योगिनां नाथ ! योजय // 40 // प्लवङ्गलीलवच्चेतःपारिप्लवमिदं मम / तस्य स्थैर्यकृते नाथ! योगदण्डं प्रसादय // 11 // यदर्थ मृग्यते योगो योगिभिस्तववेदिभिः / तदयोगं पदं दद्याः पूर्यन्ता मे मनोरथाः // 42 / / त्वदाज्ञा नाथ ! मे प्राणास्त्वदाज्ञा नाथ ! मे तपः / त्वदाज्ञा नाथ ! [मे यो]गस्त्वदाज्ञा परमं पदम् // 43 // स्वदाज्ञाशरणा[:] सिद्धा नेके सिद्ध्यन्ति चापरे / सेत्स्यन्त्यनन्तास्तत् स्वामिनाज्ञा मौलिमणिर्मम // 44 // द्रतः सम्पदस्तावदासता याः किलापदः। मुक्तावपि [न] मे वान्छा यत्र न त्वमुपास्यसे // 45 // स्वच्छासनानुरागेण रञ्जिताः सप्त धातवः / यथा मम तथा मोक्षलक्ष्मीमेव्यनुरज्यताम् तवानुभावतो भूयाद् भक्तिर्जिन ! भवे भवे / देवे त्वयि गुरौ जने स्वदुपजे च शासने // 47 // देव / स्वदर्शनादेव दुष्कृतं क्षयमाप्नुयात् / सुकृतं वर्धतां सर्वमनुमोदनया मम // 48 // सुख दुःखे दिवा रात्रौ जन्मन्यत्र परत्र च / भूयासुः शरणं स्वामिन् ! पश्चापि परमेष्ठिन: // 49 // श्रीवीतरागस्तवनादमुष्मात् , पुण्यं यदाप्तं भवतात् ततो मे / श्रीदेवभट्टैकमहानिधाने, स्वच्छासने तीव्रतरोऽनुरागः // 50 // // इति श्रीवीतरागस्तवः सम्पूर्णः / / KASARAMARAGAOCACASACARSHA% आचार्यश्रीदेवभद्रसूरिविरचितः श्रीवीतरागस्तवः। // 2 // // 4 // // 5 // // 8 // // 10 //