Book Title: John Stuart Mil Jivan Charit
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HINDUSTAFI CADEMIE Hindi Elcu.cn : Library iic 18 .. FDatabas ... लेखकनाथूराम प्रेमी। AN N GALIZASAGARE ORSR Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर सरिरीजका दूसरा ग्रन्थ । जॉन स्टुअर्ट मिल। < > इंग्लैण्डके सुप्रसिद्ध तत्त्वज्ञ और 'स्वाधीनता' आदि अनेक ग्रन्थोंके लेखकका जीवन-चरित। लेखकश्रीयुत नाथूराम प्रेमी। प्रकाशक हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर कार्यालय, बम्बई । मूल्य दस आने । माघ १९७७ वि०। द्वितायावृत्ति फरवरी १९२१ * जिल्दसहितका मूल्य १) रुपया। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन। पिछली बार मिलका यह जीवनचरित 'स्वाधीनता के प्रारंभमें जोड़ दिया गया था। परन्तु अबकी बार इसे पृथक् प्रकाशित करना ही उचित समझा गया। क्यों कि एक तो यह ' सीरीज ' का दूसरे नम्बरका ग्रन्थ है, इस लिए इसे पहले ग्रन्थके अन्तर्गत रखनेसे सीरीजके ग्रन्थोंकी गणनामें एककी कमी पड़ती है और इससे ग्राहकोंको भ्रम होता है, दूसरे इसके साथ रहनेसे 'स्वाधीनता ' का मूल्य और भी अधिक रखना पड़ता जो ग्राहकोंको असह्य होता। इस आवृत्तिमें साधारण संशोधनके अतिरिक्त कोई विशेष परिवर्तन नहीं किया गया है। केवल पाठकोंके सुभीतेके लिए 'टाइप' बड़ा कर दिया गया है। -प्रकाशक। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाधीनता। जिस महापुरुषका यह जीवनचरित है, उसीके लिखे हुए सुप्रसिद्ध ग्रन्थ 'लिबर्टी' के हिन्दी अनुवादका दूसरा संस्करण छपकर तैयार है। यह अनुवाद सरस्वतीके सम्मादक और हिन्दी के धुरन्धर लेखक पं० महावीरप्रसादजी द्विवेदीका किया हुआ है, इस कारण बहुत ही सरल तथा सुगम है । इस समय जब देशमें चारों और स्वतन्त्रता स्वाधीनता और स्वराज्य की धूम मची हुई है, तब इस ग्रन्थका जितना अधिक प्रचार हो उतना ही अच्छा है । इसको पढ़े बिना 'स्वाधीनता' का वास्तविक अर्थ और उपयोग समझमें नहीं आ सकता। प्रत्येक विचारशील मनुष्यको इस ग्रन्थका स्वाध्याय करना चाहिए और इसके विचारोंका प्रचार करना चाहिए। छपाई और कागज बढ़िया । मूल्य २) सजिल्दका २॥) मिलके अन्य ग्रन्थ । १ स्त्रियोंकी पराधीनता-अनुवादक पं० ऋषीश्वरनाथ भट्ट बी० ए०) २ प्रतिनिधि शासन-काशीका छपा हुआ । मूल्य. २॥) मिलनेका पताहिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर कार्यालय, हीराबाग, पो० गिरगांव, बम्बई । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जॉन स्टुअर्ट मिल। -0889-980 इस सुप्रसिद्ध तत्त्ववेत्ताका जन्म २० मई सन् १८०६ को लन्दन नगरमें हुआ। इसका पिता जेम्स मिल भी अपने समयका प्रसिद्ध तत्त्ववेत्ता था । उसका जीवनचरित भी बहुत शिक्षाप्रद है । जेम्स मिलका पिता एक बहुत ही साधारण स्थितिका दूकानदार था। उसकी शक्ति नहीं थी कि, अपने लड़केको उच्चशिक्षा दिलानेका प्रबन्ध कर सके । परन्तु एक स्त्रीने सहायता देकर उसके लड़केको एडिंबरा विश्वविद्यालयमें भरती करा दिया । यह स्त्री उदार और धर्मात्मा थी। उसकी इच्छा थी कि जेम्स मिल विद्या-संपादन करके धर्मोपदेशकका कार्य करे । तदनुसार जेम्स मिलने सफलताके साथ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्या प्राप्त कर ली और धर्मसंस्थामें प्रवेश करनेकी आज्ञा भी ले ली। परन्तु इतना पढ़नेपर भी उसे ईसाई धर्मकी किसी भी शाखापर विश्वास न हुआ, इस लिये उसने धर्मोपदेशकका कार्य करना उचित न समझा । अपने विश्वासके विरुद्ध किसीसे कुछ कहना अथवा उपदेशादि देना उसे पसन्द न था । पहले कुछ समय तक तो वह अध्यापकका कार्य करता रहा, पीछे लन्दनमें आकर कुछ दिनोंतक उसने ग्रन्थरचना करके अपना निर्वाह किया, इसके बाद सन् १८१९ में वह ईस्ट इंडिया कम्पनीके आफिसमें नौकर हो गया । ___ यूरोपमें, विशेष करके इंग्लैंड आदि उन्नत देशोंमें, जब तक पुरुष स्वयं उदरपोषण नहीं करने लगता है तबतक विवाह नहीं कर सकता। यदि कोई इस प्रकार समर्थ होनेके पहले विवाह कर लेता है तो समाजमें उसकी बहुत निन्दा होती है । परन्तु जेम्स मिलने नौकरीसे लगनके पहले ही अपना विवाह कर लिया था और तबतक उसके कई बाल-बच्चे भी हो चुके थे। उसने अपने ग्रन्थोंमें जिस मतका प्रतिपादन किया है उससे उसका यह बर्ताव बिलकुल ही उलटा था, इसमें सन्देह नहीं है । परन्तु वह इतना उद्योगी और मितव्ययी था कि उसे अपने कुटुम्बके निर्वाहके लिये कभी किसीसे ऋण नहीं लेना पड़ा। उसने लगभग दश वर्षमें भारतवर्षका एक विशाल इतिहास लिखा है। इसे वह उस समयमें लिखता था, जो उसे अपनी नौकरी और कुटुम्बके प्रपंचको चलानेके बाद आरामके लिये मिलता था। इससे पाठक समझ सकते हैं कि, वह कितना उद्योगी और कार्यतत्पर था। उसके धार्मिक, नैतिक और राजनैतिक विचार उस समयके लोगोंके सर्वथा विरुद्ध थे । इस कारण लोग उसे नास्तिक और, पाखंडी कहते थे। परन्तु वह इस निन्दाकी जया भी Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परवा न करता था और अपने ग्रन्थों तथा लेखोंमें अपने विचारोंको खूब स्पष्टताके साथ प्रकट करता था । इस स्पष्टवादिताके कारण उसे कभी किसी बड़े आदमीसे सहायता नहीं मिली। तो भी वह विचलित नहीं हुआ और अपना कुटुम्बपोषण, बच्चोंको पढ़ाना लिखाना और ग्रन्थकर्तृत्व ये तीनों ही कार्य बराबर करता रहा। इससे वह कितना दृढनिश्चयी था इस बातका पता लगता है । मिलकी गृहशिक्षाका प्रारंभ । जॉन स्टुअर्ट मिलको उसके पिता जेम्स मिलने किसी स्कूल या कालेजमें पढ़नेके लिये नहीं भेजा । उसने उसे खुद ही पढ़ाना शुरू किया। तीन वर्षकी अवस्थामें ही पिता अपने होनहार पुत्रको ग्रीक भाषा सिखाने लगा। लगभग पाँच वर्षमें उसने उसे उक्त भाषाके बहुतसे गद्यग्रन्थ पढ़ा दिये । बाप पढ़ता जाता था और जहाँ पुत्रकी समझमें नहीं आता था वहाँ अच्छी तरहसे समझा देता था । आठवें वर्ष मिलने लैटिन भाषाका पढ़ना प्रारंभ कर दिया और इसी समय बाप उसे अंकगणित भी सिखलाने लगा । यद्यपि मिलका जी अंकगणितमें बिलकुल न लगता था, तो भी पिताके कठोर शासनके कारण उसे वह चुपचाप सीखना पड़ता था। टहलना और शिक्षा । जबतक चलने फिरनेमें खूब व्यायाम न हो जाता था, तबतक जेम्स मिलको अन्न नहीं पचता था। इस कारण वह हर रोज सबेरे शाम टहलने जाया करता था और साथमें अपने पुत्रको भी ले जाता था । इस समय मार्गमें वह उन विषयोंपर व्याख्यान देता जाता था जिनके समझनेकी पुत्रमें योग्यता हो गई थी। मौके मौकेपर वह ऐसे Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय भी छेड़ देता था जो कठिन होते थे और उनसे इस बातकी जाँच करता था कि लड़का कोशिश करके कितना समझ सकता है। इसके सिवा वह प्रायः प्रतिदिन उन विषयोंका सारांश भी सुनता था जिन्हें उसे पहले दिन पढ़ा चुकता था। मिलको अँगरेजीकी ऐतिहासिक पुस्तकें पढ़नेका भी शौक हो गया था। उन्हें वह खूब जी लगाकर पढ़ता था और याद रखता था । टहलनेके समय जेम्स मिल जिन विषयोंपर व्याख्यान देता था वे प्रायः तात्त्विक और गहन होते थे, जैसे-; सुधार किसे कहते हैं, गवर्नमेंटका क्या अर्थ है, नीतिके वास्तविक नियम कौन कौन से हैं, अमुक मनुष्यका मन संस्कृत हो गया इसका क्या अभिप्राय है, इत्यादि । शिक्षामें सावधानी। लड़केको कौन कौन पुस्तकें पढ़नेके लिये देना चाहिये, इसका चुनाव जेम्स स्वयं करता था। मिलके पढ़नेके लिये वह बहुधा ऐसी चरितात्मक पुस्तकें पसन्द करता था जिनसे उसके चित्तपर संकटके समय विचलित न होनेका और साहसपूर्वक काम करनेका दृढ़ संस्कार हो जाय । जिन्होंने पहले पहल अमेरिकामें जाकर अपना अड्डा जमाया था, जलपर्यटन किया था और पृथ्वीकी प्रदक्षिणा की थी, उनके चरित मिलको खास तौरसे पढ़नेके लिये दिये जाते थे। मनोरंजन करनेवाली पुस्तकें भी उसे कभी कभी दी जाती थीं, पर वे भी जेम्सकी पसन्द की हुई होती थीं । पुत्रका कोई विचार या विश्वास भ्रमपूर्ण न हो जाय, जेम्स इसकी बहुत खबरदारी रखता था । इसका एक उदाहरण सुनिये:__ अँगरेज सरकार और अमेरिकाके बीच एक बातपर झगड़ा हो गया और उसने इतना उग्ररूप धारण किया कि आखिर लड़ भिड़कर Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमेरिकाके उपनिवेश स्वतंत्र हो गये और वे यूनेटेड स्टेट्सकी प्रजासतात्मक गवर्नमेंटके रूपमें परिणत हो गये । यह बात इतिहासप्रसिद्ध है । जब मिलको यह समाचार मालूम हुआ तब उसने अपने देशके अभिमानके कारण सहज ही यह विश्वास कर लिया कि अँगरेज सरकारने जो अमेरिकापर कर लगानेका प्रयत्न किया था, वह बहुत ही उचित था । एक दिन उसने अपना यह विचार पिताके सामने भी प्रकट कर दिया । परन्तु उसे यह पक्षपातपूर्ण विचार कैसे पसन्द आ सकता था ? पक्षपातकी गन्ध भी वह सहन नहीं कर सकता था । उसने मिलको अच्छी तरह समझा दिया कि तुम गलतीपर हो और इसका कारण यह है कि तुम्हारा हृदय दुर्बल है। तुम्हें देश जाति आदिके झूठे अभिमान दबा लेते हैं । संसारमें ऐसे पिता बहुत ही कम मिलेंगे जो अपने लड़कोंकी गलती मालूम होनेपर सचेत कर देवें और उन्हें इस प्रकारसे समझा कर सत्यपथपर ले आवे । अध्यापनका अनुभव । जिस समय मिलने लैटिन पढ़ना शुरू किया उस समय उसके छोटे भाई भी पढ़ने योग्य हो गये थे । इस लिये पिताने उनके पढ़ानेका कार्य उसीको सौंपा । यद्यपि यह कार्य उसने अपनी इच्छासे नहीं किया, तो भी उसे लाभ बहुत हुआ। क्योंकि दूसरोंको पढ़ानेसे मनुष्यका ज्ञान अधिक दृढ़ और निश्चित हो जाता है। इसके सिवा उसे इस बातका भी अनुभव हो जाता है कि बालकोंको किन किन बातोंके समझनेमें कठिनाइयाँ आती हैं और उन्हें किस प्रकारसे समझाना चाहिये, जिससे उनके हृदयमें वे बातें अच्छी तरहसे जम जावें । आगे ग्रन्थरचनाके कार्यमें मिलने इस अनुभवसे बहुत लाभ उठाया । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध ग्रन्थोंका अध्ययन। लैटिनकी शिक्षा शुरू होनेपर भूमिति और फिर कुछ दिनोंके बाद बीजगणितकी शिक्षा मिलको दी जाने लगी । बारह वर्षकी उम्रमें उसे ग्रीक और लैटिनका अच्छा ज्ञान हो गया। इन भाषाओंके उसने प्रायः सभी प्रसिद्ध प्रसिद्ध ग्रन्थ पढ़ डाले । अरिस्टाटलके (अरस्तूके) अलंकारशास्त्रका तो उसने बहुत ही विचारपूर्वक अध्ययन किया । जेम्स अपने इस तीव्रबुद्धि बालकसे उक्त ग्रन्थोंका सार प्रायः प्रतिदिन सुना करता था और देखता था कि इसकी पदार्थग्राहिणी शक्ति कितनी बढ़ी हुई है । ऐतिहासिक ग्रन्थोंका पढ़ना भी इस समय मिलने नहीं छोड़ा था। वह उन्हें पढ़ता था और उनके सारांशके आधारपर मनोविनोदके लिये एक छोटेसे इतिहासकी रचना भी करता था। जब उसने पोपके. इलियड काव्यका अनुवाद पढ़ा, तब एक छोटासा काव्य बनानेकी उसकी भी इच्छा हुई । पिताने उसकी इस इच्छाका अनुमोदन किया और वह उत्साहित होकर थोड़ी बहुत कविता करने लगा । यद्यपि इस कार्यमें मिलको बहुत सफलता प्राप्त नहीं हुई, तो भी इतना लाभ उसे अवश्य हुआ कि हृदयके भावोंको प्रकट करनेवाले समुचित शब्दोंको योग्य स्थानमें बिठानेकी शैली उसे आगई और आगे इससे उसे बहुत लाभ हुआ। इसके बाद उसने शेक्सपियर, मिल्टन, स्पेन्सर, गोल्डस्मिथ, डायडन, स्कॉट आदि अँगरेजी कवियोंके बहुतसे काव्य पढ़ डाले । इनमेंसे स्कॉट कविके काव्य उसे बहुत ही अच्छे लगते थे । इतना सब पढ़ते रहनेपर भी मिलको सन्तोष नहीं था । दिल बहलानेके लिये उक्त ग्रन्थोंके सिवाय पदार्थविज्ञान-सम्बन्धी ग्रन्थों को भी वह अकसर पढ़ा करता था । विद्याव्यासंग इसीका नाम है। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खेलना कूदना। मिलको अपनी हमजोलीके लड़कोंके साथ खेलना कूदना कभी नसीब नहीं हुआ । उसने अपने ' आत्मचरित्र ' में एक जगह स्वयं लिखा है कि मैंने एक दिन भी क्रिकेट नहीं खेला। लड़कपनमें यद्यपि वह बहुत मोटा ताजा और सशक्त नहीं था, तथापि इतना दुर्बल और अशक्त भी न था कि उसके लिखने पढ़नेमें बाधा आती। गहन विषयोंकी शिक्षा । __ जब मिल तेरह वर्षका हुआ तब उसके पिताने उसे गहन विषयोंकी शिक्षा देना आरंभ किया । सबसे पहले तर्कशास्त्र शुरू किया गया । जब जेम्स टहलनेको जाता था तब वह यह जाननेके लिये कि लड़केने पहले दिनके पढ़े हुए पाठका कितना अभिप्राय समझा है, लौट फेरकर प्रश्न किया करता था। इसके सिवा वह लड़केके जीमें प्रत्येक पठित विषयका उपयोग भी अच्छी तरहसे धंसा देता था। उसका यह मत था कि जिस चीजका उपयोग मालम नहीं उसका पढ़ना ही निरर्थक है । यद्यपि यह बात नहीं थी कि जिन गहन विषयोंको वह समझाता था वे सबके सब लड़केकी समझमें आ जाते थे, तो भी उससे लाभ बहुत होता था । क्योंकि उस समय मिलने तर्कशास्त्रके कई ग्रन्थ पढ़ डाले थे और इससे वह इतना योग्य हो गया था कि चाहे जैसी प्रमाणशृंखला हो उसके दोषोंको विना भूले ढूँढ़ निकालता था। तर्कशास्त्रका महत्त्व मिलके जीमें इतना गहरा पैठ गया कि वह उसे बालकोंकी बुद्धिको संस्कृत करनेके लिये गणितसे भी अधिक मूल्यवान् समझने लगा। वह कहा करता था कि, बहुतसे तत्त्ववेत्ताओंमें यह बड़ी कमी होती है कि वे दूसरोंकी कोटिके दोष नहीं निकाल सकते हैं । इससे वे केवल अपने पक्षकी ही रक्षा Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर सकते हैं । परन्तु यह ठीक नहीं है। पहले अपने प्रतिपक्षीकी इमारतको ढाना चाहिये और फिर उसपर अपनी नई इमारत खड़ी करनी चाहिये । साकेटीस (सुकरात) इसी शैलीपर चलता था । यह शैली तब आ सकती है जब तर्कशास्त्रका अभ्यास और उसका उपयोग लड़कपनसे ही करा दिया जाय । तर्कशास्त्रसम्बन्धी ग्रन्थों के अध्ययन और मननसे मिलको जो समय मिलता था उसमें वह लैटिन और ग्रीक विद्वानोंके ग्रन्थोंको पढ़ा करता था। इनमेंसे उसने प्लेटोके ग्रन्थ अपने पिताकी सिफारिशसे बहुत ही विचारपूर्वक पढ़े। क्योंकि जेम्सका विश्वास था कि मनको अच्छी तरहसे संस्कृत करनेके लिये प्लेटोके समान उत्तम ग्रन्थ दूसरे नहीं हैं । इसी समय, सन् १८१८ में जेम्सने अपने भारतवर्षके विशाल इतिहासको छपाकर प्रकाशित किया। मिलने उसे भी मन लगाकर पढ़ डाला। इसके दूसरे वर्ष जेम्सने ईस्ट इंडिया कम्पनीके आफिसमें नौकरी कर ली । परन्तु शिक्षा उसकी बराबर जारी रही । मिलको उसी वर्ष उसने अर्थशास्त्रका पारायण करा दिया। इसके बाद उसने रिकार्डोके अर्थशास्त्रको पढ़ाया। रिकार्डो अर्थशास्त्रका प्रसिद्ध विद्वान् था। जेम्सकी उससे गाढ़ी मित्रता थी। उसका यह ग्रन्थ तत्काल ही प्रकाशित हुआ था । परन्तु जेम्सको उससे सन्तोष नहीं हुआ। वह कोई दूसरा ग्रन्थ पढ़ाता, परन्तु तबतक कोई दूसरा बालोपयोगी अर्थशास्त्र बना ही नहीं था। लाचार उसने टहलनेके समय अर्थशास्त्रके एक एक विषयको स्वयं अच्छी तरहसे समझाना शुरू किया और फिर उसी पद्धतिपर उसने ' अर्थशास्त्रके मूलतत्त्व ' नामकी पुस्तक रच डाली । इसके पीछे उसने मि० एडम स्मिथकी बनाई हुई Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राष्ट्रोंकी सम्पत्ति ' नामकी पुस्तक मिलको पढ़ाई और उसमें जो जो भूलें थीं वे भी अच्छी तरहसे समझा दीं। __ इस समय जेम्स की शिक्षापद्धति बड़ी ही विलक्षण थी । वह ऐसा कभी नहीं करना था कि लड़केको किसी बातके समझनेमें कठिनाई पड़ी कि तत्काल ही उसे समझाकर उस कठिनाईको हल कर दिया। नहीं, उससे जहाँतक बनता था, वह प्रत्येक कठिनाईको हल करनेके लिये लड़केकी विचारशक्तिपर ही भार डालता था और उसीके मुँहसे उसका विवरण तथा समाधान सुननेकी चेष्टा करता था। यदि इतनेपर भी बालक अपनी शंकाका समाधान न सोच सकता तो फिर कुछ अप्रसन्न होकर समझा देता था। इस उत्कृष्ट शिक्षापद्धतिका ऐसा अच्छा परिणाम हुआ-मिलकी विचारशक्ति इतनी बढ़ गई कि वह अपने पिताके विचारों तकमें कभी कभी भूलें बतलाने लगा ! पर इससे उस निरभिमानी और सत्यपथप्रदर्शक पिताको कुछ भी खेद नहीं होता था-उलटा हर्ष होता था और वह बिना संकोचके अपनी भूलोंको स्वीकार कर लेता था। गृहशिक्षाकी समाप्ति और पर्यटन । ___ इस तरह लगभग १४ वर्षकी उम्रमें मिलकी गृहशिक्षाकी समाप्ति हुई । इसके बाद वह इंग्लेंड छोड़कर देशपर्यटनके लिये निकला और एक वर्ष तक सारे यूरोपमें घूमा। इस यात्रामें उसके अनुभव-ज्ञानकी बहुत वृद्धि हुई । पुत्रके यात्रासे लौटनेपर जेम्स मिल उसके विद्याध्ययनपर केवल देखरेख रखने लगा । अर्थात् अब उसकी यथानियम शिक्षा समाप्त हो गई और वह स्वतंत्रतापूर्वक इच्छित विषयों का अध्ययन करने लगा। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिलका ज्ञान और उसकी शिक्षापद्धति । जितनी थोड़ी उम्र में मिलने तर्कशास्त्र और अर्थशास्त्र आदि कठिन विषयोंका ज्ञान प्राप्त कर लिया, उतनी थोड़ी उम्रमें और लोगोंके लिये इस बातका होना प्रायः असंभव मालूम होता है। परन्तु पाठकोंको यह बात ध्यानमें रखनी चाहिये कि मिलका ज्ञान वैसा नहीं था जैसा कि हमारे यहाँकी शिक्षापद्धतिके अनुसार पढ़नेवालोंका होता है। उसने जो कुछ पढ़ा था उसका उसकी बुद्धिसे तादात्म्य हो गया था। उसका बोझा उसके दिमागपर बिलकुल नहीं पड़ा था । तोतेके सदृश रटना और रातदिन पुस्तकें घोख घोखकर दिमाग खाली करना, उसे कभी स्वप्नमें भी नहीं बतलाया गया था । वह प्रत्येक विषयको समझता था, उसका मनन करता था और तर्क वितर्क करके निर्णय करता था; पर कभी रटता नहीं था । इसीसे वह थोड़ी उम्रमें बहुत पढ़ गया और आगे इतना बड़ा तत्त्ववेत्ता और ग्रन्थकर्ता हुआ । यदि उसका पिता उसकी शिक्षापर इतना ध्यान न देता तो कभी संभव न था कि मिल ऐसा नामी विद्वान् होता ही । वास्तवमें उसे उसके पिताने ही विद्वान् बनाया। जेम्सकी सावधानता। मेरे पुत्रके कोई विचार भ्रमात्मक न हो जावें, वह अभिमानी न हो जाय, इत्यादि बातोंकी ओर जेम्सका बहुत लक्ष्य रहता था। एकदिन मिल किसी विषयका प्रतिपादन कर रहा था। उसमें उसने एक जगह कहा कि, " यद्यपि अमुक सिद्धान्त तत्त्वत: ठीक है-परन्तु व्यवहारमें लाते समय उसमें थोड़ा बहुत अन्तर अवश्य करना चाहिये । " यह सुनकर जेम्स बहुत ही अप्रसन्न हुआ। वह इस Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ बातका कायल नहीं था कि किसी वास्तविक विचारका व्यवहारमें कुछ परिवर्तन कर डालना चाहिये । उसने उक्त ' तत्त्वत:' शब्दको लेकर एक लम्बा चौड़ा व्याख्यान दे डाला और मिलको समझा दिया कि तुम्हारा यह खयाल बिलकुल गलत और कमजोर है । आगे तुम्हें ऐसी अज्ञानताकी बात न कहनी चाहिये । मुझे इससे बहुत दुःख हुआ है 1 यदि कोई लड़का छोटी उम्र में विद्वान् हो जाता है तो उसे सहज ही कुछ अहंकार आ जाता है। इससे उसकी विद्यावृद्धिपर पानी फिर जाता है | अपनी विद्वत्ताके घमंड में आकर वह और उन्नति नहीं कर I सकता । मिलका पिता इस विषयमें बड़ी ही खबरदारी रखता था । उसने जबतक मिलको पढ़ाया, तबतक कभी उसकी भूलकर भी प्रशंसा नहीं की । मिलको कभी इस बातका खयाल ही नहीं हो पाया कि मैं अपनी उम्रके दूसरे लड़कोंसे कुछ जियादा पढ़ा हूँ । वह जिस समय यूरोपकी यात्राको निकला उस समय जेम्सने उससे कहा - "बेटा, तूं अपने प्रवास में देखेगा कि तुझे जिन जिन विषयों का ज्ञान है तेरी उम्र के दूसरे लड़कोमें उनकी गन्ध भी नहीं हैवे उनसे सर्वथा अनभिज्ञ हैं । परन्तु खबरदार, तू इसका कभी गर्व न करना । तुझे जो इतना ज्ञान हो गया है, इसका कारण तेरी विलक्षण. बुद्धि नहीं किन्तु मेरी सुशिक्षा है । " मिलके पिता के धार्मिक विचार | मिलके जीवनकी एक बहुत विचारणीय बात यह है कि उसको किसी भी धर्मकी शिक्षा नहीं दी गई। दूसरे लोगों की जीवनियों में अकसर यह बात देखी जाती है कि बालपनमें उसका किसी न किसी Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ धर्मपर विश्वास रहा है अथवा विश्वास कराया गया है और आगे जब उसकी बुद्धिका विकाश हुआ है तब वह विश्वास या तो उड़ गया है-या पोला पड़ गया है । परन्तु मिलकी दशा इससे बिलकुल उलटी हुई । इसके पिताका जैसा कि पहले कहा जा चुका है, ईसाई धर्मके किसी भी पन्थपर विश्वास न था। इसलिये उसने उसे धार्मिक शिक्षा बिलकुल ही नहीं दी । वह अकसर कहा करता था कि यह बात समझमें नहीं आती है और न किसी युक्तिसे सिद्ध हो सकती है कि जिस सृष्टिमें अपार दुःख देखे जाते हैं वह किसी सर्वशक्तिमान् और दयालु व्यक्तिने बनाई होगी। भला, यह कैसे मान लिया जाय कि नरकलोकका बनानेवाला दयालु है ? इतनेपर भी लोग एक ईश्वरकी कल्पना करके उसकी पूजा करते हैं । परन्तु इसका कारण यह नहीं है कि उन्होंने ऐसे व्यक्तिका होना सिद्ध कर लिया है। नहीं वे इसका कभी विचार ही नहीं, करते हैं। केवल परम्पराके अनुसार चलनेकी उनकी आदत पड़ गई है और कुछ नहीं । जेम्सका विश्वास था कि जो धर्म केवल काल्पनिक रचना है-वास्तविक नहीं है-यदि मैं उसकी शिक्षा अपने लड़कोको दूंगा तो अपने कर्तव्यसे च्युत हो जाऊँगा । इसलिये वह अपने लड़केको समझाता था कि यह सृष्टि कब, किस तरह और किसके द्वारा बनाई गई, इस विषयमें सर्वत्र अज्ञान फैला हुआ है। " हमको किसने बनाया ?" इस प्रश्नका यथार्थ और युक्तिसिद्ध उत्तर नहीं दिया जा सकता। यदि कहा जाय कि “ ईश्वरने ” तो तत्काल ही दूसरा प्रश्न खड़ा हो जाता है कि, “ उस ईश्वरको किसने बनाया होगा ?" इसके सिवा वह यह भी बतला देता था कि आजतक लोग इन प्रनोका क्या उत्तर देते आये हैं । अर्थात्, जुदा जुदा धर्मोमें इस Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ विषयमें क्या क्या विचार किये गये हैं। इससे उसे जुदा जुदा धर्मोंका साधारण स्वरूप भी मालूम हो जाता था । ___ इंग्लैंडके उस युगमें और वर्तमान युगमें जमीन आसमानका फर्क है । इस समय यदि वहाँपर कोई ऐसी धार्मिक अश्रद्धाकी बात कहता है तो वह बिलकुल मामूली समझी जाती है । क्योंकि अब वहाँ विचार-स्वातंत्र्य पराकाष्ठापर पहुँच गया है । बल्कि अब तो वहाँ हृदयके इस प्रकारके विचारोंको छुपाना बहुत ही बुरा समझा जाता है । वहाँके निवासी समझते हैं कि यदि हम अपने विचारको समाजके भयसे प्रकट नहीं करेंगे तो अपने कर्तव्यसे च्युत हो जावेंगे। यही कारण है कि अब वहाँ बीसों संस्थाएँ ऐसी हैं जो ईसाई धर्मके. विरुद्ध विचारोंका प्रचार करती हैं । परन्तु वह युग ऐसा नहीं था । उस समय वहाँ कट्टर ईसाइयोंका खूब ही जोरो शोर था । धार्मिक बातोंमें यद्यपि वहाँके शिक्षितसम्प्रदायके विचार शिथिल हो चले थे. तो भी ऐसे बहुत कम विद्वान् थे जो अपनी शिथिलताको खुलमखुल्ला प्रकाशित कर दें। परन्तु जेम्स उस समय भी बेधड़क होकर कहता था कि मेरा किसी भी धर्मपर विश्वास नहीं है। बल्कि इस बातको वह छोटे छोटे लड़कोंके सामने कहनेमें भी नहीं हिचकता था। इससे पाठक समझ सकते हैं कि वह कितना साहसी और सत्यशील था । नैतिक शिक्षा । इस प्रकार यद्यपि मिलको धार्मिक शिक्षा नहीं दी गई थी और उसे किसी धर्मका अनुयायी बनानेका प्रयत्न नहीं किया गया था, तो भी उसके पिताने उसे नैतिक शिक्षा देनेमें कोई कसर नहीं रक्ती थी । न्यायपूर्वक चलना, परिमित खाना पीना, सत्य बोलना, Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ निष्कपट व्यवहार रखना, नम्र होकर रहना, अपने विचारोंमें दृढ़ रहना, उद्योग करनेमें कसर नहीं रखना, आपत्तियोंको शान्ततासे सहन करना, सार्वजनिक हितके कार्यों में जी लगाना, प्रत्येक वस्तुको और मनुष्यको उसके उपयोग और गुणोंके अनुसार महत्त्व देना, और जीवनका फल शौक या आराम करना नहीं किन्तु निरन्तर उद्योग करते रहना है--इत्यादि गुणोंसे जेम्सको बहुत प्रीति थी और इसलिये उसने अपने लडकेके जीमें इन सब गुणोंको अच्छी तरहसे सा दिया था । प्लेटो, झिनोफन, साक्रेटीस, आदि ग्रीक तत्त्ववेत्ताओंके ग्रन्थोंने मिलके चित्तपर इन गुणोंका और भी गहरा प्रभाव डाला । इसके सिवा स्वयं जेम्सका भी चरित्र बहुत अच्छा था । उसमें ऊपर कहे हुए प्रायः सभी गुण मौजूद थे और यह सभी जानते हैं कि कोरे उपदेशोंकी अपेक्षा उदाहरणका अच्छा असर पड़ता है । इन सब कारणोंसे मिलका नैतिक आचरण बहुत ही अच्छा हो गया । अकसर लोगोंको यह खयाल है कि धार्मिक शिक्षा न मिलने या किसी धर्मपर विश्वास न रहनेसे मनुष्यका चरित्र बिगड़ जाता है; परन्तु जेम्सने इस खयालको बिलकुल गलत साबित कर दिया। इस समय भी इंग्लैंड आदि देशोंमें जो नास्तिक और धार्मिक श्रद्धासे रहित हैं उनसे बहुतोंके नैतिक आचरण कट्टरसे कट्टर ईसाइयों तथा दूसरे धर्मवालोंसे अच्छे देखे जाते हैं ! जेम्सकी शिक्षापद्धतिका एक दोष। जेम्सकी शिक्षापद्धतिमें एक बड़ा भारी दोष था। वह यह कि उसने अपने लड़के पर कभी ममता या प्रीति प्रकट नहीं की। उसका ऐसा कोमल या स्नेहयुक्त वर्ताव न था कि लड़का उसे अपना सखा या प्यार करनेवाला समझकर अपने मनकी बातें कह दिया करता Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और कुछ भय या संकोच न करता। परन्तु इससे यह नहीं समझना चाहिये कि उसमें यह गुण था ही नहीं। नहीं, इसका एक कारण था । लड़केकी शिक्षाका सारा भार केवल उसके सिरपर था, इसलिये उसे जान बूझकर अपनी वृत्ति कुछ कठोर बनानी पड़ी थी । यदि वह ऐसा न करता तो उसकी शिक्षामें विघ्न आनेकी संभावना थी । यह ठीक है कि लड़कोंको थोड़ा बहुत "भय होना चाहिये, परन्तु अधिक भय दिखलानेसे हानि होती है । लड़कोंके जीमें जो नानाप्रकारके तर्क वितर्क उठते हैं उन्हें वे भयके कारण अपने शिक्षकोंके सामने प्रकट नहीं करते हैं। इससे उनके ज्ञानमें कमी रह जाती है। मिल भी इस हानिसे नहीं बचा। ज्ञानवृद्धिके दूसरे द्वार । अर्थशास्त्रज्ञ रिकार्डो, तत्त्वशास्त्रज्ञ ह्यूम और धर्मशास्त्रज्ञ बेन्थाम* आदि कई नामी नामी विद्वानोंसे जेम्सकी मित्रता थी । इनके साथ उसकी अकसर शास्त्रीय चर्चा हुआ करती थी । मिलकी योग्यता इतनी हो चुकी थी कि वह उक्त चर्चाको समझ सके। इसलिये वह भी इस ज्ञानगोष्टीमें शामिल होता था और अपने ज्ञानकी वृद्धि करता था । उसके चरित्रपर भी इस चर्चाका अच्छा प्रभाव पड़ता था। बेन्थाम मिलको बहुत चाहता था। उसका एक भाई फ्रान्सके फौजी महकमेमें नौकर था। जब वह अपने भाईसे मिलनेके लिये फ्रान्स गया तब मिलको भी अपने साथ ले गया । मिलको इससे बहुत लाभ हुआ। कई महीने एक विद्वानके साथ रहकर उसने बहुत कुछ अनुभव प्राप्त किया। जुलाई सन् १८२१ में वह वहाँसे लौट आया। .* उपयोगितातत्त्वका स्थापक भी यही बेन्थाम था। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फ्रान्ससे वापिस आनेपर जेम्सने उसे अपने बनाये हुए 'अर्थशास्त्रके मूलतत्त्व ' नामक ग्रन्थकी कापी दी और कहा कि तुम इसके 'साईड नोट्स ' लिख दो । एक पैरा ( Para ) में जो कुछ लिखा रहता है उसका सारांश बहुत ही थोड़े शब्दोंमें समझानेके लिये 'साइड नोट्स ' लिखे जाते हैं । इस प्रकारके नोट्स लिखनेमें बहुत परिश्रम करना पडता पड़ता है-बुद्धिको बहुत जोर लगाना पड़ता है और इससे नोट्स लिखनेवालेकी बुद्धिपर बहुत ही अच्छा संस्कार होता है । इन नोटोंके लिखवानेमें जेम्सका यही उद्देश था । इसके बाद जब मिलने फ्रान्सकी महान् राज्यक्रान्तिका इतिहास पढ़ा तबसे उसके हृदयपर प्रजासत्ताक राज्यपद्धतिका चिरस्थायी महत्त्व अंकित हो गया । कानून और बेन्थामके ग्रन्थों का अध्ययन । जेम्स चाहता था कि मेरा पुत्र बैरिस्टर हो, इसलिये पुत्रने सन् १४२२ में कानन पढनेका प्रारंभ किया। इसी समय वह बेन्थामके प्रन्थोंको भी जी लगाकर पढ़ने लगा। इससे उसके मनमे बेन्थामका स्थापित किया हुआ उपयोगितातत्त्व खूब ही जम गया । उसका विश्वास हो गया कि, इस तत्त्वका जितना अधिक प्रसार किया जायगा और इसके आधारसे नियमों और व्यवहारोंमें जितना सुधार किया जायगा, मानव जातिका उतना ही अधिक कल्याण होगा और उसके सुखोंकी उतनी ही अधिक वृद्धि होगी। उस समय मिलने यहाँ तक निश्चय कर लिया कि मैं अपनी सारी उम्र इसी तत्त्वके प्रचारमें व्यतीत करूँगा। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसशास्त्रका अध्ययन, लेखनकला और शास्त्रचर्चा । इसके पश्चात् मिल लॉक, हर्टले, बर्कले, ह्यूम और रीड आदि विद्वानोंके मनोविज्ञानसम्बन्धी ग्रन्थोंका अध्ययन करने लगा और इसी समयसे उसने लेख लिखनेका भी प्रारंभ किया। अब वह पढ़नेकी अपेक्षा लिखनेकी ओर अधिक ध्यान देने लगा और साथ ही जुदा जुदा विषयोंपर वादविवाद या संभाषण करनेकी ओर भी उसने ध्यान दिया । इन दोनों साधनोंसे उसकी बुद्धि और ज्ञान दोनों परिपक्व तथा यथार्थ होने लगे। सन् १८२३ में उसने अपने कुछ मित्रोंकी सहायतासे एक सभा स्थापित की और उसका नाम 'उपयुक्ततातत्त्वविवेचिनी सभा' रक्खा । इसकी महीने में दो बैठकें होती थीं और उनमें उपयुक्ततातत्त्वके आधारसे निबन्ध-वाचन तथा मौखिक चर्चा होती थी। इस सभाके दशसे अधिक मेम्बर कभी नहीं हुए। क्योंकि उस समय इस विषयकी ओर लोगोंकी रुचि न थी । सन् १८२६ में यह सभा बन्द हो गई। नौकरी। सन् १८२३ में मिलने ईस्ट इण्डिया आफिसमें प्रवेश किया । इस समय उसकी उम्र १७ वर्षकी थी। वहाँ उसकी क्रम क्रमसे उन्नति होती गई और अन्तमें वह एग्जामिनरके दफ्तरका सबसे बड़ा अधिकारी हो गया । पर सन् १८५८ में, जब ईस्ट इंडिया कम्पनी टूटी, तब यह दफ्तर भी उठ गया और मिलको नौकरीसे अलग होना पड़ा । सब मिलाकर उसने ३५ वर्ष नौकरी की। जीविका और ग्रन्थादिलेखनसम्बन्धी अनुभव । इस नौकरीके अनुभवसे मिलने यह मत स्थिर किया था कि जिनकी यह इच्छा हो कि हम दिन रातके २४ घंटोंमेंसे . कुछ समय Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थादि लिखनेमें व्यय किया करें उन्हें चाहिये कि वे जीविकाके लिये कोई ऐसी ही निराकुलताकी नौकरी तलाश कर लें । समाचारपत्रों में लेखादि लिखकर उससे उदरनिर्वाह करना उसे बिलकुल पसन्द न था । क्योंकि ऐसे लेख एक तो जल्दी जल्दी ज्यों त्यों पूरे किये जाते हैं, दूसरे लेखकको वही लिखना पड़ता है जो उस समाचारपत्रके पक्षके अनुकूल होता है । और, ऐसी दशामें अकसर ऐसे मौके आते हैं जब लेखकको अपनी सदसद्विवेक बुद्धिको एक ओर ताकमें रख देना पड़ता है। इससे यदि कोई चाहे कि मैं नामी लेखक हो जाउँगा-मुझमें उत्तमोत्तम ग्रन्थ लिखनेकी शक्ति आ जायगी-तो यह उसका भ्रम है। शक्तिकी वृद्धि करना तो दूर रहा, वह अपनी गाँठकी पूँजी भी खो बैठेगा। यही दशा ग्रन्य-लेखनकी भी है। अच्छे ग्रन्थोंकी कदर होनेके लिये समय चाहिये। प्रकाशित होते ही किसी ग्रन्थकी कदर नहीं होती है । परन्तु जो उदरनिर्वाहके लिये ग्रन्थ लिखता है उसे इतना सब नहीं । इसलिए यह कार्य वह लोगोंकी रुचिका विचार करके करता है । उसका लक्ष्य इसी ओर अधिक रहता है कि मेरा ग्रन्थ लोगोंको पसन्द आवे और उसकी विक्री अधिक हो। इसलिये ऐसे ग्रन्थोंका मूल्य उतना ही होता है जितना कि उसे पढ़नेवालोंसे तत्काल ही प्राप्त हो जाता है । इससे, और ऐसे ही कई करणोंसे, मिलका यह सिद्धान्त हो गया था कि ग्रन्थलेखनका कार्य उदरनिर्वाहके लिये न करना चाहिये । जो इस कार्यसे स्थायी कीर्ति उपार्जन करना चाहते हैं और यह इच्छा रखते हैं कि हमारे ग्रन्थ अच्छे बनें उन्हें उदरनिर्वाहके लिये कोई दूसरा उद्योग करके उससे जो समय बचे उसमें ग्रन्थलेखन या निबंधलेखनका कार्य करना चाहिये । इससे दो लाभ होते हैं । एक तो यह कि जो ग्रन्थ लिखे जाते हैं वे लोगोंकी रुचि, भीति, लिहाज Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या दबावकी परवा न करके स्वस्थता और स्वन्त्रतासे लिखे जाते हैं। जो बात लेखकको युक्तिसंगत और सत्य जंचेगी उसीको वह निर्भयतासे लिखेगा। और दूसरा यह कि उदरनिर्वाहका स्वतंत्र उद्योग ग्रन्थरचनाक परिश्रमसे थके हुए मस्तकको एक प्रकारकी विश्रान्तिका कारण होता है । इनके सिवाय एक लाभ यह भी होता है कि लेखकको दूसरा उद्योग करनेसे व्यावहारिक बातोंका परिचय हो जाता है और इससे उसके विचारोंके काल्पनिक स्वरूपको व्यावहारिकत्व प्राप्त हो जाता है । उसके प्रतिपादन किये हुए विचार ऐसे होते हैं जो व्यवहारमें आसकते हैं-केवल ग्रन्थमें लिखे रहने योग्य नहीं होते । क्योंकि व्यवहारका प्रत्यक्षज्ञान या अनुभव होनेसे वह यह समझने लगता है कि अमुक सिद्धान्तका प्रचार व्यवहारमें हो सकता है या नहीं और उसके प्रचार- कौन कौन कठिनाइयाँ आ सकती हैं। जिन लेखकों या तत्त्ववेत्ताओंको व्यवहारका प्रत्यक्ष परिचय नहीं होता वे अपने कल्पनासाम्राज्यमें ही मस्त रहते हैं और खयाली पुलाव पकाया करते हैं। अपने सिद्धान्तोंका प्रतिपादन करते समय उन्हें व्यावहारिक सुभीतों और कठिनाइयोंका खयाल ही नहीं आता। इससे उनके सिद्धान्तोंका केवल यही उपयोग होता है कि लोग उन्हें पढ़ लेवें। दूसरे उद्योग करनेवाले विद्वानोंके ग्रन्थों या लेखोंमें यह दोष नहीं रहने पाता । कल्पना और व्यवहारका विरोध उनके लेखोमें धीरे धीरे कम हो जाता है। लेख लिखनेका प्रारंभ और एक नवीन मासिकपत्र । मिलने जब अपना चित्त अध्ययनकी ओरसे हटाकर लेखनकी ओर लगाया तब पहले तो उसने अपने लेख कल्पित नाम दे देकर समाचारपत्रोंमें प्रकाशित कराये । इसके बाद जब उसे बोध हो गया कि Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० मैं कुछ लिख सकता हूँ तब उसने और उसकी मित्रमंडलीने एक नवीन मासिकपत्र निकाला । उसका नाम रक्खा गया 'वेस्ट मिनिस्टर रिव्यू ।' कुछ दिनों तक उसे बेन्थामने अपने निजके खर्च से चलाया उसका सम्पादन करनेके लिये बेन्थामने मिलके पितासे बहुत आग्रह किया, परन्तु वह इस कार्य के लिये तयार न हुआ । तो भी उसमें वह अपने लेख देता था और उसकी लेखनी से ही उक्त पत्रकी बहुत ख्याति हुई । आस्टन, ग्रोट आदि विद्वान् भी उसमें लिखते थे, परन्तु मिलके बराबर कोई न लिखता था । वह उसमें सबसे अधिक लेख लिखता था । यद्यपि 'वेष्ट मिनिस्टर रिव्यू' की आर्थिक अवस्था कभी अच्छी नहीं हुई, तो भी बेन्थाम के उपयुक्ततातत्त्वसम्बन्धी मतोंको फैलानेमें और पुराने मासिक, त्रैमासिक पत्रोंकी भूलें दिखलानेमें उसने खूब सफलता प्राप्त की । उस समय माल्थस नामके एक प्रसिद्ध ग्रन्थकारने प्रजावृद्धिके विषय में एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त प्रकाशित किया था । उसका प्रतिपादन भी कुछ दिनों पीछे वेस्ट मिनिस्टर रिव्यूमें होने लगा और हर्टले नामक प्रसिद्ध तत्त्ववेत्ताके आत्मशास्त्रसम्बन्धी विचार भी उसमें प्रका शित होने लगे । यद्यपि उसे बेन्थामने जारी किया था और उसके बहुत से लेखक भी उसके शिष्य या अनुयायी थे तथापि उसके द्वारा केवल उसीके मतका प्रचार न होता था । उसके मतके सिवा निम्नलिखित विषयोंका भी उसमें जोरो शोरसे प्रतिपादन होता था :-- १ राजकीय - प्रतिनिधिसत्ताक - राज्यव्यवस्था और पूर्ण विचारस्वातन्त्र्य प्राप्त करनेमें ही मनुष्य जातिका कल्याण है । २ सामाजिक- विवाह - सम्बन्धसे स्त्रीजाति पुरुषोंकी गुलाम हो गई है। इस स्थितिको सुधारना चाहिये । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ धार्मिक-सरकारकी ओरसे जो पादरियोंका जुदा महकमा कायम है वह सत्य धर्मसे घृणा उत्पन्न करानेवाला और उसे भ्रष्ट करनेवाला है । इसलिये उसे तोड़ देना चाहिये। ४ आत्मज्ञान-मनुष्योंका स्वभाव उनकी चारों ओरकी स्थितियों के अनुसार बनता है। इसलिये यदि मनुष्योंकी परिस्थितिका सुधार किया जायगा तो उनकी नैतिक और बौद्धिक स्थिति भी सुधरती जायगी। इन विषयोंमें सबसे अधिक प्रधानता राजकीय विषयोंकी रहती थी। वेस्ट मिनिस्टर रिव्यूके लेख और लोकमत । वेस्ट मिनिस्टर रिव्यूके लेख उस समयकी साधारण प्रजाको और दोनों राजकीय पक्ष (टोरी और लिबरल) वालोंको बिलकुल पसन्द न आते थे । बेन्थामके उपयोगिता-तत्त्वके विषयमें कहा जाता था कि केवल उपयुक्ततातत्त्वकी ओर लक्ष्य रखकर किसी बातको अच्छा या बुरा ठहराना मूर्खता है। उसमें उच्च प्रकारके मनोभावोंके लिये बिलकुल अवकाश नहीं है । अर्थशास्त्रके नियमोंको लोग 'निर्दय' कहते थे और माल्थसका जो प्रजाकी वृद्धिके विरुद्ध मत था उसे घृणित बतलाते थे। इसके विरुद्ध बेन्थामके शिष्य तथा उसके मतके अनुयायी उन्हें यह उत्तर देते थे कि तुम केवल मनोभावोंके गुलाम हो । तुम्हारा कथन केवल आलंकारिक है। तुम्हारी इस फिजूलकी बक बकमें कुछ सार नहीं है। बेन्थमके मतका बुरा असर । बेन्थामके सिद्धान्तका एक असर अच्छा नहीं हुआ। उसके अनुयायियोंने मनुष्यस्वभावके एक महत्त्वपूर्ण अंगको अर्थात् मनोभावको एक Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ प्रकारसे कुछ चीज ही न समझा। उसको संस्कृत और परिष्कृत करनेकी ओर उन्होंने कुछ भी ध्यान न दिया। उसकी एक प्रकारसे अवहेलना ही की। इससे उनकी दृष्टिसे काव्यका महत्त्व उतर गया। इत. ना ही नहीं, किन्तु वे यह भी भूल गये कि काव्यकी बजिभूत जो कल्पनाशक्ति है उसको उन्नत और परिष्कृत करना मनुष्यके सुधारके लिये एक आवश्यक कार्य हैं । बेन्थाम स्वयं ही कहता था कि इधर उधरकी बातें मिलाकर सच्चेको झूठा और झूठेको सच्चा बतलाना ही काव्य है ! शास्त्रीयचर्चा और अध्ययन । इस तरह इधर तो मिलका निबन्ध-लेखन चल रहा था उधर उसने थोड़े ही दिन पीछे जर्मन भाषाके सीखनेका प्रारंभ कर दिया और साथ ही साथ शास्त्रीय विषयोंका अध्ययन करनेके लिये उसने और उसके दश बारह मित्रोंने एक नया ही ढंग निकाला । अर्थात् ऐतिहासिक पण्डित प्रोटकी कृपासे उन्हें एक स्वतंत्र कोठरी मिल गई। उसमें वे सब सवेरे ८॥ से १० बजे तक बैठने लगे । वहाँ वे एक एक शास्त्रीय ग्रन्थको लेकर पढ़ते थे और परस्पर वादविवाद तथा चर्चा करते थे। इस रीतिसे मिलने अपने पिताका बनाया हुआ अर्थशास्त्र, रिका?का बनाया हुआ इसी विषयका दूसरा ग्रन्थ और बेले साहेबका मूल्यविषयक ग्रन्थ-ये तीन अर्थशास्त्रके ग्रन्थ पढ़ डाले और उन्हें अच्छी तरहसे समझ लिया । इसके पश्चात् इस मंडलीने वेटले और हॉविसके तर्कग्रन्थोंका और फिर हर्टटेके आत्मशास्त्रका पारायण किया। इसके बाद यह सभा बन्द हो गई । परन्तु इतनेहीमें मिलके पिताने ' मनका पृथक्करण' नामक ग्रन्थ छपाकर प्रकाशित किया । इसलिये उसके Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ पढ़नेके लिये ये लोग कुछ दिनोंतक और भी एकट्ठा हुए और उसे समाप्त करके फिर इन्होंने इस सभाका विसर्जन कर दिया । इस तरह एकत्र होकर गहन विषयों के स्वाधीनतापूर्वक अध्ययन और विवेचन करनेसे मिलको बड़ा लाभ हुआ । उसके हृदयमें जो प्रत्येक विषयको स्वतंत्ररीतिसे विचार करनेकी शक्तिका अंकुर था वह बहुत बढ़ गया और दृढ़ हो गया। इसके बाद उसका यह स्वभाव हो गया कि यदि कहीं कोई बात अटक जाय, तो उसे आधी धोधी समझकर न छोड़ देना चाहिये । जबतक विवरण और विवेवचनके द्वारा उसका पूरा पूरा समाधान न हो जाता था तबतक वह आगे नहीं चलता था और जबतक कोई विषय सब ओरसे समझमें न आ जाता था तबतक वह यह नहीं कहता था कि मैंने उसे समझ लिया। व्याख्यानशक्तिके बढ़ानेका प्रयत्न । इसी समय उसने जनसमूहमें बोलनेका भी अभ्यास बढ़ाया । यदि कभी दश आदमियोंमें बोलनेका मौका आ जाता था तो वह उसे कभी व्यर्थ न जाने देता था। यद्यपि वकील बैरिस्टर बनकर रुपया कमानेकी उसकी इच्छा नहीं थी, तथापि वह यह अवश्य चाहता था कि मैं कभी पारलियामेंटका मेम्बर बनूँ और उसके द्वारा समाज-सुधारके कार्यमें यथाशक्ति सहायता पहुँचाऊँ। इसी उत्कट इच्छासे उसने व्याख्यानशक्तिके बढ़ानेका उद्योग किया और इसके लिये उसने, अपने कुछ मित्रोंकी सहायतासे, एक 'विवेचक-सभा' स्थापित की । इस सभाकी बैठक हर पन्द्रहवें दिन होती थी। इसके सभासदोंमें टोरी और लिबरल दोनों ही पक्षके लोग भरती किये जाते थे । यह इस लिये कि सभामें परस्पर खंडन-मंडन करनेका मौका आता रहे । परन्तु इसमें टोरी Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ दलके लोग बहुत कम शामिल होते थे। हाँ, लिबरल दलकी अवश्य ही खासी भीड़ हो जाती थी। _वेस्ट मिनिस्टरसे सम्बन्ध-त्याग । __ मिल इस तरह जुदा जुदा मार्गौसे अपनी बुद्धिको बढ़ाने में लगा रहता था और साथ ही नौकरीका काम भी जी लगाकर करता था। परन्तु अब व्याख्यानादिकी तय्यारियोंमें लगे रहनेसे उसे अवकाश कम मिलने लगा । इसलिये उसने सन् १८२८ में वेस्ट मिनिस्टर रिव्यूसे अपना सम्बन्ध तोड़ दिया। इस सम्बन्धके तोड़नेके दो कारण और भी थे। एक तो यह कि अब उक्त पत्रकी कीर्ति पहले जैसी नहीं रही थी और दसरे उसके संचालकने जिस परुषको अधिकार दे रक्खा था उससे मिलकी बनती न थी। मिलके पिताने भी उससे बहुत कुछ सम्बन्ध तोड़ दिया था। __ वेस्ट मिनिस्टरमें मिलका सबसे अन्तिम लेख फ्रान्सकी राज्यक्रान्तिका मंडन था और वह सर वाल्टर स्कॉटका विरुद्ध पक्ष लेकर लिखा गया था। इस निबन्धके तैयार करनेमें मिलने निस्सीम परिश्रम किया। इसके लिये उसने सैकड़ों ग्रन्थ पढ़े और उनको खरीदनेमें हजारों रुपये खर्च किये। मिलकी इच्छा थी कि मैं फ्रान्सकी राज्यक्रान्तिका एक उत्तम इतिहास लिखू, इसीलिये उसने इतना परिश्रम और अर्थ-व्यय किया था । परन्तु उसके हाथसे यह कार्य न हो पाया । हाँ, कारलाइलने जब इस विषयका इतिहास लिखा तब उसे उसकी संग्रह की हुई सामग्रीसे बहुत सहायता मिली। विश्राम । वेस्ट मिनिस्टरसे सम्बन्ध छोड़नेपर मिलने कुछ वर्षों तक लेख लिखनेका काम बन्द ही सा कर दिया। इस कामसे उसे अरुचिसी हो गई। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह उसके लिये अच्छा ही हुआ । क्योंकि अबतक उसने जितना ज्ञान प्राप्त किया था उसे परिपक्क करके उससे तादात्म्य करनेके लिए उसे इस विश्रान्तिके समयमें खूब मौका मिला। इसका फल यह हुआ कि उसके स्वभावमें तथा उसके विचारों में एक प्रकारका महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हो गया। यदि उसकी लिखनेकी मशीन बराबर चलती रहती तो शायद ही यह परिवर्तन होता। . उत्साह-शून्यता। पाठकोंको स्मरण होगा कि सन् १८२१ में जब मिलने बेन्थामके ग्रन्थोंका पहले पहल अध्ययन किया था तभी उसने निश्चय कर लिया था कि मेरे जीवनका व्रत संसारका सुधार करना होगा । इसीमें मैं अपनी उम्र व्यतीत करूँगा । इस कर्तव्य-निश्चयसे उसे एक प्रकारके सुखका अनुभव होता था और उसी सुख के सहारे वह अपने जीवनशकटको अभी तक आनन्दसे चला रहा था । परन्तु सन् १८२६ के वर्षा ऋतुमें एक दिन उसकी एकाएक कुछ विलक्षण स्थिति हो गई। स्वप्नसे एकाएक जागृत होनेपर जैसी मनुष्यकी हालत होती है, उस दिन उसकी वैसी ही हालत हो गई। उसके चित्तका उत्साह बिलकुल जाता रहा । उस समय उसने अपने मनसे आप ही आप प्रश्न किया कि “हे मन, संसारके जिस सुधारके कार्यमें तू लग रहाहै और जिसमें तुझे इतना सुख मालूम होता है, कल्पना कर, कि यदि वह पूर्णताको प्राप्त हो गई तो क्या उस पूर्णतासे तू अति सुखी हो जायगा ? " मनने किसी प्रकारकी आनाकानी और संकोच किये विना स्पष्ट उत्तर दिया कि- " नहीं।" इस उत्तरसे मिलके हाथ पैर ठंडे हो गये, काम करनेका उत्साह जाता रहा और जिस कर्तव्यनिश्चयके बलपर इतने दिन जोरोशोरसे काम चल रहा था उसका Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिरोभाव हो गया। उसे ऐसा अनुभव होने लगा कि यदि ऐसा है, तो फिर जीते रहनेमें ही क्या मजा है ? उसे आशा थी कि यदि कुछ दिनों रातको अच्छी नींद आ जायगी तो यह निरुत्साह निकल जायगा। परन्तु उसकी यह आशा सफल न हुई । सोते-जागते बैठतेउठते हर समय उसके चित्तों यही विचार रहने लगा । कभी कभी उसकी यह इच्छा होती थी कि अपने इस दुःखको किसीसे कहकर मैं कुछ हलका हो जाऊँ । परन्तु दूसरोंसे कहनेमें उसे यह संकोच होता था कि वे मेरी हँसी उड़ावेंगे। रहा पिता, सो उससे कहनेका उसे साहस न होता था । क्योंकि एक तो उसकी समझमें यह बात आती ही कठिनाईसे, और यदि आ भी जाती तो उसे उलटा इस बातका दुःख होता कि मैंने लड़केको पढ़ाने में जो अपरिमित परिश्रम किया उसका परिणाम आखिर यह निकला। इस कारण उसने अपना दुःख अपने हृदयमें ही रक्खा; किसीसे कुछ भी नहीं कहा । अपने चित्तकी इस शोचनीय अवस्थामें यद्यपि उसने अपने नित्यके व्यवसाय छोड़ नहीं दिये तथापि जिस तरह यंत्रोंसे काम होता है उसी प्रकार वे उसके द्वारा होते थे । अर्थात् जो कुछ वह करता था पूर्वके अभ्यासवश करता था-विचार या प्रयत्नपूर्वक नहीं। कोई छः महीने तक उसकी यही हालत रही। उत्साहका पुनः सञ्चार। एक दिन उसने एक विद्वान्के बनाये हुए स्वकुटुम्बचरित्र' नामक ग्रन्थमें एक जगह पढ़ा कि-" मैं जब छोटा था तब मेरा पिता मर गया और मेरे कुटुम्बपर एकाएक अपत्तिका पहाड़ टूट पड़ा। उस समय मैंने अपने कुटुम्बियोंको धीरज बँधाया कि तुम दुखी मत होओपिताका मैं तुम्हें कभी स्मरण न होने दूंगा।” इन वाक्योंके पढ़ते Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ ही उक्त कुटुम्बका सारा दृश्य मिलकी आँखोंके सामने आ गया और तत्काल ही उसकी आँखोंसे दो चार आँसू टपक पड़े । वस, उस दिनसे उसको अपना दुःख कुछ हलका मालूम होने लगा । अभी तक उसका विश्वास था कि मैं केवल एक प्रकारका यंत्र हूँ, जो बोलता चालता, लिखता पढ़ता और विचार करता है । मुझमें मनोभावों या मनोविकारोंका लेश भी नहीं है। परन्तु अपनी आँखोंसे अचानक आँसू पड़ते देख अब उसे अनुभव होने लगा कि मैं पत्थर अथवा मिट्टीका ढेला नहीं; किन्तु मनोविकारसम्पन्न मनुष्य हूँ। इस प्रकारका विश्वास होनेसे अब उसे प्रतिदिनके कामोंमें थोड़ा बहुत सुखबोध होने लगा। इस स्थितिके दो परिणाम । इस स्थितिके, मिलके चित्तपर, दो परिणाम हुए। अभीतक उसका यह खयाल था कि कौन आचरण अच्छा है और कौन बुरा है, इसका निर्णय सुखकी ओर लक्ष्य रखके करना चाहिये । अर्थात् जो आचरण चिरस्थायी सुख उत्पन्न करनेवाला हो वह अच्छा और जो न हो वह बुरा । इस प्रकारके अच्छे आचरणोंसे सुखकी प्राप्ति करनेमें जन्मकी सार्थकता है । उसका दूसरा खयाल यह था कि सुखके लिये सुखके पीछे लगना चाहिये, इसी तरह वह प्राप्त होता है। यह दूसरा खयाल अब बदल गया । उसे अव यह अनुभव होने लगा कि जो अप्रत्यक्ष सुख दूसरोंका उपकार करनेसे, मनुष्य जातिका सुधार करनेसे, और किसी विद्या या कलाके सीखनेमें मन लगानेसे मिलता है वह केवल सुखके पीछे लगनेसे नहीं मिलता। इस लिये मुझे किसी दूसरे ही अभिप्रायसे कोई काम करना चाहिये। ऐसा करनेसे सुख आप ही आप प्राप्त हो जाता है। यह एक परिणाम हुआ। उस के चित्तपर दूसरा परिणाम यह हुआ कि मनुष्यका जो अन्तरात्मा है उसको शिक्षा देना भी मुखका आव Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्यक साधन है । अब तक उसकी यह समझ थी कि मनुष्यको यदि इस योग्य बाह्य-शिक्षा मिल गई कि उससे उसके विचार और आचार अच्छे हो जावें तो काफी है। उसके अन्तःकरणको परिष्कृत करनेकी अथवा विकसित करनेकी आवश्यकता नहीं है। परन्तु स्वानुभवसे अब उसकी यह समझ बदल गई । इससे पाठकोंको यह न समझना चाहिये कि बौद्धिक शिक्षाके मूल्यको वह कुछ कम समझने लगा । नहीं, उसका यह विश्वास हो गया कि मानवीय सुखकी प्राप्तिके लिये बौद्धिक शिक्षाके समान ही नैतिक शिक्षाकी भी मनोभावोंको विकसित करनेके लिये आवश्यकता है । सार यह कि मनुष्यकी जो अनेक प्रकारकी मानसिक शक्तियाँ हैं वे सब ओरसे बराबर शिक्षित और विकसित होनी चाहिये। ललितकला और कान्यकी रामबाण ओषधि । अब उसे यह भी मालूम होने लगा कि मनुष्यकी शिक्षाके लिये काव्य और ललितकलाओंकी कितनी आवश्यकता है । कुछ दिनोंमें उसे इसका प्रत्यक्ष अनुभव भी होने लगा । लड़कपनसे मानसिक कलाओंमें उसे गाने बजानेकी कला ही अच्छी लगती थी । इस बातका उसे पहलेहीसे अनुभव था कि सुन्दर गान और वादनसे मनको एक प्रकारकी तन्द्रा आ जाती है, उत्साह और आनन्दकी वृद्धि होती है और धीरे धीरे उसके सुरों तथा आलापोंसे तादात्म्य हो जाता है। परन्तु बीचमें जब उसे निरुत्साहरूपी रोगने घेरा था, तब उसके चित्तपर इस कलाका परिणाम होना बन्द हो गया था । किन्तु जब ऊपर वर्णन की हुई घटनासे उसकी दशा बदली तब निरुत्साहका शमन करनेके लिये यह ओषधि बहुत गुण करने लगी । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन् १८२८ की वर्षाऋतुमें वह एक दिन वर्डस्वर्थ कविके काव्यग्रन्थ सहज ही पढ़ने लगा। उस समय उसने स्वप्न में भी यह न सोचा था कि इससे मेरी मानसिक व्याधि सर्वथा दूर हो जायगी। क्योंकि, इसके पहले उसने वायरन कविकी काव्य-औषधि सेवन करके देखी थी, पर उससे उसे जरा भी शान्ति नहीं मिली थी। वर्डस्वर्थकी छोटी छोटी कविताओंका मरिणाम उसके चित्तपर कुछ विलक्षण ही हुआ । इस कविने जंगल, वन, नदी, पर्वत, सरोवर, पशु पक्षी, आदि स्वाभाविक वस्तुओंको लक्ष्य करके चित्तको उत्फुल्ल और तन्मय करनेवाली रचना की है । यदि उसने उक्त वस्तुओंका केवल स्वभाव-वर्णन ही किया होता तो उससे मिलको उतना लाभ न होता । उसकी कविताओंमें एक विशेषता है । वह यह कि पदार्थसौन्दर्यका शारीरिक और मानसिक दृष्टिसे निरीक्षण करनेसे मानसिक वृत्तिमें जो उमंगें और विकारनिश्रित विचारों की तरंगें उठती हैं उनका वास्तविक चित्र भी उनमें खींचा गया है । यह चित्र मिलकी मानसिक व्याधिक लिये रामबाण ओषधि हो गया और इससे उसे धीरे धीरे आन्तरिक सुख, मानसिक आह्लाद आदि सुखके साधनोंका स्वाद आने लगा। उसके ध्यानमें यह बात भी आ गई कि यदि यह कल्पना कर ली जाय कि संसारका सुधार एक दिन पूर्णताको प्राप्त हो जायगा, तो भी मेरे सुखके दूसरे साधन बने रहेंगे । और, इस तरह, जिन प्रश्नोत्तरोंसे उसके हाथ पैर ठंडे हो गये थे-उत्साह नष्ट हो गया था, उनका गोरखधंधा सुलझ गया । विचार-परिवर्तन । जिस घटनाका ऊपर वर्णन किया गया है, उससे मिलके विचारों में बहुत कुछ परिवर्तन होने लगा । उसके बहुतसे. निश्चय शिथिल Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होने लगे और उनके स्थानमें नये नये विचार जमने लगे। इसी समय मिलके हाथ सेंट सायमनके कई ग्रन्थ आगये । सेंट सायमन फ्रान्सका प्रसिद्ध तत्त्ववेत्ता था । सोशियालिस्ट पंथकी जड़ इसीने जमाई थी। इन ग्रन्थों में उसने बहुत विलक्षणता देखी और उसके प्रधान शिष्य आगस्ट काम्टीका एक ग्रन्थ पढ़कर तो वह विस्मित हो गया। इन ग्रन्थोंमें कुटुम्बकी स्थितिके. सुधारनेका जो सिद्धान्त था वह उसे बहुत ही पसन्द आया । कुटुम्बमें पुरुषों और स्त्रियोंका अधिकार वराबर होना चाहिए। वर्तमान समयमें जो पुरुष-स्त्रीका सेव्यसेवक सम्बन्ध है वह हानिकारक है। उसे तोड़कर समानाधिकारयुक्त नवीन सम्बन्ध स्थापित होना चाहिये । इस विचारकी उसने शतमुखसे प्रशंसा की । समाजके जुदा जुदा पेशा करनेवाले लोगोंको अपना पूँजी एकत्र करके संयुक्त श्रम करना चाहिये और उससे जो मुनाफा हो उसे बाँट लेना चाहिये। सोशियालिस्टोंकी समाज-स्थिति सुधारनेकी यह कल्पना यद्यपि उसे पसन्द आई, परन्तु इसका व्यवहारमें परिणत होना उसे असंभव मालूम हुआ। भूमि आदि सम्पत्तिके भोगनेका अधिकार वंशपरम्परासे एक ही कुटुम्बको प्राप्त होना समाजके लिये बहुत ही हानिकारक है-इत्यादि विचारोंको भी उसने मन लगाकर पढ़ा, परन्तु वे सर्वांशमें उसे अच्छे न मालूम हुए। ___ अब तक उसका यह मत था कि मनुष्य केवल परिस्थितिका दास है । अर्थात् मनुष्यके आसपास रीति रवाज आदिकी जैसी स्थिति होती है उसीके अनुसार उसका स्वभाव बनता है । परिस्थिति शब्दका यदि इतना संकुचित अर्थ किया जाय तो सचमुच ही यह मत चित्तको उद्विग्न करनेवाला है । क्योंकि इस दशमि इस मतमें और भारतवासियोंके मतमें कुछ अधिक अन्तर नहीं रह जाता। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्तु पुन सरसके हृदया। एक नवीन ही प्रकाश झलक गया, इस लो वह परिस्थितिपक अर्थ करने लगा। अब उसके ध्यानमें औरयाउ कि वह बात यद्यपि ठीक है कि मनुष्यका स्वभाव जैसी परिस्थिति होती है उसीके अनुसार बनता है तथापि, यदि मनुष्य चाहे, तो वह अपनी परिस्थितिको बदल भी सकता है । इस प्रकार विचारक्रान्ति होनेसे उसे यह अच्छी तरह मालूम होने लगा कि परिस्थिति-मत और दैव-मतमें कितना अन्तर है और उसके सिरपरसे उद्विग्नताका बोझा बहुत कुछ उतर गया । राजनैतिक विपयोंमें अबतक उसका यह मत था कि प्रतिनिधिसत्ताक राज्यपद्धति सब प्रकारकी परिस्थितियोंमें उपयोगी और हितकारिणी है । अर्थात् चाहे जो काल हो, चाहे जो देश हो, चाहे जो समाज हो, उसकी उपयोगिता और हितकारिता कम नहीं होती। परन्तु अब उसका यह विचार बदल गया । वह समझने लगा कि राज्य-शासनके लिये जुदा जुदा तरहकी राज्यपद्धतियाँ केवल साधन हैं और एक ही प्रकारका साधन सब जगह उपयोगी नहीं हो सकता है । इस लिये यदि किसी देशमें कोई राज्यपद्धति शुरू करनी हो, तो पहले निष्पक्षवुद्धिसे इस बातका पता लगाना चाहिये कि वहाँके लोगोंकी शक्ति, बुद्धि, समाज-व्यवस्था आदि कैसी है और फिर जो उचित समझी जाय वही राज्यपद्धति शुरू करनी चाहिए । परन्तु इंग्लेंडके विषयमें उसका जो मत था उसमें अन्तर नहीं पड़ा । वह इसी मतपर कायम रहा कि इंग्लैंडकी योग्यता और परिस्थिति प्रतिनिधिसत्तात्मक पद्धतिके ही योग्य है । धनिकों जमींदारों और पदवीधारी पुरुषों की प्रबलतासे इंग्लैंडकी सामाजिक नीति और सामाजिक सुखका घात हो रहा है । इसलिये वह चाहता था कि वहाँ जितनी Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ है, उससे अधिक प्रजासत्ताक राज्यपद्धति होनी चाहिये । साधारण प्रजाके अधिकार बढ़ने चाहिये और बड़े आदामियोंके अन्यायोंको दमन करनेके लिये सोशियालिस्टोंके सम्पत्तिसम्बन्धी मतका प्रसार होना चाहिये। फ्रान्सकी राज्यक्रान्ति और मिलके लेख । सन् १८२९ के जुलाई महीनेमें फ्रान्सकी इतिहासप्रसिद्ध राजक्रान्ति हुई । उसका समाचार पाते ही मिलका उत्साह एकाएक जागृत हो उठा। वह उसी समय फ्रान्स गया और वहाँकी प्रजाके प्रधान नेता ला फायटीसे मिलकर तथा राज्यक्रान्ति-सम्बन्धी वास्तविक तथ्य संग्रह करके लौट आया । इंग्लैंडमें आते ही उसने इस विषयका समाचारपत्रों और मासिक पत्रोंमें जोरोशोरसे आन्दोलन करना शुरू किया। इतनेहीमें लार्ड ग्रे इंग्लैंडके प्रधान मंत्री हुए और पारलियामेंटके संस्कार तथा सुधारका बिल पेश किया गया। अब तो मिलकी लेखनी गजबके लेख लिखने लगी। उन्हें पढ़कर लोग दाँतों तले अंगुली दबाने लगे । सन् १८३१ के प्रारंभमें उसने 'वर्तमान कालकी महिमा ' नामक लेखमाला शुरू की और उसमें वह अपने नवीन विचारोंको प्रथित करने लगा। उसे पढ़कर प्रसिद्ध तत्त्ववेत्ता कालाईल चकित हो गया और वह स्वयं उससे आकर मिला। मिलका और कार्लाइलका सबसे पहला परिचय इसी समय हुआ और वह आगे बराबर बढ़ता गया। पिता और पुत्रका मतभेद । अब मिलको यह सन्देह हुआ कि मेरे और. पिताके विचारों में बहुत बड़ा अन्तर हो गया है । यदि वह शान्तिसे विचार करता तो यह अन्तर इतना बड़ा प्रतीत न होता । परन्तु उसे यह साहस नहीं Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ होता था कि मैं अपने पितासे शान्तिके साथ विचार करके यह निश्चय कर लूँ कि मेरे और आपके तात्त्विक विचारोंमें क्या अन्तर है । क्योंक उसे इस बातका भय था कि ऐसा करनेसे पिताको यह विश्वास हो जायगा कि मेरा बेटा मेरा मत छोड़कर प्रतिपक्षियोंमें जा मिला है । इसे सौभाग्य ही समझना चाहिए, जो राजनैतिक विषयोंमें अब तक बाप-बेटेका एक ही मत था । इससे उन दोनोंका राजनैतिक संभापण अच्छी तरह पार पड़ जाता था। जिन विषयोंमें वह समझता था कि पितासे मेरा मतभेद होगा, उनके सम्बन्धकी वह कभी चर्चा ही न करता था। क्योंकि वह सोचता था कि यदि पिता मेरे मतके कुछ विरुद्ध कहेंगे तो मुझसे चुप भी न रहा जायगा और कुछ कहा भी न जायगा । यदि चुप रहूँगा तो यह बात मेरा चित्त स्वीकार न करेगा और यदि कुछ कहूँगा तो उन्हें बुरा लगेगा और मुझे भी खेद होगा। इस समयकी निबन्ध-रचना । इस बीचमें मिलने, जिनका यथास्थान उल्लेख हो चुका है, उनके सिवा और क्या क्या रचनायें कीं, यह बतलाकर अब हम मिल-चरितके इस भागको समाप्त करेंगे___ सन् १८३० और ३१ में उसने 'अर्थशास्त्रके अनिश्चित प्रश्नोंपर विचार ' नामक पाँच निबन्धोंकी रचना की और सन् १८३२ में 'टेट्स मेगजीन' नामक मासिक पत्रमें कई अच्छे अच्छे निबन्ध लिखे । मिसेस टेलरका परिचय । सन् १८३० में मिलके जीवनका एक नवीन अध्याय शुरू हुआ। इस साल उससे और टेलर नामके एक आदमीकी स्त्रीसे पहले पहल Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ परिचय हुआ । इस समय मिल साहबकी उम्र २५ वर्षकी और उसकी २३ वर्षकी थी । टेलरके कुटुम्बियोंकी और मिलके बड़े बूढोंकी पुरानी जान पहिचान थी। इस समय उस जान पहिचानका इन दोनोंके द्वारा केवल पुनरुज्जीवन हुआ । यद्यपि पहली जान पहिचान होनेके बादसे इन दोनोंके गाढ़स्नेह होनेमें कई वर्ष लगे, तो भी मिलने यह बात बहुत जल्द समझ ली कि यह कोई सामान्य स्त्री नहीं है। दूसरी स्त्रियोंसे इसमें कुछ विशेषता और विलक्षणता है। इसका यह मतलब नहीं कि उसके जो विलक्षण बुद्धि, परिपक्व विचार और प्रगाढ़ ज्ञान आदि गुण पीछे प्रकट हुए वे सबके सब उस समय भी मौजूद थे । उस समय उनका केवल अंकुर दिखलाई देता था, जो धीरे धीरे बढ़ता गया और उस विशाल विटपके रूपमें परिणत हुआ जिसकी छायामें रहकर मिल जैसे तत्त्ववेत्ताने भी अपने ज्ञानको संस्कृत और परिष्कृत किया। टेलर यद्यपि ईमानदार, सभ्य और धैर्यवान् पुरुष था, तो भी उसमें अपनी स्त्री जैसी विलक्षण बुद्धि और अभिरुचि न थी। इतनेपर भी दोनों में प्रीतिकी कमी न थी । मिसेस टेलर अपने पतिको हृदयसे चाहती थी। उसका पूरा पूरा सम्मान करती थी। उसका यह प्रेम जब तक पति जीता रहा बराबर स्थिर रहा और जब उसका देहान्त हो गया तब उसने बहुत शोक किया। मिसेस टेलर इस विषयमें बहुत विचार किया करती थी कि राजनैतिक आर सामाजिक बातोंमें स्त्रियोंको पुरुषोंके समान अधिकार नहीं है, इसलिये वे अपने ऊँचेसे ऊँचे गुणोंको कार्यमें परिणत नहीं कर सकती हैं। उनको इस बातका मौका ही नहीं दिया जाता कि Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वे कुछ करके दिखला सकें और यह सिद्ध कर सकें कि हम पुरुषोंसे किसी बातमें कम नहीं हैं:। इन बातोंकी चर्चा वह अपनी मित्रमंडलीमें भी किया करती थी। उसकी मित्रमंडलीमें जो थोड़ेसे पुरुष थे, दैवयोगसे उनमें मिलका भी प्रवेश हो गया। सुतरां वह मिलसे भी इस विषयपर तथा दूसरे विषयोंपर चर्चा करने लगी। ___ मिसेस टेलरमें, देवमूढ़ता न थी, अर्थात् उसे यह विश्वास न था कि कोई काम किसी देवताकी कृपासे अथवा ईश्वरकी इच्छासे होता है । अकसर लोगोंका यह खयाल रहता है कि सृष्टिकी रचना सर्वांशपूर्ण है-उसमें किसी बातकी कमी नहीं है । परन्तु वह इस बातको न मानती थी। उसका खयाल इससे विरुद्ध था । वह समझती थी कि वर्तमानकालिक सृष्टिमें और समाजरचनामें बहुत ही कमी है। इससे पहले इससे भी अधिक कमी थी, जो धीरे धीरे पूर्ण हुई है । ज्यों ज्यों मनुष्यका ज्ञान बढ़ता जायगा, वह वर्तमान कमीको पूरी करता जायगा । उसकी बुद्धिकी प्रत्येक विषयमें अबाध गति थी। वह प्रत्येक विषयके सार या सत्त्वपर पहुँचती थी-चाहे वह विषय गंभीर तात्त्विक हो चाहे मामूली कामकाजसम्बन्धी हो । यदि वह किसी कलाके सीखनेमें जी लगाती तो इसमें कोई सन्देह नहीं कि वह निपुणताकी हदपर पहुँच जाती। क्योंकि उसकी नैतिक और बौद्धिक दोनों शक्तियाँ बहुत ही तीक्ष्ण थीं और कल्पनाशक्ति भी उसकी बहुत विलक्षण थी। यदि वह वक्तृत्व-कलाकी ओर ध्यान देती तो एक बड़ी भारी व्याख्यानदात्री हुए विना न रहती। क्योंकि वह सहृदया और तेजस्विनी थी और उसके बोलनेकी शैली भी बहुत ही अच्छी थी। इसी प्रकार यदि उसके भाग्यमें कहींकी रानी होना लिखा होता तो वह इस उच्चपदको अपने गुणोंसे और भी पूज्य Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनाती। क्योंकि उसे मानवीय स्वभावका बहुत अच्छा ज्ञान था। वह मनुष्यके स्वभावको तत्काल ही परख लेती थी और व्यावहारिक बातोंमें भी बहुत चतुर थी। उसका नैतिक आचरण बहुत ही अच्छा और तुला हुआ था । परोपकार-बुद्धि तो उसकी खूब ही संस्कृत थी। समाजने गतानुगतिकतासे जिन कामोंको परोपकार ठहरा दिया है, अथवा जिन्हें लोग परोपकार समझते हैं, उनका अनुसरण करके वह परोपकार नहीं करती थी। किन्तु उसका अन्तःकरण ही इतना कोमल था कि वह दूसरोंकी बुराई भलाईको अपनी ही बुराई भलाई समझती थी-अपनेमें और दूसरोंमें वह भेद ही न समझती थी । वह यह भी जानती थी कि सुख-दुःखसम्बन्धी मनोविकार जिस प्रकार मेरे प्रबल हैं, उसी प्रकार दूसरोंके भी हैं । अर्थात् सुख-दुःखका अनुभव जैसा मुझे होता है वैसा ही दूसरोंको भी होता होगा। इससे उसके अन्तःकरणमें परोपकारकी अगणित हिलोरें उठा करती थीं। उसकी उदारता अमर्यादित थी। जो उसके प्रेमको थोड़ा भी पहिचानता था, उसपर वह उसकी वर्षा करनेके लिए निरन्तर उत्सुक रहती थी । उसका हृदय वास्तविक विनयका और अतिशय ऊँचे अभिमानका सन्धि-स्थल था । जिसके साथ अन्तःकरणपूर्वक और सादेपनसे बर्ताव करना चाहिए, उसके साथ वह वैसा ही बर्ताव रखती थी। क्षुद्र और डरपोकपनकी बातसे उसे घृणा थी। चाहे कोई हो, यदि उसके आचरणमें उसे थोड़ेसे भी पाशविक अत्याचारका, अप्रामाणिकता अथवा असभ्यताका अंश मालूम होता तो उसका क्रोध भड़क उठता था । इतना अवश्य स्मरण रखना चाहिए कि जो बातें वास्तवमें बुरी होती थीं, उन्हींके विषयमें उसके ऐसे मनोभाव होते थे। जिन्हें केवल लोगोंने बुरी मान रक्खी हैं उनके विषयमें नहीं। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिचयसे परस्परिक लाभ। ऐसा गुणवती स्त्रीके साथ परिचय बढ़नेसे और तात्त्विक चर्चाका व्यासंग होनेसे मिलको आशातीत लाभ हुआ। उसकी मानसिक उन्नतिपर उसका बहुत ही अच्छा परिणाम हुआ। पर यह परिणाम मन्दगातसे हुआ । और, इस तरह, दोनोंकी मानसिक उन्नतिकी एकता होकर उसके प्रवाहके बह निकलनेमें बहुत वर्ष बीत गये। इस परिचयसे यद्यपि यह स्पष्ट है कि मिसेस टेलरकी अपेक्षा मिलको ही अधिक लाभ हुआ; तथापि हमें यह भी कहना चाहिये कि उसे भी कुछ कम नहीं हुआ। क्योंकि उसके जो विचार या सिद्धान्त थे वे केवल उसकी प्रतिभा और मनोभावोंसे बने थे और इसके मतोंकी रचना अभ्यास और विचारोंसे हुई थी। तब यह स्पष्ट है कि उसके विचार 'और सिद्धान्त इसके परिचयसे बहुत कुछ दृढ़ हुए होंगे । तथापि यदि विचार करके देखा जाय तो कहना पड़ेगा कि मिल ही उसके ऋणसे अधिक दबा था. अर्थात मिलको ही इस परिचयसे अधिक लाभ हुआ था। जिन्हें मनुष्यजातिकी वर्तमान दशा शोचनीय मालूम पड़ती हैऔर इस लिए जो चाहते हैं कि इसका मूलसे सुधार होना चाहिए उनके विचार बहुत करके दो प्रकारके होते हैं। एक प्रकारके विचारोका लक्ष्य आत्यन्तिक उत्तम स्थितिकी ओर रहता है और दूसरे प्रकारके विचारोंका लक्ष्य उपयोगी और तत्काल साध्य सुधारोंकी ओर रहता है । मिलके इन दोनों विचारोंको मिसेस टेलरकी शिक्षासे जो गाम्भीर्य और विस्तार प्राप्त हुआ वह बहुत ही बड़ा था। सारे शिक्षकों और ग्रन्थोंसे भी उसकी प्राप्ति नहीं हो सकती थी । अर्थशास्त्र, आत्मशास्र, तर्कशास्त्र और इतिहासशास्त्र आदि शास्त्रोंके विषयमें Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ मिलने अपनी विचारशक्तिसे जो सिद्धान्त स्थिर किये थे उन्हें व्यवहारिकताका रूप इसीकी शिक्षाके प्रसादसे मिला था । मेरे सिद्धान्तोंमें अत्यन्त विश्वस्त कौन है और संशययुक्त कौन है, इसका निर्णय उसने इसीके संयोगसे किया था । नहीं तो आश्चर्य नहीं कि उसे यह विश्वास हो जाता कि मेरे सिद्धान्त सर्वथा सच्चे हैं, सब समयोंके लिये हैं और सबपर प्रयुक्त हो सकते हैं । मिलके जिन जिन ग्रन्थों में व्यावहारिक विचारोंकी अधिकता है, समझ लो कि वे एक मस्तकसे नहीं, उक्त दोनों मस्तकोंके संयोगसे उत्पन्न हुए हैं। राजनैतिक विचारों में परिवर्तन । इस बीचमें मिलको ' टॉकेवेली' नामक प्रसिद्ध फ्रेंच विद्वानका ' अमेरिकाका प्रजासत्ताक राज्य ' नामक ग्रन्थ मिला । इस उत्कृष्ट ग्रन्थका उसने बहुत ही बारीकीसे अध्ययन किया। इससे उसने प्रजासत्ताक राज्यसे क्या क्या लाभ होते हैं और क्या क्या हानियाँ होती हैं, यह अच्छी तरहसे समझ लिया। फल इसका यह हुआ कि अब वह प्रजासत्ताकसे प्रतिनिधिसत्ताक राज्यपद्धतिको अच्छी समझने लगा। प्रजासत्ताक राज्यपद्धतिमें जो अन्याय और अत्याचार होते हैं उन्हें उसने प्रतिनिधिसत्ताक राज्यपद्धतिसे कम समझे । इसका निरूपण उसने अपने प्रतिनिधिसत्ताक राज्यव्यवस्था ' नामक ग्रन्थमें स्वयं किया है । ऊपर लिखे हुए ग्रन्थसे उसका एकमत और भी अच्छा बन गया। वह यह कि सामाजिक कामोंके करनेका अधिकार जितने अधिक लोगोंमें फैलाया जा सके उतनेमें फैलाना चाहिए और सरकारको ऐसे कामोंसे जुदा रखना चाहिए। इससे लोगोंको राजनैतिक शिक्षा तो मिलती ही है, साथ ही प्रजासत्ताक व्यवस्थासे जो अनिष्ट हुआ करते हैं उनकी भी रुकावट होती है । क्योंकि इससे Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरकारी महकमें कम हो जाते हैं और देशके बहुतसे सुयोग्य और सुशिक्षित पुरुष सरकारी गुलाम होनेसे बच जाते हैं । सरकारी महकमें अधिक होनेसे सारे शिक्षित पुरुष उनमें भरती होनेका प्रयत्न करते हैं और वे अपने ऊपरके अधिकारियोंके गुलाम हो जाते हैं । इससे अन्यायोंका प्रतिबन्ध नहीं हो सकता। इस विषयका निरूपण मिलने अपने स्वाधीनता नामक ग्रन्थके अन्तमें किया है। लेख, पत्रसम्पादन और पिताकी मृत्यु । सन् १८३३ और ३४ में मिलने कुछ लेख मासिकपत्रोंमें लिखे। ये लेख तात्कालिक विषयोंपर लिखे गये थे और उन्हें पीछेसे संग्रह करके उसने पृथक् पुस्तकाकार भी छपा लिया था । सन् १८३४ में उसने और उसके पिताके कुछ मित्रोंने मिलकर 'लन्दन रिव्यू' नामका मासिकपत्र निकाला । इसके निकालनेका मुख्य उद्देश 'रॉडिकल ' पक्षके विचारोंका समर्थन और प्रसारण करना था । तबसे सन् १८४० तक उसने उसमें बहुतसे लेख लिखे । उसका पिता भी जब तक बीमार नहीं पड़ा तबतक उसमें बराबर लेख लिखता रहा । मिल इस पत्रका एक प्रकारसे सम्पादक ही था। पर उसके विचारोंमें पिताके विचारोंसे अन्तर पड़ गया था; इसलिए वह अपने लेखोंके नीचे अपने नामका पहला अक्षर और पिताके लेखोंके नीचे उसके नामका पहला अक्षर प्रकाशित कर देता था, जिससे पाठक यह समझ लेवें कि अमुक लेखमें जिस मतका प्रतिपादन हुआ है वह सम्पादकका नहीं, किन्तु किसी व्यक्तिका है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, वास्तवमें बाप बेटेके मतोंमें जितना अन्तर दिखता था उतना नहीं था और आश्चर्य नहीं कि यह बात दोनोंके ध्यानमें Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० आ जाती और आगे दोनोंकी लेखरचना या ग्रन्थरचना एकमतसे होने लगती । परन्तु सन् १८३५ से पिताका स्वास्थ्य दिनपर दिन बिगड़ने लगा। तदन्तर कफक्षयके स्पष्ट चिह्न दिखने लगे और आखिर २३ जून सन् १८३६ में उसका देहावसान हो गया । पृथ्वीसे एक वास्तविक पिता और स्वाधीनचेता विद्वान् उठ गया । जेम्स मिलका जोश और उसकी बुद्धिका वैभव मरते मरते तक कम नहीं हुआ । उस समय तक जिन जिन बातोंमें उसने अपना चित्त लगाया था उन सबके विषयमें कंठगत प्राण होने तक उसकी आस्था बनी रही । धर्मक विषयमें उसके जो विचार थे उनमें भी कालके बिलकुल समीप आ पहुँचने तक रत्ती भर भी अन्तर नहीं पड़ा । जिस समय उसे विश्वास हो गया कि अब मैं जल्दी मर जाऊँगा उस समय उसको यह सोचकर बहुत सन्तोष हुआ कि जब मैंने जन्म लिया था तबसे अब संसारकी दशा कुछ अच्छी हैऔर उसे अच्छी करनेके लिए मैंने भी कुछ किया है। पर साथ ही यह विचार कर उसे कुछ खेद भी हुआ कि अब मेरे जीवनकी समाप्ति है, इस लिए मुझे और लोकसेवा करनेका अवकाश नहीं मिल सकता। इस विषयमें किसीको कुछ सन्देह नहीं है कि जेम्स मिलने संसारकी और अपने देशकी विपुल सेवा की। तो भी यह बात विचारणीय है कि उसके बाद उसका जितना नाम रहना चाहिए था, उतना नहीं रहा । इसका एक कारण यह मालूम होता है कि उसके समयमें बेन्थामकी जो दिगन्त-व्यापिनी यशोदुन्दुभी बज रही थी उसमें उसकी कीर्ति लुप्त हो गई । दूसरा कारण यह जान पड़ता है कि यद्यपि उस समयके बहुतसे लोगोंने उसके अनेक मत स्वीकार Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर लिये थे, तो भी जिस समय उसकी मृत्यु हुई वह समय उसके मतोंके लिए बहुधा अनुकूल न था । पुराने और नये मित्र । पिताकी मृत्युके अनन्तर मिल ' लन्दन रिव्यू ' में अपनी अभिरुचिके ही लेखोंको स्थान देने लगा। इससे उसके कुछ पुराने मित्र अप्रसन्न हो गये; परन्तु साथ ही कई नवीन मित्र उसे और मिल गये । इन नये मित्रों में कार्लाइल सबसे मुख्य था। अब इसके लेखोंकी लन्दन रिव्यूमें धूम मच गई । दूसरे विद्वानोंके भी अच्छे अच्छे लेख उसमें प्रकाशित होने लगे। तर्कशास्त्रका पुनः प्रारम्भ और लन्दन रिव्यूसे छुट्टी । सन् १८३७ में मिलने अपने तर्कशास्त्र नामक ग्रन्थको फिर लिखना आरम्भ किया । यह ग्रन्थ उसने लगभग पाँच वर्ष पहले शुरू किया था, परन्तु कई कारणोंसे वह उसे पूर्ण न कर सका था। इसके कुछ दिन पीछे 'वेवेल' नामक प्रसिद्ध नैयायिकका 'न्यायशास्त्रका इतिहास' नामका ग्रन्थ प्रकाशित हुआ। मिलने उसे तथा वैसे ही और कई ग्रन्थोंका फिर अध्ययन तथा मनन किया और अब इतने समयके पीछे उसने अपने ग्रन्थका काम फिर चलाया । इन दिनों मासिक पत्रके सम्पादनका कार्य जोरोशोरसे चलता था तो भी अवकाश निकालकर वह इस ग्रन्थको लिखता था । इस तरह उसने लगभग दो तृतीयांश ग्रन्थका मसविदा तयार कर लिया। इसी समय, सन् १८४० में, मासिक पत्रका भार किसी दूसरेपर डालकर उसने इस बखेड़ेसे छुट्टी पा ली। इसके बाद यदि उसे अवकाश मिलता था और कुछ आवश्यकता होती थी तो वह कभी Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कभी लेख लिखता था और उन्हें 'एडिनबरा-रिव्यू में प्रकाशित करता था। इस पत्रके ग्राहक बहुत थे इस कारण अपने विचारोंका अधिक प्रसार करनेके लिए उसने इसीको पसन्द किया था। तर्कशास्त्रकी समाप्ति और उसका प्रकाशन । ___ लन्दन-रिव्यूसे छुट्टी पानेपर मिलने सबसे पहले अपने तर्कशास्त्रको समाप्त किया। इसके बाद उसने लगभग एक वर्ष तक बैठकर इस ग्रन्थकी फिरसे नकल की और इस समय खूब सोच विचारकर उसमें बहुतसा संशोधन तथा परिवर्तन किया। मिलके जितने ग्रन्थ हैं वे सब इसी पद्धतिसे तैयार किये गये हैं। उसका एक भी ग्रन्थ ऐसा नहीं है जो कमसे कम दो बार न लिखा गया हो। यह पद्धति बहुत ही अच्छी है । इससे ग्रन्थ सुगम, सुन्दर और निर्दोष बन जाता है । क्योंकि जो ग्रन्थ एक बार समाप्त हो जाता है, यदि उसका दूसरी बार स्वस्थतासे अवलोकन किया जाय, तो उसमें बहुतसी बातें सुधारने और लौट फेर करने योग्य मिलती हैं। ___ तर्कशास्त्र तैयार होनेपर, सन् १८४१ में, 'मेरे ' नामक पुस्तकप्रकाशकके पास भेजा गया । परन्तु वह भलामानस उसे कई महीने अपनी टेबिलपर ही रक्खे रहा और अन्तमें वापिस कर गया। इसके बाद मिलने उसे 'पार्कर' नामक प्रकाशकके पास भेजा और उसने १८४३ की वसन्तऋतुमें छपाकर प्रकाशित कर दिया। ऐसे गहन विषयों के ग्रन्थोंकी विक्री एक तो यों ही बहुत कम होती है, फिर यह ग्रन्थ एक बिलकुल ही नई पद्धतिपर बनाया गया था न्यायशास्त्रकी वह पद्धति उस समय रूढ़ नहीं थी, तो भी छः साल के भीतर उसके तीन संस्कारण प्रकाशित हो गये। इससे समझना चाहिए कि मिलके Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस उत्तम ग्रन्थकी अच्छी कदर हुई और उस समय पाश्चात्य देशोंमें ऐसे ग्रन्थोंके पढ़नेका—कमसे कम खरीदनेका-शौक बढ़ चला था। मिलना जुलना कम कर दिया । इस समय मिल मासिक पत्रसे सम्बन्ध छोड़ चुका था। तात्कालिक राजनैतिक प्रश्नोंसे उसने अपना चित्त हटा लिया था और उसकी उम्र भी कुछ अधिक हो गई थी। इस लिए अब वह बहुत ही थोड़े लोगोंसे मिलने जुलने लगा। इंग्लैंडमें मिलने जुलने या मेल मुलाकात बढ़ानेकी रीति बहुत ही वेढंगी है। उसमें बहुधा ऐसी ही बातें होती हैं जो केवल इस लिए की जाती हैं कि वे परम्परासे चली आ रही हैं-पर उनसे प्रसन्नता रत्ती भर भी नहीं होती है। वहाँ दस आदमियोंकी बैठकमें किसी वादग्रस्त महत्त्वके विषयकी चर्चा छेड़ना तो एक प्रकारकी असभ्यताका काम समझा जाता है। फ्रेंचलोगोंके समान छोटी छोटी बातोपर हँसी खुशीके साथ विचार करनेकी वहाँ पद्धति नहीं है। तब वहाँका मिलना जुलना केवल लोकरूढ़िका. सत्कार करना है। उससे सिवाय इसके कि कुछ बड़े आदमियोंसे जान पहिचान हो जाती है और कुछ लाभ नहीं। मिल जैसे तत्त्वज्ञानीको ऐसा मिलना जुलना कब पसन्द आ सकता था ? उसको इससे अरुचि होनी ही चाहिए थी। इस प्रकारके मेल-जोलसे. मेलजोल रखनेवालेकी बुद्धि कितनी ही उन्नत क्यों न हो, अवनत होने लगती है और उसके विचार कितने ही उत्कृष्ट क्यों न हों निकृष्ट होने लगते हैं। इसका कारण यह है कि उसे इस मेल-जोलके मंडलमें अपने विलक्षण विचारोंके प्रकट करनेसे संकोच करना पड़ता है-वह देखता है कि, यहाँ अपने विचारोंको प्रकट करना ठीक न होगा और ऐसा करते करते एक दिन उसे स्वयं ही ऐसा मालूम होने लगता है Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ कि यद्यपि मेरे विचार उच्चतम हैं तथापि अव्यवहारिक हैं-वे व्यवहारमें नहीं लाये जा सकते । इस तरह वह अधिक नहीं तो इतनी अधोदशाको अवश्य प्राप्त हो जाता है कि जिस मतसे लोग प्रसन्न हों, धीरे धीरे, उसे ही प्रतिपादन करने लगता है। इसलिये जिनकी बुद्धि विलक्षण है-जो अपने ज्ञानको विकसित करना चाहते हैं उन्हें जहाँ तक बने ऐसे लोगोंसे मेल जोल कम बढ़ाना चाहिए। जिसे अपना सुधार करना हो, उसे चाहिए कि ऐसे धनी, मानी, ठाठपसन्द लोगोंमें न घुसकर ऐसे लोगोंसे परिचय बढ़ावे जिनके विचार और जिनकी प्रतिभा अपनेसे उन्नत हो । इस कारणसे, और ऐसे ही और कई कारणोंसे, मिलकी मित्रमंडली इनी गिनी रह गई । मिसेस टेलरका पवित्र सम्बन्ध । मिलकी रही हुई मित्रमंडलीमें मिसेस टेलर मुख्य थी। इस समय उसक एक लड़की थी। उसे लेकर वह प्रायः एक गाँवमें रहा करती थी-लन्दनमें अपने पतिके पास बहुत कम रहती थी। मिल उससे मिलने के लिए गाँवमें और लन्दनमें दोनों ही जगह जाया करता था । उसके पतिकी अनुपस्थितिमें-पतिके दूर रहनेपर भी वह उससे बारबार मिलता था और कभी कभी उसके साथ अकेला सफर भी करता था । यदि कोई साधारण स्त्री होती तो उसके जीमें यह शङ्का आये बिना नहीं रहती कि, इससे मुझे लोग नाम रक्खेंगे। परन्तु वह बड़ी ही दृढ़प्रतिज्ञ और उन्नतहृदय थी। इसलिए उसने ऐसे कमजोर खयालोंको कभी अपने पास भी नहीं फटकने दिया। इस समय इन दोनोंका जो सम्बन्ध था वह अतिशय घनिष्ट होनेपर भी सर्वथा पवित्र था। उसमें अपवित्रताके लिए बिलकुल अवकाश नहीं था। इतनेपर Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ भी कोई झूठा आक्षेप न कर बैठे, इस खयालसे वे अपने बाह्य आचरणमें बहुत सावधानी रखते थे। विचार-परिवर्तन । इस मेल जोलसे मिलके विचारों में और भी रद्दोबदल हुआ। अभी तक उसका खयाल था कि वर्तमानकालकी सामाजिक स्थितिका यद्यपि यह बड़ा भारी दोष है कि कुछ थोड़ेसे लोग जन्मसे ही श्रीमान् होते हैं और बाकी जन्मसे ही दरिद्री होते हैं; तथापि यदि कोई कहे कि यह स्थिति बिलकुल बदल सकती है तो उसका भ्रम है। ऐसा नहीं हो सकता। यह ठीक है कि दायभागके कुछ अन्यायपूर्ण नियमोंके रद हो जानेसे जैसे कि बड़ा लड़का सारी स्थावर सम्पत्तिका हकदार है आदि, यह दुःस्थिति कुछ कम दुःखकारक हो सकती है, परन्तु यह तो कभी नहीं हो सकता कि सोशियालिस्टोंके कथनानुसार सब प्रकारसे ' रामराज्य ' हो जाय । मिसेस टेलरकी सत्संगतिसे उसका यह विचार बहुत कुछ बदल गया और उसकी सोशियालिस्ट-सम्प्रदायकी ओर रुचि अधिकाधिक होने लगी। अब उसका यह सिद्धान्त हो गया कि यह स्थिति, जिसमें कुछ लोग तो मरते दम तक किसीतरह मर मिटकर भर पेट अन्न खानेको पाते हैं और कुछ आलसी बनकर बैठे बैठे ही मौज किया करते हैं, धीरेधीरे बदल सकती है। समाजसुधार होते होते एक दिन ऐसा आ सकता है जब इस अन्यायका देशनिकाला हो जायगा। अभी प्रत्येक मनुष्य यही समझता है कि मैंने जिस वस्तुको परिश्रम करके पाया है वह केवल मेरी ही मिलकियत है । परन्तु आगे यह समझ बदलेगी और लोग मानने लगेंगे कि प्रत्येक मनुष्यकी सम्पत्तिपर समाजका भी कुछ अधिकार है । इस समय मनुष्य-स्वभावपर जो केवल स्वार्थपरताका सामाज्य हो. Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ रहा है, इसका कारण मनुष्यकी परिस्थिति है। अर्थात् उसके आसपासके रीति-रवाज, विचार और अन्य विश्वास आदि ऐसे हैं कि उनके कारण वह स्वार्थपर बन जाता है । यह नहीं कि मनुष्य-स्वभावका बीज ही ऐसा है। बीजमें कोई दोष नहीं है । कारण अच्छे मिलेते रहें तो सम्भव है कि वर्तमान मनुष्य-स्वभाव बदल जाय । ___ जब मिलकी मानसिक उन्नति हो रही थी तब एक बार ऐसा मौका आया था कि वह सामाजिक और राजकीय विषयोंमें प्रतिबन्ध या बन्धन होनेका पक्षपाती हो जाता और एक बार इससे विरुद्ध, बन्धनका सर्वथा विरोधी बन जाता । इन दोनों मौकों पर मिसेस टेलरने उसे बहुत संभाला और उसका जो भ्रम था, उसे निकाल दिया। एक तो मिल प्रत्येक मनुष्यसे नई बात सीखनेके लिये सदा उद्यत और उत्सुक रहा करता था और दूसरे उसकी यह भी आदत थी कि वह जिस नई बातको-जिस नये मतको-सीखता था उसे पुरानेसे मिला देता था । उसमें ये दो बातें ऐसी थीं कि यदि मिसेस टेलर उसकी लगाम नहीं पकड़ती तो उसके लड़कपनके विचारोंमें आश्चर्य नहीं कि व्यर्थ परिवर्तन हो जाता । वह उसे समझा देती थी कि जुदा जुदा मतोंका जुदा जुदा दृष्टिसे क्या महत्त्व है । इससे नये सीखे या सुने हुए मतोंको वह निरर्थक महत्त्व देनेकी ओर प्रवृत्त नहीं होने पाया और धैर्य के साथ प्रत्येक मतका महत्त्व जुदा जुदा दृष्टिसे -समझने सोचने लगा। अर्थशास्त्रकी रचना और उसका प्रचार । __ मिलने सन् १८४५ में 'अर्थशास्त्र ' नामक ग्रन्थका लिखना प्रारम्भ करके उसे सन् १८४७ में समाप्त कर दिया । इस ग्रन्थकी Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिक्री अच्छी हुई । इससे मालूम होता है कि उस समय लोगोंमें इस प्रकारके ग्रन्थकी चाह थी । पहली बार इसकी एक हजार प्रतियाँ छपी और वे एक ही वर्षके भीतर बिक गई । सन् १८४९ में उसकी इतनी ही प्रतियाँ और छपाई गई और उनके भी बिक जाने पर, सन् १८५२ में, १२५० प्रतियोंका तीसरा संस्करण प्रकाशित किया गया । इस ग्रन्थकी इतनी विक्री होनेका एक कारण यह भी था कि इसमें केवल अर्थशास्त्रके तत्त्वोंका ही विचार नहीं किया गया है; किन्तु यह भी बतलाया गया है कि वे तत्त्व व्यवहारमें किस तरह आ सकते हैं । यह विषय इंग्लैंड, स्काटलैंड आदि जुदे जुदे देशोंके तात्कालिक इतिहासके प्रत्यक्ष उदाहरण देकर इसमें अच्छी तरह समझाया गया है। इसके सिवा इसमें अर्थशास्त्रका बहुत ही व्यापक और व्यावहारिक दृष्टि से विवेचन किया गया है और यह सिद्ध कर दिया गया है कि अर्थशास्त्र सामाजिक शास्त्रकी ही एक आवश्यक शाखा है। इससे लोगोंका यह भ्रम दूर हो गया कि अर्थशास्त्र केवल स्वार्थियों, बनियों और निर्दय लोगोंका शास्त्र है । अतएव वे उसे महत्त्वकी दृष्टिसे देखने लगे। फुटकर लेख, शङ्का-समाधानादि । इसके बाद कुछ दिनोंतक मिलने कोई महत्त्वका ग्रन्थ नहीं लिखा। समाचारपत्रों तथा मासिकपत्रोंके लिए कभी कभी लेख लिखना और कोई किसी विषयमें शङ्कायें लिखकर भेजे तो उसका समाधान लिख भेजना-बस; इन दिनों वह इतना ही लेखनकार्य करता था। __ अध्ययन के विषयमें पूछिये तो इस समय वह इस ओर विशेष दृष्टि रखता था कि संसारमें क्या हो रहा है । सन् २८५१ में जब Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ लुई नेपोलियनकी चालाकी चल गई और फ्रान्समें फिरसे बादशाही शुरू हो गई, उसने एक प्रकारसे यह निश्चयसा कर लिया कि इस समय यूरोपमें स्वाधीनता और सुधारका पैर आगे नहीं बढ़नेका । मिसेस टेलरसे विवाह सम्बन्ध । - सन् १८५१ में मिलके. जीवनक्रममें एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुआ। जिस अनुपमगुणवती स्त्रीके परिचयसे उसने अपनी आशातीत उन्नति की थी उसीके साथ उसका विवाह हो गया। अभीतक और इतने वर्ष तक मिसेस टेलरके साथ उसका केवल मित्रताका नाता था । परन्तु अब वह नाता पहलेकी अपेक्षा और भी घनिष्ठ होगया । इसके पहले उन दोनोंने कभी स्वप्नमें भी न सोचा था कि हमारा परस्परका सम्बन्ध इतना प्रगाढ़ हो जायगा । यद्यपि मिलके लिए इस प्रकारका संयोग बहुत ही लाभकारी हुआ और यह उसे अभीष्ट भी था परन्तु जिस काकतालीय न्यायसे यह अचिन्तनीय योग आया वह यदि न आता तो उसे प्रसन्नता होती। इसके न आनेसे उसकी चाहे जितनी हानि होती वह उसे आनन्दसे स्वीकार करनेके लिए तैयार था। क्योंकि वह मिस्टर टेलरको अन्तःकरणपूर्वक चाहता था-उसपर उसका अतिशय स्नेह था और उसीकी आकस्मिक तथा आकालिक मृत्युसे यह योग आया था। मिसेस टेलरके विषयमें तो कहना ही क्या है ; उसकी तो अपने पतिके विषयमें यथेष्ट आस्था और प्रीति थी ही। अस्तु । मिस्टर टेलरकी मृत्यु जुलाई, सन् १८४९ में, हुई और उसके लगभग दो वर्ष पीछे, सन् १८५२ में यह विवाहसम्बन्ध हो गया । इस अभिनव सम्बन्धसे मिलको जो लाभ हुआ उसका वर्णन नहीं हो सकता । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्नी-वियोग। मिलके भाग्यमें यह सुख केवल साढ़े सात ही वर्पके लिए लिखा था; अधिक नहीं। सन् १८५९ में उसका यह अमूल्य रत्न खो गया। इससे उसे जो हानि हुई वह असह्य थी । पर क्या करे, विवश होकर उसे सहना ही पड़ा । स्त्रीका वियोग होनेपर मिलका विचार हुआ कि मैं सर्वसङ्गका परित्यागकर दुनियाके सब झगड़ोंसे जुदा हो जाऊँ, परन्तु फिर उसने यह सोचकर अपना विचार बदल दिया कि उसकी पत्नी जिस सार्वजनिक सुधारसे प्रेम रखती थी मुझे उसीके विषयमें, अपने एक पहियेवाले रथसे ही, जितना बन सके उतना प्रयत्न करते रहना चाहिए । और यदि वह जीती होती तो मेरे इसी कार्यको पसन्द करती । इस तरह निश्चय करके वह सार्वजनिक सुधारके कामोंमें मन लगाने लगा। संयुक्त ग्रन्थरचना। जब दो मनुष्यों के विचार और कल्पनाओंकी तरङ्गे मिलकर एक हो जाती हैं, जब वे प्रतिदिन प्रत्येक विषयका खूब ऊहापोह करके अनुसन्धान किया करते हैं और जब वे एक ही महत्तत्त्वके आधारसे एक ही प्रकारका सिद्धान्त निश्चित करते हैं, तब इस बातका निश्चय नहीं हो सकता कि अमुक विषयकी कल्पना सबसे पहले किसको सूझी। जिसने उसे अपनी लेखनीसे लिखा हो यदि वह उसीकी कल्पना समझ ली जाय तो भी ठीक नहीं । क्योंकि अकसर ऐसा होता है और यह ठीक भी मालूम होता है कि उन कल्पनाओंको लेखनरूपी शृंखलासे बाँधनेके कार्यमें उन दोनोंमेंसे जिसका प्रयत्न बहुत ही कम होता है उसीका प्रयत्न कल्पनाओंको जन्म देनेके कार्यमें Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिक होता है। ऐसी अवस्थामें किसी संयुक्त-रचनामें निश्चयपूर्वक ऐसा विभाग नहीं किया जा सकता कि अमुक भाग एकका और अमुक दूसरेका है । अतएव मिलके उन ग्रन्थोंके विषयमें जो कि मिसेस टेलरसे मित्रताका और विवाहका सम्बन्ध होनेपर रचे गये हैं यही कहा जा सकता है कि वे दोनोंहीके बनाये हुए हैं-अर्थात् उनमें जो कुछ लिखा गया है वह दोनोंके मस्तकोंकी लगभग बराबर बराबर कृति है। इससे अधिक निश्चित और स्पष्ट विभाग उनका नहीं किया जा सकता । हाँ, कई बातें ऐसी भी हैं जिसके विषयमें इससे कुछ और भी अधिक स्पष्ट कहा जा सकता है । इन दोनाका संयुक्त रचनामें जो कल्पनायें या जो जो अंश अतिशय महत्त्वके हैं, जिनका परिणाम अतिशय फलप्रद हुआ है, और जिनके योगसे उस रचनाकी प्रसिद्धि अधिक हुई है, वे सब कल्पनायें या अंश मिसेस टेलरके मस्तकसे उत्पन्न हुए हैं। अब यदि यह पूछा जाय कि उन कल्पनाओं और अंशोंमें मिलकी कृति कितनी थी ? तो उसका उत्तर यह है कि उसने जिस प्रकार अपने पूर्वके ग्रन्थकारोंके विचार पढ़कर और मननकर उनका अपनी विचारपरम्परासे तादात्म्य कर लिया था, उसी प्रकार उन कल्पनाओं या अंशोंका भी कर डाला था । अर्थात् मिसेस टेलरकी कल्पनाओं या विचारोंको अच्छी तरह समझकर उन्हें सुगम रीतिसे लेखबद्ध करनेका कार्य उसने किया था और इस विषयमें उसकी यही कृति थी । वालपनसे ही उसको इस बात का अनुभव था कि मैं अपने मस्तकको नवीन विचार उत्पन्न करनेकी अपेक्षा दूसरोंके विचारोंको सर्वसाधारणके समझने योग्य सुगम कर देनेका कार्य बहुत सफलताके साथ कर सकता हूँ। उसे खुद ही इस बातका विश्वास न था कि मेरी मस्तक न्यायशास्त्र, आत्मशास्त्र और अर्थशास्त्र आदि Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तात्त्विक ग्रन्थोंको छोड़कर दूसरे विषयके ग्रन्थोंमें कुछ अधिक कर सकता है। परन्तु इस बातको वह जोरके साथ कहता था कि दूसरोंसे किसी विषयके सीखनेकी शक्ति और उत्साह औरोंकी अपेक्षा मुझमें अधिक है। इसी कारण वह समझता था कि कॉलरिज, कारलाईल आदिके गहन भाषामें गूथे हुए बहुमूल्य विचारोंको बालक भी समझ सकें, ऐसी सरलसे सरल और सुगमसे सुगम रीतिसे प्रकाशित करना मेरा कर्तव्य है । हाँ, उनमें जितना अंश भ्रमपूर्ण या गलत हो, उतना निकाल डालना चाहिए। उसे इस प्रकारकी शिक्षा बालपनसे ही मिली थी। इसलिए उक्त विलक्षण-बुद्धि-शालिनी स्त्रीसे जब इसका विचारसमागम बहुत ही घनिष्ठ हुआ तब उसने अपने लिए केवल यही कार्य शेष छोड़ा कि उसके विशाल मस्तकसे निकले हुए तत्त्वोंको समझकर उन्हें अपनी विचार-परम्पराले मिला देना और अपने तथा उसके विचारोंमें जो अन्तर हो उसको पूरा कर देना। __ 'न्यायशास्त्रपद्धति ' नामका ग्रन्थ मिलकी स्वतन्त्र रचना है । उसके रचनेमें उसे मिसेस टेलरसे कुछ भी सहायता नहीं मिली। परन्तु 'अर्थशास्त्रके मूलतत्त्व ' नामक ग्रन्थकी रचनामें मिसेस टेलरने बहुत सहायता की थी। उसके जिस भागका सर्वसाधारणपर बहुत प्रभाव पड़ा उसे मिलने उसीके सुझानेपर लिखा था। इस भागमें मजदूरोंकी भावी स्थितिका विचार किया गया है । अर्थशास्त्रका जो पहला मसविदा तयार किया गया था उसमें यह विषय न लिखा गया था। उसके कहनेसे ही मिलके ध्यानमें यह बात आई थी कि इस विषयके बिना अर्थशास्त्र अधूरा रह जायगा और, प्रायः उसीके मुँहसे निकले हुए शब्दोंमें उसने इस भागको लिखा था। इसके सिवा मिलको इस विषयको अच्छी तरहसे समझनेकी स्फूर्ति भी उसीके सुझानेसे हुई Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थी कि यद्यपि अर्थोत्पादनके नियम सृष्टि के नियमोंपर अवलम्बित हैं तथापि अर्थविभागके नियम ऐसे हैं कि वे मनुष्योंकी इच्छापर अवलम्बित रहते हैं। इन दो प्रकारके नियमोंमें जो महत्त्वका भेद है उसे पहलेके अर्थशास्त्र-प्रणेताओंने जितना स्पष्ट करना चाहिए था उतना नहीं किया था। हो सकता है कि उनकी समझमें ही यह अच्छी तरह न आया हो । क्योंकि उन्होंने इन दोनों नियमोंको एक दूसरेसे मिला कर गड़बड़ मचा दी है और 'अर्थशास्त्रविषयक नियम ' नामक सामान्य नाम देकर छुट्टी पाली है । इन सब बातोंका सारांश यह है कि उक्त ग्रन्थका जितना तात्त्विक भाग है वह तो मिलका है और उन तत्त्वोंकी जो व्यावहारिक योजना दिखलाई गई है वह मिसेस टेलरके मस्तकका प्रसाद है। 'स्वाधीनता ' मिलकी और उसकी स्त्रीकी संयुक्त सन्तान है। वह दोनहीकी संयुक्त कृति है । उसमें एक भी वाक्य ऐसा नहीं है जिसे दोनोंने एकत्र बैठकर कई बार सावधानीसे न पढ़ा हो, अनेक प्रकारसे जिसका विचार न किया हो और जिसके शब्दों तथा भावोंके बारीकसे भी बारीक दोष न निकाल डाले हों। इसीसे यद्यपि इस ग्रन्थका अन्तिम संशोधन नहीं हो पाया है, जैसा कि आगे कहा जायगा, तो भी रचना और भावोंकी दृष्टिसे वह उसके सारे ग्रन्थोंका शिरोमणि समझा जाता है। · स्वाधीनताकी रचनाके विषयमें इतना कहा जा सकता है कि उसमें जो विचारपरम्परा शब्दोंके द्वारा प्रथित हुई है वह सारीकी सारी मिलकी स्त्रीकी है। परन्तु ऐसा नहीं है कि उस विचारपरम्परासे मिलका कोई सम्बन्ध ही न हो। नहीं, उसी विचारपरम्पराका स्रोत मिलके हृदयमें भी बहता था। इसलिए अकसर दोनोंको एक ही साथ. Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकहीसे विचार सूझते थे । परन्तु हमें इस विषयका विचार करते समय यह न भूल जाना चाहिए कि मिलके हृदयमें जो स्रोत बहता था उसका भी कारण एक प्रकारसे उसकी स्त्री ही थी। अभिप्राय यह है कि स्वाधीनतामें जो जो कल्पनायें और जो जो विचार हैं, उनमें मिलका अंश होनेपर भी वे उसकी गुणवती स्त्रीके ही समझने चाहिए। विवाहित जीवनके कार्य । मिलके विवाहित जीवनकी, अर्थात् लगभग ७॥ वर्षकी, जो उल्लेखयोग्य बातें हैं उनका सार यह है:___ विवाह होनेपर मिलने अपने स्वास्थ्यकी रक्षाके लिए इटली, सिसली और ग्रीसमें लगभग छः महीने प्रवास किया । सन् १८५६ में, ईस्ट इंडिया कम्पनीके आफिसमें, उसकी तरक्की हुई और जब सन् १८५८ में कम्पनी टूट गई तब वह नौकरीसे जुदा हो गया। सन् १८५६ से १८५८ तक ये दोनों स्त्री-पुरुष 'स्वाधीनता ' की रचनामें लगे रहे। मिलने इस ग्रन्थको पहले सन् १८५४ में एक छोटेसे निबन्धके रूपमें लिखकर रख छोड़ा था; परन्तु जब वह सन् १८५५ की जनवरीमें रोमका प्रवास कर रहा था तब उसका एकाएक यह विचार हो गया कि उसे बढ़ाकर ग्रन्थका स्वरूप देना चाहिए। उसने इस ग्रन्थकी रचना और संशोधनमें निःसीम परिश्रम किया । इतना परिश्रम उसने किसी और ग्रन्थमें नहीं किया । जैसा कि उसका नियम था उसने इस ग्रन्थको दोबार लिखकर रख छोड़ा और, फिर, समय समयपर निकालकर प्रत्येक वाक्य पढ़कर, अच्छी तरह विचार करके और परस्पर ऊहापोह करके संशोधन किया । इसके बाद उसने निश्चय किया कि सन् १८५८-५९ की हेमन्त ऋतुमें, जब दक्षिण यूरोपका प्रवास Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करूँगा, उसे एक बार फिर अच्छी तरह देख जाऊँगा । परन्तु उसकी यह इच्छा पूर्ण न हो सकी । फ्रान्समें प्रवास करते समय मार्गमें ही उसकी प्यारी स्त्रीका कफ रोगसे देहान्त हो गया । स्वाधीनताका और संशोधन फिर न हो सका। वियोगी जीवन । अपनी अर्धाङ्गिनीके मरनेपर वह अपना जीवन इस प्रकार व्यतीत करने लगा जिससे यह अनुभव होता रहे कि वह मेरे पास ही हैउसका वियोग अधिक कष्टप्रद न हो। जहाँ स्त्रीकी समाधि थी उसीके पास उसने एक झोपड़ी खरीद ली और प्रायः उसीमें वह अपनी समदुःखिनी ( टेलरकी लड़की ) के साथ रहने लगा । यह लड़की ही इस समय उसके सन्तोषका कारण थी । लड़की बड़ी गुणवती और विनयवती थी। मिलको वह किसी प्रकारका कष्ट न होने देती थी। गृह-सम्बन्धिनी सारी व्यवस्था वही करती थी। मिलकी स्वर्गीया पत्नीको जो जो बातें पसन्द थीं, निःसीम भक्तिमान् पुरुषके समान, वह उन्हींके अनुकूल आचरण करता था । इस विषयमें उसकी अवस्था वैसी ही हो गई थी जैसी कि धर्मपर विश्वास करनेवालोंकी हुआ करती है। स्वाधीनताका प्रकाशन । स्त्रीके मरनेपर मिलने अपने सबसे अधिक प्यारे और सबसे अधिक परिश्रमसे बनाये हुए 'स्वाधीनता' नामक ग्रंथको छपाकर प्रकाशित किया । परन्तु वह जैसा रक्खा था वैसेका वैसा प्रकाशित किया । उसमें एक अक्षरका भी परिवर्तन करना उसने उचित न समझा । यद्यपि उसका अन्तिम संशोधन होना बाकी था, और यह Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . बात कभी कभी मिलको खटकती भी थी; परन्तु स्त्रीवियोगकी उदासीनताके कारण उसका यह सिद्धान्त हो गया था कि मैं यदि अब यत्न करूँगा भी, तो भी इस कमीको पूर्ण न कर सकूँगा। स्वाधीनताका समर्पण उसने अपनी स्त्रीको ही किया है । यह समर्पण बहुत विलक्षण है । मिलने उसमें अपनी स्त्रीकी प्रशंसाकी हद कर दी है। स्वाधीनताकी उत्तमता और उपयोगिता । मिलके सब ग्रन्थोंमें, तर्कशास्त्रको छोड़कर, स्वाधीनता ही सबसे अधिक चिरस्थायिनी रचना है। क्योंकि इसमें उसके और उसकी स्त्रीके मानसिक विचारोंका संयोग हुआ है और एक महासिद्धान्तपर मानो यह एक सटीक सूत्र-ग्रन्थ बन गया है । वह महासिद्धान्त यह है,-" अनेक स्वभावोंके मनुष्य उत्पन्न होने देना और उनके स्वभावोंको अनेक तथा परस्पर-विरुद्ध दिशाओंकी ओर बढ़ने देना व्यक्ति और समाज दोनोंके लिए हितकारी है। " समाजमें इस समय जो बनाव-बिगाड़ हो रहे हैं जो क्रान्ति हो रही है-उसकी ओर देखनेसे इन सिद्धान्तोंको और भी अधिक दृढ़ता प्राप्त हो जाती है। जिस समय यह ग्रन्थ प्रकाशित हुआ उस समय वे लोग जिन्हें अन्तर्दृष्टि न थी-जो केवल ऊपर ही ऊपर देखते थे-कहने लगे कि वर्तमान समयमें ऐसे ग्रन्थकी आवश्यकता न थी । परन्तु वास्तवमें इस सिद्धान्तके प्रतिपादनका लोगोंके चित्तपर बड़ा प्रभाव पड़ा और, पड़ना ही चाहिए । क्योंकि इस सिद्धान्तकी नीव बहुत गहरी है । __ जैसे जैसे सुधार होता जाता है तैसे तैसे सामाजिक समता और लोकमतकी प्रबलता बढ़ती जाती है और इससे आचार-विचारकी समताका अत्याचारी जूआँ मानव-जाति के कंधेपर रक्खे जानेका भय Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहता है। अर्थात् यह डर हो जाता है कि कहीं सब लोगोंके आचारविचार एकसे न हो जायें। क्योंकि एकसे आचार-विचारोंका होना मानव-जातिकी उन्नतिको रोकनेवाला है । जो केवल वर्तमान स्थितिका अवलोकन करनेवाले हैं-भविष्यकी बुराई भलाईको नहीं सोच सकते हैं-उन्हें इस प्रकारके भयकी कल्पना होनी आश्चर्य-जनक मालूम होगा। अर्थात् वे यह न समझ सकेंगे कि आचार-विचारकी समता भयप्रद क्यों है ? इससे मनुष्यजातिका क्या अकल्याण होता है ? उन्हें इस विषयमें आश्चर्य होना ही चाहिए । इस समय समाज और संस्थाओंमें बड़ी भारी क्रान्ति हो रही है । इससे यह काल नये नये विचारोंकी उत्पत्तिके लिए अनुकूल है और इस समय लोग नवीन विचारोंके सुननेमें भी पहलेके समान हठ नहीं करते हैं उन्हें शौकसे सुनते हैं। परन्तु यह स्मरण रखना चाहिए कि जब पुराने विचार और विश्वास डगमगाने लगते है और नवीन विचार अस्थिर रहते हैं, उस समय ऐसा होता ही है । इस क्रान्तिकालमें जिन लोगोंके मस्तकोंमें थोड़ी बहुत तेजी रहती है वे अधिकांश प्राचीन विचारोंको तो छोड़ देते हैं और जो शेष विचार रह जाते हैं उनके विषयमें उन्हें यह शङ्का रहती है कि न जाने ये स्थिर रहेंगे या नहीं। इसलिए उन्हें नवीन मतोंके सुननेकी बड़ी उत्कण्ठा रहती है। ऐसी दशामें तो सचमुच ही एकसे आचार-विचारोंके होनेकी भीति नहीं रहती है। परन्तु ऐसी स्थिति चिरकाल तक नहीं रहती। जब तक क्रान्तिकाल रहता है तभी तक रहती है। आगे क्या होता है कि धीरे धीरे किसी एक विचार-समुदायको लोग मानने लगते हैंउसपर दृढ़ विश्वास करने लगते हैं और फिर उस विचारसमुदायके अनुकूल सामाजिक संस्थायें बनने लगती हैं, तथा क्रम Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमसे उसीका मण्डन करनेवाली शिक्षा पाठशालाओंमें भी दी जाने लगती है । परिणाम इसका यह होता है कि जिन प्रमाणोंसे पहले यह निश्चय किया गया था कि उक्त विचार-समूह पुराने विचारोंकी अपेक्षा अच्छा है उन प्रमाणोंको ही लोग एक प्रकारसे भूल जाते हैं। क्योंकि मनुष्य जिन विचारोंको निश्चित और निर्धान्त समझने लगता है उनके प्रमाणोंकी ओर , उसकी सहज ही उपेक्षा होने लगती है। और, ऐसा होते ही पुराने विचारों या मतोंके समान ये नवीन मत भी वेद-वाक्य बन जाते हैं और उन्हींकी सत्ता प्रबल होकर मनुष्यके विचारोंको सङ्कुचित करने लगती है-उनकी बाढ़को रोक देती है । आचार-विचारोंकी समतासे इसी बातका बड़ा भारी भय रहता है। __ अब यह बात विचारणीय है कि इन नवीन विचारोंका भी ऐसा ही अनर्थकर परिणाम होगा या नहीं-अर्थात् ये वेद-वाक्य बन जावेंगे या नहीं ? हमारी समझमें इसके होने न होनेका सारा दारोमदार मनुष्य-जातिकी बुद्धिपर है। यदि इस बातका खयाल रक्खा जायगा कि चाहे कोई नवीन मत हो; चाहे प्राचीन हो, उसपर विना पुष्ट प्रमाण मिले श्रद्धा न करनी चाहिए, तो उक्त अनर्थकारक परिणाम न होगा । और, यदि न रक्खा जायगा-जहाँ तक हम सोच सकते हैं, न रक्खे जानेकी ही सम्भावना अधिक है तो उस समय स्वाधीनतामें प्रतिपादन किये हुए सिद्धान्तका अतिशय उपयोग होगा। स्वाधीनतामें नूतनत्व । यदि पूछा जाय कि इस ग्रन्थमें नयापन क्या है ? तो इसका उत्तर यह है कि जो सिद्धात सर्वज्ञात हैं जिन्हें सब जानते हैं-उन्हींका Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसमें विचार और विवेचनापूर्वक प्रतिपादन किया गया है । बस यही नयापन है । इसमें जिस मुख्य सिद्धान्तका प्रतिपादन किया गया है, मनुष्य समाजमें वह बराबर स्थिर रहा है । ऐसा कभी नहीं हुआ कि मनुष्यजाति उसे सर्वथा भूल गई हो । इतना अवश्य है कि पहलेके अधिकांश समयोंमें थोड़ेसे विचारशील लोगोंके चित्तोंमें ही उसका अस्तित्व रहा है। पेस्टालोजी' नामक प्रसिद्ध ग्रन्थकर्ताका विलक्षण बुद्धि और प्रयत्नसे जो शिक्षा और संस्कार-सम्बन्धी विचार जागृत हुए हैं, उनमें इस सिद्धान्तके स्पष्ट चिह्न दीख पड़ते हैं । हम्बोल्ट साहबने तो इस सिद्धान्तके प्रचारका बीड़ा ही उठाया था। जर्मनीमें भी इस सिद्धान्तके माननेवालोंकी कमी नहीं रही है । उनमेंसे बहुतोंने तो व्यक्तिस्वातन्त्र्यकी और इस मतकी कि-" अपने नैतिक स्वभावको चाहे जिस ओर झुकानेका प्रत्येक मनुष्यको नैसर्गिक अधिकार है " एक प्रकारसे अतिशयोक्ति ही कर डाली थी। इंग्लैंडमें यदि देखा जाय तो स्वाधीनताके प्रकाशित होनेके पहले विलि. यम मेकालेने 'व्यक्तिमाहाम्त्य' पर कई निबन्ध लिखे थे। और, अमेरिकामें तो वॉरन नामके एक पुरुषने 'व्यक्तिसाम्राज्य' की नीवपर एक नया पन्थ ही स्थापित किया था। उसने बहुतसे अनुयायी भी बना लिये थे । वह अपने अनुयायियोंका एक जुदा गाँव ही बसाना चाहता था, परन्तु मालूम नहीं हुआ कि यह पन्थ रहा या नष्ट हो गया । मतलब यह कि मिलका वह सिद्धान्त, जिसका कि उसने स्वाधीनतामें प्रतिपादन किया है, बिलकुल नया नहीं है। उसके पहलेके विद्वान् भी उसके विषयमें विचार करते आये हैं । परन्तु मिलकी विवेचन-पद्धति ऐसी उत्तम है-उसने इस सिद्धान्तको ऐसी उत्तमतासे समझाया है--कि उसकी शतमुखसे प्रशंसा करनी पड़ती है । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ निबन्ध और दो ग्रन्थ । थोड़े दिन बाद मिलने ' पारलियामेंटके सुधारसम्बधी विचार " नामक निबन्ध लिखकर प्रकाशित किया। इसमें उसने इस बातपर विचार किया है कि गुप्त रीतिसे मत (वोट) देनेकी चाल अच्छी नहीं है और जिन्हें थोड़े वोट मिले ऐसे भी कुछ प्रतिनिधि पारलियामेंटमें रहने चाहिए। इसके पीछे उसने मासिक पत्रोंमें कुछ निबन्ध लिखे और अपने पहलेके लिखे हुए कुछ निबन्धोंको पुस्तकाकार प्रकाशित कराया । फिर १८६० और १८६१ में उसने दो ग्रन्थ और तैयार किये । पहला 'प्रतिनिधिसत्ताक राज्यव्यवस्था ' और दूसरा 'स्त्रियोंकी परतन्त्रता'। पहला ग्रन्थ तत्काल ही छपकर प्रकाशित हो गया । उसमें इस नवीन मतका प्रतिपादन किया गया है कि प्रतिनिधियोंकी विराट्र सभामें कानून बनानेका योग्यता बिलकुल नहीं होती है। इस कामके लिए चुने हुए राजकार्य-चतुर विद्वानोंका एक — कमीशन ' रहना चाहिए और उनके निर्माण किये हुए कानूनोंको पास करने न करनेका काम प्रतिनिधि-सभाको देना चाहिए। दूसरा ग्रन्थ तत्काल ही प्रकाशित न होकर सन् १८६९ में प्रकाशित हुआ । क्योंकि पहले उसकी इच्छा थी कि उसमें समय समयपर संशोधन करके और उसे विशेष उपयोगी बनाकर प्रसिद्ध करूँगा । परन्तु पीछे वह वैसा न कर सका । इस ग्रन्थमें स्त्रीजातिकी परतन्त्रताका वड़ा ही हृदयद्रावक चित्र खींचा गया है आर यह बतलाया गया है कि स्त्री-जाति पुरुषजातिसे शारीरिक, मानसिक आदि किसी भी शक्तिमें न्यून नहीं है। उसमें हर तरहके श्रेष्ठसे श्रेष्ठ कार्य करनेकी योग्यता है । परन्तु पुरुषोंने अपनी चिरकालीन स्वार्थपरताके कारण उसे केवल अपनी सुखसामग्री बना रक्खा है । पुरुषोंको अब सदयहृदय होकर इस स्वार्थ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० परताको और इस अविचारितरम्य समझको छोड़कर कि स्त्रीजातिको दासी बनाये रखनेमें ही संसारका कल्याण है, स्त्रियों को स्वाधीनताकी स्वर्गीय सुधाका दान करना चाहिए। इस ग्रन्थमें भी जो गम्भीरता और मर्मभेदकता है वह सब मिलकी गुणवती स्त्रीका प्रसाद है। उपयोगिता तत्त्व। इसके बाद मिलने — उपयोगिता तत्व ' नामक ग्रन्थको छपवाकर प्रकाशित किया। उसने अपनी स्त्रीकी जीवितावस्थामें इस विषयके जो लेख लिखकर रख छोड़े थे उन्हींको एकत्र करके और उन्हींमें कुछ संशोधन, परिवर्तन और परिवर्धन करके इस ग्रन्थको तैयार किया। अमेरिकाका युद्ध । उपयोगितातत्त्वके छपनके पहले ही अमेरिकाका पारस्परिक युद्ध शुरू हो गया था । वहाँके दक्षिण और उत्तरके राज्योंमें गुलामोंके सम्बन्धमें बहुत दिनोंसे कलह हो रहा था । यह बात मिलको अच्छी तरह मालूम थी। इस लिए उसने तत्काल ही ताड़ लिया कि यह युद्ध राज्योंके बीचमें नहीं, किन्तु स्वाधीनता और गुलामीके बीचमें ठना है। परन्तु इंग्लैंडके ऊपरा ऊपरी दृष्टिवाले राजनीतिज्ञोंके खयालमें यह बात नहीं आई। उन्होंने यह समझ लिया कि गुलामोंका व्यापार करनेवाले दक्षिणी राज्य इस विषयमें निरपराध इसीलिए वे उत्तरीय राज्योंके विरुद्ध लेख लिखने तथा व्याख्यानादि भी देने लगे। उस समय इस बेसमझीको दूर करनेके लिए मिलने बहुत प्रयत्न किया और उसमें उसे थोड़ी बहुत सफलता भी प्राप्त हुई। हेमिल्टनके तत्त्वशास्त्रकी परीक्षा । इसके कुछ समय पीछे मिलने ' हेमिल्टनके तत्त्वशास्त्रकी परीक्षा' नामक ग्रन्थकी रचना की। उस समय सर विलियम हेमिल्टन एक Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसिद्ध तत्त्वज्ञ समझा जाता था । सन् १८६० और १८६१ में उसके तत्त्वशास्त्र-विषयक व्याख्यान छपकर प्रकाशित हुए। इन्हीं व्याख्यानोंकी समालोचना करनेके लिए यह ग्रन्थ लिखा गया। इस समय तत्त्वज्ञोंके दो दल हो रहे थे-एक उपजतबुद्धिवादी और दूसरा अनुभववादी । इनमेंसे हेमिल्टन पहले दलका और मिल दूसरे दलका अनुयायी था। इन दोनों मतोंमें जो भेद है वह केवल काल्पनिक नहीं है । क्योंकि पहला मत सुधार और मानवीय उन्नतिके प्रतिकूल है और दूसरा अनुकूल है । जो बातें रूढ़ हो जाती है उनके विषयमें मनुष्योंका विश्वास बहुत ही दृढ़ हो जाता है। उन बातोंका उन्हें यहाँ तक अभिमान हो जाता है कि वे उनके विरुद्ध किसी कार्यके करनेको मनुष्य-स्वभावके विरुद्ध शैतानोंका काम कहते हैं। इस प्रकारके विचारोंपर अनुभववादियोंका शस्त्र खूब चलता है । इनका सिद्धान्त है कि ज्ञान, विश्वास, मनोभाव आदि सबकी रचना अनुभव या अभ्याससे होती है। अभिप्राय यह है कि जिन जिन बातोंको हम लड़कपनसे अथवा बहुत समयसे अच्छी या बुरी समझने और मानने लगते हैं, अभ्यासके कारण हमें वही अच्छी या बुरी मालूम होने लगती हैं। इसलिए अनुभववादी कहते हैं कि इस प्रकारके मनोभाव अभ्याससे बदले जा सकते हैं और फिर इच्छित सुधार किया जा सकता है। उपजतबुद्धिवादी इस बातको बिलकुल कहीं मानते। उनका मत है कि मनोभाव आप ही आप उत्पन्न होते हैं, उनके होनेमें अनुभव या अभ्या-- सकी अपेक्षा नहीं है। इसलिए वे किसी प्रकार बदले नहीं जा सकते। इससे उपजत-बुद्धि के विरुद्ध सुधार नहीं किया जा सकता। उसके करनेका यत्न करना शैतानोंका काम है। इससे पाठक समझ सकते हैं कि मिलको हेमिल्टनके विरुद्ध क्यों लेखनी उठानी पड़ी। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होमल्टनके तत्त्वशास्त्रका पर्यवसान दैववादपर ही होता है-अन्त में वह दैववादपर ही ठहरता है और यह मनुष्य-समाजको आलसी बनानेवाला है। पहले इस निरुपयोगी तत्त्वके विरुद्ध दो ग्रन्थ-प्रकाशित हो चुके थे। एक तो मिलके पिता जेम्स मिलका "मनका पृथक्करण" और दूसरा बेन साहबका 'मन' । अब मिलके इस तीसरे ग्रन्थके प्रकाशित होनेसे अनुभववादियोंका बल बहुत बढ़ गया । हेमिल्टनके दैववादको मिलकी निष्पक्ष किन्तु तेजस्विनी लेखनीने ढीला कर दिया। इस विषयमें उसे खासी सफलता हुई । आगस्ट काम्टीके मतकी समालोचना । फ्रान्समें 'आगस्ट काम्टी' नामका एक तत्त्ववेत्ता हो गया है । इंग्लैंडकी प्रजा पहले इसके ग्रन्थों या सिद्धान्तोंसे बिलकुल अनभिज्ञ थी । परन्तु इसके बहुतसे सिद्धान्त अच्छे और उपयोगी थे । इस लिए मिलने अपने लेखोंमें विशेष करके ' तर्कशास्त्र ' नामक ग्रंथों उनकी खूब ही प्रशंसा की थी। इस तरह मिलके ही द्वारा इंग्लैंडमें उसकी प्रसिद्धि हुई थी। यह प्रसिद्धि यहाँतक हुई कि लोग उसे उस युगका प्रख्यात तत्त्ववेत्ता समझने लगे और इस श्रद्धाके वशवर्ती होकर बहुतसे लोग उसके अच्छे सिद्धान्तोंके साथ साथ भ्रमपूर्ण और अग्राह्य सिद्धान्तोंको भी मानने लगे । मिलने उस समय, जब कि काम्टी इंग्लैंडमें अपरचित था, उसके गुणोंको प्रकाशित करना और दोषोंके विषयमें मौन रहना अच्छा समझा था। परन्तु अब, जब उसके अग्राह्य मतोंका भी ग्रहण होने लगा, उससे चुप नहीं रहा गया और जिस तरह एक दिन काम्टीकी स्तुति करनेका भार उसने लिया था, उसी तरह अब उसकी योग्य समालोचना करनेका भार भी उसीको उठाना पड़ा। " वेस्ट मिनिस्टर रिव्यू ' में Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३ उसने इस विषयमें दो निबंध लिखे और उनमें काम्टीके सिद्धान्तोंकी बहुत ही पाण्डित्यपूर्ण समालोचना की। इसमें उसने काम्टीके सिद्धान्तोंका इतिहास, उनका महत्त्व, उनकी उत्तमता-अनुत्तमता आदि बातोंका पक्षपातरहित होकर प्रतिपादन किया । कुछ समय पीछे ये निबन्ध पुस्तकाकार भी प्रकाशित किये गये । तीन ग्रन्थोंके सस्ते संस्करण । इंग्लैंडके मजदूरोंने मिलके कई ग्रन्थोंपर मुग्ध होकर उससे प्रार्थना की कि आप अपने अमुक अमुक ग्रन्थोंको जितने सस्ते हो सकें उतने सस्ते करनेकी कृपा कीजिए । तदनुसार उसने सन् १८६५ में अपने ' अर्थशास्त्र,' 'प्रतिनिधि-सत्ताक राज्यपद्धति' और 'स्वाधीनता' इन तीन ग्रन्थोंके सस्ते संस्करण छपाकर प्रकाशित किये । ये तीनों ही ग्रन्थ मजदूरोंकी समझमें आने योग्य सुगम और उपयोगी थे । इन आवृत्तियोंके मूल्यमें मिलने बिलकुल मुनाफा नहीं रक्खा । सब ग्रन्थ लागतके दामोंपर बेचे गये । यद्यपि इस कार्यमें आर्थिक दृष्टिसे मिलको बहुतसी हानि उठानी पड़ी; परन्तु इन सस्ते संस्करणोंके प्रकाशित होनेसे उक्त ग्रन्थोंकी इतनी प्रसिद्धि हुई कि आगे उक्त ग्रन्थोंके प्रकाशक उसे अपने मुनाफेका कुछ हिस्सा खुशीसे देने लगे। पारलियामेंटकी मेम्बरी। वेस्ट मिनिस्टरके लोगोंने, सन् १८६५ में, मिलसे प्रार्थना की कि आप हमारी ओरसे पारलियामेंटकी मेम्बरीकी उम्मेदवारी कीजिए। ___ इसके दसवर्ष पहले आयलेंडकी ओरसे भी इसी प्रकारका आमंत्रण आया था। क्योंकि उस समय वहाँकी भूमिके सम्बन्धमें एक • उलझनका प्रश्न खड़ा हुआ था । उसके विषयमें मिलका मत उनके Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ बिलकुल अनुकूल था और वहाँके अगुआ उसे पसन्द भी करते थे। परन्तु उस समय मिल इस आमंत्रणको स्वीकार न कर सका था। क्योंकि उस समय वह ईस्ट इण्डिया कम्पनीकी नौकरी करता था । उसके पास इस कार्यके लिए समय न था। ___ जब सन् १८५८ में मिल नौकरीसे अलग हो गया तब उसके मित्रोंकी प्रबल इच्छा हुई कि वह पारलियामेंटमें प्रवेश करे । परन्तु उसका पारलियामेंटका सभासद होना एक प्रकारसे असम्भव ही था। क्योंकि एक तो उसके विचार और विश्वास लोगोंको बिलकुल पसन्द न थे और दूसरे वह किसी पक्षका आज्ञाकारी न होना चाहता था । अब रहा बहुतसा धन खर्च करके इस कार्यको सिद्ध करना. सो इसे वह अन्याय समझता था-इससे उसे बहुत ही घृणा थी। उसका यह मत था कि चुनावके कार्यमें जो कुछ उचित खर्च हो उसे या तो सरकारको करना चाहिए या स्थानीय म्यूनिसिपालटियोंको । उम्मेदवारोंके जो पृष्ठपोषक या सहायक हों उन्हें चाहिए कि वे विना कुछ लिये दिये उनके गुणोंको चुननेवालोंके सामने प्रकट करें अथवा जरूरत हो तो इसके लिए वे अपनी खुशीसे कुछ चन्दा एकट्ठा कर लें । परन्तु यह हरगिज न होना चाहिए कि सार्वजनिक कार्योंका भार लेनेके लिए किसीको अपनी गाँठके पैसे खर्च करने पड़ें । ऐसा करना एक प्रकारसे सभासदीकी खरीद करना है । जो मनुष्य ऐसी खरीद करता है वह मानो यह प्रकट करता है कि मैं सार्वजनिक बुद्धिसे नहीं, अपने किसी स्वार्थसे सभासद होता हूँ। इस खरीदीकी पद्धतिसे सबसे अधिक हानि यह होती है कि धनवान् किन्तु गुणहीन उम्मेदवार तो विजयी हो जाते हैं, पर गुणवान् किन्तु धनहीन अथवा धन खर्च न करनेवाले पीछे रह जाते हैं। और इससे Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कानून बनानेवाली सभा जितनी जोरदार होनी चाहिए उतनी नहीं हो पाती । वह अकसर कहा करता था कि धन खर्च करके एम० पी० बननेकी अपेक्षा तो मेरे लिए यही अच्छा है कि ग्रन्थ लिखकर लोगोंका उपकार करता रहूँ । मिलके इस प्रकारके विचारोंसे उसके मित्रोंकी इच्छा बहुत दिनों तक पूर्ण न हुई । ___ परन्तु अबकी दफे ( सन् १८६५ में ) वेस्ट मिनिस्टरवाले उसके पीछे पड़ गये । वे उसपर मुग्ध होकर यहाँ तक कहने लगे कि आपका नाम बगैरह सब हमीं सूचित करेंगे, आपको इसके लिए कोई प्रयत्न न करना पड़ेगा। तब मिलने इस खयालसे कि पीछेके लिए कोई झंझट न रह जाय अपने जो जो विचार और सिद्धान्त थे. उन्हें साफ साफ शब्दोंमें लिखकर दे दिये और यह भी लिख दिया कि मैं न तो वोट एकडे करने और खर्च करनेके प्रपंचमें पढूंगा और न इस बातका ही वचन दे सकता हूँ कि सभासद होनेपर मैं स्थानीय बातोंके विषयमें कुछ प्रयत्न करूँगा। उन लोगोंके कई प्रश्नोंके उत्तर देते हुए उसने एक जगह अपना यह मत भी प्रकट कर दिया कि पुरुषोंके समान स्त्रियोंको भी वोट देनेका और सभासद होनेका अधिकार होना चाहिए। चुनाव करनेवालोंके सामने इस तरह स्पष्टतासे अपने मत प्रकट करना मिलका ही काम था। इसके पहले किसी भी उम्मेदवारने ऐसी निस्पृहता प्रदर्शित न की थी । इतनेपर भी वह वेस्ट मिनिस्टरकी ओरसे पारलियामेंटका मेंबर हो गया। उस समय किसीको स्वप्नमें भी यह खयाल नहीं था कि ऐसा स्पष्टवक्ता राष्ट्रीय-सभाका सभासद हो जायगा । इस विषयमें एक प्रसिद्ध ग्रन्थकर्ताने तो यहाँ तक कह Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ डाला कि इतना स्पष्टवादी और निस्पृह बनकर यदि सर्वशक्तिमान् ईश्वर भी चाहता तो इंग्लैंडकी पारलियामेंटका मेम्बर न बन सकता ! ___ इस चुनावके समय मत देनेवालोंकी ओरसे जो जो प्रश्न होते थे, उनके वह निर्भय होकर खूब साफ साफ उत्तर देता था । यद्यपि इसके उत्तर लोगोंको रुचिकर नहीं हुए, तो भी उसकी स्पष्टवादिताका उनपर आशातीत प्रभाव पड़ा और इससे उसे बहुत लाभ हुआ। इसका उदाहरण सुनिए; उसने अपने किसी एक निबन्धमें पहले कभी लिखा था कि "यद्यपि झूठ बोलनेमें इंग्लैंडके मजदूरोंको औरोंकी अपेक्षा कुछ अधिक लजा मालूम होती है तथापि वे बहुधा झूठ बोलनेवाले ही होते हैं !" जब वह मजदूरोंकी एक सभामें व्याख्यान दे रहा था, तब किसीने उसके निबन्धका उक्त अंश छपाकर सारे मजदूरोंमें बाँट दिया । उसे पढ़कर किसी मजदूरने पूछा कि क्या आपने अपने किसी निबन्धमें ऐसा लिखा था ? मिलने किसी प्रकारकी टालटूल किये बिना तत्काल ही उत्तर दिया-हाँ मेरा ऐसा ही विश्वास है और उसीको मैंने अपने निबन्धमें लिखा है । यह सुनते ही श्रोताओंने एक साथ अगणित तालियोंका शब्द किया। उस समय उम्मेदवार अकसर यह चाल चला करते थे कि जो बात मत देनेवालोंके अनुकूल न होती थी-उन्हें अप्रसन्न करनेवाली होती थी-उसके विषयमें वे लुढुकता हुआ या दुटप्पा उत्तर देते थे। जब मजदूरोंने देखा कि मिल उस चालका आदमी नहीं है-वह साफ साफ कहनेवाला है तब वे चिढ़नेके बदले उलटा उसके भक्त हो गये । व्याख्यान समाप्त होनेपर उनमेंसे एकने कहा-" हम यह कभी नहीं चाहते हैं कि कोई हमारे दोष न प्रकट करे । हम यथार्थवक्ता मित्र चाहते हैं, खुशमसखरे और चापलूसी Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करनेवाले नहीं। हम आपके कृतज्ञ हैं जो आपने हमारे विषयमें अपने विचार साफ साफ प्रकट कर दिये ।" यह सुनकर लोगोंने फिर तालियाँ बजाकर प्रसन्नता प्रकट की। इस प्रकार विजयी होकर मिल पारलियामेंटका मेम्बर हो गया और लगातार तीन वर्षतक इस पदपर बना रहा । इन तीन वर्षोंमें जो पारलियामेंटके सुधारका बिल पेश हुआ उसका खूब आन्दोलन हुआ और बहुत वादविवादके पश्चात् अन्तमें वह पास हो गया। इस अरसे में पारलियामेंटमें इसके बहुतसे व्याख्यान हुए । यद्यपि इसकी वक्तृत्त्व-शक्ति बहुत अच्छी न थी तो भी वह जो कुछ कहता था, सप्रमाण कहता था । उसकी दलीलें बहुत मजबूत होती थीं। ग्लैडस्टन साहबने उसकी दलीलोंकी बहुत प्रराँसा की है । सुधारके कानूनका जा मसविदा उक्त ग्लैडस्टन साहबने पेश किया था उसपर उसके बड़े मार्मिक व्याख्यान हुए थे और उनका असर भी अच्छा पड़ा था। फाँसीका सजा बिलकुल उठा देना ठीक नहीं है। दूसरोंके जहाजोंपर भी बरामद हुआ शत्रुका माल जप्त करना चाहिए। व्यक्तिके गुणोंको देखकर मत देनेका अधिकार देना चाहिए-धन वैभव देखकर नहीं। इत्यादि विषयोंपर जो उसके कई व्याख्यान हुए वे उस समयके सुधारकोंको भी पसन्द न आये। जिस सुधारके विषयमें बहुत कम लोग कुछ कहनेके लिए तैयार होते थे, अर्थात् जो पक्ष अच्छा होकर भी बलहीन होता था, मिलका कुछ ऐसा ही स्वभाव था कि वह उसी पक्षको लेता था और उसीका खूब साफ साफ शब्दोंमें प्रतिपादन करता था। जिस समय आयलैंडके एक सभासदने आयलैंडके अनुकूल एक बिल पेश किया, उस समय उसका अनुमोदन सबसे पहले मिलहीने किया । यह बिल इंग्लैंडके और स्काटलैंडके लोगों को इतना Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ नापसंद था कि उनमेंसे केवल चार ही सभासदोंने उसके अनुकूल मत दिया था। मिलका पाँचवाँ मत था। मिलने अपने ' प्रतिनिधिसत्ताक-राज्यपद्धति ' नामक ग्रन्थमें एक जगह लिखा था कि " टोरीपक्षको हमेशासे ऐसे ही ( मूर्ख ) लोग मिलते रहे हैं और आगे भी ऐसे ही मिलते रहेंगे । अर्थात् यह हमेशा महामूरोंका ही पक्ष रहेगा । " एक बार टोरीपक्षके एक मुखियाने मिलके उक्त वाक्योंका उल्लेख करनेका प्रयत्न किया। परन्तु जनावको लेनेके देने पड़ गये । मिलका निरुत्तर होना तो दूर रहा उस दिन टोरीपक्षकी ऐसी मिट्टी पलीद की गई कि उस दिनसे उसका नाम ही ' मूढ़पक्ष ' पड़ गया और वह बहुत वर्षों तक प्रचलित रहा । जिस समय ग्लैडस्टन साहबका सुधारसम्बन्धी बिल पेश हुआ उस समय मिलने — मजदूरोंको मत देनेका अधिकार मिलना चाहिए । इस विषयमें एक बड़ा ही जोशीला व्याख्यान दिया । इसके कुछ दिन पीछे मजदूरोंने निश्चय किया कि इस विषयमें लंदनके 'हाइड पार्क' नामक विशाल चौकमें एक विराट् सभा करनी चाहिए। उस समय टोरी-प्रधानमंडल अधिकारारूढ़ था । उसने पुलिसके द्वारा इस बातका प्रबन्ध किया कि यह सभा न होने पावे । इससे मजदूर लोग चिढ़ गये और पुलिससे उलझ पड़े । मारपीट शुरू हो गई । बहुतसे निरपराधियोंको मार खानी पड़ी। उस समय तो सभा न होने पाई, परन्तु मजदूरोंने कुपित होकर यह निश्चय किया कि अस्त्र-शस्त्रसे सुसज्जित होकर फिर सभा करनी चाहिए। उधर प्रधानमंडलने फौजी अफसरको आज्ञा दी कि यह सभा हरगिज न होने पावे। लोगोंको भय हो गया कि अब शान्ति Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहना कठिन है । कोई न कोई भयङ्कर अनर्थ हुए विना न रहेगा। मिल पारलियामेंटमें मजदूर पक्षकी ओरसे बोला करते थे। इसलिए उनसे प्रार्थना की गई कि आप मध्यस्थ बनकर इस उपद्रवको शान्त करा देवें-मजदूरोंको समझा देवें-कि वे अपनी सभा हाइड पार्कमें नहीं, कहीं अन्यत्र करनेका प्रयत्न करें। उसके साथ साथ 'राडिकल ' पक्षके और भी कई सभासदोंसे इस झगड़ेमें मध्यस्थ बननेके लिए कहा गया । यद्यपि मजदूरोंके जो अगुए थे वे समझदार थे इसलिए आज्ञाके विरुद्ध चलना उन्हें पसन्द न था; परन्तु सामान्य मजदूर इतने चिढ़ गये थे कि उन्हें उस विषयमें किसीकी बात सुनना भी पसन्द न था। ऐसे कठिन समयमें मिलने उनसे जाकर कहा“भाइयो, सरकारी फौजके साथ युद्ध करना दो अवस्थाओंमें ठीक हो सकता है-एक तो बलवा करने योग्य राज्यकी अव्यवस्था हो और दूसरे अपने पास कमसे कम इतनी तयारी हो कि बलवा किया जाय और उसमें विजय प्राप्त हो । यदि तुम समझो कि राज्यकी व्यवस्था ठीक नहीं है और हमारी तयारी भी पूरी पूरी है तो बेशक बलवा कर डालो; मैं नहीं रोकता ।" यह मार्मिक वचन सुनकर मजदूरोंकी बुद्धि ठिकाने आगई । उन्होंने कानूनके विरुद्ध चलनेका विचार छोड़ दिया । उस समय मिलको छोड़कर मजदूरोंपर जिनका कुछ वजन पड़ता था ऐसे केवल दो ही मनुष्य थे--एक ग्लैडस्टन और दूसरा ब्राइट । परन्तु ग्लैडस्टन लिबरल पक्षका अगुआ था, और लिबरल पक्ष उस समय अधिकारच्युत था । इसलिए वह तो कुछ कह नहीं सकता था. रहा ब्राइट सो वह उस समय लन्दनमें न था। . जब आयलैंडका भूमिसम्बन्धी बिल पारलियामेंटमें दो तीन बार पेश होनेपर भी पास नहीं हुआ, तब आयलैंडमें बड़ी गड़बड़ मच Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० गई । आयरिश लोग कहने लगे कि हम इंग्लैंडसे बिलकुल जुदा होंगे। ऐसे लक्षण देख पड़ने लगे कि, यदि जमींदारों और किसानोंके सम्बन्धमें सुधार न किये जायेंगे तो वह देश किसीकी कुछ सुनेगा ही नहीं । यह प्रसंग देखकर मिलने, सन् १८६८ में,, ' इंग्लैंड और आयलैंड ' नामका एक निबन्ध लिखकर प्रकाशित किया । यह निबन्ध बहुत ही स्पष्टता और निर्मीकतासे लिखा गया । उसमें मुख्यतासे यह प्रतिपादन किया कि-" यह कोई नहीं चाहता कि इन दोनों देशोंका सम्बन्ध टूट जाय । इस समय जो किसान हैं उनसे जमीनका महसूल क्या लिया जायगा, यह सदाके लिए ठहरा देना चाहिए और उन्हें स्थायी किसान बना देना चाहिए । इस तरह जमीदारों और किसानोंका झगड़ा मिटा देना चाहिए।" यह निबन्ध आयलैंडके लोगोंको छोड़कर और किसीको पसन्द न आया। उस समय उसका कुछ भी फल न हुआ । मिलने भी उसे तात्कालिक फलके लिए न लिखा था। उसने उसे भविष्यकी आशा रखकर इस कहावतके अनुसार लिखा था कि “ यदि हकसे बहुत माँगा जाय तो थोड़ा तो मिलता ही है । " हुआ भी यही । सन् १८७० में जो ग्लैडस्टन साहबका इसी विषयसम्बन्धी बिल पास हुआ उसका कारण अनेक अंशोंमें यही निबन्ध था। अँगरेजलोगोंका प्रायः यह स्वभावसा पड़ गया है कि वे मध्यमश्रेणीके नियमको ही जल्दी मंजूर करते हैं। उन्हें मालूम होना चाहिए कि यह नियम मध्यम श्रेणीका है । जब तक उनके सामने कोई बहुत उच्च श्रेणीकी बात नहीं लाई जाती तबतक उस विषयकी चाहे जितनी सामान्य बात क्यों न हो उन्हें बड़ी दिखती है । इसलिए यदि किसी विषयमें उनकी अनुकूलताकी जरूरत हो, तो उनके सामने पहले उसकी अपेक्षा अधिक बड़े विषयका Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हौआ खड़ा करना चाहिए। ऐसा करनेसे वे अपनी स्वाभाविक चिढ़को तो उस बड़े हौएपर निकाल लेगें और सामान्य विषयको चुपकेसे स्वीकार कर लेंगे। आयलैंडके भूमि-सम्बन्धी प्रश्नके विषयमें भी यही बात हुई । मिलने अपने निबन्धमें जो बात लिखी थी, वह तो अँगरेजोंको बहुत बड़ी मालूम हुई, परन्तु उसकी अपेक्षा किचित् ही छोटी ग्लैडस्टनके बिलकी बात उन्हें सामान्य मालूम पड़ी । इसलिए उन्होंने उसे सन् १८७० में स्वीकार कर लिया। ___ इसी अरसेमें मिलने एक और भी सार्वजनिक कार्य किया और इससे उसकी बहुत कीर्ति हुई । जमैका नामका एक टापू अँगरेजोंके अधिकारमें है । वहाँके निवासी हवशी कहलाते हैं । उन्होंने सरकारी जुल्मसे तंग आकर बलवा कर दिया और उसकी सजा उन्हें यह दी गई कि वहाँके गवर्नरसाहबने उनमेंसे सैकड़ों निरपराधी मनुष्योंको अपनी सेनाके द्वारा तमाम करवा दिया ! इतनेहीसे इस अन्यायकी समाप्ति न हुई। बलवा शान्त हो जानेपर पुरुष ही नहीं, अबला स्त्रियाँ तक चाबुकोंसे पिटवाई गईं और जिन इंग्लैंड निवासियोंने पहले गुलामी उठा देनेका पक्ष लिया था उन्होंने गवर्नरसाहबके इस पाशविक अत्याचारका अनुमोदन किया। इसके कुछ दिन पीछे जब कुछ लोगोंको इस नृशंस कृत्यसे दुःख हुआ तब उन्होंने 'जमैका कमेटी ' नामकी एक सभा स्थापित की। इसमें हर्बर्ट स्पेन्सर, ब्राईट आदि बहुतसे दयालु पुरुष शामिल हुए। मिलने भी इस संस्थामें योग देना उचित समझा । इस प्रयत्नका उद्देश केवल यही न था कि गरीब प्रजाको न्याय मिले किन्तु उसके साथ एक महत्त्वका काम यह भी था कि जो उपनिवेश ब्रिटिश सरकारके अधिकारमें हैं उनपर न्यायपूर्वक राज्य किया जाय, या वहाँके Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ गवर्नरोंकी इच्छानुसार नादिरशाही ही चलने दी जाय । पहले इस कमेटीका सभापति एक दूसरा पुरुष था; परन्तु उसे कमेटीका यह विचार पसन्द न आया कि जमैकाके गवर्नरपर मुकद्दमा दायर किया जाय, इसलिए वह जुदा हो गया और मिलको एकाएक कमेटीका सभापति बनना बड़ा । बस फिर क्या था, पारलियामेंटमें जो गवनरके पक्षके सभासद थे वे उसको लक्ष्य करके ऐसे ऐसे प्रश्न करने लगे जिससे वह चिढ़े। परंतु वह इसकी कुछ भी परवा न करता था और शान्तिसे उनका जैसा चाहिए वैसा उत्तर देता था। 'जमैका कमेटी'ने जुदा जुदा कचहरियोंमें बहुत कुछ प्रयत्न किया, परन्तु अन्तिम न्याय ज्यूरियोंके फैसलेपर अवलम्बित था और ज्यूरी मध्यम श्रेणीके लोगोंमेंसे चने गये थे-वे निष्पक्ष न थे। इसलिए उसे जैसी चाहिए वैसी सफलता न हुई। लोगोंकी साधारण समझ यही थी कि बेचारी हबशी प्रजापर अपने यहाँके गोरे गवर्नरने यदि जुल्म भी किया हो, तो भी उसपर फौजदारी मुकद्दमा चलाना ठीक नहीं है । परन्तु मिलने अपने प्रयत्नसे यह सिद्ध करके दिखला दिया कि इंग्लैंडमें ऐसे लोगोंकी भी कमी नहीं है जो दुर्बल और अनाथ प्रजापर भी किये हुए अन्यायको नहीं सह सकते हैं और इस तरह उसने अपने देशकी बहुत कुछ लाज रख ली। इस मामले में यद्यपि ज्यूरियोंने गवर्नर और उसके आज्ञाकारी साथियोंको अपराधी नहीं ठहराया; परन्तु चीफ जस्टिस ( न्यायाधीश ) ने जब ज्यूरियोंके सामने सारे सुबूतोंका सार पेश किया, तब साफ साफ कह दिया कि वास्तवमें कानून वैसा ही है जैसा जमैका-कमेटी ( वादी ) कहती है । यद्यपि गवर्नर साहबको कोई प्रत्यक्ष दंड नहीं मिला-इलजामसे वह बरी हो गया तो भी इस बातका अनुभव उसे अच्छी तरहसे हो Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ गया कि इस मामलेमें जो तकलीफें और खर्च मुझे उठाना पड़ा है, वह किसी सजासे कम नहीं है । __ जिस समय यह मुकद्दमा चल रहा था, उस समय मिलके नामसे बहुतसे गुमनाम पत्र आया करते थे। किसीमें गालियाँ लिखी रहती थीं, किसीमें अश्लील चित्र बने रहते थे, किसीमें असभ्य उपहासकी बातें लिखी रहती थीं और किसी किसी में यहाँतक धमकी लिखी रहती थी कि तुझे जानसे मार डालेंगे ! ये पत्र इस बातक निदर्शक थे कि इंग्लैंडमें जो बहुतसे नरपशु रहते हैं, उन्हें जमैकाके जुल्मका कितना पक्ष है । इसलिए मिलने अपने संग्रहमें उनमेंसे बहुतसे पत्र रख छोड़े। __ पारलियामेंटमें जव डिस्रायली साहवका सुधारका बिल पेश हुआ, तब मिलने उसपर एक लम्बा चौड़ा और जोरदार व्याख्यान दिया । साथ ही प्रतिनिधि-राज्यव्यवस्थामें जो अतिशय महत्त्वके सुधार होने चाहिए, उनके विषयमें दो सूचनायें उपस्थित की। एक तो यह कि वोट देनेवालोंको उनकी संख्याके अनुसार प्रतिनिधि चुननेका अधिकार देना चाहिए और दूसरी यह कि स्त्रियोंको भी वोट देनेका अधिकार मिलना चाहिए । इनमें यद्यपि पहली सूचनाहींके विषयमें थोड़ी बहुत सफलता हुई दूसरीके विपयमें बिलकुल नहीं हुई, तो भी यह जानकर न केवल उसके प्रतिपक्षियोंको ही किन्तु स्वयं उसे भी, बड़ा भारी आश्चर्य हुआ कि उसकी ( स्त्रियोंको वोट देनेके अधिकारसम्बन्धी ) दूसरी सूचनाके लिए दस पाँच नहीं अस्सी वोट मिले हैं ! इससे मिलको अपनी सूचनाके सफल होनेकी बहुत कुछ आशा हो गई और जब उसके व्याख्यानके प्रभावसे इस विषयके विरोधी 'ब्राइट ' साहब भी उसके अनुकूल हो गये तब तो वह आशा बहुत ही दृढ़ हो गई। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ मेम्बरीके समयके दूसरे कार्य । इस समय मिलकी दूर दूर तक ख्याति हो गई थी। वह एक प्रसिद्ध तत्त्ववेत्ता और अर्थशास्त्रका पण्डित गिना जागे लगा था। इस लिए अकसर उसके पास दूर दूरसे पत्र आया करते थे। उन पत्रोंमें अनेक प्रकारके प्रश्न और सूचनायें रहती थीं । बहुतसे पत्र ऐसे भी आते थे जिनमें सिक्केमें कुछ सुधार करके सारे संसारको सुखी और सम्पत्तिमान करनेकी उथली युक्तियाँ लिखी रहती थीं । इनमेंसे उन पत्रोंका वह सविस्तर उत्तर देता था जिनसे जिज्ञासुओंकी शङ्काओंका समाधान हो जाय और उन्हें कुछ लाभ हो । परन्तु पीछे पीछे यह रोग बहुत बढ़ने लगा। तब उसे बहुत ही परिमित उत्तर देनेके लिए लाचार होना पड़ा । इतनेपर भी उसके पास बहुतसे महत्त्वपूर्ण पत्र आते रहे और वह उनका यथोचित उत्तर भी देता रहा । बहुतसे पत्र ऐसे भी आते थे जिसमें उसके ग्रन्थोंकी दृष्टिदोष आदिसे रही हुई अशुद्धियोंकी सूचनायें रहती थीं। इसके सिवा उन दिनों वह पारलियामेंटका सभासद था; इसलिए जिसके जीमें आता वही पत्रके द्वारा अपना रोना उसके आगे रोया करता था। परन्तु यह बात बहुत ही उल्लेख योग्य है कि वेस्ट मिनिस्टर वालोंने अपने वचनकी पूरी पूरी पालना की । उन्होंने उससे कभी किसी विषयमें आग्रह नहीं किया कि आप अमुक विषयकी चर्चा पारलियामेंटमें करें ही । वहाँ वालोंने इस प्रकारके पत्रादि लिखकर भी कभी उसको तग नहीं किया । यदि किसीने कभी कुछ लिखा भी, तो यही कि “ मेरी सिफारिश करके नौकरी लगवा दीजिए " और उसका उसे उत्तर दिया गया कि “ मैं यह संकल्प करके सभासद हुआ हूँ कि प्रधानमंडलसे कभी किसीकी सिफारिश नहीं करूँगा।" Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जबतक मिल पारलियामेंटका मेम्बर रहा तबतक उसे केवल छुट्टाके समय लेखादि लिखनेका अवकाश मिलता था। इस अवकाशमें उसने केवल दो निबन्ध लिखे-एक तो ' इंग्लैंड और आयलैंड' नामका, जिसका उल्लेख ऊपर हो चुका है और दूसरा 'प्लेटो' के सिद्धान्तपर। इसके सिवा जब उसे स्काटलैंडके सेंट एंड्यूज नामके विश्वविद्यालयने अपना रेक्टर चुना तब उसने एक समयोचित और सारगर्भित व्याख्यानकी भी रचना की । उच्चशिक्षा किस प्रकारसे देनी चाहिए, उसमें कौन कौनसे विषय आने चाहिए, किस किस विषयके पढ़नेसे क्या क्या लाभ होता है, अधिकलाभ होनेके लिए कौनसी शिक्षापद्धति उपयोगी है इत्यादि बातोंपर आजतक उसने जो कुछ सिद्धान्त निश्चित कर रक्खे थे, इस व्याख्यानमें उनका पूरा पूरा विवेचन किया । शास्त्रीय विषय और प्राचीन भाषायें सुशिक्षा और सुसंस्कारके लिए कितनी आवश्यक हैं, यह भी उसने अच्छी तरहसे समझा दिया । नये चुनावमें असफलता। जिस पारलियामेंटने सुधारका कानून पास किया था-वह सन् १८६८ की वर्षाऋतुमें टूट गई और फिरसे नया चुनाव किया गया। इस चुनावके समय मिलको वेस्ट मिनिस्टरमें सफलता प्राप्त न हुई। उसे वेस्ट मिनिस्टरवालोंने नहीं चुना, परन्तु इससे मिलको कुछ आश्चर्य न हुआ । क्योंकि उसके जैसे स्वतंत्र विचारोंका मनुष्य पहले एक बार चुन लिया गना था, यही बड़े आश्चर्यकी बात थी। ___अबकी दफे मिलके प्रतिपक्षियोंने बड़ा जोर बाँधा। पहली दफे जो कन्सरवोटव इसक अनुकूल अथवा मध्यस्थ थे, वे भी इस दफे उसके विरुद्ध हो गये । मिलने अपने एक ग्रन्थमें प्रजासत्ताक राज्यपद्धतिके कुछ दोष दिखलाये थे, इस लिए पहली दफे उन्हें विश्वास हो Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ गया था कि यह सभासद होनेपर प्रजापक्षके विरुद्ध अवश्य बोलेगा और इससे हमारे पक्षकी पुष्टि होगी। परन्तु पीछे उन्हें इस विषयमें घोर निराशा हुई, इससे उन्होंने उससे बिलकुल सम्बन्ध छोड़ दिया। __ अब रहा लिबरलदल । अबके इस दलकी ओरसे उसे वोट मिलना चाहिए थे; परन्तु उन्होंने भी इसे पसन्द न किया । क्योंक वह देख चुका था कि जिन सुधारोंका पोषक कोई भी नहीं होता हैअर्थात् जिन्हें सुधारप्रिय लिबरलदल भी गलेसे नीचे नहीं उतार सकता है, उन्हींका पक्ष लेकर यह लड़ता है। बहुतसे लिबरलोंको इसका जमैकाके गवर्नरके विरुद्ध लड़ना भी बुरा लगा था। इसके सिवा उसने सबसे बड़ा अपराध यह किया था कि भारतहितैषी ब्राडला साहबके चुनावमें आर्थिक सहायता दी थी। ऐसे घोर नास्तिकको सहायता ! ऐसी बात कैसे बरदाश्त हो सकती थी ? गरज यह कि लिबरल भी उससे उदासीन हो गये। मि० ब्राडला मजदूर-दलकी ओरसे उम्मेदवार हुए थे। मिलने एक तो प्रायः सभी मजदूर-दलके उम्मेदवारोंको सहायता दी थी; दूसरे ब्राडलाका व्याख्यान सुनकर उसे विश्वास हो गया था कि वे बुद्धिमान हैं, निष्पक्ष हैं, लोगोंकी प्रसन्नता अप्रसन्नताकी ओरसे लापरवा हैं, माल्थसके प्रजावृद्धिविरुद्ध सिद्धान्तको वे पसन्द करते हैं और लोकमतके विरुद्ध कहनेका उनमें साहस है। इस कारण उसने उनकी सहायता करना अपना कर्तव्य समझा। इसी सहायतासे मिल सबकी आँखोंका शूल हो गया । टोरीपक्षवालोंने तो मिलका चुनाव न होने पावे, इसके लिए अपना बहुतसा रुपया खर्च करने में भी सङ्कोच न किया । इस तरह मिलको इस दूसरे चुनावमें पराजित होना पड़ा। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ शेष जीवन । वेस्ट मिनिस्टरमें मिलकी हार हुई । यह सुनकर उसके पास तीन चार स्थानोंसे और भी आमंत्रण आये कि तुम हमारे यहाँकी उम्मेदवारी करो। परन्तु उसने सोचा कि इस झंझटसे छुट्टी पानेका यह बहुमूल्य अवसर आ मिला है-इसे अव व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिए, अतएव आमंत्रणको धन्यवादपूर्वक अस्वीकार कर दिया। इसके बाद वह अपने पहले उद्योगमें लग गया और बहुधा दक्षिण यूरोपमें ही रहने लगा । वर्षमें कभी एक दो बार लन्दन आता था, नहीं तो वहीं अविगनान नामक ग्राममें बना रहता था । मासिक पत्रोंमें लेख लिखनेकी उसने फिर धूम मचा दी । अब उसके लेख बहुधा 'कार्ट नाईट ली रिव्यू' नामक पत्रमें प्रकाशित होते थे। इसी समय उसने 'स्त्रियोंकी परवशता' को छपाकर प्रकाशित किया । मिलके जीवनका यह अन्तिम भाग बहुत ही शान्ति और सुखसे व्यतीत हुआ। उसके घरकी सारी व्यवस्था और देखरेख मिस टेलर रखती थी। उसने उसे कभी चिन्तित और असुखी नहीं होने दिया। इस अन्तिम समयमें वह कोई बड़ा ग्रन्थ नहीं लिख सका । विविध विषयोंपर कुछ निबन्ध ही लिखकर उसने संसारयात्रा पूरी कर दी । सन् १८७३ में इस महापुरुषका देहान्त हुआ । उस समय उसकी उम्र लगभग ६७ वर्षकी थी। __ मृत्युके अनन्तर उसके धर्मविषयक तीन निबन्ध और भी प्रकाशित हुए, जिनसे इस बातका पूरा पूरा पता लगता है कि उसके धर्मविषयक खयालात किस ढंगके थे। मिल उन महापुरुषों से था जिन्होंने सारी पृथिवीको अपना कुटुम्ब समझा है, जिनके हृदय बहुत विस्तीर्ण रहे हैं और जिन्होंने Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ दूसरोंके उपकारके लिए अपना तन, मन और धन आदि सब कुछ खर्च कर डाला है । आजतक जितने सत्यशोधक हुए हैं उनमें यदि आप खोज करेंगे तो मिलसे अधिक उदार और कार्यतत्पर पुरुष शायद ही कोई मिलेगा। उसके विचार ठीक हों या न हों, यह दूसरी बात है, परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि उसने उन लोगोंको खूब ही सचेत किया जो 'वावा-वाक्यं प्रमाणं' कहकर प्राचीन सिद्धान्तोंपर ही सारा दारोमदार रखते थे और इस कारण जिनकी विचारशक्तिको जंग खा गई थी । स्वाधीन विचारोंकी महिमाको बढ़ाने और गतानुगतिकताको नष्ट करनेके लिए मिलने जो उद्योग और परिश्रम किया वह असाधारण था। उसकी लेखनीने इस विषयमें वड़ा काम किया । यद्यपि वह पक्का सुधारक और स्वाधीनचेता था; परन्तु उन सुधारकोंके जैसा उच्छृखल और अविचारी न था जो कि पुरानी इमारतको जड़से उखाड़कर उसके स्थानमें बिलकुल नई, इमारत खड़ी करना चाहते हैं, अथवा एक ही नियमको सब जगह एक ही रूपमें चरितार्थ करना चाहते हैं । उन्नतिके पथपर अग्रसर होनेवाले प्रत्येक देशमें मिल जैसे महापुरुषोंकी आवश्यकता होती है। बिना ऐसे पुरुषोंका अवतार हुए कोई भी देश सुख और स्वाधीनता नहीं प्राप्त कर सकता । इस समय जहाँ स्वाधीन विचार करना महापाप समझा जाता है और जहाँ स्वाधीनचेताओंकी मिट्टी पलीद होती है, उस भारतवर्षके लिए तो एक नहीं सैकड़ों मिलोंकी जरूरत है। समाप्त। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर कार्यालयके ग्रन्थ । हमारी हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर सीरीज हिन्दीमें सबसे पहली, सबसे अच्छी, और नेत्ररंजिनी ग्रन्थमाला है। इसमें अब तक ४५ ग्रन्थ निकल चुके हैं, जो हिन्दीके नामी नामी लेखकोंके लिखे हुए हैं, जिनकी प्रायः सभी विद्वानोंने प्रशंसा की है और जो दो दो तीन तीन बार छपाकर बिक चुके हैं । नाटक, उपन्यास, गल्प, नीति, सदाचार, राजनीति, स्वास्थ्य, इतिहास, जीवनचरित और विज्ञान आदि सभी विषयोंके ग्रन्य हैं। आगे और भी बढ़िया बढ़िया ग्रन्थ निकालनेका प्रबन्ध हो रहा है। इस मालाका एक सेट आपके घरू पुस्तकालयमें अवश्य होना चाहिए । इससे उसकी शोभा बढ़ जायगी। इस ग्रन्थमालाके सिवाय हमारे यहाँसे और भी अनेक ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं। उनके सिवाय अन्य स्थानोंकी पुस्तकें भी हम अपने ग्राहकोंके सुभीतेके लिए रखते हैं । इसके लिए हमारा बड़ा सूचीपत्र मँगा लीजिए। नीचे लिखी सूचीमें जिन ग्रन्थोंपर + चिह्न है, वे सीरीजकीके सिवाय हमारी प्रकाशित की हुई अन्य उत्तम पुस्तकें हैं:बिना चिह्नकी सीरीजकी पुस्तकें हैं। नाटक। प्रहसन । दुर्गादास सूमकेघर धूम प्रायश्चित्त उपन्यास। मेवाड़-पतन प्रतिभा शाहजहाँ आँखकी किरकिरी १॥2) उस पार शान्ति-कुटीर ताराबाई अन्नपूर्णाका मन्दिर नूरजहाँ छत्रसाल भीष्म हृदयकी परख (जिल्ददार) चन्द्रगुप्त गल्पगुच्छ। सीता फूलों का गुच्छा + भारत-रमणी नवनिधि (जिल्ददार) + सिंहल-विजय १०) + कनक-रेखा +पाषाणी m)| पुष्प-लता १) S Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गल्प। + युवाओंको उपदेश +दियातले अँधेरा + पिताके उपदेश + सदाचारी बालक + शान्ति-वैभव + श्रमण नारद + बच्चोंके सुधारनेके उपाय + सुखदास + विद्यार्थि-जीवनका उद्देश्य काव्य / स्त्रियोपयोगी। + बूढेका ब्याह ) + ब्याही बहू + अंजना-पवनंजय विधवा-कर्तव्य + देवदूत राजनीति-विज्ञान / जीवन-चरित / स्वाधीनता आत्मोद्धार साम्यवाद + कर्नल सुरेश विश्वास देश-दर्शन + कोलम्बस स्वदेश कावूर राजा और प्रजा (जिल्द०) महादजी सिन्धिया चिकित्सा विज्ञान / ... इतिहास। उपवास-चिकित्सा आयलैंण्डका इतिहास 1 // a) + प्राकृतिक-चिकित्सा + जैनसाहित्यका इतिहास )+ योग-चिकित्सा + भारतके प्राचीन राजवंश 3) + सुगम चिकित्सा नीति और सदाचार। + दुग्ध-चिकित्सा मितव्ययता / प्रकीर्णक। चरित्रगठन और मनोबल चौबेका चिट्ठा सफलता और उसकी गोबर-गणेश-संहिता साधनाके उपाय बंकिम-निबन्धावली स्वावलम्बन + लन्दनके पत्र + अस्तोदय और स्वावलम्बन 10) छाया-दर्शन आनन्दकी पगडंडियाँ शिक्षा + जीवननिर्वाह 1) + व्यापार-शिक्षा 1) + अच्छी आदतें डालनेकी शिक्षा) : सरल मनोविज्ञान ___1 // यह मूल्य सादी जिल्दका है। कपड़ेकी जिल्ददार पुस्तकोंका मूल्य / ) / ) // ) अधिक है। हमारा पूरा पता--- हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर कार्यालय, हीराबाग, पो० गिरगांव, बम्बई। eniFi uTE Tic : SETUS